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॥ श्री नायिका स्तोत्र ॥


परिचय:- अप्सरा, उर्वशी, यक्षिणी साधना प्रत्येक साधक सम्पन्न करना चाहता है , क्योंक्षक भौक्षतक जीर्न में पणू व आनन्द
की प्राक्षि के क्षिये अप्सरा, उर्वशी और यक्षिणी आर्श्यक है ।
हमारे ऋक्षियों ने इन साधनाओ ं को सम्पन्न क्षकया, तथा अप्सरा, उर्वशी और , यक्षिणी को सािात अपने समि उपक्षथथत कर
क्षदया, यह आज के यगु में भी सभं र् है । इसक्षिये इन योक्षनयों को क्षसद्ध करने के क्षिये पहिे सम्पन्न करे श्री नाक्षयका थतोत्र ।
उन्मत्त भैरर् के द्वारा रक्षचत यह योक्षगनी थतोत्र नारी थर्रूप की उपासना नहीं है, अक्षपतु नारी के उन गणु ों का र्णवन है, जो जीर्न
में आनन्द प्रदान करते हैं ।
प्रकृ क्षत, नारी जीर्न के सौन्दयव का थर्रूप है, हमारे ऋक्षियों ने तांक्षत्रक साधनायें की, र्हीं देर्ी थर्रूप में नारी के रूप को भी
पणू व रुप से बखाना (पहचाना) है ।
इस थतोत्र का पाठ करने मात्र से ही आनन्द क्षक अनभु क्षू त होने िगती है । दाम्पत्य जीर्न में सरसता आती है, और भौक्षतक
सख ु ों की प्राक्षि होती है । इस थतोत्र का पाठ करने से अप्सरा, उर्वशी, यक्षिणी और योक्षगक्षनयों की साधना में सफिता क्षमिती
है ॥

॥ श्री नायिका स्तोत्र ॥


॥ ध्यान ॥

हृदिाम्भोरुहे ध्यािे, सन्दरीं नव-िौवनाम ।
ु पद्म-लोचनाम ॥
यकयिणी-जाल मालाढिाां, यत्रपराां
वराभि-कराां धन्ाां, िोयिनीं कामचायरणीम ।
ु -पष्पोज्ज्वले
ॐ वन्दे िोयिने! िोि-यसयि-धनदे! बन्धक ु ॥

नानालां कृयि-यवग्रहे! सर-मयण श्री देव-कन्े यििे ।
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ु यिि-पदां वाञ्छायद -यसद्धि देयह । राज्यां यमत्रां -कलत्र पत्रांु -धनदे ! मािः! समाधेयह मे ।१।
दायरद्रिां हन मे सखां
िावाांयि - कमल -द्वि िरुयण देविे ! दारुणां । महा-भि-समाकुलां हर भजायम भू-मण्डले ।२।
कृ पाां कुरू ममालिे स-पयरवार-देवः सह, सदा भव यह भायिनी क्षम कुलाप-िापां मद्रा
ु ।३।
ु रयि:। िौरी यवद्या-धरी श्िामा, िसन्ना भव सववदा ।४।
त्वमेका िोयिनी कन्ा, यपङ्गला िविी
ु ।५।
त्वां सन्ध्या खेचरी यवद्या, ियक्षणी भूयिनी यििा। त्वमेका पाि ु माां धात्री, स्वणव-पात्र-कराम्बजा
यहरण्िाक्षी यवशालाक्षी, चपला नायिनी जिा । िसन्ना भव शब्दाख्या, कायमनी काम - दायिनी ।६।
यसयिदा कुल -मन्त्राणाां, डायकनी खेचरी भव । नमायम वरदे देयव ! िोयिनी -िण-सेयविे ।७।
ु कान्ते ! चन्द्र-कायन्त-समायलनी।
त्वाांयि -ििलां ु अमले कमले देयव! दायरद्रि -दोष -भञ्जनी ।८।

वन्दे त्वाां मनसा वाचा, िसन्न भव सन्दयर । कयल-काल-कृ िे देयव! खेचरी-शि-नायिके ।९।
धन-यसद्धि देयह शीिां, समािच्छ िृहे मम । ु
यसयिदा यवधराणाां ु
च, अकाल-मृत्य-नायशनी ।१०।
दश-वषव-सहस्त्रायण, यिरा भव कुले मम । ु
वाक्य-यसयि-िदादेवी, पद्मराि-समायलनी ।११।

सवावलिार -भषाङ्गी, िसन्ना भव सववदा । मािा-बीजायिका देवी, वधू-बीज समाकुले ।१२।
यसयि-द्रव्यां सदा देयह, कान्ता भव ममालिे । यवयचत्राम्बर -शोभाङ्गी, नानालिार -वेयििे ।१३।
यवम्बार-मयण-सूिावभ,े चन्द्र-कायन्त-िभोज्ज्वले। स्मेराननाब्जे कामेयश ! ममाज्ञापि दुलवभम ।१४।
कामेयशः! परमानन्द-राज-भोि-िदायिनी । यसयिदा वरदा मािा, भयिनी वा भव यििा ।१५।
िवाज्ञा-यकिरी देयव! पूजिाम्यहमादराि । ममाग्रे सांयिरा* भूत्वा, यसयिदा भव सववदा ।१६। (*सांयििा)
कौयलनी ििनिा त्वां, मम पार्श्व -चरी* भवः। (?सहचरी)
शि-वषव-सहस्त्रायण, मामेकां रक्ष सेवकम ।१७।
त्वामेकाां* जििाां देयव! यसयि-यवद्याां नमाम्यहम । (त्वमेकाां*)
ममाङ्गे चव पार्श्े त्वां, कायमनी भव सदा ।१८।
दश-वषव-सहत्रायण, यसिे! कमल-लोचनाम । वयनिा भव मे यनत्यां, यनत्यां देहां कुरु यििे ।१९।
॥ फलश्रयु ि ॥
एिि स्तोत्रां पठे द यवद्वान, ध्यानाभ्यास-समयििम ।
पक्वान्नां नायरके लां वा, खण्ड-यमश्रां यनवेदिेि । [क्षर्शेि: पक्र्ान्नं=खीर,परू ी,पआ
ु । नाररयि, क्षमश्री दें भोग में)
यसद्धि िच्छयन्त भूयिन्ः, स्तोत्र-पूजा-िभाविः ॥
व ॥
॥ वृहद-भूि-साधना डामरे महा-िांत्र े नायिका-स्तोत्रां सम्पूणम
[By:viky1966]

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