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ा ा यायी तथा शत य- एक प रचय

धमशा के व ान ने ा ा यायीके छः अ न त कये ह, जो न न ह-


शवसङ् क पो दयं सू ं यात् पौ षं शरः ।
ा नारायणीयं च शखा या ो रा भधम्॥
आशुः शशानः कवचं ने ं व ाड् बृह मृतम्।
शत यम ं यात् षड म ई रतः॥
र तु शखा वम ने ं चा ं महामते।
ा वध ा य षड ा न वशा तः॥
अथात् ा ा यायीके थमा यायका शवसङ् क पसू दय है।
तीया यायका पु षसू सर एवं उ रनारायण- सू शखा है।
तृतीया यायका अ तरथसू कवच है। चतुथा यायका मै सू ने है एवं
प चमा यायका शत य सू अ कहलाता है। जस कार एक यो ा
यु म अपने अ एवं आयुध को सुस -सावधान करता है, उसी कार
अ या ममाग साधक ा ा यायीके पाठ एवं अ भषेकके लये सुस होता
है। अतः दय, सर, शखा, कवच, ने , अ इ या द नामा भधान गोचर
होते ह।
अब हम ा ा यायीके येक अ यायका क चत् अवगाहन कर।
थमा यायका थम म - 'गणानां वा गणप तः हवामहे' ब त ही स है।
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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कमका डके व ान् इस - म का व नयोग ीगणेशजीके यान-पूजनम
करते ह। यह म ण तके लये भी यु होता है। । शु ल-यजुवद-
सं हताके भा यकार ीउ वटाचाय एवं महीधराचायने इस म का एक अथ
अ मेध-य के अ क तु तके पम भी कया है।
तीय एवं तृतीय म म गाय ी आ द वै दक छ द तथा छ द म यु
चरण का उ लेख है। पाँचव म 'य ा तो' से दशम म 'सुषार थ'
पय तका म समूह ' शवसङ् क पसू ' कहलाता है। इन म का दे वता 'मन'
है। इन म म मनक वशेषताएँ व णत ह। येक म के अ तम त मे मनः
शवसङ् क पम तु' पद आनेसे इसे ' शवसङ् क पसू ' कहा गया है।
साधकका मन शुभ वचारवाला हो, ऐसी ाथना क गयी है। पर रानुसार
यह अ याय ीगणेशजीका माना जाता है।
तीया यायम 'सह शीषा पु षः' से 'य ने य म्' पय त षोडशम
पु षसू के पम ह। इन म के नारायण ऋ ष ह एवं वराट् पु ष दे वता
ह। व वध दे वपूजाम आवाहनसे म -पु पा लतकका षोडशोपचार-पूजन
ायः इ ह म से स होता है। व णुयागा द वै णव-य म भी
पु षसू के म से य होता है। पु षसू के थम म म वराट् पु षका
अ त भ द वणन ा त होता है। अनेक सर वाले, अनेक आँख वाले,
अनेक चरण वाले वे वराट् पु ष सम ा डम ा त होकर दस अंगल

