हर रोग के मूल में पाँच तत्त्व यानी पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही विकृ ति होती है। मंत्रों के द्वारा इन विकृ तियों को आसानी से दूर करके रोग मिटा सकते हैं। डॉ. हर्बट बेन्सन ने बरसों के शोध के बाद कहा हैः Om a day, keeps doctors away. अतः ॐ का जप करो और डॉक्टर को दूर ही रखो। विभिन्न बीजमंत्रों की विशद जानकारी प्राप्त करके हमें अपनी सांस्कृ तिक धरोहर का लाभ उठाना चाहिए। पृथ्वी तत्त्व इस तत्त्व का स्थान मूलाधार चक्र में है। शरीर में पीलिया, कमलवायु आदि रोग इसी तत्त्व की विकृ ति से होते हैं। भय आदि मानसिक विकारों में इसकी प्रधानता होती है। विधिः पृथ्वी तत्त्व के विकारों को शांत करने के लिए 'लं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए किसी पीले रंग की चौकोर वस्तु का ध्यान करें। लाभः इससे थकान मिटती है। शरीर में हल्कापन आता है। उपरोक्त रोग, पीलिया आदि शारीरिक व्याधि एवं भय, शोक, चिन्ता आदि मानसिक विकार ठीक होते हैं। जल तत्त्व स्वाधिष्ठान चक्र में जल तत्त्व का स्थान है। कटु, अम्ल, तिक्त, मधुर आदि सभी रसों का स्वाद इसी तत्त्व के कारण आता है। असहनशीलता, मोहादि विकार इसी तत्त्व की विकृ ति से होते हैं। विधिः 'वं' बीजमंत्र का उच्चारण करने से भूख-प्यास मिटती है व सहनशक्ति उत्पन्न होती है। कु छ दिन यह अभ्यास करने से जल में डू बने का भय भी समाप्त हो जाता है। कई बार 'झूठी' नामक रोग हो जाता है जिसके कारण पेट भरा रहने पर भी भूख सताती रहती है। ऐसा होने पर भी यह प्रयोग लाभदायक हैं। साधक यह प्रयोग करे जिससे कि साधना काल में भूख-प्यास साधना से विचलित न करे। अग्नि तत्त्व मणिपुर चक्र में अग्नितत्त्व का निवास है। क्रोधादि मानसिक विकार, मंदाग्नि, अजीर्ण व सूजन आदि शारीरिक विकार इस तत्त्व की गड़बड़ी से होते हैं। विधिः आसन पर बैठकर 'रं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए अग्नि के समान लाल प्रभावाली त्रिकोणाकार वस्तु का ध्यान करें। लाभः इस प्रयोग से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि विकार दूर होकर भूख खुलकर लगती है व धूप तथा अग्नि का भय मिट जाता है। इससे कु ण्डलिनी शक्ति के जागृत होने में सहायता मिलती है। वायु तत्त्व यह तत्व अनाहत चक्र में स्थित है। वात, दमा आदि रोग इसी की विकृ ति से होते हैं। विधिः आसन पर बैठकर 'यं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए हरे रंग की गोलाकार वस्तु (गेंद जैसी वस्तु) का ध्यान करें। लाभः इससे वात, दमा आदि रोगों का नाश होता है व विधिवत् दीर्घकाल के अभ्यास से आकाशगमन की सिद्धि प्राप्त होती है। आकाश तत्त्व इसका स्थान विशुद्ध चक्र में है। विधिः आसन पर बैठकर 'हं' बीजमंत्र का उच्चारण करते हुए नीले रंग के आकाश का ध्यान करें। लाभः इस प्रयोग से बहरापन जैसे कान के रोगों में लाभ होता है। दीर्घकाल के अभ्यास से तीनों कालों का ज्ञान होता है तथा अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। विभिन्न तत्त्वों की विकृ तियों से होने वाली सभी रोगों में निम्न पथ्यापथ्य का पालन करना आवश्यक है। पथ्यः दूध, घी, मूँग, चावल, खिचड़ी, मुरमुरे (मूढ़ी)। अपथ्यः देर से पचने वाला आहार (भारी खुराक), अंकु रित अनाज, दही, पनीर, सूखी सब्जी, मांस-मछली, फ्रीज में रखी वस्तुएँ, बेकरी की बनी हुई वस्तुएँ, मूँगफली, के ला, नारंगी आदि। ॐ नमः शिवाय।।