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1.

गर्भाधभन सँस्कभर

अब तक सभमभन्य रुप से हमने सँस्कभर के महत्तत्तव को जभनभ है । सैद्धभन्न्तक ज्ञभन और प्रभयौगगक ज्ञभन के
आधभर पर ही पूर्ा सफलतभ ममलती है । अर्ी तक पूवा के लेखों में जो ज्ञभन पभयभ, वह सैद्धन्न्तक है पर अब
हम प्रभयौगगक ज्ञभन की ओर कदम बढ़भयेंगे । जन्म से पूवा के महत्तत्तवपूर्ा तीन सँस्कभर जो गर्भाधभन, पँसवन
और सीमन्तोनयन के नभम से जभने जभते है ; क्रमश: उनके बभरे में जभनेंगे । पहले गर्भाधभन को समझें ।

गर्भाधभन सँस्कभर कभ महत्तत्तव- गर्भाधभन शब्द ही हमें गर्ा की न्स्ितत कभ बोध करभतभ है । इस सँस्कभर को
करने हे त पतत-पत्तनी की मनोदशभ एक सूत्रतभ में बन्धनी चभहहये । जब दोनों ववचभर से संतभन की ईच्छभ
करें तो पूर्ा सहमती से प्रसन्नतभपूवक
ा परस्पर गह
ृ स्िधमा करने से पूवा ववगधपूवक
ा अन्ननहोत्र के सभि यह
सँस्कभर करें । आओ, ववगध करने से पहले हम इसके एक-एक पहल को समझें ।

ततगि-ववचभर-स्त्री के मभमसक-धमा के ४ हदन सहवभस हे त सवािभ वन्जात है । शेष के गर्ा-न्स्ितत के अनकूल


हदन १२ हदन होते हैं । इन १२ हदनों में र्ी अमभवस, पूर्म
ा भसी, एकभदशी व त्रयोदशी सूया न्स्ितत के कभरर्
सहवभस वन्जात है । इन १२ हदनों के क्रम को र्ी अच्छी तरह जभननभ होगभ । इनके २रे , ४िे, ६ठे , ८वें , १०वें
तिभ १२ वें हदन की रभत पत्र हे त तिभ इन १२ हदनों के ३रे , ५वें , ७वें , ९वें तिभ ११वें हदन की रभत्री कन्यभ-
प्रभन्तत हे त उत्ततम है । महवषा दयभनन्द सरस्वती के अनसभर ये ततगियभँ उतरोतर उत्ततम है । अिभातप् त्र हे त
सबसे उत्ततम १२वभँ हदन और पत्री के मलये सबसे उत्ततम हदन ११वभँ है । इससे यह स्पष्ट हआ कक बभद के
१२ रत्रत्रयों में जो सम ततगि है , वह पत्र के मलये और जो ववषम ततगि है , वह पत्री के मलये उपयक्त है । यह
ध्यभन रहे कक स्त्री के प्रिम ४हदन जो शवद्ध के हैं, उसे शभस्त्रीय र्भषभ में रजस्वलभ-हदन, मभमसक धमा, ऋत
कभल इत्तयभहद नभम से जभने जभते हैं । इन ततगियों में स्त्री अध्यभत्तम-गचन्तन ककयभ करे । पूवा कगित
अमभवस-पूर्र्ामभ आहद र्ी जपोपभसभनभहद की दृन्ष्ट से उत्ततम मभने गये हैं । इन ततगियों में यज्ञ, जप, तप
आहद के द्वभरभ अध्यभत्तम ववकभस कभ प्रभवधभन है । इसके मलये इन ततगियों में सूया की न्स्ितत अनकूल होती
है ।

ऐसभ करने से मन चभही संतभन की प्रभन्तत सम्र्व है । शभस्त्रों में यहभँ तक र्ी गचन्तन है कक पत्र-योग में
अंन्न्तम १२वभँ, १०वभँ आहद हदन-ववचभर संतभन को महभत्तमभ, रभजभ, ववद्वभन,् सभ्य, ससंस्कृत बनने-बनभने में
सहभयक हैं, ऐसभ ही कन्यभ के मलये जभनें कक ११वभँ, ९वभँ, ७वभँ आहद कभ रभत्री-कभल उपयक्त हैं । इससे पतभ
यह चलतभ है कक ऋत कभल पर्
ू ा होने पर १२ हदनों में न्जतनभ अगधक समय तनकल जभये, वह उतनभ ही
अगधक पष्ट व उत्ततम धभत कभ पोषक है जो पष्ट गर्ा की स्िभपनभ में सहभयक है ।
ऋतकभल- एक मभस में एक वभर हर स्त्री कभ ऋत कभल होतभ है । इसे ही शवद्ध कभल आहद नभमों से जभनते
हैं । न्जस स्त्री कभ ऋत कभल पूर्ा तिभ स्वस्ि होतभ है, वह स्त्री जीवन में अगधक स्वस्ि और दीर्भाय होती
है । स्वस्ि शवद्धकभल कभ अिा है -उगचत मभत्रभ में ववकृत रक्त मभमसक धमा कभल में बभहर तनकलनभ । इसकभ
पूरभ समय लगर्ग चभर हदन कभ होतभ है , शवद्ध कभल में कम यभ अगधक होनभ अस्वस्ि स्त्री कभ संकेत है ।

