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दुःख का प्रभाव

प्रार्थना

(प्रार्थना आस्तिक प्राणी का जीवन है तर्ा साधक के ववकास का अचूक उपाय है ।)

मेरे नार् !

आप अपनी,

सुधामयी,

सवथ -समर्थ,

पवततपावनी,

अहै तुकी कृपा से,

दु ुःखी प्रावणय ों के हृदय में,

त्याग का बल,

एवम्,

सुखी प्रावणय ों के हृदय में,

सेवा का बल,

प्रदान करें ,

वजससे वे,

सुख-दु ुःख के,

बन्धन से,

मुक्त ह ,

आपक,

पववत्र प्रेम का,

आस्वादन कर,

कृतकृत्य,
ह जायँ l

ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द!! ॐ आनन्द !!!


हररुः शरणम्

हररुः शरणम्, हररुःशरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम् ।

हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम् ।

हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम् ।

हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम्, हररुः शरणम् ।

सवथवहतकारी कीतथन

हे हृदयेशवर, हे सवेशवर, हे प्राणेशवर, हे परमेशवर |

हे हृदयेशवर, हे सवेशवर, हे प्राणेशवर, हे परमेश्वर |

हे हृदयेशवर, हे सवेशवर, हे प्राणेशवर, हे परमेशवर |

हे हृदयेशवर, हे सवेशवर, हे प्राणेशवर, हे परमेशवर |

हे हृदयेशवर, हे सवेशवर, हे प्राणेशवर, हे परमेशवर |

हे समर्थ , हे करुणा सागर, ववनती यह स्वीकार कर |

हे समर्थ , हे करुणा सागर, ववनती यह स्वीकार कर |

भूल वदखाकर उसे वमटाकर, अपना प्रेम प्रदान कर |

भूल वदखाकर उसे वमटाकर, अपना प्रेम प्रदान कर |

पीर हर हरर, पीर हर हरर, पीर हर , प्रभु पीर हर |

पीर हर हरर, पीर हर हरर, पीर हर , प्रभु पीर हर ।


मानवता के मूल वसध्दान्त

१.आत्म-वनरीक्षण, अर्ाथ त प्राप्त वववेक के प्रकाश में अपने द ष ों क दे खना |

२.की हुई भूल क पुनुः न द हराने का व्रत लेकर सरल ववश्वासपूवथक प्रार्थना करना |

३.ववचार का प्रय ग अपने पर और ववश्वास का दू सर ों पर, अर्ाथ त् न्याय अपने पर ओर प्रे म तर्ा क्षमा
अन्य पर ।

४.वजतेस्तियता, सेवा, भगवत् वचन्तन और सत्य की ख ज व्दारा अपना वनमाथ ण ।

५.दू सर ों के कर्त्थव्य क अपना अवधकार, दू सर ों की उदारता क अपना गुण और दू सर ों की वनबथलता क


अपना बल, न मानना |

६.पाररवाररक तर्ा जातीय सम्बन्ध न ह ते हुए भी पाररवाररक भावना के अनुरूप ही पारस्पररक

सम्ब धन तर्ा सदभाव, अर्ाथ त् कमथ की वभन्नता ह ने पर भी स्नेह की एकता।

७.वनकटवती जन-समाज की यर्ाशस्तक्त, वियात्मक रूप से सेवा करना |

८.शारीररक वहत की दृवि से आहार, ववहार में सोंयम तर्ा दै वनक काय ों में स्वावलम्बन।

९.शरीर श्रमी, मन सोंयमी, बुस्ति वववेकवती, हृदय अनुरागी तर्ा अहों क अवभमान शून्य करके अपने क

सुन्दर बनाना।

१०.वसक्के से विु विु से व्यस्तक्त, व्यस्तक्त से वववेक तर्ा वववेक से सत्य क अवधक महत्व दे ना |

११.व्यर्थ -वचन्तन त्याग तर्ा वतथमान क सदु पय ग द्वारा भववष्य क उज्ज्वल बनाना |
प्रार्थना

मेछे नार् !

आप अपनी, सु धामयी, सवथ -समर्थ, पवतत-पावनी, अहै तुकी कृपा से , मानव-मान्न क , वववेक का आदर

तर्ा बल का सदु पय ग करने की सामर्थ्थ , प्रदान करें , एवों , हे करूणा सागर ! अपनी अपार करुणा से ,
शीघ्र ही, राग-द्वे ष का नाश करें । सभी का जीवन, से वा त्याग , प्रेम से पररपुणथ ह जाय

ॐ आनन्द ! ॐ आनन्द!! ॐ आनन्द !!!


दुःख का प्रभाव

एक पररचय

उषाकाल-पुत्र-वत्सला की ग द में दु धमुहाँ वशशु , दू ध की उष्ण मीठी धार का पान कर आनन्द-


ववभ र ह रहा र्ा। प्रभात की शीतल, मन्द, सुखद हवा के एक झ क
ों े ने वशशु से पू छा-“जीवन कैसा है

नादान ?” वशशु ने माँ के आँ चल में मुँह वछपाए हुए उर्त्र वदया-“माँ के दू ध-सा मीठा”।

वसन्त का चढ़ता हुआ वदन-कुञ्ज में ववचरती हुई एक नव ढ़ा ने फूल की एक अधस्तखली कली
त ड़कर पास ही खड़े युवक पर फेंकी। युवक मुसकराया। वसन्त की अलसायी हवा ने दम्पवत क स्पशथ

करते हुए पूछा-“जीवन कैसा है पगले ?” युवक ने रमणी की आँ ख ों में आँ खें गड़ाए हुए उर्त्र वदया-
“यौवन-सा मदमाता।”

पावस की झड़ी, अमावस्या की रावत्र-वनधथन माँ रुग्ण बालक क कलेजे से वचपका कर भी फटे
आँ चल से बूोंद ों का प्रहार न र क सकी। उसके कलेजे का टु कड़ा दम त ड़ गया। अपने र्पेड़ ों से जीणथ -

शीणथ झ प
ों ड़ी क झकझ रते हुए बरसाती अन्धड़ ने पूछा-"जीवन कैसा है , हतभागे ?” मृत वशशु क
कृश छाती से वचपकाये हुए माँ ब ली-“काल-रावत्र-सा भयावह।'”

ये हैं जीवन के कुछ वचत्र, एक कहानीकार की आँ ख ों से दे खे गये। शब्दावली मुझे ठीक-ठीक

याद नहीों है , पर भाव स्पि है । प्रात: की वमठास और द पहरी की मादकता हम सब चाहते हैं , पर रावत्र
के वनववड़ अन्धकार की भयों करता क ई नहीों चाहता, क् वों क दु ुःख हमें अवप्रय है ।

सच है , दु ुःख अपना ह या पराया, शारीररक ह या मानवसक, बड़ा ह या छ टा, अच्छा नहीों

लगता। पर क्ा वकया जाय ? बहुत बुरा लगता है , वफर भी सहना पड़ता है । जीवन का यह एक ऐसा
कटु सत्य है वक आज तक इससे क ई बचा नहीों।

वबन बुलाये दु ुःख आता है । आग्रह करने पर भी सुख रहता नहीों चला ही जाता है । हम गये हुए
सुख के वलए तरसते हैं , आये हुए दु ुःख से घबड़ाकर वबलखते हैं और पुनुः सुख आयेगा, इस तृष्णा में

जीते हैं । केसी दयनीय दशा है !

आइये , ववचारें वक ज दु ुःख जीवन का अवनवायथ अोंग है वजससे वक आज तक क ई बचा नहीों,


वह क्ा विुत: बुरा है ? भयावह है ? वनन्दनीय है ? दु ष्कमों का दु ष्पररणाम है ? भाग्यववधाता का दण्ड-

ववधान है ? या वक सृविकताथ की भूल है ?


सामान्य दृवि से ऐसा ही मालूम ह ता है । हम सब अब तक ऐसा ही मानते रहे हैं । परन्तु यह

स चने की बात है वक दु ुःख विुतुः बुरा ह ता, त जीवन में आता क् ों ? जमथन दशथनकार वलबवनट् ज
(Libnitz) ने कहा है -"This is the best possible world Created by God" दु ुःख यवद बुरा ह ता त

जीवन में आता त "The best possible world" में इसका क ई स्र्ान ही नहीों ह ना चावहए र्ा। पर
हम सब जानते हैं वक सोंसार के अवधकाों श भाग में दु :ख ही भरा है , सुख का वहस्सा बहुत कम है ।

तब, वफर दु ुःख क क्ा कहा जाय ? प्रिुत पु िक “दु ुःख का प्रभाव” में दु :ख के इस रहस्यमय

स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । अन खा ‘एप्र च' है , अनूठा दृविक ण है । इसके अनुसार दु :ख दु ष्कमों
का पररणाम नहीों है , अवपतु कृपा-पूररत ववधान की अनु पम दे न है ।

आप आश्चयथचवकत ह रहे ह ग
ों े यह स चकर वक हमारी दै वनक अनुभूवत त यह है वक वसर की

पीड़ा से हम व्यग्र ह ते हैं , वप्रयजन ों के ववय ग से ववकल ह ते हैं , श क-सन्ताप में जलते हैं , वफर कैसे
माना जाय वक दु ुःख ववधाता की अनुपम दे न है ? दु ुःख त जीवन का अवभशाप मालूम ह ता है ।

ठीक है बन्धु, आपका स चना भी ठीक है । इसवलए वक अब तक हम सब दु :ख भ गते रहे हैं ।


दु ुःख का हमने सदु पय ग नहीों वकया है , दु :ख के प्रभाव से प्रभाववत नहीों हुए हैं , अन्यर्ा जीवन में िास्तन्त

आ गयी ह ती। इतना त हम सब ल ग जानते ही हैं वक लाख उपाय कर -वकतना ही नापसन्द कर ,


दु ुःख आता ही है । उसक र कने में हम ल ग सवथर्ा असमर्थ हैं । ज इतना प्रबल है वक न चाहने पर भी

आता ही है , उसक बुरा कहने से अर्वा उससे भयभीत ह ने से अब तक कुछ लाभ नहीों हुआ। हाँ , एक
बात स चने की है वक वजसका काला पक्ष ही हमने दे खा है , वजसका अवप्रय पहलू ही हमारी दृवि में रहा
है , उसका उज्ज्वल पक्ष भी है , उसका उपय गी पहलू भी है । उस पर दृवि पड़ते ही आप आनन्द से
उछल पड़े गे। यु ग-युग से बदनाम दु ुःख का यह उज्ज्वल पक्ष प्रिुत पुिक में प्रवतपावदत है ।

इस दृविक ण क समझने के वलए दु ुःख और उसके प्रभाव के स्वरूप पर ववचार करलें -कामना

अपूवतथ दु ुःख है , उससे ववकल ह ना दु ुःख का भ ग है और उससे सजग ह ना दु ुःख का प्रभाव है । इसी में
सारा रहस्य वछपा है । दु ुःख स्वयों अपने में न प्रशों सनीय है और न वनन्दनीय है । प्रश्न वसफथ इतना है वक

आप दु ुःख क भ गते हैं या वक उसके प्रभाव से प्रभाववत ह कर सचे त ह ते हैं । यवद आप दु ुःख के भ गी
हैं , त दु ुःख अवभशाप है । वह कभी आपका पीछा नहीों छ ड़े गा। यवद आप दु ुःख से प्रभाववत हैं , त दु ुःख

वरदान है । वह आपक दु ुःख-रवहत जीवन से अवभन्न करा दे गा।

दु ुःख के भ ग और दु ुःख के प्रभाव का अन्तर दे स्तखये -कामना-पूवतथ में सुख और कामना-अपू वतथ
में दु ुःख का भास ह ता है ।
(क) दु ुःख की प्रतीवत में सुख की आशा जगे , त यह दु ुःख का भ ग है । आया हुआ दु :ख सुख में भी

दु ुःख का दशथन करा दे , त यह दु ुःख का प्रभाव है । वकसी की वप्रय सन्तान की मृत्यु ह जाती है ।
सन्तवत-ववहीन ह ने के दु :ख से बचने के वलए वह अन्य सन्तान की आशा करता है । यह दु :ख

का भ ग है । राजकुमार वसिार्थ ने एक शव दे खा और दु ुःख अनुभव वकया। उन् न


ों े स चा 'हम
भी मरें गे' और उन्ें जीवन में ही मृत्यु का दशथन ह गया। यह दु ुःख का प्रभाव है । इस प्रभाव ने

उन्ें अमरत्व प्रदान वकया।

(ख) दु :ख का भ ग सुख की आशा में आबि रखता है , वजससे दु ुःखी के दु ुःख का अन्त नहीों ह ता।
दु ुःख का प्रभाव सुख की आशा से रवहत करता है । दु ुःख-भ ग से जड़ता आती है और दु :ख के

प्रभाव से चेतना जगती है ।

(ग) दु ुःख क सहन करते रहना दु ुःख का भ ग है । दु ुःख के कारण की ख ज करना दु :ख का प्रभाव
है ।

(घ) सुख-भ ग में आवद से अन्त तक दु :ख वमवश्रत है । सुख के भ गी क दु :ख भ गना ही पड़ता है ।


अन्तर केवल इतना है वक सुख हम चाहते हैं और दु :ख बरबस आता है ।

(ङ) प्राकृवतक वनयमानु सार आों वशक सुख-दु ुःख सबके जीवन में है । यवद व्यस्तक्त आों वशक सुख से

प्रभाववत ह , त दु ुःख का भय एवों भ ग ह गा। सुख का अर्थ है , कामना-पूवतथ। कामना वह है ज


उत्पवर्त्-युक्त विु व्यस्तक्त आवद से आपका सम्बन्ध ज ड़ दे । कुछ कामनाएँ सबकी पूरी ह ती

हैं । अर्ाथ त् आों वशक सुख का भास सबक ह ता है । कामना-पूवतथ -जवनत आों वशक सुख के भास
क यवद जीवन मान ले, त उत्पन्न हुई विु —व्यस्तक्त आवद का नाश ह गा। स्वभाव से , परन्तु

उनके आवश्रत सुख चाहने वाले क घ र सन्ताप ह गा उनके अभाव में। यह दु ुःख का भ ग है ।
यवद व्यस्तक्त आों वशक दु ुःख से प्रभाववत ह , त दु ुःख सदा के वलए वमट जायेगा। दु ुःख का भ गी

दू सर ों क दु ुःख दे ता है । वजस पर दु ुःख का प्रभाव ह जाता है , वह वकसी क दु ुःख नहीों दे ता।


वह त परपीड़ा से करुवणत ही ह ता है ।

(च) दु ुःख आते ही हम सुख के पीछे दौड़ते हैं । यह दु :ख के भ ग की पहचान है । क्षवणक सुख द्वारा
दु ुःख क दबाना चाहते हैं । दु ुःख से घबड़ाकर हम करणीय एवों अकरणीय कमथ कर बैठते हैं ।

पररणाम में अनन्त गुना दु ुःख पाते हैं । यह दु ुःख का भ ग है । यह ववनाश की राह है । दु ुःख का
प्रभाव सुख-ल लुपता का नाश करता है और दु ुःख क वनमूथल करता है । यह ववकास का पर् है ।

(छ) दु ुःखी दु ुःख काल में भी सु ख की सम्भावना मात्र से दु ुःख सहता रहता है । दु ुःख क सहते रहना,
उसकी वनवृवर्त् का मागथ न ढूँढ़ना दु ुःख का भ ग है । सु ख के बाद दु ुःख के दशथन से आप में यह
चेतना क् ों नहीों जगती वक सुख-दु ुःख द न ों ही आने -जाने वाले हैं ? इनमें स्तस्र्रता नहीों है । अतुः

हमें दु ुःख नहीों चावहए, त सु ख भी नहीों चावहए। ऐसी सजगता आते ही आपका प्रवे श सुख-दु ुःख
से अतीत के जीवन में ह जायेगा। यह दु :ख का प्रभाव है ।

(ज) दु ुःख के एक और नये पक्ष का वववेचन दे स्तखये -सुख के जाने और दु ुःख के आने के भय से प्राणी

त्रि रहता है । दु ुःख के भय से भयभीत रहने का पररणाम यह ह ता है वक व्यस्तक्त

१-प्राप्त का सदु पय ग नहीों कर पाता।

२-शस्तक्त क्षीण ह ती है ।

३-आवश्यक ववकास नहीों ह ता।

४-असावधानी और प्रमाद प वषत ह ते हैं । मूल पु िक में आपक इन चार

बात ों की वविृ त व्याख्या वमलेगी। आप पायेंगे वक आपके जीवन में वकतने गहरे पैठ
कर अध्ययन वकया गया है । हम और आप अब तक करते क्ा रहे ? दु ुःख जीवन में

समय-समय पर आता रहा, हम उससे भयभीत ह ते रहे और भय का ज दु ष्पररणाम है ,


वह भी भ गते रहे ।

(क) दु ुःख से भयभीत ह ने से दु :ख वमटता नहीों, अवपतु दू ना , ह जाता है ।

(ख ) क्षवणक सुख के द्वारा दु ुःख क दबाने का प्रयास करने पर भी दु :ख वमटता नहीों


है । दबा हुआ दु ुःख कई गुना बड़ा ह कर पुनुः सामने आता है । दु ुःख के भय से

भयभीत ह ना दु ुःख का भ ग है । दु ुःख का प्रभाव सु ख के स्वरूप का स्पि


दशथन कराता है । सुख के स्वरूप का ब ध ह ते ही सु ख की ल लुपता वमट जाती

है । दु ुःख का प्रभाव सुख का नाश नहीों करता, सुख की ल लुपता क वमटाता


है । तब दु ुःख का भय वमट जाता है तर्ा असमर्थता, अकर्त्थव्य और आसस्तक्त का

अन्त ह जाता है , ज ववकास का मूल है ।

(ग) दु :ख के महत्व क न जानने से दु ुःख का भय ह ता है । दु ुःख का महत्व जान लेने

पर दु ुःख का प्रभाव ह ता है । अत: दु ुःख का भय व्यर्थ ही नहीों, महा अनर्थकारी


है । इसवलए आये हुए दु ुःख के भय से भयभीत न ह कर उसके प्रभाव से

प्रभाववत ह ना अवनवायथ है ।

कामना-पूवतथ का सुख हमारी माँ ग नहीों है । वह त हमारा प्रमाद है । हमारी माँ ग है -दु ुःख-
वनवृवर्त्, वचर-ववश्राम, पूणथ-स्वाधीनता एवों परम-प्रेम, ज वक वािववक जीवन है । उसकी उपलस्ति वकसी
अभ्यास से नहीों ह ती, अवपतु दु ुःख के प्रभाव से ह ती है । हम और आप मानव हैं , वािववक जीवन से

अवभन्न ह ना चाहते हैं । अपने जाने हुए असत् के सोंग के त्याग के वबना असाधन नहीों वमटे गा, यह भी हम
सब ल ग जानते हैं । वफर भी साधक-समाज में यह सवथ -सामान्य प्रश्न (Common Question) उपस्तस्र्त

रहता है वक दे ह का अवभमान कैसे छ ड़े ? सुख की ल लुपता कैसे त ड़े ? काम, ि ध, ल भ, म ह से


रवहत कैसे ह ों ? विु -व्यस्तक्त आवद का आश्रय कैसे छ ड़ें ? प्रभु में अववचल आस्र्ा कैसे करें ? कैसी

ववडम्बना है ! हम यह सब कर सकते हैं , वफर भी न मालूम क् ों कवठन बताते हैं । बहुत समय लग जाता
है , समस्या हल नहीों ह ती।

ऐसे कवठन समय में दु ुःख का प्रभाव' आपकी सहायता करता है । ववचार के द्वारा वजस

सुख का राग नहीों वमटता, वह दु ुःख के प्रभाव से सहज ही वमट जाता है । दु ुःख का प्रभाव वजस पर ह
जाता है , उसकी जन्म-जन्मान्तर की जड़ता पल भर में टू ट जाती है , प्रमाद वमट जाता है , चेतना जग

जाती है । सही अर्थ में सत्सोंग ह जाता है । एक और बड़ी ववशेषता यह ह ती है वक दु ुःखी क अपने
गुण ों का अवभमान नहीों ह ता, अर्ाथ त् उसे यह भास नहीों ह ता वक मैंने त्याग वकया है । "मैं त्यागी हँ -यह

साधन पर् की एक बहुत बड़ी बाधा है । दु :ख का प्रभाव इस बाधा क सहज ही वमटा दे ता है । दु ुःख का
प्रभाव साधक क वकस प्रकार वािववक जीवन से अवभन्न करता है , इसकी ववशद् व्याख्या आपक

प्रिुत पुिक में वववभन्न खण्ड ों में वववभन्न प्रकार से वमलेगी और आप दु :ख की मवहमा से अवभभूत ह
उठे गे।

इस प्रकार दु ुःख के महत्व से पररवचत ह जाने के बाद आप नहीों कह पायेंगे वक दु :ख बुरा


है । अब ववचार करें वक दु ुःख क्ा है ? केवल दु :ख वकसी व्यस्तक्त क कभी नहीों वमला। सुख एवों दु :ख

वमवश्रत पररस्तस्र्वतयाँ बनती हैं । प्रिुत पुिक में सुख और दु ुःख के सम्बन्ध पर प्रकाश डालते हुए जीवन
के इन अववस्तच्छन्न पहलुओों का वैज्ञावनक वववेचन वकया गया है । यह वदखलाया गया है वक

(क) सुख-काल में ज सुख के चले जाने की ववस्मृवत ह ती है , उसी से दु :ख आता है ।

(ख) मोंगलमय ववधान से दु :ख बार-बार इसवलए आता है वक सुख का प्रल भन वमटे , रस की

अवभव्यस्तक्त ह , ज मानवमात्र की मौवलक माँ ग है ।

(ग) जब हम अपनी मौवलक माँ ग क भूलकर सुख में वलप्त ह जाते हैं , तब हमें सजग करने के

वलए दु ुःख आता है ।

(घ) सुख के स्वरूप का ब ध कराने के वलए दु ुःख आता है । सुख की वािववकता का ब ध ह ने


पर मौवलक माँ ग की पूवतथ की लालसा तीव्र ह ती है । तब हमें जीवन वमलता है । अत: आया
हुआ दु ुःख प्रकृवत का दण्ड-ववधान नहीों है , अवपतु ऐसा अनुपम उपहार है वक वजसक पाकर

ही व्यस्तक्त कृतार्थ ह ता है ।

(ङ) ज अनन्त सभी का परम सुहृद है , उसी के ववधान से दु ुःख आता है । अनन्त का ववधान
मोंगलमय है । उसमें ि ध अर्वा प्रवतश ध नहीों है । तब भला, दु ुःख उसका बनाया हुआ दण्ड-

ववधान कैसे ह सकता है ? दु ुःख का वववेचन करते हुए पुिक के प्रणेता ने यहाँ तक कह
वदया है वक सुख-ल लुपता में फोंसकर जब हम अपने लक्ष्य क भूल जाते हैं , त स्वयों

दु ुःखहारी प्रभु ही दु ुःख के वेश में दशथन दे ते हैं और हमें सचेत बनाकर सदा के वलए दु ुःख-
रवहत कर दे ते हैं । इस दृवि से दु ुःख और दु ुःखहारी प्रभु एक हैं । इतना गहरा अर्थ है हमारे

जीवन में आए हुए दु ुःख का।

दु ुःख अनेक प्रकार से हमारे जीवन में आता है । एक प्रकार का दु ुःख अपनी की हुई भूल
से उत्पन्न ह ता है । इस दु ुःख से दु ुःखी अधीर ह जाता है । उसके स्वावभमान क गहरी ठे स लगती है ।

समाज की ओर से भी वतरस्कार पाता है । अपनी दृवि में भी आदर के य ग्य न रहने की असह्य व्यर्ा
पाता है । ऐसा दु ुःखी भी यवद आए हुए दु ुःख के अर्थ क अपनाकर की हुई भूल क न द हराने का दृढ़-

सोंकल्प कर लेता है , त उसकी वतथमान वनदोषता सुरवक्षत ह जाती है । की हुई भूल के गहरे पश्चाताप
की जलन दु ुःखी के भीतर से सुख की रुवच क भस्म कर दे ती है । सब ओर से वतरस्कृ त दु ुःखी सहज

ही काम-रवहत ह कर वचर-ववश्राम पाता है , ज सब प्रकार के ववकास की भूवम है ।

दू सरे प्रकार का दु ुःख पररस्तस्र्वतजन्य ह ता है । इसमें दु ुःखी की भू ल हे तु नहीों ह ती। इस

तरह के प्राकृवतक दु :ख से दु ुःखी व्यस्तक्तय ों के प्रवत ववश्व की ओर से करुणा की धारा बहती है । उनक
आवश्यक आदर, प्यार तर्ा सहय ग भी वमलता है । उनका स्वावभमान भी सुरवक्षत रहता है । ऐसे दु ुःखी

व्यस्तक्त यवद वमले हुए आदर, प्यार एवों सहय ग क अपनी खुराक बना लेते हैं , त उनका दु ुःख वनजीव ह
जाता है । इसके ववपरीत यवद वे प्राकृवतक घटनाचि क दे खकर उसके स्वरूप पर ववचार करते हैं , त

दु ुःख सजीव रहता है और वे सहज ही दु :ख के प्रभाव क अपनाकर वदव्य वचन्मय जीवन से अवभन्न ह
जाते हैं , ज मानव-मात्र का परम लक्ष्य है ।

तीसरे प्रकार का दु ुःख ववचारजन्य ह ता है । ववचारशील व्यस्तक्त सोंय ग में ववय ग, जीवन में

मृत्यु एवों सुख में दु ुःख का दशथन कर वािववक जीवन से अवभन्न ह ने के वलए व्याकुल ह उठता है । यह
व्याकुलता, कामना-वनवृवर्त्, वजज्ञासा-पूवतथ एवों प्रेम-प्रास्तप्त में हे तु ह ती है ।

अत: दु ुःख चाहे जैसा ह , उसका प्रभाव व्यस्तक्त के वलए परम कल्याणकारी है । दु ुःख
स्वरूप से न्यूनावधक भी नहीों है । दु ुःख वािव में दु :ख ही है । अवधक दु ुःख ह ने से प्रभाव ह गा, कम
दु ुःख ह ने से प्रभाव नहीों ह गा-ऐसा वनयम नहीों है । दु ुःख का प्रभाव सावधान व्यस्तक्तय ों पर ह ता ही है ।

एक बार दु ुःख का प्रभाव ह जाता है , त दु ुःख सदा के वलए वमट जाता है ।

सुख-भ ग की रुवच ही दु ुःख का मूल है । परन्तु कैसी आश्चयथ की बात है वक मूल (सुख -
भ ग) क हम ल ग अपना सब कुछ दे कर सुरवक्षत रखना चाहते हैं , पर उसका ज फल (दु ुःख) है , उसे

नहीों चाहते। यह सवथर्ा असम्भव है । यही कारण है वक सुख क बनाए रखने में आज तक क ई सफल
नहीों हुआ, क् वों क सुख विुतुः दु :ख-रूप ही है या य ों कहें वक सुख है ही नहीों। हम व्यर्थ ही उसकी

दासता स्वीकार कर अपने क दु :ख के प्रभाव से वोंवचत कर लेते हैं ।

ववचार कररए-कामना-पूवतथ में सुख का भास और कामना-अपूवतथ में दु ुःख की प्रतीवत ह ती


है । कामना उत्पवत से सोंक्ष भ उत्पन्न ह ता है । हम तनाव (Tension) अनुभव करते हैं । कामना-पूवतथ के

वलए वियाशील ह उठते हैं । कभी-कभी कामना पूरी ह जाती है , पर सार् ही भ गने की शस्तक्त का हास
एवों भ ग्य विु का ववनाश आरम्भ ह जाता है । भ गे हुए सुख के कारण नवीन कामनाओों की उत्पवर्त् ह

जाती है ।

कामना-उत्पवर्त् के आरम्भ एवों अन्त में दु ुःख है । बीच में कुछ क्षण के वलए सुख का भास

ह ता है , ज दु :ख की अपेक्षा अवत अल्प है । इसमें गहरे रहस्य की बात यह है वक कामना-पूवतथ के िम


में बीच में क्षण भर के वलए सुख का भास ह ता है । वह भी कामना-पूवतथ का सुख नहीों है । हम प्रमादवश

उस सुखाभास क कामना-पूवतथजवनत मान लेते हैं । फलस्वरूप नवीन कामनाओों के वशकार ह ते हैं ।
सुख विुतुः कामना-पूवतथ में है ही नहीों। कुछ क्षण के वलए ज सुख का भास ह ता है , वह कामना-

उत्पवत के तनाव (Tension) के ढीले (Released) ह ने का सुख है । विु त: वह क्षण वनष्कामता का


ह ता है , वजस समय वक क ई कामना हमें उद्वे वलत करती हुई नहीों ह ती। कैसी अद् भुत बात है !

मानव कामना से प्रेररत ह कर भीतरी एवों बाहरी द्वन्द्द्व का वशकार इसवलए ह ता रहता है

वक वह सुख क कामना-पू वतथ का ही पररणाम मानता रहता है । यही कारण है वक राि् ों के नववनमाथ ण
की वजतनी बड़ी-बड़ी य जनाएँ आज चल रही हैं , सबमें मुख्य उद्दे श्य यह रखा गया है वक जन-समूह

की इच्छापूवतथ की सामग्री सुगमता से उपलि कराई जाय। परन्तु वजतनी ही सामग्री बढ़ती जाती है ,
उतनी ही जरूरतें भी बढ़ रही हैं । समस्या हल नहीों ह रही है । मेरा त ऐसा ववश्वास है वक आज का

ववचारशील व्यस्तक्त इस रहस्य क जान ले , त वह बहुत ईमानदारी से सहज ही कामनाओों का त्याग कर


सकता है ।

मन ववज्ञानवेर्त्ा इस रहस्य से अनजान हैं । यवद वे इस रहस्य क समझ लें , त वफर


उनकी एक बहुत बड़ी समस्या सुलझ जाय वक मानवसक ग्रस्तिय ों (Mental Complexes) क समूल
कैसे जाय ? मानवसक र ग ों की वजतनी भी वचवकत्सा-पिवतयाँ वनकली हैं , उनमें-से क ई भी र ग क

समूल वमटा दे ती ह -ऐसा अब तक प्रमावणत नहीों हुआ है । कामना-पूवतथ में सु खाभास मानने की भूल
जब तक मनुष्य के जीवन में रहे गी, तब तक उसका मस्तिष्क, मस्तिष्क की गुस्तिय ों से मुक्त

(Complex free) ह ही नहीों सकता। कामना-पूवतथ में सुख नहीों है , कामना-वनवृवत में ववश्राम है । यह
भेद समझ लेने पर सभी सहज ही वनष्कामताजवनत ववश्राम पाकर । कृतकृत्य ह सकते हैं । ऐसा

अद् भुत है सुख-दु :ख का यह वववेचन।

गवेषणापूवथक ववचार करने पर स्पि वववदत ह ता वक कामना-पूवतथ में सुख की प्रतीवत


मृग-मरीवचका के तुल्य है । दु ुःख के प्रभाव से यह भ्रम वमट जाता है । अत: दु ुःख बड़ा ही महत्वपूणथ है ।

अब आप स चेंगे वक ज दु ुःख इतना महत्वपूणथ एवों कल्याणकारी है और ज हम सबक

वबना माँ गे वमलता भी है , उसका प्रभाव हम सब पर क् ों नहीों ह ता ?