ऊपर त ह।
तीया यायके स तदश म 'अद् यः स ृतः' से ' ी ते ल मी '- अ तम
म पय तके छ: म उ रनारायण सू के पम स ह। ' ी ते
ल मी ' यह म ील मीदे वीके पूजनम यु होता है। तीया याय
भगवान् व णुका माना जाता है।
तृतीया याय अ तरथसू के पम यात है। क तपय मनीषी 'आशुः
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शशानः' से आर करके 'अमीषा च म्'-पय त ादश म को वीकारते
ह।।कु छ व ान् इन म के उपरा त 'अवसृ ा' से 'म मा ण ते'-पय त पाँच
म का भी समावेश करते ह। तृतीया यायके दे वता दे वराज इ ह। इस
अ यायको अ तरथसू माननेका कारण कदा चत् यह है क इन म के
ऋ ष अ तरथ ह। भावा मक से वचार कर तो अवगत होता है क इन
म ारा इ क उपासना करनेसे श ु - धक का नाश होता है, अतः यह
'अ तरथ' नाम साथक तीत होता है। उदाहरणके पम थम म का
अवलोकन कर-
ॐ आशुः शशानो वृषभो न भीमो घनाघनः ोभण षणीनाम्।
सङ् दनोऽ न मष एकवीरः शत:सेना अजयत् साक म ः॥
अथात् ' वरासे ग त करके श ु का नाश करनेवाला, भयंकर वृषभक तरह
सामना करनेवाले ा णय को ु करके नाश करनेवाला, मेघक तरह
गजना करनेवाला, श ु का आवाहन करनेवाला, अ तसावधान, अ तीय
वीर, एकाक परा मी दे वराज इ शतश: सेना पर वजय ा त करता है।'
चतुथा यायम स तदश म ह। जो मै सू के पम ात ह। इन म म
भगवान् म -सूयक तु त है।अतः यह अ याय भगवान सूय को सम पत है।
मै सू म भगवान् भुवनभा करका मनोरम वणन ा त होता है-
ॐ आ कृ णेन रजसा वतमानो नवेशय मृतं म य च।
हर ययेन स वता रथेना दे वो या त भुवना न प यन्॥
अथात् रा के समयम अ कारमय तथा अ त र ।लोकमसे पुनः-पुनः
उद यमान दे व को तथा मनु य को व- व काय म न हत करनेवाले, सबके
ेरक, काशमान भगवान् सूय सुवणरंगी रथम बैठ करके सवभुवन के
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लोग क पाप-पु यमयी वृ य का नरी ण करते ह।
ा ा यायीके पाँचव अ यायम ६६ म ह। यह अ याय धान है। व ान्
इसको 'शत य' कहते ह। 'शतसं याता दे वता अ ये त शत यम्।' इन
म म भगवान् के शतशः प व णत ह। य कई म शत यके
पाठका मह व व णत है। कै व योप नष कहा गया है क शत यके
अ ययनसे मनु य अनेक पातक से मु होता है एवं प व बनता है-
यः शत यमधीते सोऽ नपूतो भव त स वायुपूतो । भव त स आ मपूतो
भव त स सुरापाना पूतो भव त स ह यायाः पूतो भव त॥

व ान क पर राके अनुसार प चमा यायके एकादश : आवतन और शेष


अ याय के एक आवतनके साथ अ भषेकसे एक ' ' या ' ' होती है। इसे
'एकाद शनी' भी कहते ह। एकादश से लघु , एकादश लघु से महा
एवं एकादश महा से अते अ त का अनु ान होता है। इन सबका
अ भषेका मक, पाठा मक एवं होमा मक वध वधान मलता है। म के
मसे ा भषेकके नमक-चमक आ द कार ह। दे शभेदसे भी कु छ
वशेषताएँ गोचर होती ह। शत यको ' सू ' भी कहते ह। इसम
भगवान् म का भ ा तभ वणन आ है। थम म का आ वाद ल-
ॐ नम ते म यव उतो त इषवे नमः। बा यामुत ते नमः॥
'हे दे व! आपके ोधको हमारा नम कार है। ॥ आपके बाण को हमारा
नम कार है एवं आपके बा को हमारा नम कार है।' भगवान् शवका
व प को न हणाथ है, अतः इस म म दे वके ोधको, बाण को
एवं उनके चलानेवाले बा को नम कार समपण कया गया है।

