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अनुकररम

हम धनवान होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नही इसमे शंका हो सकती है परतं ु भैया ! हम मरेंगे
या नहीं, इसमे कोई शंका है? िवमान
श उड़ने का समय िन ि रि,तहोताहै
बस चलन क े ा ,
स मयिनिितहोताहै
शश
गाड़ी छूटने का समय िन ि र ि त ह ो त ा ह ै परंतुइसजीवनकीगाड़ीछूट
समय है?
आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ पापत िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और पापत करोगे, पयारे भैया ! वह सब मृतरयु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो
जायेगा, पािपत अपािपत मे बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनरतमुररख होकर अपने अिविल आतरमा को, िनजसरवरूप के
अगाध आननरद को, शाशत शाित को पापत कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतमा हो।
जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए िन शर ियबल को जगाओ। सवररदे,शसववकाल मे सवोतम
आतरमबल को अिजररत करो। आतरमा में अथाह सामथरयरर है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो
िव शर व में ऐसी कोई सतरता नहीं जो तुमरहें ऊपर उठा सके। अपने आतरमसरवरूप में
पितिित हो गये तो ििलोकी मे ऐसी कोई हसती नही जो तुमहे दबा सके।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती रहती
है। अतः वृितरतयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृितरतयों को एकितररत करके साधना-काल में
आतरमििनरतन में लगाओ और वरयवहार-काल में जो कायरर करते हो उसमें लगाओ।
दतरतिितरत होकर हर कोई कायरर करो। सदा शानरत वृितरत धारण करने का अभरयास करो।
िविारवनरत एवं पररसनरन रहो। जीवमातरर को अपना सरवरूप समझो। सबसे सरनेह रखो। िदल को
वरयापक रखो। आतरमिनषरठ में जगे हुए महापुरुषों के सतरसंग एवं सतरसािहतरय से जीवन को
भिित एव व ं े द ा नतसेपुषएवपंुलिकतकरो।
अनुकररम
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हजारों-हजारों भकरतजनों, िजजासु साधको केिलये पातः समरणीय पूजयपाद संत शी आसारामजी बापू
की जीवन-उदरधारक अमृतवाणी िनतरय िनरनरतर बहा करती है। हृदय की गहराई से उठने वाली
उनकी योगवाणी शररोताजनों के हृदयों में उतर जाती है, उनरहें ई शर वरीय आहरलाद से मधुर
बना देती है। पूजय शी की सहज बोल-चाल मे तािततवक अनुभव, जीवन की मीमासा, वेदानरत के अनुभूितमूलक
ममरर पररकट हो जाया करते हैं। उनका पावन दररशन और सािनरनधरय पाकर हजारों-हजारों
मनुषरयों के जीवन-उदरयान नवपलरलिवत-पुििपत हो जाते है। उनकी अगाध जानगंगा से कुछ आचमन लेकर
पसतुत पुसतक मे संकिलत करकेआपकी सेवा मे उपिसित करते हएु हम आननदित हो रहे है .....।
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पूजय बापू का पावन सदेश


िनवेदन
अननरय योग
रूिि और आव शर यकता
पािपत और पतीित
जीवन-मीमांसा
आिसरतक का जीवन दररशन
मधु संिय
अजरञान को िमटाओ
किरये िनत सतरसंग को
सावधान.....!
तियवताम्..... मा कुतकरयररतामर
आिसरतक और नािसरतक
सुख-दुःख से लाभ उठाओ
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।।
"मुझ परमे शर वर
में अननरय योग के दरवारा अवरयिभिािरणी भिकरत तथा एकानरत और
शुद देश मे रहन क े ा स व भा (यह जरञान
व औ र ि व षयासितमनु ियोकेसमुदायमेपेमकानहोना
है)।"
(भगवद ग्ीताः13.19)
अननरय भिकरत और अवरयिभिािरणी भिकरत अगर भगवान में हो जाय, तो भगवतपािपत कििन
नहीं है। भगवान पररािणमातरर का अपना आपा है। जैसे पितवररता सरतररी अपने पित के
िसवाय अनय पुरष मे पितभाव नही रखती, ऐसे ही िजसको भगवतरपररािपरत के िसवाय और कोई सार वसरतु
नही िदखती, ऐसा िजसका िववेक जाग गया है, उसके िलए भगवतरपररािपरत सुगम हो जाती है।
वासरतव में, भगवतपािपत ही सार है। मा आननदमयी कहा करती िी- "हिरकथा ही कथा...... बाकी सब जग की
वरयथा।"
मेरे पररित अननरय योग दरवारा अवरयिभिािरणी भिकरत का होना, एकानरत सरथान में
रहने का सरवभाव होना और जन समुदाय में पररीित न होना.... इस पकार की िजसकी भिित होती है,
उसे जरञान में रूिि होती है। ऐसा साधक अधरयातरमजरञान में िनतरय रमण करता है।
तततवजान केअिवसवरप परमातमा को सब जगह देखता है। इस पकार जो है , वह जरञान है। इससे जो िवपरीत
है, वह अजरञान है।
हिररस को, हिरजरञान को, हिरिवशररािनरत को पाये िबना िजसको बाकी सब वरयथरर वरयथा
लगती है, ऐसे साधक की अननरय भिकरत जगती है। िजसकी अननरय भिकरत है भगवान में, िजसका
अननरय योग हो गया है भगवान से, उसको जनसंपकरर में रूिि नहीं रहती। सामानरय इिरछाओं
को पूणरर करने में, सामानय भोगो को भोगन म े े , ऐसे लोगों
ज ीवननषकरते है में सिरिे भकरत को
रूिि नहीं होती। पहले रूिि हुई तब हुई, िकनरतु जब अननरय भिकरत िमली तो ििर उपरामता आ
जायेगी। वयवहार चलान क े े 'हूँ...हाँ...'
ि ल एलोगोक ेसाि कर लेगा, पर भीतर से महसूस करेगा िक यह सब जलदी
िनपट जाय तो अिरछा।
अननरय भिकरत जब हृदय में पररकट होती है, तब पहले का जो कुछ िकया होता है , वह बेगार सा
लगता है। एकानत देश मे रहन क े ी र ि चह ो त ी ह ै । जनसंप,कवसाधना
सेवहदरूभागताहै।आशममेसतस
िशिवरे आिद को जनसंसगव नही कहा जा सकता। जो लोग साधन भजन केिवपरीत िदशा मे जा रहे है , देहाधरयास
बढा रहे है, उनका संसगरर साधक के िलए बाधक है। िजससे आतरमजरञान िमलता है, वह
जनसंपकव तो साधन मागव का पोषक है। जनसाधारण केबीच साधक रहता है तो देह की याद आती है , देहाधरयास
बढता है, देहािभमान बढ़ता है। देहािभमान बढ़ने पर साधक परमाथरर ततरतरव से िरयुत हो
जाता है, परम तततव मे शीघ गित नही कर सकता। िजतना देहािभमान, देहाधरयास गलता है, उतना वह
आतरमवैभव को पाता है। यही बात शररीमदर आदरय शंकरािायरर ने कहीः

।।
जब देहाधयास गिलत होता है, परमातमा का जान हो जाता है, तब जहा-जहा मन जाता है, वहाँ-वहाँ समािध
का अनुभव होता है, समािध का आननद आता है।
देहाधरयास गलाने के िलए ही सारी साधनाएँ हैं। परमातरमा-पािपत केिलये िजसको तडप
होती है, जो अननय भाव से भगवान को भजता है, 'परमातमा से हम परमातमा ही चाहते है.... औ र कु छ न ह ी
चाहते.....' ऐसी अवरयिभिािरणी भिकरत िजसके हृदय में होती है, उसके हृदय में भगवान जरञान
का पररकाश भर देते हैं।
जो धन से सुख चाहते है, वैभव से सुख िाहते है, वे लोग साधना पिरशररम करके, साधना
औ र प िरश म क े ब ल प र र ह त े ह ै ल े िक न ज ो भ ग व ा न क े ब ल प र भ ी भ ग व ा न को प ा न ा च ा ह त े
हैं, भगवान की कृपा से ही भगवान को पाना चाहते है , ऐसे भकरत अननरय भकरत हैं।
गोरा कुमरहार भगवान का कीतररन करते थे। कीतररन करते-करते देहाधरयास भूल गये।
िमटरटी रौंदते-रौंदते िमटरटी के साथ बालक भी रौंदा गया। पता नहीं िला। पतरनी की िनगाह
पडी। वह बोल उिीः
"आज के मुझे सरपररश मत करना।"
"अिरछा ठीक है....।"
भगवान मे अननय भाव िा तो पती नाराज हो गई, ििर भी िदल को िेस नही पहँचु ी। सपशव नही करना... तो नही
करेंगे। पतरनी को बड़ा प शर िाताप हुआ िक गलती हो गई। अब वंश कैसे िलेगा? अपने
िपता से कहकर अपनी बहन की शादी करवाई। सब िविध समपन करकेजब वह -वधू िवदा हो रहे थे, तब िपता ने
अपने दामाद गोरा कुमरहार से कहाः
"मेरी पहली बेटी को जैसे रखा है, ऐसे ही इसको भी रखना।"
"हाँ.. जो आजा।"
भगवान से िजसका अननय योग है, वह तो सरवीकार ही कर लेगा। गोरा कुमरहार दोनों पितरनयों
को समान भाव से देखने लगे। दोनों पितरनयाँ दुःखी होने लगीं। अब इनको कैसे समझाएँ
? तकव िवतकव देकर पित को संसार मे लाना चाहती िी लेिकन गोरा कुमहार का अननय भाव भगवान मे जुड चुका िा।
आिखर दोनों बहनों ने एक राितरर को अपने पित का हाथ पकड़कर जबरदसरती अपने
शरीर तक लाया। गोरा कुमहार न स े ो च ा ि क म े र ा ह ािअपिविहोगया।उनहोनहेािकोसजाकरद
भगवान न अ े न न य भ ा व ह ो न ा च ा ि ह ए ।अननयभावमानज े ैसेपित
देखती, ऐसे ही भकरत या साधक भी और िकसी साधना से अपना कलरयाण होगा और िकसी
वरयिकरत के बल से अपना मोकरष होगा, ऐसा नहीं सोिता। 'हमें तो भगवान की कृपा से भगवान
के सरवरूप का जरञान होगा, तभी हमारा कलयाण होगा। भगवान की कृपा ही एकमाि सहारा है , इसकेअलावा और
िकसी साधना में हम नहीं रूकेंगे.... हे पररभु ! हमें तो केवल तेरी कृपा और तेरे सरवरूप
की पररािपरत िािहए.... औ र कु छ न ह ी च ा िह ए।' भगवान पर जब ऐसा अननय भाव होता है, तब भगवान कृपा करके
भित केअनतःकरण की पते ह ं े गतेहै।
टानल
हमारा अपना आपा कोई गैर नहीं है, दूर नहीं है, पराया नही है और भिविय मे िमलेगा ऐसा भी
नहीं है। वह अपना राम, अपना आपा अभी है, अपना ही है। इस पररकार का बोध सुनने की और
इस बोध मे िहरन क े ी र ि च ह ो ज ा य े ग ी।अननयभावसेभगवानकाभजनयहपिरणामलात
अननरय भाव माने अनरय-अनरय को देखे, पर भीतर से समझे िक इन सबका अिसतततव एक भगवान
पर ही आधािरत है। आँख अनय को देखती है , कान अनरय को सुनते हैं, िजहा अनय को चखती है, नािसका
अनरय को सूँघती है, तवचा अनय को सपशव करती है। उसकेसाकी दष ृ ा मन को जोड दो , तो मन एक है। मन केभी
अनरय-अनरय िविार हैं। उनमें भी मन का अिधषरठान, आधारभूत अननरय िैतनरय आतरमा है।
उसी आतरमा परमातरमा को पाना है। न मन की िाल में आना है, न इिनरदररयों के आकषररण में
आना है।
इस पकार की तरतीवर िजजासावाला भित, अननरय योग करने वाला साधक हलरकी रूिियों और
हलरकी आसिकरतयोंवाले लोगों से अपनी तुलना नहीं करता।
चैतनय महापभु को िकसी न पेूछाः"हिर का नाम एक बार लेने से करया लाभ होता है ?"
"एक बार अननरय भाव से हिर का नाम ले लेंगे तो सारे पातक नषरट हो जायेंगे।"
"दूसरी बार लें तो ?"
"दूसरी बार लेंगे तो हिर का आननरद पररकट होने लगेगा। नाम लो तो अननरय भाव से
लो। वैसे तो िभखमंगे लोग सारा िदन हिर का नाम लेते है, ऐसों की बात नहीं है। अननरय भाव से केवल
एक बार भी हिर का नाम ले िलया जाये तो सारे पातक नषरट हो जाएँ।
लोग सोचते है िक हम भगवान की भिित करते है , ििर भी हमारा बेटा िीक नही होता है। अनतयामी भगवान देख
रहे हैं िक यह तो बेटे का भगत है।
'हे भगवान ! मेरे इतने लाख रूपये हो जायें तो उनरहें ििकरस करके आराम से
भजन करँगा .....' अथवा 'मेरा इतना पेनरशन हो जाय, ििर मै भजन करँगा ...' तो आशय िििस ििपोिजट का
हुआ अथवा पेनरशश न का हुआ। भगवान पर तो आ ि र र त न ह ींहुआ।यहअननरयभिकरत
नरिसंह मेहता ने कहाः

।।
जीवन मे कुछ असुिवधा आ जाती है तो भगवान से पािवना करते है - 'यह दुःख दूर को दो पररभु !' हम
भगवान केनही सुिवधा केभगत है। भगवान का उपयोग भी असुिवधा हटान क े े ि ल ए करते, सुहिै।वधा
असुिवधाहटगई
हो गई तो उसमें लेपायमान हो जाते हैं। सोिते हैं, बाद मे भजन करेगे। यह भगवान की अननय
भिित नही है। भगवान की भिित अननय भाव से की जाय तो तततवजान का दशवन होन ल े ग े ।आतमजानपापतकरनक े ी
िजजासा जाग उिे। जन-संसगव से िवरिित होन ल े गे।
। ।।
। ।।
'एकानरत में रहना, अलरपाहार, मौन, कोई आशा न रखना, इिनिय-संयम और पाणायाम, ये छः
मुिन को शीघरर ही िितरतपररसाद की पररािपरत कराते हैं।'
एकानरतवास, इिनियो को अलप आहार, मौन, साधना मे ततपरता, आतरमिविार में पररवृितरत... इससे
कुछ ही िदनों में आतरमपररसाद की पररािपरत हो जाती है।
हमारी भिकरत अननरय नहीं होती, इसिलए समय जयादा लग जाता है। कुछ यह कर लूँ ... कुछ यह
देख लूँ... कुछ यह पा लूँ.... इस पकार जीवन-शिित िबखर जाती है।
सवामी रामतीिव एक कहानी सुनाया करते िेः
एटलानरटा नाम की एक िवदेशी लड़की दौड़ लगाने में बड़ी तेज थी। उसने घोषणा
की थी िक जो युवक मुझे दौड़ में हरा देगा, मैं अपनी संपितरत के साथ उसकी हो जाऊँगी।
उसके साथ सरपधारर में कई युवक उतरे, लेिकन सब हार गये। सब लोग हारकर लौट जाते िे।
एक युवक ने अपने इषरटदेव जुिपटर को परराथररना की। इषरटदेव ने उसे युिकरत बता

दी। दौड़ने का िदन िन ि र ि त ि क य ा गया।एटलानरटाबड़ी
यह युवक सरवपरन में भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था, ििर भी देव न क े ु छ युिितबतादीिी।
दौड़ का पररारंभ हुआ। घड़ी भर में एटलानरटा कहीं दूर िनकल गई। युवक पीछे रह
गया। एटलानरटा कुछ आगे गई तो मागरर में सुवणररमुदरराएँ िबखरी हुई थीं। सोिा िक युवक
पीछे रह गया है। वह आवे , तब तक मुिाए ब ँ ...वहरकी
ट ोरलूँ। मुदरराएँ इकटरठी की। तब तक युवक नजदीक
आ गया। वह झट से आगे दौड़ी। उसको पीछे कर िदया। कुछ आगे गई तो मागरर में और
सुवणवमुिाए द ँ े खी । व ह भ ी ल े ल ी । उ स क े प ासवजनबढगया।युवक
तेज दौड लगाई। आगे गई तो और सुवणवमुिाए ि ँ द खी । उ स न उे स ेभीलेली।इसपकारएटलानट
गया। दौड़ की रिरतार कम हो गई। आिखर वह युवक उससे आगे िनकल गया। सारी संपितरत और
रासरते में बटोरी हुई सुवणररमुदरराओं के साथ एटलानरटा को उसने जीत िलया।
एटलानरटा तेज दौड़ने वाली लड़की थी, पर उसका धयान सुवणवमुिाओं मे अटकता रहा। िवजेता
होने की योगरयता होते हुए भी अननरय भाव से नहीं दौड़ पायी, इससे वह हार गई।
ऐसे ही मनुषरय मातरर में परबररहरम परमातरमा को पाने की योगरयता है। परमातरमा ने
मनुषरय को ऐसी बुिदरध इसीिलए दे रखी है िक उसको आतरमा-परमातमा केजान की िजजासा जाग जाय ,
आतरमसाकरषातरकार हो जाय। रोटी कमाने की और बिरिों को पालने की बुिदरध तो प -शपिकयो ु को भी
दी है। मनुषरय की बुिदरध सारे प -शपकी- ु पाणी जगत से िवशेष है, तािक वह बुिददाता का साकातकार कर सके।
बुिद जहा से सता-सिूितव लाती है , उस परबररहरम-परमातमा का साकातकार करकेजीव बह हो जाय। केवल कुसी -
टेबल पर बैठकर कलम िलाने के िलए ही बुिदरध नहीं िमली है। बुिदरधपूवररक कलम तो भले
चलाओ, परत ं ु बुिद का उपयोग केवल रोटी कमाकर पेट भरना ही नही है। कलम भी चलाओ तो परमातमा को िरझान क े े
िलये और कुदाली चलाओ तो भी उसको िरझान क े ेिलए।
अनुकररम
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ऐसा कोई मनुषरय नहीं िमलेगा, िजसकेपास कुछ भी योगयता न हो , जो िकसी को मानता न हो। हर
मनुषरय जरूर िकसी न िकसी को मानता है। ऐसा कोई मनुषरय नहीं िजसमें जानने की िजजरञासा
न हो। वह कुछ न कुछ जानने की को श ि करता तो ही है। करने की , मानने की और जानने की
यह सरवतः िसदरध पूँजी है हम सबके पास। िकसी के पास थोड़ी है तो िकसी के पास जरयादा
है, लेिकन है जरर। खाली कोई भी नही।
हम लोग जो कुछ करते हैं, अपनी रूिि के अनुसार करते हैं। गलती करया होती है
िक हम आव शर यकता के अनुसार नहीं करते। रूिि के अनुसार मानते हैं , आव शर यकता के
अनुसार नहीं जानते। बस यही एक गलती करते हैं। इसे अगर हम सुधार लें तो िकसी भी
करषेतरर में आराम से, िबलकुल मजे से सिल हो सकते है। केवल यह एक बात कृपा करकेजान लो।
एक होती है रूिि और दूसरी होती है आव शर यकता।रीर श को भोजन करने की
आव शर यकता है। वह तनरदुरूसरत कैसे रहेगा , इसकी आवशयकता समझकर आप भोजन करे तो आपकी बुिद
शुद रहेगी। रिच केअनुसार भोजन करेगे तो बीमारी होगी। अगर रिच केअनुसार भोजन नही िमलेगा और यिद भोजन
िमलेगा तो रूिि नहीं होगी। िजसको रूिि हो और वसरतु न हो तो िकतना दुःख ! वसरतु हो और रूिि
न हो तो िकतनी वरयथा !
खूब धरयान देना िक हमारे पास जानने की, मानने की और करने की शिकरत है। इसको
आव शर यकता के अनुसार लगा दें तो हम आराम से मुकरत हो सकते हैं और रूिि के अनुसार
लगा दे तो एक जनम नही, करोड़ों जनरमों में भी काम नहीं बनता। कीट, पतगं, साधारण मनुियो मे और
महापुरूषों में इतना ही िकरर है िक महापुरूष माँग के अनुसार कमरर करते हैं जबिक
साधारण मनुिय रिच केअनुसार कमव करते है।
जीवन की माग है योग। जीवन की माग है शाशत सुख। जीवन की माग है अखणिता। जीवन की माग है
पूणवता।
आप मरना नहीं िाहते, यह जीवन की माँग है। आप अपमान नहीं िाहते। भले सह
लेते है, पर चाहते नही। यह जीवन की माग है। तो अपमान िजसका न हो सके , वह बररहरम है। अतः वासरतव में
आपको बररहरम होने की माँग है। आप मुिकरत िाहते हैं। जो मुकरतसरवरूप है, उसमें अड़िन
आती है काम, कररोध आिद िवकारों से।

