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जीवन िवकास
शी योग व ेदान त स ेवा स िमित
संत शी आसारा मजी आ शम ,
साबर मित , अमदावाद
िपन कोडः 380005
द ू र भाषः 7505010,7505011 अनुकम
पूजय बाप ू जी क े
आश ीवव चन
इस छोटी सी पुिसतका मे वो रत भरे हुए है जो जीवन को िचनमय
बना दे । िहटलर और िसकंदर की उपलििियाँ और यश उनके आगे
अतयंत छोटे िदखने लगे।
तुम अपने को सारे िवश मे वयाप अनभ
ु व करो। इन िवचार रतो
को बार-बार िवचारो। एकांत मे शांत वातावरण मे इन बनिनो को
दोहराओ। और.... अपना खोया हुआ खजाना अवशय अवशय पाप कर
सकोगे इसमे तिनक भी संदेह नहीं है ।
करो िहममत......! मारो छलांग......! कब तक िगडिगडाते रहोगे? हे
भोले महे श ! तुम अपनी मिहमा मे जागो। कोई कििन बात नहीं है ।
अपने सामाजय को सँभालो। ििर तुमहे संसार और संसार की
उपलििियाँ, सवगव और सवगव के सुख तुमहारे कृ पाकांकी महसूस होगे। तुम
इतने महान हो। तुमहारा यश वेद भी नहीं गा सकते। कब तक इस दे ह
की कैद मे पडे रहोगे?
ॐ.......! ॐ......!! ॐ.......!!!
उिो..... जागो......! बार-बार इन वचनो मे अपने िचत को सराबोर
कर दो।
।। ॐ शांितः ।।अनुकम
िनव ेदन
बूँद-बूँद से सिरता और सरोवर बनते है , ऐसे
ही छोटे -छोटे पुणय महापुणय बनते है । छोटे -छोटे
सदगुण समय पाकर मनुषय मे ऐसी महानता
लाते है िक वयिि बनिन और मुिि के पार
अपने िनज सवरप को िनहारकर िवशरप हो
जाता है ।
िजन कारणो से वयिि का जीवन अिःपतन की
ओर जाता है वे कारण थोडे -से इस पुसतक मे
दशाय
व े है । िजन उपायो से वयिि का जीवन
महानता की ओर चलता है वे उपाय, संतो के,
शासो के वचन और अनुभव चुनकर आपके हाथ
मे पसतुत करते हुए हम िनय हो रहे है ।अनुकम
शी य ोग व ेदानत स े वा सिमित
अमद ाबाद आ शम
अनुकम
जीवन िवकास। मानिसक आघात, िखंचाव, घबडाहट, 'टे नशन' का
पभाव।
भाव का िवकास। संगीत का पभाव।
पतीक का पभाव। लोक-संपकव व सामािजक वातावरण का पभाव।
भौितक वातावरण का पभाव। आहार का पभाव।
शारीिरक िसथित का पभाव। सिलता का रहसय।
सवातंतय का माग।व इिनिय िवजयः सुख व सामथयव का सोत।
जाग मुसाििर। आतम-कलयाण मे िवलमब कयो?
परिहत मे िनिहत सविहत। सचचा िनी।
आतमदिि का िदवय अंजन। सचची शरणागित।
समथव की लीला। सचचा वशीकरण मंत।
बडो की बडाई। नारायण मंत।
िववेक कीिजए। कुछ उपयोगी मुिाएँ।
िशिवर की पूणाह
व ु ित के समय अंतरं ग सािको बीजमंतो के दारा सवासथय-सुरका।
को पूजय बापू का समािि भाषा का संकेत।
जी वन िवकास
हमारे शारीिरक व मानिसक आरोगय का आिार हमारी जीवनशिि है । वह 'पाण-शिि' भी
कहलाती है ।
हमारे जीवन जीने के ढं ग के मुतािबक हमारी जीवन-शिि का हास या िवकास होता है ।
हमारे पाचीन ऋिष-मुिनयो ने योग-दिि से, आंतर-दिि से व जीवन का सूकम िनरीकण करके
जीवन-शिि िवषयक गहनतम रहसय खोज िलये थे। शुद, साििवक, सदाचारी जीवन और िवििवत ्
योगाभयास के दारा जीवन-शिि का िवकास करके-कैसी कैसी िरिद-िसिदयाँ हािसल की जा सकती
है , आतमोननित के िकतने उतुग
ं िशखरो पर पहुँचा जा सकता है इसकी झाँकी महिषव पतंजिल के
योगदशन
व तथा अधयातमिवदा के शासो से िमलती है ।
योगिवदा व बहिवदा के इन सूकमतम रहसयो का लाभ जाने अनजाने मे भी आम जनता
तक पहुँच जाए इसिलए पजावान ऋिष-महिषय
व ो ने सनातन सतय की अनुभूित के िलए जीवन-
पणाली बनाई, िविि िनषेि का जान दे ने वाले शास और िविभनन समिृतयो की रचना की। मानव
यिद ईमानदारी से शास िविहत मागव से जीवनयापन करे तो अपने आप उसकी जीवन-शिि
िवकिसत होती रहे गी, शिि के हास होने के पसंगो से बच जायेगा। उसका जीवन उतरोतर उननित
के मागव पर चलकर अंत मे आतम-िवशािनत के पद पर पहुँच जायेगा।
पाचीन काल मे मानव का अनतःकरण शुद था, उसमे पिरषकृ त शदा का िनवास था। वह गुर और
शासो के वचनो के मुतािबक चल पडता था आतमोननित के मागव पर। आजकल का मानव
पयोगशील एवं वैजािनक अिभगमवाला हो रहा है । िवदे श मे कई बुिदमान, िवदान, वैजािनक वीर
हमारे ऋिष-महिषय
व ो के आधयाितमक खजाने को पयोगशील, नये अिभगम से खोजकर िवश के
समक पमािणत कर रहे है िक खजाना िकतना सतय और जीवनोपयोगी है ! डॉ. डायमणड ने
जीवन-शिि पर गहन अधययन व पयोग िकये है । िकन-िकन कारणो से जीवन-शिि का िवकास
होता है और कैसे-कैसे उसका हास होता रहता है यह बताया है ।अनुकम
िनमनिलिखत बातो का पभाव हमारी जीवन शिि पर पडता है ः
मानिसक आघात, िखंचाव, घबडाहट, टे शन। भाव।
संगीत। पतीक।
लोक-संपकव व सामािजक वातावरण। भौितक वातावरण।
आहार। शारीिरक िसथित।
सिलत ा का रहस य
कोई आदमी गदी तिकयो पर बैिा है । हटटा कटटा है , तनदरसत है , लहलहाता चेहरा है तो
उसकी यह तनदरसती गदी-तिकयो के कारण नहीं है अिपतु उसने जो भोजन आिद खाया है , उसे
िीक से पचाया है इसके कारण वह तनदरसत है , हटटा कटटा है ।
ऐसे ही कोई आदमी ऊँचे पद पर, ऊँची शान मे, ऊँचे जीवन मे िदखता है , ऊँचे मंच पर से
विवय दे रहा है तो उसके जीवन की ऊँचाई मंच के कारण नहीं है । जाने अनजाने मे उसके
जीवन मे परिहतता है , जाने अनजाने आतमिनभरवता है , थोडी बहुत एकागता है । इसी कारण वह
सिल हुआ है ।अनुकम
जैसे तंदरसत आदमी को दे खकर गदी-तिकयो के कारण वह तंदरसत है ऐसा मानना
गलत है ऐस ही ऊँचे पदिवयो पर बैिे हुए वयिियो के िवषय मे सोचना िक ऊँची पदिवयो के
कारण वे ऊँचे हो गये है , छलकपट करके ऊँचे हो गये है यह गलती है , वासतव मे ऐसी बात नहीं
है । छलकपट और िोखा-िडी से तो उनका अनतःकरण और नीचा होता और वे असिल रहते।
िजतने वे सचचाई पर होते है , जाने अनजाने मे भी परिहत मे रत होते है , उतने वे ऊँचे पद को
पाते है ।
पर मे भी वही परमातमा है । वयिितव की सवाथव-परायणता िजतनी कम होती है , छोटा
दायरा टू टने लगता है , बडे दायरे मे विृत आती है , परिहत के िलए िचनतन व चेिा होने लगती है
तभी आदमी वासतव मे बडपपन पाता है ।
गुलाब का िूल िखला है और सुहास पसािरत कर रहा है , कइयो को आकिषत
व कर रहा है
तो उसकी िखलने की और आकिषत
व करने की योगयता गहराई से दे खो तो मूल के कारण है । ऐसे
िकसी आदमी की ऊँचाई, महक, योगयता िदखती है तो जाने अनजाने उसने जहाँ से मनःविृत
िुरती है उस मूल मे थोडी बहुता गहरी याता की है , तभी यह ऊँचाई िमली है ।
िोखा-िडी के कारण आदमी ऊँचा हो जाता तो सब कूर आदमी िोखेबाज लोग ऊँचे उि
जाते। वासतव मे ऊँचे उिे हुए वयिि ने अनजाने मे एकतव का आदर िकया है , अनजाने मे
समता की कुछ महक उसने पाई है । दिुनया के सारे दोषो का मूल कारण है दे ह का अहं कार,
जगत मे सतयबुिद और िवषय-िवकारो से सुख लेने की इचछा। सारे दःुखो का िवघनो का,
बीमािरयो का यही मूल कारण है । सारे सुखो का मूल कारण है जाने अनजाने मे दे हाभयास से
थोडा ऊपर उि जाना, अहं ता, ममता और जगत की आसिि से ऊपर उि जाना। जो आदमी कायव
के िलए कायव करता है , िलेचछा की लोलुपता िजतनी कम होती है उतने अंश मे ऊँचा उिता है
और सिल होता है ।
सिलता का रहसय है आतम-शदा, आतम-पीित, अनतमुख
व ता, पाणीमात के िलए पेम, परिहत-
परायणता।
परिहत ब स िजनक े मन म ांही।
ितनको ज ग द ु लव भ कछु नाही ं।।
एक बचचे ने अपने भाई से कहाः "िपता जी तुझे पीटे गे।" भाई ने कहाः "पीटे गे तो....