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- ःखम्, ावय त इ त ः। त्- ानम्, इ रा त-ददा त इ त ः। रोदय त
पा पनः इ त वा ः। । त व ने इस कार श दक ा या क है
अथात् भगवान् ःखनाशक, पापनाशक एवं ानदाता ह। सू म
भगवान् के व वध व प व णत ह,यथा- गरीश, अ धव ा, सुम ल,
नील ीव, सह ा , कपद , मीढु म, हर यबा , सेनानी, ह रके श, अ प त,
जग प त, े प त, वनप त, वृ प त, औषधीप त, स वप त, तेनप त,
ग रचर, सभाप त, प त, गणप त, ातप त, व प, व प, भव, शव,
श तक ठ, शतध वा, व, वामन, बृहत्, वृ , ये , क न , ो य,
आशुषेण, आशुरथ, कवची, ुतसेन, सुध वा, सोम, उ , भीम, श ु, शंकर,
शव, ती य, य, नीललो हत, पनाकधारी, सह बा तथा ईशान इ या द।
इन व वध व प ारा भगवान् क अनेक वधता एवं अनेक लीला का
दशन होता है। दे वताको ावर-जंगम सवपदाथ प, सववण, सवजा त,
मनु य-दे व-पशु-वन त प मान करके सवा मभाव- सवा तया म वभाव
स कया गया है। इस भावसे ात होकर साधक अ ै त न जीव मु
बनता है।
ष ा यायको 'मह र' के पम जाना जाता है। थम म म सोमदे वताका
वणन है। सु स महामृ यु यम इसी अ यायम सं न व है-
ॐ य बकं यजामहे सुग पु वधनम्।
उवा क मव ब ना मृ योमु ीय मामृतात्।
य बकं यजामहे सुग प तवेदनम्।
उवा क मव ब ना दतो मु ीय मामुतः॥
तुत म म भगवान् य बक शवजीसे ाथना है क जस कार ककड़ीका
प रप व फल वृ तसे मु हो जाता है, उसी कार हम आप ज म-मरणके
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ब नसे मु कर, हम आपका यजन करते ह।
स तमा यायको 'जटा' कहा जाता है। 'उ भीम 'म म म त् दे वताका
वणन है। इस अ यायके 'लोम यः वाहा' से 'यमाय वाहा' तकके म कई
व ान् अ भषेकम हण करते ह और कई व ान् इनको अ वीकार करते ह,
य क अ ये -सं कारम चताहोमम इन म से आ तयाँ द जाती ह।
अ मा यायको 'चमका याय' कहा जाता है, इसम कु ल २९ म ह। येक
म म 'च' कार एवं 'मे' का बा य होनेसे कदा चत् चमका याय अ भधान
रखा गया है। चमका यायके ऋ ष 'दे व' वयं ह। दे वता अ न ह, अतः यह
अ याय अ नदै व य या य दै व य मानाजाता है। येक म के अ तम 'य ने
क प ताम्' यह पद आता है।
य एवं य के साधन प जन- जन व तु क आव यकता हो, वे सभी
य के फलसे ा त होती ह। ये व तुएँ य ाथ, जनसेवाथ एवं परोपकाराथ
उपयु ह , ऐसी शुभभावना यहाँ न हत है।
ा ा यायीके उपसंहारम 'ऋचं वाचं प 'े इ या द चतु वश त म
शा या यायके पम एवं ' व त न इ ो' इ या द ादश म व त-
ाथनाके पम यात ह। शा या यायम व वध दे व से अनेकशः शा तक
ाथना क गयी है। म ताभरी से दे खनेक बात।बड़ी उदा एवं भ है-
ॐ ते ह मा म य मा च षु ा सवा ण भूता न समी ताम्।
म याहं च ुषा सवा ण भूता न समी ।े म य च षु ा समी ामहे॥
साधक भु ी यथ एवं सेवाथ अपनेको व बनाना चाहता है। वक य
द घजीवन आन द एवं शा तपूण तीत हो, ऐसी आकाङ् ा रखता है—
‘प येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतः शृणुयाम शरदः शतं वाम शरदः
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शतम्।
व त- ाथनाके न न म म दे व का साम य सुचा पम व णत है। 'एकं
सद् व ा ब धा वद त', यह उप नषद्-वा य यहाँ च रताथ होता है-
ॐ अ नदवता वातो दे वता सूय दे वता च मा
दे वता वसवो दे वता ा दे वता ऽऽ द या दे वता म तो दे वता
व े दे वा दे वता बृह तदवते ो दे वता व णो दे वता॥
इस कार शु लयजुवद य ा ा यायीम भगवान् का माहा य व वधता-
वशदतासे स ण
ू तया आ ा दत है

