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माता के मन्ि-जप आत्रद से, माता का १०८-नाम स्तोि, १००८-नाम स्तोि, कवच पाठ, ज्र्यादा
सरु त्रित रहता है, इसमे त्रकसी तरह का खतरा नहीं होता है । महात्रिपरु -सन्ु दरी रूप, मााँ का एक
बहुत ही सौम्र्य रूप है । त्रिर भी सहस्त्रनाम के साथ माता का, एक शत्रिशािी कवच का भी-
पाठ कर िेना चात्रहर्ये । इससे त्रकसी भी तरह के अत्रनष्ट से रिा होती है ।
त्रकसी भी पजू ा मे पहिे, गणेश, गरुु , त्रशव जी की पजू ा जरूर कर िेनी चात्रहर्ये।
अपने कुिदेवता को भी स्मरण कर िेना चात्रहर्ये ।
माता का र्यह स्तोि त्रबना तीथय, तप, दान आत्रद के त्रबना त्रसद्ध होता है ।
देखें पवू य-पीत्रठका / श्लोक संख्र्या (१०)
त्रवना तीथेन तपसा, त्रवना दानैर-त्रवना मखैः॥१०॥
त्रवना िर्येन ध्र्यानेन नरः त्रसत्रद्धम-वाप्नर्यु ात ।
सस्ं कृत में तंि - मंि - कथा - स्तोि - कवच - सहस्त्रनाम आत्रद की रचना करते समर्य जान-बझू
कर वणो और शब्दों को जोड़-जोड़ कर बड़ा रखा गर्या है , तात्रक इसका सही अथय र्योग्र्य िोगों
को ही गरुु -और- त्रवद्वान िोगों के द्वारा सही िोगों को ही त्रमिे । जो भी रचनार्यें की गर्यी है , वह
जन-कल्र्याण के त्रिर्ये ही की गर्यी है । परन्तु दष्टु ों और इसका दरुू पर्योग करने वािों से ही गप्तु
रखने ( त्रकसी भी कीमत पर) को कहा गर्या है । सभी से गप्तु रखने को नहीं । िंबे-िंबे शब्दों को
बीच से जैस-े तैसे तोड़ने से उसका अथय का अनथय हो जाता है। गित शब्दों के बार-बार-उच्चारण
से िार्यदा के जगह पाठक को नक ु सान होता है । त्रजससे पाठक का भरोसा देवी-देवता / पजू ा-
पाठ से उठ जाता है ।
इसत्रिर्ये इस देवी-सहिनाम को सि ु भ करने के साथ-साथ सही अथय त्रनकिे इसका ध्र्यान रखा
गर्या है । शब्द सरि हो जाने से बहुत से अथय भी समझने मे आसानी हो जाती है, जैस-े
शचीन्राणी = शची-इन्राणी, चोग्रा = च-उग्रा
त्रनमयिाकाश = त्रनमयि-आकाश धमयत्रसत्रद्धर =धमयत्रसत्रद्धः
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कुछ कत्रठन शब्द * त्रचत्रन्हत कर उसी िाईन के बाद, सरि करने का प्रर्यास त्रकर्या है, साधक
िोग दोनो शब्दों को एक ही जगह पर देख कर, ठीक से पढ़ सकें , ति ु ना करें , समझें और गित
िगे तो ठीक कर िें , जैसे -
महात्रकत्रल्बषनात्रशनीइ = महा-त्रकत्रल्बष-नात्रशनी
त्रवशािनर्यनोज्ज्विा = त्रवशाि-नर्यनो-ज-ज्विा
मैने कुछ ही शब्दों का सत्रं ध-त्रवच्छे द त्रकर्या और करके , उसका मि ू अथय साि-२ त्रदखे, ऐसा
प्रर्यास त्रकर्या है, तात्रक साधक गण देख,ें शब्द कै से छुपे हुए है ।
सवेत्रन्रर्य = सवय-इत्रन्रर्य , चोग्रा = च-उग्रा
कहीं कोई ित्रु ट न हो, इसका ध्र्यान रखने का पणू य प्रर्यास त्रकर्या गर्या है । त्रिर भी कुछ गिती हो,
ित्रु ट हो, तो उसमें सधु ार कर िें ।
र्यह त्रसिय देखने, पढ़ने, समझने और प्रैत्रटटस करने के त्रिर्ये है । माता का नाम ज्र्यादा-से-ज्र्यादा
