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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप

पष्ठृ भमू म
यद्यपि भगवद्गीता का व्यािक प्रकाशन और िठन होता रहा है, पकन्तु मूलत: यह संस्कृ त महाकाव्य महाभारत
की एक उिकथा के रूि में प्राप्त है । महाभारत में वततमान कपलयुग तक की घटनाओ ं का पववरण पमलता है । इसी युग
के प्रारम्भ में आज से लगभग ५,००० वर्त िवू त भगवान् श्रीकृ ष्ण ने अिने पमत्र तथा भक्त अजतनु को भगवद्गीता का
उिदेश पदया था ।
उनकी यह वातात, जो मानव इपतहास की सबसे महान दाशतपनक तथा धापमतक वातातओ ं में से एक है, उस महायुद्ध
के शभु ारम्भ के िूवत हुई, जो धृतराष्र के सौ िुत्रों तथा उनके चचेरे भाई िाण्डवों, िाण्डु िुत्रों के मध्य होने वाला
भ्रातृघातक सघं र्त था ।
धृतराष्र तथा िाण्डु भाई-भाई थे पजनका जन्म कुरुवंश में हुआ था और वे राजा भरत के वंशज थे, पजनके नाम
िर ही महाभारत नाम िडा । चूँपू क बडा भाई धृतराष्र जन्म से अंधा था, अतएव राजपसंहासन उसे न पमलकर उसके
छोटे भाई िाण्डु को पमला ।
िाण्डु की मृत्यु अल्िायु में हो गई, अतएव उसके िाूँच िुत्र—युपधपिर, भीम, अजुतन, नकुल तथा सहदेव धृतराष्र
की देखरे ख में रख पदये गये, क्योंपक उसे कुछ काल के पलए राजा बना पदया गया था । इस तरह धृतराष्र तथा िाण्डु के
िुत्र एक ही राजमहल में बडे हुए । दोनों ही को गुरु द्रोण द्वारा सैन्यकला का प्रपशक्षण पदया गया और िूज्य भीष्म
पितामह उनके िरामशतदाता थे ।
तथापि धृतराष्र के िुत्र, पवशेर्त: सबसे बडा िुत्र दयु ोधन िाण्डवों से घृणा और ईष्यात करता था । अन्धा तथा
दबु तलहृदय धृतराष्र िाण्डुित्रु ों के स्थान िर अिने ित्रु ों को राज्य का उत्तरापधकारी बनाना चाहता था । इस तरह धृतराष्र
की सहमपत से दयु ोधन ने िाण्डु के युवा िुत्रों की हत्या करने का र्ड् यन्त्र रचा । िाूँचों िाण्डव अिने चाचा पवदरु तथा
अिने ममेरे भाई भगवान् कृ ष्ण के सरं क्षण में रहने के कारण अनेक प्राणघातक आक्रमणों के बाद भी अिने प्राणों को
सुरपक्षत रख िाये ।
भगवान् कृ ष्ण कोई सामान्य व्यपक्त नहीं, अपितु साक्षात् िरम ईश्वर हैं पजन्होंने इस धराधाम में अवतार पलया था
और अब एक समकालीन राजकुमार की भपू मका पनभा रहे थे । वे िाण्डु की ित्नी कुन्ती या िृथा, िाण्डवों की माता के
भतीजे थे । इस तरह स बन्धी के रूि में तथा धमत के शाश्वत िालक होने के कारण वे धमतिरायण िाण्डुिुत्रों का िक्ष लेते
रहे और उनकी रक्षा करते रहे ।
पकन्तु अन्तत: चतुर दयु ोधन ने िाण्डवों को द्यूतक्रीडा के पलए ललकारा । उस पनणातयक स्िधात में दयु ोधन तथा
उसके भाइयों ने िाण्डवों की सती ित्नी द्रौिदी िर अपधकार प्राप्त कर पलया और पिर उसे राजाओ ं तथा राजकुमारों की
सभा के मध्य पनवत करने का प्रयास पकया । कृ ष्ण के पदव्य हस्तक्षेि से उसकी रक्षा हो सकी । उस द्यूतक्रीडा में—छल के
प्रयोग के कारण—िाण्डवों की हार हुई तथा उन्हें अिने राज्य से वंपचत होना िडा और तेरह वर्त तक वनवास के पलए
जाना िडा ।


वनवास से लौटकर िाण्डवों ने धमतसम्मत पवपध से दयु ोधन से अिना राज्य माूँगा, पकन्तु उसने देने से इनकार कर
पदया । क्षपत्रयों के शास्त्रोनुमोपदत कत्ततव्य को िूणत करने के पलए िाूँचों िाण्डवों ने अन्त में अिना िूरा राज्य न माूँगकर
के वल िाूँच गाूँवों की माूँग रखी, पकन्तु दयु ोधन सुई की नोक भर भी भपू म देने के पलए सहमत नहीं हुआ ।
अभी तक तो िाण्डव सहनशील बने रहे, लेपकन अब उनके पलए युद्ध करना अवश्यम्भावी हो गया ।
पवश्वभर के राजकुमारों में से कुछ धृतराष्र के िुत्रों के िक्ष में थे, तो कुछ िाण्डवों के िक्ष में । उस समय कृ ष्ण
स्वयं िाण्डुिुत्रों के संदेशवाहक बनकर शापन्त का सन्देश लेकर धृतराष्र की राजसभा में गये । जब उनकी याचना
अस्वीकृ त हो गई, तो यद्ध ु पनपित था ।
अत्यन्त सच्चररत्र िाूँचों िाण्डवों ने कृ ष्ण को िूणत िुरुर्ोत्तम भगवान् के रूि में स्वीकार कर पलया था, पकन्तु
धृतराष्र के दष्टु ित्रु उन्हें नहीं समझ िाये थे । तथापि कृ ष्ण ने पविपक्षयों की इच्छानसु ार ही युद्ध में स प मपलत होने का
प्रस्ताव रखा । ईश्वर के रूि में वे युद्ध नहीं करना चाहते थे, पकन्तु जो भी उनकी सेना का उियोग करना चाहे, कर
सकता था । प्रपतबन्ध यह था पक एक ओर कृ ष्ण को स िूणत सेना होगी तथा दसू री ओर वे स्वयं—एक िरामशतदाता
तथा सहायक के रूि में उिपस्थत रहेंगे । राजनीपत में कुशल दयु ोधन ने आतुरता से कृ ष्ण की सेना झिट ली, जबपक
िाण्डवों ने कृ ष्ण को उतनी ही आतुरता से ग्रहण पकया ।
इस प्रकार कृ ष्ण अजुतन के सारथी बने और उन्होंने उस सुप्रपसद्ध धनुधतर का रथ हाूँकना स्वीकार पकया। इस तरह
हम उस पबन्दु तक िहुचूँ जाते हैं जहाूँ से भगवद्गीता का शभु ार भ होता है—दोनों ओर की सेनाएूँ युद्ध के पलए तैयार
खडी हैं और धृतराष्र अिने सपचव सञ्जय से िूछ रहा है पक उन सेनाओ ं ने क्या पकया ?
इस तरह सारी िृिभपू म तैयार है। आवश्यकता है के वल इस अनुवाद तथा भाष्य के पवर्य में संपक्षप्त पटप्िणी की ।
भगवद्गीता के अंग्रेजी अनुवादकों में यह सामान्य प्रवृपत्त िाई जाती है पक वे अिनी पवचारधारा तथा दशतन को
स्थान देने के पलए कृ ष्ण नामक व्यपक्त को ताक िर रख देते हैं। वे महाभारत के इपतहास को असंगत िौरापणक कथा
मानते हैं तथा कृ ष्ण को पकसी अज्ञात प्रपतभाशाली व्यपक्त के पवचारों को िद्य रूि में प्रस्ततु करने का पनपमत्त बनाते हैं
अथवा श्रेितम िररपस्थपतयों में कृ ष्ण एक गौण ऐपतहापसक िुरुर् बना पदये जाते हैं । पकन्तु साक्षात् कृ ष्ण भगवद्गीता के
लक्ष्य तथा पवर्यवस्तु दोनों हैं जैसा पक गीता स्वयं अिने पवर्य में कहती है ।
अत: यह अनुवाद तथा इसी के साथ संलग्न भाष्य िाठक को कृ ष्ण की ओर पनदेपशत करता है, उनसे दरू नहीं ले
जाता । इस दृपष्ट से भगवद्गीता यथारूि अनुिम है । साथ ही इसकी सबसे बडी पवशेर्ता यह है पक इस तरह यह िूणततया
ग्राह्य तथा संगत बन जाती है । चूँपू क गीता के वक्ता एवं उसी के साथ चरम लक्ष्य भी स्वयं कृ ष्ण हैं अतएव यही एकमात्र
ऐसा अनुवाद है जो इस महान शा को यथाथत रूि में प्रस्तुत करता है ।
—प्रकाशक


समपपण
वेदान्त दर्पन पर
अमत अद्भुत गोमवन्द भाष्य के प्रणेता
श्रील बलदेव मवद्याभूषण
को


आमुख
सवतप्रथम मैंने भगवद्गीता यथारूि इसी रूि में पलखी थी पजस रूि में अब यह प्रस्तुत की जा रही है । दभु ातग्यवश
जब िहली बार इसका प्रकाशन हुआ तो मल ू िाण्डुपलपि को छोटा कर पदया गया पजससे अपधकांश श्लोकों की
व्याख्याएूँ छूट गई ंथीं । मेरी अन्य सारी कृ पतयों में िहले मल ू श्लोक पदये गये हैं, पिर उनका अंग्रेजी में पलप्यन्तरण, तब
संस्कृ त शब्दों का अंग्रेजी में अथत, पिर अनुवाद और अन्त में तात्ियत रहता है । इससे कृ पत प्रामापणक तथा पवद्वत्तािूणत
बन जाती है और उसका अथत स्वत: स्िष्ट हो जाता है । अत: जब मझु े अिनी मूल िाण्डुपलपि को छोटा करना िडा तो
मझु े कोई प्रसन्नता नहीं हुई । पकन्तु जब भगवद्गीता यथारूि की माूँग बढी तब तमाम पवद्वानों तथा भक्तों ने मझु से
अनुरोध पकया पक मैं इस कृ पत को इसके मल ू रूि में प्रस्तुत करूूँ । अतएव ज्ञान की इस महान कृ पत को मेरी मूल
िाण्डुपलपि का रूि प्रदान करने के पलए वततमान प्रयास पकया गया है जो िूणत िरम्िरागत व्याख्या से युक्त है, पजससे पक
कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन की अपधक प्रगपतशील एवं िुष्ट स्थािना की जा सके ।
हमारा कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन मौपलक ऐपतहापसक दृपष्ट से प्रामापणक, सहज तथा पदव्य है क्योंपक यह
भगवद्गीता यथारूि िर आधाररत है। यह सम्िणू त जगत में, पवशेर्तया नई िीढी के बीच, अपत लोकपप्रय हो रहा है। यह
प्राचीन िीढी के बीच भी अपधकापधक सुरुपच प्रदान करने वाला है । प्रौढ इसमें इतनी रुपच पदखा रहे हैं पक हमारे पशष्यों
के पिता तथा पितामह हमारे सघं के आजीवन सदस्य बनकर हमारा उत्साहवधतन कर रहे हैं । लॉस एपं जपलस में अनेक
माताएूँ तथा पिता मेरे िास यह कृ तज्ञता व्यक्त करने आते थे पक मैं सारे पवश्व में कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन की अगुआई
कर रहा हूँ । उनमें से कुछ लोगों ने कहा पक अमरीकी लोग बडे ही भाग्यशाली हैं पक मैंने अमरीका में कृ ष्णभावनामृत
आन्दोलन का शभु ारम्भ पकया है । पकन्तु इस आन्दोलन के आपद प्रवततक तो स्वयं भगवान् कृ ष्ण हैं, क्योंपक यह
आन्दोलन बहुत काल िूवत प्रवपततत हो चुका था और िरम्िरा द्वारा यह मानव समाज में चलता आ रहा है । यपद इसका
पकंपचत्मात्र श्रेय है तो वह मझु े नहीं, अपितु मेरे गुरु कृ ष्णकृ िाश्रीमपू तत ॐ पवष्णिु ाद िरमहंस िररव्राजकाचायत १०८ श्री
श्रीमद् भपक्तपसद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज प्रभिु ाद के कारण है ।
यपद इसका कुछ भी श्रेय मझु े है तो बस इतना ही पक मैंने पबना पकसी पमलावट के भगवद्गीता को यथारूि में
प्रस्तुत करने का प्रयास पकया है । मेरे इस प्रस्तुतीकरण के िूवत भगवद्गीता के पजतने भी अंग्रेजी संस्करण पनकले हैं उनमें
व्यपक्तगत महत्त्वाकाक्षं ा को व्यक्त करने के प्रयास पदखते हैं । पकन्तु भगवद्गीता यथारूि प्रस्ततु करते हुए हमारा प्रयास
भगवान् कृ ष्ण के सन्देश (पमशन) को प्रस्तुत करना रहा है । हमारा कायत तो कृ ष्ण की इच्छा को प्रस्तुत करना है, न पक
पकसी राजनीपतज्ञ, दाशतपनक या पवज्ञानी की ससं ारी इच्छा को, क्योंपक इनमें चाहे पकतना ही ज्ञान क्यों न हो, कृ ष्ण
पवर्यक ज्ञान रंचमात्र भी नहीं िाया जाता । जब कृ ष्ण कहते हैं मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु तो हम
तथाकपथत िपण्डतों की तरह यह नहीं कहते पक कृ ष्ण तथा उनकी अन्तरात्मा िृथक् -िृथक् हैं । कृ ष्ण िरब्रह्म हैं और
कृ ष्ण के नाम, उनके रूि, उनके गुणों, उनकी लीलाओ ं आपद में अन्तर नहीं है । जो व्यपक्त िरम्िरागत कृ ष्ण भक्त नहीं है
उसके पलए कृ ष्ण के सवोच्च ज्ञान को समझ िाना कपठन है । सामान्यतया तथाकपथत पवद्वान, राजनीपतज्ञ, दाशतपनक
तथा स्वामी कृ ष्ण के सम्यक् ज्ञान के पबना भगवद्गीता िर भाष्य पलखते समय या तो कृ ष्ण को उसमें से पनकाल िें कना
चाहते हैं या उनको मार डालना चाहते हैं । भगवद्गीता का ऐसा अप्रामापणक भाष्य मायावादी भाष्य कहलाता है और
श्री चैतन्य महाप्रभु हमें ऐसे अप्रामापणक लोगों से सावधान कर गये हैं । वे कहते हैं पक जो भी व्यपक्त भगवद्गीता को


मायावादी दृपष्ट से समझने का प्रयास करता है वह बहुत बडी भल ू करे गा । ऐसी भल ू का दष्ु िररणाम यह होगा पक
भगवद्गीता के पदग्भ्रपमत पजज्ञासु आध्यापत्मक मागतदशतन के मागत में मोहग्रस्त हो जायेंगे और वे भगवद्धाम वािस नहीं जा
सकें गे ।
भगवद्गीता यथारूि को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य बद्ध पजज्ञासुओ ं को उस उद्देश्य का मागतदशतन कराना है,
पजसके पलए कृ ष्ण इस धरा िर ब्रह्मा के एक पदन में एक बार अथातत् प्रत्येक ८,६०,००,००,००० वर्त बाद अवतार लेते
हैं । भगवद्गीता में इस उद्देश्य का उल्लेख हुआ है और हमें उसे उसी रूि में ग्रहण कर लेना चापहए अन्यथा भगवद्गीता
तथा उसके वक्ता भगवान् कृ ष्ण को समझने का कोई अथत नहीं है । भगवान् कृ ष्ण ने सबसे िहले लाखों वर्त िवू त सयू तदेव
से भगवद्गीता का प्रवचन पकया था । हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा और कृ ष्ण के प्रमाण की गलत व्याख्या
पकये पबना भगवद्गीता के ऐपतहापसक महत्त्व को समझना होगा । कृ ष्ण की इच्छा का सन्दभत पदये पबना भगवद्गीता की
व्याख्या करना महान अिराध है । इस अिराध से बचने के पलए कृ ष्ण को भगवान् रूि में समझना होगा पजस तरह से
कृ ष्ण के प्रथम पशष्य अजुतन ने उन्हें समझा था । भगवद्गीता का ऐसा ज्ञान वास्तव में लाभप्रद है और जीवन-उद्देश्य को
िूरा करने में मानव समाज के कल्याण हेतु प्रामापणक भी होगा ।
मानव समाज में कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन अपनवायत है क्योंपक यह जीवन की चरम पसपद्ध प्रदान करने वाला
है । ऐसा क्यों है, इसकी िूरी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । दभु ातग्यवश संसारी झगडालू व्यपक्तयों ने अिनी आसुरी
लालसाओ ं को अग्रसर करने तथा लोगों को जीवन के पसद्धान्तों को ठीक से न समझने देने में भगवद्गीता से लाभ
उठाया है । प्रत्येक व्यपक्त को जानना चापहए पक ईश्वर या कृ ष्ण पकतने महान हैं और जीवों की वास्तपवक पस्थपतयाूँ क्या
हैं? प्रत्येक व्यपक्त को यह जान लेना चापहए पक “जीव” पनत्य दास है और जब तक वह कृ ष्ण की सेवा नहीं करे गा, तब
तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में िडता रहेगा, यहाूँ तक पक मायावादी पचन्तक को भी इसी चक्र में िडऩा होगा । यह ज्ञान
एक महान पवज्ञान है और हर प्राणी को अिने पहत के पलए इस ज्ञान को सुनना चापहए ।
इस कपलयगु में सामान्य जनता कृ ष्ण की बपहरंगा शपक्त द्वारा मोपहत है और उसे यह भ्रापन्त है पक भौपतक
सुपवधाओ ं की प्रगपत से हर व्यपक्त सुखी बन सके गा । उसे इसका ज्ञान नहीं है पक भौपतक या बपहरंगा प्रकृ पत अत्यन्त
प्रबल है, क्योंपक हर प्राणी प्रकृ पत के कठोर पनयमों द्वारा बरु ी तरह से जकडा हुआ है । सौभाग्यवश जीव भगवान् का
अंश-रूि है अतएव उसका सहज कायत हैभगवान् की सेवा करना । मोहवश मनुष्य पवपभन्न प्रकारों से अिनी इपन्द्रयतृपप्त
करके सुखी बनना चाहता है, पकन्तु इससे वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता । अिनी भौपतक इपन्द्रयों को तुष्ट करने के
बजाय उसे भगवान् की इपन्द्रयों को तुष्ट करने का प्रयास करना चापहए । यही जीवन की सवोच्च पसपद्ध है । भगवान् यही
चाहते हैं और इसी की अिेक्षा रखते हैं । मनुष्य को भगवद्गीता के इस के न्द्रपबन्दु को समझना होगा । हमारा
कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन िूरे पवश्व को इसी के न्द्रपबन्दु की पशक्षा देता है । जो भी व्यपक्त भगवद्गीता का अध्ययन करके
लाभापन्वत होना चाहता है वह हमारे कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन से इस सम्बन्ध में सहायता प्राप्त कर सकता है । अत:
हमें आशा है पक हम भगवद्गीता यथारूि को पजस रूि में प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे मानव लाभ उठायेंगे और यपद एक
भी व्यपक्त भगवद्भक्त बन सके , तो हम अिने प्रयास को सिल मानेंगे ।
ए. सी. भपक्तवेदान्त स्वामी
१२ मई १९७१
पसडनी, आस्रेपलया


भूममका
ॐ अज्ञान मतममरान्धस्य ज्ञानाञ्जनर्लाकया ।
चक्षरुु न्मीमलतं येन तस्मै श्री गुरवे नम: ॥
श्री चैतन्यमनोऽभीष्टं स्थामपतं येन भूतले ।
स्वयं रूप: कदा मह्यं ददामत स्वपदामन्तकम् ॥
मैं घोर अज्ञान के अंधकार में उत्िन्न हुआ था, और मेरे गुरु ने अिने ज्ञान रूिी प्रकाश से मेरी आूँखें खोल दीं । मैं
उन्हें सादर नमस्कार करता हूँ ।
श्रील रूि गोस्वामी प्रभिु ाद कब मझु े अिने चरणकमलों में शरण प्रदान करें गे, पजन्होंने इस जगत् में भगवान्
चैतन्य की इच्छा की िूपतत के पलए प्रचार योजना(पमशन) की स्थािना की है?
वन्देऽहं श्रीगुरो: श्रीयुतपदकमलं श्रीगुरून् वैष्णवांश्च ।
श्रीरूपं साग्रजातं सहगणरघुनाथामन्वतं तं सजीवम् ॥
साद्वैतं सावधतू ं पररजनसमहतं कृ ष्णचैतन्यदेवं ।
श्रीराधाकृ ष्णपादान् सहगणलमलताश्रीमवर्ाखामन्वताश्च ं ॥
मैं अिने गरुु के चरणकमलों को तथा समस्त वैष्णवों के चरणों को नमस्कार करता हूँ । मैं श्रील रूि गोस्वामी
तथा उनके अग्रज सनातन गोस्वामी एवं साथ ही रघनु ाथदास, रघनु ाथभट्ट, गोिालभट्ट एवं श्रील जीव गोस्वामी के
चरणकमलों को सादर नमस्कार करता हूँ । मैं भगवान् कृ ष्णचैतन्य तथा भगवान् पनत्यानन्द के साथ-साथ अद्वैत
आचायत, गदाधर, श्रीवास तथा अन्य िार्तदों को सादर प्रणाम करता हूँ । मैं श्रीमती राधा रानी तथा श्रीकृ ष्ण को
श्रीलपलता तथा श्रीपवशाखा सपखयों सपहत सादर नमस्कार करता हूँ ।
हे कृ ष्ण करुणामसन्धो दीनबन्धो जगत्पते ।
गोपेर् गोमपकाकान्त राधाकान्त नमोऽस्तु ते ॥
हे कृ ष्ण! आि दपु खयों के सखा तथा सृपष्ट के उद्गम हैं । आि गोपियों के स्वामी तथा राधारानी के प्रेमी हैं । मैं
आिको सादर प्रणाम करता हूँ ।
तप्तकाञ्चनगौरामं ग राधे वृन्दावनेश्वरर ।
वृषभानुसुते देमव प्रणमामम हररमप्रये ॥
मैं उन राधारानी को प्रणाम करता हूँ पजनकी शारीररक कापन्त पिघले सोने के सदृश है, जो वृन्दावन की महारानी
हैं । आि राजा वृर्भानु की िुत्री हैं और भगवान् कृ ष्ण को अत्यन्त पप्रय हैं ।
वाञ्छा कल्पतरुभ्यश्च कृ पामसन्धुभ्य एव च ।
पमततानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नम: ॥
मैं भगवान् के समस्त वैष्णव भक्तों को सादर नमस्कार करता हूँ । वे कल्िवृक्ष के समान सबों की इच्छाएूँ िूणत
करने में समथत हैं, तथा िपतत जीवात्माओ ं के प्रपत अत्यन्त दयालु हैं ।
श्रीकृ ष्ण-चैतन्य प्रभु-मनत्यानन्द ।
श्रीअद्वैत गदाधर श्रीवासामद गौरभक्तवृन्द ॥


मैं श्रीकृ ष्ण चैतन्य, प्रभु पनत्यानन्द, श्रीअद्वैत, गदाधर, श्रीवास आपद समस्त भक्तों को सादर प्रणाम करता हूँ ।
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥
भगवद्गीता को गीतोिपनर्द् भी कहा जाता है । यह वैपदक ज्ञान का सार है और वैपदक सापहत्य का सवातपधक
महत्त्विूणत उिपनर्द् है । पनस्सन्देह भगवद्गीता िर अूँग्रेजी भार्ा में अनेक भाष्य प्राप्त हैं, अतएव एक अन्य भाष्य की
आवश्यकता के बार में प्रश्न पकया जा सकता है । इस प्रस्तुत संस्करण का प्रयोजन इस प्रकार बताया जा सकता है :
हाल ही में एक अमरीकी मपहला ने मझु से भगवद्गीता के एक अूँग्रेजी अनवु ाद की सस्ं तुपत चाही । पनस्सन्देह अमरीका में
भगवद्गीता के अनेक अूँग्रेजी संस्करण उिलब्ध हैं, लेपकन जहाूँ तक मैंने देखा है, के वल अमरीका ही नहीं, अपितु भारत
में भी उनमें से कोई िणू त रूि से प्रामापणक सस्ं करण नहीं पमलेगा, क्योंपक लगभग हर एक सस्ं करण में भाष्यकार ने
भगवद्गीता यथारूि के ममत का स्िशत पकये पबना अिने मतों को व्यक्त पकया है ।
भगवद्गीता का ममत भगवद्गीता में ही व्यक्त है । यह इस प्रकार है : यपद हमें पकसी और्पध पवशेर् का सेवन करना
हो तो उस िर पलखे पनदेशों का िालन करना होता है । हम मनमाने ढंग से या पमत्र की सलाह से और्पध नहीं ले
सकते । इसका सेवन पलखे हुए पनदेशों के अनुसार या पचपकत्सक के पनदेशानुसार करना होता है । इसी प्रकार
भगवद्गीता को इसके वक्ता द्वारा पदये गये पनदेशानुसार ही ग्रहण या स्वीकार करना चापहए । भगवद्गीता के वक्ता भगवान्
श्रीकृ ष्ण हैं । भगवद्गीता के प्रत्येक िृि िर उनका उल्लेख भगवान् के रूि में हुआ है । पनस्सन्देह भगवान् शब्द कभी-
कभी पकसी भी अत्यन्त शपक्तशाली व्यपक्त या पकसी शपक्तशाली देवता के पलए प्रयुक्त होता है, और यहाूँ िर भगवान्
शब्द पनपित रूि से भगवान् श्रीकृ ष्ण को एक महान व्यपक्तत्त्व वाला बताता है, पकन्तु साथ ही हमें यह जानना होगा पक
भगवान् श्रीकृ ष्ण िूणत िुरुर्ोत्तम भगवान् हैं, जैसापक सभी महान आचायों जैसे शंकराचायत, रामानुजाचायत, मध्वाचायत,
पनम्बाकत स्वामी, श्री चैतन्य महाप्रभु तथा भारत के वैपदक ज्ञान के अन्य पवद्वानों ने िुपष्ट की है । भगवान् ने भी स्वयं
भगवद्गीता में अिने को िरम िरुु र्ोत्तम भगवान् कहा है और ब्रह्म-सपं हता में तथा अन्य िरु ाणों में, पवशेर्तया
श्रीमद्भागवतम् में, जो भागवतिुराण के नाम से पवख्यात है, वे इसी रूि में स्वीकार पकये गये हैं (कृ ष्णस्तु भगवान्
स्वयम्) । अतएव भगवद्गीता हमें भगवान् ने जैसे बताई है, वैसे ही स्वीकार करनी चापहए ।
भगवद्गीता के चतुथत अध्याय में (४.१-३) भगवान् कहते हैं :
इमं वववस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
वववस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥
एवं पिम्पिाप्राप्तवममं िाजर्षयो ववद:ु ।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: पिन्तप ॥
स एवायं मया तेऽद्य योग: प्रोक्त: पुिातन: ।
भक्तोऽवस में सखा चेवत िहस्यं ह्येतदत्तु मम् ॥
यहाूँ िर भगवान् अजुतन को सूपचत करते हैं पक भगवद्गीता की यह योगिद्धपत सवतप्रथम सूयतदेव को बताई गयी,
सयू तदेव ने इसे मनु को बताया और मनु ने इसे इक्ष्वाकु को बताया । इस प्रकार गरुु -िरम्िरा द्वारा यह योगिद्धपत एक वक्ता
से दसू रे वक्ता तक िहुचूँ ती रही । लेपकन कालान्तर में यह पछन्न-पभन्न हो गई, िलस्वरूि भगवान् को इसे पिर से
बताना िड रहा है—इस बार अजतनु को कुरुक्षेत्र के यद्ध ु स्थल में ।
वे अजुतन से कहते हैं पक मैं तुम्हें यह िरम रहस्य इसपलए प्रदान कर रहा ह,ूँ क्योंपक तुम मेरे भक्त तथा पमत्र हो ।
इसका तात्ियत यह है पक भगवद्गीता ऐसा ग्रन्थ है जो पवशेर् रूि से भगवद्भक्त के पलए है, भगवद्भक्त के पनपमत्त है ।


अध्यात्मवापदयों की तीन श्रेपणयाूँ हैं—ज्ञानी, योगी तथा भक्त या पक पनपवतशेर्वादी, ध्यानी और भक्त । यहाूँ िर भगवान्
अजुतन से स्िष्ट कहते हैं पक वे उसे इस नवीन िरम्िरा (गुरु-िरम्िरा) का प्रथम िात्र बना रहे हैं, क्योंपक प्राचीन िरम्िरा
खपण्डत हो गई थी । अतएव यह भगवान् की इच्छा थी पक सूयतदेव से चली आ रही पवचारधारा की पदशा में ही अन्य
िरम्िरा स्थापित की जाय और उनकी यह इच्छा थी पक उनकी पशक्षा का पवतरण अजुतन द्वारा नये पसरे से हो । वे चाहते
थे पक अजुतन भगवद्गीता ज्ञान का प्रामापणक अपधकारी बने । अतएव हम देखते हैं पक भगवद्गीता का उिदेश अजुतन को
पवशेर् रूि से पदया गया, क्योंपक अजुतन भगवान् का भक्त, स्वयं श्रीकृ ष्ण का पशष्य तथा घपनि पमत्र था । अतएव पजस
व्यपक्त में अजतनु जैसे गणु िाये जाते हैं, वह भगवद्गीगीता को सबसे अच्छी तरह समझ सकता है । कहने का तात्ियत यह
है पक भक्त को भगवान् से सीधे सम्बपन्धत होना चापहए । ज्योंही कोई भगवान् का भक्त बन जाता है त्योंही उसका
सीधा सम्बन्ध भगवान् से हो जाता है । यह एक अत्यन्त पवशद् पवर्य है, लेपकन सक्ष ं ेि में यह बताया जा सकता है पक
भक्त तथा भगवान् के मध्य िाूँच प्रकार का सम्बन्ध हो सकता है
१. कोई पनपष्क्रय अवस्था में भक्त हो सकता है;
२. कोई सपक्रय अवस्था में भक्त हो सकता है;
३. कोई सखा-रूि में भक्त हो सकता है;
४. कोई माता या पिता के रूि में भक्त हो सकता है;
५. कोई माधयु -त प्रेमी के रूि में भक्त हो सकता है ।
अजुतन का कृ ष्ण से सम्बन्ध सखा-रूि में था । पनस्सन्देह इस पमत्रता (सख्य-भाव) तथा भौपतक जगत में िायी
जाने वाली पमत्रता में आकाश-िाताल का अन्तर है । यह पदव्य पमत्रता है जो हर पकसी को प्राप्त नहीं हो सकती ।
पनस्सन्देह प्रत्येक व्यपक्त का भगवान् से पवशेर् सम्बन्ध होता है और यह सम्बन्ध भपक्त की िूणतता से ही जागृत होता है ।
पकन्तु जीवन की वततमान अवस्था में हमने न के वल भगवान को भल ु ा पदया है, अपितु हम भगवान् के साथ अिने
शाश्वत सम्बन्ध को भी भल ू ुच क े हैं । लाखों- करोडों जीवों में से प्रत्ये क जीव का भगवान् के साथ शाश्वत पवपशष्ट
सम्बन्ध है । यह स्वरूि कहलाता है । भपक्तयोग की प्रपक्रया द्वारा यह स्वरूि जागृत पकया जा सकता है । तब यह
अवस्था स्वरूि-पसपद्ध कहलाती है—यह स्वरूि की अथातत् स्वाभापवक या मल ू भतू पस्थपत की िणू तता कहलाती है ।
अतएव अजुतन भक्त था और वह भगवान् के सम्िकत में पमत्र रूि में था ।
हमें इस बात िर पवशेर् ध्यान देना चापहए पक अजुतन ने भगवद्गीता को पकस तरह ग्रहण पकया । इसका वणतन
दशम अध्याय में (१०.१२-१४) इस प्रकार हुआ है :

अजुषन उवाच
पिं ब्रह्म पिं धाम पववत्रं पिमं भवान् ।
पुरुर्ं शाश्वतं वदव्यमावददेवमजं ववभमु ् ॥
आहुस््वामृर्य: सवे देववर्षनाषिदस्तथा ।
अवसतो देवलो व्यास: स्वयं चैव ब्रवीवर् मे ॥
सवषमेतदृतं मन्ये यन्मां वदवस के शव ।
न वह ते भगवन्व्यवक्तं ववददु ेवा न दानवा: ॥
अजुतन ने कहा: आि भगवान्, िरम-धाम, िपवत्रतम, िरम सत्य हैं । आि शाश्वत, पदव्य आपद िुरुर्, अजन्मे तथा
महानतम हैं । नारद, अपसत, देवल तथा व्यास जैसे समस्त महामुपन आिके पवर्य में इस सत्य की िुपष्ट करते हैं और


अब आि स्वयं मझु से इसी की घोर्णा कर रहे हैं । हे कृ ष्ण! आिने जो कुछ कहा है उसे िूणतरूि से मैं सत्य मानता हूँ ।
हे प्रभ!ु न तो देवता और न असुर ही आिके व्यपक्तत्व को समझ सकते हैं ।
भगवान् से भगवद्गीता सुनने के बाद अजुतन ने कृ ष्ण को िरम् ब्रह्म स्वीकार कर पलया । प्रत्येक जीव ब्रह्म है,
लेपकन िरम िुरुर्ोत्तम भगवान् िरम ब्रह्म हैं । िरम् धाम का अथत है पक वे सबों के िरम आश्रय या धाम हैं । िपवत्रम् का
अथत है पक वे शद्ध ु हैं, भौपतक कल्मर् से बेदाग हैं । िुरुर्म् का अथत है पक वे िरम भोक्ता हैं; शाश्वतम् अथातत् आपद,
सनातन; पदव्यम् अथातत् पदव्य; आपद देवम्—भगवान्; अजम्—अजन्मा तथा पवभमु ् अथातत् महानतम हैं ।
कोई यह सोच सकता है पक चूँपू क कृ ष्ण अजतनु के पमत्र थे, अतएव अजतनु यह सब चाटुकाररता के रूि में कह
रहा था । लेपकन अजुतन भगवद्गीता के िाठकों के मन से इस प्रकार के सन्देह को दरू करने के पलए अगले श्लोक में इस
प्रशसं ा की िुपष्ट करता है, जब वह यह कहता है पक कृ ष्ण को मैं ही नहीं मानता, अपितु नारद, अपसत, देवल तथा
व्यासदेव जैसे महािुरुर् भी भगवान् स्वीकार करते हैं । ये सब महािुरुर् हैं जो समस्त आचायों द्वारा स्वीकृ त वैपदक ज्ञान
का पवतरण (प्रचार) करते हैं । अतएव अजुतन श्रीकृ ष्ण से कहता है पक वे जो कुछ भी कहते हैं, उसे वह िूणत सत्य मानता
है । सवतमेतदृतं मन्ये—आि जो कुछ कहते हैं, उसे मैं सत्य मानता हूँ । अजुतन यह भी कहता है पक भगवान् के व्यपक्तत्व
को समझ िाना बहुत कपठन है, यहाूँ तक पक बडे-बडे देवता भी उन्हें नहीं समझ िाते । इसका मतलब यह हुआ पक
भगवान् मनुष्य से ऊूँचे व्यपक्तत्त्व द्वारा भी जाने नहीं जा सकते हैं । अतएव मानव मात्र भक्त बने पबना भगवान् श्रीकृ ष्ण
को कै से समझ सकता है?
अतएव भगवद्गीता को भपक्तभाव से ग्रहण करना चापहए । पकसी को यह नहीं सोचना चापहए पक वह कृ ष्ण के
तुल्य है, न ही यह सोचना चापहए पक कृ ष्ण सामान्य िुरुर् हैं या पक एक महान व्यपक्तत्व हैं । भगवान् श्रीकृ ष्ण साक्षात्
िुरुर्ोत्तम भगवान् हैं । अतएव भगवद्गीता के कथनानुसार या भगवद्गीता को समझने का प्रयत्न करने वाले अजुतन के
कथनानुसार हमें पसद्धान्त रूि में कम से कम इतना तो स्वीकार कर लेना चापहए पक श्रीकृ ष्ण भगवान् हैं, और उसी
पवनीत भाव से हम भगवद्गीता को समझ सकते हैं । जब तक कोई भगवद्गीता का िाठ पवनम्र भाव से नहीं करता है, तब
तक उसे समझ िाना अत्यन्त कपठन है, क्योंपक यह एक महान रहस्य है ।
तो भगवद्गीता क्या है? भगवद्गीता का प्रयोजन मनष्ु य को भौपतक संसार के अज्ञान से उबारना है । प्रत्येक व्यपक्त
अनेक प्रकार से कपठनाइयों में है, पजस प्रकार अजुतन भी कुरुक्षेत्र में युद्ध करने के पलए कपठनाई में था । अजुतन ने
श्रीकृ ष्ण की शरण ग्रहण कर ली, िलस्वरूि इस भगवद्गीता का प्रवचन हुआ । अजुतन ही नहीं वरन हममें से प्रत्येक
व्यपक्त इस भौपतक अपस्तत्व के कारण पचन्ताओ ं से िूणत है । हमारा अपस्तत्व ही अनपस्तत्व के िररवेश में है । वस्तुत:
हम अनपस्तत्व से भयभीत होने के पलए नहीं हैं । हमारा अपस्तत्व सनातन है । लेपकन हम पकसी न पकसी कारण से
असत् में डाल पदए गये हैं । असत् का अथत उससे है पजसका अपस्तत्व नहीं है ।
कष्ट भोगने वाले अनेक मनुष्यों में के वल कुछ ही ऐसे हैं जो वास्तव में अिनी पस्थती जानने के पजज्ञासु हैं, जैसे
पक वे क्या हैं, वे इस पवर्म पस्थपत में क्यों डाल पदये गये हैं, आपद-आपद । जब तक मनुष्य को अिने कष्टों के पवर्य में
पजज्ञासा नहीं होती, जब तक उसे यह अनुभपू त नहीं होती पक वह कष्ट भोगना नहीं अपितु सारे कष्टों का हल ढूूँढना
चाहता है, उसे पसद्ध मानव नहीं समझना चापहए । मानवता तभी शरू ु होती है जब मन में इस प्रकार की पजज्ञासा उपदत
होती है । ब्रह्म-सूत्र में इस पजज्ञासा को ब्रह्म-पजज्ञासा कहा गया है । अथातो ब्रह्म-पजज्ञासा । मनुष्य के सारे कायतकलाि
असिल माने जाने चापहए, यपद वह िरब्रह्म के स्वभाव के पवर्य में पजज्ञासा न करे । अतएव जो लोग यह प्रश्न करना
प्रारम्भ कर देते हैं पक वे क्यों कष्ट उठा रहे हैं, या वे कहाूँ से आये हैं और मृत्यु के बाद कहाूँ जायेंगे, वे ही भगवद्गीता


समझने के सुिात्र पवद्याथी हैं । पनिावान पवद्याथी में भगवान के प्रपत आदर भाव भी होना चापहए । अजुतन ऐसा ही
पवद्याथी था ।
जब मनुष्य जीवन के वास्तपवक उद्देश्य को भल ू जाता है तो भगवान् कृ ष्ण पवशेर् रूि से उसी उद्देश्य की
िुनस्थातिना के पलए अवतार लेते हैं । तब भी असंख्य जागृत हुए लोगों में से कोई एक होता है जो वास्तव में अिनी
पस्थपत को जान िाता है और यह भगवद्गीता उसी के पलए कही गई है । वस्तुत: हम सभी अपवद्या रूिी बापघन के द्वारा
पनगल पलए गए हैं, लेपकन भगवान् जीवों िर, पवशेर्तया मनुष्यों िर, कृ िालु हैं । इसी उद्देश्य से उन्होंने अिने पमत्र
अजतनु को अिना पशष्य बना कर भगवद्गीता का प्रवचन पकया ।
भगवान् कृ ष्ण का साथी होने के कारण अजुतन समस्त अज्ञान (अपवद्या) से मक्त ु था, लेपकन कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल
में उसे अज्ञान में डाल पदया गया तापक वह भगवान् कृ ष्ण से जीवन की समस्याओ ं के पवर्य में प्रश्न करे पजससे भगवान्
उनकी व्याख्या भावी िीपढयों के मनुष्यों के लाभ के पलए कर दें और जीवन की योजना का पनधातरण कर दें । तब मनुष्य
तदनुसार कायत कर िायेगा और मानव जीवन के उद्देश्य को िूणत कर सके गा ।
भगवद्गीता की पवर्यवस्तु में िाूँच मूल सत्यों का ज्ञान पनपहत है । सवतप्रथम ईश्वर के पवज्ञान की और पिर जीवों
की स्वरूि पस्थपत की पववेचना की गई है । ईश्वर है, पजसका अथत पनयन्ता है; और जीव हैं, जो पनयपन्त्रत हैं । यपद जीव
यह कहे पक वह पनयपन्त्रत नहीं अपितु स्वतन्त्र है तो वह िागल है । जीव सभी प्रकार से, कम से कम बद्ध जीवन में तो,
पनयपन्त्रत है । अतएव भगवद्गीता की पवर्यवस्तु ईश्वर, सवोच्च पनयंता तथा जीव पनयंपत्रत जीवात्माएूँ, से सम्बपन्धत है ।
इसमें प्रकृ पत (भौपतक प्रकृ पत), काल (समस्त ब्रह्माण्ड की कालावपध या प्रकृ पत का प्राकट् य) तथा कमत (कायतकलाि)
की भी व्याख्या है । यह दृश्य-जगत पवपभन्न कायतकलािों से ओतप्रोत है । सारे जीव पभन्न-पभन्न कायों में लगे हुए हैं ।
भगवद्गीता से हमें अवश्य सीखना चापहए पक ईश्वर क्या है, जीव क्या है, प्रकृ पत क्या है, दृश्य-जगत क्या है, यह काल
द्वारा पकस प्रकार पनयपन्त्रत पकया जाता है, और जीवों के कायतकलाि क्या हैं?
भगवद्गीता के इन िाूँच मलू भतू पवर्यों में से इसकी स्थािना की गई है पक भगवान्, अथवा कृ ष्ण, अथवा ब्रह्म,
या िरमात्मा—अथवा िरम पनयंता, आि जो चाहें कह लें—सबसे श्रेि है । जीव गुण में िरम-पनयन्ता के ही समान हैं ।
उदाहरणाथत, जैसापक भगवद्गीता के पवपभन्न अध्यायों में बताया जायेगा, भगवान् भौपतक प्रकृ पत के समस्त कायों के
ऊिर पनयन्त्रण रखते हैं । भौपतक प्रकृ पत स्वतन्त्र नहीं है । वह िरमेश्वर के पनदेशन में कायत करती है । जैसापक भगवान्
कृ ष्ण कहते हैं—मयाध्यक्षेण प्रकृ पत: सूयते सचराचरम—भौपतक प्रकृ पत मेरे पनदेशन में कायत करती है । जब हम दृश्य-
जगत् में आियतजनक घटनाएूँ घटते देखते हैं, तो हमें यह जानना चापहए पक इस दृश्य जगत् के िीछे एक पनयन्ता है ।
पबना पनयन्त्रण के पकसी का प्रकट होना सम्भव नहीं । पनयन्ता को न मानना बचिना है । उदाहरणाथत, एक बालक सोच
सकता है पक मोटरकार अद्भुत होती है, क्योंपक यह पबना घोडे के या खींचने वाले िशु से चलती है । पकन्तु समझदार
व्यपक्त मोटरकार की आपभयंपत्रक व्यवस्था से िररपचत होता है । वह सदैव जानता है पक इस यन्त्र के िीछे एक व्यपक्त,
एक चालक होता है । इसी प्रकार िरमेश्वर वह चालक है पजसके पनदेशन में सब कायत हो रहा है । भगवान् ने जीवों को
अिने अंश-रूि में स्वीकार पकया है, जैसापक हम अगले अध्यायों में देखेंगे । सोने का एक कण भी सोना है, समद्रु के
जल की बूँदू भी खारी होती है । इसी प्रकार हम जीव भी िरम-पनयन्ता ईश्वर या भगवान् श्रीकृ ष्ण के अश ं होने के कारण
सूक्ष्म मात्रा में िरमेश्वर के सभी गुणों से युक्त होते हैं, क्योंपक हम सूक्ष्म ईश्वर या अधीनस्थ ईश्वर हैं । हम प्रकृ पत िर
पनयन्त्रण करने का प्रयास कर रहे हैं, जैसे की वततमान में हम अन्तररक्ष या ग्रहों को वश में करना चाहते हैं, और हममें
पनयन्त्रण रखने की यह प्रवृपत्त इसपलए है क्योंपक यह कृ ष्ण में भी है । यद्यपि हममें भौपतक प्रकृ पत िर प्रभत्ु व जमाने की
प्रवृपत्त होती है, लेपकन हमें यह जानना चापहए पक हम िरम-पनयन्ता नहीं हैं । इसकी व्याख्या भगवद्गीता में की गई है ।

१०
भौपतक प्रकृ पत क्या है? गीता में इसकी भी व्याख्या अिरा प्रकृ पत के रूि में हुई है । जीव को िरा प्रकृ पत (उत्कृ ष्ट
प्रकृ पत) कहा गया है । प्रकृ पत चाहे िरा हो या अिरा, सदैव पनयन्त्रण में रहती है । प्रकृ पत स्त्री-स्वरूिा है और वह
भगवान् द्वारा उसी प्रकार पनयपन्त्रत होती है, पजस प्रकार ित्नी अिने िपत द्वारा । प्रकृ पत सदैव अधीन रहती है, उस िर
भगवान् का प्रभत्ु व रहता है, क्योंपक भगवान् ही पनयंत्रक हैं । जीव तथा भौपतक प्रकृ पत दोनों ही िरमेश्वर द्वारा
अपधशापसत एवं पनयपन्त्रत होते हैं । गीता के अनुसार यद्यपि सारे जीव िरमेश्वर के अंश हैं, लेपकन वे प्रकृ पत ही माने
जाते हैं । इसका स्िष्ट उल्लेख भगवद्गीगीता के सातवें अध्याय में हुआ है । अिरे यपमतस्त्वन्यां प्रकृ पतं पवपद्ध में िराम ।
जीवभतू ा:ं यह भौपतक प्रकृ पत मेरी अिरा प्रकृ पत है । लेपकन इससे भी िरे दसू री प्रकृ पत है—जीव भतू ाम् अथातत् जीव
है ।
भौपतक प्रकृ पत तीन गणु ों से पनपमतत है—सतोगणु , रजोगणु तथा तमोगणु । इन गणु ों के ऊिर पनत्य काल है और
इन प्रकृ पत के गुणों तथा पनत्य काल के पनयंत्रण व संयोग से अनेक कायतकलाि होते हैं, जो कमत कहलाते हैं । ये
कायतकलाि अनापद काल से चले आ रहे हैं और हम सभी अिने कायतकलाि (कमों) के िलस्वरूि सुख या दख ु भोग
रहे हैं । उदाहरणाथत, मान लें पक मैं व्यािारी हूँ और मैंने बुपद्ध से कठोर श्रम पकया है और बहुत सम्िपत्त संपचत कर ली
है । तब मैं सम्िपत्त के सुख का भोक्ता हूँ पकन्तु यपद मान लें पक व्यािार में हापन से मेरा सब धन जाता रहा तो मैं दख ु का
भोक्ता हो जाता हूँ । इसी प्रकार जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अिने कमत के िल का सुख भोगते हैं या उसका कष्ट उठाते
हैं । यह कमत कहलाता है ।
ईश्वर, जीव, प्रकृ पत, काल तथा कमत इन सबकी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । इन िाूँचों में से ईश्वर, जीव, प्रकृ पत
तथा काल शाश्वत हैं । प्रकृ पत की अपभव्यपक्त अस्थायी हो सकती है, िरन्तु यह पमथ्या नहीं है । कोई-कोई दाशतपनक
कहते हैं पक प्रकृ पत की अपभव्यपक्त पमथ्या है लेपकन भगवद्गीता या वैष्णवों के दशतन के अनुसार ऐसा नहीं है । जगत की
अपभव्यपक्त को पमथ्या नहीं माना जाता । इसे वास्तपवक, पकन्तु अस्थायी माना जाता है । यह उस बादल के सदृश है जो
आकाश में घमू ता रहता है, या वर्ात ऋतु के आगमन के समान है, जो अन्न का िोर्ण करती है । ज्योंही वर्ात ऋतु
समाप्त होती है और बादल चले जाते हैं, त्योंही वर्ात द्वारा िोपर्त सारी िसल सूख जाती है । इसी प्रकार यह भौपतक
अपभव्यपक्त एक पनपित अन्तराल में होती है, कुछ काल तक ठहरती है और पिर लप्तु हो जाती है। प्रकृ पत इस रूि में
कायतशील है। लेपकन यह चक्र पनरन्तर चलता रहता है। इसीपलए प्रकृ पत शाश्वत है, पमथ्या नहीं है। भगवान् इसे मेरी
प्रकृ पत कहते हैं। यह भौपतक प्रकृ पत (अिरा प्रकृ पत) िरमेश्वर की पभन्ना-शपक्त है। इसी प्रकार जीव भी िरमेश्वर की शपक्त
हैं, पकन्तु वे पवलग नहीं, अपितु भगवान् से पनत्य-सम्बद्ध हैं। इस तरह भगवान्, जीव, प्रकृ पत तथा काल, ये सब िरस्िर
सम्बपन्धत हैं और सभी शाश्वत हैं। लेपकन दसू री वस्तु कमत शाश्वत नहीं है। हाूँ, कमत के प्रभाव अत्यन्त िुरातन हो सकते
हैं। हम अनापद काल से अिने शभु -अशुभ कमतिलों को भोग रहे हैं, पकन्तु साथ ही हम अिने कमों के िल को बदल
भी सकते हैं और यह िररवततन हमारे ज्ञान की िूणतता िर पनभतर करता है। हम पवपवध प्रकार के कमों में व्यस्त रहते हैं।
पनस्संदेह हम यह नहीं जानते पक पकस प्रकार के कमत करने से हम कमतिल से राहत प्राप्त कर सकते हैं। लेपकन
भगवद्गीता में इसका भी वणतन हुआ है।
ईश्वर अथातत् िरम ईश्वर की पस्थती िरम चेतना-स्वरूि है। जीव भी ईश्वर के अश ं होने के कारण चेतन है। जीव
तथा भौपतक प्रकृ पत दोनों को प्रकृ पत बताया गया है अथातत् वे िरमेश्वर की शपक्त हैं, पकन्तु इन दोनों में से के वल जीव
चेतन है, दसू री प्रकृ पत चेतन नहीं है। यही अन्तर है। इसीपलए जीव प्रकृ पत िरा या उत्कृ ष्ट कहलाती है, क्योंपक जीव,
भगवान् जैसी चेतना से युक्त है। लेपकन भगवान् की चेतना िरम है, और पकसी को यह नहीं कहना चापहए पक जीव भी

११
िरम चेतन है। जीव कभी भी, यहाूँ तक पक अिनी पसद्ध अवस्था में भी, िरम चेतन नहीं हो सकता और यह पसद्धान्त
भ्रामक है पक जीव िरम चेतन हो सकता है। वह चेतन तो हो सकता है, लेपकन िूणत या िरम चेतन नहीं।
जीव तथा ईश्वर का अन्तर भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में बताया जायेगा । ईश्वर क्षेत्रज्ञ व चेतन है, जैसापक जीव
भी है, लेपकन जीव के वल अिने शरीर के प्रपत सचेत रहता है, जबपक भगवान् समस्त शरीरों के प्रपत सचेत रहते हैं ।
चूँपू क वे प्रत्येक जीव के हृदय में वास करते हैं, अतएव वे जीवपवशेर् की मानपसक गपतशीलता से िररपचत रहते हैं । हमें
यह नहीं भल ू ना चापहए । यह भी बताया गया है पक िरमात्मा प्रत्येक जीव के हृदय में ईश्वर या पनयन्ता के रूि में वास
कर रहे हैं और जैसा जीव चाहता है वैसा करने के पलए जीव को पनदेपशत करते रहते हैं । जीव भल ू जाता है पक उसे
क्या करना है । िहले तो वह पकसी एक पवपध से कमत करने का संकल्ि करता है, लेपकन पिर वह अिने ही कमत की
पक्रयाओ ं और प्रपतपक्रयाओ ं में उलझ जाता है । एक प्रकार का शरीर त्यागने के बाद वह दसू रा शरीर ग्रहण करता है
पजस प्रकार हम वस्त्र उतारते तथा िहनते रहते हैं । इस प्रकार जब आत्मा देहान्तरण कर जाता है, उसे अिने पवगत
(िूवतकृत्) कमों का िल भोगना िडता है । ये कायतकलाि तभी बदल सकते हैं जब जीव सतोगुण में पस्थत हो और यह
समझे पक उसे कौन से कमत करने चापहए । यपद वह ऐसा करता है तो उसके पवगत (िूवतकृत्) कमों के सारे िल बदल
जाते हैं । िलस्वरूि कमत शाश्वत नहीं हैं । इसीपलए हमने यह कहा है पक िाूँचों (ईश्वर, जीव, प्रकृ पत, काल तथा कमत) में
से चार शाश्वत हैं, कमत शाश्वत नहीं है ।
िरम चेतन ईश्वर जीव से इस प्रकार में समान है—भगवान् तथा जीव दोनों की चेतनाएूँ पदव्य हैं । यह चेतना
िदाथत के संयोग से उत्िन्न नहीं होती है । ऐसा सोचना भ्रापन्तमल ू क है । भगवद्गीता इस पसद्धान्त को स्वीकार नहीं करती
पक चेतना पवशेर् िररपस्थपतयों में िदाथत के संयोग से उत्िन्न होती है । यह चेतना भौपतक िररपस्थपतयों के आवरण के
कारण पवकृ त रूि से प्रपतपबपम्बत हो सकती है पजस प्रकार रंगीन काूँच से िरावपततत प्रकाश उसी रंग का प्रतीत होता है
िरन्तु भगवान् की चेतना िदाथत से प्रभापवत नहीं होती है । पकन्तु भगवान् की चेतना भौपतकता से प्रभापवत नहीं होती
है । भगवान् कहते हैं—मयाध्यक्षेण प्रकृ पत: । जब वे इस भौपतक जगत् में अवतररत होते हैं तो उनकी चेतना िर भौपतक
प्रभाव नहीं िडता । यपद वे इस तरह प्रभापवत होते तो पदव्य पवर्यों के सम्बन्ध में उस तरह बोलने के अपधकारी न होते
जैसापक भगवद्गीता में बोलते हैं । भौपतक कल्मर्-ग्रस्त चेतना से मक्त ु हुए पबना कोई पदव्य-जगत के पवर्य में कुछ नहीं
कह सकता । अत: भगवान् भौपतक दृपष्ट से कलुपर्त (दपू र्त) नहीं हैं । िरन्तु हमारी चेतना अभी भौपतक कल्मर् से
दपू र्त है । भगवद्गीता पशक्षा देती है पक हमें इस कलुपर्त चेतना को शुद्ध करना है । शद्धु चेतना होने िर हमारे सारे कमत
ईश्वर की इच्छानुसार होंगे और इससे हम सुखी हो सकें गे । ऐसा नहीं पक हमें अिने सारे कायत बन्द कर देने चापहए ।
अपितु, हमें अिने कमों को शद्ध ु करना चापहए और िररष्कृ त कमत भपक्त कहलाते हैं । भपक्त में कमत सामान्य कमत प्रतीत
होते हैं, पकन्तु वे कलुपर्त नहीं होते । एक अज्ञानी व्यपक्त भक्त को सामान्य व्यपक्त की भाूँपत कमत करते देख सकता है,
पकन्तु ऐसा मख ू त यह नहीं समझता पक भक्त या भगवान् के कमत अशद्ध ु चेतना या िदाथत से कलुपर्त नहीं होते । वे
पत्रगुणातीत होते हैं । जो भी हो, हमें यह जान लेना चापहए पक अभी हमारी चेतना कलुपर्त है ।
जब हम भौपतक दृपष्ट से कलुपर्त होते हैं, तो हम बद्ध कहलाते हैं । पमथ्या चेतना का प्राकट् य इसपलए होता है
पक हम अिने-आिको प्रकृ पत का प्रपतिल (उत्िाद) मान बैठते हैं । यह पमथ्या अहक ं ार कहलाता है । जो व्यपक्त
देहात्मबुपद्ध में लीन रहता है वह अिनी पस्थपत (स्वरूि) को नहीं समझ िाता । भगवद्गीता का प्रवचन देहात्मबुपद्ध से
मनष्ु य को मक्त ु करने के पलए ही हुआ था और भगवान् से यह सचू ना प्राप्त करने के पलए ही अजतनु ने अिने-आिको इस
अवस्था में उिपस्थत पकया था । व्यपक्त को देहात्मबुपद्ध से मक्त ु होना चापहए, अध्यात्मवादी के पलए प्रारपम्भक कमत
(कायत) यही है । जो मक्त ु होना चाहता है, जो बधं नों से छूटना चाहता है, उसे सवतप्रथम यह जान लेना होगा पक वह यह

१२
शरीर नहीं है । मपु क्त का अथत है भौपतक चेतना से स्वतन्त्रता । श्रीमद्भागवतम् में भी मुपक्त की िररभार्ा दी गई है ।
मपु क्तपहतत्वान्यथारूिं स्वरूिेण व्यवपस्थपत:— मपु क्त का अथत है इस भौपतक जगत की कलुपर्त चेतना से छूटना और
शद्धु चेतना में पस्थत होना । भगवद्गीता के सारे उिदेशों का मन्तव्य इसी शद्ध ु चेतना को जागृत करना है । इसीपलए हम
गीता के अन्त में कृ ष्ण को अजुतन से यह प्रश्न करते िाते हैं पक वह पवशुद्ध चेतना को प्राप्त हुआ या नहीं? शद्ध ु चेतना का
अथत है भगवान् के आदेशानुसार कमत करना । शुद्ध चेतना का यही सार है । भगवान् का अंश होने के कारण हममें चेतना
िहले से ही रहती है, लेपकन हममें पनकृ ष्ट गुणों द्वारा प्रभापवत होने की प्रवृपत्त िाई जाती है । पकन्तु भगवान् िरमेश्वर होने
के कारण कभी प्रभापवत नहीं होते । िरमेश्वर तथा क्षद्रु जीवों में यही अन्तर है ।
यह चेतना क्या है? यह चेतना है मैं हूँ । तो पिर मैं क्या हूँ? कलुपर्त चेतना में मैं हूँ का अथत है पक मैं सवेसवात ह,ूँ
मैं भोक्ता हूँ । यह संसार घमू ता है, क्योंपक प्रत्येक जीव यही सोचता है पक वही इस भौपतक जगत का स्वामी तथा स्रष्टा
है । भौपतक चेतना के दो मनोमय पवभाग हैं । एक के अनुसार मैं ही स्रष्टा ह,ूँ और दसू रे के अनुसार मैं ही भोक्ता हूँ ।
लेपकन वास्तव में िरमेश्वर स्रष्टा तथा भोक्ता दोनों है, और िरमेश्वर का अश ं होने के कारण जीव न तो स्रष्टा है न ही
भोक्ता, वह मात्र सहयोगी है । वह सृपजत तथा भक्त ु है । उदाहरणाथत, मशीन का कोई एक िुजात सम्िूणत मशीन के साथ
सहयोग करता है, इसी प्रकार शरीर का कोई एक अंग िूरे शरीर के साथ सहयोग करता है । हाथ, िाूँव, आूँखें आपद
शरीर के अंग हैं, लेपकन ये वास्तपवक भोक्ता नहीं हैं । भोक्ता तो उदर (िेट) है । िाूँव चलते हैं, हाथ भोजन देते हैं, दाूँत
चबाते हैं और शरीर के सारे अंग उदर को तुष्ट करने में लगे रहते हैं, क्योंपक उदर ही प्रधान कारक है, जो शरीर रूिी
संगठन का िोर्ण करता है । अतएव सारी वस्तुएूँ उदर को दी जाती हैं । पजस प्रकार जड को सींच कर वृक्ष का िोर्ण
पकया जाता है, उसी तरह उदर का भरण करके शरीर का िोर्ण पकया जाता है, क्योंपक यपद शरीर को स्वस्थ रखना है
तो शरीर के सारे अंगों को उदरिूपतत में सहयोग देना होगा । इसी प्रकार िरमेश्वर ही भोक्ता तथा स्रष्टा हैं और हम उनके
अधीनस्थ जीवात्माएूँ उन्हें प्रसन्न रखने के पनपमत्त सहयोग करने के पलए हैं । इस सहयोग से हमें लाभ िहुचूँ ता है, ठीक
वैसे ही जैसे उदर द्वारा गृहीत भोजन से शरीर के सारे अगं ों को लाभ िहुचूँ ता है । यपद हाथ की अूँगपु लयाूँ यह सोचें पक वे
उदर को भोजन न देकर स्वयं ग्रहण कर लें, तो उन्हें पनराश होना िडेगा । सृजन तथा भोग के के न्द्रपबन्दु िरमेश्वर हैं, और
सारे जीव उनके सहयोगी हैं । सहयोग के द्वारा वे भोग करते हैं । यह सम्बन्ध स्वामी तथा दास जैसा है । यपद स्वामी
िूणततया तुष्ट रहता है, तो दास भी तुष्ट रहता है । इसी प्रकार िरमेश्वर को तुष्ट रखना चापहए, यद्यपि जीवों में भी स्रष्टा बनने
तथा भौपतक जगत का भोग करने की प्रवृपत्त होती है, क्योंपक इस दृश्य-जगत के स्रष्टा िरमेश्वर में ये प्रवृपत्तयाूँ हैं ।
अतएव भगवद्गीता में हम िाएूँगे पक िरम िूणत में िरम पनयन्ता, पनयपन्त्रत जीव, दृश्य-जगत, शाश्वत-काल तथा
कमत सपन्नपहत हैं, और इन सबकी व्याख्या इस िाठ में की गई है । ये सब पमलकर िरम िूणत का पनमातण करते हैं और
यही िरम िूणत िरम सत्य कहलाता है । यही िरम िूणत तथा िरम सत्य िूणत िुरुर्ोत्तम भगवान् श्रीकृ ष्ण हैं । सारी
अपभव्यपक्तयाूँ उनकी पवपभन्न शपक्तयों के िलस्वरूि हैं । वे ही िरम िूणत हैं ।
भगवद्गीता में यह भी बताया गया है पक पनपवतशेर् ब्रह्म भी िूणत िरम िुरुर् के अधीन है (ब्रह्मणो पह प्रपतिाहम्) ।
ब्रह्मसूत्र में ब्रह्म की पवशद व्याख्या, सूयत की पकरणों के रूि में की गई है । पनपवतशेर् ब्रह्म भगवान् का प्रभामय
पकरणसमहू है । पनपवतशेर् ब्रह्म िूणत ब्रह्म की अिणू त अनुभपू त है और इसी तरह िरमात्मा की धारणा भी है । िन्द्रहवें
अध्याय में यह देखेंगे पक भगवान् िुरुर्ोत्तम इन दोनों पनपवतशेर् ब्रह्म तथा िरमात्मा की आंपशक अनुभपू त से बढक़र हैं ।
भगवान् को सपच्चदानन्द पवग्रह कहा जाता है । ब्रह्मसपं हता का शभु ारम्भ इस प्रकार से होता है—ईश्वर: िरम: कृ ष्ण:
सपच्चदानन्द पवग्रह: । अनापदरापदगोपवन्द: सवतकारणकारणम् । गोपवन्द या कृ ष्ण सभी कारणों के कारण हैं । वे ही आपद
कारण हैं और सत्, पचत् तथा आनन्द के रूि हैं । पनपवतशेर् ब्रह्म उनके सत् (शाश्वत) स्वरूि की अनुभपू त है, िरमात्मा

१३
सत्-पचत् (शाश्वत-ज्ञान) की अनुभपू त है । िरन्तु भगवान् कृ ष्ण समस्त पदव्य स्वरूिों की अनुभपू त हैं—सत्-पचत्-
आनन्द, की अनुभपू त िूणत पवग्रह मे है ।
अल्िज्ञानी लोग िरम सत्य को पनपवतशेर् मानते हैं, लेपकन वे हैं पदव्य िुरुर् और इसकी िुपष्ट समस्त वैपदक ग्रंथों
में हुई है । पनत्यो पनत्यानां चेतनिेतनानाम् (कठोिपनर्द् २.२.१३) । पजस प्रकार हम सभी जीव हैं और हम सबकी
अिनी-अिनी व्यपष्ट सत्ता है, उसी प्रकार िरम सत्य भी अन्तत: एक व्यपक्त हैं और भगवान् की अनुभपू त उनके िूणत
स्वरूि में समस्त पदव्य लक्षणों की ही अनुभपू त है । िरम िूणत रूिपवहीन (पनराकार) नहीं है । यपद वह पनराकार है, या
पकसी अन्य वस्तु से घट कर है, तो वह सवतथा िणू त नहीं हो सकता । जो सवतथा िणू त है, उसे हमारे पलए अनभु वगम्य तथा
अनुभवातीत हर वस्तुओ ं से युक्त होना चापहए, अन्यथा वह िूणत नहीं हो सकता ।
िणू त भगवान् में अिार शपक्तयाूँ है (िरास्य शपक्तपवतपवधैव श्रयू ते) । कृ ष्ण पकस प्रकार अिनी पवपभन्न शपक्तयों
द्वारा कायतशील हैं, इसकी भी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । यह दृश्य-जगत, या भौपतक जगत पजसमें हम रह रहें हैं, यह
भी स्वयं में िूणत है, क्योंपक पजन चौबीस तत्त्वों से यह नश्वर ब्रह्माण्ड पनपमतत है, वे साख्ं य दशतन के अनुसार इस ब्रह्माण्ड
के िालन तथा धारण के पलए अिेपक्षत संसाधनों से िूणततया समपन्वत हैं । इसमें न तो कोई पवजातीय तत्त्व है, न ही
पकसी की आवश्यकता है । इस सृपष्ट का अिना पनजी पनयत-काल है, पजसका पनधातरण िरमेश्वर की शपक्त द्वारा हुआ है,
और जब यह काल िूणत हो जाता है, तो उस िूणत की िूणत व्यवस्था से इस क्षणभंगुर सृपष्ट का पवनाश हो जाता है । लघु
िूणत इकाई, जीवात्माओ ं के पलए इसकी िूणत सुपवधा प्राप्त है पक िूणत की प्रतीपत करें । सभी प्रकार की अिूणतताओ ं का
अनुभव िूणत पवर्य के बारे में ज्ञान की अिूणतता के कारण है । इस प्रकार भगवद्गीता में वैपदक पवद्या का िूणत ज्ञान िाया
जाता है ।
सारा वैपदक ज्ञान अमोघ (अच्युत) है, और पहन्दू इस ज्ञान को िूणत तथा अमोघ मानते हैं । उदाहरणाथत, गोबर
िशमु ल है और स्मृपत या वैपदक आदेश के अनुसार यपद कोई िशमु ल का स्िशत करता है, तो उसे शद्ध ु होने के पलए
स्नान करना िडता है । लेपकन वैपदक शास्त्रों में गोबर को िपवत्र करनेवाला माना गया है । इसे पवरोधाभास कहा जा
सकता है, लेपकन यह मान्य है क्योंपक यह वैपदक आदेश है और इसमें सन्देह नहीं पक इसे स्वीकार करने िर पकसी
प्रकार की त्रपु ट नहीं होगी । अब तो आधपु नक पवज्ञान द्वारा यह पसद्ध पकया जा चक ु ा है पक गाय के गोबर में समस्त
कीटाणनु ाशक गुण िाये जाते हैं । अतएव वैपदक ज्ञान िूणत है, क्योंपक यह समस्त संशयों एवं त्रुपटयों से िरे है, और
भगवद्गीता समस्त वैपदक ज्ञान का सार है ।
वैपदक ज्ञान शोध का पवर्य नहीं है । हमारा शोधकायत अिूणत है, क्योंपक हम अिूणत इपन्द्रयों के द्वारा शोध करते
हैं । हमें िूणत ज्ञान को स्वीकार करना होगा जो, जैसापक भगवद्गीता में बताया गया है, िरम्िरा द्वारा हम तक िहुचूँ ता है ।
हमें ज्ञान को िरम्िरा के उियुक्त स्रोत से, ग्रहण करना होता है जो िरम्िरा िरम आध्यापत्मक गुरु साक्षात भगवान् से
प्रारम्भ होती है, और गुरु-पशष्यों की यह िरम्िरा आगे बढती जाती है । छात्र के रूि में अजुतन भगवान् कृ ष्ण से पशक्षा
ग्रहण करता है, और उनका पवरोध पकये पबना वह कृ ष्ण की सारी बातें स्वीकार कर लेता है । पकसी को भगवद्गीता के
एक अंश को स्वीकार करने और दसू रे अंश को अस्वीकार करने की अनुमपत नहीं दी जाती । हमें भगवद्गीता को पबना
पकसी प्रकार की टीका पटप्िणी, पबना घटाए-बढाए तथा पवर्य-वस्तु में पबना पकसी मनोकल्िना के स्वीकार करना
चापहए । गीता को वैपदक ज्ञान की सवातपधक िूणत प्रस्तुपत समझना चापहए । वैपदक ज्ञान पदव्य स्रोतों से प्राप्त होता है,
और स्वयं भगवान् ने िहला प्रवचन पकया था । भगवान् द्वारा कहे गये शब्द अिौरुर्ेय कहलाते हैं, पजसका अथत है पक
वे चार दोर्ों से युक्त संसारी व्यपक्त द्वारा कहे गये शब्दों से पभन्न होते हैं । संसारी िुरुर् के दोर् हैं—(१) वह त्रुपटयाूँ
अवश्य करता है, (२) वह अपनवायत रूि से मोहग्रस्त होता है, (३) उसमें अन्यों को धोखा देने की प्रवृपत्त होती है, तथा

१४
(४) वह अिूणत इपन्द्रयों के कारण सीपमत होता है । इन चार दोर्ों के कारण मनुष्य सवतव्यािी ज्ञान पवर्यक िूणत सूचना
नहीं दे िाता ।
ऐसे दोर्िूणत व्यपक्तयों द्वारा वैपदक ज्ञान प्रदान नहीं पकया जाता । इसे िहले-िहल प्रथम सृष्ट जीव, ब्रह्मा के हृदय
में प्रदान पकया गया, पिर ब्रह्मा ने इस ज्ञान को अिने िुत्रों तथा पशष्यों को उसी रूि में प्रदान पकया पजस रूि में उन्हें
भगवान् से प्राप्त हुआ था । भगवान् िूणत हैं और उनका प्रकृ पत के पनयमों के वशीभतू होने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
अतएव मनुष्य में यह समझने पजतनी बुपद्ध तो होनी ही चापहए पक भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड की सारी वस्तुओ ं के
एकमात्र स्वामी हैं, वे ही आपद स्रष्टा तथा ब्रह्मा के भी सृजनकतात हैं । ग्यारहवें अध्याय में भगवान् को प्रपितामह के रूि
में सम्बोपधत पकया गया है, क्योंपक ब्रह्मा को पितामह कहकर सम्बोपधत पकया गया है, और वे तो इन पितामह के भी
स्रष्टा हैं । अतएव पकसी को अिने-आिको पकसी भी वस्तु का स्वामी होने का दावा नहीं करना चापहए, उसे के वल
उन्हीं वस्तुओ ं को स्वीकार करना चापहए जो उसके िोर्ण के पलए भगवान् ने पहस्से में दी है ।
भगवान् द्वारा हमारे पहस्से में पलए रखी गई वस्तुओ ं को पकस तरह काम में लाया जाय, इसके अनेक उदाहरण
प्राप्त हैं । इसकी भी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । प्रारम्भ में अजुतन ने पनिय पकया था पक वह कुरुक्षेत्र के युद्ध में नहीं
लडेगा । यह उसका अिना पनणतय था । अजुतन ने भगवान् से कहा पक वह अिने ही सम्बपन्धयों को मार कर राज्य का
भोग नहीं करना चाहता । यह पनणतय शरीर िर आधाररत था, क्योंपक वह अिने-आिको शरीर मान रहा था और अिने
भाइयों, भतीजों, सालों, पितामहों आपद को अिने शारीररक सम्बन्ध या पवस्तार के रूि में ले रहा था । अतएव वह
अिनी शारीररक आवश्यकताओ ं को तुष्ट करना चाह रहा था । भगवान् ने भगवद्गीता का प्रवचन इस दृपष्टकोण को
बदलने के पलए ही पकया, और अन्त में अजुतन भगवान् के आदेशानुसार युद्ध करने का पनिय करते हुए कहता है ै
कररष्ये वचनं तव—मैं आिके वचन के अनुसार ही करूूँगा ।
इस संसार में मनुष्य पबपल्लयों तथा कुत्तों के समान लडऩे के पलए नहीं है । मनुष्यों को मनुष्य-जीवन की महत्ता
समझकर सामान्य िशओ ु ं की भाूँपत आचरण करना बन्द कर देना चापहए । मनष्ु य को अिने जीवन के उद्देश्य को
समझना चापहए, और इसका पनदेश सभी वैपदक ग्रंथों में पदया गया है, पजसका सार भगवद्गीता में पमलता है । वैपदक
ग्रथं मनष्ु यों के पलए हैं, िशओ ु ं के पलए नहीं । एक िशु दसू रे िशु का वध करे तो कोई िाि नहीं लगता, लेपकन यपद
मनुष्य अिनी अपनयपन्त्रत स्वादेपन्द्रय की तुपष्ट के पलए िशु वध करता है, तो वह प्रकृ पत के पनयम को तोडऩे के पलए
उत्तरदायी है । भगवद्गीता में स्िष्ट रूि से प्रकृ पत के गुणों के अनुसार तीन प्रकार के कमों का उल्लेख है—सापत्त्वक कमत,
राजपसक कमत तथा तामपसक कमत । इसी प्रकार आहार के भी तीन भेद हैं—सापत्त्वक आहार, राजपसक आहार तथा
तामपसक आहार । इन सबका पवशद वणतन हुआ है, और यपद हम भगवद्गीता के उिदेशों का ठीक से उियोग करें तो
हमारा सम्िूणत जीवन शद्ध ु हो जाए, और अन्तत: हम अिने गन्तव्य को प्राप्त कर सकें गे, जो इस भौपतक आकाश से िरे
है । (यद्गत्वा न पनवततन्ते तद्धाम िरमं मम) ।
वह गन्तव्य स्थाथान सनातन आकाश या पनत्य पचन्मय आकाश कहलाता है । इस संसार में हम िाते हैं पक
प्रत्येक िदाथत क्षपणक है । यह उत्िन्न होता है, कुछ काल तक रहता है, कुछ गौण वस्तुएूँ उत्िन्न करता है, क्षीण होता है
और अन्त में लप्तु हो जाता है । भौपतक ससं ार का यही पनयम है, चाहे हम इस शरीर का दृष्टान्त लें, या िल का या
पकसी अन्य वस्तु का । पकन्तु इस क्षपणक संसार से िरे एक अन्य संसार है, पजसके पवर्य में हमें जानकारी है । उस
ससं ार में अन्य प्रकृ पत है, जो सनातन है । जीव को भी सनातन बताया गया है और ग्यारहवें अध्याय में भगवान् को भी
सनातन बताया गया है । हमारा भगवान् के साथ घपनि सम्बन्ध है, और चूँपू क हम सभी गुणात्मक रूि से एक हैं—
सनातन-धाम, सनातन भगवान् तथा सनातन-जीव—अतएव गीता का सारा अपभप्राय हमारे सनातन-धमत को जागृत

१५
करना है, जो पक जीव की शाश्वत वृपत्त है । हम अस्थायी रूि से पवपभन्न कमों में लगे रहते हैं, पकन्तु यपद हम इन
क्षपणक कमों को त्याग कर िरमेश्वर द्वारा प्रस्तापवत कमों को ग्रहण कर लें, तो हमारे ये सारे कमत शुद्ध हो जाूँए । यही
हमारा शद्ध ु जीवन कहलाता है ।
िरमेश्वर तथा उनका पदव्य धाम, ये दोनों ही सनातन हैं और जीव भी सनातन हैं । सनातन धाम में िरमेश्वर तथा
जीव की संयुक्त संगपत ही मानव जीवन की साथतकता है । भगवान् जीवों िर अत्यन्त दयालु रहते हैं, क्योंपक वे उनके
आत्मज हैं । भगवान् कृ ष्ण ने भगवद्गीता में घोपर्त पकया है सवतयोपनर्.ु .. अहं बीजप्रद: पिता—मैं सबका पिता हूँ ।
पनस्सन्देह अिने-अिने कमों के अनसु ार नाना प्रकार के जीव हैं, लेपकन यहाूँ िर कृ ष्ण कहते हैं पक वे उन सबके पिता
हैं । अतएव भगवान् उन समस्त िपतत बद्धजीवों का उद्धार करने तथा उन्हें सनातन-धाम वािस बुलाने के पलए
अवतररत होते हैं, पजससे सनातन-जीव भगवान् की पनत्य सगं पत में रहकर अिनी सनातन पस्थपत को िुन: प्राप्त कर
सकें । भगवान् स्वयं नाना अवतारों के रूि में अवतररत होते हैं या पिर अिने पवश्वस्त सेवकों को अिने िुत्रों, िार्तदों या
आचायों के रूि में इन बद्धजीवों का उद्धार करने के पलए भेजते हैं ।
अतएव सनातन-धमत पकसी साम्प्रदापयक धमत िद्धपत का सूचक नहीं है । यह तो शाश्वत िरमेश्वर के साथ शाश्वत
जीवों के शाश्वत कमत का सूचक है । जैसापक िहले कहा जा चक ु ा है, यह जीव के शाश्वत धमत (वृपत्त) को बताता है ।
श्रीिाद रामानुजाचायत ने सनातन शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है, वह, पजसका न आपद है और न अन्त अतएव जब
हम सनातन-धमत के पवर्य में बातें करते हैं तो हमें श्रीिाद रामानुजाचायत के प्रमाण के आधार िर यह मान लेना चापहए
पक इसका न आपद है न अन्त ।
अंग्रेजी का ररलीजन शब्द सनातन-धमत से थोडा पभन्न है । ररलीजन से पवश्वास का भाव सूपचत होता है, और
पवश्वास िररवपततत हो सकता है । पकसी को एक पवशेर् पवपध में पवश्वास हो सकता है और वह इस पवश्वास को बदल कर
दसू रा अिना सकता है, लेपकन सनातन-धमत उस कमत का सूचक है जो बदला नहीं जा सकता । उदाहरणाथत, न तो जल
से उसकी तरलता पवलग की जा सकती है, न अपग्न से उष्मा पवलग की जा सकती है, ठीक इसी प्रकार जीव से उसके
पनत्य कमत को पवलग नहीं पकया जा सकता । सनातन-धमत जीव का शाश्वत अंग है । अतएव जब हम सनातन-धमत के
पवर्य में बात करते हैं तो हमें श्रीिाद रामानजु ाचायत के प्रमाण को मानना चापहए पक उसका न तो आपद है न अन्त ।
पजसका आपद व अन्त न हो वह साम्प्रदापयक नहीं हो सकता क्योंपक उसे पकसी सीमा में नहीं बाूँधा जा सकता ।
पजनका सम्बन्ध पकसी सम्प्रदाय से होगा वे सनातन-धमत को भी साम्प्रदापयक मानने की भल ू करें गे, पकन्तु यपद हम इस
पवर्य िर गम्भीरता से पवचार करें और आधपु नक पवज्ञान के प्रकाश में सोचें तो हम सहज ही देख सकते है पक सनातन
धमत पवश्व के समस्त लोगों का ही नहीं अपितु ब्रह्माण्ड के समस्त जीवों का है ।
भले ही असनातन धापमतक पवश्वास का मानव इपतहास के िृिों में कोई आपद हो, लेपकन सनातन-धमत के
इपतहास का कोई आपद नहीं होता, क्योंपक यह जीवों के साथ शाश्वत रहता है । जहाूँ तक जीवों का सम्बन्ध है,
प्रामापणक शास्त्रों का कथन है पक जीव का न तो जन्म होता है, न मृत्यु । गीता में कहा गया है पक जीव न तो कभी
जन्मता है, न कभी मरता है । वह शाश्वत तथा अपवनाशी है, और इस क्षणभंगुर शरीर के नष्ट होने के बाद भी रहता है ।
सनातन-धमत के स्वरूि के प्रसगं में हमें धमत की धारणा को सस्ं कृ त के मल ू शब्द के अथत से समझना होगा । धमत का
अथत है जो िदाथत पवशेर् में सदैव रहता है । हम यह पनष्कर्त पनकालते हैं पक अपग्न के साथ उष्मा तथा प्रकाश सदैव रहते
हैं, उष्मा व प्रकाश के पबना अपग्न शब्द का कोई अथत नहीं होता । इसी प्रकार हमें जीव के उस अपनवायत अगं को ढूूँढना
चापहए जो उसका पचर सहचर है । यह पचर सहचर उसका शाश्वत गुण है और यह शाश्वत गुण ही उसका पनत्य धमत है ।

१६
जब सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु से प्रत्येक जीव के स्वरूि के पवर्य में पजज्ञासा की तो भगवान् ने
उत्तर पदया पक जीव का स्वरूि या स्वाभापवक पस्थपत भगवान् की सेवा करना है । यपद हम चैतन्य महाप्रभु के इस
कथन का पवश्लेर्ण करें तो हम देखेंगे पक एक जीव दसू रे जीव की सेवा में पनरन्तर लगा हुआ है । एक जीव दसू रे जीव
की सेवा कई रूिों में करता है । ऐसा करके , जीव जीवन का भोग करता है । पनम्न िशु मनुष्यों की सेवा करते हैं जैसे
सेवक अिवे स्वामी की सेवा करते हैं । एक व्यपक्त (अ) अिने स्वामी (ब) की सेवा करता है, (ब) अिने स्वामी (स)
की, (स) अिने स्वामी (द) की और इसी तरह । इस प्रकार हम देखते हैं पक एक पमत्र दसू रे पमत्र की सेवा करता है, माता
ित्रु की सेवा करती है, ित्नी िपत की सेवा करती है, िपत ित्नी की सेवा करता है । यपद हम इसी भावना से खोज करते
चलें तो िाएूँगे पक समाज में ऐसा एक भी अिवाद नहीं है पजसमें कोई जीव सेवा में न लगा हो । एक राजनेता जनता के
समक्ष अिना घोर्णा-ित्र प्रस्ततु करता है तापक उनको उसकी सेवा करने की क्षमता के पवर्य में पवश्वास पदला सके ।
िलत: मतदाता उसे यह सोचते हुए अिना बहुमल्ू य मत देते हैं पक वह समाज की महत्त्विूणत सेवा करे गा । दक ु ानदार
अिने ग्राहक की सेवा करता है और कारीगर (पशल्िी) िूूँजीिपतयों की सेवा करते हैं । िूूँजीिपत अिने िररवार की सेवा
करता है और िररवार शाश्वत जीव की शाश्वत सेवा क्षमता से राज्य की सेवा करता है । इस प्रकार हम देख सकते हैं पक
कोई भी जीव अन्य जीव की सेवा करने से मक्त ु नहीं है । अतएव हम यह पनष्कर्त पनकाल सकते हैं पक सेवा जीव की
पचर सहचरी है और सेवा करना जीव का शाश्वत (सनातन) धमत है ।
तथापि मनुष्य काल तथा िररपस्थपत पवशेर् के प्रसंग में एक पवपशष्ट प्रकार की श्रद्धा को अंगीकार करता है, और
इस प्रकार वह अिने को पहन्द,ू मुसलमान, ईसाई, बौद्ध या पकसी अन्य सम्प्रदाय का मानने वाला बताता है । ये सभी
उिापधयाूँ सनातन-धमत नहीं हैं । एक पहन्दू अिनी श्रद्धा बदल कर मसु लमान बन सकता है, या एक मुसलमान अिनी
श्रद्धा बदल कर पहन्दू बन सकता है या कोई ईसाई अिनी श्रद्धा बदल सकता है, इत्यापद । पकन्तु इन सभी िररपस्थपतयों
में धापमतक श्रद्धा में िररवततन होने से अन्यों की सेवा करने का शाश्वत-धमत (वृपत्त) प्रभापवत नहीं होता । पहन्द,ू मसु लमान
या ईसाई समस्त िररपस्थपतयों में पकसी न पकसी के सेवक हैं । अतएव पकसी पवशेर् श्रद्धा को अगं ीकार करना अिने
सनातन-धमत को अंगीकार करना नहीं है । सेवा करना ही सनातन-धमत है ।
वस्ततु : भगवान् के साथ हमारा सम्बन्ध सेवा का सम्बन्ध है । िरमेश्वर िरम भोक्ता हैं और हम सारे जीव उनके
सेवक हैं । हम सब उनके भोग (सुख) के पलए उत्िन्न पकये गये हैं और यपद हम भगवान् के साथ उस पनत्य भोग में भाग
लेते हैं, तो हम सुखी बनते हैं । हम पकसी अन्य प्रकार से सुखी नहीं हो सकते । स्वतन्त्र रूि से सुखी बन िाना सम्भव
नहीं है, पजस प्रकार शरीर का कोई भी भाग उदर से सहयोग पकये पबना सुखी नहीं रह सकता । िरमेश्वर की पदव्य प्रेममय
सेवा पकये पबना जीव सुखी नहीं हो सकता ।
भगवद्गीता में पवपभन्न देवों की िूजा या सेवा करने का अनुमोदन नहीं पकया गया है । उसमें (७.२०) कहा गया
है :
कामैस्तैस्तैर्हषतज्ञाना: प्रपद्यन्तेऽन्यदेवता: ।
तं तं वनयममास्थाय प्रकृ ्या वनयता: स्वया ॥
पजनकी बपु द्ध भौपतक इच्छाओ ं द्वारा चरु ा ली गई है वे देवताओ ं की शरण में जाते हैं, और वे अिने-अिने
स्वभावों के अनुसार िूजा के पवशेर् पवपधपवधानों का िालन करते हैं । यहाूँ यह स्िष्ट कहा गया है पक जो वासना द्वारा
पनदेपशत होते हैं वे भगवान् कृ ष्ण की िूजा न करके देवताओ ं की िजू ा करते हैं । जब हम कृ ष्ण का नाम लेते हैं तो हम
पकसी साम्प्रदापयक नाम का उल्लेख नहीं करते । कृ ष्ण का अथत है सवोच्च आनन्द, और इसकी िुपष्ट हुई है पक िरमेश्वर
समस्त आनन्द के आगार हैं । हम सभी आनन्द की खोज में लगे हैं । आनन्दमयोऽभ्यासात् (वेदान्त-सूत्र १.१.१२) ।

१७
भगवान् की ही भाूँपत जीव चेतना से िूणत हैं, और सुख की खोज में रहते हैं । भगवान् तो हमेशा सुखी हैं, और यपद जीव
उनकी संगपत करते हैं, उनके साथ सहयोग करते हैं, तो वे भी सुखी बन जाते हैं ।
भगवान् इस मत्यत लोक में सुख से िूणत अिनी वृन्दावन लीलाएूँ प्रदपशतत करने के पलए अवतररत होते हैं । अिने
गोिपमत्रों के साथ, अिनी गोपिका-सपखयों के साथ, वृन्दावन के अन्य पनवापसयों के साथ तथा गायों के साथ उनकी
लीलाएूँ सुख से ओतप्रोत थी । वृन्दावन की सारी जनता कृ ष्ण के अपतररक्त अन्य पकसी को नहीं जानती थी । िरन्तु
भगवान् कृ ष्ण ने अिने पिता नन्द महाराज को भी इन्द्रदेव की िूजा करने से पनरुत्सापहत पकया क्योंपक वे इस तथ्य को
प्रपतपित करना चाहते थे पक लोगों को पकसी भी देवता की िजू ा करने की आवश्यकता नहीं है । उन्हें एकमात्र िरमेश्वर
की िूजा करनी चापहए क्योंपक उनका चरम-लक्ष्य उनके (भगवान् के ) धाम को वािस जाना है ।
भगवद्गीता में (१५.६) भगवान् श्रीकृ ष्ण के धाम का वणतन इस प्रकार हुआ है :
न तद्भासयते सूयो न शशांको न पावक: ।
यद्ग्वा न वनवतषन्ते तद्धाम पिमं मम ॥
मेरा िरम धाम न तो सूयत या चन्द्रमा द्वारा, न ही अपग्न या पबजली द्वारा प्रकापशत होता है । जो लोग वहाूँ िहुचूँ
जाते हैं वे इस भौपतक जगत में पिर कभी नहीं लौटते ।
यह श्लोक उस शाश्वत आकाश (िरम धाम) का वणतन प्रस्तुत करता है । पनस्सन्देह हमें आकाश की भौपतक
कल्िना है, और हम इसे सूयत, चन्द्र, तारे आपद के सम्बन्ध में सोचते हैं । पकन्तु इस श्लोक में भगवान् बताते हैं पक
शाश्वत आकाश में सूय,त चन्द्र, अपग्न या पबजली पकसी की आवश्यकता नहीं है, क्योंपक वह िरमेश्वर से पनकलने वाली
ब्रह्मज्योपत द्वारा प्रकापशत है । हम अन्य लोकों तक िहुचूँ ने का कपठन प्रयास कर रहे हैं, लेपकन िरमेश्वर के धाम को
जानना कपठन नहीं है । यह धाम गोलोक कहलाता है । ब्रह्मसंपहता में (५.३७) इसका अतीव सुन्दर वणतन पमलता है—
गोलोक एव वनवस्यवखला्मभतू : । भगवान् अिने धाम गोलोक में पनत्य वास करते हैं पिर भी इस संसार से उन तक
िहुचूँ ा जा सकता है और ऐसा करने के पलए वे अिने सपच्चदानन्द पवग्रह रूि को व्यक्त करते हैं जो उनका असली रूि
है । जब वे इस रूि को प्रकट करते हैं तब हमें इसकी कल्िना करने की आवश्यकता नहीं रह जाती पक उनका रूि कै सा
है । ऐसे काल्िपनक पचन्तन को पनरुत्सापहत करने के पलए ही वे अवतार लेते हैं, और अिने श्यामसन्ु दर स्वरूि को
प्रदपशतत करते हैं । दभु ातग्यवश अल्िज्ञ लोग उनकी हूँसी उडाते हैं क्योंपक वे हमारे जैसे बन कर आते हैं और हमारे साथ
मनुष्य रूि में खेलते कूदते हैं । लेपकन इस कारण हमें यह नहीं सोचना चापहए पक वे हमारी तरह हैं । वे अिनी
सवतशपक्तमत्ता के कारण ही अिने वास्तपवक रूि में हमारे समक्ष प्रकट होते हैं, और अिनी लीलाओ ं का प्रदशतन करते
हैं, जो उनके धाम में होने वाली लीलाओ ं की अनुकृपतयाूँ (प्रपतरूि) होती हैं ।
आध्यापत्मक आकाश की तेजोमय पकरणों (ब्रह्मज्योपत) में असंख्य लोक तैर रहे हैं । यह ब्रह्मज्योपत िरम धाम
कृ ष्णलोक से उद्भूत होती है और आनन्दमय तथा पचन्मय लोक, जो भौपतक नहीं हैं, इसी ज्योपत में तैरते रहते हैं ।
भगवान् कहते हैं—न तद्भासयते सूयो न शशांको न पावक: । यद्ग्वा न वनवतषन्ते तद्धाम पिमं मम । जो इस आध्यापत्मक
आकाश तक िहुचूँ जाता है उसे इस भौपतक आकाश में लौटने की आवश्यकता नहीं रह जाती । भौपतक आकाश में
यपद हम सवोच्च लोक (ब्रह्मलोक) को भी प्राप्त कर लें, चन्द्रलोक का तो कहना ही क्या, तो वहाूँ भी वही जीवन की
िररपस्थपतयाूँ—जन्म, मृत्यु, व्यापध तथा जरा—होंगी । भौपतक ब्रह्माण्ड का कोई भी लोक संसार के इन चार पनयमों से
मक्त
ु नहीं है ।
सारे जीव एक लोक से दसू रे लोक में पवचरण कर रहे हैं, पकन्तु ऐसा नहीं है पक हम यापन्त्रक व्यवस्था करके
पजस लोक में जाना चाहें वहाूँ चले जाूँय । यपद हम पकसी अन्य लोक में जाना चाहते हैं तो उसकी पवपध होती है ।

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इसका भी उल्लेख हुआ है—यापन्त देवव्रता देवान् पितृन् यापन्त पितृव्रता: । यपद हम एक लोक से दसू रे लोक में
पवचरण करना चाहते हैं तो उसके पलए पकसी यांपत्रक व्यवस्था की आवश्यकता नहीं है । गीता का उिदेश है—यापन्त
देवव्रता देवान् । चन्द्र, सूयत तथा उच्चतर लोक स्वगतलोक कहलाते हैं । लोकों की तीन पवपभन्न पस्थपतयाूँ हैं—उच्चतर,
मध्य तथा पनम्न लोक । िृथ्वी मध्य लोक में आती है । भगवद्गीता बताती है पक पकस प्रकार अपत सरल सूत्र—यावन्त
देवव्रता देवान्—द्वारा उच्चतर लोकों यानी देवलोकों तक जाया जा सकता है । मनुष्य को के वल उस लोक के पवशेर्
देवता की िूजा करने की आवश्यकता है और इस तरह चन्द्रमा, सूयत या अन्य पकसी भी उच्चतर लोक को जाया जा
सकता है ।
पिर भी भगवद्गीता हमें इस भौपतक ब्रह्माण्ड के पकसी लोक में जाने की सलाह नहीं देती क्योंपक चाहे हम पकसी
यापन्त्रक युपक्त से चालीस हजार वर्ों (और कौन इतने समय तक जीपवत रहेगा?) तक यात्रा करके सवोच्च लोक,
ब्रह्मलोक, क्यों न चले जाूँय, पकन्तु पिर भी वहाूँ हमें जन्म, मृत्यु, जरा तथा व्यापध जैसी भौपतक असुपवधाओ ं से मपु क्त
नहीं पमल सके गी । लेपकन जो िरम लोक, कृ ष्णलोक, या आध्यापत्मक आकाश के पकसी भी अन्य लोक में िहुचूँ ना
चाहता है, उसे वहाूँ ये असुपवधाएूँ नहीं होंगी । आध्यापत्मक आकाश में पजतने भी लोक हैं, उनमें गोलोक वृन्दावन
नामक लोक सवतश्रेि है, जो भगवान् श्रीकृ ष्ण का आपद धाम है । यह सारी जानकारी भगवद्गीता में दी हुई है, और इसमें
उिदेश पदया गया है पक पकस प्रकार हम इस भौपतक जगत को छोडें और आध्यापत्मक आकाश में वास्तपवक
आनन्दमय जीवन की शरुु आत कर सकते हैं ।
भगवद्गीता के िन्द्रहवें अध्याय में भौपतक जगत का वास्तपवक पचत्रण हुआ है । कहा गया है :
ऊर्धवषमल ू मध:शाखमश्व्थं प्राहुिव्ययम् ।
छन्दांवस यस्य पर्ाषवन यस्तं वेद स वेदववत् ॥
यहाूँ िर भौपतक जगत का वणतन उस वृक्ष के रूि में हुआ है पजसकी जडें ऊध्वतमख ु ी (ऊिर की ओर) हैं और
शाखाएूँ अधोमख ु ी (नीचे की ओर) हैं । हमें ऐसे वृ
क्ष का अन भ
ु व है, पजसकी जडें ऊध्वत म ख
ु ी हों : यपद कोई नदी या
जलाशय के पकनारे खडा होकर जल में वृक्षों का प्रपतपबम्ब देखे तो उसे सारे वृक्ष उल्टे पदखेंगे । शाखाएूँ नीचे की ओर
और जडें ऊिर की ओर पदखेंगी । इसी प्रकार यह भौपतक जगत भी आध्यापत्मक जगत का प्रपतपबम्ब है । यह भौपतक
जगत वास्तपवकता का प्रपतपबम्ब (छाया) मात्र है । छाया में कोई वास्तपवकता या सार नहीं होता, लेपकन छाया से हम
यह समझ लेते हैं पक वस्तु तथा वास्तपवकता हैं । यद्यपि मरुस्थल में जल नहीं होता, लेपकन मृग- मरीपचका बताती है
पक जल जैसी वस्तु होती है । भौपतक जगत में न तो जल है, न सुख है, लेपकन आध्यापत्मक जगत में वास्तपवक सुख-
रूिी असली जल है ।
भगवद्गीता में (१५.५) भगवान् ने सुझाव पदया है पक हम पनम्नपलपखत प्रकार से आध्यापत्मक जगत की प्रापप्त
करें :
वनमाषनमोहा वजतसङ् गदोर्ा अर्धया्मवन्या वववनवृत्तकामा: ।
द्वन्द्वैववषमक्त
ु ा: सुखद:ु खसंज्ञैगषच्छन््यमढू ा: पदमव्ययं तत् ॥
िदमव्ययं अथातत् सनातन राज्य (धाम) को वही प्राप्त होता है जो पनमातन-मोहा है । इसका अथत क्या हुआ? हम
उिापधयों के िीछे िडे रहते हैं । कोई महाशय बनना चाहता है, कोई प्रभु बनना चाहता है, तो कोई राष्रिपत या धनवान
या राजा या कुछ और बनना चाहता है । िरन्तु जब तक हम इन उिापधयों से पचिके रहते हैं तब तक हम शरीर के प्रपत
आसक्त बने रहते हैं, क्योंपक ये उिापधयाूँ शरीर से सम्बपन्धत होती हैं । लेपकन हम शरीर नहीं हैं, और इसकी अनुभपू त
होना ही आध्यापत्मक अनुभपू त की प्रथम अवस्था है । हम प्रकृ पत के तीन गुणों से जुडे हुए हैं, पकन्तु भगवान् की

१९
भपक्तमय सेवा द्वारा हमें इनसे छूटना होगा । यपद हम भगवान् की भपक्तमय सेवा के प्रपत आसक्त नहीं होते तो प्रकृ पत के
गुणों से छूट िाना दष्ु कर है । उिापधयाूँ तथा आसपक्तयाूँ हमारी कामवासना-इच्छा तथा प्रकृ पत िर प्रभत्ु व जताने की
चाह के कारण हैं । जब तक हम प्रकृ पत िर प्रभत्ु व जताने की प्रवृपत्त को नहीं त्यागते तब तक भगवान् के धाम, सनातन-
धाम, को वािस जाने की कोई सम्भावना नहीं है । उस शाश्वत अपवनाशी-धाम को वही प्राप्त होता है जो झठू े भौपतक
भोगों के आकर्तणों द्वारा मोहग्रस्त नहीं होता, जो भगवान की सेवा में पस्थत रहता है । ऐसा व्यपक्त सहज ही िरम धाम
को प्राप्त होता है ।
गीता में (८.२१) अन्यत्र कहा गया है :
अव्यक्तोऽक्षि इ्युक्तस्तमाहु: पिमां गवतम् ।
यं प्राप्य न वनवतषन्ते तद्धाम पिमं मम ॥
अव्यक्त का अथत है अप्रकट । हमारे समक्ष सारा भौपतक जगत तक प्रकट नहीं है । हमारी इपन्द्रयाूँ इतनी अिूणत हैं
पक हम इस ब्रह्माण्ड में सारे नक्षत्रों को भी नहीं देख िाते । वैपदक सापहत्य से हमें सभी लोकों के पवर्य में प्रचरु
जानकारी प्राप्त होती है । उस िर पवश्वास करना या न करना हमारे ऊिर पनभतर करता है । वैपदक ग्रंथों में, पवशेर्तया
श्रीमद्भागवतम् में, सभी महत्त्विूणत लोकों का वणतन है । इस भौपतक आकाश से िरे आध्यापत्मक जगत है जो अव्यक्त
या अप्रकट कहलाता है । व्यपक्त को भगवद्धाम की ही कामना तथा लालसा करनी चापहए, क्योंपक जब उसको वह
धाम की प्रापप्त हो जाती है, तब उसको वहाूँ से पिर इस जगत में लौटना नहीं िडता ।
इसके बाद प्रश्न िूछा जा सकता है पक उस भगवद्धाम तक कै से िहुचूँ ा जाता है? इसकी सूचना भगवद्गीता के
आठवें अध्याय में (८.५) इस तरह दी गई है :
अन्तकाले च मामेव स्मिन्मक्तु ्वा कलेविम् ।
य: प्रयावत स मद्भावं यावत नास््यत्र संशय: ॥
अन्त काल में जो कोई मेरा स्मरण करते हुए शरीर त्याग करता है वह तरु न्त मेरे स्वभाव को प्राप्त होता है, इसमें
रंचमात्र भी सन्देह नहीं है । जो व्यपक्त मृत्यु के समय कृ ष्ण का पचन्तन करता है, वह कृ ष्ण को प्राप्त होता है । मनुष्य को
चापहए पक वह कृ ष्ण के स्वरूि का स्मरण करे ; और यपद इस रूि का पचन्तन करते हुए वह मर जाता है, तो वह पनपित
ही भगवद्धाम को प्राप्त होता है । मद्भावम् शब्द िरम िुरुर् के िरम स्वभाव का सूचक है । िरम िुरुर् सपच्चदानन्दपवग्रह
हैं—
अथातत् उनका स्वरूि शाश्वत, ज्ञान तथा आनन्द से िूणत है । हमारा यह शरीर सपच्चदानन्द नहीं है, यह सत् नहीं
अपितु असत् है । यह शाश्वत नहीं अपितु नाशवान है, यह पचत् नहीं है अथातत् ज्ञान से िूणत नहीं, अपितु अज्ञान से िूणत
है । हमें भगवद्धाम का कोई ज्ञान नहीं है, यहाूँ तक पक हमें इस भौपतक जगत तक का िूणत ज्ञान नहीं है, जहाूँ ऐसी अनेक
वस्तुएूँ हैं जो हमें ज्ञात नहीं हैं । यह शरीर पनरानन्द है, आनन्द से ओतप्रोत न होकर दख ु से िूणत है । इस संसार में पजतने
भी दख ु ों का हमें अनुभव होता है, वे शरीर से उत्िन्न हैं, पकन्तु जो व्यपक्त भगवान् कृ ष्ण का पचन्तन करते हुए इस शरीर
को त्यागता है, वह तुरन्त ही सपच्चदानन्द शरीर प्राप्त करता है ।
इस शरीर को त्याग कर इस भौपतक जगत में दसू रा शरीर धारण करना भी सव्ु यवपस्थत है । मनष्ु य तभी मरता है
जब यह पनपित हो जाता है पक अगले जीवन में उसे पकस प्रकार का शरीर प्राप्त होगा । इसका पनणतय उच्च अपधकारी
करते हैं, स्वयं जीव नहीं करता । इस जीवन में अिने कमों के अनसु ार हम उन्नपत या अवनपत करते हैं । यह जीवन
अगले जीवन की तैयारी के पलए है । अतएव यपद हम इस जीवन में भगवद्धाम िहुूँचने की तैयारी कर लेते हैं, तो पनपित
ही इस शरीर को त्यागने के बाद हम भगवान् के ही सदृश आध्यापत्मक शरीर प्राप्त करते हैं ।

२०
जैसापक िहले कहा जा चक ु ा है, अध्यात्मवापदयों के कई प्रकार हैं—ब्रह्मवादी, िरमात्मावादी तथा भक्त, और
जैसापक उल्लेख हो चक ु ा है ब्रह्मज्योपत (आध्यापत्मक आकाश) में असंख्य आध्यापत्मक लोक हैं । इन लोकों की
संख्या भौपतक जगत के लोकों की संख्या से कहीं अपधक बडी है । यह भौपतक जगत संिूणत सृपष्ट का के वल चतुथाांश है
(एकांशेन पस्थतो जगत) । इस भौपतक खण्ड में लाखों करोडों ब्रह्माण्ड हैं, पजनमें अरबों ग्रह, सूयत, तारे तथा चन्द्रमा हैं ।
पकन्तु यह सारी भौपतक सृपष्ट सम्िूणत सृपष्ट का एक खण्ड मात्र है । अपधकांश सृपष्ट तो आध्यापत्मक आकाश में है । जो
व्यपक्त िरब्रह्म में पवलीन होना चाहता है वह तुरन्त ही िरमेश्वर की ब्रह्मज्योपत में भेज पदया जाता है, और इस तरह वह
आध्यापत्मक आकाश को प्राप्त होता है । जो भक्त भगवान् के सापन्नध्य का आनन्द लेना चाहता है वह वैकुण्ठ लोकों में
प्रवेश करता है, पजनकी संख्या अनपगनत है, जहाूँ िर िरमेश्वर अिने पवपभन्न िूणत अंशों, यथा चतुभतजु नारायण के रूि
में पवपभन्न नामों, जैसे प्रद्यम्ु न, अपनरुद्ध तथा गोपवन्द के रूि में, भक्तों के साथ-साथ रहते हैं । अतएव जीवन के अन्त में
अध्यात्मवादी या तो ब्रह्मज्योपत का, या िरमात्मा का या भगवान् श्रीकृ ष्ण का पचन्तन करते हैं । प्रत्येक दशा में वे
आध्यापत्मक आकाश में प्रपवष्ट होते हैं, लेपकन के वल भक्त या िरमेश्वर से सम्बपन्धत रहने वाला ही वैकुण्ठलोक में या
गोलोक वृन्दावन में प्रवेश करता है । भगवान् यह भी कहते हैं पक इसमें कोई सन्देह नहीं है । इस िर दृढ पवश्वास करना
चापहए । हमें चापहए पक जो हमारी कल्िना से मेल नहीं खाता, उसे ठुकराये नहीं । हमारी मनोवृपत्त अजुतन की सी होनी
चापहए: आिने जो कुछ कहा उस िर मैं पवश्वास करता हूँ । अतएव जब भगवान् यह कहते हैं पक मृत्यु के समय जो भी
ब्रह्म, िरमात्मा या भगवान् के रूि में उनका पचन्तन करता है वह पनपित रूि से आध्यापत्मक आकाश में प्रवेश करता
है, तो इसमें कोई सन्देह नहीं है । इस िर अपवश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता ।
भगवद्गीता में (८.६) उस सामान्य पसद्धान्त की भी व्याख्या है जो मृत्यु के समय सवोच्च का पचन्तन करने से
आध्यापत्मक धाम में प्रवेश करना सुगम बनाता है :
यं यं वावप स्मिन् भावं ्यज्यन्ते कलेविम् ।
तं तमेवैवत कौन्तेय सदा तद्भावभाववत: ॥
अिने इस शरीर को त्यागते समय मनुष्य पजस भाव का स्मरण करता है, वह अगले जन्म में उस भाव को पनपित
रूि से प्राप्त होता है । अब सवतप्रथम हमें यह समझना चापहए पक भौपतक प्रकृ पत िरमेश्वर की एक शपक्त का प्रदशतन है ।
पवष्णु िुराण में (६.७.६१) भगवान् की समग्र शपक्तयों का वणतन हुआ है :
ववष्र्श ु वक्त: पिा प्रोक्ता क्षेत्रज्ञाख्या तथा पिा ।
अववद्याकमषसंज्ञान्या तृतीया शवक्तरिष्टते ।
िरमेश्वर की शपक्तयाूँ पवपवध तथा असंख्य हैं और वे हमारी बुपद्ध के िरे हैं, लेपकन बडे-बडे पवद्वान् मुपनयों या
मक्त
ु ात्माओ ं ने इन शपक्तयों का अध्ययन करके इन्हें तीन भागों में बाूँटा है । सारी शपक्तयाूँ पवष्ण-ु शपक्त हैं, अथातत् वे
भगवान् पवष्णु की पवपभन्न शपक्तयाूँ हैं । िहली शपक्त िरा या आध्यापत्मक है । जीव भी िरा शपक्त है जैसापक िहले कहा
जा चक ु ा है । अन्य शपक्तयाूँ या भौपतक शपक्तयाूँ तामसी हैं । मृत्यु के समय हम या तो इस संसार की अिरा शपक्त में रहते
हैं या पिर आध्यापत्मक जगत की शपक्त में चले जाते हैं ।
अतएव भगवद्गीता में (८.६) कहा गया है :
यं यं वावप स्मिन् भावं ्यज्यन्ते कलेविम् ।
तं तमेवैवत कौन्तेय सदा तद्भावभाववत: ॥
अिने इस शरीर को त्यागते समय मनुष्य पजस-पजस भाव का स्मरण करता है वह अगले जन्म में उस-उस भाव
को पनपित रूि से प्राप्त होता है ।

२१
जीवन में हम या तो भौपतक या आध्यापत्मक शपक्त के पवर्य में सोचने के आदी हैं । हम अिने पवचारों को
भौपतक शपक्त से आध्यापत्मक शपक्त में पकस प्रकार ले जा सकते हैं? ऐसे बहुत से सापहत्य हैं—यथा समाचारित्र,
िपत्रकाएूँ, उिन्यास आपद, जो हमारे पवचारों को भौपतक शपक्त से भर देते हैं । इस समय हमें ऐसे सापहत्य में लगे अिने
पचन्तन को वैपदक सापहत्य की ओर मोडऩा है । अतएव महपर्तयों ने अनेक वैपदक ग्रंथ पलखे हैं, यथा िुराण । ये िुराण
काल्िपनक नहीं हैं, अपितु ऐपतहापसक लेख हैं । चैतन्य-चररतामृत में (मध्य २०.१२२) पनम्नपलपखत कथन है :
मायामुग्ध जीवेि नावह स्वत: कृ ष्र्ज्ञान ।
जीवेिे कृ पाय कै ला कृ ष्र् वेद-पिु ार् ॥
भलु क्कड जीवों या बद्धजीवों ने िरमेश्वर के साथ अिने सम्बन्ध को भल ु ा पदया है और वे सब भौपतक कायों के
पवर्य में सोचने में मग्न रहते हैं । इनकी पचन्तन शपक्त को आध्यापत्मक आकाश की ओर मोडऩे के पलए ही
कृ ष्णद्वैिायन व्यास ने प्रचरु वैपदक सापहत्य प्रदान पकया है । सवतप्रथम उन्होंने वेद के चार पवभाग पकये, पिर उन्होंने
उनकी व्याख्या िुराणों में की, और अल्िज्ञों के पलए उन्होंने महाभारत की रचना की । महाभारत में ही भगवद्गीता दी हुई
है । तत्ििात् वैपदक सापहत्य का सार वेदान्त-सूत्र में पदया गया है और भावी िथ-प्रदशतन के पलए उन्होंने वेदान्त-सूत्र का
सहज भाष्य भी पदया जो श्रीमद्भागवतम् कहलाता है । हमें इन वैपदक ग्रंथों के अध्ययन में अिना पचत्त लगाना चापहए ।
पजस प्रकार भौपतकवादी लोग नाना प्रकार के समाचार ित्र, िपत्रकाएूँ तथा अन्य संसारी सापहत्य को िढऩे में ध्यान
लगाते हैं, उसी तरह हमें भी व्यासदेव द्वारा प्रदत्त सापहत्य के अध्ययन में ध्यान लगाना चापहए । इस प्रकार हम मृत्यु के
समय िरमेश्वर का स्मरण कर सकें गे । भगवान् द्वारा सुझाया गया यही एकमात्र उिाय है और वे इसके िल की गारंटी देते
हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है ।
तस्मात् सवेर्ु कालेर्ु मामनुस्मि युर्धय च ।
मय्यवपषतमनोबुवद्धमाषमेवैष्यस्यसंशय: ॥
इसपलए, हे अजतनु ! तमु कृ ष्ण के रूि में मेरा सदैव पचन्तन करो, और साथ ही अिने यद्ध ु कमत करते रहो । अिने
कमों को मझु े अपितत करके तथा अिने मन एवं बुपद्ध को मझु िर पस्थर करके तुम मझु े पनपित रूि से प्राप्त करोगे ।
(भगवद्गीता ८.७) ।
वे अजुतन से उसके कमत (वृपत्त, िेशा) को त्याग कर के वल अिना स्मरण करने के पलए नहीं कहते । भगवान् कभी
भी कोई अव्यावहाररक बात का िरामशत नहीं देते । इस जगत में शरीर के िालन हेतु मनुष्य को कमत करना होता है । कमत
के अनुसार मानव समाज चार वणो में पवभापजत है—ब्राह्मण, क्षपत्रय, वैश्य तथा शद्रू । ब्राह्मण अथवा बुपद्धमान वगत
एक प्रकार से कायत करता है, क्षपत्रय या प्रशासक वगत दसू री तरह से कायत करता है । इसी प्रकार वपणक वगत तथा श्रपमक
वगत भी अिने-अिने कततव्यों का िालन करते हैं । मानव समाज में चाहे कोई श्रपमक हो, वपणक हो, प्रशासक हो या पक
पकसान हो, या पिर चाहे वह सवोच्च वगत का तथा सापहपत्यक हो, वैज्ञापनक हो या धमतशास्त्रज्ञ हो, उसे अिने
जीवनयािन के पलए कायत करना होता है । अतएव भगवान् अजुतन से कहते हैं पक उसे अिनी वृपत्त का त्याग नहीं करना
है, अपितु वृपत्त में लगे रहकर कृ ष्ण का स्मरण करना चापहए (मामनुस्मर) । यपद वह जीवन-संघर्त करते हुए कृ ष्ण का
स्मरण करने का अभ्यास नहीं करता तो वह मृत्यु के समय कृ ष्ण को स्मरण नहीं कर सके गा । भगवान् चैतन्य भी यही
िरामशत देते हैं । उनका कथन है—कीतषनीय: सदा हरि:—मनुष्य को चापहए पक भगवान् के नामों का सदैव उच्चारण
करने का अभ्यास करे । भगवान् का नाम तथा भगवान् अपभन्न हैं । इसपलए अजतनु को भगवान् की पशक्षा पक मेरा
स्मरण करो तथा भगवान् चैतन्य का यह आदेश पक भगवान् कृ ष्ण के नामों का पनरन्तर कीततन करो एक ही हैं । इनमें
कोई अन्तर नहीं है, क्योंपक कृ ष्ण तथा कृ ष्ण के नाम में कोई अन्तर नहीं है । चरम दशा में नाम तथा नामी में कोई अन्तर

२२
नहीं होता । अतएव हमें अिनी पदनचयात को इस प्रकार ढालना होग पक हम सदैव भगवान् के नामों का जि करते हुए
चौबीसों घंटे उनका स्मरण करते रहें ।
यह पकस प्रकार सम्भव है? आचायों ने पनम्नपलपखत उदाहरण पदया है । यपद कोई पववापहता स्त्री िरिुरुर् में
आसक्त होती है, या कोई िुरुर् अिनी स्त्री को छोडक़र पकसी िराई स्त्री में आसक्त होता है, तो यह आसपक्त अत्यन्त
प्रबल होती है । ऐसी आसपक्त वाला हमेशा अिने प्रेमी के पवर्य में सोचता रहता है । जो स्त्री अिने प्रेमी के पवर्य में
सोचती रहती है वह अिने घरे लू कायत करते समय भी उसी से पमलने के पवर्य में सोचती रहती है । वास्तव में वह अिने
गृहकायत को इतनी अपधक सावधानी से करती है पक उसका िपत उसकी आसपक्त के पवर्य में सन्देह भी न कर सके ।
इसी प्रकार हमें िरम प्रेमी श्रीकृ ष्ण को सदैव स्मरण करना चापहए और साथ ही अिने भौपतक या सांसाररक कततव्यों को
सचु ारु रूि से करते रहना चापहए । इसके पलए प्रेम की प्रगाढ भावना चापहए । यपद हममें िरमेश्वर के पलए प्रगाढ प्रेम हो
तो हम अिना कमत करते हुए उनका स्मरण भी कर सकते हैं । लेपकन हमें उस प्रेमभाव को उत्िन्न करना होगा ।
उदाहरणाथत, अजुतन सदैव कृ ष्ण का पचन्तन करता था, वह कृ ष्ण का पनत्य सगं ी था और साथ ही योद्धा भी । कृ ष्ण ने
उसे युद्ध करना छोडक़र जंगल जाकर ध्यान करने की कभी सलाह नहीं दी । जब भगवान् कृ ष्ण अजुतन को योग िद्धपत
बताते हैं तो अजुतन कहता है पक इस िद्धपत का अभ्यास कर सकना उसके पलए सम्भव नहीं ।
अजुषन उवाच
योऽयं योगस््वया प्रोक्त: साम्येन मधसु ूदन ।
एतस्याहं न पश्यावम चञ्चल्वाव्स्थवतं वस्थिाम् ॥
अजुतन ने कहा: हे मधुसूदन! आिने पजस योग िद्धपत का संक्षेि में वणतन पकया है, वह मेरे पलए अव्यावहाररक
तथा असह्य प्रतीत होती है, क्योंपक मन अपस्थर तथा चंचल है । भगवद्गीता (६.३३) ।
लेपकन भगवान् कहते हैं :
योवगनामवप सवेर्ां मद्गतेनान्तिा्मना ।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥
सम्िणू त योपगयों में जो श्रद्धावान् योगी भपक्तयोग के द्वारा मेरी आज्ञा का िालन करता है, अिने अन्तर में मेरे बारे
में सोचता है, और मेरी पदव्य प्रेमभपक्तमय सेवा करता है, वह योग में मझु से िरम घपनितािूवतक युक्त होता है और सब में
श्रेि है । यही मेरा मत है । (भगवद्गीता ६.४७) अतएव जो सदैव िरमेश्वर का पचन्तन करता है, वह एक ही समय में सबसे
बडा योगी, सवोच्च ज्ञानी तथा महानतम भक्त है । अजुतन से भगवान् आगे कहते हैं पक क्षपत्रय होने के कारण वह युद्ध
का त्याग नहीं कर सकता, पकन्तु यपद वह कृ ष्ण का स्मरण करते हुए युद्ध करता है तो वह मृत्यु के समय कृ ष्ण का
स्मरण कर सके गा । िरन्तु इसके पलए मनुष्य को भगवान् की पदव्य प्रेमभपक्तमय सेवा में िूणततया समपितत होना होगा ।
वास्तव में हम अिने शरीर से नहीं, अपितु अिने मन तथा बुपद्ध से कमत करते हैं । अतएव यपद मन तथा बुपद्ध
सदैव िरमेश्वर के पवचार में मग्न रहें तो स्वाभापवक है पक इपन्द्रयाूँ भी उनकी सेवा में लगी रहेंगी । इपन्द्रयों के कायत कम
से कम बाहर से तो वे ही रहते हैं, लेपकन चेतना बदल जाती है । भगवद्गीता हमें पसखाती है पक पकस प्रकार मन तथा
बपु द्ध को भगवान् के पवचार में लीन रखा जाय । ऐसी तल्लीनता से मनष्ु य भगवद्धाम को जाता है । यपद मन कृ ष्ण की
सेवा में लग जाता है तो सारी इपन्द्रयाूँ स्वत: उनकी सेवा में लग जाती हैं । यह कला है, और यही भगवद्गीता का रहस्य
भी है पक श्रीकृ ष्ण के पवचार में िरू ी तरह मग्न रहा जाय ।

२३
आधपु नक मनुष्य ने चन्द्रमा तक िहुचूँ ने के पलए कठोर संघर्त पकया है, लेपकन उसने अिने आध्यापत्मक उत्थान
के पलए कपठन प्रयास नहीं पकया । यपद पकसी के जीवन के िचास वर्त और बाकी हैं, तो उसे चापहए पक उस थोडे से
समय को भगवान् का स्मरण करने के अभ्यास में लगाए । यह अभ्यास भपक्तयोग है (श्रीमद्भागवतम् ७.५.२३):
श्रवर्ं कीतषनं ववष्र्ो: स्मिर्ं पादसेवनम् ।
अचषनं वन्दनं दास्यं सख्यमा्मवनवेदनम् ॥
ये नौ पवपधयाूँ हैं पजनमें से श्रवण सबसे सुगम है, भगवद्गीता का पकसी स्वरूिपसद्ध व्यपक्त से श्रवण उस व्यपक्त
को भगवान् के पचन्तन की ओर मोड देगा । इससे िरमेश्वर का स्मरण होगा और शरीर छोडऩे िर आध्यापत्मक शरीर
प्राप्त होगा जो िरमेश्वर की संगपत के पलए उियुक्त है ।
भगवान् आगे भी कहते हैं :
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगावमना ।
पिमं पुरुर्ं वदव्यं यावत पाथाषनुवचन्तयन् ॥
हे अजुतन! जो व्यपक्त िथ िर पवचपलत हुए पबना अिने मन को पनरन्तर मेरा स्मरण करने में व्यस्त रखता है और
भगवान् के रूि में मेरा ध्यान करता है वह मझु को अवश्य प्राप्त होता है । (भगवदगीता ८.८)
यह कोई कपठन िद्धपत नहीं है, लेपकन इसे पकसी अनुभवी व्यपक्त से सीखना चापहए । तवद्वज्ञानाथं स
गुरुमेवावभगच्छे त— ् मनुष्य को चापहए पक जो िहले से अभ्यास कर रहा हो उसके िास जाये । मन सदैव इधर-उधर
भटकता रहता है, पकन्तु मनुष्य को चापहए पक मन को भगवान् श्रीकृ ष्ण के स्वरूि िर या उनके नामोच्चारण िर के पन्द्रत
करने का अभ्यास करे । मन स्वभावत: चंचल है, इधर-उधर जाता रहता है, लेपकन यह कृ ष्ण की ध्वपन िर पस्थर हो
सकता है । इस प्रकार मनुष्य को िरमं िुरुर्म् अथातत् पदव्यलोक में भगवान् का पचन्तन करना चापहए और उनको प्राप्त
करना चापहए । चरम अनुभपू त या चरम उिलपब्ध के साधन भगवद्गीता में बताये गये हैं, और इस ज्ञान के द्वार सबके
पलए खल ु े हैं । पकसी के पलए रोक टोक नहीं है । सभी श्रेणी के लोग भगवान् कृ ष्ण का पचन्तन करके उनके िास िहुचूँ
सकते हैं, क्योंपक उनका श्रवण तथा पचन्तन हर एक के पलए सम्भव है ।
भगवान् आगे भी कहते हैं (भगवद्गीता ९.३२-३३):
मां वह पाथष व्यपावश्र्य येऽवप स्यु: पापयोनय: ।
वियो वैश्यास्तथा शद्रू ास्तेऽवप यावन्त पिां गवतम् ॥
वकं पुनब्राषह्मर्ा: पुण्या भक्ता िाजर्षयस्तथा ।
अवन्यमसुखं लोकवममं प्राप्य भजस्व माम् ॥
इस तरह भगवान् कहते हैं पक वैश्य, िपतत स्त्री या श्रपमक अथवा अधमयोपन को प्राप्त मनुष्य भी िरम को िा
सकता है । उसे अत्यपधक पवकपसत बुपद्ध की आवश्यकता नहीं िडती । बात यह है पक जो कोई भपक्तयोग के पसद्धान्त
को स्वीकार करता है, और िरमेश्वर को जीवन के आश्रय तत्त्व, सवोच्च लक्ष्य या चरम लक्ष्य के रूि में स्वीकार करता
है, वह आध्यापत्मक आकाश में भगवान् तक िहुचूँ ा सकता है । यपद कोई भगवद्गीता में बताये गये पसद्धान्तों को ग्रहण
करता है, तो वह अिना जीवन िणू त बना सकता है और जीवन की सारी समस्याओ ं का स्थायी हल िाता है । यही िरू ी
भगवद्गीता का सार है ।
साराशं यह है पक भगवद्गीता पदव्य सापहत्य है पजसको ध्यानिवू तक िढऩा चापहए । गीता शास्त्रपमदं िण्ु यं य: िठे त्
प्रयत: िुमान्—यपद कोई भगवद्गीता के उिदेशों का िालन करे तो वह जीवन के दुखों तथा कष्टों से मक्त ु हो सकता है ।

२४
भय शोकापदवपजतत: । वह इस जीवन में सारे भय से मक्त ु हो जाएगा और उसका अगला जीवन आध्यापत्मक होगा
(गीतामाहात्म्य १) ।
एक अन्य लाभ भी होता है :
गीतार्धययनशीलस्य प्रार्ायामपिस्य च ।
नैव सवन्त वह पापावन पूवषजन्मकृ तावन च ॥
यपद कोई भगवद्गीता को पनिा तथा गम्भीरता के साथ िढता है तो भगवान् की कृ िा से उसके सारे िूवत दष्ु कमों के
िलों का उस िर कोई प्रभाव नहीं िडता (गीता माहात्म्य २) । भगवान् भगवद्गीता (१८.६६) के अपन्तम अश ं में जोर
देकर कहते हैं—:
सवषधमाषन्परि्यज्य मामेकं शिर्ं व्रज ।
अहं ्वां सवषपापेभ्यो मोक्षवयष्यावम मा शचु : ॥
सब धमों को त्याग कर एकमात्र मेरी ही शरण में आओ । मैं तुम्हें समस्त िािों से मक्त ु कर दूँगू ा । तुम डरो मत ।
इस प्रकार अिनी शरण में आये भक्त का िूरा उत्तरदापयत्व भगवान् अिने ऊिर ले लेते हैं और उसके समस्त िािों को
क्षमा कर देते हैं ।
मवलनेमोचनं पुंसां जलस्नानं वदने वदने ।
सकृ द्गीतामृतस्नानं संसािमलनाशनम् ॥
मनुष्य जल में स्नान करके पनत्य अिने को स्वच्छ कर सकता है, लेपकन यपद कोई भगवद्गीता -रूिी िपवत्र गंगा-
जल में एक बार भी स्नान कर ले तो वह भौपतक जीवन की मपलनता से सदा-सदा के पलए मक्त ु हो जाता है । (गीता
माहात्म्य ३) ।
गीता सुगीता कतषव्या वकमन्यै: शािववस्तिै : ।
या स्वयं पद्मनाभस्य मख ु पद्मावद्ववन:सृता ॥
चूँपू क भगवद्गीता भगवान् के मख ु से पनकली है, अतएव पकसी अन्य वैपदक सापहत्य को िढऩे की आवश्यकता
नहीं रहती । उसे के वल भगवद्गीता का ही ध्यानिवू तक तथा मनोयोग से श्रवण तथा िठन करना चापहए । वततमान यगु में
लोग सांसाररक कायों में इतने व्यस्त हैं पक उनके पलए समस्त वैपदक सापहत्य का अध्ययन कर िाना सम्भव नहीं है ।
िरन्तु इसकी आवश्यकता भी नहीं है । के वल एक िुस्तक , भगवद्गीता , ही ियातप्त है क्योंपक यह समस्त वैपदक ग्रंथों
का सार है और इसका प्रवचन भगवान् ने पकया है (गीता माहात्म्य ४) ।
जैसापक कहा गया है :
भाितामृतसवषस्वं ववष्र्वु क्तत्रावद्ववन:सृतम् ।
गीता-गङ् गोदकं पी्वा पुनजषन्म न ववद्यते ॥
जो गंगाजल िीता है वह मपु क्त प्राप्त करता है । अतएव उसके पलए क्या कहा जाय जो भगवद्गीता का अमृत िान
करता हो? भगवद्गीता महाभारत का अमृत है और इसे भगवान् कृ ष्ण (मूल पवष्ण)ु ने स्वयं सुनाया है । (गीता माहात्म्य
५) । भगवद्गीता भगवान् के मख ु से पनकली है और गगं ा भगवान् के चरणकमलों से पनकली है । पनस्सन्देह भगवान् के
मखु तथा चरणों में कोई अन्तर नहीं है लेपकन पनष्िक्ष अध्ययन से हम िाएूँगे पक भगवद्गीता गंगा-जल की अिेक्षा
अपधक महत्त्विणू त है— ।
सवोपवनर्दो गावो दोग्धा गोपालनन्दन: ।
पाथो व्स: सुधीभोक्ता दग्ु धं गीतामृतं महत् ॥

२५
यह गीतोिपनर्द,् भगवद्गीता , जो समस्त उिपनर्दों का सार है, गाय के तुल्य है, और ग्वालबाल के रूि में
पवख्यात भगवान् कृ ष्ण इस गाय को दहु रहे हैं । अजुतन बछडे के समान है, और सारे पवद्वान तथा शद्ध ु भक्त भगवद्गीता
के अमृतमय दधू का िान करने वाले हैं । (गीता माहात्म्य ६)
एकं शािं देवकीपुत्रगीतम् ।
एको देवो देवकीपुत्र एव ।
एको मन्त्रस्तस्य नामावन यावन ।
कमाषप्येकं तस्य देवस्य सेवा ॥
आज के युग में लोग एक शास्त्र, एक ईश्वर, एक धमत तथा एक वृपत्त के पलए अत्यन्त उत्सुक हैं । अतएव एकं
शािं देवकीपत्रु गीतम्—के वल एक शास्त्र भगवद्गीता हो, जो सारे पवश्व के पलए हो । एको देवो देवकीपत्रु एव—सारे
पवश्व के पलए एक ईश्वर हो—श्रीकृ ष्ण । एको मन्त्रस्तस्य नामावन यावन—और एक मन्त्र, एक प्राथतना हो—उनके नाम का
कीततन हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे । कमाषप्येकं तस्य देवस्य
सेवा—के वल एक ही कायत हो—भगवान् की सेवा । (गीता माहा्म्य ७)

२६
गुरु-परम्परा

एवं िरम्िराप्राप्तम् इमं राजर्तयो पवदु: (भगवद्गीता ४.२) । यह भगवद्गीता यथारूप इस गुरु-िरम्िरा द्वारा प्राप्त हुई
है—

१. श्रीकृ ष्ण १७. ब्रह्मण्यतीथत


२. ब्रह्मा १८. व्यासतीथत
३. नारद १९. लक्ष्मीिपत
४. व्यास २०. माधवेन्द्रिुरी
५. मध्व २१. ईश्वरिुरी (पनत्यानन्द, अद्वैत)
६. िद्मनाभ २२. श्रीचैतन्य महाप्रभु
७. नृहरर २३. रूि (स्वरूि, सनातन)
८. माधव २५. कृ ष्णदास
९. अक्षोभ्य २६. नरोत्तम
१०. जयतीथत २७. पवश्वनाथ
११. ज्ञानपसन्धु २८. (बलदेव) जगन्नाथ
१२. दयापनपध २९. भपक्तपवनोद
१३. पवद्यापनपध ३०. गौरपकशोर
१४. राजेन्द्र ३१. भपक्त पसद्धान्त सरस्वती
१५. जयधमत ३२. ए.सी. भपक्तवेदान्त स्वामी प्रभिु ाद
१६. िुरुर्ोत्तम

२७
अध्याय एक
कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्यनिरीक्षण
धृतराष्ट्र उवाच
धममक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्र्चैव नकमकुवमत सञ्जय ।। १ ।।

धृतराष्ट्र: उवाच - राजा धृतराष्ट्र ने कहा; धमम-क्षेत्रे - धर्मभमू र् (तीर्मस्र्ल) र्ें; कुरु-क्षेत्रे -कुरुक्षेत्र नार्क स्र्ान
र्ें; समवेता: - एकत्र ;युयुत्सवः - युद्ध करने की इच्छा से; मामकाः -र्ेरे पक्ष (पुत्रों); पाण्डवाः - पाण्डु के पुत्रों
ने; च - तर्ा; एव - मनश्चय ही;नकम् - क्या; अकुवमत - क्या; मकया; सञ्जय - हे संजय ।

धृतराष्ट्र िे कहा - हे संजय! धममभूनम कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे तथा पाण्डु के पुत्रों िे
क्या नकया ?

