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अनुकररम

हम धनवान होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नही इसमे शंका हो सकती है परतं ु भैया ! हम मरेंगे
या नहीं, इसमे कोई शंका है? िवमान
श उड़ने का समय िन ि रि,तहोताहै
बस चलन क े ा ,
स मयिनिितहोताहै
शश
गाड़ी छूटने का समय िन ि र ि त ह ो त ा ह ै परंतुइसजीवनकीगाड़ीछूट
समय है?
आज तक आपने जगत में जो कुछ जाना है, जो कुछ पापत िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और पापत करोगे, पयारे भैया ! वह सब मृतरयु के एक ही झटके में छूट जायेगा, जाना अनजाना हो
जायेगा, पािपत अपािपत मे बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनरतमुररख होकर अपने अिविल आतरमा को, िनजसरवरूप के
अगाध आननरद को, शाशत शाित को पापत कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतमा हो।
जागो.... उठो.... अपने भीतर सोये हुए िन शर ियबल को जगाओ। सवररदे,शसववकाल मे सवोतम
आतरमबल को अिजररत करो। आतरमा में अथाह सामथरयरर है। अपने को दीन-हीन मान बैठे तो
िव शर व में ऐसी कोई सतरता नहीं जो तुमरहें ऊपर उठा सके। अपने आतरमसरवरूप में
पितिित हो गये तो ििलोकी मे ऐसी कोई हसती नही जो तुमहे दबा सके।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती रहती
है। अतः वृितरतयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृितरतयों को एकितररत करके साधना-काल में
आतरमििनरतन में लगाओ और वरयवहार-काल में जो कायरर करते हो उसमें लगाओ।
दतरतिितरत होकर हर कोई कायरर करो। सदा शानरत वृितरत धारण करने का अभरयास करो।
िविारवनरत एवं पररसनरन रहो। जीवमातरर को अपना सरवरूप समझो। सबसे सरनेह रखो। िदल को
वरयापक रखो। आतरमिनषरठ में जगे हुए महापुरुषों के सतरसंग एवं सतरसािहतरय से जीवन को
भिित एव व ं े द ा नतसेपुषएवपंुलिकतकरो।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
.......
नारी नारायणी तभी बन सकती है जब उसका िितरत करषद ु रर िवषय-सुख एव अ -हीन
ं पनीदीन
मनोदशा को छोड़कर ऊधरवररगामी हो जाय। उसकी जीवनशिकरत शरीर के िनमरन केनरदररों में न
बहकर ऊपर उठ जाय और परमातम-िचनतन मे लग जाय। सिदयो से और जनमो से जो िचतवृित नीचे की ओर बहकर
जीवन को सुख की खोज मे भटकाती है, कई योिनयों में जनरम िदलवाती है, अपने िदवरय आननरदमय
सवरप को भुलाकर कता-भोिता केिवषैले चक मे पीसती है वह िचतवृित एकदम कैसे ऊपर उठ सके ? भगवान केभजन
से ऊपर उठती है। जो-जो महान वयिित हएु है वे सब भगवान केजप -तप-धरयान-भजन आिद से हएु है। अतः अपना
जप-तप-िनयम उतरसाहपूवररक करें।
जप-तप-धरयान-भजन मे सहयोगी ऐसे बहिनि, सचचे संत-महातरमा, योगसामथरयरर से संपनरन,
िनलोररभी, परम करणावान महापुरष आज कहा है ? अगर हैं तो पहाड़ों, जगंलो, गुफाओं के एकानरत
का बररहरमानंद छोड़कर समाज में रहते हुए हमें पररापरत हो सकते हैं ?
हाँ, ऐसे ही मसरत बाबा, बहिनि संत, समथव योगीराज अरणय मे अपनी बहानदं की गगनगामी उडान
छोड़कर समाज में जरञान की परयाउ ही नहीं पूरा महासागर लुटा रहे हैं। गुजरात की भूिम
में अहमदाबाद के पास साबरमती नदी के िकनारे पर बसे हुए आशररम में िवराजमान प.पू.
संत शी आसाराम जी बापू केसाििधय मे जाकर , उनके मुखारिवंद से वेदानरत-अमृत का एवं
संपेकण शिित दारा योगसामथयव का पसाद पाकर आज हजारो नर-नािरयाँ सांसािरक भूल-भुलैया मे िँसी हईु अपनी
िचतवृितयो को ऊपर उठाकर हृदय मे आननदसवरप ईशर की झाकी पा रहे है।

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पूजय बापू जी का पावन सदेश


आज भी ऐसे महापुरूष यहाँ हैं......
कौन नारी पृथरवी को पिवतरर करती है ?
सती अनसूया
सती शािणिली
बहवािदनी मैिेयी
लजजाः नारी का भूषण
नारी में शररदरधा-िव शर वास करयों अिधक है?
सिी-पुरष मे पिरचय की मयादा
आदररश माता मदालसा
नारी समरमाननीय
सतीतव का संरकण
रजोदररशन के समय कैसे रहना िािहए ?
गभाररधान संसरकार से उतरतम संतान की पररािपरत
गभाररधान िकसमें ?
रजसरवला अवसरथा में अकरणीय
रज-वीयरर पर िवषयों का पररभाव
रूप का रज-वीयरर पर पररभाव
रस का रज-वीयरर पर पररभाव
सपशव का रज-वीयरर पर पररभाव
शबद का रज-वीयरर पर पररभाव
पुि की पािपत कैसे हो ?
पुंसवन संसकार
मनोवैजरञािनक उपाय
औ ष ध व ै ज ा िन क उपा य
कुछ िनयम
काल िववेक
गिभररणी सरतररी के िलए आहार-िवहार
गिभररणी सरतररी के िलए िनिषदरध बातें
नवजात ि श ु का सरवागत
वैधवरय को िदवरय बनाओ
िपगंला का पिाताप
पुरषो केिवषय मे िसियो की भमजिनत मानयता
िववाह का पररयोजन
माताः नारी का आदररश सरवरूप
नारी सौभागरयकरण मंतरर
नारी सरवातनरतररय
आतरमबल जगाओ
आतरमबल कैसे जगायें ?
सती धमव की शिित
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
?

।।
'िजस सिी का लजजा ही वसि एव ि ं व श ुद, भावहीभू णहो में िजसका पररवेश हो, मधुर
धमररमषागरर
वाणी बोलने का िजसमें गुण हो वह पितसेवा-परायण शेि नारी इस पृथवी को पिवि करती है।'
भगवान शंकर महिषव गगव से कहते है-
'िजस घर मे सववसदगुणसंपिा नारी सुखपूववक िनवास करती है, उस घर में लकरषरमी अव शर य िनवास
करती है। हे वतरस ! कोिट देवता भी उस घर को नहीं छोड़ते।'
लोग घरबार छोडकर साधना करन क े े ि ल ए सा धु,बगृ
नते
हहसरै।थघरमे
धमरररहतेिनभाते
हएु हुए नारी
ऐसी उगरर साधना कर सकती है िक अनरय साधुओं की साधना उसके सामने फीकी पड़ जाती है।
ऐसी देिवयों के पास एक पितवररता-धमरर ही ऐसा अमोघ शसरतरर है, िजसकेसममुख बडे -बडे वीरो के
शसि भी कुिणठत हो जाते है। पितवरता सिी अनायास ही योिगयो केसमान िसिद पापत कर लेती है , इसमे िकंिचत् माि भी
सदेह नही है। सती अनसूया न बेहा, िवषरणु और शंकर, इन तीनो देवो को अपन प े ि त वरत-छः
धमवकेबलसेछः
महीने के दूध पीते बिरिे बना िदये थे। सती शािणरडली ने सूयरर की गित को रोक िदया था।
सती सािविी न अ े प न भ े त ा क ेपाणयमराजसेवापसपापतिकयेथे।
एक जी जनरम में एक पितिनषरठ रहती है वह पितवररता है। सतरय संकलरप से अनरय
जनमो मे भी उसी पित को पापत करती है वह सती है।
यही फासला साधू और संत के बीि में है। साधू की मेहनत जारी है, संत की सब मेहनत
पूरी हो गयी है। जैसे सती मे पित से जयादा सामथयव आ जाता है वैसे संत मे इष से भी जयादा सामथयव आ जाता है।
ऐसे संत कबीर जी कहते हैं-

सती-साधवी नारी अपन प े ा ि त व र तयक -भावना
ेपभावसेको
पापीपु
नषरकर सकती है। रावण के
षोकीपाप
सामाजय मे अकेली सीता माता न अ े प न ा स ं रकणइसीबलपरिकयाथा।
ऐसी पितवररता, साधवी, भित, योिगनी एवं आधरयाितरमकता में जगी हुई बररहरमिनषरठ महान
नािरयाँ इस पृथरवी को पिवतरर करती हैं। देवताओं और मुिनयों का तेज सती िसरतररयों में
सवभावतः ही रहता है।

सितयो की चरण रज से पृथवी ततकाल पिवि हो जाती है।
अनुकररम
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बहिषव कदवम और देवी देवहूित की पुिी अनसूया भारतवषव की एक अिदितय सती साधवी नारी थी। उनकेचिरि मे
सवाभािवक रप से ही सतय, धमरर, शील, सदाचार, िवनय, लजजा, करषमा, सिहषणुता तथा तपसया आिद सदगुण
िवकिसत थे। बररहरमाजी के मानस पुतरर परम तपसरवी महिषरर अितरर को इनरहोंने पितरूप में
पापत िकया था। पितवरता तो वे थी ही। पावन पेमभरी सतत सेवा से पित का हृदय जीत िलया था। तपसया मे खूब आगे
बढ चुकी थी ििर भी पित की सेवा को ही नारी केिलए परम कलयाण का साधन मानती थी।
एक बार भगवती लकरषरमीजी, सती जी और बहाणी जी को अपन प े ा ि त वरतयकाबडाअिभमानआगया।

भगवान और सब सह लेत है िकनतु अपन भ े ि त ो क ा अ ह कं ारहरिगजनहीसहते।भगवान
अहंकार
श जीव को भगवान से दूराितदूर ले जाता है। अहंकार ही तो जीव और िवके बीि
दीवार बनकर खड़ा है।
कौतुकिपररय नारदजी को इन तीनों जगवनरदनीया देिवयों के गवरर को दूर करने के
िनिमतरत मन में पररेरणा िमल गई। पररथम वे पहुँिे लकरषरमी जी के पास। उनको देखकर
लकमी जी न स े म ा च ारपूछातोनारदजीनक े हाः
"माता जी करया बताऊँ ? मेरा जीवन कृताथरर हो गया। िितररकूट की ओर महिषरर अितरर
के आशररम में उनकी पितवररता पतरनी भगवती अनसूया के पावन दररशन करने का अवसर
िमला। संसार में उनके समान पितवररता अनरय कोई भी नहीं है। संसार की सभी सती-साधवी
पितवरताओं मे वे िशरोमिण है।"
यह सुनकर लकरषरमी जी को बुरा लगा। 'यह मेरे घर का बिरिा मेरे ही सामने अनरय
पितवरता सिी को मुझसे उतम बताता है ! यह तो मेरा अपमान है।' बात सपष करन क े ेिलएपू"छनारद
ाः !
करया अनसूया मुझसे भी बढ़कर है ?"
"माता जी ! आप बुरा ना मानना। आप उन देवी अनसूया की िौथाई के बराबर भी नहीं।"
लकमीजी का मुँह िीका पड गया। उनकेमन मे ईषया पैदा हईु। मनोमन िनिय कर िलया िक अनसूया को नीची
िदखाकर रहूँगी।
नारद ने देखा, िनशाना ठीक जगह पर लगा है। उनरहोंने तो कलह का बीज बो िदया था।
ठीक समय पर जोती-गोड़ी उवररर भूिम में बीि जलरदी ही उगकर वृकरष बन जायगा। पररसनरन
होकर अब वे कैलास की ओर िल िदये।
इधर भगवान िवषणु पधारे तो लकमीजी मुँह िुलाकर बैठ गई। भगवान न ब े हत , दुलार िकया तब
ु समझाया
लकमी जी बोलीः "देखो जी, सुन लो मेरी बात। बहत ु िदनो तक मैन आ े पकपर,दबाये
े ै आपकी हाँ में हाँ
िमलाई। आज तक कुछ नहीं माँगा। आज आपको एक बात माननी पड़ेगी। वादा करो।"
िवषरणुः "हाँ, वादा करता हूँ। पटरटा िलख दूँ या गंगा जी में खड़ा होकर कहूँ ?" लकमी जी
खुश हो गई और बोलीः "बस महाराज, िव शर वास है। आपको कुछ भी करके अनसूया देवी का
सतीतव भगं करना होगा।"
भगवान मामला समझ गये। मन मे कहन ल े गेिकः "अरे देिव ! हममें इतनी सामथरयरर कहाँ जो
उस देवी का पाितवररतरय खंिडत कर सकें ?' परनतु पकट मे हस ँ कर बोलेः "बस इतनी-सी बात पर मुँह िुला
िलया था ? हम अभी जाते हैं।" भगवान इतना कहकर अिि केआशम की ओर चल पडे।
उधर नारदजी पहुँिे कैलास। सती जी ने सरवागत करके एक लडरडू िदया। खाते ही
नारद बोलेः "वाह ! लडिू मीठा तो है मगर सती अनसूया केलडिू मे जैसा अमृतमय सवाद है वैसा इसमे नही। "
सती जी न प े ू छ ता छ क ी त ो न "भगवती
ारदजीनदे ेवीअनसू
अनसूययाकीपशं साकरतेहएुबतायािकः
ा भगवान
अितरर की परराणिपररया पतरनी है और िव शर व में सवोररतरतम पितवररता देवी है। आपका
पाितवरतय भी उनकेआगे िीका है। "
यह सुनते ही सती जी दौड़ी-दौड़ी श िवजीके पास पहुँिी। सरतररीििरतरर रिके
भोलेनाथ को सती अनसूया का सतीतव भगं करन क े े ि ल -आशररम की ओर
ए र ाजीकरिलया।भोले बाबाअिि
िल
िदये।
इधर नारदजी बहलोक मे माता बहाणी केपास पहँच ु े। माता न ब े े ट े क ो ब ह त ु समयकेबादआयाहआ
ु देख
उनका िदल िखल उठा। िफर बातिीत के िसलिसले में नारद जी ने बतायाः "माता जी !
मतरयररलोक में एक बड़ी अदभुत बात देखी। करया बताऊँ ? अितररपतरनी अनसूया के पाितवररतरय
का ऐसा पररभाव है िक सब ऋिष-मुिन आकर उनकी सरतुित करते हैं। उनसे बढ़कर संसार में
कोई पितवररता नहीं है।"
बहाणीः "करया मुझसे भी बढ़कर पितवररता है ?"
नारदः "अपनी माँ तो माँ ही है, सववशेि है ही। िकनतु ऋिष मुिन लोग यही बात कर रहे है िक आज
अनसूया से बढ़कर कोई अनरय पितवररता नहीं है।"
बात बन गई। बहाणी न त े ु र न त स भ ा म े स े ब हाजीकोबुलवायाऔरयेनकेनपकर
पाितवरतय-धमरर से िरयुत करने के िलए बररहरमाजी को बाधरय िकया। बररहरमाजी तो समझते थे िक
ू रो केिलए खाई खोदता है उसकेिलए कूआँ खुदा -खुदाया तैयार रहता है। वे अितरर आशररम की ओर
जो दस
चल पडे।
भगवती मंदािकनी केतट पर तीनो देव महामुिन अिि केआशम मे पहँच े पने
ु े। परसपर अिभवादन िकया। सभी न अ
आने का कारण बताया। आपस में सलाह की और तीनों साधू का वेश बनाकर सती अनसूया के
पाितवरतय की परीका करन च े ले।
अितिथरूप में तीन मुिनयों को आते देखकर देवी अनसूया ने उनका सरवागत-सतकार
िकया। अघरयरर, पाद, आिमनीय देकर कनरद, मूल, िलािद भेट िकये। िकनतु मुिनयो न इ े सआितथयका
सवीकार नही िकया। देवी केपूछन प े "आप
र मुिनयोनक े हाःहमें एक विन दें तो आपकी पूजा गररहण
करेंगे।"
अनसूयाः "मुिनयों ! अितिथ का सतरकार परराणों का बिलदान करके भी िकया जाता है।
आप िजस पररकार पररसनरन होंगे, उसी पररकार मैं करने को तैयार हूँ।"
तब मुिनयो न अ े न स "देवी ! आप
ू याकोवचनबददे खकरकहाः
अपने ममररसरथान नगरन करके
हमारा आितथरय सतरकार कीिजए।"
यह सुनकर पितवररता अनसूया हकरकी बकरकी सी रह गई। यह अनुिित पररसरताव करने
वाले तीन मुिन कौन हैं यह देखने के िलए धरयान लगाया तो सब जरञात हो गया। िफर बोलीः
"हे अितिथ देवों ! मैं ऐसे ही होकर आपका सतरकार करूँगी।"
ििर सती न प े ा न ी म ेिनहारते ' हएुसंकलपिकयािकः ,
, -
- । '
ऐसा संकलरप करके वह पानी तीनों मुिनयों पर िछड़क िदया। तीनों के तीनों छः-छः
महीने के दूधपीते बिरिे बनकर पालने में ऊँवाँ ऊँवाँ करने लगे। इतने में महामुिन
अितरर भी आ गये। पूछाः "देवी ! ये देवसरवरूप, परम सुनदर, मनोहर तीनों बिरिे िकस
भागयशाली केहै ?"
अनसूयाः "भगवन् ! ये आपके ही हैं।" मुिन सब रहसरय समझ गये। तीनों देवता बिरिे
बनकर वहा रहन ल े ग े , िपलाती,
।माताअनसू याउनहे
पुच
िखलाती
कारती, पालने मे झुलाती।
उधर तीनों देिवयाँ अपने देवे शर वरों को लापता पाकर िििनरतत हो उठी। अपने
भताओं को ढूढ ँ नक े े ि ल ए घ र से ि न क ल प डी।अकसमातिचिकूटमेइक
पता चला िक यह सब नारदजी की कारसतानी थी। इतन म े 'नारायण... नारायण....' करते उनके
े नारदजीभी
पास पहँचु े और तीनो देवो का हाल बताते हएु कहाः
"माताएँ ! देखो, वहाँ भगवती अनसूया का आशररम है। वहाँ तीनों देव छः-छः महीने
के बिरिे बनकर उनकी गोद में बैठकर सरतनपान कर रहे हैं। अब उनकी आशा छोड़ो। आप
उस आशररम में पैर रखेंगी तो सती अनसूया आपको पल भर में भसरम कर देंगी। उन तीनों
देवों की ििनरता अब छोड़ो। पनरदररह-बीस वषव मे वे बडे होगे तब माता उनका ििर से कही िववाह कर देगी।
अब आप भसरम रमाकर, माला लेकर भजन करो, दूसरा कोई उपाय नहीं है। अनसूया के समान
संसार मे दस ू री कोई सती नही है। अब समझी िक नही ?"
तीनो न प े ि ा तापभरे "अब
सवरमे कहाः ! तू जीता, हम सब हारीं। हमने अपने िकये का
भैया
िल पा िलया। हमन अ े च छ ा स ब -ईषया नही करनी
कस ीखािककभीिकसीगु णवानक ेपितअसूदस
चािहए। यू ा रो से ईषया
करना बड़ा पाप है।"
नारदजी ने कहाः "अब आई िठकाने पर। प शर िाताप से सब पाप धुल जाते हैं। एक
उपाय
श है। तुम जाकर सती िरोमिणअनसूया माता के पैर पकड़ो। तभी कलरयाण होगा।"
तीनो अनसूया केपास गई , पैर पकडे और अपन प े ि तज ै स े प ह लेथेवैसेबनाकरलौटानक े ेिलए
अनसूयाः "तुम कौन हो ?"
तीनोः "हम आपकी पुतररवधू हैं।"
अनसूयाः "अजी ! मेरे बिरिे तो अभी छोटे हैं और इतनी बड़ी लंबतड़ंग बहुएँ
कहाँ से आ गईं ?"
इतन म े े अ ि ि आ य े । त ी नोघू"ँघदेवी ! ये तीनों कौनिननप
टमारकरएकओरहटगई।मु हैंे ूछ?"ाः
अनसूयाः "भगवन् ! ये आपकी पुतररवधुएँ हैं।"
मुिनः "देवी ! तुम कमाल केखेल रचती हो। अभी तो पुि बना िलए और छः महीन क े े न हीहएुिकपुिवधुएँ
भी आ गई ! हाथ भर के बिरिे और पाँि हाथ की बहुएँ !"
अनसूयाः "मेरे बिरिे भी एक िदन बड़े हो जाएँगे।" यह सुनकर मुिन हँसने लगे।
अब तीनों ने सती के पैर पकड़े और अपने-अपने पितयों को वापस पाने के िलए
पाथवना करन ले गी।
अनसूयाः "मैं कब मना करती हूँ ? आपके पित ये सो रहे हैं पालने में। गोदी में
उठाकर ले जाओ।"
तीनो देिवया लिजजत हो गई। वे पिाताप से भर गई। आिखर माता का हृदय पसीज गया। हाथ मे जल लेकर
संकलप िकया और बचचो केऊपर िछडक िदया। तीनो देव अपने -अपने असली सरवरूप में आ गये। अनसूया
ने तीनों देवों की िविध सिहत पूजा और पररदिकरषणा की। पररसनरन होकर देवों ने वरदान
माँगने के िलए कहा।
अनसूयाः "आप यिद मुझ पर पररसनरन हैं तो मैं यही माँगती हूँ िक आप तीनों मेरे
ँ "
पुि हो जाए।
"तथासतु !" ििर तीनो न न े , सती जी तथा बहाणी जी से पूछाः "अब कहो, संसार मे
त मसतकखडीलकमीजी
सबसे बडी सती कौन है ?"
तीनो न ए े "परम पूजया पातः समरणीया भगवती अनसूया देवी सववशेि सती है।"
कसाथकहाः
जो सिी पित को ही परमेशर मानकर अपनी समसत इचछाओं को पित की इचछाओं मे ही िवलीन कर देती है,
एकिनषरठ होकर पाितवररतरय धमरर का पूरा पालन करती है वह इस संसार में सब कुछ करने
में समथरर हो जाती है। िफर पित िाहे कैसा भी हो, इसका महततव नही है। सती नारी मे सामथयव पकट
होता है वह पित के गुणों के कारण नहीं बिलरक अपनी एकिनषरठा के पररभाव से पररकट होता
है।
संकलप की दढ ृ ता केआगे सब संभव होता है। अतः अपन द े ब ु व ल औ र मिलनसंकलपोसेबचे।तुमभीव
नारी हो। तुममें भी वही अथाह शिकरत के बीज छुपे हैं। डरो मत। छोटी-मोटी बातों से
िचिनतत मत हो जाओ। अपन क े त व व य ि क य े ज ा ओ। स ं सारसारासवपहै।सतीक
भी सवप बन जायेगे। पिरिसथितयो से परेशान मत हो। दढ े
ृ ता पूववक ईशर करासते पर कदम रखे है तो चलते चलो। ॐ
शाितः ॐ शाितः ॐ शाितः।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

