You are on page 1of 36

ओ३म्

ब्र� िवद्या प्र�ो�री - १


( ईशोपिनषद् पर आधा�रत )

लेखक
साथर्क महाजन ‘ िवद्याथीर् ’
[ सस्ं थापक , सनातन सचं यन ]

सनातन सचं यन प्रकाशन , सत्य सवं ाहक


© सवार्िधकार लेखकाधीन : लेखक क� अनमु ित के
िबना इस पस्ु तक के िकसी भी भाग का, िकसी भी �प में, िकसी
भी भाषा में नकल करना, प्रितिलिप बनाना, िप्रन्ट कॉपी या ज़ेराक्स
िनकालना या प्रकािशत करना िनिषद्ध है तथा न्याियक अपराध है।
िकसी भी प्रकार क� सहायता जानकारी अथवा अित�र� सझु ाव
हेतु लेखक साथर्क महाजन से सीधा सम्पकर् कर सकते हैं :
mahajansarthak245@gmail.com

प्रथम संस्करण : जनवरी 2022


िवक्रमी सवं त : 2078 सिृ � सवं त : 1,96,08,53,122
{ के वल DIGITAL सस्ं करण }
मल्ू य : ब्र� िवद्या को सामथ्यार्नसु ार समझे और समझाएँ

प्रकाशक : सनातन सचं यन , सत्य सवं ाहक


॥ आशीवर्चन ॥
आयष्ु मान साथर्क जी !
सादर नमस्ते। आपने बह�त ही
प�ु षाथर्पवू र्क “ ब्र� िवद्या
प्र�ो�री ” का िनमार्ण िकया है
और इसके िलए आपने
ईशोपिनषद को आधार बनाया है
जो िक वास्तव में यजवु ेर्द के चालीसवें अध्याय पर आधा�रत है। इसमें
ई�र के स्व�प का स्प� और शद्ध ु वणर्न है । ई�र के वैिदक स्व�प
को समझने के िलए आपका यह लघु ग्रंथ बह�त ही उपयोगी िसद्ध
होगा और जन सामान्य में इसे पढ़कर के ब्र� िवद्या को िवस्तार से
जानने क� �िच उत्पन्न होगी । मै परम िपता परमात्मा से प्राथर्ना करता
ह�ँ िक इसी प्रकार आपक� िवद्व�ा और कायर्कुशलता बढ़ती रहे ;
साथ ही आप दशर्नों का, वेदों का अध्ययन करके एक उत्कृ� िवद्वान
बनें, योगाभ्यासी बनें और सपं णू र् िव� के िलए कल्याणकारी बनें,
ऐसी मेरी मगं ल कामना है, शभु आशीवार्द है । पनु ः पनु ः आपको यह
आशीवार्द है िक आप िनरोग रहते ह�ए दीघार्यु को प्रा� हो ; मात,ृ
िपत,ृ ग�ु भ� बनें , देश भ� बनें, ई�र भ� बनें।
ओम् शािं तः ओम् शम् ।
- स्वामी शान्तानन्द सरस्वती
( दशर्न योग महािवद्यालय
आयर्वन रोजड )
॥ भिू मका ॥
महाराज मनु ने कहा है “ सवेर्षामेव दानानां ब्र�दानं िविशष्यते ”
अथार्त ससं ार में िजतने दान है - जल, अन्न, गौ, पथ्ृ वी, आिद इन
सबके दान से ब्र� िवद्या का दान अित श्रे� है । ब्र� िवद्या दान पर
ही समस्त िव� आिश्रत है, इसिलए यह हम सबका परम कतर्व्य है
िक सवर्कल्याण के िलए यथा सामथ्यर् इस िवद्या का प्रचार करते रहे
। इस ब्र� िवद्या का प्रचार कै से करें ? आषर् ग्रंथों के अध्ययन, िवद्वानों
के सत्संग से िवद्या को ग्रहण करके अन्यों को ग्रहण करवाना ही ब्र�
िवद्या का प्रचार है ।
ब्र� िवद्या क्या है ?
कतार् ( करने वाले ) के िबना कोई भी कायर् संभव नहीं । िजस प्रकार
िबना कुम्हार के घड़े का िनमार्ण नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस
जगत को उत्पन्न करने के िलए कोई स�ावान, चेतन, सवर्� और
सवर्शि�मान कतार् चािहए । वह सिृ � का कतार् और र�क ई�र नाम
से िवख्यात है । सबसे बड़ा और महान होने के कारण वही ई�र “
ब्र� ” कहलाता है ( बहृ बिृ ह वद्धृ ौ ) । ब्र� द्वारा प्रदान क� गई िवद्या
को ब्र� िवद्या कहते हैं । इस ब्र� िवद्या से ही उस सवर्शि�मान स�ा
को जाना जा सकता है ।
ब्र� िवद्या क� िविश�ता :
सब सत्य िवद्याओ ं का आिदमल ू परमे�र है। जानने योग्य सत्य
िवद्याएँ दो प्रकार क� है – परा िवद्या तथा अपरा िवद्या। परा िवद्या का
अथर् है ‘ वह िवद्या िजससे ब्र� का �ान हो ’ [परा यया
तद�रमिधगम्यते] परा िवद्या का संबंध आत्मा परमात्मा से है,
इसिलए इसे आध्यात्म िवद्या और ब्र� िवद्या भी कहते हैं। अपरा
िवद्या समस्त पदाथोर्ं के िव�ान क� िवद्या है।
परा = spiritual knowledge ( आध्यात्म िवद्या )
अपरा = exoteric sciences ( सासं ा�रक िव�ान )

और िजस िश�ा मे आत्मा, परमात्मा, धमर्, मिु �, योग आिद क�


चचार् न हो , मात्र आजीिवका हेतु प्रिश�ण िदया जाता हो , वह
अिवद्या है। अपरा िवद्या और परा िवद्या – दोनों ही जीवन के िलए
उपयोगी है , दोनों का समन्वय होना उिचत है। समस्त दख ु ों से मिु �
और ई�र सा�ात्कार मनष्ु य जीवन का परम ल�य है, इसिलए परा –
ब्र� िवद्या उत्कृ� और िविश� है। वेद सब सत्य िवद्याओ ं का
पस्ु तक है, इसिलए इसमें परा अपरा – दोनों प्रकार क� िवद्याएँ है।
उपिनषदों मे ब्र� िवद्या मख्ु य है। ब्र� िवद्या के प्रचार के िलए वेद,
उपिनषदों, दशर्नों के िसद्धांतों को सरल,धारावािहक भाषा में रखने
क� आवश्यकता है, इसी उद्देश्य से ईशावास्योपिनषद् (यजवु ेर्द
अध्याय 40) 1 मे प्रितपािदत ई�र के स्व�प और मिु � के उपाय को
0

