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भक्ति-शास्त्री कोर्स

स्टूडेंट हैं डबुक

अंतर्राष्ट्रीय कृष्ट्णभावनामृ त र्ं घ (इस्त्कॉन)


र्ं स्त्थापकाचायस : श्री श्रीमद् ए. र्ी. भक्तिवेदां त स्त्वामी श्रील प्रभु पाद
र्मपस ण
ॐ अज्ञान दिदमरान्धस्य ज्ञानाजनशलाकया ।
चक्षु रून्मीदलिं येन िस्मै श्री गुरवे नमः ।।

नमः ॐ दवष्णुपािाय कृष्णप्रेष्ठाय भूिले ।


श्रीमिे भदिवेिांि स्वादमदनदि नादमने ।।
नमस्िे सारस्विे िे वे गौरवाणी प्रचादरणे ।
दनर्ववशेष शून्यवािी पाश्चात्यिे श िादरणे ।।

“मेरी पुस्िकों में कृष्णभावनामृि की दवचारधारा पूरी िरह समझाई गयी है , िो अगर कुछ आप नहीं समझ
पाए िब आपको केवल बारम्बार ही पढ़ना है । प्रदिदिन पढने से आपको ज्ञान उजागर होगा और इस प्रदिया
आपका आध्यात्त्मक जीवन में दवकास होगा।”
बहु रूप को दलखे पत्र से – बम्बई 22 नवम्बर, 1974

आभार्र:
अिुल कृष्ण प्रभु को उनकी दनयदमि परामशश के दलए।
MIHE को, भदि शास्त्री कोसश के दवकास हे िु नीव प्रिान करने के दलए।
अनुवािक - दवनीि प्रभु (कृष्ण अवंदिका पदिकेशंस)

If you have any queries, please do contact us. In the meantime, best wishes for
the course and in your continuing service to Srila Prabhupada.
Rasananda Das
ISKCON
rasananda.bcs@gmail.com

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क्तवषय र्ूची

भदि शास्त्री एवं व्यवत्स्थि अध्ययन पर श्रील


प्रभुपाि के दवचार 4
कोसश के उद्देश्य 5
कोसश अवलोकन 6
भदि शास्त्री असेसमेंट 8
यूदनट 1: भगवद्गीिा अध्याय 1–6 15
यूदनट 2: भगवद्गीिा अध्याय 7–12 31
यूदनट 3: भगवद्गीिा अध्याय 13–18 47
यूदनट 4: भदिरसामृि दसन्धु 66
यूदनट 5: उपिे शामृि और श्री ईशोपदनषि 82
साधना शीट 95

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भक्ति शास्त्री एवं व्यवस्स्त्थत अध्ययन पर्र श्रील प्रभु पाद के क्तवचार्र

मैं अपने र्भी क्तशष्ट्यों को इर् क्तवचार्रधार्रा को र्ावधानी पू वसक र्ीखने के क्तलए प्रे क्तर्रत कर्रता हू ूँ …
1970 की जनवरी में हम अपने सभी छात्रों के दलए एक परीक्षा आयोदजि करें गे जो इस पुस्िक पर आधादरि
होगी, जो भी उसमें उत्तीणश होगा उसे भदिशास्त्री की उपादध िी जायेगी। इन परीक्षाओं के माध्यम से मैं अपने सभी
दशष्यों को कृष्णभावनामृि की दवचारधारा को सावधानी पूवशक सीखने के दलए प्रेदरि करिा हू ूँ क्योंदक इस सन्िे श
को पूरी पृथ्वी में फैलाने के दलए अनेकानेक प्रचारकों की आवश्यकिा है ।
महापुरुष को दलखे पत्र से: लोस अन्जेलेस, फरवरी 7, 1969

र्भी अच्छे प्रचार्रक बनों, और्र यह अच्छे र्े ग्रं थों के अध्ययन पर्र क्तनभस र्र कर्रता है …
मैं यह जानकार बहु ि प्रसन्न हू ूँ दक िुम्हारा झुकाव गंभीरिापूवशक पुस्िकों को पढने में है । बहु ि–बहु ि धन्यवािI
अब इसे पूरे दिल से जारी रखो। हमें अच्छे प्रचारकों की भी आवश्यकिा है । प्रचार केवल मुझपर ही आदश्रि नहीं
होना चादहए। मेरे सभी दशष्य अच्छे प्रचारक बनें जो दक अच्छे से पुस्िकों के अध्ययन पर दनभशर करिा है दजससे
िुम सही दनष्कषश पर पहु ं चोगे।
हृियानंि को दलखे पत्र स, लोस अन्जेलेस, जुलाई 5, 1971

हमें अने काने क प्रचार्रकों की आवश्यकता है जो शास्त्रों में क्तनपु ण हों।


मैं यह िे खकर बहु ि प्रसन्न हू ूँ दक िुम दकिने अच्छे से मेरी पुस्िकें पढ़ रहे हो। कृपया इसे जारी रखो। हमें
अनेकानेक प्रचारकों की आवश्यकिा है जो शास्त्रों में दनपुण हों और सारे जगि को कृष्णभावनामृि को स्वीकार
करने के दलए दवश्वस्ि कर सकें।
वृन्िावन चन्क को दलखे पत्र से, बम्बई 9, 1970

मेर्री कभी मृत्यु नहीं होगी। मैं पु स्त्तकों में जीक्तवत र्रहू ूँ गा।
प्रभु पाि के आने के अगले दिन एक प्रेस कांफ्रेंस हु ई दजसमें सबी प्रमुख पेपर और टे लीदवज़न प्रदिदनदध उपत्स्थि
थे। बकशले मंदिर के बड़े कक्ष में िेज़ रोशनी में बैठे प्रभु पाि का एक प्रश्न से सामना हु आ, “आपकी मृत्यु के बाि
आन्िोलन का क्या होगा?” िुरंि ही प्रदिउत्तर आया, “मेरी कभी भी मृत्यु नहीं होगी।” सभी अदिदथयों एवं भिों में
आनंि की लहर उठ पड़ी और प्रभु पाि नें आगे कहा, “मैं अपनी पुस्िकों में जीदवि रहू ूँ गा।”
श्रील प्रभुपाि के साथ ग्रीष्मऋिू के स्िर, भगवद्दशशन (अंग्रेजी) # 10–10, 1975

मैं चाहता हू ूँ क्तक मे र्रे र्भी आध्यास्त्मक पु र और्र पु क्तरयाूँ भक्तिवेदां त की उपाक्तध क्तवर्रार्त में प्राप्त कर्रें
जो यह परीक्षा उत्तीणश करे गा उसे भदि वेिान्ि की उपादध प्राप्त ह होगी। मैं चाहिा हू ूँ दक मेरे सभी आध्यात्त्मक पुत्र
और पुदत्रयाूँ भदिवेिांि की उपादध दवरासि में प्राप्त ह करे , दजससे की पदरवार का दिव्य दडप्लोमा पीदढ़यों में चलिा
रहे …यह मेरी योजना है ।इसीदलए, हमें पुस्िकें केवल बाहर के व्यदियों के पढने के दलए ही नहीं प्रकादशि करनी
चादहए परन्िु हमारे सभी छात्र इनमें दनपुण हों दजससे दक आत्म–साक्षात्कार के दवषय में सभी दवरोधी िलों को
परादजि दकया जा सके।
हम्स्िूि को दलखे पत्र से, लोस अन्जेलेस, जनवरी 3, 1969

इस्त्कॉन र्े भक्ति शास्त्री


जब आप अपनी योग्यिाएं बिाएं िब आप यह भी बिा सकिे हैं दक आप (इस्कॉन से) भदि शास्त्री की उपादध–
प्राप्त ह हैं ।
स्वरूप को दलखे पत्र से, मॉदरशस, अक्टूबर 24, 1975

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भक्ति–शास्त्री कोर्स के उद्दे श्य

1. छात्रों को शास्त्रों के िात्त्वक ज्ञान का स्मरण रखने एवं प्रत्यावाहन करने में सहायिा करना।

2. छात्रों की भदिशास्त्रों के धमशशास्त्र की समझ को गहरा करना।

3. छात्रों द्वारा भदि शास्त्रों से प्राप्त ह दशक्षाओं की व्यदिगि उपयोग करने में सहायिा करना।

4. छात्रों की कृष्णभावनामृि के (भदि शास्त्रों के आधार पर) प्रचार करने की इच्छा एवं क्षमिा को बढ़ाना।

5. छात्रों को श्रील प्रभु पाि के भाव एवं दमशन (जो उनके दलखन कायश में उजागर है ) को समझने और उसकी
प्रशंसा करने में सहायिा करना, और इस समझ को इस्कॉन के अंिगशि दचरस्थायी बनाना।

6. छात्रों को भदिशास्त्रों के दसद्ांिों को वैष्णव अखंडिा के साथ उपयोग करने में सहायिा करना, काल, पात्र
एवं िे श का ध्यान रखिे हु ए।

7. छात्रों की, गौडीय वैष्णव सभ्यिा, सिाचार और वैष्णव संग के दसद्ांिों का (जो भदि शास्त्रों में उल्लेत्स्खि
हैं ) उपयोग एवं प्रशंसा करने में सहायिा करना।

8. छात्रों की, वैष्णव गुणों (दजनका भदि शास्त्रों उल्लेख है ) का अंिग्रशहण करने में सहायिा करना।

ज्ञान( स्मरण और प्रत्यावाह्न) Kno


ज्ञान
समझ Und
व्यदिगि उपयोग PeA
कौशल
प्रचार में उपयोग PrA
भाव और दमशन M&M
वैष्णव अखंडिा VI
मूल्य
सभ्यिा एवं सिाचार CE
वैष्णव गुण VQ

उद्दे श्य
इन सभी उद्दे श्यों के संबंधदि पठन प्रयोजन हैं , प्रत्येक अध्याय के दलए जो दक स्टूडेंट्स हैं डबुक में सूचीबद् हैं ।
उद्दे श्य यह बिािे हैं दक प्रत्येक यूदनट के अंि में छात्रगण क्या करने में सक्षम होंगे, इससे यह पिा चलेगा दक
उद्दे श्य प्राप्त ह कर दलए गए हैं । अदधक जानकारी VTE के टीचर ट्रेननग कोसश से प्राप्त ह करें ।

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कोर्स अवलोकन

ईस भदि शास्त्री कोसश का पाठ्यिम पांच इकाइयों में बांटा गया है दजनमें सभी चार भदि शास्त्री पुस्िकें पूरी की
गयी हैं । दनम्न चाटश में पाूँचों इकाइयां बिायी गयी है ।

यू क्तनट 1 भगवद्गीता अध्याय 1–6

यू क्तनट 2 भगवद्गीता अध्याय 7–12

यू क्तनट 3 भगवद्गीता अध्याय 13–18

यू क्तनट 4 भक्तिर्रर्ामृत क्तर्न्धु

यू क्तनट 5 श्रीईशोपक्तनषद एवं उपदे शामृत

पाठों की र्ंख्या
प्रत्येक यूदनट के दलए पाठों की संख्या कोसश के फैदसदलटे टर द्वारा दनधादरि की जायेगी दजनके दनिे श नीचे दिए गए हैं ।
भदि शास्त्री के कुल पाठ 54–74 होंगे। प्रत्येक पाठ का समय 2–3 घंटे।

यू क्तनट र्ामग्री पाठों की र्ंख्या


1 भगवद्गीिा अध्याय 1–6 12–18
2 भगवद्गीिा अध्याय 7–12 10–14
3 भगवद्गीिा अध्याय 13–18 8–12
4 भदिरसामृि दसन्धु 10–14
5 श्री ईशोपदनषि और उपिे शामृि
12–16

इकाइयों की अनु र्ूची

ऊपर िी गयी इकाइयों की अनुसूची को पूरा करने का िम कोसश के संचालक का दनणशय होगा।

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भक्ति–शास्त्री कोर्स पठन र्ामग्री
स्त्टडी मटे क्तर्रयल
इस कोसश के दलए आपको दनम्न पुस्िकों की आवश्यकिा होगी:
• भगवद्गीिा यथारूप
• भदिरसामृि दसन्धु
• उपिे शामृि
• श्रीईशोपदनषि
कोसश के िौरान आपको दनम्न पुस्िक िी जायेगी:
 भदि शास्त्री स्टूडेंट्स हैं डबुक (यह पुत्स्िका)

अक्ततक्तर्रख्त र्ामग्री
आप दनम्न में से कुछ पुस्िकों से भी सहायिा प्राप्त ह कर सकिे हैं :
Surrender Unto Me – by Bhurijana Dasa (VIHE Publications)
Srila Prabhupada Quotes Book (Available from Here)

इर् पु स्स्त्तका का कैर्े उपयोग कर्रें


प्रत्येक यूदनट में आपको प्राप्त ह होगा
• सामग्री का अवलोकन
• अदिदरि नोट्स
• पूवश स्वाध्याय
• चुदनन्िा उपमाएं
• Open बोक असेसमेंट के प्रश्न
• पठन प्रायोजन

Open बु क अर्ेर्मेंट
Open बु क असेसमेंट यूदनट के िौरान कभी भी पूरा करके यूदनट के अंि में जमा दकया जा सकिा है ।

पू वस स्त्वाध्याय
पूवश स्वाध्याय के प्रश्न यूदनट एक पहले यह बीच में कभी भी पुरे दकये जा सकिे हैं । इन प्रश्नों के उत्तर जमा करने
की कोई आवश्यकिा नहीं है । दफर भी, इन प्रशों में से क्लोज्ड बुक असेसमेंट के प्रश्न चुने जायेंगे।

Selected Analogy (चु नी हु ईं उपमाएं)


क्लोज्ड बु क असेसमेंट में चुदनन्िा उपमाओं की भी समीक्षा की जायेगी। अदधक जानकारी के दलए भदि शास्त्री
असेसमेंट पर अगला शीषशक िे ख।ें

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भक्ति शास्त्री अर्ेर्मेंट
पू वस स्त्वाध्याय एवं उपमाएं
पूवश स्वाध्याय कक्षाओं के आरम्भ होने के पहले पुरे कर दलए जाने चादहए। प्रत्येक यूदनट के पूवश स्वाध्याय से
क्लोज्ड बोक असेसमेंट के प्रश्न चुनें जायेंगे। उपमाएं भी क्लोज्ड बु क असेसमेंट में ली जायेंगी। फैदसदलटे टर पूवश
स्वाध्याय के बाहर से िीन सवाल िक िे सकिे हैं ।

क्लोज्ड बु क अर्ेर्मेंट और्र श्लोक अनु स्त्मर्रण


क्लोज्ड बुक असेसमेंट और श्लोक अनुस्मरण प्रत्येक यूदनट के अंि में आयोदजि होगा। कोसश का समापन एक
क्लोज्ड बु क टे स्ट से होगा दजसमें दपछली सभी इकाइयों से प्रश्न पूछे जायेंगे।

Open बु क अर्ेर्मेंट
कोसश के फैदसदलटे टर यूदनट के अंि में दिए Open बु क प्रश्नों की सूची में से प्रश्न चुनेंगे। अपने उत्तर दलखने के
सम्बन्ध में छात्र अपने फैदसदलटे टर से सलाह कर सकिे हैं । Open बु क असेसमेंट दनदश्चि दिदथि के भीिर जमा
कर दिए जाने चादहए। समय बढाने का दननारी फैदसदलटे टर का है । नक़ल करने वाले छात्रों के दलए िण्ड की
जानकारी इस वेबसाइट पर प्राप्त ह की जा सकिी है (http://www.iskconeducation.org/articles/general–
policies)। सभी असेस्स्मेंट दवलंदबि या िुबारा जमा करने पर समय पर जमा करने वाले छात्रों दजिनी दवस्िृि
प्रदिदिया नहीं िी जायेगी। असेसमेंट नीदियों पर दवस्िादरि चचा आपके फैदसदलटे टर द्वारा की जायेगी।

यू क्तनट अर्ेर्मेंट
उनके मज़बू ि और कमज़ोर पहलुओं को उजागर करिे हु ए, छात्रों को प्रत्येक यूदनट के दलए दवस्िृि प्रदििया प्राप्त ह
होगी। पूरे कोसश में पास होने के दलए छात्र को प्रत्येक कोसश में पास होना आवश्यक है । यूदनट का Open बु क
असेसमेंट िो बार जमा दकया जा सकिा है , पहली बार के बाि, आगे दनणशय फैदसदलटे टर का है । सम्पूणश श्रेणी,
प्रत्येक यूदनट के दलए, दनम्न घटकों को पूणय
श ोग होगी:

Open बु क अर्ेर्मेंट 65% पास अंक 60%

क्लोज्ड बु क अर्ेर्मेंट 20% पास अंक 65%

श्लोक अनु स्त्मर्रण 10% पास अंक 65%

मंक्तदर्र कायस क्रम में उपस्स्त्थक्तत 5% पास अंक 50%


(साधना शीट)

कक्षा में प्रक्ततभाग र्ंयम


(समयदनष्ठ, उपत्स्थदि और व्यवहार) समान्ि में दवचार दकये जाने के दलए

भक्ति शास्त्री प्रमाणन


छात्रों को सम्पूणश कोसश श्रेणी भी िी जाएगी और प्रत्येक यूदनट का पूणशयोग भी। छात्रों के सम्पूणश श्रेणी, अंदिम
स्वीकृदि के दलए मायापुर इंत्स्टट्यूट के असेसमेंट बोडश को भेजी जायेंगी । समान्ि मामलों में छात्र एक इंटरव्यू में
उपत्स्थि हो सकिा है या असेसमेंट का एक भाग या पूरा असेसमेंट ही पुनः जमा कर सकिा है । छात्र इस्कॉन
एग्जादमनेशन बोडश में अपील कर सकिे हैं अगर वे मायापुर इंत्स्टट्यूट के दनणशय से असंिुष्ट हों। सफलिापूवशक
कोसश पूणश करने पर छात्रों को इस्कॉन एक्षदमनदिओन्स बोडश का एक प्रमाण पात्र प्रिान दकया जाएगा।

8
Open बु क अर्े र्मेंट क्तनबं ध लेखन क्तनदे श
Open बु क उत्तर दलखिे समय छात्रों को दनम्न दनिे शों को ध्यान में रखना चादहए। सभी Open बु क असेसमेंट उत्तर
लगभग 600 शब्िों में पूणश दकये जाने चादहए।

प्रस्त्तुक्तत एवं शै ली
उिर के पृष्ठ पर दटपण्णी के दलए जगह छोड़ें
दनबंध को खण्डों और गद्यों में बाूँटें।
(आप चाहें िो शीषशक भी िे सकिे हैं )
(Bullet points मान्य हैं )
दवचारों का िमबद् रूप दवकास करें ।
एक भूदमका और दनष्कषश भी दलखें।

फोकर्
प्रश्नों से सम्बंदधि एक केत्न्कि एवं संदक्षप्त ह उत्तर दलखें।
अदिदरख्ि एवं असम्बद् वैचादरक सुचना से बचें।
शब्ि संख्या के आगे न जाएूँ।
ओपन बु क अस्सेस्मेंट के दनिे शों

कथन
अपने दबन्िुओं के समथशन में सटीक सन्िभश सदहि कथन दलखें।
कथनों की महत्ता की व्याख्या िें ।
श्लोकों िात्पयों एवं प्रवचनों से दवदशष्ट वाक्यांश प्रासंदगि करें ।
दबना दकसी व्याख्या के लम्बे कथन न दलखें।

श्रील प्रभु पाद के लेखन पर्र क्तवचार्र


“अपने साक्षात्कार दलखें, जो भी आपने कृष्ण के दवषय में साक्षात्कार दकया है । यह आवश्यक है । यह दनत्ष्िय
नहीं है ; आपको सिै व सिीय रहना होगा। जब भी आपको समय दमले, दलखें, श्रवणं कीिशनम्, प्राथशनाएं दलखना
या अर्वपि करना, प्रशंसा करना, यह सभी वैष्णव की दियाएं हैं । आप श्रवण कर रहे हैं परन्िु आपको दलखना भी
होगा।”
श्रील प्रभुपाि के प्रवचन से 1968, लोस अन्जेलेस

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Open बुक असेसमेंट उत्तरों के उिाहरण

Open बु क अर्ेर्मेंट (प्रचार्र उपयोग)


प्रस्िुि करने दक दकस प्रकार एक शुद् भि का भदि के द्वारा भगवद्ाम जाना सुदनदश्चि हो जािा है श्रीकृष्ण के
आठवें अध्याय के वाक्यों का सिभश िे िे हु ए |

दनम्न उिाहरण है अपूणश प्रदिदिया का उिाहरण है यहाूँ आप िे ख सकिे हैं दक दकन स्थानों पर सुधार की
आवश्यकिा है |
उत्तर्र उदाहर्रण 1:
जो भी व्यदि कृष्ण भावनामृि में अपने शरीर का त्याग करिा है वह एकाएक भगवान् दक दिव्य प्रकृदि को प्राप्त ह होिा है |
परमेश्वर भगवन शुद्ों में शु द्िम हैं | स्मरण का अथश महत्वपूणश है | कृष्ण का स्मरण उस अशुद्ात्मा के दलए संभव नहीं दजसने यहाूँ िक छात्र ने
भदिमय सेवा करने हु ए कृष्ण भावनामृि का अनुशीलन नहीं दकया| इसीदलए व्यदि को कृष्ण भावनामृि का अनुशीलन बाल प्रभुपाि के 8.6 के
काल से आरम्भ कर िे ना चादहए| अगर व्यदि जीवन के अंि में सफलिा प्राप्त ह करना चाहिा है िो कृष्ण स्मरण दक प्रदिया िात्पयश को ज्यों-
का- त्यों उिार
अदनवायश है | इसीदलए व्यदि को दनत्य रूप से हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे / हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे को
दलया है | यह
िोहरािे रहना चादहए| श्री चैिन्य महाप्रभु नें कहा है दक व्यदि को एक वृक्ष के बराबर सदहष्णु होना चादहए (िरोदरव सदहष्णुन)|
स्वीकार नहीं दकया
जो व्यदि हरे कृष्ण जप रहा है उसके जीवन में दकिनी ही बाधाएं आएूँगी परन्िु इन सभी को सहन करिे हु ए व्यदि को हरे जाएगा| व्यदि को
कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करिे ही रहना चादहए दजससे की जीवन के अंि में स्वयं दक वैचादरक
कृष्ण भावनामृि का पूरा लाभ प्राप्त ह हो| समझ, अपने ही
शब्िों में प्रस्िुि
करनी होगी,
इन सभी आठ प्रश्नों में से श्रीकृष्ण अजुन
श के आठवें प्रश्न के उत्तर िे नें में ही लगभग पूरा आठवाूँ अध्याय दनकाल िे िे हैं : अजुशन
दजससे उसकी
का प्रश्न था: भदि का अनुशीलन करने वाले अंि समय में आपको कैसे जाना पायेंगे? यह अध्याय जीवन के कठोर सत्य से समझ उजागार हो
आरम्भ होिा है - हम सिा के दलए इस शरीर में नहीं रह सकिे| इसीदलए हमें यह सोचना चादहए की हम आगे कहाूँ जाने वाले हैं | सके|
यह बुदद्मत्ता है | समय इस जड़जगि को िोड़िा जा रहा है परन्िु हमारे मन में स्वप्नों का अम्बार लगा हु आ है | हम अपने जीवन
को गंभीरिा से नहीं लेिे प्रिीि हो रहे और केवल एक इंकी के अनुभव से िुसरे पर दफसलिे जा रहे हैं |
अच्छा उत्तर

जब हम परीदक्षि महाराज के बारे में भागविम में पढ़िे हैं िो हमें अफ़सोस होिा है दक उनके पास केवल साि दिन थे| प्रभुपाि
सिै व बिािे रहिे दक हमारे पास साि दमनट भी हैं या नहीं| कृष्ण एक दचदकत्सक के रूप में उपिे श िे िे हैं दकस प्रकार हम जन्म
मृत्यु से बाहर आ सकें| परीदक्षि महाराज का बुदद्पूणश प्रश्न था “दकस प्रकार मैं सही मनःत्स्थदि में शरीर छोडूं|” शुकिे व गोस्वामी
ने यह कहिे हु ए इस प्रश्न दक प्रशंसा की दक यह सभी प्रश्नों का सार है | जीिे ही रहने दक मानदसकिा इिनी गहरी है दक हम सोचने
लगिे हैं दक हम कभी मरें गे ही नहीं | वास्िदवक मानव सभ्यिा से हमें यह समझ में आिा है दक विशमान अिीि दक उपज है |
दपछले जीवन दक चेिना के अनुसार हमारी विशमान मानदसकिा और पदरस्थदि है | इसीदलए हम यह सोचिे हैं दक हम भदवष्य को यहााँ छात्र प्रश्न मुद्दे से
दनधादरि कर लेंगे| भटक रहा है
(भगवद्धाम जाने कक
सुकनकितता) और
हमें अपने जीवन को ढलने के दलए बुदद् का प्रयोग करना होगा| हमें सावधान रहना चादहए दक हम दकस ओर जा रहे हैं | हमें
सामान्य प्रचार कर
यह भी जानना होगा दक हम कहां से आये हैं | भगवान् समझािे हैं हमारी चेिना और जीवन दक त्स्थदि पूवश मृत्यु का पदरणाम रहा है, ऐसा करने
है |अगर हमें विशमान क्षण में केत्न्कि होना है िो हमें पूवश मृत्यु के दवषय में सोचना होगा लोग क्षण के जािू के बारे में बाि करिे के किए वह प्रश्न कक
पकरकि के बाहर के
हैं | वास्िव में “अभी” हमारे दपछली मृत्यु का पदरणाम है | दपछली मृत्यु इिनी अदधक प्रासंदगक है सबसे अच्छे अगले जीवन
श्लोकों का उपयोग
प्राप्त ह करने का प्रदशक्षण मुझे कहाूँ प्राप्त ह होगा? एक भि इस कठोर सत्य को स्वीकारिा है और अपने मन को इस प्रकार ढालिा कर रह है|
है दक मृत्यु के समय वह सवोच्च त्स्थदि में हो| सवोच्च संभव त्स्थदि है कृष्णभावनामृि के दवषय में सोचना| अपनी लीलाओं के
रहस्य से मिह्यम से त्श्रिष्ण पूरे जगि को मुदि प्रिान कर िे िे हैं |
एक अस्पष्ट कथन... छात्र को चादहए दक वह अध्याय 8 से
सटीक सन्िभश प्रस्िुि करे श्लोक पूणश या भाग में प्रयोग दकया
जा सकिा है |

10
मन को प्रदशदक्षि करना सबसे महत्वपूणश कत्तशव्य है । हमारा मन हमारा सफाया कर सकिा है , और यही मन
अस्पष्ट कथन
अनोखे रूप से कायश करिे हु ए हमें भगवद्ाम वापस भी ले जा सकिा है । शास्त्रों में वणशन है दक हम इस जड़जगि
दबना ठोस
में मन के द्वारा ही कैि हैं । भि अपने मन को श्रीभगवान के चरण कमलों में त्स्थि करने की दवदध अपनािे है । सन्िभों के
और यह दवदध बहु ि ही आसान कर िी गयी है ।

मेरे गुरु महाराज नें एक बार प्रवचन में कहा: “ हमें सिै व श्रीकृष्ण का नचिन करने का अभ्यास करना
यह सन्िभश सत्यादपि
चादहए दजससे दक हम सिै व मृत्यु के दलए िैयार रहें ...”
नहीं दकया जा सकिा|
इस प्रश्न में आठवें
अध्याय से सन्िभों की
आवश्यकिा है |

नीचे िी हु ई कुंजी छात्र को उपरोि उत्तर के दलए प्राप्त ह अंक का संकेि िी है ।

स्त्तम्भ A B C
दकस प्रकार एक शुद् भि का भदिमय सेवा के माध्यम से भगवद्ाम जाना सुदनदश्चि
होिा है , इसका प्रस्िुिीकरण
2 0.3

भगवद्गीिा के आठवें अध्याय से कृष्ण के कथनों के सन्िभश िे ना 3 0.7


कुल अंक 27%

अंक कुंजी की व्याख्या


स्िम्भ A प्रश्न का घटक
स्िम्भ B छात्र की इस घटक में श्रेणी (10 में से)
स्िम्भ C घटक का पूणश प्रश्न में मूल्य

कुल अंक
छात्र की घटक श्रेणी का घटक मूल्य से गुना कर सकल (कुल ) दनकाला जािा है ।

समग्र दटपण्णी

मनुष्य जीवन के महत्व और उसके पदरणाम के प्रदि छात्र की आस्था है । दफर भी, उसनें प्रश्न के संबोधन की
उपेक्षा की है दक दकस प्रकार एक शुद् भि का भगवद्ाम जाना भदिमय सेवा के माध्यम से सुदनदश्चि होिा है ,
और छात्र नें आठवें अध्याय से केवल अस्पष्ट सन्िभश ही प्रस्िुि दकये हैं ।

11
दनम्न है एक अच्छे प्रदिउत्तर का उिाहरण है । उन दबन्िुओं का स्मरण रखें दजनसे अच्छी श्रेणी का दवकास होिा है :
दवश्लेषण से छात्र यह जानिा उत्तर के आरम्भ से ही
है दक श्लोक के कौन से भाग
उत्तर उिाहरण 2: दवशेष कर प्रासंदगक हैं |
छात्र प्रश्न के मुख्य नबिु पर
केत्न्कि रहिा है |

भगवान् का शुद् भि अनान्यभि सिै व ही भगवान् के दवचारों से दचिाकूल रहिा है का मां एव स्मरं , वह
सिै व ही श्रीकृष्ण को उनके नाम का जप करिे हु ए याि करिा रहिा है । इस अभ्यास से दनदश्चि ही मृत्यु के
समय भगवान् का स्मरण दनदश्चि हो जािा है यह प्रयदिष मद्भावं और इस प्रकार उसका भगवद्ाम जाना
छात्र िात्पयश
भदिमय सेवा के माध्यम से , सुदनदश्चि हो जािा है । वास्िव में श्रीकृष्ण स्वयं इसका आश्वासन िे िे हैं ,
से प्रासंदगक
यात्नात्यत्र संशयः “इसमें कोई भी संशय नहीं। (भगवद्गीिा 8.5)”
उिाहरण
एवं उपमाएं
यदि कोई दिव्य रूप से कृष्ण की सेवा में लीन रहिा हो िो उसका अगला शरीर दिव्य (आध्यात्त्मक) ही
प्रस्िुि
होगा, भौदिक नहीं। अिः जीवन के अंि समय अपने स्वभाव को सफलिापूवशक बिलने के दलए हरे कृष्ण
करिा है |
हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप करना सवशश्रेष्ठ दवदध है । भरि महाराज
का दहरण का शरीर प्राप्त ह करने का उिहारण श्रील प्रभुपाि द्वारा दिया गया है (भगवद्गीिा 8.6 के िात्पयश से)