पितिानपुर मे एक सती थी। उसका नाम तो नमवदा था िकनतु शािणिलय गोि मे पैदा हईु थी इससे शािणिली नाम
से पिसद हईु। वह नारी िया थी, श
देवी थी। उसका पित कौ ि क न ा म कएकपररिसदरधबरराहरमण
पूववजनमो केपापो केकारण कोढी हो गया था। पैसे बहत
ु थे इसिलए बदचलन भी हो गया था।
शािणिली अपन घ े ृ ि ण त र ो ग ग स त प ि त क ीसेवापूरीलगनसेकरतीथ
शासि-विन पर अटल शररदरधा थी िक सब पररकार से सेवा करके पित को सनरतुषरट रखना ही नारी
का परम धमरर है। वह खूब पररेम से पित के नहलाती, कपड़े पहनाती, हाथ से भोजन कराती।
इतना ही नही, उसके थूक, खंखार, मल-मूतरर और रकरत भी सरवयं धोती। मधुर वाणी से पित को
पसन रखती और देवता की भाित उसका पूजन करती।

कौ ि क क ा स र व भ ा व क ररोधीथा।पितसेवापरायणइ
रहता।
श िफर भी सती ने अपना सतीतरव नहीं छोड़ा। कौ ि कसेिला -ििरा नही जाता था। वह एक सुनदर
वे शर या में आसकरत -िचत हो गया था। उसन अ े प नपेतीसे "तूकअपनहाः क े न ध े प रबैठाकरमुझेमेरीपेिमकाव
के घर ले जाया कर।"
सती पर तो जैसे दःुखो को पहाड टूट पडा। मगर शािणिली भी जैसे सहनशीलता का अवतार थी। दःुख को
समझपूववक सहन करे तो भिित बन जाता है, िनंदा करके सहन करे तो पाप बन जाता है और बेसमझी
से सहन करते रहे तो वयथव मे दःुखी ही होना पडता है।
शािणिली न स े त स ं ग के का र ण औ र ,े दुुरसकहर
अपनग ेआयशीवादकेकारणदःुखकोस
कषरटों को अपनी साधना का साधन बना िलया। उसने अपनी सतरसंग की समझ से पररितकूल
पिरिसथित को अनुकूल पिरिसथित मे पलट िदया। लोगो को िदखन म े े आ न व े ा लीउसकीिनबवलताहीसतसंगक
के कारण बाद में जाकर उसका अपूवरर बल िसदरध हो गई।
जो कायव नौकर करता था वह अब शािणिली को करना पडा। वह अपन प े ि त क ोअपनक े नधेपरचढाकर
वे शर या के घर रात को ले जाती और वे शर या के पास छोड़कर सरवयं सुबह नीिे बैठी
इनतजार करती रहती। जब वह सुबह इशारा करता तब वह उसे अपन क े ं ध े प रचढाकरपुनःघरलेआती।
एक ऋिषपुतरर था। योगी महापुरूषों में रहकर आसन-पाणायाम और धयान की कला सीखकर वह
योग साधना करने लगा। वह िनतरय बड़े सबेरे उठता और अपनी योग साधना में लग जाता।
धीरे-धीरे वह लड़का योगी बन गया।
बचपन मे वह बडा चंचल था। एक बार गंगातट पर अपनी नादानी मे वह दवुासा ऋिष का अपमान कर बैठा।
दुवाररसा ऋिष अपनी मौज में िविितरर सा वेश बनाकर भररमण कर रहे थे। लड़के ने नादानी
में मजाक िकया िक, "महाराज, ऐसा नटों का वेश बनाकर करया फाँसी पर िढ़ने जा रहे हैं
?" बस..........। दवुासा तो कोध केअवतार ही कहलाते थे। उनहोन उ े सेशापदे"जा,
िदयाः तुझे िासी पर लटकना
पडेगा।"
वह लड़का जब बड़ा योगी बना तो घूमते-घामते एक गाव मे आया। एक जगह को वह उिचत
समझकर धयान मे बैठ गया। उधर िया हआ ु िक राजमहल मे कुछ चोर चोरी करकेभाग रहे थे और उनकेपीछे राजा के
िसपाही लगे हएु थे। उनकेभय से चोर अपना माल उस धयानसथ योगी केपास छोडकर लापता हो गये। िसपािहयो न य े ोगी
को ही िोर समझकर पकड़ िलया और राजा के सामने उसको दोषी ठहराया। राजा ने उसको
दणरड सुनाया िकः "जाओ, जहा यह पकडा गया है, वहीं पर इसको फाँसी लगा दी जाय।"
इस पकार दवुासा केशाप न अ े प न ा प भ ा व स म य आ नपेरिदखाया।वहयोगीसमझग
पारबध शरीर को भुगतना ही पडेगा।
योगानुयोग यह वही सरथान था जहाँ से वे शर या के यहाँ से अपने पित को कंधे पर
उठाए हुए शािणरडली अपने घर की ओर लौट रही थी। बहुत सँभलकर िल रही थी िफर भी घनघोर
अनरधकार के कारण उसके पित का िसर रासरते में फाँसी लगे हुए योगी से टकरा गया।
योगी के मुँह से िनकल पड़ाः "अरे, यह कौन मरते हुए को कषरट दे रहा है ? िजसन म े ुझेछुआहै
वह भी सूयोररदय होते समय मर जायेगा।"
सती शािणिली न क े हाः"महाराज ! ऐसा शाप मत दो। अनरधेरे के कारण भूल मेरी हुई है,
इनकी नही। इनका सर लटकते हएु आपकेपैरो से टकराया है। मैन ज े ा न ब ू झ करआपकोकषनहीिदयाह
हो तो मुझे दो, इनको ियो शाप दे रहे हो ?"
मगर योगी ने और ििढ़कर कहाः "मेरा शाप िमथरया नहीं जाएगा। इसको कोई िवफल
नहीं कर सकता।
अब शािणरडली का सतीतरव जाग उठा ! वह हँसकर िनदोररष भाव से बोलीः "महाराज ! आप
कभी सतीतरव के पररभाव से अनजान हैं। ठीक है, आप कहते हैं िक सूयोररदय होते ही
मेरे पित मर जाएँगे, तो जाओ, सूयोदय ही नही होगा। ििर कैसे मरेगे ?"
धरयान, सहनशीलता और गुर कृपा से शािणिली केसंकलप मे सतय होन क े ी श ि ि त आगईथी।सथूलजगत
से आधयाितमक जगत बहत ु अिधक शिितशाली होता है। सथूल बुिद मे िवचरन व े ा ल े औ रभोगपधानलोगयहनहीजानत
िक आधरयाितरमक सूकरषरम शिकरतयों से ही सरथूल जगत संिािलत होता है। योगी इस बात को
समझते है। धयान करन स े े म न ु ष य ऐसीशिितयोपरपभुतवजमालेताहै।
शािणिली केदढृ संकलप केकारण तीन िदन हो गये , मगर सूयोररदय नहीं हुआ। भू-लोक, देवलोक
में सवररतरर हाहाकार मि गया। सभी देवता, इनद, बहाजी, िवषरणज ु ी आिद शंकर भगवान के पास
गये और शंकर भगवान उन सबको लेकर शािणरडली की गुरू सती अनसूया के पास पहुँिे।
अनसूया ने सबका सरवागत िकया। देवराज इनरदरर ने उनसे िवनती कीः "देवी ! श आप की िषरया
ने सूयरर को उदय होने से रोक रखा है। अब आप ही उसे समझाएँ, तब यह सृिष का कायव ठीक से
चल सकता है, अनरयथा नहीं।"
महासती अनसूया बोलीं- "यह तो मेरे बस की बात नहीं। िलें, हम सब शािणरडली के
पास जाकर उसे समझान क े ा "
पयासकरते है।
शािणिली न ख े ड े ह ो क र अ प न घ े र आयेहएुअपनगेुरसिहतसभीवयिि
उसके कोढ़ी अपािहज पित को तो अपनी मृतरयु ही नजदीक िदख रही थी। वह तो बहुत घबड़ा रहा
था औरअपनी सती साधरवी पतरनीशािणरडलीसेबार-बार कह रहा था िक तुम मुझे छोडकर कही मत जाना।
मनुषरय को जब अपनी मौत सामने आई िदखती है तब उसे अपने िकये हुए पापों के
िलए पिाताप होता है।
शािणिली का पित अब उसको अपन स े े द र ू क र न ा न ह ीचाहताथा।आजउसेपहलीबार
महानता का बोध हुआ। परनरतु महान बनने तक िकतनी घािटयाँ पार करनी पड़ती हैं, िकतने
कषरट सहन करने पड़ते हैं यह वह करया जाने ?
अनसूया ने कहाः "बेटी ! तू सूयव को छोड दे नही तो यह सब लोक-लोकानतर का सृिषकम असतवयसत हो
जाएगा।"
शािणिली बोलीः "हे माता ! मैं सूयरर को उदय होने दूँ, यह आप सब की बात ठीक है, मगर
उस सूयरर के उदय होते ही मेरे घर का सूयरर सदा के िलए असरत हो जाएगा, मेरा सूयरर डूब
जाएगा।"
अनसूया बोलीः "उसकी तू िफकरर मत कर। मैं तेरे पित को अपने सतीतरव के पररभाव
से एव य ं ो ग ब ल से प ु न ः ि ज न दाकरदँगूी।तूसूयवउदयनहोनक े ाअपनासंकलपलौटाले।
शािणिली न स े ू य व प र स े अ प न ा स ं कलपखीचिलया।सूयोदयहआ ु
सुचार रप से चल पडा। योगी केशाप का पभाव हआ ु और शािणिली का अपािहज पित सूयव की पथम िकरण केसाथ ही
पाणहीन होकर पृथवी िगर पडा।
अनसूया बोलीः "कलरयाणी ! तुम िरना नही। पित की सेवा से मुझे जो सामथयव िमला है उससे मै तुमहारा
कायरर समरपनरन कर देती हूँ।
, , ,

। ,

। "