तात्पयम : भगवद्गीता एक बहुपमित आमस्तक मवज्ञान है जो गीता - र्हात्र्य र्ें सार रूप र्ें मिया हुआ है । इसर्ें
यह उल्लेख है मक र्नुष्ट्य को चामहए मक वह श्रीकृ ष्ट्ण के भक्त की सहायता से संवीक्षण करते हुए भगवद्गीता का
अध्ययन करे और स्वार्म प्रेररत व्याख्याओ ं के मबना उसे सर्झने का प्रयास करे । अजमनु ने मजस प्रकार से साक्षात्
भगवान् कृ ष्ट्ण से गीता सुनी और उसका उपिेश ग्रहण मकया, इस प्रकार की स्पष्ट अनुभमू त का उिाहरण भगवद्गीता र्ें
ही है । यमि उसी गुरु-परम्परा से, मनजी स्वार्म से प्रेररत हुए मबना, मकसी को भगवद्गीता सर्झने का सौभाग्य प्राप्त हो तो
वह सर्स्त वैमिक ज्ञान तर्ा मवश्र्व के सर्स्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ िेता है । पािक को भगवद्गीता र्ें न
के वल अन्य शास्त्रों की सारी बातें मर्लेंगी अमपतु ऐसी बातें भी मर्लेंगी जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं । यही गीता का
मवमशष्ट र्ानिण्ड है । स्वयं भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण द्वारा साक्षात् उच्चररत होने के कारण यह पूणम आमस्तक मवज्ञान है ।
र्हाभारत र्ें वमणमत धृतराष्ट्र तर्ा संजय की वातामएँ इस र्हान िशमन के र्ल ू मसद्धान्त का कायम करती हैं । र्ाना
जाता है मक इस िशमन की प्रस्तुमत कुरुक्षेत्र के युद्धस्र्ल र्ें हुई जो वैमिक युग से पमवत्र तीर्मस्र्ल रहा है । इसका प्रवचन
भगवान् द्वारा र्ानव जामत के पर्-प्रिशमन हेतु तब मकया गया जब वे इस लोक र्ें स्वयं उपमस्र्त र्े ।
धर्मक्षेत्र शब्ि सार्मक है, क्योंमक कुरुक्षेत्र के यद्ध
ु स्र्ल र्ें अजमनु के पक्ष र्ें श्री भगवान् स्वयं उपमस्र्त र्े । कौरवों
का मपता धृतराष्ट्र अपने पुत्रों की मवजय की सम्भावना के मवषय र्ें अत्यमधक संमिग्ध र्ा । अतः इसी सन्िेह के कारण
उसने अपने समचव से पछ ू ा, “ उन्होंने क्या मकया ?” वह आश्र्वस्र् र्ा मक उसके पत्रु तर्ा उसके छोटे भाई पाण्डु के पत्रु
कुरुक्षेत्र की युद्ध भमू र् र्ें मनणमयात्र्क संग्रार् के मलए एकत्र हुए हैं । मिर भी उसकी मजज्ञासा सार्मक है । वह नहीं चाहता
र्ा की भाइयों र्ें कोई सर्झौता हो, अतः वह युद्धभमू र् र्ें अपने पुत्रों की मनयमत (भाग्य, भावी) के मवषय र्ें आश्र्वस्र्
होना चाह रहा र्ा । चँमू क इस युद्ध को कुरुक्षेत्र र्ें लड़ा जाना र्ा, मजसका उल्लेख वेिों र्ें स्वगम के मनवामसयों के मलए
भी तीर्मस्र्ल के रूप र्ें हुआ है अतः धृतराष्ट्र अत्यन्त भयभीत र्ा मक इस पमवत्र स्र्ल का युद्ध के पररणार् पर न जाने
कै सा प्रभाव पड़े । उसे भली भाँमत ज्ञात र्ा मक इसका प्रभाव अजुमन तर्ा पाण्डु के अन्य पुत्रों पर अत्यन्त अनुकूल
पड़ेगा क्योंमक स्वभाव से वे सभी पुण्यात्र्ा र्े । संजय श्री व्यास का मशष्ट्य र्ा, अतः उनकी कृ पा से संजय धृतराष्ट्र ने
उससे युद्धस्र्ल की मस्र्मत के मवषय र्ें पूछा ।

२८
पाण्डव तर्ा धृतराष्ट्र के पुत्र, िोनों ही एक वंश से सम्बमन्धत हैं, मकन्तु यहाँ पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके
र्नोभाव प्रकट होते हैं । उसने जान-बूझ कर अपने पुत्रों पर धृतराष्ट्र के वाक्य से उसके र्नोभाव प्रकट होते हैं । उसने
जान-बूझ कर अपने पुत्रों को कुरु कहा और पाण्डु के पुत्रों को वंश के उत्तरामधकार से मवलग कर मिया । इस तरह पाण्डु
के पुत्रों अर्ामत् अपने भतीजों के सार् धृतराष्ट्र की मवमशष्ट र्नःमस्र्मत सर्झी जा सकती है । मजस प्रकार धान के खेत
से अवांमछत पोधों को उखाड़ मिया जाता है उसी प्रकार इस कर्ा के आरम्भ से ही ऐसी आशा की जाती है मक जहाँ
धर्म के मपता श्रीकृ ष्ट्ण उपमस्र्त हों वहाँ कुरुक्षेत्र रूपी खेत र्ें ियु ोधन आमि धृतराष्ट्र के पुत्र रूपी अवांमछत पौधों को
सर्लू नष्ट करके यमु धमिर आमि मनतान्त धामर्मक परुु षों की स्र्ापना की जायेगी । यहाँ धर्मक्षेत्रे तर्ा कुरुक्षेत्रे शब्िों की,
उनकी एमतहामसक तर्ा वैमिक र्हत्ता के अमतररक्त, यही सार्मकता है ।

सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवािीकं व्यूढं दुयोधिस्तदा ।
आचायममुपसङ् गम्य राजा वचिमब्रवीत् ।। २ ।।

सञ्जयः उवाच - संजय ने कहा; दृष्ट्वा - िेखकर; तु - लेमकन; पाण्डव-अिीकम् - पाण्डवों की सेना
को; व्यूढम् - व्यूहरचना को; दुयोधिः - राजा ियु ोधन ने; तदा - उस सर्य; आचायमम् - मशक्षक, गरुु
के ; उपसंगमय - पास जाकर; राजा - राजा ; वचिम् - शब्ि; अब्रवीत् - कहा;

संजय िे कहा - हे राजि! पाण्डुपुत्रों द्वारा सेिा की व्यूहरचिा देखकर राजा दुयोधि अपिे गुरु के पास
गया और उसिे ये शब्द कहे ।

तात्पयम :धृतराष्ट्र जन्र् से अन्धा र्ा । िुभामग्यवश वह आध्यामत्र्क दृमष्ट से भी वंमचत र्ा । वह यह भी जानता
र्ा मक उसी के सर्ान उसके पत्रु भी धर्म के र्ार्ले र्ें अधं े हैं और उसे मवश्र्वास र्ा मक वे पाण्डवों के सार् कभी भी
सर्झौता नहीं कर पायेंगें क्योंमक पाँचो पाण्डव जन्र् से ही पमवत्र र्े । मिर भी उसे तीर्मस्र्ल के प्रभाव के मवषय र्ें
सन्िेह र्ा । इसीमलए संजय युद्धभमू र् की मस्र्मत के मवषय र्ें उसके प्रश्न के र्ंतव्य को सर्झ गया । अतः वह मनराश
राजा को प्रॊत्सामहत करना चाह रहा र्ा । उसने उसे मवश्र्वास मिलाया मक उसके पुत्र पमवत्र स्र्ान के प्रभाव र्ें आकर
मकसी प्रकार का सर्झौता करने नहीं जा रहे हैं । उसने राजा को बताया मक उसका पुत्र ियु ोधन पाण्डवों की सेना को
िेखकर तुरन्त अपने सेनापमत द्रोणाचायम को वास्तमवक मस्र्मत से अवगत कराने गया । यद्यमप ियु ोधन को राजा कह कर
सम्बोमधत मकया गया है तो भी मस्र्मत की गम्भीरता के कारण उसे सेनापमत के पास जाना पड़ा । अतएव ियु ोधन
राजनीमतज्ञ बनने के मलए सवमर्ा उपयुक्त र्ा । मकन्तु जब उसने पाण्डवों की व्यूहरचना िेखी तो उसका यह कूटनीमतक
व्यवहार उसके भय को मछपा न पाया ।

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचायम महतीं चमूम् ।


व्यढू ां द्रुपदपत्रु ेण तव नशष्ट्येण धीमता ।। ३ ।।

२९
पश्य - िेमखये; एतम् - इस; पाण्डु-पुत्राणाम् - पाण्डु के पुत्रों की; आचायम - हे आचायम (गुरु); महतीम् -
मवशाल; चमूम् - सेना को; व्यूढाम् - व्यवमस्र्त; द्रुपद-पुत्रेण - द्रुपि के पुत्र द्वारा; तव - तुम्हारे ; नशष्ट्येण - मशष्ट्य
द्वारा; धी-मता - अत्यन्त बुमद्धर्ान ।

हे आचायम! पाण्डुपुत्रों की नवशाल सेिा को देखें, नजसे आपके बुनद्धमाि् नशष्ट्य द्रुपद के पुत्र िे इतिे
कौशल से व्यवनस्थत नकया है ।

तात्पयम :परर् राजनीमतज्ञ ियु ोधन र्हान ब्राह्मण सेनापमत द्रोणाचायम के िोषों को इमं गत करना चाहता र्ा । अजुमन
की पत्नी द्रौपिी के मपता राजा द्रुपि के सार् द्रोणाचायम का कुछ राजनीमतक झगड़ा र्ा । इस झगड़े के िलस्वरूप द्रुपि
ने एक र्हान यज्ञ सम्पन्न मकया मजससे उसे एक ऐसा पुत्र प्राप्त होने का वरिान मर्ला जो द्रोणाचायम का वध कर सके ।
द्रोणाचायम इसे भलीभाँमत जानता र्ा मकन्तु जब द्रुपि का पुत्र धृष्ट द्युम्न युद्ध-मशक्षा के मलए उसको सौंपा गया तो
द्रोणाचायम को उसे अपने सारे सैमनक रहस्य प्रिान करने र्ें कोई मझझक नहीं हुई । अब धृष्टद्युम्न कुरुक्षेत्र की युद्धभमू र् र्ें
पाण्डवों का पक्ष ले रहा र्ा और उसने द्रोणाचायम से जो कला सीखी र्ी उसी के आधार पर उसने यह व्यूहरचना की
र्ी । ियु ोधन ने द्रोणाचायम की इस िबु मलता की ओर इमं गत मकया मजससे वह युद्ध र्ें सजग रहे और सर्झौता न करे ।
इसके द्वारा वह द्रोणाचायम को यह भी बताना चाह रहा र्ा की कहीं वह अपने मप्रय मशष्ट्य पाण्डवों के प्रमत युद्ध र्ें
उिारता न मिखा बैिे । मवशेष रूप से अजुमन उसका अत्यन्त मप्रय एवं तेजस्वी मशष्ट्य र्ा । ियु ोधन ने यह भी चेतावनी िी
मक युद्ध र्ें इस प्रकार की उिारता से हार हो सकती है ।

अत्र श्रूरा महेष्ट्वासा भीमाजमिु समा युनध ।


ययु ध
ु ािो नवराटश्र्च द्रुपदश्र्च महारथः ।। ४ ।।

अत्र - यहाँ; शरू ाः - वीर; महा-इष-ु आसाः- र्हान धनुधमर; भीम-अजमिु - भीर् तर्ा अजमनु ; समाः - के
सर्ान; युनध - युद्ध र्ें; युयुधािः - युयुधान; नवराटः - मवराट; च - भी; द्रुपदः - द्रुपि; च - भी; महारथः - र्हान
योद्धा ।

इस सेिा में भीम तथा अजमुि के समाि युद्ध करिे वाले अिेक वीर धिुधमर हैं - यथा महारथी युयुधाि,
नवराट तथा द्रुपद ।

तात्पयमःयद्यमप युद्धकला र्ें द्रोणाचायम की र्हान शमक्त के सर्क्ष धृष्टियुम्न र्हत्त्वपूणम बाधक नहीं र्ा मकन्तु ऐसे
अनेक योद्धा र्े मजनसे भय र्ा । ियु ोधन इन्हें मवजय-पर् र्ें अत्यन्त बाधक बताता है क्योंमक इनर्ें से प्रत्येक योद्धा
भीर् तर्ा अजमनु के सर्ान िजु ेय र्ा । उसे भीर् तर्ा अजमुन के बल का ज्ञान र्ा, इसीमलए वह अन्यों की तल ु ना इन
िोनों से करता है ।

धृष्टके तुश्र्चेनकतािः कानशराजश्र्च वीयमवाि् ।


पुरुनजत्कुनन्तभोजश्र्च शैब्यश्र्च िरपुङ्गवः ।। ५ ।।

३०
धृष्टके त:ु - धृष्टके तु; चेनकतािः - चेमकतान; कानशराजः - कामशराज; च - भी; वीयमवाि् - अत्यन्त
शमक्तशाली; पुरुनजत् - पुरुमजत्; कुनन्तभोजः - कुमन्तभोज; च - तर्ा; शैब्यः - शैब्य; च - तर्ा; िरपुङ्गवः - र्ानव
सर्ाज के वीर ।

इिके साथ ही धृष्टके तु, चेनकताि, कानशराज, पुरुनजत्, कुनन्तभोज तथा शैब्य जैसे महाि शनिशाली
योद्धा भी हैं ।

यध
ु ामन्यश्र्ु च नवक्रान्त उत्तमौजाश्र्च वीयमवाि् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्र्च सवम एव महारथाः ।। ६ ।।

युधामन्युः - युधार्न्यु; च - तर्ा; नवक्रान्तः - पराक्रर्ी; उत्तमौजाः - उत्तर्ौजा; च - तर्ा; नवयमवाि् -


अत्यन्त शमक्तशाली; सौभद्रः - सुभद्रा का पुत्र; द्रौपदेयाः - द्रोपिी के पुत्र; च - तर्ा; सवे - सभी; एव - मनश्चय
ही; महारथाः - र्हारर्ी ।

पराक्रमी युधामन्यु, अत्यन्त र्मक्तर्ाली उत्तमौजा, सुभद्रा का पुत्र तथा द्रौपदी के पुत्र—ये सभी
महारथी हैं ।

अस्माकं तु नवनशष्टा ये तानन्िबोध नद्वजोत्तम ।


िायका मम सैन्यस्य सज्ञं ाथं तान्ब्रवीनम ते ।। ७ ।।

अस्माकम् - हर्ारे ; तु - लेमकन; नवनशष्टाः - मवशेष शमक्तशाली; ये - जो; ताि्– उनको;निबोध - जरा जान
लीमजये, जानकारी प्राप्त कर लें, नद्वज-उत्तम - हे ब्राह्मणश्रेि; िायकाः - सेनापमत, कप्तान; मम - र्ेरी; सैन्यस्य - सेना
के ; संज्ञा-अथमम् - सूचना के मलए; ताि् - उन्हें; ब्रवीनम - बता रहा ह;ँ ते - आपको ।

नकन्तु हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! आपकी सूचिा के नलए मैं अपिी सेिा के उि िायकों के नवषय में बतािा चाहूँगा
जो मेरी सेिा को संचानलत करिे में नवशेष रूप से निपुण हैं ।

भवान्भीष्ट्मश्र्च कणमश्र्च कृ पश्र्च सनमनतञ्जयः।


अश्र्वत्थामा नवकणमश्र्च सौमदनत्तस्तथैव च ।। ८ ।।

भवाि् - आप; भीष्ट्मः - भीष्ट्र् मपतार्ह; च - भी; कणमः - कणम; च - और; कृ पः - कृ पाचायम; च -
तर्ा; सनमनतञ्जयः - सिा सग्रं ार्-मवजयी; अश्र्वत्थामा - अश्र्वत्र्ार्ा; नवकणमः - मवकणम; च - तर्ा; सौमदनत्तः -
सोर्ित्त का पुत्र; तथा - भी; एव - मनश्चय ही; च – भी ।

३१
मेरी सेिा में स्वयं आप, भीष्ट्म, कणम, कृ पाचायम,अश्र्वत्थामा, नवकणम तथा सोमदत्त का पुत्र भूररश्रवा
आनद हैं जो युद्ध में सदैव नवजयी रहे हैं ।

तात्पयमःियु ोधन उन अमद्वतीय युद्धवीरों का उल्लेख करता है जो सिैव मवजयी होते रहे हैं । मवकणम ियु ोधन का
भाई है, अश्र्वत्र्ार्ा द्रोणाचायम का पुत्र है और सोर्िमत्त या भरू रश्रवा बामिकों के राजा का पुत्र है । कणम अजुमन का
आधा भाई है क्योंमक वह कुन्ती के गभम से राजा पाण्डु के सार् मववामहत होने के पूवम उत्पन्न हुआ र्ा । कृ पाचायम की
जड़ु वा बहन द्रोणाचायम को ब्याही र्ी ।

अन्य च बहवः श्ररू ा मदथे त्यिजीनवताः ।


िािाशस्त्रप्रहरणाः सवे युद्धनवशारदाः ।। ९ ।।

अन्ये - अन्य सब; च - भी; बहवः - अनेक; शूराः - वीर; मत्-अथे - र्ेरे मलए; त्यि-जीनवताः - जीवन का
उत्सगम करने वाले; िािा - अनेक; शस्त्र - आयुध; प्रहरणाः - से युक्त, सुसमजजत; सवे - सभी; युद्ध-नवशारदाः -
युद्धमवद्या र्ें मनपुण ।

ऐसे अन्य वीर भी हैं जो मेरे नलए अपिा जीवि त्याग करिे के नलए उद्यत हैं । वे नवनवध प्रकार के हनथ
यारों से सुसनजजत हैं और युद्धनवद्या में निपुण हैं ।

तात्पयमःजहाँ तक अन्यों का-यर्ा जयद्रर्, कृ तवर्ाम तर्ा शल्य का सम्बन्ध है वे सब ियु ोधन के मलए उपने
प्राणों की आहुमत िेने के मलए तैयार रहते र्े । िसु रे शब्िों र्ें, यह पवू ममनमश्चत है मक वे पापी ियु ोधन के िल र्ें समम्र्मलत
होने के कारण कुरुक्षेत्र के युद्ध र्ें र्ारे जायेंगे । मनस्सन्िेह अपने मर्त्रों की संयुक्त-शमक्त के कारण ियु ोधन अपनी मवजय
के प्रमत आश्र्वस्र् र्ा ।

अपयामप्तं तदस्माकं बलं भीष्ट्मानभरनक्षतम् ।


पयामप्तं नत्वदमेतेषां बलं भीमानभरनक्षतम् ।। १० ।।

अपयामप्तम् - अपररर्ेय; तत् - वह; अस्माकम् - हर्ारी; बलम् - शमक्त; भीष्ट्म - भीष्ट्र् मपतार्ह
द्वारा; अनभरनक्षतम् - भलीभाँमत संरमक्षत; पयामप्तम् - सीमर्त; तु - लेमकन; इदम् - यह सब; एते षाम् - पाण्डवों
की; बलम् - शमक्त; भीम - भीर् द्वारा; अनभरनक्षतम् - भलीभाँमत सुरमक्षत ।

हमारी शनि अपररमेय है और हम सब नपतामह द्वारा भलीभाूँनत सरं नक्षत हैं, जबनक पाण्डवों की शनि
भीम द्वारा भलीभाूँनत संरनक्षत होकर भी सीनमत है ।

तात्पयमःयहाँ पर ियु ोधन ने तुलनात्र्क शमक्त का अनुर्ान प्रस्तुत मकया है । वह सोचता है मक अत्यन्त अनुभवी
सेनानायक भीष्ट्र् मपतार्ह के द्वारा मवशेष रूप से सरं मक्षत होने के कारण उसकी सशस्त्र सेनाओ ं की शमक्त अपररर्ेय हैं ।

३२
िसू री ओर पाण्डवों की सेनाएँ सीमर्त हैं क्योंमक उनकी सुरक्षा एक कर् अनुभवी नायक भीर् द्वारा की जा रही है जो
भीष्ट्र् की तुलना र्ें नगण्य है । ियु ोधन सिैव भीर् से ईष्ट्याम करता र्ा क्योंमक वह जानता र्ा की यमि उसकी र्ृत्यु कभी
हुई भी तो वह भीर् के द्वारा ही होगी । मकन्तु सार् ही उसे दृढ मवश्र्वास र्ा मक भीष्ट्र् की उपमस्र्मत र्ें उसकी मवजय
मनमश्चत है क्योंमक भीष्ट्र् कहीं अमधक उत्कृ ष्ट सेनापमत हैं । वह युद्ध र्ें मवजयी होगा यह उसका दृढ मनश्चय र्ा ।

अयिेषु च सवेषु यथाभागमवनस्थताः ।


भीष्ट्ममेवानभरक्षन्तु भवन्तः सवम एव नह ।। ११ ।।

अयिेषु - र्ोचों र्ें; च - भी; सवेषु - सवमत्र; यथा-भागम् - अपने-अपने स्र्ानों पर; अवनस्थताः -
मस्र्त; भीष्ट्मम् - भीष्ट्र् मपतार्ह की; एव - मनश्चय ही; अनभरक्षन्तु - सहायता करनी चामहए; भवन्तः - आप; सवे -
सब के सब; एव नह - मनश्चय ही ।

अतएव सैन्यव्यूह में अपने-अपने मोचों पर खडे रहकर आप सभी भीष्म मपतामह को पूरी-पूरी
सहायता दें ।

तात्पयमःभीष्ट्र् मपतार्ह के शौयम की प्रशंसा करने के बाि ियु ोधन ने सोचा की कहीं अन्य योद्धा यह न सर्झ लें
मक उन्हें कर् र्हत्त्व मिया जा रहा है अतः ियु ोधन ने अपने सहज कुटनीमतक ढंग से मस्र्मत सँभालने के उद्देश्य से
उपयुमक्त शब्ि कहें । उसने बलपूवमक कहा मक भीष्ट्र्िेव मनस्सन्िेह र्हानतर् योद्धा हैं मकन्तु अब वे वृद्ध हो चक
ु े हैं अतः
प्रत्येक सैमनक को चामहए की चारों ओर से उनकी सुरक्षा का मवशेष ध्यान रखे । हो सकता है मक वेमकसी एक मिशा र्ें
यद्ध
ु करने र्ें लग जायँ ओर शत्रु इस व्यस्तता का लाभ उिा ले । अतः यह आवश्यक है मक अन्य योद्धा र्ोचों पर
अपनी-अपनी मस्र्मत पर अमडग रहें और शत्रु को व्यूह न तोड़ने िें ।
ियु ोधन को पणू म मवश्र्वास र्ा मक कुरुओ ं की मवजय भीष्ट्र्िेव की उपमस्र्मत पर मनभमर है । उसे यद्ध
ु र्ें भीष्ट्र्िेव
तर्ा द्रोणाचायम के पूणम सहयोग मक आशा र्ी क्योंमक वह अच्छी तरह जानता र्ा मक इन िोनों ने उस सर्य एक शब्ि
भी नहीं कहा र्ा जब अजुमन मक पत्नी द्रोपिी को असहायावस्र्ा र्ें भरी सभा र्ें नग्न मकया जा रहा र्ा और जब उसने
उनसे न्याय की भीख र्ाँगी र्ी । वह जानते हुए भी इन िोनों सेनापमतयों के र्न र्ें पाण्डवों के मलए स्नेह र्ा, ियु ोधन को
आशा र्ी मक वे इस स्नेह को उसी तरह त्याग िेंगे मजस तरह उन्होंने द्यूत-क्रीड़ा के अवसर पर मकया र्ा ।

तस्य सञ्जियन्हषं कुरुवृद्धः नपतामहः ।


नसंहिादं नविद्योच्चैः शङ् खं दध्मौ प्रतापवाि् ।। १२ ।।

तस्य– उसका; सञ्जयियि्– बढाते हुए; हशमम–् हषम; कुरु-वृद्धः– कुरुवश


ं के वयोवृद्ध (भीष्ट्र्); नपतामहः–
मपतार्ह, बाबा; नसंह-िादम्– मसंह की सी गजमना; नविद्य– गरज कर; उच्चैः - उच्च स्वर से; शङखम्–
शखं ; दध्मौ– बजाया; प्रताप-वाि्– बलशाली ।

३३
तब कुरुवंर् के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध मपतामह ने मसंह-गजपना की सी ध्वमन करने वाले अपने
र्ंख को उच्च स्वर से बजाया, मजससे दुयोधन को हषप हुआ ।

तात्पयमःकुरुवंश के वयोवृद्ध मपतार्ह अपने पौत्र ियु ोधन का र्नोभाव जान गये और उनके प्रमत अपनी
स्वाभामवक ियावश उन्होंनेउसे प्रसन्न करने के मलए अत्यन्त उच्च स्वर से अपना शंख बजाया जो उनकी मसंह के
सर्ान मस्र्मत के अनुरूप र्ा । अप्रत्यक्ष रूप र्ें शंख के द्वारा प्रतीकात्र्क ढंग से उन्होंने अपने हताश पौत्र ियु ोधन को
बता मिया मक उन्हें यद्ध
ु र्ें मवजय की आशा नहीं है क्योंमक िसु रे पक्ष र्ें साक्षात् भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण हैं । मिर भी यद्ध
ु का
र्ागमिशमन करना उनका कतमव्य र्ा और इस सम्बन्ध र्ें वे कोई कसर नहीं रखेंगे ।

ततः शङ् खाश्र्च भेयमश्र्च पणवािकगोमुखाः ।


सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ।। १३ ।।

ततः– तत्पश्चात्; शङखाः– शंख; च– भी;भेयमः– बड़े-बड़े ढोल, नगाड़े; च– तर्ा; पणव-आिक– ढोल तर्ा
र्ृिंग; गोमुखाः– शृंग; सहसा– अचानक; एव– मनश्चय ही; अभ्यहन्यन्त– एकसार् बजाये गये; सः– वह; शब्दः–
सर्वेत स्वर; तुमुलः– कोलाहलपूणम; अभवत्– हो गया ।

तत्पश्चात् शंख, िगाडे, नबगुल, तुरही तथा सींग सहसा एकसाथ बज उठे । वह समवेत स्वर अत्यन्त को
लाहलपूणम था ।

ततः श्र्वेतैहमयैयमि
ु े महनत स्यन्दिे नस्थतौ ।
माधवः पाण्डवश्र्चैव नदव्यौ शङ् खौ प्रदध्मतुः ।। १४ ।।

ततः– तत्पश्चात्; श्र्वैतैः– श्र्वेत; हयैः– घोड़ों से; युिे– युक्त; महनत– मवशाल; स्यन्दिे– रर् र्ें; नस्थतौ–
आसीन; माधवः– कृ ष्ट्ण (लक्ष्र्ीपमत) ने; पाण्डव– अजुमन (पाण्डुपुत्र) ने; च– तर्ा; एव– मनश्चय ही; नदव्यौ–
मिव्य; शङखौ– शंख; प्रदध्मतुः– बजाये ।

दूसरी ओर से श्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले मवर्ाल रथ पर आसीन कृ ष्ण तथा अजपुन ने अपने-
अपने मदव्य र्ंख बजाये ।

तात्पयमःभीष्ट्र्िेव द्वारा बजाये गये शंख की तुलना र्ें कृ ष्ट्ण तर्ा अजुमन के शंखों को मिव्य कहा गया है । मिव्य
शख ं ों के नाि से यह सूमचत हो रहा र्ा मक िसू रे पक्ष की मवजय की कोई आशा न र्ी क्योंमक कृ ष्ट्ण पाण्डवों के पक्ष र्ें
र्े । जयस्तु पाण्डुपुत्राणाां येषाां पक्षे जनार्दनः– जय सिा पाण्डु के पुत्र-जैसों मक होती है क्योंमक भगवान् कृ ष्ट्ण उनके सार्
हैं । और जहाँ जहाँ भगवान् मवद्यर्ान हैं, वही ँ वही ँ लक्ष्र्ी भी रहती हैं क्योंमक वे अपने पमत के मबना नहीं रह सकतीं ।
अतः जैसा मक मवष्ट्णु या भगवान् कृ ष्ट्ण के शंख द्वारा उत्पन्न मिव्य ध्वमन से सूमचत हो रहा र्ा, मवजय तर्ा श्री िोनों ही

३४
अजुमन की प्रतीक्षा कर रही र्ीं । इसके अमतररक्त, मजस रर् र्ें िोनों मर्त्र आसीन र्े वह अजुमन को अमग्न िेवता द्वारा
प्रित्त र्ा और इससे सूमचत हो रहा र्ा मक तीनों लोकों र्ें जहाँ कहीं भी यह जायेगा, वहाँ मवजय मनमश्चत है ।

पाञ्चजन्यं हृषीके शो देवदत्तं धिञ्जयः।


पौण्रं दध्मौ महाशङ् खं भीमकमाम वृकोदरः ।। १५ ।।

पाञ्चजन्यम्– पाञ्चजन्य नार्क; हृषीके शः– हृषीके श (कृ ष्ट्ण जो भक्तों की इमन्द्रयों को मनिेश करते हैं)
ने; देवदत्तम्– िेवित्त नार्क शंख; धिम्-जयः– धनञ्जय (अजुमन, धन को मजतने वाला) ने; पौण्रम्– पौण्र नार्क
शख ं ; दध्मौ– बजाया; महा-शङखम्– भीष्ट्र् शख ं ; भीम-कमाम– अमतर्ानवीय कर्म करने वाले; वृक-उदरः–
(अमतभोजी) भीर् ने ।

भगवाि् कृ ष्ट्ण िे अपिा पाञ्चजन्य शंख बजाया, अजमिु िे देवदत्त शंख तथा अनतभोजी एवं अनतमाि
वीय कायम करिे वाले भीम िे पौण्र िामक शंख बजाया ।

तात्पयमःइस श्लोक र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण को हृषीके श कहा गया है क्योंमक वे ही सर्स्त इमन्द्रयों के स्वार्ी हैं । सारे
जीव उनके मभन्नांश हैं अतः जीवों की इमन्द्रयाँ भी उनकी इमन्द्रयों के अंश हैं । चँमू क मनमवमशेषवािी जीवों मक इमन्द्रयों का
कारण बताने र्ें असर्र्म हैं इसीमलए वे जीवों को इमन्द्रयरमहत या मनमवमशेष कहने के मलए उत्सुक रहते हैं । भगवान्
सर्स्त जीवों के हृियों र्ें मस्र्त होकर उनकी इमन्द्रयों का मनिेशन करते हैं । मकन्तु वे इस तरह मनिेशन करते हैं मक जीव
उनकी शरण ग्रहण कर ले और मवशुद्ध भक्त की इमन्द्रयों का तो वे प्रत्यक्ष मनिेशन करते हैं । यहाँ कुरुक्षेत्र मक युद्धभमू र् र्ें
भगवान् कृ ष्ट्ण अजमनु की मिव्य इमन्द्रयों का मनिेशन करते हैं इसीमलए उनको हृषीके श कहा गया है । भगवान् के मवमवध
कायों के अनुसार उनके मभन्न-मभन्न नार् हैं । उिाहरणार्म, इनका एक नार् र्धसु ूिन है क्योंमक उन्होंने र्धु नार् के असुर
को र्ारा र्ा, वे गौवों तर्ा इमन्द्रयों को आनन्ि िेने के कारण गोमवन्ि कहलाते हैं, वसिु ेव के पत्रु होने के कारण इनका
नार् वासुिेव है, िेवकी को र्ाता रूप र्ें स्वीकार करने के कारण इनका नार् िेवकीनन्िन है, वृन्िावन र्ें यशोिा के सार्
बाल-लीलाएँ करने के कारण ये यशोिानन्िन हैं, अपने मर्त्र अजुमन का सारर्ी बनने के कारण पार्मसारर्ी हैं । इसी
प्रकार उनका एक नार् हृषीके श है, क्योंमक उन्होंने कुरुक्षेत्र के युद्धस्र्ल र्ें अजुमन का मनिेशन मकया ।
इस श्लोक र्ें अजुमन को धनञ्जय कहा गया है क्योंमक जब इनके बड़े भाई को मवमभन्न यज्ञ सम्पन्न करने के मलए
धन की आवश्यकता हुई र्ी तो उसे प्राप्त करने र्ें इन्होंने सहायता की र्ी । इसी प्रकार भीर् वृकोिर कहलाते हैं क्योंमक
जैसे वे अमधक खाते हैं उसी प्रकार वे अमतर्ानवीय कायम करने वाले हैं, जैसे महमडम्बासुर का वध । अतः पाण्डवों के
पक्ष र्ें श्रीकृ ष्ट्ण इत्यामि मवमभन्न व्यमक्तयों द्वारा मवशेष प्रकार के शंखों का बजाया जाना युद्ध करने वाले सैमनकों के मलए
अत्यन्त प्रेरणाप्रि र्ा । मवपक्ष र्ें ऐसा कुछ न र्ा; न तो परर् मनिेशक भगवान् कृ ष्ट्ण र्े, न ही भाग्य की िेवी (श्री) र्ीं ।
अतः यद्ध ु र्ें उनकी पराजय पवू ममनमश्चत र्ी – शख ं ों की ध्वमन र्ानो यही सन्िेश िे रही र्ी ।

अिन्तनवजयं राजा कुन्तीपुत्रो युनधनष्ठरः ।


िकुलः सहदेवश्र्च सुघोषमनणपुष्ट्पकौ ।। १६ ।।

३५
काश्यश्र्च परमेष्ट्वासः नशखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्िो नवराटश्र्च सात्यनकश्र्चापरानजतः ।। १७ ।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्र्च सवमशः पृनथवीपते ।
सौभद्रश्र्च महाबाहुः शङ् खान्दध्मुः पृथक्पृथक् ।। १८ ।।

अिन्त-नवजयम्– अनन्त मवजय नार् का शंख; राजा– राजा; कुन्ती-पुत्रः – कुन्ती के पुत्र; युनधनष्ठरः–
यमु धमिर; िकुलः– नकुल; सहदेवः– सहिेव ने; च– तर्ा; सघु ोष-मनणपष्ट्ु पकौ– सघु ोष तर्ा र्मणपुष्ट्पक नार्क
शंख; काश्यः– काशी (वाराणसी) के राजा ने; च– तर्ा; परम-ईष-ु आसः– र्हान धनुधमर; नशखण्डी– मशखण्डी
ने; च– भी; महा-रथः– हजारों से अके ले लड़ने वाले; धृष्टद्यम्ु िः– धृष्टद्यम्ु न (राजा द्रुपि के पत्रु ) ने; नवराटः–
मवराट(राजा मजसने पाण्डवों को उनके अज्ञात-वास के सर्य शरण िी ) ने; च– भी; सात्यनकः– सात्यमक (युयुधान,
श्रीकृ ष्ट्ण के सार्ी) ने; च– तर्ा; अपरानजतः– कभी न जीते जाने वाला, सिा मवजयी; द्रुपदः– द्रुपि, पचं ाल के राजा
ने; द्रौपदेयाः– द्रौपिी के पुत्रों ने; च– भी; सवमशः– सभी; पृनथवी-पते– हे राजा; सौभद्रः– सुभद्रापुत्र अमभर्न्यु
ने; च– भी; महा-बाहुः– मवशाल भजु ाओ ं वाला; शङखाि्– शंख; दध्मुः - बजाए; पृथक् -पृथक् – अलग अलग ।

हे राजन्! कुन्तीपुत्र राजा युमधमष्ठर ने अपना अनंतमवजय नामक र्ंख बजाया तथा नकुल और सहदेव
ने सुघोष एवं ममणपुष्पक र्ंख बजाये। महान धनुधपर कार्ीराज, परम योद्धा मर्खण्डी, धृष्टद्युम्न, मवराट,
अजेय सात्यमक, द्रुपद, द्रौपदी के पुत्र तथा सुभद्रा के महाबाहु पुत्र आमद सब़ों ने अपने-अपने र्ंख बजाये ।

तात्पयमः संजय ने राजा धृतराष्ट्र को अत्यन्त चतुराई से यह बताया मक पाण्डु के पुत्रों को धोखा िेने तर्ा
राजयमसहं ासन पर अपने पत्रु ों को आसीन कराने का अमववेकपणू म नीमत श्लाघनीय नहीं र्ी । लक्षणों से पहले से ही यह
सूमचत हो रहा र्ा मक इस र्हायुद्ध र्ें सारा कुरुवंश र्ारा जायेगा । भीष्ट्र् मपतार्ह से लेकर अमभर्न्यु तर्ा अन्य पौत्रों
तक मवश्र्व के अनेक िेशों के राजाओ ं सर्ेत उपमस्र्त सारे के सारे लोगों का मवनाश मनमश्चत र्ा । यह सारी िघु मटना राजा
धृतराष्ट्र के कारण होने जा रही र्ी क्योंमक उसने अपने पुत्रों की कुनीमत को प्रोत्साहन मिया र्ा ।

स घोषो धातमराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।


िभश्र्च पृनथवीं चैव तुमुलोऽभ्यिुिादयि् ।। १९ ।।

सः– उस; घोषः– शब्ि ने; धातमराष्ट्राणाम्– धृतराष्ट्र के पुत्रों के ; हृदयानि– हृियों को; व््दारयत्– मविीणम
कर मिया; िभः– आकाश; च– भी; पृनथवीम्– पृथ्वीतल को; च– भी; एव– मनश्चय ही; तुमुलः–
कोलाहलपूण;म अभ्यिुिादयि्– प्रमतध्वमनत करता, शब्िायर्ान करता ।

इि नवनभन्ि शंखों की ध्वनि कोलाहलपूणम बि गई जो आकाश तथा पृथ्वी को शब्दायमाि करती हुई
धृतराष्ट्र के पत्रु ों के हृदयों को नवदीणम करिे लगी ।

३६
तात्पयमः जब भीष्ट्र् तर्ा ियु ोधन के पक्ष के अन्य वीरों ने अपने-अपने शंख बजाये तो पाण्डवों के हृिय मविीणम
नहीं हुए । ऐसी घटनाओ ं का वणमन नहीं मर्लता मकन्तु इस मवमशष्ट श्लोक र्ें कहा गया है मक पाण्डव पक्ष र्ें शंखनाि से
धृतराष्ट्र के पुत्रों के हृिय मविीणम हो गये । इसका कारण स्वयं पाण्डव और भगवान् कृ ष्ट्ण र्ें उनका मवश्र्वास है ।
परर्ेश्र्वर की शरण ग्रहण करने वाले को मकसी प्रकार का भय नहीं रह जाता चाहे वह मकतनी ही मवपमत्त र्ें क्यों न हो ।

अथ व्यवनस्थतान्दृष्टवा धातमराष्ट्रान्कनपध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धिरुु द्यम्य पाण्डवः ।
हृषीके शं तदा वाक्यनमदमाह महीपते ।। २० ।।

अथ– तत्पशचात्; व्यवनस्थताि्– मस्र्त; दृष्ट्वा– िेखकर; धातमराष्ट्राि्– धृतराष्ट्र के पुत्रों को; कनपध्वजः–
मजसकी पताका पर हनुर्ान अमं कत है; प्रवृत्ते– कमटवद्ध; शस्त्र-सम्पाते– वाण चलाने के मलए; धिुः– धनुष; उद्यम्य–
ग्रहण करके , उिाकर; पाण्डवः– पाण्डुपुत्र (अजुमन) ने; हृषीके शम्– भगवान् कृ ष्ट्ण से; तदा– उस सर्य; वाक्यम्–
वचन; इदम्– ये; आह– कहे; मही-पते– हे राजा ।

उस समय हनुमान से अंमकत ध्वजा लगे रथ पर आसीन पाण्डुपुत्र अजपनु अपना धनुष उठा कर तीर
चलाने के मलए उद्यत हुआ। हे राजन्! धृतराष्र के पुत्ऱों को व्यूह में खडा देखकर अजपनु ने श्रीकृ ष्ण से ये वचन
कहे ।

तात्पयमः युद्ध प्रारम्भ होने ही वाला र्ा । उपयुमक्त कर्न से ज्ञात होता है मक पाण्डवों की सेना की अप्रत्यामशत
व्यवस्र्ा से धृतराष्ट्र के पत्रु बहुत कुछ मनरुत्सामहत र्े क्योंमक यद्ध ु भमू र् र्ें पाण्डवों का मनिेशन भगवान् कृ ष्ट्ण के
आिेशानुसार हो रहा र्ा । अजुमन की ध्वजा पर हनुर्ान का मचन्ह भी मवजय का सूचक है क्योंमक हनुर्ान ने रार् तर्ा
रावण यद्धु र्ें रार् मक सहायता की र्ी मजससे रार् मवजयी हुए र्े । इस सर्य अजमनु की सहायता के मलए उनके रर् पर
रार् तर्ा हनुर्ान िोनों उपमस्र्त र्े । भगवान् कृ ष्ट्ण साक्षात् रार् हैं और जहाँ भी रार् रहते हैं वहाँ मनत्य सेवक हनुर्ान
होता है तर्ा उनकी मनत्यसंमगनी, वैभव की िेवी सीता उपमस्र्त रहती हैं । अतः अजुमन के मलए मकसी भी शत्रु से भय
का कोई कारण नहीं र्ा । इससे भी अमधक इमन्द्रयों के स्वार्ी भगवान् कृ ष्ट्ण मनिेश िेने की मलए साक्षात् उपमस्र्त र्े ।
इस प्रकार अजुमन को युद्ध करने के र्ार्ले र्ें सारा सत्परार्शम प्राप्त र्ा । ऐसी मस्र्मतयों र्ें, मजनकी व्यवस्र्ा भगवान् ने
अपने शाश्र्वत भक्त के मलए की र्ी, मनमश्चत मवजय के लक्षण स्पष्ट र्े ।

अजुमन उवाच
सेियोरुभयोममध्ये रथं स्थाप्य मेऽच्युत ।
यावदेतानन्िररक्षेऽहं योद्धुकामािवनस्थताि् ।। २१ ।।
कै ममया सह योद्धव्यमनस्मन्रणसमुद्यमे ।। २२ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; सेन्योः– सेनाओ ं के ; उभयोः– बीच र्ें; रथम्– रर् को; स्थापय– कृ प्या
खड़ा करें ; मे– र्ेरे; अच्युत– हे अच्युत; यावत्– जब तक; एताि्– इन सब; निरीक्षे– िेख सकँू ; अहम्– र्ैं; योद्धु-

३७
कामाि्– युद्ध की इच्छा रखने वालों को; अवनस्थताि्– युद्धभमू र् र्ें एकत्र; कै ः– मकन मकन से; मया– र्ेरे
द्वारा; सह– एक सार्; योद्धव्यम्– युद्ध मकया जाना है; अनस्मि्– इस; रण– संघषम, झगड़ा के ; समुद्यमे– उद्यर् या
प्रयास र्ें ।

अजपनु ने कहा—हे कृ ष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने ममत्ऱों तथा सम्बमन्धय़ों को अपने
समक्ष उपमस्थत देखकर मेरे र्रीर के अंग कााँप रहे हैं और मेरा मुाँह सूखा जा रहा है ।

तात्पयमः यद्यमप श्रीकृ ष्ट्ण साक्षात् श्रीभगवान् हैं, मकन्तु वे अहेतुकी कृ पावश अपने मर्त्र की सेवा र्ें लगे हुए र्े ।
वे अपने भक्तों पर स्नेह मिखाने र्ें कभी नहीं चक ू ते इसीमलए अजमनु ने उन्हें अच्युत कहा है । सारर्ी रूप र्ें उन्हें अजमनु
की आज्ञा का पालन करना र्ा और उन्होंने इसर्ें कोई संकोच नहीं मकया, अतः उन्हें अच्युत कह कर सम्बोमधत मकया
गया है । यद्यमप उन्होंने अपने भक्त का सारर्ी-पि स्वीकार मकया र्ा, मकन्तु इससे उनकी परर् मस्र्मत अक्षण्ु ण बनी
रही । प्रत्येक पररमस्र्मत र्ें वे इमन्द्रयों के स्वार्ी श्रीभगवान् हृषीके श हैं । भगवान् तर्ा उनके सेवक का सम्बन्ध अत्यन्त
र्धरु एवं मिव्य होता है । सेवक स्वार्ी की सेवा करने के मलए सिैव उद्यत रहता है और भगवान् भी भक्त मक कुछ न
कुछ सेवा करने मक कोमशश र्ें रहते हैं । वे इसर्ें मवशेष आनन्ि का अनुभव करते हैं मक वे स्वयं आज्ञािाता न बनें
अमपतु उनके शद्ध ु भक्त उन्हें आज्ञा िें । चँमू क वे स्वार्ी हैं, अतः सभी लोग उनके आज्ञापालक हैं और उनके ऊपर
उनको आज्ञा िेने वाला कोई नहीं है । मकन्तु जब वे िेखते हैं की उनका शद्ध ु भक्त आज्ञा िे रहा है तो उन्हें मिव्य आनन्ि
मर्लता है यद्यमप वे सर्स्त पररमस्र्मतयों र्ें अच्यतु रहने वाले हैं ।
भगवान् का शद्ध ु भक्त होने के कारण अजुमन को अपने बन्ध-ु बान्धवों से युद्ध करने की तमनक भी इच्छा न र्ी,
मकन्तु ियु ोधन द्वारा शामन्तपूणम सर्झौता न करके हिधमर्मता पर उतारू होने के कारण उसे युद्धभमू र् र्ें आना पड़ा । अतः
वह यह जानने के मलए अत्यन्त उत्सक ु र्ा मक यद्ध ु भमू र् र्ें कौन-कौन से अग्रणी व्यमक्त उपमस्र्त हैं । यद्यमप यद्ध
ु भमू र् र्ें
शामन्त-प्रयासों का कोई प्रश्न नहीं उिता तो भी वह उन्हें मिर से िेखना चाह रहा र्ा और यह िेखना चाह रहा र्ा मक वे
इस अवामं छत युद्ध पर मकस हि तक तल ु े हुए हैं ।

योत्स्यमािािवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।


धातमराष्ट्रस्य दुबमद्ध
ु ेयमद्ध
ु े नप्रयनचकीषमवः ।। २३ ।।

योत्स्यमािाि्– युद्ध करने वालों को; अवेक्षे– िेखँ;ू अहम्– र्ैं; ये– जो; एते– वे; अत्र– यहाँ; समागताः–
एकत्र; धातमराष्ट्रस्य– धृतराष्ट्र के पुत्र की; दुबमद्ध
ु ेः– िबु ुममद्ध; युद्धे– युद्ध र्ें; नप्रय– र्ंगल, भला; नचकीषमवः– चाहने
वाले ।

मझु े उि लोगों को देखिे दीनजये जो यहाूँ पर धृतराष्ट्र के दुबमनु द्ध पत्रु (दुयोधि) को प्रसन्ि करिे की इ
च्छा से लडिे के नलए आये हुए हैं ।

तात्पयमः यह सवममवमित र्ा मक ियु ोधन अपने मपता धृतराष्ट्र की साँिगाँि से पापपूणम योजनाएँ बनाकर पाण्डवों
के राजय को हड़पना चाहता र्ा । अतः मजन सर्स्त लोगों ने ियु ोधन का पक्ष ग्रहण मकया र्ा वे उसी के सर्ानधर्ाम रहे

३८
होंगे । अजुमन युद्ध प्रारम्भ होने के पूवम यह तो जान ही लेना चाहता र्ा मक कौन-कौन से लोग आये हुए हैं । मकन्तु उनके
सर्क्ष सर्झौता का प्रस्ताव रखने की उसकी कोई योजना नहीं र्ी । यह भी तथ्य र्ा की वह उनकी शमक्त का, मजसका
उसे सार्ना करना र्ा, अनुर्ान लगाने मक दृमष्ट से उन्हें िेखना चाह रहा र्ा, यद्यमप उसे अपनी मवजय का मवश्र्वास र्ा
क्योंमक कृ ष्ट्ण उसकी बगल र्ें मवराजर्ान र्े ।

सञ्जय उवाच
एवमिु ो हृषीके शो गडु ाके शेि भारत ।
सेियोरुभयोममध्ये स्थापनयत्वा रथोत्तमम् ।। २४ ।।

सञ्जयः उवाच– संजय ने कहा; एवम्– इस प्रकार; उिः– कहे गये; हृषीके शः– भगवान् कृ ष्ट्ण
ने; गुडाके शेि– अजुमन द्वारा; भारत– हे भरत के वश ं ज; सेियोः– सेनाओ ं के ; उभयोः– िोनों; मध्ये– र्ध्य
र्ें; स्थापनयत्वा– खड़ा करके ; रथ-उत्तमम्– उस उत्तर् रर् को ।

संजय िे कहा -
हे भरतवंशी! अजमिु द्वारा इस प्रकार सम्बोनधत नकये जािे पर भगवाि् कृ ष्ट्ण िे दोिों दलों के बीच में उस उत्त
म रथ को लाकर खडा कर नदया ।

तात्पयमः इस श्लोक र्ें अजुमन को गुडाके श कहा गया है । गुडाका का अर्म है नींि और जो नींि को जीत लेता है
वह गुडाके श है । नींि का अर्म अज्ञान भी है । अतः अजुमन ने कृ ष्ट्ण की मर्त्रता के कारण नींि तर्ा अज्ञान िोनों पर
मवजय प्राप्त की र्ी । कृ ष्ट्ण के भक्त के रूप र्ें वह कृ ष्ट्ण को क्षण भर भी नहीं भल
ु ा पाया क्योंमक भक्त का स्वभाव ही
ऐसा होता है । यहाँ तक मक चलते अर्वा सोते हुए भी कृ ष्ट्ण के नार्, रूप, गुणों तर्ा लीलाओ ं के मचन्तन से भक्त कभी
र्क्त
ु नहीं रह सकता । अतः कृ ष्ट्ण का भक्त उनका मनरन्तर मचन्तन करते हुए नींि तर्ा अज्ञान िोनों को जीत सकता है ।
इसी को कृ ष्ट्णभावनार्ृत या सर्ामध कहते हैं । प्रत्येक जीव की इमन्द्रयों तर्ा र्न के मनिेशक अर्ामत् हृषीके श के रूप र्ें
कृ ष्ट्ण अजनुम के र्न्तव्य को सर्झ गये मक वह क्यों सेनाओ ं के र्ध्य र्ें रर् को खड़ा करवाना चाहता है । अतः उन्होंने
वैसा ही मकया और मिर वे इस प्रकार बोले ।

भीष्ट्मद्रोणप्रमुखतः सवेषां च महीनक्षताम् ।


उवाच पाथम पश्यैतान्समवेतान्कुरुनिनत ।। २५ ।।

भीष्ट्म– भीष्ट्र् मपतार्ह; द्रोण– गुरु द्रोण; प्रमुखतः– के सर्क्ष; सवेषाम्– सबों के ; च– भी; महीनक्षताम्–
ससं ार भर के राजा; उवाच– कहा; पाथम– हे पृर्ा के पत्रु ; पश्य– िेखो; एताि्– इन सबों को; समवेताि्–
एकमत्रत; कुरुि्– कुरुवंश के सिस्यों को; इनत– इस प्रकार ।

भीष्ट्म, द्रोण तथा नवश्र्व भर के अन्य समस्त राजाओ ं के सामिे भगवाि् िे कहा नक हे पाथम! यहाूँ पर ए
कत्र सारे कुरुओ ं को देखो ।

३९
तात्पयमः सर्स्त जीवों के परर्ात्र्ास्वरूप भगवान् कृ ष्ट्ण यह जानते र्े मक अजुमन के र्न र्ें क्या बीत रहा है । इस
प्रसंग र्ें हृषीके श शब्ि प्रयोग सूमचत करता है मक वे सब कुछ जानते र्े । इसी प्रकार पार्म शब्ि अर्ामत् पृर्ा या
कुन्तीपुत्र भी अजुमन के मलए प्रयुक्त होने के कारण र्हत्त्वपूणम है । मर्त्र के रूप र्ें वे अजुमन को बता िेना चाहते र्े मक
चँमू क अजुमन उनके मपता वसुिेव की बहन पृर्ा का पुत्र र्ा इसीमलए उन्होंने अजुमन का सारर्ी बनना स्वीकार मकया र्ा ।
मकन्तु जब उन्होंने अजुमन से “कुरुओ ं को िेखो” कहा तो इससे उनका क्या अमभप्राय र्ा? क्या अजुमन वहीं पर रुक कर
यद्ध
ु करना नहीं चाहता र्ा? कृ ष्ट्ण को अपनी बआ ु पृर्ा के पत्रु से कभी भी ऐसी आशा नहीं र्ी । इस प्रकार से कृ ष्ट्ण ने
अपने मर्त्र की र्नःमस्र्मत की पूवमसूचना पररहासवश िी है ।

तत्रापश्यनत्स्थतान्पाथमः नपतिॄ थ नपतामहाि ।


आचायामन्मातुलान्रातन्ॄ पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ।
श्र्वशुरान्सुहृदश्र्चैव सेियोरुभयोरनप ।। २६ ।।

तत्र– वहाँ; अपश्यत्– िेखा; नस्थताि्– खड़े; पाथमः– पार्म ने; नपतृि–् मपतरों (चाचा-ताऊ) को; अथ–
भी; नपतामहाि– मपतार्हों को; आचायामि–् मशक्षकों को; मातुलाि्– र्ार्ाओ ं को; रातृि–् भाइयों को; पुत्राि्–
पुत्रों को; पौत्राि्– पौत्रों को; सखीि्– मर्त्रों को; तथा– और; श्र्वशुराि्– श्र्वसुरों को; सुहृदः– शभु मचन्तकों को; च–
भी; एव– मनश्चय ही; सेियोः– सेनाओ ं के ; उभयोः– िोनों पक्षों की; अनप– समहत ।

अजमिु िे वहाूँ पर दोिों पक्षों की सेिाओ ं के मध्य में अपिे चाचा-


ताउओ,ं नपतामहों, गरुु ओ,ं मामाओ,ं भाइयों, पत्रु ों, पौत्रों, नमत्रों, ससरु ों
और शुभनचन्तकों को भी देखा ।

तात्पयमः अजुमन युद्धभमू र् र्ें अपने सभी सम्बंमधयों को िेख सका । वह अपने मपता के सर्कालीन भरू रश्रवा जैसे
व्यमक्तयों, भीष्ट्र् तर्ा सोर्ित्त जैसे मपतार्हों, द्रोणाचायम तर्ा कृ पाचायम जैसे गुरुओ,ं शल्य तर्ा शकुमन जैसे र्ार्ाओ,ं
ियु ोधन जैसे भाइयों, लक्ष्र्ण जैसे पुत्रों, अश्र्वत्र्ार्ा जैसे मर्त्रों एवं कृ तवर्ाम जैसे शभु मचन्तकों को िेख सका । वह उन
सेनाओ ं को भी िेख सका मजनर्ें उसके अनेक मर्त्र र्े ।

तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सवामन्बन्धूिवनस्थताि् ।


कृ पया परयानवष्टो नवषीदनन्िदमब्रवीत् ।। २७ ।।

ताि्– उन सब को; समीक्ष्य– िेखकर; सः– वह; कौन्तेयः– कुन्तीपत्रु ; सवामि–् सभी प्रकार के ; बन्धिू –्
सम्बमन्धयों को; अवनस्थताि्– मस्र्त; कृ पया– ियावश; परया– अत्यमधक; आनवष्टः– अमभभतू ; नवषीदि्– शोक
करता हुआ; इदम्– इस प्रकार; अब्रवीत्– बोला;

४०
जब कुन्तीपुत्र अजमुि िे नमत्रों तथा सम्बनन्धयों की इि नवनभन्ि श्रेनणयों को देखा तो वह करुणा से अ
नभभूत हो गया और इस प्रकार बोला ।

अजुमन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजिं कृ ष्ट्ण युयुत्सुं समुपनस्थतम् ।
सीदनन्त मम गात्रानण मुखं च पररश्रुष्ट्यनत ।। २८ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; दृष्ट्वा– िेख कर; इमम्– इन सारे ; स्वजिम्– सम्बमन्धयों को; कृ ष्ट्ण– हे
कृ ष्ट्ण; ययु त्ु समु –् यद्ध
ु की इच्छा रखने वाले; समपु नस्थतम्– उपमस्र्त; सीदनन्त– काँप रहे हैं; मम– र्ेरे; गात्रानण–
शरीर के अंग; मुखम्– र्ँहु ; च– भी; पररशुष्ट्यनत– सूख रहा है ।

अजपनु ने कहा—हे कृ ष्ण! इस प्रकार युद्ध की इच्छा रखने वाले अपने ममत्ऱों तथा सम्बमन्धय़ों को अपने
समक्ष उपमस्थत देखकर मेरे र्रीर के अंग कााँप रहे हैं और मेरा मुाँह सूखा जा रहा है ।

तात्पयमःयर्ार्म भमक्त से युक्त र्नुष्ट्य र्ें वे सारे सद्गणु रहते हैं जो सत्पुरुषों या िेवताओ ं र्ें पाये जाते हैं जबमक
अभक्त अपनी मशक्षा या संस्कृ मत के द्वारा भौमतक योग्यताओ ं र्ें चाहे मकतना ही उन्नत क्यों न हो इस इश्र्वरीय गुणों से
मवहीन होता है । अतः स्वजनों, मर्त्रों तर्ा सम्बमन्धयों को युद्धभमू र् र्ें िेखते ही अजुमन उन सबों के मलए करुणा से
अमभभतू हो गया, मजन्होनें परस्पर युद्ध करने का मनश्चय मकया र्ा । जहाँ तक उसके अपने सैमनकों का सम्बन्ध र्े, वह
उनके प्रमत प्रारम्भ से ियालु र्ा, मकन्तु मवपक्षी िल के सैमनकों मक आसन्न र्ृत्यु को िेखकर वह उन पर भी िया का
अनभु व कर रहा र्ा । और जब वह इस प्रकार सोच रहा र्ा तो उसके अगं ों र्ें कंपन होने लगा और र्ँहु सख ू गया । उन
सबको युद्धामभर्ख ु िेखकर उसे आश्चयम भी हुआ । प्रायः सारा कुटुम्ब, अजुमन के सगे सम्बन्धी उससे युद्ध करने आये
र्े । यद्यमप इसका उल्लेख नहीं है, मकन्तु तो भी सहज अनुर्ान लगाया जा सकता है मक न के वल उसके अगं काँप रहे
र्े और र्ँखु सूख रहा र्ा अमपतु वह ियावश रुिन भी कर रहा र्ा । अजुमन र्ें ऐसे लक्षण मकसी िबु मलता के कारण नहीं
अमपतु हृिय की कोर्लता के कारण र्े जो भगवान् के शद्ध ु भक्त का लक्षण है । अतः कहा गया है –
यस्यास्स्त भस्िभदगवत्यस् ां चना सवैगुदणैस्तत्र समासते सुराः ।
हरावभिस्य ु तो महाद्गणु ा मनोरथेनासस्त धावतो बस्हः ।।
“जो भगवान के प्रमत अमवचल भमक्त रखता है उसर्ें िेवताओ ं के सद्गणु पाये जाते हैं । मकन्तु जो भगवद्भक्त नहीं
है उसके पास भौमतक योग्यताएँ ही रहती हैं मजनका कोई र्ल्ू य नहीं होता । इसका कारण यह है मक वह र्ानमसक
धरातल पर र्ँडराता रहता है और जवलन्त र्ाया के द्वारा अवश्य ही आकृ ष्ट होता है ।” (भागवत ५.९१८.१२)

वेपथश्र्ु च शरीरे मे रोमहषमश्र्च जायते ।


गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव पररदह्यते ।। २९ ।।

४१
वेपथुः– शरीर का कम्पन; च– भी; शरीरे– शरीर र्ें; मे– र्ेरे; रोम-हषमः– रोर्ांच; च– भी; जायते– उत्पन्न हो
रहा है; गाण्डीवम्– अजुमन का धनुष,गाण्डीव; स्त्रंसते– छूट या सरक रहा है; हस्तात्– हार् से; त्वक् – त्वचा; च–
भी; एव– मनश्चय ही; पररदह्यते– जल रही है ।

मेरा सारा शरीर काूँप रहा है, मेरे रोंगटे खडे हो रहे हैं, मेरा गाण्डीव धिुष मेरे हाथ से सरक रहा है और मे
री त्वचा जल रही है ।

तात्पयमः शरीर र्ें िो प्रकार का कम्पन होता है और रोंगटे भी िो प्रकार से खड़े होते हैं । ऐसा या तो आध्यामत्र्क
परर्ानन्ि के सर्य या भौमतक पररमस्र्मतयों र्ें अत्यमधक भय उत्पन्न होने पर होता है । मिव्य साक्षात्कार र्ें कोई भय
नहीं होता । इस अवस्र्ा र्ें अजुमन के जो लक्षण हैं वे भौमतक भय अर्ामत् जीवन की हामन के कारण हैं । अन्य लक्षणो से
भी यह स्पष्ट है; वह इतना अधीर हो गया मक उसका मवख्यात धनुष गाण्डीव उसके हार्ों से सरक रहा र्ा और उसकी
त्वचा र्ें जलन उत्पन्न हो रही र्ी । ये सब लक्षण िेहात्र्बुमद्ध से जन्य हैं ।

ि च शक्िोम्यवस्थातुं रमतीव च मे मिः ।


निनमत्तानि च पश्यानम नवपरीतानि के शव ।। ३० ।।

ि– नहीं; च– भी; शक्िोनम– सर्र्म ह;ँ अवस्थातुम–् खड़े होने र्ें; रमनत– भल
ू ता हुआ; इव– सदृश; च–
तर्ा ; मे– र्ेरा; मिः– र्न; निनमत्तानि– कारण; च– भी; पश्यानम– िेखता ह;ँ नवपरीतानि– मबलकुल
उल्टा; के शव– हे के शी असुर के र्ारने वाले (कृ ष्ट्ण) ।

मैं यहााँ अब और अमधक खडा रहने में असमथप हाँ। मैं अपने को भूल रहा हाँ और मेरा मसर चकरा रहा
है। हे कृ ष्ण! मझ ु े तो के वल अमगं ल के कारण मदख रहे हैं ।

तात्पयमः अपने अधैयम के कारण अजुमन युद्धभमू र् र्ें खड़ा रहने र्ें असर्र्म र्ा और अपने र्न की इस िबु मलता के
कारण उसे आत्र्मवस्र्ृमत हो रही र्ी । भौमतक वस्तुओ ं के प्रमत अत्यमधक आसमक्त के कारण र्नुष्ट्य ऐसी र्ोहर्यी
मस्र्मत र्ें पड़ जाता है । भयां स्ितीयास्भस्नवेशतः स्यात्– (भागवत ११.२.३७) – ऐसा भय तर्ा र्ानमसक असुंतलन उन
व्यमक्तयों र्ें उत्पन्न होता है जो भौमतक पररमस्र्मतयों से ग्रस्त होते हैं । अजुमन को युद्धभमू र् र्ें के वल िख
ु िायी पराजय की
प्रतीमत हो रही र्ी – वह शत्रु पर मवजय पाकर भी सुखी नहीं होगा । स्नस्मत्तास्न स्वपरीतास्न शब्ि र्हत्त्वपूणम हैं । जब
र्नुष्ट्य को अपनी आशाओ ं र्ें के वल मनराशा मिखती है तो वह सोचता है “र्ैं यहाँ क्यों ह?ँ ” प्रत्येक प्राणी अपने र्ें तर्ा
अपने स्वार्म र्ें रूमच रखता है । मकसी की भी परर्ात्र्ा र्ें रूमच नहीं होती । कृ ष्ट्ण की इच्छा से अजुमन अपने स्वार्म के
प्रमत अज्ञान मिखा रहा है । र्नुष्ट्य का वास्तमवक स्वार्म तो मवष्ट्णु या कृ ष्ट्ण र्ें मनमहत है । बद्धजीव इसे भल ू जाता है
इसीमलए उसे भौमतक कष्ट उिाने पड़ते हैं । अजुमन ने सोचा मक उसकी मवजय के वल उसके शोक का कारण बन सकती
है ।

ि च श्रेयोऽिुपश्यानम हत्वा स्वजिमाहवे ।

४२
ि काङ् क्षे नवजयं कृ ष्ट्ण ि च राजयं सुखानि च ।। ३१ ।।

ि – न तो; च– भी; श्रेयः– कल्याण; अिुपश्यानम– पहले से िेख रहा ह;ँ हत्वा– र्ार कर; स्वजिम्– अपने
सम्बमन्धयों को; आहवे– युद्ध र्ें; ि– न तो; काङ् क्षे– आकांक्षा करता ह;ँ नवजयम्– मवजय; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; ि– न
तो; च– भी;राजयम्– राजय;सुखानि– उसका सुख; च– भी ।

हे कृ ष्ण! इस यद्ध
ु में अपने ही स्वजऩों का वध करने से न तो मझ
ु े कोई अच्छाई मदखती है और न, मैं
उससे मकसी प्रकार की मवजय, राज्य या सुख की इच्छा रखता हाँ ।

तात्पयमः यह जाने मबना की र्नुष्ट्य का स्वार्म मवष्ट्णु (या कृ ष्ट्ण) र्ें है सारे बद्धजीव शारीररक सम्बन्धों के प्रमत
यह सोच कर आकमषमत होते हैं मक वे ऐसी पररमस्र्मतयों र्ें प्रसन्न रहेंगे । ऐसी िेहात्र्बुमद्ध के कारण वे भौमतक सुख के
कारणों को भी भल ू जाते हैं । अजुमन तो क्षमत्रय का नैमतक धर्म भी भल ू गया र्ा । कहा जाता है मक िो प्रकार के र्नुष्ट्य
परर् शमक्तशाली तर्ा जाजवल्यर्ान सूयमर्ण्डल र्ें प्रवेश करने के योग्य होते हैं । ये हैं – एक तो क्षमत्रय जो कृ ष्ट्ण की
आज्ञा से युद्ध र्ें र्रता है तर्ा िसू रा संन्यासी जो आध्यामत्र्क अनुशीलन र्ें लगा रहता है । अजुमन अपने शत्रुओ ं को
भी र्ारने से मवर्ख ु हो रहा है – अपने सम्बमन्धयों की बात तो छोड़ िें । वह सोचता है मक स्वजनों को र्ारने से उसे
जीवन र्ें सुख नहीं मर्ल सके गा , अतः वह लड़ने के मलए इच्छुक नहीं है, मजस प्रकार मक भख ू न लगने पर कोई भोजन
बनाने को तैयार नहीं होता । उसने तो वन जाने का मनश्चय कर मलया है जहाँ वह एकांत र्ें मनराशापूणम जीवन काट सके ।
मकन्तु क्षमत्रय होने के नाते उसे अपने जीवनमनवामह के मलए राजय चामहए क्योंमक क्षमत्रय कोई अन्य कायम नहीं कर
सकता । मकन्तु अजुमन के पास राजय कहाँ है? उसके मलए तो राजय प्राप्त करने का एकर्ात्र अवसर है मक अपने बन्ध-ु
बान्धवों से लड़कर अपने मपता के राजय का उत्तरामधकार प्राप्त करे मजसे वह करना नहीं चाह रहा है । इसीमलए वह
अपने को जंगल र्ें एकान्तवास करके मनराशा का एकांत जीवन मबताने के योग्य सर्झता है ।

नकं िो राजयेि गोनवन्द नकं भोगैजीनवतेि वा ।


येषामथे काङ् नक्षतं िो राजयं भोगाः सुखानि च ।। ३२ ।।
त इमेऽवनस्थता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धिानि च ।
आचायामः नपतरः पुत्रास्तथैव च नपतामहाः ।। ३३ ।।
मातुलाः श्र्वश्रुराः पौत्राः श्यालाः सम्बनन्धिस्तथा ।
एतान्ि हन्तुनमच्छानम घ्ितोऽनप मधुसूदि ।। ३४ ।।
अनप त्रैलोक्यराजयस्य हेतोः नकं िु महीकृ ते ।
निहत्य धातमराष्ट्रान्िः का प्रीनत स्याजजिादमि ।। ३५ ।।

नकम्– क्या लाभ; िः– हर्को; राजयेि– राजय से; गोनवन्द– हे कृ ष्ट्ण; नकम्– क्या; भोगैः– भोग
से; जीनवतेि– जीमवत रहने से; वा- अर्वा; येषाम्– मजनके ; अथे– मलए; काङ् नक्षतम्– इमच्छत है; िः– हर्ारे
द्वारा; राजयम्– राजय; भोगाः– भौमतक भोग; सुखानि– सर्स्त सुख; च– भी; ते– वे; इमे– ये; अवनस्थताः–
मस्र्त; युद्धे– युद्धभमू र् र्ें; प्राणाि्– जीवन को; त्यक्त्वा– त्याग कर; धिानि– धन को; च– भी; आचायामः–

४३
गुरुजन; नपतरः– मपतृगण; पुत्राः– पुत्रगण; तथा– और; एव– मनश्चय ही; च– भी; नपतामहाः– मपतार्ह; मातुलाः–
र्ार्ा लोग; श्र्वशुराः– श्र्वसुर; पौत्राः– पौत्र; श्यालाः– साले; सम्बनन्धिः– सम्बन्धी; तथा– तर्ा; एताि्– ये
सब; ि– कभी नहीं; हन्तुम–् र्ारना; इच्छानम– चाहता ह;ँ घ्रतः– र्ारे जाने पर; अनप– भी; मधुसूदि– हे र्धु असुर
के र्ारने वाले (कृ ष्ट्ण); अनप– तो भी; त्रै-लोकस्य – तीनों लोकों के ; राजयस्य– राजय के ; हेतोः– मवमनर्य
र्ें; नकम्ि–ु क्या कहा जाय; मही–कृ ते – पृथ्वी के मलए; निहत्य– र्ारकर; धातमराष्ट्राि्– धृतराष्ट्र के पुत्रों को; िः–
हर्ारी; का– क्या; प्रीनतः– प्रसन्नता; स्यात्– होगी; जिादमि– हे जीवों के पालक ।

हे गोमवन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्य़ोंमक मजन सारे लोग़ों के मलए हम उन्हें
चाहते हैं वे ही इस यद्ध
ु भमू म में खडे हैं। हे मधस
ु दू न! जब गरुु जन, मपतृगण, पत्रु गण, मपतामह, मामा, ससरु ,
पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना अपना धन एवं प्राण देने के मलए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खडे
हैं तो मिर मैं इन सबको क्य़ों मारना चाहाँगा, भले ही वे मुझे क्य़ों न मार डालें? हे जीव़ों के पालक! मैं इन
सब़ों से लडऩे को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीऩों लोक क्य़ों न ममलते ह़ों, इस पृथ्वी की तो बात ही
छोड दें। भला धृतराष्र के पुत्ऱों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता ममलेगी ?

तात्पयमः अजुमन ने भगवान् कृ ष्ट्ण को गोमवन्ि कहकर सम्बोमधत मकया क्योंमक वे गौवोंतर्ा इमन्द्रयों की सर्स्त
प्रसन्नता के मवषय हैं । इस मवमशष्ट शब्ि का प्रयोग करके अजुमन संकेत करता है मक कृ ष्ट्ण यह सर्झें मक अजुमन की
इमन्द्रयाँ कै से तृप्त होंगी । मकन्तु गोमवन्ि हर्ारी इमन्द्रयों को तुष्ट करने के मलए नहीं हैं । हाँ, यमि हर् गोमवन्ि की इमन्द्रयों
को तुष्ट करने का प्रयास करते हैं तो हर्ारी इमन्द्रयाँ स्वतः तुष्ट होती हैं । भौमतक दृमष्ट से, प्रत्येक व्यमक्त अपनी इमन्द्रयों
को तुष्ट करना चाहता है और चाहता है मक ईश्र्वर उसके आज्ञापालक की तरह कार् करें । मकन्तु ईश्र्वर उनकी तृमप्त वहीं
तक करते हैं मजतनी के वे पात्र होते हैं – उस हि तक नहीं मजतना वे चाहते हैं । मकन्तु जब कोई इसके मवपरीत र्ागम
ग्रहण करता है अर्ामत् जब वह अपनी इमन्द्रयों की तृमप्त की मचन्ता न करके गोमवन्ि की इमन्द्रयों की तुमष्ट करने का प्रयास
करता है तो गोमवन्ि की कृ पा से जीव की सारी इच्छाएँ पणू म हो जाती हैं । यहाँ पर जामत तर्ा कुटुमम्बयों के प्रमत अजमनु
का प्रगाढ़ स्नेह आंमशक रूप से इन सबके प्रमत उसकी स्वभामवक करुणा के कारण है । अतः वह युद्ध करने के मलए
तैयार नहीं है । हर व्यमक्त अपने वैभव का प्रिशमन अपने मर्त्रों तर्ा पररजनों के सर्क्ष करना चाहता है मकन्तु अजुमन को
भय है मक उसके सारे मर्त्र तर्ा पररजन युद्धभमू र् र्ें र्ारे जायेंगे और वह मवजय के पश्चात् उनके सार् अपने वैभव का
उपयोग नहीं कर सके गा । भौमतक जीवन का यह सार्ान्य लेखाजोखा है । मकन्तु आध्यामत्र्क जीवन इससे सवमर्ा
मभन्न होता है । चँमू क भक्त भगवान् की इच्छाओ ं की पूमतम करना चाहता है अतः भगवि-् इच्छा होने पर वह भगवान् की
सेवा के मलए सारे एश्र्वयम स्वीकार कर सकता है मकन्तु यमि भगवि-् इच्छा न हो तो वह एक पैसा भी ग्रहण नहीं करता ।
अजुमन अपने सम्बमन्धयों को र्ारना नहीं चाह रहा र्ा और यमि उनको र्ारने की आवश्यकता हो तो अजुमन की इच्छा
र्ी मक कृ ष्ट्ण स्वयं उनका वध करें । इस सर्य उसे पता नहीं है मक कृ ष्ट्ण उन सबों को युद्धभमू र् र्ें आने के पूवम ही र्ार
चक ु े हैं और अब उसे मनमर्त्त र्ात्र बनना है । इसका उद्घाटन अगले अध्यायों र्ें होगा । भगवान् का असली भक्त होने के
कारण अजुमन अपने अत्याचारी बन्ध-ु बान्धवों से प्रमतशोध नहीं लेना चाहता र्ा मकन्तु यह तो भगवान् की योजना र्ी
मक सबका वध हो । भगवद्भक्त िष्टु ों से प्रमतशोध नहीं लेना चाहते मकन्तु भगवान् िष्टु ों द्वारा भक्त के उत्पीड़न को सहन
नहीं कर पाते । भगवान् मकसी व्यमक्त को अपनी इच्छा से क्षर्ा कर सकते हैं मकन्तु यमि कोई उनके भक्तों को हामन

४४
पहुचँ ाता है तो वे क्षर्ा नहीं करते । इसीमलए भगवान् इन िरु ाचाररयों का वध करने के मलए उद्यत र्े यद्यमप उन्हें क्षर्ा
करना चाहता र्ा ।

पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतािाततानयिः ।
तस्मान्िाहाम वयं हन्तुं धातमराष्ट्रान्सबान्धवाि्
स्वजिं नह कथं हत्वा सुनखिः स्याम माधव ।। ३६ ।।

पापम् - पाप; एव– मनश्चय ही; आश्र्येत–् लगेगा; अस्माि्– हर्को; हत्वा– र्ारकर; एताि्– इन
सब; आततानयिः– आततामययों को; तस्मात्– अतः; ि– कभी नहीं; अहामः– योग्य; वयम्– हर्; हन्तमु –् र्ारने के
मलए; धातमराष्ट्राि्– धृतराष्ट्र के पुत्रों को; स-बान्धवाि्– उनके मर्त्रों समहत; स्व-जिम्– कुटुमम्बयों को; नह– मनश्चय
ही; कथम्– कै से; हत्वा– र्ारकर; सुनखिः– सुखी; स्याम– हर् होंगे; माधव– हे लक्ष्र्ीपमत कृ ष्ट्ण ।

यनद हम ऐसे आततानययों का वध करते हैं तो हम पर पाप चढेगा, अतः यह उनचत िहीं होगा नक हम
धृतराष्ट्र के पुत्रों तथा उिके नमत्रों का वध करें । हे लक्ष्मीपनत कृ ष्ट्ण! इससे हमें क्या लाभ होगा? और अपिे
ही कुटुनम्बयों को मार कर हम नकस प्रकार सुखी हो सकते हैं?

तात्पयमः वैमिक आिेशानुसार आततायी छः प्रकार के होते हैं – (१) मवष िेने वाला, (२) घर र्ें अमग्न लगाने
वाला, (३) घातक हमर्यार से आक्रर्ण करने वाला, (४) धन लूटने वाला, (५) िसू रे की भमू र् हड़पने वाला, तर्ा (६)
पराई स्त्री का अपहरण करने वाला । ऐसे आततामययों का तुरन्त वध कर िेना चामहए क्योंमक इनके वध से कोई पाप
नहीं लगता । आततामययों का इस तरह वध करना मकसी सार्ान्य व्यमक्त को शोभा िे सकता है मकन्तु अजमनु कोई
सार्ान्य व्यमक्त नहीं है । वह स्वभाव से साधु है अतः वह उनके सार् साधवु त् व्यवहार करना चाहता र्ा । मकन्तु इस
प्रकार का व्यवहार क्षमत्रय के मलए उपयुक्त नहीं है । यद्यमप राजय के प्रशासन के मलए उत्तरिायी व्यमक्त को साधु प्रकृ मत
का होना चामहए मकन्तु उसे कायर नहीं होना चामहए । उिाहरणार्म, भगवान् रार् इतने साधु र्े मक आज भी लोग
रार्राजय र्ें रहना चाहते हैं मकन्तु कभी कायरता प्रिमशमत नहीं की । रावण आततायी र्ा क्योंमक वह रार् की पत्नी सीता
का अपहरण करके ले गया र्ा मकन्तु रार् ने उसे ऐसा पाि पढ़ाया जो मवश्र्व-इमतहास र्ें बेजोड़ है । अजुमन के प्रसंग र्ें
मवमशष्ट प्रकार के आततामययों से भेंट होती है – ये हैं उसके मनजी मपतार्ह, आचायम, मर्त्र, पुत्र, पौत्र इत्यामि । इसीमलए
अजुमन ने मवचार मकया मक उनके प्रमत वह सार्ान्य आततामययों जैसा कटु व्यवहार न करे । इसके अमतररक्त, साधु पुरुषों
को तो क्षर्ा करने की सलाह िी जाती है । साधु पुरुषों के मलए ऐसे आिेश मकसी राजनीमतक आपातकाल से अमधक
र्हत्त्व रखते हैं । इसीमलए अजुमन ने मवचार मकया मक राजनीमतक कारणों से स्वजनों को र्ार कर वह अपने जीवन तर्ा
शाश्र्वत र्मु क्त को संकट र्ें क्यों डाले? अजुमन द्वारा ‘कृ ष्ट्ण’ को ‘र्ाधव’ अर्वा ‘लक्ष्र्ीपमत’ के रूप र्ें सम्बोमधत करना
भी सार्मक है । वह लक्ष्र्ीपमत कृ ष्ट्ण को यह बताना चाह रहा र्ा मक वे उसे ऐसा कार् करने के मलए प्रेररत न करें ,
मजससे अमनष्ट हो । मकन्तु कृ ष्ट्ण कभी भी मकसी का अमनष्ट नहीं चाहते, भक्तों का तो किामप नहीं ।

यद्यप्येते ि पश्यनत लोभोपहतचेतसः ।


कुलक्षयकृ तं दोषं नमत्रद्रोहे च पातकम् ।। ३७ ।।

४५
कथं ि ज्ञेयमस्मानभः पापादस्मानन्िवनतमतुम् ।
कुलक्षयकृ तं दोषं प्रपश्यनिजमिादमि ।। ३८ ।।

यनद– यमि; अनप– भी; एते– ये; ि– नहीं; पश्यनन्त - िेखते हैं; लोभ– लोभ से; उपहत– अमभभतू ; चेतसः–
मचत्त वाले; कुल-क्षय– कुल-नाश; कृ तम्– मकया हुआ; दोषम्– िोष को; नमत्र-द्रोहे– मर्त्रों से मवरोध करने र्ें; च–
भी; पातकम्– पाप को; कथम्– क्यों; ि– नहीं; ज्ञेयम्– जानना चामहए; अस्मानभः– हर्ारे द्वारा; पापात्– पापों
से; अस्मात्– इन; निवनतमतमु –् बन्ि करने के मलए; कुल-क्षय– वश ं का नाश; कृ तम्– हो जाने पर; दोषम्–
अपराध; प्रपश्यनिः– िेखने वालों के द्वारा; जिादमि– हे कृ ष्ट्ण!

हे जिादमि! यद्यनप लोभ से अनभभूत नचत्त वाले ये लोग अपिे पररवार को मारिे या अपिे नमत्रों से द्रो
ह करिे में कोई दोष िहीं देखते नकन्तु हम लोग, जो पररवार के नविष्ट करिे में अपराध देख सकते हैं, ऐसे पा
पकमों में क्यों प्रवृत्त हों?

तात्पयमः क्षमत्रय से यह आशा नहीं की जाती मक वह अपने मवपक्षी िल द्वारा युद्ध करने या जुआ खेलने का
आर्न्त्रण मिये जाने पर र्ना करे । ऐसी अमनवायमता र्ें अजुमन लड़ने से नकार नहीं सकता क्योंमक उसको ियु ोधन के िल
ने ललकारा र्ा । इस प्रसंग र्ें अजुमन ने मवचार मकया मक हो सकता है मक िसू रा पक्ष इस ललकार के पररणार्ों के प्रमत
अनमभज्ञ हो । मकन्तु अजुमन को तो िष्ट्ु पररणार् मिखाई पड़ रहे र्े अतः वह इस ललकार को स्वीकार नहीं कर सकता ।
यमि पररणार् अच्छा हो तो कतमव्य वस्तुतः पालनीय है मकन्तु यमि पररणार् मवपरीत हो तो हर् उसके मलए बाध्य नहीं
होते । इन पक्ष-मवपक्षों पर मवचार करके अजुमन ने युद्ध न करने का मनश्चय मकया ।

कुलक्षये प्रणश्यनन्त कुलधमामः सिातिाः ।


धमे िष्टे कुलं कृ त्स्िमधमोऽनभभवत्यतु ।। ३९ ।।

कुल-क्षये– कुल का नाश होने पर; प्रणश्यनन्त– मवनष्ट हो जाती हैं; कुल-धमामः– पाररवाररक
परम्पराएँ; सिातिाः– शाश्र्वत; धमे– धर्म; िष्टे– नष्ट होने पर; कुलम्– कुल को; कृ त्स्िम्– सम्पूणम; अधममः–
अधर्म; अनभभवनत– बिल िेता है; उत– कहा जाता है ।

कुल का नार् होने पर सनातन कुल-परम्परा नष्ट हो जाती है और इस तरह र्ेष कुल भी अधमप में
प्रवृत्त हो जाता है ।

तात्पयमः वणामश्रर् व्यवस्र्ा र्ें धामर्मक परम्पराओ ं के अनेक मनयर् हैं मजनकी सहायता से पररवार के सिस्य
िीक से उन्नमत करके आध्यामत्र्क र्ल्ू यों की उपलमब्ध कर सकते हैं । पररवार र्ें जन्र् से लेकर र्ृत्यु तक के सारे
सस्ं कारों के मलए वयोवृद्ध लोग उत्तरिायी होते हैं । मकन्तु इन वयवृद्धों की र्ृत्यु के पश्चात् सस्ं कार सम्बन्धी पाररवाररक
परम्पराएँ रुक जाती हैं और पररवार के जो तरुण सिस्य बचे रहते हैं वे अधर्मर्य व्यसनों र्ें प्रवृत्त होने से र्मु क्त-लाभ से
वमं चत रह सकते हैं । अतः मकसी भी कारणवश पररवार के वयोवृद्धों का वध नहीं होना चामहए ।

४६
अधमामनभभवात्कृ ष्ट्ण प्रदुष्ट्यनन्त कुलनस्त्रयः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वाष्ट्णेय जायते वणमसङ् करः।। ४० ।।

अधमम– अधर्म; अनभभावत्– प्रर्ख ु होने से; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; प्रदुष्ट्यनन्त– िमू षत हो जाती हैं; कुल-नस्त्रयः–
कुल की मस्त्रयाँ; स्त्रीषु– स्त्रीत्व के ; दुष्टासु– िमू षत होने से; वाष्ट्णेय– हे वृमष्ट्णवंशी; जायते– उत्पन्न होती है; वणम–
सङ् करः– अवामं छत सन्तान ।

हे कृ ष्ट्ण! जब कुल में अधमम प्रमख


ु हो जाता है तो कुल की नस्त्रयाूँ दूनषत हो जाती हैं और स्त्रीत्व के पत
ि से हे वृनष्ट्णवंशी! अवांनछत सन्तािें उत्पन्ि होती हैं ।

तात्पयमः जीवन र्ें शामन्त, सुख तर्ा आध्यामत्र्क उन्नमत का र्ख्ु य मसद्धान्त र्ानव सर्ाज र्ें अच्छी सन्तान का
होना है । वणामश्रर् धर्म के मनयर् इस प्रकार बनाये गये र्े मक राजय तर्ा जामत की आध्यामत्र्क उन्नमत के मलए सर्ाज
र्ें अच्छी संतान उत्पन्न हो । ऐसी सन्तान सर्ाज र्ें स्त्री के सतीत्व और मनिा पर मनभमर करती है । मजस प्रकार बालक
सरलता से कुर्ागमगार्ी बन जाते हैं उसी प्रकार मस्त्रयाँ भी पत्नोन्र्ख
ु ी होती हैं । अतः बालकों तर्ा मस्त्रयों िोनों को ही
सर्ाज के वयोवृद्धों का संरक्षण आवश्यक है । मस्त्रयाँ मवमभन्न धामर्मक प्रर्ाओ ं र्ें संलग्न रहने पर व्यमभचाररणी नहीं
होंगी । चाणक्य पंमडत के अनुसार सार्ान्यतया मस्त्रयाँ अमधक बुमद्धर्ान नहीं होतीं अतः वे मवश्र्वसनीय नहीं हैं ।
इसमलए उन्हें मवमवध कुल-परम्पराओ ं र्ें व्यस्त रहना चामहए और इस तरह उनके सतीत्व तर्ा अनुरमक्त से ऐसी सन्तान
जन्र्ेगी जो वणामश्रर् धर्म र्ें भाग लेने के योग्य होगी । ऐसे वणामश्रर्-धर्म के मवनाश से यह स्वाभामवक है मक मस्त्रयाँ
स्वतन्त्रतापवू मक परुु षों से मर्ल सकें गी और व्यमभचार को प्रश्रय मर्लेगा मजससे अवामं छत सन्तानें उत्पन्न होंगी ।
मनिल्ले लोग भी सर्ाज र्ें व्यमभचार को प्रेररत करते हैं और इस तरह अवांमछत बच्चो की बाढ़ आ जाती है मजससे
र्ानव जामत पर युद्ध और र्हार्ारी का संकट छा जाता है ।

सङ् करो िरकायैव कुलघ्िािां कुलस्य च ।


पतनन्त नपतरो ह्येषां लुप्तनपण्डोदकनक्रयाः ।। ४१ ।।

सङ् करः – ऐसे अवांमछत बच्चे; िरकाय– नारकीय जीवन के मलए; एव– मनश्चय ही; कुल-घ्िािाम्– कुल का
वध करने वालों के ; कुलस्य– कुल के ; च– भी; पतनन्त– मगर जाते हैं; नपतरः– मपतृगण; नह– मनश्चय ही; एषाम्–
इनके ;लुप्त– सर्ाप्त;नपण्ड– मपण्ड अपमण की; उदक– तर्ा जल की; नक्रयाः– मक्रया, कृ त्य ।

अवानं छत सन्तािों की वृनद्ध से निश्चय ही पररवार के नलए तथा पाररवाररक परम्परा को नविष्ट करिे वा
लों के नलए िारकीय जीवि उत्पन्ि होता है । ऐसे पनतत कुलों के पुरखे (नपतर लोग) नगर जाते हैं क्योंनक उन्हें
जल तथा नपण्ड दाि देिे की नक्रयाएूँ समाप्त हो जाती हैं ।

४७
तात्पयमः सकार् कर्म के मवमधमवधानों के अनुसार कुल के मपतरों को सर्य-सर्य पर जल तर्ा मपण्डिान मिया
जाना चामहए । यह िान मवष्ट्णु पूजा द्वारा मकया जाता है क्योंमक मवष्ट्णु को अमपमत भोजन के उमच्छष्ट भाग (प्रसाि) के
खाने से सारे पापकर्ों से उद्धार हो जाता है । कभी-कभी मपतरगण मवमवध प्रकार के पापकर्ों से ग्रस्त हो सकते हैं और
कभी-कभी उनर्ें से कुछ को स्र्ूल शरीर प्राप्त न हो सकने के कारण उन्हें प्रेतों के रूप र्ें सूक्ष्र् शरीर धारण करने के
मलए बाध्य होना पड़ता है । अतः जब वंशजों द्वारा मपतरों को बचा प्रसाि अमपमत मकया जाता है तो उनका प्रेतयोनी या
अन्य प्रकार के िख ु र्य जीवन से उद्धार होता है । मपतरों को इस प्रकार की सहायता पहुचँ ाना कुल-परम्परा है और जो
लोग भमक्त का जीवन-यापन नहीं करते उन्हें ये अनुिान करने होते हैं । के वल भमक्त करने से र्नुष्ट्य सैकड़ो क्या हजारों
मपतरों को ऐसे संकटों से उबार सकता है । भागवत र्ें (११.५.४१) कहा गया है –
र्ेवस्षद भतू ाप्तनृणाां स्पतणॄ ाां न स् ां रो नायमृणी च राजन् ।
सवादत्मना यः शरणां शरण्यां गतो मु ु न्र्ां पररहृत्य तदम् ।।
“जो पुरुष अन्य सर्स्त कतमव्यों को त्याग कर र्ुमक्त के िाता र्क ु ु न्ि के चरणकर्लों की शरण ग्रहण करता है
और इस पर् पर गम्भीरतापूवमक चलता है वह िेवताओ,ं र्मु नयों, सार्ान्य जीवों, स्वजनों, र्नुष्ट्यों या मपतरों के प्रमत
अपने कतमव्य या ऋण से र्क्त ु हो जाता है ।” श्रीभगवान् की सेवा करने से ऐसे िामयत्व अपने आप पुरे हो जाते हैं ।

दोषैरेतैः कुलघ्िािां वणमसङ् करकारकै : ।


उत्साद्यन्ते जानतधमामः कुलधमामश्र्च शाश्र्वताः ।। ४२ ।।

दोषैः– ऐसे िोषों से; एतैः– इन सब; कुलघ्िािाम्– पररवार नष्ट करने वालों का; वणम-सङ् कर– अवांमछत
सतं ानों के ; कारकै ः– कारणों से; उत्साद्यन्ते– नष्ट हो जाते हैं; जानत-धमामः– सार्िु ामयक योजनाएँ; कुल-धमामः–
पाररवाररक परम्पराएँ; च– भी; शाश्र्वताः– सनातन ।

जो लोग कुल-परम्परा को मवनष्ट करते हैं और इस तरह अवामं छत सन्ताऩों को जन्म देते हैं उनके
दुष्कमों से समस्त प्रकार की सामुदामयक योजनाएाँ तथा पाररवाररक कल्याण- कायप मवनष्ट हो जाते हैं ।

तात्पयमः सनातन-धर्म या वणामश्रर्-धर्म द्वारा मनधामररत र्ानव सर्ाज के चारों वणों के मलए सार्िु ामयक योजनाएँ
तर्ा पाररवाररक कल्याण-कायम इसमलए मनयोमजत हैं मक र्नुष्ट्य चरर् र्ोक्ष प्राप्त कर सके । अतः सर्ाज के अनुत्तरिायी
नायकों द्वारा सनातन-धर्म परम्परा के मवखण्डन से उस सर्ाज र्ें अव्यवस्र्ा िै लती है, िलस्वरूप लोग जीवन के
उद्देश्य मवष्ट्णु को भल
ू जाते हैं । ऐसे नायक अंधे कहलाते हैं और जो लोग इनका अनुगर्न करते हैं वे मनश्चय ही
कुव्यवस्र्ा की ओर अग्रसर होते हैं ।

उत्सन्िकुलधमामणां मिष्ट्ु याणां जिादमि ।


िरके नियतं वासो भवतीत्यिुश्रुश्रुम ।। ४३ ।।

४८
उत्सन्ि– मवनष्ट; कुल-धमामणाम्– पाररवाररक परम्परा वाले; मिुष्ट्याणाम्– र्नुष्ट्यों का; जिादमि– हे
कृ ष्ट्ण; िरके – नरक र्ें; नियतम्– सिैव; वासः– मनवास; भवनत– होता है; इनत– इस प्रकार; अिुशुश्रुम– गुरु-परम्परा
से र्ैनें सुना है ।

हे प्रजापालक कृ ष्ण! मैं ने गुरु-परम्परा से सुना है मक जो लोग कुल-धमप का मवनार् करते हैं, वे सदैव
नरक में वास करते हैं ।

तात्पयमः अजुमन अपने तकों को अपने मनजी अनुभव पर न आधाररत करके आचायों से जो सुन रखा है उस पर
आधाररत करता है । वास्तमवक ज्ञान प्राप्त करने की यही मवमध है । मजस व्यमक्त ने पहले से ज्ञान प्राप्त कर रखा है उस
व्यमक्त की सहायता के मबना कोई भी वास्तमवक ज्ञान तक नहीं पहुचँ सकता । वणामश्रर्-धर्म की एक पद्धमत के अनुसार
र्ृत्यु के पवू म र्नुष्ट्य को पापकर्ों के मलए प्रायमश्चत्त करना होता है । जो पापात्र्ा है उसे इस मवमध का अवश्य उपयोग
करना चामहए । ऐसा मकये मबना र्नुष्ट्य मनमश्चत रूप से नरक भेजा जायेगा जहाँ उसे अपने पापकर्ों के मलए कष्टर्य
जीवन मबताना होगा ।

अहो बत महत्पापं कतंु व्यवनसता वयम् ।


यद्राजयसुखलोभेि हन्तुं स्वजिमुद्यताः ।। ४४ ।।

अहो– ओह; बत– मकतना आश्चयम है यह; महत्– र्हान; पापम्– पाप कर्म; कतममु –् करने के
मलए; व्यवनसता– मनश्चय मकया है; वयम्– हर्ने; यत्– क्योंमक; राजय-सुख-लोभेि– राजय-सख
ु के लालच र्ें
आकर; हन्तमु –् र्ारने के मलए; स्वजिम्– अपने सम्बमन्धयों को; उद्यताः– तत्पर ।

ओह! नकतिे आश्चयम की बात है नक हम सब जघन्य पापकमम करिे के नलए उद्यत हो रहे हैं । राजयसख

भोगिे नक इच्छा से प्रेररत होकर हम अपिे सम्बनन्धयों को मारिे पर तुले हैं ।

तात्पयमः स्वार्म के वशीभतू होकर र्नुष्ट्य अपने सगे भाई, बाप या र्ाँ के वध जैसे पापकर्ों र्ें प्रवृत्त हो सकता
है । मवश्र्व के इमतहास र्ें ऐसे अनेक उिाहरण मर्लते हैं । मकन्तु भगवान् का साधु भक्त होने के कारण अजुमन सिाचार के
प्रमत जागरूक है । अतः वह ऐसे कायों से बचने का प्रयत्न करता है ।

यनद मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।


धातमराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।। ४५ ।।

यनद– यमि; माम्– र्झु को; अप्रनतकारम्– प्रमतरोध न करने के कारण; अशस्त्रम्– मबना हमर्यार के ; शस्त्र-
पाणयः– शस्त्रधारी; धातमराष्ट्राः– धृतराष्ट्र के पत्रु ; रणे– युद्धभमू र् र्ें; हन्यःु – र्ारें ; तत्– वह; मे– र्ेरे मलए; क्षेम-
तरम्– श्रेयस्कर; भवेत–् होगा ।

४९
यनद शस्त्रधारी धृतराष्ट्र के पुत्र मुझ निहत्थे तथा रणभूनम में प्रनतरोध ि करिे वाले को मारें, तो यह मेरे
नलए श्रेयस्कर होगा ।

तात्पयमः क्षमत्रयों के युद्ध-मनयर्ों के अनुसार ऐसी प्रर्ा है मक मनहत्र्े तर्ा मवर्ुख शत्रु पर आक्रर्ण न मकया
जाय । मकन्तु अजुमन ने मनश्चय मकया मक शत्रु भले ही इस मवषर् अवस्र्ा र्ें उस पर आक्रर्ण कर िें, मकन्तु वह युद्ध नहीं
करे गा । उसने इस पर मवचार नहीं मकया मक िसू रा िल युद्ध के मलए मकतना उद्यत है । इस सब लक्षणों का कारण उसकी
ियाद्रता है जो भगवान् के र्हान भक्त होने के कारण उत्पन्न हुई ।

सञ्जय उवाच
एवमुिवाजमिु ः संख्ये रथोपस्थ उपानवशत् ।
नवसृजय सशरं चापं शोकसनं वग्िमािसः ।। ४६ ।।

सञ्जयः उवाच– संजय ने कहा; एवम्– इस प्रकार; उक्त्वा– कहकर; अजमिु ः– अजुमन; संख्ये– युद्धभमू र्
र्ें; रथ– रर् के ; उपस्थे– आसन पर; उपानवशत्– पुनः बैि गया; नवसृजय– एक ओर रखकर; स-शरम्– बाणों
समहत; चापम्– धनुष को; शोक– शोक से; संनवग्ि– संतप्त, उमद्वग्न; मािसः– र्न के भीतर ।

संजय ने कहा—युद्धभूमम में इस प्रकार कह कर अजपनु ने अपना धनुष तथा बाण एक ओर रख मदया
और र्ोकसंतप्त मचत्त से रथ के आसन पर बैठ गया ।

तात्पयमः अपने शत्रु की मस्र्मत का अवलोकन करते सर्य अजमनु रर् पर खड़ा हो गया र्ा, मकन्तु वह शोक से
इतना संतप्त हो उिा मक अपना धनुष-बाण एक ओर रख कर रर् के आसन पर पुनः बैि गया । ऐसा ियालु तर्ा
कोर्लहृिय व्यमक्त, जो भगवान् की सेवा र्ें रत हो, आत्र्ज्ञान प्राप्त करने योग्य है ।

इस प्र ार भगवद्गीता े प्रथम अध्याय ” ु रुक्षेत्र े प्रथम युद्धस्थल में सैन्यस्नररक्षण” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद
पूणद हुआ ।

५०
अध्याय दो
गीता का सार
सञ्जय उवाच
तं तथा कृ पयानवष्टमश्रुपूणामकुलेक्षणम् ।
नवषीदन्तनमदं वाक्यमवु ाच मधुसूदिः ।। १ ।।

सञ्जयः उवाच– संजय ने कहा; तम्– अजुमन के प्रमत; तथा– इस प्रकार; कृ पया– करुणा से; आनवष्टम्–
अमभभतू ; अश्रु-पूणम-आकुल– अश्रओ
ु ं से पूणम; ईक्षणम्– नेत्र; नवषीदन्तम्– शोकयुक्त; इदम्– यह;
वाक्यम्– वचन; उवाच– कहा; मधु-सदू िः– र्धु का वध करने वाले (कृ ष्ट्ण) ने ।

संजय िे कहा – करुणा से व्याप्त, शोकयुि, अश्रुपूररत िेत्रों वाले अजमिु को देख कर मधुसूदि कृ ष्ट्ण िे
ये शब्द कहे ।

तात्पयमः भौमतक पिार्ों के प्रमत करुणा, शोक तर्ा अश्रु – ये सब असली आत्र्ा को न जानने का लक्षण
हैं । शाश्र्वत आत्र्ा के प्रमत करुणा ही आत्र्-साक्षात्कार है । इस श्लोक र्ें र्धुसूिन शब्ि र्हत्त्वपूणम है । कृ ष्ट्ण ने र्धु
नार्क असुर का वध मकया र्ा और अब अजुमन चाह रहा है मक कृ ष्ट्ण अज्ञान रूपी असुर का वध करें मजसने उसे
कतमव्य से मवर्ख ु कर रखा है । यह कोई नहीं जानता मक करुणा का प्रयोग कहाँ होना चामहए । डूबते हुए र्नुष्ट्य के वस्त्रों
के मलए करुणा र्ख ु मता होगी । अज्ञान-सागर र्ें मगरे हुए र्नुष्ट्य को के वल उसके बाहरी पहनावे अर्ामत् स्र्ूल शरीर की
रक्षा करके नहीं बचाया जा सकता । जो इसे नहीं जानता और बाहरी पहनावे के मलए शोक करता है, वह शद्रु कहलाता
है अर्ामत् वह वृर्ा ही शोक करता है । अजुमन तो क्षस्त्रय र्ा, अतः उससे ऐसे आचरण की आशा न र्ी । मकन्तु भगवान्
कृ ष्ट्ण अज्ञानी पुरुष के शोक को मवनष्ट कर सकते हैं और इसी उद्देश्य से उन्होंने भगवद्गीता का उपिेश मिया । यह
अध्याय हर्ें भौमतक शरीर तर्ा आत्र्ा के वैश्लेमषक अध्ययन द्वारा आत्र्-साक्षात्कार का उपिेश िेता है, मजसकी
व्याख्या परर् अमधकारी भगवान् कृ ष्ट्ण द्वारा की गई है । यह साक्षात्कार तभी सम्भव है जब र्नष्ट्ु य मनष्ट्कार् भाव से कर्म
करे और आत्र्-बोध को प्राप्त हो ।

श्रीभगवानवु ाच
कुतस्त्वा कश्मलनमदं नवषमे समपु नस्थतम् ।
अिायमजुष्टमस्वग्यममकीनतमकरमजमिु ।। २ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; कुतः– कहाँ से; त्वा– तुर्को; कश्मलम्– गंिगी, अज्ञान; इदम्– यह
शोक; नवषमे– इस मवषर् अवसर पर; समुपनस्थतम्– प्राप्त हुआ; अिायम– वे लोग जो जीवन के र्ल्ू य को नहीं

५१
सर्झते; जुष्टम्– आचररत; अस्वग्यमम–् उच्च लोकों को जो न ले जाने वाला; अकीनतम– अपयश का; करम्–
कारण; अजमिु – हे अजुमन ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे अजमिु ! तुम्हारे मि में यह कल्मष आया कै से? यह उस मिुष्ट्य के नलए तनिक
भी अिुकूल िहीं है, जो जीवि के मूल्य को जािता हो । इससे उच्चलोक की िहीं अनपतु अपयश की प्रानप्त
होती है ।

तात्पयमः श्रीकृ ष्ट्ण तर्ा भगवान् अमभन्न हैं, इसीमलए श्रीकृ ष्ट्ण को सम्पूणम गीता र्ें भगवान् ही कहा गया है ।
भगवान् परर् सत्य की पराकािा हैं । परर्सत्य का बोध ज्ञान की तीन अवस्र्ाओ ं र्ें होता है – ब्रह्म या मनमवमशेष
सवमव्यापी चेतना, परर्ात्र्ा या भगवान् का अन्तयामर्ी रूप जो सर्स्त जीवों के हृिय र्ें है तर्ा भगवान् या श्रीभगवान्
कृ ष्ट्ण । श्रीमद्भागवत र्ें (१.२.११) परर् सत्य की यह धारणा इस प्रकार बताई गई है –
वर्स्न्त तत्तत्त्वस्वर्स्तत्त्वां यज्यानमियम् ।
ब्रह्मेस्त परमात्मेस्तभगवास्नस्त शब्द्यते ।।
“परर् सत्य का ज्ञाता परर्सत्य का अनुभव ज्ञान की तीन अवस्र्ाओ ं र्ें करता है, और ये सब अवस्र्ाएँ
एकरूप हैं । ये ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् के रूप र्ें व्यक्त की जाती हैं ।”
इन तीन मिव्य पक्षों को सूयम के दृष्टान्त द्वारा सर्झाया जा सकता है क्योंमक उसके भी तीन मभन्न पक्ष होते हैं –
यर्ा, धपू (प्रकाश), सूयम की सतह तर्ा सूयमलोक स्वयं । जो सूयम के प्रकाश का अध्ययन करता है वह नौमसमखया है ।
जो सूयम की सतह को सर्झता है वह कुछ आगे बढ़ा हुआ होता है और जो सूयमलोक र्ें प्रवेश कर सकता है वह
उच्चतर् ज्ञानी है । जो नौमसमखया सूयम प्रकाश – उसकी मवश्र्व व्यामप्त तर्ा उसकी मनमवमशेष प्रकृ मत के अखण्ड तेज – के
ज्ञान से ही तष्टु हो जाता है वह उस व्यमक्त के सर्ान है जो परर् सत्य के ब्रह्म रूप को ही सर्झ सकता है । जो व्यमक्त
कुछ अमधक जानकार है वह सूयम गोले के मवषय र्ें जान सकता है मजसकी तुलना परर् सत्य के परर्ात्र्ा स्वरूप से की
जामत है । जो व्यमक्त सयू मलोक के अन्तर र्ें प्रवेश कर सकता है उसकी तल ु ना उससे की जाती है जो परर् सत्य के
साक्षात् रूप की अनुभमू त प्राप्त करता है । अतः मजन भक्तों ने परर्सत्य के भगवान् स्वरूप का साक्षात्कार मकया है वे
सवोच्च अध्यात्र्वािी हैं, यद्यमप परर् सत्य के अध्ययन र्ें रत सारे मवद्यार्ी एक ही मवषय के अध्ययन र्ें लगे हुए हैं ।
सूयम का प्रकाश, सूयम का गोला तर्ा सूयमलोक की भीतरी बातें – इन तीनों को एक िसू रे से मवलग नहीं मकया जा
सकता, मिर भी तीनों अवस्र्ाओ ं के अध्येता एक ही श्रेणी के नहीं होते ।
संस्कृ त शब्ि भगवान्की व्याख्या व्यासिेव के मपता पराशर र्मु न ने की है । सर्स्त धन, शमक्त, यश, सौंियम, ज्ञान
तर्ा त्याग से युक्त परर् पुरुष भगवान् कहलाता है । ऐसे अनेक व्यमक्त हैं जो अत्यन्त धनी हैं, अत्यन्त शमक्तर्ान हैं,
अत्यन्त सुन्िर हैं और अत्यन्त मवख्यात, मवद्वान् तर्ा मवरक्त भी हैं, मकन्तु कोई सामधकार यह नहीं कह सकता मक
उसके पास सारा धन, शमक्त आमि है । एकर्ात्र कृ ष्ट्ण ही ऐसा िावा कर सकते हैं क्योंमक वे भगवान् हैं । ब्रह्मा, मशव या
नारायण समहत कोई भी जीव कृ ष्ट्ण के सर्ान पणू म एश्र्वयमवान नहीं है । अतः ब्रह्मसस्ां हता र्ें स्वयं ब्रह्माजी का मनणमय है
मक श्रीकृ ष्ट्ण स्वयं भगवान् हैं । न तो कोई उनके तुल्य है, न उनसे बढ़कर है । वे आमि स्वार्ी या भगवान् हैं, गोमवन्ि रूप
र्ें जाने जाते हैं और सर्स्त कारणों के परर् कारण हैं –
ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः सस्चचर्ानन्र् स्वग्रहः ।
अनास्र्रास्र्गोस्वन्र्ः सवद ारण ारणम् ।।

५२
“ऐसे अनेक पुरुष हैं जो भगवान् के गुणों से युक्त हैं, मकन्तु कृ ष्ट्ण परर् हैं क्योंमक उनसे बढ़कर कोई नहीं है । वे
परर्परुु ष हैं और उनका शरीर समच्चिानन्िर्य है । वे आमि भगवान् गोमवन्ि हैं और सर्स्त कारणों के कारण हैं ।”
(ब्रह्मसांस्हता ५.१)
भागवत र्ें भी भगवान् के नाना अवतारों की सूची है, कृ ष्ट्ण को आमि भगवान् बताया गया है, मजससे
अनेकानेक अवतार तर्ा ईश्वर मवस्तार करते हैं –
एते चाांश लाः पुांसः ृ ष्णस्तु भगवान् स्वयम् ।
इन्द्राररव्या ु लां लो ां मृडयस्न्त यगु े यगु े ।।
“यहाँ पर वमणमत सारे अवतारों की सूमचयाँ या तो भगवान् की अंशकलाओ ं अर्वा पूणम कलाओ ं की हैं, मकन्तु
कृ ष्ट्ण तो स्वयं भगवान् हैं ।” (भागवत् १.३.२८)
अतः कृ ष्ट्ण आमि भगवान्, परर् सत्य, परर्ात्र्ा तर्ा मनमवमशेष ब्रह्म िोनों के अद्गर् है ।
भगवान् की उपमस्र्मत र्ें अजुमन द्वारा स्वजनों के मलए शोक करना सवमर्ा अशोभनीय है, अतः कृ ष्ट्ण
ने ु तः शब्ि से अपना आश्चयम व्यक्त मकया है । आयद जैसी सभ्य जामत के मकसी व्यमक्त से ऐसी र्मलनता की उम्र्ीि
नहीं की जाती । आयम शब्ि उन व्यमक्तयों पर लागू होता है जो जीवन के र्ल्ू य को जानते हैं और मजनकी सभ्यताआत्र्-
साक्षात्कार पर मनभमर करती है । िेहात्र्बुमद्ध से प्रेररत र्नुष्ट्यों को यह ज्ञान नहीं रहता मक जीवन का उद्देश्य परर् सत्य,
मवष्ट्णु या भगवान् का साक्षात्कार है । वे तो भौमतक जगत के बाह्य स्वरूप से र्ोमहत हो जाते हैं, अतः वे यह नहीं सर्झ
पाते मक र्मु क्त क्या है । मजन पुरुषों को भौमतक बन्धन से र्ुमक्त का कोई ज्ञान नहीं होता वे अनायम कहलाते हैं । यद्यमप
अजुमन क्षस्त्रय र्ा, मकन्तु युद्ध से मवचमलत होकर वह अपने कतमव्य से च्युत हो रहा र्ा । उसकी यह कायरता अनायों के
मलए ही शोभा िेने वाली हो सकती है । कतमव्य-पर् से इस प्रकार का मवचलन न तो आध्यामत्र्क जीवन की प्रगमत
करने र्ें सहायक बनता है न ही इससे संसार र्ें ख्यामत प्राप्त की जा सकती है । भगवान् कृ ष्ट्ण ने अजुमन द्वारा अपने
स्वजनों पर इस प्रकार की करुणा का अनुर्ोिन नहीं मकया ।

क्लैब्यं मा स्म गमः पाथम िैतत्त्व्यपु पद्यते ।


क्षुद्रं हृदयदौबमल्यं त्यिवोनत्तष्ठ परन्तप ।। ३ ।।

क्लैब्यम्—निुंसकता; मा स्म—मत; गम:—प्राप्त हो; पाथप —हे िृथािुत्र; न—कभी नहीं; एतत्—यह;
त्वमय—तमु को; उपपद्यते—शोभा देता है; क्षुद्रम्—तुच्छ; हृदय— हृदय की; दौबपल्यम्—दबु तलता; त्यक्त्वा—
त्याग कर; उमत्तष्ठ—खडा हो; परन्तप—हे शत्रुओ ं का दमन करने वाले ।

हे पृथापुत्र! इस हीि िपुंसकता को प्राप्त मत होओ । यह तुम्हे ूँ शोभा िहीं देती । हे शत्रुओ ं के
दमिकताम! हृदय की क्षुद्र दुबमलता को त्याग कर युद्ध के नलए खडे होओ ।

तात्पयमः अजुमन को पृर्ापुत्र के रूप र्ें सम्बोमधत मकया गया है । पृर्ा कृ ष्ट्ण के मपता वसुिेव की बहन र्ीं, अतः
कृ ष्ट्ण के सार् अजुमन का रक्त-सम्बन्ध र्ा । यमि क्षस्त्रय-पुत्र लड़ने से र्ना करता है तो वह नार् का क्षमत्रय है और
यमि ब्राह्मण पत्रु अपमवत्र कायम करता है तो वह नार् का ब्राह्मण है । ऐसे क्षस्त्रय तर्ा ब्राह्मण अपने मपता के अयोग्य पत्रु
होते हैं, अतः कृ ष्ट्ण यह नहीं चाहते र्े मक अजुमन अयोग्य क्षमत्रय पुत्र कहलाए । अजुमन कृ ष्ट्ण का घमनितर् मर्त्र र्ा और

५३
कृ ष्ट्ण प्रत्यक्ष रूप से उसके रर् का संचालन कर रहे र्े, मकन्तु इन सब गुणों के होते हुए भी यमि अजुमन युद्धभमू र् को
छोड़ता है तो वह अत्यन्त मनन्िनीय कायम करे गा । अतः कृ ष्ट्ण ने कहा मक ऐसी प्रवृमत्त अजुमन के व्यमक्तत्व को शोभा नहीं
िेती । अजुमन यह तकम कर सकता र्ा मक वह परर् पूजय भीष्ट्र् तर्ा स्वजनों के प्रमत उिार दृमष्टकोण के कारण युद्धभमू र्
छोड़ रहा है, मकन्तु कृ ष्ट्ण ऐसी उिारता को के वल हृिय िौबमल्य र्ानते हैं । ऐसी झिू ी उिारता का अनुर्ोिन एक भी
शास्त्र नहीं करता । अतः अजुमन जैसे व्यमक्त को कृ ष्ट्ण के प्रत्यक्ष मनिेशन र्ें ऐसी उिारता या तर्ाकमर्त अमहसं ा का
पररत्याग कर िेना चामहए ।

अजुमन उवाच
कथं भीष्ट्ममहं सख्
ं ये द्रोणं च मधस
ु ूदि ।
इषुनभः प्रनतयोत्स्यानम पूजाहामवररसूदि ।। ४ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; कथम्– मकस प्रकार; भीष्ट्मम्– भीष्ट्र् को; अहम्– र्ैं; संख्ये– युद्ध
र्ें; द्रोणम्– द्रोण को; च– भी; मधुसूदि– हे र्धु के संहारकताम; इषुनभः– तीरों से; प्रनतयोत्स्यानम– उलट कर प्रहार
करूँगा; पूजा-अहौ– पूजनीय; अरर-सूदि– हे शत्रुओ ं के संहारक!

अजमिु िे कहा – हे शत्रुहन्ता! हे मधुसूदि! मैं युद्धभूनम में नकस तरह भीष्ट्म तथा द्रोण जैसे पूजिीय
व्यनियों पर उलट कर बाण चलाऊूँ गा?

तात्पयमः भीष्ट्र् मपतार्ह तर्ा द्रोणाचायम जैसे सम्र्ाननीय व्यमक्त सिैव पूजनीय हैं । यमि वे आक्रर्ण भी करें तो
उन पर उलट कर आक्रर्ण नहीं करना चामहए । यह सार्ान्य मशष्टाचार है मक गरुु जनों से वाग्युद्ध भी न मकया जाय । तो
मिर भला अजुमन उन पर बाण कै से छोड़ सकता र्ा? क्या कृ ष्ट्ण कभी अपने मपतार्ह, नाना उग्रसेन या अपने आचायम
सान्िीपमन र्मु न पर हार् चला सकते र्े? अजमनु ने कृ ष्ट्ण के सर्क्ष ये ही कुछ तकम प्रस्ततु मकये ।

गुरूिहत्वा नह महािुभवाि्
श्रेयो भोिुं भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्वाथमकामांस्तु गुरुनिहैव
भुञ्जीय भोगान्रुनधरप्रनदग्धाि् ।। ५ ।।

गुरुि्– गुरुजनों को; अहत्वा– न र्ार कर; नह– मनश्चय ही; महा-अिुभवाि् – र्हापुरुषों को; श्रेयः– अच्छा
है; भोिुम्– भोगना; भैक्ष्यम्– भीख र्ाँगकर; अनप– भी; इह– इस जीवन र्ें; लोके – इस संसार र्ें; हत्वा–
र्ारकर; अथम– लाभ भी; कामाि्– इच्छा से; त–ु लेमकन; गरुु ि्– गरुु जनों को; इह– इस ससं ार र्ें; एव– मनश्चय
ही; भुञ्जीय– भोगने के मलए बाध्य; भोगाि्– भोग्य वस्तुएँ; रुनधर– रक्त से; प्रनदग्धाि्– सनी हुई, रंमजत ।

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ऐसे महापुरुषों को जो मेरे गुरु हैं, उन्हें मार कर जीिे की अपेक्षा इस संसार में भीख माूँग कर खािा
अच्छा है । भले ही वे सांसाररक लाभ के इच्छुक हों, नकन्तु हैं तो गुरुजि ही! यनद उिका वध होता है तो
हमारे द्वारा भोग्य प्रत्येक वस्तु अिके रि से सिी होगी ।

तात्पयमः शास्त्रों के अनुसार ऐसा गुरु जो मनंद्य कर्म र्ें रत हो और जो मववेकशून्य हो, त्याजय है । ियु ोधन से
आमर्मक सहायता लेने के कारण भीष्ट्र् तर्ा द्रोण उसका पक्ष लेने के मलए बाध्य र्े, यद्यमप के वल आमर्मक लाभ से
ऐसा करना उनके मलए उमचत न र्ा । ऐसी िशा र्ें वे आचायों का सम्र्ान खो बैिे र्े । मकन्तु अजमनु सोचता है मक इतने
पर भी वे उसके गुरुजन हैं, अतः उनका वध करके भौमतक लाभों का भोग करने का अर्म होगा – रक्त से सने अवशेषों
का भोग ।

ि चैतनद्वद्मः कतरन्िो गररयो


यद्वा जयेम यनद वा िो जयेयु: ।
यािेव हत्वा ि नजजीनवषाम-
स्तेऽवनस्थताः प्रमुखे धातमराष्ट्राः ।। ६ ।।

ि– नहीं; च– भी; एतत्– यह; नवद्मः– हर् जानते हैं; कतरत्– जो; िः– हर्ारे मलए; गरीयः– श्रेि; यत् वा –
अर्वा; जयेम– हर् जीत जाएँ; यनद– यमि; वा– या; िः– हर्को; जयेयुः– वे जीतें; याि्– मजनको; एव– मनश्चय
ही; हत्वा– र्ारकर; ि– कभी नहीं; नजजीनवषामः– हर् जीना चाहेंगे; ते– वे सब; अवनस्थताः– खड़े हैं; प्रमुखे–
सार्ने; धातमराष्ट्राः– धृतराष्ट्र के पुत्र ।

हम यह भी िहीं जािते नक हमारे नलए क्या श्रेष्ठ है – उिको जीतिा या उिके द्वारा जीते जािा । यनद
हम धृतराष्ट्र के पत्रु ों का वध कर देते हैं तो हमें जीनवत रहिे की आवश्यकता िहीं है । निर भी वे यद्ध
ु भनू म में
हमारे समक्ष खडे हैं ।

तात्पयमः अजुमन की सर्झ र्ें यह नहीं आ रहा र्ा मक वह क्या करे – युद्ध करे और अनावश्यक रक्तपात का
कारण बने, यद्यमप क्षस्त्रय होने के नाते युद्ध करना उसका धर्म है; या मिर वह युद्ध से मवर्ख ु हो कर भीख र्ाँग कर
जीवन-यापन करे । यमि वह शत्रु को जीतता नहीं तो जीमवका का एकर्ात्र साधन मभक्षा ही रह जाता है । यमि उसकी
मवजय हो भी जाय (क्योंमक उसका पक्ष न्याय पर है), तो भी यमि धृतराष्ट्र के पुत्र र्रते हैं, तो उनके मबना रह पाना
अत्यन्त कमिन हो जायेगा । उस िशा र्ें यह उसकी िसू रे प्रकार की हार होगी । अजुमन द्वारा व्यक्त इस प्रकार के मवचार
मसद्ध करते हैं मक वह न के वल भगवान् का र्हान भक्त र्ा, अमपतु वह अत्यमधक प्रबुद्ध और अपने र्न तर्ा इमन्द्रयों पर
पणू म मनयन्त्रण रखने वाला र्ा । राज पररवार र्ें जन्र् लेकर भी मभक्षा द्वारा जीमवत रहने की इच्छा उसकी मवरमक्त का
िसू रा लक्षण है । ये सारे गुण तर्ा अपने आध्यामत्र्क गुरु श्रीकृ ष्ट्ण के उपिेशों र्ें उसकी श्रद्धा, ये सब मर्लकर सूमचत
करते हैं मक वह सचर्चु पण्ु यात्र्ा र्ा । इस तरह यह मनष्ट्कषम मनकला मक अजमनु र्मु क्त के सवमर्ा योग्य र्ा । जब तक
इमन्द्रयाँ संयमर्त न हों, ज्ञान के पि तक उि पाना कमिन है और मबना ज्ञान तर्ा भमक्त के र्मु क्त नहीं होती । अजुमन अपने
भौमतक गुणों के अमतररक्त इन सर्स्त िैवी गुणों र्ें भी िक्ष र्ा ।

५५
कापमण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छानम त्वां धममसम्मूढचेताः ।
यच्रे यः स्यानन्िनश्र्चतं ब्रूनह तन्मे
नशष्ट्यस्तेऽहं शानध मां त्वां प्रपन्िम् ।। ७ ।।

कापमण्य– कृ पणता; दोष– िबु मलता से; उपहत– ग्रस्त; स्वभावः– गणु , मवशेषताएँ; पृच्छानम– पछ ू रहा
ह;ँ त्वाम्– तुर् से; सम्मूढ– र्ोहग्रस्त; चेताः– हृिय र्ें; यत्– जो; श्रेयः– कल्याणकारी; स्यात्– हो; निनश्र्चतम्–
मवश्र्वासपवू मक; ब्रनू ह– कहो; तत्– वह; मे– र्झु को; नशष्ट्यः– मशष्ट्य; ते– तम्ु हारा; अहम्– र्ैं; शानध– उपिेश
िीमजये; माम्– र्झु को; त्वाम्– तुम्हारा; प्रपन्िम्– शरणागत ।

अब मैं अपिी कृ पण-दुबमलता के कारण अपिा कतमव्य भूल गया हूँ और सारा धैयम खो चूका हूँ । ऐसी
अवस्था में मैं आपसे पूछ रहा हूँ नक जो मेरे नलए श्रेयस्कर हो उसे निनश्चत रूप से बताएूँ । अब मैं आपका
नशष्ट्य हूँ और शरणागत हूँ । कृ प्या मुझे उपदेश दें ।

तात्पयमः यह प्राकृ मतक मनयर् है मक भौमतक कायमकलाप की प्रणाली ही हर एक के मलए मचन्ता का कारण है ।
पग-पग पर उलझन मर्लती है, अतः प्रार्ामणक गुरु के पास जाना आवश्यक है, जो जीवन के उद्देश्य को पूरा करने के
मलए सर्ुमचत पर्-मनिेश िे सके । सर्ग्र वैमिक ग्रंर् हर्ें यह उपिेश िेते हैं मक जीवन की अनचाही उलझनों से र्क्तु होने
के मलए प्रार्ामणक गुरु के पास जाना चामहए । ये उलझनें उस िावामग्न के सर्ान हैं जो मकसी के द्वारा लगाये मबना
भभक उिती हैं । इसी प्रकार मवश्र्व की मस्र्मत ऐसी है मक मबना चाहे जीवन की उलझनें स्वतः उत्पन्न हो जाती हैं । कोई
नहीं चाहता मक आग लगे, मकन्तु मिर भी वह लगती है और हर् अत्यामधक व्याकुल हो उिते हैं । अतः वैमिक वाङ्मय
उपिेश िेता है मक जीवन की उलझनों को सर्झने तर्ा सर्ाधान करने के मलए हर्ें परम्परागत गरुु के पास जाना
चामहए । मजस व्यमक्त का प्रार्ामणक गुरु होता है वह सब कुछ जानता है । अतः र्नुष्ट्य को भौमतक उलझनों र्ें न रह कर
गुरु के पास जाना चामहए । यही इस श्लोक का तात्पयम है ।
आमखर भौमतक उलझनों र्ें कौन सा व्यमक्त पड़ता है ? वह जो जीवन की सर्स्याओ ं को नहीं सर्झता ।
बृहर्ारण्य उपस्नषर्् र्ें (३.८.१०) व्याकुल (व्यग्र) र्नुष्ट्य का वणमन इस प्रकार हुआ है – यो वा एतर्क्षरां
गार्गयदस्वस्र्त्वास्मााँल्लो ात्प्रैस्तस ृ पणः– “कृ पण वह है जो र्ानव जीवन की सर्स्याओ ं को हल नहीं करता और
आत्र्-साक्षात्कार के मवज्ञान को सर्झे मबना कूकर-सूकर की भाँमत संसार को त्यागकर चला जाता है ।” जीव के मलए
र्नुष्ट्य जीवन अत्यन्त र्ल्ू यवान मनमध है, मजसका उपयोग वह अपने जीवन की सर्स्याओ ं को हल करने र्ें कर सकता
है, अतः जो इस अवसर का लाभ नहीं उिाता वह कृ पण है । ब्राह्मण इसके मवपरीत होता है जो इस शरीर का उपयोग
जीवन की सर्स्त सर्स्याओ ं को हल करने र्ें करता है । य एतर्क्षरां गास्गद स्वस्र्त्वास्मााँल्लो ात्प्रैस्त स ब्राह्मणः
। िेहात्र्बुमद्ध वश ृ पण या कंजूस लोग अपना सारा सर्य पररवार, सर्ाज, िेश आमि के अत्यमधक प्रेर् र्ें गवाँ िेते
हैं । र्नष्ट्ु य प्राय चर्मरोग के आधार पर अपने पाररवाररक जीवन अर्ामत् पत्नी, बच्चों तर्ा पररजनों र्ें आसक्त रहता
है । ृ पण यह सोचता है मक वह अपने पररवार को र्ृत्यु से बचा सकता है अर्वा वह यह सोचता है मक उसका पररवार
या सर्ाज उसे र्ृत्यु से बचा सकता है । ऐसी पाररवाररक आसमक्त मनम्न पशुओ ं र्ें भी पाई जाती है क्योंमक वे भी बच्चों

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की िेखभाल करते हैं । बुमद्धर्ान् होने के कारण अजुमन सर्झ गया मक पाररवाररक सिस्यों के प्रमत उसका अनुराग तर्ा
र्ृत्यु से उनकी रक्षा करने की उसकी इच्छा ही उसकी उलझनों का कारण है । यद्यमप वह सर्झ रहा र्ा मक युद्ध करने
का कतमव्य उसकी प्रतीक्षा कर रहा र्ा, मकन्तु ृ पण-िबु मलता ( ापदण्यर्ोष) के कारण वह अपना कतमव्य नहीं मनभा रहा
र्ा । अतः वह परर् गुरु भगवान् कृ ष्ट्ण से कोई मनमश्चत हल मनकालने का अनुरोध कर रहा है । वह कृ ष्ट्ण का मशष्ट्यत्व
ग्रहण करता है । वह मर्त्रतापूणम बातें बंि करना चाहता है । गुरु तर्ा मशष्ट्य की बातें गम्भीर होती हैं और अब अजुमन
अपने र्ान्य गुरु के सर्क्ष गम्भीरतापूवमक बातें करना चाहता है इसीमलए कृ ष्ट्ण भगवद्गीता -ज्ञान के आमि गुरु है और
अजमनु गीता सर्झने वाला प्रर्र् मशष्ट्य है । अजमनु भगवद्गीता को मकस तरह सर्झता है यह गीता र्ें वमणमत है । तो भी
र्खु म संसारी मवद्वान् बताते हैं मक मकसी को र्नुष्ट्य-रूप कृ ष्ट्ण की नहीं बमल्क “अजन्र्ा कृ ष्ट्ण” की शरण ग्रहण करनी
चामहए । कृ ष्ट्ण के अन्तः तर्ा बाह्य र्ें कोई अन्तर नहीं है । इस ज्ञान के मबना जो भगवद्गीता को सर्झने का प्रयास
करता है, वह सबसे बड़ा र्ख ु म है ।

ि नह प्रपश्यानम ममापिुद्याद्-
यच्छोकमुच्छोषणनमनन्द्रयाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्िमृद्धं
राजयं सुराणामनप चानधपत्यम् ।। ८ ।।

ि– नहीं; नह– मनश्चय ही; प्रपश्यानम– िेखता ह;ँ मम– र्ेरा; अपिुद्यात्– िरू कर सके ; यत्– जो; शोकम्–
शोक; उच्छोषणम्– सुखाने वाला; इनन्द्रयाणाम्– इमन्द्रयों को; अवाप्य– प्राप्त करके ; भूमौ– पृथ्वी पर; असपत्िम्–
शत्रुमवहीन; ऋद्धम्– सर्ृद्ध; राजयम्– राजय; सुराणाम्– िेवताओ ं का; अनप– चाहे; च– भी; आनधपत्यम्–
सवोच्चता ।

मझ
ु े ऐसा कोई साधि िहीं नदखता जो मेरी इनन्द्रयों को सख
ु ािे वाले इस शोक को दूर कर सके । स्वगम
पर देवताओ ं के आनधपत्य की तरह इस धिधान्य-सम्पन्ि सारी पृथ्वी पर निष्ट्कंटक राजय प्राप्त करके भी मैं
इस शोक को दूर िहीं कर सकूूँगा ।

तात्पयमः यद्यमप अजुमन धर्म तर्ा सिाचार के मनयर्ों पर आधाररत अनेक तकम प्रस्तुत करता है, मकन्तु ऐसा प्रतीत
होता है मक वह अपने गुरु भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण की सहायता के मबना अपनी असली सर्स्या को हल नहीं कर पा रहा । वह
सर्झ गया र्ा मक उसका तर्ाकमर्त ज्ञान उसकी उन सर्स्याओ ं को िरू करने र्ें व्यर्म है जो उसके सारे अमस्तत्व
(शरीर) को सुखाये िे रही र्ीं । उसे इन उलझनों को भगवान् कृ ष्ट्ण जैसे आध्यामत्र्क गुरु की सहायता के मबना हल कर
पाना असम्भव लग रहा र्ा । शैमक्षक ज्ञान, मवद्वता, उच्च पि – ये सब जीवन की सर्स्याओ ं का हल करने र्ें व्यर्म हैं ।
यमि कोई इसर्ें सहायता कर सकता है, तो वह है एकर्ात्र गरुु । अतः मनष्ट्कषम यह मनकला मक गरुु जो शत-प्रमतशत
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है, वही एकर्ात्र प्रर्ामणक गुरु है और वही जीवन की सर्स्याओ ं को हल कर सकता है ।
भगवान् चैतन्य ने कहा है मक जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मवज्ञान र्ें िक्ष हो, कृ ष्ट्णतत्त्ववेत्ता हो, चाहे वह मजस मकसी जामत
का हो, वही वास्तमवक गुरु है –
स् बा स्वप्र, स् बा न्यासी, शद्रु े ने नय ।

५७
येइ ृ ष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय ।।
“कोई व्यमक्त चाहे वह स्वप्र (वैमिक ज्ञान र्ें िक्ष) हो, मनम्न जामत र्ें जन्र्ा शद्रु हो या मक संन्यासी, यमि कृ ष्ट्ण के
मवज्ञान र्ें िक्ष (कृ ष्ट्णतत्त्ववेत्ता) है तो वह यर्ार्म प्रार्ामणक गुरु है ।” (चैतन्य-चररतामृत, मध्य ८.१२८) । अतः
कृ ष्ट्णतत्त्ववेत्ता हुए मबना कोई भी प्रार्ामणक गुरु नहीं हो सकता । वैमिक सामहत्य र्ें भी कहा गया है –
षट् मदस्नपुणो स्वप्रो मन्त्रतन्त्रस्वशारर्ः ।
अवैष्णवो गुरुनद स्यार्् वैष्णवः श्र्वपचो गुरुः ।।
“मवद्वान ब्राह्मण, भले ही वह सम्पणू म वैमिक ज्ञान र्ें पारंगत क्यों न हो, यमि वह वैष्ट्णव नहीं है या कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें िक्ष नहीं है तो गुरु बनने का पात्र नहीं है । मकन्तु शद्रु , यमि वह वैष्ट्णव या कृ ष्ट्णभक्त है तो गुरु बन सकता है ।”
(पद्मपरु ाण)
संसार की सर्स्याओ ं – जन्र्, जरा, व्यामध तर्ा र्ृत्यु – की मनवृमत्त धन-संचय तर्ा आमर्मक मवकास से संभव
नहीं है । मवश्र्व के मवमभन्न भागों र्ें ऐसे राजय हैं जो जीवन की सारी सुमवधाओ ं से तर्ा सम्पमत्त एवं आमर्मक मवकास से
पूररत हैं, मकन्तु मिर भी उनके सांसाररक जीवन की सर्स्याएँ जयों की त्यों बनी हुई हैं । वे मवमभन्न साधनों से शामन्त
खोजते हैं, मकन्तु वास्तमवक सुख उन्हें तभी मर्ल पाता है जब वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत से युक्त कृ ष्ट्ण के प्रार्ामणक प्रमतमनमध
के र्ाध्यर् से कृ ष्ट्ण अर्वा कृ ष्ट्णतत्त्वपूरक भगवद्गीता तर्ा श्रीमद्भागवत के परार्शम को ग्रहण करते हैं ।
यमि आमर्मक मवकास तर्ा भौमतक सुख मकसी के पाररवाररक, सार्ामजक, राष्ट्रीय या अन्तरामष्ट्रीय अव्यवस्र्ा
से उत्पन्न हुए शोकों को िरू कर पाते, तो अजुमन यह न कहता मक पृथ्वी का अप्रमतर् राजय या स्वगमलोक र्ें िेवताओ ं
की सवोच्चता भी उसके शोकों को िरू नहीं कर सकती । इसीमलए उसने कृ ष्ट्णभावनार्ृत का ही आश्रय ग्रहण मकया
और यही शामन्त तर्ा सर्रसता का उमचत र्ागम है । आमर्मक मवकास या मवश्र्व आमधपत्य प्राकृ मतक प्रलय द्वारा मकसी
भी क्षण सर्ाप्त हो सकता है । यहाँ तक मक चन्द्रलोक जैसे उच्च लोकों की यात्रा भी, मजसके मलए र्नुष्ट्य प्रयत्नशील
हैं, एक झटके र्ें सर्ाप्त हो सकती है । भगवद्गीता इसकी पुमष्ट करती है – क्षीणे पण्ु ये मत्यदलो ां स्वशस्न्त– जब पण्ु यकर्ों
के िल सर्ाप्त हो जाते हैं तो र्नुष्ट्य सुख के मशखर से जीवन के मनम्नतर् स्टार पर मगर जाता है । इस तरह से मवश्र्व के
अनेक राजनीमतज्ञों का पतन हुआ है । ऐसा अधःपतन शोक का कारण बनता है ।
अतः यमि हर् सिा के मलए शोक का मनवारण चाहते हैं तो हर्ें कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करनी होगी, मजस तरह
अजुमन ने की । अजुमन ने कृ ष्ट्ण से प्रार्मना की मक वे असकी सर्स्या का मनमश्चत सर्ाधान कर िें और यही
कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवमध है ।

सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वा हृषीके शं गुडाके शः परन्तपः ।
ि योत्स्य इनत गोनवन्दमुक्त्वा तूष्ट्णीं बभूव ह ।। ९ ।।

सञ्जयः उवाच– सजं य ने कहा; एवम्– इस प्रकार; उक्त्वा– कहकर; हृषीके शम्– कृ ष्ट्ण से, जो इमन्द्रयों के
स्वार्ी हैं; गुडाके शः– अजुमन, जो अज्ञान को मर्टाने वाला है; परन्तपः– अजुमन, शत्रुओ ं का िर्न करने वाला; ि
योत्स्ये– नहीं लडूँगा; इनत– इस प्रकार; गोनवन्दम्– इमन्द्रयों के आनन्ििायक कृ ष्ट्ण से; उक्त्वा– कहकर; तष्ट्ू णीम्–
चपु ; बभूव– हो गया; ह– मनश्चय ही ।

५८
संजय िे कहा – इस प्रकार कहिे के बाद शत्रओ ु ं का दमि करिे वाला अजमिु कृ ष्ट्ण से बोला, “हे
गोनवन्द! मैं युद्ध िहीं करूूँगा,” और चुप हो गया ।

तात्पयमः धृतराष्ट्र को यह जानकर परर् प्रसन्नता हुई होगी मक अजुमन युद्ध न करके युद्धभमू र् छोड़कर मभक्षाटन
करने जा रहा है । मकन्तु संजय ने उसे पुनः यह कह कर मनराश कर मिया मक अजुमन अपने शत्रुओ ं को र्ारने र्ें सक्षर् है
(परन्तपः) । यद्यमप कुछ सर्य के मलए अजुमन अपने पाररवाररक स्नेह के प्रमत मर्थ्या शोक से अमभभतू र्ा, मकन्तु उसने
मशष्ट्य रूप र्ें अपने गरुु श्रीकृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण कर ली । इससे समू चत होता है मक शीघ्र ही वह इस शोक से मनवृत्त हो
जायेगा और आत्र्-साक्षात्कार या कृ ष्ट्णभावनार्ृत के पूणम ज्ञान से प्रकामशत होकर पुनः युद्ध करे गा । इस तरह धृतराष्ट्र
का हषम भगं हो जायेगा ।

तमुवाच हृषीके शः प्रहसनन्िव भारत


सेन्योरुभ्योममध्ये नवषीदन्तनमदं वचः ।। १० ।।

तम्– उससे; उवाच– कहा; हृषीके श– इमन्द्रयों के स्वार्ी कृ ष्ट्ण ने; प्रहसि्– हँसते हुए; इव– र्ानो; भारत– हे
भरतवंशी धृतराष्ट्र; सेियोः– सेनाओ ं के ; उभयोः– िोनों पक्षों की; मध्ये– बीच र्ें; नवषीदन्तम्– शोकर्ग्न; इदम्–
यह (मनम्नमलमखत); वचः– शब्ि ।

हे भरतवंशी (धृतराष्ट्र)! उस समय दोिों सेिाओ ं के मध्य शोकमग्ि अजमिु से कृ ष्ट्ण िे मािो हूँसते हुए ये
शब्द कहे ।

तात्पयमः िो घमनष्ट मर्त्रों अर्ामत् हृषीके श तर्ा गुडाके श के र्ध्य वाताम चल रही र्ी । मर्त्र के रूप र्ें िोनों का
पि सर्ान र्ा, मकन्तु इनर्ें से एक स्वेच्छा से िसू रे का मशष्ट्य बन गया । कृ ष्ट्ण हँस रहे र्े क्योंमक उनका मर्त्र अब उनका
मशष्ट्य बन गया र्ा । सबों के स्वार्ी होने के कारण वे सिैव श्रेि पि पर रहते हैं तो भी भगवान् अपने भक्त के मलए
सखा, पुत्र या प्रेर्ी बनना स्वीकार करते है । मकन्तु जब उन्हें गुरु रूप र्ें अंगीकार कर मलया गया तो उन्होंने तुरन्त गुरु
की भमू र्का मनभाने के मलए मशष्ट्य से गुरु की भाँमत गम्भीरतापूवमक बातें कीं जैसा मक अपेमक्षत है । ऐसा प्रतीत होता है
मक गुरु तर्ा मशष्ट्य की यह वाताम िोनों सेनाओ ं की उपमस्र्मत र्ें हुई मजससे सारे लोग लाभामन्वत हुए ।
अतः भगवद्गीता का संवाि मकसी एक व्यमक्त, सर्ाज या जामत के मलए नहीं अमपतु सबों के मलए है और उसे सुनने के
मलए शत्रु या मर्त्र सर्ान रूप से अमधकारी हैं ।

श्रीभगवानवु ाच
अशोच्यािन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादाश्र्ं च भाषसे ।
गतासूिगतासूंश्र्च िािुशोचनन्त पनण्डताः ।। ११ ।।

५९
श्रीभगवाि् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; अशोच्याि्– जो शोक के योग्य नहीं है; अन्वशोचः– शोक करते
हो; त्वम्– तुर्; प्रज्ञावादाि्– पामण्डत्यपूणम बातें; च– भी; भाषसे– कहते हो; गत– चले गये, रमहत; असूि–्
प्राण; अगत– नहीं गये; असूि–् प्राण; च– भी; ि– कभी नहीं; अिुशोचनन्त– शोक करते हैं; पनण्डताः– मवद्वान लोग

श्री भगवाि् िे कहा – तुम पानण्डत्यपूणम वचि कहते हुए उिके नलए शोक कर रहे हो जो शोक करिे
योग्य िहीं है । जो नवद्वाि होते हैं, वे ि तो जीनवत के नलए, ि ही मृत के नलए शोक करते हैं ।

तात्पयमः भगवान् ने तत्काल गुरु का पि सँभाला और अपने मर्त्र को अप्रत्यक्षतः र्ख ु म कह कर डाँटा । उन्होंने
कहा, “तर्ु मवद्वान की तरह बातें करते हो, मकन्तु तर्ु यह नहीं जानते मक जो मवद्वान होता है – अर्ामत् जो यह जानता है
मक शरीर तर्ा आत्र्ा क्या है – वह मकसी भी अवस्र्ा र्ें शरीर के मलए, चाहे वह जीमवत हो या र्ृत – शोक नहीं
करता ।” अगले अध्यायों से यह स्पष्ट हो जायेगा मक ज्ञान का अर्म पिार्म तर्ा आत्र्ा एवं िोनों के मनयार्क को जानना
है । अजुमन का तकम र्ा मक राजनीमत या सर्ाजनीमत की अपेक्षा धर्म को अमधक र्हत्त्व मर्लना चामहए, मकन्तु उसे यह
ज्ञात न र्ा मक पिार्म, आत्र्ा तर्ा परर्ेश्र्वर का ज्ञान धामर्मक सूत्रों से भी अमधक र्हत्त्वपूणम है । और चँमू क उसर्े इस
ज्ञान का अभाव र्ा, अतः उसे मवद्वान नहीं बनना चामहए र्ा । और चँमू क वह अत्यमधक मवद्वान नहीं र्ा इसीमलए वह
शोक के सवमर्ा अयोग्य वस्तु के मलए शोक कर रहा र्ा । यह शरीर जन्र्ता है और आज या कल इसका मवनाश
मनमश्चत है, अतः शरीर उतना र्हत्त्वपूणम नहीं है मजतना मक आत्र्ा है । जो इस तथ्य को जानता है वही असली मवद्वान है
और उसके मलए शोक का कोई कारण नहीं हो सकता ।

ित्वेवाहं जातु िासं ि त्वं िेमे जिानधपाः ।


ि चैव िभनवष्ट्यामः सवे वयमतः परम् ।। १२ ।।

ि – नहीं; त–ु लेमकन; एव– मनश्चय ही; अहम्– र्ैं; जातु– मकसी काल र्ें; ि– नहीं; आसम्– र्ा; ि–
नहीं; त्वम्– तुर्; ि– नहीं; इमे– ये सब; जि-अनधपाः– राजागण; ि– कभी नहीं; च– भी; एव– मनश्चय ही; ि–
नहीं; भनवष्ट्यामः– रहेंगे; सवे वयम् – हर् सब; अतः परम्– इससे आगे ।

ऐसा कभी िहीं हुआ नक मैं ि रहा होऊूँ या तुम ि रहे हो अथवा ये समस्त राजा ि रहे हों; और ि ऐसा है
नक भनवष्ट्य में हम लोग िहीं रहेंगे ।

तात्पयमः वेिों र्ें, ठोपस्नषर्् र्ें तर्ाश्र्वेताश्र्वतरउपस्नषर्् र्ें भी कहा गया है मक जो श्रीभगवान् असंख्य जीवों
के कर्म तर्ा कर्मिल के अनुसार उनकी अपनी-अपनी पररमस्र्मतयों र्ें पालक हैं, वही भगवान् अंश रूप र्ें हर जीव के
हृिय र्ें वास कर रहे हैं । के वल साधु परुु ष, जो एक ही ईश्र्वर को भीतर-बाहर िेख सकते हैं, पणू म और शाश्र्वत शामन्त
प्राप्त कर पाते हैं ।
स्नत्यो स्नत्यानाां चेतनश्र्चेतनानाम् ए ो बहूनाां यो स्वर्धास्त ामान् ।
तमात्मस्थां येऽनुपश्यस्न्त धीरास्तेषाां शास्न्तः शाश्र्वती नेतरे षाम् ।।
( ठोपस्नषर्् २.२.१३)

६०
जो वैमिक ज्ञान अजुमन को प्रिान मकया गया वही मवश्र्व के उन पुरुषों को प्रिान मकया जाता है जो मवद्वान होने का
िावा तो करते हैं मकन्तु मजनकी ज्ञानरामश न्यून है । भगवान् यह स्पष्ट कहते हैं मक वे स्वय,ं अजुमन तर्ा युद्धभमू र् र्ें एकत्र
सारे राजा शाश्र्वत प्राणी हैं और इन जीवों की बद्ध तर्ा र्क्त ु अवस्र्ाओ ं र्ें भगवान् ही एकर्ात्र उनके पालक हैं ।
भगवान् परर् पुरुष हैं तर्ा भगवान् का मचर संगी अजुमन एवं वहाँ पर एकत्र सारे राजागण शाश्र्वत पुरुष हैं । ऐसा नहीं है
मक ये भतू काल र्ें प्रामणयों के रूप अलग-अलग उपमस्र्त नहीं र्े और ऐसा भी नहीं है मक वे शाश्र्वत पुरुष बने नहीं
रहेंगे । उनका अमस्तत्व भतू काल र्ें र्ा और भमवष्ट्य र्ें भी मनबोध रूप से बना रहेगा । अतः मकसी के मलए शोक करने
की कोई बात नहीं है ।
ये र्ायावािी मसद्धान्त मक र्मु क्त के बाि आत्र्ा र्ाया के आवरण से पृर्क् होकर मनराकार ब्रह्म र्ें लीन हो
जायेगा और अपना अमस्तत्व खो िेगा यहाँ परर् अमधकारी भगवान् कृ ष्ट्ण द्वारा पुष्ट नहीं हो पाता । न ही इस मसद्धान्त
का सर्र्मन हो पाता है मक बद्ध अवस्र्ा र्ें ही हर् अमस्तत्व का मचन्तन करते हैं । यहाँ पर कृ ष्ट्ण स्पष्टतः कहते हैं मक
भगवान् तर्ा अन्यों का अमस्तत्व भमवष्ट्य र्ें भी अक्षण्ु ण रहेगा मजसकी पुमष्ट उपमनषिों द्वारा भी होती हैं । कृ ष्ट्ण का यह
कर्न प्रर्ामणक है क्योंमक कृ ष्ट्ण र्ायावश्य नहीं हैं । यमि अमस्तत्व तथ्य न होता तो मिर कृ ष्ट्ण इतना बल क्यों िेते और
वह भी भमवष्ट्य के मलए! र्ायावािी यह तकम कर सकते हैं मक कृ ष्ट्ण द्वारा कमर्त अमस्तत्व अध्यामत्र्क न होकर भौमतक
है । यमि हर् इस तकम को, मक अमस्तत्व भौमतक होता है, स्वीकार कर भी लें तो मिर कोई कृ ष्ट्ण के अमस्तत्व को मकस
प्रकार पहचानेगा? कृ ष्ट्ण भतू काल र्ें भी अपने अमस्तत्व की पुमष्ट करते हैं और भमवष्ट्य र्ें भी अपने अमस्तत्व की पुमष्ट
करते हैं । उन्होंने अपने अमस्तत्व की पुमष्ट कई प्रकार से की है और मनराकार ब्रह्म उनके अधीन घोमषत मकया जा चक ु ा
है । कृ ष्ट्ण सिा सवमिा अपना अमस्तत्व बनाये रहे हैं; यमि उन्हें सार्ान्य चेतना वाले सार्ान्य व्यमक्त के रूप र्ें र्ाना
जाता है तो प्रर्ामणक शास्त्र के रूप र्ें उनकी भगवद्गीता की कोई र्हत्ता नहीं होगी । एक सार्ान्य व्यमक्त र्नुष्ट्यों के चार
अवगुणों के कारण श्रवण करने योग्य मशक्षा िेने र्ें असर्र्म रहता है । गीता ऐसे सामहत्य से ऊपर है । कोई भी संसारी
ग्रर्ं गीता की तल ु ना नहीं कर सकता । श्रीकृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्त र्ान लेने पर गीता की सारी र्हत्ता जाती रहती है ।
र्ायावामियों का तकम है मक इस श्लोक र्ें वमणमत द्वैत लौमकक है और शरीर के मलए प्रयुक्त हुआ है । मकन्तु इसके पहले
वाले श्लोक र्ें ऐसी िेहात्र्बमु द्ध की मनन्िा की गई है । एक बार जोवों की िेहात्र्बमु द्ध की मनन्िा करने के बाि यह कै से
सम्भव है मक कृ ष्ट्ण पुनः शरीर पर उसी वक्तव्य को िहु राते? अतः यह अमस्तत्व अध्यामत्र्क आधार पर स्र्ामपत है और
इसकी पुमष्ट रार्ानुजाचायम तर्ा अन्य आचायों ने भी की है । गीता र्ें कई स्र्लों पर इसका उल्लेख है मक यह
अध्यामत्र्क अमस्तत्व के वल भगवद्भक्तों द्वारा ज्ञेय है । जो लोग भगवान् कृ ष्ट्ण का मवरोध करते हैं उनकी इस र्हान
सामहत्य तक पहुचँ नहीं हो पाती । अभक्तों द्वारा गीता के उपिेशों को सर्झने का प्रयास र्धुर्क्खी द्वारा र्धपु ात्र चाटने
के सदृश है । पात्र को खोले मबना र्धु को नहीं चखा जा सकता । इसी प्रकार भगवद्गीता के रहस्यवाि को के वल भक्त
ही सर्झ सकते हैं, अन्य कोई नहीं, जैसा मक इसके चतुर्म अध्याय र्ें कहा गया है । न ही गीता का स्पशद ऐसे लोग कर
पाते हैं जो भगवान् के अमस्तत्व का ही मवरोध करते हैं । अतः र्यावामियों द्वारा गीता की व्याख्या र्ानो सर्ग्र सत्य का
सरासर भ्रार्क मनरूपण है । भगवान् चैतन्य ने र्ायावामियों द्वारा की गई गीता की व्याख्याओ ं को पढने का मनषेध मकया
है और चेतावनी िी है मक जो कोई ऐसे र्ायावािी िशमन को ग्रहण करता है वह गीता के वास्तमवक रहस्य को सर्झ
पाने र्ें असर्र्म रहता है । यमि अमस्तत्व का अमभप्राय अनुभवगम्य ब्रह्माण्ड से है तो भगवान् द्वारा उपिेश िेने की कोई
आवश्यकता नहीं र्ी । आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का द्वैत शाश्र्वत तथ्य है और इसकी पमु ष्ट वेिों द्वारा होती है जैसा मक ऊपर
कहा जा चक ु ा है ।