यजुवद म न हत ा याय वै दक काल से ही शवम हमा का ोतक रहा है।


भगवान् शव क स ता को ा त करने के लये इसका योग अनेक कार
से कया जाता रहा है। इसका पाठ अथवा जप सम त वेद के परायण के
तु य माना गया है। इसके पाठ से पाप से मु हो भोग को भोगने के
बाद शवसायु य को ा त कर लेता है। जाबालोप नषद् म कहा गया है क
शत य के जप मा से अमृत व क स हो जाती है। वह पर आगे कहा
गया है क ा याय म व णत (भगवान् शव के ) सभी नाम म अमृत व
दान करने क साम य है जनके मनन से मनु य मृ यु य हो जाता है।
अथ हैनं चा रण उचुः क ज येनामृत वं हू ी त। स होवाच या व यः
शत येणे त एता न एव ह वा अमृत य नामा न। एतैह वा अमृतो भवती त...
(जा. उ. 3)
कै व योप नषद् म शत य क म हमा को बताते ए कहा गया है क इसका
एक बार भी स यक प से पाठ करनेवाला सम त पातक से शु हो
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संसारसागर से मु हो जाता है, ान ा त कर लेता है अथवा कै व य ा त
कर लेता है-
यः शत यमधीते सोऽ नपूतो भव त। स वायुपूतो भव त। स आ मपूतो
भव त। स सुरापाना पूतो भव त। स ह याया: पूतो भव त। अनेन
ानमा ो त संसाराणवनाशनम्। त मादे वं व द वैनं कै व यं पदम ुते...।
(कै व. उप. 24)
शत य क मह ा का उ लेख अनेक पुराण म पाया जाता है। उदाहरण के
लये वामन पुराण को ल। इसके अ तगत एक ल पर 'वेन' अपनी तु त म
भगवान् शव का यजुवद के शत य से तादा य करता है। अथात्
शत य शव व प का बोधक है (वामनपु. सरो. माहा य 26 /121)। पुन:
द के य - व वंस के समय जब अनेक मुख दे वता डरकर भाग गये तब
ऋ षय ने शवजी को स करने के लये शत य का पाठ शु कर दया
(वामनपु. 5/6)। वप के समय अथवा कोप से बचने के लये अथवा
उ ह स करने के लये उस समय ऋ षय के पास शत य-जप से उ म
कोई अ य उपाय नह द ख पड़ा। अत: इससे शत य क मह ा हो
जाती है।
उप नषद आ द के अ त र अनेक पुराण , मृ तय ', महाभारत (अनुशासन
एवं ोणपव), कू म, लग, शव, ह रवंश आ द पुराण म शत य क म हमा
गायी गयी है-
वेदमेकगुणं ज वा तदहनैव वशु य त।
काद शनी ज वा स एव वशु य त।। (यम मृ त)
सूतसं हता का कथन है क जापी महापातक पी पंजर से मु होकर
स यक ान ा त करता है और अ त म वशु मु ा त करता है।
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ा याय के समान जपने यो य, वा याय करने यो य, वेद और मृ तय म
अ य कोई म नह है-
जापी वमु येत महापातक प रात्।।
स यक ानं च लभते तेन मु येत ब नात्।
अनेन स शं ज यं ना त स यं ुतौ मृतौ।।
(सूतसं हता, य वैभवख ड, पूवभाग 2/36-37)
वायुपुराण म कहा गया है क-
य ा पे यं यायमानो महे रम्।
य सागरपय तां सशैलवनकाननाम्।।
सवा ा मगुणोपेतां सुवृ जलशो भताम्।
द ा काधनसंयु ां भू म चौष धसंयुताम्।
त माद य धकं त य सकृ जपा वेत्।।
मम भावं समु सृ य य तु ा पे सदा।
स तेनवै च दे हने : संजायते धुवम्।।
( वाला साद म , ा ा यायी, वकटे र ेस, ब बई, पृ. 7)
अथात् - जो महे र का यान करता आ एक बार का जप करता है
उसका, जो शैल, वन एवं कानन स हत, सब े गुण से यु अ े वृ एवं
