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#पंचमकार विद्या गूढ़ रहस्य

तंत्र एक उच्चकोटि की विद्या है , एक प्रकृ ष्ट विज्ञान है जिसे कु छ भ्रष्ट और स्वार्थी तांत्रिकों ने अपने निहित स्वार्थ के चलते बदनाम कर दिया है।
तंत्र की वास्तविकता और उसमें आये हुए ‘पञ्च मकार'(मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन) हैं।
मद्यम् मासं व मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च।
मकारपंचकं प्राहुर्योगिन: मुक्ति दायिकम्।।’
‘मद्यम् मासं च मत्स्यम च मुद्रा मैथुनमेव च्।
मकारपंचमं देवि देवता प्रीतिकारकम्।।’
अर्थात्–हे देवि ! मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन –ये पांचों देवता को प्रसन्न करने वाले कारक हैं। ये उपासना के लिए परम आवश्यक हैं। यदि
इनके बिना कोई साधना करता है तो उसकी साधना निष्फल जाती है।
प्रायः हम-आप और साधारण जन तांत्रिक साधना प्रसंग चलने पर कु छ अलग ही अनुभव करने लगते हैं। तंत्र का नाम सुनते ही जादू-टोना, काला जादू,
झाड़-फूँ क, खोपड़ी, मुर्दा, नारी , श्मशान, बलि, आदि के विचार स्वतः ही मस्तिष्क में आने लगते हैं और मन अजीब-सी अरुचि से भर जाता है। दर
असल यह सब विचार या धारणा तन्त्र के बारे में समाज में फै ले हुए हुए नाना प्रकार के भ्रम के परिणाम स्वरुप है।
इस चरम लक्ष्य को पाना वास्तव में परम पुरुषार्थ है और इस पुरुषार्थ का एक मात्र माध्यम है–मनुष्य।
पुरुष परमेश्वर है तो प्रकृ ति परमेश्वरी है। शिव कामेश्वर है तो शक्ति कामेश्वरी है। सभी पुरुष परमेश्वर और सभी स्त्रियां परमेश्वरी हैं और हैं कामेश्वर और
कामेश्वरी। इन दोनों का मिथुनात्मक सम्बन्ध ही मूल है। वही मूल आकर्षण है या काम है।
तंत्र के प्रति अज्ञानता का लाभ उठाकर ऐसे लोग जन-साधारण की दुर्बलता से तन्त्र-मन्त्र के नाम पर फायदा उठाने का प्रयत्न करते रहे हैं। जन-मानस
में इसका गंभीर प्रभाव पड़ा। लोगों ने यह समझ लिया कि तांत्रिक क्रियाओं और उपासनाओं के नाम पर वासना की तृप्ति ही मात्र तन्त्र का उद्देश्य है।
तांत्रिक साधना में जिन गोपनीय क्रियाओं और सामग्रियों के उपयोग की अनुमति विशेष् परिस्थिति में दे रखी है–उनका दुरुपयोग हुआ है। लेकिन उससे
तन्त्र और उसकी साधना कदापि दूषित नहीं हो सकती। तांत्रिक साधना अत्यन्त गम्भीर और उच्च आध्यात्मिक साधना है।
#तंत्र की उत्पत्ति
तन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति ‘तनु’ धातु से हुई है जिसका अर्थ है–विस्तार करना– ‘तनोति विस्तारयति ज्ञानं येन यस्मात् वा तत् तन्त्रम्।’ अथवा–‘तन्यते
विस्तारयते ज्ञानं अनेन इति तन्त्रम्।’ अर्थात्–जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार हो, उसे तंत्र कहते हैं।
प्रसिद्ध ऋषियों में कोई कोई तांत्रिक मार्ग के उपासक थे और कोई कोई तो तांत्रिक मार्ग के प्रवर्तक भी थे। उनमें वृहस्पति, दधीचि, सनतकु मार, उशना,