एक शुद् भि अपने सभी दनधादरि किशव्य श्रीकृष्ण का नचिन करिे हु ए पूणश करिा है । वह अपना मन
और बुदद् श्रीकृष्ण पर त्स्थि करिा है सभी कत्तशव्य श्रीकृष्ण के आनंि के दलए पूणश करिा है ।
िात्पयश ले एक
(भगवद्गीिा 8.7)
दवदशष्ट सन्िभश से,
छात्र नें एक
मन अत्स्थर है , इसीदलए मन को श्रीकृष्ण का नचिन करने के दलए बाध्य करना आवश्यक है । उिाहरण,
प्रासंदगक कथन
एक कैटरदपलर (इल्ली) दििली बनने के बारे में सोचिा है और इसीदलए एक दििली बन भी जािा है , उसी
सत्म्मदलि दकया
जीवन में। इसी प्रकार अगर हम दनरं िर श्रीकृष्ण के दवषय में सोचेंगे िो यह दनदश्चि है दक हमारे जीवन के
है और अपने
अंि में हमें श्रीकृष्ण जैसा शरीर प्राप्त ह होगा। (भगवद्गीिा 8.8 के िात्पयश से)
शब्िों में समझाया
है इससे स्पष्ट
कृष्ण का नचिन करने की दवदध बहु ि ही सरल है । भिगण जानिे हैं दक भगवान् एक पुरुष है , एक पुरुष के
समझ ज्ञाि होिी
रूप में चाहे वे राम हो या कृष्ण, भगवान् और उनके दवदभन्न गुणों का नचिन दकया जा सकिा है । (गीिा8.9)
है |
अन्य योग पद्दियों के अनुयादयओं के दलए दवदभन्न दनयम एवं कानून होिे हैं परन्िु, एक एक भि को
उनकी नचिा करने की आवश्यिा नहीं है क्योंदक वे कृष्णभावनामृि में संलग्न है , और मृत्यु के समय वे
कृष्ण की कृपा से उनका नचिन कर पायेंगे। एक शु द् भि शरीर छोड़ने के समय एवं त्स्थदि की बारीदकयों
की परवाह नहीं करिा। (भगवद्गीिा 8.4–27)

एक शुद् भि दबना दडगे श्रीकृष्ण का स्मरण करिा है , अनन्यचेिाः सििं िो स्मरदिदनत्यसः (गीि 8.14),
इसीदलये उसका भगवद्ाम जाना सुदनदश्चि होिा है िस्याहं सुलभः पाथश दनत्य युिस्य योदगनः, कृष्ण कहिे हैं दक
उनके दलए वे बड़े ही सुलभ हैं सुलभः। वास्िव मेंप्रभुपाि 8.14 के िात्पयश में समझािे हैं दक जो व्यदि शुद् भदि कर अन्य प्रासंदगक
रहा है वह पहले से ही परम धाम प्राप्त ह कर चुका है “एक भि कहीं भी रहिे हु ए अपने भदि के प्रभाव से वहां पर श्लोकों का
संदक्षप्त ह सार
वृन्िावन जैसा वािावरण बना सकिा है ।”

इस प्रबल दनष्कषश से पिा चलिा है दक छात्र नें श्लोकों का दवस्िृि अध्ययन


दकया है ।

स्त्तम्भ A B C
दकस प्रकार एक शुद् भि का भदिमय सेवा के माध्यम से भगवद्ाम जाना सुदनदश्चि होिा है ,
इसका प्रस्िुिीकरण 8.5 0.3

भगवद्गीिा के आठवें अध्याय से कृष्ण के कथनों के सन्िभश िे ना


9 0.7
कुल अंक
89%

12
भक्तिशास्त्री मूल्यां कन क्तवक्तध
मूल्यांदकि पत्रों में संख्या श्रेणी नहीं की होगी। मूल्यांकन शब्िावली सदहि मूल्यांदकि पत्र छात्रों को लौटा दिए जायेगे,
इन पत्रों में दलदखि मूल्यांकन शब्ि दनम्न चाटश में प्रस्िुि संख्या का संकेि िें गे:

अर्ाधार्रण 100–90%

उत्कृष्ट 89–80%

उत्तम 79–70%

और्त 69–60%

पु नः जमा 60% र्े नीचे

प्रत्येक यूदनट के पूरे होने पर छात्रों को एक व्यदिगि स्प्रेडशीट प्रिान की जायेगी, दजसमें सभी मूल्यांदकि अंगों के
संख्या पदरणाम दिए होंगे। एक उिाहरण दनचे दिया गया है :

13
भक्ति शास्त्री के अनु स्त्मर्रण हे तु’श्लोक
स्मरण हे िु दनम्न श्लोकों के संस्कृि श्लोक और नहिी अनुवािों की आवश्यकिा है | प्रत्येक यूदनट के पूणश श्लोक स्मरण
दक मौदखक परीक्षा होगी| सभी श्लोकों का मूल्यांकन यूदनट 5 के दलए होगा|

यूक्तनट एवं श्लोक र्ं ख्या कुल श्लोक

यूक्तनट 1
भगवद्गीता अध्याय 1–6
2.7, 2.44, 2.13, 2.20, 3.27, 4.2, 4.8, 4.9,
12
4.34, 5.22, 5.29, 6.47

यूक्तनट 2
भगवद्गीता अध्याय 7–12
7.5, 7.14, 7.19, 8.5, 8.16, 9.2, 9.4, 9.14
14
9.25, 9.26, 9.27, 9.29, 10.8, 10.10

यूक्तनट 3
1 भगवद्गीता अध्याय 13–18
13.22, 13.23, 14.26, 15.15,15.7, 18.54,
9
18.55, 18.65, 18.66
यूक्तनट 4
1 भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु
1.1.11, 1.1.12, 1.2.234, 1.2.255 4
यूक्तनट 5
श्री ईशोपक्तनषद
मंगलाचरण और मन्त्र 1
6
उपदे शामृ त
श्लोक 1–4

और्र ऊपर्र क्तदए र्भी श्लोक कुल 45 श्लोक

14
यूक्तनट 1 भगवद्गीता अध्याय 1-6

यूक्तनट क्तवषयबस्त्तु
अध्याय 1: अजुस नक्तवषादयोग
धमशक्षेत्रे
1.1
िुयोधन की कूटनीदि
1.3-11
पांडवों की दवजय के संकेि
1.14-20
भिवत्सल के रूप में कृष्ण
1.21-27
अजुन
श के युद् न करने के कारण
1.28-46
वणाश्रम धमश और कृष्णभावनामृि
अध्याय 1 - 4
अध्याय 2: र्ां ख्ययोग
अजुन
श की शरणागदि 2.1-10
ज्ञान 2.11-30
कमशकांड 2.31-38
कमश/ बु दद्योग 2.38-53
कमशयोग कमशसंन्यास से उच्चिर 2.54-3.8
त्स्थि प्रज्ञ 2.54-2.72
अध्याय 3: कमस योग
योग दसदद् अध्याय 3 - 6
कमशकाण्ड से कमशयोग 3.10-16
कमश योग 3.17-35
कामवासना और इत्न्कय संयम 3.36-43

अध्याय 4: ज्ञानयोग
दिव्यज्ञान और कृष्ण का ज्ञान 4.1-15
दनष्काम कमशयोगी के कमश 4.16-24
ज्ञान और यज्ञ 4.25-42

अध्याय 5: कमसर्ंन्यार् योग


दनष्काम कमशयोगी का दववरण 5.1-12
ज्ञान की िृष्टी 5.13-26
शात्न्ि सूत्र 5.29

अध्याय 6: ध्यान योग


अष्टांग योग 6.1- 27
अष्टांग योग, अजुन
श द्वारा अस्वीकार 6.33-36
असफल योगी की गदि 6.37-45
उच्चिम योगी 6.46-47

15
भगवद्गीता अध्याय 1–6 का अवलोकन

अध्याय 1: कुरुक्षे र के यु द्धस्त्थल में र्ैन्य क्तनर्रीक्षण


(अजुसनक्तवषादयोग)

जब दवरोधी सेनायें युद् की ओर अग्रसर थीं, महान योद्ा अजुन


श , िे खिा है अपने सुपदरदचि सम्बत्न्धयों को, दशक्षकों
और दमत्रों को जो िोनों सेनाओं में सत्म्मदलि युद् कर अपनी प्राण िे ने को िैयार थे । शोक और िया के वश में
आकर, अजुन
श बल खो बैठिा है , उसका मन दवचदलि हो उठिा है , और वह युद् करने की दनष्ठा गवा िे िा है ।

भू क्तमका : यु द्ध की तैयाक्तर्रयां (1–13)


धृिराष्ट्र संजय से कुरुक्षेत्र के युद्स्िल की दगदिदवदधयों के बारे में पूछिा है । संजय वणशन करिे है दक दकस प्रकार
कूटनीदि के उपयोग से िुयोधन दबना भीष्म और अन्य योद्ाओं का अपमान दकये कोणाचायश को उत्सादहि करिा
है । भीष्म शंख बजाकर अपने सैदनकों को एकत्र करिे हैं । िब भी शंख की यह ध्वनी उनकी पराजय का संकेि िे िी
है ।

क्तवजय के र्ंकेत (14–20)


संजय पाण्डवों की सेना के दवदभन्न संकेिों का वणशन करिे हैं , दवशेषकर श्रीकृष्ण और अजुन
श के शंखों की दिव्य
ध्वदनयों का, वह ध्वनी जो धृिराष्ट्र के पुत्रों के ह्रियों को खण्ड–खण्ड कर िे िी है ।

कृष्ट्ण भिवत्र्ल के रूप में (21–27)


कृष्ण अजुन
श के सारथी के रूप में प्रकट होिे हैं , इससे वे अपने भि वत्सल होने के गुण को प्रकादशि करिे हैं ।
अजुन
श कृष्ण को रथ सेनाओं के बीच में ले जाने के आिे श िे िे है , यह िे खने के दलए दक कौन–कौन उपत्स्थि है ।
युद् में एकत्र सभी को िे खकर अजुन
श युद् करने में दहचदकचािे है ।

अजुसन के र्ंशय (28–46)


िया: अजुन
श , जो दक एक दनमशल ह्रिय वाला भि था, अपने सम्बत्न्धयों को सामने िे खकर िया के काबू में आ गया
और खुि को भू ल गया। िे हात्म बु दद् के कारण वह भयभीि हो उठा।
भोग: वह िकश िे िा है दक वह राज्य का भोग नहीं कर पायेगा अगर वह पदरजनों की जान लेकर उसे जीिे। उस भय
है दक अपने भाइयों की हत्या करने के कारण उसे पाप का भोगी बनना पड़ेगा।
धमशशीलिा और पाप का डर: अजुन
श यह िकश िे िा है दक अपने पदरजनों की हत्या करना पाप है और ऐसा करने से
वह नरक में जायेगा। उच्च दसद्ांि यह है दक धमश का अथश है , जो भी कृष्ण कहें या चाहें ।
वंश का दवनाश : अजुन
श आगे िकश िे िे हु ए कहिा है दक वंश के दवनाश हो जाने से त्स्त्रयाूँ अपदवत्र हो जायेंगी,
अवांदछि संिानें जन्म लेंगी और आध्यत्त्मक सभ्यिा का नाश हो जाएगा। अजुन
श , जो युद् न करने का दनश्चय कर
चुका था, अंििः धनुष एक दकनारे रखकर रथ पर बैठ जािा है ।

16
अध्याय 2: गीता का र्ार्र
अजुशन एक दशष्य के रूप में भगवान् कृष्ण को शरणागि होिा है और कृष्ण अपनी दशक्षाएं अजुन श को यह बिाकर आरम्भ
करिे हैं दक भौदिक शरीर और आत्मा में अंिर मूलभूि क्या है । भगवान् पुनजशन्म की प्रदिया, भगवान् की दनष्काम भदि
(सेवा) और एक आत्म–साक्षात्कार को प्राप्त ह व्यदि की दवशेषिाएं समझािे है ।

अजुसन के और्र भी र्ंशय और्र शर्रणागक्तत (1–10)


असमंजस: अजुशन िुदवधा में पड़कर दनणशय नहीं ले पािा। कृष्ण अजुशन को उसकी अनहसा के दलए डांटिे हैं और कहिे
है दक वह िुबशल है और एक गैर–आयश के रूप में व्यवहार कर रहा है । अजुन
श पुनः िकश िे िा है दक वदरष्ठों का वध करना
पाप है पर दफर उसे समझ आिा है की वह िुदवधा में है और कृपन की िरह व्यवहार कर रहा। इसीदलए वह कृष्ण की
शरण लेकर उनको गुरु के रूप में स्वीकार करिा है । इस प्रकार िोनों का सम्बन्ध दमत्रिा से हारकर गुरु और दशष्य का
सम्बन्ध हो जािा है ।

ज्ञान: लड़ो! आत्मा की कभी मृत्यु नहीं होती (11–30)


गुरु के रूप में, कृष्ण अजुशन की भटकी हु ई िया के दलए उसे डांटिे हैं । कृष्ण अपने उपिे श आत्मा का वैयदिक और
दनत्य स्वभाव का वणशन करिे हु ए आरम्भ करिे हैं और उसकी िुलना अस्थाई शरीर से भी करिे है । कृष्ण आत्मा की
दवशेषिाओं का दवस्िृि वणशन करिे है । इसके बाि वे अदिदरि िकश िे िे हु ए अजुन
श के प्रथम िकश को परास्ि करिे है
दजसमें वे िया का वास्िा िे रहे थे।

कमसकाण्ड: क्तनधाक्तर्रत कतसव्यों को पू णस कर्रने र्े भौक्ततक भोड़ प्राप्त होता है (31–38)
आत्मा के दनत्य स्वभाव के ज्ञान के द्वारा अजुशन के िकों को परास्ि करने के बाि, कृष्ण एक अलग रुख अपनािे हैं ।
अगर अजुशन शरीर के रूप में ही कायश करिा है ,िब भी वह क्षदत्रय के रूप में कायश करने से सुख प्राप्त ह करे गा। इस प्रकार
से कृष्ण कमशकाण्ड की दशक्षाओं का प्रसंग िे कर अजुशन का िुसरे िकश (भोग) को परास्ि करिे है । कृष्ण समझािे हैं दक
अगर अजुशन युद् करिा है िो भोग प्राप्त ह करे गा अन्यथा पाप और अपयश। कृष्ण िया और भोग के भी िकों को स्पशश
करिे है और श्लोक 33–36 में यह बिािे हैं दक अपने कत्तशव्य को अनिे खा करने से क्या हादन होगी।

बु क्तद्ध योग: लड़ो! पर्र क्तकर्ी प्रक्ततक्तक्रया के क्तबना (39–53)


कमश और ज्ञान को संक्युि दकया गया है दजससे दक एक आध्यात्मवािी ज्ञान के साथ कमश में संलग्न हो सके। भगवद्गीिा
का एक महत्वपूणश प्रसंग यह प्रश्न है दक क्या कमश त्याग दिया जाए या आत्मा और ज्पिाथश का भेि जानिे हु ए दनष्काम
कमश दकया जाए। यह प्रश्न अजुशन द्वारा िीसरे , पांचवे और अठारहवें अध्याय के आरम्भ में पुछा जाएगा। कृष्ण बुदद् योग
का लघु दववरण िे िे है (दनष्काम कमश) कृष्ण प्रिर्वशि करिे हैं दक दकस प्रकार इदनदकय भोग और भौदिक संपिा, दजनके
दवषय में वेिों के कमशकाण्ड खंड में वणशन है , भदि में दनष्ठां प्राप्त ह करने मे रोड़े है । अजुशन को वे सलाह िे िे है दक वह िीनों
गुणों से ऊपर आकर फल से अनासि रहिे हु ए अपने किशव्यों को पूरा करे । बुदद् योग से व्यदि वेिी दरवाजों के प्रदि
उिासीन हो जािा है और पाप से मुदि प्राप्त ह करिे हु ए, जन्म–मृत्यु के चक्कर से मुि हो जािा है । इसी प्रकार कृष्ण अजुन

के पाप सम्बन्धी िकश को परास्ि करिे हैं ।

स्स्त्थप्रज्ञ: क्तदव्य चे तना में स्स्त्थत हो जाओ (54–72)


कृष्ण का बुदद् योग का दववरण सुनने के बाि अजुशन यह पूछिे है दक दकस प्रकार एक आध्यात्मवािी को पहचाना जाए।
कृष्ण व्याख्या करिे हैं दक दकस प्रकार एक आध्यात्मवािी सभी भौदिक इच्छाओं को त्याग िे िा है पर समिशी और वैराग्य के
साथ दनधादरि कमों को करिा रहिा है । कृष्ण अजुन
श को, दनयमानुसरण के द्वारा इत्न्कयों को संयदमि करने की सलाह िे िे हैं ।
ऐसा करने से वह भगवान् की कृपा प्राप्त ह करके सुख हो जाएगा। िूसरा अध्याय पूरी भगवद्गीिा का सार है । इस अध्याय में
कमशयोग और ज्ञान योग की स्पष्ट रूप से चचा की गयी है और साथ ही भदियोग की भी एक झलक दिखाई गयी है ।

17
अध्याय 3: कमस योग

िुसरे अध्याय में दवदभन्न मागों को समझाया गया था, जैसे दक सांख्य योग, बु दद् योग और बु दद्मत्ता द्वारा इत्न्कय संयम,
श को बु दद् योग के द्वारा सभी दघनौने कायों से िूर रहने के दलए कहा।बु दद् का
साथ ही दनष्काम कमश। कृष्ण ने अजुन
अथश बु दद् ही जानकर, अजुन
श यह समझ सकिे थे दक कृष्ण का आिे श है दक बु दद् का प्रयोग कर दघनोने कमों से िूर
रहकर युद् ना करे । दफर भी अजुन
श सोचिा है , “कृष्ण अभी भी मुझे युद् करने के दलए उकसा रहे हैं ।” अजुन
श सोचिे
है दक कमश और ज्ञान एक साथ अनुकूल नहीं हैं । वास्िव में कमश और ज्ञान दिव्य चेिना की ओर जािे हु ए मागश में िो
स्िर हैं ।

कमस का त्याग या भक्ति में कमस ? (1 –9)


अपनी िुदवधापूणश त्स्थदि में, अजुन
श कृष्ण से उनके दपछले उपिे श को स्पष्ट करने का दनवेिन करिे हैं । कृष्ण बिािे
हैं दक दकस प्रकार कमशयोग कमशत्याग से बढ़कर है , और वे दवष्णु को यज्ञ करना भी सुझािे हैं दजससे हर कमशबंध
टूट जािा है ।

कमाकाण्ड र्े कमसयोग (10–16)


कृष्ण ने पहले यह स्थादपि दकया था दक व्यदि अनासि होकर कमश करे और उसे कृदत्रम रूप से कमों का त्याग
नहीं कर िे ना चादहए। अब वे उन व्यदियों के बारे में बिाएूँगे को वैराग्य के स्िर पर नहीं है पर उसे प्राप्त ह करना
चाहिे हैं । भौदिक इच्छाओं को धार्वमक रूप से पूरा करने पर वे शुदद् को प्राप्त ह करें गे। अब कृष्ण यह दिखाएूँगे दक
दकस प्रकार अन्न का उत्पािन यज्ञों पर दनभशर करिा है और ऐसे यज्ञ का स्त्रोि हैं दवष्णु।

कमसयोग: उदाहर्रण स्त्थाक्तपत कर्रने के क्तलए अनार्ि र्रहकर्र क्तनधाक्तर्रत कमस कर्रना (17–35)
एक आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त ह व्यदि का कमश के सम्बन्ध में वणशन श्रीकृष्ण श्लोक 17 से 21 में िे िे हैं । ऐसे व्यदि
को दनधादरि कमश करने दक आवश्यकिा िो नहीं होिी परन्िु दफर भी वह कमश करिा है सामान्य जनिा के दलए
उिाहरण प्रस्िुि करने हे िु। कृष्ण अपना ही उिाहरण िे िे हु ए कहिे हैं दक भगवान स्वयं कायश करिे हैं दजससे दक
अन्य लोगों को पालन करने के दलए मानक प्राप्त ह हों।
कृष्ण यह भी बिािे है दक एक ज्ञान सुदवज्ञ व्यदि उन अज्ञादनयों के कैसे दमले जो कमशकाण्ड के प्रदि आसि हैं ।
एक भि को, अपने वाक्यों और उिाहरण के द्वारा, जनिा को उनके कमशफल भदि में संलग्न करने के दलए
प्रोत्सादहि करना चादहए।अजुन
श अंििः कृष्ण के प्रदि भदि भाव रखिे हु ए युद् करने को कहे जािे हैं दजससे वे हर
कमश–बंधन से मुि हो जायेंगे। कृष्ण कमा योग की अपनी व्याख्या का दनष्कषश अजुन
श को यह चेिावनी िे िे हु ए
करिे हैं की उसे अपने दनधादरि कमश नहीं त्यागने चादहए भले ही कुछ अपूणि
श ाएं हों। वे यह समझािे है दक हर
व्यदि उसके स्वभाव के अनुसार कायश करिा है ।

काम और्र क्रोध र्े र्ावधान (36–43)


अजुन
श कृष्ण से पूछिे हैं दक ऐसा क्या है को व्यदि को उसके दनधादरि कमश भु लाकर पाप करने को दववश करिा है
और कृष्ण हमारे दचरकादलक शिु काम की व्याख्या करिे हैं । व्यदि अपने वास्िदवक स्वरूप के ज्ञान में भु दद् को
त्स्थर हो, कृष्णभावनामृि में कायश करिे हु ए काम पर दवजय प्राप्त ह सकिा है ।

18
अध्याय 4: क्तदव्य ज्ञान
अध्याय टीम में कृष्ण बिािे हैं दक काम हमारे ज्ञान को ढक लेिा है और अज्ञान हमें बाूँध िे िा है । उन्होंने दिव्य ज्ञान
प्राप्त ह करने के दलए कमशयोग का सुझाव दिया। और इस प्रकार अजुन
श को आध्यात्मवािी बनने के दलए प्रोत्सादहि
करने के बाि, कृष्ण यह बिािे हैं दक ज्ञान क्या है और ज्ञान कैसे प्राप्त ह दकया जािा है ।

कृष्ट्ण र्म्बन्धी क्तदव्य ज्ञान (1 –10)


परम प्रमाण होिे हु ए, कृष्ण ने पहले यह ज्ञान दववस्वान को दिया था और अब वे पुनः अजुन
श को यह ज्ञान िे रहे हैं
क्योंदक वह उनका दमत्र और भि है । यूूँ िो कृष्णा अजन्में हैं , वे इस संसार में धमश की पुनस्थापना, अपने भिों की
रक्षा और आसुरी व्यदियों का वध करने के दलए आिे हैं । जो भी यह ज्ञान समझ जाए वह कृष्ण प्रेम को प्राप्त ह होगा
और विशमान जीवन के अंिा में भगवद्ाम जाएगा।

कृष्ट्ण र्भी मागों के लक्ष्य एवं वणाश्रम के र्ृष्टा के रूप में (11 –15)
अपने दवषय में ज्ञान, जो मुदि की ओर ले जािा है , बिाने के बाि कृष्ण अब समझािे हैं दक सभी मागों का अंदिम
लक्ष्य क्या है और कैसे सभी सफलिा केदलए श्रीकृष्ण पर ही आदश्रि हैं । उन्होंने वणाश्रम की रचना की है दजससे
दक व्यदि अपनी भौदिक इच्छाएं पूणश कर मुदि की ओर अग्रसर हो सकिा है , परन्िु कृष्ण स्वयं इस दवदध के परे
हैं ।
कृष्ण दनरपेक्ष हैं और केवल भौदिक प्रकृदि के साधन से ही जीवों के कमा करने में सहायिा करिे हैं , परन्िु दकसी
भी सही या गलि गदिदवदध के दलए दज़म्मेिारी नहीं हैं और न ही उनके पदरणामों के दलए। वे कमशफलों की इच्छा
नहीं रखिे और भौदिक दिया प्रदिदिया से िूर हैं । अजुन
श को उन मुिात्माओं का अनुसरण करना चादहए दजन्होंने
कृष्ण के इस इव्य स्वभाव की समझ के साथ कायश दकये हैं ।

कमस योग (16–24)


अपनी दिव्यावस्था समझाने के बाि कायश का दवश्लेषण करिे हैं और दकस प्रकार दिव्य स्िर पर कायश दकया जािा
है , इसका दववरण िे िे हैं ।

यज्ञ कर्रने र्े क्तदव्यज्ञान प्राप्त होता है (25–33)


दिव्य स्िर पर दकस परकार कायश दकया जाए, इसकी व्याख्या करने के बाि, कृष्ण दवदभन्न यज्ञों की व्याख्या करिे हैं
(श्लोक 25 से 33 में)क्योंदक इन सभी यज्ञों का अंदिम ध्येय दिव्या ज्ञान है , को इस अध्याय का मोल–दवषय है ।
यज्ञ की चचा गीिा 3.9–16 में पहले से ही की जा चुकी है दजसमें कृष्ण नें बिाया था दक दबना दवष्णु को यज्ञ
अर्वपि दकये कोई भी इस संसार में सुखी नहीं रह सकिा।

क्तदव्यज्ञान का र्ार्र (34–42)


यह समझाने के बाि दक सभी यज्ञ दिव्य ज्ञान को जािे हैं , कृष्ण दिव्य ज्ञान के दवदभन्न पहलुओं की व्याख्या करिे
हैं । दिव्य ज्ञान प्राप्त ह करने के दलए व्यदि को इत्न्कयाूँ संयदमि कर, श्रद्ापूवशक एक गुरु को की शरण लेनी चादहए
और उनकी आग्यापूवशक सेवा करनी चादहए। इससे व्यदि पाप से मुि होकर परा भगवान् से अपना सम्बन्ध जान
पायेगा। कृष्ण अजुन
श को दिव्यज्ञान से लैस होकर युद् करने को कहिे हैं ।

19
अध्याय 5: कमस योग – कृष्ट्णभावानाभाक्तवत कमस
अध्याय 4, में भगवान् अजुन श को यह बिािे हैं की सभी यज्ञ कायश ज्ञान में समादपि होिे हैं । परन्िु अध्याय 4 के अंि में
अजुनश को वे ज्ञान में त्स्थि हो, उठकर युद् करने को कहिे हैं । इसीदलए साथ–साथ दनष्काम कमश और ज्ञानपूणश
अकमश पर बल िे िे हु ए, कृष्ण अजुनश को पुनः दवकल करिे हु ए उसकी दनष्ठा भ्रदमि कर िे िे हैं ।

कमसयोग र्ंन्यार् के बर्राबर्र और्र उर्र्े र्हज भी है (1–6)


इसीदलए अध्याय पांच एक प्रश्न के साथ खुलिा है जो अजुन
श नें िीसरे अध्याय के आरम्भ में पूछिा हा: “क्या
बहिर है , संन्यास या दनष्काम कमश?” कृष्ण उत्तर में कहिे हैं यूूँ िो दनष्काम कमश और संय्यास के पदरणाम एक ही
हैं परन्िु कमशयोग श्रेष्ठ है क्योंदक वह सरल है , सुरदक्षि और अदधक व्यवहादरक भी है क्योंदक ओस,एम् इत्न्कयां
संलग्न रहिी है और साथ–साथ दनष्काम कमश से ह्रिय की शुदद् भी होिी है ।

क्तनष्ट्काम कमस योगी का क्तववर्रण (7–12)


कृष्ण अब दनष्काम कमश योग की दिया समझािे हैं । व्यदि जो कृष्ण के ज्ञान में त्स्थि है वह यह समझ सकिा है
दक वह इस भौदिक प्रकृदि से असंगि है और इदसलए वह केवल शुदद् प्राप्त ह करने के दलए ही कायश करिा है और
अपने कमों के सभी पदरणाम कृष्ण को अर्वपि कर िे िा है । इस प्रकार वह अनासि रहिा है केवल कत्तशव्यपूिी के
दलए कायश करिे हु ए।

ईश्वर्र, जीव और्र प्रकृक्तत के बीच र्म्बन्ध (13–16)


एक आध्यात्मवािी जो अनासि रहिे हु ए कायश करिा है वह जीव. भौदिक प्रकृदि और परमात्मा के बीच सम्बन्ध
के दवषय में ज्ञान लाभ करिा है । यु िो भौदिक गुण और परमात्मा दिया और प्रदििया के कारक जान पड़ें पर वे
अब दजम्मिार नहीं रहिे। अब जीव भौदिक प्रकृदि का भोग करने का प्रयास करिा है िब िीन गुण आवश्यक
दियाएं करिे हैं , परमात्मा की अनुमदि से।

ज्ञानी और्र पमात्मावादी का दृक्तष्टकोण (17–26)


व्यदि जो जीव, भौदिक प्रकृदि और परमात्मा के सम्बन्ध के ज्ञान में त्स्थि है वह परमात्मा की शरण ग्रहण करिा
है और प्रबु ध होकर मुदि को प्राप्त ह करिा है । एक कृष्ण भावानाभादवि व्यदि अपनी चेिना को कृष्ण पर त्स्थि
करके भीिर से असीदमि सुख का भोग करिा है । वह सिै व परोपकार के कायों में व्यस्ि रहिा है और शीघ्र ही
मुदि प्राप्त ह करिा है ।

ध्यान योग और्र शास्न्त र्ूर र्े पक्तर्रचय (27– 29)


कृष्ण इस अध्याय के अंि में ध्यान योग का पदरचय िे िे हैं दजसका दवस्िार अध्याय छह में दकया जाएगा।
अंदिम श्लोक में वे शात्न्ि सूत्र को भी प्रस्िुि करिे हैं : वह व्यदि जो पूरी िारक कृष्ण भावना में हैं और कृष्ण को
सवोच्च शुभनचिक समझिा है ।

20
अध्याय 6: ध्यान योग

पहले पांच अध्यायों में, कृष्ण बुदद् योग का दववरण िे िे हैं दजसमें व्यदि अपनी चेिना कृष्ण पर त्स्थर करके दनष्काम
कमश करिा है । भगवान् नें सांख्य, कमशयोग और ज्ञान योग की भी व्याख्या की जो मुदि प्राप्त ह करने की दवदधयां है और
कृष्णभावनामृि प्राप्त ह करने के चरण।

योगरुरुक्षू योगरूढ़ अभ्यार् (1–9)


पांचवे अध्याय के अंि से लेकर छठवें अध्याय के आरम्भ िक कृष्ण ध्यान योग की व्याख्या करिे हैं और दनष्कषश
में कहिे हैं दक वे स्वयं ध्यान का लक्ष्य हैं । अष्टांग योग में भी, आरं दभक स्िरों में कमशयोग आवश्यक है । जब कोई
व्यदि ध्यान की दसदद् प्राप्त ह कर लेिा है िब वह सभी दवक्षु ब्ध करने वाली मानदसक गदिदवदधयों को रोक िे िा है
और योगरूढ़ के स्िर पर पहु ूँ च जािा है ।

योगाभ्यार् के स्त्तर्र और्र र्माक्तध (10–27)


अष्टांग योग के स्िर समझाने के बाि कृष्ण इन स्िरों के अभ्यासों की व्याख्या करिे हैं ।दनष्ठापूवश योगाभ्यास करिे
हु ए, मन को दनयंदत्रि कर उसे परमात्मा पर त्स्थि करने से व्यदि उस दसदद् को प्राप्त ह करिा है दजसे समादध कहिे
हैं , यह वह स्िर है जहाूँ व्यदि असीदमि दिव्य सुख भोगिा है ।

योग की क्तर्क्तद्ध: कृष्ट्ण का पर्रमात्मा के रूप में र्ाक्षात्कार्र कर्रना (28–32)


मन को आत्म में त्स्थि करने के योगाभ्यास का वणशन करने के बाि कृष्ण एक योगी के साक्षात्कार को समझािे
हैं । प्रभु पाि बिािे हैं : “एक कृष्ण भावानाभादवि व्यदि एक दसद् िृष्टा है क्योंदक कृष्ण सभी के ह्रिय में परमात्मा
के रूप में उपत्स्थि हैं ।। वह व्यदि कृष्ण को सवशत्र िे खिा है और कृष्ण में सब कुछ। इस प्रकार वह सभी जीवों
को समान िृष्टी से िे ख पािा है ।”

अष्टां ग योग अजुसन द्वार्रा अस्त्वीकृत (33–36)


अजुन
श अष्टांग योग को अव्यवहादरक कहिे हर अस्वीकार कर िे िे हैं क्योंदक उन्हें मन को दनयंदत्रि करना असंभव
जान पड़िा है । कृष्ण अजुन
श को आश्वस्ि करिे हैं दक दनयदमि अभ्यास और वैराग्य के माध्यम से मन को दनयंत्रण
में लाया जा सकिा है ।

