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अनुकम

पातः समरण ीय प ूजयप ाद


संत श ी आसा रामजी ब ापू के
सतस ंग पवच न

जीवन िवकास
शी योग व ेदान त स ेवा स िमित
संत शी आसारा मजी आ शम ,
साबर मित , अमदावाद
िपन कोडः 380005
द ू र भाषः 7505010,7505011 अनुकम
पूजय बाप ू जी क े
आश ीवव चन
इस छोटी सी पुिसतका मे वो रत भरे हुए है जो जीवन को िचनमय
बना दे । िहटलर और िसकंदर की उपलििियाँ और यश उनके आगे
अतयंत छोटे िदखने लगे।
तुम अपने को सारे िवश मे वयाप अनभ
ु व करो। इन िवचार रतो
को बार-बार िवचारो। एकांत मे शांत वातावरण मे इन बनिनो को
दोहराओ। और.... अपना खोया हुआ खजाना अवशय अवशय पाप कर
सकोगे इसमे तिनक भी संदेह नहीं है ।
करो िहममत......! मारो छलांग......! कब तक िगडिगडाते रहोगे? हे
भोले महे श ! तुम अपनी मिहमा मे जागो। कोई कििन बात नहीं है ।
अपने सामाजय को सँभालो। ििर तुमहे संसार और संसार की
उपलििियाँ, सवगव और सवगव के सुख तुमहारे कृ पाकांकी महसूस होगे। तुम
इतने महान हो। तुमहारा यश वेद भी नहीं गा सकते। कब तक इस दे ह
की कैद मे पडे रहोगे?
ॐ.......! ॐ......!! ॐ.......!!!
उिो..... जागो......! बार-बार इन वचनो मे अपने िचत को सराबोर
कर दो।
।। ॐ शांितः ।।अनुकम
िनव ेदन
बूँद-बूँद से सिरता और सरोवर बनते है , ऐसे
ही छोटे -छोटे पुणय महापुणय बनते है । छोटे -छोटे
सदगुण समय पाकर मनुषय मे ऐसी महानता
लाते है िक वयिि बनिन और मुिि के पार
अपने िनज सवरप को िनहारकर िवशरप हो
जाता है ।
िजन कारणो से वयिि का जीवन अिःपतन की
ओर जाता है वे कारण थोडे -से इस पुसतक मे
दशाय
व े है । िजन उपायो से वयिि का जीवन
महानता की ओर चलता है वे उपाय, संतो के,
शासो के वचन और अनुभव चुनकर आपके हाथ
मे पसतुत करते हुए हम िनय हो रहे है ।अनुकम
शी य ोग व ेदानत स े वा सिमित
अमद ाबाद आ शम
अनुकम
जीवन िवकास। मानिसक आघात, िखंचाव, घबडाहट, 'टे नशन' का
पभाव।
भाव का िवकास। संगीत का पभाव।
पतीक का पभाव। लोक-संपकव व सामािजक वातावरण का पभाव।
भौितक वातावरण का पभाव। आहार का पभाव।
शारीिरक िसथित का पभाव। सिलता का रहसय।
सवातंतय का माग।व इिनिय िवजयः सुख व सामथयव का सोत।
जाग मुसाििर। आतम-कलयाण मे िवलमब कयो?
परिहत मे िनिहत सविहत। सचचा िनी।
आतमदिि का िदवय अंजन। सचची शरणागित।
समथव की लीला। सचचा वशीकरण मंत।
बडो की बडाई। नारायण मंत।
िववेक कीिजए। कुछ उपयोगी मुिाएँ।
िशिवर की पूणाह
व ु ित के समय अंतरं ग सािको बीजमंतो के दारा सवासथय-सुरका।
को पूजय बापू का समािि भाषा का संकेत।
जी वन िवकास
हमारे शारीिरक व मानिसक आरोगय का आिार हमारी जीवनशिि है । वह 'पाण-शिि' भी
कहलाती है ।
हमारे जीवन जीने के ढं ग के मुतािबक हमारी जीवन-शिि का हास या िवकास होता है ।
हमारे पाचीन ऋिष-मुिनयो ने योग-दिि से, आंतर-दिि से व जीवन का सूकम िनरीकण करके
जीवन-शिि िवषयक गहनतम रहसय खोज िलये थे। शुद, साििवक, सदाचारी जीवन और िवििवत ्
योगाभयास के दारा जीवन-शिि का िवकास करके-कैसी कैसी िरिद-िसिदयाँ हािसल की जा सकती
है , आतमोननित के िकतने उतुग
ं िशखरो पर पहुँचा जा सकता है इसकी झाँकी महिषव पतंजिल के
योगदशन
व तथा अधयातमिवदा के शासो से िमलती है ।
योगिवदा व बहिवदा के इन सूकमतम रहसयो का लाभ जाने अनजाने मे भी आम जनता
तक पहुँच जाए इसिलए पजावान ऋिष-महिषय
व ो ने सनातन सतय की अनुभूित के िलए जीवन-
पणाली बनाई, िविि िनषेि का जान दे ने वाले शास और िविभनन समिृतयो की रचना की। मानव
यिद ईमानदारी से शास िविहत मागव से जीवनयापन करे तो अपने आप उसकी जीवन-शिि
िवकिसत होती रहे गी, शिि के हास होने के पसंगो से बच जायेगा। उसका जीवन उतरोतर उननित
के मागव पर चलकर अंत मे आतम-िवशािनत के पद पर पहुँच जायेगा।
पाचीन काल मे मानव का अनतःकरण शुद था, उसमे पिरषकृ त शदा का िनवास था। वह गुर और
शासो के वचनो के मुतािबक चल पडता था आतमोननित के मागव पर। आजकल का मानव
पयोगशील एवं वैजािनक अिभगमवाला हो रहा है । िवदे श मे कई बुिदमान, िवदान, वैजािनक वीर
हमारे ऋिष-महिषय
व ो के आधयाितमक खजाने को पयोगशील, नये अिभगम से खोजकर िवश के
समक पमािणत कर रहे है िक खजाना िकतना सतय और जीवनोपयोगी है ! डॉ. डायमणड ने
जीवन-शिि पर गहन अधययन व पयोग िकये है । िकन-िकन कारणो से जीवन-शिि का िवकास
होता है और कैसे-कैसे उसका हास होता रहता है यह बताया है ।अनुकम
िनमनिलिखत बातो का पभाव हमारी जीवन शिि पर पडता है ः
मानिसक आघात, िखंचाव, घबडाहट, टे शन। भाव।
संगीत। पतीक।
लोक-संपकव व सामािजक वातावरण। भौितक वातावरण।
आहार। शारीिरक िसथित।