अनसूया के सतीतरव और योगबल के पररभाव से कौ ि क बरराहरमणकाअनरतवाहक
सूकम शरीर वापस मृतदेह मे आ गया। वह जैसे नीद मे से जागा हो, करवट लेकर उठ खड़ा हुआ। उसे
नवजीवन िमला। उसका कोढ़, कुरूपता और अपािहजता नषरट हो गई। वह पहले से भी अब अिधक
सुनदर देहवाला बन गया था। नतमसतक होकर वह शािणिली से कहन ल े गाः"हे देवी ! मैंने तुमरहें पहिाना
नहीं था। मैंने तुमरहें बहुत कषरट िदये हैं। मुझे माफ कर दो।"
शािणिलीः "नहीं पितदेव ! ऐसा मत कहो। यह सब आपकी एकिनषरठा से की हुई सेवा का
पभाव है।"
धमररपालन में, अपनी िनषरठा बनाये रखने में जो सहन करता है उसमें शिकरत
आती है। हम लोग छोटी-छोटी बातों में उलझकर अशांत हो जाते हैं। अशांत िितरत में
सुख, शाित और सामथयव कहा ? चंचल और अशात हृदय महान् तततव को कैसे धारण कर सकेगा ?
सती शािणिली न प े ि त क ी सेव?ाकरते
पित को कंधो पर िबठाकर वेशया केघर पहँच
हएुिकतनासहा ु ाना पडा ििर
भी अपन प े ि त व र त ध मवसेचयुतनहोनक े ानामनही।
धनरय हैं पृथरवी को पावन करने वाली, समता मे िसथत समतवयोग की मूितवमय ऐसी देिवया !
अनुकररम
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महिषरर याजरञवलरकरय की दो िसरतररयाँ थीं- मैतररेयी और कातरयाियनी। मैतररेयी


जयेि थी और कातयाियनी छोटी। मैिेयी संसार से उपराम और बहतततव की िजजासु थी, जबिक कातयाियनी की बुिद
साधारण सासािरक सिी जैसी थी।
महिषरर याजरञवालरकरय ने अपनी दोनों पितरनयों को एक िदन बुलाया और कहाः "अब
मेरा िविार संनरयास लेने का है। इसिलए अब तुम दोनों को समरपितरत बाँट देना िाहता हूँ,
िजससे बाद मे परसपर िववाद न हो।"
यह सुनकर मैतररेयी ने कहाः "भगवान ! यिद संपूणरर ऐशरवयरर से युकरत सारी पृथरवी भी
मेरे अिधकार में आ जाय तो करया उससे मैं िकसी पररकार अमर हो सकती हूँ ? करया मैं
अमरता को पररापरत हो सकती हूँ ?"
याजरञवलरकरय ने कहाः "नहीं, कदािप नहीं। यह आशा िनरथररक है।"
मैतररेयीः "भगवन् ! िजससे मै अमर नही हो सकती उसे लेकर िया मै िया करँगी ? आप ऐसी कोई
चीज अवशय जानते है िजसकेआगे यह सारा धन और ऐशयव तुचछ है। इसिलए इसको आप छोडकर चले जा रहे हो। मै भी
उसी को जानना िाहती हूँ। । केवल िजस वसरतु को शररीमान अमरता
का साधन जानते हैं, उसी का मुझे उपदेश करें।"
मैतररेयी की यह िजजरञासापूणरर बात सुनकर याजरञवालरकरय को बड़ी पररसनरनता हुई।
पेम भरे सवर मे कहाः "धनरय ! मैतररेयी धनरय ! तुमहारी िजजासा देखकर अतयत ं खुशी होती है। मै तुमहे उपदेश
करता हूँ। उस पर सरवयं िविार करके हृदय में धारण करो, मनन और िनिदधरयासन करो।
पित को पती और पती को पित ियो िपय है ? इस रहसय पर कभी िवचार िकया है ? हे मैतररेयी ! पित को
पती इसिलए िपय नही िक वह पती है, अिपतु इसिलए िपररय है िक वह अपनी आतरमा को संतोष देती है।
उसी तरह पतरनी को पित भी अपने आतरमा को सुख देने के कारण ही िपररय है। इसी नरयाय से
पुि, धन, बाहण, देवता एवं समसरत जगत अपनी िपररयता के कारण िपररय लगता है, अनरय िकसी
से नही। अतः सबसे बढकर िपय वसतु अपनी आतमा है। इसिलए-


मैतररेयी ! तुमहे आतमा का ही दशवन, शवण, मनन और िनिदधरयासन करना िािहए। उसी के
दररशन, शवण, मनन और यथाथरर जरञान से सब कुछ जरञात हो जाता है।"
तदननतर महिषव याजवलिय न िेभि-िभि अनक े युिितयो से मैिेयी को बहजान का उपदेश िदया और कहाः "हे
मैतररेयी ! तुम िनियपूववक समझ लो, यही अमृततरतरव है।" यों कहकर याजरञवलरकरय संनरयासी हो
गये। मैतररेयी यह अमृतमय उपदेश पाकर कृताथरर हो गई। यही यथाथरर जरञान है िजसे
मैतररेयी ने आतरमसात िकया।
इस आतमजान की पयास, अपने आपको जानने की परयास िजस नारी में है वह नारी होते
हुए भी नारायणी है। वह सितयों में शररेषरठ है। सती तो वैकुणरठ जाएगी लेिकन
बहवािदनी नारी अननत बहाणि अपन म े े हीपालेगी।
अनुकररम
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।।
'संतोषहीन बाहण, संतोषी राजा, लजवनती वेशया और लजजाहीन कुलवधू का नाश िनिित है। '
नारी के पास सबसे मूलरयवान संपितरत है उसका सतीतरव। इस सतीतरव की रकरषा ही नारी
की सिरिी रकरषा है। इसीिलए वह बाहरय वरयवहार-पवृितया छोडकर घर की रानी बनी रहती है।
िसियो केिलए िसियोिचत लजजा को छोडकर पुरषो से िनःसंकोच िमलना , उसके साथ खेल-तमाशो मे
जाना, खान-पान तथा नृतय-गीत आिद करना सबसे बढ़कर हािनकर है।
आजकल जो लोग िसरतररयों के उदरधार के िलए, सिी जाित पर सहानूभूित या दया करन क े ेभावसे
उनको घर से खींि कर बाजार में पुरूष के समककरष खड़ा करने में अपना कतरतररवरय
मानते हैं वे लोग या तो अपना भाव शुदरध होने पर भी भररम में हैं, जीवन की गहराइयो का उनहे
पता नही है या जान-बूझकर अपनी वासना को ही दया, सहानूभूित का चोगा पहनाकर नारी जाित केसतयानाश मे संलगन
हैं।
नारी में लजरजा नैसिगररक है। यह दैवी भाव उसमें सरवाभािवक ही रहता है। इसी
से सतीतव और पाितवरतय का पोषण-संरकण होता है। इसिलए लजजा को नारी का भूषण कहा गया है। लजजा का पिरतयाग
करके पुरूष की भाँित सवररतरर िविरने का गौरव नहीं है। यह एक वैजरञािनक रहसरय है िक
िजस नारी पर बहत ु से पुरषो की काम-दृिषरट पड़ती है उसके ििरतरर की िन शर िय हािन होती है।
मनुषरय के मानिसक भावों का िवदरयुत-पवाह उसकेशरीर से िनरनतर बहता है। यह पवाह शबद , सपशव एवं
दृिषरट दरवारा दूसरे के मन एवं शरीर पर असर करता है। सामने भी ऐसा ही सजातीय भाव होता
है तो ये सूकरषरम तरंगों की पिरणित मौका पाकर घोर पतन में अव शर य हो जाती है। यिद
सजातीय भाव नही भी है ििर भी बार-बार दिृष-संपकव से ऐसा भाव बन ही जाता है।
लजजा छोडकर पुरषालयो मे िनःसंकोच घूमने -ििरन स े े पि व ,िपाितवर
करयोंिकतयमेक
इस
ितपहँच
ु तीहै
िसथित मे नारी को हजारो पुरषो की िवकृित , कामुक, दू
शिषत दृिषरट का िकारहोना पड़ता है।



अब बताइये, िदवरयता की मूितरर, लजजाशील नारी को दक ु ानो एव ऑ ं ि ि स ोमेखडीकरनस े ेउनके
पाितवरतय मे िकतनी हािन होती होगी ?
'A woman’s reputation is like a bright and shining (crystal) mirror, even a small breath
can stain it.'
'नारी की कीितरर सरफिटक दपररण के समान है, जो अतयत ं उजजवल एव च ं म क ीलाहोनपेरभीएक
शास से मिलन होन ल ' ।
े गताहै
सर वाटेस
'The least obtrusive the least heavy handed presence of a woman is her most captivating
presence.'
'सबसे अिधक सुगंधवाली सिी वही है िजसकी गंध िकसी को नही िमलती।'
पलैटस
'The flower of feminity blossoms only in the shade.'
'नारी एक ऐसा पुषरप है जो छाया (घर) में ही अपनी सुगंध फैलाता है।'
लेमेिनस
'Flower with the loveliest perfume are delicately attractive'.
'शेि गंधवाला पुषप लजीला और िचताकषवक होता है।'
वडररसथरर
जो चीज िजतनी मूलयवान तथा िपय होती है वह उतनी ही अिधक सावधानी, सममान और संरकण केसाथ रिखी
जाती है। सिी पुरष केिवषय -िवलास की सामगररी नहीं है, बिलक समपूणव गृहसथ धमव मे सहधिमवणी है। िविभि
पुरषो की दिृष िसियो पर न पडे और उसकेिवपरीत िसियो की दिृष पुरषो पर न पडे इसिलए िसियो केिलए बाजारो मे ,
पुरषालयो मे न घूमकर घर मे रहन क े ा ि व ध ा न ह ै।यहातककहागयाहै , िनदररा के समय
िकआहारभी पुरूष
िसियो को न देखे।

'सिी-पुरष एक साथ बैठकर भोजन न करे और सिी भोजन करती हो तो पुरष उसे देखे भी नही।
आजकल सुधार के नाम पर िसरतररयों को साथ लेकर घूमने-ििरन क े ी ए व हंोटलोमेएकही
टेबल पर खाने पीने की पररथा बढ़ रही है। ऐसे सरतररी-पुरषो को ईमानदारी केसाथ अपनी मनोदशा का
अवलोकन करना िािहए और भलीभाँित सोि समझकर सबको ऐसी वरयवसरथा करनी िािहए, िजससे
नारी के भूषण लजरजा की रकरषा हो और उसका पितवररत-धमरर अकरषुणरण बना रहे। इसी से
िसियो केिलए पुरषालयो मे , बाजारो न घूमकर घर मे रहन क े ािवधानहै।
इसका मतलब यह नही िक नारी परमपरा की गुितथयो मे उलझ जाय, कपड़े गहने, बाल बचचो मे मगन हो
जाय, आँख बनरद करके संसार का बोझ ढोने वाली गुिड़या बन जाय। नहीं, नारी को इस
अनरधकार की ओर ले जाने वाली पटिरयों से बिना है। अपने भीतर के खजाने साधना के
पकाश से खोजन ह े ै ।म न ु ष य ज ी व न ि म लाहैतोअपनवेयावहािरककत
की िसिदरध करनी है। उसमें पाितवररतरय आव शर यक है। उसी नींव पर ििरतरर का पूरा भवन
खड़ा है। जो नारी उिरछृंखलता से बिकर अपने गौरव से गौरवािनरवत हो जाती है, अपनी
वासरतिवक मिहमा से मिहमामयी हो जाती है उससे यह पृथरवी भी पावन हो जाती है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
?
सूयव सथावर जगंम जगत की आतमा है। सूयव और चनद दोनो मायािविशष बह केनि े है। इनकेदारा ही जड और
चेतन जगत को जीवन िमलता है। सिी अपन प े ा ि थ व व त त त व दाराइसजीवनकोपापतकरतीहैऔरप
अमृ
श ततरतरव दरवारा। सूयरर की लगभग एक हजार र ि रम, याँहैं
िजनकेगुण और पभाव पृथक पृथक है।
पुरष का तततव सूयव की पहली दस
ू री िकरण को अिधक आकिषवत करता है और सिी का तततव सूयव की तीसरी
िकरण को खींिता है। सूयरर की तीसरी िकरण में तमोगुण की अिधकता है। िसरतररयों के
पािथवव केनद मे भी तमोगुण केअंश अिधक है ियोिक वे माया की अिधिािी शिित है। तमोगुण का अिधिान होन क े ा
कारण तथा तमोगुण का आकषररण करने के कारण िसरतररयों में शररदरधा-िव शर वास की अिधकता
होती है। या तो सतरतरवगुण में शररदरधा-िव शर वास की मातररा अिधक होती है करयोंिक सतरतरवगुणी
जीव जानानुपूवी होते है, अथवा तमोगुणी जीवों में शररदरधा-िव शर वास की पररधानता होती है , करयोंिक
तमोगुण मे शंका-समाधान केिलए अवकाश नही रहता। िसियो मे तमोगुण की मािा अिधक होन क े े -
कारणउनमे शदा
िव शर वास की भावना पररबल होती है। इसिलए पुरूष की अपेकरषा िसरतररयों को बहकाना या
िुसलाना अिधक सरल माना जाता है। इसी शदा -िव शर वास की भावनाओं के बल पर गोिपयाँ एवं मीरा
की पररेम-साधना न च े र म आध य ा ि त म क उ त क षवसाधाहैतोदस ू रीओरनारीकोइ
दुरािािरयों ने, भोिगयो ने, साहबो न न े ा र ी क ो प थ भ षकरकेअपनीनारकीयवासनाओंकीत
बनाया है। भोली भाली नािरया कुपािो केपित असावधानी केकारण अपना सववसव खो बैठती है। अतः भारतीय शासिकारो
ने नारी की िनरनरतर रकरषा करने का परामररश िदया है। जब कनरया हो तब िपता दरवारा वह
रकरषणीय है। नािरयों को उिित है िक वे अपनी इस पररकृितदतरत शररदरधा-िव शर वास रूपी
संपित को दरुाचारी, पाखणिी, धूतोररं से बिाये। नौकरी, ऑििस मे पमोशन केपलोभन मे आकर काम -िवकार
की िकारन बने। अपने शररदरधा -िव शर वास को सिरिे आधरयाितरमक करषेतरर में लगाकर
अपने जीवन को धनरयधनरय, कृतकृतरय बनायें।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
-
वरयावहािरक करषेतरर में सरतररी पुरूष के बीि संपकरर केवल आव शर यकता के मुतािबक
ही होना िािहए। साधारण सरतर पर सरतररी के िलए पुरूष के शरीर को और पुरूष के िलए सरतररी
के शरीर को सरपररश करना िबलरकुल जोखम है। िवजातीय सरपररश हमेशा िवकार की संभावना
बनी रहती है।
सिी-पुरष को आपस मे सममान रखना आवशयक है ियोिक वयावहािरक और सामािजक जीवन परसपर पेम से भरे
सहयोग पर ही िनभवर है। परनतु पित-पती केसमबनध केिसवा शारीिरक एव ब -पुरष भकाीसिी
ं ौ ि द करपसे पिरचय
िबलकुल ही िनिषद है। ििर भी जब अपन य े ा द स ू र े क े प ा ण ो कीआपितकापसंगखडाह
छूकर परराणों की रकरषा की जानी िािहए। िहनरदू शासरतरर ऐसे संकट के पररसंग के िसवाय
सिी-पुरष केिमलन को िनतानत मिलन एव द ं ोषपूणवकहताहै।

।।

।।
'नारी घृत के घड़े के समान है और पुरष ू जलती हुई आग के समान है इसिलए
बुिदमान पुरष जैसे आग बढ जान क े े भ य स े भ ी , वैसे ही नारी और पुरूष को
औ रआगकोएकसाथनहीरखते
साथ नही रहना चािहए। यहा तक िक मा, बिहन और पुिो केसाथ भी एकानत मे न बैठे। इिनदया बडी बलवती है। वे िवदान
को भी खींि लेती हैं।'
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मदालसा देवी कहतीः "एक बार जो मेरे उदर से गुजरा वह यिद दूसरी सरतररी के उदर
में जाय, मुकरत न होकर दूसरा जनरम ले तो मेरे गभररधारण को िधकरकार है।"
अपने पुतररों को जब पालने में सुलाती थीं तब उनको आधरयाितरमक जरञान की
लोिरया सुनाती थी। जैसेः

।।
'हे पुतरर ! तू शुद है, बुद है, िनरंजन है, संसार की माया से रिहत है। यह संसार सवप माि है। उठ,
जाग, मोहिनदररा का तरयाग कर। तू सििरिदानंद आतरमा है।'
इस आयव मिहला ने, आदररश माता ने अपने सभी पुतररों को आतरमजरञान से संपनरन बनाकर
संसारसागर से पार कर िदया।
मिहला बनो तो ऐसी बनो। बिरिों को आतरमजरञान की लोिरयाँ दो। घर में भी
आतरमजरञान की ििारर करो। सुख-दुःख आये तो आतरमजरञान की िनगाहों से िनहारो। इस संसार
से कभी पभािवत मत हो। अपन प े र मा त .....! ॐ.....!!
माकीमसतीमे मसतरहो।ॐ
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