नकु मीश आदि का वर्णन आया है। जो प्रवर्तक ऋषि थे, उनमें दुर्वासा, गौतम, याज्ञवल्क्य, भृगु, कात्यायन, गालब, शातातप, आपस्तम्ब, सनक,
विष्णुकश्यप, संवर्तविश्वामित्र आदि थे।
कु ण्डलिनी योग साधना के मुख्य चार चरण हैं। प्रथम चरण में कु ण्डलिनी जागरण, दूसरे चरण में उसका उत्थान, तीसरे चरण में क्रमशः चक्र भेदन और
चौथे चरण में सहस्रार स्थित शिव के साथ शक्ति का ‘सामरस्य महामिलन’। इन चारों चरणों की साधना योगतंत्र की बाह्य और आतंरिक क्रियाओं द्वारा
संपन्न होती हैं।
साधना दो भागों में विभक्त है–पूर्वकौल और उत्तरकौल। पूर्वकौल समायाचारी साधना मार्ग है और उत्तरकौल है वामाचारी साधनामार्ग। दोनों मार्गों में शक्ति
की प्रतीक ‘योनि’ की पूजा है।
वामाचारी साधनामार्ग अत्यन्त कठिन है और दुरूह है। इस पर चलना सभी के वश की बात नहीं है। ‘वामा’ का अर्थ है–स्त्री। इस मार्ग की जितनी भी
साधनाएं हैं, सबका आधार है स्त्री। इसलिए इसे ‘वामाचार’ की संज्ञा दी गयी है।
साधना की दृष्टि से स्त्री के साथ जो आचरण किया जाता है, वह है–‘वामाचार’। इसी लिये कहा गया है–‘वामा चारः परमगहनो योगिनामप्यगम्य:।’
यह मार्ग स्पष्ट रूप से कहता है –‘सर्वधर्मान् परित्यज्योनिपूजारतो भवेत्।’
स्त्री कोई भी जाति या धर्म की हो, वह योगतांत्रिक दीक्षा से साधक की साधना के योग्य हो जाती है–‘दीक्षामात्रेण शुद्ध्यन्ति स्त्रियः सर्वत्र कर्मणि।’
यदि विचार पूर्वक देखा जाय तो वामाचारी साधना मार्ग प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर ले जाता है। बाह्य क्रियाओं का सहारा लेकर यह साधना की आतंरिक
भूमि में प्रवेश कराता है।
#मद्य(मदिरा)–
इन पञ्च मकारों में सबसे पहले ‘मद्य’ का नाम् आता है जो साधारण मदिरा न होकर उससे करोड़ों गुना अधिक आनंद प्रदान करने वाला होता है। इसमें
प्रत्यक्ष मदिरा का कोई स्थान नहीं है।–
सुरादर्शनमात्रेण कु र्यात् सूर्यावलोकनम्।
तत्संधानमात्रेण प्राणायामत्रयं चरेत्।।
अर्थात्–इस मद्य(सुरा) का तात्पर्य ब्रह्मरंध्र में स्थित सहस्रदल कमल से अनवरत नि:स्यन्दमान अमृत से है। इस मद्य के सेवन की बात छोड़िए, मात्र
दर्शन से ही सूर्य मण्डल का अवलोकन होता है और इसके सेवन करने से साधक के प्राणों का विस्तार हो जाता है और वह सूर्यलोक में संचरण करने लग
जाता है।
इसलिए साधक को इसी सुधारूपी मद्य से अपने पात्र को भरना चाहिए। यह मद्य गुरुकृ पा से देवता को प्रसन्न करने के लिए साधक को प्राप्त होता है
जिसका पान उसे अविचलित मन से करना चाहिए।
#मांस–
तांत्रिक साधना में ‘मद्य’ की तरह ‘मांस’ का सेवन करने का विधान है। लेकिन यह ‘मांस’ क्या वही मांस है जिसका सेवन आमतौर पर लोग करते हैं ?
नहीं, ये मांस अलग है। इसका अर्थ अलग है।
इसका आशय है-प्रिय। कल्याणकारी होने के कारण, अमृत स्वरूप आनन्द प्रदान करने के कारण और सभी देवताओं का प्रिय होने के कारण उसका नाम
‘मांस’ है। क्या ये सारे गुण साधारण मांस में मिलते हैं ?