प्र�ो�री शैली के माध्यम से पाठकों के सम� प्रस्ततु िकया जा रहा


है।
धन्यवाद एवं कृत�ता �ापन
परम िपता परमात्मा के प्रित पणू र् समपर्ण भाव रखकर कृत�ता प्रकट
करता ह�ँ िजनके द्वारा प्रद� सामथ्यर् से इस लघु पस्ु तक क� रचना
समपन्न ह�ई । पज्ू य स्वामी शान्तानन्द सरस्वती जी को भी हािदर्क
कृत�ता एवं धन्यवाद प्रकट करता ह�ँ िजन्होंने अपने आशीवर्चन व
सम्मित से अनगु हृ ीत िकया ।
- िवद्याथीर्ः साथर्क महाजन

1
यजवु ेर्द अध्याय 40 और ईशोपिनषद् क� प्रितयों में मंत्रों के क्रम (serial) का कुछ भेद है और एक मंत्र “ पषू न्नेकषेर्
यम सयू … र् ” व्याख्या�प में ईशोपिनषद् में प्रा� होता है परंतु यजवु ेर्द अध्याय 40 मे नही। वेद के स्वतः और परम
प्रमाण होने के कारण हमने वेद के क्रम को ही इस पस्ु तक में प्रधानता दी है।
प्र�ो�री
1. ई�र एक है या अनेक ?
उ�र : ई�र एक ही है। “ अनेजदेकं मनसो जवीयो… ” ईशोपिनषद्
मंत्र संख्या चार मे (अनेजत् +) एकम् पद से ई�र का एक = अिद्वतीय
होना िसद्ध होता है । इसी प्रकार “ पषू न्नेकषेर् यम सयू र्… ”2 में भी
(पषू न् +) एकषेर् पद से ई�र का एक होना िसद्ध होता है।

2. ई�र कहाँ रहता है ?


उ�र : ई�र सवर्व्यापक है । वह कै लाश, बैकंु ठ, सातवें आसमान
आिद ऐसे िकसी एक स्थान िवशेष मे नही रहता अिपतु वह सवर्त्र
व्या� है । “ ईशा वास्यिमदं सवर्ं यित्कञ्च जगत्यां जगत् ” प्रथम मंत्र
के इस भाग का अथर् है िक यह जगत सवर्त्र ई�र से व्या� है। वह कण
कण में वास करता है और “ सवर्स्यास्य बा�तः ” मत्रं 5 के इस पद

2
यह मत्रं यजवु ेर्द अध्याय 40 में विणर्त नहीं है , ईशोपिनषद् में मत्रं संख्या 16 है।
अनसु ार संसार के बाहर भी िवद्यमान है। मंत्र 8 मे “ पयर्गात् ” पद
ई�र को सवर्व्यापक ही िसद्ध करता है।

3. ई�र साकार है याँ िनराकार ?


उ�र : ई�र िनराकार है । “ स पयर्गाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नािवरम् ”
मत्रं 8 के इस भाग का अथर् है िक ई�र ( पयर्गात् ) सवर्व्यापक, (
शक्रु म् ) सवर्शि�मान, ( अकायम् ) शरीर से रिहत, ( अव्रणम् )
िछद्ररिहत, ( अस्नािवरम् ) नस नािड़यों के बंधन से रिहत है। मंत्र मे
स्प� ई�र को अकायम् – स्थल ू , स�ू म और कारण शरीर से रिहत
कहा है िजससे ई�र का िनराकार होना िसद्ध होता है। ‘वह िछद्र रिहत
है ’ शरीर में अनेकों िछद्र होते है । ‘वह नस नािड़यों से रिहत है’ शरीर
में अनेक नस नािड़याँ होती है, इसिलए यिद ई�र को साकार माने तो
वेदों में विणर्त स्व�प के िवपरीत होने से गलत और अमान्य है।

4. ई�र का सगुण और िनगर्ुण दोनों प्रकार का स्व�प है , क्या


इसका यह अथर् नहीं िक ई�र साकार भी है और िनराकार भी
?
उ�र : नहीं । आज ससं ार में लोग ई�र के िनगर्णु होने से िनराकार
और सगणु होने से साकार, यह तात्पयर् लेते हैं सो गलत है। क्योंिक
िनगर्णु सगणु का अथर् इससे िभन्न है। ई�र को साकार और िनराकार
दोनों मानने मे यह दोष आता है िक एक वस्तु मे एक समय दो परस्पर
िवरोधी गणु नहीं हो सकते। जैसे एक ही वस्तु एक समय पर दोनों ठंडी
और गरम नहीं हो सकती ।

सगणु = अपने स्वभािवक गणु ों से सिहत


िनगर्णु = िवरोधी गणु ों से रिहत

स पयर्ग॑ ाच्छु॒क्रमक॑ ाय॒ मव्र॑ ॒णमस्॑ नािवर॒ ं शद्धमपाु ॒ प॑ िवद्धम।् क॒िवमर्न॑ ीष॒ ी
प�॑ रभ॒ ःू स्वय॑ म्॒ भयू ार्थ॑ ातथ्यत॒ ोऽथार्न॒ ् व्यदधाच्छा�॒तीभ्यः॒ समाभ्॑ यः ॥
मत्रं 8 से ई�र के िनगर्णु , सगणु होने का तात्पयर् समझें। ई�र
सवर्शि�मान, सवर्व्यापक, सवर्�, अतं यार्मी, सनातन, स्वयंभू है, यह
सब स्वभािवक गणु ई�र मे है, इससे वह इन गणु ों के सिहत सगणु है
। ई�र शरीर धारण नहीं करता, जन्म नहीं लेता, िछद्र और नस नािड़यों
के बंधन से रिहत है ; पापाचरण, क्लेश, अ�ान, दःु ख, द्वेष से पथृ क्
है। ई�र इन सभी िवरोधी गणु ों से रिहत िनगर्णु कहलाता है। इसिलए
सगणु से साकार और िनगर्णु से िनराकार तात्पयर् लेना कपोल कल्पना
है।

5. क्या ई�र अवतार ग्रहण करता है ?