एक अर्फल योगी की गक्तत (37–45)


अजुन
श जब एक असफल योगी की गदि के दवषय में प्रश्न करिे है िब कृष्ण उन्हें यह आश्वासन िे िे हैं दक ऐसे योगी
का अगला जन्म नािा ही दशभ होिा है और उसे आत्म साक्षात्कार प्राप्त ह करने का िूसरा अवसर प्राप्त ह होिा है ।

उच्चतम योगी (46–47)


योदगयों की कर्वमयों, ज्ञादनयों और िपत्स्वयों से िुलना करने के साथ अष्टांग योग के अपने दवस्िार का दनष्कषश िे िे हैं ।
योगी सभी से श्रेष्ठ है और सवशश्रेष्ठ योगी वह भि है जो सिै व दिह्सं का नचिन करिा है और दबना िुदट के उनकी
उपासना करिा है ।

21
अध्याय 1–6 के क्तलए अक्ततक्तर्रि नोट एवं चाटस

अजुसन के यु द्ध न कर्रने के कार्रण:


(अजुसनक्तवषादयोग)

1. दया 1.27

2. भोग 1.30 –35

3. पाप 1.36, 43–44, 2.5

4. वंश का क्तवनाश 1.37 – 43

5. दु क्तवधा 2.6 – 7

दुर्र्रे अध्याय का अवलोकन

अजुन
श का शरणागि होना 2.1–10
ज्ञान
2.11–30
िया का िकश परास्ि

कमशकाण्ड
2. 31–37
भोग और पाप का िकश परास्ि

बुदद् योग 2.38–53


कमशयोग पाप का िकश परास्ि (कोई पाप–प्रदिदिया नहीं)

त्स्थिधीर मुदन 2.54–72

स्स्त्थतधीर्र मुक्तन 2.54–72

लक्षण 2.55

वाणी 2.56–57
बैठने का िरीका 2.58–63

चलने का िरीका 2.64–72

22
कृष्ट्ण द्वार्रा अजुसन के तकों को पर्रास्त्त क्तकया जाना:

िया ज्ञान 2.11–30

भोग कमस काण्ड 2.31–37

पाप बु क्तद्धयोग 2.38–53

वंश का दवनाश कमस योग 3.18–26

योग क्तवक्तधयों का अवलोकन

कमस काण्ड 2.31-37, 2.42-46, 3.10-16

कमस योग 2.38-54, अध्याय 3

ज्ञान योग अध्याय 4-5

ध्यान योग अध्याय 6

योग र्ीढ़ी

भक्तियोग

ब्रह्मन परमात्मा

अष्ाांगयोग

ज्ञान योग

कमम योग

कमम काण्ड

23
योग क्तवक्तधयों के मध्य कक्तड़याूँ

कमशकाण्ड कमशयोग
2.31, 3.11, 3.16
कमशयोग ज्ञानयोग
5.2, 6.46-47
ज्ञान योग ध्यान योग
6.46-47
ध्यान योग भदियोग
6.30-31

24
पूवस स्त्वाध्याय

क्लोज्ड बुक असेसमेंट हे िु प्रश्न

भगवद्गीता अध्याय 1
1. धृिराष्ट्र के मामकाः कहने का क्या महत्व है ? (1.1)
2. धृिराष्ट भयभीि क्यों था? (1.1)
3. संजय कुरुक्षेत्र का युद्स्थल कैसे िे ख पा रहा था? (1.1)
4. िुयोधन के धीमि और िव दशष्येण कहने का क्या महत्व था? (1.3 Lecture)
5. द्युि–िीडा के बाि भीम द्वारा ली गयी प्रदिज्ञाओं को सूचीबद् कीदजये। (1.4)
6. िुयोधन भीष्मिे व और कोण के पूरे सहयोग के दलए आश्वस्ि क्यों था? (1.11)
7. पांडवों की दवजय के चार लक्षणों को सूचीबद् करें । (1.14–20)
8. अजुन श के ध्वज पर हनुमान के होने का क्या महत्व था? (1.20 Lecture)
9. गुडाकेश का क्या अथश है ? (1.24)
10. छह प्रकार का आििाइयों को सूचीबद् करें । (1.36)
11. वंश के दवनाश होने के पदरणामों को सूचीबद् करें । (1.39–42)

भगवद्गीता अध्याय 2
12. अजुन श के युद् न करने के चार िकों को सूचीबद् करें । (1.27–2.7)
13. भगवान् के छह लक्षणों को संस्कृि या नहिी में सूचीबद् करें । (2.2)
14. क्षू कं ह्रियिौबशल्यं का क्या अथश है ? (2.3)
15. शास्त्रों के अनुसार, का एक गुरु का त्याग कर िे ना चादहए? ( 2.5)
16. धमशसंमूढ चेिाः का क्या अथश है ? (2.7)
17. आत्मा का क्या माप है और उसके अत्स्ित्व का क्या संकेि संकेि है ? (2.17)
18. शरीर को होने वाले छह प्रकार के बिलावों को सूचीबद् करें । (2.20)
19. अणुआत्मा और दवभुआत्मा का दहन्िी अथश बिाएं। (2.20)
20. पशुओं की यज्ञ में बदल िे ना नहसा क्यों नहीं माना जािा? (2.31)
21. क्षदत्रय का क्या अथश है ? (2.31)
22. स्वधमश का क्या अथश है और िो प्रकार के स्वधमश क्या हैं ? (2.31)
23. स्वगशद्वारंअपावृिं का क्या अथश है ? (2.32)
24. प्रत्यावायः न दवद्यिे का दहन्िी अथश बिाएं। (2.40)
25. व्यवसायात्त्मकबुदद् का नहिी अथश बिाएं। (2.41)
26. वेि दवशेषकर दकन दवषयों की चचा करिे हैं ? (2.45)
27. वैदिक सभ्यिा का उद्देश्य कब कैसे पूणश होिा है ? (2.46)
28. शब्ि प्राज्ञस्य का क्या अथश है ? (2.54)
29. एक सुसदिि मूखश िब िक नहीं पहचाना जािा जबिक? (2.54)
30. परम्िृष्ट्वा दनविशिे का क्या अथश है ? (2.59)
31. मत्परः के में दकसका उिाहरण दिया गया है 2.61 में?
32. नहिी या संस्कृि में पिन के आठ स्िरों को सूचीबद् करें । (2.62–63)
33. ब्रह्मदनवाणंऋच्छदि का क्या अथश है ? (2.72)

25
भगवद्गीता अध्याय 3
34. दकस प्रकार कृष्णभावनामृि को गलि समझा जािा है ? (3.1)
35. दनम्न का नहिी अथश बिाएं:
a. ििे कंवि (3.2)
b. दमथ्याचारः (3.6)
c. कमशयोगं असिः स दवदशष्यिे (3.7)
d. ििथं कमश कौन्िेय मुि संगः (3.9)
e. यो भुङ्क्ते स्िेन एव सः (3.12)
f. अन्नाद्भवत्न्िभूिादन (3.14)
g. दवकमश (3.15)
36. एक पूणि श ः कृष्ण भावनाभादवि व्यदि को वैदिक दनयम पालन करने की आवश्यकिा क्यों नहीं होिी?
(3.17)
37. आचायश का नहिी अथश बिाएं। (3.21)
38. कृष्ण दनधादरि कत्तशव्य का पालन क्यों करिे हैं ? (3.23)
39. कृष्णभावनामृि के प्रारदभक अभ्यास के दलए दकन योग्यिाओं की आवश्यकिा होिी है ? (3.26)
40. दनरादषर्वनमशमो का नहिी अथश बिाएं। (3.30)
41. दनत्यवैदरणः का नहिी अथश बिाएं। (3.39)
42. काम के िीन आसनों को सूचीबद् करें । (3.40)
भगवद गीता अध्याय 4
43. दववस्वान को गीिा लगभग दकिने वषश पूवश कही गयी थी? (4.1)
44. छह प्रकार के अविारों को सूचीबद् करें । (4.8)
45. श्रद्ा और प्रेम के बीच के आठ स्िरों को सूचीबद् करें । (4.10).
46. पाषंडी का क्या अथश है ? (4.12)
47. चार वणों को मुख्य रूप से प्रभादवि करने वाले गुणों को सूचीबद् करें । (4.13)
48. बारह महाजनों को सूचीबद् करें । (4.16)
49. जड़ पिाथश को परम सत्य की सेवा में लगाने से क्या प्राप्त ह होिा है ? (4.24)
50. भि की िीघायु के प्रदि रवैय्ये का वणशन करें । (4.29)
भगवद्गीता अध्याय 5
51. प्रधान शब्ि का नहिी अथश बिाएं। (5.10)
52. फलंत्यक्त्वा शात्न्िमाप्नोदि नैदष्ठकीं का दहन्िी अथश बिाएं। (5.12)
53. शरीर के नौ द्वारों को सूचीबद् करें । (5.13)
54. दवभु और अणु शब्िों के नहिी अथश बिाएं। (5.15)
55. पत्ण्डिाः समिर्वशनः का नहिी अथश बिाएं। (5.18)
56. अष्टांग योग के आठ अंगों को सूचीबद् करें । (5.27)
भगवद्गीता अध्याय 6
57. कब मन सवशश्रेष्ठ दमत्र और कब महानिम शिु हो जािा है ? (6.6)
58. एकाकी (6.10) और शुचौ िे शे (6.11) के नहिी अथश बिाएं।
59. आहार, दनका, भय और मैथुन में अत्यादधक भाग लेने के क्या पदरणाम हैं ? (6.17)
60. युि का नहिी अथश बिाएं। (6.18)
61. प्रत्याहार का नहिी अथश बिाएं। (25)
62. योगी दकन वस्िुओं से आकर्वषि होने पर दसदद् नहीं प्राप्त ह कर पािे? (6.23)
63. असफल योगी की गदि का वणशन करें । (41–42)

26
भगवद्गीता के अध्याय 1–6 की चु नी हु ईं उपमाएं
2.1
एक डूबिे हु ए व्यदि के वस्त्रों के दलए करुणा मूखशिा है और इसी प्रकार एक व्यदि जो अज्ञान के सागर में दगर गया है
वह केवल बाहरी वस्त्रों के बचाए जाने से सुरदक्षि नहीं दकया जा सकिा।
2.2
परम सत्य का िीन चरणों में साक्षात्कार होिा है ब्रह्मन, परमात्मा और भगवान्। यह सूयशप्रकाश, सूया–सिह और सूया–
गृह के उिाहरण से समझाया जा सकिा है ।
2.17
ठीक दजस प्रकार एक औषदध का प्रभाव पूरे शरीर में फ़ैल जािा है , उसी प्रकार आत्मा का प्रभाव पूरे शरीर में चेिना के
रूप में फैला हु आ है और यह आत्मा के अत्स्ित्व का प्रमाण है ।
2.20
कभी–कभी हम बािलों के कारण सूयश को नहीं िे ख पािे परन्िु प्रकाश सिा ही उपत्स्थि होिा है और यह सूयश की
उपत्स्थदि का संकेिक है । इसी प्रकार यूूँ िो व्यदि ह्रिय में आत्मा को न िे ख पाए परन्िु चेिना के रूप में आत्मा की
उपत्स्थदि समझी जा सकिी है , चेिना, जो पूरे शरीर में व्याप्त ह है ।
2.22
जैसे एक व्यदि नए कपडे पहनिा है और पुराने उिार िे िा है उसी प्रकार एक आत्मा पुराना शरीर छोड़कर नए भौदिक
शरीर स्वीकार कर लेिी है ।
2.21
यूूँ िो न्यायाधीश हत्या के िोषी को मृत्युिंड िे ने का आिे श िे िा है परन्िु न्यायाधीश को िोषी नहीं कहा जा सकिा क्योंदक
वह कानून के दनयमों के अनुसार िण्ड िे िा हैं । इसीदलए जब कृष्ण युद् करने का आिे श िे िे हैं िो यह समझा जाना
चादहए दक यह परम न्याय हे िु है और क्योंदक अजुन
श कृष्ण के आिे शानुसार युद् कर रहे हैं वे पाप के भागी नहीं होंगे।
2.20
व्यदि आत्मा का अत्स्ित्व बड़ी आसानी से चेिना की उपत्स्थदि के द्वारा समझ सकिा है । कई बार बािलों के होने , या
दकसी और कारण से हम सूयश को नहीं िे ख पािे पर सूया की रौशनी सिा ही रहिी है और इसीदलए हम आश्वस्ि हो जािे
हैं दक अभी दिन का समय है ।
2.21
शल्य दचदकत्सा एक मरीज़ का इलाज करने के दलए होिी है उसकी हत्या करने के दलए नहीं। इसी प्रकार, कृष्ण के दलए
युद् करना सभी के दलए लाभिायक है और इस प्रकार, दकसी भी पाप प्रदिदिया की कोई संभावना नहीं रह जािी।
2.41
दजस प्रकार जड़ में पानी िे ने से पदत्तयों और टहदनयों सभी में जल पहु ूँ च जािा है , उसी प्रकार कृष्णभावनामृि में कायश
करने से व्यदि सभी की सवोच्च सेवा कर सकिा है चाहे वह व्यदि स्वयं हो या उसका पदरवार, समाज, िे श, मानविा
इत्यादि।
2.58
एक कछु आ दकसी भी समय अपनी इत्न्कयाूँ अन्िर खीच सकिा है और आवश्यकिा पड़ने उन्हें बाहर दनकाल सकिा है ।
इसी प्रकार, एक कृष्णभावनाभादवि व्यदि की इत्न्कया दकसी दवशेष कायश के दलए उपयोग में लायी जािी हैं अन्यथा वे
अप्रकट त्स्थदि में रहिी हैं ।
2.58
इत्न्कयों की िुलना दवषैले सांप से की गयी और और भि की िुलना संपेरे से । एक भि को संपेरे की िरह होना चादहए
अपने सपश–सम इत्न्कयों को वश में करने के दलए। उसे अपनी इत्न्कयों को स्विन्त्र नहीं छोड़ना चादहए।
2.59
इत्न्कय भोग पर दनयमों द्वारा प्रदिबन्ध एक व्यादधग्रस्ि व्यदि को कुछ खाद्य–पिाथों से परहे ज के समान िे खा जा सकिा
है । एक मरीज़ को न िो ये दनयम भािे हैं और न ही वह वर्वजि पकवानों का स्वाि छोड़ पािा है ।

27
2.67
दकस प्रकार िेज़ हवा का झोंका नांव को बहा का ले जािा है , उसी प्रकार एक भटकिी हु ई इंकी दजसपर मन केत्न्कि हो
एक मनुष्य की बुदद् को भा ले जािी है ।
2.70
दजस प्रकार एक सागर दजसमें सिा ही नदियाूँ जल िे िी रहिी हैं , दवचदलि नहीं होिा और सिा ही शांि रहिा है | इसी
प्रकार एक व्यदि को कृष्णभावनामृि में त्स्थर है , अनंि इच्छाओं के मध्य में भी सिा शांि रहिा है |
3.14
जब एक महामारी होिी है िब एक वैक्सीन से व्यदि महामारी से सुरदक्षि दकया जािा है । उसी प्रकार श्रीदवष्णु को अर्वपि
करने के बाि स्वीकार करने से व्यदि भौदिक आसदि से पयाप्त ह ओरादिरोधक क्षमिा प्राप्त ह कर लेिा है ।
3.30
एक केदशयर अपने मादलक के दलए करोड़ों डॉलर दगनिा है पर अपने दलए एक पैसा भी नहीं रखिा। इसी प्रकार,
भगवान की कोई भी संपदत्त दकसी भी एक व्यदि की नहीं है परन्िु सब कुछ परम भगवान् का है ।
3.34
व्यदि को दबना आसि हु ए सभी दनयमों का पालन करना चादहए क्योंदक प्रदिबन्ध पूणश इत्न्कय भोग भी व्यदि को दडगा
सकिी हैं दजस प्रकार शाही सड़क पर भी िुघशटना हो सकिी है ।
3.37
भगवत्प्रेम काम में बिल जािा है दजस प्रकार इमली दमलाने से िूध िही में बिल जािा है ।
3.39
मनुस्मृदि में उल्लेख है दक काम वासना दकिने भी इत्न्कय भोग करने से शांि नहीं की जा सकिी वैसे ही जैसे आग कभी
इंधन के दनयदमि प्रिाय से बु झाई नहीं जा सकिी।
4.6
उनके प्राकट्य और अप्राकट्य सूया के उगने, हमारे सामने स्थान बिलने और डूबने के समान है । जब सूया िृष्टी से हट
जािा है िो हम सोचिे है वह डूब गया और जब वह समक्ष रहिा है िो हमें लगिा है सूया दक्षदिज पर है । वास्िव में सूयश
एक ही स्थान पर होिा है ।
4.14
वे भौदिक दियाओं और प्रदिदियाओं से िूर हैं । उिाहरण, वृदष्ट उत्पन्न होने वाले दवदभन्न वनस्पदियों का कारण नहीं है
परन्िु वृदष्ट के दबना उनके दवकास का प्रश्न भी नहीं उठिा।
4.21
दजस प्रकार एक मशीन में सफाई और िेल लगाने की आवश्यकिा होिी है उसी प्रकार एक कृष्ण भावानाभादवि व्यदि
भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा करने को िैयार रहने के दलए कमश करिा रहिा है । इस कारण से वह अपने प्रयासों से
सभी प्रदिदियाओं से सुरदक्षि रहिा है ।
4.24
उिाहरण, व्यदि जो अमश से पीदड़ि है अत्यादधक िूधके सेवन करिे से वह िुसरे िुग्ध पिाथश यादन िही से ठीक दकया
जािा है । उसी प्रकार एक भौदिकिा में दनमदिि व्यदि कृष्ण चेिना के द्वारं स्वस्थ दकया जा सकिा है दजस प्रकार यहाूँ
गीिा में बिाया गया है ।
5.10
जो व्यदि अनासि रहिे हु ए कायश करिा है और उसके फल भगवान् को अर्वपि कर िे िा है वह पाप प्रदिदिया से
प्रभादवि नहीं होिा, ठीक दजस प्रकार एक कमल पत्र कभी पानी में गीला नहीं होिा।
5.15
भगवान् परमात्मा के रूप में जीव के दनत्य साथी हैं इसीदलए वे जीव की इच्छाएं जान लेिे हैं , ठीक दजस प्रकार एक व्यदि
पुष्प के दनकट खड़े होकर उसकी गंध ले लेिा है ।
6.34
मन इिना शदिशाली और हठी है दक कभी–कभी वह बुदद् पर ही हावी हो जािा है , ठीक दजस प्रकार एक अदििीव्र
व्यादध औषदध के प्रभाव को घटा िे िी है ।

28
यूक्तनट 1 Open बु क अर्े र्मेंट

प्रश्न 1
प्रभु पाि के भाव एवं दमशन के िीन पहलुओं को सूचीबद् करें जो भगवद्गीिा के आमुख में दिए गए हैं और अपने
शब्िों में इस्कॉन के दलए इन पहलुओं के महत्व पर टीका करें ।
(भाव और दमशन)

प्रश्न 2
प्रभु पाि के िात्पयों में दिए वाक्यों, श्लोकों और उपमाओं का प्रसंग िे िे हु ए दनम्न पर चचा करें ।
• कब नहसा न्यायोदचि होगी?
• कृष्ण, जो सभी से प्रेम करिे हैं , अजुन श को युद् के दलए क्यों उकसािे हैं ?
• धमश के नाम पर आिंकवाि उपयुि है या अनुपयुि?
(प्रचार उपयोग)

प्रश्न 3
अजुन
श की िुदवधा से प्राप्त ह सामान्य दसद्ांि दकस प्रकार आपके अपने कृष्ण कृष्णभावनामृि के अभ्यास में
प्रासंदगक हैं , इसकी चचा करें । व्याख्या में भगवद्गीिा 2.6–10 का सन्िभश िें ।
(व्यदिगि उपयोग)

प्रश्न 4
कृष्णभावनामृि द्वारा इत्न्कय संयम की दवदध की अपने शब्िों में व्याख्या करें , भगवद्गीिा 2.54–68 और 3.4–8
के श्लोक, िात्पयश और उपमाओं का सन्िभश िे िे हु ए। और दकस प्रकार से यह दनम्न के दलए प्रासंदगक है :
• कुरुक्षेत्र में अजुन
श की त्स्थदि?
• आपके स्वयं के कृष्णभावनामृि के अभ्यास?
(व्यदिगि उपयोग)

प्रश्न 5
भगवद्गीिा के अध्याय 2 एवं 3 एवं श्रील प्रभु पाि के प्रवचनों का सन्िभश िे िे हु ए अपने शब्िों में समझाएं दक दकस
प्रकार कृष्णभावनामृि वणाश्रम से बढ़कर है । दकस प्रकार वणाश्रम धमश का उपयोग कृष्णभावनामृि में सहायक है ,
इसकी भी व्याख्या करें ।
(समझ)

प्रश्न 6
भगवद्गीिा के श्लोक िात्पयश एवं प्रभु पाि के प्रवचनों के आधार पर कमशकाण्ड, कमशयोग, ज्ञानयोग और ध्यान योग
की दवदधयों को समझाएं। अपने उत्तर में प्रासंदगि श्लोकों के कुछ दवशेष संस्कृि शब्िों पर भी बल िें ।
(समझ)

प्रश्न 7
श्लोक संख्या 3.36–43 में कृष्ण के काम का दवश्लेषण से प्राप्त ह सामान्य दसद्ांिों को अपने शब्िों में दलखें और
इन दसद्ांिों के अपने कृष्णभावनामृि के अभ्यास में उपयोग की चचा करें । कुछ संस्कृि शब्िों और वाक्यांशों के
उपरोि श्लोकों में से सन्िभश भी िें ।

29
(व्यदिगि उपयोग)

प्रश्न 8
भगवद्गीिा के अध्याय 2–6 के श्लोको एवं िात्पयों के आधार पर अपने शब्िों में यह स्थादपि करें दक दकस प्रकार
भदि अन्य योग पद्दियों से श्रेष्ठ है । उत्तर में दनम्न की भी व्याख्या करें :
• भदि के आलावा कदलयुग में अन्य सभी योग दवदधयों की अव्यवहादरकिा।
• दकस प्रकार भदियोग में अन्य सभी योगों के अंग हैं ।
• दकस प्रकार भदियोग का अभ्यास अन्य दकसी भी योग के पालन दकये दबना दकया जा सकिा है ।
(प्रचार उपयोग)

प्रश्न 9
भगवद्गीिा के 2.11 एवं 4.5–6 के श्लोक एवं िात्पयों का प्रसंग िे िे हु ए, अपने शब्िों में यह समझाएं दक दकस
प्रकार श्रीकृष्ण भौदिक प्रकृदि से प्रभादवि नहीं होिे।
(समझ)

प्रश्न 10
भगवद्गीिा के श्लोक 4.14 और 5.14–15 का प्रसंग िे िे हु ए, अपने शब्िों में यह समझाएं दक बद् जीवात्मा के
क्लेशों के दलए कौन दज़म्मेिार है ।
(समझ)

30
यूक्तनट 2 भगवद्गीता अध्याय 7–12
यू क्तनट क्तवषयवस्त्तु

क्तवषय पे ज
अध्याय 7: ज्ञान क्तवज्ञान योग
माय्यासिमनः कृष्ण से सुनें 1–7
कृष्ण सभी के स्त्रोि के रूप में 8–12
मम माया िुरत्यया 13–14
को कृष्ण को शरणागि होिा है 15–19
िे विा उपासक और दनर्ववशेश्वािी 20–25
इच्छा–द्वे ष–पुण्य कमशणां 26–30
अध्याय 8: अक्षर्रब्रह्म योग
कृष्ण अजून के प्रश्नो के उत्तर िे िे हु ए 1–4
कृष्ण का स्मरण 5–9
योग दमश्र भदि 10–13
शुद् भदि 14–16
भौदिक और आध्यात्त्मक जगि की िुलना 17–22
परम सत्य की प्रादप्त ह 23–28
अध्याय 9: र्राजक्तवद्या र्राजगुह्य योग
राज दवद्या 1–3
कृष्ण का भौदिक जगि से सम्बन्ध 4–10
उपासक और गैर उपासक 11–19
िे विा उपासक और भि 20–28
अनन्य भदियोग 27–34
अध्याय 10: क्तवभू क्तत क्तवस्त्तार्र योग
कृष्ण सभी के मूल हैं 01–7
चिुश्लोकी गीिा 8–11
कृष्ण के ऐश्वयश 19–42
अध्याय 11: क्तवश्वरूप दशस न योग
उनके दवराट रूप का वणशन 1–31
एक दनदमत्त बन जाओ 32–34
अजुन
श की प्राथशनाएं 35–46
कृष्ण का सवोच्च दद्वभु ज रूप 47–55
अध्याय 12: भक्तियोग
दनर्ववशेश्वाि के ऊपर भदि 1–7
भदि के प्रगदिशील स्िर 8–12
वे गुण दजससे व्यदि कृष्ण का दप्रय बनिा है 13–20

31
भगवद्गीता अध्याय 7–12 का अवलोकन
अध्याय 7: ज्ञान क्तवज्ञान योग

भगवद्गीिा के पहले छह अध्याय दवशेषकर कमशयोग से सम्बं दधि हैं , मध्य छह भदियोग और अंदिम छह ज्ञान योग।
कृष्ण नें अध्याय छह में यह समझाया है दक सवोच्च योगी वह होिा है जो उनसे सबसे अन्िरं ग रूप से जुडा हो और
और सिै व अपने भीिर उन्हीं का नचिन करे । अब सािवें अध्याय में समझाया गया है दक दकस प्रकार ऐसा कृष्ण
भाव्नाभादवि व्यदि बना जाए।भदि में संलग्न होने से व्यदि दनष्ठावान और िृढ़–व्रि हो जािा है साथ ही वह यह भी
समझ जािा है दक केवल ऐसी सेवा करने से ही उसके सारे उद्देश्य पूणश हो जायेंगे।

कृष्ट्ण के क्तवषय में र्ु नकर्र उन्हें पू र्री तर्रह जानना (1–7)
अध्याय साि में, कृष्ण बिाना आरम्भ करिे हैं दक दकस प्रकार व्यदि इस स्िर को प्राप्त ह कर सकिा है । श्लोक 1–
3 में अजुन
श को ज्ञान िे िे हु ए उससे अनुरोध करिे हैं दक वह उनपर मन को अनुरि करके सुने। वे समझािे हैं दक
दकस प्रकार वे सभी के मोल हैं चाहे वह भौदिक हो या आध्यात्त्मक (श्लोक 4–7 में)।

कृष्ट्ण को भौक्ततक अरु आध्यास्त्मक और्र भौक्ततक शक्तियों का स्त्रोत जानना (8–12)
श्लोक 8–12 में कृष्ण वणशन करिे हैं दक दकस प्रकार वे सभी का सार हैं । अगर कृष्ण सभी के मूल और सार हैं
जैसा दक श्लोक 4–12 में बिाया गया है , क्यों कुछ लोग उन्हें भगवान् के रूप में नहीं स्वीकारिे?

तीन गुण कृष्ट्ण द्वार्रा क्तनयं क्तरत इर्ीक्तलए शर्रणागत हों (13–14)
श्लोक 3–14 में समझाया गया है दक दकस प्रकार जीव िीन गुणों द्वारा भ्रदमि एवं दनयंदत्रि दकया जािा है , परन्िु
वह गुणों के परे जा सकिा है कृष्ण की शरण लेकर, क्योंदक कृष्ण िीन गुणों के दनयंिा हैं ।

चार्र प्रकार्र के अधमी जो कृष्ट्ण को शर्रणागत नहीं होते और्र चार्र प्रकार्र के व्यक्ति जो शर्रण लेते हैं
(15–19)
मानविा के नेिाओं के द्वारा िीन गुणों से मुदि प्राप्त ह करने के प्रयास दकये गए हैं , महान योजनाओं और संयम के
साथ। अगर यह केवल कृष्ण की शरण लेने से ही प्राप्त ह हो जािे हैं िो क्यों वह इस दवदध को नहीं अपनािे ? श्लोक
15 में चार प्रकार के योग्य व्यदियों का वणशन है को कृष्ण की शरण नहीं लेिे और स्वयं को नेिा के रूप में दिखािे
हैं केवल भौदिक लाभ के दलए। श्लोक 16–19 में यह उन चार प्रकार के व्यदियों के बारे में वणशन है जो कृष्ण
की शरण लेिे हैं और दकस प्रकार वह दववेकवान व्यदि श्रेष्ठ है क्योंदक वह दकसी लाभ की इच्छा नहीं रखिा।

दे वता उपार्क और्र क्तनर्ववशे षवादी क्तजनकी शर्रणागक्तत गलत है (20–25)


श्लोक 20–23 उन कम बु दद् वालों का वणशन करिा है को िे विाओं की उपासना करिे हैं भौदिक लाभ प्राप्त ह करने
के दलए। श्लोक 24–25 में दनर्ववशेषवािी का वणशन है जो कृष्ण के दनराकार रूप की शरण लेिा है । वे कृष्ण को
िे ख नहीं पािे, जो स्वयं को उनकी िृदष्ट से ढक लेिे हैं ।

एक जीव का भ्रक्तमत होना और्र कृष्ट्ण का ज्ञान (26–30)


कृष्ण सब कुछ जानिे हैं और इसीदलए वे इन मूखश जीवों से अलग हैं जो अज्ञान में जन्म लेिे हैं और इच्छा एवं द्वे ष
से जदनि द्वन्ि से भ्रदमि होिे हैं । पुण्यवान व्यदि, जो अज्ञान से जदनि द्वन्ि से मुि होिे हैं वे भदि में दनष्ठा के साथ
संलग्न होिे हैं और मुदि प्राप्त ह करिे हैं । उन्हें कृष्ण के अदधभू ि, अदधिै व और अदधयज्ञ होने का ज्ञान होिा है ।

32
भगव द्गीता अध् याय 7 - 12 भगवद्गीता

अध्याय 8: अक्षर्रब्रह्म योग

अध्याय 7 के अंि में कृष्ण द्वारा कहे गए छह शब्िों के दवषय में अरुण दजज्ञासा करिे हैं जो हैं : ब्रह्म, आध्यात्म,
कमश, अदधभूि, अदधिै व और अदधयज्ञ।

कृष्ट्ण का अजुसन के प्रश्नों का उत्तर्र (1–4)


इस अध्याय में अजुन
श के प्रश्नों का कृष्ण उत्तर िे िे हु ए योग के दसद्ांिों और शुद् भदि की चचा करिे हैं ।
श्लोक 1–4 में कृष्ण पहले साि प्रश्नों के उत्तर िे िे हैं ।

कृष्ट्ण का स्त्मर्रण (5–9)


श्लोक 5–8 में कृष्ण अजुन
श के आठवें प्रश्न का उत्तर िे िे हैं , उस व्यदि की गदि के सम्बन्ध में जो मृत्यु के
समय कृष्ण का स्मरण करिा है । कृष्ण समझािे हैं दक व्यदि को सिै व ही उनका स्मरण करना चादहए और
साथ–साथ सिीय भदि में संलग्न हो। इस िरह का अभ्यास व्यदि को मृत्यु के समय कृष्ण का स्मरण करने
में सहायिा प्रिान करे गा और वह कृष्ण की प्रकृदि को प्राप्त ह हो जाएगा। कृष्ण उनपर ध्यान करने के कुछ
िरीके श्लोक 9 में बिािे हैं ।

योग क्तमश्र भक्ति (10–13)


एक योगी भी कृष्ण का नचिन करिे हु ए ॐ का उच्चारण कर मृत्यु के समय कृष्ण को प्राप्त ह कर सकिा है ।
योगदमश्रभदि श्लोक के 10–13, में वर्वणि है ।

शु द्ध भक्ति (14–16)


कृष्ण अजुन
श को शुद् भदि में संलग्न होकर दबना दडगे उनका स्मरण करने के दलए प्रोत्सादहि करिे हैं । ऐसी
सेवा में कोई भी रुकावट नहीं आिी और व्यदि शीघ्रादिशीघ्र कृष्ण को प्राप्त ह कर लेिा है ।

भौक्ततक और्र आध्यास्त्मक जगत की तुलना (17–22)


भौदिक जगि अस्थायी और िुखों से भरा हु आ है , दजस प्रकार ब्रह्माण्ड के दनरं िर सृजन एवं दवनाश द्वारा
प्रिर्वशि है । इस दववरण को सुनकर व्यदि इस जगि से वैराग्य प्राप्त ह करिा है । श्लोक (20–22) में
आध्यात्त्मक जगि के स्थायी स्वभाव का वणशन है , और उसे प्राप्त ह करने का िरीका भी, शुद् भदि के द्वारा।

पर्रमात्मा को प्राप्त कर्रने में भक्ति की र्वोच्चता (23–28)


श्लोक 23–26, भगवान् ज्ञादनयों और कर्वमयों के दलए इस जगि का त्याग करने के दवदभन्न मागों का वणशन
करिे हैं । पर कृष्ण के भिों को इन मागों की नचिा करने की आवश्यकिा नहीं क्योंदक, केवल भदि में संलग्न
होने से ही व्यदि सभी मागों के लाभ प्राप्त ह कर अंि में परम गदि को प्राप्त ह करिा है (27–28)। भिों के संग में
मध्य के छह अध्यायों का श्रवण करने से व्यदि हर यज्ञ, िपस्या, प्रायदश्चि इत्यादि के फल प्राप्त ह करिा है और
अनथश दनवृदत्त से शुद् कृष्ण प्रेम की और प्रगदि करिा है ।

33
अध्याय 9: र्राजक्तवद्या र्राजगुह्य योग

भगवद्गीिा के प्रारदभक छह अध्यायों में आत्मा और शरीर के भेि का गुह्य ज्ञान वर्वणि है । अध्याय साि और आठ
अदधक गुह्य हैं क्योंदक वे भदि का वणशन करिे है , जो कृष्णभावनामृि का आलोक प्रिान करिी है । अध्याय 9
सवादधक गुह्य है क्योंदक इसमें शुद् एवं अदमदश्रि भदि का वणशन है । आठवें अध्याय में कृष्ण नें समझाया है दक
दकस प्रकार एक अनन्य भि प्रकाश और अन्धकार िोनों के मागश से आगे बढ़ जािा है । अब कृष्ण बिाएूँगे दक
ऐसा अनन्य भि कैसे बना जाए। इस ओर पहला किम है कृष्ण के दवषय में श्रवण।

कृष्ट्ण के क्तवषय में श्रवण: योग्यताएं और्र योग्यताएं (1–3)


एक ईष्या–मुि व्यदि परम सत्य सम्बन्धी सबसे अन्िरं ग ज्ञान श्रवण के द्वारा प्राप्त ह कर सकिा है । और
भदि की दवदध से कृष्ण का सीधा अनुभव कर सकिा है । एक अश्रद्ालु व्यदि, को जन्म मृत्यु के
चक्कर में लौटना ही पड़िा है (श्लोक 1–3).

