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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवान् श्री चै तन्य महाप्रभु


का शिक्षामृत

प्रस्तावना.......................................................
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का सक्षि ं प्त जीवन-चरित्र ........
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षाष्ठक ...................
भमिू का
अध्याय 1 श्री रूप- शिक्षा ......................................... 36
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अध्याय 2 श्री सनातन गोस्वामी .................................. 50


अध्याय 3 श्री सनातन-शिक्षा ..................................... 57
अध्याय 4 बद्धि
ु मान मनष्ु य ........................................ 61
अध्याय 5 भगवत्प्राप्ति का एकमात्र साधन ..................... 65
अध्याय 6 सब भगवद्र रूप अभिन्न हैं .......................... 70
अध्याय 7 असख्ं य भगवद् रूप ................................... 73
अध्याय 8 अवतार-तत्व ........................................... 77
अध्याय 9 सर्व ....................................................... 84
अध्याय 10 भगवान् श्री कृ ष्ण की रूप-माधरु ी ................ 91
अध्याय 11 श्रीकृ ष्ण-भक्ति ....................................... 94
अध्याय 12 श्री श्री कृ ष्ण भक्त ...................................100
अध्याय 13 रागानगु ा-भक्ति ..................................... 107
अध्याय 14 भगवान् श्री श्रीकृ ष्ण तथा भक्तों का प्रेमास्वादन......
अध्याय 15 श्रीमद्भागवत के “आत्माराम ” श्लोक की व्याख्या
अध्याय 16 श्री सनातन-शिक्षा का निष्कर्ष
अध्याय 17 आदि भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु
अध्याय 18 श्री प्रकाशानन्द से वार्तालाप ..(1)
अध्याय 19 श्री प्रकाशानन्द से वार्तालाप ..(2)
अध्याय 20 वेदान्त – स्वाध्याय का लक्ष्य .......
अध्याय 21 मायावादियों का आत्मसमपर्ण ....
अध्याय 22 श्रीमद्भाभागवत .......
अध्याय 23 वेदान्त-सत्रू के अध्ययन का प्रयोजन .....
अध्याय 24 श्री सार्वभौम भट्टाचार्य भक्त से वार्तालाप
अध्याय 25 भगवत्प्राप्ति तथा ब्रह्मानभु ति ू
अध्याय 26 श्री भट्टाचार्य भक्त बने ...
अध्याय 27 श्री चैतन्य महाप्रभु तथा श्री रामानन्द राय ...
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अध्याय 28 भगवान् श्री कृ ष्ण से सम्बन्ध ...


अध्याय 29 विशद्धु कृ ष्णप्रेम
अध्याय 30 श्रीराधा-कृ ष्ण का दिव्यातिदिव्य लीला-विलास ....
अध्याय 31 परम संसिदी
अध्याय 32 साध्य-साधन का निर्णय ..........

प्रस्तावना

इस ग्रन्थ में प्रस्ततु भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा तथा श्रीमद्भगवद्गीता में वर्णित भगवान् श्रीकृ ष्ण की
शिक्षा में कुछ भी अन्तर नहीं है । श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा में भगवान् श्रीकृ ष्ण की शिक्षा का आचरण दिखाया गया
है। भगवद्गीता के अन्त में श्रीकृ ष्ण का आदेश यही है कि जीव मात्र उनके शरणागत हो जाय। श्रीकृ ष्ण ऐसे शरणागत के
योगक्षेम को तरु न्त वहन करने की प्रतिज्ञा करते हैं। अपने अश ं क्षीरोदकशायी विष्णु के माध्यम से भगवान् श्रीकृ ष्ण सब
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ब्रह्माण्ड का पालन कर ही रहे हैं। पर यह पालन, सीधा नहीं है। शद्ध ु भक्त का योगक्षेम वहन करने की अपनी प्रतिज्ञा के
अनसु ार भक्तों का तो वे प्रत्यक्ष रूप से स्वयं पालन करते हैं। शद्ध ु भक्त उसे कहते हैं, जो सदा के लिए भगवान् के शरणागत
हो जाय, उसी प्रकार जैसे बालक अपने माता-पिता के अथवा पशु स्वामी के शरणागत रहता है। शरणगति की छह
अवस्थाएँ हैं : (1) भक्ति के अनक ु ू ल वस्तओ ु ं का ग्रहण, (2) भक्ति के प्रतिकूल वस्तओ ु ं का त्याग, (3) भगवान् के
सरंक्षण में अचल विश्वास, (4) एकमात्र भगवद् कृ पा की आश्रयता, (5) भगवान् की सेवा के अतिरिक्त कोई स्वार्थ न
रखना तथा (6) सदा विनम्र और दीनभाव रखना ।
भगवान् इन छह निर्देशों के अनसु ार प्रत्येक जीव को उनकी शरण में आने का आदेश करते हैं, पर विश्व के
तथाकथित विद्वान् कहलाने वाले मर्ख ू इन आदेशों को न समझकर जन साधारण से इन्हें अस्वीकार कर देने को कहते हैं।
भगवद्गीता के नौवें अध्याय के अन्त में भगवान् श्रीकृ ष्ण का स्पष्ट कथन है , “मन से सर्वदा मेरा चिन्तन करो, मेरा पजू न
करो और मेरे भक्त बनो। इस प्रकार पर्णू रूप से मझु में तन्मय होकर ही तमु मझु को प्राप्त होगे।" (भगवद्गीता 9.34) फिर भी,
विद्वान् रूपधारी असरु जनता को भगवान् श्रीकृ ष्ण के स्थान पर निराकार, अव्यक्त, नित्य, अजन्मा तत्त्व की ओर लगाकर
पथभ्रष्ट करते हैं। मायावादी दार्शनिक भगवान् श्रीकृ ष्ण को परतत्त्व का सर्वोपरि स्वरूप नहीं मानते। सर्यू के तत्त्वज्ञान के
जिज्ञासु को सर्वप्रथम सर्यू के बाहरी प्रकाश का दर्शन करना होगा, फिर सर्यू मण्डल का और उसके बाद कहीं सर्यू मण्डल में
प्रवेश करने पर सर्यू के अधिष्ठातृ देवता का साक्षात्कार होगा। अल्पबद्धि ु के कारण मायावादी ब्रह्मज्योति को नहीं लाँघ
सकते, जो के वल सर्यू प्रकाश के समान है। उपनिषदों में प्रमाण है कि देदीप्यमान ब्रह्मज्योति के परे चले जाने पर ही
वास्तव में भगवान् श्रीकृ ष्ण का साक्षात्कार हो सकता है।
अतएव श्री चैतन्य महाप्रभु व्रजेन्द्रनन्दन भगवान् श्रीकृ ष्ण की आराधना की शिक्षा देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि
श्रीधाम वृन्दावन श्रीकृ ष्ण के समान है, क्योंकि श्रीकृ ष्ण के नाम, गणु , रूप, लीला, परिकर, वैशिष्टय आदि तथा अद्वय
सत्य श्रीकृ ष्ण में कोई भेद नहीं है।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु कहते हैं, कि व्रजगोपियों द्वारा प्रचलित उपासना ससि ं द्धावस्था में आराधना की सबसे उच्च
पद्धति है। भगवान् श्रीकृ ष्ण में इन गोपियों का लौकिक-पारलौकिक-सब प्रकार के लाभों की इच्छा से शन्ू य विशद्ध ु प्रेम
था। श्री गौरसन्ु दर ने श्रीमद्भागवत को दिव्य ज्ञान की अमल कथा कहकर उसका अनमु ोदन किया है। उन्होंने यह भी निर्देश
किया है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण के प्रति विशद्ध ु प्रेमोदय ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है।
श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा और साख्ं य योग के आदिवक्ता श्री कपिलदेव की शिक्षा एक है। योग की इस
प्रामाणिक पद्धति में भगवान् श्रीकृ ष्ण के दिव्य श्रीविग्रह के ध्यान का विधान है। शन्ू य अथवा निराकार के ध्यान का कोई
प्रश्न ही नहीं बनता। भगवान् विष्णु के दिव्य शरीर का ध्यान करने के लिए आसनाभ्यास आवश्यक नहीं है। ऐसे ध्यान को
पर्णू समाधि कहते हैं। यह पर्णू समाधि भगवद्गीता में छठे अध्याय के अन्त में श्रीकृ ष्ण वचन द्वारा प्रमाणित है : “जो
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अत्यन्त श्रद्धा के साथ मझु में अपनी अन्तरात्मा (अन्तःकरण) लगाकर अर्थात् पर्णू समर्पण के साथ मेरी प्रेमाभक्ति
(दिव्यसेवा) में संलग्न रहता है, तथा परम अन्तरंग भाव से मझु में यक्त
ु है, वह योगी समस्त योगियों में श्रेष्ठ है। (भगवद्गीता
6.47)

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द्वारा दी। उन्होंने सिखाया है कि श्रीकृ ष्णनाम श्रीकृ ष्ण का शब्द-अवतार है । भगवान् श्रीकृ ष्ण पर्णू परतत्त्व हैं।
अत: उनके नाम और उनके दिव्य श्रीविग्रह में कोई भेद नहीं है। कृ ष्णनाम कीर्तन से होने वाली शब्दध्वनि के द्वारा साक्षात्
श्रीकृ ष्ण का संग प्राप्त हो जाता है। इस शब्दध्वनि का साधन करने वाला एक के बाद एक तीन अवस्थाओ ं में उन्नति
करता है : प्रथम, अपराध दशा में विषय-सख ु की इच्छा बनी रहती है। द्वितीय दशा में सब प्राकृ त विकारों सेममु क्त ु हो
जाती है। शद्ध ु सत्त्वमयी दशा में परम परुु षार्थ कृ ष्णप्रेम की प्राप्ति होती है। श्री गौरसन्ु दर ने निर्देश किया है कि मानवीय
संसिद्धि की यही परम अवस्था है।
योगाभ्यास मख्ु य रूप से इन्द्रियों को वश में करने के लिए किया जाता है। मन सब इन्द्रियों का के न्द्रीय नियन्त्रक है,
अत: सबसे पहले मन को कृ ष्ण भावना में संलग्न करके उसका संयम करना है। मन की स्थल ू क्रियाएँ बाह्य इन्द्रियों द्वारा
बोध के लिए अथवा मन के अनसु ार कर्म करने के लिए अभिव्यक्त होती हैं। मन की सक्ष्ू म क्रिया विचार, अनभु व और
संकल्प करना है। अपनी मति के अनरू ु प ही कोई जीव विकारी अथवा शद्ध ु होता है। यदि मन श्रीकृ ष्ण के नाम, गणु , रूप,
लीला, परिकर, वैशिष्टय आदि में एकाग्र है तो स्थल ू -सक्ष्ू म, सभी क्रियाएँ अनक ु ू ल हो जाती हैं। भगवद्गीता में वर्णित
चित्तशद्धि
ु की पद्धति यह है कि श्रीकृ ष्ण कि दिव्य लीला की चर्चा, उनके मन्दिर का मार्जन, विभषि ू त श्रीविग्रह के दर्शन,
कथा-श्रवण, भगवत्-प्रसाद ग्रहण, भक्तसंग, भगवान् को अर्पित पष्ु प और तल ु सी की सगु न्ध को सघँू ने और श्रीकृ ष्ण के
लिए कार्यरत रहने आदि साधनों से उनमें अपना चित्त एकाग्र रखना चाहिए। मन और इन्द्रियों की क्रियाओ ं को समाप्त नहीं
किया जा सकता, किन्तु मति-परिवर्तन से इन्हें शद्ध ु अवश्य किया जा सकता है। इस परिवर्तन का उल्लेख भगवद्गीता में
श्रीकृ ष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उस बद्धि ु योग के ज्ञान में है, जिससे कर्मबन्धन नष्ट हो जाता है।“हे पार्थ! इस बद्धि ु योग से
यक्त
ु होकर कर्म करने पर तमु कर्मबन्धन से मक्त ु हो जाओगे।" (भगवद्गीता 2.39) रोगादि कुछ अवस्थाओ ं में मनष्ु य के
विषयभोग को नियमित किया जाता है; किन्तु यह वास्तविक उपचार नहीं है। मन और इन्द्रियों को वश में करने की सही
पद्धति को न जानने के कारण कम बद्धि ु मान् मनष्ु य मन इन्द्रिय को बलपर्वू क रोकने का प्रयत्न करते हैं और फिर उनसे
परास्त होकर विषयभोग की तरंगों के वशीभतू हो जाते हैं।
विषयों से इन्द्रियों को रोकने के लिए योग के विधि-विधान, आसन तथा प्राणायाम का अभ्यास उनके लिए है, जो
देहात्मबद्धि
ु में अत्यन्त डूबे हुए हैं। कृ ष्णभावनाभावित बद्धि ु मान् मनष्ु य इन्द्रियों को बलपर्वू क कर्म करने से नहीं रोकता;
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वह अपनी इन्द्रियों को श्रीकृ ष्ण सेवा में लगाये रखता है। बालक को निष्क्रिय रखकर उसे क्रीड़ा करने से कोई नहीं रोक
सकता। उत्तम कार्यों में नियक्त ु करने पर ही बालक को निरर्थक क्रियाओ ं से रोका जा सकता है। अष्टांगयोग से
इन्द्रियक्रियाओ ं का बलपर्वू क दमन करना क्षद्रु लोगों के लिए है। कृ ष्णभावना की उत्तम क्रियाओ ं में तत्पर श्रेष्ठ व्यक्ति
संसार की हीन क्रियाओ ं से अपने आप ही निवृत्ति हो जाते हैं।
इस प्रकार भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु ने कृ ष्णभावना-विज्ञान की शिक्षा दी है । यह अद्वय विज्ञान है। शष्ु क
मनोधर्मी करने वाले ज्ञानी विषयों की आसक्ति से अपना संयम करने का प्रयत्न तो करते हैं; पर फिर भी प्राय: देखा जाता
है कि मन बड़ा हठी है, उसे वश में करना बड़ा कठिन है। वह विषयभोग के प्रति उन्हें खींच लेता है। कृ ष्णभावनाभावित
भक्त को यह भय नहीं रहता। अत: मन इन्द्रियों को श्रेष्ठ कृ ष्णभावनाभावित क्रियाओ ं में संलग्न करना है। श्री गौरसन्ु दर
महाप्रभु इसके अभ्यास की शिक्षा देते हैं।
सन्ं यासग्रहण से पर्वू श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु विश्वम्भर नाम से प्रसिद्ध थे। 'विश्वम्भर' उसे कहते हैं, जो अखिल
ब्रह्माण्ड का प्रतिपालक और सब जीवों का अग्रणी हो। मानवता को यह विशिष्ट शिक्षा देने के लिए यही परमेश्वर भगवान्
श्रीकृ ष्ण श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में अवतरित हुए। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु जीवन के प्रधान कर्तव्य के आदेश शिक्षक हैं।
वे कृ ष्णप्रेम के परम उदार प्रदाता अखिल कारुण्य एवं सौभाग्य के पर्णू भण्डार हैं। श्रीमद्भागवत,भगवद्गीता, महाभारत तथा
उपनिषदों से प्रमाणित है कि वे स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं और इस कलहप्रधान कलियगु में वे ही सबके आराध्य हैं। उनके
संकीर्तन यज्ञ में सभी सम्मिलित हो सकते हैं। इसके लिए कोई पर्वू योग्यता नहीं चाहिए। उनकी शिक्षा का सेवन करने मात्र
से सब मनष्ु य जीवन की कृ तार्थता को प्राप्त हो सकते हैं। जो सौभाग्यशाली उनके श्रीविग्रह के प्रति आकृ ष्ट हो जाता है,
उसके लिए जीवन के उद्देश्य में सफलता सनि ु श्चित है। दसू रे शब्दों में, परमार्थिक जीवन के अभिलाषी श्री गौरसन्ु दर की
कृ पा के बल पर सगु मतापर्वू क माया बन्धन से मक्त ु हो सकते हैं। इस ग्रन्थ में प्रस्ततु श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत
साक्षात् उनका स्वरूप है।
प्राकृ त देह को अपना स्वरूप समझने के कारण बद्धजीव नाना जड़कर्म करके इतिहास के पृष्ठों को बढ़ाता है। श्री
गौरसन्ु दर का शिक्षामृत मानव समाज को ऐसी निरर्थक और नश्वर क्रियाओ ं से रोकने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इस
उपदेश के सेवन से मानव, समाज भगवत्परायण दिव्य क्रिया के परमोच्च स्तर पर आरूढ़ हो सकता है। ये चिन्मय क्रियाएँ
वास्तव में प्राकृ त बन्धन से मक्ति
ु के बाद प्रारम्भ होती हैं। कृ ष्णभावनाभावित जीवनमक्त ु क्रियाएँ मानव-संसिद्धि का परम
लक्ष्य है। प्रकृ ति पर अधिकार करने के प्रयास से होने वाला मिथ्या अहक ं ार मायावी है। श्री गौरसन्ु दर की शिक्षा से वह
दिव्य आलोक मिलता है, जिससे परमार्थ में उन्नति हो सकती है।
सब कर्मानसु ार सख ु -द:ु ख भोगने को बाध्य हैं। प्रकृ ति के नियमों को कोई नहीं रोक सकता। जब तक जीव सकाम
कर्म में सल ं ग्न है, तब तक जीवन के परम लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयत्न में वह अवश्य विफल होगा। मझु े दृढ़ विश्वास है कि श्री
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गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा को ग्रहण करने से मानव समाज भगवतोन्मख ु ी जीवन का एक नतू न प्रकाश अनभु व
करे गा, जिससे शद्ध ु ात्म क्रिया का मार्ग प्रशस्त होगा।
ॐ तत्सत् ए.सी. भक्तिवेदान्त स्वामी मार्च 14, 1968 श्री गौरसन्ु दर प्राकट्य तिथि श्री श्री राधा-कृ ष्ण मन्दिर,
न्ययू ार्क मार्च 14, 1668 श्री गौरसन्ु दर प्राकट्य तिथि श्री श्री राधा-कृ ष्ण मन्दिर, न्ययू ॉर्क

भगवान् श्री चै तन्य महाप्रभु का संक्षि प्त जीवन-चरित्र


[ यह विवरण सर्व प्रथम श्रील भक्तिविनोद ठाकु र कृत-”श्री चै तन्य महाप्रभु की   जीवनी और शिक्षा “ में
प्रकाशित हुआ था | ]

श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु मायापरु के नदिया नगर में 23 फाल्गनु ी पर्णि
ू मा, 1407 शकाब्द (18 फरवरी, सन्
1487 ई. ) के दिन सन्ध्या समय प्रकट हुए। उनके प्राकट्य के अवसर पर चन्द्रग्रहण था। परम्परानसु ार उस समय नदिया
निवासी ‘हरिबोल' के तमु ल ु उद्घोष के साथ भागीरथी स्नान में सल ं ग्न थे। उनके पिता सामान्य वैदिक ब्राह्मण जगन्नाथ
मिश्र तथा माता आदर्श गृहिणी शचीदेवी, दोंनों मल ू त: सिलहट के ब्राह्मणवश ं ी थे। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु अतिशय सन्ु दर
बालक थे, नगर की स्त्रियाँ उपहार लेकर उनके दर्शनार्थ आई। उनके नाना, प्रसिद्ध ज्योतिषी पण्डित नीलाम्बर चक्रवर्ती ने
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भविष्यवाणी की, कि बालक यगु परुु ष होगा। इसीलिए उनका 'विश्वम्भर' नामकरण हुआ। उनके गौराङ्गवर्ण के कारण
पड़ोस की स्त्रियों ने उन्हें 'गौरहरि' कहा तथा जन्मस्थान के निकट नीम वृक्ष होने के कारण माता ने उन्हें 'निमाई' पक ु ारा।
मनोहर बालक गौरहरि का नित्य दर्शन करके सभी हार्दिक प्रसन्न होते। बड़े होने पर वे अत्यन्त चचं ल और क्रीड़ारत हो
गये। पाँच वर्ष के होने पर वे पाठशाला गये और अल्पकाल में ही बंगला शिक्षा ग्रहण की।
श्री गौरसन्ु दर के समकालीन अनेक जीवनीकारों ने विविध वृतान्तों का उल्लेख किया है, जो उनके शैशवकालीन
चमत्कारों के प्रमाण हैं। कहा जाता है कि बाल्यकाल में वे जननी की गोद में भी निरन्तर रुदन करते, परंतु पड़ोसी स्त्रियों की
'हरिबोल' ध्वनि को सनु कर शान्त हो जाते थे। इसलिए घर में निरन्तर 'हरिबोल' का कीर्तन होता रहता, जो यगु परुु ष के
भावी प्रयोजन का पर्वू परिचायक था। यह भी प्रसिद्ध है कि एक बार जब माता ने उन्हें खाने के लिए एक मिठाई दी, तो
उसके स्थान पर वे मिट्टी खाने लगे। माता द्वारा इसका कारण पछू े जाने पर उन्होंने कहा कि मिष्ठान्न मिट्टी का ही तो विकार
मात्र है, इसलिए मिष्ठान्न के समान मिट्टी भी खाई जा सकती है। माता भी पण्डित गृहिणी ठहरी। उन्होंने तरु न्त उत्तर दिया
कि प्रत्येक पदार्थ का अपना विशेष उपयोग होता है। घड़े की मिट्टी का उपयोग जलपात्र के रूप में सम्भव है , किन्तु ईट
रूपधारी मिट्टी का ऐसा उपयोग नहीं हो सकता। ऐसे ही, के वल मिष्ठान्न के रूप में मिट्टी खाने योग्य है, अन्य प्रकार से नहीं।
बालक श्री गौरसन्ु दर को यह तर्क मानना पड़ा और अपनी भल ू स्वीकार करते हुए उन्होंने भविष्य में फिर ऐसा न करने का
वचन दिया। एक अन्य चमत्कार का भी वर्णन हुआ है। कहा जाता है कि एक बार तीर्थयात्री ब्राह्मण ने उनके घर आतिथ्य
स्वीकार किया। वह भोजन बनाकर श्रीकृ ष्ण का ध्यान करने बैठा। इसी बीच बालक श्री गौरसन्ु दर ने वहाँ आकर चावल
को खा लिया। बालक की क्रिया से विस्मित हुए ब्राह्मण ने जगन्नाथ मिश्र के आग्रह पर फिर रसोई बनाई। किन्तु जैसे ही
अन्न को श्रीकृ ष्णार्पण करने के लिए ध्यान लगाया कि बालक ने फिर भोग लगा दिया। ब्राह्मण से एक बार और रन्धन
करने के लिए अननु य की गई। इस समय तक सारे घरवासी निद्रामग्न हो चक ु े थे, ऐसे में यात्री ब्राह्मण को अपने कृ ष्णरूप
का दर्शन कराकर बालक ने उन पर कृ पा की। अपने आराध्य के प्राकटय से ब्राह्मण भावाविष्ट हो गये। यह भी उल्लेख है
कि दो चोर आभषू णों के लोभ से बालक को उनके पिता के द्वार से उठाकर ले गये और मार्ग में उन्हें मिष्ठान्न दिया। बालक
श्री गौरसन्ु दर ने अपनी माया के प्रयोग से चोरों को मोहित कर दिया, वे चोर स्वयं ही उन्हें फिर उनके द्वार पर ले आये ।
फिर पकड़े जाने के भय से चोर बालक को वहीं छोड़कर भाग गये। बालक का एक अन्य चमत्कार हिरण्य और जगदीश से
एकादशी का सारा कृ ष्ण नैवेद्य मँगाना है। चार वर्ष की आयु में एक दिन वे उन भोजन बनाने के भग्न पात्रों पर जा बैठे,
जिन्हें उनकी माँ भी अपवित्र समझती थीं। उन्होंने माता को समझाया कि पात्रों के सम्बन्ध में पवित्र-अपवित्र का प्रश्न नहीं
उठता। इन विवरणों का सम्बन्ध उनके पाँचवें वर्ष की आयु तक है।

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आठवें वर्ष में श्री गौरांग ने मायापरु के निकट गंगानगर में गंगादास पण्डित के टोल में प्रवेश किया। के वल दो वर्ष
में ही वे संस्कृ तव्याकरण एवं काव्यालंकार में विद्वान् हो गये। इसके बाद उनका अध्ययन अपने घर पर स्वाध्याय के रूप में
हुआ, जहाँ पण्डित

पिता
के सब
महत्वपर्णू ग्रन्थ
उन्हें उपलब्ध
थे। प्रतीत होता
है कि प्रख्यात

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पण्डित रघनु ाथ शिरोमणि से अध्ययन करने वाले अपने मित्रों की स्पर्धा में उन्होंने स्मृति तथा न्याय का भी स्वाध्याय
किया।
इस प्रकार दस वर्ष की आयु में श्री चैतन्य व्याकरण, काव्यालक ं ार, स्मृति और न्याय के प्रसिद्ध विद्वान् हो गये।
इसी काल में उनके अग्रज विश्वरूप ने गृहत्याग कर सन्ं यासाश्रम ग्रहण किया था। नव किशोर होने पर भी श्री चैतन्य ने
माता-पिता को यह कहकर सान्त्वना दी कि वे भगवान् की प्रसन्नता के लिए उनकी सेवा करें गे। शीघ्र ही उनके पिता का
भी गोलोकवास (परलोक गमन) हो गया। इससे उनकी जननी अत्यधिक शोकमग्न हो गई। श्रीमहाप्रभु ने अपने नित्य सौम्य
विग्रह से विधवा माता को सान्त्वना दी।
चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु का नदिया निवासी वल्लभाचार्य की कन्या लक्ष्मीदेवी से
विवाह हुआ। इस समय उनकी गणना न्याय और सस्ं कृ त शिक्षा के लिए विख्यात नदिया नगर के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में थी।
स्मार्त पण्डित ही नहीं, सारे नैयायिक भी उनसे साहित्यिक वार्ता में विवाद करने का साहस नहीं करते थे। गृहस्थ होने के
कारण पद्मा तट से वे धनोपार्जन के लिए पर्वू बगं ाल गये। वहाँ अपनी विद्वता के प्रदर्शन से विपल ु धन प्राप्त किया। इसी
काल में समय-समय पर वे वैष्णव धर्म का भी उपदेश करने लगे। श्री तपन मिश्रा को वैष्णव सिद्धान्तों की शिक्षा प्रदान कर
बनारस की आज्ञा दी। उनके पर्वू बगं ाल के प्रवासकाल में ही पत्नी लक्ष्मीदेवी का सर्प के काटने से परलोकवास हो गया।
गृह लौटने पर उन्होंने माता को शोकमग्न पाया। मानव जीवन की क्षणभंगरु ता का उपदेश करके उन्होंने जननी को सान्त्वना
दी। माता के अनरु ोध से राजपण्डित श्री सनातन मिश्रा की कन्या विष्णप्रि ु यादेवी का पाणिग्रहण किया। यात्रा से लौटने पर
उनके साथी फिर से संग हो गये। अब वे इतने प्रसिद्ध हो । थे कि नदिया के सर्वश्रेष्ठ पण्डित माने जाने लगे। स्वयं को महान्
दिग्विजयी कहने वाला के शव मिश्रा कश्मीरी नदिया के पण्डितों से शास्त्रार्थ के लिए नदिया में आया। नामधारी दिग्विजयी
पण्डित से भयभीत होकर नदिया के टोल विद्वान् एक निमंत्रण का छल करके नगर से चले गये। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु एवं
के शव कश्मीरी का मायापरु के बंडकुण्ड घाट पर मिलन हुआ। अत्यन्त सक्षि ं प्त वार्ता में ही कश्मीरी पण्डित बालक
गौरसन्ु दर से परास्त होकर अपमान भयवश पलायन करने को बाध्य हो गया। निमाई पण्डित अपने समय के सर्वोत्तम
पण्डित मान्य हो गये।
सोलह-सत्रह वर्ष की आयु में बहुत-से विद्यार्थियों सहित उन्होंने गया यात्रा की। वहीं प्रख्यात भक्त श्री माधवेन्द्र
परु ी के शिष्य एवं वैष्णव संन्यासी श्री ईश्वरपरु ी से वैष्णव दीक्षा ग्रहण की। नदिया लौट आने पर निमाई पण्डित भागवत धर्म
प्रचारक बन गये। उनका भक्त रूप इतनी प्रबलतापर्वू क प्रकट हुआ कि अद्वैत प्रभु और श्रीवासादि, जिन्होंने उनके प्राकटय
से पर्वू ही वैष्णव धर्म अगं ीकार कर लिया था, नवयवु क श्री गौरसन्ु दर में ऐसे परिवर्तन देखकर विस्मित हो गये। अब वे
तर्क रत नैयायिक, शास्त्रार्थ करने वाले स्मार्त और आलोचक काव्यवेत्ता नहीं रहे। प्रत्यक्षदर्शी श्री मरु ारी गप्तु ा ने वर्णन किया
है, कि श्रीवास के घर में अपने शत-शत भक्तों के मध्य, जिनमें मख्ु यत: महान् विद्वान् थे, उन्होंने अपनी भगवत् शक्तियों का
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प्रकाश किया। इसी समय श्रीवास के आँगन में उन्होंने अपने निष्ठावान भक्तो के साथ रात्रि संकीर्तन का प्रारम्भ किया। वहाँ
वे प्रवचन करते, गाते, नाचते और नाना भावों का प्रकाश करते थे। वैष्णव उपदेशक के रूप में सम्पर्णू भारत भ्रमण करके
श्री नित्यानन्द प्रभु भी इस समय उनसे आ मिले। वास्तव में, अनेक-अनेक निष्ठावान वैष्णव उपदेशक बंगाल के विविध
भागों से उनके संग में आए। इस प्रकार नदिया नगर ऐसे अनेक वैष्णवाचार्यों का नित्य निवासस्थल बन गया, जिनका
उद्देश्य वैष्णव धर्म के सर्वोच्च प्रभाव द्वारा मानवता को भगवत्परायण बनाना था।
प्रभु नित्यानन्द और ठाकुर हरिदास को उन्होंने यह प्रथम आदेश दिया, “मित्रो जाओ, नगर के मार्गों पर जाओ,
जन-जन के द्वार पर जाकर सबसे पवित्रतापर्वू क हरिनाम ग्रहण करने की प्रार्थना करो और नित्य सन्ध्या समय अपने प्रचार
कार्य के सम्बन्ध में मझु े सचि ू त करो।" यह आदेश होने पर दोनों नाम-प्रचारक चले। एक दिन उनकी भेंट दो परम अधम
जीवों जगाई और मधाई से हुई। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु का आदेश सनु कर उन्होंने प्रचारकों का अपमान किया, किन्तु उनके
प्रभु श्री गौरसन्ु दर द्वारा उपदिष्ट भक्ति के प्रभाव से वे भी शीघ्र भक्त बन गये। नदियावासी इससे आश्चर्यचकित हो उठे ।
उन्होंने कहा, “निमाई पण्डित के वल महान् विद्वान् ही नहीं, अपितु निश्चित रूप से सर्वसमर्थ श्रीभगवत्-दतू हैं।" जीवन के
इस तेईसवें वर्ष से श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने नदिया में ही नहीं, अपितु समीपवर्ती सारे नगर ग्रामादि में अपने वैष्णव-
सिद्धान्तों का प्रचार किया। भक्तों के निवासों पर चमत्कार प्रदर्शन किया, गोपनीय भक्ति सिद्धान्तों की शिक्षा दी, भक्तवृन्द
सहित संकीर्तन किया। उनके नदियावासी भत मार्गों में हरिनाम का कीर्तन करने लगे। इससे एक उत्तेजना फै ल गई, विभिन्न
व्यक्तियों में विभिन्न भावों का प्रादर्भा
ु व हुआ। भक्त अतिशय प्रफुल्लित हुए। दसू री ओर निमाई पण्डित की सफलता से
ईष्या करने वाले स्मार्त पण्डितों ने श्री चैतन्य को अहिन्दू बताकर उनके विरुद्ध चाँद काजी से शिकायत की। काज, कि
यदि निमाई पण्डित अपने विचित्र धर्म के कोलाहल को नहीं दबाएँगे तो वह अनयु ायियों सहित उन्हें मस्लि ु म बनाने को
बाध्य हो जायेगा। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु को इसकी सचू ना मिली। उन्होंने तरु न्त नगरवासियों को सन्ध्या समय हाथ में
मशाल लेकर उपस्थित होने का आदेश दिया। लोगों ने वैसा ही किया तथा निमाई अपने सक ं ीर्तन को चौदह दलों में
विभाजित कर चले। काजीनिवास पहुचँ कर उन्होंने काजी के साथ विस्तार से बात की और अन्त में अगं स्पर्श करके उसके
हृदय में भी वैष्णवता का संचार कर दिया। काजी ने रोते हुए स्वीकार किया कि उसे एक तीव्र भागवत्प्रभाव की अनभु ति ू
हुई, जिससे उसके संशय नष्ट हो गये तथा परमानन्द-प्रदायक भक्तिभाव का उदय हुआ। इसके बाद काजी संकीर्तन में
सम्मिलित हो गया। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु की दिव्य शक्ति से जगत् विस्मित हो उठा। इस घटना से हजारों-हजारों अवैष्णव
भक्त बनकर श्री विश्वम्भर ध्वज के नीचे एकप्राण हो गये।
इसके पश्चात् कुलिया के कुछ ईर्ष्यालु एवं नीच प्रकृ ति वाले ब्राह्मणों ने श्रीमन् महाप्रभु गौरसन्ु दर से विद्रोह करके
उनके विरुद्ध एक दल बनाया। निमाई पण्डित सिद्धान्त पर दृढ़ होते हुए भी स्वभावत: परम सहृदय थे। उन्होंने विचार किया
कि दलबन्दी और साम्प्रदायिक संकीर्णता प्रगति के दो सबसे बड़े शत्रु हैं, इसलिए जब तक निमाई पण्डित किसी एक
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

परिवार से सम्बद्ध हैं, तब तक उनका प्रयोजन पर्णू तया सिद्ध नहीं हो सके गा। अत: उन्होंने अपने परिवार, वर्ण, दल आदि
से सम्बन्ध-विच्छे द कर विश्व नागरिक बनने का संकल्प किया। इस प्रकार चौबीसवें वर्ष में उन्होंने कटवा में वहाँ के के शव
भारती संन्यासाश्रम ग्रहण किया। उनकी माता एवं पत्नी उनके विरह में फूट-फूटकर रोई, पर सहृदय होते हुए भी हमारे
चरितनायक आदर्श पर दृढ़ थे। अपने घर के छोटे -से संसार का उन्होंने परित्याग किया। सामान्य जनता को श्रीकृ ष्ण के
अनन्त वैकुण्ठ–जगत् धाम की प्राप्ति कराने के लिए।
संन्यास लेने के बाद उन्हें शान्तिपरु में अद्वैत प्रभु के घर जाने के लिए प्रेरित किया श्री अद्वैत ने नदिया से उनके सब
मित्रों और भक्तों को निमन्त्रित किया; पत्रु के दर्शनार्थ शची माता को भी ले आये। पत्रु का संन्यासी रूप देखकर जननी का
हृदय हर्षविषाद मग्न हो गया। संन्यासी होने के कारण श्रीकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभु के वल कौपीन और बहिर्वास धारण किये
हुए थे। उनका मस्तक मण्डि ु त था, हाथ में दण्ड-कमण्डलू थे। अपनी स्नेहमयी जननी के चरणों में दण्डवत् प्रणाम कर
पावन पत्रु ने कहा, “जननी! यह देह आपकी है। इसलिए मैं आपकी आज्ञा पालन में बाध्य हू।ँ भगवत् प्राप्ति के लिये मझु े
श्रीधाम वृन्दावन गमन करने की आज्ञा दीजिए।“ अद्वैतादि से विचारविमर्श कर जननी ने पत्रु को जगन्नाथपरु ी में निवास
करने को कहा, जिससे समय-समय पर उन्हें श्री गौरसन्ु दर की वार्ता मिलती रहे। श्री महाप्रभु गौरसन्ु दर ने इस सझु ाव को
मानकर शीघ्र शान्तिपरु से उड़ीसा के लिये प्रस्थान किया। जीवनीकारों ने श्रीकृ ष्ण चैतन्य की शान्तिपरु से परु ी यात्रा का
सविु स्तृत वर्णन किया है। वर्तमान थाना- मथरु ापरु , डायमण्ड हार्बर, चौबीस परगना में स्थित छत्रभोग तक उन्होंने भागीरथी
तट पर यात्रा की। वहाँ से नौका द्वारा मिदनापरु जिले में प्रयाग घाट तक गये। तदपु रान्त भवु नेश्वर मन्दिर के दर्शन करते और
बालेश्वर कटक के मार्ग से पदयात्रा करते हुए वे परु ी पहुचँ ।े परु ी आने पर उन्होंने श्रीजगन्नाथ का दर्शन किया। श्री सार्वभौम
से भेंट हुई और उनकी प्रार्थना पर श्रीमन् महाप्रभु ने साथ में निवास किया। श्री सार्वभौम उस काल के महान् विद्वान थे,
उनके स्वाध्याय की सीमा न थी। सर्वश्रेष्ठ नैयायिक होने के साथ ही वे शक ं र वेदान्त के सर्वाधिक पाण्डित्यपर्णू विद्वान् के
रूप में विख्यात थे। उनका जन्म नदिया (विद्यानगर) में हुआ था, जहाँ वे अपने टोल में असंख्य विद्यार्थियों को न्याय की
शिक्षा देते थे। निमाई पण्डित के आविर्भाव से कुछ ही पर्वू वे परु ी चले आये। उनके बहनोई श्री गोपीनाथ ने इन नवीन
संन्यासी का परिचय श्री सार्वभौम से कराया। श्री सार्वभौम श्री गौरसन्ु दर के श्रीविग्रह माधर्यु से आश्चर्यचकित हो उठे । उन्हें
भय हुआ कि लम्बे जीवनकाल में ऐसे नवयवु क के लिये संन्यास धर्म की रक्षा बड़ी कठिन होगी। श्री गोपीनाथ की, जो श्री
चैतन्य महाप्रभु को नदिया से जानते थे, इसलिए उनकी प्रभु में प्रगाढ़ निष्ठा थी। अत: उन्होंने घोषित किया कि वे संन्यासी
साधारण मनष्ु य नहीं हैं। इस पर 'श्री गोपीनाथ और श्री सार्वभौम में गहन शास्त्रार्थ हुआ। तत्पश्चात् श्री सार्वभौम ने श्री
गौरसन्ु दर से अपने वेदान्तसत्रू व्याख्या सनु ने के लिए अनरु ोध किया और प्रभु ने यक्ति ु पर्वू क प्रदान की। श्री गौरसन्ु दर ने
गम्भीरतापर्वू क सात दिवस तक चपु चाप श्री सार्वभौम की व्याख्या सनु ी। सात दिन हो जाने पर श्री सार्वभौम ने उनसे कहा,
“कृ ष्णचैतन्य! प्रतीत होता है कि आप वेदान्त नहीं समझते, क्योंकि मेरी व्याख्या सनु कर कुछ नहीं कहते हैं।" श्री चैतन्य
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का उत्तर था कि वे सत्रु ों को तो भलीभाँति समझते हैं, किन्तु नहीं जानते कि अपने भाष्य से श्री शंकराचार्य का तात्पर्य क्या
है। इससे विस्मित होकर सार्वभौम ने कहा, 'यह कै से सम्भव है कि आप सत्रू तो समझते हैं, पर सत्रु ों की व्याख्या करने
वाले भाष्य को नहीं समझते? फिर भी यदि आप सत्रू ों को समझते हैं तो कृ पया अपनी व्याख्या सनु ाइए।' इस पर श्री
गौरसन्ु दर महाप्रअपनी विधि से शक ं र की विवर्तवाद-व्याख्या का स्पर्श किये बिना सब सत्रू ों की व्याख्या की। श्री सार्वभौम
की तीक्ष्ण बद्धिु को श्री चैतन्य की व्याख्या में सत्य, सौन्दर्य और तर्क समन्वय का दर्शन हुआ; वे यह कहने को बाध्य हो
गये कि यह पहला अवसर है, जब उन्हें ब्रह्मसत्रू की ऐसी सरल व्याख्या सनु ने को मिली। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि
शंकर-भाष्य वेदान्त सत्रू की उतनी स्वाभाविक व्याख्या नहीं करते, जैसी उन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्राप्त हुई। उन्होंने
समर्थक और अनयु ायी के रूप में समर्पण कर दिया। कुछ ही दिनों में श्री सार्वभौम की अपने समय के सर्वश्रेष्ठ वैष्णवों में
गणना होने लगी। जब यह समाचार फै ला तो सम्पर्णू उड़ीसा श्री गौरसन्ु दर का गणु -गान करने लगा; शत-शत लोग उनकी
शरण में आकर भक्त बन गये। इसी बीच, श्रीमन् महाप्रभु ने दक्षिण यात्रा का विचार कर कृ ष्णदास नामक ब्राह्मण सहित
परु ी से प्रस्थान कर दिया।
जीवनीकारों ने उनकी यात्रा का विवरण प्रस्ततु किया है। वे सर्वप्रथम कूर्मक्षेत्र गये, जहाँ उन्होंने चमत्कारपर्वू क
वासदु वे नामक कुष्ठरोगी का रोग निवारण किया। गोदावरी तट पर विद्यानगर के शासक रामानन्द राय से भेंट कर प्रेमाभक्ति
की चर्चा की। एक चमत्कार में उन सप्त ताल वृक्षों को स्पर्श मात्र से लप्तु दिया, जिनके पीछे से दशरथनन्दन श्रीरामचन्द्र ने
महान् बाली राजा को बाण मारा था। यात्राभर में उन्होंने वैष्णव धर्म और नाम संकीर्तन का प्रचार किया। श्रीरंगश्रेत्र में वर्षा
ऋतु में वेंकट भट्ट के घर चातर्मा ु स्य किया। वहाँ उन्होंने वेंकट के सम्पर्णू परिवार को रामानजु वैष्णव से कृ ष्णभक्त बनाया।
उन्हीं में वेंकट के दस वर्षीय बालक गोपाल भी थे , जो बाद में वृन्दावन आकर श्रीकृ ष्ण चैतन्य के छह गोस्वामियों में
सम्मिलित हुए। अपने चाचा प्रबोधानन्द सरस्वती से संस्कृ त शिक्षा पाकर श्री गोपालभट्ट गोस्वामी ने अनेक वैष्णव ग्रन्थों
का प्रणयन किया।
दक्षिण में कन्याकुमारी तक अनेक स्थलों का परिभ्रमण कर श्री चैतन्य महाप्रभु दो वर्ष में भीमा नदी पर स्थित
पंढरपरु के मार्ग से पनु : परु ी पधारे । उत्त स्थान पर उन्होंने श्री तक ु ाराम को भक्त बनाया, जो बाद में महान् भक्ति-प्रचारक हुए।
मम्ु बई नगर सेवा के सत्येन्द्रनाथ टैगोर द्वारा संकलित तक ु ाराम के अभंगों में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है।
यात्राकाल में उन्होंने अनेक स्थानों पर बौद्ध, जैन और मायावादियों से शास्त्रार्थ कर उन्हें वैष्णव धर्म ग्रहण कराया।
श्रीमन् महाप्रभु के परु ी लौट आने पर, राजा प्रतापरुद्र देव और अनेक पण्डित ब्राह्मण उनके अनयु ायी भक्त हो गये।
इस समय वे सताईस वर्षीय हो चक ु े थे। अट्ठाईसवें वर्ष में वे माल्दा में गौड़ तक गये , वहाँ उन्हें रूप सनातन नामक दो
महापरुु षों की प्राप्ति हुई। कर्नाटक ब्राह्मण-वंशी होने पर भी गौड़ के तत्कालीन शासक हुसैन शाह के संसर्ग से दोनों भाई
प्राय: मस्लि
ु म हो गये थे। बादशाह ने उनके नाम तक बदल कर दबीर खास और साकर मल्लिक रख दिये थे। वे फारसी,
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अरबी और संस्कृ त के प्रकाण्ड पण्डित एवं शासन के विश्वासपात्र सेवक थे। इन सब गणु ों के कारण शासक को वे हृदय से
प्रिय थे। दोनों सज्जनों को हिन्दू समाज में पनु ः आगमन का कोई मार्ग नहीं मिला। श्रीमन् महाप्रभु गौरसन्ु दर के परु ी निवास
के समय उन्होंने पत्र द्वारा प्रभु से पारमार्थिक सहायता की याचना की थी। श्री गौरसन्ु दर ने उत्तर में लिखा था, कि वे स्वयं
उनके पास आकर परमार्थ की समस्याओ ं से उनका उद्धार करें गे । अतएव उनके गौड़-आगमन पर, दोनों भाई अपनी
चिरकालीन प्रार्थना करने उनके चरणों में उपस्थित हुए। श्री महाप्रभु गौरसन्ु दर ने आदेश दिया कि वे श्रीधाम वृन्दावन जाएँ
और वहीं उनसे मिलें।
श्री चैतन्य शान्तिपरु में स्नेहमयी जननी से भेंट कर पनु : परु ी धाम लौट आये। परु ी में अल्प निवास करके उन्होंने
श्रीधाम वृन्दावन के लिये पनु : प्रस्थान किया। इस अवसर पर उनके साथ एक बलभद्र भट्टाचार्य नामक सेवक थे। श्रीधाम
वृन्दावन का दर्शन करके और कुरान के आधार पर अनेक मस्लि ु मों को वैष्णव बनाकर वे प्रयाग पधारे । उन वैष्णवों के
वंशज आज तक पठान वैष्णव कहलाते हैं। प्रयाग में श्री रूप गोस्वामी की उनसे भेंट हुई। दस दिन तक भक्ति विषयक
शिक्षा प्रदान करके श्री चैतन्य ने उन्हें अपने प्रयोजन की पर्ति ू के लिए श्रीधाम वृन्दावन जाने की आज्ञा दी। उनका पहला
प्रयोजन था, कि शद्ध ु प्रेमाभक्ति का यक्ति
ु संगत प्रतिपादन करने वाले ग्रन्थों की रचना। दसू रे , भत समाज के कल्याणार्थ उन
स्थलों का पनु रुत्थान, जहाँ द्वापर यगु के अन्त में कृ ष्णचन्द्र ने विपदिय ललएँक औरूगवान ने अलावा सेवाकाल प्रस्थान
किया तथा श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु बनारस पधारे । वहाँ उन्होंने श्री चन्द्रशेखर के स्थान पर निवास किया और श्री तपन मिश्र
के घर नित्य भिक्षा की। यहीं श्री सनातन गोस्वामी ने उनके सानिध्य में दो मास तक भक्ति शिक्षा प्राप्त की। जीवनीकारों ने
विशेषतः कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य से रूप सनातन की प्राप्त हुई शिक्षा का विस्तृत वर्णन किया है।
कृ ष्णदास समकालीन लेखक नहीं थे, पर महाप्रभु के शिष्य गोस्वामियों से उन्हें सम्पर्णू जानकारी प्राप्त हुई थी। श्री रूप
सनातन के भाई के पत्रु तथा षड्सन्दर्भ' नामक अनपु म ग्रन्थ के प्रणेता श्री जीव गोस्वामीपाद ने श्रीमहाप्रभ ु की शिक्षा का
तत्व-निरुपण किया है। इन महापरुु षों के ग्रन्थों के आधार पर ही हमने श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षा शिक्षा का संकलन
एवं सार ग्रहण किया है।
बनारस में श्री चैतन्य की विद्वान् संन्यासियों से उस महाराष्ट्रीय ब्राह्मण के निवास पर वार्तालाप हुई , जिसने उत्सव
में सब संन्यासियों को निमंत्रित किया था। इस वार्तालाप में श्री चैतन्य महाप्रभु के चमत्कार से सारे संन्यासी उनके प्रति
आकृ ष्ट हो गये। तदपु रान्त विचारविनिमय हुआ। संन्यासियों का नेतत्ृ व कर रहे थे, उस समय के सर्वोपरि विद्वान्
प्रकाशानन्द सरस्वती। अल्प विवाद के बाद ही श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु के प्रति अवनत होकर उन्होंने स्वीकार किया कि वे
शंकराचार्य के भाष्यों से भ्रमित हैं। विद्वान् पण्डित भी अधिक समय तक श्री गौरसन्ु दर का विरोध नहीं कर सकते। प्रभु में
एक ऐसा वशीकरण था, जो उनके हृदयों का स्पर्श कर भक्ति प्राप्ति के लिए विद्वानों को रुदन करने को विवश कर देता।
बनारस के संन्यासी शीघ्र ही श्री चैतन्यचरणारविन्द में गिरकर उनसे कृ पा की याचना करने लगे। श्री चैतन्य महाप्रभु ने शद्ध ु
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भक्ति का उपदेश देकर उनके हृदय को दिव्य कृ ष्णप्रेम से भर दिया और वे साम्प्रदायिक सक ं ीर्णता से मक्त
ु हो गये। इस
प्रकार संन्यासियों के भक्त बनने पर सारी की सारी बनारस वैष्णव हो गई और जनता ने अपने नवोदित प्रभु श्री गौरसन्ु दर के
साथ महासंकीर्तन का आयोजन किया। श्री सनातन को श्रीधाम वृन्दावन भेजकर साथी बलभद्र के साथ वनमार्ग से वे पनु ः
परु ी पधारे । बलभद्र ने समाचार दिया कि परु ी के मार्ग में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु की कृ ष्णनाम-ध्वनि सनु कर सिंह-गजादि भी
उन्मत नृत्य नृत्य करने लगे। ऐसे अनेक चमत्कार हुए।
इस समय अर्थात् इकतीसवें वर्ष से लेकर टोटा-गोपीनाथ मन्दिर में संकीर्तन करते हुए अड़तालीसवें वर्ष में
तिरोभाव तक महाप्रभु परु ी में निरन्तर काशी मिश्र के निवास पा ही रहें | अट्ठारह वर्षों में उनका जीवन स्थिर प्रेमा-भक्तिमय
था। उनके परिकर में ऐसे अनेक परम वैष्णव थे, शद्ध ु तम चरित्र, विद्वत्ता, दृढ़ धर्मनिष्ठा तथा श्रीराधा-माधव के दिव्य प्रेम में
जनसाधारण से विलक्षण थे। श्री स्वरूप दामोदर जो श्रीमन् महाप्रभु के नदिया निवासकाल में परुु षोत्तमाचार्य थे, बनारस
से परु ी आए और उनका सचिव पद स्वीकार कर लिया। श्री स्वरूप दामोदर से शद्ध ु ता और सार्थकता सम्बन्धी स्वीकृ ति
प्राप्त किये बिना कोई भी कविता अथवा दर्शन श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु के आगे प्रस्ततु नहीं किया जा सकता था। श्री
रामानन्द राय उनके दसू रे सखा थे। जब जब महाप्रभु कोई भाव प्रकट करते तो, वे और दामोदर उपयक्त ु पदों का गान करते
थे। परमानन्द परु ी धार्मिक विषय में उनके मंत्री थे। उनके जीवनीकारों द्वारा वर्णित ऐसी अनेक कथाएँ हैं, जिनका उल्लेख
यहाँ सम्भव नहीं। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु बहुत अल्प शयन करते। उनमें दिन-रात उठनेवाले भाव-भक्ति आकाश में उन्हें
बहुत दरू ले जाते। इस अवस्था में सब भक्त और अनयु ायी निरन्तर उनकी शश्रु षु ा में मग्न थे। वे भक्ति करने , वृन्दावन में
स्थित अपने सेवकों से सम्पर्क करते और नवागन्तक ु भक्तजनों से वार्तालाप भी करते। वे नाचते , गाते, अपना कुछ भी
विचार नहीं करते और प्राय: भक्ति-माधर्यु में तन्मय हो जाते। उनके दर्शनार्थ आने वाले सभी श्रद्धालु उन्हें मानवता के
कल्याण के लिए अध:श्लोक में अवतरित सर्वमाधर्यु पर्णू स्वयं भगवान् मानते थे। जननी के प्रति उनका जीवनभर प्रेम रहा,
नदिया जाने वालों के हाथों वे समय-समय पर माता के लिये महाप्रसाद भेजते थे। वे स्वभावत: परम मृदु तथा मर्ति ू मान
दैन्य थे। उनका मधरु मख ु चन्द्र अपने सम्पर्क में आने वाले सभी को प्रफुल्लित किया करता। श्री नित्यानन्द प्रभु को उन्होंने
बंगाल का मख्ु य प्रचारक नियक्त ु किया और सदु रू देश में कृ ष्ण-प्रेम प्रचारार्थ छह गोस्वामियों को वृन्दावन भेजा। पवित्र
जीवन का उल्लंघन करने वाले अपने सब शिष्यों को उन्होंने शासन किया। छोटे हरिदास के सम्बम्ध में विशेष रूप से ऐसा
किया। जीवन की उचित शिक्षा के याचकों को उन्होंने कभी निराश नहीं किया। श्री रघनु ाथदास गोस्वामी को उनकी शिक्षा
में यह वस्तु देखने में आती है। ठाकुर हरिदास से उनके व्यवहार से प्रकट होता है, कि वे भक्तों से कितना अगाध प्रेम करते
थे और भक्ति में जाति-पाँति के भेद को बिल्कुल नहीं मानते थे।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षाष्टक


भगवान् श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु ने अपने शिष्यों को श्रीकृ ष्ण तत्त्वविषयक ग्रन्थों की रचना करने की आज्ञा
दी, जिसका पालन उनके अनयु ायी आज तक भी कर रहे हैं। वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा जिस दर्शन की शिक्षा दी
गई है उस पर हुई व्याख्याएँ और निरूपण गरुु -परम्परा की पद्धति के कारण परम विस्तृत, यथानरू ु प एवं सदृु ढ़ हैं। यद्यपि
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु अपने यवु ावस्था में ही परम विद्वान् के रूप में विख्यात थे, किन्तु उन्होंने हमें के वल आठ
श्लोक ही प्रदान किये हैं। इन्हें 'शिक्षाष्टक' कहते हैं। ये आठ श्लोक श्रीमन् महाप्रभु के प्रयोजन तथा शिक्षा के स्पष्ट प्रकाशक
हैं। इन परम मल्ू यवान् प्रार्थनाओ ं का यहाँ मल ू रूप एवं अनवु ाद प्रस्ततु किया जाता है।
चे