उ�र : नहीं। ई�र अवतार ग्रहण नहीं करता । यिद वह जन्म लेता है,
ऐसा माने तो यह बात वेद के िव�द्ध है ।
ई�र को मंत्र 8 मे “ अकायमव्रणमस्नािवरम् ” कहा है इसिलए शरीर
धारण करने वाला िसद्धातं वेद के िव�द्ध और गलत है । जब ई�र
सवर्व्यापक है ( पयर्गात् ) ( ईशावास्यिमदं सवर्ं ) तो अवतार मानने
से वह एकदेशी नहीं रहेगा ? जैसे कोई कहे िक उसने सब और व्यापक
आकाश को पणू र् �प से एक मठ्ठु ी में धर िलया है, तो वह गलत है,
उसी प्रकार ई�र भी गभर्, शरीर आिद के बंधन में फंस नहीं सकता ।

6. यिद ई�र अवतार नहीं लेता तो दु�ों को दडं कै से देता है ?


उ�र : दःु ख देकर । ई�र न्यायकारी है – जो मनष्ु य जैसा िजतना कमर्
करता है, उसको वैसा उतना फल देता है। जो मनष्ु य िजतना िजतना
पाप आचरण, द�ु कमर् करता है, ई�र उसे उतना उतना ही दःु ख देते
हैं।
असयु ार् नाम ते लोका ऽ अन्धेन तमसावतृ ाः ।
ताँस्ते प्रेत्यािप गच्छिन्त ये के चात्महनो जनाः॥
मत्रं 3 के अनसु ार जो मनष्ु य आत्मा के िव�द्ध आचरण करता है, वह
मरने के बाद और जीते ह�ए भी दःु ख और अ�ान�प अन्धकार से
य�
ु भोगों को प्रा� होता हैं। अथार्त आयर् = श्रे� जन सखु पाते हैं
और असरु = द�ु सदैव दःु ख भोगते है।

7. क्या ई�र िहलता डुलता है ?


उ�र : ई�र िहलता डुलता नहीं है । मंत्र 4 में अनेजदेकं ( अनेजत् )
इस पद से िसद्ध होता है िक ई�र गित नहीं करता = िहलता डुलता
नहीं है परन्तु मत्रं मे आगे कहा है मनसो जवीयो - उस ई�र क� गित
मन से भी तेज है। यहाँ िकसी भी प्रकार का िवरोधाभास नहीं है क्योंिक
मंत्र मे आगे ई�र के मन से तेज गित करने का रहस्य बताया है
पवू र्मषर्त् अथार्त ई�र सवर्त्र व्या� है, जहाँ कोई जाए , वहाँ अपनी
व्याि� से ई�र पहले से ही िवद्यमान है। उदाहरण के िलए मेरा मन
िदल्ली शहर के िवषय में िचतं न कर रहा है परंतु सवर्व्यापक होने से
ई�र तो िदल्ली में भी उपिस्थत हैं, उसी �ण िदल्ली के िवषय को
बदलकर मन से राजस्थान का िचतं न करने लगा, वहाँ भी ई�र
उपिस्थत है, िफर राजस्थान से मै अमे�रका का िचतं न करने लगा,
वहाँ भी ई�र उपिस्थत हैं, अथार्त जहाँ तक मन जाएगा वह ई�र
पहले से ही िवद्यमान है इसिलए िबना िहले डुले भी वह मन से तेज
है। मंत्र 5 भी मे कहा है तदेजित तन्नैजित अथार्त वह मख
ू र् व्यि� ई�र
को चलायमान समझता है, असल मे वह चलायमान नहीं।

8. ई�र का मुख्य नाम क्या है ?


उ�र : ई�र का मख्ु य नाम ‘ ओ३म् ’ है । मंत्र 15 मे कहा है ओ३म्
क्रतो स्मर अथार्त ई�र के इस नाम – ओम् का स्मरण कर ! और
यजवु ेर्द अध्याय 40 मंत्र 17 मे कहा है ओ३म् खं ब्र� अथार्त
आकाश के समान सवर्त्र व्या� परमात्मा का नाम ‘ ओ३म् ’ है, ऐसा
जान।

9. क्या ई�र के अित�र� िकसी अन्य वस्तु क� स�ा है ?


अथवा सब ब्र� ही है ?
उ�र : ई�र के अित�र� जीवात्माएं और प्रकृित भी अनािद
स�ाएँ है । सब कुछ ई�र नहीं क्योंिक पहले ही मत्रं में कहा :
१) ईशा वास्यिमदं सवर्ं : ई�र सब ओर व्या� है, सवर्व्यापक है
२) यित्कञ्च जगत्यां जगत् : ई�र िकसमें व्या� है ? – प्रकृित से
लेकर पिृ थवीपय्यर्न्त सब प्रा� होने योग्य सिृ � में
३) तेन त्य�े न भञ्ु जीथा मा गधृ ः कस्य िस्वद्धनम् : इसिलए हे
मनष्ु यों ( जीवात्माओ ं ) उस त्याग िकये ह�ए जगत् से पदाथोर्ं
के भोगने का अनभु व कर िकन्तु िकसी के भी वस्तमु ात्र क�
अिभलाषा मत कर ।