पीटं गे। मेरी भलाई के िलए पीटे गे। इससे तुझे कया िमलेगा?" अनुकम
ऐसे ही मन अगर कहने लगे िक तुम पर यह मुसीबत पडे गी, भिवषय मे यह दःुख होगा,
भय होगा तो िनिशंत रहो िक अगर परमातमा दःुख, कलेश आिद दे गा तो हमारी भलाई के िलए
दे गा। अगर हम िपता की आजा मानते है , वे चाहते है वैसे हम करते है तो िपता पागल थोडे ही
हुए है िक वे हमे पीटे गे? ऐसे ही सिृिकताव परमातमा पागल थोडे ही है िक हमे दःुख दे गे? दःुख तो
तब दे गे जब हम गलत मागव पर जायेगे। गलत रासते जाते है तो िीक रासते पर लगाने के िलए
दःुख दे गे। दःुख आयेगा तभी जगिननयनता का दार िमलेगा। परमातमा सभी के परम सुहद है । वे
सुख भी दे ते है तो िहत के िलए और दःुख भी दे ते है तो िहत के िलए। भिवषय के दःुख की
कलपना करके घबडाना, िचिनतत होना, भयभीत होना िबलकुल जररी नहीं है । जो आयेगा,
आयेगा.... दे खा जायेगा। अभी वतम
व ान मे पसनन रहो, सवाथव-तयाग और िमव-परायण रहो।
सारे दःुखो की जड है सवाथव और अहं कार। सवाथव और अहं कार छोडते गये तो दःुख अपने
आप छूटते जाएँगे। िकतने भी बडे भारी दःुख हो, तुम तयाग और पसननता के पुजारी बनो। सारे
दःुख रवाना हो जायेगे। जगत की आसिि, परदोषदशन
व और भोग का पुजारी बनने से आदमी को
सारे दःुख घेर लेते है ।
कोई आदमी ऊँचे पद पर बैिा है और गलत काम कर रहा है तो उसे गलत कामो से
ऊँचाई िमली है ऐसी बात नहीं है । उसके पूवव के कोई न कोई आचरण अदै त जान की महक से
युि हुए होगे तभी उसको ऊँचाई िमली है । अभी गलत काम कर रहा है तो वह अवशय नीचे आ
जायेगा। िरे ब, िोखा-िडी, ईषयाव-घण
ृ ा करे गा तो नीचे आ जायेगा।
िवदाथी सिल कब होता है ? जब िनिशंत होकर पढता है , िनभीक होकर िलखता है तो
सिल होता है िचिनतत भयभीत होकर पढता िलखता है तो सिल नहीं होता। युद मे योदा तभी
सिल होता है जब जाने अनजाने मे दे हाधयास से परे हो जाता है । विा विृ तव मे तब सिल
होता है जब अनजाने मे ही दे ह को 'मै', 'मेरे' को भूला हुआ होता है । उसके दारा सुनदर सुहावनी
वाणी िनकलती है । अगर कोई िलखकर, पढकर, रटकर, पभाव डालने के िलए यह बोलूँगा...... वह
बोलूँगा..... ऐसा करके जो आ जाते है वे पढते-पढते भी िीक नहीं बोल पाते। जो अनजाने मे
दे हाधयास को गला चुके है वे िबना पढे , िबना रटे जो बोलते है वह संतवाणी बन जाती है , सतसंग
हो जाता है ।
िजतने हम अंतयाम
व ी परमातमा के विादार है , दे हाधयास से उपराम है , जगत की तू तू मै
मै की आकषण
व ो से रिहत है , सहज और सवाभािवक है उतने ही आनतिरक सोत से जुडे हुए है
और सिल होते है । िजतना बाह पिरिसथितयो के अिीन हो जाते है आनतिरक सोत से समबनि
िछनन-िभनन कर दे ते है उतने ही हमारे सुनदर से सुनदर आयोजन भी िमटटी मे िमल जाते है ।
इसीिलए, हर केत मे सिल होना है तो अनतयाम
व ी से एकता करके की संसार की सब चेिाएँ करो।
भीतर वाले अनतयाम
व ी से जब तुम िबगाडत हो तब दिुनया तुम से िबगाडती है ।अनुकम
लोग सोचते है िक, 'िलाने आदमी ने सहकार िदया, िलाने िमतो ने साथ िदया तभी वह
बडा हुआ, सिल हुआ।' वासतव मे जाने अनजाने मे िलानो की सहायता की अपेका उसने ईशर
मे जयादा िवशास िकया। तभी िलाने वयिि उसकी सहायता करने मे पवत
ृ हुए। अगर वह ईशर
से मुह
ँ मोड ले और लोगो की सहायता पर िनभरव हो जाए तो वे ही लोग आिखरी मौके पर
बहानाबाजी करके िपणड छुडा लेगे, िखसक जायेगे, उपराम हो जायेगे। यह दै वी िविान है ।
भय, िवघन, मुसीबत के समय भी भय-िवघन-मुसीबत दे ने वालो के पित मन मे ईषयाव,
घण
ृ ा, भय ला िदया तो जरर असिल हो जाओगे। भय, िवघन, मुसीबत, दःुखो के समय भी
अनतयाम
व ी आतमदे व के साथ जुडोगे तो मुसीबत डालने वालो का सवभाव बदल जायेगा, िवचार
बदल जायेगे, उनका आयोजन िेल हो जाएगा, असिल हो जाएगा। िजतना तुम अनतयाम
व ी से एक
होते हो उतना तुम सिल होते हो और िवघन-बािाओं से पार होते हो। िजतने अंश मे तुम जगत
की वसतुओं पर आिािरत रहते हो और जगदीशर से मुँह मोडते हो उतने अंश मे िविल हो जाते
हो।
सी वसालंकार आिद से िैशनेबल होकर पुरष को आकिषत
व करना चाहती है तो थोडी दे र
के िलए पुरष आकिषत
व हो जाएगा लेिकन पुरष की शिि कीण होते ही उसके मन मे उदे ग आ
जाएगा। अगर सी पुरष की रका के िलए, पुरष के कलयाण के िलए सहज सवाभािवक पितवता
जीवन िबताती है , साििवक ढं ग से जीती है तो पित के िदल मे उसकी गहरी जगह बनती है ।
ऐसे ही िशषय भी गुर को िन, वैभव, वसतुएँ दे कर आकिषत
व करना चाहता है , दिुनयाई
चीजे दे कर लाभ ले लेना चाहता है तो गुर जयादा पसनन नहीं होगे। लेिकन भििभाव से भावना
करके सब पकार उनका शुभ चाहते हुए सेवा करता है तो गुर के हदय मे भी उसके कलयाण का
संकलप सिुरे गा।
हम िजतना बाह सािनो से िकसी को वश मे करना चाहते है , दबाना चाहते है , सिल
होना चाहते है उतने ही हम असिल हो जाते है । िजतना-िजतना हम अनतयाम
व ी परमातमा के
नाते सिल होना चाहते है , परमातमा के नाते ही वयवहार करते है उतना हम सवाभािवक तरह से
सिल हो जाते है । िनषकंटक भाव से हमारी जीवन-याता होती रहती है ।
अपने को पूरे का पूरा ईशर मे अिपत
व करने का मजा तब तक नहीं आ सकता जब तक
संसार मे, संसार के पदाथो मे सतयबुिद रहे गी। 'इस कारण से यह हुआ.... उस कारण से वह
हुआ....' ऐसी बुिद जब तक बनी रहे गी तब तक ईशर मे समिपत
व होने का मजा नहीं आता।
कारणो के भी कारण अनतयाम
व ी से एक होते हो तो तमाम पिरिसथितयाँ अनुकूल बन जाती है ।
अनतरम चैतनय से िबगाडते हो तो पिरिसथितयाँ पितकूल हो जाती है । अतः अपने िचत मे बाह
कायव कारण का पभाव जयादा मत आने दो। कायव-कारण के सब िनयम माया मे है । माया ईशर
की सता से है । तुम परम सता से िमल जाओ, बाकी का सब िीक होता रहे गा।अनुकम
नयायािीश तुमहारे िलए िैसला िलख रहा है । तुमहारे िलए िाँसी या कडी सजा का िवचार
कर रहा है । उस समय भी तुम अगर पूणत
व ः ईशर को समिपत
व हो जाओ तो नयायािीश से वही
िलखा जायेगा जो तुमहारे िलए भिवषय मे अतयंत उतम हो। चाहे वह तुमहारे िलए कुछ भी
सोचकर आया हो, तुमहारा आपस मे िवरोि भी हो, तब भी उसके दारा तुमहारे िलए अमंगल नहीं
िलखा जायेगा, कयोिक मंगलमूितव परमातमा मे तुम िटके हो न ! जब तुम दे ह मे आते हो,
नयायािीश के पित िदल मे घण
ृ ा पैदा करते हो तो उसकी कोमल कलम भी तुमहारे िलए किोर
हो जायेगी। तुम उसके पित आतमभाव से, 'नयायािीश के रप मे मेरा पभु बैिा है , मेरे िलए जो
करे गा वह मंगल ही करे गा' – ऐसे दढ भाव से िनहारोगे तो उसके दारा तुमहारे पित मंगल ही
होगा।
बाह शतु, िमत मे सतयबुिद रहे गी, 'इसने यह िकया, उसने वह िकया िकसिलए ऐसा हुआ' –
ऐसी िचनता-ििकर मे रहे तब तक िोखे मे रहोगे। सब का मूल कारण ईशर जब तक पतीत
नहीं हुआ तब तक मन के चंगल
ु मे हम िँसे रहे गे। अगर हम असिल हुए है , दःुखी हुए है तो
दःुख का कारण िकसी वयिि को मत मानो। अनदर जा ँ चो िक त ु मको जो प ेम ईशर स े
करना चा िहए वह प े म उस वयिि क े बाह रप स े तो नह ीं िकया ? इसिलए उस वयिि के
दारा िोखा हुआ है । जो पयार परमातमा को करना चािहए वह पयार बाह चीजो के साथ कर िदया
इसीिलए उन चीजो से तुमको दःुखी होना पडा है ।
सब दःुखो का कारण एक ही है । ईशर से जब तुम नाता िबगाडते हो तभी िटका लगता
है , अनयथा िटके का कोई सवाल ही नहीं है । जब-जब दःुख आ जाये तब समझ लो िक मै भीतर
वाले अनतयाम
व ी ईशर से िबगाड रहा हूँ। 'इसने ऐसा िकया..... उसने वैसा िकया..... वह रहे गा तो मै
नहीं रहूँगा.....' ऐसा बोलना-समझना केवल बेवकूिी है । 'मेरी बेवकूिी के कारण यह िदखता है ,
परनतु मेरे िपयतम परमातमा के िसवा तीनो काल मे कुछ हुआ ही नहीं है ' – ऐसी समझ खुले तो
बेडा पार हो।
अगर िूल की महक पौिे की दी हुई है तो काँटो को रस भी उसी पौिे ने दे रखा है ।
िजस रस से गुलाब महका है उसी रस से काँटे पनपे है । काँटो के कारण ही गुलाब की सुरका
होती है ऐसी सिृिकताव आिद चैतनय की लीला है ।
ििरयादी जीवन जीकर अपना सतयानाश मत करो। अपने पुणय नि मत करो। जब-जब
दःुख होता है तो समझ लो िक ईशर के िविान के िखलाि तुमहारा मन कुछ न कुछ 'जजमेनट'
दे रहा है । तभी दःुख होता है , तभी परे शानी आती है , पलायनवाद आता है ।
जीवन की सब चेिाएँ केवल ईशर की पसननता के िलए हो। िकसी वयिि को िँसाने के
िलए यिद वसालंकार पिरिान िकये तो उस वयिि से तुमहे दःुख िमलेगा। कयोिक उसमे भी ईशर
बैिा है । जब सबमे ईशर है , सवत
व ईशर है तो जहाँ जो कुछ कर रहे हो, ईशर के साथ ही कर रहे
हो। जब तक यह दिि पिरपकव नहीं होती तब तक िोकरे खानी पडती है ।
िकसी आदमी का िन, वैभव, सता दे खकर वह अपने काम मे आयेगा ऐसा समझकर उससे
नाता जोड दो तो अंत मे िोखा खाओगे। बडे आदमी का बडपपन िजस परम बडे के कारण है
उसके नाते अगर उससे वयवहार करते हो अवशय उसका िन, सता, वैभव, वसतुएँ तुमहारी सेवा मे
लग जाएँगे। लेिकन भीतर वाले से िबगाडकर उसकी बाह वसतुएँ दे खकर उसकी चापलूसी मे लगे
तो वह तुमहारा नहीं रहे गा।अनुकम
नगाडे से िनकलती हुई धविन पकडने जाओगे तो नहीं पकड पाओगे। लेिकन नगाडा
बजाने वाले को पकड लो तो धविन पर तुमहारा िनयंतण अपने आप हो जाएगा। ऐसे ही मूल को
िजसने पकड िलया उसने कायव-कारण पर िनयनतण पा िलया। सबका मूल तो परमातमा है । अगर
तुमहारा िचत परमातमा मे पितिित हो गया तो सारे कायव-कारण तुमहारे अनुकूल हो जायेगे। चाहे
आिसतक हो चाहे नािसतक, यह दै वी िनयम सब पर लागू होता है । ईशर को कोई माने या न
माने, अनजाने मे भी जो अनतमुख
व होता है , एकाकार होता है , ईशर के नाते, समाज सेवा के नाते,
सचचाई के नाते, िमव के नाते, अपने सवभाव के नाते, जाने अनजाने मे आचरण वेदानती होता है ।
वह सिल होता है ।
कोई भले ही िमव की दह
ु ाइयाँ दे ता हो पर उसका आचरण वेदानती नहीं है तो वह दःुखी
रहे गा। कोई िकतना भी िािमक
व हो लेिकन आिार मे वेदानत नहीं है तो वह परािीन रहे गा। कोई
वयिि िक तन ा भी अ िािम व क िदख े ल ेिकन उ सका आचरण व ेदानती ह ै तो वह स िल
होगा , सब पर राजय कर ेगा। चाह े िकसी द ेवी -देव ता , ईशर , िमव या म जहब को नह ीं
मानता ििर भी भीतर सच चाई ह ै , िकसी का ब ुरा नह ीं चाह ता , इिनि यो को व श म े
रखता है , मन शान त ह ै , पस नन है तो यह ईशर की भ िि ह ै।
यह जररी नहीं िक मंिदर-मिसजद मे जाकर िगडिगडाने से ही भिि होती है । अनतयाम
व ी
परमातमा से तुम िजतने जुडते हो, सचचाई और सदगुणो के साथ उतनी तुमहारी ईशर-भिि बन
जाती है । िजतना अनतयाम
व ी ईशर से नाता तोडकर दरू जाते हो, भीतर एक और बाहर दस
ू रा
आचरण करते हो तो कायव-कारण के िनयम भी तुम पर बुरा पभाव डालेगे।
नटखट नागर भगवान शीकृ षण मकखन चुराते, सािथयो को िखलाते, खाते और दही-मकखन
की मटिकयाँ िोडते थे। ििर थोडा सा मकखन बछडो के मुह
ँ पर लगाकर भाग जाते। घर के
लोग बछडो के मुँह पर लगा हुआ मकखन दे खकर उनहीं की यह सब करतूत होगी यह मानकर
बछडे को पीटते।
वासतव मे सबका कारण एक ईशर ही है । बीच मे बेचारे बछडे , पीटे जाते है । 'मै... तू...
