Professional Documents
Culture Documents
श्री लिद्याराज्ञी
लिमालिक ई पत्रीका
अहमिाबाि, गुजरात
चि िूरभाष:- ९५३७७३००९५
(२)
नोट:- इि पत्रीका में प्रकालशत कोई भी िेख पर कोई कोपीराईट नही ुं हैं। लजिको
कोई भी िेख पत्रीका में िे मुलित करना हैं िो कर िकते हैं: क्योलक िो एक प्रकार
िे भगिती की िेिा ही करे गा। और भगिती के ज्ञान-लिज्ञान का जीतना प्रिार
प्रचार हो िो बहोत उत्तम कायय हैं।
ज्ञातव्य:- अगर लकिी को कोई भी िेख कौि लिद्ाुंत, श्रीलिद्या, िशमहालिद्या, एिुं
तन्त्र पे लिखकर भेजना है िो भेज िकते है। िमयानुिार और अगर श्री लिद्याराज्ञी
िुंपािक मुंडि को अच्छा िगा तो अिश्य प्रकाशीत लकया जायेगा। भाषा लहन्दी
िे िनागरी रहेगी।
जो इच्छा का विषय है उसे ही “इष्ट” कहा जाता है । वजसके जीिन में कोई इष्ट नहीीं
है उसके पास चाहे वकतनी भी विद्या, बुद्धि, धन, सींपवि क्ोीं न हो अन्तत: उसका अवनष्ट
होने की सींभािना है । अत: जो हमारे जीिन का मुख्य ध्येय है , जो हमारी सिवश्रेष्ठ इच्छा है
िही हमारे दे ि हैं ईश्वर हैं परमात्मा हैं । चाहे जो कुछ कह लें िह िही हैं । हमारे चारोीं और
जो असीम जगत है , असीम आकाश है – उसमें सब प्रकार की शद्धि प्रचुर प्रमाण में भरी
पडी हैं । हम अगर वदिारात्री यह सींकल्प करते रहें वक हमारे हाथ में इतनी शद्धि आ जाय
वक एक पत्थर पर मुक्का मारें तो पत्थर चूर चूर हो जाय तो एक समय हमारी सींकल्प-
शद्धि के पररणाम रूप हममें (हाथ में) इतनी प्राणशद्धि केद्धित हो जाएगी वक हम पत्थर
को तोडने में सफल हो सकते हैं । इसी प्रकार हम हमारे शरीर में िाणी, मन, बुद्धि, अहीं कार
इत्यावद में – स्थूल सूक्ष्म कोई भी अींग प्रत्यींग में इच्छाशद्धि को केद्धित करें गे तो बारम्बार
सींकल्पिेग अथिा इच्छाशद्धि के अनुरुप हमारे िे अींग-प्रत्यींग शद्धिशाली बनते जायेंगे।
जैसे आकाश में विवछन्न विविप्त बादल होते हैं िे जब तक घनीभूत न हो जाए तबतक िषाव
में पररणत होकर नीचे नहीीं आ सकते , िैसे बादल उपर ही उपर विद्धच्छन्न रुप में अस्त-
व्यस्त हो जाते हैं । इसी प्रकार हमारे िैयद्धिक या सामुवहक रुप से बार बार आितवन एिीं
वचींतन के द्वारा पयाव प्त मात्रा में घनीभूत न करले तब तक उस इच्छारुप ध्येय की वसद्धि या
सफलता नहीीं हो पाती। इसीवलए प्रत्येक मनुष्य को व्यद्धिगत अथिा सामूवहक रूप दे श
जावत समाज की वकसी न वकसी इच्छा को इष्ट बनाकर उसकी सफलता के वलए िायुमींडल
से शद्धि का आहरण कर उसे केद्धित करने के वलए व्यद्धिगत या सामूवहक प्रयास में
विद्यमान पयाव प्त सूक्ष्म गरमी शरीरस्थ िात वपि कफ आवद दोषो को नाडीजाल से पृथक
करके मलमूत्र के द्वारा एिीं मुख के द्वारा कफ वपि वक उल्टी के रूप में एिीं डकार रुप से
सब दोष धीरे धीरे शरीर से बहार वनकाल दे ती है। पररणामत: शरीर हमेशा के वलए वनरोगी
हो जाता है । यह हमारा स्वत: अनुभि है एिीं हमारे यहाीं जो भी साधक आरीं भ से ही उच्चस्वर
में जप करते रहे हैं उनके भीतर जो कुछ भी छोटी बडी शारीररक वशकायत या रोग थे
उनका नाश हुआ है और उनके अलािा अब िे सिवथा रोगरवहत होकर साधनामागव में