६१
देनहिोऽनस्मन्यथा देहे कौमारं यौविं जरा ।
तथा देहान्तरप्रानप्तधीरस्तत्र ि मुह्यनत ।। १३ ।।

देनहिः– शरीरधारी की; अनस्मि्– इसर्ें; यथा– मजस प्रकार; देहे– शरीर र्ें; कौमराम्–
बाल्यावस्र्ा; यौविम्– यौवन, तारुण्य; जरा– वृद्धावस्र्ा; तथा– उसी प्रकार; देह-अन्तर– शरीर के स्र्ानान्तरण
की; प्रानप्तः– उपलमब्ध; धीरः– धीर व्यमक्त; तत्र– उस मवषय र्ें; ि– कभी नहीं; मुह्यनत– र्ोह को प्राप्त होता है ।

नजस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वतममाि) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और निर
वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होिे पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है ।
धीर व्यनि ऐसे पररवतमि से मोह को प्राप्त िहीं होता ।

तात्पयमः प्रत्येक जीव एक व्यमष्ट आत्र्ा है । वह प्रमतक्षण अपना शरीर बिलता रहता है – कभी बालक के रूप
र्ें, कभी युवा तर्ा कभी वृद्ध पुरुष के रूप र्ें । तो भी आत्र्ा वही रहता है, उसर्ें कोई पररवतमन नहीं होता । यह व्यमष्ट
आत्र्ा र्ृत्यु होने पर अन्ततोगत्वा एक शरीर बिल कर िसू रे शरीर र्ें िेहान्तरण कर जाता है और चँमू क अगले जन्र् र्ें
इसको शरीर मर्लना अवश्यम्भावी है – चाहे वह शरीर आध्यामत्र्क हो या भौमतक – अतः अजुमन के मलए न तो भीष्ट्र्,
न ही द्रोण के मलए शोक करने का कोई कारण र्ा । अमपतु उसे प्रसन्न होना चामहए र्ा मक वे पुराने शरीरों को बिल कर
नए शरीर ग्रहण करें गे और इस तरह वे नई शमक्त प्राप्त करें गे । ऐसे शरीर-पररवतमन से जीवन र्ें मकये कर्म के अनुसार नाना
प्रकार के सुखोपभोग या कष्टों का लेखा हो जाता है । चँमू क भीष्ट्र् व द्रोण साधु पुरुष र्े इसीमलए अगले जन्र् र्ें उन्हें
आध्यामत्र्क शरीर प्राप्त होंगे; नहीं तो कर् से कर् उन्हें स्वगम के भोग करने के अनुरूप शरीर तो प्राप्त होंगे ही, अतः
िोनों ही िशाओ ं र्ें शोक का कोई कारण नहीं र्ा ।
मजस र्नुष्ट्य को व्यमष्ट आत्र्ा, परर्ात्र्ा तर्ा भौमतक और आध्यामत्र्क प्रकृ मत का पूणम ज्ञान होता है
वह धीर कहलाता है । ऐसा र्नष्ट्ु य कभी भी शरीर-पररवतमन द्वारा िगा नहीं जाता ।
आत्र्ा के एकात्र्वाि का र्ायावािी मसद्धान्त र्ान्य नहीं हो सकता क्योंमक आत्र्ा के इस प्रकार मवखण्डन से
परर्ेश्र्वर मवखंडनीय या पररवतमनशील हो जायेगा जो परर्ात्र्ा के अपररवतमनीय होने के मसद्धान्त के मवरुद्ध
होगा । गीता र्ें पुमष्ट हुई है मक परर्ात्र्ा के खण्डों का शाश्र्वत (सनातन) अमस्तत्व है मजन्हें क्षर कहा जाता है अर्ामत्
उनर्ें भौमतक प्रकृ मत र्ें मगरने की प्रवृमत्त होती है । ये मभन्न अंश (खण्ड) मनत्य मभन्न रहते हैं, यहाँ तक मक र्ुमक्त के बाि
भी व्यमष्ट आत्र्ा जैसे का तैसा – मभन्न अंश बना रहता है । मकन्तु एक बार र्ुक्त होने पर वह श्रीभगवान् के सार्
समच्चिानन्ि रूप र्ें रहता है । परर्ात्र्ा पर प्रमतमबम्बवाि का मसद्धान्त व्यवहृत मकया जा सकता है, जो प्रत्येक शरीर र्ें
मवद्यर्ान रहता है । वह व्यमष्ट जीव से मभन्न होता है । जब आकाश का प्रमतमबम्ब जल र्ें पड़ता है तो प्रमतमबम्ब र्ें सूयम,
चन्द्र तर्ा तारे सब कुछ रहते हैं । तारों की तुलना जीवों से तर्ा सूयम या चन्द्र की परर्ेश्र्वर से की जा सकती है । व्यमष्ट
अश ं आत्र्ा को अजमनु के रूप र्ें और परर्ात्र्ा को श्रीभगवान् के रूप र्ें प्रिमशमत मकया जाता है । जैसा मक चतर्ु म
अध्याय के प्रारम्भ र्ें स्पष्ट है, वे एक ही स्तर पर नहीं होते । यमि अजुमन कृ ष्ट्ण के सर्ान स्तर पर हो और कृ ष्ट्ण अजुमन से
श्रेितर न हों तो उनर्ें उपिेशक तर्ा उपमिष्ट का सम्बन्ध अर्महीन होगा । यमि ये िोनों र्ाया द्वारा र्ोमहत होते हैं तो एक
को उपिेशक तर्ा िसु रे को उपमिष्ट होने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसा उपिेश व्यर्म होगा क्योंमक र्ाया के चंगुल

६२
र्ें रहकर कोई भी प्रर्ामणक उपिेशक नहीं बन सकता । ऐसी पररमस्र्मतयों र्ें यह र्ान मलया जाता है मक भगवान् कृ ष्ट्ण
प्रर्ेश्र्वर हैं जो पि र्ें र्ाया द्वारा मवस्र्ृत अजुमन रूपी जीव से श्रेि हैं ।

मात्रास्पशामस्तु कौन्तेय शीतोष्ट्णसुखदुःखदाः ।


अगामापानयिोऽनित्यास्तांनस्तनतक्षस्व भारत ।। १४ ।।

मात्रा-स्पशामः– इमन्द्रयमवषय; त–ु के वल; कौन्तेय– हे कुन्तीपत्रु ; शीत– जाड़ा; उष्ट्ण– ग्रीष्ट्र्; सख
ु –
सुख; दुःख– तर्ा िख ु ; दाः– िेने वाले; आगम– आना; अपानयिः– जाना; अनित्याः– क्षमणक; ताि्–
उनको; नतनतक्षस्व– सहन करने का प्रयत्न करो; भारत– हे भरतवश
ं ी।

हे कुन्तीपुत्र! सुख तथा दुख का क्षनणक उदय तथा कालक्रम में उिका अन्तधामि होिा सदी तथा गमी
की ऋतुओ ं के आिे जािे के समाि है । हे भरतवंशी! वे इनन्द्रयबोध से उत्पन्ि होते हैं और मिुष्ट्य को चानहए
नक अनवचल भाव से उिको सहि करिा सीखे ।

तात्पयमः कतमव्य-मनवामह करते हुए र्नुष्ट्य को सुख तर्ा िख ु के क्षमणक आने-जाने को सहन करने का अभ्यास
करना चामहए । वैमिक आिेशानुसार र्नुष्ट्य को र्ाघ (जनवरी-िरवरी) के र्ास र्ें भी प्रातःकाल स्नान करना चामहए ।
उस सर्य अत्यमधक िंड पड़ती है, मकन्तु जो धामर्मक मनयर्ों का पालन करने वाला है, वह स्नान करने र्ें तमनक भी
मझझकता नहीं । इसी प्रकार एक गृमहणी भीषण से भीषण गर्ी की ऋतु र्ें (र्ई-जून के र्हीनों र्ें) भोजन पकाने से
महचकती नहीं । जलवायु सम्बन्धी असुमवधाएँ होते हुए भी र्नुष्ट्य को अपना कतमव्य मनभाना होता है । इसी प्रकार युद्ध
करना क्षस्त्रय का धर्म है अतः उसे अपने मकसी मर्त्र या पररजन से भी यद्ध ु करना पड़े तो उसे अपने धर्म से मवचमलत
नहीं होना चामहए । र्नुष्ट्य को ज्ञान प्राप्त करने के मलए धर्म के मवमध-मवधान पालन करने होते हैं क्योंमक ज्ञान तर्ा भमक्त
से ही र्नुष्ट्य अपने आपको र्ाया के बधं न से छुड़ा सकता है ।
अजुमन को मजन िो नार्ों से सम्भोमधत मकया गया है, वे भी र्हत्त्वपूणम हैं। कौन्तेय कहकर संबोमधत करने से यह
प्रकट होता है मक वह अपनी र्ाता की और (र्ातृकुल) से सम्बंमधत है और भारत कहने से उसके मपता की और
(मपतृकुल) से सम्बन्ध प्रकट होता है । िोनों और से उसको र्हान मवरासत प्राप्त है । र्हान मवरासत प्राप्त होने के
िलस्वरूप कतमव्यमनवामह का उत्तरिामयत्व आ पड़ता है, अतः अजुमन युद्ध से मवर्ुख नहीं हो सकता ।

यं नह ि व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषषमभ ।


समदु:खसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ।। १५ ।।

यम्– मजस; नह– मनमश्चत रूप से; ि– कभी नहीं; व्यथ्यनन्त– मवचमलत नहीं करते; एते– ये सब; परुु षम्–
र्नुष्ट्य को; पुरुष-ऋषभ– हे पुरुष-श्रेि; सम– अपररवतमनीय; दुःख– िख ु र्ें; सुखम्– तर्ा सुख र्ें; धीरम्– धीर
परुु ष; सः– वह; अमृतत्वाय– र्मु क्त के मलए; कल्पते– योग्य है ।

६३
हे पुरुषश्रेष्ठ (अजमिु )! जो पुरुष सुख तथा दुख में नवचनलत िहीं होता और इि दोिों में समभाव रहता
है, वह निनश्चत रूप से मुनि के योग्य है ।

तात्पयमः जो व्यमक्त आत्र्-साक्षात्कार की उच्च अवस्र्ा प्राप्त करने के मलए दृढ़प्रमतज्ञ है और सुख तर्ा िख
ु के
प्रहारों को सर्भाव से सह सकता है वह मनश्चय ही र्ुमक्त के योग्य है । वणामश्रर्-धर्म र्ें चौर्ी अवस्र्ा अर्ामत् संन्यास
आश्रर् कष्टसाध्य अवस्र्ा है । मकन्तु जो अपने जीवन को सचर्चु पूणम बनाना चाहता है वह सर्स्त कमिनाइयों के होते
हुए भी सन्ं यास आश्रर् अवश्य ग्रहण करता है । ये कमिनाइयाँ पाररवाररक सम्बन्ध-मवच्छे ि करने तर्ा पत्नी और
सन्तान से सम्बन्ध तोड़ने के कारण उत्पन्न होती हैं । मकन्तु यमि कोई इन कमिनाइयों को सह लेता है तो उसके आत्र्-
साक्षात्कार का पर् मनष्ट्कंटक हो जाता है । अतः अजमुन को क्षस्त्रय-धमद मनवामह र्ें दृढ़ रहने के मलए कहा जा रहा है, भले
ही स्वजनों या अन्य मप्रय व्यमक्तयों के सार् युद्ध करना मकतना ही िष्ट्ु कर क्यों न हो । भगवान् चैतन्य ने चौबीस वषम की
अवस्र्ा र्ें ही सन्ं यास ग्रहण कर मलया र्ा यद्यमप उन पर आमश्रत उनकी तरुण पत्नी तर्ा वृद्धा र्ाँ की िेखभाल करने
वाला अन्य कोई न र्ा । तो भी उच्चािशम के मलए उन्होंने संन्यास ग्रहण मकया और अपने कतमव्यपालन र्ें मस्र्र बने
रहे । भवबन्धन से र्मु क्त पाने का यही एकर्ात्र उपाय है ।

िासतो नवद्यते भावो िाभावो नवद्यते सतः ।


उभयोरनप दृष्टोऽन्तस्त्वियोस्तत्त्वदनशमनभः ।। १६ ।।

ि– नहीं; असतः– असत् का; नवद्यते– है; भावः– मचरस्र्ामयत्व; ि– कभी नहीं; अभावः– पररवतमनशील
गुण; नवद्यते– है; सतः– शाश्र्वत का; उभयोः– िोनो का; अनप– ही; दृष्टः– िेखा गया; अन्तः– मनष्ट्कषम; तु–
मनस्सन्िेह; अियोः– इनक; तत्त्व– सत्य के ; दनशमनभः– भमवष्ट्यद्रष्टा द्वारा ।

तत्त्वदनशमयों िे यह निष्ट्कषम निकाला है नक असत् (भौनतक शरीर) का तो कोई नचरस्थानयत्व िहीं है,
नकन्तु सत् (आत्मा) अपररवनतमत रहता है । उन्होंिे इि दोिों की प्रकृ नत के अध्ययि द्वारा यह निष्ट्कषम निकाला
है ।

तात्पयमः पररवतमनशील शरीर का कोई स्र्ामयत्व नहीं है । आधमु नक मचमकत्सा मवज्ञान की ने भी यह स्वीकार
मकया है मक मवमभन्न कोमशकाओ ं की मक्रया-प्रमतमक्रया द्वारा शरीर प्रमतक्षण बिलता रहता है । इस तरह शरीर र्ें वृमद्ध
तर्ा वृद्धावस्र्ा आती रहती है । मकन्तु शरीर तर्ा र्न र्ें मनरन्तर पररवतमन होने पर भी आत्र्ा स्र्ायी रहता है । यही
पिार्म तर्ा आत्र्ा का अन्तर है । स्वभावतः शरीर मनत्य पररवतमनशील है और आत्र्ा शाश्र्वत है । तत्त्विमशमयों ने, चाहे
मनमवमशेषवािी हों या सगुणवािी, इस मनष्ट्कषम की स्र्ापना की है ।स्वष्ण-ु पुराण र्ें (२.१२.३८) कहा गया है मक मवष्ट्णु
तर्ा उनके धार् स्वयंप्रकाश से प्रकामशत हैं – (ज्योतींस्ष स्वष्णभु दवु नास्न स्वष्णःु ) । सत् तर्ा असत् शब्ि आत्र्ा तर्ा
भौमतक पिार्म के ही द्योतक हैं । सभी तत्त्विमशमयों की यह स्र्ापना है ।
यहीं से भगवान् द्वारा अज्ञान से र्ोहग्रस्त जीवों को उपिेश िेने का शभु ारम्भ होती है । अज्ञान को हटाने के मलए
अराधक और आराध्य के बीच पुनः शाश्र्वत सम्बन्ध स्र्ामपत करना होता है और मिर अंश-रूप जीवों तर्ा श्रीभगवान्
के अन्तर को सर्झना होता है । कोई भी व्यमक्त आत्र्ा के अध्ययन द्वारा परर्ेश्र्वर के स्वभाव को सर्झ सकता है –

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आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का अन्तर अंश तर्ा पूणम के अन्तर के रूप र्ें है । वेर्ान्त-सूत्र तर्ा श्रीमद्भागवत र्ें परर्ेश्र्वर को
सर्स्त उद्भवों (प्रकाश) का र्ल
ू र्ाना गया है । ऐसे अद्भओ ं का अनुभव परा तर्ा अपरा प्राकृ मतक-क्रर्ों द्वारा मकया
जाता है । जीव का सम्बन्ध परा प्रकृ मत से है, जैसा मक सातवें अध्याय से स्पष्ट होगा । यद्यमप शमक्त तर्ा शमक्तर्ान र्ें
कोई अन्तर नहीं है, मकन्तु शमक्तर्ान को परर् र्ाना जाता है और शमक्त या प्रकृ मत को गौण । अतः सारे जीव उसी तरह
परर्ेश्र्वर के सिैव अधीन रहते हैं मजस तरह सेवक स्वार्ी के या मशष्ट्य गुरु के अधीन रहता है । अज्ञानावस्र्ा र्ें ऐसे
स्पष्ट ज्ञान को सर्झ पाना असम्भव है । अतः ऐसे अज्ञान को िरू करने के मलए सिा सवमिा के मलए जीवों को प्रवृद्ध
करने हेतु भगवान् भगवद्गीता का उपिेश िेते हैं ।

अनविानश तु तनद्वनद्ध येि सवमनमदं ततम् ।


नविाशमव्ययस्यास्य ि कनश्र्चत्कतममु हमनत ।। १७ ।।

अनविानश– नाशरमहत; तु– लेमकन; तत्– उसे; नवनद्ध– जानो; येि– मजससे; सवमम–् सम्पूणम शरीर; इदम्–
यह; ततम्– पररव्याप्त; नविाशम्– नाश; अव्ययस्य– अमवनाशी का; अस्य– इस; ि कनश्र्चत्– कोई भी
नहीं; कतममु –् करने के मलए; अहमनत– सर्र्म है ।

जो सारे शरीर में व्याप्त है उसे ही अनविाशी समझो । उस अव्यय आत्मा को िष्ट करिे में कोई भी
समथम िहीं है ।

तात्पयमः इस श्लोक र्ें सम्पूणम शरीर र्ें व्याप्त आत्र्ा की प्रकृ मत का अमधक स्पष्ट वणमन हुआ है । सभी लोग
सर्झते हैं मक जो सारे शरीर र्ें व्याप्त है वह चेतना है । प्रत्येक व्यमक्त को शरीर र्ें मकसी अश
ं या परू े भाग र्ें सख
ु -िख ु
का अनुभव होता है । मकन्तु चेतना की यह व्यामप्त मकसी के शरीर तक ही सीमर्त रहती है । एक शरीर के सुख तर्ा िख ु
का बोध िसू रे शरीर को नहीं हो पाता । िलतः प्रत्येक शरीर र्ें व्यमष्ट आत्र्ा है और इस आत्र्ा की उपमस्र्मत का
लक्षण व्यमष्ट चेतना द्वारा पररलमक्षत होता है । इस आत्र्ा को बाल के अग्रभाग के िस हजारवें भाग के तुल्य बताया
जाता है । श्र्वेताश्र्वतरउपस्नषर्् र्ें (५.९) इसकी पुमष्ट हुई है –
बालाग्रशतभागस्य शतधा स्ल्पतस्य च ।
भागो जीवः स स्वज्ञेयः स चानन्त्याय ल्पते ।।
“यमि बाल के अग्रभाग को एक सौ भागों र्ें मवभामजत मकया जाय और मिर इनर्ें से प्रत्येक भाग को एक सौ
भागों र्ें मवभामजत मकया जाय तो इस तरह के प्रत्येक भाग की र्ाप आत्र्ा का पररर्ाप है ।” इसी प्रकार यही कर्न
मनम्नमलमखत श्लोक र्ें मर्लता है –
े शाग्रशतभागस्य शताांशः सादृशात्म ः ।
जीवः सूक्ष्मस्वरूपोऽयां सख्ां यातीतो स्ह स्चत् णः ।।
“आत्र्ा के परर्ाणुओ ं के अनन्त कण हैं जो र्ाप र्ें बाल के अगले भाग (नोक) के िस हजारवें भाग के बराबर हैं ।”
इस प्रकार आत्र्ा का प्रत्येक कण भौमतक परर्ाणओ ु ं से भी छोटा है और ऐसे असख्ं य कण हैं । यह अत्यन्त
लघु आत्र्-संिुमलंग भौमतक शरीर का र्ल ू आधार है और इस आत्र्-संिुमलंग का प्रभाव सारे शरीर र्ें उसी तरह
व्याप्त है मजस प्रकार मकसी औषमध का प्रभाव व्याप्त रहता है । आत्र्ा की यह धरा (मवद्युतधारा) सारे शरीर र्ें चेतना के

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रूप र्ें अनुभव की जाती हैं और यही आत्र्ा के अमस्तत्व का प्रर्ाण है । सार्ान्य से सार्ान्य व्यमक्त भी सर्झ सकता है
मक यह भौमतक शरीर चेतनारमहत होने पर र्ृतक हो जाता है और शरीर र्ें इस चेतना को मकसी भी भौमतक उपचार से
वापस नहीं लाया जा सकता । अतः यह भौमतक संयोग के िलस्वरूप नहीं है, अमपतु आत्र्ा के कारण है । मण्ु ड
उपस्नषर्् र्ें (३.१.९) सूक्ष्र् (परर्ाणमवक) आत्र्ा की और अमधक मववेचना हुई है –
एषोऽणरु ात्मा चेतसा वेस्र्तव्यो यस्स्मन्प्राणः पञ्चधा सांस्ववेश ।
प्राणैस्श्र्चत्तां सवदमोतां प्रजानाां यस्स्मन् स्वशुद्धे स्वभवत्येष आत्मा ।।
“आत्र्ा आकार र्ें अणु तल्ु य है मजसे पूणम बमु द्ध के द्वारा जाना जा सकता है । यह अण-ु आत्र्ा पाँच प्रकार के
प्राणों र्ें तैर रहा है (प्राण, अपान, व्यान, सर्ान और उिान); यह हृिय के भीतर मस्र्त है और िेहधारी जीव के पूरे शरीर
र्ें अपने प्रभाव का मवस्तार करता है । जब आत्र्ा को पाँच वायओ ु ं के कल्र्ष से शद्ध
ु कर मलया जाता है तो इसका
आध्यामत्र्क प्रभाव प्रकट होता है ।”
हठ-योग का प्रयोजन मवमवध आसनों द्वारा उन पाँच प्रकार के प्राणों को मनयमन्त्रत करना है जो आत्र्ा की घेरे
हुए हैं । यह योग मकसी भौमतक लाभ के मलए नहीं, अमपतु भौमतक आकाश के बन्धन से अण-ु आत्र्ा की र्मु क्त के मलए
मकया जाता है ।
इस प्रकार अण-ु आत्र्ा को सारे वैमिक सामहत्य ने स्वीकारा है और प्रत्येक बुमद्धर्ान व्यमक्त अपने व्यावहाररक
अनुभव से इसका प्रत्यक्ष अनुभव करता है । के वल र्ख ु म व्यमक्त ही इस अण-ु आत्र्ा को सवमव्यापी स्वष्ण-ु तत्त्व के रूप र्ें
सोच सकता है ।
अण-ु आत्र्ा का प्रभाव पूरे शरीर र्ें व्याप्त हो सकता है । र्ण्ु डक उपमनषि् के अनुसार यह अण-ु आत्र्ा प्रत्येक
जीव के हृिय र्ें मस्र्त है और चँमू क भौमतक मवज्ञानी इस अण-ु आत्र्ा को र्ाप सकने र्ें असर्र्म हैं, उसे उनर्ें से कुछ
यह अनुभव करते हैं मक आत्र्ा है ही नहीं । व्यमष्ट आत्र्ा तो मनस्सन्िेह परर्ात्र्ा के सार्-सार् हृिय र्ें हैं और
इसीमलए शारीररक गमतयों की सारी शमक्त शरीर के इसी भाग से उद्भूत है । जो लाल रक्तगण िे िड़ों से आक्सीजन ले
जाते हैं वे आत्र्ा से ही शमक्त प्राप्त करते हैं । अतः जब आत्र्ा इस स्र्ान से मनकल जाता है तो रक्तोपािक संलयन
(fusion) बन्ि हो जाता है । औषमध मवज्ञान लाल रक्तकणों की र्हत्ता को स्वीकार करता है, मकन्तु वह यह मनमश्चत
नहीं कर पाता मक शमक्त का स्त्रोत आत्र्ा है । जो भी हो, औषमध मवज्ञान यह स्वीकार करता है मक शरीर की सारी शमक्त
का उद्गर्स्र्ल हृिय है ।
पूणम आत्र्ा के ऐसे अनुकणों की तुलना सूयम-प्रकाश के कणों से की जाती है । इस सूयम-प्रकाश र्ें असंख्य
तेजोर्य अणु होते हैं । इसी प्रकार परर्ेश्र्वर के अंश उनकी मकरणों के परर्ाणु स्िुमलंग है और प्रभा या परा शमक्त
कहलाते हैं । अतः चाहे कोई वैमिक ज्ञान का अनुगार्ी हो या आधुमनक मवज्ञान का, वह शरीर र्ें आत्र्ा के अमस्तत्व
को नकार नहीं सकता । भगवान् ने स्वयं भगवद्गीता र्ें आत्र्ा के इस मवज्ञान का मवशि वणमन मकया है ।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योिाः शरीररणः ।


अिानशिोऽप्रमेयस्य तस्माद्यध्ु यस्व भारत ।। १८ ।।

अन्त-वन्त– नाशवान;इमे– ये सब; देहाः– भौमतक शरीर; नित्यस्य– मनत्य स्वरूप; उिाः– कहे जाते
हैं; शररररणः– िेहधारी जीव का; अिानशिः– कभी नाश न होने वाला; अप्रमेयस्य– न र्ापा जा सकने
योग्य; तस्मात्– अतः; युध्यस्व– युद्ध करो; भारत– हे भरतवश
ं ी।

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अनविाशी, अप्रमेय तथा शाश्र्वत जीव के भौनतक शरीर का अन्त अवश्यम्भावी है । अतः हे
भारतवश
ं ी! युद्ध करो ।

तात्पयमः भौमतक शरीर स्वभाव से नाशवान है । यह तत्क्षण नष्ट हो जाता है और सौ वषम बाि भी । यह के वल
सर्य की बात है । इसे अनन्त काल तक बनाये रखने की कोई सम्भावना नहीं है । मकन्तु आत्र्ा इतना सूक्ष्र् है मक इसे
शत्रु िेख भी नहीं सकता, र्ारना तो िरू रहा । जैसा मक मपछले श्लोक र्ें कहा गया है, यह इतना सूक्ष्र् है मक कोई इसके
र्ापने की बात सोच भी नहीं सकता । अतः िोनों ही दृमष्ट से शोक का कोई कारण नहीं है क्योंमक जीव मजस रूप र्ें है,
न तो उसे र्ारा जा सकता है, न ही शरीर को कुछ सर्य तक या स्र्ायी रूप से बचाया जा सकता है । पणू म आत्र्ा के
सूक्ष्र् कण अपने कर्म के अनुसार ही यह शरीर धारण करते हैं, अतः धामर्मक मनयर्ों का पालन करना चामहए । वेर्ान्त-
सूत्र र्ें जीव को प्रकाश बताया गया है क्योंमक वह परर् प्रकाश का अशं है । मजस प्रकार सूयम का प्रकाश सारे ब्रह्माण्ड
का पोषण करता है उसी प्रकार आत्र्ा के प्रकाश से इस भौमतक िेह का पोषण होता है । जैसे ही आत्र्ा इस भौमतक
शरीर से बाहर मनकल जाता है, शरीर सड़ने लगता है, अतः आत्र्ा ही शरीर का पोषक है । शरीर अपने आप र्ें
र्हत्त्वहीन है । इसीमलए अजुमन को उपिेश मिया गया मक वह युद्ध करे और भौमतक शारीररक कारणों से धर्म की बमल न
होने िे ।

य एिं वेनत्त हन्तारं यश्र्चैिं मन्यते हतम् ।


उभौ तौ ि नवजािीतो िायं हनन्त ि हन्यते ।। १९ ।।

यः– जो; एिम्– इसको; वेनत्त– जानता है; हन्तारम्– र्ारने वाला; यः– जो; च– भी; एिम्– इसे; मन्यते–
र्ानता है; हतम्– र्रा हुआ; उभौ– िोनों; तौ– वे; ि– कभी नहीं; नवजािीतः– जानते है; ि– कभी नहीं; अयम्–
यह; हनन्त– र्ारता है; ि– नहीं; हन्यते– र्ारा जाता है ।

जो इस जीवात्मा को मारिे वाला समझता है तथा जो इसे मरा हुआ समझता है, वे दोिों ही अज्ञािी हैं,
क्योंनक आत्मा ि तो मरता है और ि मारा जाता है ।

तात्पयमःजब िेहधारी जीव को मकसी घातक हमर्यार से आघात पहुचँ ाया जाता है तो यह सर्झ लेना चामहए
मक शरीर के भीतर जीवात्र्ा र्रा नहीं । आत्र्ा इतना सूक्ष्र् है मक इसे मकसी तरह के भौमतक हमर्यार से र्ार पाना
असम्भव है, जैसा मक अगले श्लोकों से स्पष्ट हो जायेगा । न ही जीवात्र्ा अपने आध्यामत्र्क स्वरूप के कारण वध्य है ।
मजसे र्ारा जाता है या मजसे र्रा हुआ सर्झा जाता है वह के वल शरीर होता है । मकन्तु इसका तात्पयम शरीर के वध को
प्रोत्सामहत करना नहीं है । वैमिक आिेश है – मा स्हस्ां यात् सवाद भतू ास्न – मकसी भी जीव की महसं ा न करो । न ही
‘जीवात्र्ा अवध्य है’ का अर्म यह है मक पश-ु महसं ा को प्रोत्साहन मिया जाय । मकसी भी जीव के शरीर की अनमधकार
हत्या करना मनद्यं है और राजय तर्ा भगवमद्वधान के द्वारा िण्डनीय है । मकन्तु अजमनु को तो धर्म के मनयर्ानुसार र्ारने के
मलए मनयुक्त मकया जा रहा र्ा, मकसी पागलपनवश नहीं ।

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ि जायते नियते वा कदानचि्
िायं भूत्वा भनवता वा ि भूयः ।
अजो नित्यः शाश्र्वतोऽयं पुराणो
ि हन्यते हन्यमािे शरीरे ।। २० ।।

ि– कभी नहीं; जायते– जन्र्ता है; नियते– र्रता है;वा– या;कदानचत्– कभी भी (भतू , वतमर्ान या
भमवष्ट्य); ि– कभी नहीं; अयम्– यह; भत्ू वा– होकर; भनवता– होने वाला; वा– अर्वा; ि– नहीं; भयू ः– अर्वा,
पुनः होने वाला है; अजः– अजन्र्ा; नित्यः– मनत्य; शाश्र्वतः– स्र्ायी; अयम्– यह; पुराणः– सबसे प्राचीन; ि–
नहीं; हन्यते– र्ारा जाता है; हन्यमािे– र्ारा जाकर; शरीरे– शरीर र्ें;

आत्मा के नलए नकसी भी काल में ि तो जन्म है ि मृत्यु । वह ि तो कभी जन्मा है, ि जन्म लेता है और
ि जन्म लेगा । वह अजन्मा, नित्य, शाश्र्वत तथा पुराति है । शरीर के मारे जािे पर वह मारा िहीं जाता ।

तात्पयमः गुणात्र्क दृमष्ट से, परर्ात्र्ा का अण-ु अंश परर् से अमभन्न है । वह शरीर की भाँमत मवकारी नहीं है ।
कभी-कभी आत्र्ा को स्र्ायी या ू टस्थ कहा जाता है । शरीर र्ें छह प्रकार के रूपान्तर होते हैं । वह र्ाता के गभम से
जन्र् लेता है, कुछ काल तक रहता है, बढ़ता है, कुछ पररणार् उत्पन्न करता है, धीरे -धीरे क्षीण होता है और अन्त र्ें
सर्ाप्त हो जाता है । मकन्तु आत्र्ा र्ें ऐसे पररवतमन नहीं होते । आत्र्ा अजन्र्ा है, मकन्तु चँमू क यह भौमतक शरीर धारण
करता है, अतः शरीर जन्र् लेता है । आत्र्ा न तो जन्र् लेता है, न र्रता है । मजसका जन्र् होता है उसकी र्ृत्यु भी होती
है । और चँमू क आत्र्ा जन्र् नहीं लेता , अतः उसका न तो भतू है, न वतमर्ान न भमवष्ट्य । वह मनत्य, शाश्र्वत तर्ा
सनातन है – अर्ामत् उसके जन्र् लेने का कोई इमतहास नहीं है । हर् शरीर के प्रभाव र्ें आकर आत्र्ा के जन्र्, र्रण
आमि का इमतहास खोजते हैं । आत्र्ा शरीर की तरह कभी भी वृद्ध नहीं होता, अतः तर्ाकमर्त वृद्ध पुरुष भी अपने र्ें
बाल्यकाल या यवु ावस्र्ा जैसी अनभु मू त पाता है । शरीर के पररवतमनों का आत्र्ा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आत्र्ा
वृक्ष या मकसी अन्य भौमतक वस्तु की तरह क्षीण नहींहोता । आत्र्ा की कोईउपसृमष्ट नहीं होती । शरीर की उपसृमष्ट
संतानें हैं और वे भी व्यमष्ट आत्र्ाएँ है और शरीर के कारण वे मकसी न मकसी की सन्तानें प्रतीत होते हैं । शरीर की वृमद्ध
आत्र्ा की उपमस्र्मत के कारण होती है, मकन्तु आत्र्ा के न तो कोई उपवृमद्ध है न ही उसर्ें कोई पररवतमन होता है ।
अतः आत्र्ा शरीर के छः प्रकार के पररवतमन से र्क्त ु है ।
ठोपस्नषर्् र्ें (१.२.१८) इसी तरह का एक श्लोक आया है –
न जायते स्ियते वा स्वपस्श्र्चन्नायां ु तस्श्र्चन्न बभवू स्श्र्चत् ।
अजो स्नत्यः शाश्र्वतोऽयां पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।।
इस श्लोक का अर्म तर्ा तात्पयम भगवद्गीता के श्लोक जैसा ही है, मकन्तु इस श्लोक र्ें एक मवमशष्ट
शब्ि स्वपस्श्र्चत् का प्रयोग हुआ है मजसका अर्म मवद्वान या ज्ञानर्य ।
आत्र्ा ज्ञान से या चेतना से सिैव पूणम रहता है । अतः चेतना ही आत्र्ा का लक्षण है । यमि कोई हृियस्र्
आत्र्ा को नहीं खोज पाता तब भी वह आत्र्ा उपमस्र्मत को चेतना की उपमस्र्मत से जान सकता है । कभी-कभी हर्
बािलों या अन्य कारणों से आकाश र्ें सूयम को नहीं िेख पाते, मकन्तु सूयम का प्रकाश सिैव मवद्यर्ान रहता है, अतः हर्ें
मवश्र्वास हो जाता है मक यह मिन का सर्य है । प्रातःकाल जयोंही आकाश र्ें र्ोडा सा सूयमप्रकाश मिखता है तो हर्

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सर्झ जाते हैं मक सूयम आकाश र्ें है । इसी प्रकार चँमू क शरीरों र्ें, चाहे पशु के हों या पुरुषों के , कुछ न कुछ चेतना रहती
है, अतः हर् आत्र्ा की उपमस्र्मत को जान लेते हैं । मकन्तु जीव की यह चेतना परर्ेश्र्वर की चेतना से मभन्न है क्योंमक
परर् चेतना तो सवमज्ञ है – भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य के ज्ञान से पूणम । व्यमष्ट जीव की चेतना मवस्र्रणशील है । जब वह
अपने वास्तमवक स्वरूप को भल ू जाता है, तो उसे कृ ष्ट्ण के उपिेशों से मशक्षा तर्ा प्रकाश और बोध प्राप्त होता है ।
मकन्तु कृ ष्ट्ण मवस्र्रणशील जीव नहीं हैं । यमि वे ऐसे होते तो उनके द्वारा मिये गये भगवद्गीता के उपिेश व्यर्म होते ।
आत्र्ा के िो प्रकार है – एक तो अण-ु आत्मा और िसू रा स्वभ-ु आत्मा । ठोपस्नषर्् र्ें (१.२.२०) इसकी पुमष्ट
इस प्रकार हुई है –
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोस्नदस्हतो गुहायाम् ।
तमक्रतःु पश्यस्त वीतशो ो धातःु प्रसार्ान्मस्हमानमात्मनः ।।
“परर्ात्र्ा तर्ा अण-ु आत्र्ा िोनों शरीर रूपी उसी वृक्ष र्ें जीव के हृिय र्ें मवद्यर्ान हैं और इनर्ें से जो सर्स्त
इच्छाओ ं तर्ा शोकों से र्क्त ु हो चकु ा है वही भगवत्कृ पा से आत्र्ा की र्महर्ा को सर्झ सकता है ।” कृ ष्ट्ण परर्ात्र्ा
के भी उद्गर् हैं जैसा मक अगले अध्यायों र्ें बताया जायेगा और अजुमन अण-ु आत्र्ा के सार्ान है जो अपने वास्तमवक
स्वरूप को भल ू गया है । अतः उसे कृ ष्ट्ण द्वारा या उनके प्रार्ामणक प्रमतमनमध गुरु द्वारा प्रबुद्ध मकये जाने की आवश्यकता
है ।

वेदानविानशिं नित्यं य एिमजमव्ययम् ।


कथं स पुरुषः पाथम कं घातयनत हनन्त कम् ।। २१ ।।

वेद– जानता है; अनविानशिम्– अमवनाशी को; नित्यम्– शाश्र्वत; यः– जो; एिम्– इस (आत्र्ा); अजम्–
अजन्र्ा; अव्ययम्– मनमवमकार; कथम्– कै से; सः– वह; परुु षः– परुु ष; पाथम– हे पार्म (अजमनु ); कम्–
मकसको; घातयनत– र्रवाता है; हनन्त– र्ारता है; कम्– मकसको ।

हे पाथम! जो व्यनि यह जािता है नक आत्मा अनविाशी, अजन्मा, शाश्र्वत तथा अव्यय है, वह भला
नकसी को कै से मार सकता है या मरवा सकता है ?

तात्पयमः प्रत्येक वस्तु की सर्मु चत उपयोमगता होती है और जो ज्ञानी होता है वह जानता है मक मकसी वस्तु का
कहाँ और कै से प्रयोग मकया जाय । इसी प्रकार महसं ा की भी अपनी उपयोमगता है और इसका उपयोग इसे जानने वाले
पर मनभमर करता है । यद्यमप हत्या करने वाले व्यमक्त को न्यायसंमहता के अनुसार प्राणिण्ड मिया जाता है, मकन्तु
न्यायाधीश को िोषी नहीं िहराया जा सकता है, क्योंमक वह न्यायसंमहता के अनुसार ही िसू रे व्यमक्त पर महसं ा मकये
जाने का आिेश िेता है । र्नुष्ट्यों के मवमध-ग्रंर् मनुसांस्हता र्ें इसका सर्र्मन मकया गया है मक हत्यारे को प्राणिण्ड िेना
चामहए मजससे उसे अगले जीवन र्ें अपना पापकर्म भोगना ना पड़े । अतः राजा द्वारा हत्यारे को िाँसी का िण्ड एक
प्रकार से लाभप्रि है । इसी प्रकार जब कृ ष्ट्ण युद्ध करने का आिेश िेते हैं तो यह सर्झना चामहए मक यह महंसा परर्
न्याय के मलए है और इस तरह अजमनु को इस आिेश का पालन यह सर्झकर करना चामहए मक कृ ष्ट्ण के मलए मकया
गया युद्ध महंसा नहीं है क्योंमक र्नुष्ट्य या िसू रे शव्िों र्ें आत्र्ा को र्ारा नहीं जा सकता । अतः न्याय के हेतु तर्ाकमर्त

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महसं ा की अनुर्मत है । शल्यमक्रया का प्रयोजन रोगी को र्ारना नहीं अमपतु उसको स्वस्र् बनाना है । अतः कृ ष्ट्ण के
आिेश पर अजुमन द्वारा मकया जाने वाला युद्ध पूरे ज्ञान के सार् हो रहा है, उससे पापिल की सम्भावना नहीं है ।

वांसानस जीणामनि यथा नवहाय


िवानि गृह्णानत िरोऽपरानण ।
तथा शरीरानण नवहाय जीणामन्य-
न्यानि सयं ानत िवानि देनह ।। २२ ।।

वासानं स– वस्त्रों को; जीणामनि– परु ाने तर्ा िटे; यथा– मजस प्रकार; नवहाय– त्याग कर; िवानि– नए
वस्त्र; गृह्णानत– ग्रहण करता है; िरः– र्नुष्ट्य; अपरानण– अन्य; तथा– उसी प्रकार; शरीरानण– शरीरों को; नवहाय–
त्याग कर; जीणामनि– वृद्ध तर्ा व्यर्म; अन्यानि– मभन्न; सयं ानत– स्वीकार करता है; िवानि– नये; देही– िेहधारी
आत्र्ा ।

नजस प्रकार मिुष्ट्य पुरािे वस्त्रों को त्याग कर िए वस्त्र धारण करता है, उसी प्रकार आत्मा पुरािे तथा
व्यथम के शरीरों को त्याग कर िवीि भौनतक शरीर धारण करता है ।

तात्पयमः अण-ु आत्र्ा द्वारा शरीर का पररवतमन एक स्वीकृ त तथ्य है । आधमु नक मवज्ञानीजन तक, जो आत्र्ा के
अमस्तत्व पर मवश्र्वास नहीं करते, पर सार् ही हृिय से शमक्त-साधन की व्याख्या भी नहीं कर पाते, उन पररवतमनों को
स्वीकार करने को बाध्य हैं, जो बाल्यकाल से कौर्ारावस्र्ा और मिर तरुणावस्र्ा तर्ा वृद्धावस्र्ा र्ें होते रहते हैं ।
वृद्धावस्र्ा से यही पररवतमन िसू रे शरीर र्ें स्र्ानान्तररत हो जाता है । इसकी व्याख्या एक मपछले श्लोक र्ें (२.१३) की
जा चक ु ी है ।
अण-ु आत्र्ा का िसू रे शरीर र्ें स्र्ानान्तरण परर्ात्र्ा की कृ पा से सम्भव हो पाता है । परर्ात्र्ा अण-ु आत्र्ा की
इच्छाओ ं की पूमतम उसी तरह करते हैं मजस प्रकार एक मर्त्र िसू रे की इच्छापूमतम करता है । र्ण्ु डक तर्ा श्र्वेताश्र्वतर
उपस्नषर्ों र्ें आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा की उपर्ा िो मर्त्र पमक्षयों से िी गयी है और जो एक ही वृक्ष पर बैिे हैं । इनर्ें से एक
पक्षी (अण-ु आत्र्ा) वृक्ष के िल खा रहा है और िसू रा पक्षी (कृ ष्ट्ण) अपने मर्त्र को िेख रहा है । यद्यमप िोनों पक्षी
सर्ान गुण वाले हैं, मकन्तु इनर्ें से एक भौमतक वृक्ष के िलों पर र्ोमहत है, मकन्तु िसू रा अपने मर्त्र के कायमकलापों का
साक्षी र्ात्र है । कृ ष्ट्ण साक्षी पक्षी हैं, और अजुमन िल-भोक्ता पक्षी । यद्यमप िोनों मर्त्र (सखा) हैं, मकन्तु मिर भी एक
स्वार्ी है और िसू रा सेवक है । अण-ु आत्र्ा द्वारा इस सम्बन्ध की मवस्र्ृमत ही उसके एक वृक्ष से िसू रे पर जाने या एक
शरीर से िसू रे शरीर र्ें जाने का कारण है । जीव आत्र्ा प्राकृ त शरीर रूपी वृक्ष पर अत्यामधक संघषमशील है, मकन्तु
जयोंही वह िसू रे पक्षी को परर् गुरु के रूप र्ें स्वीकार करता है – मजस प्रकार अजुमन कृ ष्ट्ण का उपिेश ग्रहण करने के
मलए स्वेच्छा से उनकी शरण र्ें जाता है – त्योंही परतन्त्र पक्षी तरु न्त सारे शोकों से मवर्क्त ु हो जाता है । मण्ु ड -
उपस्नषर्् (३.१.२) तर्ा श्र्वेताश्र्वतर-उपस्नषर्् (४.७) सर्ान रूप से इसकी पुमष्ट करते हैं –
समाने वृक्षे परुु षो स्नमर्गनोऽनीशया शोचस्त मह्य
ु मानः ।
जुष्टां यर्ा पश्यत्यन्यमीशमस्य मस्हमानस्मस्त वीतशो ः ।।

७०
“यद्यमप िोनों पक्षी एक ही वृक्ष पर बैिे हैं, मकन्तु िल खाने वाला पक्षी वृक्ष के िल के भोक्ता रूप र्ें मचन्ता तर्ा
मवषाि र्ें मनर्ग्न है । यमि मकसी तरह वह अपने मर्त्र भगवान् की ओर उन्र्ख ु होता है और उनकी र्महर्ा को जान लेता
है तो वह कष्ट भोगने वाला पक्षी तुरन्त सर्स्त मचन्ताओ ं से र्क्त ु हो जाता है ।” अब अजुमन ने अपना र्ख ु अपने शाश्र्वत
मर्त्र कृ ष्ट्ण की ओर िे रा है और उनसे भगवद्गीता सर्झ रहा है । इस प्रकार वह कृ ष्ट्ण से श्रवण करके भगवान् की परर्
र्महर्ा को सर्झ कर शोक से र्क्त ु हो जाता है ।
यहाँ भगवान् ने अजुमन को उपिेश मिया है मक वह अपने मपतार्ह तर्ा गुरु से िेहान्तरण पर शोक प्रकट न करे
अमपतु उसे इस धर्मयुद्ध र्ें उनके शरीरों का वध करने र्ें प्रसन्न होना चामहए, मजससे वे सब मवमभन्न शारीररक कर्म-
िलों से तुरन्त र्क्त ु हो जायँ। बमलवेिी पर या धर्मयुद्ध र्ें प्राणों को अमपमत करने वाला व्यमक्त तुरन्त शारीररक पापों से
र्क्त
ु हो जाता है और उच्च लोक को प्राप्त होता है । अतः अजमनु का शोक करना यमु क्तसगं त नहीं है ।

िैिं नछन्दनन्त शस्त्रानण िैिं दहनत पावकः ।


ि चैिं क्लेदयन्त्यापो ि शोषयनत मारुतः ।। २३ ।।

ि– कभी नहीं; एिम्– इस आत्र्ा को; नछन्दनन्त– खण्ड-खण्ड कर सकते हैं; शस्त्रानण– हमर्यार; ि– कभी
नहीं; एिम्– इस आत्र्ा को; दहनत– जला सकता है; पावकः– अमग्न; ि– कभी नहीं; च– भी; एिम्– इस आत्र्ा
को; क्लेदयनन्त– मभगो सकता है; आपः– जल; ि– कभी नहीं; शोषयनत– सुखा सकता है; मारुतः– वायु ।

यह आत्मा ि तो कभी नकसी शस्त्र द्वारा खण्ड-खण्ड नकया जा सकता है, ि अनग्ि द्वारा जलाया जा
सकता है, ि जल द्वारा नभगोया या वायु द्वारा सुखाया जा सकता है ।

तात्पयमः सारे हमर्यार – तलवार, आग्नेयास्त्र, वषाम के अस्त्र, चक्रवात आमि आत्र्ा को र्ारने र्ें असर्र्म हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है मक आधमु नक आग्नेयास्त्रों के अमतररक्त मर्ट्टी, जल, वाय,ु आकाश आमि के भी अनेक प्रकार के
हमर्यार होते र्े । यहाँ तक मक आधमु नक युग के नामभकीय हमर्यारों की गणना भी आग्नेयास्त्रों र्ें की जाती है, मकन्तु
पूवमकाल र्ें मवमभन्न पामर्मव तत्त्वों से बने हुए हमर्यार होते र्े । आग्नेयास्त्रों का सार्ना जल के (वरुण) हमर्यारों से
मकया जाता र्ा, जो आधमु नक मवज्ञान के मलए अज्ञात हैं । आधुमनक मवज्ञान को चक्रवात हमर्यारों का भी पता नहीं है ।
जो भी हो, आत्र्ा को न तो कभी खण्ड-खण्ड मकया जा सकता है, न मकन्हीं वैज्ञामनक हमर्यारों से उसका संहार मकया
जा सकता है, चाहे उनकी संख्या मकतनी ही क्यों न हो ।
र्ायावािी इसकी व्याख्या नहीं कर सकते मक जीव मकस प्रकार अपने अज्ञान के कारण उत्पन्न हुआ और
तत्पश्चात् र्ाया की शमक्त से आवृत हो गया । न ही आमि परर्ात्र्ा से जीवों को मवलग कर पाना संभव र्ा, प्रत्युत सारे
जीव परर्ात्र्ा से मवलग हुए अंश हैं । चँमू क वे सनातन अण-ु आत्र्ा हैं, अतः र्ाया द्वारा आवृत होने की उनकी प्रवृमत्त
स्वाभामवक है और इस तरह वे भगवान् की सगं मत से पृर्क् हो जाते हैं, मजस प्रकार अमग्न के स्िुमलगं अमग्न से मवलग
होते ही बुझ जाते हैं, यद्यमप इन िोनों के गुण सर्ान होते हैं । वराह पुराण र्ें जीवों को परर्ात्र्ा का मभन्न अंश कहा गया
है । भगवद्गीता के अनसु ार भी वे शाश्र्वत रूप से ऐसे ही हैं । अतः र्ोह से र्क्त ु होकर भी जीव पृर्क् अमस्तत्व रखता
है, जैसा मक कृ ष्ट्ण द्वारा अजुमन को मिये गये उपिेशों से स्पष्ट है । अजुमन कृ ष्ट्ण के उपिेश के कारण र्क्तु तो हो गया,
मकन्तु कभी भी कृ ष्ट्ण से एकाकार नहीं हुआ ।

७१
अच्छे द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्ट्य एव च ।
नित्यः सवमगतः स्थाणुरचलोऽयं सिातिः ।। २४ ।।

अच्छे द्यः– न टूटने वाला; अयम्– यह आत्र्ा; अदाह्यः– न जलाया जा सकने वाला; अयम्– यह
आत्र्ा; अक्लेद्यः– अघल ु नशील; अशोष्ट्यः– न सुखाया जा सकने वाला; एव– मनश्चय ही; च– तर्ा; नित्यः–
शाश्र्वत; सवम-गतः– सवमव्यापी; स्थाणःु – अपररवतमनीय,अमवकारी; अचलः– जड़; अयम्– यह आत्र्ा; सिातिः–
सिैव एक सा ।

यह आत्मा अखंनडत तथा अघुलिशील है । इसे ि तो जलाया जा सकता है, ि ही सुखाया जा सकता
है । यह शाश्र्वत, सवमव्यापी, अनवकारी, नस्थर तथा सदैव एक सा रहिे वाला है ।

तात्पयमः अण-ु आत्र्ा के इतने सारे गुण यही मसद्ध करते हैं मक आत्र्ा पूणम आत्र्ा का अण-ु अंश है और मबना
मकसी पररवतमन के मनरन्तर उसी तरह बना रहता है । इस प्रसंग र्ें अद्वैतवाि को व्यवहृत करना कमिन है क्योंमक अण-ु
आत्र्ा कभी भी परर्-आत्र्ा के सार् मर्लकर एक नहीं हो सकता । भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु होकर अण-ु आत्र्ा
भगवान् के तेज की मकरणों की आध्यामत्र्क स्िुमलंग बनकर रहना चाह सकता है, मकन्तु बुमद्धर्ान जीव तो भगवान् की
संगमत करने के मलए वैकुण्िलोक र्ें प्रवेश करता है ।
सवदगत शब्ि र्हत्त्वपूणम है क्योंमक इसर्ें कोई संशय नहीं है मक जीव भगवान् की सर्ग्र सृमष्ट र्ें िै ले हुए हैं । वे
जल, र्ल, वायु, पृथ्वी के भीतर तर्ा अमग्न के भीतर भी रहते हैं । जो यह र्ानता हैं मक वे अमग्न र्ें स्वाहा हो जाते हैं
वह िीक नहीं है क्योंमक यहाँ कहा गया है मक आत्र्ा को अमग्न द्वारा जलाया नहीं जा सकता । अतः इसर्ें सन्िेह नहीं
मक सूयमलोक र्ें भी उपयुक्त प्राणी मनवास करते हैं । यमि सूयमलोक मनजमन हो तो सवदगत शब्ि मनरर्मक हो जाता है ।

अव्यिोऽयमनचन्त्योऽयमनवकायोऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं नवनदत्वैिं िािुशोनचतुमहमनस ।। २५ ।।

अव्यिः– अदृश्य; अयम्– यह आत्र्ा; अनचन्त्यः– अकल्पनीय; अयम्– यह आत्र्ा; अनवकायमः–


अपररवमतमत; अयम्– यह आत्र्ा; उच्यते– कहलाता है; तस्मात्– अतः; एवम्– इस प्रकार; नवनदत्वा– अच्छी तरह
जानकर; एिम्– इस आत्र्ा के मवषयर्ें; ि– नहीं; अिुशोनचतुम–् शोक करने के मलए; अहमनस– योग्य हो ।

यह आत्मा अव्यि, अकल्पिीय तथा अपररवतमिीय कहा जाता है । यह जािकार तुम्हें शरीर के नलए
शोक िहीं करिा चानहए ।

तात्पयमः जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है, आत्र्ा इतना सक्ष्ू र् है मक इसे सवाममधक शमक्तशाली सक्ष्ू र्िशी यत्रं से
भी नहीं िेखा जा सकता, अतः यह अदृश्य है । जहाँ तक आत्र्ा के अमस्तत्व का सम्बन्ध है, श्रस्ु त के प्रर्ाण के
अमतररक्त अन्य मकसी प्रयोग द्वारा इसके अमस्तत्व को मसद्ध नहीं मकया जा सकता । हर्ें इस सत्य को स्वीकार करना

७२
पड़ता है क्योंमक अनुभवगम्य सत्य होते हुए भी आत्र्ा के अमस्तत्व को सर्झने के मलए कोई अन्य साधन नहीं है । हर्ें
अनेक बातें के वल उच्च प्रर्ाणों के आधार पर र्ाननी पड़ती है । कोई भी अपनी र्ाता के आधार पर अपने मपता के
अमस्तत्व को अस्वीकार नहीं कर सकता । मपता के स्वरूप को जानने का साधन या एकर्ात्र प्रर्ाण र्ाता है । इसी
प्रकार वेिाध्ययन के अमतररक्त आत्र्ा को सर्झने का अन्य उपाय नहीं है । िसू रे शब्िों र्ें, आत्र्ा र्ानवीय व्यावहाररक
ज्ञान द्वारा अकल्पनीय है । आत्र्ा चेतना है और चेतन है – वेर्ों के इस कर्न को हर्ें स्वीकार करना होगा । आत्र्ा र्ें
शरीर जैसे पररवतमन नहीं होते । र्ल
ू तः अमवकारी रहते हुए आत्र्ा अनन्त परर्ात्र्ा की तुलने र्ें अण-ु रूप है । परर्ात्र्ा
अनन्त है और अण-ु आत्र्ा अमत सूक्ष्र् है । अतः अमत सक्ष्ू र् आत्र्ा अमवकारी होने के कारण अनन्त आत्र्ा भगवान्
के तुल्य नहीं हो सकता । यही भाव वेर्ों र्ें मभन्न-मभन्न प्रकार से आत्र्ा के स्र्ामयत्व की पुमष्ट करने के मलए िहु राया
गया है । मकसी बात का िहु राना उस तथ्य को मबना मकसी त्रमु ट के सर्झने के मलए आवश्यक है ।

अथ चैिं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम् ।


तथानप त्वं महाबाहो िैिं शोनचतुमहमनस ।। २६ ।।

अथ– यमि, मिर भी; च– भी; एिम्– इस आत्र्ा को; नित्य-जातम्– उत्पन्न होने वाला; नित्यम्– सिैव के
मलए; वा– अर्वा; मन्यसे– तुर् ऐसा सोचते हो; मृतम्– र्ृत; तथा अनप– मिर भी; त्वम्– तुर्; महा-बाहो – हे
शरू वीर; ि– कभी नहीं; एिम्– आत्र्ा के मवषय र्ें; शोनचतुम–् शोक करने के मलए; अहमनस– योग्य हो;

नकन्तु यनद तुम यह सोचते हो नक आत्मा (अथवा जीवि का लक्षण) सदा जन्म लेता है तथा सदा
मरता है तो भी हे महाबाहु! तुम्हारे शोक करिे का कोई कारण िहीं है ।

तात्पयमः सिा से िाशममनकों का एक ऐसा वगम चला आ रहा है जो बौद्धों के ही सर्ान यह नहीं र्ानता मक शरीर
के परे भी आत्र्ा का स्वतन्त्र अमस्तत्व है । ऐसा प्रतीत होता है मक जब भगवान् कृ ष्ट्ण ने भगवद्गीता का उपिेश मिया तो
ऐसे िाशममनक मवद्यर्ान र्े और लो ायस्त तर्ा वैभास्ष नार् से जाने जाते र्े । ऐसे िाशममनकों का र्त है मक जीवन
के लक्षण भौमतक संयोग की एक पररपक्वास्र्ा र्ें ही घमटत होते हैं । आधमु नक भौमतक मवज्ञानी तर्ा भौमतकवािी
िाशममनक भी ऐसा ही सोचते हैं । उनके अनुसार शरीर भौमतक तत्त्वों का संयोग है और एक अवस्र्ा ऐसी आती है जब
भौमतक तर्ा रासायमनक तत्त्वों का संयोग से जीवन के लक्षण मवकमसत हो उिते हैं । नृतत्त्व मवज्ञान इसी िशमन पर
आधाररत है । सम्प्रमत, अनेक छद्म धर्म – मजनका अर्ेररका र्ें प्रचार हो रहा है – इसी िशमन का पालन करते हैं और
सार् ही शन्ू यवािी अभक्त बौद्धों का अनुसरण करते हैं ।
यमि अजुमन को आत्र्ा का अमस्तत्व र्ें मवश्र्वास नहीं र्ा, जैसा मक वैभास्ष िशमन र्ें होता है तो भी उसके शोक
करने का कोई कारण न र्ा । कोई भी र्ानव र्ोड़े से रसायनों की क्षमत के मलए शोक नहीं करता तर्ा अपना
कतमव्यपालन नहीं त्याग िेता है । िसू री ओर, आधमु नक मवज्ञान तर्ा वैज्ञामनक युद्ध र्ें शत्रु पर मवजय प्राप्त करने के मलए
न जाने मकतने टन रसायन िँू क िेते हैं । वैभास्ष िशमन के अनुसार आत्र्ा शरीर के क्षय होते ही लुप्त हो जाता है । अतः
प्रत्येक िशा र्ें चाहे अजमनु इस वैमिक र्ान्यता को स्वीकार करता मक अण-ु आत्र्ा का अमस्तत्व है, या मक वह आत्र्ा
के अमस्तत्व को स्वीकार नहीं करता , उसके मलए शोक करने का कोई कारण न र्ा । इस मसद्धान्त के अनुसार चँमू क
पिार्म से प्रत्येक क्षण असख्ं य जीव उत्पन्न होते है और नष्ट होते रहते हैं, अतः ऐसी घटनाओ ं के मलए शोक करने की

७३
कोई आवश्यकता नहीं है । यमि आत्र्ा का पुनजमन्र् नहीं होता तो अजुमन को अपने मपतार्ह तर्ा गुरु के वध करने के
पापिलों से डरने का कोई कारण न र्ा । मकन्तु सार् ही कृ ष्ट्ण ने अजुमन को व्यंगपूवमक र्हाबाहु कह कर सम्बोमधत
मकया क्योंमक उसे वैभास्ष मसद्धान्त स्वीकार नहीं र्ा जो वैमिक ज्ञान के प्रमतकूल है । क्षस्त्रय होने के नाते अजुमन का
सम्बन्ध वैमिक संस्कृ मत से र्ा और वैमिक मसद्धान्तों का पालन करते रहना ही उसके मलए शोभनीय र्ा ।

जातस्य नह ध्रुवो मृत्युध्रमुवं जन्म मृतस्य च ।


तस्मादपररहायेऽथे ि त्वं शोनचतमु हमनस ।। २७ ।।

जातस्य– जन्र् लेने वाले की; नह– मनश्चय ही; ध्रुवः– तथ्य है; मृत्युः– र्ृत्य;ु ध्रुवम्– यह भी तथ्य है; जन्म–
जन्र्; मृतस्य– र्ृत प्राणी का; च– भी; तस्मात्– अतः; अपररहाये– मजससे बचा न जा सके , उसका; अथे– के मवषय
र्ें; ि– नहीं; त्वम्– तुर्; शोनचतुम–् शोक करने के मलए; अहमनस– योग्य हो ।

नजसिे जन्म नलया है उसकी मृत्यु निनश्चत है और मृत्यु के पश्चात् पुिजमन्म भी निनश्चत है । अतः अपिे
अपररहायम कतमव्यपालि में तुम्हें शोक िहीं करिा चानहए ।

तात्पयमः र्नुष्ट्य को अपने कर्ों के अनुसार जन्र् ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवमध सर्ाप्त होने पर उसे
र्रना होता है , मजससे वह िसू रा जन्र् ले सके । इस प्रकार र्ुमक्त प्राप्त मकये मबना ही जन्र्-र्ृत्यु का यह चक्र चलता
रहता है । जन्र्-र्रण के इस चक्र से वृर्ा हत्या, वध या युद्ध का सर्र्मन नहीं होता । मकन्तु र्ानव सर्ाज र्ें शामन्त तर्ा
व्यवस्र्ा बनाये रखने के मलए महसं ा तर्ा युद्ध अपररहायम हैं ।
कुरुक्षेत्र का यद्ध
ु भगवान् की इच्छा होने के कारण अपररहायम र्ा और सत्य के मलए यद्ध ु करना क्षस्त्रय काधर्म
है । अतः अपने कतमव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की र्ृत्यु से भयभीत या शोककुल क्यों र्ा? वह मवमध (कानून)
को भगं नहीं करना चाहता र्ा क्योंमक ऐसा करने पर उसे उन पापकर्ों के िल भोगने पड़ेंगे मजनर्े वह अत्यन्त भयभीत
र्ा । अपने कतमव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की र्ृत्यु को रोक नहीं सकता र्ा और यमि वह अनुमचत कतमव्य-
पर् का चुनाव करे , तो उसे मनचे मगरना होगा ।

अव्यिादीनि भूतानि व्यिमध्यानि भारत ।


अव्यिनिधिान्येव तत्र का पररदेविा ।। २८ ।।

अव्यि-आदीनि– प्रारम्भ र्ें अप्रकट; भूतानि– सारे प्राणी; व्यि– प्रकट; मध्यानि– र्ध्य र्ें; भारत– हे
भरतवंशी; अव्यि– अप्रकट; निधिानि– मवनाश होने पर; एव– इस तरह से; तत्र– अतः; का– क्या; पररदेविा–
शोक ।

सारे जीव प्रारम्भ में अव्यि रहते हैं, मध्य अवस्था में व्यि होते हैं और नविष्ट होिे पर पिु ः अव्यि हो
जाते हैं । अतः शोक करिे की क्या आवश्यकता है?

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तात्पयमः यह स्वीकार करते हुए मक िो प्रकार के िाशममनक हैं – एक तो वे जो आत्र्ा के अमस्तत्व को र्ानते हैं,
और िसू रे वे जो आत्र्ा के अमस्तत्व को नहीं र्ानते, कहा जा सकता है मक मकसी भी िशा र्ें शोक करने का कोई
कारण नहीं है । आत्र्ा के अमस्तत्व को न र्ानने वालों को वेिान्तवािी नामस्तक कहते हैं । यमि हर् तकम के मलए इस
नामस्तक्तावािी मसद्धान्त को र्ान भी लें तो भी शोक करने का कोई कारण नहीं है । आत्र्ा के पृर्क् अमस्तत्व से मभन्न
सारे भौमतक तत्त्व सृमष्ट के पूवम अदृश्य रहते हैं । इस अदृश्य रहने की सूक्ष्र् अवस्र्ा से ही दृश्य अवस्र्ा आती है, मजस
प्रकार आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से अमग्न, अमग्न से जल और जल से पृथ्वी उत्पन्न होती है । पृथ्वी से
अनेक प्रकार के पिार्म प्रकट होते हैं – यर्ा एक मवशाल गगनचम्ु बी र्हल पृथ्वी से ही प्रकट है । जब इसे ध्वस्त कर
मिया जाता है, तो वह अदृश्य हो जाता है,और अन्ततः परर्ाणु रूप र्ें बना रहता है । शमक्त-संरक्षण का मनयर् बना
रहता है, मकन्तु कालक्रर् से वस्तएु ँ प्रकट तर्ा अप्रकट होती रहती हैं – अन्तर इतना ही है । अतः प्रकट होने (व्यक्त) या
अप्रकट (अव्यक्त) होने पर शोक करने का कोई कारण नहीं है । यहाँ तक मक अप्रकट अवस्र्ा र्ें भी वस्तुएँ सर्ाप्त नहीं
होतीं । प्रारमम्भक तर्ा अमन्तर् िोनों अवस्र्ाओ ं र्ें ही सारे तत्त्व अप्रकट रहते हैं, के वल र्ध्य र्ें वे प्रकट होते हैं और
इस तरह इससे कोई वास्तमवक अन्तर नहीं पड़ता ।
यमि हर् भगवद्गीता के इस वैमिक मनष्ट्कषम को र्ानते हैं मक भौमतक शरीर कालक्रर् र्ें नाशवान हैं (अन्तवन्त इमे
र्ेहाः) मकन्तु आत्र्ा शाश्र्वत है (स्नत्यस्योिाः शरीररणः) तो हर्ें यह सिा स्र्रण रखना होगा मक यह शरीर वस्त्र
(पररधान) के सर्ान है, अतः वस्त्र पररवतमन होने पर शोक क्यों? शाश्र्वत आत्र्ा की तुलना र्ें भौमतक शरीर का कोई
यर्ार्म अमस्तत्व नहीं होता । यह स्वप्न के सर्ान है । स्वप्न र्ें हर् आकाश र्ें उड़ते या राजा की भाँमत रर् पर आरूढ़
हो सकते हैं, मकन्तु जागने पर िेखते हैं मक न तो हर् आकाश र्ें हैं, न रर् पर । वैमिक ज्ञान आत्र्-साक्षात्कार को
भौमतक शरीर के अनमस्तत्व के आधार पर प्रोत्साहन िेता है । अतः चाहे हर् आत्र्ा के अमस्तत्व को र्ानें या न र्ानें,
शरीर-नाश के मलए शोक करने का कोई कारण नहीं है ।

आश्र्चयमवत्पश्यनत कनश्र्चदेि-
माश्र्चयमवद्वदनत तथैव चान्यः ।
आश्र्चयमवच्चैिमन्यः शृणोनत
श्रुत्वाप्येिं वेद ि चैव कनश्र्चत् ।। २९ ।।

आश्र्चयमवत् – आश्र्चयम की तरह; पश्यनत– िेखता है; कनश्र्चत्– कोई; एिम्– इस आत्र्ा
को; आश्र्चयमवत्– आश्र्चयम की तरह; वदनत– कहता है; तथा– मजस प्रकार; एव– मनश्चय ही; च– भी; अन्यः–
िसू रा; आश्र्चयमवत्– आश्र्चयम से; च– और; एिम्– इस आत्र्ा को; अन्यः– िसू रा; शृणोनत– सुनता है; श्रुत्वा–
सुनकर; अनप– भी; एिम्– इस आत्र्ा को; वेद– जानता है; ि– कभी नहीं; च– तर्ा; एव– मनश्चय ही; कनश्र्चत्–
कोई ।

कोई आत्मा को आश्चयम से देखता है, कोई इसे आश्चयम की तरह बताता है तथा कोई इसे आश्चयम की
तरह सिु ता है, नकन्तु कोई-कोई इसके नवषय में सिु कर भी कुछ िहीं समझ पाते ।

७५
तात्पयमः चँमू क गीतोपस्नषर्उ् पस्नषर्ों के मसद्धान्त पर आधाररत है, अतः ठोपस्नषर्् र्ें (१.२.७) इस श्लोक का
होना कोई आश्चयमजनक नहीं है –
श्रवणयास्प बहुस्भयो न लभ्यः शृण्वन्तोऽस्प बहवो यां न स्वयुः।
आश्र्चयो विा ु शलोऽस्य लब्द्धा आश्र्चयोऽस्य ज्ञाता ु शलानुस्शष्टः ।।
मवशाल पश,ु मवशाल वटवृक्ष तर्ा एक इचं स्र्ान र्ें लाखों करोडों की संख्या र्ें उपमस्र्त सूक्ष्र्कीटाणओ ु ं के
भीतर अण-ु आत्र्ा की उपमस्र्मत मनमश्चत रूप से आश्चयमजनक है । अल्पज्ञ तर्ा िरु ाचारी व्यमक्त अण-ु आत्र्ा के
स्िुमलगं के चर्त्कारों को नहीं सर्झ पाता, भले ही उसे बड़े से बड़ा ज्ञानी, मजसने मवश्र्व के प्रर्र् प्राणी ब्रह्मा को भी
मशक्षा िी हो, क्यों न सर्झाए । वस्तुओ ं के स्र्ूल भौमतक बोध के कारण इस युग के अमधकांश व्यमक्त इसकी कल्पना
नहीं कर सकते मक इतना सक्ष्ू र्कण मकस प्रकार इतना मवराट तर्ा लघु बन सकता है । अतः लोग आत्र्ा को उसकी
संरचना या उसके मववरण के आधार पर ही आश्चयम से िेखते हैं । इमन्द्रयतृमप्त की बातों र्ें िँ स कर लोग भौमतक शमक्त
(र्ाया) से इस तरह र्ोमहत होते हैं मक उनके पास आत्र्ज्ञान को सर्झने का अवसर ही नहीं रहता यद्यमप यह तथ्य है
मक आत्र्-ज्ञान के मबना सारे कायों का िष्ट्ु पररणार् जीवन-संघषम र्ें पराजय के रूप र्ें होता है । सम्भवतः उन्हें इसका
कोई अनुर्ान नहीं होता मक र्नुष्ट्य को आत्र्ा के मवषय र्ें मचन्तन करना चामहए और िख ु ों का हल खोज मनकालना
चामहए ।
ऐसे र्ोड़े से लोग, जो आत्र्ा के मवषय र्ें सुनने के इच्छुक हैं, अच्छी संगमत पाकर भाषण सुनते हैं, मकन्तु कभी-
कभी अज्ञानवश वे परर्ात्र्ा तर्ा अण-ु आत्र्ा को एक सर्झ बैिते हैं । ऐसा व्यमक्त खोज पाना कमिन है जो, परर्ात्र्ा,
अण-ु आत्र्ा , उनके पृर्क-पृर्क कायों तर्ा सम्बन्धों एवं अन्य मवस्तारों को सही ढंग से सर्झ सके । इससे अमधक
कमिन है ऐसा व्यमक्त खोज पाना मजसने आत्र्ा के ज्ञान से पूरा-पूरा लाभ उिाया हो और जो सभी पक्षों से आत्र्ा की
मस्र्मत का सही-सही मनधामरण कर सके । मकन्तु यमि कोई मकसी तरह से आत्र्ा के मवषय को सर्झ लेता है तो उसका
जीवन सिल हो जाता है ।
इस आत्र्-ज्ञान को सर्झने का सरलतर् उपाय यह है मक अन्य र्तों से मवचमलत हुए मबना परर् प्रर्ाण भगवान्
कृ ष्ट्ण द्वारा कमर्त भगवद्गीता के उपिेशों को ग्रहण कर मलया जाय । मकन्तु इसके मलए भी इस जन्र् र्ें या मपछले जन्र्ों
र्ें प्रचरु तपस्या की आवश्यकता होती है, तभी कृ ष्ट्ण को श्रीभगवान् के रूप र्ें स्वीकार मकया जा सकता है । पर कृ ष्ट्ण
को इस रूप र्ें जानना शुद्ध भक्तों की अहैतुकी कृ पा से ही होता है, अन्य मकसी उपाय से नहीं ।

देही नित्यमवध्योऽयं देहे सवमस्य भारत ।


तस्मात्सवामनण भूतानि ि त्वं शोनचतुमहमनस ।। ३० ।।

देही - भौमतक शरीर का स्वार्ी; नित्यम् - शाश्र्वत; अवध्यः - र्ारा नहीं जा सकता; अयम् - यह
आत्र्ा; देहे - शरीर र्ें; सवमस्य - हर एक के ;भारत - हे भारतवंशी; तस्मात् - अतः; सवामनण - सर्स्त; भूतानि -
जीवों (जन्र् लेने वालों) को ; ि - कभी नहीं; त्वम् - तर्ु ; शोनचतमु ् - शोक करने के मलए; अहमनस - योग्य हो ।

हे भारतवश
ं ी! शरीर में रहिे वाले (देही) का कभी भी वध िहीं नकया जा सकता । अतः तम्ु हें नकसी भी
जीव के नलए शोक करिे की आवश्यकता िहीं है ।

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तात्पयमः अब भगवान् अमवकारी आत्र्ा मवषयक अपना उपिेश सर्ाप्त कर रहे हैं । अर्र आत्र्ा का अनेक
प्रकार से वणमन करते हुए भगवान् कृ ष्ट्ण ने आत्र्ा को अर्र तर्ा शरीर को नाशवान मसद्ध मकया है । अतः क्षमत्रय होने
के नाते अजुमन को इस भय से मक युद्ध र्ें उसके मपतार्ह भीष्ट्र् तर्ा गुरु द्रोण र्र जायेंगे अपने कतमव्य से मवर्खु नहीं
होना चामहए । कृ ष्ट्ण को प्रर्ाण र्ानकर भौमतक िेह से मभन्न आत्र्ा का पृर्क् अमस्तत्व स्वीकार करना होगा, यह नहीं
मक आत्र्ा जैसी कोई वस्तु नहीं है या मक जीवन के लक्षण रसायनों की अन्तःमक्रया के िलस्वरूप एक मवशेष अवस्र्ा
र्ें प्रकट होते हैं । यद्यमप आत्र्ा अर्र है, मकन्तु इससे महसं ा को प्रोत्सामहत नहीं मकया जाता । मिर भी युद्ध के सर्य
महसं ा का मनषेध नहीं मकया जाता क्योंमक तब इसकी आवश्यकता रहती है । ऐसी आवश्यकता को भगवान् की आज्ञा
के आधार पर उमचत िहराया जा सकता है, स्वेच्छा से नहीं ।

स्वधमममनप चावेक्ष्य ि नवकनम्पतुमहमनस ।


धम्यामनद्ध युद्धाच्रे योऽन्यत्क्षनत्रयस्य ि नवद्यते ।। ३१ ।।

स्व-धममम–् अपने धर्म को; अनप– भी; च– मनस्सन्िेह; अवेक्ष्य– मवचार करके ; ि– कभी नहीं; नवकनम्पतुम–्
संकोच करने के मलए; अहमनस– तुर् योग्य हो; धम्यामत–् धर्म के मलए; नह– मनस्सन्िेह; युद्धात्– युद्ध करने की
अपेक्षा; श्रेयः– श्रेि साधन; अन्यत्– कोई िसू रा; क्षनत्रयस्य– क्षमत्रय का; ि– नहीं; नवद्यते– है ।

क्षनत्रय होिे के िाते अपिे नवनशष्ट धमम का नवचार करते हुए तुम्हें जाििा चानहए नक धमम के नलए युद्ध
करिे से बढ कर तुम्हारे नलए अन्य कोई कायम िहीं है । अतः तुम्हें संकोच करिे की कोई आवश्यकता िहीं
है ।

तात्पयमः सार्ामजक व्यवस्र्ा के चार वणों र्ें मद्वतीय वणम उत्तर् शासन के मलए है और क्षस्त्रय कहलाता
है । क्षत् का अर्म है चोट खाया हुआ । जो क्षमत से रक्षा करे वह क्षस्त्रय कहलाता है (त्रायते– रक्षा प्रिान करना)
। क्षस्त्रयों को वन र्ें आखेट करने का प्रमशक्षण मिया जाता है । क्षस्त्रय जंगल र्ें जाकर शेर को ललकारता और उससे
आर्ने-सार्ने अपनी तलवार से लड़ता है । शेर की र्ृत्यु होने पर उसकी राजसी ढंग से अन्त्येमष्ट की जाती र्ी । आज
भी जयपुर ररयासत के क्षस्त्रयराजा इस प्रर्ा का पालन करते हैं । क्षस्त्रयों को मवशेष रूप से ललकारने तर्ा र्ारने की
मशक्षा िी जाती है क्योंमक कभी-कभी धामर्मक महसं ा अमनवायम होती है । इसमलए क्षस्त्रयों को सीधे सांन्यसाश्रम ग्रहण
करने का मवधान नहीं है । राजनीमत र्ें अमहसं ा कूटनीमतक चाल हो सकती है, मकन्तु यह कभी भी कारण या मसद्धान्त
नहीं रही । धामर्मक संमहताओ ं र्ें उल्लेख मर्लता है –
आहवेषु स्मथोऽन्योन्यां स्जघाांसन्तो महीस्क्षतः ।
युद्धमानाः परां शक्तत्या स्वगं यान्त्यपराङ्मु खाः ।।
यज्ञेषु पशवो ब्रह्मान् हन्यन्ते सततां स्िजैः ।
सांस् ृ ताः स् ल मन्त्रैश्र्च तेऽस्प स्वगदमवाप्नुवन् ।।
“यद्धु र्ें मवरोधी ईष्ट्यामलु राजा से सघं षम करते हुए र्रने वाले राजा या क्षस्त्रय को र्ृत्यु के अनन्तर वे ही उच्च्लोक
प्राप्त होते हैं मजनकी प्रामप्त यज्ञामग्न र्ें र्ारे गये पशओ ु ं को होती है ।” अतः धर्म के मलए युद्धभमू र् र्ें वध करना तर्ा
यामज्ञक अमग्न के मलए पशओ ु ं का वध करना महसं ा कायम नहीं र्ाना जाता क्योंमक इसर्ें मनमहत धर्म के कारण प्रत्येक

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व्यमक्त को लाभ पहुचँ ता है और यज्ञ र्ें बमल मिये गये पशु को एक स्वरूप से िसू रे र्ें मबना मवकास प्रमक्रया के ही तुरन्त
र्नुष्ट्य का शरीर प्राप्त हो जाता है । इसी तरह युद्धभमू र् र्ें र्ारे गये क्षस्त्रय यज्ञ सम्पन्न करने वाले ब्राह्मणों को प्राप्त होने
वाले स्वगमलोक र्ें जाते हैं ।
स्वधमद िो प्रकार का होता है । जब तक र्नुष्ट्य र्क्त ु नहीं हो जाता तब तक र्मु क्त प्राप्त करने के मलए धर्म के
अनुसार शरीर मवशेष के कतमव्य करने होते हैं । जब वह र्क्त ु हो जाता है तो उसका मवशेष कतमव्य
या स्वधमदआध्यामत्र्क हो जाता है और िेहात्र्बुमद्ध र्ें नहीं रहता । जब तक िेहात्र्बुमद्ध है तब
तक ब्राह्मणों तर्ा क्षस्त्रयों के मलए स्वधमद पालन अमनवायम होता है । स्वधमद का मवधान भगवान् द्वारा होता है, मजसका
स्पष्टीकरण चतुर्म अध्याय र्ें मकया जायेगा । शारीररक स्तर पर स्वधमद को वणादश्रम-धर्म अर्वा अध्यामत्र्क बोध का
प्रर्र् सोपान कहते हैं । वणादश्रम-धर्म अर्ामत् प्राप्त शरीर के मवमशष्ट गणु ों पर आधाररत स्वधर्म की अवस्र्ा से र्ानवीय
सभ्यता का शभु ारम्भ होता है । वणादश्रम-धर्म के अनुसार मकसी कायम-क्षेत्र र्ें स्वधर्म का मनवामह करने से जीवन के
उच्चतर पि को प्राप्त मकया जा सकता है ।

यदृच्छया चोपपन्िं स्वगमद्वारमपावृतम् ।


सुनखिः क्षनत्रयाः पाथम लभन्ते युद्धमीदृशम् ।। ३२ ।।

यदृच्छया– अपने आप; च– भी; उपपन्िम्– प्राप्त हुए; स्वगम– स्वगमलोक का; द्वारम्– िरवाजा; अपावृतम्–
खल ु ा हुआ; सुनखिः– अत्यन्त सुखी; क्षनत्रयाः– राजपररवार के सिस्य; पाथम– हे पृर्ापुत्र; लभन्ते– प्राप्त करते
हैं; युद्धम्– युद्ध को; ईदृशम्– इस तरह ।

हे पाथम! वे क्षनत्रय सख
ु ी हैं नजन्हें ऐसे यद्ध
ु के अवसर अपिे आप प्राप्त होते हैं नजससे उिके नलए
स्वगमलोक के द्वार खुल जाते हैं ।

तात्पयमः मवश्र्व के परर् गुरु भगवान् कृ ष्ट्ण अजुमन की इस प्रवृमत्त की भत्समना करते हैं जब वह कहता है मक उसे
इस युद्ध र्ें कुछ भी तो लाभ नहीं मिख रहा है । इससे नरक र्ें शाश्र्वत वास करना होगा । अजुमन द्वारा ऐसे वक्तव्य के वल
अज्ञानजन्य र्े । वह अपने स्वधर्म के आचरण र्ें अमहसं क बनना चाह रहा र्ा, मकन्तु एक क्षस्त्रय के मलए युद्धभमू र् र्ें
मस्र्त होकर इस प्रकार अमहंसक बनना र्ूखों का िशमन है । पराशर-स्मृस्त र्ें व्यासिेव के मपता पराशर ने कहा है –
क्षस्त्रयो स्ह प्रजारक्षन् शस्त्रपास्णः प्रर्ण्डयन् ।
स्नस्जदत्य परसैन्यास्र् स्क्षस्तां धमेण पाल्येत् ।।
“क्षमत्रय का धर्म है मक वह सभी क्लेशों से नागररकों की रक्षा करे । इसीमलए उसे शामन्त तर्ा व्यवस्र्ा बनाये
रखने के मलए महसं ा करनी पड़ती है । अतः उसे शत्रु राजाओ ं के सैमनकों को जीत कर धर्मपूवमक संसार पर राजय करना
चामहए ।”
यमि सभी पक्षों पर मवचार करें तो अजुमन को युद्ध से मवर्ख ु होने का कोई कारण नहीं र्ा । यमि वह शत्रुओ ं को
जीतता है तो राजयभोग करे गा और यमि वह युद्धभमू र् र्ें र्रता है तो स्वगम को जायेगा मजसके द्वार उसके मलए खल ु े हुए
हैं । युद्ध करने के मलए उसे िोनों ही तरह लाभ होगा ।

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अथ चेत्त्वनममं धम्यं संग्रामं ि कररष्ट्यनस ।
ततः स्वधमं कीनतं च नहत्वा पापमवाप्स्यनस ।। ३३ ।।

अथ– अतः; चेत–् यमि; त्वम्– तुर्; इमम्– इस; धम्यमम–् धर्म रूपी; संग्रामम्– युद्ध को; ि–
नहीं; कररष्ट्यनस– करोगे; ततः– तब; स्व-धममम–् अपने धर्म को; कीनतमम–् यश को; च– भी; नहत्वा–
खोकर; पापम्– पापपूणम िल को; अवाप्स्यनस– प्राप्त करोगे ।

नकन्तु यनद तुम युद्ध करिे के स्वधमम को सम्पन्ि िहीं करते तो तुम्हें निनश्चत रूप से अपिे कतमव्य की
अपेक्षा करिे का पाप लगेगा और तमु योद्धा के रूप में भी अपिा यश खो दोगे ।

तात्पयमः अजुमन मवख्यात योद्धा र्ा मजसने मशव आमि अनेक िेवताओ ं से युद्ध करके यश अमजमत मकया र्ा ।
मशकारी के वेश र्ें मशवजी से युद्ध करके तर्ा उन्हें हरा कर अजुमन ने उन्हें प्रसन्न मकया र्ा और वर के रूप
र्ें पाशपु तास्त्र प्राप्त मकया र्ा । सभी लोग जानते र्े मक वह र्हान योद्धा है । स्वयं द्रोणाचायम ने उसे आशीष मिया र्ा
और एक मवशेष अस्त्र प्रिान मकया र्ा, मजससे वह अपने गुरु का भी वध कर सकता र्ा । इस प्रकार वह अपने धर्ममपता
एवं स्वगम के रजा इन्द्र सर्ेत अनेक अमधकारीयों से अनेक युद्धों के प्रर्ाणपत्र प्राप्त कर चक ु ा र्ा , मकन्तु यमि वह इस
सर्य युद्ध का पररत्याग करता है तो वह न के वल क्षस्त्रय धर्म की अपेक्षा का िोषी होगा, अमपतु उसके यश की भी हामन
होगी और वह नरक जाने के मलए अपना र्ागम तैयार कर लेगा । िसू रे शब्िों र्ें, वह युद्ध करने से नहीं, अमपतु युद्ध से
पलायन करने के कारण नरक का भागी होगा ।

अकीनतं चानप भतू ानि कथनयष्ट्यनन्त तेऽव्ययाम् ।


सम्भानवतस्य चाकीनतमममरणादनतररच्यते ।। ३४ ।।

अकीनतमम् – अपयश; च– भी; अनप– इसके अमतररक्त; भूतानि– सभी लोग; कथनयष्ट्यनन्त– कहेंगे; ते–
तुम्हारे ; अव्ययाम्– सिा के मलए;सम्भानवतस्य– सम्र्ामनत व्यमक्त के मलए; च – भी;अकीनतमः– अपयश,
अपकीमतम; मरणात्– र्ृत्यु से भी; अनतररच्यते– अमधक होती है ।

लोग सदैव तुम्हारे अपयश का वणमि करेंगे और सम्मानित व्यनि के नलए अपयश तो मृत्यु से भी
बढकर है ।

तात्पयमः अब अजुमन के मर्त्र तर्ा गुरु के रूप र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण अजुमन को युद्ध से मवर्ख ु न होने का अमन्तर्
मनणमय िेते हैं । वे कहते हैं, “अजमनु ! यमि तर्ु यद्ध
ु प्रारम्भ होने के प व
ू म ही यद्ध
ु ूभ मर् छोड़ िे त े हो तो लोग तम्ु हें कायर
कहेंगे । और यमि तुर् सोचते हो मक लोग गाली िेते रहें, मकन्तु तुर् युद्धभमू र् से भागकर अपनी जान बचा लोगे तो र्ेरी
सलाह है मक तम्ु हें यद्ध
ु र्ें र्र जाना ही श्रेयस्कर होगा । तर्ु जैसे सम्र्ाननीय व्यमक्त के मलए अपकीमतम र्ृत्यु से भी बरु ी है
। अतः तुम्हें प्राणभय से भागना नहीं चामहए, युद्ध र्ें र्र जाना ही श्रेयस्कर होगा । इसे तुर् र्ेरी मर्त्रता का िरू ु पयोग
करने तर्ा सर्ाजर्ें अपनी प्रमतिा खोने के अपयश से बच जाओगे ।”

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अतः अजुमन के मलए भगवान् का अमन्तर् मनणमय र्ा मक वह संग्रार् से पलायन न करे अमपतु युद्ध र्ें र्रे ।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।


येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यनस लाघवम् ।। ३५ ।।

भयात्– भय से; रणात्– युद्धभमू र् से; उपरतम्– मवर्खु ; मंस्यन्ते– र्ानेंगे; त्वाम्– तुर्को; महारथाः– बड़े-
बड़े योद्धा; येषाम्– मजनके मलए; च– भी; त्वम्– तर्ु ; बहु-मतः– अत्यन्त सम्र्ामनत; भत्ू वा– हो कर; यास्यनस–
जाओगे; लाघवाि्– तुच्छता को ।

नजि-नजि महाूँ योद्धाओ ं िे तुम्हारे िाम तथा यश को सम्माि नदया है वे सोचेंगे नक तुमिे डर के मारे
युद्धभूनम छोड दी है और इस तरह वे तुम्हें तुच्छ मािेंगे ।

तात्पयमः भगवान् कृ ष्ट्ण अजुमन को अपना मनणमय सुना रहे हैं, “तुर् यह र्त सोचो मक ियु ोधन, कणम तर्ा अन्य
सर्कालीन र्हारर्ी यह सोचेंगे मक तुर्ने अपने भाईओ ं तर्ा मपतार्ह पर िया करके युद्धभमू र् छोड़ी है । वे तो यही
सोचेंगे मक तुर्ने अपने प्राणों के भय से युद्धभमू र् छोड़ी है । इस प्रकार उनकी दृमष्ट र्ें तुम्हारे प्रमत जो सम्र्ान है वह धूल
र्ें मर्ल जायेगा ।”

अवाच्यवादांश्र्च बहन्वनदष्ट्यनन्त तवानहताः ।


निन्दन्तस्तव सामथ्यं ततो दुःखतरं िु नकम् ।। ३६ ।।

अवाच्य– कटु; वादाि्– मर्थ्या शब्ि; च– भी; बहि्– अनेक; वनदष्ट्यनन्त– कहेंगे; तव– तुम्हारे ; अनहताः–
शत्रु; निन्दन्तः– मनन्िा करते हुए; तव– तम्ु हारी; सामथ्यमम–् सार्थ्यम को; ततः– अपेक्षा; दुःख-तरम्– अमधक
िख
ु िायी; ि–ु मनस्सन्िेह; नकम्– और क्या है?

तुम्हारे शत्रु अिेक प्रकार के कटु शब्दों से तुम्हारा वणमि करेंगे और तुम्हारी सामथ्यम का उपहास करेंगे ।
तुम्हारे नलए इससे दुखदायी और क्या हो सकता है?

तात्पयमः प्रारम्भ र्ें ही भगवान् कृ ष्ट्ण को अजुमन के अयामचत ियाभाव पर आश्चयम हुआ र्ा और उन्होंने इस
ियाभाव को अनायोमचत बताया र्ा । अब उन्होंने मवस्तार से अजुमन के तर्ाकमर्त ियाभाव के मवरुद्ध कहे गये अपने
वचनों को मसद्ध कर मिया है ।

हतो वा प्राप्स्यनस स्वगं नजत्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।


तस्मादुनत्तष्ठ कौन्तेय यद्ध
ु ाय कृ तनिश्र्चयः ।। ३७ ।।

८०
हतः– र्ारा जा कर; वा– या तो; प्राप्स्यनस– प्राप्त करोगे; स्वगमम–् स्वगमलोक को; नजत्वा– मवजयी
होकर; वा– अर्वा; भोक्ष्यसे– भोगोगे; महीम्– पृथ्वी को; तस्मात्– अतः; उनत्तष्ठ– उिो; कौन्तेय– हे
कुन्तीपुत्र; युद्धाय– लड़ने के मलए; कृ त– दृढ; निश्र्चय– संकल्प से ।

हे कुन्तीपुत्र! तुम यनद युद्ध में मारे जाओगे तो स्वगम प्राप्त करोगे या यनद तुम जीत जाओगे तो पृथ्वी के
सािाजय का भोग करोगे । अतः दृढ संकल्प करके खडे होओ और युद्ध करो ।

तात्पयमः यद्यमप अजुमन के पक्ष र्ें मवजय मनमश्चत न र्ी मिर भी उसे युद्ध करना र्ा, क्योंमक यमि वह युद्ध र्ें र्ारा
भी गया तो वह स्वगमलोक को जायेगा ।

सुखदुःखे समे कृ त्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।


ततो युद्धाय युजयस्व िैवं पापमवाप्स्यनस ।। ३८ ।।

सुख– सुख; दुःखे– तर्ा िखु र्ें; समे– सर्भाव से; कृ त्वा– करके ; लाभ-अलाभौ– लाभ तर्ा हामन
िोनों; जय-अजयौ– मवजय तर्ा पराजय िोनों; ततः– तत्पश्चात्; युद्धाय– युद्ध करने के मलए; युजयस्व– लगो
(लड़ो); ि– कभी नहीं; एवम्– इस तरह; पापम्– पाप; अवाप्स्यनस– प्राप्त करोगे ।

तुम सुख या दुख, हानि या लाभ, नवजय या पराजय का नवचार नकये नबिा युद्ध के नलए युद्ध करो ।
ऐसा करिे पर तुम्हें कोई पाप िहीं लगेगा ।

तात्पयमः अब भगवान् कृ ष्ट्ण प्रत्यक्ष रूप से कहते हैं मक अजुमन को युद्ध के मलए युद्ध करना चामहए क्योंमक यह
उनकी इच्छा है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें सख ु या िख ु , हामन या लाभ, जय या पराजय को कोई र्हत्त्व नहीं मिया
जाता । मिव्य चेतना तो यही होगी मक हर कायम कृ ष्ट्ण के मनमर्त्त मकया जाय, अतः भौमतक कायों का कोई बन्धन (िल)
नहीं होता । जो कोई सतोगुण या रजोगुण के अधीन होकर अपनी इमन्द्रयतृमप्त के मलए कर्म करता है उसे अच्छे या बुरे
िल प्राप्त होते हैं मकन्तु जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें अपने आपको सर्मपमत कर िेता है वह सार्ान्य कर्म करने वाले
के सर्ान मकसी का कृ तज्ञ या ऋणी नहीं होता । भागवत र्ें (११.५.४१) कहा गया है –
र्ेवस्षदभतू ाप्तनृणाां स्पतृणाां न स् ङ् रो नायमृणी च राजन् ।
सवादत्मा यः शरणां शरण्यां गतो मु ु न्र्ां पररहत्य ृ तम् ।
“मजसने अन्य सर्स्त कायों को त्याग कर र्क ु ु न्ि श्रीकृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण कर ली है वह न तो मकसी का ऋणी है
और न मकसी का कृ तज्ञ – चाहे वे िेवता, साध,ु सार्ान्यजन, अर्वा पररजन, र्ानवजामत या उसके मपतर ही क्यों न हों
।” इस श्लोक र्ें कृ ष्ट्ण ने अजमनु को अप्रत्यक्ष रूप से इसी का सक ं े त मकया है । इसकी व्याख्या अगले श्लोकों र्ें और भी
स्पष्टता से की जायेगी ।

एषा तेऽनभनहता सांख्ये बुनद्धयोगे नत्वमां श्रृणु ।


बुद्धया युिो यया पाथम कममबन्धं प्रहास्यनस ।। ३९ ।।

८१
एषा– यह सब; ते– तेरे मलए; अनभनहता– वणमन मकया गया; सांख्ये– वैश्लेमषक अध्ययन द्वारा; बुनद्धः–
बुमद्ध; योगे– मनष्ट्कार् कर्म र्ें; त–ु लेमकन; इमाम्– इसे; शृणु– सुनो; बुद्धया– बुमद्ध से; युिः– सार्-सार्,
समहत; यया– मजससे; पाथम– हे पृर्ापुत्र; कमम-बन्धम्– कर्म के बन्धन से; प्रहास्यनस– र्क्त
ु हो जाओगे ।

यहाूँ मैंिे वैश्लेनषक अध्ययि (सांख्य) द्वारा इस ज्ञाि का वणमि नकया है । अब निष्ट्काम भाव से कमम
करिा बता रहा हूँ, उसे सुिो । हे पृथापत्रु ! तमु यनद ऐसे ज्ञाि से कमम करोगे तो तमु कमों के बन्धि से अपिे को
मुि कर सकते हो ।

तात्पयमः वैमिक कोश स्नरुस्ि के अनुसार साांख्य का अर्म है – मवस्तार से वस्तुओ ं का वणमन करने वाला
तर्ा साख्ां य उस िशमन के मलए प्रयुक्त मर्लता है जो आत्र्ा की वास्तमवक प्रकृ मत का वणमन करता है । और योग का
अर्म है – इमन्द्रयों का मनग्रह । अजुमन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इमन्द्रयतृमप्त पर आधाररत र्ा । वह अपने प्रधान कतमव्य
को भल ु ाकर युद्ध से िरू रहना चाहता र्ा क्योंमक उसने सोचा मक धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्ामत् अपने बन्ध-ु बान्धवों को
परास्त करके राजयभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बमन्धयों तर्ा स्वजनों को न र्ारकर वह अमधक सुखी रहेगा । िोनों
ही प्रकार से र्ूल मसद्धान्त तो इमन्द्रयतृमप्त र्ा । उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तर्ा स्वजनों को जीमवत िेखने का
सुख ये िोनों इमन्द्रयतृमप्त के धरातल पर एक हैं, क्योंमक इससे बुमद्ध तर्ा कतमव्य िोनों का अन्त हो जाता है । अतः कृ ष्ट्ण
ने अजुमन को बताना चाहा मक वह अपने मपतार्ह के शरीर का वध करके उनके आत्र्ा को नहीं र्ारे गा । उन्होंने यह
बताया मक उनके समहत सारे जीव शाश्र्वत प्राणी हैं, वे भतू काल र्ें प्राणी र्े, वतमर्ान र्ें भी प्राणी रूप र्ें हैं और भमवष्ट्य
र्ें भी प्राणी बने रहेंगे क्योंमक हर् सब शाश्र्वत आत्र्ा हैं । हर् मवमभन्न प्रकार से के वल अपना शारीररक पररधान (वस्त्र)
बिलते रहते हैं और इस भौमतक वस्त्र के बन्धन से र्मु क्त के बाि भी हर्ारी पृर्क् सत्ता बनी रहती है । भगवान् कृ ष्ट्ण
द्वारा आत्र्ा तर्ा शरीर का अत्यन्त मवशि् वैश्लेमषक अध्ययन प्रस्तुत मकया गया है और स्नरुस्ि ोश की शब्िावली र्ें
इस मवशि् अध्ययन को यहाँ साख्ां य कहा गया है । इस साख्ं य का नामस्तक-कमपल के साख्ां य-िशमन से कोई सरोकार
नहीं है । इस नामस्तक-कमपल के साांख्यर्शदन से बहुत पहले भगवान् कृ ष्ट्ण के अवतार भगवान् कमपल ने अपनी र्ाता
िेवहमत के सर्क्ष श्रीमद्भागवत र्ें वास्तमवक साांख्य-िशमन पर प्रवचन मकया र्ा । उन्होंने स्पष्ट बताया है मक पुरुष या
परर्ेश्र्वर मक्रयाशील हैं और वे प्र ृ स्त पर दृमष्टपात करके सृमष्ट मक उत्पमत्त करते हैं । इसको वेिों ने तर्ा गीता ने स्वीकार
मकया है । वेिों र्ें वणमन मर्लता है मक भगवान् ने प्रकृ मत पर दृमष्टपात मकया और उसर्ें आणमवक जीवात्र्ाएँ प्रमवष्ट कर
िीं । ये सारे जीव भौमतक-जगत् र्ें इमन्द्रयतृमप्त के मलए कर्म करते रहते हैं और र्ाया के वशीभतू ् होकर अपने को भोक्ता
र्ानते रहते हैं । इस र्ानमसकता की चरर् सीर्ा भगवान् के सार् सायुजय प्राप्त करना है । यह माया अर्वा
इमन्द्रयतृमप्तजन्य र्ोह का अमन्तर् पाश है और अनेकानेक जन्र्ों तक इस तरह इमन्द्रयतृमप्त करते हुए कोई र्हात्र्ा
भगवान् कृ ष्ट्ण यानी वासुिेव की शरण र्ें जाता है मजससे परर् सत्य की खोज पूरी होती है ।
अजमनु ने कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करके पहले ही उन्हें गरुु रूप र्ें स्वीकार कर मलया है – स्शष्यस्तेऽहां शास्ध माां त्वाां
प्रपन्नम्। िलस्वरूप कृ ष्ट्ण अब उसे बुस्द्धयोग या कर्मयोग की कायममवमध बताएँगे जो कृ ष्ट्ण की इमन्द्रयतृमप्त के मलए
मकया गया भमक्तयोग है । यह बस्ु द्धयोग अध्याय िस के िसवें श्लोक र्ें वमणमत है मजससे इसे उन भगवान् के सार् प्रत्यक्ष
सम्पकम बताया गया है जो सबके हृिय र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मवद्यर्ान हैं, मकन्तु ऐसा सम्पकम भमक्त के मबना सम्भव नहीं
है । अतः जो भगवान् की भमक्त या मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होता है, वही भगवान् की मवमशष्ट

८२
कृ पा से बुस्द्धयोग की यह अवस्र्ा प्राप्त कर पाता है । अतः भगवान् कहते हैं मक जो लोग मिव्य प्रेर्वश भमक्त र्ें मनरन्तर
लगे रहते हैं उन्हें ही वे भमक्त का मवशुद्ध ज्ञान प्रिान करते हैं । इस प्रकार भक्त सरलता से उनके मचिानन्िर्य धार् र्ें
पहुचँ सकते हैं ।
इस प्रकार इस श्लोक र्ें वमणमत बुमद्धयोग भगवान् कृ ष्ट्ण की भमक्त है और यहाँ पर उमल्लमखत साांख्य शब्ि का
नामस्तक-कमपल द्वारा प्रमतपामित अनीश्र्वरवािी साांख्य-योग से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है । अतः मकसी को यह भ्रर् नहीं
होना चामहए मक यहाँ पर उमल्लमखत साांख्य-योग का अनीश्र्वरवािी सांख्य से मकसी प्रकार का सम्बन्ध है । न ही उस
सर्य उसके िशमन का कोई प्रभाव र्ा, और न कृ ष्ट्ण ने ऐसी ईश्र्वरमवहीन िाशममनक कल्पना का उल्लेख करने की मचन्ता
की । वास्तमवक साांख्य-िशमन का वणमन भगवान् कमपल द्वारा श्रीमद्भागवत र्ें हुआ है, मकन्तु वतमर्ान प्रकरणों र्ें
उस साख्ां य से भी कोई सरोकार नहीं है । यहाँ साख्ां य का अर्म है शरीर तर्ा आत्र्ा का वैश्लेमषक अध्ययन । भगवान्
कृ ष्ट्ण ने आत्र्ा का वैश्लेमषक वणमन अजुमन को बुस्द्धयोग या कर्मयोग तक लाने के मलए मकया । अतः भगवान् कृ ष्ट्ण
का साख्ां य तर्ा भागवत र्ें भगवान् कमपल द्वारा वमणमत साख्ां य एक ही हैं । ये िोनों भस्ियोग हैं । अतः भगवान् कृ ष्ट्ण ने
कहा है मक के वल अल्पज्ञ ही साांख्य-योग तर्ा भस्ियोग र्ें भेिभाव र्ानते हैं (साांख्ययोगौ पृथर्गबालाः प्रवर्स्न्त न
पस्ण्डताः) ।
मनस्सन्िेह अनीश्र्वरवािी साांख्य-योग का भस्ियोग से कोई सम्बन्ध नहीं है मिर भी बुमद्धहीन व्यमक्तयों का िावा
है मक भगवद्गीता र्ें अनीश्र्वरवािी साांख्य का ही वणमन हुआ है ।
अतः र्नुष्ट्य को यह जान लेना चामहए मक बुमद्धयोग का अर्म कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें, पूणम आनन्ि तर्ा भमक्त के ज्ञान
र्ें कर्म करना है । जो व्यमक्त भगवान् की तुमष्ट के मलए कर्म करता है, चाहे वह कर्म मकतना भी कमिन क्यों न हो,
वह बुस्द्धयोग के मसद्धान्त के अनुसार कायम करता है और मिव्य आनन्ि का अनुभव करता है । ऐसी मिव्य व्यस्तता के
कारण उसे भगवत्कृ पा से स्वतः सम्पूणम मिव्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है और ज्ञान प्राप्त करने के मलए अमतररक्त श्रर् मकये
मबना ही उसकी पणू म र्मु क्त हो जामत है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत कर्म तर्ा िल प्रामप्त की इच्छा से मकये गये कर्म र्ें, मवशेषतया
पाररवाररक या भौमतक सुख प्राप्त करने की इमन्द्रयतृमप्त के मलए मकये गये कर्म र्ें, प्रचरु अन्तर होता है ।
अतः बस्ु द्धयोग हर्ारे द्वारा सम्पन्न कायम का मिव्य गणु है ।

िेहानभक्रमिाशोऽनस्त प्रत्यवायो ि नवद्यते ।


स्वल्पमप्यस्य धममस्य त्रायते महतो भयात् ।। ४० ।।

ि– नहीं; इह– इस योग र्ें; अनभक्रम– प्रयत्न करने र्ें; िाशः– हामन; अनस्त– है; प्रत्यवायः– ह्रास; ि– कभी
नहीं; नवद्यते– है; सु-अल्पम्– र्ोडा; अनप– यद्यमप; धममस्य– धर्म का; त्रायते– र्क्त ु करना है; महतः–
र्हान; भयात्– भय से ।

इस प्रयास में ि तो हानि होती है ि ही ह्रास अनपतु इस पथ पर की गई अल्प प्रगनत भी महाि भय से


रक्षा कर सकती है ।

तात्पयमः कर्म का सवोच्च मिव्य गुण है, कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म या इमन्द्रयतृमप्त की आशा न करके कृ ष्ट्ण के महत
र्ें कर्म करना । ऐसे कर्म का लघु आरम्भ होने पर भी कोई बाधा नहीं आती है, न कभी इस आरम्भ का मवनाश होता है

८३
। भौमतक स्तर पर प्रारम्भ मकये जाने वाले मकसी भी कायम को पूरा करना होता है अन्यर्ा सारा प्रयास मनष्ट्िल हो जाता
है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रारम्भ मकया जाने वाला कोई भी कायम अधरू ा रह कर भी स्र्ायी प्रभाव डालता है । अतः
ऐसे कर्म करने वाले को कोई हामन नहीं होती, चाहे यह कर्म अधरू ा ही क्यों न रह जाय । यमि कृ ष्ट्णभावनार्ृत का एक
प्रमतशत भी कायम पूरा हुआ हो तो उसका स्र्ायी िल होता है, अतः अगली बार िो प्रमतशत से शभु ारम्भ होगा, मकन्तु
भौमतक कर्म र्ें जब तक शत प्रमतशत सिलता प्राप्त न हो तब तक कोई लाभ नहीं होता । अजामर्ल ने कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें अपने कतमव्य का कुछ ही प्रमतशत पूरा मकया र्ा, मकन्तु भगवान् की कृ पा से उसे शत प्रमतशत लाभ मर्ला । इस
सम्बन्ध र्ें श्रीमद्भागवत र्ें (१.५.१७) एक अत्यन्त सन्ु िर श्लोक आया है –
त्यक्तत्वा स्वधमं चरणाम्बुजां हरे भदजन्नपक्त ोऽथ पतेत्ततो यस्र् ।
यत्र क्त वाभद्रमभर्ू मष्ु यां स् ां ो वाथद आप्तोऽभजताां स्वधमदतः ।।
“यमि कोई अपना धर्म छोड़कर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कार् करता है और मिर कार् पूरा न होने के कारण नीचे मगर
जाता है तो इसर्ें उसको क्या हामन? और यमि कोई अपने भौमतक कायों को पूरा करता है तो इससे उसको क्या लाभ
होगा? अर्वा जैसा मक ईसाई कहते हैं “यमि कोई अपनी शाश्र्वत आत्र्ा को खोकर सम्पूणम जगत् को पा ले तो र्नुष्ट्य
को इससे क्या लाभ होगा?”
भौमतक कायम तर्ा उनके िल शरीर के सार् ही सर्ाप्त हो जाते हैं, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मकया गया कायम
र्नुष्ट्य को इस शरीर के मवनष्ट होने पर भी पुनः कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक ले जाता है । कर् से कर् इतना तो मनमश्चत है मक
अगले जन्र् र्ें उसे सुसंस्कृ त ब्राह्मण पररवार र्ें या धनीर्ानी कुल र्ें र्नुष्ट्य का शरीर प्राप्त हो सके गा मजससे उसे भमवष्ट्य
र्ें ऊपर उिने का अवसर प्राप्त हो सके गा । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें सम्पन्न कायम का यही अनुपर् गुण है ।

व्यवसायानत्मका बुनद्धरेकेह कुरुिन्दि ।


बहुशाखा ह्यिन्ताश्र्च बद्ध
ु योऽव्यवसानयिाम् ।। ४१ ।।

व्यवसाय-आनत्मका– कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र; बनु द्धः– बमु द्ध; एका– एकर्ात्र; इह– इस ससं ार र्ें; कुरु-
िन्दि– हे कुरुओ ं के मप्रय; बहु-शाखाः– अनेक शाखाओ ं र्ें मवभक्त; नह– मनस्सन्िेह; अिन्ताः– असीर्; च–
भी; बुद्धयः– बुमद्ध; अव्यवसानयिाम्– जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें नहीं हैं उनकी ।

जो इस मागम पर (चलते) हैं वे प्रयोजि में दृढ रहते हैं और उिका लक्ष्य भी एक होता है । हे कुरुिन्दि!
जो दृढप्रनतज्ञ िहीं है उिकी बुनद्ध अिेक शाखाओ ं में नवभि रहती है ।

तात्पयमः यह दृढ श्रद्धा मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत द्वारा र्नुष्ट्य जीवन की सवोच्च मसमद्ध प्राप्त कर
सके गा , व्यवसायास्त्म ा बुमद्ध कहलाती है । चैतन्य-चररतामृत र्ें (र्ध्य २२.६२) कहा गया है –
‘श्रद्धा’-शब्द्र्े – स्वश्र्वास हे सदृु ढ स्नश्र्चय ।
ृ ष्णे भस्ि ै ले सवद मद ृ त हय ।।
श्रद्धा का अर्म है मकसी अलौमकक वस्तु र्ें अटूट मवश्र्वास । जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें लगा होता है
तो उसे पररवार, र्ानवता या राष्ट्रीयता से बँध कर कायम करने की आवश्यकता नहीं होती । पूवम र्ें मकये गये शभु -अशभु
कर्ों के िल ही उसे सकार् कर्ों र्ें लगाते हैं । जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें संलग्न हो तो उसे अपने कायों के शभु -

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िल के मलए प्रयत्नशील नहीं रहना चामहए । जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लीन होता है तो उसके सारे कायम
आध्यामत्र्क धरातल पर होते हैं क्योंमक उनर्ें अच्छे तर्ा बुरे का द्वैत नहीं रह जाता । कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सवोच्च
मसमद्ध िेहात्र्बुमद्ध का त्याग है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत की प्रगमत के सार् क्रर्शः यह अवस्र्ा स्वतः प्राप्त हो जाती है ।
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त का दृढ़मनश्चय ज्ञान पर आधाररत है । वासुर्ेवः सवदम् इस्तस महात्मा सुर्ल ु दभः -
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अत्यन्त िल ु मभ जीव है जो भलीभाँमत जानता है मक वासुिेव या कृ ष्ट्ण सर्स्त प्रकट कारणों के
र्लू कारण हैं । मजस प्रकार वृक्ष की जड़ सींचने पर स्वतः ही पमत्तयों तर्ा टहमनयों र्ें जल पहुचँ जाता है उसी प्रकार
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने पर र्नुष्ट्य प्रत्येक प्राणी की अर्ामत् अपनी, पररवार की, सर्ाज की, र्ानवता की सवोच्च सेवा
कर सकता है । यमि र्नुष्ट्य के कर्ों से कृ ष्ट्ण प्रसन्न हो जाएँ तो प्रत्येक व्यमक्त सन्तुष्ट होगा ।
मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें सेवा गरुु के सर्र्म मनिेशन र्ें ही िीक से हो पाती है क्योंमक गरुु कृ ष्ट्ण का प्रार्ामणक
प्रमतमनमध होता है जो मशष्ट्य के स्वभाव से पररमचत होता है और उसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मिशा र्ें कायम करने के मलए
र्ागम मिखा सकता है । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें िक्ष होने के मलए र्नुष्ट्य को दृढ़ता से कर्म करना होगा और कृ ष्ट्ण के
प्रमतमनमध की आज्ञा का पालन करना होगा । उसे गुरु के उपिेशों को जीवन का लक्ष्य र्ान लेना होगा । श्रील मवश्र्वनार्
चक्रवती िाकुर ने गुरु की प्रमसद्ध प्रार्मना र्ें उपिेश मिया है –
यस्य प्रसार्ार्् भगवत्प्रसार्ो यस्याप्रसार्ान्न गस्तः ु तोऽस्प ।
ध्यायन्स्तुवांस्तस्य यशस्स्त्रसांधयां वन्र्े गुरोः श्रीचरणारस्वन्र्म् ।।
“गुरु की तुमष्ट से भगवान् भी प्रसन्न होते हैं । गुरु को प्रसन्न मकये मबना कृ ष्ट्णभावनार्ृत के स्तर तक पहुचँ पाने
की कोई सम्भावना नहीं रहती । अतः र्ुझे उनका मचन्तन करना चामहए और मिन र्ें तीन बार उनकी कृ पा की याचना
करनी चामहए और अपने गुरु को सािर नर्स्कार करना चामहए ।”
मकन्तु यह सम्पूणम पद्धमत िेहात्र्बुमद्ध से परे सैद्धामन्तक रूप र्ें नहीं वरन् व्यावहाररक रूप र्ें पूणम आत्र्-ज्ञान पर
मनभमर करती है, जब सकार् कर्ों से इमन्द्रयतृमप्त की कोई सम्भावना नहीं रहती । मजसका र्न दृढ़ नहीं है वही मवमभन्न
सकार् कर्ों की ओर आकमषमत होता है ।

यानममां पुनष्ट्पतां वाचं प्रवदन्त्यनवपनश्र्चतः ।


वेदवादरताः पाथम िान्यदस्तीनत वानदिः ।। ४२ ।।
कामात्मािः स्वगमपरा जन्मकममिलप्रदाम् ।
नक्रयानवशेषबहुलां भोगैश्र्वयमगनतं प्रनत ।। ४३ ।।

याम् इमाम्– ये सब; पुनष्ट्पताम्– मिखावटी; वाचम्– शब्ि; प्रवदनन्त– कहते हैं; अनवपनश्र्चतः– अल्पज्ञ
व्यमक्त; वेद-वाद-रताः– वेिों के अनुयायी; पाथम– हे पार्म; ि– कभी नहीं; अन्यत्– अन्य कुछ; अनस्त– है; इनत– इस
प्रकार; वानदिः– बोलनेवाले; काम-आत्मिः– इमन्द्रयतृमप्त के इच्छुक; स्वगम-पराः– स्वगम प्रामप्त के इच्छुक; जन्म-
कमम-िल-प्रदाम्– उत्तर् जन्र् तर्ा अन्य सकार् कर्मिल प्रिान करने वाला; नक्रया-नवशेष– भड़कीले
उत्सव; बहुलाम्– मवमवध; भोग– इमन्द्रयतृमप्त; ऐश्र्वयम– तर्ा ऐश्र्वयम; गनतम्– प्रगमत; प्रनत– की ओर ।

८५
अल्पज्ञािी मिुष्ट्य वेदों के उि अलंकाररक शब्दों के प्रनत अत्यनधक आसि रहते हैं, जो स्वगम की
प्रानप्त, अच्छे जन्म, शनि इत्यानद के नलए नवनवध सकाम कमम करिे की संस्तुनत करते हैं । इनन्द्रयतृनप्त तथा
ऐश्र्वयममय जीवि की अनभलाषा के कारण वे कहते हैं नक इससे बढकर और कुछ िहीं है ।

तात्पयमः साधारणतः सब लोग अत्यन्त बुमद्धर्ान नहीं होते और वे अज्ञान के कारण वेिों के कर्मकाण्ड भाग र्ें
बताये गये सकार् कर्ों के प्रमत अत्यमधक आसक्त रहते हैं । वे स्वगम र्ें जीवन का आनन्ि उिाने के मलए इमन्द्रयतृमप्त
कराने वाले प्रस्तावों से अमधक और कुछ नहीं चाहते जहाँ र्मिरा तर्ा तरुमणयाँ उपलब्ध हैं और भौमतक ऐश्र्वयम
सवमसार्ान्य है । वेर्ों र्ें स्वगमलोक पहुचँ ने के मलए अनेक यज्ञों की संस्तुमत है मजनर्ें ज्योस्तष्टोम यज्ञ प्रर्ख
ु है । वास्तव
र्ें वेिों र्ें कहा गया है मक जो स्वगम जाना चाहता है उसे ये यज्ञ सम्पन्न करने चामहए और अल्पज्ञानी परुु ष सोचते हैं मक
वैमिक ज्ञान का सारा अमभप्राय इतना ही है । ऐसे लोगों के मलए कृ ष्ट्णभावनार्ृत के दृढ़ कर्म र्ें मस्र्त हो पाना अत्यन्त
कमिन है । मजस प्रकार र्ख ु म लोग मवषैले वृक्षों के िूलों के प्रमत मबना यह जाने मक इस आकषमण का िल क्या होगा
आसक्त रहते हैं उसी प्रकार अज्ञानी व्यमक्त स्वमगमक ऐश्र्वयम तर्ा तजजमनत इमन्द्रयभोग के प्रमत आकृ ष्ट रहते हैं ।
वेर्ों के कर्मकाण्ड भाग र्ें कहा गया है – अपाम सोममृता अभमू तथा अक्षय्यां ह वै चातुमादस्ययास्जनः सु ृ तां
भवस्त ।िसू रे शब्िों र्ें जो लोग चातुर्ामस तप करते हैं वे अर्र तर्ा सिा सुखी रहने के मलए सोर्-रस पीने के अमधकारी
हो जाते हैं । यहाँ तक मक इस पृथ्वी र्ें भी कुछ लोग सोर्-रस पीने के अत्यन्त इच्छुक रहते हैं मजससे वे बलवान बनें
और इमन्द्रयतृमप्त का सुख पाने र्ें सर्र्म हों । ऐसे लोगों को भवबन्धन से र्ुमक्त र्ें कोई श्रद्धा नहीं होती और वे वैमिक
यज्ञों की तड़क-भड़क र्ें मवशेष आसक्त रहते हैं । वे सार्ान्यता मवषयी होते हैं और जीवन र्ें स्वमगमक आनन्ि के
अमतररक्त और कुछ नहीं चाहते । कहा जाता है मक स्वगम र्ें नन्िन-कानन नार्क अनेक उद्यान हैं मजनर्ें िैवी सुन्िरी
मस्त्रयों का संग तर्ा प्रचरु र्ात्रा र्ें सोर्-रस उपलब्ध रहता है । ऐसा शारीररक सुख मनस्सन्िेह मवषयी है, अतः ये लोग वे
हैं जो भौमतक जगत् के स्वार्ी बन कर ऐसे भौमतक अस्र्ायी सख ु के प्रमत आसक्त हैं ।

भोगैश्र्वयमप्रसिािां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायानत्मका बुनद्धः समाधौ ि नवधीयते ।। ४४ ।।

भोग– भौमतक भोग; ऐश्र्वयम– तर्ा ऐश्र्वयम के प्रमत; प्रसिािाम्– आसक्तों के मलए; तया– ऐसी वस्तुओ ं
से; अपहृत-चेत्साम्– र्ोह्ग्ग्रमसत मचत्त वाले; व्यवसाय-आनत्मकाः – दृढ़ मनश्चय वाली; बुनद्धः– भगवान् की
भमक्त; समाधौ– मनयमन्त्रत र्न र्ें; ि– कभी नहीं; नवधीयते– घमटत होती है ।

जो लोग इनन्द्रयभोग तथा भौनतक ऐश्र्वयम के प्रनत अत्यनधक आसि होिे से ऐसी वस्तुओ ं से मोहग्रस्त
हो जाते हैं, उिके मिों में भगवाि् के प्रनत भनि का दृढ निश्चय िहीं होता ।

तात्पयमः सर्ामध का अर्म है ”मस्र्र र्न ।” वैमिक शब्िकोष स्नरुस्ि के अनुसार – सम्यग्
आधीयतेऽस्स्मन्नात्मतत्त्वयाथात्म्यम्– जब र्न आत्र्ा को सर्झने र्ें मस्र्र रहता है तो उसे सर्ामध कहते हैं । जो लोग
इमन्द्रयभोग र्ें रूमच रखते हैं अर्वा जो ऐसी क्षमणक वस्तुओ ं से र्ोहग्रस्त हैं उनके मलए सर्ामध कभी भी सम्भव नहीं
है । र्ाया के चक्कर र्ें पड़कर वे न्यूनामधक पतन को प्राप्त होते हैं ।

८६
त्रैगुण्यनवषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवाजमिु ।
निद्वमन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो नियोगक्षेम आत्मवाि् ।। ४५ ।।

त्रै-गुण्य– प्राकृ मतक तीनों गुणों से सम्बमन्धत; नवषयाः– मवषयों र्ें; वेदाः– वैमिक सामहत्य; निस्त्रै-गुण्यः–
प्रकृ मत के तीनों गुणों से परे ; भव– होओ; अजमिु – हे अजुमन;निद्वमन्द्वः– द्वैतभाव से र्क्त ु ; नित्य-सत्त्व-स्थः– मनत्य
शद्ध
ु सत्त् व र्ें मस्र्त; नियोग-क्षे म ः– लाभ तर्ा रक्षा के भावों से र्क्त
ु ; आत्म-वाि्
– आत्र्ा र्ें मस्र्त ।

वेदों में मख्


ु यतया प्रकृ नत के तीिों गण
ु ों का वणमि हुआ है । हे अजमिु ! इि तीिों गण
ु ों से ऊपर उठो ।
समस्त द्वैतों और लाभ तथा सुरक्षा की सारी नचन्ताओ ं से मुि होकर आत्म-परायण बिो ।

तात्पयमः सारे भौमतक कायों र्ें प्रकृ मत के तीनों गुणों की मक्रयाएँ तर्ा प्रमतमक्रयाएँ मनमहत होती हैं । इनका उद्देश्य
कर्म-िल होता है जो भौमतक जगत् र्ें बन्धन का कारण है । वेर्ों र्ें र्ख्ु यतया सकार् कर्ों का वणमन है मजससे सार्ान्य
जन क्रर्शः इमन्द्रयतृमप्त के क्षेत्र से उिकर अध्यामत्र्क धरातल तक पहुचँ सकें । कृ ष्ट्ण अपने मशष्ट्य तर्ा मर्त्र के रूप र्ें
अजुमन को सलाह िेते हैं मक वह वेिान्त िशमन के अध्यामत्र्क पि तक ऊपर उिे मजसका प्रारम्भ ब्रह्म-स्जज्ञासा अर्वा
परर् अध्यामत्र्कता पि पर प्रश्नों से होता है । इस भौमतक जगत् के सारे प्राणी अपने अमस्तत्व के मलए कमिन संघषम
करते रहते हैं । उनके मलए भगवान् ने इस भौमतक जगत् की सृमष्ट करने के पश्चात् वैमिक ज्ञान प्रिान मकया जो जीवन-
यापन तर्ा भवबन्धन से छूटने का उपिेश िेता है । जब इमन्द्रयतृमप्त के कायम यर्ा मद ाण्ड सर्ाप्त हो जाते हैं
तो उपस्नषर्ों के रूप र्ें भगवत् साक्षात्कार का अवसर प्रिान मकया जाता है । ये उपस्नषर्् मवमभन्न वेिों के अंश हैं उसी
प्रकार जैसे भगवद्गीता पचं र् वेि महाभारत का एक अगं है । उपस्नषर्ों से अध्यामत्र्क जीवन का शभु ारम्भ होता है ।
जब तक भौमतक शरीर का अमस्तत्व है तब तक भौमतक गुणों की मक्रयाएँ-प्रमतमक्रयाएँ होती रहती हैं । र्नुष्ट्य को
चामहए मक सख ु -िखु या शीत-ग्रीष्ट्र् जैसी द्वैतताओ ं को सहन करना सीखे और इस प्रकार हामन तर्ा लाभ की मचन्ता से
र्क्त
ु हो जाय । जब र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण की इच्छा पर पूणमतया आमश्रत रहता है तो यह मिव्य अवस्र्ा प्राप्त होती है ।

यावािथम उदपािे सवमतः सम्प्लुतोदके ।


तावान्सवेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य नवजाितः ।। ४६ ।।

यावाि्– मजतना सारा; अथमः– प्रयोजन होता है; उद-पािे– जलकूप र्ें; सवमतः– सभी प्रकार से; सम्लुप्त-
उदके – मवशाल जलाशय र्ें; तावाि्– उसी तरह; सवेषु– सर्स्त; वेदेषु– वेिों र्ें; ब्राह्मणस्य– परब्रह्म को जानने
वाले का; नवजाितः– पूणम ज्ञानी का ।

एक छोटे से कूप का सारा कायम एक नवशाल जलाशय से तुरन्त पूरा हो जाता है । इसी प्रकार वेदों के
आन्तररक तात्पयम जाििे वाले को उिके सारे प्रयोजि नसद्ध हो जाते हैं ।

८७
तात्पयमः वेिों के मद ाण्ड मवभाग र्ें वमणमत अनुिानों एवं यज्ञों का ध्येय आत्र्-साक्षात्कार के क्रमर्क मवकास
को प्रोत्सामहत करना है । और आत्र्-साक्षात्कार का ध्येय भगवद्गीता के पंद्रहवं े अध्याय र्ें (१५.१५) इस प्रकार स्पष्ट
मकया गया है – वेि अध्ययन का ध्येय जगत् के आमि कारण भगवान् कृ ष्ट्ण को जानना है । अतः आत्र्-साक्षात्कार का
अर्म है – कृ ष्ट्ण को तर्ा उसके सार् अपने शाश्र्वत सम्बन्ध को सर्झना । कृ ष्ट्ण के सार् जीवों के सम्बन्ध का भी
उल्लेख भगवद्गीता के पंद्रहवें अध्याय र्ें (१५.७) ही हुआ है । जीवात्र्ाएँ भगवान् के अंश स्वरूप हैं, अतः प्रत्येक
जीव द्वारा कृ ष्ट्णभावनार्ृत को जागृत करना वैमिक ज्ञान की सवोच्च पूणामवस्र्ा है । श्रीमद्भागवत र्ें (३.३३.७) इसकी
पमु ष्ट इस प्रकार हुई है –
अहो बात श्र्वपचोऽतो गरीयान् यस्ज्जह्वाग्रे वतदते नाम तुभ्यम् ।
तेपस्ु तपस्ते जहु ुवः सस्नरु ायाद ब्रह्मानचू नू ादम गृणस्न्त ये ते ।।
“हे प्रभो, आपके पमवत्र नार् का जाप करने वाला भले ही चाण्डाल जैसे मनम्न पररवार र्ें क्यों न उत्पन्न हुआ
हो, मकन्तु वह आत्र्-साक्षात्कार के सवोच्च पि पर मस्र्त होता है । ऐसा व्यमक्त अवश्य ही वैमिक अनुिानों के अनुसार
सारी तपस्याएँ सम्पन्न मकये होता है और अनेकानेक बार तीर्मस्र्ानों र्ें स्नान करके वेिों का अध्ययन मकये होता है ।
ऐसा व्यमक्त आयम कुल र्ें सवमश्रेि र्ाना जाता है ।”
अतः र्नुष्ट्य को इतना बुमद्धर्ान तो होना ही चामहए मक के वल अनुिानों के प्रमत आसक्त न रहकर वेिों के उद्देश्य
को सर्झे और अमधकामधक इमन्द्रयतृमप्त के मलए ही स्वगमलोक जाने की कार्ना न करे । इस युग र्ें सार्ान्य व्यमक्त के
मलए न तो वैमिक अनुिानों के सर्स्त मवमध-मवधानों का पालन करना सम्भव है और न सारे वेर्ान्त तर्ा उपस्नषर्ों का
सवाांग अध्ययन कर पाना सहज है । वेर्ों के उद्देश्य को सम्पन्न करने के मलए प्रचुर सर्य, शमक्त , ज्ञान तर्ा साधन की
आवश्यकता होती है । इस युग र्ें ऐसा कर पाना सम्भव नहीं है, मकन्तु वैमिक संस्कृ मत का परर् लक्ष्य भगवन्नार् कीतमन
द्वारा प्राप्त हो जाता है मजसकी संस्तुमत पमततात्र्ाओ ं के उद्धारक भगवान् चैतन्य द्वारा हुई है । जब चैतन्य से र्हान
वैमिक पमं डत प्रकाशानन्ि सरस्वती ने पूछा मक आप वेर्ान्त िशमन का अध्ययन न करके एक भावक ु की भाँमत पमवत्र
नार् का कीतमन क्यों करते हैं तो उन्होंने उत्तर मिया मक र्ेरे गुरु ने र्झु े बड़ा र्ख
ु म सर्झकर भगवान् कृ ष्ट्ण के नार् का
कीतमन करने की आज्ञा िी । अतः उन्होंने ऐसा ही मकया और वे पागल की भाँमत भावोन्र्क्त हो गए । इस कमलयगु र्ें
अमधकांश जनता र्ख ु म है और वेिान्त िशमन सर्झ पाने के मलए पयामप्त मशमक्षत नहीं है । वेिान्त िशमन के परर् उद्देश्य की
पूमतम भगवान् के पमवत्र नार् का कीतमन करने से हो जाती है । वेर्ान्त वैमिक ज्ञान की पराकािा है औरवेर्ान्त िशमन के
प्रणेता तर्ा ज्ञाता भगवान् कृ ष्ट्ण हैं । सबसे बड़ा वेिान्ती तो वह र्हात्र्ा है जो भगवान् के पमवत्र नार् का जाप करने र्ें
आनन्ि लेता है । सम्पूणम वैमिक रहस्यवाि का यही चरर् उद्देश्य है ।

कममण्यवानधकारस्ते मा िलेषु कदाचि ।


मा कममिलहेतुभममू ाम ते सङ् गोऽस्त्वकममनण ।। ४७ ।।

कममनण– कर्म करने र्ें; एव– मनश्चय ही; अनधकारः– अमधकार; ते– तम्ु हारा; मा– कभी नहीं; िलेष–ु (कर्म)
िलों र्ें; कदाचि– किामप; मा– कभी नहीं; कमम-िल– कर्म का िल; हेतुः– कारण; भूः– होओ; मा– कभी
नहीं; ते– तम्ु हारी; सङ् गः - आसमक्त; अस्त–ु हो; अकममनण– कर्म न करने र्ें ।

८८
तुम्हें अपिे कमम (कतमव्य) करिे का अनधकार है, नकन्तु कमम के िलों के तुम अनधकारी िहीं हो । तुम ि
तो कभी अपिे आपको अपिे कमों के िलों का कारण मािो, ि ही कमम ि करिे में कभी आसि होओ ।

तात्पयमः यहाँ पर तीन मवचारणीय बातें हैं – कर्म (स्वधर्म), मवकर्म तर्ा अकर्म । कर्म (स्वधर्म) वे कायम हैं
मजनका आिेश प्रकृ मत के गुणों के रूप र्ें प्राप्त मकया जाता है । अमधकारी की सम्र्मत के मबना मकये गये कर्म मवकर्म
कहलाते हैं और अकर्म का अर्म है – अपने कर्ों को न करना । भगवान् ने अजुमन को उपिेश मिया मक वह मनमष्ट्क्रय न
हो, अमपतु िल के प्रमत आसक्त हुए मबना अपना कर्म करे । कर्म िल के प्रमत आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण
है । इस तरह वह ऐसे कर्मिलों का भोक्ता होता है ।
जहाँ तक मनधामररत कर्ों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेमणयों के हो सकते हैं – यर्ा मनत्यकर्म, आपात्कालीन कर्म
तर्ा इमच्छत कर्म । मनत्यकर्म िल की इच्छा के मबना शास्त्रों के मनिेशानुसार सतोगण र्ें रहकर मकये जाते हैं । िल युक्त
कर्म बन्धन के कारण बनते हैं, अतः ऐसे कर्म अशभु हैं । हर व्यमक्त को अपने कर्म पर अमधकार है, मकन्तु उसे िल से
अनासक्त होकर कर्म करना चामहए । ऐसे मनष्ट्कार् कर्म मनस्सन्िेह र्मु क्त पर् की ओर ले जाने वाले हैं ।
अतएव भगवान् ने अजुमन को िलासमक्त रमहत होकर कर्म (स्वधर्म) के रूप र्ें युद्ध करने की आज्ञा िी । उसका
युद्ध-मवर्ख
ु होना आसमक्त का िसू रा पहलू है । ऐसी आसमक्त से कभी र्ुमक्त पर् की प्रामप्त नहीं हो पाती । आसमक्त चाहे
स्वीकारत्र्क हो या मनषेधात्र्क, वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापर्य है । अतः कतमव्य के रूप र्ें युद्ध करना ही
अजुमन के मलए र्मु क्त का एकर्ात्र कल्याणकारी र्ागम र्ा ।

योगस्थः कुरु कमामनण सङ् गं त्यक्त्वा धिञ्जय ।


नसद्धयनसद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ।। ४८ ।।

योगस्थः– सर्भाव होकर; कुरु– करो; कर्ाममण – अपने कर्म; सङ् गं– आसमक्त को; त्यक्त्वा– त्याग
कर; धिञ्जय– हे अजमनु ; नसनद्ध-अनसद्धयोः– सिलता तर्ा मविलता र्ें; समः– सर्भाव; भत्ू वा–
होकर; समत्वम्– सर्ता; योगः– योग; उच्यते– कहा जाता है ।

हे अजमिु ! जय अथवा पराजय की समस्त आसनि त्याग कर समभाव से अपिा कमम करो । ऐसी
समता योग कहलाती है ।

तात्पयमः कृ ष्ट्ण अजुमन से कहते हैं मक वह योग र्ें मस्र्त होकर कर्म करे और योग है क्या? योग का अर्म है सिैव
चंचल रहने वाली इमन्द्रयों को वश र्ें रखते हुए परर्तत्त्व र्ें र्न को एकाग्र करना । और परर्तत्त्व कौन है? भगवान् ही
परर्तत्त्व हैं और चँमू क वे स्वयं अजुमन को युद्ध करने के मलए कह रहे हैं, अतः अजुमन को युद्ध के िल से कोई सरोकार
नहीं है । जय या पराजय कृ ष्ट्ण के मलए मवचारणीय हैं, अजमनु को तो बस श्रीकृ ष्ट्ण के मनिेशानसु ार कर्म करना है । कृ ष्ट्ण
के मनिेश का पालन ही वास्तमवक योग है और इसका अभ्यास कृ ष्ट्णभावनार्ृत नार्क मवमध द्वारा मकया जाता है ।
एकर्ात्र कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्ाध्यर् से ही स्वामर्त्व भाव का पररत्याग मकया जा सकता है । इसके मलए उसे कृ ष्ट्ण का
िास या उनके िासों का िास बनना होता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करने की यही एक मवमध है मजससे योग र्ें मस्र्त
होकर कर्म मकया जा सकता है ।

८९
अजुमन क्षस्त्रय है, अतः वह वणादश्रम-धमद का अनुयायी है । स्वष्ण-ु पुराण र्ें कहा गया है मक वणामश्रर्-धर्म का
एकर्ात्र उद्देश्य मवष्ट्णु को प्रसन्न करना है । सांसाररक मनयर् है मक लोग पहले अपनी तुमष्ट करते हैं, मकन्तु यहाँ तो अपने
को तुष्ट न करके कृ ष्ट्ण को तुष्ट करना है । अतः कृ ष्ट्ण को तुष्ट मकये मबना कोई वणादश्रम-धर्म का पालन कर भी नहीं
सकता । यहाँ पर परोक्ष रूप से अजुमन को कृ ष्ट्ण द्वारा बताई गई मवमध के अनुसार कर्म करने का आिेश है ।

दुरेण ह्यवरं कमम बुनद्धयोगाद्धिञ्जय


बद्ध
ु ौ शरणमनन्वच्छ कृ पणाः िलहेतवः ।। ४९ ।।

दूरेण– िरू से ही त्याग िो; नह– मनश्चय ही; अवरम्– गमहमत, मनन्िनीय; कमम– कर्म; बनु द्ध-योगात्–
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के बल पर; धिञ्जय– हे सम्पमत्त को जीतने वाले; बुद्धौ– ऐसी चेतना र्ें; शरणम्– पूणम सर्पमण,
आश्रयः; अनन्वच्छ– प्रयत्न करो; कृ पणाः– कंजूस व्यमक्त; िल-हेतवः– सकार् कर्म की अमभलाषा वाले ।

हे धिंजय! भनि के द्वारा समस्त गनहमत कमों से दूर रहो और उसी भाव से भगवाि् की शरण करो । जो
व्यनि अपिे सकाम कमम-िलों को भोगिा चाहते हैं, वे कृ पण हैं ।

तात्पयमः जो व्यमक्त भगवान् के िास रूप र्ें अपने स्वरूप को सर्झ लेता है वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त रहने के
अमतररक्त सारे कर्ों को छोड़ िेता है । जीव के मलए ऐसी भमक्त कर्म का सही र्ागम है । के वल कृ पण ही अपने सकार्
कर्ों का िल भोगना चाहते हैं, मकन्तु इससे वे भवबन्धन र्ें और अमधक िँ सते जाते हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अमतररक्त
मजतने भी कर्म सम्पन्न मकये जाते हैं वे गमहमत हैं क्योंमक इससे करता जन्र्-र्ृत्यु के चक्र र्ें लगातार िँ सा रहता है । अतः
कभी इसकी आकाश ं ा नहीं करनी चामहए मक र्ैं कर्म का कारण बनँू । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें हर कायम कृ ष्ट्ण की तमु ष्ट के
मलए मकया जाना चामहए । कृ पणों को यह ज्ञात नहीं है मक िैववश या किोर श्रर् से अमजमत सम्पमत्त का मकस तरह
सिपु योग करें । र्नष्ट्ु य को अपनी सारी शमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत अमजमत करने र्ें लगानी चामहए । इससे उसका जीवन
सिल हो सके गा । कृ पणों की भाँमत अभागे व्यमक्त अपनी र्ानवीय शमक्त को भगवान् की सेवा र्ें नहीं लगाते ।

बुनद्धयुिो जहातीह उभे सुकृतदुष्ट्कृते ।


तस्माद्योगाय युजयस्व योगः कममसु कौशलम् ।। ५० ।।

बुनद्ध-युिः– भमक्त र्ें लगा रहने वाला; जहानत– र्क्त


ु हो सकता है; इह– इस जीवन र्ें; उभे– िोनों; सुकृत-
दुष्ट्कृते – अच्छे तर्ा बुरे िल; तस्मात्– अतः; योगाय– भमक्त के मलए; युजयस्व– इस तरह लग जाओ; योगः–
कृ ष्ट्णभावनार्ृत; कममसु– सर्स्त कायों र्ें; कौशलम्– कुशलता, कला ।

भनि में संलग्ि मिुष्ट्य इस जीवि में ही अच्छे तथा बुरे कायों से अपिे को मुि कर लेता है । अतः
योग के नलए प्रयत्ि करो क्योंनक सारा कायम-कौशल यही है ।

९०
तात्पयमः जीवात्र्ा अनामि काल से अपने अच्छे तर्ा बुरे कर्म के िलों को संमचत करता रहा है । िलतः वह
मनरन्तर अपने स्वरूप से अनमभज्ञ बना रहा है । इस अज्ञान को भगवद्गीता के उपिेश से िरू मकया जा सकता है । यह हर्ें
पूणम रूप र्ें भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाने तर्ा जन्र्-जन्र्ान्तर कर्म-िल की शृंखला का मशकार बनने से र्क्त
ु होने
का उपिेश िेती है, अतः अजुमन को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करने के मलए कहा गया है क्योंमक कर्मिल के शुद्ध होने
की यही प्रमक्रया है ।

कममजं बनु द्धयि


ु ा नह िलं त्यक्त्वा मिीनषणः ।
जन्मबन्धनवनिममि ु ाः पदं गच्छन्त्यिामयम् ।। ५१ ।।

कमम-जम्– सकार् कर्ों के कारण; बुनद्ध-युिाः– भमक्त र्ें लगे; नह– मनश्चय ही; िलम्– िल; त्यक्त्वा–
त्याग कर; मिीनषणः– बड़े-बड़े ऋमष र्मु न या भक्तगण; जन्म-बन्ध – जन्र् तर्ा र्ृत्यु के बन्धन से; नवनिममि
ु ाः–
र्क्त
ु ; पदम्– पि पर; गच्छनन्त– पहुचँ ते हैं; अिामयम्– मबना कष्ट के ।

इस तरह भगविनि में लगे रहकर बडे-बडे ऋनष, मुनि अथवा भिगण अपिे आपको इस भौनतक
संसार में कमम के िलों से मुि कर लेते हैं । इस प्रकार वे जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट जाते हैं और भगवाि् के
पास जाकर उस अवस्था को प्राप्त करते हैं, जो समस्त दुखों से परे है ।

तात्पयमः र्क्त
ु जीवों का सम्बन्ध उस स्र्ान से होता है जहाँ भौमतक कष्ट नहीं होते । भागवत र्ें (१०.१४.५८)
कहा गया है –
समास्श्रता से पर्पल्लवप्लवां महत्पर्ां पण्ु ययशो मरु ारे ः ।
भवाम्बुस्धवदत्सपर्ां परां पर्ां पर्ां पर्ां यस्िपर्ाां न तेषाम् ।।
“मजसने उन भगवान् के चरणकर्ल रूपी नाव को ग्रहण कर मलया है, जो दृश्य जगत् के आश्रय हैं और र्क ु ंु ि
नार् से मवख्यात हैं अर्ामत् मस्ु ि के िाता हैं, उसके मलए यह भवसागर गोखरु र्ें सर्ाये जल के सर्ान है । उसका
लक्ष्य परांपर्म् है अर्ामत् वह स्र्ान जहाँ भौमतक कष्ट नहीं है या मक वैकुण्ि है; वह स्र्ान नहीं जहाँ पि-पि पर संकट
हो ।”
अज्ञानवश र्नुष्ट्य यह नहीं सर्झ पाता मक यह भौमतक जगत् ऐसा िख ु र्य स्र्ान है जहाँ पि-पि पर संकट हैं ।
के वल अज्ञानवश अल्पज्ञानी पुरुष यह सोच कर मक कर्ों से वे सुखी रह सकें गे सकार् कर्म करते हुए मस्र्मत को सहन
करते हैं । उन्हें यह ज्ञात नहीं है मक इस संसार र्ें कहीं भी कोई शरीर िख ु ों से रमहत नहीं है । संसार र्ें सवमत्र जीवन के
िख
ु -जन्र्, र्ृत्यु, जरा तर्ा व्यामध – मवद्यर्ान हैं । मकन्तु जो अपने वास्तमवक स्वरूप को सर्झ लेता है और इस प्रकार
भगवान् की मस्र्मत को सर्झ लेता है , वही भगवान् की प्रेर्ा-भमक्त र्ें लगता है । िलस्वरूप वह वैकुण्िलोक जाने का
अमधकारी बन जाता है जहाँ न तो भौमतक कष्टर्य जीवन है न ही काल का प्रभाव तर्ा र्ृत्यु है । अपने स्वरूप को
जानने का अर्म है भगवान् की अलौमकक मस्र्मत को भी जान लेना । जो भ्रर्वश यह सोचता है मक जीव की मस्र्मत
तर्ा भगवान् की मस्र्मत एकसर्ान हैं उसे सर्झो मक वह अधं कार र्ें है और स्वयं भगवद्भमक्त करने र्ें असर्र्म है । वह
अपनेआपको प्रभु र्ान लेता है और इस तरह जन्र्-र्ृत्यु की पुनरावृमत्त का पर् चुन लेता है । मकन्तु जो यह सर्झते हुए

९१
मक उसकी मस्र्मत सेवक की है अपने को भगवान् की सेवा र्ें लगा िेता है वह तुरन्त ही वैकुण्िलोक जाने का
अमधकारी बन जाता है । भगवान् की सेवा मदयोग या बुस्द्धयोग कहलाती है, मजसे स्पष्ट शब्िों र्ें भगवद्भमक्त कहते हैं ।

यदा ते मोहकनललं बुनद्धव्यमनततररष्ट्यनत ।


तदा गन्तानस निवेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।। ५२ ।।

यदा– जब; ते– तम्ु हारा; मोह– र्ोह के ; कनललम्– घने जगं ल को; बनु द्धः– बमु द्धर्य मिव्य
सेवा; वयनततररष्ट्यनत– पार कर जामत है; तदा– उस सर्य; गन्ता अनस– तुर् जाओगे; निवेदम्– मवरमक्त
को; श्रोतव्यस्य– सनु ने योग्य के प्रमत; श्रुतस्य– सनु े हुए का; च– भी ।

जब तुम्हारी बुनद्ध मोह रूपी सघि वि को पार कर जायेगी तो तुम सुिे हुए तथा सुििे योग्य सब के
प्रनत अन्यमिस्क हो जाओगे ।

तात्पयमः भगवद्भक्तों के जीवन र्ें ऐसे अनेक उिाहरण प्राप्त हैं मजन्हें भगवद्भमक्त के कारण वैमिक कर्मकाण्ड से
मवरमक्त हो गई । हब र्नुष्ट्य श्रीकृ ष्ट्ण को तर्ा उनके सार् अपने सम्बन्ध को वास्तमवक रूप र्ें सर्झ लेता है तो वह
सकार् कर्ों के अनुिानों के प्रमत पूणमतया अन्यर्नस्क हो जाता है, भले ही वह अनुभवी ब्राह्मण क्यों न हो । भक्त
परम्परा र्ें र्हान भक्त तर्ा आचायम श्री र्ाधवेन्द्रपुरी का कहना है –
सन्ध्यावन्र्न भद्रमस्तु भवतो भोः स्नान तुभ्यां नमो ।
भो र्ेवाः स्पतरश्र्च तपदणस्वधौ नाहां क्षमः क्षम्यताम् ।।
यत्र क्त ास्प स्नषय यार्व ु लोत्तमस्य ां सस्िषः ।
स्मारां स्मारमयां हरास्म तर्लां मन्ये स् मन्येन मे ।।
“हे र्ेरी मत्रकाल प्रार्मनाओ, तम्ु हारी जय हो । हे स्नान, तम्ु हें प्रणार् है । हे िेवमपतृगण, अब र्ैं आप लोगों के
मलए तपमण करने र्ें असर्र्म हँ । अब तो जहाँ भी बैिता ह,ँ यािव कुलवंशी, कंस के हतं ा श्रीकृ ष्ट्ण का ही स्र्रण करता
हँ और इस तरह र्ैं अपने पापर्य बन्धन से र्क्त ु हो सकता हँ । र्ैं सोचता हँ मक यही र्ेरे मलए पयामप्त है ।”
वैमिक रस्र्ें तर्ा अनुिान यर्ा मत्रकाल संध्या, प्रातःकालीन स्नान, मपतृ-तपमण आमि नविीमक्षतों के मलए
अमनवायम हैं। मकन्तु जब कोई पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो और कृ ष्ट्ण की मिव्य प्रेर्भमक्त र्ें लगा हो, तो वह इन
मवमध-मवधानों के प्रमत उिासीन हो जाता है, क्योंमक उसे पहले ही मसमद्ध प्राप्त हो चक ु ी होती है । यमि कोई परर्ेश्र्वर
कृ ष्ट्ण की सेवा करके ज्ञान को प्राप्त होता है तो उसे शास्त्रों र्ें वमणमत मवमभन्न प्रकार की तपस्याएँ तर्ा यज्ञ करने की
आवश्यकता नहीं रह जाती । इसी प्रकार जो यह नहीं सर्झता मक वेिों का उद्देश्य कृ ष्ट्ण तक पहुचँ ना है और अपने
आपको अनुिानामि र्ें व्यस्त रखता है, वह के वल अपना सर्य नष्ट करता है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त शब्ि-ब्रह्म की
सीर्ा या वेर्ों तर्ा उपमनषिों की पररमध को भी लाँघ जाते हैं ।

श्रनु तनवप्रनतपन्िा ते यदा स्थास्यनत निश्र्चला ।


समाधावचला बुनद्धस्तदा योगमवाप्स्यनस ।। ५३ ।।

९२
श्रुनत – वैमिक ज्ञान के ; नवप्रनतपन्िा– कर्मिलों से प्रभामवत हुए मबना; ते– तुम्हारा; यदा– जब; स्थास्यनत–
मस्र्र हो जाएगा; निश्र्चला– एकमनि; समाधौ– मिव्य चेतना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें; अचला– मस्र्र; बुनद्धः–
बुमद्ध; तदा– तब; योगम्– आत्र्-साक्षात्कार; अवाप्स्यनस– तुर् प्राप्त करोगे ।

जब तुम्हारा मि वेदों की अलंकारमयी भाषा से नवचनलत ि हो और वह आत्म-साक्षात्कार की


समानध में नस्थर हो जाय, तब तुम्हें नदव्य चेतिा प्राप्त हो जायेगी ।

तात्पयमः‘कोई सर्ामध र्ें है’ इस कर्न का अर्म यह होता है मक वह पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत है अर्ामत् उसने
पणू म समास्ध र्ें ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् को प्राप्त कर मलया है । आत्र्-साक्षात्कार की सवोच्च मसमद्ध यह जान लेना
है मक र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण का शाश्र्वत िास है और उसका एकर्ात्र कतमव्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अपने सारे कर्म करना है ।
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त या भगवान् के एकमनष्ट भक्त को न तो वेिों की अलक ं ारर्यी वाणी से मवचमलत होना चामहए
न ही स्वगम जाने के उद्देश्य से सकार् कर्ों र्ें प्रवृत्त होना चामहए । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण के सामन्नध्य र्ें रहता है
और कृ ष्ट्ण से प्राप्त सारे आिेश उस मिव्य अवस्र्ा र्ें सर्झे जा सकते हैं । ऐसे कायों के पररणार्स्वरूप मनश्चयात्र्क
ज्ञान की प्रामप्त मनमश्चत है । उसे कृ ष्ट्ण या उनके प्रमतमनमध गुरु की आज्ञाओ ं का पालन र्ात्र करना होगा ।

अजुमन उवाच
नस्थतप्रज्ञस्य का भाषा समानधस्थस्य के शव ।
नस्थतधीः नकं प्रभाषेत नकमासीत व्रजेत नकम् ।। ५४ ।।

अजमिु ः उवाच– अजमनु ने कहा; नस्थत-प्रज्ञस्य– कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र हुए व्यमक्त की; का– क्या; भाषा–
भाषा;समानध-स्थस्य– सर्ामध र्ें मस्र्त पुरुष का; के शव– हे कृ ष्ट्ण; नस्थत-धीः– कृ ष्ट्णभावना र्ें मस्र्र
व्यमक्त; नकम्– क्या; प्रभाषेत– बोलता है; नकम्– कै से; आसीत– रहता है; व्रजेत– चलता है; नकम्– कै से ।

अजमिु िे कहा – हे कृ ष्ट्ण! अध्यात्म में लीि चेतिा वाले व्यनि (नस्थतप्रज्ञ) के क्या लक्षण हैं? वह कै से
बोलता है तथा उसकी भाषा क्या है? वह नकस तरह बैठता और चलता है?