यह.... वह.... सुख.... दःुख.... मान.... अपमान.....' िाँसी की सजा.... सबका कारण तो वह मूल चैतनय
परमातमा है लेिकन उस परमातमा से बेविाई करके मन रपी बछडे बेचारे पीटे जाते है ।
बडे से बडा परमातमा है उससे नाता जुडता है तब बेडा पार होता है । केवल नाम बडे
रखने से कुछ नहीं होता। है कगंले-दे वािलये, घर मे कुछ नहीं है और नाम है करोडीमल, लखपत
राम, हजारीपसाद, लकमीचनद। इससे कया होगा।?अनुकम
गोबर ढ ू ँढ त ह ै ल कमी , भीख म ाँग त जगपाल।
अमर िसंह तो मरत ह ै , अचछो म ेरे िंिनपाल।।
महल बडे बनाने से, गािडयाँ बिढया रखने से, बिढया हीरे -जवाहरात पहनने से सचची सुख-
शािनत थोडे ही िमलती है ! भीतर के आननद रपी िन के तो कंगाल ही है । जो आदमी भीतर से
कंगाल है । उसको उतनी ही बाह चीजो की गुलामी करनी पडती है । बाह चीजो की िजतनी
गुलामी रहे गी उतना आतम-िन से आदमी कंगाल होगा।
िकसी के पास आतम-िन है और बाह िन भी बहुत है तो उसको बाह िन की उतनी
लालसा नहीं है । पारिि वेग से सब िमलता है । आतम-िन के साथ सब सिलताएँ भी आती है ।
आतम-िन मे पहुँच गये तो बाह िन की इचछा नहीं रहती, वह िन अपने आप िखंचकर आता
है । जैसे, वयिि आता है तो उसके पीछे छाया भी आ जाती है । ऐसे ही ईशरतव मे मसती आ गई
तो बाह सुख-सुिविाएँ पारिि वेग होता है तो आ ही जाती है । नहीं भी आतीं तो उनकी आकांका
नहीं होती। ईशर का सुख ऐसा है । जब तक बचपन है , बचकानी बुिद है तब तक गुडडे -गुिडडयो
से खेलते है । बडे हो गये, जवान हो गये, शादी हो गई तो गुडडे -गुिडडयो का खेल कहाँ रहे गा? बुिद
बािलश होती है , तो जगत की आसिि होती है । बुिद िवकिसत होती है , िववेक संपनन होती है तो
जगत की वसतुओं की पोल खुल जाती है । िवशेषण करके दे खो तो सब पाँच भूतो का पसारा है ।
मूखत
व ा से जब गुडडे -गुिडडयो से खेलते रहे तो खेलते रहे लेिकन बात समझ मे आ गई तो वह
खेल छूट गया। बह से खेलने के िलए पैदा हुए हो। परमातमा से खेलने के िलए तुम जनमे हो, न
िक गुडडे -गुडडी रपी संसार के कायव-कारण के साथ खेलने के िलए। मनुषय जनम बह-परमातमा
से तादातमय सािने के िलए, बहाननद पाने के िलए िमला है ।
जवान लडकी को पित िमल जाता है ििर वह गुडडे -गुिडडयो से थोडी ही खेलती है ? ऐसे
ही हमारे मन को परम पित परमातमा िमल जाये तो संसार के गुडडे -गुिडडयो की आसिि थोडे
ही रहे गी।
किपुतिलयो का खेल होता है । उस खेल मे एक राजा ने दस
ू रे राजा को बुलाया। वह
अपने रसाले साथ लाया। उसका सवागत िकया गया। मेजबानी हुई। ििर बात बात मे नाराजगी
हुई। दोनो ने तलवार िनकाली, लडाई हो गई। दो कटे , चार मरे , छः भागे।
िदखता तो बहुत सारा है लेिकन है सब सूतिार का अंगुिलयो की करामात। ऐसे ही संसार
मे बाहर कारण कायव िदखता है लेिकन सबका, सूतिार अनतयाम
व ी परमातमा एक का एक है ।
अचछा-बुरा, मेरा-तेरा, यह-वह, सब िदखता है लेिकन सबका मूल केनि तो अनतयाम
व ी परमातमा ही
है । उस महाकारण को दे ख लो तो बाहर के कायव-कारण िखलवाड मात लगेगे।अनुकम
महाकारण रप भीतरवाले अनतयाम
व ी परमातमा से कोई नाता िबगाडता है तो बाहर के
लोग उसे दःुख दे ते है । भीतर वाले से अगर नहीं िबगाडे तो बाहर के लोग भी उससे नहीं
िबगाडे गे। वह अनतयाम
व ी सबमे बस रहा है । अतः िकसी का बुरा न चाहो न सोचो। िजसका टु कडा
खाया उसका बुरा तो नहीं लेिकन िजसने गाली दी उसका भी बुरा नहीं चाहो। उसके अनदर भी
वही अनतयाम
व ी परमातमा बैिा है । हम बुरा चाहने लग जाते है तो अनदरवाले से हम िबगाडते है ।
हम अनुिचत करते है तो भीतर वाला पभु रोकता है लेिकन हम आवेग मे, आवेश मे, िवषय-
िवकारो मे बुिद के गलत िनणय
व ो मे आकर भीतर वाले की आवाज दबा दे ते है और गलत काम
करते है तो िोकर खानी ही पडती है । िबलकुल सचोट अनुभव है ।
मन कुछ कहता है , बुिद कुछ कहती है , समाज कुछ कहता है लेिकन तुमहारे हदय की
आवाज सबसे िनराली है तो हदय की आवाज को ही मानो, कयोिक सब की अपेका हदय
परमातमा से जयादा नजदीक है ।
बाहर के शतु-िमत का जयादा िचनतन मत करो। बाहर की सिलता-असिलता मे न
उलझो। आँखे खोलो। शतु-िमत, सिलता-असिलता सबका मूल केनि वही अिििान आतमा है और
वह आतमा तुमहीं हो कयो के... के... करके िचलला रहे हो, दःुखी हो रहे हो? दःुख और िचनताओं के
बनडल बनाकर उिा रहे हो और िसर को थका रहे हो? दरू िेक दो सब कलपनाओं को। 'यह ऐसा
है वह ऐसा है ... यह कर डालेगा... वह मार दे गा.... मेरी मुसीबत हो जाएगी....!' अरे ! हजारो बम
िगरे ििर भी तेरा कुछ नहीं िबगड सकता। तू ऐसा अजर-अमर आतमा है । तू वही है ।
नैन ं िछ नदिनत शासािण न ैन ं दह ित पावक ः।
न च ैन ं कल ेदयनतयापो न शोषय ित मारत ः।।
'इस आतमा को शस काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल िभगो नहीं सकता और
वायु सुखा नहीं सकती।' (भगवदगीताः 2-23)
तू ऐसा है । अपने मूल मे चला आ। अपने आतमदे व मे पितिित हो जा। सारे दःुख, ददव ,
िचनताएँ कािूर हो जाएँगे। नहीं तो ऐसा होगा िक मानो खारे समुि मे डू बता हुआ आदमी एक
ितनके को पकडकर बचना चाह रहा है । संसार की ितनके जैसी वसतुएँ पकडकर कोई अमर होना
चाहे , सुखी होना चाहे , पितिित होना चाहे तो वह उतना ही पागलपन करता है जो एक ितनके को
पकडकर सागर पार करना चाहता है । बाहर की वसतुओं से कोई संसार मे सुखी होना चाहता है ,
अपने दःुख िमटाना चाहता है तो वह उतनी ही गलती करता है । संसार से पार पाना हो, दःुख
िमटाना हो, सुखी होना हो तो दःुखहारी शीहिर की शरण लो भीतर ही भीतर। परम सुख पाना हो
तो भीतर परम सुख सवरप शीहिर को पयार कर लो। सुख के दार खुल जायेगे। ितनका पकडकर
आज तक कोई खारा समुि तैर कर पार नहीं हुआ। संसार की वसतुएँ पकडकर आज तक कोई
सुखी नहीं हुआ।अनुकम
'यम, कुबेर, दे वी-दे वता, सूयव-चनि, हवाएँ सब मुझ चैतनय की सता से अपने िनयत कायव मे
लगे है । ऐसा मै आतमदे व हूँ।' इस वासतिवकता मे जागो। अपने को दे ह मानना, अपने को वयिि
मानना, अपने को जाितवाला मानना कया? अपने को बह जानकर मुिि का अभी अनुभव कर लो।
दिुनया कया कहती है इसके चककर मे मत पडो। उपिनषद कया कहते है ? वेद कया कहता है , यह
दे खो। उसके जान को पचाकर आप अमर हो जाओ और दस
ू रो के िलए अमरता का शंखनाद कर
दो।
शीकृ षण जैसे महान जानी ! पितजा की थी िक महाभारत के युद मे अस-शस नही
उिाऊँगा। ििर दे खा िक अजुन
व की पिरिसथित नाजुक हो रही है तो सुदशन
व चक तो नहीं उिाया
लेिकन रथ का पिहया उिाकर दौडे । बूढे भीषम को भी हँ सी आ गई िक यह कनहै या कैसा
अटपटा है ।
हम कलपना भी नहीं कर सकते िक इतने महान जानी शीकृ षण और बंसी बजाते है ,
नाचते है । बछडो के पूछ
ँ पकड कर दौडते है । गायो के सींगो को पकड कर खेलते है । कयोिक
शीकृ षण अपने िनजाननद सवरप मे िनमगन रहते है । आज का मनुषय भेदभाव से, दे हाधयास
बढाकर अहं कार और वासनाओं के कीचड मे लथपथ रहता है ।
चलो, उिो। छोडो दे हािभमान को। दरू िेको वासनाओं को। शतु-िमत मे, तेरे-मेरे मे, कारणो
के कारण, सबमे छुपा हुआ अपना दै वी सवभाव िनहारो।
शतु-िमत सबका कारण कृ षण हमारा आतमा है । हम िकसी वयिि पर दोषारोपण कर बैिते
है । 'हमने इसको िगराया, उसने पतन कराया...' ऐसे दस
ू रो को िनिमत बनाते है । वासतव मे अपनी
वासना ही पतन का कारण है । दिुनया मे और कोई िकसी का पतन नहीं कर सकता। जीव की
अपनी दि
ु इचछाएँ-वासनाएँ पतन की खाई मे उसे िगराती है । अपनी सचचाई, ईशर पेम, शुद-सरल
वयवहार अपने को खुश रखता है , पसनन रखता है , उननत कराता है ।
यह भोग-पदाथव िलाना आदमी हमे दे गया...। अरे पारिि वेग से पदाथव आया लेिकन
पदाथव का भोिा बनना न बनना तुमहारे हाथ की बात है । पारिि से िन तो आ गया लेिकन िन
थोडे ही बोलता है िक हमारा गुलाम बनो।
पारिि वसतुएँ दे सकता है , वसतुएँ छीन सकता है लेिकन वसतुओं मे आसि न होना,
वसतुएँ चली जाएँ तो दःुखी होना न होना तुमहारे हाथ की बात है । पारिि से पुरषाथव बिढया
होता है । पुरषाथव से पारिि बदला जा सकता है , िमथया िकया जा सकता है । मनद पारिि को
बदला जाता है , कुचला जाता है , तरतीव पारिि को िमथया िकया जाता है । अपने आतमबल पर
िनभरव रहना िक कायव-कारण भाव मे कुचलाते रहना है ? अनुकम
बालुभाई टे िलिोन बीडी के सेलसमैन थे। गाहको को समझाते, िपलाते, खुद भी पीते। टी.बी.