ऋत कभल-गर्नभ- जैसभ कक हम पूवा जभन चके हैं कक ऋतकभल पूर्ा होने के ४हदन बभद के १२हदन ही
गर्भाधभन के मलये उपयक्त है तो इसकी अच्छी तरह गर्नभ करनभ र्ी हमें पतभ होनभ चभहहये । इसमें
शभस्त्रीय ववचभर यह है कक अगर मध्य रभत्री से पूवा ऋत स्रभव प्रभरम्र् हआ है तब उस रभत्री के पश्चभतप्रभत:

सूयोदय कभल दस
ू रभ हदन मभनभ जभयेगभ और अगर मध्य रभत्री के बभद मभमसक स्रभव आयभ है , तो उस रभत्री के
बभद होने वभलभ प्रभत: सूयोदय पहलभ हदन ही मभनभ जभयेगभ । यह उल्लेख इसमलये हदयभ गयभ कक पतत-पत्तनी
गर्ा-स्िभपनभ के हदन अपनी चभहत और समझ के अनसभर तनर्ाय कर वैहदक ववगध द्वभरभ हदन में ही पूवा
यज्ञपूवक
ा सँस्कभर कर सकें और अपने स्वतन्त्र प्रसन्नगचत्तत ववचभर से परस्पर सम्बन्ध बनभ सकें ।

औषगध-ववचभर-महवषा दयभनन्द ने अपनी सँस्कभर ववगध पस्तक में “सवौषगध” कभ ववचभर कर उसकभ ववस्तत

वर्ान ककयभ । रभमभयर् कभल में र्ी वन्ध्यभपन दरू करने हे त महभरभज दशरि की तीनों धमा पन्त्तनयों
कौशल्यभ, कैकेयी और सममत्रभ को ववशेष औषगध से यक्त खीर पकभकर दी गयी िी फलत: बमलष्ठ, रभजभ,
ववद्वभन,् सभ्य और ससँस्कृत संतभनें हयीं जो रभम, लक्ष्मर्, र्रत और शत्रघ्र् के नभम से सप्रमसद्ध हये ।
वस्तत: इसमें ववज्ञभन यह है कक परुष-शक्रभर् अगधक होने पर पत्र और स्त्री-रजस-शन्क्त मजबूत होने पर
कन्यभ कभ जन्म होतभ है । बरभबर होने पर नपंसकतभ बन जभती है । इसके मलये गचककत्तसभ-प्रभर्भली र्ी
उपलब्ध है न्जससे परुष-शक्रभर् को बढ़भयभ जभ सकतभ है । हमें संकोच छोड़कर इस सववधभ कभ लभर् लेनभ
चभहहये न कक कन्यभ होने पर स्त्री को कोषनभ/ र्लभ-बरभ कहनभ चभहहये । वैहदक ववधभ में तो कलीन स्त्री
सदै व सम्मभन की पभत्रभ है । हमें इसकभ ध्यभन हमेशभ ही रखनभ होगभ ।

महवषा दयभनन्द सरस्वती ने अपनी पस्तक सँस्कभर ववगध के गर्भाधभन प्रकक्रयभ में तनम्नमलर्खत ववशेष
पहलओं पर हमभरभ ववशेष ध्यभन आकवषात ककयभ । १. आय-ववचभर २. ऋत-ववचभर ३. पत्र-पत्री-ववचभर ४.
गर्भाधभन-सकमा -ववचभर । हम इन्हें क्रमश: समझने कभ प्रयत्तन करें -

आय-ववचभर-गर्भाधभन की र्ी आय वही होती है जो वववभह की होती है । वववभह के ठीक पश्चभतगर्भा