तात्पयमः मजस प्रकार प्रत्येक व्यमक्त के मवमशष्ट मस्र्मत के अनुसार कुछ लक्षण होते हैं उसी प्रकार
कृ ष्ट्णभावनाभामवत पुरुष का भी मवमशष्ट स्वभाव होता है – यर्ा उसका बोला, चलना, सोचना आमि । मजस प्रकार
धनी पुरुष के कुछ लक्षण होते हैं, मजनसे वह धनवान जाना जाता है, मजस तरह रोगी अपने रोग के लक्षणों से रुग्ण जाना
जाता है या मक मवद्वान अपने गुणों से मवद्वान जाना जाता है, उसी तरह कृ ष्ट्ण की मिव्य चेतना से युक्त व्यमक्त अपने
मवमशष्ट लक्षणों से जाना जाता है । इन लक्षणों को भगवद्गीता से जाना जा सकता है । मकन्तु सबसे र्हत्त्वपणू म बात यह
है मक कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त मकस तरह बोलता है, क्योंमक वाणी ही मकसी र्नुष्ट्य का सबसे र्हत्त्वपूणम गणु है । कहा
जाता है मक र्ख ु म का पता तब तक नहीं लगता जब तक वह बोलता नहीं । एक बने-िने र्ख ु म को तब तक नहीं पहचाना
जा सकता जब तक वह बोले नहीं, मकन्तु बोलते ही उसका यर्ार्म रूप प्रकट हो जाता है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त

९३
का सवमप्रर्ख
ु लक्षण यह है मक वह के वल कृ ष्ट्ण तर्ा उन्हीं से सम्बद्ध मवषयों के बारे र्ें बोलता है । मिर तो अन्य
लक्षण स्वतः प्रकट हो जाते हैं, मजनका उल्लेख आगे मकया गया है ।

श्रीभगवानवु ाच
प्रजहानत यदा कामान्सवामन्पाथम मिोगताि् ।
आत्मन्येवात्मिा तुष्टः नस्थतप्रज्ञस्तदोच्यते ।। ५५ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; प्रजहानत– त्यागता है; यदा– जब; कामाि्– इमन्द्रयतृमप्त की
इच्छाएँ; सवामि–् सभी प्रकार की; पाथम– हे पृर्ापत्रु ; मिः गताि् – र्नोरर् का; आत्मनि– आत्र्ा की शद्ध ु अवस्र्ा
र्ें; एव– मनश्चय ही; आत्मिा– मवशुद्ध र्न से; तुष्टः– सन्तुष्ट, प्रसन्न; नस्थत-प्रज्ञः– अध्यात्र् र्ें मस्र्त; तदा– उस
सर्य,तब; उच्यते– कहा जाता है ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे पाथम! जब मिुष्ट्य मिोधमम से उत्पन्ि होिे वाली इनन्द्रयतृनप्त की समस्त
कामिाओ ं का पररत्याग कर देता है और जब इस तरह से नवशुद्ध हुआ उसका मि आत्मा में सन्तोष प्राप्त
करता है तो वह नवशुद्ध नदव्य चेतिा को प्राप्त (नस्थतप्रज्ञ) कहा जाता है ।

तात्पयमः श्रीर्द्भागवत र्ें पुमष्ट हुई है मक जो र्नुष्ट्य पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत या भगवद्भक्त होता है उसर्ें
र्हमषमयों के सर्स्त सद्गणु पाए जाते हैं, मकन्तु जो व्यमक्त अध्यात्र् र्ें मस्र्त नहीं होता उसर्ें एक भी योग्यता नहीं होती
क्योंमक वह अपने र्नोधर्म पर ही आमश्रत रहता है । िलतः यहाँ यह िीक ही कहा गया है मक व्यमक्त को र्नोधर्म द्वारा
कमल्पत सारी मवषय-वासनाओ ं को त्यागना होता है । कृ मत्रर् साधन से इनको रोक पाना सम्भव नहीं । मकन्तु यमि कोई
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगा हो तो सारी मवषय-वासनाएँ स्वतः मबना मकसी प्रयास के िब जाती हैं । अतः र्नुष्ट्य को मबना
मकसी मझझक के कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगना होगा क्योंमक यह भमक्त उसे मिव्य चेतना प्राप्त करने र्ें सहायक होगी ।
अत्यमधक उन्नत जीवात्र्ा (र्हात्र्ा) अपने आपको परर्ेश्र्वर का शाश्र्वत िास र्ानकर आत्र्तुष्ट रहता है । ऐसे
आध्यामत्र्क पुरुष के पास भौमतकता से उत्पन्न भी मवषय-वासना िटक नहीं पाती । वह अपने को मनरन्तर भगवान् का
सेवक र्ानते हुए सहज रूप र्ें सिैव प्रसन्न रहता है ।

दुःखेष्ट्विुनद्वग्िमिाः सुखेषु नवगतस्पृहः ।


वीतरागभयक्रोधः नस्थतधीममनु िरुच्यते ।। ५६ ।।

दुःखेष–ु तीनों तापों र्ें; अिुनद्वग्ि-मिाः – र्न र्ें मवचमलत हुए मबना; सुखेषु– सुख र्ें; नवगत-स्पृहः–
रुमचरमहत होने; वीत– र्क्त ु ; राग– आसमक्त; क्रोधः– तर्ा क्रोध से; नस्थत-धीः– मस्र्र र्न वाला; मनु िः–
र्मु न; उच्यते– कहलाता है ।

जो त्रय तापों के होिे पर भी मि में नवचनलत िहीं होता अथवा सुख में प्रसन्ि िहीं होता और जो
आसनि, भय तथा क्रोध से मुि है, वह नस्थर मि वाला मुनि कहलाता है ।

९४
तात्पयमःमस्ु न शब्ि का अर्म है वह जो शुष्ट्क मचन्तन के मलए र्न को अनेक प्रकार से उद्वेमलत करे , मकन्तु मकसी
तथ्य पर न पहुचँ सके । कहा जाता है मक प्रत्येक र्मु न का अपना-अपना दृमष्टकोण होता है और जब तक एक र्मु न अन्य
र्मु नयों से मभन्न न हो तब तक उसे वास्तमवक र्मु न नहीं कहा जा सकता । न चासावृस्षयदस्य मतां न स्भन्नम् (महाभारत
वनपवद ३१३.११७) मकन्तु मजस स्स्थतधीः र्मु न का भगवान् ने यहाँ उल्लेख मकया है वह सार्ान्य र्मु न से मभन्न
है । स्स्थतधीः र्मु न सिैव कृ ष्ट्णभावनाभामवत रहता है क्योंमक वह सारा सृजनात्र्क मचन्तन पूरा कर चक ू ा होता है
वह प्रशान्त स्नःशेष मनोरथान्तर (स्तोत्र रत्न ४३) कहलाता है या मजसने शष्ट्ु कमचन्तन की अवस्र्ा पार कर ली है और
इस मनष्ट्कषम पर पहुचँ ा है मक भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण या वासुिेव ही सब कुछ हैं (वासुर्ेवः सवदस्मस्त स महात्मा सुर्ल ु दभः) वह
मस्र्रमचत्त र्मु न कहलाता है । ऐसा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त तीनों पापों के सघं ात से तमनक भी मवचमलत नहीं होता
क्योंमक वह इन कष्टों (तापों) को भगवत्कृ पा के रूप र्ें लेता है और पूवम पापों के कारण अपने को अमधक कष्ट के मलए
योग्य र्ानता है और वह िेखता है मक उसके सारे िख ु भगवत्कृ पा से रंचर्ात्र रह जाते हैं । इसी प्रकार जब वह सुखी
होता है तो अपने को सुख के मलए अयोग्य र्ानकर इसका भी श्री भगवान् को िेता है । वह सोचता है मक भगवत्कृ पा से
ही वह ऐसी सुखि मस्र्मत र्ें है और भगवान् की सेवा और अच्छी तरह से कर सकता है । और भगवान् की सेवा के
मलए तो वह सिैव सहस करने के मलए सन्नद्ध रहता है । वह राग या मवराग से प्रभामवत नहीं होता । राग का अर्म होता
है अपनी इमन्द्रयतृमप्त के मलए वस्तुओ ं को ग्रहण करना और मवराग का अर्म है ऐसी एंमद्रय आसमक्त का अभाव । मकन्तु
कृ ष्ट्णभावनाभामवत र्ें मस्र्र व्यमक्त र्ें न राग होता है न मवराग क्योंमक उसका पूरा जीवन ही भगवत्सेवा र्ें अमपमत रहता
है । िलतः सारे प्रयास असिल रहने पर भी वह क्रुद्ध नहीं होता । चाहे मवजय हो य न हो, कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त
अपने संकल्प का पक्का होता है ।

यः सवमत्रािनभस्िेहस्तत्तत्प्राप्य शभ ु ाशभु म् ।
िानभिन्दनत ि द्वेनष्ट तस्य प्रज्ञा प्रनतनष्ठता ।। ५७ ।।

यः– जो; सवमत्र– सभी जगह; अिनभस्िेहः– स्नेहशन्ू य; तत्– उस; प्राप्य– प्राप्त करके ; शुभ–
अच्छा; अशुभम्– बुरा; ि– कभी नहीं; अनभिन्दनत– प्रशंसा करता है; ि– कभी नहीं; द्वेनष्ट– द्वेष करता है; तस्य–
उसका; प्रज्ञा– पूणम ज्ञान; प्रनतनष्ठता– अचल ।

इस भौनतक जगत् में जो व्यनि ि तो शुभ की प्रानप्त से हनषमत होता है और ि अशुभ के प्राप्त होिे पर
उससे घृणा करता है, वह पूणम ज्ञाि में नस्थर होता है ।

तात्पयमः भौमतक जगत् र्ें सिा ही कुछ न कुछ उर्ल-पुर्ल होती रहती है – उसका पररणार् अच्छा हो चाहे
बरु ा । जो ऐसी उर्ल-पर्ु ल से मवचमलत नहीं होता, जो अच्छे (शभु ) या बरु े (अशभु ) से अप्रभामवत रहता है उसे
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र सर्झना चामहए । जब तक र्नुष्ट्य इस भौमतक संसार र्ें है तब तक अच्छाई या बुराई की
सम्भावना रहती है क्योंमक यह ससं ार द्वैत (द्वद्वं ों) से पणू म है । मकन्तु जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र है वह अच्छाई या बरु ाई
से अछूता रहता है क्योंमक उसका सरोकार कृ ष्ट्ण से रहता है जो सवमर्ंगलर्य हैं । ऐसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत से र्नुष्ट्य पूणम ज्ञान
की मस्र्मत प्राप्त कर लेता है, मजसे समास्ध कहते हैं ।

९५
यदा संहरते चायं कुमोऽङ् गािीव सवमशः ।
इनन्द्रयािीनन्द्रयाथेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रनतनष्ठता ।। ५८ ।।

यदा– जब; संहरते – सर्ेत लेता है; च– भी; अयम्– यह; कूममः– कछुवा; अङ् गानि– अंग; इव–
सदृश; सवमशः– एकसार्; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; इनन्द्रय-अथेभ्यः– इमन्द्रयमवषयों से; तस्य– उसकी; प्रज्ञा–
चेतना; प्रनतनष्ठता– मस्र्र ।

नजस प्रकार कछुवा अपिे अंगो को सक ं ु नचत करके खोल के भीतर कर लेता है, उसी तरह जो मिष्ट्ु य
अपिी इनन्द्रयों को इनन्द्रयनवषयों से खी ूँच लेता है, वह पूणम चेतिा में दृढतापूवमक नस्थर होता है ।

तात्पयमः मकसी योगी, भक्त या आत्र्मसद्ध व्यमक्त की कसौटी यह है मक वह अपनी योजना के अनुसार इमन्द्रयों
को वश र्ें कर सके , मकन्तु अमधकांश व्यमक्त अपनी इमन्द्रयों के िास बने रहते हैं और इमन्द्रयों के ही कहने पर चलते हैं ।
यह है उत्तर इस प्रश्न का मक योगी मकस प्रकार मस्र्त होता है । इमन्द्रयों की तुलना मवषैले सपों से की गई है । वे अत्यन्त
स्वतंत्रतापूवमक तर्ा मबना मकसी मनयन्त्रण के कर्म करना चाहती हैं । योगी या भक्त को इन सपों को वश र्ें करने के
मलए, एक सपेरे की भाँमत अत्यन्त प्रबल होना चामहए । वह उन्हें कभी भी कायम करने की छूट नहीं िेता । शास्त्रों र्ें
अनेक आिेश हैं, उनर्ें से कुछ ‘करो’ तर्ा कुछ ‘न करो’ से सम्बद्ध हैं । जब तक कोई इन, ‘करो या न करो’ का पालन
नहीं कर पाता और इमन्द्रयभोग पर संयर् नहीं बरतता है तब तक उसका कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र हो पाना असम्भव है ।
यहाँ पर सवमश्रेि उिाहरण कछुवे का है । वह मकसी भी सर्य अपने अंग सर्ेत लेता है और पुनः मवमशष्ट उद्देश्यों से उन्हें
प्रकट कर सकता है । इसी प्रकार कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्तयों की इमन्द्रयाँ भी के वल भगवान् की मवमशष्ट सेवाओ ं के
मलए कार् आती हैं अन्यर्ा उनका संकोच कर मलया जाता है । अजुमन को उपिेश मिया जा रहा है मक वह अपनी
इमन्द्रयों को आत्र्तमु ष्ट र्ें न करके भगवान् की सेवा र्ें लगाये । अपनी इमन्द्रयों को सिैव भगवान् की सेवा र्ें लगाये
रखना कूर्म द्वारा प्रस्तुत दृष्टान्त के अनुरूप है, जो अपनी इमन्द्रयों को सर्ेटे रखता है ।

नवषया नवनिवतमन्ते निराहारस्य देनहिः ।


रसवजं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवतमते ।। ५९ ।।

नवषयाः– इमन्द्रयभोग की वस्तुएँ; नवनिवतमन्ते– िरू रहने के मलए अभ्यास की जाती हैं; निराहारस्य–
मनषेधात्र्क प्रमतबन्धों से; देनहिः– िेहवान जीव के मलए; रस-वजमम–् स्वाि का त्याग करता है; रसः–
भोगेच्छा; अनप– यद्यमप है; अस्य– उसका; परम्– अत्यन्त उत्कृ ष्ट वस्तुएँ; दृष्ट्वा– अनुभव होने पर; निवतमते– वह
सर्ाप्त हो जाता है ।

देहधारी जीव इनन्द्रयभोग से भले ही निवृत्त हो जाय पर उसमें इनन्द्रयभोगों की इच्छा बिी रहती है ।
लेनकि उत्तम रस के अिुभव होिे से ऐसे कायों को बन्द करिे पर वह भनि में नस्थर हो जाता है ।

९६
तात्पयमः जब तक कोई अध्यात्र् को प्राप्त न हो तब तक इमन्द्रयभोग से मवरत होना असम्भव है । मवमध-मवधानों
द्वारा इमन्द्रयभोग को संयमर्त करने की मवमध वैसी ही है जैसे मकसी रोगी के मकसी भोजय पिार्म खाने पर प्रमतबन्ध
लगाना । मकन्तु इससे रोगी की न तो भोजन के प्रमत रूमच सर्ाप्त होती है और न वह ऐसा प्रमतबन्ध लगाया जाना चाहता
है । इसी प्रकार अल्पज्ञानी व्यमक्तयों के मलए इमन्द्रयसंयर्न के मलए अष्टांग-योग जैसी मवमध की संस्तुमत की जताई है
मजसर्ें यम, स्नयम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आमि समम्र्मलत हैं । मकन्तु मजसने कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
पर् पर प्रगमत के क्रर् र्ें परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण के सौन्ियम का रसास्वािन कर मलया है, उसे जड़ भौमतक वस्तुओ ं र्ें कोई रूमच
नहीं रह जाती ।ऐसे प्रमतबन्ध तभी तक िीक हैं जब तक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रूमच जागृत नहीं हो जाती । और जब
वास्तव र्ें रूमच जग जाती है, तो र्नुष्ट्य र्ें स्वतः ऐसी वस्तुओ ं के प्रमत अरुमच उत्पन्न हो जाती है ।

यततो ह्यनप कौन्तेय पुरुषस्य नवपनश्र्चतः ।


इनन्द्रयानण प्रमाथीनि हरनन्त प्रसभं मिः ।। ६० ।।

यततः– प्रयत्न करते हुए; नह– मनश्चय ही; अनप– के बावजूि; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; पुरुषस्य– र्नुष्ट्य
की; नवपनश्र्चतः– मववेक से युक्त; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; प्रमाथीनि– उत्तेमजत; हरनन्त– िें कती हैं; प्रसभम्– बल
से; मिः– र्न को ।

हे अजमिु ! इनन्द्रयाूँ इतिी प्रबल तथा वेगवाि हैं नक वे उस नववेकी पुरुष के मि को भी बलपूवमक हर
लेती हैं, जो उन्हें वश में करिे का प्रयत्ि करता है ।

तात्पयमः अनेक मवद्वान, ऋमष, िाशममनक तर्ा अध्यात्र्वािी इमन्द्रयों को वश र्ें करने का प्रयत्न करते हैं, मकन्तु
उनर्ें से बड़े से बड़ा भी कभी-कभी मवचमलत र्न के कारण इमन्द्रयभोग का लक्ष्य बन जाता है । यहाँ तक मक
मवश्र्वामर्त्र जैसे र्हमषम तर्ा पणू म योगी को भी र्ेनका के सार् मवषयभोग र्ें प्रवृत्त होना पड़ा, यद्यमप वे इमन्द्रयमनग्रह के
मलए कमिन तपस्या तर्ा योग कर रहे र्े । मवश्र्व इमतहास र्ें इसी तरह के अनेक दृष्टान्त हैं । अतः पूणमतया
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हुए मबना र्न तर्ा इमन्द्रयों को वश र्ें कर सकना अत्यन्त कमिन है । र्न को कृ ष्ट्ण र्ें लगाये मबना
र्नुष्ट्य ऐसे भौमतक कायों को बन्ि नहीं कर सकता । परर् साधु तर्ा भक्त यार्ुनाचायम र्ें एक व्यावहाररक उिाहरण
प्रस्तुत मकया है । वे कहते हैं –
यर्वस्ध मम चेतः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्े
नवनवरसधामन्युयतां रन्तुमासीत् ।
तर्स्वस्ध बात नारीसांगमे स्मयदमाने
भवस्त मख ु स्व ारः सुष्ठु स्नष्ठीवनां च ।।
“जब से र्ेरा र्न भगवान् कृ ष्ट्ण के चरणामवन्िों की सेवा र्ें लग गया है और जब से र्ैं मनत्य नव मिव्यरस का
अनुभव करता रहता ह,ँ तब से स्त्री-प्रसंग का मवचार आते ही र्ेरा र्न उधर से मिर जाता है और र्ैं ऐसे मवचार पर र्ू-र्ू
करता हँ ।”
कृ ष्ट्णभावनार्ृत इतनी मिव्य सुन्िर वस्तु है मक इसके प्रभाव से भौमतक भोग स्वतः नीरस हो जाता है । यह वैसा
ही है जैसे कोई भख ू ा र्नुष्ट्य प्रचरु र्ात्रा र्ें पुमष्टिायक भोजन करके भख
ू मर्टा ले । र्हाराज अम्बरीष भी

९७
परर् योगी िवु ामसा र्ुमन पर इसीमलए मवजय पा सके क्योंमक उनका र्न मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगा रहता र्ा (स वै
मनः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्योः वचाांस्स वै ु ण्ठगुणानुवणदने) ।

तानि सवामनण संयम्य युि आसीत मत्परः ।


वशे नह यस्येनन्द्रयानण तस्य प्रज्ञा प्रनतनष्ठता ।। ६१ ।।

तानि– उन इमन्द्रयों को; सवामनण– सर्स्त; सयं म्य– वश र्ें करके ; यि


ु ः– लगा हुआ; आसीत– मस्र्त
होना; मत्-परः– र्झु र्ें; वशे– पूणमतया वश र्ें; नह– मनश्चय ही; यस्य– मजसकी; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; तस्य–
उसकी; प्रज्ञा– चेतना; प्रनतनष्ठता– मस्र्र ।

जो इनन्द्रयों को पूणमतया वश में रखते हुए इनन्द्रय-सयं मि करता है और अपिी चेतिा को मुझमें नस्थर
कर देता है, वह मिुष्ट्य नस्थरबुनद्ध कहलाता है ।

तात्पयमः इस श्लोक र्ें बताया गया है मक योगमसमद्ध की चरर् अनुभमू त कृ ष्ट्णभावनार्ृत ही है । जब तक कोई
कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं होता तब तक इमन्द्रयों को वश र्ें करना सम्भव नहीं है । जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है,
िवु ामसा र्मु न का झगड़ा र्हाराज अम्बरीष से हुआ, क्योंमक वे गवमवश र्हाराज अम्बरीष पर क्रुद्ध हो गये, मजससे अपनी
इमन्द्रयों को रोक नहीं पाये । िसू री ओर यद्यमप राजा र्मु न के सर्ान योगी न र्ा, मकन्तु वह कृ ष्ट्ण का भक्त र्ा और उसने
र्मु न के सारे अन्याय सह मलये, मजससे वह मवजयी हुआ । राजा अपनी इमन्द्रयों को वश र्ें कर सका क्योंमक उसर्ें
मनम्नमलमखत गुण र्े, मजनका उल्लेख श्रीमद्भागवत र्ें (९.४.१८-२०) हुआ है-
स वै मनः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्योवदचास्ां स वै ु ण्ठगणु ानवु णदने ।
रौ हरे मदस्न्र्रमाजदनास्र्षश्रु स्ु तां च ाराचयुतसत् थोर्ये ।।
मु ु न्र्स्लङगालयर्शदने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पशेंऽगसगां मम् ।
घ्राणां च तत्पार्सरोजसौरभे श्रीमत्तल ु स्या रसानाां तर्ास्पदते ।।
पार्ौ हरे ः क्षेत्रपर्ानुसपदणे स्शरो हृषी े शपर्ास्भवन्र्ने ।
ामां च र्ास्य न तु ाम ाम्यया यथोत्तमश्लो जनाश्रया रस्तः ।।
“राजा अम्बरीष ने अपना र्न भगवान् कृ ष्ट्ण के चरणारमवन्िो पर मस्र्र का मिया, अपनी वाणी भगवान् के धार्
की चचाम करने र्ें लगा िी, अपने कानों को भगवान् की लीलाओ ं को सुनने र्ें, अपने हार्ों को भगवान् का र्मन्िर साफ़
करने र्ें, अपनी आँखों को भगवान् का स्वरूप िेखने र्ें, अपने शरीर को भक्त के शरीर का स्पशम करने र्ें, अपनी नाक
को भगवान् के चरणामवन्िो पर भेंट मकये गये िूलों की गंध सूँघने र्ें, अपनी जीभ को उन्हें अमपमत तुलसी िलों का
आस्वाि करने र्ें, अपने पाँवो को जहाँ-जहाँ भगवान् के र्मन्िर हैं उन स्र्ानों की यात्रा करने र्ें, अपने सर को भगवान्
को नर्स्कार करने र्ें तर्ा अपनी इच्छाओ ं को भगवान् की इच्छाओ ं को परू ा करने र्ें लगा मिया और इन गणु ों के
कारण वे भगवान् के मत्पर भक्त बनने के योग्य हो गये ।”
इस प्रसगं र्ें मत्पर शब्ि अत्यन्त सार्मक है । कोई र्त्पर मकस तरह हो सकता है इसका वणमन र्हाराज अम्बरीष
के जीवन र्ें बताया गया है । मत्पर परम्परा के र्हान मवद्वान् तर्ा आचायम श्रील बलिेव मवद्याभषू ण का कहना है –
मद्भस्ि प्रभावेन सवेस्न्द्रयस्वजयपूस्वद ा स्वात्मदृस्ष्टः सुलभेस्त भावः – इमन्द्रयों को के वल कृ ष्ट्ण की भमक्त के बल से

९८
वश र्ें मकया जा सकता है । कभी-कभी अमग्न का भी उिाहरण मिया जाता है – “मजस प्रकार जलती हुई अमग्न कर्रे के
भीतर की सारी वस्तुएँ जला िेती है उसी प्रकार योगी के हृिय र्ें मस्र्त भगवान् मवष्ट्णु सारे र्लों को जला िेते
हैं ।” योग-सूत्र भी मवष्ट्णु का ध्यान आवश्यक बताता है, शन्ू य का नहीं । तर्ाकमर्त योगी जो मवष्ट्णुपि को छोड़ कर
अन्य मकसी वस्तु का ध्यान धरते हैं वे के वल र्ृगर्रीमचकाओ ं की खोज र्ें वृर्ा ही अपना सर्य गँवाते हैं । हर्ें
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना चामहए – भगवान् के प्रमत अनुरुक्त होना चामहए । असली योग का यही उद्देश्य है ।

ध्यायतो नवषयान्पस
ुं ः सङगस्तेषपू जायते ।
सङगात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽनभजायते ।। ६२ ।।

ध्यायतः– मचन्तन करते हुए; नवषयाि्– इमन्द्रय मवषयों को; पुंसः– र्नुष्ट्य की; सङगः– आसमक्त; तेषु– उन
इमन्द्रय मवषयों र्ें; उपजायते– मवकमसत होती है; सङगात्– आसमक्त से; सञ्जायते– मवकमसत होती है; कामः–
इच्छा; कामात्– कार् से; क्रोधः– क्रोध; अनभजायते– प्रकट होता है ।

इनन्द्रयानवषयों का नचन्ति करते हुए मिुष्ट्य की उिमें आसनि उत्पन्ि हो जानत है और ऐसी आसनि से
काम उत्पन्ि होता है और निर काम से क्रोध प्रकट होता है ।

तात्पयमः जो र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं है उसर्ें इमन्द्रयमवषयों के मचन्तन से भौमतक इच्छाएँ उत्पन्न होती
है । इमन्द्रयों को मकसी कायम र्ें लगे रहना चामहए और यमि वे भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें नहीं लगी रहेंगी तो वे
मनश्चय ही भौमतकतावाि र्ें लगना चाहेंगी । इस भौमतक जगत् र्ें हर एक प्राणी इमन्द्रयामवषयों के अधीन है, यहाँ तक
मक ब्रह्मा तर्ा मशवजी भी । तो स्वगम के अन्य िेवताओ ं के मवषय र्ें क्या कहा जा सकता है? इस ससं ार के जजं ाल से
मनकलने का एकर्ात्र उपाय है-कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना । मशव ध्यानर्ग्न र्े, मकन्तु जब पावमती ने मवषयभोग के मलए
उन्हें उत्तेमजत मकया, तो वे सहर्त हो गये मजसके िलस्वरूप कामतमकेय का जन्र् हुआ । इसी प्रकार तरुण भगवद्भक्त
हररिास िाकुर को र्ाया िेवी के अवतार ने र्ोमहत करने का प्रयास मकया, मकन्तु मवशद्ध ु कृ ष्ट्ण भमक्त के कारण वे इस
कसौटी र्ें खरे उतरे । जैसा मक यार्नु ाचायम के उपयुमक्त श्लोक र्ें बताया जा चक ू ा है, भगवान् का एकमनि भक्त भगवान्
की संगमत के अध्यामत्र्क सुख का आस्वािन करने के कारण सर्स्त भौमतक इमन्द्रयसुख को त्याग िेता है । अतः जो
कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं है वह कृ मत्रर् िर्न के द्वारा अपनी इमन्द्रयों को वश र्ें करने र्ें मकतना ही शमक्तशाली क्यों न
हो, अन्त र्ें अवश्य असिल होगा, क्योंमक मवषय सुख का रंचर्ात्र मवचार भी उसे इमन्द्रयतृमप्त के मलए उत्तेमजत कर
िेगा ।

क्रोधािवनत सम्मोहः सम्मोहात्स्मृनतनवरमः ।


स्मृनतरश
ं ाद् बनु द्धिाशो बनु द्धिाशात्प्रणश्यनत ।। ६३ ।।

क्रोधात्– क्रोध से; भवनत– होता है; सम्मोहः– पणू म र्ोह; सम्मोहात्– र्ोह से; स्मृनत– स्र्रणशमक्त
का; नवरमः– र्ोह; स्मृनत-रंशात्– स्र्ृमत के र्ोह से; बुनद्ध-िाशः– बुमद्ध का मवनाश; बुनद्ध-िाशात्– तर्ा बुमद्धनाश
से; प्रणश्यनत– अधःपतन होता है ।

९९
क्रोध से पूणम मोह उत्पन्ि होता है और मोह से स्मरणशनि का नवरम हो जाता है । जब स्मरणशनि
रनमत हो जानत है, तो बुनद्ध िष्ट हो जाती है और बुनद्ध िष्ट होिे पर मिुष्ट्य भव-कूप में पुिः नगर जाता है ।

तात्पयमः श्रील रूप गोस्वार्ी ने हर्ें यह आिेश मिया है –


प्रापस्ञ्च तया बुद्धया हररसम्बस्न्धतवस्तुनः ।
ममु क्षु स्ु भः पररत्यागो वैरार्गयां फल्गु थ्यते ।।
(भस्िरसामृत स्सन्धु १.२.२५८)
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मवकास से र्नष्ट्ु य जान सकता है मक प्रत्येक वस्तु का उपयोग भगवान् की सेवा के मलए
मकया जा सकता है । जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के ज्ञान से रमहत हैं वे कृ मत्रर् ढंग से भौमतक मवषयों से बचने का प्रयास करते
हैं, िलतः वे भवबन्धन से र्ोक्ष की कार्ना करते हुए भी वैराग्य की चरण अवस्र्ा प्राप्त नहीं कर पाते । उनका
तर्ाकमर्त वैराग्य फल्गु अर्ामत् गौण कहलाता है । इसके मवपरीत कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त जानता है मक प्रत्येक
वास्तु का उपयोग भगवान् की सेवा र्ें मकस प्रकार मकया जाय िलतः वह भौमतक चेतना का मशकार नहीं होता ।
उिाहरणार्म, मनमवमशेषवािी के अनुसार भगवान् मनराकार होने के कारण भोजन नहीं कर सकते, अतः वह अच्छे खाद्यों
से बचता रहता है, मकन्तु भक्त जानता है मक कृ ष्ट्ण परर् भोक्ता हैं और भमक्तपूवमक उन पर जो भी भेंट चढ़ाई जाती है,
उसे वे खाते हैं । अतः भगवान् को अच्छा भोजन चढाने के बाि भक्त प्रसार् ग्रहण करता है । इस प्रकार हर वस्तु
प्राणवान हो जाती है और अधः-पतन का कोई संकट नहीं रहता । भक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर प्रसार् ग्रहण करता है
जबमक अभक्त इसे पिार्म के रूप र्ें मतरस्कार कर िेता है । अतः मनमवमशेषवािी अपने कृ मत्रर् त्याग के कारण जीवन को
भोग नहीं पाता और यही कारण है मक र्न के र्ोड़े से मवचलन से वह भव-कूप र्ें पुनः आ मगरता है । कहा जाता है मक
र्मु क्त के स्तर तक पहुचँ जाने पर भी ऐसा जीव मनचे मगर जाता है, क्योंमक उसे भमक्त का कोई आश्रय नहीं मर्लता ।

रागद्वेषनवमि
ु ै स्तु नवषयानिनन्द्रयैश्र्चरि् ।
आत्मवश्यैनवमधेयात्माप्रसादनधगच्छनत ।। ६४ ।।

राग– आसमक्त; द्वेष– तर्ा वैराग्य से; नवमुिैः– र्क्त


ु रहने वाले से; तु– लेमकन; नवषयाि्– इमन्द्रयमवषयों
को; इनन्द्रयैः– इमन्द्रयों के द्वारा; चरि्– भोगता हुआ; आत्म-वश्यैः– अपने वश र्ें; नवधेय-आत्मा– मनयमर्त
स्वाधीनता पालक; प्रसादम्– भगवत्कृ पा को; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

नकन्तु समस्त राग तथा द्वेष से मुि एवं अपिी इनन्द्रयों को संयम द्वारा वश में करिे में समथम व्यनि
भगवाि् की पूणम कृ पा प्राप्त कर सकता है ।

तात्पयमः यह पहले ही बताया जा चक ु ा है मक कृ मत्रर् इमन्द्रयों पर बाह्यरूप से मनयन्त्रण मकया जा सकता है,
मकन्तु जब तक इमन्द्रयाँ भगवान् की मिव्य सेवा र्ें नहीं लगाई जातीं तब तक नीचे मगरने की सम्भावना बनी रहती है ।
यद्यमप पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ऊपर से मवषयी-स्तर पर क्यों न मिखे, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने से वह
मवषय-कर्ों र्ें आसक्त नहीं होता । उसका एकर्ात्र उद्देश्य तो कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करना रहता है, अन्य कुछ नहीं । अतः

१००
वह सर्स्त आसमक्त तर्ा मवरमक्त से र्क्तु होता है । कृ ष्ट्ण की इच्छा होने पर भक्त सार्ान्यतया अवांमछत कायम भी कर
सकता है, मकन्तु यमि कृ ष्ट्ण की इच्छा नहीं है तो वह उस कायम को भी नहीं करे गा मजसे वह सार्ान्य रूप से अपने मलए
करता हो । अतः कर्म करना या न करना उसके वश र्ें रहता है क्योंमक वह के वल कृ ष्ट्ण के मनिेश के अनुसार ही कायम
करता है । यही चेतना भगवान् की अहैतुकी कृ पा है, मजसकी प्रामप्त भक्त को इमन्द्रयों र्ें आसक्त होते हुए भी हो सकती
है ।

प्रसादे सवमदुःखािां हानिरस्योपजायते ।


प्रसन्िचेतसो ह्याश्रु बुनद्धः पयमवनतष्ठते ।। ६५ ।।

प्रसादे– भगवान् की अहैतुकी कृ पा प्राप्त होने पर; सवम– सभी; दुःखािाम्– भौमतक िख
ु ों का; हानिः–
क्षय, नाश; अस्य– उसके ; उपजायते– होता है; प्रसन्ि-चेतसः– प्रसन्नमचत्त वाले की; नह– मनश्चय ही; आशु–
तुरन्त; बुनद्धः– बुमद्ध; परर– पयामप्त; अवनतष्ठते– मस्र्र हो जाती है ।

इस प्रकार कृ ष्ट्णभाविामृत में तुष्ट व्यनि के नलए संसार के तीिों ताप िष्ट हो जाते हैं और ऐसी तुष्ट
चेतिा होिे पर उसकी बुनद्ध शीघ्र ही नस्थर हो जाती है ।

िानस्त बुनद्धरयुिस्य ि चायुिस्य भाविा ।


ि चाभावयतः शानन्तरशान्तस्य कुतः सुखम् ।। ६६ ।।

न अमस्त—नहीं हो सकती; बमु द्ध:—पदव्य बपु द्ध; अयक्त


ु स्य—कृ ष्णभावना से सम्बपन्धत न रहने वाले में; न—
नहीं; च—तथा; अयुक्तस्य—कृ ष्णभावना से शन्ू य िुरुर् का; भावना—पस्थर पचत्त (सुख में) ; न—नहीं; च—तथा;
अभावयत:—जो पस्थर नहीं है उसके ; र्ामन्त:—शापन्त; अर्ान्तस्य—अशान्त का; कुत:—कहाूँ है; सख ु म्—
सुख

जो कृ ष्ट्णभाविामृत में परमेश्र्वर से सम्बनन्धत िहीं है उसकी ि तो बुनद्ध नदव्य होती है और ि ही मि


नस्थर होता है नजसके नबिा शानन्त की कोई सम्भाविा िहीं है । शानन्त के नबिा सुख हो भी कै से सकता है?

तात्पयमः कृ ष्ट्णभावनाभामवत हुए मबना शामन्त की कोई सम्भावना नहीं हो सकती । अतः पाँचवे अध्याय र्ें
(५.२९) इसकी पुमष्ट ही गई है मक जब र्नुष्ट्य यह सर्झ लेता है मक कृ ष्ट्ण ही यज्ञ तर्ा तपस्या के उत्तर् िलों के
एकर्ात्र भोक्ता हैं और सर्स्त ब्रह्माण्ड के स्वार्ी हैं तर्ा वे सर्स्त जीवों के असली मर्त्र हैं तभी उसे वास्तमवक शामन्त
मर्ल सकती है । अतः यमि कोई कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं है तो उसके र्न का कोई अमन्तर् लक्ष्य नहीं हो सकता । र्न
की चंचलता का एकर्ात्र कारण अमन्तर् लक्ष्य का अभाव है । जब र्नुष्ट्य को यह पता चल जाता है मक कृ ष्ट्ण ही
भोक्ता, स्वार्ी तर्ा सबके मर्त्र है, तो मस्र्र मचत्त होकर शामन्त का अनभु व मकया जा सकता है । अतएव जो कृ ष्ट्ण से
सम्बन्ध न रखकर कायम र्ें लगा रहता है, वह मनश्चय ही सिा िख ु ी और अशान्त रहेगा, भले ही वह जीवन र्ें शामन्त

१०१
तर्ा अध्यामत्र्क उन्नमत का मकतना ही मिखावा क्यों न करे । कृ ष्ट्णभावनार्ृत स्वयं प्रकट होने वाली शामन्तर्यी
अवस्र्ा है, मजसकी प्रामप्त कृ ष्ट्ण के सम्बन्ध से ही हो सकती है ।

इनन्द्रयाणां नह चरतां यन्मिोऽिुनवधीयते ।


तदस्य हरनत प्रज्ञां वायुिामवनमवाम्भनस ।। ६७ ।।

इनन्द्रयाणाम्– इमन्द्रयों के ; नह– मनश्चय ही; चरताम्– मवचरण करते हुए; यत्– मजसके सार्; मिः–
र्न; अिुनवधीयते– मनरन्तर लगा रहता है; तत्– वह; अस्य– इसकी; हरनत– हर लेती है; प्रज्ञाम्– बुमद्ध को; वायुः–
वाय;ु िावम्– नाव को; इव– जैस;े अभ्यनस– जल र्ें ।

नजस प्रकार पािी में तैरती िाव को प्रचण्ड वायु दूर बहा ले जाती है उसी प्रकार नवचरणशील इनन्द्रयों
में से कोई एक नजस पर मि निरन्तर लगा रहता है, मिुष्ट्य की बुनद्ध को हर लेती है ।

तात्पयमः यमि सर्स्त इमन्द्रयाँ भगवान् की सेवा र्ें न लगी रहें और यमि इनर्ें से एक भी अपनी तृमप्त र्ें लगी
रहती है, तो वह भक्त को मिव्य प्रगमत-पर् से मवपर् कर सकती है । जैसा मक र्हाराज अम्बरीष के जीवन र्ें बताया
गया है, सर्स्त इमन्द्रयों को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगा रहना चामहए क्योंमक र्न को वश र्ें करने की यही सही एवं सरल
मवमध है ।

तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सवमशः ।


इनन्द्रयाणीनन्द्रयाथेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रनतनष्ठता ।। ६८ ।।

तस्मात्– अतः; यस्य– मजसकी; महा-बाहो– हे र्हाबाहु; निगृहीतानि– इस तरह वमशभतू ; सवमशः– सब
प्रकार से; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; इनन्द्रय-अथेभ्यः – इमन्द्रयमवषयों से; तस्य– उसकी; प्रज्ञा– बुमद्ध; प्रनतनष्ठता– मस्र्र ।

अतः हे महाबाहु! नजस पुरुष की इनन्द्रयाूँ अपिे-अपिे नवषयों से सब प्रकार से नवरत होकर उसके वश
में हैं, उसी की बुनद्ध निस्सन्देह नस्थर है ।

तात्पयमः कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा या सारी इमन्द्रयों को भगवान् की मिव्य प्रेर्भमक्त र्ें लगाकर इमन्द्रयतृमप्त की
बलवती शमक्तयों को िमर्त मकया जा सकता है । मजस प्रकार शत्रुओ ं का िर्न श्रेि सेना द्वारा मकया जाता है उसी प्रकार
इमन्द्रयों का िर्न मकसी र्ानवीय प्रयास के द्वारा नहीं, अमपतु उन्हें भगवान् की सेवा र्ें लगाये रखकर मकया जा सकता
है । जो व्यमक्त यह हृियगं र् कर लेता है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा बमु द्ध मस्र्र होती है औरइस कला का अभ्यास
प्रर्ामणक गुरु के पर्-प्रिशमन र्ें करता है, वह साध अर्वा र्ोक्ष का अमधकारी कहलाता है ।

या निशा सवमभूतािां तस्यां जागनतम संयमी ।


यस्यां जाग्रनत भूतानि सा निशा पश्यतो मुिेः ।। ६९ ।।

१०२
या– जो; निशा– रामत्र है; सवम– सर्स्त; भूतािाम्– जीवों की; तस्याम्– उसर्ें; जागनतम– जागता रहता
है; संयमी– आत्र्संयर्ी व्यमक्त; यस्याम्– मजसर्ें; जाग्रनत– जागते हैं; भूतानि– सभी प्राणी; सा– वह; निशा–
रामत्र; पश्यतः– आत्र्मनरीक्षण करने वाले; मुिेः– र्मु न के मलए ।

जो सब जीवों के नलए रानत्र है, वह आत्मसंयमी के जागिे का समय है और जो समस्त जीवों के जागिे
का समय है वह आत्मनिरीक्षक मनु ि के नलए रानत्र है ।

तात्पयमः बमु द्धर्ान् र्नष्ट्ु यों की िो श्रेमणयाँ हैं । एक श्रेणी के र्नष्ट्ु य इमन्द्रयतृमप्त के मलए भौमतक कायम करने र्ें
मनपुण होते हैं और िसू री श्रेणी के र्नुष्ट्य आत्र्मनरीक्षक हैं, जो आत्र्-साक्षात्कार के अनुशीलन के मलए जागते हैं ।
मवचारवान पुरुषों या आत्र्मनरीक्षक र्मु न के कायम भौमतकता र्ें लीन पुरुषों के मलए रामत्र के सर्ान हैं । भौमतकतावािी
व्यमक्त ऐसी रामत्र र्ें अनमभज्ञता के कारण आत्र्-साक्षात्कार के प्रमत सोये रहते हैं । आत्र्मनरीक्षक र्मु न भौमतकतावािी
पुरुषों की रामत्र र्ें जागे रहते हैं । र्ुमन को अध्यामत्र्क अनुशीलन की क्रमर्क उन्नमत र्ें मिव्य आनन्ि का अनुभव होता
है, मकन्तु भौमतकतावािी कायों र्ें लगा व्यमक्त, आत्र्-साक्षात्कार के प्रमत सोया रहकर अनेक प्रकार के इमन्द्रयसुखों का
स्वप्न िेखता है और उसी सुप्तावस्र्ा र्ें कभी सुख तो कभी िख ु का अनुभव करता है । आत्र्मनरीक्षक र्नुष्ट्य भौमतक
सुख तर्ा िख ु के प्रमत अन्यर्नस्क रहता है । वह भौमतक घातों से अमवचमलत रहकर आत्र्-साक्षात्कार के कायों र्ें
लगा रहता है ।

आपयू ममाणमचलप्रनतष्ठं
समद्रु मापः प्रनवशनन्त यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रनवशनन्त सवे
स शानन्तमाप्िोनत ि कामकामी ।। ७० ।।

आपयू ममाणम्– मनत्य पररपूणम; अचल-प्रनतष्ठम्– दृढ़तापूवमक मस्र्त; समुद्रम्– सर्द्रु र्ें; आपः–
नमियाँ; प्रनवशनन्त– प्रवेश करती हैं; यद्वतः– मजस प्रकार; तद्वतः– उसी प्रकार; कामाः– इच्छाएँ; यम्–
मजसर्ें; प्रनवशनन्त– प्रवेश करती हैं; सवे– सभी; सः– वह व्यमक्त; शानन्तम्– शामन्त; आप्िोनत– प्राप्त करता है; ि–
नहीं; काम-कामी– इच्छाओ ं को पूरा करने का इच्छुक ।

जो पुरुष समुद्र में निरन्तर प्रवेश करती रहिे वाली िनदयों के समाि इच्छाओ ं के निरन्तर प्रवाह से
नवचनलत िहीं होता और जो सदैव नस्थर रहता है, वही शानन्त प्राप्त कर सकता है, वह िहीं, जो ऐसी इच्छाओ ं
को तष्टु करिे की चेष्ठा करता हो ।

तात्पयमः यद्यमप मवशाल सागर र्ें सिैव जल रहता है, मकन्तु, वषामऋतु र्ें मवशेषतया यह अमधकामधक जल से
भरता जाता है तो भी सागर उतने पर ही मस्र्र रहता है । न तो वह मवक्षुब्ध होता है और न तट की सीर्ा का उल्लंघन
करता है । यही मस्र्मत कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त की है । जब तक र्नुष्ट्य शरीर है, तब तक इमन्द्रयतृमप्त के मलए शरीर

१०३
की र्ाँगे बनी रहेंगी । मकन्तु भक्त अपनी पूणमता के कारण ऐसी इच्छाओ ं से मवचमलत नहीं होता । कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त को मकसी वस्तु की आवश्यकता नहीं होती क्योंमक भगवान् उसकी सारी आवश्यकताएँ पूरी करते रहते हैं । अतः
वह सागर के तुल्य होता है – अपने र्ें सिैव पूणम । सागर र्ें मगरने वाली नमियों के सर्ान इच्छाएँ उसके पास आ सकती
हैं, मकन्तु वह अपने कायम र्ें मस्र्र रहता है और इमन्द्रयतृमप्त की इच्छा से रंचभर भी मवचमलत नहीं होता ।
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त का यही प्रर्ाण है – इच्छाओ ं के होते हुए भी वह कभी इमन्द्रयतृमप्त के मलए उन्र्ख ु नहीं
होता । चँमू क वह भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें तुष्ट रहता है, अतः वह सर्द्रु की भाँमत मस्र्र रहकर पूणम शामन्त का
आनन्ि उिा सकता है । मकन्तु िसू रे लोग, जो र्मु क्त की सीर्ा तक इच्छाओ ं की पमू तम करना चाहते हैं, मिर भौमतक
सिलताओ ं का क्या कहना – उन्हें कभी शामन्त नहीं मर्ल पाती । कर्ी, र्र्ु क्ष ु ु तर्ा वे योगी– मसमद्ध के कार्ी हैं, ये
सभी अपणू म इच्छाओ ं के कारण िख ु ी रहते हैं । मकन्त ु कृ ष्ट्णभावनाभामवत परु
ु ष भगवत्से वा र्ें सख
ु ी रहता है और उसकी
कोई इच्छा नहीं होती । वस्तुतः वह तो तर्ाकमर्त भवबन्धन से र्ोक्ष की भी कार्ना नहीं करता । कृ ष्ट्ण के भक्तों की
कोई भौमतक इच्छा नहीं रहती, इसमलए वह पूणम शान्त रहते हैं ।

नवहाय कामान्यः सवामन्पुमांश्र्चरनत निःस्पृहः ।


निमममो निरहङकारः स शानन्तमनधगच्छनत ।। ७१ ।।

नवहाय– छोड़कर; कामाि्– इमन्द्रयतृमप्त की भौमतक इच्छाएँ; यः– जो; सवामि–् सर्स्त; पुमाि्–
परुु ष; चरनत– रहता है; निःस्पृहः– इच्छारमहत; निमममः– र्र्तारमहत; निरहङकार– अहक ं ारशन्ू य; सः–
वह; शानन्तम्– पूणम शामन्त को; अनधगच्छनत– प्राप्त होता है ।

नजस व्यनि िे इनन्द्रयतृनप्त की समस्त इच्छाओ ं का पररत्याग कर नदया है, जो इच्छाओ ं से रनहत रहता
है और नजसिे सारी ममता त्याग दी है तथा अहंकार से रनहत है, वही वास्तनवक को शानन्त प्राप्त कर सकता
है ।

तात्पयमःस्नस्पृह होने का अर्म है – इमन्द्रयतृमप्त के मलए कुछ भी इच्छा न करना । िसू रे शब्िों र्ें,
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने की इच्छा वास्तव र्ें इच्छाशन्ू यता या मनस्पृहता है । इस शरीर को मर्थ्या ही आत्र्ा र्ाने मबना
तर्ा संसार की मकसी वस्तु र्ें कमल्पत स्वामर्त्व रखे मबना श्रीकृ ष्ट्ण के मनत्य िास के रूप र्ें अपनी यर्ार्म मस्र्मत को
जान लेना कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मसद्ध अवस्र्ा है । जो इस मसद्ध अवस्र्ा र्ें मस्र्त है वह जानता है मक श्रीकृ ष्ट्ण ही
प्रत्येक वस्तु के स्वार्ी हैं, अतः प्रत्येक वस्तु का उपयोग उनकी तुमष्ट के मलए मकया जाना चामहए । अजुमन आत्र्-तुमष्ट
के मलए युद्ध नहीं करना चाहता र्ा, मकन्तु जब वह पूणम रूप से कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो गया तो उसने युद्ध मकया, क्योंमक
कृ ष्ट्ण चाहते र्े मक वह युद्ध करे । उसे अपने मलए युद्ध करने की कोई इच्छा न र्ी, मकन्तु वही अजुमन कृ ष्ट्ण के मलए
अपनी शमक्त भर लड़ा । वास्तमवक इच्छाशन्ू यता कृ ष्ट्ण-तमु ष्ट के मलए इच्छा है, यह इच्छाओ ं को नष्ट करने का कोई
कृ मत्रर् प्रयास नहीं है । जीव कभी भी इच्छाशन्ू य या इमन्द्रयशन्ू य नहीं हो सकता, मकन्तु उसे अपनी इच्छाओ ं की
गणु वत्ता बिलनी होती है । भौमतक दृमष्ट से इच्छाशन्ू य व्यमक्त जानता है मक प्रत्येक वास्तु कृ ष्ट्ण की है (ईशावास्यस्मर्ां
सवदम)् , अतः वह मकसी वस्तु पर अपना स्वामर्त्व घोमषत नहीं करता । यह मिव्य ज्ञान आत्र्-साक्षात्कार पर आधाररत

१०४
है – अर्ामत् इस ज्ञान पर मक प्रत्येक जीव कृ ष्ट्ण का अंश-स्वरूप है और जीव की शाश्र्वत मस्र्मत कभी न तो कृ ष्ट्ण के
तुल्य होती है न उनसे बढ़कर । इस प्रकार कृ ष्ट्णभावनार्ृत का यह ज्ञान ही वास्तमवक शामन्त का र्ल
ू मसद्धान्त है ।

एषा ब्राह्मी नस्थनतः पाथम िैिां प्राप्य नवमुह्यनत ।


नस्थत्वास्यामन्तकालेऽनप ब्रह्मनिवामणमृच्छनत ।। ७२ ।।

एषा– यह; ब्राह्मी– आध्यामत्र्क; नस्थनतः– मस्र्मत; पाथम– हे पृर्ापुत्र; ि– कभी नहीं; एिाम्–
इसको; प्राप्य– प्राप्त करके ; नवमुह्यनत– र्ोमहत होता है; नस्थत्वा– मस्र्त होकर; अस्याम्– इसर्ें; अन्त-काले–
जीवन के अमन्तर् सर्य र्ें; अनप– भी; ब्रह्म-निवामणम्– भगवद्धार् को; ऋच्छनत– प्राप्त होता है ।

यह आध्यानत्मक तथा ईश्र्वरीय जीवि का पथ है, नजसे प्राप्त करके मिुष्ट्य मोनहत िहीं होता । यनद
कोई जीवि के अनन्तम समय में भी इस तरह नस्थत हो, तो वह भगवद्धाम को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत या मिव्य जीवन को एक क्षण र्ें प्राप्त कर सकता है और हो सकता है मक उसे
लाखों जन्र्ों के बाि भी न प्राप्त हो । यह तो सत्य सर्झने और स्वीकार करने की बात है । खट्वांग र्हाराज ने अपनी
र्ृत्यु के कुछ मर्नट पूवम कृ ष्ट्ण के शरणागत होकर ऐसी जीवन अवस्र्ा प्राप्त कर ली । स्नवादण का अर्म है –
भौमतकतावािी जीवन शैली का अन्त । बौद्ध िशमन के अनुसार इस भौमतक जीवन के पूरा होने पर के वल शन्ू य शेष रह
जाता है, मकन्तु भगवद्गीता की मशक्षा इससे मभन्न है । वास्तमवक जीवन का शभु ारम्भ इस भौमतक जीवन के पूरा होने
पर होता है । स्र्ूल भौमतकतावािी के मलए यह जानना पयामप्त होगा मक इस भौमतक जीवन का अन्त मनमश्चत है, मकन्तु
अध्यामत्र्क दृमष्ट से उन्नत व्यमक्तयों के मलए इस जीवन के बाि अन्य जीवन प्रारम्भ होता है । इस जीवन का अन्त होने
से पूवम यमि कोई कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो जाय तो उसे तुरन्त ब्रह्म-स्नवादण अवस्र्ा प्राप्त हो जामत है । भगवद्धार् तर्ा
भगवद्भमक्त के बीच कोई अन्तर नहीं है । चँमू क िोनों चरर् पि हैं, अतः भगवान् की मिव्य प्रेर्ीभमक्त र्ें व्यस्त रहने का
अर्म है – भगवद्धार् को प्राप्त करना । भौमतक जगत र्ें इमन्द्रयतृमप्त मवषयक कायम होते हैं और आध्यामत्र्क जगत् र्ें
कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवषयक । इसी जीवन र्ें ही कृ ष्ट्णभावनार्ृत की प्रामप्त तत्काल ब्रह्मप्रामप्त जैसी है और जो
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होता है, वह मनमश्चत रूप से पहले ही भगवद्धार् र्ें प्रवेश कर चक
ु ा होता है ।
ब्रह्म और भौमतक पिार्म एक िसू रे से सवमर्ा मवपरीत हैं । अतः ब्राह्मी-स्स्थस्त का अर्म है, “भौमतक कायों के पि
पर न होना ।” भगवद्गीता र्ें भगवद्भमक्त को र्क्त ु अवस्र्ा र्ाना गया है (स गुनान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभयू ाय ल्पते) ।
अतः ब्राह्मी-स्स्थस्त भौमतक बन्धन से र्मु क्त है ।
श्रील भमक्त मवनोि िाकुर ने भगवद्गीता के इस मद्वतीय अध्याय को सम्पूणम ग्रंर् के प्रमतपाद्य मवषय के रूप र्ें
संमक्षप्त मकया है । भगवद्गीता के प्रमतपाद्य हैं – कर्मयोग, ज्ञानयोग तर्ा भमक्तयोग । इस मद्वतीय अध्याय र्ें कर्मयोग तर्ा
ज्ञानयोग की स्पष्ट व्याख्या हुई है एवं भमक्तयोग की भी झाँकी िे िी गई है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े स्ितीय अध्याय ”गीता ा सार” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

१०५
अध्याय तीि
कममयोग
अजुमन उवाच
जयायसी चेत्कममणस्ते मता बुनद्धजमिादमि ।
तनत्कं कममनण घोरे मां नियोजयनस के शव ।। १ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; जयायसी– श्रेि; चेत–् यमि; कममणः– सकार् कर्म की अपेक्षा; ते– तुम्हारे
द्वारा; मता– र्ानी जाती है; बुनद्धः– बुमद्ध; जिादमि– हे कृ ष्ट्ण; तत्– अतः; नकम्– क्यों मिर; कममनण– कर्म र्ें; घोरे–
भयंकर, महसं ात्र्क; माम्– र्झु को; नियोजयनस– मनयुक्त करते हो; के शव– हे कृ ष्ट्ण ।

अजमिु िे कहा – हे जिादमि, हे के शव! यनद आप बनु द्ध को सकाम कमम से श्रेष्ठ समझते हैं तो निर आप
मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगािा चाहते हैं?

तात्पयम : श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण ने मपछले अध्याय र्ें अपने घमनष्ट मर्त्र अजुमन को संसार के शोक-सागर से उबारने के
उद्देश्य से आत्र्ा के स्वरूप का मवशि् वणमन मकया है और आत्र्-साक्षात्कार के मजस र्ागम की संस्तुमत की है वह है –
बुमद्धयोग या कृ ष्ट्णभावनार्ृत । कभी-कभी कृ ष्ट्णभावनार्ृत को भल ू से जड़ता सर्झ मलया जाता है और ऐसी भ्रान्त
धारणा वाला र्नुष्ट्य भगवान् कृ ष्ट्ण के नार्-जप द्वारा पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने के मलए प्रायः एकान्त स्र्ान र्ें
चला जाता है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत-िशमन र्ें प्रमशमक्षत हुए मबना एकान्त स्र्ान र्ें कृ ष्ट्ण नार्-जप करना िीक नहीं ।
इससे अबोध जनता से के वल सस्ती प्रशंसा प्राप्त हो सके गी । अजुमन को भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत या बुमद्धयोग ऐसा लगा
र्ानो वह समक्रय जीवन से संन्यास लेकर एकान्त स्र्ान र्ें तपस्या का अभ्यास हो । िसू रे शब्िों र्ें, वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत
को बहाना बनाकर चातुरीपूवमक युद्ध से जी छुड़ाना चाहता र्ा । मकन्तु एकमनि मशष्ट्य के नाते उसने यह बात अपने गुरु
के सर्क्ष रखी और कृ ष्ट्ण से सवोत्तर् कायम-मवमध के मवषय र्ें प्रश्न मकया । उत्तर र्ें भगवान् ने तृतीय अध्याय र्ें कर्मयोग
अर्ामत् कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म की मवस्तृत व्याख्या िी ।

व्यानमश्रेणेव वाक्येि बुनद्धं मोहयसीव मे ।


तदेकं वद निनश्र्चत्य येि श्रेयोऽहमाप्िुयाम् ।। २ ।।

व्यानमश्रेण– अनेकार्मक; इव– र्ानो; वाक्येि– शब्िों से; बुनद्धम्– बुमद्ध; मोहयनस– र्ोह रहे हो; इव–
र्ानो; मे– र्ेरी; तत्– अतः; एकम्– एकर्ात्र; वाद– कमहये; निनश्र्चत्य– मनश्चय करके ; येि– मजससे; श्रेयः–
वास्तमवक लाभ; अहम्– र्ैं; आप्िुयाम्– पा सकँू ।

१०६
आपके व्यानमनश्रत (अिेकाथमक) उपदेशों से मेरी बुनद्ध मोनहत हो गई है । अतः कृ पा करके
निश्चयपूवमक मुझे बतायें नक इिमें से मेरे नलए सवामनधक श्रेयस्कर क्या होगा?

तात्पयम : मपछले अध्याय र्ें, भगवद्गीता के उपक्रर् के रूप र्े सांख्ययोग, बुमद्धयोग, बुमद्ध द्वारा इमन्द्रयमनग्रह,
मनष्ट्कार् कर्मयोग तर्ा नविीमक्षत की मस्र्मत जैसे मवमभन्न र्ागों का वणमन मकया गया है । मकन्तु उसर्ें तारतम्य नहीं
र्ा । कर्म करने तर्ा सर्झने के मलए र्ागम की अमधक व्यवमस्र्त रूपरे खा की आवश्यकता होगी । अतः अजुमन इन
भ्रार्क मवषयों को स्पष्ट कर लेना चाहता र्ा, मजससे सार्ान्य र्नष्ट्ु य मबना मकसी भ्रर् के उन्हें स्वीकार कर सके । यद्यमप
श्रीकृ ष्ट्ण वाक्चातुरी से अजुमन को चकराना नहीं चाहते र्े, मकन्तु अजुमन यह नहीं सर्झ सका मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत क्या है
– जड़ता है या मक सक्रीय सेवा । िसू रे शब्िों र्ें, अपने प्रश्नों से वह उन सर्स्त मशष्ट्यों के मलए जो भगवद्गीता के रहस्य
को सर्झना चाहते र्े, कृ ष्ट्णभावनार्ृत का र्ागम प्रशस्त कर रहा है ।

श्रीभगवानवु ाच
लोके ऽनस्मनन्द्वनवधा निष्ठा पुरा प्रोिा मयािघ ।
ज्ञाियोगेि सांख्यािां कममयोगेि योनगिाम् ।। ३ ।।

श्री-भगवाि् उवाच– श्रीभगवान ने कहा; लोके – संसार र्ें; अनस्मि्– इस; नद्व-नवधा – िो प्रकार की; निष्ठा–
श्रद्धा; पुरा– पहले; प्रोिा– कही गई; मया– र्ेरे द्वारा; अिघ– हे मनष्ट्पाप; ज्ञाि-योगेि – ज्ञानयोग के
द्वारा; सांख्यािाम्– ज्ञामनयों का; कमम-योगेि– भमक्तयोग के द्वारा; योनगिाम्– भक्तों का ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे निष्ट्पाप अजमिु ! मैं पहले ही बता चक ु ा हूँ नक आत्म-साक्षात्कार का प्रयत्ि
करिे वाले दो प्रकार के पुरुष होते हैं । कुछ इसे ज्ञाियोग द्वारा समझिे का प्रयत्ि करते हैं, तो कुछ भनि-मय
सेवा के द्वारा ।

तात्पयम : मद्वतीय अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक ने िो प्रकार की पद्धमतयों का उल्लेख मकया है – सांख्ययोग
तर्ा कर्मयोग या बुमद्धयोग । इस श्लोक र्ें इनकी और अमधक स्पष्ट मववेचना की गई है । सांख्ययोग अर्वा आत्र्ा
तर्ा पिार्म की प्रकृ मत का वैश्लेमषक अध्ययन उन लोगों के मलए है जो व्यावहाररक ज्ञान तर्ा िशमन द्वारा वस्तुओ ं का
मचन्तन एवं र्नन करना चाहते हैं । िसू रे प्रकार के लोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करते हैं जैसा मक मद्वतीय अध्याय के
इकसिवें श्लोक र्ें बताया गया है । उन्तालीसवें श्लोक र्ें भी भगवान् ने बताया है मक बुमद्धयोग या कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
मसद्धान्तों पर चलते हुए र्नुष्ट्य कर्म के बन्धनों से छूट सकता है तर्ा इस पद्धमत र्ें कोई िोष नहीं है । इकसिवें श्लोक र्ें
इसी मसद्धान्त को और अमधक स्पष्ट मकया गया है – मक बुमद्धयोग पूणमतया परब्रह्म (मवशेषतया कृ ष्ट्ण) पर आमश्रत है
और इस प्रकार से सर्स्त इमन्द्रयों को सरलता से वश र्ें मकया जा सकता है । अतः िोनों प्रकार के योग धर्म तर्ा िशमन
के रूप र्ें अन्योन्यामश्रत हैं । िशमनमवहीन धर्म र्ात्र भावक ु ता या कभी-कभी धर्ामन्धता है और धर्ममवहीन िशमन
र्ानमसक ऊहापोह है । अमन्तर् लक्ष्य तो श्रीकृ ष्ट्ण हैं क्योंमक जो िाशममनकजन परर् सत्य की खोज करते रहते हैं, वे
अन्ततः कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होते हैं । इसका भी उल्लेख भगवद्गीता र्ें मर्लता है । सम्पूणम पद्धमत का उद्देश्य
परर्ात्र्ा के सम्बन्ध र्ें अपनी वास्तमवक मस्र्मत को सर्झ लेना है । इसकी अप्रत्यक्ष पद्धमत िाशममनक मचन्तन है,

१०७
मजसके द्वारा क्रर् से कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक पहुचँ ा जा सकता है । प्रत्यक्ष पद्धमत र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें ही प्रत्येक वस्तु से
अपना सम्बन्ध जोड़ना होता है । इन िोनों र्ें से कृ ष्ट्णभावनार्ृत का र्ागम श्रेि है क्योंमक इसर्ें िाशममनक पद्धमत द्वारा
इमन्द्रयों को मवर्ल नहीं करना होता । कृ ष्ट्णभावनार्ृत स्वयं ही शद्ध
ु करने वाली प्रमक्रया है और भमक्त की प्रत्यक्ष मवमध
सरल तर्ा मिव्य होती है ।

ि कममणामिारम्भान्िैष्ट्कम्यं पुरुषोऽश्र्िुते ।
ि च सन्ं यसिादेव नसनद्धं समनधगच्छनत ।। ४ ।।

ि– नहीं; कममणाम्– मनयत कर्ों के ; अिारम्भात्– न करने से; िैष्ट्कम्यमम–् कर्मबन्धन से र्मु क्त को; परुु षः–
र्नुष्ट्य; अश्नुते– प्राप्त करता है; ि– नहीं; च– भी; संन्यसिात्– त्याग से; एव– के वल; नसनद्धम्–
सिलता; समनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

ि तो कमम से नवमुख होकर कोई कममिल से छुटकारा पा सकता है और ि के वल संन्यास से नसनद्ध


प्राप्त की जा सकती है ।

तात्पयम : भौमतकतावािी र्नुष्ट्यों के हृियों को मवर्ल करने के मलए मजन कर्ों का मवधान मकया गया है उनके
द्वारा शद्ध
ु हुआ र्नुष्ट्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है । शमु द्ध के मबना संन्यास ग्रहण करने से सिलता नहीं मर्ल पाती ।
ज्ञानयोमगयों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अर्वा सकार् कर्म से मवरत होने से ही र्नुष्ट्य नारायण के सर्ान हो जाता
है । मकन्तु भगवान् कृ ष्ट्ण इस र्त का अनुर्ोिन नहीं करते । हृिय की शमु द्ध के मबना संन्यास सार्ामजक व्यवस्र्ा र्ें
उत्पात उत्पन्न करता है । िसू री ओर यमि कोई मनयत कर्ों को न करके भी भगवान् की मिव्य सेवा करता है तो वह उस
र्ागम र्ें जो कुछ भी उन्नमत करता है उसे भगवान् स्वीकार कर लेते हैं (बुमद्धयोग) । स्वल्पमप्यस्य धमदस्य त्रायते महतो
भयात्। ऐसे मसद्धान्त की रंचर्ात्र सम्पन्नता भी र्हान कमिनाइयों को पार करने र्ें सहायक होती है ।

ि नह कनश्र्चत्क्षणमनप जातु नतष्ठत्यकममकृत् ।


कायमते ह्यवशः कमम सवमः प्रकृ नतजैगमुणैः ।। ५ ।।

ि– नहीं; नह– मनश्चय ही; कनश्र्चत्– कोई; क्षणम्– क्षणर्ात्र; अनप– भी; जातु– मकसी काल र्ें; नतष्ठनत–
रहता है; अकमम-कृ त्– मबना कुछ मकये; कायमते– करने के मलए बाध्य होता है; नह– मनश्चय ही; अवशः– मववश
होकर; कमम– कर्म; सवमः– सर्स्त; प्रकृ नत-जैः– प्रकृ मत के गुणों से उत्पन्न; गुणैः– गुणों के द्वारा ।

प्रत्येक व्यनि को प्रकृ नत से अनजमत गुणों के अिस


ु ार नववश होकर कमम करिा पडता है, अतः कोई भी
क्षणभर के नलए भी नबिा कमम नकये िहीं रह सकता ।

तात्पयमः यह िेहधारी जीवन का प्रश्न नहीं है, अमपतु आत्र्ा का यह स्वभाव है मक वह सिैव समक्रय रहता है ।
आत्र्ा की अनुपमस्र्मत र्ें भौमतक शरीर महल भी नहीं सकता । यह शरीर र्ृत-वाहन के सर्ान है जो आत्र्ा द्वारा

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चामलत होता है क्योंमक आत्र्ा सिैव गमतशील (सक्रीय) रहता है और वह एक क्षण के मलए भी नहीं रुक सकता ।
अतः आत्र्ा को कृ ष्ट्णभावनार्ृत के सत्कर्म र्ें प्रवृत्त रखना चामहए अन्यर्ा वह र्ाया द्वारा शामसत कायों र्ें प्रवृत्त होता
रहेगा । र्ाया के संसगम र्ें आकर आत्र्ा भौमतक गुण प्राप्त कर लेता है और आत्र्ा को ऐसे आकषमणों से शुद्ध करने
के मलए यह आवश्यक है मक शास्त्रों द्वारा आमिष्ट कर्ों र्ें इसे संलग्न रखा जाय । मकन्तु यमि आत्र्ा
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अपने स्वभामवक कर्म र्ें मनरत रहता है, तो वह जो भी करता है उसके मलए कल्याणप्रि होता
है । श्रीमद्भागवत (१.५.१७) द्वारा इसकी पुमष्ट हुई है –
त्यक्तत्वा स्वधमं चरणाम्बजु ां हरे भदजन्नपक्त ोऽथ पतेत्ततो यस्र् ।
यत्र क्त वाभद्रमभर्ू मष्ु य स् ां ो वाथद आप्तोऽभजताां स्वधमदतः ।।
“यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत अगं ीकार कर लेता है तो भले ही वह शास्त्रानर्ु ोमित कर्ों को न करे अर्वा िीक से
भमक्त न करे और चाहे वह पमतत भी हो जाय तो इसर्ें उसकी हामन या बुराई नहीं होगी । मकन्तु यमि वह शास्त्रानुर्ोमित
सारे कायम करे और कृ ष्ट्णभावनाभामवत न हो तो ये सारे कायम उसके मकस लाभ के हैं?”अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत के इस
स्तर तक पहुचँ ने के मलए शुमद्धकरण की प्रमक्रया आवश्यक है । अतएव संन्यास या कोई भी शमु द्धकारी पद्धमत
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के चरर् लक्ष्य तक पहुचँ ने र्ें सहायता िेने के मलए है, क्योंमक उसके मबना सब कुछ व्यर्म है ।

कमेनन्द्रयानण संयम्य य आस्ते मिसा स्मरि् ।


इनन्द्रयाथामनन्वमूढात्मा नमथ्याचारः स उच्यते ।। ६ ।।

कमम-इनन्द्रयानण– पाँचो कर्ेमन्द्रयों को; संयम्य– वश र्ें करके ; यः– जो; आस्ते– रहता है; मिसा– र्न
से; स्मरि्– सोचता हुआ; इनन्द्रय-अथामि–् िम्भी;नवमूढ– र्ख ू म;आत्मा – जीव;नमथ्या-आचारः– िम्भी;सः–
वह; उच्यते– कहलाता है ।

जो कमेनन्द्रयों को वश में तो करता है, नकन्तु नजसका मि इनन्द्रयनवषयों का नचन्ति करता रहता है, वह
निनश्चत रूप से स्वयं को धोखा देता है और नमथ्याचारी कहलाता है ।

तात्पयम : ऐसे अनेक मर्त्याचारी व्यमक्त होते हैं जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम तो नहीं करते, मकन्तु ध्यान का
मिखावा करते हैं, जबमक वात्सव र्ें वे र्न र्ें इमन्द्रयभोग का मचन्तन करते रहते हैं । ऐसे लोग अपने अबोध मशष्ट्यों के
बहकाने के मलए शष्ट्ु क िशमन के मवषय र्ें भी व्याख्यान िे सकते हैं, मकन्तु इस श्लोक के अनुसार वे सबसे बड़े धतू म हैं ।
इमन्द्रयसुख के मलए मकसी भी आश्रर् र्ें रहकर कर्म मकया जा सकता है , मकन्तु यमि उस मवमशष्ट पि का उपयोग
मवमधमवधानों के पालन र्ें मलया जाय तो व्यमक्त की क्रर्शः आत्र्शुमद्ध हो सकती है । मकन्तु जो अपने को योगी बताते
हुए इमन्द्रयतृमप्त के मवषयों की खोज र्ें लगा रहता है, वह सबसे बड़ा धतू म है, भले ही वह कभी-कभी िशमन का उपिेश
क्यों न िे । उसका ज्ञान व्यर्म है क्योंमक ऐसे पापी परुु ष के ज्ञान के सारे िल भगवान् की र्ाया द्वारा हर मलये जाते हैं ।
ऐसे धतू म का मचत्त सिैव अशुद्ध रहता है अतएव उसके यौमगक ध्यान का कोई अर्म नहीं होता ।

यनस्त्वनन्द्रयानण मिसा नियम्यारभतेऽजमिु ।


कमेनन्द्रयैः कममयोगमसिः स नवनशष्ट्यते ।। ७ ।।

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यः– जो; तु– लेमकन; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयों को; मिसा– र्न के द्वारा; नियम्य– वश र्ें करके ; आरभते–
प्रारम्भ करता है; अजमिु – हे अजुमन; कमम-इनन्द्रयैः– कर्ेमन्द्रयों से; कमम-योगम्– भमक्त; असिः– अनासक्त; सः–
वह; नवनशष्ट्यते– श्रेि है ।

दूसरी ओर यनद कोई निष्ठावाि व्यनि अपिे मि के द्वारा कमेनन्द्रयों को वश में करिे का प्रयत्ि करता
है और नबिा नकसी आसनि के कममयोग (कृ ष्ट्णभाविामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अनत उत्कृ ष्ट है ।

तात्पयम : लम्पट जीवन और इमन्द्रयसख ु के मलए छद्म योगी का मर्थ्या वेश धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म
र्ें लगे रह कर जीवन-लक्ष्य को, जो भवबन्धन से र्क्त ु होकर भगवद्धार् को जाना है, प्राप्त करने के मलए कर्म करते
रहना श्रेयस्कर है । प्रर्ख ु स्वार्म-गमत तो मवष्ट्णु के पास जाना है । सम्पूणम वणामश्रर्-धर्म का उद्देश्य इसी जीवन-लक्ष्य की
प्रामप्त है । एक गृहस्र् भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनयमर्त सेवा करके लक्ष्य तक पहुचँ सकता है । आत्र्-साक्षात्कार के मलए
र्नुष्ट्य शास्त्रानुर्ोमित संयमर्त जीवन मबता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कायम करता रह सकता है । इस
प्रकार वह प्रगमत कर सकता है । जो मनिावान व्यमक्त इस मवमध का पालन करता है वह उस पाखंडी (धतू म) से कहीं श्रेि
है और जो अबोध जनता को िगने के मलए मिखावटी अध्यामत्र्कता का जार्ा धारण करता है । जीमवका के मलए
ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाड़़ू लगाने वाला मनिावान व्यमक्त कहीं अच्छा है ।

नियतं कुरु कमम त्वं कमम जयायो ह्यकममणः ।


शरीरयात्रानप च ते ि प्रनसद्धयेदकममणः ।। ८ ।।

नियतम् – मनयत; कुरु– करो; कमम– कतमव्य; त्वम्– तुर्; कमम– कर्म करना; जयायः– श्रेि; नह– मनश्चय
ही; अकममणः– कार् न करने की अपेक्षा; शरीर– शरीर का; यात्रा– पालन, मनवामह; अनप– भी; च– भी; ते–
तुम्हारा; ि– कभी नहीं; प्रनसद्धयेत–् मसद्ध होता; अकममणः– मबना कार् के ।

अपिा नियत कमम करो, क्योंनक कमम ि करिे की अपेक्षा कमम करिा श्रेष्ठ है । कमम के नबिा तो शरीर-
निवामह भी िहीं हो सकता ।

तात्पयम : ऐसे अनेक छद्म ज्ञानी हैं जो अपने आप को उच्चकुलीन बताते हैं तर्ा ऐसे बड़े-बड़े व्यवसायी व्यमक्त
हैं जो झिू ा मिखावा करते हैं मक आध्यामत्र्क जीवन र्ें प्रगमत करने के मलए उन्होंने सवमस्व त्याग मिया है । श्रीकृ ष्ट्ण यह
नहीं चाहते र्े मक अजुमन मर्थ्याचारी बने, अमपतु वे चाहते र्े मक अजुमन क्षमत्रयों के मलए मनमिमष्ट धर्म का पालन करे ।
अजमनु गृहस्र् र्ा और एक सेनानायक र्ा, अतः उसके मलए श्रेयस्कर र्ा मक वह उसी रूप र्ें गृहस्र् क्षमत्रय के मलए
मनमिमष्ट धामर्मक कतमव्यों का पालन करे । ऐसे कायों से संसारी र्नुष्ट्य का हृिय क्रर्शः मवर्ल हो जाता है और वह
भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो जाता है । िेह-मनवामह के मलए मकये गए तर्ाकमर्त त्याग (सन्ं यास) का अनर्ु ोिन न तो
भगवान् करते हैं और न कोई धर्मशास्त्र ही । आमखर िेह-मनवामह के मलए कुछ न कुछ करना होता है । भौमतकतावािी
वासनाओ ं की शुमद्ध के मबना कर्म का र्नर्ाने ढगं से त्याग करना िीक नहीं । इस जगत् का प्रत्येक व्यमक्त मनश्चय ही

११०
प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने के मलए अर्ामत् इमन्द्रयतृमप्त के मलए र्मलन प्रवृमत्त से ग्रस्त रहता है । ऐसी िमू षत प्रवृमत्तयों को
शद्ध
ु करने की आवश्यकता है । मनयत कर्ों द्वारा ऐसा मकये मबना र्नुष्ट्य की चामहए मक तर्ाकमर्त अध्यात्र्वािी
(योगी) बनने तर्ा सारा कार् छोड़ कर अन्यों पर जीमवत रहने का प्रयास न करे ।

यज्ञाथामत्कममणोऽन्यत्र लोकोऽयं कममबन्धिः ।


तदथं कमम कौन्तेय मुिसङगः समाचर ।। ९ ।।

यज्ञ-अथामत–् एकर्ात्र यज्ञ या मवष्ट्णु के मलए मकया गया; कममणः– कर्म की अपेक्षा; अन्यत्र–
अन्यर्ा; लोकः– ससं ार; अयम्– यह;कमम-बन्धिः – कर्म के कारण बन्धन; तत्– उस; अथमम–् के मलए; कमम–
कर्म; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; र्क्त
ु -सङगः– सङ् गः (िलाकांक्षा) से र्क्त
ु ; समाचर– भलीभाँमत आचरण करो ।

श्रीनवष्ट्णु के नलए यज्ञ रूप में कमम करिा चानहए, अन्यथा कमम के द्वारा इस भौनतक जगत् में बन्धि
उत्पन्ि होता है । अतः हे कुन्तीपुत्र! उिकी प्रसन्िता के नलए अपिे नियत कमम करो । इस तरह तुम बन्धि से
सदा मुि रहोगे ।

तात्पयम : चँमू क र्नुष्ट्य को शरीर के मनवामह के मलए कर्म करना होता है, अतः मवमशष्ट सार्ामजक मस्र्मत तर्ा
गुण को ध्यान र्ें रखकर मनयत कर्म इस तरह बनाये गए हैं मक उस उद्देश्य की पूमतम हो सके । यज्ञ का अर्म भगवान् मवष्ट्णु
है । सारे यज्ञ भगवान् मवष्ट्णु की प्रसन्नता के मलए हैं । वेिों का आिेश है – यज्ञो वै स्वष्णःु । िसु रे शब्िों र्ें, चाहे कोई
मनमिमष्ट यज्ञ सम्पन्न करे या प्रत्यक्ष रूप से भगवान मवष्ट्णु की सेवा करे , िोनों से एक ही प्रयोजन मसद्ध होता है, अतः
जैसा मक इस श्लोक र्ें सस्ं ततु मकया गया है, कृ ष्ट्णभावनार्ृत यज्ञ ही है । वणामश्रर्-धर्म का भी उद्देश्य भगवान् मवष्ट्णु को
प्रसन्न करना है । वनादश्रमाचारवता पुरुषेण परः पुमान् । स्वष्णरु ाराध्यते (स्वष्णु पुराण ३.८.८) ।
अतः भगवान् मवष्ट्णु की प्रसन्नता की मलए कर्म करना चामहए । इस जगत् र्ें मकया जाने वाला अन्य कोई कर्म
बन्धन का कारण होगा, क्योंमक अच्छे तर्ा बुरे कर्ों के िल होते हैं और कोई भी िल कर्म करने वाले को बाँध लेता
है । अतः कृ ष्ट्ण (मवष्ट्ण)ु को प्रसन्न करने के मलए कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना होगा और जब कोई ऐसा कर्म करता है तो
वह र्क्त
ु िशा को प्राप्त रहता है । यही र्हान कर्म कौशल है और प्रारम्भ र्ें इस मवमध र्ें अत्यन्त कुशल र्ागमिशमन की
आवश्यकता होती है । अतः भगवद्भक्त के मनिेशन र्ें या साक्षात् भगवान् कृ ष्ट्ण के प्रत्यक्ष आिेश के अन्तगमत (मजनके
अधीन अजुमन को कर्म करने का अवसर मर्ला र्ा) र्नुष्ट्य को पररश्रर्पूवमक कर्म करना चामहए । इमन्द्रयतृमप्त के मलए
कुछ भी नहीं मकया जाना चामहए, अमपतु हर कायम कृ ष्ट्ण की प्रसन्नता (तुमष्ट) के मलए होना चामहए । इस मवमध से न
के वल बन्धन से बचा जा सकता है, अमपतु इससे र्नुष्ट्य को क्रर्शः भगवान् की वह प्रेर्भमक्त प्राप्त हो सके गी, जो
भगवद्धार् को ले जाने वाली है ।

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापनतः ।


अिेि प्रसनवष्ट्यध्वमेष वोऽनस्तवष्टकामधक ु ् ।। १० ।।

१११
सह– के सार्; यज्ञाः– यज्ञों; प्रजाः– सन्तमतयों; सृष्ट्वा– रच कर; पुरा– प्राचीन काल र्ें; उवाच–
कहा; प्रजापनतः– जीवों के स्वार्ी ने; अिेि– इससे; प्रसनवष्ट्यध्वम्– अमधकामधक सर्ृद्ध होओ; एषः– यह; वः–
तुम्हारा; अस्त–ु होए; इष्ट– सर्स्त वांमछत वस्तुओ ं का; काम-धुक्– प्रिाता ।

सृनष्ट के प्रारम्भ में समस्त प्रानणयों के स्वामी (प्रजापनत) िे नवष्ट्णु के नलए यज्ञ सनहत मिुष्ट्यों तथा
देवताओ ं की सन्तनतयों को रचा और उिसे कहा, “तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंनक इसके करिे से तुम्हें
सखु पवू मक रहिे तथा मनु ि प्राप्त करिे के नलए समस्त वानं छत वस्तएु ूँ प्राप्त हो सकें गी ।”

तात्पयम : प्रामणयों के स्वार्ी (मवष्ट्ण)ु द्वारा भौमतक सृमष्ट की रचना बद्धजीवों के मलए भगवद्धार् वापस जाने का
सुअवसर है । इस सृमष्ट के सारे मजव प्रकृ मत द्वारा बद्ध हैं क्योंमक उन्होंने श्रीभगवान् मवष्ट्णु या कृ ष्ट्ण के सार् सम्बन्ध को
भल ु ा मिया है । इस शाश्र्वत सम्बन्ध को सर्झने र्ें वैमिक मनयर् हर्ारी सहायता के मलए हैं, जैसा मक भगवद्गीता र्ें
कहा गया है – वेर्ैश्र्च सवैरहमेव वेयः। भगवान् का कर्न है मक वेिों का उद्देश्य र्झु े सर्झना है । वैमिक स्तुमतयों र्ें
कहा गया है – पस्तां स्वश्र्वस्यात्मेश्र्वरम्। अतः जीवों के स्वार्ी (प्रजापमत) श्रीभगवान् मवष्ट्णु हैं । श्रीमद्भागवत र्ें भी
(२.४.२०) श्रील शक ु िेव गोस्वार्ी ने भगवान् को अनेक रूपों र्ें पमत कहा है –
स्श्रयः पस्तयदज्ञपस्तः प्रजापस्तस्धदयाां पस्तलो पस्तधदरापस्तः ।
पस्तगदस्तश्र्चान्ध वृस्ष्णसात्वताां प्रसीर् ताां मे भगवान् सताां पस्तः ।।
प्रजापमत तो भगवान् मवष्ट्णु हैं और वे सर्स्त प्रामणयों के , सर्स्त लोकों के तर्ा सुन्िरता के स्वार्ी (पमत) हैं
और हर एक के त्राता हैं । भगवान् ने इस भौमतक जगत् को इसीमलए रचा मक बद्धजीव यह सीख सकें मक वे मवष्ट्णु को
प्रसन्न करने के मलए मकस प्रकार यज्ञ करें मजससे वे इस जगत् र्ें मचन्तारमहत होकर सुखपूवमक रह सकें तर्ा इस
भौमतक िेह का अन्त होने पर भगवद्धार् को जा सकें । बद्धजीव के मलए ही यह सम्पणू म कायमक्रर् है । यज्ञ करने से
बद्धजीव क्रर्शः कृ ष्ट्णभावनाभामवत होते हैं और सभी प्रकार से िेवतुल्य बनते हैं । कमलयुग र्ें वैमिक शास्त्रों ने
सक ं ीतमन-यज्ञ (भगवान् के नार्ों का कीतमन) का मवधान मकया है और इस मिव्य मवमध का प्रवतमन चैतन्य र्हाप्रभु द्वारा
इस युग के सर्स्त लोगों के उद्धार के मलए मकया गया । संकीतमन-यज्ञ तर्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अच्छा तालर्ेल
है । श्रीमद्भागवर् (११.५.३२) र्ें संकीतमन-यज्ञ के मवशेष प्रसंग र्ें, भगवान् कृ ष्ट्ण का अपने भक्तरूप (चैतन्य र्हाप्रभु
रूप) र्ें मनम्न प्रकार से उल्लेख हुआ है –
ृ ष्णवणं स्त्वषा ृ ष्णां साांगोपाांगास्त्रपाषदर्म् ।
यज्ञैः सां ीतदनप्रायैयदजस्न्त स्ह सुमेधसः ।।
“इस कमलयुग र्ें जो लोग पयामप्त बुमद्धर्ान हैं वे भगवान् की उनके पाषमिों समहत संकीतमन-यज्ञ द्वारा पूजा करें गे ।”
वेिों र्ें वमणमत अन्य यज्ञों को इस कमलयुग र्ें कर पाना सहज नहीं, मकन्तु संकीतमन-यज्ञ सुगर् है और सभी दृमष्ट से
अलौमकक है, जैसा मक भगवद्गीता र्ें भी (९.१४) संस्तुमत की गई है ।

देवान्भावयतािेि ते देवा भावयन्तु वः ।


परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ।। ११ ।।

११२
देवाि्– िेवताओ ं को; भावयता– प्रसन्न करके ; अिेि– इस यज्ञ से; ते– वे; देवाः– िेवता; भावयन्तु– प्रसन्न
करें गे; वः– तुर्को; परस्परम्– आपस र्ें; भावयन्तः– एक िसू रे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः– वर, र्ंगल; परम्–
परर्; अवाप्स्यथ– तुर् प्राप्त करोगे ।

यज्ञों के द्वारा प्रसन्ि होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्ि करेंगे और इस तरह मिुष्ट्यों तथा देवताओ ं के मध्य
सहयोग से सबों को सम्पन्िता प्राप्त होगी ।

तात्पयम : िेवतागण सांसाररक कायों के मलए अमधकारप्राप्त प्रशासक हैं । प्रत्येक जीव द्वारा शरीर धारण करने के
मलए आवश्यक वाय,ु प्रकाश, जल तर्ा अन्य सारे वर उन िेवताओ ं के अमधकार र्ें हैं, जो भगवान् के शरीर के
मवमभन्न भागों र्ें असंख्य सहायकों के रूप र्ें मस्र्त हैं । उनकी प्रसन्नता तर्ा अप्रसन्नता र्नुष्ट्यों द्वारा यज्ञ की
सम्पन्नता पर मनभमर है । कुछ यज्ञ मकन्हीं मवशेष िेवताओ ं को प्रसन्न करने के मलए होते हैं, मकन्तु तो भी सारे यज्ञों र्ें
भगवान् मवष्ट्णु को प्रर्ख ु भोक्ता की भाँमत पूजा जाता है । भगवद्गीता र्ें यह भी कहा गया है मक भगवान् कृ ष्ट्ण स्वयं
सभी प्रकार के यज्ञों के भोक्ता हैं – भोिारां यज्ञतपसाम्। अतः सर्स्त यज्ञों का र्ख्ु य प्रयोजन यज्ञपमत को प्रसन्न करना
है । जब ये यज्ञ सुचारू रूप से सम्पन्न मकये जाते हैं, तो मवमभन्न मवभागों के अमधकारी िेवता प्रसन्न होते हैं और
प्राकृ मतक पिार्ों का अभाव नहीं रहता ।
यज्ञों को सम्पन्न करने से अन्य लाभ भी होते हैं, मजनसे अन्ततः भवबन्धन से र्मु क्त मर्ल जाती है । यज्ञ से सारे
कर्म पमवत्र हो जाते हैं, जैसा मक वेिवचन है – आहारशुद्धौ सत्त्वशस्ु द्धः सत्त्वशुद्धौ ध्रवु ा स्मृस्तः स्मृस्तलम्भे सवदग्रांथीनाां
स्वप्रमोक्षः । यज्ञ से र्नुष्ट्य के खाद्यपिार्म शद्ध
ु होते हैं और शुद्ध भोजन करने से र्नुष्ट्य-जीवन शद्ध ु हो जाता है, जीवन
शद्धु होने से स्र्ृमत के सूक्ष्र्-तन्तु शद्ध
ु होते हैं और स्र्ृमत-तन्तुओ ं के शुद्ध होने पर र्नुष्ट्य र्ुमक्तर्ागम का मचन्तन कर
सकता है और ये सर् मर्लकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक पहुचँ ाते हैं, जो आज के सर्ाज के मलए सवाममधक आवश्यक है ।

इष्टान्भोगानन्ह वो देवा दास्यन्ते यज्ञभानवताः ।


तैदमत्तािप्रदायैभ्यो यो भुङिे स्तेि एव सः ।। १२ ।।

इष्टाि्– वांमछत; भोगाि्– जीवन की आवश्यकताएँ; नह– मनश्चय ही; वः– तुम्हें; देवाः– िेवतागण; दास्यन्ते–
प्रिान करें गे; यज्ञ-भानवताः– यज्ञ सम्पन्न करने से प्रसन्न होकर; तैः– उनके द्वारा; दत्ताि्– प्रित्त वस्तुएँ; अप्रदाय–
मबना भेंट मकये; एभ्यः– इन िेवताओ ं को; यः– जो; भुङ्िे - भोग करता है; स्तेिः– चोर; एव– मनश्चय ही; सः– वह ।

जीवि की नवनभन्ि आवश्यकताओ ं की पूनतम करिे वाले नवनभन्ि देवता यज्ञ सम्पन्ि होिे पर प्रसन्ि
होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओ ं की पूनतम करेंगे । नकन्तु जो इि उपहारों को देवताओ ं को अनपमत नकये
नबिा भोगता है, वह निनश्चत रूप से चोर है ।

तात्पयम : िेवतागण भगवान् मवष्ट्णु द्वारा भोग-सार्ग्री प्रिान करने के मलए अमधकृ त मकये गये हैं । अतः मनयत
यज्ञों द्वारा उन्हें अवश्य संतुष्ट करना चामहए । वेिों र्ें मवमभन्न िेवताओ ं के मलए मभन्न-मभन्न प्रकार के यज्ञों की संस्तुमत
है, मकन्तु वे सब अन्ततः भगवान् को ही अमपमत मकये जाते हैं । मकन्तु जो यह नहीं सर्झ सकता है मक भगवान् क्या हैं,

११३
उसके मलए िेवयज्ञ का मवधान है । अनुिानकताम के भौमतक गुणों के अनुसार वेिों र्ें मवमभन्न प्रकार के यज्ञों का मवधान
है । मवमभन्न िेवताओ ं की पूजा भी उसी आधार पर अर्ामत् गुणों के अनुसार की जताई है । उिाहरणार्म, र्ांसाहाररयों को
िेवी काली की पूजा करने के मलए कहा जाता है, जो भौमतक प्रकृ मत की घोर रूपा हैं और िेवी के सर्क्ष पशबु मल का
आिेश है । मकन्तु जो सतोगुणी हैं उनके मलए मवष्ट्णु की मिव्य पूजा बताई जाती है । अन्ततः सर्स्त यज्ञों का ध्येय
उत्तरोत्तर मिव्य-पि प्राप्त करना है । सार्ान्य व्यमक्तयों के मलए कर् से कर् पाँच यज्ञ आवश्यक हैं, मजन्हें पञ्चर्हायज्ञ
कहते हैं ।
मकन्तु र्नष्ट्ु य को यह जानना चामहए मक जीवन की सारी आवश्यकताएँ भगवान् के िेवता प्रमतमनमधयों द्वारा ही
पूरी की जाती हैं । कोई कुछ बना नहीं सकता । उिाहरणार्म र्ानव सर्ाज के भोजय पिार्ों को लें । इन भोजय पिार्ों र्ें
शाकाहाररयों के मलए अन्न, िल, शाक, िधू , चीनी आमि हैं और र्ांसाहाररयों के र्ासं ामि मजनर्ें से कोई भी पिार्म
र्नुष्ट्य नहीं बना सकता । एक और उिहारण लें – यर्ा उष्ट्र्ा, प्रकाश, जल, वायु आमि जो जीवन के मलए आवश्यक
हैं, इनर्ें से मकसी को बनाया नहीं जा सकता । परर्ेश्र्वर के मबना न तो प्रचरु प्रकाश मर्ल सकता है, न चाँिनी, वषाम या
प्रातःकालीन सर्ीर ही, मजनके मबना र्नुष्ट्य जीमवत नहीं रह सकता । स्पष्ट है मक हर्ारा जीवन भगवान् द्वारा प्रित्त
वस्तुओ ं पर आमश्रत है । यहाँ तक मक हर्ें अपने उत्पािन-उद्यर्ों के मलए अनेक कच्चे र्ालों की आवश्यकता होती है
यर्ा धात,ु गंधक, पारि, र्ैंगनीज तर्ा अन्य अनेक आवश्यक वस्तुएँ मजनकी पूमतम भगवान् के प्रमतमनमध इस उद्देश्य से
करते हैं मक हर् इनका सर्मु चत उपयोग करके आत्र्-साक्षात्कार के मलए अपने आपको स्वस्र् एवं पुष्ट बनायें मजससे
जीवन का चरर् लक्ष्य अर्ामत् भौमतक जीवन-संघषम से र्ुमक्त प्राप्त हो सके । यज्ञ सम्पन्न करने से र्ानव जीवन का चरर्
लक्ष्य प्राप्त हो जाता है । यमि हर् जीवन-उद्देश्य को भल ू कर भगवान् के प्रमतमनमधयों से अपनी इमन्द्रयतृमप्त के मलए
वस्तुएँ लेते रहेंगे और इस संसार र्ें अमधकामधक िँ सते जायेंगे, जो मक सृमष्ट का उद्देश्य नहीं है तो मनश्चय ही हर् चोर हैं
और इस तरह हर् प्रकृ मत के मनयर्ों द्वारा िमण्डत होंगे । चोरों का सर्ाज कभी सुखी नहीं रह सकता क्योंमक उनका कोई
जीवन-लक्ष्य नहीं होता । भौमतकतावािी चोरों का कभी कोई जीवन-लक्ष्य नहीं होता । उन्हें तो के वल इमन्द्रयतृमप्त की
मचन्ता रहती है, वे नहीं जानते मक यज्ञ मकस तरह मकये जाते हैं । मकन्तु चैतन्य र्हाप्रभु ने यह यज्ञ सम्पन्न करने की
सरलतर् मवमध का प्रवतमन मकया । यह है सक ं ीतमन-यज्ञ जो संसार के मकसी भी व्यमक्त द्वारा, जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
मसद्धान्तों को अंगीकार करता है, सम्पन्न मकया जा सकता है ।

यज्ञनशष्टानशिः सन्तो मुच्यन्ते सवमनकनल्बषैः


भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ।। १३ ।।

यज्ञ-नशष्ट– यज्ञ सम्पन्न करने के बाि ग्रहण मकये जाने वाले भोजन को; अनशिः– खाने वाले; सन्तः–
भक्तगण; मुच्यन्ते– छुटकारा पाते हैं; सवम– सभी प्रकार के ; नकनल्बषैः– पापों से; भुञ्जते– भोगते हैं; ते– वे; तु–
लेमकन; अघम्– घोर पाप; पापाः– पापीजन; ये– जो; पचनन्त– भोजन बनाते हैं; आत्म-कारणात् – इमन्द्रयसुख के
मलए ।

भगवाि् के भि सभी प्रकार के पापों से मि ु हो जाते हैं, क्योंनक वे यज्ञ में अनपमत नकये भोजि
(प्रसाद) को ही खाते हैं । अन्य लोग, जो अपिी इनन्द्रयसुख के नलए भोजि बिाते हैं, वे निनश्चत रूप से पाप
खाते हैं ।

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तात्पयम : भगवद्भक्तों या कृ ष्ट्णभावनाभामवत पुरुषों को सन्त कहा जाता है । वे सिैव भगवत्प्रेर् र्ें मनर्ग्न रहते हैं,
जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३८) कहा गया है – प्रेमाञ्जनचछुररतभस्िस्वलोचनेन सन्तः सर्ैव हृर्येषु स्वलो यस्न्त ।
सन्तगण श्रीभगवान् गोमवन्ि (सर्स्त आनन्ि के िाता), या र्क ु ु न्ि (र्मु क्त के िाता), या कृ ष्ट्ण (सबों को आकृ ष्ट
करने वाले पुरुष) के प्रगाढ़ प्रेर् र्ें र्ग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परर् पुरुष को अमपमत मकये मबना ग्रहण नहीं करते ।
िलतः ऐसे भक्त पृर्क् -पृर्क् भमक्त-साधनों के द्वारा, यर्ा श्रवण, कीतमन, स्र्रण, अचमन आमि के द्वारा यज्ञ करते रहते
हैं, मजससे वे संसार की सम्पूणम पापर्यी सगं मत के कल्र्ष से िरू रहते हैं । अन्य लोग, जो अपने मलए या इमन्द्रयतृमप्त के
मलए भोजन बनाते हैं वे न के वल चोर हैं, अमपतु सभी प्रकार के पापों को खाने वाले हैं । जो व्यमक्त चोर तर्ा पापी िोनों
हो, भला वह मकस तरह सख ु ी रह सकता है? यह सम्भव नहीं । अतः सभी प्रकार से सख ु ी रहने के मलए र्नष्ट्ु यों को पणू म
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें संकीतमन-यज्ञ करने की सरल मवमध बताई जानी चामहए, अन्यर्ा संसार र्ें शामन्त या सुख नहीं हो
सकता ।

अन्िािवनत भूतानि पजमन्यादन्िसम्भवः ।


यज्ञािवनत पजमन्यो यज्ञः कममसमुिवः ।। १४ ।।

अन्िात्– अन्न से; भवनन्त– उत्पन्न होते हैं; भूतानि– भौमतक शरीर; पजमन्यात्– वषाम से; अन्ि– अन्न
का; सम्भवः– उत्पािन; यज्ञात्– यज्ञ सम्पन्न करने से; भवनत– सम्भव होती है; पजमन्यः– वषाम; यज्ञः– यज्ञ का
सम्पन्न होना; कमम– मनयत कतमव्य से; समुिवः– उत्पन्न होता है ।

सारे प्राणी अन्ि पर आनश्रत हैं, जो वषाम से उत्पन्ि होता है । वषाम यज्ञ सम्पन्ि करिे से होती है और यज्ञ
नियत कमों से उत्पन्ि होता है ।

तात्पयम : भगवद्गीता के र्हान टीकाकार श्रील बलिेव मवद्याभषू ण इस प्रकार मलखते हैं –
ये इन्द्रायङ् गतयावस्स्थतां यज्ञां सवेश्र्वरां स्वष्णमु भ्यचयद तचछे षमश्नस्न्त तेन तद्देहयात्राां सम्पार्यस्न्त ते सन्तः सवेश्र्वरस्य
यज्ञपुरुषस्य भिाः सवदस् स्ल्बषैर् अनास्र् ालस्ववृध्र्ैर् आत्मानुभवप्रस्तबन्ध ै स्नदस्खलैः पापैस्वदमचु यन्ते। परर्ेश्र्वर, जो
यज्ञपुरुष अर्वा सर्स्त यज्ञों के भोक्ता कहलाते हैं, सभी िेवताओ ं के स्वार्ी हैं और मजस प्रकार शरीर के अंग पुरे शरीर
की सेवा करते हैं, उसी तरह सारे िेवता उनकी सेवा करते हैं । इन्द्र, चन्द्र तर्ा वरुण जैसे िेवता भगवान् द्वारा मनयुक्त
अमधकारी हैं, जो सांसाररक कायों की िेखरे ख करते हैं । सारे वेि इन िेवताओ ं को प्रसन्न करने के मलए यज्ञों का मनिेश
करते हैं, मजससे वे अन्न उत्पािन के मलए प्रचरु वायु, प्रकाश तर्ा जल प्रिान करें । जब कृ ष्ट्ण की पूजा की जाती है तो
उनके अंगस्वरूप िेवताओ ं की भी स्वतः पूजा हो जाती है, अतः िेवताओ ं की अलग से पूजा करने की आवश्यकता
नहीं होती । इसी हेतु कृ ष्ट्णभावनाभामवत भगवद्भक्त सवमप्रर्र् कृ ष्ट्ण को भोजन अमपमत करते हैं और तब खाते हैं – यह
ऐसी मवमध है मजससे शरीर का आध्यामत्र्क पोषण होता है । ऐसा करने से न के वल शरीर के मवगत पापर्य कर्मिल
नष्ट होते हैं, अमपतु शरीर प्रकृ मत के सर्स्त कल्र्षों से मनरापि हो जाता है । जब कोई छूत का रोग िै लता है तो इसके
आक्रर्ण से बचने के मलए रोगाणरु ोधी टीका लगाया जाता है । इसी प्रकार भगवान् मवष्ट्णु को अमपमत करके ग्रहण मकया
जाने वाला भोजन हर्ें भौमतक सिं षू ण से मनरापि बनाता है और जो इस मवमध का अभ्यस्त है वह भगवद्भक्त कहलाता

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है । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त, जो के वल कृ ष्ट्ण को अमपमत मकया भोजन करता है, वह उन सर्स्त मवगत भौमतक
िषू णों के िलों का सार्ना करने र्ें सर्र्म होता है,जो आत्र्-साक्षात्कार के र्ागम र्ें बाधक बनते हैं । इसके मवपरीत जो
ऐसा नहीं करता वह अपने पापपूणम कर्म को बढाता रहता है मजससे उसे सारे पापिलों को भोगने के मलए अगला शरीर
कूकरों-सूकरों के सर्ान मर्लता है । यह भौमतक जगत् नाना कल्र्षों से पूणम है और जो भी भगवान् के प्रसाि को ग्रहण
करके उनसे मनरापि हो लेता है वह उनके आक्रर्ण से बच जाता है, मकन्तु जो ऐसा नहीं करता वह कल्र्ष का लक्ष्य
बनता है ।
अन्न अर्वा शाक वास्तव र्ें खाद्य हैं । र्नष्ट्ु य मवमभन्न प्रकार के अन्न, शाक, िल आमि खाते हैं, जबमक पशु
इन पिार्ों के अमच्छष्ट को खाते हैं । जो र्नुष्ट्य र्ांस खाने के अभ्यस्त हैं उन्हें भी शाक के उत्पािन पर मनभमर रहना
पड़ता है, क्योंमक पशु शाक ही खाते हैं । अतएव हर्ें अन्ततोगत्वा खेतों के उत्पािन पर ही आमश्रत रहना है, बड़ी-बड़ी
िै क्टररयों के उत्पािन पर नहीं । खेतों का यह उत्पािन आकाश से होने वाली प्रचरु वषाम पर मनभमर करता है और ऐसी
वषाम इन्द्र, सूयम, चन्द्र आमि िेवताओ ं के द्वारा मनयमन्त्रत होती है । ये िेवता भगवान् के िास हैं । भगवान् को यज्ञों के द्वारा
सन्तुष्ट रखा जा सकता है, अतः जो इन यज्ञों को सम्पन्न नहीं करता, उसे अभाव का सार्ना करना होगा – यही प्रकृ मत
का मनयर् है । अतः भोजन के अभाव से बचने के मलए यज्ञ और मवशेष रूप से इस युग के मलए संस्तुत संकीतमन-यज्ञ,
सम्पन्न करना चामहए ।

कमम ब्रह्मोिवं नवनद्ध ब्रह्माक्षरसमुिवम् ।


तस्मात्सवमगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रनतनष्ठतम् ।। १५ ।।

कमम– कर्म; ब्रह्म– वेिों से; उिवम्– उत्पन्न; नवनद्ध– जानो; ब्रह्म– वेि; अक्षर– परब्रह्म से; समुिवम्–
साक्षात् प्रकट हुआ; तस्मात्– अतः; सवम-गतम् – सवमव्यापी; ब्रह्म– ब्रह्म; नित्यम्– शाश्र्वत रूप से; यज्ञे– यज्ञ
र्ें; प्रनतनष्ठतम्– मस्र्र ।

वेदों में नियनमत कमों का नवधाि है और ये साक्षात् श्रीभगवाि् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं । िलतः
सवमव्यापी ब्रह्म यज्ञकमों में सदा नस्थत रहता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें यज्ञार्म-कर्म अर्ामत् कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करने के मलए कर्म की आवश्यकता को भलीभाँमत
मववेमचत मकया गया है । यमि हर्ें यज्ञ-पुरुष मवष्ट्णु के पररतोष के मलए कर्म करने है तो हर्ें ब्रह्म या मिव्य वेिों से कर्म की
मिशा प्राप्त करनी होगी । अतः सारे वेि कर्ामिेशों की संमहताएँ हैं । वेिों के मनिेश के मबना मकया गया कोई भी कर्म
मवकर्म या अवैध अर्वा पापपूणम कर्म कहलाता है । अतः कर्मिल से बचने के मलए सिैव वेिों से मनिेश प्राप्त करना
चामहए । मजस प्रकार सार्ान्य जीवन र्ें राजय के मनिेश के अन्तगमत कायम करना होता है उसी प्रकार भगवान् के परर्
राजय के मनिेशन र्ें कायम करना चामहए । वेिों र्ें ऐसे मनिेश भगवान् के श्र्वास से प्रत्यक्ष प्रकट होते हैं । कहा गया है –
अस्य महतो भतू स्य स्नश्र्वस्सतम् एतर्् यर्ऋ ् र्गवेर्ो यजुवेर्ः सामवेर्ोऽथवादङ्स्गरसः ”चारों वेि – ऋग्वेि, यजुवेि,
सार्वेि तर्ा अर्वमवेि – भगवान् के श्र्वास से अद्भुत हैं ।” (बृहराण्य उपस्नषर्् ४.५.११) ब्रह्मसस्ां हता से प्रर्ामणत
होता है मक सवम शमक्तर्ान होने के कारण भगवान् अपने श्र्वास के द्वारा बोल सकते हैं, अपनी प्रत्येक इमन्द्रय के द्वारा
अन्य सर्स्त इमन्द्रयों के कायम सम्पन्न कर सकते हैं, िसू रे शब्िों र्ें, भगवान् अपनी मनःश्र्वास के द्वारा बोल सकते हैं

११६
और वे अपने नेत्रों से गभमधान कर सकते हैं । वस्तुतः यह कहा जा सकता है मक उन्होंने प्रकृ मत पर दृमष्टपात मकया और
सर्स्त जीवों को गभमस्र् मकया । इस तरह प्रकृ मत के गभम र्ें बद्धमजवों को प्रमवष्ट करने के पश्चात् उन्होंने उन्हें वैमिक ज्ञान
के रूप र्ें आिेश मिया, मजससे वे भगवद्धार् वापस जा सकें । हर्ें यह सिैव स्र्रण रखना चामहए मक प्रकृ मत र्ें सारे
बद्धजीव भौमतक भोग के मलए इच्छुक रहते हैं । मकन्तु वैमिक आिेश इस प्रकार बानाये गए हैं मक र्नुष्ट्य अपनी मवकृ त
इच्छाओ ं की पूमतम कर सकता है और तर्ाकमर्त सुखभोग पूरा करके भगवान् के पास लौट सकता है । बद्धजीवों के
मलए र्मु क्त प्राप्त करने का सुनहरा अवसर होता है, अतः उन्हें चामहए मक कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर यज्ञ-मवमध का पालन
करें । यहाँ तक मक वैमिक आिेशों का पालन नहीं करते वे भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मसद्धान्तों को ग्रहण कर सकते हैं
मजससे वैमिक यज्ञों या कर्ों की पूमतम हो जायेगी ।

एवं प्रवनतमतं चक्रं िािुवतमयतीह यः ।


आघायुररनन्द्रयारामो मोघं पाथम स जीवनत ।। १६ ।।

एवम्– इस प्रकार; प्रवनतमतम्– वेिों द्वारा स्र्ामपत; चक्रम्– चक्र; ि– नहीं; अनुवतमयमत – ग्रहण करता; इह–
इस जीवन र्ें; यः– जो; अघ-आयुः– पापपूणम जीवन है मजसका; इनन्द्रय-आरामः– इमन्द्रयासक्त; मोघम्–
वृर्ा; पाथम– हे पृर्ापुत्र (अजुमन); सः– वह; जीवनत– जीमवत रहता है ।

हे नप्रय अजमिु ! जो मािव जीवि में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थानपत यज्ञ-चक्र का पालि िहीं करता वह
निश्चय ही पापमय जीवि व्यतीत करता है । ऐसा व्यनि के वल इनन्द्रयों की तुनष्ट के नलए व्यथम ही जीनवत
रहता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें भगवान् ने ”किोर पररश्रर् करो और इमन्द्रयतृमप्त का आनन्ि लो” इस सांसाररक
मवचारधारा का मतरस्कार मकया है । अतः जो लोग इस ससं ार र्ें भोग करना चाहते हैं उन्हें उपयमक्त ु यज्ञ-चक्र का
अनुसरण करना परर्ावश्यक है । जो ऐसे मवमधमवधानों का पालन नहीं करता, अमधकामधक मतरस्कृ त होने के कारण
उसका जीवन अत्यन्त संकटपूणम रहता है । प्रकृ मत के मनयर्ानुसार यह र्ानव शरीर मवशेष रूप से आत्र्-साक्षात्कार के
मलए मर्ला है मजसे कर्मयोग, ज्ञानयोग या भमक्तयोग र्ें से मकसी एक मवमध से प्राप्त मकया जा सकता है । इन योमगयों के
मलए यज्ञ सम्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंमक ये पाप-पुण्य से परे होते हैं, मकन्तु जो लोग इमन्द्रयतृमप्त
र्ें जुटे हुए हैं उन्हें पूवोक्त यज्ञ-चक्र के द्वारा शमु द्धकरण की आवश्यकता रहती है । कर्म के अनेक भेि होते हैं । जो लोग
कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं हैं वे मनश्चय ही मवषय-परायण होते हैं, अतः उन्हें पुण्य कर्म करने की आवश्यकता होती है । यज्ञ
पद्धमत इस प्रकार सुमनयोमजत है मक मवषयोन्र्ख ु लोग मवषयों के िल र्ें िँ से मबना अपनी इच्छाओ ं की पूमतम कर सकते
हैं । संसार की सम्पन्नता हार्ारे प्रयासों पर नहीं, अमपतु परर्ेश्र्वर की पृिभमू र्-योजना पर मनभमर है, मजसे िेवता
सम्पामित करते हैं । अतः वेिों र्ें वमणमत िेवताओ ं को लमक्षत करके यज्ञ मकये जाते हैं । अप्रत्यक्ष रूप र्ें यह
कृ ष्ट्णभावनार्ृत का ही अभ्यास रहता है क्योंमक जब कोई इन यज्ञों र्ें िक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो जाता है । मकन्तु यमि ऐसे यज्ञ करने से कोई कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं हो पाता तो इसे कोरी
आचार-संमहता सर्झना चामहए । अतः र्नुष्ट्यों को चामहए मक वे आचार-संमहता तक ही अपनी प्रगमत को सीमर्त न
करें , अमपतु उसे पार करके कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त हों ।

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यस्त्वात्मरनतरेव स्यादात्मतृप्तश्र्च मािवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्य कायं ि नवद्यते ।। १७ ।।

य:—जो; तु—लेपकन; आत्म-रमत:—आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव—पनिय ही; स्यात्—रहता है;
आत्म-तृप्त:—स्वयंप्रकापशत; च—तथा; मानव:—मनुष्य; आत्ममन—अिने में; एव—के वल; च—तथा;
सन्तष्टु :—िणू ततया सन्तष्टु ; तस्य— उसका; कायपम—
् कततव्य; न—नहीं; मवद्यते—रहता है ।

नकन्तु जो व्यनि आत्मा में ही आिन्द लेता है तथा नजसका जीवि आत्म-साक्षात्कार यि ु है और
जो अपिे में ही से पूणमतया सन्तुष्ट रहता है उसके नलए कुछ करणीय (कतमव्य) िहीं होता ।

तात्पयम : जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनाभामवत है और अपने कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों से पूणमतया सन्तुष्ट रहता है उसे
कुछ भी मनयत कर्म नहीं करना होता । कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने के कारण उसके हृिय का सारा र्ैल तुरन्त धल ु जाता
है, जो हजारों-हजारों यज्ञों को सम्पन्न करने पर ही सम्भव हो पाता है । इस प्रकार चेतना के शद्ध
ु होने से र्नुष्ट्य परर्ेश्र्वर
के सार् अपने सम्बन्ध के प्रमत पूणमतया आश्र्वस्त हो जाता है । भगवत्कृ पा से उसका कायम स्वयंप्रकामशत हो जाता
है; अतएव वैमिक आिेशों के प्रमत उसका कतमव्य मनःशेष हो जाता है । ऐसा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कभी भी
भौमतक कायों र्ें रूमच नहीं लेता और न ही उसे सुरा, सुन्िरी तर्ा अन्य प्रलोभनों र्ें कोई आनन्ि मर्लता है ।

िैव तस्य कृ तेिाथो िाकृ तेिेह कश्र्चि ।


ि चास्य सवमभतू ेषु कनश्र्चदथमव्यपाश्रयः ।। १८ ।।

ि – कभी नहीं; एव– मनश्चय ही; तस्य– उसका; कृ तेि– कायमसम्पािन से; अथमः– प्रयोजन; ि– न
तो; अकृ तेि– कायम न करने से; इह– इस संसार र्ें; कश्र्चि– जो कुछ भी; ि– कभी नहीं; च– तर्ा; अस्य–
उसका; सवमभूतेष–ु सर्स्त जीवों र्ें; कनश्र्चत्– कोई; अथम– प्रयोजन; व्यपाश्रयः– शरणागत ।

स्वरुपनसद्ध व्यनि के नलए ि तो अपिे नियत कमों को करिे की आवश्यकता रह जाती है, ि ऐसा
कमम ि करिे का कोई कारण ही रहता है । उसे नकसी अन्य जीव पर निभमर रहिे की आवश्यकता भी िहीं रह
जाती ।

तात्पयम : स्वरुपमसद्ध व्यमक्त को कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म के अमतररक्त कुछ भी करना नहीं होता । मकन्तु यह
कृ ष्ट्णभावनार्ृत मनमष्ट्क्रयता भी नहीं है, जैसा मक अगले श्लोकों र्ें बताया जाएगा । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त मकसी की
शरण ग्रहण नहीं करता – चाहे वह र्नुष्ट्य हो या िेवता । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें वह जो भी करता है मक उसके कतमव्य-
सम्पािन के मलए पयामप्त है ।

तस्मादसिः सततं कायं कमम समाचार ।

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असिो ह्याचरन्कमम परमाप्िोनत पुरुषः ।। १९ ।।

तस्मात्—अत:; असक्त:—आसपक्तरपहत; सततम्—पनरन्तर; कायपम—


् कततव्य के रूि में; कमप—कायत;
समाचर—करो; असक्त:—अनासक्त; मह—पनिय ही; आचरन्— करते हुए; कमप—कायत; परम्—िरब्रह्म को;
आप्नोमत—प्राप्त करता है; पूरुष:— िुरुर्, मनुष्य ।

अतः कममिल में आसि हुए नबिा मिष्ट्ु य को अपिा कतमव्य समझ कर निरन्तर कमम करते रहिा
चानहए क्योंनक अिासि होकर कमम करिे से परब्रह्म (परम) की प्रानप्त होती है ।

तात्पयम : भक्तों के मलए श्रीभगवान् परर् हैं और मनमवमशेषवामियों के मलए र्मु क्त परर् है । अतः जो व्यमक्त
सर्मु चत पर्प्रिशमन पाकर और कर्मिल से अनासक्त होकर कृ ष्ट्ण के मलए या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करता है, वह
मनमश्चत रूप से जीवन-लक्ष्य की ओर प्रगमत करता है । अजुमन से कहा जा रहा है मक वह कृ ष्ट्ण के मलए कुरुक्षेत्र के युद्ध
र्ें लड़े क्योंमक कृ ष्ट्ण की इच्छा है मक वह ऐसा करे । उत्तर् व्यमक्त होना या अमहंसक होना व्यमक्तगत आसमक्त है, मकन्तु
िल की आसमक्त से रमहत होकर कायम करना परर्ात्र्ा के मलए कायम करना है । यह उच्चतर् कोमट का पूणम कर्म
है, मजसकी संस्तुमत भगवान् कृ ष्ट्ण ने की है ।
मनयत यज्ञ, जैसे वैमिक अनुिान, उन पापकर्ों की शमु द्ध के मलए मकये जाते हैं जो इमन्द्रयतृमप्त के उद्देश्य से मकये
गए हों । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें जो कर्म मकया जाता है वह अच्छे या बुरे कर्म के िलों से परे है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त र्ें िल के प्रमत लेशर्ात्र आसमक्त नहीं रहती, वह तो के वल कृ ष्ट्ण के मलए कायम करता है । वह सर्स्त प्रकार के
कर्ों र्ें रत रह कर भी पूणमतया अनासक्त रहता है ।

कममणैव नह संनसनद्धमानस्थता जिकादयः ।


लोकसग्रहमेवानप सम्पश्यन्कतमुमहमनस ।। २० ।।

कममणा– कर्म से; एव– ही; नह– मनश्चय ही; संनसनद्धम्– पूणमता र्ें; आनस्थताः– मस्र्त; जिक-आदयः–
जनक तर्ा अन्य राजा; लोक-सङ् ग्रहम्– सार्ान्य लोग; एवअनप– भी; सम्पश्यि्– मवचार करते हुए; कतममु –् करने
के मलए; अहमनस– योग्य हो ।

जिक जैसे राजाओ ं िे के वल नियत कमों को करिे से ही नसनद्ध प्राप्त की । अतः सामान्य जिों को
नशनक्षत करिे की दृनष्ट से तुम्हें कमम करिा चानहए ।

तात्पयम: जनक जैसे राजा स्वरुपमसद्ध व्यमक्त र्े, अतः वे वेिानुर्ोमित कर्म करने के मलए बाध्य न र्े । तो भी वे
लोग सार्ान्यजनों के सर्क्ष आिशम प्रस्तुत करने के उद्देश्य से सारे मनयत कर्म करते रहे । जनक सीताजी के मपता तर्ा
भगवान् श्रीरार् के ससरु र्े । भगवान् के र्हान भक्त होने के कारण उनकी मस्र्मत मिव्य र्ी, मकन्तु चँमू क वे मर्मर्ला (जो
भारत के मबहार प्रान्त र्ें एक परगना है) के राजा र्े, अतः उन्हें अपनी प्रजा को यह मशक्षा िेनी र्ी मक कतमव्य-पालन
मकस प्रकार मकया जाता है । भगवान् कृ ष्ट्ण तर्ा उनके शाश्र्वत सखा अजुमन को कुरुक्षेत्र के युद्ध र्ें लड़ने की कोई

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आवश्यकता नहीं र्ी, मकन्तु उन्होंने जनता को यह मसखाने के मलए युद्ध मकया मक जब सत्परार्शम असिल हो जाते हैं
तो ऐसी मस्र्मत र्ें महसं ा आवश्यक हो जाती है । कुरुक्षेत्र युद्ध से पूवम युद्ध-मनवारण के मलए भगवान् तक ने सारे प्रयास
मकये, मकन्तु िसू रा पक्ष लड़ने पर तुला र्ा । अतः ऐसे सद्धर्म के मलए युद्ध करना आवश्यक र्े । यद्यमप
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त को संसार र्ें कोई रूमच हो सकती तो भी वह जनता को यह मसखाने के मलए मक मकस तरह
रहना और कायम करना चामहए, कर्म करता रहता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अनुभवी व्यमक्त इस तरह कायम करते हैं मक अन्य
लोग उनका अनुसरण कर सकें और इसकी व्याख्या अगले श्लोक र्ें की गई है ।

यद्यदाचरनत श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जिः ।


स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदिवु तमते ।। २१ ।।

यत् यत्—जो-जो; आचरमत—करता है; श्रेष्ठ:—आदरणीय नेता; तत्—वही; तत्— तथा के वल वही;
एव—पनिय ही; इतर:—सामान्य; जन:—व्यपक्त; स:—वह; यत्— जो कुछ; प्रमाणम्—उदाहरण, आदशत;
कुरुते—करता है; लोक:—सारा संसार; तत्—उसके ; अनुवतपते—िदपचह्नों का अनुसरण करता है ।

महापरुु ष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यनि उसी का अिुसरण करते हैं । वह अपिे अिुसरणीय
कायों से जो आदशम प्रस्तुत करता है, सम्पूणम नवश्र्व उसका अिुसरण करता है ।

तात्पयम : सार्ान्य लोगों को सिैव एक ऐसे नेता की आवश्यकता होती है, जो व्यावहाररक आचरण द्वारा जनता
को मशक्षा िे सके । यमि नेता स्वयं धूम्रपान करता है तो वह जनता को धूम्रपान बन्ि करने की मशक्षा नहीं िे
सकता । चैतन्य र्हाप्रभु ने कहा है मक मशक्षा िेने से पवू म मशक्षक को िीक-िीक आचरण करना चामहए । जो इस प्रकार
मशक्षा िेता है वह आचायम या आिशम मशक्षक कहलाता है । अतः मशक्षक को चामहए की सार्ान्यजन को मशक्षा िेने के
मलए स्वयं शास्त्रीय मसद्धान्तों का पालन करे । कोई भी मशक्षक प्राचीन प्रर्ामणक ग्रर्ं ों के मनयर्ों के मवपरीत कोई मनयर्
नहीं बना सकता । र्नु-संमहता जैसे प्रार्ामणक ग्रंर् र्ानव सर्ाज के मलए अनुसरणीय आिशम ग्रंर् हैं, अतः नेता को
उपिेश ऐसे आिशम शास्त्रों के मनयर्ों पर आधाररत होना चामहए । जो व्यमक्त अपनी उन्नमत चाहता है उसे र्हान मशक्षकों
द्वारा अभ्यास मकये जाने वाले आिशम मनयर्ों का पालन करना चामहए । श्रीमद्भागवत भी इसकी पुमष्ट करता है मक
र्नुष्ट्य को र्हान भक्तों के पिमचन्हों का अनुसरण करना चामहए और आध्यामत्र्क बोध के पर् र्ें प्रगमत का यही साधन
है । चाहे राजा हो या राजय का प्रशासनामधकारी, चाहे मपता हो या मशक्षक-ये सब अबोध जनता के स्वाभामवक नेता
र्ाने जाते हैं । इन सबका अपने आमश्रतों के प्रमत र्हान उत्तरिामयत्व रहता है, अतः इन्हें नैमतक तर्ा आध्यामत्र्क
संमहता सम्बन्धी आिशम ग्रंर्ों से सुपररमचत होना चामहए ।

ि मे पाथामनस्त कतमव्यं नत्रषु लोके षु नकञ्चि ।


िािवाप्तमवाप्तव्यं वतम एव च कमामनण ।। २२ ।।

१२०
ि– नहीं; मे– र्झु े; पाथम– हे पृर्ापुत्र; अनस्त– है; कतमव्यम्– मनयत कायम; नत्रषु– तीनों; लोके षु– लोकों
र्ें; नकञ्चि - कोई; ि– कुछ नहीं; अिवाप्तम्– इमच्छत;अवाप्तव्यम्– पाने के मलए; वते– लगा रहता ह;ँ एव– मनश्चय
ही; च– भी; कममनण– मनयत कर्ों र्ें ।

हे पृथापुत्र! तीिों लोकों में मेरे नलए कोई भी कमम नियत िहीं है, ि मुझे नकसी वस्तु का अभाव है और
ि आवश्यकता ही है । तो भी मैं नियत्कमम करिे में तत्पर रहता हूँ ।

तात्पयम : वैमिक सामहत्य र्ें भगवान् का वणमन इस प्रकार हुआ है –


तमीश्र्वराणाां परमां महेश्र्वरां तां र्ेवतानाां परमां च र्ैवतम् ।
पस्तां पतीनाां परमां परस्तार्् स्वर्ाम र्ेवां भवु ेनशमीड् यम् ।।
न तस्य ायं रणां च स्वयते न तत्समश्र्चाभ्यस्ध श्र्च दृश्यते ।
परास्य शस्िस्वदस्वधैव श्रयू ते स्वाभास्व ी ज्ञानबलस्क्रया च ।।
“परर्ेश्र्वर सर्स्त मनयन्ताओ ं के मनयन्ता हैं और मवमभन्न लोक पालकों र्ें सबसे र्हान हैं । सभी उनके अधीन
हैं । सारे जीवों को परर्ेश्र्वर से ही मवमशष्ट शमक्त प्राप्त होती है, जीव स्वयं श्रेि नहीं है । वे सभी िेवताओ ं द्वारा पूजय हैं
और सर्स्त संचालकों के भी संचालक हैं । अतः वे सर्स्त भौमतक नेताओ ं तर्ा मनयन्ताओ ं से बढ़कर हैं और सबों
द्वारा आराध्य हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं है और वे ही सर्स्त कारणों के कारण हैं ।”
“उनका शारीररक स्वरूप सार्ान्य जीव जैसा नहीं होता । उनके शरीर तर्ा आत्र्ा र्ें कोई अन्तर नहीं है । वे
परर् हैं । उनकी सारी इमन्द्रयाँ मिव्य हैं । उनकी कोई भी इमन्द्रय अन्यमकसी इमन्द्रय का कायम सम्पन्न कर सकती है। अतः
न तो कोई उनसे बढ़कर है, न ही उनके तुल्य है । उनकी शमक्तयाँ बहुरुमपणी हैं, िलतः उनके सारे कायम प्राकृ मतक
अनक्र ु र् के अनुसार सम्पन्न हो जाते हैं ।” (श्र्वेताश्र्वतरउपस्नषर्् ६.७-८) ।
चँमू क भगवान् र्ें प्रत्येक वस्तु ऐश्र्वयम से पररपूणम रहती है और पूणम सत्य से ओतप्रोत रहती है, अतः उनके मलए
कोई कतमव्य करने की आवश्यकता नहीं रहती । मजसे अपने कर्म का िल पाना है, उसके मलए कुछ न कुछ कर्म मनयत
रहता है, परन्तु जो तीनों लोकों र्ें कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा नहीं रखता, उसके मलए मनश्चय ही कोई कतमव्य नहीं
रहता । मिर भी क्षमत्रयों के नायक के रूप र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण कुरुक्षेत्र की युद्धभमू र् र्ें कायमरत हैं, क्योंमक क्षमत्रयों का धर्म है
मक िीन-िमु खयों को आश्रय प्रिान करें । यद्यमप वे शास्त्रों के मवमध-मवधानों से सवमर्ा ऊपर हैं, मिर भी वे ऐसा कुछ भी
नहीं करते जो शास्त्रों के मवरुद्ध हो ।

यनद ह्यहं ि वतेयं जातु कममण्यतनन्द्रतः ।


मम वत्मामिुवतमन्ते मिुष्ट्याः पाथम सवमशः ।। २३ ।।

यनद– यमि; नह– मनश्चय ही; अहम्– र्ैं; ि– नहीं; वतेयम्– इस प्रकार व्यस्त रह;ँ जात–ु कभी; कममनण– मनयत
कर्ों के सम्पािन र्ें; अतनन्द्रतः– सावधानी के सार्; मम– र्ेरा; वत्मम– पर्; अिुवतमन्ते– अनुगर्न करें गे; मिुष्ट्याः–
सारे र्नष्ट्ु य; पाथम– हे पृर्ापत्रु ; सवमशः– सभी प्रकार से ।

१२१
क्योंनक यनद मैं नियत कमों को सावधािीपूवमक ि करूूँ तो हे पाथम! यह निनश्चत है नक सारे मिुष्ट्य मेरे
पथ का ही अिुगमि करेंगे ।

तात्पयमः आध्यामत्र्क जीवन की उन्नमत के मलए एवं सार्ामजक शामन्त र्ें संतुलन बनाये रखने के मलए कुछ
परम्परागत कुलाचार हैं जो प्रत्येक सभ्य व्यमक्त के मलए होते हैं । ऐसे मवमध-मवधान के वल बद्धजीवों के मलए हैं, भगवान्
कृ ष्ट्ण के मलए नहीं, लेमकन क्योंमक वे धर्म की स्र्ापना के मलए अवतररत हुए र्े, अतः उन्होंने मनमिमष्ट मनयर्ों का पालन
मकया । अन्यर्ा, सार्ान्य व्यमक्त भी उन्हीं के पिमचन्हों का अनसु रण करते क्योंमक कृ ष्ट्ण परर् प्रर्ाण
हैं । श्रीमद्भागवत् से यह ज्ञात होता है मक श्रीकृ ष्ट्ण अपने घर र्ें तर्ा बहार गृहोमस्र्त धर्म का आचरण करते रहे ।

उत्सीदेयुररमे लोका ि कुयां कमम चेदहम् ।


सकं रस्य च कताम स्यामुपहन्यानममाः प्रजाः ।। २४ ।।

उत्सीदेयुः – नष्ट हो जायँ; इमे– ये सब; लोकाः– लोक; ि– नहीं; कुयामम–् करूँ; कमम– मनयत कायम; चेत–्
यमि; अहम्– र्ैं; संकरस्य– अवांमछत संतमत का; च– तर्ा; कताम– स्रष्टा; स्याम्– होऊँगा; उपहन्याम्– मवनष्ट
करूँगा; इमाः– इन सब; प्रजाः– जीवों को ।

