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॥ श्री गुुं गुरुभ्यो नम: ॥ श्री कालिकायै नम: ॥

श्री लिद्याराज्ञी
लिमालिक ई पत्रीका

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

अहमिाबाि, गुजरात

चि िूरभाष:- ९५३७७३००९५
(२)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

नोट:- इि पत्रीका में प्रकालशत कोई भी िेख पर कोई कोपीराईट नही ुं हैं। लजिको
कोई भी िेख पत्रीका में िे मुलित करना हैं िो कर िकते हैं: क्योलक िो एक प्रकार
िे भगिती की िेिा ही करे गा। और भगिती के ज्ञान-लिज्ञान का जीतना प्रिार
प्रचार हो िो बहोत उत्तम कायय हैं।
ज्ञातव्य:- अगर लकिी को कोई भी िेख कौि लिद्ाुंत, श्रीलिद्या, िशमहालिद्या, एिुं
तन्त्र पे लिखकर भेजना है िो भेज िकते है। िमयानुिार और अगर श्री लिद्याराज्ञी
िुंपािक मुंडि को अच्छा िगा तो अिश्य प्रकाशीत लकया जायेगा। भाषा लहन्दी
िे िनागरी रहेगी।

यलि िेखन में कोई भूि हो चूक हो तो लििििगय की क्षमा चाहते


हैं । यलि कोई त्रुटी हो तो हमे अिश्य अिगत लकजीयेगा।
अनुक्रम
(१) श्री गुरुिचन - ३
(२) श्रीचक्र में चक्रो का स्वरूप – ४

(३) श्री रामनाम िेखन – ५

(४) चैत्र निरात्र अचयन लिलि – ७

(५) नैलमलत्तक चैत्र माि पूलणयमा पूजा – १०


(३)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

श्री गुरु िचन

स्वामी श्री ििालशि

जो इच्छा का विषय है उसे ही “इष्ट” कहा जाता है । वजसके जीिन में कोई इष्ट नहीीं
है उसके पास चाहे वकतनी भी विद्या, बुद्धि, धन, सींपवि क्ोीं न हो अन्तत: उसका अवनष्ट
होने की सींभािना है । अत: जो हमारे जीिन का मुख्य ध्येय है , जो हमारी सिवश्रेष्ठ इच्छा है
िही हमारे दे ि हैं ईश्वर हैं परमात्मा हैं । चाहे जो कुछ कह लें िह िही हैं । हमारे चारोीं और
जो असीम जगत है , असीम आकाश है – उसमें सब प्रकार की शद्धि प्रचुर प्रमाण में भरी
पडी हैं । हम अगर वदिारात्री यह सींकल्प करते रहें वक हमारे हाथ में इतनी शद्धि आ जाय
वक एक पत्थर पर मुक्का मारें तो पत्थर चूर चूर हो जाय तो एक समय हमारी सींकल्प-
शद्धि के पररणाम रूप हममें (हाथ में) इतनी प्राणशद्धि केद्धित हो जाएगी वक हम पत्थर
को तोडने में सफल हो सकते हैं । इसी प्रकार हम हमारे शरीर में िाणी, मन, बुद्धि, अहीं कार
इत्यावद में – स्थूल सूक्ष्म कोई भी अींग प्रत्यींग में इच्छाशद्धि को केद्धित करें गे तो बारम्बार
सींकल्पिेग अथिा इच्छाशद्धि के अनुरुप हमारे िे अींग-प्रत्यींग शद्धिशाली बनते जायेंगे।
जैसे आकाश में विवछन्न विविप्त बादल होते हैं िे जब तक घनीभूत न हो जाए तबतक िषाव
में पररणत होकर नीचे नहीीं आ सकते , िैसे बादल उपर ही उपर विद्धच्छन्न रुप में अस्त-
व्यस्त हो जाते हैं । इसी प्रकार हमारे िैयद्धिक या सामुवहक रुप से बार बार आितवन एिीं
वचींतन के द्वारा पयाव प्त मात्रा में घनीभूत न करले तब तक उस इच्छारुप ध्येय की वसद्धि या
सफलता नहीीं हो पाती। इसीवलए प्रत्येक मनुष्य को व्यद्धिगत अथिा सामूवहक रूप दे श
जावत समाज की वकसी न वकसी इच्छा को इष्ट बनाकर उसकी सफलता के वलए िायुमींडल
से शद्धि का आहरण कर उसे केद्धित करने के वलए व्यद्धिगत या सामूवहक प्रयास में
विद्यमान पयाव प्त सूक्ष्म गरमी शरीरस्थ िात वपि कफ आवद दोषो को नाडीजाल से पृथक
करके मलमूत्र के द्वारा एिीं मुख के द्वारा कफ वपि वक उल्टी के रूप में एिीं डकार रुप से
सब दोष धीरे धीरे शरीर से बहार वनकाल दे ती है। पररणामत: शरीर हमेशा के वलए वनरोगी
हो जाता है । यह हमारा स्वत: अनुभि है एिीं हमारे यहाीं जो भी साधक आरीं भ से ही उच्चस्वर
में जप करते रहे हैं उनके भीतर जो कुछ भी छोटी बडी शारीररक वशकायत या रोग थे
उनका नाश हुआ है और उनके अलािा अब िे सिवथा रोगरवहत होकर साधनामागव में
अग्रसर हो रहे हैं । केिल छन्द विज्ञान के उवचत प्रयोग से ‘प्राण’ शुद्धि सहज ही हो जाती
हैं । केिल मानवसक जप में अन्त:करण की शुद्धि होगी और इच्छा शद्धि में िृद्धि होगी
मगर प्राणशुद्धि न होने के कारण वियाशद्धि वनबवल रह जाती हैं ।
(४)