।।
'रजोगुण से उतरपनरन हुआ यह काम ही कररोध है। यह बहुत खानेवाला अथाररतर भोगों से
कभी न अघाने वाला और बड़ा पापी है, इसको ही तू इस िवषय मे वैरी जान।'
(भगवद ग्ीताः3.37)
काम और कररोध महाशतररु हैं और इसमें सरमृितभररम होता है, समृितभम से बुिदनाश होता है।
बुिदनाश से सववनाश हो जाता है। अगर रिच को पोसते है तो समृित कीण होती है। समृित कीण हईु तो सववनाश।
एक लड़के की िनगाह पड़ोस की िकसी लड़की पर गई और लड़की की िनगाह लड़के
पर गई। अब उनकी एक दस ू रे केपित रिच हईु। िववाह योगय उम है तो माग भी हईु शादी की। अगर हमन म े ागकी
िकनरतु कुल िषरटािारकी ओर धरयान नहीं िदया और लड़का लड़की को ले भागा अथवा लड़की

लडकेको ले भागी तो मुँह िदखान क े े क ा ि , कभी।कहाँ
ब लनहीरहे रहे –रहेअखबारों में
िकसीहोटलमे
नाम छपा गया, 'पुिलस पीछे पडेगी,' डर लग गया। इस पररकार रूिि में अनरधे होकर कूदे तो
परेशान हएु। अगर िववाह योगय उम हो गई है, गृहसरथ जीवन की माँग है, एक दूसरे का सरवभाव िमलता
है तो माँ-बाप से कह िदया और मा-बाप न ख े ु श ी स े स म झ ौ त ा क रकेदोनोकीशादीकरादी।य
औ र व ह िी रिच की पू ितव । रित की पू ितव म े ज ब अ न ध ी द ौड ल ग त ी ह ै त ो प र े श ा न ी ह ो त ी ह ै ,
अपनी और अपने िर शर तेदारों की बदनामी होती है।...तो शादी करन म े े ब ु ि द चािहएिकरिचकीपूितवक
साि माग की पूितव हो।
माँग आसानी से पूरी हो सकती है और रूिि जलरदी पूरी होती नहीं। जब होती है तब
िनवृितरत नहीं होती, अिपतु और गहरी उतरती है अथवा उबान और िवषाद में बदलती है। रूिि
के अनुसार सदा सब िीजें होंगी नहीं, रूिि के अनुसार सब लोग तुमरहारी बात मानेंगी
नहीं। रूिि के अनुसार सदा तुमरहारा शरीर िटकेगा नहीं। अनरत में रूिि बि जायेगी, शरीर चला
जायगा। रिच बच गई तो कामना बच गई। जातीय सुख की कामना, धन की कामना, सता की कामना, सौनदयव की
कामना, वाहवाही की कामना, इन कामनाओं से सममोह होता है। सममोह से बुिदभम होता है, बुिदभम से िवनाश होता
है।
करने की, मानने की और जानने की शिकरत को अगर रूिि के अनुसार लगाते हैं तो
करने का अंत नहीं होगा, मानने का अंत नहीं होगा, जानन क े ा अ ं त नहीहोगा।इनतीनोयोगयताओं
को आप अगर यथायोगरय जगह पर लगा देंगे तो आपका जीवन सिल हो जायगा।
अतः यह बात िसदरध है िक आव शर यकता पूरी करने में शासरत,ररगुरू समाज और भगवान
आपका सहयोग करेंगे। आपकी आव शर यकता पूरी करने में पररकृित भी सहयोग देती है।
बेटा मा की गोद मे आता है, उसकी आव शर यकता होती है दूध की। पररकृित सहयोग देकर दूध तैयार
कर देती है। बेटा बड़ा होता है और उसकी आव शर यकता होती है दाँतों की तो दाँत आ
जाते है।
मनुषरय की आव शर यकता है हवा की , जल की, अनरन की। यह आव शर यकता आसानी से
यथायोगरय पूरी हो जाती है। आपको अगर रूिि है शराब की, अगर उस रूिि पूितरर में लगे तो
वह जीवन का िवनाश करती है। शरीर के िलए शराब की आव शर यकता नहीं है। रूिि की पूितरर
कषरटसाधरय है और आव शर यकता की पूितरर सहजसाधरय है।
आपके पास जो करने की शिकरत है, उसे रूिि के अनुसार न लगाकर समाज के िलए
लगा दो। अिात् तन को, मन को, धन को, अनरन को, अथवा कुछ भी करने की शिकरत को 'बहज ु न िहताय,
बहजु न सुखाय' में लगा दो।
आपको होगा िक अगर हम अपना जो कुछ है, वह समाज के िलए लगा दें तो ििर हमारी
आव शर यकताएँ कैसे पूरी होंगी ?
आप समाज के काम में आओगे तो आपकी सेवा में सारा समाज ततरपर होकर लगा
रहेगा। एक मोटरसाइकल काम में आती है तो उसको संभालने वाले होते हैं िक नहीं ?
घोडा-गधा काम में आते हैं तो उसको भी िखलाने वाले होते हैं। आप तो मनुषरय हो। आप
अगर लोगों के काम आओगे तो हजार-हजार लोग आपकी आव शर यकता पूरी करने के िलए
लालाियत हो जायेगे। आप िजतना-िजतना अपनी रिच को छोडोगे, उतनी उतनी उनरनित करते जाओगे।
जो लोग रिच केअनुसार सेवा करना चाहते है , उनके जीवन मे बरकत नहीं आती। िकनरतु जो
आव शर यकता के अनुसार सेवा करते हैं , उनकी सेवा रूिि िमटाकर योग बन जाती है।

पितवरता सिी जगल मे नही जाती, गुिा में नहीं बैठती। वह अपनी रूिि पित की सेवा में लगा देती
है। उसकी अपनी रूिि बिती ही नहीं है। अतः उसका िितरत सरवयमेव योग में आ जाता है।
वह जो बोलती है, ऐसा पररकृित करने लगती है।
तोटकाचायव, पूरणपोिा, सलूका-मलूका, बाला-श मरदाना जैसे स ि त र ष ,
र योंनेगु रूकीसेवाम
गुरू की दैवी कायोररं में अपने करने की, मानने की और जानने की शिकरत लगा दी तो उनको
सहज मे मुिितिल िमल गया। गुरओं की भी ऐसा सहज मे नही िमला िा जैसे इन िशियो को िमल गया। शीमद आ ् द
शंकराचायव को गुरपािपत केिलए िकतना -िकतना पिरशररम करना पड़ा ! कहाँ से पैदल यातररा करनी
पडी ! जानपािपत केिलए भी कैसी -कैसी साधनाएँ करनी पड़ी ! जबकी उनकेिशिय तोटकाचायव न त े ोकेवल
अपने गुरूदेव के बतररन माँजते-माँजते ही पररापरतवरय पा िलया।
अपनी करने की शिकरत को सरवाथरर में नहीं अिपतु परिहत में लगाओ तो करना
तुमहारा योग हो जायेगा। मानन क े ी शि ि त ह ै त ो ि , वअपना शिनयतंआपा
ाकोमानो।वहपरमसु
भी हृदहैऔरस
है और पररािणमातरर का आधार भी है। जो लोग अपने को अनाथ मानते हैं, वह परमातरमा का
अनादर करते हैं। जो बहन अपने को िवधवा मानती है, वह परमातरमा का अनादर करती है।
अरे ! जगतपित परमातमा िवदमान होते हएु तू िवधवा कैसे हो सकती है ? िव शर व का नाथ साथ में होते हुए
तुम अनाि कैसे हो सकते हो ? अगर तुम अपने को अनाथ, असहाय, िवधवा इतरयािद मानते हो तो
तुमन अ े प न म े ा न न क े ी श ि ि ? त कादर ु पयोगिकया।िवशपितसदामौजूदह
"मेरे िपता जी सरवगररवास हो गये.... मैं अनाथ हो गया.........।"
"गुरुजी आप िले जायेंगे... हम अनाथ हो जाएँगे....।"
नहीं नहीं....। तू वीर िपता का पुि है। िनभवय गुर का चेला है। तू तो वीरता से कह दे िक, 'आप आराम
से अपनी यािा करो। हम आपकी उतरिकया करेगे और आपकेआदशों को , आपके िविारों को समाज की
सेवा मे लगाएगँे तािक आपकी सेवा हो जाय।' शयह सुपुतरर और स ि त र ष र यकाकतरतररवरयहोताहै।अ
सवािव केिलये रोना , यह न पतरनी के िलए ठीक है न पित के िलए ठीक है, न पुतरर के िलए ठीक है
न िषरय के िलए ठीक है और न िमतरर के िलए ठीक है।

