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लेखक
साथर्क महाजन ‘ िवद्याथीर् ’
[ सस्ं थापक , सनातन सचं यन ]
1
यजवु ेर्द अध्याय 40 और ईशोपिनषद् क� प्रितयों में मंत्रों के क्रम (serial) का कुछ भेद है और एक मंत्र “ पषू न्नेकषेर्
यम सयू … र् ” व्याख्या�प में ईशोपिनषद् में प्रा� होता है परंतु यजवु ेर्द अध्याय 40 मे नही। वेद के स्वतः और परम
प्रमाण होने के कारण हमने वेद के क्रम को ही इस पस्ु तक में प्रधानता दी है।
प्र�ो�री
1. ई�र एक है या अनेक ?
उ�र : ई�र एक ही है। “ अनेजदेकं मनसो जवीयो… ” ईशोपिनषद्
मंत्र संख्या चार मे (अनेजत् +) एकम् पद से ई�र का एक = अिद्वतीय
होना िसद्ध होता है । इसी प्रकार “ पषू न्नेकषेर् यम सयू र्… ”2 में भी
(पषू न् +) एकषेर् पद से ई�र का एक होना िसद्ध होता है।
2
यह मत्रं यजवु ेर्द अध्याय 40 में विणर्त नहीं है , ईशोपिनषद् में मत्रं संख्या 16 है।
अनसु ार संसार के बाहर भी िवद्यमान है। मंत्र 8 मे “ पयर्गात् ” पद
ई�र को सवर्व्यापक ही िसद्ध करता है।
स पयर्ग॑ ाच्छु॒क्रमक॑ ाय॒ मव्र॑ ॒णमस्॑ नािवर॒ ं शद्धमपाु ॒ प॑ िवद्धम।् क॒िवमर्न॑ ीष॒ ी
प�॑ रभ॒ ःू स्वय॑ म्॒ भयू ार्थ॑ ातथ्यत॒ ोऽथार्न॒ ् व्यदधाच्छा�॒तीभ्यः॒ समाभ्॑ यः ॥
मत्रं 8 से ई�र के िनगर्णु , सगणु होने का तात्पयर् समझें। ई�र
सवर्शि�मान, सवर्व्यापक, सवर्�, अतं यार्मी, सनातन, स्वयंभू है, यह
सब स्वभािवक गणु ई�र मे है, इससे वह इन गणु ों के सिहत सगणु है
। ई�र शरीर धारण नहीं करता, जन्म नहीं लेता, िछद्र और नस नािड़यों
के बंधन से रिहत है ; पापाचरण, क्लेश, अ�ान, दःु ख, द्वेष से पथृ क्
है। ई�र इन सभी िवरोधी गणु ों से रिहत िनगर्णु कहलाता है। इसिलए
सगणु से साकार और िनगर्णु से िनराकार तात्पयर् लेना कपोल कल्पना
है।
3
अ�ांगयोग को ठीक प्रकार से समझने के िलए स्वामी सत्यपित प�रव्राजक जी क� पस्ु तक “ सरल योग
से ई�र सा�ात्कार ” अवश्य पढ़े।
4
अिधक जानकारी के िलए सत्याथर् प्रकाश का नवम समल्ु लास अवश्य पढ़े।
तत्र को मोहः कः शोकऽएकत्वमनपु श्यतः ॥ मंत्र ७ ॥
जो िवद्वान् सन्ं यासी लोग परमात्मा के सहचारी प्राणीमात्र को अपने
आत्मा के तुल्य जानते हैं अथार्त् जैसे अपना िहत चाहते वैसे ही
अन्यों में भी व�र्ते हैं, एक अिद्वतीय परमे�र के शरण को प्रा� होते
हैं, उनको मोह, शोक और लोभािद कदािचत् प्रा� नहीं होते। और जो
लोग अपने आत्मा को यथावत् जान कर परमात्मा को जानते हैं, वे
सदा सख ु ी होते हैं ॥ [ महिषर् दयानंद यजवु ेर्द भाष्य से उद्धतृ ]
ई�र प्राि� को ल�य बनाएं साधक को अिनवायर् है िक जैसे स्वयं के
िलए सख ु क� अिभलाषा रखता है , वैसे अन्य के िलए भी सख ु क�
याचना करें और ऐसा आचरण करें िजससे दसु रे व्यि� को िकिञ्चत्
भी दख ु न हो । एक वाक्य में कहें तो सवेर् भवन्तु सिु खनः क� भावना
को आत्मसात करने वाला ही मो� का अिधकारी है । यह भावना
कब आएगी? – जब हम स�ू मता से इस बात का िनरी�ण करें गे िक
सभी मनष्ु य परमात्मा क� प्रजा है = सतं ान है । जैसे मझु े सदैव अपना
िहत अपेि�त है, वैसे अन्य जीवात्माएं भी अपना िहत ही चाहती है
। यिद मैं के वल अपने सख ु के बारे में ही सोचता रह�गं ा तो मझु में और
पशु मे क्या भेद रहेगा ? मनष्ु य जीवन दल ु र्भ है पशु विृ � मे इसे क्यों
गवाना ? इस प्रकार स�ू मता से िनरी�ण करके ही प्रयोजन क� िसिद्ध
हो सकती है ।
अन्यत्र भी ईशोपिनषद् मंत्र ६ में कहा है “ हे मनष्ु यो ! जो लोग
सवर्व्यापी, न्यायकारी, सवर्�, सनातन, सबके आत्मा, अन्तयार्मी,
सबके द्र�ा परमात्मा को जान कर सख ु -दुःख हािन-लाभों में अपने
आत्मा के तुल्य सब प्रािणयों को जानकर धािमर्क होते हैं, वे ही
मो� को प्रा� होते हैं ॥ ”