श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

श्री चक्र में चक्रोुं का स्वरूप

-िुभगोिय स्तुती

महा लबन्िु चक्र


(१) आकार:- रि वबन्दु के भीतर गुप्त श्वेत वबन्दु । (२) रङ्ग:- श्वेत (३) खण्ड:-
वनगुवण (४) चक्र:- सृवष्ट-द्धस्थवत-सींहारमय अत: समवष्ट रूप। (५) िणायक्षर:- ‘ि’ एिीं ‘म’
का समवष्टरूप। (६) चक्र में स्थित मूि शस्ि:- पराशद्धि। (७) चक्रेश्वरी:- प्रकाश-
विमशव रूवपणी पराभट्टाररका। (८) शरीर-थिान:- ब्रह्मरन्ध्र। (९) शरीरथि चक्र:-
सहस्रदल कमल। (१०) अिथिा:- तुरीयातीतािस्था।

पुण्यानन्दनाि की दृलि:- प्रकाशैक स्वभाि परवशिभट्टारक रूप सूयव की रद्धियोीं


के समुह का विमशव रूपी स्वच्छ मुकुर में स्वस्वरूपािलोकनस्वरूप प्रवतकलन होने के
कारण तदु त्पन्न प्रवतप्रकाश द्वारा सुरम्य वचि रूपी दीिार पर ‘महालबन्िु ’ प्रकावशत होता
है । साराीं श महावबन्दु ही परतत्त्व का आरद्धिक रूप है ।

महावबन्दु मे परवशि (वनगुवणब्रह्म) अपने रद्धि जाल द्वारा वनमवल विमशव स्फुरण
शद्धि स्वरूपी दपवण में प्रवतवबद्धम्बत हो रहा है । उस प्रवतवबम्ब का प्रावतवबम्ब जब वचिमय
(ज्ञानस्वरूपी) वभवि पर पडता है तब ‘महालबन्िु का आलिभायि है’ यथा सूयव का प्रवतवबम्ब
दपवण में आता है और उस दपवण का प्रवतवबम्ब वभवि पर पडता है । तब वबन्दु रूप ग्रहण
करता है ।

महावबन्दु श्वेतलबन्िु है । यह चैतन्य ज्योलतलििंग भी कहा जाता है । इसे ही


‘कामरूपपीठ’ कहा जाता है । विमशव शद्धि वससृिा के कारण ‘वबन्दु ’ रूप धारण करती
है -
(क्रमश:)
(५)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