कृष्ट्ण का भौक्ततक जगत के र्ाथ अबोधगम्य र्म्बन्ध (4–10)


कृष्ण, अपनी भौदिक प्रकृदि के माध्यम से पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त ह हैं , उसका सृजन करिे है और दवनाश
भी। कृष्ण परम दनयंिा हैं दफर भी भौदिक जगि स्विन्त्र रूप से गदि करिा है और इसी प्रकार कृष्ण
दनरपेक्ष और अनासि रहिे हैं ।

गैर्र–उपार्क और्र उपार्क (11 –19)


कृष्ण भिों की िुलना करिे है , दनर्ववशेषवादियों, िे विा उपासकों और दवश्वरूप उपासकों से करिे हैं ।
वे दवश्वरूप के रूप में स्वयं पर ध्यान करना भी समझािे हैं ।

दे वता उपार्कों और्र भिों की तुलना (20–28)


जो केवल िे विा की ही उपासना है और दजसमें कृष्ण को परम भोिा के रूप में नहीं स्वीकारा जािा वह
अनुदचि है । कृष्ण के भि, दफर भी कृष्ण के संरक्षण में हैं , दजससे कृष्ण का संग प्राप्त ह करने में उन्हें
सहायिा प्राप्त ह होिी है । कृष्ण अपने भिो द्वारा भदि भाव से अर्वपि सभी वस्िुओं को स्वीकार करिे
हैं ।श्लोक 26 में कृष्ण शुद् भदि का वणशन करिे हैं ।

कृष्ट्ण की प्रत्यक्ष उपार्ना की मक्तहमा (27–34)


कृष्ण अजुन श को कमशपण श ं करने की सलाह िे िे हैं , दजसमें वह अपने कमों के सभी फल कृष्ण को अर्वपि
कर िे , इससे अजुन
श को मुदि प्राप्त ह होगी और वह कमशबंधन से मुि रहे गा (श्लोक 27–28)। कृष्ण
अपने भिों के साथ सम्बन्ध की व्याख्या करिे हैं (अन्यों की िुलना में); दकस प्रकार वे भि के दमत्र हो
जािे हैं और उसकी रक्षा करिे हैं आकत्स्मक पिन होने पर भी। दनष्कषश में वे यह गुह्य ज्ञान िे िे हैं दक
दकस प्रकार भदि में संलग्न हु आ जाये। श्लोक 34 अत्यावश्यक है और गीिा 18.65 ,में िोहराया गया
है ।

34
अध्याय 10: क्तवभूक्तत क्तवस्त्तार्र योग

कृष्ण नें पहले ही भदि का दववरण िे दिया है । दवशेषकर अध्याय नौ के अंि में। भि को भदि में आगे
बढ़ने की सहायिा के रूप में, कृष्ण अब अपने ऐश्वयश बिािे हैं । (अध्याय 7 और 9 में उन्होंने अपनी
शदियों का ज्ञान दिया है )।

कृष्ट्ण हर्र वस्त्तु के मूल हैं (1–7)


अध्याय 10 में कृष्ण अपना ऐश्वयश का और दवदशष्ट दववरण िे िे हैं और इसी प्रकार स्वयं को परम
परमेश्वर भगवान् के रूप में उजागर करिे है जो सभी के स्त्रोि हैं ।

चतुश्लोकी गीता (8–11)


भगवद्गीिा का सार श्लोक 8–11 से में दिया गया है । कृष्ण की सभी दवभू दियाूँ श्लोक 8 में बिाई गयी
हैं । कृष्ण की महानिा जानने के द्वारा भि उनके प्रदि प्रेम दवकदसि करिे हैं और भदि में संलग्न होिे है ।
क्योंदक उनके मन कृष्ण पर त्स्थि हैं , भदि सिै व कृष्ण–दवषयक चचाओं का आनंि लेिे हैं और उनके
दबना आजीवन यापन नहीं कर पािे (श्लोक 9)। उनकी सेवा करने की महान उत्सुकिा को कृष्ण िे खिे
है िब वे उनसे दवदनमय करिे हैं उनके ह्रिय में उन्हें प्रबु द् करने के द्वारा(श्लोक 10–11)।

अजुसन की स्त्वीकृक्तत और्र क्तनवेदन (12–18)


भगवद्गीिा के चार अत्यावश्यक श्लोक सुनने के बाि अजुन श पूणशिः संशय से मुि होकर कृष्ण को परम
परमेश्वर भगवान् के रूप में स्वीकार कर लेिे हैं । अब वे कृष्ण की मदहमा सुनने की उत्सुकिा प्रकट
कर सकिे हैं दजससे दक वे उनका सिै व नचिन करिे रहें ।

कृष्ट्ण की क्तवभू क्ततयाूँ (19–42)


अजुन श के दनवेिन के उत्तर में कृष्ण नें अपनी अनंि और सवशव्याप्त ह दवभू दियों में से सबसे प्रभु ख
दवभू दियों की व्याख्या करिे हैं । कृष्ण उन वस्िुओं या समूहों को सूचीबद् करिे हैं दजनका वे सार हैं या
मुख्य सिस्य। बयासी दवभू दियों कर वणशन करने के बाि कृष्ण यह बिािे हैं दक यह सभी दवभू दियाूँ
केवल उनकी मदहमा की ओर संकेि मात्र करिी हैं क्योंदक वे पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त ह हैं और उसे आधार
प्रिान करिे हैं केवल उनकी पूणश शदि के सूक्ष्म भाग से।

35
अध्याय 11: क्तवश्वरूप दशस न योग

अध्याय 11 में कृष्ण स्वयं को परमेश्वर भगवान् के रूप में दसद् करिे हैं और यह मानिं ड स्िादपि करिे
हैं दक जो भी व्यदि स्वयं को भगवान् कहिा है उसे दवश्व रूप भी दिखाना होगा।

अजुसन का क्तनवेदन और्र कृष्ट्ण द्वार्रा उनके क्तवर्राट रूप का क्तववर्रण (1–8)
कृष्ण से यह सुनने के बाि दक वे पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त ह है और उसे आधार प्रिान करिे हैं , अजुन
श नें उनके
सवशव्यापी रूप के िशशन करने की इच्छा प्रकट की। कृष्ण नें पहले दवश्व रूप का वणशन दिया और दफर
अजुन श को वह िृदष्ट प्रिान की दजससे दक वह रूप का िशशन कर सके।

र्ंजय का क्तवर्राट रूप का क्तववर्रण (9–31)


अचंदभि होकर कृष्ण के दवश्व रूप का िशशन करने के बाि अजुन श दहचदकचािे हु ए अपने िशशन का
दववरण िे िे हैं । अजुनश पहले सभी सुदष्टयों के िशशन िे िे हैं , जो अथाह और िीदप्त हमान हैं , सभी एक स्थान
पर उपत्स्थि थीं। श्लोक 19 के आरम्भ में अजुन श कृष्ण के सवशदवनाशक काल रूप (समय के रूप) का
िशशन करिे हैं , िोनों सेनाओं के सैदनक दजसका आहार थे। पहले कृष्ण नें अजुन श को यह वचन दिया था
दक अजुन श के रूदच अनुसार कृष्ण उसे िशशन िें गे। अजुन श युद् का भदवष्य जानना चाहिे थे, और उन्होंने
िे खा दक िोनों पक्षों के अदधकिम सैदनक मारे जा चुके थे (श्लोक 26–30)। दफर वे कृष्ण से पूछिे हैं ,
“आप कौन हैं ? आपका उद्दे श्य क्या है ?”

क्तनक्तमत्त बनने का कृष्ट्ण का उपदे श (32–34)


कृष्ण अपने रूप की व्याख्या करिे हैं काल के रूप में जो सभी लोकों का दवनाशक है और अजुन श से
दनवेिन करिे हैं दक वह सभी योद्ाओं की अपदरहायश मृत्यु के प्रदि सचेि रहे और स्वयं केवल उनका
दनदमत्त बना रहे ।

अजुसन की प्राथस नाएं (35–46)


अजुन श कांपिे हु ए दवश्व रूप से प्राथशना करिा है । वे कृष्ण से क्षमा भी मांगिे हैं , अज्ञानिापूवशक उनके साथ
दमत्रवि व्यव्हार करने के दलए।

केवल शु द्ध भक्ति ही कृष्ट्ण का पर्रम क्तद्वभु ज रूप दे ख र्कते हैं 47–55)
अजुन
श की भयभीि प्राथशनाओं को सुनकर कृष्ण अपने चिुभुशज रूप में आ जािे हैं , अपने दद्वभु ज रूप में
आने से पहले। कृष्ण अजुन
श को सूदचि करिे हैं दक यह उनका दद्वभु ज रूप सवोच्च है और इसे केवल वही
भि समझ सकिे हैं जो शुद् अदमदश्रि भदि में संलग्न हैं ।

36
अध्याय 12: भक्तियोग

भगवद्गीिा के मध्य छह अध्यायों में का आरम्भ कृष्ण द्वारा भदि की चचा से हु आ था और अजुन श इसका
समापन भी भदि से करना चाहिे थे। अजुन श का भयानक दवश्वरूप िे खने के बाि, अजुन श भि के रूप में
अपने स्थान को दनदश्चि करना चाहिे हैं , जो कृष्ण के दलए कायश करिा है , एक ज्ञानी के दवपरीि जो कमश
त्याग िे िा है ।

क्तनर्ववषे श्वाद र्े उच्च भक्ति (1–7)


अजुन श पूछिे हैं दक जय उच्च है – भदि भाव से कृष्ण की उपासना करना या उनके दनराकार पहलु की
उपासना करना? कृष्ण िुरंि ही उत्तर िे िे हैं , यह कहिे हु ए दक उनकी व्यदिगि सेवा में संलग्न व्यदि उच्च
है । एक दनराकार का उपासक कम दसद् है और कृष्ण की उपासना करने वाले से अदधक कदठनाइयाूँ
उठािा है । भदिमागश सरल है और कृष्ण अपने भि का भौदिक जीवन से स्वयं ही उद्ार करिे हैं ।

भक्ति के प्रगक्ततशील स्त्तर्र (8–12)


शुद् भदि की और जािे प्रगदिशील मागश का कृष्ण दवपरीि िम में वणशन करिे हैं । सवशप्रथम वे अपने
भि को उसका मन उनपर त्स्थर करने की सलाह िे िे हैं । अगर कोई ऐसा नहीं कर पाए िब उसे
भदियोग के दनयमों का पालन करके शुद् होना चादहए। अगर यह बहु ि ही कदठन है िब कमशयोग में
संलग्न होिे हु ए अपने कमशफल कृष्ण को अर्वपि दकये जाने चादहए। अगर यह अभ्यास भी न हो पाए, िब
कृष्ण अप्रत्यक्ष मागश बिािे हैं जो कमशत्याग से आरम्भ होिा है और ज्ञान एवं ध्यान को प्राप्त ह करिा है ।

वे गुण क्तजर्र्े व्यक्ति कृष्ट्ण को क्तप्रय हो जाता है (13–20)


भदि के स्िरों का दववरण िे ने के बाि कृष्ण एक भदि योगी के दिव्य गुण बिािे हैं दजनसे वह कृष्ण का
दप्रय बन जािा है । इन गुणों को बिाकर कृष्ण अध्याय 12 के प्रसंग को दसद् कर िे िे हैं । कृष्ण यह
दनष्कषश िे िे हैं दक वह व्यदि जो श्रद्ापूवशक भदि के पथ का अनुगमन करिा है और कृष्ण को अंदिम
ध्येय मानिा है वह उन्हें बहु ि दप्रय है । प्रश्न दक कौन बहिर है दवशेश्वािी या दनर्ववशेषवािी, का यहाूँ पर
दनराकरण हो जािा है और भदि को आत्म साक्षात्कार की उत्तम दवदध स्वीकार कर दलया जािा है ।

37
भगवद्गीता अध्याय 7–12 के क्तलए अक्ततक्तर्रख्त नोट एवं चाटस

भगवद्गीता 7.1
** तच्छृणु ... भगवद्गीता में कृष्ट्ण और्र अजुसन द्वार्रा कहे गये श्लोक

कृष्ण

अजुुन

संजय

भगवद्गीता 7.4–5 सूक्ष्म तत्व


8 अपरा प्रकृदि
और 24 प्रकट भौदिक ित्व
(गीता 13.6–7 भी
अहं कार बुकद्ध मन
गंि

स्वाद
इन्द्रियों इन्द्न्ियााँ कमेन्द्न्ियााँ
के रूप
क्तवषय

स्पशु

शब्द
1) हाँथ
ज्ञानेन्द्न्ियााँ
2) पैर
पृथ्वी जि अकि वायु आकाश
3) वाणी
स्थूल तत्व 4) गुदाद्वार
1) आँख 5) जनाांग
2) कान
3) नाक
4) त्वचा
5) जीभ

दे खें)

38
ईश्वर, जीव एवां प्रकृक्तत (भगवद्गीता 7.4-5)

परा-प्रकृक्ततिः
श्रेष्ठ शकि (जीव)
कृष्ण

अपरा-प्रकृक्ततिः 3 सूक्ष्म
कनचिी शकि 5 स्थूि

भगवद्गीता 7.15–16 :

चार्र दुष्ट्कृक्ततनः

1. मूढः- पशु कठोर पदरश्रमी भौदिकवािी व्यदि


उपमा – मूखश गधा स्वामी और पत्नी की सेवा + लाि पड़ना
उपमा- शुकर- मीठा पसंि नहीं = परम सत्य की सुनने को समय नहीं

2. नर्राधम: असभ्य – असामादजक/राजनैदिक + ईश्वरदवहीन


(नर नीचिम) (आत्म-हा िे ख)ें

- दजन्होंने भदि की शरण लेकर दफर उसे त्याग दिया है …


उिाहरण- जगाई और मधाई/ महाप्रभु श्रवण सुझािे हैं

3. मायया - माया के द्वारा; अपहृत - चुराया; ज्ञानाः- ज्ञान


वंदछि दवचारक
उच्च दशदक्षि जानकार; वैज्ञादनक और दवद्ववान; ज्ञानी
भगवद्गीिा की अप्रमादणक व्याख्या

4. आर्ुर्रं भावं आक्तश्रतः – प्रकट नात्स्िक द्वे षी


a) भगवान् नीचे नहीं आ सकिे।
b) कृष्ण < ब्रह्मन.
c) अवैध अविार

39
चार्र: र्ुक्तक्रक्ततनाह: जो पुण्यवान हैं / शास्त्र, नैदिक और सामादजक दनयम मानिे हैं

क्तजज्ञार्ु — दजज्ञासु शौनक ऋदष और नैदमशारण्य के ऋदष

आतसः — व्यदथि गजेन्क

अथाथी — अथश/ लाभ की इच्छा रखने धुव महाराज


वाला
ज्ञानी — आत्म साक्षात्कार प्राप्त ह चार कुमार और शुकिे व गोस्वामी

क्योंदक इन सभी के पास इच्छाएं हैं दजन्हें वे पूरी करना चाहिे हैं इसीदलए ये शुद् भि नहीं
हैं ।

भगवद्गीता अध्याय 7.29-8.2


ब्रह्म
7.29 आध्यात्म
कमश 8.1

अदधभूि

अदधिै वं

7.30 अदधयज्ञः
8.2
प्रयाण काले

भगवद्गीता 8.17

र्त्ययु ग 1,728,000
रे ता यु ग 1,296,000
द्वापर्र यु ग 864, 000
कक्तलयु ग 432,000
कुल 4.320.000 = क्तदव्ययु ग
1000 (सहस्रयुग)
ब्रह्मा का एक दिन (कल्प)
ब्रह्मा का जीवनकाल = 311 trillion 40 billion years

40
भगवद्गीता 9.4-10

योगम ऐश्वर्रं: असीम योदगक ऐश्वयश

4-5 माया ततं इदं ततं


सृदष्ट कृष्ण पर दटकी है / पर वे उससे परे हैं

उपमा: राजा और उसके दवभाग

5- 10 सब कुछ कृष्ण के आिे शानुसार/ पर वे स्विन्त्र हैं


उपमा: आकाश में पवन
उदार्ीनवद आर्ीनम्
कृष्ण हर वस्िु के दलए दज़म्मेिार/ पर दनरपेक्ष/ अनासि

उपमा: हाई कोटश न्यायाधीश

9-10 माया अध्य अक्षे न


मेरे उच्च नेत्र
अपनी िृष्टी से कृष्ण जि प्रकृदि को सिीय कर िे िे हैं और जीवों को स्थादपि / पर वे
सभी के परे हैं
उपमा: पुश को दबना छुए उसकी गंध लेना

भगवद्गीता 9.15-19

1. एकत्वेन- अद्वै तवादी - स्वयं को ईश्वर से एकाकार मानकर उपासना करना


- नीचतम और सबसे अकिक व्याप्त (11-12)

2. पृथक्तत्वेन बहु िा - काल्पकनक रूप


-दे वताओं की उपासना भी सन्द्ममकित (20-25)

3. कवश्वतो -मुखम् - कवश्वरूप की उपासना (16-19)

41
भगवद्गीता 9.34

गीिा = सभी वेिों का सार


अध्यायों 7-12 = गीिा का सार
अध्यायों 9-10 = 7-12 का सार
श्लोक 9.34 = 9-10 का सार

भगवद्गीता 12.8–12

श्लोक 8 – मन त्स्थर : कृष्ट्ण प्रभाक्तवत


= पूणश कृष्णभावनामृि

श्लोक 9 – साधन भदि (अभ्यास) प्रत्यक्ष


(भदि)
अभ्यार्योगेन माम् इच्हाप्तुं
(= कृष्ण को प्राप्त ह करने की इच्छा का दवकास करना)
श्लोक 10 – मत्कमस (कृष्णकमश) मेरे दलये कमश करो
कुवसनक्तर्क्तद्धमवाप्सस्त्यक्तर् दसद् स्िर पर आना।
श्लोक 12 – ज्ञानम् ध्यानं
अप्रत्यक्ष
ज्ञानयोग अष्टांगयोग
ज्ञान / ध्यान

श्लोक 11 – कमसफलत्यागम्
फलों का त्याग करना (वणाश्रम धमश)

42
पूवस स्त्वाध्याय
क्लोज्ड बु क असेसमेंट के दलए प्रश्न

भगवद्गीता अध्याय 7
1. कृष्ण की आठ भौदिक प्रकृदियों को सूचीबद् करें स्थूल और सूक्ष्म में वगीकृि करें । (7.4)
2. पराप्रकृदि और अपराप्रकृदि का नहिी अथश बिाएं। (7.5)
3. छह मागों को सूचीबद् करें दजनसे कृष्ण को भौदिक जगि में िे खा जा सकिा है । (7.8–11)
4. िुष्कृदि और सुकृदि का नहिी अथश बिाएं। (7.15–16)
5. संस्कृि और नहिी में उन चार प्रकार के व्यदियों के नाम सूचीबद् करें जो कृष्ण की शरण लेिे हैं और जो
नहीं लेिे। (7.15–16)
6. कृष्ण की शरण लेने वालों से उन्हें कौन और क्यों सवादधक दप्रय है ? (7.17)
7. ह्रि ज्ञान (7.20) और अन्िवि िुफलम (7.23) शब्िों के नहिी अथश बिाएं।
8. कृष्ण दनर्ववशेषवादियों को दकस संस्कृि शब्ि से वर्वणि करिे हैं ? (7.24)
9. पदरभाषा िे िे हु ए इच्छा और द्वे ष शब्िों के महत्व की लघु व्याख्या करें । (7.27)
10. अन्िगिंपापम् और पूण्यकमशणाम् का दहन्िी अथश बिाएं। (7.28)
भगवद्गीता अध्याय 8
11. मामनुस्मरयुध्य च वाक्यांश का नहिी अथश बिाएं। (8.7)
12. अनन्य वेिः और िस्याहं सुलभः वाक्यांशों का नहिी अथश बिाएं। (8.14)
13. िुखालयं का नहिी अथश बिाएं (8.15)
14. सत्य, त्रेिा, द्वापर, कदल युग और एक कल्प की आयु को वषों में सूचीबद् करें । (8.17)
15. पृथ्वी के वषों में ब्रह्मा की आयु क्या होगी? (8.17)
भगवद्गीता अध्याय 9
16. योगं ऐश्वरं (9.5), उिासीनवत् (9.9) और मानुषीं िनुआ ं दश्रिं (9.9) के नहिी अथश बिाएं।
17. महात्मा के चार गुणों को सूचीबद् करें । (9.14)
18. संस्कृि या दहन्ि में िीन प्रकार के कृष्ण के उपासकों को सूचीबद् करें । (9.15)
19. वहम्यःनम् वाक्यांश का नहिी अथश बिाएं। (9.22)
20. यजन्त्यदवदध पूवशकं का नहिी अथश बिाएं। (9.23)
21. भजन्िे माम् अनन्यभाक् और साधुरेव स मन्िव्यः वाक्यांशों के नहिी अथश बिाएं। (9.30)
भगवद्गीता अध्याय 10
22. श्लोक 12 का कौन सा श्लोक यह दसद् करिा है दक परमेश्वर जीव आत्मा से दभन्न हैं ?
23. ज्ञान िीपेन (10.11) और एकाम्सेना त्स्थिोजगि (10.42) वाक्यांशों की पदरभाषा िें ।
24. अजुन श कृष्ण से उनकी दवभू दियों को समझाने के दलए क्यों अनुरोध करिे हैं ? (10.17–18)

भगवद्गीता अध्याय 11
25. अजुन श दवश्व रूप क्यों िे खना चाहिे थे? (11.3)
26. दवश्व रूप भगवान् के अन्य रूपों से कैसे अलग है ? (11.5)
27. कलोत्स्म लोक क्षय कृि और दनदमत्त मात्रं भव (11.32–33) वाक्यांशों की परभाषा िें ।
भगवद्गीता अध्याय 12
28. िेषामहं समुद्िा मृत्यु संसार सागरात् के वाक्यांश को पदरभादषि करें । (12.7)
29. संस्कृि या नहिी में एक कृष्ण भि के पांच गुणों को सूचीबद् करें जो उसे कृष्ण का दप्रय बना िे िीं हैं ।
(12.13–19)

43
भगवद्गीता के अध्याय 7–12 र्े चु नी हु ईं उपमाएं

7.7
हे धनजय, मुझसे बढ़कर कोई सत्य नहीं है । सब क्कुह मेरे ऊपर आदश्रि है दजस प्रकार एक माला में मोिी।
7.12
राष्ट्र के क़ानून के अनुसार कोई व्यदि ित्ण्डि दकया जा सकिा है परन्िु वहां का राजा जो कानून बनािा है वह
क़ानून के िायरे से स्विंत्र है । इसी प्रकार भौदिक प्रकृदि के सिो, रजो एवं िमोगुण भगवान से ही प्रकट होिे हैं
पर भगवान् कृष्ण उनसे प्रभादवि हैं होिे।
7.14
एक व्यदि दजसके हाथ और पैर बंधे हु ए हैं , स्वयं को छुडा नहीं सकिा, वह केवल मुि व्यदि द्वारा छुडाया जा
सकिा है । क्योंदक बंधे व्यदि को बंधा व्यदि नहीं छुड़ा सकिा, छुड़ाने वाले के मुि होने की आवश्यकिा है ।
इसीदलए केवल कृष्ण ही, या उनके प्रामादणक प्रदिदनदध एक बद् जीवात्मा को मुि कर सकिे हैं ।
7.15
एक शूकर केवल दवष्ठा ही खायेगा, उसे स्वादिष्ट पकवानों की नचिा नहीं ।
इसी प्रकार एक मूखश कमी भौदिक जगि के इत्न्कय–भोग के दवषयों को सुनना पसंि करे गा जो दनत्य
पदरविशनशील हैं परन्िु, उस दनत्य शदि के दवषय में श्रवण करने के दलए, जो सम्पूणश भौदिक जगि को चला
रही है , उसके पास समय की कमी रहे गी।
7.23
ब्राह्मण परमेश्वर भगवान् का शीषश हैं और क्षदत्रय उनकी भु जाएं, वैश्य उनकी कमर हैं और शूकश उनके पैर, सभी
के अलग अलग कायश हैं ।
7.26
कभी कभी मेघ सूया, चन्कमा और िारों को कुछ समय के दलए ढक लेिे हैं पर यह ढकाव केवल हमारी
सीदमि िृदष्ट के कारण हमें दिखाई िे िा है । वास्िव में सूया ढका नहीं है । इसी प्रकार माया भी परमेश्वर भगवान्
को ढक नहीं सकिी।
8.8
एक कैटरदपलर (इल्ली) दििली बनने का दवचार करिी है और उसी जीवन में दििली में पदरवर्विि हो जािी है ।
इसी प्रकार, अगर हम नीरन्िर कृष्ण का नचिन करें गे, िब यह दनदश्चि होगा दक हम मृत्यु के बाि कृष्ण की
जैसी बनावट वाला शरीर प्राप्त ह करें ग।े
9.3
जड़ में पानी डालकर व्यदि टहदनयों, शाखाओं और पदत्तयों को संिुष्ट कर िे िा है और उिार को भोजन
पहु ं चाकर व्यदि सभी इत्न्कयों को संिुष्ट कर िे िा हैं । इसी प्रकार भगवान् की दिव्य सेवा में संलग्न होने से सभी
िे विा एवं अन्य जीव संिुष्ट हो जािे हैं ।
9.4
एक राजा की सरकार होिी है को और कुछ नहीं अदपिु राजा की शदि का प्रकाश मात्र है ; सभी सरकारी
दवभाग केवल राजा की शदियां ही हैं , और सभी दवभाग राजा की शदि पर आदश्रि हैं । इिना होने पर भी
व्यदि यह उपेक्षा नहीं कर सकिा दक व्यदिगि रूप से राजा हर दवभाग में उपत्स्थि हो।
9.9
अपनी बेंच में बैठे हु ए एक हाई कोटश न्यायाधीश का उिाहरण दिया जा सकिा है । उसके आिे श से दकिनी
सारी गदिदवदधयाूँ हो रहीं हैं , दकसी को मृत्युिंड, दकसी को कारावास, और दकसी को बड़ा मुआवजा पर िब भी
न्यायाधीश दनरपेक्ष है ।

44
9.10
जब दकसी को कोई सुगत्न्धि पुष्प दिया जािा है िो वह गंध उसकी गंध–क्षमिा के द्वारा स्पशश की जािी है ,
जबदक गंध लेने की दिया और पुश एक िुसरे से िूर हैं । भौदिक जगि और और परम परमेश्वर भगवान् में
कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध है ।
9.21
...इसीदलए वह उच्च लोकों में जाने और नीचे आने के चि में डाल दिया जािा है , मानो वह दकसी झूले पर बैठा
हो जो कभी ऊपर जािा है िो कभी नीचे।

9.23
सभी अफसर और दनिे शक सरकार के प्रदिदनदधयों के रूप में संलग्न हैं और उन्हें दरश्वि िे ने का प्रयास गैर
कानूनी है । कृष्ण िे विाओं की अनावश्यक उपासना को सहमिी नहीं िे िे।
9.29
जब एक हीरा सोने की अंगूठी में लगाया जािा है िब वह बहु ि आकषशक लगिा है । सोने की प्रशंसा होिी है
और साथ साथ हीरे के भी। ईश्वर और जीव दनत्य रूप से प्रकाशमान हैं और जब एक जीव भगवान् की सेवा
से प्रबु द् हो जािा है िब वह स्वणश सैम आभा प्राप्त ह कर लेिा है ।
9.30
एक खरगोश के सामान दिखने वाले चाूँि के िाल उसकी आभा कमज़ोर नहीं कर पािे । इसी प्रकार एक भि
का साधूत्व प्रादप्त ह के मागश से आकत्स्मक पिन उसे घृणा का पात्र नहीं बना िे िा।
10.9
इसीदलए आत्म साक्षात्कार प्राप्त ह आत्माएं कृष्णभावनामृि में इन दिव्य शास्त्रों का श्रवण कर दनरं िर सुखानुभूदि
करिे हैं , ठीक दजस प्रकार एक युवा लड़का और लड़की एक िुसरे के संग में।
11.52
भगवद्गीिा के मूल श्लोक सूयश के सामान स्पष्ट हैं ; उन्हें मूखश टीकाकारों द्वारा रौशनी दिखाने की आवश्यकिा
नहीं।
12.5
हम सिर पर डाक पेदटयां प्राप्त ह करिे हैं और अगर हम उनमें अपने पत्र डालिे हैं िो वे अपने स्थान पर
स्वाभादवक रूप से पहु ूँ च जायेंगे। परन्िु जो पेटी मान्य डाक पेटी नहीं है वह दकसी काम की नहीं । इसी प्रकार,
भगवान का दवग्रह के रूप में प्रामादणक रूप हैं और इसे कहिे हैं अचश दवग्रह। अचश दवग्रह भगवान् का अविार
होिा है । और भगवान् उस रूप के माध्यम से सेवा स्वीकार करिे हैं ।
12.7
यूूँ िो व्यदि िैराकी में िक्ष हो सकिा है परन्िु सागर में डाल दिए जाने पर उसे बहु ि संघषश करना होगा, वह
स्वयं को नहीं बचा पायेगा। परन्िु अगर कोई उसे सागर से उठाले, िब वह आसानी से बचा दलया जाएगा।
इसी प्रकार भगवान् ही एक भि को भौदिक जीवन से उठािे हैं ।