हम ऐसा त नहीों कह सकते वक दु ुःख का प्रभाव व्यस्तक्तय ों पर हुआ नहीों और ह ता नहीों

है । हमारे सम्मुख अनेक ऐसे उदाहरण हैं , वजनमें हम पायेंगे वक दु :ख के प्रभाव ने व्यस्तक्त क बहुत
ऊँचा उठाया है । यवद मैं ऐसा कहँ वक दु ुःख के प्रभाव के वबना आज तक वकसी का ववकास हुआ ही

नहीों, त इसमें क ई अत्युस्तक्त नहीों ह गी।

वकसी भी महान् पुरुष के चररत्र क दे खा जाय, त उसके ववकास के मूल में दु ुःख का
प्रभाव उपस्तस्र्त है । ववचारणीय प्रश्न केवल यह वक वजस दु ुःख के प्रभाव से वे महापुरुष प्रभाववत हुए,

वही दु :ख हमारे आगे आकर क् ों व्यर्थ गया ? इस प्रश्न का भी बहुत ही वैज्ञावनक समाधान आपक
प्रिुत पु िक में वमलेगा। दु :ख के प्रभाव में बाधा क्ा है ? कौन व्यस्तक्त दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह ता

है ? इस सम्बन्ध में यह कहा गया है वक दु :ख का प्रभाव उन्ीों सावधान प्रावणय ों पर ह ता है

(१) ज जीवन में हार स्वीकार नहीों करते ,

(२) ज लक्ष्य से वनराश नहीों ह ते ,

(३) ज ववकास में अववचल आस्र्ा रखते हैं ,

(४) ज पररस्तस्र्वतय ों के आधार पर अपना मूल्याों कन नहीों करते ;

(५) ज दु ुःखद घटनाओों के अर्थ पर दृवि रखते हैं और उनका अध्ययन करते हैं ,

(६) वजनसे दु ुःख वकसी भी प्रकार सहन नहीों ह ता। लक्ष्य की ववस्मृवत ह जाय, त दु ुःख का प्रभाव नहीों
ह ता। सुख-भ ग जीवन है , इस प्रमाद से लक्ष्य की ववस्मृवत ह ती है । सुख की वािववकता और दु ुःख
का महत्व जान लेने पर लक्ष्य की स्मृवत आती है , तब दु ुःख का प्रभाव ह ता है ।
ज सजग पुरुष दु ुःख की मवहमा क जानते हैं , वे अपना सुख दे कर दू सर ों का दु ुःख

अपनाते हैं । पर-पीड़ा से पीवड़त ह ने पर जीवन में अनन्त ऐश्वयथ एवों माधुयथ का प्रादु भाथ व ह ता है । ऐश्वयथ
त इतना वक उस व्यस्तक्त क वकसी की आवश्यकता नहीों रह जाती और माधुयथ इतना वक सारा ववश्व

उसका अपना ह जाता है । सबकी व्यर्ा उसकी अपनी व्यर्ा ह ती है । करुणा और उदारता से वह
पररपूणथ ह ता है । आवश्यकता केवल दु ुःख क अपनाने की है । दु ुःख चाहे अपना ह अर्वा पराया,

उसके प्रभाव से प्रभाववत ह ते ही जागृवत आती है , प्रमाद वमटता है , वववेक का आदर करने की सामर्थर्थ
आती है और दु ुःख-वनवृवर्त्, वचर ववश्राम, पूणथ स्वाधीनता एवों परम प्रेम से अवभन्नता ह ती है , ज मानव

मात्र का परम लक्ष्य है । अत: दु ुःख के प्रभाव की मवहमा अपरम्पार है । मेरे वलए त यह रत्न-वचन्तामवण
वसि हुआ है ।

पुिक ह ती है वकसी ववषय की वविृत व्याख्या और भूवमका ह ती है उसका सोंवक्षप्त

पररचय अर्वा साराों श एवों लेखक की दृवि से पु िक के गुण-द ष का उल्लेख। मैंने ज भूवमका आपके
सामने प्रिुत की है वह केवल इस दृवि से वक पुिक समझने में सु गमता ह । “दु ुःख का प्रभाव” मूल

पुिक दाशथवनक, मन वैज्ञावनक एवों वैज्ञावनक सूत्र ों में वलखी गई है । प्रत्येक खण्ड और कहीों-कहीों पर
प्रत्येक वाक् ऐसे सारगवभथत हैं वक उनका साराों श वलखने के बदले उनकी व्याख्या करने की

आवश्यकता पड़ गई है । सार् ही यह सोंक च भी है वक भूवमका बहुत बड़ी न ह जाय। द न ों उद्दे श्य ों का
वनवाथ ह करते हुए मैंने मूल पुिक में प्रवतपावदत नवीन, िास्तन्तकारी दृविक ण क उपस्तस्र्त करने की

चेिा की है ।

पुिक के गुण-द ष का वववेचन मैं क्ा कर सकती हँ ! एक ही बात अनेक पहलुओों से

स ची गई है । हमारे जीवन के ही इतने वचत्र इसमें वचवत्रत हैं , इतने भाव हैं और उन पर इतने ववचार हैं
वक सबक मैं एक बार में ‘ग्रास्प' ही नहीों कर सकी, सब मेरी पकड़ में नहीों आये। उनका समुवचत

मूल्याों कन त कर ही क्ा सकती हँ !

हाँ , इतना कह सकती हँ वक प्रिुत पुिक में प्रवतपावदत दृवि के द्रिा ने दु ुःख क अपने
जीवन में ऐसा ही पाया है । बाल्यकाल में ही दु ुःख ववकट रूप में आया, अरमान ों क गहरी ठे स लगी

और जीवन की ख ज आरम्भ ह गई। उस दु ुःख ने उन्ें वहाँ पहुँ चा वदया, जहाँ दु :ख का लेश नहीों है ,
वचर-ववश्राम है , पूणथ स्वाधीनता है और वनत-नव प्रेम का रस लबालब भरा है । इसवलए “दु ुःख के प्रभाव”

में ज कुछ कहा गया है , वह अनुभूत सत्य है , अवतशय स्तक्त अर्वा अनुमान नहीों है । इसवलए मुझे
अवतशय वप्रय है ।

मानव सेवा सोंध, माध मेला कैम्प, प्रयाग


१६-१-६१

ववनीता :

दे वकी
दु ख का प्रभाव:

प्राकृवतक वनयमानुसार ज न चाहने पर भी प्रत्येक प्राणी के जीवन में आ ही जाता है , वही


दु :ख है और ज चाहते हुए भी नहीों रहता, वही सुख है । ऐसे दु ुःख-सुख क बलपूवथक र कना अर्वा
बनाये रखना वकसी भी प्राणी के वलए सम्भव नहीों है । वजसका र कना सम्भव नहीों है , उसका आदर

पूवथक स्वागत करना अवनवायथ है और वजसके सुरवक्षत रखने में सभी असमर्थ हैं , उसमें जीवन-बुस्ति
स्वीकार करना प्रमाद के अवतररक्त और कुछ नहीों है । यह वनयम है वक वजसे बलपूवथक नहीों र क पाते ,

उसके आने पर भयभीत ह ना और ज न चाहते हुए भी चला जाता है , उसकी दासता का अोंवकत ह ना-
साधारण प्रावणय ों के वलए स्वाभाववक-सा है , यद्यवप वािववक माँ ग की ख ज करने पर स्पि वववदत

ह ता है वक भय तर्ा दासता से युक्त जीवन वकसी क भी अभीि नहीों है ।

इस दृवि से मानव-जीवन की मौवलक माँ ग सब प्रकार के भय तर्ा दासता से मुक्त ह ना


है । मोंगलमय ववधान के अनुसार माँ ग की पूवतथ प्रत्येक पररस्तस्र्वत में सम्भव है । कामना-पूवतथ कामना के

अनुरूप पररस्तस्र्वत में ही सम्भव है , परन्तु माँ ग की पूवतथ प्रत्येक पररस्तस्र्वत में ह ती है । अतएव
पररस्तस्र्वत-भेद ह ने पर माँ ग की पूवतथ से वनराश ह ना अर्वा वकसी पररस्तस्र्वत ववशेष का आह्वान करना

असावधानी तर्ा भूल से वभन्न और कुछ नहीों है ।

भयभीत ह ने पर प्राप्त सामर्थर्थ , य ग्यता तर्ा विु का सद्व्यय नहीों ह पाता और प्राकृवतक

वनयमानुसार भयभीत ह ने से आवश्यक ववकास भी नहीों ह ता, कारण, वक भय से शस्तक्त क्षीण ह ती है


और असावधानी और प्रमाद प वषत ह ते हैं , ज ववनाश का मूल है । भय का सवाां श में नाश करने के
वलए अपने -आप आये हुए दु ुःख का प्रभाव आवश्यक है , उसका भ ग नहीों। दु ुःख का भ ग गये हुए सुख
की दासता तर्ा ल लुपता एवों उसकी आशा में आबि करता है । वजसे वकसी भी प्रकार न रख सकें ,

उसकी दासता, ल लुपता एवों आशा करना वकसी के वलए भी वहतकर नहीों है । इस दृवि से दु ुःख के भय
तर्ा सुख की दासता का मानव-जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है ।

सुख की दासता के रहते हुए दु ुःख का भय वकसी भी प्रकार वमट नहीों सकता। इस कारण

सुख की दासता का अन्त करना अवनवायथ है । सुख की दासता आये हुए सुख क सुरवक्षत नहीों रख
पाती, वफर भी सुख का भ गी उसका त्याग नहीों करता। यह कैसी ववडम्बना है ! सुख की दासता ही

दु ुःख का भ ग कराती है , दु ुःख का प्रभाव नहीों ह ने दे ती। दु ुःख का प्रभाव सुख-काल में भी सुख की
दासता से मुक्त कर दे ता है । इस दृवि से आये हुए दु ुःख का प्रभाव ववकास का मूल है । पर यह रहस्य वे
ही जान पाते हैं , वजन् न
ों े सुख-दु ुःख की वािववकता क भलीभाँ वत वनज-वववेक के प्रकाश में अनुभव

वकया है ।

विुत: दु ुःख का भय ही दु ुःखी क दु ुःख के भ ग में प्रवृर्त् करता है , उसका प्रभाव नहीों
ह ने दे ता। वजस अनुकूलता के जाने का दु ुःख है , क्ा वह अनुकूलता वकसी भी प्रयास से सुरवक्षत रह

सकती है ? कदावप नहीों। वजस प्रवतकूलता से प्राणी भयभीत है , क्ा वह सदै व रहे गी ? कदावप नहीों।
प्रवतकूलता, अनु कूलता की दासता का अन्त करने के वलए आती है । उससे भयभीत ह ना भूल है ।

अनुकूलता करुवणत बनाने के वलए आती है । उसका भ ग करना प्रमाद है । इस दृवि से अनुकूलता तर्ा
प्रवतकूलता सदै व नहीों रहें गी। इन द न ों का सदु पय ग अवनवायथ है । इनमें जीवन-बुस्ति स्वीकार करना

असावधानी है । असावधानी के समान और क ई बात अवहतकर नहीों है । असावधानी का मानव-जीवन


में क ई स्र्ान ही नहीों है । इस कारण वतथमान में ही सजगतापूवथक असावधानी का अन्त करना अवनवायथ

है । वनज-वववेक के अनादर से ही असावधानी उत्पन्न ह ती है । असावधानी वकसी और की दे न नहीों है


और न वकसी कमथ-ववशेष का ही फल है , अवपतु उत्पन्न हुई असावधानी वनज-वववेक का आदर करने

पर स्वत: नि ह जाती है । दु ुःख का प्रभाव वनज-वववेक के आदर में हे तु है और दु ुःख का भ ग अवववेक


क प वषत करता है ।

दु ुःख का प्रभाव सुख-ल लुपता का अन्त कर मानव क सुख की आशा से मुक्त कर दे ता

है । सुख की आशा से रवहत ह ते ही सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन की तीव्र वजज्ञासा तर्ा उत्कट

लालसा जाग्रत ह ती है , ज ववकास का मूल है ।

सुख के न रहने अर्वा उसके चले जाने की सम्भावना से दु ुःख की प्रतीवत ह ती है । दु ुःख
की प्रतीवत ह ने पर यवद असावधानी से सुख की आशा उत्पन्न ह गई, त दु ुःख का भ ग ह गा, प्रभाव

नहीों। यवद आये हुए दु ुःख ने सुख की आशा क उत्पन्न नहीों ह ने वदया, अवपतु प्राप्त सुख में भी दु ुःख का
दशथन करा वदया, त यह दु ुःख का प्रभाव है । सुख में दु ुःख का दशथन ह ते ही सुख के भ ग की रुवच का

नाश ह ता है , वजसके ह ते ही सुख-ल लुपता तर्ा सुख की आशा शेष नहीों रहती और वफर स्वत: दु ुःख
का प्रभाव, दु ुःख का अन्त कर वािववक जीवन से साधक क अवभन्न कर दे ता है । दु ुःख का भ ग दु ुःखी

क न त सुखी कर पाता है और न दु ुःख का ही अन्त ह ता है , अवपतु बेचारा दु ुःख का भ गी सुख की


आशा में ही आबि रहता है । इस दृवि से दु ुःख का भ ग दु ुःखी का अवहत ही करता है । दु ुःख के प्रभाव

तर्ा उसके भ ग का अन्तर स्पि ह जाने पर प्रत्येक दु ुःखी दु ुःख के प्रभाव क अपनाकर कृतकृत्य ह
सकता है । दु ुःख का भ ग जड़ता और दु ुःख का प्रभाव चेतना प्रदान करता है । सुख के भ गी क दु ुःख
वववश ह कर भ गना ही पड़ता है । सुख-भ ग की रुवच बनाये रखने पर दु ुःख का भ ग ह ता ही रहता है ।

इस कारण सुख-भ ग की रुवच का नाश अवनवायथ है , ज दु ुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार सवाां श में क ई भी पररस्तस्र्वत सुखमय तर्ा दु ुःखमय नहीों ह ती,
अर्ाथ त् उत्पन्न हुई प्रत्येक पररस्तस्र्वत आों वशक सुख तर्ा दु ुःख से युक्त है । आों वशक दु :ख जब आों वशक

सुख के प्रल भन क सुख-काल में ही नि कर दे ता है , तब उसे दु ुःख का प्रभाव समझना चावहए। दु ुःख
के रहते हुए और यह जानते हुए वक आया हुआ आों वशक सुख वकसी भी प्रकार नहीों रहे गा, सुख-भ ग

की रुवच तर्ा उसकी आशा रखना दु :ख का भ ग है । सुख-काल में भी सुख-भ ग का त्याग पुरुषार्थ से
साध्य है । वकन्तु दु :ख के प्रभाव के वबना सवाां श में दु ुःख का नाश वकसी भी प्रकार साध्य नहीों है ।

दु ुःख में सुख की आशा दु ुःख का भ ग है । सुख में दु ुःख का दशथन दु :ख का प्रभाव है ।

भूख से पीवड़त प्राणी भ जन की आशा में सुख का अनु भव करने लगता है । यद्यवप सुख स्वरूप से नहीों
ह ता, तर्ावप सुख-भ ग की स्मृवत उसे दु ुःख-काल में भी सुख का भास कराती है । उसी प्रकार सुख का

भ ग करते हुए सुख के न रहने की अनुभूवत, सुख में ही दु :ख का दशथन कराती है , वजस प्रकार सोंय ग-
काल में ही ववय ग का भय ह ने लगता है । दु :ख का प्रभाव सजगता और दु :ख का भ ग जड़ता प्रदान

करता है । सजगता असावधानी क नि करती है , क् वों क वह वचन्मय जीवन की ओर अग्रसर करती है ।


जड़ता वचन्मय जीवन से ववमुख कर, मानव क सुख के प्रल भन, दासता और आशा में आबि करती

है । जड़ता से चेतना की ओर अग्रसर ह ने के वलए दु ुःख के भ ग का अन्त कर, उसके प्रभाव क

अपनाना अवनवायथ है ।

अपने आप जाने वाला ज सुख है , उसके न रहने का अनुभव यवद सुख-काल में ही कर
वलया जाय, त बहुत ही सु गमता-पूवथक सुख के भ ग का नाश और दु :ख के प्रभाव की अवभव्यस्तक्त ह

सकती है । सुख-काल में सु ख के जाने की ववस्मृवत ने ही दु ुःख का आहान वकया है । इस कारण सुख का
भ ग करते हुए क ई भी प्राणी वकसी भी प्रकार से दु :ख से बच ही नहीों सकता, यह वनववथवाद सत्य है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार क ई भी प्रतीवत तर्ा भास स्वरूप से स्तस्र्र नहीों है । उसकी उत्पवत तर्ा ववनाश
का ज िम है , उससे ही स्तस्र्रता का भास ह ता है । वकन्तु सुख के आवद और अन्त में दु :ख स्वभाव से

उस समय तक रहता ही है , जब तक सुख में अर्वा उसके भ ग में आस्र्ा है । आस्र्ा प्राणी क उसके
अस्तित्व का भास कराती है , वजसमें वह आस्र्ा करता है ।

जब तक सुख में आस्र्ा रहे गी, तब तक सुख का अस्तित्व प्रतीत ह गा। यद्यवप प्राकृवतक
वनयमानुसार उत्पन्न हुई प्रत्येक प्रतीवत वनरन्तर पररवतथनशील है , तर्ावप सुखासस्तक्त सतत पररवतथन में
भी स्तस्र्रता का भास कराती है । सुख की स्तस्र्रता का भास सुख में जीवन-बुस्ति उत्पन्न करता है , वजसके

उत्पन्न ह ते ही सुख का महत्व बढ़ जाता है और वफर बेचारा प्राणी वववश ह कर अपने आप जाने वाले
सुख के पीछे दौड़ने लगता है , यद्यवप उसे पकड़ नहीों पाता। परन्तु अल्पकाल की समीपता की अनुभूवत,

न रहने वाले सुख से वनराश नहीों ह ने दे ती। सुख की आशा सुख से भी अवधक मधुर प्रतीत ह ती है ।
उस मधुररमा में आबि प्राणी सुख-भ ग के वलए बड़े -बड़े दु ुःख ों क सहन कर सकता है । उस पर भी

सुख का भ ग तर्ा उसकी आशा पररणाम में दु :ख ही प्रदान करती है । इस दृवि से सुख में ही दु ुःख
ववद्यमान है और दु ुःख से ही सुख का भास ह ता है । सु ख और दु ुःख, द न ों की वािववकता के ब ध में

सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय का नाश है ।

रस जीवन की माँ ग है और सुख तर्ा दु :ख भ ग हैं । भ ग का पररणाम र ग तर्ा श क है ,


ज वकसी भी प्राणी क अभीि नहीों है । सुख सों कल्प-पूवतथ की एक दशा मात्र है और कुछ नहीों। सोंकल्प

शुि ह अर्वा अशुि, लघु ह अर्वा महान् वकन्तु सोंकल्प-पूवतथ का सुख समान ही है । इसी कारण
शुभाशुभ प्रवृवर्त्याँ सुख के भ गी में जीववत रहती हैं । यवद सोंकल्प-पूवतथ के अवतररक्त सुख का क ई और

अस्तित्व ह ता, त शुभाशु भ प्रवृवर्त्य ों का ववभाजन स्वत: ह जाता। इतना ही नहीों, उत्पन्न हुई अशुभ
प्रवृवर्त्याँ नि ह जातीों और पुनुः उत्पन्न न ह तीों। जीवन में केवल शुभ प्रवृवर्त्याँ रह जातीों। परन्तु बेचारा

सुख का भ गी सवाां श में न अशुभ प्रवृवर्त्य ों का नाश ही कर पाता है और न शुभ प्रवृवर्त्य ों की दासता से
ही मुक्त ह पाता है । प्रवृवर्त् रहते हुए रस के साम्राज्य में प्रवेश ही नहीों ह ता। इस दृवि से सुख और रस

में बड़ा भेद है । इतना ही नहीों, रस की अनेक श्रेवणयाँ हैं । परन्तु सुख में क ई श्रेणी नहीों है ।

पररस्तस्र्वत-भेद से बेचारा प्राणी केवल अनुमान करता है वक अमुक व्यस्तक्त ववशेष सुखी

है । ववशेषता और न्यूनता पररस्तस्र्वतय ों के बाह्य स्वरूप में है । सुख का भास वािव में पररस्तस्र्वत-जन्य
नहीों है , केवल सोंकल्प-पूवतथ जन्य है । सभी सोंकल्प ों की पूवतथ वकसी भी प्रकार वकसी भी पररस्तस्र्वत में

सम्भव नहीों है । त वफर सु ख के अस्तित्व क स्वीकार करना कहाँ तक युस्तक्तयु क्त है ? अस्तित्वहीन
आभास मात्र सुख के पीछे दौड़ना रस से ववमुख ह ने के अवतररक्त और कुछ नहीों है । न चाहने पर भी

बार-बार दु ुःख का प्रादु भाथ व मोंगलमय ववधान से सुख की दासता का नाश करने के वलए ही मानव के
जीवन में ह ता है । पर बेचारा प्राणी प्रमादवश आये हुए दु :ख से भयभीत और जाने वाले सुख की दासता

में आबि ह कर वनत-नव रस से , ज जीवन की वािववक माँ ग है , वोंवचत रह जाता है ; यद्यवप रस की


माँ ग नि नहीों ह ती, दब जाती है और वफर नीरसता मानव क सुख का वभखारी बना दे ती है । नीरसता

का अन्त वतथ मान में सम्भव है ; वकन्तु सुख का सम्पादन भववष्य की आशा पर ही वनभथर रहता है । भववष्य
की आशा वतथ मान की वािववक व्यर्ा क वशवर्ल बनाती है ।
व्यर्ा की वशवर्लता में सजगता नहीों रहती। उसके वबना सुख और रस का भेद स्पि नहीों

ह ता। उसके वबना हुए न त रस की माँ ग ही सवाां श में जाग्रत ह ती है और न सुख की आशा का ही
अन्त ह ता है । सुख के सम्पादन के वलए श्रम, सोंग्रह, पराधीनता एवों जड़ता आवद द ष अपेवक्षत हैं , वकन्तु

अगाध, अनन्त, वनत-नव रस के प्रादु भाथ व के वलए केवल ववश्राम, स्वाधीनता तर्ा प्रेम की जागृवत
अपेवक्षत है । दु :ख का प्रभाव अत्यन्त सुगमतापूवथक मानव क ववश्राम, स्वाधीनता तर्ा प्रेम का अवधकारी

बना दे ता है । पर यह रहस्य वे ही जान पाते हैं , वजन् न


ों े आये हुए दु :ख का आदरपू वथक स्वागत वकया है
और गये हुए सुख क धीरजपूवथक ववदाई दी है । द ष-जवनत सुख द ष ों क बनाये रखने पर भी सुरवक्षत

नहीों रहता, अर्ाथ त् क ई भी प्राणी सदै व द षी ह कर भी सुख का भ ग नहीों कर सकता है । आया हुआ
सुख चला जाता है और उसका भ गी बेचारा द षी बनकर ही रह जाता है । यद्यवप अपने क सदा के

वलए सवाां श में द षी बनाये रखना वकसी क भी अभीि नहीों है , तर्ावप सुख की दासता से वह अपने में
अपराधी-भाव स्वीकार कर, वनदोषता से वनराश ह जाता है । इस कारण सुख-भ ग का साधक के जीवन

में क ई स्र्ान ही नहीों है । सु ख का आना और जाना तभी उपय गी तर्ा वहतकर वसि ह ते हैं , जब मानव
सुख का भ गी न ह कर, उसकी वािववकता का अनुभव कर, आये हुए सुख द्वारा सेवा-परायण ह

जाय। सेवा-सामग्री का भ गी ह जाना, मानवता से पशु ता की ओर अग्रसर ह ना है ।

दु :ख का प्रभाव पशुता का अन्त कर स ई हुई मानवता जगाने में समर्थ है । यह तभी


सम्भव ह गा, जब मानव यह स्वीकार करे वक आया हुआ सुख अपने वलए नहीों है , अवपतु दु स्तखय ों की

धर हर है । सुख-दु ुःख-युक्त पररस्तस्र्वत में से जब सुखाों श सेवा में व्यय ह जाता है , तब मोंगलमय ववधान
से केवल दु :ख दु ुःखी क उस जीवन से अवभन्न कर दे ता है , ज सुख-दु :ख से अतीत वदव्य और वचन्मय

है , वजसमें जड़ता, पराधीनता तर्ा अभाव की गन्ध भी नहीों है और ज अकर्त्थव्य, असाधन एवों
आसस्तक्तय ों से रवहत है ।

कामना-पूवतथ और अपूवतथ की पररस्तस्र्वतय ों से तादात्म्य स्वीकार करना अपने क सु ख की


दासता तर्ा दु :ख के भय में आबि करना है । इस कारण कामना-पूवतथ -अपूवतथ में जीवन-बुस्ति स्वीकार

करना प्रमाद ही है । प्रमाद के रहते हुए न त सुख की दासता का नाश ह ता है और न दु :ख के भय का


ही अन्त ह ता है । दु ुःख का भय दु ुःख से भी अवधक दु ुःखद है । दु ुःख का भय दु ुःखी के जीवन में

असावधानी उत्पन्न कर दे ता है , ज उसके वलए सवथदा अवहतकर है । इस दृवि से दु ुःख से भयभीत ह ना


भारी भूल है । इस भूल का अन्त करना मानव मात्र के वलए अवनवायथ है ।
दु ुःख आने पर यवद बेचारा दु ुःखी दु ुःख से भयभीत न ह , त सावधानी सुरवक्षत रहती है ,

वजसके रहने से प्रत्येक पररस्तस्र्वत के सदु पय ग की सामर्थर्थ साधक में स्वतुः आ जाती है । पररस्तस्र्वतय ों
का सदु पय ग उनसे असों गता प्रदान करने में समर्थ है । असों गता ववषमता का अन्त कर, समता से

अवभन्न करने में हे तु है । समता के साम्राज्य में दीनता तर्ा अवभमान की गन्ध भी नहीों है । दीनता तर्ा
अवभमान का अन्त ह ते ही पररवचछन्नता स्वत: नाश ह जाती है और वफर सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन

से एकता ह जाती है । इस दृवि से असोंगतापूवथक समता से अवभन्न ह ना अवनवायथ है ।

असोंगता वकसी भी अभ्यास से साध्य नहीों है ; कारण, वक अभ्यास उन विुओों से तादात्म्य


करा दे ता है , वजनसे साधक क असोंग ह ना है । दु ुःख का प्रभाव पररस्तस्र्वतय ों के महत्व का नाश कर

साधक क पररस्तस्र्वतय ों से असोंग ह ने का अवधकारी बना दे ता है । यह अनन्त का मोंगलमय ववधान है ।

प्राप्त विु सामर्थर्थ और य ग्यता के अवभमान का अन्त हुए वबना ववकास सम्भव नहीों है ।
दु ुःख का प्रभाव वनरवभमानता का प्रतीक है और दु ुःख का भ ग दीनता में आबि करता है । दीनता के

नाश के वलए अवभमान का नाश अवनवायथ है । इस दृवि से आये हुए दु ुःख का भ गी नहीों ह ना है , अवपतु
उसके प्रभाव क अपनाना है । यह तभी सम्भव ह गा, जब अपने आप आये हुए सुख-दु ुःख में जीवन-

बुस्ति न रहे । सुख-दु ुःख में जीवन-बुस्ति का अन्त करने के वलए कामना-पूवतथ के प्रल भन का त्याग
आवश्यक है । कामना-पूवतथ का प्रल भन कामना-पूवतथ में हे तु नहीों है ।

इस कारण मानव-जीवन में उसका क ई स्र्ान ही नहीों है । कामना—पूवतथ का प्रल भन


कामना—अपूवतथ से उत्पन्न हुए दु ुःख के भय में आबि करता है । दु :ख के भय से दु :ख वमट नहीों जाता,
अवपतु दु ुःखी क कर्त्थव्य से च्युत कर दे ता है । अतएव शीघ्रावतशीघ्र कामना-पूवतथ के प्रल भन से मुक्त
ह ना अवनवायथ है । सुख-ल लुपता और सुख का प्रल भन एवों सुख की दासता दु ुःख के भय क उत्पन्न

करते हैं । दु :ख का प्रभाव सुख-ल लुपता आवद का नाश करने में समर्थ है । सु ख का भ गी दु ुःख ों से
भयभीत ह ता है और वह दु ुःखी , वजसने सुख की वािववकता का अनुभव वकया है , दु ुःख के प्रभाव से

प्रभाववत ह , दु ुःख का अन्त करने में समर्थ ह ता है ।

सुख की मधुररमा भयोंकर ववष के तुल्य है । इतना ही नहीों, ववष के सेवन से त एक


ही बार प्राणान्त ह ता है , वकन्तु बेचारे सुख के भ गी क त अनेक बार जन्म-मरण की असह्य व्यर्ा

सहनी पड़ती है । अपमान तर्ा पराधीनता त उसे पग-पग पर पीवड़त करती है । वफर भी सुख के
प्रल भन का सवाां श में त्याग न करना, वकतनी भारी भूल तर्ा आश्चयथ की बात है । इस भयोंकर भूल का
अन्त शीघ्रावतशीघ्र, अर्ाथ त् वतथमान में ही करना अवनवायथ है । सुख के प्रल भन मात्र से सुख की उपलस्ति
नहीों ह ती, कारण, वक प्रत्येक पररस्तस्र्वत की प्रास्तप्त ववधान के अधीन है , कामना के नहीों। सुख-भ ग की

रुवच प्रमाद की प्रर्म प्रवतविया है । अतएव प्रमाद के नाश में ही उसका नाश है । दु :ख का प्रभाव
प्रमादी में से सुख-भ ग-जवनत जड़ता का नाश कर दे ता है , वजसके ह ते ही सवाां श में प्रमादी प्रमाद से

मुक्त ह जाता है , ज ववकास का मूल है ।

दु ुःख का भ गी सुखमय पररस्तस्र्वत की उपलस्ति मात्र से अपने में झूठा सन्त ष कर लेता
है , वकन्तु प्राकृवतक वनयमानु सार सुख के भ गी क वववश ह कर भयोंकर दु :ख भ गना ही पड़ता है ।

दु ुःख के भ गी में बीज रूप से सुख की दासता रहती है । इस कारण वह बेचारा सुख की प्रतीवत मात्र से
अपने में झूठा सन्त ष करने का प्रयास करता है और सुख-भ ग-जवनत पराधीनता तर्ा अपमान की

व्यर्ा भूल जाता है । सीवमत बल, य ग्यता एवों गुण ों की महर्त्ा में आबि ह ने के कारण वािववकता की
ववस्मृवत उसे दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत नहीों ह ने दे ती। दु :ख के भ गी में त्याग का बल नहीों रहता।

दु ुःख के प्रभाव में ही त्याग का बल वनवहत है । दु :ख के भ गी में ि ध है , त्याग नहीों। कभी-कभी दु ुःख
का भ गी अपने शरीर तक का नाश कर दे ता है , पर दे हावभमान का त्याग नहीों कर पाता। वप्रय-से -वप्रय

विुओों क ठु करा दे ता है , पर विुओों की सत्यता और ममता से मुक्त नहीों ह ता। इतना ही नहीों, वह
अपने क भयोंकर पररस्तस्र्वतय ों में डाल दे ता है , वकन्तु प्राप्त पररस्तस्र्वत का सदु पय ग नहीों करता।

उदारता, त्याग, क्षमाशीलता आवद वदव्य गुण ों की अवभव्यस्तक्त राग तर्ा ि ध रवहत ह ने में ही है । राग
तर्ा ि ध का अत्यन्त अभाव दु :ख के प्रभाव से जाग्रत ववचार में ही वनवहत है ।

दु ुःख का भ ग प्राणी क शस्तक्तहीन बनाता है और दु ुःख का प्रभाव सामर्थर्थ प्रदान करता


है । दीनता तर्ा अवभमान की अवि बेचारे दु ुःख के भ गी क दग्ध करती रहती है । दु ुःख का प्रभाव

अवभमान का अन्त कर, दु ुःखी क दीनता से मुक्त कर दे ता है । दु ुःख क सहन करना, दु ुःख-भ ग का
सुन्दर रूप है । वकन्तु दु ुःख के कारण की ख ज न करना दु ुःख-भ ग क सु रवक्षत रखना है । सहनशीलता

असह्य वेदना क वशवर्ल बनाती है और असहनशीलता क्षुि करती है । क्षुि ह ने से भी सवाां श में दु ुःख
का प्रभाव नहीों ह ता, अवपतु दु :ख का भ ग ही ह ने लगता है । इस कारण असहनशीलता और

सहनशीलता, द न ों से वभन्न दु ुःख के प्रभाव क अपनाना अवनवायथ है । वह तभी सम्भव ह गा, जब दु ुःख
का भ गी अपने में वछपी हुई सुख की दासता का स्पि दशथन करे ।

सुख की दासता के ज्ञान में ही उसका नाश वनवहत है । सुख की दासता ही दु ुःखी क

दु ुःख-भ ग के वलए जीववत रखती है । उसका नाश ह ते ही दु ुःखी दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह कर
सदा के वलए दु :ख से छूट जाता है । अर्वा य ों कह वक उसका जीवन दु ुःखहारी की प्रीवत ह जाता है ।
दु :ख से छूटते ही दु ुःखी का अस्तित्व जीवन से अवभन्न ह जाता है । दु ुःख-भ ग के आवश्रत ही दु ुःखी में

पररस्तच्छन्नता रहती है , ज अनेक प्रकार की वभन्नता क उत्पन्न करती है । वभन्नता काम की जननी है और
कामना की अपूवतथ से ही दु ुःख का भ ग आरम्भ ह ता है । इस दृवि से वभन्नता का अन्त करने के वलए

पररस्तच्छन्नता का नाश अवनवायथ है । पररस्तच्छन्नता का नाश सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय से रवहत ह ने
में ही है ।

सुख की दासता के रहते हुए दु ुःख का भय नि नहीों ह ता। सुख की वािववकता का ब ध

वबना हुए सुख की दासता नि नहीों ह ती। साधन रूप सुख-भ ग तर्ा उसके पररणाम पर अववचल
आस्र्ा एवों दृवि रखने से ही सुख की वािववकता का स्पि ब ध ह गा, वजसके ह ते ही सुख की दासता

स्वत: गल जायोंगी, ज दु :ख के भय से मुक्त कर दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत करने में समर्थ है । सवाां श में
दु ुःख की वनवृवर्त् दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है । पर यह रहस्य वे ही मानव जान पाते हैं , वजन् न
ों े सुख में

जड़ता, पराधीनता आवद द ष ों का स्पि दशथन वकया है । सुख का भ ग सुखी की चेतना का अपहरण कर
लेता है तर्ा अपने आप आने वाला दु ुःख पुनुः चेतना प्रदान कर, सुख के भ गी क सजग कर दे ता है ।

इस दृवि से दु ुःख बड़े ही महत्व की विु है ; वकन्तु दु ुःख का भ ग तर्ा भय ववकास में बाधक है ।

दु ुःख का भ गी दु ुःख के भय से वकसी भी प्रकार दु ुःख का अन्त नहीों कर सकता। दु ुःख के


प्रभाव में ही दु ुःख का अन्त वनवहत है । जीवन की वािववक माँ ग से वनराश ह ने पर दु ुःख का प्रभाव

दु ुःख के भ ग में पररववतथत ह जाता है । मोंगलमय ववधान से दु ुःख जीवन की वािववक माँ ग की वजज्ञासा

जाग्रत करने के वलए ही आता है । वजज्ञासा की जागृवत सुख-भ ग की रुवच का नाश कर दे ती है , वजसके
ह ते ही आये हुए दु ुःख का प्रभाव स्वतुः ह जाता है और वफर दु ुःखी बहुत ही सुगमतापूवथक दु ुःख से

रवहत ह , वािववक जीवन से अवभन्न ह जाता है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार अपने आप आये हुए दु :ख में मन बहला कर, उसे दबाने का
उपाय भयोंकर भूल है । दु ुःख दबाने से वमटता नहीों है , अवपतु उर्त्र तर बढ़ता ही जाता है । इस कारण

दु :ख का दबाना सभी के वलए सवथदा अवहतकर ही वसि ह ता है । आये हुए दु :ख का प्रभाव सवाां श में
तभी सम्भव ह गा, जब दु ुःखी दु ुःख दबाने के वलए अपने क कामना-पूवतथ के सुख में आबि न करे ;