मानिसक आघात , िखंचाव , घबडाहट , 'टेन शन ' का प भाव।


डॉ डायमणड ने कई पयोग करके दे खा िक जब कोई वयिि अचानक िकसी तीव आवाज
को सुनता है तो आवाज के आघात के कारण उसी समय उसकी जीवन-शिि कीण हो जाती है ,
वह घबडा जाता है । वन मे वनकेसरी िसंह गजन
व ा करता है तब हिरणािद पािणयो की जीवनशिि
कीण हो जाती है । वे डर के मारे इिर उिर भादौड करते है । िसंह को िशकार पाने मे जयादा
पिरशम नहीं करना पडता।
िकसी डॉकटर को अपने िकसी मरीज से सनतोष नहीं है । डॉकटर से कहा जाए िक वह
मरीज आपसे िमलना चाहता है तो डॉकटर की जीवनशिि कीण होने लगती है । उससे कह िदया
जाए िक तुमहारी कसौटी की जा रही है ििर भी जीवन-शिि का हास रकता नहीं। डायमणड ने
यंतो के दारा दे खा िक अगर डॉकटर अपनी िजहा का अग भाग तालुसथान मे, दाँतो से करीब
आिा से.मी. पीछे लगाकर रखे तो उसकी जीवनशिि कम होने से बच जाती है ।
तालुसथान मे िजहा लगाने से जीवन-शिि केिनित हो जाती है । इसीिलए पाचीन काल से
ही योगीजन तालुसथान मे िजहा लगाकर जीवन-शिि को िबखरने से रोकते रहे होगे। डॉ.
डायमणड ने मतजप एवं धयान के समय इस पिकया से िजन सािको की जीवन-शिि केिनित
होती थी उनमे जप-धयान से शिि बढ रही थी, वे अपने को बलवान महसूस कर रहे थे। अनय वे
सािक जो इस िकया के िबना जप-धयान करते थे उन सािको की अपेका दब
ु ल
व ता महसूस करते
थे।
िजहा को जब तालुसथान मे लगाया जाता है तब मिसतषक के दाये और बाये दोनो भागो
मे सनतुलन रहता है । जब ऐसा सनतुलन होता है तब वयिि का सवाग
ा ी िवकास होता है ,
सजन
व ातमक पविृत िखलती है , पितकूलताओं का सामना सरलता से हो सकता है । जब सतत
मानिसक तनाव-िखंचाव, घबडाहट, टे नशन का समय हो तब िजहा को तालुसथान से लगाये रखने
से जीवन-शिि कीण नहीं होती। शिि सुरका यह एक अचछा उपाय है ।
जो बात आज वैजािनक िसद कर रहे है वह हमारे ऋिष-मुिनयो ने पाचीन काल से ही
पयोग मे ला दी थी। खेद है िक आज का मानव इसका िायदा नहीं उिा रहा है ।
कुदरती दशय दे खने से, पाकृ ितक सौनदयव के िचत दे खने से, जलरािश, सिरता-सरोवर-सागर
आिद दे खने से, हिरयाली व वन आिद दे खने से, आकाश की ओर िनहारने से हमारे दाये-बाये दोनो
मिसतषको को संतुिलत होने मे सहायता िमलती है । इसीिलए हमारी दे वी-दे वताओं के िचतो के
पीछे उस पकार के दशय रखे जाते है ।
कोई िपय कावय, गीत, भजन, शोक आिद का वाचन, पिन उचचारण करने से भी जीवन-शिि का
संरकण होता है ।अनुकम
चलते वि दोनो हाथ आगे पीछे िहलाने से भी जीवन-शिि का िवकास होता है ।
भाव का िव कासः
ईषयाव, घण
ृ ा, ितरसकार, भय, कुशंका आिद कुभावो से जीवन-शिि कीण होती है । िदवय पेम,
शदा, िवशास, िहममत और कृ तजता जैसे भावो से जीवन-शिि पुि होती है । िकसी पश के उतर मे
हाँ कहने के िलए जैसे िसर को आगे पीछे िहलाते है वैसे िसर को िहलाने से जीवन-शिि का
िवकास होता है । नकारातमक उतर मे िसर को दायाँ, बायाँ घुमाते है वैसे िसर को घुमाने से
जीवन शिि कम होती है ।
हँ सने से और मुसकराने से जीवन शिि बढती है । इतना ही नहीं, हँ सते हुए वयिि को या
उसके िचत को भी दे खने से जीवन-शिि बढती है । इसके िवपरीत, रोते हुए उदास, शोकातुर वयिि
को या उसके िचत को दे खने से जीवन शिि का हास होता है ।
वयिि जब पेम से सराबोर होकर 'हे भगवान ! हे खुदा ! हे पभु ! हे मािलक ! हे ईशर !
कहते हुए अहोभाव से 'हिर बोल' कहते हुए हाथो को आकाश की ओर उिाता है तो जीवनशिि
बढती है । डॉ. डायमणड इसको 'थायमस जेसचर' कहते है । मानिसक तनाव, िखंचाव, दःुख-शोक,
टे नशन के समय यह िकया करने से और 'हदय मे िदवय पेम की िारा बह रही है ' ऐसी भावना
करने से जीवन-शिि की सुरका होती है । कुछ शिद ऐसे है िजनके सुनने से िचत मे िवशािनत
िमलती है , आननद और उललास आता है । िनयवाद दे ने से, िनयवाद के िवचारो से हमारी जीवन-
शिि का िवकास होता है । ईशर को िनयवाद दे ने से अनतःकरण मे खूब लाभ होता है ।
िम. िडलंड कहते है - "मुझे जब अिनिा का रोग घेर लेता है तब मै िशकायत नहीं करता
िक मुझे नींद नहीं आती.... नींद नहीं आती। मै तो परमातमा को िनयवाद दे ने लग जाता हूँ, हे
पभु ! तू िकतना कृ पािनिि है ! माँ के गभव मे था तब तूने मेरी रका की थी। मेरा जनम हुआ तो
िकतना मिुर दि
ू बनाया ! जयादा िीका होता तो उबान आती, जयादा मीिा होता तो डायिबटीज
होता। न जयादा िं डा न जयादा गम।व जब चाहे िजतना चाहे पी िलया। बाकी वहीं का वहीं
सुरिकत। शुद का शुद। माँ हरी सिजी खाती है और शेत दि
ू बनाती है । गाय हरा घास खाती है
और शेत दि
ू बनाती है । वाह पभु ! तेरी मिहमा अपरं पार है । तेरी गिरमा का कोई बयान नहीं
कर सकता। तूने िकतने उपकार िकये है हम पर ! िकतने सारे िदन आराम की नींद दी ! आज के
िदन नींद नहीं आयी तो कया हजव है ? तुझको िनयवाद दे ने का मौका िमल रहा है ।" इस पकार
िनयवाद दे ते हुए मै ईशर के उपकार टू टी-िूटी भाषा मे िगनने लगता हूँ इतने मे तो नींद आ
जाती है ।
डॉ. डायमणड का कहना िीक है िक िनयवाद के भाव से जीवन-शिि का िवकास होता है ।
जीवन-शिि कीण होती है तभी अिनिा का रोग होता है । रोग पितकारक शिि कीण होती है
तभी रोग हमला करते है ।
वेद को सागर की तथा बहवेता महापुरषो को मेघ की उपमा दी गई है । सागर के पानी से चाय
नहीं बन सकती, िखचडी नहीं पक सकती, दवाईयो मे वह काम नहीं आता, उसे पी नहीं सकते।
वही सागर का खास पानी सूयव की िकरणो से वाषपीभूत होकर ऊपर उि जाता है , मेघ बनकर
बरसता है तो वह पानी मिुर बन जाता है । ििर वह सब कामो मे आता है । सवाती नकत मे
सीप मे पडकर मोती बन जाता है ।अनुकम
ऐसे ही अपौरषय तिव मे िहरे हुए बहवेता जब शासो के वचन बोलते है तो उनकी
अमत
ृ वाणी हमारे जीवन मे जीवन-शिि का िवकास करके जीवनदाता के करीब ले जाती है ।
जीवनदाता से मुलाकात कराने की कमता दे दे ती है । इसीिलए कबीर जी ने कहाः
सुख द ेव े द ु ःख को हर े कर े पाप का अ नत।
कह कबीर व े कब िम ले परम स नेही सन त।।
परम के साथ उनका सनेह है । हमारा सनेह रपयो मे, पिरिसथितयो मे, पमोशनो मे, मान-
िमिलकयत मे, पती-पुत-पिरवार, मे िन मे, नाते िरशतो मे, सनेही-िमतो मे, मकान-दक
ु ान मे, बँटा
हुआ है । िजनका केवल परम के साथ सनेह है ऐसे महापुरष जब िमलते है तब हमारी जीवन-
शिि के शतशः झरने िूट िनकलते है ।
इसीिलए परमातमा के साथ संपूणव तादातमय सािे हुए, आतमभाव मे बहभाव मे जगे हुए
संत-महातमा-सतपुरषो के पित, दे वी-दे वता के पित हदय मे खूब अहोभाव भरके दशन
व करने का,
उनके िचत या िोटोगाि अपने घर मे, पूजाघर मे, पाथन
व ा-खणड मे रखने का माहातमय बताया
गया है । उनके चरणो की पूजा-आरािना-उपासना की मिहमा गाने वाले शास भरे पडे है । 'शी गुर
गीता' मे भगवान शंकर भी भगवती पावत
व ी से कहते है –
यसय स मरणमात ेण जानम ुतपदत े सवयम। ्
सः एव सव व स मपितः त समातस ंप ूज येद ग ुर म।् ।
िजनके समरण मात से जान अपने आप पकट होने लगता है और वे ही सवव (शमदमािद)
समपदा रप है , अतः शी गुरदे व की पूजा करनी चािहए।
संगीत का प भावः
िवशभर मे साििवक संगीतकार पायः दीघाय
व ुषी पाये जाते है । इसका रहसय यह है िक
संगीत जीवन-शिि को बढाता है । कान दारा संगीत सुनने से तो यह लाभ होता ही है अिपतु
कान बनद करवा के िकसी वयिि के पास संगीत बजाया जाये तो भी संगीत के सवर, धविन की
तरं गे उसके शरीर को छूकर जीवन-शिि के बढाती है । इस पकार संगीत आरोगयता के िलए भी
लाभदायी है ।
जलपपात, झरनो के कल-कल छल-छल मिुर धविन से भी जीवन शिि का िवकास होता है ।
पिकयो के कलरव से भी पाण-शिि बढती है ।अनुकम
हाँ, संगीत मे एक अपवाद भी है । पाशातय जगत मे पिसद रॉक संगीत ( Rock Music )
बजाने वाले एवं सुनने वाली की जीवनशिि कीण होती है । डॉ. डायमणड ने पयोगो से िसद िकया
िक सामानयतया हाथ का एक सनायु 'डे लटोइड' 40 से 45 िक.गा. वजन उिा सकता है । जब रॉक
संगीत (Rock Music) बजता है तब उसकी कमता केवल 10 से 15 िक.गा. वजन उिाने की रह
जाती है । इस पकार रॉक मयूििक से जीवन-शिि का हास होता है और अचछे , साििवक पिवत
संगीत की धविन से एवं पाकृ ितक आवाजो से जीवन शिि का िवकास होता है । शीकृ षण बाँसुरी
बजाया करते उसका पभाव पडता था यह सुिविदत है । शीकृ षण जैसा संगीतज िवश मे और कोई
नहीं हुआ। नारदजी भी वीणा और करताल के साथ हिरसमरण िकया करते थे। उन जैसा
मनोवैजािनक संत िमलना मुिशकल है । वे मनोिवजान की सकूल-कालेजो मे नहीं गये थे। मन को
जीवन -तिव म े िवश ािनत िदला ने स े मनोवैजािनक योगयताएँ अपने आप िवकिसत होती है ।
शी शंकराचायव जी ने भी कहा है िक िचत के पसाद से सारी योगयताएँ िवकिसत होती है ।
पतीक का पभाव ः
िविभनन पतीको का पभाव भी जीवन-शिि पर गहरा पडता है । डॉ. डायमणड ने रोमन
कॉस को दे खने वाले वयिि की जीवनशिि कीण होती पाई।
सविसत कः सविसतक समिृद व अचछे भावी का सूचक है । उसके दशन
व से जीवनशिि
बढती है ।
जमन
व ी मे िहटलर की नाजी पाटी का िनशान सविसतक था। कूर िहटलर ने लाखो यहूिदयो
के मार डाला था। वह जब हार गया तब िजन यहूिदयो की हतया की जाने वाली थी वे सब मुि
हो गये। तमाम यहूिदयो का िदल िहटलर और उसकी नाजी पािटव के िलए तीव घण
ृ ा से युि रहे
यह सवाभािवक है । उन दि
ु ो का िनशान दे खते ही उनकी कूरता के दशय हदय को कुरे दने लगे
यह सवाभािवक है । सवािसतक को दे खते ही भय के कारण यहूदी की जीवनशिि कीण होनी
चािहए। इस मनोवैजािनक तथयो के बावजूद भी डायमणड के पयोगो ने बता िदया िक सविसतक
का दशन
व यहूदी की जीवनशिि को भी बढाता है । सविसतक का शििविक
व पभाव इतना पगाढ
है ।
सविसतक के िचत को पलके िगराये िबना, एकटक िनहारते हुए ताटक का अभयास करके
जीवनशिि का िवकास िकया जा सकता है ।
लोक -संपकव व सा मािजक वातावरण का पभाव ः
एक सामानय वयिि जब दब
ु ल
व जीवन-शिि वाले लोगो के संपकव मे आत है तो उसकी
जीवनशिि कम होती है और अपने से िवकिसत जीवन-शििवाले के संपकव से उसकी जीवनशिि
बढती है । कोई वयिि अपनी जीवन-शिि का िवकास करे तो उसके समपकव मे आने वाले लोगो
की जीवन-शिि भी बढती है और वह अपनी जीवन-शिि का हास कर बैिे तो और लोगो के
िलए भी समसया खडी कर दे ता है ।
ितरसकार व िननदा के शिद बोलने वाले की शिि का हास होता है । उतसाहविक
व पेमयुि
वचन बोलने वाले की जीवनशिि बढती है ।
यिद हमारी जीवन-शिि दब
ु ल
व होगी तो चेपी रोग की तरह आसपास के वातावरण मे से हलके
भाव, िनमन कोिट के िवचार हमारे िचत पर पभाव डालते रहे गे।अनुकम
पहले के जमाने मे लोगो का परसपर संपकव कम रहता था इससे उनकी जीवनशिि अचछी
रहती थी। आजकल बडे -बडे शहरो मे हजारो लोगो के बीच रहने से जीवनशिि कीण होती रहती
है , कयोिक पायः आम लोगो की जीवनशिि कम होती है , अलप िवकिसत रह जाती है ।
रे िडयो, टी.वी., समाचार पत, िसनेमा आिद के दारा बाढ, आग, खून, चोरी, डकैती, अपहरण
आिद दघ
ु ट
व नाओं के समाचार पढने-सुनने अथवा उनके दशय दे खने से जीवन-शिि का हास होता
है । समाचार पतो मे िहटलर, औरं गजेब जैसे कूर हतयारे लोगो के िचत भी छपते है , उनको दे खकर
भी पाण-शिि कीण होती है ।
बीडी-िसगरे ट पीते हुए वयिियो वाले िवजापन व अहं कारी लोगो के िचत दे खने से भी
जीवन-शिि अनजाने मे ही कीण होती है । िवजापनो मे, िसनेमा के पोसटरो मे अिन
व गन िचत
पसतुत िकये जाते है वे भी जीवनशिि के िलए घातक है ।
दे वी-दे वताओं के, संत-महातमा-महापुरषो के िचतो के दशन
व से आम जनता को अनजाने मे
ही जीवनशिि का लाभ होता रहता है ।
भौित क वातावरण का पभाव
वयवहार मे िजतनी कृ ितम चीजो का उपयोग िकया जाता है उतनी जीवनशिि को हािन
पहुँचती है । टे रेलीन, पोिलएसटर आिद िसनथेिटक कपडो से एवं रे योन, पलािसटक आिद से बनी हुई
चीजो से जीवनशिि को कित पहुँचती है । रे शमी, ऊनी, सूती आिद पाकृ ितक चीजो से बने हुए
कपडे , टोपी आिद से वह नुकसान नहीं होता। अतः सौ पितशत कुदरती वस पहनने चािहए।
आजकल शरीर के सीि सपशव मे रहने वाले अनडरवेयर, बा आिद िसनथेिटक वस होने के कारण
जीवनशिि का हास होता है । आगे चलकर इससे कैनसर होने की समभावना रहती है ।
रं गीन चशमा, इलेकटोिनक घडी आिद पहनने से पाण शिि कीण होती है । ऊँची एडी के
चपपल, सेनडल आिद पहनने से जीवनशिि कम होती है । रसायन लगे हुए टीसयू पेपर से भी
पाणशिि को कित पहुँचती है । पायः तमाम परफयूमस िसनथेिटक होते है , कृ ितम होते है । वे सब
हािनकारक िसद हुए है ।
बिववाला पानी पीने से भी जीवन-शिि कम होती है । िकसी भी पकार की फलोरे सनट
लाइट, टयूब लाइट के सामने दे खने से जीवनशिि कम होती है ।
हमारे वायुमंडल मे करीब पैतीस लाख रसायन िमिशत हो चुके है । उदोगो के कारण होने
वाले इस वायु पदष
ू ण से भी जीवनशिि का हास होता है ।अनुकम
बीडी, िसगरे ट, तमबाकू आिद के वयसन से पाण-शिि को घोर हािन होती है । केवल इन
चीजो का वयसनी ही नहीं बिलक उसके संपकव मे आनेवाले भी उनके दषुपिरणामो के िशकार होते
है । कमरे मे एक वयिि बीडी या िसगरे ट पीता हो तो उसके शरीर के रि मे िजतना तमबाकू का
िवष, िनकोिटन िैल जाता है उतना ही िनकोिट बीस िमनट के अनदर ही कमरे मे रहने वाले
अनय सब लोगो के रि मे भी िमल जाता है । इस पकार बीडी , िसगर ेट पी ने वाल े के इद व िग दव
रहन े वालो को भी उ तन ी ही हािन होती ह ै।
बीडी-िसगरे ट पीनेवाले आदमी का िचत दे खने से भी पाणशिि का कय होता है ।
एकस-रे मशीन के आसपास दस िीट के िवसतार मे जाने वाले आदमी की पाण-शिि मे
घाटा होता है । एकस-रे िोटो िखंचवाने वाले मरीज के साथ रहने वाले वयिि को साविान रहना
चािहए। एकस रे रकणातमक कोट पहनकर मरीज के साथ रहना चािहए।
आहार का पभाव
बेड, िबसकुट, िमिाई आिद कृ ितम खाद पदाथो से एवं अितशय पकाये हुए पदाथो से
जीवनशिि कीण होती है । पायः हम जो पदाथव आजकल खा रहे वे हम िजतना मानते है उतने
लाभदायक नहीं है । हमे केवल आदत पड गई है इसिलए खा रहे है ।
थोडी खांड खाने से कया हािन है ? थोडा दार पीने से कया हािन है ? ऐसा सोचकर लोग
आदत डालते है । लेिकन खांड का जीवनशिि घटानेवाला जो पभाव है वह माता पर आिािरत
नहीं है । कम माता मे लेने से भी उसका पभाव उतना ही पडता है ।
एक सामानय आदमी की जीवनशिि यंत के दारा जाँच लो। ििर उसके मुह
ँ मे खांड दो
और जीवनशिि को जाँचो। वह कम हुई िमलेगी। तदननतर उसके मुह
ँ मे शहद दो और
जीवनशिि जाँचो। वह बढी हुई पाओगे। इस पकार डॉ. डायमणड ने पयोगो से िसद िकया िक
कृ ितम खांड आिद पदाथो से जीवनशिि का हास होता है और पाकृ ितक शहद आिद से िवकास
होता है । कंपिनयो के दारा बनाया गया और लेबोरे टिरयो के दारा पास िकया हुआ 'बोटल पेक'
शहद जीवनशिि के िलए लाभदायी नहीं होता जबिक पाकृ ितक शहद लाभदायी होता है । खांड
बनाने के कारखाने मे गनने के रस को शुद करने के िलए रसायनो का उपयोग िकया जाता है ।
वे रसायन हािनकारक है ।
हमारे यहाँ करोडो अरबो रपये कृ ितम खाद पदाथव एवं बीडी-िसगरे ट के पीछे खचव िकये
जाते है । पिरणाम मे वे हािन ही करते है । पाकृ ितक वनसपित, तरकारी आिद भी इस पकार
पकाये जाते है िक उनमे से जीवन-तिव नि हो जाते है ।
शारीिरक िसथ ित का पभाव
जो लोग िबना ढं ग के बैिते है । सोते है , खडे रहते है या चलते है वे खराब तो िदखते ही
है , अििक जीवनशिि का वयय भी करते है । हर चेिा मे शारीिरक िसथित वयविसथत रहने से
पाणशिि के वहन मे सहाय िमलती है । कमर झुकाकर, रीढ की हडडी टे ढी रखकर बैिने-चलने
वालो की जीवनशिि कम हो जाती है । उसी वयिि को सीिा बैिाया जाए, कमर, रीढ की हडडी,
गरदन व िसर सीिे रखकर ििर जीवनशिि नापी जाये तो बढी हुई िमलेगी।अनुकम
पूवव और दिकण िदशा की ओर िसर करके सोने से जीवनशिि का िवकास होता है ।
जबिक पिशम और उतर की िदशा की ओर िसर करके सोने से जीवनशिि का हास होता है ।
िहटलर जब िकसी इलाके को जीतने के िलए आकमण तैयारी करता तब अपने गुपचर
भेजकर जाँच करवाता िक इस इलाके के लोग कैसे बैिते चलते है ? युवान की तरह टटटार (सीिे)
या बूढो की तरह झुक कर? इससे वह अनदाजा लगा लेता िक वह इलाका जीतने मे पिरशम
पडे गा या आसानी से जीता जायेगा।
टटटार बैिने-चलने वाले लोग साहसी, िहममतवाले, बलवान, कृ तिनशयी होते है । उनहे हराना
मुिशकल होता है । झुककर चलने-बैिने वाले जवान हो भी बूढो की तरह िनरतसाही, दब
ु ल
व , डरपोक,
िनराश होते है , उनकी जीवनशिि का हास होता रहता है । चलते-चलते जो लोग बाते करते है वे
मानो अपने आपसे शतुता करते है । इससे जीवन शिि का खूब हास होता है ।
हरे क पकार की िातुओं से बनी कुिसय
व ाँ, आरामकुसी, नरम गदीवाली कुसीयाँ जीवन शिि
को हािन पहुँचाती है । सीिी, सपाट, किोर बैिकवाली कुसी लाभदायक है ।
पानी मे तैरने से जीवनशिि का खूब िवकास होता है । तुलसी, रिाक, सुवणम
व ाला िारण
करने से जीवन-शिि बढती है ।
जीवन-शिि िवकिसत करना और जीवनदाता को पहचानना यह मनुषय जनम का लकय
होना चािहए। केवल तनदरसती तो पशुओं को भी होती है । दीघव आयुषयवाले वक
ृ भी होते है ।
लेिकन हे मानव ! तुझे दीघाय
व ु के साथ िदवय दिि भी खोलनी है ।
हजारो तन तूने पाये, हजारो मन के संकलप िवकलप आये और गये। इस सबसे जो परे है ,
इन सब का जो वासतिवक जीवनदाता है वह तेरा आतमा है । उस आतमबल को जगाता रह.....
उस आतमजान को बढाता रह.... उस आतम-पीित को पाता रह।
ॐ......! ॐ.......!! ॐ.........!!!
लोग कयो दःुखी है ? कयोिक अजान के कारण वे अपना सतय सवरप भूल गये है और
अनय लोग जैसा कहते है वैसा ही अपने को मान बैिते है । यह दःुख तब तक दरू नहीं होगा जब
तक मनुषय आतमसाकातकार नहीं कर लेगा।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सिलत ा का रहस य
कोई आदमी गदी तिकयो पर बैिा है । हटटा कटटा है , तनदरसत है , लहलहाता चेहरा है तो
उसकी यह तनदरसती गदी-तिकयो के कारण नहीं है अिपतु उसने जो भोजन आिद खाया है , उसे
िीक से पचाया है इसके कारण वह तनदरसत है , हटटा कटटा है ।
ऐसे ही कोई आदमी ऊँचे पद पर, ऊँची शान मे, ऊँचे जीवन मे िदखता है , ऊँचे मंच पर से
विवय दे रहा है तो उसके जीवन की ऊँचाई मंच के कारण नहीं है । जाने अनजाने मे उसके
जीवन मे परिहतता है , जाने अनजाने आतमिनभरवता है , थोडी बहुत एकागता है । इसी कारण वह
सिल हुआ है ।अनुकम
जैसे तंदरसत आदमी को दे खकर गदी-तिकयो के कारण वह तंदरसत है ऐसा मानना
गलत है ऐस ही ऊँचे पदिवयो पर बैिे हुए वयिियो के िवषय मे सोचना िक ऊँची पदिवयो के
कारण वे ऊँचे हो गये है , छलकपट करके ऊँचे हो गये है यह गलती है , वासतव मे ऐसी बात नहीं
है । छलकपट और िोखा-िडी से तो उनका अनतःकरण और नीचा होता और वे असिल रहते।
िजतने वे सचचाई पर होते है , जाने अनजाने मे भी परिहत मे रत होते है , उतने वे ऊँचे पद को
पाते है ।
पर मे भी वही परमातमा है । वयिितव की सवाथव-परायणता िजतनी कम होती है , छोटा
दायरा टू टने लगता है , बडे दायरे मे विृत आती है , परिहत के िलए िचनतन व चेिा होने लगती है
तभी आदमी वासतव मे बडपपन पाता है ।
गुलाब का िूल िखला है और सुहास पसािरत कर रहा है , कइयो को आकिषत
व कर रहा है
तो उसकी िखलने की और आकिषत
व करने की योगयता गहराई से दे खो तो मूल के कारण है । ऐसे
िकसी आदमी की ऊँचाई, महक, योगयता िदखती है तो जाने अनजाने उसने जहाँ से मनःविृत
िुरती है उस मूल मे थोडी बहुता गहरी याता की है , तभी यह ऊँचाई िमली है ।
िोखा-िडी के कारण आदमी ऊँचा हो जाता तो सब कूर आदमी िोखेबाज लोग ऊँचे उि
जाते। वासतव मे ऊँचे उिे हुए वयिि ने अनजाने मे एकतव का आदर िकया है , अनजाने मे
समता की कुछ महक उसने पाई है । दिुनया के सारे दोषो का मूल कारण है दे ह का अहं कार,
जगत मे सतयबुिद और िवषय-िवकारो से सुख लेने की इचछा। सारे दःुखो का िवघनो का,
बीमािरयो का यही मूल कारण है । सारे सुखो का मूल कारण है जाने अनजाने मे दे हाभयास से
थोडा ऊपर उि जाना, अहं ता, ममता और जगत की आसिि से ऊपर उि जाना। जो आदमी कायव
के िलए कायव करता है , िलेचछा की लोलुपता िजतनी कम होती है उतने अंश मे ऊँचा उिता है
और सिल होता है ।
सिलता का रहसय है आतम-शदा, आतम-पीित, अनतमुख
व ता, पाणीमात के िलए पेम, परिहत-
परायणता।
परिहत ब स िजनक े मन म ांही।
ितनको ज ग द ु लव भ कछु नाही ं।।
एक बचचे ने अपने भाई से कहाः "िपता जी तुझे पीटे गे।" भाई ने कहाः "पीटे गे तो....
पीटं गे। मेरी भलाई के िलए पीटे गे। इससे तुझे कया िमलेगा?" अनुकम
ऐसे ही मन अगर कहने लगे िक तुम पर यह मुसीबत पडे गी, भिवषय मे यह दःुख होगा,
भय होगा तो िनिशंत रहो िक अगर परमातमा दःुख, कलेश आिद दे गा तो हमारी भलाई के िलए
दे गा। अगर हम िपता की आजा मानते है , वे चाहते है वैसे हम करते है तो िपता पागल थोडे ही
हुए है िक वे हमे पीटे गे? ऐसे ही सिृिकताव परमातमा पागल थोडे ही है िक हमे दःुख दे गे? दःुख तो
तब दे गे जब हम गलत मागव पर जायेगे। गलत रासते जाते है तो िीक रासते पर लगाने के िलए
दःुख दे गे। दःुख आयेगा तभी जगिननयनता का दार िमलेगा। परमातमा सभी के परम सुहद है । वे
सुख भी दे ते है तो िहत के िलए और दःुख भी दे ते है तो िहत के िलए। भिवषय के दःुख की
कलपना करके घबडाना, िचिनतत होना, भयभीत होना िबलकुल जररी नहीं है । जो आयेगा,
आयेगा.... दे खा जायेगा। अभी वतम
व ान मे पसनन रहो, सवाथव-तयाग और िमव-परायण रहो।
सारे दःुखो की जड है सवाथव और अहं कार। सवाथव और अहं कार छोडते गये तो दःुख अपने
आप छूटते जाएँगे। िकतने भी बडे भारी दःुख हो, तुम तयाग और पसननता के पुजारी बनो। सारे
दःुख रवाना हो जायेगे। जगत की आसिि, परदोषदशन
व और भोग का पुजारी बनने से आदमी को
सारे दःुख घेर लेते है ।
कोई आदमी ऊँचे पद पर बैिा है और गलत काम कर रहा है तो उसे गलत कामो से
ऊँचाई िमली है ऐसी बात नहीं है । उसके पूवव के कोई न कोई आचरण अदै त जान की महक से
युि हुए होगे तभी उसको ऊँचाई िमली है । अभी गलत काम कर रहा है तो वह अवशय नीचे आ
जायेगा। िरे ब, िोखा-िडी, ईषयाव-घण
ृ ा करे गा तो नीचे आ जायेगा।
िवदाथी सिल कब होता है ? जब िनिशंत होकर पढता है , िनभीक होकर िलखता है तो
सिल होता है िचिनतत भयभीत होकर पढता िलखता है तो सिल नहीं होता। युद मे योदा तभी
सिल होता है जब जाने अनजाने मे दे हाधयास से परे हो जाता है । विा विृ तव मे तब सिल
होता है जब अनजाने मे ही दे ह को 'मै', 'मेरे' को भूला हुआ होता है । उसके दारा सुनदर सुहावनी
वाणी िनकलती है । अगर कोई िलखकर, पढकर, रटकर, पभाव डालने के िलए यह बोलूँगा...... वह
बोलूँगा..... ऐसा करके जो आ जाते है वे पढते-पढते भी िीक नहीं बोल पाते। जो अनजाने मे
दे हाधयास को गला चुके है वे िबना पढे , िबना रटे जो बोलते है वह संतवाणी बन जाती है , सतसंग
हो जाता है ।
िजतने हम अंतयाम
व ी परमातमा के विादार है , दे हाधयास से उपराम है , जगत की तू तू मै
मै की आकषण
व ो से रिहत है , सहज और सवाभािवक है उतने ही आनतिरक सोत से जुडे हुए है
और सिल होते है । िजतना बाह पिरिसथितयो के अिीन हो जाते है आनतिरक सोत से समबनि
िछनन-िभनन कर दे ते है उतने ही हमारे सुनदर से सुनदर आयोजन भी िमटटी मे िमल जाते है ।
इसीिलए, हर केत मे सिल होना है तो अनतयाम
व ी से एकता करके की संसार की सब चेिाएँ करो।
भीतर वाले अनतयाम
व ी से जब तुम िबगाडत हो तब दिुनया तुम से िबगाडती है ।अनुकम
लोग सोचते है िक, 'िलाने आदमी ने सहकार िदया, िलाने िमतो ने साथ िदया तभी वह
बडा हुआ, सिल हुआ।' वासतव मे जाने अनजाने मे िलानो की सहायता की अपेका उसने ईशर
मे जयादा िवशास िकया। तभी िलाने वयिि उसकी सहायता करने मे पवत
ृ हुए। अगर वह ईशर
से मुह
ँ मोड ले और लोगो की सहायता पर िनभरव हो जाए तो वे ही लोग आिखरी मौके पर
बहानाबाजी करके िपणड छुडा लेगे, िखसक जायेगे, उपराम हो जायेगे। यह दै वी िविान है ।
भय, िवघन, मुसीबत के समय भी भय-िवघन-मुसीबत दे ने वालो के पित मन मे ईषयाव,
घण
ृ ा, भय ला िदया तो जरर असिल हो जाओगे। भय, िवघन, मुसीबत, दःुखो के समय भी
अनतयाम
व ी आतमदे व के साथ जुडोगे तो मुसीबत डालने वालो का सवभाव बदल जायेगा, िवचार
बदल जायेगे, उनका आयोजन िेल हो जाएगा, असिल हो जाएगा। िजतना तुम अनतयाम
व ी से एक
होते हो उतना तुम सिल होते हो और िवघन-बािाओं से पार होते हो। िजतने अंश मे तुम जगत
की वसतुओं पर आिािरत रहते हो और जगदीशर से मुँह मोडते हो उतने अंश मे िविल हो जाते
हो।
सी वसालंकार आिद से िैशनेबल होकर पुरष को आकिषत
व करना चाहती है तो थोडी दे र
के िलए पुरष आकिषत
व हो जाएगा लेिकन पुरष की शिि कीण होते ही उसके मन मे उदे ग आ
जाएगा। अगर सी पुरष की रका के िलए, पुरष के कलयाण के िलए सहज सवाभािवक पितवता
जीवन िबताती है , साििवक ढं ग से जीती है तो पित के िदल मे उसकी गहरी जगह बनती है ।
ऐसे ही िशषय भी गुर को िन, वैभव, वसतुएँ दे कर आकिषत
व करना चाहता है , दिुनयाई
चीजे दे कर लाभ ले लेना चाहता है तो गुर जयादा पसनन नहीं होगे। लेिकन भििभाव से भावना
करके सब पकार उनका शुभ चाहते हुए सेवा करता है तो गुर के हदय मे भी उसके कलयाण का
संकलप सिुरे गा।
हम िजतना बाह सािनो से िकसी को वश मे करना चाहते है , दबाना चाहते है , सिल
होना चाहते है उतने ही हम असिल हो जाते है । िजतना-िजतना हम अनतयाम
व ी परमातमा के
नाते सिल होना चाहते है , परमातमा के नाते ही वयवहार करते है उतना हम सवाभािवक तरह से
सिल हो जाते है । िनषकंटक भाव से हमारी जीवन-याता होती रहती है ।
अपने को पूरे का पूरा ईशर मे अिपत
व करने का मजा तब तक नहीं आ सकता जब तक
संसार मे, संसार के पदाथो मे सतयबुिद रहे गी। 'इस कारण से यह हुआ.... उस कारण से वह
हुआ....' ऐसी बुिद जब तक बनी रहे गी तब तक ईशर मे समिपत
व होने का मजा नहीं आता।
कारणो के भी कारण अनतयाम
व ी से एक होते हो तो तमाम पिरिसथितयाँ अनुकूल बन जाती है ।
अनतरम चैतनय से िबगाडते हो तो पिरिसथितयाँ पितकूल हो जाती है । अतः अपने िचत मे बाह
कायव कारण का पभाव जयादा मत आने दो। कायव-कारण के सब िनयम माया मे है । माया ईशर
की सता से है । तुम परम सता से िमल जाओ, बाकी का सब िीक होता रहे गा।अनुकम
नयायािीश तुमहारे िलए िैसला िलख रहा है । तुमहारे िलए िाँसी या कडी सजा का िवचार
कर रहा है । उस समय भी तुम अगर पूणत
व ः ईशर को समिपत
व हो जाओ तो नयायािीश से वही
िलखा जायेगा जो तुमहारे िलए भिवषय मे अतयंत उतम हो। चाहे वह तुमहारे िलए कुछ भी
सोचकर आया हो, तुमहारा आपस मे िवरोि भी हो, तब भी उसके दारा तुमहारे िलए अमंगल नहीं
िलखा जायेगा, कयोिक मंगलमूितव परमातमा मे तुम िटके हो न ! जब तुम दे ह मे आते हो,
नयायािीश के पित िदल मे घण
ृ ा पैदा करते हो तो उसकी कोमल कलम भी तुमहारे िलए किोर
हो जायेगी। तुम उसके पित आतमभाव से, 'नयायािीश के रप मे मेरा पभु बैिा है , मेरे िलए जो
करे गा वह मंगल ही करे गा' – ऐसे दढ भाव से िनहारोगे तो उसके दारा तुमहारे पित मंगल ही
होगा।
बाह शतु, िमत मे सतयबुिद रहे गी, 'इसने यह िकया, उसने वह िकया िकसिलए ऐसा हुआ' –
ऐसी िचनता-ििकर मे रहे तब तक िोखे मे रहोगे। सब का मूल कारण ईशर जब तक पतीत
नहीं हुआ तब तक मन के चंगल
ु मे हम िँसे रहे गे। अगर हम असिल हुए है , दःुखी हुए है तो
दःुख का कारण िकसी वयिि को मत मानो। अनदर जा ँ चो िक त ु मको जो प ेम ईशर स े
करना चा िहए वह प े म उस वयिि क े बाह रप स े तो नह ीं िकया ? इसिलए उस वयिि के
दारा िोखा हुआ है । जो पयार परमातमा को करना चािहए वह पयार बाह चीजो के साथ कर िदया
इसीिलए उन चीजो से तुमको दःुखी होना पडा है ।
सब दःुखो का कारण एक ही है । ईशर से जब तुम नाता िबगाडते हो तभी िटका लगता
है , अनयथा िटके का कोई सवाल ही नहीं है । जब-जब दःुख आ जाये तब समझ लो िक मै भीतर
वाले अनतयाम
व ी ईशर से िबगाड रहा हूँ। 'इसने ऐसा िकया..... उसने वैसा िकया..... वह रहे गा तो मै
नहीं रहूँगा.....' ऐसा बोलना-समझना केवल बेवकूिी है । 'मेरी बेवकूिी के कारण यह िदखता है ,
परनतु मेरे िपयतम परमातमा के िसवा तीनो काल मे कुछ हुआ ही नहीं है ' – ऐसी समझ खुले तो
बेडा पार हो।
अगर िूल की महक पौिे की दी हुई है तो काँटो को रस भी उसी पौिे ने दे रखा है ।
िजस रस से गुलाब महका है उसी रस से काँटे पनपे है । काँटो के कारण ही गुलाब की सुरका
होती है ऐसी सिृिकताव आिद चैतनय की लीला है ।
ििरयादी जीवन जीकर अपना सतयानाश मत करो। अपने पुणय नि मत करो। जब-जब
दःुख होता है तो समझ लो िक ईशर के िविान के िखलाि तुमहारा मन कुछ न कुछ 'जजमेनट'
दे रहा है । तभी दःुख होता है , तभी परे शानी आती है , पलायनवाद आता है ।
जीवन की सब चेिाएँ केवल ईशर की पसननता के िलए हो। िकसी वयिि को िँसाने के
िलए यिद वसालंकार पिरिान िकये तो उस वयिि से तुमहे दःुख िमलेगा। कयोिक उसमे भी ईशर
बैिा है । जब सबमे ईशर है , सवत
व ईशर है तो जहाँ जो कुछ कर रहे हो, ईशर के साथ ही कर रहे
हो। जब तक यह दिि पिरपकव नहीं होती तब तक िोकरे खानी पडती है ।
िकसी आदमी का िन, वैभव, सता दे खकर वह अपने काम मे आयेगा ऐसा समझकर उससे
नाता जोड दो तो अंत मे िोखा खाओगे। बडे आदमी का बडपपन िजस परम बडे के कारण है
उसके नाते अगर उससे वयवहार करते हो अवशय उसका िन, सता, वैभव, वसतुएँ तुमहारी सेवा मे
लग जाएँगे। लेिकन भीतर वाले से िबगाडकर उसकी बाह वसतुएँ दे खकर उसकी चापलूसी मे लगे
तो वह तुमहारा नहीं रहे गा।अनुकम
नगाडे से िनकलती हुई धविन पकडने जाओगे तो नहीं पकड पाओगे। लेिकन नगाडा
बजाने वाले को पकड लो तो धविन पर तुमहारा िनयंतण अपने आप हो जाएगा। ऐसे ही मूल को
िजसने पकड िलया उसने कायव-कारण पर िनयनतण पा िलया। सबका मूल तो परमातमा है । अगर
तुमहारा िचत परमातमा मे पितिित हो गया तो सारे कायव-कारण तुमहारे अनुकूल हो जायेगे। चाहे
आिसतक हो चाहे नािसतक, यह दै वी िनयम सब पर लागू होता है । ईशर को कोई माने या न
माने, अनजाने मे भी जो अनतमुख
व होता है , एकाकार होता है , ईशर के नाते, समाज सेवा के नाते,
सचचाई के नाते, िमव के नाते, अपने सवभाव के नाते, जाने अनजाने मे आचरण वेदानती होता है ।
वह सिल होता है ।
कोई भले ही िमव की दह
ु ाइयाँ दे ता हो पर उसका आचरण वेदानती नहीं है तो वह दःुखी
रहे गा। कोई िकतना भी िािमक
व हो लेिकन आिार मे वेदानत नहीं है तो वह परािीन रहे गा। कोई
वयिि िक तन ा भी अ िािम व क िदख े ल ेिकन उ सका आचरण व ेदानती ह ै तो वह स िल
होगा , सब पर राजय कर ेगा। चाह े िकसी द ेवी -देव ता , ईशर , िमव या म जहब को नह ीं
मानता ििर भी भीतर सच चाई ह ै , िकसी का ब ुरा नह ीं चाह ता , इिनि यो को व श म े
रखता है , मन शान त ह ै , पस नन है तो यह ईशर की भ िि ह ै।
यह जररी नहीं िक मंिदर-मिसजद मे जाकर िगडिगडाने से ही भिि होती है । अनतयाम
व ी
परमातमा से तुम िजतने जुडते हो, सचचाई और सदगुणो के साथ उतनी तुमहारी ईशर-भिि बन
जाती है । िजतना अनतयाम
व ी ईशर से नाता तोडकर दरू जाते हो, भीतर एक और बाहर दस
ू रा
आचरण करते हो तो कायव-कारण के िनयम भी तुम पर बुरा पभाव डालेगे।
नटखट नागर भगवान शीकृ षण मकखन चुराते, सािथयो को िखलाते, खाते और दही-मकखन
की मटिकयाँ िोडते थे। ििर थोडा सा मकखन बछडो के मुह
ँ पर लगाकर भाग जाते। घर के
लोग बछडो के मुँह पर लगा हुआ मकखन दे खकर उनहीं की यह सब करतूत होगी यह मानकर
बछडे को पीटते।
वासतव मे सबका कारण एक ईशर ही है । बीच मे बेचारे बछडे , पीटे जाते है । 'मै... तू...
यह.... वह.... सुख.... दःुख.... मान.... अपमान.....' िाँसी की सजा.... सबका कारण तो वह मूल चैतनय
परमातमा है लेिकन उस परमातमा से बेविाई करके मन रपी बछडे बेचारे पीटे जाते है ।
बडे से बडा परमातमा है उससे नाता जुडता है तब बेडा पार होता है । केवल नाम बडे
रखने से कुछ नहीं होता। है कगंले-दे वािलये, घर मे कुछ नहीं है और नाम है करोडीमल, लखपत
राम, हजारीपसाद, लकमीचनद। इससे कया होगा।?अनुकम
गोबर ढ ू ँढ त ह ै ल कमी , भीख म ाँग त जगपाल।
अमर िसंह तो मरत ह ै , अचछो म ेरे िंिनपाल।।
महल बडे बनाने से, गािडयाँ बिढया रखने से, बिढया हीरे -जवाहरात पहनने से सचची सुख-
शािनत थोडे ही िमलती है ! भीतर के आननद रपी िन के तो कंगाल ही है । जो आदमी भीतर से
कंगाल है । उसको उतनी ही बाह चीजो की गुलामी करनी पडती है । बाह चीजो की िजतनी
गुलामी रहे गी उतना आतम-िन से आदमी कंगाल होगा।
िकसी के पास आतम-िन है और बाह िन भी बहुत है तो उसको बाह िन की उतनी
लालसा नहीं है । पारिि वेग से सब िमलता है । आतम-िन के साथ सब सिलताएँ भी आती है ।
आतम-िन मे पहुँच गये तो बाह िन की इचछा नहीं रहती, वह िन अपने आप िखंचकर आता
है । जैसे, वयिि आता है तो उसके पीछे छाया भी आ जाती है । ऐसे ही ईशरतव मे मसती आ गई
तो बाह सुख-सुिविाएँ पारिि वेग होता है तो आ ही जाती है । नहीं भी आतीं तो उनकी आकांका
नहीं होती। ईशर का सुख ऐसा है । जब तक बचपन है , बचकानी बुिद है तब तक गुडडे -गुिडडयो
से खेलते है । बडे हो गये, जवान हो गये, शादी हो गई तो गुडडे -गुिडडयो का खेल कहाँ रहे गा? बुिद
बािलश होती है , तो जगत की आसिि होती है । बुिद िवकिसत होती है , िववेक संपनन होती है तो
जगत की वसतुओं की पोल खुल जाती है । िवशेषण करके दे खो तो सब पाँच भूतो का पसारा है ।
मूखत
व ा से जब गुडडे -गुिडडयो से खेलते रहे तो खेलते रहे लेिकन बात समझ मे आ गई तो वह
खेल छूट गया। बह से खेलने के िलए पैदा हुए हो। परमातमा से खेलने के िलए तुम जनमे हो, न
िक गुडडे -गुडडी रपी संसार के कायव-कारण के साथ खेलने के िलए। मनुषय जनम बह-परमातमा
से तादातमय सािने के िलए, बहाननद पाने के िलए िमला है ।
जवान लडकी को पित िमल जाता है ििर वह गुडडे -गुिडडयो से थोडी ही खेलती है ? ऐसे
ही हमारे मन को परम पित परमातमा िमल जाये तो संसार के गुडडे -गुिडडयो की आसिि थोडे
ही रहे गी।
किपुतिलयो का खेल होता है । उस खेल मे एक राजा ने दस
ू रे राजा को बुलाया। वह
अपने रसाले साथ लाया। उसका सवागत िकया गया। मेजबानी हुई। ििर बात बात मे नाराजगी
हुई। दोनो ने तलवार िनकाली, लडाई हो गई। दो कटे , चार मरे , छः भागे।
िदखता तो बहुत सारा है लेिकन है सब सूतिार का अंगुिलयो की करामात। ऐसे ही संसार
मे बाहर कारण कायव िदखता है लेिकन सबका, सूतिार अनतयाम
व ी परमातमा एक का एक है ।
अचछा-बुरा, मेरा-तेरा, यह-वह, सब िदखता है लेिकन सबका मूल केनि तो अनतयाम
व ी परमातमा ही
है । उस महाकारण को दे ख लो तो बाहर के कायव-कारण िखलवाड मात लगेगे।अनुकम
महाकारण रप भीतरवाले अनतयाम
व ी परमातमा से कोई नाता िबगाडता है तो बाहर के
लोग उसे दःुख दे ते है । भीतर वाले से अगर नहीं िबगाडे तो बाहर के लोग भी उससे नहीं
िबगाडे गे। वह अनतयाम
व ी सबमे बस रहा है । अतः िकसी का बुरा न चाहो न सोचो। िजसका टु कडा
खाया उसका बुरा तो नहीं लेिकन िजसने गाली दी उसका भी बुरा नहीं चाहो। उसके अनदर भी
वही अनतयाम
व ी परमातमा बैिा है । हम बुरा चाहने लग जाते है तो अनदरवाले से हम िबगाडते है ।
हम अनुिचत करते है तो भीतर वाला पभु रोकता है लेिकन हम आवेग मे, आवेश मे, िवषय-
िवकारो मे बुिद के गलत िनणय
व ो मे आकर भीतर वाले की आवाज दबा दे ते है और गलत काम
करते है तो िोकर खानी ही पडती है । िबलकुल सचोट अनुभव है ।
मन कुछ कहता है , बुिद कुछ कहती है , समाज कुछ कहता है लेिकन तुमहारे हदय की
आवाज सबसे िनराली है तो हदय की आवाज को ही मानो, कयोिक सब की अपेका हदय
परमातमा से जयादा नजदीक है ।
बाहर के शतु-िमत का जयादा िचनतन मत करो। बाहर की सिलता-असिलता मे न
उलझो। आँखे खोलो। शतु-िमत, सिलता-असिलता सबका मूल केनि वही अिििान आतमा है और
वह आतमा तुमहीं हो कयो के... के... करके िचलला रहे हो, दःुखी हो रहे हो? दःुख और िचनताओं के
बनडल बनाकर उिा रहे हो और िसर को थका रहे हो? दरू िेक दो सब कलपनाओं को। 'यह ऐसा
है वह ऐसा है ... यह कर डालेगा... वह मार दे गा.... मेरी मुसीबत हो जाएगी....!' अरे ! हजारो बम
िगरे ििर भी तेरा कुछ नहीं िबगड सकता। तू ऐसा अजर-अमर आतमा है । तू वही है ।
नैन ं िछ नदिनत शासािण न ैन ं दह ित पावक ः।
न च ैन ं कल ेदयनतयापो न शोषय ित मारत ः।।
'इस आतमा को शस काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल िभगो नहीं सकता और
वायु सुखा नहीं सकती।' (भगवदगीताः 2-23)
तू ऐसा है । अपने मूल मे चला आ। अपने आतमदे व मे पितिित हो जा। सारे दःुख, ददव ,
िचनताएँ कािूर हो जाएँगे। नहीं तो ऐसा होगा िक मानो खारे समुि मे डू बता हुआ आदमी एक
ितनके को पकडकर बचना चाह रहा है । संसार की ितनके जैसी वसतुएँ पकडकर कोई अमर होना
चाहे , सुखी होना चाहे , पितिित होना चाहे तो वह उतना ही पागलपन करता है जो एक ितनके को
पकडकर सागर पार करना चाहता है । बाहर की वसतुओं से कोई संसार मे सुखी होना चाहता है ,
अपने दःुख िमटाना चाहता है तो वह उतनी ही गलती करता है । संसार से पार पाना हो, दःुख
िमटाना हो, सुखी होना हो तो दःुखहारी शीहिर की शरण लो भीतर ही भीतर। परम सुख पाना हो
तो भीतर परम सुख सवरप शीहिर को पयार कर लो। सुख के दार खुल जायेगे। ितनका पकडकर
आज तक कोई खारा समुि तैर कर पार नहीं हुआ। संसार की वसतुएँ पकडकर आज तक कोई
सुखी नहीं हुआ।अनुकम
'यम, कुबेर, दे वी-दे वता, सूयव-चनि, हवाएँ सब मुझ चैतनय की सता से अपने िनयत कायव मे
लगे है । ऐसा मै आतमदे व हूँ।' इस वासतिवकता मे जागो। अपने को दे ह मानना, अपने को वयिि
मानना, अपने को जाितवाला मानना कया? अपने को बह जानकर मुिि का अभी अनुभव कर लो।
दिुनया कया कहती है इसके चककर मे मत पडो। उपिनषद कया कहते है ? वेद कया कहता है , यह
दे खो। उसके जान को पचाकर आप अमर हो जाओ और दस
ू रो के िलए अमरता का शंखनाद कर
दो।
शीकृ षण जैसे महान जानी ! पितजा की थी िक महाभारत के युद मे अस-शस नही
उिाऊँगा। ििर दे खा िक अजुन
व की पिरिसथित नाजुक हो रही है तो सुदशन
व चक तो नहीं उिाया
लेिकन रथ का पिहया उिाकर दौडे । बूढे भीषम को भी हँ सी आ गई िक यह कनहै या कैसा
अटपटा है ।
हम कलपना भी नहीं कर सकते िक इतने महान जानी शीकृ षण और बंसी बजाते है ,
नाचते है । बछडो के पूछ
ँ पकड कर दौडते है । गायो के सींगो को पकड कर खेलते है । कयोिक
शीकृ षण अपने िनजाननद सवरप मे िनमगन रहते है । आज का मनुषय भेदभाव से, दे हाधयास
बढाकर अहं कार और वासनाओं के कीचड मे लथपथ रहता है ।
चलो, उिो। छोडो दे हािभमान को। दरू िेको वासनाओं को। शतु-िमत मे, तेरे-मेरे मे, कारणो
के कारण, सबमे छुपा हुआ अपना दै वी सवभाव िनहारो।
शतु-िमत सबका कारण कृ षण हमारा आतमा है । हम िकसी वयिि पर दोषारोपण कर बैिते
है । 'हमने इसको िगराया, उसने पतन कराया...' ऐसे दस
ू रो को िनिमत बनाते है । वासतव मे अपनी
वासना ही पतन का कारण है । दिुनया मे और कोई िकसी का पतन नहीं कर सकता। जीव की
अपनी दि
ु इचछाएँ-वासनाएँ पतन की खाई मे उसे िगराती है । अपनी सचचाई, ईशर पेम, शुद-सरल
वयवहार अपने को खुश रखता है , पसनन रखता है , उननत कराता है ।
यह भोग-पदाथव िलाना आदमी हमे दे गया...। अरे पारिि वेग से पदाथव आया लेिकन
पदाथव का भोिा बनना न बनना तुमहारे हाथ की बात है । पारिि से िन तो आ गया लेिकन िन
थोडे ही बोलता है िक हमारा गुलाम बनो।
पारिि वसतुएँ दे सकता है , वसतुएँ छीन सकता है लेिकन वसतुओं मे आसि न होना,
वसतुएँ चली जाएँ तो दःुखी होना न होना तुमहारे हाथ की बात है । पारिि से पुरषाथव बिढया
होता है । पुरषाथव से पारिि बदला जा सकता है , िमथया िकया जा सकता है । मनद पारिि को
बदला जाता है , कुचला जाता है , तरतीव पारिि को िमथया िकया जाता है । अपने आतमबल पर
िनभरव रहना िक कायव-कारण भाव मे कुचलाते रहना है ? अनुकम
बालुभाई टे िलिोन बीडी के सेलसमैन थे। गाहको को समझाते, िपलाते, खुद भी पीते। टी.बी.
हो गया। आिखरी मुकाम आ गया। डॉकटरो ने कहाः छः महीने के भीतर ही सवगव
व ासी हो
जाओगे। बालुभाई नौकरी छोडकर नमद
व ा िकनारे कोरल गाँव चले गये। सनानसंधया करते, महादे व
जी की पूजा करते, आतभ
व ाव से पाथन
व ा करते, पुकारते। अनतयाम
व ी से तादातमय िकया। छः महीने
मे जाने वाले थे इसके बदले छः महीने की आरािना-उपासना से तबीयत सुिर गई। टी.बी. कहाँ
गायब हो गया, पता नहीं चला। बालूभाई ने िनणय
व िकया िक मर जाता तो जाता। जीवनदाता ने
जीवन िदया है तो अब उसकी सेवा मे शेष जीवन िबताऊँगा। नौकरी-िनिे पर नहीं जाऊँगा।
धयान-भजन सेवा मे ही रहूँगा।
वे लग गये ईशर के मागव पर। कणि तो मिुर था भजन गाते थे। दान-दिकणा जो कुछ
आता उसका संगह नहीं करते लेिकन परिहत मे लगा दे ते थे। सवतव को परिहत मं लगाने से
यश िैल जाता है । बालुभाई का यश िैल गया। वे 'पुिनत महाराज' के नाम से अभी भी िवखयात
है । उनके जाने के बाद उनके नाम की संसथाएँ चलती है । मूल मे कुछ है तभी तो िूल िखला है ।
मूल मे खाद-पानी हो तभी पौिा लहलहाता है , िूलो मे महक आती है । कोई भी संसथा, संघ, िमव
चमकता है तो उसके मूल मे कुछ न कुछ सचचाई है , परिहतता है । िोखा-िडी िरे ब से नहीं
चमक सकते। कुछ न कुछ सेवाभाव होता है तो चमकता है , पिसद होता है । अगर िोखा-िडी
और सवाथव बढने लगता है तो उन संसथाओं का पतन भी हो जाता है । िोखा-िडी से, पचार-
सािनो के बल से कोई िमव, पंथ, समपदाय िैला हो, साथ मे सचचाई और सेवाभाव न हो तो वह
जयादा समय िटक भी नहीं सकता।
िनमम
व , िनरहं कार होने से शरीर मे आतम-जयोित की शिि ऐसे िैलती है जैसे िानूस मे
से पकाश। तुम िजतने अहं ता-ममता से रिहत होगे उतनी आतम-जयोित तुमहारे दारा चमकेगी,
औरो को पकाश दे गी।
अहं कार करने से, वयिितव को सजाने से मोह नहीं जाता। दस
ू रो को िजतनी टोटा चबाने
की इचछा है उतनी खीर खांड िखलाने की भावना करो तो घण
ृ ा पेम मे बदल जायेगी। असिलता
सिलता मे बदल जायेगी। मानो, कोई तुमहारा कुछ िबगाड रहा है । वह िजतना िबगाडता है उससे
जयादा जोर से तुम उसका भला करो, उसका भला चाहो, िवजय तुमहारी होगी। वह मेरा बुरा करता
है तो मै उसका सवाया बुरा करँ – ऐसा सोचोगे तो तुमहारी पराजय हो जायेगी। तुम उसी के
पक मे हो जाओगे। िकसी घमंडी अहं कारी को िीक करने के िलए तुमको भी अहं कार का शरण
लेना पडा। अनतयाम
व ी से एक होकर अपनतव के भाव से सामने वाले के कलयाण के िचनतन मे
लग गये तो वह तुमहारे पक मे आये िबना नहीं रहे गा। बाहर के कारणो के लेकर उसको िीक
करना चाहा तो तुम उसके पक मे हो गये। अनतयाम
व ी से एक होकर बाह कारणो का, सािनो का
थोडा बहुत उपयोग कर िलया तो कोई हरकत नहीं है । लेिकन पहले अनतयाम
व ी से एक हो जाओ।
भीतर वाले से िबगाडो हो नहीं।
शतु का भी अिहत न चाहो। कोई अतयनत िनषकृ ि है तो थोडी बहुत सजा-िशका चाहे करो
लेिकन दे ष भाव से नहीं, उसका मंगल हो इस भाव से। जैसे तुम अपने इकलौते बेटे को सजा
दे ना चाहो तो कैसे दे ते हो? बाप कहे िक, 'या तो बेटा रहे गा या मै रहूँगा' तो यह उसकी बुिद का
िदवाला है , जान व समता की कमी है ।
समतावाले को ििरयाद कहाँ? ििरयाद के समय समता कहाँ? अनुकम
पाप-पुणय, सुख-दःुख ये सब तुमहारे दारा िदखते है । ये परपकाशय है , तुम सवपकाश हो। ये
जड है । तुम चेतन हो। चेतन होकर जड चीजो से डर रहे हो। यह बडा िवशाल भवन हमने
बनाया है । उससे भय कैसा? ऐसे ही दःुख-सुख, पुणय-पाप सब हमारे चैतनय के िुरने से ही बने
है । उनसे कया डरना?
जीवन से तयाग और पेम आ जाये तो सब सुख आ जाये। सवाथव और घण
ृ ा आ जाये तो
सब दःुख आ जाये। कारणो के कारण उस ईशर से तादातमय हो जाये तो सारे दःुख-सुख खेल
मात रह जायेगे। इस बात पर तुम डट जाओ तो दिुनया और दिुनया के पदाथो की कया ताकत
है िक तुमहारी सेवा न करे ? अपने भीतर वाले अनतयाम
व ी आतमा से अभेदभाव से वयवहार करने
लग जाओ तो सब लोग चाकर की तरह तुमहारी सेवा करके अपना भागय बनाने लग जायेगे।
पिरिसथितयाँ तुमहारे िलए करवटे लेगी, रं ग बदलेगी। अिगन की जवालाएँ नीचे की ओर जाने लगे
और सूयव पिशम मे उदय होने लगे तब भी वेद भगवान के ये वचन गलत नहीं हो सकते।
भगवान ने गीता मे कहा है ः
अननयािश चनतायनतो म ां य े जनाः पय ुव पासत े।
तेषा ं िनतया िभय ुिा नां योगक ेम ं व हामयहम। ् ।
'अननय िचत से िचनतते हुए जो लोग मेरी उपासना करते है उन िनतययुि पुरषो का
योगकेम मै अपने ऊपर लेता हूँ।' (भगवदगीताः 9.21)
'इतना मुनािा करे , इतने रपयो की वयवसथा कर ले बाद मे भजन करे गे।' तो ईशर से
रपयो को, पिरिसथितयो को जयादा मूलय दे िदया। हिरदार-ऋिषकेश मे ऐसे कई लोग है जो रपये
'ििकस िडपोििट' मे रखकर, िकराये के कमरे लेकर भजन करते है । उनका आशय ईशर नहीं है ,
उनका आशय सूद (ियाज) है , उनका आशय पेनशन है । ियाज खाकर जीते है और आिखर मे मूडी
(िन) का कया होगा यह िचनता करते-करते िवदा होते है । िजनहोने बाहर के बडे -बडे आशय
बनाकर भजन िकया उनके भजन मे कोई सिलता नहीं आयी। िजनहोने बाहर के सब आशयो को
लात मार दी, िु करा िदया, पूणव रपेण ईशर के होकर घर से चल पडे उनको भजन की सब
सुिविाये िमल ही गई। खाना-पीना, रहन-सहन का इनतजाम अपने आप होता रहा और भजन भी
िल गया। ियाज के रपयो पर जीनेवालो की अपेका ईशर के आिार पर जीनेवालो को अििक
सुिविाएँ िमल जाती है ।
हमारा ही उदाहरण दे ख लो, हम दो भाई थे। भाई से अपना िहससा लेकर 'ििकस
िडपोििट' मे रखकर ििर भजन करते, एकानत मे कमरा लेकर सािना करते तो अभी तक वहीं
माला घुमाते रहते। सब आशय छोडकर ईशर के शरण गये तो हमारे िलए ईशर ने कया नहीं
िकया? िकस बात की कमी रखी है उस पयारे परमातमा ने? हम लोगो के समपण
व की कमी है जो
परमातमा की गिरमा का, मिहमा का पता नहीं लगा सकते, इस िदवय वयवसथा का लाभ नहीं उिा
सकते। परमातमा अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखता।अनुकम
हम तो घरवालो को सूचना दे ते है िक, 'ऐसे रहना, वैसे रहना, करकसर से जीना। हम
भजन को जाते है ।' पीछे की रिससयाँ िदमाग मे लेकर भजन करने जाते है तो ििर आतमिनिा
भी ऐसी कंगली ही बनेगी। मार दो छलांग ईशर के िलए....। अननत जनमो से बचचे, पिरवार होते
आये है । उनका पारिि वे जाने। मेरा तो केवल परमातमा ही है और परमातमा का मै हूँ। ऐसा
करके जो लग पडते है उनका कलयाण हो जाता है ।
एक माई घर से जा रही थी। पडोिसन को सूचना दे ने लगीः 'अमथी बा ! मै सती होने जा
रही हूँ। मेरे रसोई घर का दरवाजा खुला रह गया है , वह बनद कर दे ना। मेरे बचचो को नहलाकर
सकूल भेजना।'
अमथी बा हँ सने लगी।
'कयो हँ सती हो?' माई ने पूछा।
'तू कया होगी सती?'
'हाँ हाँ, मै जा रही हूँ सती होने के िलए।'
'चल चल, आयी बडी सती होने वाली।'
माई समशान की ओर तो चली लेिकन सोचने लगी िक जाने वाला तो गया। अब अपने
िलए तो नहीं लेिकन छोटे बचचो के िलए तो जीना चािहए। वह घर वापस चली आयी।
लोग ईशर-भजन के िलए घर-बार तो छोडते है लेिकन िकसी सेि के यहाँ रपये जमा कर
जाते है । वह सेि हर माह रकम भेजता रहता है । ऐसे भजन मे बरकत नहीं आयेगी। अननय का
सहारा छोड िदया और एक वयिि मे सहारा ढू ँ ढा। अखणड के सहारे को भूलकर खणड के सहारे
िजये।
एक वे सािू है जो रपये पैसे सँभालते नमद
व ा की पिरकमा करते है । उनके रपये पैसे भील
लोग छीन लेते है । लेिकन जो सािू सबका सहारा छोडकर ईशर के सहारे चल पडता है उसको
सब वसतुएँ आ िमलती है । जहाँ कोई वयिि दे नेवाला नहीं होता वहाँ नमद
व ाजी वद
ृ ा का रप लेकर
आ जाती है । चीज-वसतु दे कर दे खते-दे खते ही अदशय हो जाती है । कइयो के जीवन मे ऐसी
घटनाएँ दे खी गई है ।
उपिनषद का जान आदमी का सब दःुख, पाप, थकान, अजान, बेवकूिी हँ सते हँ सते दरू कर
दे ता है ।
जो परमातमा को बह को सब मे पगट दे खता है उसके िरिद-िसिद, दे वी-दे वता सब वश मे
हो जाते है । इतने जरा-से जान मे डट जाओ तो बाकी का सब तुमहारी सेवा मे साथक
व होने
लगेगा। समाट के साथ एकता कर लो तो सेना, सेनापित, दास-दािसयाँ, सूबेदार, अमलदार सब िीक
हो जाते है । ऐसे ही िवश के समाट बह-परमातमा का पूरा विादार हो जा, ििर िवश का पूरा
माल-खजाना तेरा ही है । िकतना अचछा सौदा है यह ! अनयथा एक एक चपरासी, अमलदार को
जीवनभर िरझाते मर जाना है ।अनुकम
जो एक ईशर से िीक पकार ईमानदारी पूवक
व चलता है , बह मे पितिित हो जाता है , जो
परमातमा से आकिषत
व हो जाता है , उसकी तरि सब भूत, पदाथव, वसतुएँ आकिषत
व हो जाती है ।
दे वता उसके िलए बिल ले आते है । जैसे दो िकलो के लोह चुमबक से आिे िकलो की पलेट जुड
गई। उस पलेट से और छोटे -छोटे लोह के कण जुड गये। कयो? कयोिक पलेट का मैगनेट से
तादातमय हो गया है इसी से लोहे के कण उससे पभािवत हो गये है । वे तब तक ही पभािवत
रहे गे जब तक लोहे की पलेट मैगनेट से जुडी है । मैगनेट को छोडते ही लोहे के कण पलेट को छोड
दे गे।
ऐसे ही मैगनेट परमातमा से तुमहारी बुिद जुडी है तो लोग तुमसे जुड जायेगे। परमातमा
से िवमुख होने का कारण है 'मै' पना, अहं ता और वसतुओं मे ममता। अहं ता और ममता से
आदमी परमातमा से िवमुख होता है । अहं ता और ममता का तयाग करने से परमातमा के सममुख
हो जाता है ।
महान ् होने की मिहमा भी बताई जा रही है , इलाज भी बताया जा रहा है , जो महान हुए है
उनके नाम भी बताये जा रहे है – सवामी रामतीथव, नानक, कबीर, तुकाराम, एकनाथ, जानेशर, मीरा,
रामकृ षण, रमण, संत लीलाशाहजी बापू, सहजो, मदालसा, गागी, मलुकादास, रामनुजाचायव, शंकराचायव
आिद आिद।
सब कुछ छोड कर वे संत ईशर के रासते चले। कुछ भी नहीं था उनके पास, ििर भी सब
कुछ उनका हो गया। िजनहोने अपना राजपाट, िन-वैभव, सता-समपित आिद सब समभाला, उनका
आिखर मे कुछ अपना रहा नहीं। िजनहोने अहं ता-ममता छोडी उन संत-महापुरषो को लोग अभी
तक याद कर रहे है , शीकृ षण को, रामजी को, जनक को, जडभरत जी को।
अगर िनविृत-पिान पारिि है तो उनके पास वसतुएँ नहीं होगी। पविृत सािन पारिि है
तो वसतुएँ होगी। वसतुओं का होना न होना। इससे बडपपन-छोटापन नहीं होता है । तुम ईशर से
िमलते हो तो बडपपन है , वसतुओं की गुलामी करनी हो तो छोटापन है । एकदम सरल सीिी बात
है । वेद भगवान और उपिनषद हमसे कुछ िछपाते नहीं।
'यह जो सब कुछ िदखता है वह सब वासतव मे ईशर है , आतमा है , बह है ' – ऐसा जो
दे खता है वह वासतव मे दे खता है । वह सब वसतुओं को सब सुखो को पा लेता है । मुिि तो
उनके हाथ की बात है । अपनी िनजी मूडी (पूंजी) है । सब बह है ।
कोई सोचे िक, 'सब बह है तो मजे से खाये, पीये, मौज उडाये, नींद करे ।' हाँ.... खाओ, िपयो
लेिकन इससे रजो-तमोगुण आयेगा तो िनिा दब जायगी। रजो तमोगुण आतमिनिा को दबा दे ते
है । रजो-तमोगुण उभर आयेगा तो 'सब ईशर है ' इस जान को दबा दे गा कयोिक अभी नये है न?
सवब
व ह का अनुभव अभी नूतन अनुभव है ।अनुकम
जब सवातवम-दिि हुई तब रोग, शोक, मोह पास नहीं िटक सकते। वेद ने कोई संिदगि
दिि से यह नहीं कहा, िबलकुल यथाथव कहा है । सवात
व म-दिि करो तो रोग-शोक, िचनता, भय, सब
भाग जायेगे।
िवषय का दःुख और िचंताओं का िवचार करके, के के करके कयो िसकुडता है भैया? जो
कुछ होगा, तेरे कलयाण के िलए होगा कयोिक भगवान का िविान मंगलमय ही है । िसवाय तेरे
मंगल के और कभी कुछ नहीं होगा। लेिकन खबरदार ! सब भगवान अपनी दब
ु ल
व ताओं को, िवकारो
को पोसना नहीं अिपतु तयाग, िमव, पेम और परमातमाभाव को पकट करना है । अरे यार! मनुषय
जनम पाकर भी शोक, िचनता, भय और भावी के िलए शंिकत रहे को बडे शमव की बात है । दःुख
वे करे िजसके माँ-बाप, सचचे नाते-िरशतेदार, कुटु मब-पिरवार सब मर गये हो। तेरे सचचे माँ-बाप,
सचचे नाते-िरशतेदार तेरा अनतयाम
व ी आतमा-परमातमा है । खुश बैि, मौज मे रह। कई वषव बीत गये
ऐसे यह वषव भी बीत जायेगा। यह बात पककी रख। िदल मे जमा ले। ईशर के नाते कायव कर।
अपने सवाथव और वयिितव के समबनि मे कतई सोचना छोड दे । इससे बिढया, ऊँची अवसथा और
कोई नहीं है । तेरे िलए मानव तो कया, यक, िकननर, गंिवव और दे वता भी लोहे के चने चबाने के
िलए ततपर रहे गे।
आजमा कर दे ख इस नुसखे को। संदेह को गोली मार। ॐ का मिुर गुज
ं न कर। आतमसथ
हो। लडखडाते हुए िचिनतत होकर, बोिझल मन बनाकर संसार के कायव मत कर। कुलीन
राजकुमार की तरह खेल समझकर संसार के वयवहार को चतुराई से कर। लेिकन याद रखः
कताप
व न को बार-बार झाड िदया कर। ििर तेरा जीवन हजारो के िलए अनकरणीय न हो जाये तो
विा को समुि मे डु बा दे ना। लेिकन साविान ! पहले तू अपने को ईशरीय समुि मे डु बाकर दे ख।
वासतव मे जैसा तुमहारा िचत होता है वैसे िचत और सवभाव वाले तुमहारे पास आकिषत