10. ई�र, जीवात्माओ ं और प्रकृित के अनािद होने मे क्या


प्रमाण है?
उ�र : मत्रं 8 में ई�र को “ स्वयमभःू ” बताया है । स्वयमभःू का
अथर् है अनािदस्व�प : िजसक� सयं ोग से उत्पि�, िवयोग से
िवनाश, माता, िपता, गभर्वास, जन्म, विृ द्ध और मरण नहीं होते । इसी
मत्रं में ई�र क� प्रजा - समस्त जीवात्माओ ं कों “ शा�तीभ्यः ”
बताया है अथार्त सनातन अनािदस्व�प अपने-अपने स्व�प से
उत्पि� और िवनाशरिहत ।
मंत्र 9 में प्रकृित को “ असम्भिू तम् ” बताया है अथार्त अनािद
अनुत्पन्न सत्व, रज और तमोगणु मय प्रकृित�प जड़ वस्तु ।
इस प्रकृित ( सत्व, रज, तम क� साम्यावस्था ) मे ई�र क� प्रेरणा से
िवकृित आने पर सिृ � क� उत्पि� होती है । सवर्प्रथम मह��व िफर
क्रम से अहक ं ार, मन, इिन्द्रयाँ, तन्मात्राए,ं महाभतू आिद उत्पन्न होते
हैं और सिृ � प�रणाम को प्रा� होती है । इस मह��वािद स्व�प से
प�रणाम को प्रा� ह�ई सिृ � - कायर् जगत को “ सम्भत्ू याम् ” अथार्त
अिनत्य बताया है, सो कायर् जगत अनािद नहीं परन्तु उसक� उत्पि�
का कारण सत्व, रज, तमोगणु मय प्रकृित अनािद है ।

11. ई�र हमसे दूर है या िनकट ?


उ�र : ई�र सबसे िनकटतम् भी है और सबसे दरू भी ।
जब वह सवर्व्यापक परमात्मा हमारे भीतर भी है, बाहर भी है, कण
कण में व्या� है, तो हमसे कै सी दरू ी ? िनि�त परमात्मा के सवर्त्र
व्या� होने से उनके और हमारे बीच स्थान याँ काल क� दरू ी नहीं !
जैसे मैं यिद घर पर बैठा ह�ँ और मेरे ग�ु जी गजु रात में है तो स्थान क�
�ि� से हम दोनों एक दसू रे से दरू ह�ए । मै उनसे दोपहर 2:00 बजे
िमलना चाहता ह�ँ पर वे िकसी कायर्क्रम में व्यस्त है तो काल क� �ि�
से भी हम दोनों दरू ह�ए परंतु जो परमात्मा सब स्थान पर सब काल में
िवद्यमान है, उनसे हमारी स्थान और काल क� दूरी नहीं है । इस
उपिनषद का मंत्र 5 कहता है “ तद् दरू े ” वह परमात्मा - अधमार्त्मा
,अिवद्वान् , अयोिगयों से दरू है आगे िलखा है “ तद्विन्तके ” वह
परमात्मा - धमार्त्मा , िवद्वान् , योिगयों के समीप है । आपको शकं ा
होगी िक जब सवर्व्यापक है तो अिवद्वान, अधािमर्क, अयोिगयों से
दरू ी कै से है ? यिद कोई मख
ू र् व्यि� क�ा में प्रथम आने क� बात कहे
तो प्रायः उसे कहा जाता है ‘ अव्वल आना तो दरू क� बात है, पास
होना बड़ी बात होगी ’ मतलब अयोग्य के िलए ल�य प्राि� सभं व
नहीं अतः अयोग्य होने से वह अपने ल�य से बह�त दरू है , उसी
प्रकार िजस व्यि� का आचरण मलीन है, जो िमथ्या�ान से य� ु है,
अिवद्या मे रत है और अवैिदक उपासना पद्धित को करने वाला है,
वह परमात्मा को करोड़ों वषोर्ं में भी प्रा� नहीं कर सकता। इसिलए
परमात्मा और हमारी स्थान व काल क� दरू ी नहीं है बिल्क �ान क�
दरू ी है ।

12. ई�र को/ई�रीय आनंद मो� को कै से प्रा� िकया जा


सकता है?
उ�र : ईशोपिनषद का प्रत्येक मंत्र ई�र और ई�रीय आनंद मो� क�
प्राि� के िलए ही सक
ं े त करता है । कुछ मत्रं सिू �यों के माध्यम से
ई�र प्राि� के साधन विणर्त िकये जाते हैं :
१) तेन त्य�े न भञ्ु जीथा - ई�र द्वारा प्रदान क� गई प्रत्येक वस्तु का
त्याग भाव से भोग करो । अथार्त सभी वस्तओ ु ं का स्वामी ई�र है
और मैं मात्र उपभो�ा ह�ँ , ऐसा जानो । जैसे एक ड्राइवर अपने स्वामी
क� गाड़ी चलाता है पर वह जानता है िक मैं मात्र चलाने वाला ह�ँ ,
गाड़ी का मािलक नहीं । और मा गधृ ः कस्य िस्वद्धनम् - िकसी के
भी वस्तु मात्र क� इच्छा = लालच = लोभ मत कर । महिषर् दयानंद
सरस्वती जी ने प्रथम मत्रं के भावाथर् मे िलखा है : जो मनष्ु य ई�र से
डरते हैं िक यह हमको सदा सब ओर से देखता है, यह जगत् ई�र से
व्या� और सवर्त्र ई�र िवद्यमान है। इस प्रकार व्यापक अन्तयार्मी
परमात्मा का िन�य करके भी अन्याय के आचरण से िकसी का कुछ
भी द्रव्य ग्रहण नहीं िकया चाहते, वे धमार्त्मा होकर इस लोक के सख ु
और परलोक में मुि��प सख ु को प्रा� करके सदा आनन्द में रहें।
२) कुवर्न्नेवेह कमार्िण - इस ससं ार में रहते ह�ए वेदो� कमोर्ं को ( वेद
मे िविहत, आिद� कमोर्ं को करना और िनिषद्ध कमोर्ं का त्याग )
िनष्काम भाव से अथार्त िबना िकसी लौिकक इच्छा के मो� को
ल�य में रखकर करना । वेदो� िनष्काम कमोर्ं के अन�ु ान से आसि�
का त्याग होता है और आसि� त्याग से ई�र क� प्राि� होती है ।
३) जो मनष्ु य आत्मा, मन, वाणी और कमर् से िनष्कपट एकसा
आचरण करते हैं, वे ही देव, आय्यर्, सौभाग्यवान् सब जगत् को पिवत्र
करते ह�ए इस लोक और परलोक में अतुल सख ु भोगते हैं । [ यजवु ेर्द
40/3 के ऋिष दयानन्द कृत भावाथर् से उद्धतृ ]
४) िवद्ययामतृ म�तु े - अथार्त िवद्या से ई�र क� प्राि� होती है । िवद्या
का अथर् है – तत्व�ान । मात्र बह�त सी पस्ु तकें पढ़ने का नाम िवद्या
नहीं अिपतु वेदो� �ान िव�ान को प्रा� करके सत्यभाषण
प�पातरिहत न्याय का आचरण “ धमार्नु�ान ” करना िवद्या है
। तत्व�ान क� विृ द्ध से पांचों क्लेश िशिथल हो जाते हैं और इसके
फल समािध में क्लेशों को पणू तर् ः दग्धबीज कर व्यि� मो� का पात्र
हो जाता है ।
५) भिू य�ां ते नमऽउि�ं िवधेम - परमे�र क� उपासना से व्यि�
पापाचार का त्याग कर धमर् य�ु मागर् मे चलने का सामथ्यर् पाकर
धमर्, अथर्, काम, मो� को िसद्ध कर सकता है । उपासना का अथर् है
समीप होना और ई�र के समीपस्थ होने के िलए अ�ागं योग का
पालन आवश्यक है3 । आचरण व्यवहार को यम िनयमों से शद्ध
2
ु करके
ही उपासना करना फलदायी है । एकान्त शद्ध ु स्थान में सखु पवू क
र्
आसन लगाकर , प्राणायाम कर, बा� िवषयों से इिं द्रयों को रोककर
मन को �दय, नेत्र आिद अगं मे िस्थर कर ई�र का िचतं न और उसी
के िचतं न मे न्यनू से न्यनू १ प्रहर मग्न रहना उपासना है । जैसे अिग्न
के समीप रहने से मनष्ु य उष्णता का अनभु व करता है, ऐसे ही ई�र के
समीप होने से ई�र के समान जीवात्मा के भी गणु , कमर्, स्वभाव
पिवत्र हो जाते हैं िजससे िक मो� क� िसिद्ध सभं व है । सार यह है िक
यथाथर् �ान, वेदो� िनष्काम कमर् और ई�र क� शुद्ध उपासना
से ई�रीय आनदं - मो� क� प्राि� होती है । 4 इन तीनों में से िकसी
3