पैगंबर मुहममद परमातमा को अपना दोसत मानते िे , जीसस परमातमा को अपना िपता मानते िे और मीरा परमातमा
को अपना पित मानती थी। परमातरमा को िाहे पित मानो िाहे दोसरत मानो, चाहे िपता मानो चाहे बेटा
मानो, वह है मौजूद और तुम बोलते हो िक मेरे पास बेटा नहीं है.... मेरी गोद खाली है।
तो तुम ईशर का अनादर करते हो। तुमहारे हृदय की गोद मे परमातमा बैिा है , तुमहारी इिनियो की गोद मे परमातमा मे बैिा
है।
तुम मानते तो हो लेिकन अपनी रिच केअनुसार मानते हो , इसिलए रोते रहते हो। माग केअनुसार मानते हो तो
आराम पाते हो। मिहला आँसू बहा रही है िक रूिि के अनुसार बेटा अपने पास नहीं रहा।
उसकी जहाँ आव शर यकता , परमातमा न उ
थी े स क ो व ह ा र ख ि ल याियोिकउसकीदिृषकेव
या उसका घर ही नहीं है। सारी सृिषरट, सारा बहाणि उस परमातमा की गोद मे है। तो वह बेटा कही भी हो, वह
परमातमा की गोद मे ही है। अगर हम रिच केअनुसार मन को बहन द े े त े ह ैतोदःुखबनारहताहै।
रूिि के अनुसार तुम करते रहोगे तो समय बीत जायगा, रूिि नहीं िमटेगी। यह रूिि
है िक जरा-सा पा ले..... जरा सा भोग ले तो रिच पूरी हो जाय। िकनतु ऐसा नही है। भोगन स े े रिचगहरीउतर
जायगी। जगत का ऐसा कोई पदािव नही जो रिचकर हो और िमलता भी रहे। या तो पदािव नष हो जाएगा या उसमे उबान
आ जाएगी।
रूिि को पोसना नहीं है, िनवृतरत करना है। रूिि िनवृतरत हो गई तो काम बन गया, ििर ईशर
दूर नहीं रहेगा। हम गलती यह करते हैं िक रूिि के अनुसार सब करते रहते हैं। पाँि-
दस वरयिकरत ही नहीं, पूरा समाज इसी ढाचे मे चल रहा है। अपनी आवशयकता को िीक से समझते नही और रिच
पूरी करन म े े ल ग े र ह ते, हश
अपना
ै।ईशरतोअपनाआपाहै
सरवरूप है। व ि ष -
र ठजीमहाराजकहतेहैं
"हे रामजी ! िूल , पते और टहनी तोडन म े े , िकनरतु अपने आतरमा-परमातमा को जानन मेे
तोपिरशमहै
करया पिरशररम है ? जो अिवचार से चलते है, उनके िलए संसार सागर तरना महा किठन है, अगमरय
है। तुम सरीखे जो बुिदरधमान हैं उनके िलए संसार सागर गोपद की तरह तरना आसान है।
िशिय मे जो सदगुण होन च े ा ि हए व े त ु म म े ह ै औ र ग ु रमे, जोसामथयवहोनाचािहएव
तुरनत बेडा पार हो जायगा।"
हमारी आव शर यकता है योग की और जीते हैं रूिि के अनुसार। कोई हमारी बात नहीं
मानता तो हम गमरर हो जाते हैं, लडने -झगड़ने लगते हैं। हमारी रूिि है अहं पोसने की
औ र आ व श यकत ा ह ै अ ह क ं ो ि व स ि ज व ,तकुकर
छ निवक े शेष
ी।रिच ह ै अ नु श ास न कर
हुकरम िलाने की और आव शर यकता है सबमें छुपे हुए िवशेष को पाने की।
आप अपनी आव शर यकताएँ पूरी करो , रूिि को पूरी मत करो। जब आव शर यकताएँ पूरी
करने में लगोगे तो रूिि िमटने लगेगी। रूिि िमट जायगी तो शहंशाह हो जाओगे। आपमें
करने की, मानने की, जानन क े ी श ि ि त ह ै ।रि च केअनुसारउसकाउपयोगक
आव शर यकता के अनुसार उसका उपयोग करोगे तो बेड़ा पार होगा।
आव शर यकता है अपने को जानने की और रूिि है लंदन , नरयूयाकरर, मासरको में करया
हुआ, यह जानने की।
'इसन ि े यािकया ... उसने करया िकया.... िलान क े ी ब .... उसकी
ा रातमे िकतनल े बहू
ोगिेकैसी
आयी....' यह सब जानने की आव शर यकता नहीं है। यह तुमरहारी रूिि है। अगर रूिि के अनुसार
मन को भटकाते रहोगे तो मन जीिवत रहेगा और आव शर यकता के अनुसार मन का उपयोग
करोगे तो मन अमनीभाव को पररापरत होगा। उसके संकलरप-िवकलरप कम होंगे। बुिदरध को
पिरशम कम होगा तो वह मेधावी होगी। रिच है आलसय मे और आवशयकता है सिूितव की। रिच है िोडा करकेजयादा लाभ
लेन म े े और आ व श यक त ा ह ै ज य ादाकरक, कुेकछ
ुछभीनले
भी नहीं े ी।जोभीिमले
नक लोगे गावहनाशवानहोगा
तो अपना आपा पकट हो जायगा।
कुछ पाने की, कुछ भोगने की जो रूिि है, वही हमें सवेरर शर वर की पररािपरत से
वंिित कर देती है। आव शर यकता है'नेकी कर कुएँ में िेंक'। लेिकन रिच होती है, 'नेकी
थोड़ीकरूँऔरिमकूँजरयादा। बदी बहुत करूँऔरछुपाकर रखूँ। ' इसीिलए रासता कििन हो गया है। वासतव मे ईशर-
पािपत का रासता रासता ही नही है, करयोंिक रासरता तब होता है जब कोई िीज वहाँ और हम यहाँ हों,
दोनों के बीि में दूरी हो। हकीकत में ई शर वरसा ऐ नहीं है िक हम यहाँ हों और ई शर वर
कहीं दूर हो। आपके और ई शर वर के बीि एक इंि का भी िासला नहीं , एक बाल िजतना भी
अंतर नहीं लेिकन अभागी रूिि ने आपको और ई शर वर को पराया कर िदया है। जो पराया
संसार है, िमटने वाला शरीर है, उसको अपना महसूस कराया। यह शरीर पराया है, आपका नहीं
है। पराया शरीर अपना लगता है। मकान है ईंि-चूने -लकड-पतिर का और पराया है लेिकन रिच कहती
है िक मकान मेरा है।
सवामी रामतीिव कहते है-
"हे मूखरर मनुषरयों ! अपना धन, बल व शिित बडे-बडे भवन बनान म े ेमतखचो , रूिि को पूितरर में
मत खिोरर। अपनी आव शर यकता के अनुसार सीधा सादा िनवास सरथान बनाओ और बाकी का
अमूलरय समय जो आपकी असली आव शर यकता है योग की , उसमें लगाओ। ढेर सारी िडजाइनों
के वसरतररों की कतारें अपनी अलमारी में मत रखो। अपने िदल की अलमारी में आने का
समय बचा लो। िजतनी आवशयकता हो उतन ह े , बाकी का समय योग मे लग जायगा। योग ही तुमहारी
ीवसिरखो
आव शर यकता है। िवशररािनरत तुमरहारी आव शर यकता है। अपने आपको जानना तुमरहारी
आव शर यकता है। जगत की सेवा करना तुमरहारी आव शर यकता है करयोंिक जगत से शरीर बना
है तो जगत के िलए करोगे तो तुमरहारी आव शर यकता अपने आप पूरी हो जायगी।
ईशर को आवशयकता है तुमहारे पयार की, जगत को आवशयकता है तुमहारी सेवा की और तुमहे आवशयकता है
अपने आपको जानने की।
शरीर को जगत की सेवा मे लगा दो, िदल में परमातरमा का परयार भर दो और बुिदरध को अपना
सवरप जानन म े े ल ग ा द ो । आ प काबेडापारहोजायगा।यहसीधागिणतहै।
मानना, करना और जानना रूिि के अनुसार नहीं बिलरक, आव शर यकता के अनुसार ही हो
जाना चािहए। आवशयकता पूरी करन म े े , नहीं कोई दोष। रूिि पूरी करने में तो हमें कई
नहीकोईपाप
हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। जीवन खप जाता है िकनरतु रूिि खतरम नहीं होती, बदलती रहती
है। रूििकर पदाथरर आप भोगते रहें तो भोगने का सामथरयरर कम हो जायगा और रूिि रह
जायगी। देखन क े ी शि ि त ख त म ह ो ज ा ! सुनख
यऔरदे के ीइचछाबनीरहे
न नक े ी तशिितखतमहो
ोिकतनादःुखहोगा
जाय और सुनन क े ी इ च छ ाबनीरहे! तजीन क े ु ागय ी श ि
ोिकतनादभ ि त क ी ण ह ोजायऔरजीनक े ीरिचबनीरह
िकतना दुःख होगा ! इसिलए मरते समय दःुख होता है। िजनकी रिच नही होती उन आतमरामी पुरषो को िया दःुख ?
शीकृिण को देखते -देखते भीषरम िपतामह ने परराण ऊपर िढ़ा िदये। उनरहें मरने का कोई दुःख
नहीं।
सूँघन क े ी र ि च ब न ी रहे ?औ यातरर
रनाककामनकरे
ा की रूिितबनी ो रहे और पैर जवाब दे दें
तो ? पैसो की रिच बनी रहे और पैसे न हो तो िकतना दःुख ? वाहवाही की रूिि है और वाहवाही न िमली तो ?
अगर रूिि के अनुसार वाहवाही िमल भी जाय तो करया रूिि पूरी हो जायगी ? नहीं, औ र
जयादा वाहवाही की इचछा होगी। हम जानते ही है िक िजसकी वाहवाही होती है उसकी िननदा भी होती है। अतः वाहवाही से
रूििपूितरर का सुख िमलता है तो िननरदा से उतना ही दुःख होगा। और इतने ही िननरदा करने
वालों के पररित अनरयायकारी िविार उठेंगे। अनरयायकारी िविार िजस हृदय में उठेंगे,
उसी हृदय को पहले खराब करेंगे। अतः हम अपना ही नुकसान करेंगे।
एक होता है अनुशासन, दूसरा होता है कररोध। िजनरहें अपने सुख की कोई रूिि नहीं, जो
सुख देना चाहते है, िजनहे अपन भ े ो ग क ीकोईइचछानहीहै , उनकी आव शर यकता सहज में पूरी होती है। जो
दूसरों की आव शर यकता पूरी करने में लगे हैं , वे अगर डाँटते भी हैं तो वह अनुशासन हो
जाता है। जो रिचपूितव केिलए िाटते है , वह कररोध हो जाता है। आव शर यकतापूितरर के िलए अगर
िपटाई भी कर दी जाय तो भी पसाद बन जाता है।
माँ को आव शर यकता है बेटे को दवाई िपलाने की तो माँ थपरपड़ भी मारती है , झूठ भी
बोलती है, गाली भी देती है ििर भी उसे कोई पाप नहीं लगता। दूसरा कोई आदमी अपनी रूिि
पूितव केिलए ऐसा ही वयवहार उसकेबेटे से करे तो देखो , माँ या दूसरे लोग भी उसकी कैसी खबर ले
लेते है ! िकसी की आव शर यकतापूितरर के िलए िकया हुआ कररोध भी अनुशासन बन जाता है। रूिि
पूितव केिलए िकया हआ ु कोध कई मुसीबते खडी कर देता है।
एक िवनोदी बात है। िकसी जाट ने एक सूदखोर बिनये से सौ रूपये उधार िलये थे।
कािी समय बीत जाने पर भी जब उसने पैसे नहीं लौटाये तो बिनया अकुलाकर उसके पास
वसूली के िलए गया।
"भाई ! तू बयाज मत दे, मूल रकम सौ रूपये तो दे दे। िकतना समय हो गया ?"
जाट गुराकर बोलाः "तुम मुझे जानते हो न ? मैं कौन हूँ?"
"इसीिलए तो कहता हूँ िक बयाज मत दो। केवल सौ रपये दे दो। "
"सौ वौ नही िमलेगे। मेरा कहना मानो तो कुछ िमलेगा। "
बिनये न स े ो च ा ि क ,खालीहािलौटनस े ेबले
जो कुछ िमले वही ेहतरहै
लूँ।
जाट न के हाः"देखो, मगर आपको पैसे लेने हो तो मेरी इतनी सी बात मानो। आपके
सौ रपये है ?"
"हाँ"।
"तो सौ केकर दो साि। "
"ठीक है, साि दे दो।"
"ठहरो, मुझे बात पूरी कर लेने दो। सौ के कर दो साठ.... आधा कर दो काट.. दस
देंगे... दस छुड़ायेंगे और दस के जोड़ेंगे हाथ। अभी दुकान पर पहुँि जाओ।"
िमला करया ? बिनया खाली हाि लौट गया।
ऐसे ही मन की जो इिरछाएँ होती हैं, उसको कहेंगे िक भाई ! इचछाए प ँ ू रीकरेगेलेिकनअभी
तो सौ की साि कर दे, औ र उस म े स े आ ध ा काट कर द े । दस इ च छ ा ए त ँ े र ी पू र ी कर े ग े
धमाररनुसार, आव शर यकता के अनुसार। दस इिरछाओं की तो कोई आव शर यकता ही नहीं है और
शेष दस से जोडेगे हाि। अभी तो भजन मे लगेगे, औ र ो की आ व श यकत ा पू र ी कर न म े े ल ग े ग े ।
जो दसू रो की आवशयकता पूरी करन म े ेल, गताहै
उसकी रूिि अपने आप िमटती है और
आव शर यकता पूरी होने लगती है। आपको पता है िक जब सेठ का नौकर सेठ की
आव शर यकताएँ पूरी करने लगता है तो उसके रहने की आव शर यकता की पूितरर सेठ के घर
में हो जाती है। उसकी अनरन-वसरतररािद की आव शर यकताएँ पूरी होने लगती हैं। डररायवर
अपने मािलक की आव शर यकता पूरी करता है तो उसकी घर िलाने की आव शर यकतापूितरर
मािलक करता ही है। ििर वह आव शर यकता बढ़ा दे और िवलासी जीवन जीना िाहे तो
गड़बड़ हो जायगी, अनरयथा उसकी आव शर यकता जो है उसकी पूितरर तो हो ही जाती है।
आव शर यकता पूितरर में और रूिि की िनवृितरत में लग जाय तो डररायवर भी मुकरत हो सकता है ,
सेि भी मुित हो सकता है, अनपढ़ भी मुकरत हो सकता है, िशिकत भी मुित हो सकता, िनधररन भी मुकरत हो
सकता है, धनवान भी मुकरत हो सकता है, देशी भी मुकरत हो सकता है, परदेशी भी मुित हो सकता है।
अरे, डाकू भी मुकरत हो सकता है।
आपके पास जरञान है, उस जरञान का आदर करो। ििर िाहे गंगा के िकनारे बैठकर
आदर करो या यमुना के िकनारे बैठकर आदर करो या समाज में रहकर आदर करो। जरञान का
उपयोग करने की कला का नाम है सतरसंग।
सबकेपास जान है। वह जानसवरप चैतनय ही सबका अपना आपा है। लेिकन बुिद केिवकास का िकव है। जान
तो मचछर केपास भी है। बुिद की मंदता केकारण रिचपूितव मे ही हम जीवन खचव िकये जाते है। िजसको हम जीवन कहते
हैं, वह शरीर हमारा जीवन नहीं है। वासरतव में जरञान ही हमारा जीवन है, चैतनय आतमा ही
हमारा जीवन है।
ॐकार का जप करने से आपकी आव शर यकतापूितरर की योगरयता बढ़ती है और रूिि की
िनवृितरत में मदद िमलती है। इसिलए ॐकार (पणव) मंतरर सवोररपिर माना जाता है। हालाँिक
संसारी दिृष से देखा जाय तो मिहलाओं को एव ग ं ृ ह ि स ि य ोकोअक , करेलयाॐकारकाजपनहीकरनाचािहए
ोंिक
उनरहोंने रूिियों को आव शर यकता का जामा पहनाकर ऐसा िवसरतार कर रखा है िक एकाएक
अगर वह सब टूटने लगेगा तो वे लोग घबरा उठेंगे। एक तरि अपनी पुरानी रूिि खींिेगी
औ र दस ू र ी त रि अ प न ी मू ल भू त आ व श यकत ा – ए क ा त की , आतरमसाकरषातरकार की इिरछा आकिषररत
करेगी। पररणव के अिधक जप से मुिकरत की इिरछा जोर मारेगी। इससे गृहसरथी के इदरर-िगदरर
जो रिच पूितव करन व े ा ले, मउन
ंिराते
सबको
रहतेहैधकरका लगेगा। इसिलए गृहिसरथयों को कहते हैं
िक अकेले ॐ का जप मत करो। ऋिषयों ने िकतना सूकरषरम अधरययन िकया है।
समाज को आपकेपेम की , सानतवना की, सनहे की और िनिकाम कमव की आवशयकता है। आपकेपास करन क े ी
शिित है तो उसे समाज की आवशयकतापूितव मे लगा दो। आपकी आवशयकता मा, बाप, गुरू और भगवान पूरी कर
देंगे। अनरन, जल और वसि आसानी से िमल जायेगे। पर टैरीकोटन कपडा चािहए, पि-पाविर चािहए तो यह रिच
है। रूिि के अनुसार जो िीजें िमलती हैं, वे हमारी हािन करती हैं। आव शर यकतानुसार
चीजे हमारी तनदर ु सती की भी रका करती है। जो आदमी जयादा बीमार है , उसकी बुिदरध सुमित नहीं है।
चरक-संिहता केरचियता न अ े प न ि े शि य क ो क हािकतदंरसतीकेिलएभीबुिदचािह
जीन क े े ि ल ए भ ी ब ु ि द च ा ि ह ए और म र नक , े ेिलयभीबुिदचािहए।मर
'मौत हो रही है इस देह की, मैं तो िैतनरय वरयापक आतरमा हूँ।' ॐकार का जप करके मौत का
भी साकी बन जाये। जो मृतयु को भी देखता है उसकी मृतयु नही होती। कोध को देखन व े ा ले ह ोजाओतोकोधशातहो
जायेगा। यह बुिद का उपयोग है। जैसे आप गाडी चलाते हो और देखते हएु चलाते हो तो खडिे मे नही िगरती और आँख
बनद करकेचलाते हो तो बचती भी नही। ऐसे ही कोध आया और हमन ब े ु ि द का उ ,
पयोगनहीिकयातोबहजाये ग
लोभ और मोहािद आये और सतकव रहकर बुिद से काम नही िलया तो ये िवकार हमे बहा ले जायेगे।
लोभ आये तो िवचारो िक आिखर कब तक इन पद-पदािों को संभालते रहोगे। आवशयकता तो यह है िक
बहजु निहताय, बहजु नसुखाय इनका उपयोग िकया जाये और रिच है इनका अमबार लगान क े ी ।अगररिचकेअनुसार
िकया तो मुसीबतें पैदा कर लोगे। ऐसे ही आव शर यकता है कहीं पर अनुशासन की और
आपने कररोध की िुिकार मार दी तो जाँि करो िक उस समय आपका हृदय तपता तो नहीं।
सामन व े ा ले का अ ि ह त ह ो –ज ा य े त ो ह ोजाये , अिहत
िकनतुआपकीबातअििगर
तिनक भी न हो, अगर यह भावना गहराई में हो तो ििर वह कररोध नहीं, अनुशासन है। अगर जलन
महसूस होती है तो कररोध घुस गया। काम बुरा नहीं है, कररोध बुरा नहीं है, लोभ-मोह और
अहंकार बुरा नहीं है। धमाररनुकूल सबकी आव शर यकता है। अगर बुरा होता तो सृिषरटकतारर
बनाता ही ियो ? जीवन-िवकास के िलए इनकी आव शर यकता है। दुःख बुरा नहीं है। िननरद, ाअपमान,
रोग बुरा नहीं है। रोग आता है तो सावधान करता है िक रूिियाँ मत बढ़ाओ। बेपरवाही मत
करो। अपमान भी िसखाता है िक मान की इिरछा है, इसिलए दःुख होता है। शुकदेव जी को मान मे रिच नही
है, इसिलए कोई लोग अपमान कर रहे है ििर भी उनहे दःुख नही होता। रहगुण राजा िकतना अपमान करते है , िकनरतु
जडभरत शातिचत रहते है।
अपमान का दुःख बताता है िक आपको मान में रूिि है। दुःख का भाव बताता है िक सुख
में रूिि है। कृपा करके अपनी रूिि परमातरमा में ही रखो।
सुख, मान और यश में नहीं िँसोगे तो आप िबलरकुल सरवतंतरर हो जाओगे। योगी का
योग िसदरध हो जायगा, तपी का तप और भित की भिित सिल हो जायगी। बात अगर जच ँ ती है तो इसे अपनी बना
लेना। तुम दस
ू रा कुछ नही तो कम से कम अपन अ े न ु भ व क ा त ो आद रकरो।आपकोरिचअन
भोगते-भोगते आप िक जाते है िक नही ? ऊबान है िक नहीं ? ... इस जान का आदर करो। 'बहज ु निहताय-
बहजु नसुखाय' काम करते हो तो आपको आननरद आता है। आपका मन एवं बुिदरध िवकिसत होती
है। यह भी आपका अनुभव है। सतरसंग के बाद आपको यह महसूस होता है िक बिढ़या कायरर
िकया। शांित, सुख एव स ....तो अपन अ
ं ुमितिमली। े न ु भ व क ी ब ा त कोआपपकीकरकेहृदयकीगहरा
लो िक रिच की िनवृित मे ही आननद है और आवशयकता तो सवतः पूरी हो जायेगी।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

जो अपन क े ोशु-दबुद िनिकलंक नारायणसवरप मानता है, उसके सारे कलरमष िमट जाते हैं,
बहहतया जैसे पाप भी दरू हो जाते है और अंतरतम चैतनयसवरप का सुख पकट होन ल े ग त ा है।देवताओंसेवहपूिजत
होने लगता है। यकरष, गंधवरर, िकनरनर उसके दीदार करके अपना भागरय बना लेते हैं।
मुिनशादूररल व शि ष र ठजी- "ररजीव
ीरामिनर
को अपना
दररजपरम
ीसेकहतेहैं
कलयाण करना
हो तो पररारमरभ में दो पररहर (छः घणरटे) आजीिवका के िनिमतरत यतरन करे और दो पररहर
साधुसमागम, सतशासिो का अवलोकन और परमातमा का धयान करे। पारमभ मे जब आधा समय धयान, भजन और शासि
िविार में लगायेगा तब उसकी अंतरिेतना जागेगी। ििर उसे पूरा समय आतरम-साकातकार या
ईशर-पािपत मे लगा देना चािहए।"
शीकृिण न ग े ी तामेभीकहाः

।।
'जो मनुिय आतमा मे ही रमण करन व े ा ला औ र आ त म ा मे,हउसके
ीतृपततिाआतमामे
िलए कोईहीसंतुषहो
कतरतररवरय नहीं है।'
(भगवद ग्ीताः3.17)
आतरमरित, आतरमतृिपरत और आतरमपररीित िजसको िमल गई, उसके िलए बाहरय जगत का
कोई कतरतररवरय रहता नहीं। उसका आतरमिवशररांित में रहना ही सब जीवों का, राषरटरर का और
िव शर व का कलरयाण करना है। जो पुरूष िवगतसरपृहा है , िवगतदुःख है, िवगतजरवर है, उसके
अिसरततरव मातरर से वातावरण में बहुत-बहत ु मधुरता आती है। पकृित उनकेअनुकूल होती है। तरतीवर
पारबधवेग से उनकेजीवन मे पितकूलता आती है तो वे उििगन नही होते। ऐसे िसितपज महापुरष केिनकट रहन वेाले
साधक को चािहए िक वह िदन का चार भाग कर दे। एक भाग वेदानत शासि का िवचार करे। एक भाग परमातमा केधयान
में लगावे। परमातरमा का धरयान कैसे ? 'मन को, इिनियो को, िचत को जो चेतना दे रहा है वह चैतनय
आतरमा मैं हूँ। मैं वासरतव में जनरमने-मरने वाला जड़ शरीर नहीं हूँ। देह में अहं
करके जीने वाला जीव मैं नहीं हूँ। मैं इन सबसे परे, शुद-बुद सनातन सतय चैतनय आतमा हूँ।
आननरदसरवरूप हूँ, शातसवरप हूँ। मै बोधसवरप हूँ.... जानसवरप हूँ।' जो ऐसा िचनतन करता है वह वासतव मे अपने
ईशरतव का िचंतन करता है, अपने बररहरमतरव का ििंतन करता है। इसी ििनरतन में िनमगरन रहकर
अपने िितरत को बररहरममय बना दे।
ििर तीसरा पहर संतसेवा, सदगुरसेवा मे लगावे। आधी अिवदा तो सदगुर की सेवा से ही दरू हो जाती है।
बाकी की आधी अिवदा धयान, जप और शासििवचार इन तीन साधनो से दरू करकेजीव मुित हो जाता है।
बडे मे बडा बनधन है िक अिवदा मे रस आ रहा है। इसिलए ईशर पािपत केिलये छटपटाहट नही होती। अिवदा
उसे कहते हैं, जो अिवदमान वसतु हो।
वसरतुएँ दो पररकार की होती हैं- एक अिवयमान वसरतु और दूसरी िवदरयमान वसरतु।
अिवदरयमान वसरतु पररतीत होती है। िवदरयमान वसरतु पररापरत होती है। जो पररतीत होती है,
उसमें धोखा होता है और जो पररापरत होती है, उसमें पूणररता होती है। जैसे, सवप मे िभखारी
को पररतीत होता है िक मैं राजा हूँ। इनरदरर को सरवपरन आ जाय िक मैं िभखारी हूँ। सरवपरन में
िभखारी होना भी धोखा है, राजा होना भी धोखा है। धोखे के समय पररतीित सिरिी लगती है।
पतीित ऐसे ढंग से होती है िक पतीित पािपत लगती है। िभखारी सोया है सडी गली छत केनीचे िटी हईु गुदडी पर और सवप
में हो गया राजा। तेजबहादुर सोया है अपने महल में और सरवपरन में हो गया िभखारी।
िजस समय िभखारी होन क े ा , उस समय
सवपचालू है तेजबहादुर को कोई कह दे िक तू िभखारी नहीं है,
बादशाह है तो वह मानगेा नही, करयोंिक पररतीित पररािपरत लगती है। वासरतिवक पररािपरत करया है ? वे
दोनों सरवपरन से जाग जायें तो अपने को जान लें िक वसरतुतः वे करया हैं।
नींद में िदखने वाली सरवपरन जगत की माया िहता नाम की नाड़ी में िदखती है।
जागत की माया िवता नाम की नाडी मे िदखती है। यह केवल पतीित हो रही है। पतीित तब तक नही िमटती , जब तक
पािपत नही हईु। पािपत होती है िनतय वसतु की। पतीित होती है अिनतय वसतु की। 'मैं M.B.B.S. हूँ' यह पररतीित
है। मृतरयु का झटका आया, िडगररी खतरम हो गई। 'मैं M.D. हूँ... मैं L.L.B. हूँ... मैं
उदरयोगपित हूँ, मैं बड़ा धनवान हूँ... मैं कंगाल हूँ, मैं पटेल हूँ... मैं गुजराती हूँ... मैं
िसंधी हूँ... मुझे यह समसरया है... मुझे यह पाना है.. मुझे यह पकड़ना है.. मुझे यह छोड़ना
है..." ये सब पररतीित है। पररतीित जब तक सतरय लगती रहेगी, पतीित मे पतीित का दशवन नही होगा,
पतीित मे पािपत का दशवन होगा, तब तक दःुखो का अंत नही आयगा।

।।
एक दुःख नहीं, हजार दुःख िमटा दो, ििर भी कोई न कोई दःुख रह जाता है। जब पािपत होती है , तब
हजार िवघरन आ जायें ििर भी उिदरवगरन नहीं करते, सुख मे सपृहा नही कराते।
पतीित होती है माया मे और पािपत होती है अपन प -सवभाव की। पापत होन व
े रबहपरमातमा ,
े ा ल ीएकहीचीजहै
पापत होन व े ा ल ा ए क ह ीतततवहै-औ तततव।
रवहहैपउसकी े
रमातम ही कवल पािपत होती है।
पतीित होती है वृितयो से।
आज 20 मई है। अगले वषरर की 20 मई के िदन आपको लगा होगा िक, 'मुझे यह सुख
िमला.... मैंने यह खाया... वह िपया... सुबह मे चाय िमली.. दोपहर को भोजन िमला....' आिद आिद।
लेिकन अब बताओ, उसमें से अब आपके पास कुछ है ? गत वषरर के कई महीने की 20 तारीख को
जो कुछ सुख -दुःख िमला, मान-अपमान िमला, अरे पूरे मई महीने में जो कुछ सुख-दुःख, मान-
अपमान िमले वे अभी हैं ? वह सब पररतीित थी। सब पररतीत होकर बह गया। पररतीित का
साकी दष ृ ा चैतनय परमातमा रह गया।
जो रह गया, वह जीवन है और जो बह गया, वह मृतरयु है। एक िदन शरीर भी बह जायेगा
मृतरयु की धारा में लेिकन तुम रह जाओगे। अगर अपने को जानोगे तो सदा के िलए िनबररंध
नारायण सरवरूप में िसरथत हो जाओगे।
जो बाहर से िमलेगा, वह सब पररतीित मातरर होगा। शरीर भी पररतीित मातरर है िक 'मैं िलाना
हूँ..... मैं नरयायाधीश हूँ......... मैं उदरयोगपित हूँ....' यह वरयवहार काल में केवल पररतीित
है। 'मैं गरीब हूँ...' यह पररतीित है।
जैसे सवप की चीजो को साि मे लेकर आदमी जाग नही सकता, ऐसे ही पररतीित को सिरिा मानकर
परमातम-तततव मे जाग नही सकता। िशवजी पाववती से कहते है-