हो जाते है । औरो की अवसथा पर भला बुरा िचनतन करते रहने से कभी झगडा िनपटता नहीं।
दस
ू रे लोगो को कया पकडना? सोचो और अनुभव करो िक, 'सब मनो का मन मै हूँ, सब िचतो का
िचत मै हूँ।' अनदर से ऐसी एकता है िक अपने को शुद करते ही सब शुद ही शुद पाओगे।
अपने मे दोष होता है तभी िकसी के दोष का िचनतन होता है । सबका मूल अपना
आतमकेनि है । अपने को िीक कर िदया तो सारा िवश िीक िमलेगा। अपने को िीक कोई पद
पितिा से, कायदा-कानून से, रपये-पैसे से या चीज-वसतुओं से थोडे ही िकया जाता है । कुिवचारो
से अपने को खराब कर िदया, अब सुिवचारो से और सतकृ तयो से अपने को िीक कर दो। िवचार
जहाँ से उिते है उसमे िहर गये तो परम िीक हो गये।अनुकम
जो लाभ हो गया सो हो गया, जो घाटा हो गया सो हो गया, जो बन गया सो बन गया,
िबगड गया सो िबगड गया। संसार एक िखलवाड है । उसमे कया आसथा करना? अपनी
आतममसती नशर पिरिसथितयो के िलए कया तयागना? तू तो भगवान शंकर की तरह बजा शंख
और 'िशवोऽहं ' के गीत गा।
अपने आपको बहमय करते नहीं और दस
ू रो को सुिारने मे लग जाते है । बहदिि करने
के िसवा अपने वासतिवक कलयाण का और कोई चारा नहीं है । वैरी, िवरोिी, शतुओं के दोषो को
कमा करते इतनी दे र भी न लगाये िजतनी दे र शी गंगाजी ितनका बहाने मे लगाती है । जब तक
पदाथो मे समदिि नहीं होती तब तक समािि कैसी? 'समािि' माने सम+िी। समान बुिद, समान
दिि।
सतसंग मे रिच नहीं होती तो सतय मे पितिा कैसी? िवषयातमक दििवाले को योग
समािि और धयान तो कहाँ, िारणा भी होनी असंभव है । समदिि तब होगी जब लोगो के िवषय
मे भलाई-बुराई की भावना उि जाये। भलाई-बुराई की भावना दरू कैसे हो? लोगो को बह से
िभनन मानकर अचछे बुरे की जो कलपना कर रखी है वह कलपना न करे । समुि मे जैसे तरं गे
होती है कोई छोटी कोई बडी, कोई ऊँची कोई नीची, कोई ितरछी कोई सीिी, उन सब तरं गो की
सता समुि से अलग नहीं मानी जाती। उनका जीवन सागर के जीवन से िभनन नहीं जाना
जाता। इसी पकार भले बुरे आदमी, अमीर गरीब लोग तो उसी बह-समुि की तरं गे है । सब मे
एक ही बह-समुि िहलोरे ले रहा है ।
जैसे छोटी-बडी तरं गे, िेन, बुदबुदे सब समुि से एक है ऐसे ही अचछे बुरे, छोटे -बडे , अपने
पराये सब आतम समुि की तरं गे है । ऐसी दिि करने से सारे दःुख, शोक, िचनताएँ, िखंचाव, तनाव
शानत हो जाते है । राग-दे ष की अिगन बुझ जाती है । छाती मे िणडक पड जाती है । रोम-रोम मे
आहाद आ जाता है । िनगाहो मे नूरानी नूर चमकने लगता है । आतम िवचार मात से ततकाल
कलयाण हो जाता है । सारे दःुख, सारी िचनताएँ, सारे शोक, पाप, ताप, संताप उसी समय पलायन हो
जाते है । सूयोदय होता है तब अनिकार पूछने को थोडे ही बैिता है िक मै जाऊँ या न जाऊँ।
िदया जला तो अनिकार छू.......। सूयोदय हुआ तो राित छू....। ऐसे ही आतमजान का पकाश
होते ही अजान और अजानजिनत सारे दःुख, शोक, िचनता, भय, संघषव आिद सारे दोष पलायन हो
जाते है । वयापक बह को जो अपना आतमा समझता है । उसके िलए दे वता लोग भी बिल लाते
है - सवै ऽिसम देवा बिल माहविनत । (तैित. उप. 1.5.3) यक, िकननर, गनिवव उसकी चाकरी मे लग
जाते है । चीज वसतुएँ उसकी सेवा मे लगने के िलए एक दस
ू रे से सपिाव करती है । ऐसा बहवेता
होता है ।
जो तरं ग सागर से ऊँची उि गई है वह अवशय वापस िगरे गी ही। इसी पकार िजस पुरष
मे खोटापन घुस गया है उसे अवशय दःुख पाना है । तरं गो के ऊँच और नीच भाव को पाप होने
पर भी समुि की सपाटी को िकितज िरातल ही माना जाता है । इसी तरह बीज रप लोगो के
कमव और कमि
व ल को पाप होते रहने पर भी बह रपी समुि की समता मे कोई िकव नहीं
पडता।अनुकम
लहरो का तमाशा दे खना भी सुखदायी और आननदमय होता है । जो पुरष इन लहरो से
भीग जाये या उसमे डू बने लगे तो उसके िलए उपिवरप है । ऐसे ही कताव भोिापन से भीग गये
तो तकलीि उिानी पडे गी। िनलप
े साकी रहे आननद ही आननद है ।
उपासना का पाण समपण
व और आतमदान है । इसके िबना उपासना िनषिल है , पाण रिहत
है । भैया ! तब तक तुम अपनी खुदी और अहं कार परमेशर के हवाले न करोगे तब तक परमेशर
तुमहारे साथ कैसे बैिेगे? वे तुम से दरू ही रहे गे, जैसे भगवान कृ षण कालयवन से दरू रहते थे।
कोई सोचे िक, 'चलो भजन-उपासना करके दे खे, िल िमलता है या नहीं' – तो यह परीका
का भजन असंगत और असंभव है । यह भजन ही नहीं है । भजन, िनषकपट भजन तो वह है
िजसमे भि अिगन मे आहूित की तरह िल और िल की इचछा वाले अपने आपको परमेशर के
हवाले कर दे ता है , पूणव समिपत
व हो जाता है ।