श्री रामनाम िेखन

-श्री अुंकुरभाई जोशी

कवलकाल में श्री भगिन्नाम जप महा-महा कल्याणप्रद माना गया है । इस विपरीत


समय में भी महामवहमामय नाम अपने ऐश्वयव में ज्ोीं का त्योीं प्रवतवष्ठत है ।
िैसे तो भगिान का नाम भाि कुभाि जैसे भी वलया जाय, कल्याणप्रद ही है , वकन्तु
उस नाम का शीघ्र और प्रत्यि आनींदरूप फल का अनुभि करना हो तो नामजप में
एकाग्रता अपेवित है । प्राय: साधको की वशकायत रहती है , की जप के समय एकाग्रता नहीीं
रहती। अत: शास्त्रकार महवषवओीं ने कृपापूिवक “वलद्धखता जप” का विधान वकया है ।

वलद्धखता जप का अथव है , लेखनपूिवक जप। इस प्रविया में हाथोीं से नाम का लेखन,


वजह्वा से नाम का जप, आँ खोीं से नाम का दशवन, मन से नाम का ध्यान यह सब बहुत ही
सहज रूप में साथ-साथ ही हो जाते है ; और मन की एकाग्रता सहज ही हो जाती है । सुधी
पाठक वलद्धखता जप अथिा मींत्रलेखन करके स्वयीं अनुभि करके दे ख ले , स्वयीं अनुभि हो
जाएगा इस में सींदेह नहीीं हैं ।

िैसे तो कई मींत्रो के लेखन का विधान प्राप्त होता है , वकन्तु सबसे अवधक सुगम एिीं
प्रचाररत श्री रामनाम लेखन है । पुराण-प्रमाण से यह लोकप्रवसि है वक श्री गणेशजी
रामनाम वलखकर तथा वलद्धखत नाम की पररिमा करके ही सभी पूज् दे िोीं मे अग्रगण्य
हुए है ।

बृहन्नारदीय पुराण का कहना है :-


स्मरणात्कीतयनाच्चैि श्रिणाल्लेखनािलप।

िशयनाद्ारणािे ि रामनामास्खिेििम॥

अथाव त रामनाम उसके स्मरण, वकतवन, श्रिण, दशवन, धारण और लेखन वकसी भी प्रकार से
अद्धखल-इष्ट प्रदायक है ।

तींत्रशास्त्रोीं में वलद्धखता जप अथिा मींत्रलेखन को एक विशेष अनुष्ठान का रूप वदया


गया है । िैसे तो वकसी भी प्रकार से वलखने से स्मरण करने से नाममवहमा का अनुभि होगा
ही; वकन्तु यवद उसे शास्त्रानुसार विवधपूिवक वकया जाय तो एक विशेष आनींद और शीघ्र
सफलता की प्राप्ती होती है । एक लि बार श्री रामनाम वलखने से एक पुरश्चरण पूणव होता
है ।
(६)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

श्री रामनाम का लेखन का आरीं भ शुभ-समय दे खकर करें । पहले वदन


सिवप्रथम नाममवहमा से ही अग्रपूज् बने श्री गणेशजी तथा अपने इष्टदे ि श्री सीतारामजी
का पूजन कर लें। बाकी के वदनोीं मे भूतशुद्धि कर अपने हृदय में श्री सीतारामजी का
पररकर सवहत ध्यान करकें मानवसक पूजन करें तो भी पयाव प्त है । श्री रामनाम लेखन के
पूिव प्रणि का उच्चारण करके लेखन प्रारीं भ करें । लेखन कायव पूरा होने के बाद भी प्रणि
का उच्चारण करें ।

मींत्रलेखन के समय शुिसन का प्रयोग करें ; वजस पर भोजनावद अन्य साीं साररक
कृत्य न होते होीं। शरीर शुि रखें , शुि भोजन करें , और हृदय में भगिान की शरणागती
स्वीकार करें । सींभि हो तो अष्टगींध की रोशनाई से , दावडम की कलम से भोजपत्र, शन, या
कािीरी कागद पर लेखन करें । यह सींभि न हो तो लाल स्याही की पेन से सामान्य कागद
पर भी मींत्रलेखन हो सकता है । सारी विवध में मुख्यता मींत्रलेखन की है ; अत: प्रवतकुलता
अथिा शुि अष्टगींध आवद द्रव्य की दु लवभता का बहाना कर मींत्रलेखन ही न करना अपने
आप को धोखा दे ना है । वजतने वनयमोीं का पालन हो िह करके भी नामलेखन अिश्य करें ।