् धभन की
अवस्िभ आती है । गर्भाधभन हे त तीन महत्तत्तवपूर्ा बभतों को समझनभ बहत ही आवश्यक है ।
१. वभल्यभवस्िभ-परुष के मलये-१६ वषा से पूव,ा कन्यभ के मलये-१२ वषा से पूवा ।
२. ककशोरभवस्िभ-परुष के मलये-२५ वषा से पूव,ा कन्यभ के मलये-१८ वषा से पूवा ।
३. यवभवस्िभ- परुष के मलये-२५ वषा के बभद (वैहदक), ककन्त संवैधभतनक(constitutional) २१ वषा के बभद ही,
कन्यभ के मलये-१८ वषा के बभद (संवैधभतनक/constitutional)

वभल्य-जीवन व ककशोर-जीवन वैहदक मयभादभ में वववभह के मलये तनषेध है । यवभ कभल ही वववभह के मलये
उपयक्त मभनभ गयभ है । अत: गर्भाधभन हे त उपयक्त कभल कन्यभ हे त १८ के बभद, कम से कम १६ वषा
अवश्य हो, और परुष हे त २५ के बभद उपयक्त है , कम से कम २१ वषा अवश्य हो । वभल व ककशोर वववभह
दर्भानयपर्
ू ा मभन्य है । शरीर-वैज्ञभतनकों को मभननभ है कक वभल-जीवन में गर्भाधभन होने पर होने वभली संतभने
तनबाल, ववद्धहीन, रोगयक्त तिभ अल्पभय होती है । ककशोर जीवन के गर्भाधभन से संतभने शरीर से िोड़भ स्वस्ि
सम्र्व है , पर मन्स्तष्क, ज्ञभन-ववज्ञभन व ववद्ध से पूर्ा ववकमसत होने में कहठनभई कभ होनभ सम्र्भववत है
अिभातज्ञभने
् न्न्ियों के पूर्ा ववकभस में कमी कभ रह जभनभ सम्र्व है । फलत: इस उम्र में गर्भाधभतनत संतभने
प्रभय: मूखा वभ अपूर्ा ववकमसत रह जभती है । यवभ कभलीन गर्भाधभन से उत्तपन्न संतभनें शरीर, मन, ववद्ध आहद
सब रुप से स्वस्ि व ववकमसत होती हैं । अत: हमें तनतभन्त ध्यभन रखनभ है कक वववभह यवभ कभल में ही हो
तभकक उनकी आने वभली संतभनें र्ी स्वस्ि, सन्दर, मभनवीय गर्ों से ओत-प्रोत हों तिभ अपररपक्वतभ के
मशकभर वे न हों । अपररपक्व अवस्िभ के कभरर् संतभनें र्ी अपररपक्वतभ कभ मशकभर होकर प्रभय: अपंग हो
जभती हैं, कई वभर तो, यह वंशभनक्रमर् बन जभतभ है । पीढ़ी-गर-पीढ़ी यह पररवभर में त्रबमभरी रहने लग जभती
है , इसमलये यह बहत ही आवश्यक है कक समभज में वभल व ककशोर वववभह सवािभ वन्जात हों और केवल यवभ-
वववभह ही सदभ प्रचमलत हो ।
ऋतक्षेत्र-ववचभर- जैसे शरद्, ग्रीष्म और वषभा ऋतयें क्रमश: आती हैं और र्मू म को बीज और जल के सम्पका से
उवारभ(फहटा लभइज्ड) बनभ दे ती हैं, वैसे ही स्त्री कभ शरीर -र्ूमम(क्षेत्र) तिभ मभमसक रक्त-स्रभव कभ समय ऋत
कभल है । दवू षत रक्त स्रभव से शरीर शद्ध होतभ है मभनो उवारभ क्षेत्र (firtilised) तैयभर हो रहभ है । रक्त स्रभव
के बभद ४ हदन छोड़कर बभकी के १२ हदन स्त्री के मलये ऋत कभल के रुप में गर्भाधभन के मलये अत्तयन्त
उपयक्त कभल होतभ है । इस कभ ववचभर करनभ ही ऋत क्षेत्र-ववचभर है । उपयक्त कभल में गर्भाधभन ही मभनो
बीजभम्ब (शक्रभर् और रजस) कभ उपयक्त ऋतदभन है । इस प्रकभर ऊपरोक्त ततगियों में ववगधवतगर्भा
् धभन
करनभ उत्ततरोत्ततर ततगि-चयन उत्ततम है ।

ववचभरर्ीय है कक गर्भाधभन एक संतभनोत्तपतत हे त श्रेष्ठ ववगध है । यों तो जब से कन्यभ कभ रजोदशान प्रभरम्र्