क् वों क प्रत्येक कामनापूवतथ का सुख नवीन कामनाओों का जन्मदाता है । परन्तु बेचारा मानव यह भूल
जाता है वक कामना-पूवतथ से आया हुआ सुख भी पराधीन बनाकर चला जायेगा। इसके अवतररक्त यह

वनववथवाद वसि है वक सभी कामनाएँ कभी वकसी की पू री नहीों ह तीों। अन्त में कामना-अपू वतथ का दु :ख
ही शेष रहता है । त वफर कामना-पूवतथ के सुख से आये हुए दु ुःख क दबाना कुछ अर्थ नहीों रखता,

अवपतु दु :ख के दबाने के प्रयास से प्राप्त सामर्थर्थ का दु व्यथय ही वसि ह ता है ।

यवद वैधावनक रूप से भी कामना-पूवतथ का सु ख आ जाय, त भी मानव क


सावधानीपूवथक उसका सद्व्यय कर, अपने क सुख-भ ग से ववमुख कर, आये हुए दु ुःख के प्रभाव से

प्रभाववत ह ना चावहए। तभी सवाां श में सदा के वलए दु ुःख का नाश ह सकता है । बेचारा दु :ख का भ गी
आये हुए दु :ख का कारण दू सर ों क मान लेता है । उसका बड़ा ही भयोंकर पररणाम यह ह ता है वक वह

दु :ख के मूल हे तु की ख ज ही नहीों कर पाता, अवपतु क्षु वभत तर्ा ि वधत ह कर अपने क असमर्थ बना
लेता है , कर्त्थव्य से च्युत ह जाता है और वािववक जीवन की ववस्मृवत ह जाती है , ज ववनाश का मूल

है । जब मानव अपने दु ुःख का कारण वकसी और क नहीों मानता, तब उसे दु ुःख के कारण का ब ध ह
जाता है और दु ुःख के सदु पय ग की सामर्थर्थ स्वत: आती है , ज ववकास का मूल है ।

दु ुःख का भ गी दु ुःख के भय से भयभीत ह कर वभन्न-वभन्न प्रकार के अप्राकृवतक उपाय ों

द्वारा दु ुःख क दबाने का प्रयास करता है , परन्तु पररणाम में उर्त्र र्त्र दु ुःख ों की वृस्ति ह ती रहती है ।
इतना ही नहीों, वह वािववकता से वनराश ह ने लगता है । उसमें सुख-भ ग की तीव्र भूख उत्पन्न ह जाती

है , ज उसे अकर्त्थव्य में प्रवृ र्त् करा दे ती है । सुख के वभखारी में चेतना नहीों रहती। वह दू सर ों क दु ुःख
दे -दे कर सुख भ गने का अभ्यासी ह जाता है , ज कर्त्थ व्य-ववज्ञान के सवथर्ा ववपरीत है , अर्ाथ त् उसके

स्वभाव में अकर्त्थव्य की ही प्रवृवर्त् बढ़ती रहती है , वजससे उसका जीवन समाज के वलए अवहतकर ही

वसि ह ता है । इस दृवि से अप्राकृवतक ढों ग से दु :ख का दबाना सवथर्ा त्याज्य है ।

तीव्र दु ुःख का ह ना दु ुःखी के वलए अवहतकर नहीों है , अवपतु सवथदा वहतकर ही है । दु ुःख
आने पर हार स्वीकार करना भी दु ुःखी के ववकास में बाधक है । दु ुःख दु ुःखी की स ई हुई सामर्थर्थ क

जगाता है और जड़ता का अपहरण कर, सजगता प्रदान करता है । इतना ही नही, दु ुःख वमली हुई
सामर्थर्थ के अवभमान का नाश कर, उसके सदु पय ग में प्रवृर्त् कराता है । सामर्थर्थ का सद्व्यय आवश्यक

सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त में हे तु है । इस दृवि से दु ुःख का प्रभाव असमर्थता का अन्त कर, साधक क
अकर्त्थव्य, असाधन और आसस्तक्तय ों से मुक्त कर दे ता है , वजससे उसका सवथत मुखी ववकास स्वत: ह

जाता है ।

यवद साधक दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह कर असोंगता-पूवथक स्वाधीनता के साम्राज्य में


प्रवेश नहीों पा सकता, त अन्य वकसी प्रकार स्वाधीनता प्राप्त करना सम्भव नहीों है । कारण, वक दु ुःख का
प्रभाव ही सुख-भ ग की रुवच का नाश कर, पराधीनता से मुक्त करने में समर्थ है । बेचारा दु ुःख का भ गी
सुख-भ ग की रुवच से रवहत नहीों ह ता, इस कारण दु ुःख आने पर भी दु ुःख का सदु पय ग नहीों कर

पाता। वजस मोंगलमय ववधान से दु ुःख आया है , उसने दण्ड नहीों वदया है , अवपतु मानव के वहत के वलए
दु ुःख का प्रादु भाथ व वकया है । ववधान उस अनन्त का प्रकाश है , ज सभी का परम सु हृद है । अतएव दु :ख

भ गने के वलए दु ुःख नहीों वदया गया है । दु :ख सुख की दासता से मुक्त करने के वलए आया है । दु :ख से
डर मत, अवपतु उसका आदरपूवथक स्वागत करते हुए अपने पर उसका प्रभाव ह ने द । दु ुःख के भ गी

मत बन । यह तभी सम्भव ह गा, जब वनववथवाद रूप से ववकल्प-रवहत ह , यह स्वीकार कर गे वक आये


हुए दु ुःख के प्रभाव में ही अपना परम वहत है ।

जब साधक दु ुःख से भयभीत नहीों ह ता और दु ुःख आने पर सुख का आहान नहीों करता,

तब उस पर आये हुए दु :ख का प्रभाव स्वतुः ह ने लगता है , वजसके ह ते ही, दु ुःख में दु ुःख के दशथन की
त कौन कहे , सुख में भी दु ुःख का दशथन ह ता है । वफर सुख का प्रल भन, सु ख-भ ग की रुवच और

उसकी आशा शेष नहीों रहती। इनके वमटते ही अपने आप उत्पन्न हुई विु , अवस्र्ा, पररस्तस्र्वतय ों से
असोंगता आ जाती है , ज पराधीनता का अन्त कर, स्वाधीनता से अवभन्न करने में समर्थ है ।

जब तक साधक सुख के महत्व में आबि रहता है , तब तक दु ुःख से भयभीत ह ता है

और जब तक दु ुःख से भयभीत रहता है , तब तक सुख का आहान करता रहता है । यद्यवप आहान करने
मात्र से सुख वमल नहीों जाता, परन्तु वफर भी बेचारा सुख का वभखारी सुख के वचन्तन में ही लगा रहता है

और यह भूल जाता है वक जब आया हुआ सुख भी अपने आप चला गया, त अप्राप्त सुख की आशा से

क्ा लाभ ह गा ? सुख माँ गने से नहीों वमलता, ववधान से अपने आप आता-जाता है । उसके वलए प्रयास
प्राप्त सामर्थर्थ का दु व्यथय ही है और कुछ नहीों है । दु ुःख का प्रभाव ह ने पर प्राप्त सुख का सद्व्यय ह जाता

है और अप्राप्त सु ख की कामना नहीों रहती। प्राप्त सुख के सद्व्यय से ही मानव, समाज के ऋण से मुक्त
ह ता है । अप्राप्त सुख की कामना के त्याग से साधक, ववश्राम पाता है । इस दृवि से प्राप्त सुख के सद्व्यय

में पर-वहत और उसकी कामना के नाश में अपना वहत है । सुख जैसी विु का सोंग्रह करना, उसका
दास ह ना, उसका भ गी ह ना, वकसी के भी वलए वहतकर नहीों है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार प्रत्ये क सुख के आवद और अन्त में दु ुःख का प्रादु भाथ व स्वतुः ह ता

है । परन्तु बेचारा सुख का भ गी उस पर दृवि नहीों रखता। यह दे खता ही नहीों वक सुख के आवद और
अन्त में दु ुःख है । इतना ही नहीों, दु ुःख का भास ह ते ही वह सुख की प्रास्तप्त के वलए प्रयास करने लगता

है । यद्यवप सुख आते ही उसके जाने का िम आरम्भ ह जाता है , तर्ावप प्राणी प्रमादवश उसमें स्तस्र्रता
मान लेता है । वकन्तु ववधान के अनुसार सुख में अल्पकाल के वलए भी स्तस्र्रता नहीों है , सतत पररवतथन
ह ता रहता है । यवद इस पर दृवि रहे , त सुख का स्वतन्त्र अस्तित्व ही वसि नहीों ह ता। वजसका स्वतन्त्र

अस्तित्व ही नहीों है , उसमें जीवन-बुस्ति स्वीकार करना भारी भूल के अवतररक्त और कुछ नहीों है ।

दु ुःख में सुख की प्रास्तप्त का प्रयास और सुख के अस्तित्व क स्वीकार कर, उसमें जीवन-
बुस्ति रखना अपने क आये हुए दु ुःख के प्रभाव से ववमुख करना है , ज ववनाश का मूल है । साधक के

पुरुषार्थ की पूणथता दु ुःख के प्रभाव में ही है । जब तक दु ुःख का प्रभाव नहीों ह ता, तब तक सवथत मुखी
ववकास सम्भव नहीों है । आई हुई अनुकूलता नहीों रहे गी। उसका उपय ग पर-सेवा में करना, दु ुःख के

प्रभाव क जीववत रखना है । वकन्तु 'अनुकूलता अपने वलए है -यह प्रमाद दु :ख का प्रभाव नहीों ह ने दे ता।
दु :ख का प्रभाव ही दु ुःख की वनवृवर्त् में हे तु है । इस महामन्त्र क अपनाना मानव-मात्र के वलए अवनवायथ

है । दु ुःख के प्रभाव के अवतररक्त सवाां श में दु :ख की वनवृवर्त् कभी भी सम्भव नहीों है । ऐसे महत्वपूणथ दु ुःख
के प्रभाव से अपने क वोंवचत रखना, अपने व्दारा ही अपना सवथनाश करना है ।

दु :ख का प्रभाव सुख के प्रल भन का नाशक है , सुख का नहीों। प्राकृवतक वनयमानुसार

सुख अपने आप जाता है और दु ुःख न चाहते हुए भी आता है । इस रहस्य पर ववचार करने से यह स्पि
वववदत ह ता है वक सुख क बनाये रखने की अवभरुवच कुछ अर्थ नहीों रखती और दु ुःख से भयभीत ह ना

भी वनरर्थक ही प्रतीत ह ता है , क् वों क ज जायेगा ही, उसक बनाये रखने की बात और ज आयेगा ही,
उससे क्षुवभत ह ने की बात अपनी भूल ही है , और कुछ नहीों। सुख का प्रल भन भ ग की रुवच क

जीववत रखता है । भ ग की रुवच वनत्यय ग से ववमुख करती है ।

इस दृवि से सुख का प्रल भन साधक के ववकास में बाधक है । भ ग-प्रवृवर्त् भ ग


की वािववकता का ब ध कराने में भले ही सहय गी वसि ह , वकन्तु भ ग की रुवच त केवल भ ग की
दासता क ही जीववत रखती है । भ ग की दासता भ ग से भी कहीों अवधक दु ुःखद है , कारण, वक भ ग के

अन्त में भ गी असमर्थता, अभाव, पराधीनता आवद की व्यर्ा से व्यवर्त ह ता है , ज भ गातीत जीवन की
लालसा क सबल बनाती है । भ गातीत जीवन की उत्कट लालसा भ ग-वासनाओों का अन्त करने में

समर्थ है । परन्तु सुख का प्रल भन रहते हुए सवाां श में सुख-भ ग की रुवच का नाश सम्भव नहीों है । इस
दृवि से दु ुःख के प्रभाव से सु ख के प्रल भन का समूल नाश करना अवनवायथ है ।

दे हावभमान से उत्पन्न हुए सोंकल्प ों की पूवतथ में जीवन-बुस्ति स्वीकार करना ही सुख के

प्रल भन क प वषत करना है , अर्वा य ों कह वक दु ुःख के प्रभाव से मुक्त ह ना है । प्राकृवतक


वनयमानुसार, प्रत्येक सुख के भ गी क दु ुःख त भ गना ही पड़ता है , परन्तु कामना-पूवतथ में ही जीवन-
बुस्ति बनाये रखने से बेचारा दु ुःखी दु ुःख के प्रभाव से वोंवचत रह जाता है । उसका बड़ा ही भयोंकर

पररणाम यह ह ता है वक दु ुःखी दु ुःख में भी सुख की ही आशा करता है और दु :ख भ गता रहता है ।

मोंगलमय ववधान से ज दु ुःख दु ुःखी क दु ुःखहारी से अवभन्न ह ने के वलए वमला र्ा, यह


दु ुःखी का प्रमाद है वक वह उस दु ुःख के प्रभाव क न अपना कर, सुख की आशा से सुख की दासता में

आबि ह कर दु :ख भ गता रहता है । वह दु ुःख के प्रभाव क न अपनाकर सुख की आशा में दु :ख


भ गता है । सवाां श में सुख की आशा का अन्त करते ही प्रत्येक दु ुःखी स्वत: दु ुःख से रवहत ह जाता है ।

सुख की आशा का नाश दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

प्रत्येक मानव क कामना-पूवतथ तर्ा अपूवतथ में सुख और दु ुःख का भास ह ता है ।


कामनाओों का उद्गम-स्र्ान दे हावभमान है , ज अवववेक-वसि है । अवववेक का अन्त वनज-वववेक के

आदर में वनवहत है । वववेक का प्रकाश मानव मात्र क स्वत: प्राप्त है । वजस प्रकार अन्धकार और प्रकाश
एक ही काल में नहीों रहते , उसी प्रकार वनज-वववेक का आदर और अवववेक एक काल में नहीों रहते ।

अवववेक का अन्त ह ते ही दे हावभमान स्वत: गल जाता है , वजसके गलते ही वनवाथ सना अपने आप आ
जाती है और वफर सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन से स्वत: अवभन्नता ह जाती है । वनज-वववेक का

अनादर एकमात्र सुख-ल लुपता से ही ह ता है । दु ुःख का प्रभाव सुख-ल लुपता क खाकर प्राप्त वववेक
का आदर कराने में समर्थ है । कामना-पूवतथ में जीवन-बुस्ति स्वीकार करना, अपने क सुख की दासता में

आबि रखना है । वािववक माँ ग के प्रमाद में ही सु ख की दासता प वषत ह ती है । सुख की दासता ही

दु ुःख के भय क उत्पन्न करती है ।

सुख की दासता और दु ुःख का भय, यह द्वों दात्मक स्तस्र्वत मानव क पराधीनता तर्ा
असमर्थता में आबि करती है , ज वकसी क भी स्वभाव से अभीि नहीों है । ज अभीि नहीों है , वह

जीवन नहीों है । अत: “जीवन क्ा है ?" यह प्रश्न स्वत: जाग्रत ह ता है । इस मूल प्रश्न के हल हुए वबना चैन
से रहना असावधानी के अवतररक्त और कुछ नहीों है । प्राकृवतक वनयमानुसार जब अनेक प्रश्न एक ही

प्रश्न में ववलीन ह जाते हैं , तब उसके समाधान की सामर्थर्थ अपने आप आ जाती है । इस दृवि से अपनी
माँ ग का प्रमाद ही दु गथवत का मूल है । प्राणी वजतनी सजगता शरीर के बनाये रखने में तर्ा कामना-पूवतथ

के सुख-भ ग में एवों कामना-आपूवतथ के दु :ख से बचने में रखता है , यवद उतनी सावधानी “जीवन का मूल
प्रश्न क्ा है ?” इस समस्या क हल करने में रखे , त बहुत ही सुगमतापूवथक वह अपनी वािववक माँ ग

क जान सकता है ।
यह सभी का दै वनक अनुभव है वक उत्पन्न हुई सभी कामनाएँ पूरी नही ह ती। इतना ही नहीों, प्रत्येक

कामना-पूवतथ का सुख-भ ग नवीन कामना क जन्म दे ता है । पररणाम में कामना-अपूवतथ का दु :ख ही शेष


रहता है । वफर भी कामना पू वतथ में ही जीवन-बुस्ति स्वीकार करना और अपनी वािववक माँ ग से

अपररवचत रहना, क्ा साधक की भारी भूल नहीों है ? इस भूल का अन्त करना सभी साधक ों के वलए
अत्यन्त आवश्यक है । यह सभी ववचारक ों का अनुभव है वक भूल क ‘भूल’ जानते ही भूल नहीों रहती।

माँ ग उसे नहीों कहते , वजसकी पूवतथ अवनवायथ नहीों ह । इस दृवि से कामना-पूवतथ माँ ग नहीों

ह सकती। कारण, वक सभी कामनाएँ पूरी नहीों ह तीों। इस अनुभूवत का आदर करते ही कामना-पूवतथ
एक अवस्र्ा ववशेष के अवतररक्त और कुछ अर्थ नहीों रखती।

प्रत्येक अवस्र्ा स्वरूप से ही पररवतथनशील है । इस कारण वकसी भी अवस्र्ा में आबि

ह ना अभाव में ही आबि ह ना है । अभाव जीवन नहीों ह सकता। अत: उत्पन्न हुई अवस्र्ा जीवन नहीों
है । ज जीवन नहीों है , उससे असोंग तर्ा ववमुख ह ना अवनवायथ है । विु अवस्र्ा तर्ा पररस्तस्र्वतय ों की

ववमुखता से यह मूल प्रश्न सजीव ह ता है वक “वािववक जीवन की माँ ग क्ा है ?” सजीव प्रश्न वतथमान
का प्रश्न है । अत: जब तक यह वनणथय न ह जाय वक हमारी वािववक माँ ग क्ा है , तब तक वकसी अन्य

प्रश्न की उत्पवत ही नहीों ह नी चावहए; कारण, वक वतथ मान प्रश्न एक ही ह सकता है , द नहीों। जब एक ही
प्रश्न रह जाता है , तब प्रश्नकताथ और प्रश्न में भेद नहीों रहता, अर्ाथ त् प्रश्न ही प्रश्नकताथ का अस्तित्व रह जाता

है । वही जीवन की माँ ग है । उस माँ ग के प्रमाद ने ही प्राणी क सुख की दासता और दु ुःख के भय में

आबि वकया है ।

सुख-दु ुःख, वदन-रात के समान हैं , अपने आप आने -जाने वाले हैं । परन्तु सुख की दासता
और दु ुःख का भय अपना बनाया हुआ द ष है , वजसका अन्त करना अवनवायथ है । अपना बनाया हुआ

द ष अपने आप नि नहीों ह ता और न वकसी अन्य के द्वारा नाश ह ना सम्भव है । उसके नाश का


दावयत्व अपने पर ही है , वजसके वमटाने की सामर्थर्थ मोंगलमय ववधान से स्वत: प्राप्त है । न त हम आये

हुए सुख क सुरवक्षत रख सकते हैं और न आये हुए द्वारा क वमटा सकते हैं । इसमें हम स्वाधीन नहीों हैं ,
वकन्तु सुख की दासता और द्वारा के भय का त्याग कर सकते हैं । कारण, वक वजसे र क, नहीों सकते ,

उसके भय का और वजसे सुरवक्षत नहीों रख सकते. उसकी दासता का त्याग ही कर सकते हैं । पर कब
? जब साधक अपनी वािववक माँ ग से पररवचत ह जाय। वािववक माँ ग के प्रमाद ने ही सुख -दु :ख से

तादात्म्य उत्पन्न कर वदया है , ज अवववेक-वसि है । कामना वजसमें उत्पन्न ह ती है , उसी में माँ ग की
जागृवत ह ती है । अन्तर केवल इतना है वक कामनाएँ अनेक और माँ ग एक है ।
कामनाओों के रहते हुए कामना और वजसमें कामना उत्पन्न ह ती है , वे द न ों वभन्न भासते

हैं , वकन्तु जब वािववक माँ ग जाग्रत ह ती है , तब माँ ग और वजसमें माँ ग है , उसमें एकता अनुभव ह ती
है । हम अपनी वािववक माँ ग से अपने क अलग नहीों कर सकते , यह वनववथ वाद है । उत्पन्न हुई

कामनाएँ वािववक माँ ग क अल्पकाल के वलए आच्छावदत भले ही कर दें , वमटा नहीों सकतीों। वकन्तु
सवाां श में वािववक माँ ग की जागृवत ह ने पर सभी कामनाएँ उसी प्रकार नि ह जाती हैं , वजस प्रकार

सूयथ के उदय ह ते ही अन्धकार।

यह सभी साधक ों की अनुभूवत है वक आया हुआ द्वारा स्वभाव से वप्रय नहीों ह ता और हम


उसे र क भी नहीों पाते। इस विुस्तस्र्वत पर ववचार करने से यह स्पि वववदत ह ता है वक द्वारा जीवन का

आवश्यक अोंग है । उस आये हुए द्वारा का प्रभाव ज्य -ों ज्य ों सबल तर्ा स्र्ायी ह ता जाता है , त्य -ों त्य ों
सुख के प्रल भन से उत्पन्न हुई कामनाएँ अपने आप वमटती जाती हैं । ज्य -ों ज्य ों कामनाएँ वमटती जाती हैं ,

त्य -ों त्य ों वािववक माँ ग का प्रादु भाथ व अपने आप ह ता जाता है । इस दृवि से द्वारा के प्रभाव में ही
कामनाओों की वनवृवर्त् और वािववक माँ ग की जागृवत वनवहत है । परन्तु जब तक साधक वािववक माँ ग

से अवभन्न नहीों ह जाता, तब तक न त दु ुःख का प्रभाव ही पूणथरूपेण ह ता है और न कामनाओों की


वनवृवर्त् ही। दु ुःख के प्रभाव से माँ ग की जागृवत और माँ ग की जागृ वत से दु ुःख का प्रभाव सजीव ह जाता

है । वजस साधक क ज सु लभ ह , उसे आरम्भ में उसी क अपनाना है -दु ुःख के प्रभाव से माँ ग की
जागृवत क और माँ ग की जागृवत से दु ुःख के प्रभाव की सजीवता क ।

वकतने आश्चयथ की बात है वक दु ुःख है और उसका प्रभाव नहीों, और वजस माँ ग की पूवतथ
वतथमान में ह सकती है , उसकी ववस्मृवत ! जब सभी कामनाएँ पूरी नहीों ह सकतीों, त उनका प्रल भन

बनाये रखना कहाँ तक युस्तक्त-युक्त है ? वनज-अनुभव के अनादर के समान और क ई भारी भूल नहीों
है । अपनी भूल का अन्त वतथमान में करना अवनवायथ है । वह तभी सम्भव है , जब साधक वािववक माँ ग

की पूवतथ से वनराश न ह और दु ुःख के प्रभाव द्वारा कामना-पूवतथ के प्रल भन का अन्त कर दे ।

दु ुःख का प्रादु भाथ व प्राकृवतक है ; कारण, वक न चाहते हुए भी वह सभी प्रावणय ों क वमलता
है । वजसका प्रादु भाथ व प्राकृवतक है , वह वकसी के वलए अवहतकर नहीों है , अवपतु वहतकर ही है । वकन्तु

सुख की दासता दु ुःख के महत्व से अनवभज्ञ रखती है । चाहते हुए भी सुख त चला ही जाता है , पर
उसकी दासता शेष रहती है , वजसके रहते हुए दु :ख अपने आप आता ही है । इससे यह वनववथवाद वसि

ह जाता है वक दु ुःख मोंगलमय ववधान से सुख की दासता का नाश करने के वलए आता है । दु ुःख के भय
से त सुख की दासता ही प वषत ह ती है , पर दु ुःख के प्रभाव से सुख की दासता सदा के वलए वमट जाती

है ।

सुख की दासता वमटाने पर भी ववधान के अनुसार सु ख आता है और जाता है । वकन्तु


दु :ख का प्रभाव जब सुख की दासता क खा लेता है , तब दु :ख आहान करने पर भी नहीों आता, अर्ाथ त्

बेचारा दु ुःख साधक ों क दु ुःख से रवहत करने के वलए ही आता है । इस दृवि से दु ुःख बड़े ही महत्व की
विु है ।

यह सभी ववचारक ों क मान्य है वक प्रत्येक पररस्तस्र्वत सुख तर्ा दु ुःख से यु क्त है ।

पररस्तस्र्वतय ों में जीवन-बुस्ति ही प्रावणय ों क सुख तर्ा दु ुःख का भ ग कराती है । सु ख रुवचकर और दु ुःख
अरुवचकर प्रतीत ह ता है । पर सुख के भ गी क दु ुःख वववश ह कर भ गना ही पड़ता है । सुख का भ ग

सुरवक्षत रहे और दु ुःख का भ ग न करना पड़े , यह वकसी भी प्रकार सम्भव नहीों है । सुख-दु :ख की
श्रेवणय ों में भले ही अन्तर आ जाये , पर सु ख के भ गते हुए दु ुःख रहता ही है । इतना ही नहीों, ऐसा क ई

सुख-भ ग है ही नहीों, वजसके आवद और अन्त में दु ुःख न ह ; जैसे, भूख की व्यर्ा में ही भ जन का सुख,
ववय ग की व्यर्ा में ही सों य ग का सुख इत्यावद। सुख-भ ग का आरम्भ-काल वजतना मधुर और सुखद

प्रतीत ह ता है , उतना अन्त नहीों।

प्राकृवतक वनयमानुसार अपने आप धीरे -धीरे सुखानुभूवत वशवर्ल ह ती जाती है और सुख-

भ ग की शस्तक्त का हास तर्ा सुख-सामग्री का ववनाश भी स्वतुः ह ता जाता है । इसी कारण सुख-भ ग
के अन्त में भी दु :ख ही शे ष रहता है । इस दृवि से सु ख -भ ग में वकसी-न-वकसी प्रकार की वहों सा तर्ा
पराधीनता एवों अन्त में अभाव ही अभाव रह जाता है । जब अभाव-जवनत व्यर्ा सुख-भ ग की रुवच क
खा लेती है , तब अपने आप दु ुःख का प्रभाव ह जाता है , वजसके ह ते ही सुख-दु ुःख-युक्त पररस्तस्र्वतय ों

से असोंगता साधक क स्वाधीनता के साम्राज्य में प्रवेश करा दे ती है , यह वनववथ वाद वसि है ।

पराधीनता, वहों सा और अभाव वकसी भी साधक क अभीि नहीों है । इस दृवि से सुख -


दु ुःख-युक्त पररस्तस्र्वतय ों से अतीत के जीवन की माँ ग स्वाभाववक है । दु ुःख का प्रभाव स्वाभाववक माँ ग

क सबल तर्ा स्र्ायी करने में समर्थ है । उत्पन्न हुई पररस्तस्र्वतयाँ बाह्य दृवि से भले ही वभन्न-वभन्न प्रकार
की प्रतीत ह ती ह ,ों वकन्तु स्वरूप से सभी समान हैं । इससे यह भलीभाँ वत वसि ह जाता है वक

स्वाभाववक माँ ग की पूवतथ वकसी पररस्तस्र्वत ववशेष के आवश्रत नहीों है । वजसकी पू वतथ वकसी पररस्तस्र्वत
ववशेष के आवश्रत नहीों है , उसकी पूवतथ सभी पररस्तस्र्वतय ों में सम्भव है । इस दृवि से प्राप्त पररस्तस्र्वत का
दु रुपय ग और अप्राप्त का आहान स्वाभाववक माँ ग की पूवतथ में बाधक ही हैं । जब साधक वनज-वववेक
के प्रकाश में यह स्वीकार कर लेता है वक प्राप्त पररस्तस्र्वत ही मेरे ववकास में हे तु है , तब उसे प्राप्त

पररस्तस्र्वत का सदु पय ग सु लभ ह जाता है , वजसके ह ते ही पररस्तस्र्वतय ों से स्वत: असोंगता ह जाती है ,


ज ववकास का मूल है ।

अपने आप आये हुए सुख-दु ुःख का सदु पय ग ही पररस्तस्र्वत का सदु पय ग है । सु ख का

सदु पय ग उदारता में और दु ुःख का सदु पय ग त्याग में वनवहत है । उदारता का प्रादु भाथ व दु स्तख य ों क दे ख
करुवणत और सुस्तखय ों क दे ख कर प्रसन्न ह ने में ही है । दु ुःख का प्रभाव ह ते ही दु स्तखय ों क दे ख

करुणा और सुस्तखय ों क दे ख प्रसन्नता स्वतुः ह ती है । ममतायुक्त करुणा और प्रसन्नता त प्राणी-मात्र में


स्वभाव से ही है ; वकन्तु ममतारवहत करुणा और प्रसन्नता साधक ों में ही ह ती है । साधक वही ह सकता

है , वजसने दु ुःख के प्रभाव क अपनाया है । पराधीनता की व्यर्ा में ही स्वाधीनता की और अभाव की


पीड़ा में ही पूणथता की माँ ग वनवहत है । पराधीनता और अभाव के रहते हुए चैन से रहना, कहाँ तक

न्याय-युक्त है ? पराधीनता का नाश तर्ा अभाव का अभाव ह सकता है । ज ह सकता है , उससे


वनराश ह ना प्रमाद के अवतररक्त और कुछ नहीों है । दु :ख का प्रभाव पराधीनता तर्ा अभाव का अभाव

करने के वलए साधक क आकुल-व्याकुल कर दे ता है । परम व्याकुलता की जागृवत में ही समि


वनबथलताओों का नाश वनवहत है । पर इस रहस्य क वे ही साधक जान पाते हैं , ज स्वाभाववक माँ ग की

पूवतथ से वनराश नहीों हैं , अवपतु उसे वतथ मान की विु मानते हैं ।

पराधीनता का नाश तर्ा अभाव का अभाव वकसी भी उत्पन्न हुई विु सामर्थर्थ , य ग्यता

आवद से सम्भव नहीों है । इस दृवि से वमली हुई विु सामर्थर्थ , य ग्यता आवद अपने वलए नहीों हैं । ज अपने
वलए नहीों है , उससे तादात्म्य और उसकी ममता पराधीनता तर्ा अभाव में ही आबि करती है । दु :ख

का प्रभाव न त उत्पन्न हुई विु अवस्र्ा आवद से तादात्म्य ही रहने दे ता है और न ममता क ही जीववत
रखता है । उसका पररणाम यह ह ता है वक ज वनत्य प्राप्त अववनाशी जीवन है , उससे अवभन्नता ह जाती

है , वजसके ह ते ही पराधीनता का नाश तर्ा अभाव का अभाव स्वत: ह जाता है । इस दृवि से स्वाभाववक
माँ ग की पूवतथ दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

ज अपने वलए नहीों है , उसके द्वारा 'पर' के अवधकार ों की रक्षा की जा सकती है । पर यह

भी तभी सम्भव ह गा, जब प्राणी पर-पीड़ा से करुवणत ह जाये। पराये दु ुःख से ज दु खी ह ते हैं , उनमें
वमले हुए सुख-भ ग की रुवच नहीों रहती और न अप्राप्त सुख की कामना ही रहती है , अवपतु प्राप्त सुख

के सद्व्यय की सामर्थर्थ आ जाती है , वजसके आते ही सुन्दर समाज का वनमाथ ण ह ने लगता है और समि
सोंघषों का नाश ह जाता है । इससे परस्पर में एकता ह जाती है , वजसके ह ते ही साधक समता के
साम्राज्य में प्रवेश पाता है , ज ववकास का मूल है । वमली हुई विु सामर्थर्थ , य ग्यता आवद की ममता के

त्याग में ही कर्त्थव्यपरायणता वनवहत है और कर्त्थव्यपरायणता से ही आवश्यक विु सामर्थर्थ तर्ा


य ग्यता स्वतुः प्राप्त ह ती हैं । वकन्तु दु ुःख का प्रभाव वमले हुए से तादात्म्य नहीों ह ने दे ता। तादात्म्य का

नाश ह ते ही वनष्कामता और वनवाथ सना अपने आप आ जाती हैं । वनष्कामता पराधीनता क और


वनवाथ सना अभाव क खा लेती है , यह वनववथवाद सत्य है ।

वमले हुए क अपना मान लेना, वववेक-ववर धी ववश्वास है । इस ववश्वास से ही ववकार ों की

उत्पवर्त् ह ती है । इस दृवि से वनववथकारता ममता के त्याग में ही वनवहत है । ममता का त्याग प्रत्येक साधक
क स्वयों करना है , अपने आप नहीों ह गा, कारण, वक जाने हुए के आदर का दावयत्व साधक पर ही है ।

जाने हुए के अनादर में ही ममता प वषत ह ती है । प्राकृवतक वनयमानुसार ज अपना नहीों है , वह अपने
वलए भी नहीों है । अत: जब साधक में प्राप्त की ममता नहीों रहती, तब अप्राप्त विु आवद की कामना भी

नहीों रहती। अप्राप्त विु आवद की कामनाओों के नाश में ही वचर-ववश्राम वनवहत है । ववश्राम सामर्थर्थ तर्ा
असोंगता का स्र त है , कारण, वक सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त श्रम-साध्य नहीों है । श्रम से त वमली हुई

सामर्थर्थ का सदव्यय ह सकता है , अप्राप्त सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त नहीों ह ती। अतुः आवश्यक सामर्थर्थ
की अवभव्यस्तक्त ववश्राम से ही साध्य है | वमली हुई विु अवस्र्ा, सामर्थर्थ , य ग्यता आवद से असों ग ह ने के

वलए भी ववश्राम ही अपेवक्षत है ; कारण, वक सभी प्रकार का श्रम विु आवद के आश्रय से ही ह ता है ।
वजससे असोंग ह ना है , उसके आश्रय का त्याग अवनवायथ है । विु आवद के आश्रय का त्याग श्रम-साध्य

नहीों है , अवपतु ववश्राम से ही साध्य है । इस दृवि से सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त तर्ा असोंगता ववश्राम में ही
वनवहत हैं ।