लेखन का दशाींश हिन, उसका दशाीं श गोदु ग्ध से तपवण, उसका दशाींश जल से
माजवन और उसका दशाीं श ब्रह्मभोजन कराने से अनुष्ठान पूणव होता है । विशेष फल के वलए
अपने वलद्धखत रामनाम के पत्र के पन्नो को गेहीं के आटे में गोली बनाकर नावभ भर जल में
जाकर द्धस्थत होकर श्री रामानन्य वचि होकर एक एक करके सभी गोलीयोीं को जलप्रिाह
करें ।

उपरोि विधान रुद्रयामल तींत्र से उदधृत और अनेको महात्माओीं द्वारा अनुभूत है।
यह वसि प्रयोग है । जो अनुष्ठान रूप में न करके भी थोडी मात्रा में नामलेखन करना चाहें
िे भी यथासींभि वनयमोीं का पालन करके नाम लेखन अिश्य करें ; कवलयुग में केिल नाम
ही आधार है । कवलयुग केिल नाम आधारा।
रामनाम महाराज की जय।
(७)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

चैत्र-निरात्र अचयन लिलि

लत्रकुटा रहस्ये िशम पटिे

श्री भैरि बोले- हे दे वि! अब आज मैं वत्रकुटा का सारभूत विशेष रूप से गोपनीय
निरात्र पूजन की विवध कहता हँ ॥१॥
हे पािवती! चैत्रमास के शुक्ल पि में प्रारि के नौ वदनोीं में वत्रकुटा का पूजन करना
चावहये अन्यथा वसद्धिहावन होती है ॥२॥

हे महे श्वरी! मन्त्री शु क्ल पि की प्रवतपद वतवथ को शुि ब्राह्म मुहतव में शयन से
उठकर स्नानावद करके पूजास्थल पर जािे तथा प्रारि में वनत्यकमव आवद करके यन्त्र
वलखे॥३॥
वबन्दु से युि वत्रकोण, षटकोण, अष्टकोण, अष्टदल कमल, तथा भूपुर से युि
निरात्र उपासना सींबींधी श्रीचि बनािे। ( यन्त्र वमट्टी की िेवद पर कुमकुमावद से बनाना है
यवद वमट्टी की िेवद नहीीं बना सकते तो चौकी पर ताम्बे का पत्र रखकर उस पर या रे िी
िस्त्र पर बनाये)॥४॥

निरात्र उपासना में वत्रकुटा के दविणामूवतव ऋवष, पींद्धि छन्द, वत्रकुटा दे िता, ऐीं
बीजम, सौ: शद्धि, क्लीीं कीलक तथा धमावथवकाममोि में विवनयोग बताया गया है ॥५-६॥

हे दे िेवश! हे वशिे! हे ईश्वरी! पहले सङ्कल्प करके ऋष्यावद न्यास, बृहत्षोढान्यास,


श्रृङखलान्यास आवद एिीं भूतशुद्धि करने के बाद साधक यन्त्र पूजन आरीं भ करें ॥७-८॥

हे दे वि! गणेश, नन्दी, कुमार एिीं िीरभद्र की पीले पुष्ोीं, गन्ध, धूप आवद से चतुरस्र
में पूजन करें ॥९॥

हे पािवती! तत्पश्चात अष्टदल कमल की आठ पीं खुडीयोीं पर िामाितव िम से ब्रह्माणी,


िैष्णिी, कौमारी, अपरावजता, िाराही, नारवसींही, ऐिी, एिीं भैरिी आवद आठ दे वियोीं का
पूजन करें ॥१०॥

हे दे वि! उिम साधक सिैश्वयवप्रदा दे िी, सिवज्ञानमयी, िवशनी िाग्दे िता,


सिवविघ्नवनिाररणी, सिववसद्धिप्रदा, तथा भगमावलनी दे िीयोीं का िामाितव िम से षटकोण के
छहोीं कोणोीं में पूजन करें ॥११-१२॥
(८)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