एक के अन�ु ान से प्रयोजन क� िसिद्ध नहीं होती बिल्क तीनों का


समन्वय आवश्यक है ।

13. ई�र प्राि� को ल�य बनाएं साधक का अन्य प्रािणयों के


प्रित कै सा आचरण होना चािहए ?
उ�र : यिस्मन्त्सवार्िण भतू ान्यात्मैवाभिू द्वजानतः।

3
अ�ांगयोग को ठीक प्रकार से समझने के िलए स्वामी सत्यपित प�रव्राजक जी क� पस्ु तक “ सरल योग
से ई�र सा�ात्कार ” अवश्य पढ़े।
4
अिधक जानकारी के िलए सत्याथर् प्रकाश का नवम समल्ु लास अवश्य पढ़े।
तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनपु श्यतः ॥ मंत्र ७ ॥
जो िवद्वान् सन्ं यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने
आत्मा के तुल्य जानते हैं अथार्त् जैसे अपना िहत चाहते वैसे ही
अन्यों में भी व�र्ते हैं, एक अिद्वतीय परमे�र के शरण को प्रा� होते
हैं, उनको मोह, शोक और लोभािद कदािचत् प्रा� नहीं होते। और जो
लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे
सदा सख ु ी होते हैं ॥ [ महिषर् दयानंद यजवु ेर्द भाष्य से उद्धतृ ]
ई�र प्राि� को ल�य बनाएं साधक को अिनवायर् है िक जैसे स्वयं के
िलए सख ु क� अिभलाषा रखता है , वैसे अन्य के िलए भी सख ु क�
याचना करें और ऐसा आचरण करें िजससे दसु रे व्यि� को िकिञ्चत्
भी दख ु न हो । एक वाक्य में कहें तो सवेर् भवन्तु सिु खनः क� भावना
को आत्मसात करने वाला ही मो� का अिधकारी है । यह भावना
कब आएगी? – जब हम स�ू मता से इस बात का िनरी�ण करें गे िक
सभी मनष्ु य परमात्मा क� प्रजा है = सतं ान है । जैसे मझु े सदैव अपना
िहत अपेि�त है, वैसे अन्य जीवात्माएं भी अपना िहत ही चाहती है
। यिद मैं के वल अपने सख ु के बारे में ही सोचता रह�गं ा तो मझु में और
पशु मे क्या भेद रहेगा ? मनष्ु य जीवन दल ु र्भ है पशु विृ � मे इसे क्यों
गवाना ? इस प्रकार स�ू मता से िनरी�ण करके ही प्रयोजन क� िसिद्ध
हो सकती है ।
अन्यत्र भी ईशोपिनषद् मंत्र ६ में कहा है “ हे मनष्ु यो ! जो लोग
सवर्व्यापी, न्यायकारी, सवर्�, सनातन, सबके आत्मा, अन्तयार्मी,
सबके द्र�ा परमात्मा को जान कर सख ु -दुःख हािन-लाभों में अपने
आत्मा के तुल्य सब प्रािणयों को जानकर धािमर्क होते हैं, वे ही
मो� को प्रा� होते हैं ॥ ”

14. क्या ई�र के दशर्न आंखों ( नेत्रों ) से होते है ?