जल से शो भत, समु - पय त पृ वी को दान करता है, उससे भी अ धक फल
होता है। अथात् जप का फल इससे अ धक होता है। जो मम व छोड़कर
सदा दे व (अथवा ) का जप करता है वह उसी दे ह से न त प से
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हो जाता है। पुन: कहा गया है क-
भ म द धशरीर तु भ मशायी जते यः।
सततं जा योऽसौ परांमु मवा य त।।
रोगवा पापवां ैव ं ज वा जते यः।
रोगा पापा नमु ो तुलं सुखम ुते।। (वही पृ. 8)
अथात् - शरीर म भ म लगाने से, भ म म शयन करने से, जते य होकर
नर तर ा यायका पाठ करने से मनु य मु हो जाता है। और जो रोगी
तथा पापी भी जते य होकर ा याय का पाठ करे तो रोग और पाप से
नवृ होकर महासुख को ा त होता है। महामृ यु य म क ही भाँ त
ा ा यायी का भी समाज म काफ चलन है। जहाँ-जहाँ महामृ यु य
का योग होता है वहाँ- वहाँ इसका भी योग कया जा सकता है। रोग से
मु के लये रोगानुसार लघु , महा और अ त का जप या अ भषेक
करना चा हये। पूवज मकृ त पाप ही रोग का प धारण कर ाणी को पी ड़त
करता है-
'पूवज मकृ तं पापं ा ध पेण बाधते।'
ा याय के जपा द से न त प से पाप का नाश हो जाता है -
‘ ा यायी मु यते सवपापैः।'
पाप के नाश होने पर रोग का नाश वत: हो जाता है। शवजी ने पावती से
ा भषेक का माहा य बतलाते ए कहा है क-
सवकमा ण स य य सुशा तमनसो यदा।
ा भषेकं कु व त ःखनाशो भवेद ् धुवम्।।
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जलेन वृ मा ो त ा धशा यै कु शोदकै ः।
द ना च पशुकामाय यै ई ुरसेन च।।
म वा येन धनाथ या मुमु ु तीथवा रणा।
पु ाथ पु मा ो त पयसां चा भषेचनात्।।
मनसा वाचा कमणा शु चः संग वव जतः।
कु या ा भषेकं च ीतये शूलपा णनः।।
सवा कामानवा ो त लभते परमां ग तम्।
(धम स ुः पृ. 674 क पाद ट पणी दे ख)
अथात् - अ य सभी उपाय को छोड़कर न त प से ःखनाश के लये
शा त मन से ा भषेक करना चा हये। वृ के लये जल से अ भषेक करना
चा हये। ा ध क शा त के लये कु श के जल से, पशुवृ क कामना पूरा
करने के लये दही से, ेय क ा त के लये ग े के रस से, धनाथ को मधु
एवं घी से तथा मो ाथ को तीथजल से अ भषेक करना चा हये। मन, वाणी
एवं कम से शु रहकर चयपूवक ा भषेक करने से भगवान् शव स
होते ह। जससे सभी इ ा क पू त तथा परमग त ा त होती है।
शत य के व वध प
ा डपुराण के प र श 'ल लतोपा यान' के अ तगत कसी ी को दये
गये उपदे श म शत य क मह ा का तपादन कया गया है। वहाँ कहा
गया है क इसके पाठ से सभी कार के पाप से मु मल जाती है। फर
वह पर उस ी को शत य क द ा ा त करते ए भीके पाप दखाया
गया है। ( ा डमहापु. 3/4/7/48 - 52)
आ द शंकर वै दक व ा सं ान
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या वा द महेशानं शत मनुं जपेत्।।
ब हा मु यते पापैर ो र सह तः।
पापैर यै सकलैमु यते ना संशयः।। ( ा. महापु. 3/4/7/49-50)
अथात् - दय म भगवान् शव का यानकर 1008 बार शत य का पाठ
करने से ह या से छु टकारा हो जाता है, तथा अ य सभी कार के पाप से
भी मु मल जाती है, इसम कोई संशय नह है।