।।
सवप मे जो कुछ िमलता है , वह सिमुि में पररापरत होता है िक िमलने की मातरर पररतीित होती
है ? वसरतुतः पररतीित ही होती है।
बचपन मे आपको िखलौन ि े म, सुलेख
ि-े दुःख िमले थे, मान-अपमान िमला था वह पररापरत हुआ
था िक पररतीत हुआ था ? पतीत हआ ु िा। कल जो कुछ सुख -दुःख िमला, वह भी पररतीत हुआ। ऐसे ही आज भी
जो कुछ िमलेगा , वह भी पररतीित मातरर होगा।
बचपन भी पतीित, युवानी भी पररतीित, बुढापा भी पतीित तो जीवन भी पतीित और मृतयु भी पतीित। यह
वासरतव में पररतीित हो रही है। इस पररतीित को सिरिा मान रहे हैं.... पािपत मान रहे है, इसिलए
पापत पर परदा पडा है।
पािपत होती है परमातमा की। पतीित होती है परमातमा की, माया की। जैसे जल के ऊपर तरंगे
उछलती हैं, ऐसे ही पररािपरत की सतरता से पररतीित की तरंगे उछलती हैं। तरंग को िकतना
भी संभालकर रखो, लेिकन तरगं तो तरगं ही है। ऐसे ही पतीित को िकतना भी संभालकर रखो, पतीित तो पतीित ही है।
अब हमें करया करना िािहए ?
पतीित को जब पतीित समझेगे, तब अनुपम लाभ होगा। पतीित को अगर िीक से पतीित मान िलया, पतीित जान
िलया तो पािपत हो जायेगी अिवा पािपत तततव को िीक से जान िलया तो पतीित का आकषवण छू ट जायेगा। पािपत मे िटक
गये तो पररतीित का आकषररण छूट जायेगा।
पािपत होती है परमातमा की और पतीित होती है माया की। पतीित मे सतयबुिद होन स े े उ सकाआकषवणरहताहै।
उसको कहते हैं वासना। वासना पूणरर करने में कोई बड़ा आदमी िवघरन डालता है तो भय
लगता है, छोटा आदमी िवघरन डालता है तो कररोध आता है और बराबरी का आदमी िवघरन डालता
है तो ईषरयारर होती है।
पतीित की वासना िोडी बहत ु पूरी हईु तो 'औ र िम ल ज ा य ' ऐसी आशा बनती है। ििर 'औ र िम ल े ...
औ र िम ल े ....' ऐसे लोभ बनता है। पररतीित में सतरयबुिदरध होने से ही आशा, तृिणा, वासना, भय,
कररोध, ईिया, उदरवेग आिद सारी मुसीबतें आती हैं। पररतीित को सतरय मानने में, पतीित को
पािपत मानन म े े स ारेदोषआतेहै।
भगवान शी कृिण अजुवन से कहते है -

।।
'दुःखों की पररािपरत होने पर िजसके मन में उदरवेग नहीं होता, सुखो की पािपत मे जो सवविा
िनःसरपृह है तथा िजसके राग, भय और कोध नष हो गये है, ऐसा मुिन िसरथरबुिदरध कहा जाता है।'
(भगवद ग्ीताः2.56)
दुःख आये तो मन को उिदरवगरन मत करो। सुख की सरपृहा मत करो।
मुिन माने जो सावधानी से मनन करता है िक पररतीित में कहीं उलझ तो नहीं रहा हूँ
? जो छू टन व , उसको सिरिा समझकर अछूट से कहीं बाहर तो नहीं जा रहा हूँ ? अछूट में
े ालाहै
िटका हूँ या छूटने वाले में उलझ रहा हूँ ? इस पकार सावधानी से जो मनन करता है, उसकी बुिदरध
िसिर हो जाती है। उसकी पजा पािपत मे पितिित हो जाती है , परमातमामय बन जाती है।
भितमाल मे एक किा आती है।
अमरदास नाम के एक संत हो गये। वे जब तीन साल के थे, तब मा की गोद मे बैिे-बैिे कुछ
पश पूछन ल े गेः
"माँ ! मैं कौन हूँ ?"
बेटा ! तू मेरा बेटा है ?
"तेरा बेटा कहा है ?"
माँ ने उसके िसर पर हाथ रखकर, उसके बाल सहलाते हुए कहाः "यह रहा मेरा
बेटा।"
"ये तो िसर और बाल है।"
माँ ने दोनों गालों को सरपररश करते हुए कहाः "यह है मेरा गुलड़ू।"
"ये तो गाल हैं।"
हाथ को छूकर माँ ने कहाः "यह है मेरा बेटा।"
"ये तो हाथ है।"
अमरदास वासरतव में गत जनरम के पररािपरत की ओर िलने वाले साधक रहे होंगे।
इसीिलए तीन साल की उम मे ऐसा पश उिा रहे िे। साधक का हृदय तो पावन होता है। िजसका हृदय पावन होता है , वह
आदमी अिरछा लगता है। पापी िितरतवाला आदमी आता है, उसको देखकर िितरत उिदरवगरन होता
है। शररेषरठ आतरमा आता है, पुणयातमा आता है तो उसको देखकर हृदय पुलिकत होता है। इसी बात को
तुलसीदासजी न इ े स पकारकहाहैः

।।
कररूर आदमी आता है तो िितरत में दुःख होने लगता है। सदगुणी, सजजन जब हमसे िबछुडता
है, दूर होता है, तब मानो हमारे पाण िलये जा रहा है। अमरदास ऐसा ही मधुर बालक िा। मा का इतना वातसलय
औ र इत न ा स म झ द ा र ब े ट ा ! तीन वषव की उम मे ऐसे-ऐसे परर शर न करे! हृदय में पूणरर िनदोररषता है।
िनदोररष बिरिा परयारा लगता ही है। माँ ने अमरदास को छाती से लगा िलया।
"यह है मेरा बेटा।"
"यह तो शरीर है। यह शरीर कब से तेरे पास है ?"
"यह तो शादी के बाद मेरे पास आया।"
"तो मा उसकेपहले मै कहा िा ? शादी केबाद तेरे पास मै नही आया। तुमहारे शरीर से मेरे शरीर का जनम हआ
ु ।
तुमहारी शादी केपहले भी कही िा। इसका अिव है िक शरीर मै नही हँू। यह शरीर नही िा , तब भी मै िा। शरीर नही
रहेगा, तब भी मै रहूँगा। तो वह मै कौन हूँ ?"
'मैं कौन हूँ ?' इसकी खोज पािपत मे पहँच ु ा देती है। 'मैं आसाराम हूँ..... मैं गोिवनरदभाई हूँ...'
यह पररतीित है। यह शरीर भी पररतीित है, शरीर केसमबनध भी पतीित है , शरीर से समबिनधत जड वसतु या
चेतन वयिित आिद सब पतीित माि है। पतीित िजसकी सता से हो रही है, वह है पररािपरत।
शरीर भी पतीित, इिनिया भी पतीित। हाि भी पतीित, आँख भी पररतीित, कान भी पररतीित। आँख ठीक
से देख रही है िक नही देख रही है , कान ठीक से सुन रहे हैं िक नहीं सुन रहे हैं, यह भी पररतीित हो
रही है। मन में शािनरत है िक अशािनरत, इसकी भी पतीित हो रही है। बुिद मे याद रहता है िक नही रहता,
इसकी भी पतीित हो रही है।
पतीित िजसको होती है, उसको अगर खोजोगे तो पररािपरत हो जायेगी, बेडा पार हो जायेगा।
हम लोग गलती करते हैं िक पररतीित के साथ अपने को जोड़ देते हैं। पररतीित
होने वाले शरीर को 'मैं' मान लेते हैं। हम करया हैं ? हम पररािपरत ततरतरव है, उधर धरयान
नहीं जाता।
मंिदर वाले मंिदर में जा जाकर आिखर यमपुरी पहुँि जाते हैं, सवगािद मे पहँच ु जाते
हैं। मिसरजदवाले भी अपने ढंग से कहीं न कहीं पहुँि जाते हैं। अपने-आप में, आतरम-
परमातमा मे कोई िवरले ही आते है। जो पािपत मे िट जाता है, वह परमातरमा में आता है और बाकी के लोग
लोक-लोकानतर मे और जनम-मरण के िकरकर में भटकते रहते हैं। धनरय तो वे हैं जो अपने
आप में आये, परमातमा मे आये। वे तो धनय होते ही है , उनकी मीठी दृिषरट झेलने वाले भी धनभागी
हो जाते हैं।
दैतरयगुरू शुकररािायरर राजा वृषपवारर के गुरू थे। वे उसी के नगर में रहते थे।
शुकाचायव की पुिी िी देवयानी। उसकी सहेली िी वृषपवा राजा की पुिी शिमविा। शिमविा कुछ अपन स ,
े वभावकीिी
पतीित मे उलझी हईु लडकी िी। शरीर केरप लावणय , िटप-टाप आिद में रूिि रखने वाली थी।
एक बार दोनों सहेिलयाँ सरनान करने गई। शिमररषरठा ने भूल से देवयानी के कपड़े
पहन िलये। देवयानी भी गुर की पुिी िी, वह भी कुछ कम नही थी। उसने शिमररषरठा को सुना िदयाः
"इतनी भी अिल नही है ? राजकुमारी हुई है और दूसरो के कपड़े पहन लेती है ? भूल जाती
है ?"
शिमविा न ग े ु स स े मे द े व य ा न ी क ोउिाकरकुएमँेिालिदयाऔरचली
दैवयोग से कुएँ में पानी जरयादा नहीं था। वहाँ से गुजरते हुए राजा ययाित ने देवयानी
की रूदन-पुकार सुनी और उसे बाहर िनकलवाया।
शुकाचायव न स े ो च ा ः ि ज स र ा ज ा कीपु , ऐसे
िीअपनीगु
पापी र
राजा
पुिीकोक
केुएमँेिालदेतीहै
राजरय ने हम नहीं रहेंगे। वे राजरय छोड़कर जाने लगे। राजा को पता िला की
शुकाचायव कुिपत होकर जा रहे है और यह राजय केिलए शुभ नही है। अतः कैसे भी करकेउनको रोकन चािहए। राजा
ु ा शुकाचायव केचरणो मे और मािी मागन ल
पहँच े गा।उनहोनके हाः
"मुझसे मािी करया माँगते हो ? गुरूपुतररी का अपमान हुआ है तो उसी को राजी करो।"
राजा देवयानी के पास गया।
"आजरञा करो देवी ! आप कैसे सनरतुषरट होंगी ?"
"मैं शादी करके जहाँ जाऊँ, वहाँ तुमरहारी बेटी शिमररषरठा मेरी दासी होकर िले।
तुम अपनी बेटी मुझे दहेज मे दे दो, वह मेरी दासी होकर रहेगी।"
राजा के िलए यह था तो किठन, लेिकन दस ू रा कोई उपाय नही िा। अतः राजा को यह शतव कबूल
करना पड़ा। ययाित राजा के साथ देवयानी की शादी हो गई। राजकुमारी शिमररषरठा को दासी के
रूप में देवयानी के साथ भेजा गया। शिमररषरठा तो सुनरदर थी। उस दासी के साथ राजा ययाित
पती का वयवहार न करे, इसिलए शुकाचायव न य े य ा ि -िवकार के तूिान में
त क ोवचनबदकरिलया।ििरभीिवषय
ययाित का मन ििसल गया। वह अपने विन पर िटका नहीं। शुकररािायरर को पता िला तो
उनरहोंने राजा ययाित को वृदरध हो जाने का शाप दे िदया। युवान राजा ययाित ततरकाल वृदरध हो
गया। शिमररषरठा को तो दुःख हुआ, लेिकन ययाित को उससे भी जयादा दःुख हआ ु । 'िािहमाम्' पुकारते हएु राजा
ययाित ने िगड़िगड़ाकर शुकररािायरर से परराथररना की। शुकररािायरर ने दररवीभूत होकर कहाः
"तुमहारा कोई युवान पुि अगर तुमहारी वृदावसिा ले ले और अपनी जवानी तुमहे दे दे त तुम संसार केभोग भोग
सकते हो।"
राजा ययाित ने अपने पुतररों से पूछा। सबसे छोटा पुतरर पुरूरवा राजी हो गया। िपता
की मनोवांछा पूणरर करने के िलए। उसका यौवन लेकर राजा ययाित ने हजार वषरर तक भोग
भोगे। ििर भी उसकेिचत मे शािनत नही हईु।
पतीित से कभी भी पूणव शाित िमल ही नही सकती। अगर पतीित का उपभोग करन स े े श ािनतिमलीहोतीतो
िजनकेपास राजवैभव िा , धन था, भोग-िवलास था, वे अशानरत और दुःखी होकर करयों मरे ? िकसी
सतावान को, धनवान को सतरता और धन से, पुि-पिरवार िमलन स े े , ऐसा हमने नहीं सुना।
म ोकिमलगयाहो
िजसको जयादा िवषय-िवकार भोगने को िमले, वे बीमार रहे, दुःखी रहे, अशानरत रहे,
आतरमहतरया करके मरे – ऐसा आपने और हमने देखा सुना है। वे नकोररं में गये, मुकरत
तो नही हएु। िजसको िवषय िवकार और संसार की चीजे जयादा िमली और जयादा भोगी उसकी मुिित हो गयी, ऐसा
मैंने आज तक नहीं सुना। तुम लोगों ने भी नहीं सुना होगा और सुनोगे भी नहीं। रामतीथरर
बोलते िेः छाया चाहे बडे पववत की हो, लेिकन छाया तो छायामाि है।
ऐसे ही पररतीित िाहे िकतनी भी बड़ी हो, लेिकन पतीित तो केवल पतीित ही है।
आिखर राजा ययाित को लगा िकः

।।
अिगरन में घी डालने से आग और भड़कती है, ऐसे ही काम-िवकार और संसार के
भोग भोगन स े ेतृिणा , वासना, आशा, सपृहा ये सब उिेग बढान व े ा ल ेिवकारअिधकभडकतेहै।
राजा ययाित पररतीित को पररतीित समझकर, उसे तुिरछ जानकर ई शर वर की ओर लगने
के िलए जंगल में िला गया, तप करन ल े गा।

सब तपो मे एकागता परम तप है।
एकागररता और अनासिकरत ये – दो हिथयार िजसके पास आ जायें, वह अनपढ़ हो
चाहे साकर हो, धनवान हो िाहे िनधररन हो, सुपिसद हो चाहे कुपिसद हो , वह पररािपरत में िटक सकता
है। पररािपरत तो बररहरम-परमातमा की होती है। बह-परमातमा से बडा कौन हो सकता है ?
राजा-महाराजा रूठ जाये, तो िया कर िालेगा ? उसका जोर सरथूल शरीर पर िलेगा और
देवी देवता का जोर सूकरषरम शरीर तक िलेगा। माया नाराज हो जाय तो उसका जोर कहाँ तक
चलेगा ? कारण शरीर तक। पररािपरत तो सरथूल, सूकम, कारण ये तीनों शरीरों से परे जो परमातरमा
तततव है उसकी होती है। सिूल शरीर को अिधक से अिधक शूली पर चढाया जा सकता है। सूकम शरीर को माया नकों मे
भेज सकती है। सिूल, सूकम और कारण शरीर, ये तीनों पररतीित मातरर हैं। पररतीित को जो जानता है,
वह पररतीित के दृषरटा पररािपरत-तततव मे जाग जाता है, परबह परमातमसवरप हो जाता है।
'मैं िैतनरय हूँ..... मैं शुदरध हूँ... जो सदा पापत आतमा है, वह मैं हूँ। पररतीत होने वाली
देह मैं नहीं हूँ।' सारी पृथवी केलोग केवल पाच िमनट केिलए ऐसा िचनतन करे तो दस ू री पाच िमनट मे सारी पृथवी
सवगव केरप मे बदली हईु िमलेगी , ऐसा िववेकाननरद कहा करते थे।
"हे मनुषरयो ! तुम चैतनय हो..... परमातमा हो.... हे पकरषी ! तुम भी चैतनय हो... तुम सब चैतनय हो... बह
हो.... मैं भी िैतनरय हूँ.... पापत सवरप हूँ..... तुम भी पापत सवरप हो.... मैं आननरद सरवरूप हूँ.... तुम भी
वही हो। मरने जनरमने वाला शरीर तुम नहीं हो.... सुखी-दुःखी होने वाला मन तुम नहीं हो....
िनणररय बदलने वाली बुिदरध तुम नहीं हो... रंग बदलने वाला िमड़ा तुम नहीं हो.... भूख और
पयास लगान व े ा ल .... भूख और पयास
े प ाणोकीधौकनीतु मनहीहोलगान व े ा ल े प ा ण ोकीधौकनीतुमनहीहो।येसब
पतीित है। इन सबको जो देख रहा है , वह पररािपरतसरवरूप िैतनरय तुम हो। तुम अमर आतरमा हो।"
इस पकार का िचनतन गुर करवाए औ ँ र ि श ि य सच च ा ई े गजाएतँोउसीसम
सेकरनल
जाय। परबह परमातमा सदा पापत है। उस परमातमा का िचनतन करन स े , बहहतया
ेगौहतयाजै से जैसे पाप नष हो जाते
हैं। सब दुःख दूर हो जाते हैं।
पतीित मे अगर सतयबुिद है तो िकतनी भी सुिवधा होगी ििर भी दःुख दरू नही होगा। पतीित मे जब पतीितबुिद हो
जाय और पािपत मे जब सतयबुिद हो जाय तो िकतन भ े ी द ः ु ख आ ज ा ए तँोइतनाउििगननहीकरेगे।ज
भटी मे ईधन िाल िदया जाय तो आग अिधक भडक उिेगी लेिकन ईधन को फीज मे रख िदया जाए तो ? आग तो करया
पैदा होगी, ईधन ही िणिा हो जायगा।
ऐसे ही साधारण आदमी को इिरछा-वासनारूपी ईंधन िजतनी जरयादा होगी, उसका
अंतःकरण उतना जरयादा तपता रहेगा है। जरञान के िितरत में वे ईंधन उतनी अशांित की
आग नहीं बना सकते।
ईधन को गोदाम मे रखो, फीज मे रखो और भटी मे िालो, इसमे िया िकव होता है। दीये मे तेल िालना बनद कर
दो तो दीया बुझ जाता है, िनवाररण हो जाता है। ऐसे ही पररतीित में सतरयबुिदरध छोड़ दो तो
वासना धीरे-धीरे िनवृतरत होने लगती है।


-
।।
"िजसका मान और मोह नष हो गया है, िजनहोन आ े स ि ि त ,रपदोषकोजीतिलयाहै
परमातमा केसवरप मे
िजनकी िनतय िसिित है और िजनकी कामनाए प ँ ू , वे नसुषहोगईहै
ण व रपसे ख-दुःख नामक दरवनरदव र ों से
िवमुकरत जरञानीजन उस अिवनाशी परमपद को पररापरत होते हैं।"
(भगवद ग्ीताः15.5)
बडी तकलीि यह होती है िक जो शरीर और संसार िदख रहा है, जो पतीित हो रही है, उसको सतरय मानकर
जीनवेाले लोगो केबीच हम पैदा हएु , उनरहीं के साथ हम पढ़े-िलखे और उनही लोगो केबीच रहकर हम इचछा करने
लगे िक, 'मैं पास हो जाऊँ तो सुख िमले..... मुझे यह िमल जाय तो मैं सुखी हो जाऊँ....' पतीित
को ही पररािपरत मानकर उलझ गये।
दो वसरतुएँ हैं। एक पररतीित और दूसरी पररािपरत। पररािपरत परमातरमा की होती है और
पतीित माया की।
पतीित केिबना पािपत िटक सकती है लेिकन पािपत केिबना पतीित हो ही नही सकती। चैतनय केिबन शरीर चल
नहीं सकता, िकनरतु शरीर के िबना िैतनरय रह सकता है। ये जो वसरतुएँ िदख रही हैं, वे
चैतनय केिबना रह नही सकती , लेिकन वसतुओं केिबना चैतनय रह सकता है।