यनद मैं नियतकमम ि करूूँ तो ये सारे लोग िष्ट हो जायं । तब मैं अवांनछत जि समुदाय (वणमसंकर) को
उत्पन्ि करिे का कारण हो जाऊूँ गा और इस तरह सम्पूणम प्रानणयों की शानन्त का नविाशक बिूूँगा ।

तात्पयम : वणमसक ं र अवांमछत जनसर्िु ाय है जो सार्ान्य सर्ाज की शामन्त को भगं करता है । इस सार्ामजक
अशामन्त को रोकने के मलए अनेक मवमध-मवधान हैं मजनके द्वारा स्वतः ही जनता आध्यामत्र्क प्रगमत के मलए शान्त
तर्ा सव्ु यवमस्र्त हो जाती है । जब भगवान् कृ ष्ट्ण अवतररत होते हैं तो स्वाभामवक है मक वे ऐसे र्हत्त्वपणू म कायों की
प्रमतिा तर्ा अमनवायमता बनाये रखने के मलए इन मवमध-मवधानों के अनुसार आचरण करते हैं । भगवान् सर्स्त जीवों के
मपता हैं और यमि ये जीव पर्भ्रष्ट हो जायँ तो अप्रत्यक्ष रूप र्ें यह उत्तरिामयत्व उन्हीं का है । अतः जब भी मवमध-
मवधानों का अनािर होता है, तो भगवान् स्वयं सर्ाज को सुधारने के मलए अवतररत होते हैं । मकन्तु हर्ें ध्यान िेना
होगा मक यद्यमप हर्ें भगवान् के पिमचन्हों का अनुसरण करना है, तो भी हर् उनका अनुकरण नहीं कर सकते । अनुसरण
और अनुकरण एक से नहीं होते । हर् गोवधमन पवमत उिाकर भगवान् का अनुकरण नहीं कर सकते, जैसा मक भगवान् ने
अपने बाल्यकाल र्ें मलया र्ा । ऐसा कर पाना मकसी र्नुष्ट्य के मलए सम्भव नहीं । हर्ें उनके उपिेशों का पालन करना
चामहए, मकन्तु मकसी भी सर्य हर्ें उनका अनुकरण नहीं करना है । श्रीमद्भागवत र्ें (१०.३३.३०-३१) इसकी पुमष्ट की
गई है –
नैतत्समाचरे ज्जातु मनसास्प ह्यनीश्र्वरः ।
स्वनश्यत्याचरन् मौढ्यायथारुद्रोऽस्ब्द्धजां स्वषम् ।।
ईश्र्वराणाां वचः सत्यां तथैवाचररतां क्तवस्चत् ।
तेषाां यत् स्ववचोयुिां बस्द्धमाांस्तत् समाचरे त ।।

१२२
“र्नुष्ट्य को भगवान् तर्ा उनके द्वारा शमक्तप्रित्त सेवकों के उपिेशों का र्ात्र पालन करना चामहए । उनके उपिेश
हर्ारे मलए अच्छे हैं और कोई भी बुमद्धर्ान पुरुष बताई गई मवमध से उनको कर्ाममन्वत करे गा । मिर भी र्नुष्ट्य को
सावधान रहना चामहए मक वह उनके कायों का अनुकरण न करे । उसे मशवजी के अनुकरण र्ें मवष का सर्द्रु नहीं पी
लेना चामहए ।”
हर्ें सिैव इश्र्वरों की या सूयम तर्ा चन्द्रर्ा की गमतयों को वास्तव र्ें मनयंमत्रत कर सकने वालों की मस्र्मत को श्रेि
र्ानना चामहए । ऐसी शमक्त के मबना कोई भी सवमशमक्तर्ान इश्र्वरों का अनुकरण नहीं कर सकता । मशवजी ने सागर तक
के मवष का पान कर मलया , मकन्तु यमि कोई सार्ान्य व्यमक्त मवष की एक बिूं भी पीने का यत्न करे गा तो वह र्र
जाएगा । मशवजी के अनेक छद्मभक्त हैं जो गाँजा तर्ा ऐसी ही अन्य र्ािक वस्तुओ ं का सेवन करते रहते हैं । मकन्तु वे
यह भल ू जाते हैं मक इस प्रकार मशवजी का अनक ु रण करके वे अपनी र्ृत्यु को मनकट बल ु ा रहे हैं । इसी प्रकार भगवान्
कृ ष्ट्ण के भी अनेक छद्मभक्त हैं जो भगवान् की रासलीला या प्रेर्नृत्य का अनुकरण करना चाहते हैं, मकन्तु यहभल ू जाते
हैं मक वे गोवधमन पवमत को धारण नहीं कर सकते । अतः सबसे अच्छा तो यही होगा मक लोग शमक्तर्ान का अनुकरण न
करके के वल उनके उपिेशों का पालन करें । न ही मबना योग्यता के मकसी को उनका स्र्ान ग्रहण करने का प्रयत्न करना
चामहए । ऐसे अनेक ईश्र्वर के “अवतार” हैं मजनर्े भगवान् की शमक्त नहीं होती ।

सिाः कममण्यनवद्वांसो यथा कुवमनन्त भारत ।


कुयामनद्वद्वांस्तथासिनश्र्चकीषमल
ु ोकसग्रहम् ।। २५ ।।

सक्ता:—आसक्त; कमपमण—पनयत कमों में; अमवद्वांस:—अज्ञानी; यथा—पजस तरह; कुवपमन्त—करते हैं;


भारत—हे भरतवश ं ी; कुयापत— ् करना चापहए; मवद्वान्—पवद्वान; तथा—उसी तरह; असक्त:—अनासक्त;
मचकीषप:ु —चाहते हुए भी, इच्छुक; लोक- सङ्ग्ग्रहम्—सामान्य जन ।

नजस प्रकार अज्ञािी-जि िल की आसनि से कायम करते हैं, उसी तरह नवद्वाि जिों को चानहए नक वे
लोगों को उनचत पथ पर ले जािे के नलए अिासि रहकर कायम करें ।

तात्पयमः एक कृ ष्ट्णभावनाभामवत र्नुष्ट्य तर्ा कृ ष्ट्णभावनाभाहीन व्यमक्त र्ें के वल इच्छाओ ं का भेि होता
है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कभी ऐसा कोई कायम नहीं करता जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मवकास र्ें सहायक न हो । यहाँ
तक मक वह उस अज्ञानी पुरुष की तरह कर्म कर सकता है जो भौमतक कायों र्ें अत्यमधक आसक्त रहता है । मकन्तु इनर्ें
से एक ऐसे कायम अपनी इमन्द्रयतृमप्त के मलए करता है, जबमक िसू रा कृ ष्ट्ण की तुमष्ट के मलए । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त को चामहए मक वह लोगों को यह प्रिमशमत करे मक मकस तरह कायम मकया जाता है और मकस तरह कर्मिलों को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत कायम र्ें मनयोमजत मकया जाता है ।

िबुनद्धभेदं जियेदज्ञािां कममसङनगिाम् ।


जोषयेत्सवमकमामनण नवद्वान्यि ु ः समाचरि् ।। २६ ।।

१२३
ि– नहीं; बुनद्धभेदम्– बुमद्ध का मवचलन; जियेत–् उत्पन्न करे ; अज्ञािाम्– र्ख ू ों का; कमम-संनगिाम्–
सकार् कर्ों र्ें; जोषयेत–् मनयोमजत करे ; सवम– सारे ; कमामनण– कर्म; नवद्वाि्– मवद्वान व्यमक्त; युिः– लगा
हुआ; समाचरि्– अभ्यास करता हुआ ।

नवद्वाि व्यनि को चानहए नक वह सकाम कमों में आसि अज्ञािी पुरुषों को कमम करिे से रोके िहीं
तानक उिके मि नवचनलत ि हों । अनपतु भनिभाव से कमम करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कायों में लगाए
(नजससे कृ ष्ट्णभाविामृत का क्रनमक नवकास हो) ।

तात्पयम :वेर्ैश्र्च सवैरहमेव वेयः – यह मसद्धान्त सम्पणू म वैमिक अनिु ानों की पराकािा है । सारे अनिु ान, सारे
यज्ञ-कृ त्य तर्ा वेिों र्ें भौमतक कायों के मलए जो भी मनिेश हैं उन सबों सर्ेत सारी वस्तुएँ कृ ष्ट्ण को जानने के मनमर्त्त हैं
जो हर्ारे जीवन के चरर्लक्ष्य हैं । लेमकन चँमू क बद्धजीव इमन्द्रयतृमप्त के अमतररक्त और कुछ नहीं जानते, अतः वे वेिों
का अध्ययन इसी दृमष्ट से करते हैं । मकन्तु सकार् कर्ों तर्ा वैमिक अनुिानों के द्वारा मनयमर्त इमन्द्रयतृमप्त के र्ाध्यर् से
र्नुष्ट्य धीरे -धीरे कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होता है, अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें स्वरुपमसद्ध जीव को चामहए मक अन्यों को
अपना कायम करने या सर्झने र्ें बाधा न पहुचँ ाये, अमपतु उन्हें यह प्रिमशमत करे मक मकस प्रकार सारे कर्मिल को कृ ष्ट्ण
की सेवा र्ें सर्मपमत मकया जा सकता है ।कृ ष्ट्णभावनाभामवत मवद्वान व्यमक्त इस तरह कायम कर सकता है मक इमन्द्रयतृमप्त
के मलए कर्म करने वाले अज्ञानी पुरुष यह सीख लें मक मकस तरह कायम करना चामहए और आचरण करना चामहए ।
यद्यमप अज्ञानी पुरुष को उसके कायों र्ें छे ड़ना िीक नहीं होता, परन्तु यमि वह रंचभर भी कृ ष्ट्णभावनाभामवत है तो वह
वैमिक मवमधयों की परवाह न करते हुए सीधे भगवान् की सेवा र्ें लग सकता है । ऐसे भाग्यशाली व्यमक्त को वैमिक
अनुिान करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंमक प्रत्यक्ष कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा उसे वे सारे िल प्राप्त हो जाते हैं, जो
उसे अपने कतमव्यों के पालन करने से प्राप्त होते ।

प्रकृ ते: नक्रयमाणानि गण


ु ै: कमामनण सवमशः ।
अहङकारनवमूढात्मा कतामहनमनत मन्यते ।। २७ ।।

प्रकृ तेः– प्रकृ मत का; नक्रयमाणानि– मकये जाकर; गुणैः– गुणों के द्वारा; कमामनण– कर्म; सवमशः– सभी प्रकार
के ;अहङकार-नवमूढ– अहक ं ार से र्ोमहत; आत्मा–आत्र्ा; कताम– करने वाला; अहम्– र्ैं ह;ँ इनत– इस
प्रकार; मन्यते– सोचता है ।

जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपिे आपको समस्त कमों का कताम माि बैठता है,
जब नक वास्तव में वे प्रकृ नत के तीिों गुणों द्वारा सम्पन्ि नकये जाते हैं ।

तात्पयम : िो व्यमक्त मजनर्ें से एक कृ ष्ट्णभावनाभामवत है और िसू रा भौमतक चेतना वाला है, सर्ान स्तर पर
कायम करते हुए सर्ान पि पर प्रतीत हो सकते हैं, मकन्तु उनके पिों र्ें आकाश-पाताल का अन्तर रहता है । भौमतक
चेतना वाला व्यमक्त अहकं ार के कारण आश्र्वस्त रहता है मक वही सभी वस्तुओ ं का कताम है । वह यह नहीं जानता मक
शरीर की रचना प्रकृ मत द्वारा हुई है, जो परर्ेश्र्वर की अध्यक्षता र्ें कायम करती है । भौमतकतावािी व्यमक्त यह नहीं

१२४
जानता मक अन्ततोगत्वा वह कृ ष्ट्ण के अधीन है । अहक ं ारवश ऐसा व्यमक्त हर कायम को स्वतन्त्र रूप से करने का श्रेय
लेना चाहता है और यही है उसके अज्ञान का लक्षण । उसे यह ज्ञान नहीं मक उसके इस स्र्ूल तर्ा सूक्ष्र् शरीर की रचना
प्रकृ मत द्वारा भगवान् की अध्यक्षता र्ें की गई है, अतः उसके सारे शारीररक तर्ा र्ानमसक कायम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
रहकर कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें तत्पर होने चामहए । अज्ञानी व्यमक्त यह भल ू जाता है मक भगवान् हृषीके श कहलाते हैं अर्ामत्
वे शरीर की इमन्द्रयों के स्वार्ी हैं । इमन्द्रयतृमप्त के मलए इमन्द्रयों का मनरन्तर उपयोग करते रहने से वह अहक
ं ार के कारण
वस्तुतः र्ोहग्रस्त रहता है, मजससे वह कृ ष्ट्ण के सार् अपने शाश्र्वत सम्बन्ध को भूल जाता है ।

तत्त्वनवत्तु महाबाहो गुणकममनवभागयो: ।


गण
ु ा गण ु ेषु वतमन्त इनत मत्वा ि सजजते ।। २८ ।।

तत्त्वनवत्– परर् सत्य को जानने वाला; तु– लेमकन; महाबाहो– हे मवशाल भजु ाओ ं वाले; गुण-कमम– भौमतक
प्रभाव के अन्तगमत कर्म के ; नवभाग्योः– भेि के ; गुणाः– इमन्द्रयाँ; गुणेषु– इमन्द्रयतृमप्त र्ें; वतमन्ते– तत्पर रहती
हैं; इनत– इस प्रकार; मत्वा– र्ानकर; ि– कभी नहीं; सजजते– आसक्त होता है ।

हे महाबाहो! भनिभावमय कमम तथा सकाम कमम के भेद को भलीभाूँनत जािते हुए जो परमसत्य को
जाििे वाला है, वह कभी भी अपिे आपको इनन्द्रयों में तथा इनन्द्रयतृनप्त में िहीं लगाता ।

तात्पयम : परर्सत्य को जानने वाला भौमतक संगमत र्ें अपनी मवषर् मस्र्मत को जनता है । वह जानता है मक वह
भगवान् कृ ष्ट्ण का अंश है और उसका स्र्ान इस भौमतक सृमष्ट र्ें नहीं होना चामहए । वह अपने वास्तमवक स्वरूप को
भगवान् के अश ं के रूप र्ें जानता है जो सत् मचत् आनिं हैं और उसे यह अनभु मू त होती रहती है मक “र्ैं मकसी कारण
से िेहात्र्बुमद्ध र्ें िँ स चक
ु ा हँ ।” अपने अमस्तत्व की शद्धु अवस्र्ा र्ें उसे सारे कायम भगवान् कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें
मनयोमजत करने चामहए । िलतः वह अपने आपको कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें लगाता है और भौमतक इमन्द्रयों के
कायों के प्रमत स्वभावतः अनासक्त हो जाता है क्योंमक ये पररमस्र्मतजन्य तर्ा अस्र्ायी हैं । वह जानता है मक उसके
जीवन की भौमतक िशा भगवान् के मनयन्त्रण र्ें है, िलतः वह सभी प्रकार के भौमतक बन्धनों से मवचमलत नहीं होता
क्योंमक वह उन्हें भगवत्कृ पा र्ानता है । श्रीमद्भागवत के अनुसार जो व्यमक्त परर्सत्य को ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा
श्रीभगवान् – इन तीन मवमभन्न रूपों र्ें जानता है वही तत्त्वमवत् कहलाता है, क्योंमक वह परर्ेश्र्वर के सार् अपने
वास्तमवक सम्बन्ध को भी जानता है ।

प्रकृ तेगमण
ु सम्मूढा: सजजन्ते गुणकममसु ।
तािकृ त्स्िनवदो मन्दान्कृ त्स्िनवन्ि नवचालयेत् ।। २९ ।।

प्रकृ तेः– प्रकृ मत के ; गुण– गुणों से; सम्मूढाः– भौमतक पहचान से बेवकूि बने हुए; सजजन्ते– लग जाते
हैं; गण
ु -कममस–ु भौमतक कर्ों र्ें; ताि्– उन; अकृ त्स्िनवदः– अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दाि्– आत्र्-साक्षात्कार सर्झने
र्ें आलमसयों को; कृ त्स्ि-नवत् – ज्ञानी; नवचालयेत–् मवचमलत करने का प्रयत्न करना चामहए ।

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माया के गुणों से मोहग्रस्त होिे पर अज्ञािी पुरुष पूणमतया भौनतक कायों में संलग्ि रहकर उिमें आसि
हो जाते हैं । यद्यनप उिके ये कायम उिमें ज्ञािभाव के कारण अधम होते हैं, नकन्तु ज्ञािी को चानहए नक उन्हें
नवचनलत ि करे ।

तात्पयम : अज्ञानी पुरुष स्र्ूल भौमतक चेतना से और भौमतक उपामधयों से पूणम रहते हैं । यह शरीर प्रकृ मत की िेन
है और जो व्यमक्त शारीररक चेतना र्ें अत्यमधक आसक्त होता है वह र्न्ि अर्ामत् आलसी कहा जाता है । अज्ञानी
र्नष्ट्ु य शरीर को आत्र्स्वरूप र्ानते हैं, वे अन्यों के सार् शारीररक सम्बन्ध को बन्धत्ु व र्ानते हैं, मजस िेश र्ें यह शरीर
प्राप्त हुआ है उसे वे पूजय र्ानते हैं और वे धामर्मक अनुिानों की औपचाररकताओ ं को ही अपना लक्ष्य र्ानते हैं । ऐसे
भौमतक्ताग्रस्त अपामधकारी परुु षों के कुछ प्रकार के कायों र्ें सार्ामजक सेवा, राष्ट्रीयता तर्ा परोपकार हैं । ऐसी
उपामधयों के चक्कर र्ें वे सिैव भौमतक क्षेत्र र्ें व्यस्त रहते हैं, उनके मलए आध्यामत्र्क बोध मर्थ्या है, अतः वे इसर्ें
रूमच नहीं लेते । मकन्तु जो लोग आध्यामत्र्क जीवन र्ें जागरूक हैं, उन्हें चामहए मक इस तरह भौमतकता र्ें र्ग्न
व्यमक्तयों को मवचमलत न करें । अच्छा तो यही होगा मक वे शान्तभाव से अपने आध्यामत्र्क कायों को करें । ऐसे
र्ोहग्रस्त व्यमक्त अमहसं ा जैसे जीवन के र्ल ू भतू नैमतक मसद्धान्त तर्ा इसी प्रकार के परोपकारी कायों र्ें लगे हो सकते
हैं ।
जो लोग अज्ञानी हैं वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों को सर्झ नहीं पाते, अतः भगवान् कृ ष्ट्ण हर्ें उपिेश िेते हैं मक
ऐसे लोगों को मवचमलत न मकया जाय और व्यर्म ही र्ल्ू यवान सर्य नष्ट न मकया जाय । मकन्तु भगवद्भक्त भगवान् से
भी अमधक ियालु होते हैं, क्योंमक वे भगवान् के अमभप्राय को सर्झते हैं । िलतः वे सभी प्रकार के संकट झेलते
हैं, यहाँ तक मक वे इन अज्ञानी पुरुषों के पास जा-जा कर उन्हें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें प्रवृत्त करने का प्रयास करते
हैं, जो र्ानव के मलए परर्ावश्यक है ।

मनय सवामनण कमामनण संन्यस्याध्यात्मचेतसा ।


निराशीनिममममो भत्ू वा यध्ु यस्व नवगतजवरः ।। ३० ।।

मनय– र्झु र्ें; सवामनण– सब तरह के ; कमामनण– कर्ों को; संन्यस्य– पूणमतया त्याग करके ; अध्यात्म– पूणम
आत्र्ज्ञान से युक्त; चेतसा– चेतना से; निराशीः– लाभ की आशा से रमहत, मनष्ट्कार्; निमममः– स्वामर्त्व की भावना
से रमहत, र्र्तात्यागी; भूत्वा– होकर; युध्यस्व– लड़ो; नवगत-जवरः– आलस्यरमहत ।

अतःहे अजमिु ! अपिे सारे कायों को मुझमें समनपमत करके मेरे पूणम ज्ञाि से युि होकर, लाभ की
आकांशा से रनहत, स्वानमत्व के नकसी दावे के नबिा तथा आलस्य से रनहत होकर युद्ध करो ।

तात्पयम : यह श्लोक भगवद्गीता के प्रयोजन को स्पष्टतया इमं गत करने वाला है । भगवान् की मशक्षा है मक स्वधर्म
पालन के मलए सैन्य अनुशासन के सदृश पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना आवश्यक है । ऐसे आिेश से कुछ कमिनाई
उपमस्र्त हो सकती है, मिर भी कृ ष्ट्ण के आमश्रत होकर स्वधर्म का पालन करना ही चामहए, क्योंमक यह जीव की
स्वाभामवक मस्र्मत है । जीव भगवान् के सहयोग के मबना सुखी नहीं हो सकता क्योंमक जीव की मनत्य स्वाभामवक
मस्र्मत ऐसी है मक भगवान् की इच्छाओ ं के अधीन रहा जाय ।अतः श्रीकृ ष्ट्ण ने अजुमन को युद्ध करने का इस तरह

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आिेश मिया र्ानो भगवान् उसके सेनानायक हों । परर्ेश्र्वर की इच्छा के मलए र्नुष्ट्य को सवमस्व की बमल करनी होती
है और सार् ही स्वामर्त्व जताये मबना स्वधर्म का पालन करना होता है । अजुमन को भगवान् के आिेश का र्ात्र पालन
करना र्ा । परर्ेश्र्वर सर्स्त आत्र्ाओ ं के आत्र्ा हैं, अतः जो पूणमतया परर्ेश्र्वर पर आमश्रत रहता है या िसू रे शब्िों र्ें,
जो पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत है वह अध्यात्र्चेतस कहलाता है । स्नराशीः का अर्म है स्वार्ी के आिेशानुसार कायम
करना, मकन्तु िल की आशा न करना । कोषाध्यक्ष अपने स्वार्ी के मलए लाखों रुपये मगन सकता है, मकन्तु इसर्ें से
वह अपने मलए एक पैसा भी नहीं चाहता । इसी प्रकार र्नुष्ट्य को यह सर्झना चामहए मक इस संसार र्ें मकसी व्यमक्त का
कुछ भी नहीं है, सारी वस्तएु ँ परर्ेश्र्वर की हैं । मस्य अर्ामत् र्झु र्ें का वास्तमवक तात्पयम यही है । और जब र्नष्ट्ु य इस
प्रकार से कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करता है तो वह मकसी वस्तु पर अपने स्वामर्त्व का िावा नहीं करता । यह
भावनार्ृत स्नमदम अर्ामत् “र्ेरा कुछ नहीं है” कहलाता है । यमि ऐसे किोर आिेश को, जो शारीररक सम्बन्ध र्ें
तर्ाकमर्त बन्धत्ु व भावना से रमहत है, पूरा करने र्ें कुछ मझझक हो तो उसे िरू कर िेना चामहए । इस प्रकार
र्नुष्ट्य स्वगतज्वर अर्ामत् जवर या आलस्य से रमहत हो सकता है । अपने गुण तर्ा मस्र्मत के अनुसार प्रत्येक व्यमक्त को
मवशेष प्रकार का कायम करना होता है और ऐसे कतमव्यों का पालन कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर मकया जा सकता है । इससे
र्मु क्त का र्ागम प्रशस्त हो जायेगा ।

ये ते मतनमदं नित्यमिुनतष्ठनन्त मािवाः ।


श्रद्धावन्तोऽिसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽनप कममनभः ।। ३१ ।।

ये– जो; मे– र्ेरे; मतम्– आिेशों को; इदम्– इन; नित्यम्– मनत्यकायम के रूप र्ें; अिुनतष्ठनन्त– मनयमर्त रूप
से पालन करते हैं; मािवाः– र्ानव प्राणी; श्रद्धा-वन्तः– श्रद्धा तर्ा भमक्त सर्ेत; अिसूयन्तः– मबना ईष्ट्याम
के ; मच्ु यन्ते– र्क्त
ु हो जाते हैं; ते– वे; अनप– भी; कममनभः– सकार्कर्ों के मनयर्रूपी बन्धन से ।

जो व्यनि मेरे आदेशों के अिस ु ार अपिा कतमव्य करते रहते हैं और ईष्ट्यामरनहत होकर इस उपदेश का
श्रद्धापूवमक पालि करते हैं, वे सकाम कमों के बन्धि से मुि हो जाते हैं ।

तात्पयम : श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण का उपिेश सर्स्त वैमिक ज्ञान का सार है, अतः मकसी अपवाि के मबना यह शाश्र्वत
सत्य है । मजस प्रकार वेि शाश्र्वत हैं उसी प्रकार कृ ष्ट्णभावनार्ृत का यह सत्य भी शाश्र्वत है । र्नुष्ट्य को चामहए मक
भगवान् से ईष्ट्याम मकये मबना इस आिेश र्ें दृढ़ मवश्र्वास रखे । ऐसे अनेक िाशममनक है, जो भगवद्गीता पर टीका रचते हैं,
मकन्तु कृ ष्ट्ण र्ें कोई श्रद्धा नहीं रखते । वे कभी भी सकार् कर्ों के बन्धन से र्क्त ु नहीं हो सकते । मकन्तु एक सार्ान्य
पुरुष भगवान् के इन आिेशों र्ें दृढमवश्र्वास करके कर्म-मनयर् के बन्धन से र्क्त ु हो जाता है, भले ही वह इन आिेशों
का िीक से पालन न कर पाए, मकन्तु चँमू क र्नुष्ट्य इस मनयर् से रुष्ट नहीं होता और पराजय तर्ा मनराशा का मवचार
मकये मबना मनिापवू मक कायम करता है, अतः वह मवशद्ध ु कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होता है ।

ये त्वेतदभ्यसयू न्तो िािनु तष्ठनन्त मे मतम् ।


सवमज्ञािनवमुढांस्तानन्वनद्ध िष्टािचेतसः ।। ३२ ।।

१२७
ये– जो; तु– मकन्त;ु एतत्– इस; अभ्यसूयन्तः– ईष्ट्यामवश; ि– नहीं; अिुनतष्ठनन्त– मनयमर्त रूप से सम्पन्न
करते हैं; मे– र्ेरा; मतम्– आिेश; सवम-ज्ञाि – सभी प्रकार के ज्ञान र्ें; नवमूढाि्– पूणमतया मिग्भ्रमर्त; ताि्–
उन्हें; नवनद्ध– िीक से जानो; िष्टाि्– नष्ट हुए; अचेतसः– कृ ष्ट्णभावनार्ृत रमहत ।

नकन्तु जो ईष्ट्यामवश इि उपदेशों की अपेक्षा करते हैं और इिका पालि िहीं करते उन्हें समस्त ज्ञाि से
रनहत, नदग्रनमत तथा नसनद्ध के प्रयासों में िष्ट-रष्ट समझिा चानहए ।

तात्पयम : यहाँ पर कृ ष्ट्णभावनाभामवत न होने के िोष का स्पष्ट कर्न है । मजस प्रकार परर् अमधशासी की आज्ञा
का उल्लघं न के मलए िण्ड होता है, उसी प्रकार भगवान् के आिेश के प्रमत अवज्ञा के मलए भी िण्ड है । अवज्ञाकारी
व्यमक्त चाहे मकतना ही बड़ा क्यों न हो वह शन्ू यहृिय होने से आत्र्ा के प्रमत तर्ा परब्रह्म, परर्ात्र्ा एवं श्री भगवान् के
प्रमत अनमभज्ञ रहता है । अतः ऐसे व्यमक्त से जीवन की सार्मकता की आशा नहीं की जा सकती ।

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृ तेज्ञामिवािनप ।


प्रकृ नतं यानन्त भूतानि निग्रहः नकं कररष्ट्यनत ।। ३३ ।।

सदृशम्– अनुसार; चेष्टते– चेष्टा करता है; स्वस्याः– अपने; प्रकृ तेः– गुणों से; ज्ञाि-वाि्– मवद्वान्; अनप–
यद्यमप; प्रकृ नतम्– प्रकृ मत को; यानन्त– प्राप्त होते हैं; भूतानि– सारे प्राणी; निग्रहः– िर्न; नकम्– क्या; कररष्ट्यनत–
कर सकता है ।

ज्ञािी परुु ष भी अपिी प्रकृ नत के अिुसार कायम करता है, क्योंनक सभी प्राणी तीिों गुणों से प्राप्त अपिी
प्रकृ नत का ही अिुसरण करते हैं । भला दमि से क्या हो सकता है?

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मिव्य पि पर मस्र्त हुए मबना प्रकृ मत के गुणों के प्रभाव से र्क्त
ु नहीं हुआ जा
सकता, जैसा मक स्वयं भगवान् ने सातवें अध्याय र्ें (७.१४) कहा है । अतः सांसाररक धरातल पर बड़े से बड़े मशमक्षत
व्यमक्त के मलए के वल सैद्धामन्तक ज्ञान से आत्र्ा को शरीर से पृर्क् करके र्ाया के बन्धन से मनकल पाना असम्भव है ।
ऐसे अनेक तर्ाकमर्त अध्यात्र्वािी हैं, जो अपने को मवज्ञान र्ें बढ़ा-चढ़ा र्ानते हैं, मकन्तु भीतर-भीतर वे पूणमतया
प्रकृ मत के गुणों के अधीन रहते हैं, मजन्हें जीत पाना कमिन है । ज्ञान की दृमष्ट से कोई मकतना ही मवद्वान् क्यों न हो, मकन्तु
भौमतक प्रकृ मत की िीघमकालीन संगमत के कारण वह बन्धन र्ें रहता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत उसे भौमतक बन्धन से छूटने र्ें
सहायक होता है, भले ही कोई अपने मनयत्कर्ों के करने र्ें संलग्न क्यों न रहे । अतः पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत हुए
मबना मनयत्कर्ों का पररत्याग नहीं करना चामहए । मकसी को भी सहसा अपने मनयत्कर्म त्यागकर तर्ाकमर्त योगी या
कृ मत्रर् अध्यात्र्वािी नहीं बन जाना चामहए । अच्छा तो यह होगा की यर्ामस्र्मत र्ें रहकर श्रेि प्रमशक्षण के अन्तगमत
कृ ष्ट्णभावनार्ृत प्राप्त करने का प्रयत्न मकया जाय । इस प्रकार कृ ष्ट्ण की र्ाया के बन्धन से र्क्त
ु हुआ जा सकता है ।

इनन्द्रयस्येनन्द्रयस्याथे रागद्वेषौ व्यवनस्थतौ ।


तयोिम वशमागच्छे त्तौ ह्यस्य पररपनन्थिौ ।। ३४ ।।

१२८
इनन्द्रयस्य– इमन्द्रय का; इनन्द्रयस्य-अथे– इमन्द्रयमवषयों र्ें; राग– आसमक्त; द्वेषौ– तर्ा मवरमक्त; व्यवनस्थतौ–
मनयर्ों के अधीन मस्र्त; तयोः– उनके ; ि– कभी नहीं; वशम्– मनयन्त्रण र्ें; आगच्छे त–् आना चामहए; तौ– वे
िोनों; नह– मनश्चय ही; अस्य– उसका; पररपनन्थिौ– अवरोधक ।

प्रत्येक इनन्द्रय तथा उसके नवषय से सम्बनन्धत राग-द्वेष को व्यवनस्थत करिे के नियम होते हैं । मिुष्ट्य
को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभतू िहीं होिा चानहए क्योंनक ये आत्म-साक्षात्कार के मागम में अवरोधक हैं ।

तात्पयम : जो लोग कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं, वे स्वभाव से भौमतक इमन्द्रयतृमप्त र्ें रत होने र्ें मझझकते हैं । मकन्तु
मजन लोगों की ऐसी भावना न हो उन्हें शास्त्रों के यर्-मनयर्ों का पालन करना चामहए । अमनयमन्त्रत इमन्द्रय-भोग ही
भौमतक बन्धन का कारण है, मकन्तु जो शास्त्रों के यर्-मनयर्ों का पालन करता है, वह इमन्द्रय-मवषयों र्ें नहीं िँ सता ।
उिाहरणार्म, यौन-सुख बद्धजीव के मलए आवश्यक है और मववाह-सम्बन्ध के अन्तगमत यौन-सुख की छूट िी जाती है ।
शास्त्रीय आिेशों के अनुसार अपनी पत्नी के अमतररक्त अन्य स्त्री के सार् यौन-सम्बन्ध वमजमत है, अन्य सभी मस्त्रयों को
अपनी र्ाता र्ानना चामहए । मकन्तु इन आिेशों क होते हुए भी र्नुष्ट्य अन्य मस्त्रयों के सार् यौन-सम्बन्ध स्र्ामपत करता
है । इन प्रवृमत्तयों को िमर्त करना होगा अन्यर्ा वे आत्र्-साक्षात्कार के र्ागम र्ें बाधक होंगी । जब तक यह भौमतक
शरीर रहता है तब तक शरीर की आवश्यकताओ ं को यर्-मनयर्ों के अन्तगमत पूणम करने की छूट िी जाती है । मकन्तु
मिर भी हर्ें ऐसी छूटों के मनयन्त्रण पर मवश्र्वास नहीं करना चामहए । र्नुष्ट्य को अनासक्त रहकर यर्-मनयर्ों का पालन
करना होता है, क्योंमक मनयर्ों के अन्तगमत इमन्द्रयतृमप्त का अभ्यास भी उसे पर्भ्रष्ट कर सकता है, मजस प्रकार राजर्ागम
तक र्ें िघु मटना की संभावना बनी रहती है । भले ही इन र्ागों की मकतनी ही सावधानी से िेखभाल क्यों न की जाय,
मकन्तु इसकी कोई गारन्टी नहीं िे सकता मक सबसे सरु मक्षत र्ागम पर भी कोई खतरा नहीं होगा । भौमतक सगं मत के
कारण अत्यन्त िीघम काल से इमन्द्रय-सुख की भावना कायम करती रही है । अतः मनयमर्त इमन्द्रय-भोग के बावजूि भी
च्यतु होने की हर सम्भावना बनी रहती है, अतः सभी प्रकार के मनयमर्त इमन्द्रय-भोग के मलए मकसी भी आसमक्त से
बचना चामहए । लेमकन कृ ष्ट्णभावनार्ृत ऐसा है मक इसके प्रमत आसमक्त से या सिैव कृ ष्ट्ण की प्रेर्ाभमक्त र्ें कायम करते
रहने से सभी प्रकार के ऐमन्द्रय कायों से मवरमक्त हो जाती है । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक वह मकसी भी अवस्र्ा र्ें
कृ ष्ट्णभावनार्ृत से मवरक्त होने की चेष्टा न करे । सर्स्त प्रकार के इमन्द्रय-आसमक्त से मवरमक्त का उद्देश्य अन्ततः
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के पि पर आसीन होना है ।

श्रेयान्स्वधमो नवगुणः परधमामत्स्विुनष्ठतात् ।


स्वधमे निधिं श्रेयः परधमो भयावहः ।। ३५ ।।

श्रेयाि्– अमधक श्रेयस्कर; स्वधममः– अपने मनयतकर्म; नवगणु ः– िोषयक्त


ु भी; पर-धमामत–् अन्यों के मलए
उल्लेमखत कायों की अपेक्षा; सू-अिुनष्ठतात्– भलीभाँमत सम्पन्न; स्व-धमे– अपने मनयत्कर्ों र्ें; निधिम्– मवनाश,
र्ृत्य;ु श्रेयः– श्रेितर; पर-धममः– अन्यों के मलए मनयतकर्म; भय-आवहः – खतरनाक, डरावना ।

१२९
अपिे नियतकमों को दोषपूणम ढंग से सम्पन्ि करिा भी अन्य के कमों को भलीभाूँनत करिे से श्रेयस्कर
है । स्वीय कमों को करते हुए मरिा पराये कमों में प्रवृत्त होिे की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंनक अन्य नकसी के
मागम का अिुसरण भयावह होता है ।

तात्पयम : अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक वह अन्यों के मलय मनयत्कर्ों की अपेक्षा अपने मनयत्कर्ों को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें करे । भौमतक दृमष्ट से मनयतकर्म र्नुष्ट्य की र्नोवैज्ञामनक िशा के अनुसार भौमतक प्रकृ मत के गुणों के
अधीन आमिष्ट कर्म हैं । आध्यामत्र्क कर्म गरुु द्वारा कृ ष्ट्ण की मिव्यसेवा के मलए आिेमशत होते हैं । मकन्तु चाहे भौमतक
कर्म हों या आध्यामत्र्क कर्म, र्नुष्ट्य को र्ृत्युपयमन्त अपने मनयत्कर्ों र्ें दृढ रहना चामहए । अन्य के मनधामररत कर्ों का
अनक ु रण नहीं करना चामहए । आध्यामत्र्क तर्ा भौमतक स्तरों पर ये कर्म मभन्न-मभन्न हो सकते हैं, मकन्तु कताम के मलए
मकसी प्रर्ामणक मनिेशन के पालन का मसद्धान्त उत्तर् होगा । जब र्नुष्ट्य प्रकृ मत के गुणों के वशीभतू हो तो उसे उस
मवशेष अवस्र्ा के मलए मनयर्ों का पालन करना चामहए, उसे अन्यों का अनुकरण नहीं करना चामहए । उिारणार्म,
सतोगुणी ब्राह्मण कभी महंसक नहीं होता, मकन्तु रजोगुणी क्षमत्रय को महंसक होने की अनुर्मत है । इस तरह क्षमत्रय के
मलए महसं ा के मनयर्ों का पालन करते हुए मवनष्ट होना मजतना श्रेयस्कर है उतना अमहसं ा के मनयर्ों का पालन करने
वाले ब्राह्मण का अनुकरण नहीं । हर व्यमक्त को एकाएक नहीं, अमपतु क्रर्शः अपने हृिय को स्वच्छ बनाना चामहए ।
मकन्तु जब र्नुष्ट्य प्रकृ मत के गुणों को लाँघकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पूणमतया लीन हो जाता है, तो वह प्रार्ामणक गुरु के
मनिेशन र्ें सब कुछ कर सकता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत की पूणम मस्र्मत र्ें एक क्षमत्रय ब्राह्मण की तरह और एक ब्राह्मण
क्षमत्रय की तरह कर्म कर सकता है । मिव्य अवस्र्ा र्ें भौमतक जगत् का भेिभाव नहीं रह जाता । उिाहरणार्म,
मवश्र्वामर्त्र र्ल
ू तः क्षमत्रय र्े, मकन्तु बाि र्ें वे ब्राह्मण हो गये । इसी प्रकार परशरु ार् पहले ब्राह्मण र्े, मकन्तु बाि र्ें वे
क्षमत्रय बन गये । ब्रह्म र्ें मस्र्त होने के कारण ही वे ऐसा कर सके , मकन्तु जब तक कोई भौमतक स्तर पर रहता है, उसे
प्रकृ मत के गणु ों के अनसु ार अपने कर्म करने चामहए । सार् ही उसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत का परू ा बोध होना चामहए ।

अजमनु उवाच
अथ के ि प्रयुिोऽयं पापं चरनत पुरुषः ।
अनिच्छन्िनप वाष्ट्णेय बलानदव नियोनजतः ।। ३६ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; अथ– तब; के ि– मकस के द्वारा; प्रयुिः– प्रेररत; अयम्– यह; पापम्–
पाप; चरनत– करता है; पुरुषः– व्यमक्त; अनिच्छि्– न चाहते हुए; अनप– यद्यमप; वाष्ट्णेय– हे वृमष्ट्णवंशी; बलात्–
बलपूवमक; इव– र्ानो; नियोनजतः– लगाया गया ।

अजमिु िे कहा – हे वृनष्ट्णवंशी! मिुष्ट्य ि चाहते हुए भी पापकमों के नलए प्रेररत क्यों होता है? ऐसा
लगता है नक उसे बलपवू मक उिमें लगाया जा रहा हो ।

तात्पयम : जीवात्र्ा परर्ेश्र्वर का अश


ं होने के कारण र्ल
ू तः आध्यामत्र्क, शद्ध
ु एवं सर्स्त भौमतक कल्र्षों से
र्क्त
ु रहता है । िलतः स्वभाव से वह भौमतक जगत् के पापों र्ें प्रवृत्त नहीं होता । मकन्तु जब वह र्ाया के संसगम र्ें
आता है, तो वह मबना मझझक के और कभी-कभी इच्छा के मवरुद्ध भी अनेक प्रकार से पापकर्म करता है । अतः कृ ष्ट्ण

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से अजुमन का प्रश्न अत्यन्त प्रत्याशापूणम है मक जीवों की प्रकृ मत मवकृ त क्यों हो जाती है । यद्यमप कभी-कभी जीव कोई
पाप नहीं करना चाहता, मकन्तु उसे ऐसा करने के मलए बाध्य होना पड़ता है । मकन्तु ये पापकर्म अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा द्वारा
प्रेररत नहीं होते अमपतु अन्य कारण से होते हैं, जैसा मक भगवान् अगले श्लोक र्ें बताते हैं ।

श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुिवः ।
महाशिो महापाप्मा नवद्धयेिनमह वैररणम् ।। ३७ ।।

श्री-भगवाि् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; कामः– मवषयवासना; एषः– यह; क्रोधः– क्रोध; एषः– यह; रजो-
गुण– रजोगुण से; समुिवः– उत्पन्न; महा-अशिः– सवमभक्षी; महा-पाप्मा – र्हान पापी; नवनद्ध– जानो; एिम्–
इसे; इह– इस संसार र्ें; वैररणम्– र्हान शत्रु ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे अजमिु ! इसका कारण रजोगुण के सम्पकम से उत्पन्ि काम है, जो बाद में क्रोध
का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सवमभक्षी पापी शत्रु है ।

तात्पयम : जब जीवात्र्ा भौमतक सृमष्ट के सम्पकम र्ें आता है तो उसका शाश्र्वत कृ ष्ट्ण-प्रेर् रजोगुण की संगमत से
कार् र्ें पररणत हो जाता है । अर्वा िूसरे शब्िों र्ें, ईश्र्वर-प्रेर् का भाव कार् र्ें उसी तरह बिल जाता है मजस तरह
इर्ली से संसगम से िधू िही र्ें बिल जाता है और जब कार् की संतुमष्ट नहीं होती तो यह क्रोध र्ें पररणत हो जाता है,
क्रोध र्ोह र्ें और र्ोह इस संसार र्ें मनरन्तर बना रहता है । अतः जीवात्र्ा का सबसे बड़ा शत्रु कार् है और यह कार्
ही है जो मवशद्ध ु आत्र्ा को इस ससं ार र्ें िँ से रहने के मलए प्रेररत करता है । क्रोध तर्ोगणु का प्राकट् य है । ये गणु
अपनेआपको क्रोध तर्ा अन्य रूपों र्ें प्रकट करते हैं । अतः यमि रहने तर्ा कायम करने की मवमधयों द्वारा रजोगुण को
तर्ोगणु र्ें न मगरने िेकर सतोगणु तक ऊपर उिाया जाय तो र्नष्ट्ु य को क्रोध र्ें पमतत होने से आध्यामत्र्क आसमक्त के
द्वारा बचाया जा सकता है ।
अपने मनत्य वधमर्ान मचिानन्ि के मलए भगवान् ने अपने आपको अनेक रूपों र्ें मवस्तररत कर मलया और
जीवात्र्ाएँ उनके इस मचिानन्ि के ही अंश हैं । उनको भी आंमशक स्वतन्त्रता प्राप्त है, मकन्तु अपनी इस स्वतन्त्रता का
िरूु पयोग करके जब वे सेवा को इमन्द्रयसुख र्ें बिल िेती हैं तो वे कार् की चपेट र्ें आ जाती हैं । भगवान् ने इस सृमष्ट
की रचना जीवात्र्ाओ ं के मलए इन कार्पूणम रुमचयों की पूमतम हेतु सुमवधा प्रिान करने के मनमर्त्त की और जब
जीवात्र्ाएँ िीघमकाल तक कार्-कर्ों र्ें िँ से रहने के कारण पूणमतया ऊब जाती हैं, तो वे अपना वास्तमवक स्वरूप
जानने के मलए मजज्ञासा करने लगती हैं ।
यही मजज्ञासा वेिान्त-सूत्र का प्रारम्भ है मजसर्ें यः कहा गया है – अथातो ब्रह्मस्जज्ञासा– र्नुष्ट्य को परर् तत्त्व
की मजज्ञासा करनी चामहए । और इस परर् तत्त्व की पररभाषा श्रीमद्भागवत र्ें इस प्रकार िी गई है – जन्मायस्य
यतोऽन्वयास्र्तरतश्र्च – सारी वस्तुओ ं का उद्गर् परब्रह्म है । अतः कार् का उद्गर् भी परब्रह्म से हुआ । अतः यमि कार्
को भगवत्प्रेर् र्ें या कृ ष्ट्णभावना र्ें पररणत कर मिया जाय, या िसू रे शब्िों र्ें कृ ष्ट्ण के मलए ही सारी इच्छाएँ हों तो कार्
तर्ा क्रोध िोनों ही आध्यामत्र्क बन सकें गे । भगवान् रार् के अनन्य सेवक हनुर्ान ने रावण की स्वणमपुरी को जलाकर
अपना क्रोध प्रकट मकया, मकन्तु ऐसा करने से वे भगवान् के सबसे बड़े भक्त बन गये । यहाँ पर भी श्रीकृ ष्ट्ण अजुमन को

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प्रेररत करते हैं मक वे शत्रुओ ं पर अपना क्रोध भगवान् को प्रसन्न करने के मलए मिखाए । अतः कार् तर्ा क्रोध
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रयुक्त होने पर हर्ारे शत्रु न रह कर मर्त्र बन जाते हैं ।

धमू ेिानव्रयते वनियमथादशो मलेि च ।


यथोल्बेिावृतो गभमस्तथा तेिेदमावृतम् ।। ३८ ।।

धमू ेि - धएु ँ से; आनव्रयते - ढक जाती है; वनहिः - अमग्न;यथा– मजस प्रकार;आदशमः - शीशा, िपमण; मलेि-
धल ू से; च - भी; यथा - मजस प्रकार; उल्बेि - गभामशय द्वारा; आवृतः - ढका रहता है; गभमः - भ्रणू , गभम; तथा - उसी
प्रकार; तेि - कार् से; इदम् - यह; आवृतम् - ढका है ।

नजस प्रकार अनग्ि धुएूँ से, दपमण धूल से अथवा रूण गभामशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा
इस काम की नवनभन्ि मात्राओ ं से आवृत रहता है ।

तात्पयम : जीवात्र्ा के आवरण की तीन कोमटयाँ हैं मजनसे उसकी शुद्ध चेतना धमू र्ल होती है । यह आवरण
कार् ही है जो मवमभन्न स्वरूपों र्ें होता है यर्ा अमग्न र्ें धँआ
ु , िपमण पर धल ू तर्ा भ्रणू पर गभामशय । जब कार् की
उपर्ा धम्रू से िी जाती है तो यह सर्झना चामहए मक जीमवत स्िुमलंग की अमग्न कुछ -कुछ अनुभवगम्य है । िसू रे शब्िों
र्ें, जब जीवात्र्ा अपने कृ ष्ट्णभावनार्ृत को कुछ-कुछ प्रकट करता है तो उसकी उपर्ा धएु ँ से आवृत अमग्न से िी जा
सकती है । यद्यमप जहाँ कहीं धआ ु ँ होता है वहाँ अमग्न का होना अमनवायम है, मकन्तु प्रारमम्भक अवस्र्ा र्ें अमग्न की
प्रत्यक्ष अमभव्यमक्त नहीं होती । यह अवस्र्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत के शभु ारम्भ जैसी है । िपमण पर धूल का उिाहरण र्न रूपी
िपमण को अनेकानेक आध्यामत्र्क मवमधयों से स्वच्छ करने की प्रमक्रया के सर्ान है । इसकी सवमश्रेि मवमध है - भगवान्
के पमवत्र नार् का संकीतमन । गभामशय द्वारा आवृत भ्रणू का दृष्टान्त असहाय अवस्र्ा से मिया गया है, क्योंमक गभम-मस्र्त
मशशु इधर-उधर महलने के मलए भी स्वतन्त्र नहीं रहता । जीवन की यह अवस्र्ा वृक्षों के सर्ान है । वृक्ष भी जीवात्र्ाएँ
हैं, मकन्तु उनर्ें कार् की प्रबलता को िेखते हुए उन्हें ऐसी योमन मर्ली है मक वे प्रायः चेतनाशन्ू य होते हैं । धमू र्ल िपमण
पश-ु पमक्षयों के सर्ान है और धम्रू से आवृत अमग्न र्नुष्ट्य के सर्ान है । र्नुष्ट्य के रूप र्ें जीवात्र्ा र्ें र्ोड़ा बहुत
कृ ष्ट्णभावनार्ृत का उिय होता है और यमि वह और प्रगमत करता है तो आध्यामत्र्क जीवन की अमग्न र्नुष्ट्य जीवन र्ें
प्रजजवमलत हो सकती है । यमि अमग्न के धएु ँ को िीक से मनयमन्त्रत मकया जाय तो अमग्न जल सकती है, अतः यह
र्नुष्ट्य जीवन जीवात्र्ा के मलए ऐसा सुअवसर है मजससे वह संसार के बन्धन से छूट सकता है । र्नुष्ट्य जीवन र्ें कार्
रूपी शत्रु को योग्य मनिेशन र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अनुशीलन द्वारा जीता जा सकता है ।

आवृतं ज्ञािमेतेि ज्ञानििो नित्यवैररणा ।


कामरूपेण कौन्तेय दुष्ट्परू ेणािलेि च ।। ३९ ।।

आवृतम्– ढका हुआ; ज्ञािम्– शद्ध ु चेतना; एतेि– इससे; ज्ञानििः– ज्ञाता का; नित्य-वैररणा– मनत्य शत्रु
द्वारा; काम-रूपेण– कार् के रूप र्ें; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; दुष्ट्पूरेण– कभी भी तुष्ट न होने वाली; अिलेि– अमग्न
द्वारा; च– भी ।

१३२
इस प्रकार ज्ञािमय जीवात्मा की शुद्ध चेतिा उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी
तुष्ट िहीं होता और अनग्ि के समाि जलता रहता है ।

तात्पयम : र्नुस्र्ृमत र्ें कहा गया है मक मकतना भी मवषय-भोग क्यों न मकया जाय कार् की तृमप्त नहीं होती, मजस
प्रकार मक मनरन्तर ईधन ं डालने से अमग्न कभी नहीं बुझती । भौमतक जगत् र्ें सर्स्त कायमकलापों का के न्द्रमबन्िु र्ैर्ुन
(कार्सख ु ) है, अतः इस जगत् को मैथन्ु य-आगार या मवषयी-जीवन की हर्कमड़याँ कहा गया है । एक सार्ान्य वन्िीगृह
र्ें अपरामधयों को छड़ों के भीतर रखा जाता है इसी प्रकार जो अपराधी भगवान् के मनयर्ों की अवज्ञा करते हैं, वे र्ैर्ुन-
जीवन द्वारा बन्िी बनाये जाते हैं । इमन्द्रयतृमप्त के आधार पर भौमतक सभ्यता की प्रगमत का अर्म है, इस जगत् र्ें
जीवात्र्ा की बन्धन अवमध को बढाना । अतः यह कार् अज्ञान का प्रतीक है मजसके द्वारा जीवात्र्ा को इस संसार र्ें
रखा जाता है । इमन्द्रयतृमप्त का भोग करते सर्य हो सकता है मक कुछ प्रसन्नता की अनुभमू त हो, मकन्तु यह प्रसन्नता की
अनुभमू त ही इमन्द्रयभोक्ता का चरर् शत्रु है ।

इनन्द्रयानण मिो बुनद्धरस्यानधष्ठािमुच्यते ।


एतैनवममोहयत्येष ज्ञािमावृत्य देनहिम् ।। ४० ।।

इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; मिः– र्न; बुनद्धः– बुमद्ध; अस्य– इस कार् का; अनधष्ठािम्– मनवासस्र्ान; उच्यते–
कहा जाता है; एतैः– इन सबों से; नवमोहयनत– र्ोहग्रस्त करता है ; एषः– यह कार्; ज्ञािम्– ज्ञान को; आवृत्य–
ढक कर; देनहिम्– शरीरधारी को ।

इनन्द्रयाूँ, मि तथा बुनद्ध इस काम के निवासस्थाि हैं । इिके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तनवक
ज्ञाि को ढक कर उसे मोनहत कर लेता है ।

तात्पयम : चँमू क शत्रु ने बद्धजीव के शरीर के मवमभन्न सार्ररक स्र्ानों पर अपना अमधकार कर मलया है, अतः
भगवान् कृ ष्ट्ण उन स्र्ानों का संकेत कर रहे हैं मजससे शत्रु को जीतने वाला यह जान ले मक शत्रु कहाँ पर है । र्न सर्स्त
इमन्द्रयों के कायमकलापों का के न्द्रमबन्िु है, अतः जब हर् इमन्द्रय-मवषयों के सम्बन्ध र्ें सुनते हैं तो र्न इमन्द्रयतृमप्त के
सर्स्त भावों का आगार बन जाता है । इस तरह र्न तर्ा इमन्द्रयाँ कार् की शरणस्र्ली बन जाते हैं । इसके बाि बुमद्ध
ऐसी कार्पूणम रुमचयों की राजधानी बन जाती है । बुमद्ध आत्र्ा की मनकट पड़ोसन है । कार्र्य बुमद्ध से आत्र्ा
प्रभामवत होता है मजससे उसर्ें अहक ं ार उत्पन्न होता है और वह पिार्म से तर्ा इस प्रकार र्न तर्ा इमन्द्रयों से अपना
तािात्र्य कर लेता है । आत्र्ा को भौमतक इमन्द्रयों का भोग करने की लत पड़ जाती है मजसे वह वास्तमवक सुख र्ान
बैिता है । श्रीमद्भागवत र्ें (१०.८४.१३) आत्र्ा के इस मर्थ्या स्वरूप की अत्यत्तु र् मववेचना की गई है –
यस्यात्मबुस्द्धः ृ णपे स्त्रधातु े स्वधीः लत्रास्र्षु भौम इज्यधीः ।
यत्तीथदबस्ु द्धः सस्लले न स्हस्द चज्जनेष्वस्भज्ञेषु स एव गोखरः ।।

१३३
“जो र्नुष्ट्य इस मत्रधातु मनमर्मत शरीर को आत्र्स्वरूप जान बैिता है, जो िेह के मवकारों को स्वजन सर्झता है,
जो जन्र्भमू र् को पूजय र्ानता है और जो तीर्मस्र्लों की यात्रा मिव्यज्ञान वाले पुरुष से भेंट करने के मलए नहीं, अमपतु
स्नान करने के मलए करता है उसे गधा या बैल के सर्ान सर्झना चामहए ।”

तस्मात्त्वनमनन्द्रयाण्यादौ नियम्य भरतषमभ ।


पाप्मािं प्रजनह ह्येिं ज्ञािनवज्ञाििाशिम् ।। ४१ ।।

तस्मात् - अतः; त्वम् - तुर्; इनन्द्रयानण - इमन्द्रयों को ; आदौ - प्रारम्भ र्ें; नियम्य - मनयमर्त करके ; भरत-
ऋषभ - हे भरत वमं शयों र्ें श्रेि; पाप्मािम् - पाप के र्हान प्रतीक को; प्रजनह - िर्न करो; नह - मनश्चय ही; एिम् -
इस; ज्ञाि - ज्ञान; नवज्ञाि - तर्ा शुद्ध आत्र्ा के वैज्ञामनक ज्ञान का; िाशिम् - संहताम, मवनाश करने वाला ।

इसनलए हे भरतवंनशयों में श्रेष्ठ अजमिु ! प्रारम्भ में ही इनन्द्रयों को वश में करके इस पाप का महाि
प्रतीक (काम) का दमि करो और ज्ञाि तथा आत्म-साक्षात्कार के इस नविाशकताम का वध करो ।

तात्पयम : भगवान् ने अजुमन को प्रारम्भ से ही इमन्द्रय-संयर् करने का उपिेश मिया मजससे वह सबसे पापी शत्रु
कार् का िर्न कर सके जो आत्र्-साक्षात्कार तर्ा आत्र्ज्ञान की उत्कंिा को मवनष्ट करने वाला है । ज्ञान का अर्म है
आत्र् तर्ा अनात्र् के भेि का बोध अर्ामत् यह ज्ञान मक आत्र्ा शरीर नहीं है । मवज्ञान से आत्र्ा की स्वाभामवक
मस्र्मत तर्ा परर्ात्र्ा के सार् उसके सम्बन्ध का मवमशष्ट ज्ञान सूमचत होता है । श्रीमद्भागवत र्ें (२. ९. ३ १ ) इसकी
मववेचना इस प्रकार हुई है -
ज्ञानां परमगह्य
ु ां मे यस्िज्ञानसमस्न्वतम् ।
सरहस्यां तर्ङगां च गृहाण गस्र्तां मया ।।
“आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का ज्ञान अत्यन्त गह्य ु एवं रहस्यर्य है, मकन्तु जब स्वयं भगवान् द्वारा इसके मवमवध पक्षों
की मववेचना की जाती है तो ऐसा ज्ञान तर्ा मवज्ञान सर्झा जा सकता है ।” भगवद्गीता हर्ें आत्र्ा का सार्ान्य तर्ा
मवमशष्ट ज्ञान (ज्ञान तर्ा मवज्ञान) प्रिान करती है । जीव भगवान् का मभन्न अंश हैं , अतः वे भगवान् की सेवा के मलए
हैं । यह चेतना कृ ष्ट्णभावनार्ृत कहलाती है । अतः र्नुष्ट्य को जीवन के प्रारम्भ से इस कृ ष्ट्णभावनार्ृत को सीखना होता
है, मजससे वह पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर तिनुसार कर्म करे ।
कार् ईश्र्वर-प्रेर् का मवकृ त प्रमतमबम्ब है और प्रत्येक जीव के मलए स्वाभामवक है । मकन्तु यमि मकसी को प्रारम्भ
से ही कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मशक्षा िी जाय तो प्राकृ मतक ईश्र्वर-प्रेर् कार् के रूप र्ें मवकृ त नहीं हो सकता । एक बार
ईश्र्वर-प्रेर् के कार् रूप र्ें मवकृ त हो जाने पर इसके र्ौमलक स्वरूप को पुनः प्राप्त कर पाना िःु साध्य हो जाता है । मिर
भी, कृ ष्ट्णभावनार्ृत इतना शमक्तशाली है मक मवलम्ब से प्रारम्भ करने वाला भी भमक्त के मवमध-मवधानों का पालन
करके ईश्र्वरप्रेर्ी बन सकता है । अतः जीवन की मकसी भी अवस्र्ा र्ें, या जब भी इसकी अमनवायमता सर्झी जाय,
र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत या भगवद्भमक्त के द्वारा इमन्द्रयों को वश र्ें करना प्रारम्भ कर सकता है और कार् को भगवत्प्रेर्
र्ें बिल सकता है , जो र्ानव जीवन की पणू मता की चरर् अवस्र्ा है ।

इनन्द्रयानण पराण्याहुररनन्द्रयेभ्यः परं मिः ।

१३४
मिसस्तु परा बुनद्धयो बुद्धे: परतस्तु सः ।। ४२ ।।

इनन्द्रयानण - इमन्द्रयों को; परानण - श्रेि; आहुः - कहा जाता है; इनन्द्रयेभ्यः - इमन्द्रयों से बढकर; परम् -
श्रेि; मिः–र्न; र्नसः- र्न की अपेक्षा; तु - भी; परा - श्रेि; बुनद्धः - बुमद्ध; यः - जो; बुद्धेः - बुमद्ध से भी; परतः -
श्रेि; तु - मकन्तु, सः - वह ।

कमेनन्द्रयाूँ जड पदाथम की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मि इनन्द्रयों से बढकर है, बनु द्ध मि से भी उच्च है और वह
(आत्मा) बुनद्ध से भी बढकर है ।

तात्पयम : इमन्द्रयाँ कार् के कायमकलापों के मवमभन्न द्वार हैं । कार् का मनवास शरीर र्ें है, मकन्तु उसे इमन्द्रय रूपी
झरोखे प्राप्त हैं । अतः कुल मर्लाकर इमन्द्रयाँ शरीर से श्रेि हैं । श्रेि चेतना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत होने पर ये द्वार कार् र्ें
नहीं आते । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें आत्र्ा भगवान् के सार् सीधा सम्बन्ध स्र्ामपत करता है, अतः यहाँ पर वमणमत शारीररक
कायों की श्रेिता परर्ात्र्ा र्ें आकर सर्ाप्त हो जाती है । शारीररक कर्म का अर्म है - इमन्द्रयों के कायम और इन इमन्द्रयों
के अवरोध का अर्म है - सारे शारीररक कर्ों का अवरोध । लेमकन चँमू क र्न समक्रय रहता है, अतः शरीर के र्ौन तर्ा
मस्र्र रहने पर भी र्न कायम करता रहता है - यर्ा स्वप्न के सर्य र्न कायमशील रहता है । मकन्तु र्न के ऊपर भी बुमद्ध
की संकल्पशमक्त होती है और बुमद्ध के ऊपर स्वयं आत्र्ा है । अतः यमि आत्र्ा प्रत्यक्ष रूप र्ें परर्ात्र्ा र्ें रत हो तो
अन्य सारे अधीनस्र् - यर्ा - बुमद्ध, र्न तर्ा इमन्द्रयाँ - स्वतः रत हो जायेंगे । ठोपस्नषर्् र्ें एक ऐसा ही अंश है मजसर्ें
कहा गया है मक इमन्द्रय-मवषय इमन्द्रयों से श्रेि हैं और र्न इमन्द्रय-मवषयों से श्रेि है । अतः यमि र्न भगवान् की सेवा र्ें
मनरन्तर लगा रहता है तो इन इमन्द्रयों के अन्यत्र रत होने की सम्भावना नहीं रह जाती । इस र्नोवृमत्त की मववेचना की जा
चक ु ी है । परां दृष्ट्वा स्नवतदते - यमि र्न भगवान् की मिव्या सेवा र्ें लगा रहे तो तच्ु छ मवषयों र्ें उसके लगने की
सम्भावना नहीं रह जाती । किोपमनषि् र्ें आत्र्ा को र्हान कहा गया है । अतः आत्र्ा इमन्द्रय-मवषयों, इमन्द्रयों, र्न
तर्ा बमु द्ध - इन सबसे ऊपर है । अतः सारी सर्स्या का हल यह ही है मक आत्र्ा के स्वरूप को प्रत्यक्ष सर्झा जाय ।
र्नुष्ट्य को चामहए मक बुमद्ध के द्वारा आत्र्ा की स्वाभामवक मस्र्मत को ढूंढे और मिर र्न को मनरन्तर
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगाये रखे । इससे सारी सर्स्या हल हो जाती है । सार्ान्यतः नविीमक्षत अध्यात्र्वािी को इमन्द्रय-
मवषयों से िरू रहने की सलाह िी जाती है । मकन्तु इसके सार्-सार् र्नुष्ट्य को अपनी बुमद्ध का उपयोग करके र्न को
सशक्त बनाना होता है । यमि कोई बुमद्धपूवमक अपने र्न को भगवान् के शरणागत होकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगाता है,
तो र्न स्वतः सशक्त हो जाता है और यद्यमप इमन्द्रयाँ सपम के सर्ान अत्यन्त बमलष्ट होती हैं, मकन्तु ऐसा करने पर वे
िन्त-मवहीन साँपों के सर्ान अशक्त हो जाएँगी । यद्यमप आत्र्ा बुमद्ध, र्न तर्ा इमन्द्रयों का भी स्वार्ी है तो भी जब तक
इसे कृ ष्ट्ण की संगमत या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें सदृढ नहीं कर मलया जाता तब तक चलायर्ान र्न के कारण नीचे मगरने की
पूरी सम्भावना बनी रहती है ।

एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मािमात्मिा ।


जनह शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ।। ४३ ।।

१३५
एवम्– इस प्रकार; बुद्धेः– बुमद्ध से; परम्– श्रेि; बुद्ध्वा– जानकर; संसत्भ्य– मस्र्र करके ; आत्मािम्– र्न
को; आत्मिा– सुमवचाररत बुमद्ध द्वारा; जनह– जीतो; शत्रुम–् शत्रु को; महा-बाहो– हे र्हाबाहु; काम-रूपम् – कार्
के रूप र्ें; दुरासदम्– िजु ेय ।

इस प्रकार हे महाबाहु अजमिु ! अपिे आपको भौनतक इनन्द्रयों, मि तथा बुनद्ध से परे जाि कर और मि
को सावधाि आध्यानत्मक बुनद्ध (कृ ष्ट्णभाविामृत) से नस्थर करके आध्यानत्मक शनि द्वारा इस काम-रूपी
दुजेय शत्रु को जीतो ।

तात्पयम :भगवद्गीता का यह तृतीय अध्याय मनष्ट्कषमतः र्नष्ट्ु य को मनिेश िेता है मक वह मनमवमशेष शन्ू यवाि को
चरर्-लक्ष्य न र्ान कर अपने आपको भगवान् का शाश्र्वत सेवक सर्झते हुए कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रवृत्त हो । भौमतक
जीवन र्ें र्नुष्ट्य कार् तर्ा प्रकृ मत पर प्रभत्ु व पाने की इच्छा से प्रभामवत होता है । प्रभत्ु व तर्ा इमन्द्रयतृमप्त की इच्छाएँ
बद्धजीव की परर् शत्रु हैं, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत की शमक्त से र्नुष्ट्य इमन्द्रयों, र्न तर्ा बुमद्ध पर मनयन्त्रण रख सकता है ।
इसके मलए र्नुष्ट्य को सहसा अपने मनयतकर्ों को बन्ि करने की आवश्यकता नहीं है , अमपतु धीरे -धीरे
कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत करके भौमतक इमन्द्रयों तर्ा र्न से प्रभामवत हुए मबना अपने शद्ध ु स्वरूप के प्रमत लमक्षत मस्र्र
बुमद्ध से मिव्य मस्र्मत को प्राप्त हुआ जा सकता है । यही इस अध्याय का सारांश है । सांसाररक जीवन की अपररपक्व
अवस्र्ा र्ें िाशममनक मचन्तन तर्ा यौमगक आसनों के अभ्यास से इमन्द्रयों को वश र्ें करने के कृ मत्रर् प्रयासों से
आध्यामत्र्क जीवन प्राप्त करने र्ें सहायता नहीं मर्लती । उसे श्रेि बुमद्ध द्वारा कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रमशमक्षत होना चामहए ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े तृतीय अध्याय ” मदयोग” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

१३६
अध्याय चार
नदव्य ज्ञाि
श्री भगवानुवाच
इमं नववस्वते योगं प्रोिवािहमव्ययम् ।
नववस्वान्मिवे प्राह मिुररक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ।। १ ।।

श्री-भगवाि् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; इमम्– इस; नववस्वते– सूयमिेव को; योगम्– परर्ेश्र्वर के सार् अपने
सम्बन्ध की मवद्या को; प्रोिवाि्– उपिेश मिया; अहम्– र्ैंन;े अव्ययम्– अर्र; नववस्वाि्– मववस्वान् (सूयमिेव के
नार्) ने; मिवे– र्नुष्ट्यों के मपता (वैवस्वत) से; प्राह– कहा; मिुः– र्नुष्ट्यों के मपता ने; इक्ष्वाकवे– राजा इक्ष्वाकु
से; अब्रवीत्– कहा ।

भगवाि् श्रीकृ ष्ट्ण िे कहा – मैंिे इस अमर योगनवद्या का उपदेश सयू मदेव नववस्वाि् को नदया और
नववस्वाि् िे मिुष्ट्यों के नपता मिु को उपदेश नदया और मिु िे इसका उपदेश इक्ष्वाकु को नदया ।

तात्पयमः यहाँ पर हर्ें भगवद्गीता का इमतहास प्राप्त होता है । यह अत्यन्त प्राचीन बताया गया है, जब इसे
सयू मलोक इत्यामि सम्पूणम लोकों के राजा को प्रिान मकया गया र्ा । सर्स्त लोकों के राजा मवशेष रूप से मनवामसयों की
रक्षा के मनमर्त्त होते हैं, अतः राजन्यवगम को भगवद्गीता की मवद्या को सर्झना चामहए मजससे वे नागररकों (प्रजा) पर
शासन कर सकें और उन्हें कार्-रूपी भवबन्धन से बचा सकें । र्ानव जीवन का उद्देश्य भगवान् के सार् अपने शाश्र्वत
सम्बन्ध के आध्यामत्र्क ज्ञान का मवकास है और सारे राजयों तर्ा सर्स्त लोकों के शासनाध्यक्षों को चामहए मक
मशक्षा, संस्कृ मत तर्ा भमक्त द्वारा नागररकों को यह पाि पढ़ाएँ । िसू रे शब्िों र्ें, सारे राजय के शासनाध्यक्ष
कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवद्या का प्रचार करने के मलए होते हैं, मजससे जनता इस र्हामवद्या का लाभ उिा सके और र्नुष्ट्य
जीवन के अवसर का लाभ उिाते हुए सिल र्ागम का अनुसरण कर सके ।
इस र्न्वन्तर र्ें सयू मिेव मववस्वान् कहलाता है यानी सयू म का राजा, जो सौरर्डं ल के अन्तगमत सर्स्त ग्रहों
(लोकों) का उद्गर् है । ब्रह्सांस्हता र्ें (५.५२) कहा गया है –
यचचक्षरु े ष सस्वता स लग्रहाणाां राजा समस्तसरु मस्ू तदरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमस्त सम्भृत ालचक्रो गोस्वन्र्मास्र्पुरुषां तमहां भजास्म ।।
ब्रह्माजी ने कहा, “र्ैं उन श्रीभगवान् गोमवन्ि की पजू ा करता हँ जो आमि परुु ष हैं और मजनके आिेश से सर्स्त
लोकों का राजा सूयम प्रभतू शमक्त तर्ा ऊष्ट्र्ा धारण करता है । यह सूयम भगवान् के नेत्र तुल्य है और यह उनकी
आज्ञानुसार अपनी कक्षा को तय करता है ।”
सूयम सभी लोकों का राजा है तर्ा सूयमिेव (मववस्वान्) सूयम ग्रह पर शासन करता है, जो ऊष्ट्र्ा तर्ा प्रकाश प्रिान
करके अन्य सर्स्त लोकों को अपने मनयन्त्रण र्ें रखता है । सूयम कृ ष्ट्ण के आिेश पर घर्ू ता है और भगवान् कृ ष्ट्ण ने

१३७
मववस्वान् को भगवद्गीता की मवद्या सर्झाने के मलए अपना पहला मशष्ट्य चनु ा । अतः गीता मकसी र्ार्ल ू ी सांसाररक
मवद्यार्ी के मलए कोई काल्पमनक भाष्ट्य नहीं, अमपतु ज्ञान का र्ानक ग्रंर् है, जो अनन्त काल से चला आ रहा है ।
महाभारत र्ें (शास्न्त पवद ३४८.५१-५२) हर्ें गीता का इमतहासइस रूप र्ें प्राप्त होता है–
त्रेतायुगार्ौ च ततो स्ववस्वान्मनवे र्र्ौ ।
मनुश्र्च लो भृत्यथं सुतायेक्ष्वाक्तवे र्र्ौ ।
इक्ष्वा ु णा च स्थतो व्याप्य लो ानवस्स्थतः ।।
“त्रेतायगु के आमि र्ें मववस्वान् ने परर्ेश्र्वर सम्बन्धी इस मवज्ञान का उपिेश र्नु को मिया और र्नष्ट्ु यों के जनक
र्नु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को मिया । इक्ष्वाकु इस पृथ्वी के शासक र्े और उस रघक ु ु ल के पूवमज र्े, मजसर्ें भगवान्
श्रीरार् ने अवतार मलया ।” इससे प्रर्ामणत होता है मक र्ानव सर्ाज र्ें र्हाराज इक्ष्वाकु के काल से
ही भगवद्गीता मवद्यर्ान र्ी ।
इस सर्य कमलयुग के के वल ५,००० वषम व्यतीत हुए हैं जबमक इसकी पूणामयु ४,३२,००० वषम है । इसके पूवम
द्वापरयुग (८,००,००० वषम) र्ा और इसके भी पूवमत्रेतायुग (१२,००,००० वषम) र्ा । इस प्रकार लगभग २०,०५,०००
वषम पूवम र्नु ने अपने मशष्ट्य तर्ा पुत्र इक्ष्वाकु से जो इस पृथ्वी के राजा र्े, श्रीमद्भगवद्गीता कही । वतमर्ान र्नु की आयु
लगभग ३०,५३,००,००० वषम अनुर्ामनत की जाती है मजसर्ें से १२,०४,००,००० वषम बीत चक ु े हैं । यह र्ानते हुए
मक र्नु के जन्र् के पूवम भगवान् ने अपने मशष्ट्य सूयमिेव मववस्वान् को गीता सुनाई, र्ोटा अनुर्ान यह है मक गीता कर् से
कर् १२,०४,००,००० वषम पहले कही गई और र्ानव सर्ाज र्ें यह २० लाख वषों से मवद्यर्ान रही । इसे भगवान् ने
लगभग ५,००० वषम पूवम अजुमन से पुनः कहा । गीता के अनुसार ही तर्ा इसके वक्ता भगवान् कृ ष्ट्ण के कर्न के अनुसार
यहगीता के इमतहास का र्ोटा अनुर्ान है । सूयमिेव मववस्वान् को इसीमलए गीता सुनाई गई क्योंमक वह क्षस्त्रय र्े और
उन सर्स्त क्षमत्रयों के जनक है जो सूयमवंशी हैं । चँमू क भगवद्गीता वेिों के ही सर्ान है क्योंमक इसे श्रीभगवान् ने कहा
र्ा, अतः यह ज्ञान अपौरुषेय है । चँमू क वैमिक आिेशों को यर्ारूप र्ें मबना मकसी र्ानवीय मववेचना के स्वीकार मकया
जाता है िलतः गीताको भी मकसी सांसाररकमववेचना के मबना स्वीकार मकया जाना चामहए । संसारी तामकम कजन
अपनी-अपनी मवमध से गीता के मवषय र्ें मचन्तन कर सकते है, मकन्तु यह यर्ारूप भगवद्गीता नहीं है ।
अतः भगवद्गीता को गुरु-परम्परा से यर्ारूप र्ें ग्रहण करना चामहए । यहाँ पर यह वणमन हुआ है मक भगवान् ने इसे
सूयमिेव से कहा, सूयमिेव ने अपने पुत्र र्नु से और र्नु से अपने पुत्र इक्ष्वाकु से कहा ।

एवं परम्पराप्राप्तनममं राजषमयो नवदु: ।


स कालेिेह महता योगो िष्टः परन्तप ।। २ ।।

एवम्– इस प्रकार; परम्परा– गुरु-परम्परा से; प्राप्तम्– प्राप्त; इमम्– इस मवज्ञान को; राज-ऋषयः– साधु
राजाओ ं ने; नवदुः– जाना; सः– वह ज्ञान; कालेि– कालक्रर् र्ें; इह– इस संसार र्ें; महता– र्हान; योगः– परर्ेश्र्वर
के सार् अपने सम्बन्ध का मवज्ञान, योगमवद्या; िष्टः– मछन्न-मभन्न हो गया; परन्तप– हे शत्रओु ं को िर्न करने वाले,
अजुमन ।

इस प्रकार यह परम नवज्ञाि गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त नकया गया और राजनषमयों िे इसी नवनध से इसे
समझा । नकन्तु कालक्रम में यह परम्परा नछन्ि हो गई, अतः यह नवज्ञाि यथारूप में लुप्त हो गया लगता है ।

१३८
तात्पयम : यहाँ स्पष्ट कहा गया है मक गीता मवशेष रूप से राजमषमयों के मलए र्ी क्योंमक वे इसका उपयोग प्रजा के
ऊपर शासन करने र्ें करते र्े । मनश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के मलए नहीं र्ी मजनसे मकसी को भी
इसका लाभ न मर्लता और जो अपनी-अपनी सनक के अनुसार मवमभन्न प्रकार की मववेचना करते । अतः जैसे ही
असाधु भाष्ट्यकारों के मनमहत स्वार्ों से गीता का र्ल ू उद्देश्य उमछन्न हुआ वैसे ही पुनः गुरु-परम्परा स्र्ामपत करने की
आवश्यकता प्रतीत हुई । पाँच हजार वषम पूवम भगवान् ने स्वयं िेखा मक गुरु-परम्परा टूट चक ु ी है, अतः उन्होंने घोमषत
मकया मक गीता का उद्देश्य नष्ट हो चक ु ा है । इसी प्रकार इस सर्य गीता के इतने स स्
ं करण उपलब्ध हैं (मवशेषतया
अंग्रेजी र्ें) मक उनर्ें से प्रायः सभी प्रार्ामणक गुरु-परम्परा के अनुसार नहीं है । मवमभन्न संसारी मवद्वानों ने गीता की
असख्ं य टीकाएँ की हैं, मकन्तु वे प्रायः सभी श्रीकृ ष्ट्ण को स्वीकार नहीं करते, यद्यमप वे कृ ष्ट्ण के नार् पर अच्छा व्यापार
चलाते हैं । यह आसुरी प्रवृमत्त है, क्योंमक असुरगण ईश्र्वर र्ें मवश्र्वास नहीं करते, वे के वल परर्ेश्र्वर के गुणों का लाभ
उिाते हैं । अतएव अग्रं ेजी र्ें गीता के एक सस्ं करण की मनतान्त आवश्यकता र्ी जो परम्परा (गुरु-परम्परा) से प्राप्त हो ।
प्रस्तुत प्रयास इसी आवश्यकता की पूमतम के उद्देश्य से मकया गया है । भगवद्गीता यथारूप र्ानवता के मलए र्हान वरिान
है, मकन्तु यमि इसे र्ानमसक मचन्तन सर्झा जाय तो यह सर्य का अपव्यय होगा ।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोिः पुरातिः ।


भिोऽनस मे सखा चेनत रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। ३ ।।

सः– वही; एव– मनश्चय ही; अयर्् – यह;मया– र्ेरे द्वारा; ते– तुर्से; अद्य– आज; योगः– योगमवद्या; प्रोिः–
कही गयी; पुरातिः– अत्यन्त प्राचीन; भिः– भक्त; अनस– हो; मे– र्ेरे; सखा– मर्त्र; च– भी; इनत–
अतः; रहस्यम्– रहस्य;नह– मनश्चय ही;एतत्– यह; उत्तमम्– मिव्य ।

आज मेरे द्वारा वही यह प्राचीि योग यािी परमेश्र्वर के साथ अपिे सम्बन्ध का नवज्ञाि, तमु से कहा जा
रहा है, क्योंनक तुम मेरे भि तथा नमत्र हो, अतः तुम इस नवज्ञाि के नदव्य रहस्य को समझ सकते हो ।

तात्पयम : र्नुष्ट्यों की िो श्रेमणयाँ हैं – भक्त तर्ा असुर । भगवान् ने अजुमन को इस मवद्या का पात्र इसीमलए चुना
क्योंमक वह उनका भक्त र्ा । मकन्तु असुर के मलए इस परर् गुह्यमवद्या को सर्झ पाना सम्भव नहीं है । इस परर् ज्ञानग्रंर्
के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं । इनर्ें से कुछ भक्तों की टीकाएँ हैं और कुछ असुरों की । जो टीकाएँ भक्तों द्वारा की गई
हैं वे वास्तमवक हैं, मकन्तु जो असुरों द्वारा की गई हैं वे व्यर्म हैं । अजुमन श्रीकृ ष्ट्ण को भगवान् के रूप र्ें र्ानता है, अतः
जो गीता भाष्ट्य अजुमन के पिमचन्हों का अनुसरण करते हुए मकया गया है वह इस परर्मवद्या के पक्ष र्ें वास्तमवक सेवा
है । मकन्तु असुर भगवान् कृ ष्ट्ण को उस रूप र्ें नहीं र्ानते । वे कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें तरह-तरह की र्नगढंत बातें करते हैं
और वे कृ ष्ट्ण के उपिेश-र्ागम से सार्ान्य जनता को गर्ु राह करते रहते हैं । ऐसे कुर्ागों से बचने के मलए यह एक
चेतावनी है । र्नुष्ट्य को चामहए मक अजुमन की परम्परा का अनुसरण करे और श्रीमद्भगवद्गीता के इस परर्मवज्ञान से
लाभामन्वत हो ।

अजुमन उवाच

१३९
अपरं भवतो जन्म परं जन्म नववस्वतः ।
कथमेतनद्वजािीयां त्वमादौ प्रोिवानिनत ।। ४ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; अपरम्– अवामचीन, कमनि; भवतः– आपका; जन्म– जन्र्; परम्– श्रेि
(जयेि); जन्म– जन्र्; नववस्वतः– सूयमिेव का; कथम्– कै से; एतत्– यह; नवजािीयाम्– र्ैं सर्झँ;ू त्वम्–
तुर्ने; आदौ– प्रारम्भ र्ें; प्रोिवाि्– उपिेश मिया; इनत– इस प्रकार ।

अजमिु िे कहा – सूयमदेव नववस्वाि् आप से पहले हो चुके (जयेष्ठ) हैं, तो निर मैं कै से समझूूँ नक प्रारम्भ
में भी आपिे उन्हें इस नवद्या का उपदेश नदया था ।

तात्पयम : जब अजुमन भगवान् के र्ाने हुए भक्त हैं तो मिर उन्हें कृ ष्ट्ण के वचनों पर मवश्र्वास क्यों नहीं हो रहा
र्ा ? तथ्य यह है मक अजुमन यह मजज्ञासा अपने मलए नहीं कर रहा है, अमपतु यह मजज्ञासा उन सबों के मलए है, जो
भगवान् र्ें मवश्र्वास नहीं करते, अर्वा उन असुरों के मलए है, मजन्हें यह मवचार पसन्ि नहीं है मक कृ ष्ट्ण को भगवान्
र्ाना जाय । उन्हीं के मलए अजुमन यह बात इस तरह पूछ रहा है, र्ानो वह स्वयं भगवान् या कृ ष्ट्ण से अवगत न हो ।
जैसा मक िसवें अध्याय र्ें स्पष्ट हो जायेगा, अजुमन भलीभाँमत जानता र्ा मक कृ ष्ट्ण श्रीभगवान् हैं और वे प्रत्येक वस्तु के
र्ल ू स्त्रोत हैं तर्ा ब्रह्म की चरर् सीर्ा हैं । मनस्सन्िेह, कृ ष्ट्ण इस पृथ्वी पर िेवकी के पुत्र रूप र्ें भी अवतीणम हुए ।
सार्ान्य व्यमक्त के मलए यह सर्झ पाना अत्यन्त कमिन है मक कृ ष्ट्ण मकस प्रकार उसी शाश्र्वत आमिपुरुष श्रीभगवान् के
रूप र्ें बने रहे । अतः इस बात को स्पष्ट करने के मलए ही अजुमन ने कृ ष्ट्ण से यह प्रश्न पूछा, मजससे वे ही प्रार्ामणक रूप
र्ें बताएँ । कृ ष्ट्ण परर् प्रर्ाण हैं, यह तथ्य आज ही नहीं अनन्तकाल से सारे मवश्र्व द्वारा स्वीकार मकया जाता रहा है ।
के वल असरु ही इसे अस्वीकार करते रहे हैं । जो भी हो, चँमू क कृ ष्ट्ण सवमस्वीकृ त परर् प्रर्ाण हैं, अतः अजमनु उन्हीं से
प्रश्न करता है, मजससे कृ ष्ट्ण स्वयं बताएँ और असुर तर्ा उनके अनुयायी मजस भाँमत अपने मलए तोड़-र्रोड़ करके उन्हें
प्रस्ततु करते रहे हैं, उससे बचा जा सके । यह प्रत्येक व्यमक्त के मलए आवश्यक है मक अपने कल्याण के मलए वह
कृ ष्ट्णमवद्या को जाने । अतः जब कृ ष्ट्ण स्वयं अपने मवषय र्ें बोल रहे हों तो यह सारे मवश्र्व के मलए शभु है । कृ ष्ट्ण द्वारा
की गई ऐसी व्याख्याएँ असुरों को भले ही मवमचत्र लगें, क्योंमक वे अपने ही दृमष्टकोण से कृ ष्ट्ण का अध्ययन करते हैं,
मकन्तु जो भक्त हैं वे साक्षात् कृ ष्ट्ण द्वारा उच्चररत वचनों का हृिय से स्वागत करते हैं । भक्तगण कृ ष्ट्ण के ऐसे प्रार्ामणक
वचनों की सिा पूजा करें गे, क्योंमक वे लोग उनके मवषय र्ें अमधकामधक जानने के मलए उत्सुक रहते हैं । इस तरह
नामस्तकगण जो कृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्त र्ानते हैं वे भी कृ ष्ट्ण को अमतर्ानव, समच्चिानन्ि मवग्रह, मिव्य, मत्रगुणातीत
तर्ा मिक्काल के प्रभाव से परे सर्झ सकें गे । अजुमन की कोमट के श्रीकृ ष्ट्ण-भक्त को कभी भी श्रीकृ ष्ट्ण के मिव्य स्वरूप
के मवषय र्ें कोई भ्रर् नहीं हो सकता । अजुमन के भगवान् के सर्क्ष ऐसा प्रश्न उपमस्र्त करने का उद्देश्य उन व्यमक्तयों की
नमस्तक्तावािी प्रवृमत्त को चनु ौती िेना र्ा, जो कृ ष्ट्ण को भौमतक प्रकृ मत के गुणों के अधीन एक सर्ान्य व्यमक्त र्ानते हैं ।

श्रीभगवानवु ाच
बहनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चाजमिु ।
तान्यहं वेद सवामनण ि त्वं वेत्थ परन्तप ।। ५ ।।

१४०
श्री-भगवान् उवाच—श्रीभगवान् ने कहा; बहमन—अनेक; मे—मेरे; व्यतीतामन—बीत चक ु े ; जन्मामन—
जन्म; तव—तुम्हारे ; च—भी; अजपनु —हे अजुतन; तामन—उन; अहम्—मैं; वेद—जानता ह;ूँ सवापमण—सबों को;
न—नहीं; त्वम्—तुम; वेत्थ— जानते हो; परन्तप—हे शत्रुओ ं का दमन करने वाले ।

श्रीभगवाि् िे कहा – तुम्हारे तथा मेरे अिेकािेक जन्म हो चुके हैं । मुझे तो उि सबका स्मरण है, नकन्तु
हे परंतप! तुम्हें उिका स्मरण िहीं रह सकता है ।

तात्पयम :ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३३) हर्ें भगवान् के अनेकानेक अवतारों की सूचना प्राप्त होती है । उसर्ें कहा गया
है –
अिैतमचयुतमनास्र्मनन्तरूपमायां पुराणपुरुषां नवयौवेन च ।
वेर्ेषु र्लु दभमर्ल ु दभमात्मभिौ गोस्वन्र्मास्र्पुरुषां तमहां भजास्म ।।
“र्ैं उन आमि पुरुष श्री भगवान् गोमवन्ि की पूजा करता हँ जो अद्वैत,अच्युत तर्ा अनामि हैं । यद्यमप अनन्त रूपों
र्ें उनका मवस्तार है, मकन्तु तो भी वे आद्य, पुरातन तर्ा मनत्य नवयौवन युक्त रहते हैं । श्रीभगवान् के ऐसे
समच्चिानन्िरूप को प्रायः श्रेि वैमिक मवद्वान जानते हैं, मकन्तु मवशुद्ध अनन्य भक्तों को तो उनके िशमन मनत्य होते रहते
हैं ।”
ब्रह्मसांस्हता र्ें यह भी कहा गया है –
रामास्र्मस्ु तदषु लास्नयमेन स्तष्ठन् नानावतार रोर्् भवु नेषु स् न्तु ।
ृ ष्ण स्वयां समभवत् परमः पुमान् यो गोस्वन्र्मास्र्पुरुषां तमहां भजास्म ।।
“र्ैं उन श्रीभगवान् गोमवन्ि की पूजा करता हँ जो रार्, नृमसंह आमि अवतारों तर्ा अंशावतारों र्ें मनत्य मस्र्त
रहते हुए भी कृ ष्ट्ण नार् से मवख्यात आमि-परुु ष हैं और जो स्वयं भी अवतररत होते हैं ।”
वेिों र्ें भी कहा गया है मक अद्वैत होते हुए भी भगवान् असंख्य रूपों र्ें प्रकट होते हैं । वे उस वैियू मर्मण के
सर्ान हैं जो अपना रंग पररवमतमत करते हुए भी एक ही रहता है । इन सारे रूपों को मवशद्ध ु मनष्ट्कार् भक्त ही सर्झ पाते
हैं; के वल वेिों के अध्ययन से उनको नहीं सर्झा जा सकता (वेर्ेषु र्ल ु दभमर्ल
ु दभमात्मभिौ)। अजुमन जैसे भक्त कृ ष्ट्ण के
मनत्य सखा हैं और जब भी भगवान् अवतररत होते हैं तो उनके पाषमि भक्त भी मवमभन्न रूपों र्ें उनकी सेवा करने के
मलए उनके सार्-सार् अवतार लेते हैं । अजुमन ऐसा ही भक्त है और इस श्लोक से पता चलता है मक लाखों वषम पूवम जब
भगवान् कृ ष्ट्ण ने भगवद्गीता का प्रवचन सूयमिेव मववस्वान् से मकया र्ा तो उस सर्य अजुमन भी मकसी मभन्न रूप र्ें
उपमस्र्त र्े । मकन्तु भगवान् तर्ा अजुमन र्ें यह अन्तर है मक भगवान् ने यह घटना याि राखी, मकन्तु अजुमन उसे याि
नहीं रख सका । अंशरूप जीवात्र्ा तर्ा परर्ेश्र्वर र्ें यही अन्तर है । यद्यमप अजुमन को यहाँ परर् शमक्तशाली वीर के रूप
र्ें सम्भोमधत मकया गया है, जो शत्रुओ ं का िर्न कर सकता है, मकन्तु मवगत जन्र्ों र्ें जो घटनाएँ घटी हैं, उन्हें स्र्रण
रखने र्ें वह अक्षर् है । अतः भौमतक दृमष्ट से जीव चाहे मकतना ही बड़ा क्यों न हो, वह कभी परर्ेश्र्वर की सर्ता नहीं
कर सकता । भगवान् का मनत्य सगं ी मनमश्चत रूप से र्क्त ु परुु ष होता है, मकन्तु वह भगवान् के तल्ु य नहीं
होता । ब्रह्मसांस्हता र्ें भगवान् को अचयुत कहा गया मजसका अर्म होता है मक वे भौमतक सम्पकम र्ें रहते हुए भी अपने
को नहीं भल ू ते । अतः भगवान् तर्ा जीव कभी भी सभी तरह से एकसर्ान नहीं हो सकते, भले ही जीव अजमनु के
सर्ान र्क्तु पुरुष क्यों न हो । यद्यमप अजुमन भगवान् का भक्त है, मकन्तु कभी-कभी वह भी भगवान् की प्रकृ मत को भल ू
जाता है । मकन्तु िैवी कृ पा से भक्त तुरन्त भगवान् की अच्युत मस्र्मत को सर्झ जाता है जबमक अभक्त या असुर इस

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मिव्य प्रकृ मत को नहीं सर्झ पाता। िलस्वरूप गीता के मववरण आसुरी र्मस्तष्ट्कों र्ें नहीं चढ़ पाते । कृ ष्ट्ण को लाखों
वषम पूवम सम्पन्न कायों की स्र्ृमत बनी हुई है मकन्तु अजुमन को स्र्रण नहीं है यद्यमप अजुमन तर्ा कृ ष्ट्ण िोनों ही शाश्र्वत
स्वभाव के हैं । यहाँ पर हर्ें यह भी िेखने को मर्लता है मक शरीर-पररवतमन के सार्-सार् जीवात्र्ा सब कुछ भल ू जाता
है, मकन्तु कृ ष्ट्ण सब स्र्रण रखते हैं, क्योंमक वे अपने समच्चिानन्ि शरीर को बिलते नहीं । वे अद्वैत हैं मजसका अर्म है
मक उनके शरीर तर्ा उनकी आत्र्ा र्ें कोई अन्तर नहीं है । उनसे सम्बंमधत हर वस्तु आत्र्ा है जबमक बद्धजीव अपने
शरीर से मभन्न होता है । चँमू क भगवान् के शरीर और आत्र्ा अमभन्न हैं, अतः उनकी मस्र्मत तब भी सार्ान्य जीव से
मभन्न बनी रहती है, जब वे भौमतक स्तर पर अवतार लेते हैं । असरु गण भगवान् की इस मिव्य प्रकृ मत से तालर्ेल नहीं
बैिा पाते, मजसकी व्याख्या अगले श्लोक र्ें भगवान् स्वयं करते हैं ।

अजोऽनप सन्िव्ययात्मा भूतािामीश्र्वरोऽनप सि् ।


प्रकृ नतं स्वामनधष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ।। ६ ।।

अजः– अजन्र्ा; अनप– तर्ामप; सि्– होते हुए; अव्यय– अमवनाशी; आत्मा– शरीर; भूतािाम्– जन्र् लेने
वालों के ; ईश्र्वरः– परर्ेश्र्वर; अनप– यद्यमप; सि्– होने पर; प्रकृ नतम्– मिव्य रूप र्ें; स्वाम्– अपने; अनधष्ठाय– इस
तरह मस्र्त; सम्भवानम– र्ैं अवतार लेता ह;ँ आत्म-मायया– अपनी अन्तरंगा शमक्त से ।

यद्यनप मैं अजन्मा तथा अनविाशी हूँ और यद्यनप मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं
अपिे आनद नदव्य रूप में प्रकट होता हूँ ।

तात्पयम : भगवान् ने अपने जन्र् की मवलक्षणता बतलाई है । यद्यमप वे सार्ान्य परुु ष की भाँमत प्रकट हो सकते
हैं, मकन्तु उन्हें मवगत अनेकानेक ”जन्र्ों” की पूणम स्र्ृमत बनी रहती है, जबमक सार्ान्य पुरुष को कुछ ही घंटे पूवम की
घटना स्र्रण नहीं रहती । यमि कोई पछ ू े मक एक मिन पवू म इसी सर्य तर्ु क्या कर रहे र्े, तो सार्ान्य व्यमक्त के मलए
इसका तत्काल उत्तर िे पाना कमिन होगा । उसे उसको स्र्रण करने के मलए अपनी बुमद्ध को कुरे िना पड़ेगा मक वह कल
इसी सर्य क्या कर रहा र्ा । मिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्र्वर या कृ ष्ट्ण घोमषत करते रहते हैं । र्नुष्ट्य को ऐसी
मनरर्मक घोषणाओ ं से भ्रमर्त नहीं होना चामहए । अब भगवान् िबु ारा अपनी प्रकृ मत या स्वरूप की व्याख्या करते
हैं । प्रकृ मत का अर्म स्वभाव तर्ा स्वरूप िोनों है । भगवान् कहते हैं मक वे अपने ही शरीर र्ें प्रकट होते हैं । वे सार्ान्य
जीव की भाँमत शरीर-पररवतमन नहीं करते । इस जन्र् र्ें बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, मकन्तु अगले
जन्र् र्ें िसू रा शरीर रहता है । भौमतक जगत् र्ें जीव का कोई स्र्ायी शरीर नहीं है, अमपतु वह एक शरीर से िसू रे र्ें
िेहान्तरण करता रहता है । मकन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते । जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शमक्त से वे
अपने उसी आद्य शरीर र्ें प्रकट होते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, श्रीकृ ष्ट्ण इस जगत् र्ें अपने आमि शाश्र्वत स्वरूप र्ें िो
भजु ाओ ं र्ें बाँसरु ी धारण मकये अवतररत होते हैं । वे इस भौमतक जगत् से मनष्ट्कलमु षत रहकर अपने शाश्र्वत शरीर
समहत प्रकट होते हैं । यद्यमप वे अपने उसी मिव्य शरीर र्ें प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वार्ी होते हैं तो भी ऐसा
लगता है मक वे सार्ान्य जीव की भाँमत प्रकट हो रहे हैं । यद्यमप उनका शरीर भौमतक शरीर की भाँमत क्षीण नहीं होता
मिर भी ऐसा प्रतीत होता है मक भगवान् कृ ष्ट्ण बालपन से कुर्ारावस्र्ा तर्ा कुर्ारावस्र्ा से तरुणावस्र्ा प्राप्त करते
हैं । मकन्तु आश्चयम तो यह है मक वे कभी युवावस्र्ा से आगे नहीं बढ़ते । कुरुक्षेत्र युद्ध के सर्य उनके अनेक पौत्र र्े या

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िसू रे शब्िों र्ें, वे भौमतक गणना के अनुसार कािी वृद्ध र्े । मिर भी वे बीस-पच्चीस वषम के युवक जैसे लगते र्े । हर्ें
कृ ष्ट्ण की वृद्धावस्र्ा का कोई मचत्र नहीं मिखता, क्योंमक वे कभी भी हर्ारे सर्ान वृद्ध नहीं होते यद्यमप वे तीनों काल
र्ें – भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्यकाल र्ें – सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं । न तो उनके शरीर और न ही बुमद्ध कभी क्षीण होती
या बिलती है । अतः यः स्पष्ट है मक इस जगत् र्ें रहते हुए भी वे उसी अजन्र्ा समच्चिानन्िरूप वाले हैं, मजनके मिव्य
शरीर तर्ा बुमद्ध र्ें कोई पररवतमन नहीं होता । वस्तुतः उनका अमवभामव और मतरोभाव सूयम के उिय तर्ा अस्त के सर्ान
है जो हर्ारे सार्ने से घूर्ता हुआ हर्ारी दृमष्ट से ओझल हो जाता है । जब सूयम हर्ारी दृमष्ट से ओझल रहता है तो हर्
सोचते हैं मक सयू म अस्त हो गया है और जब वह हर्ारे सर्क्ष होता है तो हर् सोचते हैं मक वह मक्षमतज र्ें है । वस्ततु ः
सूयम मस्र्र है, मकन्तु अपनी अपूणम एवं त्रुमटपूणम इमन्द्रयों के कारण हर् सूयम को उिय और अस्त होते पररकमल्पत करते
हैं । और चँमू क भगवान् का प्राकट् य तर्ा मतरोधान सार्ान्य जीव से मभन्न हैं अतः स्पष्ट है मक वे शाश्र्वत हैं, अपनी
अन्तरंगा शमक्त के कारण आनन्िस्वरूप हैं और इस भौमतक प्रकृ मत द्वारा कभी कलुमषत नहीं होते । वेिों द्वारा भी पुमष्ट
की जाती है मक भगवान् अजन्र्ा होकर भी अनेक रूपों र्ें अवतररत होते रहते हैं, मकन्तु तो भी वे शरीर-पररवतमन नहीं
करते । श्रीमद्भागवत र्ें वे अपनी र्ाता के सर्क्ष नारायण रूप र्ें चार भजु ाओ ं तर्ा षड् ऐश्र्वयो से युक्त होकर प्रकट होते
हैं । उनका आद्य शाश्र्वत रूप र्ें प्राकट् य उनकी अहैतुकी कृ पा है जो जीवों को प्रिान की जाती है मजससे वे भगवान् के
यर्ारूप र्ें अपना ध्यान के मन्द्रत कर सकें न मक मनमवमशेषवामियों द्वारा र्नोधर्म या कल्पनाओ ं पर आधाररत रूप
र्ें । मवश्र्वकोश के अनुसार र्ाया या आत्र्-र्ाया शब्ि भगवान् की अहैतुकी कृ पा का सूचक है भगवान् अपने सर्स्त
पूवम अमवभामव-मतरोभावों से अवगत रहते हैं, मकन्तु सार्ान्य जीव को जैसे ही नवीन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूवम
शरीर के मवषय र्ें सब कुछ भल ू जाता है । वे सर्स्त जीवों के स्वार्ी हैं, क्योंमक इस धरा पर रहते हुए वे आश्चयम जनक
तर्ा अमतर्ानवीय लीलाएँ करते रहते हैं । अतः भगवान् मनरन्तर वही परर्सत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तर्ा आत्र्ा
र्ें या उनके गुण तर्ा शरीर र्ें कोई अन्तर नहीं होता । अब यह प्रश्न मकया जा सकता है मक इस संसार र्ें भगवान् क्यों
आमवभमतू और मतरोभतू होते रहते हैं? अगले श्लोक र्ें इसकी व्याख्या की गई है ।

यदा यदा नह धममस्य ग्लानिभमवनत भारत ।


अभ्युत्थािमधमम स्य तदात्मािं सृजाम्यहम् ।। ७ ।।

यदा यदा– जब भी और जहाँ भी; नह– मनश्चय ही; धममस्य– धर्म की; ग्लानिः– हामन, पतन; भवनत– होती
है; भारत– हे भारतवंशी; अभ्युत्थािम्– प्रधानता; अधममस्य– अधर्म की; तदा– उस सर्य; आत्मािम्– अपने
को; सृजानम– प्रकट करता ह;ँ अहम्– र्ैं ।

हे भरतवंशी! जब भी और जहाूँ भी धमम का पति होता है और अधमम की प्रधािता होिे लगती है, तब
तब मैं अवतार लेता हूँ ।

तात्पयम : यहाँ पर सृजास्म शब्ि र्हत्त्वपूणम है । सृजामर् सृमष्ट के अर्म र्ें नहीं प्रयुक्त हो सकता, क्योंमक मपछले
श्लोक के अनसु ार भगवान् के स्वरूप या शरीर की सृमष्ट नहीं होती, क्योंमक उनके सारे स्वरूप शाश्र्वत रूप से मवद्यर्ान
रहने वाले हैं । अतः सृजास्म का अर्म है मक भगवान् स्वयं यर्ारूप प्रकट होते हैं । यद्यमप भगवान् कायमक्रर्अनुसार
अर्ामत् ब्रह्मा के एक मिन र्ें सातवें र्नु के २८ वें युग र्ें द्वापर के अन्त र्ें प्रकट होते हैं, मकन्तु वे इस सर्य का पालन

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करने के मलए बाध्य नहीं हैं, क्योंमक वे स्वेच्छा से कर्म करने के मलए स्वतन्त्र हैं । अतः जब भी अधर्म की प्रधानता तर्ा
धर्म का लोप होने लगता है, तो वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं । धर्म के मनयर् वेिों र्ें मिये हुए हैं और यमि इन मनयर्ों के
पालन र्ें कोई त्रुमट आती है तो र्नुष्ट्य अधामर्मक हो जाता है । श्रीमद्भागवत र्ें बताया गया है मक ऐसे मनयर् भगवान् के
मनयर् हैं । के वल भगवान् ही मकसी धर्म की व्यवस्र्ा कर सकते हैं । वेि भी र्ल ू तः ब्रह्मा के हृिय र्ें से भगवान् द्वारा
उच्चाररत र्ाने जाते हैं । अतः धर्म के मनयर् भगवान् के प्रत्यक्ष आिेश हैं (धमं तु साक्षाद्भगवत्प्रणीतम् ) । भगवद्गीता र्ें
आद्योपान्त इन्हीं मनयर्ों का संकेत है । वेिों का उद्देश्य परर्ेश्र्वर के आिेशानुसार ऐसे मनयर्ों की स्र्ापना करना है
और गीता के अन्त र्ें भगवान् स्वयं आिेश िेते हैं मक सवोच्च धर्म उनकी ही शरण ग्रहण करना है ।वैमिक मनयर् जीव
को पूणम शरणागमत की ओर अग्रसर कराने वाले हैं और जब भी असुरों द्वारा इन मनयर्ों र्ें व्यावधान आता है तभी
भगवान् प्रकट होते हैं । श्रीमद्भागवत परु ाण से हर् जानते हैं मक बद्ध ु कृ ष्ट्ण के अवतार हैं, मजनका प्रािभु ामव उस सर्य
हुआ जब भौमतकतावाि का बोलबाला र्ा और भौमतकतावािी लोग वेिों को प्रर्ाण बनाकर उसकी आड़ ले रहे र्े ।
यद्यमप वेिों र्ें मवमशष्ट कायों के मलए पशुबमल के मवषय र्ें कुछ सीमर्त मवधान र्े, मकन्तु आसुरी वृमत्तवाले लोग वैमिक
मनयर्ों का सन्िभम मिए मबना पश-ु बमल को अपनाये हुए र्े । भगवान् बुद्ध इस अनाचार को रोकने तर्ा अमहंसा के
वैमिक मनयर्ों की स्र्ापना करने के मलए अवतररत हुए । अतः भगवान् के प्रत्येक अवतार का मवशेष उद्देश्य होता है
और इन सबका वणमन शास्त्रों र्ें हुआ है । यह तथ्य नहीं है मक के वल भारत की धरती र्ें भगवान् अवतररत होते हैं । वे
कहीं भी और मकसी भी काल र्ें इच्छा होने पर प्रकट हो सकते हैं । वे प्रत्येक अवतार लेने पर धर्म के मवषय र्ें उतना ही
कहते हैं, मजतना मक उस पररमस्र्मत र्ें जन-सर्िु ाय मवशेष सर्झ सकता है । लेमकन उद्देश्य एक ही रहता है – लोगों को
ईशभावनाभामवत करना तर्ा धामर्मक मनयर्ों के प्रमत आज्ञाकारी बनाना । कभी वे स्वयं प्रकट होते हैं तो कभी अपने
प्रार्ामणक प्रमतमनमध को अपने पुत्र या िास के रूप र्ें भेजते हैं, या वेश बिल कर स्वयं ही प्रकट होते हैं ।
भगवद्गीता के मसद्धान्त अजुमन से कहे गये र्े,अतः वे मकसी भी र्हापुरुष के प्रमत हो सकते र्े , क्योंमक अजुमन
ससं ार के अन्य भागों के सार्ान्य पुरुषों की अपेक्षा अमधक जागरूक र्ा । िो और िो मर्लाकर चार होते हैं, यह
गमणतीय मनयर् प्रार्मर्क कक्षा के मवद्यार्ी के मलए उतना ही सत्य है, मजतना मक उच्च कक्षा के मवद्यार्ी के मलए । तो
भी गमणत उच्चस्तर तर्ा मनम्नस्तर का होता है । अतः भगवान् प्रत्येक अवतार र्ें एक-जैसे मसद्धान्तों की मशक्षा िेते हैं,
जो पररमस्र्मतयों के अनुसार उच्च या मनम्न प्रतीत होता हैं । जैसा मक आगे बताया जाएगा धर्म के उच्चतर मसद्धान्त
चारों वणामश्रर्ों को स्वीकार करने से प्रारम्भ होते हैं । अवतारों का एकर्ात्र उद्देश्य सवमत्र कृ ष्ट्णभावनार्ृत को उद्बोमधत
करना है । पररमस्र्मत के अनुसार यह भावनार्ृत प्रकट तर्ा अप्रकट होता है ।

पररत्राणाय साधूिां नविाशाय च दुष्ट्कृताम् ।


धममसंस्थापिाथामय सम्भवानम युगे युगे ।। ८ ।।

पररत्राणाय– उद्धार के मलए; साधूिाम्– भक्तों के ; नविाशाय– संहार के मलए; च– तर्ा; दुष्ट्कृताम्– िष्टु ों
के ; धमम– धर्म के ; सस्ं थापि-अथामय– पनु ः स्र्ामपत करने के मलए; सम्भवानम– प्रकट होता ह;ँ यगु े– यगु ; यगु े– यगु
र्ें ।

भिों का उद्धार करिे, दुष्टों का नविाश करिे तथा धमम की निर से स्थापिा करिे के नलए मैं हर युग में
प्रकट होता हूँ ।

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तात्पयम :भगवद्गीता के अनुसार साधु (पमवत्र पुरुष) कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त है । अधामर्मक लगने वाले व्यमक्त
र्ें यमि पूणम कृ ष्ट्णचेतना हो, तो उसे साधु सर्झना चामहए । र्ष्ु ृ ताम् उन व्यमक्तयों के मलए आया है जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत
की परवाह नहीं करते । ऐसे िष्ट्ु कृतार्् या उपद्रवी, र्ख ु म तर्ा अधर् व्यमक्त कहलाते हैं, भले ही वे सांसाररक मशक्षा से
मवभमू षत क्यों न हो । इसके मवपरीत यमि कोई शत-प्रमतशत कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगा रहता है तो वह मवद्वान् या सुसंस्कृ त
न भी हो मिर भी वह साधु र्ाना जाता है । जहाँ तक अनीश्र्ववामियों का प्रश्न है, भगवान् के मलए आवश्यक नहीं मक वे
इनके मवनाश के मलए उस रूप र्ें अवतररत हों मजस रूप र्ें वे रावण तर्ा कंस का वध करने के मलए हुए र्े । भगवान्
के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने र्ें सक्षर् हैं । मकन्तु भगवान् तो अपने उन मनष्ट्कार् भक्तों को तुष्ट
करने के मलए मवशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असरु ों द्वारा मनरन्तर तगं मकये जाते हैं । असरु भक्त को तगं करता है,
भले ही वह उसका सगा-सम्बन्धी क्यों न हो । यद्यमप प्रिाि् र्हाराज महरण्यकमशपु के पुत्र र्े, मकन्तु तो भी वे अपने
मपता द्वारा उत्पीमड़त र्े । इसी प्रकार कृ ष्ट्ण की र्ाता िेवकी यद्यमप कंस की बहन र्ीं, मकन्तु उन्हें तर्ा उनके पमत
वासुिेव को इसीमलए िमण्डत मकया गया र्ा क्योंमक उनसे कृ ष्ट्ण को जन्र् लेना र्ा । अतः भगवान् कृ ष्ट्ण र्ख्ु यतः िेवकी
के उद्धार करने के मलए प्रकट हुए र्े, कंस को र्ारने के मलए नहीं । मकन्तु ये िोनों कायम एकसार् सम्पन्न हो गये । अतः
यह कहा जाता है मक भगवान् भक्त का उद्धार करने तर्ा िष्टु असुरों का संहार करने के मलए मवमभन्न अवतार लेते हैं ।
कृ ष्ट्णिास कमवराज कृ त चैतन्य चररतामृत के मनम्नमलमखत श्लोकों (र्ध्य २०.२६३-२६४) से अवतार के
मसद्धान्तों का सारांश प्रकट होता है –
सृस्ष्टहेतु एइ मस्ू तद प्रपञ्चे अवतरे ।
सेइ ईश्र्वरमस्ू तद ‘अवतार’ नाम धरे ।।
मायातीत परव्योमे सबार अवस्थान ।
स्वश्र्वे अवतरी’ धरे ‘अवतार’ नाम ।।
“अवतार अर्वा ईश्र्वर का अवतार भगवद्धार् से भौमतक प्राक्ट्य हेतु होता है । ईश्र्वर का वह मवमशष्ट रूप जो
इस प्रकार अवतररत होता है अवतार कहलाता है । ऐसे अवतार भगवद्धार् र्ें मस्र्त रहते हैं । जब यह भौमतक सृमष्ट र्ें
उतरते हैं, तो उन्हें अवतार कहा जाता है ।”
अवतार इसी तरह के होते हैं तर्ा पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, शक्त्यावेश अवतार, र्न्वन्तर अवतार
तर्ा युगावतार – इस सबका इस ब्रह्माण्ड र्ें क्रर्ानुसार अवतरण होता है । मकन्तु भगवान कृ ष्ट्ण आमि भगवान् हैं और
सर्स्त अवतारों के उद्गर् हैं । भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण शद्ध
ु भक्तों की मचन्ताओ ं को िरू करने के मवमशष्ट प्रयोजन से अवतार लेते
हैं, जो उन्हें उनकी र्ूल वृन्िावन लीलाओ ं के रूप र्ें िेखने के उत्सुक रहते हैं । अतः कृ ष्ट्ण अवतार का र्ूल उद्देश्य
अपने मनष्ट्कार् भक्तों को प्रसन्न करना है ।
भगवान् का वचन है मक वे प्रत्येक युग र्ें अवतररत होते रहते हैं । इससे सूमचत होता है मक वे कमलयुग र्ें भी
अवतार लेते हैं । जैसा मक श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है मक कमलयुग के अवतार भगवान् चैतन्य र्हाप्रभु हैं मजन्होंने
सक ं ीतमन आन्िोलन के द्वारा कृ ष्ट्णपजू ा का प्रसार मकया और परू े भारत र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत का मवस्तार मकया । उन्होंने यह
भमवष्ट्यवाणी की मक संकीतमन की यह संस्कृ मत सारे मवश्र्व के नगर-नगर तर्ा ग्रार्-ग्रार् र्ें िै लेगी । भगवान् चैतन्य को
गप्तु रूप र्ें, मकन्तु प्रकट रूप र्ें नहीं, उपमनषिों, र्हाभारत तर्ा भागवत जैसे शास्त्रों के गह्य
ु अश ं ों र्ें वमणमत मकया गया
है । भगवान् कृ ष्ट्ण के भक्तगण भगवान् चैतन्य के संकीतमन आन्िोलन द्वारा अत्यमधक आकमषमत रहते हैं । भगवान् का
यह अवतार िष्टु ों का मवनाश नहीं करता, अमपतु अपनी अहैतुकी कृ पा से उनका उद्धार करता है ।

१४५
जन्म कमम च मे नदव्यमेवं यो वेनत्त तत्त्वतः ।
त्यक्त्वा देहं पुिजम न्म िैनत मामेनत सोऽजमिु ।। ९ ।।

जन्म– जन्र्; कमम– कर्म; च– भी; मे– र्ेरे; नदव्यम्– मिव्य; एवम्– इस प्रकार; यः– जो कोई; वेनत्त– जानता
है; तत्त्वतः– वास्तमवकता र्ें; त्यक्त्वा– छोड़कर; देहम्– इस शरीर को; पिु ः– मिर; जन्म– जन्र्; ि– कभी
नहीं; एनत– प्राप्त करता है; माम्– र्झु को; एनत– प्राप्त करता है;माम्– र्झु को;एनत– प्राप्त करता है;सः– वह; अजमिु –
हे अजुमन ।

हे अजमिु ! जो मेरे अनवभामव तथा कमों की नदव्य प्रकृ नत को जािता है, वह इस शरीर को छोडिे पर इस
भौनतक सस ं ार में पुिः जन्म िहीं लेता, अनपतु मेरे सिाति धाम को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : छिे श्लोक र्ें भगवान् के मिव्यधार् से उनके अवतरण की व्याख्या हो चक ु ी है । जो र्नुष्ट्य भगवान् के
अमवभामव के सत्य को सर्झ लेता है वह इस भवबन्धन से र्क्त ु हो जाता है और इस शरीर को छोड़ते ही वह तुरन्त
भगवान् के धार् को लौट जाता है । भवबन्धन से जीव की ऐसी र्ुमक्त सरल नहीं है । मनमवमशेषवािी तर्ा योगीजन पयामप्त
कष्ट तर्ा अनेकानेक जन्र्ों के बाि ही र्मु क्त प्राप्त कर पाते हैं । इतने पर भी उन्हें जो र्मु क्त भगवान् की मनराकार
ब्रह्मजयोमत र्ें तािात्म्य प्राप्त करने के रूप र्ें मर्लती है, वह आंमशक होती है और इस भौमतक संसार र्ें लौट जाने का
भय बना रहता है । मकन्तु भगवान् के शरीर की मिव्य प्रकृ मत तर्ा उनके कायमकलापों को सर्झने र्ात्र से भक्त इस शरीर
का अन्त होने पर भगवद्धार् को प्राप्त करता है और उसे इस संसार र्ें लौट आने का भय नहीं रह जाता। ब्रह्मसांस्हता र्ें
(५.३३) यह बताया गया है मक भगवान् के अनेक रूप तर्ा अवतार हैं – अिैतमचयतु मनास्र्मनन्तरूपम्। यद्यमप
भगवान् के अनेक मिव्य रूप हैं, मकन्तु मिर भी वे अद्वय भगवान् हैं । इस तथ्य को मवश्र्वासपूवमक सर्झना चामहए,
यद्यमप यह ससं ारी मवद्वानों तर्ा ज्ञानयोमगयों के मलए अगम्य है । जैसा मक वेिों (पुरुष बोस्धनी उपस्नषर्)् र्ें कहा गया है

ए ो र्ेवो स्नत्यलीलानुरिो भिव्यापी हृयन्तरात्मा ।।
“एक भगवान् अपने मनष्ट्कार् भक्तों के सार् अनेकानेक मिव्य रूपों र्ें सिैव सम्बमन्धत हैं ।” इस वेिवचन की
स्वयं भगवान् ने गीता के इस श्लोक र्ें पुमष्ट की है । जो इस सत्य को वेि तर्ा भगवान् के प्रर्ाण के आधार पर स्वीकार
करता है और शष्ट्ु क मचन्तन र्ें सर्य नहीं गँवाता वह र्मु क्त की चरर् मसमद्ध प्राप्त करता है । इस सत्य को श्रद्धापूवमक
स्वीकार करने से र्नुष्ट्य मनमश्चत रूप से र्मु क्त-लाभ कर सकता है । इस प्रसंग र्ें वैमिकवाक्य तत्त्वमस्स लागू होता है । जो
कोई भगवान् कृ ष्ट्ण को परब्रह्म करके जानता है या उनसे यह कहता है मक “आप वही परब्रह्म श्रीभगवान् हैं” वह मनमश्चत
रूप से अमवलम्ब र्क्त ु हो जाता है, िलस्वरूप उसे भगवान् की मिव्यसंगमत की प्रामप्त मनमश्चत हो जाती है । िसू रे शब्िों
र्ें, ऐसा श्रद्धालु भगवद्भक्त मसमद्ध प्राप्त करता है ।इसकी पमु ष्ट मनम्नमलमखत वेिवचन से होती है –
तमेव स्वस्र्त्वास्त मृत्युमेस्त नान्यः पन्था स्वयतेऽयनाय ।
“श्रीभगवान् को जान लेने से ही र्नष्ट्ु य जन्र् तर्ा र्ृत्यु से र्मु क्त की पणू म अवस्र्ा प्राप्त कर सकता है । इस मसमद्ध
को प्राप्त करने का कोई अन्य मवकल्प नहीं है ।”(श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ३.८) इसका कोई मवकल्प नहीं है का अर्म यही
है मक जो श्रीकृ ष्ट्ण को श्रीभगवान् के रूप र्ें नहीं र्ानता वह अवश्य ही तर्ोगुणी है और र्धपु ात्र को के वल बाहर से

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चाटकर या भगवद्गीता की मवद्वतापूणम संसारी मववेचना करके र्ोक्ष प्राप्त नहीं कर सकता । इसे शष्ट्ु क िाशममनक भौमतक
जगत् र्ें र्हत्त्वपूणम भमू र्का मनभाने वाले हो सकते हैं, मकन्तु वे र्ुमक्त के अमधकारी नहीं होते । ऐसे अमभर्ानी संसारी
मवद्वानों को भगवद्भक्त की अहैतुकी कृ पा की प्रतीक्षा करनी पड़ती है । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक श्रद्धा तर्ा ज्ञान के
सार् कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अनुशीलन करे और मसमद्ध प्राप्त करने का यही उपाय है ।

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपानश्रताः ।


बहवो ज्ञाितपसा पतू ा मिावमागताः ।। १० ।।

वीत– र्क्त
ु ; राग– आसमक्त; भय– भय; क्रोधाः– तर्ा क्रोध से; मत्-मया– पणू मतया र्झु र्ें; माम्–
र्झु र्ें; उपानश्रताः– पूणमतया मस्र्त; बहवः– अनेक; ज्ञाि– ज्ञान की; तपसा– तपस्या से; पूताः– पमवत्र हुआ; मत्-
भावम्– र्ेरे प्रमत मिव्य प्रेर् को; आगताः– प्राप्त ।

आसनि, भय तथा क्रोध से मुि होकर, मुझमें पूणमतया तन्मय होकर और मेरी शरण में आकर बहुत से
व्यनि भूत काल में मेरे ज्ञाि से पनवत्र हो चुके हैं । इस प्रकार से उि सबों िे मेरे प्रनत नदव्यप्रेम को प्राप्त नकया
है ।

तात्पयमः जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है मवषयों र्ें आसक्त व्यमक्त के मलए परर्सत्य के स्वरूप को सर्झ पाना
अत्यन्त कमिन है । सार्ान्यतया जो लोग िेहात्र्बुमद्ध र्ें आसक्त होते हैं, वे भौमतकतावाि र्ें इतने लीन रहते हैं मक
उनके मलए यह सर्झ पाना असम्भव सा है मक परर्ात्र्ा व्यमक्त भी हो सकता है । ऐसे भौमतकतावािी व्यमक्त इसकी
कल्पना तक नहीं कर पाते मक ऐसा भी मिव्य शरीर है जो मनत्य तर्ा समच्चिानन्िर्य है । भौमतकतावािी धारणा के
अनुसार शरीर नाशवान्, अज्ञानर्य तर्ा अत्यन्त िख ु र्य होता है । अतः जब लोगों को भगवान् के साकार रूप के
मवषय र्ें बताया जाता है तो उनके र्न र्ें शरीर की यही धारणा बनी रहती है । ऐसे भौमतकतावािी परुु षों के मलए मवराट
भौमतक जगत् का स्वरूप ही परर्तत्त्व है । िलस्वरूप वे परर्ेश्र्वर को मनराकार र्ानते हैं और भौमतकता र्ें इतने
तल्लीन रहते हैं मक भौमतक पिार्म से र्मु क्त के बाि भी अपना स्वरूप बनाये रखने के मवचार से डरते हैं । जब उन्हें यह
बताया जाता है मक आध्यामत्र्क जीवन भी व्यमक्तगत तर्ा साकार होता है तो वे पुनः व्यमक्त बनने से भयभीत हो उिते
हैं, िलतः वे मनराकार शन्ू य र्ें तिाकार होना पसंि करते हैं । सार्ान्यतया वे जीवों की तुलना सर्द्रु के बुलबुलों से
करते हैं, जो टूटने पर सर्द्रु र्ें ही लीन हो जाते हैं । पृर्क् व्यमक्तत्व से रमहत आध्यामत्र्क जीवन की यह चरर् मसमद्ध है
। यह जीवन की भयावह अवस्र्ा है, जो आध्यामत्र्क जीवन के पूणमज्ञान से रमहत है । इसके अमतररक्त ऐसे बहुत से
र्नुष्ट्य हैं जो आध्यामत्र्क जीवन को तमनक भी नहीं सर्झ पाते । अनेक वािों तर्ा िाशममनक मचन्तन की मवमवध
मवसंगमतयों से परे शान होकर वे उब उिते हैं या क्रुद्ध हो जाते हैं और र्ख ू मतावश यह मनष्ट्कषम मनकालते हैं मक परर् कारण
जैसा कुछ नहीं है, अतः प्रत्येक वस्तु अन्ततोगत्वा शन्ू य है । ऐसे लोग जीवन की रुग्णावस्र्ा र्ें होते हैं । कुछ लोग
भौमतकता र्ें इतने आसक्त रहते हैं मक वे आध्यामत्र्क जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं िेते और कुछ लोग तो
मनराशावश सभी प्रकार के आध्यामत्र्क मचन्तनों से क्रुद्ध होकर प्रत्येक वस्तु पर अमवश्र्वास करने लगते हैं । इस अमन्तर्
कोमट के लोग मकसी न मकसी र्ािक वस्तु का सहारा लेते हैं और उनके र्मत-मवभ्रर् को कभी-कभी आध्यामत्र्क दृमष्ट
र्ान मलया जाता है । र्नुष्ट्य को भौमतक जगत् के प्रमत आसमक्त की तीनों अवस्र्ाओ ं से छुटकारा पाना होता है – ये हैं

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आध्यामत्र्क जीवन की अपेक्षा, आध्यामत्र्क साकार रूप का भय तर्ा जीवन की हताशा से उत्पन्न शन्ू यवाि की
कल्पना । जीवन की इन तीनों अवस्र्ाओ ं से छुटकारा पाने के मलए प्रार्ामणक गुरु के मनिेशन र्ें भगवान् की शरण
ग्रहण करना और भमक्तर्य जीवन के मनयर् तर्ा मवमध-मवधानों का पालन करना आवश्यक है । भमक्तर्य जीवन की
अमन्तर् अवस्र्ा भाव या मिव्य इश्र्वरीय प्रेर् कहलाती है ।
भस्िरसामृतस्सन्धु (१.४.१५-१६) के अनुसार भमक्त का मवज्ञान इस प्रकार है –
आर्ौ श्रद्धा ततः साधुसांगोऽथ भजनस्क्रया
ततोऽनथदस्नवृस्त्तः स्यात्ततो स्नष्ठा रूस्चस्ततः ।
अथासस्िस्ततो भावस्ततः प्रेमाभ्यर्ञ्चस्त
साध ानामयां प्रेम्णः प्रार्भु ादवे भवेत्क्रमः ।।
“प्रारम्भ र्ें आत्र्-साक्षात्कार की सर्ान्य इच्छा होनी चामहए । इससे र्नुष्ट्य ऐसे व्यमक्तयों की संगमत करने का
प्रयास करता है जो आध्यामत्र्क दृमष्ट से उिे हुए हैं । अगली अवस्र्ा र्ें गुरु से िीमक्षत होकर नविीमक्षत भक्त उसके
आिेशानुसार भमक्तयोग प्रारम्भ करता है । इस प्रकार सद्गरुु के मनिेश र्ें भमक्त करते हुए वह सर्स्त भौमतक आसमक्त से
र्क्त
ु हो जाता है, उसके आत्र्-साक्षात्कार र्ें मस्र्रता आती है और वह श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें श्रवण करने के
मलए रूमच मवकमसत करता है । इस रूमच से आगे चलकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें आसमक्त उत्पन्न होती है जो भाव र्ें
अर्वा भगवत्प्रेर् के प्रर्र् सोपान र्ें पररपक्व होती है । ईश्र्वर के प्रमत प्रेर् ही जीवन की सार्मकता है ।” प्रेर्-अवस्र्ा र्ें
भक्त भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें मनरन्तर लीन रहता है । अतः भमक्त की र्न्ि मस्र्मत से प्रार्ामणक गुरु के मनिेश र्ें
सवोच्च अवस्र्ा प्राप्त की जा सकती है और सर्स्त भौमतक आसमक्त, व्यमक्तगत आध्यामत्र्क स्वरूप के भय तर्ा
शन्ू यवाि से उत्पन्न हताशा से र्क्त ु हुआ जा सकता है । तभी र्नुष्ट्य को अन्त र्ें भगवान् के धार् की प्रामप्त हो सकती
है ।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।


मम वत्मामिवु तमन्ते मिष्ट्ु याः पाथम सवमशः ।। ११ ।।

ये– जो; यथा– मजस तरह; माम्– र्ेरी; प्रपद्यन्ते– शरण र्ें जाते हैं; ताि्– उनको; तथा– उसी तरह; एव–
मनश्चय ही; भजानम– िल िेता ह;ँ अहम्– र्ैं; मम– र्ेरे; वत्मम– पर् का; अिुवतमन्ते– अनुगर्न करते हैं; मिुष्ट्याः–
सारे र्नुष्ट्य; पाथम– हे पृर्ापुत्र; सवमशः– सभी प्रकार से ।

नजस भाव से सारे लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, उसी के अिुरूप मैं उन्हें िल देता हूँ । हे पाथम! प्रत्येक
व्यनि सभी प्रकार से मेरे पथ का अिुगमि करता है ।

तात्पयम : प्रत्येक व्यमक्त कृ ष्ट्ण को उनके मवमभन्न स्वरूपों र्ें खोज रहा है । भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को अशं तः उनके
मनमवमशेष ब्रह्मजयोमत तेज र्ें तर्ा प्रत्येक वस्तु के कण-कण र्ें रहने वाले सवमव्यापी परर्ात्र्ा के रूप र्ें अनुभव मकया
जाता है, लेमकन कृ ष्ट्ण का पूणम साक्षात्कार तो उनके शद्ध
ु भक्त ही कर पाते हैं । िलतः कृ ष्ट्ण प्रत्येक व्यमक्त की अनभु मू त
के मवषय हैं और इस तरह कोई भी और सभी अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार तुष्ट होते हैं । मिव्य जगत् र्ें भी कृ ष्ट्ण
अपने शद्ध
ु भक्तों के सार् मिव्य भाव से मवमनर्य करते हैं मजस तरह मक भक्त उन्हें चाहता है । कोई एक भक्त कृ ष्ट्ण को

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परर् स्वार्ी के रूप र्ें चाह सकता है, िूसरा अपने सखा के रूप र्ें, तीसरा अपने पुत्र के रूप र्ें और चौर्ा अपने प्रेर्ी
के रूप र्ें । कृ ष्ट्ण सभी भक्तों को सर्ान रूप से उनके प्रेर् की प्रगाढ़ता के अनुसार िल िेते हैं । भौमतक जगत् र्ें भी
ऐसी ही मवमनर्य की अनुभमू तयाँ होती हैं और वे मवमभन्न प्रकार के भक्तों के अनुसार भगवान् द्वारा सर्भाव से मवमनर्य
की जाती हैं । शद्ध ु भक्त यहाँ पर और मिव्यधार् र्ें भी कृ ष्ट्ण का सामन्नध्य प्राप्त करते हैं और भगवान् की साकार सेवा
कर सकते हैं । इस तरह वे उनकी प्रेर्ाभमक्त का मिव्य आनन्ि प्राप्त कर सकते हैं । मकन्तु जो मनमवमशेषवािी हैं और जो
जीवात्र्ा के अमस्तत्व को मर्टाकर आध्यामत्र्क आत्र्घात करना चाहते हैं, कृ ष्ट्ण उनको अपने तेज र्ें लीन करके
उनकी सहायता करते हैं । ऐसे मनमवमशेषवािी समच्चिानन्ि भगवान् को स्वीकार नहीं करते, िलतः वे अपने व्यमक्तत्व
को मर्टाकर भगवान् की मिव्य सगुण भमक्त के आनन्ि को प्राप्त नहीं कर सकते । उनर्ें से कुछ जो मनमवमशेष सत्ता र्ें
दृढ़तापवू मक मस्र्त नहीं हो पाते, वे अपनी कायम करने की सप्तु इच्छाओ ं को प्रिमशमत करने के मलए इस भौमतक क्षेत्र र्ें
वापस आते हैं । उन्हें वैकुण्िलोक र्ें प्रवेश करने नहीं मिया जाता, मकन्तु उन्हें भौमतक लोक के कायम करने का अवसर
प्रिान मकया जाता है । जो सकार्कर्ी हैं, भगवान् उन्हें यज्ञेश्र्वर के रूप र्ें उनके कर्ों का वामं छत िल िेते हैं । जो योगी
हैं और योगशमक्त की खोज र्ें रहते हैं, उन्हें योगशमक्त प्रिान करते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, प्रत्येक व्यमक्त की सिलता
भगवान् की कृ पा पर आमश्रत रहती है और सर्स्त प्रकार की आध्यामत्र्क मवमधयाँ एक ही पर् र्ें सिलता की मवमभन्न
कोमटयाँ हैं । अतः जब तक कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सवोच्च मसमद्ध तक नहीं पहुचँ जाता तब तक सारे प्रयास अपूणम
रहते हैं, जैसा मक श्रीमद्भागवत र्ें (२.३.१०) कहा गया है –
अ ामः सवद ामो व मोक्ष ाम उर्ारधीः ।
तीव्रेण भस्ियोगेन यजेत पुरुषां परम् ।।
“र्नुष्ट्य चाहे मनष्ट्कार् हो या िल का इच्छुक या र्मु क्त का इच्छुक ही क्यों न हो, उसे पूरे सार्थ्यम से भगवान् की
सेवा करनी चामहए मजससे उसे पूणम मसमद्ध प्राप्त हो सके , मजसका पयमवसान कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें होता है ।”

काङ् न्तः कममणां नसनद्धं यजन्त इह देवताः ।


नक्षप्रं नह मािषु े लोके नसनद्धभमवनत कममजा ।। १२ ।।

काङ् क्षन्तः– चाहते हुए; कममणाम्– सकार् कर्ों की; नसनद्धम्– मसमद्ध; यजन्ते– यज्ञों द्वारा पूजा करते
हैं; इह - इस भौमतक जगत् र्ें; देवताः– िेवतागण; नक्षप्रम्– तुरन्त ही; नह– मनश्चय ही; मािुषे– र्ानव सर्ाज
र्ें; लोके – इस संसार र्ें; नसनद्धः– मसमद्ध, सिलता; भवनत– होती है; कमम-जा– सकार् कर्म से ।

इस संसार में मिुष्ट्य सकाम कमों में नसनद्ध चाहते हैं, िलस्वरूप वे देवताओ ं की पूजा करते हैं ।
निस्सन्देह इस संसार में मिुष्ट्यों को सकाम कमम का िल शीघ्र प्राप्त होता है ।

तात्पयम : इस जगत् के िेवताओ ं के मवषय र्ें भ्रान्त धारणा है और मवद्वता का िम्भ करने वाले अल्पज्ञ र्नष्ट्ु य इन
िेवताओ ं को परर्ेश्र्वर के मवमभन्न रूप र्ान बैिते हैं । वस्तुतः ये िेवता ईश्र्वर के मवमभन्न रूप नहीं होते , मकन्तु वे ईश्र्वर
के मवमभन्न अश ं होते हैं । ईश्र्वर तो एक है, मकन्तु अश ं अनेक हैं । वेिों का कर्न है – स्नत्यो स्नत्यनाम् । ईश्र्वर एक है
। इश्र्वरः परमः ृ ष्णः। कृ ष्ट्ण ही एकर्ात्र परर्ेश्र्वर हैं और सभी िेवताओ ं को इस भौमतक जगत् का प्रबन्ध करने के
मलए शमक्तयाँ प्राप्त हैं । ये िेवता जीवात्र्ाएँ हैं(मनत्यानार्) मजन्हें मवमभन्न र्ात्रा र्ें भौमतक शमक्त प्राप्त है । वे कभी

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परर्ेश्र्वर – नारायण, मवष्ट्णु या कृ ष्ट्ण के तुल्य नहीं हो सकते । जो व्यमक्त ईश्र्वर तर्ा िेवताओ ं को एक स्तर पर सोचता
है, वह नामस्तक या पाषंडी कहलाता है । यहाँ तक मक ब्रह्मा तर्ा मशवजी जैसे बड़े-बड़े िेवता परर्ेश्र्वर की सर्ता नहीं
कर सकते । वास्तव र्ें ब्रह्मा तर्ा मशव जैसे िेवताओ ं द्वारा भगवान् की पूजा की जाती है (स्शवस्वररस्ञ्चनुतम्) । तो भी
आश्चयम की बात यह है मक अनेक र्ख ु म लोग र्नुष्ट्यों के नेताओ ं की पूजा उन्हें अवतार र्ान कर करते हैं । इह र्ेवताःपि
इस संसार के शमक्तशाली र्नुष्ट्य या िेवता के मलए आया है , लेमकन नारायण, मवष्ट्णु या कृ ष्ट्ण जैसे भगवान् इस संसार
के नहीं हैं । वे भौमतक सृमष्ट से परे रहने वाले हैं । मनमवमशेषवामियों के अग्रणी श्रीपाि शंकराचायम तक र्ानते हैं मक
नारायण या कृ ष्ट्ण इस भौमतक सृमष्ट से परे हैं मिर भी र्ख ु म लोग (ह्रतज्ञान) िेवताओ ं की पजू ा करते हैं, क्योंमक वे तत्काल
िल चाहते हैं । उन्हें िल मर्लता भी है, मकन्तु वे यह नहीं जानते की ऐसे िल क्षमणक होते हैं और अल्पज्ञ र्नुष्ट्यों के
मलए हैं । बमु द्धर्ान् व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त रहता है । उसे मकसी तत्काल क्षमणक लाभ के मलए मकसी तच्ु छ
िेवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं रहती । इस संसार के िेवता तर्ा उनके पूजक, इस संसार के संहार के सार्
ही मवनष्ट हो जाएँगे । िेवताओ ं के वरिान भी भौमतक तर्ा क्षमणक होते हैं । यह भौमतक संसार तर्ा इसके मनवासी,
मजनर्ें िेवता तर्ा उनके पूजक भी समम्र्मलत हैं, मवराट सागर र्ें बुलबुलों के सर्ान हैं । मकन्तु इस संसार र्ें र्ानव
सर्ाज क्षमणक वस्तुओ ं – यर्ा सम्पमत्त, पररवार तर्ा भोग की सार्ग्री के पीछे पागल रहता है । ऐसी क्षमणक वस्तुओ ं
को प्राप्त करने के मलए लोग िेवताओ ं की या र्ानव सर्ाज के शमक्तशाली व्यमक्तयों की पूजा करते हैं । यमि कोई व्यमक्त
मकसी राजनीमतक नेता की पूजा करके संसार र्ें र्मन्त्रपि प्राप्त कर लेता है, तो वह सोचता है की उसने र्हान वरिान
प्राप्त कर मलया है । इसमलए सभी व्यमक्त तर्ाकमर्त नेताओ ं को साष्टांग प्रणार् करते हैं, मजससे वे क्षमणक वरिान प्राप्त
कर सकें और सचर्चु उन्हें ऐसी वस्तुएँ मर्ल भी जाती हैं । ऐसे र्ख ु म व्यमक्त इस संसार के कष्टों के स्र्ायी मनवारण के
मलए कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अमभरुमच नहीं मिखाते । वे सभी इमन्द्रयभोग के पीछे िीवाने रहते हैं और र्ोड़े से इमन्द्रयसुख के
मलए वे शमक्तप्रित्त-जीवों की पूजा करते हैं, मजन्हें िेवता कहते हैं । यह श्लोक इमं गत करता है मक मवरले लोग ही
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रूमच लेते हैं । अमधकाश ं लोग भौमतक भोग र्ें रूमच लेते हैं, िलस्वरूप वे मकसी न मकसी
शमक्तशाली व्यमक्त की पूजा करते हैं ।

चातवु ण्यं मया सृष्टं गुणकममनवभागशः ।


तस्य कतामरमनप मां नवद्ध्यकतामरमव्ययम् ।। १३ ।।

चातःु -वण्यमम–् र्ानव सर्ाज के चार मवभाग; मया– र्ेरे द्वारा; सृष्टम्– उत्पन्न मकये हुए; गुण– गुण; कमम -
तर्ा कर्म का; नवभागशः– मवभाजन के अनुसार; तस्य– उसका; कताम रम्– जनक; अनप– यद्यमप; माम्–
र्झु को; नवनद्ध– जानो; अकतामरम्– न करने के रूप र्ें; अव्ययम् - अपररवतमनीय को ।

प्रकृ नत के तीिों गुणों और उिसे सम्बद्ध कमम के अिुसार मेरे द्वारा मािव समाज के चार नवभाग रचे
गये । यद्यनप मैं इस व्यवस्था का स्त्रष्टा हूँ, नकन्तु तमु यह जािा लो नक मैं इतिे पर भी अव्यय अकताम हूँ ।

तात्पयम : भगवान् प्रत्येक वस्तु के स्त्रष्टा हैं । प्रत्येक वस्तु उनसे उत्पन्न है, उनके ही द्वारा पामलत है और प्रलय के
बाि वस्तु उन्हीं र्ें सर्ा जाती है । अतः वे ही वणामश्रर् व्यवस्र्ा के स्त्रष्टा हैं मजसर्ें सवमप्रर्र् बुमद्धर्ान् र्नुष्ट्यों का वगम
आता है जो सतोगुणी होने के कारण ब्राह्मण कहलाते हैं । मद्वतीय वगम प्रशासक वगम का है मजन्हें रजोगुणी होने के कारण

१५०
क्षमत्रय कहा जाता है । वमणक वगम या वैश्य कहलाने वाले लोग रजो तर्ा तर्ोगुण के मर्श्रण से युक्त होते हैं और शद्रु या
श्रमर्यवगम के लोग तर्ोगुणी होते हैं । र्ानव सर्ाज के इन चार मवभागों की सृमष्ट करने पर भी भगवान् कृ ष्ट्ण इनर्ें से
मकसी मवभाग (वणम) र्ें नहीं आते, क्योंमक वे उन बद्धजीवों र्ें से नहीं हैं मजनका एक अंश र्ानव सर्ाज के रूप र्ें है ।
र्ानव सर्ाज भी मकसी अन्य पशुसर्ाज के तुल्य है, मकन्तु र्नुष्ट्यों को पश-ु स्तर से ऊपर उिाने के मलए ही उपयुमक्त
वणामश्रर् की रचना की गई, मजससे क्रमर्क रूप से कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत हो सके । मकसी मवशेष व्यमक्त की मकसी
कायम के प्रमत प्रवृमत्त का मनधामरण उसके द्वारा अमजमत प्रकृ मत के गुणों द्वारा मकया जाता है । गुणों के अनुसार जीवन के
लक्षणों का वणमन इस ग्रंर् के अिारहवें अध्याय र्ें हुआ है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ब्राह्मण से भी बढ़कर
होता है । यद्यमप गुण के अनुसार ब्राह्मण को ब्रह्म या परर्सत्य के मवषय र्ें ज्ञान होना चामहए, मकन्तु उनर्ें से अमधकांश
भगवान् कृ ष्ट्ण के मनमवमशेष ब्रह्मस्वरूप को ही प्राप्त कर पाते हैं, मकन्तु जो र्नष्ट्ु य ब्राह्मण के सीमर्त ज्ञान को लाँघकर
भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के ज्ञान तक पहुचँ जाता है, वही कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है अर्ामत् वैष्ट्णव होता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें कृ ष्ट्ण के मवमभन्न अशं ों यर्ा रार्, नृमसहं , वराह आमि का ज्ञान समम्र्मलत रहता है । और मजस तरह कृ ष्ट्ण र्ानव
सर्ाज की इस चातुवमण्यम प्रणाली से परे हैं, उसी तरह कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त भी इस चातुवमण्यम प्रणाली से परे होता
है, चाहे हर् इसे जाती का मवभाग कहें, चाहे राष्ट्र अर्वा सम्प्रिाय का ।