होतभ है, उसके शरीर रुपी क्षेत्र में संतभनोत्तपतत की क्षमतभ आ जभती है पर जैसे-जैसे वर्र्ात यवभ कभल की
ओर कन्यभ बढ़ती है , वैसे-वैसे उसकभ शरीर रुपी क्षेत्र अगधक सक्षम होतभ जभतभ है । प्रिम रजोदशान (Peried)
शरु होने के लगर्ग ४-५ वषों बभद ही स्त्री कभ गर्ा-क्षेत्र गर्ा ग्रहर् हे त पररपक्व हो पभतभ है । इन्हीं सब
वैज्ञभतनक कभरर्ों को ध्यभन में रखकर महवषा दयभनन्द ने वववभह और वववभह के पश्चभतगर्भा
् धभन हे त वर और
कन्यभ की न्यनतम आय २५ वषा परुष और १६ वषा कन्यभ की तनधभाररत की है । संवैधभतनक रुप से र्ी
वववभह के मलये परुष की न्यन्तम आय २१ वषा और कन्यभ की १८ वषा ही मभन्य है ।

पत्र-पत्री-ववचभर- इस के सम्बन्ध में पूवा के अंकों में र्ी पयभातत मलखभ गयभ है तिभवप कछ परीक्षर् और
प्रमभर्ों के आधभर पर संक्षेप से इतनभ जभनें-

१. परुष शक्रभर् अगधक होने पर लड़कभ होगभ और रज: कर् अगधक होने पर संतभन कन्यभ होगी ।
२. परुष शरीर से मजबूत हो , बड़ी उम्र कभ हो और स्त्री कृश कभय/पतले शरीर वभली हो तिभ संतमलत
गर्भाधभन हआ हो, तब र्ी पत्र पैदभ होगभ ।
३. परुष और स्त्री द्वभरभ तनधभाररत ऋतकभल के सम/जोड़े हदनों में गर्भाधभन करने पर लड़कभ और ववषम
हदनों/ औडडेज में सहवभस बनभने से कन्यभ की उत्तपन्त्तत की सम्र्भवनभ अगधक है ।
४. परुष के दभयीं ओर के शक्रभर् से पत्र और बभयीं ओर के शक्रभर् से कन्यभ सम्र्भववत है ।
५. स्त्री के दभयीं डडम्ब (Ovari ) से रज: स्रभव वभले शवद्धमभस में ऋतकभल के तनयमभनसभर गर्भाधभन की
न्स्ितत में पत्र और बभयीं डडम्ब (Ovari ) से रज: स्रभव वभले मभस की गर्ा-न्स्ितत में कन्यभ की सम्र्भवनभ
बनती है । ववशेष जभनकभरी के मलये संस्कभर चन्न्िकभ, लेखक-डॉ. सत्तयव्रत मसद्धभन्तभलँ कभर पढ़ें -सभर्भर

(नोट- स्त्री कभ मभमसक रक्त स्रभव एक मभस में उसकी दभयीं डडम्ब (ovari) से होतभ है तिभ दस
ू रे मभस में
क्रमश: वभयीं डडम्ब (ovari) से होतभ है । इससे गर्भाधभन ततगि तनधभारर् करने में मदद ममल सकती है ।)

गर्भाधभन सकमा ववचभर- वैहदक सँस्कृतत में गर्भाधभन एक धभममाक सँस्कभर है । यह एक सम्मभतनत कृत्तय होने
से पर्
ू ता यभ मयभाहदत है । कछ लोगों में कछ ऐसभ शमा सभ है कक यह एक र्र्ृ र्त, शमानभक ककृत्तय है पर,
वैहदक धमा में वववभहोपरभन्त गर्भाधभन सँस्कभर अत्तयन्त मयभाहदत, सम्मभतनत, महत्तत्तवपर्
ू ा और ववगधपव
ू क
ा करने
योनय कभया है । इसकभ कभरर् है कक इस सँस्कभर के आधभर पर ही नये शरीर में एक पववत्र आत्तमभ संतभन
के रुप में स्िभन ग्रहर् करती है । तब स्त्री-परुष मभतभ-वपतभ की पदवी प्रभतत कर पररवभर, समभज और रभष्र
में गौरवभन्न्वत होते हैं और सम्बन्न्धत सम्बन्न्धयों व ममत्रों को नयभ पररचय दे ते हये नयी खमशयभँ प्रदभन
करते हैं । क्यों नहीं, क्योंकक इसी सँस्कभर के मूल में एक अनपम श्रन्ृ ष्ट कभ मूल तनहहत है । सख, संतोष,
हषा, सम्मभन और पररवभर, समभज तिभ रभष्र की प्रततष्ठभ तनहहत है । अत एव इस सँस्कभर को एक
तनमभार्भत्तमक कभया मभनकर मशवसंकल्प और ववगधपूरवक इसे पूरभ करनभ होगभ तर्ी हम तनन्श्चतरुप से
अपनी र्भवनभओं के अनरुप बलशभली, ववद्धमभन,् तेजस्वी, और होनहभर संतभनें प्रभतत कर सकेंगे । आर्खरकभर,
हदव्य ववद्यततरं
् गों में ववचरर् करने वभली हदव्य आत्तमभओं में से स्त्री-परुष मशवसंकल्प व यज्ञ ववधभ से एक
होनहभर शद्ध आत्तमभ कभ आह्वभहन करते हैं और प्रर्-कृपभ से उसे गर्ा-न्स्ितत द्वभरभ संतभनरुप में प्रभतत र्ी
कर लेते है । इस कभरर् ही मभतभयें ववशेष कर हदव्य और होनहभर संतभनों के मलये सदभ गौरवभन्न्वत रही हैं
। हमें तनतभन्त इनकभ अनकरर् करनभ चभहहये ।