हे दे वि! तदु परान्त साधक ईशानावद िम से वत्रकोण के तीनो कोणोीं में वत्रपुरा,
वत्रपुरेशानी एिीं वत्रपुरमावलनी दे िीयोीं की पूजन करें ॥१३॥
तब उिम साधक सिाव नन्दमय बैन्दिचि में षोडशािरी श्रीविद्या, वत्रकुटे शी,
महावत्रपुरसुन्दरी, कामेश्वरी तथा कामराज (कामेश्वर भैरि) का गन्धाित, पुष्, धूप ,वदप एिीं
तपवणावद से पूजन करें ॥१४-१५॥

हे महे श्वरी! उसी स्थान पर सोना, चाँ दी, ताँ बा, या वमट्टी का नया उिम घट लाकर
उसे जल से भरकर उसमें “ गङ्गे च यमुने चैि” मन्त्र से तीथो का आिाहन करे , तब उसे
यन्त्र के वबन्दु पर स्थावपत कर उसमें प्राण-प्रवतष्ठा करें ॥१६-१८॥ ( जो आगे यींत्र िेवद पर
या चौकी पर बनाया गया उसकी उपरोि पूजा करके यींत्र के वबन्दु पर चािल की ढे री
करके उस पर घट रखना है ।

हे वशिे! उस घट में वशि के सवहत दे िी का आिाहन और उनकी प्राण-प्रवतष्ठा


करके इिावद लोकपालोीं की िमश: घट के पूिव, दविण, पवश्चम, उिर ईशानावद, उर्ध्व एिीं
अध: आवद दशो वदशाओीं मे पूजा कर, घटमध्य में निदु गाव ओीं का पूजन करें ॥१९-२०॥
उस समय (१) शैलपुत्री, (२) ब्रह्मचाररणी, (३) चींडघींटा, (४) कूष्माण्डा, (५)
स्कन्दमाता, (६) कात्यायनी, (७) कालरात्री, (८) महागौरी, (९) दे िदू ती (वसद्धिदात्री) इन
नि-दू गाव ओीं का पूजन करें ॥२१-२२॥
तब घटत्रय से मूलविद्या, वत्रकुट, कामराज, और श्रीविद्या षोडशािरी का उन घटोीं
पर गन्धावद, धूप, वदप, पु ष्, नैिेद्य, आचमनीय, ताम्बूल, छत्र, चामर से पूजन करें ॥२३-२४॥

हे दे वि! मूल विद्या का तीन बार उच्चारण कर मूलमन्त्र षोडशािरी मन्त्र से घट के


मूल में िेदी पर उपयुवि िस्तुएँ समवपवत करें ॥२५॥
हे दे वि! तब उस घट के सन्मुख पाँ च या तीन कुमारी कन्याओीं का पाद्य, अर्घ्व,
मधुपकव, गन्ध, अित, पुष्, माला वदव्य आभूषण तथा श्रेष्ठ पायस (खीर) से उनका एिीं दे िी
का विवधित पूजन कर जप करें ॥२६-२७॥
हे वशिे! तब श्रेष्ठ साधक को जप का दशाीं श होम करना चावहये। इसके वलए एक
वलखकर श्रीविद्या की पूजा करे ॥२८-२९॥
(९)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

रीं राीं रुीं अग्नये स्वाहा, ह्ाीं ह्ीीं ह्ू: जटाभार भासुर अग्नएवह प्रज्ज्वल हुीं फट स्वाहा मन्त्रोीं
से अवग्न दे िता का आिाहन कर अवग्न मध्य में दू ध, सुन्दर वतल, पुष्ावद से होम करें तथा
दू ध, मधु, ि वमश्री वमवश्रत जल से पहले आिावहत दे िी और दे िताओीं का तपवण कर, ब्राह्मण
भोजन करािे तथा उन्हें दविणा से सन्तुष्ट करें ॥३१॥
तत्पश्चात उस घट के सम्मुख ही विशेष किच स्तोत्रावद का पाठ कर जप को वशिा
के सवहत गुरु एिीं श्रीदे िी को समवपवत करें ॥३२॥