बीते हुए समय को याद न करना, भिवषय की िचनता न करना
और वतम
व ान मे पाप सुख-दःुख आिद मे सम रहना ये जीवनमुि
पुरष के लकण है ।
ॐॐ

सवात ंतय का माग व


इिनियो पर और मन पर िवजय पाने की चेिा करो। अपनी कमजोिरयो से साविान रहो।
िीरज के साथ परमातमा पर भरोसा रखकर इिनियो को बुरे िवषयो की ओर जाने से रोको। मन
को पभु-िचनतन या सत ्-िचनतन के कायव मे रोककर कुिवषयो से हटाओ।
जब तुमहारे शरीर, मन और वाणी-तीनो शुद होकर शिि के भणडार बन जायेगे तभी तुम
वासतव मे सवतंत होकर महाशिि की सचची उपासना कर सकोगे और तभी तुमहारा जनम-जीवन
सिल होगा। याद रखोः िजस पिवतातमा पुरष के शरीर इिनियाँ और मन अपने वश मे है और
शुद हो चुके है वही सवतनत है । परं तु जो िकसी भी िनयम के अिीन न रहकर शरीर का इिनियो
का और मन का गुलाम बना हुआ मनमानी करना चाहता है , कर सकता है या करता है वह तो
उचछृंखल है । उचछृंखलता से तीनो की शिियो का नाश होता है और वह ििर महाशिि की
उपासना नहीं कर सकता। महाशिि की उपासना के िबना मनुषय का जनम-जीवन वयथव है और
पशु से भी गया-बीता है । अतएव शिि संचय करके सवतंत बनो।अनुकम

वैभव का भूषण सज
ृ नता है । वाणी का संयम अथात
व ् अपने मुख से शौयव-पराकम का
वणन
व न करना शौयव-पराकम की शोभा है । जान का भूषण शािनत है । नमता शास के शवण को
शोभा दे ती है । सतपात को दान दे ना दान की शोभा है । कोि न करना तप की शोभा है । कमा
करना समथव पुरष की शोभा है । िनषकपटता िमव को शोभा दे ती है ।

बह चय व रकाः राित मे दस गाम गोद पानी मे िभगो दे । सुबह उस गोद का पानी लेने से
वीयि
व ातु पुि होती है । बहचयव की रका मे सहायता िमलती है ।
ॐॐॐ

इिनिय -िवजयः स ु ख व सामथय व का सोत


अिावक महाराज ने जनक के दरबार मे शासाथव करके जब बनदी को हरा िदया तो बनदी
वरणलोक मे भेजे हुए बाहणो को वापस लाये। अिावक के िपता कुहुल बहण भी वापस लौट
और उनहोने अिावक को आशीवाद
व िदया।
समय बीतता गया। अिावक उमरलायक हुए। िपता के मन मे वदानय ऋिष की सुशील
कनया के साथ अिावक का िववाह करने का भाव आया। उनहोने वदानय ऋिष को कहाः "भगवन!
आपकी सवग
व ुण संपनन, सुशील, कम बोलने वाली, िवदष
ु ी, शासो मे पीितवाली, मन एकाग करने मे
रिचवाली, सचचािरतयवती कनया मेरे पुत अिावक को ियाह दो हमे बहुत पसननता होगी।"
वदानय ऋिष ने कहाः "हमारी दो शते है । आपके सुपुत अिावक मुिन कैलास जाकर
िशवजी का दशन
व करे और कुबेर के यहाँ अपसरा, गनिवव, िकननर, दे व आिद नतृय करते है , गायन
करते है उनकी महििल मे रहे । उस सुहावनी महििल मे रहने के बाद भी अगर आपके पुत
बहचारी रहे , िजतेिनिय रहे तो दस
ू री एक शतव पर उनहे सिल होना पडे गा।"
"हे मकूट पवत
व के पास एक सुनदर सुहावना आशम है । उस आशम मे योिगिनयाँ रहती है ।
अित रपलावणयवती, आकषक
व चमक-दमक से युि िहलचाल करने वाली, पितभासंपनन उन
योिगिनयो के यहाँ कुछ समय तक अितिथ बनकर रहे ििर भी उनका बहचयव अखणड रहे ,
िजतेिनियता बनी रहे तो मै अपनी कनया अिावक को दान कर सकता हूँ।"
अिावक मुिन को पता चला। वे कैलास की ओर चल पडे ।
िजतातमनः प शानतसय परमातमा समा िहत ः।
शीतोषणस ुखद ु ःखेष ु त था मानापमान योः।।
"सरदी-गरमी, सुख-दःुख, मान अपमान आिद मे िजसके अनतःकरण की विृतयाँ भली भाँित
शानत है , ऐसे सवािीन अनतःकरण वाले पुरष के जान मे सिचचदाननद परमातमा समयक पकार
से िसथत है अथात
व ् उसके जान मे परमातमा के िसवा अनय कुछ है ही नहीं।" (भगवदगीताः 6.7)
अनुकम
शीत-उषण, सुख-दःुख, अनुकूलता-पितकूलता आिद दं दो से जो िवचिलत नहीं होता, आकिषत

नहीं होता वह िजतेिनिय पुरष हर केत मे सिल होता है । आपमे िजतनी िजतेिनियता होगी
उतना आप मे पभाव आयेगा। िजतनी िजतेिनियता होगी उतना आनतिरक सुख पाने की शिि
आयेगी। िजतनी आनतिरक शिि होगी उतना आप िनिषिकर होकर िजयेगे, िनदवनद होकर िजयेगे,
िनबन
व ि होकर िजयेगे। इसका मतलब यह नहीं है िक आपके सामने दनद आयेगे ही नहीं। सदी
आयेगी, गमी आयेगी, मान आयेगा, अपमान आयेगा, यश आयेगा, अपयश आयेगा लेिकन पहले जो
ितनके की तरह िहलडु ल रहे थे, सूखे पते की तरह झरझरा रहे थे वह अब नहीं होगा, अगर आप
मे िजतेिनियता आ गई तो।
दिुनया मे सब सुिविा का सामिगयाँ है लेिकन मन तुमहारा एकाग नहीं है , िजतेिनियता
के मागव पर आपने याता नहीं की तो महाराज ! सब सुख-सुिविाएँ और बडे आदिमयो के साथ
समबनि होते हुए भी अखबार पढकर, रे िडयो सुनकर, टी.वी. दे खकर अथवा िकसी के दःुख-सुख या
दरोडे सुनकर भी िदन मे न जाने िकतनी बार तुमहारी िडकन तेज हो जायेगी। अगर मन और
इिनियो पर कुछ िवजय पाई हुई है तो तुम िवघन बािाओं के बीच भी मजे से झूमोगे, खेलोगे।
बाहर के सािन पाणी का इतना िहत नहीं कर पाते िजतना उसके मन की एकागता उसका िहत
करती है ।
अिावक मुिन कैलास पहुँचे। कुबेर जी आये और अगवानी कर अपने आलीशान आलय मे
ले गये जहाँ यक-यिकिणयाँ, िकननर-गनिवव खूब मजे का नाच-गान करते थे। अिावक मुिन उनके
अितिथ हो गये, इरादे पूवक
व कई िदन रहे और खूब दे खते रहे । बाद मे उनहोने आगे की याता की।
हे मकूट पवत
व की तरि आये और मिहलाओं के सुनदर, सुहावने, भवय आशम का बयान सुना था
वहाँ पहुँचे। बाहर से आवाज लगायीः
"इस एकानत, शानत, सुहावने, रमणीय पुषपवािटकाओं मे सजेिजे वातावरण मे अित
मनोरमय जो आशम है , इस आशम मे अगर कोई रहता हो तो मै अिावक मुिन, कुहुल बाहण का
पुत और उदालक ऋिष का दौिहत अितिथ के रप मे आया हूँ। मुझे अपने आशम का अितिथ
बनाये।"
एक बार कहा, दस
ू री बार कहा और तीसरी बार जब दोहराया तो सात कनयाएँ रप-
लावणय-ओज-पभाव से सजीिजी आई और अिावक मुिन का अिभवादन करके उनहे आशम के
भीतर ले गई। वहाँ तीथो का जल मँगवाकर सुवणव के रतजिडत कलशो से अिावक मुिन को
सनान कराया, उनका पूजन िकया। कथा कहती है िक अिावक मुिन को तमाम पकार के वयंजन
अिपत
व करके पंखा डु लाते हुए, हासय-िवलास और इिनियो मे उतेजना पैदा करे ऐसा वातावरण
उनहोने तैयार िकया।अनुकम
अिावक मुिन भोजन कर रहे है , हँ सने के समय हँ स रहे है , लेिकन िजससे हँ सा जाता है ,
उसका उनहे पूरा खयाल है । भोजन करते समय भोजन कर रहे है लेिकन िजसकी सता से दाँत
भोजन चबाते है उस सता का पूरा समरण है । जैसे गिभण
व ी सी को आिखरी िदनो मे रटना नहीं
पडता िक मै गिभण
व ी हूँ। चलते-ििरते, हर कदम उिाते उसे समिृत रहती है । ऐसे ही जो
िजतेिनिय है , आतमारामी है उनको हर कायव करते हुए अपने सवरप की समिृत रहती है । इसीिलए
वे िजतातमा होते है ।
'रही द ु िनया मे द ु िनय ा खा ँ रह े आजाद थो जानी। '
दिुनया मे रहते हुए दिुनया से िनराला। लोगो के बीच रहते हुए लोकेशर मे। ऐसे मुिन
वयंजनो को परखकर खा रहे है । बहुत सुनदर पकवान बनाये है । चटनी बहुत सुनदर है । बहुत
सुनदर कहते समय भी जो 'परम सुनदर है । उसी की खबर से ही सुनदर कहा जा रहा है ' यह मुिन
को िीक से याद है । पकवान अचछे िदख रहे है । अचछा िदख रहा है िजससे, उसको दे खते हुए
कह रहे है िक अचछे िदख रहे है ।
यह कथा मै इसिलए कह रहा हूँ िक काश ! यह समझ तुमहारे पास भी आ जाये तो आज
की िुलेटी तुमहारा बेडा पर कर सकती है । कयोिक तुम भी तो खाओगे, जाओगे, आओगे, लेिकन
खाने, जाने, आने के साथ-साथ िजससे खाया जाता है , जाया जाता है , आया जाता है उस पयारे को
अगर साथ मे रखकर यह सब करोगे तो बेडा पार हो जायेगा।
मुिन ने तमाम पकार के वयंजनो का रसासवादन िकया।
अजानी आदमी काम छोडकर सोता है , काम छोडकर िवलास मे डू बता है और जानी काम
िनपटा कर मजा लेते है । अजानी मूढ िजस काम को करने के िलए उसे मनुषय जनम िमला है
वह काम छोडकर संसार के वयंजनो का उपभोग करने लग जाता है । उस बेचारे को पता नहीं िक
उपभोग करते करते तेरा ही उपभोग हो रहा है । भतह
वृ िर िीक ही कह रहे है -
भो गा न भ ुिा ः वयम ेव भ ुिाः
तपो न तप ं वयम ेव तपा ः।
कालो न यातो वयम ेव याताः
तृ षणा न जीणा व वयम ेव जीणा व ।।
"भोग नहीं भोगे गये लेिकन हम ही भोगे गये। तप नहीं तपा लेिकन हम ही तप गये।
समय नहीं गया लेिकन हम ही (मतृयु की ओर) जा रहे है । तषृणा कीण नहीं हुई लेिकन हम ही
कीण हो गये।"
(वैरागयशतक)
भोगो को तू कया भोगता है , भोग तुझे भोग लेगे। िमिाइयो को और माल को तू कया
चबाता है , माल-िमिाइयाँ तुझे जीणव-शीणव कर दे गी। दाँत िनकल जायेगे। 'बोखा काका' बन जायेगा
भाई ! जयादा िवषय िवलास मे अपना समय मत गँवा। अपने समय को िजतातमा होने मे लगा
दे ।अनुकम
अगर तू गाँि बाँि ले, दढता के साथ छः महीने तक िजतातमा होने का अभयास करे तो
महाराज ! तेरा जीवन इतना सुनदर सुहावना हो जाये िक आज तक के बीते हुए जीवन पर तुझे
हँ सी आये िक नाहक मै बरबाद हो रहा था, नाहक मै अपने आपका शतु बन रहा था। केवल छः
महीने। लेिकन छः महीने ऐसा नहीं िक थोडी दे र कथा सुन ली, थोडी दे र तमाम लोगो के समपकव
मे रह लो, थोडी दे र अखबार पढ लो, थोडी दे र कुछ यह खा लो।
अिावक मुिन ने भी खाया था। खाया तो था पर कब खाया था? उनहोने भी खूब नाच-
गान दे खे थे। दे खे थे, जरर दे खे थे। उनहोने तो रपर दे खे थे। हम तो टी.वी. के ही दे खते है ।
लेिकन रबर दे खने पर भी उनके मन का पतन नहीं हुआ जबिक जवान टी.वी. के कुछ नाच-गान
दे खकर भी चलते-चलते और रात को उनकी कया बबाद
व ी होती है उसका बयान करना मेरी जीभ
की ताकत नहीं। ऐसे हो गये िक पडोस की बहन को बहन कहने लायक नहीं रहे , पडोस के भाई
को भाई कहने लायक नहीं रहे । ऐसा अिःपतन हो जाता है मन का।
आप नाराज तो नहीं होते न? मै आपको उलाहना नहीं दे रहा हूँ लेिकन आपको सजग कर
रहा हूँ। िकसी के दोष बताकर, उसको तुचछ बनाकर आप उसका कलयाण नहीं कर सकते। उसके
दोष बता कर उसको पयार करके महान ् बताकर आप उसे महान ् बना सकते है । 'ऐ लडके! तू ऐसा
है ... वैसा है ... तेरी यह गलती है .... वह गलती है .... तुझसे कुछ नहीं होगा....' ऐसा करके आप उसका
िवनाश कर रहे हो। उसमे कािी संभावना है महान ् होने की। उलाहना दे ना हो तो मीिा उलाहना
दो। अगर पराये होकर दोगे, उसे कुचलोगे तो उसकी बुिद भी बलवा करे गी, िदल खटटा हो
जायेगा। चाहे आपकी बात सचची हो लेिकन उस वि वह बेटा एक न मानेगा। 'अब नहीं करता
जाओ, तुमहे जो करना हो सो कर लो।' ऐसे सामने पड जायेगा।
िजस पकार संत पुरष लोगो को मोडते है उसी पकार आप यिद कुटु मबीजनो को, पडोिसयो
को मोडे तो आपकी गैरहािजरी मे भी वे लोग आपके बताये मागव पर चलते रहे गे। संतो की
अनुपिसथित मे भी तुम लोग जप-धयान करते हो िक नहीं? माला घुमाते हो िक नहीं? इसी पकार
वे लोग भी आपकी बात मानेगे।
उन सात सलोनी कुमािरकाओं ने अिावक मुिन को भोजन कराया। उस आशम की मिहला
ने भी कह रखा था िक मुिन आतमवेता है , अपने सवरप मे पितिित है और जनक राजा जैसे
इनके िशषय है । िजतनी हो सके उतनी सेवा करो। बहजानी का द शव न ब डभागी पाव ै।
िजनका दशन
व बडे भागयवान को होता है , उनकी सेवा तुमको िमल रही है ।अनुकम
बहजा नी का दश व न बड भागी पाव ै।
बहजा नी को बल बल जाव ै।।
जे को जनम म रण से डर े।
सा ि जना ं की शरणी पड े।।
जे का अपना द ु ःख िमटाव ै।
सा ि जना ं की स ेवा पाव ै।।
जो अपना दःुख िमटाना चाहता है वह आतमजानी संत महापुरष की सेवा पा ले। उनके
पैर दबाना ही सेवा नहीं लेिकन वे जैसे भी सनतुि और पसनन होते हो वह सब कायव करके भी
आप सिल होते है तो आपने दिुनया मे बडे से बडा, ऊँचे से ऊँचा सौदा कर िलया। कोई एक का
डे ढ करता है , कोई एक का दो करता है , कोई चार करता है , अरे ! दस भी करता है लेिकन ििर
भी यह िनिा इतना िायदावाला नहीं। बहवेता के िदल को पसनन करने के िलए आपने थोडा
समय लगा िदया तो आपने बहुत लाभ पा िलया। आपने बहुत कमाई कर ली अपनी और ऐसी
कमाई का िनजी अनुभव है इसिलए आपसे कहता हूँ।
दिुनयादारो को िरझाते िरझाते बाल सिेद हो जाते है और खोपडी िघस जाती है । ििर भी
वह लाभ नहीं होता िजतना लाभ एक बहवेता शी लीलाशाह भगवान को िरझाने से हुआ है । यह
मुझे पतयक जात है । शी राम कृ षण को नरे नि ने िरझाया और नरे नि को जो लाभ हुआ उसका
बयान कैसे िकया जाये ! नरे नि बोलते है -
"मुझ से जयादा पढे -िलखे िवदान पिणडत काशी मे है और सकूल-कालेजो मे मुझे पढाने
वाले पोिेसरो के पास कािी सूचनाएँ और 'कोटे शनस' है । भाइयो ! ििर भी मेरी वाणी सुनकर तुम
गदगद होते हो और ईशर के रासते चल पडते हो, मुझे िदलोजान से पयार करते हो तो मैने अपने
गुरदे व को िदलोजान से पयार िकया है , इसी का यह नतीजा है । इसीिलए आप हजारो लोग मुझे
पयार कर रहे हो।"
ईशकृपा िबन गुर नही ं ग ु र िबना नही ं जान।
जान िबना आतमा नह ीं गाविह ं व ेद प ुरान।।
अिावक मुिन की उनहोने खूव सेवा की। राित हुई। एक िवशाल सुनदर खणड सजाया गया।
सुवणव का पलंग, रे शम के िबछौने, वस, िूल इत का िछडकाव। इत भी ये आज के 'परफयूमस'
आिद जो 'केिमकलस' से बनते है वे नहीं। वे तो उतेजना पैदा करते है , हािनकारक है ।
डॉ. डायमणड ने िरसचव करके यनतो दारा सािबत कर िदया है िक 'परफयूमस' आिद लगाने
से जीवनशिि का हास होता है । एडी वाले सेनडल पहनने से जीवनशिि का हास होता है । िकसी
के यश, मान, ऊँचाई दे खकर ईषयाव, घण
ृ ा करना, िकसी को िगराना आिद दोषकारक विृतयो से भी
जीवन-शिि का हास होता है । एक बीडी पीने से शरीर मे बीस िमनट के अनदर टार और
िनकोिटन नाम के जहर िैल जाते है । इतना ही नहीं, उस कमरे मे िजतने भी आदमी बैिे हो उन
सबको वह हािन उतनी की उतनी माता मे होती है िजतनी बीडी िसगरे ट पीने वाले को होती है ।
हम अिावक मुिन को नहीं भूलेगे। मुिन शयनखणड मे गये और उन सात सुनदिरयो ने
भली पकार उनकी चरणचमपी की। मुिन जब िनिागसत होने लगे तब कहाः "बहनो ! (कया भारत
के मुिन है ! हद दो गई !!) अब तुम अपनी जगह पर जाकर शयन करो। अगर वहाँ जगह कम
हो तो जो वद
ृ ा अिििाती है वे यहाँ शयन कर सकती है ।"
वह वद
ृ ा आई। उन लडिकयो की अपेका वह वद
ृ ा थी लेिकन वह बुिढया नहीं थी, शबरी
की भाँित वद
ृ ा नहीं थी। वह मिहला अपना पलंग सजा कर सो गई।अनुकम
मुिन िनिागसत हुए। मधयराित को वह मिहला अपने पलंग से उिी और मुिन के पलंग मे
सो गई। मुिन को आिलंगन करके अपने शरीर से उनहे हे त करने लगी। लेिकन मुिन तो जहाँ से
मन िुरता है , इिनियो को िवषयो मे िगरने की सममित दे नेवाली बुिद को जहाँ से सता सिूितव
आती है उस परम सता मे िवशािनत पाये हुए है ।
एक तो बाहर से आकषण
व आते है और दस
ू रे भीतर से आकषण
व पैदा होते है । भीतर से
आकषण
व तब पैदा होते है जब आकिषत
व करनेवाले पदाथो के िकसी जनम के संसकार भीतर पडे
है । इसिलए भीतरी आकषण
व होता है । बाहर से आकषण
व तब होता है जब बाहर कोई िनिमत
बनता है । ये दोनो, भीतर का आकषण
व और बाहर का आकषण
व , होते है मन मे। मन जब इिनियो
के पक मे होता है और बुिद कमजोर होती है तो बुिद मन के सुझाव पर हसताकर कर दे ती है ।
बुिद अगर हसताकर न करे तो मन आकषक
व पदाथो की और ििसल नहीं सकता। बुिद अगर
हसताकर करती है तो मन आकषक
व पदाथो एवं पिरिसथितयो मे िगरता है । बुिद अगर दढ है तो
मन नहीं िगरता।
िजनहोने दढ तिव का साकातकार िकया है और परीका से उतीणव होना है ऐसी िजनकी
खबरदारी है ऐसे अिावक मुिन को वह मिहला आिलंगन करके बाहो मे लेकर इिर से उिर
डु लाती है , उिर से इिर िहलाती है लेिकन मुिन पगाढ िनिा मे है ऐसा एहसास उसे करा रहे है ।
आिखर जब उस मिहला ने थोडी अितशयता की तब मुिन ने आँखे खोलीं और बोलेः
"माता ! तू िकतनी दे र से मुझे अपनी गोद मे खेला रही है ! माँ, मेरी नींद टू ट गई है ।"
मिहला बोलीः "माँ माँ कया करते हो? मै तुमहारा यौवन, तुमहारी पसननता, तुमहारी िनिा,
तुमहारा आनतिरक सौनदयव दे खकर काम से पीिडत हो रही हूँ। मैने इतनी तुमहारी सेवा करवाई तो
तुम मेरी इतनी इचछा पूरी करो।"
मुिन बोलेः "उन बिचचयो को मैने बहन माना है । तुमको मै माता मान रहा हूँ। माता !
मुझे आशीवाद
व दो िक मै वदानय ऋिष की परीका मे सिल हो जाऊँ।"
मिहला ने उिर इिर की बाते कर के ििल ििसलाने की चेिा की पर मुिन अनदर से दढ
थे। आिखर उस मिहला ने अपना रप पकट िकया और कहाः "मै सािारण मिहला नहीं हूँ। मै
उतर िदशा की अिििाती दे वी हूँ। ये मेरी पिरचािरकाएँ है । मुिन तुम िनय हो।"
अिावक घर लौट आये और िनयमानुकूल िववाह कर गहृसथाशम मे समय िबताने लगे।
अिावक के इिनिय-िवजयी होने से ही उनके तीथव मे तपण
व ािद करने से नरमेि यज का पुणय
होता है ।अनुकम