दु ुःख के प्रभाव के अवतररक्त अन्य वकसी भी प्रकार वनष्कामता से उवदत ववश्राम सम्भव
नहीों है ; कारण, वक दु ुःख का प्रभाव साधक क काम-रवहत करने में समर्थ है । भूल क ‘भूल’ जान लेने

पर भी सुख के प्रल भन में आबि प्राणी सवाां श में भू ल-रवहत नहीों ह पाता। इतना ही नहीों, भूल के
पररणाम से भयभीत ह ने पर भी भूल-जवनत सुख का प्रल भन नि नही ह ता। परन्तु भूल-जवनत व्यर्ा

जाग्रत ह ने पर भू ल स्वत: नि ह जाती है । वकसी बुराई के न करने मात्र से बुराई-जवनत रस का नाश


नहीों ह ता। इसी कारण बार-बार बुराई की पुनरावृवर्त् ह ती रहती है । वकन्तु जब बुराई ह ने की व्यर्ा ही

साधक क व्यवर्त कर दे ती है , तब बुराई उत्पन्न ही नहीों ह ती। इस दृवि से दु ुःख के प्रभाव में ही समि
ववकार ों की वनवृवर्त् वनवहत है , दु ुःख के भय तर्ा भ ग में नहीों।
वमले हुए का सदु पय ग तर्ा जाने हुए का आदर साधक क आये हुए दु :ख के प्रभाव से

प्रभाववत करता है । ज प्राणी जाने हुए का आदर तर्ा वमले हुए का सदु पय ग नहीों करते , वे आये हुए
दु ुःख से भयभीत ह ते हैं और दु :ख भ गते भी हैं , पर दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत नहीों ह ते ; कारण, वक

वमले हुए का दु रुपय ग और जाने हुए का अनादर अपने में अपना ववश्वास नहीों ह ने दे ते , वजसके वबना
हुए साधक अपने सम्बन्ध में स्पि रूप से ववचार नहीों कर सकता। अपने सम्बन्ध में वनष्पक्ष भाव से

ववचार वकये वबना अपनी दृवि में अपने द ष ों का प्रत्यक्ष दशथन नहीों ह ता, वजसके हुए वबना न त वतथमान
की वनदोषता में ही आस्र्ा ह ती है और न भूतकाल के द ष ों से असोंगता ही। वनदोषता की ववस्मृवत और

द ष ों का तादात्म्य बेचारे प्राणी क वनदोषता से अवभन्न नहीों ह ने दे ते। इस कारण आये हुए दु ुःख के
प्रभाव से प्रभाववत ह ने के वलए तर्ा अपने दावयत्व क पूरा करने के वलए एवों स्वाभाववक माँ ग की पूवतथ

के वलए वमले हुए का सदु पय ग तर्ा जाने हुए का आदर अवनवायथ है ।

ज सुख तर्ा दु ुःख का भ गी है , उसे न त ‘यह’ कह सकते हैं और न ‘वह’। ‘यह’ उसी
क कहा जाता है , वजसकी प्रतीवत इस्तिय तर्ा बुस्ति-दृवि से ह ती है । ‘वह’ उसे कहते हैं , वजसे इस्तिय

तर्ा बुस्ति-दृवि से नही दे खा जाता, अवपतु वजसकी चचाथ तत्वज्ञ ों तर्ा भक्त ों से सुनी है एवों सद्ग्रि ों ने
वजसके ववषय में सों केत वकया है । उसके सम्बन्ध में आस्र्ा, श्रिा एवों ववश्वास ही वकया जा सकता है ।

जब ‘यह’ और ‘वह’ सुख-दु ुःख का भ गी नहीों है , तब यह प्रश्न स्वतुः उत्पन्न ह ता है वक

सुख-दु :ख का भ गी कौन है ? इसके उर्त्र में सहज भाव से यही स्वीकार करना पड़ता है वक ज अपने

क सुखी और दु खी कहता है , वही सुख-दु :ख का भ गी है । उसका नामकरण “अहम्" अर्वा “मैं” भी


ह सकता है । उसी अहम्-भाव में सुख का प्रल भन तर्ा दु :ख का भय अोंवकत है , उसी में दु ुःख-वनवृवर्त्

की माँ ग है , वही अमरत्व से अवभन्न ह ना चाहता है और उसी में अनन्त रस की भू ख है । दु ुःख के प्रभाव
से दु ुःख का भय और सुख का प्रल भन वमट जाता है , वजसके वमटते ही दु ुःख-वनवृवर्त् त ह ही जाती है ,

इसके अवतररक्त अमरत्व की माँ ग तर्ा अनन्त-रस की भूख अपने आप तीव्र ह जाती है । अर्ाथ त् उसके
वबना रहना जब असह्य ह जाता है , तब मोंगलमय ववधान से स्वत: अमरत्व से अवभन्नता और अनन्त-रस

की अवभव्यस्तक्त ह ती है ।

वजसके ववधान से अमरत्व से अवभन्नता और अनन्त-रस की अवभव्यस्तक्त ह ती है , उसमें


आस्र्ा, श्रिा तर्ा ववश्वास करना दु खी के वलए अवनवायथ है , कारण, वक दु खी का आश्रय ‘यह’ नहीों रहता

और दु ुःखी अपने द्वारा अपने दु ुःख क वमटा नहीों पाता। ऐसी भयोंकर पररस्तस्र्वत में आस्र्ा के वबना भी
साधक वकसी का आश्रय अपनाने लगता है । यवद उस आश्रय क आस्र्ापूवथक अपनाया जाय, त

सुगमतापूवथक समस्या हल ह जाती है । दु ुःख का प्रादु भाथ व भी उसी के द्वारा साधक के वहतार्थ ह ता है ।

जब साधक आये हुए दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत नहीों ह ता और अपने आप जाने वाले
सुख के पीछे ही दौड़ता है , तब ‘वे’ ही दु ुःख के वेष में अवतररत ह , दु ुःखी क दु ुःख के प्रभाव से

प्रभाववत कर, अमरत्व तर्ा अनन्त-रस का पात्र बना दे ते हैं । पर इस रहस्य क वे ही साधक जान पाते
हैं , वजन् न
ों े सुने हुए में अश्रिा तर्ा अववशवास नहीों वकया है ।

वववेक-दृवि से दे खे हुए का स्वयों अस्तित्व वसि नहीों ह ता, केवल प्रतीवत ह ती है और

दे खे हुए की प्रास्तप्त भी नहीों ह ती, अवपतु प्रवृवर्त् ही ह ती है । वजसका स्वयों अस्तित्व वसि नहीों ह ता,
वजसकी प्रास्तप्त नहीों ह ती, उसका उपय ग भले ही ह , वकन्तु उसमें आस्र्ा, श्रिा तर्ा ववश्वास नहीों वकया

जा सकता। इस दृवि से वजसकी प्रतीवत है , उसमें आस्र्ा करना भूल है । वजसमें आस्र्ा नहीों की जा
सकती, उसकी वािववकता का ब ध अवनवायथ है ।

अतुः ‘यह’ क जान और ‘वह’ में आस्र्ा कर । अहम् -भाव ‘यह’ की ममता है और ‘वह’
की लालसा । ‘यह’ की ममता ने ही अनेक ववकार ों क उत्पन्न कर, बेचारे प्राणी क सुख की दासता एवों

दु ुःख के भय में आबि कर वदया है । दु ुःख का प्रभाव ‘यह’ की ममता का अन्त कर, 'वह' की लालसा
क सजीव, सबल तर्ा स्र्ायी बना दे ता है , वजसके ह ते ही साधक प्रेम से अवभन्न ह जाता है , ज अनन्त-

रस का स्र त है ।

सभी पररस्तस्र्वतयाँ सुख और दु ुःख से युक्त हैं । यवद पररस्तस्र्वतय ों के वनमाथ ण में प्रावणय ों क
स्वाधीनता ह ती, त प्राणी दु ुःख-रवहत पररस्तस्र्वत का वनमाथ ण करता; कारण, वक दु ुःख वकसी क भी

अभीि नहीों है । प्राप्त पररस्तस्र्वत के सदु पय ग में प्रावणय ों क स्वाधीनता है , वनमाथ ण में नहीों। पररस्तस्र्वतयाँ
त मोंगलमय ववधान से ही वनवमथत हैं । सुख प्रावणय ों क पररस्तच्छन्नता में आबि करता है और दु ुःख

पररस्तच्छन्नता से रवहत ह ने के वलए प्रेररत करता है । सु खी वतथमान विुस्तस्र्वत में बँध जाता है और दु खी
उससे मुक्त ह ने के वलए व्याकुल ह जाता है । इस दृवि से सुख बन्धन का और दु ुःख मुस्तक्त का हे तु है ।

वफर भी न जाने , साधक दु ुःख से भयभीत क् ों ह ता है और सुख की क् ों आशा करता है


? यवद इस समस्या पर गम्भीरता पूवथक ववचार वकया जाये , त यह स्पि ह जाता है वक बेचारा प्राणी

दु ुःख के महत्व और सुख की वािववकता क नहीों जानता। दु ुःख का प्रादु भाथ व हुए वबना ववकास सम्भव
नहीों है । इस दृवि से सुख के सार्-सार् दु ुःख का ह ना अवनवायथ ह ता है । न चाहते हुए भी उसी से वमला
है , वजसने भ गावर्थय ों क कमथ-सामग्री और म क्षावर्थय ों क वववेक प्रदान वकया है । कमथ-सामग्री कमथ-

अनुष्ठान का फल नहीों है ; कारण, वक कमथ-सामग्री कमथ अनुष्ठान से पूवथ प्राप्त ह ती है । इसी दृवि से वमला
हुआ अपना नहीों है , अवपतु वकसी की दे न है ।

वमले हुए के सदु पय ग के वलए ही वववेकरूपी ववधान वमला है और सुख -भ ग की रुवच

का नाश करने के वलए ही दु ुःख का प्रादु भाथ व हुआ है । यवद दु :ख का प्रादु भाथ व न ह , त क ई भी साधक
पराधीनता, अभाव एवों नीरसता से मुक्त नहीों ह सकता, ज सुख-भ ग का पररणाम है । सुख-भ ग के

पररणाम से बचाने के वलए दु ुःखहारी ही दु ुःख के स्वरूप में अवभव्यक्त ह ते हैं , ज सभी के अपने हैं और
सभी के सुहृद् हैं । यवद साधक दु ुःख के वेष में अपने परम सुहृद् क पहचान सके , त अत्यन्त

सुगमतापूवथक सुख की दासता और दु ुःख का भय वमट जाता और दु खी अपने आप दु ुःख के प्रभाव से


प्रभाववत ह , दु ुःखहारी की प्रीवत ह जाता है , यह वनववथवाद वसि है ।

दु ुःख का प्रभाव दु खी क दु ुःख के वमटाने में तत्पर कर दे ता है और दु ुःख का भय तर्ा

भ ग सुख की आशाओों में आबि रखता है । दु ुःख स्वरूप से न्यूनावधक नहीों है । दु ुःख वािव में दु :ख ही
है । दु :ख की अवधकता में दु ुःख का प्रभाव ह गा और न्यू नता में नहीों ह गा-ऐसा वनयम नहीों है । दु ुःख का

प्रभाव अवधकतर स्वभाव से उन्ीों प्रावणय ों पर ह ता है , ज पराधीनता, असमर्थ ता एवों नीरसता सहन
नहीों कर पाते , अर्ाथ त् वकसी भी प्रल भन तर्ा भय से नीरसता आवद वजन्ें नहीों भाती। दु ुःख का प्रभाव

दु ुःख की न्यूनावधक श्रेवणय ों के आवश्रत नहीों ह ता, अवपतु दु खी की सजगता तर्ा सावधानी ही दु ुःख के

प्रभाव में हे तु है । जब दु खी जीवन-सोंग्राम में हार स्वीकार नहीों करता, अपने लक्ष्य से वनराश नहीों ह ता
तर्ा ववकास में अववचल आस्र्ा रखता है और पररस्तस्र्वतय ों से अपना मूल्य अवधक जानता है , तब वह

दु :ख के प्रभाव से प्रभाववत ह ता है । प्रत्येक मानव पररस्तस्र्वतय ों के पररवतथन से भलीभाँ वत पररवचत है ।


वजसे पररस्तस्र्वतय ों के पररवतथन का ज्ञान है , उसे अपने पररवतथन का ज्ञान नहीों है , अपनी माँ ग का ज्ञान

भले ही ह ।

अपनी माँ ग अपने से ववभावजत नहीों की जा सकती, पर उसकी पूवतथ ह सकती है । इस


दृवि से साधक में ज माँ ग के रूप में ववद्यमान है , उसी का स्वतन्त्र वनत्य अस्तित्व है । वजसका स्वतन्त्र

अस्तित्व है , उससे वनराश ह ना, उसे वतथमान जीवन की आवश्यकता न मानना और उससे ववमुख ह ना,
साधक की अपनी भू ल ही है और कुछ नहीों। जीवन-सोंग्राम में हार वे ही प्राणी स्वीकार करते हैं , ज

पररस्तस्र्वतय ों में ही जीवन-बुस्ति रखते हैं और वजन्ें पररस्तस्र्वतय ों से अतीत के जीवन में अववचल आस्र्ा
नहीों ह ती अर्वा ज उस जीवन की वजज्ञासा तर्ा उसकी ख ज नहीों करते।
यह सभी क वववदत है वक पररस्तस्र्वतयाँ जीवन नहीों हैं । यवद पररस्तस्र्वत ही जीवन ह ती, त

क ई-न-क ई पररस्तस्र्वत ऐसी अवश्य ह ती, वजसमें सोंय ग की दासता तर्ा ववय ग का भय नहीों ह ता।
दासता और भय वकसी की स्वाभाववक माँ ग नहीों है । ज स्वाभाववक माँ ग नहीों है , वह जीवन कैसे ह

सकता है ? अत: पररस्तस्र्वतयाँ जीवन नहीों हैं , यह वनववथ वाद वसि है । ज जीवन नहीों है , उससे असों गता
अत्यन्त सुगमतापूवथक ह सकती है । वजससे असोंगता ह जाती है , उसका प्रल भन तर्ा भय शेष नहीों

रहता।

पररस्तस्र्वत-जन्य प्रल भन तर्ा भय का नाश ह ते ही जीवन-सोंग्राम में हार स्वीकार करने


के वलए क ई स्र्ान ही नहीों रहता। जीवन-सोंग्राम में हार का प्रश्न तभी तक रहता है , जब तक प्राणी

पररस्तस्र्वतय ों क ही जीवन मानता है । यह मान्यता अवववेक-वसि है , वािववक नहीों। जीवन-सोंग्राम ही


वह अनुपम सोंग्राम है , वजसमें सवथदा ववजय है , हार नहीों। पर यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं , ज

दु ुःख के प्रादु भाथ व क ववकास का मूल मानते हैं ।

ववश्व के इवतहास और व्यस्तक्तगत अनुभूवतय ों से यह वसि नहीों हुआ वक क ई ऐसी


पररस्तस्र्वत भी है , वजसमें केवल सुख ह , दु ुःख न ह और न क ई ऐसा प्राणी है , वजसे सुख भ गते हुए

वववश ह कर दु ुःख न भ गना पड़ा ह । त क्ा सुख और दु ुःख का भ ग ही जीवन है ? कदावप नहीों।
सुख-दु ुःख के द्वों द्व से रवहत ह ने में ही जीवन-ज्य वत है । यह रहस्य वे ही जानते हैं , वजन् न
ों े पररस्तस्र्वतय ों

क जीवन स्वीकार नहीों वकया, अवपतु उनके सदु पय ग के द्वारा पररस्तस्र्वतय ों से अतीत के जीवन से

अवभन्नता प्राप्त की है । अत: जीवन-सोंग्राम में हार न स्वीकार करने से दु खी पर दु ुःख का प्रभाव स्वतुः ह
जाता है , ज ववकास का मूल है ।

ज साधक पररस्तस्र्वतय ों से अपना ववभाजन नहीों करता और उन्ीों से तादात्म्य बनाये

रखता है , वह बेचारा दीनता तर्ा अवभमान की अवि में ही दग्ध ह ता रहता है , ज वािव में वकसी क
भी अभीि नहीों है । अत: प्रत्येक साधक क पररस्तस्र्वतय ों से अपना ववभाजन करना अवनवायथ है , वजसके

करते ही पररस्तस्र्वतय ों से अपना मूल्य अवधक ह जाता है और वफर प्रत्येक पररस्तस्र्वत साधन-सामग्री के
अवतररक्त और कुछ नहीों रहती। इतना ही नहीों, पररस्तस्र्वत से असोंग हुए वबना क ई भी साधक अपने

सम्बन्ध में स्पि रूप से ववचार नहीों कर सकता, वजसके वकये वबना दावयत्व क्ा है ? और माँ ग क्ा है ?
इसका स्पि वनणथय नहीों ह ता।

जब दावयत्व और माँ ग का वनणथय ही नहीों ह ता, तब ‘दावयत्व पूरा कर सकते हैं ’, ‘माँ ग
पूरी ह ती है ', ये समस्याएँ वतथमान की समस्याएँ नहीों बनतीों। प्राकृवतक वनयमानुसार हल उसी का ह ता
है , ज समस्या वतथमान में है । उसके हल में ही प्राणी के पुरुषार्थ की पराववध है और उसी के वलए

मानव-जीवन वमला है । इस दृवि से अपने सम्बन्ध में ववचार करना प्रत्येक साधक के वलए अत्यन्त
आवश्यक है ।

यह तभी सम्भव है , जब वववेकपूवथक पररस्तस्र्वतय ों से असोंगता, अर्ाथ त् ववभाजन कर वलया

जाय, वजसके ह ते ही साधक का अपना मूल्य पररस्तस्र्वतय ों से अवधक ह जाता है । अर्वा य ों कह वक


साधक में एकमात्र अपने साध्य की ही उत्कट माँ ग शे ष रहती है । ज माँ ग सभी कामनाओों क खाकर

प वषत ह ती है , वही वतथमान की माँ ग है । मोंगलमय ववधान से उसकी पूवतथ अपने आप ह ती है । अत:
वािववक माँ ग की जागृवत में ही उसकी पूणथता वनवहत है ।

जब तक अपना मूल्य पररस्तस्र्वतय ों से अवधक नहीों ह ता, तभी तक सुख की दासता तर्ा

दु ुःख का भय रहता है और तभी तक न त सुख के प्रल भन का नाश ही ह ता है और न दु ुःख का प्रभाव


ही ह ता है , वजसके वबना हुए वकसी भी प्रकार से साधक अपने दावयत्व क पूरा नहीों कर पाता और न

वािववक माँ ग की पूवतथ ही ह ती है । “दावयत्व पूरा नहीों कर सकते, माँ ग पूरी नहीों ह ती”-इस भ्रमात्मक
धारणा का साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है । इस पर भी यवद क ई यह स्वीकार करे वक मैं

वािव में कुछ नहीों कर सकता। त उसे गम्भीरतापूवथक ववचार करना चावहए वक प्राकृवतक
वनयमानुसार ज कुछ नहीों कर सकता, उसे वािव में कुछ नहीों करना है और न उससे क ई ऐसा कायथ

ह ता है , ज करने य ग्य नहीों है ।

कुछ न करने की स्तस्र्वत, ज करना चावहए उसके करने पर, अर्ाथ त् प्राप्त पररस्तस्र्वत के
सदु पय ग से अर्वा वनष्कामता से उवदत वचर-ववश्राम प्राप्त ह ने पर, अर्वा असोंगता-पूवथक स्वाधीनता
से अवभन्न ह ने पर, अर्वा अववचल आस्र्ा, श्रिा एवों ववश्वास-पूवथक शरणागत ह ने पर ही आती है ।

उससे पूवथ न करने के गीत गाना अकमथण्यता, आलस्य, प्रमाद, असावधानी आवद क ही प वषत करना
है , ज सवथर्ा त्याज्य है । सामर्थर्थ का सद्व्यय अर्वा असमर्थता द न ों ही से ववकास ह ता है । प्राप्त सामर्थर्थ

का दु व्यथय ही हास का मूल है , असमर्थ ता नहीों। असमर्थ ता से पीवड़त प्राणी त सवथसमर्थ में आस्र्ा कर,
अत्यन्त सुगमतापूवथक शरणागत ह जाता है और वफर कुछ भी करना शेष नहीों रहता। प्राप्त सामर्थर्थ

का सद्व्यय करने पर मोंगलमय ववधान से आवश्यक सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त तर्ा साध्य की उपलस्ति
स्वत: ह ती है । इस कारण लक्ष्य से वनराश ह ने में एक मात्र साधक का प्रमाद ही हे तु है और कुछ नहीों।

अल्प सामर्थर्थ , ववशेष सामर्थर्थ तर्ा असमर्थता ववकास में बाधक और सहायक नहीों हैं ।
सामर्थर्थ का सद्व्यय एवों असमर्थता की वेदना ही सफलता में हे तु है , ज सभी साधक ों के वलए सवथदा
सुलभ है । ज सुलभ है , वह दु लथभ क् ों प्रतीत ह ती है ? इसका मूल कारण दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत न

ह ना है । दु ुःख से भयभीत प्राणी की ववकास में अववचल आस्र्ा नहीों रहती, वजसके न ह ने से साधक
दु ुःख के महत्व से अपररवचत रह जाता है और उस पर सवाां श में दु ुःख का प्रभाव नहीों ह ता। बेचारा

वववश ह कर दु ुःख का भ गी ह जाता है ।

दु ुःख के भ गी में सुख की आशाएँ उत्पन्न ह ती रहती हैं । यद्यवप उन आशाओों की पूवतथ
सम्भव नहीों है , परन्तु दु ुःख का भ गी सुख की आशाओों का त्याग नहीों कर पाता, अवपतु विु व्यस्तक्त,

अवस्र्ा आवद के वचन्तन में आबि ह जाता है । प्राकृवतक वनयमानुसार केवल वचन्तन-मात्र से ही उत्पन्न
हुई विु व्यस्तक्त आवद की प्रास्तप्त नहीों ह ती। यवद ह ती, त वकसी भी व्यस्तक्त के जीवन में विु -व्यस्तक्त

आवद का अभाव दे खने में नहीों आता। पर ऐसा वकसी का अनुभव नहीों है वक विु व्यस्तक्त का आश्रय
रहते हुए उनके अभाव की अनुभूवत न ह ती ह । अतुः विु व्यस्तक्त आवद की प्रास्तप्त वचोंतन—साध्य नहीों

है , अवपतु ववधान से ही प्राप्त ह ती है ।

प्राप्त विुओों का सदु पय ग और व्यस्तक्तय ों की सेवा में ही साधक का अवधकार है ।


उनकी ममता में, उनक बनाए रखने की रुवच में साधक का क ई अवधकार नहीों है । विुएँ ववधान से ही

आती और जाती हैं । इस दृवि से ववकास में अववचल आस्र्ा न रखना भारी भूल है । ववकास में अववचल
आस्र्ा वबना वकए प्राणी सु ख की दासता और दु ुःख के भय से रवहत नहीों ह सकता और उसके हुए

वबना मोंगलमय ववधान से आये हुए दु ुःख का प्रभाव नहीों ह ता। ववकास की पराववध वकसी उत्पन्न हुई

पररस्तस्र्वत में आबि ह ना नहीों है , अवपतु अनुत्पन्न हुए अववनाशी, वदव्य वचन्मय जीवन से अवभन्न ह ने में
ही है , ज अनन्त-रस से पररपूणथ है ।

इसका अर्थ यह नहीों है वक ववकास की ओर अग्रसर ह ने में उत्कृि पररस्तस्र्वतयाँ प्राप्त

नहीों ह ती। वजस प्रकार वावटका के फल ों का मूल्य चुकाने पर वावटका की सुगन्ध और छाया आवद सभी
विुएँ अपने आप वबना ही मूल्य वमलती हैं , उसी प्रकार ववकास की पराकष्ठा ह ने पर उत्कृि

पररस्तस्र्वतयाँ अपने आप स्वागत करने लगती हैं । पर साधक उनसे तादात्म्य स्वीकार नहीों करता; कारण
वक पररस्तस्र्वतयाँ जीवन नहीों हैं । इस दृवि से ववकास में अववचल आस्र्ा रखना प्रत्येक साधक के वलए

अत्यन्त आवश्यक है । ववकास में अववचल आस्र्ा रखते ही दु ुःख का भय और भ ग शेष नहीों रहते।
दु ुःख का प्रभाव स्वतुः ह जाता है , वजसके ह ते ही दु खी सदा के वलए दु ुःख से रवहत ह कर, कृतकृत्य ह

जाता है ।
लक्ष्य की ववस्मृवत अर्वा उससे वनराशा ह ने पर साधक में सुख के महत्व तर्ा उसके

प्रल भन की वृस्ति ह ती है । सुख का प्रल भन दु ुःख का भय उत्पन्न करता है , दु ुःख का प्रभाव नहीों ह ने
दे ता, वजसके वबना हुए सवथत मुखी ववकास सम्भव नहीों है । इस कारण लक्ष्य की स्मृवत और उसकी

प्रास्तप्त के वलए वनत-नव उत्साह तर्ा उत्कण्ठा जाग्रत ह ना परम आवश्यक है । वह तभी सम्भव ह गा,
जब सुख-भ ग में जीवन-बुस्ति न रहे । “सुख-भ ग ही जीवन है ,”-इस प्रमाद से ही लक्ष्य की ववस्मृवत ह ती

है । दु :ख का प्रादु भाथ व सुख-भ ग में ववकल्प उत्पन्न कर, सुखी में सजगता प्रदान करता है । इस दृवि से
दु ुःख, सुख की अपेक्षा कहीों अवधक महत्व की विु है । बेचारा सुख का भ गी दे हावभमान में आबि ह

जाता है ; कारण, वक दे हावभमान ही कामनाओों का उद्गम है और कामना-पूवतथ में ही सुख-भ ग की वसस्ति


ह ती है ।

दे हावभमान के वबना सुख का भ ग सम्भव नहीों है । इसी कारण ववचारशील व्यस्तक्त सुख

के प्रल भन क त्याग, दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह , वािववक जीवन की ख ज में तत्पर ह जाते हैं ।
इस पववत्रतम उद्दे श्य की पूवतथ के वलए ही अनन्त के मोंगलमय ववधान से सभी प्रावणय ों क प्रत्येक

सुखानुभूवत के आवद और अन्त में दु ुःख का भास ह ता है । यह प्रावणय ों पर कैसी अहै तुकी कृपा है वक
सुख के भ गी क दु :ख भ गना ही पड़ता है ! सुख की वािववकता और दु ुःख के महत्व का स्पि ब ध ह

जाने पर साधक अपने लक्ष्य से वनराश नहीों ह ता और वफर अत्यन्त ही सुगमतापूवथ क उसे अपने लक्ष्य
की स्मृवत ह जाती है , वजसके ह ते ही आए हुए दु ुःख का प्रभाव स्वतुः ह ता है , ज साधक क सुख-दु ुःख

के बन्धन से मुक्त कर, वािववक जीवन से अवभन्न कर दे ता है ।

कामना और माँ ग का स्पि ववभाजन ह जाने पर दु ुःख द भाग ों में ववभक्त ह ता है -

“वनजीव दु ुःख” और “सजीव दु ुःख”। वनजीव दु :ख में दु खी सुख की आशा में दु :ख भ गता रहता है और
सजीव दु ुःख में दु खी सुख की आशा से रवहत, दु ुःख-वनवृवर्त् की आवश्यकता अनुभव करता है । इतना

ही नहीों, वह एक ऐसे जीवन की ख ज करता है , वजसमें दु ुःख-वनवृवर्त् के सार्-सार् स्वाधीनता और


अगाध अनन्त, वनत-नव रस की अवभव्यस्तक्त ह । वनजीव दु ुःख त प्राय: सभी प्रावणय ों क ह ता है । वकन्तु

सजीव दु :ख उन्ीों प्रावणय ों क ह ता है , वजन्ें वववेक रूपी प्रकाश वमला है । जब साधक वनज-वववेक के
प्रकाश में उत्पन्न हुई पररस्तस्र्वतय ों क दे खता है , तब उसे सुख-दु ुःख-युक्त पररस्तस्र्वतय ों में एकमात्र दु ुःख

का ही दशथन ह ता है , अर्ाथ त् ज पररस्तस्र्वत इस्तिय-दृवि से सुख-दु ुःख-युक्त प्रतीत ह ती र्ी, वही


पररस्तस्र्वत बुस्ति-दृवि से दु ुःखरूप ही भावसत ह ती है ।
सुख में दु ुःख का दशथन ह ते ही दु ुःख की पूणथता ह जाती है , वजसके ह ते ही स्वत: दु ुःख

का प्रभाव ह जाता है और वफर अपने आप दु ुःख-वनवृवर्त् तर्ा माँ ग की पूवतथ ह जाती है । इस दृवि से
दु ुःख की पूणथता में ही दु ुःख का प्रभाव वनवहत है । दु ुःख का अधूरापन दु खी क सु ख में दु ुःख का दशथन

नहीों करा पाता, अवपतु सु ख और दु ुःख, द न ों ही क जीववत रखता है । परन्तु जब साधक इस्तिय-दृवि
का उपय ग करते हुए बुस्ति-दृवि के प्रभाव से प्रभाववत ह ता है , तब इस्तिय-दृवि के प्रभाव से उत्पन्न

हुआ सुख का भास वमट जाता है , वजसके वमटते ही दु :ख का अधूरापन शेष नहीों रहता और वफर साधक
बहुत ही सुगमतापूवथक दु ुःख के प्रभाव क अपना कर वािववक माँ ग की पूवतथ का अवधकारी ह जाता

है , वजसके ह ते ही मोंगलमय ववधान से माँ ग की पूवतथ स्वतुः ह जाती है ।

कामनाओों के रहते हुए प्राणी आए हुए दु ुःख क सहन करता रहता है और सुख-सम्पादन
के वलए प्रयास करता रहता है , सुख-दु ुःख से अतीत वािववक जीवन की ख ज नहीों करता। यद्यवप

प्राणी में वािववक जीवन की माँ ग बीज-रूप से ववद्यमान है , परन्तु सुख-भ ग का प्रल भन उस माँ ग क
ववकवसत नहीों ह ने दे ता। प्राकृवतक वनयमानुसार सुख-सम्पादन का प्रयास करते हुए भी दु ुःख आता ही

है । तब वववश ह कर साधक अपनी वािववक माँ ग क सबल तर्ा स्र्ायी बनाता है । वािववक माँ ग
ज्य -ों ज्य ों सबल तर्ा स्र्ायी ह ती जाती है , त्य -ों त्य ों सुख-भ ग की रुवच स्वत: गलती जाती है । सुख-भ ग

की रुवच का सवाां श में नाश ह ते ही साधक वािववक माँ ग से अवभन्न ह जाता है , अर्ाथ त् माँ ग के
अवतररक्त साधक का और क ई अस्तित्व नहीों रह जाता।

साधक की ज माँ ग है , वही साध्य का स्वरूप है । इस दृवि से साध्य की माँ ग ही साधक


का अस्तित्व है । वजस प्रकार भ जन की माँ ग के अवतररक्त भूख और कुछ नहीों है , उसी प्रकार साध्य की

माँ ग के अवतररक्त साधक का अस्तित्व और कुछ नहीों है । भ जन के वमलते ही भू ख और भ जन, द न ों


ही का अस्तित्व अलग-अलग नहीों रहता, और तृस्तप्त ही शेष रहती है , उसी प्रकार वािववक माँ ग की

पूवतथ ह ने पर साधक का अस्तित्व शेष नहीों रहता, अवपतु साध्य की अगाध, अनन्त, वनत-नव वप्रयता ही
रह जाती है , ज साध्य से दू री तर्ा भे द एवों वभन्नता नहीों रहने दे ती। साध्य की वप्रयता साध् य के समान

ही अववनाशी है और क्षवत, पूवतथ एवों वनवृवर्त् से रवहत है और उससे वनत-नव रस की अवभव्यस्तक्त स्वत:
सतत ह ती रहती है । इस दृवि से साध्य की वप्रयता में ही जीवन की पूणथता वनवहत है ।

कामना-पूवतथ का सु ख भ गते -भ गते अन्त में कामना-अपूवतथ की व्यर्ा ही शेष रहती है ।

तब साधक वववश ह कर कामना-वनवृवर्त् के वलए प्रयत्नशील ह ता है । प्राकृवतक वनयमानुसार कामना-


पूवतथ में सभी प्राणी पराधीन और वनवृवर्त् में स्वाधीन हैं । इतना ही नहीों, कामना-पूवतथ के सुख की अपेक्षा
कामना-वनवृवर्त् से उवदत वचर-शास्तन्त कहीों अवधक महत्वपूणथ है ; कारण, वक कामना-पूवतथ काल में भी

कामना-अपूवतथ के समान पराधीनता रहती ही है , अर्ाथ त् कामना-पूवतथ के जीवन में स्वाधीनता की गन्ध
भी नहीों है । पराधीनता के रहते हुए जड़ता तर्ा अभाव का नाश नहीों ह ता। इस कारण कामना-पूवतथ

और अपूवतथ , द न ों का अर्थ समान है ; वकन्तु कामना-वनवृवर्त् पराधीनता का नाश कर, स्वाधीनता से


अवभन्न करती है । शास्तन्त की अवभव्यस्तक्त के वबना स्वाधीनता के साम्राज्य में प्रवेश नहीों ह ता। इस दृवि

से शास्तन्त का सम्पादन वािववक जीवन से अवभन्न ह ने के वलए अत्यन्त आवश्यक है , ज कामना-


वनवृवर्त् से ही साध्य है । कामना-पूवतथ के सुख के अन्त में अपने आप कामना-अपूवतथ का दु ुःख वजस

ववधान से आता है , वह ववधान वकतना मोंगलमय है ! यवद कामना-पूवतथ का सुख दु :ख का नाश कर पाता,
त कभी-भी वकसी भी प्रकार प्राणी का ववकास न ह ता।