उ�र : नहीं । मंत्र चार मे कहा है “ नैनद्देवाऽआप्नवु न् ” अथार्त
परमात्मा को च�ु आिद इिं द्रयाँ प्रा� नहीं होती । िकसी वस्तु का नेत्रों
से दशर्न होता है – १. जब उसमें �प गणु िवद्यमान हो २. जब वह
वस्तु साकार और स्थल ू भतू हो । ई�र में �प गणु नहीं है और ई�र
िनराकार, स�ू म और सवर्व्यापक है , इसिलए आख ं ों से उसके दशर्न
नहीं होते । िवचार करें िक ई�र स्वयं वेद के माध्यम से कहते हैं िक
मेरा दशर्न आख ं ों से नहीं होता तो आप मिं दरों, मजारों, िगरजाघरों में
लंबी पिं �यों में खड़े रहकर समय व्यथर् क्यों करते हैं ? आख ं ों से तो
क्या पाचं ों ही इिं द्रयों से ई�र क� अनभु िू त नहीं होगी ! क्योंिक उसमें
�प, रस, गधं , शब्द, स्पशर् गणु िवद्यमान ही नहीं, ऐसा मत्रं मे िनदेर्श
है । तो उसका दशर्न कै से होता है ? “ तिद्व�ानम् शद्ध ु ेन मनसैव जायते”
परमात्मा का िव�ान शद्ध ु मन से होता है । [ यजवु ेर्द 40/4 के महिषर्
दयानंद कृत भावाथर् से उद्धतृ ] इसी मंत्र में आगे कहा “
तद्धावतोऽन्यानत्येित ित��िस्मन्नपो ” अथार्त जो इिं द्रयाँ िवषयों क�
ओर िगरती है = आकिषर्त होती है , परमात्मा उसका उल्लंघन कर
जाता है । स्प� कहा है िक जो िनरंतर सांसा�रक िवषय भोगों मे फसा
है , वह परमात्मा का दशर्न नहीं कर सकता । इसिलए ऋिष ने भाष्य
मे िलखा अच्छी प्रकार वश मे िकया ह�आ सश ं य रिहत = शद्ध ु मन
से उसका सा�ात् = िव�ान होता है ।

15. यिद सशं य रिहत वश मे िकये मन से ही आत्मा उसका


सा�ात्कार करता है तो सश
ं य को कै से िमटाया जा सकता है?
उ�र : यस्तु सवार्िण भतू ान्यात्मन्नेवानपु श्यित। सवर्भतू ेषु चात्मानं
ततो न िव िचिकत्सित ॥ यजवु ेर्द 40/६ ॥
इस मंत्र मे कहा मन को संशय रिहत करने के िलए शद्ध
ु �ान, कमर्,
उपासना के बाद आसन लगाकर ई�र का ध्यान करते ह�ए उससे
व्याप्य-व्यापक सबं ंध स्थािपत करना , यह उपाय है । व्याप्य-
व्यापक संबंध स्थािपत करना अथार्त “ परमात्मा के अंदर सभी
जड़ पदाथर् और सभी चेतन जीवात्माएं है और सब जड़ पदाथोर्ं
और चेतन जीवात्माओ ं मे परमात्मा िवद्यमान = व्या� है ” ऐसा
िचतं न करना ही व्याप्य-व्यापक सबं ंध स्थािपत करना है िजससे योगी
िकसी भी सशं य को प्रा� नहीं होता ।

16. कौनसी वस्तु उपासना करने योग्य नहीं है और िकस वस्तु


क� सदैव उपासना करनी चािहए ?
उ�र : अनािद अन�ु पन्न जड़ प्रकृित ( सत्व, रजत, तम ) और इस
उपादान कारण से उत्पन्न जड़ सिृ � एवं पदाथर् कदािप उपासना के
योग्य नहीं है । मत्रं 9 के अनसु ार :
अन्धन्तमः प्र िवशिन्त येऽसम्भिू तमपु ासते। अथार्त जो लोग परमे�र
को छोड़कर अनािद अनत्ु पन्न सत्व, रज और तमोगणु मय प्रकृित�प
जड़ वस्तु को उपास्यभाव से जानते हैं , वे आवरण करने वाले
अधं कार को अच्छे प्रकार प्रा� होते हैं । जैसे आजकल के नािस्तक
किथत वै�ािनक एवं अनुसध ं ानकतार् । वे परमात्मा के अिस्तत्व
को स्वीकारते नहीं इसिलए परू ा जीवन प्रकृित क� खोज में ( atomic
research ) ही लगाकर इस जन्म में भी अिवद्या �पी अधं कार को
प्रा� होते हैं : �ान, बल, उत्साह आिद ई�रोपासना के फल से विं चत
रहकर िचतं ा,तनाव को प्रा� होते हैं और ई�र उपासना न करने के
कारण , काम-क्रोध-लोभ में डूबे रहने के कारण अगले जन्म में भी
िनकृ� योिन प्रा� करते हैं । ततो भयू ऽइव ते तमो यऽउ सम्भत्ू या रताः
॥ अथार्त जो मह��वािद स्व�प से प�रणाम को प्रा� ह�ई सिृ � में
रमण करते हैं, वे िवतकर् के साथ उससे अिधक अिवद्या�प अन्धकार
को प्रा� होते हैं । यहाँ भोगवादी, िवलासी लोगों क� बात हो रही है
जो िदन रात सांसा�रक पदाथोर्ं को जमकर भोगने मे लगे ह�ए हैं । यह
भोगवादी उन किथत वै�ािनकों से भी अिधक अधं कार को प्रा� होंगे
अथार्त इस जन्म मे घोर दख ु ( िमिश्रत सासं ा�रक सख
ु को भोगने से
प्रा� ) और अिधक पापकमर् के फलस्व�प अगले जन्म मे अित
िनकृ� योिन को प्रा� होते हैं।
इसका यह तात्पयर् नहीं िक प्रकृित और कायर् जगत िनरथर्क है बिल्क
इनसे उपकार लेना चािहए : “ कायर्कारण के गुण, कमर् और
स्वभावों को जानकर धमर् आिद मो� के साधनों में संय� ु करके
अपने शरीरािद कायर्कारण को िनत्यत्व से जान के मरण का भय
छोड़ कर मो� क� िसिद्ध करो। इस प्रकार काय्यर्कारण से अन्य ही
बल िसद्ध करना चािहये। इन काय्यर्कारण का िनषेध परमे�र के स्थान
में जो उपासना उस प्रकरण में जानना चािहये ”
उदाहरण के िलए एक बालक का िखलौना टूट जाता है तो वह रोता
है, तब माँ उसे आ�ासन देती है िक तझु े नया िखलौना िमल जाएगा
ऐसे ही अतं समय में मनष्ु य को समझ आता है िक भोग मे उसने
जीवन व्यथर् गवा िदया तो परमात्मा उपदेश करते हैं िक जबतक मो�
क� िसिद्ध नहीं होती तब तक जन्म-मरण होता रहेगा, यह जानकर
मत्ृ यु भय = अिभिनवेश क्लेश को दग्ध करना चािहए और मो� के
िलए प�ु षाथर् करते रहना चािहए। ऐसे �ानाजर्न और बोध से प्रकृित
का उपकार लेना चािहए, उसक� उपासना नहीं करनी चािहए।
अनािद, अजन्मा, शद्ध ु स्व�प, आनन्दप्रद परमात्मा ही एक मात्र
उपासना के योग्य है। प्रमाण :
स पयर्गाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नािवरं शद्ध ु मपापिवद्धम।् किवमर्नीषी
प�रभःू स्वयम्भयू ार्थातथ्यतोऽथार्न् व्यदधाच्छा�तीभ्यः समाभ्यः ॥८
हे मनष्ु यो ! जो अनन्त शि�य� ु , अजन्मा, िनरन्तर, सदा म�ु ,
न्यायकारी, िनमर्ल, सवर्�, सबका सा�ी, िनयन्ता, अनािदस्व�प ब्र�
कल्प के आरम्भ में जीवों को अपने कहे वेदों से शब्द, अथर् और
उनके सम्बन्ध को जनानेवाली िवद्या का उपदेश न करे तो कोई िवद्वान्
न होवे और न धमर्, अथर्, काम और मो� के फलों के भोगने को
समथर् हो, इसिलये इसी ब्र� क� सदैव उपासना करो ॥८ ॥