कु लार्णव तंत्र में कहा गया है–
पुण्यापुण्ये पशुम् हत्वा ज्ञानखड्गेन योगवित्।
परे शिवे ! नयेच्चितं पलाशी स निगद्यते।।
मनसा चेन्द्रियगणं संयोज्यात्मनि योगवित्।
मांसाशी भवेद देवि ! शेषा: स्यु: प्राषिहिंसकः।।
अर्थात्–हे देवि ! ज्ञानरूपी खड्ग के द्वारा पुण्य और पापरूूपी पशुओं का हनन करने वाला और अपने मन को पर(ब्रह्म) में लीन करने वाला साधक ही
वास्तव में मांसाहारी है। के वल वही योग के ज्ञाता साधक मांसाहारी कहे जा सकते हैं जो सभी इंद्रियों का मन के द्वारा संयोजन करके आत्मा में उन्हें
प्रविष्ट करा देते हैं।
अज्ञानेन यो हन्त्यादात्मार्थ प्राणिनः प्रिये।
निवसेन्नर के धीरे दिनानि पशुरोमभिः।।
अर्थात्–हे प्रिये !–भगवान् शिव भगवती शक्ति को तन्त्र के रहस्य को समझाते हुए आगे कहते हैं –पूर्णरूपेण अर्थ समझें बिना इन पञ्च मकारों में मांस
आदि का भौतिक रूप से सेवन करने वाले साधक बहुत बड़ी भूल करते हैं।
स्वनिमित्तं तृणं वापि छेदयेन्न कदाचन।
आत्मार्थ प्राणिनां हिंसा कदाचिन्नोदिता प्रिये।।
अर्थात्–हे प्रिये ! अपने प्रयोजन के लिए प्राणियों की हिन्सा की बात तो दूर, एक तिनके की नोक से छेदकर भी किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए।
अर्थात्–मदिरा, मांस, मछली, मुद्रा और मैथुन–ये पंचमकार योगी को मुक्ति देने वाले कहे गए हैं।

#मत्स्य—
अभी तक हम पञ्च मकार के अंतर्गत बहिरंग साधना के साधन के रूप में मदिरा और मांस –इन दोनों साधनों पर चर्चा कर चुके हैं। तीसरा साधन
है–‘मत्स्य’ या ‘मीन’ जिसका अर्थ है–मछली। तंत्रों में बहुत से संके त अधिकांशतया रूपकों पर आधारित हैं। मत्स्य शब्द का भी यहाँ रूपक के अर्थ में
ही प्रयोग हुआ है।–
गंगा यमुनायोर्मध्ये द्वौ मत्स्यौ चरतः सदा।
तौ मत्स्यौ भक्षयेत् यस्तु स भवेन्मत्स्यसाधकः।।
अर्थात्–यहाँ गंगा और यमुना शरीर में स्थित ‘इड़ा’ और ‘पिंगला’ दोनों नाड़ियाँ हैं। उन मत्स्यों का सेवन करने वाला अर्थात् प्राणायाम के द्वारा श्वास-
प्रश्वास को ‘सुषुम्ना’ नाड़ी के भीतर संचालित कर लेने वाला साधक ही वास्तव में मत्स्य सेवी है।
तांत्रिक साधना मार्ग की भूमि में कोई भी अपना पद-चिन्ह अंकित कर सकता है। कोई भी वर्ण हो, कोई भी जाति हो, स्त्री हो या हो पुरुष , किसी भी
प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं। तंत्र की ओर बहुत-से लोगों के आकर्षित होने का यही एक मात्र कारण है। सच कहा जाय तो कलियुग में तंत्र साधना ही एकमात्र
सफल होती है।
इसका मतलब यह नहीं है कि कोई भी तंत्र साधना का अधिकारी बन सकता है। इस मार्ग में पात्रता होना सबसे महत्वपूर्ण है। पात्रता के अभाव में साधक
इसमें आ नहीं सकता। यह कार्य गुरु का है कि वह योग्यतानुसार शिष्य की परीक्षा करे और उसके अनुसार तंत्र की दीक्षा देकर उसको इस मार्ग में प्रविष्टि
दे। तांत्रिक साधना की परीक्षा अत्यन्त कठिन है।
#मुद्रा—
ब्राह्मण धर्म में साधारणतया ‘मुद्रा’ से अभिप्राय एक विशिष्ट शारीरिक क्रिया से लिया जाता है।