( )
भारतीय समाज मे नारी एक िविशष एव ग ं ौ र व प ू ण व सथानकोउपलबधहै।आयवपुरषन
अधाररंिगनी माना है। वरयवहार में पुरूष-मयाररदा से नारी-मयाररदा सदा ही ऊँिी है।

।।
'िजस कुल मे िसियो का आदर है वहा देवता पसन रहते है और जहा ऐसा नही है वहा सब िकयाए ि ँ न षिलहोती
हैं।'
सृिष केआरभ ं मे ही परमातमा न अ े प न के ो द ो रप ो म े िवभितिकया।आधेिहससेस
नारी। दिकरषण भाग से पुरूष बने और वाम भाग से पररकृित।
सभी शासि, वेद, पुराण, समृित संसकृित भी सिी को पुरष की अधािगनी मानते है। गृहसथ केघर मे सिी को
लकमी समझते है। िजस घर मे सिी न हो उसे जगंल केसमान माना जाता है। घर को घर नही कहते। जहा गृिहणी रहती
है, वही घर कहलाता है।
िजस घर मे नारी का सममान नही होता, उसके अिधकारों की सुरकरषा नहीं होती वह घर लकरषरमी
से शूनय हो जाता है। िजस घर मे दःुिखत सिी अिभषाप देती है , उस घर का धन, पशु और सतान सभी नष हो जाते है।
इसीिलए शािनत चाहन व े ा ल े -भूषकणउतसवमे
ल ोगोकोहरे आिद सेभनारी
ोजन का सममान करना चािहए।
नारी सदा रकरषण करने योगरय है, सदा अवधया है। िकसी भी वगव की नारी, चाहे कैसी भी हो , उसे
मारना पाप कहा गया। जो दुःख में पड़ी एक नारी की रकरषा करती है, वह मानों अनेक पापों

का परराय ि र ि त क रकेपुणरयकासंियकरताहै।
एक बड़ा भारी डाकू था। उसने अपने जीवन में बहुत से कुकमरर िकये थे। सतरतर
वरयिकरतयों की हतरया की थी। एक िदन उसे अपने घृिणत कृतरयों पर संताप हुआ। अपने पापों
के शोधनाथरर वह िकसी संत पुरूष की शश रण में गया और उनसे परराय ि र ितकरानेकोकहा।
संत शी न उ े स े ए क क ा ल ा , 'सवय त
झ णिािदयाऔरतीथव ं यािाकरनभ
ी थोंे मेजेसनानकरके
िदया।कहािक
झणरडे को भी कराना। जब झणरडा सफेद होवे तब समझना िक परराय
श ि र , पाप धु
ितपू रल ाहुगये
आहै
हैं।'
डाकू झणरडे के साथ सब तीथोररं में सरनान कर िुका परनरतु वह झणरडा सफेद न हुआ।
वरयाकुल हो उसने गुरद ू ेव के दररशन करने के िलए लौटा। रासरते में एक जंगल आया।
भीतर जान क े े ब ा द उ स े , जैसे कोई िहरनी शेर केन
एकसिीकीकरणआवाजसु पजं े मे िँस गई हो। दस िाकू उस
ाईदी
अबला पर बलातरकार करना िाहते थे। उसे देखते ही इस डाकू को दया आई। उसने सोिा िक
इस सिी को बचान क े े ह े त ु स तर क े स ा ? एक ँअबला
थदसहतयाएऔ रभीहोजायतोियािकव
बिाने का पडेगा
पुणय तो होगा ही। उसन स े ो च ा ि क इ स सि ी क ो ब चा न क े ेहेतुसतरकेसाथदसहतया
पडेगा ? एक अबला बिाने का का पुणरय तो होगा ही। उसने अपनी तलवार से दसों का मसरतक
काट कर सरतररी को मुकरत िकया। उसी समय उसका काला झणरडा सफेद हो गया। वह खुश होता हुआ
गुरू के िरणों में पहुँिा।
गुरू ने पूछाः "िकस तीथरर में यह झणरडा सफेद हुआ ?"
डाकूः "गुरूदेव ! आपकी कृपा से असरसीतीथरर में यह सफेद हुआ।"
गुरूः "असरसीतीथरर करया है ?"
डाकूः "सतर हतयाओं केसाथ जब और दस िमलकर अससी हतयाए ह ँ ई ु त बयहझणिासि " इतना ेदहआ ु ।
कहकर उसने सारी घटना गुरूजी को सुना दी।
गुरूः "तून ज े ो ए क ि न ः स ह ा य अ ब ल ा स ि ी क ीरकाकेिलएहतयाएक ँ ीवहप
औ र उसस े त े र े पु र ा न प े ा प ो काभ" ी न ाशहआ ु ।
साराश यह िक सिी रका करन य े ोगयहै।
नारी अबला नहीं, सबला भी है। नारी माि भोगया नही, पुरष को भी िशका देन य े ो गयचिरिबरतसकती
है। सरतररी अपने माता, िपता, पित, सास और शसुर की भी उदारक हो सकती है, अगर वह अपने ििरतरर
औ र स ाध न ा म े दढ ृ एव उ ं त सा ह ी ब न ज ा ए त ो।
सती सािविी ऐसी ही एक नारी हो गई िजसन अ े पन त े प ो -िपता,
बलक यमराजसेरअपनमेाता
ेपभावसेसास-शसु
एवं पित के साथ अपने िलए भी वरदान माँगकर सबको उनरनत बनाया।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

रजोदररशन पररकृित का एक महान संकेत है। इसके तीन साल के बाद सरतररी गभरर धारण
के योगरय हो जाती है। इसी कारण ऋतुकाल में िसरतररयों की काम-वासना बलवती हुआ करती
है। यह वासना उसे बलातरकार से पुरूष-दररशन करवाती है। इस समय यिद पित के दरवारा
अनरतःकरण सुरिकरषत नहीं होता तो उसके िितरत पर अनेकों पुरूषों की छाया पड़ती है, िजससे
उसका आदररश सतीतरव नषरट हो जाता है। ऋतुमती सरतररी के िितरत की िसरथित ठीक फोटो के
कैमरे की सी होती है। ऋतुसरनान करके वह िजस पुरूष को मन से देखती है, उसकी मूितरर
िचत पर आ जाती है।
आदररश सती वही है जो पित के िसवा िकसी को पुरूष रूप में देखती ही नहीं। यिद
देखती है तो िपता, भाता या पुि केरप मे। परनतु ऐसी देखन व े ा ल ी भ ी म धयमशेणीकीपितवरतामानीगईह
गोसरवामी तुलसीदास जी कहते हैं-
। ।।
- । ।।
कनरया जब यौवनासरथा में पररवेश कर रही हो तब उसके माता-िपता का पिवि कतववय हो जाता
है िक उसके ये अित संवेदनशील एवं नाजुक काल में उसके िितरत का संरकरषण होता रहे
ऐसा वातावरण बनायें। सतरसािहतरय के पठन, मनन एवं संतजनों के दररशन-सतसंग से कायव
सवाभािवक ढंग से उतम पकार से संपि हो जाता है।
11 साल केबाद बचची का जीवन सािततवक सरल होना चािहए। सती साधवी नािरयो केजीवन की कथाए उ ँ से
पढनी चािहए। लडको केसाथ जयादा संपकव न रहे। ियोिक सिी इस काल से ही पुरषो से आकिषवत होन ल े गतीहै।
िकसी से भी आकिषररत होने से शिकरत िबखर जाती है। आदरयशिकरत के रूप में होते
हुए भी जब शिकरत का करषय कर बैठती है तब 'अबला' होकर ठोकरें खाती है। ऋिषयों ने
जगदबंा केरप मे बाला की पूजा की है। िचत मे जब अनजान प े ु र ष ो क ोिबठाले 'अबला' (बलहीन)
तीहैतोवहीबाला
हो जाती है।
पुरषो केिलए सिी का िचत िजतना -िजतना िबखरता है उतना-उतना बल नषरट हो जाता है। अतः
माता-िपता का पथम कतववय है िक अपनी िनदोष कुमािरकाओं , बिचचयो को भषता की ओर ले जान व े ालेिसनम -नाटक
े ा
आिद के वातावरण से युिकरतपूवररक बिायें, अनजाने लड़कों से, वरयिकरतयों से सुरिकरषत
रखें। ऐसी सहेिलयों से बिाते रहें जो खुद 'अबला' हो िुकी हों, पुरषो केगहरे िचि िचत मे ले
ं से ही िमलन स े
चुकी हो। ऐसी सुरका पारभ े स ि ीमे, पूसणतीतवपनपताहै
वरप मे पगटता है। वह चिरिवान, सुशील बन
कर पिरवार, समाज, देख एवं पूरी पृथरवी को पावन करती है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ 5
?
सिी शरीर मे जो मिलनता होती है वह पित मास रससाव केदारा िनकल जाती है और वह सिी पिवि हो जाती है।
शासिो मे कहा गया है िक रजसवला सिी को तीन िदन तक िकसी का सपशव नही करना चािहए। उसे सबसे अलग, िकसी
की नजर न पड़े ऐसे सरथान में बैठना िािहए। िौथे िदन सरनान करके पिवतरर होने के
समय तक िकसी को अपना मुँह न िदखाना चािहए, न अपना शबरद सुनाना िािहए।
रजसरवला होने के समय िजतना इिनरदररय-संयम, हलरका भोजन तथा िवलािसत का अभाव
होगा उतनी ही सरतररीशोिणत की शिकरत कम होगी। रजसरवला सरतररी को तीन िदन तक केवल एक
बार भोजन करना चािहए, जमीन पर सोना, संयत रहना चािहए। घी-दूध का सेवन नहीं करना िािहए, गहने
इतयािद नही पहनन च े ा ि ह ए औ र अ ि ग न क ो सपशवनहीकरनाचािहए।चतुथविदनव
देखा गया है िक घर में पापड़ बनते हों और रजसरवला सरतररी उनको देख ले तो
पापड लाल हो जाते है। कुछ लोग इसको वहम मानते है परनतु यह वैजािनक सतय है।
अमिरका के पररो. शीक न य े ह पम ा ि णत ि क य ा ह ैिकरजसवलानारीकेशरीरमेऐ
है िक वह िजस बगीिे में िली जाती है उस बगीिे के फूल-पते आिद सूख जाते है, पौधे मर जाते है,
िल सड जाते है। यहा तक िक वृको मे कीडे तक भी पड जाते है।
खांड के एक कारखाने में रजसरवला सरतररी को पररवेश कराया गया। बाद में
िनरीकरषण िकया गया तो मालूम पड़ा िक खांड घिटया हो गई थी।
अतः रजसरवला सरतररी के दररशन से दूर रहना उसके और अपने सरवासरथरय के िलए
अतरयंत िहतकर है। जहाँ दररशन और सरपररश िनिषदरध है वहाँ उसके हाथ के बनाये हुए
भोजन खान क े ी त ो बातहीकहारही ?
रजोदररशन के िदनों में सरतररी को कुछ िनयमों का पालन करना आव शर यक होता है।
ऐसा कोई काम नहीं करना िािहए िजससे उदर (पेट) को अिधक िहलाना पड़े
या उस पर दबाव पड़े। जल का घड़ा उठाना, देर तक उकड़ू बैठना, दौड़ भाग करना, जोर से
हँसना या रोना, झगड़ा करना जरयादा घूमना-ििरना, गाना-बजाना, शोक, दुःख या कामभाव बढ़ाने
वाले दृ शर य देखना या ऐसी कामुक पुसरतकें पढ़ना , ये सब हािनकारक हैं।
उदर और कमर को ठणरडा लगे ऐसा काम नहीं करना िािहए। कमर तक जल में डूबकर
सनान नही करना चािहए। मसतक मे गमी मालूम पडे तो ठणिा तेल लगाना और भीगे अंगोछे से शरीर को पोछना हािनकर
नहीं है।
रजोदररशन के समय का रकरत एक पररकार का िवष है। इस िवष के संसगरर में आई हुई
चीजो को भी िवष केसमान ही समझकर तयाग देना चािहए।
जब तक रितसाव होता हो तब तक पित का संग तो भूलकर भी न करना चािहए। इन िदनो मे पित का दशवन भी
िनिषदरध बतलाया गया है।
ये िनयम साधारण से हैं पर इनका पालन करने वाली सरतररी सरवसरथ और सुखी रहती
है। इनका पालन न करने वाली सरतररी को िन शर िय ही बीमार एवं दुःखी होना पड़ता है। ऐसी
सिी न केवल खुद केिलए बिलक पूरे पिरवार केिलए नकव का िनमाण करती है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

शासिो मे गभाधान संसकार की जो िविध बताई है उसका पायः लोप हो जान क े े क ा रणहीआजकुलकलंकतथा
देश-िवदेश में आतंक पैदा करने वाली सनरतानों की उतरपितरत हो रही है। अतः गभाररधान
संसकार एक महततवपूणव संसकार है। सिी-पुरष केशरीर और मन की सवसथता , पिविता, आननरद तथा
शासिानुकूल ितिथ , वार, समय आिद केसंयोग से ही शेि संतान की पािपत हो सकती है। िोटो लेन क े ेसमयजैसा
िचि होता है वैसा ही िोटो मे आता है। उसी पकार गभाधान केसमय दमपित का जैसा तन -मन होता है वैसे ही
तन और मनवाली संतान होती है।
मनुषरय का पररधान लकरषरय है भगवतरपररािपरत। अतः उसी लकरषरय को धरयान में रखकर
जीवन केसारे कायव करन च े , गभरर गररहशणय की योगरयता, तदपुयोगी मन और सवासथय,
ा िहए।गभाधानकाउदे
तदपुयोगी काल, इन सब बातो को सोच-समझकर िववािहत पित-पती का समागम होन स े े उ त म संतानकीपािपतहोतीहै।
'गभाररधान संसरकार के िबना ही प -शपकी ु सतानोतपित कर रहे है ििर इस संसकार की िया
आव शर यकता है?' – ऐस परर शर न हो सकता है। इसका उतरतर यह है िक पररायः प, पकी शु आिद सभी
पािणयो मे गभाधान का कायव पकृित केपूणव िनयनिण मे होता है। पशु कभी भी अयोगय काल मे गभाधान नही करते। वह
गभररवती के साथ समागम नहीं करता। िकनरतु मनुषरय अयोगरय काल में तथा गभररवती के साथ
भी समागम करता है।
मनुषरय सवाररिधक बुिदरधमान परराणी है। वह परराकृत पदाथोररं तथा िनयमों में अपनी
बुिद से और कुछ संशोधन करकेअिधक लाभ उठा सकता है। इसिलए गभाधानािद संसकारो की आवशयकता िसद हो
जाती है।
समृित मे कहा है िक गभाधान संसकार से बीज (वीयरर) औ र ग भ ा श य स म ब न ध ी द ो ष का म ा जव न ह ो त ा
है और करषेतरर का संसरकार होता है। यही गभाररधान संसरकार का फल है। गभाररधान करते
समय सिी-पुरष िजस भाव से भािवत होते है उसका पभाव उनकेरज -वीयरर में पड़ता है। उस रज-वीयरर से
जनय संतान मे वे भाव पकट होते है। ऐसी दशा मे केवल कामवासना से पेिरत होकर मैथुन करन प े र उतपिसतानभी
कामुक ही होती है। अतः इस कामवासना को िनयंतररण में रखकर शासरतररमयाररदानुसार केवल
सतानोतपित केिलए ही मैथुन कायव मे पवृत होते है वह मैथुन भगवान की ही िवभूित है। गीता मे कहा हैः
। (गीताः 7.11)
'अमुक शुभ मुहूतरर में अमुक शुभ मनरतरर से परराथररना करके गभाररधान करें।' इस िवधान
से कामुकता का दमन तथा शुभ भावना से भािवत मन का समपादन हो जाता है। ियोिक शुभ मुहत ू व तक पतीका करना
कामुकता का दमन िकये िबना हो ही नहीं सकता। देवों से परराथररना करते समय मन अव शर य
शुद भावनामय होगा। सिी की अनुमित केिबना बलातकार करना भी कामुकता का समपादन कर देता है। इसकेअितिरित
असरवसरथता या मानिसक िखनरनता के कारण यिद सरतररी सहमत नहीं हो रही हो, ऐसी दशा में
यिद गभाररधान िकया जाएगा तो जननी की असरवसरथता तथा िखनरनता का पररभाव जनरय बालक के
शरीर और मन पर अवशय पडेगा।
गभररधान से पहले पिवतरर होकर िदरवजाित को इस मंतरर से परराथररना करनी िािहएः