जो वासना स े ह ै ब ंिा , सो म ूढ ब निन य ुि ह ै।
िनवा व सन ा जो हो गया , सो िीर योगी मुि ह ै।
भव वासना है ब ाँिती , िश व-वासना है छोड ती।
सब बन िनो को तोडकर , िशव श ां ित स े ह ै जोडती।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जाग म ुसािि र
बलख बुखारा का शेख वािजद अली 999 ऊँटो पर अपना बावचीखाना लदवा कर जा रहा
था। रासता सँकरा था। एक ऊँट बीमार होकर मर गया। उसके पीछे आने वाले ऊँटो की कतार
रक गई। 'टाििक जाम' हो गया। शेख वािजद ने कतार रकने का कारण पूछा तो आदमी ने
बतायाः
"हजूर ! ऊँट मर गया है । रासता सँकरा है । आगे जा नहीं सकते।"
शेख को आशयव हुआः " ऊँट मर गया ! मरना कैसा होता है ?"
वह अपने घोडे से नीचे उतरा। चलकर आगे आया। सँकरी गली मे मरे हुए ऊँट को गौर
से दे खने लगाः
"अरे ! इसका मुँह भी है , गरदन और पैर भी मौजूद है , पूँछ भी है , पेट और पीि भी है तो
यह मरा कैसै?"
उस िवलासी शेख को तो पता ही नहीं िक मतृयु कया होती है । उस आदमी ने समझायाः
"जहाँपनाह ! इसका मुँह, गरदन, पैर, पूँछ पेट, पीि आिद सब कुछ है लेिकन इसमे जो जीवन है
उसका 'कनेकशन कट आउट' हो गया है , पाण पखेर उड गये है ।"
"तो...... अब यह नहीं चलेगा कया?"
"चलेगा कैसे। यह सड जाएगा, गल जायेगा, िमट जायेगा। जमीन मे दिन हो जायेगा या
गीि, चीले, कौवे, कुते इसको खा जायेगे।"
"ऐसा ऊँट मर गया ! मौत ऐसे होती है ।"
"हजूर ! मौत अकेले ऊँट की ही नहीं, बिलक सबकी होती है हमारी भी मौत हो जायेगी।"
''......और मेरी भी?"
"शाहे आलम ! मौत सबकी होती ही है ।"
ऊँट की मतृयु दे खकर शेख वािजदअली के िचत को झकझोरता हुआ वैरागय का तुिान
उिा। युगो से और जनमो से पगाढ िनिा मे सोया हुआ आतमदे व अब जयादा सोना नहीं चाहता
था। 999 ऊँटो पर अपना सारा रसोईघर, भोगिवलास की सािन-सामिगयाँ लदवाकर नौकर-चाकर-
बावची-िसपािहयो के साथ जा रहा था, उन सबको छोडकर उस समाट ने अरणय का रासता पकड
िलया, वह िकीर हो गया। उसके हदय से आजव
व भरी पाथन
व ा उिीः ' हे खुदा ! हे परवरिदगार ! हे
जीवनदाता ! यह शरीर कबसतान मे दिनाया जाये, सड जाये, गल जाये उसके पहले तू मुझे
अपना बना ले मािलक !" अनुकम
शेख वािजद के जीवन मे वैरागय की जयोित ऐसी जली िक उसने अपने साथ कोई सामान
नहीं रखा। केवल एक िमटटी की हाँडी साथ मे रखी। उसमे िभका माँग कर खाता था, उसी से
पानी पी लेता था। उसी को िसरहाना बनाकर सो जाता था। इस पकार बडी िवरिता से जी रहा
था।
अििक वसतुएँ पास रखने से वसतुओं का िचनतन होता है , उनके अिििान आतमदे व का
िचनतन खो जाता है , सािक का समय वयथव िबगड जाता है । एक बार वािजदअली हाँडी का
िसरहाना बना कर दोपहर को सोया था। कुते को भोजन की सुगनि आई तो हाँडी को सूघ
ँ ने
लगा, मुह
ँ डाल कर चाटने लगा। उसका िसर हाँडी के संकरे मुह
ँ मे िँस गया। वह कयाऊँ......
कयाऊँ.... करके हाँडी िसर के बल खींचने लगा। िकीर की नींद खुली। वह उि बैिा तो वह कुता
हाँडी के साथ भागा। दरू जाकर िसर पटका तो हाँडी िूट गई ! शेख वािजद कहने लगाः
"यह भी अचछा हुआ। मैने पूरा सामाजय छोडा, भोग वैभव छोडे , 999 ऊँट, घोडे , नौकर,
चाकर, बावची आिद सब छोडे और यह हाँडी ली। हे पभु ! तूने यह हाँडी भी छुडा ली कयोिक अब
तू मुझसे िमलना चाहता है । पभु तेरी जय हो!
अब पेट ही हाँडी बन जायेगा और हाथ ही िसरहाने का काम दे गा। िजस दे ह को दिनाना
है उसके िलए हाँडी भी कौन संभालता है ? िजससे सब संभाला जाता है उसकी मुहिबत को अब
सँभालूग
ँ ा।
आदमी को लग जाये तो ऊँट की मौत भी वैरागय जगा दे ती है । अनयथा तो कमबखत
लोग िपता को समशान मे जलाकर घर आकर िसगरे ट सुलगाते है । अभागे लोग माँ को समशान
मे पहुँचा कर वापस आकर वाइन पीते है । उनके जीवन मे वैरागय नहीं जगता, ईशर का मागव
नहीं सूझता।
तुल सी पूव व के पाप से हिर चचा व न स ुहाय।
जैस े जवर क े जोर स े भ ूख िव दा हो जाय।।
पूवव के पाप जोर करते है तो हिरचचाव मे रस नहीं आता। जैसे बुखार जोर पकडता है तो
भूख मर जाती है ।
हिरचचाव मे, ईशर-समरण मे, धयान-भजन-कीतन
व -सतसंग मे रस न आये तो भी वह बार
बार करता रहे , सतसंग सुनता रहे । समय पाकर पाप पलायन हो जायेगे और भीतर का रस शुर
हो जायेगा। जैसे िजहा मे कभी सूखा रोग हो जाता है तो िमसरी भी मीिी नहीं लगती। तब वैद
लोग इलाज बताते है िक िमसरी मीिी न लगे ििर भी चूसो। वही इस रोग का इलाज है । िमसरी
चूसते चूसते सूखा रोग िमट जायगा और िमसरी का सवाद आने लगेगा।
इसी पकार पापो के कारण मन ईशर-िचनतन मे, राम नाम मे न लगता हो ििर भी राम
नाम जपते जाओ, सतसंग सुनते जाओ, ईशर िचनतन मे मन लगाते जाओ। इससे पाप कटते
जायेगे और भीतर का ईशरीय आननद पगट होता जायेगा।अनुकम
अभागा तो मन है तुम अभागे नहीं हो। तुम सब तो पिवत हो, भगवत सवरप हो। तुमहारा
पापी अभागा मन अगर तुमहे भीतर का रस न भी लेने दे , ििर भी रामनाम के जप मे, कीतन

मे, धयान-भजन मे, संत-महातमा के सतसंग समागम मे बार-बार जाकर हिररस रपी िमसरी चूसते
रहो। इससे पाप रपी सूखा रोग िमटता जायगा और हिर रस की मिुरता हदय मे खुलती
जायेगी। तुमहारा बेडा पार हो जायेगा।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आतम -कलयाण म े िवल मब कयो ?


िकसी भी कमव का िल शाशत नहीं है । पुणय का िल भी शाशत नहीं और पाप का िल
भी शाशत नहीं। केवल जान का िल, परमातम-साकातकार का िल ही शाशत है , दस
ू रा कुछ
शाशत नहीं है ।
पुणय का िल सुख भोगकर नि हो जाता है । पाप का िल दःुख भोगने से नि हो जाता
है । इसीिलए शासकारो ने कहाः "पुणय का िल ईशर को समिपत
व करने से हदय शुद होता है ।
शुद हदय मे शुद सवरप को पाने की िजजासा जगती है । शुद सवरप को पाने की िजजासा
जगती है तब वेदानत-वचन पचते है ।
िकसी वयिि ने कुछ कायव िकया। उसको जयो का तयो जाना तो यह सामािजक सतय है ,
परम सतय नहीं है । परम सतय िकसी वयिि के वयिितव के इदविगदव नहीं रहता। उस सतय मे
तो अननत अननत वयिि और बहाणड पैदा हो होकर लीन हो जाते है , ििर भी उस सतय मे एक
ितनका भर भी हे रिेर या कटौती-बढौती नहीं होती। वही परम सतय है । उस परम सतय को पाने
के िलए ही मनुषय जनम िमला है ।
इस पकार का िदवय जान पाने का जब तक लकय नहीं बनता है तब तक िकसी न िकसी
अवसथा मे हमारा मन रक जाता है । िकसी न िकसी अवसथा मे हमारी बुिद सथिगत हो जाती
है , कुिणित हो जाती है ।
अवसथा अचछी या बुरी होती है । जहाँ अचछाई है वहाँ बुराई भी होगी। जहाँ बुराई है वहाँ
अचछाई की अपेका है । बुरे की अपेका अचछा। अचछे की अपेका बुरा। लेिकन अचछा और बुरा, यह
सारा का सारा शरीर को, अनतःकरण को, मन को बुिद को, 'मै' मान कर होता है । हकीकत मे ये
अनतःकरण, मन, बुिद 'मै' है ही नहीं। असली 'मै' को नहीं जानते इसिलए हर जनम मे नया 'मै'
बनाते है । इस नये 'मै' को सजाते है । हर जनम के इस नये 'मै' को आिखर मे जला दे ते है ।
अनुकम
असली 'मै' की अब तक िजजासा जगी नहीं तब तक मानी हुई 'मै' को सँभालकर, सँवार
कर, बचाकर, जीवन िघस डालते है हम लोग। मानी हुई 'मै' की कभी वाह वाह होगी कभी िननदा
होगी। 'मै' कभी िनदोष रहे गा कभी दोषी बनेगा, कभी काम िवकार मे िगरे गी, कभी िनषकाम होगी।
मानी हुई 'मै' तो उछलती, कूदती, िडमिडमाती, िकके खाती, अनत मे समशान मे खतम हो जायेगी।
ििर नये जनम की नई 'मै' सिजत
व होगी। ऐसा करते यह पाणी अपने असली 'मै' के जान के िबना
अननत जनमो तक दःुखो के चक मे बेचारा घूमता रहता है । इसीिलए गीताकार ने कहा है ः
न िह जान ेन सद शं पिव तिम ह िवदत े।
'जान के समान पिवत करने वाली और कोई चीज नहीं।' (गीताः4.38)
जब अपनी असिलयत का जान िमलता है तब बेडा पार होता है । बाकी तो छोटी
अवसथाओं से बडी अवसथाएँ आती है । बडी अवसथाओं से और बडी अवसथाएँ आती है । इन
अवसथाओं का सुख-दःुख अनतःकरण तक सीिमत रहता है ।
अवसथा का सुख दे ह से एक होकर िमलता है , लेिकन सतय का साकातकार जब दे ह से
एक होना भूलते है और परमातमा से एक होते है तब होता है , तब असली सुख िमलता है । शरीर
से एक होते है तब माया का सुख िमलता है , नशर सुख िमलता है और वह सुख शिि को कीण
करता है । परमातमा से जब एक होकर िमलते है , िजतनी दे र पिरिचछनन 'मै' भूल जाते है उतनी
दे र िदवय सुख की झलके आती है । चाहे भिि के दारा चाहे योग के दारा, चाहे तिविवचार के
दारा पिरिचछनन 'मै' भूलकर परमातमा से एक होते है तो परम सुख की झलके आती है । ििर
जब पिरिचछनन 'मै' समरण मे आता है तो आदमी शुद सुख से नीचे आ जाता है ।
िजतने पमाण मे इिनियगत सुख है , बाहर का आकषण
व है उतने पमाण मे जीवन नीचा है ,
छोटा है । लोगो की निर मे हम चाहे िकतने ही ऊँचे िदख जाये लेिकन िजतना इिनियगत सुख
का आकषण
व है , पलोभन है उतना हमारा जीवन परािीन रहे गा, नीचा रहे गा। िजतना िजतना िदवय
सुख की तरि जान है , समझ मे उतने हम वासतिवक जीवन की ओर होगे, हमारा जीवन उतना
ऊँचा होगा।
ऊँचा जीवन पाना कििन नहीं है । ििर भी बडा कििन है ।
मैने सुनी है एक घटना। वरराजा की बारात ससुराल पहुँची और सास वरराजा को पोखने
(ितलक करने) लगी। उस समय नागा सािुओं की जमात उिर आ िनकली। पुरानी कहानी है ।
अनपढ लोग थे। ऐसे ही थे जरा िविचत सवभाव के। सािुओं ने पूछाः
"यह माई लडके को ितलक िवलक कर रही है , कया बात है ?"
िकसी ने बतायाः "यह दल
ू हे का पोखणा हो रहा है ।"
नागाओं को भी पुजवाने की इचछा हुई। एक नागा दल
ू हे को िकका मारकर बैि गया पाट
और बोलाः
"हो जाये महापुरषो का पोखणा।"
उसका पोखणा हुआ न हुआ और दस
ू रा नागा आगे आया। पहले को िकका दे कर सवयं
पाट पर बैि गया।अनुकम
"हो जाये महापुरषो का पोखणा।"
इसी पकार तीसरा........ चौथा.......... पाँचवाँ........ नागा सािुओं की लाईन लग गई। दल
ू हा
तो बेचारा एक ओर बैिा रहा और 'हो जाये महापुरषो का पोखणा..... हो जाये महापुरषो का
पोखणा.....' करते करते पूरी रात हो गई। दल
ू हे की शादी का कायक
व म लटकता रह गया।
ऐसे ही इस जीव का ईशर के साथ िमलन कराने वाले सदगुर जीव को जान को ितलक
तो करते है लेिकन जीव के अनदर वे नंगी विृतयाँ, संसार-सुख चाहने वाली विृतयाँ आकर पाट पर
बैि जाती है । 'यह इचछा पूरी हो जाये... वह इचछा पूरी हो जाये....!' जीव बेचारा इन इचछाओं को
पूरी करते-करते लटकता रह जाता है ।
नागा सािुओं की जमात तो ििर भी चली गई होगी। लेिकन हमारी तुचछ विृतयाँ, तुचछ
इचछाएँ आज तक नहीं गई। इसीिलए जीव-बह की एकता की िविि लटकती रह जाती है । उस
दल
ू हे को तो एक रात शादी के िबना लटकते रहना पडा होगा लेिकन हम जैसे हजारो लोगो को
युगो युगो से 'पोखानेवाले' िवचार, विृतयाँ, इचछाएँ परे शान कर रही है । तो अब कृ पा करके इन सब
पोखने वालो को ितलांजली दे दो।'
'यह हो जाये.... वह हो जाये..... ििर आराम से भजन करँगा। इतना हो जाये ििर भजन
करँ गा....।' आप जानते नहीं िक भजन से जयादा आप संसार को मूलय दे रहे है । भजन का मूलय
आपने जाना नहीं। 'इतना पाकर ििर िपया को पाऊँगा' – तो िपया को पाने की महता आपने
जानी नहीं। कयो नहीं जानी? कयोिक वे आ गये, 'हो जाये पोखणा' वाले िवचार बीच मे।

पाथन
व ा और पुकार से भावनाओं का िवकास होता है , पाणायाम से पाण बल बढता है , सेवा
से िकयाबल बढता है और सतसंग से समझ बढती है । ऊँची समझ से सहज समािि अपना
सवभाव बन जाता है ।
तुम िजतने अंश मे ईशर मे तललीन होगे उतने ही अंश मे तुमहारे िवघन और परे शािनयाँ
अपने-आप दरू हो जायेगी और िजतने तुम अहं कार मे डू बे रहोगे उतने ही दःुख, िवघन और
परे शािनयाँ बढती जायेगी।
पूरे िवश का आिार परमातमा है और वही परमातमा आतमा के रप मे हमारे साथ है ।
उस आतमा को जान लेने से सबका जान हो जाता है ।
राित का पथम पहर भोजन, िवनोद और हिरसमरण मे िबताना चािहए। दो पहर आराम
करना चािहए और राित का जो चौथा पहर है , उसमे शरीर मे रहते हुए अपने अशरीरी सवभाव का
िचनतन करके बहानंद का खजाना पाना चािहए।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐ

परिहत म े िनिहत सविहत


पावत
व ी ने तप करके भगवान शंकर को पसनन िकया, संतुि िकया। िशवजी पकट हुए और
पावत
व ी के साथ िववाह करना सवीकार कर िलया। वरदान दे कर अनतिान
व हो गये। इतने मे थोडे
दरू सरोवर मे एक मगर ने िकसी बचचे को पकडा। बचचा रका के िलए िचललाने लगा। पावत
व ी ने
गौर से दे खा तो वह बचचा बडी दयनीय िसथित मे है । "मुझ अनाथ को बचाओ.... मेरा कोई
नहीं... बचाओ.... बचाओ....।" वह चीख रहा है , आकनद कर रहा है ।
पावत
व ी का हदय िवीभूत हो गया। वह पहुँची वहाँ। सुकुमार बालक का पैर एक मगर ने
पकड रखा है और घसीटता हुआ िलये जा रहा है गहरे पानी मे। बालक कनदन कर रहा है ः "मुझ
िनरािार का कोई आिार नहीं। न माता है न िपता है । मुझे बचाओ.... बचाओ.... बचाओ.....।'
पावत
व ी कहती है ः हे गाह ! हे मगरदे व ! इस बचचे को छोड दो।"
मगर बोलाः "कयो छोडू ँ ? िदन के छिे भाग मे मुझे जो आ पाप हो वह अपना आहार
समझकर सवीकार करना, ऐसी मेरी िनयती है । बहाजी ने िदन के छिे भाग मे मुझे यह बालक
भेजा है । अब मै इसे कयो छोडू ँ ?"
पावत
व ी ने कहाः "हे गाह ! तुम इसको छोड दो। बदले मे जो चािहए वह मै दँग
ू ी।"
"तुमने जो तप िकया और िशवजी को पसनन करके वरदान माँगा, उस तप का िल
अगर तुम मुझे दे दो तो मै बचचे को छोड दँ।ू " गाह ने शतव रखी।
"बस इतना ही? तो लोः केवल इस जीवन मे इस अरणय मे बैिकर तप िकया इतना ही
नहीं लेिकन पूवव जीवनो मे जो कुछ तप िकये है उन सब का िल, वे सब पुणय मै तुमको दे रही
हूँ। इस बालक को छोड दो।"
"जरा सोच लो। आवेश मे आकर संकलप मत करो।"
"मैने सब सोच िलया है ।"
पावत
व ी ने हाथ मे जल लेकर अपनी तमाम तपसया का पुणय िल गाह को दे ने का
संकलप िकया। तपसया का दान दे ते ही गाह का तन तेजिसवता से चमक उिा। उसने बचचे को
छोड िदया और कहाः
"हे पावत
व ी ! दे खो ! तुमहारे तप के पभाव से मेरा शरीर िकतना सुनदर हो गया है ! मै
िकतना तेजपूणव हो गया हूँ ! मानो मै तेज पुञज बन गया हूँ। अपने सारे जीवन की कमाई तुमने
एक छोटे -से बालक को बचाने के िलए लगा दी?"
पावत
व ी ने जवाब िदयाः "हे गाह ! तप तो मै ििर से कर सकती हूँ लेिकन इस सुकुमार
बालक को तुम िनगल जाते तो ऐसा िनदोष ननहा-मुनना ििर कैसे आता?"
दे खते ही दे खते वह बालक और गाह दोनो अनतिान
व हो गये।
पावत
व ी ने सोचाः मैने अपने सारे तप का दान कर िदया। अब ििर से तप करँ। वह तप
करने बैिी। थोडा सा ही धयान िकया और दे वाििदे व भगवान शंकर पकट हो गये और बोलेः
व ी ! अब कयो तप करती हो?" अनुकम
"पावत
"पभु ! मैने तप का दान कर िदया इसिलए ििर से तप रही हूँ।"
"अरे सुमुखी ! गाह के रप मे भी मै था और बालक के रप मे भी मै ही था। तेरा िचत
पाणी मात मे आतमीयता का एहसास करता है िक नहीं यह परीका लेने के िलए मैने यह लीला
की थी। अनेक रपो मे िदखने वाला मै एक का एक हूँ। अनेक शरीरो मे शरीर से नयारा अशरीरी
आतमा हूँ। मै तुझसे संतुि हूँ।"
परिहत ब स िजनक े मन म ांह ीं।
ितनको ज ग कछु द ु लव भ नाही ं।