पढ़ने से, कोई हात्रन नहीं होती, पर देखने सनु ने के बाद आप अपना मि ू पाठ ही पजू ा में उपर्योग
करें ॥ कोई भी पाठ गित नहीं है, पर अिग-अिग पस्ु तकों में नाम में कुछ न कुछ त्रवत्रभन्नता
त्रमिती ही है । सब माता का ही नाम है । आपकी श्रद्धा और आपका त्रवश्वास बड़ी बात है ।
" जर्य माता दी "
< Share if you like > (धन्र्यवाद)
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ु न्दरी-सहस्रनाम-स्तोिम
अथ श्री-महा-त्रिपरस ु ।
॥ पूव व पीत्रिका ॥
कै लास-त्रिखरे रम्ये, नाना-रत्नोप-िोत्रिते ।
ु
कल्प-पादप-मध्यस्थे, नाना-पष्पोप-िोत्रिते ॥१॥
मत्रि-मण्डप-मध्यस्थे, मत्रु न-गन्धवव-सेत्रवते ।
ु -आसीनम-िगवन्तं-जगद्गरुम
तङ्कत्रित-सखम ु ॥२॥ *तङ्कत्रित = तङ-कि-त्रित
कपाल-खट्वाङ्ग-धरं -िंद्रार्द्व-कृ त-िेखरम । *खट-वाङ्ग, *िंद्रार्द्व= िंद्र-अर्द्व
त्रििूल-डमरू-हस्त-महा-वृषि-वाहनम ॥३॥
ु
जटा-जूट-धरं-देव-वासकी-कण्ि-िू
षिम ।
त्रविूत्रत-िूषिं-देव-ं नीलकण्िं -त्रिलोिनम ॥४॥
द्वीत्रप-िमव-परीधानं िर्द्ु -स्फत्रटक-सन-त्रनिम ।
सहस्र-आत्रदत्य-सङ्कािं-त्रगत्ररजा-अर्द्ावङ्ग-िूषिम ॥५॥ *अर्द्ावङ्ग= अर्द्ाव-अङ्ग
प्रिम्य त्रिरसा नाथं-कारि-त्रवश्व-रूत्रपिम ।
ु िूत्वा प्राहैन ं त्रित्रख-वाहनः॥६॥
कृ ताञ्जत्रल-पटो
कार्ततके य उवाि-
देवदेव जगन्नाथ, सृत्रि-त्रस्थत्रत-लयात्मक ।
त्वमेव परमात्मा ि त्वङ्गत्रतः सवव-देत्रहनाम ॥७॥ *त्वङ्गत्रतः = त्वङ-गत्रतः
त्वं गत्रतस-सवव-लोकानान-दीनानाञ्च त्वमेव त्रह ।
त्वमेव जगदाधारस-त्वमेष त्रवश्वकारिः॥८॥
त्वमेव पूज्यस-सवेषान-त्वदन्यो* नात्रस्त मे गत्रतः। *त्वदन्यो =त्वद-अन्यो
ु -परमं लोके त्रकमेकं सवव-त्रसत्रर्द्दम ॥९॥
कक-गह्यम
त्रकमेकम-परमं श्रेष्ठ-ं त्रक योगं स्वगव-मोक्षदम ।
त्रवना तीथेन तपसा, त्रवना दान ैर-त्रवना मख ैः॥१०॥
ु ।
त्रवना लयेन ध्यानेन नरः त्रसत्रर्द्म-वाप्नयात
कस्माद-उत्पद्यते* सृत्रिः ककस्मि-ि प्रलयो िवेत ॥११॥ *उत्पद्यते = उत्पद-यते
कस्माद-उत्तीयवत े देव संसारािवव-सङ्कटात । *संसारािवव=संसार-आिवव
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ईश्वर उवािः-
साध ु साध ु त्वया पृि-ं पाववती-त्रप्रय-नन्दन ।
ु
अत्रस्त गह्यतमम -पिु कथत्रयष्याम्य-संियम ॥१३॥
सत्त्वं रजस-तमि-ि ैव ये िान्ये महद-आदयः।
ये िान्ये बहवो िूताः सवव-प्रकृ त्रत-सम्भवाः॥१४॥
ु न्दरी
स ैव देवी पराित्रि-मवहा-त्रिपर-स ु ।
स ैव प्रसूयते त्रवश्वत्रवश्वं* स ैव प्रयास्यत्रत ॥१५॥ *त्रवश्व-त्रवश्वं?=त्रवश्व-अत्रवश्वं
स ैव संहरते त्रवश्वञ्जगदेति-िरािरम* । *िरािरम =िर-अिरम
आधारस-सवव-िूतानां स ैव रोगार्तत-हात्ररिी ॥१६॥
इच्छा-ज्ञान-त्रिया-ित्रिर-बह्म-त्रवष्ण-ु त्रिवादयः।
त्रिधा ित्रि-स्वरूपेि सृत्रि-त्रस्थत्रत-त्रवनात्रिनी ॥१७॥
सृज्यते ब्रह्म-रूपेि त्रवष्ण-ु रूपेि पाल्यते ।
संहरेद्रुद्ररूपेि जगदेतच्चरािरम ॥१८॥ ( *संहरेद-रुद्र-रूपेि जगदेति-िर-अिरम ॥ )
यस्या योनौ जगत-सववमद्यात्रप पत्ररवतवत े ।
ु