अग्रसर हो रहे हैं । केिल छन्द विज्ञान के उवचत प्रयोग से ‘प्राण’ शुद्धि सहज ही हो जाती
हैं । केिल मानवसक जप में अन्त:करण की शुद्धि होगी और इच्छा शद्धि में िृद्धि होगी
मगर प्राणशुद्धि न होने के कारण वियाशद्धि वनबवल रह जाती हैं ।
(४)
-िुभगोिय स्तुती
महावबन्दु मे परवशि (वनगुवणब्रह्म) अपने रद्धि जाल द्वारा वनमवल विमशव स्फुरण
शद्धि स्वरूपी दपवण में प्रवतवबद्धम्बत हो रहा है । उस प्रवतवबम्ब का प्रावतवबम्ब जब वचिमय
(ज्ञानस्वरूपी) वभवि पर पडता है तब ‘महालबन्िु का आलिभायि है’ यथा सूयव का प्रवतवबम्ब
दपवण में आता है और उस दपवण का प्रवतवबम्ब वभवि पर पडता है । तब वबन्दु रूप ग्रहण
करता है ।
िैसे तो कई मींत्रो के लेखन का विधान प्राप्त होता है , वकन्तु सबसे अवधक सुगम एिीं
प्रचाररत श्री रामनाम लेखन है । पुराण-प्रमाण से यह लोकप्रवसि है वक श्री गणेशजी
रामनाम वलखकर तथा वलद्धखत नाम की पररिमा करके ही सभी पूज् दे िोीं मे अग्रगण्य
हुए है ।
िशयनाद्ारणािे ि रामनामास्खिेििम॥
अथाव त रामनाम उसके स्मरण, वकतवन, श्रिण, दशवन, धारण और लेखन वकसी भी प्रकार से
अद्धखल-इष्ट प्रदायक है ।
मींत्रलेखन के समय शुिसन का प्रयोग करें ; वजस पर भोजनावद अन्य साीं साररक
कृत्य न होते होीं। शरीर शुि रखें , शुि भोजन करें , और हृदय में भगिान की शरणागती
स्वीकार करें । सींभि हो तो अष्टगींध की रोशनाई से , दावडम की कलम से भोजपत्र, शन, या
कािीरी कागद पर लेखन करें । यह सींभि न हो तो लाल स्याही की पेन से सामान्य कागद
पर भी मींत्रलेखन हो सकता है । सारी विवध में मुख्यता मींत्रलेखन की है ; अत: प्रवतकुलता
अथिा शुि अष्टगींध आवद द्रव्य की दु लवभता का बहाना कर मींत्रलेखन ही न करना अपने
आप को धोखा दे ना है । वजतने वनयमोीं का पालन हो िह करके भी नामलेखन अिश्य करें ।
लेखन का दशाींश हिन, उसका दशाीं श गोदु ग्ध से तपवण, उसका दशाींश जल से
माजवन और उसका दशाीं श ब्रह्मभोजन कराने से अनुष्ठान पूणव होता है । विशेष फल के वलए
अपने वलद्धखत रामनाम के पत्र के पन्नो को गेहीं के आटे में गोली बनाकर नावभ भर जल में
जाकर द्धस्थत होकर श्री रामानन्य वचि होकर एक एक करके सभी गोलीयोीं को जलप्रिाह
करें ।
उपरोि विधान रुद्रयामल तींत्र से उदधृत और अनेको महात्माओीं द्वारा अनुभूत है।
यह वसि प्रयोग है । जो अनुष्ठान रूप में न करके भी थोडी मात्रा में नामलेखन करना चाहें
िे भी यथासींभि वनयमोीं का पालन करके नाम लेखन अिश्य करें ; कवलयुग में केिल नाम
ही आधार है । कवलयुग केिल नाम आधारा।
रामनाम महाराज की जय।
(७)
श्री भैरि बोले- हे दे वि! अब आज मैं वत्रकुटा का सारभूत विशेष रूप से गोपनीय
निरात्र पूजन की विवध कहता हँ ॥१॥
हे पािवती! चैत्रमास के शुक्ल पि में प्रारि के नौ वदनोीं में वत्रकुटा का पूजन करना
चावहये अन्यथा वसद्धिहावन होती है ॥२॥
हे महे श्वरी! मन्त्री शु क्ल पि की प्रवतपद वतवथ को शुि ब्राह्म मुहतव में शयन से
उठकर स्नानावद करके पूजास्थल पर जािे तथा प्रारि में वनत्यकमव आवद करके यन्त्र
वलखे॥३॥
वबन्दु से युि वत्रकोण, षटकोण, अष्टकोण, अष्टदल कमल, तथा भूपुर से युि