17. क्या बह�त से शा� पढ़कर परमात्मा को प्रा� िकया जा


सकता है ?
उ�र : मात्र बह�त से शा�ों को पढ़कर मो� क� प्राि� नहीं होती और
िबना वैिदक शा� पढ़े भी मो� क� प्राि� नहीं हो सकती ।
अन्धन्तमः प्र िवशिन्त येऽिवद्यामपु ासते।(मंत्र 12) अथार्त अिवद्या से
य�
ु मनष्ु य अ�ान�पी अधं कार को प्रा� होता है । जैसे योगदशर्न मे
अिवद्या का स्व�प बताया है [साधनपाद सत्रू ५] वैसा ही अिवद्या
का अथर् महिषर् दयानंद जी ने इस मंत्र के पदाथर् मे बताया है:
• अिनत्य को िनत्य मानना , िनत्य को अिनत्य मानना
• अशद्ध
ु को शद्ध
ु मानना , शद्ध
ु को अशद्ध
ु मानना
• दःु ख को सख
ु मानना , सख
ु को दख
ु मानना
• अनात्मा ( शरीर , बिु द्ध ) को आत्मा मानना और आत्मा को
अनात्मा मानना ।
जो मनष्ु य अिवद्या ( िमथ्या �ान ) से य�
ु रहेगा, वह ई�र के सच्चे
स्व�प को कै से जानेगा ? और जड़ वस्तओ ु ं को ई�र समझकर
उसक� पजू ा करे गा जैसे िक आज अिधकतर लोग करते हैं इसिलए
कहा िक जो अिवद्या मे रत रहकर जड़ वस्तु क� उपासना करते हैं,
वे अ�ान�पी अधं कार को प्रा� होते हैं। िवद्ययामतृ म�तु े ( मंत्र 14
) - इस अिवद्या के नाश के िलए और मो� प्रा� करने के िलए वेद
आिद सत्य शा� पढ़ना- समझना आवश्यक है परन्तु ततो भयू ऽइव
ते तमो यऽउ िवद्याया रताः ॥ ( मत्रं 12 ) मात्र पढ़कर शब्दाथर्
सम्बन्ध अन्वय, व्याकरण आिद जानते हैं परंतु इतना शािब्दक
�ान लेकर भी पापकमर्, अधमर् करते हैं वे उससे भी गहरे दःु ख
सागर मे अधं कार को प्रा� होते हैं । इसिलए वेद आिद शा�ों
को पढ़ना आवश्यक है परन्तु िजतना पढ़ा उसे आचरण में
लाना मुख्य है । “ िवद्वान से भी अिधक श्रे� है धािमर्क ”

18. ई�र के मुख्य कमर् क्या है ?


उ�र : ई�र के मख्ु य 5 कमर् है :
(१) सिृ �रचना : सत्यस्यािपिहतं मख ु म् (मंत्र 17) अथार्त ई�र ने
ढक� ह�ई (= प्रलय में अव्य� ) प्रकृित को प्रकािशत िकया
अथार्त संसार क� रचना क� ।
(२) पालन करना : पषू न् एकषेर् यम सयू र् प्राजापत्य अथार्त जगत
और इसमें बसने वाली प्रजा का पालन, पोषण, धारण,
िनयमन करने वाले एक अिद्वतीय परमात्मा ही है ।
(३) प्रलय करना : सयू र् प्राजापत्य व्यहू रश्मीन् समहू अथार्त जैसे
भौितक सयू र् के उदय होने पर वह अपनी रिश्मयों का प्रकाश
करता है और सायंकाल अस्त होता ह�आ अपनी रिश्मयों को
अपने मे समेट लेता है, उसी प्रकार प्रचण्ड प्रकाशमान प्रजा
पालक परमात्मा ससं ार क� उत्पि� करके उसका पालन करता
है और अनन्तर प्रलय कर देता है
(४) वेद �ान देना : याथातथ्यतोऽथार्न् व्यदधाच्छा�तीभ्यः
समाभ्यः (मत्रं 8) अथार्त परमात्मा कल्प के आरम्भ में जीवों
को अपने कहे वेदों से शब्द, अथर् और उनके सम्बन्ध को
जनानेवाली िवद्या का उपदेश करते हैं ।
(५) जीवों को कमर्फल देना : किवमर्नीषी प�रभःू (मत्रं 8)
अथार्त परमात्मा सवर्त्र व्यापक होकर सब मनष्ु य के कमोर्ं को
देख, सनु , जान रहा है । शारी�रक कमर् ही नहीं अिपतु वह
मनीषी हम जीवों मानिसक िवचारों को भी जानने वाला है ।
वह परमात्मा द�ु िवचार रखने वाले, द�ु वचन कहने वाले
और द�ु कमर् करने वाले द�ु ों को दडं देता है ।

19. आत्मोन्नित के िलए िकसका स्मरण करना चािहए?