यस्यां-प्रलीयते िान्ते* यस्याञ्च जायते पनः॥१९॥ *िान्ते=ि-अन्ते
यां समाराध्य िैलोक्यं सम्प्राप्तं-पदम-उत्तमम ।
तस्या नाम सहस्रन्त ु कथयात्रम शृिष्व
ु तत ॥२०॥
॥ त्रवत्रनयोगः ॥
ु न्दरी-सहस्रनाम-स्तोि-मन्त्रस्य
ॐ अस्य श्री-महा-त्रिपर-स ु
श्री-िगवान-दत्रक्षिा-मूर्तत-ऋत्रषः जगतीि-छन्दः
ु
समस्त-प्रकट-गप्त-सम्प्रदाय-कु लकौलोत्तीिव-त्रनगवि-व रहस्य-अत्रिन्त्य-प्रिावती देवता
"ओम":बीजम ॥ "माया"-ित्रिः "कामराज"-बीज-कीलकम जीवो बीजम
सषु म्ना
ु नाडी सरस्वती ित्रिर-धमावथ व-काम-मोक्षाथे जपे त्रवत्रनयोगः॥
(नोट : त्रवत्रनर्योग में ॠत्रषः, देवता, बीज, कीिक, शत्रि, साधक की मनोकामना, सब-कुछ है )
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॥ ध्यान ॥
आधारे तरुिाकव त्रबम्बरुत्रिरं हेमप्रिम्वाग्भवम-
बीजं मन्मथत्रमन्द्रगोपसदृिं हृत्पङ्कजे संत्रस्थतम ।१।
त्रवष्णब्रु ह्मपदस्थित्रिकत्रलतं सोमप्रिािासरु
ये ध्यायत्रन्त पदियन्तव त्रिवे ते यात्रन्त सौख्यम्पदम ।२।
॥ ध्यान (सरल िब्दों में ) ॥
आधारे तरुिाकव -त्रबम्ब-रुत्रिरं, हेमप्रिम-वाग्भवम-
बीजं मन्मथम-इन्द्र-गोप-सदृिं हृत-पङ्कजे संत्रस्थतम ।१।
त्रवष्ण-ु ब्रह्म-पदस्थ-ित्रि-कत्रलतं, सोम-प्रिा-िासर,
ु
ये ध्यायत्रन्त पद-ियन-तव त्रिवे, ते यात्रन्त सौख्यं-पदम ।२।
( सहस्र-नाम मूल पाि )
कल्यािी कमला काली कराली कामरूत्रपिी ।
कामाख्या कामदा काम्या कामना कामिात्ररिी ।१।
कालरात्रिर-महारात्रिः कपाली कालरूत्रपिी ।
कौमारी करुिा-मत्रु िः कत्रल-कल्मष-नात्रिनी ।२।
कात्यायनी कराधारा कौमदु ी कमल-त्रप्रया ।
कीर्ततदा बत्रु र्द्दा मेधा नीत्रतज्ञा नीत्रत-वत्सला ।३।
माहेश्वरी महामाया महातेजा महेश्वरी ।
ु ा ।४।
महात्रजह्वा* महाघोरा महादंष्ट्रा महािज *महात्रजह्वा = महात्रजह्वा
महा-मोहान्धकारघ्नी, महा-मोक्ष-प्रदात्रयनी ।
महा-दात्ररद्र्य-नािा ि महा-िि-ु त्रवमर्तिनी ।५।
महामाया महावीयाव महापातक-नात्रिनी ।
महामखा मन्त्रमयी मत्रिपूरक-वात्रसनी ।६। *मत्रिपूर ? =कुण्डत्रलनी
मानसी मानदा मान्या मनि-िक्षू रिेिरा ।
गिमाता ि गायिी गि-गन्धवव-सेत्रवता ।७।
त्रगत्ररजा त्रगत्ररिा साध्वी त्रगत्ररस्था त्रगत्रर-वल्लिा ।
िण्डेश्वरी िण्डरूपा प्रिण्डा िण्ड-मात्रलनी ।८।
िर्तवका िर्तिकाकारा ित्रण्डका िारु-रूत्रपिी ।
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( * र्यह महा-त्रिपरु -सन्ु दरी / षोडशी माता का सहस्र-नाम-स्तोि, श्री-वामके श्वर-तन्ि से है, र्यह
कात्रतयकेर्य और ईश्वर के बीच -साँवाद रूप में है )
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त्रकसी भी सहस्त्रनाम, कवच र्या स्तोि में मख्ु र्यतः ३-भाग होतें हैं ।
१. पवू य पीत्रठका
२. मख्ु र्य भाग - ( त्रवत्रनर्योग, ध्र्यान, न्र्यास के साथ, मख्ु र्य स्तोि का भाग)
३. ििश्रतु ी
॥ पवू य पीत्रठका - में कवच, सहस्रनाम को पहिी बार कब, कहां त्रकस देवी-देवता-र्या ऋत्रष-मनु ी