इस दृवि से जीवन का वह भाग, ज कामना-अपूवतथ की व्यर्ा क जाग्रत करता है , बड़ा

ही आवश्यक तर्ा उपय गी है । दु ुःख से भयभीत प्राणी जीवन के इस सुनहरे भाग का आदर नहीों करते ,
अवपतु अपने क अभागे मानकर अधीर ह ते हैं । यह मान्यता सवथर्ा त्याज्य है । कामना-आपूवतथ -जन्य

दु :ख से ववश्व का क ई भी प्राणी रवहत नहीों है । इस कारण कामना-वनवृवर्त् का प्रश्न सभी के सामने


उपस्तस्र्त है । तभी त प्रायुः प्राणी सुख के अन्त में सुख-शास्तन्त का आहान करते हैं , दु ुःख का नहीों। इस

स्वाभाववक आहान में सुख के अन्त में शास्तन्त की माँ ग स्वतुः वसि है । परन्तु कामना-अपूवतथ की पीड़ा
जब तक कामना-पूवतथ -जवनत सुख के प्रल भन क खा नहीों लेती, तब तक वनष्कामता में स्वभाव से

अववचल आस्र्ा नहीों ह ती, वजसके वबना हुए साधक वनष्काम ह ही नहीों पाता। इस दृवि से दु ुःख के
प्रभाव में ही वनष्कामता की अवभव्यस्तक्त वनवहत है ।

कामना-पूवतथ -अपूवतथ -युक्त पररस्तस्र्वत में कामना-अपूवतां का भाग ही वािव में महत्वपूणथ
है । यवद उस भाग क वनकाल वदया जाय, त कामना-पूवतथ का भाग प्रावणय ों क पराधीनता, जड़ता एवों

अभाव में ही आबि रखेगा, ज ववचारशील ों क अभीि नहीों है । इतना ही नहीों, कामना-पूवतथ -जवनत
सुख का सम्पादन भी त कामना की उत्पवत के आवश्रत ही है । उत्पन्न हुई कामना जब तक पूरी नहीों

ह ती, तब तक कामना-अपू वतथ ही है । इस दृवि से कामना-पूवतथ के सुख का आश्रय भी कामना-अपूवतथ में


ही वनवहत है । परन्तु यवद गम्भीरतापूवथक ववचार वकया जाय, त ऐसा स्पि वववदत ह ता है वक वजस

सुखानुभूवत क प्राणी कामना-पूवतथ -जवनत मानता है , वह मान्यता भी वनभ्रस्तन्त नहीों है ।

प्रत्येक कामना-पूवतथ -काल में प्राणी उसी स्तस्र्वत में आता है , ज कामना-उत्पवर्त् से पूवथ
र्ी। अतुः सुखानुभूवत उस स्तस्र्वत से वसि है , ज कामना-उत्पवत से पूवथ है । पर प्राणी वािववकता पर
ववचार वबना ही वकए उस सुखानुभूवत क कामना-पूवतथ -जवनत मान लेता है । इतना ही नहीों, वजन विु

व्यस्तक्त आवद से कामना पूरी ह ती है , उन उत्पन्न हुई विु आवद क ही वह सुखरूप स्वीकार करता है ।
यह स्वीकृवत तर्ा मान्यता भ्रमात्मक ही है । कामना-उत्पवत से पूवथ ज स्तस्र्वत सहज और स्वाभाववक है ,

उसकी प्रास्तप्त मानवमात्र क सवथदा सु लभ है । कामना-पू वतथ वजन पररस्तस्र्वतय ों से ह ती है , वे पररस्तस्र्वतयाँ


सभी क सहज प्राप्त नहीों हैं , और ऐसी पररस्तस्र्वत त वकसी क भी प्राप्त नहीों है , वजसमें सभी कामनाएँ

पूरी ह जाएँ । परन्तु कामना-वनवृवत से वजस वचर-ववश्राम की अवभव्यस्तक्त ह ती है , वह प्रत्येक साधक क


सवथदा प्राप्त ह सकती है । उससे वनराश ह ना अपनी असावधानी के अवतररक्त और कुछ नहीों है ।

कामना-पूवतथ क ही जीवन मानने के समान और क ई भारी भूल नहीों है । इस दृवि से

कामना-अपूवतथ -जवनत व्यर्ा ववकास का मूल है । पर यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं , वजन् न
ों े वनज
वववेक के प्रकाश में बुस्ति-दृवि से इस्तिय-दृवि पर ववजय प्राप्त की है और दु :ख के महत्व क भलीभाँ वत

अनुभव वकया है । इस्तिय-दृवि का उपय ग आवश्यक है , वकन्तु उसके प्रभाव क स्वीकार करना
असावधानी है । यवद इस्तिय-दृवि का प्रभाव वािववक माँ ग की पूवतथ में तर्ा सवथत मुखी ववकास में हे तु

ह ता, त बुस्ति-दृवि की आवश्यकता ही नहीों ह ती। बुस्ति-दृवि एकमात्र इस्तिय-दृवि के प्रभाव का अन्त
करने के वलए ही वमली है । बुस्ति-दृवि का प्रभाव इस्तिय-दृवि का नाशक नहीों है , उसके प्रभाव का

नाशक है । इस्तिय-दृवि का प्रभाव नि ह ने से वकसी प्रकार की असुववधा तर्ा क्षवत नहीों ह ती, अवपतु
वािववक जीवन की माँ ग जाग्रत ह ती है , ज दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत कर, दु खी क वािववक

जीवन से अवभन्न करने में समर्थ है ।

इस्तिय-दृवि के प्रभाव का नाश ह ते ही बुस्ति-दृवि अपने कारण में ववलीन ह जाती है ,

वजसके ह ते ही साधक का जीवन वववेकरूपी प्रकाश से प्रकावशत ह जाता है , अवववेक -रूपी


अन्धकार शेष नहीों रहता। उसके वमटते ही अकर्त्थ व्य, असाधन और आसस्तक्तयाँ वनमूथल ह जाती हैं और

वफर अपने आप कर्त्थव्य-परायणता, साधन तर्ा प्रेम की अवभव्यस्तक्त ह ती है । इस दृवि से बुस्ति -दृवि का
प्रभाव बड़े ही महत्व की विु है । परन्तु दु ुःख का प्रभाव हुए वबना बुस्ति-दृवि इस्तिय-दृवि के प्रभाव क

नि नहीों कर पाती, इसी कारण दु ुःख के प्रभाव में ही ववकास वनवहत है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार मानवमात्र क आों वशक सुख और दु ुःख का भास है । वकन्तु वह


वकसके प्रभाव से प्रभाववत है , यह उसकी व्यस्तक्तगत बात है । साधक ों क त सु ख-दु ुःख के प्रभाव ों के

पररणाम पर ववचार करना है । यवद प्राणी आों वशक सुख के प्रभाव से प्रभाववत है , त उसमें दु ुःख का भय
और भ ग उत्पन्न ह गा, वजसके ह ते ही अप्राप्त सुख की आशा और प्राप्त सुख की ममता उत्पन्न ह गी।
यह जानते हुए वक चाहते हुए भी प्राप्त सुख नहीों रहता, त अप्राप्त सुख की आशा क्ा वनरर्थक नहीों है

? इस दृवि से सुख का प्रभाव अवनवत का ही मूल है । सुख की आशाओों के आधार पर दु :ख क भ गते


रहना और उससे भयभीत ह ना असावधानी के अवतररक्त और कुछ नहीों है ।

आये हुए दु ुःख का प्रभाव न त प्राप्त सुख में ममता ही रहने दे ता है और न अप्राप्त सुख

की कामनाओों क ही जन्म दे ता है , अवपतु सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन की वजज्ञासा तर्ा उत्कट
लालसा जाग्रत करता है । वजज्ञासा उत्पन्न हुई कामनाओों का नाश कर, वािववक जीवन की उत्कट

लालसा-पूवतथ में समर्थ है । इस दृवि से दु ुःख का प्रभाव बड़े ही महत्व की विु है । जब तक साधक आये
हुए दु ुःख के प्रभाव क नहीों अपनाता है , तब तक न त सुख की दासता का ही नाश ह ता है और न

दु ुःख का आना ही बन्द ह ता है , अर्ाथ त् दु ुःख आता ही रहता है । इस कारण शीघ्रावतशीघ्र आये हुए दु ुःख
के प्रभाव क अपनाना है और दु स्तखय ों क दे ख करुवणत तर्ा सुस्तखय ों क दे ख प्रसन्न ह ना है ।

दु ुःख का प्रभाव अप्राप्त सु ख की कामनाओों क उत्पन्न नहीों ह ने दे ता और करुणा तर्ा

प्रसन्नता प्राप्त सुख-भ ग की रुवच का नाश कर दे ती है , वजसके ह ते ही प्राप्त सुख का सद्व्यय स्वतुः ह ने
लगता है और वफर परस्पर एकता ह जाती है । इस दृवि से समि सों घषों का अन्त दु ुःख के प्रभाव में ही

वनवहत है । समि सोंघषथ सुख-ल लुपता से ही उत्पन्न एवों प वषत ह ते हैं । आों वशक सुख का सद्व्यय
एकमात्र सेवा द्वारा ववद्यमान राग की वनवृवर्त् में ही है । आये हुए सुख का भ ग करना त नवीन दु ुःख के

आहान के अवतररक्त और कुछ नहीों है । अतुः प्राप्त सु ख दु स्तखय ों की धर हर है । उसे दु स्तखय ों क भेंट न

करना साधक की भारी भूल है ।

ममता-रवहत ह कर करुवणत ह ना ही प्राप्त सुख दु स्तखय ों क भेंट करना है । यह तभी


सम्भव ह गा, जब साधक वकसी न वकसी दृविक ण से सभी के सार् अपनापन स्वीकार करे । सुख -भ ग

की रुवच परस्पर वभन्नता क जन्म दे ती है । जब दु ुःख का प्रभाव सुख -भ ग की रुवच क वनमूथल कर दे ता


है , तब वभन्नता का स्वतुः अन्त ह जाता है , वजसके ह ते ही दु स्तखय ों क दे ख करुणा और सुस्तखय ों क दे ख

प्रसन्नता स्वतुः जाग्रत ह ती है , वजससे साधक का जीवन जगत् के वलए उपय गी वसि ह ता है ।

ममता-युक्त करुणा और प्रसन्नता ववकास में हे तु नहीों हैं । उनसे त म ह ही प वषत ह ता


है । दु ुःखद और सुखद दृश्य क दे ख ज करुणा तर्ा प्रसन्नता ह ती है , वही ववकास का मूल है । जब

प्राणी दे हावभमान के कारण दृश्य से ममता ज ड़ लेता है , तब उत्पन्न हुई करुणा और प्रसन्नता दु ुःख का
भय तर्ा सुख का प्रल भन ही प वषत करती हैं । अतुः साधक ों क एकमात्र सुख और दु ुःख पर ववचार
करना है , वकसी व्यस्तक्त-ववशेष के आधार पर नहीों। तभी सुख की वािववकता का ब ध और दु ुःख का

पूरा-पूरा प्रभाव ह ता है । व्यस्तक्तगत रूप से सुख और दु ुःख आशा और भय में ही आबि रखते हैं ।

सुख की आशा से सुख वमल नहीों जाता और दु ुःख के भय से दु :ख वमट नहीों जाता। सुख
और दु ुःख अनन्त के ववधान से अपने आप आते और जाते हैं । उनके सदु पय ग तर्ा उनकी

वािववकता के पररचय में ही साधक का ववकास है । प्राकृवतक ववधान के अनुसार सुख और दु ुःख एक
ही वसक्के के द पहलू हैं । उनक ववभावजत कर, एक की आशा करना और दू सरे से भयभीत ह ना

प्रावणय ों की भूल है , और कुछ नहीों। सुख की आशा का नाश करते ही दु ुःख का भय अपने आप वमट
जाता है । इतना ही नहीों, सु ख में भी दु ुःख का दशथन ह ने लगता है , वजसके ह ते ही दु खी दु ुःख के प्रभाव

से प्रभाववत ह , सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन का अवधकारी ह जाता है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार सु ख के भ वगय ों क दु :ख भ गना ही पड़ता है और वे आये हुए


दु ुःख से भयभीत भी ह ते ही हैं । दु ुःख का भ ग और भय ववकास में हे तु नहीों हैं , अवपतु उनसे त प्राप्त

शस्तक्त का हास ही ह ता है । इतना ही नहीों, दु ुःख से भयभीत प्राणी सुख और सम्मान क सुरवक्षत रखने
के वलए उन प्रवृवर्त्य ों में प्रवृर्त् ह ता है , ज सवथर्ा त्याज्य हैं और वजनका पररणाम भयोंकर दु ुःख के

अवतररक्त और कुछ नहीों ह ता। इस कारण भूलजवनत दु ुःख का भ ग सुख का प्रल भन ही है , वजसका
साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है । दु ुःख का भ गी ही दू सर ों क दु ुःख दे ने में प्रवृर्त् ह ता है ।

वजस पर दु ुःख का प्रभाव ह ता है , वह वकसी अन्य क दु ुःख नहीों दे ता, अवपतु पर-दु ुःख से करुवणत ही

ह ता है । सुख का ल भी और दु ुःख का भ गी ही दू सर ों क दु ुःख दे ता है ।

ववधान के अनुसार वदया हुआ दु ुःख कई गुना अवधक ह कर अपने पर ही आता है । इस


दृवि से वकसी क दु ुःख दे ना अवहतकर ही है । पराये दु :ख से करुवणत ह ने में ही ववकास है । इस कारण

जब तक प्राणी सुख-दु ुःख का भ गी रहे गा, तब तक ववकास नहीों ह गा और न अकर्त्थव्य-जवनत दु ुःख का


नाश ही ह गा। दु ुःख का प्रभाव प्रमाद का नाश कर, अकर्त्थव्य क उत्पन्न ही नहीों ह ने दे ता। अत:

साधक ों क दु ुःख के भय तर्ा उसके भ ग का त्याग कर, दु ुःख के प्रभाव क अपनाना अवनवायथ है ।

वजस दु ुःख के मूल में दु खी की वतथमान भूल नहीों है , अवपतु ज पररस्तस्र्वत-जवनत है , उससे
दु खी के सम्मान में बाधा नहीों आती, अर्ाथ त् उसे क ई अपमावनत नहीों करता। इतना ही नहीों, उसके

प्रवत करुणा ही जाग्रत ह ती है । उस दु ुःख से दु खी की प्राप्त शस्तक्त का हास नहीों ह ता। भूलजवनत दु ुःख
त दु खी क अधीर कर दे ता है । और उसके स्वावभमान क गहरी ठे स लगती है । वह समाज की ओर
से भी वतरस्कार पाता है । इन सब कारण ों से भूलजवनत दु ुःख से दु खी बेचारा उस समय तक ववकास के
पर् पर अग्रसर नहीों ह ता, जब तक वह वनत्य-प्राप्त वतथमान वनदोषता में अववचल आस्र्ा न रखे और

दु ुःख के प्रभाव से भूतकाल की भूल क न द हराने का दृढ़ सोंकल्प न कर ले। इस दृवि से भूतकाल की
भूल क न द हराना और वतथमान वनदोषता में अववचल आस्र्ा ही सब ओर से वतरस्कृत दु खी क

वािववक जीवन से अवभन्न करने में हे तु है ।

प्राकृवतक दु ुःख से दु खी प्रावणय ों के प्रवत त ववश्व की ओर से करुणा की धार बहती ही है ।


उनक आवश्यक आदर, प्यार तर्ा सहय ग वमलता ही है और उनका स्वावभमान भी सुरवक्षत रहता ही

है । यवद उनमें सुख की आशा न रहे , त वे अत्यन्त सु गमतापूवथक दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह , सत्पर्
पर अग्रसर ह जाते हैं । परन्तु भूल-जवनत दु स्तखय ों क दे ख, क ई ववरले ही महापु रुष ऐसे ह ते हैं , ज

उन्ें आदर तर्ा प्यार एवों आवश्यक सहय ग दे कर अधीर नहीों ह ने दे ते और उनमें आत्म-ववश्वास
जाग्रत करते हैं । वजससे वे भी अपनी रुवच, य ग्यता एवों सामर्थर्थ के अनुसार साधन-पर् में प्रवृर्त् ह जाते

हैं ।

भूल-जवनत दु स्तखय ों क दे ख, वजन्ें क्ष भ तर्ा ि ध नहीों ह ता, उन्ीों के हृदय में
वािववक करुणा की धारा प्रवावहत ह ती है , ज उनके वलए त वहतकर है ही, पर ववश्व में भी वह

करुणा का स्र त प्रावणय ों में करुणा जगाने में समर्थ ह ता है ।

पराये दु ुःख से दु खी ह ने के समान और क ई उत्कृि सेवा नहीों है । पर यह सेवा वे ही

साधक कर सकते हैं , ज वतथमान वनदोषता के आधार पर वकसी क बुरा नहीों समझते , वकसी का बुरा
नहीों चाहते और न वकसी के प्रवत बुराई करते हैं । भू ल-जवनत दु स्तखय ों क अपनाने की सामर्थर्थ उन्ीों
सजग साधक ों में ह ती है , ज अपनी भूल दे खने में और उसक न द हराने में सवथदा तत्पर हैं ।

वनदोष तत्व सवथदा ववद्यमान है । उससे ववमुखता तर्ा ववस्मृवत सुख-भ ग के कारण ह गई
है । दु :ख का प्रभाव सुख-भ ग की रुवच क खाकर वनत्य-प्राप्त वनदष तत्व से अवभन्न करने में समर्थ है ।

अर्ाथ त् ववस्मृवत और ववमुखता का सवाां श में नाश दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

अनुकूल पररस्तस्र्वत में भी ज दु स्तखय ों क दे ख अधीर तर्ा करुवणत ह जाते हैं , वे सहज

भाव से सुख के प्रल भन से रवहत ह कर, दु ुःख के प्रभाव क अपना कर, वािववक जीवन की ख ज में
बड़ी ही सजगता, सावधानी तर्ा तत्परता से प्रवृर्त् ह जाते हैं । वे ववश्व की ओर से वमले हुए सम्मान का

भ ग नहीों करते और श्रम, सोंयम, सदाचार आवद गुण ों के महत्व में आबि नहीों ह ते। तब मोंगलमय
ववधान से स्वत: सीवमत आह-भाव गल जाता है । वजसके गलते ही जीवन की पूणथता वसि ह ती है । इस
दृवि से सम्मान और सद् गुण ों के सुख का भी सवाां श में त्याग करना अवनवायथ है । पर वह तभी सम्भव

ह गा, जब सभी का दु ुःख अपना दु :ख ह जाये और वकसी भी मूल्य पर दु ुःख का भ ग अभीि न रहे ,
अवपतु असह्य वेदना जाग्रत ह जाये।

सीवमत आह-भाव सुख तर्ा दु :ख के आश्रय से ही जीववत रहता है । सवाां श में सु ख के

प्रल भन के नाश और दु ुःख की असह्य वेदना से ही सुख-दु ुःख का आश्रय वमटता है । वजसके वमटते ही
अह-भाव रूपी अणु शेष नहीों रहता और वफर साधक ववश्राम, स्वाधीनता तर्ा प्रेम से अवभन्न ह ,

कृतकृत्य ह जाता है । इस दृवि से असह्य वेदना में ही दु :ख का प्रभाव वनवहत है , ज सफलता की कुोंजी
है ।

वतथमान विुस्तस्र्वत प्रावणमात्र की कामना की उत्पवर्त्, पूवतथ , अपूवतथ एवों वनवृवर्त् से ही युक्त

है । कामना उत्पन्न ह ते ही पर की अपेक्षा ह ती है , अर्ाथ त् पराधीनता की अनुभूवत ह ती है । पर, प्राणी


प्रमादवश कामना-पूवतथजवनत सुख की आशा में पराधीनता से पीवड़त नहीों ह ता और अल्प-काल के

सुख-भ ग के प्रल भन में आबि ह , पराधीनता-जवनत व्यर्ा क सहन कर लेता है ।

वकन्तु प्राकृवतक वनयमानुसार कामनापूवतथ का सुख-भ ग नवीन कामना क जन्म दे ता है ,

वजसके ह ते ही बेचारा प्राणी कामना-अपूवतथ के दु ुःख से व्यवर्त ह जाता है । तब वह कामना-वनवृवर्त् के


वलए प्रयास करता है , ज वववेक-वसि है । कामना-अपूवतथ से उत्पन्न हुए दु ुःख का प्रभाव ही वववेक के

आदर में समर्थ है । पर जब साधक कामना-वनवृवर्त् की शास्तन्त में, ज सुख की अपे क्षा कहीों अवधक सरस
है , रमण करने लगता है , तब वह पररस्तच्छन्नता में आबि ह जाता है , ज भेद की जननी है ।

भेद के उत्पन्न ह ते ही प्राणी ल क-रों जन, आत्म-ख्यावत आवद में आबि ह ने लगता है , ज

उसे वािववक जीवन से अवभन्न नहीों ह ने दे ते। इस कारण कामना-वनवृवर्त् की शास्तन्त में रमण करना भी
उत्कृि सुख-भ ग ही है । यह वनयम है वक सुख के भ गी क दु :ख भ गना ही पड़ता है । इस दृवि से

शास्तन्त में रमण करना भी दु ुःख क दबाना है , उसका नाश करना नहीों। दबा हुआ दु ुःख अपने आप
प्राकृवतक वनयम से प्रकट ह ता है , अर्ाथ त् जब तक पररस्तच्छन्नता का अत्यन्त अभाव नही ह जाता, तब

तक दु ुःख के वेष में अनन्त की अहै तुकी कृपा ह ती ही रहती है । पर इस रहस्य क क ई वबरले ही
ववचारशील जानते हैं ।

दु ुःख का आना त मोंगलमय है ही, पर उसके प्रभाव से प्रभाववत न ह ना और उससे


भयभीत ह जाना, साधक की असावधानी ही है । असावधानी प्राकृवतक द ष नहीों है , अवपतु साधक की
भूल है । दु :ख के प्रभाव से ज सजगता उवदत ह ती है , उसी से असावधानी का अन्त ह ता है । वजसके

ह ते ही साधक कामनापूवतथ , अपूवतथ एवों वनवृवर्त् से उत्पन्न हुए सुख, दु ुःख तर्ा शास्तन्त क जीवन मानना
बन्द कर दे ता है ; कारण, वक सुख, दु :ख और शास्तन्त के आवश्रत ही अहों भाव जीववत रहता है । वजसके

रहते हुए समता, स्वाधीनता एवों प्रेम के साम्राज्य में प्रवे श नहीों ह ता।

अतुः पररस्तच्छन्नता का नाश अत्यन्त आवश्यक है , ज दु ुःख के प्रभाव से ही सम्भव है ।


दु :ख, सुख तर्ा शास्तन्त के आवश्रत आह-भाव क जीववत रखना वािववक जीवन से ववमुख ह ना है ।

'अहों के रहते हुए 'मम' का उत्पन्न ह ना स्वाभाववक है । ममता की उत्पवत समि ववकार ों की जननी है ।
दु :ख का प्रभाव ममता के नाश में हे तु है । ममता का नाश ह ते ही वनववथकारता की अवभव्यस्तक्त स्वत:

ह ती है ।

परन्तु वववेकीजन वनववथकारता के आश्रय 'अहों का प षण नहीों करते। तब वकसी प्रकार के


गुण का अवभमान तर्ा द ष की उत्पवर्त् नहीों ह ती। गुण -द ष रवहत जीवन में ही वािववक वनदोषता की

अवभव्यस्तक्त है । अवभव्यस्तक्त उसी की ह ती है , ज अववनाशी है और ववनाश उसका ह ता है , ज उत्पन्न


हुआ है । गुण प्राकृवतक हैं । उनका अवभमान प्राणी की भूल है । गुण ों का अवभमान गलते ही वकसी भी

द ष की उत्पवत नहीों ह ती। गुण ों के अवभमान से त द ष दब भले ही जाएँ , सवाां श में उनका नाश नहीों
ह ता। इस दृवि से गुण ों का अवभमान ही द ष ों की भूवम है ।

ज बुराई 'भलाई’ का रूप धारण कर लेती है , उसक जानना और उसे वमटाना बड़ा ही
कवठन ह ता है । ज बुराई, 'बुराई’ के रूप में ह ती है , उसक जानना और वमटाना सुगम ह ता है । गुण ों
का अवभमान वह मूल द ष है , ज भलाई का वेष धारण कर, साधक क पररवचठन्नता में आबि कर
दे ता है । द ष-जवनत वेदना से व्यवर्त प्राणी अनन्त की अहै तुकी कृपा का आश्रय ले , अत्यन्त

सुगमतापूवथक वािववक जीवन से अवभन्न ह जाता है ; कारण, वक असह्य वेदना द ष-जवनत सुख-
ल लुपता क खा लेती है और साधक क अनन्त की अहै तुकी कृपा का स्पि दशथन करा दे ती है ।

आों वशक द ष रहने पर ही गुण ों के अवभमान की उत्पवर्त् ह ती है । द षजवनत वेदना ही द ष ों क वनमूथल


करने में हे तु है । केवल गुण ों के सम्पादन से द ष समूल नि नहीों ह ते । अत: दु ुःख के प्रभाव में ही

वनदोषता की अवभव्यस्तक्त वनवहत है ।

प्रत्येक साधक में आों वशक गुण और द ष ववद्यमान हैं । अत: आों वशक गुण ों का अवभमान
करना और आों वशक द ष ों से व्यवर्त न ह ना, क्ा भूल नहीों है ? इस भूल क बनाये रखना दु :ख के
प्रभाव से वोंवचत ह ना है , ज ववनाश का मूल है । द ष-युक्त जीवन की माँ ग अपने वलए वकसी क नहीों
है । सभी क वनदोष सावर्य ों की आवश्यकता है । वजसकी माँ ग अपने वलए नहीों है , उसक जीवन में

बनाये रखना, कहाँ तक उवचत है ? इस समस्या पर ववचार करने से यह स्पि वववदत ह ता है वक द ष-


जवनत वेदना के वबना जीवन ववकवसत नहीों ह ता।

द ष क ‘द ष’ जान लेने पर भी द ष-जवनत सुख-ल लुपता का सवाां श में नाश द ष-जवनत

वेदना के वबना सम्भव नहीों है । इसी कारण अवधकतर साधक द ष जान लेने पर भी द ष-रवहत नहीों ह
पाते और आों वशक वनदोषता के आधार पर झूठा सन्त ष कर बैठते हैं । यद्यवप वनदोषता से अवभन्न हुए

वबना क ई भी साधक सन्तुि नहीों ह सकता, परन्तु आों वशक वनदोषता के अवभमान में आबि ह कर,
वह आवशक द ष ों की व्यर्ा से व्यवर्त नहीों ह ता।

ववचार यह करना है वक जब आवशक वनदोषता से सन्त ष ह ता है , त आों वशक द ष की

व्यर्ा क् ों नहीों ह ती ? इस मूल भूल पर प्रत्येक साधक क सजगता तर्ा सावधानी पूवथक प्राप्त वववेक
के प्रकाश में स्वयों ववचार करना अवनवायथ है । वह तभी सम्भव ह गा, जब साधक वनदोषता से वनराश न

ह और उसकी प्रास्तप्त में उसकी अववचल आस्र्ा तर्ा ववकल्प-रवहत ववश्वास ह । यह वनयम है वक
वजसकी प्रास्तप्त में ववकल्प-रवहत आस्र्ा ह ती है , उसके वलए प्राप्त विु सामर्थर्थ , य ग्यता आवद का

सद्व्यय अपने आप ह ने लगता है । वमले हुए के सदु पय ग में ही सफलता वनवहत है , यह अनन्त का
मोंगलमय ववधान है । इससे यह वनववथवाद वसि है वक वनदोषता की माँ ग सभी साधक ों की अपनी माँ ग है

और उसकी पूवतथ अवनवायथ है ।

आों वशक द ष रहते हुए आों वशक वनदोषता का भ ग करना सवथर्ा त्याज्य है । जब साधक
आवशक द ष क वकसी भी प्रकार सहन नहीों कर सकता, तब द ष-जवनत वेदना स्वत: जाग्रत ह ती है
और वफर साधक जाने हुए तर्ा वकये हुए द ष ों का त्याग करने में समर्थ ह जाता है । तब वकये हुए द ष ों

की पुनरावृवर्त् नहीों ह ती और जाने हुए द ष उत्पन्न नहीों ह ते। एकमात्र पर-द ष-दशथ न ही आों वशक द ष ों
की व्यर्ा क जाग्रत नहीों ह ने दे ता, अवपतु आों वशक वनदोषता का अवभमान उत्पन्न करता है । इस कारण

द ष-जवनत व्यर्ा के जगाने में पर-द ष-दशथन का त्याग अत्यन्त आवश्यक है । अपना गुण और पराया
द ष दे खने के समान और क ई द ष नहीों है । इस भयों कर द ष का नाश वतथमान में ही करना है । उसके

पश्चात् ही साधक सजगतापू वथक अपने सम्बन्ध में ववचार करने में प्रवृर्त् ह सकता है , ज ववकास का मूल
है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार ज दे खने में आता है , उससे द्रिा वकसी-न-वकसी अोंश में अलग
ह जाता है । अतुः अपने गुण ों क दे खते ही वे गुण जीवन में नहीों रहते , अवपतु उनसे वभन्नता ह जाती है ।
इस कारण अपने गुण ों क दे खना अपने क उनसे अलग करना है और पराये द ष दे खने से अपने में

ज आों वशक गुण हैं , उनका अवभमान उत्पन्न ह ता है । इस दृवि से पराये द ष और अपने गुण ों क
दे खना, द ष ों क प वषत करना है । साधक ों क वजतने स्पि रूप से अपने द ष ों का दशथन ह सकता है ,

उतना 'पर' के द ष ों का नहीों। अत: दू सरे में द ष ों क आर प करना सवाां श में सत्य नहीों है । ज सत्य
नहीों है , उसका साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है ।

गुण ों के न दे खने से गुण नि नहीों ह जाते , अवपतु जीवन ह जाते हैं । इस कारण गुण ों क

न दे खना ही गुण ों से अवभन्न ह ने का वािववक उपाय है । इतना ही नहीों, वनववथकारता तर्ा वनदोषता
व्यस्तक्त द्वारा उपावजथत नहीों हैं , अवपतु व्यस्तक्त की ख ज है । ख ज के द्वारा उसी की प्रास्तप्त ह ती है , ज

अववनाशी तत्व है । अववनाशी तत्व से साधक अवभन्न ह ता है , उसे उत्पन्न नहीों करता। इस दृवि से गुण
व्यस्तक्तगत उपज नहीों हैं , अवपतु व्यस्तक्त की माँ ग है । ज विु व्यस्तक्तगत नहीों है , उसका अवभमान करना

भारी भूल है ।

यवद वनदोषता व्यस्तक्तगत उपज ह ती, त सभी के जीवन में सवाां श में ह ती। पर ऐसा
वकसी का भी अनुभव नहीों है । आाों वशक द ष ों के नाश का दावयत्व साधक पर है , कारण वक, द ष ों की

उत्पवर्त् प्राप्त वववेक के अनादर से ही ह ती है । वजन द ष ों की उत्पवर्त् साधक के प्रमाद से ह ती है , वे ही


द ष नि ह सकते हैं और उनके नि ह ते ही स्वत: वनदोष-तत्व से अवभन्नता ह जाती है । वनदोषता

व्यस्तक्तगत वनमाथ ण नहीों है । वह त अनन्त का स्वभाव है अर्वा स्वत: वसि तत्व है । साधक में स्वत:

वसि तत्व की माँ ग है और उस पर प्रमाद से उत्पन्न हुए आवशक द ष-जवनत सुख का प्रल भन वमटाने
का दावयत्व है । दु ुःख का प्रभाव द ष-जवनत सुख-ल लुपता क खाकर साधक क वनदोष तत्त्व से अवभन्न

कर दे ता है ।

यह वनयम है वक वजसका न ह ना अपने में असह्य व्यर्ा जाग्रत करता है , वह स्वत: ह ने


लगता है , कारण, वक वतथमान की वेदना ही भववष्य की उपलस्ति ह ती है । अत: वनदोष तत्व से अवभन्न

ह ने के वलए वनदोष न ह ने की वेदना अवनवायथ है । पर यह तभी सम्भव ह गा, जब साधक सवाां श में
सवथदा पर-द ष-दशथन का त्याग करे । पराये द ष दे ख, प्राणी अपने द ष ों क सहन करता रहता है । इस

कारण पर-द ष-दशथन का बड़ा ही भयोंकर पररणाम यह ह ता है वक पर-द ष-दशी वनज-द ष ों से व्यवर्त
नहीों ह ता। व्यर्ा के वबना द ष-जवनत सुख-ल लुपता का सवाां श में नाश नहीों ह ता, वजसके वबना हुए

वनदोषता की तीव्र लालसा जाग्रत नहीों ह ती। वजसकी आवश्यकता नहीों है , उसकी प्रास्तप्त भी सम्भव नहीों
है ।
प्रास्तप्त उसी की ह ती है , वजसकी आवश्यकता वतथमान में ह । ज आवश्यकता अनेक

कामनाओों क खाकर प वषत ह ती है , वही वािव में आवश्यकता है । एक काल में अनेक कामनाएँ
भले ही प्रतीत ह ,ों वकन्तु वािववक आवश्यकता एक काल में एक ही ह ती है । इतना ही नहीों, वजसमें

वािववक आवश्यकता उवदत ह ती है , उसमें और उसकी आवश्यकता में ववभाजन नहीों ह ता। अर्ाथ त्
साधक और उसकी आवश्यकता, द न ों द नहीों रहते , अवपतु साध्य की आवश्यकता ही साधक का

अस्तित्व ह ता है । कामना और वजसमें कामना उत्पन्न ह ती है , वे द न ों एक नहीों ह ते। कारण, वक


कामनाएँ अनेक ह ती हैं । प्रत्येक कामना अनेक अन्य कामनाओों की जननी है । इसी कारण कामना-

पूवतथ ह ने पर भी अन्त में कामना-अपूवतथ ही शेष रहती है , वकन्तु वािववक आवश्यकता की पूवतथ ह ने
पर आवश्यकता शेष नहीों रहती। इस दृवि से प्रत्येक साधक साध्य से अवभन्न ह जाता है । पर कब ?