यहाँ पर एक वाभा वक उठता है क या ी भी शत य जैसे वै दक
म क अ धका रणी है? पर रा से ी आ द को वै दक म के पढ़ने या
जप करने का अ धकार नह माना जाता। पर तु इस पुराण म ी को
शत य म के जप करने का उपदे श दया गया है। ऐसी त म हमारे
पास दो वक प ह - या तो हम ी को भी वै दक म (कम से कम
शत य) के पाठ का अ धकारी मान अथवा जस शत य का उपदे श इस
पुराण म कया गया है वह वै दक न होकर पौरा णक अथवा कोई अ य
शत य हो सकता है। अतः यह न कष उपल होता है क पौरा णक
शत य का भी स दभ पुराण म उपल है। इसी म म क दमहापुराण
म एक शत य का उ लेख है जो वै दक शत य से नता त भ है।
यह स य है क शत य का वै दक प ही यादा च लत है, जो यजुवद म
पाया जाता है। यजुवद का शत यसू उसक सभी सं हता म पाया
जाता है। इन सं हता म थोड़े-थोड़े पाठ भेद भी ह। इसी कार शत य
के पाठ का वधान भी अलग-अलग े म अलग-अलग सं हता के
आधार पर वक सत ए। उ र भारत म वाजसनेयी सं हता के आधार पर
वक सत शु ल यजुवद य ा ा यायी का वकास आ। उ र भारत के हम
लोग इसी ा ा यायी से प र चत ह।
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द ण म ा याय का सरा प च लत है। तुत लेख म आगे क बात
उसी सरे प को यान म रखकर ही लखी गयी ह। सायण एवं
भ भा करकृ त ा ा यायी के भा य के आधार पर ही आगे क बात कही
जायँगी। तुत लेख म आगे क बात सायण एवं भ भा करकृ त
ा ा यायी के भा य के आधार पर ही कही जायँगी।
के तीन प ह। एक तो काय प सबका उपादान कारण सवा मक,
सरा सृ , त तथा संहार न म क पु ष नामवाला, तीसरा अ व ा से
परे नगुण, नर न, स य, ान एवं आनंद के ल णवाला। यह तीसरा प
ही दे व का मु य व प है। ा ा यायी के सभी कार के पाठ म
( शव या ) के सगुण एवं नगुण दोन कार के प का वणन है।
परमा मा क उपासना, भ म हमा, शा त, पु -पौ ा द क वृ तथा
नरोगता आ द अनेक व तु का वणन उनम पाया जाता है।
शवोपासना म वै दक शत य का ान
पर शव क तु त वेदम म एकादश अनुवाक म क गयी है, जो
ा याय के नाम से स है। इस ा याय के कारण ही यजुवद को वेद
म उ कृ ान ा त आ। सम त वेद म 'म ण' के प म यह ा याय
वराजमान है। यजुवद के चतुथका ड के पंचम और स तम पाठक म
‘ ' के नाम से म पाये जाते ह। ा याय के ारंभ म भगवान्
के ब त से नाम चतुथ - वभ - पुर सर हो 'नमो नम:' श द से बारंबार
हराये जाने के कारण इस वभाग का नाम नमकम् पड़ा। इसी कार अ तम
पाठक के म म भगवान् से अपनी मनचाही व तु क ाथना ‘च मे
च मे' अथात् ‘यह भी मुझे, यह भी मुझे' श द क पुनरावृ के साथ क गयी
है। इस लये इसका नाम 'चमकम्' पड़ा। इन दोन नमक-चमक का सम
प ही ' ा याय' है। इसी का सरा नाम 'शत य' है।
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भगवान् के नम कार से ा याय का आरंभ णवपूवक इस कार आ
है - 'ॐ नमो भगवते ाय'। इसका अ भ ाय है ‘षड् गणु ै यस को
णाम है।' भगवान् शव के संहारकारी प का नाम घोर है। घोर प दे खने
म भयजनक होते ह। इसी लये शत य के थम अनुवाक म भगवान् के
म यु ( ोध) और आयुध क तु त 'नम ते म यवे.' इ या द म से