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

“श्रीकृ ष्ण संकीर्तन की परम विजय हो, जो वर्षों से संचित मल से चित्त का मार्जन करने वाला तथा बारम्बार जन्म-
मृत्यु रूप महादावानल को शान्त करने वाला है। यह संकीर्तन यज्ञ मानवता का परम कल्याणकारी है क्योंकि यह
मगं लरूपी चन्द्रिका का वितरण करता है। समस्त अप्राकृ त विद्या रूपी वधू का यही जीवन है। यह आनन्द के समद्रु की
वृद्धि करने वाला है और यह श्रीकृ ष्ण-नाम हमारे द्वारा वाछि
ं त पर्णा
ू मृत का हमें आस्वादन कराता है|”

ना
“हे भगवन!् आपका अके ला नाम ही जीवों का सब प्रकार से मगं ल करने वाला है, 'कृ ष्ण', 'गोविन्द' जैसे आपके
लाखों नाम हैं। आपने इन अप्राकृ त नामों में अपनी समस्त अप्राकृ त शक्तियाँ अर्पित कर दी हैं। इन नामों का स्मरण और
कीर्तन करने में देश-कालादि का कोई भी नियम नहीं है। हे प्रभो! आपने तो अपनी कृ पा के कारण हमें भगवन्नाम के द्वारा
अत्यन्त ही सरलता से भगवत् प्राप्ति कर लेने में समर्थ बना दिया है, किन्तु मैं इतना दर्भा
ु ग्यशाली हूँ कि आपके ऐसे नाम में
भी मेरा अनरु ाग उत्पन्न न हो पाया।'
ਰੂਯ I ਧਿ g ਜੀਬੰ ਜ ਰਹਿਕ ਫਿਯੁi। SDBaaHGH aOBDDDD DuuLS S DD OuLS LLL SS

'स्वयं को मार्ग में पड़े हुए तृण से भी अधिक नीच मानकर, वृक्ष के समान सहनशील होकर, मिथ्या मान
की भावना से सर्वथा शन्ू य रहकर एवं दसू रों को सदा ही पर्णू मान देने वाला होकर ही सदा श्रीहरिनाम का कीर्तन
विनम्र भाव से करना चाहिए।'
ਜ ਜੀਜ ਜੀਜ ਕੀ ਕਿ ਕ 7 ਫੀਲ ਕ IH ਗੇ। H ਸ ਜਿ ਜਿ8 ਮਕ i ਮਜ਼ਿਫ਼ੇਰਕ
ੁ ਸੀ ਬਹਿ ॥੪॥

'हे सर्वसमर्थ जगदीश! मझु े धन एकत्र करने की कोई कामना नहीं है, न मैं अनयु ायियों, सन्ु दर स्त्री अथवा
सालंकार कविता का ही इच्छुक हू।ँ मेरी तो एकमात्र कामना यही है कि जन्म-जन्मान्तर में आपकी अहैतक ु ी भक्ति
बनी रहे।"

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

ਹਿ ਜਰੂ ਕਿਕ ਧਰੇ ਸ. ਕਿਸੇ ਮਕ দুগ্ধ ৰখা নল


গাৱলঃসলিণ্ডনাণ্ডুলীনকুস্যা লিলিনাক্স II, II '
हे नन्दतनजु (कृ ष्ण) ! मैं तो आपका नित्य किंकर (दास) हूँ किन्तु किसी न किसी प्रकार से मैं जन्म-
मृत्यरू
ु पी सागर में गिर पड़ा हू।ँ कृ पया इस विषम मृत्यसु ागर से मेरा उद्धार कर अपने चरणकमल की धलि
ू का कण
बना लीजिए।'
লক্সন সাল বস্তুগুR ঙ্গা লালন স্বাক্ষা-জুলুঙ্গা শিৰা । DBDuDBBu
BmBS DBDBDB BuBuL aLLS uuD BmBmuBB L S
हे प्रभो! आपका नाम-कीर्तन करते हुए, कब मेरे नेत्र अविरल प्रेमाश्रओ
ु ं की धारा से विभषि
ू त होंगे? कब
आपके नाम-उच्चारण करने मात्र से ही मेरा कण्ठ गद्गद् वाक्यों से रुद्ध हो जाएगा और मेरा शरीर रोमांचित हो
उठे गा?'
স্ত্ৰণাম্বিন নিষ্ট্ৰ uা দুগ্ধলা সালুম্বাধিনম্। সুনতাজিন সন্মাদ শুনল নীলিন-
লিংক্টাu! # I ও ৷ '
हे गोविन्द! आपके विरह में मझु े एक निमेष काल (पलक लगने तक का समय) एक यगु के बराबर प्रतीत हो रहा
है। नेत्रों से मसू लाधार वर्षा के समान निरन्तर अश्रु प्रवाह हो रहा है तथा आपके विरह में मझु े समस्त जगत् शन्ू य ही दिख
पड़ता है।"
প্রালিস্য না ঘানােনা বিলুড় মা ਸਲਜਿਸਸਫਰ ਕਰੁਕ লুপ্ত নষ্টা লা নিবন্ধান্য
লক্ষনভী मत्प्र///न/् थस्तु स एव न//रः /8//
'एकमात्र श्रीकृ ष्ण के अतिरिक्त मेरे कोई प्राणनाथ हैं ही नहीं और वे मेरे लिए यथानरू
ु प बने ही रहेंगे, चाहे वे मेरा
गाढ़ आलिंगन करें अथवा दर्शन न देकर मझु े मर्माहत करें । वे लम्पट कुछ भी क्यों न करें , वे तो सभी कुछ करने में पर्णू
स्वतन्त्र हैं, क्योंकि श्रीकृ ष्ण मेरे नित्य, प्रतिबन्धरहित आराध्य प्राणेश्वर हैं।'

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भूमिका

S TuaDBBDB uDBuBDBDB uBDua mBuBuD DHaaBB Tu D DD BaaBuD Duu 'l ਕ % ਯੋਗ-

ਬ i ਸੂਰ ਮਲ੍ਹਈ ਭੂTH ਕਸੂਰ , ਕੇ ਕਬ I uu uBuBLuDu DuD Du u uuuLuGGB BD uDuD DD0S


S DBDB DDDDS
चैतन्य का अर्थ है चेतना (जीवनशक्ति) । चेतन जीव होने के कारण हम चल-फिर सकते हैं, किन्तु मेज नहीं चल
सकती, क्योंकि उसमें चेतना नहीं है। चलना और क्रिया करना चेतना का चिह्न माना जा सकता है। वास्तव में कहा जा
सकता है कि ‘चेतना के अभाव में कुछ भी क्रिया सम्भव नहीं है। प्रकृ ति के बन्धन में भी चेतन अमृत है। अत: चैतन्य-
चरितामृत का अर्थ है-चेतना का अमृतमय चरित्र।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

परन्तु यह चेतना शाश्वत रूप से कै से प्रकाशित हो सकती है? इसका प्रकाश ब्रह्माण्ड के मनष्ु य अथवा अन्य किसी
जीव द्वारा नित्य नहीं होता, क्योंकि इन देहों में हममें से कोई भी अमृत नहीं है। हम चेतनायक्त ु हैं, हम क्रिया करते हैं,
स्वभाव और स्वरूप से अमृत हैं, पर हम जिस बन्धन में हैं वह हमारे अमृतत्व को नित्य प्रकाशित नहीं होने देती है।
कठोपनिषद् में उल्लेख है कि हम और ईश्वर दोनों ही नित्य और चेतन हैं। यद्यपि यह सत्य है कि श्रीभगवान् के समान हम
भी नित्य हैं, किन्तु दोनों में एक भेद है। जीवात्मा होने के नाते हम नाना क्रियाएँ करते हैं, परन्तु हममें अपरा प्रकृ ति (माया)
में गिरने की प्रवृत्ति रहती है। श्रीभगवान् में ऐसा नहीं है। सर्व शक्तिमान् होने के रूप में वे अपरा प्रकृ ति के अधीन कभी नहीं
होते। वस्ततु : अपरा प्रकृ ति तो उनकी अचिन्त्य शक्तियों की अभिव्यक्ति मात्र है।
भमिू से आकाश में देखने पर हमें के वल मेघ दिखते हैं, किन्तु मेघों से ऊपर उड़ने पर प्रकाशवान् सर्यू को देखा जा
सकता है। दसू री ओर आकाश से गगनचम्ु बी भवन और नगर बहुत नन्हें से लगते हैं। उसी प्रकार श्रीभगवान् की दृष्टि में यह
सम्पर्णू प्राकृ त सृष्टि नगण्य है। बद्धजीव की प्रवृत्ति उस ऊँची स्थिति से नीचे गिरने की है, जहाँ सब कुछ तत्व से देखा जा
सकता है। श्रीभगवान् में ऐसी नहीं है। श्रीभगवान् का माया में गिरना उसी प्रकार सम्भव नहीं, जैसे बादलों से सर्यू का
ढँकना। परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण नित्यमक्त ु हैं, क्योंकि वे कभी माया मोहित नहीं हो सकते। हम अणु आत्माओ ं पर
माया का अधिकार हो सकता है, इसलिए हम बद्ध हैं। निराकारवादी (मायावादी) दार्शनिकों का कहना है कि प्राकृ त जगत्
में आने पर जीव के समान भगवान् भी मायावश हो जाते हैं। जीव के सम्बन्ध में तो यह सत्य हो सकता है , पर भगवान् के
लिए नहीं, क्योंकि प्रत्येक अवस्था में अपरा प्रकृ ति उन्हीं की अधीनता में कार्य करती है। परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण को
भी भवबन्धन के अधीन समझने वालों को भगवद्गीता में स्वयं श्रीकृ ष्ण ने 'मढ़ू ' कहा है :
ଓ faithft |Hi ମୁଖ t Higit fightf ଔ dR | प्ररं भ्र/वमज/नन्तो मम भतू महेश्वरम् //
'जब मैं मनष्ु य के रूप में अवतीर्ण होता हू,ँ मढ़ू मेरी अवहेलना करते हैं। उन्हें मेरे परम भाव एवं समस्त सृष्टि के
ऊपर मेरी ईश्वरता का ज्ञान नहीं है।" (भगवद्गीता 9.11)
हमें श्री चैतन्य महाप्रभु को अपने समान नहीं समझना चाहिए। वे परम चेतन स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं, इस कारण माया के
अधीन कभी नहीं होते। श्रीकृ ष्ण, उनके अश ं तथा उनके उत्तम भक्त तक कभी माया-मोहित नहीं हो सकते। श्री चैतन्य
महाप्रभु कृ ष्णप्रेम का प्रचार करने को भी अवतीर्ण हुए थे। भाव यह कि जीवों को कृ ष्णप्राप्ति की सच्ची पद्धति की शिक्षा
प्रदान करने वाले वे स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं। वे एक अध्यापक की भमि ू का में हैं। विद्यार्थी को सिखाने के लिए अध्यापक स्वयं
लेखनी से लिखता हुआ कहता है, 'ऐसे लिखो, ख, ग।" इससे मर्ख ू तावश यह नहीं समझना चाहिए कि अध्यापक लिखना
सीख रहा है। वे भक्त रूप से अवतीर्ण अवश्य हुए हैं, पर यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि श्रीकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभ,ु
कृ ष्णभावनाभावित होने की शिक्षा देने वाले साक्षात् भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं। इसी दृष्टि से उन्हें समझना चाहिए।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवद्गीता में कृ ष्ण सर्वोच्च धर्म की स्थापना इस प्रकार करते हैं :


स्वधम/् f न्यृf रत्यज्य #/ोकं श्रयः/ व्रज/् / 3 | I ਗੀ ਸੀਰਿl ਸਿ ਸਬ: ॥
'सब प्रकार के धर्मों को त्यागकर एक मात्र मेरी शरण में आ जाओ। मैं तम्ु हें सम्पर्णू पापों से मक्त
ु कर दगँू ा। तमु भय
मत करो।" (भगवद्गीता 1866)
यह शिक्षा देखने में सरल लग सकती है, परन्तु आचरण के समय प्राय: हमारी प्रतिक्रिया होती है, 'ओह,
शरणागति? त्याग? परन्तु मेरे इतने सारे कर्तव्य हैं।' माया मिसे कहती हैं, 'ऐसा मत करना, नहीं तो तमु मेरे बन्धन से मक्त ु हो
जाओगे। मेरे पास ही रहो और मेरी लातें खाओ।" यह सच है कि हम निरन्तर माया की लातें खा रहे हैं, ठीक उसी प्रकार
जैसे मैथनु के लिए गधी के पास जाने पर गधे के मख ु पर लात पड़ती है। इसी भाँति मैथनु करते समय कुत्ते -बिल्ली भी
निरन्तर लड़ते और झगड़ते हैं। यह सब प्रकृ ति का छल है। एक बड़ा हाथी तक वन में शिक्षित हथिनी की सहायता से गड़े
में गिराकर पकड़ा जाता है। माया की अनेक क्रियाएँ हैं, जिनमें से प्राकृ त जगत् में सबसे कड़ा पाश स्त्री है। अवश्य ही देखा
जाय तो वास्तव में हम स्त्री अथवा परुु ष नहीं हैं; ये तो के वल देहरूपी बाहरी वस्त्र के सम्बोधन हैं। सच में तो हम सभी
कृ ष्णदास हैं। परन्तु बद्ध अवस्था में, सन्ु दर स्त्री रूपी लौहपाश में हम सब बँध जाते हैं। इस प्रकार जीवमात्र कामवासना में
बँधा है। अत: प्राकृ त बन्धन से मक्ति ु के लिए प्रयत्न करने पर सबसे पहले काम-विकार को जीतना है। अनियन्त्रित काम
जीव को परू ी तरह मायाबद्ध कर देता है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने औपचारिक रूप से इस माया का परित्याग के वल चौबीस
वर्ष की अवस्था में कर दिया था, जबकि उनकी पत्नी सोलह वर्ष की थीं तथा माता सत्तर वर्षीय थीं एवं परिवार के
एकमात्र परुु ष वे ही थे। सामान्य ब्राह्मण होने पर भी उन्होंने संन्यास ग्रहण कर पारिवारिक बन्धन से अपने को मक्त ु कर
दिया।
यदि पर्णू रूप में कृ ष्णभावनाभावित हो जाने की इच्छा हो, तो माया बन्धन को छोड़ना होगा। परन्तु यदि माया के
संसर्ग में रहना ही पड़े, तो इस प्रकार रहना चाहिए की माया मोहित न कर सके । परिवार का त्याग अनिवार्य नही हैं; श्री
चैतन्य के अन्तरंग भत्तों में बहुत से गृहस्थ थे। वास्तव में त्याग तो करना है विषय भोग की रुचि का। श्रीमन् महाप्रभु
गौरसन्ु दर ने गृहस्थाश्रम में नियन्त्रित काम की छूट दी है, परन्तु संन्यासियों के सम्बन्ध में वे अत्यंत दृढ़ नियमी थे। एक स्त्री
से के वल बात करने पर उन्होंने छोटे हरिदास को निर्वासित कर दिया। तात्पर्य यह है कि किसी एक मार्ग को ग्रहण करके
दृढ़तापर्वू क उसका सेवन करना चाहिए, साथ ही भक्ति की सफलता के लिये सभी आवश्यक नियमों का पालन करना
चाहिए। सारी जनता को कृ ष्णभक्ति के मार्ग की शिक्षा प्रदान कर अध्यात्मामृत प्राप्त कराना श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु का
प्रयोजन है।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

श्री चैतन्य-चरितामृत से हमें, श्री चैतन्य ने लोगों को अमृतत्व प्राप्त करने के लिए जो शिक्षा दी है, उसका ज्ञान
होता है। अत: शीर्षक का ठीक-ठीक अर्थ हुआ 'चेतना का अमृतत्व।' भगवान् श्रीकृ ष्ण परम चैतन्य हैं। वे परम परुु ष हैं।
चेतन जीवात्मा असंख्य हैं और उनमें से प्रत्येक का निज-निज स्वरूप है। यह इस बात से सगु मतापर्वू क समझा जा सकता
है कि हम सभी विचार करने और इच्छा करने में स्वतन्त्र हैं। परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण का भी अपना स्वरूप है। वे जीवों
से भिन्न हैं। सबके अग्रणी और अतल ु नीय हैं । प्रत्येक जीवात्मा दसू री जीवात्मा से किसी न किसी प्रकार श्रेष्ठ हो सकती
है। जीवों के समान भगवान् का भी निजी स्वरूप है, परन्तु यह भेद है कि परम चेतन परुु ष हैं। भगवद्गीता में भगवान् को
अच्यतु कहा है, अर्थात उनका कभी पतन नहीं होता। यह इसी बात से स्पष्ट ही जाता है कि भगवद्गीता में अर्जुन मोहित हो
गये, पर श्रीकृ ष्ण मोहित नहीं हुए । हम प्राय: सनु ते हैं कि भगवान् अच्यतु हैं और गीता में स्वयं श्रीकृ ष्ण कहते हैं :
ਜਧੀ: ਫ਼ਲਯੁਗਨਿ / Th সুত্ৰঞ্জ দুৰ্ন স্ট্রনি। H নুল্লাল জীতাঞ্জাবস্থান ৷
‘जब कोई यह अच्छी तरह जान लेता है कि समस्त कार्यों में प्रकृ ति के तीनों गणु ों के अतिरिक्त अन्य कोई कर्ता
नहीं है और जब वह परमेश्वर को जान लेता है, जो इन तीनों गणु ों से परे है, तो वह मेरे दिव्य स्वभाव को प्राप्त होता है।"
(भगवद्गीता 1419)
अत: हमें यह नहीं समझना चाहिए कि प्राकृ त जगत् में अवतीर्ण होने पर श्रीकृ ष्ण अपनी मायाशक्ति के आधीन हो
जाते हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण और उनके अवतार माया के आधीन नहीं हैं। वे पर्णू रूप से स्वाराट (स्वाधीन) हैं। श्रीमद्भागवत में
तो दैवी प्रकृ ति वालों को प्रकृ ति में स्थित होने पर भी प्राकृ त गणु ों से परे कहा गया है। यदि भक्त को यह स्वतन्त्रता मिल
सकती है, फिर परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के सम्बन्ध में तो कहना ही क्या है?
वास्तविक प्रश्न यह है कि प्राकृ त जगत् में रहते हुए भी हम प्राकृ त विकारों से मक्त ु कै से रह सकते हैं। श्री रूप
गोस्वामी के अनसु ार श्रीकृ ष्ण की सेवा को ही अपनी अनन्य अभिलाषा बनाने से जगत् में विकार मक्त ु रहा जा सकता है।
इस पर जिज्ञासा होती है, 'मैं सेवा किस प्रकार कर सकता हू?ँ " स्पष्ट है कि यह ध्यान रूपी मानसिक क्रिया का विषय नहीं,
वरन् आचरण का विषय है। श्रीकृ ष्ण सेवा में अनरु ाग श्रीकृ ष्ण की सेवा करने से ही होता है। ऐसी सेवा में समचू े पदार्थों का
उपयोग करना चाहिए। जो कुछ भी है, भी कुछ हमारा है, वह सब श्रीकृ ष्ण सेवा में लगना चाहिए। इस प्रकार टंकण यंत्र
(टाईपराइटर), वाहन, वायमु ान, अस्त्र आदि सब पदार्थों का सदपु योग किया जा सकता है। लोगों से श्रीकृ ष्ण भक्ति की
चर्चा करना भी एक प्रकार की सेवा है। इस विधि से यदि हमारे मन, इन्द्रि ं याँ, वाणी, धन और सारी शक्ति श्रीकृ ष्ण सेवा में
संलग्न हैं तो फिर हमारी स्थिति प्राकृ त जगत् में नहीं है। कृ ष्णभावनामृत की महिमा से हम माया के परे हो जाते हैं। यह
तथ्य है कि श्रीकृ ष्ण, उनके अश ं और उनके सेवक भक्त माया में स्थित नहीं हैं, यद्यपि अल्पज्ञ लोग उन्हें ऐसा समझते हैं।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

श्री चैतन्य-चरितामृत से हमें शिक्षा मिलती है कि आत्मा अमृत है तथा वैकुण्ठ जगत् में उसकी क्रियाएँ भी अमृत
होती हैं। परतत्व को निर्विशेष तथा निराकार माननेवाले मायावादी कहते हैं कि आत्मज्ञानी जीव के लिए बोलना
अनावश्यक है। किन्तु कृ ष्णभक्त वैष्णवों के मतानसु ार भगवत्प्राप्ति हो जाने पर ही यथार्थ बोलना प्रारम्भ होता है। वैष्णव
कहते हैं, 'पर्वू में हम के वल निरर्थक बोलते थे। अत: अब यथार्थ चर्चा कृ ष्णकथा करें ।' मायावादियों को घट (घड़े) का
उदाहरण बड़ा प्रिय है। उसके आधार पर वे कहते हैं कि जल से भरा न होने पर पात्र ध्वनि करता है, जबकि जल से भर
जाने पर कोई ध्वनि नहीं करता। किन्तु क्या हम जलपात्र हैं? उनसे हमारी तल ु ना कै से हो सकती है। उत्तम उपमा वही मानी
जाती है, जिसमें दोनों पदार्थों की अधिक से अधिक समानताएँ हों। जलपात्र हमारे समान क्रियाशील चेतन नहीं है। नित्य
मौन यान जलपात्र के लिये उपयक्त ु हो सकता है, पर हमारे लिये नहीं। वास्तव में भगवत् प्राप्त भक्त को श्रीकृ ष्ण विषयक
इतना अधिक कहना होता है कि चौबीस घण्टे परू े नहीं पड़ते। मढ़ू लोग ही न बोलने तक पजि ू त होते हैं , मौन भंग होते ही
उनकी अल्पज्ञता प्रकट हो जाती है। श्री चैतन्य-चरितामृत दिखाता है कि परतत्व श्रीकृ ष्ण के कीर्तन से अनेक अद्भुत
उपलब्धियाँ होती हैं।
श्री चैतन्य-चरितामृत के प्रारम्भ में कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी ने लिखा है, 'मैं अपने गरुु ओ ं की वन्दना करता हू।ँ '
गरुु -परम्परा को व्यक्त करने के लिए उन्होंने बहुवचन का प्रयोग किया। उन्होंने अपने ही सद्गरुु को नहीं, अपितु श्रीकृ ष्ण से
प्रारम्भ हुई सम्पर्णू शिष्य-परम्परा को प्रणाम किया। सारे वैष्णवों के प्रति लेखक के परम आदरभाव को प्रकट करने के
लिए गरुु का निर्देश बहुवचन में है। गरुु -परम्परा की वन्दना के उपरान्त लेखक अन्य सब भक्तों, गरुु भाइयों, भगवत् अश ं ों
तथा श्रीकृ ष्ण शक्ति के प्रथम प्रकाश की वन्दना करते हैं। श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु इन सबके मर्तू रूप हैं। वे भगवान्
श्रीकृ ष्ण, गरुु , भक्त और भगवत् अवतार हैं। अपने पार्षद श्री नित्यानन्द प्रभु के रूप में वे प्रथम शक्ति प्रकाश हैं; श्री अद्वैत
प्रभु के रूप में अवतार हैं, श्री गदाधर के रूप में अन्तरंग शक्ति हैं, तथा श्रीवास के रूप में तटस्थ जीव हैं। अत: श्रीकृ ष्ण को
अके ला न समझकर श्री रामानजु ाचार्य के वर्णन के अनसु ार अपने प्रकाशों सहित नित्य विद्यमान जानना चाहिए।
विशिष्टाद्वैत दर्शन में भगवदश् क्ति, भगवत अवतार तथा भगवत् अश ं में भेद अभेद है। अर्थात, श्रीकृ ष्ण भगवान् इन सबसे
भिन्न नहीं हैं। सब तत्व समवेत रूप में भगवान् हैं।
वास्तव में श्री चैतन्य-चरितामृत आरम्भकर्ताओ ं के लिए नहीं है। यह तो भागवत धर्म का स्नातकोत्तर ग्रन्थ है।
आदर्शरूप में, भगवद्गीता से आरम्भ होकर श्रीमद्भागवतम् में प्रगति करके ही श्री चैतन्य-चरितामृत का आस्वादन करना
चाहिए। यद्यपि ये सभी महान ग्रन्थ समान अद्वय स्तर पर हैं, फिर भी तल ु नात्मक अध्ययन की दृष्टि से श्री चतन्य-चरितामृत
सर्वोच्च है। उसका एक-एक छन्द संसिद्ध (पर्णू ) है। वहाँ श्री गौरसन्ु दर चैतन्य देव और श्री नित्यानन्द प्रभु को सर्यू -चन्द्रमा
की उपमा दी गई है, वे प्राकृ त जगत् के अन्धकार का विनाश करते हैं। इस समय सर्यू -चन्द्रमा का एक साथ उदय हुआ है।
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु और श्री नित्यानन्द प्रभु की एक साथ वन्दना करनी चाहिए।
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

सकती है, 'कृ ष्ण चैतन्य कौन हैं?' इस जिज्ञासा के उत्तर में शास्त्रीय निष्कर्ष है कि वे स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं।
सामान्यत: उपनिषदों में भगवान् के निराकार पक्ष का विवरण है, किन्तु साकार श्रीविग्रह का ईशोपनिषद् में वर्णन है।
सर्वव्यापक के वर्णन के
ਫਿਯਸ਼ਜ II ਯੋਧ ਦ I ਧਿਰਿ ਯੁਝ तत् त्वे पषू न्नाग/् /वृणु सत्यध#f य द्रृष्टयोः//
'हे सर्वपालक प्रभो! आपका यथार्थ मख ु आपके देदीप्यमान् प्रकाश से ढँका हुआ है। कृ पया उस आवरण को दरू
करके शद्ध ु भक्तों को अपना दर्शन दीजिए!' ( श्री ट्ठलोपनिषद, मन्त्र 15)
निर्विशेषवादियों में इतना सामथ्र्य नहीं कि ब्रह्मज्योति का अतिक्रमण करके इस ज्योति के स्रोत, श्रीभगवान् को
प्राप्त करे । परन्तु ईशोपनिषद् के अन्त में एक श्लोक में श्रीभगवान् का वर्णन है। वहाँ निर्विशेष ब्रह्म का वर्णन है। ब्रह्म को तो
श्री चैतन्य के श्रीविग्रह का देदीप्यमान प्रकाश समझना चाहिए। भाव यह है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभु, ब्रह्म की
प्रतिष्ठा हैं। भगवद्गीता में श्रीकृ ष्ण का भी कथन है कि वे ब्रह्म के आश्रय हैं। (ब्रह्मयो प्रतिष्ठाहस,ू भगवद्गीता 14.27) । जीव
मात्र के हृदय में तथा ब्रह्माण्ड के प्रत्येक परमाणु में स्थित परमात्मा, श्री चैतन्य का आशि ं क प्रकाश है। अत: श्रीकृ ष्ण
चैतन्य, ब्रह्म तथा भगवत तत्व की भी प्रतिष्ठा हैं। परतत्व होने के कारण वे श्री, यश, वीर्य, रूप, ज्ञान और त्याग, इन छ:
ऐश्वर्यों से पर्णू हैं। संक्षेपत: वे स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं, उनके समान अथवा उनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। उनसे श्रेष्ठ परतत्व
की कल्पना भी सम्भव नहीं; वही परम ईश्वर हैं।
अन्तरंग भत श्री रूप गोस्वामी ने, जिन्हें श्री चैतन्य महाप्रभु से दस दिवस तक शिक्षा मिली, लिखा है :
Tզ ԿՅ|dd|rd||| 3 ՍլիվԿdIզ à | ਕੂBI BI ਜ਼ੋਰ ਜਜੇ ਕਿ ਜਸ: ॥
'परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभु श्रीकृ ष्ण सहित अन्य सब अवतारों से विशिष्ट महादाता हैं, क्योंकि वे उस
कृ ष्णप्रेम का सर्वत्र मक्त
ु हस्त से वितरण कर रहे हैं, जैसा कभी किसी ने नहीं किया। मैं उन्हें श्रद्धापर्वू क प्रणाम करता हू।ँ '
श्री चैतन्य महाप्रभु भगवत्प्राप्ति के किसी लम्बे और विस्तृत मार्ग का उपदेश नहीं करते। उनकी शिक्षा पर्णू त:
पारमार्थिक है और उसका आरम्भ श्रीकृ ष्ण के चरणों में शरणागति से होता है। वे कर्मयोग, ज्ञानयोग अथवा हठयोग का
वर्णन नहीं करते; उनकी शिक्षा का प्रारम्भ प्राकृ त जीवन के अन्त, अर्थात् सम्पर्णू प्राकृ त विषय आसक्ति का त्याग कर देने
पर होता है। भगवद्गीता में श्रीकृ ष्ण ने अपनी शिक्षा देह और आत्मा में भेद से प्रारम्भ की है और अठारहवें अध्याय में जीव
को भक्तिपर्वू क अपने शरणागत हो जाने के उपदेश से समाप्त की है। मायावादी तो वही सारी वार्ता समाप्त कर देते , किन्तु
वास्तव में उस स्तर पर तो यथार्थ वार्ता का प्रारम्भ ही होता है। वेदान्तसत्रू का आरम्भ है : अथातो ब्रह्म जिज्ञासा, 'अब

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

परतत्व विषयक जिज्ञासा करनी चाहिए।' श्री रूप गोस्वामी ने श्रीकृ ष्ण, चैतन्य को महावदान्त अवतार कहकर उनकी
स्ततिु की है, क्योंकि सर्वोत्तम भक्ति का निर्देश करके वे जीव को महादान कर रहे हैं।
वस्ततु : भगवान् में आस्था रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति भक्ति में स्थित है। भगवान् की महानता को स्वीकार करना
कोई बहुत बड़ी बात नहीं। आचार्य के रूप में श्री चैतन्य ने हमें शिक्षा दी कि श्रीकृ ष्ण से सम्बन्ध स्थापित कर हम वास्तव
में उनके मित्र बन सकते हैं। भगवद्गीता में श्रीकृ ष्ण ने अर्जुन को अपने विश्वरूप का दर्शन कराया, क्योंकि अर्जुन उनके
अतिप्रिय मित्र थे। श्रीकृ ष्ण के उस विश्वरूप का दर्शन कर अर्जुन श्रीकृ ष्ण से मैत्रीजन्य प्रमादि के लिए क्षमा याचना करने
लगे थे। श्री चैतन्य हमें इससे आगे ले जाते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभ ु की शिक्षा के माध्यम से हम श्रीकृ ष्ण के मित्र बन सकते
हैं। यह ऐसी मैत्री है, जिसकी कोई सीमा नहीं। गौरवबद्धि ु के बिना श्रीकृ ष्ण की शद्ध ु मैत्री भी हम प्राप्त कर सकते हैं, यहाँ
तक कि उनके पिता बन सकते हैं। यह श्री चैतन्य-चरितामृत ही का नहीं, अपितु श्रीमद्भागवत का भी सिद्धान्त है। संसार के
किसी अन्य साहित्य में भक्त द्वारा भगवान् के साथ पत्रु वत् व्यवहार नहीं मिलता। प्राय: भगवान् को पत्रु ों की इच्छाओ ं को
परू ा करने वाला सर्वसमर्थ पिता समझा जाता है। किन्तु महाभागवत कभीकभी भक्तियोग में भगवान् से पत्रु वत् व्यवहार भी
करते हैं। पत्रु कुछ चाहता है और पिता उसकी पर्ति ू करता है। श्रीकृ ष्ण की सेवा में भक्त पिता बन जाता है। इसी वात्सल्य
रस में श्रीकृ ष्ण जननी यशोदा ने उनसे कहा, 'बेटा, यह भोजन कर ले, नहीं तो तू जीवित नहीं रहेगा। अच्छी प्रकार से
भोजन कर।' इस प्रकार, सर्वेश्वर होने पर भी श्रीकृ ष्ण भक्त कृ पाश्रित हैं। मैत्री के इस अद्वितीय श्रेष्ठ स्तर पर भक्त अपने को
श्रीकृ ष्ण का पिता मानता है।
श्री चैतन्य का परम दान तो उनकी यह शिक्षा ही है कि श्रीकृ ष्ण में प्रियतम भाव भी किया जा सकता है। भगवान्
की इस रस में इतनी आसक्ति है कि वे इसका विनियम करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हैं। श्रीकृ ष्ण व्रजगोपियों के
इतने ऋणी हो गये थे कि प्रेम-विनिमय में उन्हें अपनी हार प्रतीत हुई। 'तम्ु हारे प्रेम का विनिमय करने में मैं समर्थ नहीं हूँ,"
उन्होंने कहा, 'मैं तम्ु हारा ऋण-विमोचन नहीं कर सकता।” इस प्रकार भक्तियोग का आचरण परमश्रेष्ठ स्तर पर है। श्रीकृ ष्ण
और भत के प्रेमी-प्रियतम रस का यही ज्ञान श्री चैतन्य महाप्रभु ने प्रदान किया है। उनसे पर्वू किसी भी अवतार अथवा
आचार्य ने यह शिक्षा नहीं दी थी। अत: श्री चैतन्य-चरितामृत में श्री चैतन्य के सम्बन्ध में कहा गया है : 'अपने भक्ति का
परमोच्च स्तर प्रदान किया है। हे शचीनन्दन ! आप गौरवर्ण कृ ष्ण हैं। श्री चैतन्य-चरितामृत के श्रोता आपको हृदय में
विराजित करें गे। आपके माध्यम से श्रीकृ ष्ण का ज्ञान सगु म होगा।' इस प्रकार श्री चैतन्य महाप्रभु श्रीकृ ष्ण का दान करने को
अवतीर्ण हुए थे। उनकी पद्धति ध्यान, सकाम कर्म अथवा स्वाध्याय की नहीं, अपितु प्रेम की थी।
हमने बहुधा सनु ा है : 'भगवत्प्रेम'। इस भगवत्प्रेम का विकास किस सीमा तक हो सकता है, इसकी शिक्षा वैष्णव
दर्शन से प्राप्त होती है। भगवत्प्रेम का पस्ु तकीय ज्ञान तो अनेक स्थलों और शास्त्रों में उपलब्ध है; पर उसका वास्तविक

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

स्वरूप क्या है और उसके विकास की पद्धति क्या है, यह सब उल्लेख वैष्णव ग्रन्थों में ही है। श्री चैतन्य महाप्रभ ु ने
मानवता को अद्वितीय और परमोच्च भगवत्प्रेम का दान किया है।
इस प्राकृ त जगत् में भी प्रेम का कुछ-कुछ आभास-सा होता है। यह कै से है? इसका कारण भी भगवान् में होने
वाला प्रेम ही है। इस बद्ध जीवन में हमें जो कुछ अनभु व है, वह सब सम्पर्णू वस्तओ ु ं के मल ू परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण में स्थित
है। परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण से हमारे मल ू सम्बन्ध में यथार्थ प्रेम है; वही प्रेम प्राकृ त स्थितियों में विकृ त रूप से प्रतिबिम्बित होता
है। हमारा वास्तविक प्रेम अप्रतिहत और नित्य है, किन्तु प्राकृ त जगत् में विकृ तिपर्वू क प्रतिबिम्बित होने के कारण वह
प्रतिहत और दषि ू त हो जाता है। यदि हमें यथार्थ दिव्य प्रेम की वांछा हो तो अपना प्रेम परम प्रेमपात्र स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण
की ओर मोड़ना होगा। यह कृ ष्णभावनामृत का प्रधान सिद्धान्त है।
देहात्मबद्धि
ु में हम सबसे प्रेम करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जो कदापि प्रेमपात्र नहीं है। हम कुत्ते-बिल्लियों से प्रेम
करते हैं, जिससे यह भय बना रहता है कि मृत्यक ु ाल में उन्हीं के चिन्तन से कुत्ते-बिल्ली के परिवार में हमारा जन्म हो। अत:
श्रीकृ ष्ण के अतिरिक्त अन्य विषयक प्रेम अध:पतन का कारण बनता है। यह सत्य नहीं कि श्रीकृ ष्ण कोई दर्बो ु ध तत्व हैं
अथवा उनकी प्राप्ति कुछे क गिने-चनु े लोगों के लिए ही है। श्री चैतन्य महाप्रभु सचि ू त करते हैं कि प्रत्येक देश और शास्त्र में
भगवत्प्रेम का सक ं े त है। किन्तु दर्भा
ु ग्यवश, कोई नहीं जानता कि भगवत्प्रेम यथार्थ में क्या वस्तु है? पर वैदिक शास्त्रों की
यह विशिष्टता है कि वे जीव मात्र को भगवत्प्रेम के मार्ग में भलीभाँति निर्देश करते हैं। अन्य शास्त्र प्रेमप्राप्ति की पद्धति तथा
भगवतत्व का वर्णन नहीं करते। औपचारिक रूप में वे भगवत्प्रेम का प्रचार तो करते हैं, परन्तु उसकी यथार्थ पद्धति का
उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं है। श्री चैतन्य महाप्रभ ु ने माधर्यु भाव में श्रीभगवान् से प्रेम का व्यावहारिक प्रदर्शन किया है। उन्होंने
श्रीमती राधारानी का भाव स्वीकार कर राधारानी की ही भाँति श्रीकृ ष्ण से प्रेम किया। श्रीमती राधारानी के प्रेम से श्रीकृ ष्ण
सदा विस्मित रहते थे। 'श्रीमती राधारानी मझु े इतने आनन्द रस का आस्वादन कै से कराती हैं?" उनकी यह नित्य की
जिज्ञासा थी। श्रीराधारानी के भाव को समझने के लिये श्रीकृ ष्ण ने उनका भाव अगं ीकार कर स्वयं अपना आस्वादन किया।
यही तन्य महाप्रभु के अवतार का अन्तरंग प्रयोजन है। श्री चैतन्य स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं, किन्तु श्रीकृ ष्ण से प्रेम की पद्धति को
प्रकट करने के लिए उन्होंने राधाभाव स्वीकार किया है। अत: उनके चरणों में प्रार्थना की जाती है : 'मैं श्रीराधाभावभावित
श्रीकृ ष्ण की वन्दना करता हू।ँ '
इस पर जिज्ञासा होती है कि श्रीराधा और श्रीराधा-कृ ष्ण का तत्व वस्ततु : क्या है? वास्तव में श्रीराधा-कृ ष्ण प्रेम
रस विनिमय हैं। यह प्राकृ त प्रेम नहीं है। श्रीकृ ष्ण की अनन्त शक्तियों में तीन प्रधान हैं : अन्तरंगा, बहिरंगा तथा तटस्था।
अन्तरंगा शक्ति त्रिविध है; संवित, ह्वादिनी तथा सन्धिनी। ह्वादिनी शक्ति आनन्ददायिनी है। यह आनन्दवांछा की शक्ति
अखिल जीवों में है, क्योंकि सभी आनन्द के अभिलाषी हैं। यह जीव का स्वभाव ही है। वर्तमान प्राकृ त स्थिति में हम देह
द्वारा अपनी ह्वादिनी शक्ति के आस्वादन का प्रयत्न कर रहे हैं, अर्थात देह और विषयों के संग के द्वारा विषयों से आनन्द
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

प्राप्ति के लिए प्रयत्न कर रहे हैं। किन्तु हमें यह नहीं समझना चाहिए कि सच्चिदानन्दघन श्रीकृ ष्ण भी हमारे समान इस
प्राकृ त स्तर पर आनन्दास्वादन करते हैं। श्रीकृ ष्ण ने प्राकृ त जगत् को नश्वर और द:ु खालय कहा है, अत: प्राकृ त देह में वे
आनन्द की वांछा क्यों करें गे? वे परमात्मा हैं, उनका आनन्दास्वादन देहात्मबद्धि ु से बिल्कुल परे है।
श्रीकृ ष्णरसामृत की प्राप्ति की पद्धति जानने के लिए हमें श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध का अध्ययन करना चाहिए।
वहाँ वर्णित श्रीमती राधारानी और व्रजगोपियों सहित श्रीकृ ष्ण की लीला में, श्रीकृ ष्ण की ह्वादिनी शक्ति का प्रदर्शन है।
दर्भा
ु ग्यवश, अल्पज्ञ मनष्ु य दशम स्कन्ध में वर्णित श्रीकृ ष्ण लीला पर सीधे पहुचँ जाते हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण द्वारा श्रीमती
राधारानी को आलिंगन करने अथवा गोपियों के साथ नृत्य करने को प्राय: सामान्य लोग नहीं समझ पाते, वे इन लीलाओ ं
को प्राकृ त काम के रूप में लेते हैं और भ्रमपर्वू क समझते हैं कि श्रीकृ ष्ण उनके ही समान हैं तथा गोपियों का आलिंगन
श्रीकृ ष्ण उसी प्रकार करते हैं जैसे साधारण मनष्ु य किसी यवु ती का। कुछ लोगों की तो श्रीकृ ष्ण में रुचि भी इसी कारण से
होती है, वे समझते हैं कि श्रीकृ ष्ण का धर्म काम का निषेध नहीं करता। यह वास्तव में कृ ष्णभक्ति नहीं, प्राकृ त सहजिया
(काम) है।
ऐसे भ्रमों से बचने के लिए हमें श्रीराधा-कृ ष्ण का यथार्थ तत्व समझना चाहिए। श्रीराधा-कृ ष्ण अपनी लीला को
श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रकट करते हैं। श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा शक्ति की ह्वादिनी सामथ्र्य का तत्व अत्यन्त गढ़ू है ;
श्रीकृ ष्ण को तत्व से जाने बिना उसे जानना सम्भव नहीं। श्रीकृ ष्ण इस प्राकृ त जगत् में लेश मात्र भी आनन्दास्वादन नहीं
करते, उनकी अपनी ह्वादिनी शक्ति है। जीव श्रीकृ ष्ण के भिन्न अश ं हैं, अत: वह ह्वादिनी जीवों में भी है। जीव अपरा प्रकृ ति
में उसे प्रदर्शित करने का प्रयत्न कर रहे हैं, जबकि श्रीकृ ष्ण ऐसा निष्फल प्रयास नहीं करते। भगवान् श्रीकृ ष्ण की ह्वादिनी
का विषय श्रीमती राधारानी हैं। वस्ततु : अपनी शक्ति को श्रीमती राधारानी के रूप में प्रकट करके वे उनसे प्रेम-विलास
करते हैं। अर्थात् श्रीकृ ष्ण इस बहिरंगा शक्ति में आनन्दास्वादन नहीं करते, अपितु अपनी अन्तरंगा ह्वादिनी शक्ति को
श्रीमती राधारानी के रूप में प्रकट करते हैं। भाव यह है कि अपनी अन्तरंगा ह्वादिनी शक्ति को प्रकट करने के लिए श्रीकृ ष्ण
श्रीमती राधारानी के रूप में प्रकट होते हैं। श्रीकृ ष्ण के सब प्रकाश, अश ं तथा अवतारों में यह ह्वादिनी शक्ति सर्वोत्तम और
सर्वप्रधान है।
श्रीराधारानी श्रीकृ ष्ण से भिन्न नहीं हैं। श्रीराधारानी स्वयं श्रीकृ ष्ण ही हैं, क्योंकि शक्ति-शक्तिमान् में भेद नहीं होता।
शक्ति के अभाव में शक्तिमान् का कोई अर्थ नहीं तथा शक्तिमान् से रहित शक्ति सम्भव ही नहीं। इसी प्रकार, श्रीराधा के
बिना श्रीकृ ष्ण का कोई अर्थ नहीं तथा कृ ष्णरहित राधा भी निरर्थक हैं। अतएव वैष्णव दर्शन सर्वप्रथम परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण
का ह्वादिनी और शक्ति की वन्दना-आराधना करता है। इसीलिए श्रीभगवान् और उनकी शक्ति को सदा 'राधा-कृ ष्ण'
सम्बोधित किया जाता है। ऐसे ही नारायणोपासक 'लक्ष्मीनारायण' कहकर प्रथम 'लक्ष्मी' नाम का उच्चारण करते हैं तथा

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रामोपासक पहले श्रीसीता नाम लेते हैं। इस प्रकार सीताराम, राधा-कृ ष्ण, लक्ष्मीनारायण-इन सबमें सर्वदा शक्ति का स्थान
पहले हैं।
श्रीराधा-कृ ष्ण एकतत्व हैं, जब भगवान् श्रीकृ ष्ण को आनन्दास्वादन की इच्छा होती है, तो स्वयं वे राधारूप से
प्रकट होते हैं। श्रीराधा-कृ ष्ण का दिव्य प्रेमविलास वास्तव में श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा ह्वादिनी शक्ति का कार्य है। यद्यपि
समझाने के लिए कहा गया है कि 'जब' श्रीकृ ष्ण की इच्छा होती है, पर उनके इच्छा-काल का निर्धारण हम नहीं कर
सकते। ऐसा हम इसीलिए कहते हैं कि बद्धजीवन में हमारी धारणा के अनसु ार सबका जन्म हुआ है, पर दिव्य जीवन
आदि-अन्त से रहित है। यह समझने के लिए कि श्रीराधा-कृ ष्ण अभिन्न हैं तथा समय-समय पर विभिन्न भी हो जाते हैं,
मन में स्वयं जिज्ञासा होती है 'कब'? आनन्दास्वादन की इच्छा होने पर श्रीकृ ष्ण स्वयं श्रीमती राधारानी के भिन्न विग्रह में
प्रकट हुए तथा श्रीमती राधारानी के माध्यम से अपने रसास्वादन की कामना होने पर श्रीमती राधारानी से एक हुए।
श्रीराधा-कृ ष्ण के उस एक रूप का नाम है श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभ।ु
भगवान् श्रीकृ ष्ण ने श्री चैतन्य महाप्रभु का रूप क्यों धारण किया? यह वर्णन किया गया है, कि श्रीकृ ष्ण को
श्रीराधारानी की प्रणय महिमा जानने की इच्छा थी। 'श्रीराधारानी मझु े इतना प्रेम क्यों करती हैं?' श्रीकृ ष्ण पँछू ने लगे। 'उनका
आर्क षण करने वाली मेरी अद्भुत मधरिु मा क्या है? तथा मेरे प्रति उनके प्रेम का यथार्थ स्वरूप क्या हैं?' 'परतत्वस्वरूप
श्रीकृ ष्ण का किसी के प्रेम से आकृ ष्ट होना आश्चर्यजनक है। हम दोषयक्त ु तथा अपर्णू हैं, इसीलिए किसी स्त्री अथवा परुु ष
के प्रेम की खोज करते हैं। स्त्री के प्रेम की शक्ति और आनन्द का परुु ष में अभाव है। इसी कारण परुु ष को स्त्री की वांछा है।
किन्तु आप्तकाम भगवान् श्रीकृ ष्ण के विषय में ऐसा नहीं है। अत: श्रीकृ ष्ण ने विस्मय व्यक्त किया : 'श्रीराधारानी के प्रति मैं
आकृ ष्ट क्यों होता हू?ँ तथा मेरे प्रेम में श्रीमती राधारानी का यथार्थ आस्वादन कै सा है?' उसी प्रेमरस के परम माधर्यु का
आस्वादन करने श्रीकृ ष्ण सिन्धु से चन्द्रमा की भाँति प्रकट हुए। चन्द्रमा समद्रु -मन्थन से प्रकट हुआ था। उसी प्रकार
श्रीराधा-कृ ष्ण के प्रेम विलास के मन्थन से श्रीमन् महाप्रभु चैतन्यचन्द्र प्रकट हुए। वास्तव में श्री चैतन्य महाप्रभु चन्द्रमा के
समान ही गौरवर्ण थे। यद्यपि यह आलंकारिक भाषा है, किन्तु इससे श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु के प्राकटय का तात्पर्य
स्पष्ट हो जाता है। उनके प्राकटय की सम्पर्णू महिमा का आगामी अध्यायों में वर्णन होगा।
श्री चैतन्य-चरितामृत में भगवान् के प्रकाशों का भी वर्णन है। श्री चैतन्य महाप्रभु की वन्दना के उपरान्त, कृ ष्णदास
कविराज श्री नित्यानन्द प्रभु की वन्दना करते हैं। उन्होंने महाविष्णु के स्रोत श्री संकर्षण को श्री नित्यानन्द का अश ं कहा है।
श्री बलराम श्रीकृ ष्ण के प्रथम प्रकाश हैं। उनसे क्रमश: श्री संकर्षण, श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध का प्राकटय होता है। इस
प्रकार अनेक प्रकाश हैं। ब्रह्मसहिता के प्रमाण के अनसु ार श्रीकृ ष्ण इन सबके आदिकारण हैं। वे उस आदि दीपक के समान
हैं, जिससे लाखों दीप जलते हैं। असंख्य दीपकों के प्रज्ज्वलित हो जाने पर भी आदि दीपक का अपना आदि स्वरूप बना