हमें गर्भाधभन कभल की मनोदशभ के प्रर्भव से जड़े कछ उदभहरर्ों कभ अवलोकन करनभ र्ी जरूरी है । यह
बभत सच है कक गर्भाधभन के समय स्त्री के मन में जो न्स्ितत पैदभ होगी , उसकभ प्रर्भव होने वभली संतभन पर
अवश्य ही पड़ेगभ । मदभलसभ की कहभनी प्रमसद्ध है । “शद्धोऽमस वद्धोऽमस तनरं जनोऽमस” बोलती हयी मदभलसभ
अपनी पूवा की आठ संतभनों को सँन्यभसी बनभ हदयभ और जब ईच्छभ बदली तो नौवीं संतभन को रभजभ बनभयभ
। महभर्भरत में महभरभज धत
ृ रभष्र, पभंड और ववदर जी के जन्म की कहभनी र्ी इसी तथ्य को मसद्ध करती है
। प्रमभर्- “तस्य कृष्र्स्य कवपलभं जटभं दीतते च लोचने । बभ्रूर्र् चैव श्मश्रर्ू र् दृष््वभ दे वी न्यमीलयत”् ॥
आहदपवा १०५.५
मभतभ सत्तयवती के दोनों पत्र ववगचत्रवीया और गचत्रभँगद से कोई संतभन नहीं हई और ववगचत्रवीया क्षयरोग से
और गचत्रभँगद यद्ध में मत्तृ य को प्रभतत हो गये, तब मभतभ सत्तयवती को वंश-ववकभस की गचंतभ हई । उन्होंने
ववगचत्रवीया की ववधवभ पन्त्तनयभं अन्म्बकभ और अम्बभमलकभ से कहभ कक वे महवषा व्यभस के सभि तनयोग करके
संतभन प्रभतत करें । व्यभस दे खने में र्ोर र्यंकर कभले-कलटे , बड़ी-बड़ी मूछ और दभढ़ी वभले िे । गर्भाधभन-
कभल में अन्म्बकभ उनकी शक्ल दे ख र्यंकर डर गयी फलत: अपनी दोनों आँखें बन्द कर डरती और कभँपती
हयी गर्ावती हयी, पररर्भमत: उससे धष्ृ टरभष्र जन्मभन्ध पैदभ हये । ऐसे ही सत्तयवती के ही आदे श से व्यभस
जी ने ववगचत्रवीया की दस
ू री ववधवभ पत्तनी अम्बभमलकभ से र्ी गर्भाधभन ककयभ । यहभँ र्ी अम्बभमलकभ उन्हें
दे ख डर गयी और परू े शरीर से पीली पड़ गयी, गर्भाधभन तो सफल हयभ पर आने वभली संतभन कमजोर, पीली
( पभँड ) हयी न्जसकभ नभम र्ी पभँड ही रखभ गयभ ।--“ सभवप --, वववर्भा पभण्ड संकभशभ समपद्यत र्भरत”-
आहदप. १०५.१५ । अगली वभर र्ी सत्तयवती ने अम्बभमलकभ को इस कभया के मलये कहभ पर अम्बभमलकभ ने
होमशयभरी से अपनी जगह अपनी दभसी को सजी संदर अवस्िभ में अपने ही आर्ष
ू र्ों से सजभकर व्यभस जी
के पभस र्ेज हदयभ - “तत: स्वैर्ष
ूा र्ैदभासीं र्ष
ू तयत्तवभतसरोपमभम।् प्रेषयभमभस कृष्र्भय तत: कभमशपते: सतभ ”॥
१०५.२४ । दभसी ने बहत ही खश और रभजी-खशी अवस्िभ में गर्भाधभन प्रभतत ककयभ फलत: ववदर जैसे
धमभात्तमभ ववद्वभनप् त्र कभ जन्म हयभ । ये सब वत
ृ भन्त गर्भाधभन कभल के प्रर्भव कभ स्पष्ट व्यभख्यभन कर
रहे हैं । कठोर तपस्वी व्रती व्यभस जी जब दभसी के सभि शयन करके उठे और बोले-“ अयं च ते शर्े गर्ा:
श्रेयभनदरमभगत: । धमभात्तमभ र्ववतभ लोके सवाबवद्धमतभं वर:” । १०५.२७ अिभातते
् रे उदर में अत्तयन्त श्रेष्ठ बभलक
आयभ है । यह लोक में सब बवद्धमभनलोगों
् के बीच एक श्रेष्ठ धमभात्तमभ होगभ । इस कभरर् ववदर
कृष्र्द्वैपभयन व्यभस के पत्र हये ।