करके महादे व के ोध को शा त करते ह। 'यैवा य घोरा तनू: तां तेन
शमय त....' नामक ु त इस व नयोग का मूलाधार है। इसके बाद 'नमो
हर यबाहवे.' इ या द म से लेकर आठव अनुवाकतक के म से महादे व
के वराट व प क तु त कर उ ह स करते ह। ये म ब त ही
श शाली और भगवान् के अ य त ी तपा माने जाते ह। त प ात्
दशम एवं एकादश अनुवाक से उनसे अभय दान क याचना क गयी है।
चमकानुवाक को ा याय का श तपाठ भी कहते ह।
लघु , महा और अ त
पाठ के तीन' मु य भेद का उ लेख मे त म पाया जाता है -
भरेकादश भः लघु ः क ततः।
अनेन स ं यै ल ं ते न प य त भा करम्। ( शवोपासनांक पृ. 246)
ै काद शनी के एक बार पारायण का नाम 'लघु ' है (इसी को पारायण
भी कहते ह)। इस लघु - व ध से लगा भषेक करनेवाला शी ही मु
ा त कर लेता है। लघु के यारह आवृ य के समाहार - पाठ और जप
को ‘महा ' कहते ह, जससे जप- होमा द करने से द र भी भा यवान् बन
जाता है। महा के पाठपूवक कया गया होम सोमयाग का फल दान
करता है।
शत य के तीन कार - जपा मक, होमा मक एवं अ भषेका मक होते ह।
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इनम से जपा मक को पाँच कार का माना जाता है - , , लघु ,
महा एवं अ त । 'अ त ' को सव म माना जाता है। ै काद शनी।के
एक बार परायण का नाम , 11 बार परायण करने पर तथा एकादश
के पाठ से लघु तथा एकादश लघु के पाठ से महा और एकादश
महा के पाठ से अ त होता है। (अनु ान काश: पृ. 151-152)
महा पाठ के एकादश आवृ य से ( ा याय के ]] x ]] = 121 सं या का
पाठ करने से) समा त पाठ व ध को ‘अ त ' कहते ह, जससे ह या द
पाप का भी नाश हो जाता है। इस पाठ क कोई तुलना नह है।
सदै व जप करनेवाले को शी ही ानोदय हो जायगा। एक बार भी शु
री त से जप त दन करने से ान क ा त हो सकती है।
'कै व योप नषद्' म भी कहा गया है क ा याय के एक बार नय मत जप
करनेमा से ान ा त हो जाता है तथा वह मु हो जाता है......।
य: शत यमधीते ..सवदा सकृ ा जपेत् ानमा ो त संसाराणव नाशनम्।
(कै . उ. 24)
म का व नयोग
भ भा कराचायकृ त ‘ नमक' के भा य के अ त म म के अनेकानेक
व नयोग एवं उपासनाप तय का ववेचन कया गया है। उनम से कु छ का
प रचय नीचे दया जाता है-
 ी- व - ा त के लये- , महा अथवा अ त म से कसी
एक से अ भम त खीर को 10000 क सं या म हवन करने से
स एवं ी क चुर मा ा म उपल बतायी गयी है।
 महा ा त ाणाम यतमं ज वा पायसेनायुतं जु यात्। यं लभते।
( ा याय, सायण एवं भ भा कर' पृ. 139)
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 'इमा ाय.' (यजु: वे. 16/48) - इस म से एक लाख क सं या म
तलहोम करने से अशेष धन ा त होता है।
व काम य 'ईमा ाय' इ यनेन तलैः शतसह ं जु यात्। (वही
पृ. 139)
 अपने ही रसोई घर क अ न म ' मु च ध वन व.' (यजु: वे. 16/9)
इ या द म से आठ हजार च होम (अ का हवन) करने से अ य
क स होती है। (वही पृ. 140)
 सुवृ और सु भ के लये- ‘असौ य ता ो०' (यजु: वे. 1616) इ या द
म से वेतस अथात् बत क स मध से 10000 सं या म होम करने
पर भगवान् सूय ( क एक अ मू त) संतु होकर वृ करते ह।
(वही पृ. 141)