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रहता है। इस प्रकार श्रीकृ ष्ण विष्णतु त्व नामक अनेक अश ं ों में अपना प्राकटय करते हैं। भगवान् विष्णु बड़े दीपक हैं और
हम जीव छोटे-छोटे दीप हैं। तत्वत: ये सभी श्रीकृ ष्ण के अश ं हैं।
प्राकृ त ब्रह्माण्ड की सृष्टि का समय होने पर विष्णु भगवान् महाविष्णु रूप से प्रकट होते हैं। कारण समद्रु पर शयन
करते हुए इन श्रीमहाविष्णु के नासाछिद्रों से श्वास के साथ समस्त ब्रह्माण्ड बाहर प्रकट हुआ करते हैं। इस प्रकार महाविष्णु
तथा कारण समद्रु से प्रकट होकर सब ब्रह्माण्ड कारण समद्रु में तैरते हैं। इस सन्दर्भ में त्रिपाद-विस्तार करते समय अपने पैर
से ब्रह्माण्डावरण का भेदन करने वाले भगवान् श्री वामन की कथा है। उनके पदनिर्मित छिद्र के कारण समद्रु का जल
प्रवाहित होने लगा। कहा जाता है वही जलप्रवाह गंगा कहलाया। अत: परम पवित्र विष्णजु ल के रूप में गंगा की मान्यता
है तथा हिमालय से बंगालदेश तक समस्त हिन्दओ ु ं द्वारा वह पजि ू त है।
कारणाब्धिशायी महाविष्णु वास्तव में भगवान् श्रीकृ ष्ण के प्रथम प्रकाश तथा वृन्दावन लीला में श्रीकृ ष्ण के बड़े
भाई श्री बलराम के अश ं हैं। महामन्त्र हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्य हरे हरे /हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे । में 'राम' शब्द
श्री बलराम का सचू क है। श्री नित्यानन्द श्री बलराम के प्रकाश हैं। अत: 'राम' शब्द से उनका भी निर्देश है। इस प्रकार हरे
कृ ष्ण, हरे रास श्रीकृ ष्ण बलराम का ही नहीं, अपितु श्री चैतन्य-नित्यानन्द का भी सम्बोधन है।
श्री चैतन्य-चरितामृत की विषयवस्तु इस प्राकृ त सृष्टि से अतीत तत्व है। प्राकृ त सृष्टि प्रकाश को माया कहते हैं
क्योंकि उसका अस्तित्व नित्य नहीं है। कभी व्यक्त तो कभी अव्यक्त होने के कारण वह मायिक है। भगवद्गीता के
निर्देशानसु ार इस अनित्य अभिव्यक्ति से परे एक परा प्रकृ ति है :
प qKft-HJ HIGIS riìSaftbìSajrblev frildiri: 1 : ਕੱ ਜ ਜ ਕਿਜ ਗਰਿl
'इसके अतिरित एक अन्य अव्यक्त प्रकृ ति है, जो शाश्वत है और इस व्यक्त तथा अव्यक्त पदार्थ से परे है। यह परा
(श्रेष्ठ) और कभी नाश न होने वाली है। जब इस ससं ार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी उसका नाश नहीं होता।"
(भगवद्गीता 8.20)
वह परा प्रकृ ति व्यक्त-अव्यक्त से परे है। जन्म-मृत्यु से अतीत यही सब जीवों की देहों में प्रकाशित चेतना है। देह
अपरा प्रकृ ति से बनी अवश्य है, किन्तु परा प्रकृ ति ही उसे क्रियाशील करती है। उस परा प्रकृ ति का लक्षण चेतना है। अत:
पर्णू रूप से परा प्रकृ ति द्वारा निर्मित वैकुण्ठ जगत् में सभी कुछ चैतन्य है। प्राकृ त जगत् में निर्जीव पदार्थ अचेतन है, वैकुण्ठ
जगत् में ऐसा नहीं है। वहाँ मेज, भमि ू , वृक्षादि सभी कुछ चेतन हैं।
इस प्राकृ त सृष्टि की सीमा का अनमु ान नहीं किया जा सकता। प्राकृ त जगत् में सब कुछ कल्पना अथवा किसी
अन्य अपर्णू विधि द्वारा अनमु ानित है। परन्तु वैदिक शास्त्र तो प्राकृ त ब्रह्माण्ड से अतीत तत्व की भी जानकारी देते हैं।
प्रयोग ज्ञान में विश्वास करने वाले वैदिक सिद्धान्तों में सन्देह कर सकते हैं, क्योंकि वे न तो इस ब्रह्माण्ड की सीमा का ही
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अनमु ान कर सकते हैं और न स्वयं ब्रह्माण्ड में दरू जा सकते हैं। प्रयोग विधि के द्वारा इस प्राकृ त ब्रह्माण्ड से परे के तत्व की
जानकारी नहीं हो सकती। धारणा से अतीत तत्व को अचिन्त्य कहते हैं। अचिन्त्य के सम्बन्ध में तर्क अथवा मनोधर्म
करना व्यर्थ है। यथार्थ अचिन्त्य तत्व मनोधर्म अथवा प्रयोग का विषय नहीं हो सकता। हमारी शक्ति और इन्द्रिय ज्ञान
सीमित हैं। अत: अचिन्त्य तत्व के विषय में हमें वैदिक सिद्धान्तों पर ही निर्भर रहते हुए परा प्रकृ ति का ज्ञान तर्क के बिना
स्वीकार करना होगा। उस विषय में तर्क कै से किया जा सकता है, जिसमें हमारा प्रवेश ही न हो? भगवद्गीता में स्वयं
भगवान् श्रीकृ ष्ण ने तत्वज्ञान की पद्धति का उल्लेख किया है। चौथे अध्याय के प्रारम्भ में उन्होंने अर्जुन से कहा :
5H fadad ήτί ήτραπE HEITH ι লিলন্তলািননালী ফ্লাল্ল
উন্নত্ত্বৰিিঞ্জনালঙ্কালসন্সলীন /
'इस अविनाशी योग का मैंने सर्यू देव विवस्वान को उपदेश किया। विवस्वान ने मानव जाति के जन्मदाता मनु को
इसकी शिक्षा दी तथा मनु ने इसे इक्ष्वाकु के प्रति कहा" (भगवद्गीता)
यह गरुु -परम्परा की विधि है। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत में श्रीकृ ष्ण ने सृष्टि के आदि जीव ब्रह्मा के हृदय में ज्ञान का
संचार किया। ब्रह्माजी ने यही शिक्षा नारद मनि ु को दी तथा नारदजी ने इसे अपने शिष्य व्यासदेव को दिया। व्यासदेव से
मध्वाचार्य को ज्ञान हुआ। मध्वाचार्य से श्री माधवेन्द्र परु ी ने तथा श्री माधवेन्द्र परु ी से श्री ईश्वर परु ी ने उसे ग्रहण कर
भगवान् श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु को प्रदान किया।
यह जिज्ञासा हो सकती है कि यदि श्री चैतन्य महाप्रभु स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं, तो उन्हें गरुु की क्या आवश्यकता?
नि:सन्देह उन्हें गरुु की आवश्यकता नहीं थी, किन्तु आचार्य (निज आचरण से शिक्षा देने वाले) के रूप में उन्होंने
परम्परानसु ार गरुु पादाश्रय ग्रहण किया। इस प्रकार श्रीभगवान् लोगों के लिए आदर्श स्थापित करते हैं। हमें यह नहीं
समझना चाहिए कि अल्पज्ञ होने के कारण वे गरुु शरण लेते हैं। वे तो के वल गरुु -परम्परा अगं ीकार करने को महत्वपर्णू
सिद्ध कर रहे हैं। उस गरुु -परम्परा का ज्ञान वास्तव में भगवान् श्रीकृ ष्ण से आता है। अक्षण्ु ण रूप में अवतरित होने पर ही
ज्ञान पर्णू होता है। यद्यपि ज्ञान प्रदाता आदि परुु ष भगवान् श्रीकृ ष्ण से हमारा प्रत्यक्ष सान्निध्य नहीं है किन्तु प्रसारण आदि
परुु ष भगवान् श्रीकृ ष्ण से हमारा प्रत्यक्ष सान्निध्य नहीं है, किन्तु प्रसारण की इस पद्धति से गरुु द्वारा ही ज्ञान प्राप्त हो सकता
है। श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि परतत्व भगवान् श्रीकृ ष्ण ने ब्रह्माजी के हृदय में दिव्य ज्ञान का संचार किया। अत: ज्ञान
प्राप्ति का एक मार्ग हृदय है। ज्ञान प्राप्ति की दो पद्धतियाँ हैं- एक परमात्मारूप में प्राणीमात्र के अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृ ष्ण
पर आश्रित है और दसू री श्रीकृ ष्ण के प्रकाशस्वरूप गरुु पर निर्भर करती है। इस प्रकार बाह्य और अन्तर, दोनों रूपों में
श्रीकृ ष्ण ज्ञान का संचार करते हैं। हमें के वल उसे धारण करना है। यदि ज्ञान इस विधि से प्राप्त किया जाय तो यह महत्वपर्णू
नहीं रहता कि वह अचिन्त्य है अथवा नहीं।
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श्रीमद्भागवत में प्राकृ त ब्रह्माण्ड से अतीत वैकुण्ठ लोकों के सम्बन्ध में विशद जानकारी उपलब्ध है। श्री चैतन्य-
चरितामृत में भी प्रचरु अचिन्त्य ज्ञान है। प्रयोग विधि से इस ज्ञान की प्राप्ति का कोई भी प्रयास सम्भव नहीं है। इस ज्ञान को
इसी रूप में ही स्वीकार करना होगा। वैदिक शास्त्रों में शब्द प्रमाण का महत्व है। वैदिक ज्ञान में शब्द अत्यन्त महत्वपर्णू हैं ,
क्योंकि शद्ध ु होने के कारण वह प्रमाण है। प्राकृ त जगत् में भी दरू भाष (फोन) अथवा आकाशवाणी (रे डियो) द्वारा हजारों
मील दरू प्रसारित जानकारी स्वीकार की जाती है। इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में भी हम शब्द को प्रमाणिक समझते हैं।
यद्यपि सचू ना देने वाले को देख नहीं सकते , पर शब्द के आधार पर उसकी सचू ना को स्वीकार करते हैं। वैदिक ज्ञान के
प्रसार में शब्द-प्रमाण अतिशय महत्वपर्णू है।
वेद हमें सचिू त करते हैं कि इस सृष्टि से परे विशाल लोक हैं और परव्योम (आध्यात्मिक आकाश) भी है। यह
प्राकृ त अभिव्यक्ति सम्पर्णू सृष्टि का अत्यन्त लघु अश ं है। प्राकृ त सृष्टि में इस ब्रह्माण्ड जैसे असंख्य ब्रह्माण्डों का समावेश
है; ये सारे प्राकृ त ब्रह्माण्ड सम्पर्णू सृष्टि के अशं मात्र हैं। सृष्टि का मख्ु यांश परव्योम में , श्री संकर्षण, प्रद्यम्ु न, श्री अनिरुद्ध
तथा श्री वासदु वे अपने इस चतव्ु यहू में स्थित हैं।
पर्वू उल्लेखानसु ार, प्राकृ त ब्रह्माण्डों को परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण महाविष्णु रूप से प्रकट करते हैं। जिस प्रकार सन्तान
के लिए पति-पत्नी का सगं होता है, उसी प्रकार महाविष्णु अपनी पत्नी माया अथवा अपरा प्रकृ ति के साथ परोक्ष सगं
करते हैं। इसकी पष्टिु में भगवान् श्रीकृ ष्ण ने गीता में कहा है :
ਗੀਜਿਕ ਧ: F ਮਕਜਿ It:1 त/स#् ब्रह्म 7 #हट्ट)f न्नरहं ब fi जप्रद: f पत 17//
'हे कौन्तेय (अर्जुन) ! यह समझना चाहिए कि सभी योनियों के जीवों का जन्म इस बहिरंगा शक्ति से होता है,
अर्थात प्रकृ ति माता है और मैं बीज देने वाला उन सबका पिता हू।ँ " (भगवद्गीता 14.4)
विष्णु देखने मात्र से माया अथवा बहिरंगा प्रकृ ति में गर्भाधान कर देते हैं। यह दिव्य पद्धति है। प्राकृ त होने के कारण
हम के वल अपने एक अगं से गर्भाधान कर सकते हैं, किन्तु परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण अथवा महाविष्णु किसी भी अगं
द्वारा किसी भी अगं में गर्भाधान कर सकते हैं। वे के वल अपरा प्रकृ ति की ओर देखकर उसके पेट में असंख्य जीवों का
गर्भाधान कर सकते हैं। ब्रह्मसहिता भी प्रमाणित करती है कि परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण का दिव्य श्रीविग्रह इतना
शक्तिशाली है कि उसका कोई भी अगं किसी भी अन्य अगं का कार्य सम्पादित कर सकता है। हम हाथ अथवा त्वचा
द्वारा ही स्पर्श करने में समर्थ हैं, किन्तु श्रीकृ ष्ण तो दृष्टि से भी स्पर्श कर सकते हैं। हम नेत्रों द्वारा के वल देख सकते हैं, स्पर्श
अथवा गन्ध-ग्रहण नहीं कर सकते, परन्तु भगवान् श्रीकृ ष्ण अपने अप्राकृ त नेत्रों से गन्ध ग्रहण और भोजन करने में भी
समर्थ हैं। जब श्रीकृ ष्ण को भोग अर्पण किया जाता है तो हम उन्हें भोजन करते नहीं देखते , अन्न पर दृष्टि डालकर जगत् में
होने वाली क्रिया की पद्धति का हम अनमु ान तक नहीं लगा सकते; क्योंकि वहाँ सब कुछ अप्राकृ त है। यह नहीं कि
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श्रीकृ ष्ण कुछ खाते नहीं हैं या हम उनके द्वारा खाने की कल्पना मात्र कर लेते हैं। वे वास्तव में खाते हैं, पर उनकी भोजन-
विधि हमारे खाने की विधि से भिन्न है। हमारी भोजन-विधि उनकी विधि के समान तभी होगी जब हम शद्ध ु सत्व के स्तर
पर आरुढ़ हो जाएँ। उस स्तर पर देह का प्रत्येक अगं किसी भी दसू रे अगं का कार्य कर सकता है।
सृष्टि करने के लिए विष्णु को कुछ भी नहीं चाहिए। ब्रह्मा की उत्पति के लिए उन्हें लक्ष्मीजी की आवश्यकता नहीं
होती, क्योंकि ब्रह्मा का जन्म विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से होता है; लक्ष्मीदेवी तो निरन्तर उनके चरणों की सेवा में
नियक्तु रहती हैं। प्राकृ त जगत् में सन्तान की उत्पति के लिए मैथनु अनिवार्य है, किन्तु वैकुण्ठ जगत् में पत्नी की सहायता
बिना ही कितनी भी सन्तान हो सकती है। आध्यात्मिक शक्ति का कोई अनभु व न होने के कारण हम समझते हैं कि विष्णु
की नाभि से ब्रह्मा जी की उत्पति काल्पनिक कथामात्र है। आध्यात्मिक शक्ति की 'कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुम'् सामथ्र्य को हम
नहीं जानते। प्राकृ त शक्ति कुछ नियमों पर आधारित है, जबकि अप्राकृ त शक्ति सब प्रकार से स्वतन्त्र है।
ब्रह्मा की उत्पत्ति महाविष्णु के अशं श्रीगभदकशायी विष्णु की नाभि से होती है। महाविष्णु के रोमों में असख्ं य
ब्रह्माण्ड बीज रूप में विद्यमान रहते हैं; उनके निश्वास के साथ वे सभी प्रकट होते रहते हैं। प्राकृ त जगत् में हमें ऐसा कोई
अनभु व नहीं है, पर स्वेद-स्राव (पसीना निकलना) की प्रक्रिया में हम इसकी विकृ त छाया का अनभु व कर सकते हैं।
महाविष्णु के एक निश्वासकाल का अनमु ान तक हमारी कल्पना से परे है, क्योंकि उनके एक श्वास में ही सब ब्रह्माण्डों का
सृजन संहार हो जाता है। ब्रह्माजी का जीवन महाविष्णु की एक श्वास तक सीमित है। हमारे 4,320,000,000 वर्ष ब्रह्मा के
बारह घंटे के बराबर हैं, इस परिणाम के अनसु ार ब्रह्मा की आयु सौ वर्ष है। ब्रह्माजी की यह पर्णा ू यु महाविष्णु के एक
निश्वास में ही समाप्त हो जाती है। स्पष्टत: परमेश्वर विष्णु की निश्वास शक्ति का अनमु ान हमारे लिए असम्भव है। वे
महाविष्णु भगवान् श्रीकृ ष्ण के अश ं -प्रकाश मात्र हैं।
इस प्रकार कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु को स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण तथा प्रभु श्री नित्यानन्द
को भगवान् श्रीकृ ष्ण का प्रथम प्रकाश श्री बलराम निरूपित किया है। श्री चैतन्य महाप्रभु के ही एक अन्य प्रधान शिष्य श्री
अद्वैताचार्य महाविष्णु के अवतार हैं। अत: श्री अद्वैताचार्य प्रभु भी भगवान् हैं और अधिक ठीकठीक तो वे भगवत् अवतार
हैं। उनका नाम अद्वैत है क्योंकि वे परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण से अभिन्न हैं। उन्हें आचार्य भी कहा जाता है। कारण; उन्होंने
श्रीकृ ष्ण भक्ति का प्रचार किया। वे श्री चैतन्य महाप्रभु के समान हैं। भगवान् श्री चैतन्य स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं, किन्तु सामान्य
जनता को कृ ष्णप्रेम की शिक्षा देने के हेतु वे भक्तरूप में अवतीर्ण हुए। इसी प्रकार, श्री अद्वैताचार्य कृ ष्णभक्ति के प्रसारार्थ
प्रकट हुए। इसलिए वे भक्तावतार हैं। श्रीकृ ष्ण का पंचरूपों में प्रकाश है, जिनमें वे अपने पार्षदों सहित परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण
के भक्तरूप में अवतीर्ण होते हैं- श्रीकृ ष्ण चैतन्य, श्री नित्यानन्द, श्री अद्वैताचार्य, श्री गदाधर तथा श्रीवासादि। भगवान् श्री
चैतन्य महाप्रभु ही सब प्रकार से अपने भक्तों के शक्ति स्रोत हैं। इस कारण श्रीकृ ष्ण-भक्ति के साधन में सफलता के लिए
भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु के शरणागत हो जाने पर प्रगति में कोई सन्देह नहीं रहता। ठाकुर नरोत्तमदास का एक भजन है :
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'हे चैतन्य महाप्रभो! मझु पर कृ पा कीजिए। आप जैसा कृ पामय दसू रा कोई नहीं है, इसलिए मेरी याचना परम आवश्यक है।
आपका अवतार पतितों के उद्धार के लिए हुआ है और मझु से बढ़कर पतित कोई दसू रा नहीं है। कृ पया मेरी ओर सबसे
पहले ध्यान दें।'
श्री चैतन्य-चरितामृत के रचयिता कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी वृन्दावनवासी परम भागवत थे। पहले वे अपने
परिवार सहित बगं ाल के वर्धवान जिले में कटवा जनपद में निवास करते थे। उनके परिवार में श्रीराधा-कृ ष्ण की आराधना
होती थी। एक समय परिवार में भक्तिसम्बन्धी विवाद होने पर श्री नित्यानन्द प्रभु ने स्वप्न में उन्हें घर त्यागकर श्रीधाम
वृन्दावन जाने का आदेश दिया। वयोवृद्ध होने पर भी उन्होंने उसी रात्रि श्रीधाम वृन्दावन के लिए प्रस्थान कर दिया। वहाँ
पर निवास करते हुए उनकी भेंट श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रधान शिष्य, छ: गोस्वामियों से हुई। श्रीधाम वृन्दावन के भक्तों ने
उनसे श्री चैतन्य-चरितामृत की रचना के लिए अनरु ोध किया। यद्यपि उन्होंने यह कार्य अत्यन्त वृद्धावस्था में प्रारम्भ किया
था, पर भगवान् श्री गौरसन्ु दर की कृ पा से वे उसे परू ा कर सके । आज वह भगवान् श्रीकृ ष्ण महाप्रभु की शिक्षा और
जीवनचरित पर सर्वोपरि प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है।
श्री कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी के वृन्दावनवास काल में वहाँ अधिक मन्दिर नहीं थे। उस समय श्री मदनमोहन,
श्री गोविन्ददेव तथा श्री गोपीनाथ ये तीन प्रधान मन्दिर थे। वृन्दावनवासी होने के कारण इन मन्दिरों में श्रीविग्रह-वन्दना कर
उन्होंने भगवत्कृ पा की याचना की : 'प्रभो! भक्ति में मेरी प्रगति अत्यन्त मन्द है, अत: आपकी कृ पा की याचना कर रहा हू।ँ '
श्री चैतन्य-चरितामृत में वे कृ ष्णभक्ति के वर्धन में सहायक श्री मदनमोहन विग्रह की वन्दना करते हैं। कृ ष्णभावनामृत का
प्रथम कर्तव्य श्रीकृ ष्ण तथा उनसे अपने सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त करना है। श्रीकृ ष्ण का ज्ञान ही आत्मज्ञान है तथा आत्मज्ञान
ही श्रीकृ ष्ण से अपने सम्बन्ध का ज्ञान है। इस सम्बन्ध की शिक्षा श्री मदनमोहन की आराधना से मिलती है। अत:
कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी सबसे पहले उन्हीं से सम्बन्ध जोड़ते हैं।
इस सम्बन्ध को स्थापित कर कृ ष्णदास अभिधेय-विग्रह गोविन्दजी की आराधना 'करते हैं। श्री गोविन्दजी श्रीधाम
वृन्दावन में नित्य विराजमान हैं। वृन्दावन में प्रासाद 'पर्शमणि से रचित हैं, प्रचरु दग्ु ध देने वालीं सरु भि गायों, सब कामनाओ ं
को पर्णू करने वाले कल्पवृक्षों से वह धाम परिपर्णू है। श्रीधाम वृन्दावन में श्रीकृ ष्ण सरु भि गायों को 'राते हैं तथा लक्ष्मीरूपा
हजारों गोपियाँ उनकी आराधना में संलग्न रहती हैं। श्रीकृ ष्ण । प्राकृ त जगत् में अवतीर्ण होने पर, यह श्रीधाम वृन्दावन भी
अवतरित होता है, उसी प्रकार जैसे किसी विशिष्ट परुु ष का परिकर उसका अनगु मन किया करता है। श्रीधाम 'न्दावन को
प्राकृ त जगत् में स्थित नहीं माना जाता, क्योंकि श्रीकृ ष्ण के आने पर उनकी यह व्रजभमि ू उन्हीं के साथ आती है। अत:
भक्त गण पृथ्वी पर स्थित गोकुल वृन्दावन का आश्रय लेते हैं क्योंकि वह आदि वृन्दावन धाम गोलोक का प्रतिरूप है। यह
शंका हो सकती है कि आज वहाँ कोई कल्पवृक्ष नहीं है, किन्तु गोस्वामियों के निवासकाल में वहाँ कल्पवृक्ष थे। ऐसे वृक्ष
के निकट जाकर के वल इच्छा करना पर्याप्त नहीं, अपितु पहले भक्त बनना होगा। गोस्वामी गण एक वृक्ष के आश्रय में एक
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रात्रि भर रहते थे। कल्पवृक्ष उनकी सम्पर्णू अभिलाषा को परू ा कर देते। सामान्य मनष्ु य के लिए यह महान आश्चर्यजनक हो
सकता है। पर भक्ति में प्रगति करने पर इसकी प्रत्यक्ष अनभु ति ू होती हैं ।
श्रीधाम वृन्दावन का यथार्थ आस्वाद वही कर सकता है, जिसने विषयों में सख ु ानसु न्धान करना छोड़ दिया हो।
एक महाभागवत के उद्गार हैं, “विषयभोग की वासना से मेरा चित्त कब शद्ध ु होगा, जिससे मैं श्रीधाम वृन्दावन का दर्शन
कर सकंू गा?' ओ जितना अधिक कृ ष्णभावनाभावित होकर पथ पर उन्नति करे गा, उतना ही सारा जगत् वैकुण्ठ लगने
लगेगा। इस सिद्धान्त के अनसु ार कृ ष्णदास कविराज इस वृन्दावन को परव्योम में स्थित वृन्दावन धाम के तल्ु य मानते हैं।
श्री चैतन्य-चरितामृत में उनका उल्लेख है कि श्रीधाम वृन्दावन में कल्पद्रुम के नीचे शोभायमान रत्नागार सिंहासन पर श्री
श्रीराधा-गोविन्ददेव विराजमान हैं। वहाँ श्रीकृ ष्ण के प्रिय ग्वाल सखा और गोपांगनाएँ गान, नृत्य, ताम्बल ू , नैवेद्यार्पण तथा
पष्ु पसजा द्वारा श्रीराधा-कृ ष्ण की सेवा करते हैं। आज भी श्रवण मास में झल ू ा सजाकर इस दृश्य को पनु र्जीवित किया जाता
है। प्राय: उस समय लोग वृन्दावन जाकर भगवत् विग्रह के दर्शन करते हैं।
श्री कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी का दृढ़ विश्वास है कि श्रीराधा-गोविन्द विग्रह हमें श्रीराधा-कृ ष्ण सेवा की शिक्षा
देते हैं। श्री मदन-मोहन विग्रह से के वल यही स्थापित होता है कि, 'प्रभो! मैं आपका नित्य दास हू!ँ " किन्तु श्री गोविन्दजी
से सेवा की वास्तविक स्वीकृ ति होती है, इसलिए वे अभिधेय विग्रह हैं। श्री गोपीनाथ गोपीवल्लभ श्रीकृ ष्ण हैं। अपने वेणु
नाद से उन्होंने सब गोपियों को आकृ ष्ट किया और अपने पास आने पर उनके साथ नृत्य किया। श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध
में इन लीलाओ ं का वर्णन है। ये गोपीजन श्रीकृ ष्ण की शैशवकालीन सखियाँ थीं। वे सभी विवाहिता थीं, क्योंकि उस समय
बारह वर्ष की आयु में कन्याओ ं का विवाह हो जाता था, पर बालकों का विवाह अठारहवें वर्ष से पर्वू नहीं होता था।
श्रीकृ ष्ण भी जिनकी उम्र उस समय दस बारह वर्ष की थी, विवाहित नहीं थे। उन्होंने इन गोपियों को घरों से बल ु ाकर अपने
साथ नृत्य के लिए आमन्त्रित किया। वह नृत्य रासलीला कहलाता है और वृन्दावन की लीलाओ ं में परमोच्च है। इसी
कारण श्रीकृ ष्ण गोपीनाथ कहलाते हैं; वे गोपीजनों के प्रियतम वल्लभ हैं।
कृ ष्णदास कविराज गोस्वामी श्री गोपीनाथजी की कृ पा की याचना करते हैं। 'गोपीवल्लभकृ ष्ण श्री गोपीनाथजी
आप पर कृ पा करें । आपको गोपीनाथ की कृ पा प्राप्त हो।" श्री चैतन्य-चरितामृतकार की प्रार्थना है कि जैसे श्रीकृ ष्ण ने अपने
वेणनु ाद से गोपियों को आकृ ष्ट किया है, उसी प्रकार अपने दिव्य नाद से वे पाठक का चित आकृ ष्ट करें गे। उस नाद के सार
को सरल, सपु ाठया एवं सारांश रूप में प्रसारित करना ही 'श्री चैतन्य महाप्रभु की शिक्षामृत 'नामक इस पस्ु तक का प्रयोजन
है।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

अध्याय 1

श्री रूप-शिक्षा

श्री सनातन गोस्वामी के अनजु श्री रूप गोस्वामी अपने छोटे भाई श्री वल्लभ के ।थ प्रयागराज गये। जब उन्होंने
सनु ा कि श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु चैतन्यदेव वहाँ निवास कर रहे हैं, तो दोनों अतिशय प्रसन्न हुए और उनके दर्शन करने गये।
उस समय भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु श्री बिन्दमु ाधव मन्दिर की ओर जा रहे थे। मन्दिर के मार्ग में हरिध्वनि और नृत्य
करते हुए महाप्रभु का लाखों व्यक्ति अनगु मन कर रहे थे। इनमें से कुछ रुदन कर रहे थे , कुछ हँस रहे थे, कुछ नृत्य कर रहे
थे, कुछ गा रहे थे, तो कुछ 5" को दण्डवत प्रणाम कर रहे थे। वे सभी परम पवित्र कृ ष्णनाम का तमु ल ु उद्घोष ।र रहे थे।
जनश्रति
ु है कि गंगा-यमनु ा के संगम पर स्थित होते हुए भी प्रयाग में भगवान् 5। गौरसन्ु दर महाप्रभु के समय तक कभी बाढ़

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नहीं आई थी। किन्तु श्री श्री गौरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु के अवतीर्ण होने पर तो वहाँ भक्ति की ऐसी बाढ़ आई कि सारा
प्रयाग ही कृ ष्णप्रेम पारावार में निमग्न हो गया।
दोनों भाई, श्री रूप और श्री वल्लभ जनसमहू से अलग एकान्त में खड़े होकर उस महान् जन समदु ाय और अद्भुत
दृश्य को देखने लगे। नृत्य करते समय ऊर्वबाहु होकर भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु 'हरिबोल। हरिबोल !' की तमु ल ु ध्वनि
कर रहे थे। 'के चारों ओर एकत्रित व्यक्ति उनकी अद्भुत क्रियाओ ं से चमत्कृ त थे। मन्दिर में दर्शन के पश्चात् श्री गौरसन्ु दर
महाप्रभु ने एक दाक्षिणात्य ब्राह्मण के घर प्रसाद ग्रहण किया। इन्हीं ब्राह्मण के घर में श्री रूप तथा श्री वल्लभ उनका दर्शन
करने गये। श्री गौरसन्ु दर प्रभु को विराजमान देखकर दरू से ही दोनों भाइयों ने दण्डवत् प्रणाम किया तथा अनेक वैदिक
श्लोकों से वन्दना की। श्रीमन् महाप्रभु ने जब देखा कि श्री रूप गोस्वामी प्रणाम कर रहे हैं, तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए; उन्होंने
श्री रूप गोस्वामी को भमि ू से उठने को कहा। थी गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी की सचि ू त किया कि उन पर (श्री
रूप पर) श्रीकृ ष्ण की अहैतक ु ी कृ पा बरस रही है, क्योंकि कुछ ही समय पर्वू श्रीकृ ष्ण ने उन्हें विषयभोगमय जीवन से मक्त ु
किया था।
श्रीमन् महाप्रभु ने दोनों भाइयों को अपने भत के रूप में स्वीकार कर लिया। उन्होंने एक श्लोक पढ़ा, जिसके
अनसु ार यह सम्भव है कि एक चतर्वेु दी ब्राह्मण को भगवान् अपने भक्त रूप में स्वीकार नहीं करें और चाण्डाल होने पर भी
एक सच्चे भक्त को निज दास बना लें। इसके उपरान्त श्रीमन् महाप्रभु ने दोनों भाइयों का आलिंगन किया तथा अनपायिनी
कृ पा के कारण अपने चरणारविन्द से उनके सिर पर स्पर्श किया। इस प्रकार श्री महाप्रभु की कृ पा प्राप्त कर दोनों ने अपने
शब्दों में श्री महाप्रभु की वन्दना की। उनकी प्रार्थना से स्पष्ट था कि श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं, उन्होंने श्रीकृ ष्ण
चैतन्य महाप्रभु नाम से तप्तकांचन गौरांग रूप धारण किया है। वे श्रीकृ ष्ण के महावदान्त अवतार हैं, क्योंकि वे सर्वज्ञ
कृ ष्णप्रेम वितरण कर रहे हैं। श्री रूप गोस्वामी ने गोविन्द-लीलामृत (1.2) का एक श्लोक भी उद्धत किया :
योऽज्ञा/मत्तं ध्रवु नं दय/लरुु ’ লীলাম্রােন্স ত্বে লঙ্কান্তীন সন্মানন্ম । स्वप्रेम-सम्पत्सधु याद्भुतह
%i ਯਢੋਰਸ ਵੱ ॥
“श्री गौरसन्ु दर कृ ष्ण चैतन्य महाप्रभु सर्वाधिक करुणामय परम परुु ष स्वयं भगवान् हैं। वे अज्ञान निमग्न जीवों का
उद्धार करते हैं तथा सर्वोतम वस्तु कृ ष्णप्रेम प्रदान कर उन्हें कृ ष्णभावना उन्मत्त कर देते हैं। मैं उनके चरणारविन्द की शरण
लेता हू।ँ "
इसके उपरान्त श्री वल्लभ भट्ट के निमन्त्रण पर श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु गंगा के दसू रे तट पर गए। उस क्षण से श्री
गौरसन्ु दर महाप्रभु जहाँ भी जाते श्री रूप गोस्वामी उनका अनगु मन करते और उनके साथ निवास करते। श्रीमन् महाप्रभु को
भीड़-भाड़ अप्रिय थी। अत: उन्होंने श्री रूप गोस्वामी को अपने साथ गंगा के दशाश्वमेध घाट पर चलने की आज्ञा दी। दस
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दिन तक, कृ ष्णतत्व, भक्तिसिद्धान्त तथा श्रीकृ ष्ण से दिव्य रस तत्व के विषय में उन्होंने श्री रूप गोस्वामी को शिक्षा प्रदान
की। इन सभी विषयों का सांगोपांग वर्णन किया गया, जिससे भविष्य में श्री रूप अपने ग्रन्थ भक्तिरसामृतसिन्धद्वु ारा
कृ ष्णविद्या का वितरण कर सकें । श्री रूप गोस्वामी ने इस घटना का उल्लेख कर भक्तिरसामृतसिन्धु के प्रथम श्लोक में
श्रीमन् महाप्रभु की अहैतक ु ी कृ पा का वर्णन किया है।
परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण परमचेतन तथा सर्वशक्तिमान हैं एवं अपनी अहैतक ु ी कृ पा से वे जीव को अपनी
कृ पाप्राप्ति की सामथ्र्य देते हैं। बद्ध अवस्था के कारण 'अधिकांश व्यक्ति कृ ष्णभक्ति तथा कृ ष्णभावना से विमख ु हैं। वास्तव
में मनष्ु यों में अधिकतर ऐसे ही हैं जो भगवान् श्रीकृ ष्ण से अपने नित्य सम्बन्ध तथा जीवन के परम लक्ष्य, भगवत् प्राप्ति
सम्बन्धी कृ ष्णभक्ति की प्रधान शिक्षाओ ं को नहीं जानते। यही नहीं, यहीं नहीं वैकंु ठ की लौटने की पद्धति का भी उन्हें ज्ञान
नहीं है। बद्ध जीवों को इन अत्यन्त महत्वपर्णू विषयों का ज्ञान कराने के लिए श्रीमहाप्रभु ने अपनी अहैतक ु ी कृ पा से श्री
रूप गोस्वामी को भक्ति सिद्धान्तों की शिक्षा प्रदान की। बाद में, मानवसमाज के कल्याण हेतु श्री रूप गोस्वामी ने उसी
भक्ति विद्या का प्रसार प्रचार किया।
अपने सप्रु सिद्ध ग्रन्थ भक्तिरसामृतसिधं ु के प्रारम्भ में श्री रूप गोस्वामी ने लिखा है :
DD D BBBaaa aBuuuBuDuD uBGrDSrS
तस्य हरे : पद-कमल वन्दो चैतन्दोवस्य ।
ह्रदय में जिनसे प्रेरणा पाकर मैं इस ग्रन्थ के प्रणयन में प्रवृत्त हो रहा हूँ, उन परम ईश्वर '(' 'भगवान् हरिस्वरूप श्री
गौरसन्ु दर श्री चैतन्यदेव के चरणारविन्द की वन्दना करता हूँ ।''
श्री रूप गोस्वामी को शिक्षा प्रदान करने से पर्वू श्रीमहाप्रभु ने उन्हें सम्बोधित करते हुए कहा, “प्रिय रूप!
भक्तिविज्ञान एक असीम सिन्धु जैसा है, जिसका ओर-छोर पाना असभं व है। फिर भी उसमें से एक बिन्दु लेकर मैं उस
सागर का वर्णन करने का प्रयत्न । ' । इस प्रकार उसका आस्वादन कर तमु यह जान जाओगे कि भक्तिरसामृतसिन्धु का
स्वरुप वस्ततु : क्या है ।’’
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने बताया कि इस ब्रह्माण्ड में असख्ं य जीव हैं, जो अपने कर्मफल के अनसु ार एक
योनि से दसू री योनि में और एक लोक से अन्य लोकों में निरन्तर देहान्तर कर रहे हैं। इस प्रकार प्राकृ त जगत् के बन्धन में वे
अनन्तकाल से बँधे पड़े हैं। ये जीव वस्ततु : परमात्मा के परमाणु भिन्न अश ं हैं। श्रीमद्भागवत में उल्लेख हैं कि एक
जीवात्मा का माप के श की नोक के 1/10,000 वे भाग जितना है। अर्थात,् जीवात्मा इतनी सक्ष्ू म है कि दृष्टिगोचर नहीं हो
पाती। श्वेताश्वतर उपनिषद् में इस तथ्य का प्रमाण है। श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध में एक महान यज्ञ की पर्ति ू पर सनन्दन
कुमार ने यह प्रार्थना की, 'हे परम सत्यस्वरूप भगवान्! जीव यदि आप परमात्म स्वरूप के सक्ष्ू म अश ं नहीं होते, तो प्रत्येक
जीव सर्व-व्यापक एवं ईश्वरीय शक्ति से स्वतन्त्र होता। किन्तु यदि जीव को परमात्मा का लघु अश ं स्वीकार किया जाय, तो
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ईश्वरीय शक्ति द्वारा उसका शासन स्वयमेव सिद्ध हो जायेगा। वस्ततु : यही स्वाभाविक स्थिति है और इसी में स्थित रहकर
वह पर्णू स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकता है। (श्रीमद्भागवतम् 10.87,30) यदि कोई भ्रान्तिपर्वू क अपनी स्थिति को स्वयं भगवान्
श्रीकृ ष्ण के बराबर मानने लगे तो अद्वैत सिद्धान्त से दषि ू त होने के कारण वह भक्तिमार्ग से गिर जायेगा, उसके भगवत्प्राप्ति
सम्बन्धी प्रयत्न निरर्थक सिद्ध होगे ।
श्रीमद्भागवत की इन शिक्षाओ ं की व्याख्या करते हुए श्रीमन् महाप्रभु गौरसन्ु दर ने जीवों के दो भेदों का उल्लेख
किया-नित्यमक्त ु तथा नित्यबद्ध। नित्यबद्ध जीव भी दो प्रकार के हैं-चर और अचर। वृक्षादि जीवों की अचर संज्ञा है। पक्षी
और पशु जैसे चलायमान जीवों को जंगम कहा जाता है। इनकी भी तीन उपश्रेणियाँ हैं-नभ, जल तथा थलचारी। थलचारी
करोंड़ों जीवों के अति लघु अश ं के रूप में मनष्ु य है। मानव समाज में भी अधिकांश मानव परमार्थ से बिलकुल अनभिज्ञ,
दरु ाचारी तथा घोर नास्तिक हैं। सारांश में, अधिकतर मनष्ु य पशु के समान जीवनयापन कर रहे हैं। इसका अनमु ान मानव
अथवा सभ्य समाज के सदस्यों की संख्या से लगाया जा सकता है। वस्तस्थि ु ति यह है कि शास्त्र अथवा ईश्वर के अस्तित्व
अथवा के वल सदाचार में भी विश्वास रखने वाले थोड़े से मनष्ु य भी मिलने बड़े कठिन हैं। इनके महत्व में विश्वास रखने
वाले 'आर्य' हैं। 'आर्य' शब्द से परमार्थ के विकास में श्रद्धावान् मनष्ु य इगि ं त हैं। इनमें भी दो वर्ग हैं - सदाचारी और
दरु ाचारी। सदाचारी सामान्यत: इन्द्रियसख ु की प्राप्ति के लिए सकाम कर्मों का अनष्ठु ान करते हैं। इन्द्रियतृप्ति के निमित्त
सत्कार्यों में प्रवृत्त रहने वाले ऐसे व्यक्तियों में बहुत थोड़े परम सत्य का ज्ञान पाते हैं। इन्हें ब्रह्मवादी ज्ञानी कहा जाता है। ऐसे
हजारों ज्ञानियों में बहुत थोड़े ही मक्ति ु प्राप्त करते हैं। सिद्धान्त के अनसु ार मक्त
ु ावस्था में मक्त ु जीव को प्राकृ त तत्वों से
अतीत अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान हो जाता है। के वल सिद्धान्त रूप में इस मत को मानने वाले जीव को भी मक्त ु कहा जा
सकता है; पर वास्तव में मक्त ु वही है जो भगवान् के नित्यदास के रूप में अपने यथार्थ स्वरूप को जान ले। ऐसे मक्त ु जीव
श्रद्धा और भक्ति सहित भगवत् सेवा में तत्पर रहते हैं और कृ ष्णभक्त कहलाते हैं।
कृ ष्णभक्तों में भोगवासना का अभाव रहता है। के वल सिद्धान्त रूप में प्रकृ ति से "र अपने आत्मस्वरूप को जानने
वाले जीवों की गणना भी मक्त ु जीवों के वर्ग में की भाती है, पर उनमें भोगवासना बनी रह सकती है। भगवान् का सायज्ु य
प्राप्त करना ही उनकी मख्ु य अभिलाषा है। ऐसे व्यक्ति सामान्यत: प्राकृ त सख ु -समृद्धि के उपभोग के लिए वैदिक कर्मकाण्ड
तथा पण्ु यकमों में संलग्न रहते हैं। उनमें से कुछ प्राकृ तसख ु ोपभोग का लघं न कर परव्योम में प्रवेश भी कर लेते हैं , परन्तु
भगवान् के सायज्ु य को प्राप्त होकर अपने सख ु ोपभोग को वे बनाए रखना चाहते हैं। उनमें से कुछ योगाभ्यास द्वारा यौगिक
सिद्धियों की प्राप्ति के भी इच्छुक होते हैं। जब तक हृदय में ये इच्छाएँ रहती हैं, तब तक कोई भी शद्ध ु भति का स्वरूप नहीं
समझ सकता। इनसे उद्विग्न चित्त वाला कभी शान्त नहीं रह सकता। वास्तव में जब तक प्राकृ त सिद्धि की कोई भी इच्छा
विद्यमान है, तब तक मनष्ु य को शान्ति नहीं मिल सकती। श्रीकृ ष्ण भत कुछ भी लौकिक कामना नहीं करते; अत: प्राकृ त
जगत् में शान्त परुु ष के वल वे ही हैं। श्रीमद्भागवत से प्रमाणित है :
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জুলুলক্ষ্ম: জার্মাননাঙ্কো লক্ষ্মীলিঙ্গল নি ঘঞ্চােg নী ৷
'हे महामनु े! लाखों-लाखों मक्त
ु ों एवं सिद्ध योगियों में भी भगवान् श्री नारायण (श्रीकृ ष्ण) के परायण रहने वाले पर्णू
शान्त जन सदु र्ल ु भ हैं।" (श्रीमद्भागवत 6.145)
इस प्रकार श्रीमन् महाप्रभु ने वर्णन किया कि प्राकृ त-जगत् में भटकते असंख्य जीवों में किसी एक बिरले परम
सौभाग्यशाली जीव को परम करुणामय श्रीकृ ष्ण तथा गरुु की अनपायिनी कृ पा से भक्तिलता का बीज प्राप्त होता है।
सामान्यत: पण्ु यात्मा और धार्मिक व्यक्ति मन्दिरों में विभिन्न देव अचीविग्रहों की अर्चना करता है। किन्तु यदि अवसर
मिलने पर अनजाने में भी वह कभी भगवान् विष्णु की वन्दना करे अथवा भगवद्भक्त (वैष्णव) की कृ पा प्राप्त कर ले तो
अविलम्ब भगवान् श्रीकृ ष्ण की प्राप्ति के योग्य हो जाता है। भागवत में देवर्षि नारद के जीवन-चरित से यह पर्णू रूप में स्पष्ट
है। पर्वू जन्म में वैष्णवसेवा के फलस्वरूप विष्ण-ु भक्तों की कृ पा से ही नारद महामनि ु बन सके । वस्ततु : ऋषियों में उन्हें
सर्वश्रेष्ठ माना गया है।
वैष्णव भक्त बद्धजीवों पर स्वभाववश द्रवित होकर कृ पा करते हैं। बिना बल ु ाए भक्त द्वार-द्वार जाकर लोगों को
जाग्रत करता है तथा श्रीकृ ष्ण के नित्य दास के रूप में जीव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान देकर अविद्या के अन्धकार से उनका
उद्धार करता है। ऐसे भक्तों को जनता में कृ ष्णभक्ति के प्रचार के लिए भगवान् अपनी विशेष शक्ति प्रदान करते हैं। भगवान्
से आदेश प्राप्त प्रामाणिक आचार्यों की कृ पा से बद्धजीवों को भक्तिलता का बीज मिलता है। भगवान् श्रीकृ ष्ण की
अहैतक ु ी कृ पा का प्रथम अनभु व तब होता है जब किसी ऐसे योग्य गरुु का साक्षात्कार हो, जो बद्धजीव को भक्ति के
सर्वोच्च शिखर पर आरूढ़ करने में समर्थ हो। इसी कारण श्रीमहाप्रभु ने कहा है कि गरुु -कृ पा से जीव अहैतक ु ी भगवान्
कृ पा पाता है तथा भगवत् कृ पा से गरुु की कृ पा प्राप्त होती है।
इस प्रकार गरुु और श्रीकृ ष्ण की कृ पा से जीव को भक्तिलता का बीज मिलता है। जीव को तो के वल एक माली
की भाँति उस अमल्ू य बीज को अपने हृदयक्षेत्र में आरोपित करना है। बोने के बाद भगवन्नाम के श्रवण कीर्तन या भगवत्
चर्चा रूपी जल से उसे सींचना होगा। भक्ति के बीज से अक ं ु रित हुई भक्तिलता निर्बाध बढ़ती है। पर्णू बढ़ जाने पर इस
ब्रह्माण्ड को फोड़ कर वह उस परव्योम में पहुचँ ती है जहाँ सब कुछ ब्रह्मज्योति के तेज से प्रकाशित है। भक्तिलता इस
ब्रह्मज्योति का भी लंघन करके क्रमश: गोलोक वृन्दावन नामक परमधाम में प्रविष्ट होती है। वहाँ वह भक्तिलता श्रीकृ ष्ण
के चरणारविन्द की शरण लेती है। यही भक्ति का चरम लक्ष्य है। इस स्थिति (कृ ष्ण शरण) की प्राप्ति के बाद उस भक्तिलता
में भगवत्प्रेम रूपी फल लगता है। किन्तु दिव्य माली (भत) के लिए श्रवण-कीर्तन रूपी जल से भक्तिलता को नित्य सिंचित
करना अनिवार्य है। श्रवणकीर्तन रूपी जल के अभिसिंचन के बिना भक्तिलता का सख ू जाना बहुत सम्भव है।
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भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी को भक्तिलता को सींचते समय उपस्थित होने वाले भय का
संकेत किया। लता के कुछ बढ़ने पर कोई पशु उसे खा अथवा नष्ट कर सकता है। पशु द्वारा हरे हरे पल्लव खाये जाने पर
लता सामान्यत: निष्प्राण हो जाती है। सर्वाधिक भयावह पशु पागल हाथी है, क्योंकि यदि वह किसी उद्यान में प्रवेश कर
जाये तो पेड़-पौधों को अत्यन्त हानि पहुचँ ाता है। भगवान् के शद्ध ु भक्त का अपराध वैष्णवापराध पागल हाथी जैसा ही
भयावह है। शद्ध ु भक्त के चरणारविन्द के विरुद्ध किया अपराध भक्तिमार्ग में महान् उत्पात का कारण हो सकता है। अत:
कनिष्ठ भक्त को भक्तिलता का पोषण करते हुए उसकी रक्षा करनी चाहिए, साथ ही अपराधों से भी बचना चाहिए। यदि वह
सावधान रहे तो लता ठीक प्रकार से फलित होगी।
श्रीभगवन्नाम के जप में दस अपराध बन सकते हैं। पहला अपराध भगवन्नाम की पवित्र कीर्ति को विश्वव्यापी
बनाने वाले महाभागवतों की निन्दा करना है। कृ ष्णनाम का विश्वभर में प्रचार करने वाला श्रीकृ ष्ण का अतिशय प्रेमपात्र है
क्योंकि कृ ष्णनाम श्रीकृ ष्ण से अभिन्न है। दसू रा अपराध भगवान् विष्णु को परम तत्व के रूप में स्वीकार न करना है।
भगवान् के नाम, गणु , रूप, लीलादि में कुछ भी भेद नहीं है। इनमें भेद मानना अपराध है। श्रीभगवान् सर्वोपरि हैं, कोई भी
उनके समान अथवा उनसे उत्तम नहीं है। अत: उनके तथा देवताओ ं के नामों में अभेद मानने वाला अपराधी है। भगवान्
श्रीकृ ष्ण तथा अन्य देवों को समान नहीं मानना चाहिए।
तीसरा अपराध गरुु को सामान्य समझना है। चौथा अपराध वैदिक शास्त्रों तथा परु ाणादि प्रामाणिक ग्रंन्थों की
निन्दा है। पाँचवाँ अपराध नाम-महिमा को अर्थवाद समझना है। छठा अपराध है भगवन्नाम को कल्पित मानना। सातवाँ
अपराध है भगवन्नाम के बल पर पाप करना। यह सत्य है कि भगवन्नाम का उच्चारण करने वाला पापमक्त ु हो जाता है, पर
इसका यह अर्थ नहीं कि इसी बल पर पापाचरण करता जाये। यह अपराध सर्वोपरि माना गया है। आठवाँ अपराध है
कर्मकाण्ड, त्याग, यज्ञ तथा अन्य प्रकार के त्यागों को भगवन्नाम कीर्तन के तल्ु य मानना। भगवन्नाम कीर्तन साक्षात्
भगवान् श्रीकृ ष्ण का सानिध्य है। पण्ु य कर्म के वल श्रीभगवान् की प्राप्ति के साधन मात्र हैं; इसके अतिरिक्त, वे लौकिक
कामना से भी प्रेरित हो सकते हैं। नौवाँ अपराध श्रवण की इच्छा से रहित श्रद्धाहीन मनष्ु य से भगवन्नाम कीर्ति का वर्णन।
दसवाँ और अन्तिम अपराध है हरिनाम का श्रवण-कीर्तन करते हुए भी विषय आसक्ति बनाए रखना। सारांश में,
अपराधरहित भगवन्नाम कीर्तन से मक्त ु ावस्था प्राप्त होती है। मक्त
ु ावस्था में जीव सब प्रकार की प्राकृ त आसतियों से अपने
आप मक्त ु हो जाता है। इसलिए यदि हरिनाम कीर्तन करने पर भी किसी में आसक्ति बनी रहे तो अवश्य ही वह कोई न कोई
नाम अपराध कर रहा है।
कुछ अन्य कारण भी भक्तिलता मार्ग में उत्पात करते हैं। भक्तिलता के साथ साथ लौकिक कामना रूपी घास पात
उग आती है। यह स्वाभाविक है कि भक्तिपथ पर प्रगति करने वाले के पास बहुत से व्यक्ति शिष्य बनने अथवा कुछ प्राकृ त
सख ु साधना स्वीकार करने की प्रार्थना करने आते हैं। यदि वह शिष्यों की बड़ी सख्ं या से अथवा उनके द्वारा दिए प्राकृ त
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सख ु ों के प्रति आकृ ष्ट होकर गरुु के रूप में अपने कर्तव्य को भल ू बैठता है तो भक्तिलता की वृद्धि रुक जाती है। प्राकृ त
सख ु साधनों का लाभ लेने मात्र से उनमें प्रबल आसक्ति का हो जाना सम्भव है।
मक्ति
ु की कामना भी हानिप्रद मानी गई है। एकमात्र भक्तिपर्णू सेवा करने की इच्छा ही होनी चाहिए। यही नहीं
प्रमादपर्वू क विधि निषेध का अतिक्रमण भी हानिकर है। प्रामाणिक शास्त्रों में निम्नलिखित निषेध हैं : व्यभिचार, मद्यपान,
मासं ाहार तथा जआ ु । साधक के लिए इनका पर्णू निषेध है। इन सिद्धान्तों का पर्णू तः पालन न करने पर भक्ति साधना में
महान् व्यवधान उपस्थित हो सकता है।
विशेष सावधानी के अभाव में भक्तिलता को जल द्वारा सींचने से अनावश्यक घास-पात भी उग आयेगी, जो
उसकी प्रगति में बाधक सिद्ध होगी। देखा जाता है कि किसी उद्यान में जल देने से के वल इच्छित पौधे ही नहीं बढ़ते ,
अपितु घास-पात भी बढ़ते जाते हैं। यदि माली इन विघ्नों को देखकर निर्मूल न करे , तो वे अवश्य भक्तिलता पर अधिकार
करके उसे सख ु ा डालेंगे। किन्तु यदि साधक सावधानी से अनावश्यक घास को बढ़ने न दे , तो भक्तिरूपी लता निर्बाध
बढ़ती हुई शीघ्र परम लक्ष्य गोलोक वृन्दावन की प्राप्ति कर लेती है। भक्तिमय सेवा में सल ं ग्न जीव जब भगवत् प्रेम रूपी
परम रसमय फल का आस्वादन करता है, तब वह सब कर्मकाण्ड तथा आर्थिक उन्नति को भल ू जाता है। इसके बाद न तो
उसे निजेन्द्रिय सख ु की अभीप्सा रहती है और न वह परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की ज्योति से एक होना चाहता है।
अध्यात्म ज्ञान तथा दिव्य आनन्द के अनेक स्तर हैं। एक स्तर पर वेद द्वारा कहे गये कर्मकाण्ड के यज्ञ, त्याग,
सत्कर्म तथा योगाभ्यास हैं। ये सभी कर्म कर्ताओ ं को विभिन्न फल देने वाले हैं। इन सभी अभ्यासों के फल तभी तक
चित्ताकर्षक प्रतीत होते हैं जब तक भगवत् सेवा के दिव्यातिदिव्य स्तर की प्राप्ति नहीं होती। भगवत्प्रेम सप्तु रूप से
जीवमात्र में विद्यमान है। उसे शद्ध ु भक्ति के अभ्यास से जाग्रत किया जा सकता है, ठीक उसी प्रकार से जैसे सर्प द्वारा डसे
व्यक्ति को क्षार से जगाया जाता है। भक्ति पर इस प्रकार बोलने के अनन्तर श्रीमन्महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी को भगवत्
भक्ति एवं भक्ति के लक्षणों का वर्णन सनु ाया। उन्होंने कहा कि शद्ध ु भक्ति में कृ ष्णभावनामृत में करने के अतिरिक्त अन्य
इच्छाएँ शेष नहीं रह सकतीं। देवपजू न अथवा भगवान् श्री कृ ष्ण के अन्य स्वरूप की उपासना, मनोधर्म या सकाम कर्म
आदि के लिए शद्ध ु '।) में कोई स्थान नहीं होता है। भक्त को इन सभी दषू णों से मक्त
ु होना होगा। भक्त के लिए के वल वे ही
वस्तएु ँ ग्राह्य हैं, जो शरीर रक्षा के लिए आवश्यक हों। शरीर की आवश्यकताओ ं को बढ़ाने वाले अन्य पदार्थों को त्याग
देना चाहिए। अत: शरीर धारण मल ू भतू वस्तओ
ु ं को ही स्वीकार करना चाहिए। शारीरिक आवश्यकताओ ं को कम से कम
कर लेने के द्वारा, श्रीहरिनाम कीर्तन के माध्यम से कृ ष्णभावनामृत के उदय में, समय का अधिक से अधिक उपयोग किया
जा सकता है। शद्ध ु भक्ति का अर्थ सारी शारीरिक इन्द्रियों से निरन्तर भगवत् सेवा करना है। इस समय हमारी सब इन्द्रियाँ
पाधियक ु हैं, क्योंकि शरीर ही उपाधियप्तु है। परिणामत: हम समझते हैं कि यह शरीर किसी समाज, देश अथवा परिवार
विशेष का है। इस प्रकार शरीर कितनी ही उपाधियों से बँधा हुआ है। इसी कारण शरीर की इन्द्रियाँ भी उनके उपाधियों के
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बन्धन में पड़ जाती हैं और परिवार, समाज, देशादि के लिए व्यस्त रहती हैं। इस प्रकार व्यस्त होने पर वे कृ ष्णभावनामृत के
उदय में सहायक नहीं हो सकतीं। इन इन्द्रियों को शद्ध ु करना है। यह तभी होगा जब जीव शद्ध ु रूप से समझ जायेगा कि वह
के वल श्रीकृ ष्ण का है तथा उसका जीवन के वल श्रीकृ ष्ण के सेवार्थ है। भक्त को अपना स्वरूप श्रीकृ ष्ण के नित्य दास के
रूप में देखना चाहिए। इस प्रकार वह अपनी इन्द्रियों को भगवत् सेवा में नियक्त ु कर सकता है। ऐसी क्रिया ही विशद्ध ु भक्ति
कहलाती है।
शद्ध
ु भक्त को दिव्य प्रेममयी भगवत् सेवा ही चाहिए। निज इन्द्रियतृप्ति प्रदायक सब प्रकार के मोक्षों को वह त्याग
देता है। श्रीमद्भागवत (3.29.11-13) में भगवान् कपिल ने कहा है कि शद्ध ु भक्त के कान में जैसे ही अन्तर्यामी परम ईश्वर
भगवान् श्रीकृ ष्ण की कीर्ति तथा दिव्य गणु ावली प्रवेश करती है, तत्क्षण उसकी मनोवृत्ति प्रभु की ओर उसी प्रकार
प्रवाहित होने लगती है, जैसे गंगाजल समद्रु की ओर स्वाभाविक रूप से बहता रहता है। भगवान् श्रीकृ ष्ण की सेवा में ऐसा
स्वाभाविक आकर्षण शद्ध ु भक्ति में सर्व प्रधान है। भगवत् भक्ति को शद्ध
ु तभी कहा जाता है जब हम प्राकृ त बाधाओ ं से
अप्रभावित रहकर निष्काम भाव से भगवत् सेवा में संलग्न रहें। शद्ध ु भक्त सालोक्य (भगवान् के समान लोक), सार्टि
(भगवान् के समान ऐश्वर्य), सारूप्य (भगवान् के समान रूप), सामीप्य (भगवान् के समीप निवास) अथवा सायज्ु य
(भगवान् में लीन होने) की इच्छा नहीं रखता। भगवान् के देने पर भी वह उन्हें त्याग देता है। भक्त वास्तव में भगवान् की
प्रभमु यी सेवा कार्य में निरन्तर इतना संलग्न रहता है कि इस कार्य के अतिरिक्त किसी अन्य लाभ के विषय में सोचने का
उसे अवकाश ही नहीं होता। जिस प्रकार एक साधारण सांसारिक व्यापारी कार्य में व्यस्तता के समय अन्य कुछ नहीं
सोचता, उसी भाँति भगवत्सेवापरायण भक्त उस सेवा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं सोच पाता।
भगवत् सेवा में ऐसी तन्मयता को प्राप्त भक्त को भक्ति के परम शिखर पर आरूढ़ समझना चाहिए। ऐसी दिव्य
भक्ति (प्रेममयी भगवत् सेवा) के द्वारा ही माया के प्रभाव से मक्त ु होकर भगवत्प्रेम के परम विशद्ध ु रस का आस्वादन
सम्भव है। जब तक भक्ति, मक्ति ु की वासना रूपी मायावी पिशाचियाँ हृदय में बैठी हैं, तब तक कोई भी भक्तिजनित परम
दिव्य प्रेममयी भगवत् सेवा का रसास्वादन नहीं कर सकता।
भगवत् भक्ति की तीन श्रेणियाँ हैं : भक्ति के उदय की प्रारम्भिक श्रेणी, द्वितीय : भगवत् सेवा की सिद्धि एवं अन्त में
भगवत् प्रेम प्राप्ति । भगवत् भक्ति के उदय की विधियाँ नौ हैं। जैसे -श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि। प्रथम श्रेणी में इन सभी
विधियों का उपयोग किया जाता है। श्रद्धा-भक्ति सहित श्रवण तथा कीर्तन करने से प्राकृ त अनर्थों की शनै:-शनै: निवृत्ति हो
जाती है। जैसे-जैसे भत का विश्वास भक्ति में बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे ही वह उच्चतर सिद्धावस्था की प्राप्ति में आश्वस्त
होता जायेगा। इस प्रकार वह भक्ति से दृढ़तापर्वू क यक्त ु होकर तथा अपनी भक्ति विषयक रुचि का परिवर्धन करके भक्ति
का आकर्षण तथा परमानन्दानभु ति ू प्राप्त कर सकता है। यह भक्ति-जनित आनन्द का अनभु व भगवत्-प्रेम की प्रारम्भिक
अवस्था में ही होने लगता है। फिर निरन्तर श्रवण-कीर्तन से भाव परिवर्धित होकर भगवत्प्रेम का नाम धारण कर लेता है।
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