ि मां कमामनण नलम्पनन्त ि मे कममिले स्पृहा ।


इनत मां योऽनभजािानत कममनभिम स बध्यते ।। १४ ।।

ि– कभी नहीं; माम्– र्झु को; कमामनण– सभी प्रकार के कर्म; नलम्पनन्त– प्रभामवत करते हैं; ि– नहीं; मे–
र्ेरी; कमम-िले– सकार् कर्म र्ें; स्पृहा– र्हत्त्वाकांक्षा ; इनत– इस प्रकार; माम्– र्झु को; यः– जो; अनभजािानत–
जानता है; कममनभः– ऐसे कर्म के िल से; ि– कभी नहीं; बध्यते– बँध पाता है ।

मझु पर नकसी कमम का प्रभाव िहीं पडता, ि ही मैं कममिल की कामिा करता हूँ । जो मेरे सम्बन्ध में
इस सत्य को जािता है, वह कभी भी कमों के पाश में िहीं बूँधता ।

तात्पयम : मजस प्रकार इस भौमतक जगत् र्ें संमवधान के मनयर् हैं, जो यह जानते हैं मक राजा न तो िण्डनीय है, न
ही मकसी राजमनयर्ों के अधीन रहता है उसी तरह यद्यमप भगवान् इस भौमतक जगत् के स्त्रष्टा हैं, मकन्तु वे भौमतक जगत्
के कायों से प्रभामवत नहीं होते । सृमष्ट करने पर भी वे इससे पृर्क् रहते हैं, जबमक जीवात्र्ाएँ भौमतक कायमकलापों के
सकार् कर्मिलों र्ें बँधी रहती हैं, क्योंमक उनर्ें प्राकृ मतक साधनों पर प्रभत्ु व मिखाने की प्रवृमत्त रहती है । मकसी संस्र्ान
का स्वार्ी कर्मचाररयों के अच्छे -बुरे कायों के मलए उत्तरिायी नहीं, कर्मचारी इसके मलए स्वयं उत्तरिायी होते हैं ।
जीवात्र्ाएँ अपने-अपने इमन्द्रयतृमप्त-कायों र्ें लगी रहती है, मकन्तु ये कायम भगवान् द्वारा मनमिमष्ट नहीं होते । इमन्द्रयतृमप्त
की उत्तरोतर उन्नमत के मलए जीवात्र्ाएँ इस ससं ार के कर्म र्ें प्रवृत्त हैं और र्ृत्यु के बाि स्वगम-सख ु की कार्ना करती
रहती हैं । स्वयं र्ें पूणम होने के कारण भगवान् को तर्ाकमर्त स्वगम-सुख का कोई आकषमण नहीं रहता । स्वगम के िेवता
उनके द्वारा मनयक्त
ु सेवक हैं । स्वार्ी कभी भी कर्मचाररयों का सा मनम्नस्तरीय सख ु नहीं चाहता । वह भौमतक मक्रया-
प्रमतमक्रया से पृर्क् रहता है । उिाहरणार्म, पृथ्वी पर उगने वाली मवमभन्न वनस्पमतयों के उगने के मलए वषाम उत्तरिायी
नहीं है, यद्यमप वषाम के मबना वनस्पमत नहीं उग सकती । वैमिक स्र्ृमत से इस तथ्य की पुमष्ट इस प्रकार होती है:

१५१
स्नस्मत्तमात्रवासौ सृज्यानाां सगद मदस्ण ।
प्रधान ारणीभतू ा यतो वै सृज्यशियः ।।
“भौमतक सृमष्ट के मलए भगवान् ही परर् कारण हैं । प्रकृ मत तो के वल मनमर्त्त कारण है, मजससे मवराट जगत्
दृमष्टगोचर होता है ।” प्रामणयों की अनेक जामतयाँ होती हैं यर्ा िेवता, र्नुष्ट्य तर्ा मनम्नपशु और ये सब पूवम शभु ाशभु
कर्ों के िल भोगने को बाध्य हैं । भगवान् उन्हें ऐसे कर्म करने के मलए सर्मु चत सुमवधाएँ तर्ा प्रकृ मत के गुणों के मनयर्
सुलभ कराते हैं, मकन्तु वे उनके मकसी भतू तर्ा वतमर्ान कर्ों के मलए उत्तरिायी नहीं होते । वेर्ान्तसूत्र र्ें (२.१.३४)
पमु ष्ट हुई है मक वैषम्यनैघदण्ृ य न सापेक्षत्वात्– भगवान् मकसी भी जीव के प्रमत पक्षपात नहीं करते । जीवात्र्ा अपने कर्ों
के मलए स्वयं उत्तरिायी है । भगवान् उसे प्रकृ मत अर्ामत् बमहरंगा शमक्त के र्ाध्यर् से के वल सुमवधा प्रिान करने वाले
हैं । जो व्यमक्त इस कर्म-मनयर् की सारी बारीमकयों से भलीभाँमत अवगत होता है, वह अपने कर्ों के िल से प्रभामवत
नहीं होता । िसू रे शब्िों र्ें, जो व्यमक्त भगवान् के इस मिव्य स्वभाव से पररमचत होता है वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अनुभवी
होता है । अतः उस पर कर्म के मनयर् लागू नहीं होते । जो व्यमक्त भगवान् के मिव्य स्वभाव को नहीं जानता और सोचता
है मक भगवान् के कायमकलाप सार्ान्य व्यमक्तयों की तरह कर्मिल के मलए होते हैं, वे मनमश्चत रूप र्ें कर्मिलों र्ें बँध
जाते हैं । मकन्तु जो परर् सत्य को जानता है, वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र र्क्त
ु जीव है ।

एवं ज्ञात्वा कृ तं कमम पूवैरनप मुमुनक्षनभः ।


कुरु कमैव तस्मात्त्वं पुवै: पूवमतरं कृ तम् ।। १५ ।।

एवम्– इस प्रकार; ज्ञात्वा– भलीभाँमत जान कर; कृ तम्– मकया गया; कमम– कर्म; पूवैः– पूवमवती; अनप–
मनस्सन्िेह; ममु ुक्षुनभः– र्ोक्ष प्राप्त व्यमक्तयों द्वारा; कुरु– करो; कमम - स्वधर्म, मनयतकायम; एव– मनश्चय ही; तस्मात्–
अतएव; त्वम्– तर्ु ; पवू ैः– पवू मवमतमयों द्वारा; पवू म-तरम्– प्राचीन काल र्ें; कृ तम्– सम्पन्न मकया गया ।

प्राचीि काल में समस्त मि


ु ात्माओ ं िे मेरी नदव्य प्रकृ नत को जाि करके ही कमम नकया, अतः तम्ु हें
चानहए नक उिके पदनचन्हों का अिुसरण करते हुए अपिे कतमव्य का पालि करो ।

तात्पयम : र्नुष्ट्यों की िो श्रेमणयाँ हैं । कुछ के र्नों र्ें िमू षत मवचार भरे रहते हैं और कुछ भौमतक दृमष्ट से स्वतन्त्र
होते हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत इन िोनों श्रेमणयों के व्यमक्तयों के मलए सर्ान रूप से लाभप्रि है । मजनके र्नों र्ें िमू षत मवचार
भरे हैं उन्हें चामहए मक भमक्त के अनुिानों का पालन करते हुए क्रमर्क शमु द्धकरण के मलए कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण
करें । और मजनके र्न पहले ही ऐसी अशुमद्धयों से स्वच्छ हो चक ु े हैं, वे उसी कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अग्रसर होते रहें, मजससे
अन्य लोग उनके आिशम कायों का अनुसरण कर सकें और लाभ उिा सकें । र्ख ु म व्यमक्त या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
नविीमक्षत प्रायः कृ ष्ट्णभावनार्ृत का पुरा ज्ञान प्राप्त मकये मबना कायम से मवरत होना चाहते हैं । मकन्तु भगवान् ने युद्धक्षेत्र
के कायम से मवर्ख ु होने की अजमनु की इच्छा का सर्र्मन नहीं मकया ।आवश्यकता इस बात की है मक यह जाना जाय मक
मकस तरह कर्म करना चामहए । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों से मवर्ख ु होकर एकान्त र्ें बैिकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रिशमन
करना कृ ष्ट्ण के मलए कायम र्ें रत होने की अपेक्षा कर् र्हत्त्वपणू म है । यहाँ पर अजमनु को सलाह िी जा रही है मक वह
भगवान् के अन्य पूवम मशष्ट्यों-यर्ा सूयमिेव मववस्वान् के पिमचन्हों का अनुसरण करते हुए कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करे ।
अतः वे उसे सूयमिेव के कायों को सम्पन्न करने के मलए आिेश िेते हैं मजसे सूयमिेव ने उनसे लाखों वषम पूवम सीखा र्ा ।

१५२
यहाँ पर भगवान् कृ ष्ट्ण के ऐसे सारे मशष्ट्यों का उल्लेख पूवमवती र्क्त
ु पुरुषों के रूप र्ें हुआ है, जो कृ ष्ट्ण द्वारा मनयत कर्ों
को सम्पन्न करने र्ें लगे हुए र्े ।

नकं कमम नकमकमेनत कवयोऽप्यत्र मोनहताः ।


तत्ते कमम प्रवक्ष्यानम यजज्ञात्वा मोक्ष्यसेSश्रुभात् ।। १६ ।।

नकम्– क्या है; कमम– कर्म; नकम्– क्या है;अकमम– अकर्म, मनमष्ट्क्रयता; इनत– इस प्रकार; कवयः–
बुमद्धर्ान्; अनप– भी; अत्र– इस मवषय र्ें; मोनहताः– र्ोहग्रस्त रहते हैं; तत्– वह; ते– तुर्को; कमम–
कर्म; प्रवक्ष्यानम– कहगँ ा; यत्– मजसे; ज्ञात्वा– जानकर; मोक्ष्यसे– तम्ु हारा उद्धार होगा; अशभ
ु ात्– अकल्याण से,
अशभु से ।

कमम क्या है और अकमम क्या है, इसे निनश्चत करिे में बुनद्धमाि् व्यनि भी मोहग्रस्त हो जाते हैं । अतएव
मैं तुमको बताऊूँ गा नक कमम क्या है, नजसे जािकर तुम सारे अशुभ से मुि हो सकोगे ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें जो कर्म मकया जाय वह पूवमवती प्रार्ामणक भक्तों के आिशम के अनुसार करना
चामहए । इसका मनिेश १५वें श्लोक र्ें मकया गया है । ऐसा कर्म स्वतन्त्र क्यों नहीं होना चामहए, इसकी व्याख्या अगले
श्लोक र्ें की गई है ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करने के मलए र्नुष्ट्य को उन प्रार्ामणक पुरुषों के नेतत्ृ व का अनुगर्न करना होता है, जो
गुरु-परम्परा र्ें हों, जैसा मक इस अध्याय के प्रारम्भ र्ें कहा जा चक ु ा है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत पद्धमत का उपिेश सवमप्रर्र्
सयू मिेव को मिया गया, मजन्होनें इसे अपने पत्रु र्नु से कहा, र्नु ने इसे अपने पत्रु इक्ष्वाकु से कहा और यह पद्धमत तबसे
इस पृथ्वी पर चली आ रही है । अतः परम्परा के पूवमवती अमधकाररयों के पिमचन्हों का अनुसरण करना आवश्यक है ।
अन्यर्ा बमु द्धर्ान् से बमु द्धर्ान् र्नष्ट्ु य भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत के आिशम कर्म के मवषय र्ें र्ोहग्रस्त हो जाते हैं । इसीमलए
भगवान् ने स्वयं ही अजुमन को कृ ष्ट्णभावनार्ृत का उपिेश िेने का मनश्चय मकया । अजुमन को साक्षात् भगवान् ने मशक्षा
िी, अतः जो भी अजुमन के पिमचन्हों पर चलेगा वह कभी र्ोहग्रस्त नहीं होगा ।
कहा जाता है मक अपूणम प्रायोमगक ज्ञान के द्वारा धर्म-पर् का मनणमय नहीं मकया जा सकता । वस्तुतः धर्म को
के वल भगवान् ही मनमश्चत कर सकते हैं । धमं तु साक्षात्भगवत्प्रणीतम् (भागवत् ६.३.१९) । अपूणम मचन्तन द्वारा कोई
मकसी धामर्मक मसद्धान्त का मनर्ामण नहीं कर सकता । र्नुष्ट्य को चामहए मक ब्रह्मा, मशव, नारि, र्नु, चारों कुर्ार,
कमपल, प्रिाि, भीष्ट्र्, शक ु िेव गोस्वार्ी, यर्राज , जनक तर्ा बमल र्हाराज जैसे र्हान अमधकाररयों के पिमचन्हों का
अनुसरण करे । के वल र्ानमसक मचन्तन द्वारा यह मनधामररत करना कमिन है मक धर्म या आत्र्-साक्षात्कार क्या है । अतः
भगवान् अपने भक्तों पर अहैतुकी कृ पावश स्वयं ही अजुमन को बता रहे हैं मक कर्म क्या है और अकर्म क्या है । के वल
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मकया गया कर्म ही र्नुष्ट्य को भवबन्धन से उबार सकता है ।

कममणो ह्यनप बोद्धव्यं बोद्धव्यं च नवकममणः ।


अकममणश्र्च बोद्धव्यं गहिा कममणो गनतः ।। १७ ।।

१५३
कममणः– कर्म का; नह– मनश्चय ही; अनप– भी; बोद्धव्यम्– सर्झना चामहए; बोद्धव्यम्– सर्झना चामहए; च–
भी; नवकममणः– अकर्म का; च – भी;बोद्धव्यम्– सर्झना चामहए; गहिा– अत्यन्त कमिन, िगु मर्; कममणः– कर्म
की; गनतः– प्रवेश, गमत ।

कमम की बारीनकयों को समझिा अत्यन्त कनठि है । अतः मिुष्ट्य को चानहए नक वह यह ठीक से जािे
नक कमम क्या है, नवकमम क्या है और अकमम क्या है ।

तात्पयम : यमि कोई सचर्चु ही भव-बन्धन से र्ुमक्त चाहता है तो उसे कर्म, अकर्म तर्ा मवकर्म के अन्तर को
सर्झना होगा । कर्म, अकर्म तर्ा मवकर्म के मवश्ले षण की आवश्यकता है, क्योंमक यह अत्यन्त गहन मवषय है ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत को तर्ा गुणों के अनुसार कर्म को सर्झने के मलए परर्ेश्र्वर के सार् सम्बन्ध को जानना होगा । िसू रे
शब्िों र्ें, मजसने यह भलीभाँमत सर्झ मलया है, वह जानता है मक जीवात्र्ा भगवान् का मनत्य िास है और िलस्वरूप
उसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करना है । सम्पूणम भगवद्गीता का यही लक्ष्य है । इस भावनार्ृत के मवरुद्ध सारे मनष्ट्कषम एवं
पररणार् मवकर्म या मनमषद्ध कर्म हैं । इसे सर्झने के मलए र्नुष्ट्य को कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अमधकाररयों की संगमत करनी
होती है और उनसे रहस्य को सर्झना होता है । यह साक्षात् भगवान् से सर्झने के सर्ान है । अन्यर्ा बुमद्धर्ान् से
बुमद्धर्ान् र्नुष्ट्य भी र्ोहग्रस्त हो जाएगा ।

कममण्यकमम यः पश्येदकममनण च कमम यः ।


स बुनद्धमान्मिुष्ट्येषु स युिः कृ त्स्िकममकृत् ।। १८ ।।

कममनण– कर्म र्ें; अकमम– अकर्म; यः– जो; पश्येत–् िेखता है; अकममनण– अकर्म र्ें; च– भी; कमम– सकार्
कर्म; यः– जो; सः– वह; बुनद्धमाि्– बुमद्धर्ान् है; मिुष्ट्येषु– र्ानव सर्ाज र्ें; सः– वह; युिः– मिव्य मस्र्मत को
प्राप्त; कृ त्स्ि-कमम-कृ त्– सारे कर्ों र्ें लगा रहकर भी ।

जो मिुष्ट्य कमम में अकमम और अकमम में कमम देखता है, वह सभी मिुष्ट्यों में बुनद्धमाि् है और सब प्रकार
के कमों में प्रवृत्त रहकर भी नदव्य नस्थनत में रहता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करने वाला व्यमक्त स्वभावतः कर्म-बन्धन से र्क्त ु होता है । उसके सारे कर्म
कृ ष्ट्ण के मलए होते हैं, अतः कर्म के िल से उसे कोई लाभ या हामन नहीं होती । िलस्वरूप वह र्ानव सर्ाज र्ें
बुमद्धर्ान् होता है, यद्यमप वह कृ ष्ट्ण के मलए सभी तरह के कर्ों र्ें लगा रहता है । अकर्म का अर्म है – कर्म के िल के
मबना । मनमवमशेषवािी इस भय से सारे कर्म बन्ि कर िेता है, मक कर्मिल उसके आत्र्-साक्षात्कार के र्ागम र्ें बाधक न
हो, मकन्तु सगणु वािी अपनी इस मस्र्मत से भलीभाँमत पररमचत रहता है मक वह भगवान् का मनत्य िास है । अतः वह
अपने आपको कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें तत्पर रखता है । चँमू क सारे कर्म कृ ष्ट्ण के मलए मकये जाते हैं, अतः इस सेवा
के करने र्ें उसे मिव्य सख ु प्राप्त होता है । जो इस मवमध र्ें लगे रहते हैं वे व्यमक्तगत इमन्द्रयतृमप्त की इच्छा से रमहत होते
हैं । कृ ष्ट्ण के प्रमत उसका मनत्य िास्यभाव उसे सभी प्रकार के कर्मिल से र्क्त ु करता है ।

१५४
यस्य सवे समारम्भाः कामसंकल्पवनजमताः ।
ज्ञािानग्िदग्धकमामणं तमाहु: पनण्डतं बुधाः ।। १९ ।।

यस्य– मजसके ; सवे– सभी प्रकार के ; समारम्भाः– प्रयत्न, उद्यर्; काम– इमन्द्रयतृमप्त के मलए इच्छा पर
आधाररत; संकल्प– मनश्चय; वनजमताः– से रमहत हैं; ज्ञाि– पूणम ज्ञान की; अनग्ि– अमग्न द्वारा; दग्धः– भस्र्
हुए; कमामणम्– मजसका कर्म; तम्– उसको; आहुः– कहते हैं; पनण्डतम्– बुमद्धर्ान्; बुधाः– ज्ञानी ।

नजस व्यनि का प्रत्येक प्रयास (उद्यम) इनन्द्रयतृनप्त की कामिा से रनहत होता है, उसे पूणमज्ञािी समझा
जाता है । उसे ही साधु परुु ष ऐसा कताम कहते हैं, नजसिे पण ू मज्ञाि की अनग्ि से कममिलों को भस्मसात् कर
नदया है ।

तात्पयम : के वल पूणमज्ञानी ही कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त के कायमकलापों को सर्झ सकता है । ऐसे व्यमक्त र्ें
इमन्द्रयतृमप्त की प्रवृमत्त का अभाव रहता है, इससे यह सर्झा जाता है मक भगवान् के मनत्य िास रूप र्ें उसे अपने
स्वाभामवक स्वरूप का पुनमज्ञान है मजसके द्वारा उसने अपने कर्मिलों को भस्र् कर मिया है । मजसने ऐसा पूणमज्ञान प्राप्त
कर मलया है वह सचर्चु मवद्वान है । भगवान् की मनत्य िासता के इस ज्ञान के मवकास की तुलना अमग्न से की गई है ।
ऐसी अमग्न एक बार प्रजजवमलत हो जाने पर कर्म के सारे िलों को भस्र् कर सकती है ।

त्यक्त्वा कममिलासङगं नित्य तृप्तो निराश्रयः ।


कममण्यनभप्रवृत्तोऽनप िैव नकनञ्चत्करोनत सः ।। २० ।।

त्यक्त्वा– त्याग कर; कमम-िल-आसङम्– कर्मिल की आसमक्त; नित्य– सिा; तृप्तः– तृप्त; निराश्रयः–
आश्रयरमहत; कममनण– कर्म र्ें; अनभप्रवृत्तः– पणू म तत्पर रह कर; अनप– भी; ि– नहीं; एव– मनश्चय ही; नकनञ्चत्–
कुछ भी; करोनत– करता है; सः– वह ।

अपिे कममिलों की सारी आसनि को त्याग कर सदैव संतुष्ट तथा स्वतन्त्र रहकर वह सभी प्रकार के
कायों में व्यस्त रहकर भी कोई सकाम कमम िहीं करता ।

तात्पयम : कर्ों के बन्धन से इस प्रकार की र्मु क्त तभी सम्भव है, जब र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कर कायम
कृ ष्ट्ण के मलए करे । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त भगवान् के शद्ध ु प्रेर्वश ही कर्म करता है, िलस्वरूप उसे कर्मिलों के
प्रमत कोई आकषमण नहीं रहता । यहाँ तक मक उसे अपने शरीर-मनवामह के प्रमत भी कोई आकषमण नहीं रहता, क्योंमक वह
पणू मतया कृ ष्ट्ण पर आमश्रत रहता है । वह न तो मकसी वस्तु को प्राप्त करना चाहता है और न अपनी वस्तओ ु ं की रक्षा
करना चाहता है । वह अपनी पूणम सार्थ्यम से अपना कतमव्य करता है और कृ ष्ट्ण पर सब कुछ छोड़ िेता है । ऐसा
अनासक्त व्यमक्त शभु -अशभु कर्मिलों से र्क्त ु रहता है । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत से रमहत कोई भी कायम कताम पर
बन्धनस्वरूप होता है और मवकर्म का यही असली रूप है, जैसा मक पहले बताया जा चक ु ा है ।

१५५
निराशीयमतनचत्तात्मा त्यिसवमपररग्रहः ।
शारीरं के वलं कमम कुवमन्िाप्िोनत नकनल्बषम् ।। २१ ।।

निराशीः– िल की आकांक्षा से रमहत, मनष्ट्कार्; यत– संयमर्त; नचत्त-आत्मा– र्न तर्ा बुमद्ध; त्यि–
छोड़ा; सवम– सर्स्त; पररग्रहः– स्वामर्त्व; शारीरम्– प्राण रक्षा; के वलम्– र्ात्र; कमम– कर्म; कुवमि–् करते हुए; ि–
कभी नहीं; आप्िोनत– प्राप्त करता है; नकनल्बषम्– पापपूणम िल ।

ऐसा ज्ञािी पुरुष पूणमरूप से संयनमत मि तथा बुनद्ध से कायम करता है, अपिी सम्पनत्त के सारे स्वानमत्व
को त्याग देता है और के वल शरीर-निवामह के नलए कमम करता है । इस तरह कायम करता हुआ वह पाप रूपी
िलों से प्रभानवत िहीं होता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कर्म करते सर्य कभी भी शभु या अशभु िल की आशा नहीं रखता ।
उसके र्न तर्ा बुमद्ध पूणमतया वश र्ें होते हैं । वह जानता है मक वह परर्ेश्र्वर का मभन्न अंश है, अतः अंश रूप र्ें
उसके द्वारा सम्पन्न कोई भी कर्म उसका न होकर उसके र्ाध्यर् से परर्ेश्र्वर द्वारा सम्पन्न हुआ होता है । जब हार्
महलता है तो यह स्वेच्छा से नहीं महलता, अमपतु सारे शरीर की चेष्टा से महलता है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त
भगवमिच्छा का अनुगार्ी होता है क्योंमक उसकी मनजी इमन्द्रयतृमप्त की कोई कार्ना नहीं होती । वह यन्त्र के एक पुजे
की भाँमत महलता-डुलता है । मजस प्रकार रखरखाव के मलए पुजे को तेल और सिाई की आवश्यकता पड़ती है, उसी
प्रकार कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कर्म के द्वारा अपना मनवामह करता रहता है, मजससे वह भगवान् की मिव्य प्रेर्भमक्त
करने के मलए िीक बना रहे । अतः वह अपने प्रयासों के िलों के प्रमत मनश्चेष्ट रहता है । पशु के सर्ान ही उसका अपने
शरीर पर कोई अमधकार नहीं होता । कभी-कभी क्रूर स्वार्ी अपने अधीन पशु को र्ार भी डालता है, तो भी पशु मवरोध
नहीं करता, न ही उसे कोईस्वाधीनता होती है । आत्र्-साक्षात्कार र्ें पूणमतया तत्पर कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त के पास
इतना सर्य नहीं रहता मक वह अपने पास कोई भौमतक वस्तु रख सके । अपने जीवन-मनवामह के मलए उसे अनमु चत
साधनों के द्वारा धनसंग्रह करने की आवश्यकता नहीं रहती । अतः वह ऐसे भौमतक पापों से कल्र्षग्रस्त नहीं होता । वह
अपने सर्स्त कर्मिलों से र्क्त
ु रहता है ।

यदृच्छालाभसतं ुष्टो द्वन्द्वातीतो नवमत्सरः ।


समः नसद्धावनसद्धौ च कृ त्वानप ि निबध्यते ।। २२ ।।

यदृच्छा– स्वतः; लाभ– लाभ से; सन्तुष्टः– सन्तुष्ट; द्वन्द्व– द्वन्द्व से; अतीतः– परे ; नवमत्सरः–
ईष्ट्यामरमहत; समः– मस्र्रमचत्त; नसद्धौ– सिलता र्ें; अनसद्धौ– असिलता र्ें; च– भी; कृ त्वा– करके ; अनप–
यद्यमप; ि– कभी नहीं; निबध्यते– प्रभामवत होता है, बँधता है ।

जो स्वतः होिे वाले लाभ से सतं ष्टु रहता है, जो द्वन्द्व से मि


ु है और ईष्ट्याम िहीं करता, जो सिलता
तथा असिलता दोिों में नस्थर रहता है, वह कमम करता हुआ भी कभी बूँधता िहीं ।

१५६
तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अपने शरीर-मनवामह के मलए भी अमधक प्रयास नहीं करता । वह अपने आप
होने वाले लाभों से संतुष्ट रहता है । वह न तो र्ाँगता है, न उधार लेता है, मकन्तु यर्ासार्थ्यम वह सच्चाई से कर्म करता
है और अपने श्रर् से जो प्राप्त हो पाता है, उसी र्ें संतुष्ट रहता है । अतः वह अपनी जीमवका के मवषय र्ें स्वतन्त्र रहता
है । वह अन्य मकसी की सेवा करके कृ ष्ट्णभावनार्ृत सम्बन्धी अपनी सेवा र्ें व्यवधान नहीं आने िेता । मकन्तु भगवान्
की सेवा के मलए संसार की द्वैतता से मवचमलत हुए मबना कोई भी कर्म कर सकता है । संसार की द्वैतता गर्ी-सिी
अर्वा सुख-िख ु के रूप र्ें अनुभव की जाती है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त द्वैतता से परे रहता है, क्योंमक कृ ष्ट्ण को
प्रसन्न करने के मलए वह कोई भी कर्म करने से मझझकता नहीं । अतः वह सिलता तर्ा असिलता िोनों र्ें ही
सर्भाव रहता है । ये लक्षण तभी मिखते हैं जब कोई मिव्य ज्ञान र्ें पूणमतः मस्र्त हो ।

गतसङगस्य मुिस्य ज्ञािावनस्थतचेतसः ।


यज्ञायाचरतः कमम समग्रं प्रनवलीयते ।। २३ ।।

गत-सङगस्य– प्रकृ मत के गुणों के प्रमत अनासक्त; मुिस्य– र्क्त


ु पुरुष का; ज्ञाि-अवनस्थत– ब्रह्म र्ें
मस्र्त; चेतसः– मजसका ज्ञान; यज्ञाय– यज्ञ (कृ ष्ट्ण) के मलए; आचरतः– करते हुए; कमम– कर्म; समग्रम्–
सम्पूणम; प्रनवलीयते– पूवमरूप से मवलीन हो जाता है ।

जो पुरुष प्रकृ नत के गुणों के प्रनत अिासि है और जो नदव्य ज्ञाि में पूणमतया नस्थत है, उसके सारे कमम
ब्रह्म में लीि हो जाते हैं ।

तात्पयम : पणू मरूपेण कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने पर र्नुष्ट्य सर्स्त द्वन्द्वों से र्क्त


ु हो जाता है और इस तरह भौमतक
गुणों के कल्र्ष से भी र्क्त ु हो जाता है । वह इसीमलए र्क्त ु हो जाता है क्योंमक वह कृ ष्ट्ण के सार् अपने सम्बन्ध की
स्वाभामवक मस्र्मत को जानता है, िलस्वरूप उसका मचत्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत से मवचमलत नहीं होता । अतएव वह जो
कुछ भी करता है, वह आमिमवष्ट्णु कृ ष्ट्ण के मलए होता है । अतः उसका सारा कर्म यज्ञरूप होता है, क्योंमक यज्ञ का
उद्देश्य परर् पुरुष मवष्ट्णु अर्ामत् कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करना है । ऐसे यज्ञर्य कर्म का िल मनश्चय ही ब्रह्म र्ें मवलीन हो जाता
है और र्नुष्ट्य को कोई भौमतक िल नहीं भोगना पड़ता है ।

ब्रह्मापमणं ब्रह्म हनवब्रह्माग्िौ ब्रह्मणा हुतम् ।


ब्रह्मैव तेि गन्तव्यं ब्रह्मकममसमानधिा ।। २४ ।।

ब्रह्म - आध्यामत्र्क; अपमणम् - अपमण; ब्रह्म - ब्रह्म; हनवः - घृत; ब्रह्म - आध्यामत्र्क; अग्िौ - हवन रूपी
अमग्न र्ें; ब्रह्मणा - आत्र्ा द्वारा; हुतम् - अमपमत; ब्रह्म - परर्धार्; एव - मनश्चय ही; तेि - उसके द्वारा; गन्तव्यम् -
पहुचँ ने योग्य; ब्रह्म - आध्यामत्र्क; कमम - कर्म र्ें; समानधिा - पूणम एकाग्रता के द्वारा ।

१५७
जो व्यनि कृ ष्ट्णभाविामृत में पूणमतया लीि रहता है, उसे अपिे आध्यानत्मक कमों के योगदाि के
कारण अवश्य ही भगवद्धाम की प्रानप्त होती है, क्योंनक उसमें हवि आध्यानत्मक होता है और हनव भी
आध्यानत्मक होती है ।

तात्पयम : यहाँ इसका वणमन मकया गया है मक मकस प्रकार कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म करते हुए अन्ततोगत्वा
आध्यामत्र्क लक्ष्य प्राप्त होता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवषयक मवमवध कर्म होते हैं, मजनका वणमन अगले श्लोकों र्ें मकया
गया है, मकन्तु इस श्लोक र्ें तो के वल कृ ष्ट्णभावनार्ृत का मसद्धान्त वमणमत है । भौमतक कल्र्ष से ग्रस्त बद्धजीव को
भौमतक वातावरण र्ें ही कायम करना पड़ता है, मकन्तु मिर भी उसे ऐसे वातावरण से मनकलना ही होगा । मजस मवमध से
वह ऐसे वातावरण से बाहर मनकल सकता है, वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । उिाहरण के मलए, यमि कोई रोगी िधू की बनी
वस्तुओ ं के अमधक खाने से पेट की गड़बड़ी से ग्रस्त हो जाता है तो उसे िही मिया जाता है, जो िधू ही से बनी वस्तु है ।
भौमतकता र्ें ग्रस्त बद्धजीव का उपचार कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा ही मकया जा सकता है जो यहाँ गीता र्ें मिया हुआ है ।
यह मवमध यज्ञ या मवष्ट्णु या कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करने के मलए मकये गये कायम कहलाती है । भौमतक जगत् के मजतने ही
अमधक कायम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें या के वल मवष्ट्णु के मलए मकये जाते हैं पूणम तल्लीनता से वातावरण उतना ही अमधक
आध्यामत्र्क बनता रहता है । ब्रह्म शब्ि का अर्म है 'आध्यामत्र्क' । भागवान् आध्यामत्र्क हैं और उनके मिव्य शरीर
की मकरणें ब्रह्मजयोमत कहलाती हैं-यही उनका आध्यामत्र्क तेज है । प्रत्येक वस्तु इसी ब्रह्मजयोमत र्ें मस्र्त रहती है,
मकन्तु जब यह जयोमत र्ाया या इमन्द्रयतृमप्त द्वारा आच्छामित हो जाती है तो यह भौमतक जयोमत कहलाती है । यह
भौमतक आवरण कृ ष्ट्णभावनार्ृत द्वारा तुरन्त हटाया जा सकता है । अतएव कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मलए अमपमत हमव,
ग्रहणकताम, हवा, होता तर्ा िल-ये सब मर्लकर ब्रह्म या परर् सत्य हैं । र्ाया द्वारा आच्छामित परर्सत्य पिार्म
कहलाता है । जब यही पिार्म परर्सत्य के मनमर्त्त प्रयुक्त होता है, तो इसर्ें मिर से आध्यामत्र्क गुण आ जाता है ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ोहजमनत चेतना को ब्रह्म या परर्ेश्र्वरोन्र्ख
ु करने की मवमध है । जब र्न कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें परू ी तरह
मनर्ग्न रहता है तो उसे सर्ामध कहते हैं । ऐसी मिव्यचेना र्ें सम्पन्न कोई भी कायम यज्ञ कहलाता है । आध्यामत्र्क
चेतना की ऐसी मस्र्मत र्ें होता, हवन , अमग्न, यज्ञकताम तर्ा अंमतर् िल - यह सब परब्रह्म र्ें एकाकार हो जाता है ।
यही कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवमध है ।

दैवमेवापरे यज्ञं योनगिः पयमपु ासते ।


ब्रह्मग्िावपरे यज्ञं यज्ञेिैवोपजुह्वनत ।। २५ ।।

दैवम्– िेवताओ ं की पूजा करने र्ें; एव– इस प्रकार; अपरे– अन्य; यज्ञम्– यज्ञ को; योनगिः–
योगीजन; पयमपु ासते– भलीभाँमत पूजा करते हैं; ब्रह्म– परर्सत्य का; अग्नौ – अमग्न र्ें; अपरे– अन्य; यज्ञम्– यज्ञ
को; यज्ञेि– यज्ञ से; एव– इस प्रकार; उपजुह्वनत– अमपमत करते हैं ।

कुछ योगी नवनभन्ि प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओ ं की भलीभाूँनत पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रूपी
अनग्ि में आहुनत डालते हैं ।

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तात्पयम : जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है, जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर अपना कर्म करने र्ें लीन रहता
है वह पूणम योगी है, मकन्तु ऐसे भी र्नुष्ट्य हैं जो िेवताओ ं की पूजा करने के मलए यज्ञ करते हैं । इस तरह यज्ञ की अनेक
कोमटयाँ हैं । मवमभन्न यज्ञकतामओ ं द्वारा सम्पन्न यज्ञ की ये कोमटयाँ के वल बाह्य वगीकरण हैं । वस्तुतः यज्ञ का अर्म है –
भगवान् मवष्ट्णु को प्रसन्न करना और मवष्ट्णु को यज्ञ भी कहते हैं । मवमभन्न प्रकार के यज्ञों को िो श्रेमणयों र्ें रखा जा
सकता है । सांसाररक द्रव्यों के मलए यज्ञ (द्रव्ययज्ञ) तर्ा मिव्य ज्ञान के मलए मकये गये यज्ञ (ज्ञानयज्ञ) । जो
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं उनकी सारी भौमतक सम्पिा परर्ेश्र्वर को प्रसन्न करने के मलए होती है, मकन्तु जो मकसी क्षमणक
भौमतक सख ु की कार्ना करते हैं वे इन्द्र, सयू म आमि िेवताओ ं को प्रसन्न करने के मलए अपनी भौमतक सम्पिा की
आहुमत िेते हैं । मकन्तु अन्य लोग, जो मनमवमशेषवािी हैं, वे मनराकार ब्रह्म र्ें अपने स्वरूप को स्वाहा कर िेते हैं ।
िेवतागण ऐसी शमक्तर्ान् जीवात्र्ाएँ हैं मजन्हें ब्रह्माण्ड को ऊष्ट्र्ा प्रिान करने, जल िेने तर्ा प्रकामशत करने जैसे भौमतक
कायों की िेखरे ख के मलए परर्ेश्र्वर ने मनयुक्त मकया है । जो लोग भौमतक लाभ चाहते हैं वे वैमिक अनुिानों के अनुसार
मवमवध िेवताओ ं की पूजा करते हैं । ऐसे लोग बह्वीश्र्वरवािी कहलाते हैं । मकन्तु जो लोग परर् सत्य मनगुमण स्वरूप की
पूजा करते हैं और िेवताओ ं के स्वरूपों को अमनत्य र्ानते हैं, वे ब्रह्मकी अमग्न र्ें अपने आप की ही आहुमत िे िेते हैं ।
ऐसे मनमवमशेषवािी परर्ेश्र्वर की मिव्यप्रकृ मत को सर्झने के मलए िाशममनक मचन्तन र्ें अपना सारा सर्य लगाते हैं । िसु रे
शब्िों र्ें, सकार्कर्ी भौमतकसुख के मलए अपनी भौमतक सम्पमत्त का यजन करते हैं, मकन्तु मनमवमशेषवािी परब्रह्म र्ें
लीन होने के मलए अपनी भौमतक उपामधयों का यजन करते हैं । मनमवमशेषवािी के मलए यज्ञामग्न ही परब्रह्म है, मजसर्ें
आत्र्स्वरूप का मवलय ही आहुमत है । मकन्तु अजुमन जैसा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करने के मलए
सवमस्व अमपमत कर िेता है । इस तरह उसकी सारी भौमतक सम्पमत्त के सार्-सार् आत्र्स्वरूप भी कृ ष्ट्ण के मलए अमपमत
हो जाता है । वह परर् योगी है, मकन्तु उसका पृर्क् स्वरूप नष्ट नहीं होता ।

श्रोत्रादीिीनन्द्रयाण्यन्ये सयं मानग्िषु जह्व


ु नत ।
शब्दादीनन्वषयािन्य इनन्द्रयानग्िषु जुह्वनत ।। २६ ।।

श्रोत्र-आदीनि– श्रोत्र आमि; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयाँ; अन्ये– अन्य; संयम– संयर् की; अनग्िषु– अमग्न
र्ें; जुह्वनत– अमपमत करते हैं; शब्द-आदीि्– शब्ि आमि; नवषयाि्– इमन्द्रयतृमप्त के मवषयों को; अन्ये–
िसू रे ; इनन्द्रय– इमन्द्रयों की; अनग्िषु– अमग्न र्ें; जुह्वनत– यजन करते हैं ।

इिमें से कुछ (नवशुद्ध ब्रह्मचारी) श्रवणानद नक्रयाओ ं तथा इनन्द्रयों को मि की नियन्त्रण रूपी अनग्ि में
स्वाहा कर देते हैं तो दूसरे लोग (नियनमत गृहस्थ) इनन्द्रयनवषयों को इनन्द्रयों की अनग्ि में स्वाहा कर देते हैं ।
तात्पयम : र्ानव जीवन के चारों आश्रर्ों के सिस्य – ब्रह्मचारी, गृहस्र्, वानप्रस्र् तर्ा संन्यासी-पूणमयोगी बनने
के मनमर्त्त हैं । र्ानव जीवन पशुओ ं की भाँमत इमन्द्रयतृमप्त के मलए नहीं बना है, अतएव र्ानव जीवन के चारों आश्रर्
इस प्रकार व्यवमस्र्त हैं मक र्नुष्ट्य आध्यामत्र्क जीवन र्ें पणू मता प्राप्त कर सके । ब्रह्मचारी या मशष्ट्यगण प्रार्ामणक गरुु
की िेखरे ख र्ें इमन्द्रयतृमप्त से िरू रहकर र्न को वश र्ें करते हैं । वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत से सम्बमन्धत शब्िों को ही सुनते हैं ।
श्रवण ज्ञान का र्ल ू ाधार है, अतः शद्ध ु ब्रह्मचारी सिैव हरे नादमानु ीतदनम् अर्ामत् भगवान् के यश के कीतमन तर्ा श्रवण र्ें
ही लगा रहता है । वह सांसाररक शब्ि-ध्वमनयों से िरू रहता है और उसकी श्रवणेमन्द्रय हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण की
आध्यामत्र्क ध्वमन को सुनने र्ें ही लगी रहती है । इसी प्रकार से गृहस्र् भी, मजन्हें इमन्द्रयतृमप्त की सीमर्त छूट है, बड़े

१५९
ही संयर् से इन कायों को पूरा करते हैं । यौन जीवन, र्ािकद्रव्य सेवन तर्ा र्ांसाहार र्ानव सर्ाज की सार्ान्य
प्रवृमत्तयाँ हैं, मकन्तु संयमर्त गृहस्र् कभी भी यौन जीवन तर्ा अन्य इमन्द्रयतृमप्त के कायों र्ें अमनयमन्त्रत रूप से प्रवृत्त
नहीं होता । इसी उद्देश्य से प्रत्येक सभ्य सर्ाज र्ें धर्म-मववाह का प्रचलन है । यह संयमर्त अनासक्त यौन जीवन भी एक
प्रकार का यज्ञ है, क्योंमक संयमर्त गृहस्र् उच्चतर मिव्य जीवन के मलए अपनी इमन्द्रयतृमप्त की प्रवृमत्त की आहुमत कर
िेता है ।

सवामणीनन्द्रयकमामनण प्राणकमामनण चापरे ।


आत्मसंयमयोगग्िौ जुह्वनत ज्ञािदीनपते ।। २७ ।।

सवामनण– सारी; इनन्द्रय– इमन्द्रयों के ; कमामनण– कर्म; प्राण-कमामनण– प्राणवायु के कायों को; च–
भी; अपरे– अन्य; आत्म-सयं म– र्नोमनग्रह को; योग– सयं ोजन मवमध; अग्िौ– अमग्न र्ें; जुह्वनत– अमपमत करते
हैं, ज्ञाि-दीनपते– आत्र्-साक्षात्कार की लालसा के कारण ।

दूसरे, जो मि तथा इनन्द्रयों को वश में करके आत्म-साक्षात्कार करिा चाहते हैं, सम्पूणम इनन्द्रयों तथा
प्राणवायु के कायों को संयनमत मि रूपी अनग्ि में आहुनत कर देते हैं ।

तात्पयम : यहाँ पर पतञ्जमल द्वारा सूत्रबद्ध योगपद्धमत का मनिेश है । पतंजमल कृ त योगसूत्र र्ें आत्र्ा
को प्रत्यगात्मा तर्ा परागात्मा कहा गया है । जब तक जीवात्र्ा इमन्द्रयभोग र्ें आसक्त रहता है तब तक
वह परागात्मा कहलाता है और जयोंही वह इमन्द्रयभोग से मवरत हो जाता है तो प्रत्यगात्मा कहलाने लगता है । जीवात्र्ा
के शरीर र्ें िस प्रकार के वायमु कायमशील रहते हैं और इसे श्र्वासप्रमक्रया (प्राणायार्) द्वारा जाना जाता है । पतजं मल की
योगपद्धमत बताती है मक मकस प्रकार शरीर के वायु के कायों को तकनीकी उपाय से मनयमन्त्रत मकया जाए मजससे
अन्ततः वायु के सभी आन्तररक कायम आत्र्ा को भौमतक आसमक्त से शद्ध ु करने र्ें सहायक बन जाएँ । इस योगपद्धमत
के अनुसार प्रत्यगात्मा ही चरर् उद्देश्य है । यह प्रत्यगात्मा पिार्म की मक्रयाओ ं से प्राप्त की जाती है । इमन्द्रयाँ
इमन्द्रयमवषयों से प्रमतमक्रया करती हैं, यर्ा कान सुनने के मलए, आँख िेखने के मलए, नाक सूँघने के मलए, जीभ स्वाि के
मलए तर्ा हार् स्पशम के मलए हैं, और ये सब इमन्द्रयाँ मर्लकर आत्र्ा से बाहर के कायों र्ें लगी रहती हैं । ये ही कायम
प्राणवायु के व्यापार (मक्रयाएँ) हैं । अपान वायु नीचे की ओर जाती है, व्यान वायु से संकोच तर्ा प्रसार होता है, सर्ान
वायु से संतुलन बना रहता है और उिान वायु ऊपर की ओर जाती है और जब र्नुष्ट्य प्रबुद्ध हो जाता है तो वह इन सभी
वायुओ ं को आत्र्ा-साक्षात्कार की खोज र्ें लगाता है ।

द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथापरे ।
स्वाध्यायज्ञाियज्ञाश्र्च यतयः सनं शतव्रताः ।। २८ ।।

द्रव्य-यज्ञाः– अपनी सम्पमत्त का यज्ञ; तपः-यज्ञाः– तपों का यज्ञ; योग-यज्ञाः– अष्टागं योग र्ें यज्ञ; तथा– इस
प्रकार; अपरे– अन्य; स्वाध्याय– वेिाध्ययन रूपी यज्ञ; ज्ञाि-यज्ञाः– मिव्य ज्ञान की प्रगमत हेतु यज्ञ; च– भी; यतयः–
प्रबुद्ध पुरुष; सनं शत-व्रताः– दृढ व्रतधारी ।

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कठोर व्रत अंगीकार करके कुछ लोग अपिी सम्पनत्त का त्याग करके , कुछ कनठि तपस्या द्वारा, कुछ
अष्टांग योगपद्धनत के अभ्यास द्वारा अथवा नदव्यज्ञाि में उन्िनत करिे के नलए वेदों के अध्ययि द्वारा प्रबुद्ध
बिते हैं ।

तात्पयम : इन यज्ञों के कई वगम मकये जा सकते हैं । बहुत से लोग मवमवध प्रकार के िान-पुण्य द्वारा अपनी सम्पमत्त
का यजन करते हैं । भारत र्ें धनाढ्य व्यापारी या राजवश ं ी अनेक प्रकार की धर्ामर्म सस्ं र्ाएँ खोल िेते हैं – यर्ा
धर्मशाला, अन्न क्षेत्र, अमतमर्शाला, अनार्ालय तर्ा मवद्यापीि । अन्य िेशों र्ें भी अनेक अस्पताल, बूढों के मलए
आश्रर् तर्ा गरीबों को भोजन, मशक्षा तर्ा मचमकत्सा की समु वधाएँ प्रिान करने के िातव्य सस्ं र्ान हैं । ये सब
िानकर्म द्रव्यमययज्ञ हैं । अन्य लोग जीवन र्ें उन्नमत करने अर्वा उच्च्लोकों र्ें जाने के मलए चान्द्रायण तर्ा
चातुर्ामस्य जैसे मवमवध तप करते हैं । इन मवमधयों के अन्तगमत कमतपय किोर मनयर्ों के अधीन कमिन व्रत करने होते
हैं । उिाहरणार्म, चातुर्ामस्य व्रत रखने वाला वषम के चार र्ासों (जुलाई से अक्टूबर तक) बाल नहीं कटाता, न ही
कमतपय खाद्य वस्तुएँ खाता है और न मिन र्ें िो बार खाता है, न मनवास-स्र्ान छोड़कर कहीं जाता है । जीवन के सुखों
का ऐसा पररत्याग तपोमययज्ञ कहलाता है । कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अनेक योगपद्धमतयों का अनुसरण करते हैं तर्ा
पतंजमल पद्धमत (ब्रह्म र्ें तिाकार होने के मलए) अर्वा हियोग या अष्टांगयोग (मवशेष मसमद्धयों के मलए) । कुछ लोग
सर्स्त तीर्मस्र्ानों की यात्रा करते हैं । ये सारे अनुिान योग-यज्ञ कहलाते हैं, जो भौमतक जगत् र्ें मकसी मसमद्ध मवशेष के
मलए मकये जाते हैं । कुछ लोग ऐसे हैं जो मवमभन्न वैमिक सामहत्य तर्ा उपमनषि् तर्ा वेिान्तसूत्र या सांख्यािशमन के
अध्ययन र्ें अपना ध्यान लगाते हैं । इसे स्वाध्याययज्ञ कहा जाता है । ये सारे योगी मवमभन्न प्रकार के यज्ञों र्ें लगे रहते
हैं और उच्चजीवन की तलाश र्ें रहते हैं । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत इनसे पृर्क् है क्योंमक यह परर्ेश्र्वर की प्रत्यक्ष सेवा
है । इसे उपयमक्त
ु मकसी भी यज्ञ से प्राप्त नहीं मकया जा सकता, अमपतु भगवान् तर्ा उनके प्रार्ामणक भक्तों की कृ पा से ही
प्राप्त मकया जा सकता है । िलतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत मिव्य है ।

अपािे जुह्वनत प्राणं प्राणेऽपािं तथापरे ।


प्राणापािगनत रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वनत।। २९ ।।

अपािे– मनम्नगार्ी वायु र्ें; जुह्वनत– अमपमत करते हैं; प्राणम्– प्राण को; प्राणे– प्राण र्ें; अपािम्– मनम्नगार्ी
वायु को; तथा– ऐसे ही; अपरे– अन्य; प्राण– प्राण का; अपाि– मनम्नगार्ी वायु; गती– गमत को; रुद्ध्वा–
रोककर; प्राण-आयाम– श्र्वास रोक कर सर्ामध र्ें; परायणाः– प्रवृत्त; अपरे– अन्य; नियत– संयमर्त,
अल्प; आहाराः– खाकर; प्राणाि्– प्राणों को; प्राणेषु– प्राणों र्ें; जुह्वनत– हवन करते हैं, अमपमत करते हैं ।

अन्य लोग भी हैं जो समानध में रहिे के नलए श्र्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम) । वे अपाि में प्राण
को और प्राण में अपाि को रोकिे का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राण-अपाि को रोककर समानध में रहते
हैं । अन्य योगी कम भोजि करके प्राण की प्राण में ही आहुनत देते हैं ।

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तात्पयम : श्र्वास को रोकने की योगमवमध प्राणायार् कहलाती है । प्रारम्भ र्ें हियोग के मवमवध आसनों की
सहायता से इसका अभ्यास मकया जाता है । ये सारी मवमधयाँ इमन्द्रयों को वश र्ें करने तर्ा आत्र्-साक्षात्कार की प्रगमत
के मलए संस्तुत की जाती हैं । इस मवमध र्ें शरीर के भीतर वायु को रोका जाता है मजससे वायु की मिशा उलट सके ।
अपान वायु मनम्नगार्ी (अधोर्ख ु ी) है और प्राणवायु उध्वमगार्ी है । प्राणायार् र्ें योगी मवपरीत मिशा र्ें श्र्वास लेने का
तब तक अभ्यास करता है जब तक िोनों वायु उिासीन होकर पूरक अर्ामत् सर् नहीं हो जातीं । जब अपान वायु को
प्राणवायु र्ें अमपमत कर मिया जाता है तो इसे रे चक कहते हैं । जब प्राण तर्ा अपान वायुओ ं को पूणमतया रोक मिया
जाया है तो इसे कुम्भक योग कहते हैं । कुम्भक योगाभ्यास द्वारा र्नष्ट्ु य आत्र्-मसमद्ध के मलए जीवन अवमध बढ़ा
सकता है । बुमद्धर्ान योगी एक ही जीवनकाल र्ें मसमद्ध प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, वह िसू रे जीवन की प्रतीक्षा नहीं
करता । कुम्भक योग के अभ्यास से योगी जीवन अवमध को अनेक वषों के मलए बढ़ा सकता है । मकन्तु भगवान् की
मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें मस्र्त रहने के कारण कृ ष्ट्णभावनाभामवत र्नुष्ट्य स्वतः इमन्द्रयों का मनयंता (मजतेमन्द्रय) बन जाता है ।
उसकी इमन्द्रयाँ कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें तत्पर रहने के कारण अन्य मकसी कायम र्ें प्रवृत्त होने का अवसर ही नहीं पातीं । िलतः
जीवन के अन्त र्ें उसे स्वतः भगवान् कृ ष्ट्ण के मिव्य पि पर स्र्ानान्तररत कर मिया जाता है, अतः वह िीघमजीवी बनने
का प्रयत्न नहीं करता । वह तुरंत र्ोक्ष पि को प्राप्त कर लेता है, जैसा मक भगवद्गीता र्ें (१४.२६) कहा गया है –
माां च योऽव्यस्भचारे ण भस्ियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभयू ाय ल्पते ।।
“जो व्यमक्त भगवान् की मनश्छल भमक्त र्ें प्रवृत्त होता है वह प्रकृ मत के गुणों को लाँघ जाता है और तुरन्त
आध्यामत्र्क पि को प्राप्त होता है ।” कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त मिव्य अवस्र्ा से प्रारम्भ करता है और मनरन्तर उसी
चेतना र्ें रहता है । अतः उसका पतन नहीं होता और अन्ततः वह भगवद्धार् को जाता है । कृ ष्ट्ण प्रसािर्् को खाते रहने
र्ें स्वतः कर् खाने की आित पड़ जाती है । इमन्द्रयमनग्रह के र्ार्ले र्ें कर् भोजन करना (अल्पाहार) अत्यन्त लाभप्रि
होता है और इमन्द्रयमनग्रह के मबना भाव-बन्धन से मनकल पाना सम्भव नहीं है ।

सवेऽप्येते यज्ञनवदो यज्ञक्षनपतकल्मषाः ।


यज्ञनशष्टामृतभुजो यानन्त ब्रह्म सिातिम् ।। ३० ।।

सवे– सभी; अनप– ऊपर से मभन्न होकर भी; एते– ये; यज्ञ-नवदः– यज्ञ करने के प्रयोजन से पररमचत; यज्ञ-
क्षनपत– यज्ञ करने के कारण शद्ध
ु हुआ; कल्मषाः– पापकर्ों से; यज्ञ-नशष्ट– ऐसे यज्ञ करने के िल का; अमृत-
भुजः– ऐसा अर्ृत चखने वाले; यानन्त– जाते हैं; ब्रह्म– परर् ब्रह्म; सिातिम्– मनत्य आकाश को ।

ये सभी यज्ञ करिे वाले यज्ञों का अथम जाििे के कारण पापकमों से मुि हो जाते हैं और यज्ञों के िल
रूपी अमृत को चखकर परम नदव्य आकाश की ओर बढते जाते हैं ।

तात्पयम : मवमभन्न प्रकार के यज्ञों (यर्ा द्रव्ययज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ तर्ा योगयज्ञ) की उपयुमक्त व्याख्या से यह िेखा
जाता है मक इन सबका एक ही उद्देश्य है और वह हैं इमन्द्रयों का मनग्रह । इमन्द्रयतृमप्त ही भौमतक अमस्तत्व का र्ल ू कारण
है, अतः जब तक इमन्द्रयतृमप्त से मभन्न धरातल पर मस्र्त न हुआ जाय तब तक समच्चिानन्ि के मनत्य धरातल तक उि
पाना सम्भव नहीं है । यह धरातल मनत्य आकाश या ब्रह्म आकाश र्ें है । उपयुमक्त सारे यज्ञों से ससं ार के पापकर्ों से

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मवर्ल हुआ जा सकता है । जीवन र्ें इस प्रगमत से र्नुष्ट्य न के वल सुखी और ऐश्र्वयमवान बनता है, अमपतु अन्त र्ें वह
मनराकार ब्रह्म के सार् तािात्म्य के द्वारा याश्रीभगवान् कृ ष्ट्ण की संगमत प्राप्त करके भगवान् के शाश्र्वत धार् को प्राप्त
करता है ।

िायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ।। ३१ ।।

ि– कभी नहीं; अयम्– यह; लोकः– लोक; अनस्त– है; अयज्ञस्य– यज्ञ न करने वाले का; कुतः– कहाँ
है; अन्यः- अन्य; कुरु-सत्-तम– हे कुरुश्रेि ।

हे कुरुश्रेष्ठ! जब यज्ञ के नबिा मिुष्ट्य इस लोक में या इस जीवि में ही सुखपूवमक िहीं रह सकता, तो
निर अगले जन्म में कै से रह सके गा?

तात्पयम : र्नुष्ट्य इस लोक र्ें चाहे मजस रूप र्ें रहे वह अपने स्वरूप से अनमभज्ञ रहता है । िसू रे शब्िों र्ें,
भौमतक जगत् र्ें हर्ारा अमस्तत्व हर्ारे पापपूणम जीवन के बहुगुमणत िलों के कारण है । अज्ञान ही पापपूणम जीवन का
कारण है और पापपूणम जीवन ही इस भौमतक जगत् र्ें अमस्तत्व का कारण है । र्नुष्ट्य जीवन ही वह द्वार है मजससे होकर
इस बन्धन से बाहर मनकला जा सकता है । अतः वेि हर्ें धर्म, अर्म, कार् तर्ा र्ोक्ष का र्ागम मिखलाकर बहार
मनकालने का अवसर प्रिान करते हैं । धर्म या ऊपर संस्तुत अनेक प्रकार के यज्ञ हर्ारी आमर्मक सर्स्याओ ं को स्वतः
हल कर िेते हैं । जनसंख्या र्ें वृमद्ध होने पर भी यज्ञ सम्पन्न करने से हर्ें प्रचरु भोजन, प्रचरु िधू इत्यामि मर्लता रहता
है । जब शरीर की आवश्यकता पूणम होती रहती है, तो इमन्द्रयों को तुष्ट करने की बारी आती है । अतः वेिों र्ें मनयमर्त
इमन्द्रयतृमप्त के मलए पमवत्र मववाह का मवधान है । इस प्रकार र्नुष्ट्य भौमतक बन्धन से क्रर्शः छूटकर उच्चपि की ओर
अग्रसर होता है और र्क्त ु जीवन की पूणमता परर्ेश्र्वर का सामन्नध्य प्राप्त करने र्ें है । यह पूणमता यज्ञ सम्पन्न करके प्राप्त
की जाती है, जैसा मक पहले बताया जा चक ु ा है । मिर भी यमि कोई व्यमक्त वेिों के अनसु ार यज्ञ करने के मलए तत्पर
नहीं होता, तो वह शरीर र्ें सुखी जीवन की कै से आशा कर सकता है? मिर िसू रे लोक र्ें िसू रे शरीर र्ें सुखी जीवन की
आशा तो व्यर्म ही है । मवमभन्न स्वगों र्ें मभन्न-मभन्न प्रकार की जीवन-सुमवधाएँ हैं और जो लोग यज्ञ करने र्ें लगे हैं
उनके मलए तो सवमत्र परर् सुख मर्लता है । मकन्तु सवमश्रेि सुख वह है मजसे र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अभ्यास द्वारा
वैकुण्ि जाकर प्राप्त करता है । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत जीवन ही इस भौमतक जगत् की सर्स्त सर्स्याओ ं का एकर्ात्र
हल है ।

एवं बहुनवधा यज्ञा नवतता ब्रह्मणो मुखे ।


कममजानन्वनद्ध तान्सवामिेवं ज्ञात्वा नवमोक्ष्यसे ।। ३२ ।।

एवम्– इस प्रकार; बहु-नवधाः– मवमवध प्रकार के ; यज्ञाः– यज्ञ; नवतताः– िै ले हुए हैं; ब्रह्मणः– वेिों
के ; मख
ु े– र्ख
ु र्ें; कमम-जाि्– कर्म से उत्पन्न; नवनद्ध– जानो; ताि्– उन; सवामि–् सबको; एवम्– इस तरह; ज्ञात्वा–
जानकर; नवमोक्ष्यसे– र्क्तु हो जाओगे ।

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ये नवनभन्ि प्रकार के यज्ञ वेदसम्मत हैं और ये सभी नवनभन्ि प्रकार के कमों से उत्पन्ि हैं । इन्हें इस रूप
में जाििे पर तुम मुि हो जाओगे ।

तात्पयम : जैसा मक पहले बताया जा चक ु ा है वेिों र्ें कतामभेि के अनुसार मवमभन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख है ।
चँमू क लोग िेहात्र्बुमद्ध र्ें लीन हैं, अतः इन यज्ञों की व्यवस्र्ा इस प्रकार की गई है मक र्नुष्ट्य उन्हें अपने शरीर, र्न
अर्वा बुमद्ध के अनुसार सम्पन्न कर सके । मकन्तु िेह से र्क्त ु होने के मलए ही इन सबका मवधान है । इसी की पुमष्ट यहाँ
पर भगवान् ने अपने श्रीर्ख ु से की है ।

श्रेयान्द्रव्यमयाद् यज्ञाजज्ञाियज्ञः परन्तप ।


सवं कमामनखलं पाथम ज्ञािे पररसमाप्यते ।। ३३ ।।

श्रेयाि्– श्रेि; द्रव्य-मयात्– सम्पमत्त के ; यज्ञात्– यज्ञ से; ज्ञाि-यज्ञः– ज्ञानयज्ञ; परन्तप– हे शत्रुओ ं को िमण्डत
करने वाले; सवमम–् सभी; कमम– कर्म; अनखलम्– पूणमतः; पाथम– हे पृर्ापुत्र; ज्ञािे– ज्ञान र्ें; पररसमाप्यते– सर्ाप्त
होते हैं ।

हे परंतप! द्रव्ययज्ञ से ज्ञाियज्ञ श्रेष्ठ है । हे पाथम! अन्ततोगत्वा सारे कममयज्ञों का अवसाि नदव्य ज्ञाि में
होते है ।

तात्पयम : सर्स्त यज्ञों का यही एक प्रयोजन है मक जीव को पूणमज्ञान प्राप्त हो मजससे वह भौमतक कष्टों से
छुटकारा पाकर अन्त र्ें परर्ेश्र्वर की मिव्य सेवा कर सके । तो भी इन सारे यज्ञों की मवमवध मक्रयाओ ं र्ें रहस्य भरा है
और र्नुष्ट्य को यह रहस्य जान लेना चामहए । कभी-कभी कताम की श्रद्धा के अनुसार यज्ञ मवमभन्न रूप धारण कर लेते
है । जब यज्ञकताम की श्रद्धा मिव्यज्ञान के स्तर तक पहुचँ जाती है तो उसे ज्ञानरमहत द्रव्ययज्ञ करने वाले से श्रेि र्ाना
जाता है क्योंमक ज्ञान के मबना यज्ञ भौमतक स्तर पर रह जाते हैं और इनसे कोई आध्यामत्र्क लाभ नहीं हो पाता । यर्ार्म
ज्ञान का अंत कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें होता है जो मिव्यज्ञान की सवोच्च अवस्र्ा है । ज्ञान की उन्नमत के मबना यज्ञ र्ात्र
भौमतक कर्म बना रहता है । मकन्तु जब उसे मिव्यज्ञान के स्तर तक पहुचँ ा मिया जाता है तो ऐसे सारे कर्म आध्यामत्र्क
स्तर प्राप्त कर लेते हैं । चेतनाभेि के अनसु ार ऐसे यज्ञकर्म कभी-कभी कर्मकाण्ड कहलाते हैं और कभी ज्ञानकाण्ड । यज्ञ
वही श्रेि है, मजसका अन्त ज्ञान र्ें हो ।

तनद्वनद्ध प्रनणपातेि पररप्रश्नेि सेवया ।


उपदेक्ष्यनन्त ते ज्ञािं ज्ञानििस्तत्त्वदनशमिः ।। ३४ ।।

तत्– मवमभन्न यज्ञों के उस ज्ञान को; नवनद्ध– जानने का प्रयास करो; प्रनणपातेि– गुरु के पास जाकर
के ; पररप्रश्नेि– मवनीत मजज्ञासा से; सेवया– सेवा के द्वारा; उपदेक्ष्यनन्त– िीमक्षत करें ग;े ते– तर्ु को; ज्ञािम्– ज्ञान
र्ें; ज्ञानििः– स्वरुपमसद्ध; तत्त्व– तत्त्व के ; दनशमिः– िशी ।

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तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जाििे का प्रयास करो । उिसे नविीत होकर नजज्ञासा करो और
उिकी सेवा करो । स्वरुपनसद्ध व्यनि तुम्हें ज्ञाि प्रदाि कर सकते हैं, क्योंनक उन्होंिे सत्य का दशमि नकया है ।

तात्पयम : मनस्सन्िेह आत्र्-साक्षात्कार का र्ागम कमिन है अतः भगवान् का उपिेश है मक उन्हीं से प्रारम्भ होने
वाली परम्परा से प्रार्ामणक गुरु की शरण ग्रहण की जाए । इस परम्परा के मसद्धान्त का पालन मकये मबना कोई
प्रार्ामणक गुरु नहीं बन सकता । भगवान् आमि गुरु हैं, अतः गुरु-परम्परा का ही व्यमक्त अपने मशष्ट्य को भगवान् का
सन्िेश प्रिान कर सकता है । कोई अपनी मनजी मवमध का मनर्ामण करके स्वरुपमसद्ध नहीं बन सकता जैसा मक आजकल
के र्ख ु म पाखंडी करने लगे हैं । भागवत का (६.३.१९) कर्न है – धमंतुसाक्षात्भगत्प्रणीतम – धर्मपर् का मनर्ामण स्वयं
भगवान् ने मकया है । अतएव र्नोधर्म या शष्ट्ु क तकम से सही पि प्राप्त नहीं हो सकता । न ही ज्ञानग्रंर्ों के स्वतन्त्र
अध्ययन से ही कोई आध्यामत्र्क जीवन र्ें उन्नमत कर सकता है । ज्ञान-प्रामप्त के मलए उसे प्रार्ामणक गुरु की शरण र्ें
जाना ही होगा । ऐसे गुरु को पूणम सर्पमण करके ही स्वीकार करना चामहए और अहक ं ाररमहत होकर िास की भाँमत गुरु
की सेवा करनी चामहए । स्वरुपमसद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यामत्र्क जीवन की प्रगमत का रहस्य है । मजज्ञासा और
मवनीत भाव के र्ेल से आध्यामत्र्क ज्ञान प्राप्त होता है । मबना मवनीत भाव तर्ा सेवा के मवद्वान गुरु से की गई
मजज्ञासाएँ प्रभावपूणम नहीं होंगी । मशष्ट्य को गुरु-परीक्षा र्ें उत्तीणम होना चामहए और जब गुरु मशष्ट्य र्ें वास्तमवक इच्छा
िेखता है तो स्वतः ही मशष्ट्य को आध्यामत्र्क ज्ञान का आशीवामि िेता है । इस श्लोक र्ें अन्धानुगर्न तर्ा मनरर्मक
मजज्ञासा-इन िोनों की भत्समना की गई है । मशष्ट्य न के वल गुरु से मवनीत होकर सुने, अमपतु मवनीत भाव तर्ा सेवा और
मजज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करे । प्रार्ामणक गुरु स्वभाव से मशष्ट्य के प्रमत ियालु होता है, अतः यमि मशष्ट्य
मवनीत हो और सेवा र्ें तत्पर रहे तो ज्ञान और मजज्ञासा का मवमनर्य पूणम हो जाता है ।

यजज्ञात्वा ि पिु मोहमेवं यास्यनस पाण्डव ।


येि भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मनय ।। ३५ ।।

यत्– मजसे; ज्ञात्वा– जानकर; ि– कभी नहीं; पुिः– मिर; मोहम्– र्ोह को; एवम्– इस प्रकार; यास्यनस–
प्राप्त होगे; पाण्डव– हे पाण्डवपुत्र; येि– मजससे; भूतानि– जीवों को; अशेषेण– सर्स्त; द्रक्ष्यनस–
िेखोगे; आत्मनि– परर्ात्र्ा र्ें; अथ उ– अर्वा अन्य शब्िों र्ें; मनय– र्झु र्ें ।

स्वरुपनसद्ध व्यनि से वास्तनवक ज्ञाि प्राप्त कर चुकिे पर तुम पुिः कभी ऐसे मोह को प्राप्त िहीं होगे
क्योंनक इस ज्ञाि के द्वारा तुम देख सकोगे नक सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अथामत् वे सब मेरे हैं ।

तात्पयम : स्वरुपमसद्ध व्यमक्त से ज्ञान प्राप्त होने का पररणार् यह होता है मक यह पता चल जाता है मक सारे जीव
भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के मभन्न अश ं हैं । कृ ष्ट्ण से पृर्क् अमस्तत्व का भाव माया (र्ा – नहीं, या – यह) कहलाती है । कुछ
लोग सोचते हैं मक हर्ें कृ ष्ट्ण से क्या लेना िेना है वे तो के वल र्हान ऐमतहामसक पुरुष हैं और परब्रह्म तो मनराकार है ।
वस्ततु ः जैसा मक भगवद्गीता र्ें कहा गया है यह मनराकार ब्रह्म कृ ष्ट्ण का व्यमक्तगत तेज है । कृ ष्ट्ण भगवान् के रूप र्ें
प्रत्येक वस्तु के कारण हैं । ब्रह्मसांस्हता र्ें स्पष्ट कहा गया है मक कृ ष्ट्ण श्रीभगवान् हैं और सभी कारणों के कारण हैं । यहाँ
तक मक लाखों अवतार उनके मवमभन्न मवस्तार ही हैं । इसी प्रकार सारे जीव भी कृ ष्ट्ण का अश ं हैं । र्ायावामियों की यह

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मर्थ्या धारणा है मक कृ ष्ट्ण अपने अनेक अंशों र्ें अपनी मनजी पृर्क् अमस्तत्व को मर्टा िेते हैं । यह मवचार सवमर्ा
भौमतक है । भौमतक जगत र्ें हर्ारा अनुभव है मक यमि मकसी वस्तु का मवखण्डन मकया जाय तो उसका र्ल ू स्वरूप नष्ट
हो जाता है । मकन्तु र्ायावािी यह नहीं सर्झ पाते मक परर् का अर्म है मक एक और एक मर्लकर एक ही होता है और
एक र्ें से एक घटाने पर भी एक बचता है । परब्रह्म का यही स्वरूप है ।
ब्रह्ममवद्या का पयामप्त ज्ञान न होने के कारण हर् र्ाया से आवृत हैं इसीमलए हर् अपने को कृ ष्ट्ण से पृर्क् सोचते
हैं । यद्यमप हर् कृ ष्ट्ण के मभन्न अंश ही हैं, मकन्तु तो भी हर् उनसे मभन्न नहीं हैं । जीवों का शारीररक अन्तर र्ाया है
अर्वा वास्तमवक सत्य नहीं है । हर् सभी कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करने के मनमर्त्त हैं । के वल र्ाया के कारण ही अजमनु ने
सोचा मक उसके स्वजनों से उसका क्षमणक शारीररक सम्बन्ध कृ ष्ट्ण के शाश्र्वत आध्यामत्र्क सम्बन्धों से अमधक
र्हत्त्वपणू म है । गीता का सम्पणू म उपिेश इसी ओर लमक्षत है मक कृ ष्ट्ण का मनत्य िास होने के कारण जीव उनसे पृर्क्
नहीं हो सकता, कृ ष्ट्ण से अपने को मवलग र्ानना ही र्ाया कहलाती है । परब्रह्म के मभन्न अंश के रूप र्ें जीवों को एक
मवशष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है । उस उद्देश्य को भल ु ाने के कारण ही वे अनामिकाल से र्ानव, पश,ु िेवता आमि िेहों
र्ें मस्र्त हैं । ऐसे शारीररक अन्तर भगवान् के मिव्य सेवा के मवस्र्रण से जमनत हैं । मकन्तु जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
र्ाध्यर् से मिव्य सेवा र्ें लग जाता है तो वह इस र्ाया से तुरन्त र्क्त ु हो जाता है । ऐसा ज्ञान के वल प्रार्ामणक गुरु से ही
प्राप्त हो सकता है और इस तरह वह इस भ्रर् को िरू कर सकता है मक जीव कृ ष्ट्ण के तुल्य है । पूणमज्ञान तो यह है मक
परर्ात्र्ा कृ ष्ट्ण सर्स्त जीवों के परर् आश्रय हैं और इस आश्रय को त्याग िेने पर जीव र्ाया द्वारा र्ोमहत होते हैं,
क्योंमक वे अपना अमस्तत्व पृर्क् सर्झते हैं । इस तरह मवमभन्न भौमतक पमहचानों के र्ानिण्डों के अन्तगमत वे कृ ष्ट्ण को
भल ू जाते हैं । मकन्तु जब ऐसे र्ोहग्रस्त जीव कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होते हैं तो यहसर्झा जाता है मक वे र्ुमक्त-पर् पर
हैं मजसकी पुमष्ट भागवत र्ें (२.१०.६) की गई है – मुस्िस्हत्द वान्यथारूपां स्वरूपेण व्यवस्स्थस्तः। र्मु क्त का अर्म है –
कृ ष्ट्ण के मनत्य िास रूप र्ें (कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें) अपनी स्वाभामवक मस्र्मत पर होना ।

अनप चेदनस पापेभ्यः सवेभ्यः पापकृ त्तमः ।


सवं ज्ञािप्लवेिैव वृनजिं सन्तररष्ट्यनस ।। ३६ ।।

अनप - भी; चेत् - यमि; अनस - तुर् हो; पापेभ्यः - पामपयों से;सवेभ्यः - सर्स्त; पाप-कृ त-तमः - सवाममधक
पापी; सवमम् - ऐसे सर्स्त पापकर्म; ज्ञाि-प्लवेि - मिव्यज्ञान की नाव द्वारा; एव - मनश्चय ही; वृनजिम् - िख
ु ों के
सागर को ; सन्तररष्ट्यनस - पूणमतया पार कर जाओगे ।

यनद तुम्हें समस्त पानपयों में भी सवामनधक पापी समझा जाये तो भी तुम नदव्यज्ञाि रूपी िाव में नस्थत
होकर दुख-सागर को पार करिे में समथम होगे ।

तात्पयम : श्री कृ ष्ट्ण के सम्बन्ध र्ें अपनी स्वाभामवक मस्र्मत का सही-सही ज्ञान इतना उत्तर् होता है मक अज्ञान-
सागर र्ें चलने वाले जीवन-संघषम से र्नुष्ट्य तुरन्त ही ऊपर उि सकता है । यह भौमतक जगत् कभी-कभी अज्ञान सागर
र्ान मलया जाता है तो कभी जलता हुआ जगं ल । सागर र्ें कोई मकतना ही कुशल तैराक क्यों न हो, जीवन-सघं षम
अत्यन्त कमिन है । यमि कोई संघषमरत तैरने वाले को आगे बढ़कर सर्द्रु से मनकाल लेता है तो वह सबसे बड़ा रक्षक

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है । भगवान् से प्राप्त पूणमज्ञान र्मु क्त का पर् है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत की नाव अत्यन्त सुगर् है, मकन्तु उसी के सार्-सार्
अत्यन्त उिात्त भी ।

यथैधांनस सनमद्धोऽनग्िभमस्मसात्कुरुते ऽजमिु ।


ज्ञािानग्िः सवमकमामनण भस्मसात्कुरुते तथा ।। ३७ ।।

यथा - मजस प्रकार से; एधानं स - ईधन ं को; सनमद्धः - जलती हुई; अनग्िः - अमग्न; भस्म-सात् -
राख; कुरुते - कर िेती है; अजमिु - हे अजुमन; ज्ञाि-अनग्िः - ज्ञान रूपी अमग्न; सवम-कमामनण - भौमतक कर्ों के सर्स्त
िल को; भस्मसात् - भस्र्, राख; कुरुते - करती है; तथा - उसी प्रकार से ।

जैसे प्रजजवनलत अनग्ि ईधि


ं को भस्म कर देती है, उसी तरह हे अजमिु ! ज्ञाि रूपी अनग्ि भौनतक कमों
के समस्त िलों को जला डालती है ।

तात्पयम : आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा सम्बन्धी पूणमज्ञान तर्ा उनके सम्बन्ध की तुलना यहाँ अमग्न से की गई है । यह
अमग्न न के वल सर्स्त पापकर्ों के िलों को जला िेती है, अमपतु पुण्यकर्ों के िलों को भी भस्र्सात् करने वाली है ।
कर्मिल की कई अवस्र्ाएँ हैं - शभु ारम्भ, बीज, संमचत आमि । मकन्तु जीव को स्वरूप का ज्ञान होने पर सब कुछ भस्र्
हो जाता है चाहे वह पूवमवती हो या परवती । वेिों र्ें (बृहर्ारण्य उपस्नषर्् ४.४.२२) कहा गया है - उभे उहैवैष एते
तरत्यमृतः साध्वासाधनू ी - “र्नुष्ट्य पाप तर्ा पुण्य िोनों ही प्रकार के कर्म िलों को जीत लेता है ।”

ि नह ज्ञािेि सदृशं पनवत्रनमह नवद्यते ।


तत्स्वयं योगसंनसद्धः कालेिात्मनि नवन्दनत ।। ३८ ।।

ि– कुछ भी नहीं; नह– मनश्चय ही; ज्ञािेि– ज्ञान से; सदृशम्– तुलना र्ें; पनवत्रम्– पमवत्र; इह– इस संसार
र्ें; नवद्यते– है; तत्– उस; स्वयम्– अपने आप; योग– भमक्त र्ें; संनसद्ध– पररपक्व होने पर; कालेि–
यर्ासर्य; आत्मनि– अपने आप र्ें, अन्तर र्ें; नवन्दनत– आस्वािन करता है ।

इस संसार में नदव्यज्ञाि के समाि कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध िहीं है । ऐसा ज्ञाि समस्त योग का
पररपक्व िल है । जो व्यनि भनि में नसद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपिे अन्तर में इस ज्ञाि का
आस्वादि करता है ।

तात्पयम : जब हर् मिव्यज्ञान की बात करते हैं तो हर्ारा प्रयोजन अध्यामत्र्क ज्ञान से होता है । मनस्सन्िेह
मिव्यज्ञान के सर्ान कुछ भी उिात्त और शद्ध ु नहीं है । अज्ञान ही हर्ारे बन्धन का कारण है और ज्ञान हर्ारी र्मु क्त का ।
यह ज्ञान भमक्त का पररपक्व िल है । जब कोई मिव्यज्ञान की अवस्र्ा प्राप्त कर लेता है तो उसे अन्यत्र शामन्त खोजने की
आवश्यकता नहीं रहती, क्योंमक वह र्न ही र्न शामन्त का आनन्ि लेता रहता है । िसु रे शब्िों र्ें, ज्ञान तर्ा शामन्त का
पयमवसान कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें होता है । भगवद्गीता के सन्िेश की यही चरर् पररणमत है ।

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श्रद्धावाूँल्लभते ज्ञािं तत्परः संयतेनन्द्रयः ।
ज्ञािं लब्ध्वा परां शानन्तमनचरेणानधगच्छनत ।। ३९ ।।

श्रद्धा-वाि्– श्रद्धालु व्यमक्त; लभते – प्राप्त करता है; ज्ञािम्– ज्ञान; तत्-परः– उसर्ें अत्यमधक
अनरु क्त; संयत– संयमर्त; इनन्द्रयः– इमन्द्रयाँ; ज्ञािम्– ज्ञान; लब्ध्वा– प्राप्त करके ; पराम्– मिव्य; शानन्तम्–
शामन्त; अनचरेण– शीघ्र ही; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

जो श्रद्धालु नदव्यज्ञाि में समनपमत है और नजसिे इनन्द्रयों को वश में कर नलया है, वह इस ज्ञाि को प्राप्त
करिे का अनधकारी है और इसे प्राप्त करते ही वह तुरन्त आध्यानत्मक शानन्त को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : श्रीकृ ष्ट्ण र्ें दृढ़मवश्र्वास रखने वाला व्यमक्त ही इस तरह का कृ ष्ट्णभावनाभामवत ज्ञान प्राप्त कर सकता
है । वही पुरुष श्रद्धावान कहलाता है जो यह सोचता है मक कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कर्म करने से वह परर्मसमद्ध प्राप्त
कर सकता है । यह श्रद्धा भमक्त के द्वारा तर्ा हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे –
र्न्त्र के जाप द्वारा प्राप्त की जाती है क्योंमक इससे हृिय की सारी भौमतक र्मलनता िरू हो जाती है । इसके अमतररक्त
र्नुष्ट्य को चामहए मक अपनी इमन्द्रयों पर संयर् रखे । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण के प्रमत श्रद्धावान् है और जो इमन्द्रयों को संयमर्त
रखता है, वह शीघ्र ही कृ ष्ट्णभावनार्ृत के ज्ञान र्ें पूणमता प्राप्त करता है ।

अज्ञश्र्चाश्रद्दधािश्र्च संशयात्मा नविश्यनत ।


िायं लोकोऽनस्त ि परो ि सुखं सश ं यात्मिः ।। ४० ।।

अज्ञः– र्ख
ू म, मजसे शास्त्रों का ज्ञान नहीं है; च– तर्ा; अश्रद्दधािः– शास्त्रों र्ें श्रद्धा से मवहीन; च– भी; सश
ं य–
शंकाग्रस्त; आत्मा– व्यमक्त; नविश्यनत– मगर जाता है; ि– न; अयम्– इस; लोकः– जगत र्ें; अनस्त– है; ि– न
तो; परः– अगले जीवन र्ें; ि– नहीं; सुखम्– सुख; संशय– संशयग्रस्त; आत्मिः– व्यमक्त के मलए;

नकन्तु जो अज्ञािी तथा श्रद्धानवहीि व्यनि शास्त्रों में संदेह करते हैं, वे भगविाविामृत िहीं प्राप्त करते,
अनपतु िीचे नगर जाते है । संशयात्मा के नलए ि तो इस लोक में, ि ही परलोक में कोई सुख है ।

तात्पयम :भगवद्गीता सभी प्रार्ामणक एवं र्ान्य शास्त्रों र्ें सवोत्तर् है । जो लोग पशतु ुल्य हैं उनर्ें न तो प्रार्ामणक
शास्त्रों के प्रमत कोई श्रद्धा है और न उनका ज्ञान होता है और कुछ लोगों को यद्यमप उनका ज्ञान होता है और उनर्ें से वे
उद्धरण िेते रहते हैं, मकन्तु उनर्ें वास्तमवक मवश्र्वास नहीं करते । यहाँ तक मक कुछ लोग मजनर्ें भगवद्गीता जैसे शास्त्रों
र्ें श्रद्धा होती भी है मिर भी वे न तो भगवान् कृ ष्ट्ण र्ें मवश्र्वास करते हैं, न उनकी पूजा करते हैं । ऐसे लोगों को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत का कोई ज्ञान नहीं होता । वे नीचे मगरते हैं । उपयमक्त ु सभी कोमट के व्यमक्तयों र्ें जो श्रद्धालु नहीं हैं और
सिैव संशयग्रस्त रहते हैं, वे तमनक भी उन्नमत नहीं कर पाते । जो लोग ईश्र्वर तर्ा उनके वचनों र्ें श्रद्धा नहीं रखते उन्हें
न तो इस ससं ार र्ें न तो भावी लोक र्ें कुछ हार् लगता है । उनके मलए मकसी भी प्रकार का सुख नहीं है । अतः र्नुष्ट्य

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को चामहए मक श्रद्धाभाव से शास्त्रों के मसद्धान्तों का पालन करे और ज्ञान प्राप्त करे । इसी ज्ञान से र्नुष्ट्य आध्यामत्र्क
अनुभमू त के मिव्य पि तक पहुचँ सकता है । िसू रे शब्िों र्ें, आध्यामत्र्क उत्र्ान र्ें संशयग्रस्त र्नुष्ट्यों को कोई स्र्ान
नहीं मर्लता । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक परम्परा से चले आ रहे र्हान आचायों के पिमचन्हों का अनुसरण करे और
सिलता प्राप्त करे ।

योगसंन्यस्तकमामणं ज्ञािसनञ्छन्िसंशयम् ।
आत्मवन्तं ि कमामनण निबध्िनन्त धिञ्जय ।। ४१ ।।

योग– कर्मयोग र्ें भमक्त से; सन्ं यस्त– मजसने त्याग मिये हैं; कमामणम्– कर्मिलों को; ज्ञाि– ज्ञान
से; सनञ्छन्ि– काट मिये हैं; संशयम्– सन्िेह को; आत्म-वन्तम्– आत्र्परायण को; ि– कभी नहीं; कमामनण–
कर्म; निब्ध्िनन्त– बाँधते हैं; धिञ्जय– हे सम्पमत्त के मवजेता ।

जो व्यनि अपिे कममिलों का पररत्याग करते हुए भनि करता है और नजसके संशय नदव्यज्ञाि द्वारा
नविष्ट हो चुके होते हैं वही वास्तव में आत्मपरायण है । हे धिञ्जय! वह कमों के बन्धि से िहीं बूँधता ।

तात्पयम : जो र्नुष्ट्य भगवद्गीता की मशक्षा का उसी रूप र्ें पालन करता है मजस रूप र्ें भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण ने िी
र्ी, तो वह मिव्यज्ञान की कृ पा से सर्स्त संशयों से र्क्त
ु हो जाता है । पूणमतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने के कारण उसे
श्रीभगवान् के अंश रूप र्ें अपने स्वरूप का ज्ञान पहले ही हो जाता है । अतएव मनस्सन्िेह वह कर्मबन्धन से र्क्त
ु है ।

तस्मादज्ञािसम्भतू ं हृत्स्थं ज्ञािानसिात्मिः ।


नछत्वैिं संशयं योगमानतष्ठोनत्तष्ठ भारत ।। ४२ ।।

तस्मात्– अतः; अज्ञाि-सम्भूतम्– अज्ञान से उत्पन्न; हृत्स्थम्– हृिय र्ें मस्र्त; ज्ञाि– ज्ञान रूपी; अनसिा–
शस्त्र से; आत्मिः– स्व के ; नछत्त्वा– काट कर; एिम्– इस; संशयम्– संशय को; योगम्– योग र्ें; अनतष्ठ– मस्र्त
होओ; उनत्तष्ठ– युद्ध करने के मलए उिो; भारत– हे भरतवंशी ।

अतएव तुम्हारे हृदय में अज्ञाि के कारण जो संशय उठे हैं उन्हें ज्ञािरूपी शस्त्र से काट डालो । हे भारत!
तुम योग से समनन्वत होकर खडे होओ और युद्ध करो ।

तात्पयम : इस अध्याय र्ें मजस योगपद्धमत का उपिेश हुआ है वह सनातन योग कहलाती है । इस योग र्ें िो तरह
के यज्ञकर्म मकये जाते है – एक तो द्रव्य का यज्ञ और िसू रा आत्र्ज्ञान यज्ञ जो मवशद्ध
ु आध्यामत्र्क कर्म है । यमि
आत्र्-साक्षात्कार के मलए द्रव्ययज्ञ नहीं मकया जाता तो ऐसा यज्ञ भौमतक बन जाता है । मकन्तु जब कोई आध्यामत्र्क
उद्देश्य या भमक्त से ऐसा यज्ञ करता है तो वह पूणमयज्ञ होता है । आध्यामत्र्क मक्रयाएँ भी िो प्रकार की होती हैं –
आत्र्बोध (या अपने स्वरूप को सर्झना) तर्ा श्रीभगवान् मवषयक सत्य । जो भगवद्गीता के र्ागम का पालन करता है
वह ज्ञान की इन िोनों श्रेमणयों को सर्झ सकता है । उसके मलए भगवान् के अंश स्वरूप आत्र्ज्ञान को प्राप्त करने र्ें

१६९
कोई कमिनाई नहीं होती है । ऐसा ज्ञान लाभप्रि है क्योंमक ऐसा व्यमक्त भगवान् के मिव्य कायमकलापों को सर्झ सकता
है । इस अध्याय के प्रारम्भ र्ें स्वयं भगवान् ने अपने मिव्य कायमकलापों का वणमन मकया है । जो व्यमक्त गीता के उपिेशों
को नहीं सर्झता वह श्रद्धामवहीन है और जो भगवान् द्वारा उपिेश िेने पर भी भगवान् के समच्चिानन्ि स्वरूप को नहीं
सर्झ पाता तो यह सर्झना चामहए मक वह मनपट र्ख ू म है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मसद्धान्तों को स्वीकार करके अज्ञान को
क्रर्शः िरू मकया जा सकता है । यह कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवमवध िेवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, ब्रह्मचयम यज्ञ, गृहस्र् यज्ञ, इमन्द्रयसंयर्
यज्ञ, योग साधना यज्ञ, तपस्या यज्ञ, द्रव्ययज्ञ, स्वाध्याय यज्ञ तर्ा वणामश्रर्धर्म र्ें भाग लेकर जागृत मकया जा सकता है ।
ये सब यज्ञ कहलाते हैं और ये सब मनयमर्त कर्म पर आधाररत हैं । मकन्तु इन सब कायमकलापों के भीतर सबसे
र्हत्त्वपूणम कारक आत्र्-साक्षात्कार है । जो इस उद्देश्य को खोज लेता है वही भगवद्गीता का वास्तमवक पािक है,
मकन्तु जो कृ ष्ट्ण को प्रर्ाण नहीं र्ानता वह नीचे मगर जाता है । अतः र्नष्ट्ु य को चामहए मक वह सेवा तर्ा सर्पमण सर्ेत
मकसी प्रार्ामणक गुरु के मनिेशन र्ें भगवद्गीता या अन्य मकसी शास्त्र का अध्ययन करे । प्रार्ामणक गुरु अनन्तकाल से
चली आने वाली परम्परा र्ें होता है और वह परर्ेश्र्वर के उन उपिेशों से तमनक भी मवपर् नहीं होता मजन्हें उन्होंने
लाखों वषम पूवम सूयमिेव को मिया र्ा और मजनसे भगवद्गीता के उपिेश इस धराधार् र्ें आये । अतः गीता र्ें ही
व्यक्त भगवद्गीता के पर् का अनुसरण करना चामहए और उन लोगों से सावधान रहना चामहए जो आत्र्-श्लाघा वश
अन्यों को वास्तमवक पर् से मवपर् करते रहते हैं । भगवान् मनमश्चत रूप से परर्पुरुष हैं और उनके कायमकलाप मिव्य हैं ।
जो इसे सर्झता है वह भगवद्गीता का अध्ययन शभु ारम्भ करते ही र्क्त ु होता है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े चतुथद अध्याय ”स्र्व्य ज्ञान” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

१७०
अध्याय पाूँच
कममयोग - कृष्ट्णभाविाभानवत कमम
अजुमन उवाच
सन्न्यासं कममणां कृ ष्ट्ण पुियोगं च शंसनस ।
यच्रे य एतयोरेकं तन्मे ब्रूनह सुनिनश्र्चतम् ।। १ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; संन्यासम्– संन्यास; कममणाम्– सम्पूणम कर्ों के ; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; पुिः–
मिर; योगम्– भमक्त; च – भी;शंसनस– प्रशंसा करते हो; यत्– जो; श्रेयः– अमधक लाभप्रि है; एतयोः– इन िोनों र्ें
से; एकम्– एक; तत्– वह; मे– र्ेरे मलए;ब्रूनह– कमहये; सु-निनश्चतम्– मनमश्चत रूप से ।

अजमिु िे कहा – हे कृ ष्ट्ण! पहले आप मझ


ु से कमम त्यागिे के नलए कहते हैं और निर भनिपवू मक कमम
करिे का आदेश देते हैं । क्या आप अब कृ पा करके निनश्चत रूप से मुझे बताएूँगे नक इि दोिों में से कौि
अनधक लाभप्रद है?

तात्पयम :भगवद्गीता के इस पंचर् अध्याय र्ें भगवान् बताते हैं मक भमक्तपूवमक मकया गया कर्म शष्ट्ु क मचन्तन से
श्रेि है । भमक्त-पर् अमधक सुगर् है, क्योंमक मिव्यस्वरूपा भमक्त र्नुष्ट्य को कर्मबन्धन से र्क्त
ु करती है । मद्वतीय अध्याय
र्ें आत्र्ा तर्ा उसके शरीर बन्धन का सार्ान्य ज्ञान बतलाया गया है । उसी र्ें बुमद्धयोग अर्ामत् भमक्त द्वारा इस भौमतक
बन्धन से मनकलने का भी वणमन हुआ है । तृतीय अध्याय र्ें यह बताया गया है मक ज्ञानी को कोई कायम नहीं करने
पड़ते । चतुर्म अध्याय र्ें भगवान् ने अजुमन को बताया है मक सारे यज्ञों का पयमवसान ज्ञान र्ें होता है, मकन्तु चतुर्म
अध्याय के अन्त र्ें भगवान् ने अजुमन को सलाह िी मक वह पूणमज्ञान से युक्त होकर, उि करके युद्ध करे । अतः इस
प्रकार एक ही सार् भमक्तर्य कर्म तर्ा ज्ञानयुक्त-अकर्म की र्हत्ता पर बल िेते हुए कृ ष्ट्ण ने अजुमन के संकल्प को भ्रमर्त
कर मिया है । अजमनु यह सर्झता है मक ज्ञानर्य सन्ं यास का अर्म है – इमन्द्रयकायों के रूप र्ें सर्स्त प्रकार के
कायमकलापों का पररत्याग । मकन्तु यमि भमक्तयोग र्ें कोई कर्म करता है तो मिर कर्म का मकस तरह त्याग हुआ ? िसू रे
शब्िों र्ें, वह यह सोचता है मक ज्ञानर्ाय सन्ं यास को सभी प्रकार के कायों से र्क्त ु होना चामहए क्योंमक उसे कर्म तर्ा
ज्ञान असंगत से लगते हैं । ऐसा लगता है मक वह नहीं सर्झ पाया मक ज्ञान के सार् मकया गया कर्म बन्धनकारी न होने
के कारण अकर्म के ही तल्ु य है । अतएव वह पछ ू ता है मक वह सब प्रकार से कर्म त्याग िे या पणू मज्ञान से यक्त
ु होकर कर्म
करे ?

श्रीभगवानवु ाच
संन्यासः कममयोगश्र्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कममसन्न्यासात्कममयोगो नवनशष्ट्यते ।। २ ।।

१७१
श्री-भगवाि् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास– कर्म का पररत्याग; कममयोगः– मनिायुक्त कर्म; च–
भी; निःश्रेयस-करौ– र्मु क्तपर् को ले जाने वाले; उभौ– िोनों; तयोः– िोनों र्ें से; तु– लेमकन; कमम-संन्यासात्–
सकार्कर्ों के त्याग से; कमम-योगः – मनिायुक्त कर्म;नवनशष्ट्यते– श्रेि है ।

श्रीभगवाि् िे उत्तर नदया – मुनि में नलए तो कमम का पररत्याग तथा भनिमय-कमम (कममयोग) दोिों ही
उत्तम हैं । नकन्तु इि दोिों में से कमम के पररत्याग से भनियि
ु कमम श्रेष्ठ है ।

तात्पयम:सकार् कर्म (इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगाना) ही भवबन्धन का कारण है । जब तक र्नुष्ट्य शारीररक सख ु का स्तर
बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह मवमभन्न प्रकार के शरीरों र्ें िेहान्तरण करते हुए भवबन्धन को
बनाये रखता है । इसकी पुमष्ट भागवत (५.५.४-६) र्ें इस प्रकार हुई है-
नूनां प्रमत्तः ु रुते स्व मद यस्र्स्न्द्रयप्रीतय आपृणोस्त ।
न साधु मन्ये यत आत्मनोऽयमसन्नस्प क्तलेशर् आस र्ेहः ।।
पराभवस्तावर्बोधजातो यावन्न स्जज्ञासत आत्मतत्त्वम् ।
यावस्त्क्रयास्तावस्र्र्ां मनो वै मादत्म ां येन शरीरबन्धः ।।
एवां मनः मदवशां प्रयुांिे अस्वययात्मन्युपधीयमाने ।
प्रीस्तनद यावन्मस्य वासुर्ेवे न मचु यते र्ेहयोगेन तावत् ।।
“लोग इमन्द्रयतृमप्त के पीछे र्त्त हैं । वे यह नहीं जानते मक उनका क्लेशों से युक्त यह शरीर उनके मवगत सकार्-
कर्ों का िल है । यद्यमप यह शरीर नाशवान है, मकन्तु यह नाना प्रकार के कष्ट िेता रहता है । अतः इमन्द्रयतृमप्त के मलए
कर्म करना श्रेयस्कर नहीं है । जब तक र्नुष्ट्य अपने असली स्वरूप के मवषय र्ें मजज्ञासा नहीं करता, उसका जीवन व्यर्म
रहता है । और जब तक वह अपने स्वरूप को नहीं जान लेता तब तक उसे इमन्द्रयतृमप्त के मलए सकार् कर्म करना पड़ता
है, और जब तक वह इमन्द्रयतृमप्त की इस चेतना र्ें िँ सा रहता है तब तक उसका िेहान्तरण होता रहता है । भले ही
उसका र्न सकार् कर्ों र्ें व्यस्त रहे और अज्ञान द्वारा प्रभामवत हो, मकन्तु उसे वासुिेव की भमक्त के प्रमत प्रेर् उत्पन्न
करना चामहए । के वल तभी वह भव बन्धन से छूटने का अवसर प्राप्त कर सकता है ।”
अतः यह ज्ञान ही (मक वह आत्र्ा है शरीर नहीं) र्मु क्त के मलए पयामप्त नहीं । जीवात्र्ा के स्तर पर र्नुष्ट्य को कर्म
करना होगा अन्यर्ा भवबन्धन से उबरने का कोई अन्य उपाय नहीं है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कर्म करना
सकार् कर्म नहीं है । पूणमज्ञान से युक्त होकर मकये गये कर्म वास्तमवक ज्ञान को बढ़ाने वाले हैं । मबना कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
के वल कर्ों के पररत्याग से बद्धजीव का हृिय शद्ध ु नहीं होता । जब तक हृिय शद्ध
ु नहीं होता तब तक सकार् कर्म
करना पड़ेगा । परन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म कताम को स्वतः सकार् कर्म के िल से र्क्त ु बनाता है, मजसके कारण
उसके उसे भौमतक स्तर पर उतरना नहीं पड़ता । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म संन्यास से सिा श्रेि होता है, क्योंमक
सन्ं यास र्ें नीचे मगरने की सम्भावना बनी रहती है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत से रमहत सन्ं यास अपणू म है, जैसा मक श्रील रूप
गोस्वार्ी ने भमक्तरसार्ृतमसन्धुर्ें (१.२.२५८) पुमष्ट की है –
प्रापस्ञ्च तया बुद्धया हरर समबस्न्धवस्तुनः ।
ममु क्ष
ु ुस्भः पररत्यागो वैरार्गयां फल्गु थ्यते ।।

१७२
“जब र्मु क्तकार्ी व्यमक्त श्रीभगवान् से सम्बमन्धत वस्तुओ ं को भौमतक सर्झ कर उनका पररत्याग कर िेते हैं, तो
उनका संन्यास अपूणम कहलाता है ।” संन्यास तभी पूणम र्ाना जाता है जब यह ज्ञात हो की संसार की प्रत्येक वस्तु
भगवान् की है और कोई मकसी भी वस्तु का स्वामर्त्व ग्रहण नहीं कर सकता । वस्तुतः र्नुष्ट्य को यह सर्झने का प्रयत्न
करना चामहए मक उसका अपना कुछ भी नहीं है । तो मिर संन्यास का प्रश्न ही कहाँ उिता है? तो व्यमक्त यह सर्झता है
मक सारी सम्पमत्त कृ ष्ट्ण की है, वह मनत्य संन्यासी है । प्रत्येक वस्तु कृ ष्ट्ण की है, अतः उसका उपयोग कृ ष्ट्ण के मलए
मकया जाना चामहए । कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर इस प्रकार कायम करना र्ायावािी संन्यासी के कृ मत्रर् वैराग्य से कहीं
उत्तर् है ।

ज्ञेयः स नित्यसन्ं यासी यो ि द्वेनष्ट ि काङ् क्षनत ।


निद्वमन्द्वो नह महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।। ३ ।।

ज्ञेयः– जानना चामहए; सः– वह; नित्य - सिैव; संन्यासी– संन्यासी; यः– जो; ि– कभी नहीं; द्वेनष्ट– घृणा
करता है; ि– न तो; काङ् क्षनत– इच्छा करता है; निद्वमन्द्वः– सर्स्त द्वैतताओ ं से र्क्त
ु ; नह– मनश्चय ही; महाबाहो– हे
बमलष्ट भजु ाओ ं वाले; सुखम्– सुखपूवमक; बन्धात्– बन्धन से; प्रमुच्यते– पूणमतया र्क्त ु हो जाता है ।

जो पुरुष ि तो कममिलों से घृणा करता है और ि कममिल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी
जािा जाता है । हे महाबाहु अजमिु ! ऐसा मिुष्ट्य समस्त द्वन्द्वों से रनहत होकर भवबन्धि को पार कर पूणमतया
मुि हो जाता है ।

तात्पयम : पणू मतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत पुरुष मनत्य सन्ं यासी है क्योंमक वह अपने कर्मिल से न तो घृणा करता है,
न ही उसकी आकांशा करता है । ऐसा संन्यासी, भगवान् की मिव्य प्रेर्भमक्त के परायण होकर पूणमज्ञानी होता है क्योंमक
वह कृ ष्ट्ण के सार् अपनी स्वाभामवक मस्र्मत को जानता है । वह भलीभाँमत जानता रहता है मक कृ ष्ट्ण पणू म (अश ं ी) है
और वह स्वयं अंशर्ात्र है । ऐसा ज्ञान पूणम होता है क्योंमक यह गुणात्र्क तर्ा सकारात्र्क रूप से सही है । कृ ष्ट्ण-
तािात्र्य की भावना भ्रान्त है क्योंमक अंश अंशी के तुल्य नहीं हो सकता । यह ज्ञान मक एकता गुणों की है न मक गुणों
की र्ात्रा की, सही मिव्यज्ञान है, मजससे र्नुष्ट्य अपने आप र्ें पूणम बनता है, मजससे न तो मकसी वस्तु की आकांक्षा
रहती है न मकसी का शोक । उसके र्न र्ें मकसी प्रकार का छल-कपट नहीं रहता क्योंमक वह जो कुछ भी करता है कृ ष्ट्ण
के मलए करता है । इस प्रकार छल-कपट से रमहत होकर वह इस भौमतक जगत् से भी र्क्त ु हो जाता है ।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदनन्त ि पनण्डताः ।


एकमप्यानस्थतः सम्यगुभयोनवमन्दते िलम् ।। ४ ।।

सांख्य– भौमतक जगत् का मवश्लेषात्र्क अध्ययन; योगौ– भमक्तपूणम कर्म, कर्मयोग; पृथक् – मभन्न; बालाः–
अल्पज्ञ; प्रवदनन्त– कहते हैं; ि– कभी नहीं; पनण्डताः– मवद्वान जन; एकम्– एक र्ें; अनप– भी; आनस्थतः–
मस्र्त; सम्यक् – पूणमतया; उभयोः– िोनों को; नवन्दते– भोग करता है; िलम्– िल ।

१७३
अज्ञािी ही भनि (कममयोग) को भौनतक जगत् के नवश्ले षात्मक अध्ययि (सांख्य) से नभन्ि कहते हैं ।
जो वस्तुतः ज्ञािी हैं वे कहते हैं नक जो इिमें से नकसी एक मागम का भलीभाूँनत अिुसरण करता है, वह दोिों
के िल प्राप्त कर लेता है ।

तात्पयम : भौमतक जगत् के मवश्लेषात्र्क अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्र्ा को प्राप्त करना है । भौमतक जगत्
की आत्र्ा मवष्ट्णु या परर्ात्र्ा हैं । भगवान् की भमक्त का अर्म परर्ात्र्ा की सेवा है । एक मवमध से वृक्ष की जड़ खोजी
जाती है और िसू री मवमध से उसको सींचा जाता है । साख्ं यिशमन का वास्तमवक छात्र जगत् के र्ल ू अर्ामत् मवष्ट्णु को
ढूँढता है और मिर पूणमज्ञान सर्ेत अपने को भगवान् की सेवा र्ें लगा िेता है । अतः र्ल ू तः इन िोनों र्ें कोई भेि नहीं है
क्योंमक िोनों का उद्देश्य मवष्ट्णु की प्रामप्त है । जो लोग चरर् उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं मक साख्ं य और कर्मयोग
एक नहीं हैं, मकन्तु जो मवद्वान है वह जानता है मक इन िोनों मभन्न मवमधयों का उद्देश्य एक है ।

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थािं तद्योगैरनप गम्यते ।


एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यनत स पश्यनत ।। ५ ।।

यत्– जो; सांख्यैः - सांख्य िशमन के द्वारा; प्राप्यते– प्राप्त मकया जाता है; स्थािम्– स्र्ान; तत्– वही; योगैः–
भमक्त द्वारा; अनप– भी; गम्यते– प्राप्त कर सकता है; एकम्– एक; सांख्यम्– मवश्लेषात्र्क अध्ययन को; च–
तर्ा; योगम्– भमक्तर्य कर्म को; च– तर्ा; यः– जो; पश्यनत– िेखता है; सः– वह; पश्यनत– वास्तव र्ें िेखता है ।

जो यह जािता है नक नवश्ले षात्मक अध्ययि (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थाि भनि द्वारा भी प्राप्त नकया जा
सकता है, और इस तरह जो साख् ं ययोग तथा भनियोग को एकसमाि देखता है, वही वस्तओ ु ं को यथारूप
मेंदेखता है ।

तात्पयम : िाशममनक शोध (सांख्य) का वास्तमवक उद्देश्य जीवन के चरर्लक्ष्य की खोज है । चँमू क जीवन का
चरर्लक्ष्य आत्र्-साक्षात्कार है, अतः इन िोनों मवमधयों से प्राप्त होने वाले पररणार्ों र्ें कोई अन्तर नहीं है । सांख्य
िाशममनक शोध के द्वारा इस मनष्ट्कषम पर पहुचँ ा जाता है मक जीव भौमतक जगत् का नहीं अमपतु पूणम परर्ात्र्ा का अंश
है । िलतः जीवात्र्ा का भौमतक जगत् से कोई सराकार नहीं होता, उसके सारे कायम परर्ेश्र्वर से सम्बद्ध होने चामहए ।
जब वह कृ ष्ट्णभावनार्ृतवश कायम करता है तभी वह अपनी स्वाभामवक मस्र्मत र्ें होता है । सांख्य मवमध र्ें र्नुष्ट्य को
पिार्म से मवरक्त होना पड़ता है और भमक्तयोग र्ें उसे कृ ष्ट्णभावनाभामवत कर्म र्ें आसक्त होना होता है । वस्तुतः िोनों
ही मवमधयाँ एक हैं, यद्यमप ऊपर से एक मवमध र्ें मवरमक्त िीखती है और िसू रे र्ें आसमक्त है । जो पिार्म से मवरमक्त और
कृ ष्ट्ण र्ें आसमक्त को एक ही तरह िेखता है, वही वस्तुओ ं को यर्ारूप र्ें िेखता है ।

संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः ।


योगयि ु ो मनु िब्रमह्म िनचरेणानधगच्छनत ।। ६ ।।

१७४
संन्यासः– संन्यास आश्रर्; तु– लेमकन; महाबाहो– हे बमलि भजु ाओ ं वाले; दुःखम्– िखु ; आप्तुम–् से
प्रभामवत; अयोगतः– भमक्त के मबना; योग-युिः– भमक्त र्ें लगा हुआ; मुनिः– मचन्तक; ब्रह्म– परर्ेश्र्वर को; ि
नचरेण– शीघ्र ही; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

भनि में लगे नबिा के वल समस्त कमों का पररत्याग करिे से कोई सुखी िहीं बि सकता । परन्तु भनि
में लगा हुआ नवचारवाि व्यनि शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है ।

तात्पयम : संन्यासी िो प्रकार के होते हैं । र्ायावािी संन्यासी सांख्यिशमन के अध्ययन र्ें लगे रहते हैं तर्ा वैष्ट्णव
सन्ं यासी वेिान्त सत्रू ों के यर्ार्म भाष्ट्य भागवत-िशमन के अध्ययन र्ें लगे रहते हैं । र्ायावािी सन्ं यासी भी वेिान्त सत्रू ों
का अध्ययन करते हैं, मकन्तु वे शंकराचायम द्वारा प्रणीत शारीररक भाष्ट्य का उपयोग करते हैं ।भागवत सम्प्रिाय के छात्र
पाचं रामत्रकी मवमध से भगवान् की भमक्त करने र्ें लगे रहते हैं । अतः वैष्ट्णव सन्ं यामसयों को भगवान् की मिव्यसेवा के
मलए अनेक प्रकार के कायम करने होते हैं । उन्हें भौमतक कायों से सरोकार नहीं रहता, मकन्तु तो भी वे भगवान् की भमक्त
र्ें नाना प्रकार के कायम करते हैं । मकन्तु र्ायावािी संन्यासी, जो सांख्य तर्ा वेिान्त के अध्ययन एवं मचन्तन र्ें लगे रहते
हैं, वे भगवान् की मिव्य भमक्त का आनन्ि नहीं उिा पाते । चँमू क उनका अध्ययन अत्यन्त जमटल होता है, अतः वे
कभी-कभी ब्रह्ममचन्तन से ऊब कर सर्मु चत बोध के मबना भागवत की शरण ग्रहण करते हैं ।
िलस्वरूप श्रीमद्भागवत का भी अध्ययन उनके मलए कष्टकर होता है । र्ायावािी संन्यामसयों का शष्ट्ु क मचन्तन तर्ा
कृ मत्रर् साधनों से मनमवमशेष मववेचना उनके मलए व्यर्म होती है । भमक्त र्ें लगे हुए वैष्ट्णव संन्यासी अपने मिव्य कर्ों को
करते हुए प्रसन्न रहते हैं और यह भी मनमश्चत रहता है मक वे भगवद्धार् को प्राप्त होंगे ! र्ायावािी संन्यासी कभी-कभी
आत्र्-साक्षात्कार के पर् से मनचे मगर जाते हैं और मिर से सर्ाजसेवा, परोपकार जैसे भौमतक कर्म र्ें प्रवृत्त होते हैं ।
अतः मनष्ट्कषम यह मनकला मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों र्ें लगे रहने वाले लोग ब्रह्म-अब्रहर् मवषयक साधारण मचन्तन
र्ें लगे संन्यामसयों से श्रेि हैं, यद्यमप वे भी अनेक जन्र्ों के बाि कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो जाते हैं ।

योगयुिो नवश्रुद्धात्मा नवनजतात्मा नजतेनन्द्रयः ।


सवमभूतात्मभतू ात्मा कुवमन्िनप ि नलप्यते ।। ७ ।।

योग-युिः– भमक्त र्ें लगे हुए; नवशुद्ध-आत्मा– शद्ध ु आत्र्ा; नवनजत-आत्मा– आत्र्-संयर्ी; नजत-
इनन्द्रयः– इमन्द्रयों को मजतने वाला; सवम-भूत– सर्स्त जीवों के प्रमत; आत्म-भूत-आत्मा– ियालु; कुवमि् अनप–
कर्म र्ें लगे रहकर भी; ि– कभी नहीं; नलप्यते– बँधता है ।

जो भनिभाव में कमम करता है, जो नवशुद्ध आत्मा है और अपिे मि तथा इनन्द्रयों को वश में रखता है,
वह सबों को नप्रय होता है और सभी लोग उसे नप्रय होते हैं । ऐसा व्यनि कमम करता हुआ भी कभी िहीं
बूँधता ।

तात्पयम : जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कारण र्मु क्तपर् पर है वह प्रत्येक जीव को मप्रय होता है और प्रत्येक जीव
उसके मलए प्यारा है । यह कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कारण होता है । ऐसा व्यमक्त मकसी भी जीव को कृ ष्ट्ण के पृर्क् नहीं सोच

१७५
पाता, मजस प्रकार वृक्ष की पमत्तयाँ तर्ा टहमनयाँ वृक्ष से मभन्न नहीं होती । वह भलीभाँमत जानता है मक वृक्ष की पमत्तयाँ
तर्ा टहमनयाँ वृक्ष से मभन्न नहीं होतीं । वह भलीभाँमत जानता है मक वृक्ष की जड़ र्ें डाला गया जल सर्स्त पमत्तयों
तर्ा टहमनयों र्ें िै ल जाता है अर्वा आर्ाशय को भोजन िेने से शमक्त स्वतः पूरे शरीर र्ें िै ल जाती है । चँमू क
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करने वाला सबों का िास होता है, अतः वह हर एक को मप्रय होता है । चँमू क प्रत्येक व्यमक्त
उसके कर्म से प्रसन्न रहता है, अतः उसकी चेतना शुद्ध रहती है । चँमू क उसकी चेतना शुद्ध रहती है, अतः उसका र्न
पूणमतया मनयंत्रण र्ें रहता है । र्न के मनयंमत्रत होने से उसकी इमन्द्रयाँ संयमर्त रहती है । चँमू क उसका र्न सिैव कृ ष्ट्ण र्ें
मस्र्र रहता है, अतः उसके मवचमलत होने का प्रश्न ही नहीं उिता । न ही उसे कृ ष्ट्ण से सम्बद्ध कर्ाओ ं के अमतररक्त
अन्य कायों र्ें अपनी इमन्द्रयों को लगाने का अवसर मर्लता है । वह कृ ष्ट्णकर्ा के अमतररक्त और कुछ सुनना नहीं
चाहता, वह कृ ष्ट्ण को अमपमत मकए हुआ भोजन के अमतररक्त अन्य कुछ नहीं खाना चाहता और न ऐसे मकसी स्र्ान र्ें
जाने की इच्छा रखता है जहाँ कृ ष्ट्ण सम्बन्धी कायम न होता हो । अतः उसकी इमन्द्रयाँ वश र्ें रहती हैं । ऐसा व्यमक्त
मजसकी इमन्द्रयाँ सयं मर्त हो, वह मकसी के प्रमत अपराध नहीं कर सकता । इस पर कोई यह प्रश्न कर सकता है, तो मिर
अजुमन अन्यों के प्रमत युद्ध र्ें आक्रार्क क्यों र्ा? क्या वह कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं र्ा? वस्तुतः अजुमन ऊपर से ही
आक्रार्क र्ा, क्योंमक जैसा मक मद्वतीय अध्याय र्ें बताया जा चक ु ा है, आत्र्ा के अवध्य होने के कारण युद्धभमू र् र्ें
एकत्र हुए सारे व्यमक्त अपने-अपने स्वरूप र्ें जीमवत बने रहेंगे । अतः अतः अध्यामत्र्क दृमष्ट से कुरुक्षेत्र की युद्धभमू र् र्ें
कोई र्ारा नहीं गया । वहाँ पर मस्र्त कृ ष्ट्ण की आज्ञा से के वल उनके वस्त्र बिल मिये गये । अतः अजुमन कुरुक्षेत्र की
युद्धभमू र् र्ें युद्ध करता हुआ भी वस्तुतः युद्ध नहीं कर रहा र्ा । वह तो पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कृ ष्ट्ण के आिेश का
पालन र्ात्र कर रहा र्ा । ऐसा व्यमक्त कभी कर्मबन्धन से नहीं बँधता ।

िैव नकनञ्चत्करोमीनत युिो मन्येत तत्त्वनवत् ।


पश्यञ्शृण्वन्स्पृशनञ्जघ्रन्िश्र्िन्गच्छन्स्वपन्श्र्वसि् ।। ८ ।।
प्रलपनन्वसृजन्गृह्रन्िुनन्मषनन्िनमषन्िनप ।
इनन्द्रयाणीनन्द्रयाथेषु वतमन्त इनत धारयि् ।। ९ ।।

ि– नहीं; एव– मनश्चय ही; नकनञ्चत्– कुछ भी; करोनम– करता ह;ँ इनत– इस प्रकार; युिः– िैवी चेतना र्ें
लगा हुआ; मन्येत– सोचता है; तत्त्वनवत्– सत्य को जानने वाला; पश्यि्– िेखता हुआ; शृण्वि्– सुनता
हुआ; स्पृशि्– स्पशम करता हुआ; नजघ्रि– सूँघता हुआ; अश्नि्– खाता हुआ; गच्छि्- जाता; स्वपि्– स्वप्न िेखता
हुआ; श्र्वसि्– साँस लेता हुआ; प्रलपि्– बात करता हुआ; नवसृजि्– त्यागता हुआ; गृह्णि्– स्वीकार करता
हुआ; उनन्मषि्– खोलता हुआ; निनमषि्– बन्ि करता हुआ; अनप– तो भी; इनन्द्रयानण– इमन्द्रयों को; इनन्द्रय-
अथेषु– इमन्द्रय-तृमप्त र्ें; वतमन्ते– लगी रहने िेकर; इनत– इस प्रकार; धारयि्– मवचार करते हुए ।

नदव्य भाविामृत यि ु परुु ष देखते, सिु ते, स्पशम करते, सूँघू ते, खाते , चलते-निरते, सोते तथा श्र्वास
लेते हुए भी अपिे अन्तर में सदैव यही जािता रहता है नक वास्तव में वह कुछ भी िहीं करता । बोलते,
त्यागते, ग्रहण करते या आूँखे खोलते -बन्द करते हुए भी वह यह जािता रहता है नक भौनतक इनन्द्रयाूँ अपिे-
अपिे नवषयों में प्रवृत्त है और वह इि सबसे पृथक् है ।

१७६
तात्पयम : चँमू क कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त का जीवन शुद्ध होता है िलतः उसे मनकट तर्ा िरू स्र् पाँच कारणों –
कताम, कर्म, अमधिान, प्रयास तर्ा भाग्य – पर मनभमर मकसी कायम से कुछ लेना-िेना नहीं रहता । इसका कारण यह है मक
वह भगवान् की मिव्य िेवा र्ें लगा रहता है । यद्यमप ऐसा प्रतीत होता है मक वह अपने शरीर तर्ा इमन्द्रयों से कर्म कर
रहा है, मकन्तु वह अपनी वास्तमवक मस्र्मत के प्रमत सचेत रहता है जो मक आध्यामत्र्क व्यस्तता है । भौमतक चेतना र्ें
इमन्द्रयाँ इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगी रहती हैं, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें वे कृ ष्ट्ण की इमन्द्रयों की तुमष्ट र्ें लगी रहती हैं । अतः
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त सिा र्क्त ु रहता है, भले ही वह ऊपर से भौमतक कायों र्ें लगा हुआ मिखाई पड़े । िेखने तर्ा
सनु ने के कायम ज्ञानेमन्द्रयों के कर्म हैं जबमक चलना, बोलना, र्ल त्यागना आमि कर्ेमन्द्रयों के कायम हैं ।
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कभी भी इमन्द्रयों के कायों से प्रभामवत नहीं होता । वह भगवत्सेवा के अमतररक्त कोई िसू रा
कायम नहीं कर सकता क्योंमक उसे ज्ञात है मक वह भगवान् का शाश्र्वत िास है ।

ब्रह्मण्याधाय कमामनण सङगं त्यक्त्वा करोनत यः ।


नलप्यते ि स पापेि पद्मपत्रनमवाम्भसा ।। १० ।।

ब्रह्मनण– भगवान् र्ें; आधाय– सर्मपमत करके ; कमामनण– सारे कायों को; सङम्– आसमक्त; त्यक्त्वा–
त्यागकर; करोनत– करता है; यः– जो; नलप्यते– प्रभामवत होता है; ि– कभी नहीं; सः– वह; पापेि– पाप से; पद्म-
पत्रम्– कर्ल पत्र; इव– के सदृश; अम्भसा– जल के द्वारा ।

जो व्यनि कममिलों को परमेश्र्वर को समनपमत करके आसनिरनहत होकर अपिा कमम करता है, वह
पापकमों से उसी प्रकार अप्रभानवत रहता है, नजस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है ।

तात्पयम : यहाँ पर ब्रह्मस्ण का अर्म ”कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें” है । यह भौमतक जगत् प्रकृ मत के तीन गुणों की सर्ग्र
अमभव्यमक्त है मजसे प्रधान की संज्ञा िी जाती है । वेिर्न्त्र सवं ह्येतर्ब्र् ह्म (माण्डूक्तय उपस्नषर्् २), तस्मार्् एतर्ब्र् ह्म
नामरूपमन्नां च जायते (मण्ु ड उपस्नषर्् १.२.१०) तर्ा भगवद्गीता र्ें (१४.३) मम योस्नमदहर्ब्र् ह्म से प्रकट है मक जगत्
की प्रत्येक वस्तु ब्रह्म की अमभव्यमक्त है और यद्यमप कायम मभन्न-मभन्न रूप र्ें प्रकट होते हैं, मकन्तु तो भी वे कारण से
अमभन्न हैं । इशोपस्नषर्् र्ें कहा गया है मक सारी वस्तुएँ परब्रह्म या कृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत हैं, अतएव वे के वल उन्हीं की
हैं । जो यह भलीभाँमत जानता है मक प्रत्येक वस्तु कृ ष्ट्ण की है और वे ही प्रत्येक वस्तु के स्वार्ी हैं अतः प्रत्येक वस्तु
भगवान् की सेवा र्ें ही मनयोमजत है, उसे स्वभावतः शभु -अशभु कर्मिलों से कोई प्रयोजन नहीं रहता । यहाँ तक मक
मवशेष प्रकार का कर्म सम्पन्न करने के मलए भगवान् द्वारा प्रित्त र्नुष्ट्य का शरीर भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें संलग्न मकया जा
सकता है । तब यह पापकर्ों के कल्र्ष से वैसे ही परे रहता है जैसे मक कर्लपत्र जल से रहकर भी भीगता नहीं ।
भगवान् गीता (३.३०) र्ें भी कहते है – मस्य सवादस्ण मादस्ण सांन्यस्य– सम्पूणम कर्ों को र्झु े (कृ ष्ट्ण को) सर्मपमत करो ।
तात्पयम यह है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत-मवहीन परुु ष शरीर एवं इमन्द्रयों को अपना स्वरूप सर्झ कर कर्म करता है, मकन्तु
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त यह सर्झ कर कर्म करता है मक वह िेह कृ ष्ट्ण की सम्पमत्त है, अतः इसे कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें
प्रवृत्त होना चामहए ।

कायेि मिसा बुद्धया के वलैररनन्द्रयैरनप ।

१७७
योनगिः कमम कुवमनन्त सङगं त्यक्त्वात्मशुद्धये ।। ११ ।।

कायेि– शरीर से; मिसा– र्न से; बद्धया– बुमद्ध से; के वलैः– शद्ध ु ; इनन्द्रयैः– इमन्द्रयों से; अनप–
भी; योनगिः– कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त; कमम– कर्म; कुवमनन्त– करते हैं; सङगम्– आसमक्त; त्यक्त्वा– त्याग
कर; आत्म- आत्र्ा की; शुद्धये– शमु द्ध के मलए ।

योगीजि आसनिरनहत होकर शरीर, मि, बनु द्ध तथा इनन्द्रयों के द्वारा भी के वल शनु द्ध के नलए कमम
करते हैं ।

तात्पयम : जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कृ ष्ट्ण की इमन्द्रयतृमप्त के मलए शरीर, र्न, बुमद्ध अर्वा इमन्द्रयों द्वारा कर्म
करता है तो वह भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो जाता है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त के कायों से कोई भौमतक िल प्रकट
नहीं होता । अतः सार्ान्य रूप से सिाचार कहे जाने वाले शद्ध ु कर्म कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहते हुए सरलता से सम्पन्न
मकये जा सकते है । श्रील रूप गोस्वार्ी र्ें भस्िरसामृतस्सन्धु र्ें (१.२.१८७) इसका वणमन इस प्रकार मकया है –
ईहा यस्य हरे र्ादस्ये मदणा मनसा स्गरा ।
स्नस्खलास्वप्यवस्थासु जीवन्मि ु ः स उचयते ।।
“अपने शरीर, र्न, बुमद्ध तर्ा वाणी से कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करता हुआ (कृ ष्ट्णसेवा र्ें) व्यमक्त इस संसार र्ें
भी र्क्त
ु रहता है, भले ही वह तर्ाकमर्त अनेक भौमतक कायमकलापों र्ें व्यस्त क्यों न रहे ।” उसर्ें अहक ं ार नहीं रहता
क्योंमक वह इसर्ें मवश्र्वास नहीं रखता मक वह भौमतक शरीर है अर्वा यह शरीर उसका है । वह जानता है मक वह यह
शरीर नहीं है और न यह शरीर ही उसका है । वह स्वयं कृ ष्ट्ण का है और उसका यह शरीर भी कृ ष्ट्ण की सम्पमत्त है।
जबवह शरीर, र्न, बमु द्ध, वाणी, जीवन, सम्पमत्तआमि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अमधकार र्ें है, कृ ष्ट्ण
की सेवा र्ें लगाता है तोवहतुरन्त कृ ष्ट्ण से जुड़ जाता है । वह कृ ष्ट्ण से एकरूप हो जाता है और उस अहक ं ार से रमहत
होता है मजसके कारणर्नष्ट्ु य सोचता है मक र्ैं शरीर हँ । यही कृ ष्ट्णभावनार्ृत की पणू ामवस्र्ा है ।

युिः कममिलं त्यक्त्वा शानन्तमाप्िोनत िैनष्ठकीम् ।


अयुिः कामकारेण िले सिो निबध्यते ।। १२ ।।

युिः– भमक्त र्ें लगा हुआ; कमम-िलम्– सर्स्त कर्ों के िल; त्यक्त्वा– त्यागकर; शानन्तम्– पूणम शामन्त
को; आप्िोनत– प्राप्त करता है; िैनष्ठकीम्– अचल; अयुिः– कृ ष्ट्णभावना से रमहत; काम-कारेण– कर्मिल को
भोगने के कारण; िले– िल र्ें; सिः– आसक्त; निबध्यते– बँधता है ।

निश्चल भि शद्ध
ु शानन्त प्राप्त करता है क्योंनक वह समस्त कममिल मझ
ु े अनपमत कर देता है, नकन्तु जो
व्यनि भगवाि् से युि िहीं है और जो अपिे श्रम का िलकामी है, वह बूँध जाता है ।

तात्पयम : एक कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त तर्ा िेहात्र्बुमद्ध वाले व्यमक्त र्ें यह अन्तर है मक पहला तो कृ ष्ट्ण के
प्रमत आसक्त रहता है जबमक िसू रा अपने कर्ों के प्रमत आसक्त रहता है । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण के प्रमत आसक्त रहकर उन्हीं

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के मलए कर्म करता है वह मनश्चय ही र्क्त ु पुरुष है और उसे अपने कर्मिल की कोई मचन्ता नहीं होती । भागवत र्ें मकसी
कर्म के िल की मचन्ता का कारण परर्सत्य के ज्ञान के मबना द्वैतभाव र्ें रहकर कर्म करना बताया गया है । कृ ष्ट्ण
श्रीभगवान् हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कोई द्वैत नहीं रहता । जो कुछ मवद्यर्ान है वह कृ ष्ट्ण का प्रमतिल है और कृ ष्ट्ण
सवमर्ंगलर्य हैं । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें सम्पन्न सारे कायम परर् पि पर हैं । वे मिव्य होते हैं और उनका कोई भौमतक
प्रभाव नहीं पड़ता । इस कारण कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें जीव शामन्त से पूररत रहता है । मकन्तु जो इमन्द्रयतृमप्त के मलए लोभ र्ें
िँ सा रहता है, उसे शामन्त नहीं मर्ल सकती । यही कृ ष्ट्णभावनार्ृत का रहस्य है – यह अनुभमू त मक कृ ष्ट्ण के अमतररक्त
कुछ भी नहीं है, शामन्त तर्ा अभय का पि है ।

सवमकमामनण मिसा सन्ं यस्यास्ते सुखं वशी ।


िवद्वारे पुरे देही िैव कुवमन्ि कारयि् ।। १३ ।।

सवम – सर्स्त; कमामनण– कर्ों को; मिसा– र्न से; संन्यस्य– त्यागकर; आस्ते– रहता है; सुखम्– सुख
र्ें; वशी– संयर्ी; िव-द्वारे– नौ द्वारों वाले;पुरे– नगर र्ें; देही– िेहवान् आत्र्ा; ि– नहीं;एव– मनश्चय ही; कुवमि–्
करता हुआ; ि– नहीं; कारयि्– कराता हुआ ।

जब देहधारी जीवात्मा अपिी प्रकृ नत को वश में कर लेता है और मि से समस्त कमों का पररत्याग कर


देता है तब वह िौ द्वारों वाले िगर (भौनतक शरीर) में नबिा कुछ नकये कराये सुखपूवमक रहता है ।

तात्पयम : िेहधारी जीवात्र्ा नौ द्वारों वाले नगर र्ें वास करता है । शरीर अर्वा नगर रूपी शरीर के कायम
प्राकृ मतक गणु ों द्वारा स्वतः सम्पन्न होते हैं । शरीर की पररमस्र्मतयों के अनसु ार रहते हुए भी जीव इच्छानुसार इन
पररमस्र्मतयों के परे भी हो सकता है । अपनी परा प्रकृ मत को मवस्र्ृत करने के ही कारण वह अपने को शरीर सर्झ
बैिता है और इसीमलए कष्ट पाता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा वह अपनी वास्तमवक मस्र्मत को पनु ः प्राप्त कर सकता है
और इस िेह-बन्धन से र्क्त ु हो सकता है । अतः जयोंही कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होता है तुरन्त ही वह शारीररक
कायों से सवमर्ा मवलग हो जाता है । ऐसे संयमर्त जीवन र्ें, मजसर्ें उसकी कायमप्रणाली र्ें पररवतमन आ जाता है, वह नौ
द्वारों वाले नगर र्ें सुखपूवमक मनवास करता है । ये नौ द्वार इस प्रकार हैं –
नविारे पुरे र्ेस्ह हांसो लेलायते बस्हः ।
वशी सवदस्य लो स्य स्थावरस्य चरस्य च ।।
“जीव के शरीर के भीतर वास करने वाले भगवान् ब्रह्माण्ड के सर्स्त जीवों के मनयन्ता हैं । यह शरीर नौ द्वारों
(िो आँखे, िो नर्ुने, िो कान, एक र्ँहु , गुिा और उपस्र्) से युक्त है । बद्धावस्र्ा र्ें जीव अपने आपको शरीर र्ानता है,
मकन्तु जब वह अपनी पहचान अपने अन्तर के भगवान् से करता है तो वह शरीर र्ें रहते हुए भी भगवान् की भाँमत र्क्त ु
हो जाता है ।” (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ३.१८) अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त शरीर के बाह्य तर्ा आन्तररक िोनों कर्ों
से र्क्त
ु रहता है ।

ि कतृमत्वं ि कमामनण लोकस्य सृजनत प्रभु: ।


ि कममिलसयं ोगं स्वभावस्तु प्रवतमते ।। १४ ।।

१७९
ि– नहीं; कतृमत्वम्– कतामपन या स्वामर्त्व को; ि– न तो; कमामनण– कर्ों को; लोकस्य– लोगों के ; सृजनत–
उत्पन्न करता है; प्रभुः– शरीर रूपी नगर का स्वार्ी; ि– न तो; कमम-िल– कर्ों के िल से; संयोगम्– सम्बन्ध
को; स्वभावः– प्रकृ मत के गुण; तु– लेमकन; प्रवतमते– कायम करते हैं ।

शरीर रूपी िगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा ि तो कमम का सृजि करता है, ि लोगों को कमम करिे के
नलए प्रेररत करता है, ि ही कममिल की रचिा करता है । यह सब तो प्रकृ नत के गण
ु ों द्वारा ही नकया जाता है ।

तात्पयम : जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया जाएगा जीव तो परर्ेश्र्वर की शमक्तयों र्ें से एक है, मकन्तु भगवान्
की अपरा प्रकृ मत है जो पिार्म से मभन्न है । संयोगवश परा प्रकृ मत या जीव अनामिकाल से प्रकृ मत (अपरा) के सम्पकम र्ें
रहा है । मजस नाशवान शरीर या भौमतक आवास को वह प्राप्त करता है वह अनेक कर्ों तर्ा उनके िलों का कारण है ।
ऐसे बद्ध वातावरण र्ें रहते हुए र्नुष्ट्य अपने आपको (अज्ञानवश) शरीर र्ानकर शरीर के कर्मिलों का भोग करता है ।
अनन्त काल से उपामजमत यह अज्ञान ही शारीररक सुख-िख ु का कारण है । जयोंही जीव शरीर के कायों से पृर्क् हो
जाता है त्योंही वह कर्मबन्धन से भी र्ुक्त हो जाता है । जब तक वह शरीर रूपी नगर र्ें मनवास करता है तब तक वह
इसका स्वार्ी प्रतीत होता है, मकन्तु वास्तव र्ें वह न तो इसका स्वार्ी होता है और न इसके कर्ों तर्ा िलों का
मनयन्ता ही । वह तो इस भवसागर के बीच जीवन-संघषम से रत प्राणी है । सागर की लहरें उसे उछालती रहती हैं, मकन्तु
उन पर उसका वश नहीं चलता । उसके उद्धार का एकर्ात्र साधन है मक मिव्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत द्वारा सर्द्रु के बाहर
आए । इसी के द्वारा सर्स्त अशामन्त से उसकी रक्षा हो सकती है ।

िादत्ते कस्यनचत्पापं ि चैव सक ु ृ तं नवभ:ु ।


अज्ञािेिावृतं ज्ञािं तेि मुह्यनन्त जन्तवः ।। १५ ।।

ि– कभी नहीं; आदत्ते– स्वीकार करता है; कस्यनचत्– मकसी की; पापम्– पाप; ि– न तो; च– भी; एव–
मनश्चय ही; सु-कृ तम्– पुण्य को; नवभुः– परर्ेश्र्वर; अज्ञािेि– अज्ञान से; आवृतम्– आच्छामित; ज्ञािम्– ज्ञान; तेि–
उससे; मुह्यनन्त– र्ोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः– जीवगण ।

परमेश्र्वर ि तो नकसी के पापों को ग्रहण करता है , ि पुण्यों को । नकन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञाि
के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उिके वास्तनवक ज्ञाि को आच्छानदत नकये रहता है ।

तात्पयम :स्वभु का अर्म है, परर्ेश्र्वर जो असीर् ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्ियम तर्ा त्याग से युक्त है । वह सिैव
आत्र्तृप्त और पाप-पण्ु य से अमवचमलत रहता है । वह मकसी भी जीव के मलए मवमशष्ट पररमस्र्मत नहीं उत्पन्न करता,
अमपतु जीव अज्ञान से र्ोमहत होकर जीवन के मलए मवमशष्ट पररमस्र्मत की कार्ना करता है, मजसके कारण कर्म तर्ा
िल की शृख ं ला आरम्भ होती है । जीव परा प्रकृ मत के कारण ज्ञान से पणू म है । तो भी वह अपनी सीमर्त शमक्त के कारण
अज्ञान के वशीभतू हो जाता है । भगवान् सवमशमक्तर्ान् है, मकन्तु जीव नहीं है । भगवान् स्वभु अर्ामत् सवमज्ञ है, मकन्तु
जीव अणु है । जीवात्र्ा र्ें इच्छा करने की शमक्त है, मकन्तु ऐसी इच्छा की पूमतम सवमशमक्तर्ान भगवान् द्वारा ही की जाती

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है । अतः जब जीव अपनी इच्छाओ ं से र्ोहग्रस्त हो जाता है तो भगवान् उसे अपनी इच्छापूमतम करने िेते हैं, मकन्तु
मकसी पररमस्र्मत मवशेष र्ें इमच्छत कर्ों तर्ा िलों के मलए उत्तरिायी नहीं होते । अतएव र्ोहग्रस्त होने से िेहधारी
जीव अपने को पररमस्र्मतजन्य शरीर र्ान लेता है और जीवन के क्षमणक िख ु तर्ा सुख को भोगता है । भगवान्
परर्ात्र्ा रूप र्ें जीव के मचरसंगी रहते हैं, िलतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओ ं को उसी तरह सर्झते हैं मजस तरह िूल
के मनकट रहने वाला िूल की सुगन्ध को । इच्छा जीव को बद्ध करने के मलए सूक्ष्र् बन्धन है । भगवान् र्नुष्ट्य की
योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा का पूरा करते हैं – आपन सोची होत नस्हां प्रभु सोची तत् ाल। अतः व्यमक्त अपनी
इच्छाओ ं को परू ा करने र्ें सवमशमक्तर्ान नहीं होता । मकन्तु भगवान् इच्छाओ ं की पमू तम कर सकते हैं । वे मनष्ट्पक्ष होने के
कारण स्वतन्त्र अणजु ीवों की इच्छाओ ं र्ें व्यवधान नहीं डालते । मकन्तु जब कोई कृ ष्ट्ण की इच्छा करता है तो भगवान्
उसकी मवशेष मचन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्सामहत करते हैं मक भगवान् को प्राप्त करने की उसकीइच्छा परू ी हो
और वह सिैव सुखी रहे । अतएव वैमिक र्न्त्र पुकार कर कहते हैं – एष उ ह्येव साधु मद ारयस्त तां यमेभ्यो लो े भ्य
उस्न्ननीषते ।एष उ एवासाधु मद ारयस्त यमधो स्ननीषते - “भगवान् जीव को शभु कर्ों र्ें इसीमलए प्रवृत्त करते हैं
मजससे वह ऊपर उिे । भगवान् उसे अशभु कर्ों र्ें इसीमलए प्रवृत्त करते हैं मजससे वह नरक जाए ।” ( ौषीत ी
उपस्नषर्् ३.८) ।
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखर्ःु खयोः ।
ईश्र्वरप्रेररतो गचछे त् स्वगं वाश्र्वभ्रमेव च ।।
“जीव अपने सुख-िःु ख र्ें पूणमतया आमश्रत है । परर्ेश्र्वर की इच्छा से वह स्वगम या नरक जाता है, मजस तरह
वायु के द्वारा प्रेररत बािल ।”
अतः िेहधारी जीव कृ ष्ट्णभावनार्ृत की उपेक्षा करने की अपनी अनामि प्रवृमत्त के कारण अपने मलए र्ोह उत्पन्न
करता है । िलस्वरूप स्वभावतः समच्चिानन्ि स्वरूप होते हुए भी वह अपने अमस्तत्व की लघतु ा के कारण भगवान् के
प्रमत सेवा करने की अपनी स्वाभामवक मस्र्मत भल ू जाता है और इस तरह वह अमवद्या द्वारा बन्िी बना मलया जाता है ।
अज्ञानवश जीव यह कहता है मक उसके भवबन्धन के मलए भगवान् उत्तरिायी हैं । इसकी पुमष्ट वेर्ान्त-सूत्र (२.१.३४)
भी करते हैं – वैषम्यनैघदण्ृ ये न सापेक्षत्वात् तथा स्ह र्शदयस्त – “भगवान् न तो मकसी के प्रमत घृणा करते हैं, न मकसी को
चाहते हैं, यद्यमप ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है ।”

ज्ञािेि तु तदज्ञािं येषां िानशतमात्मिः ।


तेषामानदत्यवजज्ञािं प्रकाशयनत तत्परम् ।। १६ ।।

ज्ञािेि– ज्ञान से; त–ु लेमकन; तत्– वह; अज्ञािम्– अमवद्या; येषाम्–मजनका; िानशतम्– नष्ट हो जाती
है; आत्मिः– जीव का; तेषाम्– उनके ; आनदत्य-वत् – उिीयर्ान सूयम के सर्ान; ज्ञािम्– ज्ञान को; प्रकाशयनत–
प्रकट करता है; तत् परम्– कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ।

नकन्तु जब कोई उस ज्ञाि से प्रबुद्ध होता है, नजससे अनवद्या का नविाश होता है, तो उसके ज्ञाि से सब
कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे नदि में सयू म से सारी वस्तुएूँ प्रकानशत हो जाती हैं ।