 त दन दोन सं याय म सूय प ान- म - ॐ उ यं तमस र०


(यजु: वे. 20/21), ॐ उ यं जातवेदसं० (यजु: वे. 7/41), ॐ च ं
दे वानामु० (यजु: वे. 7/42 ) तथा ॐ त दु व हतं. (यजुः वे. 36/24)
के साथ-साथ उपयु ‘असौ य ता ो.' इ या द म का जप करने से
अ य अ क स होती है। (वही पृ. 141)
 रोगनाश और आयुवृ के लये- र ववार के दन ा ण को यथाश
द णा दे कर उनसे 1000 सं या म शत य का पाठ करवाने से
ा ध का नाश होता है और वह यजमान शतायु होता है। (वही पृ.
141)

 महा पाठ के उपरा त ‘आरा े गो न.' (वही पृ. 138) इ या द म से


षोडशोपचार पूजन करके उसी म का एक हजार जप करने से आयु
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बढ़ती है।
 ‘मा नो महा तमुत.' (यजु: वे. 16/15) इ या द म से दस हजार क
सं या म तल क आ तय के चढ़ाने से बालक से लेकर वृ तक पूरे
प रवार का वा ठ क रहता है। (वही पृ. 142)
 पु ा त के लये- 'प रणो य.' (यजु: वे. 16/50) इ या द म से
पीपल क स मधा से 10,000 क सं या म होम और जपा द करने
से आयु मान् पु क ा त होती है। (वही पृ. 141)
 र ा और मे के लये- 'नमः भवाय च. (यजु: वे. 16/45) तथा 'नमो
ये ाय च.' (यजु: वे. 16/32 ) इन दोन म से भ म को
अ भम त कर कु मारा द हगण से पी ड़त बालक के ललाट पर
तलक लगाने से वे हपीड़ा से मु हो सुखी हो जाते ह। (वही पृ.
143)

 'या ते शवा तनूः०' इस यजु:- :- म (16/2) से येक सू को


हजार सं या म अ भम त कर ै काद शनी का पाठ करते ए उन
सू से एकादश गांठ लगाकर बालक और ग भणी य के हाथ म
बाँध द तो वे सुखपूवक रहगे। ग भणी का सव सुखपूवक होगा। (वही
पृ. 143)
 अ न- चोर - ाण- भय आ द संकट क प र तय म 'मीढु म
शवतम.' (यजुः वे. 16/51) म के जप करने से भयमु हो
सकु शल अपने घर प ँच जाता है।
 सवकामना क स के लये- ा याय के के वल पाठ अथवा जप
से ही सम त कामना क पू त हो जाती है। नमक- चमक के
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थमानुवाक के स टु करण से जप- होमा द करने के बाद ा याय
का पाठ करे और यथाश जापी ा ण को भोजन, व तथा
द णा द दे कर स कार करे। इस कार करने से सभी कामनाएँ स
हो जाती ह अथवा महा ा त का यथाश जप करके उ
सं या म पायस च का होम करने से भी सम त कामना क पू त
होती है। (वही पृ. 138)

सशेष..........

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