ने, त्रकस देवी-देवता-र्या ऋत्रष-मनु ी से पछ ू ा, त्रकसने त्रकसको कब बतार्या- र्ये सब बतार्या जाता
है, इसकी जानकारी दी हुई होती है । पाठ की त्रवत्रध, कोई त्रवशेष बात, जैसे पाठ का टर्या -टर्या
िि है, इस सहस्त्रनाम, र्या कवच को टर्यों पढ़ना चात्रहर्ये इत्र्यात्रद-२ ।
जैसे इस महा-त्रिपरु -सन्ु दरी-सहस्रनाम के पवू य भाग से पता चिता है की, कात्रतयकेर्य जी के पछ
ू ने
पर त्रशव जी (ईश्वर रूप में) ने उनसे कहा था ।
त्रवत्रनर्योगः- में र्यह त्रकस देवी र्या देवता का स्तोि, कवच र्या सहस्रनाम है, इसके ऋत्रषः कौन हैं ।
इसका छन्द टर्या है (बोिने का तरीका, सरु , िर्य और ताि), बीज-टर्या है, शत्रि -टर्या है, कौन
सी है । कीिक - टर्या है। और आप त्रकस त्रिर्ये पाठ कर रहें हैं । र्यह सारी जानकारी पाठ करने
वािे को अच्छी तरह से होनी चात्रहर्ये, त्रक वो त्रकस देवी र्या देवता का पाठ कर रहा है, और टर्यों
कर रहा है, इत्र्यात्रद ।
ििश्रतु ी -
में इसका पाठ पढ़ने का टर्या-२ िि प्राप्त होता है । पाठ कै से करना है ।
त्रकस त्रदन-पाठ करने का टर्या िि त्रमिता है । त्रकतने-२ पाठ का टर्या-२ िि है ।
इस स्तोि के पाठ का कोई त्रवशेष त्रदन है तो वह भी, इसमें त्रदर्या हुआ होता है ।
देव-र्या देवी को भोग में टर्या-टर्या देना चात्रहर्ये, उन्हे टर्या-पसंद है, इत्र्यात्रद-२ जानकारी होती है,
आप बार-बार ििश्रतु ी को ध्र्यान से देखगें े तो उस स्तोि, कवच र्या सहस्रनाम की बहुत सी गप्तु
जानकारी आपको त्रमिेगी । इस ज्ञान से आपकी भत्रि और त्रवश्वास को बि त्रमिता है ।
हमें जब एक बार से ज्र्यादा पाठ करना है तो स्तोि, सहस्रनाम, र्या कवच का एक बार परू ा पाठ
करते हैं, और अंत में एक बार त्रिर परू ा पाठ करते हैं । बीच में बार -बार मख्ु र्य स्तोि, सहस्रनाम,
र्या कवच का पाठ करतें है
उदाहरण के त्रिर्ये - अगर हमने ७ र्या ११ र्या २१-पाठ प्रत्रतत्रदन पढ़ने का संकल्प त्रिर्या है तो,
प्रथम बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
त्रिर बीच में ५ र्या ९-र्या-१९-बार के वि मख्ु र्य सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे,
अतं में त्रिर एक बार परू ा सहस्रनाम, कवच पाठ करें गे ।
तो कुि ७ -र्या-११ र्या २१- पाठ हो जार्येगा । ऐसा ही आप अपनी संकत्रल्पत संख्र्या में करें और
समझें ।
बहुत बार पवू य भाग र्या ििश्रतु ी उप्िब्ध नहीं होता है, तो कोई बात नहीं ।
र्या अगर र्यह दोनो भाग बहुत िंबा-चौरा है तो िोग समर्य की कमी से इसे छोड़ देते हैं । पर जब
भी समर्य हो, त्रवशेष त्रदनों मे, कभी-२ जरूर पढ़ए,ं ।
। नोट: र्यह एक साधारण सा त्रनर्यम और ज्ञान है, र्यह एक िामयि ू े की तरह, हर स्तोि, कवच र्या
सहस्रनाम पर, उसके अपने पवू य पीत्रठका, त्रवत्रनर्योग, ध्र्यान, देवता, पाठ और ििश्रतु ी के साथ,
इसी तरह से िागू होगा ।
आप गरुु , गणेश, त्रशव जी का संत्रिप्त पजू ा त्रकसी भी पजू ा के पहिे कर सकते हैं।
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