एक वभर एक परीक्षर् के आधभर पर पतभ चलभ कक यरोप आहद दे शों में अगस्त-अक्तबर मभस में पैदभ होने
वभले अनेक ववकृत व हीन ववद्धवभले तिभ स्वल्प जीवी बच्चे हये कभरर् कक नवम्बर-जनवरी तक इन दे शों
में ठण्ड अगधक होने से लोगों में महदरभपभन और तभममसक र्ोजन की अगधकतभ रहती है । इन हदनों के
गर्भाधभन के बच्चे अगस्त-अक्तबर में ही जन्में गे । अत: यह आवश्यक है कक उत्ततम संतभन हे त १३ हदन
पूवा से ही शद्ध आहभर- ववहभर और श्रेष्ठ ववचभर ग्रहर् करने की मनोदशभ बनभनभ आरम्र् कर दे नभ चभहहये ।
हदन तनन्श्चत होने पर प्रभत: ववगधवतयज्ञ
् पूवक
ा गर्भाधभन सँस्कभर करके ही दोनों अत्तयन्त प्रसन्न, आन्स्तक,
उत्तसभहहत व परस्पर तयभर की मिभ में ही गर्भाधभन करें । इस मलये हम कह सकते हैं कक गर्भाधभन सँस्कभर
बभलक कभ नहीं अवपत बभलक बनभने कभ नभम है । गर्ावती होकर र्ी स्त्री शद्ध आहभर-ववहभर व श्रेष्ठ ववचभर
कभ ध्यभन रखे । रभमभयर् में र्ी बतभयभ गयभ है कक सीतभ जब गर्ावती हयी तब वैहदक सँस्करों से
संस्कभररत मयभादभ परुषोत्ततम श्री रभम ने र्ी अपने अनज श्री लक्षमर् से सीतभ जी को महवष वभल्मीकक के
आश्रम में छोड़ने को कहभ । आश्रम के तनकट पहँ च कर सीतभ जी के आदे श से लक्षर् र्ैयभ लौटने लगे तब
सीतभ जी बड़ी ही ववनम्रतभ से बोलीं-“ श्वश्रज
ू नं सवामनक्रमेर् ववज्ञभपय प्रभवपतमत्तप्रर्भम: । प्रजभतनषेकं मतय
वत्ततामभनं सन
ू ोऽनध्यभयत: चेतसेतत ” रर्वंश्महभकभव्य-१४.६० कभलीदभस
अिभात ् हे र्ैयभ लक्षमर्, तम जभकर सर्ी सभसों से मेरभ प्रर्भम कहकर तनवेदन करनभ कक मेरे गर्ा में आपके
पत्र कभ ही तेज है इसमलये आपलोग हृदय से उसकी कशल मनभते रहें । महवष वभल्मीकक के आश्रम में
रहकर वच्चभ जन्म दे ने कभ आशय केवल इतनभ िभ कक आने वभली संतभन श्रेष्ठ, बलवभन और ववद्वभन ् हो ।