जब साधक का अस्तित्व साध्य की आवश्यकता से वभन्न न रहे ।

साध्य ने अपनी ओर से कभी वकसी का त्याग नहीों वकया, कारण, वक साध्य कहते ही
उसक हैं , ज सभी साधक ों का अपना है और दे श-काल की दू री से रवहत अववनाशी है । उसकी प्रास्तप्त

सभी साधक ों क सवथदा सु लभ है । उससे वनराश ह ना भूल है और उससे वभन्न की कामना रखना महा
भूल है । अत: साधक ों क सजगतापूवथक सभी कामनाओों का नाश कर, साध्य की आवश्यकता क

सबल तर्ा स्र्ायी बनाना अत्यन्त आवश्यक है । पर वह तभी सम्भव है , जब वनज-द ष-जवनत सुख-
ल लुपता का सवाां श में नाश कर वदया जाय। द ष क ‘द ष’ जान लेने मात्र से ही द ष का नाश नहीों

ह ता।

द ष-जवनत वेदना ही द ष-जवनत सुख-ल लुपता का नाश करती है । अत: दु ुःख के प्रभाव

में ही वनदोषता की आवश्यकता प वषत ह ती है । आवश्यकता की सवाां श में जागृवत और उसकी पूवतथ
उसी प्रकार युगपद् है , वजस प्रकार सूयथ का उदय और अन्धकार की वनवृवर्त्। वािववक आवश्यकता

की जागृवत में ही साधक के पुरुषार्थ की पराकाष्ठा है , ज दु ुःख के प्रभाव में वनवहत है ।

मोंगलमय ववधान से आये हुए दु ुःख का आदरपूवथक स्वागत करना और उससे भयभीत न
ह ना, प्रत्येक ववकास न्मुख प्राणी के वलए अवनवायथ है । दु ुःख के आते ही सुख के पीछे दौड़ना, क्षवणक

सुख द्वारा दु ुःख क दबाने का प्रयास करना और अन्त में दु ुःख क भ गना, भूल है । सुख प्राणी क
सुषुस्तप्तवत् जड़ता में आबि करता है । वजससे वह बेचारा वतथमान विुस्तस्र्वत से अपररवचत ह जाता है ,

वजसके ह ते ही प्राणी अपने दावयत्व और वािववक माँ ग क भू ल जाता है , अर्ाथ त् उसे साधन और साध्य
की ववस्मृवत ह जाती है । उसके ह ते ही अकर्त्थव्य,असाधन और आसस्तक्त उत्पन्न ह ती हैं , ज वकसी भी
साधक क अभीि नहीों है । आया हुआ दु ुःख प्रकृवत का दण्ड-ववधान नहीों है , अवपतु ऐसा अनुपम

उपहार है , वजसक पाकर ही प्राणी सजग, सावधान और जाग्रत ह जाता है ।

जागृवत ही वािववक जीवन की भूवम है । जागृवत से ही प्राप्त पररस्तस्र्वत का वािववक


पररचय ह ता है , वजसके ह ते ही सभी पररस्तस्र्वतय ों से अतीत वािववक वदव्य-वचन्मय जीवन की उत्कट

लालसा उवदत ह ती है , ज सभी आसस्तक्तय ों क खाकर राग-रवहत करने में समर्थ है । राग-रवहत भूवम
में ही य गरूपी वृक्ष का प्रादु भाथ व ह ता है , ज कल्पतरु के समान है , अर्ाथ त् उसमें समि ववकास ह ते

हैं । इतना ही नहीों, य गरूपी वृक्ष पर ही तत्व-ज्ञानरूपी फल लगता है , ज प्रे म-रस से पररपूणथ है ।

इस दृवि से राग-रवहत ह ना मानव-मात्र के वलए अत्यन्त आवश्यक है । इसके वबना वकसी


का भी वकसी प्रकार का ववकास सम्भव नहीों है । यवद वतथमान पररवतथनशील जीवन से दु ुःख का भाग

वनकाल वदया जाय, त क ई भी प्राणी वकसी भी प्रकार से राग-रवहत नहीों ह सकता। इस दृवि से दु ुःख
जीवन का सुनहरा भाग है । उससे भयभीत ह ना और उसक भ गना, भारी भूल है ।

दु ुःख वजतना गहरा ह , उतना ही वहतकर है ; वकन्तु दु ुःख आते ही सुख का आहान करना,
दु :ख का भ ग है , दु ुःख का प्रभाव नहीों। दु ुःख के भ ग से दु खी अधीर ह जाता है और कभी-कभी वह

करने लगता है , ज नहीों करना चावहए और वह मानने लगता है , ज नहीों मानना चावहए। इस कारण
दु :ख का भ ग दु खी के ववकास में बाधक है , वकन्तु दु ुःख का प्रभाव दु खी क सजग तर्ा स्वावलम्बी

बनाता है और दु खी सवाां श में दु :ख का अन्त करने के वलए अर्क प्रयत्नशील ह ता है । यह वनयम है वक


ज हार स्वीकार नहीों करता, वह ववजयी अवश्य ह ता है । अत: दु ुःख का आदरपूवथक स्वागत करते हुए
सतत प्रयत्नशील रहना है । सफलता अवनवायथ है ।

विु , व्यस्तक्त, अवस्र्ा, पररस्तस्र्वत आवद के द्वारा सु खानुभूवत में जीवन-बुस्ति स्वीकार
करना सुख के स्वरूप से अपररवचत रहना है । सुख का यर्ार्थ ज्ञान ह ने पर ही सुख में जीवन-बुस्ति शेष

नहीों रहती, कारण, वक सुख-रूपी भूवम में दु ुःख उत्पन्न ह ता है । इतना ही नहीों, सु ख, सुख के भ गी क
पराधीनता, जड़ता एवों अभाव में आबि करता है । सु ख-भ ग की रुवच ज्य -ों ज्य ों सबल ह ती जाती है ,

त्य -ों त्य ों बेचारा सुखी अपने अस्तित्व क ही ख ता जाता है । उसके व्यस्तक्तत्व में विु अवस्र्ा, पररस्तस्र्वत
आवद का ही महत्व अोंवकत ह ता जाता है । उन्ीों के आवश्रत वह अपने क दीनता तर्ा अवभमान की

अवि में दग्ध करता रहता है ।


दु ुःख का प्रभाव प्राणी क सुख का भ गी नही रहने दे ता, अवपतु सुख का सदु पय गी बना

दे ता है । सुख का सदु पय ग पर-सेवा में है । सेवा सेवक क ववभु करती है और सुख का भ ग भ गी क


सीवमत बनाता है । इस दृवि से सुख का भ ग अवहतकर और सुख का सदु पय ग वहतकर है । मोंगलमय

ववधान से सुख सेवा के वलए वमला है , भ ग के वलए नहीों। पर यह रहस्य तभी खुलता है , जब साधक आये
हुए दु :ख के प्रभाव से त्याग क अपनाकर, सुख-दु :ख से अतीत वािववक जीवन से अवभन्न ह जाता है ।

सुख के वािववक स्वरूप का ज्ञान और उसके सदु पय ग की सामर्थर्थ दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

ज साधक सावथजवनक दु :ख से पीवड़त हैं , वे अत्यन्त सुगमतापूवथक आये हुए सु ख का


सदु पय ग करने में समर्थ ह ते हैं । व्यस्तक्तगत दु ुःख से भी दु खी में जागृवत आती है । प्रावणमात्र के दु ुःख से

दु खी ह ने पर त साधक के जीवन में अनन्त ऐश्वयथ और माधुयथ की अवभव्यस्तक्त ह ती है । ऐश्वयथ त इस


प्रकार का वक उसे अपने वलए जगत् की अपेक्षा नहीों रहती और माधुयथ इस प्रकार का वक वह सभी क

अपना लेता है । उसके जीवन में वभन्नता की गन्ध भी नहीों रहती और न काम, ि ध आवद ववकार ों की ही
उत्पवर्त् ह ती है । व्यस्तक्तगत दु ुःख से दु खी प्राणी प्रर्म त्याग क अपनाता है , और वफर त्याग से प्राप्त

सामर्थर्थ द्वारा सेवा में प्रवृर्त् ह ता है । अर्वा य ों कह वक उससे स्वत: सेवा ह ने लगती है ।

सावथजवनक दु :ख से दु खी प्राणी प्रर्म सेवा क अपनाता है । सेवा की पूणथता त्याग में


ववलीन ह ती है , भ ग में नहीों। अर्ाथ त् वजसने सेवा की है , उसमें त्याग का बल स्वत: आ जाता है । इस

दृवि से सेवा 'त्याग में और त्याग ‘सेवा में ववलीन ह ता है । सेवा और त्याग, द न ों के ही व्दारा साधक

वािववक जीवन से अवभन्न ह जाता है । इस दृवि से दु ुःख के प्रभाव में ही ववकास है , चाहे वह दु ुःख
व्यस्तक्तगत ह अर्वा सावथजवनक।

दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत साधक जब त्याग और सेवा क अपनाता है , तब उसके जीवन

में शास्तन्त, सामर्थर्थ एवों स्वाधीनता की अवभव्यस्तक्त स्वत: ह ती है । ज साधक शास्तन्त में रमण नहीों करता,
सामर्थर्थ का दु रुपय ग नहीों करता और स्वाधीनता में सन्तुि नहीों ह ता, उसका अनन्त के मोंगलमय

ववधान से प्रेम के साम्राज्य में प्रवेश ह ता है । शास्तन्त में रमण न करने से शास्तन्त नि नहीों ह ती, अवपतु
अववचल और स्र्ायी ह जाती है ; और शास्तन्त में रमण करने से साधक में पररस्तच्छन्नता आ जाती है , ज

ववनाश का मूल है । अत: त्याग से अवभव्यक्त शास्तन्त में रमण नहीों करना है , अवपतु उससे असोंग ह ना है ,
और शास्तन्त से उवदत सामर्थर्थ का दु रुपय ग नहीों करना है , अवपतु वनष्काम भाव से उसका सद्व्यय करना

है , वजसके करते ही स्वाधीनता से अवभन्नता ह जाती है ।


स्वाधीनता में सन्तुि ह ने से जीवन अपने वलए ही उपय गी प्रतीत ह ता है , परन्तु प्रेम का

प्रादु भाथ व नहीों ह ता। उसके वबना हुए जीवन अगाध, अनन्त, वनत्य—नव रस से पररपूणथ नहीों ह ता। दु ुःख
का पूणथ प्रभाव साधक क न त शान्त-रस में रमण करने दे ता है और न स्वाधीनता में ही आबि रहने

दे ता है , अवपतु प्रेम-तत्व से अवभन्न कर अनन्त-रस का पात्र बना दे ता है , यह वनववथवाद वसि है ।

सुख की सम्भावना मात्र से आया हुआ दु ुःख वनजीव ह जाता है और वफर बेचारा दु खी
सुख की आशा में दु ुःख सहन करता रहता है । इस द्वन्द्द्वात्मक अवस्र्ा क जीववत रखना दु खी का प्रमाद

है । यद्यवप आशा मात्र से सु ख आ नहीों जाता और सहन करने मात्र से दु :ख वमट नहीों जाता। आये हुए
दु ुःख पर सावधानीपूवथक ववचार न करने से बेचारा दु खी सुख की आशा में आबि ह कर, दु ुःख सहन

करता रहता है । यवद दु खी सुख की आशा से रवहत ह जाये , त अपने आप दु ुःख का प्रभाव ह ने लगता
है । वजसके ह ते ही दु खी में दु ुःख का अन्त करने की तीव्र लालसा अपने आप जाग्रत ह जाती है ।

वजसके ह ते ही दु :ख का भय और भ ग नि ह जाते हैं और केवल दु ुःख वमिाने की तीव्र लालसा मात्र ही


दु खी का अस्तित्व रह जाता है , वजसे दे ख, दु ुःखहारी स्वयों करुवणत ह , दु खी का दु ुःख सदा के वलए हर

लेते हैं ।

पर यह रहस्य वे ही साधक जान पाते हैं , वजन् न


ों े वमली हुई सामर्थर्थ का दु रुपय ग नहीों
वकया, बलपूवथक दु :ख वमटाने में समर्थ नहीों हुए और न दु ुःख क वकसी भी प्रकार सहन ही कर सके।

अर्ाथ त् वजन्ें सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय से यु क्त जीवन बनाये रखना असह्य हुआ। इस दृवि से

दु ुःख का असह्य ह ना ही दु ुःख के प्रभाव में हे तु है । सवाां श में दु ुःख का नाश नहीों ह सकतायह प्रमाद ही
प्रावणय ों क सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय में आबि रखता है ।

मोंगलमय ववधान से दु ुःख का प्रादु भाथ व एकमात्र सुख की दासता से मुक्त करने के वलए ही

ह ता है । गम्भीरतापूवथक ववचार करने से यह स्पि वववदत ह ता है वक दु ुःखदाता ही दु ुःखहारी है । इतना


ही नहीों, साधक क सुख की दासता से मुक्त करने के वलए दु ुःखहारी ही दु ुःख के वे श में अवतररत ह ते

हैं । अतएव दु :ख बड़े ही महत्व की विु है , उससे भयभीत ह ना भूल है ।

दे हावभमान के कारण बेचारा प्राणी सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय में आबि ह ता है ,
ज अवववेक-वसि है । प्राप्त वववेक का आदर करते ही अवववेक स्वत: नि ह जाता है । वजसके ह ते ही

दे हावभमान गल जाता है और वफर सुख की दासता तर्ा दु :ख का भय शेष नहीों रहता। सुख -भ ग से
अवववेक प वषत ह ता है ।
प्राकृवतक वनयमानुसार दु ुःख के आते ही साधक में सजगता आती है और ज्य -ों ज्य ों दु ुःख

का प्रभाव स्र्ायी ह ता जाता है ,त्य -ों त्य ों सजगता सबल ह ती जाती है , वजसके ह ते ही साधक अत्यन्त
सुगमता पूवथक प्राप्त वववेक का आदर कर, अवववेक का नाश करने में समर्थ ह ता है । इस कारण दु :ख

के प्रादु भाथ व में ही सजगता, सावधानी एवों प्राप्त वववेक का आदर वनवहत है , ज समि ववकास ों का मूल
है ।

गम्भीरतापूवथक ववचार करने से यह स्पि वववदत ह ता है वक सुख का स्र्ावयत्व तर्ा दु :ख

का सवाां श में अभाव वकसी पररस्तस्र्वत ववशेष में नहीों है । इस कारण प्रत्येक पररस्तस्र्वत में दु ुःख के प्रभाव
द्वारा साधक सुख की दासता और दु ुःख के भय से रवहत ह सकता है । इस दृवि से सुख की दासता तर्ा

दु :ख के भय का अन्त प्रत्येक साधक का अपना मौवलक प्रश्न है । इस प्रश्न क वबना हल वकये अन्य कायों
में प्रवृर्त् ह ना बड़ी ही असावधानी है , वजसका साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है । यह वनयम है

वक मूल प्रश्न का उवदत ह ना ही उसके हल में मुख्य हे तु है । इस प्रश्न क जमा रखना और अन्य कायों में
व्यि रहना उवचत नहीों है , अवपतु अपने द्वारा अपना सवथनाश करना है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार ज प्राणी अपने द्वारा अपना अवहत नहीों करता, उसका वहत

अवश्य ह ता है । इतना ही नहीों, उसका जीवन सभी के वलए उपय गी ह ता है । इस कारण अपने आप
अपना अवहत वकसी भी साधक क कभी भी नहीों करना चावहए। इस मूल मन्त्र क अपनाते ही प्रत्येक

साधक स्वत: ही वसस्ति पा जाता है । अपने द्वारा अपना अवहत करता रहे और दू सर ों के द्वारा अपने वहत

की आशा करे , यह घ र प्रमाद है । ज साधक दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह , अपने वहत में रत हैं , उनके
वहत में जड़-चेतन सभी पूरा-पूरा सहय ग दे ते हैं और हवषथत ह ते हैं , क् वों क ववकवसत जीवन सभी के

वलए वहतकर ह ता है । अपने अवहत के समान और क ई भूल नहीों है ।

ज प्राणी अपना अवहत करता है , उससे दू सर ों का अवहत अपने आप ह ने लगता है ।


अपने प्रवत वकया हुआ अवहत ववभु ह जाता है । इस दृवि से दू सर ों के अवहत का कारण भी वही प्राणी है ,

ज सतत सजगतापूवथक अपने वहत में रत नहीों है । दु ुःख का प्रभाव दु खी क अपने वहत में और सुख की
दासता सुखी क अपने अवहत में प्रवृर्त् करती है । इस दृवि से प्रत्येक साधक क शीघ्रावतशीघ्र सुख की

दासता और दु :ख के भय से रवहत ह ना अवनवायथ है ।

पराधीनता में जीवन-बुस्ति बनाये रखने से प्रावणय ों में अवधकार-लालसा प वषत ह ती है ।


अवधकार-लालसा रहते हुए क ई भी प्राणी राग तर्ा ि ध से रवहत नहीों ह सकता, कारण, वक अवधकार
की अपूवतथ में ि ध और पूवतथ में राग अपने आप उत्पन्न ह ता है । ि ध के उत्पन्न ह ते ही प्राणी अपने
कर्त्थव्य क , वनज-स्वरूप क और वजससे सब कुछ वमला है , उस अनन्त क भूल जाता है । कर्त्थव्य की

ववस्मृवत में ही अकर्त्थव्य और स्वरूप की ववस्मृवत में ही दे हावभमान एवों प्रेमास्पद की ववस्मृ वत में ही
अनेक आसस्तक्तय ों की उत्पवर्त् ह जाती है , ज ववनाश का मूल है ।

अकर्त्थव्य उत्पन्न ह ते ही जीवन जगत् के वलए केवल अनुपय गी ही नहीों, अवपतु

अवहतकर ह जाता है और परस्पर अनेक प्रकार के सों घषथ उत्पन्न ह ते हैं । स्वरूप की ववस्मृवत ह ते ही
प्राणी दे हावभमान में आबि ह , अपने वलए अनुपय गी ह जाता है और वफर बेचारा जड़ता, पराधीनता,

अभाव आवद में आबि ह , दु गथवत पाता है । प्रेमास्पद की ववस्मृवत में ही नीरसता प वषत ह ती है ।
नीरसता की भूवम में ही अनेक ववकार उत्पन्न ह ते हैं । ववकार-युक्त जीवन वकसी के वलए भी उपय गी

नहीों है ।

राग प्रावणय ों क पराधीनता में जीवन-बुस्ति उत्पन्न कर, अनुकूलता की दासता और


प्रवतकूलता के भय में आबि करता है । इतना ही नही, रागरवहत हुए वबना क ई भी साधक य गववत्

तत्वववत् एवों अनुराग से पररपूणथ नहीों ह पाता। इन सब कारण ों से ि ध तर्ा राग सवथर्ा त्याज्य हैं ,
कारण, वक राग तर्ा ि ध के रहते हुए जीवन अपने वलए तर्ा जगत् के वलए एवों प्रेमास्पद के वलए

उपय गी वसि नहीों ह ता। अत: राग तर्ा ि ध का अन्त करना अवनवायथ है । दु ुःख का प्रभाव पराधीनता
में जीवन-बुस्ति नहीों रहने दे ता, कारण, वक पराधीनता के समान और क ई दु ुःख नहीों है ।

स्वाधीनता की माँ ग स्वाभाववक माँ ग है । स्वाधीनता के वबना अमरत्व से अवभन्नता सम्भव


नहीों है । पराधीनता की असह्य वेदना अवधकार-लालसा के त्याग का पाठ पढ़ाती है । अवधकार-लालसा
के नाश में ही कर्त्थव्यपरायणता वनवहत है , ज ववकास का मूल है ।

पराधीनता-जवनत सुख-ल लुपता ही अकर्त्थव्य, असाधन और आसस्तक्तय ों की जननी है ।


इस कारण पराधीनता-जवनत सुखल लुपता का साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है । सुख -

ल लुपता का नाश दु :ख के प्रभाव से सम्भव है , वकसी अन्य प्रकार से नहीों। यह सभी क वववदत है वक
दु :ख का प्रादु भाथ व न चाहने पर भी अपने आप प्रत्येक व्यस्तक्त के जीवन में प्राकृवतक ववधान से ह ता है ।

दु ुःख है , पर उसका प्रभाव यवद साधक नहीों अपनाता, त यह उसकी अपनी असावधानी तर्ा भूल है ।
प्रत्येक साधक क इस भू ल का शीघ्रावतशीघ्र अन्त करना अत्यन्त आवश्यक है ।

सुख-ल लुपता रूपी अन्धकार दु ुःख के प्रभाव रूपी सूयथ के उदय ह ने से ही नि ह गा,
वजसके ह ते ही अकर्त्थव्य, असाधन और आसस्तक्तयाँ वनमूथल ह जायेंगी और वफर साधक के जीवन में
कर्त्थव्यपरायणता, साधन एवों प्रेम का प्रादु भाथ व स्वतुः ह गा, यह वनववथवाद वसि है । सवाां श में अकर्त्थव्य,

असाधन और आसस्तक्तय ों का नाश हुए वबना साधक साध्य के स्वभाव से अवभन्न नहीों ह ता, वजसके वबना
हुए साधन और जीवन में एकता नहीों ह ती, अर्ाथ त् जीवन साधन नहीों ह ता, अवपतु आों वशक साधन और

असाधन के कारण साधक दीनता तर्ा अवभमान में आबि ह जाता है । यह द्वन्द्द्वात्मक स्तस्र्वत प्रावणय ों
क भय तर्ा प्रल भन में आबि रखती है ।

प्रल भन से दासता और भय से जड़ता प वषत ह ती है । दासता तर्ा जड़ता वकसी भी

साधक क स्वभाव से ही अभीि नहीों है । इस कारण प्रल भन तर्ा भय से रवहत ह ना अवनवायथ है । वह


तभी सम्भव ह गा, जब साधक आये हुए दु ुःख के प्रभाव क अपनाकर पराधीनता-जवनत सुख-ल लुपता

का अन्त कर, वनवश्चन्त तर्ा वनभथय ह जाय। वनवश्चन्तता से सामर्थर्थ और वनभथयता से कर्त्थव्यपरायणता की
अवभव्यस्तक्त स्वत: ह ती है , ज ववकास का मूल है ।

व्यस्तक्तगत सत्य व्यस्तक्तगत ववकास के वलए भले ही साधन-रूप ह , वकन्तु उसे ववभु बनाने

का प्रयास साधक ों तर्ा सु धारक ों में आग्रह उत्पन्न करता है ।व्यस्तक्तगत सत्य के अनुसरण से व्यस्तक्त के
जीवन में वजस सौन्दयथ की अवभव्यस्तक्त ह ती है , वह सौन्दयथ त स्वभाव से सवथवप्रय ह ता ही है , पर

व्यस्तक्तगत उपाय क सावथभौवमक बनाने का प्रयास अपने में आग्रह क उत्पन्न करता है ।

व्यस्तक्तगत सत्य वािववक सत्य की प्रास्तप्त में साधन-रूप है , इस कारण व्यस्तक्तगत रूप

से आदरणीय तर्ा अनुसरणीय है । पर सबक व्यस्तक्तगत पर् पर ही चलाने का प्रयास आग्रही बना दे ता
है । आग्रह से सत्य असत्य से ढँ क जाता है और वफर व्यस्तक्तगत सत्य, ज अपने वलए साधन-रूप र्ा,
साधन-रूप नहीों रहता, अवपतु उससे अह-भाव ही प वषत ह ने लगता है । अह-भाव परस्पर एकता
सुरवक्षत नहीों रहने दे ता, अवपतु भेद क जन्म दे ता है , ज सों घषथ का मूल है । सोंघषथ के द्वारा कभी भी

शास्तन्त के साम्राज्य की स्र्ापना नहीों ह सकती। इस दृवि से सोंघषथ का अन्त करना अवनवायथ है । पर यह
तभी सम्भव ह गा, जब साधक अपने व्यस्तक्तगत सत्य के अनुसरण द्वारा अनन्त, वनत्य-सौन्दयथ की ओर

अग्रसर ह ता रहे ।

यह वनयम है वक साधन-रूप सत्य का अनुसरण ही साध्य-रूप सत्य से अवभन्न करता है ।


साध्य-रूप सत्य ही वािव में सावथभौवमक सत्य है । परस्पर य ग्यता, रुवच, सामर्थर्थ , पररस्तस्र्वत आवद का

भेद प्राकृवतक भेद है । प्राकृवतक भेद के कारण ही व्यस्तक्तगत साधन-रूप सत्य में भेद है । साधन-रूप
सत्य व्यस्तक्तगत रूप से अनुसरणीय है । साध्य-रूप सत्य फल है , उपाय नहीों। उपाय में वभन्नता और
फल में एकता स्वत: वसि है । उपाय में वभन्नता ह ने पर भी परस्पर स्नेह की एकता सुरवक्षत रखना

अवनवायथ है । स्नेह की एकता के वबना वकसी भी प्रकार पारस्पररक सोंघषथ का नाश सम्भव नहीों है ।

दु ुःख का प्रभाव साधक में आग्रह शेष नहीों रहने दे ता। सावथजवनक दु ुःख से दु खी ह ना
और व्यस्तक्तगत सुख का सद्व्यय करना अनुसरणीय है । पर व्यस्तक्तगत साधन क बल तर्ा आग्रहपूवथक

व्यापक बनाने का प्रयास अपने व्यस्तक्तगत सत्य से ववमुख ह ना है और परस्पर वभन्नता क प वषत करना
है । सभी का दु ुःख अपना दु :ख है - यह महामन्त्र अपनाये वबना आग्रह का अन्त अन्य वकसी प्रकार

सम्भव नहीों है । जब प्राणी पर-दु ुःख से दु खी नहीों ह ता, अवपतु ममतायुक्त दु :ख से ही दु खी ह ता है , तब


उसके जीवन में दु ुःख का पूरा प्रभाव नहीों ह ता। वजसके वबना उससे न त व्यस्तक्तगत साधन का

अनुसरण ही ह पाता है और न उसका आग्रह ही नि ह ता है । साधन का आग्रह असाधन और उसका


अनुसरण साधन-रूप है । साधनयुक्त जीवन की माँ ग ववश्व की माँ ग है ।

अपने व्यस्तक्तगत साधन क वसखाने का आग्रह साधन का भ ग है , सेवा नहीों। सेवा

दु स्तखय ों क दे ख करुवणत और सुस्तखय ों क दे ख प्रसन्न ह ने का पाठ पढ़ाती है , शासक नहीों बनाती।


प्रत्येक साधक क अपना शासक ह ना है । वकसी क शावसत करना अपने क दासता में आबि करना

है । इसी कारण प्रत्येक शासक कालान्तर में स्वयों शावसत ह जाता है । अत: अपने पर अपने शासन द्वारा
अपने क सुन्दर बनाना है । इस दृवि से व्यस्तक्तगत साधन बड़े ही महत्व की विु है । सेवक की माँ ग

जगत् क सदै व रहती है । जगत् सदै व सेवक के पीछे दौड़ता है , उसका वचन्तन करता है । पर सेवक न

त जगत् के पीछे दौड़ता है और न उसका वचन्तन ही करता है , अवपतु जगत् के दु :ख से दु खी ह , दु ुःख


के प्रभाव क अपनाकर अह-भाव से रवहत ह , कृतकृत्य ह जाता है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार ऐसा क ई प्राणी है ही नहीों, वजसके जीवन में वकसी-न-वकसी अोंश

में दु ुःख न ह । उस आये हुए दु :ख का प्रभाव दु खी क अपनाना है । दु ुःख अपने आप आता है , पर


उसके प्रभाव क अपनाने का दावयत्व साधक पर है । दु ुःख आने पर सुख की ओर दौड़ना दु ुःख के

प्रभाव से ववमुख ह ना है और सुख की वािववकता क जानने का प्रयास दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत


ह ना है । मोंगलमय ववधान से दु :ख, सुख के स्वरूप का यर्ार्थ ब ध कराने के वलए ही आता है ।

जब तक प्राणी सुख की ओर दौड़ता रहे गा और उसकी वािववकता से अपररवचत रहे गा,

तब तक दु ुःख अपने आप आता ही रहे गा। सुख की वािववकता का अनुभव करते ही सुख में भी दु ुःख
का ही दशथन ह ता है , वजसके ह ते ही दु खी दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह , सुख की दासता से रवहत ह
जाता है और वफर दु ुःख आहान करने पर भी नहीों आता। इस दृवि से दु ुःख, सुख की दासता से रवहत
ह ने के वलए ही वमलता है । यवद प्राणी प्रमादवश सुख की दासता से रवहत नहीों ह गा, त सुख की

दासता उसे सवथदा दु ुःख के भय से भयभीत करती रहे गी और उसे वववश ह कर दु :ख भ गना ही पड़े गा।
इस कारण प्रत्येक साधक क शीघ्रावतशीघ्र दु ुःख के प्रभाव क अपनाकर सुख की दासता से रवहत ह ना

अत्यन्त आवश्यक है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार दु ुःख का प्रभाव ही सवथत मुखी ववकास की भूवम है । दु स्तखय ों के


दु ुःख की वनवृवर्त् तर्ा वजज्ञासुओों क तत्वज्ञान से एवों प्रेवमय ों क प्रेमास्पद से अवभन्न करने में दु ुःख का

प्रभाव ही हे तु है । इतना ही नहीों, प्रत्येक आववष्कार के मूल में दु ुःख की ही प्रधानता है । ववज्ञान-वेर्त्ाओों
का ववज्ञान, सावहस्तत्यक ों का सावहत्य एवों दाशथवनक ों का दशथन दु :ख के प्रभाव से ही उद् भूत ह , प वषत

ह ता है । यवद जीवन में दु ुःख का प्रादु भाथ व न हुआ ह ता, त प्रावणय ों में सजगता उवदत ही न ह ती।
वजसके वबना वकसी प्रकार का भी ववकास सम्भव नहीों ह ता, यह वनववथवाद वसि है ।

सजगता से ही दशथन की अवभव्यस्तक्त, सावहत्य का सृजन और ववज्ञान का आववष्कार ह ता

है । सजगता ववकवसत जीवन का अवनवायथ अोंग है । सजग साधक ों से ही सुन्दर समाज का वनमाथ ण ह ता
है और व्यस्तक्त के कल्याण में भी सजगता ही मुख्य हे तु है । इस दृवि से दु ुःख बड़े ही महत्व की विु है ।

उससे भयभीत ह ना और सुख का आहान करना दु ुःख के प्रभाव से रवहत ह ना है । इतना ही नहीों, दु :ख
से भयभीत प्राणी ही व्यस्तक्तगत सुख की आशा में दू सर ों क दु खी बनाते हैं और स्वयों भी दु :ख भ गते

रहते हैं । यह आये हुए दु ुःख का दु रुपय ग है ।

दु ुःख के दु रुपय ग से वकसी का दु ुःख नि नहीों ह ता और न सुख का सम्पादन ही ह ता है ,


अवपतु उर्त्र र्त्र दु ुःख की वृस्ति ही ह ती रहती है । परन्तु दु ुःख का सदु पय ग करने से साधक दु :ख से
रवहत ह जाता है और वफर उसके द्वारा न त वकसी के सुख का अपहरण ह ता है और न वकसी के वलए

उसका जीवन दु ुःखद रहता है । दु ुःख रवहत महापुरुष ों से ही साधक ों क दु ुःख के सदु पय ग का प्रकाश
वमलता है । दु :ख के सदु पय ग के द्वारा प्रत्येक दु खी प्रत्येक पररस्तस्र्वत में दु ुःख-रवहत ह सकता है और

वफर उसका जीवन सभी के वलए उपय गी वसि ह सकता है ।

दु ुःख से भयभीत प्रावणय ों में ही वहों सात्मक वृवर्त्य ों की उत्पवत ह ती है । गम्भीरतापूवथक


ववचार करने से यह स्पि वववदत ह ता है वक वहों सा वकसी क भी अभीि नहीों है , कारण, वक वहों सा अपने

और दू सर ों के ववकास में बाधक है । यवद साधक दु ुःख के सदु पय ग द्वारा दु ुःख के भय तर्ा भ ग से
रवहत ह जाये , त उसके जीवन में अवहों सा की अवभव्यस्तक्त स्वत: ह ती है । वहों सा व्यस्तक्त का अपना
उत्पन्न वकया हुआ द ष है और अवहों सा का प्रादु भाथ व मोंगलमय ववधान से ह ता है । दु :ख-रवहत जीवन
ववधान से अवभन्न ह जाता है और उसी जीवन से पर्-प्रदशथन वमलता है । ववधान-ववर धी जीवन सभी के

वलए अवहतकर है ।

दु :ख से भयभीत प्राणी ही ल भ, म ह, काम, ि ध आवद ववकार ों में आबि ह जाता है ।


वजसके जीवन में हावन का भय नहीों है , उसमें ल भ की उत्पवत नहीों ह ती। ज ववय ग के भय तर्ा सों य ग

की दासता से रवहत है , उसमें म ह की उत्पवत नहीों ह ती। ज सुख के प्रल भन तर्ा अवधकार-लालसा से
रवहत है , उसमें काम, ि ध आवद ववकार ों की उत्पवत नहीों ह ती। दु :ख के भय से ही सुख का प्रल भन

और अवधकार के अपहृत ह ने के भय से ही अवधकार-लालसा प वषत ह ती है । अर्ाथ त् भयभीत ह ने से


ही समि ववकार उत्पन्न ह ते हैं । परन्तु यह रहस्य वे ही ववचारशील जानते हैं , वजन् न
ों े दु ुःख के

सदु पय ग के द्वारा अपने क दु ुःख के भय तर्ा भ ग से रवहत कर, वािववक जीवन से अवभन्नता प्राप्त
की है ।