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तात्पयम : जो लोग कृ ष्ट्ण को भल ू गये हैं वे मनमश्चत रूप से र्ोहग्रस्त होते हैं, मकन्तु जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं वे
नहीं होते । भगवद्गीता र्ें कहा गया है – सवंज्ञानप्लवेन, ज्ञानास्र्गनःसवद मादस्ण तर्ा न स्ह ज्ञानेन सदृशम्। ज्ञान सिैव
सम्र्ाननीय है । और वह ज्ञान क्या है? श्रीकृ ष्ट्ण के प्रमत आत्र्सर्पमण करने पर ही पूणमज्ञान प्राप्त होता है, जैसा
मक गीता र्ें (७.१९) ही कहा गया है – बहूनाां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्माां प्रपयते । अनेकानेक जन्र् बीत जाने पर ही
पूणमज्ञान प्राप्त करके र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाता है अर्वा जब उसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत प्राप्त होता है तो उसे सब कुछ
प्रकट होने लगता है, मजस प्रकार सूयोिय होने पर सारी वस्तुएँ मिखने लगती हैं । जीव नाना प्रकार से र्ोहग्रस्त होता है ।
उिाहरणार्म, जब वह अपने को ईश्र्वर र्ानने लगता है, तो वह अमवद्या के पाश र्ें जा मगरता है । यमि जीव ईश्र्वर है तो
वह अमवद्या से कै से र्ोहग्रस्त हो सकता है? क्या ईश्र्वर अमवद्या से र्ोहग्रस्त होता है? यमि ऐसा हो सकता है, तो मिर
अमवद्या या शैतान ईश्र्वर से बड़ा है । वास्तमवक ज्ञान उसी से प्राप्त हो सकता है जो पणू मतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत है । अतः
ऐसे ही प्रार्ामणक गुरु की खोज करनी होती है और उसी से सीखना होता है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत क्या है, क्योंमक
कृ ष्ट्णभावनार्ृत से सारी अमवद्या उसी प्रकार िरू हो जाती है, मजस प्रकार सूयम से अधं कार िरू होता है । भले ही मकसी
व्यमक्त को इसका पूरा ज्ञान हो मक वह शरीर नहीं अमपतु इससे परे है, तो भी हो सकता है मक वह आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा
र्ें अन्तर न कर पाए । मकन्तु यमि वह पूणम प्रार्ामणक कृ ष्ट्णभावनाभामवत गुरु की शरण ग्रहण करता है तो वह सब कुछ
जान सकता है । ईश्र्वर के प्रमतमनमध से भेंट होने पर ही ईश्र्वर तर्ा ईश्र्वर के सार् अपने सम्बन्ध को सही-सही जाना जा
सकता है । ईश्र्वर का प्रमतमनमध कभी भी अपने आपको ईश्र्वर नहीं कहता, यद्यमप उसका सम्र्ान ईश्र्वर की ही भाँमत
मकया जाता है, क्योंमक उसे ईश्र्वर का ज्ञान होता है । र्नुष्ट्य को ईश्र्वर और जीव के अन्तर को सर्झना होता है ।
अतएव भगवान् कृ ष्ट्ण ने मद्वतीय अध्याय र्ें (२.१२) यह कहा है मक प्रत्येक जीव व्यमष्ट है और भगवान् भी व्यमष्ट हैं । ये
सब भतू काल र्ें व्यमष्ट र्े, सम्प्रमत भी व्यमष्ट हैं और भमवष्ट्य र्ें र्क्त
ु होने पर भी व्यमष्ट बने रहेंगे । रामत्र के सर्य अंधकार
र्ें हर्ें प्रत्येक वस्तु एकसी मिखती है, मकन्तु मिन र्ें सूयम के उिय पर सारी वस्तुएँ अपने-अपने वास्तमवक स्वरूप र्ें
मिखती हैं । आध्यामत्र्क जीवन र्ें व्यमष्ट की पहचान ही वास्तमवक ज्ञान है ।

तद्बुद्धयस्तदात्मािस्तनन्िष्ठास्तत्परायणाः ।
गच्छन्त्यपुिरावृनत्तं ज्ञािनिधमतू कल्मषाः ।। १७ ।।

तत्-बुद्धयः– मनत्य भगवत्परायण बुमद्ध वाले; तत्-आत्मािः– मजनके र्न सिैव भगवान् र्ें लगे रहते हैं; तत्-
निष्ठाः– मजनकी श्रद्धा एकर्ात्र परर्ेश्र्वर र्ें है; तत्-परायणाः– मजन्होंने उनकी शरण ले रखी है; गच्छनन्त– जाते
हैं; अपुिः-आवृनत्तम्– र्मु क्त को; ज्ञाि– ज्ञान द्वारा; निधमतू – शद्ध
ु मकये गये; कल्मषाः– पाप, अमवद्या ।

जब मिुष्ट्य कीबुनद्ध, मि, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवाि् में नस्थर हो जाते हैं, तभी वह पूणमज्ञाि
द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुनि के पथ पर अग्रसर होता है ।

तात्पयम : परर् मिव्य सत्य भगवान् कृ ष्ट्ण ही हैं । सारी गीता इसी घोषणा पर के मन्द्रत है मक कृ ष्ट्ण श्रीभगवान् हैं ।
यही सर्स्त वेिों का भी अमभर्त है । परतत्त्व का अर्म परर्सत्य है जो भगवान् को ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् के रूप
र्ें जानने वालों द्वारा सर्झा जाता है । भगवान् ही इस परतत्त्व की पराकािा हैं । उनसे बढ़कर कुछ भी नहीं है । भगवान्
कहते हैं – मत्तः परतरां नान्यत् स् स्ञ्चर्स्स्त धनञ्जय । कृ ष्ट्ण मनराकार ब्रह्म का भी अनुर्ोिन करते हैं – ब्रह्मणो स्ह

१८२
प्रस्तष्ठाहम्। अतः सभी प्रकार से कृ ष्ट्ण परर्सत्य (परतत्त्व) हैं । मजनके र्न, बुमद्ध, श्रद्धा तर्ा शरण कृ ष्ट्ण र्ें हैं अर्ामत् जो
पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं, उनके सारे कल्र्ष धल ु जाते हैं और उन्हें ब्रह्म सम्बन्धी प्रत्येक वस्तु का पूणमज्ञान रहता
है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त यह भलीभाँमत सर्झ सकता है मक कृ ष्ट्ण र्ें द्वैत है (एकसार् एकता तर्ा मभन्नता) और
ऐसे मिव्यज्ञान से युक्त होकर वह र्मु क्त-पर् पर सुमस्र्र प्रगमत कर सकता है ।

नवद्यानवियसम्पन्िे ब्राह्मणे गनव हनस्तनि ।


शनु ि चैव श्र्वपाके च पनण्डताः समदनशमिः ।। १८ ।।

नवद्या– मशक्षण; नविय– तर्ा मवनम्रता से; सम्पन्िे– यक्त ु ; ब्राह्मणे– ब्राह्मण र्ें; गनव– गाय र्ें; हनस्तनि–
हार्ी र्ें; शुनि– कुत्ते र्ें; च– तर्ा; एव– मनश्चय ही; श्र्वपाके - कुत्ताभक्षी (चाण्डाल) र्ें; च– क्रर्शः; पनण्डताः–
ज्ञानी; सम-दनशमिः– सर्ान दृमष्ट से िेखने वाले ।

नविि साधुपुरुष अपिे वास्तनवक ज्ञाि के कारण एक नवद्वाि् तथा नविीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता
तथा चाण्डाल को समाि दृनष्ट (समभाव) से देखते हैं ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त योमन या जामत र्ें भेि नहीं र्ानता । सार्ामजक दृमष्ट से ब्राह्मण तर्ा
चाण्डाल मभन्न-मभन्न हो सकते हैं अर्वा योमन के अनुसार कुत्ता, गाय तर्ा हार्ी मभन्न हो सकते हैं, मकन्तु मवद्वान् योगी
की दृमष्ट र्ें ये शरीरगत भेि अर्महीन होते हैं । इसका कारण परर्ेश्र्वर से उनका सम्बन्ध है और परर्ेश्र्वर परर्ात्र्ा रूप र्ें
हर एक के हृिय र्ें मस्र्त हैं । परर्सत्य का ऐसा ज्ञान वास्तमवक (यर्ार्म) ज्ञान है । जहाँ तक मवमभन्न जामतयों या
मवमभन्न योमनयों र्ें शरीर का सम्बन्ध है, भगवान् सबों पर सर्ान रूप से ियालु हैं क्योंमक वे प्रत्येक जीव को अपना
मर्त्र र्ानते हैं मिर भी जीवों की सर्स्त पररमस्र्मतयों र्ें वे अपना परर्ात्र्ा स्वरूप बनाये रखते हैं । परर्ात्र्ा रूप र्ें
भगवान् चाण्डाल तर्ा ब्राह्मण िोनों र्ें उपमस्र्त रहते हैं, यद्यमप इन िोनों के शरीर एक से नहीं होते । शरीर तो प्रकृ मत के
गुणों द्वारा उत्पन्न हुए हैं, मकन्तु शरीर के भीतर आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा सर्ान आध्यामत्र्क गुण वाले हैं । परन्तु आत्र्ा
तर्ा परर्ात्र्ा की यह सर्ानता उन्हें र्ात्रात्र्क दृमष्ट से सर्ान नहीं बनाती क्योंमक व्यमष्ट आत्र्ा मकसी मवशेष शरीर र्ें
उपमस्र्त होता है, मकन्तु परर्ात्र्ा प्रत्येक शरीर र्ें है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त को इसका पूणमज्ञान होता है इसीमलए
वह सचर्चु ही मवद्वान् तर्ा सर्िशी होता है । आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा के लक्षण सर्ान हैं क्योंमक िोनों चेतन, शाश्र्वत
तर्ा आनन्िर्य हैं । मकन्तु अन्तर इतना ही है मक आत्र्ा शरीर की सीर्ा के भीतर सचेतन रहता है जबमक परर्ात्र्ा
सभी शरीरों र्ें सचेतन है । परर्ात्र्ा मबना मकसी भेिभाव के सभी शरीरों र्ें मवद्यर्ान है ।

इहैव तैनजमतः सगो येषां साम्ये नस्थतं मिः ।


निदोषं नह समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मनण ते नस्थताः ।। १९ ।।

इह– इस जीवन र्ें; एव– मनश्चय ही; तैः– उनके द्वारा; नजतः– जीता हुआ; सगमः– जन्र् तर्ा र्ृत्य;ु येषाम्–
मजनका; साम्ये– सर्ता र्ें; नस्थतम्– मस्र्त; मिः– र्न; निदोषम्– िोषरमहत; नह– मनश्चय ही; समम्– सर्ान; ब्रह्म–
ब्रह्म की तरह; तस्मात्– अतः; ब्रह्मनण– परर्ेश्र्वर र्ें; ते– वे; नस्थताः– मस्र्त हैं ।

१८३
नजिके मि एकत्व तथा समता में नस्थत हैं उन्होंिे जन्म तथा मृत्यु के बन्धिों को पहले ही जीत नलया
है । वे ब्रह्म के समाि निदोष हैं और सदा ब्रह्म में ही नस्थत रहते हैं ।

तात्पयम : जैसा मक ऊपर कहा गया है र्ानमसक सर्ता आत्र्-साक्षात्कार का लक्षण है । मजन्होंने ऐसी अवस्र्ा
प्राप्त कर ली है, उन्हें भौमतक बंधनों पर, मवशेषतया जन्र् तर्ा र्ृत्यु पर, मवजय प्राप्त मकए हुए र्ानना चामहए । जब तक
र्नष्ट्ु य शरीर को आत्र्स्वरूप र्ानता है, वह बद्धजीव र्ाना जाता है, मकन्तु जयोंही वह आत्र्-साक्षात्कार द्वारा
सर्मचत्तता की अवस्र्ा को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से र्क्त ु हो जाता है । िसू रे शब्िों र्ें, उसे इस भौमतक जगत्
र्ें जन्र् नहीं लेना पड़ता, अमपतु अपनी र्ृत्यु के बाि वह आध्यामत्र्क लोक को जाता है । भगवान् मनिोष हैं क्योंमक वे
आसमक्त अर्वा घृणा से रमहत हैं । इसी प्रकार जब जीव आसमक्त अर्वा घृणा से रमहत होता है तो वह भी मनिोष बन
जाता है और वैकुण्ि जाने का अमधकारी हो जाता है । ऐसे व्यमक्तयों को पहले से ही र्क्त ु र्ानना चामहए । उनके लक्षण
आगे बतलाये गये हैं ।

ि प्रहृष्ट्येनत्प्रयं प्राप्य िोनद्वजेत्प्राप्य चानप्रयम् ।


नस्थरबुनद्धरसम्मढू ो ब्रह्मनवद् ब्रह्मनण नस्थतः ।। २० ।।

ि– कभी नहीं; प्रह्रष्ट्येत–् हमषमत होता है; नप्रयम्– मप्रय को; प्राप्य– प्राप्त करके ; ि– नहीं; उनद्वजेत–् मवचमलत
होता है; प्राप्य– प्राप्त करके ; च– भी; अनप्रयम्– अमप्रय को; नस्थर-बुनद्धः– आत्र्बुमद्ध, कृ ष्ट्णचेतना; असम्मूढः–
र्ोहरमहत, संशयरमहत; ब्रह्म-नवत्– परब्रह्म को जानने वाला; ब्रह्मनण– ब्रह्म र्ें; नस्थतः– मस्र्त ।

जो ि तो नप्रय वस्तु को पाकर हनषमत होता है और ि अनप्रय को पाकर नवचनलत होता है, जो नस्थरबुनद्ध
है, जो मोहरनहत और भगवनद्वद्या को जाििे वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में नस्थत रहता है ।

तात्पयम : यहाँ पर स्वरूपमसद्ध व्यमक्त के लक्षण मिये गये हैं । पहला लक्षण यह है मक उसर्ें शरीर और
आत्र्तत्त्व के तािात्म्य का भ्रर् नहीं रहता । वह यह भलीभाँमत जानता है मक र्ैं यह शरीर नहीं ह,ँ अमपतु भगवान् का
एक अंश हँ । अतः कुछ प्राप्त होने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है और न शरीर की कुछ हामन होने पर शोक होता है ।
र्न की यह मस्र्रता स्स्थरबुस्द्ध या आत्र्बुमद्ध कहलाती है । अतः वह न तो स्र्ूल शरीर को आत्र्ा र्ानने की भल ू
करके र्ोहग्रस्त होता है और न शरीर को स्र्ायी र्ानकर आत्र्ा के अमस्तत्व को िुकराता है । इस ज्ञान के कारण वह
परर्सत्य अर्ामत् ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् के ज्ञान को भलीभाँमत जान लेता है । इस प्रकार वह अपने स्वरूप को
जानता है और परब्रह्म से हर बात र्ें तिाकार होने का कभी यत्न नहीं करता । इसे ब्रह्म-साक्षात्कार या आत्र्-
साक्षात्कार कहते हैं । ऐसी मस्र्रबमु द्ध कृ ष्ट्णभावनार्ृत कहलाती है ।

बाह्यस्पशेष्ट्वसिात्मा नवन्दत्यात्मनि यत्सख


ु म् ।
स ब्रह्मयोगयुिात्मा सुखमक्षयमश्नुते।। २१ ।।

१८४
बाह्य-स्पशेषु– बाह्य इमन्द्रय सुख र्ें; असि-आत्मा– अनासक्त पुरुष; नवन्दनत– भोग करता है; आत्मनि–
आत्र्ा र्ें; यत्– जो; सुखम्– सुख; सः– वह; ब्रह्म-योग– ब्रह्म र्ें एकाग्रता द्वारा; युि-आत्मा– आत्र् युक्त या
सर्ामहत; सुखम्– सुख; अक्षयम्– असीर्; अश्नुते– भोगता है ।

ऐसा मुि पुरुष भौनतक इनन्द्रयसुख की ओर आकृ ष्ट िहीं होता, अनपतु सदैव समानध में रहकर अपिे
अन्तर में आिन्द का अिुभव करता है । इस प्रकार स्वरुपनसद्ध व्यनि परब्रह्म में एकाग्रनचत्त होिे के कारण
असीम सख ु भोगता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्हान भक्त श्री यार्नु ाचायम ने कहा है –


यर्वस्ध मम चेतः ृ ष्णपार्ारस्वन्र्े
नवनवरसधामन्युयतां रन्तुमासीत् ।
तर्वस्ध बत नारीसांगमे स्मयदमाने
भवस्त मख ु स्व ारः सृष्ठु स्नष्ठीवनां च ।।
“जब से र्ैं कृ ष्ट्ण की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें लगकर उनर्ें मनत्य नवीन आनन्ि का अनुभव करने र्ें लगा हँ तब से
जब भी कार्-सुख के बारे र्ें सोचता हँ तो इस मवचार पर ही र्ूकता हँ और र्ेरे होंि अरुमच से मसर्ट जाते हैं ।”
ब्रह्मयोगी अर्वा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त भगवान् की प्रेर्ाभमक्त र्ें इतना अमधक लीन रहता है मक इमन्द्रयसुख र्ें
उसकी तमनक भी रूमच नहीं रह जाती । भौमतकता की दृमष्ट र्ें कार्सुख ही सवोपरर आनन्ि है । सारा संसार उसी के
वशीभतू है और भौमतकतावािी लोग तो इस प्रोत्साहन के मबना कोई कायम ही नहीं कर सकते । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
लीन व्यमक्त कार्सुख के मबना ही उत्साहपूवमक अपना कायम करता रहता है । यही आत्र्-साक्षात्कार की कसौटी है ।
आत्र्-साक्षात्कार तर्ा कार्सख ु कभी सार्-सार् नहीं चलते । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त जीवन्र्क्त
ु होने के कारण
मकसी प्रकार के इमन्द्रयसुख द्वारा आकमषमत नहीं होता ।
ये नह सस्ं पशमजा भोगा दु:खयोिय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय ि तेषु रमते बुधः ।। २२ ।।

ये– जो; नह– मनश्चय मह; संस्पशम-जाः– भौमतक इमन्द्रयों के स्पशम से उत्पन्न; भोगाः– भोग; दुःख–
िःु ख; योियः– स्त्रोत, कारण; एव– मनश्चय मह; ते– वे; आनद– प्रारम्भ; अन्तवन्त– अन्तकाले; कौन्तेय– हे
कुन्तीपुत्र; ि– कभी नहीं; तेषु– उनर्ें; रमते– आनन्ि लेता है; बुधः– बुमद्धर्ान् र्नुष्ट्य ।

बुनद्धमाि् मिुष्ट्य दुख के कारणों में भाग िहीं लेता जो नक भौनतक इनन्द्रयों के संसगम से उत्पन्ि होते हैं ।
हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आनद तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यनि उिमें आिन्द िहीं लेता ।

तात्पयम : भौमतक इमन्द्रयसुख उन इमन्द्रयों के स्पशम से उद्भूत् हैं जो नाशवान हैं क्योंमक शरीर स्वयं नाशवान है ।
र्क्त
ु ात्र्ा मकसी नाशवान वस्तु र्ें रूमच नहीं रखता । मिव्या आनन्ि के सख ु ों से भलीभाँमत अवगत वह भला मर्थ्या
सुख के मलए क्यों सहर्त होगा ? पद्मपुराण र्ें कहा गया है –
रमन्ते योस्गनोऽनन्ते सत्यानन्र्े स्चर्ात्मस्न ।

१८५
इस्त रामपर्ेनासौ परां ब्रह्मास्भधीयते ।।
“योगीजन परर्सत्य र्ें रर्ण करते हुए अनन्त मिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीमलए परर्सत्य को भी रार् कहा जाता
है ।”
भागवत र्ें (५.५.१) भी कहा गया है –
नायां र्ेहो र्ेहभाजाां नृलो े ष्टान् ामानहदते स्वड् भजु ाां ये ।
तपो स्र्व्यां पुत्र ा येन सत्त्वां शुद्धयेर्् यस्मार्् ब्रह्मसौख्यां त्वनन्तम् ।।
“हे पत्रु ो! इस र्नष्ट्ु ययोमन र्ें इमन्द्रयसखु के मलए अमधक श्रर् करना व्यर्म है । ऐसा सख
ु तो सकू रों को भी प्राप्य है
। इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन र्ें तप करना चामहए, मजससे तुम्हारा जीवन पमवत्र हो जाय और तुर् असीर् मिव्यसुख
प्राप्त कर सको ।”
अतः जो यर्ार्म योगी या मिव्य ज्ञानी हैं वे इमन्द्रयसुखों की ओर आकृ ष्ट नहीं होते क्योंमक ये मनरन्तर भवरोग के
कारण हैं । वो भौमतकसुख के प्रमत मजतना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अमधक भौमतक िख ु मर्लते हैं ।

शक्िोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरनवमोक्षणात् ।


कामक्रोधिवं वेगं स युिः स सुखी िरः ।। २३ ।।

शक्िोनत– सर्र्म है; इह एव– इसी शरीर र्ें; यः– जो; सोढुम–् सहन करने के मलए; प्राक् – पूवम; शरीर–
शरीर; नवमोक्षणात्– त्याग करने से; काम– इच्छा; क्रोध– तर्ा क्रोध से; उिवम्– उत्पन्न; वेगम्– वेग को; सः–
वह; युिः– सर्ामध र्ें; सः– वही; सुखी– सुखी; िरः– र्नुष्ट्य ।

यनद इस शरीर को त्यागिे के पवू म कोई मिष्ट्ु य इनन्द्रयों के वेगों को सहि करिे तथा इच्छा एवं क्रोध के
वेग को रोकिे में समथम होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है ।

तात्पयम : यमि कोई आत्र्-साक्षात्कार के पर् पर अग्रसर होना चाहता है तो उसे भौमतक इमन्द्रयों के वेग को
रोकने का प्रयत्न करना चामहए । ये वेग हैं – वाणीवेग, क्रोधवेग, र्नोवेग, उिरवेग, उपस्र्वेि तर्ा मजह्वावेग । जो व्यमक्त
इन मवमभन्न इमन्द्रयों के वेगों को तर्ा र्न को वश र्ें करने र्ें सर्र्म है वह गोस्वामी या स्वार्ी कहलाता है । ऐसे
गोस्वार्ी मनतान्त संयमर्त जीवन मबताते हैं और इमन्द्रयों के वेगों का मतरस्कार करते हैं । भौमतक इच्छाएँ पूणम न होने पर
क्रोध उत्पन्न होता है और इस प्रकार र्न, नेत्र तर्ा वक्षस्र्ल उत्तेमजत होते हैं । अतः इस शरीर का पररत्याग करने के
पूवम र्नुष्ट्य को इन्हें वश र्ें करने का अभ्यास करना चामहए । जो ऐसा कर सकता है वह स्वरुपमसद्ध र्ाना जाता है और
आत्र्-साक्षात्कार की अवस्र्ा र्ें वह सुखी रहता है । योगी का कतमव्य है मक वह इच्छा और क्रोध को वश र्ें करने का
भरसक प्रयत्न करे ।

योऽन्तःसखु ोऽन्तरारामस्तथान्तजयोनतमरेव यः ।
स योगी ब्रह्मनिवामणं ब्रह्मभतू ोऽनधगच्छनत ।। २४ ।।

१८६
यः– जो; अन्तः-सुखः– अन्तर र्ें सुखी; अन्तः-आरामः– अन्तर र्ें रर्ण करने वाला अन्तर्मख
ु ी; तथा–
और; अन्तः-जयोनतः– भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव– मनश्चय ही; यः– जो कोई; सः– वह; योगी– योगी; ब्रह्म-
निवामणम्– परब्रह्म र्ें र्मु क्त; ब्रह्म-भूतः– स्वरुपमसद्ध; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

जो अन्तःकरण में सुख का अिुभव करता है, जो कममठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा
नजसका लक्ष्य अन्तममुखी होता है वह सचमुच पूणम योगी है । वह परब्रह्म में मुि पाता है और अन्ततोगत्वा
ब्रह्म को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : जब तक र्नष्ट्ु य अपने अन्तःकरण र्ें सख


ु का अनभु व नहीं करता तब तक भला बाह्यसख ु को प्राप्त
कराने वाली बाह्य मक्रयाओ ं से वह कै से छूट सकता है? र्क्त
ु पुरुष वास्तमवक अनुभव द्वारा सुख भोगता है । अतः वह
मकसी भी स्र्ान र्ें र्ौनभाव से बैिकर अन्तःकरण र्ें जीवन के कायमकलापों का आनन्ि लेता है । ऐसा र्क्त
ु पुरुष कभी
बाह्य भौमतक सुख की कार्ना नहीं करता । यह अवस्र्ा ब्रह्मभतू कहलाती है, मजसे प्राप्त करने पर भगवद्धार् जाना
मनमश्चत है ।

लभन्ते ब्रह्मनिवामणमृषयः क्षीणकल्मषाः ।


नछन्िद्वैधा यतात्मािः सवमभूतनहते रताः ।। २५ ।।

लभन्ते– प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निवामणम्– र्मु क्त; ऋषयः– अन्तर से मक्रयाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः –
सर्स्त पापों से रमहत; नछन्ि– मनवृत्त होकर; द्वैधाः– द्वैत से; यत-आत्मािः– आत्र्-साक्षात्कार र्ें मनरत; सवमभूत–
सर्स्त जीवों के ; नहते– कल्याण र्ें; रताः– लगे हुए ।

जो लोग सश ं य से उत्पन्ि होिे वाले द्वैत से परे हैं, नजिके मि आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त
जीवों के कल्याणकायम करिे में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रनहत हैं, वे ब्रह्मनिवामण (मुनि)
को प्राप्त होते हैं ।

तात्पयम : के वल वही व्यमक्त सभी जीवों के कल्याणकायम र्ें रत कहा जाएगा जो पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत है ।
जब व्यमक्त को यह वास्तमवक ज्ञान हो जाता है मक कृ ष्ट्ण ही सभी वस्तुओ ं के उद्गर् हैं तब वह जो भी कर्म करता है सबों
के महत को ध्यान र्ें रखकर करता है । परर्भोक्ता, परर्मनयन्ता तर्ा परर्सखा कृ ष्ट्ण को भल ू जाना र्ानवता के क्लेशों
का कारण है । अतः सर्ग्र र्ानवता के मलए कायम करना सबसे बड़ा कल्याणकायम है । कोई भी र्नुष्ट्य ऐसे श्रेि कायम र्ें
तब तक नहीं लग पाता जब तक वह स्वयं र्क्त ु न हो । कृ ष्ट्णभावनाभामवत र्नुष्ट्य के हृिय र्ें कृ ष्ट्ण की सवोच्चता पर
मबलकुल सिं ेह नहीं रहता । वह इसीमलए सन्िेह नहीं करता क्योंमक वह सर्स्त पापों से रमहत होता है । ऐसा है – यह
िैवी प्रेर् ।
जो व्यमक्त र्ानव सर्ाज का भौमतक कल्याण करने र्ें ही व्यस्त रहता है वह वास्तव र्ें मकसी की भी सहायता
नहीं कर सकता । शरीर तर्ा र्न की क्षमणक खश ु ी सन्तोषजनक नहीं होती । जीवन-संघषम र्ें कमिनाइयों का वास्तमवक

१८७
कारण र्नुष्ट्य द्वारा परर्ेश्र्वर से अपने सम्बन्ध की मवस्र्ृमत र्ें ढूँढा जा सकता है । जब र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण के सार् अपने
सम्बन्ध के प्रमत सचेष्ट रहता है जो वह वास्तव र्ें र्क्त
ु ात्र्ा होता है, भले ही वह भौमतक शरीर के जाल र्ें िँ सा हो ।

कामक्रोधनवमुिािां यतीिां यतचेतसाम् ।


अनभतो ब्रह्मनिवामणं वतमते नवनदतात्मिाम् ।। २६ ।।

काम– इच्छाओ;ं क्रोध– तर्ा क्रोध से; नवमि ु ािाम्– र्क्त


ु परुु षों की; यतीिाम्– साधु परुु षों की; यत-
चेतसाम्– र्न के ऊपर संयर् रखने वालों की; अनभतः– मनकट भमवष्ट्य र्ें आश्र्वस्त; ब्रह्म-निवामणम्– ब्रह्म र्ें
र्मु क्त; वतमते– होती है; नवनदत-आत्मािम्– स्वरुपमसद्धों की ।

जो क्रोध तथा समस्त भौनतक इच्छाओ ं से रनहत हैं, जो स्वरुपनसद्ध, आत्मसयं मी हैं और सनं सनद्ध के
नलए निरन्तर प्रयास करते हैं उिकी मुनि निकट भनवष्ट्य में सुनिनश्चत है ।

तात्पयम : र्ोक्ष के मलए सतत प्रयत्नशील रहने वाले साधपु ुरुषों र्ें से जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है वह सवमश्रेि
है । इस तथ्य की पुमष्ट भागवत र्ें (४.२२.३९) इस प्रकार हुई है –
यत्पार्पां जपलाशस्वलासभक्तत्या
मादशयां ग्रस्थतमर्ु ग्र् थयस्न्त सन्तः ।
तिन्न ररिमतयो यतयोऽस्प रुद्ध-
स्त्रोतोगणास्तमरणां भज वासुर्ेवम् ।।
“भमक्तपवू मक भगवन् वासिु ेव की पजू ा करने का प्रयास तो करो! बड़े से बड़े साधु परुु ष भी इमन्द्रयों के वेग को
अपनी कुशलता से रोक पाने र्ें सर्र्म नहीं हो पाते मजतना मक वे जो सकार्कर्ों की तीव्र इच्छा को सर्ल ू नष्ट करके
और भगवान् के चरणकर्लों की सेवा करके मिव्य आनन्ि र्ें लीन रहते हैं ।”
बद्धजीव र्ें कर्म के िलों को भोगने की इच्छा इतनी बलवती होती है मक ऋमषयों-र्मु नयों तक के मलए किोर
पररश्रर् के बावजूि ऐसी इच्छाओ ं को वश र्ें करना कमिन होता है । जो भगद्भक्त कृ ष्ट्णचेतना र्ें मनरन्तर भमक्त करता है
और आत्र्-साक्षात्कार र्ें मसद्ध होता है, वह शीघ्र हीर्मु क्त प्राप्त करता है । आत्र्-साक्षात्कार का पूणमज्ञान होने से वह
मनरन्तर सर्ामधस्र् रहता है । ऐसा ही एक उिाहरण मिया जा रहा है-
र्शदनध्यानसांस्पशैः मत्स्य ू मदस्वहगां माः ।
स्वान्यपत्यास्न पुष्णस्न्त तथाहमस्प पद्मज ।।
“र्छली, कछुवा तर्ा पक्षी के वल दृमष्ट, मचन्तन तर्ा स्पशम से अपनी सन्तानों को पालते हैं । हे पद्मज! र्ैं भी
उसी तरह करता हँ ।”
र्छली अपने बच्चों को के वल िेखकर बड़ा करती है । कछुवा के वल मचन्तन द्वारा अपने बच्चों को पालता है ।
कछुवा अपने अण्डे स्र्ल र्ें िेता है और स्वयं जल र्ें रहने के कारण मनरन्तर अण्डों का मचन्तन करता रहता है । इसी
प्रकार भगवद्भक्त, भगवद्धार् से िरू मस्र्र रहकर भी भगवान् का मचन्तन करके कृ ष्ट्णभावनार्ृत द्वारा उनके धार् पहुचँ
सकता है । उसे भौमतक क्लेशों का अनुभव नहीं होता । यह जीवन-अवस्र्ा ब्रह्ममनवामण अर्ामत् भगवान् र्ें मनरन्तर लीन
रहने के कारण भौमतक कष्टों का अभाव कहलाती है ।

१८८
स्पशामन्कृ त्वा बनहबामह्यांश्र्चक्षुश्र्चैवान्तरे रुवो: ।
प्राणापािौ समौ कृ त्वा िासाभ्यन्तरचाररणौ ।। २७ ।।
यतेनन्द्रयमिोबुनद्धममनु िमोक्षपरायणः ।
नवगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुि एव सः ।। २८ ।।

स्पशामि–् इमन्द्रयमवषयों यर्ा ध्वमन को; कृ त्वा– करके ; बनहः– बाहरी; बाह्याि्– अनावश्यक; चक्षःु –
आँखें; च– भी; एव– मनश्चय ही; अन्तरे– र्ध्य र्ें; रुवोः– भौहों के ; प्राण-अपािौ– उध्वम तर्ा अधोगार्ी
वाय;ु समौ– रुद्ध; कृ त्वा– करके ; िास-अभ्यन्तर– नर्नु ों के भीतर; चाररणौ– चलने वाले; यत– सयं मर्त; इनन्द्रय–
इमन्द्रयाँ; मिः– र्न; बुनद्धः– बुमद्ध; मुनिः– योगी; मोक्ष– र्ोक्ष के मलए; परायणः– तत्पर; नवगत– पररत्याग
करके ; इच्छा– इच्छाएँ; भय– डर; क्रोधः– क्रोध; यः– जो; सदा– सिैव; मुिः– र्क्त ु ; एव– मनश्चय ही; सः– वह ।

समस्त इनन्द्रयनवषयों को बाहर करके , दृनष्ट को भौंहों के मध्य में के नन्द्रत करके , प्राण तथा अपाि वायु
को िथुिों के भीतर रोककर और इस तरह मि, इनन्द्रयों तथा बुनद्ध को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य
बिाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रनहत हो जाता है । जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह
अवश्य ही मुि है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत होने पर र्नुष्ट्य तुरन्त ही अपने अध्यामत्र्क स्वरूप को जान लेता है मजसके
पश्चात् भमक्त के द्वारा वह परर्ेश्र्वर को सर्झता है । जब र्नुष्ट्य भमक्त करता है तो वह मिव्य मस्र्मत को प्राप्त होता है और
अपने कर्म क्षेत्र र्ें भगवान् की उपमस्र्मत का अनभु व करने योग्य हो जाता है । यह मवशेष मस्र्मत र्मु क्त कहलाती है ।
र्मु क्त मवषयक उपयुमक्त मसद्धान्तों का प्रमतपािन करके श्रीभगवान् अजुमन को यह मशक्षा िेते हैं मक र्नुष्ट्य मकस
प्रकार अष्टागं योग का अभ्यास करके इस मस्र्मत को प्राप्त होता है । यह अष्टागं योग आि मवमधयों – यर्, मनयर्, आसन,
प्राणायार्, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तर्ा सर्ामध र्ें मवभामजत है । छिे अध्याय र्ें योग के मवषय र्ें मवस्तृत व्याख्या की
गई है, पाँचवे अध्याय के अन्त र्ें तो इसका प्रारमम्भक मववेचन ही मिया गया है । योग र्ें प्रत्याहार मवमध से शब्ि, स्पशम,
रूप, स्वाि तर्ा गंध का मनराकरण करना होता है और तब दृमष्ट को िोनों भौंहों के बीच लाकर अधखल ु ी पलकों से उसे
नासाग्र पर के मन्द्रत करना पड़ता है । आँखों को पूरी तरह बन्ि करने से कोई लाभ नहीं होता क्योंमक तब सो जाने की
सम्भावना रहती है । न ही आँखों को पूरा खल ु ा रखने से कोई लाभ है क्योंमक तब तो इमन्द्रयमवषयों द्वारा आकृ ष्ट होने
का भय बना रहता है । नर्ुनों के भीतर श्र्वास की गमत को रोकने के मलए प्राण तर्ा अपान वायुओ ं को सर् मकया जाता
है । ऐसे योगाभ्यास से र्नुष्ट्य अपनी इमन्द्रयों के ऊपर मनयन्त्रण प्राप्त करता है, बाह्य इमन्द्रयमवषयों से िरू रहता है और
अपनी र्मु क्त की तैयारी करता है ।
इस योग मवमध से र्नष्ट्ु य सर्स्त प्रकार के भय तर्ा क्रोध से रमहत हो जाता है और परर्ात्र्ा की उपमस्र्मत का
अनुभव करता है । िसू रे शब्िों र्ें, कृ ष्ट्णभावनार्ृत योग के मसद्धान्तों को सम्पन्न करने की सरलतर् मवमध है । अगले
अध्याय र्ें इसकी मवस्तार से व्याख्या होगी । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त सिैव भमक्त र्ें लीन रहता है मजससे
उसकी इमन्द्रयों के अन्यत्र प्रवृत्त होने का भय नहीं रह जाता । अष्टांगयोग की अपेक्षा इमन्द्रयों को वश र्ें करने की यह
अमधक उत्तर् मवमध है ।

१८९
भोिारं यज्ञतपसां सवमलोकमहेश्र्वरम् ।
सुहृदं सवमभूतािां ज्ञात्वा मां शानन्तमृच्छनत ।। २९ ।।

भोिारम्– भोगने वाला, भोक्ता; यज्ञ– यज्ञ; तपसाम्– तपस्या का; सवमलोक– सम्पूणम लोकों तर्ा उनके
िेवताओ ं का; महा-ईश्र्वरम्– परर्ेश्र्वर; सुहृदम्– उपकारी; सवम– सर्स्त; भूतािाम्– जीवों का; ज्ञात्वा– इस प्रकार
जानकर; माम्– र्झु (कृ ष्ट्ण) को; शानन्तम्– भौमतक यातना से र्मु क्त; ऋच्छनत– प्राप्त करता है ।

मझु े समस्त यज्ञों तथा तपस्याओ ं का परम भोिा, समस्त लोकों तथा देवताओ ं का परमेश्र्वर एवं
समस्त जीवों का उपकारी एवं नहतैषी जािकर मेरे भाविामृत से पूणम पुरुष भौनतक दुखों से शानन्त लाभ-
करता है ।

तात्पयम : र्ाया से वशीभतू सारे बद्धजीव इस संसार र्ें शामन्त प्राप्त करने के मलए उत्सुक रहते हैं ।
मकन्तु भगवद्गीता के इस अंश र्ें वमणमत शामन्त के सूत्र को वे नहीं जानते । शामन्त का सबसे बड़ा सूत्र यही है मक
भगवान् कृ ष्ट्ण सर्स्त र्ानवीय कर्ों के भोक्ता हैं । र्नुष्ट्यों को चामहए मक प्रत्येक वस्तु भगवान् की मिव्यसेवा र्ें अमपमत
कर िें क्योंमक वे ही सर्स्त लोकों तर्ा उनर्ें रहने वाले िेवताओ ं के स्वार्ी हैं । उनसे बड़ा कोई नहीं है । वे बड़े सेबड़े
िेवता, मशव तर्ा ब्रह्मा से भी र्हान हैं । वेिों र्ें (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ६.७) भगवान् को तमीश्र्वराणाां परमां
महेश्र्वरम् कहा गया है । र्ाया के वशीभूत होकर सारे जीव सवमत्र अपना प्रभत्ु व जताना चाहते हैं, लेमकन वास्तमवकता
तो यह है मक सवमत्र भगवान् की र्ाया का प्रभत्ु व है । भगवान् प्रकृ मत (र्ाया) के स्वार्ी हैं और बद्धजीव प्रकृ मत के किोर
अनश ु ासन के अन्तगमत हैं । जब तक कोई इन तथ्यों को सर्झ नहीं लेता तब तक ससं ार र्ें व्यमष्ट या सर्मष्ट रूप से
शामन्त प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का यही अर्म है । भगवान् कृ ष्ट्ण परर्ेश्र्वर हैं तर्ा िेवताओ ं समहत
सारे जीव उनके आमश्रत हैं । पणू म कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर ही पणू म शामन्त प्राप्त की जा सकती है ।
यह पाँचवा अध्याय कृ ष्ट्णभावनार्ृत की, मजसे सार्ान्यतया कर्मयोग कहते हैं, व्यावहाररक व्याख्या है । यहाँ पर
इस प्रश्न का उत्तर मिया गया है मक कर्मयोग से र्मु क्त मकस तरह प्राप्त होती है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करने का अर्म है
परर्ेश्र्वर के रूप र्ें भगवान् के पूणमज्ञान के सार् कर्म करना । ऐसा कर्म मिव्यज्ञान से मभन्न नहीं होता । प्रत्यक्ष
कृ ष्ट्णभावनार्ृत भमक्तयोग है और ज्ञानयोग वह पर् है मजससे भमक्तयोग प्राप्त मकया जाता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अर्म
है – परर्ेश्र्वर के सार् अपने सम्बन्ध का पूणमज्ञान प्राप्त करके कर्म करना और इस चेतना की पूणमता का अर्म है – कृ ष्ट्ण
या श्रीभगवान् का पूणमज्ञान । शद्ध ु जीव भगवान् के अंश रूप र्ें ईश्र्वर का शाश्र्वत िास है । वह र्ाया पर प्रभत्ु व जताने
की इच्छा से ही र्ाया के सम्पकम र्ें आता है और यही उसके कष्टों का र्ल ू कारण है । जब तक वह पिार्म के सम्पकम र्ें
रहता है उसे भौमतक आवश्यकताओ ं के मलए कर्म करना पड़ता है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत उसे पिार्म की पररमध र्ें
मस्र्त होते हुए भी आध्यामत्र्क जीवन र्ें ले आता है क्योंमक भौमतक जगत् र्ें भमक्त का अभ्यास करने पर जीव का
मिव्य स्वरूप पुनः प्रकट होता है । जो र्नुष्ट्य मजतना ही प्रगत है वह उतना ही पिार्म के बन्धन से र्क्त ु रहता है । भगवान्
मकसी का पक्षपात नहीं करते । यह तो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मलए व्यमक्तगत व्यावहाररक कतमव्यपालन पर मनभमर करता है
मजससे र्नुष्ट्य इमन्द्रयों पर मनयन्त्रण प्राप्त करके इच्छा तर्ा क्रोध के प्रभाव को जीत लेता है । और जो कोई उपयुमक्त
कार्ेच्छाओ ं को वश र्ें करके कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें दृढ़ रहता है वह ब्रह्ममनवामण या मिव्य अवस्र्ा को प्राप्त करता होता है

१९०
। कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अष्टांगयोग पद्धमत का स्वयर्ेव अभ्यास होता है क्योंमक इससे अमन्तर् लक्ष्य की पूमतम होती है ।
यर्, मनयर्, आसन, प्राणायार्, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तर्ा सर्ामध के अभ्यास द्वारा धीरे -धीरे प्रगमत हो सकती है ।
मकन्तु भमक्तयोग र्ें तो ये प्रस्तावना के स्वरूप हैं क्योंमक के वल इसी से र्नुष्ट्य को पूणमशामन्त प्राप्त हो सकती है । यही
जीवन की परर् मसमद्ध है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े पांचम अध्याय ” मदयोग – ृ ष्णभावनाभास्वत मद” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद
हुआ ।

१९१
अध्याय छह
ध्याियोग
श्रीभगवानवु ाच
अिानश्रतः कममिलं कायं कमम करोनत यः ।
स संन्यासी च योगी च ि निरनग्ििम चानक्रयः ।। १ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; अिानश्रतः– शरण ग्रहण मकये मबना; कमम-िलम्– कर्मिल
की; कायमम–् कतमव्य; कमम- कर्म; करोनत– करता है; यः– जो; सः– वह; संन्यासी– संन्यासी; च– भी; योगी–
योगी; च– भी; ि– नहीं; निः– रमहत; अनग्िः– अमग्न; ि– न तो; च– भी; अनक्रयः– मक्रयाहीन ।

श्रीभगवाि् िे कहा – जो पुरुष अपिे कममिल के प्रनत अिासि है और जो अपिे कतमव्य का पालि
करता है, वही सन्ं यासी और असली योगी है । वह िहीं, जो ि तो अनग्ि जलाता है और ि कमम करता है ।

तात्पयम : इस अध्याय र्ें भगवान् बताते हैं मक अष्टागं योग पद्धमत र्न तर्ा इमन्द्रयों को वश र्ें करने का साधन
है । मकन्तु इस कमलयुग र्ें सार्ान्य जनता के मलए इसे सम्पन्न कर पाना अत्यन्त कमिन है । यद्यमप इस अध्याय र्ें
अष्टांगयोग पद्धमत की संस्तुमत की गई है, मकन्तु भगवान् बल िेते हैं मक कर्मयोग या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करना इससे
श्रेि है । इस संसार र्ें प्रत्येक र्नुष्ट्य अपने पररवार के पालनार्म तर्ा अपनी सार्ग्री के रक्षार्म कर्म करता है, मकन्तु कोई
भी र्नुष्ट्य मबना मकसी स्वार्म, मकसी व्यमक्तगत तृमप्त के , चाहे वह तृमप्त आत्र्के मन्द्रत हो या व्यापक, कर्म नहीं करता ।
पूणमता की कसौटी है – कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करना, कर्म के िलों का भोग करने के उद्देश्य से नहीं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें कर्म करना प्रत्येक व्यमक्त का कत्तमव्य है, क्योंमक सभी लोग परर्ेश्र्वर के अंश हैं । शरीर के अंग पूरे शरीर के मलए
कायम करते हैं । शरीर के अंग अपनी तृमप्त के मलए नहीं, अमपतु पूरे शरीर की तुमष्ट के मलए कायम करते हैं । इसी प्रकार जो
जीव अपनी तुमष्ट के मलए नहीं, अमपतु परब्रह्म की तुमष्ट के मलए कायम करता है, वही पूणम संन्यासी या पूणम योगी है ।

कभी-कभी संन्यासी सोचते हैं मक उन्हें सारे कायों से र्ुमक्त मर्ल गई, अतः वे अमग्नहोत्र यज्ञ करना बन्ि कर िेते
हैं, लेमकन वस्ततु ः वे स्वार्ी हैं क्योंमक उनका लक्ष्य मनराकार ब्रह्म से तािात्र्य स्र्ामपत करना होता है । ऐसी इच्छा
भौमतक इच्छा से तो श्रेि है, मकन्तु यह स्वार्म से रमहत नहीं होती । इसी प्रकार जो योगी सर्स्त कर्म बन्ि करके
अधममनर्ीमलत नेत्रों से योगाभ्यास करता है, वह भी आत्र्तमु ष्ट की इच्छा से पूररत होता है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त को कभी भी आत्र्तुमष्ट की इच्छा नहीं रहती । उसका एकर्ात्र लक्ष्य कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करना रहता है, अतः वह
पूणम संन्यासी या पूणमयोगी होता है । त्याग के सवोच्च प्रतीक भगवान् चैतन्य प्रार्मना करते हैं –
न धनां न जनां न सुन्र्रीं स्वताां वा जगर्ीश ामये ।
मम जन्मस्न जन्मनीश्र्वरे भवताद्भस्िरहैतु ी त्वस्य ।।

१९२
“हे सवमशमक्तर्ान प्रभ!ु र्झु े न तो धन-संग्रह की कार्ना है, न र्ैं सुन्िर मस्त्रयों के सार् रर्ण करने का अमभलाषी
ह,ँ न ही र्झु े अनुयामययों की कार्ना हैं । र्ैं तो जन्र्-जन्र्ान्तर आपकी प्रेर्ाभमक्त की अहैतुकी कृ पा का ही अमभलाषी
हँ ।”

यं संन्यासनमनत प्राहुयोगं तं नवनद्ध पाण्डव ।


ि ह्यसंन्यस्तसकल्पो योगी भवनत कश्र्चि ।। २ ।।

यम्–मजसको; संन्यासम्– संन्यास; इनत– इस प्रकार; प्राहुः– कहते हैं; योगम्– परब्रह्म के सार् युक्त
होना; तम्– उसे; नवनद्ध– जानो; पाण्डव– हे पाण्डुपत्रु ; ि– कभी नहीं; नह– मनश्चय मह; असन्ं यस्त– मबना
त्यागे; सङ् कल्पः– आत्र्तृमप्त की इच्छा; योगी– योगी; भवनत– होता है; कश्र्चि– कोई ।

हे पाण्डुपुत्र! नजसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अथामत् परब्रह्म से युि होिा जािो क्योंनक
इनन्द्रयतृनप्त के नलए इच्छा को त्यागे नबिा कोई कभी योगी िहीं हो सकता ।

तात्पयम : वास्तमवक संन्यास-योग या भमक्त का अर्म है मक जीवात्र्ा अपनी स्वाभामवक मस्र्मत को जाने और
तिानुसार कर्म करे । जीवात्र्ा का अपना स्वतन्त्र अमस्तत्व नहीं होता । वह परर्ेश्र्वर की तटस्र्ा शमक्त है । जब वह
र्ाया के वशीभतू होता है तो वह बद्ध हो जाता है, मकन्तु जब वह कृ ष्ट्णभावनाभामवत रहता है अर्ामत् आध्यामत्र्क
शमक्त र्ें सजग रहता है तो वह अपनी सहज मस्र्मत र्ें होता है । इस प्रकार जब र्नुष्ट्य पूणमज्ञान र्ें होता है तो वह सर्स्त
इमन्द्रयतृमप्त को त्याग िेता है अर्ामत् सर्स्त इमन्द्रयतृमप्त के कायमकलापों का पररत्याग कर िेता है । इसका अभ्यास योगी
करते हैं जो इमन्द्रयों को भौमतक आसमक्त से रोकते हैं । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त को तो ऐसी मकसी भी वस्तु र्ें
अपनी इमन्द्रय लगाने का अवसर ही नहीं मर्लता जो कृ ष्ट्ण के मनमर्त्त न हो । िलतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त संन्यासी
तर्ा योगी सार्-सार् होता है । ज्ञान तर्ा इमन्द्रयमनग्रह योग के ये िोनों प्रयोजन कृ ष्ट्णभावनार्ृत द्वारा स्वतः परू े हो जाते
हैं । यमि र्नुष्ट्य स्वार्म का त्याग नहीं कर पाता तो ज्ञान तर्ा योग व्यर्म रहते हैं । जीवात्र्ा का र्ख्ु य ध्येय तो सर्स्त
प्रकार की आत्र्तृमप्त को त्यागकर परर्ेश्र्वर की तुमष्ट करने के मलए तैयार रहना है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त र्ें मकसी
प्रकार की आत्र्तृमप्त की इच्छा नहीं रहती । वह सिैव परर्ेश्र्वर की प्रसन्नता र्ें लगा रहता है, अतः मजसे परर्ेश्र्वर के
मवषय र्ें कुछ भी पता नहीं होता वही स्वार्म पूमतम र्ें लगा रहता है क्योंमक कोई कभी मनमष्ट्क्रय नहीं रह सकता ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अभ्यास करने से सारे कायम सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाते हैं ।

आरूरूक्षोममिु ेयोगं कमम कारणमुच्यते ।


योगारुढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ।। ३ ।।

आरुरुक्षोः– मजसने अभी योग प्रारम्भ मकया है; मुिेः– र्मु न की; योगम्– अष्टांगयोग पद्धमत; कमम–
कर्म; कारणम्– साधन; उच्यते– कहलाता है; योग– अष्टागं योग; आरुढस्य– प्राप्त होने वाले का; तस्य–
उसका; एव– मनश्चय ही; शमः– सम्पूणम भौमतक कायमकलापों का त्याग; कारणम्– कारण; उच्यते– कहा जाता है ।

१९३
अष्टांगयोग के िवसाधक के नलए कमम साधि कहलाता है और योगनसद्ध पुरुष के नलए समस्त
भौनतक कायमकलापों का पररत्याग ही साधि कहा जाता है ।

तात्पयम : परर्ेश्र्वर से युक्त होने की मवमध योग कहलाती है । इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है मजससे
सवोच्च आध्यामत्र्क मसमद्ध प्राप्त की जाती है । यह सीढ़ी जीव की अधर् अवस्र्ा से प्रारम्भ होकर अध्यामत्र्क जीवन
के पूणम आत्र्-साक्षात्कार तक जाती है । मवमभन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के मवमभन्न भाग मभन्न-मभन्न नार्ों से
जाने जाते हैं । मकन्तु कुल मर्लाकर यह परू ी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों र्ें मवभामजत मकया जा सकता
है – ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भमक्तयोग । सीढ़ी के प्रारमम्भक भाग को योगारुरुक्षु अवस्र्ा और अमन्तर् भाग
को योगारूढ कहा जाता है ।
जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है, मवमभन्न यर्-मनयर्ों तर्ा आसनों (जो प्रायः शारीररक र्द्रु ाएँ ही हैं) के द्वारा
ध्यान र्ें प्रमवष्ट होने के मलए आरमम्भक प्रयासों को सकार् कर्म र्ाना जाता है । ऐसे कर्ों से पूणम र्ानमसक सन्तुलन प्राप्त
होता है मजससे इमन्द्रयाँ वश र्ें होती हैं । जब र्नुष्ट्य पूणम ध्यान र्ें मसद्धहस्त हो जाता है तो मवचमलत करने वाले सर्स्त
र्ानमसक कायम बन्ि हुए र्ाने जाते हैं ।
मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त प्रारम्भ से ही ध्यानावमस्र्त रहता है क्योंमक वह मनरन्तर कृ ष्ट्ण का मचन्तन
करता है । इस प्रकार कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें सतत व्यस्त रहने के करण उसके सारे भौमतक कायमकलाप बन्ि हुए र्ाने जाते
हैं ।

यदा नह िेनन्द्रयाथेषु ि कममस्विुषजजते ।


सवमसंकल्पसंन्यासी योगारूढस्तदोच्यते ।। ४ ।।

यदा– जब; नह– मनश्चय ही; ि– नहीं; इनन्द्रय-अथेषु– इमन्द्रयतृमप्त र्ें; ि– कभी नहीं; कममसु– सकार् कर्म
र्ें; अिषु जजते– मनरत रहता है; सवम-सङ् कल्प– सर्स्त भौमतक इच्छाओ ं का; सन्ं यासी– त्याग करने वाला; योग-
आरूढः– योग र्ें मस्र्त; तदा– उस सर्य; उच्यते– कहलाता है ।

जब कोई पुरुष समस्त भौनतक इच्छाओ ं का त्यागा करके ि तो इनन्द्रयतृनप्त के नलए कायम करता है
और ि सकामकमों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है ।

तात्पयम : जब र्नुष्ट्य भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें पूरी तरह लगा रहता है तो वह अपने आप र्ें प्रसन्न रहता है
और इस तरह वह इमन्द्रयतृमप्त या सकार्कर्म र्ें प्रवृत्त नहीं होता । अन्यर्ा इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगना ही पड़ता है, क्योंमक कर्म
मकए मबना कोई रह नहीं सकता । मबना कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्नुष्ट्य सिैव स्वार्म र्ें तत्पर रहता है । मकन्तु
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कृ ष्ट्ण की प्रसन्नता के मलए ही सब कुछ करता है, िलतः वह इमन्द्रयतृमप्त से परू ी तरह मवरक्त
रहता है । मजसे ऐसी अनुभमू त प्राप्त नहीं है उसे चामहए मक भौमतक इच्छाओ ं से बचे रहने का वह यंत्रवत् प्रयास करे ,
तभी वह योग की सीढ़ी से ऊपर पहुचँ सकता है ।

उद्धरेदात्मिात्मािं िात्मािमवसादयेत् ।

१९४
आत्मैव ह्यात्मिो बन्धुरात्मैव ररपुरात्मिः ।। ५ ।।

उद्धरेत–् उद्धार करे ; आत्मिा– र्न से; आत्मािम्– बद्धजीव को; ि– कभी नहीं; आत्मािम्– बद्धजीव
को; अवसादयेत–् पतन होने िे; आत्मा– र्न; एव– मनश्चय ही; नह– मनस्सन्िेह; आत्मिः– बद्धजीव का; बन्धुः–
मर्त्र; आत्मा– र्न; एव– मनश्चय ही; ररपुः– शत्रु; आत्मिः– बद्धजीव का ।

मिष्ट्ु य को चानहए नक अपिे मि की सहायता से अपिा उद्धार करे और अपिे को िीचे ि नगरिे दे । यह
मि बद्धजीव का नमत्र भी है और शत्रु भी ।

तात्पयम : प्रसंग के अनुसार आत्र्ा शब्ि का अर्म शरीर, र्न तर्ा आत्र्ा होता है । योगपद्धमत र्ें र्न तर्ा
आत्र्ा का मवशेष र्हत्त्व है । चँमू क र्न ही योगपद्धमत का के न्द्रमबन्िु है, अतः इस प्रसगं र्ें आत्र्ा का तात्पयम र्न होता
है । योगपद्धमत का उद्देश्य र्न को रोकना तर्ा इमन्द्रयमवषयों के प्रमत आसमक्त से उसे हटाना है । यहाँ पर इस बात पर
बल मिया गया है मक र्न को इस प्रकार प्रमशमक्षत मकया जाय मक वह बद्धजीव को अज्ञान के िलिल से मनकाल सके ।
इस जगत् र्ें र्नुष्ट्य र्न तर्ा इमन्द्रयों के द्वारा प्रभामवत होता है । वास्तव र्ें शद्ध
ु आत्र्ा इस संसार र्ें इसीमलए िँ सा
हुआ है क्योंमक र्न मर्थ्या अहक ं ार र्ें लगकर प्रकृ मत के ऊपर प्रभत्ु व जताना चाहता है । अतः र्न को इस प्रकार
प्रमशमक्षत करना चामहए मक वह प्रकृ मत की तड़क-भड़क से आकृ ष्ट न हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके ।
र्नुष्ट्य को इमन्द्रयमवषयों से आकृ ष्ट होकर अपने को पमतत नहीं करना चामहए । जो मजतना ही इमन्द्रयमवषयों के प्रमत
आकृ ष्ट होता है वह उतना ही इस संसार र्ें िँ सता जाताहै । अपने को मवरत करने का सवोत्कृ ष्ट साधन यही है मक र्न
को सिैव कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनरत रखा जाय । स्ह शब्ि इस बात पर बल िेने के मलए प्रयुक्त है अर्ामत् इसे अवश्य करना
चामहए । अमृतस्बन्र्ु उपस्नषर्् र्ें (२) कहा भी गया है –
मन एव मनुष्याणाां ारणां बन्धमोक्षयोः।
बन्धाय स्वषयासगां ो मक्तु त्यै स्नस्वदषयां मनः ।।
“र्न ही र्नुष्ट्य के बन्धन और र्ोक्ष का भी कारण है । इमन्द्रयमवषयों र्ें लीन र्न बन्धन का कारण है और मवषयों
से मवरक्त र्न र्ोक्ष का कारण है ।” अतः जो र्न मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगा रहता है, वही परर् र्ुमक्त का कारण
है ।

बन्धरु ात्मात्मिस्तस्य येिात्मैवात्मिा नजतः ।


अिात्मस्तु शत्रुत्वे वतेतात्मैव शत्रुवत् ।। ६ ।।

बन्धुः– मर्त्र; आत्मा– र्न; आत्मिः– जीव का; तस्य– उसका; येि– मजससे; आत्मा- र्न; एव– मनश्चय
ही; आत्मिा– जीवात्र्ा के द्वारा; नजतः– मवमजत; अिात्मिः– जो र्न को वश र्ें नहीं कर पाया उसका; तु–
लेमकन;शत्रुत्वे– शत्रुता के कारण; वतेत– बना रहता है; आत्मा एव– वही र्न; शत्रु-वत्– शत्रु की भाँमत ।

नजसिे मि को जीत नलया है उसके नलए मि सवमश्रेष्ठ नमत्र है, नकन्तु जो ऐसा िहीं कर पाया इसके नलए
मि सबसे बडा शत्रु बिा रहेगा ।

१९५
तात्पयम : अष्टांगयोग के अभ्यास का प्रयोजन र्न को वश र्ें करना है, मजससे र्ानवीय लक्ष्य प्राप्त करने र्ें वह
मर्त्र बना रहे । र्न को वश र्ें मकये मबना योगाभ्यास करना र्ात्र सर्य को नष्ट करना है । जो अपने र्न को वश र्ें नहीं
कर सकता, वह सतत अपने परर् शत्रु के सार् मनवास करता है और इस तरह उसका जीवन तर्ा लक्ष्य िोनों ही नष्ट हो
जाते हैं । जीव की स्वाभामवक मस्र्मत यह है मक वह अपने स्वार्ी की आज्ञा का पालन करे । अतः जब तक र्न
अमवमजत शत्रु बना रहता है, तब तक र्नुष्ट्य को कार्, क्रोध, लोभ, र्ोह आमि की आज्ञाओ ं का पालन करना होता है ।
मकन्तु जब र्न पर मवजय प्राप्त हो जाती है, तो र्नुष्ट्य इच्छानसु ार उस भगवान् की आज्ञा का पालन करता है जो सबों के
हृिय र्ें परर्ात्र्ास्वरूप मस्र्त है । वास्तमवक योगाभ्यास हृिय के भीतर परर्ात्र्ा से भेंट करना तर्ा उनकी आज्ञा का
पालन करना है । जो व्यमक्त साक्षात् कृ ष्ट्णभावनार्ृत स्वीकार करता है वह भगवान् की आज्ञा के प्रमत स्वतः सर्मपमत हो
जाता है ।

नजतात्मिः प्रशान्तस्य परमात्मा समानहतः ।


शीतोष्ट्णसुखदु:खेषु तथा मािापमाियो: ।। ७ ।।

नजत-आत्मिः– मजसने र्न को जीत मलया है; प्रशान्तस्य– र्न को वश र्ें करके शामन्त प्राप्त करने वाले
का; परम-आत्मा– परर्ात्र्ा; समानहतः– पूणमरूप से प्राप्त; शीत– सिी; उष्ट्ण– गर्ी र्ें; सुख– सुख; दुःखेषु– तर्ा
िख
ु र्ें; तथा– भी; माि– सम्र्ान; अपमाियोः– तर्ा अपर्ान र्ें ।

नजसिे मि को जीत नलया है, उसिे पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर नलया है, क्योंनक उसिे शानन्त
प्राप्त कर ली है । ऐसे परुु ष के नलए सुख-दुख, सदी-गमी एवं माि-अपमाि एक से हैं ।

तात्पयम : वस्ततु ः प्रत्येक जीव उस भगवान् की आज्ञा का पालन करने के मनमर्त्त आया है, जो जन-जन के
हृियों र्ें परर्ात्र्ा-रूप र्ें मस्र्त है । जब र्न बमहरंगा र्ाया द्वारा मवपर् कर मिया जाता है तब र्नुष्ट्य भौमतक
कायमकलापों र्ें उलझ जाता है । अतः जयोंही र्न मकसी योगपद्धमत द्वारा वश र्ें आ जाता है त्योंही र्नुष्ट्य को लक्ष्य पर
पहुचँ हुआ र्ान मलया जाना चामहए । र्नुष्ट्य को भगवि-् आज्ञा का पालन करना चामहए । जब र्नुष्ट्य का र्न परा-
प्रकृ मत र्ें मस्र्र हो जाता है तो जीवात्र्ा के सर्क्ष भगवि-् आज्ञा पालन करने के अमतररक्त कोई मवकल्प नहीं रह जाता ।
र्न को मकसी न मकसी उच्च आिेश को र्ानकर उनका पालन करना होता है । र्न को वश र्ें करने से स्वतः ही
परर्ात्र्ा के आिेश का पालन होता है । चँमू क कृ ष्ट्णभावनाभामवत होते ही यह मिव्य मस्र्मत प्राप्त हो जाती है, अतः
भगवद्भक्त संसार के द्वन्द्वों, यर्ा सुख-िख ु , सिी-गर्ी आमि से अप्रभामवत रहता है । यह अवस्र्ा व्यावहाररक सर्ामध
या परर्ात्र्ा र्ें तल्लीनता है ।

ज्ञािनवज्ञाितृप्तात्मा कूटस्थो नवनजतेनन्द्रयः ।


यि ु इत्यच्ु यते योगी समलोष्ट्राश्मकाञ्चिः ।। ८ ।।

१९६
ज्ञान—अपजतत ज्ञान; मवज्ञान—अनुभतू ज्ञान से; तृप्त—सन्तुष्ट; आत्मा—जीव; कूट स्थ:—आध्यापत्मक रूि
से पस्थत; मवमजत-इमन्द्रय:—इपन्द्रयों को वश में करके ; युक्त:—आत्म-साक्षात्कार के पलए सक्षम; इमत—इस प्रकार;
उच्यते—कहा जाता है; योगी—योग का साधक; सम—समदशी; लोष्र—कंकड; अश्म—ित्थर; काञ्चन:—
स्वणत

वह व्यनि आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपिे अनजमत ज्ञाि तथा अिुभूनत से
पण
ू म तया सन्तष्टु रहता है । ऐसा व्यनि अध्यात्म को प्राप्त तथा नजतेनन्द्रय कहलाता है । वह सभी वस्तओ
ु ं
को – चाहे वे कंकड हों, पत्थर हों या नक सोिा – एकसमाि देखता है ।

तात्पयम : परर्सत्य की अनुभमू त के मबना कोरा ज्ञान व्यर्म होता है । भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें (१.२.२३४) कहा
गया है –
अतः श्री ृ ष्णनामास्र् ण भवेर्् ग्राह्यस्मस्न्द्रयैः ।
सेवोन्मख
ु े स्ह स्जह्वार्ौ स्वयमेव स्फुरत्यर्ः ।।
“कोई भी व्यमक्त अपनी िमू षत इमन्द्रयों के द्वारा श्रीकृ ष्ट्ण के नार्, रूप, गुण तर्ा उनकी लीलाओ ं की मिव्य प्रकृ मत
को नहीं सर्झ सकता । भगवान् की मिव्य सेवा से पूररत होने पर ही कोई उनके मिव्य नार्, रूप, गुण तर्ा लीलाओ ं को
सर्झ सकता है ।”
यह भगवद्गीता कृ ष्ट्णभावनार्ृत का मवज्ञान है । र्ात्र संसारी मवद्वता से कोई कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं हो
सकता । उसे मवशुद्ध चेतना वाले का सामन्नध्य प्राप्त होने का सौभाग्य मर्लना चामहए । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त को
भगवत्कृ पा से ज्ञान की अनुभमू त होती है, क्योंमक वह मवशद्ध ु भमक्त से तुष्ट रहता है । अनुभतू ज्ञान से वह पूणम बनता
है । आध्यामत्र्क ज्ञान से र्नष्ट्ु य अपने संकल्पों र्ें दृढ़ रह सकता है , मकन्तु र्ात्र शैमक्षक ज्ञान से वह बाह्य मवरोधाभासों
द्वारा र्ोमहत और भ्रमर्त होता रहता है । के वल अनुभवी आत्र्ा ही आत्र्संयर्ी होता है, क्योंमक वह कृ ष्ट्ण की शरण र्ें
जा चक ु ा होता है । वह मिव्य होता है क्योंमक उसे संसारी मवद्वता से कुछ लेना-िेना नहीं रहता । उसके मलए संसारी
मवद्वता तर्ा र्नोधर्म, जो अन्यों के मलए स्वणम के सर्ान उत्तर् होते हैं, कंकड़ों या पत्र्रों से अमधक नहीं होते ।

सुहृनन्मत्रायमदु ासीिमध्यस्थद्वेष्ट्यबन्धुषु ।
साधुष्ट्वनप च पापेषु समबुनद्धनवमनशष्ट्यते ।। ९ ।।

सु-हृत्– स्वभाव से; नमत्र– स्नेहपूणम महतेच्छु; अरर– शत्रु; उदासीि– शत्रुओ ं र्ें तटस्र्; मध्य-स्थ– शत्रुओ ं र्ें
पंच; द्वेष– ईष्ट्यामल;ु बन्धुषु– सम्बमन्धयों या शभु ेच्छुकों र्ें;साधुष–ु साधुओ ं र्ें; अनप– भी; च– तर्ा; पापेषु– पामपयों
र्ें; सम-बुनद्धः– सर्ान बुमद्ध वाला; नवनशष्ट्यते– आगे बढ़ा हुआ होता है ।

जब मिुष्ट्य निष्ट्कपट नहतैनषयों, नप्रय नमत्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईष्ट्यामलुओ,ं शत्रुओ ं तथा
नमत्रों, पण्ु यात्माओ ं एवं पानपयों को समाि भाव से देखता है, तो वह और भी उन्ित मािा जाता है ।

योगी युञ्जीत सततमात्मिं रहनस नस्थतः ।

१९७
एकाकी यतनचत्तात्मा निराशीरपररग्रहः ।। १० ।।

योगी– योगी; युनञ्जत– कृ ष्ट्णचेतना र्ें के मन्द्रत करे ; सततम्– मनरन्तर; आत्मािम्– स्वयं को (र्न, शरीर तर्ा
आत्र्ा से); रहनस– एकान्त स्र्ान र्ें; नस्थतः– मस्र्त होकर; एकाकी– अके ले; यत-नचत्त-आत्मा– र्न र्ें सिैव
सचेत; निराशीः– मकसी अन्य वस्तु से आकृ ष्ट हुए मबना; अपररग्रहः– स्वामर्त्व की भावना से रमहत, संग्रहभाव से
र्क्त
ु ।

योगी को चानहए नक वह सदैव अपिे शरीर, मि तथा आत्मा को परमेश्र्वर में लगाए, एकान्त स्थाि में
रहे और बडी सावधािी के साथ अपिे मि को वश में करे । उसे समस्त आकाक्षं ाओ ं तथा सग्रं हभाव से मि

होिा चानहए ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण की अनुभमू त ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा श्रीभगवान् के मवमभन्न रूपों र्ें होती है । संक्षेप
र्ें, कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अर्म है – भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें मनरन्तर प्रवृत्त रहना । मकन्तु जो लोग मनराकार ब्रह्म
अर्वा अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा के प्रमत आसक्त होते हैं, वे भी आंमशक रूप से कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं क्योंमक मनराकार ब्रह्म
कृ ष्ट्ण की आध्यामत्र्क मकरण है और परर्ात्र्ा कृ ष्ट्ण का सवमव्यापी आंमशक मवस्तार होता है । इस प्रकार मनमवमशेषवािी
तर्ा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृ ष्ट्णभावनाभामवत होते हैं । प्रत्यक्ष कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त सवोच्च योगी होता
है क्योंमक ऐसा भक्त जानता है मक ब्रह्म तर्ा परर्ात्र्ा क्या हैं । उसका परर्सत्य मवषयक ज्ञान पूणम होता है, जबमक
मनमवमशेषवािी तर्ा ध्यानयोगी अपूणम रूप र्ें कृ ष्ट्णभावनाभामवत होते हैं ।
इतने पर भी इन सबों को अपने-अपने कायों र्ें मनरन्तर लगे रहने का आिेश मिया जाता है, मजससे वे िेर-सवेर
परर् मसमद्ध प्राप्त कर सकें । योगी का पहला कतमव्य है मक वह कृ ष्ट्ण पर अपना ध्यान सिैव एकाग्र रखे । उसे सिैव कृ ष्ट्ण
का मचन्तन करना चामहए और एक क्षण के मलए भी उन्हें नहीं भल ु ाना चामहए । परर्ेश्र्वर र्ें र्न की एकाग्रता ही सर्ामध
कहलाती है । र्न को एकाग्र करने के मलए सिैव एकान्तवास करना चामहए और बाहरी उपद्रवों से बचना
चामहए । योगी को चामहए मक वह अनुकूल पररमस्र्यों को ग्रहण करे और प्रमतकूल पररमस्र्मतयों को त्याग िे, मजससे
उसकी अनुभमू त पर कोई प्रभाव न पड़े । पूणम संकल्प कर लेने पर उसे उन व्यर्म की वस्तुओ ं के पीछे नहीं पड़ना चामहए
जो पररग्रह भाव र्ें उसे िँ सा लें ।
ये सारी मसमद्धयाँ तर्ा सावधामनयाँ तभी पूणमरूपेण कायाममन्वत हो सकती हैं जब र्नुष्ट्य प्रत्यक्षतः
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो क्योंमक साक्षात् कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अर्म है – आत्र्ोसगम मजसर्ें संग्रहभाव (पररग्रह) के मलए
लेशर्ात्र स्र्ान नहीं होता । श्रील रूपगोस्वार्ी कृ ष्ट्णभावनार्ृत का लक्षण इस प्रकार िेते हैं –
अनासिय स्वषयान् यथाहदमपु युञ्जतः ।
स्नबदन्धः ृ ष्णसम्बन्धे युिां वैरार्गयमचु यते ।।
प्रापस्ञ्च तया बुद्धया हररसम्बस्न्धवस्तनु ः ।
ममु क्ष
ु ुस्भः पररत्यागो वैरार्गयां फल्गु थ्यते ।।
“जब र्नष्ट्ु य मकसी वस्तु के प्रमत आसक्त न रहते हुए कृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत हर वस्तु को स्वीकार कर लेता है, तभी
वह पररग्रहत्व से ऊपर मस्र्त रहता है । िसू री ओर, जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत वस्तु को मबना जाने त्याग िेता है
उसका वैराग्य पूणम नहीं होता ।” (भस्िरसामृत स्सन्धु २.२५५ – २५६) ।

१९८
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त भलीभाँमत जानता रहता है मक प्रत्येक वस्तु श्रीकृ ष्ट्ण की है, िलस्वरूप वह सभी
प्रकार के पररग्रहभाव से र्क्त ु रहता है । इस प्रकार वह अपने मलए मकसी वस्तु की लालसा नहीं करता । वह जानता है
मक मकस प्रकार कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अनुरूप वस्तुओ ं को स्वीकार मकया जाता है और कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रमतकूल
वस्तुओ ं का पररत्याग कर मिया जाता है ।वह सिैव भौमतक वस्तुओ ं से िरू रहता है, क्योंमक वह मिव्य होता है और
कृ ष्ट्णभावनार्ृत से रमहत व्यमक्तयों से मकसी प्रकार का सरोकार न रखने के कारण सिा अके ला रहता है । अतः
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहने वाला व्यमक्त पूणमयोगी होता है ।

शुचौ देशे प्रनतष्ठाप्य नस्थरमासिमात्मिः ।


िात्यनु च्रतं िानतिीचं चै लानजिकुशोत्तरम् ।। ११ ।।
तत्रैकाग्रं मिः कृ त्वा यतनचत्तेनन्द्रयनक्रयः ।
उपनवश्यासिे युञ्जयाद्योगमात्मनवश्रद्ध ु ये ।। १२ ।।

र्ुचौ—िपवत्र; देर्े—भपू म में; प्रमतष्ठाप्य—स्थापित करके ; मस्थरम्—दृढ; आसनम्— आसन; आत्मन:—


स्वयं का; न—नहीं; अमत—अत्यपधक; उमच्ितम्—ऊूँचा; न—न तो; अमत—अपधक; नीचम्—पनम्न, नीचा; चैल-
अमजन—मुलायम वस्त्र तथा मृगछाला; कुर्—तथा कुशा का; उत्तरम्—आवरण; तत्र—उस िर; एक-अग्रम्—
एकाग्र; मन:—मन; कृ त्वा—करके ; यत-मचत्त—मन को वश में करते हुए; इमन्द्रय— इपन्द्रयाूँ; मक्रय:—तथा पक्रयाएूँ;
उपमवश्य—बैठकर; आसने—आसन िर; युञ्ज्यात्—अभ्यास करे ; योगम्—योग; आत्म—हृदय की; मवर्द्ध ु ये—
शपु द्ध के पलए ।

योगाभ्यास के नलए योगी एकान्त स्थाि में जाकर भनू म पर कुशा नबछा दे और निर उसे मृगछाला से
ढके तथा ऊपर से मुलायम वस्त्र नबछा दे । आसि ि तो बहुत ऊूँ चा हो, ि बहुत िीचा । यह पनवत्र स्थाि में
नस्थत हो । योगी को चानहए नक इस पर दृढतापवू मक बैठ जाय और मि, इनन्द्रयों तथा कमों को वश में करते
हुए तथा मि को एक नबन्दु पर नस्थत करके हृदय को शुद्ध करिे के नलए योगाभ्यास करे ।

तात्पयम :‘पमवत्र स्र्ान’ तीर्मस्र्ान का सूचक है । भारत र्ें योगी तर्ा भक्त अपना घर त्याग कर
प्रयाग, र्र्ुरा, वृन्िावन , हृमषके श तर्ा हररद्वार जैसे पमवत्र स्र्ानों र्ें वास करते हैं और एकान्तस्र्ान र्ें योगाभ्यास
करते हैं, जहाँ यर्नु ा तर्ा गंगा जैसी नमियाँ प्रवामहत होती हैं । मकन्तु प्रायः ऐसा करना सबों के मलए, मवशेषतया
पाश्चात्यों के मलए, सम्भव नहीं है । बड़े-बड़े शहरों की तर्ाकमर्त योग-समर्मतयाँ भले ही धन कर्ा लें, मकन्तु वे योग
के वास्तमवक अभ्यास के मलए सवमर्ा अनुपयुक्त होती हैं । मजसका र्न मवचमलत है और जो आत्र्संयर्ी नहीं है, वह
ध्यान का अभ्यास नहीं कर सकता । अतः बृहन्नारर्ीय पुराण र्ें कहा गया है मक कमलयुग (वतमर्ान युग) र्ें, जबमक
लोग अल्पजीवी, आत्र्-साक्षात्कार र्ें र्न्ि तर्ा मचन्ताओ ं से व्यग्र रहते हैं, भगवत्प्रामप्त का सवमश्रेि र्ाध्यर् भगवान् के
पमवत्र नार् का कीतमन है –
हरे नादम हरे नादम हरे नादमैव े वलम् ।
लौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गस्तरन्यथा ।।

१९९
“कलह और िम्भ के इस युग र्ें र्ोक्ष का एकर्ात्र साधन भगवान् के पमवत्र नार् का कीतमन करना है । कोई
िसू रा र्ागम नहीं है । कोई िसू रा र्ागम नहीं है । कोई िसू रा र्ागम नहीं है ।”

समं कायनशरोग्रीवं धायमन्िचलं नस्थरः ।


सम्प्रेक्ष्य िानसकाग्रं स्वं नदशश्र्चािवलोकयि् ।। १३ ।।
प्रशान्तात्मा नवगतभीब्रमह्मचाररव्रते नस्थतः ।
मिः सयं म्य मनच्चतो यि ु आसीत मत्परः ।। १४ ।।

समम्– सीधा; काय– शरीर; नशरः– मसर; ग्रीवम्– तर्ा गिमन को; धारयि्– रखते हुए; अचलम्–
अचल; नस्थरः– शान्त; सम्प्रेक्ष्य– िेखकर; िानसका– नाक के ; अग्रम्– अग्रभाग को; स्वम्– अपनी; नदशः– सभी
मिशाओ ं र्ें; च– भी; अिवलोकयि्– न िेखते हुए; प्रशान्त– अमवचमलत; आत्मा– र्न; नवगत-भीः– भय से
रमहत; ब्रह्मचारी-व्रते– ब्रह्मचयम व्रत र्ें; नस्थतः– मस्र्त; मिः– र्न को; संयम्य– पूणमतया िमर्त करके ; मत्– र्झु
(कृ ष्ट्ण) र्ें; नचत्तः– र्न को के मन्द्रत करते हुए; युिः– वास्तमवक योगी; आसीत– बैिे; मत्– र्झु र्ें; परः– चरर् लक्ष्य

योगाभ्यास करिे वाले को चानहए नक वह अपिे शरीर, गदमि तथा सर को सीधा रखे और िाक के
अगले नसरे पर दृनष्ट लगाए । इस प्रकार वह अनवचनलत तथा दनमत मि से, भयरनहत, नवषयीजीवि से
पूणमतया मुि होकर अपिे हृदय में मेरा नचन्ति करे और मुझे नह अपिा चरमलक्ष्य बिाए ।

तात्पयम : जीवन का उद्देश्य कृ ष्ट्ण को जानना है जो प्रत्येक जीव के हृिय र्ें चतुभमजु परर्ात्र्ा रूप र्ें मस्र्त हैं ।
योगाभ्यास का प्रयोजन मवष्ट्णु के इसी अन्तयामर्ी रूप की खोज करने तर्ा िेखने के अमतररक्त और कुछ नहीं है ।
अन्तयामर्ी मवष्ट्णुर्मू तम प्रत्येक व्यमक्त के हृिय र्ें मनवास करने वाले कृ ष्ट्ण का स्वांश रूप है । जो इस मवष्ट्णर्ु ूमतम की
अनभु मू त करने के अमतररक्त मकसी अन्य कपटयोग र्ें लगा रहता है, वह मनस्सन्िेह अपने सर्य का अपव्यय करता है ।
कृ ष्ट्ण ही जीवन के परर् लक्ष्य है । हृिय के भीतर इस मवष्ट्णर्ु मू तम की अनुभमू त प्राप्त करने के मलए ब्रह्मचयमव्रत अमनवायम
है, अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक घर छोड़ िे और मकसी एकान्त स्र्ान र्ें बताई गई मवमध से आसीन होकर रहे । मनत्यप्रमत
घर र्ें या अन्यत्र र्ैर्ुन-भोग करते हुए और तर्ाकमर्त योग की कक्षा र्ें जाने र्ात्र से कोई योगी नहीं हो जाता । उसे र्न
को संयमर्त करने का अभ्यास करना होता है और सभी प्रकार की इमन्द्रयतृमप्त से, मजसर्ें र्ैर्ुन-जीवन र्ख्ु य है, बचना
होता है । र्हान ऋमष याज्ञवल्क्य ने ब्रह्मचयम के मनयर्ों र्ें बताया है –
मदणा मनसा वाचा सवादवस्थासु सवदर्ा ।
सवदत्र मैथुनत्यागो ब्रह्मचयं प्रचक्षते ।।
“सभी कालों र्ें, सभी अवस्र्ाओ ं र्ें तर्ा सभी स्र्ानों र्ें र्नसा वाचा कर्मणा र्ैर्ुन-भोग से पूणमतया िरू रहने र्ें
सहायता करना ही ब्रह्मचयमव्रत का लक्ष्य है ।” र्ैर्नु र्ें प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास नहीं मकया जा सकता । इसीमलए
बचपन से जब र्ैर्ुन का कोई ज्ञान भी नहीं होता ब्रह्मचयम की मशक्षा िी जाती है । पाँच वषम की आयु र्ें बच्चों को
गरुु कुल भेजा जाता है, जहाँ गरुु उन्हें ब्रह्मचारी बनने के दृढ़ मनयर्ों की मशक्षा िेता है । ऐसे अभ्यास के मबना मकसी भी
योग र्ें उन्नमत नहीं की जा सकती, चाहे वह ध्यान हो, या मक ज्ञान या भमक्त । मकन्तु जो व्यमक्त मववामहत जीवन के
मवमध-मवधानों का पालन करता है और अपनी हीपतनी से र्ैर्ुन-सम्बन्ध रखता है वह भी ब्रह्मचारी कहलाता है । ऐसे

२००
सयं र्शील गृहस्र्-ब्रह्मचारी को भमक्त सम्प्रिाय र्ें स्वीकार मकया जा सकता है, मकन्तु ज्ञान तर्ा ध्यान सम्प्रिाय वाले
ऐसे गृहस्र्-ब्रह्मचारी को भी प्रवेश नहीं िेते । उनके मलए पूणम ब्रह्मचयम अमनवायम है । भमक्त सम्प्रिाय र्ें गृहस्र्-ब्रह्मचारी
को संयमर्त र्ैर्ुन की अनुर्मत रहती है, क्योंमक भमक्त सम्प्रिाय इतना शमक्तशाली है मक भगवान् की सेवा र्ें लगे रहने
से वह स्वतः ही र्ैर्ुन का आकषमण त्याग िेता है ।
भगवद्गीता र्ें (२.५९) कहा गया है –
स्वषया स्वस्नवतदन्ते स्नराहारस्य र्ेस्हनः ।
रसवजं रसोऽप्यस्य परां दृष्ट्वा स्नवतदते ।।
जहाँ अन्यों को मवषयभोग से िरू रहने के मलए बाध्य मकया जाता है वहीं भगवद्भक्त भगवद्रसास्वािन के कारण
इमन्द्रयतृमप्त से स्वतः मवरक्त हो जाता है । भक्त को छोड़कर अन्य मकसी को इस अनपु र् रस का ज्ञान नहीं होता ।
स्वगत-भीः पूणम कृ ष्ट्णभावनाभामवत हुए मबना र्नुष्ट्य मनभमय नहीं हो सकता । बद्धजीव अपनी मवकृ त स्र्ृमत
अर्वा कृ ष्ट्ण के सार् अपने शाश्र्वत सम्बन्ध की मवस्र्ृमत के करण भयभीत रहता है । भागवतका (११.२.३७) कर्न है
– भयां स्ितीयास्भस्नवेशतः स्यार्् ईशार्पेतस्य स्वपयदयोऽस्मृस्तः। कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ही योग का पूणम अभ्यास कर
सकता है और चँमू क योगाभ्यास का चरर् लक्ष्य अन्तःकरण र्ें भगवान् का िशमन पाना है, अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त पहले से ही सर्स्त योमगयों से श्रेि होता है । यहाँ पर वमणमत योगमवमध के मनयर् तर्ाकमर्त लोकमप्रय योग-
समर्मतयों से मभन्न हैं ।

युञ्जन्िेवं सदात्मािं योगी नियतमािसः ।


शानन्तं निवामणपरमां मत्संस्थामनधगच्छनत ।। १५ ।।

यञ्ु जि्– अभ्यास करते हुए; एवम्– इस प्रकार से; सदा– मनरन्तर; आत्मािम्– शरीर, र्न तर्ा आत्र्ा
; योगी– योग का साधक; नियत-मािसः – संयमर्त र्न से युक्त; शानन्तम्– शामन्त को; निवामण-परमाम्– भौमतक
अमस्तत्व का अन्त; मत्-सस्ं थाम्– मचन्र्यव्योर् (भवद्धार्) को; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

इस प्रकार शरीर, मि तथा कमम में निरन्तर संयम का अब्यास करते हुए संयनमत मि वाले योगी को इस
भौनतक अनस्तत्व की समानप्त पर भगवद्धाम की प्रानप्त होती है ।

तात्पयम : अब योगाभ्यास के चरर् लक्ष्य का स्पष्टीकरण मकया जा रहा है । योगाभ्यास मकसी भौमतक सुमवधा
की प्रामप्त के मलए नहीं मकया जाता, इसका उद्देश्य तो भौमतक संसार से मवरमक्त प्राप्त करना है । जो कोई इसके द्वारा
स्वास्थ्य-लाभ चाहता है या भौमतक मसमद्ध प्राप्त करने का इच्छुक होता है वह भगवद्गीता के अनुसार योगी नहीं है । न
ही भौमतक अमस्तत्व की सर्ामप्त का अर्म शन्ू य र्ें प्रवेश है क्योंमक यह कपोलकल्पना है । भगवान् की सृमष्ट र्ें कहीं भी
शन्ू य नहीं है । उलटे भौमतक अमस्तत्व की सर्ामप्त से र्नष्ट्ु य भगवद्धार् र्ें प्रवेश करता है । भगवद्गीता र्ें भगवद्धार् का
भी स्पष्टीकरण मकया गया है मक यह वह स्र्ान है जहाँ न सूयम की आवश्यकता है, न चाँि या मबजली की ।
आध्यामत्र्क राजय के सारे लोक उसी प्रकार से स्वतः प्रकामशत हैं, मजस प्रकार सूयम द्वारा यह भौमतक आकाश । वैसे तो
भगवद्धार् सवमत्र है, मकन्तु मचन्र्यव्योर् तर्ा उसके लोकों को ही परर्धार् कहा जाता है ।

२०१
एक पूणमयोगी मजसे भगवान् कृ ष्ट्ण का पूणमज्ञान है जैसा मक यहाँ भगवान् ने स्वयं कहा है (मस्चचतः, मत्परः,
मत्स्थान्म्) वास्तमवक शामन्त प्राप्त कर सकता है और अन्ततोगत्वा कृ ष्ट्णलोक या गोलोक वृन्िावन को प्राप्त होता
है । ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३७) स्पष्ट उल्लेख है – गोलो एवस्नवसत्यस्खलात्मभतू ः– यद्यमप भगवान् सिैव अपने धार् र्ें
मनवास करते हैं, मजसे गोलोक कहते हैं, तो भी वे अपनी परा-आध्यामत्र्क शमक्तयों के कारण सवमव्यापी ब्रह्म तर्ा
अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा हैं । कोई भी कृ ष्ट्ण तर्ा मवष्ट्णु रूप र्ें उनके पूणम मवस्तार को सही-सही जाने मबना वैकुण्ि र्ें या
भगवान् के मनत्यधार् (गोलोक वृन्िावन) र्ें प्रवेश नहीं कर सकता । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ही पूणमयोगी है
क्योंमक उसका र्न सिैव कृ ष्ट्ण के कायमकलापों र्ें तल्लीन रहता है (स वै मनः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्योः) । वेिों र्ें
(श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ३.८) भी हर् पाते हैं – तमेव स्वस्र्त्वास्त मृत्युमेस्त– के वल भगवान् कृ ष्ट्ण को जानने पर जन्र्
तर्ा र्ृत्यु के पर् को जीता जा सकता है । िसू रे शब्िों र्ें, योग की पणू मता ससं ार से र्मु क्त प्राप्त करने र्ें है, इन्द्रजाल
अर्वा व्यायार् के करतबों द्वारा जनता को र्ख ु म बनाने र्ें नहीं ।

िात्यश्र्ितस्तु योगोऽनस्त ि चैकान्तमिश्नतः।


ि चानतस्वप्िशीलस्य जाग्रतो िैव चाजमिु ।। १६ ।।

ि– कभी नहीं; अनत– अमधक; अश्नतः– खाने वाले का; तु– लेमकन; योगः– भगवान् से जुड़ना; अनस्त–
है; ि– न तो; च– भी; एकान्तम्– मबलकुल, मनतान्त; अिश्नतः– भोजन न करने वाले का; ि– न तो; च– भी; अनत–
अत्यमधक; स्वप्ि-शीलस्य– सोने वाले का; जाग्रतः– अर्वा रात भर जागते रहने वाले का; ि– नहीं; एव– ही; च–
तर्ा; अजमिु – हे अजुमन ।

हे अजमिु ! जो अनधक खाता है या बहुत कम खाता है, जो अनधक सोता है अथवा जो पयामप्त िहीं सोता
उसके योगी बििे की कोई सम्भाविा िहीं है ।

तात्पयम : यहाँ पर योमगयों के मलए भोजन तर्ा नींि के मनयर्न की संस्तुमत की गई है । अमधक भोजन का अर्म
है शरीर तर्ा आत्र्ा को बनाये रखने के मलए आवश्यकता से अमधक भोजन करना । र्नुष्ट्यों र्ें र्ांसाहार करने की
आवश्यकता नहीं है क्योंमक प्रचरु र्ात्रा र्ें अन्न, शाक, िल तर्ा िग्ु ध उपलब्ध हैं । ऐसे सािे
भोजयपिार्म भगवद्गीता के अनुसार सतोगुणी र्ाने जाते हैं । र्ांसाहार तो तर्ोगुमणयों के मलए है । अतः जो लोग
र्ांसाहार करते हैं, र्द्यपान करते हैं, धम्रू पान करते हैं और कृ ष्ट्ण को भोग लगाये मबना भोजन करते हैं वे पापकर्ों का
भोग करें गे क्योंमक वे िमू षत वस्तुएँ खाते हैं । भञ्ु जते ते त्वघां पापा ये पचन्त्यात्म ारणात्। जो व्यमक्त इमन्द्रयसुख के मलए
खाता है या अपने मलए भोजन बनाता है, मकन्तु कृ ष्ट्ण को भोजन अमपमत नहीं करता वह के वल पाप खाता है । जो पाप
खाता है और मनयत र्ात्र से अमधक भोजन करता है वह पूणमयोग का पालन नहीं कर सकता । सबसे उत्तर् यही है मक
कृ ष्ट्ण को अमपमत भोजन के अमच्छष्ट भाग को ही खाया जाय । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कभी भी ऐसा भोजन नहीं
करता, जो इससे पूवम कृ ष्ट्ण को अमपमत न मकया गया हो । अतः के वल कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ही योगाभ्यास र्ें
पणू मता प्राप्त कर सकता है । न ही ऐसा व्यमक्त कभी योग का अभ्यास कर सकता है जो कृ मत्रर् उपवास की अपनी
मवमधयाँ मनकाल कर भोजन नहीं करता है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त शास्त्रों द्वारा अनुर्ोमित उपवास करता है । न तो
वह आवश्यकता से अमधक उपवास रखता है, न ही अमधक खाता है । इस प्रकार वह योगाभ्यास करने के मलए पूणमतया

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योग्य है । जो आवश्यकता से अमधक खाता है वह सोते सर्य अनेक सपने िेखेगा, अतः आवश्यकता से अमधक
सोएगा । र्नुष्ट्य को प्रमतमिन छः घंटे से अमधक नहीं सोना चामहए । जो व्यमक्त चौबीस घंटो र्ें से छः घंटो से अमधक
सोता है, वह अवश्य ही तर्ोगुणी है । तर्ोगुणी व्यमक्त आलसी होता है और अमधक सोता है । ऐसा व्यमक्त योग नहीं
साध सकता ।

युिाहारनवहारस्य युिचेष्टस्य कममसु ।


यिु स्वप्िावबोधस्य योगो भवनत दु:खहा ।। १७ ।।

यि
ु – मनयमर्त; आहार– भोजन; नवहारस्य– आर्ोि-प्रर्ोि का; यि ु – मनयमर्त; चेष्टस्य– जीवन मनवामह के
मलए कर्म करने वाले का; कममसु– कर्म करने र्ें; युि– मनयमर्त; स्वप्ि-अवबोधस्य– नींि तर्ा जागरण का; योगः–
योगाभ्यास; भवनत– होता है; दुःख-हा– कष्टों को नष्ट करने वाला ।

जो खािे, सोिे, आमोद-प्रमोद तथा काम करिे की आदतों में नियनमत रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा
समस्त भौनतक क्लेशों को िष्ट कर सकता है ।

तात्पयम : खाने, सोने, रक्षा करने तर्ा र्ैर्ुन करने र्ें – जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं – अमत करने से
योगाभ्यास की प्रगमत रुक जाती है । जहाँ तक खाने का प्रश्न है, इसे तो प्रसािर्् या पमवत्रकृ त भोजन के रूप र्ें मनयमर्त
बनाया जा सकता है । भगवद्गीता (९.२६) के अनुसार भगवान् कृ ष्ट्ण को शाक, िूल, िल, अन्न , िग्ु ध आमि भेंट मकये
जाते हैं । इस प्रकार एक कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रमशक्षण प्राप्त रहता है, जो र्नुष्ट्य
के खाने योग्य नहीं होता या सतोगणु ी नहीं होता । जहाँ तक सोने का प्रश्न हैं, कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें कर्म करने र्ें मनरन्तर सतकम रहता है, अतः मनद्रा र्ें वह व्यर्म सर्य नहीं गँवाता । अव्यथद- ालत्वम्–
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अपना एक मर्नट का सर्य भी भगवान् की सेवा के मबना नहीं मबताना चाहता । अतः वह
कर् से कर् सोता है । इसके आिशम श्रील रूप गोस्वार्ी हैं, जो कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें मनरन्तर लगे रहते र्े और मिनभर र्ें िो
घंटे से अमधक नहीं सोते र्े, और कभी-कभी तो उतना भी नहीं सोते र्े । िाकुर हररिास तो अपनी र्ाला र्ें तीन लाख
नार्ों का जप मकये मबना न तो प्रसाि ग्रहण करते र्े और न सोते ही र्े । जहाँ तक कायम का प्रश्न है, कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त ऐसा कोई भी कायम नहीं करता जो कृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत न हो । इस प्रकार उसका कायम सिैव मनयमर्त रहता है और
इमन्द्रयतृमप्त से अिमू षत । चँमू क कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त के मलए इमन्द्रयतृमप्त का प्रश्न ही नहीं उिता, अतः उसे तमनक
भी भौमतक अवकाश नहीं मर्लता । चँमू क वह अपने कायम, वचन, मनद्रा, जागृमत तर्ा अन्य शारीररक कायों र्ें मनयमर्त
रहता है, अतः उसे कोई भौमतक िःु ख नहीं सताता ।

यदा नवनियतं नचत्तमात्मन्येवावनतष्ठते ।


निस्पृहः सवमकामेभ्यो युि इत्युच्यते तदा ।। १८ ।।

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यदा– जब; नवनियतम्– मवशेष रूप से अनुशामसत; नचत्तम्– र्न तर्ा उसके कायम; आत्मनि– अध्यात्र्
र्ें; एव– मनश्चय ही; अवनतष्ठते– मस्र्त हो जाता है; निस्पृहः– आकांक्षारमहत; सवम– सभी प्रकार की; कामेभ्यः–
भौमतक इमन्द्रयतृमप्त से; युिः– योग र्ें मस्र्त; इनत– इस प्रकार; उच्यते– कहलाता है; तदा– उस सर्य ।

जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपिे मािनसक कायमकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में
नस्थत हो जाता है अथामत् समस्त भौनतक इच्छाओ ं से रनहत हो जाता है, तब वह योग में सुनस्थर कहा जाता
है ।

तात्पयम : साधारण र्नष्ट्ु य की तल ु ना र्ें योगी के कायों र्ें यह मवशेषता होती है मक वह सर्स्त भौमतक इच्छाओ ं
से र्क्त
ु रहता है मजनर्ें र्ैर्ुन प्रर्ख ु है । एक पूणमयोगी अपने र्ानमसक कायों र्ें इतना अनुशामसत होता है मक उसे कोई
भी भौमतक इच्छा मवचमलत नहीं कर सकती । यह मसद्ध अवस्र्ा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्तयों द्वारा स्वतः प्राप्त हो जाती
है, जैसा मक श्रीमद्भागवत र्ें (९.४.१८-२०) कहा गया है –
स वै मनः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्योवदचाांस्स वै ु ण्ठगुणानुवणदने ।
रौ हरे मदस्न्र्रमाजदनास्र्षु श्रस्ु तां च ाराचयुतसत् थोर्ये ।।
मु ु न्र्स्लांगालयर्शदने दृशौ तद्भृत्यगात्रस्पशेंऽगसांगमम् ।
घ्राणां च तत्पार्सरोजसौरभे श्रीमत्तल ु स्या रसनाां तर्ास्पदते ।।
पार्ौ हरे ः क्षेत्रपर्ानुसपदणे स्शरो हृषी े शपर्ास्भवांर्ने ।
ामां च र्ास्ये न तु ाम ाम्यया यथोत्तमश्लो जनाश्रयाः रस्तः ।।
“राजा अम्बरीश ने सवमप्रर्र् अपने र्न को भगवान् के चरणकर्लों पर मस्र्र कर मिया; मिर, क्रर्शः अपनी
वाणी को कृ ष्ट्ण के गणु ानवु ाि र्ें लगाया, हार्ों को भगवान् के र्मन्िर को स्वच्छ करने, कानों को भगवान् के
कायमकलापों को सुनने, आँखों को भगवान् के मिव्यरूप का िशमन करने, शरीर को अन्य भक्तों के शरीरों का स्पशम करने,
घ्राणेमन्द्रय को भगवान् पर चढ़ाये गये कर्लपष्ट्ु प की सगु न्ध सँघू ने , जीभ को भगवान् के चरणकर्लों र्ें चढ़ाये गये
तुलसी पत्रों का स्वाि लेने, पाँवों को तीर्मयात्रा करने तर्ा भगवान् के र्मन्िर तक जाने, सर को भगवान् को प्रणार् करने
तर्ा अपनी इच्छाओ ं को भगवान् की इच्छा पूरी करने र्ें लगा मिया । ये सारे मिव्यकायम शद्ध ु भक्त के सवमर्ा अनुरूप
हैं ।”
मनमवमशेषवामियों के मलए यह मिव्य व्यवस्र्ा अमनवमचनीय हो सकती है, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवतव्यमक्त के मलए
यह अत्यन्त सुगर् एवं व्यावहाररक है, जैसा मक र्हाराज अम्बरीष की उपररवमणमत जीवनचयाम से स्पष्ट हो जाता है । जब
तक मनरन्तर स्परण द्वारा भगवान् के चरणकर्लों र्ें र्न को मस्र्र नहीं कर मलया जाता, तब तक ऐसे मिव्यकायम
व्यावहाररक नहीं बन पाते । अतः भगवान् की भमक्त र्ें इन मवमहत कायों को अचदन् कहते हैं मजसका अर्म है – सर्स्त
इमन्द्रयों को भगवान् की सेवा र्ें लगाना । इमन्द्रयों तर्ा र्न को कुछ न कुछ कायम चामहए । कोरा मनग्रह व्यावहाररक नहीं
है । अतः सार्ान्य लोगों के मलए – मवशेषकर जो लोग सन्ं यास आश्रर् र्ें नहीं है – ऊपर वमणमत इमन्द्रयों तर्ा र्न का
मिव्यकायम ही मिव्य सिलता की सही मवमध है, मजसे भगवद्गीता र्ें युि कहा गया है ।

यथा दीपो निवातस्थो िेङगते सोपमा स्मृता ।


योनगिो यतनचत्तस्य युञ्जतो योगमात्मिः ।। १९ ।।

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यथा– मजस तरह; दीप– िीपक; निवात-स्थः– वायुरमहत स्र्ान र्ें; ि– नहीं; इङगते– महलता डुलता; सा–
यह; उपमा– तुलना; स्मृता– र्ानी जाती है; योनगिः– योगी की; यत-नचत्तस्य– मजसका र्न वश र्ें है; युञ्जतः–
मनरन्तर संलग्न; योगम्– ध्यान र्ें; आत्मिः– अध्यात्र् र्ें ।

नजस प्रकार वायरु नहत स्थाि में दीपक नहलता-डुलता िहीं, उसी तरह नजस योगी का मि वश में होता
है, वह आत्मतत्त्व के ध्याि में सदैव नस्थर रहता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अपने आराध्य िेव के मचन्तन र्ें उसी प्रकार अमवचमलत रहता है मजस
प्रकार वायुरमहत स्र्ान र्ें एक िीपक रहता है ।

यत्रोपरमते नचत्तं निरुद्धं योग सेवया ।


यत्र चैवत्मिात्मािं पश्यन्िात्मनि तुष्ट्यनत ।। २० ।।
सुखमात्यनन्तकं यत्तद्बुनद्धग्राह्यमतीनन्द्रयम् ।
वेनत्त यत्र ि चैवायं नस्थतश्र्चलनत तत्त्वतः ।। २१ ।।
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते िानधकं ततः ।
यास्मनन्स्थतो ि दु:खेि गुरुणानप नवचाल्यते ।। २२ ।।
तं नवद्याद्दु:खसंयोगनवयोगं योगसंनज्ञतम् ।। २३ ।।

यत्र– मजस अवस्र्ा र्ें; उपरमते– मिव्यसख ु की अनभु मू त के कारण बन्ि हो जाती है; नचत्तम्– र्ानमसक
गमतमवमधयाँ; निरुद्धम्– पिार्म से मनवृत्त; योग-सेवया– योग के अभ्यास द्वारा; यत्र– मजसर्ें; च– भी; एव– मनश्चय
ही; आत्मिा– मवशद्ध ु र्न से; आत्मािम्– आत्र्ा की; पश्यि्– मस्र्मत का अनभु व करते हुए; आत्मनि– अपने
र्ें; तुष्ट्यनत– तुष्ट हो जाता है; सुखम्– सुख; आत्यनन्तकम्– परर्; यत्– जो; तत्– वह; बुनद्धः– बुमद्ध से; ग्राह्यम्–
ग्रहणीय; अतीनन्द्रयम्– मिव्य; वेनत्त– जानता है; यत्र– मजसर्ें; ि– कभी नहीं; च– भी; एव– मनश्चय ही; अयम्–
यह; नस्थतः– मस्र्त; चलनत– हटता है; तत्त्वतः– सत्य से; यम्– मजसको; लब्ध्वा– प्राप्त करके ; च– तर्ा; अपरम्–
अन्य कोई; लाभम्– लाभ; मन्यते– र्ानता है; ि– कभी नहीं; अनधकम्– अमधक; ततः– उससे; यनस्मि्–
मजसर्ें; नस्थतः– मस्र्त होकर; ि– कभी नहीं; दुःखेि– िख ु ों से; गुरुणा अनप– अत्यन्त कमिन होने पर
भी; नवचाल्यते– चलायर्ान होता है; तम्– उसको; नवद्यात्– जानो; दुःख-संयोग– भौमतक संसगम से उत्पन्न
िख ु ; नवयोगम्– उन्र्ल ू न को; योग-संनज्ञतम्– योग र्ें सर्ामध कहलाने वाला ।

नसनद्ध की अवस्था में, नजसे समानध कहते हैं, मिष्ट्ु य का मि योगाभ्यास के द्वारा भौनतक मािनसक
नक्रयाओ ं से पूणमतया संयनमत हो जाता है । इस नसनद्ध की नवशेषता यह है नक मिुष्ट्य शुद्ध मि से अपिे को
देख सकता है और अपिे आपमें आिन्द उठा सकता है । उस आिन्दमयी नस्थनत में वह नदव्य इनन्द्रयों द्वारा
असीम नदव्यसुख में नस्थत रहता है । इस प्रकार स्थानपत मिुष्ट्य कभी सत्य से नवपथ िहीं होता और इस सुख
की प्रानप्त हो जािे पर वह इससे बडा कोई दूसरा लाभ िहीं मािता । ऐसी नस्थनत को पाकर मिुष्ट्य बडीसे

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बडी कनठिाई में भी नवचनलत िहीं होता । यह निस्सन्देह भौनतक संसगम से उत्पन्ि होिे वाले समस्त दुःखों से
वास्तनवक मुनि है ।

तात्पयम : योगाभ्यास से र्नुष्ट्य भौमतक धारणाओ ं से क्रर्शः मवरक्त होता जाता है । यह योग का प्रर्ख ु लक्षण
है । इसके बाि वह सर्ामध र्ें मस्र्त हो जाता है मजसका अर्म यह होता है मक मिव्य र्न तर्ा बुमद्ध के द्वारा योगी अपने
आपको परर्ात्र्ा सर्झने का भ्रर् न करके परर्ात्र्ा की अनुभमू त करता है । योगाभ्यास बहुत कुछ पतञ्जमल की
पद्धमत पर आधाररत है । कुछ अप्रार्ामणक भाष्ट्यकार जीवात्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा र्ें अभेि स्र्ामपत करने का प्रयास करते
हैं और अद्वैतवािी इसे ही र्मु क्त र्ानते हैं, मकन्तु वे पतञ्जमल की योगपद्धमत के वास्तमवक प्रयोजन को नहीं जानते ।
पतञ्जमल पद्धमत र्ें मिव्य आनन्ि को स्वीकार मकया गया है, मकन्तु अद्वैतवािी इस मिव्य आनन्ि को स्वीकार नहीं
करते क्योंमक उन्हें भ्रर् है मक इससे कहीं उनके अद्वैतवाि र्ें बाधा न उपमस्र्त हो जाय । अद्वैतवािी ज्ञान तर्ा ज्ञाता के
द्वैत को नहीं र्ानते, मकन्तु इस श्लोक र्ें मिव्य इमन्द्रयों द्वारा अनुभतू मिव्य आनन्ि को स्वीकार मकया गया है । इसकी
पुमष्ट योगपद्धमत के मवख्यात व्याख्याता पतञ्जमल र्मु न ने भी की है । योगसूत्र र्ें (३.३४) र्हमषम कहते हैं –
पुरुषाथदशन्ू यानाां गुणानाां प्रस्तप्रसवः ै वल्यां स्वरूपप्रस्तष्ठा वा स्चस्तशस्िररस्त ।
यह स्चस्तशस्ि या अन्तरंगा शमक्त मिव्य है । पुरुषाथद का तात्पयम धर्म, अर्म, कार् तर्ा अन्त र्ें परब्रह्म से
तािात्म्य या र्ोक्ष है । अद्वैतवािी परब्रह्म से इस तािात्र्य को ै वल्यम् कहते हैं । मकन्तु पतञ्जमल के
अनुसार ै वल्यम् वह अन्तरंगा या मिव्य शमक्त है मजससे जीवात्र्ा अपनी स्वाभामवक मस्र्मत से अवगत होता है ।
भगवान् चैतन्य के शब्िों र्ें यह अवस्र्ा चेतोर्पदणामाजदनम् अर्ामत् र्न रूपी र्मलन िपमण का र्ाजमन (शमु द्ध) है ।
यह र्ाजमन वास्तव र्ें र्मु क्त या भवमहार्ावास्र्गनस्नवादपणम् है । प्रारमम्भक मनवामण मसद्धान्त भी इस मनयर् के सर्ान
है । भागवत र्ें (२.१०.६) इसे स्वरूपेण व्यवस्स्थस्तः कहा गया है । भगवद्गीता के इस श्लोक र्ें भी इसी की पुमष्ट हुई है ।
मनवामण के बाि आध्यामत्र्क कायमकलापों की या भगवद्भमक्त की अमभव्यमक्त होती है मजसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत
कहते हैं । भागवत के शब्िों र्ें – स्वरूपेण व्यवस्स्थस्तः– जीवात्र्ा का वास्तमवक जीवन यही है । भौमतक िषू ण से
अध्यामत्र्क जीवन के कल्र्ष यक्त ु होने की अवस्र्ा र्ाया है । इस भौमतक िषू ण से र्मु क्त का अमभप्राय जीवात्र्ा की
र्ल ू मिव्य मस्र्मत का मवनाश नहीं है । पतञ्जमल भी इसकी पुमष्ट इस शब्िों से करते हैं – ै वल्यां स्वरूपप्रस्तष्ठा वा
स्चस्तशस्िररस्त – यह स्चस्तशस्ि या मिव्य आनन्ि ही वास्तमवक जीवन है । इसका अनुर्ोिन वेर्ान्तसूत्र र्ें (१.१.१२)
इस प्रकार हुआ है – आनन्र्मयोभ्याऽसात्। यह मचमतशमक्त ही योग का परर्लक्ष्य है और भमक्तयोग द्वारा इसे सरलता से
प्राप्त मकया जाता है । भमक्तयोग का मवस्तृत मववरण सातवें अध्याय र्ें मकया जायेगा ।
इस अध्याय र्ें वमणमत योगपद्धमत के अनुसार सर्ामधयाँ िो प्रकार की होती हैं –
सम्प्रज्ञात तर्ा असम्प्रज्ञातसमास्धयााँ । जब र्नुष्ट्य मवमभन्न िाशममनक शोधों के द्वारा मिव्य मस्र्मत को प्राप्त होता है तो
यह कहा जाता है मक उसे सम्प्रज्ञात सर्ामध प्राप्त हुई है । असम्प्रज्ञात सर्ामध र्ें संसारी आनन्ि से कोई सम्बन्ध नहीं
रहता क्योंमक इसर्ें र्नुष्ट्य इमन्द्रयों से प्राप्त होने वाले सभी प्रकार के सुखों से परे हो जाता है । एक बार इस मिव्य मस्र्मत
को प्राप्त कर लेने पर योगी कभी उससे मडगता नहीं । जब तक योगी इस मस्र्मत को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक वह
असिल रहता है । आजकल के तर्ाकमर्त योगाभ्यास र्ें मवमभन्न इमन्द्रयसुख समम्र्मलत हैं, जो योग के सवमर्ा
मवपरीत है । योगी होकर यमि कोई र्ैर्ुन तर्ा र्ािकद्रव्य सेवन र्ें अनरु क्त होता है तो वह उपहासजनक है । यहाँ तक
मक जो योगी योग की मसमद्धयों के प्रमत आकृ ष्ट रहते हैं वे भी योग र्ें आरूढ़ नहीं कहे जा सकते । यमि योगीजन योग की
आनुषमं गक वस्तुओ ं के प्रमत आकृ ष्ट हैं तो उन्हें मसद्ध अवस्र्ा को प्राप्त नहीं कहा जा सकता , जैसा मक इस श्लोक र्ें

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कहा गया है । अतः जो व्यमक्त आसनों के प्रिशमन या मसमद्धयों के चक्कर र्ें रहते हैं उन्हें यह सर्झ लेना चामहए मक इस
प्रकार से योग का र्ख्ु य उद्देश्य ही सर्ाप्त हो जाता है ।
इस युग र्ें योग की सवोतर् पद्धमत कृ ष्ट्णभावनार्ृत है जो मनराशा उत्पन्न करने वाली नहीं है। एक
कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अपने धर्म र्ें इतना सुखी रहता है मक उसे मकसी अन्य सुख की आकांशा नहीं रह जाती । इस
िम्भ-प्रधान युग र्ें हियोग, ध्यानयोग तर्ा ज्ञानयोग का अभ्यास करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, मकन्तु
कर्मयोग या भमक्तयोग के पालन र्ें ऐसी सर्स्या सार्ने नहीं आती ।
जब तक यह शरीर रहता है तब तक र्नष्ट्ु य शरीर की आवश्यकताएँ – आहार, मनद्रा, भय तर्ा र्ैर्नु – को परू ा
करना होता है । मकन्तु को व्यमक्त शुद्ध भमक्तयोग र्ें अर्वा कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होता है वह शरीर की
आवश्यकताओ ं की पमू तम करते सर्य इमन्द्रयों को उत्तेमजत नहीं करता । प्रत्यतु वह घाटे के सौिे का सवोत्तर् उपयोग
करके , जीवनकी न्यूनतर् आवश्यकताओ ं को स्वीकार करता है और कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मिव्यसुख भोगता है । वह
िघु मटनाओ,ं रोगों, अभावों और यहाँ तक की अपने मप्रयजनों की र्ृत्यु जैसी आपातकालीन घटनाओ ं के प्रमत भी
मनरपेक्ष रहता है, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत या भमक्तयोग सम्बन्धी अपने कर्ों को पूरा करने र्ें वह सिैव सचेष्ट रहता है ।
िघु मटनाएँ उसे कतमव्य-पर् से मवचमलत नहीं कर पाती । जैसा मक भगवद्गीता र्ें (२.१४) कहा गया है –
आगमापास्यनोऽस्नत्यास्ताांस्स्तस्तक्षस्व भारत। वह इन प्रसांमगक घटनाओ ं को सहता है क्योंमक वह यह भलीभाँमत
जानता है मक ये घटनाएँ ऐसी ही आती-जाती रहती हैं और इनसे उसके कतमव्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । इस प्रकार
वह योगाभ्यास र्ें परर् मसमद्ध प्राप्त करता है ।

स निश्र्चयेि योिव्यो योगोऽनिनवमण्णचेतसा ।


संकल्पप्रभवान्कामांस्त्यक्त्वा सवामिशेषतः ।
मिसैवेनन्द्रयग्रामं नवनियम्य समन्ततः ।। २४ ।।

सः– उस; निश्र्चयेि– दृढ मवश्र्वास के सार्; योिव्यः– अवश्य अभ्यास करे ; योगः–
योगपद्धमत; अनिनवमण्ण-चेतसा– मवचमलत हुए मबना; सङ् कल्प– र्नोधर्म से; प्रभवाि्– उत्पन्न; कामाि्– भौमतक
इच्छाओ ं को; त्यक्त्वा– त्यागकर; सवामि–् सर्स्त; अशेषतः– पूणमतया; मिसा– र्न से; एव– मनश्चय ही; इनन्द्रय-
ग्रामम्– इमन्द्रयों के सर्हू को; नवनियम्य– वश र्ें करके ; समन्ततः– सभी ओर से ।

मिुष्ट्य को चानहए नक संकल्प तथा श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगे और पथ से नवचनलत ि हो । उसे
चानहए नक मिोधमम से उत्पन्ि समस्त इच्छाओ ं को निरपवाद रूप से त्याग दे और इस प्रकार मि के द्वारा
सभी ओर से इनन्द्रयों को वश में करे ।

तात्पयम : योगभ्यास करने वाले को दृढ़सक ं ल्प होना चामहए और उसे चामहए मक मबना मवचमलत हुए धैयपम वू मक
अभ्यास करे । अन्त र्ें उसकी सिलता मनमश्चत है – उसे यह सोच कर बड़े ही धैयम से इस र्ागम का अनुसरण करना
चामहए और यमि सिलता मर्लने र्ें मवलम्ब हो रहा हो तो मनरुत्सामहत नहीं होना चामहए । ऐसे दृढ़ अभ्यासी की
सिलता सुमनमश्चत है । भमक्तयोग के सम्बन्ध र्ें रूप गोस्वार्ी का कर्न है –
उत्साहास्न्नश्र्चयाध्र्ैयादत् तत्तत् मद प्रवतदनात् ।

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सगां त्यागात्सतो वृत्तेः षङ् स्भभदस्िः प्रस्सद्धयस्त ।।
“र्नुष्ट्य पूणम हामिमक उत्साह, धैयम तर्ा संकल्प के सार् भमक्तयोग का पूणमरूपेण पालन भक्त के सार् रहकर
मनधामररत कर्ों के करने तर्ा सत्कायों र्ें पूणमतया लगे रहने से कर सकता है ।” (उपर्ेशामृत– ३)
जहाँ तक संकल्प की बात है, र्नुष्ट्य को चामहए मक उस गौरै या का आिशम ग्रहण करे मजसके सारे अंडे सर्द्रु की
लहरों र्ें र्ग्न हो गये र्े । कहते हैं मक एक गौरै या ने सर्द्रु तट पर अंडे मिए, मकन्तु मवशाल सर्द्रु उन्हें अपनी लहरों र्ें
सर्ेट ले गया । इस पर गौरै या अत्यन्त क्षुब्ध हुई और उसने सर्द्रु से अंडे लौटा िेने के मलए कहा । मकन्तु सर्द्रु ने
उसकी प्रार्मना पर कोई ध्यान नहीं मिया । अतः उसने सर्द्रु को सख ु ा डालने की िान ली । वह अपनी नन्हीं सी चोंच से
पानी उलीचने लगी । सभी उसके इस असंभव संकल्प का उपहास करने लगे । उसके इस कायम की सवमत्र चचाम चलने
लगी तो अन्त र्ें भगवान् मवष्ट्णु के मवराट वाहन पमक्षराज गरुड़ ने यह बात सनु ी । उन्हें अपनी इस नन्हीं पक्षी बमहन पर
िया आई और वे गौरै या से मर्लने आये । गरुड़ उस नन्हीं गौरै या के मनश्चय से बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसकी
सहायता करने का वचन मिया । गरुड़ ने तुरन्त सर्द्रु से कहा मक वह उसके अडं े लौटा िे, नहीं तो उसे स्वयं आगे आना
पड़ेगा । इससे सर्द्रु भयभीत हुआ और उसने अंडे लौटा मिये । वह गौरै या गरुड़ की कृ पा से सुखी हो गई ।
इसी प्रकार योग, मवशेषतया कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्तयोग, अत्यन्त िष्ट्ु कर प्रतीत हो सकता है, मकन्तु जो कोई
संकल्प के सार् मनयर्ों का पालन करता है, भगवान् मनमश्चत रूप से उसकी सहायता करते हैं, क्योंमक जो अपनी
सहायता आप करते हैं, भगवान् उनकी सहायता करते हैं ।

शिैः शिैरूपरमेद्बुद्धया धृनतगृहीतया ।


आत्मसंस्थं मिः कृ त्वा ि नकनञ्चदनप नचन्तयेत् ।। २५ ।।

शिैः– धीरे -धीरे ; शिैः– एकएक करके , क्रर् से; उपरमेत–् मनवृत्त रहे; बद्ध
ु या– बमु द्ध से; धृनत-गृहीतया–
मवश्र्वासपूवमक; आत्म-संस्थम्– सर्ामध र्ें मस्र्त; मिः– र्न; कृ त्वा– करके ; ि– नहीं; नकनञ्चत्– अन्य
कुछ; अनप– भी; नचन्तयेत–् सोचे ।

धीरे-धीरे, क्रमशः पूणम नवश्र्वासपूवमक बुनद्ध के द्वारा समानध में नस्थत होिा चानहए और इस प्रकार मि
को आत्मा में ही नस्थत करिा चानहए तथा अन्य कुछ भी िहीं सोचिा चानहए ।

तात्पयम : सर्मु चत मवश्र्वास तर्ा बुमद्ध के द्वारा र्नुष्ट्य को धीरे -धीरे सारे इमन्द्रयकर्म करने बन्ि कर िेना चामहए ।
यह प्रत्याहार कहलाता है । र्न को मवश्र्वास, ध्यान तर्ा इमन्द्रय-मनवृमत्त द्वारा वश र्ें करते हुए सर्ामध र्ें मस्र्र करना
चामहए । उस सर्य िेहात्र्बुमद्ध र्ें अनुरक्त होने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती । िसू रे शब्िों र्ें, जब तक इस शरीर
का अमस्तत्व है तब तक र्नुष्ट्य पिार्म र्ें लगा रहता है, मकन्तु उसे इमन्द्रयतृमप्त के मवषय र्ें नहीं सोचना चामहए । उसे
परर्ात्र्ा के आनन्ि के अमतररक्त मकसी अन्य आनन्ि का मचन्तन नहीं करना चामहए । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अभ्यास
करने से यह अवस्र्ा सहज ही प्राप्त की जा सकती है ।

यतो यतो निश्र्चलनत मिश्र्चञ्चलमनस्थरम् ।


ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं ियेत् ।। २६ ।।

२०८
यतः यतः– जहाँ जहाँ भी; निश्र्चलनत– मवचमलत होता है; मिः– र्न; चञ्चलम्– चलायर्ान; अनस्थरम्–
अमस्र्र; ततः ततः– वहाँ वहाँ से; नियम्य– वश र्ें करके ; एतत्– इस; आत्मनि– अपने; एव– मनश्चय ही; वशम्–
वश र्ें; ियेत–् ले आए ।

मि अपिी चंचलता तथा अनस्थरता के कारण जहाूँ कहीं भी नवचरण करता हो, मिुष्ट्य को चानहए नक
उसे वहाूँ से खींचे और अपिे वश में लाए ।

तात्पयम : र्न स्वभाव से चचं ल और अमस्र्र है । मकन्तु स्वरुपमसद्ध योगी को र्न को वश र्ें लाना होता है, उस
पर र्न का अमधकार नहीं होना चामहए । जो र्न को (तर्ा इमन्द्रयों को भी) वश र्ें रखता है, वह गोस्वामी या स्वार्ी
कहलाता है और जो र्न के वशीभतू होता है वह गोर्ास अर्ामत् इमन्द्रयों का सेवक कहलाता है । गोस्वार्ी इमन्द्रयसुख
के र्ानक से मभज्ञ होता है । मिव्य इमन्द्रयसुख वह है मजसर्ें इमन्द्रयाँ हृमषके श अर्ामत् इमन्द्रयों के स्वार्ी भगवान् कृ ष्ट्ण की
सेवा र्ें लगी रहती हैं । शद्ध
ु इमन्द्रयों के द्वारा कृ ष्ट्ण की सेवा ही कृ ष्ट्णचेतना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत कहलाती है । इमन्द्रयों को
पूणमवश र्ें लाने की यही मवमध है । इससे भी बढ़कर बात यह है मक यह योगाभ्यास की परर् मसमद्ध भी है ।

प्रशान्तमिसं ह्येिं योनगिं सुखमुत्तमम् ।


उपैनत शान्तरजसं ब्रह्मभूतमकल्मषम् ।। २७ ।।

प्रशान्त– कृ ष्ट्ण के चरणकर्लों र्ें मस्र्त, शान्त; मिसम्– मजसका र्न; नह– मनश्चय ही; एिम्–
यह; योनगिम्– योगी; सख ु म्– सखु ; उत्तमम्– सवोच्च; उपैनत– प्राप्त करता है; शान्त-रजसम्– मजसकी कार्ेच्छा
शान्त हो चक ु ी है; ब्रह्म-भूतम्– परर्ात्र्ा के सार् अपनी पहचान द्वारा र्मु क्त; अकल्मषम्– सर्स्त पूवम पापकर्ों से
र्क्त
ु ।

नजस योगी का मि मुझ में नस्थर रहता है, वह निश्चय ही नदव्यसुख की सवोच्च नसनद्ध प्राप्त करता है ।
वह रजोगुण से परे हो जाता है, वह परमात्मा के साथ अपिी गुणात्मक एकता को समझता है और इस प्रकार
अपिे समस्त नवगत कमों के िल से निवृत्त हो जाता है ।

तात्पयम : ब्रह्मभतू वह अवस्र्ा है मजसर्ें भौमतक कल्र्ष से र्क्तु होकर भगवान् की मिव्यसेवा र्ें मस्र्त हुआ
जाता है । मद्भस्िां लभते पराम् (भगवद्गीता १८.५४) । जब तक र्नुष्ट्य का र्न भगवान् के चरणकर्लों र्ें मस्र्र नहीं हो
जाता तब तक कोई ब्रह्मरूप र्ें नहीं रह सकता । स वै मनः ृ ष्णपर्ारस्वन्र्योः। भगवान् की मिव्य प्रेर्भमक्त र्ें मनरन्तर
प्रवृत्त रहना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहना वस्ततु ः रजोगणु तर्ा भौमतक कल्र्ष से र्क्त
ु होना है ।

यञ्ु जन्िेवं सदात्मािं योगी नवगतकल्मषः ।


सुखेि ब्रह्मसंस्पशममत्यन्तं सुखमश्र्िुते ।। २८ ।।

२०९
युञ्जि्– योगाभ्यास र्ें प्रवृत्त होना; एवम्– इस प्रकार; सदा– सिैव; आत्मािम्– स्व, आत्र्ा को; योगी–
योगी जो परर्ात्र्ा के सम्पकम र्ें रहता है; नवगत– र्क्त
ु ; कल्मषः– सारे भौमतक िषू ण से; सुखेि– मिव्यसुख से; ब्रह्म-
संस्पशमम् – ब्रह्म के सामन्नध्य र्ें रहकर; अत्यन्तम्– सवोच्च; सुखम्– सुख को; अश्नुते– प्राप्त करता है ।

इस प्रकार योगाभ्यास में निरन्तर लगा रहकर आत्मसंयमी योगी समस्त भौनतक कल्मष से मुि हो
जाता है और भगवाि् की नदव्य प्रेमाभनि में परमसुख प्राप्त करता है ।

तात्पयम : आत्र्-साक्षात्कार का अर्म है – भगवान् के सम्बन्ध र्ें अपनी स्वाभामवक मस्र्मत को जानना । जीव
(आत्र्ा) भगवान का अश ं है और उसकी मस्र्मत भगवान् की मिव्यसेवा करते रहना है । ब्रह्म के सार् यह मिव्य
सामन्नध्य ही ब्रह्म-संस्पशम कहलाता है ।

सवमभूतस्थमात्मिं सवमभूतानि चात्मनि ।


ईक्षते योगयुिात्मा सवमत्र समदशमिः ।। २९ ।।

सवम-भूत-स्थम्– सभी जीवों र्ें मस्र्त; आत्मािम्– परर्ात्र्ा को; सवम– सभी; भूतानि– जीवों को; च–
भी; आत्मनि– आत्र्ा र्ें; ईक्षते– िेखता है; योग-युि-आत्मा– कृ ष्ट्णचेतना र्ें लगा व्यमक्त; सवमत्र– सभी
जगह; सम-दशमिः– सर्भाव से िेखने वाला ।

वास्तनवक योगी समस्त जीवों में मुझको तथा मुझमें समस्त जीवों को देखता है । निस्सन्देह
स्वरूपनसद्ध व्यनि मझ
ु परमेश्र्वर को सवमत्र देखता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत योगी पणू म द्रष्टा होता है क्योंमक वह परब्रह्म कृ ष्ट्ण को हर प्राणी के हृिय र्ें परर्ात्र्ा
रूप र्ें मस्र्त िेखता है । ईश्र्वरः सवदभतू ानाां हृद्देशोऽजुदन स्तष्ठस्त । अपने परर्ात्र्ा रूप र्ें भगवान् एक कुत्ते तर्ा एक
ब्राह्मण िोनों के हृिय र्ें मस्र्त होते हैं । पूणमयोगी जानता है मक भगवान् मनत्यरूप र्ें मिव्य हैं और कुत्ते या ब्राह्मण र्ें
मस्र्त होने से भी भौमतक रूप से प्रभामवत नहीं होते । यही भगवान् की परर् मनरपेक्षता है । यद्यमप जीवात्र्ा भी एक-एक
हृिय र्ें मवद्यर्ान है, मकन्तु वह एकसार् सर्स्त हृियों र्ें (सवमव्यापी) नहीं है । आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का यही अन्तर
है । जो वास्तमवक रूप से योगाभ्यास करने वाला नहीं है, वह इसे स्पष्ट रूप र्ें नहीं िेखता । एक कृ ष्ट्णभावनाभामवत
व्यमक्त कृ ष्ट्ण को आमस्तक तर्ा नामस्तक िोनों र्ें िेख सकता है । स्र्ृमत र्ें इसकी पुमष्ट इस प्रकार हुई है – आततत्वाचच
मातृत्वाचच आत्मा स्ह परमो हररः। भगवान् सभी प्रामणयों का स्त्रोत होने के कारण र्ाता और पालनकताम के सर्ान हैं ।
मजस प्रकार र्ाता अपने सर्स्त पुत्रों के प्रमत सर्भाव रखती है, उसी प्रकार परर् मपता (या र्ाता) भी रखता है ।
िलस्वरूप परर्ात्र्ा प्रत्येक जीव र्ें मनवास करता है ।
बाह्य रूप से भी प्रत्येक जीव भगवान् की शमक्त (भगविश ् मक्त) र्ें मस्र्त है । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया
जाएगा, भगवान् की िो र्ख्ु य शमक्तयाँ हैं – परा तर्ा अपरा । जीव पराशमक्त का अश ं होते हुए भी अपराशमक्त से बद्ध
है । जीव सिा ही भगवान् की शमक्त र्ें मस्र्त है । प्रत्येक जीव मकसी न मकसी प्रकार भगवान् र्ें ही मस्र्त रहता है ।
योगी सर्िशी है क्योंमक वह िेखता है मक सारे जीव अपने-अपने कर्मिल के अनुसार मवमभन्न मस्र्मतयों र्ें रहकर

२१०
भगवान् के िास होते हैं । अपराशमक्त र्ें जीव भौमतक इमन्द्रयों का िास रहता है जबमक पराशमक्त र्ें वह साक्षात् परर्ेश्र्वर
का िास रहता है । इस प्रकार प्रत्येक अवस्र्ा र्ें जीव ईश्र्वर का िास है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त र्ें यह सर्दृमष्ट पूणम
होती है ।

यो मां पश्यनत सवमत्र सवं च मनय पश्यनत ।


तस्याहं ि प्रणश्यानम स च मे ि प्रणश्यनत ।। ३० ।।

यः– जो; माम्– र्झु को; पश्यनत– िेखता है; सवमत्र– सभी जगह; सवमम–् प्रत्येक वस्तु को; च– तर्ा; मनय–
र्झु र्ें; पश्यनत– िेखता है; तस्य– उसके मलए; अहम्– र्ैं; ि– नहीं; प्रणश्यानम– अदृश्य होता ह;ँ सः– वह; च–
भी; मे– र्ेरे मलए; ि– नहीं; प्रणश्यनत– अदृश्य होता है ।

जो मुझे सवमत्र देखता है और सब कुछ मुझमें देखता है उसके नलए ि तो मैं कभी अदृश्य होता हूँ और
ि वह मेरे नलए अदृश्य होता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त भगवान् कृ ष्ट्ण को सवमत्र िेखता है और सारी वस्तुओ ं को कृ ष्ट्ण र्ें िेखता
है । ऐसा व्यमक्त भले ही प्रकृ मत की पृर्क् -पृर्क् अमभव्यमक्तयों को िेखता प्रतीत हो, मकन्तु वह प्रत्येक िशा र्ें इस
कृ ष्ट्णभावनार्ृत से अवगत रहता है मक प्रत्येक वस्तु कृ ष्ट्ण की ही शमक्त की अमभव्यमक्त है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का र्ल ू
मसद्धान्त ही यह है मक कृ ष्ट्ण के मबना कोई अमस्तत्व नहीं है और कृ ष्ट्ण ही सवेश्र्वर हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत कृ ष्ट्ण-प्रेर् का
मवकास है – ऐसी मस्र्मत जो भौमतक र्ोक्ष से भी परे है । आत्र्साक्षात्कार के ऊपर कृ ष्ट्णभावनार्ृत की इस अवस्र्ा र्ें
भक्त कृ ष्ट्ण से इस अर्म र्ें एकरूप हो जाता है मक उसके मलए कृ ष्ट्ण ही सब कुछ हो जाते हैं और भक्त प्रेर्र्य कृ ष्ट्ण से
पूररत हो उिता है । तब भगवान् तर्ा भक्त के बीच अन्तरंग सम्बन्ध स्र्ामपत हो जाता है । उस अवस्र्ा र्ें जीव को
मवनष्ट नहीं मकया जा सकता और न भगवान् भक्त की दृमष्ट से ओझल होते हैं । कृ ष्ट्ण र्ें तािात्म्य होना आध्यामत्र्क
लय (आत्र्मवनाश) है । भक्त कभी भी ऐसी मवपिा नहीं उिाता । ब्रह्मसांस्हता (५.३८) र्ें कहा गया है-
प्रेमाञ्जनचछुररत भस्िस्वलोचनेन
सन्तः सर्ैव हृर्येषु स्वलो यस्न्त ।
यां श्यामसुन्र्रमस्चन्त्यगुणस्वरूपां
गोस्वन्र्मास्र्पुरुषां तमहां भजास्म ।।
“र्ैं आमि भगवान् गोमवन्ि की पूजा करता ह,ँ मजनका िशमन भक्तगण प्रेर्रूपी अंजन लगे नेत्रों से करते हैं । वे
भक्त के हृिय र्ें मस्र्त श्यार्सुन्िर रूप र्ें िेखे जाते हैं ।”
इस अवस्र्ा र्ें न तो भगवान् कृ ष्ट्ण अपने भक्त की दृमष्ट से ओझल होते हैं और न भक्त उनकी दृमष्ट से ओझल हो
पाते हैं । यही बात योगी के मलए भीसत्य है क्योंमक वह अपने हृिय के भीतर परर्ात्र्ा रूप र्ें भगवान् का िशमन करता
रहता है । ऐसा योगी शुद्ध भक्त बन जाता है और अपने अन्िर भगवान् को िेखे मबना एक क्षण भी नहीं रह सकता ।

सवमभूतनस्थतं यो मां भजत्येकत्वमानस्थतः ।


सवमथा वतममािोऽनप स योगी मनय वतमते ।। ३१ ।।

२११
सवम-भूत-नस्थतम्– प्रत्येक जीव के हृिय र्ें मस्र्त; यः– जो; माम्– र्झु को; भजनत– भमक्तपूवमक सेवा करता
है; एकत्वम्– तािात्म्य र्ें; आनस्थतः– मस्र्त; सवमथा– सभी प्रकार से; वतममािः– उपमस्र्त होकर; अनप–
भी; सः– वह; योगी– योगी; मनय– र्झु र्ें; वतमते– रहता है ।

जो योगी मुझे तथा परमात्मा को अनभन्ि जािते हुए परमात्मा की भनिपूवमक सेवा करता है, वह हर
प्रकार से मझ
ु में सदैव नस्थत रहता है ।

तात्पयम : जो योगी परर्ात्र्ा का ध्यान करता है, वह अपने अन्तःकरण र्ें चतुभमजु मवष्ट्णु का िशमन कृ ष्ट्ण के
पूणमरूप र्ें शंख, चक्र, गिा तर्ा कर्लपुष्ट्प धारण मकये करता है । योगी को यह जानना चामहए मक मवष्ट्णु कृ ष्ट्ण से मभन्न
नहीं है । परर्ात्र्ा रूप र्ें कृ ष्ट्ण जन-जन के हृिय र्ें मस्र्त हैं । यही नहीं, असख्ं य जीवों के हृियों र्ें मस्र्त असख्ं य
परर्ात्र्ाओ ं र्ें कोई अन्तर नहीं है । न ही कृ ष्ट्ण की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें मनरन्तर व्यस्त व्यमक्त तर्ा परर्ात्र्ा के ध्यान र्ें
मनरत एक पूणमयोगी के बीच कोई अन्तर है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें योगी सिैव कृ ष्ट्ण र्ें ही मस्र्त रहता है भले मह भौमतक
जगत् र्ें वह मवमभन्न कायों र्ें व्यस्त क्यों न हो । इसकी पुमष्ट श्रील रूप गोस्वार्ी कृ त भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें
(१.२.१८७) हुई है – स्नस्खलास्वप्यवस्थासु जीवन्मि ु ः स उचयते। कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत रहने वाला भगवद्भक्त स्वतः
र्क्त
ु हो जाता है । नारर् पञ्चरात्र र्ें इसकी पुमष्ट इस प्रकार हुई है –
स्र्क्त ालायनवस्चछन्ने ृ ष्णे चेतो स्वधाय च ।
तन्मयो भवस्त स्क्षप्रां जीवो ब्रह्मस्ण योजयेत् ।।
“िेश-काल से अतीत तर्ा सवमव्यापी श्रीकृ ष्ट्णके मिव्यरूप र्ें ध्यान एकाग्र करने से र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण के मचन्तन र्ें
तन्र्य हो जाता है और तब उनके मिव्य सामन्नध्य की सख ु ी अवस्र्ा को प्राप्त होता है ।”
योगाभ्यास र्ें सर्ामध की सवोच्च अवस्र्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । के वल इस ज्ञान से मक कृ ष्ट्ण प्रत्येक जन के हृिय
र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें उपमस्र्त हैं योगी मनिोष हो जाता है । वेिों र्ें (गोपालतापनी उपस्नषर्् १.२१) भगवान् की इस
अमचन्त्य शमक्त की पुमष्ट इस प्रकार होती है – ए ोऽस्प सन्बहुधा योऽवभास्त– “यद्यमप भगवान् एक है, मकन्तु वह मजतने
सारे हृिय हैं उनर्ें उपमस्र्त रहता है ।” इसी प्रकार स्र्ृमत शास्त्र का कर्न है–
ए एव परो स्वष्णुः सवदव्यापी न सांशयः ।
ऐश्र्वयादर्् रुपमे ां च सूयदवत् बहुधेयते ।।
“मवष्ट्णु एक हैं मिर भी वे सवमव्यापी हैं । एक रूप होते हुए भी वे अपनी अमचन्त्य शमक्त से सवमत्र उपमस्र्त रहते
हैं, मजस प्रकार सूयम एक ही सर्य अनेक स्र्ानों र्ें मिखता है ।”

आत्मौपम्येि सवमत्र समं पश्यनत योऽजमिु ।


सख
ु ं वा यनद वा दु:खं स योगी परमो मतः ।। ३२ ।।

आत्म– अपनी; औपम्येि– तल ु ना से; सवमत्र– सभी जगह; समम्– सर्ान रूप से; पश्यनत– िेखता है; यः–
जो; अजमिु – हे अजुमन; सुखम्– सुख; वा– अर्वा; यनद– यमि; वा– अर्वा; दुःखम्– िख ु ; सः– वह; योगी–
योगी; परमः– परर् पूणम; मतः– र्ाना जाता है ।

२१२
हे अजमिु ! वह पूणमयोगी है जो अपिी तुलिा से समस्त प्रानणयों की उिके सुखों तथा दुखों में
वास्तनवक समािता का दशमि करता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त पूणम योगी होता है । वह अपने व्यमक्तगत अनुभव से प्रत्येक प्राणी के सुख
तर्ा िःु ख से अवगत होता है । जीव के िख ु का कारण ईश्र्वर से अपने सम्बन्ध का मवस्र्रण होना है । सुख का कारण
कृ ष्ट्ण को र्नष्ट्ु यों के सर्स्त कायों का परर् भोक्ता, सर्स्त भमू र् तर्ा लोकों का स्वार्ी एवं सर्स्त जीवों का परर्
महतैषी मर्त्र सर्झना है । पूणम योगी यह जानता है मक भौमतक प्रकृ मत के गुणों से प्रभामवत बद्धजीव कृ ष्ट्ण से अपने
सम्बन्ध को भल ू जाने के कारण तीन प्रकार के तापों(िखु ों) को भोगता है; और चँमू क कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त सखु ी
होता है इसीमलए वह कृ ष्ट्णज्ञान को सवमत्र मवतररत कर िेना चाहता है । चँमू क पूणमयोगी कृ ष्ट्णभावनाभामवत बनने के
र्हत्त्व को घोमषत करता चलता है; अतः वह मवश्र्व का सवमश्रेि उपकारी एवं भगवान् का मप्रयतर् सेवक है । न च
तस्मान् मनुष्येषु स्श्र्चन्मे स्प्रय ृ त्तमः (भगवद्गीता १८.६९) । िसू रे शब्िों र्ें, भगवद्भक्त सिैव जीवों के कल्याण को
िेखता है और इस तरह वह प्रत्येक प्राणी का सखा होता है । वह सवमश्रेि योगी है क्योंमक वह स्वान्तःसुखाय मसमद्ध नहीं
चाहता, अमपतु अन्यों के मलए भी चाहता है । वह अपने मर्त्र जीवों से द्वेष नहीं करता । यही है वह अन्तर जो एक
भगवद्भक्त तर्ा आत्र्ोन्नमत र्ें ही रूमच वाले योगी र्ें होता है । जो योगी पूणमरूप से ध्यान धरने के मलए एकान्त स्र्ान
र्ें चला जाता है, वह उतना पूणम नहीं होता मजतना मक वह भक्त जो प्रत्येक व्यमक्त को कृ ष्ट्णभावनाभामवत बनाने का
प्रयास करता रहता है ।

अजमिु उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोिः साम्येि मधस
ु दू ि ।
एतस्याहं ि पश्यानम चञ्चलत्वानत्स्थनतं नस्थराम् ।। ३३ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा;यः-अयम्– यह पद्धमत; योगः– योग; त्वया– तुम्हारे द्वारा; प्रोिः– कही
गई; साम्येि– सर्ान्यतया; मधुसूदि– हे र्धु असुर के संहताम; एतस्य– इसकी; अहम्– र्ैं; ि– नहीं; पश्यानम–
िेखता ह;ँ चञ्चलत्वात्– चंचल होने के करण; नस्थतम्– मस्र्मत को; नस्थराम्– स्र्ायी ।

अजमिु िे कहा – हे मधुसूदि! आपिे नजस योगपद्धनत का संक्षेप में वणमि नकया है, वह मेरे नलए
अव्यावहाररक तथा असहिीय है, क्योंनक मि चंचल तथा अनस्थर है ।

तात्पयम : भगवान् कृ ष्ट्ण ने अजुमन के मलए शचु ौ िेशे से लेकर योगी परमो मतः तक मजस योगपद्धमत का वणमन
मकया है उसे अजमनु अपनी असर्र्मता के कारण अस्वीकार कर रहा है । इस कमलयगु र्ें सार्ान्य व्यमक्त के मलए यह
सम्भव नहीं है मक वह अपना घर छोड़कर मकसी पवमत या जंगल के एकान्त स्र्ान र्ें जाकर योगाभ्यास करे । आधुमनक
यगु की मवशेषता है – अल्पकामलक जीवन के मलए घोर सघं षम । लोग सरल, व्यवहाररक साधनों से भी आत्र्-
साक्षात्कार के मलए उत्सुक या गम्भीर नहीं हैं तो मिर इस कमिन योगपद्धमत के मवषय र्ें क्या कहा जा सकता है जो
जीवन शैली, आसन मवमध, स्र्ान के चयन तर्ा भौमतक व्यवस्ताओ ं से मवरमक्त का मनयर्न करती है । व्यावहाररक

२१३
व्यमक्त के रूप र्ें अजनुम ने सोचा मक इस योगपद्धमत का पालन असम्भव है, भले ही वह कई बातों र्ें इस पद्धमत पर खरा
उतरता र्ा । वह राजवंशी र्ा और उसर्ें अनेक सद्गणु र्े, वह र्हान योद्धा र्ा, वह िीघामयु र्ा और सबसे बड़ी बात तो
यह मक वह भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण का घमनष्ट मर्त्र र्ा । पाँच हजार वषम पूवम अजुमन को हर्से अमधक सुमवधाएँ प्राप्त र्ीं तो भी
उसने इस योगपद्धमत को स्वीकार करने से र्ना कर मिया । वास्तव र्ें इमतहास र्ें कोई ऐसा प्रलेख प्राप्त नहीं है मजससे
यह ज्ञात हो सके मक उसने कभी योगाभ्यास मकया हो । अतः इस पद्धमत को इस कमलयुग के मलए सवमर्ा िष्ट्ु कर
सर्झना चामहए । हाँ, कमतपय मवरले व्यमक्तयों के मलए यह पद्धमत सुगर् हो सकती है, मकन्तु सार्ान्यजनों के मलए यह
असम्भव प्रस्ताव है । यमि पाँच हजार वषम पवू म ऐसा र्ा तो आधमु नक सर्य के मलए क्या कहना? जो लोग मवमभन्न
तर्ाकमर्त स्कूलों तर्ा समर्मतयों के द्वारा इस योगपद्धमत का अनुकरण कर रहे हैं, भले ही सन्तोषजनक प्रतीत हो,
मकन्तु वे सचर्चु ही अपना सर्य गवाँ रहे हैं । वे अपने अभीष्ट लक्ष्य के प्रमत सवमर्ा अज्ञानी हैं ।

चञ्चलं नह मिः कृ ष्ट्ण प्रमानथ बलवद्दृढम् ।


तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोररव सुदुष्ट्करम् ।। ३४ ।।

चञ्चलम्– चंचल; नह– मनश्चय ही; मिः– र्न; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; प्रमानथ– मवचमलत करने वाला, क्षुब्ध करने
वाला; बल-वत्– बलवान्; दृढम्– िरु ाग्रही, हिीला; तस्य– उसका; अहम्– र्ैं; निग्रहम्– वश र्ें करना; मन्ये–
सोचता ह;ँ वायोः– वायु की; इव– तरह; सु-दुष्ट्करम्– कमिन ।

हे कृ ष्ट्ण! चूूँनक मि चंचल (अनस्थर), उच्छृ ं खल, हठीला तथा अत्यन्त बलवाि है, अतः मुझे इसे वश
में करिा वायु को वश में करिे से भी अनधक कनठि लगता है ।

तात्पयम : र्न इतना बलवान् तर्ा िरु ाग्रही है मक कभी-कभी यह बुमद्ध का उल्लंघन कर िेता है, यद्यमप उसे बुमद्ध
के अधीन र्ाना जाता है । इस व्यवहार-जगत् र्ें जहाँ र्नष्ट्ु य को अनेक मवरोधी तत्त्वों से सघं षम करना होता है उसके
मलए र्न को वश र्ें कर पाना अत्यन्त कमिन हो जाता है । कृ मत्रर् रूप र्ें र्नुष्ट्य अपने मर्त्र तर्ा शत्रु िोनों के प्रमत
र्ानमसक संतुलन स्र्ामपत कर सकता है, मकन्तु अंमतर् रूप र्ें कोई भी संसारी पुरुष ऐसा नहीं कर पाता, क्योंमक ऐसा
कर पाना वेगवान वायु को वश र्ें करने से भी कमिन है । वैमिक सामहत्य ( ठोपस्नषर्् १.३.३-४) र्ें कहा गया है –
आत्मानां रस्थनां स्वस्द्ध शरीरां रथमेव च
बुस्द्धां तु सारस्थां स्वस्द्ध मनः प्रग्रहमेव च ।
इस्न्द्रयास्ण हयानाहुस्वदषयाांस्तेषु गोचरान्
आत्मेस्न्द्रयमनोयुिां भोिे त्याहुमदनीस्षणः ।।
“प्रत्येक व्यमक्त इस भौमतक शरीर रूपी रर् पर आरूढ है और बुमद्ध इसका सारर्ी है । र्न लगार् है और इमन्द्रयाँ
घोड़े हैं । इस प्रकार र्न तर्ा इमन्द्रयों की सगं ती से यह आत्र्ा सख
ु तर्ा िख
ु का भोक्ता है । ऐसा बड़े-बड़े मचन्तकों का
कहना है ।” यद्यमप बुमद्ध को र्न का मनयन्त्रण करना चामहए, मकन्तु र्न इतना प्रबल तर्ा हिी है मक इसे अपनी बुमद्ध से
भी जीत पाना कमिन हो जाता है मजस प्रकार मक अच्छी से अच्छी िवा द्वारा कभी-कभी रोग वश र्ें नहीं हो पाता । ऐसे
प्रबल र्न को योगाभ्यास द्वारा वश र्ें मकया जा सकता है, मकन्तु ऐसा अभ्यास कर पाना अजुमन जैसे संसारी व्यमक्त के
मलए कभी भी व्यावहाररक नहीं होता । तो मिर आधमु नक र्नुष्ट्य के सम्बन्ध र्ें क्या कहा जाय? यहाँ पर प्रयुक्त उपर्ा

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अत्यन्त उपयुक्त है – झंझावात को रोक पाना कमिन होता है और उच्छृ ं खल र्न को रोक पाना तो और भी कमिन है ।
र्न को वश र्ें रखने का सरलतर् उपाय, मजसे भगवान् चैतन्य ने सुझाया है, यह है मक सर्स्त िैन्यता के सार् र्ोक्ष ले
मलए ”हरे ृ ष्ण” र्हार्न्त्र का कीतमन मकया जाय । मवमध यह है – स वै मनः ृ ष्ण पर्ारस्वन्र्योः– र्नुष्ट्य को चामहए
मक वह अपने र्न को पूणमतया कृ ष्ट्ण र्ें लगाए । तभी र्न को मवचमलत करने के मलए अन्य व्यस्तताएँ शेष नहीं रह
जाएँगी ।

श्रीभगवानवु ाच
असंशयं महाबाहो मिो दुनिमग्रहं चलम् ।
अभ्यासेि तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ।। ३५ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; असश ं यम्– मनस्सन्िेह; महाबाहो– हे बमलि भजु ाओ ं वाले; मिः– र्न
को; दुनिमग्रहम्– िर्न करना कमिन है; चलम्– चलायर्ान, चंचल; अभ्यासेि– अभ्यास द्वारा; तु– लेमकन; कौन्तेय–
हे कुन्तीपुत्र; वैराग्येण– वैराग्य द्वारा; च– भी; गृह्यते– इस तरह वश र्ें मकया जा सकता है ।

भगवाि् श्रीकृ ष्ट्ण िे कहा – हे महाबाहो कुन्तीपुत्र! निस्सन्देह चंचल मि को वश में करिा अत्यन्त
कनठि है; नकन्तु उपयुि अभ्यास द्वारा तथा नवरनि द्वारा ऐसा सम्भव है ।

तात्पयम : अजुमन द्वारा व्यक्त इस हिीले र्न को वश र्ें करने की कमिनाई को भगवान् स्वीकार करते हैं । मकन्तु
सार् ही वे सुझाते हैं मक अभ्यास तर्ा वैराग्य द्वारा यह सम्भव है । यह अभ्यास क्या है? वतमर्ान युग र्ें तीर्मवास,
परर्ात्र्ा का ध्यान, र्न तर्ा इमन्द्रयों का मनग्रह, ब्रह्ग्म्चयमपालन, एकान्त-वास आमि किोर मवमध-मवधानों का पालन
कर पाना सम्भव नहीं है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अभ्यास से र्नुष्ट्य भगवान् की नवधाभमक्त का आचरण करता है ।
ऐसी भमक्त का प्रर्र् अगं है-कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें श्रवण करना । र्न को सर्स्त प्रकार की िमु श्चन्ताओ ं से शद्ध ु करने के
मलए यह परर् शमक्तशाली एवं मिव्य मवमध है । कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें मजतना ही अमधक श्रवण मकया जाता है , उतना ही
र्नुष्ट्य उन वस्तुओ ं के प्रमत अनासक्त होता है जो र्न को कृ ष्ट्ण से िरू ले जाने वाली हैं । र्न को उन सारे कायों से मवरक्त
कर लेने पर, मजनसे कृ ष्ट्ण का कोई सम्बन्ध नहीं है, र्नुष्ट्य सुगर्तापूवमक वैराग्य सीख सकता है । वैराग्य का अर्म है –
पिार्म से मवरमक्त और र्न का आत्र्ा र्ें प्रवृत्त होना । मनमवमशेष आध्यामत्र्क मवरमक्त कृ ष्ट्ण के कायमकलापों र्ें र्नको
लगाने की अपेक्षा अमधक कमिन है । यह व्यावहाररक है, क्योंमक कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें श्रवण करने से र्नुष्ट्य स्वतः
परर्ात्र्ा के प्रमत आसक्त हो जाता है । यह आसमक्त परे शानुभस्ू त या आध्यामत्र्क तुमष्ट कहलाती है । यह वैसे ही है
मजस तरह भोजन के प्रत्येक कौर से भख ू े को तुमष्ट प्राप्त होती है । भख
ू लगने पर र्नुष्ट्य मजतना अमधक खाता जाता है,
उतनी ही अमधक तुमष्ट और शमक्त मर्लती जाती है । इसी प्रकार भमक्त सम्पन्न करने से मिव्य तुमष्ट और शमक्त उसे
मर्लती जाती है । इसी प्रकार भमक्त सम्पन्न करने से मिव्य तमु ष्ट की अनभु मू त होती है, क्योंमक र्न भौमतक वस्तओ ु ं से
मवरक्त हो जाता है । यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे कुशल उपचार तर्ा सुपथ्य द्वारा रोग का इलाज । अतः भगवान्
कृ ष्ट्ण के कायमकलापों का श्रवण उन्र्त्त र्न का कुशल उपचार है और कृ ष्ट्ण को अमपमत भोजन ग्रहण करना रोगी के
मलए उपयुक्त पथ्य है । यह उपचार ही कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवमध है ।

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असंयतात्मिा योगो दुष्ट्प्राप इनत मे मनतः ।
वश्यात्मिा तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ।। ३६ ।।

असंयत– उच्छृ ं खल; आत्मिा– र्न के द्वारा; योगः– आत्र्-साक्षात्कार; दुष्ट्प्रापः– प्राप्त करना कमिन; इनत–
इस प्रकार; मे– र्ेरा; मनतः– र्त; वश्य– वशीभतू ; आत्मिा– र्न से; तु– लेमकन; यतता– प्रयत्न करते हुए; शक्यः–
व्यावहाररक; अवाप्तुम–् प्राप्त करना; उपायतः– उपयुक्त साधनों द्वारा ।

नजसका मि उच्छृ ं खल है, उसके नलए आत्म-साक्षात्कार कनठि कायम होता है, नकन्तु नजसका मि
सयं नमत है और जो समनु चत उपाय करता है उसकी सिलता ध्रुव है । ऐसा मेरा मत है ।

तात्पयम : भगवान् घोषणा करते हैं मक जो व्यमक्त र्न को भौमतक व्यापारों से मवलग करने का सर्मु चत उपचार
नहीं करता, उसे आत्र्-साक्षात्कार र्ें शायि ही सिलता प्राप्त हो सके । भौमतक भोग र्ें र्न लगाकर योग का अभ्यास
करना र्ानो अमग्न र्ें जल डाल कर उसे प्रजजवमलत करने का प्रयास करना हो । र्न का मनग्रह मकये मबना योगाभ्यास
सर्य का अपव्यय है । योग का ऐसा प्रिशमन भले ही भौमतक दृमष्ट से लाभप्रि हो, मकन्तु जहाँ तक आत्र्-साक्षात्कार
का प्रश्न है यह सब व्यर्म है । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें मनरन्तर र्न को लगाकर उसे
वश र्ें करे । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रवृत्त हुए मबना र्न को मस्र्र कर पाना असम्भव है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त मबना
मकसी अमतररक्त प्रयास के ही योगाभ्यास का िल सरलता से प्राप्त कर लेता है, मकन्तु योगाभ्यास करने वाले को
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हुए मबना सिलता नहीं मर्ल पाती ।

अजमनु उवाच
अयनतः श्रद्धयोपेतो योगच्चनलतमािसः ।
अप्राप्य योगसनं सनद्धं कां कृ ष्ट्ण गच्छनत ।। ३७ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; अयनतः– असिल योगी; श्रद्धया– श्रद्धा से; उपेतः– लगा हुआ,
संलग्न; योगात्– योग से; चनलत– मवचमलत; मािसः– र्न वाला; अप्राप्य– प्राप्त न करके ; योग-संनसनद्धम् – योग
की सवोच्च मसमद्ध को; काम्– मकस; गनतम्– लक्ष्य को; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; गच्छनत– प्राप्त करता है ।

अजमिु िे कहा: हे कृ ष्ट्ण! उस असिल योगी की गनत क्या है जो प्रारम्भ में श्रद्धापूवमक आत्म-
साक्षात्कार की नवनध ग्रहण करता है, नकन्तु बाद में भौनतकता के करण उससे नवचनलत हो जाता है और
योगनसनद्ध को प्राप्त िहीं कर पाता ?