45
यूक्तनट 2 ओपने बु क अर्े र्मेंट

प्रश्न 1
कृष्ण के कथन माय्यासि मनः (7.1) और यििामदप दसद्ानांकदश्चन्मांवेदत्त ित्विः (7.3) के आधार पर अध्याय
6 और 7 के बीच सम्बन्ध की अपने शब्िों में व्याख्या करें ।
(समझ)
प्रश्न 2
अपने शब्िों में, श्लोक 7.28 के आधार पर पुण्यकमशणां का कृष्ण भदि के अभ्यास के दलये आवश्यक शिश होने
के महत्व मूल्यांकन करें ।
(समझ/ मूल्यांकन)
प्रश्न 3
भगवद्गीिा 3.10–16 और 7.20–23, 9.20–25 के श्लोक िात्पयों और उपमाओं के आधार पर अपने शब्िों में
िे विा उपासना की वास्िदवक समझ बिाएं।
(प्रचार उपयोग)
प्रश्न 4
भगवद्गीिा के अध्याय 8 के श्रील प्रभु पाि के िात्पयों और कृष्ण के कथनों के आधार पर समझाएं दक दकस प्रकार
भदि के अनुशीलन से एक शुद् भि का भगवद्ाम जाना सुदनदश्चि हो जािा है ।
(प्रचार उपयोग)
प्रश्न 5
भगवद्गीिा 8.14 के श्लोक एवं िात्पयश के आधार पर अपने शिों में यह समझाए दक दकस प्रकार प्रभु पाि का यह
कथन “एक शुद् भि कहीं भी रहिे हु ए अपनी भदि से वहां वृन्िावन जैसा वािावरण बना सकिा है ।” प्रभु पाि
के भाव को प्रकादशि करिा है ।
(भाव और दमशन)
प्रश्न 6
भगवद्गीिा के श्लोक 9.4–10 के प्रभु पाि के संस्कृि शब्ि िात्पयों और उपमाओं के आधार पर अपने शब्िों में
कृष्ण के भौदिक प्रकृदि से सम्बन्ध को समझाएं।
(समझ)
प्रश्न 7
श्लोक 9.26 के अनुवाि और िात्पयश के आधार पर अपने शब्िों में यह प्रस्िुि करें दक दकस प्रकार कृष्ण भदि
सरलिा से की जा सकिी है ।
(प्रचार उपयोग)
प्रश्न 8
भगवद्गीिा के अध्याय 9 के दवदशष्ट श्लोकों और प्रभु पाि के िात्पयों के आधार पर पहचा नकर अपने शब्िों में
शुद् भदि के दसद्ांिों को समझाएं।
(प्रचार उपयोग)
प्रश्न 9
संस्कृि श्लोकों वाक्यांशों और प्रभु पाि के िात्पयों का सन्िभश िे िे हु ए अपने शब्िों मे, चिुर श्लोकी गीिा से प्राप्त ह
अपने व्यदिगि उपयोग के दलए प्रासंदगक दबन्िुओं को प्रस्िुि करें |
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 10
भागाबदद्गिा 11.55 के श्लोक एवं प्रभु पाि के िात्पयों का सन्िभश िे िे हु ए, अपने शब्िों में, श्लोक के सूत्र के उन
दबन्िुओं को प्रस्िुि करें जो आपके व्यदिगि उपयोग में प्रासंदगक हैं |
(व्यदिगि उपयोग)

46
यूक्तनट 3 भगवद्गीता अध्याय 13–18

अध्याय 13: क्षे र क्षे रज्ञ क्तवभागयोग


क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ 1–7
ज्ञान की दवदध 8–12
ज्ञान का ध्येय ज्ञेयं 13–19
प्रकृदि, पुरुष और उनका दमलन 20–26
ज्ञान–चक्षु श: ज्ञान का िशशन 27–35
अध्याय 14: गुणत्रय दवभाग योग

िीन गुणों के प्रभाव


1–9
गुणों के अंिगशि लक्ष्ण, दिया एवं मृत्यु 10–18
गुणों के परे जाना 19–27

अध्याय 15: पु रुषोत्तम योग


बरगि का पेड़ और वैराग्य 1–5
िे हपदरविशन (Transmigration) 6–11
कृष्ण एक पालक के रूप में 12–15
वेिान्ि सूत्रों का सार 16–20

अध्याय 16: दै वार्ुर्र–र्ंपद क्तवभागयोग


दिव्य और आसुरी गुण 01–6
आसुरी प्रवृदत्त 7–18
आसुरी गदिदवदधयों के पदरणाम 19–24

अध्याय 17: श्रद्धारय क्तवभागयोग


दवदभन्न गुणों के अंिगशि श्रद्ा, उपासना और आहार 1–10
गुणों के अंिगशि यज्ञ, िपस्या और िान 11–22
ॐ ित्सि 23–28
अध्याय 18: मोक्ष–र्ंन्यार्योग
कमशयोग 1–12

ज्ञानयोग 13–18

प्रकृदि के िीन गुण 19–40

कृष्ण की अपने कमश के माध्यम से उपासना करना 41–48

ज्ञानयोग से शुद् भदि 49–55

कृष्ण को शरणागदि 56–66


संजय द्वारा दवजय का आश्वासन 67–78

47
भगवद्गीता अध्याय 13–18 का अवलोकन

अध्याय 13: क्षे र क्षे रज्ञ क्तवभागयोग

भगवद्गीिा के प्राथन छह अध्यायों में कृष्ण नें चचा की दक दकस प्रकार ज्ञान के स्िर पर कायश करने से भदि की प्रादप्त ह होिी है ,
दजसे कहिे हैं कमशयोग। अगले छह अध्यायों में नें सीधे अपने दवषय में बाि की है एयर भदि की मदहमा वणशन दकया है ।
िीसरे छह अध्यायों में कृष्ण बिािे हैं दक दकस प्रकार ज्ञान भदि की ओर जािा है । िेरहवें अध्याय से आरम्भ होकर, व्याख्या
की जािी है दक दकस प्रकार एक जीव भौदिक प्रकृदि के संपकश में आिा है और दकस प्रकार परमेश्वर भगवान् कमश , ज्ञान
और भदि के दवदभन्न माध्यमों से उसका उद्ार करिे हैं ।

क्षे र और्र क्षे रज्ञ (1 –7)


बारहवें अध्याय के सािवें श्लोक में कृष्ण नें अपने भिों का उद्ार करने का आश्वासन दिया था। और अब वे
उस ज्ञान की घोषणा करें गे दजसके आवश्यकिा भिों को इस भौदिक संसार से ऊपर उठनें में होिी है । अजुन

कृष्ण से छह दवषयों की व्याख्या करने के दलए कहिे हैं : प्रकृदि, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान और ज्ञेय। कृष्ण क्षेत्र
और क्षेत्रज्ञ की व्याख्या करिे हैं ।

ज्ञान की क्तवक्तध (8–12)


क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ के ज्ञान वणशन करने के बाि र्क्क्सहं अब ज्ञान की दवदध की व्याख्या करिे हैं दजसका आरंभ
दवनम्रिा से होिा है और समापन परम सत्य के साक्षात्कार में (श्लोक 8–12)।

ज्ञान का ध्ये य (13–19)


श्लोक 13–19 में ज्ञान का ध्येय (ज्ञेयम्) अथाि आत्मा या परमात्मा की चचा की गयी है । अभी िक कृष्ण नें
आत्मा और परमात्मा को क्षेत्रज्ञ के रूप में समझाया था। शरीर, आत्मा और परमात्मा के बीच भेि को जानने
के द्वारा और ज्ञान की दवदध का पालन करिे हु ए, एक जीवात्मा द्वं द्व के ऊपर उठ सकिी है और कृष्ण के प्रदि
परिंत्रिा समझ कर अंििः परम गदि को प्राप्त ह कर सकिी है ।

प्रकृक्तत, पु रुष और्र उनका क्तमलन (20–26)


ज्ञेय को स्वयं (आत्मा) या परमात्मा के रूप में बिाने के बाि कृष्ण अब आत्मा और परमात्मा को पुरुष के
रूप में समझािे हैं , भौदिक प्रकृदि के साथ उनके सम्बन्ध की भू दमका में। व्यदि जो प्रकृदि और पुरुष एवं
उनके आपसी सहभादगिा को समझ जािा है वह इस संसार में जन्म लेने से मुि हो जािा है । परमात्मा को
समझने के अन्य िरीके हैं ज्ञान और अष्टांग योग।

ज्ञान चक्षु ष: ज्ञान का दशस न (27–35)


जो शरीर, उसके स्वामी और परमात्मा के बीच भेि िे खिा है और, जो मुदि की दवदध को जानिा हा, वह परम
गदि को प्राप्त ह कर सकिा है ।

48
अध्याय 14: गुणरय क्तवभाग योग

अध्याय िेरह में बद् जीवात्मा का वणशन है जो भौदिक प्रकृदि के दभन्न है परन्िु उसमें बंधा हु आ है , वह अपने दिया–जगि
(क्षेत्र) में कैि है । चौिहवाूँ अध्याय यह बिािा है दक दकस प्रकार एक जीवात्मा भौदिक प्रकृदि की शदिशाली बेदड़यों से दकस
प्रकार सीदमि कर दिया जािा है और दनयंदत्रि रहिा है , िीन गुण हैं सिोगुण, रजोगुण और िमो गुण। इस अध्याय के अंि में,
कृष्ण हमें बिािे हैं दक दकस प्रकार इन गुणों से मुदि प्राप्त ह की जा सकिी है ।

गुणों का प्रकोप (1 –9)


कहे जाने वाले ज्ञान की मदहमा बिाने के बाि, कृष्ण भौदिक प्रकृदि, जीव और स्वयं के बीच का भेि बिाएूँग।े
वे जीवात्माओं को भौदिक प्रकृदि में प्रदवष्ट करिे हैं । जीवात्मा भौदिक प्रकृदि से िीन गुणों के प्रकोप के
माध्यम से संपकश करिी है । सिोगुण सुख को आसि करिा है ,रजोगुण कमश से और िमोगुण प्रमाि से।

गुणों के लक्ष्ण और्र उनके अंतगसत मृत्यु एवं क्तक्रया (10–18)


कृष्ण िीन गुणों को लक्षण एवं उनके प्रकाश की व्याख्या करिे हैं (श्लोक 11 –13), गुणों के अंिगशि मृत्यु
(श्लोक 14–15) और, दवदभन्न गुणों के अंिगशि दिया करने के पदरणाम (श्लोक 16–18).

गुणों के पर्रे जाना (19–27)


व्यदि गुणों के ऊपर यह जानकार उठ सकिा है दक इस जगि में सब कुछ गुणों के अंिगशि ही घदटि होिा है
और, यह जानकर दक कृष्ण के सभी कमश गुणों के प्रभाव के परे हैं । व्यदि जो अदडग भदिमय सेवा में संलग्न
होिा है वह ब्रह्म के स्िर पर पहु ूँ च जािा है दजसका स्त्रोि हैं कृष्ण। श्लोक 22 में अजुन
श के पहले प्रश्न का उत्तर
है , इसमें एक दिव्या पुरुष (आध्यात्मवािी) के लक्षणों का उल्लेख है और, श्लोक 23–25 में िुसरे प्रश्न का
उत्तर दक ऐसे प्रश्न का व्यवहार कैसा होिा है । श्लोक 26–27 में भदि की चचा है , यह गुणों के ऊपर आने की
दवदध है और इसी प्रकार अजुन श को िीसरे प्रश्न का उत्तर प्राप्त ह हो जािा है ।

49
अध्याय 15: पु रुषोत्तम योग

चौिहवें अध्याय में िीन गुणों का वणशन हु आ था जो वह शदि है दजससे एक जीवात्मा का उसके दिया क्षेत्र के अंिगशि
दनयंत्रण और सीमांकन होिा है । अब कृष्ण, अश्वत्थ वृक्ष का रूपक िे कर असम्पूणश भौदिक जगि का वणशन करेंगे
उसके दवदभन्न दिय क्षेत्रों के साथ, जो वृक्ष की ऊचीं एवं नीचीं शाखाओं पर त्स्थि हैं ।

भौक्ततक जगत र्े क्तवर्रि होना (1–5)


यूूँ िो जीवात्मा कृष्ण के अंश हैं पर वे जीवन के संघषश में लगे हु ए हैं क्योंदक वे भौदिक जगि के इस बरगि के
पेड़ में फस गए हैं । व्यदि को चादहए दक वह आध्यात्त्मक जगि के इस प्रदिदबम्ब से स्वयं को दवरि करे
कृष्ण की शरण लेने के द्वारा और इस िरह आध्यात्त्मक जगि की ओर गदि करे । इस बरगि के पेड़ को पहले
छह श्लोकों में दवश्लेदषि दकया गया है । श्लोक 6–20 में कृष्ण पुरुषोत्तम योग का वणशन करिे हैं ।

शर्रीर्र पक्तर्रवतसन (6–11)


यूूँ िो सभु जीवात्माएं कृष्ण के अदभन्न अंश हैं , परन्िु आनंि की खोज में वे शरीर पदरविशन कर रहे हैं ।
आध्यात्मवािी यह स्पष्ट रूप से िे ख लेिे हैं परन्िु, अंधे सांसादरक जन नहीं।

पालक के रूप में कृष्ट्ण (12–15)


कृष्ण की, सभी स्िरों पर, हमारे व्यदिगि और सम्पूणश ब्रह्माण्ड के पालक के रूप में दवभू दिपूणश त्स्थदि, और
उनका वेिों के रचदयिा और ज्ञािा होना, हमें उनके प्रदि आकर्वषि करे ग।

वेदान्त र्ूरों का र्ार्र (16–20)


यह दक वे सभी वेिों के लक्ष्य हैं और यह दक वे वेिांि के रचदयिा हैं , इस प्रकार से दनष्कषश िे कर भगवान्
वेिान्ि का सार िे िे हैं दजससे उनका परम स्थान स्थादपि हो जािा है । श्लोक 15 के िात्पयश में, श्रील प्रभु पाि नें
सम्बन्ध, अदभिे य और प्रायोजन के महत्व की ओर संकेि दकया था। श्लोक 16–18 में हमारे कृष्ण के साथ
सम्बन्ध का ज्ञान दिया गया है (सम्बन्ध ज्ञान)यह कई बार दत्रश्लोकी गीिा के रूप में भी जाना जािा है । कृष्ण
दविों के रचदयिा और वेिान्ि के ज्ञािा हैं । यह िीन श्लोक वेिों का सार बिाकर, जो वेिान्ि है , जीवात्माओं
का इस भौदिक संसार के ऊपर उठने में सहायिा करिे हैं । श्लोक 19 में अदभिे य ज्ञान का संकेि दिया गया है ,
प्राप्त ह करने की दवदध, और अंदिम श्लोक 20 में, प्रयोजन का प्रसंग है जो है जीव का लक्ष्य। भौदिक जगि की
समस्याएूँ ह्रिय की िो िुबशलिाओं के कारण होिी हैं : भौदिक जगि का प्रभु त्व करने की इच्छा, दजससे
आसदि आिी है और स्वादमत्व का भाव। इस अध्याय के पहले पांच श्लोकों में ह्रिय की िुबशलिा से स्वयं को
मुि करने की दवदध बिायी गयी है , और शेष अध्याय में छठे श्लोक के लेकर अंदिम श्लोक िक, पुरुषोत्तम
योग की चचा की गयी है ।

50
अध्याय 16: दै वार्ु र्र–र्ं पद क्तवभागयोग

पन्कहवें अध्याय में भौदिक जगि वटवृक्ष (बरगि के पेड़) का वणशन दकया गया है । भौदिक जगि के िीन गुण ऊपर के
िोनों शाखा जो हैं शुभ और दिव्य और, दनचली, आसुरी शाखाओं का पोषण करिे हैं । सोलहवें अध्याय में, कृष्ण उन
दिव्य गुणों को समझािे हैं जो व्यदि को इस वृक्ष के अंिगशि ऊपर उठािे हैं और आगे मुदि िक ले जािे हैं ।

क्तदव्य और्र आर्ुर्री गुण (1–6)


कृष्ण दवस्िारपूवशक आसुरी गुणों की व्याख्या करिे हैं और उस मानदसकिा की जो व्यदि को दनचले स्थानों
पर लेजािे हु ए अंििः नरक में पहु ं चा िे िी है । वे इन गुणों से लाभ और हादन की भी व्याख्या करिे हैं ।

आर्ुर्री प्रवृक्तत्त (7–18)


आसुरी प्रवृदत्त का लघु दववरण िे ने के बाि कृष्ण दियाओं का आगे वणशन करिे हैं , आसुरी स्वभाव के व्यदि
के गुण और मानदसक का वणशन करिे हैं ।

आर्ुर्री गक्ततक्तवक्तधयों के पक्तर्रणाम और्र उद्धार्र एवं पतन के दो क्तवकल्प (19–24)


आसुरी गदिदवदधयों में संलग्न होने से कृष्ण व्यदि को नीच योदनओं और अन्य नारकीय जीवनों में डाल िेिे
हैं । काम, िोध और लोभ आसुरी जीवन के प्रारम्भ का कारण हैं , सभी भक व्यदियों को उन्हें त्याग िे ना
चादहए और शास्त्रों का श्रद्ापूवशक अनुसरण करिे हु ए अपने िादयत्व को समझना चादहए। दिव्य और आसुरी
में अंदिम भेि यह है दक दिव्यजन शास्त्रों को मानिे हैं और आसुर नहीं।

अध्याय 17: श्रद्धारय क्तवभागयोग


अध्याय 16 में कृष्ण यह स्थादपि करिे हैं दक शास्त्रों के दनष्ठावान अनुयायी दिव्य अनह और दजनमें श्रद्ा नहीं वे हैं आसुरी।
परन्िु वह व्यदि दकस वगश में आएगा दजसकी श्रद्ा शास्त्रों से दभन्न दकसी वस्िु में है ?

श्रद्धा, उपार्ना और्र तीन गुणों के अंतगसत आहार्र (1 –10)


कृष्ण इस दववरण के द्वारा उत्तर ििे हैं दक दकस प्रकार भौदिक जगि गुण व्यदि की श्रद्ा, उपासना और
आहार शैली को दनधादरि करिे हैं ।

गुणों के भीतर्र यज्ञ, तपस्त्या और्र दान (11 –22)


भगवान् कृष्ण िीन गुणों के प्रभाव में यज्ञ, िपस्या और िान कर वणशन करिे हैं ।

ॐ तत र्त का उच्चार्रण कर्रने र्े गक्ततक्तवक्तधयाूँ शु द्ध होती हैं (23–28)


सभी गदिदवदधयाूँ गुणों द्वारा िूदषि हैं और, यह प्रिुषण गुणों के अंिगशि रहिे हु ए भी कृष्ण की सेवा और ॐ
िि सि का उच्चारण करने से िूर दकये जा सकिा हैं । वास्िव में हमारी सभी गदिदवदधयों का लक्ष्य भगवन को
प्रसन्न करना होना चादहए। जब यज्ञ, प्रायदश्चि और िपस्या परमेश्वर में श्रद्ा के दबना की जािी है िन वे इस
और अगले जीवन में व्यथश होिी हैं ।

51
अध्याय 18: मोक्ष–र्ंन्यार्योग

पूरी भगवद्गीिा का दनष्कषश सत्रह अध्यायों में दिया गया है और शरणागदि के लक्ष्य पर बल िे ने के दलए, कृष्ण इस अंदिम
अध्याय में, सभी दपछले अध्यायों का सार पढ़ािे हैं । यहाूँ पर कृष्ण यह दनष्कषश िे िे हैं , दजस प्रकार से उन्होंने पूरी भगवद्गीिा
में दिया है दक, व्यदि को भदि का अभ्यास करना चादहए।

कमस–योग: कमसयोग की कमसर्ंन्यार् पर्र श्रेष्ठता (1–12)


कृष्ण नें पहले जो कुछ भी कहा है उसका सार अजुन श को फल का त्याग ना दक सकाम कमश के सुझाव से
आरम्भ करिे हैं । श्लोक 1–12 गीिा के पहले छह अध्यायों का सार हैं जो कमा योग का दववरण िे िे हैं ।

ज्ञान योग (13–18)


कमश पर अपनी दशक्षाओं का सार िे ने के बाि कृष्ण ज्ञान के िृदष्टकोण का वणशन करिे हैं (जो अंदिम छह
अध्यायों की दवषय वस्िु है ) दकस प्रकार व्यदि कमा करिे हु ए उसके प्रदिदिया से मुि रह सकिा है । कृष्ण
वेिान्ि का सन्िभश िे िे हैं और दियाओं का, जो पांच कारकों में समावेदशि हैं , का दवशेलेषण करिे हैं (श्लोक
13–18)।

प्रकृक्तत के गुण (19–40)


इसके बाि वे दवस्िारपूवशक (श्लोक 19–40) बिािे हैं दक कैसे व्यदि का पांच कारकों के अनुसार कमश िीन
गुणों द्वारा िय दकया जािा है । गुणों के अंिगशि ज्ञान श्लोक 19–22 में वर्वणि है , गुणों के अंिगशि दियाओं
का वणशन श्लोक में हु आ है और श्लोक 29–32 व्यदि की समझ का वणशन करिे हैं , श्लोक 33–35 व्यदि
की दनष्ठा का वणशन करिे हैं और श्लोक 36–39 व्यदि के गुणानुसार सुख का वणशन करिे हैं ।

व्यक्ति के कमस के द्वार्रा कृष्ट्ण की उपार्ना (41 –48)


यूूँ िो कमश गुणों द्वारा दनयंदत्रि है , जैसा दक दपछले श्लोकों में वर्वणि है , व्यदि एक ब्राह्मण, क्षदत्रय वैश्य और
शूक के रूप में अपने दनधादरि कमश करके कमों की प्रदिदिया से मुि हो सकिा है और इसी कमश के माध्यम से
भगवान् की उपासना भी कर सकिा हैं ।

ज्ञान योग और्र शु द्ध भक्ति (49–55)


भगवान् कृष्ण दफर उस स्िर की व्याख्या करिे हैं दजसमें व्यदि दनधादरि कमों को ज्ञान योग के माध्यम से
छोड़ सकिा है , ज्ञान योग: दजससे व्यदि की बु दद् शुद् होिी है । इससे व्यदि मुदि के स्िर पर आ जािा है
और शुद् भदि करने के दलए योग्य हो जािा है (श्लोक 49–55).

कृष्ट्ण को शर्रणागक्तत (56–66)


स्वयं को समझने के दलए भदि के महत्व को समझाने के बाि, कृष्ण वणशन करिे हैं दक कैसे व्यदि सभी
बाधाओं से पार पाकर, उनपर आदश्रि रहिे हु ए, और उनकी शरण में कायश करिे हु ए। आगे वे परमात्मा के
और अदधक गुह्य ज्ञान की व्याख्या करिे हैं , और उसके बाि उनके प्रदि शरणागदि और उनके भदि बनाने
का गुह्यिम ज्ञान।

अजुसन यु द्ध कर्रने को र्हमत और्र र्ंजय द्वार्रा क्तवजय का आश्वार्न (67–78)
कृष्ण के उपिे श सुनने के बाि, अजुन
श दनष्ठा में त्स्थि होकर युद् करने के दलए िैयार हो जािा है । इस घटना
का वणशन धृिराष्ट्र को करने के बाि, संजय आनंि दवभोर होकर कृष्ण के दवश्व रूप के दवषय में सोचिे है
और अजुन श की दवजय भदवष्यवाणी कर िे िे हैं । अजुन श को महानिम धनुधशर है , क्योंदक वह योगेश्वर कृष्ण को
शरणागि है । भगवद्गीिा के आरम्भ में धृिराष्ट्र द्वारा पूछे गए परोक्ष प्रश्न का यह उत्तर दिया संजय नें।

52
भगवद्गीता अध्याय 13–18 के क्तलए अक्ततक्तर्रख्त नोट्र् एवं चाटस

भगवद्गीता 15.9–
िूसरा स्थूल शरीर स्वीकारने के बाि एक जीव को दवशेष प्रकार के कान, आूँखें
दजह्वा और स्पष्ट इत्न्कय प्राप्त ह होिी हैं दजनका समूह मन के चारो और बन जािा है ।

श्रोतम्
कान

घ्राणम् चक्ष िः
नाक आाँखें
अक्तिष्ठाय
मनश्च
मन में न्द्स्थत

रसनम् स्पर्म नम्


स्पशु की इंिी
नाक

53
अध्याय 14: तीन गुणों में क्तक्रयाकलाप

गुण बाध्यकार्री बल लक्षण और्र प्राकट्य मृ त्यु के र्मय गक्तत क्तक्रया के पक्तर्रणाम

अनुभूदि: 1. ज्ञान से िे ह के सभी द्वार


सुख प्रकादशि हो जािे हैं ।
a) उच्च लोगों की प्रादप्त ह होिी हैं जहाूँ
र्तो b) संिुदष्ट 2. व्यदि पाप प्रदिदियाओं से मुि ऋदषगण दनवास करिे हैं 1. शुद्
हो जािा है । 2. ज्ञान(वस्िुओं को
c) ज्ञान वास्िदवक रूप में िे खना)
d) श्रेष्ठिा 3. उच्च लोकों में बढ़ोत्तरी
1. िीव्र एवं असीदमि इच्छाएं एवं 1. कष्ट
कमशकाण्ड (कमश गदिदवदधयों) वासनाएं
पृथ्वी–सम लोकों की प्रादप्त ह 2. लोभ
र्रजो से आसदि 2. महासदि
3. कमशकाण्ड 3. पृथ्वीसम गृह
1. मूखशिा
1. प्रमाि 1. भ्रम
2. प्रमाि
2. आलस्य 2. अन्धकार नीच योदनयों में जन्म 3. भ्रम
तमो 4. नारकीय लोकों की प्रादप्त ह
3. दनका 3. प्रमाि
4. जड़िा

54
अध्याय 17: तीन गुणों के अंतगसत गक्ततक्तवक्तधयों

र्तोगुण र्रजोगुण तमोगुण


उपार्ना िे विाओं की असुरों की भूिों की

1. आयु में वृदद् करिा है


1. बहु ि कडवा
2. शुद् करिा है 2. बहु ि खट्टा 1. िीन घंटों से पहले पकाया गया
3. प्रिान करिा है : 3. नमकीन 2. स्वाधीन
4. िीखा 3. सिा हु आ
सेहि
5. िीव्र गंध वाला 4. दवघदटि
आहार्र सुख
6. शुष्क 5. जूठन और अछू ि वस्िुओं से
संिुदष्ट 7. जला हु आ बना हु आ
बल 8. इनका कारण है :
4. रसभरा a) व्यादध
b) िुःख
5. चबीिार
c) कष्ट
6. पौदष्टक
7. ह्रिय को दप्रय

1. शास्त्रों को अनिे खा करके


1. दकये जािे हैं 1. लाभ की इच्छा के साथ
2. न प्रसाि दविरण
2. शास्त्रों के अनुसार 2. िं भ के दलए
यज्ञ 3. न वैदिक मंत्रोच्चारण
3. दबना दकसी लाभ की इच्छा के 4. पुजादरयों को कोई िदक्षणा नहीं
5. श्रद्ादबहीन

1. दिव्य श्रद्ा के साथ की जािी है 1. घमंड में आकर 1. मूखशिा पूवशक


तपस्त्या 2. दबना दकसी भौदिक लाभ की इच्छा के 2. यश, मान और प्रदिष्ठा 2. स्वयं को यािना िे िे हु ए
हे िु 3. िूसरो को चोट पहु चाने या उनके
3. भगवान् के दलए
दवनाश करने के दलए

1. कत्तशव्यपूवशक दिया जािा जय 1. प्रदिफल की इच्छा के 1. अस्वच्छ स्थान


2. दबना दकसी प्रदिफल की इच्छा के साथ 2. अस्वच्छ समय पर
दान 2. लाभ की इच्छा के साथ 3. अयोग्य व्यदि को
3. सही समय पर
3. असंिोष पूवशक 4. दबना ध्यान दिए
4. सही स्थान पर 5. दबना कोई सम्मान दिए
5. एक योग्य व्यदि को

55
अध्याय 18 – र्भी क्तक्रयाएं गुणों द्वार्रा क्तनयं क्तरत हैं

र्तोगुण र्रजोगुण तमोगुण

1. अपने कमा और इत्न्कयों को


1. सभी में एक ही आत्मा उपत्स्थि
सवशस्य मानकर आसि
िे खना
1. सभी िे हों में दवदभन्न व्यदि रहना
ज्ञान 2. जबदक वह कई अस्थायी रूपों में
िे खना 2. सत्य का कोई ज्ञान नहीं
उपत्स्थि है
3. बहु ि ही कम ज्ञान

1. भ्रम में दकया गया


1. दनयमदि 1. महान प्रयास 2. शास्त्रों की अवहे लना
2. कोई आसदि नहीं 2. इत्न्कयों को संिुष्ट करने के 3. भदवष्य के बंधन की दकसी
क्तक्रया 3. लगाव या घृणा नहीं दलए दकया गया नचिा के दबना
4. फलों की इच्छा नहीं 3. अहं कार में आकर 4. अन्यों के प्रीदि नहसा या उन्हें
कष्ट पहु ं चाने हे िु।

1. गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं 1. शास्त्रों के दवरुद् जाने वाला


2. अहं कारहीन 1. फलों से आसि 2. सांसादरक, हठी, छल करने
2. फलों का भोग करने की वाला
3. महान दनष्ठा और उत्साहपूवशक
कता इच्छा करने वाला 3. अपमान करने में िक्ष
4. सफलिा और असफलिा से 3. लोभी, द्वे षी और अशुद् 4. आलसी, उिास, काम टालने
अप्रभादवि वाला

1. जानिा है क्या दकया जाना चादहए


और क्या नहीं 1. धमं को अधमश मानिा है
2. दकससे भय करना चादहए और 1. नहीं बिा सकिा क्या धमश है इत्यादि
दकससे नहीं और क्या अधमश और, 2. क्या दकया जाना चादहए
र्मझ 3. दकससे बंधन होगा और दकससे 2. न ही क्या दकया जाना चादहए इसका कोई ज्ञान नहीं
नहीं और क्या नहीं 3. सभी प्रयास दिग्भ्रदमि

1. अटूट
1. कमशकाण्ड से आसि रहिा है
2. िृढ़िा से बनी रहिी है 1. भय, उिासी और स्वप्नशीलिा
साथ ही, आर्वथक दवकार
3. मन, प्राण और इत्न्कयों को दनयंत्रण के आगे नहीं बढ़ पािा
क्तनष्ठा और इत्न्कय िृदप्त ह से भी
में रखिा है