सचचा ि नी
रवीनिनाथ टै गोर जापान गये हुए थे। दस िदन तक हररोज शाम को 6 से 7 बजे तक
उनकी गीताँजली पर पवचनो का कायक
व म था। लोग आकर बैिते थे। उनमे एक बूढा भी आता
था। वह बडे पयार से, अहोभाव से गुलाब की माला महिषव के गले मे पहनाता था। पितिदन सभा
के लोग आये उससे पहले आता था और कथा पूरी हो जाये, टै गोर खडे हो जाये बाद मे उिता था
– ऐसा शील, िशिाचार उसके जीवन मे था। जैसे एक िनपुण िजजासु अपने गुरदे व के पित
िनहारे ऐसे वह टै गोर की तरि िनहार कर एक-एक शिद आतमसात करता था। सािारण कपडो
मे वह बूढा टै गोर के वचनो से बडा लाभािनवत हो रहा था। सभा के लोगो को खयाल भी नहीं
आता था िक कौन िकतना खजाना िलये जा रहा है ।
एक घणटे के बाद रवीनिनाथ जब कथा पूरी करते तो सब लोग िनयवाद दे ने के िलए,
कृ तजता वयि करने के िलए नजदीक आकर उनके पैर छूते।
जो लोग िैशनेबल होकर कथा के चार शिद सुनकर रवाना हो जाते है उनको पता ही
नहीं िक वे अपने जीवन का िकतना अनादर करते है । भगवान शीकृ षण ने सांदीपिन ऋिष के
चरणो मे रहकर सेवा सुशष
ु ा की है । शीरामचनिजी ने विशि मुिन के चरणो मे इस आतमिवदा के
िलए अपने बहुमूलय समय और बहुमूलय पदाथो को नयोछावर कर िदया।
टै गोर के चरणो मे वह बूढा पितिदन नमसकार करता। कथा की पूणाह
व ु ित हुई तो लोगो ने
मंच पर सुवणव मुिाएँ, येन (वहाँ के रपये), िूल, िल आिद के ढे र कर िदए। वह बूढा भी आया
और बोलाः
"मेरी िवनम पाथन
व ा है िक कल आप मेरे घर पिारने की कृ पा करे ।"
बूढे के िवनय-संपनन आचरण से महिषव पसनन थे। उनहोने भावपूणव िनमनतण को सवीकार
कर िलया। बूढे ने कहाः "आपने मेरी पाथन
व ा सवीकार की है इसिलए मै बहुत आभारी हूँ। खूब
पसनन हूँ...।" आँखो मे हषव के आँसू छलकाते हुए वह िवदा हुआ।अनुकम
महिषव ने अपने रहसयमंती से कहाः "दे खना ! वह बूढा बडा भावनाशील है । मेरे पित
उसकी गहरी शदा है । हमारे सवागत की तैयारी मे वह कहीं जयादा खचव न कर बैिे। बाद मे
आिथक
व बोझा उसको कि दे गा। दो सौ येन उसके बचचो को दे दे ना। कल चार बजे हम उसके
घर चलेगे।"
दस
ू रे िदन पौने चार बजे उस बूढे ने रोलस रोयस गाडी लाकर खडी कर दी। गुलाब के
िूलो से सजी हुई भवय गाडी दे खकर रवीनिनाथ ने सोचा िकः "िकराये पर गाडी लाया होगा।
िकतना खचव िकया होगा !"
महिषव गाडी मे बैिे। रोलस रोयस गाडी उिी। िबना आवाज के झूमती आगे बढी। एक
ऊँची पहाडी पर िवशाल महल के गेट पर पहुँची। चपरासी ने सलाम मारते हुए गेट खोला। गाडी
भीतर पिवि हुई। महल मे से कई भि पुरष, मिहलाएँ, लडके, लडिकयाँ आकर टै गोर का अिभवादन
करने लगे। वे उनहे भीतर ले गये। सोने की कुसी पर रे शमी वस िबछा हुआ था वहाँ िबिाया।
सोने-चाँदी की दो सौ पलेटो मे िभनन-िभनन पकार के मेवे-िमिाई परोसे गये। पिरवार के लोगो ने
आदर से उनका पूजन िकया और चरणो मे बैिे।
रवीनिनाथ चिकत हो गये। बूढे से बोलेः "आिखर तुम मुझे कहाँ ले आये? अपने घर ले
चलो न? इन महलो से मुझे कया लेना दे ना?"
सादे कपडो वाले उस बूढे ने कहाः "महाराज ! यह मकान मेरा है । हम जो रोलस रोयस
गाडी मे आये वह भी मेरी है और ऐसी दस
ू री पाँच गािडयाँ है । ऐसी सोने की दो कुिसय
व ाँ भी है ।
ये लोग जो आपको पणाम कर रहे है वे मेरे पुत, पौत, पपौत है । यह मेरे बेटो की माँ है । ये चार
उसकी बहुएँ है । सवामी जी मेरी दो मीले है ।"
"ओहो ! तो तुम इतने िनाढय हो ििर भी ऐसे सादे , गरीबो के जैसे कपडो मे वहाँ आकर
बैिते थे !"
"महाराज ! मै समझता हूँ िक यह बाहर का िसंगार और बाहर का िन कोई वासतिवक
िन नहीं है । िजस िन से आतमिन न िमले उस िन का गवव करना बेवकूिी है । वह िन कब
चला जाये कोई पता नहीं। परलोक मे इसका कोई उपयोग नहीं इसिलए इस िन का गवव करके
कथा मे आकर बैिना िकतनी नासमझी है ? और इस िन को सँभालते-सँभालते जो सँभालने योगय
है उसको न सँभालना िकतनी नादानी है ? अनुकम
महाराज ! जान के िन के आगे, भिि के िन के आगे यह मेरा िन कया मूलय रखता है ?
यह तो मुझसे मजदरूी करवाता है , लेिकन जब से आपके चरणो मे बैिा हूँ और आपने जो
आतमिन िदया है वह िन तो मुझे सँभालता है । बाह िन मुझसे अपने को सँभलवाता है । सचचा
िन तो आतमिन है जो मेरा रकण करता है । मै सचमुच कृ तज हूँ सदा के िलए आपका खूब
आभारी रहूँगा। जीवनभर बाह िन को कमाने और सँभालने मे मैने अपने को नोच डाला ििर
भी जो सुख व शािनत नहीं िमली वह आपके एक-एक घणटे से मुझे िमलती गई। बाहर के
वसालंकार को तुचछ समझे और सादे कपडे पहनकर, िटे चीथडे पहनकर, कंगाल की भाँित आपके
दारा पर िभखारी होकर बैिा और आधयाितमक िन की िभका मैने पाई है । हे दाता ! मै िनय
हूँ।"
रवीनिनाथ टै गोर का िचत पसनन हो गया।
जहाँ जान का आदर होता है वहाँ जीवन का आदर होता है । जहाँ बहिवदा का आदर होता
है वहाँ जीवन का आदर होता है , लकमी सुखदायी बनती है और िसथर रहती है ।
महिषव बोलेः "सेि ! बाह िन मे ममता नहीं और भीतरी िन का आदर है इसिलए तुम
वासतव मे सेि हो। मै भी आज िनय हुआ। तुमहारे जैसे भि के घर आकर मुझे महसूस हुआ
िक मेरा कथा-पवचन करना साथक
व हुआ।
कई जगह जाते है तो लोग माँगते है । 'यह खपे.... वह खपे....' करके अपने को भी खपा
दे ते है और हमारा समय भी खपा दे ते है । लेिकन तुम बुिदमान हो। नशर िन की माँग नहीं
ििर भी दाता तुमहे नशर िन िदये जा रहा है और शाशत िन की तुमहारी पयास भी बुझाने के
िलए मुझे यहाँ भेज िदया होगा।"
िन वैभव होते हुए भी उसमे आसथा या आसिि न करे लेिकन िजससे सारा बहाणड और
िवश है उस िवशेशर के वचन सुनकर, संत-महातमा के चरणो मे बैिकर, अपने अहं को गलाकर
आतमा के अनुभव मे अपना जीवन िनय कर ले, वही सचचा िनवान है ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
हे मानव ! तुझमे अपूवव शिि, सौनदयव, पेम, आननद, साहस छुपा है । घण
ृ ा, उदे ग, ईषयाव, दे ष
और तुचछ वासनाओं से तेरी महता का हास होता जा रहा है । साविान हो भैया ! कमर कस।
अपनी संकीणत
व ा और अहं कार को िमटाता जा। अपने दै वी सवभाव, शिि, उललास, आननद, पेम
और िचत के पसाद को पाता जा।
यह पककी गाँि बाँि लो िक जो कुछ हो रहा है , चाहे अभी तुमहारी समझ मे न आवे और
बुिद सवीकार न करे तो भी परमातमा का वह मंगलमय िविान है । वह तुमहारे मंगल के िलए ही
सब करता है । परम मंगल करने वाले परमातमा को बार-बार िनयवाद दे ते जाओ.... पयार करते
जाओ... और अपनी जीवन-नैया जीवनदाता की ओर बढाते जाओ।
ऐसा कोई वयिि, वसतु या पिरिसथित नहीं जो तुमहारी आतमशिि के अनुसार बदलने मे
राजी न हो। परं तु अपने भीतर का यह आतमबल, यह संकलपबल िवकिसत करने की युिि िकसी
सचचे महापुरष से सीखने को िमल जाये और उसका िवििवत ् अनुिान करे तो, नर अपने
नारायण सवभाव मे इसी जनम मे जाग सकता है ।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आतमदिि क ा िदवय अं जन
वनृदावन मे एक मसत संत रहते थे। बडे मिुर। सवत
व आतमदिि रखकर िवचरते थे।
िकसी दि
ु आदमी ने िकसी बहकावे मे आकर, भांग का नशा करके, कुछ रपयो की लालच मे
िँसकर इन संत भगवंत के िसर मे डणडा दे मारा और पलायन हो गया। िसर से रि की िार
बही। संत बेसुि हो गये। उनकी यह हालत दे खकर सजजन पुरषो का हदय काँप उिा। उनहोने
संत शी को असपताल मे पहुँचा िदया, और कतववय पूरा करके रवाना हो गये। वे तो रासते के
पिथक थे।
असपताल मे कुछ समय के बाद बाबा जी होश मे आये। दे खा तो असपताल का कोई
अििकारी दि
ू का िगलास िलए सेवा मे खडा था। बोलाः
"बाबा जी ! दि
ू पीिजए।"
बाबा जी मुसकराये। उसको दे खते हुए मिुरता से बोलेः "यार ! कभी तो डणडा मारता है
और कभी दि
ू िपलाता है !"
अििकारी चौका। कहने लगाः "नहीं नहीं सवामी जी ! मैने डणडा नहीं मारा।"
"तू हजार कसम खा लेिकन मै पहचान गया तुझे यार ! एक तरि डणडा मारता है , दस
ू री
तरि मरहम-पटटी करता है , तीसरी तरि दि
ू िपला रहा है । बडी अदभुत लीला है तेरी। बडी
चालाकी करता है तू।"
"सवामी जी ! सवामी जी ! मै सच कहता हूँ। मैने डणडा नहीं मारा ! मै तो.... मै तो..."
अििकारी है रान हो रहा था।"
"अरे ! तूने कैसे नहीं मारा? तू ही तो था।"
वह घबडाया। बोलाः "सवामी जी ! मै तो असपताल का कमच
व ारी हूँ और आपका पशंसक
हूँ... भि हूँ।"
बाबा जी हँ सते हुए बोलेः "कया खाक तू असपताल का कमच
व ारी है ! तू वही है । कमच
व ारी
तू बना बैिा है , डणडा मारने वाला भी तू बना बैिा है , मरहम-पटटी करने वाला भी तू बना बैिा है
और दि
ू िपलाने वाला भी तू बना बैिा है । मै तुझे पहचान गया हूँ। तू मुझे िोखा नहीं दे
सकता।"
बाबाजी आतममसती मे सराबोर होने लगे।
अब उस अििकारी को खयाल आया िक बाबा जी शुद आतमदिि से ही यह सब बोल रहे
है ।अनुकम
देह स भी िम थया हु ई जगत ह ु आ िनससार।
हुआ आतमा स े तभी अपना साकातकार।।
जीव को जब आतमदिि पाप हो जाती है तब अनेको मे खेलते हुए "एक" के पहचान लेता
है । इसका मतलब यह नहीं िक सवत
व आतमदिि से िनहारनेवाला मूखव होकर रहता है , बुदु होकर
रहता है , पलायनवादी होकर रहता है । नहीं, ऐसा बुद,ु मूखव या पलायनवादी नहीं होना है । जो कायव
करो, पूरी कुशलता से करो। 'योग कम व सु कौश लम।् '
िकसी भी कायव से अपना और दस
ू रो का अिहत न हो। कम व ऐसे करो िक कमव करते करते
कताव का बाि हो जाये, िजससे कमव करने की सता आती है उस सतय का साकातकार हो जाये।
तुमने िकतना अचछा कायव िकया इस पर धयान मत दो लेिकन इससे भी बिढया कायव
कर सकते हो िक नहीं ऐसी उतुँग और िवकासशील दिि रखो। िवकास अनिकार की ओर नहीं
बिलक पकाश की ओर हो। 'मैने इतनी िरशत ली, इससे जयादा भी ले सकता हूँ िक नहीं?' ऐसा
दि
ु िवचार नहीं करना।
तुमने िकसी कारण से, लोभ मे आकर िकसी का अिहत कर िदया, हजारो लोगो की
साििवक शदा को िे स पहुँचा िदया तो पाप के पोटले बँि जायेगे। हजारो जनम भोगने के बाद
भी इसका बदला चुकाना मुिशकल हो जायेगा।
यह मानवजनम कमभ
व िू म है । यहाँ से अननत जनमो मे ले जाने वाले संसकार इकटिे कर
सकते हो और अननत जनमो मे भटकने वाले बेईमान मन को आतमदिि का अंजन लगा कर
उस मािलक के अमत
ृ से पिरतप
ृ करके आतम-साकातकारी भी बन सकते हो। मरजी तुमहारी।
'यथा योग यं तथा क ुर। '
ॐॐॐॐॐॐॐ

सचची शरणागित
एक संत कहीं जा रहे थे। रासते मे कडाके की भूख लगी। गाँव बहुत दरू था। उनका मन
कहने लगाः
"पभु िवशव के पालन कताव है । उनसे भोजन माँग लो। वे कैसे भी करके अपने पयारे भि
को भोजन दे गे।"
संत ने अपने मन को समझायाः "अरे ! मै पभु का अननय भि होकर पभु मे अिवशास
करँ? कया पभु को पता नहीं है िक मुझे भूख लगी है ? पयारे पभु से माँगना िवशासी भि का
काम नहीं है ।"
संत ने इस पकार मन को समझा िदया। मन की कुचाल िविल हो गयी। तब वह दस
ू री
चाल चला। मन ने कहाः "अचछी बात है । तुम खाना मत माँगो लेिकन भूखे कब तक रहोगे?
भूख सहन करने का िीरज तो माँग लो।"अनुकम
संते ने सोचाः "यह िीक है । भोजन न सही, लेिकन िीरज माँगने मे कोई हजव नहीं।"
इतने मे ही उनके शुद अनतःकरण मे भगवान की िदवय वाणी सुनाई दीः "िीरज का
समुि मै सदा तेरे साथ ही हूँ न? मुझे सवीकार न करके िीरज माँगने चला है ? अपनी शदा-
िवशास को कयो खो रहा है ? कया िबना माँगे मै नहीं दे ता? अननय भि के योगकेम का सारा भार
उिाने की तो मैने घोषणा कर रखी है ।"
संत के हदय मे समािान हो गया। भाव से गदगद होते हुए कहाः "सच है पभो ! मै मन
के भुलावे मे आ गया था। मै भूला था नाथ ! भूला था।"
"मै भूलने वाला कौन हूँ यह खोजूँ। खोजने बैिा तो जगिननयनता, सवान
व तयाम
व ी पभु ही
पभु को पाया। मन की कुि इचछाएँ, वासनाएँ ही आज तक मुझे तुझसे दरू कर रहीं थीं। मै उनहे
सता दे ता था तबी वे मुझे दबाए हुए नाच रही थीं। तेरे मेरे शाशत समबनि की जब तक मुझे
िवसमिृत थी तब तक मै इनके चंगल
ु मे था।"
ऐसा सोचते सोचते संत अपने परमानंद सवरप मे डू ब गये।
ॐॐॐॐ

समथ व क ी ली ला
एक िदन पभात काल मे कुछ बाहण और एक िवशाल िौज के लेकर िशवाजी महाराज
अपने गुरदे व समथव सवामी रामदास के चरणो मे दशन
व व सतसंग के हे तु पहुँचे। संत-सािनधय मे
घणटे बीत गये इसका पता ही न रहा। दोपहर के भोजन का समय हो गया।
आिखर िशवाजी उिे । शीचरणो मे पणाम िकया और िवदा माँगी। समथव ने कहाः "सब
लोग भूखे है । भोजन करके जाओ।"
िशवाजी भीतर सोचने लगेः "इतनी बडी िौज का भोजन कोई भी पूवव आयोजन के िबना
कैसे होगा? समय भी नहीं है और सीिा-सामान भी नहीं है ।" सवामी समथव ने अपने िशषय
कलयाण गोसांई को भोजन का पबनि करने की आजा दे दी। वह भी िविसमत नयनो स गुरदे व
के मुखमणडल को दे खता ही रह गया। पूवव सूचना के िबना इतने सारे लोगो की रसोई बनाई नहीं
थी। सवामीशी उन लोगो की उलझी हुई िनगाहे समझ गये और बोलेः
"वतस ! वह दे ख। पवत
व मे जो बडा पतथर खडा िदखता है न, उसको हटाना। एक गुिा का
दार खुलेगा। उस गुिा मे सब माल तैयार है ।"
कलयाण गोसांई ने जाकर पतथर को हटाया तो गुिा के भीतर गरमागरम िविभनन
पकवान व वयञजनो के भरे खमूचे दे खे। पकाश के िलए जगह-जगह पर मशाले जल रही थीं।
िशवाजी महाराज सिहत सब लोग दं ग रह गये। यथेि भोजन हुआ। ििर सवामी जी के समक
िशवाजी महाराज ने पूछाः
"पभो ! ऐसे अरणय मे इतने सारे लोगो के भोजन की वयवसथा आपने एकदम कैसे कर
दी? कृ पा करके अपनी यह लीला हमे समझाओ, गुरदे व !"
"इसका रहसय जाकर तुकोबा से पूछना। वे बताएँगे।" मंद मंद मिुर िसमत के साथ समथव
ने कहा।अनुकम
कुछ िदन बाद दोपहर अपनी लमबी चौडी िौज के साथ िशवाजी महाराज संतवय व तुकाराम
जी महाराज के दशन
व करने दे हुगाँव गये। अनुचर के दारा संदेशा भेजा िक, "मै िशवाजी, आपके
दशन
व करने आया हूँ। कृ पया आजा दीिजये।"
महाराज ने कहलवायाः "दोपहर का समय है और भोजन तैयार है । पहले आप सब लोग
भोजन कर लो, बाद मे दशन
व करके जाना। अपने आदिमयो को भेजो। पका हुआ भोजन,
सवयंपाकी बाहणो के िलए कचचा सीिा और घोडो के िलए दाना पानी यहाँ से ले जाये।"
पतयुतर सुनकर िशवाजी िविसमत हो गये। तुकाराम जी का घर दे खो तो टू टा-िूटा
झोपडा। शरीर पर वस का ििकाना नहीं। भजन करने के िलए मंजीरे भी पतथर के। यह सब
धयान मे रखते हुए िशवाजी ने दो आदिमयो से कहाः "वहाँ जाओ और महाराज शी जो कुछ दे
पसाद समझकर ले आओ।"
िशवाजी के आगमन मे िवलमब होता दे खकर तुकाराम महाराज ने िरिद-िसिद योग के
बल से इनियाणी के तीर पर एक िवशाल मंडप खडा कर िदया। अनेक पकार के वयञजन व
पकवान तैयार हो गये। ििर एक गाडी मे कचचा सीिा और घोडो के िलए दाना पानी भरवाकर
िशषय को भेजा और कहा िक िजसको जो सामान चािहए वह दे ना और बाकी के सब लोगो को
भोजन के िलए यहाँ ले आना।
िशवाजी अपने पूरे मंडल के साथ आये। दे खा तो िवशाल भवय मंडप खडा है । जगह जगह
पर सुहावने परदे , आराम सथान, भोजनालय, पानी के पयाऊ, जाित के मुतािबक भोजन की अलग
अलग वयवसथा। यह सब रचना दे खकर िशवाजी आशयव से मुगि हो गये। भोजनोपरानत थोडा
िवशाम करके तुकाराम महाराज के दशन
व करने गये। टू टे -िूटे बरामदे मे बैिकर भजन करते हुए
संतशी को पणाम करके बैिे। ििर पूछाः
"महाराज जी ! हमारे गुरदे व सवामी समथव के यहाँ भी भोजन का ऐसा सुनदर पबनि हुआ
था। मैने रहसय पूछा तो उनहोने आपसे ममव जानने की आजा दी। कृ पया अब आप हमे बताओ"
तुकाराम जी बोलेः "अजान से मूढ हुए िचतवाले दे हािभमानी लोग इस बात को नहीं
समझते िक सवाथव और अहं कार तयाग कर जो अपने आतमदे व िवठिल मे िवशािनत पाते है
उनके संकलप मे अनुपम सामथयव होता है । िरिद-िसिद उनकी दासी हो जाती है । सारा िवश
संकलप का िवलास है । िजसका िजतना शुद अनतःकरण होता है उतना उसका सामथयव होता है ।
अजानी लोग भले समथज
व ी मे सनदे ह करे लेिकन समथव जी तो समथव तिव मे सदा िसथर है ।
उसी समथव तिव मे सारी सिृि संचािलत हो रही है । सूरज को चमक, चनदा को चाँदनी, पथ
ृ वी मे
रस, िूलो मे महक, पिकयो मे गीत, झरनो मे गुज
ं न उसी चैतनय परमातमा की हो रही है । ऐसा
जो जानता है और उसमे िसथत रहता है उसके िलए यह सब िखलवाड मात है ।अनुकम
िशवाजी ! सनदे ह मत करना। मनुषय के मन मे अथाह शिि व सामथयव भरा है , अगर वह
अपने मूल मे िवशािनत पावे तो। सवामी समथव कया नहीं कर सकते?
मै तो एक सािु हूँ, हिर का दास हूँ, अनाथ से भी अनाथ हूँ। मेरा घर दे खो तो टू टा-िूटा
झोपडा है लेिकन मेरी आजा तीनो लोक मानते है । िरिद-िसिद मेरी दासी है । सािुओं का
माहातमय कया दे खना? उनके िवषय मे कोई सनदे ह नहीं करना चािहए।"
िर िद िस िद दास कामि ेन ु घरी ं परी न ाह ीं भाकरी भ कावया।
लोिड सते बोिलसत े प लंगस ू पती , परी नाही ं ल ंगोटीन े सावाया।
पु साल जरी आ हां व ै कुंिीचा वास परी नाही ं रहावयास स थळ कोि े।
तु का म हणे आ हीं राज े व ैकुंिीच े , पर न ाह ीं कोणास े उर े प ुरे।।
"िरिद-िसिद दािसयाँ है , कामिेनु घर मे है लेिकन मुझे खाने के िलए रोटी का टु कडा भी
नहीं है । गदी-तिकये पलंग आिद वैभव है लेिकन मुझे पहनने के िलए लंगोट का चीथडा भी नहीं
है । यिद पूछो तो वैकुंि मे मेरा वास है यह हकीकत है लेिकन यहाँ तो मुझे रहने के िलए जगह
नहीं है । तुकाराम कहते है िक हम है तो वैकुणि के राजा लेिकन िकसी से हमारा गुजारा नहीं हो
सकता।"
संतो की यही दशा होती है ।
िशवाजी महाराज अगम िनगम मे यथेचछ िवचरने वाले संतो की लीला पर सानंदाशय व का
अनुभव करते हुए िवदा हुए।
कुछ िदन बाद उनको संकलप हुआ िक गुरदे व समथव सवामी रामदास के बनिु 'शि
े '
गंगातीर पर जांबगाँव मे गह
ृ सथ पालते हुए रहते है , उनका सामथयव दे खे कैसा है ! एक राित के
अिनतम पहर मे शि
े जी ने िशवाजी को सवपन मे दशन
व िदया। माला व नािरयल पदान िकया।
बहुत सारी बोिपद बाते की और अदशय हो गये। सुबह मे उिकर िशवाजी ने अपने हाथो मे वही
नािरयल और माला पतयक पायी। उनको िवशास हो गया िक ये भी सवामी समथव जैसे ही समथव
है । ििर भी पतयक जाकर दशन
व हे तु दो हजार आदिमयो को लेकर शि
े जी के दशन
व करने गये।
दोपहर का समय था। वैशदे व करके काकबिल डालने के िलए शि
े जी दरवाजे पर खडे थे।
िशवाजी महाराज पहुँचे वहाँ। सवपन मे दे खी हुई मूितव को पतयक पाकर उनके आशयव का ििकाना
न रहा। भाव से आपलािवत हदय चरण सपशव िकया। शि
े जी ने पचचीस लोगो के िलए बनाई
गई रसोई मे दो हजार लोगो को भरपेट भोजन कराया। एक टोकरे भर दाने और तेरह पूले घास
से तमाम घोडे आिद पािणयो को घास चारा पहुँचाया। िजतना िदया उतना ही सब सामान बाकी
बचा। यह सब िशवाजी महाराज दे खकर दं ग रह गये।अनुकम
शि
े जी के आगह से पंिह िदन वहाँ रहे । िवदा हुए तो शि
े जी ने वसालंकार की भेट दी।
िशवाजी को िनशय हो गया िक समथव जी और शि
े जी दोनो बनिु समान रप से समथव है ।
तदननतर िशवाजी महाराज ने अपने गुरदे व समथव सवामी रामदास के शी चरणो मे जाकर
कमा माँगी और अपना पूरा अनुभव कह सुनाया।
समथव ने कहाः
"जहाँ जाओगे वहाँ एक ही है । उस एक तिव की कोई सीमा नहीं। वह िनःसीम है अतः
हमे िनःसीमदास हो जाना चािहए।"
िशवाजी ने िवनयपूवक
व पूछाः "िनःसीमदास सािु होते है यह सच है लेिकन उन सबके
पास िरिद-िसिद होती है । वे इनका उपयोग करते है । िरिद-िसिद का उपयोग मुिि मे पितबनिक
है ।"
शी समथव हँ सते हुए बोलेः "भाई ! ईशर पािप के िलए हम जब िनःसीमता से दासयभाव
रखते हुए भिि करते है तब िरिद-िसिदयाँ आकर अपने मोह मे िँसाने के िलए अनेक पकार के
पयत करती है । उनके मोह मे न िँसकर हमेशा ईशर के धयान मे रहने से ईशर अपने दास को
ईशरपना दे ते है । इस अवसथा को पाप करके दास मािलक बन जाता है । मािलक को िकसी कमव
का बाि नहीं होता। ऐसा मािलकपना िमलने से पूवव यिद िरिद-िसिदयो के दारा कायव िकये जाये
तो वे बािक बनते है । इससे जीवन का चरम लकय िसद नहीं होता। चरम लकय को िसद कर
लेने वाले अथात
व ् मािलक बने हुए सािु िनःसीम हो जाते है । ििर इन िरिद-िसिदयो के मािलक
होकर उनका उपयोग करने से वे बनिनकारक नहीं होतीं।"
गुरदे व की रहसयमय वाणी सुनकर िशवाजी को परम संतोष हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