तृतीय श्रेणी में दिव्य भगवत्प्रेम की प्राप्ति होने पर, क्रमश: राग, अनरु ाग, भाव तथा अन्त में परमोच्च महाभाव की
प्राप्ति होती है। इन अवस्थाओ ं में क्रमश: उन्नति गने के रस के घनीभतू होने के समान है। सर्वप्रथम, गने का रस द्रव रूप में
होता है। वाष्पीकरण से खाँड में बदल जाता है; तथा अन्त में अत्यन्त घनीभतू होकर शर्क रा (शक्कर) आदि बन जाता है।
जिस प्रकार गने का रस एक से दसू री अवस्था में उन्नत होता है, उसी प्रकार दिव्य भगवत्प्रेम विभिन्न अवस्थाओ ं में
क्रमश: उन्नतोज्वल होता जाता है।
वस्ततु : भक्ति के शद्धु सत्व में आरूढ़ होने पर ही स्थिर रहना सम्भव है। अन्य स्तरों पर स्थिति सदृु ढ़ नहीं हो
सकती, वहाँ से गिर जाना सम्भव है। भक्ति के दिव्य स्तर पर स्थित हो जाने पर पतन का भय सर्वथा समाप्त हो जाता है।
इस स्थिति को 'स्थायीभाव' कहते हैं। इससे भी श्रेष्ठ विभाव, अनभु ाव, सात्विक, व्यभिचारी आदि अनेक स्थितियाँ हैं।
इनकी प्राप्ति के उपरान्त भगवान् श्रीकृ ष्ण के साथ रस-आस्वादन अथवा दिव्य-क्रीड़ा होती है। प्रेमी प्रियतम में ऐसा
पारस्परिक प्रेममय विनिमय सामान्यत: कृ ष्णभक्तिरस कहलाता है। यह स्मरणीय है कि दिव्य प्रेमरस विनिमय पर्वू वर्णित
स्थायीभाव की दृढ़ भमि ू पर स्थित है। विभाव का मल ू सिद्धान्त स्थायीभाव है तथा अन्य सभी क्रीड़ाएँ भगवत्प्रेम की वृद्धि
में सहायक हैं, अर्थात् संचारी भाव हैं।
दिव्य भगवत्प्रेम रूपी विभाव के दो अगं हैं : आलम्बन और उद्दीपन। आलम्बन के दो भेद हैं : आश्रयालम्बन
और विषयालम्बन। कृ ष्णरति के विषयालम्बन श्रीकृ ष्ण हैं तथा आश्रयालम्बन श्रीकृ ष्ण भक्तिरस है। श्रीकृ ष्ण के दिव्य गणु
उद्दीपन हैं; श्रीकृ ष्ण की दिव्य गणु ावली श्रीकृ ष्ण सेवा के लिए भक्त को प्रोत्साहित करती है। निराकारवादी (मायावादी)
दार्शनिक कहते हैं कि परम सत्य निर्गुण है, किन्तु वैष्णव आचार्यों का कथन है कि परम सत्य को निर्गुण कहने का कारण
उसमें प्राकृ त गणु ों का न होना है। इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि उसमें दिव्य गणु भी नहीं हैं। वास्तविकता यह है कि
श्री श्यामसन्ु दर के दिव्य गणु इतने अनन्त तथा मनमोहक हैं कि आत्मारामों को भी आकृ ष्ट कर लिया करते हैं। इसका
वर्णन श्रीमद्भागवत के आत्माराम श्लोक में है। उस श्लोक के अनसु ार आत्मज्ञानी मनि ु भी श्रीकृ ष्ण के अप्राकृ त गणु ों से
आकृ ष्ट हो जाया करते हैं। अत: नि:सन्देह श्रीकृ ष्ण के गणु मायिक न होकर परम विशद्ध ु तथा चिन्मय हैं।
अनभु ाव (भाव की उच्च अवस्था) के तेरह लक्षण हैं:(1) नृत्य, (2) भमि ू पर लेटना, (3) गाना, (4) उच्च स्वर में
पक ु ारना, (5) अगं ड़ाई लेना, (6) हुक ं ार भरना, (7) जैंभाई लेना, (8) लम्बे श्वास छोड़ना, (9) लोक लजा-त्याग, (10)
लार टपकाना, (11) अट्टहास, (12) चक्कर आना, (13) हिचकी आना। इन सारे के सारे लक्षणों का एक साथ उदय नहीं
होता। श्रीकृ ष्ण-सम्बन्धी विभिन्न दिव्य रसों के अनसु ार ही ये प्रकट होते हैं। किसी समय एक लक्षण प्रमख ु रहता है तो
कभी दसू रा।
श्रीकृ ष्ण-विषयक दिव्य रस पाँच हैं। प्रारम्भिक रस है शान्त रति। इसमें जीवनमक्त ु परुु ष परम परुु षोत्तम भगवान् के
ऐश्वर्य का आस्वादन करता है। इस अवस्था को प्राप्त भत भगवान् की दिव्य प्रेममयी सेवा में भलीभाँति सल ं ग्न नहीं हो
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पाता, कारण यह तटस्थ अवस्था है। दास्य रति नामक द्वितीय अवस्था में भक्त भगवान् के नित्य दास के रूप में अपनी
स्थिति का आस्वादन करता है। उसे ज्ञात रहता है कि वह नित्य भगवान् की अहैतक ु ी कृ पा पर आश्रित है। साथ ही, इस
स्तर पर राग का स्वाभाविक उदय प्रारम्भ होता है जैसा कि बड़े होने पर पिता के उपकारों को समझने पर पत्रु में होता है।
इस स्थिति में माया के स्थान पर जीव श्री श्यामसन्ु दर की सेवा करना चाहता है। सख्य रति रूपी तीसरी अवस्था में
भगवत्प्रेम आगे बढ़ जाता है तथा भक्त प्रेम तथा आदर के समस्तर पर भगवान् के साथ क्रीड़ा करता है। इस रस में वृद्धि
होने पर परस्पर हास परिहास आदि होते हैं। भगवान् के साथ सख्य प्रेम का आस्वादन होता है ; जीव सर्व-बन्धन विमक्त ु हो
जाता है। इस स्थिति में भक्त को जीवरूप में अपनी नीची स्थिति का बिल्कुल विस्मरण-सा हो जाता है; साथ ही परम परुु ष
श्रीकृ ष्ण के प्रति उसमें सम्भ्रम भाव बना रहता है।
वात्सल्य रति नामक चौथी श्रेणी में प्रदर्शित सख्य राग वात्सल्य राग के रूप में परिवर्तित हो जाता है। उस समय
जीव भगवान् श्रीकृ ष्ण में पत्रु भाव रखता है। भगवत पजू न करने के स्थान पर माता-पता के रूप में जीव स्वयं भगवान् का
पज्ू य बन जाता है। भगवान् इस अवस्था में अपने शद्ध ु भक्त के कृ पापात्र बनकर उनके वश में हो जाते हैं। इस श्रेणी के भक्त
वह उच्च स्थिति प्राप्त कर लेते हैं, जिसमें वे भगवान् का आलिंगन एवं ललाट चम्ु बन कर सकते हैं। मधरु रति नामक पंचम
श्रेणी में प्रियतमा और प्रेमी में माधर्यु रति का वास्तविक परस्पर अलौकिक आस्वादन हुआ करता है। श्रीकृ ष्ण एवं
व्रजरमणियों का एक-दसू रे को देखना इसी श्रेणी की रति थी, क्योंकि इसी में परस्पर प्रेममय दृष्टिपात, नेत्र चांचल्य, मधरु
सम्भाषण, आकर्षक हास्य आदि होते हैं।
इन पाँच प्रधान रसों के अतिरिक्त हास्य, अद्भुत, वीर, करुण, रौद्र, भयानक तथा वीभत्स नामक सात उपप्रधान रस
हैं। उदाहरणार्थ, श्री भीष्म का भगवान् श्रीकृ ष्ण के साथ योद्धा रूप में वीर रस का सम्बन्ध था। हिरण्यकशिपु को भयानक
तथा वीभत्स रस का अनभु व हुआ। शद्ध ु भक्त के हृदय में पाँच प्रधान रस सदा विद्यमान रहते हैं। इन्हें अधिक आस्वाद्य
बनाने के लिए सात उपप्रधान रसों का भी समय-समय पर उदय-विलय होता रहता है। प्रधान रसों को परिपष्टु करके वे
शान्त हो जाते हैं।
शान्त भक्तों के उदाहरण हैं : कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबद्ध ु , पिप्पलायन आविहोत्र, द्रविड़ अथवा दमि ु ल, चमस
और करभाजन नामक नौ योगी। चारों कुमार (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्) भी इसी श्रेणी में हैं। दास्य रति नामक
द्वितीय श्रेणी के सेवक भाव वाले भक्तों में गोलोक रस में रतक, चित्रक तथा पत्रक हैं। ये सभी श्रीकृ ष्ण के अनगु त हैं।
द्वारका में दारुक एवं वैकुण्ठ लोकों में हनमु ान आदि हैं। वृन्दावन में श्रीदामा तथा द्वारका एवं कुरुक्षेत्र के रण में भीम और
अर्जुन सख्य रति के भक्त हैं। इनके अतिरिक्त, दसू रे भी हैं। श्रीकृ ष्ण के वात्सल्य-प्रेमियों में यशोदा मैया और नन्द महाराज
जैसे भक्त अर्थात् श्रीकृ ष्ण के माता, पिता, गरुु जन आदि हैं। मधरु प्रेम में व्रजभमि ू वृन्दावन की रमणियों, द्वारका की
महिषियों तथा लक्ष्मियों की स्थिति है। इस रस के अनन्त भक्तों की गणना कोई नहीं कर सकता।
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भगवान् श्रीकृ ष्ण में रति (प्रेमभाव) दो प्रकार की होती है। ऐश्वर्य ज्ञानमिश्रा और के वला रति। पहले प्रकार के
प्रेमभाव में गौरव, बद्धि
ु एवं पज्ू य भाव-मिश्रित रहता है। इस प्रकार के भाव में पर्णू स्वतन्त्रता का अभाव-सा है। इसका
प्रकाश मथरु ा तथा वैकुण्ठादि लोकों में है। इन भगवद ् धामों में दिव्य प्रेममयी सेवाभावना संकुचित रहती है। किन्तु गोलोक
वृन्दावन में स्वच्छन्द निर्बाध प्रेम का आस्वादन है। गोप-बालकों एवं व्रजसन्ु दरियों को श्रीकृ ष्ण की पर्णू भगवत्ता का समग्र
ज्ञान है, फिर भी उनके साथ परम अन्तरंगता होने के कारण वे ऐश्वर्यजन्य गौरवबद्धि ु एवं आदर भाव का प्रदर्शन नहीं करते ,
यह के वला रति है। पाँच प्रधान परम दिव्य रसों में ऐश्वर्यजनित आश्चर्य और आदरभाव कभी-कभी भगवान् की वास्तविक
महानता का आच्छादन करने वाले विध्न सिद्ध होते हैं और कभी-कभी भक्त भी भगवत्-सेवा में बाधक तक बन जाते हैं।
सख्य, वात्सल्य एवं मधरु भाव में ऐसा गौरव-भाव और आदर-भाव घट जाता है। उदाहरणस्वरूप श्री वसदु वे और
देवकीजी के पत्रु रूप में श्रीकृ ष्ण के प्रकट होने पर माता-पिता आश्चर्य आदर सहित उनकी स्तति ु करने लगे, क्योंकि उन्हें
ज्ञात था कि स्वयं परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण अथवा विष्णु उनके अबोध बालक के रूप में प्रकट हुए हैं। श्रीमद्भागवत (10.4451)
से यह स्पष्ट है। यद्यपि भगवान् श्रीकृ ष्ण बालक रूप में प्रकट थे , किन्तु वसदु वे -देवकी ने उसका स्तवन किया। विश्वरूप
दर्शन करके अर्जुन भयभीत हो गये तथा अन्तरंग मित्र के रूप में कियो गये श्रीकृ ष्ण से अपने व्यवहार के लिये क्षमा
याचना करने लगे। मित्ररूप से अर्जुन ने अनेक अवसरों पर उनसे निर्बाध व्यवहार किया था, किन्तु अद्भुत एवं परम
आश्चर्यमय विश्वरूप को देखकर वे कहने लगे :
ਡੇਰਿ ਸਨ। ਸ਼i ਫੂi है कृ ष्ण है यादव हे सखेति/ अजन्त्// #f हस/् न#् तवेद HeյT THIg|ԾTUթ- alfգ ||
* «IIԳՅ|{{Ieft|{{փdisf: লিল্লাR্যাতত্ত্বাৱলম্বীসদস্তু। ঙ্গেীতগুলাস্বেস্থান
&dqH ঞ্চ f ackIIզգ (G|Կ6 զgգ4զII
“आपकी महिमा को न जानकर पर्वू में मैंने आपको 'हे कृ ष्ण, हे यादव, हे सखा', ऐसे पक ु ारा है। प्रमाद अथवा
प्रेमवश मेरे द्वारा हुए वे सब अपराध क्षमा कीजिए। विश्राम करते हुए अथवा एक ही शय्या पर लेटे हुए या भोजन करते
समय मैंने अनेक बार एकान्त में एवं मित्रों के सामने भी आपका अपमान किया है। हे अच्यतु ! मेरे उन सब अपराधों को
कृ पया क्षमा करें !' (भगवद्गीता 11.41-42)
इसी प्रकार श्रीकृ ष्ण के हास-परिहास से श्रीमती रुक्मिणी देवी को यह भय हो गया कि श्रीकृ ष्ण मझु े त्याग रहे हैं, वे
इतनी उद्विग्न हो उठीं कि श्रीकृ ष्ण की सेवा में संलग्न चमर उनके करारविन्द से छूट गया तथा वे स्वयं भी अचेतन अवस्था
में भमि
ू पर गिर पड़ीं। श्रीधाम वृन्दावन में श्रीकृ ष्णजननी यशोदाजी के सम्बन्ध में श्रीमद्भागवत (10.8.4%) में वर्णन है :
ਬਟਕ ਜਿਮ ਕੁ : 3գի4զI-IզlՅI Piéf ՎIզrld/ANIզII '

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वेद, उपनिषद् तथा सांख्य दक्षनि आदि सारे प्रामाणिक शास्त्रों द्वारा आराधित परमपरुु ष श्रीभगवान् को यशोदा
मैया गर्भ से उत्पन्न हुआ माना करती थीं।' श्रीमद्भागवत (10.9.12) में यह भी वर्णन है कि यशोदा मैया ने अपने शरीर से
उत्पन्न साधारण बालक की भाँति बालकृ ष्ण को रस्सी से बाँध लिया। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत (10.18.24) में श्रीकृ ष्ण
से व्यवहार के अन्य वर्णन भी हैं। क्रीड़ा में मित्रों से पराजित हो जाने पर श्रीकृ ष्ण उन्हें, विशेषत: श्रीदामा को कन्धे पर
उठाते थे।
श्रीधाम वृन्दावन में श्री गोपीजन एवं श्रीकृ ष्ण के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में श्रीमद्भागवत (10.30,36-40)
में उल्लेख है कि जब श्रीकृ ष्ण रास-मण्डल से श्रीमती राधारानी को एकान्त में ले गये तो वे समझीं की श्रीकृ ष्ण ने अन्य
गोपियों को त्याग दिया। यद्यपि वे सभी समान सन्ु दरी थीं, तथापि श्रीकृ ष्ण ने उन्हें इस प्रकार सन्तष्टु किया। अत: वे
मानपर्वू क सोचने लगीं, 'प्रियतम कृ ष्ण ने सब सन्ु दरी गोपियों का त्याग कर दिया। वे के वल मझु से ही सन्तष्टु होते हैं। 'वन में
उन्होंने श्रीकृ ष्ण से कहा, 'प्रियतम श्रीकृ ष्ण! मैं और स्वयं चलने में असमर्थ हू।ँ अत: अपनी इच्छानसु ार मझु े कहीं भी ले
चलो।" श्रीकृ ष्ण ने कहा, 'प्रिये! मेरे कन्धे का सहारा ले लो।" यह कहते ही वे अन्तर्धान हो गये, जिससे श्रीमती राधारानी
को अत्यन्त पश्चाताप हुआ।
रास-मण्डल से श्रीकृ ष्ण के तिरोहित हो जाने पर सब गोपिकाएँ पश्चाताप करते हुए कहने लगी, 'प्रिय कृ ष्ण! अपने
पति, पत्रु , सम्बन्धी, भाई तथा मित्रादि को त्याग कर, उनके आदेश की अवहेलना करके हम तम्ु हारे पास आये हैं; हमारे
इस प्रकार आने का कारण तमु भली प्रकार जानते हो। तम्ु हें पता है, तम्ु हारी वंसी के परम मधरु स्वर में मग्ु ध और परवश
होकर हम यहाँ आये हैं। किन्तु तमु इतने कपटी हो कि मध्यरात्रि के समय हम जैसी रमणियों को त्याग रहे हो। तम्ु हारे लिए
यह बिलकुल शोभा नहीं देता।'
अब शान्त रस के स्वरूप का वर्णन किया जाता है। 'शम' शब्द का अर्थ मन का सयं म करके और भगवान् श्रीकृ ष्ण
में के न्द्रित कर उसे इधर-उधर भटकने से रोकना है। परम ईश्वर श्रीकृ ष्ण में एकाग्र चित्त वाले को शम-स्तर पर स्थित समझा
जाता है। इस स्तर पर भक्त को यह ज्ञान होता है कि प्रत्येक अनभु वगत वस्तु के मल ू श्रीकृ ष्ण हैं। इसका वर्णन भगवद्गीता
(7,19) में है। वह जानता है कि श्रीकृ ष्ण प्रत्येक वस्तु में वर्तमान हैं एवं सम्पर्णू सृष्टि में व्याप्त हैं। यद्यपि प्रत्येक वस्तु परम
ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के नियन्त्रण में, उनकी शक्ति में स्थित है, पर फिर भी उस सबसे श्रीकृ ष्ण का निज रूप भिन्न है।
भक्तिरसामृतसिन्धु के अनसु ार यह समझने वाला एवं श्रीकृ ष्ण में एकाग्रबद्धि ु भत शम को प्राप्त हो चक ु ा है। इसके
अतिरिक्त, भगवान् श्रीकृ ष्ण कहते हैं : शसी सनिष्ठता बद्ध ु -जब तक कोई शान्त रति के स्तर पर नहीं पहुचँ ता, तब तक वह
श्रीकृ ष्ण के ऐश्वर्य-ज्ञान में अथवा सम्पर्णू प्रकट सृष्टि के कारण श्रीकृ ष्ण की विभिन्न शक्तियों के एकत्व ज्ञान में ठीक स्थित
नहीं हो सकता। यही निर्देश श्रीमद्भागवत (11.19.36) में है :

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

ੇ ਫੜਿH 1 নিনিপ্পা দু:স্তন্ত্ৰজননক্ষ্মী লিল্লী-গুড়ান্তী


ਸੀ ਸਜਿਲ i। ਕੁਫ਼ਸ
স্থান: |
'भगवान् श्री गोविन्द ही सबके आदि कारण हैं। इस निर्णय पर पहुचँ ने वाले को मन की एकाग्र स्थिति प्राप्त हो
सकती है। इन्द्रिय-निग्रह की संज्ञा 'दम' है। इन्द्रियदमन तथा मनोनिग्रह के लिए सब द:ु खों को सहन करना तितिक्ष/अथवा
सहनशीलता है। तथा जिह्वा और उपस्थ को जीत लेना ध्रति ु है। धृतिवान् धीर और शान्त रहता है। शान्त परुु ष जिह्वा और
उपस्थ के वेग से कभी नहीं विचलित होता।'
मन को श्रीकृ ष्ण में अविचलित रूप में के न्द्रित करने से शान्तरस नामक कृ ष्णभावनामृत में सदृु ढ़ स्थिति हो जाती
है। शान्तरस में श्रीकृ ष्ण के प्रति अडिग विश्वास स्थापित होता है, जिसके फलस्वरूप समचू ी विषयवासना निवृत्त हो जाती
है। शान्तरस के ये विशिष्ट लक्षण - श्रीकृ ष्ण में पर्णू विश्वास (निष्ठा) तथा श्रीकृ ष्ण से सम्बन्ध-हित सारी कामनाओ ं को
त्याग -सभी रसों में पाए जाते हैं, उसी प्रकार जैसे शब्द गणु अन्य सभी तत्वों (वाय,ु अग्नि, जल, भमि ू ) में पाया जाता है,
क्योंकि उसका कारण आकाश है। इसी न्याय से शान्तरस के ये दोनों गणु अन्य सब दिव्यरसों (दास्य, सख्य, वात्सल्य,
माधर्यु आदि) में भी रहते हैं।
जब हम 'अकृ ष्ण' वस्तु के विषय में बोलते हैं अथवा श्रीकृ ष्ण से सम्बन्ध रहित कामना करते हैं, तो इससे यह
अभिप्राय नहीं कि कोई भी वस्तु श्रीकृ ष्ण से रहित हो सकती है। वास्तव में तो 'अकृ ष्ण' कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि
सभी कुछ कृ ष्णशक्ति का कार्य है। श्रीकृ ष्ण तथा उनकी शक्ति में अभेद होने के कारण एक प्रकार से तो सभी कुछ कृ ष्णमय
है। उदाहरणस्वरूप चेतना जीवमात्र में है। किन्तु श्रीकृ ष्ण पर के न्द्रित चेतना या भावना (कृ ष्णभावनामृत) शद्ध ु होती है,
जबकि श्रीकृ ष्ण के अतिरिक्त किसी वस्तु पर के न्द्रित अथवा विषय भोगोन्मख ु ी भावना को अकृ ष्ण भावना कह सकते हैं।
अत: के वल दषि ू त अवस्था में ही अकृ ष्ण धारणा हो सकती है। शद्ध ु ावस्था में तो कृ ष्ण भावना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं
है।
श्रीकृ ष्ण में सक्रिय रुचि-अर्थात श्रीकृ ष्ण मेरे हैं अथवा मैं श्रीकृ ष्ण का हूँ तथा मेरा एकमात्र कर्म श्रीकृ ष्ण की
इन्द्रियों की तृप्ति करना है-यह ज्ञान निर्विशेष शान्तरस से उच्चतर अवस्था की विशेषता है। श्रीकृ ष्ण के ऐश्वर्य को जानने
मात्र से जीव शान्तरस की स्थिति प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था का उपास्य निराकार ब्रह्म अथवा परमात्मा भी हो
सकता है। निराकार ब्रह्म और परमात्मा की उपासना ज्ञानी तथा योगी करते हैं। किन्तु कृ ष्णभक्ति अथवा अध्यात्म ज्ञान में
और अधिक उन्नति करने वाला जान जाता है कि सर्व व्यापक भगवान् श्रीकृ ष्ण ही नित्य उपास्य हैं। ऐसा जानकर वह
शरण ले लेता है। बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्स प्रपद्यते (भगवद्गीत T7,19) 'ब्रह्वा और परमात्मा की उपासना से यक्त ु बहुत
से जन्मों के बाद कहीं जाकर जब जीव श्री वासदु वे (श्रीकृ ष्ण) की शरण में जाता है तथा अपने को श्री वासदु वे का नित्य
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

सेवक समझता है, तब वह एक दिव्यानभु ति ू यक्त


ु महात्मा बन जाता है।' उस समय परम सत्य स्वरूप श्रीकृ ष्ण के साथ पर्णू
सम्बन्ध के कारण वह भगवान् श्रीकृ ष्ण की दिव्य प्रेमसेवा में नियक्त ु हो जाता है। इस प्रकार शान्तरस नामक तटस्थ
अवस्था दास्य रस में रूपान्तरित हो जाती है।
दास्यभाव में परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के प्रति सर्वाधिक आश्चर्य व सम्भ्रम भाव सचिू त होता है। भाव यह है कि
दास्यरस में प्रभु के ऐश्वर्य के आस्वादन की प्रधानता रहती है। यह स्मरणीय है कि शान्तरस में भगवत्सेवा-कार्य का अभाव
है। दास्य स्तर पर ही सेवा-कार्य प्रारम्भ होता है। अत: दास्यरस में शान्तरस के विशिष्ट गणु ों के साथ भगवत्सेवा के दिव्य
आस्वादन का भाव भी रहता है।
शान्त और दास्यरस में दिव्य गणु अवश्य विद्यमान रहते हैं, पर इनसे श्रेष्ठ एक अन्य गणु भी है-विश्वासपर्णू भाव
अथवा विशद्ध ु भगवत्प्रेम। भगवान् श्रीकृ ष्ण में प्रेममय विश्वास विश्रम्भ कहलाता है। विश्रम्भ-प्रेम के स्तर पर भगवान् में
गौरव-बद्धिु की निवृत्ति हो जाती है। अत: सख्यरस नामक दिव्य प्रेमरस में तीन दिव्य गणु हैं :कृ ष्णनिप्ठा, सेवाभाव तथा
गौरवबद्धि
ु रहित अन्तरंगता। इस प्रकार सख्यरस में अलौकिक गणु ावली का क्रमश: विकास होता है।
ऐसे ही वात्सल्य रस में चार गणु हैं। पर्वोू वत तीन गणु ों के अतिरिक्त इसमें यह भाव भी रहता है कि भगवान् भक्त
के कृ पा-पात्र हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण के माता-पिता के रूप में भत कभी-कभी उन्हें अनश ु ासित करता है, क्योंकि वह अपने
को उनका पालनकर्ता समझता है। सबके पालनकर्ता का पालनकर्ता होने का यह भाव भक्त और भगवान् दोनों के लिए
परम सख ु दायक है।
श्रीमन् महाप्रभु ने श्री रूप गोस्वामी को भक्तिरसामृतसिन्धनु ामक दिव्य ग्रन्थ लिखने तथा पाँच दिव्य रसों के तत्व-
विवरण सहित भक्तिविज्ञान का वर्णन करने का आदेश दिया। इस दिव्य और महान् ग्रन्थ में श्रीकृ ष्ण में सदृु ढ़ विश्वास वाले
शान्त रस के सेवा भावमय दास्य रस में परिवर्द्धन होने का वर्णन है । तत्पश्चात् भक्त क्रमशः सख्यरस तथा उससे भी श्रेष्ठ
वात्सल्यरस के दिव्य स्तर पर पहुचँ ता है, जहाँ वह अपने को प्रभु का पालक मानता है। इन सभी रसों का पर्यवसान मधरु स
के परमोच्च स्तर पर है, जहाँ ये सभी एक साथ विद्यमान रहते हैं।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

अध्याय 2
श्री सनातन गोस्वामी
ਕ 5 ਜਪੂ8%i ਬੰ ਨਸਫ I । ਜੀਬ 5 ਧਿ ਲ i I ਮ I ਲਸ਼ਕ ਕਿ: ॥
जिनके अनग्रु ह से अधम से अधम जीव भी भक्ति-शास्त्र का प्रवर्तक हो जाता है, अनन्ताद्भुत ऐश्वेर्यशाली उन श्री
गोरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु की मैं वन्दना करता हूँ ।’’
संन्यास आश्रम ग्रहण करने पर श्रीमन् महाप्रभु ने सम्पर्णू भारतवर्ष का भ्रमण किया। इसी काल में वे बंगाल के
माल्दा जिले में भी गये। उस क्षेत्र के रामके लि नामक ग्राम । नवाब हुसैन शाह के शासन के दो मन्त्री रहते थे। उस समय
उनके नाम साकर मल्लिक और दबीर खास थे। यही कुछ काल बाद श्री सनातन और श्री रूप गोस्वामी ।'लाये। श्री
गौरसन्ु दर महाप्रभु की प्रेरणा से उन्होंने शासन-कार्य को त्यागकर उनके सक ं ीर्तन-यज्ञ में सम्मिलित होने का निश्चय किया।
यह निश्चित करके दोनों भाइयों ने अविलम्ब अपने को सांसारिक बन्धन मक्त ु करने उद्देश्य से उद्योग प्रारम्भ कर
दिया। साथ ही, उन्होंने दो वैदिक ब्राह्मणों को वैदिक कृ त्यों में नियक्त
ु किया, जिससे भगवान् श्रीकृ ष्ण की सेवा में लगने के
लिये उन्हें संसार से पर्णू स्वतन्त्रता प्राप्त हो जाये। इन प्रारम्भिक कृ त्यों को परु श्चरण कहते हैं। इन कर्मकाण्डों में दिन में
त्रिकाल पितृश्राद्ध, यज्ञ तथा ब्रह्मभोज अनिवार्य है। समय का नियम, पजू ा, तर्पण, यज्ञ तथा ब्रह्मभोज इन पाँचों से परु श्चरण
की पर्ति
ू होती है। विधि विधान के प्रामाणिक ग्रन्थ श्रीहरिभक्तिविलास में ऐसे सब कृ त्यों का विवरण है।
उक्त कर्मकण्ड का अनष्ठु ान करके दोनों में छोटे दबीर खास (रूप गोस्वामी) शासन सेवा में अर्जित अपनी विपल ु
धनराशि सहित घर लौट आये। उनके द्वारा लाये स्वर्ण और रजतमद्रु ाओ ं से एक बड़ी भारी नौका भर गई। घर पहुचँ ने पर
उन्होंने सबसे पहले उस सम्पदा के दो भाग करके एक भाग ब्राह्मणों एवं वैष्णवों में वितरित किया। इस प्रकार श्रीभगवान्
की प्रीति के लिए अपनी सम्पति के अर्धाश का उन्होंने भगवान् की प्रेममयी सेवा में लगे जनों में बाँटा। ब्राह्मणों का
एकमात्र कर्तव्य परम सत्यस्वरूप श्रीकृ ष्ण का ज्ञान प्राप्त करना है। श्रीकृ ष्ण का ज्ञान होने के बाद उनकी प्रेम सेवा में यथार्थ
रूप में संलग्न रहने पर उन्हें वैष्णव कहा जाता है। ब्राह्मण और वैष्णव दोनों को सदा भगवत् -सेवा में संलग्न माना जाता है।
अत: श्री रूप गोस्वामी ने उनकी महान् एवं दिव्य स्थिति को देखते हुए उन्हें निजी सम्पत्ति का आधा भाग समर्पित किया।
शेष धन के पनु : दो भाग किए गये-एक भाग का वितरण उन्होंने सम्बन्धियों एवं परिवार के आश्रित सदस्यों में किया;
दसू रा निजी आपत् काल के लिए रख छोड़ा।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

निजी धन का ऐसा वितरण आध्यात्मिक ज्ञान में उन्नति के सब अभिलाषियों के लिए बड़ा शिक्षाप्रद है। प्राय:
धनवान् व्यक्ति अपनी सारी उपार्जित सम्पत्ति कुटुम्बियों के लिए छोड़कर ज्ञान में प्रगति की इच्छा से गृह त्याग देता है।
किन्तु यहाँ श्री रूप गोस्वामी का आदर्श व्यवहार अनसु रणीय है। अपने आधे धन का उन्होंने परमार्थ के लिए दान किया।
सभी के लिए यह अनसु रण योग्य है। निजी संकटों के लिए रखे पचास प्रतिशत धन को उन्होंने एक समृद्ध-व्यापार संस्था में
जमा कर दिया, क्योंकि उस समय बैंक नहीं थे। अपने बड़े भाई श्री सनातन गोस्वामी के व्यय के लिए दस सहस्र मद्रु ा
रखवा दीं।
इसी समय श्री रूप गोस्वामी को समाचार मिला कि श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ परु ी से वृन्दावन के लिए प्रस्थान
करने वाले हैं। श्री रूप गोस्वामी ने प्रभ ु के मार्ग की यथार्थ जानकारी के लिए दो सन्देशवाहक भेजे और स्वयं प्रभु के दर्शन
करने मथरु ा जाने की योजना बनाई। ऐसा प्रतीत होता है कि श्री रूप गोस्वामी को श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु के निकट जाने की
आज्ञा हो गई थी, पर श्री सनातन को नहीं। इसीलिए निजी शासकीय कर्तव्यों को अपने विश्वासपात्र सचिवों को सौंपकर
श्री सनातन गोस्वामी श्रीमद्भागवत का अध्ययन करने घर आ गये और दस-बीस ब्राह्मणों को नियक्त ु करके उनके साथ
श्रीमद्भागवत का गम्भीर अध्ययन करने लगे। इस प्रकार संलग्न होकर उन्होंने नवाब को अपने रोगग्रस्त होने की सचू ना
भेज दी, किन्तु राजकीय कार्यवाही में श्री सनातन के परामर्श के लिए नवाब इतना आतरु था, कि अकस्मात् वह स्वयं
उनके घर आ पहुचँ ा। नवाब के प्रवेश करने पर श्री सनातन गोस्वामी एवं एकत्रित ब्राह्मणों ने उठकर उसका अभिवादन
किया तथा एक उच्च आसन प्रदान किया।
'तमु ने रुग्णता की सचू ना भेजी है,' नवाब ने श्री सनातन से कहा। 'किन्तु मेरे द्वारा भेजे निजी वैद्य ने मझु े सचि ू त
किया है कि तमु पर्णू त: स्वस्थ हो। तम्ु हारे रुग्णता की सचू ना भेजने तथा कार्य पर न आने के कारण को न जानने से मैं स्वयं
तम्हें देखने आया हू।ँ तम्ु हारे व्यवहार से मैं अत्यन्त उद्विग्न हू।ँ तम्ु हें विदित ही है मैं पर्णू त: तमु पर और तम्ु हारे विश्वस्त
सरकारी कार्य पर निर्भर हू।ँ तमु पर निर्भरता के कारण मैं अन्य विषयों की कार्यवाही में स्वतन्त्र था। अब यदि तमु मेरा साथ
नहीं दोगे, तो तम्ु हारा पिछला सब कार्य दषि ू त हो जायेगा। अत: तम्ु हारा आशय क्या है? मझु े स्पष्ट बता दो।'
यह सनु ने पर श्री सनातन गोस्वामी ने उत्तर दिया कि आगे और कार्य करने में वे असमर्थ हैं, अत: नवाब उनको
सौंपे कार्य के लिए किसी अन्य व्यक्ति की नियक्ति ु करने की कृ पा करें । यह सनु कर नवाब बहुत क्रोधित होकर बोला,
'तम्ु हारा बड़ा भाई शिकार करता रहता है; ऐसे में अगर तमु भी प्रशासन का त्याग करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।' कहा
जाता है नवाब श्री सनातन से छोटे भाई जैसा व्यवहार करता था। देश के विभिन्न प्रदेश विजय करने तथा शिकार में व्यस्त
रहने के कारण राजकीय प्रशासन के लिए वह पर्णू रूप से श्री सनातन पर निर्भर था। अत: उसने उनसे अननु य की, 'तम्ु हारे
प्रशासन-त्याग से शासन कै से चल सके गा?'

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

“'आप गौड़ के शासक हैं,' श्री सनातन गोस्वामी ने अत्यन्त गम्भीरता से उत्तर दिया। 'विभिन्न अपराधियों को
आप भिन्न-भिन्न प्रकार से दण्डित करते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को उसके कार्यानरू ु प अनश
ु ासित करने में आप समर्थ
हैं।' इस उत्तर से श्री सनातन का अभिप्राय यह था कि वे दोनों ही अपने कर्मानसु ार, द:ु ख भोगें, क्योंकि नवाब अपने राज्य
का विस्तार करने के लिए पश-ु आखेट तथा मानव-वध में व्यस्त था और वे श्रीमद्भागवत के अध्ययन में मग्न थे।
नवाब बद्धि ु मान् था, अत: श्री सनातन गोस्वामी का अभिप्राय समझ गया और क्रोधित हो वह वहाँ से चला गया।
बहुत शीघ्र उसने उत्कल राज्य पर चढ़ाई कर दी, अपने लौटने तक सनातन को कारागार में बन्द रखने का आदेश वह दे
गया था। नवाब द्वारा अपने भाई के पकड़े जाने का समाचार सनु कर श्री रूप ने उन्हें सचि ू त कराया कि गौड़ में एक व्यापारी
के यहाँ दस हजार मद्रु ा जमा हैं; उनका प्रयोग श्री सनातन अपनी मक्ति ु के लिए कर लें। श्री सनातन गोस्वामी ने अपने
कारागार अध्यक्ष को पाँच हजार मद्रु ा देने का प्रस्ताव किया। श्री सनातन ने उसे वह धन लेकर उन्हें छोड़ देने का परामर्श
दिया, क्योंकि उससे धन स्वीकार करने से वह के वल भौतिक रूप से ही लाभान्वित नहीं होगा, अपितु सनातन को भक्ति
के लिये मक्त ु करके पण्ु योपार्जन भी करे गा।
“अवश्य ही मैं आपको छोड़ सकता हू'ँ अध्यक्ष ने कहा, 'क्योंकि आपने मझु पर अनेक उपकार किये हैं तथा आप
राजकीय प्रशासन में हैं। किन्तु मझु े नवाब का भय है। आपकी कारागार-मक्ति ु सनु कर वह क्या करे गा? मझु े उसको पर्णू
स्पष्टीकरण देना होगा। मैं यह प्रस्ताव कै से स्वीकार कर सकता हूँ?" तब श्री सनातन गोस्वामी ने एक ऐसी कहानी कल्पित
की, जिसे कारागाराध्यक्ष नवाब को सनु ा सके कि सनातन किस प्रकार निकल भागे और अपने प्रस्ताव को दस हजार मद्रु ा
तक बढ़ा दिया। धन के लोभ में कारागाराध्यक्ष सहमत हो गया तथा श्री सनातन को जाने दिया। इस बीच छोटे भाई
वल्लभ के साथ श्री रूप श्रीमन् महाप्रभु से मिलने श्रीधाम वृन्दावन की ओर चल पड़े |
श्री सनातन गोस्वामी भी महाप्रभु मिलनार्थ चले। राजपथ से न जाकर वनमार्ग से गमन कर बिहार में पातड़ा नामक
स्थान में पहुचँ गये। वे एक सराय में ठहरे , किन्तु वहाँ नियक्त ु ज्योतिषी से सराय वाले को सचू ना मिली कि उनके पास कुछ
स्वर्ण-मद्रु ाएँ हैं। धन प्राप्ति की इच्छा से सराय वाला श्री सनातन गोस्वामी से कपटपर्वू क आदर से बोला। 'आज रात आप
विश्राम करें ," वह बोला, 'प्रात:काल इस बीहड़ वन से आपके निकलने की व्यवस्था मैं कर दगँू ा।" किन्तु श्री सनातन
गोस्वामी को उसके व्यवहार से शंका हुई। उन्होंने अपने सेवक ईशान से पछू ा कि कहीं उसके पास धन तो नहीं है। ईशान ने
उत्तर दिया कि उसके पास सात स्वर्ण-मद्रु ाएँ हैं। श्री सनातन गोस्वामी को सेवक का धन रखना ठीक नहीं लगा। उन्होंने
क्रोधित होकर उससे कहा, 'इस मृत्य-ु दतू को मार्ग में साथ क्यों लिये जा रहे हो?'
श्री सनातन ने तरु न्त वे सभी मद्रु ाएँ सराय वाले को दे दीं और उन्होंने उससे वन से निकलने की प्रार्थना की। उन्होंने
उसे सचि ू त किया कि वे एक विशेष राजकीय यात्रा पर जा रहे हैं। अत: राजपथ से जाना उचित न होने के कारण
सरायवाला वन-पर्वत पार करने में उनकी सहायता करने की कृ पा करे ।
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

“मझु े पता था, कि आपके पास आठ स्वर्ण-मद्रु ाएँ हैं और उनके लिये मैं आपको मारने की भी सोच रहा था,
'सराय वाले ने स्वीकार किया। 'पर मैं समझता हूँ कि आप इतने ने श्रेष्ठ मनष्ु य हैं कि अब आपको ये मझु े देने की
आवश्यकता नहीं।'
“यदि तमु ये मद्रु ाएँ नहीं लोगे तो कोई और मझु से ले लेगा, 'श्री सनातन गोस्वामी को उत्तर दिया। 'सम्भव है। इनके
लिए कोई मेरी हत्या भी कर दे। अत: अच्छा होगा यदि तम्ु हीं ले लो। मैं इन्हें तम्ु हें समर्पित करता हू।ँ ' इसके बाद सराय
वाले ने उनकी पर्णू सहायता की तथा उसी रात पर्वतीय मार्ग के पार पहुचँ वा दिया।
पर्वतीय प्रदेश से निकलने पर श्री सनातन ने अपने सेवक से उसके पास शेष बची एक मद्रु ा से घर लौटने का
निवेदन किया। वे अके ले ही आगे जाना चाहते थे। सेवक के लौट जाने पर वे पर्णू त: स्वतन्त्र हो गये। जीर्ण कन्था तथा
कमण्डल हाथ में लेकर श्रीमहाप्रभु से मिलने के लिये आगे चले। मार्ग में शासन में नियक्त ु अपने एक धनाढय सम्बन्धी से
उनकी भेंट हुई। उसके विशेष आग्रह पर श्री सनातन गोस्वामी ने उसका एक बहुत उत्तम कम्बल स्वीकार किया। फिर उनसे
विदा लेकर श्रीमहाप्रभु के दर्शनार्थ उन्होंने वाराणसी के लिए प्रस्थान किया।
वाराणसी पहुचँ कर तथा वहाँ श्रीमहाप्रभु की उपस्थिति सनु कर वे परम आनन्दित हुए। उन्हें सचू ना मिली कि
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु श्री चन्द्रशेखर आचार्य के घर पर विराजमान हैं। अत: प्रभु के दर्शनार्थ वे वहाँ गये। श्री
गौरसन्ु दर महाप्रभु घर के भीतर थे, पर द्वार पर श्री सनातन का आना जानकर उन्होंने श्री चन्द्रशेखर से बाहर बैठे व्यक्ति को
बल ु ाने के लिए कहा। 'वे भगवान् के परम भक्त वैष्णव हैं,' श्रीमन् महाप्रभु ने कहा। श्री चन्द्रशेखर बाहर आये, पर उन्हें कोई
वैष्णव दृष्टिगोचर नहीं हुआ। एक भिक्षसु ा अवश्य दिखा। श्रीमन् महाप्रभु ने उसी भिक्षक ु से मिलने की इच्छा व्यक्त की। श्री
सनातन के भीतर आँगन में प्रवेश करने पर श्रीमहाप्रभु उनके दर्शन एवं आलिगं न के लिए दौड़ पड़े। श्रीमहाप्रभु के
आलिगं न से श्री सनातन गोस्वामी प्रेम भाव समाधि में निमग्न होकर कहने लगे, 'प्रभो! कृ पया मेरा स्पर्श न करें !' पर वे
दोनों पनु ः आलिगं न कर रोने लगे। श्रीमहाप्रभु एवं श्री सनातन को इस स्थिति में देखकर श्री चन्द्रशेखर अवाक् रह गये।
तदपु रान्त श्रीमहाप्रभु ने श्री सनातन को निकट बैठने की आज्ञा दी। वे अपने करकमल से श्री सनातन का स्पर्श कर रहे थे।
अत: श्री सनातन गोस्वामी ने फिर उनसे कहा, 'प्रभो! कृ पया मेरा स्पर्श न करें ।'
'मैं तम्ु हारा स्पर्श के वल आत्मशद्धिु के लिए कर रहा हूँ' श्रीमहाप्रभु बोले, 'तमु महाभागवत हो। अपनी भक्तिसेवा
की सामथ्र्य से तमु सम्पर्णू ब्रह्माण्ड को बन्धनमक्त ु कर सारे जीवों को भगवद्धाम वापस भेज सकते हो।'
श्रीमन् महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत का एक श्लोक पढ़ा, जिसके अनसु ार श्रीकृ ष्णकती में पर्णू संलग्न कृ ष्णभक्त उस
ब्राह्मण से अति श्रेष्ठ है, जो चारों वेदों में पारंगत होने पर भी भगवद्भक्ति से हीन हो। अपने हृदय में स्थित भगवान् श्रीकृ ष्ण
के कारण भक्त सब स्थानों और वस्तओ ु ं को परम पवित्र बना देता है। वैदिक साहित्य में निर्दिष्ट है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण सब
वेद-वेदान्त में दक्ष उच्च विद्वान् को स्वीकार नहीं करते, जबकि अकुलीन होने पर भी भक्त उन्हें प्रिय हैं। अभत ब्राह्मण को
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

दिया दान प्रभु स्वीकार नहीं करते। किन्तु भक्त द्वारा कुछ भी अर्पण करने से वे उसे अपना लेते हैं। अर्थात् जिस भी वस्तु
को भगवान् को अर्पण करना हो वह उनके भक्तो को समर्पित करनी चाहिए। श्रीमहाप्रभु ने भागवत से यह भी बताया कि
बारह ब्रह्मगणु ों से अलंकृत तथा उच्च कुल में उत्पन्न होने पर भी भगवद्भति से शन्ू य ब्राह्मण परमाधम से भी अधिक
अधम है। इसके विपरीत एक श्वान भोजी चाण्डाल-कुल में जन्मा भक्त अपने कुल को शद्ध ु करके पर्वू -उत्तर की शत-शत
पीढ़ियों की भी मक्ति
ु कर सकता है; अभिमानी ब्राह्मण तो अपने को भी पवित्र नहीं कर सकता। हरिभलिसधु ोदय (13.2)
का वचन है :
ননী: ঢ়েল ল্যানুফ্লাI স dা: | ডিব্লিাড়লে লোলুম্বালািনন ক্লি सदु ल ु भ भागवत हि लोके /
“हे प्रह्वाद! तमु जैसे भक्तों के दर्शनों में ही नेत्रों की सार्थकता है, तमु जैसे भक्तों के शरीर-स्पर्श में ही देह की
सार्थकता है तथा तमु जैसे भक्तों के गणु ादि के कीर्तन करने में जिह्वा की सार्थकता है, क्योंकि जगत् में भगवद्भक्त बड़े
दर्ल
ु भ हैं।’’
इस प्रकार भक्तों की महिमा का वर्णन करके श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कहा 'सनातन! सनु ो, श्रीकृ ष्ण अति दयामय
पतितपावन हैं। उन्होंने तम्ु हें महारौरव नरक से निकाल लिया है।' इस महारौरव का श्रीमद्भागवत में उस स्थान के रूप में
वर्णन है जहाँ पश-ु वधिक और मासं ाहारी जाते हैं।
“श्रीकृ ष्ण की कृ पा को तो मैं नहीं जानता, 'श्री सनातन गोस्वामी ने कहा, 'किन्तु इतना अवश्य समझ रहा हूँ कि
मझु पर आपकी अहैतक ु ी कृ पा है। आपने ही सासं ारिक । धन से मझु े मक्त
ु किया है।'
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने उनसे जिज्ञासा की, 'तमु बन्धन से किस प्रकार छूट निकले? मैंने तो सनु ा था कि कारागार
में हो।' श्री सनातन ने अपनी मक्ति ु का सम्पर्णू वृतान्त कह सनु ाया। 'तम्ु हारे भाइयों से मैं भेंट कर चकु ा हू,ँ 'प्रभु ने उन्हें
सचि ू त किया, 'मेरे निर्देशानसु ार वे वृन्दावन गये हैं।"
श्रीमहाप्रभु ने श्री तपन मिश्र तथा श्री चन्द्रशेखर से श्री सनातन गोस्वामी का परिचय कराया तथा श्री पतन मिश्र ने
प्रसन्नतापर्वू क अपने घर भोजन के लिए उन्हें निमन्त्रित किया। प्रभु ने श्री चन्द्रशेखर से श्री सनातन का क्षौर कराने को
कहा, जिससे वे सज्जन लगने लगे। श्री सनातन गोस्वामी की लम्बी बड़ी दाढ़ी श्रीमन ् महाप्रभु को उत्तम प्रतीत नहीं हो रही
थी। स्नान एवं क्षौर के अतिरिक्त उन्होंने श्री चन्द्रशेखर से श्री सनातन गोस्वामी को नवीन वस्त्र पहनाने को भी कहा। स्नान
करने के बाद, श्री चन्द्रशेखर ने उन्हें कुछ उत्तम वस्त्र दिये। जब श्रीमहाप्रभु को पता चला कि श्री सनातन ने नवीन वस्त्र
स्वीकार नहीं किये, वरन् तपन मिश्र से कुछ परु ाने वस्त्र ही लेकर पहने हैं तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए। श्रीमहाप्रभु भिक्षा के
लिए भी तपन मिश्र के घर गये और श्री सनातन गोस्वामी के लिए थोड़ा भोजन रखने के लिए उनसे कहा। श्री तपन मिश्र ने

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

श्री सनातन गोस्वामी को परन्तु भोजन नहीं दिया, अपितु प्रभु के भोजन कर लेने पर उनका प्रसादान्न अर्पित किया, जबकि
श्रीमहाप्रभु विश्राम कर रहे थे।
विश्राम के बाद श्रीमहाप्रभु ने अपने एक भक्त महाराष्ट्रीय ब्राह्मण का श्री सनातन गोस्वामी से परिचय कराया। उस
ब्राह्मण ने श्री सनातन को बनारस निवास के समय में नित्य अपने स्थान पर भिक्षा करने की निमन्त्रण दिया।
'जब तक मैं बनारस में हू,ँ तब तक द्वार-द्वार मैं भिक्षा मागं गंू ा।' श्री सनातन करें गे।'
श्रीमहाप्रभु को श्री सनातन के इस व्यवहार से हार्दिक हर्ष हुआ, किन्तु उनकी दृष्टि उस मल्ू यवान कम्बल पर
गई,जिसे श्री सनातन गोस्वामी के बहनोई ने मार्ग में दी थी, श्रीमहाप्रभु ने कुछ नहीं कहा, पर श्री सनातन समझ गये कि
उनके शरीर पर ऐसे मल्ू यवान वस्त्र का प्रभु अनमु ोदन नहीं कर रहे हैं। श्री सनातन ने उसे त्यागने का सक ं ल्प कर लिया। वे
तरु न्त गंगातट पर गये। वहाँ उन्होंने एक भिक्षक ु को जीर्ण कन्था धोते देखा। श्री सनातन गोस्वामी ने उससे जीर्ण कन्थे के
स्थान पर मल्ू यवान कम्बल ले लेने को कहा। यह प्रस्ताव सनु कर वह समझा कि श्री सनातन परिहास कर रहे हैं।'यह कै से
हो सकता है?' भिक्षक ु ने आश्चर्य से कहा। आप देखने में तो सज्जन प्रतीत होते हैं, फिर इस प्रकार आप मेरा परिहास क्यों
कर रहे हैं।'
“मैं आपका परिहास नहीं कर रहा हूँ' श्री सनातन गोस्वामी ने उन्हें सचि ू त किया। यह मैं पर्णू गम्भीर भाव से कह
रहा हू।ँ क्या आप कृ पापर्वू क उस जीर्ण कन्थे के स्थान पर यह कम्बल स्वीकार करें गे?' भिक्षक ु ने कन्था देकर कम्बल ले
लिया, और सनातन श्रीमन् महाप्रभु के समीप लौट आये।
“तम्ु हारा बहुमल्ू य कम्बल कहाँ गया?" श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने तरु न्त पछू ा। श्री सनातन गोस्वामी ने उन्हें सब
सचू ना दी, तो श्रीमन् महाप्रभु ने उन्हें अपना स्नेह एवं साधवु ाद दिया।'तमु पर्याप्त बद्धि ु मान् हो तथा अब तमु ने सम्पर्णू
भोगासक्ति को निमल ू कर दिया है।' भाव यह है कि सेवाभक्ति के लिए किसी को भगवान् तभी स्वीकार करते हैं, जब वह
प्राकृ त परिग्रहों से पर्णू त: मक्त
ु हो जाय। श्रीमहाप्रभु ने आगे कहा, 'इतना मल्ू यवान कम्बल देह पर डाले हुए भिक्षा माँगना
शोभा नहीं देता। यह परस्पर विरोधी होने से धर्म-हानि होती है और लोग भी उपहास करते हैं।'
“भोगासक्ति से मक्ति ु पाने के लिए मैं जो कुछ कर रहा हूँ वह सब आपकी कृ पा है।" श्री सनातन गोस्वामी ने उत्तर
दिया। श्रीमन् महाप्रभु उनसे बहुत प्रसन्न हुए एवं दोनों ने पारमार्थिक विषयक चर्चा की। भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु तथा
श्री सनातन गोस्वामी की इस भेंट से पर्वू श्रीमहाप्रभु श्री रामानन्द राय नामक एक गृहस्थ से मिल चक ु े थे। उस भेंट में,
जिसका विवरण आगे किया जायेगा, श्रीमहाप्रभु ने श्री रामानन्द राय से अनेक प्रश्न किये तथा श्री रामानन्द ने गरुु वत् उत्तर
दिये। किन्तु इस समय श्री सनातन ने प्रश्न किये तथा स्वयं श्रीमन् महाप्रभु ने उनके उत्तर दिये।
श्रीमहाप्रभु चैतन्यदेव के उपदेश तथा शिक्षाएँ जन-साधारण के लिए परम महत्वपर्णू हैं। श्रीमहाप्रभु ने भक्ति की
शिक्षा प्रदान की है, जो जीव का स्वरूपभतू स्वाभाविक धर्म है। भगवत्-विद्या में प्रगति करना वस्ततु : प्रत्येक मानव का
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