गर्भाधभन के ववगध र्भग से ज्ञभतव्य बभतें -

१. गर्भाधभन सँस्कभर में पत्तनी वेदी में वभयीं ओर बैठती है । इसी तरह नभमकरर् और तनष्क्रमर् सँस्कभर में
र्ी । कभरर् है कक ये तीनों सँस्कभर में पत्तनी व वच्चे को अगधक सरक्षभ की आवश्यकतभ है । पतत कहनभ
चभहतभ है कक मैं तम्हें अपनभ हृदय रुपी रक्षभ प्रदभन कर अपने हृदय के पभस रखनभ चभहतभ हूँ । पतत के
हृदय के पभस पत्तनी बैठे तो वह पतत की वभयीं ओर ही हआ । पत्तनी को ऐसी अवस्िभ में न केवल शभरीररक
रक्षभ चभहहये अवपत मभनमसक रक्षभ र्ी चभहहये । पतत ने जब अपनभ हृदय दे हदयभ है तो इससे अच्छभ सरक्षभ
स्िभन पत्तनी के मलये और कोई नहीं हो सकतभ । पत्तनी जब पतत के हृदय के पभस है तब उसे कोई डरने की
बभत नहीं है । पतत जी जभन से, उत्तसभह और शन्क्त से अपनी पत्तनी को दे ये वचन को तनर्भयेगभ
अिभातउसकी
् पूरी रक्षभ करे गभ । पत्तनी र्ी पूर्रु
ा प से गचन्तभरहहत होकर गर्ास्ि संतभन के समगचत ववकभस
कभ ख्यभल रखकर आगे बढ़ती रहे गी, पतत की पीछे -पीछे चलती रहे गी । वभयीं ओर रहनभ पीछे रहने कभ
प्रततक है और दभयीं ओर रहनभ आगे- आगे बढ़ने कभ प्रततक है ।
तर्ी अन्य सँस्कभरों व यज्ञ-कभयों में पत्तनी दभयीं ओर बैठने लगती है । वह कहनभ चभहती है कक अब मैं
समझदभर, सँस्कभररत और यज्ञीय कमों से सपररगचत हो गयी हूँ अत: अब मैं सदै व आपकभ दभयभं हभि बनकर
आपकी शन्क्त बनी रहूँगी । मन महभरभज ने ठीक ही कहभ- “यज्ञ-कमा वववभहे ष पत्तनी ततष्ठे त ् दक्षक्षर्भम”-

मनस्मतृ त ।

नभमकरर् सँस्कभर और तनष्क्रमर् र्ी कछ इन्हीं र्भवनों से जड़े हये हैं । नभमकरर् सँस्कभर में वपतभ ही
अपने अगधकभर में लेकर उसे नभम प्रदभन करतभ है । मभँ वच्चे को पीच्छे से जभती हयी वपतभ के गोद में ही
पहले वच्चे को सौंपती है । वपतभ परू ी सरक्षभ व तयभर दे तभ हआ पर्
ू ा अगधकभर से वच्चे को नभम दे तभ है;
सबके वीच र्ोषर्भ करतभ है कक हमभरे वच्चे कभ अब “अमक” नभम रहे गभ । जैसे रभहल, रश्मी, आहद । इसी
र्भव से पत्तनी और वच्चे को परू ी सरक्षभ प्रदभन करने कभ वचन दे तभ है । तनष्क्रमर् सँस्कभर में र्ी यही र्भव
है । तनष्क्रमर् सँस्कभर में वच्चे को ककसी धभममाक स्िभन यभ कोई अन्य मनोरम वभग-वगीचभ जैसी खली
जगह ले जभनभ होतभ है । ऐसी जगह र्ी छोटभ वच्चभ होने के नभते उसे सम्र्भलने में पतत कभ सहभरभ अगधक
चभहहये । अत: यहभँ र्ी पत्तनी पतत की वभयीं ओर ही होती है ।

२. गोत्र-पररवतान-ववचभर- वस्तत: वववभह सँस्कभर में ववमर्न्न वचनों से बन्ध तो जभते हैं पर गोत्र पररवत्ततान
नहीं होतभ । कन्यभ दभन (प्रततग्रहर् ववगध) में दोनों अपनभ गोत्र कभ पररचय दे दे ते है । यहभँ पत्तनी कहती है
कक मैं पतत के तेज को ही अपने गर्ा में संतभन के रुप में ग्रहर् कर रही हूँ इस मलये मैं पतत के गोत्र को
अब ग्रहर् करती हूँ । गर्भाधभन सँस्कभर ठीक वववभह के बभद ही बन्ल्क चौिे हदवस ही होतभ है , इसे कहीं-
कहीं चौठभरी र्ी कहभ जभतभ है, और यही सभि-सभि रहने कभ प्रभरम्र् र्ी है , अत: यहीं पर गोत्र पररवत्ततान
उगचत र्ी प्रतीत होतभ है । फलत: इस सँस्कभर में गोत्र पररवत्ततान की ववगध प्रभतत है । कफर व्यभवहभररक तौर
पर तो सही पतत-पत्तनी गर्भाधभन प्रकक्रयभ द्वभरभ एक सभि होने पर ही है । वववभह में वचनवद्ध होनभ और यहभँ
व्यभवहभररक रुप से एके हो जभनभ । यही पतत-पत्तनी कभ एक दज
ू े के मलये पर्
ू ा समपार् है । वैसे र्ी हर पत्तनी
को वववभह के बभद पतत के कल में ही आनभ होतभ है । यही कभरर् है कक वववभहोपरभन्त हर पत्तनी पतत कभ
गोत्रोगचत उपनभम (सनेम) मलखनभ स्वीकभर करती है । ये सभरी व्यभवहभररक प्रकक्रयभयें एक पत्तनी को पतत कभ
गोत्र पभने कभ अगधकभर दे रही हैं । इसी कभरर् आने वभली संतभन कभ गोत्र र्ी वपतभ कभ गोत्र ही होगभ ।
वैहदक परम्परभ र्ी यही है ।