हे महे शावन! जो इस प्रकार महादे िी की निमी पयवन्त पूजा करता है , िह सािात


महे श्वर रूप हो जाता है ॥३३॥
निमी निरात्र में उपलब्ध पुष्ोीं को दे िता और दे िी के वलए नि मुद्राओीं से घट-
स्थान में वनिेवदत कर दे िी को साष्टाङ्ग दण्डित कर योनीमुद्रा से प्रणाम करें ॥३४॥

जो मात्रा, अिर, वबन्दु , शब्द समूह या िणवन हावदव क भद्धि या पूिव परम्परा प्राप्त
भद्धि से रवहत या युि, व्यि अथिा अव्यि रूप से ज्ञान से या अज्ञान से तुम्हारे इस
पूजा मे पढा गया या न पढा गया अींश हैं िह सब पूणवता को प्राप्त हो। असुरगणो में प्रवतवदन
इसी विवध से उपासना की जाती है ऐसी प्रवसद्धि है ॥३५=३६॥

इस प्रकार निरात्र के वदनोीं की पूजा विवध को ध्यान में रखकर िवणवत यह पटल
अत्यन्त गोपनीय तथा सभी तींत्रोीं मे सुरिीत है। यह पूजा करोडो लाख वनत्याचाव का फल
दे ने िाली है ॥३७॥

हे दे वि! जो इस प्रकार के समय में उपयुवि रीवत से परमेश्वरी भगिती का पूजन


करता है िह ऐश्वयवयुि हो सींसार में भैरि के समान विचरण करता हैं ॥३८॥

हे महे श्वरर! वनत्याचवन, प्याउ का दान, गींगा स्नान, हाथी, घोडे , रथ, तथा भूवम आवद
के सूयवग्रहण के समय वकये गये दान आवद निरात्र पूजन की १६िीीं कला के तुल्य भी नहीीं
हैं ॥३९॥

यह पूजा अपात्र हे तु प्रकावशत न करने योग्य है वजस वकसी को न दे ने योग्य तथा


सिवथा गोपनीय है तुम्हारे भद्धिभाि के कारण तुमसे कहा गया है ॥४०॥

श्री रुद्रयामले वत्रकुटारहस्ये चैत्रमास निरात्राचवनविवध नाम दशमपटल:


(१०)

प्रकाशक:- श्री कालिका लिद्याराज्ञी मुंलिर

नैलमलत्तक पूजा माि पौणयम्याम कृत्यम

चैत्र माि पूलणयमा पूजा

श्री अरुणभाई ओररस्सा के िुंग्रह में िे


चैत्र मास की पूवणवमा के वदन भगिती की दमनक ( वहीं वद-दौना, गुजराती डमरो ) से
पूजा होती है यथा:-

चतुदवशी की सुबह में वनत्यकमव से वनिृि होकर अच्छा सा दौना लेने जाए जब दौना
तोडे या लाए तब ये श्लोक बोले:-
ॐ लशिप्रिाि िम्भूत अत्र िलिलहतो भि।

िे िीकायय िमुलिश्य नेतव्योऽलि लशिाज्ञया॥


उसे अच्छी तरह से धोकर ताँ बे की प्लेट में रखें और अष्टाङ्ग आदी उच्चार करके
सींकल्प करे ( दौना पूजन का) वफर उस प्लेट मे रखे दौने की पञ्चोपचार पूजा करें यथा:-

ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। गन्धुं िमपययालम।

ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। पुष्पालण िमपययालम।

ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। िूपुं आघ्रापयालम।

ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। लिपुं िशययालम।


ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। नैिेद्युं लनिेियालम।
ॐ ऐुं ह्ी ुं श्री ुं िमनथि रलतमन्मिाभ्याुं नम:। ताम्बूिालि िमस्तोपचारान
पररकल्पयालम।
इस तरह से पूजा करने बाद दौने को वकसी अच्छे भेज युि कपडे से ढक कर
स्वच्छ स्थान में रख दे िे।

पूवणवमा के वदन भगिती की निािरण पूजा दोनो कुल के साधक इस दौने से करें ।
समयाभािे ललीता सहस्रनाम, ककारावद कावल सहस्र नाम या श्री और काली दोनो वक
वत्रशती से अचवना करें । १०८ नाम से भी अचवना कर सकते हैं । श्री बाला भगिती की भी या
जो स्वरूप सेिा में है उसकी पूजा इस दौने से कर सकते हैं।

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