निरात्र उपासना सींबींधी श्रीचि बनािे। ( यन्त्र वमट्टी की िेवद पर कुमकुमावद से बनाना है
यवद वमट्टी की िेवद नहीीं बना सकते तो चौकी पर ताम्बे का पत्र रखकर उस पर या रे िी
िस्त्र पर बनाये)॥४॥
निरात्र उपासना में वत्रकुटा के दविणामूवतव ऋवष, पींद्धि छन्द, वत्रकुटा दे िता, ऐीं
बीजम, सौ: शद्धि, क्लीीं कीलक तथा धमावथवकाममोि में विवनयोग बताया गया है ॥५-६॥
हे दे वि! गणेश, नन्दी, कुमार एिीं िीरभद्र की पीले पुष्ोीं, गन्ध, धूप आवद से चतुरस्र
में पूजन करें ॥९॥
हे दे वि! तदु परान्त साधक ईशानावद िम से वत्रकोण के तीनो कोणोीं में वत्रपुरा,
वत्रपुरेशानी एिीं वत्रपुरमावलनी दे िीयोीं की पूजन करें ॥१३॥
तब उिम साधक सिाव नन्दमय बैन्दिचि में षोडशािरी श्रीविद्या, वत्रकुटे शी,
महावत्रपुरसुन्दरी, कामेश्वरी तथा कामराज (कामेश्वर भैरि) का गन्धाित, पुष्, धूप ,वदप एिीं
तपवणावद से पूजन करें ॥१४-१५॥
हे महे श्वरी! उसी स्थान पर सोना, चाँ दी, ताँ बा, या वमट्टी का नया उिम घट लाकर
उसे जल से भरकर उसमें “ गङ्गे च यमुने चैि” मन्त्र से तीथो का आिाहन करे , तब उसे
यन्त्र के वबन्दु पर स्थावपत कर उसमें प्राण-प्रवतष्ठा करें ॥१६-१८॥ ( जो आगे यींत्र िेवद पर
या चौकी पर बनाया गया उसकी उपरोि पूजा करके यींत्र के वबन्दु पर चािल की ढे री
करके उस पर घट रखना है ।
रीं राीं रुीं अग्नये स्वाहा, ह्ाीं ह्ीीं ह्ू: जटाभार भासुर अग्नएवह प्रज्ज्वल हुीं फट स्वाहा मन्त्रोीं
से अवग्न दे िता का आिाहन कर अवग्न मध्य में दू ध, सुन्दर वतल, पुष्ावद से होम करें तथा
दू ध, मधु, ि वमश्री वमवश्रत जल से पहले आिावहत दे िी और दे िताओीं का तपवण कर, ब्राह्मण
भोजन करािे तथा उन्हें दविणा से सन्तुष्ट करें ॥३१॥
तत्पश्चात उस घट के सम्मुख ही विशेष किच स्तोत्रावद का पाठ कर जप को वशिा
के सवहत गुरु एिीं श्रीदे िी को समवपवत करें ॥३२॥
जो मात्रा, अिर, वबन्दु , शब्द समूह या िणवन हावदव क भद्धि या पूिव परम्परा प्राप्त
भद्धि से रवहत या युि, व्यि अथिा अव्यि रूप से ज्ञान से या अज्ञान से तुम्हारे इस
पूजा मे पढा गया या न पढा गया अींश हैं िह सब पूणवता को प्राप्त हो। असुरगणो में प्रवतवदन
इसी विवध से उपासना की जाती है ऐसी प्रवसद्धि है ॥३५=३६॥
इस प्रकार निरात्र के वदनोीं की पूजा विवध को ध्यान में रखकर िवणवत यह पटल
अत्यन्त गोपनीय तथा सभी तींत्रोीं मे सुरिीत है। यह पूजा करोडो लाख वनत्याचाव का फल
दे ने िाली है ॥३७॥
हे महे श्वरर! वनत्याचवन, प्याउ का दान, गींगा स्नान, हाथी, घोडे , रथ, तथा भूवम आवद
के सूयवग्रहण के समय वकये गये दान आवद निरात्र पूजन की १६िीीं कला के तुल्य भी नहीीं
हैं ॥३९॥
चतुदवशी की सुबह में वनत्यकमव से वनिृि होकर अच्छा सा दौना लेने जाए जब दौना
तोडे या लाए तब ये श्लोक बोले:-
ॐ लशिप्रिाि िम्भूत अत्र िलिलहतो भि।
पूवणवमा के वदन भगिती की निािरण पूजा दोनो कुल के साधक इस दौने से करें ।
समयाभािे ललीता सहस्रनाम, ककारावद कावल सहस्र नाम या श्री और काली दोनो वक
वत्रशती से अचवना करें । १०८ नाम से भी अचवना कर सकते हैं । श्री बाला भगिती की भी या
जो स्वरूप सेिा में है उसकी पूजा इस दौने से कर सकते हैं।