बललभाचायव का एक बडा पयारा िशिय िा कु ंभनदास। आचायव पधारे, उसके पहले वह आ जाता था।
बडे धयान से सतसंग सुनता िा। सुनकर िचनतन करता िा िक, 'गुरू महाराज ने करया कहा ? मोह से कैसे
बचे ? जान कैसे बढे ? भिित की भावना से हृदयरपी चमन सुगिनधत कैसे बने ?"
कुंभनदास के सात बेटे थे। वह साधन समरपनरन सुखी आदमी था।
श िदन गुरूजी के समकरष भकरत िषरय समुदाय बैठा था। गुरू जी ने कुंभनदास का हाल-
एक
अहवाल पूछाः
"कुंभनदास ! कहो, तुमहारा सब िीक चल रहा है ?"
"हाँ महाराज जी !"
"करया धनरधा करते हो ?"
कुंभनदास ने सब बताया।
"अिरछा....। तुमहारे बेटे िकतन हेै ?"
"गुरू महाराज ! मेरे पास डेढ़ बेटा है।"
"डेढ़ बेटा ! यह कैसे ?" गुरू जी को आ शर ियरर हुआ।
"गुरूजी ! पुिो केपुतले तो सात है , लेिकन पुि केवल िेढ ही है। एक बेटा है िजसको जान और सेवा मे रिच
है, इस मागव उसकी गित है। मै आपसे जो सुनकर जाता हँू, वह उसे सुनाता हूँ। वह बड़े िाव सुनता है,
समझता है। कभी-कभी वह मेरे साथ आपके शररीिरणों में आता है। उसके जीवन में जरञान
भी है और सेवा भी है। वह मेरा एक पूरा बेटा है। दसू रे लडकेमे िपता केिलए भाव है , भगवन केिलए भिित है और
सेवाभाव भी है लेिकन भगवान और िपता मे एक ही अिितीय तततव है, यह उस मूखरर को जरञान नहीं है। इसिलए
वह बेटा मेरा आधा बेटा है आधा। िपता को िपता समझकर पूजता है, भगवान की मूितव को भगवान
समझकर पूजता है लेिकन भगवान का तततव और िपता का तततव अलग नही है... भगवान को छोडकर िपता हो नही सकता
औ र िप त ा को छ ो ड क र भ ग व ा न र ह न ह ी सकता। भ ग व ा न त त त व िप त ा क े स िह त ह ै , ऐसा अखणरड
जान उसको नही है, इसिलए वह आधा है।"
अखणरड जरञान होता है पररािपरत में िसरथर होने से। खणरड-खणरड का जरञान तो बहुत
है। कोई आँख का िवशेषजरञ ह तो कोई कान का िवशेषजरञ है, कोई हृदय का िवशेषजरञ है तो
कोई मिसरतषरक का िवशेषजरञ है। एक शरीर के अलग अलग अंगों के अलग अलग िवशेषजरञ
डॉकरटर होते है। ििर भी िकसी िवशेष में पूणरर जरञान अभी तक हाथ नहीं लगा है करयोंिक
यह सब पररतीित है। पररतीित कलरपनाओं का जगत होता है। पूणरर परमातरमा ततरतरव को कोई जान
लेगा तो बस, वह भी पूणरर हो जायेगा। बाकी की माया तो माया ही होती है।
तुमहारा वासतिवक सवरप पूणव है। तुम वासतव मे पूणव आतमा हो। शरीर पूणव नही हो सकता, शरीर केपुजव पूणव नही
हो सकते। शरीर पररतीित है। शरीर, मन, बुिद कण कण मे बदल रहे है। जो बदलता है, उसमें सतरयबुिदरध
न करें। जो अबदल है, उसमें सतरयबुिदरध करके ििनरतन न करें िकः
"सतयसवरप मेरा आतमा है। यह संसार सवप है, पतीित माि है। इसमे सुख िमला तो िया ? सुख तो आता है
औ र ज ात ा ह ै । दःु ख भ ी आ त ा ह ै औ र ज ा त ा ह ै । म ै सुख-दुःख से परे, शरीर और संसार की तमाम
पतीितयो से परे उनकेअिधिान रप आतमा हूँ ... पािपतसवरप हँ। ू "
"सुख आता है तो जाता है िक नही जाता ?"
"जाता है।"
"सुख जाता है तो िया दे जाता है ?"
"दुःख।"
"दुःख जाता है तो पीछे करया बिता है ?"
"सुख।"
सुख जाता है तो दःुख दे जाता है। दःुख जाता है तो सुख दे जाता है। जो सुख दे जाता है उसको देखकर
घबराते है और जो दःुख दे जाता है , उसको देखकर ििपकते हैं करयोंिक पररतीित में सतरयबुिदरध है।
भगवान अजुवन से कहते है-

।।
सुख मे सपृहा मत रखो। दःुख मे उििगन मत बनो। ये बादल आये है, चले जायेगे। हो-होकर करया होगा ? जो
पतीित माि है, उस शरीर के ऊपर ही कुछ होगा। एक िदन तो उस पर सब कुछ होगा। अमरपटा तो
उसका है नहीं !
तुम लाये िे तो िया लाये िे ? तुमन ज े ोकुछ,पाया यहीं से पाया। पररतीित में सब पररतीत हो रहा
है। आिखर सब सरवपरन हो जायेगा। सरवपरन की िीजों को देखकर जो उलझता है, वह अधूरा
है।
पूरा िशिय तो वही होता है, िजसमे गुरभिित भी होती है और गुरतततव का जान भी होता है।
िजतना-िजतना परमातम-तततव का जान बढता है, परमातम-तततव को पाये हएु महापुरषो केपित भिित बढती है
उतना-उतना िितरत पररािपरत के नजदीक होता है, परमातमा केनजदीक होता है। िजतना -िजतना परमातमा के
नजदीक होता है, उतना-उतना श वह िन ि रि,नरउतर
तहोताहै
सािहत होता है, आनिनरदत होता है।
िनषरकाम कमररयोग का िसदरधानरत हैः साधक का मन ऐसा होना िािहए िक दुःखों की
पािपत मे वह उििगन न हो और सुखो की पािपत केिलए लालायित न हो। जो साधक ऐसा िनसपृह है , ततपर है, उसका
राग िला जाता है, भय चला जाता है, कररोध िला जाता है।
।।
िजसका भय, राग और कररोध गया, वह मोकरष के परायण है।
जो पतीत होता है, उसमें सतरयबुिदरध होने से राग होता है। िजसमें राग होता है, उसको
पान म े े क ो ई ि व ,घिालताहै , ईिया होती है, िचनता होती है। इन सबका मूल है पतीित मे
भय होतातहैोकोधआताहै
सतयबुिद। भगवान कहते है िक यह पतीित माि है इसिलए इसमे राग, भय और कोध करन क े ी ज र रतनहीहै।सबबीत
जायगा। दःुख से उििगन मत हो। सुख की सपृहा मत करो। राग, भय और कोध चला जायगा तो बुिद परमातमा मे िसिर
हो जायगी।
जीव सोचता है िक अपनी वासना पूरी करकेसुखी होऊँ। अरे सुखी तो ययाित भी नही हआ ु , तू कहा से होगा ?
संसार की चीजे पाकर कोई सुखी हो जाय, यह संभव नहीं।
राजा सुषेण अपनी रानी के साथ कहीं जा रहे थे। रासरते में एक तेजसरवी युवान
बडी मसती बैिा िा। बाईस साल तक िजसका बहचयव अखणि रहता है, वह तेजसरवी होता ही है। राजा
सुषेण न स े ो च ा ि क इ स क ो ब े च ा ,रेक ऐसा े ौवनकासु
ोअपनय
लगता है।खउनरलेनहके ोंने
ाकोईपताहीनहीहै
युवक से कहाः
"आप इतने तेजसरवी जवान ! इधर बैिे है ? चिलये, मेरे साथ रथ में बैिठये। मैं
आपको घुमाने ले जाता हूँ, आइये।"
युवक राजा के साथ गया। मीठी बात हो गई तो वह राजी हो गया। था कोई सतरसंगी आतरमा
गत जनरम का। अभी उसे कोई सदगुरू नहीं िमले थे, ईशर का मागव नही िमला िा। ििर भी
' ' – ऐसे संसरकार िवगत जनरम में पाये हुए
थे। आधरयाितरमकसंसरकार नषरटनहींहोते।
राजा ने उसे अपना राजमहल िदखाते हुए कहाः
"देखो, संसार का सुख भोगन क े े ि ल ए य ौ व न ि म ल ाहै।तुमहारीशादीमैकरादेताहँू।ज
अनुभव करो।"
युवक ने कहाः "शादी करँतो पती आयेगी। उसका पालन पोषण करना पडेगा। िया पता पती कैसी आ जाय
?"
"नहीं, पती बिढया आएगी। देखो, यह मेरी रानी है न, उसकी बहन है। उसी के साथ तुमरहारी
शादी करा दँगूा।"
"शादी तो हो जायेगी राजन ! लेिकन आपकेपास तो राजपाट है। पती का पालन करन क े े ि ल एमुझेतोमजदरूी
करनी पड़ेगी। अभी तो जंगल में मसरती से रहता हूँ।"
"नहीं, नही, मैं तुमरहें रहने के िलए महल दे दूँगा, पाच गाव दे दँगूा। कमान क े ीजररत
नहीं पड़ेगी। आप िाहोगे तो आधा राजरय भी दे दूँगा। तुम मुझे बड़े परयारे लग रहे हो।
तुम जैसा पित िमल जाय तो रानी की बहन की िजनदगी धनय हो जाय।"
"महाराज ! आप अपनी साली दे सकते हैं, आधा राजरय भी दे सकते हैं, ििर बाल-बचचे
होंगे तो ?"
"आधा राजरय होगा तो बाल-बचचे भी खाएगँे-िपयेगे, करया कमी रहेगी ?"
"कमी तो नहीं रहेगी.... लेिकन बचचे मे लडकी भी हो सकती है, लडका भी हो सकता है। लडकी अगर
बदचलन हईु तो उसका दःुख आपको होगा िक मुझे होगा ? लडका अगर पैदा होकर मर गया तो उसका दःुख आपको होगा
िक मुझे होगा ?"
राजा ने कहाः "मुझसे जरयादा दुःख तुमको होगा।"
युवक ने िखलिखलाते हुए कहाः "ऐसा दुःख मैं करयों मोल लूँ ? ऐसा सुख करया करना जो
दुःख ही दुःख दे ?" युवक उठकर िल िदया। राजा सुषेण सोिने लगेः
"धनरय है जवान ! हम तो राजा है, पर तुम तो महाराजा हो महाराजा ! हम तो संसार के भँवर
में आये हैं। िनकलेंगे तब िनकलेंगे, लेिकन तुम तो भवँर मे आते ही नही।"
दुःख का मूल है पररतीित में सतरयबुिदरध। इससे ययाित जैसे राजा भी बेिारे दुःखी
हुए। अरे, राजा रामिनरदररजी के बाप.... भगवान शीराम केबाप दशरि राजा भी संसार से संतुष होकर नही
गये, सुखी होकर नही गये। कावे-दावे करके पररतीित में सुख खोजने वाला दुयोररधन भी सुखी
होकर नहीं गया। िाहे िकतना भी कपट करो, िकतना भी खुशामद करो, िकतनी भी मेहनत मजदूरी
करो लेिकन जो पररतीित है, उससे पूणरर सुख या संतोष आज तक िकसी को हुआ नहीं, हो नहीं
रहा और होगा भी नहीं। पूणरर सुख तो होगा परमातरमा की पररािपरत से।
पािपत को हम जानते नही, इसिलए पतीित को पािपत समझते है। पािपत होती है परमातमा की। बाकी होती है
पतीित। पतीित मान ध े ो ख ा । य ह स ा र ा स ं स ा र इिनियोकाधोखाहै।पाणि
यहीं छूट जायेगा। िमलने की िीज तो आतरम-साकातकार है, िमलने की िीज तो परमातरमा है।
बाकी जो भी िमला है, सारा का सारा धोखा है। िकसी को छोटा धोखा िमला, िकसी को बड़ा धोखा िमला। लोग रो
रहे हैं िक हमें बड़ा धोखा नहीं िमला। बड़ी मुसीबत नहीं िमली, इसिलए िचनता मे है।
"अरे ! करयों रोते हो।"
"बाबाजी ! चार साल हएु शादी िकये। अभी तक गोद नही भरी....।"
अरे गोद भरेगी उसके पहले मुसीबत सहना पड़ेगा। बाद में भी करया पता बेटा
आवे, बेटी आवे। मुसीबत नही आ रही है , इसिलए मुसीबत हो रही है।
इचछा करना ही हो तो पतीित की नही, पािपत की करो। उदालक की तरह इचछा करो। सोलह वषव का बाहण
उदरयालक इिरछा करता हैः "मेरे ऐसे िदन कब आएँगे िक मेरे राग-दरवेष िले जाएँगे...
भय कोध शानत हो जाएगँे। ऐसे िदन कब आएगँे िक मै सता-समान मे िसित रहूँगा ?
नारायण.... नारायण.... नारायण..... नारायण..... नारायण.....
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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आज तक जो कुछ मैंने देख िलया, भोग िलया, उससे मुझे आननरद है। सैंकड़ों-
े ोगे.... देखे.... उससे मुझे आननरद है। मैं आहरलािदत हूँ। हजारों गलितयाँ
सैकडो सुख मैन भ
की होगी, दुःख भोगे होंगे. उसका भी मुझे आननरद है... करयोंिक गलितयों ने मुझे िसखा
िदया िक जीवन जीने का यह तरीका ठीक नहीं। दुःखों ने मुझे िसखा िदया िक िवकारी सुखों
में आसकरत होना ठीक नहीं।
हम घर-बार छोडकर भाग गये, सब सगे समबिनधयो का िुकराते रहे , अपने शरीर को भी सताते रहे,
कषरट सहते रहे, दुःख भोगते रहे.... यह भी ठीक नहीं। भोग-िवलास में लटरटू होकर िगरे
रहना भी जीवन जीने का ढंग नहीं।
न भोग ठीक है, न अित तरयाग ठीक है। िववेकपूणरर मधरयम मागरर ही ठीक है। शरीर को
औ ष ध व त िखल ा न ा िप ल ा न ा च ा िह ए। ज ी व न ज ी न क े स ाध न ो का औ ष ध व त् उप य ो ग करन ा च ा िह ए।
जीवन का पुिप जीवनदाता केसवभाव मे िखलन क े े ि ल ए ह ै , वही
।मे राचैतबाहर भी
नयआतमाजोभीतरहै
है। जो आज है, वही कल भी है और परसों भी है। आज और कल मन की कलरपना है। आज
औ र कल को ज ा न न व े .... हर िदल
ाल ा िच द ाकाशच ै त न यमें 'मैं.... मैं....' करता हुआ, मन
बुिद को सता देता हआु सताधीश.... मन बुिदरध से परे भी वही ििदाकाश आतरमा मैं हूँ। यह
आतरमदृिषरट ही एकमातरर सार है, औ र स ब प िरश म ह ै ।
आतरमजरञान ही जीवन का लकरषरय होना िािहए, जीवन का आदशव होना चािहए। िजसकेजीवन का
कोई आदररश नहीं है, कोई लकरषरय नहीं है, उसका जीवन घोर अनरधकार में भटक जाता है।
आतरमजरञान ही िजसके जीवन का लकरषरय है, वह िाहे सैंकड़ों गलितयाँ कर ले, ििर भी वह
कभी-न-कभी उस लकरषरय को पा लेगा। िजसका लकरषरय आतरमजरञान नहीं है, वह हजारों-हजारों
गलितयाँ करता रहेगा, हजारों-हजारों जनरमों में भटकता रहेगा।
सववि ओतपोत चैतनयघन परमातमा का अनुभव करना िजसकेजीवन का लकय है , वह देर सवेर
परमातमामय हो जाता है।
परमातमा आननदसवरप है, चैतनय सवरप है, जानसवरप है। कीडी मे भी जान है िक िया खाना, करया नहीं
खाना, कहाँ रहना और कहाँ से भाग जाना। कीड़ी में िेतना भी है। कीड़ी भी सुख के िलए
ही यतरन करती है।

बह सतयसवरप है, जानसवरप है, आननरदसरवरूप है, अननरत है। बररहरम सरथूल से भी सरथूल है
औ र सू क म स े भ ी सू क म ह ै । कीड ी मक ोड ा , बैिटीिरया मे भी मेरे परमेशर की चेतना है। अिात् परमेशर ही
अनेक रूप होकर बाहरय िेषरटा और आभरयानरतर पररेरणा का पररकाशक है। वही सबका अिधषरठान
है। उसी से इिनरदररयाँ, मन, बुिद चेषा करते है। उनहे खटा-मीठा अनुभव होता है। ििर भी उन सब
अनुभवों से परे जो मेरा आतरमा है, वही िैतनरय सब अनुभवों का भी आधार है।
बुिद बदलती है, मन बदलता है, िचत बदलता है, शरीर बदलता है, दिरया बदलता है.... दिरया के
िकनारे बदलते हैं। यह सब उस िैतनरय की लीला है, चैतनय की सिुरणा है। उसी को आहािदनी शिित
बोलते है, माया बोलते हैं। जैसे दूध और दूध की सिेदी अिभनरन है, ऐसे ही मेरा िैतनरय
आतरमा और उसकी सरिुरणा शिकरत अिभनरन है।
यह जगत हिररूप है। हिर ही जगत रूप होकर िदखते है।
सिुरणा सिुर -सिुरकर बदल जाता है , पर सिुरणा का आधार असिुर है। जैसे सागर मे तरगं उतपन हो होकर
लीन हो जाते है, पर सागर केतल मे शात जल है। िवशाल उदिध मे कोई बडी तरगं है , कोई छोटी तरंग है, कोई
शुद तरगं है तो कोई मिलन तरगं है। ये सारी छोटी बडी, मिलन-शुद तरगंे उसी सागर मे है। ऐसे ही मेरे आतम सागर मे
कहीं शुदरध तो कहीं अ शु ,दरकहीं ध छोटा तो कहीं बड़ा सरिुरणा िदखता है।
जैसे जल की तरगं सडक पर नही दौडती। वह जल मे ही पैदा होती है , जल पर ही दौडती है और आिखर जल मे
ही समा जाती है, ििर जल से ही उिती है। िीक वैसे ही िवश केतमाम जीव उसी एक बह समुि की तरगंे है। कोई
छोटा है कोई बड़ा है, कोई पिवतरर है कोई अपिवतरर है, कोई अपना है कोई पराया है। सब
उसी िवराट-िवशाल मुझ िैतनरय सागर की तरंगे हैं। तरंगे उठती हैं, नािती हैं, आपस
में टकराती है, लडती है झगडती है, िकलरलोल करती हैं, िमटती हैं। वे कदािप सागर से अलग
नहीं हो सकतीं। ऐसे ही संसार में सब िेषरटाएँ करने वाले कोई वरयिकरत परमातरमा से
कभी अलग हुए नहीं और अलग हैं नहीं, अलग हो नहीं सकते।
हम उसी परमातरमा में िवशररािनरत पा रहे हैं, उसी में हँस रहे हैं, खेल रहे हैं।
जीवन मे होन व -हजार गलितयों से हमें सबक सीखने को िमलता है। जब-जब
े ालीहजार
ईशर दिृष की, तब-तब सुख पाया, आननरद पाया, शािनत पाई। िवचार उनत बन। े जब-जब अचछे बुरे की दिृष की,
अपने और पराये की दृिषरट की, नाम और रूप में आसरथा की, तब तब धोखा खाया।
मुझे आननरद है िक धोखा खाने पर भी हम कुछ सीखे हैं। अनुकूलता-पितकूलता से भी कुछ
सीखे है। अनुकूलता कहती है िक परमातमा आननदसवरप है। धोखा खान स े े जोदःु,खिमला
उसने बताया िक
अजरञान की दृिषरट दुःखदायी है।
हमने जो पररितकूलताएँ सही, दुःख सहा या धोखे खाये, उसका भी हमें मजा है। अगर
ये गलितयाँ और दुःख, पितकूलताएँ , िवघरन और बाधाएँ न होती तो शायद हम उतने उनरनत भी न
हो पाते। यह हमारे सारे जीवन का अनुभव है िक पररितकूलताएँ और दुःख भी हमें कुछ सीख
दे जाते हैं। अनुकूलता भी कुछ आननरद और उलरलास दे जाती है।
अपनी जीवन की सारी यातरराओं की मीमांसा यह है िक हमारे पास अनुभव का कल है।
अनुभव रूपी िल का हम आदर करते हैं।
जब-जब देहभाव से आकानत होकर संसार की चिलत तरगंो को ही सार समझकर तरगंो केआधार को भूले है ,
तब-तब दःुख उिाये है। जब-जब तरगंो को लीलामाि समझकर, उनके आधार को सतरय समझकर संसार
में िविरे हैं, तब-तब आननद, सुख और ईशरीय मसती का अनुभव हआ ु है।
सारे धमव उसी सुखसवरप ईशर की ओर ले जान क े ी च े ष ाकरते-हअपनी
ै।उनकीभाषाअपनी
है। जहाँ
दृिषरट सीिमत हो जाती है, इिनियगत सुख मे आबद हो जाते है, िवकारी सुख में ििसलते हैं, तब पकृित
थपरपड़मारती है.... तरगंे टकराती है। जब गहन शात जल मे तरगंे िवलीन होती है, तो कोई कोलाहल नही रहता।
दिरया के िकनारे पर खड़ा आदमी उछलती-कूदती तरंगों को देखकर यह कलरपना भी
नहीं कर सकता िक इनका आधार शांत उदिध है। उसके तले में िबलरकुल शांत िसरथर जल
है। उसी के अिल सहारे यह िल िदख रहा है। तरंिगत होना वाला जल बहुत थोड़ा है....
उसकी गहराई में शांत जल अगाध है, अमाप है।
ऐसे ही तरंगायमान होनेवाला माया का िहसरसा तो बहुत थोड़ा है..... मेरा शानरत
बह ही अमाप है।
ऐसी कोई बूँद नहीं जो जल से िभनरन हो। ऐसा कोई जीव नहीं जो परमातरमा से िभनरन हो।
ऐसी कोई तरंग नहीं जो िबना पानी के रह सके। ऐसा कोई मनुषरय नहीं जो िैतनरय परमातरमा
के िबना रह सके। िजनरदा है तब भी उसमें िैतनरय परमातरमा है और मृतरयु के बाद भी
सुषुपतघन अवसिा मे परमातमा तततव मौजूद रहता है।
पाणरिहत शव जला िदया जाता है, तब उसका जल वािपीभूत होकर िवराट जल तततव मे िमल जाता है। शव का
आकाश िवराट महाकाश में िमल जाता है। उसका शरवास िवराट वायुततरतरव में िमल जाता है।
उसका पृथरवी का िहसरसा पृथव र ी ततरतरव में िमल जाता है। उसका तेज अिगरनततरतरव में िमल
जाता है।
जैसे सागर की तरगंे जल से उतपन होकर ििर सागर जल मे ही लीन होती है, ऐसे ही हम लोग भी
ईशर से ही उतपन होकर ईशर मे ही खेलते है और ििर ईशर मे ही िमल जाते है। हम दःुख तब उिाते है िक जब उसको
ईशर नही मानते, ईशर नही जानते, नहीं समझते। हममें ई शर वरततरतरव का भाव नहीं जागता। मेरे
तेरे का भाव ही हमे दःुख देता है , परेशान करता है। इस भाव को बदला तो बेडा पार हो जायेगा।
िजसकेपास खूब िवचार है , तकव है, तगडी खोपडी है िकनतु हृदय नही है तो उसका जीवन रखा है। ऐसे जीवन
में अशांित, उदरवेग, तकव-िवतकरर, कुतकरर होते हैं। रूखे मिसरतषरक से जीने का मजा नहीं।
जीवन मे हृदय की िनतानत अिनवायवता है। िजसकेपास िवशाल हृदय है , िवशाल सहानुभूित है, िवशाल पररेम
है, वह परम पररेमासरपद की िवशालता का अनुभव करके आनिनरदत रहता है सुखी रहता है।
केवल हृदय की भावना से भी काम नहीं िलता। अजरञानता के कारण भावना-भावना मे
बहत ु दःुख उिान प े ड त े ह ै । के व ल भ ावनाभीउपयुितनही।भावनाकेसाििवशालजा
तो िया िोडा िहससा भावनातमक हृदय का और िोडा िहससा जानातमक मिसतिक का हो ?
नहीं....। हृदय की पूणव िवशालता हो और मिसतिक मे जानमय िवशाल समझ हो।