1. आत्म–साक्षात्कार के प्रदि
1. इत्न्कयों और दवषयों के अूँधा
1. आरम्भ में दवष अंि में अमृि संपकश से उपजिा है 2. आरम्भ से अंि िक भ्रम
र्ुख 2. आत्म साक्षात्कार प्रिान करिा है 2. आरम्भ में अमृि अंि में दवष 3. दनका, आलस्य और भ्रम से
उपजिा है
56
कृष्ट्ण के क्तप्रय व्यक्ति के गुण
भगवद्गीिा अध्याय 12 श्लोक 13–19
अद्वे शी एक भि अपने शिु का भी शिु नहीं होिा
सभी जीवों का दमत्र अपने शिु का भी
स्वयं को स्वामी नहीं मानिा
दमथ्या–अहं कार से मुि स्वयं को शरीर नहीं समझिा
सुख और िुःख में एक सामान
सहनशील
- परमेश्वर भगवान् की कृपा से जो भी दमले उससे संिुष्ट
सिै व संिुष्ट
- कुछ प्राप्त ह करने के दलए अत्यादधक प्रयास नहीं करिा
आत्म संयमी गुरु से प्राप्त ह उपिे शों पर त्स्थर
- क्योंदक उसकी इत्न्कय संयदमि हैं
दनष्ठापूवशक भदिमय सेवा में संलग्न
- असत्य िकों से दडगिा नहीं
मन और बुदद् कृष्ण पर त्स्थर कृष्ण के दनत्य ईश्वर होने से पूणशिः सचेि, इसीदलए कोई भी इसे उत्तेदजि नहीं कर सकिा

दकसी कोई भी कदठनाई में नहीं डालिा इसके कायश दकसी को भी नचिा में नहीं डालिे
यह ईश्वर की कृपा है दक अभ्यास के कारण कोई बाहरी कारक उसे उत्तेदजि नहीं कर
दकसी के भी द्वारा उत्तेदजि नहीं होिा
पािा
सुख और िुःख, भय और नचिा में समभाव सिै व ही इन दवघ्नों के परे

सामान्य घटनािम से अप्रभादवि धन लाभ के प्रदि उिासीन

शुद् प्रदिदिन कम से कम िो बार स्नान करिा है / बाहरी और अंिरूनी सफाई बनाए रखिा है

- जीवन के सभी कायों का सार पूणशिः जानिा है


िक्ष
- प्रमादणक शास्त्रों के प्रदि आश्वस्ि है
अत्यादधक नचिा से मुि दनरपेक्ष रहिा है
सभी पीडाओं से मुि सभी उपादधयों से मुि
फल के दलए अत्यादधक प्रयास नहीं करिा भदि के दसद्ांिों के दवरुद् दकसी वस्िु को पाने का प्रयास नहीं करिा
न अत्यादधक प्रसन्न होिा है आर न ही भौदिक लाभ–हादन के कारण हिाश या उत्सादहि नहीं होिा
कोई दप्रय वस्िु को खोने पर शोक नहीं करिा और न ही ऐत्च्छक वस्िु के प्राप्त ह न होने
न शोक करिा है और न ही िीव्र इच्छा
पर िुखी
शुभ और अशु भ िोनों वस्िुओं को त्याग िे िा है सभी द्वं िों के प्रभाव के परे
दमत्रों और शिुओं के दलए समान
मान–अपमान, शीि– ग्रीष्म, सुख–िुःख यश और
ऐसे द्वं िों से परे
अपयश में समान
सिै व कुप्रभादव संगदि से िूर

- शांि अथाि व्यथश बािें नहीं करिा


शांि - आवश्यकिानुसार बाि करना चादहए
- भगवान् एक दलए बोलिा है
दकसी भी वस्िु से संिुष्ट सुदवधाएं हों या नहीं, सभी पदरत्स्थदियों में सुखी
दनवास की परवाह नहीं करिा कभी पेड़ के नीचे िो कभी महल में भी रह सकिा है
ज्ञान में त्स्थर
भदिमय सेवा में संलग्न इसी कारण भि में सभी अच्छे गुण दवत्क्सि हो जािे हैं

57
ज्ञान के बीर् क्तवषय
भगवद्गीिा अध्याय 13 श्लोक 8–12
दै न्यता सम्मान की संिुदष्ट प्राप्त ह करने की नचिा न होना

दं भहीनता िै न्यिा िे खें

िूसरों को िुःख में नहीं डालिा; जब िक व्यदि अन्यों को आध्यात्त्मक ज्ञान में
अहहर्ा आगे नहीं बाधा रहा वह नहसा कर हैं ; वास्िदवक ज्ञान दविदरि करने का भरसक
प्रयास करना चादहए

र्क्तहष्ट्णुता अन्यों द्वारा अपमान और अपयश सहने में प्रदशदक्षि

र्र्रलता इिना सीधा की शिु को भी सत्य बिा िे ।

गुरु स्त्वीकार्र कर्रना यह अदनवायश है

स्त्वच्छ स्नान (बाहरी) और जप (अंिरूनी)

स्स्त्थर्रता आध्यात्त्मक दवकास करने के दलए दनष्ठावान

आत्मा र्ंयम आध्यात्त्मक दवकास के प्रदिकूल सभी वस्िुओं का त्याग

इत्न्कयों की अनावश्यक मांगे को पूरा नहीं करिा; कवल भदि के दलए शरीर
इस्न्ियों के क्तवषय का त्याग
स्वस्थ रखने के दलए भोग करिा है

अहं कार्र अनु पस्स्त्थत स्वीकारिा है : मैं कृष्ण का सेवक हू ूँ ; अस्वीकिा है ; मैं शरीर हू ूँ , मैं मन हू ूँ ।

जन्म, मृत्यु , ज़र्रा और्र व्याक्तध जैर्े


इन चारों के बारे में सही शास्त्रों से दनयदमि श्रवण करना चादहए
अक्तनष्टों का जानकार्र

वैर्राग्य कृष्ण के दलए सवशस्व बदलिान करना को िैयार रहना

पक्तर्रवार्र या उर्के र्दस्त्यों के र्ाथ लगाव स्वाभादवक है परन्िु, अगर आध्यात्त्मक दवकास हे िु सहायक नहीं िो उसे
कोई बं धन नहीं त्याग दिया जाये।

र्म–मनोभाव भौदिक लाभ–हादन से कभी सुखी या िुखी नहीं होिा अटूट भदिमय सेवा

अनन्य भक्ति स्वयं को भदि के नौ अंगों में संलग्न करना

एकां त में र्रहने की इच्छा और्र


सांसादरक व्यदियों से घुलने दमलने की इच्छा नैन ; भिों के संग मे रहने की इच्छा
र्ामान्य जनर्ाधार्रण र्े अनार्ि
आत्म–र्ाक्षात्कार्र की आवश्यकता अनावश्यक आखेट, अभादिमय दसनेमा, सांसादरक सामदजक कायशिम; समय
को स्त्वीकार्र कर्रना व्यथश नहीं गंवाना

पर्रम र्त्य की वैचाक्तर्रक खोज व्यथश अनुसंधान और वैचादरक दवषयों का त्याग।

58
क्तदव्य गुण
भगवद्गीिा अध्याय 16 श्लोक 1–3
वणस और्र आश्रम पर्र
गुण क्तटपण्णी
बल (अगर्र हो तो)

परमेश्वर भगवान् की कृपा पर आश्रय


1. अभय संन्यास
परमात्मा उसे सिै व सुरदक्षि रखेंगे – इसमें दनष्ठा

2. स्वयं के अत्स्ित्व की कठोरिा से दनयम-क़ानून का पालन (दवशेषकर


सभी के दलए
संन्यासी)
शुदद्
अवश्य ही दिव्यज्ञान का अनुशीलन िथा प्रिान करे ,
3. ज्ञान का अनुशीलन संन्यास
दवशेषकर गृहस्थों को
(पचास प्रदिशि आिशश )सिोगुण में दिया गया, या
4. िान गृहस्थ
उसके भी परे

5. आत्मसंयम सभी (दवशेषकर गृहस्थ) दवशेषकर धमादवरुद्ो भूिेषु कामोस्मी

भौदिक संसाधनों की आवश्यकिा होिी है , इसीदलए


6. यज्ञ सभी (दवशेषकर गृहस्थ) दवशेषकर गृहस्थों के दलए
इस युग के दलए उत्तम : संकीिशन यज्ञ

7. वेिाध्ययन ब्रह्मचादरयो के दलए छात्र जीवन; ब्रह्मचयश और मन को वेिाध्ययन में लगाना

मानव जीवन (और इसीदलए वैदिक सभ्यिा) मुदि के


8. िपस्या सभी के दलए (दवशेषकर गृहस्थ)
दलए है

9. सरलिा सभी के दलए सरल एवं स्पष्ट (सत्यवान)

अनहसा (एक जीव के प्रगदिशील जीवन में रुकावट


10. अनहसा सभी के दलए
नहीं डालना)

व्यदिगि लाभ के दलए सत्य को दवकृि नहीं करना,


11. सत्यदनष्ठिा सभी के दलए दवशेषकर वैदिक उपिे शों को; अदधकृि व्यदि से
अवश्य श्रवण करें
अगर उकसाया जाय िब भी, व्यदि को सदहष्णु होना
12. िोध से मुदि सभी के दलए
चादहए

13. वैराग्य सभी के दलए वस्िुओं का उदचि उपयोग, अथाि कृष्ण की सेवा में

दवचदलि करने वाली भावनाओं से अप्रभादवि रहना;


14. शात्न्ि सभी के दलए
शांदिपूणश और समभावी।

59
एक चोर को चोर कहना सही है ; परन्िु अनावश्यक
15. िोष िशशन से बचना सभी के दलए
िोषिशशन नहीं होना चादहए

16. सभी जीवों के प्रदि िया सभी के दलए आध्यात्त्मक ज्ञान प्रिान करना

17. लोलुपिा से मुि सभी के दलए लोलुपिा , लोभी (िान और त्याग)

18. भकिा सभी के दलए सभी जीवों के साथ दमत्रिापूणश संबंध

19. नम्रिा सभी के दलए कोई भी घृदणि कायश नहीं करना

अपने प्रयासों से हिाश या उत्तेदजि नहीं होिा, चाहे


सभी के दलए
20. त्स्थर दनष्ठा सफलिा दमले या असफलिा

21. शदि क्षदत्रय सुरक्षा प्रिान करने में सक्षम

सभी के दलए (दवशेषकर क्षदत्रयों के


22. क्षमा मामूली अपराधों को क्षमा कर िे िे हैं
दलए)

सभी के दलए (यहाूँ दवशेषकर क्षदत्रयों के कदठन पदरत्स्थदियों में मानदसक और भावनात्मक
23. धैयश
दलए) त्स्थरिा

सभी के दलए (दवशेषकर क्षदत्रयों के आंिदरक (मन और ह्रिय), बाह्य (शारीदरक, अन्यों से
24. स्वच्छिा
दलए) व्यवहार), कोई कालाबाजारी और गुप्त ह व्यवहार नहीं

25. द्वे ष से मुि सभी के दलए िूसरो के प्रदि द्वे षी नहीं

26. प्रदिष्ठा प्रादप्त ह की इच्छा सभी के दलए (यहाूँ दवशेषकर शूकों के


िूसरों का अवश्य आिर करना चादहए
से मुि दलए)

60
भगवद्गीता र्े चु नी हु ई प्रर्ं ग

क्तवषय अध्याय

1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
5–6 20–22 14–15 19–
आत्मा और्र शर्रीर्र पक्तर्रवतसन 11–29 13–16 5
23–28 30–35 18
7–10
20

आत्मा–र्ाक्षात्कार्र प्राप्त व्यक्ति के 7–10


54–72 19–24 20–23 13–14 13–20 22–26 1–3 54
17–26
लक्षण
4–7 51–53
मन और्र इस्न्ियों का र्ं यम 55–68 37–43 26–29 22–23
10–27
7–14 34 8 21
65
39–41 2–12 35–36
10–27 10–13 3–7 1–23 2–12
योग 48–51
3–9 19–24
26–27 46–47
19
28
53–54
8–12 25–26
1–19 1–20 1–22
13–18
20 66
कमस र्ं न्यार् और्र कमस योग में तु लना 59 3–9 2–7 2–12

12
क्तनर्ववशे षवाद को पर्रास्त्त कर्रना 23–24
7, 24 26 15 33 8 2–7 27 7 54

20–21
दे वताओं की उपार्ना 11–12 12 20–23
23–25
4

जीव, ईश्वर्र और्र प्रकृक्तत के मध्य 21–22


5–11
13–16 4–7
4–10
8–11
1–7
3–5
7
61, 66
35 22, 13–23 12–20
र्म्बन्ध 29–31
1–19
J!va,
भौक्ततकIsvara and
प्रकृक्तत के गुणPrakrti 45 27 14 14 20–22
26
1–22 19–40

5–16 13,15
7–9
वणाश्रम धमस 39–43 31–38 22–26 26 29 32–33 10–12 1–3
41–48
29,33 31–33
35 2,13,1
49–51 5, 7 10– 2,6–8, 46, 55
भक्ति 61
9 9–11 29 47 1, 14 19
14, 28
422,26 8–11 54–55
13–20
11 26 18–19
65–66
–27,29,
2,13,34
22,
अनन्य भक्ति 14
26 29,34
8–11 54 6–7 26 18–20 65–66

61
पूवस स्त्वाध्याय
क्लोज्ड बुक असेसमेंट के दलए प्रश्न

भगवद्गीता अध्याय 13
1. प्रकृदिम्, पुरुष और ज्ञेयं के नहिी अथश बिाइयें। (1)
2. ब्रह्मपुच्छ प्रदिष्ठा के पांचस्िरों को सूचीबद् करें दजस प्रकारिैदत्तरीय उपदनषि 2.9 में वर्वणि है । (5)
3. इस संसार के 24 ित्वों को सूचीबद् करें । (6–7)
4. संस्कृि या नहिी में ज्ञान की बीस वस्िुओं को सूचीबद् करें । (8–12)

भगवद्गीता अध्याय 14
5. महत्तत्व का क्या अथश है ? (3)
6. सिोगुण में त्स्थि व्यदि दकस प्रकार से बंधन में होिे हैं ? (6)
7. रजोगुण के क्या लक्षण हैं ? (7)
8. िमोगुण के िीन पदरणामों को सूचीबद् करें । (8)
9. जो सिोगुण में हैं और जो िमोगुण और रजोगुण में हैं वे दकन दकन दिशाओं में दवकास करिे हैं ? (18)

भगवद्गीता अध्याय 15
10. ऊध्वश–मूलं और अधः शाखम् के नहिी अथश बिाएं। (1)
11. वटवृक्ष की पदत्तयां क्या होिी हैं ? (1)
12. भौदिक जगि का वृक्ष दकसपर त्स्थि होिा है ? (1)
13. बडवृक्ष का पोषण दकसके द्वारा होिा है ? (2)
14. असङ्ग–शस्त्रेण का नहिी अथश बिाएं। (3–4)
15. दकस प्रकार कृष्ण इस जगि का पान करिे हैं इसके िीन उिाहरण िीदजये। (12 –14)
16. क्षरः और अक्षरः का क्या अथश है ? (17)
17. पुरुषोत्तम् शब्ि का क्या अथश है ? (19)

भगवद्गीता अध्याय 16
18. दनम्न का नहिी अथश बिाएं: संपिं (1–3), प्रवृदत्त और दनवृदत्त (7), अनीश्वरम्(8), and उग्र–कमशणः। (9)
19. एक आसुरी व्यदि का सबसे अच्छा उिाहरण क्या है ? (16)
20. मामप्रप्येव कौन्िेय का नहिी अथश बिाएं। (20)
21. नरक को जाने वाले िीन द्वारों को सूचीबद् करें । (21)

भगवद्गीता अध्याय 17
22. िीन प्रकार की श्रद्ा बिाएं। (2)
23. सिोगुणी आहार लेने के छह पदरणामों को सूचीबद् करें । (8)
24. शरीर की िपस्या के आठ भाग क्या हैं ? (14)
25. स्वध्यायभयसनम् का नहिी अथश बिाएं। (15)
26. सिोगुण में दिए गए िान के चार लक्षणों को सूचीबद् करें । (20)
27. िीन शब्ि ॐ ित् सत् दकसकी और संकेि करिे हैं ? (23)

62
भगवद्गीता अध्याय 18
28. रजोगुण के वैराग्य के लक्षणों को सूचीबद् करें । (6)
29. हर दिया के पूणश होने के पांच कारणों को सूचीबद् करें । (14)
30. सिोगुणी सुख के िीन लक्षणों को सूचीबद् करें । (37)
31. रजोगुणी सुख के िीन लक्षणों को सूचीबद् करें । (38)
32. िमोगुणी सुख के िीन लक्षणों को सूचीबद् करें । (39)
33. उन नौ गुणों को सूचीबद् करें दजनके साथ ब्राह्मण कमश करिे हैं । (42)
34. संस्कृि या नहिी में शरणागदि के छह लक्षणों को सूचीबद् करें । (66)
35. यह गुह्य ज्ञान कभी भी दकस प्रकार के व्यदि को नहीं समझाना चादहए? (67)

अध्याय 13–18 की चु नी हु ईं उपमाएं


13.3
एक नागदरक को अपने भू दम के खंड के बारे में सबकुछ पिा होिा है परन्िु , एक राजा अपने महल ही नहीं पर
सभी नागदरकों क संपदत्त की जानकारी रखिा है । इसी प्रकार व्यदि अपने शरीर का स्वामी हो सकिा है परन्िु,
परमेश्वर भगवान् सभी शरीरों के स्वामी हैं ।

13.17
सूयश का उिाहरण दिया जािा है : सूयश मध्यान्न में एक स्थान पर त्स्थि रहिा है । परन्िु, अगर कोई हर दिशा में पांच
हज़ार मील जािा है और पूछिा है , “सूयश कहाूँ है ?” िब सभी कहें गे दक वह उसके सर पर चमक रहा है । वैदिक
शास्त्रों में यह उिाहरण यह समझाने के दलए दिया गया है दक जबदक वह (परमेश्वर) अखण्ड हैं परन्िु इस प्रकार
उपत्स्थि हैं जैसे दवखंदडि हों।

13.33
वायु, जल, दमटटी, दवष्ठा और अन्य सभी वस्िुओं के अन्िर जािी है परन्िु दकसी से दमलिी नहीं। इसी प्रकार, एक
जीव यूूँ िो दवदभन्न शरीरों में होिा है , दफर भी उनसे परे होिा है ….

14.3
एक दबच्छु चावल के ढे र में अंडे िे िा है और कई बार ऐसा कहा जािा है दक दबच्छु चावल से उत्पन्न होिा है । परन्िु
चावल दबच्छु का कारण नहीं हैं । वास्िव में अंडे मािा ने दिए थे । दफर इस प्रकार, भौदिक प्रकृदि जीवों के जन्म का
कारण नहीं है । इसका बीज परम परमेश्वर भगवान् द्वारा दिया गया है और केवल िे खने में ही वे भौदिक प्रकृदि के
उत्पाि होिे हैं ।

14.26
अगर कोई भगवान्–सम दिव्य त्स्थदि में नहीं उपत्स्थि है िब वह भगवान् की सेवा नहीं कर सकिा। एक राजा का
व्यदिगि सहायक बनने के दलए योग्यिाओं की आवश्यकिा होिी है ।

14.26
कृष्णभावनामृि मन होना या भदि में होने के अथश है कृष्ण के समान हो जाना। भगवान् कहिे हैं दक उनका स्वभाव
दनत्य, आनंिमय और ज्ञानपूणश है और, सभी जीव भगवान् के अदभन्न अंश हैं , दजस प्रकार स्वणश दिनके स्वणश खिान
के अदभन्न अंग हैं । इसीदलए एक जीव, अपनी आध्यात्त्मक त्स्थदि में स्वणश दजिना श्रेष्ठ होिा है , गुणों में कृष्ण
दजिना अच्छा।

63
14.27
राजा का एक सेवक लगभग राजा के ही स्िर का आनि भोग करिा है । और इसीदलए दनत्य और अदवनाशी सुख
एवं, दनत्य जीवन भदिमाय सेवा के साथ ही आिे हैं । इसीदलए ब्रह्मा–साक्षात्कार, या दनत्यिा, या अदवनादशिा
भदिमय सेवा में ही सत्म्मदलि हैं ।

15.8
एक जीव भौदिक संसार में एक शरीर से िुसरे में जािे हु ए दवदभन्न िे हात्म धारणाओं को इस प्रकार ले जािा है जैसे
वायु दवदभन्न गंधों को। इसी िरह वह एक शरीर छोड़कर स्वीकारिा है और उसे छोड़िा है िूसरा स्वीकार करने के
दलए।

15.9
हमारी चेिना मूल रूप से जल की िरह शुद् है । परन्िु अगर जल में हल्का सा कोई रं ग दमला दिया जाए िो वह
बिल जािा है । इसी प्रकार, चेिना शुद् होिी है क्योंदक आत्मा शुद् है । परन्िु, चेिना भौदिक गुणों के संग के
अनुसार बिल जािी है ।

15.13
उनकी ऊजा प्रत्येक गृह का संभालिी है , मानो वह मुट्ठी भर धूल हो। अगर कोई हाूँथ में धूल पकडे िो धुल के दगरने
की सम्भावना नहीं रहिी परन्िु अगर वह उसे हवा में उछाल िे िो वह नीचे ही दगरे गी। इसी प्रकार, यह सभी ग्रह,
जो हवा में िैर रहे हैं वास्िव में, परम भगवान के दवश्व रूप के हाूँथ द्वारा पकडे गए हैं ।

18.17
वह व्यदि जो परमात्मा या परम परमेश्वर भगवान् के दनिे शानुसार कृष्णभावनामृि में कायश कर रहा है वह वध करिे
हु ए भी वध नहीं करिा। और न ही वह कभी भी इस प्रकार के वध की प्रदिदिया से प्रभादवि होिा है । जब एक
सैदनक अपने वदरष्ठ अफसर के कहने पर वध करिा है िब उसे कचहरी में नहीं बु लाया जािा परन्िु, वह अगर
अपनी इच्छा से हत्या करे िब दनदश्चि ही एक न्यायालय में उसकी पैरवी होगी।

18.48
हर प्रयास िुटी से ढाका होिा है , ठीक दजस प्रकार आग धुंए से। इसीदलए व्यदि को अपने स्वभावानुसार कायश
करना नहीं छोड़ना चादहए, भले ही यह कायश (कमश) िुटीपूणश क्यों न हो।

18.55
दवषिे का अथश है दक व्यदि अपना व्यदित्व बरकरार रखिे हु ए परम भगवान् के धाम में प्रवेश कर सकिा है और
उनका संग करिे हु ए उनकी सेवा कर सकिा है । उिाहरण, एक हरा पक्षी एक वृक्ष में प्रवेश करिा है , िब वह वृक्ष
से एकाकार नहीं हो जािा अदपिु वृक्ष के फलों का आनंि लेिा है ।

18.61
एक व्यदि जो िेज़ रफ़्िार गाडी में बैठा है वह धीमी गदि वाले वाहन से िेज़ चलिा है भले ही िोनों वाहनों के
चालक एक ही हों। इसीप्रकार परमात्मा के आिे श से भौदिक जगि जीव के दलए एक दवशेष वाहन बना िे िा है
दजससे दक वह अपनी दपछली इच्छाओं के अनुसार कमश कर सके।

64
यूक्तनट 3 Open बु क अर्े र्मेंट

प्रश्न 1
भगवद्गीिा के अध्याय 14 के श्लोकों और िात्पयों के सन्िभश िे िे हु ए अपने शब्िों में:
• दकस प्रकार आप व्यदिगि रूप से रजो और िमोगुण से प्रभादवि होिे हैं ।
• व्यवहादरक िरीके दजनसे आप सिोगुण का दवकास कर सकिे हैं ।
(व्यदिगि उपयोग )

प्रश्न 2
भगवद्गीिा के चौिहवें और सोलहवें अध्याय के िात्पयों से वे वाक्य चुनें जो प्रभु पि के दमशन के पहलुओं पर
प्रकाश डालिे हैं और अपने शब्िों में चचा करें दक कैसे इस्कॉन के भदवष्य के दलए यह सभी पहलु महत्वपूणश हैं ।
(भाव और दमशन )

प्रश्न 3
भगवद्गीिा के अध्याय 17 के श्लोक 1–3 एवं उनके िात्पयों के आधार पर अपने शब्िों में यह समझाएं दक दकस
प्रकार दवदभन्न धार्वमक अभ्यासों का दवश्लेष्ण दकया जा सकिा है प्रकृदि के दनयमों के अनुसार।
(समझ)

प्रश्न 4
भगवद्गीिा के अध्याय 14 एवं 17 के उदचि श्लोकों, िात्पयों और प्रभु पाि के प्रवचनों के आधार पर, अपने शब्िों
में समझाएं:
• कृष्णभावनामृि के अभ्यास में सिोगुण के दवकास का महत्व
• दकस प्रकार कृष्णभावनामृि सिोगुण से स्विन्त्र है ।
(समझ)

65
risn

यूक्तनट 3: भक्तिरसामृत क्तसरिष

यूक्तनट क्तवषयवस्तष

क्तवषय अध्याय

भदिरसामृि दसन्धु का अवलोकन और शुद् भदि की पदरभाषा भूदमका

शुद् भदि के छह लक्षण अध्याय 1

साधन भदि अध्याय 2–4

शुद् भदि का स्विंत्र स्वभाव अध्याय 5

भदि दकस प्रकार की जाए अध्याय 6–8

भदि के दसद्ांि अध्याय 9–10

आध्यात्त्मक सेवा के दबदभन्न पहलु अध्याय 11–14

रागानुग भदि अध्याय 15–16

भगवत्प्रेम अध्याय 17–19

66
भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु के आमु ख र्े लेकर्र अध्याय 19 तक का
अवलोकन

पहली लहर्री : र्ामान्य भक्ति (आमु ख और्र अध्याय 1)


आमुख – भक्ति र्रर्
श्रील प्रभु पाि हमें भदिरसामृिदसन्धु का इदिहास बिािे हैं और इसके उद्देश्य का वणशन करिे हैं जो है सभी
व्यदिओं को दशदक्षि करके उन्हें शुद् भि के स्िर पर पहु ं चाना और साथ ही भदि रस के दवचार को
समझाना। भदिरस भदि का वह आध्यात्त्मक सुख है जो व्यदि भदि के दवज्ञान में प्रदशदक्षि होकर
अनुभव कर सकिा है ।

भू क्तमका – मंगलाचर्रण और्र शु द्ध भक्ति की पक्तर्रभाषा


लेखक शुभिा का आव्हान करिा है कृष्ण को इस पुस्िक के दवषय के रूप में स्थादपि करके, भगवान्, गुरु
और वैष्णवों को प्रणाम कर , और आशीवाि प्रिान करिे हु ए। सम्पूणश ग्रन्थ का अवलोकन करने के बाि वह
शुद् भदि की पदरभाषा िे िे हैं , शुद् भदि की पदरभाषा वह व्याख्या है दजसपर सभी पूरी भदिरसामृि दसधु
का दवस्िार होिा हो।

अध्याय 1– शु द्ध भक्ति के लक्षण


शुद् भदि इिनी उिात्त और संिुष्ट करने वाली है दक कृष्ण की सेवा में संलग्न भि सेवा के आलावा कुछ भी
और नहीं चाहिे। सालोक्य मुदि भी नहीं।

दूर्र्री लहर्री : र्ाधना भक्ति (अध्याय 2 – अध्याय 16)


यह लहर िो भागों में दवभादजि है जो हैं :

भाग एक (अध्याय 2-14) : कवकि-सािना –भकि


कनयम क़ानून का पािन

भाग दो (अध्याय 15-16) : रागानुग-सािना भकि


स्वाभाकवक भकिमय सेवा

अध्याय 2 – र्ाधना भक्ति के क्तर्द्धां त


भदि के िीन वगों का वणशन हैं , और साधना भदि पर दवशेष बल दिया गया है । दकसी की साधना भदि करने
की योग्यिा कृष्ण को प्रसन्न करने के प्रदि आकषशण है और, इस दवदध का सबसे महत्वपूणश भाग है , सिै व
कृष्ण का स्मरण रखें और कभी उन्हें भू ले नहीं।

अध्याय 3 – भक्तिमय र्ेवा स्त्वीकार्रने की योग्यता


भदि के आरम्भ के दलए आवश्यक है आकषशण, जो एक भि की कृपा से प्राप्त ह होिा है । वैदध–साधना–भदि
में दवकास व्यदि की शास्त्रों के प्रदि श्रद्ा पर दनभशर करिा है । अगर व्यदि िे हात्म बु दद् से मुि है और
साथ ही केवल कृष्ण की सेवा की ही इच्छा रखिा है , ऐसा व्यदि शुद् भदि करने के योग्य है ।

67
अध्याय 4– शु द्ध भक्ति जो है मुक्ति और्र भु क्ति की इच्छा र्े मुि र्ंतोष
यह दक भि पूरी िरह मुदि और भु दि की इच्छा से मुि होिे हैं , इसके और प्रमाण दिए गए हैं ।
वृन्िावन में कृष्ण के भि पूरी िरह मुदि को अस्वीकार कर िे िे हैं यहाूँ िक दक वैकुण्ठ की दवशेष
मुदि भी।

अध्याय 5 – शु द्ध भक्ति जो है आत्मक्तनभस र्र और्र स्त्वतंर


सामान्यिः, आत्म–साक्षात्कार का अभ्यास करने के दलए व्यदि के पास महान प्रास्िादवक योग्यिाएं होने
चादहए जैसे दक, ब्राह्मण–कुल में जन्म, वैदिक अनुष्ठानों द्वारा शुदद् और वणाश्रम धमश का पालन। भदि
उपरोि िीन शिों पर दनभशर नहीं रहिी । इसीदलए भदि और भदि करने की योग्यिा जन्म, जाि, सम्प्रिाय
और अन्य दकसी दवदध पर दनभशर नहीं होिी।

अध्याय 6 – भक्ति का अभ्यार् कर्रने के तर्रीके


श्रील रूप गोस्वामी भदि की 64 वस्िुओं को सूचीबद् करिे हैं ।

अध्याय 7– भक्ति के क्तर्द्धां तों र्े र्म्बं क्तधत प्रमाण


यहाूँ पर भदि की प्रथम अठारह वस्िुओं का उल्लेख है , जो हैं : िस प्रवृदत्तयां और प्रथम िस दनवृदत्तयां इनकी
और व्याख्या की गयी है ।

अध्याय 8 – अपर्राध क्तजनर्े बचना चाक्तहए


यहाूँ भदि की 19वीं वस्िु का वणशन है : सावधानीपूवशक भगवन्नाम के जप अथवा मंदिर में दवग्रह
अचशन करने में होने वाले अपराधों से बचना। पूरक वैदिक शास्त्रों से बत्तीस श्लोकों का संकलन
दकया गया है और अन्यों का चयन दवशेषकर वराह पुराण से दकया गया है । इस अध्याय में नाम जप
के प्रदि होने वाले िस अपराधों को सूचीबद् दकया गया है जो पद्म पुराण में प्राप्त ह होिे हैं ।

अध्याय 9 – शु द्ध भक्ति कर्रने के तर्रीके


भदि के 64 अंगों में से अंग िमांक 20 से 42 के शास्त्रों से प्रमाण दिए गए हैं , दवग्रह अचशन, जप और
प्राथशना पर दवशेष बल दिया गया है ।

अध्याय 10 – शु द्ध भक्ति कर्रने के तर्रीके


भदि के 64 अंगों में से अंग िमांक 43 से 46 िक के शास्त्रों से प्रमाण दिए गए हैं और श्रवण और स्मरण पर
दवशेष बल दिया गया है ।

अध्याय 11 – भक्ति कर्रने के तर्रीके


भदि के 64 अंगों में से अंग िमांक 47 से 53 के शास्त्रों के प्रमाण दिए गए हैं , सेवाभाव, मैत्री और शरणागदि
पर दवशेष बल िे िे हु ए।