३. गर्भाधभन सँस्कभर में वीच र्भग की ववगधयों में ५-५ मंत्रों की यगल छभयभ में कछ इस प्रकभर महत्तत्तवपूर्ा
प्रभिानभयें की गयीं हैं जो ये र्ी समझनभ आवश्यक है --

१. अन्नन, वभय, चन्ि, सय


ू ा तिभ इन सब से एक सभि प्रभिानभयें की गयीं हैं कक हमभरे जीवन में धमभानकूल
लक्ष्मी ( धन-दौलत) हो न कक अधमा से अन्जात पभपी लक्ष्मी ।
२. पत्तनी पततघ्नी तन:ू न स्यभतअिभा
् तपत्तनी
् ववधवभ न हो ।
३. स्त्री अपत्र्यभ: तन:ू न स्यभतस्त्री
् तनसंतभन न हो ।
४. अपसव्यभ तन:ू न स्यभतपतत
् के प्रततकूल चलने वभली न हो ।
५. पत्तनी के मन व शरीर में कोई दोष न रहे तभकक वह व्यवहभर से र्ी शद्ध हो सके ।
६. स्त्री गर्ास्ि संतभन को नौ मभस तक र्मलर्भँतत सन्र्भल सके । र्मलर्भँतत कभ यहभँ अिा यही है कक वह
र्ौततक व मभनमसक तौर पर पूर्त
ा : स्वस्ि रहे और स्वस्ि संतभन को जन्म दे ।
७. पत्तनी द्वभरभ पतत कभ दभयभं स्कन्ध (कन्धभ) छूनभ परस्पर प्रगभढ़ प्रेम व समपार् हदखलभनभ है ।
८. सदृढ़ गर्ा, शतभयष्य और इससे र्ी अगधक आय, स्वस्ि तिभ तेजस्वी संतभन की प्रभिानभ की गयी है ।
९.जल-पभत्र में वीच-वीच में यजमभन द्वभरभ आहत र्ी की बून्दें छोड़ने कभ ववधभन है । इस जल को
मलकर स्त्री नहभवे और शद्ध वस्त्र धभरर् कर कफर वेदी में आवे और पतत-पत्तनी दोनों कण्ड की प्रदक्षक्षर्भ
करते हये सूया कभ ख्यभल करें । यह सब यज्ञ की पूर्त
ा भ कभ पररचय है । सूया सदृश तेजस्वी संतभन हो; ऐसी
र्भवनभ कर यह कभया करनभ और परमेश्वर से सफलतभिा प्रभिानभ करनभ समगचत ही है ।
यहीं पतत कभ गोत्र नभम लेकर पत्तनी पतत कभ आदर करके सब उपन्स्ित श्वसर आहद बड़े जनों कभ र्ी
अमर्वभदन करे तभकक वह जीवन में वपत ृ यज्ञ कभ महत्तत्तव समझ सके और तदनरुप जीवन में व्यवहभर र्ी
करती रहे ।
९. सवौषगधयक्त आहर, शद्धभहभर-ववहभर कभ महत्तत्तव जभननभ.
१०. समयभनसभर केसर, कस्तूरी, जभयफल, जभववत्री, छोटी इलभयची आहद यक्त िोड़भ गमा िोड़भ शीतल दध
ू कभ
सेवन गर्ावती स्त्री करती रहे तभकक स्वस्ि, सन्दर, सडौल व तनरोग संतभन प्रभतत हो ।

इस प्रकभर गर्भाधभन सँस्कभर-ववचभर सम्पन्न हआ । अब आगे पँसवन सँस्कभर की बभत करें गे ।

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