हो गया। आिखरी मुकाम आ गया। डॉकटरो ने कहाः छः महीने के भीतर ही सवगव
व ासी हो
जाओगे। बालुभाई नौकरी छोडकर नमद
व ा िकनारे कोरल गाँव चले गये। सनानसंधया करते, महादे व
जी की पूजा करते, आतभ
व ाव से पाथन
व ा करते, पुकारते। अनतयाम
व ी से तादातमय िकया। छः महीने
मे जाने वाले थे इसके बदले छः महीने की आरािना-उपासना से तबीयत सुिर गई। टी.बी. कहाँ
गायब हो गया, पता नहीं चला। बालूभाई ने िनणय
व िकया िक मर जाता तो जाता। जीवनदाता ने
जीवन िदया है तो अब उसकी सेवा मे शेष जीवन िबताऊँगा। नौकरी-िनिे पर नहीं जाऊँगा।
धयान-भजन सेवा मे ही रहूँगा।
वे लग गये ईशर के मागव पर। कणि तो मिुर था भजन गाते थे। दान-दिकणा जो कुछ
आता उसका संगह नहीं करते लेिकन परिहत मे लगा दे ते थे। सवतव को परिहत मं लगाने से
यश िैल जाता है । बालुभाई का यश िैल गया। वे 'पुिनत महाराज' के नाम से अभी भी िवखयात
है । उनके जाने के बाद उनके नाम की संसथाएँ चलती है । मूल मे कुछ है तभी तो िूल िखला है ।
मूल मे खाद-पानी हो तभी पौिा लहलहाता है , िूलो मे महक आती है । कोई भी संसथा, संघ, िमव
चमकता है तो उसके मूल मे कुछ न कुछ सचचाई है , परिहतता है । िोखा-िडी िरे ब से नहीं
चमक सकते। कुछ न कुछ सेवाभाव होता है तो चमकता है , पिसद होता है । अगर िोखा-िडी
और सवाथव बढने लगता है तो उन संसथाओं का पतन भी हो जाता है । िोखा-िडी से, पचार-
सािनो के बल से कोई िमव, पंथ, समपदाय िैला हो, साथ मे सचचाई और सेवाभाव न हो तो वह
जयादा समय िटक भी नहीं सकता।
िनमम
व , िनरहं कार होने से शरीर मे आतम-जयोित की शिि ऐसे िैलती है जैसे िानूस मे
से पकाश। तुम िजतने अहं ता-ममता से रिहत होगे उतनी आतम-जयोित तुमहारे दारा चमकेगी,
औरो को पकाश दे गी।
अहं कार करने से, वयिितव को सजाने से मोह नहीं जाता। दस
ू रो को िजतनी टोटा चबाने
की इचछा है उतनी खीर खांड िखलाने की भावना करो तो घण
ृ ा पेम मे बदल जायेगी। असिलता
सिलता मे बदल जायेगी। मानो, कोई तुमहारा कुछ िबगाड रहा है । वह िजतना िबगाडता है उससे
जयादा जोर से तुम उसका भला करो, उसका भला चाहो, िवजय तुमहारी होगी। वह मेरा बुरा करता
है तो मै उसका सवाया बुरा करँ – ऐसा सोचोगे तो तुमहारी पराजय हो जायेगी। तुम उसी के
पक मे हो जाओगे। िकसी घमंडी अहं कारी को िीक करने के िलए तुमको भी अहं कार का शरण
लेना पडा। अनतयाम
व ी से एक होकर अपनतव के भाव से सामने वाले के कलयाण के िचनतन मे
लग गये तो वह तुमहारे पक मे आये िबना नहीं रहे गा। बाहर के कारणो के लेकर उसको िीक
करना चाहा तो तुम उसके पक मे हो गये। अनतयाम
व ी से एक होकर बाह कारणो का, सािनो का
थोडा बहुत उपयोग कर िलया तो कोई हरकत नहीं है । लेिकन पहले अनतयाम
व ी से एक हो जाओ।
भीतर वाले से िबगाडो हो नहीं।
शतु का भी अिहत न चाहो। कोई अतयनत िनषकृ ि है तो थोडी बहुत सजा-िशका चाहे करो
लेिकन दे ष भाव से नहीं, उसका मंगल हो इस भाव से। जैसे तुम अपने इकलौते बेटे को सजा
दे ना चाहो तो कैसे दे ते हो? बाप कहे िक, 'या तो बेटा रहे गा या मै रहूँगा' तो यह उसकी बुिद का
िदवाला है , जान व समता की कमी है ।
समतावाले को ििरयाद कहाँ? ििरयाद के समय समता कहाँ? अनुकम
पाप-पुणय, सुख-दःुख ये सब तुमहारे दारा िदखते है । ये परपकाशय है , तुम सवपकाश हो। ये
जड है । तुम चेतन हो। चेतन होकर जड चीजो से डर रहे हो। यह बडा िवशाल भवन हमने
बनाया है । उससे भय कैसा? ऐसे ही दःुख-सुख, पुणय-पाप सब हमारे चैतनय के िुरने से ही बने
है । उनसे कया डरना?
जीवन से तयाग और पेम आ जाये तो सब सुख आ जाये। सवाथव और घण
ृ ा आ जाये तो
सब दःुख आ जाये। कारणो के कारण उस ईशर से तादातमय हो जाये तो सारे दःुख-सुख खेल
मात रह जायेगे। इस बात पर तुम डट जाओ तो दिुनया और दिुनया के पदाथो की कया ताकत
है िक तुमहारी सेवा न करे ? अपने भीतर वाले अनतयाम
व ी आतमा से अभेदभाव से वयवहार करने
लग जाओ तो सब लोग चाकर की तरह तुमहारी सेवा करके अपना भागय बनाने लग जायेगे।
पिरिसथितयाँ तुमहारे िलए करवटे लेगी, रं ग बदलेगी। अिगन की जवालाएँ नीचे की ओर जाने लगे
और सूयव पिशम मे उदय होने लगे तब भी वेद भगवान के ये वचन गलत नहीं हो सकते।
भगवान ने गीता मे कहा है ः
अननयािश चनतायनतो म ां य े जनाः पय ुव पासत े।
तेषा ं िनतया िभय ुिा नां योगक ेम ं व हामयहम। ् ।
'अननय िचत से िचनतते हुए जो लोग मेरी उपासना करते है उन िनतययुि पुरषो का
योगकेम मै अपने ऊपर लेता हूँ।' (भगवदगीताः 9.21)
'इतना मुनािा करे , इतने रपयो की वयवसथा कर ले बाद मे भजन करे गे।' तो ईशर से
रपयो को, पिरिसथितयो को जयादा मूलय दे िदया। हिरदार-ऋिषकेश मे ऐसे कई लोग है जो रपये
'ििकस िडपोििट' मे रखकर, िकराये के कमरे लेकर भजन करते है । उनका आशय ईशर नहीं है ,
उनका आशय सूद (ियाज) है , उनका आशय पेनशन है । ियाज खाकर जीते है और आिखर मे मूडी
(िन) का कया होगा यह िचनता करते-करते िवदा होते है । िजनहोने बाहर के बडे -बडे आशय
बनाकर भजन िकया उनके भजन मे कोई सिलता नहीं आयी। िजनहोने बाहर के सब आशयो को
लात मार दी, िु करा िदया, पूणव रपेण ईशर के होकर घर से चल पडे उनको भजन की सब
सुिविाये िमल ही गई। खाना-पीना, रहन-सहन का इनतजाम अपने आप होता रहा और भजन भी
िल गया। ियाज के रपयो पर जीनेवालो की अपेका ईशर के आिार पर जीनेवालो को अििक
सुिविाएँ िमल जाती है ।
हमारा ही उदाहरण दे ख लो, हम दो भाई थे। भाई से अपना िहससा लेकर 'ििकस
िडपोििट' मे रखकर ििर भजन करते, एकानत मे कमरा लेकर सािना करते तो अभी तक वहीं
माला घुमाते रहते। सब आशय छोडकर ईशर के शरण गये तो हमारे िलए ईशर ने कया नहीं
िकया? िकस बात की कमी रखी है उस पयारे परमातमा ने? हम लोगो के समपण
व की कमी है जो
परमातमा की गिरमा का, मिहमा का पता नहीं लगा सकते, इस िदवय वयवसथा का लाभ नहीं उिा
सकते। परमातमा अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखता।अनुकम
हम तो घरवालो को सूचना दे ते है िक, 'ऐसे रहना, वैसे रहना, करकसर से जीना। हम
भजन को जाते है ।' पीछे की रिससयाँ िदमाग मे लेकर भजन करने जाते है तो ििर आतमिनिा
भी ऐसी कंगली ही बनेगी। मार दो छलांग ईशर के िलए....। अननत जनमो से बचचे, पिरवार होते
आये है । उनका पारिि वे जाने। मेरा तो केवल परमातमा ही है और परमातमा का मै हूँ। ऐसा
करके जो लग पडते है उनका कलयाण हो जाता है ।
एक माई घर से जा रही थी। पडोिसन को सूचना दे ने लगीः 'अमथी बा ! मै सती होने जा
रही हूँ। मेरे रसोई घर का दरवाजा खुला रह गया है , वह बनद कर दे ना। मेरे बचचो को नहलाकर
सकूल भेजना।'
अमथी बा हँ सने लगी।
'कयो हँ सती हो?' माई ने पूछा।
'तू कया होगी सती?'
'हाँ हाँ, मै जा रही हूँ सती होने के िलए।'
'चल चल, आयी बडी सती होने वाली।'
माई समशान की ओर तो चली लेिकन सोचने लगी िक जाने वाला तो गया। अब अपने
िलए तो नहीं लेिकन छोटे बचचो के िलए तो जीना चािहए। वह घर वापस चली आयी।
लोग ईशर-भजन के िलए घर-बार तो छोडते है लेिकन िकसी सेि के यहाँ रपये जमा कर
जाते है । वह सेि हर माह रकम भेजता रहता है । ऐसे भजन मे बरकत नहीं आयेगी। अननय का
सहारा छोड िदया और एक वयिि मे सहारा ढू ँ ढा। अखणड के सहारे को भूलकर खणड के सहारे
िजये।
एक वे सािू है जो रपये पैसे सँभालते नमद
व ा की पिरकमा करते है । उनके रपये पैसे भील
लोग छीन लेते है । लेिकन जो सािू सबका सहारा छोडकर ईशर के सहारे चल पडता है उसको
सब वसतुएँ आ िमलती है । जहाँ कोई वयिि दे नेवाला नहीं होता वहाँ नमद
व ाजी वद
ृ ा का रप लेकर
आ जाती है । चीज-वसतु दे कर दे खते-दे खते ही अदशय हो जाती है । कइयो के जीवन मे ऐसी
घटनाएँ दे खी गई है ।
उपिनषद का जान आदमी का सब दःुख, पाप, थकान, अजान, बेवकूिी हँ सते हँ सते दरू कर
दे ता है ।
जो परमातमा को बह को सब मे पगट दे खता है उसके िरिद-िसिद, दे वी-दे वता सब वश मे
हो जाते है । इतने जरा-से जान मे डट जाओ तो बाकी का सब तुमहारी सेवा मे साथक
व होने
लगेगा। समाट के साथ एकता कर लो तो सेना, सेनापित, दास-दािसयाँ, सूबेदार, अमलदार सब िीक
हो जाते है । ऐसे ही िवश के समाट बह-परमातमा का पूरा विादार हो जा, ििर िवश का पूरा
माल-खजाना तेरा ही है । िकतना अचछा सौदा है यह ! अनयथा एक एक चपरासी, अमलदार को
जीवनभर िरझाते मर जाना है ।अनुकम
जो एक ईशर से िीक पकार ईमानदारी पूवक
व चलता है , बह मे पितिित हो जाता है , जो
परमातमा से आकिषत
व हो जाता है , उसकी तरि सब भूत, पदाथव, वसतुएँ आकिषत
व हो जाती है ।
दे वता उसके िलए बिल ले आते है । जैसे दो िकलो के लोह चुमबक से आिे िकलो की पलेट जुड
गई। उस पलेट से और छोटे -छोटे लोह के कण जुड गये। कयो? कयोिक पलेट का मैगनेट से
तादातमय हो गया है इसी से लोहे के कण उससे पभािवत हो गये है । वे तब तक ही पभािवत
रहे गे जब तक लोहे की पलेट मैगनेट से जुडी है । मैगनेट को छोडते ही लोहे के कण पलेट को छोड
दे गे।
ऐसे ही मैगनेट परमातमा से तुमहारी बुिद जुडी है तो लोग तुमसे जुड जायेगे। परमातमा
से िवमुख होने का कारण है 'मै' पना, अहं ता और वसतुओं मे ममता। अहं ता और ममता से
आदमी परमातमा से िवमुख होता है । अहं ता और ममता का तयाग करने से परमातमा के सममुख
हो जाता है ।
महान ् होने की मिहमा भी बताई जा रही है , इलाज भी बताया जा रहा है , जो महान हुए है
उनके नाम भी बताये जा रहे है – सवामी रामतीथव, नानक, कबीर, तुकाराम, एकनाथ, जानेशर, मीरा,
रामकृ षण, रमण, संत लीलाशाहजी बापू, सहजो, मदालसा, गागी, मलुकादास, रामनुजाचायव, शंकराचायव
आिद आिद।
सब कुछ छोड कर वे संत ईशर के रासते चले। कुछ भी नहीं था उनके पास, ििर भी सब
कुछ उनका हो गया। िजनहोने अपना राजपाट, िन-वैभव, सता-समपित आिद सब समभाला, उनका
आिखर मे कुछ अपना रहा नहीं। िजनहोने अहं ता-ममता छोडी उन संत-महापुरषो को लोग अभी
तक याद कर रहे है , शीकृ षण को, रामजी को, जनक को, जडभरत जी को।
अगर िनविृत-पिान पारिि है तो उनके पास वसतुएँ नहीं होगी। पविृत सािन पारिि है
तो वसतुएँ होगी। वसतुओं का होना न होना। इससे बडपपन-छोटापन नहीं होता है । तुम ईशर से
िमलते हो तो बडपपन है , वसतुओं की गुलामी करनी हो तो छोटापन है । एकदम सरल सीिी बात
है । वेद भगवान और उपिनषद हमसे कुछ िछपाते नहीं।
'यह जो सब कुछ िदखता है वह सब वासतव मे ईशर है , आतमा है , बह है ' – ऐसा जो
दे खता है वह वासतव मे दे खता है । वह सब वसतुओं को सब सुखो को पा लेता है । मुिि तो
उनके हाथ की बात है । अपनी िनजी मूडी (पूंजी) है । सब बह है ।
कोई सोचे िक, 'सब बह है तो मजे से खाये, पीये, मौज उडाये, नींद करे ।' हाँ.... खाओ, िपयो
लेिकन इससे रजो-तमोगुण आयेगा तो िनिा दब जायगी। रजो तमोगुण आतमिनिा को दबा दे ते
है । रजो-तमोगुण उभर आयेगा तो 'सब ईशर है ' इस जान को दबा दे गा कयोिक अभी नये है न?