अध्याय 12 – शु द्ध भक्ति कर्रने के तर्रीके


भदि के 64 अंगों मे से अंग िमांक 54 से 64 के शास्त्रों से प्रमाण दिए गए हैं । यह अंग भदि के सबसे

68
शदिशाली अंग माने जािे हैं , त्योहारों और भदि के अन्य पांच रूपों पर दवशेष बल दिया गया है ।

अध्याय 13 –भक्ति के पां च र्वाक्तधक शक्तिशाली अभ्यार्


इस अध्याय में भदि के चौसठ अंगों की चचा का समापन होिा है । इसमें भदि के सबसे शदिशाली रूपों का
पालन करने के अद्भुि प्रभावों का दवस्िार दकया गया है , वे भदि के रूप दजनका वणशन अध्या 12,में दकया
गया था। इसमें उन वस्िुओं का भी वणशन है दजन्हें गलिी से भदि का अंग मान दलया जािा है ।

अध्याय 14 – अन्य आध्यास्त्मक अभ्यार्ों का भक्ति र्े र्म्बन्ध


श्रील रूप गोस्वामी आगे समझािे हैं दक क्यों वे कुछ वस्िु जो भदि का अंग समझ ली जािी हैं , समझी नहीं
जानी चादहए।

अध्याय 15 – स्त्वाभाक्तवक भक्ति – र्रागास्त्मक भक्ति


इस अध्याय में रागात्त्मक भदि का वणशन है जो है , दनत्य वृन्िावन वादसयों की स्वाभादवक भदि

अध्याय 16 –अभ्यार् स्त्तर्र पर्र स्त्वाभाक्तवक भक्ति


अभ्यास के स्िर पर स्वाभादवक भदि का इस अध्याय में वणशन है जो कहलािी है रागानुग भदि।

तीर्र्री लहर्री : भाव भक्ति– भक्ति उन्मादपूणस प्रे म में


अध्याय 17– भाव भक्ति की पक्तर्रभाषा और्र प्राक्तप्त
इस अध्याय में भाव भदि, अथाि उन्मािपूणश कृष्ण प्रेम के स्िर िक उठने की दवदध का वणशन है ।

अध्याय 18 – भाव भक्ति के लक्षण


इस महत्वपूणश अश्याय में उस व्यदि के लक्षणों का परीक्षण है दजसने उन्मािपूणश भदि का दवकास कर दलया
है । इनका सावधानीपूवशक अध्ययन करनके व्यदि यह समझ सकिा है दक एक भदि के वास्िदवक
उन्मािपूणश प्रेम और एक िथाकदथि भि के उन्मािपूणश प्रेम में क्या अंिर है ।

चौथी लहर्री : प्रे म भक्ति–शु द्ध भगवत्प्रे म में भक्ति


अध्याय 19 – प्रे मभक्ति
इस अध्याय में, प्रेम भदि और उसे प्राप्त ह करने का िरीका बिाया गया है । प्रेम का दवकास श्रद्ा से आरम्भ
होने वाला एक िदमक उद्भव है ।

69
भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु के अक्ततक्तर्रि नोट एवं चाटस
भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु पूवस क्तवभाग की रूप र्रेखा

र्ामान्य भक्ति
भूदमका
a. मंगलाचरण
b. गुरु–वन्िना
c. वैष्णव–वन्िना
d. ग्रन्थ–दवभाग

भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु की अंतवसस्त्तु


चार दिशाओं वाला सागर :

उत्तर कवभाग
गौण भक्ति रस
अप्रत्यक्ष प्रेमपूणु समबन्ि
अध्याय 45-51

पूवु कवभाग
पकिम कवभाग
भगवद्भक्ति भेद
मषख्य भक्ति रस
भकि के कवकभन्न प्रकार
प्रमुख प्रेमपूणु समबन्ि
भूकमका से अध्याय 19
अध्याय 34-44

दकक्षण कवभाग
सामारय भगवद्भक्ति रस
कदव्य रस के सामान्य िक्ष्ण
अध्याय 20-34

70
पूवस क्तवभाग का अवलोकन (पूवी दवभाग) अध्याय 1–19

लहक्तर्रयां क्तवषय अध्याय

1. र्ामान्य भक्ति सामान्य दववरण भूदमका– 1

2. र्ाधना भक्ति अभ्यास 2–16

3. भाव भक्ति उन्मािपूणशिा 17–18

4. प्रे म भक्ति शुद् भगवत्प्रेम 19

उत्तम - भक्ति की पक्तरभाषा

तटस्था - लक्ण
I. अन्य अकभिाकशता शून्यं
अन्य इच्छाएं शून्य
ii. ज्ञान कमु आद्य अनावृतम
कनर्ववशेश्वाद कमु इत्याकद से मुि

स्वरूप - लक्ण
आनुकूल्येन
कृष्ण को उससे आनंद कमिना चाकहए
भिों का कृष्ण के प्रकत सकारात्मक मनोभाव होना चाकहए
कृष्ण
कृष्ण और कृष्ण की कवकभन्न कवस्तार
कृष्ण के पकरच्छद
कृष्ण के शुद्ध भि
आनु -शीिनं
कनरंतर / पूवुवती आचायों का पािन करते हु ए सभी गकतकवकियााँ

71
उत्तम भक्ति के छह लक्ष्ण

1. क्लेर्ाघ्नी : सभी प्रकार के भौकतक क्लेशों से मुकि


भौकतक क्लेशों के तीन कारण:
a. पापं: पाप कमु
b. बीजं: भौकतक इच्छाएं
c. अकवद्या: अकवद्या

2.र्ष भदा: पूणत


ु ः शुभ
d. सभी के प्रकत दया
e. सभी को आकर्वित करने वािी
f. अच्छे गुणों का सृजन करने वािी
g. उच्च सुख प्रदान करने वािी

3.मोक् लघषताक्तित: मुकि के कवचार तुच्छ प्रतीत होना

4.सषदषलमभा : दु िुभता से प्राकप्त


h. स्वयं के प्रयासों से प्राप्त नहीं की जा सकती........
i. कृष्ण आसानी से नहीं दे ते

5. सारिानां द-क्तवर्े षात्मा: गणनातीत घनीभूत आनंद

6.श्रीकृष्णाकर्षषणी: कृष्ण को आकर्वित करने का एकमात्र सािन


j. कृष्ण की अंतरंगा शकि के कनयंत्रण में

72
पाप कमों के चार्र प्रकार्र के प्रभाव

अप्रारब्ध-फलं पापन कूटं बीजं फलोन्मुखं


िमेणैव प्रदलयेि दवष्णु -भदि-रिात्मानं
पद्म पु र्रान(भगवद्गीता 9.2 में प्रार्ं क्तगत)

पापां
पाप

अप्रारब्ि
अप्रकट प्रकतकिया

कूटम्
पाप की प्रवृकत्त

बीजम्
पाप की इच्छा
प्रारब्ि
प्रकट प्रकतकिया
(फिोंमुखम्)

भक्तिर्रर्ामृत क्तर्न्धु के अध्याय 1

र्ाधन - भक्ति की 64 अंग

र्ाधना भक्ति के चौर्ठ अंग

प्राथदमक महत्व वाली 20 वस्िुएं भदि की 44 अदिदरख्ि वस्िुएं

स्वीकार करने की दियाएं वजशन करने की दियाएूँ साधना की वस्िुएं पांच सबसे प्रभावी वस्िु
(1-10) (प्रवृदत्त) (11-20) (दनवृदत्त) (21-59) (60-64)

73
74
भाव के लक्षण
अव्यथश कालािवम् समय सिुपयोग
क्षात्न्ि सदहष्णुिा
दवरदि दवरदि
मान–शून्यिा मानशून्यिा
आशा बंध बड़ी आशा
समुिकंठा ऐत्च्छक फल की प्रादप्त ह के दलए उत्सुकिा
नाम–गाने सिा रूदच हरे कृष्ण जप करने के प्रदि आसदि
आसदिस िि गुणाख्याने कृष्ण का गुणकीिशन करने के प्रदि उत्सुकिा
दप्रदिस्िद्वसदिस्थले धाम वास के प्रदि आकषशण
भदिरासामृि दसन्धु, अध्याय 18.
चैिन्य चदरिामृि, मध्य लीला 23.18–19

प्रे म की प्राक्तप्त

प्रेम

भाव दया

वैकि रागानुग

शुद् प्रेम िो शिों पर परमेश्वर भगवान् को सौंपा जा सकिा है : एक उनके प्रदि उन्मािपूणश प्रेम के कारण और िूसरा
उनकी अहै िुकी कृपा के कारण ।
भदिरसामृि दसन्धु

दो प्रकार्र के प्रे म
कृष्ण के प्रदि स्वाभादवक आकषशण, जो दक उनकी अहै िुकी कृपा के कारण संभव माना जािा है , िो शीषशकों में रखा
जा सकिा है :


महात्मय ज्ञान प्रेम
(वैकुण्ठ)

केवि प्रेम
(वृन्दावन)

भदिरसामृि दसन्धु

75
पूवस स्त्वाध्याय
क्लोज्ड बु क असेसमेंट के प्रश्न
आमुख
1. भदिरसामृि दसन्धु दवशेषकर दकसके दलए प्रस्िुि की गयी है ?
2. दनम्न के नहिी अथश बिायेंल रूपनुग, रस, चपल–सुख, भोग–त्याग और अमृि।
3. चैिन्य महाप्रभु का सावशभौदमक दसद्ांि क्या है ?
4. श्रील रूप गोस्वामी भिों और जनसाधारण के दलए क्या उिाहरण प्रस्िुि करिे हैं ?
5. श्रील रूप गोस्वामी सवशप्रथम चैिन्य महाप्रभु से कहाूँ दमले थे?
भू क्तमका
6. नहिी या संस्कृि में बारह रसों को सूचीबद् करें ।
7. प्रवृदत्त और दनवृदत्त के नहिी अथश बिाइये।
8. अनुशीलन का नहिी अथश बिाइये।
9. ज्ञानकमादि का क्या अथश है ?
अध्याय 1
10. संस्कृि या नहिी में शुद् भदि के छह लक्षणों को सूचीबद् करें ।
11. संस्कृि या नहिी में पाप कमों के चार प्रभावों को सूचीबद् करें ।
12. प्रभुपाि द्वारा दिए गए पदरपक्व पाप कमों के चार उिाहरणों को सूचीबद् करें ।
13. योग दसदद्यों और वैज्ञादनक आधुदनक वैज्ञादनक दवकास के बीच की िुलना क्या संकेि िेिी है ?
14. कृष्ण दकसी दवरली आत्मा को ही भदि प्रिान क्यों करिे हैं ?
15. श्रील रूप गोस्वामी के दवश्लेषण के अनुसार सुख के िीन स्त्रोिों को सूचीबद् करें ।
16. शब्ि मिनमोहन मोदहनी का क्या अथश है ?
अध्याय 2
17. भदि के िीन वगों के नाम दलखें।
18. नहिी और संस्कृि में िो प्रकार की साधना भदि को सूचीबद् करें ।
19. सभी दनयमों में से सबसे मूल दनयम क्या है ?
20. भगवद्गीिा के सन्िे श का प्रचार करने वाले को भोजन कराने के क्या लाभ हैं ?
अध्याय 3
21. उन चार नविीदक्षि भिों को सूचीबद् करें जो भदि आरम्भ करिे हैं केवल ित्संबंधी आत्मसंिुदष्ट में राहि
पाने के दलए (अपने स्वाथश पूरे करने के दलए)।
22. दकस स्िर पर त्स्थि न होिे हु ए भी व्यदि परम परमेश्वर भगवान् की उपासना के दसद्ांि पर त्स्थर रह
सकिा है ?
अध्याय 4
23. संस्कृि या नहिी में पान प्रकार की मुदियों को सूचीबद् करें ।
24. मुि व्यदि दजन्होंने इन चार मुदिस्िरों को प्राप्त ह कर दलया हो, दकस स्थान पर उत्तीणश हो सकिा हैं ?
अध्याय 5
25. वैष्णव पंथ का क्या रहस्य है ?
अध्याय 6
26. साधना की चौसठ में से पहले िस वस्िुओं को सूचीबद् करें ।
27. साधना की बीस वस्िुओं में से सबसे महत्वपूणश दकन–दकनको माना जािा है ?

76
28. साधना की पांच सवादधक प्रभावशाली वस्िुओं को सूचीबद् करें ।
अध्याय 7
29. आध्यात्त्मक जीवन में दवकास करने का दनणायक नबिु क्या है ?
30. बुद् के अनुयायी भि क्यों नहीं माने जा सकिे?
31. एकािशी व्रि पालन का वास्िदवक कारण क्या है ?
32. िो प्रकार के अभिों को सूचीबद् करें दजनकी संगदि से बचना चादहए।
अध्याय 8
33. सेवाप्राध और नामाप्राध की पदरभाषा िें ।
34. दकस प्रकार स्वयं भगवान् के प्रदि अपराध करने वाले का उद्ार हो सकिा है ?
अध्याय 9
35. अपने शरीर को चन्िन लेप से सजाने का क्या पदरणाम होिा है ?
36. वे कौन से दनर्ववशेषवािी हैं जो भगवान् के मंदिर में प्रसािी फूलों की गंध लेखर भि बन गए थे?
37. लौल्यं और लाल्समायी की पदरभाषा िें ।
38. पापी लोगों के दलए भी, चरणामृि पीने के क्या पदरणाम होिे हैं ?
अध्याय 10
39. िया–भाक की पदरभाषा िें ।
अध्याय 11
40. नौ में से दकन िो प्रकार की भदि दवरली ही िे खी जािी हैं ?
अध्याय 12
41. एक व्यदि जो अपने घर में वैष्णव सादहत्य रखिा है उसे सिै व क्या प्राप्त ह रहिा है ?
42. भगवान् की उपासना से भी बढ़कर क्या है ?
अध्याय 13
43. एक नविीदक्षि भि में भी, पांच शदिशाली वस्िुओं में से एक के भी प्रदि आसदि क्या जगा सकिी है ?
अध्याय 14
44. उन भिों के नामों को सूचीबद् करें दजन्होंने नव–दवधा भदि के एक ही अंगा के अभ्यास से दसदद् प्राप्त ह कर ली।
अध्याय 15
45. स्वाभादवक भदि कहा सहज रूप से िे खी जा सकिी है ?
46. राग का क्या अथश है ?
47. रागात्त्मक और रागानुग भदि का क्या अथश है ?
अध्याय 16
48. व्रजवादसयों के चरणानुसरण करने की उत्सुकिा दकस स्िर पर प्राप्त ह करना संभव है ?
49. प्राकृि सहदजया की पदरभाषा िीदजये।
50. िो प्रकार के युगल प्रेम का लघु दववरण िें ।
अध्याय 17
51. परम परमेश्वर भगवान् के प्रदि शुद् प्रेम का पहला लक्षण क्या है ?
अध्याय 18
52. उस व्यदि के लक्षणों को सूचीबद् करें दजसने कृष्ण के प्रदि उन्मािपूणश प्रेम दवकदसि कर दलए है ।
अध्याय 19
53. संस्कृि या नहिी में िो प्रकार की प्रेम भदि को सूचीबद् करें ।
54. संस्कृि या नहिी में श्रद्ा से प्रेम िक के नौ स्िरों को सूचीबद् करें ।

77
भक्तिर्रार्मृ त क्तर्न्धु र्े चु नी हु ईं उपमाएं
आमु ख
भदिरसामृि दसन्धु हमें वह बट्टन िबाना दसखािी है दजससे सवशत्र सबकुछ प्रकाशमान हो जाएगा।

भू क्तमका
वे शाकश मछदलयाूँ जो सागर में वास करिी हैं , उसमें आने वाली नदियों की परवाह नहीं करिीं। भि दनत्य रूप
से भदि के सागर में दनवास करिे हैं और, उन्हें नदियों की परवाह नहीं होिी। िुसरे शब्िों में, वे जो शुद् भि
होिे हैं सिै व भगवा न की दिव्य प्रेममयी सेवा में रहिे है और दकसी भी और दवदध से उनका कोई भी लेना िे ना
नहीं, वे सभी अन्य दवदधयाूँ सागर में आनेवाली नदियों के समान हैं ।
सागर के मध्य में होने वाले ज्वालामुखी दवस्फोट कुछ ही हादन पहु ं चा पािे हैं और इसी प्रकार, वे जो भगवान् की
भदि के दवरोधी हैं और अनेकानेक वैचादरक दववाि प्रस्िुि करिे हैं , दिव्य साक्षात्कार के दवषय में, महान भदि
सागर को कभी भी दवचदलि नहीं कर सकिे।

अध्याय 1
वन की धरिी में अनेकानेक सपश होिे है परन्िु जब आगजनी होिी है िब सूखे पत्ते जल जािे है और सपों पर
आिमण हो जािा है । वे पशु दजनके चार पैर होिे हैं वह कमसेकम भागने का प्रयास कर सकिे हैं परन्िु सपों की
िुरंि ही मृत्यु हो जािी है । इसी प्रकार, कृष्णभावनामृि की चमकिार अदग्न इिनी शदिशाली है दक अज्ञानिा के
सभी सपश िुरंि ही मारे जािे हैं ।
एक रानी के नौकर और रखवाले बड़े आिरपूवशक उसके पीछे चलिे हैं और इसी प्रकार, धार्वमकिा, आर्वथक
दवकास, भोग और मुदि के सुख भगवान् की भदि के पीछे चलिे हैं ।
अध्याय 2
कृष्ण प्रेम की अपनी दनदहि चेिना को जागृि करने के दलए अपने मन और इत्न्कयों को संलग्न करने के कुछ
दनधादरि िरीके हैं , दजस प्रकार से एक बच्चा थोड़े से अभ्यास के साथ चलने लगिा है ।

अध्याय 5
व्यदि जो वैष्णव पंथ में उदचि रूप से िीदक्षि है , ब्राह्मण बन जािा है दजस प्रकार कांसे को पारे में दमलाकर सोना
बनाया जा सकिा है ।

अध्याय 7
व्यदि को एक लोहे के नपजरे में या भभकिी अदग्न के मध्य रहना स्वीकार कर लेना चादहए परन्िु, उन अभिों से
साथ नहीं जो सिा भगवान् की सवोच्चिा का सीधा–सीधा दवरोध करिे हैं । (कात्यायन –संदहिा)
व्यदि को एक सपश, व्याघ्र या एक मगरमच्छ का आनलगन कर लेना चादहए परन्िु उन व्यदियों का संग करने से
बचना चादहए जो दवदभन्न िे विाओं के उपासक हैं और जो ऐसा भौदिक इच्छा से प्रेदरि होकर करिे हैं । (दवष्णु
रहस्य)

अध्याय 12
जब एक आम पाक जािा है िब वह उस वृक्ष का सबसे महान उपहार हो जािा है और, श्रीमि भागविम् वेिों के
वृक्ष का पका हु आ फल है । संगदि बहु ि महत्वपूणश है । यह ठीक एक चमकिार रत्न के रूप में कायश करिी है जो दक
हर उस वस्िु को िशािा है जो उसके सामने राखी हो। इसी प्रकार, अगर हम पुष्प–सम भिों का संग करें गे और
अगर हमारा ह्रिय शुद् रहे गा िब दनदश्चि ही हमारे कमश भी उसे प्रकार होंगे।
कभी कभी, यह पाया जािा है दक व्यदि जो कभी पाठशाला नहीं गया, बड़े पंदडि के रूप में पहचाना जािा है या,
प्रदसद् दवश्वदवद्यालयों से उसे बड़ी–बड़ी उपादधयाूँ दमलिी हैं । परन्िु इसका अथश यह नहीं है दक वह स्कूल जाने से
बचे और यहस सोचे दक उसे सम्मादनि दडग्री दमलनी ही है । इसी प्रकार व्यदि को श्रद्ापूवशक भदि के दनयमों का
पालन करना चादहए और साथ ही कृष्ण या उनके भिों के अनुग्रह की आशा भी करनी चादहए।

78
भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु के स्त्मर्रण कर्रने के श्लोक

भक्तिर्रर्ामृत क्तर्न्धु 1.1.11


अन्याक्तभलाक्तषता –शू न्यं ज्ञान–कमाद्यनावृतम्
आनु कुल्ये न क्तक्रष्ट्णानु शीलन्म भक्तिरुत्तमा

अन्य अक्तभलाक्तषता शू न्यं —भगवान कृष्ण की सेवा के अदिदरि अन्य दकसी भी इच्छा से रदहि
अथवा भौदिक कामनाओं के दबना (जैसे मांसाहार, अवैध सम्बन्ध, जुआ इत्यादि); ज्ञान— अद्वै ि
मायावादियों के िशशन ज्ञान से; कमस—सकाम कमश से ; आक्तद— वैराग्य के कृदत्रम अभ्यासे से, योग
के यांदत्रक अभ्यास से, सांख्य िशशन के अध्ययन आदि से; अनावृतं—न ढका हु आ; अनु कुल्ये न—
अनुकूल भाव से; कृष्ट्ण–अणु –शीलनं —कृष्ण की स्व का दवकास; भक्तिः उत्तम—प्रथम श्रेणी
की भदि।

जब प्रथम श्रेणी की भदि दवकदसि होिी है , िब मनुष्य को समस्ि भौदिक इच्छाओं, अद्वै ि –िशशन से प्राप्त ह ज्ञान िथा
सकाम कमश से रदहि हो जाना चादहए। भि को कृष्ण की इच्छानुसार अनुकूल भाव से उनकी दनरं िर सेवा करनी
चादहए।

भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु 1.1.12


र्वोपाक्तधक्तवक्तनमुसिं तत्पर्रत्वेन क्तनमसलम्
हृक्तषकेण हृषीकेश र्ेवनं भक्तिरुच्यते

र्वस–उपाक्तध–क्तवक्तनमुस िं—सभी प्रकार लकी भौदिक उपादधयों से रदहि अथवा भगवत्सेवा जे


अदिदरख्ि सभी इच्छाओं से रदहि; तत्–पर्रत्वेन —ित्पर होकर अथाि अनन्यिा से पूणश
पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा के भाव के द्वारा; क्तनमसल—
ं शुष्क िाशशदनक अनुसंधान अथवा
सकाम कमश से मुि; हृक्तषकेन— सभी उपादधयों से रदहि शुद् इत्न्कयों से; हृषीकेश—इत्न्कयों
के स्वामी की; भदिः—भदि; उच्यते —कही जािी है ।

भदि का अथश है समस्ि इत्न्कयों के स्वामी, पूणश पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में अपनी सारी इत्न्कयों को लगाना। जब
आत्मा भगवान् की सेवा करिा है , िो उसके िो गौण प्रभाव होिे हैं । मनुष्य सारी भौदिक उपादधयों से मुि हो जािा है
और भगवन की सेवा में लगे रहने मात्र से उसकी इत्न्कयां शुद् हो जािी हैं ।

79
भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु 1.2.234
अतः श्रीकृष्ट्ण नामाक्तद न भवेद्ग्ग्राह्यक्तमस्न्ियै ः।
र्ेवोन्मुखे क्तह क्तजह्वादौ स्त्वयमेव स्त्फुर्रत्यदः

अतः—इसीदलए; श्रीकृष्ट्ण नामाक्तद — श्रीकृष्ण नाम, रूप, गुण, लीलाएं आदि; न—नहीं;
भवेत्— हो सकिीं; ग्राह्यं—स्वीकारणीय; इस्न्ियै ः—भौदिक इत्न्कयों के द्वारा; र्ेवाउन्मुखे —
(परन्िु) दनदश्चि ही उनकी सेवा में लगी; क्तजह्वादौ— जीभ अदि में (जीभ आदि को); स्त्वयं —
स्वयं; एव—ही; स्त्फुर्रक्तत— प्रकट होिे हैं ; अदः—वे (ये नाम इत्यादि)।

इसीदलए भौदिक इत्न्कयां कृष्ण के नाम, रूप, गुण िथा लीलाओं को समझ नहीं पािीं। जब बद् जीव में कृष्णभावना
जागृि होिीहै और वह अपनी जीभ से भगवान् के पदवत्र नाम का किशन करिा है िथा भगवान् के द्वारा छोड़े गए
भोजन का आस्वािन करिा है , िब उसकी जीभ शुद् हो जािी है और वह िमशः समझने लगिा है दक कृष्ण कौन
हैं ।
(मूलिः पद्म पुराण से, चैिन्य चदरिामृि में प्रासंदगि मध्य लीला 17.136)

भक्तिर्रर्ामृ त क्तर्न्धु 1.2.255–6


अनार्िास्त्य क्तवषयान् यथाहस मुपयु ञ्जतः
क्तनबस न्धः कृष्ट्णर्ंबन्धे यु िं वैर्राग्यमुच्यते

अनार्िस्त्य —जो आसदिरदहि है उसका; क्तवषयान्—भौदिक इत्न्कयदवषयों को; यथा–


अहश म्— योग्यिा के अनुसार (उन दवषयों की योग्यिानुसार); उपयु ञ्जतः—दनयुि करने वाले
का ; क्तनबस न्धः—आग्रह; कृष्ट्ण–र्म्बन्धे —कृष्ण के सम्बन्ध में; यु िं—युि अथवा योग्य;
वैर्राग्यं —वैराग्य; उच्यते —कहलािा है ;

जो व्यदि भौदिक आसदिरदहि है , उसका, कृष्ण की सेवा में, भौदिक इत्न्कयदवषयों को लगाने का जो प्रयत्न अथवा
आग्रह है , वह युि वैराग्य कहलािा है (उन दवषयों की योग्यिानुसार )।

80
यूक्तनट 4 Open बु क अर्े र्मेंट प्रश्न

प्रश्न 1
स्वरूप और िटस्थ लक्ष्ण, प्रभुपाि के वाक्य में उिाहरण और संस्कृि शब्िों का सन्िभश िे िे हु ए शुद् भदि की पदरभाषा
की अपने शब्िों में, व्याख्या करें ।
(समझ)
प्रश्न 2
प्रभुपाि के वाक्य, उपयुि उपमाओं और अन्य शास्त्रीय प्रसंगों का सन्िभश िे िे हु ए अपने शब्िों में यह व्याख्या करें, दक
दकस प्रकार शुद् भदि सभी चार प्रकार की पाप प्रदिदियाओं का नाश करने में सक्षम है ।
(समझ)
प्रश्न 3
अपने शब्िों में शुद् भदि के छह लक्षणों की व्याख्या करें यह भी बिािे हु ए दक दकन–दकन स्िरों में वह प्रकट होिे हैं ।
अपने उत्तर के साथ उदचि सन्िभश िें भदिरासामृि दसन्धु के पहले अध्याय से।
(समझ)
प्रश्न 4
भदिरसामृि दसन्धु से अध्याय 2 से सन्िभश िे िे हु ए साधना भदि की दवदध की अपने शब्िों में व्याख्या करें । अपने उत्तर
में वैदध और रागानुग साधना भदि के बीच भेि की भी व्याख्या करें । अध्याय 2 से उपयुि उपमाओं और प्रासंदगक
वाक्यों का सन्िभश िें ।
(समझ)
प्रश्न 5
अपने शब्िों में चचा करें , सभी पाश्चात्य िे शों से सिस्य बनाने के अभ्यास की, श्रील रूप गोस्वामी द्वारा स्थादपि दसद्ांिों
के सम्बन्ध में । अपने उत्तर में उपयुि शास्त्र सन्िभश िें और साथ ही भदिरसामृि दसन्धु के अध्याय 5 से पूवशविी
आचायों के उिाहरण।
(भाव और दमशन)
प्रश्न 6
दसद्ांि और व्याख्य के बीच भेि की व्याख्या करें, भदिरसामृिदसन्धु के अध्याय 6 के आधार पर। इस्कॉन के भदवष्य
के दवकास के दलए, इस भेि के महत्व की चचा करें ।
अपने उत्तर में भदिरसामृि दसन्धु के अध्याय 6 से उपयुि सन्िभश िें ।
(समझ/ मूल्यांकन / भाव और दमशन)
प्रश्न 7
श्रील प्रभुपाि के भदिरसामृि दसन्धु के अध्याय 10 के वाक्यों के सन्िभश िे िे हु ए, व्यदि के जीवन के िुखों के प्रदि
उपयुि मनोभाव का अपने शब्िों में वणशन करें । इसकी भी चचा करें , दक दकस प्रकार ऐसे मनोभाव का दवकास
आपको िुखों का सामना करने में सहायिा प्रिान कर सकिा है , उत्तर में प्रासंदगक दनजी अनुभवों का प्रसंग िें ।
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 8
अध्याय 11 और 12 का सन्िभश िे िे हु ए साधना भदि की पांच सवादधक महत्वपूणश वस्िुओं के महत्व का वणशन करें ।
उन व्यवहादरक िरीकों की अपने शब्िों में चचा करें दजनके द्वारा आप इन पांच वस्िुओं के अभ्यास को सुधार सकिे
हैं ।
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 9
भदिरसामृि दसन्धु अध्याय 15 और 16 का सन्िभश िे िे हु ए अपने शब्िों में, इस्कॉन के भिों के दलए रागानुग भदि के
अभ्यास के सही रवैय्ये की चचा करें ।
(मूल्यांकन/ भाव और दमशन)

81
यूक्तनट 5
उपदे शामृ त
और्र श्रीईशोपक्तनषद

भू क्तमका
चार वेिों का दवभाजन उपदनषद् / शुदि एवं स्मृदि
4 िुदटयाूँ
3 प्रमाण प्रत्यक्ष / अनुमान/ शब्ि परम्परा

मं गलाचर्रण
ॐ पूणं पूणश और दसद्
पूणं एवावदशष्यिे पूणश संिुलन बना रहिा है ।
मन्र 1– 3: भगवान् का स्त्वाक्तमत्व
मन्त्र 1 ईशावास्यं: / भागवि समाजवाि
िेन त्यिेन भु त्न्जि – आवश्यक कोटा स्वीकार करें
मन्त्र 2 ईशावस्य का उपयोग–लम्बी आयु
मन्त्र 3 आत्म हा– आत्मा का हत्यारा
मन्र 4–8 महाभागवत की दृ ष्टी
मन्त्र 4 त्स्थर / सचल (ऊजा का दवस्िार)
मन्त्र 5 दवरोधाभास भगवान् की असीम शदि को दसद् करिे हैं
मन्त्र 6–7 एकत्वं अनुपश्यिः – एकिा का िशशन प्रमादणक श्रवण के द्वारा
असत्य परोपकार
मन्त्र 8 शुद्ं अपापदवद्म
मन्र 9–14 पर्रम और्र र्ापे क्तक्षक
मन्त्र 9–11 ज्ञान और अज्ञान
संिुदलि कायशिम
मन्त्र 12–14 परम की उपासना / सापेक्ष: िे विाओं की उपासना एवं दनर्ववशेषवाि
मन्र 15–18 भगवान् के आध्यास्त्मक रूप के दशस न हे तु प्राथस नाएं
मन्त्र 15 सत्यस्यदपदहिं मुख–

आपका वास्िदवक मुखमण्डल प्रकाश से ढका हु आ है ।
मन्त्र 17 ॐ ििोस्मर कृिं स्मर–
मैं आपके दलए जो दकया है उसे याि रखें
मन्त्र 18 श्री ईशोपदनषि व्यदि को भगवान् कृष्ण के समीप लािी है ।

82
श्री ईशोपक्तनषद का अवलोकन

भू क्तमका
भू दमका में श्रील प्रभु पाि वेि की पदरभाषा स्थादपि करिे है और वेिों से मागशिशशन लेने की आवश्यकिा। श्री
ईशोपदनषि प्रत्यक्ष वैदिक शास्त्र है और शुदि का एक भाग है ।