आप लोगों के साथ जो कुछ करें, अपने साथ करें। आप ही उन सब के रूप में खेल
रहे हो, यह जानते हुए सब करें। आप एक पिरििरछनरन शरीर नहीं हैं। आप जो कुछ देख
रहे हैं, अपने आपको ही देख रहे हैं, िजससे देख रहे है वह भी आप है और िजसको देख रहे है वह भी
आप ही हैं। िजसके िलए देख रहे हैं वह भी आप हैं और िजसके िलए कर रहे हैं वह
भी आप है। ऐसा िवशाल जान.... ! ऐसा िवशाल पररेम... ! इन दोनो का जब पाकटय होता है, तब आदमी अननत
महासागर में सुखानुभूितयाँ करता है। संसार दुःखदायी नहीं। दुःखदायी अजरञान है। संसार
सुखदायी भी नही। सुखदायी भी अपनी मानयताए ह ँ ै । स ं स ा र त ो ई श रमयहै।सुखदःुखतोमन
सुख वासतिवक सुख नही होता है। संसार मे दःुख नही, दुःख अपनी मिलन वासनाओं के कारण है, अपनी
बेवकूिी केकारण है। अपनी बेवकूिी िमटी तो न सुख है न दःुख है। सब पिरपूणव परमातमा है , आननरद का भी
आननरद है। ििर हर हाल में खुश, हर में खुश, हर देश में खुश।
कुसंग से बिें। कुसंग माने संकीणरर और कुवासना को पोसने में उलझे हुए लोगों
का संग। ऐसे वरयिकरतयों के पररभाव से बिकर सुसंग में रहें। शररीकृषरण ने एकानरत और
अजरञातवास में तेरह वषरर िबताये थे अपने वरयापक सरवरूप में रमण करते हुए। 70 वषरर
की उमरर से लेकर 83 वषरर की उमरर तक वे घोर अंगीरस ऋिष के आशररम में अपने
आतरमसरवरूप में मसरत रहे।
युदरध के मैदान में अजुररन को पररोतरसािहत करने की आव शर यकता पड़ी तो उस
पूणवता मे रमण करन व े ा ल े श ी क ृ ि ण न , उसके िनिमतर
वेहभीकरिदया।दय ु ोधनकीसं
त कीणवदिृषतोडनीिी
िव शर व को सबक िसखाना था तो शररीकृषरण ने यह भी मजे से िकया। दुयोररधन को ठीक कर िदया
औ र उस क े प क व ा ल ो को भ ी ििक ा न ल े ग ा ि द - र भ ी श ी कृ ि ण कहत े ह ै
या।िि
"युदरध के मैदान में आने के पहले, संिधदत ू होकर गया िा तब से लेकर अभी तक मेरे हृदय मे
पाणिवो केपित राग न रहा हो तो और कौरवो केपित मेरे िचत मे िेष न रहा हो तो इस समता की परीका केिनिमत यह मृतक
बालक (अिभमनरयु का नवजात पुतरर) िजनदा हो जाय।" वह बालक िजनरदा हो गया। समता की परीकरषा
के िलसरवरूप वह िजनरदा हुआ, इसिलए उसका नाम परीिकत पडा।
आपके जीवन में समता आ जाय, जान आ जाय। राग से पेिरत होकर नही, दरवेष से पररेिरत
होकर नहीं..... सहज सवभाव जीवन का िकया-कलाप िले।

जानवान सदा सहज कमव करते है। उनकी दिृष मे दोषयुित या गुणयुित होना बचचो का िखलवाड माि है। जैसे
जल की तरगं कभी सवचछ तो कभी मिलन, कभी छोटी तो कभी मोटी होती है। यह जल की लीला मातरर
है। ऐसे ही अपने आतरमसरवरूप में बैठकर आपकी जो िेषरटा होगी, वह परम िैतनरय की
आहरलािदनी लीला है। वह िैतनरय का िववतररमातरर है। ऐसा समझकर जरञानी, जीवनमुित पुरष
संसार मे सुख से िवचरते है।
....।
....।।
'वे तृपरत होते है, अमृतमय होते हैं। वे तरते है, औ र ो को त ा र त े ह ै ।'
ॐ आननरद....! ॐ शािनरत.....!! सचमुच परमाननद....!!!
अनरदर बाहर वही का वही सुखसरवरूप मेरा परमातरमा है। अनरदर बाहर, आगे पीछे,
अधः-ऊधरवरर वही सारा का सारा भरा है। जैसे मछली के पेट में भी जल है। इसी पररकार
आपके आगे पीछे, ऊपर नीिे, अनरदर बाहर वही ििदाकाश परम िैतनरय परमातरमा ही
परमातमा है। ऐसा िवशाल भाव, जान और वयापक दिृष, इनकी एकता होती है तो अनक े मे एक और एक मे अनक े का
साकातकार हो जाता है।
परमातमा सदा साकात् है। वह कभी दरू नही, कभी पराया नहीं। संकीणररता और अजरञान के
कारण हम दूर मान लेते हैं, पराया मान लेते है और अपन क े ो अ न ा ि म ानलेतेहै।तुमअनािनहीहो।
सवविनयनता नाि, िव शर वेशर वर तुमरहारा आतरमा बनकर बैठा है। िव शर विनयनरतनाथ ा ही तुमरहारे
आगे अनेक रूप होकर बैठा है। िव शर विनयनरतपरमातर ा मा ही तुमरहारे आगे सुख और दुःख
के सरवांग करके तुमरहें अपनी असिलयत को जतलाने का यतरन कर रहा है।
अतः जो पररितकूलता आ रही है उसे धनरयवाद दो और कहो िक यार ! तू मुझे धोखा नही दे
सकता।
दूसरे िव शर वयुदरध के दौर में सन1942 की एक घटना है।
िकसी जीवनरमुकरत महापुरूष ने संकलरप कर िलया िक सब तू ही है तो अब बोलेंगे
नहीं। जीवन के अंितन शरवास के करषण कुछ बोल लेंगे तो बोल लेंगे।
दूसरे िव शर वयुदरध में सैिनकों के दरवारा जासूसी के शक में वे पकड़े गये।
पूछन प े र क ु छ ब ो ले न ह ी त -डपटकर
ोऔरसदे हहआ ु ।लेउनसे पूे छेजारक
गयेअपनम गयाः "तुम
ेपास।िाट
कौन हो ? कहाँ से आये हो ?" आिद आिद। जबरदसरती करने के कई तरीके आजमाये गये
लेिकन इन महापुरष न स े ं क ल ? वे जानते
प क ररखािा।जीवनमु थे िकः "डाँटने वाले
ितकोभयकहा
में भी मेरी ही िेतना है। शरीर का जैसा पररारबरध होगा वैसा होकर रहेगा। भयभीत करयों
होना ? उनके पररित उिदरवगरन करयों होना ?"
महातरमा जरयों के तरयों खड़े रहे। पूछने वाले पूछ-पूछकर िक गये। आिखर सूचना दी गई
िक अगर नहीं बोलोगे तो गले में भाला भोंक देंगे... सदा केिलए चुप कर देगे।
ििर भी महातमा शात....। उन पर कोई पभाव न पडा। उन मूखव लोगो न उ े ि ा य ाभाला।महातमाकेकणिकू
भाले की नोक रखी। ििर भी जीवनमुित को भय नही लगा। वे जानते िे िक सब परमातमा की आहािदनी लीला है। जैसे
सागर मे तरगंे होती है, ऐसे ही परबररहरम परमातरमा में सब लीलाएँ हो रही हैं।
आिखर उस कररूर मेजर ने सैिनकों को आदेश दे िदया। भाला गले में भोंक िदया
गया। रकरत की धार बही। तब वे महातरमा अमृतविन बोलेः
"यार ! तू सैिनक बनकर आयेगा, भाला बनकर आयेगा, तो भी अब मुझे धोखा नही दे सकता ियोिक मै
पहचानता हूँ िक उसमे भी तू ही तू है। शरीर का अनत िजस िनिमत से होन व े ,ालाहै
वह होगा लेिकन अब तू
मुझे धोखा नहीं दे सकता।"
चैतनयरपी सागर की सब तरगंे है। ना कोई शिु ना कोई िमि, ना कोई अपना ना कोई पराया। सब
परमेशर ही परमेशर है.... नारायण ही नारायण है। मेरा िैतनरय आतरमा-परमातमा ही सब कुछ बना बैिा है।
ॐ....ॐ....ॐ..... नारायण.... नारायण..... नारायण... तू ही तू.... तू ही तू....।
ऐसे िवशाल जरञान और िवशाल हृदय वाले जरञानवान को मृतरयु भी िदखती है तो समझते
हैं िकः मृतरयु भी तू ही है। यमदूत भी तू ही है और पाषररद भी तू ही है। वैकुणरठ भी तुझ ही में
है, सवगव भी तुझ ही मे है और नकव भी तुझ ही मे है।
िजसकेिलये सवगव और नकव अपना आपा हो गया , उसके िलए सरवगरर का आकषररण कहाँ और नकरर
का भय कहाँ ? उसके िलये परमातरमा ही परमातरमा है।
"ॐ....ॐ....ॐ.... आननरद.... खूब आननरद.... िवशाल हृदय, िवशाल जरञान... िदवरय जरञान...
िवशाल पररेम.... ॐ....ॐ..... सवोऽहम्... सुखसवरपोऽहम्। मै सवव हँ.ू ... मैं सुख सरवरूप हूँ.... मैं
आननरदसरवरूप हूँ... मैं िैतनरयरूप हूँ... ।"
सेवा इस आतमजान को वयवहार मे ले आती है। भावना इस आतमजान को भावशुिद मे ले आती है। वेदानत इस
जीवन को वयापक सवरप से अिभन बना देता है।
इस िवशाल अनुभव से चाहे हजार बार ििसल जाओ, डरो नहीं। िलते रहो इसी जरञानपथ पर। एक
िदन जरूर सनातन सतरय का साकरषातरकार हो जायेगा। दृिषरट िजतनी िवशाल रहेगी, मन िजतना
िवशाल रहेगा, बुिद िजतनी िवशाल रहेगी, उतना ही िवशाल िैतनरय का पररसाद पररापरत होता है। उस
पसाद से सारे दःुख दरू हो जाते है।
जगत मे जो भी दःुख है, सारे अजानजिनत है, संकीणवताजिनत है, बेवकूिीजिनत है। वासतव मे दःुख का कोई
अिसरततरव नहीं और सुख कोई सार िीज नहीं। परमातरमा तो परमाननरद हैं, परम सुखसवरप है। जहा
सुख और दःुख दोनो तुचछ िदखते है , ऐसा शांत िैतनरय आतरमा अपना सरवरूप है।
हवा िलती है तभी भी हवा है और िसरथर है तभी भी हवा है। ऐसे ही परमातरमा की
आहरलािदनी शिकरत से जगत बनते हैं और िमटते हैं। जगत की िसरथित में भी वही
आननरदघन परमातरमा है और जगत के पररलय में भी वही परमातरमा। पररवृितरत में भी वही है
औ र शा न त भ ा व म े भ ी व ह ी ह ै ।
ऐसा जो जानता है, वह वासरतिवक में जानता है। ऐसा जो देखता है, वह वासरतव में
देखता है। ऐसा जो सोिता है, वह वासरतव में सोिता है। ऐसा जो समझता है, वही वासरतिवक
में समझदार है। बाकी सब नासमझों का िखलवाड़ है।
ॐ.....ॐ.....ॐ......
खूब आननरद....! मधुर आननरद.....!! परमाननद....!!!
िन
श ि ....! ॐ....ॐ.....ॐ....।
रिनरतनारायणसर वभाव
जो लोग बाहर की चीजो मे, मेरे तेरे में उलझे हैं, उनके िलए शासरतरर िवधान करते
हैं िक इतने इतने सतरकमरर करो तो भिवषरय में सरवगरर िमलेगा। कुकमरर करोगे तो नकरर
िमलेगा।
िजनको जान मे रिच है, ईशरतव केपकाश मे जो जीते है , उनको कुछ करके सरवगरर में जाकर सुख
लेन क े ी इ च छ ा न ह ी । न क व के द ः ु ख क े भ यसेपीिडतहोकरकुछकरना
दायाँ हाथ बायें की सेवा कर ले तो करया अिभमान करे और बायाँ हाथ दािहने हाथ की
सेवा कर ले तो िया बदला चाहेगा ? पैर चलकर शरीर को कही पहँच ु ा दे तो िया अिभमान करेगे और मिसतिक सारे शरीर
के िलए अिरछा िनणररय ले तो करया अपेकरषा करेगा ? सब अंग िभन िभन िदखते है, ििर भी है तो सभी
एक शरीर के ही।
ऐसे ही सब जाितयाँ, सब समाज, सब देश िभन-िभन िदखते है, वे सतरय नहीं हैं। जाितवाद
सतय नही है। सिी और पुरष सतय नही है। बाप और बेटा सतय नही है। बेटा और बाप, पुरष और सिी, जाित और
उपजाित
श तो केवल तरंगें हैं। सतरय तो उनमें िैतनरयसरवरूप जलरा िहीहै।
ॐ....ॐ...ॐ.... नारायण... नारायण....नारायण....
नारायण का मतलब है पूणरर िैतनरय... राम ही राम... आननरद...।

।।
ॐ....ॐ....ॐ....
हे दुःख देने वाले लोग और हे दुःख के पररसंग ! हे सुख देने वाले लोग और सुख
के पररसंग ! तुम दोनो की खूब कृपा हईु। दोनो न म े ु झ े य ह ज ा न र प ीिलदेिदयािकसुखभीसचचान
भी सचचा नही। सुख देन व े ा ल ा भ ी सच च ा न ह ी औ र द ःुखदेनवेालाभीसचचानही।स
तरगंे ही िी। मन की तरगंो का आधार मेरा चैतनय आतमदेव वहा भी पूणव का पूणव िा। ॐ....ॐ.....ॐ..... नारायण....
नारायण.... नारायण....।
िदवरय आननरद.....। मधुर आननद.... ! परमाननद.... ! िनिवररकारी आननरद....! िनरनरजन आननरद...!
ॐ.....ॐ.....ॐ....
नर-नारी में बसा हुआ... सुखी-दुःखी में बसा हुआ... अपने पराये में छुपा हुआ
ु भी है , जािहर भी है.... अनरनत है... िनिवररकार है.... िनरंजन है....।
परमातमा मे छुपा हआ

।।
?
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िवशश ाल उदिध की जलरा िमेंभँवर भी तू ही है और तरंग भी तू ही है। बुलबुले भी तू
ही है और जल के टकराने से बनने वाली िेन भी तू ही है। जल में पैदा होने वाली
शैवाल भी तू ही है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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नािसरतक लोगों ने भगवान को नहीं देखा, नहीं जाना, इसिलए वे भगवान को नही मानते।
आिसरतक लोग भगवान को मानते तो हैं, लेिकन वे भी अपन ह े ृ द य म े ब ैिेहएुभगवानकाआदरनहीकरत
रामतीथरर कहा करते थेः "ये लोग भगवान को, खुदाताला को सातवें आसमान में िसरथत
मानते हैं। कम-से-कम खुदाताला पर इतनी तो दया करो िक सातवें आसमान में उसको कहीं
ठणरड न लग जाय !
भगवान केवल गौलोक मे , साकेत मे , वैकु
श णरठ में या िवलोकमें ही नहीं है, अिपतु वे तो
सववि ओतपोत अनतं-अनंत बररहरमाणरडों में िैले हैं। वे ही भगवान तुमरहारा आतरमा होकर
बैिे है।
कलरपना करो िक िहमालय जैसा शकरकर का एक बड़ा पहाड़ है। शकरकर के इस पूरे
िहमालय को एक िींटी जानना िाहे तो घूमते घूमते युग बीत जाय। अगर युिकरत आ जाय, वह
पहाड पह जहा खडी है, वहीं शकरकर को िख ले तो उसी समय वहीं पर उसको शकरकर के सारे
िहमालय का साकरषातरकार हो जाय।
हमारी वृितरत ऐिहक जगत में सुख खोजती है। वह मृतरयु के बाद सरवगरर में, वैकुणरठ