तंत्र में मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत आदि चक्रों के साथ साथ ‘खेचरी’ आदि मुद्राएं तथा पूरक, कु म्भक ,रेचक आदि प्राणायामों की
विवेचना है जो योगदर्शन की कर्तव्य मीमांसा में दिखाई देती है। परंतु यहाँ मुद्रा का एक दूसरा ही अर्थ है जिसका प्रमाण ‘विजय तंत्र’ के एक श्लोक से
मिलता है–
सत्संगेन भवेन्मुक्तिरसत्संगेषु बन्धनम्।
असत्संगमुद्रणम् यत्त तन्मुद्रा परिकीर्तिता।।
अर्थात्–संत्सगति के प्रभाव से मुक्ति प्राप्त होती है और कु संगति के प्रभाव से नाना प्रकार के मोह-माया आदि बन्धन प्राप्त होता है। इसी कु संगति के त्याग
का नाम ‘मुद्रा’ है। इस प्रकार ‘मुद्रा’ से तात्पर्य ‘असत्संग का परित्याग’ है।
लोग वेद, पुराण, शास्त्र, उपनिषद, दर्शन, इतिहास आदि सब कु छ पढ़ लेते हैं। कं ठस्थ भी कर लेते हैं। संतुष्ट भी हो जाते हैं। अपने आप को परम ज्ञानी
भी समझने लगते हैं। लेकिन रहते हैं पहले जैसे ही। उनका बाहरी व्यक्तित्व तो अवश्य बदल जाता है, लेकिन आतंरिक स्थिति पहले जैसी ही रहती है।
उनका ज्ञान उनके आतंरिक स्वरूप को परिवर्तित नहीं कर पाता है। पहले ही जैसे रहते हैं वे लोग–क्रोधी, दंभी, अहंकारी, कपटी, ईर्ष्यालु,
असत्यवादी। उपलब्ध ज्ञान के अनुसार उनका आचरण नहीं होता।
लेकिन तंत्र ऐसा नहीं है। वह न वेद है, न शास्त्र है, न पुराण है, न उपनिषद है, न तो है कोई दर्शन ही। वह तो क्रियापरक विधि का प्रकृ ष्ट परम विज्ञान है।
उसकी भाषा क्रिया की भाषा है और है विधि की भाषा।
उच्च संस्कारों के उदय होने पर सद्गुरु के दर्शन होते हैं। उच्चतम संस्कार के जागने पर सद्गुरु के मार्गदर्शन से सिद्धिलाभ होता है।
#मैथुन–
तंत्र के कौलाचार में पांचवां और अंतिम मकार है–‘मैथुन’। लेकिन यह होना चाहिए कि यह आधार भी विषयवासना को विनाश का प्रमुख कारण मानता
है।
जप नीचे और ऊपर दोनों होंठों के मिथुनात्मक संयोग का फल है। नीचे का होंठ शक्ति और ऊपर का होंठ शिव की ओर संके त करता है। होठों का
मिथुनात्मक रूप जप में हिलना ही मैथुन है और उससे निकलने वाला शब्द ‘बिन्दुश्वरूप’ है।
के वलं विषयासक्तः पतत्येव न संशयः।
आचार लांघनाद्देवि कौलिकः पतितो भवेत्।।
अर्थात्–शंकर पार्वती से कह रहे है कि हे देवि ! वह व्यक्ति जो विषयों में ही के वल आसक्त होता है, उसका पतन होता है, इसमें कोई संशय नहीं है। जो
कौलाचारी साधक अपने आचार का उल्लघन करता है, वह पतित हो जाता है।
मैथुन’ पञ्च मकार के रहस्य को समझाते हुए तंत्र कहता है कि आत्मा और पराशक्ति के संयोग से उत्पन्न आनन्द के आस्वादन का नाम ‘मैथुन’ है। इसके
विपरीत अर्थ का प्रयोग करने वाले मात्र ‘स्त्री सेवक’ हैं।
पर शक्त्यात्ममिथुन सन्योगानंदनिर्भरः।
य आस्ते मैथुनं तत्स्यादपरे स्त्रिनिषेवकाः।।
यह सिद्धि बिना विषयवासना पर विजय प्राप्त किये हो ही नहीं सकती। कामवासना को जीतना परम आवश्यक माना गया है। इसलिए तो युवती स्त्री को
‘निर्विकार चित्तेन’ पूजा करने का विधान है।

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