दु ुःख का भय दु ुःख से भी अवधक भयोंकर है । प्राकृवतक वनयमानुसार प्रत्येक व्यस्तक्त के

जीवन में दु ुःख उतना ही आता है , वजतना उसके ववकास के वलए आवश्यक है । असह्य दु ुःख ह ते ही
दु ुःख की वनवृवर्त् स्वतुः ह जाती है । इस दृवि से दु ुःख से भयभीत ह ना दु खी की भारी भूल ही है । दु ुःख

के भय से प्राप्त शस्तक्त का हास और शारीररक तर्ा मानवसक र ग ों की उत्पवर्त् ह ती है । इतना ही नहीों,


दु ुःख से भयभीत प्राणी प्राप्त वववे क का अनादर कर बैठता है । वजसके करते ही बेचारा अकर्त्थव्य,

असाधन और आसस्तक्तय ों में आबि ह जाता है , ज ववनाश का मूल है । इस दृवि से दु ुःख के भय का

साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है ।

दु ुःख का प्रभाव साधक क दे हावभमान से रवहत ह ने का पाठ पढ़ाता है और दु :ख का


भय दे हावभमान क प वषत करता है । दे ह का सदु पय ग भले ही वहतकर ह , पर उसका अवभमान त

प्रावणय ों के ववकास में बाधक ही है । दे ह के अवभमान से दे ह की वािववकता में क ई अन्तर नहीों ह ता


और दे हावभमान-रवहत ह ने से दे ह के सदु पय ग में क ई बाधा नहीों ह ती, अवपतु दे ह का सदु पय ग स्वतुः

ह ने लगता है । दे हावभमावनय ों की दे ह नाश न ह , उसमें सतत पररवतथन न ह -ऐसा वनयम नहीों है । और


दे हावभमान-रवहत ह ने पर दे ह क जब तक रहना है , वह न रहे -ऐसा भी ववधान नहीों है । दे ह के

अवभमान से दे हावभमानी का सवथनाश ह ता है और दे हावभमानरवहत ह ते ही साधक सवथत मुखी ववकास


का पात्र ह जाता है ।

दु ुःख का भय दे हावभमान क पुि करता है । इस कारण दु ुःख का भय सवथर्ा त्याज्य है ।


दु :ख के भय से दु ुःख घटता नहीों है और न वमटता ही है , अवपतु डरने से दु ुःख दू ना ह जाता है और न
डरने से आधा रह जाता है । यवद दु ुःख का प्रादु भाथ व अवहतकर ह ता, त उससे भयभीत ह ना स्वाभाववक

र्ा। परन्तु जब दु :ख ववकास की भूवम है , तब उससे भयभीत ह ने का क ई कारण ही नहीों है । दु ुःख


अरुवचकर भले ही ह , पर वहतकर अवश्य है । कटु औषवध र ग-वनवृवर्त् के वलए से वन करना अवनवायथ

है । उसी प्रकार दु ुःख ववकास के वलए अत्यन्त आवश्यक है । सुख दे कर दु ुःख लेना महत् पुरुष ों का
स्वभाव है । अपने दु ुःख से त पशु -पक्षी भी दु खी ह ते हैं । पर सत्पुरुष ों का क मल हृदय पर-पीड़ा से

पीवड़त ह ता है , वजससे जीवन में त्याग तर्ा प्रेम की अवभव्यस्तक्त ह ती है , वजसके ह ते ही राग-व्दे ष
वनमूथल ह जाते हैं । राग-व्दे ष-रवहत जीवन में ही सत्य, अवहों सा आवद की अवभव्यस्तक्त ह ती है और वफर

साधक वािववक जीवन से अवभन्न ह जाता है ।

दु ुःख का प्रादु भाथ व जीवन की यर्ार्थता का प्रत्यक्ष अनुभव कराने में समर्थ है , ज ववकास
का मूल है । वतथमान विुस्तस्र्वत का ब ध वबना हुए न त तत्व-वजज्ञासा ही जाग्रत ह ती है और न

प्रेमास्पद की वप्रयता की उत्कट लालसा ही उवदत ह ती है । तत्व-वजज्ञासा की जागृवत में ही कामनाओों


की वनवृवर्त् वनवहत है और कामनाओों के नाश से ही प्राप्त विु अवस्र्ा आवद से असोंगता ह ती है । इस

दृवि से तत्व-वजज्ञासा का जाग्रत ह ना अवनवायथ है , ज वतथमान विुस्तस्र्वत के ब ध में ही वनवहत है और


वह एकमात्र दु :ख से ही साध्य है । इस कारण दु :ख सवथदा वहतकर ही है । पर दु :ख से भयभीत ह ना,

उसका वचन्तन करना, उसके प्रभाव क न अपनाना साधक की असावधानी है ।

असावधानी प्राणी क मृत्यु की ओर और सावधानी अमरत्व की ओर अग्रसर करने में

समर्थ है । अत: प्रत्येक साधक क असावधानी का शीघ्रावतशीघ्र अन्त करना परम आवश्यक है । वह
तभी सम्भव ह गा, जब साधक आये हुए दु :ख से सजग ह कर वतथमान विुस्तस्र्वत का अध्ययन करे ,

वजसके करते ही जीवन की वािववकता का प्रत्यक्ष अनुभव ह गा, ज तत्त्व-वजज्ञासा तर्ा प्रेमास्पद की
वप्रयता की माँ ग जगाने में समर्थ है । तत्व-वजज्ञासा से ही तत्व-साक्षात्कार ह ता है और प्रेमास्पद की

वप्रयता ही प्रेवमय ों क प्रेमास्पद से अवभन्न करती है ।

दु ुःख का भय तर्ा दु ुःख क दबाना दु ुःख-वनवृवर्त् में सहायक नहीों हैं , अवपतु बाधक हैं ।
दु :ख के भय से भयभीत बेचारा दु खी प्राप्त विु सामर्थर्थ एवों य ग्यता का सदु पय ग नहीों कर पाता और

दबा हुआ दु :ख कालान्तर में कई गुणा अवधक ह कर प्रकट ह ता है । इस कारण एकमात्र दु ुःख का
प्रभाव ही दु खी क दु ुःख-रवहत करने में समर्थ है । उत्पन्न हुए सोंकल्प ों की पू वतथ तर्ा अपूवतथ -युत

पररस्तस्र्वतयाँ प्राकृवतक वनयमानुसार स्वत: आती और जाती हैं -यह सभी का वनज-अनुभव है । वजसक
पररस्तस्र्वतय ों के आने और न रहने का अनुभव है , वह पररस्तस्र्वतय ों से अलग है । ममता के कारण अलग

ह ने पर भी बेचारा प्राणी अनुकूलता की दासता तर्ा प्रवतकूलता के भय में आबि ह जाता है ।

गम्भीरतापूवथक ववचार करने से यह वववदत ह ता है वक जब आई हुई अनुकूलता न चाहते


हुए भी चली ही जाती है , त जाने वाली विु की दासता से क्ा लाभ ? और न चाहते हुए भी प्रवतकूलता

आ ही जाती है , त उससे भयभीत ह ना कुछ अर्थ नहीों रखता। इतना ही नहीों, ज सदै व नहीों रहे गा,
उसकी दासता और वजसका आना अवनवायथ है , उसका भय वनरर्थक ही है । अनुकूलता के ववय ग तर्ा

प्रवतकूलता के सों य ग में व्यर्ा के अवतररक्त और कुछ नहीों है । व्यर्ा का प्रभाव व्यवर्त क आये हुए
दु :ख के प्रभाव से प्रभाववत कर, अनुकूलता की दासता और प्रवतकूलता के भय से रवहत ह ने की प्रेरणा

दे ता है । पर प्रमादवश प्राणी अनुकूलता की उपस्तस्र्वत के प्रभाव से वजतना प्रभाववत ह ता है , उतना


उसकी अनुपस्तस्र्वत से नहीों ह ता। वह द न ों का ज्ञाता है और उपस्तस्र्वत एवों अनुपस्तस्र्वत, द न ों ही

अवस्र्ाएँ हैं ।

उपस्तस्र्वत की सत्यता उसके व्यस्तक्तत्व में इतनी गहराई से अोंवकत है वक वह अनु पस्तस्र्वत
में भी उसका वचन्तन करता रहता है । यह जानते हुए भी वक इसका अस्तित्व नहीों है , प्राणी उससे

वनराश नहीों ह ता। उसके मूल में भू ल क्ा है ? इस पर ववचार करना अवनवायथ है । वह तभी सम्भव
ह गा, जब साधक अनुकूलता के ववय ग से उत्पन्न वेदना से और प्रवतकूलता के सों य ग से उत्पन्न व्यर्ा से

पीवड़त ह , द न ों अवस्र्ाओों की अनुपस्तस्र्वत का अनुभव अपनाये और सुख की दासता तर्ा दु ुःख के

भय से रवहत ह जाये। तभी उसके ज्ञान और जीवन में एकता ह गी। वजसके ह ते ही सवथत मुखी ववकास
स्वतुः ह जाता है , यह वनववथवाद वसि है । उत्पन्न हुई उपस्तस्र्वत की अनुपस्तस्र्वत अवनवायथ है । यह व्यस्तक्त

का अपना ज्ञान है । इस ज्ञान के प्रकाश में यवद साधक प्राप्त विुओों की ममता और अप्राप्त विुओों की
कामना से रवहत ह जाय, त अत्यन्त सुगमतापूवथक अनुत्पन्न हुए वनत्य जीवन की वजज्ञासा जाग्रत ह ती

है , ज विु अवस्र्ा, पररस्तस्र्वत आवद से असोंग कर, अमर जीवन से अवभन्न कर दे ती है ।

प्राणी प्रमादवश, ज अप्राप्त है अर्वा वजससे वनत्य सम्बन्ध नहीों है , उसका वचन्तन करता
है और ज वनत्य प्राप्त है , उसमें आत्मीयता स्वीकार नहीों करता। इतना ही नहीों, वजसका ववय ग ह गया

है , उसकी स्मृवत का आश्रय लेकर वह दु :ख भ गता रहता है और वजससे वनत्य-य ग ह सकता है , उससे
ववमुख रहता है । इसके मूल में प्रधान कारण दु ुःख के प्रभाव क न अपनाना ही है । अनुकूलता के ववय ग

से उत्पन्न व्यर्ा हमें उत्पन्न हुई विुओों से असोंग ह ने का पाठ पढ़ाने के वलए मोंगलमय ववधान से वमली
र्ी। पर प्राणी "ज नहीों है ”, उसका वचन्तन और "ज है ”, उसकी ववस्मृवत क अपना कर, वािववक
जीवन से ववमुख ह जाता है । यह साधक की अपनी भूल है , वजसका शीघ्रावतशीघ्र अन्त करना अवनवायथ

है ।

यह कैसा आश्चयथ है वक प्राणी ववय गकाल में भी सोंय ग-काल की सत्यता, सुन्दरता एवों
सुखरूपता के वचन्तन क जीववत रखता है -यह जानते हुए वक न चाहते हुए भी वजस विु व्यस्तक्त आवद

का ववय ग ह गया है , वह अब वकसी भी प्रकार वमल नहीों सकता। उसका अस्तित्व अब उस रूप में
नहीों है , वजस रूप में वमला र्ा और उसका वचन्तन करना वकसी भी दृवि से वहतकर नहीों है , अवपतु

अवहतकर ही है । वचन्तन मात्र से उत्पवत-ववनाशयुक्त विु की उपलस्ति नहीों ह ती, यह वनयम है ।


प्रत्येक पररस्तस्र्वत ववधान से वनवमथत है । वचन्तन करने , न करने से उसका सोंय ग-ववय ग नहीों ह ता। इस

कारण “ज नहीों है ”, उसका वचन्तन सवथर्ा त्याज्य है और “वजससे वनत्य सम्बन्ध सम्भव नहीों है ”, उसका
ववय ग अवनवायथ है । यवद ववय ग-काल में उन विुओों का अभाव स्वीकार कर वलया जाय, त मोंगलमय

ववधान से आया हुआ ववय ग, ‘वनत्य-य ग' प्रदान कर सकता है । वनत्य-य ग के वबना सोंय ग की दासता
तर्ा ववय ग का भय नाश नहीों ह ता। उसके हुए वबना वािववक जीवन से अवभन्नता सम्भव नहीों है ।

इस दृवि से उत्पन्न हुई विु ओों का ववय ग बड़े ही महत्व की विु है । पर प्रमादवश प्राणी

उनके ववय ग क अपनी क्षवत तर्ा अवनवत मानता है । इतना ही नहीों, वह अपने क अभागा तर्ा पापी
मान बैठता है । प्राकृवतक ववधान के अनुसार प्रत्येक विु का नाश सतत ह रहा है । उत्पवत-ववनाश के

िम में स्तस्र्वत केवल आभासमात्र है , उसका क ई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीों है । वजस प्रकार जल-प्रवाह रूप

से वनरन्तर जा रहा है , पर प्राणी यह मान बैठता है वक वही जल है , वजसे मैं दे ख रहा हँ । उसी प्रकार
समि दृश्य बदल रहा है । इतना ही नहीों, वजन इस्तिय ों के द्वारा दृश्य की प्रतीवत ह रही है , उन इस्तिय ों

की शस्तक्त का भी सतत हास ह रहा है । वजस बुस्ति-दृवि से इस्तिय-दृवि में पररवतथ न भावसत ह ता है , वह
बुस्ति-दृवि भी इस्तिय-दृवि के प्रभाव क खा कर सम ह जाती है और ज अहों -भाव इस्तिय-दृवि तर्ा

बुस्ति-दृवि का उपय ग करता है , वह भी प्रवृवर्त् से वनवृवर्त् की ओर अग्रसर ह , परम शास्तन्त के वलए


व्याकुल ह उठता है ।

इस दृवि से भ ग्य विु भ गने की शस्तक्त और भ क्ता-तीन ों में ही जातीय एकता एवों गुण ों

की वभन्नता स्पि वसि ह ती है । ज इन तीन ों का आश्रय और प्रकाशक है , उसी का स्वतन्त्र अस्तित्व है ।


उसकी तीव्र वजज्ञासा तर्ा लालसा ही साधक क बािववक जीवन से अवभन्न कर सकती है । परन्तु प्राणी

भूतकाल की घटनाओों के अर्थ क न अपनाकर उनका वचन्तन करता रहता है , वजससे सत्य की वजज्ञासा
तर्ा अनन्त की लालसा वशवर्ल ह जाती है । अप्राप्त विु अवस्र्ा, पररस्तस्र्वत आवद की कामनाएँ उत्पन्न
ह जाती हैं और प्राप्त विु , व्यस्तक्त आवद में ममता ह जाती है , वजससे अनेक प्रकार के ववकार उत्पन्न

ह जाते हैं और स्तस्र्रता एवों शास्तन्त सुरवक्षत नहीों रहती। वजसके न रहने से प्राणी असमर्थता, पराधीनता,
जड़ता, अभाव आवद में आबि ह जाता है ।

यवद साधक घटनाओों के अर्थ क अपनाकर उन घटनाओों क भूल जाय, त अत्यन्त

सुगमतापूवथक ममता तर्ा कामनाओों का नाश ह सकता है , वजसके ह ते ही है । उससे वनराश ह ना भू ल


है । उसमें आत्मीयता स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है ।

“नहीों” में “है ”-बुस्ति स्वीकार कर, उसकी दासता में आबि युस्तक्तयुक्त है ? इस समस्या

पर गम्भीरतापूवथक ववचार करना प्रत्येक साधक के वलए अवनवायथ है । अब यवद क ई व्यस्तक्त प्रमादवश
कहे वक सभी त साधक नहीों ह सकते । त यह धारणा भ्रमात्मक है ; कारण, वक ऐसा मानना वक हमारा

क ई साध्य नहीों है , हम पर क ई दावयत्व नहीों है - मानव-जीवन की घ र वनन्दा है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार, प्रत्येक भाई-बहन साधक हैं । सभी की माँ ग एक है । पररस्तस्र्वत

के अनुरूप सभी क अपना दावयत्व पूरा करना है । साध्य क भू लना तर्ा दावयत्व क पूरा न करना
व्यस्तक्त की असावधानी है और कुछ नहीों, वजसका मानव-जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है । यवद केवल

सुख-दु :ख भ गने के वलए मानव-जीवन वमला ह ता, त साध्य की ववस्मृवत और दावयत्व क पूरा न करना
क ई आश्चयथ की बात न ह ती। परन्तु सुख की दासता और दु ुःख का भय वकसी भी भाई-बहन क

रुवचकर नहीों है ।

प्रमादवश क ई यह भले ही कहे वक सुख जाये नहीों और दु ुःख आये नहीों। पर क्ा यह
सम्भव है ? कदावप नहीों। असम्भव क सम्भव और सम्भव क असम्भव मान बैठना अपने द्वारा अपना

सवथनाश करना है । अतुः सु ख-दु :ख भ गने मात्र के वलए मानव-जीवन नहीों है । विु ओों का सदु पय ग एवों
व्यस्तक्तय ों की सेवा करना अवनवायथ है , पर उनकी दासता में आबि ह ना असावधानी है । यह सभी का

दै वनक अनुभव है वक वप्रय विुओों एवों व्यस्तक्तय ों से प्रवतवदन ववय ग वबना अपनाये क ई भी भाई तर्ा
बहन नहीों रह सकते। गहरी नीोंद तर्ा समावध की आवश्यकता सभी अनुभव करते हैं । जाग्रत और स्वप्न

में ही उत्पन्न हुए दृश्य का सार् रहता है , पर सुषुस्तप्त के वबना केवल जाग्रत और स्वप्न-अवस्र्ा से वकसी
क सन्त ष नहीों ह ता, अवपतु अनेक प्रकार की व्यर्ा उत्पन्न ह ती है , ज वकसी क अभीि नहीों है ।

इस दृवि से दृश्य से अतीत के जीवन की माँ ग स्वाभाववक है । जाग्रत, स्वप्न, सुषुस्तप्त के


ग ल चि में घूमते रहने से स्र्ायी ववश्राम ही हार् लगती है , ज अभीि नहीों है । ववश्राम की भूवम में ही
उस सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त ह ती है , ज साधक क उस जीवन से अवभन्न कर दे ती है , वजसमें

असमर्थता, पराधीनता, नीरसता, अभाव आवद की गन्ध भी नहीों है । इस कारण ववश्राम प्राप्त करना
अवनवायथ है । पर वह तभी सम्भव ह गा जब “नहीों” में ‘नहीों’-बुस्ति स्वीकार कर, “है ” की आवश्यकता

जाग्रत ह , ज दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

असत् क 'असत्’ जान लेने पर भी यवद जीवन में दु ुःख का प्रभाव नहीों है , त उस जाने
हुए असत् का त्याग दु लथभ ह जाता है । दु ुःख का अर्थ यह नहीों है वक व्यस्तक्तगत जीवन में पररस्तस्र्वत-

जवनत दु :ख ही दु ुःख है , प्रत्युत् वनज-वववेक के प्रकाश में बुस्ति-दृवि से सुख में भी दु ुःख का दशथन ह ता
है , कारण, वक सुख का सम्पादन पराधीनता क स्वीकार वकए वबना वकसी भी प्रकार सम्भव नहीों है ।

इस दृवि से साधक क प्रत्येक पररस्तस्र्वत में एकमात्र दु : ख का ही दशथन ह ता है । दु ुःख के दशथन-मात्र से


सुख की आशा और उसका प्रल भन एवों सुख-भ ग की रुवच शेष नहीों रहती और वफर अपने आप

जीवन का मौवलक प्रश्न जाग्रत ह ता है । मौवलक प्रश्न से वनराश ह ना और उसके हल करने में हार
स्वीकार करना, साधक की असावधानी है ।

मौवलक-प्रश्न कहते ही उसक हैं , वजसकी पूवतथ अवनवायथ ह । पररस्तस्र्वत-भेद से प्रश्न के

बाह्य रूप में अनेक भेद ह सकते हैं । व्यर्ाओों से वघरा हुआ व्यस्तक्त कहे गा-“मेरे दु ुःख की वनवृवर्त् ह "।
अशास्तन्त से पीवड़त कहे गा-‘मुझे वचर-शास्तन्त चावहए”। सन्दे ह की वेदना से व्यवर्त प्राणी कहे गा-“मुझे

वनस्सन्दे हता चावहए”। असमर्थ कहे गा-“मुझे सामर्थर्थ चावहए”। पराधीन कहे गा-“मुझे स्वाधीनता चावहए”।

जड़ता से र्का हुआ प्राणी कहे गा-“मुझे चेतना चावहए”। इत्यावद। बाह्मरूप अनेक ह ने पर भी मौवलक
प्रश्न एक ही है । क ई-क ई साधक ऐसा कहे गा वक "मुझे ऐसा सुख चावहए, वजसमें दु ुःख न ह "।

दु ुःख-रवहत सुख, भय-रवहत शास्तन्त और पराधीनता-रवहत अनुकूलता की माँ ग प्रावणय ों में

रहती ही है । दु ुःख का प्रभाव इन सभी प्रश्न ों क हल करने में समर्थ है । उसका आश्रय ज अववनाशी नहीों
है , वह प्रवृवर्त् ज सवथ -वहतकारी नहीों है , वह वनवृवर्त् ज अवभमानशून्य नहीों है , साधक के मूल प्रश्न के हल

करने में बाधक हैं ।

अब यवद क ई कहे वक जब हमें अववनाशी का ज्ञान ही नहीों है , उसमें आस्र्ा ही नहीों है ,


त हम उसके आवश्रत कैसे ह सकते हैं ? त इस समस्या पर गम्भीरतापूवथक ववचार करने से यह स्पि

वववदत ह ता है वक अववनाशी का ब ध न ह ने पर भी ज नाशवान् है , अर्ाथ त् न रहने वाला है , उसका


आश्रय त सुरवक्षत रह ही नहीों सकता। अत: यवद वकसी क अववनाशी में आस्र्ा नहीों है , त वनराश्रयता
क अपनाकर, वजसका आश्रय नहीों लेना चावहए, उससे मुक्त ह सकता है । उससे मुक्त ह ते ही स्वत:

अववनाशी का ब ध ह जाता है , यह अनुभव-वसि है ।

अत: अववनाशी में आस्र्ा तर्ा उसका ब ध न ह ने पर भी ववनाशी का आश्रय त्याग कर,
प्रत्येक साधक अववनाशी से अवभन्न ह सकता है । ववनाशी के आश्रय के त्याग की सामर्थर्थ दु :ख के

प्रभाव में ही वनवहत है । यह केसी ववडम्बना है वक वजसका त्याग स्वत: ह रहा है , उसके त्याग में भी
असमर्थता प्रतीत ह ती है ! इस असमर्थता के मूल में वछपी हुई सुख -ल लुपता है , ज एकमात्र दु ुःख के

प्रभाव से ही वमटती है । अल्पकाल की सुखद अनुभूवत के वलए दीघथकाल तक दु ुःख भ गते रहना, कहाँ
तक युस्तक्त-युक्त है ? इतना ही नहीों, सुखद अनुभूवत उसी क्षण में ह ती है , वजस क्षण में वनष्कामता

उवदत ह ती है ।

कामना-वनवृवर्त् से वनष्कामता की अवभव्यस्तक्त स्र्ायी रूप से ह ती है और कामना-पूवतथ


काल में वनष्कामता अल्पकाल के वलए स्वतुः आती है । प्राणी प्रमादवश उस सरस अनुभूवत क विु ,

व्यस्तक्त, पररस्तस्र्वत आवद के आवश्रत मान बैठता है । उसका भयोंकर पररणाम यह ह ता है वक नवीन
कामना उत्पन्न ह जाती है और बेचारा प्राणी पुन: उसी व्यर्ा से व्यवर्त ह ने लगता है , ज कामना-

उत्पवत के पूवथ और पूवतथ के पश्चात् र्ी। यद्यवप प्राकृवतक वनयमानुसार कामना-उत्पवत से पूवथ ज स्तस्र्वत
है , कामना पूवतथ के अन्त में अल्पकाल के वलए वही स्तस्र्वत आती है , परन्तु साधक सजगतापूवथक अपने

क उस अनुभव से अवभन्न नहीों करता, अर्ाथ त् वनज-अनुभव का अनादर करता है । यह उसकी जड़ता

तर्ा असावधानी है ।

साधक के जीवन में जड़ता तर्ा असावधानी के वलए क ई स्र्ान ही नहीों है । असह्य वेदना
जड़ता तर्ा असावधानी क खाकर वनज-अनुभव से अवभन्न कर दे ती है और वफर लेशमात्र भी

नाशवानपररवतथनशील विु अवस्र्ा आवद का आश्रय नहीों रहता। पर उनका सदु पय ग स्वतुः ह ने
लगता है । पररस्तस्र्वत के सदु पय ग में ववकास, और उसके आश्रय में सवथनाश वनवहत है , यह वनववथवाद

वसि है ।

प्राकृवतक वनयमानुसार प्रत्येक प्रवृवर्त् का आरम्भ और अन्त है । ऐसी क ई प्रवृवर्त् है ही


नहीों, वजसका आरम्भ ह और अन्त न ह । इससे यह स्पि वववदत ह ता है वक क ई भी प्रवृवर्त् अखण्ड

नहीों ह सकती। ज अखण्ड नहीों ह सकती, वह सहय गी साधन भले ही ह , उसे साध्य नहीों कह
सकते। इस दृवि से प्रत्येक प्रवृवर्त् वनवृवत' की प षक है । वजस प्रवृवर्त् का पररणाम वनवृवर्त् नहीों है , वह
प्रवृवर्त् दू वषत है , त्याज्य है ।
व्यस्तक्तगत सुख की आशा क लेकर ज प्रवृवर्त् आरम्भ ह ती है , उसका पररणाम वनवृवर्त्

नहीों ह ता, प्रत्युत् प्रवृवत के अन्त में भी प्रवृवर्त् की ही रुवच शेष रहती है । यद्यवप प्रत्येक प्रवृवर्त् से प्राप्त
सामर्थर्थ का व्यय ही ह ता है , तर्ावप दू वषत प्रवृवर्त्य ों की रुवच असमर्थता में भी बनी रहती है । उस दशा

में प्राणी ज नहीों कर सकता है तर्ा ज नहीों करना चावहए, उसी के वचन्तन में आबि ह जाता है ।
उसका बड़ा ही भयोंकर पररणाम यह ह ता है वक प्राणी उर्त्र र्त्र चेतना से ववमुख ह , जड़ता में ही

आबि ह ता जाता है , ज ववनाश का मूल है । असमर्थता-काल में प्रवृवर्त् की रुवच प्राणी क पराधीनता-
जवनत पीड़ा में आबि करती है , ज वकसी क भी स्वभाव से वप्रय नहीों है ।

यवद पराधीनता-जवनत वे दना से पीवड़त प्राणी प्रवृवर्त् की रुवच का नाश कर दे , त अत्यन्त

सुगमतापूवथक सहज वनवृवर्त् क अपनाकर, असमर्थता का अन्त कर सकता है । वफर अपने आप सवथ -
वहतकारी प्रवृवर्त् आरम्भ ह ती है , ज कताथ क करने के राग से रवहत करने में हे तु है । इस कारण प्रवृवर्त्

वही सार्थक है , ज वकसी के वलए अवहतकर न ह , अवपतु सवथ -वहतकारी ह । सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त्
सीवमत ह ने पर भी असीम है । कारण, वक उसका अन्त सवथ -वहतकारी भावना में ही ह ता है । प्राकृवतक

वनयमानुसार कमथ सीवमत और भाव असीम ह ता है । सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् असीम सद्भावनाओों में
सजीवता लाती है और सद्भावनाएँ सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् क पुि बनाती हैं । सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् वकतनी

ही अल्प क् ों न ह , कताथ क ववभुता से अवभन्न करती है , अर्ाथ त् सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् के अन्त में कताथ
करने के राग से रवहत ह , असीम जीवन से अवभन्न ह जाता है ।

इस दृवि से सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् बड़े ही महत्व की विु है । सवथ -वहतकारी प्रवृ वत के
अन्त में अपने आप आने वाली सहज वनवृवर्त् आवश्यक सामर्थर्थ प्रदान करती है । ज्य -ों ज्य ों प्राप्त सामर्थर्थ

का सद्व्यय ह ता जाता है , त्य -ों त्य ों आवश्यक सामर्थर्थ की अवभव्यस्तक्त स्वतुः ह ती रहती है , अर्ाथ त् सवथ -
वहतकारी कायथ के वलए सामर्थर्थ ववधान से वबना ही माँ गे वमलती है ।

सुख-भ ग की रुवच का सवाां श में नाश हुए वबना सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् स्वभावत: नहीों

ह ती। पर जब दु ुःख का प्रभाव सुख-भ ग की रुवच का नाश कर दे ता है , तब सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् स्वतुः
ह ने लगती है । आत्मख्यावत तर्ा ल करों जन की कामना से प्रेररत सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् वािव में सवथ -

वहतकारी नहीों है , अवपतु मान तर्ा भ ग की जननी है , वजसका साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों
है । कारण, वक मान तर्ा भ ग में आबि प्राणी दे हावभमान से रवहत नहीों ह पाता, वजसके वबना हुए

वकसी के भी मौवलक प्रश्न हल नहीों ह सकते । इस दृवि से मान तर्ा भ ग की रुवच का अन्त करना
अवनवायथ है , वजसके ह ते ही प्रत्येक पररस्तस्र्वत में सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् द्वारा प्राप्त सामर्थर्थ का सदव्यय

ह ने लगता है , ज ववकास का मूल है ।

सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् के अन्त में अर्वा काम-रवहत ह ने पर मोंगलमय ववधान से ज


वनवृवर्त् स्वतुः आती है , वही वािववक वनवृवर्त् है । सोंकल्पपूवथक वजस वनवृवर्त् का सम्पादन वकया जाता है ,

वह वनवृवर्त् ह ने पर भी घ र प्रवृवर्त् ही है । काम-रवहत हुए वबना बलपूवथक ज वनवृ वर्त् प्राप्त की जाती है ,
वह साधक क अवभमान—शून्य नहीों ह ने दे ती, वजसके वबना हुए साधन-रूप वनवृवर्त् की अवभव्यस्तक्त

नहीों ह ती, अवपतु अवभमानयुक्त वनवृवर्त् व्यस्तक्तत्व के म ह का ही प षण करती है और परस्पर भेद


उत्पन्न कर दे ती है , ज ववनाश का मूल है । अवभमान-शून्य वनवृवर्त् शास्तन्त, सामर्थर्थ तर्ा स्वाधीनता की

जननी है और अवभमानयु क्त वनवृवर्त् आों वशक शस्तक्त भले ही प्रदान करे , पर शास्तन्त तर्ा स्वाधीनता का
त ववनाश ही करती है ।

इस कारण अवभमान-रवहत वनवृवर्त् ही वािववक वनवृवर्त् है । उसी की अवभव्यस्तक्त साधक

के मौवलक प्रश्न ों के हल करने में हे तु है । प्रवृवर्त् और वनवृवर्त् दायें -बायें पैर के समान हैं । इन द न ों से ही
साधक सत्पर् पर आरूढ़ ह ता है , परन्तु स्वार्थभाव से उत्पन्न प्रवृवर्त् और अवभमानयुक्त वनवृवर्त् त

प्रावणय ों क सत्पर् से ववमुख ही करती हैं ।

प्राकृवतक वनयमानुसार प्रत्ये क प्रवृवर्त् के आवद और अन्त में वनवृवर्त् स्वतुः वसि है । ज

तर्थ् स्वतुः वसि है , उसकी ख ज की जाती है , उसक उत्पावदत नहीों वकया जाता। अत: साधन-रूप
वनवृवर्त् की ख ज करना है तर्ा उससे अवभन्न ह ना है , उसक उत्पन्न नहीों करना है । उत्पवत-ववनाश त
एक ही वसक्के के द पहलू हैं । प्रत्येक उत्पवत ववनाश में और ववनाश उत्पवर्त् में ववलीन ह ता रहता है ।
सहज वनवृवर्त् स्वत: प्राप्त ह ती है । परन्तु उसके वलए प्रत्येक साधक क काम-रवहत ह ना अवनवायथ है ,

ज दु ुःख के प्रभाव से ही साध्य है । प्रभाव कृवत्रम नहीों है , अवपतु स्वतुः ह ता है ।

जब साधक मौवलक प्रश्न ों क हल वकये वबना रह नहीों सकता, तब आयी हुई असमर्थता
तर्ा व्यर्ा का प्रभाव अपने आप ह ता है , वजसके ह ते ही उसका त्याग स्वत: ह जाता है , वजसकी

उपलस्ति वकसी भी प्रकार सम्भव नहीों है और उसकी उत्कट लालसा जाग्रत ह ती है , वजसकी प्रास्तप्त
सम्भव है । अर्ाथ त् कामनाएँ वमट जाती हैं और मौवलक समस्याएँ स्वत: हल ह जाती हैं । पर यह तभी

सम्भव ह गा, जब साधक सवथ -वहतकारी प्रवृवर्त् के द्वारा अर्वा प्राप्त की ममता और अप्राप्त की कामना
से रवहत ह कर सहज वनवृवर्त् सु रवक्षत करने का अर्क प्रयास करे , ज वववेक-वसि है ।
दु ुःख का प्रभाव प्राप्त वववेक के आदर में हे तु है । सुख के प्रल भन से ही प्राणी वनज-

वववेक का अनादर कर, अपना सवथनाश कर बैठता है , वजसका साधक के जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों
है । अर्ाथ त् प्रत्येक साधक के वलए वनज-वववेक का अनादर सवथर्ा त्याज्य है , ज असह्य वेदना से ही

सम्भव है ।

दु ुःख-रवहत सुख, भय-रवहत शास्तन्त एवों पराधीनता-रवहत अनुकूलता की माँ ग प्राणी मात्र
में स्वभाव से है । प्राकृवतक वनयमानुसार सुखद अनुभूवत के आवद और अन्त में दु ुःख का भास ह ता है ।