सचचा वशीकरण मंत


समाट तेग बहादरु िूलो के गमले के शौकीन था। उसने अचछे , सुहावने, सुनदर मिुर
सुगनिवाले िूलो के पचचीस गमले अपने शयनखणड के पांगण मे रखवाये थे। एक आदमी को
िनयुि कर िदया था उन गमलो की दे खभाल करने के िलए। दै वयोग से उस आदमी से एक
गमला टू ट गया। राजा को पता चला। वह सुनकर आगबबूला हो गया। नौकर बडा भयभीत था।
वह राजा के कूर सवभाव से पिरिचत था।
राजा ने िाँसी का हुकम दे िदया, दो महीने की मुदत पर। वजीर ने राजा से अनुनय
िवनय िकया, समझाया लेिकन राजा ने एक न मानी। नौकर के िसर पर दो माह के बाद की
िाँसी नाच रही थी। अब ईशर के दार खटखटाने के िसवाय कोई चारा भी न रहा। वह ईशर की
पाथन
व ा मे लग गया।
वहाँ राजा ने नगर मे घोषणा करवा दी िक जो कोई आदमी टू टे हुए गमले की मरममत
करके जयो का तयो बना दे गा उसे मुँह माँगा पुरसकार िदया जायेगा। कई लोग अपना भागय
आजमाने के िलए आये लेिकन सब असिल रहे ।अनुकम
गमला टू ट जाये ििर वैसे का वैसे बने? दे ह टू ट जाये ििर उसे वैसे का वैसा कोई कैसे
बना सकता है ? ऐसा कोई डॉकटर है जो एक बार मरीज के शरीर से पाण िनकल जाये ििर उसे
वैसे का वैसे बना दे ? दे ह के टु कडे हो जाये ििर उसे वैसे का वैसा जोड दे ? ऑपरे शन होने के
बाद भी दे ह वैसे का वैसा नहीं रहता है । कुछ न कुछ कमजोरी, जोड-तोड या कमी रह जाती है ।
पतंग िट जाए उसको गोद से जोड तो सकते है लेिकन पतंग वैसे का वैसा नहीं बन पाता।
वह नौकर रोजाना िदन िगनता है , मनौितयाँ मानता है िकः "हे भगवान ! हे पभु ! तू दया
कर ! राजा का मन बदले या कुछ भी हो, मै बच जाऊँ। हे नाथ ! रहम कर, कृ पा कर।" आिद
आिद।
एक महीना बीत गया तब एक संत महातमा नगर मे पिारे । उनके कान तक बात पहुँची
िक राजा का गमला कोई जोड दे तो राजा मुह
ँ माँगा ईनाम दे गा। िजस आदमी से गमला टू टा है
उसको िाँसी की सजा दी गई है ।
वे संत आ गये राजदरबार मे और बोलेः "राजन ! तेरा गमला टू टा है उसे जोडने की
िजममेवारी हम लेते है । बताओ, कहाँ है वह गमला।"
राजा उनहे उस खणड मे ले गया जहाँ सब गमले रखे हुए थे। संत ने टू टे हुए गमले को
खूब बारीकी से, सूकमता से दे खा। अनय चौबीस गमलो पर भी निर घुमाई। राजा पर भी अपनी
एक नूरानी िनगाह डाल दी। महातमा थे वे ! ििर एक डणडा मँगवाया। नौकर ने लाकर िदया।
महातमा ने उिाया डणडा और 'एक दो.... दो... तीन.... चार....' पहार करते हुए तडातड चौबीस के
चौबीस गमले तोड िदये। थोडी र तो राजा चिकत होकर दे खता रह गया िक एक गमला जोडने
का यह नया तरीका कैसा है ! कोई नया िवजान होगा ! महातमा लोग जो है !
ििर दे खा, महातमा तो िनभय
व खडे है , मसत। तब राजा बोलाः
"अरे सािू ! यह तूने कया िकया?"
"मैने चौबीस आदिमयो की जान बचाई। एक गमला टू टने से एक को िाँसी लग रही है ।
चौबीस गमले भी ऐसे ही िकसी न िकसी के हाथ से टू टे गे तो उन चौबीसो को भी िाँसी लगेगी।
मैने उन चौबीस आदिमयो की जान बचाई।"
राजा महातमा की रहसय भरी बात न समझा। उसने हुकम िदयाः "इस कमबखत को हाथी
के पैर तले कुचलवा दो।"अनुकम
महातमा भी कोई कचची िमटटी के नहीं थे। उनहोने वेद के वचनो का अनुभव िकया था।
शील उनके अनतःकरण का अपना खजाना था। शरीर और अनतःकरणाविचछनन चैतनय और
वयापक चैतनय के तादातमय का िनजी अनुभव था। गुर का जान उनको पच चुका था। दे ह
कणभंगुर है और आतमा अमर है ऐसा उनहे पता लग चुका था। िकसी भी पिरिसथित मे घबडाना,
भयभीत होना, मतृयु से डरना, ऐसी बेवकूिी उन महातमा के अनतःकरण मे नहीं थी। वे आतमदे व
मे पितिित थे। अपने वासतिवक "मै" को िीक से जानते थे। और िमथया "मै" को िमथया मानते
थे।
हाथी को लाया गया। महातमा तो सो गये भूिम पर 'सोऽह ं .... िश वोऽह ं ....' का भाव रोम
रोम मे घूँटते हुए। हाथी मे महावत मे, राजा मे, मजाक उडाने वालो मे, सब मे मै हूँ। 'सोऽह ं ...
सवोऽह ं .... िश वोऽह ं ...।' सबका कलयाण हो। सब बह ही बह है , कलयाण सवरप है । बह हाथी
बनकर आया है । बह महावत बनकर आया है । बह राजा बनकर हुकम दे रहा है और बह ही
सोया है । बह का बह मे िखलवाड हो रहा है । 'सोऽ हम ् ...।'
बह वजीर होकर खडा है । बह िसपाही होकर भाला हाथ मे िलए तैयार है । वही बह पजा
होकर दे ख रहा है , मिहलाएँ होकर घूँघट से झाँक रही है । वही बह ननहा-मुनना होकर छोटे -छोटे
वस िारण करके आया है । मेरे बह के अनेक रप है और वह बह मै ही हूँ।" ऐसा महातमा का
िचनतन होता रहा.... सवातवमदिि बनी रही।
महावत हाथी को अंकुश मारते मारते थक गया लेिकन हाथी महातमा से दो कदम दरू ही
खडा रह जाये। आगे न बढे । दस
ू रा हाथी लाया गया। दस
ू रा महावत बुलाया गया। उसने भी हाथी
को अंकुश मारे लेिकन हाथी महातमा से दो कदम दरू का दरू !
आिखर राजा भी थका। महातमा से बोलाः "तुम गजवशीकरण मंत जानते हो कया?"
"मै गजवशीकरण मंत नहीं जानता हूँ लेिकन अनतःकरण वशीकरण मंत जानता हूँ। मै
पेम का मंत जानता हूँ।" कहकर महातमा मुसकराये।
कोई चाहे तुमहारे िलए िकतना भी बुरा सोचे, बुरा करने का आयोजन बनाये लेिकन तुम
उसके पित बुरा न सोचो तो उसके बाप की ताकत नहीं है िक वह तुमहारा बुरा कर सके। मन ही
मन कुढता रहे लेिकन वह तुमहारा अमंगल नहीं कर सकता, कयोिक तुम उसका मंगल चाहते हो।
महातमा ने कहाः "राजन ! जब मै सीिा लेट गया तो हाथी मे, तुममे और मुझमे एक ही
पभु बस रहा है , ऐसा सोचकर उस सवस
व तािीश को पयार करते हुए मैने तुमहारा और हाथी का
परम-िहत िचनतन िकया। हाथी मे मेरा परमातमा है और तुम मे भी मेरा परमातमा है , चाहे
तुमहारी बुिद उसे सवीकारे या न सवीकारे । मैने तुमहारा भी कलयाण चाहा और महावत व हाथी
का भी कलयाण चाहा।
अगर मै तुमहारा बुरा चाहता तो तुमहारी बुराई जोर पकडती। तुमसे ईषयाव करता तो
तुमहारी ईषयाव जोर पकडती। तुमहारे पित गहराई मे घण
ृ ा करता तो तुमहारी घण
ृ ा जोर पकडती।
लेिकन हे िमत ! मेरे िचत मे तुमहारे िलए ईषयाव और घण
ृ ा की जगह नहीं है , कयोिक घण
ृ ा और
ईषयाव करके मै अपना अनतःकरण अपिवत कयो करँ ?" अनुकम
जब हम िकसी के िलए ईषयाव व घण
ृ ा करते है तो वह आदमी तो सोिा पर मजे से बैिा
है अपने घर मे, पंखे के नीचे हवा खाता है , झूले पर मजे से झूलता है और हम घण
ृ ा करके
अपना अनतःकरण मिलन करते है । िजसकी हम िननदा करते है वह बाजार मे आईसकीम खा
रहा है और हम िननदा करके िदल मे होली जला रहे है । िकतनी नासमझी की बात है !
महातमा आगे कहने लगेः "हे राजन ! हमारी नासमझी गुरदे व की कृ पा से छूट गई।
इसीिलए महावत के अंकुश लगने पर भी हाथी मुझ पर पैर नहीं रख सका। अगर शरीर का
पारििवेग ऐसा होगा तो इसी पकार ही मौत होकर रहे गी, इसमे कया बडी बात है ? तब तुम रका
करने बैिोगे तो भी यह शरीर नहीं िजयेगा। पारिि मे ऐसी मौत नहीं है तो तुमहारे जैसे दस
राजा नाराज हो जाएँ तो भी िबगड िबगडकर कया िबगडे गा? राजी भी हो गये तो बन बनकर कया
होगा? जो काम मुझे बनाना था वह मैने बना िलया है ।
राजन ! दे ह तो कणभंगुर है । इसकी अमरता हो नहीं सकती ! जब यह दे ह अमर नहीं तो
िमटटी के गमले अमर कैसे रह सकते है ? ये तो िूटे गे, गलेगे, िमटे गे। पौिा भी सूखेगा। गलने,
सडने, मरने वाले गमले के िलए तू बेचारे एक गरीब नौकर के पाण ले रहा है । इसिलए मैने डणडा
घुमाकर तुझे जान दे िदया िक ये तो मरने वाली चीज है । तू अपने अनतःकरण का िनमाण
व कर।
अनतःकरण का िवनाश मत कर। िमटने वाली चीजो के साथ इतनी मुहिबत करके तू अपने
अनतःकरण को िबगाड मत। जो तेरे साथ चलेगा। िबगडने वाली चीजो मे ममता बढाकर तू शील
का तयाग मत कर। कमा, शौच, असतेय, िजतेिनियता, परदःुखकातरता – ये सब शील के अनतगत

आते है , दै वी संपित के अनतगत
व आते है ।"
राजा के िचत पर महातमा के शिदो का पभाव पडा। वह िसंहासन से नीचे उतरा। हाथ
जोडकर कमा माँगी। नौकर की िाँसी का हुकम वापस ले िलया और उसे आशासन िदया। ििर
महातमा से गुरमंत िलया और माियक पदाथो से ममता हटाकर शाशत सतय को पाने के िलए
उस आतमवेता महापुरष के बताये मागव पर चल पडा।
ईशर-पािप की इचछा से आिी सािना संपनन हो जाती है । तमाम दोष दरू होने लगते है ।
जगत के भोग पाने की इचछा मात से आिी सािना नि हो जाती है ।
योगवािशि महारामायण मे कहा है ः "िजतनी िजतनी इचछा बढती है उतना उतना जीव
छोटा हो जाता है , लघु हो जाता है । वह इचछाओं का, तषृणाओं का िजतना तयाग करता है उतना
उतना वह महान होता जाता है । संसार के सुखो को पाने की इचछा दोष ले आती है और
आतमसुख पाने की इचछा सदगुण ले आती है ।
ऐसा कोई दग
ु ुण
व नहीं जो संसार के भोग की इचछा से पैदा न हो। आदमी िकतना भी
अकलमनद हो, बुिदमान हो, सब जानता भी हो लेिकन भोग की इचछा दग
ु ण
वु ले आयेगी। आदमी
चाहे िकतना भी अनजान हो, बुदु हो लेिकन ईशर पाने की इचछा है तो उसमे सदगुण ले आयेगी।
अनुकम
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काम िववेकी का शतु है । काम अजानी को तो कालानतर मे दःुख दे ता है परनतु िववेकी
को तो ततकाल दःुख दे ने वाला है । यह कभी पूरा नहीं होता। जैसे ईिन और घी डालने से अिगन
का पेट नहीं भरता उसी पकार िकतना भी भोग भोगो, काम की पूितव कभी नहीं होती। वह बढता
ही जाता है , इसिलए इसमे तो आग ही लगानी पडे गी।
संसार मे जान तो सभी को पाप है परनतु काम ने जान को ढक िलया है । जानसवरप
आतमा तो सब मे सवत
व है िकनतु काम से ढका रहने के कारण िदखता नहीं। वैरागयरप भागय
का उदय हुए िबना वह िचदघन आननदसवरप आतमा पाप नहीं होता।
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बडो क ी बडा ई
पयागराज मे जहाँ सवामी रामतीथव रहते थे उस जगह का नाम रामबाग था। वहाँ से एक
बार वे सनान करने को गंगा नदी पर गये। उस समय के कोई सवामी अखणडाननद जी उनके
साथ थे। सवामी रामतीथव सनान करके बाहर आये तो अखणडाननद जी ने उनहे कौपीन दी। नदी
के तटपर चलते चलते पैर कीचड से लथपथ हो गये। इतने मदनमोहन मालवीय जी वहाँ आ
गये। इतने सुपिसद और कई संसथाओं के अगुआ मदनमोहन मालवीय जी ने अपने कीमती
दश
ु ाले से सवामी रामतीथव के पैर पौछने शुर कर िदये। अपने बडपपन की या "लोग कया कहे गे"
इसकी िचनता उनहोने नहीं की। यह शील है ।
अिभ मान ं सुरापा नं गौरव ं रौ रवसत था।
पितिा श ूकरी िव िा त ीणी तयकतवा सुखी भव े त।् ।
अिभमान करना यह मिदरापान करने के समान है । गौरव की इचछा करना यह रौरव
नरक मे जाने के समान है । पितिा की परवाह करना यह सूअर की िविा का संगह करने के
समान है । इन तीनो का तयाग करके सुखी होना चािहए।
पितिा को जो पकड रखते है वे शील से दरू हो जाते है । पितिा की लोलुपता छोडकर जो
ईशर-पीतयथे कायव करते है उनके अनतःकरण का िनमाण
व होता है । ईशर पीतयथे कीतन
व करते है ,
धयान करते है उनके अनतःकरण का िनमाण
व होता है ।
धयान तो सब लोग करते है । कोई शतु का धयान करता है , कोई रपयो का धयान करता
है , कोई िमत का धयान करता है , कोई पित का, पती का िचनतन-धयान करता है । यह शील मे
नहीं िगना जाता जो िनषकाम भाव से परमातमा का िचनतन व धयान करता है उनके शील मे
अिभविृद होती है ।अनुकम
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नारायण मंत
एक बार मदनमोहन मालवीय जी गीतापेस, गोरखपुर मे शी हनुमानपसाद जी पोदार के
अितिथ बने। दस
ू रे िदन सुबह को मालवीय जी ने हनुमान पसाद जी से कहाः
"मै आपको एक दल
ु भ
व चीज दे ना चाहता हूँ जो मुझे अपनी माता जी से वरदान रप मे
िमली थी। उससे मैने बहुत लाभ उिाया है ।"
मालवीय जी उस दल
ु भ
व चीज की मिहमा बताने लगे तो भाई जी ने अतयंत उतसुिा वयि
कीः "वह दल
ु भ
व चीज कृ पया शीघाितशीघ दीिजए।"
मालवीय जी ने कहाः "आज से चालीस वषव पूवव मैने माँ से आशीवाद
व माँगा िक, "मै हर
कायव मे सिल होऊँ और सिल होने का अिभमान न हो। अिभमान और िवषाद आतमशिि कीण
कर दे ते है ।" माँ ने कहा "जड चेतन मे आिद नारायण वास कर रहे है । उस पभु का पेम से
समरण करके ििर कायव करना।''
"भाई जी ! चालीस वषव हो गये। जब-जब मै समरण भूला हूँ तब तब असिल हुआ हूँ,
अनयथा सिल ही सिल रहा हूँ। इस पिवत मंत का आप भी िायदा उिाये।"
हनुमानपसादजी ने उस मंत का खूब िायदा उिाया। उनके पिरवार एवं अनय सहसो लोगो
ने भी उस पावन मंत का खूब लाभ उिाया।
कायव के आिद मे, मधय और अनत मे 'नारायण.... नारायण...... नारायण.....' समरण
करनेवालो क अवशय लाभ होता है । अतः आप लोग भी इस मंत का िायदा उिाये।
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िवव े क कीिजए
बुद जब घर छोड कर जा रहे थे तब उनका छनन नामक सारथी साथ मे था। नगर से
दरू जाकर बुद जब उसको वापस लौटाने लगे तब वह रोयाः
"कुमार ! आप यह कया रहे है ? इतना सारा िन-वैभव छोडकर आप जा रहे है ! आप बडी
गलती कर रहे है । मै नौकर हूँ। छोटे मुह
ँ बडी बात होगी लेिकन मेरा िदल नहीं मान रहा है कहे
िबना, इसिलए कह रहा हूँ। अपराि तो कर रहा हूँ सवामी को समझाने का लेिकन आप थोडी सी
समझ से काम ले। आप इतना िन, राज-वैभव, पुत-पिरवार छोडकर जा रहे है ।
बुद ने कहाः "िपय छनन ! तूने तो िन की ितजौिरयाँ दरू से दे खी है लेिकन मेरे पास
उनकी कुँिजयाँ थीं। मैने उनको नजदीक से दे खा है । तूने राज -वैभव और पुत-पती-पिरवार को दरू
से दे खा है लेिकन मैने नजदीक से दे खा है । तू तो रथ चलाने वाला सारथी है जबिक मै रथ का
मािलक हूँ। मुझे अनुभव है िक यह वासतिवक िन नहीं है । मैने उसे खूब नजदीक से दे खा है ।
अनुकम
िन वह है जो शिि दे । िन वह है जो िनवास
व िनक बनाये। िन वह है जो ििर माता के
गभव मे न िँसाये। यह िन तो मेरे िलए बािा है । मैने िीक से दे खा है । मुझे इससे शािनत नहीं
िमली िन वह है जो आतमशािनत दे । तेरी सीख िीक है लेिकन वह तेरी मित के अनुसार की
सीख है । वासतव मे तेरी सीख मे कोई दम नहीं।"
कई बार अजानी लोग भिो को समझाने का िे का ले बैिते है । भिि के रासते कोई
सजजन, सदगहृसथ, सेि, साहूकार, साहब, आििसर, अििकारी चलता है तो लोग समझाते है - "अरे
साहब ! यह कया चककर मे पडे हो? यह कया अनिशदा कर रहे हो?"
िवनोबाजी कहते थेः "कया शदा ने ही अनिा होने का िे का िलया है ? अनिशदा कहना भी
तो अनिशदा है !"
भिो के अनिशदालु कहने वाले लोगो को सुना दे ना चािहए िकः "तुम बीडी-िसगरे ट मे भी
शदा करते हो। उसमे कोई सुख नहीं ििर भी सुख िमलेगा यह मानकर िूँकते रहते हो , मुँह मे
आग लगाते रहते हो, कलेजा जलाते रहते हो। कया यह अनिशदा नहीं है ? वाइन-वहीसकी को, जो
आलकोहोल है उसे शरीर मे भर रहे हो सुख लेने के िलए यह अनिशदा नहीं है ? िडसको डानस
करके जीवन-शिि का हास करते हो, यह अनिशदा नहीं है ? हिरकीतन
व करके कोई नाच रहा है तो
यह अनिशदा है ? शदा ने ही अनिा होने का िे का िलया है कया?"
शदा तो करनी ही पडती है । हम लोग डॉकटर पर शदा करते है िक वह इनजेकशन मे
'िडसटीलड वाटर' नहीं लगा रहा है । हालाँिक कुछ डॉकटर 'िडसटीलड वाटर' के इनजेकशन लगा दे ते
है । चाय बनाने वाले नौकर पर शदा करनी पडती है िक दि
ू जूिा न होगा, मचछरवाला या मरे
हुए पतंगेवाला न होगा। हजजाम पर भी शदा करनी पडती है । वह खुला उसतरा चला रहा है ।
उसतरा गले पर नहीं घुमा दे गा यह शदा है तभी तो आराम से दाढी बनवा रहे है ।
जरा सी हजामत करवानी है तो अनपढ हजजाम पर शदा करनी पडती है , तो जनम मरण
की सारी हजामत िमटानी है तो वेद और गुरओं पर शदा जररी है िक नहीं?
बस डाईवर पर शदा करनी पडती है । पचास-साि आदमी अपना जान-माल सब डाईवर के
भरोसे सौपकर बस मे बैिते है । िकतने ही ऐकसीडै ट बस-अकसमात हो जाते है , लोग मर जाते है
ििर भी हम बस मे बैिना बनद तो नहीं करते। शदा करते है िक हमार बस डाईवर ऐकसीडै ट
नहीं करे गा।अनुकम
हवाई जहाज के पायलट पर शदा करनी पडती है । हवाई जहाज का सटीयरींग इतना
हलका सा होता है िक जरा-सा यूं घूम जाये तो गये काम से। ििर भी दो सौ तीन सौ याती
अपनी जान-माल, पूरा जीवन पायलेट के हवाले कर दे ते है । वह यहाँ से उिाकर लंदन रख दे ता
है , अमेिरका रख दे ता है । जो पथ
ृ वी की एक जगह से उिाकर दस
ू री जगह रख दे ता है , उस
पायलट के सवस
व व अपण
व करके ही बैिना पडता है तो जब सदा-सदा के िलए जीवतव से उिाकर
बहतव मे पितिित कर दे ऐसे वेद, उपिनषद, गीता और संत-महापुरष-सदगुरओं पर शदा न करे गे
तो कया तुमहारी बीडी-िसगरे ट पर शदा करे गे? तुमहारे वाइन पर शदा करे गे? रॉक और िडसको पर
शदा करे गे? तुमहारे बिहमुख
व जीवन जीन की पदित पर शदा करे गे? घुल-घुलकर माया के जाल मे
िँस मरे गे? इत ने द ु भाव गय ह मार े नह ीं ह ु ए।
हम तो ििर से यह पाथन
व ा करे गे िक हे पभु ! जब तक जी मे जान है , तन मे पाण है
तब तक मेरे िदल की डोरी, शदा की डोरी मजबूत बनी रहे .... तेरे तरि बढती रहे ..... तेरे पयारे
भि और संतो के पित बढती रहे ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
आया ज हाँ स े स ैर कर ने , हे म ु साििर ! तू यह ाँ।
था स ैर करक े लौट जाना , युि तुझको ििर वह ाँ।
तू स ैर करना भ ूल कर , िन ज घ र बनाकर िटक गया।
कर याद अपन े द ेश की , परद े श म े कयो रक गया।।
िँसकर अिवदा जाल म े , आनन द अपना खो िदया।
नहाकर जगत म ल िसन िु म े , रंग रप स ुनदर िो िदया।
िन ःशोक ह ै त ू स वव दा , कयो मोह व श पागल भया।
तज द े म ुसा ििर ! नींद , जग , अब भ ी न तेरा कुछ गया।।
सदग ु र वचन िश र िार कर , वयापार ज ग का छो ड द े।
जा लौट अप ने िाम म े , नाता यहा ँ का तो ड द े।।
सदगुर व चन जो मानता , िनशय अच ल पद पाय ह ै।
भोल े म ुसा ििर ! हो स ुखी , कयो कि वयथ व उिाय है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐ

कुछ उपयो गी म ुिाए ँ


पातः सनान आिद के बाद आसन िबछा कर हो सके तो पदासन मे अथवा सुखासन मे
बैिे। पाँच-दस गहरे साँस ले और िीरे -िीरे छोडे । उसके बाद शांतिचत होकर िनमन मुिाओं को
दोनो हाथो से करे । िवशेष पिरिसथित मे इनहे कभी भी कर सकते है ।

िलंग म ुिा ः दोनो हाथो की उँ गिलयाँ परसपर


भींचकर अनदर की ओर रहते हुए अँगूिे को
ऊपर की ओर सीिा खडा करे ।
लाभ ः शरीर मे ऊषणता बढती है , खाँसी िमटती
है और कि का नाश करती है ।अनुकम िलंग म ुिा

शू नय मुिाः सबसे लमबी उँ गली (मधयमा) को


अंदपर की ओर मोडकर उसके नख के ऊपर वाले

शूनय म ुिा
भाग पर अँगूिे का गदीवाला भाग सपशव कराये। शेष
तीनो उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः कान का ददव िमट जाता है । कान मे से पस
िनकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुिा 4 से 5
िमनट तक करनी चािहए।