सवब
व ह का अनुभव अभी नूतन अनुभव है ।अनुकम
जब सवातवम-दिि हुई तब रोग, शोक, मोह पास नहीं िटक सकते। वेद ने कोई संिदगि
दिि से यह नहीं कहा, िबलकुल यथाथव कहा है । सवात
व म-दिि करो तो रोग-शोक, िचनता, भय, सब
भाग जायेगे।
िवषय का दःुख और िचंताओं का िवचार करके, के के करके कयो िसकुडता है भैया? जो
कुछ होगा, तेरे कलयाण के िलए होगा कयोिक भगवान का िविान मंगलमय ही है । िसवाय तेरे
मंगल के और कभी कुछ नहीं होगा। लेिकन खबरदार ! सब भगवान अपनी दब
ु ल
व ताओं को, िवकारो
को पोसना नहीं अिपतु तयाग, िमव, पेम और परमातमाभाव को पकट करना है । अरे यार! मनुषय
जनम पाकर भी शोक, िचनता, भय और भावी के िलए शंिकत रहे को बडे शमव की बात है । दःुख
वे करे िजसके माँ-बाप, सचचे नाते-िरशतेदार, कुटु मब-पिरवार सब मर गये हो। तेरे सचचे माँ-बाप,
सचचे नाते-िरशतेदार तेरा अनतयाम
व ी आतमा-परमातमा है । खुश बैि, मौज मे रह। कई वषव बीत गये
ऐसे यह वषव भी बीत जायेगा। यह बात पककी रख। िदल मे जमा ले। ईशर के नाते कायव कर।
अपने सवाथव और वयिितव के समबनि मे कतई सोचना छोड दे । इससे बिढया, ऊँची अवसथा और
कोई नहीं है । तेरे िलए मानव तो कया, यक, िकननर, गंिवव और दे वता भी लोहे के चने चबाने के
िलए ततपर रहे गे।
आजमा कर दे ख इस नुसखे को। संदेह को गोली मार। ॐ का मिुर गुज
ं न कर। आतमसथ
हो। लडखडाते हुए िचिनतत होकर, बोिझल मन बनाकर संसार के कायव मत कर। कुलीन
राजकुमार की तरह खेल समझकर संसार के वयवहार को चतुराई से कर। लेिकन याद रखः
कताप
व न को बार-बार झाड िदया कर। ििर तेरा जीवन हजारो के िलए अनकरणीय न हो जाये तो
विा को समुि मे डु बा दे ना। लेिकन साविान ! पहले तू अपने को ईशरीय समुि मे डु बाकर दे ख।
वासतव मे जैसा तुमहारा िचत होता है वैसे िचत और सवभाव वाले तुमहारे पास आकिषत
व
हो जाते है । औरो की अवसथा पर भला बुरा िचनतन करते रहने से कभी झगडा िनपटता नहीं।
दस
ू रे लोगो को कया पकडना? सोचो और अनुभव करो िक, 'सब मनो का मन मै हूँ, सब िचतो का
िचत मै हूँ।' अनदर से ऐसी एकता है िक अपने को शुद करते ही सब शुद ही शुद पाओगे।
अपने मे दोष होता है तभी िकसी के दोष का िचनतन होता है । सबका मूल अपना
आतमकेनि है । अपने को िीक कर िदया तो सारा िवश िीक िमलेगा। अपने को िीक कोई पद
पितिा से, कायदा-कानून से, रपये-पैसे से या चीज-वसतुओं से थोडे ही िकया जाता है । कुिवचारो
से अपने को खराब कर िदया, अब सुिवचारो से और सतकृ तयो से अपने को िीक कर दो। िवचार
जहाँ से उिते है उसमे िहर गये तो परम िीक हो गये।अनुकम
जो लाभ हो गया सो हो गया, जो घाटा हो गया सो हो गया, जो बन गया सो बन गया,
िबगड गया सो िबगड गया। संसार एक िखलवाड है । उसमे कया आसथा करना? अपनी
आतममसती नशर पिरिसथितयो के िलए कया तयागना? तू तो भगवान शंकर की तरह बजा शंख
और 'िशवोऽहं ' के गीत गा।
अपने आपको बहमय करते नहीं और दस
ू रो को सुिारने मे लग जाते है । बहदिि करने
के िसवा अपने वासतिवक कलयाण का और कोई चारा नहीं है । वैरी, िवरोिी, शतुओं के दोषो को
कमा करते इतनी दे र भी न लगाये िजतनी दे र शी गंगाजी ितनका बहाने मे लगाती है । जब तक
पदाथो मे समदिि नहीं होती तब तक समािि कैसी? 'समािि' माने सम+िी। समान बुिद, समान
दिि।
सतसंग मे रिच नहीं होती तो सतय मे पितिा कैसी? िवषयातमक दििवाले को योग
समािि और धयान तो कहाँ, िारणा भी होनी असंभव है । समदिि तब होगी जब लोगो के िवषय
मे भलाई-बुराई की भावना उि जाये। भलाई-बुराई की भावना दरू कैसे हो? लोगो को बह से
िभनन मानकर अचछे बुरे की जो कलपना कर रखी है वह कलपना न करे । समुि मे जैसे तरं गे
होती है कोई छोटी कोई बडी, कोई ऊँची कोई नीची, कोई ितरछी कोई सीिी, उन सब तरं गो की
सता समुि से अलग नहीं मानी जाती। उनका जीवन सागर के जीवन से िभनन नहीं जाना
जाता। इसी पकार भले बुरे आदमी, अमीर गरीब लोग तो उसी बह-समुि की तरं गे है । सब मे
एक ही बह-समुि िहलोरे ले रहा है ।
जैसे छोटी-बडी तरं गे, िेन, बुदबुदे सब समुि से एक है ऐसे ही अचछे बुरे, छोटे -बडे , अपने
पराये सब आतम समुि की तरं गे है । ऐसी दिि करने से सारे दःुख, शोक, िचनताएँ, िखंचाव, तनाव
शानत हो जाते है । राग-दे ष की अिगन बुझ जाती है । छाती मे िणडक पड जाती है । रोम-रोम मे
आहाद आ जाता है । िनगाहो मे नूरानी नूर चमकने लगता है । आतम िवचार मात से ततकाल
कलयाण हो जाता है । सारे दःुख, सारी िचनताएँ, सारे शोक, पाप, ताप, संताप उसी समय पलायन हो
जाते है । सूयोदय होता है तब अनिकार पूछने को थोडे ही बैिता है िक मै जाऊँ या न जाऊँ।
िदया जला तो अनिकार छू.......। सूयोदय हुआ तो राित छू....। ऐसे ही आतमजान का पकाश
होते ही अजान और अजानजिनत सारे दःुख, शोक, िचनता, भय, संघषव आिद सारे दोष पलायन हो
जाते है । वयापक बह को जो अपना आतमा समझता है । उसके िलए दे वता लोग भी बिल लाते
है - सवै ऽिसम देवा बिल माहविनत । (तैित. उप. 1.5.3) यक, िकननर, गनिवव उसकी चाकरी मे लग
जाते है । चीज वसतुएँ उसकी सेवा मे लगने के िलए एक दस
ू रे से सपिाव करती है । ऐसा बहवेता
होता है ।
जो तरं ग सागर से ऊँची उि गई है वह अवशय वापस िगरे गी ही। इसी पकार िजस पुरष
मे खोटापन घुस गया है उसे अवशय दःुख पाना है । तरं गो के ऊँच और नीच भाव को पाप होने
पर भी समुि की सपाटी को िकितज िरातल ही माना जाता है । इसी तरह बीज रप लोगो के
कमव और कमि
व ल को पाप होते रहने पर भी बह रपी समुि की समता मे कोई िकव नहीं
पडता।अनुकम
लहरो का तमाशा दे खना भी सुखदायी और आननदमय होता है । जो पुरष इन लहरो से
भीग जाये या उसमे डू बने लगे तो उसके िलए उपिवरप है । ऐसे ही कताव भोिापन से भीग गये
तो तकलीि उिानी पडे गी। िनलप
े साकी रहे आननद ही आननद है ।
उपासना का पाण समपण
व और आतमदान है । इसके िबना उपासना िनषिल है , पाण रिहत
है । भैया ! तब तक तुम अपनी खुदी और अहं कार परमेशर के हवाले न करोगे तब तक परमेशर
तुमहारे साथ कैसे बैिेगे? वे तुम से दरू ही रहे गे, जैसे भगवान कृ षण कालयवन से दरू रहते थे।
कोई सोचे िक, 'चलो भजन-उपासना करके दे खे, िल िमलता है या नहीं' – तो यह परीका
का भजन असंगत और असंभव है । यह भजन ही नहीं है । भजन, िनषकपट भजन तो वह है
िजसमे भि अिगन मे आहूित की तरह िल और िल की इचछा वाले अपने आपको परमेशर के
हवाले कर दे ता है , पूणव समिपत
व हो जाता है ।
ॐ
बीते हुए समय को याद न करना, भिवषय की िचनता न करना
और वतम
व ान मे पाप सुख-दःुख आिद मे सम रहना ये जीवनमुि
पुरष के लकण है ।
ॐॐ
सचचा ि नी
रवीनिनाथ टै गोर जापान गये हुए थे। दस िदन तक हररोज शाम को 6 से 7 बजे तक
उनकी गीताँजली पर पवचनो का कायक
व म था। लोग आकर बैिते थे। उनमे एक बूढा भी आता
था। वह बडे पयार से, अहोभाव से गुलाब की माला महिषव के गले मे पहनाता था। पितिदन सभा
के लोग आये उससे पहले आता था और कथा पूरी हो जाये, टै गोर खडे हो जाये बाद मे उिता था
– ऐसा शील, िशिाचार उसके जीवन मे था। जैसे एक िनपुण िजजासु अपने गुरदे व के पित
िनहारे ऐसे वह टै गोर की तरि िनहार कर एक-एक शिद आतमसात करता था। सािारण कपडो
मे वह बूढा टै गोर के वचनो से बडा लाभािनवत हो रहा था। सभा के लोगो को खयाल भी नहीं
आता था िक कौन िकतना खजाना िलये जा रहा है ।
एक घणटे के बाद रवीनिनाथ जब कथा पूरी करते तो सब लोग िनयवाद दे ने के िलए,
कृ तजता वयि करने के िलए नजदीक आकर उनके पैर छूते।
जो लोग िैशनेबल होकर कथा के चार शिद सुनकर रवाना हो जाते है उनको पता ही
नहीं िक वे अपने जीवन का िकतना अनादर करते है । भगवान शीकृ षण ने सांदीपिन ऋिष के
चरणो मे रहकर सेवा सुशष
ु ा की है । शीरामचनिजी ने विशि मुिन के चरणो मे इस आतमिवदा के
िलए अपने बहुमूलय समय और बहुमूलय पदाथो को नयोछावर कर िदया।
टै गोर के चरणो मे वह बूढा पितिदन नमसकार करता। कथा की पूणाह
व ु ित हुई तो लोगो ने
मंच पर सुवणव मुिाएँ, येन (वहाँ के रपये), िूल, िल आिद के ढे र कर िदए। वह बूढा भी आया
और बोलाः
"मेरी िवनम पाथन
व ा है िक कल आप मेरे घर पिारने की कृ पा करे ।"
बूढे के िवनय-संपनन आचरण से महिषव पसनन थे। उनहोने भावपूणव िनमनतण को सवीकार
कर िलया। बूढे ने कहाः "आपने मेरी पाथन
व ा सवीकार की है इसिलए मै बहुत आभारी हूँ। खूब
पसनन हूँ...।" आँखो मे हषव के आँसू छलकाते हुए वह िवदा हुआ।अनुकम
महिषव ने अपने रहसयमंती से कहाः "दे खना ! वह बूढा बडा भावनाशील है । मेरे पित
उसकी गहरी शदा है । हमारे सवागत की तैयारी मे वह कहीं जयादा खचव न कर बैिे। बाद मे
आिथक
व बोझा उसको कि दे गा। दो सौ येन उसके बचचो को दे दे ना। कल चार बजे हम उसके
घर चलेगे।"
दस
ू रे िदन पौने चार बजे उस बूढे ने रोलस रोयस गाडी लाकर खडी कर दी। गुलाब के
िूलो से सजी हुई भवय गाडी दे खकर रवीनिनाथ ने सोचा िकः "िकराये पर गाडी लाया होगा।
िकतना खचव िकया होगा !"