में या िवलोकमें जाकर सुखी होने की कलरपना में उलझती है। इस उलझन से हटकर
वृितरत जहाँ से उठती है, वहीं अपने अिधषरठान को जान ले तो सरवयं सुखसरवरूप हो जाय।
जहा वह खडी है, वहीं उसकी यातररा पूरी हो जाय। 'वहाँ जाऊँ... यह पा लूँ.... वह कर लूँ.... तो सुखी
हो जाऊँ....' यह जो मन में कलरपना घुसी है, अजरञान घुसा है, इस अजान को आतमजान से िमटाकर
जीव जब अपने -आप में जाग जाता है तो पूणरर सुख का और पूणरर िनभररयता का अनुभव हो जाता
है। िनभीररक िविार करने से ही िनभीररकता का अनुभव हो जाता है। मुिकरत का िविार करने
से ही अपन म े ु ि त स व भ ा व का अ नु भ व होताहै।दःुखबनधनऔरभयकेिवचारक
हमारे मन में अदभुत शिकरत है। मन की कलरपनाओं से ही हम संसार में उलझते
हैं। जीव सदा िििनरतत-भयभीत रहता है िक मेरा यह हो जायगा तो िया होगा... वह हो जायगा तो करया
होगा....? ऐसी कलरपना करके दुःखी करयों होना ? सदा िनििनत रहना चािहए और ऐसा सोचना चािहए िक मेरा
कभी कुछ िबगड़ नहीं सकता।
आदमी जैसा भीतर सोिता है, वैसी ही आतरमा उसके शरीर के इदरर-िगदरर बनती है, िैलती है।
बाह वातावरण से ही सजातीय संसकारो को भी आकिषवत करती है। आप मुिित केिवचार करते हो तो मुिित का आनदोलन
औ र आ भ ा ब न त ी ह ै । मु ि त पुर षो क े िव च ा र आ पक ो स ह य ो ग करत े ह ै । आ प भ य औ र ब न ध न
के िविार करते हो तो आपकी आभा वैसी ही बनती है। अगर आप घृणा के िविार करते हो,
चोरी और िकैती केिवचार करते हो वही आभा चोरो और िकैतो को चोरी िकैती केिलए आमंिित करती है। आपकी आभा
सुनदर और सुहावनी है तो उसी पकार की आभा और िवचार आपकी और िखंच जाते है।
मेरे पास एक जेबकतरा आया। अपनी बरलेड तोड़कर मेरे पैरों में रख दी और
हाथ जोड़कर बोलाः "सवामी जी ! आप आशीवाररद दो िक मुझे िरकरशा िमल जाय और मैं अिरछा
धनरधा करूँ। आपके सतरसंग में आया तब से िन शर िय िकया िक अब पाप का धनरधा नहीं
करूँगा।"
"करया धनरधा करता था ?"
"जेबकतरा िा।"
"अब तो छोड़ िदया है न ?"
"हाँ सरवामी जी !"
"अिरछा... अब सि बताओ िक तुमको कैसे पता िलता है िक िकसी वरयिकरत के पास
पैसे है ?"
"सवामी जी ! यह तो सीधी सी बात है। िजनके पास पैसे होते हैं, उनका हाथ बार-बार
जेब पर जाता है। वे भयभीत रहते है िक जेब कही कट न जाय... कट न जाय...। हमे इससे आमंिण िमल जाता है िक
यहीं बरलेड घुमाना िािहए।"
दूसरा एक लड़का आता था पालनपुर से। अमदावाद आशररम में आने के िलए उसने
टररेन का पास िनकलवाया था। उसने मुझसे कहा िकः "सवामी जी ! मैं हमेशा अमदावाद आता
जाता हँू, कभी मेरी िटकट िेक नहीं होता। लेिकन िजस िदन मैं पास घर पर भूल आता हूँ या
पास की अविध पूरी हो जाती है, तभी टी.टी.ई. मेरा िेिकंग करते हैं और मैं िँस जाता हूँ। मुझे
बडा आियव होता है िक ये लोग योग, धरयान आिद तो कुछ करते नहीं, िसगरेट पीते है। उनको कैसे पता चल
जाता है िक आज मेरे पास 'पास' नहीं है या उसकी तारीख खतरम हो िुकी है ?"
मैंने उसे समझायाः "टी.टी.ई. को तो पता नहीं िलता है लेिकन तेरे को पता होता
है िक 'आज मैं पास भूल गया हूँ।' तेरे िचत मे िर रहता है िक, 'वह कहीं पूछ न लें.... पकड न ले।'
तेरे इन िवचारो की आभा तेरे इदविगदव बनती है और टी.टी.ई. को आमंितररत करती है िक इसकी तलाशी लो।"
तुमहारे िवचारो का ऐसा चमतकािरक पभाव पडता है। तुम जब आितमक िवचार करते हो, तब सवववयापक
ईशरतततव मे, गुरूततरतरव में जो आतरमा की मुकरतता है, वह तुमरहें सहाय करती है। तुम जब दुःख,
भय, बनधन केिवचार करते हो , तब वातावरण मे जो हलकेिवचार िैले हएु है , वे तुमरहें घेर लेते हैं और
तुम अिधकािधक िगरते ही चले जाते हो।
'मैं िव शर वातरमहूा....ँ मेरा जनरम नहीं.... मेरी मृतरयु नहीं...' इस पकार का जो िचनतन करता
है, वह अपने शुदरध 'मैं' में जाग जाता है। तुमरहारा मन एक कलरपवृकरष है। बनरधन के
िविार करने से अनरतःकरण बनरध जाता है। अगर तुम अपने को बनरधनवाला मानते हो तो तुम
िकस बात से बँधे हो ? रूपयों से बँधे हो ? रूपये तो िकतने आये और िले गये। तुम
अगर रूपयों से बँधे होते तो तुम भी िले जाते। िमतररों से बँधे हो ? कई िमतरर बिपन
में आये, िकशोरावसरथा में आये और जवानी में आये, बीत गये। आज वे नही है। कोई नही...
कोई नहीं... सब िबखर गये। कपडो से बध ँ े हो ? बचपन से लेकर आज तक तुमन क े ई क प ड ेबदलिदये।घरसेबध ँ े
हो ? नहीं। वासरतव में तुम िकसी िीज से बँधे नहीं हो। अपनी मिहमा तुम नहीं जानते,
अपनी मुकरतता को तुम नहीं जानते, इसिलए िचत केिुरन क े े स ा ि त ु म जुडजातेहोऔरबध ँ जातेहो।
िकसी राजा ने संत कबीर से परराथररना की िकः "आप कृपा करके मुझे संसार बनरधन
से छुडाओ।"
कबीर जी ने कहाः "आप तो धािमररक हो... हर रोज पंिडत से कथा करवाते हो, सुनते
हो..."
"हाँ महाराज ! कथा तो पंिडत जी सुनाते हैं, िविध-िवधान बताते हैं, लेिकन अभी तक
मुझे भगवान के दररशन नहीं हुए हैं... अपनी मुकरतता का अनुभव नहीं हुआ। आप कृपा करें।"
"अिरछा मैं कथा के वकरत आ जाऊँगा।"
समय पाकर कबीर जी वहा पहँच ु गये, जहा राजा पिंित जी से किा सुन रहा िा। राजा उिकर खडा हो गया
करयोंिक उसे कबीर जी से कुछ लेना थ। कबीर जी का भी अपना आधरयाितरमक पररभाव था। वे
बोलेः
"राजन ! अगर कुछ पाना है तो आपको मेरी आजरञा का पालन करना पड़ेगा।"
"हाँ महाराज !"
"मैं तखरत पर बैठूँगा। वजीर को बोल दो िक मेरी आजरञा का पालन करे।"
राजा ने वजीर को सूिना दे दी िक अभी ये कबीर जी राजा है। वे जैसा कहें, वैसा
करना।
कबीर जी कहा िक एक खमरभे के साथ राजा को बाँधो और दूसरे खमरभे के साथ पंिडत
जी को बाधो। राजा न स े म झ ि ल य ा ि क इ स म े अ वशयकोईरहसयहोगा।वजीरक
हो। दोनों को दो खमरभों से बाँध िदया गया। कबीर जी पंिडत से कहने लगेः
"देखो, राजा साहब तुमरहारे शररोता हैं। वे बँधे हुए हैं, उनरहें तुम खोल दो।"
"महाराज ! मैं सरवयं बँधा हुआ हूँ। उनरहें कैसे खोलूँ ?"
कबीर जी ने राजा से कहाः "ये पंिडत जी तुमरहारे पुरोिहत हैं। वे बँधे हुए हैं।
उनरहें खोल दो।"
"महाराज ! मैं सरवयं बँधा हुआ हूँ, उनरहें कैसे खोलूँ ?"
कबीर जी ने समझायाः

।।
'जो पिंित खुद सिूल 'मैं' बध ँ ा है, सूकम 'मैं' में बँधा है, उसको बोलते हो िक मुझे
भगवान केदशवन करा दो ? सिूल और सूकम अह स ं े जोछू , ऐसे
टहे ै िनबररनरध बररहरमवेतरता की सेवा करके
उनरहें िरझा दो तो बेड़ा पार हो जाय। वे तुमरहें उपदेश देकर पल में छुड़ा देंगे।"
मानो, कोई भगवान आ भी जाय तुमरहारे सामने, लेिकन जब तक आतमजानी गुर का जान नही
िमलेगा, तब तक सब बध ं न नही कटेगे। आननद आयगा, पुणय बढेगे, पर आतमजान की कु ंजी केिबना जीव िनबवनध नही
होगा।
दुयोररधन और शकुिन ने शररीकृषरण के दररशन िकये थे। ई शर वर पररािपरत की लगन न
होने के कारण उनरहोंने िायदा नहीं उठाया। महावीर को कई लोगों ने देखा था, मुहमरमद के
साि कई लोग रहते िे। जीसस जब कॉस पर चढाये जा रहे िे और उनकेहािो पर कीले िोकेजा रहे िे तो कई लोग देख
रहे थे।
संत भगवत ं केदशवन और सािनधय का पूरा लाभ तब होगा जब उनका आतमजानपरक उपदेश सुनकर आप िनभवय
तततव मे अपन म े ै क ी ि स .. इसक
ि ितकरे गे।इसक िजजासा ... इसकेिलये चािहए सदगुरओं का
े िलएेिलएचािहएउतकणिा
कृपा पररसाद, पापत हो ऐसा आचरण और वयवहार।
गुरूओं का जरञान यह है िक तुम िनभीररकता के िविार करो। िनभीररकता वह नहीं, जो दस ू रो
का शोषण करे। जो दूसरों का शोषण करता है, दूसरों को डराता है, वह सरवयं भयभीत रहता
है। न आप भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करो। आप िनभररय रहो और दूसरों को िनभररय
बनाओ। आप िनिवनि बनो और दस ू रो को िनिवनि तततव मे ले जाओ। आप जो बाटोगे, वह वापस िमलेगा। आप
िनभररयता के िविार करो। अपने िनभररयसरवरूप की ओर िनगाह रखो।
सुनी है एक कहानी। एक बहवेता सूिी िकीर अपन प े या र े ि श ि य केसािकहीजारहेिे।रासतेमेबिढ
माहौल देखा... खुला आकाश.... शात वातावरण.... िनजररन वन का एकांत सरथान.... बैि गये धयान मे। कुछ
समय बीता। पास केभयानक जगंल मे शेर दहाडन ल े ग ा , लेिकन चेला जीिेतो िर-थर काँपने
। बाबाजीतोसमािधमे
लगे। शेर की आवाज नजदीक आन ल े गी।
चेला जी चढ गये पेड पर। शेर आकर गुरजी केअंगो को सूँघता हआ ु आगे चला गया। कुछ समय बीता। गुरजी
धरयान से जागे। िेला भी नीिे उतरा। काँप रहा था। अभी भी। गुरूजी बोलेः
"करया हुआ ?"
"गुरूजी ! शेर आया िा। आपको सूँघकर चला गया।"
अब दोनों आगे िलने लगे। इतने में गुरूजी को मिरछर ने काटा। गुरूजी ने
'आहा...' करके मिरछर को उड़ाया। िेला बोलाः
"जब शेर आया तो आप चुपचाप बैिे रहे और मचछर न क े ाटातो ...."
गुरूजी ने कहाः "जब शेर आया तब मै अपन श े ुद"मैं" में था। अब मेरी वृितरत इस हाड़-
मांस के देह में आ गई है, इसिलए मचछर न क े ा ट ा "
त ोभीआहिनकलरहीहै ।
एक बाबाजी कथा कर रहे थे। जोरों का आँधी तूिान िलने लगा। शररोता लोग भाग
खड़े हुए करयोंिक छपड़े के िटन खड़खड़ा रहे थे, कहीं िगर न जायें ! जहा पका शेि िा,
वहाँ सब लोग िले गये। थोड़ी देर के बाद तूिान रूक गया। सब वापस आये। बाबाजी अपने
आसन पर िन शर िल िवराजमान थे।
"बाबाजी ! तुम भी भागे, हम भी भागे। तुम भी आर.सी.सी. के शेड के नीिे भागे और मैं
अपने शुदरध 'मैं' में भागा, इसिलए िनभवय हो गया।"
अतः जब जब डर लगे, तब अपन श े ुद'मैं' की ओर भाग जाओ। हो-होकर करया होगा ? मैं
िनभीररक हूँ। ॐ....ॐ.....ॐ..... मैं अमर आतरमा हूँ....हिर.... ॐ....ॐ....ॐ....।
मौत के समय हाय-हाय करके डरोगे तो गड़बड़ हो जायगी... मौत िबगड़ जायगी। मौत
को भी सुधरना है। मौत तो आयेगी ही। िाहे िकतनी भी सुरकरषाएँ कर लो। मौत आये तब
सोचो... समझो मै िनभीक हँ। ू मौत मेरी नही होगी, शरीर की होगी। शरीर की मौत को देखना है। जैसे शरीर केकोट ,
पेनट, शटव को देखते है, ऐसे शरीर की मौत को भी देख सकते हैं। जो मौत के समय सावधान हो
जाय, िनभीररक हो जाये, उसकी दुबारा कभी मौत नहीं होती। वह अमर आतरमा में जग जाता है।
यह काम तो अव शर य करना है। दूसरा काम हो िाहे न हो , चल जायगा।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
जब-जब दःुख हो, परेशानी हो, भय हो, तब समझ लेना िक यह अजान की उपज है। कही न कही नासमझी को
पकडा है, इसिलए दःुख होता है। िवकार उिे तो समझ लो िक नासमझी है , इसिलए बह गये हो िवकार मे। ििर बहते ही
न रहो, सावधान हो जाओ। िवकारो न स े ब क ि स ख ा ि दय ा ि क इसमेकोईसारनही।पर
है। मोह ने िसखा िदया िक इसमें मुसीबत के िसवाय और कुछ नहीं है।
काम शा शर वत , राम शा शर वत
नहीं है है। काम आया और गया , लेिकन राम तो पहले भी िा, अब
भी है और बाद मे भी रहेगा। अपन र े .... अपने शांत सरवभाव को जानो... अपने अमर
ा मसवभावकोजानो
सवभाव को जानो, अपने ििदघन िैतनरय राम को जानो। उस राम को जाननेवाला राम से अलग
नहीं रहता। वह राममय हो जाता है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
....
संगदोष जैसी बुरी चीज संसार मे और कोई नही है। भीड-भाड मे, िवकारी लोगों के बीि रहना अिरछा
नहीं। एकानरत में रहना िािहए या भगवान की मसरती में मसरत रहने वाले उिरि कोिट के
साधको केबीच रहना चािहए। वे साधक महसूस करते है िक अब इिनियो केपदेश मे जयादा घूमना , जीना अचछा नही
लगता। इिनियातीत आतमभाव मे ही सचचा सुख है। जान िलया िक संसार केकीचड मे कोई सार नही , जान िलया िक
तरगं बनकर िकनारो से टकरान म े े ... श
अब तो मुझे जलरा िमेंही, आतरमाननरद के
कोईसारनही
महासागर में ही अिरछा लगता है। अब तो ऐसा लगता है िकः
" ....।"
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
.....!
अनुभवी आदमी पररकृित की एकाध थपरपड़ से िेत जाता है और नहीं िेतेगा तो दूसरी
िमलेगी, तीसरी िमलेगी। संसार मे िपपड मार-मरकर पररकृित तुमरहें परमातरमा में पहुँिाना िाहती
है। समझकर पहुँिना है तो तुमरहें हँसते-खेलते हुए पहुँिा देने के िलए वह पररकृित
देवी तैयार है। अगर नहीं मानते हो, संसार मे मोह ममता करते हो तो मोह-ममता की िीजें
छीनकर, थपरपडे
़ंमारकर भी तुमरहेंजगानेकेिलए वह पररकृित देवीसिकररयहै। वह हैतो आिखर परमातरमा की ही
आहरलािदनी शिकरत। वह तुमरहारी शतररु नहीं है, शुभिचनतक है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
....
आजकल के िकसी नािसरतक सुधारक की पढ़ी-िलखी लडकी िकसी सतसंग केघर शादी करकेगई।
े हाः
सास न क
"बहू ! चलो मंिदर मे देवदशवन करे।"
"हाँ हाँ....कभी िलेंगे। आज तो मुझे िपकरिर देखने जाना है।2
बेटी देवदशवन करो तो जीवन का कलयाण होवे। िपिचरो से तो आँखो की शिित कीण होती है। बनद िियेटरो मे
ऐसे वैसे लोगों के शरवासोिरछावास, अपानवायु, बदबू की अशुिद पचुर मािा मे होती है। अशाित और
िवलास के वायबररेशन अपना अंतःकरण मिलन करते हैं।"
"माता जी ! आप ििनरता मत करो। हमें तो मजा आता है। आप मंिदर में जाओ। मैं
परसो-तरसो आपकेसाि चलूँगी। आज तो ....।"
इस पकार सास जी को टालते-टालते आिखर उस सुधारक के पिरवार से आयी हुई आधुिनक
लडकी न ए े क ि द न स ा स ज ी क े सा ि म ं ि द रजानाकबूलिकया।उ
औ र स ास को ब े व कू ि म ा न त ी िी।
भगवान न अ े ि लत ो द ी ह , वह देर सवेर
ै ल ेिकनभितोकोबे नषरे टालीजोअिलहै
वकूिमाननव हो
जाती है। तकव िीक है, लेिकन कुतकव करकेभित की शदा तोडना अिवा कुतकव करकेअपन ि े ,
व षयिवकारोकोपोसना
भिित और सदाचार केमागव को छोड देना , यह तो पूरे िबगाड़ की िनशानी है।
नािसरतक सुधारक के घर में पनपी हुई वह िैशनेबल लड़की हार-शृंगार से देह को सजाकर
मंिदर में गई। मंिदर का दरवार आते ही वह िीखी।
"मैं मर गई रे... मुझे बिाओ.... बचाओ... बडा िर लगता है !"
सास न पेूछाः"आिखर करया हुआ ?"
"मुझे बहुत डर लगता है। मैं अंदर नहीं आ सकती। मुझे घर ले िलो। मेरा िदल
धड़कता है... मेरा तन काँपता है।"
"अरे ! बोल तो सही, है करया ?"
"वह देखो, मंिदर के दरवार पर दो-दो शेर मुँह िाड़कर खड़े हैं। मैं कैसे अंदर
जाऊँगी ?"
सास न क े हाः"बेटी ! ये दो शेर हैं, लेिकन पतिर केहै। ये काटेगे नही ... कुछ नहीं करेंगे।"
वह लड़की अकड़कर बोलीः "जब पतिर केशेर कुछ नही करेगे तो मंिदर मे तुमहारा पतिर का भगवान भी
करया करेगा ?"
उस पढ़ी िलखी मूखरर सरतररी ने तकरर तो दे िदया और भोले-भाले लोगो को लगेगा िक बात तो
सचची है। पतिर केिसंह काटते नही , कुछ करते नहीं तो पतरथर के भगवान करया देंगे ? जब ये मारेगे
नहीं तो वे भगवान सँवारेंगे भी नहीं। उस कुतकरर करने वाली लड़की को पता नहीं िक
पतिर केिसंह िबिान क े ी और भ ग व ा न क ी म ूितव, पवे
ितितकरनक
ऋिष-महिषरर -
े ीपेरणािजनऋिषयोनद
े ीहै
मनीिषयों की दृिषरट िकतनी महान और वैजरञािनक थी ! पतिर की पितमा मे हम भगवदभाव करते है तो
हमारा िितरत भगवदाकार होता है। पतरथर की पररितमा में भगवद भाव हमारे िितरत का
िनमाररण करता है, चैतनय केपसाद मे जागन क े ा रासताबनाताहै।
मूितररपूजा करते-करते, परमातमा केगीत गाते -गाते मीरा परम िैतनरय में जाग गई थी।
आिखर उस मूितरर में समा गई थी। गौरांग समा गये थे जगनरनाथजी के शररीिवगररह में। एक
िकसान की लड़की नरो शररीनाथ जी के आगे दूध धरती थी। शररीनाथ जी उसके हाथ से दूध
लेकर पीते िे। िी तो वह भी मूितव।
तुमहारे अनतःकरण मे िकतनी शिित िछपी हईु है ! मूितरर भी तुमसे बोल सकती है। इतनी तो
तुमहारे िचत मे शिित है और िचत केअिधिान मे तो अनतं -अनंत बररहरमाणरड िवलिसत हो रहे हैं। यह
जान जगान क े े ि ल ए म ं ि द र , ििर नपारिंही
कादेवभीदशवअचछा भकककाहै
है। ।भलेबालमंिदरहै
उस मूखरर लड़की से कहना िािहएः "जब तू चलिचि देखकर हस ँ ती है, नािती है, रोती है,
हालाँिक परलािसरटक की पटरटी के िसवाय कुछ भी नहीं है, ििर भी आहा..... अदभुत... कहकर तू
उछलती रहती है। परदे पर तो कुछ नहीं, सचमुच मे गुनिा नही, पुिलस नही... पुिलस केकपडे पहन कर
अिभनय िकय है। िरवालरवर भी सिरिी नहीं होती। ििर भी गोली मारते हैं, िकसी को
हथकिड़याँ लगती हैं, डाकू डाका डालकर भागता है, उसके पीछे पुिलस की गािड़याँ
दौड़ती हैं। डररायवर सरटेिरंग घुमाते हैं..... ॐऽऽऽऽ.....ॐ, तब तुम सीट पर बैिे-बैिे घूमते हो िक
नहीं घूमते हो ? जबिक पदे पर पकाश केिचिो केअलावा कुछ नही है।
ऐसा झूठ िलिितरर का माहौल भी तुमरहारे िदल को और बदन को घुमा देता है तो
ऋिषयों के जरञान और उनके दरवारा पररििलत मूितररपूजा भकरतों के हृदयों को भाव से, पािवना
से, परमातम-पेम से भर इसमे िया आियव है ?
बहवेता ऋिष-महिषररयों दरवारा रिित शासरतररों के अनुसार मंतररानुषरठानपूवररक
िविधसिहत मंिदर में भगवान की मूितरर सरथािपत की जाती है। ििर वेदोकरत-शासिोित िविध के
अनुसार परराण-पितिा होती है। वहा साधु-संत-महातरमा आते जाते हैं। मूितरर में भगवदभाव के
संकलप को दहुराते है। हजारो-हजारों भकरत अपनी भिकरत-भावना को अमूतव तततव का आननद िमल जाय, तो इसमे
करया सनरदेह है ?
बडे बडे मकानो मे रहन व े ा ल े सभ ी ल -बडी कबो
ोगसहीमानम े ेबडेक
ने हीहोते
अनदर।सडा बडी गला मास और
बदबू होती है, िबचछू और बैिटीिरया ही होते है। बडी गािडयो मे घूमन आ े , बडी कुसी पर पहँच
द मीबडानहीहोती ु न स े ेभी
वह बड़ा नहीं होता। अगर बड़े से बड़े परमातरमा के नाते वह सेवा करता है, उसके
नाते ही अगर बंगले में पररारबरध वेग से रहता है तो कोई आपितरत नहीं। लेिकन इन
चीजो केिारा जो परमेशर का घात करकेअपन अ े ह , वह बड़ा नहीं कहा जाता।
ं ोपोसताहै