।।
'हे अमावसरया देवी ! हे सरसरवती देवी ! आप सरतररी को गभरर धारण करने का
सामथयव देवे और उसे पुष करे। कमलो की माला से सुशोिभत दोनो अिशनीकुमार तेरे गभव को पुष करे। "
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
?
माता की पाँि तथा िपता की सात पीिढ़यों को छोड़कर असगोतररा अपनी जाित की कनरया
के साथ िववाह करके उसी में शासरतररमयाररदानुसार गभाररधान करना िािहए। अनरयतरर कहीं
भी गभाधान करन स े े व ण व स ं क र स त ा न उत प ि होतीहैजोअपनस े माजका
करके परलोक में भी दुःख देने वाले होती है।
माता की पाँि तथा िपता की सात पीिढ़यों तक रकरत की अित समान जातीयता होती है।
अित समान जातीय पदाथोररं को परसरपर िमलाने से िवकास नहीं होता। जैसे, पानी मे पानी या
दूध में दूध िमलाने से कुछ भी नया िवकास नहीं होता। यही कारण है िक अपनी ,
-
। वे अनािदकाल से जरयों के तरयों िले आ रहे हैं।
अित िवजातीय पदाथोररं को परसरपर िमलाने से िवनाश या िवकृत िवकास होता है।
ू मे नीबु का रस िालन स े
जैसे दध े द ध ू ि ट जा त ा ह ै ।घोडेसेगधीमेगभाधानकराकरउत
बलवान होन प े र भ ी स व व श ं स ं च ा लक न हीहोता।कलमीआमअिधक
अिधक िहतकर नहीं होता तथा कलमी आम के बीज से कलमी आम पैदा नहीं होता।
िकंिित समान जातीय को समान जातीय के साथ िमलाने पर िवकास होता है। जैसे
दूध में दही का तोड़ िमला देने से मकरखन-जनक, सवासथय पदायक सवािदष दही बन जाता है।
इसी पदाथव िमशण िवजान केआधार पर ऋिषयो न अ े ि त सम ा न ज ाितवालेहोनक े ेकारणमाताकीपाच
िपता की सात पीिढयो को छोड अपनी जाित की कनया केसाथ ही िववाह करकेगभाधान करन क े ा ि व धानिकयाहैतथा
अित िवजातीय अनरय वणरर की कनरया के साथ िववाह करने का तथा उसमें गभाररधान करने का
िनषेध िकया है।
अनुकररम

रजसरवला सरतररी यिद िदन में सोये और कदािित उसे उसी ऋतुकाल में गभरर रह जाय
तो भावी िशशु अित सोनवेाला उतपि होगा। काजल लगान स े ेअनधा, रोने से िवकृत दृिषरट, सनान और अनुलेपन
से शरीर पीडावाला, तेल लगान स े ेकुि,ी नख काटने से कुनखी, दौड़ने से िंिल, हँसने के
काले दाँत, काले ओषरठ तथा िवकृत िजहरवा और तालुवाला, बहत ु बोलन स े ेबकवादी, बहत े े
ु सुनन स
बहरा, कंघी से बाल खींिने पर गंजा, अिधक वायु-सेवन से तथा पिरशम करन स े े प ागलपुिउतपिहोता
है। इसिलए रजसरवला सरतररी इन कायोररं को न करे। इन शासरतररीय िनयमों का पालन न करने
से ही अिनिचछत सताने होती है। अतः इिचछत व तेजसवी सतान चाहन व े ा ल ो क ो गभाधानसंसकारकेिनयमोकाप
अव शर य करना िािहए।
अनुकररम

हम कणरर, नेतरर, नािसका, िजहा और तवचा, इन पाच जानिेनदयो केदारा शबद , सपशव, रूप, रस और
गंध ये पाँि िवषय गररहण करते हैं। उन सबका पररभाव हमारे मन पर पड़कर रकरत आिद
दरवारा रज एवं वीयरर तक पहुँि जाता है। जैसा रज-वीयरर होता है वैसी संतानें उतरपनरन
होती हैं। अतः उतरतम संतान के इिरछुकों को अपने रजवीयरर की साितरतरवकता के िलये,
उसकी सुरकरषा के िलए अपने सरथूल एवं सूकरषरम आहार की ओर िवशेष धरयान देना आव शर यक
है।
अनुकररम
-
मनुषरय नेतरर दरवारा िजस पररकार का साितरतरवक, राजस या तामस भाव का वधररक रूप
आँखों से देखता है उसका पररथम पररभाव नेतररों में, बाद मे मन पर पडकर रित आिद दार वीयव तक
ु जाता है। जैसे कामवधवक रगं -िबरगं युित चमकीली, भडकीली पोशाक युित सिी-पुरषो केरपो को , इन साधनो से
पहँच
संपि आिलंगन, चुमबन, मैथुन आिदवाले िलिितररों को तथा पोसरटरों को देखकर मन में राजस
कामभाव का उदय होकर रकरत-मनरथन पूवररक वीयरर उतरतेिजत हो जाता है। ऐसा पररभाव युवकों
तथा रप मे पडता है। इसका पबल पमाण यह है िक उित पकार केरपो को जो छोटे बालक देखते रहते है , यदरयिप
उस समय तो कुछ भी पररगट मािसक धमरर का पररादुभाररव समय से कुछ पूवरर ही हो जाता है
िजससे वे बालक िचिो मे देखी आिलंगन, चुमबन, मैथुन आिद िकररयाओं में पररवृतरत हो जाते हैं। इसी
पकार तामस िहसं ा आिद केिचिो को देखकर भी उनका पभाव पथम मन मे तथा अंत मे वीयव तक पडता है। अतः अपने
को तथा बालकों को साितरतरवक बनाने के िलए साितरतरवक रूपों को ही देखना िािहए।
अनुकररम
-
चबाकर, चूसकर तथा पीकर िजन पदाथों का रसना इिनदय से गहण करते है उसका पभाव रित और मास मे
औ र अ न त म े व ी यव प र पड त ा ह ै , इसमे तो िकसी तरह का िववाद ही नही है। यही कारण है िक वीयव की
िनबररलता के कारण िजनको सनरतान नहीं होती उनरहें डॉकरटर तथा वैदरय दोनों ही वीयरर को
बलवान बनान व े ा ल ेरसािदकपदाथविखलातेहै।
एक बार पटना की अदालत में एक मुकदरदमा आया। सरतररी कहती थी िक यह मेरे पित का
पुि है। वे गभाधान करन क े े ए क म ह ी न ब े ा द म र ग ये।अतःसमपितकाअिधका
थेिक इसेहमारेभाई सेगभररनहींरहा, यह सरतररी बदिलन है अतः समरपितरत के अिधकारी हम हैं। इस
पर सिी न क े ह ा ि क बह त ु ि द न ो त क सत ा न न होनपेरिॉिटरोनअ े मुकजा
था । मैंनेउनरहेंबहुत िदनोंतक उस मछली का मांसिखलाया था । परीकरषणकराकेदेखाजाय , इस िशशु केशरीर मे उस
मछली के परमाणु अव शर य िनकलेंगे। नरयायाधीश ने परीकरषण कराया , िशशु मे उस मछली केपरमाणु
िमले, अतः ि ुशको उनरहीं का पुतरर है ऐसा कहकर उसी को समरपितरत का अिधकारी घोिषत
िकया।
इससे यह सपष होता है िक हम रसना इिनदय से जो गहण करते है उसका गहरा पभाव रज-वीयरर पर और
उसके दरवारा होने वाली सनरतान में पड़ता है।
अनुकररम
-
युवकों तथा युवितयों के दरवारा परसरपर एक दूसरे का सरपररश करने पर िकतना जलरदी
वीयरर उतरतेिजत हो जाता है इसे सरपषरट करने की आव शर यकता नहीं। सरपररश का पररभाव
बालको पर भी अपकट रप मे पडता है इसे ही यहा सपष करना आवशयक है।
कुछ दुषरट लोग अबोध बालकों के गुपरतांगों को बार-बार सपशव करते है, अपने गुपरतांगों
का सरपररश करवाते हैं, कामुक रीित में िुमरबन और आिलंगन करते करवाते हैं। इन सब
सपशों का पभाव अबोध बालको पर पडता है। इसका यही पबल पमाण है िक बालको मे वीयव एव म ं ा िसकधमवकापादभ
ु ाव
समय से कुछ पूवव ही हो जाता है , िजससे उनकी पवृित गुपत अंगो केसपशव करन औ े र कर ा न मेेहोजातीहै।अतःअपने
को तथा अपने बालकों को इन दूिषत सरपशोररं से बिाकर माता, िपता तथा गुरजनो केचरणसपशव रप
सािततवक सपशव मे ही लगना और लगाना चािहए।
अनुकररम
-
आज के वैजरञािनक युग में टररांिजसरटर, रेिडयो तथा लाउडसरपीकरों के 95 पितशत
कामोतरतेजक, गनरदे, अ शर लील गीतों के शबरद दू-रदूर एकानरत सरथानों तक अित सरपषरट धरविन
में पररसािरत होते रहते हैं। शररवण की इिरछा न होने पर भी वे शबरद बलातर कानों में
पिवष होकर एकानतवासी सािततवक साधको केपथम मन मे कामुकता का संचार करकेबाद मे वीयव को भी उतिजत कर
देते हैं। ऐसी दशा में ये शबरद शहर में रहने वाले अनरय सहायक सामगररी से समरपनरन
कामभाव वाले लोगों के मनों का मंथन करके वीयरर को उतरतिजत कर देते हों, इसमे कोई
सदेह नही। इतना ही नही, अबोध बालकों पर भी इन शबरदों का पररभाव पड़ता है। पूवरर की तरह
इसमे भी यही पबल पभाव है िक इन कामुक गीतो को सुन-सुनकर कुछ भी भाव समझे िबना गाते रहन व े ा लेबालकोमेवीयव
तथा मािसक धमव का पादभु ाव समय से कुछ पूवव ही हो जाता है , िजससे वे उन शबदो केअशलील भावो को भी समय से पूवव
ही समझने लग जाते हैं। इतना ही नहीं, पूववकिथत दष ु ो केदारा िसखाये गये दिूषत सपशों , िसनमेा,
टेलीिवजन और पोसरटरों में पररद
श ि र र -वधररककरूप
तकामु मदर
ोंएवंकाम
यािद रसों के पान
औ र उनकी ग न ध व प र फ यू म , सेनट आिद केसेवन से पूणव कामकला -पवीण हो जाते है। अतः इन सभी से अपन क े ो
तथा बालको को बचाकर सािततवक गीतो-भजनो का ही शवण करना और कराना चािहए।
अनुकररम
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?
लौिकक दिृष से देखे तो वृदावसथा मे सभी को सेवा की आवशयकता होती है। उसकेिलए पुि होना आवशयक
समझा जाता है। अलौिकक कारण से देखा जाय तो ऐसा शासरतरर
विन है। 'पुं' नामके नरक से रकरषा पररापरत करने की दृिषरट से आिसरतक जन पुतरर की इिरछा
करते हैं। अनेकों कनरयाएँ होने पर भी यिद पुतरर न हो तो गृहसरथ को संतोष नहीं होता। वह
पुि-पािपत केिलए नाना लौिकक उपाय करता है एव दंेवी -देवताओं की मनौतीरूप अलौिकक उपाय भी करता
है।
पित-पती केसमागम से पुि ही उतपि हो ऐसा कोई उपाय है ? हाँ, अव शर य है। शासरतररकारों ने
बडे वैजािनक ढंग से अपनी इचछानुसार पुि या पुिी की पािपत हो इसकेिलए उपाय बताये है।
सिी केमािसक धमव या ऋतु केपहले िदन से सोलहवे िदन तक ऋतुकाल माना गया है। मनु महाराज के
कथनानुसार ऋतुकाल की पररथम िार राितररयाँ, गरयारहवीं और तेरहवीं राितरर सरतररी समागम
के िलए अित िनिनरदत है। सरतररी के ऋतुकाल की 6, 8, 10, 12, 16 वी युगरम राितररयों में
गभाररधान करने से पुतरर की उतरपितरत होती है और 5, 7, 9, 11, 13, 15 वीं अयुगरम राितररयों
में गभरर रहने पर पुतररी की उतरपितरत होती है। अतः पुतरर की आकांकरषा वाले गृहसरथ को युगरम
राितररयों में सरतररीगमन करना िािहए।
पुरष का बीज अिधक होन प े र प ु ि औ र स ि ी क ा ब ीजअिधकहोनपेरपुिीकीउतपितहोत
पाकृितक िनयम केअनुसार पायः 5-7 अयुगरम राितररयों में सरतररी का बीज अिधक और पररबल होता है
औ र 8-10 युगरम राितररयों में उसका बीज कम और दुबररल रहता है। उसकी अपेकरषा पुरूष का
बीज अिधक और पबल होता है। इसिलए युगम रािियो मे पुि और अयुगम रािियो मे पुिी की उतपित होती है।
िकनरतु यहाँ धरयान रहे िक यिद िवशेष खान-पान आिद कारणो से सिी बीज पबल हो जाय तो युगम
राितररयों में भी पुतररी ही उतरपनरन होगी, पुि नही। ियोिक पुि या पुिी की उतपित मे कमशः पुरष-बीज और
सिी-बीज की अिधकता या अिधक सामथयुवितता की ही पधानता है, युगरम राितररयाँ उसमें हेतु होने से
उनमें परंपरा से ही कारणता होती है, साकात् कारणता तो सिी और पुरष केबीज की पबलता या अिधकता
में ही है। इसिलए

जो सिी चाहती है िक मेरे पित केसमान गुण वाला या धुव जैसा भित , अिभमनरयु जैसा वीर, कणरर
जैसा दानी, अषरटावकरर या जनक जैसा आतरमजरञानी पुतरर हो तो उसको िािहए िक ऋतुकाल में
चौथे िदन सनान आिद से पिवि होकर अपन आ े द श व र प उ नमहापु , मन ही ेिमन
रषोक चिोकादशव
पूणरर नकरे
सािततवक भाव से उनही का िचनतन करे तथा उसी भाव मे भािवत रहकर योगय रािि मे अपन प े ि त सेगभाधानकरावे।
पित भी उनही भावो से युित रहे। ऐसा करन स े े ज ै स े प ु ि क ी इ च छाहोगीवैसाहीपुिउतपि
का िितरत कैमरे के िितररगरराही पदेरर की तरह होता है, उस पर उस समय जैसी छाप पड़
जाती है वैसी ही सतान उतपि होती है। धनवनतिर भगवान न स े पषकहाहैः
"ऋतुसरनान के बाद सरतररी जैसे पुरूथ का दररशन करती है वैसा ही पुतरर उतरपनरन होता
है। अतः शररेषरठ पुतरर का ही दररशन करायें।"
अनेकों बार पररयोग करके यह देखा गया है िक ऋतुमती घोड़ी की आँखों के
सामन ि े ज स र ग ं क ा प द ा ल ग ा क र घ ोडेसेगभाधानकरायागयाहैवैसेहीरगंकाबचचाप
सतान मे वे गुण सथायी बन र े ह े इसक े ि ल ए ग भव कालमेभीबराबरनौमहीनत े कउन
िचनतन तथा उनकी कथा का शवण करते रहना चािहए। सतान उतपि होन क े े बादभीमाता , िपता तथा िशकको दारा िशशु
को उनरहीं आदशश ोररं के अनुकूल आिरण और िकरषणपररापरत होना िािहए।
अनुकररम

शरीर िवजान केअनुसार सिी -पुरष िवभेदक िलंग, योिन आिद अंग का बनना तीसरे या िौथे मास
े ा
के बाद ही पररारंभ होता है, इससे पहले गभव मास का िपणिमाि ही होता है। इसिलए जब गभव दो-तीन महीन क
होता है तभी पुंसवन संसरकार करने का िवधान िकया गया है। पुरूष के ही अंग बने, उसके
िलए इस संसकार मे मनोिवजान और औषिध-िवजरञान इन दो पररकार के उपायों को कायरर में लाया गया
है।
अनुकररम

