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श्री शिक्षाष्टकम्

चेतोदर्प णमार्पनं भव-महादावाशि-शनवापर्णम्


श्रेयः कैरवचन्द्रिकाशवतरणं शवद्यावधू -र्ीवनम् ।
आनंदाम्बुशधवधप नं प्रशतर्दं र्ू णापमृतास्वादनम्
सवापत्मस्नर्नं र्रं शवर्यते श्रीकृष्ण-संकीतप नम् ॥१॥
अनुवाद: श्रीकृष्ण-संकीर्त न की परम विजय हो जो हृदय में िर्षों से संविर् मल का माजत न करने िाला र्था बारम्बार जन्म-
मृत्यु रूपी दािानल को शांर् करने िाला है । यह संकीर्त न यज्ञ मानिर्ा के वलए परम कल्याणकारी है क्ोंवक िन्द्र-वकरणों
की र्रह शीर्लर्ा प्रदान करर्ा है । समस्त अप्राकृर् विद्या रूपी िधु का यही जीिन है । यह आनंद के सागर की िृ द्धि
करने िाला है और वनत्य अमृर् का आस्वादन कराने िाला है ॥१॥
नाम्नामकारर बहुधा शनर् सवप िन्द्रिस्तत्राशर्पता शनयशमतः स्मरणे न कालः ।
एतादृिी तव कृर्ा भगवन्ममाशर् दु दैवमीदृिशमहार्शन नानुरागः ॥२॥
अनुवाद: हे भगिन ! आपका मात्र नाम ही जीिों का सब प्रकार से मंगल करने िाला है -कृष्ण, गोविन्द जै से आपके लाखों
नाम हैं । आपने इन नामों में अपनी समस्त अप्राकृर् शद्धियां अवपतर् कर दी हैं । इन नामों का स्मरण एिं कीर्त न करने में
दे श-काल आवद का कोई भी वनयम नहीं है । प्रभु ! आपने अपनी कृपा के कारण हमें भगिन्नाम के द्वारा अत्यं र् ही
सरलर्ा से भगिर्-प्राद्धि कर लेने में समथत बना वदया है , वकन्तु मैं इर्ना दु भात ग्यशाली हूँ वक आपके नाम में अब भी मेरा
अनुराग उत्पन्न नहीं हो पाया है ॥२॥
तृ णादशर् सुनीचेन तरोरशर् सशहष्णुना।
अमाशनना मानदे न कीतप नीयः सदा हररः ॥३॥
अनुवाद: स्वयं को मागत में पड़े हुए र्ृ ण से भी अवधक नीि मानकर, िृ क्ष के समान सहनशील होकर, वमथ्या मान की
कामना न करके दु सरो को सदै ि मान दे कर हमें सदा ही श्री हररनाम कीर्त न विनम्र भाि से करना िावहए ॥३॥
न धनं न र्नं न सुन्दरी ं कशवतां वा र्गदीि कामये।
मम र्न्मशन र्न्मनीश्वरे भवताद् भन्द्रिरहै तुकी त्वशय॥४॥
अनुवाद: हे सित समथत जगदीश ! मुझे धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है , न मैं अनुयावययों, सुन्दर स्त्री अथिा
प्रशं नीय काव्ों का इक्छु क नहीं हूँ । मेरी र्ो एकमात्र यही कामना है वक जन्म-जन्मान्तर मैं आपकी अहै र्ुकी भद्धि कर
सकूँ ॥४॥
अशय नन्दतनुर् शकंकरं र्शततं मां शवषमे भवाम्बुधौ।
कृर्या तव र्ादर्ं कर्-न्द्रथितधू शलसदृिं शवशचन्तय॥५॥
अनुवाद: हे नन्दर्नुज ! मैं आपका वनत्य दास हूँ वकन्तु वकसी कारणिश मैं जन्म-मृत्यु रूपी इस सागर में वगर पड़ा हूँ ।
कृपया मुझे अपने िरणकमलों की धवल बनाकर मुझे इस विर्षम मृत्युसागर से मुि कररये ॥५॥
नयनं गलदश्रुधारया वदनं गदगदरुद्धया शगरा।
र्ु लकैशनपशचतं वर्ु ः कदा तव नाम-ग्रहणे भशवष्यशत॥६॥
अनुवाद: हे प्रभु ! आपका नाम कीर्त न करर्े हुए कब मेरे नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहेगी, कब आपका नामोच्चारण मात्र
से ही मेरा कंठ गद्गद होकर अिरुि हो जाये गा और मेरा शरीर रोमां विर् हो उठे गा ॥६॥
युगाशयतं शनमेषेण चक्षुषा प्रावृषाशयतम्।
िून्याशयतं र्गत् सवं गोशवन्द शवरहेण मे॥७॥
अनुवाद: हे गोविन्द ! आपके विरह में मुझे एक क्षण भी एक युग के बराबर प्रर्ीर् हो रहा है । नेत्रों से मसलाधार िर्षात के
समान वनरं र्र अश्रु-प्रिाह हो रहा है र्था समस्त जगर् एक शन्य के समान वदख रहा है ॥७॥
आन्द्रिष्य वा र्ादरतां शर्नष्टु मामदिपनान्-ममपहतां करोतु वा।
यिा तिा वा शवदधातु लम्पटो मत्प्राणनािस्-तु स एव नार्रः ॥८॥
अनुवाद: एकमात्र श्रीकृष्ण के अवर्ररि मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और िे ही सदै ि बने रहेंगे, िाहे िे मेरा आवलं गन
करें अथिा दशत न न दे कर मुझे आहर् करें । िे नटखट कुछ भी क्ों न करें -िे सभी कुछ करने के वलए स्वर्ं त्र हैं क्ोंवक िे
मेरे वनत्य आराध्य प्राणनाथ हैं ॥८॥

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