पृ थवी म ुिा ः किनििका यािन सबसे छोटी उँ गली को


अँगूिे के नुकीले भाग से सपशव कराये। शेष तीनो
उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः शारीिरक दब
ु ल
व ता दरू करने के िलए, ताजगी
व सिूितव के िलए यह मुिा अतयंत लाभदायक है ।
इससे तेज बढता है ।
पृ थवी म ुिा

सूय व मुिाः अनािमका अथात


व सबसे छोटी उँ गली के
पास वाली उँ गली को मोडकर उसके नख के ऊपर
वाले भाग को अँगूिे से सपशव कराये। शेष तीनो
उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः शरीर मे एकितत अनावशयक चबी एवं सथूलता
को दरू करने के िलए यह एक उतम मुिा है ।
सूय व मुिा

जान मुिा ः तजन


व ी अथात
व पथम उँ गली को अँगूिे के
नुकीले भाग से सपशव कराये। शेष तीनो उँ गिलयाँ
सीिी रहे ।अनुकम
लाभ ः मानिसक रोग जैसे िक अिनिा अथवा अित
िनिा, कमजोर यादशिि, कोिी सवभाव आिद हो तो
यह मुिा अतयंत लाभदायक िसद होगी। यह मुिा
जान म ुिा
करने से पूजा पाि, धयान-भजन मे मन लगता है ।
इस मुिा का पितिदन 30 िमनि तक अभयास करना
चािहए।

वरण म ुिा
वरण म ुिाः मधयमा अथात
व सबसे बडी उँ गली के मोड कर
उसके नुकीले भाग को अँगूिे के नुकीले भाग पर सपशव कराये। शेष तीनो उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः यह मुिा करने से जल तिव की कमी के कारण होने
वाले रोग जैसे िक रििवकार और उसके िलसवरप होने
वाले चमरवोग व पाणडु रोग (एनीिमया) आिद दरू होते है ।

पाण मुिाः किनििका, अनािमका और अँगूिे के ऊपरी भाग


को परसपर एक साथ सपशव कराये। शेष दो उँ गिलयाँ
सीिी रहे ।
लाभ ः यह मुिा पाण शिि का केि है । इससे शरीर
िनरोगी रहता है । आँखो के रोग िमटाने के िलए व चशमे
का नंबर घटाने के िलए यह मुिा अतयंत लाभदायक है ।

पाण म ुिा ः

वाय ु मुिाः तजन


व ी अथात
व पथम उँ गली को मोडकर
ऊपर से उसके पथम पोर पर अँगूिे की गदी
सपशव कराओ। शेष तीनो उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः हाथ-पैर के जोडो मे ददव , लकवा, पकाघात,
िहसटीिरया आिद रोगो मे लाभ होता है । इस मुिा
के साथ पाण मुिा करने से शीघ लाभ िमलता है ।अनुकम
वाय ु मुिाः

ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िशिवर की प ूणा व हुित के समय अं तरंग सािको को

पूजय बाप ू क ा समािि भाषा क ा स ंकेत


िचत की िवशािनत पसाद की जननी है । परमातमा मे िवशाम पाये हुए िचत मे गुरगम
वाणी का सिुरण हुआः
"हे िशषय ! हे सािक ! तू मेरे अनुभव मे िजतना सहमत होता जायेगा तू िािमक
व बनता
जायेगा। मेरे अनुभव को िजतने अंश मे तू हजम करता जायेगा उतना तू महान बनता जायेगा।
हम दोनो के बीच की दरूी दे ह के दशन
व -मुलाकात-िमलन से दरू नहीं होगी अिपतु आतमभाव से,
आतम-िमलन से ही दरू होगी।
मै तो तेरे अनतःकरण मे दिा के रप मे, िचदघन सवरप बस रहा हूँ। मुझे छोडकर तू
कहीं जा नहीं सकता। मुझसे छुपाकर कोई कायव कर नहीं सकता। मै सदा सवत
व तेरे साथ ही हूँ।
हे वतस ! हे सािक ! अब मै तुझे संसार रपी अरणय मे अकेला छोड दँ ू ििर भी मुझे
ििकर नहीं। कयोिक अब मुझे तुझ पर िवशास है िक तू िवघन-बािाओं को चीरकर आगे बढ
जायेगा। संसार के तमाम आकषण
व ो को तू अपने पैरो तले कुचल डालेगा। िवघन और िवरोि तेरी
सुषुप शिि को जगायेगे। बािाएँ तेरे भीतर कायरता को नहीं अिपतु आतमबल को जनम दे गी।"
इस संसार रपी अरणय मे कदम कदम पर काँटे िबखरे पडे है । अपने पावन दििकोण से
तू उन काँटो और केकडो से आकीणव मागव को अपना सािन बना लेना। िवघन मुसीबत आये तब
तू वैरागय जगा लेना। सुख व अनुकूलता मे अपना सेवाभाव बढा लेना। बीच-बीच मे अपने
आतम-सवरप मे गोता लगाते रहना, आतम-िवशािनत पाते रहना।
हे िपय सािक ! तू अपने को अकेला कभी मत मानना, सदगुर की अमीदिि सदा तेरे
साथ है । सदगुर तुझे अपने नजदीक लेना चाहते है । तू जयो जयो अनतमुख
व होता जायेगा तयो
तयो गुरतिव के नजदीक आता जाएगा। गुरतिव के समीप होना चाहता हो तो अनतमुख
व होता
जा। ििर बहादरुी, दे श व काल की दरूी तुझे रोक नहीं सकेगी। तू कहीं भी होगा, कैसी भी
पिरिसथित मे होगा, जब चाहे गा तब तू मुझसे समबनि जोड सकेगा।
"हे वतस ! तू अपने िनतय शाशत जीवन की ओर सजग रहना। इस अिनतय दे ह और
अिनतय समबनिो को माया का िवलास व िवसतार समझकर तू अपने िनतय सवभाव की ओर
बढते रहना। हम दोनो के पावन समबनि के बीच और कोई आ नहीं सकता। मौत की भी कया
मजाल है िक हमारे िदवय समबनि का िवचछे द कर सके? सदगुर और सतिशषय का समबनि
मौत भी नहीं तोड सकती। यह समबनि ऐसा पावन है , दे श और काल से परे है । अतः िपय भाई!
तू अपने को अकेला कभी मत मानना।"
"हे सािक ! तुझे िवघन बािाओं से भेजते हुए मै िझझकता नहीं कयोिक मुझे तुझ पर
भरोसा है , तेरी सािना पर भरोसा है । तू कैसी भी उलझनो से बाहर हो जाएगा। तू अमर पद की
पािप के िलए मेरे पास आया था। तेरा मेरा समबनि इस अमर पद के िनिमत ही हुआ।अनुकम
संसार रपी सागर मे अपनी जीवन-नौका को खेते रहना... गुरमंत और सािना रपी पतवारे
तुझको दी गई है । गुरकृ पा और ईशरकृ पा रपी हवाएँ चलती रहे गी। उसके बल से अपने जीवन-
नौका को चलाते रहना। आतम-साकातकार रपी दीपसतमभ का लकय अपने सामने रखना। िरिद
िसिद मे िँसना नहीं। जवार-भाटा से घबराना नहीं। 'मेरे-तेरे' मे उलझना नहीं।
हे वतस ! हे भैया ! तू हरदम याद रखना िक तेरा लकय आतम-साकातकार मे है । िजस पद
मे भगवान सामब सदािशव िवशािनत पाते है , िजस पद मे भगवान आिदनारायण योगिनिा मे
आराम िरमाते है , िजस िचदघन परमातमा की सता से बहाजी सिृिसजन
व का संकलप करते है वह
शुद आतम-सवरप तेरा लकय है ।
िनिा के समय अचेतन अवसथा मे, सुषुप अवसथा मे जाने से पहले उसी लकय को याद
करके ििर सोना। जब वह सुषुप अवसथा, िनिा की अवसथा, अचेतन अवसथा पूरी हो तब तू
छलाँग मारकर सचेतन अवसथा मे से परम चेतन अवसथा मे पवेश करना।
हे सािक ! अपनी िदवय सािना को ही, अपने िनजी अनुभव को ही पमाणभूत होने दे ना।
बाहर के पमाण पतो से तू पभािवत न होना। वतस ! दिुनया के लोग तुझे अचछा कहे तो यह
उनका सौजनय है । अगर तुझे बुरा कहे तो तू अपना दोष खोज िनकालना। पर याद रखनाः
तमाम िननदा और पशंसा केवल इिनियो का िोखा है , सतय नहीं है । मान-अपमान सतय नहीं है ।
जीवन-मतृयु सतय नहीं। अपना और पराया सतय नहीं है । हे सािक ! सतय तो तू सवयं है । अपने
आप मे ही, अपने आतम-सवरप मे ही तू पितिित होना।
हे वतस ! दे हाधयास को िपघलने दे ना। सचेतन-अचेतन अवसथाओं को तू खेल समझना।
ये अवसथाएँ जहाँ से शिि लाती है , जहाँ से जान लाती है , जहाँ से आननद व उललास लाती है ,
पेम का पसाद लाती है उस परम चैतनय परमातमा का पसाद पाने के िलए ही तेरा जनम हुआ
है । पयारे ! तू अपने को भाई या बहन, सी या पुरष, माँ या बाप नहीं मानना। गुर ने तुझे सािक
नाम िदया है तो उस नाम को साथक
व करते हुए अपने साधय को पाने के िलए सदा जागत

रहना। सब नाम और गाँव दे ह रपी चोले के िलए है । जबसे तू संत की शरण मे पहुँचा है , सदगुर
के चरणो मे पहुँचा है तब से तू सािक बना है । अब साधय हािसल करके तू िसद बन जा।
चा तक मीन पत ंग जब िपय िबन नही ं रह पाय।
सा धय को पाय े िबना स ािक कयो रह जाय।।
तमाम िननदा सतुित को तू िमथया समझना। तमाम मान-अपमान के पसंगो को तू खेल
समझना। तू अपने शुद चेतन सवभाव मे पितिित होना। पयारे ! अगर इतनी सेवा तूने कर ली
तो गुरदे व परम पसनन होगे। गुर की सेवा करना चाहता है तो गुर का जान पचाने की दढता
ला।अनुकम
सि ग ुर िमल े व ह य ूं कह े कछु लाय और मोह े द े।
सदग ु र िम ले वह य ूं कह े नाम ि णी का ल े , सवरप स ँभाल ल े।।
हे सािक ! तू अपने सवरप को ले ले... अपने आतम-सवरप मे जाग जा। अपने िनज
अििकार को तू सँभाल ले। पयारे ! कब तक माया की थपपडे खाता रहे गा? कब तक माताओं के
गभव मे लटकेगा? कब तक िपताओं के शरीर से गुजरता रहे गा? पंच भौितक दे हो मे से कई जनमो
तक गुजरता आया है ।
वतस ! तूने कई माँ बाप बदले है । भैया ! तेरी वयतीत वयथाएँ मै जानता हूँ। तेरे भूतकाल
के किो को मै िनहार रहा हूँ। मेरे पयारे सािक ! तेरे पर कौन-सा दःुख नहीं आया है बता? हर
जनम मे दःुख के दावानल मे सेका गया है । िकतनी ही गभािवगनयो मे पकता आया है । कई बार
तूने असह दःुख सहे है । मेरे लाडले ! तेरी वह दयनीय िसथित... दःुखद िसथित... तुझे याद नहीं
होगी लेिकन गुरदिि से, जान दिि से, िववेकदिि से वह सब समझा जा सकता है , दे खा जा सकता
है ।
हे िपय सािक ! िकतने ही जनमो मे, िकतने ही गभो मे, िकतने ही दःुख भोगकर तू आया
है । कई बार तू कीट पतंग की योिनयो मे था तब मागव मे जाते हुए कुचला गया है । कई बार तू
समशान मे अिगन की आहुित बन चुका है । अतीत मे भुगते हुए दःुखो को अब बार-बार भोगना
बनद कर दे । भावी मे आने वाले दःुखो पर वैिदक बहिवदा का मरहम लगा दे । अब तू मुि हो
जा... मुि हो जा वतस !"
सािक िशषय की हदयवाणी झनक उिीः
"गुरदे व ! गुरदे व.....!! आपकी आजा मुझे िशरोिायव है । मै आपका िशषय हूँ तो अब
भवाटवी से बाहर िनकलकर ही दम लूँगा। अपनी जनम मतृयु की परं परा को अब आगे बढने नहीं
दँग
ू ा। गुरदे व ! मै वचन दे ता हूँ- अब िकसी माता के गभव मे लटकने नहीं जाऊँगा। कोई दि

वासना करके गभाशवयो मे नहीं जाऊँगा। आप के िदये हुए जान को िीक से पिरपकव करँगा।
कालु नाम की मछली सवाित नकत के िदनो मे समुि की सतह पर आकर जलविृि की
पतीका करती है । मेघ से बरसता हुआ जल का एक बूँद िमल जाता है तो उसे सँभालकर गहण
कर लेती है । सागर की गहराई मे उतर जाती है और उस जल-िबनद ू को मोती मे रपानतिरत कर
दे ती है ।
ऐसे ही गुरदे व ! आपके िदवय वचन को मै िारण करँ गा... हदय की गहराई मे उसे
पिरपकव करँ गा। आपके उपदे श को, सािना के मागद
व शक
व संकेत को मै बहजान रपी मोती मे,
आतम-साकातकार रपी मोती मे रपानतिरत कर लूँगा। गुरदे व ! मै आपको वचन दे ता हूँ। मै इस
साधय को िसद करने मे लगा रहूँगा।
मै आपसे नम पाथन
व ा करता हूँ िक अगर मै इस कायव मे चूक जाऊँ, पमाद करँ तो आप
मेरा कान पकड कर जगा दे ना, सवपन मे आकर भी संकेत करना। मुझे माया की नींद मे सोने न
दे ना।"अनुकम
िशषय के पिवत हदय से गुरआजा िशरोिायव करने का वचन सुनकर गुरजी िशषय को
पोतसाहन दे ने लगे िकः
"वतस ! बार-बार तू अपने हदय के गहन पदे श मे गोता लगाते रहना। अपनी अनतमुख
व ता
बढाते रहना। अपने िनतय, शुद, बुद, िनरं जन नारायण सवरप मे नहाते रहना। शरीर का सनान दे र
सबेर करे गा तो चल जायेगा। लेिकन हे सािक ! तू मुझमे सनान िीक से करते रहना। तेरे सौमय
और पिवत जीवन को िनहारकर पडोसी लोग भी पिवत हो जाये, तू ऐसा बनना। वतस ! पाशवी
जीवन मे सरकने वाले लोगो के समपकव मे आकर बह न जाना। पूवव जीवन मे की हुई गलितयो
को बार-बार याद करके घबराना मत। अब तो तूने गुरमंत का सहारा ले िलया है । सािना साथ
पा िलया है । जानगंगा का सनान तुझे िमल गया है ।
हे सािक ! अब तू ऐसा समय ला िक मै तेरे जनम मतृयु चक समाप हुआ दे खूँ। मै ऐसे
िदन की ताक मे हूँ। कब तक तू गभव
व ास का दारण दःुख भोगता रहे गा? कब तक गभािवगनयो मे
पकता रहे गा? कब तक माताएँ बदलता रहे गा? कब तक बाहर के नाते-िरशते जोड जोडकर अनत मे
काल का गास बनता रहे गा? सबको अपना बना-बनाकर ििर पराये करता रहे गा?
भैया ! जैसे नदी के पवाह मे कई ितनके परसपर कई बार िमलते और िबछुडते रहते है
ऐसे ही इस संसार की सिरता मे पती-पिरवार, िमत, सगे-समबनिी के िमलन का संयोग नहीं है
कया? जल-पवाह की तरं गो मे जैसे ितनके िमलते िबछुडते है वैसे ही काल की तरं गो मे सब
समबनि बनते िबगडते है । बाढ के जल-पवाह मे ितनको के समबनि की भाँित ही पित-पती का
समबनि, िरशतेनातो का समबनि है । अतः पयारे सािक ! तू उन अिनतय समबनिो मे आसिि न
करना।
रे लगाडी के िडिबे मे याती साथ बैिते है , िमलते है , दोसती कर लेते है । एक दस
ू रे का पता
िलख लेते है । सटे शन पर एक दस
ू रे का सामान उतारने मे सहायक बनते है । गेट तक अलिवदा
दे ने जाते है । 'ििर िमलेगे... पत िलखेगे....' ऐसे वादे भी करते है । लेिकन समय पाकर अपना
अपना रासता पकड लेते है । सब भूल जाते है ।
ऐसे ही यह संसार-गाडी के याितयो का समबनि भी अिनतय है । आयुषय का िटकट पूरा
हो जाता है तो सब िबछुड जाते है । हमारा सटे शन आ जायेगा तो हम उतर जायेगे। सगे-
समबिनियो का सटे शन आ जायेगा तो वे उतर जायेगे। हम लोग समशान तक छोडने भी जायेगे।
याद भी करे गे कब तक?
पयारे सािक ! तू इस संसार को सतय न मानना लेिकन अपने सतय सवरप मे, परम
सतय परमातमा मे पितिित होना। जब तक तू परम सतय का दशन
व न कर ले, परम तिव से
पूणत
व या एकतव न साि ले तब तक तू साविान रहना। आलसय, पमाद, िवलािसता मे न डू बना।
सतत सजग रहना। लगे रहना अपनी सािना मे। कूद पड उस परम सतय परमातमा मे। आतम-
सवरप के आननद मे डू ब जा। शाशत सतय का अनुभव करने के िलए दढ िनशय कर।अनुकम
िकसी का खाया हुआ भोजन तेरी भूख नहीं िमटायेगा। िकसी का िपया हुआ जल तेरी
पयास नहीं बुझायेगा। आतम-साकातकार का अनुभव तू सवयं करना वतस ! झूिी दआ
ु ओं और
खोखले आशासनो मे रक नहीं जाना। कोई गुर या माता-िपता मतृयु के बाद तुझे कनिे पर
उिाकर सचखणड मे नहीं ले जायेगे। सदगुर के उपदे श को तू अपना अनुभव बना ले, पयारे ! गुर
के अनुभव को तू पचा ले।
पयारे िशषय ! तू जयो जयो अनतमुख
व होता जायेगा, गहरी याता करता जायेगा तयो तयो
मेरे िनकट आता जायेगा। लोगो की दिि मे चाहे तू हजारो मील दरू िदखे, मेरे इदव िगदव िचपके हुए
लोग नजदीक िदखे लेिकन तू कहीँ भी होगा, िजतना जयादा अनतमुख
व रहे गा उतना मेरे जयादा
नजदीक होगा।
िूिी ने तेरा नाम कुछ रखा होगा, लोगो ने कुछ रखा होगा। चपरासी तुझे साहब बोलता
होगा, गाहक तुझे सेि कहता होगा, सेि तुझे मुनीम मानता होगा लेिकन सदगुर ने तेरा नाम
सािक रखा है । सािना ही तेरा जीवन होना चािहए। आतमजान ही तेरा साधय होना चािहए।
पयारे िशषय ! सािक जैसा पद दिुनया मे दस
ू रा कोई पद नहीं है । सािक का समबनि
परमातमा के साथ है । सेि का समबनि पगार के साथ, नेता का समबनि कुसी के साथ है ।
लेिकन हे सािक ! तेरा समबनि सदगुर के साथ है , परमातमा के साथ है । इस िदवयाितिदवय
समबनि का सतत समरण करके तू अपने सवरप को पा लेना।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

बी जमं तो के दा रा सवासथय -सु रका


भारतीय संसकृ ित ने आधयाितमक िवकास के साथ शारीिरक सवासथय को भी महतवपूणव
सथान िदया है ।
आज कल सुिविाओं से समपनन मनुषय कई पकार की िचिकतसा पदितयो को आजमाने
पर भी शारीिरक रोगो व मानिसक समसयाओं से मुि नहीं हो सका। एलोपैथी की जहरीली
दवाइयो से ऊबकर अब पाशातय जगत के लोग Alternative Medicine के नाम पर पाथन
व ा, मंत,
योगासन, पाणायाम आिद से हाटव अटै क और कैसर जैसी असाधय वयािियो से मुि होने मे सिल
हो रहे है । अमेिरका मे एलोपेथी के िवशेषज डॉ. हबट
व बेनसन और डॉ. दीपक चोपडा ने एलोपेथी
को छोडकर िनदोष िचिकतसा-पदित की ओर िवदे िशयो का धयान आकिषत
व िकया है िजसका मूल
आिार भारतीय मंतिवजान है । ऐसे वि हम लोग एलोपेथी की दवाइयो की शरण लेते है जो
पायः मरे हुए पशुओं के यकृ त (कलेजा), मीट एकसटे कट, माँस, मछली के तेल जैसे अपिवत पदाथो
से बनायी जाती है । आयुविै दक औषिियाँ, होिमयोपैथी की दवाइयाँ और अनय िचिकतसा-पदितयाँ
भी मंतिवजान िजतनी िनदोष नहीं है ।अनुकम
हर रोग के मूल मे पाँच तिव यानी पथ
ृ वी, जल, तेज, वायु और आकाश की ही िवकृ ित
होती है । मंतो के दारा इन िवकृ ितयो को आसानी से दरू करके रोग िमटा सकते है ।
डॉ. हबट
व बेनसन के शोि के बाद कहा है । Om a day, keeps doctors away. ॐ का जप
करो और डॉकटर को द ू र ही रखो।
िविभनन बीजमंतो की िवशद जानकारी पाप करके हमे अपनी सासकृ ितक िरोहर का लाभ
उिाना चािहए।
पृ थवी तिव
इस तिव का सथान मूलािार चक मे है । शरीर मे पीिलया, कमलवायु आिद रोग इसी तिव
की िवकृ ित से होते है । भय आिद मानिसक िवकारो मे इसकी पिानता होती है ।
िव ििः पथ
ृ वी तिव के िवकारो को शांत करने के िलए 'लं ' बीजमंत का उचचारण करते हुए
िकसी पीले रं ग की चौकोर वसतु का धयान करे ।
लाभ ः इससे थकान िमटती है । शरीर मे हलकापन आता है । उपरोि रोग, पीिलया आिद
शारीिरक वयािि एवं भय, शोक, िचनता आिद मानिसक िवकार िीक होते है ।
जल तिव
सवािििान चक मे चल तिव का सथान है । कटु , अमल, िति, मिुर आिद सभी रसो का
सवाद इसी तिव के कारण आता है । असहनशीलता, मोहािद िवकार इसी तिव की िवकृ ित से होते
है ।
िव ििः 'वं ' बीजमंत का उचचारण करते हुए चाँदी की भाँित सिेद िकसी अिच
व निाकार
वसतु का धयान करे ।
लाभ ः इस पकार करने से भूख-पयास िमटती है व सहनशिि उतपनन होती है । कुछ िदन
यह अभयास करने से जल मे डू बने का भय भी समाप हो जाता है । कई बार 'झूिी' नामक रोग
हो जाता है िजसके कारण पेट भरा रहने पर भी भूख सताती रहती है । ऐसा होने पर भी यह
पयोग लाभदायक। सािक यह पयोग करे िजससे िक सािना काल मे भूख-पयास सािना से
िवचिलत न करे ।
अिगन तिव
मिणपुर चक मे अिगनतिव का िनवास है । कोिािद मानिसक िवकार, मंदािगन, अजीणव व
सूजन आिद शारीिरक िवकार इस तिव की गडबडी से होते है ।
िव ििः आसन पर बैिकर 'रं ' बीजमंत का उचचारण करते हुए अिगन के समान लाल
पभावाली ितकोणाकार वसतु का धयान करे ।
लाभ ः इस पयोग से मनदािगन, अजीणव आिद िवकार दरू होकर भूख खुलकर लगती है व
िूप तथा अिगन का भय िमट जाता है । इससे कुणडिलनी शिि के जागत
ृ होने मे सहायता
िमलती है ।अनुकम
वाय ु तिव
यह तिव अनाहत चक मे िसथत है । वात, दमा आिद रोग इसी की िवकृ ित से होते है ।
िव ििः आसन पर बैिकर 'यं ' बीजमंत का उचचारण करते हुए हरे रं ग की गोलाकार वसतु
(गेद जैसी वसतु) का धयान करे ।
लाभ ः इससे वात, दमा आिद रोगो का नाश होता है व िवििवत दीघक
व ाल के अभयास से
आकाशगमन की िसिद पाप होती है ।
आकाश तिव
इसका सथान िवशुद चक मे है ।
िव ििः आसन पर बैिकर 'हं ' बीजमंत का उचचारण करते हुए नीले रं ग के आकाश का
धयान करे ।
ॐॐॐॐॐॐॐ
पािको की सुिविा के िलए उपरोि चको के बारे मे िचत सिहत वणन
व नीचे िदया जा रहा
है ।

यौ िगक चक
चक ः चक आधयाितमक शिियो के केनि है । सथूल शरीर मे ये चक चमच
व कुओं से नहीं
िदखते है । कयोिक ये चक हमारे सूकम शरीर मे होते है । ििर भी सथूल शरीर के जानतंतुओं-
सनायुकेनिो के साथ समानता सथािपत करके उनका िनदे श िकया जाता है ।

हमारे शरीर मे सात चक है और उनके सथान िनमनांिकत है -अनुकम


1.मूला िार च कः गुदा के निदीक मेरदणड के आिखरी िबनद ु के पास यह चक होता है ।
2. सवािि िान च कः नािभ से नीचे के भाग मे यह चक होता है । 3. मिणप ुर चक ः यह चक
नािभ केनि पर िसथत होता है । 4. अनाहत चक ः इस चक का सथान हदय मे होता है ।5.
िव शुदा खय चक ः कंिकूप मे होता है । 6. आजाचक ः यह चक दोनो भौहो (भवो) के बीच मे
होता है । 7. सह सार च कः िसर के ऊपर के भाग मे जहाँ िशखा रखी जाती है वहाँ यह चक
होता है ।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

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