ऐसा ऐसा ही बड़ा कमरयुिनसरट आदमी था। वह मानता था िक भगवान आिद कुछ नहीं होते।
वह अपने-आपको कुछ िवशेष वरयिकरत मानता था। उसके पास तकररशिकरत थी, िजसका उपयोग करके
वह शररदरधालु भकरतों की शररदरधा तोड़ने की हरकतें बेखटके िकया करता था। परनरतु बड़े-से-
बडे िवशिनयनता िवशेशर की लीला अनूिी है। िकस आदमी को कैसे मोडना , वह जानता है।
उस कमरयुिनसरट का एक लड़का था। वह अिरछे संग में रहता था। उसका िमतरर उसे
िकसी महातरमा के सतरसंग में ले गया। बिपन से ही उसके िितरत में अिरछे साितरतरवक
संसकार पड चुकेिे। उसे भिित , सतसंग, कीतररन, देवदररशन में रस आता था। बेटा पूरा आिसरतक था
औ र ब ा प पू र ा न ा िसत क। ध ी र े -धीरे वह सदभागी बेटा बड़ा हुआ।
एक िदन बाप ने उसे डाँटाः "सतसंग, मंिदर आिद में जाकर तू समय करयों खराब करता
है ? भगवान जैसी कोई चीज है ही नही। यह तो साधु , महाराज, मुलरला, मौलवी और पादिरयों ने अपना
धनरधा िलाने के िलए एक पररकार की धूम मिा दी है, बाकी भगवान है नही।"
पुि न क े हाः"िपताजी ! कोई िीज बनी हुई होती है तो जरूर उसका कोई बनाने वाला भी होता
है। ऐसे ही इतनी बड़ी दुिनयाँ है तो जरूर उसका कोई बनाने वाला भी होगा।"
िपता न क े हाः"जा, पागल कही का। गमी और गित से यह सारा िवश बन जाता है। जैसे गमी से पानी वािपीभूत
हुआ, बादलो मे गित हईु और ििर कही जाकर बरसे।
िहमालय में बिरर थी। उसे सूयरर की गमीरर िमली। बिरर िपघली। ििर उसमें गित आई।
वही पानी गंगा होकर समुदरर में जा िमला। इस पररकार गमीरर और गित स यह सारी दुिनयाँ बनी
है।
जैसे घडी केअलग -अलग पुजेरर िमला िदये। उसको सेल से जोड़ िदया। गमीरर िमली।
उसके काँटों में गित आई। घड़ी समय िबताने लगी। घंटी भी बजने लगी। खुद घूमती भी है,
बोलती भी है और समय िबताकर लोगो को दौडाती भी है। कौन सा भगवान है इस दिुनया मे ? छोड़ो यह सारा
पागलपन। गमी और गित से ही यह संसार बन गया और चल रहा है।"
समय होन प े र लड क ा स क,ू लमे
वहगया।जोसाधकहोताहै
करने में सावधान और होने में
पसन रहता है। उसकेसवभाव मे यह सवाभािवक ही आ जाता है। इस पकार िजसका िचत सािततवक शदा से युित रहता
है, उसमें शािनरत और िदशासूिक सहज ही आ जाती है।
लडकेन ए े क क ा ग ज ि ल य ा ।उ स पर स ुनदरसुहावनािचिबनायाऔरस
िचि रख िदया। िपताजी दफतर से लौटे तो िचि देखकर उनकी िविचि खोपडी मे भी आननद और आियव केभाव उभरने
लगे। पूछाः
"मेरे कमरे में यह िितरर िकसने रखा है ?"
"िपता जी ! मैंने रखा है।" बेटे न क े हा।
"िकसने बनाया है ?"
"यह बनाया िकसी ने भी नहीं है।"
"तो यह बना कैसे ?"
"िपता जी ! सकूल मे कागज का िरम (िजसता) पडा िा। उसमे से एक कागज गित शिित से उडकर मेज पर आ
गया। सरयाही मेज पर पड़ी थी, जो गमी शिित से कागज पर ढुल गयी। इस पकार गमी और गित शिित दोनो
िमल गई तो हो गया िितरर तैयार।"
िपता गरज उिाः "तू मुझे मूखव बनाता है ? गित शिकरत से िरम में से कागज मेज पर आ जाय,
गमीरर शिकरत से सरयाही दवात में से कागज पर ढुल पड़े और ऐसा सुनरदर िितरर अपने-आप
बन जाय, यह असंभव है। तूने, तेरे दोसत न य े ा ते,रिकसी
ेमासटरनेने तो यह िितरर बनाया ही होगा।"
"नहीं नहीं िपता जी ! इस िचि को बनान व े ा लाकोईनहीहै।
यह सब बेवकूिों की बात है। गमीरर और गित से ही यह बना है। िरम में से कागज
आ गया और दवात से सरयाही आ गई मेज पर। गमीरर और गित की मुलाकात होते ही िितरर बन
गया।"
"यह असंभव है।" िपता गुराकर बोला।
"जब एक चार पैसे का िचि अपन आ े प ब न न ाअसं-िविितरर
भवहैतोयहिचि
बररहरमाणरड भगवान के
बनान क े े ि सव ? ैसेसंभवहोसकताहै
ायक
जो लोग कहते है िक ईशर नही है उनको धनयवाद दे दो उनकी िालतू खोजबीन केपिरशम केिलए। वे िवशेष
पकार केमूखव है। ईशर नही है ऐसा वही आदमी कह सकता है , िजसन ई े श रक ी ख ो ज केिलएचौदहभु , वनछानमारेह
पृथवी केकण -कण की, अणु-परमातमा की जाच कर ली हो, अतल, िवतल, तलातल, रसातल,पाताल आिद सब
लोक-लोकानतर जाच िलये हो, जो सृिष केआिद मे हो और सृिष केअंत केबाद भी रहा हो। इस पकार सवव काल और सवव
देश में जाँि करके ही कोई िनणररय कर सकता है िक ई शर वर है या नहीं। सृिषरट की आिद
में माने सृिषरट की उतरपितरत से पहले उसका होना संभव नहीं, सृिष का अंत उसन द े ेख,ानही
देखेगा भी नहीं करयोंिक सृिषरट के अंत के पहले ही उसका अंत हो जायगा। पिास-पचहतर
वषरर की उमररवाला ऐसा आदमी कह दे िक 'ईशर नही है' तो यह कहा की बुिदमानी है ?
'गमीरर और गित से सब बन गया है' यह आपकी मानरयता भूल भूलैया में भटकी हुई है।
यह घड़ी जो िल रही है उसके पुजेरर भी िकसी ने बनाये हैं, सेल भी िकसी न ब े न ायाहै।पुजोंको
जोडन व े ा ल ा और स े ल ल ग ा न व े ,ालाभीतोकोईअवशयहै
परमातमा है।" ।उसकोभीसतादेनवेालाईश
एक अिरछा िितररकार पररभातकाल में घूमने गया। परराकृितक सौनरदयरर का बड़ा िहेता
था । पररकृित केसुनरदर मनोरमरय दृशरयोंको अपनीिितररकला मेंउतरता था।
सूयोदय हो रहा िा... िवशाल मैदान में हिरयाली छाई हुई थी। दूर-सुदरू सुहावनी पहाडी िदख रही
थी । कल-कल, छल-छल आवाज करती नदी बह रही थी। पररकृित-पेमी कलाकार की कला जाग उिी। उस
मनभावन दृ शर य का सुंदर िितरर बना िदया। ििर सोिाः
'इस सनाटे मे पकृित केसुंदर दशृय को देखन व े ा ल ा त ो म ै य ह ा ह ूल ँ ेिकनइसिचिमेदशृयदेखन
है। दृ शर य का दृषरटा तो होना ही िािहए। ' उसने दूसरा िितरर बनाया, िजसमे दशृय को देखन व े ालादष
ृ ाभी
िचिित िकया। ििर सोचाः 'सुंदर दशृय को देखता हआ ु दष ृ ा तो िचि मे आ गया लेिकन इस दशृय और दष ृ ा केिचि को
देखने वाला मैं रह गया। इस िितरर का भी दृषरटा होना िािहए। अतः उसने तीसरा िितरर
बनाया िजसमे दशृय को देखन व े ा ल ा द ष ृ ा औ र उ न द ो न ो कोदेखनवेालादसू रादष

देखने वाला जो है, वह इस िितरर में नहीं है। उसे भी ििितररत करना िािहए।
अब उसके िविारों में गड़बड़ बढ़ गई। दूसरे दृषरटा को देखने वाला तीसरा, तीसरे
को देखने वाला िौथा, चौिे को देखन व ... इस पकार हजारो-हजारों दृषरटा के िितरर
े ालापाचवा
बनेगे, उनको भी देखने वाला दृषरटा बाकी रह जायेगा।
िजससे सब िदखता है वह दष ृ ा, साकी तो असंग का असंग ही रह जाता है। चाद-िसतारे, दिरया, दिरया के
िकनारे, पृथवी, गररह, नकरषतरर, सूयव आिद सब दशृयो को, दृ शर य देखने वाली इिनरदररयों को , मन को, मन
के संकलरप-िवकलरपों को, बुिद को, सुख-दुःख को देखने वाला कौन है ? मैं हूँ। इस 'मैं' का
वािसरतक सरवरूप खोज िलया जाय, 'मैं' की वासरतिवक पहिान हो जाय तो योगी का योग िसदरध हो
जाय, तपसवी का तप सिल हो जाय, जानी का अपना सवरप पकट हो जाय।
....
.

अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

आिसरतक और नािसरतक में िकरर यह है िक आिसरतक एक ई शर वर की शरण लेता है और


अपनी आव शर यकता पूरी करता है जबिक नािसरतक अनेक पदाथोररं की आव शर यकता महसूस
करता है। अपनी इिरछाएँ पूरी करते-करते कई जनरम बीत जाते हैं, सिदया समापत हो जाती है।
आव शर यकतातो आव शर यक ततरतरव की है और इिरछाएँ मन की दासता से पैदा होती
हैं। आिसरतक एक परमातरमा की शरण लेता है और नािसरतक हजार-हजार वसरतुओं की शरण
लेता है।
िनःसहाय की सहाय है भगवदर शरण, भोगी का योग है भगवद शरण, दुबररल का बल है भगवद
शरण, िनराधार का आधार है भगवदशरण। दरवनरदव र ी का दरवनरदरवातीत जीवन है भगवदर शरण !
िचंितत की िचंता का िनवारण है भगवद श ् र ण । ब ु ि द श ू न यकीबुिदकापकाशहैभगवद
अहंकार उतारने वाला मंतरर है भगवदर शरण।
जानी केजान मे िनिा उस भगवतततव मे होती है। उस तततव मे जब िनिा होती है तब योगी का योग िलता है ,
तपसवी का तप िलता है, जपी का जप सािवक होता है।
जीव िजतना-िजतना ईमानदारी से, सचचाई से उस भगवत् शरण को गहण करता है, उतना-उतना वह सिल
होता जाता है। भगवदर शरण िजतना-िजतना छू टता जाता है , उतना-उतना उसके िितरत में बोझा
बढता जाता है।
असंखरय िितरत िजस िैतनरय से िुरिुरा रहे हैं, उस िैतनरय वपु परमातरमा के
शरणागत कोई जीव िकसी भी भाव से होता है तो वह जीव आतमपेरणा से, आतरमपररकाश से और आतरमसहाय से
कटीले मागोररं से, बीहड जगंलो से सिल यािा करकेअपना जीवन धनय कर लेता है। िजसकेजीवन मे
भगवदशरण नही है, वह अपने बाहुबल से, अपने तपोबल से, अपने िितरतबल से, अपनी
चापलूसी से या अपन औ े र क ो ई त ु च छब लो स े स ु ख ीरहनके ायततोकरताहैबेचाराप
दूर ही भासता है। इिरछापूितरर का करषिणक हषरर उसे आ जाता है, ििर इचछाए भ ँ ीअिधकािधक
भडकती जाती है। इचछा पूितव करते करते जीवन पूरे होते चले जाते है उस पाणी के।
आिसरतक की आव शर यकताएँ होती हैं और नािसरतक की इिरछाएँ होती हैं।
आव शर यकता एक होती है िनतरय जीवन की , िनतरय तृिपरत की, िनतरय जरञान की, िनतरय ततरतरव की।
यह मनुषरय की आव शर यकता है और इिरछा मन का िवलासहै।
हम लोग मन के िवलास को िजतना पोसते रहते हैं, उतना हम भीतर से खोखले हो
जाते है। अपना वयिितगत खचव बढान स े े अ ह क ं ी प ु ि ष ह ोतीहै।वयिितगतखचवघटानस े ेआ
है। अपनी वरयिकरतगत सेवा अपने आप करने से आितरमक शिकरत का िवकास होता है। दूसरों
से वयिितगत सेवा लेन स े े अ ह ग ं तसुखकीभातीहोतीहै
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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सुख अगर अपन म े े िँ स ा त ा ह ै त ो व ह दःुखभीखतरनाकहै।दःुखअगरउि
बनाता है, गलत पररवृितरत में घसीटता है तो वह पाप का िल है। दुःख अगर सतरसंग में ले
जाता है तो वह दःुख पुणय का िल है। वह पुणयिमिशत पुणय है।
िजसका शुद पुणय होता है, वह शुदरध सुख में आता है। िजसका शुदरध पुणरय होता है, उसको

दुःख भी परम सुख के दरवार पर ले जाता है। पुणरय अगर पापिम ि र र त हैतोसुखभीिवकारी
खडरडों में िगरता है और दुःख भी आवेश की गहरी खाइयों में िगराता है।
पुणयातमा सुख से भी िायदा उिाते है और दःुख से भी िायदा उिाते है। पापातमा दःुख से जयादा दःुखी होते है
औ र सुख म े भ ी भ िव ि य क े िल ए बड ा दःु ख ब न ा न क े ी कु च े ष ा करत े ह ै ।
इसिलए परमातमा को पयार करते हएु पुणयातमा होते जाओ। परमातमा केनाते कमव करते हएु पुणयातमा होते जाओ।
परमातमा अपना आपा है, ऐसा जरञान बढ़ाते हुए महातरमा होते जाओ।
वसरतरर गेरूए बनाकर महातरमा होने को मैं नहीं कहता। एक आदमी अपने आपको
िवषय-िवलास या िवकार में, शरीर केसुखो मे खचव रहा है। वह गलत राह पर है। उसका भिविय दःुखद और
अनरधकार होगा। दूसरा आदमी सब कुछ छोड़कर िनजररन जंगल में रहता है, अपने शरीर को
सुखाता है, मन को तपाता है। 'संसार मे खराब है, मायाजाल है.... यह ऐसा है... वह ऐसा है.... इनसे
बचो....' ऐसा करके जो िबलरकुल तरयाग करता है... तयाग... तयाग... तयाग.. जान सिहत तयाग नही बिलक एक
धारा में बहता िला जाता है, वह भी गलत रासरते की यातररा करता है।
बुिदमान तो वह है जो सब मे सब होकर बैिा है उस पर िनगाह िाले , मोह-ममता का तरयाग करे, संकीणवता
का तरयाग करे, अहंकार का तरयाग करे, उदरवेग और आवेश का तरयाग करे, िवषय िवकारों का
तयाग करे। ऐसा तयाग तब िसद होगा, जब आतमजान की िनगाहो से देखोगे, बहजान की िनगाहो से देखोगे।
अनुकररम
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ऐसी कोई बूँद नहीं जो जल से िभनरन हो। ऐसा कोई जीव नहीं जो परमातरमा से िभनरन हो।
ऐसी कोई तरंग नहीं जो िबना पानी के रह सके। ऐसा कोई मनुषरय नहीं जो िैतनरय परमातरमा
के िबना रह सके।

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छुपे हुए तुमरहारे परमातरमा को अननरय भाव से, अननरय योग से पररकट करने के िलए
ततपर हो जाओ। चालू वयवहार मे सावधान हो जाओ िक अजान की पते क ं ह ी ब ढतोनहीरहीहै! अजरञान की पतोररं
को हटाते जाओ..... हटाते जाओ। अनरय अनरय में जो अननरय िदख रहा है उसमें
सजगतापूववक पितिित होते जाओ।

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'जो अननय पेमी भित जन िनरनतर िचनतन करते हएु मुझ परमेशर को िनिकाम भाव से भजते है , उन िनतरय-
िनरनरतर मेरा भावपूणरर ििनरतन करने वाले पुरूषों का योगकरषेम मैं सरवयं वहन करता हूँ।'
(भगवद ग्ीताः9.22)
(पूजय बापू केसतसंग पवचन से )
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अनुकररम

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