यह सभी जानते हैं िक जो जैसी पररबल भावना करता है उसके बाहरय तथा आनरतर
अंगों पर उसका पररभाव अव शर य पड़ता है। भावपररधान होने के कारण िसरतररयों पर भावना
का पररभाव अिधक होता है। यिद इस भावना, को कोई ऐसा आधार पररापरत हो जाय िजसकी
पमाणता पर उसे पूरा िवशास हो तब तो ततकाल ही िल देखन क े ो िमलजाताहै।
एक भावुक सजरजन को यह वहम हो गया िक मुझे करषय का रोग हो गया है। एक डॉकरटर को
िदखाया, उसने रूपया ठगने की दृिषरट से उसकी पुषरटी कर दी। इसका पिरणाम यह हुआ िक उनके
मन में हर समय करषय रोग के ििनरतन का ऐसा गहरा पररभाव पड़ा िक उनरहें करषय रोग सिमुि
में ही हो गया।
इस मनोिवजान केआधार पर पामािणक वेदमनिो केअलौिकक पभाव पर परम शदा रखन क े े कारणजबवेदमनिो
दरवारा पुंसवन संसरकार कर िदया जाता है तब भावपररधान सरतररी के मन में पुतरर भाव का
पवाह पवािहत हो जाता है, िजसकेपभाव से गभव केमास -िपि ं मे पुरष अंग उतपि होते है।
सिी केउदर मे जब तीन मास का गभव हो तब नीचे िदया हआ ु वेदमनि लगातार नौ िदन तक
पातःकाल मे या रािि को सोते समय नौ बार पढकर सुनाया जाय तथा गभववती सिी सवय बंार-बार दढ ृ िनिय करे िक मुझे
पुि ही होगा, तो उस शदावान सिी को पुि ही होता है।

।।
(सा. वे. मं. बा. 1.4.9)
अिगरन देवता है पुरूष है, देवराज इनरदरर भी पुरूष है तथा देवताओं का गुरू
बृहसपित भी पुरष है, तुझे भी पुरषयुित पुि ही उतपि हो।
अनुकररम
वट का अंकुर वररण का रोपण करने वाला तथा सिनरधकारक होने से गभरर-मांसिपणरड
में योिनरूप वररण के बनने में बाधक होता है। अतः अनरय िीजों के साथ वट के अंकुर को
पीसकर पुंसवन संसकार मे गभववती को िदया जाता है। बल वीयववधवक सोमलता का भी िवधान है िकनतु सोमलता अब
िमलती नहीं।
बीज िनकालकर मनका दाक और काली दाक 25-25 गरराम, दो आँवला, तीन चार काली िमचव
वट के 10-12 अंकुर लेकर अिरछी तरह पीसकर उसमें गरराम गाजर का रस िमलाकर गभररवती
सिी को िदया जाय।
अनुकररम

गभररकाल में िनमरन विणररत िनयमों का पालन करने से िन शर िय ही उतरतम सनरतान की


पािपत होती है।
पािणयो की िहस ं ा न करे, िकसी को शाप न दे, झूठ न बोले, कररोध न करे, दुषरटजनों के साथ
बातचीत न करे।
नख और रोम छेदन न करे, अपिवतरर और अ शु भ वसरतु का सरपररश न करे।
जल मे गोता लगाकर सनान न करे। िबना धोया कपडा और िनमालया माला धारण न करे।
जूठा, चीिटयो का खाया हआ ु , आिमषयुकरत, शूद केदारा लाया हआ
ु और ऋतुमती सिी की नजर मे पडा हआ

भोजन न करे।
भोजन करकेहाथ धोये िबना , केश बाँधे िबना, वाणी का संयम िकये िबना, वसरतररों से
अंगों को ढके िबना और संधरया के समय घर से बाहर िविरण न करे।
पैर धोये िबना, गीले पैर रखकर एवं उतरतर या प ि शर ि म ि द ाकीओरिसरकरकेन
सोवे। नगंी होकर, िकसी दूसरे के साथ तथा संधरया काल में भी न सोवे।
पातः काल भोजन से पहले धोये हएु कपडे पहन कर, पिवि होकर पितिदन गौ, बाहण, भगवान नारायण और
भगवती लकमी देवी का पूजन करे। माला, चनदन, भोजन-सामगी आिद केदारा पित का पूजन करे एव प ं ू जाकेबादअपने
उदर में पित का धरयान करे।
अनुकररम

शासिो केअनुसार अषमी , एकादशी, चतुदवशी, पूिणवमा, अमावसरया, सकाित, इषजयत ं ी आिद पवों मे संसार
वरयवहार करना िनिषदरध है। ऋतुकाल की सोलह राितररयों में से िौदह िनिषदरध राितररयों का
तयाग करकेकेवल दो रािि मे संसार -वरयवहार करने वाले गृहसरथ के बररहरमियरर की हािन नहीं होती।
भोग की संखया िजतनी कम होगी उतनी ही रजवीयव की िनरोगता, पिविता और शिितमता बढेगी। भोगसुख
अिधक पररापरत होगा। होने वाली संतान भी सरवसरथ, पुष, धमररशील, मेधावी तथा उतरतम
चिरिवाली होगी।
शाद केिदनो मे मैथुन करना बडा पाप माना गया है। इन िदनो मे मैथुन करन व े ा ल ो कोएवउ ं नकेिपतरोको
परलोक मे वीयवपान करना पडता है और उनका पतन होता है। पदोषकाल मे मैथुन करन स े ेआिध-वरयािध-उपािध आ
घेर लेते है। िदन मे गभाधान करना सववथा िनिषद है। िदन केगभाधान से उतपि सतान दरुाचारी और अधम होती है।
संधया की राकसी वेला मे राकस तथा भूत, पेत, िपशाचािद िवचरण करते रहते है। िदित केगभव से िहरणयकिशपु जैसे
महादानव इसीिलए उतरपनरन हुए थे िक िदित ने आगररहपूवररक अपने सरवामी महातरमा
क शर यपजी के दरवारा संधरयाकाल में गभाररधान करवाया था।
(12 3)

गभाररधान के समय शुदरध साितरतरवक िविार होने िािहए। गभाररधान के समय रज-वीयरर
के िमशररण काल में माता-िपता केमन मे जैसे भाव होते है वे ही भाव पूवव कमव केिल का समनवय करते हएु गभवसथ
बालक मे पकट होते है।
जैसी धािमवक, शूर, तेजसवी सतान चािहए वैसा ही भाव रखना चािहए। ऋतुसनान केपिात सिी पहले पहल
िजसको देखती है उसी का संसकार उसकेिचत पर पड जाता है और वैसी ही सतान बनती है।
गभररवती सरतररी को गभररकाल में बहुत सावधानी के साथ सदिविार, सतसंग, सतसािहतय का
अधरययन और शुभ दृ शर यों को देखना िािहए। गभररकाल में पररहरलाद की माता कयाधू देविषरर
नारदजी के आशररम में रहकर िनतरय हिरििारर सुनती, इससे उनकेपुि पहाद महान भित हएु। सुभदा के
गभरर में ही अिभमनरयु ने अपने िपता अजुररन के साथ माता की बातिीत में ही िकररवरयूह
भेदन करन क े ी क लासीखलीथी।
अतः तेजसरवी, मेधावी, सुशील, बुिदमान, िववेकी, भित, वीर, उदार संतान पररापरत करने
के िलए शासरतरर के आदेशानुसार संसार-वरयवहार होना िािहए। शासरतरराजरञा की अवहेलना
करके अपनी िवषय वासना की अनरधता में अयोगरय देश, काल और रीित से संसारवरयवहार
करने से बीमार, तेजोहीन, चंचल, करषुदरर सरवभाववाले, झगड़ालू, अशांत, उपदररवी बिरिे पैदा
होते हैं। कैसे जीव को अपने यहाँ आमंितररत करना है यह माता-िपता को सोचना चािहए।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
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गभाररवसरथा में माता के आहार-िवहार का, शारीिरक और मानिसक िसथित का गहरा पभाव उदरसथ
संतान केतन -मन और सरवासरथरय पर पड़ता है। माता जो खाती है उसके सार से एक अंश
सतनदगुध बनता है और दसू रा अंश रित केरप मे पिरणत होकर गभव का पोषण करता है। इसिलए माता यिद सुपथय का
सेवन करती है तो बालक सहज ही हृष पुष होता है। पसव भी ठीक समय पर सुखपूववक होता है।
गिभररणी को रूििकारक, िसनगध, हलरका, अिधक िहसरसा मधुर और अिगरनदीपक
(सोठ, पीपल, काली िमिरर, अजवायन आिद) दररवरयों के संयोग से बना हुआ भोजन करना िािहए।
मधुर पदाथोररं में दूध, घी, मकरखन, चावल, जौ, गेहूँ, मूँग आिद अनरन, खीरा, नािरयल, पपीता,
कसेरू, केला आिद फल, िकशिमश, खजूर आिद मेवा और लौकी, कुमरहड़ा आिद साग समझने
चािहए।
गिभररणी का कोठा साफ रहे, पेशाब सरलता से होता रहे इस ओर िवशेष धयान रखना आवशयक है।
गिभररणी को भारी भोजन, अिधक मसाले, लाल िमचव और जयादा गमव चीजे नही खानी चािहए। रखी,
बासी और सडी चीजे िबलकुल नही खानी चािहए। गभावसथा मे चाय बहतु हािनकारक है।
गिभररणी को पहले िदन से सदा पररफुिलरलत, पिवि साि-सिेद वसि से िवभूिषत ,
मंगल कायोररं में िनरत तथा देवपूजन और भिकरत में रहना िािहए।

? सतसंग-शवण और धयान-भजन का बहत ु अचछा पभाव


उदरसरथ बालक के िितरत पर पड़ता है। गिभररणी को भकरतों, महापुरूषों, संतो और शूरवीरो केजीवन
चिरि तथा शीहिर कथा आिद सुनना चािहए।
गिभररणी को जरयादा मोटा कपड़ा नहीं पहनना िािहए। वसरतरर िुसरत नहीं बिलरक कुछ
ढ ी ल े र ह े । कपड े , शरीर, िबछौना इतयािद सवचछ, पिवि रहे। कुछ देर तक शुद हवा मे टहलना लाभदायक है।
शरीर ठीक हो तो रोज एक बार नहाना जरर चािहए परनतु पानी अिधवक गमव या अिधक ठंिा न हो।
घर मे भगवान व साधु-महातरमा के िितरर रखने िािहए।
काम, कररोध, िहंसा, शोक, मोह, लोभ, चोरी, दमरभ, असतरय, भय आिद से बचकर कमा, अिहंसा,
बहचयव, शािनत, आननरद, िववेक, सतोष, आसरतेय, िनषरकपटता, सतय, अभय आिद दैवी गुणों की
भावना सववदा करनी चािहए।
वरयिभिार संबंधी बातें कहने-सुनन औ े र स म र ण र खन े ेसदाबचकरसतीिसियोक

शवण, मनन करना िािहए।
जहा तक हो सकेवहा तक महाभारत केशािनतपवव , गीता जी, शीमद भागवत केतीसरे और गयारहवे सकनध ,
तुलसीकृत रामायण और भितमाल आिद की चुनी हईु कथाए स ँ ु , मनन करना िािहए।
ननाऔरउनकािचनतन
गंदी पुसरतकें कभी मत पढ़ो।
भगविाम का जप सदा करना चािहए।
दीनों पर दया का भाव सदा ही हृदय में जागररत रखना िािहए।
इतन ज े ो र स े न ब ो लो ि क ि ज स स े त ु महारेशबदघरसेबाहरतकस
मत होओ। िखड़की या झरोखों से बाहर की तरफ मत झाँको।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

मैथुन िबलरकुल नहीं करना। टटरटी पेशाब की हाजत नहीं रोकना। बहुत तेज िलने
वाले वाहन पर नहीं िढ़ना। कूद-िाद या दौड-भाग न करना। बोझ न उठाना। पिरशम करना, परत ं ु पिरशम से
शरीर को थका न देना। िदन मे सोना नही, रात में जगना नहीं। मन िखनरन हो ऐसा कायरर नहीं करना।
इसकेउपरानत , सदा िचत होकर सोना, बहत ु जोरो से हस
ँ ना उकडू बैठना, अकेले कहीं जाना या
सोना, कररोध, शोक, भय आिद करना, मैले, िवकलांग या िवकृत आकृित की वरयिकरतयों का सरपररश
करना, दुगररनरध सूंघना, वीभतरस पदाथरर या दृ शर य देखना , जनशूनय घर मे रहना, अिधक तेल मसाला
या हलरदी-उबटन आिद से शरीर मलना, लाल वसि पहनना और िकसी सिी केपसव केसमय उसकेपास रहना –
ये सब बातें भी गिभररणी सरतररी के िलए हािनकारक हैं।
यिद कोई बहन मन लगाकर इन िनयमों को पाले तो ई शर वर कृपा से वह पररहरलाद, धररुव,
नारद, हिर शर िनर, दबुरर
द, सीता, सािविी सरीखी संतान की जननी होकर अपना और जगत का बडा भारी कलयाण कर
सकती है। पृथवी भी उससे पावन होती है।
अनुकररम
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िशशु जनमते समय पसूित करान व े ा ल ी द ा ई ब ा ल क क ी न ालजलदीसेकाटदेतीहै।


शरीर को जोडती है। इसी नाल दारा बचचा माता केशरीर मे से सब पोषण पापत करता है। यह नाल सहसा ही काट िालने
से बालक केपाण भय से आकात हो जाते है। उसकेिचत पर भय केसंसकार गहरे हो जाते है। ििर समसत जीवन भयातुर
रहकर वरयतीत करता है।
पुरान ि े व च ा र ो की द -संपि मनोिवजान-
ाइयातोठीकपरनतु आजकेआ सुधु
िशिकत
िनकवैज
िॉिटर
ािनकसाधन
भी यही नादानी करते जा रहे है। बालक केजनमते ही तुरनत उसकी नाल काट देते है।
बालक का जनम होन क े े थ ो ड ी द े र ब ा द य ह न ालअपनआ े पसूखजातीहै।िजसप
नाखून काटने से कषरट नहीं होता उसी पररकार ऐसी सूखी हुई नाल काटने से बालक के परराणों
में करषोभ नहीं होता और वह सुख के साँस लेता हुआ अपने लौिकक जीवन का आरमरभ कर
सकता है।
बालक केजनमोपरानत पथम बार दध ू िपलान स े े प ू व व (अथाररतर घी अिधक
म धुऔरघीिवषणपमाणमे ल े कर
हो, मधु कम हो अथवा मधु अिधक हो, घी कम) िमशररण तैयार करें। िफर पहले से बनाई हुई
सोन क े ी स ल ा ई क ो उ स ि म श ण म े ि ु ब ोकरउससेनवजातिशशुकीजीभ
उिरिारण बड़ी ही मधुरता से करें।
इससे बालक पजावान, मेधावी, तेजसवी और ओजसवी होता है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

िवधवा का जनरम दुःखमय होता है। दुःख का कारण है हमारे अपने ही कमरर। यिद हमें
सुख चािहए तो संयमपूणव होकर ऐसे सतकमव करे िक पिरणाम मे सुख हो।
सिी िवधवा ियो होती है ? इसका कारण है िक सिी केपूववजनम का दरुाचार। यिद िवधवा सिी यहा भी पुनः भष
होकर िवषय-सेवन मे लगेगी तो उसका भावी और अनधकारपूणव एव द ं ःुखीहोगा।
सकनदपुराण मे आया हैः


।।
'जो नारी अपन प े ि त,कोतयागकरमन
विन, शरीर तथा कमव से जार का सेवन करती है, दूसरे पुरूष के
पास जाती है वह नारी उस कमव केिलसवरप जनमानतर मे िवधवा होती है। '
पुरष भी यिद ऐसे पापो मे उतरता है तो दस ू रे जनम मे सिी होकर िवधवा होता है। सकनदपुराण मे भगवान शंकर
भगवती पाववती से कहते है-


।।
'हे देवे शर वरी ! जो पुरष अपनी िनदोष तथा कुलीन पती को छोडकर परसिी मे आसित होता है या दस ू री
सिी को पती बनाता है वह जनमानतर मे सिी योिन मे जनम लेकर िवधवा होता है।'
इस पकार िवधवापन का दभ ु ागय पूववजनम केपापकमों केिलसवरप ही िमलता है। यह दभ ु ागय पुनिवववाह या
िवषय-सेवन से नही िमटता बिलक शुभकमव, तपसया एव भ ं गव द भ ् जनसेहीिमटताहै।सकनदपुराणानत
गुरूगीता (आशश ररम दरवारा पररका ि त अतरय)ंतउपयोगीपु
में
श भगवानसरतक िवने कहा हैः
"यह गुरूगीता िनतरय सौभागरय पररदान करने वाली है। सधवा िसरतररयों का वैधवरय
टालने वाली एवं सौभागरय की वृिदरध करने वाली है। कोई िवधवा िनषरकाम भाव से इस गुरूगीता
का पाठ करेगी तो मोकरष को पररापरत कर लेगी। यिद वह कामना सिहत पाठ करेगी तो दूसरे
जनम मे उसे सवव सताप हरन व े ा "
लासौभागयपापतहोगा।
िवधवाओं का धमरर बड़ा ही किठन है, िकनरतु वह है परम पिवतरर। िजस पररकार
आशररमधमरर में संनरयास सबका पूजरय है, उसी पररकार सरतररीधमरर में भी िवधवाधमरर
सववपूजय है। िहनद ज ू ा ि त क ी व े आ द र ण ी यिवधवाएज
ँ ोभोगिवलासक
चरणो मे िचत लगाती हईु अपन द े ः ु खम य ज ी , अपने अदभु
वनकोपिविताक ेसाथसु
त खमयबनाकरिबतातीहै
तयाग से जो िहनद ज ू ा ि त , वे िवधवाएँ
कामसतकऊ ँचाकरतीहै
यिद पूजरय न हों तो दूसरा कौन हो सकता
है ? आजकल कहीं-कहीं िवधवाधमरर-पालन मे जो िवपरीत भाव देखा जाता है, उसका कारण धािमररक
िशका का अभाव, मूखररतावश िवधवाओं के पररित असदर वरयवहार और अिधकांश में पुरष ू जाित की