मंगलाचर्रण
मंगलाचरण में इस पुस्िक के उद्दे श्य का वणशन है जो है : परम सत्य, परमेश्वर भगवान्। उनकी पूणशिा की दवदभन्न
प्रकारों से पहचान करिे हु ए, श्री ईशोपदनषि भगवान् का परम स्िर और उनकी परम शदि को स्थादपि करिी
है ।

मन्र 1–3: भगवान् का स्त्वाक्तमत्व और्र उनके क्तनयम


मंगलाचरण में यह बिाया गया दक परमेश्वर भगवान् पूरी िरह पूणश हैं , और उनकी शदियां भी । श्रील प्रभु पाि
कहिे हैं , “हर प्रकार की अपूणि
श ा परम पूणश के अपयाप्त ह ज्ञान के कारण होिी है ।” मंत्र एक में इसका दववरण है दक
दकस प्रकार, कृष्ण के साथ सम्बन्ध में जारी करिे हु ए जीव अपने पूणशिा के भाव को प्राप्त ह कर सकिे हैं । इस
दिया को कहिे हैं ईशावास्य चेिना। मन्त्र 2 में ईशावास्य चेिना में कायश करने के लाभों की व्याख्या है जो हैं :
व्यदि कमश के प्रभाव से मुि होकर मुदि के स्िर पर कायश करने लगिा है । ऐसी गदिदवदधयाूँ स्विंत्रिा की प्रादप्त ह
का एकमात्र उपाय हैं । मन्त्र 3 में उन सभी व्यदियों की गदि का वणशन है को भगवान् के स्वादमत्व को न
स्वीकारिे हु ए दवकमी जीवनयापन करिे हैं ।

मन्र 4–8: एक महा भागवत का दृक्तष्टकोण


मन्त्र चार में यह व्याख्या है दक क्यों कुछ व्यदि भगवान् के स्थान को नहीं समझ पािे और वह है : भगवान्
भौदिक गणनाओं के परे हैं और उन्हें िभी जाना जािा है जब वे स्वयं को उजागर करिे हैं । मन्त्र पांच में यह
आगे बिाया गया है दक भगवान् के पास असीदमि शदियां हैं जो उन्हें अदवज्ञ बनािी हैं उन लोगों के दलए दजनके
प्रदि वे अनुकूल नहीं हैं । मन्त्र 6 में उस व्यदि की िृष्टी का वणशन है को भगवान् को सवशत्र िे खिा है , वह है एक
महा भागवि। मन्त्र 7 में महाभागवि की चेिना का आगे वणशन है जसका पदरचय मन्त्र 6 में दिया गया था। मन्त्र
8 में भगवान् के उन गुणों का वणशन है दजनसे एज महा भागवि उन्हें पहचानिा है , महाभागवि दजसका वणशन
मन्त्र 6 और 7 में है ।

मन्र 9–14: पर्रम और्र र्ापे क्ष


• 9 – 11: ज्ञान के सम्बन्ध में
• 12–14: उपासना के सम्बन्ध में
मन्त्र 9 में उन िो प्रकार के व्यदियों का की चचा है दजन्हें कृष्ण का कोई ज्ञान हैं : वे जो केवल अज्ञान में हैं और
िुसरे जो भौदिक दवद्वत्ता के अनुयायी हैं या जो भौदिक ज्ञान को सवोपदर मानिे हैं । िोनों प्रकार के व्यदि भगवान्
के स्वादमत्व को नकारिे हैं और पदरणामवश “अज्ञानिा के सबसे गहरे अूँधेरे” वाले स्थान को पदिि हो जािे हैं ।
मन्त्र 9 में अज्ञानिा या असत्य दवद्या का अनुशीलन करने के पदरणाम बिाये गए हैं । मन्त्र 10 बिािा है दक
वास्िदवक ज्ञान उपरोि िो से दभन्न एक पदरणाम लािा है । एक धीर व्यदि से मागशिशशन लेिे हु ए वास्िदवक और

83
भ्रादमक ज्ञान में भेि करने पर भी बल दिया गया है । मन्त्र 11 में इसका वणशन है दक दकस प्रकार व्यदि को
भौदिक और आध्यात्त्मक ज्ञान की परस्पर त्स्थदि को जानना चादहए दजससे वह भौदिक शदि के ऊपर आकर
मृत्यु पर दवजय प्राप्त ह कर ले। जैसा दक श्लोक 9–11 में ज्ञान और अज्ञान की िुलना की गयी है और, िोनों के
अनुयाइयों की अपनी–अपनी गदि, श्लोक 12–14 में सापेदक्षक और परम की उपासना का वणशन है । दजस
प्रकार अनुदचि ज्ञान का अनुशीलन व्यदि को बंधन में डाल सकिा है उसी प्रकार, परम सत्य के दवषय में
अनुदचि धारणाएं भी। मन्त्र 13 में यह समझाया गया है दक व्यदि एक दभन्न गदि को प्राप्त ह करिा है जब उसकी
परम सत्य की समझ एक धीर व्यदि द्वारा मागशिर्वशि होिी है । मन्त्र 14 में कहा गया है दक व्यदि को भौदिक
और आध्यात्त्मक शदियों को भली भादि जान ही लेना चादहए, उसके अपने अपने स्िरों पर, अगर वह मुदि प्राप्त ह
करने चाहिा है ।

मन्र 15–18: भगवान् के क्तदव्य रूप के प्राकट्य के क्तलए और्र मृत्यु के र्मय कृपा प्राक्तप्त के क्तलए
प्राथस नाएं ।
मन्त्र 12–14 में कृष्ण को उनकी भौदिक शदियों के साथ सम्बन्ध को ध्यान में रखिे हु ए समझने की
आवश्यकिा का वणशन है । मन्त्र 15 में यह बिाया गया है दक व्यदि को कृष्ण को उनकी आध्यात्त्मक शदि को
ध्यान में रखिे हु ए भी जानना चादहए, वह शदि है ब्रह्मज्योदि, उनका साक्षात्कार प्राप्त ह करने के दलए। मन्त्र 16 में
मन्त्र 15 के प्राथशनाओं को आगे बढ़ाया गया है दजनमें भगवान् के दिव्य रूप के िशशन का दनवेिन है । मन्त्र 17 में
प्राथशना कृष्ण को मृत्यु के समय समझने पर बल िे िी है । मन्त्र 18 भदि दनष्कषशक प्राथशना है , दजसमें वे कृष्ण की
कृपा प्रादप्त ह की इच्छा प्रकट करिे हैं ।

84
85
पूवस स्त्वाध्याय
क्लोज्ड बु क असेसमेंट के दलए प्रश्न

भू क्तमका
1. शब्ि ‘वेि’ का क्या अथश है ?
2. एक बद् जीव की चार िुदटयों को सूचीबद् करें ।
3. िीन प्रमाणों को सूचीबद् करें ।
4. क्यों शब्ि प्रमाण ज्ञान प्रादप्त ह का श्रेष्ठ साधन हैं ? कारण बिाएं।
5. भौदिक जगि में ज्ञान प्रादप्त ह की िो प्रणादलयों को सूचीबद् करें ।
6. एक प्रामादणक गुरु की िो योग्यिाएं क्या हैं ?

मन्र 1
7. दनम्न का नहिी अथश बिाएं:
a. ईशावास्य
b. परा और अपरा प्रकृदि
c. भागवि दवचारधारा
d. अपौरुषेय
मन्र 2
8. कमश, अकमश और दवकमश की पदरभाषा िें ।

मन्र 3
9. आत्म हा का नहिी अथश बिाएं।
10. सुर और असुर की पदरभाषा िें ।

मन्र 5
11. अन्ियामी क्या है ?
12. वाक्यांश िद्दोरेिद्वत्न्िके का नहिी अथश बिाएं।

मन्र 6–8
13. दनम्न के नहिी अथश बिाएं
a. एकत्वं अनुपस्यिः मन्त्र 6-7
b. शुद्ंअपात्प्वद्ं मन्त्र 8
14. दकस प्रकार से भगवान् शरीर
दवहीन हैं ? मन्त्र 8

मन्र 11
15. दहरण्यकदशपु का नहिी अथशबिाएं।
16. भौदिक जगि के कष्ट अप्रत्यक्ष रूप में हमें दकसके दवषय में स्मरण करवािे हैं ?

मन्र 15
17. दहरं मयेन पात्रेण का नहिी अथश बिाएं।

86
श्री ईशोपक्तनषद र्े चु नी हु ईं उपमाएं

भू क्तमका
शुदि को एक मािा के समान समझना चादहए। हम अपनी मािा से दकिना ज्ञान प्राप्त ह करिे हैं । उिाहरण, अगर
आप जानना चाहिे हैं दक आपके दपिा कौन हैं , िो कौन आपको उत्तर िे सकिा है ? आपकी मािा.. इसी
प्रकार अगर आप ऐसा कुछ जानना चाहिे है जो आपके अनुभव के परे है , आपकी इत्न्कयों की दियाओं के परे
हैं , िब आपको वेिों को स्वीकार करना होगा।
मंगलाचर्रण
शरीर का एक हाूँथ िभी िक पूणश है जब िक वह पूरे शरीर से जुड़ा हु आ है । जब हाूँथ शरीर से अलग कर
दिया जािा है िब वह िीखिा हाूँथ के ही जैसा है पर उसमें हाूँथ की कोई क्षमिा नहीं होिी। इसी प्रकार जीव
परम सम्पूणश का अदभन्न अंग है और अगर वे सम्पूणश से अलग कर दिए गए िब, पूणशिा का भ्रादमक प्रदिरूप
उन्हें पूणि
श ः संिुष्ट नहीं कर पायेगा।
मन्र 1
केवल राजनैदिक प्रयासों से पूज
ं ीवािी साम्यवादियों को हटा नहीं सकिे और न ही, केवल चुराई हु ई रोटी के
दलए संघषश करके पूज
ं ीवादियों को साम्यवािी हरा सकिे हैं । अगर वे परम परमेश्वर भगवान् को नहीं
स्वीकारिे, िो उनके सारी संपदत्त चुराई हु ई कहलाएगी।
मन्र 3
भौदिक जगि की िुलना एक सागर से की गयी है और मानव शरीर को एक िृढ़ नाव कहा गया है दजसका
दनमाण दवशेषकर इस सागर को पार करने के दलए दकया गया है । वैदिक शास्त्रों में आचायश या साधुवि
दशक्षक िक्ष नादवकों के समान माने गए हैं और, मानव शरीर की सुदवधाएं अनुकूल पवन जो नांव को सुचारू
रूप में गंिव्य िक पहु ूँ चने में सहायिा करिी है । अगर इिनी सारी सुदवधाओं के बाि भी व्यदि अपने जीवन
श ः आत्म साक्षात्कार में नहीं लगािा िब वह दनदश्चि ही आत्मा– हा या आत्मा का हत्यारा समझा
को पूणि
जाएगा।
मन्र 4
दवष्णु पुराण में, भगवान् की शदियों की िुलना एक अदग्न से दनकलने वाले प्रकाश और ऊष्मा से की गयी है ।
यूूँ िो अदग्न एक ही स्थान पर होिी है परन्िु वही अदग्न, प्रकाश और ऊष्मा कुछ िूर िक पहु ं चा सकिी है ; इसी
प्रकार परम परमेश्वर भगवान् यूूँ िो एक स्थान पर त्स्थि हैं उनके दिव्य धाम में परन्िु उनकी शदियां सवशत्र
फैली हु ई हैं ।
मन्र 7
जीव और भगवान् गुणात्मक रूप में समान हैं , ठीक जैसे नचगादरयां अदग्न के ही समान होिी हैं िब भी जहां िक
मात्रा का प्रश्न है , नचगारी अदग्न नहीं होिी।, क्योंदक नचगारी में उपत्स्थि ऊष्मा और प्रकाश मात्रा में अदग्न के
समान नहीं है ।
यह गुण सूक्ष्म रूप से जीव में उपत्स्थि है जो स्वयं परम पूणश का अदभन्न सूक्षम अंग है । िूसरा उिाहरण है नमक
का, एक बूूँि पानी में उपत्स्थि नमक कभी भी मात्रावि सम्पूणश सागर में उपत्स्थि मंक के बराबर नहीं हो
सकिा, परन्िु रासायदनक बनावट में बूूँि का नमक सागर के नमक के समान है ।
मन्र 9
नात्स्िक व्यदियों के दशक्षा का दवकास एक सांप के सर पि लगी मदण के समान है । एक सपश दजसके सर पर
मदण है वह दबना मदण वाले सपश से अदधक खिरनाक होिा है ।

87
हदर भदि सुधोिय (3.11.12) में, नात्स्िक व्यदियों द्वारं दशक्षा दवकास की िुलना एक मृि व्यदि के
आलान्करण से की गयी है ।
मन्र 12:
श्री ईशोपदनषि में कहा गया है दक वह व्यदि जो िे विाओं की उपासना करिा है और ऐत्च्छक भौदिक लोकों
को प्राप्त ह कर लेिे हैं वे िब भी ब्रह्माण्ड के प्रकाशीं स्थान पर होिे है । सम्पूणश ब्रह्माण्ड एक महान भौदिक ित्वों
के द्वारा ढाका हु आ है ; यह एक नादरयल के समान है दजसके चारों और एक खोल है और आधा जल से भरा
हु आ है । क्योंदक इसके आसपास का ढकाव वायुरोधक है इसीदलए इसके भीिर का अूँधेरा गहरा है और
इसीदलए प्रकाश के दलए सूया और चंकमा की आवश्यकिा होिी है ।
मन्र 13
व्यदि दजसने कलकत्ता का दटकट दलया है वह कलकत्ता ही पहु ं चग
े ा बम्बई नहीं। परन्िु िथा–कदथि
आध्यादिम गुरु कहिे हैं दक सभी पथ एक ही परम लक्ष्य की प्रादप्त ह करवाएंगे।

श्री ईशोपक्तनषद Open बु क अर्ेर्में ट

प्रश्न 1
ईशावास्य के दसद्ांि को दनम्न के प्रयोग करने के अपने शब्िों में व्यवहादरक िरीके बिाएं:
• इस्कॉन समाज में
अपने दनजी जीवन में
अपने उत्तर में श्री ईशोपदनषि के मन्त्र 1–3 का सन्िभश िें ।
(व्यदिगि/ प्रचार ऊपयोग)

प्रश्न 2
दकस प्रकार श्रील प्रभु पाि द्वारा िी गयी आघ्यात्त्मक जीवन की दवदध हमें भौदिक और आध्यात्त्मक ज्ञान के दलए
एक संिुदलि कायशिम प्राप्त ह करने में सक्षम बनािी है , अपने शब्िों में व्याख्या करें ।
अपने उत्तर में:
• ईशोपदनषि के मन्त्र 11 के श्लोक एवं िात्पयों से सन्िभश िें
• अपने अनुभव और इस्कॉन के भिों के अनुभवों से उिाहरण िें
(प्रचार उपयोग)

प्रश्न 3
अपने शब्िों में, ईशोपदनषि के श्लोकों और उनपर श्रील प्रभु पाि के िात्पयों एवं प्रभु पाि के श्री ईशोपदनषि के
प्रवचनों से उदचि िथ्य िे िे हु ए, भगवान् के दवशेष रूप को स्थादपि करें ।
(प्रचार उपयोग)

88
श्री उपदे शामृ त के क्तवषय

श्लोक 1–7 क्तवक्तध – र्ाधना – भक्ति


श्लोक 8 र्रागानु ग – र्ाधना – भक्ति
श्लोक 9–11 भाव भक्ति और्र प्रे म भक्ति

वैधी र्ाधना भक्ति


आमुख कृष्णभावनामृि और उसे प्राप्त ह करने के साधन
श्लोक 1 छह वेगों का दनयंत्रण
श्लोक 2 भदि में बाधाएं
श्लोक 3 भदि में सहायक दसद्ांि
श्लोक 4 छह प्रेमपूवशक दवदनमय
श्लोक 5 दवकास के स्िरों के अनुरूप संगदि
श्लोक 6 शुद् भि का संग
श्लोक 7 हदरनाम का कीिशन (जप)

र्रागानु ग–र्ाधना–भक्ति
श्लोक 8 व्यवहादरक साधना भदि

भाव भक्ति और्र प्रे म भक्ति

श्लोक 9 भौदिक और आध्यात्त्मक लोकों का पििम


श्लोक 10 दवदभन्न प्रकार के मनुष्यों का पििम
श्लोक 11 राधा कुण्ड की मदहमा

89
श्री उपदे शामृ त का अवलोकन

वैधी–र्ाधना भक्ति : श्लोक 1–7


आमुख : कृष्ट्णभावनामृत का लक्ष्य और्र उर्े प्राप्त कर्रने के तर्रीके
कृष्णभावनामृि में दसदद् के स्िर पर पहु ूँ चने के दलए, व्यदि को वृन्िावन के छह गोस्वादमयों के उपिे शों का
अनुसरण करना ही चादहए, अपने मन और इत्न्कयों को दनयंदत्रि करने के द्वारा जैसा दक श्रील रूप गोस्वामी
द्वारा उपिे शामृि में बिाया गया है ।

श्लोक 1 छह वेगों का दमन


इस श्लोक में आध्यात्त्मक जीवन के दलए पूवशकांक्षाएं वर्वणि हैं दजस प्रकार आमुख के िीसरे मुख्य नबिु में भी
वर्वणि हैं और यह है मन और इत्न्कयों को संयदमि रखना। एक व्यदि दजसने इन सभी के दनयंत्रण में िक्षिा
प्राप्त ह कर ली है वह गुरु बनने के योग्य है ।

श्लोक 2 भक्ति में बाधाएं


श्लोक 2 नें मन और इत्न्कयों को दनयंत्रण में न रखने के पदरणाम बिाये गए हैं । अपनी इच्छा से, एक जीव
भगवान् की बहरं गा शदि के अदधकारक्षेत्र में आ दगरिा है इसक एप्रभाव में, व्यदि को शरीर की मांगों को
पूरा करना पड़िा है जो भौदिक शदि का उत्पाि है । श्लोक 2 में आगे व्याख्या है दक दकस प्रकार इन
आधारभूि मांगों को पूरा दकया जा सकिा है दजससे दक आध्यात्त्मक दवकास हो भौदिक बंधन नहीं।

श्लोक 3 क्तर्द्धान्त जो भक्ति में र्हायक हैं


हमें भदि पथ में दवकास में सहायिा प्रिान करने के दलए छह दसद्ांि दिए गये है । उनके चचा करने से पहले,
श्रील रूप गोस्वामी समझािे हैं दक शुद् भदि है क्या।

श्लोक 4 छह प्रे मपू वसक क्तवक्तनमय


दपछले पाठ में, हमने कहा था दक व्यदि की इच्छाएं उसकी संगदि के अनुसार दवकदसि होिी हैं
सङ्गात्सजायिे कामः (गीिा 2.62)। इसीदलये, अगर हम कृष्णभावनामृि में दवकास करना चाहिे हैं िब हमें
भिों का संग करना होगा। श्लोक 4 में संगदि की बनावट बिायी गयी है । इसमें भिों का संग करने के िरीके
भी बिाये गए है । भिों का संग करने के अन्य उपिे श श्लोक 5 और 6 में दिए जायेंगे।

श्लोक 5 क्तवकार् स्त्तर्र के अनु र्ार्र र्ंग


छह प्रेमपूवशक दवदनमयों को उदचि रूप से लागू करने के दलए, दजनका दववरण दपछले श्लोक में दिया गया है .
व्यदि को चादहए दक वहदवदनमय करने के दलए उदचि व्यदि की खोज करे । दकस प्रकार के वैष्णव से दमत्रवि
व्यवहार करना और दकस प्रकार से अन्य सभी वैष्णवों से दवदनमय करना इस श्लोक की दवषय वस्िु है । सभी
भिों का आिर करना चादहए परन्िु आध्यात्त्मक दवकास करने के दलए हमें गंभीर भिों का संग करना
चादहए और सामदयक संगदि से िूर रहना चादहए।

श्लोक 6 शु द्ध भिों का र्ं ग श्लोक 6 में


भिों से संग करने के िरीके का आगे वणशन है , दवशेषकर आध्यात्त्मक गुरु के साथ संग करने का, दजनका
स्थान दिव्य समझा जािा है ।

90
श्लोक 7 हक्तर्रनाम का कीतसन (जप )
उत्तम भदि के स्िर पर आने के दलए हमें सवशप्रथम अपनी चेिना को भौदिक कल्मषों से मुि करना होगा जो
ह्रिय के िपशण को ढक लेिे हैं । ध्यानपूवशक हरे कृष्ण महामंत्र का जप करने के द्वारा हम िमशः अज्ञानिा के
पीदलये से मुि हो जायेंगे और कृष्ण के सेवक के रूप में अपनी आनंिपूणश त्स्थदि के ज्ञान को पुनजीदवि कर
लेंगे।

र्रागानु ग र्ाधना भक्ति: श्लोक 8


श्लोक 8 व्यवहाक्तर्रक स्त्वाभाक्तवक भक्ति
इस श्लोक में, श्रील रूप गोस्वामी सभी उपिे शों का सार िे िे हैं : वह है अपना मन कृष्ण पर अदडग रूप से
त्स्थि करना और सिा ही उनके दवषय में श्रवण और कीिशन करना और उनकी लीलाओं का श्रवण करना।

भाव भक्ति और्र प्रे म भक्ति : श्लोक 9–11


श्लोक 9 भौक्ततक और्र आध्यास्त्मक लोकों का पदक्रम
श्लोक 9 में भगवान् की सृदष्ट के दवदभन्न स्थानों का पििम दिया गया है दजनमें सवोच्च है राधा कुण्ड।

श्लोक 10 क्तवक्तभन्न प्रकार्र के मनु ष्ट्यों का पदक्रम


श्लोक 10 में इस सृदष्ट के दवदभन्न प्रकार के मनुष्यों के पििम का वणशन है , इससे ज्ञाि होिा है दक राधा
कुण्ड के दनवासी सवोच्च मनुष्य हैं ।

श्लोक 11 र्राधा कुण्ड की मक्तहमा


श्लोक 11 पूरी िरह इस नबिु का प्रकाश करिा है दक आध्यात्त्मक जीवन का अनुशीलन एक िदमक दिया
है ।

इसी प्रकार व्यदि को श्रीमि भागविम् पहले नौ स्कंधों को पढना चादहए इससे पहले दक वह िसवां स्कंध पढ़े ,
राधा कुण्ड जाने से पहले व्यिो को उपिे शामृि के िस श्लोकों को समझ लेना चादहए।

91
पूवस–स्त्वाध्याय
क्लोज्ड बु क असेसमेंट के दलए प्रश्न

आमुख
1. कृष्णभावनामृि दकसकी िे ख रे ख में संचादलि है ?
2. सभी अध्यात्त्मक कायों में व्यदि का पहला किशव्य क्या है ?
3. कृष्णभावनामृि में हमारा दवकास दकसपर दनभशर करिा है ?
4. गोस्वामी की पदरभाषा िीदजये।
श्लोक एक
5. इस श्लोक से भगवान् की सेवा में िोध के उपयोग के िीन उिाहरणों को सूचीबद् करें।
6. कृष्णभावनामृि आन्िोलन में दववाह को प्रोत्सादहि क्यों दकया जािा है ?
7. व्यदि को प्रसाि लेिे हु ए भी स्वादिष्ट पकवानों से क्यों वजशन करना चादहए?
8. गो–िास की पदरभाषा िें ।
श्लोक दो
9. भगवान् की प्रमुख िीन शदियों को सूचीबद् करें ।
10. महात्मा और िुरात्मा की पदरभाषा िें ।
11. संस्कृि और नहिी में िीन क्लेशों को सूचीबद् करें ।
12. दनयमाग्रह के िो अथों का लघु दववरण िें।
13. िीन प्रकार के अनार्वथयों को सूचीबद् करें ।
श्लोक तीन
14. संस्कृि या नहिी में भदि की नौ दवदधयों को सूचीबद् करें ।
15. अवश्य रदक्षबे कृष्ण का क्या अथश है ?
16. ित् ित् कमश प्रविशनात् के िो पहलुओं का लघु वणशन करें ।
श्लोक चार्र
17. गुह्य आख्यादि पृछदि की पदरभाषा िें ।
18. व्यदि को अपनी आय का दकस प्रकार खचश करनी चादहए?
श्लोक पां च
19. व्यदि को एक भि (कदनष्ठ अदधकारी ) से कैसा व्यवहार करना चादहए जो हदरनाम का जप करिा है ?
20. मध्यम–अदधकारी के चार लक्षणों को सूचीबद् करें ।
21. उत्तम अदधकारी के िीन लक्षणों को सूचीबद् करें ।
श्लोक छह
22. दनत्यानंि वंश का क्या अथश है ?
23. आध्यास्त्मक गुरु को क्तकर् प्रकार्र के व्यक्ति की र्लाह नहीं क्तमलनी चाक्तहए? श्लोक साि
श्लोक र्ात
24. दजवेर स्वरूप हय कृष्णेर दनत्य िास का क्या अथश है ?
25. िुराश्रय की पदरभाषा िें ।
26. भगवन्नाम के जप के िीन स्िरों को सूचीबद् करें ।
27. दकस स्िर पर पहु ूँ चने पर माया भि को दवचदलि नहीं करिी?

92
श्लोक आठ
28. सभी उपिे शों का सार क्या है ?
29. संि, िास्य और साख्य रस िीनों रसों के पूणश भिों के नामों को सूचीबद् करें ।
श्लोक नौ
30. दवदभन्न आध्यात्त्मक स्थानों को पििम को सूचीबद् करें ।
31. श्रील रूप गोस्वामी नें राधा कुण्ड पर इिना बल क्यों दिया है ?
श्लोक दर्
32. गोदपयों की सेवा सभी भिों से श्रेष्ठ क्यों है ?
33. दवप्रलाम्ब सेवा की पदरभाषा िें ।
श्लोक ग्यार्रह
34. केवल एक बार ही राधा कुण्ड में स्नान करने का क्या पदरणाम होिा है ?

उपदे शामृ त र्े चु नी हु ईं उपमाएं

श्लोक 1
एक हांथी बड़े अच्छे से निी में नहाने के बाि बाहर दनकलिे ही अपने शरीर में धूल िाल लेिा है । ऐसा होने पर
उसके स्नान करने का क्या फायिा? इसी प्रकार, कई भदि के अभ्यथी हरे कृष्ण जपिे हैं परन्िु साथ ही अनेक
दघनौनी हरकिे भी यह सोचिे हु ए दक हरे कृष्ण जपने से सारे अपराध कट जायेंगे।

श्लोक 3
एक नवदववादहिा स्वाभादवक रूप से अपने पदि से एक संिान की उपेक्षा करिी है परन्िु उसे यह नहीं सोचना
चादहए दक दववाह होिे ही संिान प्राप्त ह हो जायेगी। वह दनदश्चि ही प्रयास कर सकिी है परन्िु उसे पदि का कहा
मानना होगा और यह आत्मदवशवास रखना होगा दक समय के साथ संिान–उत्पदत्त होगी। इसी प्रकार भदि में
शरणागदि का अथश होिा है दक व्यदि आत्म–दवश्वासी हो जाए।

श्लोक 6 93
व्यदि को भि के नीच कुल के जन्म, बु रे वणश वाला, व्यादधग्रस्ि या दवकृि शरीर, अनिे खा कर िे ना चादहए ....
यह ठीक गंगाजल के समान है जो कई बार वषाऋिू में बु लबुलों और दमटटी से भरा होिा है परन्िु गंगाजल कभी
भी िूदषि नहीं होिा।

एक पागल हांथी दवनाश कर सकिा है , दवशेषकर जब वह एक सुव्यवत्स्थि उद्यान में प्रवेश करे । व्यदि को
इसीदलए वैष्णव अपराध न करने के प्रदि बहु ि सावधान रहना चादहए।

श्लोक 7
पीदलया से पीदड़ि एक व्यदि को दमश्री का स्वाि कडवा लगिा है । दफर भी, व्यदि को यह जानना चादहए दक
दमश्री एक मात्र दवदशष्ट औषदध है । इसी प्रकार, मानविा के भ्रदमि स्िर में कृष्णभावनामृि या भगवान कृष्ण के
पदवत्र नाम का जप।

93
श्री उपदे शामृ त के Open बु क अर्े र्मेंट

प्रश्न 1
श्रीउपिे शामृि के श्लोक एक के श्लोक और िात्पयों के सन्िभश िे िे हु ए, इस श्लोक में छह वेगों के दनयंत्रण के
महत्व की चचा करें और, आप इन छह वेगों को दनयंदत्रि करने के दलए क्या किम उठाएंग?े
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 2
अपने उत्तर में श्रीउपिे शामृि के श्लोक 2 के श्लोक और िात्पयश के सन्िभश िे िे हु ए अत्याहार और प्रयास से बचने
के, दकसी व्यदि के आध्यात्त्मक जीवन में महत्व की व्याख्या करें । आप दकस प्रकार ऐसी प्रवृदत्तयों से बचेंग?े
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 3
भदि के अभ्यास में, भिों का संग करने और अभिों के संग से बचने के महत्व की व्याख्या करें । श्री उपिे शामृि
के श्लोक 2 और 3 के श्लोक एवं िात्पयों का सन्िभश िे िे हु ए।
(समझ)
प्रश्न 4
अपने उत्तर में श्री उपिे शामृि के श्लोक 3 से उदचि सन्िभश िे िे हु ए, उन चुनौदियों की चचा करें जो आप भदि के
अभ्यास के िौरान उत्साह और आत्मदवश्वास के दवकास करने में करिे हैं । आप इन चुनौदियों पर दवजय प्राप्त ह
करने के दलए क्या किम उठाएंग?े
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 5
श्री उपिे शामृि के श्लोक चार के िात्पयश से सन्िभश िे िे हु ए बिाएं दक दकस प्रकार हम इस्कॉन के समक्ष चुनौदियों
को जय कर सकिे हैं , भिों के बीच छह प्रकार के प्रेमपूवशक दवदनमयों के द्वारा।
(व्यदिगि उपयोग)
प्रश्न 6
श्री उपिे शामृि के श्लोक छह के िात्पयश का सन्िभश िे िे हु ए, अपने शब्िों में वैष्णवों के प्रदि उदचि और अनुदचि
मनोभावों का वणशन करें ।
(व्यदिगि उपयोग)

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प्रश्न 7
अपने उत्तर में, श्री उपिे शामृि श्लोक 9–11 के श्लोक और िात्पयों और प्रभु पाि के प्रवचनों के सन्िभश िे िे हु ए
अपने शब्िों में गौडीय वैष्णवों के दलए राधा कुण्ड के महत्व की चचा करें । राधा कुण्ड में वास करने के सम्बन्ध में
श्रील प्रभु पाि का क्या मनोभाव है ?
(भाव और दमशन)

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क्तदनां क
मंगल आर्रती
लेट

घर पर

तुलर्ी आर्रती
घर पर

गुरुपू जा
घर पर

भागवतम क्लार्
रे दडयो / दरकाडेड

भक्ति शास्त्री
क्लार्
लेट

16 माला

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छात्र का ना ,म

क्तदनां क
मंगल आर्रती
लेट

घर पर

तुलर्ी आर्रती
घर पर

गुरुपू जा
घर पर

भागवतम क्लार्
रे दडयो / दरकाडेड

भक्ति शास्त्री
क्लार्
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16 माला

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क्तदनां क
मंगल आर्रती
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घर पर

तुलर्ी आर्रती
घर पर

गुरुपू जा
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भागवतम क्लार्
रे दडयो / दरकाडेड

भक्ति शास्त्री
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क्तदनां क
मंगल आर्रती
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घर पर

तुलर्ी आर्रती
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गुरुपू जा
घर पर

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रे दडयो / दरकाडेड

भक्ति शास्त्री
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