महिषव गाडी मे बैिे। रोलस रोयस गाडी उिी। िबना आवाज के झूमती आगे बढी। एक
ऊँची पहाडी पर िवशाल महल के गेट पर पहुँची। चपरासी ने सलाम मारते हुए गेट खोला। गाडी
भीतर पिवि हुई। महल मे से कई भि पुरष, मिहलाएँ, लडके, लडिकयाँ आकर टै गोर का अिभवादन
करने लगे। वे उनहे भीतर ले गये। सोने की कुसी पर रे शमी वस िबछा हुआ था वहाँ िबिाया।
सोने-चाँदी की दो सौ पलेटो मे िभनन-िभनन पकार के मेवे-िमिाई परोसे गये। पिरवार के लोगो ने
आदर से उनका पूजन िकया और चरणो मे बैिे।
रवीनिनाथ चिकत हो गये। बूढे से बोलेः "आिखर तुम मुझे कहाँ ले आये? अपने घर ले
चलो न? इन महलो से मुझे कया लेना दे ना?"
सादे कपडो वाले उस बूढे ने कहाः "महाराज ! यह मकान मेरा है । हम जो रोलस रोयस
गाडी मे आये वह भी मेरी है और ऐसी दस
ू री पाँच गािडयाँ है । ऐसी सोने की दो कुिसय
व ाँ भी है ।
ये लोग जो आपको पणाम कर रहे है वे मेरे पुत, पौत, पपौत है । यह मेरे बेटो की माँ है । ये चार
उसकी बहुएँ है । सवामी जी मेरी दो मीले है ।"
"ओहो ! तो तुम इतने िनाढय हो ििर भी ऐसे सादे , गरीबो के जैसे कपडो मे वहाँ आकर
बैिते थे !"
"महाराज ! मै समझता हूँ िक यह बाहर का िसंगार और बाहर का िन कोई वासतिवक
िन नहीं है । िजस िन से आतमिन न िमले उस िन का गवव करना बेवकूिी है । वह िन कब
चला जाये कोई पता नहीं। परलोक मे इसका कोई उपयोग नहीं इसिलए इस िन का गवव करके
कथा मे आकर बैिना िकतनी नासमझी है ? और इस िन को सँभालते-सँभालते जो सँभालने योगय
है उसको न सँभालना िकतनी नादानी है ? अनुकम
महाराज ! जान के िन के आगे, भिि के िन के आगे यह मेरा िन कया मूलय रखता है ?
यह तो मुझसे मजदरूी करवाता है , लेिकन जब से आपके चरणो मे बैिा हूँ और आपने जो
आतमिन िदया है वह िन तो मुझे सँभालता है । बाह िन मुझसे अपने को सँभलवाता है । सचचा
िन तो आतमिन है जो मेरा रकण करता है । मै सचमुच कृ तज हूँ सदा के िलए आपका खूब
आभारी रहूँगा। जीवनभर बाह िन को कमाने और सँभालने मे मैने अपने को नोच डाला ििर
भी जो सुख व शािनत नहीं िमली वह आपके एक-एक घणटे से मुझे िमलती गई। बाहर के
वसालंकार को तुचछ समझे और सादे कपडे पहनकर, िटे चीथडे पहनकर, कंगाल की भाँित आपके
दारा पर िभखारी होकर बैिा और आधयाितमक िन की िभका मैने पाई है । हे दाता ! मै िनय
हूँ।"
रवीनिनाथ टै गोर का िचत पसनन हो गया।
जहाँ जान का आदर होता है वहाँ जीवन का आदर होता है । जहाँ बहिवदा का आदर होता
है वहाँ जीवन का आदर होता है , लकमी सुखदायी बनती है और िसथर रहती है ।
महिषव बोलेः "सेि ! बाह िन मे ममता नहीं और भीतरी िन का आदर है इसिलए तुम
वासतव मे सेि हो। मै भी आज िनय हुआ। तुमहारे जैसे भि के घर आकर मुझे महसूस हुआ
िक मेरा कथा-पवचन करना साथक
व हुआ।
कई जगह जाते है तो लोग माँगते है । 'यह खपे.... वह खपे....' करके अपने को भी खपा
दे ते है और हमारा समय भी खपा दे ते है । लेिकन तुम बुिदमान हो। नशर िन की माँग नहीं
ििर भी दाता तुमहे नशर िन िदये जा रहा है और शाशत िन की तुमहारी पयास भी बुझाने के
िलए मुझे यहाँ भेज िदया होगा।"
िन वैभव होते हुए भी उसमे आसथा या आसिि न करे लेिकन िजससे सारा बहाणड और
िवश है उस िवशेशर के वचन सुनकर, संत-महातमा के चरणो मे बैिकर, अपने अहं को गलाकर
आतमा के अनुभव मे अपना जीवन िनय कर ले, वही सचचा िनवान है ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
हे मानव ! तुझमे अपूवव शिि, सौनदयव, पेम, आननद, साहस छुपा है । घण
ृ ा, उदे ग, ईषयाव, दे ष
और तुचछ वासनाओं से तेरी महता का हास होता जा रहा है । साविान हो भैया ! कमर कस।
अपनी संकीणत
व ा और अहं कार को िमटाता जा। अपने दै वी सवभाव, शिि, उललास, आननद, पेम
और िचत के पसाद को पाता जा।
यह पककी गाँि बाँि लो िक जो कुछ हो रहा है , चाहे अभी तुमहारी समझ मे न आवे और
बुिद सवीकार न करे तो भी परमातमा का वह मंगलमय िविान है । वह तुमहारे मंगल के िलए ही
सब करता है । परम मंगल करने वाले परमातमा को बार-बार िनयवाद दे ते जाओ.... पयार करते
जाओ... और अपनी जीवन-नैया जीवनदाता की ओर बढाते जाओ।
ऐसा कोई वयिि, वसतु या पिरिसथित नहीं जो तुमहारी आतमशिि के अनुसार बदलने मे
राजी न हो। परं तु अपने भीतर का यह आतमबल, यह संकलपबल िवकिसत करने की युिि िकसी
सचचे महापुरष से सीखने को िमल जाये और उसका िवििवत ् अनुिान करे तो, नर अपने
नारायण सवभाव मे इसी जनम मे जाग सकता है ।अनुकम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आतमदिि क ा िदवय अं जन
वनृदावन मे एक मसत संत रहते थे। बडे मिुर। सवत
व आतमदिि रखकर िवचरते थे।
िकसी दि
ु आदमी ने िकसी बहकावे मे आकर, भांग का नशा करके, कुछ रपयो की लालच मे
िँसकर इन संत भगवंत के िसर मे डणडा दे मारा और पलायन हो गया। िसर से रि की िार
बही। संत बेसुि हो गये। उनकी यह हालत दे खकर सजजन पुरषो का हदय काँप उिा। उनहोने
संत शी को असपताल मे पहुँचा िदया, और कतववय पूरा करके रवाना हो गये। वे तो रासते के
पिथक थे।
असपताल मे कुछ समय के बाद बाबा जी होश मे आये। दे खा तो असपताल का कोई
अििकारी दि
ू का िगलास िलए सेवा मे खडा था। बोलाः
"बाबा जी ! दि
ू पीिजए।"
बाबा जी मुसकराये। उसको दे खते हुए मिुरता से बोलेः "यार ! कभी तो डणडा मारता है
और कभी दि
ू िपलाता है !"
अििकारी चौका। कहने लगाः "नहीं नहीं सवामी जी ! मैने डणडा नहीं मारा।"
"तू हजार कसम खा लेिकन मै पहचान गया तुझे यार ! एक तरि डणडा मारता है , दस
ू री
तरि मरहम-पटटी करता है , तीसरी तरि दि
ू िपला रहा है । बडी अदभुत लीला है तेरी। बडी
चालाकी करता है तू।"
"सवामी जी ! सवामी जी ! मै सच कहता हूँ। मैने डणडा नहीं मारा ! मै तो.... मै तो..."
अििकारी है रान हो रहा था।"
"अरे ! तूने कैसे नहीं मारा? तू ही तो था।"
वह घबडाया। बोलाः "सवामी जी ! मै तो असपताल का कमच
व ारी हूँ और आपका पशंसक
हूँ... भि हूँ।"
बाबा जी हँ सते हुए बोलेः "कया खाक तू असपताल का कमच
व ारी है ! तू वही है । कमच
व ारी
तू बना बैिा है , डणडा मारने वाला भी तू बना बैिा है , मरहम-पटटी करने वाला भी तू बना बैिा है
और दि
ू िपलाने वाला भी तू बना बैिा है । मै तुझे पहचान गया हूँ। तू मुझे िोखा नहीं दे
सकता।"
बाबाजी आतममसती मे सराबोर होने लगे।
अब उस अििकारी को खयाल आया िक बाबा जी शुद आतमदिि से ही यह सब बोल रहे
है ।अनुकम
देह स भी िम थया हु ई जगत ह ु आ िनससार।
हुआ आतमा स े तभी अपना साकातकार।।
जीव को जब आतमदिि पाप हो जाती है तब अनेको मे खेलते हुए "एक" के पहचान लेता
है । इसका मतलब यह नहीं िक सवत
व आतमदिि से िनहारनेवाला मूखव होकर रहता है , बुदु होकर
रहता है , पलायनवादी होकर रहता है । नहीं, ऐसा बुद,ु मूखव या पलायनवादी नहीं होना है । जो कायव
करो, पूरी कुशलता से करो। 'योग कम व सु कौश लम।् '
िकसी भी कायव से अपना और दस
ू रो का अिहत न हो। कम व ऐसे करो िक कमव करते करते
कताव का बाि हो जाये, िजससे कमव करने की सता आती है उस सतय का साकातकार हो जाये।
तुमने िकतना अचछा कायव िकया इस पर धयान मत दो लेिकन इससे भी बिढया कायव
कर सकते हो िक नहीं ऐसी उतुँग और िवकासशील दिि रखो। िवकास अनिकार की ओर नहीं
बिलक पकाश की ओर हो। 'मैने इतनी िरशत ली, इससे जयादा भी ले सकता हूँ िक नहीं?' ऐसा
दि
ु िवचार नहीं करना।
तुमने िकसी कारण से, लोभ मे आकर िकसी का अिहत कर िदया, हजारो लोगो की
साििवक शदा को िे स पहुँचा िदया तो पाप के पोटले बँि जायेगे। हजारो जनम भोगने के बाद
भी इसका बदला चुकाना मुिशकल हो जायेगा।
यह मानवजनम कमभ
व िू म है । यहाँ से अननत जनमो मे ले जाने वाले संसकार इकटिे कर
सकते हो और अननत जनमो मे भटकने वाले बेईमान मन को आतमदिि का अंजन लगा कर
उस मािलक के अमत
ृ से पिरतप
ृ करके आतम-साकातकारी भी बन सकते हो। मरजी तुमहारी।
'यथा योग यं तथा क ुर। '
ॐॐॐॐॐॐॐ
सचची शरणागित
एक संत कहीं जा रहे थे। रासते मे कडाके की भूख लगी। गाँव बहुत दरू था। उनका मन
कहने लगाः
"पभु िवशव के पालन कताव है । उनसे भोजन माँग लो। वे कैसे भी करके अपने पयारे भि
को भोजन दे गे।"
संत ने अपने मन को समझायाः "अरे ! मै पभु का अननय भि होकर पभु मे अिवशास
करँ? कया पभु को पता नहीं है िक मुझे भूख लगी है ? पयारे पभु से माँगना िवशासी भि का
काम नहीं है ।"
संत ने इस पकार मन को समझा िदया। मन की कुचाल िविल हो गयी। तब वह दस
ू री
चाल चला। मन ने कहाः "अचछी बात है । तुम खाना मत माँगो लेिकन भूखे कब तक रहोगे?