नींव वृितरतयाँ हैं। यिद िवधवाओं को धािमररक िकरषािमली हुई हो उनके साथ उतरतम वरयवहार
हो और पुरूष जात अपनी नीि वृितरतयों का दमन कर लें तो िवधवाधमरर िफर िहनरदू जाित के
गौरव का कारण बन सकता है।
िवधवा को समझना िािहए िक परम करूणामय परमातरमा ने हमको िवषयों से हटाकर
भगवद् -भजन करन क े ा, आतरमजरञान पाने का एक उतरतम अवसर िदया है। िवधवाजीवन घृिणत और
दुःखमय नहीं है, बिलक पिवि दैवी जीवन है। भोगासित जीवन का अनत होकर दःुख की आतयािनतक िनवृित और
परमाननद की पािपत करान व े ा ल े आ ध य ा , िवषयसेवन में डू।बभोगासितिसियोको
ितमकजीवनकापारमभहोताहै ी
हुई िसरतररयों को, पता नही िकतन ज े न म ो क े ब ा द स ा ध नाकासुअवसरिमलसकेगा।
गया। ऐसा समझकर परमातरमा को हृदयपूवररक धनरयवाद देकर उनके भजन में लग जाना
चािहए। ऐसे पिवि भाव बनाकर जीवन को ऊधववगामी बनान क े ी इ च छ ु क स िीकोयिदकोईबहिनिस
दररशन, सतसंग िमल जाय तो वह अपनी आधयाितमक यािा इतनी तीवर गित से तय करती है िक सैकडो सधवाए उ ँ सके
चरण छू कर अपना भागय बनान क े ो उतसुकहोतीहै।
सुख या दःुख वासतव मे कोई घटना या पिरिसथित मे नही होता परनतु उस घटना या पिरिसथित को अनुकूल या
पितकूल मानन क े ी भ ा व न ा , िवषय
मेहोताहै। एकसंनयासीघरबारछोडकर
से िवरकरत होकर सुख की अनुभूित
करता है। परनरतु िकसी वरयिकरत को जबरदसरती घर िनकाल िदया जाय तो िवषयसुख के अभाव
में वह दुःख का अनुभव करता है। दोनों की िवषय सुखरिहता की बाहरी िसरथित एक सी है िकनरतु
को सुख होता है और दूसरों को दुःख। अनुकूलता और पररितकूलता की भावना ही सुमागररगामी
बनानी है। िवषय रिहत जीवन परम गौरव की वसतु है ऐसा समझकर भगवतपािपत केसाधन मे मगन हो जाना चािहए।
परमातमा से तार जुड जायगा तो सवतः सुख का अनुभव होगा और समाज मे भी आदरणीय सथान िमलेगा।
सािततवक भोजन, मन-वाणी का संयम और सदािारी जीवन, भगवद भ ् जन, हिरकथा, तयाग,
वैरागरय, सचचे बहिनि सतो का दशवन एव उ ं , पाितवर
नकासतसं तय की मिहमा बतान व े ालेएवआ
गशवण ं धयाितमक
गररनरथों का पठनििनरतन, ईशर की पूजा, उपासना इतरयािद से िवधवा का जीवन साधनामय हो
जायगा। इससे यहा तो शािनत िमलेगी ही और यिद साकातकारी महातमा पुरष का कृपापसाद िमल गया और आतमजान हो
गया तो अनरत मुिकरत भी िमल जाएगी।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

"हाय हाय ! मैं इिनरदररयों के आधीन हो गई। भला, मेरे मोह का िवसरतार तो देखो ?
मैं इन दुषरट पुरूषों से, िजनका कोई अिसततव ही नही है, िवषय सुख की लालसा करती हूँ। िकतने
दुःख की बात है ! मैं सिमुि मूखरर हूँ। देखो तो सही, मेरे िनकट से िनकट, हृदय में ही
मेरे सिरिे सरवामी भगवान िवराजमान हैं। वे वासरतिवक पररेम, सुख और परमाथव का सचचा धन
भी देन व े ा ले ह ै । ज ग तकेपुरषअिनतयहैऔरभगवानिनतयहै।
हाय हाय ! मेंने उनको छोड़ िदया और इन तुिरछ मनुषरयों का सेवन िकया, जो मेरी एक
भी कामना पूरी नही कर सकते। कामना-पूितव की बात तो अलग रही, वे उलरटे दुःख, भय, आिध-वरयािध, शोक
औ र म ो ह ह ी द े त े ह ै । य ह म े र ी मू खव त ा की हद ह ै िक म ै उनका स े व न करत ी हू । ँ बड े
खेद की बात है, मैंने अतरयंत िननरदनीय आजीिवका वे शर यावृितरत का आशररय िलया और
वरयथरर में अपने शरीर और मन को करलेश िदया, पीडा पहँच ु ाई। मे र ा यह शरीर िबक गया है। लमपट, लोभी
औ र िन न द न ी य म नु ष य ो न इ े स े ख र ी द ि ल य ा ह ै । म ै इत न ी मू ख ा हू ँ िक
औ र र ित सुख च ा हत ी हू । ँ मु झ े िधक ा र ह ै ।
यह शरीर एक घर है। इसमें हिडरडयों के टेढ़े ितरछे बाँस और खंभे लगे हुए
हैं। िाम, रोएँ और नाखूनों से यह छाया गया है। इसमें नौ दरवाजे हैं, िजनसे मैल िनकलते
ही रहते है। इसमें सिञरित समरपितरत के नाम पर केवल मल और मूतरर हं। मैं कैसी मूखरर
हूँ िक सरथूल शरीर को िपररय समझकर इसका भोग करती हूँ ?
इन शरीरो केसेवन से बल , तेज, तदंरसती, आयुषरय का हररास होता है। दुलररभ मनुषरयजनरम का
िवनाश करना अतरयंत मूखररता है, महामूखररता है। हाय हाय ! मुझको और मुझ जैसी िवषय
लमपट िसियो को िधकार है !"
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

समाज मे माि िवधायक सहयोग ही देखन म े े न ह ी आ ता । क ई पसंगोमेपुरषोनिेसियोकीबेइ


उनकी दीनता एवं िनःसहायता का अनुिित लाभ उठाकर अपना करषद ु रर उलरलू ठीक करके अपने
जीवन को भी नीचता की गतव मे िाला है। यह हीन कायव समाज केकुद मानिसक सतर केलोगो का अपनी वासना की तृिपत
हेतु िकया हुआ सरतररी जाित पर एक अतरयािार है। यह अित िननरदनीय है। परंतु ऐसे पररसंगों
को सुनकर या देखकर कोई सरतररी समाज के पुरूष वगरर के पररित घृणा का भाव अपने मन में
गररंिथत कर दे यह उसके िलए िहतकारी नहीं है। सरतररी के साथ दुवरयररवहार के िकसरसे में
केवल पुरूष की करषुदरर वृितरत ही नहीं अिपतु सरतररी के मन की दुबररलता एवं उसका अपुरूषाथरर,
कई घटनाओं में उसका अपना दुषरििरतरर भी शािमल रहता है।
सिी को चािहए िक वह अपन आ े प मे ह म े श ा सचेतवसचचिरिवालीरहकरअ
संबध
ं मे िहतिचंतक एव ई ं श र प र ा य ण जी व न वयतीतकरे।कईिसियापुरष
औ र व ै स ा ह ी प च ा र स म ा ज म े कर न ल े ग त ी ह ै । इसकाकार णपुर षो क े िव
खराब अनुभव है और उसमें उनका खुद को भी छोटा-मोटा दोष होता ही है। उन िसरतररयों को
यह बात खरयाल में रखनी िािहए िक अिधकतर पुरष ू ों ने सरतररी का जो आदर िकया है वह
अकलरपनीय है। अपने सारे कुटुमरब का िव शर वास उसके ऊपर िनभररर िकया। िव शर व की आदरय
शिित केरप मे नारी की कलपना और पसथापना अपन ऋ े ि ष मु ि न य ो न क े ीहैऔरवेपुरषथे।उसक
भी पुरषो न ह े ी क , नारी
ी ह ै।िसियोक उतरथान सिमितयाँ, नारीसंघ, अनाथ आशररम,
ेिलएआशम
िवधवागृह आिद पुरूषों की करूणा का ही िवसरतार है।
इसीिलए सिी को चािहए िक वह अपना जीवन शुदता केसाथ वयतीत करे और सारा बहाणि ईशर का ही िवलास
है ऐसा सोिे। आजकल की नासमझ िसरतररयाँ पुरूषों से समानता की होड़ में होटलों में
जाना, िसगरेट पीना, शराब पीना आिद गनदी आदतो मे िगर रही है। यह अनधा पािातयानुकरण राष केिलए , सिी जाित के
िलए एव द ं े श के ह ो न ह ारनागिरकोक! पुरेिलएिवनाशकारीसािबतहोगा।अतःसावधान
ष को परमेशर केरप मे यिद न
हो सके तो िपता, भाई या पुि केरप मे दशवन करन क े , िजससे उसकेमन की िवकृितया सवतः ही नष
ी कोिशशनकरे
होकर
श बौिदरधक आिरण खड़ा हो जाय और अपने जीवन को िकसी भी भररमजिनत वृितरत का िकार
बनन स े ेरोकपाय।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हरेक जीव, नर हो या नारी, अनािद काल से वासनाओं से पीिड़त होता आ रहा है।
वासना की तुिषरट के िलए वह नये-नये शरीर धारण करता है और रस लेने में पररयतरनशील
रहता है। परनरतु इस आननरद पररािपरत के पररयास से ही वह बेिारा अपने सरवतः पररापरत
वािसरतवक आननरद से, आतरमाननरद से वंिित रह जाता है। आतरमसरवरूप में िसरथर हो जाय तो
जीव खुद ही आननद का ही खजाना है। परत ं ु वह अपन भ े ी त र क ा य ह रह -
सयजानतानहीहै औरिवषयोमेआ
ढू ँ ढ त े व ास न ा ओं स े प ी िड त ह ोक र ज न म -मरण के िकरर में घूमता है।
यिद जीव को मुिकरत पाना है, आननरद-सवरप पाना है तो उसे पूणवरप से वासना रिहत होना ही पडेगा।
एकाएक वासनाओं का सवररथा तरयाग करना समरभव नहीं है। उसमें भी सबसे पररबल वासना
है कामभोग की। इस पररबल उिरछृंखल पररवृितरत पर िनयनरतररण रखने के िलए िववाह की एक
मयाररदा रखी गई है। िववाह का मूल पररयोजन है कररमशः वासना-िनवृितरत, वासना-पूितव नही।
आजकल के लोग इस लकरषरय को भूलते जा रहे हैं। िववाह के दरवारा वे अपनी वासनापूितरर
की अिधक से अिधक सुिवधाएँ िनकालने को ततरपर हैं। पिरणाम में िववाह का आधरयाितरमक
उदरदे शर य लुपरत होता जा रहा है। पुरूष और सरतररी के तन , मन और बुिदरधवाले बालक पैदा
होते हैं। इस पररकार जीवन कभी वासना रिहत नहीं हो सकेगा, अपने असली घर में नहीं
पहँच ु सकेगा और सचचे िवशाम व शािनत का अनुभव नही कर सकेगा। िववाह का दढ ृ धमव -बनधन ही जीव को वासनाजाल
से मुित कर परमाथवपद की पािपत करा सकता है।
जब िववेक दारा यह िवचार सपष हो जाता है िक वासनाओं का िनयनिण ही िववाह का पयोजन है तब भोगवासना
के हेतु से रूप, यौवन की आजरञा मानकर, धमरर को सामने रखकर, वासनारूपी रोग के िनवारण
के िलए औषिध समझकर ही िववाह करना िािहए। सरतररी-पुरष समपकव से सभी िविध-िनषेधों का मूल
तततव यही है।
नारी को िकसी भी दृिषरट से िपता, भाई, पुि मानकर भी परपुरष से हेल मेल नही बढाना चािहए। भगवान
शीरामचनद जब अिि मुिन केआशम पर गये तब अनसूयाजी उनहे पणाम करन त े कनहीआया , िमलने की तो बात ही
दूर है। लंका में हनुमान जी ने सीता माता से जब कहा िक 'आप मेरी पीठ पर बैठकर
भगवान केपास चले ' तब सीता जी न स े 'अपहरण के समय िववशता के कारण मुझे रावण का
पषकहािक
सपशव सहन करना पडा। अब मै जान बूझकर तुमहारा सपशव नही कर सकती।'
सती साधवी नािरयो केअनतःकरण सवतः ही पिवि होते है। तभी तो अिगन भी उनहे जला नही सकती। सूयव भी
उनकी आजरञा मानने को बाधरय होता है। ऐसे महान िदवरय पद की पररािपरत के साधनभूत यह
िववाह संसरकार खड़ा िकया गया था मगर आजकल तो कुछ और ही नजर आता है। नारी सरवयं
अपना सरवरूप और गौरव भूलती जा रही है। वासनापूितरर की सड़क पर तीवरर गित से भागी जा
रही है। वेश-भूषा, पि-पाविर, काजल-िलपिसटक से सजधज कर मनचले लोगो की आँखे अपनी ओर आकिषवत
करने में संलगरन है। ' ' ' '
। बडे खेद की बात है , जो मनुषय जनम 'सव' औ र 'पर' के परम शररेय़
परमातमा-पािपत मे लगाना था उसकेबजाय वह अपना अमूलय जीवन हाड -मांस को िाटन-चूसन म े े बरबादकररहा
है। उनकी िसरथित दयाजनक है।
' , '
अनुकररम
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िहनरदू धमरर नारी को माता के रूप में अिधक मूलरय देता है। उसने मातृसरवरूप में
ईशर की कलपना की है। िहनदतुव एक ऐसी मानयता है जो जगत का संचालन एक शिित केसहारे हो रहा है ऐसा मानती है।
वह शिकरत आदरय शिकरत, जगनमाया कही जाती है। वह खुद परम पुरष परमातमा, परबह की ही आहलािदनी शिित है,
उसी की सतरता मातरर है। इसिलए िहनरदू धमरर कई िकसरसों में जब िक जगत का संिालन िवकट
हो गया है तब आदरय शिकरत को वहाँ अगररसर करता है और मातृसरवरूप में उसे सरवीकारता
है।
ताििको न य े ह ि सद क र क े ि द ख ायाहै(िकमाताक खैर ! ेरउनका
पमेसिीकीपू
पररयज ोग नगरे न
ाकरक
सिी को मातृभाव से पूजा करन क े )ाहैअपनी जातीय ऊजारर को अनरतमुररख िकया जाता है। इससे काम
िवकार नषरट होकर जीवनशिकरत ऊपर की ओर बहना शुरू हो जाती है। इसी से जान पड़ता है िक
अगर कोई पुरूष सरतररी को माता समझकर उससे मातृवतर समरबनरध रखे तो उसकी जातीयता का
पश उनकी साधना मे िबलकुल बाधक न हो। यही कारण है िक िहनद ध ु म व म ह ा क ालीऔरजगदबंाकीपूजाक
महतरतरव देता है िक िजतना िक राम, कृ श षरण और िवकी उपासना को।
नारी को माता का आदररश माना गया है करयोंिक नारी जनन, पोषण, रकरषण और संहार, इन
चारो िकयाओं मे सिल िसद हईु है। नारी का हृदय कोमल एव ि ं स न ग ध ह आु करताहै।इसीवजहसेवहजग
पािलका माता केसवरप मे हमेशा सवीकारी गई है। भारतीय संसकृित न स े ि ी क ो म ा ताकेरपसवीकारकरकेयहबात
पिसद की है नारी पुरष केकामोपभोग की सामगी नही बिलक वदंनीय एव प ं ू ज न ी य ह ै।इसीनातेमनुमहाराजनक े
"एक आिायरर गौरव में दस उपाधरयायों से बढ़कर है, एक िपता सौ आिायोररं से
उतरतम है और एक माता एक सहसरर िपताओं से शररेषरठ है।"
समृित कहती है िक माता का पद सबसे ऊँचा है। माता कभी भी अपनी संतान का अिहत नही सोचती।