यवद सुख का अन्त दु ुःख में न ह ता, त सुख जीवन का लक्ष्य ह सकता र्ा। पर ऐसा वकसी का अनुभव
नहीों है । उस पर भी सुख में वकतनी मधुररमा है वक उसका आकषथण-यह जानते हुए भी वक अन्त में

दु :ख ही दु ुःख शेष रहता है -सुख के प्रल भन क जीववत रखता है । इसी कारण प्राणी में सहज भाव से
यह कल्पना ह ती है वक यवद दु ुःख- रवहत सुख वमलता, त बड़ा ही अच्छा ह ता। यवद दु ुःख-रवहत सुख

का अर्थ सुख-दु :ख से अतीत का जीवन स्वीकार कर वलया जाये , तब त यह माँ ग पूरी ह सकती है ,
वकन्तु कामना-पूवतथ -जवनत सुखद अनुभूवत क ही सुख के अर्थ में वलया जाये , त दु :ख-रवहत सुख की

कल्पना भ्रममूलक है । कारण, वक जब सुख का भास दु :ख से ही ह ता है , तब पररणाम में दु :ख ही


रहे गा। अत: दु :ख-रवहत सु ख का अर्थ सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन से अवभन्नता ही उपयुक्त है । इस

माँ ग की पूवतथ ह सकती है । कब ? जब दु ुःख का प्रभाव सुखद अनुभूवत में दु ुःख का दशथन कराने में
समर्थ ह जाये , ज सम्भव है ।

सम्भव क असम्भव और असम्भव क सम्भव मानना भूल है । ज सम्भव है , उसकी


उत्कट लालसा ही उसकी प्रास्तप्त में मुख्य हे तु है । इस दृवि से सुख-दु ुःख से अतीत के जीवन की उत्कट

लालसा का जाग्रत करना ही साधक का परम पुरुषार्थ है । दु :ख का प्रभाव ही कामनाओों का नाश करने
में और उत्कट लालसा जगाने में हे तु है । दु खी की सबसे बड़ी भूल यही है वक वह आये हुए दु :ख से

भयभीत ह ता है , दु :ख क भ गता रहता है , पर दु :ख के प्रभाव क नहीों अपनाता, वजसके वबना अपनाये


दु ुःख का सवाां श में अन्त वकसी भी प्रकार सम्भव नहीों है । मोंगलमय ववधान से दु :ख का प्रादु भाथ व दु स्तखय ों

के दु ुःख का नाश करने के वलए ही हुआ है । उससे भयभीत ह ना साधक की अपनी कायरता है ,
वजसका ववकास न्मुख जीवन में क ई स्र्ान ही नहीों है ।

सुख, शास्तन्त सभी क स्वभाव से ही वप्रय हैं । परन्तु सु ख-सामग्री के आवश्रत शास्तन्त, भय-

रवहत, शास्तन्त नहीों है । भययु क्त शास्तन्त शास्तन्त का आभास मात्र है , शास्तन्त नहीों । अर्ाथ त् भययुक्त शास्तन्त
'अशास्तन्त' की जननी है और कुछ नहीों। साधक की माँ ग भय-रवहत शास्तन्त की है , वजसकी उपलस्ति
वकसी पररस्तस्र्वत पर वनभथर नहीों है । विु व्यस्तक्त, पररस्तस्र्वत आवद से सम्पावदत बल के द्वारा अपनी

शास्तन्त क सुरवक्षत रखने का प्रयास भ्रममूलक है । कारण, वक बल का उपय ग समान बल पर अर्वा


अवधक बल पर नही ह सकता, अवपतु वनबथल ों के प्रवत ही ह ता है । यह प्राकृवतक वनयम है वक बल के

दु रुपय ग से कालान्तर में सबल स्वयों वनबथल ह जाता है ।

इतना ही नहीों, उसकी ववर धी सर्त्ा की उत्पवत भी ह जाती है और वही दु वदथ न उसे स्वयों
दे खने पड़ते हैं , ज उसने बल के दु रुपय ग के द्वारा वनबथल ों क वदखाये र्े। बल के सदु पय ग से परस्पर

एकता ह ती है और वफर सबल तर्ा वनबथल का भेद शे ष नहीों रहता। पर बल का सदु पय ग तभी सम्भव
है , जब सबल वनबथल ों के दु :ख से दु :खी ह , करुवणत ह जाये और दु ुःखी सुस्तखय ों क दे ख, प्रसन्न ह

जाये।

यह सभी क वववदत है वक सवाां श में क ई भी दे श, वगथ, समाज एवों व्यस्तक्त सबल तर्ा
वनबथल नहीों है । आाों वशक बल तर्ा वनबथलता सभी में है । व्यस्तक्त वजस अोंश में सबल है , उस अोंश में वकसी

वनबथल क दे ख, करुवणत ह और वजस अोंश में वनबथल है , उस अोंश में वकसी सबल क दे ख, प्रसन्न ह ,
त परस्पर की वभन्नता एकता में पररववतथत ह जाती है , वजसके ह ते ही भय-रवहत शास्तन्त का प्रादु भाथ व

ह ता है । इस दृवि से दु स्तखय ों क दे ख, करुवणत और सुस्तखय ों क दे ख-प्रसन्न ह ना प्रत्येक दे श, वगथ,


समाज एवों व्यस्तक्त के वलए अवनवायथ है और यही सवोत्कृि सेवा है । सेवा की सजीवता तर्ा पूणथता त्याग

में वनवहत है , अर्ाथ त् जब तक प्रत्येक भाई-बहन वमली हुई विुओों की ममता का अन्त नहीों करें गे और

अप्राप्त विुओों की कामना से रवहत नहीों ह ग


ों े , तब तक प्राप्त विु सामर्थर्थ , य ग्यता, आवद का सद्व्यय
सम्भव नहीों है । कारण, वक ममता एवों कामना ने ही द व्यस्तक्तय ,ों वगाँ , दे श ों आवद में भेद उत्पन्न कर,

सोंघषथ का प षण वकया है । भेद रहते हुए केवल बाह्य सामग्री के सम्पादन मात्र से क ई भी भयभीत
शास्तन्त प्राप्त नहीों कर सकता, अवपतु सेवा और त्याग के वबना वह स्वयों सबल से भयभीत ह गा और

वनबथल ों क भयभीत करता रहे गा, ज अशास्तन्त का मूल है ।

सेवा और त्याग क सजीव बनाने में एकमात्र प्रे म ही मूल तत्व है । इस कारण प्रेम के
साम्राज्य की स्र्ापना सभी के वलए अत्यन्त आवश्यक है । उसके वलए प्रत्येक भाई-बहन क भौवतकवाद

की दृवि से शरीर और ववश्व की एकता स्वीकार करना अवनवायथ है । कारण, वक वकसी भी प्रकार शरीर
और ववश्व का ववभाजन सम्भव नहीों है । वजस प्रकार प्रत्येक प्राणी क अपने शरीर की रक्षा अभीि है ,

उसकी क्षवत वप्रय नहीों है , उसी प्रकार सभी की रक्षा अभीि ह और वकसी की क्षवत अपने क सहन न
ह , तभी वािववक भौवतकवाद वसि ह सकता है । ममता और कामना क जीववत रखना और अपने -
अपने सुख क सुरवक्षत रखने में लगा रहना भौवतकवाद नहीों है , अवपतु सोंघषथवाद, ववनाशवाद और

भ गवाद है , ज सवथदा सभी के वलए अवहतकर है ।

“शरीर ववश्व के काम आ जाये ”-इसके अवतररक्त अपना और क ई उद्दे श्य न रहे , तभी
भौवतकवाद की दृवि से प्रेम के साम्राज्य की स्र्ापना ह सकती है । अध्यात्मवाद ने मानव समाज क

सवाथ त्मभाव का पाठ पढ़ाया है , अर्ाथ त् वनज-स्वरूप से वभन्न कुछ है ही नहीों, समि ववश्व अपनी ही एक
अवस्र्ा मात्र है और कुछ नहीों है । इस दृवि से अध्यात्मवाद के द्वारा भी प्रेम के साम्राज्य की स्र्ापना ह

सकती है । कारण, वक अपने में अपनी वप्रयता स्वाभाववक है । वप्रयता की जागृवत परस्पर भेद, वभन्नता,
सोंघषथ आवद के नाश में हे तु है । जगत् और उसका प्रकाशक अपना ही वनज-स्वरूप है , अपने से वभन्न

की सर्त्ा ही नहीों है , यही अध्यात्मवाद की एकता है । जगत् क वमर्थ्ा कहना मात्र ही अध्यात्मवाद नहीों
है , प्रत्युत् भेद और वभन्नता का अत्यन्त अभाव ही अध्यात्मवाद है ।

आस्तिकवाद ने प्रेमास्पद से वभन्न में आस्र्ा, श्रिा तर्ा ववश्वास ही नहीों वकया और

प्रेमास्पद की आत्मीयता क ही अपना सवथस्व माना और उन् ों के नाते वनष्काम भाव से ववश्व की सेवा
की। इतना ही नहीों, उसने समि ववश्व में प्रेमास्पद की अनुपम लीला का ही दशथन वकया । आस्तिकवाद

प्रीवत और वप्रयतम से वभन्न क जानता ही नहीों, प्रत्युत् प्रीवत से अवभन्न ह कर अनेक रूप ों में प्रीतम क
लाड़ लड़ाने का पाठ आस्तिकवाद ने पढ़ाया है । इस कारण आस्तिकवाद ने भी प्रे म के साम्राज्य की ही

स्र्ापना की है । भय-रवहत शास्तन्त की अवभव्यस्तक्त सेवा, त्याग तर्ा प्रेम में ही वनवहत है । परन्तु जब तक

साधक दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत नहीों ह ता, तब तक जीवन में सेवा, त्याग तर्ा प्रेम की अवभव्यस्तक्त
नहीों ह ती। इस दृवि से सवथ त मुखी ववकास दु ुःख के प्रभाव में ही वनवहत है ।

पराधीनता-रवहत अनुकूलता मानव मात्र क स्वभाव से ही वप्रय है । परन्तु यवद अनु कूलता

का अर्थ कामना-पूवतथ -जवनत सुख क सुरवक्षत रखना है , तब त पराधीनता-रवहत अनुकूलता की


कल्पना ववडम्बना मात्र है । ज अनुकूलता प्रवतकूलता में पररववतथत ह ती है , उसे अनुकूलता मानना, क्ा

भूल नहीों है ? वािववक अनुकूलता वही है , वजसमें सभी प्रवतकूलताएँ ववलीन ह जाएँ और वह सवथदा
अखण्ड रूप से ज्य -ों की-त्य ों अववचल रहे । इसके अवतररक्त अनुकूलता का क ई और अर्थ स्वीकार

करना, अनुकूलता के नाम पर प्रवतकूलता क प वषत करना है । पराधीन हुए वबना क ई भी प्राणी
कामना-पूवतथ -जवनत सुख का सम्पादन नहीों कर सकता। इस दृवि से सु ख के भ गी क पराधीन ह ना ही

पड़ता है और पररणाम में दु :ख ही हार् लगता है , ज स्वभाव से वकसी क अभीि नहीों है ।


सुख की आशा में दु :ख भ गते रहना भले ही वकसी क सहन ह , परन्तु पररणाम में दु खी

ह ना सभी क असह्य है । इसी कारण पराधीनता-रवहत अनुकूलता की माँ ग स्वभाव से ही जाग्रत ह ती


है , वजसकी पूवतथ अवश्यम्भावी है । उत्पन्न हुए सों कल्प ों से तादात्म्य स्वीकार कर, प्राणी उनकी पूवतथ में

पराधीनता-युक्त अनुकूलता क अपनाता है और दे श, काल, विु व्यस्तक्त, अवस्र्ा आवद के अधीन ह


जाता है । वजसके अधीन ह कर प्राणी सोंकल्प-पूवतथ का सुख भ गता है , उसक सवथ दा सुरवक्षत रखने में

वह स्वाधीन नहीों है । इस कारण सोंकल्प-पूवतथ की उपयुक्त पररस्तस्र्वतय ों में जीवन-बुस्ति स्वीकार करना
कुछ अर्थ नहीों रखता। अतुः पराधीनता-रवहत जीवन ही जीवन है ।

यह सभी क वववदत है वक सोंकल्प-पूवतथ की सुखानुभूवत जाग्रत और स्वप्नावस्र्ा में ही

सम्भव है । परन्तु उस सुख का भ ग अखण्ड रूप से न त वकसी प्राणी क रुवचकर ही है और न वकसी


पररस्तस्र्वत में सम्भव ही है । वजस प्रवृवर्त् से अरुवच ह ती है , वह प्रवृवर्त् वािववक जीवन नहीों है । जीवन में

त सवथदा उर्त्र र्त्र वनत-नववप्रयता की ही वृस्ति ह ती है । ज रुवचकर भी न ह और सम्भव भी न ह ,


उससे उपरवत अपने आप ह ती है । इसी कारण प्राणी जाग्रत तर्ा स्वप्नावस्र्ा से सुषुस्तप्त क अवधक

महत्व दे ता है । वप्रय से वप्रय विु तर्ा व्यस्तक्त का त्याग गहरी नीोंद के वलए भला वकसने नहीों वकया ? इस
दृवि से सोंकल्प-पूवतथ की अपेक्षा सोंकल्प का लय अवधक महत्व की विु है । सुषुस्तप्त में सोंकल्प ों का लय

प्राकृवतक वनयम से ह ता है , उसे क ई भी प्राणी अपने आप प्राप्त नहीों कर सकता। औषवधय ों के द्वारा
सुषुस्तप्तवत् अवस्र्ा प्राप्त की जाती है , वकन्तु वह सुषुस्तप्त प्राकृवतक सुषुस्तप्त के समान नहीों ह ती। सवाां श

में सुषुस्तप्त अवस्र्ा प्राप्त करना व्यस्तक्त के अधीन नहीों है । इस दृवि से सुषुस्तप्त में भी पराधीनता रहती है ।

जाग्रत और स्वप्नावस्र्ा की अपेक्षा सुषुस्तप्त अवधक सु खदायक है । उसमें ववषमता का

दशथन नहीों है और सुखानुभूवत के सार्-सार् जाग्रत और स्वप्न के समान दु ुःखानुभूवत भी नहीों है , अर्ाथ त्
जाग्रत और स्वप्न में दु ुःख और सुख, द न ों का भास है । पर सुषुस्तप्त में दु ुःख का भास नहीों है । वफर भी

जड़ता और पराधीनता से रवहत सुषुस्तप्त भी नहीों है ।

यवद साधक वववेकपूवथक पररस्तस्र्वत के अनुकूल आवश्यक सोंकल्प ों क कर्त्थव्य-बुस्ति से


पूरा कर, अनावश्यक सों कल्प ों क त्याग, वनववथकल्पता प्राप्त करे , त उसे जाग्रत अवस्र्ा में ही सुषुस्तप्त

के समान दु ुःख-वनवृवर्त् का दशथन ह गा और जड़ता तर्ा पराधीनता का अन्त ह जायेगा। अतएव सुषुस्तप्त
की अपेक्षा वन:सोंकल्पता अवधक महत्व की विु है । परन्तु वनववथकल्पता-जवनत शास्तन्त में रमण करना भी

त सूक्ष्मावतसूक्ष्म पराधीनता ही है । वनववथकल्पता-जवनत शास्तन्त का सम्पादन अवनवायथ है । कारण, वक


उसके वबना साधक वािववक स्वाधीनता की ओर अग्रसर ही नहीों ह सकता। वनववथकल्पता–जवनत

शास्तन्त से स्वाधीनता का पुजारी वववेकपूवथक असोंग ह सकता है ।

शास्तन्त स्वभाव से ही सामर्थर्थ की जननी है । इस कारण शास्तन्त का प्रादु भाथ व ह ने पर


साधक उससे असोंग ह सकता है , वजसके ह ते ही स्वाधीनता के साम्राज्य में प्रवेश ह ता ही है , यह

अनन्त का मोंगलमय ववधान है । ववधान के अधीन प्राणी स्वाधीन है , पराधीन नहीों। कारण, वक ववधान
सभी के वलए सवथदा वहतकर ह ता है । उससे वकसी का अवहत नहीों ह ता। इतना ही नहीों, ववधान और

जीवन में एकता ह ती है । इस दृवि से ववधान की अधीनता में स्वाधीनता है , पराधीनता नहीों। स्वाधीनता
के साम्राज्य में प्रवेश अवनवायथ है । परन्तु उसमें सन्तु ि ह , अह-भाव-रूपी अणु क जीववत रखना

पराधीनता के सूक्ष्मावतसू क्ष्म बीज का प षण करना है । इस कारण स्वाधीनता में सन्तुि रहने की
अवभरुवच का नाश करना अवनवायथ है ।

वजसके मोंगलमय ववधान से प्राणी उर्त्र र्त्र ववकास की ओर अग्रसर ह ता है , उसकी

आत्मीयता स्वीकार करना अह-भाव क प्रीवत में पररणत कर दे ना है । वकन्तु ववश्राम तर्ा स्वाधीनता के
वबना आत्मीयता सजीव नहीों ह ती, अर्ाथ त् ज कुछ भी चाहता है , वह वकसी से वािववक आत्मीयता

नहीों कर सकता और ज वकसी भी विु अवस्र्ा आवद में ममता रखता है , वह भी वकसी क अपना नहीों
बना सकता । आत्मीयता के वबना अगाध, अनन्त, वनत-नव वप्रयता की जागृवत वकसी भी प्रकार सम्भव

नहीों है । इस दृवि से पराधीनता-रवहत अनुकूलता वप्रयता की जागृवत में वनवहत है ।

अपना सोंकल्प रखते हुए क ई भी वप्रयता से अवभन्न नहीों ह सकता, यह वनयम है । अत:
जब साधक दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत ह , सुख की दासता से रवहत ह ता है , तब वह अपने सोंकल्प क
ववश्व के सोंकल्प में ववलीन कर सकता है , वजसके करते ही अकर्त्थव्य का नाश और कर्त्थव्य-परायणता

की अवभव्यस्तक्त स्वत: ह ती है । फल की आशा से रवहत कर्त्थव्य-पालन पराधीनता-रवहत अनुकूलता से


अवभन्न करता है अर्वा साधक सवथ सोंकल्प क त्याग, वववेक—पूवथक अवस्र्ातीत जीवन से अवभन्न

ह कर, स्वाधीनता पाता है , वजससे जीवन अपने वलए उपय गी ह ता है अर्वा अपने सोंकल्प ों क सवथ के
आश्रय तर्ा प्रकाशक के सों कल्प में ववलीन करने पर भी साधक स्वाधीन ह , प्रेम का अवधकारी ह जाता

है । प्रेम का प्रादु भाथ व ह ने पर पराधीनता-रवहत अनुकूलता स्वतुः प्राप्त ह ती है । कारण, वक प्रेम अनन्त
का स्वभाव और प्रे मी का जीवन है ।

अतुः पराधीनता-रवहत अनुकूलता के वलए यह अवनवायथ है वक अपना क ई सोंकल्प न


रहे । प्रत्येक साधक अपनी-अपनी रुवच, य ग्यता एवों सामर्थर्थ के अनुसार सोंकल्प-रवहत ह ने के वलए
अवधकार-लालसा से रवहत ह , अपने सोंकल्प ों क ववश्व के सोंकल्प में ववलीन करे अर्वा वववेक-पूवथक

दे हावभमान रवहत ह , सवथ -सोंकल्प ों से असोंग ह जाये अर्वा आस्र्ा, श्रिा, ववश्वासपूवथक शरणागत ह ,
अनन्त के सोंकल्प में अपने सोंकल्प ों क ववलीन कर, आत्मीयता-पूवथक प्रीवत से अवभन्न ह जाये। पर यह

तभी सम्भव ह गा, जब पराधीनता- जवनत वेदना असह्य ह जाय, वकसी भी मूल्य पर पराधीनता और
पररच्छन्नता सहन न कर सके। पराधीनता का सवाां श में नाश करना सभी साधक ों के वलए अवनवायथ है ,

ज दु ुःख के प्रभाव से ही साध्य है ।


उपसंहार

दु :ख का भय तर्ा भ ग प्रावणय ों क सुख की दासता में आबि कर, जड़ता एवों


पराधीनता से युक्त कर दे ता है , ज वकसी भी साधक क स्वभाव से अभीि नहीों है । परन्तु दु ुःख का
प्रभाव व्यस्तक्त क सजगता प्रदान करता है , वजससे साधक क जड़ता तर्ा पराधीनता असह्य ह जाती

है , अर्ाथ त् वह वतथमान विुस्तस्र्वत से भलीभाँ वत पररवचत ह जाता है । प्राकृवतक वनयमानुसार, प्रत्येक


पररस्तस्र्वत सुख तर्ा दु :ख से युक्त है । सजगता सुख की दासता तर्ा दु ुःख के भय से रवहत ह ने के वलए

प्रेररत करती है ।

इस दृवि से सजगता ववकास की भूवम है । सुख की दासता 'करुणा' का और दु ुःख का

भय प्रसन्नता' का अपहरण कर लेता है । परन्तु जब सजगता साधक क सुख की दासता में आबि नहीों
रहने दे ती, तब वह दु स्तखय ों क दे ख, करुवणत ह उठता है , वजसके ह ते ही सुख का प्रल भन शेष नहीों

रहता, अवपतु प्राप्त सुख-सामग्री दु स्तखय ों की धर हर ह जाती है । सजगता दु खी क दु ुःख के भय से


रवहत कर, दु ुःख के प्रभाव से प्रभाववत करती है ।

दु :ख का प्रभाव परस्पर भेद तर्ा वभन्नता का अन्त करने में समर्थ है । भेद तर्ा वभन्नता

का अन्त ह ते ही साधक के जीवन में उदारता की अवभव्यस्तक्त ह ती है , वजसके ह ते ही साधक दु स्तखय ों


क दे ख, करुवणत और सुस्तखय ों क दे ख, प्रसन्न ह ने लगता है । करुणा सुख-भ ग की रुवच क खाकर,

प्राप्त सुख के सद्व्यय में साधक क प्रवृर्त् कर दे ती है और प्रसन्नता नीरसता का अन्त कर साधक क
वनष्काम बना दे ती है ।

इस दृवि से उदारता की अवभव्यस्तक्त ववकास के वलए अत्यन्त आवश्यक है , ज एकमात्र


सजगता से ही साध्य है । इतना ही नहीों, सजगता ही जीवन की जननी है और असावधानी ही मृत्यु है ।

असावधानी के समान और क ई भारी भूल नहीों है । ऐसी क ई अवनवत तर्ा हास नहीों है , वजसके मूल में
असावधानी न ह । असावधानी क ई प्राकृवतक द ष नहीों है , अवपतु साधक का अपना ही बनाया हुआ

द ष है । इस कारण उसका अन्त करना प्रत्येक साधक के वलए अवनवायथ है । वह तभी सम्भव ह गा, जब
साधक दु ुःख के प्रभाव से प्राप्त सजगता क सुरवक्षत रखे।

सजगता एक अलौवकक प्रकाश है , ज असावधानी-रूपी अन्धकार के नि करने में समर्थ

है । सजगता वकसी कमथ का फल नहीों है , अवपतु अनन्त की अनुपम दे न है । सजगता का प्रभाव सवाथ श में
और असावधानी आवशक ह ती है । यद्यवप आवशक सावधानी मानव मात्र में रहती ही है , परन्तु उसे

सजगता मानना वमर्थ्ा गुण के अवभमान में अपने क आबि करना है , ज वािव में जड़ता है ।

सजगता आते ही आवशक असावधानी सदा करे वलए नि ह जाती है और वफर आवशक
गुण ों के अवभमान की उत्पवर्त् नहीों ह ती। यह वनयम है वक गुण ों के अवभमान में ही आों वशक द ष प वषत

ह ते रहते हैं । इस कारण गुण ों का अवभमान द ष ों का मूल है , वजसका साधक के जीवन में क ई स्र्ान
ही नहीों है । दु :ख का प्रभाव द ष-जवनत वेदना जाग्रत कर, सजगता प्रदान करता है । अत: दु ुःख के

प्रभाव में ही सजगता वनवहत है ।

सजगता से प्राप्त उदारता साधक क हृदयशील बना दे ती है । हृदयशीलता की


अवभव्यस्तक्त ह ते ही साधक वकसी क न त बुरा ही समझता है और न वकसी का बुरा ही चाहता है और

न उसमें बुराई करने की सामर्थर्थ ही रहती है । प्राकृवतक वनयमानुसार द ष के नाश में ही वदव्य गुण ों की
अवभव्यस्तक्त वनवहत है । बुराई क 'बुराई जानकर बुराई न करना, क ई महत्व की बात नहीों है । बुराई की

उत्पवत ही न ह , यही वािव में बुराई से रवहत ह ना है । बलपूवथक बुराई क न करना, बीज रूप से
बुराई क सुरवक्षत रखना है , वह कभी भी वृक्ष के रूप में पररणत ह सकती है । इस कारण बुराई के

बीज का नाश अवनवायथ है । वह तभी सम्भव ह गा, जब सजगतापूवथक प्राप्त उदारता सुरवक्षत रहे ।
उदारता क सुरवक्षत बनाए रखने के वलए, “वतथमान सभी का वनदोष है ”-इस महामन्त्र क अपना लेना

अवनवायथ है । उदारता से उवदत वनष्कामता में ही असोंगता वनवहत है ।

प्रसन्न रहने के वलए वकसी अभ्यास ववशेष की अपेक्षा नहीों है , प्रत्युत् सहज वनष्कामता
अवनवायथ है । सभी अभ्यास शरीर से तदू प ह ने पर ही ह ते हैं । वजससे असग ह ना है , उसी का आश्रय
लेना युस्तक्तयुक्त नहीों है । वनष्कामता आते ही स्वतुः असोंगता आती है । कारण, वक काम ही सोंग में हे तु

है । इस दृवि से वनष्काम हुए वबना असोंगता वकसी भी अभ्यास से साध्य नहीों है । असगता का वचन्तन
असोंगता की उत्कट लालसा की जागृवत में भले ही हे तु ह , वकन्तु वनष्कामता के वबना असोंगता प्राप्त

नहीों ह ती। असोंगता के वबना वनवाथ सना नहीों आती और उसके वबना स्वाधीनता के साम्राज्य में प्रवेश
नहीों ह ता, ज जीवन की माँ ग है ।

पराधीनता सहन करते रहना ही जड़ता में आबि ह ना है , वजसका साधक के जीवन में

क ई स्र्ान ही नहीों है । पराधीनता असह्य ह जाय, तभी वनष्कामता-पूवथक असोंगता प्राप्त ह ती है , यह


वनववथवाद है । विया, वचन्तन, स्तस्र्रता से तादात्म्य तर्ा उसकी ममता ही सोंग है । ममता और तादात्म्य के
नाश से ही असों गता वसि ह ती है । यद्यवप सभी अवस्र्ाएँ समवि-शस्तक्तय ों से वनवमथत हैं , परन्तु ममता
तर्ा तादात्म्य के कारण उन अवस्र्ाओों का अवभमान प्राणी अपने में आर वपत कर लेता है । उसका

भयोंकर पररणाम यह ह ता है वक बेचारा साधक दीनता तर्ा अवभमान की अवि से दग्ध ह ता रहता है ।
इतना ही नहीों, अनुकूलता की दासता और प्रवतकूलता के भय में आबि ह जाता है ।

अतएव सभी अवस्र्ाओों से असोंग ह ना है । पर वह तभी सम्भव ह गा, जब प्रत्येक प्रवृवर्त्

के अन्त में शास्तन्त का सम्पादन वकया जाय। उसके वलए अवस्र्ातीत जीवन की वजज्ञासा तर्ा उत्कट
लालसा अवनवायथ है । वािव में अवस्र्ातीत जीवन ही जीवन है । प्रत्येक अवस्र्ा पररवतथनशील तर्ा पर-

प्रकाश्य है । उससे तादात्म्य बनाये रखना भारी भूल है । दु ुःख का प्रभाव भूलजवनत सुख के प्रल भन क
खाकर सजगता, उदारता, वनष्कामता एवों असोंगता प्रदान करने में समर्थ है । उदारता जगत् के वलए

उपय गी ह ती है और वनष्कामता-पूवथक असों गता अपने वलए उपय गी ह ती है ।

उदारता की पू णथता में असों गता और असोंगता की वसस्ति में उदारता ओतप्र त हैं । अपनी-
अपनी रुवच, य ग्यता एवों सामर्थर्थ के अनुसार क ई उदारता क अपनाकर, असोंग ह जाता है और क ई

असोंग ह कर, उदार ह ता है । यह वनयम है वक उदारता की अवभव्यस्तक्त ह ने पर जब जीवन जगत् के


वलए उपय गी वसि ह जाता है , तब अपने वलए जगत् की अपेक्षा नहीों रहती और वफर स्वत: असोंग ह ने

की सामर्थर्थ आ जाती है । यह अनन्त का मोंगलमय ववधान है । असोंगता से जीवन अपने वलए उपय गी
वसि ह ता है । इस दृवि से उदारता में असोंगता वनवहत है ।

सजगता-पूवथक असों ग ह ने पर भी जीवन अपने वलए उपय गी ह ता है और वफर


पराधीनता की गन्ध भी नहीों रहती। स्वाधीनता की अवभव्यस्तक्त ह ने पर भी जीवन जगत् के वलए वहतकर
वसि ह ता है । कारण, वक चाह-रवहत की चाह सभी क ह ती है । अत: असोंगता में भी उदारता वनवहत
है । हृदयशील साधक उदारता उदार ह ते हैं । भाव-शस्तक्त की सबलता से हृदयशीलता और

ववचारशस्तक्त की प्रबलता से वनष्कामता आती है , ज असोंगता में हे तु है ।

वजस अनन्त की अहै तुकी कृपा से मानव मात्र क भाव-शस्तक्त, वववेक-शस्तक्त तर्ा सामर्थर्थ
वमली है , उसक वलए जीवन उपय गी तभी ह सकता है , जब साधक उदारता तर्ा असोंगता से प्राप्त

शास्तन्त में रमण नहीों करता एवों स्वाधीनता में सन्तुि नहीों ह ता। तब उसे अनन्त की कृपा-शस्तक्त स्वत:
अनन्त की आस्र्ा, श्रिा, ववश्वास एवों आत्मीयता प्रदान करती है , वजससे अगाध वप्रयता उवदत ह ती है

और वफर जीवन अनन्त के वलए उपय गी वसि ह ता है ।


अहों -भाव-रूपी अणु में ही जगत् का बीज, तत्व की वजज्ञासा एवों अगाध-वप्रयता की

उत्कट लालसा ववद्यमान हैं । पराधीनता में जीवन-बुस्ति, अर्ाथ त् विु व्यस्तक्त, पररस्तस्र्वत, अवस्र्ा आवद
के द्वारा सुख की आशा ही जगत् का बीज है । सुख की आशा ने ही व्यस्तक्त क अवधकार-लालसा में

आबि कर वदया है , वजससे बेचारा प्राणी राग तर्ा ि ध से आिान्त ह जाता है । राग से जड़ता तर्ा
ि ध से ववस्मृवत उत्पन्न ह ती है , ज अवनवत का मूल है ।

दु ुःख का प्रभाव सुख के प्रल भन क नि कर साधक क अवधकार-लालसा से रवहत कर

दे ता है और वफर स्वत: कर्त्थव्यपरायणता, अर्ाथ त् सेवाभाव उवदत ह ता है , वजसके ह ते ही अह-रूपी


अणु में से जगत् का बीज नि ह जाता है । जगत् का बीज नि ह ने पर वनष्कामता की अवभव्यस्तक्त ह ती

है । वनष्कामता की भूवम में ही वजज्ञासा-पूवतथ के वलए स्वतुः ववचार का उदय ह ता है ।

वजस प्रकार सूयथ का उदय ह ने पर अन्धकार शेष नहीों रहता, उसी प्रकार ववचार का
उदय ह ते ही अववचार शेष नहीों रहता। अर्ाथ त् स्वत: तत्व-वजज्ञासा की पूवतथ ह जाती है , वजसके ह ते ही

स्वाधीनता के साम्राज्य में प्रवेश ह जाता है । स्वाधीनता का आश्रय पाकर अह-रूपी अणु का
सूक्ष्मावतसूक्ष्म भाग शेष रहता है । अगाध-वप्रयता की जागृवत के वबना अहों का अत्यन्त अभाव सम्भव नहीों

है । यद्यवप स्वाधीनता अववनाशी तत्व है , परन्तु उसके आवश्रत अहों क जीववत रखना भूल है ।

वजस प्रकार विया, वचन्तन और स्तस्र्वत का आश्रय पाकर पररवचछन्नता जीववत रहती है ,

उसी प्रकार शास्तन्त तर्ा स्वाधीनता का आश्रय पाकर अह-रूपी अणु का सू क्ष्मावतसू क्ष्म भाग शेष रहता
है । यह वनयम है वक वजसका स्वतन्त्र अस्तित्व नहीों ह ता, वह अन्य सर्त्ा के आवश्रत अपने क जीववत
रखता है । इसी कारण ववश्राम तर्ा स्वाधीनता के आवश्रत अह जीववत रहता है । ववश्राम में सामर्थर्थ और
स्वाधीनता में अमर जीवन वनवहत है ।

सामर्थर्थ और अमरत्व क पाकर सन्तुि ह जाना अपने क अगाध-वप्रयता से ववमुख

रखना है । इस कारण ववश्राम और स्वाधीनता एकमात्र अगाध-वप्रयता की जागृवत में साधन रूप हैं ।
साधन में साध्यबुस्ति साधन का म ह है , ज साधक के अहों क जीववत रखता है । साधक का वािववक

स्वरूप परम—शास्तन्त, अखण्ड—स्मृवत एवों अगाध-वप्रयता है । ज साधक का स्वरूप है , वही साध्य का


स्वभाव है । साधक साध्य के स्वभाव से अवभन्न ह कर कृतकृत्य ह ता है । इस दृवि से दु ुःख के प्रभाव में

ही जीवन की पूणथता वनवहत है ।

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