कर्तव्य है। श्रीमहाप्रभु तथा श्री श्री सनातन के सत्संग में अनेक भगवत् विषयों की विशद् चर्चा हुई है। श्रीमहाप्रभु की कृ पा
से श्री सनातन गोस्वामी उनसे अनेक महत्वपर्णू प्रश्न कर सके , जिनका यथोचित उत्तर श्रीमहाप्रभु ने दिया।
श्री सनातन गोस्वामी और श्रीमन् महाप्रभु के सम्मिलन से हमें शिक्षा मिलती है कि भगवत्-तत्व को जानने के
लिए हमें भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु जैसे योग्य गरुु के सान्निध्य में जाकर विनम्र जिज्ञासा करनी चाहिए। भगवद्गीता
(434) में उल्लेख है कि गरुु के निकट जाकर भगवत् परायण जीवन व्यतीत करने की विद्या सीखनी चाहिए।

अध्याय 3
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

श्री सनातन-शिक्षा

श्रीमहाप्रभु ने श्री सनातन को जो शिक्षा दी है, उससे हम भगवत्-रूप, भगवदैश्चर्य और भगवद्भक्ति विषयक
भगवतत्व का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। वस्ततु : समस्त तत्वों का स्वयं श्रीमहाप्रभु ने श्री सनातन को उपदेश किया है। उस
समय, श्री सनातन ने अत्यन्त दीनभाव से श्रीमन् महाप्रभु के चरणारविन्द में प्रणिपात कर अपने यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध
में जिज्ञासा की, 'प्रभो! मैं नीच कुल में जन्मा हू।ँ मेरे सभी साथी निन्दनीय हैं तथा मैं पतित, सर्वाधिक अधमाधम हू।ँ
विषयभोगरूपी कूपान्ध में पड़ा हुआ मैं जल रहा था, जीवन के यथार्थ उद्देश्य का मझु े आभास तक न था। मैं तो अपना
वास्तविक हित भी नहीं जानता हू।ँ मैं विश्व में एक महान् विद्वान् के रूप में ख्यात हूँ पर वास्तव में तो ऐसा बड़ा मर्ख ू हूँ कि
स्वयं भी अपने को विद्वान् मान बैठा हू।ँ आपने सेवक के रूप में मझु े स्वीकार किया; आपने ही मझु े सांसारिक बन्धन से
मक्त
ु किया है। इसलिए अब इस मक्त ु ावस्था में मेरा कर्तव्य बताने की कृ पा करें ।'
इस प्रार्थना से स्पष्ट होता है कि मक्ति
ु संसिद्धि का परम लक्ष्य नहीं है। मक्त ु ावस्था में भी क्रिया अनिवार्य है। श्री
सनातन गोस्वामी स्पष्ट कहते हैं, 'आपने संसार-बन्धन से मेरी रक्षा की है। अब, मक्त ु ावस्था में मेरा क्या कर्तव्य है?' उन्होंने
आगे पछू ा, 'प्रभो! मैं कौन हू?ँ मझु े तापत्रय क्यों सदा जलाया करते हैं? तथा इस संसारिक-बन्धन से मक्ति ु का उपाय क्या
है? साध्य-साधन तत्व विषयक जिज्ञासा करना तक मैं नहीं जानता। अत: आपसे प्रार्थना है कि कृ पा कर इन सब
आवश्यक तत्वों को मझु से कहिये।'
गरुु की शरण में जाने की यही पद्धति है। जिज्ञासु को चाहिए कि सर्वप्रथम गरुु के सानिध्य में जाकर उनके प्रपन्न
हो; तत्पश्चात् उनसे अपनी साधना सम्बन्धी जिज्ञासा करे ।
श्री सनातन के परम विनम्र व्यवहार से प्रसन्न होकर श्रीमहाप्रभु बोले, “सनातन ! तम्ु हें श्रीकृ ष्ण कृ पा प्राप्त हो चक ु ी
है। इस कारण तमु सब कुछ जानते हो तथा संसार के सब तापों से भी तमु मक्त ु हो चक ु े हो।" प्रभु ने पनु : स्पष्ट किया,
'कृ ष्णभावनाभावित होने के कारण तमु स्वत: ही सर्वज्ञ हो चक ु े हो। फिर भी विनम्र भत होने के कारण ही अपने ज्ञान की
पष्टि
ु के लिए मझु से पछू ते हो। यह अतिशय श्रेयस्कर है।' इस प्रकार श्रीमहाप्रभु ने प्रसन्नता व्यक्त की। शद्ध ु भक्त के ये
लक्षण है नारद-भक्तिसत्रू में कथन है कि कृ ष्णभावनामृत का लोलपु अतिशीघ्र भगवत्-कृ पा से श्रीकृ ष्ण का ज्ञान प्राप्त कर
लेता है।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कहा, “सनातन! तमु भक्ति के प्रचार–प्रसार के लिए योग्य पात्र हो। अत: श्रीकृ ष्ण-तत्व की
तम्ु हें शिक्षा प्रदान करना मेरा कर्तव्य है। अब मैं क्रमश: तम्ु हें सम्पर्णू : तम्ु हें सम्पर्णू तत्व समझाता हू।ँ "
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

गरुु के शरणागत होकर अपने स्वरूप के विषय में जिज्ञासा करना शिष्य का प्रथम कर्तव्य है। इस आध्यात्मिक
पद्धति के अनसु ार श्री सनातन पहले ही पछू चक ु े हैं कि, 'प्रभो! मैं कौन हूँ तथा किस कारण से मैं तापत्रय से पीड़ित
हू?ँ "तापत्रय आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक है। आध्यात्मिक ताप का अर्थ मन एवं शरीर में उत्पन्न कष्ट है।
जीव कभी शारीरिक कष्ट पाता है तो कभी मन से अशान्त रहता है। ये दोनों आध्यात्मिक तार हैं। इन दु:खों का अनभु व
हमें मातृगर्भ में ही होने लगता है। जैसा कि हम जानते हैं, अनेक द:ु ख हमारे शरीर की निर्बलता का अनचि ु त लाभ उठाकर
हमें पीड़ित करते हैं। अन्य जीवों द्वारा प्राप्त होने वाली पीड़ा को आधिभौतिक कहते हैं। यह आवश्यक नहीं कि पीड़ा
पहुचँ ाने वाले जीव बड़े ही हों, मच्छर जैसे छोटे जीव भी सोते समय हमें अपार कष्ट देते हैं। झींगरु जैसे नगण्य जीव
कभीकभी हमें पीड़ित करते हैं तो कभी विभिन्न लोकों में उत्पन्न जीव भी दःु ख देते हैं कभी हमें पीड़ित करते हैं तो कभी
दःु ख

विभिन्न लोकों में उत्पन्न जीव भी द:ु ख देते हैं। आधिदैविक ताप का सम्बन्ध स्वर्ग के देवताओ ं द्वारा की जाने
वाली प्राकृ तिक दर्घु टनाओ ं से है। उदाहरणस्वरूप, समय-समय पर तीव्र शीत, ग्रीष्म, बिजली का गिरना, भक ू म्प, तफू ान,
सख ू ा आदि प्राकृ तिक दर्घु टनाएँ हमें ग्रसती हैं। वस्ततु : सब समय हम इनमें से एक या अधिक से पीड़ित रहते हैं।
श्री सनातन गोस्वामी की जिज्ञासा बद्धि ु सम्मत थी। उन्होंने पछू ा, 'जीव का स्वरूप क्या है ? यद्यपि जनसमदु ाय में वे
एक अत्यन्त विद्वान के रूप में प्रख्यात 'के थे, फिर भी अपने स्वरूप का एवं तापत्रय के कारण का उन्हें ज्ञान नहीं था।
गरुु के समीप जाना के वल एक लोकाचार ही नहीं है, वह तो तापत्रय के प्रति गम्भीरतापर्वू क सचेत व्यक्ति के लिए
अनिवार्य है, जो उनसे मक्त ु का इच्छुक हो। ऐसे परुू ष का कर्तव्य है कि गरुु के निकट जाये। इस सन्दर्भ में हमें गीता में इसके
समान स्थिति पर ध्यान देना चाहिए। यद्ध ु करने अथवा न करने की समस्या के कारण अनेक द्वन्द्रों से किंकर्तव्यविमढ़ू हो
जाने पर अर्जुन ने अपने गरुु भगवान् श्रीकृ ष्ण की शरण ली। वहाँ भी परम गरुु श्रीकृ ष्ण ने अर्जुन को जीव के स्वरूप का
उपदेश किया।
भगवद्गीता में कहा गया है कि जीव का स्वरूप उसकी आत्मा है। वह पाँच भौतिक नहीं है। आत्मा के रूप में वह
परमात्मा, परम सत्यस्वरूप भगवान् का भिन्न अश ं है। भगवद्गीता से हम यह भी जानते हैं कि जीव का एकमात्र कर्तव्य
भगवत् शरणागति है, क्योंकि इसके बिना सख ु ोपलब्धि नहीं हो सकती। भगवद्गीता का अन्तिम आदेश यही है कि भगवान्
श्रीकृ ष्ण के चरणों में पर्णू तः शरणागत होकर जीव नित्यानन्द हो जाए ।
श्रीमहाप्रभु ने यहाँ आत्मा विषयक वह जानकारी नहीं दी जो पहले से भगवद्गीता में विद्यमान है। वरन् उन्होंने श्री
सनातन को श्रीकृ ष्णोपदेश के आगे शिक्षित किया। महाभागवतों के अनसु ार श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु स्वयं श्रीकृ ष्ण हैं तथा

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इस दृष्टि से उन्होंने श्री सनातन गोस्वामी को उपदेश वहाँ से आरम्भ किया, जहाँ अर्जुन को दिया गया गीतोपदेश समाप्त
होता है।
“तम्ु हारा स्वरूप यह है कि तमु विशद्ध ु जीवात्मा हो। इस पाँच भौतिक शरीर का तम्ु हारे स्वरूप से कुछ भी सम्बन्ध
नहीं है; मन, बद्धि
ु और अहक ं ार भी तम्ु हारा यथार्थ स्वरूप नहीं है। तम्ु हारा यथार्थ स्वरूप यही है कि तमु श्रीकृ ष्ण के नित्य
दास हो। तम्ु हारी स्थिति प्रकृ ति से परे है। श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा शक्ति स्वरूपतः परा है तथा बहिरंगा शक्ति अपरा है।
अन्तरंगा एवं बहिरंगा शक्तियों के मध्य तम्ु हारी तटस्थ स्थिति है। श्रीकृ ष्ण की तटस्था शक्ति होने के कारण श्रीकृ ष्ण और
तमु में अचिन्त्य भेद तथा अभेद है। आत्मा होने से तमु श्रीकृ ष्ण से अभिन्न हो, जबकि श्रीकृ ष्ण के अण-ु अश ं होने के
कारण उनसे भिन्न हो ।'
यह अचिन्त्य भेद-अभेद जीवात्माओ ं तथा परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के बीच सदा रहता है। जीव की तटस्थ
स्थिति से अचिन्त्य भेदाभेद का सिद्धान्त समझा जा सकता है। जीव सर्यू प्रकाश के परमाणु तल्ु य हैं जबकि श्रीकृ ष्ण स्वयं
प्रकाशवान् सर्यू जैसे हैं। श्रीमहाप्रभु ने जीवों को अग्नि की देदीप्यमान चिनगारियों की तथा भगवान् को सर्यू की
प्रज्ज्वलित अग्नि की उपमा दी है। इस सन्दर्भ में श्रीमहाप्रभु ने विष्णु परु ाण (1.22.53) से उद्धरण दिया :
एकदेशस्थितस्याग्नेज्योंत्स्न। विस्तारिणी यथा/
HR জত্ব সন্তা: সান্টিনেষ্টব্রাজিলে সন্মাদ ৷
'इस प्राकृ त जगत् में प्रकाशित प्रत्येक वस्तु परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की शक्ति का कार्य है। एक स्थान पर
प्रज्ज्वलित अग्नि की किरणें जैसे सब दिशाओ ं में व्याप्त रहती हैं, उसी प्रकार यद्यपि श्रीभगवान् परव्योम में अपने धाम में
नित्य विराजमान हैं, पर अपनी विभिन्न शक्तियों का वे सर्वत्र प्रकाश करते हैं। वस्ततु : सारी सृष्टि उन्हीं की शक्ति से भिन्न-
भिन्न प्रकाशों का कार्य है।'
श्रीभगवान् की शक्ति परा और दिव्य है तथा जीव उसका भिन्न अश ं है। भगवान् । श्रीकृ ष्ण की माया नामक एक
अन्य शक्ति भी है, जो अज्ञान द्वारा आवृत है। यह शक्ति अर्थात् अपरा प्रकृ ति सत्व, रज और तम इन तीन गणु ों में विभक्त
है। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने विष्णपु रु ाण से एक अन्य श्लोक (1.3.2) उद्धतृ किया। उसके अनसु ार सारी अचिन्त्य शक्तियों
का निवास भगवान् श्रीकृ ष्ण में है तथा सम्पर्णू व्यक्त सृष्टि उन्हीं की अचिन्त्य शक्ति का कार्य है।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने आगे कहा कि जीवात्मा क्षेत्रज्ञ कहलाती है। गीता के तेहरवें अध्याय में देह को क्षेत्र तथा
जीवात्मा को क्षेत्रज्ञ कहा गया है। यद्यपि स्वरूपत: जीवात्मा अन्तरंगा शक्ति से परिचित है अथवा उसे समझ सकती है,
किन्तु माया शक्ति से आवृत होने पर वह अपने को शरीर मान बैठती है। इसी का नाम 'मिथ्या अहक ं ार' । 'मैं शरीर हू-ँ इस

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मिथ्या अहक ं ार से विमढ़ू और मोहित हुआ जीव संसार में पनु ः देहान्तर करता हुआ नाना द:ु ख भोगता है। भिन्न-भिन्न
जीवों में भिन्न-भिन्न स्तर तक ।आने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान रहता है।
दसू रे शब्दों में, यह जानना चाहिए कि जीव परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा शक्ति का भिन्न अश ं है।
माया-शक्ति अपरा है, इसलिए मक्त ु होकर चित्शक्ति । उपयोग करने की जीव में सामथ्र्य है। भगवद्गीता में कहा गया है कि
अन्तरंगा चिच्छक्ति माया शक्ति से आवृत है । इसी कारण ससं ार में जीव द:ु ख भोगने के लिए बाध्य }; यहाँ प्रत्येक जीव
रज एवं तमोगणु के परिमाण के अनसु ार दःु ख भोगता हैं । जो कुछ सचेत हैं वे कपाते हैं ।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने गीता के सातवें अध्याय से वह उद्धरण दिया, जिसमें कथन कि भमि ू , जल, अग्नि, वाय,ु
आकाश, मन, बद्धि ु तथा अहक ं ार से भगवान् श्रीकृ ष्ण की अपरा माया-शक्ति बनी हैं। परन्तु जीव का वास्तविक स्वरूप तो
अन्तरंगा चिच्छत्ति है; इसी शक्ति से सम्पर्णू सृष्टि क्रियाशील है। जीवात्मा रूपी चिच्छति के बिना प्राकृ त तत्वों से निर्मित
सृष्टि में स्वयं कार्य करने की सामथ्र्य का अभाव है। यह यथार्थ में ही कहा जा सकता है कि जीव द्वारा चिच्छति परम ईश्वर
भगवान् श्रीकृ ष्ण से अपने नित्य (सम्बन्ध को भल ु ा देना ही उसकी बद्धावस्था में हेतु है। उस सम्बन्ध के विस्मरण के
परिणामस्वरूप ही बद्धावस्था होती है। भगवान् के नित्य दास के रूप में अपने यथार्थ स्वरूप को फिर से प्राप्त हो जाने पर
ही जीव को मक्ति ु मिल सकती है।

अध्याय 4
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बुद्धिमान् मनुष्य

श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने जीव के माया-बन्धन को अनादि कहा है, क्योंकि किसी को भी नहीं पता कि उसका
आरम्भ कब हुआ। अनादि का अर्थ यह है कि बद्धावस्था सृष्टि के पर्वू भी थी। सृष्टि होते समय तथा सृष्टि के उपरान्त
उसकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। स्वरूप को भल ू जाने के कारण आत्मा होने पर भी जीव ससं ार में विभिन्न द:ु ख भोगता
है। यह स्मरणीय है कि ऐसे भी नित्य मक्त ु जीव हैं जो वैकुण्ठ जगत् में स्थित हैं। ये मक्तु जीव सर्वदा कृ ष्णभावनामृत ,
भगवद्भक्ति में तत्पर रहते हैं।
मायाबद्ध जीवों को पनु र्जन्म में कर्मानसु ार विभिन्न प्राकृ त शरीर मिलते हैं । बद्द जीव को संसार में अनेक सख ु -
दःु ख बलात् प्राप्त होते रहते हैं। पण्ु यकर्मों के फलस्वरूप उसे उच्च लोकों में देव-शरीर प्राप्त होता है तो पापों को भोगने के
समय भयक ं र नरकों में गिराया जाता है, जहाँ सांसारिक द:ु खों से कहीं अधिक यातनाएँ दी जाती हैं। श्रीमहाप्रभु ने ऐसे दण्ड
का बड़ा उत्तम उदाहरण दिया है। पर्वू काल में अपराधी को दण्ड देने के डुबोते। माया भी जीवात्मा को इसी प्रकार दण्डित
तथा परु स्कृ त करती है। दण्डित करने के लिए उसे यातनाओ ं के जल में डुबोती है और परु स्कार के समय कुछ समय के
लिए बाहर निकालती है। उच्चलोक अथवा जीवन में उच्च स्तर की प्राप्ति स्थायी कदापि नहीं होती। जल में डूबने के लिए
फिर नीचे आना ही होगा। ससं ार में यह क्रम निरन्तर चल रहा है; कभी जीव उच्च लोकों में पहुचँ जाता है तो कभी ससं ार
की नारकीय स्थिति में फें क दिया जाता है।
इस सन्दर्भ में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृ ष्ण के पिता श्री वसदु वे एवं नारदजी के संवाद से श्रीमद्भागवत
11.2.3
7) के निम्नलिखित श्लोक का पाठ किया : OGB uutBBumumBmBBBuuBaS
DBuBBDBDDuBDLB BDmuuDDuuDuBtS तन्स/् यय/तो बधु अ/भर्जोक्तं भ्रक्ू त्र्य्येकयेश/् गरुु देवत/त्म//
महाराज निमि को नव योगेश्वरों के उपदेश के इस श्लोक में 'माया' को 'जीव द्वारा श्रीकृ ष्ण से अपने नित्य सम्बन्ध
की विस्मृति' बताया गया है। वास्तव में माया का अर्थ है 'जो यथार्थ में नहीं है' -जिसका कोई अस्तित्व नहीं। अत: यह
मानना गलत होगा कि जीव का परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण से कोई सम्बन्ध नहीं। भगवान् के अस्तित्व में विश्वास न रखना
अथवा उनसे अपना कोई सम्बन्ध न मानना 'माया' है। जीवन की इस असत्य मान्यता में तन्मय होने के कारण ही मनष्ु य
सदा भयभीत एवं उद्विग्न रहता है। भाव यह है कि भगवान् से बहिर्मुखता ही 'माया' है। वैदिक शास्त्रों का वास्तविक ज्ञाता,
भगवान् श्रीकृ ष्ण की शरण अवश्य ग्रहण करता है और उन्हीं को जीवन का परम लक्ष्य बना लेता है। भगवान् से अपने
सम्बन्ध की स्वरूप स्थिति को भल ू बैठते ही जीव माया के बन्धन में पड़ जाता है। यह उसके अह क ं ार तथा देहात्म बद्धि

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का कारण सिद्ध होता है। वस्ततु : संसार विषयक उसकी सारी मान्यता शरीर को अपना रूप समझने से होती है , क्योंकि
इसी भ्रम से उसका शरीर और उसके पदार्थों में आसक्ति हुआ करती है। इस बन्धन से मक्ति ु के लिए उसे स्वधर्म करते हुए
श्रद्धा, विश्वास एवं भक्तिभाव सहित परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की शरण लेनी चाहिए।
बद्ध जीव प्राकृ त जगत् में मिथ्या सख ु ानभु व करता है। परन्तु शद्ध
ु भक्त की शिक्षा रूपी कृ पा की प्राप्ति होने पर
प्राकृ त सखु ेच्छा की त्यागकर वह कृ ष्णभावनामृत से प्रबद्ध ु हो जाता है। श्रीकृ ष्ण भक्ति में सल
ं ग्न होते ही सारी भोगेच्छा
निवृत्त हो जाती है जिससे वह शीघ्र संसार बन्धन से मक्त ु हो जाता है। जहाँ प्रकाश है वहाँ अन्धकार की स्थिति नहीं हो
सकती। कृ ष्णभावनामृत प्राकृ त सख ु की इच्छा रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाला दिव्य प्रकाश है।
कृ ष्णभावनाभावित व्यक्ति अपने को ईश्वर मानने की भल ू कदापि नहीं करता। यह जानते हुए कि अपने स्वार्थ में ही
लगे रहने से वह कभी सख ु ी नहीं हो सके गा। अत: अपनी सम्पर्णू शक्ति को भगवान् श्रीकृ ष्ण की सेवा में अर्पित करके वह
माया-बन्धन मक्त ु हो जाता है। इस सम्बन्ध में भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने गीता (7.14) का यह श्लोक पढ़ा :
âdi Թգլ ԱսIցdl զզ զIզI g{cյ*III Hfia a gțEfrotițelfididvfi îl

“भगवान् श्रीकृ ष्ण कहते हैं-'मेरी यह दैवी शक्ति त्रिगणु मयी माया पार पाने में अत्यन्त कठिन है। परन्तु जो मेरे
शरणागत हो जाते हैं वे सगु मतापर्वू क इससे तर जाते हैं।"
श्रीमहाप्रभु ने आगे कहा कि सकाम कर्म करते समय बद्धजीव को अपने यथार्थ स्वरूप का विस्मरण रहता है।
कभी-कभी सांसारिक कर्मोमों से थक जाने के कारण वह मक्ति ु के लिए परम ब्रह्म भगवान् श्रीकृ ष्ण से एक होने की इच्छा
करता है। पर अन्य समय यही मानता है कि निज इन्द्रियतृप्ति के लिए अथक् परिश्रम करने से वह सख ु ी हो सके गा। दोनों ही
दशाओ ं में वह मायावृत है। ऐसे मोहित बद्ध जीवों के ज्ञान के लिए परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण ने वेद , परु ाण, वेदान्त
सत्रू ादि अनन्त वैदिक साहित्य प्रदान किये हैं। इन सब का एकमात्र उद्देश्य वैकुण्ठ जगत् की ओर जीव का मार्गदर्शन करना
है। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कहा कि सद्गरुु , भगवान् श्रीकृ ष्ण तथा वैदिक शास्त्रों की कृ पा होने पर जीव प्रबद्ध
ु होकर
कृ ष्णभावनामृत में आत्मोन्नति करता है। अपने भक्तों पर सदा कृ पामय होने के कारण ही श्रीकृ ष्ण ने ये वैदिक ग्रन्थ प्रदान
किये हैं, जिनसे भगवान् से अपना सम्बन्ध जानकर जीव उस सम्बन्ध के अनसु ार क्रिया कर सके । इस विधि से जीव को
जीवन का चरम फल प्राप्त हो जाता है।
वस्ततु : जीवमात्र का लक्ष्य भगवान् श्रीकृ ष्ण की प्राप्ति ही है। वह भगवान् से अपना सम्बन्ध जान सकता है।
ससि
ं द्धि प्राप्ति के लिए कर्तव्य कर्म करने का नाम भक्तिपथ है। परिपक्व अवस्था में यही भक्ति जीव के जीवन के परम फल
भगवत्प्रेम में परिणत होती है। यथार्थत: धर्म, अर्थ, काम की सिद्धि जीव का उद्देश्य नहीं है। जीव को मोक्ष तक की कामना

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नहीं करनी चाहिए। फिर धर्म, अर्थ, काम में सिद्धि प्राप्ति करने की तो बात ही क्या? जीव की एकमात्र अभिलाषा भगवान्
श्रीकृ ष्ण की प्रेममयी दिव्य सेवा की प्राप्ति होनी चाहिए। भगवान् श्रीकृ ष्ण के सर्वाकर्षक गणु , इस दिव्य सेवा की प्राप्ति में
सहायक हैं तथा कृ ष्णभावनाभावित सेवा से ही जीव श्रीकृ ष्ण से अपने सम्बन्ध रस का प्रत्यक्ष अनभु व कर सकता है।
मनष्ु य द्वारा जीवन के परम लक्ष्य की जिज्ञासा करने के सम्बन्ध में भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत
के पचं म स्कन्ध के मध्व भाष्य से एक कथा सनु ाई (मध्व भाष्य 5.5.10-13)। इस कथा में एक सर्वज्ञ ज्योतिषी द्वारा एक
दरिद्र को दिया गया उपदेश है, जो अपना भविष्य जानने के लिए आया था। उस व्यक्ति की जन्मपत्री को देखकर उसकी
दरिद्रता पर विस्मय करते हुए ज्योतिषी बोला, 'तमु इतने द:ु खी क्यों हो'मैं देख रहा हूँ कि तम्ु हारे घर में तम्ु हारे पिता का धन
गड़ा पड़ा है। तम्ु हारी जन्मपत्री बता रही है कि विदेश में मरने के कारण पिता तम्ु हें उसका सक ं े त न दे सका, किन्तु अब उसे
ढूँढ़कर तमु सख ु ी हो जाओ। इस कथा का उद्धरण यह उद्देश्य स्पष्ट करता है कि जीव द:ु ख भोग रहा है, क्योंकि अपने परम
पिता भगवान् श्रीकृ ष्ण की गप्तु निधि का उसे ज्ञान नहीं है। वह गप्तु निधि कृ ष्णप्रेम है। प्रत्येक वैदिक ग्रन्थ में बद्ध जीव को
उसे खोजने का आदेश है। गीतानसु ार यद्यपि बद्ध जीव सर्वाधिक धनवान् परुु ष भगवान् का पत्रु है, पर उसे इसका ज्ञान नहीं
है। उसे वैदिक शास्त्र इसलिए प्रदान किये गये हैं कि वह अपने पिता तथा पैतक ृ सम्पदा को पा जाय।
सर्वज्ञ ज्योतिषी ने उस मनष्ु य को आगे परामर्श दिया : 'घर के दक्षिण कोने को मत खोदना, क्योंकि वहाँ पर खोदने
से विषैले ततैया तम्ु हें काट लेंगे और धन भी न मिलेगा। तम्ु हें के वल पर्वू दिशा में खोज करनी चाहिए क्योंकि वहाँ
कृ ष्णप्रेम का यथार्थ प्रकाश है। दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर के कोनों में क्रमश: वैदिक कर्मकाण्ड, शष्ु क ज्ञान तथा ध्यानयोग
है।'
सर्वज्ञ के परामर्श पर सभी को ध्यान देना चाहिए। कर्मकाण्ड की पद्धति से परम लक्ष्य को खोजने पर जीव को
निश्चित रूप से निराश होना पड़ेगा। इस पद्धति में पण्डितों को आज्ञानसु ार कर्म करना होता है और वे बदले में धन लेते हैं।
जीव इन कर्मों से सख ु ी होने की इच्छा रख सकता है, किन्तु वास्तव में इनसे यदि कुछ लाभ हो भी जाय तो वह नश्वर एवं
क्षणभगं रु ही होता है। जीव के भौतिक कष्ट बने ही रहेंगे। इस प्रकार कर्मकाण्ड से वह यथार्थ सख ु कदापि नहीं प्राप्त कर
सकता, वरन् उसे के वल अधिकाधिक भौतिक द:ु ख ही प्राप्त होंगे। यही उत्तर दिशा में खोदने अथवा योग साधना द्वारा गप्तु
निधि को खोजने के विषय में सत्य है। इस पद्धति से जीव भगवान् श्रीकृ ष्ण से एक होना चाहता है। पर यह किसी अजगर
द्वारा निगले जाने के समान है। कभी-कभी एक बड़ा सर्प अपने से छोटे सर्प को निगल जाता है। जीव का निर्विशेष ब्रह्म में
लीन होना ठीक ऐसा ही है। सिद्धि की खोज में संलग्न छोटा सर्प निगला जाता है। अत: यह कोई समाधान नहीं हुआ।
पश्चिम में भी धन रक्षक यक्ष रूपी विध्न विद्यमान है। गप्तु निधि की प्राप्ति यक्ष से प्रार्थना करने पर कभी नहीं हो सकती।
परिणाम में मृत्यु ही मिलेगी। कल्पनापरायण मन ही यक्ष है। अत: स्पष्ट है कि मनोधर्ममय ज्ञान मार्ग भी आत्म विनाशी
सिद्ध होता है।
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उस गप्तु को पाने का एकमात्र साधन पर्वू दिशा में पर्णू कृ ष्णभावनाभावित भक्ति से निधि को खोजना है। वस्ततु :
भगवद्भक्ति ही अनन्त गप्तु निधि है तथा उसे प्राप्त करने पर जीव सदा के लिए धनाढ्य हो जाता है। कृ ष्णभक्ति विहीन को
ही प्राकृ त लाभों का अभाव रहता है। कभी उसे विषैले सर्प काटते हैं तो वह उद्विग्न हो जाता है। कभी अद्वैतवाद का
अनक ु रण कर अपना स्वरूप खो बैठता है तो कभी अजगर उसे निगल जाता है। वस्ततु : इन सब को त्यागकर
कृ ष्णभावनामृत (कृ ष्णभक्ति) में निष्ठ होने पर ही जीवन की संसिद्धि हो सकती है।

अध्याय 5

भगवत्प्राप्ति का एकमात्र साधन


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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

वस्ततु ः सम्पर्णंू वैदिक साहित्य मनष्ु य को भक्ति की सिद्धावस्था की ओर ही प्रेरित कर रहा है। सकाम कर्म, ज्ञान
तथा योग मार्ग से जीव को कृ ष्ण सेवा रूपी परम सिद्धावस्था की प्राप्ति नहीं हो सकती। के वल भक्ति से ही भगवत्प्राप्ति
सम्भव है। इसलिए वैदिक शास्त्रों ने जीव को यह मार्ग स्वीकार करने की शिक्षा दी है। श्रीमहाप्रभु ने इसका प्रमाण
श्रीमद्भागवत के श्रीकृ ष्ण-उद्धव संवाद से दिया :
7 wHTejas. Hij zijft 7 Wjoej gaf 34gd 1 SD LDDuDuDLODDOD Bmm LrLLLL L
'हे उद्धव! योग, साख्ं य, धर्म, स्वाध्याय, तप, सन्ं यास आदि मझु े उस प्रकार वशीभतू नहीं कर सकते, जैसे मेरी
अनन्य प्रेमभक्ति मझु े वशीभतू करती है।' ( श्रीमद्भागवत 11.14.20)
श्रीकृ ष्ण के वल भक्तों के प्रेमास्पद हैं तथा उनकी प्राप्ति का एकमात्र मार्ग भक्ति है। एक अकुलीन भक्त भी भक्ति के
प्रताप से स्वत: सब विकारों से मक्त ु हो सकता है। भक्ति भगवान् श्रीकृ ष्ण की प्राप्ति का एकमात्र पथ है। सारे वेदों में के वल
इसी को परम संसिद्धि स्वीकार किया गया है। जैसे किसी निधि की प्राप्ति से एक दरिद्र सख ु ी हो जाता है, उसी प्रकार भक्ति
से यक्त
ु होने पर जीव के सारे क्लेश स्वत: निवृत्त हो जाते हैं। भगवद्भति के उत्तरोत्तर विकास से भगवत्प्रेम का उदय होता है
तथा इस प्रेम की क्रमश: वृद्धि से जीव बन्धन मक्त ु हो जाता है। परन्तु यह नहीं समझना चाहिए कि दरिद्रतानाश तथा
बन्धन मक्ति
ु ही कृ ष्णप्रेम के चरम फल हैं। यथार्थ कृ ष्णप्रेम तो प्रेममयी सेवा के आस्वादन में ही है। वैदिक शास्त्रों से हमें
ज्ञात होता है कि परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण एवं जीवों में ऐसे प्रेममय सम्बन्ध की प्राप्ति कराना ही भक्ति का कार्य है।
हमारा यथार्थ कार्य है भक्ति तथा चरमतम लक्ष्य है भगवत्प्रेम। वैदिक शास्त्रानसु ार श्रीकृ ष्ण परम के न्द्र हैं, क्योंकि श्रीकृ ष्ण
सम्बन्धी ज्ञान से जीव की सारी समस्याओ ं का समाधान हो जाता है।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने संकेत किया कि यद्यपि (पद्मपरु ाण के अनसु ार) विविध देवताओ ं की उपासना के लिए
विभिन्न शास्त्र हैं, किन्तु ऐसी शिक्षा लोगों को मोहित करती है, और वे इन देवों को ही परतत्व मानने लगते हैं। परन्तु
परु ाणों का सावधानीपर्वू क अनसु न्धान और अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जायेगा, कि के वल भगवान् श्रीकृ ष्ण ही
आराध्य तत्व हैं। उदाहरणस्वरूप, सारकण्डेय परु ाण में देवी की उपासना अथवा दर्गा ु पजू ा का निर्देश है। पर उसी चण्डिका
में यह भी कहा गया है कि काली सहित सब देवगण स्वयं भगवान् विष्णु की विविध शक्तियाँ हैं। अत: परु ाणों के विश्ले षण
से स्पष्ट है कि भगवान् विष्णु एकमात्र आराध्य तत्व हैं। निष्कर्ष यही है कि प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष, सब प्रकार की
उपासना के लक्ष्य परम परुु ष भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं। भगवद्गीता से स्पष्ट है कि देवोपासना करने वाले वास्तव में श्रीकृ ष्ण को
ही भजते हैं, क्योंकि देवगण विष्णु अथवा श्रीकृ ष्ण के शरीरागं हैं। इसलिए भगवद्गीता में देवोपासना को अविधिपर्वू क की
पष्टि
ु है-'विभिन्न देवों की उपासना से क्या लाभ होगा?' वैदिक शास्त्रों में विभिन्न क्रिया पद्धतियों का उल्लेख है, इनमें एक
कर्मकाण्ड है तथा दसू रा है ज्ञानकाण्ड। अत: वैदिक शास्त्रों के विभिन्न क्रिया पद्धतियों वाले विभागों का क्या प्रयोजन है?
विभिन्न देवोपासनाओ ं का निर्देश करने वाले वैदिक मन्त्रों का क्या अभिप्राय है? तथा परम सत्य को जानने के लिए
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

मनोधर्म करने का क्या लाभ है? श्रीमद्भागवत का उत्तर है कि वेदों में वर्णित ये सभी वास्तव में भगवान् श्रीकृ ष्ण की
उपासना के परोक्ष मार्ग हैं। वेदों के कर्मकाण्ड में वर्णित यज्ञ भगवान् विष्णु की प्रीति के लिए हैं। यथार्थ में , यज्ञों का
प्रयोजन विष्णु प्रीति के लिए होने से विष्णु का एक नाम यज्ञेश्वर भी है।
सब के सब प्रारम्भिक भक्त एक ही आध्यात्मिक स्तर पर नहीं होते। इसीलिए विभिन्न मायिक गणु ों में उनकी
स्थिति के अनसु ार उनके लिए विभिन्न देवतत्वों की उपासना का विधान है। अभिप्राय यह है कि ऐसे कनिष्ठ अधिकारी भी
क्रमश: शद्ध ु सत्व के स्तर पर पहुचँ कर भगवान् विष्णु की सेवा में नियक्त
ु हो सकें । जैसे मांस खाने के व्यसनी साधकों को
परु ाणों में काली को अर्पित करने के बाद मांस भक्षण करने को कहा गया है।
माया से भिन्न परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की विशिष्टता का ज्ञान कराना ही वेद के ज्ञानकाण्ड का अभिप्राय है।
माया की स्थिति का ज्ञान होने पर जीव भक्तिभाव से श्रीकृ ष्ण के प्रति उन्मखु हो जाता है। ज्ञान का वास्तविक प्रयोजन यही
है जैसा कि भगवद्गीता (7.19) से प्रमाणित है :
dani virզգ|պrd st/dal/rԿiyզErd / ar ଖୁବ୍‌: #ffff 4 H ଝାrHT ଖୁg ୯ର୍ମ th; //
'अनेक जन्म-मृत्यु के बाद यथार्थ ज्ञानी मझु े सब कारणों का कारण एवं सर्वव्यापक जानकर मेरी शरण ग्रहण करता
है। ऐसा महात्मा बड़ा दर्ल ु भ है।"
अतः यह सिद्ध होता है कि सम्पर्णू वैदिक कर्म, उपासना तथा ज्ञान के परम लक्ष्य भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को भगवान् श्रीकृ ष्ण के अनन्त स्वरूपो तथा अपार वैभव के सम्बन्ध में
बताया। उन्होंने चिच्छति, माया-शक्ति तथा जीव-शक्ति के प्रकाशों का भी वर्णन किया। श्रीमहाप्रभु ने बताया कि परव्योम
में स्थित वैकुण्ठ लोक तथा यह प्राकृ त ब्रह्मा ब्रह्मान्द दो भिन्न प्रकाश हैं, क्योंकि वे श्रीकृ ष्ण की चित् तथा माया नामक
भिन्न-भिन्न शक्तियों के प्राकटय हैं। जहाँ तक भगवान् श्रीकृ ष्ण का सम्बन्ध है, वे स्वयं अपनी अन्तरंगा चिच्छत्ति में स्थित
हैं। श्रीमद्भ//वत, द्वितीय स्कन्ध में इन दो शक्तियों के भेद का स्पष्ट विश्ले षण है। दशम् स्कन्ध के प्रथम श्लोक की व्याख्या में
श्रीधर स्वामी ने भी इसे स्पष्ट किया है। श्रीमहाप्रभु ने श्रीधर स्वामी को श्रीमद्भागवत का प्रामाणिक टीकाकार माना है।
इसलिए श्रीमहाप्रभु ने उसी टीका को उद्धतृ करके स्पष्ट किया कि श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में श्रीकृ ष्ण-लीला का
वर्णन है, क्योंकि स्वयं श्रीकृ ष्ण सब सृष्टि के आश्रय हैं। सर्वाश्रय के रूप में ही श्रीधर स्वामी ने उनकी वन्दना की है।
इस संसार में दो तत्व क्रियाशील हैं। एक तो सबका आदि कारण एवं सर्वाश्रय है; दसू रा इस प्रथम आदि तत्व से
निकला है। परम सत्य भगवान् सृष्टि-प्रकाशों के शरण्य हैं तथा आश्रय नाम से प्रसिद्ध हैं। आश्रय तत्व परम सत्य के अधीन
रहने वाले अन्य सब तत्व आश्रित हैं। प्राकृ त सृष्टि का उद्देश्य बद्धजीव को मक्त ु होकर आश्रय-तत्व की शरण में लौट जाने
का अवसर प्रदान करना है। सम्पर्णू लौकिक सृष्टि के आश्रय-तत्व भगवान् विष्णु पर आश्रित होने के कारण, विभिन्न
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देवगण तथा शक्ति-प्राकटय जीव तथा सब प्राकृ त तत्व कृ ष्णाश्रित हैं, क्योंकि भगवान् श्रीकृ ष्ण ही परम सत्य हैं। इस प्रकार
श्रीमद्भागवत से स्पष्ट होता है कि सभी कुछ परोक्ष प्रत्यक्ष रूप से भगवान् श्रीकृ ष्ण के आश्रय में है। अत: गीता के
कथनानरू ु प पर्णू ज्ञान की प्राप्ति के वल भगवान् श्रीकृ ष्ण के तत्वबोध से ही हो सकती है।
इसके अनन्तर श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृ ष्ण का स्वरूप विवरण प्रारम्भ किया तथा श्री सनातन
गोस्वामी से एकाग्र होकर सनु ने को कहा। उन्होंने कहा कि व्रजेन्द्रनन्दन श्रीकृ ष्ण परम सत्यस्वरूप हैं। वे सब कारणों के
कारण, सबके आदि एवं अश ं ी हैं। तथापि व्रज अथवा गोलोक वृन्दावन में वे के वल नन्द महाराज के कुमार के रूप में
किशोर शिरोमणि हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दमय है। सर्वाश्रय होने के साथ ही वे परम-ईश्वर हैं।
श्री चैतन्य महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृ ष्ण के श्रीविग्रह के दिव्य गणु ों के विषय में ब्रह्मसहिता (5.1) से प्रमाण प्रस्ततु
किया :
ভুঞ্জিয়: HRH: দুগ্ধাচ্ছ T: H লিবানন্দ্ৰলিয়ন্ত: | ঔপন্যালিন/ব্রিালিন: জলুলাৰ
গান্ধান্ত দাম্৷
'गोविन्द कहलाने वाले श्रीकृ ष्ण ईश्वरों के भी परम ईश्वर हैं। उनका श्रीविग्रह सच्चिदानन्दमय है। वे सब के आदि हैं,
किन्तु स्वयं अनादि तथा सब कारणों के कारण हैं।' इस प्रकार श्रीमहाप्रभु प्रमाणित करते हैं कि षडैश्वर्यपर्णू श्रीकृ ष्ण
आदिपरुु ष स्वयं भगवान् हैं। श्रीकृ ष्ण का निज धाम गोलोक वृन्दावन परव्योम के सब लोकों में सर्वोपरि है।
श्रीमहाप्रभु ने श्रीमद्भागवत (1.3.28) से भी एक श्लोक उद्धतृ किया :
যেন লাঠালঙ্কলা: ঘূর্ণ: দুড়ঙ্গাত্র ধনালাদু জলজন্ম। ব্লক্সানিলাঙ্কুল
লীলঙ্ক দুভঙ্গালি স্ত্ৰী স্ত্ৰী ৷
'सारे अवतार भगवान् श्रीकृ ष्ण के अश ं अथवा कला स्वरूप हैं। परन्तु श्रीकृ ष्ण तो स्वयं भगवान् आदिपरुु ष हैं।
देवताओ ं के शासन को भ्रष्ट करने के इच्छुक असरु ों के उपद्रव को शान्त करने के लिए वे श्रीकृ ष्ण इस ब्रह्माण्ड में अथवा
किसी दसू रे में पृथ्वी पर अवतीर्ण होते हैं।'
भगवान् श्रीकृ ष्ण को जानने के तीन भिन्न मार्ग हैं- ज्ञानमार्ग की प्रयोगसिद्ध पद्धति, ध्यानयोग पद्धति तथा
कृ ष्णभावनामृत की पद्धति। ज्ञान के साधन से श्रीकृ ष्ण का ब्रह्मस्वरूप जाना जाता है ; योग साधना से श्रीकृ ष्ण के
सर्वव्यापक परमात्मा तत्व की जानकारी होती है तथा पर्णू कृ ष्णभावनाभावित सेवा भक्ति से स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण की
प्राप्ति होती है। श्रीमहाप्रभु ने श्रीमद्भागवत (1.2.11) से यह प्रमाण दिया है :
वदन्ति तत्त्व f वदस्तत्त्वं यज्ज्ञ/न#द्वयम/् YDuuD DLaDDD G0aBumuD DuDu SS

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

'परतत्व के तत्वज्ञ निराकार ब्रह्म, परमात्मा तथा स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण-परतत्व के इन तीन स्वरूपों का वर्णन करते
हैं।' ब्रह्म, परमात्मा तथा भगवान् तीनों तत्वत: एक हैं। परन्तु अपनी विधि के अनसु ार परतत्व की क्रमश: ब्रह्म, परमात्मा
तथा भगवान् के स्वरूप में अनभु ति ू होती है।
ब्रह्मानभु ति
ू से के वल भगवान् श्रीकृ ष्ण के सच्चिदानन्दमय श्रीविग्रह से निकली उनकी अगं कान्ति का दर्शन होता
है। इस अगं कान्ति की तल ु ना सर्यू की ज्योति से की गई है। सर्यू मण्डल में सर्यू देवता है, स्वयं सर्यू है तथा सर्यू से निकला
सर्यू देव का ज्योतिर्मय प्रकाश है। इसी प्रकार ब्रह्मज्योति अथवा निराकार ब्रह्म भगवान् श्रीकृ ष्ण के विग्रह का प्रकाश मात्र
है। इसके समर्थन में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने ब्रह्मसहिता का एक महत्वपर्णू श्लोक उद्धतृ किया। ब्रह्माजी ने कहा है :
यस्य प्रे/ ग्रेवतो जग/् दण्डक f ट কৌডিসেম্বলম্ভাবি লিথুনিধিসন্ম। aզ36] fԳ&b«Iվ:1-
dԿ87ցgd সালিনবাবিদ্যুফল্ম নম্বল ধ্বসানি৷
'श्रीकृ ष्ण की श्रीविग्रह ज्योति से अनन्त ब्रह्मज्योति प्रकाशित है। उस ज्योति में अनन्त ब्रह्माण्ड हैं, जिनमें से
प्रत्येक ब्रह्माण्ड अनन्त लोकों से परिपर्णू है। उन्हीं आदिपरुु ष श्री गोविन्द का मैं भजन करता हू।ँ " (ब्रह्मसहिता 5.40)
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कहा कि सर्वव्यापक परमात्मा स्वरूप, जो देहमात्र में विद्यमान है, श्रीकृ ष्ण का के वल
अश ं -प्रकाश है। सर्वात्मा होने के कारण ही भगवान् श्रीकृ ष्ण परमात्मा हैं। इस विषय में श्रीमहाप्रभु ने श्रीमद्भागवत में
श्रीशक ु परीक्षित सवं ाद का एक अन्य श्लोक सनु ाया। भगवान् श्रीकृ ष्ण की दिव्य वृन्दावन लीला का वर्णन सनु ते हुए
महाराज परीक्षित ने अपने गरुु शक ु देव गोस्वामी से श्रीकृ ष्ण के प्रति वृन्दावनवासियों के इतने अधिक आकर्षक का कारण
पछू ा। उत्तर में शक ु देव जी बोले
- : BI ਸੰ ਜਸ਼ਕੰ ਫਿ ਸ i ਸ H ਕਿl ਸ i/ diftIfigítírg, gi:St2/27 daifia FoIIfd Higgil II
'भगवान् श्रीकृ ष्ण को सब आत्माओ ं का आत्मा जानना चाहिए। वे परमात्मा की भी आत्मा हैं। वृन्दावन में वे
नरवत् लीला कर रहे थे- लोगों को अपनी ओर आकृ ष्ट करने के लिए तथा यह दिखाने के लिए कि वास्तव में वे साकार हैं,
निराकार नहीं।'
.14.55) जीवों के समान ही भगवान् श्रीकृ ष्ण का भी अपना निजी दिव्य स्वरूप है। भेद यही है कि वे परम-ईश्वर हैं
तथा अन्य सारे जीव उनके अधीन हैं। जीव भी उसके सान्निध्य में दिव्य सच्चिदानन्द-रस का आस्वादन कर सकते हैं। श्री
गौरसन्ु दर महाप्रभु ने गीता का एक अन्य श्वोक पढ़ा, जिसमें अर्जुन से अपनी विविध विभति ू यों का वर्णन करते हुए भगवान्
श्रीकृ ष्ण ने कहा है, कि वे स्वयं अपने अश ं श्रीगभौंदकशायी विष्णु के रूप से इस ब्रह्माण्ड में प्रवेश करते हैं तथा प्रत्येक
ब्रह्माण्ड में श्रीक्षीरोदकशायी रूप से भी प्रविष्ट होते हैं। तदपु रान्त परमात्मा रूप से वे जीवमात्र के हृदय में प्रवेश करते हैं।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवान् श्रीकृ ष्ण ने स्वयं स्पष्ट किया है कि परम सत्य को पर्णू त: जानने का एकमात्र मार्ग पर्णू कृ ष्णभावनाभावित होकर
भक्ति करना है। भक्ति से ही परम सत्य की अवधि भगवान् श्रीकृ ष्ण का ज्ञान हो सकता है।

अध्याय 6
सब भगवद् रूप अभिन्न हैं

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवद्भक्ति से यह समझा जा सकता है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण सर्वप्रथम 'स्वयं रूप' से प्रकट होते हैं, तत्पश्चात्
क्रमश: 'तदेकात्म रूप' तथा 'आवेश रूप' का प्राकटय होता है। अपनी दिव्य नित्य लीला में इन्हीं तीन स्वरूपों में वे अपना
दिव्य वपु प्रकट करते हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण का स्वयं रूप उनके अन्य स्वरूपों को जानने वाले के द्वारा भी समझा जा सकता
है। भाव यह है कि स्वयं रूप द्वारा श्रीकृ ष्ण का प्रत्यक्ष ज्ञान सम्भव है। तदेकात्म रूप अधिकांश में स्वयं रूप के समान होता
है, पर शारीरिक लक्षणों में कुछ-कुछ भेद रहता है। तदेकात्म रूप के 'स्वांश' एवं 'विलास' नामक दो भेद हैं। जहाँ तक
'आवेश रूप' का सम्बन्ध है, भगवान् श्रीकृ ष्ण के द्वारा किसी योग्य जीव को अपने प्रतिनिधित्व की शक्ति प्रदान करने पर
उस जीव को 'आवेश रूप' अथवा 'शक्त्यावेश-अवतार' कहते हैं।
भगवान् श्रीकृ ष्ण के स्वयं रूप के भी 'स्वयं रूप' और 'स्वयं प्रकाश', ये दो भेद हैं। उनका स्वयं रूप तो एकमात्र
वृन्दावन में स्थित है जिससे वे व्रजवासियों के साथ लीला करते हैं। स्वयं प्रकाश के 'प्राभव' तथा 'वैभव' नामक दो विभेद
हैं। उदाहरणस्वरूप रास नृत्य के समय उसमें सम्मिलित गोपीजनों के साथ नृत्य करने के लिए भगवान् श्रीकृ ष्ण ने बहु रूप
धारण किये थे। इसी प्रकार, अपनी 16,108 रानियों के सख ु हेतु उन्होंने द्वारका में 16,108 रूप धारण किये। महान् योगी
भी कभी-कभी विभिन्न विधियों से देह विस्तार कर लेते हैं, किन्तु भगवान् श्रीकृ ष्ण ने अपना स्वरूप विस्तार किसी योग
द्वारा नहीं किया था। श्रीकृ ष्ण की प्रत्येक मर्ति ू का अपना स्वरूप था। वैदिक इतिहास में सौभरि ऋषि ने योग द्वारा अपने
पचास रूप धारण किये थे। किन्तु स्वयं एक ही रहे। श्रीकृ ष्ण द्वारा अनेक वपु धारण करने के समय उनका प्रत्येक
वपप्रु काश अपना अलग स्वरूप रखता था। द्वारका के विभिन्न प्रासादों में भगवान् श्रीकृ ष्ण का एक ही समय दर्शन कर
नारदजी अत्यन्त विस्मित हुए थे। सामान्य योगी के देह विस्तार से नारद को विस्मय नहीं होता, क्योंकि वे स्वयं उस विधि
के ज्ञाता थे। श्रीमद्भागवत में वर्णन है कि श्रीकृ ष्ण के पृथक-पृथक अनेक वपु देखकर वे आश्चर्यचकित हो उठे । उन्हें आश्चर्य
हुआ कि अपने 16,108 महलों में से प्रत्येक में अपनी सब महिषियों (रानियों) सहित श्रीकृ ष्ण एक साथ कै से विराजमान
हैं। प्रत्येक महिषी के साथ वे अन्य-अन्य रूपों में अन्य-अन्य क्रिया कर रहे थे। एक रूप में अपने पत्रु ों से क्रीड़ा कर रहे थे
तो दसू रे रूप में कुछ गृहकृ त्य में संलग्न थे। वे ऐसी विभिन्न क्रियाएँ अपने 'वैभव प्रकाश' में करते हैं। इसी प्रकार श्रीकृ ष्ण
के रूपों के अन्य अनन्त प्राकटय हैं, किन्तु अनन्त प्राकटय होने पर भी वे सब अभिन्न हैं। दो रूपों में कुछ भी भेद नहीं
रहता। श्रीभगवान् की यही अद्वयता है।
श्रीमद्भागवत में वर्णन है कि श्रीकृ ष्ण-बलराम को गोकुल से मथरु ा ले जाते हुए यमनु ा जल में प्रवेश करने पर अक्रूर
ने जल में परव्योम के सब लोकों का दर्शन किया। साथ ही, उन्होंने नारद एवं सनकादि द्वारा सेव्य विष्णु रूपधारी भगवान्
श्री श्यामसंदु र को भी देखा। श्रीमद्भागवत (10.40.7) में उल्लेख है :
अन्ये च संस्कृ त/त्म/् नो f व f धन/् *if ह्नतेन ते/ यज f न्त त्वन/् /स्त्वं वै बहुमत्र्ू योकमर्ति
ू कम/् /