पुि कुपुि हो जाय परनतु माता कभी कुमाता नही होती। माता माता ही रहती है। नारी को 'मातृतरव'
करूणामयी जगनरमाता का ही पररसाद है।
इसी से मनुषय को चािहए िक परम धमव समझकर माता की सेवा मे संलगन रहे। यही गृहसथ केदोनो लोको केसुख
का कारण है। माता का सरथान वसरतुतः सरवगरर से भी ऊँिा है।

सतान को नौ महीन ग े भ व म े ध ा र ण क र नए े विंविवधकषसहकरभीउसक
पदवी सबसे ऊँची है।
लोक मे यह बात पिसद है िक जब िकसी भी वयिित पर बडा भारी आकिसमक संकट पडता है तब वह 'ओ
मेरी माँ...' ऐसा उिरिारण सहज ही कर उठता है।
। आपितरत में माता ही शरण है। और
। माता के समान शरीर का पोषक कोई नहीं है।
जगत मे एक माता ही ऐसी है िजसका सनहे संतान पर जनम से लेकर शैशव, बालय, यौवन एवं
पौढावसथा तक बना रहता है। यह मातृपेम मनुषयेतर जाितयो मे भी देखन म े े आ त ा ह ै ।माताबालककाकैसािनमा
सकती है यह अपन इ े ि त ह ा सम े स ु ि व ि द त है। -पालन
माताकुनतीनपेाणिवोकोधमवपरद
करने का उपदेश िदया था, िजसकेअनुसार चलकर वे सदा कृतकायव रहे। माता कौशलया को मयादा पुरषोतम
भगवान शीराम की जननी कहलान क े ा स ौ भ ा ग य ि म ,ला।जबशीरामवनकोजारहे
भावी िवयोगजिनत दःुख सेथेतब
वरयाकुल होकर आगा-पीछा सोचकर धमव का िवचार कर पुि को आजा देते हएु यह आशीवाद िदया था िक 'हे पुतरर !
मैं तुझे िकसी पररकार से रोक नहीं सकती। अब तो तू वन को जा, पर लौटकर जलदी आना और
सतपुरषो केमागव पर चलना। पेम और िनयम केसाथ िजस धमव केपालन मे तू पवृत हआ ु है , वही तेरी रकरषा
करेगा।'
िशवाजी की माता जीजाबाई, िशवाजी को वीर बनान क े े ग ी त प ा ल न म े ेहीसुनातीथी।बचचेउतनहे
सकते है, िजतनी ऊँची िसथित मे उनकी माता होती है। जैसी माता वैसी सतान , जैसी भूिम वैसी उपज।
गभरर में बालक आते ही माता को अपने कतरतररवरयों का पालन करना िािहए। उसको
यह खरयाल रखना िािहए िक उसे एक उतरकृषरट सनरतान को जनरम देना है। अपने बालक के
िलए उसे एक आदशव माता का काम करना है। उसे अपन त े न-मन के सरवासरथरय का खास खरयाल रखना
चािहए। शरीर िनरोगी हो और मन मे सदिवचार हो यही तन मन का सवासथय है। माता केरित से बालक का पोषण होता
है। माता का आहार-िवहार शुदरध एवं साितरतरवक होना जरूरी है। जनरम के समय के साथ ही
बालक का मानिसक एव श ं ा र ी ि र क ि व क ा स ऐ स ेढंगसेहोनाचािहएिकवहएकआ
बाजार चीजे एव ि ं म ठ ा इ य ा ख ा न स े े रोके।उसकीरिचएवआ ं वशयक
वरयवसरथा करें।
बचचे को कुसंग से बचन ए े वक , चोरी, गाली आिद से रोकने का पररयतरन करें। िनभररय,
ं पट
सतयवादी एव ब ं ि ल िह ो ऐ स े प य ो ग ए वक , नमररनएवं
ं हािनयासु ाकरपोतसाहनदे।गुरजनो
आजरञाकारी होवे ऐसा भाव बिरिे में जगायें। बालक को रूिि एवं योगरयता के अनुसार
पढाई-िलखाई की िशका दे और साथ-ही-साथ उचचतम चिरि की िशका देना भी अिनवायव है। िशका का उदेशय आतम
कलर
श याण है। अतः धािमररक एवं आधरयाितरमक िकरषाकी ओर तो उसे लगाना ही िािहए।
कनरयाओं को खास तौर पर ऐश सी िकरषादेनी िािहए, िजससे वह सीता और सािविी केआदशव को अपना सके
औ र आ द शव गृ िह ण ी ब न स क े ।
सतान की जीवनवािटका को सदगुणो केिूलो से सुवािसत करन स े े ख ु द म ाताकाजीवनभीसुवािसतएवं
आननरदमय बन जायगा। सनरतान में यिद दुगुररण के काँटे पनपेंगे तो वह माता को भी
चुभेगे, जीवन को िखिता से भर देगे। इसिलए माता का परम कतववय है िक सतानो केजीवन का शारीिरक , मानिसक,
नैितक, आधरयाितरमक संरकरषण और पोषण करके आदररश माता बन जाय... अपने जीवन की
महक से पिरवार, समाज और पूरी पृथवी को सुवािसत कर दे।
अनुकररम
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जो शदावती नारी सनानािद से शुद होकर सूयोदय से पहले


। इस मंि की दस माला पितिदन करे तो उसकेघर मे सुख -समृिद िसथर बनी रहे। इस
मंतरर का जप शशुभ मुहूतरर में पररारंभ करें। पररितवषरर िैतरर एवं आ ि रवनकेनवरातररों
में वटवृकरष की सिमधा से िविधपूवररक हवन करके कनरया, बटुक आिद को भोजन से सतुष करे। इस
मंतरर के समरयक, अनुषरठान से घर में सुख, शािनत एव स ं म ृिदबनीरहतीहै।
अनुकररम
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।।
'सिी जब कनया होती है तब िपता उसकी रका करे, युवावसरथा में पित उसका रकरषा करे,
वृदरधावसरथा में पुतरर उसकी रकरषा करे। सरतररी सरवतंतरर रहने योगरय नहीं है।'
धरयान रहे, धमररशासरतरर दरवारा यह कलरयाणकारी नारी सरवातनरतरररय का अपहरण नहीं
है। नारी को िनबाररध रूप से अपना सरवधमरर पालन कर सकने के िलए बाहरय आपितरतयों से
उसकी रकरषा के हेतु पुरूष समाज पर यह भार िदया गया है।
अनुकररम
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नारी शरीर िमलने से अपने को अबला मानती हो ? लघुतागिनथ मे उलझकर पिरिसथितयो मे


पीसी जाती हो ? अपना जीवन दीन-हीन बना बैठी हो ? तो अपन भ े ी त र सुषुपतआतमबलकोजगाओ।श
चाहे सिी का हो चाहे पुरष का। पकृित केसामाजय मे जो जीते है , अपने मन के गुलाम होकर जो जीते हैं,
वे सब सरतररी हैं और पररकृित के बनरधन से पार अपने आतरमसरवरूप की पहिान िजनरहोंने
कर ली, अपने मन की गुलामी की बेिड़याँ तोड़कर िजनरहोंने फेंक दी हैं वे पुरूष हैं।
सिी या पुरष शरीर एव म ं , तुम तोँ ोतीहै
ानयताएह शरीर से पार िनमवल आतमा हो।
जागो, उठो.....अपने भीतर सोये हुए आतरमबल को जगाओ। सवररदेश, सववकाल मे सवोतम
आतरमबल को अिजररत करो। आतरमा परमातरमा में अथाह सामथरयरर है। अपने को दीन-हीन
अबला मान बैठी तो जगत में ऐसी कोई सतरता नहीं है जो तुमरहें ऊपर उठा सके। अपने
आतरमसरवरूप में पररितिषरठत हो गई तो तीनों लोकों में भी ऐसी कोई हसरती नहीं जो तुमरहें
दबा सके।
भौितक जगत मे भाप की शिित, िवदरयुत की शिकरत, गुरूतरवाकषररण की शिकरत बड़ी मानी जाती है
मगर आतरमबल उन सब शिकरतयों का संिालक बल है। आतरमबल के सािनरनधरय में आकर पंगु
पारबध को पैर आ जाते है , दैव की दीनता पलायन हो जाती है, पितकूल पिरिसथितया अनुकूल हो जाती है।
आतरमबल सवरर िसिदरधयों का िपता है।
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
?
हर रोज पररातः काल में जलरदी उठकर सूयोररदय से पूवरर सरनान आिद से िनवृतरत हो
जाओ। सवचछ पिवि सथान मे आसन िबछाकर पूवािभमुख होकर पदासन या सुखासन मे बैठ जाओ। शात पसन वृित
धारण करो। मन में दृढ़ भावना करो िक मैं पररकृित िनिमररत इस शरीर के सब अभावों को पार
करके, सब मिलनाओं-दुबररलताओं से िपणरड छुड़ाकर आतरम-मिहमा में जागकर ही रहूँगी।
आँखें आधी खुली आधी बनरद रखो। िफर फेफड़ों में खूब शरवास भरो और भावना करो िक
शास केसाथ मै सूयव का िदवय ओज भीतर भर रही हूँ। शास को यथाशिित अनदर िटकाये रखो। ििर 'ॐ....' का
लमबा उचचारण करते हएु शास को धीरे -धीरे छोड़ते जाओ। शव र ास खाली होने के बाद तुरंत शव र ास न
लो। यथाशिित िबना शास रहो और भीतर ही भीतर 'हिर ॐ....हिर ॐ' का मानिसक जप करो। िफर से
िेिडो मे खूब शास भरो और पूवोित रीित से यथाशिित अनदर िटकाकर बाद मे धीरे -धीरे छोड़ते हुए िजस हिर
की शरण जाने से पाप-ताप कय हो जाते है ऐसे पावन 'हिर ॐ...' मंतरर का गुंजन करो। 10-15 िमनट
ऐसे परराणायाम सिहत 'हिर ॐ....' की उिरि सरवर से धरविन करके शानरत हो जाओ। अब पररयास
छोड़ दो। वृितरतयों को आकाश की ओर फैलने दो।
आकाश के अनरदर पृथरवी है, पृथवी पर अनक े देश, अनेक समुदरर एवं अनेक लोग हैं।
उनमें एक तुमरहारा शरीर आसन पर बैठा हुआ है। इस पूरे दृ शर य को मानिसक आँख से , भावना
से देखते रहो। आप शरीर नही हो बिलक अनक े शरीर, देश, सागर, पृथवी, गररह, नकरषतरर, सूयव, चनद एव प ं ू रेबहाणि
के दररषरटा हो साकरषी हो। इस साकरषीभाव में जग जाओ। थोड़ी देर के बाद िफर से
पाणायाम सिहत 'हिर ॐ.....' का जप करो और शानरत होकर अपने िविारों को देखते रहो।
इस अवसथा मे दढ ृ िनिय करो िक 'मैं जैसी होना िाहती हूँ वैसी होकर रहूँगी। मैं नारी
नहीं हूँ, नारायणी हूँ।' िवषयसुख, सता, धन-दौलत इतरयािद की इिरछा न करो, करयोंिक
आतरमबलरूपी हाथी के पदििनरह और सभी पदििनरह समािवषरट हो जायेंगे। आतरमानंद सूयरर
के उदय होने के बाद िमटरटी के तेल के दीये के पररकाशरूपी करषद ु रर सुखाभास की गुलामी
कौन करें ?
कोई भी भावना को साकार करने के िलए हृदय को कुरेद डाले ऐसी दृढ़ बिलषरठ वृितरत
होनी आव शर यक है। अनरतःकरण के गहरे से गहरे पररदेश में िोट करे ऐसा परराण भर के
िन शर िय बल का आवाहन करो। सीना तान के खड़ी हो जाओ अपने मन की दीन -हीन दुःखद
मानरयताओं को कुिल डालने के िलए।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर भटकती वृितरतयों के साथ तुमरहारी शिकरत भी िबखरती है। अतः
वृितरतयों को बहकाओ नहीं। तमाम वृितरतयों को एकितररत करके साधनाकाल में आतरमा-परमातमा
के ििनरतन में लगाओ, उदार ऋिषयों के धरयान में लगाओ। वे तुमरहें सहाय करेंगे। वे
तुमहे ऊपर उठान क े -कृपा बरसायेंगे। भारत के बररहरमवेतरता ऋिष-महातरमा और
ेिलएकरणा
परमातमा सवय त ं ु म ह ा र े द ो ष और प ा प द ग ध क रदेगे।अपनओ े जऔरआनन
मत होना बेटी ! िहमरमत मत हारना। आप भी महान बनो, औ र ो को भ ी म ह ा न त ा क े र ा स त े प र
लगाओ। अपन स े व भ ा व म े आ वे श क ो सवव , कोई
थािनमविकरर
लकरदो।आवे
या मत शमेबहकरकोईिनणवयम
करो। सदा शानरत वृितरत धारण करने का अभरयास करो। िविारवंत एवं पररसनरन रहो। सरवयं
अिल रहकर सागर की तरह सब वृितरतयों की तरंगों को अपने भीतर समा लो। जीव मातरर को
अपना सरवरूप समझो। सबसे सरनेह रखो। िदल को वरयापक रखो। संकुिितता का िनवारण करती
रहो। खंडनातरमक वृितरत का सवररथा तरयाग करो। आतरमिनषरठा में जगे हुए महापुरूष के सतरसंग
एवं सतरसािहतरय से जीवन को भिकरत एवं वेदानरत से पुषरट एवं पुलिकत करो। कुछ ही िदनों
के इस सघन पररयोग के बाद अनुभव होने लगेगा िकः
"भूतकाल मे नकारातमक सवभाव ने , संशयातमक-हािनकारक कलरपनाओं ने जीवन को कुिल डाला
था, िवषैला कर िदया था। अब िन शर ियबल के िमतरकार का पता िला है। अनरतरतम में
आिवभूररत िदवरय खजाना अब िमला। पररारबरध की बेिड़याँ अब टूटने लगीं।"
िजनको बहजानी महापुरष का सतसंग और अधयातिवदा का लाभ िमल जाता है उनकेजीवन से दःुख िवदा होने
लगता है। ॐ आनदं !
ठीक है न ? करोगी न िहमरमत ? पढकर रख मत देना। इस पुसतक को। इसको बार-बार पढती रहो।
एक िदन में यह काम पूणरर न होगा। बार-बार अभयास करो। तुमहारे िलए यह एक पुसतक ही कािी है। और
किरापटरटी न पढ़ोगी तो िलेगा।
नारी ! तू नारायणी बन। भारत की महान नािरयो की याद ताजी करकेिदखा।
शाबाश बेटी ! शाबाश !
अनुकररम
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

हर इनरसान में परमातरमा के गीत, परमातमा की सता, परमातमा का चेतन और परमातमा का आननद
छुपा है। मन-इिनदयो केखीचाव न इ े स ि श व को ज ीवकरिदयाहै -हीन होकर
औरवहदीन
किलरपत समरबनरधों
में, किलरपत िकररयाओं में खींिा जाता है। जीवन में आधरयाितरमक सामथरयरर िवकिसत
करने के िलए, मन के खेल से मुकरत होने के िलए इस देश के ऋिषयों ने अनेक-अनेक
उपाय बताये हैं, जैसे अहगंह उपासना, गुड़ के गणपित में भगवदर बुिदरध करना, सुपारी मे, शीिल मे,
तुलसी मे, मंिदर की मूितररयों में, यहाँ तक िक अनरन में भी भगवदर बुिदरध करना इतरयािद।
बह परमातमा सवववयापक होन स े े उ प ा स क अग र द ढ ृ तासेसवविपरमातमबुिदक
छूटकर आप ही परमातरमसरवरूप हो जाता है। पररितमाओं में भी परमातरमबुिदरध कर दी जाय तो
जो इचछाओं को हटान क े े ि ल ए य ,ोिगयोकोयोगकरनापडताहै
किमररयों को कमरर करना पड़ता है, वही योग
औ र क मव का िल सत ी स ा ध व ी को घ र ब ै ठ े प ा प त ह ो त ा ह ै । थोड ा -सा सतसंग, आतरमिविार एवं
सचचे संत महापुरष की कृपा िमलन स े े हीउसे-आ साकातकार
तम हो जाता है।
इस पुिसतका मे ऋिषयो केऐसे रत भरे पडे है िक पिवि नािरया यिद इस चयन का बार -बार अवलोकन करेगी तो
अव शर य लाभ होगा।
अनुकररम
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