उ�र : मत्रं 15 के अनसु ार आत्मोन्नित के िलए बार-बार इनका
स्मरण करें :
१.) ई�र के िनज और मख्ु य नाम “ ओ३म् ” का स्मरण करें ( ओ३म्
क्रतो स्मर ) “ ई�र सवर्र�क है ” इस प्रकार अथर् और भावनापवू र्क
ओ३म् का जप करना चािहए ।
२.) हमनें संपणू र् िदन में िकतने अच्छे , बरु े , िमिश्रत कमर् िकये राित्र में
शयन से पहले इसका स्मरण करें ( कृतं स्मर )। इस िविध को
आत्मिन�र�ण कहते हैं । “ िकया ह�आ कमर् िनष्फल नहीं होता,
ऐसा मान कर धमर् में �िच और अधमर् में अप्रीित िकया करें ” यह
आत्मिन�र�ण का महत्व है ।
३.) शरीर मरणधमार् है - इस सत्य का बार बार स्मरण करें ।
वायरु िनलममतृ मथेदं भस्मान्तं शरीरम।् अथार्त प्राण, अपान आिद 5
प्राण और धनन्जय आिद 5 उप प्राण के कारण ही शरीर जीिवत है।
इस स्थूल वायु का कारण स्पशर् तन्मात्रा और स्पशर् तन्मात्रा का
कारण अनािद प्रकृित है । जब यह तीनों ही शरीर से िनकल जाती
है तब आत्मा का शरीर से िवयोग हो जाता है, इसिलए शरीर
मरणधमार् है, जीवात्मा का एक िदन इससे अवश्य ही िवयोग होगा,
और शरीर को भस्म कर िदया जाएगा ( अत्ं येि� होगी ) ऐसा स्मरण
रखकर ल�य प्राि� में प्रमाद न करें ।
४.) अपने और ई�र के स्व�प का स्मरण करें । ( िक्लबे स्मर ) ‘ मै
जीवात्मा अल्प शि�मान, अणु मात्र, अल्प�, अल्प सामथ्यर्वान ह�ँ
’ अपने सामथ्यर् को बढ़ाने के िलए सवर्शि�मान, सवर्व्यापक,
सवर्� ई�र का स्मरण करना चािहए, उपासना करनी चािहए ।

20. ई�र क� स्तुित, प्राथर्ना, उपासना से क्या लाभ िमलता है?


उ�र : स्तिु त का अथर् है = ई�र के गणु ों क� प्रशसं ा करना । ई�र के
अनेक गणु ों का वणर्न मंत्र 8 मे िकया गया है ( प्र� 4 देखें ) जो-जो
�ान, बल, न्याय आिद गणु ई�र मे है - उसे स्मरण कर उसक� प्रशसं ा
करनी चािहए और पाप, अ�ान, अन्याय आिद दोषों से ई�र रिहत है
- इससे भी ई�र क� प्रशसं ा करनी चािहए।
प्राथर्ना का अथर् है = पणू र् प�ु षाथर् के बाद ई�र से सहायता और
सामथ्यर् क� याचना करना
उपासना का अथर् है = ई�र के �ान, तेज, बल, बिु द्ध, मन्यु आिद
गणु ों को धारण करना ।
मत्रं 16 के अनसु ार ई�र क� स्तिु त प्राथर्ना और उपासना करने से (
भिू य�ां ते नमऽउि�ं िवधेम ) िनम्निलिखत फल क� प्राि� होती है :-
• ययु ोध्यस्मज्जहु �राणमेनो अथार्त ई�र क� स्तिु त प्राथर्ना और
उपासना करने से ई�र साधक को पापाचरण मागर् से हटा
देता है। जब साधक ई�र क� स्तिु त करे गा तो वह जानेगा िक
ई�र पाप से पथृ क है िजससे उसे भी पाप को त्यागने क� प्रेरणा
िमलेगी। वह पाप से हटने के िलए पणू र् प�ु षाथर् के साथ
योगाभ्यास करे गा और इस प्रयोजन क� िसिद्ध के िलए ई�र से
प्राथर्ना करे गा िजससे साधक िनरिभमान और नम्र भाव से ई�र
को समिपर्त हो जाएगा । प�रश्रम और समपर्ण के फलस्व�प वह
पापाचरण को त्यागने में समथर् होगा ।
• अग्ने नय सपु था रायेऽअस्मान् िव�ािन देव वयनु ािन िवद्वान् :
अथार्त परम अग्रणी �ानस्व�प परमात्मा पाप आचरण से
अलग कर साधक को धमर् यु� मागर् पर चलाता है और
साधक को िव�ान, धन, सख ु और �ान प्रदान करता है ।
परमात्मा क� स्तिु त प्राथर्ना और उपासना से न के वल व्यि� पाप
से छूटता है बिल्क पण्ु य - धमर् को धारण करने मे भी समथर् होता
है। धमर् का अनसु रण करने वाला िनि�त ही अभ्यदु य और
िनःश्रेयस का अिधकारी होता है इसिलए साधक को िव�ान =
तत्व�ान , धन = रत्न आिद लौिकक और स्वास्थ्य आिद
आित्मक संपदा , सख ु = मनोवांिछत आनंद यह सब अभ्यदु य
�प में और पणू र् सखु = अपवगर् िनःश्रेयस �प में प्रा� होता है ।

इस प्रकार ब्र� के सत्य स्व�प को जानकर उसक� प्राि� के िलए


िनरंतर योगाभ्यास करते रहना चािहए और ई�र क� स्तिु त
प्राथर्ना और उपासना का कभी त्याग नहीं करना चािहए।
ब्र� के सत्य, शुद्ध स्व�प को जन सामान्य के बीच रखने
के िलए मेरी यह लघु पुस्तक ब्र� िवद्या के िवशाल सयू र्
के सम� दीपक समान है । पाठकों से यह िनवेदन है िक �ान
क� विृ द्ध , ब्र� िवद्या को जानने और वैचा�रक क्रांित हेतु महिषर्
दयानंद कृत “ सत्याथर् प्रकाश ” अवश्य पढ़े ।

॥ इित ब्र� िवद्या प्र�ो�री भाग – १ ॥

You might also like