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

'अनेक उपासक विभिन्न उपासना-पद्धतियों से पवित्र हो जाते हैं- जैसे वैष्णव, आर्य आदि। ये अपने विश्वास तथा
ज्ञान के अनसु ार परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण को भजते हैं। भिन्न-भिन्न उपासना पद्धतियों में भगवान् के विभिन्न शास्त्रोत
रूपों की उपासना होती है। किन्तु परम लक्ष्य तो भगवान् श्रीकृ ष्ण की उपासना ही है।"
अपने वैभव प्रकाश में श्रीभगवान् बलराम रूप में प्रकट हैं। बलराम-स्वरूप श्रीकृ ष्ण के समान है। दोनों में के वल
वर्ण का अन्तर है-श्रीकृ ष्ण का वर्ण नीलाभ तथा श्री बलराम का गौरवर्ण है। जगत् में प्राकटय के समय भगवान् श्रीकृ ष्ण ने
अपनी जननी देवकी के आगे चतर्भुु ज-नारायण रूप प्रकट किया था। यह भी उनका वैभव प्रकाश था। फिर माता-पिता के
अनरु ोध से वे द्विभजु हो गये। इस प्रकार कभी वे चतर्भुु ज रूप प्रकट करते हैं, कभी द्विभजु । नराकार वप।ु द्विभजु रूप वैभव-
प्रकाश है तथा चतर्भुु ज रूप प्राभव प्रकाश है। अपने 'स्वयं रूप' में भगवान् श्रीकृ ष्ण ग्वाल बाल के समान हैं, स्वयं भी
अपने को के वल वही समझते हैं। पर वासदु वे रूप में अपने को क्षत्रिय पत्रु समझ कर राजकीय शासक के समान लीला
करते हैं।
व्रजेन्द्रनन्दन के द्विभजु रूप में ऐश्वर्य, स्वरूप, सौन्दर्य, धन, वैदग्ध, आकर्षण तथा लीला-विलास का पर्णू प्रकाश
है। वैष्णव साहित्य के अनसु ार तो कभी-कभी वासदु वे रूप में वे अपने ही वृन्दावन के गोविन्द रूप के प्रति आकर्षित हो
जाते हैं। अत: गोविन्द और वासदु वे रूपों में अभेद होने पर भी वासदु वे रूप में श्रीकृ ष्ण गोपालक गोविन्द रूप के
आस्वादन के इच्छुक हो उठते हैं। इस सन्दर्भ में ललितमाधव में (4.19) उद्धव को सम्बोधित करते हुए श्रीकृ ष्ण कहते
हैं-'हे सखे! गोविन्द का गोपवेश मझु े आकृ ष्ट कर रहा है। मैं तमु से सत्य कहता हूँ कि इसी पर मग्ु ध व्रज-रणमियों के समान
बन जाने के लिए मेरा मन चचं ल हो उठा है।' आठवें अध्याय में श्रीकृ ष्ण कह रहे हैं : 'अहो! कै सा अपर्वू चमत्कारजनक
एवं अनिर्वचनीय मेरा यह श्रेष्ठ माधर्यु है, जिसे देखकर स्वयं मेरा चित्त भी लब्ु ध हो रहा है तथा श्रीराधा की भाँति उसके
उपभोग के लिए मैं लालायित हो उठा हू।ँ '
श्रीकृ ष्ण के कुछ ऐसे रूप भी हैं जो किंचिन्मात्र उनसे भिन्न हैं। इन्हें 'तदेकात्म रूप' कहते हैं। इनके 'विलास' और
'स्वाश ं ' भेद हैं। इनके प्राभव और वैभव नामक विभेद हैं। ऐसे असख्ं य प्राभव विलास हैं, जिनसे श्री वासदु वे , श्री सक ं र्षण,
श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध आदि रूपों में श्रीकृ ष्ण आत्म विस्तार करते हैं। वे कभी स्वयं का गोपाल भाव में चिन्तन करते
हैं तथा कभी वसदु वे नन्दन राजकुमार भाव में। उनके इस चिन्तन की संज्ञा 'लीला' (विलास) है। भगवान् के वैभव प्रकाश
तथा प्राभव-विलास में स्वरूपत: भेद नहीं है, किन्तु श्रीकृ ष्ण एवं बलराम के रूपों में वर्ण भेद रहता है। श्री वासदु वे , श्री
संकर्षण, श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध आदि चतव्ु यहू में हैं।
विभिन्न लोकों और स्थलों में असख्ं य चतव्ु यहू हैं, पर द्वारका तथा मथरु ा में तो उनका नित्य प्राकटय है।
वासदु वे ादि के चतव्ु यहू से चौबीस प्रधान मर्ति ू याँ प्रकट होती हैं। हाथों में अस्त्रादि (शख
ं , गदा, पद्म तथा चक्र) की स्थिति
के भेदानसु ार उनमें नामभेद है; वे सभी वैभव विलास हैं। नारायण अथवा वैकुण्ठ नामक परव्योम के सभी लोकों में
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवान् श्रीकृ ष्ण का चतव्ु यहू रूप रहता है। वैकुण्ठ में उनका प्रकाश चतर्भुु ज नारायण रूप से होता है। प्रत्येक नारायण रूप
से श्री वासदु वे , श्री सक ं र्षण, श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध प्रकट होते हैं। भगवान् नारायण मध्य में विराजमान रहते हैं तथा
वासदु वे ादि उनको घेरे रहते हैं। इन चतर्भुु ज रूपों से फिर के शवादि तीन-तीन प्राकटय होते हैं। इनकी संख्या बारह है तथा
हाथों में आयधु ों की स्थिति के अनसु ार भिन्न-भिन्न नाम हैं।
श्री वासदु वे से श्री के शव, श्री नारायण और श्री माधव का प्राकटय होता है। श्री सक ं र्षण के प्राकटय हैं : श्री
गोविन्द, विष्णु तथा श्री मधसु दू न (ज्ञात रहे कि यह गोविन्द रूप वृन्दावन के व्रजेन्द्रनन्दन रूप से सर्वथा भिन्न है)। इसी
प्रकार श्री प्रद्यम्ु न से श्री त्रिविक्रम, श्री वामन तथा श्री श्रीधर और श्री अनिरुद्ध से श्री हृषीके श, श्री पद्मनाभ एवं श्री दामोदर
का प्रकाश होता है।

अध्याय 7

असख्
ं य भगवद् रूप

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वैष्णव पंचाग के अनसु ार वर्ष के बारह मासों के नाम वैकुण्ठस्थित भगवान् श्रीकृ ष्ण के बारह रूपों पर आधारित
हैं। ये रूप अपने-अपने मास के अधिष्ठातृ देवता माने जाते हैं। यह वैष्णव वर्ष मार्गशीर्ष मास (अक्तूबर—नवम्बर) से
प्रारम्भ होता है। शेष-नवम्बर को वैष्णव के शव कहते हैं। दिसम्बर से सितम्बर के नाम क्रमश: हैं-नारायण, माधव, गोविन्द,
विष्ण,ु मधसु दू न, त्रिविक्रम, वामन, श्रीधर, हृषीके श तथा पद्मनाभ। अक्तूबर के पर्वू पक्ष को दामोदर कहते हैं। (यशोदा मैया
द्वारा रस्सी से बाँधे जाने पर श्रीकृ ष्ण का दामोदर नाम पड़ा था, पर अक्तूबर मास का दामोदर रूप उससे भिन्न है) । जिस
प्रकार वर्ष के मास परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के बारह नामों से प्रसिद्ध हैं, उसी प्रकार इन्हीं भगवन्नामों के अनसु ार
वैष्णवसमाज शरीर पर द्वादश तिलक चिह्न धारण करता है। उदाहरणस्वरूप, ललाट के तिलक का नाम के शव है। इसी
प्रकार उदर, वक्ष:स्थल, हस्तादि पर तिलकों के अन्य-अन्य नाम हैं। ये नाम मासों के नाम पर हैं।
भगवच्चतव्ु यहू (श्री वासदु वे , श्री सकं र्षण, श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध) से आठ 'विलास मर्ति
ू ' प्रकट होती हैं।
उनके नाम हैं-श्री परुु षोत्तम, श्री अच्यतु , श्री नृसिंह, श्री जर्नादन, श्री हरि, श्रीकृ ष्ण, श्री अधोक्षज तथा श्री उपेन्द्र। इनमें श्री
अधोक्षज तथा श्री परुु षोत्तम श्री वासदु वे के 'विलास' हैं। इसी भाँति, श्री उपेन्द्र तथा श्री अच्यतु श्री संकर्षण के रूप हैं, श्री
नृसिंह एवं श्री जर्नादन श्री प्रद्यम्ु न के प्राकटय हैं तथा श्रीहरि और श्रीकृ ष्ण श्री अनिरुद्ध के विलास-स्वरूप हैं। (ये कृ ष्ण
आदि परुु ष श्रीकृ ष्ण से भिन्न हैं।)
ये चौबीस मर्ति ू याँ प्राभव चतव्ु यहू के विलास-प्रकाश हैं। अस्त्रादिधारण के भेद से सबके भिन्न-भिन्न नाम हैं। इन
चौबीस मर्ति ू यों में विलास तथा प्राभव दोनों रूप हैं। श्री पद्मनाभ, श्री त्रिविक्रम, श्री वामन, श्री हरि, श्रीकृ ष्ण आदि के
आकार में भी भेद है। श्री वासदु वे ादि चतव्ु यहू श्रीकृ ष्ण का प्राभव विलास है और शेष बीस इस चतव्ु यहू के विलास हैं। इन
सबके परव्योम में आठ दिशाओ ं में पृथक्-पृथक् वैकुण्ठ हैं। ये सब नित्य परव्योम में स्थित हैं; पर कुछ संसार में भी
प्रकाशित होते हैं।
परव्योम में नारायण-प्रभत्ु व वाले सब लोक शाश्वत हैं। परव्योम का सर्वोपरि लोक है कृ ष्णलोक। कृ ष्णलोक
त्रिविध विभक्त है-गोकुल, मथरु ा और द्वारका। मथरु ा में श्री के शव नित्य विराजमान रहते हैं। वे पृथ्वी पर भी प्रकट हैं। मथरु ा
में श्री के शव-मर्तिू पजि ू त हैं तथा उड़ीसा के जगन्नाथपरु ी में परुु षोत्तम मर्ति ू की स्थिति है। आनन्दारण्य में विष्णु तथा श्रीमन्
महाप्रभु गौरसन्ु दर की प्राकट्य स्थली मायापरु में श्रीहरि विराजमान हैं। अनेक अन्य विग्रह पृथ्वी के विभिन्न स्थलों पर
शोभायमान हैं। के वल इसी ब्रह्माण्ड में नहीं, दसू रे -दसू रे सभी ब्रह्माण्डों में श्रीकृ ष्ण-विग्रह विराजित हैं। शास्त्रों में उल्लेख है
कि यह पृथ्वी सप्त महाद्वीपों में बँटी हुई है। द्वीप-द्वीप में एक जैसी मर्ति ू याँ हैं, पर कलिकाल के कारण इस समय उनके
प्रत्यक्ष दर्शन के वल भारत में ही हैं। वैदिक शास्त्रों के अनसु ार विश्व के अन्य भागों में भी श्रीकृ ष्ण विग्रह हैं, परन्तु वर्तमान में
उनकी निर्धारित स्थिति का हमें ज्ञान नहीं है।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भक्तों को सख ु का दान करने के लिए ही इन श्रीकृ ष्ण-विग्रहों का ब्रह्माण्ड में अवतरण हुआ है। भक्तों का जन्म
के वल भारत में ही नहीं होता। विश्व के सब देशों में भत हैं; कालान्तर में उन्हें अपने स्वरूप का विस्मरण मात्र हो गया है।
इन भगवत् विग्रहों का अवतरण के वल भक्त सख ु ार्थ ही नहीं हुआ। भक्ति की पनु : स्थापना तथा भगवान् श्रीकृ ष्ण के अन्य
आवश्यक कर्तव्यों के सम्पादनार्थ भी वे प्रकट हैं। इनमें से विष्ण,ु श्री त्रिविक्रम, श्री नृरसिंह तथा श्री वामन आदि कुछ रूपों
की शास्त्रोक्त अवतारों में गणना है।
'सिद्धान्तसंहिता' नामक ग्रन्थ में विष्णु के चौबीस रूपों का विवरण है तथा उन चतर्भुु ज में अस्त्रादि की स्थिति के
अनसु ार उनके नाम भी उल्लिखित हैं। विष्णु मर्ति ू के हाथों में अस्त्रादि की स्थिति का वर्णन करते समय क्रमश: निचले
दाहिने, ऊपर दाहिने, ऊपर बाएँ तथा अन्त में निचले बाएँ हाथ का वर्णन करना चाहिए। इस क्रम से श्री वासदु वे गदा,
शंख, चक्र और पद्म धारण करते हैं; श्री प्रद्यम्ु न चक्र, शंख, गदा तथा पद्म धारण करते हैं और श्री अनिरुद्ध चक्र, गदा, शंख
व पद्म धारण करते हैं। परव्योम में नारायण की निम्नलिखित बीस मर्ति ू याँ हैं-श्री के शव ( पद्म, शंख, चक्र, गदा), श्री
नारायण (शंख, पद्म, गदा, चक्र), श्री माधव (गदा, चक्र, शंख, पद्म), श्री गोविन्द (चक्र, गदा, पद्म, शंख), विष्णु मर्ति ू
(गदा, पद्म, शंख, चक्र), श्री मधसु दू न ( चक्र, शंख, पद्म, गदा), श्री त्रिविक्रम ( पद्म, गदा, चक्र, शंख), श्री वामन (शंख,
चक्र, गदा, पद्म), श्री श्रीधर ( पद्म, चक्र, गदा, शंख), श्री हृषीके श (गदा, चक्र, पद्म, शंख), श्री पद्मनाभ (शंख, पद्म, चक्र,
गदा), श्री दामोदर ( पद्म, चक्र, गदा, शंख), श्री परुु षोत्तम (चक्र, पद्म, शंख, गदा), श्री अच्यतु (गदा, पद्म, चक्र, शंख), श्री
नृसिंह (चक्र, पद्म, गदा, शंख), श्री जनार्दन ( पद्म, चक्र, शंख, गदा), श्री हरि (शंख, चक्र, पद्म, गदा), श्रीकृ ष्ण (शंख, गदा,
पद्म, चक्र), श्री अधोक्षज ( पद्म, गदा, शंख, चक्र) तथा श्री उपेन्द्र (शंख, गदा, चक्र, पद्म) ।
'हयशीर्ष पश्चरात्र' के अनसु ार के वल सोलह स्वरूप हैं तथा चक्र एवं गदा की स्थिति के अनसु ार उनमें नाम-भेद है।
परन्तु अन्तिम निर्णय सब का यही है कि श्रीकृ ष्ण आदि परुु ष स्वयं भगवान् हैं। व्रजेन्द्रनन्दन रूप से वे लीला परुु षोत्तम
श्रीवृन्दावन में नित्य विराजमान हैं। 'हयशीर्ष पश्चरात्र" में यह भी उल्लेख है कि मथरु ापरु ी तथा द्वारकापरु ी की नौ स्वरूप
रक्षा करते हैं। एक परु ी की रक्षा श्री वासदु वे , श्री सकं र्षण, श्री प्रद्यम्ु न और श्री अनिरुद्ध करते हैं। जबकि श्री नारायण, श्री
नृसिंह, श्री हयग्रीव, श्री वराह, और श्री ब्रह्मा दसू री परु ी के रक्षक हैं। ये सब भगवान् श्रीकृ ष्ण के विभिन्न 'प्रकाश' तथा
'विलास' रूप हैं।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को यह भी बताया कि स्वयं रूप के भी दो भेद हैं-संकर्षणादि परुु षावतार तथा
मत्स्यादि लीलावतार। परुु षावतार तीन हैं-श्री कारणोदकशायी विष्ण,ु श्रीगभौंदकशायी विष्णु तथा श्रीक्षीरोदकशायी विष्ण।ु
लीलावतार की श्रेणी में मत्स्य, कूर्मादि हैं।
अवतारों के छ: भेद हैं : (1) परुु षावतार (2) लीलावतार, (3) गणु -अवतार, (4) मन्वन्तर-अवतार, (5) यगु –
अवतार. (6) शक्त्यावेश–अवतार । भगवान् श्रीकृ ष्ण के छ: विलास विग्रहों में उनकी आयु के अनसु ार बाल एवं पौगण्ड
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

दो भेद हैं। व्रजेन्द्रनन्दन नामक अपने स्वयं रूप में श्रीकृ ष्ण बाल्यकाल की दोनों अवस्थाओ ं (बाल एवं पौगण्ड) का
आस्वादन करते हैं।
वस्ततु : भगवान् श्रीकृ ष्ण के प्रकाश तथा अवतार अनन्त एवं असख्ं य हैं। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को
इनमें से कुछ का विवरण सनु ाया, जिससे उन्हें भगवान् के प्रकाश तथा रसास्वादन का किंचित् आभास हो जाय।
श्रीमद्भागवत (1.3.26) में कहा गया है, कि सागर की लहरों के समान परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के अवतारों की कोई
संख्या नहीं है। वे असंख्य हैं।
श्रीकृ ष्ण का सर्वप्रथम अवतार परुु षावतार है। परुु षावतार तीन हैं : महाविष्णु अथवा कारणोदकशायी,
गभौंदकशायी तथा क्षीरोदकशायी। यह 'सात्वत तन्त्र' से सम्मत है। भगवान् श्रीकृ ष्ण की शक्ति भी तीन हैं : इच्छा शक्ति,
क्रिया शक्ति एवं ज्ञान शक्ति। भगवान् श्रीकृ ष्ण में इच्छा शक्ति की प्रधानता है; श्री वासदु वे में ज्ञान शक्ति प्रधान है तथा श्री
सक ं र्षण में क्रिया शक्ति प्रधान है। उनकी इच्छा, ज्ञान एवं क्रिया-शक्तियों के बिना सृष्टि कार्य नहीं हो सकता। वैकुण्ठ जगत्
के लोक नित्य, अनादि तथा असृज्य हैं। के वल प्राकृ त जगत् की ही सृष्टि होती है। परन्तु वैकुण्ठ जगत् एवं प्राकृ त जगत्
दोनों ही भगवान् श्रीकृ ष्ण के बलराम सक ं र्षण रूप की क्रिया शक्ति के प्राकटय हैं।
वैकुण्ठ जगत् के अन्य सब लोकों सहित सर्वोपरि गोलोक श्रीकृ ष्ण की इच्छा शक्ति में स्थित है। नित्य वैकुण्ठ
जगत् असृज्य होते हुए भी भगवान् श्रीकृ ष्ण की इच्छा शक्ति के आश्रित है। इस इच्छा शक्ति का वर्णन ब्रह्मसहिता (5.2)
में है : ' सहस्त्र, पत्र पद्म की आकृ ति वाला जो गोलोक नामक परम भगवद्धाम है, वह श्री बलरा, अनन्त अथवा सक ं र्षण
द्वारा ही प्रकाशित हो रहा है।" प्राकृ त सृष्टि तथा उसके विविध ब्रह्माण्ड माया शक्ति द्वारा प्रकाशित हैं। किन्तु जड़रूपा
प्रकृ ति (माया) ब्रह्माण्ड-रचना का मख्ु य कारण नहीं हो सकती। वरन् माया के माध्यम से अपने विभिन्न स्वरूपों द्वारा सृष्टि
के मख्ु य कारण भगवान् श्रीकृ ष्ण स्वयं हैं। भाव यह है कि परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की अध्यक्षता के अभाव में सृष्टि
असम्भव है। जिस भगवत् स्वरूप के माध्यम से माया शक्ति सृष्टि का कार्य करती है, उसे श्री सक ं र्षण कहते हैं। अत: इस
प्राकृ त-जगत् की सृष्टि भगवान् श्रीकृ ष्ण की अध्यक्षता में ही होती है। श
मद्भागवत (10.46.31) में उल्लेख है कि श्रीकृ ष्ण एवं श्री बलराम सम्पर्णू जीवों के निमित्त और उपादान कारण हैं तथा
यही दोनों परुु ष सब भतू ों में अनप्रु विष्ट हैं। श्रीमद्भागवत में निम्नलिखित अवतारों का उल्लेख है : (1) कुमार (सनकादि),
(2) नारद, (3) वराह, (4) मत्स्य, (5) यज्ञ, (6) नर-नारायण, (7) कर्दमी कपिल (8) दत्तात्रेय, (9) हयग्रीव (10) हसं ,
(11) पृशिनगर्भ, (12) ऋषभ, (13) पृथ,ु (14) नृसिहं , (15) कूर्म, (16) धन्वन्तरि, (17) मोहिनी, (18) वाम( 15)
परशरु ाम, (20) राघवेन्द्र, (21) व्यास, (22) बलराम, (23) कृ ष्ण, ( 94) बद्ध ु तथा (25) कल्कि। इन्हें कल्पावतार कहते
हैं, क्योंकि इन पच्चीस लीला अवतारों में से अधिकाश ं ब्रह्मा के एक दिन (कल्प) में प्रकट होते हैं। इनमें हसं तथा मोहिनी
अवतार अस्थायी हैं। कपिल, दत्तात्रेय, ऋषभ, धन्वन्तरि तथा व्यास-ये पाँच अधिक प्रसिद्ध तथा नित्य स्वरूप हैं। कूर्म
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मत्स्य, नर-नारायण, वराह, हयग्रीव, पश्नि ू गर्भ (था बलराम वैभवावतार हैं। इसी प्रकार ब्रह्मा, शिव एवं विष्णु (रज, तम तथा
सत्व) गणु ावतार हैं।
मन्वन्तरावतार चौदह हैं : (1) यज्ञ, (2) विभ,ु (3) सत्यसेन, (4) हरि, (5) वैकुण्ठ, (6) अजित, (7) वामन, (8)
सार्वभौम, (9) ऋषभ, (10) विष्वक्सेन, (11) धर्मसेत,ु (12) सधु ामा, (13) योगेश्वर,् (14) बृहद्भान।ु इनमें यज्ञ तथा वामन
लीलावतार भी हैं। शेष सब मन्वन्तरावतार हैं। ये चौदह मन्वन्तरावतार वैभवावतार भी कहलाते हैं।
श्रीमद्भागवत में यगु ावतारों का भी वर्णन है। सत्ययगु में भगवत् अवतार का वेत, त्रेता में रक्त, द्वापर में श्याम तथा
कलियगु में भी श्यामवर्ण होता है। किन्तु किसी-किसी विशेष कलियगु में (श्री चैतन्य महाप्रभु के अवतार के यगु में) उनका
गौरवर्ण भी होता है। शक्त्यावेशावतारों में ये हैं :कपिल, ऋषभ, अनन्त, ब्रह्मा, (स्वयं भगवान् भी कभीकभी ब्रह्मा बनते
हैं), (ज्ञानावतार) चतस्ु सन, (भक्ति के अवतार) नारद, (राजशक्ति के अवतार) राजा पृथ,ु (दष्टु ों के दलन का अवतार)
परशरु ाम आदि-आदि।

अध्याय 8

अवतार-तत्त्व
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन गोस्वामी से कहा कि प्राकृ त प्रपंच में अवतीर्ण होने वाले श्रीकृ ष्ण-स्वरूपों को
अवतार कहते हैं। 'अवतार' शब्द का अर्थ है 'अवतरण-नीचे आना।' अत: 'अवतार' का अर्थ है- 'जो परव्योम से नीचे

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प्रपंच में आये।" परव्योम में अनन्त वैकुण्ठ लोक हैं। इन सभी लोकों से परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की मर्ति ू याँ इस ब्रह्माण्ड
में अवतीर्ण हुआ करती हैं।
स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण के सक ं र्षण अश
ं से सर्वप्रथम महाविष्णु नामक परुु षावतार होता है। श्रीमद्भागवत (1.3.1)
का प्रमाण है कि सृष्टि के प्रथम परुु षावतार के रूप में अवतीर्ण होने पर भगवान् श्रीकृ ष्ण तरु न्त सोलह प्रधान तत्व प्रकट
करते हैं। वे महाविष्णु कारणाब्धि में शयन करते हैं; वे ही जगत् में आदि-अवतार हैं। काल, स्वभाव, प्रकृ ति, कार्य, कारण,
मन, अहक ं ार, पंचमहाभतू , त्रिविध गणु (सत्व, रज, तम) दस इन्द्रियों तथा विराट के वे ईश्वर हैं। जगत् के सारे स्थावर-जंगम
पदार्थों के स्वामी होने पर भी वे सर्वथा स्वराट् हैं।
श्रीमद्भागवत (2.9.10) के कथनानसु ार विरजा नदी अथवा कारण-समद्रु से परे परव्योम में माया की गति नहीं है।
त्रिविध गणु ों (सत्व, रज, तम) तथा प्राकृ त काल का भी वैकुण्ठ लोकों पर कोई प्रभाव नहीं है। इन लोकों में सरु ासरु -वन्दित
भगवान् श्रीकृ ष्ण के मक्त ु पार्षद नित्य निवास करते हैं।
भौतिक प्रकृ ति की दो वृतियाँ हैं-माया तथा प्रधान।'माया' इस जगत् का निमित कारण है तथा संसार की सृष्टि के
लिए मल ू तत्व प्रदान करने में 'प्रधान' उपादान कारण है। प्रथम परुु षावतार महाविष्णु के दृष्टिपात से माया क्षभि ु त हो जाती
है। इस प्रकार वे उसमें जीवरूपी बीजों का गर्भाधान करते हैं। प्रथम परुु ष के दृष्टिपात मात्र से महत्तत्व की उत्पत्ति हुआ
करती है। फिर प्रकृ ति के तीन गणु ों के अनसु ार इस रचित महत्तत्व का त्रिविविध अहक ं ारों में विभाजन होता है।
श्रीमद्भागवत के ग्यारहवें स्कन्ध में सात्विक महत्तत्व (अहक ं ार) का वर्णन है। सत्वगणु के अधिष्ठातृ श्री अनिरुद्ध हैं। राजस
अहक ं ार से बद्धिु की उत्पत्ति होती है तथा इसके अधिष्ठाता श्री प्रद्यम्ु न हैं। वे इन्द्रियों के अधिपति हैं। तामस अहक ं ार से
क्रमश: शब्द, तन्मात्रा, आकाश, श्रवणेन्द्रिय प्रकट होते हैं। प्राकृ त जगत् इन सारे तत्वों से रचा गया है। इस प्रकार के
असख्ं य ब्रह्माण्डों का सृजन होता है, जिनकी गणना नहीं की जा सकती।
महाविष्णु के रोमकूपों से असंख्य ब्रह्माण्ड प्रकट होते हैं। जिस प्रकार गवाक्ष (झरोखा) में असंख्य रे ण-ु कण उड़कर
आते-जाते हैं, उसी प्रकार महाविष्णु के निवास सहित अनन्त ब्रह्माण्डों की सृष्टि होती है और फिर उनके उच्छवास सहित
वे नष्ट भी हो जाते हैं। महाविष्णु की सभी शक्तियाँ अप्राकृ त तथा मायातीत हैं। ब्रह्मसहिता (5.48) में वर्णन है कि प्रत्येक
ब्रह्माण्ड के अधिष्ठाता ब्रह्मा का जीवन महाविष्णु की एक निवास तक सीमित है। अत: महाविष्णु ही आदि परमात्मा तथा
अखिल ब्रह्माण्ड अधिपति हैं।
दसू रे परुु षावतार गभौंदकशायी विष्णु सब ब्रह्माण्डों में प्रवेश करते हैं तथा अपने अगं के स्वेदजल से ब्रह्माण्ड के
आधे भाग को भरकर उसी जल में शयन करते हैं। उन द्वितीय परुु ष की नाभि से एक कमल उत्पन्न होता है , जिसमें प्रथम
जीव ब्रह्मा जन्म लेते हैं। उसी पद्म की नाल में ब्रह्मा द्वारा रचित चौदह भवु नों की स्थिति है। भगवान् प्रत्येक ब्रह्माण्ड में
गर्भादकशायी रूप से विद्यमान रहकर जगत् का पालन करते हैं। ब्रह्माण्ड में होने पर भी माया उनका स्पर्श तक नहीं कर
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सकती। समय पर, यही विष्णु रुद्र रूप से जगत् का संहार करते हैं। ब्रह्मा, विष्ण,ु शिव-ये तीनों द्वितीय परुु ष के गणु ावतार हैं।
ये क्रमशः माया के सत्व, रज एवं तमोगणु के अधिष्ठाता हैं। सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय यही करते हैं। किन्तु ब्रह्माण्ड के ईश्वर
तो हिरण्यगर्भ अन्तर्यामी नाम के वन्दित गर्भादकशायी विष्णु ही हैं। वैदिक मन्त्रों में सहस्रशीर्षादि वर्णनों के रूप में उनका
वर्णन है। अपरा प्रकृ ति में स्थित होने पर भी वे सब प्रकार से मायातीत हैं।
क्षीरोदकशायी विष्णु नामक तीसरे परुु षावतार सत्वगणु के अवतार भी हैं। वे सब जीवों के अन्तर्यामी हैं तथा
ब्रह्माण्ड के क्षीरसागर में शयन करते हैं। इस प्रकार श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने परुु षावतारों का वर्णन किया।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने लीलावतारों का वर्णन प्रारम्भ किया। श्रीकृ ष्ण के लीलावतार अनन्त हैं। मत्स्य, कुमार,
श्री रघनु ाथ, नर्सिंह, वामन, वराह आदि इनमें प्रधान हैं ।
भगवान् श्री श्यामसंदु र के गणु ावतार तीन हैं-ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव। ब्रह्मा भी एक जीव हैं; अपनी भक्ति के कारण
वे अत्यन्त शक्तिशाली हो गये हैं। रजोगणु के स्वामी इस आदि जीव में अनन्त जीवसृष्टि के लिए स्वयं गभौंदकशायी विष्णु
अपनी शक्ति का संचार करते हैं। ब्रह्मसहिता (5.49) में ब्रह्मा को सर्यू किरणों से प्रभावित सर्यू कान्त मणि की उपमा दी है,
जो सर्यू रूपी परमेश्वर गभदकशायी विष्णु से शक्ति ग्रहण करता है। किसी-किसी कल्प में ब्रह्मा पद पर नियक्ति ु के लिए कोई
भी योग्य जीव न मिलने पर गभौंदकशायी विष्णु स्वयं ब्रह्मा बनकर सृष्टि कार्य करते हैं।
इसी प्रकार, संहार के समय परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण अपनी कला शिवरूप से कार्य करते हैं। मायासंग से शिव
के अनेक रूप हैं जो प्राय: ग्यारह माने गये हैं। शिव जीव तत्व नहीं हैं, वे श्रीकृ ष्ण के प्राय: तल्ु य हैं। इस सन्दर्भ में दधू और
दही का उदाहरण अत्यन्त प्रसिद्ध है। दही दधू से बनता है, पर उसका प्रयोग दधू के समान नहीं हो सकता। इसी प्रकार
शिवजी भगवान् श्रीकृ ष्ण के कला रूप हैं; पर वे श्रीकृ ष्ण नहीं हो सकते तथा एकमात्र भगवान् श्रीकृ ष्ण से प्राप्त होने वाली
मक्ति
ु भी वे हमें प्रदान नहीं कर सकते। दोनों में यह महत्वपर्णू भेद है, कि शिवजी तमोगणु ाविष्ट होने के कारण
मायाशक्तियक्त ु हैं जबकि श्रीकृ ष्ण अथवा विष्णु माया और गणु ों से सर्वथा परे हैं। श्रीमद्भागवत (10.88.3) में कथन है कि
शिव वैकारिक तैजस तथा तामस नामक त्रिविध अहक ं ार से सदा यक्त
ु हैं।
सत्वाधिपति होने पर भी भगवान् श्रीकृ ष्ण का ब्रह्माण्डस्थित विष्णरू ु प अवतार मायास्पर्श से परे है। ऐश्वर्यादि में
विष्णु श्रीकृ ष्ण की तल ु ना कर सकते हैं, पर भगवान् श्रीकृ ष्ण उनके भी आदिकरण हैं। विष्णु अश ं हैं, श्रीकृ ष्ण अश
ं ी हैं। यह
वेद-शास्त्रों का कथन है। ब्रह्मसहिता में एक आदि दीपक का उदाहरण दिया गया है जिससे दसू रा दीपक जलाया जाय।
दोनों दीपक समान कार्य करते हैं, फिर भी प्रथम दीपक द्वितीय का कारण कहलाता है। विष्णु द्वितीय दीपक हैं। वे श्रीकृ ष्ण
के समान शक्तिशाली हैं, पर आदि विष्णु तो भगवान् श्रीकृ ष्ण ही हैं। इस प्रकार ब्रह्मा तथा शिव परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण
के आज्ञाकारी सेवक हैं तथा विष्णरू ु प श्रीकृ ष्ण का अशं है।

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लीलावतारों तथा गणु ावतारों का वर्णन करके श्रीमहाप्रभु ने श्री सनातन को मन्वन्तरावतारों का वर्णन सनु ाया।
उन्होंने कहा कि मन्वन्तरावतारों की गणना नहीं की जा सकती। ब्रह्मा के एक दिन अर्थात् एक कल्प में चौदह मन्वन्तर होते
हैं। ब्रह्मा के एक दिवस का परिणाम चार अरब पच्चीस करोड़ वर्ष है; इस परिमाण से उनकी पर्णा ू यु सौ वर्ष है। अत: एक
दिवस में चौदह मनओ ु ं की उत्पत्ति के अनसु ार ब्रह्मा के एक मास में 420 और एक वर्ष में 5,040 मनओ ु ं का प्रकट होना
सिद्ध हुआ। इस प्रकार ब्रह्मा की सौ वर्ष की आयु में 5,04,000 मनओ ु ं की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माण्ड अनन्त है, इसलिए
मन्वन्तरावतारों की पर्णू संख्या की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। समस्त ब्रह्माण्ड महाविष्णु के निश्वास-काल में एक
साथ प्रकट होते हैं, अत: एक समय में व्यक्त मनओ ु ं की गणना कोई नहीं कर सकता। इनमें से प्रत्येक मनु का विशिष्ट नाम
है। पहले मनु ब्रह्मपत्रु स्वायम्भवु हैं। दसू रे स्वारोचिष अग्नि के पत्रु हैं। तीसरे मनु हैं प्रियव्रत-पत्रु उत्तम। चौथे मनु तामस
उत्तम के भाई हैं। पाँचवें और छठे मनु रै वत और चाक्षषु तामस के भाई हैं। चाक्षषु चक्षपु त्रु हैं। सातवें मनु का नाम वैवस्वत
है। वे सर्यू देव की सन्तान हैं। आठवें मनु सावर्णि सर्यू पत्नी छाया से जन्मे हैं। नौवें मनु वरुण पत्रु दक्षसावर्णि हैं। उपश्लोकपत्रु
ब्रह्मसावर्णि दसवें मनु हैं। शेष चार मनु हैं-रुद्रसावर्णि, धर्मसावर्णि, देवसावर्णि तथा इन्द्रसावर्णि।
मन्वन्तरावतारों का वर्णन करके श्रीमहाप्रभु ने यगु ावतारों का वर्णन किया। यगु चार हैं-सत्य, त्रेता, द्वापर तथा
कलि। भगवान् श्रीकृ ष्ण यगु -यगु में अवतीर्ण होते हैं तथा प्रत्येक यगु ावतार का वर्ण यगु ानसु ार अलग होता है। सत्ययगु के
यगु ावतार का वर्ण श्वेत है। त्रेता का रतवर्ण तथा द्वापर का कृ ष्णवर्ण है। कलियगु के अवतार (श्री चैतन्य देव) का पीत वर्ण
है। इस सत्य की पष्टि ु श्रीमद्भागवत में (10.8.13) नन्द जी के घर जन्मपत्रिका की गणना करते समय स्वयं श्री गगचिार्य ने
की है।
सत्यचगु का धर्म ध्यान है। इसका प्रचार भगवान् श्वेतावतार में करते हैं। इसी अवतार की कृ पा से श्री कर्दम जी को
एक अवतार की पत्रु रूप में प्राप्ति हुई। सत्ययगु में श्रीकृ ष्ण के ध्यान से जीवमात्र पर्णू ज्ञानी-विज्ञानी होता है। इस वर्तमान
कलियगु में अज्ञानी मनष्ु य भी पर्वू यगु के लिए उपयक्त ु इस ध्यानयोग का प्रयत्न कर रहे हैं। त्रेता का यगु धर्म है यज्ञ, जिसे
भगवान् रक्त वर्ण के अवतार में धारण कराते हैं। द्वापर में भगवान् श्रीकृ ष्ण स्वयं पृथ्वी पर विराजमान थे ; उस समय समस्त
लोग निम्नलिखित मन्त्र द्वारा उनकी अभ्यर्चना करते थे :
नमस्ते व/् स्रर्देु व/य नमः संकषेण/य च/ সুস্থানাঙ্গানিস্তািব্লাঙ্গ নৃত্বে ধ্বনাননী লক্ষ্মণ: |
'मैं भगवान् श्री वासदु वे , श्री सक
ं र्षण, श्री प्रद्यम्ु न तथा श्री अनिरुद्ध को प्रणाम करता हू।ँ " द्वापर में भगवत् प्राप्ति का
यही धर्म था। द्वापर के बाद वर्तमान कलियगु में श्री श्यामसन्ु दर कृ ष्णनाम सक ं ीर्तन के प्रचारार्थ अवतीर्ण होते हैं। इस यगु में
उनका पीतवर्ण (गौरवर्ण) होता है (भगवान् श्रीकृ ष्ण चैतन्य महाप्रभ)ु तथा कृ ष्णनाम संकीर्तन द्वारा लोगों में वे कृ ष्णप्रेम का
वितरण करते हैं। नाम-संकीर्तन रूपी इस कलियगु के धर्म का प्रवर्तन श्री चैतन्य महाप्रभु रूपधारी स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण

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करते हैं। लाखों लोगों के साथ नृत्य-गानपर्वू क नाम-संकीर्तनाविष्ट होकर वे कृ ष्णप्रेम प्रकट करते हैं। श्रीकृ ष्ण के इस अपर्वू
वैशिष्ट्यपर्णू अवतार का श्रीमद्भागवत (11.5.32) में भी वर्णन है :
লুড়ঙ্গালািf লিল্লাল্লচ্ছা জািতসাম্বলম্ব। : i ਕਸੀਜ 4 ਹਿਜਿ ਫ਼ੇ ਜੇ: l
“कलियगु में भगवान् भक्त रूप में श्री गौरसन्ु दर अवतार ग्रहण कर सदा हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे । हरे
राम हरे राम, राम राम हरे हरे —इस महामन्त्र के कीर्तन में मग्न रहते हैं। वे स्वयं साक्षात् श्रीकृ ष्ण हैं, पर द्वापर के समान
उनका कृ ष्णवर्ण न होकर गौरवर्ण होता है। संकीर्तन यज्ञ द्वारा वे आपामर-आचाण्डल तक को कृ ष्णप्रेम का वितरण करते
हैं। बद्धि
ु मान् वही हैं जो इस कलियगु में संकीर्तन द्वारा उनकी अर्चना करते हैं।" श्रीमद्भागवत (12.3.52) में यह भी
उल्लेख है:
দ্রুনী আৰু ৪খাদ্ধানী লিন্য ঈনাত্মা স্বাসনী মন্ত্ৰ: | ব্লাষ্ট্ৰ নির্দিষ্মতাত্মিা
লঙ্কলী নলৰিলা নির্ণনানু ॥
“सत्ययगु में ध्यान, त्रेता में यज्ञ तथा द्वापर में श्रीकृ ष्ण पजू न से होने वाली भगवत्प्राप्ति कलियगु में के वल 'हरे
कृ ष्ण' कीर्तन से ही सम्भव होगी।"
इसके प्रमाणस्वरूप विष्णपु रु ाण (6.2.17) में उल्लेख है :
ਲ a ਰੂ ਗ ਧੜੰ ਗ ਫ਼ਹ ਗ 1
यदाप्नोति तदाप्नोति कल सकीत्य के शवम/ू
'इस कलियगु में ध्यान, यज्ञ अथवा पजू ा का कोई लाभ नहीं। के वल श्रीकृ ष्ण (श्री के शव) नाम संकीर्तन –हरे कृ ष्ण
हरे कृष्ण कृ ष्य कृ ष्य हरे हरे /हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे - से भगवत् प्राप्ति हो सकती है।"
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु से कलियगु के यगु ावतार का वर्णन सनु कर एक समय श्री सनातन गोस्वामी ने, जो
राजमन्त्री थे और निष्कर्ष निकालने में पर्णू समर्थ थे, श्रीमहाप्रभु से निस्संकोच पछू ा, 'हे प्रभो! भगवान् के अवतार का ज्ञान
कै से हो?" कलि के यगु ावतार के विवरण से श्री सनातन समझ गये थे कि वास्तव में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ही भगवान्
श्रीकृ ष्ण के अवतार हैं। वे यह भी जानते थे कि भविष्य में अनेक लोग उनके मिथ्या अनक ु रणों का प्रयास करें गे, क्योंकि
भक्तों द्वारा श्रीकृ ष्ण माने जाने पर भी भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने एक साधारण ब्राह्मण के समान लीला की। श्री
सनातन को पता था कि भविष्य में अनेक धर्तों ू का प्रादर्भा
ु व होगा। अत: उन्होंने जिज्ञासा की, 'प्रभो! अवतार के लक्षणों
का ज्ञान कै से हो सकता है?'

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श्रीमन् महाप्रभु ने कहा, 'जिस प्रकार दसू रे -दसू रे यगु ावतारादि को शास्त्र प्रमाणों से जाना जाता है, उसी प्रकार
कलियगु के वास्तविक अवतार का ज्ञान भी शास्त्र वचनों से हो सकता है।" इस प्रकार भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने
प्रामाणिक ग्रन्थों से सन्दर्भ-पष्टिु पर विशेष महत्व दिया है अर्थात्, किसी को भी अपनी मान्यताओ ं के आधार पर अवतार
नहीं मानना चाहिए, शास्त्रों से वास्तविक अवतार के लक्षणों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण का
अवतार कभी अपने को अवतार घोषित नहीं करता। मनि ु और भक्त ही शास्त्र वचनों के आधार पर निर्णय करते हैं कि
वास्तविक अवतार कौन हैं और कौन कपटी धर्तू हैं।
बद्धि
ु मान् व्यक्ति स्वरूप लक्षणों तथा तटस्थ लक्षणों के ज्ञान से अवतारों को जान जाते हैं। शास्त्रों में अवतारों की
आकृ ति-प्रकृ ति तथा लीलाओ ं का विशद वर्णन है। किसी अवतार को जानने के लिये आकृ ति-प्रकृ ति का वर्णन स्वरूप-
लक्षण है। लीलादि का वर्णन तटस्थ लक्षण है। श्रीमद्भागवत के प्रथम श्लोक से यह स्पष्ट है (1.1.1) । इस श्लोक में
अवतार लक्षणों का सन्ु दर वर्णन है। भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्लोक में प्रयक्त ु 'परम'् तथा 'सत्यम'् शब्दों को
भगवान् श्रीकृ ष्ण के स्वरूप लक्षणों का द्योतक कहा है। अन्य तटस्थ लक्षणों के रूप में उनका ब्रह्मा को वै दिक ज्ञान देने
तथा सृष्टि के लिए परुु षावतार के रूप में अवतार लेने का संकेत है। ये तटस्थ लक्षण विशिष्ट प्रयोजन से प्रकाशित होते हैं।
अवतार के स्वरूप एवं तटस्थ लक्षणों में भेद अवश्य समझना चाहिए। अपने में इन दोनों लक्षणों को सिद्ध किए बिना कोई
भी अपने को अवतार घोषित नहीं कर सकता। बद्धि ु मान् मनष्ु य शास्त्राध्ययन बिना किसी को अवतार स्वीकार नहीं । जब
श्री सनातन ने प्रयत्न किया कि वे स्वयं श्रीमहाप्रभु के मख ु से यह कहलवा 4 |.1 उनके (महाप्रभु के ) लक्षण वास्तव में
शास्त्रों में वर्णित कलियगु में भगवान् श्री कृ ष्ण के अवतार के ही लक्षण हैं (अर्थात् श्रीमहाप्रभु स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं),
तो इस सत्य की एक प्रकार से पष्टि ु करते हुए श्रीमहाप्रभु ने कहा, 'सनातन! मेरे सम्मख ु "। ऐसी चातरु ी मत करो। अब तमु
मझु से शक्त्यावेशावतारों का वर्णन सनु ो।'
श्रीमहाप्रभु ने स्पष्ट किया कि शाक्यावेशावतार अनन्त और असंख्य हैं। फिर भी उदाहरणस्वरूप कुछ का उल्लेख
किया। शतयावेश दो प्रकार के हैं-मख्ु य तथा गौण। 'यं भगवान् के अवतरण का नाम 'साक्षात्' अथवा 'मख्ु य
शक्त्यावेशावतार' होता है। भगवान् द्वारा किसी जीव में अपना प्रतिनिधित्व करने के लिए शक्ति का आवेश कराना 'गीण'
अथवा 'आवेशावतार' कहलाता है। चतस्ु सन (कुमार), श्री नारद, श्री पृथु तथा श्री परशरु ाम गौण अवतार हैं। वे वस्ततु :
जीव हैं, उनमें भगवान् की विशेष शक्ति का समावेश हुआ है। विशेष जीवों में भगवान् की विशेष शक्ति का आवेश
'आवेशावतार' है। चारों कुमारों में भगवान् श्रीकृ ष्ण की ज्ञानशक्ति का आवेश है। नारदजी में भक्तिशक्ति का आवेश हैं।
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु में भी भक्ति का पर्णू तम प्रकाश है। ब्रह्मा में सृजन-शक्ति का तथा पृथु में जीव-पालन शक्ति
का आवेश है। परशरु ाम में दष्टु नाशक शक्ति है। परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के विशेष अनग्रु ह अर्थात् विभति ू के सम्बन्ध में
गीता के दशम् अध्याय में वर्णन है कि विशिष्ट शक्ति अथवा सौन्दर्यादि से यक्त ु सभी जीव भगवान् श्रीकृ ष्ण की विभति ू हैं।
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श्रीशेष तथा अनन्त साक्षात् अवतार हैं। श्रीअनन्त में ब्रह्माण्ड को धारण करने की शक्ति तथा शेष में भगवत्-सेवाशक्ति का
संचार है।
इसके उपरान्त श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृ ष्ण की बाल, पौगण्डादि अवस्थाओ ं का वर्णन किया। उन्होंने
कहा कि स्वयं भगवान् व्रजेन्द्रनन्दन नित्य किशोरशेखर हैं; उनकी आयु सदा षोडश वर्षीय नव किशोर की सी रहती है।
ब्रह्माण्ड में अवतीर्ण होकर लीला करने की इच्छा होने पर वे सर्वप्रथम अपने माता-पिता, भक्तादि को प्रकट करते हैं,
तत्पश्चात् उनके अवतार प्रकट होते हैं अथवा वे स्वयं आते हैं। उनकी पतू ना वधादि अनन्त लीलाएँ असंख्य ब्रह्माण्डों में
प्रकट हुआ करती हैं। वस्ततु : क्षणक्षण में उनके आविर्भाव तथा विविध लीला-विलास विभिन्न ब्रह्माण्डों में प्रकटित होते
रहते हैं। इस प्रकार उनकी लीलाएँ गंगा की धारावत् अजस्र चल रही हैं। गंगा की तरंगों के समान ही विभिन्न ब्रह्माण्डों में
भगवान् श्रीकृ ष्ण के अवतारों का अन्त नहीं है। बाल्यकाल से ही अनेक लीलाएँ प्रकट कर वह कै शोर्य में परम लीला-रास
प्रकट करते हैं।
सभी शास्त्रों में भगवान् श्रीकृ ष्ण की सारी लीला को नित्य कहा गया है। सामान्यतः लोग नहीं समझ पाते कि
अपनी नित्यलीला श्रीकृ ष्ण कै से करते हैं। इस विषय को स्पष्ट करने के लिए श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्रीकृ ष्ण-लीला को
पृथ्वी की सर्यू परिक्रमा की उपमा दी। वैदिक ज्योतिष के गणनानसु ार दिन-रात के चौबीस घण्टों में 60 दण्ड हैं, जिनका
पनु : 3600 पलों में विभाजन है। सर्यो ू दय होने से 60 पल व्यतीत हो जाने वाले समय का परिमाण एक दण्ड होता है। आठ
दण्ड से एक प्रहर बनता है तथा चार प्रहरों में सर्यू उदय-अस्त होता है। इसी प्रकार रात्रि में भी चार प्रहर होते हैं। उनके
व्यतीत होने पर एक बार फिर सर्यो ू दय होता है। सारे ब्रह्माण्डों एवं लोकों में क्रमश: होने वाले कृ ष्ण लीला-मण्डल के दर्शन
किसी भी ब्रह्माण्ड में हो सकते हैं, उसी प्रकार जैसे 3600 पलों में भ्रमणशील सर्यू को भिन्न-भिन्न स्थानों पर देखा जा
सकता है।
श्रीकृ ष्ण प्रकट रूप से इस ब्रह्माण्ड में के वल 125 वर्ष विराजते हैं। किन्तु उनकी वे सारी लीलाएँ क्रमश: प्रत्येक
ब्रह्माण्ड में निरन्तर प्रकट होती रहती हैं। इन लीलाओ ं में उनका आविर्भाव उनकी पौगण्ड बाल्य-लीला तथा कै शोर्य आदि
द्वारका तक की सब लीलाएँ सम्मिलित हैं। उनकी इन लीलाओ ं को नित्य कहा जाता है क्योंकि ये किसी न किसी ब्रह्माण्ड
में सदा होती रहती हैं। पृथ्वी पर अपनी स्थिति के अनसु ार हम सर्यू का उदय अस्त, प्रकट-लप्तु होना देखते हैं। पर वास्तव
में तो सर्यू नित्य विद्यमान है। इसी प्रकार भगवान् की लीलाएँ नित्य हो रही हैं, चाहे इस ब्रह्माण्ड में हमारे सामने उनका
प्रकाश कभी-कभी ही होता है। उनका स्वधाम है गोलोक वृन्दावन नामक परम लोक। उन्हीं की इच्छा से यह गोलोक
वृन्दावन इस ब्रह्माण्ड तथा अन्य ब्रह्माण्डों में प्रकट होता है। अतएव गोलोक में ही श्रीकृ ष्ण का नित्यलीला-विहार कहा
गया है। वह लोक उन्हीं के परम संकल्प से असंख्य ब्रह्माण्डों में व्यक्त होता है। उन्हीं विशिष्ट स्थलों पर वे अवतीर्ण होते हैं
तथा प्रत्येक लीला में उनके छ: ऐश्वर्य प्रकट रहते हैं।
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

अध्याय 9
सर्वेश्वर्यमय भगवान् श्रीकृष्ण
निर्दोष और निष्कपट जनों के प्रति विशेष करुणामय होने के कारण भगवान् श्री गोरसन्ु दर चैतन्य महाप्रभु का एक
नाम पतितपावन है। बद्धजीव का चाहे सर्वाधिक "म स्तर पर पतन हो गया हो, पर निर्दोष होने की स्थिति में उसके लिए
भगवत-् प्राप्ति का द्वार बिल्कुल खल ु ा है। मस्लि
ु म शासन में कार्य करने से हिन्दू समाज की दृष्टि । श्री सनातन गोस्वामी
पतित थे। यहाँ तक कि ब्राह्मण-समाज ने तो इस कारणवश उन्हें बहिष्कृ त भी कर दिया था। किन्तु उन्हें निर्दोष जान भक्ति
ज्ञान की निधि प्रदान कर "। गौरसन्ु दर महाप्रभु ने उन पर अशेष कृ पा की।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने आगे वैकुण्ठ जगत् के विभिन्न लोकों की स्थिति का वर्णन किया। प्राकृ त ब्रह्माण्ड सीमित
परिमाण वाले हैं, किन्तु अप्राकृ त होने के कारण वैकुण्ठ (लोक असीम हैं। सब वैकुण्ठों का परिमाण लक्ष-लक्ष कोटि
योजन है। इनकी अनन्त व्याप्ति है तथा इनमें प्रत्येक निवासी पर्णू षडैश्रव्य (श्री, वीर्य, ज्ञान, सौन्दर्य, यश तथा वैराग्य) से

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

यक्त
ु है। प्रत्येक वैकुण्ठ में भगवान् श्रीकृ ष्ण की एक मर्तिू का नित्य निवास है; श्रीकृ ष्ण स्वयं नित्य आदिधाम कृ ष्णलोक-
गोलोक वृन्दावन में विराजमान हैं।
इस ब्रह्माण्ड का विशाल से विशाल लोक भी परव्योम के एक कोण अथवा अश ं में स्थित है। पृथ्वी से हजारों गनु ा
बड़ा होने पर भी सर्यू परव्योम के तच्ु छ अश ं में है। इसी प्रकार सभी परिमाण-रहित लोक ब्रह्मज्योति के एक कोण में स्थित
हैं। ब्रह्मसहिता में इस ब्रह्मज्योति का वर्णन है- निष्कलं अनन्तं अशेषभतू म,् अर्थात् अविभाजित, अनन्त तथा सर्वथा
दिव्य। सारे वैकुण्ठ कमल दल के तल्ु य हैं तथा उनके मध्य में कमल की कर्णिका के स्थान पर सबसे ऊपर कृ ष्णलोक
विराजमान है। इस प्रकार विविध रूपों में भगवान् श्रीकृ ष्ण के वर्णित प्रकाशों का अन्त नहीं है तथा परव्योम के वैकुण्ठों में
उनके विभिन्न धाम भी अनन्त हैं। ब्रह्मा, शिव आदि देवता तक इन अनन्त वैकुण्ठलोकों की गणना अथवा कल्पना नहीं
कर सकते। यह श्रीमद्भागवत (10.14.21) से पष्टु है
'वैकुण्ठ लोकों के परिमाण को कोई भी नहीं जान सकता।" ब्रह्मा और शक ं र जी ही क्यों, भगवान् के शक्त्यावतार
स्वयं श्रीअनन्त भी उनकी शक्ति अथवा विभिन्न वैकुण्ठ लोकों की सीमा को जानने में बिल्कुल असमर्थ हैं।
इस सन्दर्भ में श्रीमद्भागवत की (10.14,21) ब्रह्मा द्वारा स्तति
ु अत्यन्त निर्णयात्मक है :
লক্ষ্ণৗ লনি ঘুনন্দ মৃণালিনু দুর্নামেনু সুগ্ৰীক্ষ্মীনীগুলিনসিলীলাম্। क्व व कथ'
व कति व कदति q{{IR4;{affefừ đìTHPTTH II
'हे प्रभो! हे भगवन!् हे परमात्मन्! हे योगेश्वर! आपकी योगमाया द्वारा प्रकटित आपके अवतारों को कौन जान
सकता है? आपके इन प्रकाशों से त्रिभवु न व्याप्त है" ब्रह्माजी पनु : कहते हैं :
UI ন্মানজনীতিনি ন্যান্য লিনা हितवतीणस्य कर्झश्रेऽस्य / ਕ l ਜ ਗੋਕ ਕਿਸਿl: ਯੂਕ
ফুলাম্বল; স্তন্ত্র মিলিলঙ্কা ধ্ৰুষাৰণ: //
'वैज्ञानिक और विद्वान् लोग एक लोक के परमाण-ु समहू की गणना भी नहीं कर सकते। परन्तु यदि वे आकाश के
हिमकण अथवा अन्तरिक्ष में तारों की गणना करने में सफल भी हो जाएँ तो भी इस पृथ्वी अथवा ब्रह्माण्ड में अनन्त
अप्राकृ त शक्तियों, वीर्य तथा सदगणु ों सहित आपके अवतरण का निरुपण नहीं कर सकते।" (श्रीमद्भागवत 10.14.7)
श्रीब्रह्माजी ने नारदजी से कहा कि उनके सहित कोई भी महर्षि परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण की अनन्त शक्ति एवं
वीर्य का अनमु ान नहीं कर सकता। सहस्रवदन श्री अनन्तदेव प्रयत्न करने पर भी भगवत् शक्तियों के निरूपण में सफल नहीं
हो सके । इसीलिए मर्ति ू मान श्रति
ु यों ने भगवत् स्तवन में कहा है- (श्रीमद्भागवत 10.87.41) ह्यपु तय एव ते न
ययरु न्तमनन्ततय/ লোনি অনুন্নাU ভনিলুঙ্গা পলু অ্যালয়(Uা: |
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