भूख सहन करने का िीरज तो माँग लो।"अनुकम
संते ने सोचाः "यह िीक है । भोजन न सही, लेिकन िीरज माँगने मे कोई हजव नहीं।"
इतने मे ही उनके शुद अनतःकरण मे भगवान की िदवय वाणी सुनाई दीः "िीरज का
समुि मै सदा तेरे साथ ही हूँ न? मुझे सवीकार न करके िीरज माँगने चला है ? अपनी शदा-
िवशास को कयो खो रहा है ? कया िबना माँगे मै नहीं दे ता? अननय भि के योगकेम का सारा भार
उिाने की तो मैने घोषणा कर रखी है ।"
संत के हदय मे समािान हो गया। भाव से गदगद होते हुए कहाः "सच है पभो ! मै मन
के भुलावे मे आ गया था। मै भूला था नाथ ! भूला था।"
"मै भूलने वाला कौन हूँ यह खोजूँ। खोजने बैिा तो जगिननयनता, सवान
व तयाम
व ी पभु ही
पभु को पाया। मन की कुि इचछाएँ, वासनाएँ ही आज तक मुझे तुझसे दरू कर रहीं थीं। मै उनहे
सता दे ता था तबी वे मुझे दबाए हुए नाच रही थीं। तेरे मेरे शाशत समबनि की जब तक मुझे
िवसमिृत थी तब तक मै इनके चंगल
ु मे था।"
ऐसा सोचते सोचते संत अपने परमानंद सवरप मे डू ब गये।
ॐॐॐॐ
समथ व क ी ली ला
एक िदन पभात काल मे कुछ बाहण और एक िवशाल िौज के लेकर िशवाजी महाराज
अपने गुरदे व समथव सवामी रामदास के चरणो मे दशन
व व सतसंग के हे तु पहुँचे। संत-सािनधय मे
घणटे बीत गये इसका पता ही न रहा। दोपहर के भोजन का समय हो गया।
आिखर िशवाजी उिे । शीचरणो मे पणाम िकया और िवदा माँगी। समथव ने कहाः "सब
लोग भूखे है । भोजन करके जाओ।"
िशवाजी भीतर सोचने लगेः "इतनी बडी िौज का भोजन कोई भी पूवव आयोजन के िबना
कैसे होगा? समय भी नहीं है और सीिा-सामान भी नहीं है ।" सवामी समथव ने अपने िशषय
कलयाण गोसांई को भोजन का पबनि करने की आजा दे दी। वह भी िविसमत नयनो स गुरदे व
के मुखमणडल को दे खता ही रह गया। पूवव सूचना के िबना इतने सारे लोगो की रसोई बनाई नहीं
थी। सवामीशी उन लोगो की उलझी हुई िनगाहे समझ गये और बोलेः
"वतस ! वह दे ख। पवत
व मे जो बडा पतथर खडा िदखता है न, उसको हटाना। एक गुिा का
दार खुलेगा। उस गुिा मे सब माल तैयार है ।"
कलयाण गोसांई ने जाकर पतथर को हटाया तो गुिा के भीतर गरमागरम िविभनन
पकवान व वयञजनो के भरे खमूचे दे खे। पकाश के िलए जगह-जगह पर मशाले जल रही थीं।
िशवाजी महाराज सिहत सब लोग दं ग रह गये। यथेि भोजन हुआ। ििर सवामी जी के समक
िशवाजी महाराज ने पूछाः
"पभो ! ऐसे अरणय मे इतने सारे लोगो के भोजन की वयवसथा आपने एकदम कैसे कर
दी? कृ पा करके अपनी यह लीला हमे समझाओ, गुरदे व !"
"इसका रहसय जाकर तुकोबा से पूछना। वे बताएँगे।" मंद मंद मिुर िसमत के साथ समथव
ने कहा।अनुकम
कुछ िदन बाद दोपहर अपनी लमबी चौडी िौज के साथ िशवाजी महाराज संतवय व तुकाराम
जी महाराज के दशन
व करने दे हुगाँव गये। अनुचर के दारा संदेशा भेजा िक, "मै िशवाजी, आपके
दशन
व करने आया हूँ। कृ पया आजा दीिजये।"
महाराज ने कहलवायाः "दोपहर का समय है और भोजन तैयार है । पहले आप सब लोग
भोजन कर लो, बाद मे दशन
व करके जाना। अपने आदिमयो को भेजो। पका हुआ भोजन,
सवयंपाकी बाहणो के िलए कचचा सीिा और घोडो के िलए दाना पानी यहाँ से ले जाये।"
पतयुतर सुनकर िशवाजी िविसमत हो गये। तुकाराम जी का घर दे खो तो टू टा-िूटा
झोपडा। शरीर पर वस का ििकाना नहीं। भजन करने के िलए मंजीरे भी पतथर के। यह सब
धयान मे रखते हुए िशवाजी ने दो आदिमयो से कहाः "वहाँ जाओ और महाराज शी जो कुछ दे
पसाद समझकर ले आओ।"
िशवाजी के आगमन मे िवलमब होता दे खकर तुकाराम महाराज ने िरिद-िसिद योग के
बल से इनियाणी के तीर पर एक िवशाल मंडप खडा कर िदया। अनेक पकार के वयञजन व
पकवान तैयार हो गये। ििर एक गाडी मे कचचा सीिा और घोडो के िलए दाना पानी भरवाकर
िशषय को भेजा और कहा िक िजसको जो सामान चािहए वह दे ना और बाकी के सब लोगो को
भोजन के िलए यहाँ ले आना।
िशवाजी अपने पूरे मंडल के साथ आये। दे खा तो िवशाल भवय मंडप खडा है । जगह जगह
पर सुहावने परदे , आराम सथान, भोजनालय, पानी के पयाऊ, जाित के मुतािबक भोजन की अलग
अलग वयवसथा। यह सब रचना दे खकर िशवाजी आशयव से मुगि हो गये। भोजनोपरानत थोडा
िवशाम करके तुकाराम महाराज के दशन
व करने गये। टू टे -िूटे बरामदे मे बैिकर भजन करते हुए
संतशी को पणाम करके बैिे। ििर पूछाः
"महाराज जी ! हमारे गुरदे व सवामी समथव के यहाँ भी भोजन का ऐसा सुनदर पबनि हुआ
था। मैने रहसय पूछा तो उनहोने आपसे ममव जानने की आजा दी। कृ पया अब आप हमे बताओ"
तुकाराम जी बोलेः "अजान से मूढ हुए िचतवाले दे हािभमानी लोग इस बात को नहीं
समझते िक सवाथव और अहं कार तयाग कर जो अपने आतमदे व िवठिल मे िवशािनत पाते है
उनके संकलप मे अनुपम सामथयव होता है । िरिद-िसिद उनकी दासी हो जाती है । सारा िवश
संकलप का िवलास है । िजसका िजतना शुद अनतःकरण होता है उतना उसका सामथयव होता है ।
अजानी लोग भले समथज
व ी मे सनदे ह करे लेिकन समथव जी तो समथव तिव मे सदा िसथर है ।
उसी समथव तिव मे सारी सिृि संचािलत हो रही है । सूरज को चमक, चनदा को चाँदनी, पथ
ृ वी मे
रस, िूलो मे महक, पिकयो मे गीत, झरनो मे गुज
ं न उसी चैतनय परमातमा की हो रही है । ऐसा
जो जानता है और उसमे िसथत रहता है उसके िलए यह सब िखलवाड मात है ।अनुकम
िशवाजी ! सनदे ह मत करना। मनुषय के मन मे अथाह शिि व सामथयव भरा है , अगर वह
अपने मूल मे िवशािनत पावे तो। सवामी समथव कया नहीं कर सकते?
मै तो एक सािु हूँ, हिर का दास हूँ, अनाथ से भी अनाथ हूँ। मेरा घर दे खो तो टू टा-िूटा
झोपडा है लेिकन मेरी आजा तीनो लोक मानते है । िरिद-िसिद मेरी दासी है । सािुओं का
माहातमय कया दे खना? उनके िवषय मे कोई सनदे ह नहीं करना चािहए।"
िर िद िस िद दास कामि ेन ु घरी ं परी न ाह ीं भाकरी भ कावया।
लोिड सते बोिलसत े प लंगस ू पती , परी नाही ं ल ंगोटीन े सावाया।
पु साल जरी आ हां व ै कुंिीचा वास परी नाही ं रहावयास स थळ कोि े।
तु का म हणे आ हीं राज े व ैकुंिीच े , पर न ाह ीं कोणास े उर े प ुरे।।
"िरिद-िसिद दािसयाँ है , कामिेनु घर मे है लेिकन मुझे खाने के िलए रोटी का टु कडा भी
नहीं है । गदी-तिकये पलंग आिद वैभव है लेिकन मुझे पहनने के िलए लंगोट का चीथडा भी नहीं
है । यिद पूछो तो वैकुंि मे मेरा वास है यह हकीकत है लेिकन यहाँ तो मुझे रहने के िलए जगह
नहीं है । तुकाराम कहते है िक हम है तो वैकुणि के राजा लेिकन िकसी से हमारा गुजारा नहीं हो
सकता।"
संतो की यही दशा होती है ।
िशवाजी महाराज अगम िनगम मे यथेचछ िवचरने वाले संतो की लीला पर सानंदाशय व का
अनुभव करते हुए िवदा हुए।
कुछ िदन बाद उनको संकलप हुआ िक गुरदे व समथव सवामी रामदास के बनिु 'शि
े '
गंगातीर पर जांबगाँव मे गह
ृ सथ पालते हुए रहते है , उनका सामथयव दे खे कैसा है ! एक राित के
अिनतम पहर मे शि
े जी ने िशवाजी को सवपन मे दशन
व िदया। माला व नािरयल पदान िकया।
बहुत सारी बोिपद बाते की और अदशय हो गये। सुबह मे उिकर िशवाजी ने अपने हाथो मे वही
नािरयल और माला पतयक पायी। उनको िवशास हो गया िक ये भी सवामी समथव जैसे ही समथव
है । ििर भी पतयक जाकर दशन
व हे तु दो हजार आदिमयो को लेकर शि
े जी के दशन
व करने गये।
दोपहर का समय था। वैशदे व करके काकबिल डालने के िलए शि
े जी दरवाजे पर खडे थे।
िशवाजी महाराज पहुँचे वहाँ। सवपन मे दे खी हुई मूितव को पतयक पाकर उनके आशयव का ििकाना
न रहा। भाव से आपलािवत हदय चरण सपशव िकया। शि
े जी ने पचचीस लोगो के िलए बनाई
गई रसोई मे दो हजार लोगो को भरपेट भोजन कराया। एक टोकरे भर दाने और तेरह पूले घास
से तमाम घोडे आिद पािणयो को घास चारा पहुँचाया। िजतना िदया उतना ही सब सामान बाकी
बचा। यह सब िशवाजी महाराज दे खकर दं ग रह गये।अनुकम
शि
े जी के आगह से पंिह िदन वहाँ रहे । िवदा हुए तो शि
े जी ने वसालंकार की भेट दी।
िशवाजी को िनशय हो गया िक समथव जी और शि
े जी दोनो बनिु समान रप से समथव है ।
तदननतर िशवाजी महाराज ने अपने गुरदे व समथव सवामी रामदास के शी चरणो मे जाकर
कमा माँगी और अपना पूरा अनुभव कह सुनाया।
समथव ने कहाः
"जहाँ जाओगे वहाँ एक ही है । उस एक तिव की कोई सीमा नहीं। वह िनःसीम है अतः
हमे िनःसीमदास हो जाना चािहए।"
िशवाजी ने िवनयपूवक
व पूछाः "िनःसीमदास सािु होते है यह सच है लेिकन उन सबके
पास िरिद-िसिद होती है । वे इनका उपयोग करते है । िरिद-िसिद का उपयोग मुिि मे पितबनिक
है ।"
शी समथव हँ सते हुए बोलेः "भाई ! ईशर पािप के िलए हम जब िनःसीमता से दासयभाव
रखते हुए भिि करते है तब िरिद-िसिदयाँ आकर अपने मोह मे िँसाने के िलए अनेक पकार के
पयत करती है । उनके मोह मे न िँसकर हमेशा ईशर के धयान मे रहने से ईशर अपने दास को
ईशरपना दे ते है । इस अवसथा को पाप करके दास मािलक बन जाता है । मािलक को िकसी कमव
का बाि नहीं होता। ऐसा मािलकपना िमलने से पूवव यिद िरिद-िसिदयो के दारा कायव िकये जाये
तो वे बािक बनते है । इससे जीवन का चरम लकय िसद नहीं होता। चरम लकय को िसद कर
लेने वाले अथात
व ् मािलक बने हुए सािु िनःसीम हो जाते है । ििर इन िरिद-िसिदयो के मािलक
होकर उनका उपयोग करने से वे बनिनकारक नहीं होतीं।"
गुरदे व की रहसयमय वाणी सुनकर िशवाजी को परम संतोष हुआ।