सर्वेश्चर्यमय भगवान् श्रीकृष्ण Qos


ख हृव रजासि वान्ति वयसा सह यच्छुत– स्त्व f f ह एकलन्त्यत f न्नरसेनेन्न भव f न्त्रेधन/् ः |
'हे प्रभो! आप अनन्त हैं। आपकी शक्तियों का अन्त कोई नहीं जान सकता। वस्ततु : आप स्वयं भी अपना अन्त
नहीं जान सकते। आकाश में परमाणओ ु ं के समान असंख्य लोक घमू ते रहते हैं तथा आपकी खोज में लगे वेदान्ती के वल
यही जान पाते हैं कि सब कुछ आपसे भिन्न है। अत: वे इसी निर्णय पर पहुचँ ते हैं कि आप ही सब कुछ हैं।"
जिस समय भगवान् श्रीकृ ष्ण इस ब्रह्माण्ड में थे तब ब्रह्मा ने उनकी परीक्षा की थी, यह निर्णय करने के लिए कि
वृन्दावन का यह गोपबालक क्या वास्तव में भगवान् है। अपनी योग शक्ति से उन्होंने श्रीकृ ष्ण के सारे गोधन, गोवत्स, गोप
बालकों का अपहरण करके छिपा दिया। किन्तु जब वे यह देखने लौटे कि भगवान् श्रीकृ ष्ण क्या कर रहे हैं, तो पाया कि
श्रीकृ ष्ण पर्वू की भाँति उन्हीं गायों, गोवत्स तथा गोपबालकों सहित क्रीड़ारत हैं अर्थात्, अपनी वैकुण्ठ-शक्ति से भगवान्
श्रीकृ ष्ण ने सारे अरपहृत गाय, गोवत्स तथा गोपबालको को पनु ः प्रकट कर लिया। श्री ब्रह्माजी ने उनको कोटि-कोटि की
संख्या में देखा। कोटि-कोटि सेर गन्ने आदि फल, पद्म, श्रृंग आदि का भी उन्होंने अवलोकन किया। गोपबालक नाना
वस्त्राभरणों से समालंकृत थे। उनकी गणना नहीं ही सकती थी। श्री ब्रह्मा ने देखा कि सब गोपबालक ब्रह्माण्डों के
अधिष्ठाता चतर्भुु ज नारायण स्वरूप हो गये हैं तथा असख्ं य ब्रह्मा श्रीकृ ष्ण की वन्दना में सल ं ग्न हैं। वे सभी श्रीकृ ष्ण के
श्रीविग्रह से प्रकट होते तथा दसू रे ही क्षण उसी में विलीन हो जाते। यह देखकर ब्रह्माजी परम विस्मित हो गये। अपनी
प्रार्थना में उन्होंने स्वीकार किया कि चाहे सब कोई कहें कि वे श्रीकृ ष्ण को जानते हैं पर जहाँ तक उनका सम्बन्ध है , वे तो
निस्सन्देह श्रीकृ ष्ण को बिल्कुल भी नहीं जान पाये। उन्होंने स्वयं कहा, 'प्रभो! आपके द्वारा प्रकट शक्तियाँ और ऐश्वर्य मेरे
मन-वाणी के लिए सर्वथा अगोचर हैं।'
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने पनु ः वर्णन किया कि कृ ष्णलोक का ऐश्वर्य तो अनन्त है ही, इस लोक में श्रीकृ ष्ण
धाम वृन्दावन के वैभव का भी अन्त नहीं है। शास्त्र के उल्लेख से श्रीधाम वृन्दावन सोलह कोस में व्याप्त है, किन्तु उसी के
एक अश ं में सम्पर्णू अनन्त ब्रह्माण्डों की स्थिति है। वर्तमान श्रीधाम वृन्दावन में द्वादश वन हैं, जो चौरासी कोस अथवा
168 मील में फै ले हुए हैं। वृन्दावन नगर का परिमाण सोलह कोस है। सब वैकुण्ठों की वहाँ स्थिति को समझना प्राकृ त
कल्पना से बिलकुल परे है। श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने भगवान् श्रीकृ ष्ण की शक्तियों और ऐश्वर्य को अपार कहा। उन्होंने श्री
सनातन को दिग्दर्शन मात्र कराया है, पर ऐसे दिग्दर्शन से सम्पर्णू का अनमु ान लगाया जा सकता है।
इस प्रकार श्री सनातन से भगवान् श्रीकृ ष्ण के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु प्रेमोन्माद में निमग्न
हो गए। इसी अलौकिक अवस्था में उन्होंने श्रीमद्भागवत के इस श्लोक (3.2.21) का आस्वादन किया, जो श्रीकृ ष्ण के
स्वधाम गमन करने के बाद उद्धव ने विदरु को सनु ाया था :

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

z-driveçd3:2ITrivijërithithi: I ললি নৃত্বাধিনুঞ্জিাৱলীলঙ্কালী: किरीटकटठडितपादपीठ: //


'भगवान् श्रीकृ ष्ण सम्पर्णू देवों, ब्रह्मा, शिव तथा ब्रह्माण्ड में स्थित विष्णु के भी ईश्वर हैं, षडैश्चर्यपर्णू हैं। कोई भी
उसके समान अथवा उनसे श्रेष्ठ नहीं है। ब्रह्माण्ड में विभिन्न पदों पर आसीन सारे देवता उनकी वन्दना करते हैं। वस्ततु : उन
देवगणों के किरीटों की शोभा परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के पदारविन्द के चिह्न से विभषि ू त होने के कारण ही है।' इसी
प्रकार ब्रह्मसहिता (5.1) में कहा है कि श्रीकृ ष्ण परम ईश्वर हैं, उनके तल्ु य अथवा उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। निज-निज
ब्रह्माण्डाधीश्वर ब्रह्मा, विष्ण,ु महेश उन परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के तच्ु छ सेवक हैं। यह सब वेद का निर्णय है। सब
कारणों के कारण होने से श्रीकृ ष्ण जगत् के अधिष्ठाता तथा प्रथम परुु ष महाविष्णु के भी जन्मदाता हैं। महाविष्णु से
गर्भादकशायी तथा क्षीरोदकशायी विष्णु प्रकट होते हैं, अत: भगवान् श्रीकृ ष्ण इनमें परम ईश्वर तथा सब जीवों में स्थित
परमात्मा सिद्ध हुए। ब्रह्मसहिता (5.48) में उल्लेख है कि महाविष्णु के नि:श्वास के साथ असंख्य ब्रह्माण्ड प्रकट होते हैं;
इनमें से प्रत्येक ब्रह्माण्ड में असंख्य विष्ण-ु तत्व हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण इन सबके ईश्वर तथा अश ं ी हैं।
शास्त्रों के अनसु ार भगवान् श्रीकृ ष्ण के तीन अलौकिक निजधाम हैं। श्रीकृ ष्ण का सर्वाधिक गोपनीय धाम अर्थात्
अन्त:परु गोलोक वृन्दावन है। श्रीधाम वृन्दावन में वे अपने माता, पिता, मित्रादि सहित निवास करते हुए अपने आस्वाद्य
ऐश्वर्य-माधर्यु का प्रकाश करते हैं तथा अपने नित्य परिकरों पर अपनी कृ पा बरसाते हैं। वहाँ योगमाया रासलीला में उनकी
दासी का कार्य करती है। व्रजवासी कहते हैं, 'अपनी परम करुणा तथा प्रेम से जययक्त ु व्रजेन्द्रनन्दन जब कृ पापर्वू क व्रज में
विराजमान हैं तो हम व्रजवासियों के लिए कुछ भी चिन्ता उदित नहीं हो सकती।" ब्रह्मसहिता (5.43) के अनसु ार परव्योम
के सारे वैकुण्ठ (विष्णल ु ोक) कृ ष्णलोक अथवा गोलोक वृन्दावन में स्थित हैं। उस परम लोक में भगवान् अनेक रूपों में
अपने अलौकिक आनन्द का आस्वादन करतें है तथा वैकुण्ठलोकों के सारे ऐश्वर्य वहाँ पर्णू रूप से प्रकाशित रहते हैं।
श्रीकृ ष्ण के पार्षद भी षडैश्चर्यपर्णू हैं। पाइोतर खण्ड (225.57) में उल्लेख है कि विरजा नदी अन्तरंगा तथा मायाशक्ति को
पृथक् करती है। विरजा की उत्पति प्रथम परुु ष के स्वेद से हुई है। उसके एक तट पर परव्योम नामक नित्य, अनन्त तथा
स्वानन्दमय प्रकृ ति है। यही भगवद्धाम है। भगवद्धाम वैकुण्ठ कहलाते हैं, क्योंकि वहाँ भय का अभाव है; वे नित्य हैं।
चिच्छतिविभति ू -धाम त्रिपादैश्वर्य हैं तथा मायिक सृष्टि एकपादैश्चर्य है। किन्तु त्रिपादविभति
ू वास्तव में क्या है, यह कोई नहीं
जान सकता क्योंकि एक पादैश्चर्यात्मक मायिक सृष्टि का भी वर्णन नहीं किया जा सकता। भगवान् श्रीकृ ष्ण के एकपादैश्वर्य
का थोड़ा ज्ञान कराने के लिए श्री गौरसन्ु दर ने श्रीमद्भागवत से वह घटना सनु ाई जब ब्रह्माण्ड के अधिपति ब्रह्मा द्वारका में
भगवान् श्रीकृ ष्ण का दर्शन करने आए थे। ब्रह्मा के द्वार पर पहुचँ ने पर द्वारपाल ने श्रीकृ ष्ण को ब्रह्मा के आगमन की सचू ना
दी। श्रीकृ ष्ण ने पछू ा कि कौन से ब्रह्मा आए हैं। प्रहरी ने लौटकर ब्रह्मा से प्रश्न किया, “श्रीकृ ष्ण ने पछू ा है कि आप कौन से
ब्रह्मा हैं?”

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

यह सनु कर ब्रह्मा चकित रह गए। श्रीकृ ष्ण ने ऐसा क्यों पछ ँू ा? उन्होंने प्रहरी को सचि
ू त किया, “सनकादि का पिता
चतर्मुु ख ब्रह्मा आया है, ऐसा उनसे जाकर कहो।”
प्रहरी ने श्रीकृ ष्ण को बताया और उनकी आज्ञानसु ार ब्रह्मा को भीतर ले आया। ब्रह्मा ने भगवान् श्रीकृ ष्ण के
पदारविन्द में दण्डवत् प्रणाम किया तथा उनसे आदरपर्वू क भेंट कर श्रीकृ ष्ण ने आगमन का उद्देश्य पछू ा।
ब्रह्मा बोले, “हे प्रभो! अपने आने का कारण मैं बाद में निवेदन करूँगा। पहले आप मेरे एक सश ं य की निवृत्ति
कीजिए। आपने प्रहरी से पछु वाया कि कौन से ब्रह्मा आये हैं? मैं जानना चाहता हूँ कि क्या मेरे अतिरिक्त जगत् में अन्य
ब्रह्मा भी हैं?”
ऐसा सनु ने पर मस्ु कराते हुए भगवान् श्रीकृ ष्ण ने तरु न्त अनेक ब्रह्माण्डों से ब्रह्माओ ं का आह्वान किया। चतर्मुु खी
ब्रह्मा ने देखा कि बहुत से दसू रे -दसू रे ब्रह्मा श्रीकृ ष्ण के दर्शनार्थ आकर उन्हें प्रणाम कर रहे हैं। किसी के दस, किसी के
बीस, किसी के सी, तो किसी के दस लाख मस्तक थे। चतर्मुु खी ब्रह्मा तो वहाँ आकर श्रीकृ ष्ण की वन्दना करने वाले
ब्रह्माओ ं की गणना भी नहीं कर सके । तत्पश्चात् श्रीकृ ष्ण ने अन्य अनेक देवताओ ं को विविध ब्रह्माण्डों से वहाँ बल ु ावा
भेजा। प्रभु को प्रणाम करने वे सब अविलम्ब आ पहुचँ ।े इस परमाद्भुत दृश्य का अवलोकन कर चतर्मुु खी ब्रह्मा ठगे से रह
गए। उनकी स्थिति गजसमदु ाय में खरगोश की सी तरह हो गई। इतने अधिक देवताओ ं को भगवान् श्रीकृ ष्ण की वन्दना
करते देखकर चतर्मुु ख ब्रह्मा इस निश्चय पर पहुचँ े कि श्रीकृ ष्ण की अनन्त शक्ति और ऐश्वर्य का तो अनमु ान भी नहीं लगाया
जा सकता। उस विराट् सभा में विभिन्न देवताओ ं तथा ब्रह्माओ ं के किरीट देदीप्यमान थे और उनकी स्तति ु से तमु ल
ु घोष
हो रहा था।
देवगण बोले, “प्रभो! यह आपकी अशेष कृ पा ही है, जो आपने हमारा आह्वान करके हमें अपने पदारविन्द के
दर्शन प्रदान किए। हमारे लिए क्या आज्ञा है, उसे शिरोधार्य कर हम अवश्य पर्णू करें गे।”
भगवान् श्रीकृ ष्ण बोले, “तमु सबके लिए कोई विशेष कार्य नहीं है। मैं तो के वल तम्ु हें देखना चाहता था। दैत्यों से
भयरहित होकर सख ु ी रहो।”
वे सभी एक स्वर से कहने लगे, “प्रभो! आपकी कृ पा से सर्वत्र मंगल ही मंगल है। वर्तमान समय में ब्रह्माण्ड में
कोई उत्पात नहीं है, क्योंकि आपके अवतरण से सब अमंगलों का नाश हो जाता है।” प्रत्येक ब्रह्मा भगवान् श्रीकृ ष्ण के
दर्शन करते समय यही समझ रहा था कि श्रीकृ ष्ण उसी के ब्रह्माण्ड में विराजमान हैं। तदपु रान्त भगवान् श्रीकृ ष्ण ने सब
ब्रह्मादिकों को विदा किया; वे उन्हें दण्डवत् प्रणाम कर अपने-अपने लोकों को चले गए। यह चरित्र देखकर चतर्मुु खी ब्रह्मा
भगवान् श्रीकृ ष्ण के चरणारविन्द में गिरकर बोले, “प्रभो! आपके सम्बन्ध में मेरा पहला निश्चय सर्वथा मिथ्या था। जो
कहते हैं कि वे आपको पर्णू रूपेण जानते हैं, वे जाना करें । किन्तु प्रभो! मैं तो आपके वैभव का अनमु ान भी करने में समर्थ
नही हू।ँ आप मेरे मन वाणी से सर्वथा अगोचर हैं।”
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

ब्रह्मा के वचन सनु कर भगवान् श्रीकृ ष्ण ने कहा, “सनि ु ए ब्रह्मा जी, आपके इस ब्रह्माण्ड का परिमाण के वल पचास
कोटि योजन (400 करोड़ मील) है। किन्तु इससे कहीं बड़े कोटि कोटि अन्य ब्रह्माण्ड सृष्टि में हैं। कितनों का अर्बुद कोटि
योजन विस्तार है तथा इनमें चार से कहीं अधिक मख ु वाले ब्रह्मा नियक्त
ु हैं।” श्रीकृ ष्ण ने आगे कहा, “ब्रह्माजी! यह प्राकृ त
जगत् मेरी एक पादविभति ू मात्र है। मेरी त्रिपादविभति
ू का प्रकाश तो परव्योम में है।”
श्रीकृ ष्ण को प्रणाम करके ब्रह्मा ने स्वलोकगमन की आज्ञा ली। इस चरित्र से उन्हें भगवान् की त्रिपादविभति ू का
ज्ञान हो गया।
श्रीकृ ष्ण को प्रणाम करके ब्रह्मा ने स्वलोकगमन की आज्ञा ली। इस चरित्र से उन्हें भगवान् की त्रिपादविभति ू का
ज्ञान हो गया।
इसीलिए भगवान् को 'त्रयधीश्वर' कहा जाता है। इससे उनके तीन प्रधान धामगोकुल, मथरु ा और द्वारका निर्दिष्ट हैं।
ये तीनों लोक षडैश्वर्यपर्णू हैं तथा भगवान् श्रीकृ ष्ण इनके अधीश्वर हैं। अपनी अलौकिक चिच्छति में नित्य विराजमान
भगवान् श्रीकृ ष्ण सम्पर्णू अप्राकृ त शक्तियों के स्वामी तथा षडैश्वर्ययक्त ु हैं। षडैश्वर्यपर्णू होने के कारण ही सारे वैदिक शास्त्रों
ने श्रीकृ ष्ण को परम परुु ष स्वयं भगवान् घोषित किया है।
भगवान् श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को श्रीकृ ष्ण के ऐश्वर्य का वर्णन करते हुए एक अतिशय मधरु गीत
सनु ाया। उन्होंने गाया 'भगवान् श्रीकृ ष्ण की सारी लीला नराकार है। श्रीकृ ष्ण स्वयं वास्तव में नराकृ ति हैं। नरवपु वस्ततु :
उनकी नराकृ ति का अनक ु रणमात्र है। श्रीकृ ष्ण का गोपवेश है। उनके करारविन्द में वेणु सश ु ोभित है तथा वे नित्य
पर्वू कै शोर्य में स्थित हैं। वे अत्यन्त चचं ल हैं, उनकी सब क्रीड़ाएँ प्राकृ त बालकों जैसी हैं। ' श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने आगे
श्रीकृ ष्ण के माधर्यु का वर्णन किया। उन्होंने कहा कि श्रीकृ ष्ण की इस माधरु ी को समझने वाला अमृताम्बधि ु का आस्वादन
करता है। श्रीकृ ष्ण की योगमाया नामक चिच्छत्ति अलौकिक तथा मायातीत है; के वल अपने भक्तों के प्रेमास्वादनार्थ ही वे
उस योगमाया का इस जगत् में प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार अपने भक्तों के लिए वे संसार में प्रकट होते हैं। उनके रूप गणु ादि
इतने अधिक चित्ताकर्षक हैं कि उस माधर्यु के आस्वादन के लिए स्वयं उनका मन उत्कण्ठित हो उठता है। सर्वालंकार
विभषि ू त तथा त्रिभगं ललित मद्रु ा में वे अपने सर्वाकर्षी नेत्रों की भौहों को नचाते रहते हैं। उनकी इस असमोधर्व रूप-माधरु ी
पर गोपीगण मग्ु ध हैं। परव्योम के शीर्षभाग में स्थित अपने नित्यधाम में वे पार्षदों, गोपबालकों, गोपियों तथा सब लक्ष्मियों
के मध्य शोभायमान हैं। वहाँ उन्हें मदनमोहन कहते हैं।
भगवान् श्रीकृ ष्ण की अनन्त विविध लीलाएँ हैं-जैसे श्री वासदु वे , श्री संकर्षणादि|4 रूपों में उनकी लीला । प्राकृ त
जगत् में प्रथम परुु षावतार के रूप में भी उनकी लीला होती है। कभी-कभी कूर्म, मत्स्य आदि अवतारों में भी वे लीला
करते हैं तथा ऐसी भी लीला है जिसमें ब्रह्मा, शिव आदि गणु ावतार ग्रहण करते हैं। शक्त्यावेशावतार लीला में वे श्री पृथु
आदि रूप धरते हैं तथा सब प्राणियों के अन्तर्यामी तथा निर्विशेष ब्रह्मरूप से भी उनका लीला विलास है। उनकी लीला
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

अनन्त है, तो भी सर्वोपरि लीला है नराकृ ति भगवान् श्रीकृ ष्ण की, जिसमें वे वृन्दावन में नाचते हुए, गोपियों के साथ विहार
करते हैं, कुरुक्षेत्र यद्ध
ु में पाण्डवों सहित क्रीड़ा तथा मथरु ा और द्वारका में लीला करते हैं। नराकृ ति की सब आकर्षक
लीलाओ ं में उनकी वही लीला सर्वाधिक आकर्षक है जिसमें नव कै शोर्ययक्त ु गोपबालक वेष में वे मधरु वेणु बजाते हैं। यह
स्मरणीय है कि गोलोक, मथरु ा तथा द्वारका में प्रकाशित लीला का लघु कण भी सम्पर्णू ब्रह्माण्ड को कृ ष्णप्रेम से
आप्लावित करने में परम समर्थ है। श्रीकृ ष्ण का माधर्यु जीवमात्र को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है।
परव्योम अथवा वैकुण्ठ लोकों में भगवान् श्रीकृ ष्ण की अन्तरंगा चिच्छति प्रकट नहीं होती; पर अपनी अचिन्त्य
कृ पा द्वारा निज धाम से अवतीर्ण होने पर वे उसी चिच्छक्ति को इस जगत् में प्रकट किया करते हैं। श्रीकृ ष्ण इतने कौतक ु ी
तथा सर्वाकर्षक हैं कि वे स्वयं अपने माधर्यु से मोहित हो जाते हैं। इससे प्रमाणित होता है कि वे सम्पर्णू अचिन्त्य शक्तियों
के आश्रय हैं। जहाँ तक उनके आभषू णों का सम्बन्ध है, जब वे भगवान् श्रीकृ ष्ण के विग्रह पर सश ु ोभित होते हैं तो ऐसा
प्रतीत होता है मानो वे श्रीकृ ष्ण की शोभा नहीं बढ़ाते, वरन् उनके अगं -अगं से स्वयं विभषि ू त हो जाते हैं। अपने
त्रिभंगललित रूप से श्रीकृ ष्ण देवों सहित सब जीवों को मोह लेते हैं। यहाँ तक कि वैकुण्ठवासी नारायण भी भगवान्
श्रीकृ ष्ण की इस रूप-माधरु ी पर मग्ु ध हो जाते हैं।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

अध्याय 10

भगवान् श्रीकृष्ण की रूप-माधुरी


मन्मथ-मन्मथ श्रीकृ ष्ण मदनमोहन हैं। व्रजरमणियों की सेवा स्वीकार कर उन्हें ।ग्रहीत करने के कारण भी वे
मदनमोहन हैं। कन्दर्प-दर्प-दलन करके नव कन्दर्प' ' से वे रास क्रीड़ा करते हैं। रूप, रस, गन्ध, स्वर तथा स्पर्श नामक अपने
पचं शर द्वारा । पीमनमन्थन होने से भी वे मदनमोहन हैं। उनके कण्ठ में विराजित हार के मोती हसं स्वेत हैं तथा मौलि
मण्डन मोर मक ु ु ट की इन्द्रधनषु ी शोभा है। उनका पीताम्बर विद्यतु के रामान है तथा श्रीकृ ष्ण स्वयं नवोदित धनश्याम मेघ
हैं। गोपियाँ उनके चरणों की नपु रु हैं तथा मेघ के शस्य-श्यामला धरा पर बरसने के समान ही ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी
लीलामृत रूपी करुणा का परिवर्षण करके श्रीकृ ष्ण गोपीभाव का पोषण कर रहे हैं। वर्षाकाल में आकाश में विचरणशील
पक्षीगण तथा इन्द्रधनषु का भी दर्शन होता है। सखाओ ं सहित गोचारण-लीला करते हुए वृन्दावनविहारी श्रीकृ ष्ण स्वच्छन्द
विहार करते हैं। उनकी मधरु ातिमधरु वेणु-ध्वनि सनु कर क्या स्थावर, क्या जंगम-सम्पर्णू प्राणियों में प्रेमोदय हो जाता है।
सभी में पल ु क, कम्प, अश्रु आदि प्रेम के सात्विक विकार प्रकट हो जाते हैं। माधर्यु ही श्रीकृ ष्ण की भगवतता का सार है।
श्रीकृ ष्ण सम्पर्णू यश, रूप, श्री, ज्ञान, वीर्य तथा वैराग्य के अधिपति हैं; फिर भी उनका परम चरम सौन्दर्य तो उनके माधर्यु -
आकर्षण में ही है। श्रीकृ ष्ण का माधर्यु नित्य के वल उन्हीं में रहता है, उनके अन्य वैभव-ऐश्वर्य तो उनके नारायण स्वरूप में
भी हैं।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

इस प्रकार श्रीकृ ष्ण की रूप-माधरु ी का वर्णन करते हुए श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु प्रेमाविष्ट हो गये तथा प्रेम से श्री
सनातन का हाथ पकड़कर गोपियों के भाग्य को सराहने लगे। उन्होंने श्रीमद्भागवत से निम्नलिखित श्लोक (10.44.14) का
आस्वादन किया
σΠαυστικΗΗτήέείτfτίτιfις Η ι
বুনিন্ম: মিলনস্থলুলান্ধিলাল ব্ৰহ্মাu নী क/न्तध/् म् यश/् स: f श्रयं ऐश्वरस्य |
'व्रज-मणियों ने भला कौन-सी तपस्या की थी, जिसके प्रभाव से उन्होंने श्रीकृ ष्णरूपामृत का पान किया? श्रीकृ ष्ण
का वह रूप असमोध्र्व लावण्य का सार-स्वरूप तथा सब ऐश्वयों का एकान्त आश्रय है।'
तारुण्यामृत पारावार-स्वरूप श्रीकृ ष्ण श्रीविग्रह में लावण्य की तरंगें कल्लोलित होती रहती हैं। रूप-तरंगों तथा
वंशीध्वनि जनित भाव-चक्रवात में गोपियों के मन पत्तों के समान उड़ते हैं। इस प्रकार श्रीकृ ष्ण-पदारविन्द पर गिरने पर
उनका पनु : उदय नहीं होता। अन्य सारे सौन्दर्य श्रीकृ ष्ण की रूप-माधरु ी के आगे नगण्य हैं, उनसे बढ़कर अथवा उनके
समान अन्य कोई सौन्दर्य नहीं है। श्रीकृ ष्ण श्री नारायणादि सब अवतारों के अवतारी हैं। इसी कारण नित्य श्री नारायण
संगिनी रमादेवी भी श्री नारायण का परित्याग कर भगवान् श्रीकृ ष्ण की प्राप्ति के लिए तप करती हैं। सर्व लावण्यनिधि
श्रीकृ ष्ण की असमोध्र्वरूप-माधरु ी का ही यह अन्यतम प्रभाव है। अधिक क्या, श्रीकृ ष्ण की रूप-माधरु ी से ही सब रूपों का
प्रकाश है।
व्रजगोपियों का भाव मानो दर्पण है जिसके आगे श्रीकृ ष्ण का माधर्यु क्षण-प्रतिक्षण नित्य नव-नवायमान रूप में
प्रकाशित हुआ करता है। प्रतिक्षण नव-नव बढ़ते हुए श्रीकृ ष्ण तथा गोपियों के असमोध्र्व माधर्यु में निरन्तर अलौकिक
स्पर्धा लगी रहती है। कर्तव्य कर्म, त्याग-तप, योग, ज्ञान, ध्यानादि से श्रीकृ ष्ण के माधर्यु का आस्वादन सम्भव नहीं। वह तो
के वल श्रीकृ ष्ण के प्रेमी भक्त के लिए ही सल ु भ है, अन्य के लिए नहीं। श्रीकृ ष्ण का यह माधर्यु उनके सम्पर्णू ऐश्वर्य का
सार-सर्वस्व है; इसका आस्वादन के वल गोलोक वृन्दावन में होता है, अन्यत्र नहीं। नारायण स्वरूप में कारुण्य, यश, श्री,
आदि ऐश्वर्य श्रीकृ ष्ण के कारण ही हैं। परन्तु श्री नारायण में भी श्रीकृ ष्ण के तल्ु य सश
ु ीलता तथा वदान्यता का अभाव है;
इनकी प्रतिष्ठा के वल श्रीकृ ष्ण में है।
श्रीमद्भागवत के श्लोकों का श्री सनातन के साथ आस्वादन करते हुए श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने एक अन्य श्लोक
(9.24,65) पढ़ा :
I ਜ i H ਕਕੁਭ ਬਰਯ ԿNI(ֆ փ«1ց:րi qթci/MERIզ/

নিদ্ৰীদাল ন ন দুর্ভূক্লিান্নি: মিলনস্থলী ਜ ili ਜ I ਯੁit: ਕੁਧਿ ਜਿਸੇl


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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

'गोपागं नाओ ं के लिए श्रीकृ ष्ण की रूप-माधरु ी का आस्वादन नित्योत्सव था। वे उनके सोंदर्य-सार सर्वस्व
मख ु ारविन्द, मकराकृ तकुण्डल-मण्डित वर्ण, उन्नत ललाट तथा मादक मस्ु कराहट का निरन्तर दर्शन करतीं। इस प्रकार
श्रीकृ ष्ण-रूप-रस-समास्वादन (h रते हुए वे अपने दर्शनोत्सव में विध्नकारी नेत्र-पलकों के रचयिता ब्रह्मा की निन्दा करने
लगती थीं।'
कामगायत्री नामक वैदिकमन्त्र में श्रीकृ ष्ण के मख ु चन्द्र को सब चन्द्रमाओ ं का अधिपति कहा गया है। लाक्षणिक
भाषा में अनेक चन्द्रमा हैं, किन्तु श्रीकृ ष्ण के श्रीविग्रह में वे सभी एकत्र हैं। उनका मख ु , कपोल-द्वय, ललाट का चन्दन-
बिन्द,ु कर-नख और पद-नख-ये सभी पर्णू चन्द्र हैं तथा उनका ललाट अर्द्धचन्द्र माना गया है। इस प्रकार ये साढ़े चौबीस
चन्द्रमा हैं; श्रीकृ ष्ण इन सब के मध्य विराजमान द्विजराजराज हैं।
श्रीकृ ष्ण के मकर-कुण्डल, नेत्र तथा भृकुटि के नर्तन-विलास से गोपीगण उनकी ओर अत्यन्त आकृ ष्ट होती हैं।
भक्त की क्रियाएँ भक्ति की कामना को उत्तरोतर बढ़ाती हैं। श्रीकृ ष्ण के मख ु चन्द्र को निहारने के अतिरिक्त नेत्रों द्वारा अन्य
कुछ दर्शनीय है ही क्या? श्रीकृ ष्ण की रूप-माधरु ी का नेत्र-यगु ल से तृप्तिदायक पान कभी नहीं हो सकता। निरन्तर और पान
की लालसा बनी ही रहती है। इसलिए अपनी इस असमर्थता से देखने वाला क्षब्ु ध हो उठता है। स्रष्टा की सृष्टि की निन्दा
करने से ही उसका क्षोभ कुछ घटता है। कृ ष्ण-दर्शन से अतृप्त रह जाने के कारण वह शोकाकुल होकर कह बैठता है,
'लक्षकोटि न होकर मझु े के वल दो ही नेत्र मिले हैं और वे भी पलकों से ढके हैं। इसलिए यह समझना चाहिए कि इस शरीर
का स्रष्टा जड़-मति है। रस-शन्ू य होने के कारण वह के वल साधारण तथा नीरस सृष्टि कर सकता है। श्रीकृ ष्ण-दर्शन के
उपयक्त ु सृजन करने में वह अयोग्य है।'
गोपी मन श्रीकृ ष्ण माधर्यु के आस्वादन में ही निरन्तर सल ं ग्न रहता है। श्रीकृ ष्ण लावण्यके लिसदन हैं तथा उनका
निजागं -माधर्यु सिन्ध,ु अतिशय मधरु मृदु हास्य तथा मख ु चन्द्र गोपी-मन मन्थन में पर्णू समर्थ है। कृ ष्णकर्णमृत (92) में
उनके मख ु , हास्य तथा निजागं कान्ति को क्रमश: मधरु , समु धरु तथा मधरु तम कहा है। श्रीकृ ष्ण की अगं माधरु ी, मख ु चन्द्र
तथा मन्द हास्य के दर्शन से दर्शक प्रेममग्ु ध होकर अलौकिक उन्मादसागर में डूब जाता है। श्रीकृ ष्ण के माधर्यु के आगे यह
उन्माद बहुधा उपचार बिना बना रहता है, उसी प्रकार जैसे सन्निपात में वैद्य रोगी को जल दिए बिना रोग को स्थिर रहने
देता है।
भक्त को लिए श्रीकृ ष्ण का विरह तीव्र से तीव्रतर हुआ जाता है, क्योंकि श्रीकृ ष्ण के बिना वह उनके माधर्या ु मृत का
पान नहीं कर सकता। श्रीकृ ष्ण वेण-ु रवामृत के कर्णरन्धों में प्रविष्ट होने पर उसके निरन्तर श्रवण की लालसा के बल से भक्त
मायिक आवरण को लाँघ कर उस परव्योम में प्रविष्ट हो जाता है, जहाँ वेण-ु गीत गोपी-अनगु ों को श्रवणगोचर हुआ करता
है। गोपियों के प्रेमभाव को निरन्तर बढ़ाता श्रीकृ ष्ण का वेण-ु गीत गोपीकणाँ में सदा अवस्थित रहता है। एक बार वश ं ी-

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ध्वनि को सनु लेने पर फिर कोई अन्य शब्द वे नहीं सनु पातीं। अपने परिवार में ठीक रूप से उत्तर भी नहीं दे पातीं, क्योंकि
उनके कणों में सदा वेण-ु ध्वनि ही स्फुरित (गंजि ु त) होती रहती है।
इस प्रकार श्री गौरागं महाप्रभु ने श्रीकृ ष्ण के अलौकिक अप्राकृ त स्वरूप, अवतार, श्रीअगं -माधर्यु और अन्य सब
विशेषताओ ं का विस्तृत वर्णन किया। सक्ष ं ेप में कहना चाहिए कि श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्रीकृ ष्ण का यथारूप तत्त्व से
वर्णन किया तथा उनकी प्राप्ति की पद्धति का भी निर्देश किया। इस सन्दर्भ में श्री गौरहरि ने स्पष्ट किया कि श्रीकृ ष्ण-प्राप्ति
का एकमात्र उपाय है श्रीकृ ष्ण की भक्ति। यह सार वेद-शास्त्रों का निर्णय है। ऋषियों की घोषणा है-'स्वरूप-साक्षात्कार की
पद्धति की जिज्ञासा को लेकर वेद-शास्त्र अथवा परु ाणों के अनसु न्धान पर यही निर्णय होगा कि एकमात्र भगवान् श्रीकृ ष्ण
ही उपास्य हैं।"
श्रीकृ ष्ण स्वयं भगवान् परतत्व-स्वरूप हैं तथा अपनी अन्तरंगा स्वरूप अथवा आत्मशक्ति में अवस्थित हैं, जैसा
गीता में कहा है। वे स्वाश ं तथा विभिन्नाश ं नामक असख्ं य रूप ग्रहण कर वैकुण्ठलोकों तथा जगत् में भी आत्मरमण करते
हैं। उनके विभिन्नाश ं जीव हैं तथा भगवत्शक्ति के भेद से उनकी दो श्रेणियाँ हैं-नित्यमक्त ु तथा नित्यबद्ध। नित्यमक्त ु जीव
कदापि माया के ससं र्ग में नहीं आते; इसीलिए उन्हें माया का कोई अनभु व नहीं होता। कृ ष्णचरण-भक्ति-उन्मख ु ी होने से
उनकी कृ ष्ण पार्षदों में गणना है। उनके जीवन के सख ु का एकमात्र स्रोत कृ ष्णभक्ति है। इसके विपरीत कृ ष्णभक्ति विमख ु
नित्यबद्ध जीव सदा त्रिविध ताप से पीड़ित रहते हैं। नित्यबद्ध जीव । भगवान् श्रीकृ ष्ण से नित्य विमख ु ता के कारण उसे
माया से दो प्रकार का शरीर मिल्ताब है-पंचतत्वात्मक स्थल ू शरीर तथा मन बद्धि ु और अहक ं ार से निर्मित सक्ष्ू म शरीर।
उक्त दोनों शरीरों से ढका होने के कारण बद्धजीव सदा त्रिताप रूपी जागतिक यन्त्रणाएँ भोगा करता है तथा काम, क्रोधादि
छ: शत्रओ ु ं से भी ग्रस्त रहता है। इस रोग से वह जन्म-जन्म से पीड़ित है।
रोगी तथा बद्ध होने के कारण जीव ब्रह्माण्ड में नाना योनियों में देहान्तर करता रहता है। कभी उसे उच्चलोकों की
प्राप्ति होती है, तो कभी उसका अध:पतन होता है। इस क्रम से वह भव रोग से पीड़ित रहता है। सिद्ध चिकित्सक गरुु की
शरण ग्रहण और आज्ञा-पालन करने पर ही उसके भवरोग की निवृत्ति हो सकती है। विश्वासपर्वू क गरुु की आज्ञा-पालन से
बद्धजीव भवरोग से छूटकर और मक्त ु ावस्था में स्थित होकर पनु : श्रीकृ ष्ण भक्ति करने लगता है; वापस अपने घर, श्रीकृ ष्ण
के समीप पहुचँ कर उनकी सेवा प्राप्त करता है। अपने यथार्थ स्वरूप का परिचय होने पर बद्धजीव को प्रभु से प्रार्थना करनी
चाहिए, 'प्रभो! मैं और कितने समय काम, क्रोध आदि शारीरिक धर्मों के अधीन रहूगँ ा?' बद्धजीव के स्वामी ये कामादि
कभी दयाद्र नहीं होते। जीव भी अनादि काल से निरन्तर ऐसे दष्टु स्वामियों की सेवा करता आ रहा है। किन्तु अपने यथार्थ
स्वरूप कृ ष्णभावनामृत के जाग्रत होने पर वह इन दष्टु ों का परित्याग कर सर्वभाव से श्रीकृ ष्णचरणों की शरण ग्रहण कर
लेता है। इस अवस्था में भगवान् श्रीकृ ष्ण से वह विनती करता है कि वे उसे अपनी प्रेममयी सेवा (भक्ति) में लगाएँ।

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

वैदिक साहित्य में कहीं-कहीं मक्ति


ु के विभिन्न मार्गों के रूप में सकाम कर्म, ध्यानयोग तथा ज्ञान की स्तति ु है।
परन्तु देखा जाय तो सब शास्त्रों में एक स्वर से भक्ति को ही सर्वोपरि मार्ग माना गया है। भाव यह है कि कृ ष्णभक्ति स्वरूप-
साक्षात्कार का सर्वोत्तम, सर्वोपरि, संसिद्ध पथ है तथा शद्ध ु कृ ष्णभक्ति ही अभिधेय है अर्थात् इसे सीधे-सीधे करना
चाहिए। सकाम कर्म, ध्यानयोग तथा ज्ञान अभिधेय नहीं हैं। ये सब आत्मसाक्षात्कार के सीधे मार्ग नहीं हैं, भक्ति के बिना ये
स्वरूप-साक्षात्कार की संसिद्धि नहीं प्रदान कर सकते। वास्तव में स्वरूप साक्षात्कार के सभी पथ अन्तिम रूप में सब
प्रकार से भक्तिपथ पर आश्रित हैं।

अध्याय 11
श्रीकृष्ण-भक्ति

वैदिक ज्ञान सम्बन्धी ग्रन्थों की रचना करके उनका अम्बार लगा देने पर भी व्यासदेव को सन्तोष नहीं हुआ। उनकी
इस अवस्था का अवलोकन कर गरुु श्री नारदजी ने उन्हें स्पष्ट किया कि भक्ति के मिश्रण बिना स्वरूप साक्षात्कार का कोई
भी पथ सफल नहीं हो सकता। नारदजी उस समय पधारे , जब व्यासदेव सरस्वती के तट पर अत्यन्त खिन्न और उद्विग्न
चित्त से शोकाकुल थे। उनकी इस अवस्था को देखकर नारदजी ने उनके ग्रन्थों की अपर्णू ता का दिग्दर्शन कराया।
“शद्ध
ु भक्ति से शन्ू य तत्वज्ञान भी अपर्याप्त है', नारद जी ने कहा, 'फिर भतिविहीन सकाम कर्मों के विषय में तो
कहना ही क्या है? इस स्थिति में उनसे कर्ता किस प्रकार लाभान्वित होगा ?”
अनेक ऋषि तपस्या में अत्यन्त दक्ष हैं, बहुत से विपल ु दान करते हैं तथा बहुत से मन्त्रविद् भी हैं। ये सभी
मगं लमय हैं, तो भी अपने सब साधनों का उपयोग भक्ति विषयक क्रियाओ ं में किए बिना अभीष्ट प्राप्ति नहीं हो सकती।
इसी कारण श्रीमद्भागवत (2.4.17) में शक ु देव जी ने श्रीभगवान् को अभीष्ट का एकमात्र दाता कहकर प्रणाम किया है।
सब प्रकार के दार्शनिक तथा योगी इतना मानते हैं कि ज्ञान के अभाव में मायाबन्धन से मक्ति ु सम्भव नहीं। भक्ति
रहित ज्ञान में भी मक्ति
ु प्रदान करने की क्षमता नहीं है। अर्थात्, ज्ञान में भी मक्ति
ु प्रदान करने की क्षमता नहीं है। अर्थात् ज्ञान

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

से जब भक्तिपथ की प्राप्ति होती है, तभी वह मक्ति


ु प्रदायक होता है, अन्यथा नहीं। ब्रह्मा ने श्रीमद्भागवत (10.14.4) में
यही कहा है :
প্লক্স: জানি ধ্বনিচয়ূরত্বে দি লিম্বী क्लिष्यक्ति ये के वलम्बोधलब्धये ।
নামান্নজনী লালম্বালা হল ফ্রিাঙ্গনী
না-আল্লাপ্ত৷ খুলন্তজালালানিনাHI
'हे प्रभो! आपकी भक्ति आपकी प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग है। उस भक्ति-पथ को त्यागकर जो के वल ज्ञानोपार्जन में
लगा रहता है, उसे के वल क्लेश ही क्लेश होगा, सिद्धि नहीं। जिस तरह धान के छिलके कूटने से धान नहीं मिल सकता।
उसी प्रकार भक्तिहीन ज्ञानरत परुु ष को अभीष्ट आत्म-साक्षात्कार नहीं हो सकता। उसे के वल श्रम लाभ होता है।"
भगवद्गीता (7.14) में भगवान् श्रीकृ ष्ण ने कहा है कि माया इतनी प्रबल है कि साधारण जीव उसके बन्धन से मक्त ु
नहीं हो सकते। ससं ार सिन्धु को के वल कृ ष्ण-चरणप्रपन्न ही पार कर सकते हैं। जीव भल ू जाता है कि वह नित्य कृ ष्णदास
है। यही विस्मरण उसके बन्धन तथा माया के प्रति आकर्षण का कारण है। वस्ततु : यह आकर्षण ही माया का पाश है। जब
तक जीव में माया पर प्रभत्ु व की इच्छा रहेगी, तब तक उसकी मक्ति ु होना बड़ा कठिन है। अत: निर्देश किया गया है कि
जीव गरुु की शरण में जाकर उनसे भक्ति की शिक्षा ग्रहण करे जिससे मायामक्त ु होकर श्रीकृ ष्ण चरणारविन्द की उसे प्राप्ति
हो जाय।
कर्तव्य कर्मों के सगु म आचरण के लिए मानव समाज के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शद्रू तथा चार आश्रम-ब्रह्मचर्य,
गृहस्थ, वानप्रस्थ, एवं सन्ं यास के रूप में आठ विभाजन किये गये हैं। परन्तु अभक्त तो अपने वर्णाश्रम-धर्म का पालन करने
पर भी मायायक्त ु नहीं हो सकता। विषयवासना के कारण कर्तव्य कर्म करके भी वह तो अधोगामी ही होगा। अत: जिसे
माया से मक्त
ु होने की इच्छा हो, वह अपने कर्तव्य कर्म में सल ं ग्न होने के साथ-साथ कृ ष्णभावनाभावित भक्ति भी करे ।
इस सन्दर्भ में भगवान् श्री गौरहरि महाप्रभु ने श्रीमद्भागवत से एक श्लोक सनु ाया। उसमें भागवत धर्म का वर्णन
करते हुए नारदजी ने कहा है कि वर्णाश्रम-व्यवस्था भगवान् के विराट् विश्वरूप से उत्पन्न हुई है। ब्राह्मण विश्वरूपधारी
भगवान् के मख ु से, क्षत्रिय भजु ाओ ं से, वैश्य उरु से तथा शद्रू चरणों से प्रकट हुए हैं। इस कारण उनमें विराट् परुु ष के सत्व,
रज आदि गणु ों का पृथक्-पृथक् प्रकाश है। भगवान् श्रीकृ ष्ण की भक्ति से यक्त ु न होने पर मनष्ु य अपनी स्थिति से गिर
जाता है, चाहे वह कर्तव्य कर्म करे अथवा न करे ।
श्रीमन् महाप्रभु गौरसन्ु दर ने स्पष्ट किया कि मायावादी अपने को ईश्वर अथवा जीवनमक्त ु मानते हैं। किन्तु श्री
चैतन्य महाप्रभु तथा श्रीमद्भागवत के अनसु ार वे वास्तव में मक्त ु नहीं हैं। श्रीमहाप्रभु ने श्रीमद्भागवत (10.2.32) से प्रमाण

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दिया : ਗੇਂ55 ਕਿ ਕਿਯੁH ਜਿਜਕ জনম্বালানলিযুদ্রস্তুদ্রস্ত্ৰ: | ॐ/रुह्य कृ च्छय/् प्ररं प्रदं ततः
प्रतन्त्यधोऽन्/द्धत्ृ यष्ु मदङ्घ्रयः //
“'मायावाद के अनसु ार जो अपने को मक्त
ु मानकर भगवद्भति को स्वीकार नहीं करते, वे भक्ति के अभाव में कठोर
तप करके ब्रह्मा स्तर पर पहुचँ जाने पर भी फिर पतित हो जाते हैं।
‫ יין‬श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कहा, श्रीकृ ष्ण सर्यू के समान हैं तथा माया अन्धकार है। श्रीकृ ष्ण प्रकाश में निरन्तर
स्थित रहने वाले को अन्धकारमय माया मोहित नहीं कर सकती। श्रीमद्भागवत के चार प्रमख ु श्लोकों में यह सिद्धान्त
पर्णू तया स्पष्ट किया गया है। भागवत (2.5.13) में इसकी पष्टि ु इस प्रकार है-'माया भगवान् के सामने खड़ी रहने में भी बड़ी
लजा अनभु व करती है।" यही माया जीवों को निरन्तर मोहित कर रही है। बद्धावस्था में जीव माया से नाममात्र की मक्ति ु के
लिए वाक् चातरु ी के अनेक आविष्कार करता रहता है। किन्तु यदि वह निष्कपट भाव से श्रीकृ ष्ण शरणापन्न हो जाय और
के वल एक बार यह कह दे-'प्रभो श्रीकृ ष्ण! आज से मैं आपका हू।ँ " तो श्रीकृ ष्ण
अविलम्ब उसे मायामतु कर देंगे। रामायण लक ं ाकाण्ड (18.33) में भगवान् के वचन से यह पष्टु है-
ਲਫੇਕਸ਼ਕ ਕਸੀਰਿ ਬ I ਬ 37 ষত্ৰ জলবা নািস্ট্র বানান্নবীনকু স্নান HH ৷
सकाम कर्म, मक्तिु , ज्ञान अथवा सिद्धियोग का उपभोग करने वाला भी प्रबोध होने पर इन सब पन्थों को त्यागकर
भगवान् श्रीकृ ष्ण की अनन्य भक्ति करने लगता है। श्रीमद्भागवत (2.3.10) में कहा है कि जिसे भोग की अथवा मोक्ष की
इच्छा हो उसे भी भक्ति ही करनी चाहिए। भक्ति से भोगेच्छा करने वाले शद्ध ु भक्त नहीं हैं। फिर भी भत होने से वे भाग्यवान्
अवश्य हैं। वे नहीं जानते कि भक्ति का लाभ भोग प्राप्ति नहीं है। वैसे भक्तिपरायण होने से एक न एक दिन वे समझ जाते हैं
कि भक्ति का उद्देश्य विषय भोग नहीं है। श्रीकृ ष्ण स्वयं कहते हैं कि भक्ति के फलस्वरूप विषय सख ु की इच्छा रखने वाले
अत्यन्त मर्ख ू हैं, क्योंकि ऐसा करना अपने लिए विष माँगने जैसा है। भक्ति का यथार्थ फल है भगवत्प्रेम। चाहे कोई
श्रीकृ ष्ण से भोग की इच्छा करे , किन्तु सर्वशक्तिमान् प्रभु उसकी स्थिति देखते हैं तथा धीरे -धीरे भोगोन्मख
ु ी जीवन से मक्त

करके उत्तरोतर अपनी भक्ति में ही नियक्त ु कर देते हैं। भक्ति से यथार्थ रूप में सम्पन्न होने पर उसे अपनी प्राकृ त आकांक्षा
तथा इच्छाओ ं का विस्मरण हो जाता है। श्रीमद्भागवत (5.19.27) में इसका अनमु ोदन है :
জন্দ্ৰ নিস্তান্ত্ৰিাঞ্জিনসমষ্টিনী নৃষ্ঠা নীলা গুলী আন্দ্ৰেলম্বাঞ্ছিনা।
স্বন: | Duu umummD DLmDDDu অদ্ভালিঃান নিসন্মাৱলীলাম্৷

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

'यह सत्य है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण अपने भक्तों इच्छा पर्णू करते हैं, पर वे उन इच्छाओ ं की पर्ति ू नहीं करते, जिनसे
क्लेश अथवा अनर्थ हो। भक्त में विषय वासनाओ ं से दषि ू त आकांक्षाएँ भी हों, पर भक्ति के प्रताप से शनै:-शनै: विषयेषणा
से मक्त
ु होकर वे प्रेमभक्ति सख ु ामृत के अनन्य अभिलाषी बन जाते हैं।"
प्राय: लोग भक्तों का सगं भी भोग प्राप्ति के लिए करते हैं, किन्तु देखा जाता है कि शद्ध ु भक्त के प्रभाव से
विषयवासना निवृत हो जाती है, जिससे वे भी भक्त-रसास्वादन में लग जाते हैं। श्रीकृ ष्ण भक्ति इतनी उत्तम तथा शद्ध ु है कि
उसमें लगते ही शद्ध ु हो जाती है और भत सम्पर्णू प्राकृ त आकांक्षाओ ं को भल ू बैठता है। इससे प्रत्यक्ष उदाहरण हैं ध्रवु
महाराज। उन्होंने भोगों के लिए कृ ष्णभक्ति अगं ीकार की थी। श्रीकृ ष्ण के चतर्भुु ज विष्णरू ु प से प्रकट होने पर श्री ध्रवु ने
उनसे कहा, 'प्रभो ! महान् तपस्या तथा त्यागपर्वू क आपकी भक्ति करने के फलस्वरूप मैं आपका दर्शन कर रहा हू।ँ देवता
तथा ऋषि भी आपको नहीं देख पाते। अत: अब आपके दर्शन से मैं सन्तष्टु तथा कृ तार्थ हो गया हू।ँ मझु े अब और कुछ
नहीं चाहिए। मैं कांच के टुकड़े की खोज में लगा हुआ था, पर उसके स्थान पर मझु े एक महान् तथा अमल्ू य रत्न मिल
गया।' इस प्रकार प्रभु दर्शन से सन्तष्टु । कर ध्रवु जी ने उनसे और कुछ नहीं मांगा।
चौरासी लाख योनियों में भटकते जीवात्मा को नदी प्रवाह में बहते लकड़ी की उपमा दी जाती है। कभी-कभी,
भाग्यवश कोई एक लकड़ी किनारे जा लगती है और इस प्रकार और आगे बहने से बच जाती है। श्रीमद्भागवत का एक
श्लोक (10.385) बद जीव को यह प्रेरणा देता है-'कोई जीव यह सोचकर उदास न हो कि वह कभी माया मक्त ु नहीं हो
सके गा, क्योंकि माया-मक्तु होने की पर्णू सम्भावना है, उसी प्रकार जैसे नदी में बहता लकड़ी का टुकड़ा कभी भी किनारे
लग सकता है।" श्रीमन् महाप्रभु ने इस भाग्योदय का वर्णन किया। ऐसे भाग्योदय को अपने बद्धजीवन की समाप्ति का
आरम्भ समझना चाहिए। यह होता है भगवद ् प्रेमियों के संग से। शद्ध ु भक्तों के संग से श्रीकृ ष्ण रति जागती है। कर्मकाण्ड के
अनेक भेद हैं! उनमें से कुछ भक्ति-प्रदायक हैं तो कुछ मक्ति ु देने वाले हैं। किन्तु भक्तों के संग से भगवद्भक्ति को बढ़ाने वाले
कर्मों के सम्पादन से चित्त अपने-आप भक्ति की ओर आकृ ष्ट हो जाता है।
श्रीमद्भभागवत (10.51.54) में श्री मचु क ु ु न्द ने कहा है :
H নাu লা জননী লুৱা গুলীত্ব vj7:27 defrgď slov|HTT7:1 H ম্ভ###ী আৰ্লি নীল
জানুখানী प्रवरे त्व f ज/ट्यते #fः |
'प्रभो! इस ससं ार की विभिन्न योनियों में भ्रमण करता हुआ जीव मक्तिु के मार्ग पर प्रगति कर सकता है। किन्तु
सौभाग्यवश आपके भक्त का संग मिलने पर वह परुु ष यथार्थ में मायामतु होकर आपका भक्त बन जाता है।’’
बद्ध जीव के कृ ष्ण-भक्ति में सल
ं ग्न होने पर अपनी अहैतकु ी कृ पा से प्रभु उसे दो रूपों में शिक्षा देते हैं-गरुु द्वारा
तथा स्वयं अन्तर्यामी परमात्मा रूप से। श्रीमद्भागवत (11.29.6) के अनसु ार 'प्रभो! ब्रह्मा की आयु प्राप्त होने पर भी
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