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बडो क ी बडा ई
पयागराज मे जहाँ सवामी रामतीथव रहते थे उस जगह का नाम रामबाग था। वहाँ से एक
बार वे सनान करने को गंगा नदी पर गये। उस समय के कोई सवामी अखणडाननद जी उनके
साथ थे। सवामी रामतीथव सनान करके बाहर आये तो अखणडाननद जी ने उनहे कौपीन दी। नदी
के तटपर चलते चलते पैर कीचड से लथपथ हो गये। इतने मदनमोहन मालवीय जी वहाँ आ
गये। इतने सुपिसद और कई संसथाओं के अगुआ मदनमोहन मालवीय जी ने अपने कीमती
दश
ु ाले से सवामी रामतीथव के पैर पौछने शुर कर िदये। अपने बडपपन की या "लोग कया कहे गे"
इसकी िचनता उनहोने नहीं की। यह शील है ।
अिभ मान ं सुरापा नं गौरव ं रौ रवसत था।
पितिा श ूकरी िव िा त ीणी तयकतवा सुखी भव े त।् ।
अिभमान करना यह मिदरापान करने के समान है । गौरव की इचछा करना यह रौरव
नरक मे जाने के समान है । पितिा की परवाह करना यह सूअर की िविा का संगह करने के
समान है । इन तीनो का तयाग करके सुखी होना चािहए।
पितिा को जो पकड रखते है वे शील से दरू हो जाते है । पितिा की लोलुपता छोडकर जो
ईशर-पीतयथे कायव करते है उनके अनतःकरण का िनमाण
व होता है । ईशर पीतयथे कीतन
व करते है ,
धयान करते है उनके अनतःकरण का िनमाण
व होता है ।
धयान तो सब लोग करते है । कोई शतु का धयान करता है , कोई रपयो का धयान करता
है , कोई िमत का धयान करता है , कोई पित का, पती का िचनतन-धयान करता है । यह शील मे
नहीं िगना जाता जो िनषकाम भाव से परमातमा का िचनतन व धयान करता है उनके शील मे
अिभविृद होती है ।अनुकम
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नारायण मंत
एक बार मदनमोहन मालवीय जी गीतापेस, गोरखपुर मे शी हनुमानपसाद जी पोदार के
अितिथ बने। दस
ू रे िदन सुबह को मालवीय जी ने हनुमान पसाद जी से कहाः
"मै आपको एक दल
ु भ
व चीज दे ना चाहता हूँ जो मुझे अपनी माता जी से वरदान रप मे
िमली थी। उससे मैने बहुत लाभ उिाया है ।"
मालवीय जी उस दल
ु भ
व चीज की मिहमा बताने लगे तो भाई जी ने अतयंत उतसुिा वयि
कीः "वह दल
ु भ
व चीज कृ पया शीघाितशीघ दीिजए।"
मालवीय जी ने कहाः "आज से चालीस वषव पूवव मैने माँ से आशीवाद
व माँगा िक, "मै हर
कायव मे सिल होऊँ और सिल होने का अिभमान न हो। अिभमान और िवषाद आतमशिि कीण
कर दे ते है ।" माँ ने कहा "जड चेतन मे आिद नारायण वास कर रहे है । उस पभु का पेम से
समरण करके ििर कायव करना।''
"भाई जी ! चालीस वषव हो गये। जब-जब मै समरण भूला हूँ तब तब असिल हुआ हूँ,
अनयथा सिल ही सिल रहा हूँ। इस पिवत मंत का आप भी िायदा उिाये।"
हनुमानपसादजी ने उस मंत का खूब िायदा उिाया। उनके पिरवार एवं अनय सहसो लोगो
ने भी उस पावन मंत का खूब लाभ उिाया।
कायव के आिद मे, मधय और अनत मे 'नारायण.... नारायण...... नारायण.....' समरण
करनेवालो क अवशय लाभ होता है । अतः आप लोग भी इस मंत का िायदा उिाये।
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िवव े क कीिजए
बुद जब घर छोड कर जा रहे थे तब उनका छनन नामक सारथी साथ मे था। नगर से
दरू जाकर बुद जब उसको वापस लौटाने लगे तब वह रोयाः
"कुमार ! आप यह कया रहे है ? इतना सारा िन-वैभव छोडकर आप जा रहे है ! आप बडी
गलती कर रहे है । मै नौकर हूँ। छोटे मुह
ँ बडी बात होगी लेिकन मेरा िदल नहीं मान रहा है कहे
िबना, इसिलए कह रहा हूँ। अपराि तो कर रहा हूँ सवामी को समझाने का लेिकन आप थोडी सी
समझ से काम ले। आप इतना िन, राज-वैभव, पुत-पिरवार छोडकर जा रहे है ।
बुद ने कहाः "िपय छनन ! तूने तो िन की ितजौिरयाँ दरू से दे खी है लेिकन मेरे पास
उनकी कुँिजयाँ थीं। मैने उनको नजदीक से दे खा है । तूने राज -वैभव और पुत-पती-पिरवार को दरू
से दे खा है लेिकन मैने नजदीक से दे खा है । तू तो रथ चलाने वाला सारथी है जबिक मै रथ का
मािलक हूँ। मुझे अनुभव है िक यह वासतिवक िन नहीं है । मैने उसे खूब नजदीक से दे खा है ।
अनुकम
िन वह है जो शिि दे । िन वह है जो िनवास
व िनक बनाये। िन वह है जो ििर माता के
गभव मे न िँसाये। यह िन तो मेरे िलए बािा है । मैने िीक से दे खा है । मुझे इससे शािनत नहीं
िमली िन वह है जो आतमशािनत दे । तेरी सीख िीक है लेिकन वह तेरी मित के अनुसार की
सीख है । वासतव मे तेरी सीख मे कोई दम नहीं।"
कई बार अजानी लोग भिो को समझाने का िे का ले बैिते है । भिि के रासते कोई
सजजन, सदगहृसथ, सेि, साहूकार, साहब, आििसर, अििकारी चलता है तो लोग समझाते है - "अरे
साहब ! यह कया चककर मे पडे हो? यह कया अनिशदा कर रहे हो?"
िवनोबाजी कहते थेः "कया शदा ने ही अनिा होने का िे का िलया है ? अनिशदा कहना भी
तो अनिशदा है !"
भिो के अनिशदालु कहने वाले लोगो को सुना दे ना चािहए िकः "तुम बीडी-िसगरे ट मे भी
शदा करते हो। उसमे कोई सुख नहीं ििर भी सुख िमलेगा यह मानकर िूँकते रहते हो , मुँह मे
आग लगाते रहते हो, कलेजा जलाते रहते हो। कया यह अनिशदा नहीं है ? वाइन-वहीसकी को, जो
आलकोहोल है उसे शरीर मे भर रहे हो सुख लेने के िलए यह अनिशदा नहीं है ? िडसको डानस
करके जीवन-शिि का हास करते हो, यह अनिशदा नहीं है ? हिरकीतन
व करके कोई नाच रहा है तो
यह अनिशदा है ? शदा ने ही अनिा होने का िे का िलया है कया?"
शदा तो करनी ही पडती है । हम लोग डॉकटर पर शदा करते है िक वह इनजेकशन मे
'िडसटीलड वाटर' नहीं लगा रहा है । हालाँिक कुछ डॉकटर 'िडसटीलड वाटर' के इनजेकशन लगा दे ते
है । चाय बनाने वाले नौकर पर शदा करनी पडती है िक दि
ू जूिा न होगा, मचछरवाला या मरे
हुए पतंगेवाला न होगा। हजजाम पर भी शदा करनी पडती है । वह खुला उसतरा चला रहा है ।
उसतरा गले पर नहीं घुमा दे गा यह शदा है तभी तो आराम से दाढी बनवा रहे है ।
जरा सी हजामत करवानी है तो अनपढ हजजाम पर शदा करनी पडती है , तो जनम मरण
की सारी हजामत िमटानी है तो वेद और गुरओं पर शदा जररी है िक नहीं?
बस डाईवर पर शदा करनी पडती है । पचास-साि आदमी अपना जान-माल सब डाईवर के
भरोसे सौपकर बस मे बैिते है । िकतने ही ऐकसीडै ट बस-अकसमात हो जाते है , लोग मर जाते है
ििर भी हम बस मे बैिना बनद तो नहीं करते। शदा करते है िक हमार बस डाईवर ऐकसीडै ट
नहीं करे गा।अनुकम
हवाई जहाज के पायलट पर शदा करनी पडती है । हवाई जहाज का सटीयरींग इतना
हलका सा होता है िक जरा-सा यूं घूम जाये तो गये काम से। ििर भी दो सौ तीन सौ याती
अपनी जान-माल, पूरा जीवन पायलेट के हवाले कर दे ते है । वह यहाँ से उिाकर लंदन रख दे ता
है , अमेिरका रख दे ता है । जो पथ
ृ वी की एक जगह से उिाकर दस
ू री जगह रख दे ता है , उस
पायलट के सवस
व व अपण
व करके ही बैिना पडता है तो जब सदा-सदा के िलए जीवतव से उिाकर
बहतव मे पितिित कर दे ऐसे वेद, उपिनषद, गीता और संत-महापुरष-सदगुरओं पर शदा न करे गे
तो कया तुमहारी बीडी-िसगरे ट पर शदा करे गे? तुमहारे वाइन पर शदा करे गे? रॉक और िडसको पर
शदा करे गे? तुमहारे बिहमुख
व जीवन जीन की पदित पर शदा करे गे? घुल-घुलकर माया के जाल मे
िँस मरे गे? इत ने द ु भाव गय ह मार े नह ीं ह ु ए।
हम तो ििर से यह पाथन
व ा करे गे िक हे पभु ! जब तक जी मे जान है , तन मे पाण है
तब तक मेरे िदल की डोरी, शदा की डोरी मजबूत बनी रहे .... तेरे तरि बढती रहे ..... तेरे पयारे
भि और संतो के पित बढती रहे ।
नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण ! नारायण !
आया ज हाँ स े स ैर कर ने , हे म ु साििर ! तू यह ाँ।
था स ैर करक े लौट जाना , युि तुझको ििर वह ाँ।
तू स ैर करना भ ूल कर , िन ज घ र बनाकर िटक गया।
कर याद अपन े द ेश की , परद े श म े कयो रक गया।।
िँसकर अिवदा जाल म े , आनन द अपना खो िदया।
नहाकर जगत म ल िसन िु म े , रंग रप स ुनदर िो िदया।
िन ःशोक ह ै त ू स वव दा , कयो मोह व श पागल भया।
तज द े म ुसा ििर ! नींद , जग , अब भ ी न तेरा कुछ गया।।
सदग ु र वचन िश र िार कर , वयापार ज ग का छो ड द े।
जा लौट अप ने िाम म े , नाता यहा ँ का तो ड द े।।
सदगुर व चन जो मानता , िनशय अच ल पद पाय ह ै।
भोल े म ुसा ििर ! हो स ुखी , कयो कि वयथ व उिाय है।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ ॐॐ
शूनय म ुिा
भाग पर अँगूिे का गदीवाला भाग सपशव कराये। शेष
तीनो उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः कान का ददव िमट जाता है । कान मे से पस
िनकलता हो अथवा बहरापन हो तो यह मुिा 4 से 5
िमनट तक करनी चािहए।
वरण म ुिा
वरण म ुिाः मधयमा अथात
व सबसे बडी उँ गली के मोड कर
उसके नुकीले भाग को अँगूिे के नुकीले भाग पर सपशव कराये। शेष तीनो उँ गिलयाँ सीिी रहे ।
लाभ ः यह मुिा करने से जल तिव की कमी के कारण होने
वाले रोग जैसे िक रििवकार और उसके िलसवरप होने
वाले चमरवोग व पाणडु रोग (एनीिमया) आिद दरू होते है ।
पाण म ुिा ः
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यौ िगक चक
चक ः चक आधयाितमक शिियो के केनि है । सथूल शरीर मे ये चक चमच
व कुओं से नहीं
िदखते है । कयोिक ये चक हमारे सूकम शरीर मे होते है । ििर भी सथूल शरीर के जानतंतुओं-
सनायुकेनिो के साथ समानता सथािपत करके उनका िनदे श िकया जाता है ।