आपके स्मरण से होने वाले लाभ की कृ तज्ञता व्यक्त नहीं की जा सकती। अपनी अहैतक ु ी कृ पा से आप बाहर गरुु तथा
अन्तर्यामी परमात्मा रूप से सम्पर्णू अमंगलों को हर लेते हैं।"
अतः किसी प्रकार यदि शद्ध ु भक्त का सान्निध्य प्राप्त हो जाय तो जीव में कृ ष्णभक्ति की कामना जागृत हो उठती है ;
फिर धीरे -धीरे भगवत्प्रेम को प्राप्त कर वह मायामक्तु हो जाता है। श्रीमद्भागवत (11.208) में भगवान् भी यही कहते हैं-
'मेरी कथा में श्रद्धा रूचि रखने वाला तथा सासं ारिक कृ त्यों में रोग-द्वेष से रहित परुु ष मेरी भक्ति से सफलतापर्वू क
भगवत्प्रेम को प्राप्त हो जाता है।" परन्तु शद्ध
ु भक्त की महत्कृ पा के बिना संसिद्धि नहीं हो सकती। महत्कृ पा के बिना
भगवत्प्रेम तो दरू , संसार से मक्ति
ु भी असम्भव है। यह सत्य श्रीमद्भागवत (5.12.12) के रहूगण-भरत सम्वाद में भी
स्वीकृ त है। अपनी तत्वानभु ति
ू पर राजा रहूगण को विस्मित देखकर श्री जड़भरत बोले:
বুকুৰাষ্ট্ৰীনৱােৰা না আনি ন লর্তম্বদ্যা নিলম্বাUI বু ব্লাহু লা। नच्छन्दस/् नैव
जल If ग्नसर्यैू নিলা নৃত্যুনালন্ত সীতশ্লিষ্টলক্ষ /
“रहूगण! महत्कृ पा अथवा भक्तकृ पा बिना भक्ति के परम फलस्वरूप भगवत्प्रेम की प्राप्ति किसी को भी नहीं हो
सकती। के वल शास्त्र विधि, संन्यास, विद्या, त्याग, तपादि से यह नहीं होती।’’
इसी प्रकार जब नास्तिक पिता हिरण्यकशिपु ने भक्ति के प्रति उनके आकर्षण का कारण पछू ा तो प्रह्लाद महाराज ने
उत्तर दिया, 'जब तक भगवद्भक्तों की चरणरज से अभिषेक नहीं किया जाता, तब तक सब अनर्थों की निवृति करने वाले
कृ ष्णभक्ति के पथ का स्पर्श नहीं हो सकता।' ( श्रीमद्भभागवत 7.5.32)
इस प्रकार श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन से कहा कि सम्पर्णू शास्त्र पनु :- पनु ः शद्ध
ु भगवद्भक्तों के सगं पर
बल देते हैं। भगवान् श्रीकृ ष्ण के शद्ध
ु भक्त के सगं का अवसर जीव की सर्वससि ं द्धि का श्रीगणेश करने वाला है। इसके
अनमु ोदन में श्रीमद्भागवत (1.1813) में कहा है कि भगवद्भक्त के सगं से प्राप्त होने वाले लाभ तथा आशीर्वाद अतल ु नीय
हैं। उनके समान स्वर्गप्राप्ति, मक्ति
ु आदि कुछ भी नहीं है। भगवान् श्रीकृ ष्ण भी गीता की परम गोपनीय शिक्षा में इसकी पष्टि ु
करते हुए अर्जुन से कहते हैं :
H ন HHT, H ল H নুষ কী লাঞ্জাসী উন্ন নম্নভূক্তৃত । aBuBuOu DDu D BBBuHL
BDBLuDBL
“अर्जुन! सदा सर्वदा मेरा चिन्तन करते हुए मेरे भक्त बनो। मेरी ही पजू ा करो तथा मझु े ही नमस्कार करो। ऐसा करने
से तमु निस्सन्देह मझु े प्राप्त करोगे। यह मैं तमु से सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ क्योंकि तमु मेरे अतिशय प्रिय सखा हो।" (भगवद्गीता
1865)

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

भगवान् श्रीकृ ष्ण का यह स्पष्ट आदेश किसी भी वैदिक आदेश अथवा विधिभक्ति से अधिक महत्वपर्णू है। अवश्य
ही ज्ञान प्राप्ति के लिए अनेक वैदिक विधान, कर्मकाण्ड, यज्ञ, नियम कर्म, ध्यानयोग तथा ज्ञान पद्धति आदि हैं। किन्तु 'सदा
मेरा चिन्तन करते हुए मेरी ही भक्ति करो'- श्रीकृ ष्ण के इस स्पष्ट आदेश को उनका अन्तिम तथा चरम आदेश मानकर
सबको पालन करना चाहिए। इस आदेश में पर्णू विश्वास रखते हुए अन्य सब कार्य समाप्त करके भक्ति में नियक्त ु होने से
सफलता की प्राप्ति निश्चित है। इसकी पष्टि ु के लिए श्रीमद्भागवत (11.20.9) में कहा है कि मक्ति ु के अन्य साधनों को तभी
तक करना चाहिए जब तक श्रीकृ ष्ण के स्पष्ट आदेश में पर्णू विश्वास न हो। श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्भगवद्गीता का चरम
निष्कर्ष यही है कि सब व्यवहारों को त्यागकर अनन्य भक्ति करनी चाहिए, यही भगवान् श्रीकृ ष्ण का स्पष्ट आदेश है।
भगवान् के आदेश पालन के सदृु ढ़ निश्चय को श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धावान् व्यक्ति को इस बात का दृढ़ विश्वास रहता
है कि के वल कृ ष्णभक्ति करने से कर्मकाण्ड, यज्ञ, योग, ज्ञानादि अन्य क्रियाओ ं का सम्पादन अपने आप हो जाता है। ऐसे
श्रद्धालु के लिए भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी क्रिया की आवश्यकता नहीं रहती। श्रीमद्भागवत (4.31.14) के
अनसु ार :
यथा तरोमूलनिषेचनेन तृप्यन्ति तत्स्कन्धधुजोपशाखाः । ਯਫ ਗਈੜਿਯ I ਈਕ ਕਵਿੰ ਧ H ਹਦ I l
“पेड़ की जड़ को सींचने से शाखा, उपशाखा, फलादि का पोषण अपने आप हो जाता है तथा उदरपर्ति ू से सब
इन्द्रियों की तृप्ति होती है। उसी प्रकार कृ ष्णभक्ति से अन्य सब स्वरूपों की पजू ा सम्पन्न हो जाती है।'
श्रद्धा के तारतम्य के अनसु ार भक्तों की तीन श्रेणियाँ हैं। उत्तम भक्त वैदिक ज्ञान तथा उपरोक्त दृढ़ श्रद्धा से सम्पन्न
होता है। उसमें अन्य सब जीवों को मक्त ु करने की सामथ्र्य भी रहता है। मध्यम अधिकारी दृढ़ श्रद्धावान् तो होता है, किन्तु
शास्त्र-प्रमाण नहीं दे सकता। कनिष्ठ अधिकारी वह है जिसकी श्रद्धा दृढ़ नहीं है, किन्तु जो क्रमश: भक्ति के अनष्ठु ान से
प्रथम अथवा द्वितीय श्रेणी में पहुचँ सकता है। श्रीमद्भागवत (11.2.45.47) में उल्लेख है कि उत्तम भक्त सब जीवों में सदा
परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण का दर्शन करता है। इस प्रकार उसे सर्वत्र के वल श्रीकृ ष्ण ही श्रीकृ ष्ण दिखाई देते हैं। मध्यम
भक्त भगवान् श्रीकृ ष्ण में पर्णू विश्वास रखता हुआ भक्तों से मैत्री, दीनों पर दया तथा अभक्तों से उपेक्षा का व्यवहार करता
है। प्राकृ त अथवा कनिष्ठ भत गरुु आदेशानसु ार भक्ति अथवा परिवार की प्रथा के कारण अर्चना (पजू न) करता है, किन्तु
उसे भक्ति के अथवा भक्त-अभत के लक्षणादि का ज्ञान नहीं होता। ऐसे प्राकृ त भक्त को यथार्थ में शद्ध ु भक्त नहीं कहा जा
सकता, क्योंकि भक्ति पथ पर चलते हुए भी उसकी स्थिति अधिक सरु क्षित नहीं होती।
यह निर्णय किया जा सकता है कि भगवान् के लिए प्रेम, भक्तों से मैत्री, दीनों पर करुणा तथा अभक्तों के प्रति
उपेक्षा का प्रदर्शन करने वाला शद्ध ु भक्त है। भक्ति के साधन से ऐसा भक्त जीवमात्र को परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण के भिन्न
अश ं रूप में अनभु व करता है। जीव-जीव में उसे श्रीकृ ष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। इस प्रकार उसे कृ ष्णभावनामृत सल ु भ हो
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

जाती है। इस स्थिति में वह भक्त-अभत में भी भेद नहीं करता, क्योंकि उसे सभी भगवत्सेवा-परायण दिखते हैं।
कृ ष्णभावनामृत और भक्ति में तत्पर रहने से उसमें समस्त अलौकिक गणु ों का संचार हो जाता है। श्रीमद्भागवत (5.18.12)
के अनसु ार :
i ਹਿਮ ਸੰ ਕਦ ਕਿਝ ਕੱ ਧੀਕ ਨ H ਯੁI: 1 DBuLBSuJJDuD DB BuuBDBDBG
aLBDDBLuuu DBGuBB DuBS S
'श्रीभगवान् में जिसकी निष्काम भक्ति है, उस भत में सम्पर्णू गणु ों सहित सारे देव निवास करते हैं तथा जो हरि भत
नहीं है, वह सब प्रकार के सासं ारिक गणु ों से अलक ं ृ त होने पर भी अवश्य भटक जाएगा, क्योंकि वह विषयों के पीछे ही
दौड़ता रहता है।' अत: भक्तिहीन प्राकृ त गणु बिल्कुल निरर्थक और निस्सार हैं।

अध्याय 12

श्रीकृष्ण-भक्त
भगवान् श्रीकृ ष्ण की प्रेम-भक्तिपर्णू सेवा में पर्णू रूप से समर्पित कृ ष्णभावनाभावित परुु ष में सारे दैवी गणु ों का पर्णू
प्रकाश रहता है। दैवी गणु अनेक हैं। किन्तु श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को के वल कुछ विशिष्ट गणु ों का वर्णन
सनु ाया। भगवद्भक्त सदा, सर्वदा सभी पर कृ पा करता है, कभी किसी से द्रोह अथवा लड़ाई नहीं करता। सत्यपरायण होने
के कारण वह के वल भगवान् में रुचि रखता है। वह सबके साथ समता का व्यवहार करता है तथा खोजने पर भी उसमें कोई
दोष नहीं दिख सकता। भाव यह है कि भक्त सब प्रकार से निर्दोष व्यवहार करता है। उसका उदार मन रागद्वेष से रहित, सदा
मृदु और शचिु रहता है। भक्त सर्वदा सर्वोपकारक, शान्त तथा कृ ष्णेकशरण है। उसमें विषयवासना का आत्यन्तिक अभाव
हो जाता है। भक्त पर्णू विनयी तथा अपने एकमात्र लक्ष्य कृ ष्ण भक्ति में स्थिर रहता है। वह कामादि षड्वर्ग विजयी तथा
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मितभोगी होता है। औरों को मान देता है, पर स्वयं अमानी रहता है। उसके कुछ अन्य गणु हैं-गाम्भीर्य, कारुण्य, मैत्री,
कवित्व, दक्षता तथा मौन आदि।
श्रीमद्भागवत में (3.25.21) भगवद्भक्त-वर्णन में उसे तितिक्षु (सहनशील) तथा करुणामय कहा गया है। वह सब
जीवों का सहृु द् है, इसलिए उसका कोई शत्रु नहीं होता। वह शान्त स्वभावी तथा सारे गणु ों से यक्त ु है। कृ ष्णभावनाभावित
भक्त के ये कुछ गणु हैं।
श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि महत्सेवन का अवसर मिलने से जीव का मक्ति ु पथ प्रशस्त हो जाया करता है। इसके
विपरीत, भोगियों में आसक्ति वाले तमोमय मार्ग पर चल रहे हैं। यथार्थ साधजु न ही मायामत्तु , समचित्त, प्रशान्त, सबके
मित्र तथा क्रोधरहित होते हैं। ऐसे साधजु नों के सगं मात्र से कृ ष्ण भक्ति प्राप्त हो जाती है। वस्ततु : भगवत्प्रेम की प्राप्ति के
लिए साधसु गं अनिवार्य है। साधसु गं ी के लिए भगवत्प्राप्ति का मार्ग प्रकाशित हो जाता है तथा भक्तों के अनसु रण से पर्णू
भक्ति में श्रीकृ ष्ण भावनामृत का पर्णू विकास सनि ु श्चित है।
श्रीमद्भागवत (11.2.28) में श्रीकृ ष्ण के पिता वसदु वे जी नारद मनि ु से सारे जीवों के कल्याण का साधन पछू ते हैं।
उत्तर में नारदजी ने महाराज निमि और नौ योगेश्वरों के संवाद का एक अश ं उद्धतृ किया है। 'हे ऋषियों, 'राजा निमि ने कहा,
'मैं वह साधन जानना चाहता हूँ जिससे सब जीवों का कल्याण हो। इस जीव की सबसे म ल्ू यवान् वस्तु क्षणमात्र का
साधसु गं है, क्योंकि उस एक क्षण से ही भगवत्प्राप्ति का मार्ग मिलता है।" श्रीमद्भागवत में अन्यत्र (3.25.25) भी इसकी
पष्टि
ु है। महज्जनों के सगं तथा उनसे भगवत्कथा श्रवण से भागवत-जीवन का मल्ू य बद्धि ु गोचर होता है। शीघ्र, कृ ष्णकथा
हृत्कर्णरसायन बन जाती है। इस प्रकार सज्जनों से परमार्थिक कथा सनु कर जब श्रोता उनके अनरू ु प अपना जीवन बनाने
का प्रयास करता है, तो कृ ष्णभावनामृत का पक्ष क्रमश: श्रद्धा, रति तथा भक्ति के रूप में निखरता जाता है।
श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने आगे वैष्णव-आचार का वर्णन किया। यहाँ मख्ु य बात है असत्संग परित्याग। वैष्णव
आचार का यही सारसर्वस्व है। असत् अथवा द:ु संग क्या है? स्त्रीसंगी (स्त्री में अत्यन्त आसक्त) तथा श्रीकृ ष्ण के अभक्तों
का संग ही द:ु संग है। ये दोनों असाधु हैं। मनष्ु यमात्र को असाधु अभक्तों को बिल्कुल त्याग कर के वल भगवद्भक्त साधजु नों
का ही सगं करना चाहिए। श्रीकृ ष्ण के शद्ध ु भक्त बड़ी सावधानीपर्वू क दोनों प्रकार के अभक्तों से बचते हैं। श्रीमद्भागवत
(3.31.33-35) में उल्लेख है कि जो स्त्रियों के क्रीड़ामृग हैं, उन मनष्ु यों का सगं कदापि न करें , क्योंकि ऐसे असाधओ ु ं के
ससं र्ग से सत्य, पवित्रता, दया, मौन, बद्धि ु , ही (लज्जा), श्री, यश, क्षमा, शम, दम तथा भत को स्वत: प्राप्त सारे ऐश्वर्य नष्ट
हो जाते हैं। स्त्रीसगं ी के सगं से मनष्ु य का जैसा अध:पतन होता है, वैसा अन्य किसी प्रकार से नहीं होता।
इस सन्दर्भ में श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने कात्यायन-सहिता से भी एक उद्धरण दिया-'अग्नि के शिखामय पिंजर में
वास करना अच्छा है, पर भगवद्भक्ति-विमख ु का संग कभी न करें ।'

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

यही नहीं, अधार्मिक अथवा अभत मनष्ु यों का तो मख ु भी कभी नहीं देखना चाहिए। श्रीमहाप्रभु का आदेश है कि
दृढ़तापर्वू क ऐसे स्त्रीसंगी लोगों के संग को त्याग कर श्रीकृ ष्ण की एकान्त शरण लें। यही आदेश भगवान् श्रीकृ ष्ण ने अर्जुन
को गीता के श्लोक में दिया है-'अन्य सब धर्मों को त्याग कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाओ। में तम्ु हें सब पापों से मक्त ु
कर दगँू ा। (भगवद्गीता 1866)। भगवान् श्रीकृ ष्ण भक्त तवत्सल, कृ तज्ञ, समर्थ तथा वदान्य हैं। अत: उनकी आज्ञा का पालन
करना हमारा परम कर्तव्य है। हमारी बद्धि ु मानी तथा विद्या की कृ तार्थता एवं सिद्धि उनकी आज्ञा के निस्संकोच पालन में
ही है। श्रीमद्भागवत (10.4826) में अक्रूरजी भगवान् श्रीकृ ष्ण की स्तति ु में कहते हैं :
ਸ. ਧਿਫਰਵਾ ਲ f ਸੀਗ I ধ্বনিটাসিন্মানুলনিন: ভূঞান: চূড়ানমাল। «Idիլddlfa
g&dl պvidisfirb|Կլ *IIPHPHւժԿd4Iզadi i q«] []
'प्रभो! जो बद्धि
ु मान् है, वह आपको छोड़कर और किसकी शरण में जाएगा ? आप जैसा प्रिय, सत्यव्रत, सहृु द्
तथा कृ तज्ञ और कौन है? आप सब प्रकार से पर्णू हैं, क्योंकि भक्तों की आत्मदान करने पर भी आपमें हास नहीं होता।
भक्तवाछ ं ाकल्पतरु होने से भत के लिए आप स्वयं भी समर्पित हो जाते हैं।'
जो कृ ष्ण-भक्ति के दर्शन का मर्मज्ञ है, वह बद्धि
ु मान्परुु ष सहज ही सर्वस्व त्याग कर कृ ष्णशरणापन्न हो जाता है।
इस सम्बन्ध में भगवान् श्री गौरसन्ु दर श्रीमद्भागवत से उद्धव जी का श्लोक (3.2.23) उद्धतृ करते हैं, 'श्रीकृ ष्ण के अतिरिक्त
और कौन शरण लेने योग्य है? उनकी दया का ओर-छोर नहीं। अपने विष लगे स्तन का पान करा कर बालरूप श्रीकृ ष्ण की
हत्या करने का नृशसं कुभाव रखने वाली पतू ना को भी श्री मक ु ु न्द ने मक्त
ु कर अपनी जननी की सी गति प्रदान की।' यह
श्लोक उस लीला से सम्बन्धित है जब पतू ना श्रीकृ ष्ण का वध करने आई थी। श्रीकृ ष्ण ने उसके विषमय स्तन स्वीकार
किये और दग्ु धसहित उसके प्राणों को भी खींच लिया। इस कारण पतू ना को भगवान् श्रीकृ ष्ण की मातृगति प्राप्त हुई।
वास्तव में पर्णू शरणागत जीव तथा संन्यासी (अकिंचन) में कोई भेद नहीं है। अन्तर के वल इतना है कि पर्णू
शरणागत सब प्रकार से कृ ष्णाश्रित है। शरणागति के छ: प्रधान लक्षण (क्रम) हैं-(1) भक्ति के अनक ु ू ल विषय का ग्रहण
तथा भक्ति का दृढ़ संकल्प, (2) भक्ति के प्रतिकूल विषय का त्याग तथा पर्णू त्याग का दृढ सक ं ल्प, (3) के वल श्रीकृ ष्ण ही
मेरे एकमात्र रक्षक हैं-यह दृढ़ विश्वास तथा श्रीकृ ष्ण रक्षा अवश्य करें गे, ऐसी पर्णू श्रद्धा। मायावादी समझता है कि उसका
वास्तविक स्वरूप श्रीकृ ष्ण से एक हो जाने में है, किन्तु भक्त अपने स्वरूप का इस प्रकार कभी नाश नहीं करता। उसे पर्णू
विश्वास रहता है कि भगवान् श्रीकृ ष्ण प्रत्येक परिस्थिति में हर प्रकार से उसका सरं क्षण करें गे। (4) भत को सदा श्रीकृ ष्ण
को ही अपना पालक मानना चाहिए। देव सरं क्षण की अपेक्षा सकाम कर्मियों को ही रहती है। श्रीकृ ष्ण-भत अपनी रक्षा के
लिए कभी किसी देवता की ओर देखता तक नहीं। उसे पर्णू विश्वास रहता है कि सब प्रतिकूल परिस्थितियों में भगवान्
श्रीकृ ष्ण उसका रक्षण करें गे। (5) भक्त को निरन्तर आभास रहता है कि उसके मनोरथ स्वतन्त्र नहीं हैं। श्रीकृ ष्ण ही उनकी
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

पर्ति
ू कर सकते हैं और कोई भी नहीं। (6) अपने को सदा सर्वाधिक अधम जीव समझना चाहिए, जिससे श्रीकृ ष्ण अनग्रु ह
करें ।
ऐसे शरणागत जीव को श्रीधाम वृन्दावन, मथरु ा, द्वारका, मायापरु आदि भगवद्धामों का आश्रय लेकर प्रपत्रभाव से
यह विनती करनी चाहिए, 'प्रभो! आज से मैं आपका हू।ँ अपनी इच्छानसु ार मेरी रक्षा कीजिए अथवा मझु े मार डालिए।'
शद्धु भक्त इस प्रकार भगवान् श्रीकृ ष्ण की शरण लेता है। श्रीकृ ष्ण भी कृ तज्ञतावश उसे अगं ीकार कर उसका पर्णू सरं क्षण
करते हैं। श्रीकृ ष्ण भी कृ तज्ञतावश उसे अगं ीकार कर उसका पर्णू सरं क्षण करते हैं। श्रीमद्भागवत (11.29.34) में उल्लेख है
कि जिसकी मृत्यु निकट है, वह यदि भगवान् की पर्णू शरण लेकर सब प्रकार से उनके आश्रित हो जाता है, वह वास्तव में
अमृत को प्राप्त होकर भगवान् के संग दिव्यानन्द का आस्वादन करने के योग्य हो जाता है।
इसके उपरान्त, श्री गौरसन्ु दर महाप्रभु ने श्री सनातन को साधन-भक्ति के लक्षणों का निर्देश किया। वर्तमान इन्द्रियों
द्वारा की जाने वाली भगवत्सेवा साधन-भक्ति कहलाती है। भक्ति वस्ततु : जीव का नित्य जीवन है और नित्य सिद्ध होने के
कारण सप्तु ावस्था में जीव हृदय में विद्यमान है। उसे प्रकट करने वाली पद्धति साधन भक्ति है। तात्पर्य यह है कि स्वरूप से
जीव श्रीकृ ष्ण का नित्य अश ं है; भगवान् सर्यू हैं और जीव उस सर्यू की रश्मियों के परमाणु हैं। माया के प्रभाव से यह दिव्य
सम्बन्ध समाप्त प्राय: हो जाता है, किन्तु साधन भक्ति से जीव को पनु : स्वरूप-प्राप्ति हो जाती है। जब कोई साधन भक्ति
करता है तो समझना चाहिए कि वह मल ू स्वाभाविक मक्त ु ावस्था को लौट रहा है। गरुु के आदेशानसु ार अपनी सारी
इन्द्रियों से साधन भक्ति की जा सकती है।
कृ ष्णभावनामृत को जाग्रत करने वाली क्रियाओ ं का आरम्भ श्रवण से होता है। श्रवण भक्ति पथ में प्रगति का
सबसे महत्वपर्णू साधन है। अत: श्रद्धापर्वू क कृ ष्णकथा सनु ने में नित्य नवीन रति बनाए रखनी चाहिए। सब ज्ञान, कर्मादि
को ठुकरा कर भक्ति से तो के वल भगवत्प्रेम प्राप्ति की इच्छा रखनी चाहिए। कृ ष्णप्रेम जीवमात्र के हृदय में नित्यसिद्ध है,
श्रवण से तो के वल उसका उदय होता है। श्रवण तथा कीर्तन साधन भक्ति के मख्ु य उपाय हैं।
भक्ति के दो प्रकार हैं : वैधी तथा रागानगु ा। जिसका श्रीकृ ष्ण में अनरु ाग नहीं हुआ है, उसे शास्त्र तथा गरुु के विधि
निर्देशानसु ार जीवनयापन करना चाहिए। श्रीमद्भागवत (2.1.5) में श्री शक ु देव जी का परीक्षित को परामर्श है :
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'हे भरत! जो भय से मक्ति
ु चाहता है, उसका प्रधान कर्तव्य है कि वह परम ईश्वर श्रीहरि (श्रीकृ ष्ण) का श्रवण,
कीर्तन और स्मरण करे । यह परम आवश्यक है कि श्रीहरि का स्मरण निरन्तर क्षण-क्षण में होता रहे। वे ही सारे विधि
सिद्धान्तों के सार सर्वस्व हैं।'

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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

सम्पर्णू नियम, विधान तथा विधि-निषेधों के चिन्तन से यही निर्णीत होता है कि भगवान् का स्मरण इन सब का
सार-सर्वस्व है। हृदय में भगवान् श्रीकृ ष्ण का नित्य स्मरण भक्ति का लक्ष्य है। शद्धु रागानगु ा भक्ति में विधि निषेध का कोई
बन्धन नहीं रहता। इस रागानगु ा भक्ति की स्थिति में उन सबका लोप हो जाता है।
परन्तु साधन भक्ति के समचि ु त अनष्ठु ान में निम्नलिखित विधि-सिद्धान्त अनिवार्य हैं- 1) सद्गरुु पादाश्रय, 2) दीक्षा,
3) गरुु सेवा, 4) भागवत धर्म जिज्ञासा तथा शिक्षाग्रहण, 5) रागानगु ा-भक्ति में साधु मार्गानुगमन, 6) कृ ष्ण–प्रीति के लिए
भोग त्याग, 7) कृ ष्णतीर्थ-वास, 8) श्रीकृ ष्ण की इच्छा से प्राप्त पदार्थ में सन्तोष तथा अन्य इच्छाओ ं का त्याग, 9)
एकादशी उपवास (यह प्रत्येक मास को कृ ष्ण एवं गौर पक्ष के ग्यारहवें दिन आती है) इस दिन अन्न-भोजन वर्जित है।
के वल दधू एवं साग-फल सीमित परिमाण में खाने चाहिए तथा 'हरे कृ ष्ण' कीर्तन जप और स्वाध्याय शास्त्राध्ययन अधिक
करना चाहिए।, 10) वैष्णव, गौ, पीपल आदि का सम्मान।
भक्ति मार्ग से नवदीक्षित भक्त के लिए इन दस नियमों का पालन अनिवार्य है। सेवा तथा नामापराधों से भी बचना
चाहिए। नाम-कीर्तन जप में बनने वाले दस अपराधों को दरू से ही त्याग देना चाहिए। दस नाम-अपराध ये हैं। 1) वैष्णव
भक्त निन्दा, 2) श्रीभगवान् एवं अन्य देवताओ ं को समान समझना, 3) गरुु अवज्ञा, 4) वेद-निन्दा, 5) नाम में अर्थ वाद
करना, 6) नाम महिमा को कल्पना समझना, 7) नाम के बल पर पाप करना, 8) अन्य साधनों से नाम की तल ु ना, 9)
श्रद्धाहीन को भगवन्नाम की महिमा सनु ाना, 10) भगवन्नाम जप में असावधानी तथा जप करने पर भी भोगासति बनाए
रखाना। दस अतिरिक्त विधान इस प्रकार हैं : 1) सेवा एवं नामापराध से बचना। 2) अवैष्णव के संग का त्याग। 3) बहुत
शिष्य न बनाए। 4) अनेक ग्रन्थों का अध्ययन अथवा किसी एक ग्रन्थ का अधरू ा अध्ययन तथा मतवाद न करे । 5) हानि-
लाभ में समचित रहे। 6) शोकादि के वशीभतू न हो।7) अन्य देव एवं अन्य शास्त्र की निन्दा न करे । 8) विष्ण,ु वैष्णव निन्दा
सहन न करे । 9) ग्राम्य वार्ता न करे । 10) प्राणीमात्र में किसी को भी कष्ट न दे।
श्री रूप गोस्वामी द्वारा प्रणीत भक्तिरसामृतसिन्धु में उल्लेख है कि भक्त को अत्यन्त उदार व्यवहार करना चाहिए
तथा अनचि ु त कर्मों से बचना चाहिए। सबसे महत्वपर्णू विधान है-सद्गरुु -पादाश्रय, दीक्षा तथा गरुु सेवा।
इनके अतिरिक्त, भक्ति के पैंतीस अन्य अगं हैं : 1) श्रवण, 2) कीर्तन, 3) स्मरण, 4) अर्चन, 5) वन्दन, 6) परिचय,
7) दास्य, 8) सख्य, 9) आत्मनिवेदन, 10) श्रीमर्ति ू के आगे नृत्य करना, 11) गाना, 12) विज्ञप्ति, 13) दण्डवत-् प्रणाम,
14) वैष्णव के आगे खड़े होना, 15) वैष्णव के पीछे चलना, 16) मन्दिर और तीर्थ में गमन, 17) मन्दिर परिक्रमा, 18)
स्तव पाठ, 19) जप, 20) सक ं ीर्तन, 21) भगवदर्पित सगु धं तथा पष्ु प का ग्रहण, 22) महाप्रसाद ग्रहण, 23) आरती, 24)
श्रीमर्ति
ू -दर्शन, 25) भगवान् को स्वादिष्ट पदार्थ अर्पित करना, 26) ध्यान, 27) तल ु सीसिचं न, 28) वैष्णव सम्मान, 29)
व्रजवास, 30) श्रीमद्भागवत सेवन, 31) श्रीकृ ष्ण की प्राप्ति के लिए पर्णू चेष्टा, 32) भगवत्कृ पा की बाट देखना, 33) भक्तों
सहित भगवान् के जन्मादि महोत्सव मनाना, 34) पर्णंू शरणापत्ति, 35) कार्तिकादि व्रत पालन। इनके अतिरिक्त चार और हैं
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भगवान् श्री चैतन्य महाप्रभु का शिक्षामृत

: 1) शरीर पर वैष्णव चिह्न चन्दन तिलक आदि धारण करना, 2) शरीर पर भगवन्नाम लिखना, 3) भगवत्प्रसाद के रूप में
वस्त्र धारण करना, 4) श्रीभगवान् का चरणामृत पान। इन 39 भक्ति अगं ों में निम्नलिखित पाँच साधन सर्वश्रेष्ठ हैं : 1)
साधसु ंग, 2) नाम-कीर्तन, 3) भागवत-श्रवण, 4) व्रजवास तथा 5) अर्चाविग्रह-सेवन। भकिरसामृतसिन्धु में श्री रूप
गोस्वामी ने इनका विशेष वर्णन किया है। इन पाँच अगं ों का उत्त 39 अगं ों सहित गिनने पर कुल 44 अगं होते हैं। इनके
अतिरिक्त 20 प्रारम्भिक विधान हैं। इस प्रकार भक्ति के चौंसठ अगं सिद्ध हुए। मन, वाणी और शरीर द्वारा इन चौंसठ अगं ों
का पालन करने से भक्ति शनै:-शनै: शद्ध ु हो जाती है। इनमें कुछ अगं बिल्कुल अलग हैं, कुछ समान हैं और कुछ मिश्रित
प्रतीत होते हैं।
श्री रूप गोस्वामी ने सजातीय मानसिक वृत्ति भक्तों का संग करने का परामर्श दिया है। अतएव कृ ष्णभावनामृत के
लिए किसी संस्था की स्थापना कर उसमें सम्मिलित होकर भक्ति और कृ ष्ण ज्ञान का अनश ु ीलन करना चाहिए। ऐसी
संस्था में निवास का सर्वाधिक महत्वपर्णू अगं है भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत का परस्पर ज्ञान। श्रद्धा तथा प्रेमाभक्ति के
बढ़ने पर ये अर्चा सेवा, नाम संकीर्तन तथा वृन्दावनवास के रूप में प्रत्यक्ष होते हैं।
39 अगं ों के बाद कहे पाँच अगं परम महत्वपर्णू तथा आवश्यक हैं। इन पाँचों के अल्पमात्र साधन से भी जीव शीघ्र
प्रेम की सर्वोत्तम अवस्था प्राप्त कर सकता है। अपनी योग्यता के अनसु ार भक्त इनमें से एक ही अगं का अनष्ठु ान करे
अथवा एक से अधिक का, मार्ग की उन्नति में मख्ु य बात है भक्ति में पर्णू अनरु ाग। इतिहास में अनेक भक्तों को के वल एक
ही अगं से भक्ति का चरम लक्ष्य-प्रेम प्राप्त हुआ है तथा अम्बरीष महाराज जैसे भी भक्त हुए हैं, जिन्होंने सभी अगं ों का
साधन किया। के वल एक अगं से भक्ति का लक्ष्य-प्रेम प्राप्त करने वाले कुछ भक्त ये हैं- के वल श्रवण से मक्ति ु तथा भक्ति
को प्राप्त हुए राजा परीक्षित, कीर्तन से शकु देवजी; स्मरण से प्रह्वाद महाराज, पादसेवन से लक्ष्मी जी; पजू न से राजा पृथःु
वन्दन से श्री अक्रूर; भगवद्दास्य से रामभक्त श्री हनमु ानजी; सख्य से अर्जुन तथा आत्मनिवेदन से बलि राजा को प्रेम-
संसिद्धि प्राप्त हुई। महाराज अम्बरीष ने भक्ति के सब अगं ों का साधन किया। उन्होंने अपने मन को श्रीकृ ष्णपदारविन्द में
निवेदित किया; वाणी का श्रीकृ ष्ण-गणु ानवु र्णन में नियोजन किया; हरिमन्दिर मार्जनादि में हाथों को, अच्यतु भगवान् की
पावन कथा के श्रवण में कानों को तथा प्रभ ु मर्ति ू के दर्शन में नेत्रों को नियक्त
ु किया। वे अगं -संग से भक्तसेवा, नाक से
कृ ष्णपादार्पित सरोज की सगु न्धि ग्रहण, जीभ से श्रीकृ ष्ण-पदारविन्दार्पित तल ु सी ग्रहण, चरणों से श्रीकृ ष्ण मन्दिर गमन
तथा मस्तक से भगवान् का वन्दन करते थे। सब कामनाओ ं तथा इच्छाओ ं को इस प्रकार भगवद्भक्ति में नियोजित करने के
कारण महाराज अम्बरीष सर्वागा भक्ति के आदर्श हैं।

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अन्य सारी कामनाओ ं को त्यागकर शद्ध


ु कृ ष्ण भक्ति से भावित होकर भगवत्सेवापरायण परुु ष देवता, पितर, ऋषि
आदि के उन सब ऋणों से मक्तु हो जाता है, जो साधारण मनष्ु य पर रहते हैं। श्रीमद्भागवत (11.5.41) प्रमाण है
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'जो पर्णू रूप से भगवत्सेवा-परायण है, उस भक्त पर देवता, ऋषि, अन्य जीवों, सम्बन्धी, पितर अथवा अन्य किसी
का कोई भी ऋण शेष नहीं रहता।'
जन्म होते ही मनष्ु य अनेक प्राणियों का ऋणी हो जाता है; इस कारण उसे कितने ही कृ त्यों का सम्पादन करना
पड़ता है। किन्तु सर्वात्मभाव से कृ ष्ण शरण ले लेने पर कोई कर्तव्य शेष नहीं रहता। वह सब ऋणों से मक्त ु हो जाता है।
यह विशेष रूप से जानने योग्य है कि अन्य सह विधिधर्म त्यागकर रागानगु ा मार्ग से श्रीकृ ष्ण सेवा करने वाले भक्त
में कोई कामना अथवा निषिद्ध पापाचार की सम्भावना नहीं हो सकती। किन्तु यदि इच्छा न होने पर भी उससे कोई
पापकर्म बन जाए तो भगवान् श्रीकृ ष्ण सब प्रकार से उसकी रक्षा करते हैं। भक्ति के अतिरिक्त उसे अन्य किसी विधि से
प्रायश्चित नहीं करना पड़ता। श्रीमद्भागवत से यह परिपष्टु है (11.5.42) : 'जो श्रीकृ ष्ण की अनन्य सेवाभाव के साथ
श्रीकृ ष्ण-चरण सेवन में तत्पर है, भगवान् श्रीहरि अपने उस भक्त की सब प्रकार से रक्षा करते हैं। यदि उसके द्वारा अज्ञान या
परिस्थितिवश कोई पापकर्म बन भी जाए तो हृदयवासी श्रीहरि उसे दरू करके अपने भक्त की पर्णू रक्षा करते हैं।"
ज्ञान तथा वैराग्य भक्ति के अगं कभी नहीं हो सकते। भक्ति में अहिसं ा, इन्द्रियनिग्रह आदि की अपेक्षा नहीं है, चाहे
अन्य पद्धतियों में इनकी प्राप्ति आवश्यक हो सकती है। इन गणु ों के लिए अलग से प्रयत्न किए बिना भति के प्रभाव द्वारा
ये गणु भक्त में अपनेआप प्रकट हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत (11.20.31) में श्रीभगवान् स्वयं कहते हैं कि भत के लिए ज्ञान-
वैराग्य अनावश्यक है।

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अध्याय 13

रागानुगा–भक्ति
के वल भ्रमवश ही कुछ अध्यात्मवादी ऐसा मानते हैं, कि भक्ति के स्तर तक उन्नति के लिए ज्ञान-वैराग्य आवश्यक
है। यह सत्य नहीं है। देहात्मबद्धि
ु से विपरीत अपना दिव्य स्वरूप समझने के लिए ज्ञान तथा सकाम कर्म से वैराग्य की
आवश्यकता हो सकती है, किन्तु भक्ति के अभिन्न अगं ये कदापि नहीं हैं। ज्ञान और सकाम कर्म के फल, क्रमश: मक्ति ु
तथा इन्द्रियतृप्ति हैं। अत: वे भक्ति के अगं कभी नहीं हो सकते; भक्ति के अनप्ु ठान में उनका अपना कोई मल्ू य नहीं है।
भक्ति की प्राप्ति ज्ञान और सकाम कर्म के बन्धन से मक्त
ु होने पर ही होती है। कृ ष्णभक्त स्वभावत: अहिसं ा, शम-दम आदि

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(मनइन्द्रिय-निग्रह) से सम्पन्न होता है। इस कारण ज्ञान तथा सकाम कमों से प्राप्त होने वाले गणु ों के लिए उसे कुछ भी
विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता।
भगवान् श्रीकृ ष्ण से वैदिक विधि-विधान के सम्बन्ध में उद्धवजी ने जिज्ञासा की, 'प्रभो! क्या कारण है कि एक ओर
तो वैदिक मन्त्र विषय भोग के लिए प्रोत्साहित करते हैं, वहीं दसू री ओर वैदिक शिक्षा मनष्ु य को माया मक्त ु करके मक्तिु
की ओर प्रेरित भी करती है?' वैदिक नियम स्वयं श्रीकृ ष्ण द्वारा निर्दिष्ट हैं; किन्तु बहिरंगा दृष्टि से उनमें परस्पर विरोध प्रतीत
होता है। श्री उद्धव इन परस्पर असंगतियों की निवृत्ति कराना चाहते थे। उत्तर में भगवान् श्रीकृ ष्ण ने उनसे भक्ति की
परमोत्कृ ष्टता का उल्लेख किया।
'मेरी भक्ति में और मन से मेरे अनन्य चिन्तन में सलं ग्न जीव के लिए ज्ञान-वैराग्य की प्राप्ति का प्रयत्न न तो सम्भव
है और न आवश्यक ही।" स्वयं श्रीभगवान् का निर्णय हो कि भक्ति अन्य सब साधनों से स्वतन्त्र है। ज्ञानयोग, वैराग्य
अथवा ध्यानादि प्रारम्भ में कुछ सहायक सिद्ध हो सकते हैं, किन्तु भक्ति के आचरण में उन्हें आवश्यक कभी नहीं कहा जा
सकता। भाव यह है कि ज्ञान-वैराग्य के बिना स्वतन्त्र रूप से भी भक्ति हो सकती है; किन्तु भक्ति के आचरण में उन्हें
आवश्यक कभी नहीं कहा जा सकता। भाव यह है कि ज्ञान वैराग्य के बिना स्वतन्त्र रूप से भी भक्ति हो सकती है। इस
सन्दर्भ में 'स्कन्द परु ाण' का एक श्लोक है जिसमें पर्वत मनि
ु एक व्याध से कहते हैं- 'हे व्याध! तझु में जो ये अहिसं ादि गणु
आ गए हैं, यह कुछ भी आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि हरिभक्ति परायण भक्त कभी किसी को द:ु ख नहीं दे सकते।"
यह विवेचन करके श्रीमन्महाप्रभु ने श्री सनातन से कहा, “सनातन ! यहाँ तक मैंने तम्ु हें विधि-साधन भक्ति का
विवरण सनु ाया है। अब रागानगु ा भक्ति के लक्षण सनु ो।'
श्रीधाम वृन्दावन के व्रजवासी रागात्मिका भक्ति के ज्वलन्त प्रतीक हैं। उनकी भक्ति सर्वोच्च आदर्शस्वरूपा शद्ध ु
रागमयी है; यह रागात्मिका भक्ति के वल वृन्दावनवासियों में रहती है। व्रजवासियों के अनगु मन से यह रागमार्गा-भक्ति प्राप्त
होती है। भकिरसामृतसिन्धु (1.2.270) के अनसु ार- 'भक्त में भक्ति के प्रति स्वाभाविक रूप से पाई जाने वाली प्रेममयी
परमाविष्टता का नाम राग है।' रागमयी भक्ति तथा प्रियतम में परमाविष्टता सहित गाढ़ तृष्णा को रागात्मिका भक्ति कहते हैं।
इनके प्रत्यक्ष उदाहरण व्रजवासियों की क्रियाओ ं में दिखते हैं। उत्त राग का वर्णन सनु कर जो श्रीकृ ष्ण की ओर आकृ ष्ट हो
जाता है, वह वास्तव में अतिशय भाग्यशाली है। उस रागात्मिका भक्ति के लिए लब्ु ध होकर व्रजवासियों का अनगु त
करता हुआ वह शास्त्र के विधि-निषेध की अपेक्षा नहीं रखता। रागभक्ति के भक्त का यह एक प्रमख ु लक्षण है।
रागानगु ा-भक्ति स्वाभाविक होती है; उसका लोलपु शास्त्र-विधि उपस्थित करने वाले विरोधियों से भी तर्क नहीं
करता। भक्ति भाव की स्वाभाविक प्रवृत्ति भी शास्त्र पर आधारित है, इसलिए रागानगु भक्त को के वल शास्त्रार्थ के बल से
उसे नहीं त्यागना चाहिए। इस विषय में स्मरणीय है कि 'प्राकृ त-सहजिया' जैसे नामधारी भक्त स्वनिर्मित पद्धति से श्रीराधा-
कृ ष्ण का रूप धारण कर दरु ाचार करते हैं। ऐसी नामधारी भक्ति और राग मिथ्या हैं। जो इनमें प्रवृत्त हैं , वे वास्तव में नरक में
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गिर रहे हैं। यह रागात्मिका अथवा भक्ति का आदर्श नहीं है। 'प्राकृ त-सहजिया' वर्ग वास्तव में छलित और अतिशय
अभागा है।
रागानगु ा-भक्ति बाह्य और अन्तरंग दो प्रकार से सम्पादित होती है। बाह्य रूप से श्रवण-कीर्तन आदि विधि नियमों
का दृढ़तापर्वू क पालन करता है और अन्तर में श्रीकृ ष्ण की सेवा में आकृ ष्टकारी राग का चिन्तन करता है। वास्तव में तो
वह सदा अपनी विशिष्ट भक्ति और राग के चिन्तन में ही मग्न रहता है। ऐसा भक्त रागभति के विधि-विधान का उल्लघं न
नहीं करता। यथार्थ भक्त इन नियमों का अक्षरश: पालन करता हुआ भी सदा अपनी रागमयी सेवा के चिन्तन में रहता है।
सब व्रजवासी श्रीकृ ष्ण को अतिशय प्रिय हैं; अत: अपनी भक्ति की सफलता के लिए प्रत्येक भक्त किसी एक व्रजवासी
की अनगु ति करता है। भकिरसामृतसिन्धु (1.2.294) में परामर्श है कि रागानगु ामार्ग के शद्ध ु भक्त को अपने अभीष्ट,
श्रीकृ ष्णपरिकर (ब्रजवासी) की सेवा का नित्य स्मरण करना चाहिए। इस पद्धति से व्रज में निवास न कर सकने पर भी
अन्तचिन्तन द्वारा वह सदा व्रजवास कर सकता है। श्रीकृ ष्ण की रागानगु ा-सेवा में अनरु क्त अन्तरंग भक्तों के सेवक, मित्र,
माता-पिता तथा प्रेयसी अनेक वर्ग हैं। रागानगु ा भक्ति किसी एक व्रजवासी के अनगु त्य में की जाती है। श्रीमद्भागवत
(3.25.38) में श्रीभगवान् कहते हैं :
न क f र्ह f चन्त्यृर Iः श I न्तरूपे নৃভঙ্গুস্তানি না ঐত নিনি সীলটুলি ক্লনি: |
येषमही प्रिय आत्मा सतु श्य सखा गरुु . सहृु दो वैवामिष्टस/्
'मत्पर" शब्द उन्हीं का वाचक है जो के वल मेरी अनक्ति ु में पर्णू सन्तष्टु हैं। वे मझु े ही अपनी आत्मा, मित्र, पत्रु ,
स्वामी, सहृु द, भगवान् और इष्ट मानते हैं। हे जननि! कालचक्र भी ऐसे भक्तों को ग्रस नहीं सकता।'
भक्तिरसामृतसिन्धु (1.2.308) में श्री रूप गोस्वामी ने भगवान् श्रीकृ ष्ण को पति, पत्रु , सहृु द,् सखा, रूप से चिन्तन
करने वाले भक्तों की वन्दना की है। जो रागानगु ा भक्ति के सिद्धान्तों का किसी व्रजवासी की अनगु ति में पालन करता है ,
वह उस-उस भाव में कृ ष्णप्रेम की परम संसिद्धि निस्सन्देह प्राप्त करता है।
कृ ष्णप्रेम का बीज दो लक्षणों के रूप में बढ़ सकता है -रति (राग) तथा भाव (कृ ष्णप्रेम से पर्वू की स्थिति)। रति एवं
भाव से परम ईश्वर भगवान् श्रीकृ ष्ण भक्त-परवश हो जाते हैं। ये दोनों प्रेम के किसी भी लक्षण से पर्वू प्रकाशित रहते हैं। इस
विषय का सांगोपांग वर्णन श्रीमन्महाप्रभु ने श्री सनातन को सनु ाया। श्रीमहाप्रभु ने बताया कि रागानगु ा भक्ति का अन्त न
होने के कारण वे के वल सक्षिं प्त विवरण प्रस्ततु कर रहे हैं। इसके बाद श्रीमहाप्रभु ने भक्ति के उस परम लक्ष्य का वर्णन
किया, जो संसिद्धि के अभिलाषी के लिए है। श्रीकृ ष्ण में रति (राग) की प्रगाढ़ता होने पर कृ ष्ण-प्रेम होता है। उस प्रेम को
भक्तिरस का स्थायीभाव कहा जाता है। इस सन्दर्भ में कविराज गोस्वामी ने परमोज्ज्वल प्रेम-तत्व की शिक्षा के प्रदाता

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श्रीमहाप्रभु की वन्दना की है (चैतन्य चरितामृत मध्य 23.1)'हे भगवान् गौरहरि! आपके अतिरिक्त और किसने इस शद्ध ु
प्रेम का वितरण किया है? हे सर्वाधिक वदान्य भगवत्-अवतार! आपके इस गौरकृ ष्ण रूप की मैं सादर वन्दना करता हू।ँ '
भक्तिरसामृतसिन्धु (1.3.1) में श्रीकृ ष्ण से प्रेम की स्थिति को सर्यू से निस्सृत सर्यू किरणों की उपमा दी गई है; ये
सर्यू किरण भक्त हृदय को उत्तरोतर स्निग्ध (द्रवीभतू ) बनाती हैं। इस प्रकार भक्त का हृदय सत्वगणु से भी परे विशद्ध ु सत्व के
अलौकिक स्तर पर स्थित रहता है। प्रेमरूपी सर्यू -किरणों से हृदय को उत्तरोत्तर द्रवीभतू करने की प्रक्रिया को भाव कहते हैं।
श्री रूप गोस्वामी ने भाव का वर्णन किया है। भाव जीव का स्वरूप लक्षण है ; भाव में प्रगति को प्रेम का तटस्थ लक्षण
कहते हैं। भाव की प्रगाढ़ता को विद्वान् भक्तों ने कृ ष्ण प्रेम कहा है। नारदपंचरात्र के अनसु ार :
37 frary Holt facuit HHGH sitefidi ਮਜਿਹਿਬ ਸੀ ਸਫ਼ਫੀਫ਼ਕ: ॥
'जब किसी का यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि एकमात्र विष्णु (श्रीकृ ष्ण) ही प्रेमास्पद एवं आराध्य हैं, अन्य कोई
भी देवता भक्ति के योग्य नहीं है, तब वह श्रीकृ ष्ण से अन्तरंग और महत्वपर्णू प्रेम का आस्वादन करता है। भीष्म, प्रह्वाद,
नारद, उद्धवादि इस निश्चय भाव को 'प्रेम भक्ति' कहते हैं।'
भक्ति को जागृत करने वाले किसी सत्कर्म से जब जीव के सेवाभाव में श्रद्धा उत्पन्न होती है, तो वह साधसु ंग
करता है तथा इस प्रकार श्रवण-कीर्तन में उसका आकर्षण हो जाता है। श्रवण-कीर्तन की क्रिया से भगवान् श्रीकृ ष्ण की
वैधी-भक्ति में उत्तरोतर उन्नति की जा सकती है। जैसे -जैसे प्रगति होती है, वैसे-वैसे ही सब संशय-अनर्थ और प्राकृ त जगत्
में आसक्तियाँ दरू होती जाती हैं। श्रवण-कीर्तन के निरन्तर अभ्यास से भक्ति में निष्ठा उत्पन्न हो जाती है जी शनै:-शनै:
भक्ति विषयक रुचि में बदल जाती है। रुचि से आसक्ति का उदय होता है। शद्ध ु आसक्ति भाव एवं रति के रूप में प्रकट
होती है। रति के बढ़ने पर उसे कृ ष्णप्रेम कहते हैं। वही प्रेम जीवन का परम प्रयोजन है।
श्री रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृतसिन्धु (1.4.15-16) में इस पददती का वर्णन किया है। सर्वप्रथम श्रद्धा होनी
चाहिए; श्रद्धा के कारण ही जीव साधसु ंग है और साधसु ंग से भक्ति का प्रारम्भ होता है। भक्ति के बढ़ने पर अनर्थ निवृत्ति हो
जाती है। उससे निष्ठा की प्राप्ति होती है, जिससे भजन एवं वैधी भक्ति में रुचि और आसक्ति जागती है। तदपु रान्त, और
आगे बढ़ने पर भाव की प्राप्ति होती है। यह स्थायी अवस्था है। भाव की वृद्धि पर वह कृ ष्णप्रेम की सर्वोच्च स्थिति प्राप्त
करता है।
सस्ं कृ त में इस परमोच्च स्थिति को प्रेम कहते हैं। (हेतरु हित प्यार को प्रेम कह सकते हैं। यद्यपि प्रेम और प्यार
पर्यायवाची नहीं हैं; तथापि प्रेम को प्यार की सर्वोच्च स्थिति कह सकते हैं।) सबसे ससि ं द्ध मनष्ु य वही है, जिसे प्रेम प्राप्त हो
चक ु ा है। श्रीमद्भागवत (3.25.25) में इसका अनमु ोदन है : 'के वल शद्ध ु भक्तों के सगं से ही जीव की कृ ष्णभावनामृत में
रुचि सम्भव है। इस कृ ष्ण भक्ति का जीवन में आचरण करने से उसे भाव और प्रेम की प्राप्ति हो सकती है।'
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श्रद्धा से क्रमश: भाव के स्तर पर पहुचँ े परुु ष के लक्षणों का वर्णन करते हुए श्रीमहाप्रभु ने कहा कि वह क्षोभ का
कारण उपस्थित होने पर भी कभी क्षब्ु ध नहीं होता। वह अपना एक क्षण भी व्यर्थ नष्ट नहीं जाने देता, सदा कृ ष्णसेवा में
तत्पर रहता है। कुछ कर्तव्य कर्म न होने पर भी वह कृ ष्ण-प्रीति के लिए कुछ न कुछ कार्य अवश्य खोज लेता है। श्रीकृ ष्ण
से सम्बन्ध के बिना उसे कुछ भी अच्छा नहीं लगता। सर्वोत्तम स्थिति में स्थित होने पर भी वह सर्वथा मानशन्ू य रहता है।
उसे अपनी सेवा में सदा विश्वास रहता है तथा जीवन के परम लक्ष्य भगवद्धाम-प्राप्ति में कभी संशय नहीं होता। अपनी
प्रगति में विश्वस्तता के कारण वह श्रद्धापर्वू क निरन्तर अपने परम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रियाशील रहता है। श्रीकृ ष्ण का
सन्तोष उसे सदा अभीष्ट रहता है तथा कृ ष्णनाम-गणु के कीर्तन श्रवण में उसकी सदा अविराम रुचि रहती है। साथ-साथ,
वह वृन्दावन, मथरु ा या द्वारका में ही निवास करना चाहता है। भाव का उदय होने पर ये सब लक्षण प्रकट रहते हैं।
राजा परीक्षित भाव के उत्तम प्रतीक हैं। मृत्यु की प्रतीक्षा में गंगा तट पर बैठे हुए वे बोले : 'माँ गंगा सहित यहाँ
उपस्थित सब ब्राह्मण जान लें कि मैं सब प्रकार से भगवान् श्रीकृ ष्ण का पर्णू शरणागत जीव हू।ँ ब्राह्मण कुमार के शाप से
प्रेरित सर्प चाहे इसी समय

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