तात्पयम:भगवद्गीता र्ें आत्र्-साक्षात्कार या योग र्ागम का वणमन है । आत्र्-साक्षात्कार का र्ल ू भतू मनयर् यह है
मक जीवात्र्ा यह भौमतक शरीर नहीं है, अमपतु इससे मभन्न है और उसका सख ु शाश्र् व त जीवन, आनन्ि तर्ा ज्ञान र्ें
मनमहत है । ये शरीर तर्ा र्न िोनों से परे हैं । आत्र्-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है । इसके मलए अष्टांग
मवमध या भमक्तयोग का अभ्यास करना होता है । इनर्ें से प्रत्येक मवमध र्ें जीव को अपनी स्वाभामवक मस्र्मत, भगवान्

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से अपने सम्बन्ध तर्ा उन कायों की अनुभमू त प्राप्त करनी होती है, मजनके द्वारा वह टूटी हुई शृंखला को जोड़ सके और
कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सवोच्च मसद्ध-अवस्र्ा प्राप्त कर सके । इन तीनों मवमधयों र्ें से मकसी का भी पालन करके र्नुष्ट्य
िेर-सवेर अपने चरर् लक्ष्य को प्राप्त होता है । भगवान् ने मद्वतीय अध्याय र्ें इस पर बल मिया है मक मिव्यर्ागम र्ें र्ोड़े से
प्रयास से भी र्ोक्ष की र्हती आशा है । इन तीनों र्ें से इस युग के मलए भमक्तयोग मवशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंमक ईश-
साक्षात्कार की यह श्रेितर् प्रत्यक्ष मवमध है, अतः अजुमन पुनः आश्र्वस्त होने की दृमष्ट से भगवान् कृ ष्ट्ण से अपने
पूवमकर्न की पुमष्ट करने को कहता है । भले ही कोई आत्र्-साक्षात्कार के र्ागम को मनिापूवमक क्यों न स्वीकार करे ,
मकन्तु ज्ञान की अनश ु ीलन मवमध तर्ा अष्टागं योग का अभ्यास इस यगु के मलए सार्ान्यतया बहुत कमिन है, अतः
मनरन्तर प्रयास होने पर भी र्नुष्ट्य अनेक कारणों से असिल हो सकता है । पहला कारण यो यह हो सकता है मक र्नुष्ट्य
इस मवमध का पालन करने र्ें पयामप्त सतकम न रह पाये । मिव्यर्ागम का अनसु रण बहुत कुछ र्ाया के ऊपर धावा बोलना
जैसा है । िलतः जब भी र्नुष्ट्य र्ाया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह मवमवध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकताम को
परामजत करना चाहती है । बद्धजीव पहले से प्रकृ मत के गुणोंद्वारा र्ोमहत रहता है और मिव्य अनुशासनों का पालन करते
सर्य भी उसके पुनः र्ोमहत होने की सम्भावना बनी रहती है । यही योगाचचस्लतमानस अर्ामत् मिव्य पर् से मवचलन
कहलाता है । अजुमन आत्र्-साक्षात्कार के र्ागम से मवचलन के प्रभाव के सम्बन्ध र्ें मजज्ञासा करता है ।

कनच्चन्िोभयनवरष्टनश्छन्िारनमव िश्यनत ।
अप्रनतष्ठो महाबाहो नवमूढो ब्रह्मणः पनथ ।। ३८ ।।

कनच्चत्– क्या; ि– नहीं; उभय– िोनों; नवरष्टः– मवचमलत; नछन्ि– मछन्न-मभन्न; अरम्– बािल; इव–
सदृश; िश्यनत– नष्ट जो जाता है; अप्रनतष्ठः– मबना मकसी पि के ; महा-बाहो– हे बमलि भजु ाओ ं वाले
कृ ष्ट्ण; नवमढु ः– र्ोहग्रस्त; ब्रह्मणः– ब्रह्म-प्रामप्त के ; पनथ– र्ागम र्ें ।

हे महाबाहु कृ ष्ट्ण! क्या ब्रह्म-प्रानप्त के मागम से रष्ट ऐसा व्यनि आध्यानत्मक तथा भौनतक दोिों ही
सिलताओ ं से च्युत िहीं होता और नछन्िनभन्ि बादल की भाूँनत नविष्ट िहीं हो जाता नजसके िलस्वरूप
उसके नलए नकसी लोक में कोई स्थाि िहीं रहता?

तात्पयम : उन्नमत के िो र्ागम हैं । भौमतकतावािी व्यमक्तयों की अध्यात्र् र्ें कोई रूमच नहीं होती, अतः वे
आमर्मक मवकास द्वारा भौमतक प्रगमत र्ें अत्यमधक रूमच लेते हैं या मिर सर्मु चत कायम द्वारा उच्चतर लोकों को प्राप्त
करने र्ें अमधक रूमच रखते हैं । यमि कोई अध्यात्र् के र्ागम को चनु ता है, तो उसे सभी प्रकार के तर्ाकमर्त भौमतक
सुख से मवरक्त होना पड़ता है । यमि र्हत्त्वाकांक्षी ब्रह्मवािी असिल होता है तो वह िोनों ओर से जाता है । िसू रे शब्िों
र्ें, वह न तो भौमतक सुख भोग पाता है, न आध्यामत्र्क सिलता ही प्राप्त कर सकता है । उसका कोई स्र्ान नहीं रहता,
वह मछन्न-मभन्न बािल के सर्ान होता है । कभी-कभी आकाश र्ें एक बािल छोटे बािलखडं से मवलग होकर बड़े
खंड से जा मर्लता है, मकन्तु यमि वह बड़े बािल से नहीं जुड़ता तो वायु उसे बहा ले जाती है और वह मवराट आकाश
र्ें लप्तु हो जाता है । ब्रह्मणः पस्थ ब्रह्म-साक्षात्कार का र्ागम है जो अपने आपको परर्ेश्र्वर का अमभन्न अश ं जान लेने
पर प्राप्त होता है और वह परर्ेश्र्वर ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् रूप र्ें प्रकट होता है । भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण परर्सत्य के
पूणम प्राकट्य हैं, अतः जो इस परर्पुरुष की शरण र्ें जाता है वही सिल योगी है । ब्रह्म तर्ा परर्ात्र्ा-साक्षात्कार के

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र्ाध्यर् से जीवन के इस तथ्य तक पहुचँ ने र्ें अनेकानेक जन्र् लग जाते हैं (बहूनाां जन्मनामन्ते) । अतः मिव्य-
साक्षात्कार का सवमश्रेि र्ागम भमक्तयोग या कृ ष्ट्णभावनार्ृत की प्रत्यक्ष मवमध है ।

एतन्मे संशयं कृ ष्ट्ण छे त्तुमहमस्यशेषतः ।


त्वदन्यः संशयस्यास्य छे त्ता ि ह्युपपद्यते ।। ३९ ।।

एतत् – यह है; मे– र्ेरा; सश


ं यम्– सन्िेह; कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; छे त्तमु –् िरू करने के मलए; अहमनस– आपसे प्रार्मना
है; अशेषतः– पूणमतया; त्वत्– आपकी अपेक्षा; अन्यः– िसू रा; संशयस्य– सन्िेह का; अस्य– इस; छे त्ता– िरू करने
वाला; ि– नहीं; नह– मनश्चय ही; उपपद्यते– पाया जाना सम्भव है ।

हे कृ ष्ट्ण! यही मेरा सन्देह है, और मैं आपसे इसे पूणमतया दूर करिे की प्राथमिा कर रहा हूँ । आपके
अनतररि अन्य कोई ऐसा िहीं है, जो इस सन्देह को िष्ट कर सके ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य के जानने वाले हैं । भगवद्गीता के प्रारम्भ र्ें भगवान् ने कहा है मक
सारे जीव व्यमष्ट रूप र्ें भतू काल र्ें मवद्यर्ान र्े, इस सर्य मवद्यर्ान हैं और भवबन्धन से र्क्त ु होने पर भमवष्ट्य र्ें भी
व्यमष्ट रूप र्ें बने रहेंगे । इस प्रकार उन्होंने व्यमष्ट जीव के भमवष्ट्य के मवषयक प्रश्न का स्पष्टीकरण कर मिया है । अब
अजुमन असिल योमगयों के भमवष्ट्य के मवषय र्ें जानना चाहता है । कोई न तो कृ ष्ट्ण के सर्ान है, न ही उनसे बड़ा ।
तर्ाकमर्त बड़े-बड़े ऋमष तर्ा िाशममनक, जो प्रकृ मत की कृ पा पर मनभमर हैं, मनश्चय ही उनकी सर्ता नहीं कर सकते ।
अतः सर्स्त सन्िेहों का पूरा-पूरा उत्तर पाने के मलए कृ ष्ट्ण का मनणमय अमन्तर् तर्ा पूणम है क्योंमक वे भतू , वतमर्ान तर्ा
भमवष्ट्य के ज्ञाता हैं, मकन्तु उन्हें कोई भी नहीं जानता । कृ ष्ट्ण तर्ा कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त ही जान सकते हैं मक कौन
क्या है ।

श्रीभगवानवु ाच
पाथम िैवेह िामुत्र नविाशस्तस्य नवद्यते ।
ि नह कल्याणकृ त्कनश्र्चद् दुगमनतं तात गच्छनत ।। ४० ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; पाथम– हे पृर्ापुत्र; ि एव– कभी ऐसा नहीं है; इह– इस संसार र्ें; ि–
कभी नहीं; अमुत्र - अगले जन्र् र्ें; नविाशः– नाश; तस्य– उसका; नवद्यते– होता है; ि– कभी नहीं; नह– मनश्चय
ही; कल्याण-कृ त्– शभु कायों र्ें लगा हुआ; कनश्र्चत– कोई भी; दुगमनतम्– पतन को; तात– हे र्ेरे मर्त्र; गच्छनत–
जाता है ।

भगवाि् िे कहा – हे पृथापुत्र! कल्याण-कायों में निरत योगी का ि तो इस लोक में और ि परलोक में
ही नविाश होता है । हे नमत्र! भलाई करिे वाला कभी बरु े से परानजत िहीं होता ।

तात्पयम :श्रीमद्भागवत र्ें (१.५.१७) श्री नारि र्मु न व्यासिेव को इस प्रकार उपिेश िेते हैं –

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त्यक्तत्वा स्वधमं चरणाम्भजु ां हरे भदजन्नपक्त ोऽथ पतेत्ततो यस्र् ।
यत्र क्तव वाभद्रमभर्ू मष्ु य स् ां ो वाथद आप्तोऽभजताां स्वधमदतः ।।
“यमि कोई सर्स्त भौमतक आशाओ ं को त्याग कर भगवान् की शरण र्ें जाता है तो इसर्ें न तो कोई क्षमत होती
है और न पतन । िसू री ओर अभक्त जन अपने-अपने व्यवसाओ ं र्ें लगे रह सकते हैं मिर भी कुछ प्राप्त नहीं कर पाते ।”
भौमतक लाभ के मलए अनेक शास्त्रीय तर्ा लौमकक कायम हैं । जीवन र्ें आध्यामत्र्क उन्नमत अर्ामत् कृ ष्ट्णभावनार्ृत के
मलए योगी को सर्स्त भौमतक कायमकलापों का पररत्याग करना होता है । कोई यह तकम कर सकता है मक यमि
कृ ष्ट्णभावनार्ृत पणू म हो जाय तो इससे सवोच्च मसमद्ध प्राप्त हो सकती है, मकन्तु यमि यह मसमद्ध प्राप्त न हो पाई तो
भौमतक एवं आध्यामत्र्क िोनों दृमष्टयों से र्नुष्ट्य को क्षमत पहुचँ ती है । शास्त्रों का आिेश है मक यमि कोई स्वधर्म का
आचरण नहीं करता तो उसे पापिल भोगना पड़ता है, अतः जो मिव्य कायों को िीक से नहीं कर पाता उसे िल भोगना
होता है । भागवत पुराण आश्र्वस्त करता है मक असिल योगी को मचन्ता करने की आवश्यकता नहीं है । भले ही उसे
िीक से स्वधर्ामचरण न करने का िल भोगना पड़े तो भी वह घाटे र्ें नहीं रहता क्योंमक शभु कृ ष्ट्णभावनार्ृत कभी
मवस्र्ृत नहीं होता । जो इस प्रकार र्ें लगा रहता है वह अगले जन्र् र्ें मनम्नयोनी र्ें भी जन्र् लेकर पहले की भाँमत
भमक्त करता है । िसू री ओर, जो के वल मनयत कायों को दृढ़तापूवमक करता है, मकन्तु यमि उसर्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत का
अभाव है तो आवश्यक नहीं मक उसे शभु िल प्राप्त हो ।
इस श्लोक का तात्पयम इस प्रकार है – र्ानवता के िो मवभाग मकये जा सकते हैं – मनयमर्त तर्ा अमनयमर्त । जो
लोग अगले जन्र् या र्मु क्त के ज्ञान के मबना पाशमवक इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगे रहते हैं वे अमनयमर्त मवभाग र्ें आते हैं । जो
लोग शास्त्रों र्ें वमणमत कतमव्य के मसद्धान्तों का पालन करते हैं वे मनयमर्त मवभाग र्ें वगीकृ त होते हैं । अमनयमर्त मवभाग
के संस्कृ त तर्ा असंस्कृ त, मशमक्षत तर्ा अमशमक्षत, बली तर्ा मनबमल लोग पाशमवक वृमत्तयों से पूणम होते हैं । उनके
कायम कभी भी कल्याणकारी नहीं होते क्योंमक वेपशओ ु ं की भाँमत आहार, मनद्रा, भय तर्ा र्ैर्ुन का भोग करते हुए इस
ससं ार र्ें मनरन्तर रहते हैं, जो सिा ही िख ु र्य है । मकन्त ु जो लोग शास्त्रीय आिेशों के अनसु ार सयं मर्त रहते हैं और इस
प्रकार क्रर्शः कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होते हैं, वे मनमश्चत रूप से जीवन र्ें उन्नमत करते हैं ।
कल्याण-र्ागम के अनयु ामयओ ं को तीन वगों र्ें मवभामजत मकया जा सकता है – (१) भौमतक सम्पन्नता का
उपभोग करने वाले शास्त्रीय मवमध-मवधानों के अनुयायी, (२) इस संसार से र्मु क्त पाने के मलए प्रयत्नशील लोग तर्ा
(३) कृ ष्ट्णभावनार्ृत के भक्त । प्रर्र् वगम के अनुयामययों को पुनः िो श्रेमणयों र्ें मवभामजत मकया जा सकता है –
सकार्कर्ी तर्ा इमन्द्रयतृमप्त की इच्छा न करने वाले । सकार्कर्ी जीवन के उच्चतर स्तर तक उि सकते हैं – यहाँ तक
मक स्वगमलोक को जा सकते हैं तो भी इस संसार से र्क्त ु न होने के कारण वे सही ढंग से शभु र्ागम का अनुगर्न नहीं
करते । शभु कर्म तो वे हैं मजनसे र्मु क्त प्राप्त हो । कोई भी ऐसा कायम जो परर् आत्र्-साक्षात्कार या िेहात्र्बुमद्ध से र्मु क्त
की ओर उन्र्ख ु नहीं होता वह रंचर्ात्र भी कल्याणप्रि नहीं होता । कृ ष्ट्णभावनार्ृत सम्बन्धी कायम ही एकर्ात्र शभु कायम
है और जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्ागम पर प्रगमत करने के उद्देश्य से स्वेच्छा से सर्स्त शारीररक असुमवधाओ ं को स्वीकार
करता है वही घोर तपस्या के द्वारा पूणमयोगी कहलाता है । चँमू क अष्टांगयोग पद्धमत कृ ष्ट्णभावनार्ृत की चरर् अनुभमू त के
मलए होती है, अतः यह पद्धमत भी कल्याणप्रि है, अतः जो कोई इस मिशा र्ें यर्ाशक्य प्रयास करता है उसे कभी अपने
पतन के प्रमत भयभीत नहीं होना चामहए ।

प्राप्य पुण्यकृ तां लोकािुनषत्वा शाश्र्वती: समाः ।


श्रुचीिां श्रीमतां ग्रेहे योगरष्टोऽनभजायते ।। ४१ ।।

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प्राप्य– प्राप्त करके ; पुण्य-कृ ताम्– पुण्य कर्म करने वालों के ; लोकाि्– लोकों र्ें; उनषत्वा– मनवास
करके ; शाश्र्वतीः– अनेक; समाः– वषम; शुचीिाम्– पमवत्रात्र्ाओ ं के ; श्री-मताम्– सम्पन्न लोगों के ; गेहे– घर
र्ें; योग-रष्टः– आत्र्-साक्षात्कार के पर् से च्युत व्यमक्त; अनभजायते– जन्र् लेता है ।

असिल योगी पनवत्रात्माओ ं के लोकों में अिेकािेक वषों तक भोग करिे के बाद या तो सदाचारी
परुु षों के पररवार में या नक धिवािों के कुल में जन्म लेता है ।

तात्पयम : असिल योमगयों की िो श्रेमणयाँ हैं – एक वे जो बहुत र्ोड़ी उन्नमत के बाि ही भ्रष्ट होते हैं; िसु रे वे जो
िीघमकाल तक योगाभ्यास के बाि भ्रष्ट होते हैं । जो योगी अल्पकामलक अभ्यास के बाि भ्रष्ट होता है वह स्वगमलोक को
जाता है जहाँ के वल पुण्यात्र्ाओ ं को प्रमवष्ट होने मिया जाता है । वहाँ पर िीघमकाल तक रहने के बाि उसे पुनः इस लोक
र्ें भेजा जाता है मजससे वह मकसी सिाचारी ब्राह्मण वैष्ट्णव के कुल र्ें या धनवान वमणक के कुल र्ें जन्र् ले सके ।
योगाभ्यास का वास्तमवक उद्देश्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सवोच्च मसमद्ध प्राप्त करना है, जैसा मक इस अध्याय के अमन्तर्
श्लोक र्ें बताया गया है, मकन्तु जो इतने अध्यवसायी नहीं होते और जो भौमतक प्रलोभनों के कारण असिल हो जाते
हैं, उन्हें अपनी भौमतक इच्छाओ ं की पूमतम करने की अनुर्मत िी जाती है । तत्पश्चात् उन्हें सिाचारी या धनवान पररवारों
र्ें सम्पन्न जीवन मबताने का अवसर प्रिान मकया जाता है । ऐसे पररवारों र्ें जन्र् लेने वाले इन सुमवधाओ ं का लाभ
उिाते हुए अपने आपको पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक ऊपर ले जाते हैं ।

अथवा योनगिामेव कुले भवनत धीमताम् ।


एतनद्ध दुलमभतरं लोके जन्म यदीदृशम् ।। ४२ ।।

अथवा– या; योनगिाम्– मवद्वान योमगयों के ; एव– मनश्चय ही; कुले– पररवार र्ें; भवनत– जन्र् लेता है; धी-
मताम्– परर् बुमद्धर्ानों के ; एतत्– यह; नह– मनश्चय ही; दुलमभ-तरम्– अत्यन्त िल
ु मभ; लोके – इस संसार र्ें; जन्म–
जन्र्; यत्– जो; ईदृशम्– इस प्रकार का ।

अथवा (यनद दीघमकाल तक योग करिे के बाद असिल रहे तो) वह ऐसे योनगयों के कुल में जन्म लेता
है जो अनत बुनद्धमाि हैं । निश्चय ही इस संसार में ऐसा जन्म दुलमभ है ।

तात्पयम : यहाँ पर योमगयों के बुमद्धर्ान कुल र्ें जन्र् लेने की प्रशंसा की गई है क्योंमक ऐसे कुल र्ें उत्पन्न
बालक को प्रारम्भ से ही आध्यामत्र्क प्रोत्साहन प्राप्त होता है । मवशेषतया आचायों या गोस्वामर्यों के कुल र्ें ऐसी
पररमस्र्मत है । ऐसे कुल अत्यन्त मवद्वान होते हैं और परम्परा तर्ा प्रमशक्षण के कारण श्रद्धावान होते हैं । इस प्रकार वे
गुरु बनते हैं । भारत र्ें ऐसे अनेक आचायम कुल हैं, मकन्तु अब वे अपयामप्त मवद्या तर्ा प्रमशक्षण के कारण पतनशील हो
चक ु े हैं । भगवत्कृ पा से अभी भी कुछ ऐसे पररवार हैं मजनके पीढ़ी-िर-पीढ़ी योमगयों को प्रश्रय मर्लता है । ऐसे पररवारों
र्ें जन्र् लेना सचर्चु ही अत्यन्त सौभाग्य की बात है । सौभाग्यवश हर्ारे गुरु मवष्ट्णपु ाि श्रीश्रीर्द्भमक्तमसद्धान्त सरस्वती

२२०
गोस्वार्ी र्हाराज को तर्ा स्वयं हर्ें भी ऐसे पररवारों र्ें जन्र् लेने का अवसर प्राप्त हुआ । हर् िोनों को बचपन से ही
भगवद्भमक्त करने का प्रमशक्षण मिया गया । बाि र्ें मिव्य व्यवस्र्ा के अनुसार हर्ारी भेंट हुई ।

तत्र तं बुनद्धसंयोगं लभते पौवमदेनहकम् ।


यतते च ततो भूयः संनसद्धौ कुरुिन्दि ।। ४३ ।।

तत्र– वहाँ; तम्– उस; बनु द्ध-सयं ोगम्– चेतना की जागृमत को; लभते– प्राप्त होता है; पौवम-देनहकम्– पवू म िेह
से; यतते– प्रयास करता है; च– भी; ततः– तत्पश्चात्; भूयः– पुनः; संनसद्धौ– मसमद्ध के मलए; कुरुिन्दि– हे कुरुपुत्र ।

हे कुरुिन्दि! ऐसा जन्म पाकर वह अपिे पूवमजन्म की दैवी चेतिा को पुिः प्राप्त करता है और पूणम
सिलता प्राप्त करिे के उद्देश्य से वह आगे उन्िनत करिे का प्रयास करता है ।

तात्पयम : राजा भरत, मजन्हें तीसरे जन्र् र्ें उत्तर् ब्राह्मण कुल र्ें जन्र् मर्ला, पूवम मिव्यचेतना की पुनःप्रामप्त के
मलए उत्तर् जन्र् के उिाहरणस्वरूप हैं । भरत मवश्र्व भर के सम्राट र्े और तभी से यह लोक िेवताओ ं के बीच भारतवषम
के नार् से मवख्यात है । पहले यह इलावृतवषम के नार् से ज्ञात र्ा । भरत ने अल्पायु र्ें ही आध्यामत्र्क मसमद्ध के मलए
संन्यास ग्रहण कर मलया र्ा, मकन्तु वे सिल नहीं हो सके । अगले जन्र् र्ें उन्हें उत्तर् ब्राह्मण कुल र्ें जन्र् लेना पड़ा
और वे जड़ भरत कहलाये क्योंमक वे एकान्त वास करते र्े तर्ा मकसी से बोलते न र्े । बाि र्ें राजा रहगण ने इन्हें
र्हानतर् योगी के रूप र्ें पाया । उनके जीवन से यह पता चलता है मक मिव्य प्रयास अर्वा योगाभ्यास कभी व्यर्म नहीं
जाता । भगवत्कृ पा से योगी को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पूणम मसमद्ध प्राप्त करने के बारम्बार सुयोग प्राप्त होते रहते हैं ।

पवू ामभ्यासेि तेिैव नह्रयते ह्यवशोऽनप सः ।


नजज्ञासरु नप योगस्य शब्दब्रह्मानतवतमते ।। ४४ ।।

पवू म– मपछला; अभ्यासेि– अभ्यास से; तेि– उससे; एव– ही; नह्रयते– आकमषमत होता है; नह– मनश्चय
ही; अवशः– स्वतः; अनप– भी; सः– वह; नजज्ञासुः– उत्सुक; अनप– भी; योगस्य– योग के मवषय र्ें; शब्द-ब्रह्म–
शास्त्रों के अनुिान; अनतवतमते– परे चला जाता है, उल्लंघन करता है ।

अपिे पूवमजन्म की दैवी चेतिा से वह ि चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकनषमत होता
है । ऐसा नजज्ञासु योगी शास्त्रों के अिुष्ठािों से परे नस्थत होता है ।

तात्पयम : उन्नत योगीजन शास्त्रों के अनिु ानों के प्रमत अमधक आकृ ष्ट नहीं होते, मकन्तु योग-मनयर्ों के प्रमत
स्वतः आकृ ष्ट होते हैं, मजनके द्वारा वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें आरूढ हो सकते हैं । श्रीमद्भागवत र्ें (३.३३.७) उन्नत
योमगयों द्वारा वैमिक अनिु ानों के प्रमत अवहेलना की व्याख्या इस प्रकार की गई है –
अहो बत श्र्वपचोऽतो गरीयान् यस्ज्जह्वाग्रे वतदते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवः सस्नुरायाद ब्रह्मानूचुनादम गृणस्न्त ये ते ।।

२२१
“हे भगवान्! जो लोग आपके पमवत्र नार् का जप करते हैं, वे चाण्डालों के पररवारों र्ें जन्र् लेकर भी
अध्यामत्र्क जीवन र्ें अत्यमधक प्रगत होते हैं । ऐसे जपकताम मनस्सन्िेह सभी प्रकार के तप और यज्ञ कर चक ु े होते हैं,
तीर्मस्र्ानों र्ें स्नान कर चक ु े होते हैं और सर्स्त शास्त्रों का अध्ययन कर चक
ु े होते हैं ।”
इसका सुप्रमसद्ध उिाहरण भगवान् चैतन्य ने प्रस्तुत मकया, मजन्होंने िाकुर हररिास को अपने परर्मप्रय मशष्ट्य के
रूप र्ें स्वीकार मकया । यद्यमप हररिास का जन्र् एक र्सु लर्ान पररवार र्ें हुआ र्ा, मकन्तु भगवान् चैतन्य ने उन्हें
नार्ाचायम की पिवी प्रिान की क्योंमक वे प्रमतमिन मनयर्पूवमक तीन लाख भगवान् के पमवत्र नार्ों- हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण
ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करते र्े । और चँमू क वे मनरन्तर भगवान् के पमवत्र नार् का
जप करते रहते र्े, अतः यह सर्झा जाता है मक पूवमजन्र् र्ें उन्होंने शब्िब्रह्म नार्क वेिवमणमत कर्मकाण्डों को पूरा मकया
होगा । अतएव जब तक कोई पमवत्र नहीं होता तब तक कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मनयर्ों को ग्रहण नहीं करता या भगवान् के
पमवत्र नार् हरे ृ ष्ण का जप नहीं कर सकता ।

प्रयत्िाद्यतमािस्तु योगी संश्रुद्धनकनल्बषः ।


अिेकजन्मसंनसद्धस्ततो यानत परां गनतम् ।। ४५ ।।
प्रयत्िात्– कमिन अभ्यास से;यतमािः– प्रयास करते हुए;तु – तर्ा;योगी – ऐसा योगी;संशुद्ध – शुद्ध
होकर;नकनल्बषः– मजसके सारे पाप;अिेक – अनेकानेक;जन्म – जन्र्ों के बाि;संनसद्धः – मसमद्ध प्राप्त करके ;ततः –
तत्पश्चात्; यानत – प्राप्त करता है;पराम्– सवोच्च;गनतम् – गन्तव्य को ।

और जब योगी कल्मष से शुद्ध होकर सच्ची निष्ठा से आगे प्रगनत करिे का प्रयास करता है, तो
अन्ततोगत्वा अिेकािेक जन्मों के अभ्यास के पश्चात् नसनद्ध-लाभ करके वह परम गन्तव्य को प्राप्त करता है ।

तात्पयमः सिाचारी, धनवान या पमवत्र कुल र्ें उत्पन्न पुरुष योगाभ्यास के अनुकूल पररमस्र्मत से सचेष्ट हो जाता
है । अतः वह दृढ सक ं ल्प करके अपने अधरू े कायम को करने र्ें लग जाता है और इस प्रकार वह अपने को सर्स्त
भौमतक कल्र्ष से शद्ध ु कर लेता है । सर्स्त कल्र्ष से र्क्तु होने पर उसे परर् मसमद्ध-कृ ष्ट्णभावनार्ृत – प्राप्त होती है ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत ही सर्स्त कल्र्ष से र्क्त ु होने की पूणम अवस्र्ा है । इसकी पुमष्ट भगवद्गीता र्ें (७.२८) हुई है –
येषाां त्वन्तगतां पापां जनानाां पुण्य मदणाम् ।
ते िन्िमोहस्नमदि ु ा भजन्ते माां दृढव्रताः ।।
“अनेक जन्र्ों तक पुण्यकर्म करने से जब कोई सर्स्त कल्र्ष तर्ा र्ोहर्य द्वन्द्वों से पूणमतया र्क्त ु हो जाता है,
तभी वह भगवान् की मिव्य प्रेर्भमक्त र्ें लग पता है ।”

तपनस्वभ्योऽनधको योगी ज्ञानिभ्योऽनप मतोऽनधकः ।


कनममभ्यश्र्चानधको योगी तस्माद्योगी भवाजमिु ।। ४६ ।।

तपनस्वभ्यः– तपमस्वयों से; अनधकः– श्रेि बढ़कर; योगी– योगी; ज्ञानिभ्यः– ज्ञामनयों से; अनप– भी; मतः–
र्ाना जाता है; अनधक– बढ़कर; कनममभ्यः– सकार् कमर्मयों की अपेक्षा; च– भी; अनधकः– श्रेि; योगी–
योगी; तस्मात्– अतः; योगी– योगी; भव– बनो, होओ; अजमुि– हे अजुमन ।

२२२
योगी पुरुष तपस्वी से, ज्ञािी से तथा सकामकमी से बढकर होता है । अतः हे अजमिु ! तुम सभी प्रकार
से योगी बिो ।

तात्पयम : जब हर् योग का नार् लेते हैं तो हर् अपनी चेतना को परर्सत्य के सार् जोड़ने की बात करते हैं ।
मवमवध अभ्यासकताम इस पद्धमत को ग्रहण की गई मवशेष मवमध के अनुसार मवमभन्न नार्ों से पुकारते हैं । जब यह
योगपद्धमत सकार्कर्ों से र्ख्ु यतः सम्बमन्धत होती है तो कर्मयोग कहलाती है, जब यह मचन्तन से सम्बमन्धत होती है
तो ज्ञानयोग कहलाती है और जब यह भगवान् की भमक्त से सम्बमन्धत होती है तो भमक्तयोग कहलाती है । भमक्तयोग या
कृ ष्ट्णभावनार्ृत सर्स्त योगों की परर्मसमद्ध है, जैसा मक अगले श्लोक र्ें बताया जायेगा । भगवान् ने यहाँ पर योग की
श्रेिता की पुमष्ट की है, मकन्तु उन्होंने इसका उल्लेख नहीं मकया मक यह भमक्तयोग से श्रेि है । भमक्तयोग पूणम आत्र्ज्ञान
है, अतः इससे बढ़कर कुछ भी नहीं है । आत्र्ज्ञान के मबना तपस्या अपूणम है । परर्ेश्र्वर के प्रमत सर्मपमत हुए मबना
ज्ञानयोग भी अपूणम है । सकार्कर्म भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मबना सर्य का अपव्यय है । अतः यहाँ पर योग का सवाममधक
प्रशंमसत रूप भमक्तयोग है और इसकी अमधक व्याख्या अगले श्लोक र्ें की गई है ।

योनगिामनप सवेषां मद्गतेिान्तरात्मिा ।


श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युितमो मतः ।। ४७ ।।

योनगिाम्– योमगयों र्ें से; अनप– भी; सवेषाम्– सर्स्त प्रकार के ; मत्-गतेि– र्ेरे परायण, सिैव र्ेरे मवषय र्ें
सोचते हुए; अन्तः-आत्मिा– अपने भीतर; श्रद्धावाि्– पूणम श्रद्धा समहत; भजते– मिव्य प्रेर्ाभमक्त करता है; यः–
जो; माम्– र्ेरी (परर्ेश्र्वर की); सः– वह; मे– र्ेरे द्वारा; यि
ु -तमः– परर् योगी; मतः– र्ाना जाता है ।

और समस्त योनगयों में से जो योगी अत्यन्त श्रद्धापवू मक मेरे परायण है, अपिे अन्तःकरण में मेरे नवषय
में सोचता है और मेरी नदव्य प्रेमाभनि करता है वह योग में मुझसे परम अन्तरंग रूप में युि रहता है और
सबों में सवोच्च है । यही मेरा मत है ।

तात्पयम : यहाँ पर भजते शब्ि र्हत्त्वपूणम है । भजतेभज् धातु से बना है मजसका अर्म है-सेवा करना । अंग्रेजी
शब्ि वमशमप (पूजन) से यह भाव व्यक्त नहीं होता, क्योंमक इससे पूजा करना, सम्र्ान मिखाना तर्ा योग्य का सम्र्ान
करना सूमचत होता है । मकन्तु प्रेर् तर्ा श्रद्धापूवमक सेवा तो श्रीभगवान् के मनमर्त्त है । मकसी सम्र्ाननीय व्यमक्त या िेवता
की पूजा न करने वाले को अमशष्ट कहा जा सकता है, मकन्तु भगवान् की सेवा न करने वाले की तो पूरी तरह भत्समना की
जाती है । प्रत्येक जीव भगवान् का अंशस्वरूप है और इस तरह प्रत्येक जीव को अपने स्वभाव के अनुसार भगवान् की
सेवा करनी चामहए । ऐसा न करने से वह नीचे मगर जाता है । भागवत परु ाण र्ें (११.५.३) इसकी पमु ष्ट इस प्रकार हुई
है –
य एषाां परुु षां साक्षार्ात्मप्रभवमीश्र्वरम् ।
न भजन्त्यवजानस्न्त स्थानार्भ्र् ष्टाः पतन्त्यधः ।।

२२३
“जो र्नुष्ट्य अपने जीवनिाता आद्य भगवान् की सेवा नहीं करता और अपने कतमव्य र्ें मशमर्लता बरतता है, वह
मनमश्चत रूप से अपनी स्वाभामवक मस्र्मत से नीचे मगरता है ।”
भागवत पुराण के इस श्लोक र्ें भजस्न्त शब्ि व्यवहृत हुआ है । भजस्न्त शब्ि का प्रयोग परर्ेश्र्वर के मलए ही
प्रयुक्त मकया जा सकता है, जबमक वमशमप (पूजन) का प्रयोग िेवताओ ं या अन्य मकसी सार्ान्य जीव के मलए मकया
जाता है । इस श्लोक र्ें प्रयुक्त अवजानमन्त शब्ि भगवद्गीता र्ें भी पाया जाता है -अवजानस्न्त माां मढू ाः– के वल र्ख ु म
तर्ा धतू म भगवान् कृ ष्ट्ण का उपहास करते हैं । ऐसे र्ख ु म भगवद्भमक्त की प्रवृमत्त न होने पर भी भगवद्गीता का भाष्ट्य कर
बैिते हैं । िलतः वे भजस्न्त तर्ा वमशमप (पजू न) शब्िों के अन्तर को नहीं सर्झ पाते ।
भमक्तयोग सर्स्त योगों की पररणमत है । अन्य योग तो भमक्तयोग र्ें भमक्त तक पहुँचने के साधन र्ात्र हैं । योग का
वास्तमवक अर्म भमक्तयोग है – अन्य सारे योग भमक्तयोग रूपी गन्तव्य की मिशा र्ें अग्रसर होते हैं । कर्मयोग से लेकर
भमक्तयोग तक का लम्बा रास्ता आत्र्-साक्षात्कार तक जाता है । मनष्ट्कार् कर्मयोग इस रास्ते (र्ागम) का आरम्भ है ।
जब कर्मयोग र्ें ज्ञान तर्ा वैराग्य की वृमद्ध होती है तो यह अवस्र्ा ज्ञानयोग कहलाती है । जब ज्ञानयोग र्ें अनेक
भौमतक मवमधयों से परर्ात्र्ा के ध्यान र्ें वृमद्ध होने लगती है और र्न उन पर लगा रहता है तो इसे अष्टांगयोग कहते हैं ।
इस अष्टागं योग को पार करने पर जब र्नुष्ट्य श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण के मनकट पहुचँ ता है तो वह भमक्तयोग कहलाता है ।
यर्ार्म र्ें भमक्तयोग ही चरर् लक्ष्य है, मकन्तु भमक्तयोग का सूक्ष्र् मवश्लेषण करने के मलए अन्य योगों को सर्झना होता
है । अतः जो योगी प्रगमतशील होता है वह शाश्र्वत कल्याण के सही र्ागम पर रहता है । जो मकसी एक मबन्िु पर दृढ़
रहता है और आगे प्रगमत नहीं करता वह कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी, राजयोगी, हियोगी आमि नार्ों से पुकारा
जाता है । यमि कोई इतना भाग्यशाली होता है मक भमक्तयोग को प्राप्त हो सके तो यह सर्झना चामहए मक उसने सर्स्त
योगों को पार कर मलया है । अतः कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना योग की सवोच्च अवस्र्ा है, िीक उसी तरह जैसे मक हर्
यह कहते हैं मक मवश्र्व भर के पवमतों र्ें महर्ालय सबसे ऊँचा है, मजसकी सवोच्च छोटी एवरे स्ट है ।
कोई मवरला भाग्यशाली ही वैमिक मवधान के अनसु ार भमक्तयोग के पर् को स्वीकार करके कृ ष्ट्णभावनाभामवत
हो पाता है । आिशम योगी श्यार्सुन्िर कृ ष्ट्ण पर अपना ध्यान एकाग्र करता है, जो बिल के सर्ान सुन्िर रंग वाले हैं,
मजनका कर्ल सदृश र्ख ु सयू म के सर्ान तेजवान है, मजनका वस्त्र रत्नों से प्रभापणू म है और मजनका शरीर िूलों की र्ाला
से सुशोमभत है । उनके अंगों को प्रिीप्त करने वाली उनकी जयोमत ब्रह्मजयोमत कहलाती है । वे रार्, नृमसंह, वराह तर्ा
श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण जैसे मवमभन्न रूपों र्ें अवतररत होते हैं । वे सार्ान्य व्यमक्त की भाँमत, र्ाता यशोिा र्ें पुत्र रूप र्ें जन्र्
ग्रहण करते हैं और कृ ष्ट्ण, गोमवन्ि तर्ा वासुिेव के नार् से जाने जाते हैं । वे पूणम बालक, पूणम पमत, पूणम सखा तर्ा पूणम
स्वार्ी हैं, और वे सर्स्त ऐश्र्वयों तर्ा मिव्य गुणों से ओतप्रोत हैं । जो श्रीभगवान् के इन गुणों से पूणमतया अमभज्ञ रहता
है वह सवोच्च योगी कहलाता है ।
योगी की यह सवोच्च िशा के वल भमक्तयोग से ही प्राप्त की जा सकती है मजसकी पुमष्ट वैमिक सामहत्य से होती है
(श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ६.२३) –
यस्य र्ेवे पराभस्ियदथा र्ेवे तथा गुरौ ।
तस्यते स्थता ह्यथादः प्र ाशन्ते महात्मनः ।।
“मजन र्हात्र्ाओ ं के हृिय र्ें श्रीभगवान् तर्ा गुरु र्ें परर् श्रद्धा होती है उनर्ें वैमिक ज्ञान का सम्पूणम तात्पयम
स्वतः प्रकामशत हो जाता है ।”

२२४
भस्िरस्य भजनां तस्र्हामुत्रोपास्धनैरास्येनामस्ु ष्मन् मनः ल्पनमेतर्ेव नैष् म्यदम–् भमक्त का अर्म है, भगवान् की
सेवा जो इस जीवन र्ें या अगले जीवन र्ें भौमतक लाभ की इच्छा से रमहत होती है । ऐसी प्रवृमत्तयों से र्क्त ु होकर
र्नुष्ट्य को अपना र्न परर्ेश्र्वर र्ें लीन करना चामहये । नैष्ट्कम्यम का यही प्रयोजन है (गोपाल-तापनी उपस्नषर्् १.५) ।
ये सभी कुछ ऐसे साधन हैं मजनसे योग की परर् संमसमद्धर्यी अवस्र्ा भमक्त या कृ ष्ट्णभावनार्ृत को सम्पन्न
मकया जा सकता है ।

इस प्र ार श्रीमर्भगवद्गीता े छठे अध्याय ”ध्यानयोग” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

२२५
अध्याय सात
भगवद्ज्ञाि
श्रीभगवानवु ाच
म्यासिमिाः पाथम योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यनस तच्छृ णु ।। १ ।।

श्री-भगवान् उवाच—भगवान् कृ ष्ण ने कहा; ममय—मझु में; आसक्त-मना:—आसक्त मन वाला; पाथप —हे
िृथािुत्र; योगम्—आत्म-साक्षात्कार; युञ्जन्—अभ्यास करते हुए; मत्-आश्रय:—मेरी चेतना (कृ ष्णचेतना) में;
असंर्यम्—पनस्सन्देह; समग्रम्— िूणततया; माम्—मझु को; यथा—पजस तरह; ज्ञास्यमस—जान सकते हो; तत्—
वह; र्ृण— ु सुनो

श्रीभगवाि् िे कहा – हे पृथापत्रु ! अब सिु ो नक तमु नकस तरह मेरी भाविा से पण


ू म होकर और मि को
मुझमें आसि करके योगाभ्यास करते हुए मुझे पूणमतया संशयरनहत जाि सकते हो ।

तात्पयम :भगवद्गीता के इस सातवें अध्याय र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत की प्रकृ मत का मवशि वणमन हुआ है । कृ ष्ट्ण
सर्स्त ऐश्र्वयों से पूणम हैं और वे इन्हें मकस प्रकार प्रकट करते हैं, इसका वणमन इसर्ें हुआ है । इसके अमतररक्त इस
अध्याय र्ें इसका भी वणमन है मक चार प्रकार के भाग्यशाली व्यमक्त कृ ष्ट्ण के प्रमत आसक्त होते हैं और चार प्रकार के
भाग्यहीन व्यमक्त कृ ष्ट्ण की शरण र्ें कभी नहीं आते ।
प्रर्र् छः अध्यायों र्ें जीवात्र्ा को अभौमतक आत्र्ा के रूप र्ें वमणमत मकया गया है जो मवमभन्न प्रकार के योगों
द्वारा आत्र्-साक्षात्कार को प्राप्त हो सकता है । छिे अध्याय के अन्त र्ें यह स्पष्ट कहा गया है मक र्न को कृ ष्ट्ण पर
एकाग्र करना या िसू रे शब्िों र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत ही सवोच्च योग है । र्न को कृ ष्ट्ण पर एकाग्र करने से ही र्नुष्ट्य
परर्सत्य को पूणमतया जान सकता है, अन्यर्ा नहीं । मनमवमशेष ब्रह्मजयोमत या अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा की अनुभमू त
परर्सत्य का पणू म ज्ञान नहीं है, क्योंमक वह आमं शक होती है । कृ ष्ट्ण ही पणू म तर्ा वैज्ञामनक ज्ञान हैं और कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें ही र्नुष्ट्य को सारी अनुभमू त होती है । पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें र्नुष्ट्य जान पाता है मक कृ ष्ट्ण ही मनस्सन्िेह परर् ज्ञान
हैं । मवमभन्न प्रकार के योग तो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्ागम के सोपान सदृश हैं । जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत ग्रहण करता
है, वह स्वतः ब्रह्मजयोमत तर्ा परर्ात्र्ा के मवषय र्ें पूरी तरह जान लेता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत योग का अभ्यास करके
र्नष्ट्ु य सभी वस्तओ ु ं को-यर्ा परर्सत्य, जीवात्र्ाएँ, प्रकृ मत तर्ा साज-सार्ग्री सर्ेत उनके प्राकट् य को परू ी तरह जान
सकता है ।
अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक छिे अध्याय के अमन्तर् श्लोक के अनुसार योग का अभ्यास करे । परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण
पर ध्यान की एकाग्रता को नवधा भमक्त के द्वारा सम्भव बनाया जाता है मजसर्ें श्रवणम् अग्रणी एवं र्हत्त्वपूणम है । अतः
भगवान् अजुमन से कहते हैं – तचछृ ण–ु अर्ामत् ”र्झु से सुनो” । कृ ष्ट्ण से बढ़कर कोई प्रर्ाण नहीं, अतः उनसे सुनने का

२२६
मजसे सौभाग्य प्राप्त होता है वह पूणमतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो जाता है । अतः र्नुष्ट्य को या तो साक्षात् कृ ष्ट्ण से या
कृ ष्ट्ण के शद्ध
ु भक्त से सीखना चामहए, न मक अपनी मशक्षा का अमभर्ान करने वाले अभक्त से ।
परर्सत्य श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण को जानने की मवमध का वणमन श्रीमद्भागवत के प्रर्र् स्कंध के मद्वतीय अध्याय र्ें इस
प्रकार हुआ है –
शृण्वताां स्व थाः ृ ष्णः पुण्यश्रवण ीतदनः ।
हृयन्तःस्थो ह्यभद्रास्ण स्वधनु ोस्त सुहृत्सताम् ।।
नष्टप्रायेष्वभद्रेषु स्नत्यां भागवतसेवया ।
भगवत्युत्तमश्लो े भस्िभदवस्त नैस्ष्ठ ी ।।
तर्ा रजस्तमोभावाः ामलोभर्यश्र्च ये ।
चेत एतैरनास्वद्धां स्स्थतां सत्त्वे प्रसीर्स्त ।।
एवां प्रसन्नमनसो भगवद्भस्ियोगतः ।
भगवतत्त्वस्वज्ञानां मि ु सांगस्य जायते ।।
स्भयते हृर्यग्रांस्थस्श्छयन्ते सवदसांशयाः ।
क्षीयन्ते चास्य मादस्ण दृष्ट एवात्मनीश्र्वरे ।।
“वैमिक सामहत्य से श्रीकृ ष्ट्ण के मवषय र्ें सुनना या भगवद्गीता से साक्षात् उन्हीं से सुनना अपने आपर्ें पुण्यकर्म
है । और जो प्रत्येक हृिय र्ें वास करने वाले भगवान् कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें सुनता है, उसके मलए वे शभु ेच्छु मर्त्र की भाँमत
कायम करते हैं और जो भक्त मनरन्तर उनका श्रवण करता है, उसे वे शद्ध ु कर िेते हैं । इस प्रकार भक्त अपने सुप्त मिव्यज्ञान
को मिर से पा लेता है । जयों-जयों वह भागवत तर्ा भक्तों से कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें अमधकामधक सुनता है, त्यों-त्यों वह
भगवद्भमक्त र्ें मस्र्र होता जाता है । भमक्त के मवकमसत होने पर वह रजो तर्ा तर्ो गुणों से र्क्त ु हो जाता है और इस
प्रकार भौमतक कार् तर्ा लोभ कर् हो जाते हैं । जब ये कल्र्ष िरू हो जाते हैं तो भक्त सतोगणु र्ें मस्र्र हो जाता
है, भमक्त के द्वारा स्िूमतम प्राप्त करता है और भगवत्-तत्त्व को पूरी तरह जान लेता है । भमक्तयोग भौमतक र्ोह की कमिन
ग्रमं र् को भेिता है और भक्त को असश ां यां समग्रम् अर्ामत् परर् सत्य श्रीभगवान् को सर्झने की अवस्र्ा को प्राप्त कराता
है (भागवत् १.२.१७-२१) ।”
अतः श्रीकृ ष्ट्ण से या कृ ष्ट्णभावनार्ृत भक्तों के र्ख ु ों से सुनकर ही कृ ष्ट्णतत्त्व को जाना जा सकता है ।

ज्ञािं तेऽहं सनवज्ञािनमदं वक्ष्याम्यशेषतः ।


यजज्ञात्वा िेह भूयोऽन्यजज्ञातव्यमवनशष्ट्यते ।। २ ।।

ज्ञानम्—प्रत्यक्ष ज्ञान; ते—तुमसे; अहम्—मैं; स—सपहत; मवज्ञानम्—पदव्यज्ञान; इदम्—यह; वक्ष्यामम—


कहगूँ ा; अर्ेषत:—िूणतरूि से; यत्—पजसे; ज्ञात्वा— जानकर; न—नहीं; इह—इस संसार में; भूय:—आगे;
अन्यत्—अन्य कुछ; ज्ञातव्यम्—जानने योग्य; अवमर्ष्यते—शेर् रहता है

अब मैं तमु से पण
ू मरूप से व्यावहाररक तथा नदव्यज्ञाि कहूँगा । इसे जाि लेिे पर तम्ु हें जाििे के नलए
और कुछ भी शेष िहीं रहेगा ।

२२७
तात्पयम : पूणमज्ञान र्ें प्रत्यक्ष जगत्, इसके पीछे कार् करने वाला आत्र्ा तर्ा इन िोनों के उद्गर् समम्र्मलत
हैं । यह मिव्यज्ञान है । भगवान् उपयुमक्त ज्ञानपद्धमत बताना चाहते हैं, क्योंमक अजुमन उनका मवश्र्वस्त भक्त तर्ा मर्त्र
है । चतुर्म अध्याय के प्रारम्भ र्ें इसकी व्याख्या भगवान् कृ ष्ट्ण ने की और उसी की पुमष्ट यहाँ पर हो रही है । भगवद्भक्त
द्वारा पूणमज्ञान का लाभ भगवान् से प्रारम्भ होने वाली गुरु-परम्परा से ही मकया जा सकता है । अतः र्नुष्ट्य को इतना
बुमद्धर्ान तो होना ही चामहए मक वह सर्स्त ज्ञान के अद्गर् को जान सके , जो सर्स्त कारणों के कारणहै और सर्स्त
योगों र्ें ध्यान का एकर्ात्र लक्ष्य है । जब सर्स्त कारणों के कारण का पता चल जाता है, तो सभी ज्ञेय वस्तुएँ ज्ञात हो
जाती हैं और कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता । वेिों का (मण्ु ड उपस्नषर्् १.३) कहना है – स्स्मन् भगवो स्वज्ञाते
सवदस्मर्ां स्वज्ञातां भवस्त।

मिष्ट्ु याणां सहस्त्रेषु कनश्र्चद्यतनत नसद्धये ।


यततामनप नसद्धािां कनश्र्चन्मां वेनत्त तत्त्वतः ।। ३ ।।

मनष्ु याणाम्—मनुष्यों में से; सहस्रेषु—हजारों; कमश्चत्—कोई एक; यतमत—प्रयत्न करता है; मसद्धये—
पसपद्ध के पलए; यतताम्—इस प्रकार प्रयत्न करने वाले; अमप— पनस्सन्देह; मसद्धानाम्—पसद्ध लोगों में से;
कमश्चत्—कोई एक; माम्—मझु को; वेमत्त—जानता है; तत्त्वत:—वास्तव में

कई हजार मिुष्ट्यों में से कोई एक नसनद्ध के नलए प्रयत्िशील होता है और इस तरह नसनद्ध प्राप्त करिे
वालों में से नवरला ही कोई मुझे वास्तव में जाि पाता है ।

तात्पयम : र्नष्ट्ु यों की मवमभन्न कोमटयाँ हैं और हजारों र्नष्ट्ु यों र्ें से शायि मवरला र्नष्ट्ु य ही यह जानने र्ें रूमच
रखता है मक आत्र्ा क्या है, शरीर क्या है, और परर्सत्य क्या है । सार्ान्यतया र्ानव आहार, मनद्रा, भय तर्ा र्ैर्ुन
जैसी पशवु मृ त्तयों र्ें लगा रहता है और र्मु श्कल से कोई एक मिव्यज्ञान र्ें रूमच रखता है । गीता के प्रर्र् छह अध्याय
उन लोगों के मलए हैं मजनकी रूमच मिव्यज्ञान र्ें, आत्र्ा, परर्ात्र्ा तर्ा ज्ञानयोग, ध्यानयोग द्वारा अनुभमू त की मक्रया र्ें
तर्ा पिार्म से आत्र्ा के पार्मक्य को जानने र्ें है । मकन्तु कृ ष्ट्ण तो के वल उन्हीं व्यमक्तयों द्वारा ज्ञेय हैं जो
कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं । अन्य योगी मनमवमशेष ब्रह्म-अनुभमू त प्राप्त कर सकते हैं, क्योंमक कृ ष्ट्ण को जानने की अपेक्षा यह
सुगर् है । कृ ष्ट्ण परर्पुरुष हैं, मकन्तु सार् ही वे ब्रह्म तर्ा परर्ात्र्ा-ज्ञान से परे हैं । योगी तर्ा ज्ञानीजन कृ ष्ट्ण को नहीं
सर्झ पाते । यद्यमप र्हानतर् मनमवमशेषवािी (र्ायावािी) शंकराचायम ने अपने गीता– भाष्ट्य र्ें स्वीकार मकया है मक
कृ ष्ट्ण भगवान् हैं, मकन्तु उनके अनुयायी इसे स्वीकार नहीं करते,क्योंमक भले ही मकसी को मनमवमशेष ब्रह्म की मिव्य
अनुभमू त क्यों न हो, कृ ष्ट्ण को जान पाना अत्यन्त कमिन है ।
कृ ष्ट्ण भगवान् सर्स्त कारणों के कारण, आमि पुरुष गोमवन्ि हैं । ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः सस्चचर्ानन्र्
स्वग्रहः। अनास्र्रास्र्गोस्वन्र्ः सवद ारण ारणम्। अभक्तों के मलए उन्हें जान पाना अत्यन्त कमिन है । यद्यमप अभक्तगण
यह घोमषत करते हैं मक भमक्त का र्ागम सुगर् है, मकन्तु वे इस पर चलते नहीं । यमि भमक्तर्ागम इतना सुगर् है मजतना
अभक्तगण कहते हैं तो मिर वे कमिन र्ागम को क्यों ग्रहण करते हैं? वास्तव र्ें भमक्तर्ागम सगु र् नहीं है । भमक्त के ज्ञान र्ें
हीन अनमधकारी लोगों द्वारा ग्रहण मकया जाने वाला तर्ाकमर्त भमक्तर्ागम भले ही सुगर् हो, मकन्तु जब मवमध-मवधानों

२२८
के अनुसार दृढ़तापूवमक इसका अभ्यास मकया जाता है तो र्ीर्ांसक तर्ा िाशममनक इस र्ागम से च्युत हो जाते हैं । श्रील
रूप गोस्वार्ी अपनी कृ मत भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें (१.२.१०१) मलखते हैं –
श्रस्ु त स्मृस्तपुराणास्र् पञ्चरात्रस्वस्धां स्वना ।
ए ास्न्त ी हरे भदस्िरुत्पातायैव ल्पते ।।
“वह भगवद्भमक्त, जो उपमनषिों, पुराणों तर्ा नारि पंचरात्र जैसे प्रार्ामणक वैमिक ग्रंर्ों की अवहेलना करती
है, सर्ाज र्ें व्यर्म ही अव्यवस्र्ा िै लाने वाली है ।”
ब्रह्मवेत्ता मनमवमशेषवािी या परर्ात्र्ावेत्ता योगी भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को यशोिा-नन्िन या पार्ामसारर्ी के रूप र्ें
कभी नहीं सर्झ सकते । कभी-कभी बड़े-बड़े िेवता भी कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें भ्रमर्त हो जाते हैं – मह्य ु स्न्त यत्सूरयः । माां तु
वेर् न श्र्चन – भगवान् कहते हैं मक कोई भी र्झु े उस रूप र्ें तत्त्वतः नहीं जानता, जैसा र्ैं हँ । और यमि कोई जानता
है – स महात्मा सुर्ल ु दभः– तो ऐसा र्हात्र्ा मवरला होता है । अतः भगवान् की भमक्त मकये मबना कोई भगवान् को
तत्त्वतः नहीं जान पाता, भले ही वह र्हान मवद्वान् या िाशममनक क्यों न हो । के वल शद्ध ु भक्त ही कृ ष्ट्ण के अमचन्त्य गुणों
को सब कारणों के कारण रूप र्ें उनकी सवमशमक्तर्त्ता तर्ा ऐश्र्वयम, उनकी सम्पमत्त, यश, बल, सौन्ियम, ज्ञान तर्ा वैराग्य
के मवषय र्ें कुछ-कुछ जान सकता है, क्योंमक कृ ष्ट्ण अपने भक्तों पर ियालु होते हैं । ब्रह्म-साक्षात्कार की वे पराकाष्टा हैं
और के वल भक्तगण ही उन्हें तत्त्वतः जान सकते हैं । अतएव भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें (१.२.२३४) कहा गया है –
अतः श्री ृ ष्णनामास्र् न भवेर्ग्र् ाह्यस्मस्न्द्रयैः ।
सेवोन्मख ु े स्ह स्जह्वार्ौ स्वयमेव स्फुरत्यर्ः ।।
“कंु मित इमन्द्रयों के द्वारा कृ ष्ट्ण को तत्त्वतः नहीं सर्झा जा सकता । मकन्तु भक्तों द्वारा की गई अपनी मिव्यसेवा से
प्रसन्न होकर वे भक्तों को आत्र्तत्त्व प्रकामशत करते हैं ।”

भनू मरापोऽिलो वाय:ु खं मिो बनु द्धरेव च ।


अहंकार इतीयं मे नभन्िा प्रकृ नतरष्टधा ।। ४ ।।

भूमम:—िृथ्वी; आप:—जल; अनल:—अपग्न; वायु:—वाय;ु खम्—आकाश; मन:—मन; बुमद्ध:—


बुपद्ध; एव—पनिय ही; च—तथा; अहङ्ग्कार:—अहक ं ार; इमत— इस प्रकार; इयम्—ये सब; मे—मेरी; मभन्ना—
िृथक् ; प्रकृ मत:—शपक्तयाूँ; अष्टधा— आठ प्रकार की

पृथ्वी, जल, अनग्ि, वायु, आकाश, मि, बुनद्ध तथा अहंकार – ये आठ प्रकार से नवभि मेरी नभन्िा
(अपर) प्रकृ नतयाूँ हैं ।

तात्पयम : ईश्र्वर-मवज्ञान भगवान् की स्वाभामवक मस्र्मत तर्ा उनकी मवमवध शमक्तयों का मवश्लेषण है । भगवान्
के मवमभन्न परुु ष अवतारों (मवस्तारों) की शमक्त को प्रकृ मत कहा जाता है, जैसा मक सात्वततन्त्र र्ें उल्लेख मर्लता है –
स्वष्णोस्तु त्रीस्ण रूपास्ण पुरूषाख्यान्यथो स्वर्ःु ।
ए ां तु महतः स्त्रष्टृ स्ितीयां त्वण्डसस्ां स्थतम् ।
तृतीयां सवदभतू स्थां तास्न ज्ञात्वा स्वमचु यते ।।

२२९
“सृमष्ट के मलए भगवान् कृ ष्ट्ण का स्वांश तीन मवष्ट्णओ ु ं का रूप धारण करता है । पहले र्हामवष्ट्णु हैं, जो सम्पूणम
भौमतक शमक्त र्हत्तत्व को उत्पन्न करते हैं । मद्वतीय गभोिकशायी मवष्ट्णु हैं, जो सर्स्त ब्रह्माण्डों र्ें प्रमवष्ट होकर उनर्ें
मवमवधता उत्पन्न करते हैं । तृतीय क्षीरोिकशायी मवष्ट्णु हैं जो सर्स्त ब्रह्माण्डों र्ें सवमव्यापी परर्ात्र्ा के रूप र्ें िै ले हुए
हैं और परर्ात्र्ा कहलाते हैं । वे प्रत्येक परर्ाणु तक के भीतर उपमस्र्त हैं । जो भी इन तीनों मवष्ट्णु रूपों को जानता
है, वह भवबन्धन से र्क्त ु हो सकता है ।”
यह भौमतक जगत् भगवान् की शमक्तयों र्ें से एक का क्षमणक प्राकट् य है । इस जगत् की सारी मक्रयाएँ भगवान्
कृ ष्ट्ण के इन तीनों मवष्ट्णु अशं ों द्वारा मनिेमशत हैं । ये परुु ष अवतार कहलाते हैं । सार्ान्य रूप से जो व्यमक्त ईश्र्वर तत्त्व
(कृ ष्ट्ण) को नहीं जानता, वह यह र्ान लेता है मक यह संसार जीवों के भोग के मलए है और सारे जीव पुरुष हैं – भौमतक
शमक्त के कारण, मनयन्ता तर्ा भोक्ता हैं । भगवद्गीता के अनुसार यह नामस्तक मनष्ट्कषम झिू ा है । प्रस्ततु श्लोक र्ें कृ ष्ट्ण
को इस जगत् का आमि कारण र्ाना गया है । श्रीमद्भागवत र्ें भी इसकी पुमष्ट होती है । भगवान् की पृर्क् -पृर्क्
शमक्तयाँ इस भौमतक जगत् के घटक हैं । यहाँ तक मक मनमवमशेषवामियों का चरर्लक्ष्य ब्रह्मजयोमत भी एक अध्यामत्र्क
शमक्त है, जो परव्योर् र्ें प्रकट होती है । ब्रह्मजयोमत र्ें वैसी मभन्नताएँ नहीं, जैसी मक वैकुण्िलोकों र्ें हैं, मिर भी
मनमवमशेषवािी इस ब्रह्मजयोमत को चरर् शाश्र्वत लक्ष्य स्वीकार करते हैं । परर्ात्र्ा की अमभव्यमक्त भी क्षीरोिकशायी
मवष्ट्णु का एक क्षमणक सवमव्यापी पक्ष है । आध्यामत्र्क जगत् र्ें परर्ात्र्ा की अमभव्यमक्त शाश्र्वत नहीं होती ।अतः
यर्ार्म परर्सत्य तो श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण हैं । वे पूणम शमक्तर्ान पुरुष हैं और उनकी नाना प्रकार की मभन्ना तर्ा अन्तरंगा
शमक्तयाँ होती हैं ।
जैसा की ऊपर कहा जा चक ु ा है, भौमतक शमक्त आि प्रधान रूपों र्ें व्यक्त होती है । इनर्ें से प्रर्र् पाँच –
पृथ्वी, जल, अमग्न, वायु तर्ा आकाश स्र्ूल अर्वा मवराट सृमष्टयाँ कहलाती हैं, मजनर्ें पाँच इमन्द्रयमवषय, मजनके नार्
हैं – शब्ि, स्पशम, रूप, रस, तर्ा गंध – समम्र्मलत रहते हैं । भौमतक मवज्ञान र्ें ये ही िस तत्त्व हैं । मकन्तु अन्य तीन तत्त्वों
को, मजनके नार् र्न, बमु द्ध तर्ा अहक ं ार हैं, भौमतकतावािी उपेमक्षत रखते हैं । िाशममनक भी, जो र्ानमसक कायमकलापों
से संबंध रखते हैं, पूणमज्ञानी नहीं है, क्योंमक वे परर् उद्गर् कृ ष्ट्ण को नहीं जानते । मर्थ्या अहक ं ार – ‘र्ैं ह’ँ तर्ा ‘यह र्ेरा
है’ – जो मक संसार का र्ल ू कारण है इसर्ें मवषयभोग की िस इमन्द्रयों का सर्ावे श है । बमु द्ध र्हत्तत्व नार्क सर्ग्र
भौमतक सृमष्ट की सूचक है । अतः भगवान् की आि मवमभन्न शमक्तयों से जगत् के चौबीस तत्त्व प्रकट हैं, जो नामस्तक
सांख्यिशमन के मवषय हैं । ये र्ूलतः कृ ष्ट्ण की शमक्तयों की उपशाखाएँ हैं और उनसे मभन्न हैं, मकन्तु नामस्तक सांख्य
िाशममनक अल्पज्ञान के कारण यह नहीं जान पाते मक कृ ष्ट्ण सर्स्त कारणों के कारण हैं । जैसा मक भगवद्गीता र्ें कहा
गया है, सांख्यिशमन की मववेचना का मवषय कृ ष्ट्ण की बमहरंगा शमक्त का प्राकट् य है ।

अपरेयनमतस्त्वन्यां प्रकृ नतं नवनद्ध मे पराम् ।


जीवभूतां महाबाहो ययेदं धायमते जगत् ।। ५ ।।
अपरा—पनकृ ष्ट, जड; इयम्—यह; इत:—इसके अपतररक्त; तु—लेपकन; अन्याम्— अन्य; प्रकृ मतम्—
प्रकृ पत को; मवमद्ध—जानने का प्रयत्न करो; मे—मेरी; पराम्— उत्कृ ष्ट, चेतन; जीव-भतू ाम्—जीवों वाली; महा-
बाहो—हे बपलि भजु ाओ ं वाले; यया—पजसके द्वारा; इदम्—यह; धायपते—प्रयुक्त पकया जाता है, दोहन होता है;
जगत्—ससं ार

२३०
हे महाबाहु अजमिु ! इिके अनतररि मेरी एक अन्य परा शनि है जो उि जीवों से युिहै, जो इस भौनतक
अपरा प्रकृ नत के साधिों का नवदोहि कर रहे हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें स्पष्ट कहा गया है मक जीव परर्ेश्र्वर की परा प्रकृ मत (शमक्त) है । अपरा शमक्त तो
पृथ्वी, जल, अमग्न, वायु, आकाश, र्न, बुमद्ध तर्ा अहक ं ार जैसे मवमभन्न तत्त्वों के रूप र्ें प्रकट होती है । भौमतक
प्रकृ मत के ये िोनों रूप-स्र्ूल (पृथ्वी आमि) तर्ा सूक्ष्र् (र्न आमि) – अपरा शमक्त के ही प्रमतिल हैं । जीव जो अपने
मवमभन्न कायों के मलए अपरा शमक्तयों का मविोहन करता रहता है, स्वयं परर्ेश्र्वर की परा शमक्त है और यह वही शमक्त
है मजसके कारण संसार कायमशील है । इस दृश्यजगत् र्ें कायम करने की तब तक शमक्त नहीं आती, जब तक परा शमक्त
अर्ामत् जीव द्वारा यह गमतशील नहीं बनाया जाता । शमक्त का मनयन्त्रण सिैव शमक्तर्ान करता है, अतः जीव सिैव
भगवान् द्वारा मनयमन्त्रत होते हैं । जीवों का अपना कोई स्वतन्त्र अमस्तत्व नहीं है । वे कभी भी सर् शमक्तर्ान नहीं, जैसा
मक बुमद्धहीन र्नुष्ट्य सोचते हैं । श्रीमद्भागवत र्ें (१०.८७.३०) जीव तर्ा भगवान् के अन्तर को इस प्रकार बताया गया
है –
अपररस्मता ध्रवु ास्तनुभतृ ो यस्र् सवदगता-
स्तस्हद न शास्यतेस्त स्नयमो ध्रवु नेतरथा ।
अजस्न च यन्मयां तर्स्वमचु य स्नयन्तृ भवेत्
सममनुजानताां यर्मतां मतदृष्टतया ।।
“हे परर् शाश्र्वत! यमि सारे िेहधारी जीव आप ही की तरह शाश्र्वत एवं सवमव्यापी होते तो वे आपके मनयन्त्रण
र्ें न होते । मकन्तु यमि जीवों को आपकी सूक्ष्र् शमक्त के रूप र्ें र्ान मलया जाय तब तो वे सभी आपके परर् मनयन्त्रण
र्ें आ जाते हैं । अतः वास्तमवक र्मु क्त तो आपकी शरण र्ें जाना है और इस शरणागमत से वे सुखी होंगे । उस स्वरूप र्ें
ही वे मनयन्ता बन सकते हैं । अतः अल्पज्ञ परुु ष, जो अद्वैतवाि के पक्षधर हैं और इस मसद्धान्त का प्रचार करते हैं मक
भगवान् और जीव सभी प्रकार से एक िसू रे के सर्ान हैं, वास्तव र्ें वे प्रिमू षत र्त द्वारा मनिेमशत होते हैं ।”
परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण ही एकर्ात्र मनयन्ता हैं और सारे जीव उन्हीं के द्वारा मनयमन्त्रत हैं । सारे जीव उनकी पराशमक्त
हैं, क्योंमक उनके गुण परर्ेश्र्वर के सर्ान हैं, मकन्तु वे शमक्त की र्ात्रा के मवषय र्ें कभी भी सर्ान नहीं है । अतुल तर्ा
सूक्ष्र् अपराशमक्त का उपभोग करते हुए पराशमक्त (जीव) को अपने वास्तमवक र्न तर्ा बुमद्ध की मवस्र्ृमत हो जाती
है । इस मवस्र्ृमत का कारण जीव परजड़ प्रकृ मत का प्रभाव है । मकन्तु जब जीव र्ाया के बन्धन से र्क्त ु हो जाता है, तो
उसे र्मु क्त-पि प्राप्त होता है । र्ाया के प्रभाव र्ें आकर अहक ं ार सोचता है, “र्ैं ही पिार्म हँ और सारी भौमतक उपलमब्ध
र्ेरी है ।” जब वह सारे भौमतक मवचारों से, मजनर्ें भगवान् के सार् तािात्म्य भी समम्र्मलत है, र्क्त ु हो जाता है, तो उसे
वास्तमवक मस्र्मत प्राप्त होती है । अतः यह मनष्ट्कषम मनकाला जा सकता है मक गीता जीव को कृ ष्ट्ण की अनेक शमक्तयों
र्ें से एक र्ानती है और जब यह शमक्त भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो जाती है, तो यह पूणमतयाकृ ष्ट्णभावनाभामवत या
बन्धन र्क्त ु हो जाती है ।

एतद्योिीनि भूतानि सवामणीत्युपधारय ।


अहं कृ त्स्िस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ।। ६ ।।

२३१
एतत्—ये दोनों शपक्तयाूँ; योनीमन—पजनके जन्म के स्रोत, योपनयाूँ; भूतामन—प्रत्येक सृष्ट िदाथत; सवापमण—
सारे ; इमत—इस प्रकार; उपधारय—जानो; अहम्—मैं; कृ त्स्नस्य—सम्िूणत; जगत:—जगत का; प्रभव:—उत्िपत्त
का कारण; प्रलय:—प्रलय, संहार; तथा—और

सारे प्रानणयों का उद्गम इि दोिों शनियों में है । इस जगत् में जो कुछ भी भौनतक तथा आध्यानत्मक
है, उसकी उत्पनत्त तथा प्रलय मुझे ही जािो ।

तात्पयम : मजतनी वस्तुएँ मवद्यर्ान हैं, वे पिार्म तर्ा आत्र्ा के प्रमतिल हैं । आत्र्ा सृमष्ट का र्ूल क्षेत्र है और
पिार्म आत्र्ा द्वारा उत्पन्न मकया जाता है । भौमतक मवकास की मकसी भी अवस्र्ा र्ें आत्र्ा की उत्पमत्त नहीं
होती, अमपतु यह भौमतक जगत् आध्यामत्र्क शमक्त के आधार पर ही प्रकट होता है । इस भौमतक शरीर का इसीमलए
मवकास हुआ क्योंमक इसके भीतर आत्र्ा उपमस्र्त है । एक बालक धीरे -धीरे बढ़कर कुर्ार तर्ा अन्त र्ें युवा बन
जाता है, क्योंमक उसके भीतर आत्र्ा उपमस्र्त है । इसी प्रकार इस मवराट ब्रह्माण्ड की सर्ग्र सृमष्ट का मवकास परर्ात्र्ा
मवष्ट्णु की उपमस्र्मत के कारण होता है । अतः आत्र्ा तर्ा पिार्म र्ूलतः भगवान् की िो शमक्तयाँ हैं, मजनके संयोग से
मवराट ब्रह्माण्ड प्रकट होता है । अतः भगवान् ही सभी वस्तुओ ं के आमि कारण हैं । भगवान् का अंश रूप जीवात्र्ा
भले ही मकसी गगनचम्ु बी प्रासाि या मकसी र्हान कारखाने या मकसी र्हानगर का मनर्ामता हो सकता है, मकन्तु वह
मवराट ब्रह्माण्ड का कारण नहीं हो सकता । इस मवराट ब्रह्माण्ड का स्त्रष्टा भी मवराट आत्र्ा या परर्ात्र्ा है । और
परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण मवराट तर्ा लघु िोनों ही आत्र्ाओ ं के कारण हैं । अतः वे सर्स्त कारणों के कारण है । इसकी
पुमष्ट ठोपषर्् र्ें (२.२.१३) हुई है – स्नत्यो स्नत्यानाां चेतनश्र्चेतनानाम् ।

मत्तः परतरं िान्यनत्कनञ्चदनस्त धिञ्जय ।


मनय सवमनमदं प्रोतं सूत्रे मनणगणा इव ।। ७ ।।

मत्त:—मझु से िरे ; पर-तरम्—श्रेि; न—नहीं; अन्यत् मकमञ्चत्—अन्य कुछ भी; अमस्त—है; धनञ्जय—हे
धन के पवजेता; ममय—मझु में; सवपम— ् सब कुछ; इदम्—यह जो हम देखते हैं; प्रोतम्—गुूँथा हुआ; सूत्रे—धागे में;
ममण-गणा:—मोपतयों के दाने; इव—सदृश

हे धिञ्जय! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य िहीं है । नजस प्रकार मोती धागे में गुूँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कुछ
मुझ पर ही आनश्रत है ।

तात्पयम : परर्सत्य साकार है या मनराकार, इस पर सार्ान्य मववाि चलता है । जहाँ तक भगवद्गीता का प्रश्न
है, परर्सत्य तो श्रीभगवान् श्रीकृ ष्ट्ण हैं और इसकी पमु ष्ट पि-पि पर होती है । इस श्लोक र्ें मवशेष रूप से बल है मक
परर्सत्य पुरुष रूप है । इस बात की मक भगवान् ही परर्सत्य हैं, ब्रह्मसांस्हता र्ें भी पुमष्ट हुई है – ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः
सस्चचर्ानन्र् स्वग्रहः – परर्सत्य श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण ही हैं, जो आमि परुु ष हैं । सर्स्त आनन्ि के आगार गोमवन्ि हैं और
वे समच्चिानन्ि स्वरूप हैं । ये सब प्रर्ाण मनमवमवाि रूप से प्रर्ामणत करते हैं मक परर् सत्य पुरुष हैं जो सर्स्त कारणों
का कारण हैं । मिर भी मनरीश्र्वरवािी श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् र्ें (३.१०) उपलब्ध वैमिक र्न्त्र के आधार पर तकम िेते हैं –

२३२
ततो यर्त्तु रतरां तर्रूपमनामयां । य एतस्िर्रु मृतास्ते भवन्त्यथेतरे र्ःु खमेवास्पयस्न्त– “भौमतक जगत् र्ें ब्रह्माण्ड के आमि
जीव ब्रह्मा को िेवताओ,ं र्नुष्ट्यों तर्ा मनम्न प्रामणयों र्ें सवमश्रेि र्ाना जाता है । मकन्तु ब्रह्मा के परे एक इमन्द्रयातीत ब्रह्म
है मजसका कोई भौमतक स्वरूप नहीं होता और वो सर्स्त भौमतक कल्र्ष से रमहत होता है । जो व्यमक्त उसे जान लेता
है वह भी मिव्य बन जाता है, मकन्तु जो उसे नहीं जान पाते, वे सांसाररक िख ु ों को भोगते रहते हैं ।”
मनमवमशेषवािी अरूपम् शब्ि पर मवशेष बल िेते हैं । मकन्तु यह अरूपम् शब्ि मनराकार नहीं है । यह मिव्य
समच्चिानन्ि स्वरूप का सूचक है , जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें वमणमत है और ऊपर उद्धतृ है । श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् के
अन्य श्लोकों (३.८-९) से भी इसकी पमु ष्ट होती है –
वेर्ाहमेतां पुरुषां महान्तमास्र्त्यवणं तमसः परस्तात् ।
तमेव स्विानस्त मृत्युमस्त नान्यः पन्था स्वयतेऽयनाय ।।
यस्मात्परां नापरमस्स्त स् स्ञ्चर्् यस्मान्नाणीयो नो ज्यायोऽस्त स् स्ञ्चत् ।
वृक्ष इव स्तब्द्धो स्र्स्व स्तष्ठत्ये स्तेनेर्ां पूणं पुरुषेण सवदम् ।।
“र्ैं उन भगवान् को जानता हँ जो अंधकार की सर्स्त भौमतक अनुभमू तयों से परे हैं । उनको जानने वाला ही
जन्र् तर्ा र्ृत्यु के बन्धन का उल्लंघन कर सकता है । उस परर्पुरुष के इस ज्ञान के अमतररक्त र्ोक्ष का कोई अन्य
साधन नहीं है ।”
“उन परर्पुरुष से बढ़कर कोई सत्य नहीं क्योंमक वे श्रेितर् हैं । वे सूक्ष्र् से भी सूक्ष्र्तर हैं और र्हान से भी
र्हानतर हैं । वे र्क ू वृक्ष के सर्ान मस्र्त हैं और मिव्य आकाश को प्रकामशत करते हैं । मजस प्रकार वृक्ष अपनी जड़ें
िै लाता है, ये भी अपनी मवस्तृत शमक्तयों का प्रसार करते हैं ।”
इस श्लोकों से मनष्ट्कषम मनकलता है मक परर्सत्य ही श्रीभगवान् हैं, जो अपनी मवमवध परा-अपरा शमक्तयों के द्वारा
सवमव्यापी हैं ।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभानस्म शनशसयु मयो: ।


प्रणवः सवमवेदेषु शब्दः खे पौरुषं िृषु ।। ८ ।।

रस:—स्वाद; अहम्—मैं; अप्सु—जल में; कौन्तेय—हे कुन्तीिुत्र; प्रभा—प्रकाश; अमस्म—ह;ूँ र्मर्-


सूयपयो:—चन्द्रमा तथा सूयत का; प्रणव:—ओकं ार के अ, उ, म ये तीन अक्षर; सवप—समस्त; वेदेषु—वेदों में;
र्ब्द:—शब्द, ध्वपन; खे—आकाश में; पौरुषम्—शपक्त, सामथ्यत; नृषु—मनुष्यों में

हे कुन्तीपुत्र! मैं जल का स्वाद हूँ, सूयम तथा चन्द्रमा का प्रकाश हूँ, वैनदक मन्त्रों में ओक
ं ार हूँ, आकाश
में ध्वनि हूँ तथा मिुष्ट्य में सामथ्यम हूँ ।

तात्पयम : यह श्लोक बताता है मक भगवान् मकस प्रकार अपनी मवमवध परा तर्ा अपरा शमक्तयों द्वारा सवमव्यापी
हैं । परर्ेश्र्वर की प्रारमम्भक अनुभमू त उनकी मवमभन्न शमक्तयों द्वारा हो सकती है और इस प्रकार उनका मनराकार रूप र्ें
अनभु व होता है । मजस प्रकार सयू मिेवता एक परुु ष है और सवमव्यापी शमक्त – सूयमप्रकाश – द्वारा अनभु व मकया जाता
है, उसी प्रकार भगवान् अपने धार् र्ें रहते हुए भी अपनी सवमव्यापी शमक्तयों द्वारा अनुभव मकये जाते हैं । जल का स्वाि
जल का र्ल ू भतू गुण है । कोई भी व्यमक्त सर्द्रु का जल नहीं पीना चाहता क्योंमक इसर्ें शद्ध
ु जल के स्वाि के सार्

२३३
सार् नर्क मर्ला रहता है । जल के प्रमत आकषमण का कारण स्वाि की शुमद्ध है और यह शद्ध ु स्वाि भगवान् की
शमक्तयों र्ें से एक है । मनमवमशेषवािी व्यमक्त जल र्ें भगवान् की उपमस्र्मत जल के स्वाि के कारण अनुभव करता है
और सगुणवािी भगवान् का गुणगान करता है, क्योंमक वे प्यास बुझाने के मलए सुस्वािु जल प्रिान करते हैं । परर्ेश्र्वर
को अनुभव करने की यही मवमध है । व्यव्हारतः सगुणवाि तर्ा मनमवमशेषवाि र्ें कोई र्तभेि नहीं है । जो ईश्र्वर को
जानता है वह यह भी जानता है मक प्रत्येक वस्तु र्ें एकसार् सगुणबोध तर्ा मनगुमणबोध मनमहत होता है और इनर्ें कोई
मवरोध नहीं है । अतः भगवान् चैतन्य ने अपना शुद्ध मसद्धान्त प्रमतपामित मकया जो अमचन्त्य भेिाभेि-तत्त्व कहलाता है ।
सयू म तर्ा चन्द्रर्ा का प्रकाश भी र्लू तः ब्रह्मजयोमत से मनकलता है, जो भगवान् का मनमवमशेष प्रकाश है । प्रणव
या ओकं ार प्रत्येक वैमिक र्न्त्र के प्रारम्भ र्ें भगवान् को सम्बोमधत करने के मलए प्रयुक्त मिव्य ध्वमन है । चँमू क
मनमवमशेषवािी परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण को उनके असख्ं य नार्ों के द्वारा पक ु ारने से भयभीत रहते हैं, अतः वे ओकं ार का
उच्चारण करते हैं, मकन्तु उन्हें इसकी तमनक भी अनुभमू त नहीं होती मक ओकं ार कृ ष्ट्ण का शब्ि स्वरूप
है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का क्षेत्र व्यापक है और जो इस भावनार्ृत को जानता है वह धन्य है । जो कृ ष्ट्ण को नहीं जानते वे
र्ोहग्रस्त रहते हैं । अतः कृ ष्ट्ण का ज्ञान र्ुमक्त है और उनके प्रमत अज्ञान बन्धन है ।
पुण्यो गन्धः पृनथव्यां च तेजश्र्चानस्म नवभावसौ ।
जीविं सवमभूतेषु तपश्र्चानस्म तपनस्वषु ।। ९ ।।

पुण्यः– र्लू , आद्य; गन्धः– सुगंध; पृनथव्याम्– पृथ्वी र्ें; च– भी; तेजः– प्रकाश; च– भी; अनस्म–
ह;ँ नवभावसौ– अमग्न र्ें; जीविम्– प्राण; सवम– सर्स्त; भूतेषु– जीवों र्ें; तपः– तपस्या; च– भी; अनस्म–
ह;ँ तपनस्वष–ु तपमस्वयों र्ें ।

मैं पृथ्वी की आद्य सगु ध


ं और अनग्ि की ऊष्ट्मा हूँ । मैं समस्त जीवों का जीवि तथा तपनस्वयों का तप
हूँ।

तात्पयम :पुण्य का अर्म है – मजसर्ें मवकार न हो, अतः आद्य । इस जगत र्ें प्रत्येक वस्तु र्ें कोई न कोई सुगंध
होती है, यर्ा िूल की सुगंध या जल, पृथ्वी, अमग्न, वायु आमि की सुगंध । सर्स्त वस्तुओ ं र्ें व्याप्त अिमू षत भौमतक
गन्ध, जो आद्य सुगंध है, वह कृ ष्ट्ण हैं । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का एक मवमशष्ट स्वाि (रस) होता है और इस स्वाि
को रसायनों के मर्श्रण द्वारा बिला जा सकता है । अतः प्रत्येक र्ूल वस्तु र्ें कोई न कोई गन्ध तर्ा स्वाि होता
है । स्वभावसु का अर्म अमग्न है । अमग्न के मबना न तो िै क्टरी चल सकती है, न भोजन पक सकता है । यह अमग्न कृ ष्ट्ण
है । अमग्न का तेज (ऊष्ट्र्ा) भी कृ ष्ट्ण ही है । वैमिक मचमकत्सा के अनुसार कुपच का कारण पेट र्ें अमग्न की र्ंिता है ।
अतः पाचन तक के मलए अमग्न आवश्यक है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें हर् इस बात से अवगत होते हैं मक पृथ्वी, जल,
अमग्न, वायु तर्ा प्रत्येक सक्रीय तत्त्व, सारे रसायन तर्ा सारे भौमतक तत्त्व कृ ष्ट्ण के कारण हैं । र्नुष्ट्य की आयु भी कृ ष्ट्ण
के कारण है । अतः कृ ष्ट्ण कृ पा से ही र्नष्ट्ु य अपने को िीघामलु या अल्पजीवी बना सकता है । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत
प्रत्येक क्षेत्र र्ें सक्रीय रहता है ।

बीजं मां सवमभूतािां नवनद्ध पाथम सिातिम् ।


बुनद्धबमनु द्धमतामनस्म तेजस्तेजनस्विामहम् ।। १० ।।

२३४
बीजम्—बीज; माम्—मझु को; सवप-भूतानाम्—समस्त जीवों का; मवमद्ध—जानने का प्रयास करो; पाथप —
हे िृथािुत्र; सनातनम्—आपद, शाश्वत; बुमद्ध:—बुपद्ध; बुमद्ध- मताम्—बुपद्धमानों की; अमस्म—ह;ूँ तेज:—तेज;
तेजमस्वनाम्—तेजपस्वयों का; अहम्—मैं ।

हे पृथापुत्र! यह जाि लो नक मैं ही समस्त जीवों का आनद बीज हूँ, बुनद्धमािों की बुनद्ध तथा समस्त
तेजस्वी परुु षों का तेज हूँ ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण सर्स्त पिार्ों के बीज हैं । कई प्रकार के चर तर्ा अचर जीव हैं । पक्षी, पश,ु र्नष्ट्ु य तर्ा अन्य
सजीव प्राणी चर हैं, पेड़ पौधे अचर हैं – वे चल नहीं सकते, के वल खड़े रहते हैं । प्रत्येक जीव चौरासी लाख योमनयों के
अन्तगमत है, मजनर्े से कुछ चार हैं और कुछ अचर । मकन्तु इस सबके जीवन के बीजस्वरूप श्रीकृ ष्ट्ण हैं । जैसा मक
वैमिक सामहत्य र्ें कहा गया है ब्रह्म या परर्सत्य वह है मजससे प्रत्येक वस्तु उद्भुत है । कृ ष्ट्ण परब्रह्म या परर्ात्र्ा
हैं । ब्रह्म तो मनमवमशेष है, मकन्तु परब्रह्म साकार है । मनमवमशेष ब्रह्म साकार रूप र्ें आधाररत है – यह भगवद्गीता र्ें कहा
गया है । अतः आमि रूप र्ें कृ ष्ट्ण सर्स्त वस्तुओ ं के उद्गर् हैं । वे र्लू हैं । मजस प्रकार र्ल
ू सारे वृक्ष का पालन करता है
उसी प्रकार कृ ष्ट्ण र्ल ू होने के करण इस जगत् के सर्स्त प्रामणयों का पालन करते हैं । इसकी पुमष्ट वैमिक सामहत्य र्ें
( ठोपस्नषर्् २.२.१३) हुई है –
स्नत्यो स्नत्यानाां चेतनश्र्चेतनानाम्
ए ो बहूनाां यो स्वर्धास्त मान्
वे सर्स्त मनत्यों के मनत्य हैं । वे सर्स्त जीवों के परर् जीव हैं और वे ही सर्स्त जीवों का पालन करने वाले
हैं । र्नष्ट्ु य बमु द्ध के मबना कुछ भी नहीं कर सकता और कृ ष्ट्ण भी कहते हैं मक र्ैं सर्स्त बमु द्ध का र्ल ू हँ । जब तक
र्नुष्ट्य बुमद्धर्ान नहीं होता, वह भगवान् कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ सकता ।

बलं बलवतां चाहं कामरागनववनजमतम् ।


धमामनवरुद्धो भूतेषु कामोऽनस्म भरतषमभ ।। ११ ।।

बलम्—शपक्त; बल-वताम्—बलवानों का; च—तथा; अहम्—मैं ह;ूँ काम— पवर्यभोग; राग—तथा


आसपक्त से; मववमजपतम्—रपहत; धमप-अमवरुद्ध:—जो धमत के पवरुद्ध नहीं है; भूतेष—
ु समस्त जीवों में; काम:—
पवर्यी जीवन; अमस्म—ह;ूँ भरत- ऋषभ—हे भारतवंपशयों में श्रेि!

मैं बलवािों का कामिाओ ं तथा इच्छा से रनहत बल हूँ । हे भरतश्रेष्ठ (अजमिु )! मैं वह काम हूँ, जो धमम
के नवरुद्ध िहीं है ।

तात्पयम : बलवान परुु ष की शमक्त का उपयोग िबु मलों की रक्षा के मलए होना चामहए, व्यमक्तगत आक्रर्ण के
मलए नहीं । इसी प्रकार धर्म-सम्र्त र्ैर्ुन सन्तानोन्पमत के मलए होना चामहए, अन्य कायों के मलए नहीं । अतः र्ाता-
मपता का उत्तरिामयत्व है मक वे अपनी सन्तान को कृ ष्ट्णभावनाभामवत बनाएँ ।

२३५
ये चैव सानत्त्वका भावा राजसास्तामसाश्र्च ये ।
मत्त एवेनत तानन्वनद्ध ि त्वहं तेषु ते मनय ।। १२ ।।

ये—जो; च—तथा; एव—पनिय ही; सामत्त्वका:—सतोगुणी; भावा:—भाव; राजसा:—रजोगुणी;


तामसा:—तमोगुणी; च—भी; ये—जो; मत्त:—मझु से; एव— पनिय ही; इमत—इस प्रकार; तान्—उनको;
मवमद्ध—जानो; न—नहीं; तु—लेपकन; अहम्—मैं; तेषु—उनमें; ते—वे; ममय—मझु में

तमु जाि लो नक मेरी शनि द्वारा सारे गण ु प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगण ु हों, रजोगण ु हों या तमोगण ु
हों । एक प्रकार से मैं सब कुछ ह,ूँ नकन्तु हूँ स्वतन्त्र । मैं प्रकृ नत के गुणों के अधीि िहीं ह,ूँ अनपतु वे मेरे अधीि
हैं ।

तात्पयम : संसार के सारे भौमतक कायमकलाप प्रकृ मत के गुणों के अधीन सम्पन्न होते हैं । यद्यमप प्रकृ मत के गुण
परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण से उद्भूत हैं, मकन्तु भगवान् उनके अधीन नहीं होते । उिाहरणार्म, राजय के मनयर्ानुसार कोई िमण्डत हो
सकता है, मकन्तु मनयर् बनाने वाला राजा उस मनयर् के अधीन नहीं होता । इसी प्रकार प्रकृ मत के सभी गुण – सतो, रजो
तर्ा तर्ोगुण – भगवान् कृ ष्ट्ण से उद्भूत हैं, मकन्तु कृ ष्ट्ण प्रकृ मत के अधीन नहीं हैं । इसीमलए वे स्नगुदण हैं, मजसका तात्पयम
है मक सभी गुण उनसे उद्भूत हैं, मकन्तु ये उन्हें प्रभामवत नहीं करते । यह भगवान् का मवशेष लक्षण है ।

नत्रनभगमण
ु मयैभामवैरेनभः सवमनमदं जगत् ।
मोनहतं िानभजािानत मामेभ्यः परमव्ययम् ।। १३ ।।

मत्रमभ:—तीन; गण ु -मयै:—गणु ों से यक्त


ु ; भावै:—भावों के द्वारा; एमभ:—इन; सवपम—
् सम्िणू त; इदम्—यह;
जगत्—ब्रह्माण्ड; मोमहतम्—मोहग्रस्त; न अमभजानामत—नहीं जानता; माम्—मझु को; एभ्य:—इनसे; परम्—
िरम; अव्ययम्— अव्यय, सनातन ।

तीि गुणों (सतो, रजो तथा तमो) के द्वारा मोहग्रस्त यह सारा संसार मुझ गुणातीत तथा अनविाशी को
िहीं जािता ।

तात्पयम : सारा संसार प्रकृ मत के तीन गुणों से र्ोमहत है । जो लोग इस प्रकार से तीन गुणों के द्वारा र्ोमहत हैं, वे
नहीं जान सकते मक परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण इस प्रकृ मत से परे हैं ।
प्रत्येक जीव को प्रकृ मत के वशीभतू होकर एक मवशेष प्रकार का शरीर मर्लता है और तिानसु ार उसे एक मवशेष
र्नोवैज्ञामनक (र्ानमसक) तर्ा शारीररक कायम करना होता है । प्रकृ मत के तीन गुणों के अन्तगमत कायम करने वाले र्नुष्ट्यों
की चार श्रेमणयाँ हैं । जो मनतान्त सतोगणु ी हैं वे ब्राह्मण, जो रजोगणु ी हैं वे क्षस्त्रय और जो रजोगणु ी एवं तर्ोगणु ी िोनों
हैं, वे वैश्य कहलाते हैं तर्ा जो मनतान्त तर्ोगुणी हैं वे शद्रु कहलाते हैं । जो इनसे भी नीचे हैं वे पशु हैं । मिर ये
उपामधयाँ स्र्ायी नहीं हैं । र्ैं ब्राह्मण, क्षमत्रय, वैश्य या कुछ भी हो सकता हँ । जो भी हो यह जीवन नश्र्वर है । यद्यमप यह

२३६
जीवन नश्र्वर है और हर् नहीं जान पाते मक अगले जीवन र्ें हर् क्या होंगे, मकन्तु र्ाया के वश र्ें रहकर हर् अपने
आपको िेहात्र्बुमद्ध के द्वारा अर्रीकी, भारतीय, रुसी या ब्राह्मण, महन्ि,ू र्ुसलर्ान आमि कहकर सोचते हैं । और यमि
हर् प्रकृ मत के गुणों र्ें बँध जाते हैं तो हर् उस भगवान् को भल ू जाते हैं जो इन गुणों के र्ल
ू र्ें है । अतः भगवान् का
कहना है मक सारे जीव प्रकृ मत के इन गुणों द्वारा र्ोमहत होकर यह नहीं सर्झ पाते मक इस संसार की पृिभमू र् र्ें भगवान्
हैं ।
जीव कई प्रकार के हैं – यर्ा र्नुष्ट्य, िेवता, पशु आमि; और इनर्ें से हर एक प्रकृ मत के वश र्ें है और ये सभी
मिव्यपरुु ष भगवान् को भल ू चक ु े हैं । जो रजोगणु ी तर्ा तर्ोगणु ी हैं, यहाँ तक मक जो सतोगणु ी भी हैं वे भी परर्सत्य के
मनमवमशेष ब्रह्म स्वरूप से आगे नहीं बढ़ पाते । वे सब भगवान् के साक्षात् स्वरूप के सर्क्ष संभ्रमर्त हो जाते हैं, मजसर्ें
सारा सौंियम, ऐश्र्वयम, ज्ञान, बल, यश तर्ा त्याग भरा है । जब सतोगणु ी तक इस स्वरूप को नहीं सर्झ पाते तो उनसे
क्या आशा की जाये जो रजोगुणी या तर्ोगुणी हैं? कृ ष्ट्णभावनार्ृत प्रकृ मत के तीनों गुणों से परे है और जो लोग
मनस्सन्िेह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त हैं, वे ही वास्तव र्ें र्क्त
ु हैं ।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।


मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरनन्त ते ।। १४ ।।

दैवी—पदव्य; मह—पनिय ही; एषा—यह; गुण-मयी—तीनों गुणों से युक्त; मम— मेरी; माया—शपक्त;
दुरत्यया—िार कर िाना कपठन, दस्ु तर; माम्—मझु े; एव— पनिय ही; ये—जो; प्रपद्यन्ते—शरण ग्रहण करते हैं;
मायाम् एताम्—इस माया के ; तरमन्त—िार कर जाते हैं; ते—वे ।

प्रकृ नत के तीि गण
ु ों वाली इस मेरी दैवी शनि को पार कर पािा कनठि है । नकन्तु जो मेरे शरणागत हो
जाते हैं, वे सरलता से इसे पार कर जाते हैं ।

तात्पयम : भगवान् की शमक्तयाँ अनन्त हैं और ये सारी शमक्तयाँ िैवी हैं । यद्यमप जीवात्र्ाएँ उनकी शमक्तयों के
अश ं हैं, अतः िैवी हैं, मकन्तु भौमतक शमक्त के सम्पकम र्ें रहने से उनकी परा शमक्त आच्छामित रहती है । इस प्रकार
भौमतक शमक्त से आच्छामित होने के कारण र्नुष्ट्य उसके प्रभाव का अमतक्रर्ण नहीं कर पाता । जैसा मक पहले कहा
जा चक ु ा है परा तर्ा अपरा शमक्तयाँ भगवान् से उद्भूत होने के करण मनत्य हैं । जीव भगवान् की परा शमक्त से सम्बमन्धत
होते हैं, मकन्तु अपरा शमक्त अर्ामत् पिार्म के द्वारा िमू षत होने से उनका र्ोह भी मनत्य होता है ।अतः बद्धजीव मनत्यबद्ध
है । कोई भी उसके बद्ध होने की तीमर् को नहीं बता सकता । िलस्वरूप प्रकृ मत के चंगुल से उसका छूट पाना अत्यन्त
कमिन है, भले ही प्रकृ मत अपराशमक्त क्यों न हो क्योंमक भौमतक शमक्त परर्ेच्छा द्वारा संचामलत होती है. मजसे लाँघ
पाना जीव के मलए कमिन है । यहाँ पर अपरा भौमतक प्रकृ मत को िैवीप्रकृ मत कहा गया है क्योंमक इसका सम्बन्ध िैवी है
तर्ा इसका चालन िैवी इच्छा से होता है । िैवी इच्छा से सच ं ामलत होने के कारण भौमतक प्रकृ मत अपर होते हुए भी
दृश्यजगत् के मनर्ामण तर्ा मवनाश र्ें र्हत्त्वपूणम भमू र्का मनभाती है । वेिों र्ें इसकी पुमष्ट इस प्रकार हुई है – मायाां तु
प्र ृ स्तां स्वयान्मास्यनां तु महेश्र्वरम्– यद्यमप र्ाया मर्थ्या या नश्र्वर है, मकन्तु र्ाया की पृिभमू र् र्ें परर् जािगू र भगवान्
हैं, जो परर् मनयन्ता र्हेश्र्वर हैं (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ४.१०) ।

२३७
गुण का िसू रा अर्म रस्सी (रजजु) है । इससे यह सर्झना चामहए मक बद्धजीव र्ोह रूपी रस्सी से जकड़ा हुआ
है । यमि र्नुष्ट्य के हार्-पैर बाँध मिये जायें तो वह अपने को छुड़ा नहीं सकता – उसकी सहायता के मलए कोई ऐसा
व्यमक्त चामहए जो बँधा न हो । चँमू क एक बँधा हुआ व्यमक्त िसू रे बँधे व्यमक्त की सहायता नहीं कर सकता, अतः रक्षक
को र्क्तु होना चामहए । अतः के वल कृ ष्ट्ण या उनके प्रार्ामणक प्रमतमनमध गुरु ही बद्धजीव को छुड़ा सकते हैं । मबना ऐसी
उत्कृ ष्ट सहायता के भवबन्धन से छुटकारा नहीं मर्ल सकता । भमक्त या कृ ष्ट्णभावनार्ृत इस प्रकार के छुटकारे र्ें
सहायक हो सकता है । कृ ष्ट्ण र्ाया के अधीश्र्वर होने के नाते इस िल ु ांघ्य शमक्त को आिेश िे सकते हैं मक बद्धजीव को
छोड़ िे । वे शरणागत जीव पर अहैतक ु ी कृ पा या वात्सल्यवश ही जीव को र्क्त
ु मकये जाने का आिेश िेते हैं, क्योंमक
जीव र्ल ू तः भगवान् का मप्रय पुत्र है । अतः मनिु र र्ाया के बंधन से र्क्त ु होने का एकर्ात्र साधन है, भगवान् के
चरणकर्लों की शरण ग्रहण करना ।
मामेव पि भी अत्यन्त सार्मक है । माम् का अर्म है एकर्ात्र कृ ष्ट्ण (मवष्ट्ण)ु को, ब्रह्म या मशव को नहीं । यद्यमप
ब्रह्मा तर्ा मशव अत्यन्त र्हान हैं और प्रायः मवष्ट्णु के ही सर्ान हैं, मकन्तु ऐसे रजोगुण तर्ा तर्ोगुण के अवतारों के
मलए सम्भव नहीं मक वे बद्धजीव को र्ाया के चंगुल से छुड़ा सके । िसू रे शब्िों र्ें, ब्रह्मा तर्ा मशव िोनों ही र्ाया के
वश र्ें रहते हैं । के वल मवष्ट्णु र्ाया के स्वार्ी हैं, अतः वे ही बद्धजीव को र्क्त ु कर सकते हैं । वेिों र्ें (श्र्वेताश्र्वतर
उपस्नषर्् ३.८) इसकी पुमष्ट तमेव स्वस्र्त्वा के द्वारा हुई है मजसका अर्म है, कृ ष्ट्ण को जान लेने पर ही र्मु क्त सम्भव
है । मशवजी भी पुमष्ट करते हैं मक के वल मवष्ट्ण-ु कृ पा से र्मु क्त प्राप्त की जा सकती है – मस्ु िप्रर्ाता सवेषाां स्वष्णरु े व न
सांशयः– अर्ामत् इसर्ें सन्िेह नहीं मक मवष्ट्णु ही सबों के र्ुमक्तिाता हैं ।

ि मां दुष्ट्कृनतिो मूढाः प्रपद्यन्ते िराधमाः ।


माययापहृतज्ञािा आसुरं भावमानश्रताः ।। १५ ।।

न—नहीं; माम्—मेरी; दुष्कृ मतन:—दुष्ट; मूढा:—मखू त; प्रपद्यन्ते—शरण ग्रहण करते हैं; नर-अधमा:—
मनष्ु यों में अधम; मायया—माया के द्वारा; अपहृत—चरु ाये गये; ज्ञाना:—ज्ञान वाले; आसरु म्—आसरु ी; भावम्—
प्रकृ पत या स्वभाव को; आमश्रता:—स्वीकार पकये हुए ।

जो निपट मुखम है, जो मिुष्ट्यों में अधम हैं, नजिका ज्ञाि माया द्वारा हर नलया गया है तथा जो असुरों की
िानस्तक प्रकृ नत को धारण करिे वाले हैं, ऐसे दुष्ट मेरी शरण ग्रहण िहीं करते ।

तात्पयम :भगवद्गीता र्ें यह कहा गया है मक श्रीभगवान् के चरणकर्लों की शरण ग्रहण करने से र्नुष्ट्य प्रकृ मत के
किोर मनयर्ों को लाँघ सकता है । यहाँ पर यह प्रश्न उिता है मक मिर मवद्वान िाशममनक, वैज्ञामनक, व्यापारी, शासक
तर्ा जनता के नेता सवमशमक्तर्ान भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के चरणकर्लों की शरण क्यों नहीं ग्रहण करते? बड़े-बड़े जननेता
मवमभन्न मवमधयों से मवमभन्न योजनाएँ बनाकर अत्यन्त धैयमपवू मक जन्र्-जन्र्ान्तर तक प्रकृ मत के मनयर्ों से र्मु क्त की
खोज करते हैं । मकन्तु यमि वही र्मु क्त भगवान् के चरणकर्लों की शरण ग्रहण करने र्ात्र से सम्भव हो तो ये बुमद्धर्ान
तर्ा श्रर्शील र्नष्ट्ु य इस सरल मवमध को क्यों नहीं अपनाते?
गीता इसका उत्तर अत्यन्त स्पष्ट शब्िों र्ें िेती है । सर्ाज के वास्तमवक मवद्वान नेता यर्ा
ब्रह्मा, मशव, कमपल, कुर्ारगण, र्नु, व्यास, िेवल, अमसत,

२३८
जनक, प्रिाि, बमल तर्ा उनके पश्चात् र्ाध्वाचायम, रार्ानुजाचायम, श्रीचैतन्य तर्ा बहुत से अन्य श्रद्धावान
िाशममनक, राजनीमतज्ञ, मशक्षक, मवज्ञानी आमि हैं जो सवमशमक्तर्ान परर्पुरुष के चरणों र्ें शरण लेते हैं । मकन्तु जो लोग
वास्तमवक िाशममनक, मवज्ञानी, मशक्षक, प्रशासक आमि नहीं हैं, मकन्तु भौमतक लाभ के मलए ऐसा बनते हैं, वे परर्ेश्र्वर
की योजना या पर् को स्वीकार नहीं करते । उन्हें ईश्र्वर का कोई ज्ञान नहीं होता; वे अपनी सांसाररक योजनाएँ बनाते हैं
और संसार की सर्स्याओ ं को हल करने के मलए अपने व्यर्म प्रयासों के द्वारा मस्र्मत को और जमटल बना लेते
हैं । चँमू क भौमतक शमक्त इतनी बलवती है, इसीमलए वह नामस्तकों की अवैध योजनाओ ं का प्रमतरोध करती है और
योजना आयोगों के ज्ञान को ध्वस्त कर िेती है ।
नामस्तक योजना-मनर्ामताओ ं को यहाँ र्ष्ु ृ स्तनः कहा गया है मजसका अर्म है, िुष्टजन । ृ ती का अर्म पुण्यात्र्ा
होताहै । नामस्तक योजना-मनर्ामता कभी-कभी अत्यन्त बमु द्धर्ान और प्रमतभाशाली होता है, क्योंमक मकसी भी मवराट
योजना के मलए, चाहे वह अच्छी हो या बुरी, बुमद्ध की आवश्यकता होती है । लेमकन नामस्तक की बुमद्ध का प्रयोग
परर्ेश्र्वर की योजना का मवरोध करने र्ें होता है, इसीमलए नामस्तक योजना-मनर्ामता िष्ट्ु कृती कहलाता है, मजससे सूमचत
होता है की उसकी बुमद्ध तर्ा प्रयास उलटी मिशा की ओर होते हैं ।
गीता र्ें यह स्पष्ट कहा गया है मक भौमतक शमक्त परर्ेश्र्वर के पूणम मनिेशन र्ें कायम करती है । उसका कोई स्वतन्त्र
प्रभत्ु व नहीं है । मजस प्रकार छाया पिार्म का अनुसरण करती है, उसी प्रकार यह शमक्त भी कायम करती है । तो भी यह
भौमतक शमक्त अत्यन्त प्रबल है और नामस्तक अपने अनीश्र्वरवािी स्वभाव के कारण यह नहीं जान सकता मक वह
मकस तरह कायम करती है, न ही वह परर्ेश्र्वर की योजना को जान सकता है । र्ोह तर्ा रजो एवं तर्ो गुणों र्ें रहकर
उसकी सारी योजनाएँ उसी प्रकार ध्वस्त हो जाती है, मजस प्रकार भौमतक दृमष्ट से मवद्वान्, वैज्ञामनक, िाशममनक, शासक
तर्ा मशक्षक होते हुए भी महरण्यकमशपु तर्ा रावण की सारी योजनाएँ ध्वस्त हो गई र्ीं । ये िष्ट्ु कृमत या िष्टु चार प्रकार
के होते हैं मजनका वणमन नीचे मिया जाता है –
(१)मढ़ू – वे जो कमिन श्रर् करने वाले भारवाही पशओ ु ं की भाँमत मनपट र्ख ू म होते हैं । वे अपने श्रर् का लाभ
स्वयं उिाना चाहते हैं, अतः वे भगवान् को उसे अमपमत करना नहीं चाहते । भारवाही पशु का उपयुक्त उिाहरण गधा
है । इस पशु से उसका स्वार्ी अत्यमधक कायम लेता है । गधा यह नहीं जानता मक वह अहमनमश मकसके मलए कार् करता
है । वह घास से पेट भर कर संतुष्ट रहता है, अपने स्वार्ी से र्ार खाने के भय से के वल कुछ घंटे सोता है और गधी से
बार-बार लात खाने के भय के बावजिू भी अपनी कार्तृमप्त पूरी करता है । कभी-कभी गधा कमवता करता है और िशमन
बघारता है, मकन्तु उसके रें कने से लोगों की शामन्त भंग होती है । ऐसी ही िशा उन सकार्-कमर्मयों की है जो यह नहीं
जानते मक वे मकसके मलए कर्म करते हैं । वे यह नहीं जानते मक कर्म यज्ञ के मलए है ।
ऐसे लोग जो अपने द्वारा उत्पन्न कर्ों के भार से िबे रहते हैं प्रायः यह कहते सुने जाते हैं मक उनके पास
अवकाश कहाँ मक वे जीव की अर्रता के मवषय र्ें सुनें । ऐसे र्ढू ों के मलए नश्र्वर भौमतक लाभ ही जीवन का सब कुछ
होता है भले ही वे अपने श्रर् िल के एक अंश का ही उपभोग कर सकें । कभी-कभी वे लाभ के मलए रातमिन नहीं
सोते, भले ही उनके आर्ाशय र्ें व्रण हो जाय या अपच हो जाय, वे मबना खाये ही संतुष्ट रहते हैं, वे र्ायार्य स्वामर्यों
के लाभ हेतु अहमनमश कार् र्ें व्यस्त रहते हैं । अपने असली स्वार्ी से अनमभज्ञ रहकर ये र्ख ु म कर्ी र्ाया की सेवा र्ें
व्यर्म ही अपना सर्य गँवाते हैं । िभु ामग्य तो यह है मक वे कभी भी स्वामर्यों के परर् स्वार्ी की शरण र्ें नहीं जाते, न ही
वे सही व्यमक्त से उसके मवषय र्ें सुनने र्ें कोई सर्य लगाते हैं । जो सक ू र मविा खाता है वह चीनी तर्ा घी से बनी
मर्िाइयों की परवाह नहीं करता । उसी प्रकार र्ख ु म कर्ी इस नश्र्वर जगत् की इमन्द्रयों को सुख िेने वाले सर्ाचारों को

२३९
मनरन्तर सुनता रहता है, मकन्तु संसार को गमतशील बनाने वाली शाश्र्वत जीमवत शमक्त (प्राण) के मवषय र्ें सुनने र्ें
तमनक भी सर्य नहीं लगाता ।
(२) िसू रे प्रकार के िष्ट्ु कृती नराधम अर्ामत् अधर् व्यमक्त कहलाता है । नर का अर्म है र्नुष्ट्य, र्नुष्ट्य और अधर्
का अर्म है, सब से नीच । चौरासी लाख जीव योमनयों र्ें से चार लाख र्ानव योमनयाँ हैं । इनर्ें से अनेक मनम्न र्ानव
योमनयाँ हैं, मजनर्ें से अमधकांश असंस्कृ त हैं । सभ्य र्ानव योमनयाँ वे हैं मजनके पास सार्ामजक, राजनीमतक तर्ा
धामर्मक मनयर् हैं । जो र्नुष्ट्य सार्ामजक तर्ा राजनीमतक दृमष्ट से उन्नत हैं, मकन्तु मजनका कोई धर्म नहीं होता वे नराधर्
र्ाने जाते हैं । धर्म ईश्र्वरमवहीन नहीं होता क्योंमक धर्म का प्रयोजन परर्सत्य को तर्ा उसके सार् र्नष्ट्ु य के सम्बन्ध को
जानना है । गीता र्ें भगवान् स्पष्टतः कहते हैं मक उनसे परे कोई भी नहीं और वे ही परर्सत्य हैं । र्नुष्ट्य-जीवन का
ससु स्ं कृ त रूप सवमशमक्तर्ान परर्सत्य श्रीभगवान् कृ ष्ट्ण के सार् र्नष्ट्ु य की मवस्र्ृतभावना को जागृत करने के मलए
मर्ला है । जो इस सुअवसर को हार् से जाने िेता है वही नराधर् है । शास्त्रों से पता चलता है मक जब बालक र्ाँ के गभम
र्ें अत्यन्त असहाय रहता है, तो वह अपने उद्धार के मलए प्रार्मना करता है और वचन िेता है मक गभम से बाहर आते ही
वह के वल भगवान् की पूजा करे गा । संकट के सर्य ईश्र्वर का स्र्रण प्रत्येक जीव का स्वभाव है, क्योंमक वह ईश्र्वर के
सार् सिा से सम्बमन्धत रहता है । मकन्तु उद्धार के बाि बालक जन्र्-पीड़ा को ओर उसी के सार् अपने उद्धारक को भी
भल ू जाता है, क्योंमक वह र्ाया के वशीभतू हो जाता है ।
यह तो बालकों के अमभभावकों का कतमव्य है मक वे उनर्ें सुप्त मिव्य भावनार्ृत को जागृत करें । वणामश्रर् पद्धमत
र्ें र्नुस्र्ृमत के अनुसार ईशभावनार्ृत को जागृत करने के उद्देश्य से िस शुमद्ध-संस्कारों का मवधान है, जो धर्म का पर्-
प्रिशमन करते हैं । मकन्तु अब मवश्र्व के मकसी भाग र्ें मकसी भी मवमध का दृढ़तापूवमक पालन नहीं होता और िलस्वरूप
९९.९% जनसंख्या नराधर् है ।
जब सारी जनसंख्या नराधर् हो जाती है तो स्वाभामवक है मक उनकी सारी तर्ाकमर्त मशक्षा भौमतक प्रकृ मत की
सवमसर्र्म शमक्त द्वारा व्यर्म कर िी जाती है । गीता के अनसु ार मवद्वान परुु ष वही है जो एक ब्राह्मण, कुत्ता, गाय, हार्ी
तर्ा चंडाल को सर्ान दृमष्ट से िेखता है । असली भक्त की भी ऐसी ही दृमष्ट होती है । गुरु रूप ईश्र्वर के अवतार
श्रीमनत्यानन्ि प्रभु ने िो भाइयों जगाई तर्ा र्ाधाई नार्क मवमशष्ट नराधर्ों का उद्धार मकया और यह मिखला मिया मक
मकस प्रकार शुद्ध भक्त नराधर्ों पर िया करता है । अतः जो नराधर् भगवान् द्वारा बमहष्ट्कृत मकया जाता है, वह के वल
भक्त की अनुकम्पा से पुनः अपना अध्यामत्र्क भावनार्ृत कर सकता है ।
श्रीचैतन्य र्हाप्रभु ने भागवत-धर्म का प्रवतमन करते हुए संस्तुमत की है मक लोग मवनीत भाव से भगवान् के सन्िेश
को सुनें । इस सन्िेश का सार भगवद्गीता है । मवनीत भाव से श्रवण करने र्ात्र से अधर् से अधर् र्नुष्ट्यों का उद्धार हो
सकता है, मकन्तु िभु ामग्यवश वे इस सन्िेश को सुनना तक नहीं चाहते – परर्ेश्र्वर की इच्छा के प्रमत सर्पमण करना तो िरू
रहा। ये नराधर् र्नुष्ट्य के प्रधान कतमव्य की डटकर अपेक्षा करते हैं ।
(३) र्ष्ु ृ स्तयों की तीसरी श्रेणी माययापहृतज्ञानाः की है अर्ामत् ऐसे व्यमक्तयों की मजनका प्रकाण्ड ज्ञान र्ाया के
प्रभाव से शन्ू य हो चक ु ा है । ये अमधकांशतः बुमद्धर्ान व्यमक्त होते हैं – यर्ा र्हान
िाशममनक, कमव, सामहत्यकार, वैज्ञामनक आमि, मकन्तु र्ाया इन्हें भ्रान्त कर िेती है, मजसके कारण ये परर्ेश्र्वर की
अवज्ञा करते हैं ।
इस सर्य माययापहृतज्ञानाः की बहुत बड़ी सख्ं या है, यहाँ तक मक वे भगवद्गीता के मवद्वानों के र्ध्य भी
हैं । गीता र्ें अत्यन्त सीधी सरल भाषा र्ें कहा गया है मक श्रीकृ ष्ट्ण ही भगवान् हैं । न तो कोई उनके तुल्य है, न ही उनसे
बड़ा । वे सर्स्त र्नुष्ट्यों के आमि मपता ब्रह्मा के भी मपता बताये गये हैं । वास्तव र्ें वे ब्रह्मा के ही नहीं, अमपतु सर्स्त

२४०
जीवयोमनयों के भी मपता हैं । वे मनराकार ब्रह्म तर्ा परर्ात्र्ा के र्ूल हैं और जीवात्र्ा र्ें मस्र्त परर्ात्र्ा उनका अंश
है । वे सबके उत्स हैं और सबों को सलाह िी जाती है मक उनके चरणकर्लों के शरणागत बनें । इन सब कर्नों के
बावजूि ये माययापहृतज्ञानाः भगवान् का उपहास करते हैं और उन्हें सार्ान्य र्नुष्ट्य र्ानते हैं । वे यह नहीं जानते मक
भाग्यशाली र्ानव जीवन श्रीभगवान् के मिव्य शाश्र्वत स्वरूप के अनुरूप ही रचा गया है ।
गीता की ऐसी सारी अवैध व्याख्याएँ जो माययापहृतज्ञानाः वगम के लोगों द्वारा की गई हैं और परम्परा पद्धमत से
हटकर हैं, अध्यामत्र्क जानकारी के पर् र्ें रोड़े का कायम करती हैं । र्ायाग्रस्त व्याख्याकार न तो स्वयं भगवान् कृ ष्ट्ण के
चरणों की शरण र्ें जाते हैं और नअन्यों को इस मसद्धान्त का पालन करने के मलए मशक्षा िेते हैं ।
(४) िष्ट्ु कृमतयों की चौर्ी श्रेणी आसुरां भावमास्श्रताः अर्ामत् आसुरी मसद्धान्त वालों की है । यह श्रेणी खुले रूप
से नामस्तक होती है । इनर्ें से कुछ तकम करते हैं मक परर्ेश्र्वर कभी भी इस ससं ार र्ें अवतररत नहीं हो सकता, मकन्तु वे
इसका कोई िोस प्रर्ाण नहीं बता पाते मक ऐसा क्यों नहीं हो सकता । कुछ ऐसे हैं जो परे र्श्र्वर को मनमवमशेष रूप के
अधीन र्ानते हैं, यद्यमप गीता र्ें इसका उल्टा बताया गया है । नामस्तक श्रीभगवान् के द्वेषवश अपनी बुमद्ध से कमल्पत
अनेक अवैध अवतारों को प्रस्तुत करते हैं । ऐसे लोग मजनके जीवन का एकर्ात्र उद्देश्य भगवान् को नकारना
है, श्रीकृ ष्ट्ण के चरणकर्लों के कभी शरणागत नहीं हो सकते ।
िमक्षण भरत के श्रीयार्नु ाचायम अल्बन्िरू ने कहा है ”हे प्रभ!ु आप उन लोगों द्वारा नहीं जाने जाते जो नामस्तक
मसद्धान्तों र्ें लगे हैं, भले ही आप मवलक्षण गुण, रूप तर्ा लीला से युक्त हैं, सभी शास्त्रों ने आपका मवशुद्ध सत्त्वर्य
मवग्रह प्रर्ामणत मकया है तर्ा िैवी गुणसम्पन्न मिव्यज्ञान के आचायम भी आपको र्ानते हैं ।”
अतएव (१) र्ढ़ू (२) नराधर् (३) र्ाययापहृतज्ञानी अर्ामत् भ्रमर्त र्नोधर्ी, तर्ा (४) नामस्तक – ये चार प्रकार
के िष्ट्ु कृती कभी भी भगवान् के चरणकर्लों की शरण र्ें नहीं जाते, भले ही सारे शास्त्र तर्ा आचायम ऐसा उपिेश क्यों
न िेते रहें ।

चतनु वमधा भजन्ते मां जिाः सुकृनतिोऽजमिु ।


आतो नजज्ञासरु थामथी ज्ञािी च भरतषमभ ।। १६ ।।

चत:ु -मवधा:—चार प्रकार के ; भजन्ते —सेवा करते हैं; माम्—मेरी; जना:—व्यपक्त; सु-कृ मतन:—िुण्यात्मा;
अजपनु —हे अजुतन; आतप:—पविदाग्रस्त, िीपडत; मजज्ञासु:— ज्ञान के पजज्ञासु; अथप-अथी—लाभ की इच्छा रखने
वाले; ज्ञानी—वस्तुओ ं को सही रूि में जानने वाले, तत्त्वज्ञ; च—भी; भरत-ऋषभ—हे भरतश्रेि ।

हे भरतश्रेष्ठ! चार प्रकार के पुण्यात्मा मेरी सेवा करते हैं – आतम, नजज्ञासु, अथामथी तथा ज्ञािी ।

तात्पयम : िष्ट्ु कृती के सवमर्ा मवपरीत ऐसे लोग हैं जो शास्त्रीय मवमध-मवधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं और
ये सु ृ स्तनः कहलाते हैं अर्ामत् ये वे लोग हैं जो शास्त्रीय मवमध-मवधानों, नैमतक तर्ा सार्ामजक मनयर्ों को र्ानते हैं
और परर्ेश्र्वर के प्रमत न्यूनामधक भमक्त करते हैं । इस लोगों की चार श्रेमणयाँ हैं – वे जो पीमड़त हैं, वे मजन्हें धन की
आवश्यकता है, वे मजन्हें मजज्ञासा है और वे मजन्हें परर्सत्य का ज्ञान है । ये सारे लोग मवमभन्न पररमस्र्मतयों र्ें परर्ेश्र्वर
की भमक्त करते रहते हैं । ये शद्ध ु भक्त नहीं हैं, क्योंमक ये भमक्त के बिले कुछ र्हत्त्वाकांक्षाओ ं की पूमतम करना चाहते

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हैं । शुद्ध भमक्त मनष्ट्कार् होती है और उसर्ें मकसी लाभ की आकांशा नहीं रहती । भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें (१.१.११)
शद्धु भमक्त की पररभाषा इस प्रकार की गई है –
अन्यास्भलास्षताशन्ू यां ज्ञान मादयनावृतम् ।
आनु ू ल्येन ृ ष्णानुशीलनां भस्िरुत्तमा ।।
“र्नुष्ट्य को चामहए मक परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण की मिव्य प्रेर्ाभमक्त मकसी सकार्कर्म अर्वा र्नोधर्म द्वारा भौमतक लाभ
की इच्छा से रमहत होकर करे । यह शुद्धभमक्त कहलाती है ।”
जब ये चार प्रकार के लोग परर्ेश्र्वर के पास भमक्त के मलए आते हैं और शद्ध ु भक्त की सगं ती से पणू मतया शद्धु हो
जाते हैं, तो ये भी शद्ध ु भक्त हो जाते हैं । जहाँ तक िष्टु ों (िष्ट्ु कृमतयों) का प्रश्न है उनके मलए भमक्त िगु मर् है क्योंमक उनका
जीवन स्वार्मपणू ,म अमनयमर्त तर्ा मनरुद्देश्य होता है । मकन्तु इनर्ें से भी कुछ लोग शद्ध ु भक्त के सम्पकम र्ें आने पर शद्धु
भक्त बन जाते हैं ।
जो लोग सिैव सकार् कर्ों र्ें व्यस्त रहते हैं, वे सक ं ट के सर्य भगवान् के पास आते हैं और तब वे शद्ध ु भक्तों
की संगमत करते हैं तर्ा मवपमत्त र्ें भगवान् के भक्त बन जाते हैं । जो मबलकुल हताश हैं वे भी कभी-कभी शद्ध ु भक्तों की
संगमत करने आते हैं और ईश्र्वर के मवषय र्ें जानने की मजज्ञासा करते हैं । इसी प्रकार शष्ट्ु क मचन्तक जब ज्ञान के प्रत्येक
क्षेत्र से हताश हो जाते हैं तो वे कभी-कभी ईश्र्वर को जानना चाहते हैं और वे भगवान् की भमक्त करने आते हैं । इस
प्रकार ये मनराकार ब्रह्म तर्ा अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा के ज्ञान को पार कर जाते हैं और भगवत्कृ पा से या उनके शद्ध ु भक्त की
कृ पा से उन्हें साकार भगवान् का बोध हो जाता है । कुल मर्लाकर जब आतम, मजज्ञासु, ज्ञानी तर्ा धन की इच्छा रखने
वाले सर्स्त भौमतक इच्छाओ ं से र्क्त ु हो जाते हैं और जब वे यह भलीभाँमत सर्झ जाते हैं मक भौमतक आसमक्त से
आध्यामत्र्क उन्नमत का कोई सरोकार नहीं है, तो वे शद्ध ु भक्त बन जाते हैं । जब तक ऐसी शद्ध ु अवस्र्ा प्राप्त नहीं हो
लेती, तब तक भगवान् की मिव्यसेवा र्ें लगे भक्त सकार् कर्ों र्ें या संसारी ज्ञान की खोज र्ें अनुरक्त रहते हैं । अतः
शद्ध ु भमक्त की अवस्र्ा तक पहुचँ ने के मलए र्नष्ट्ु य को इन सबों को लाँघना होता है ।

तेषां ज्ञािी नित्ययि


ु एकभनिनवमनशष्ट्यते ।
नप्रयो नह ज्ञानििोऽत्यथममहं स च मम नप्रयः ।। १७ ।।

तेषाम्—उनमें से; ज्ञानी—ज्ञानवान; मनत्य-युक्त:—सदैव तत्िर; एक—एकमात्र; भमक्त:—भपक्त में;


मवमर्ष्यते—पवपशष्ट है; मप्रय:—अपतशय पप्रय; मह—पनिय ही; ज्ञामनन:—ज्ञानवान का; अत्यथपम्—अत्यपधक;
अहम्—मैं ह;ूँ स:—वह; च—भी; मम—मेरा; मप्रय:—पप्रय ।

इिमें से जो परमज्ञािी है और शुद्धभनि में लगा रहता है वह सवमश्रेष्ठ है, क्योंनक मैं उसे अत्यन्त नप्रय हूँ
और वह मुझे नप्रय है ।

तात्पयम : भौमतक इच्छाओ ं के सर्स्त कल्र्ष से र्क्तु आतम, मजज्ञासु, धनहीन तर्ा ज्ञानी ये सब शद्ध
ु भक्त बन
सकते हैं । मकन्तु इनर्ें से जो परर्सत्य का ज्ञानी है और भौमतक इच्छाओ ं से र्क्त
ु होता है वही भगवान् का श द्ध
ु भक्त हो
पता है । इन चार वगों र्ें से जो भक्त ज्ञानी है और सार् ही भमक्त र्ें लगा रहता है, वह भगवान् के कर्नानुसार सवमश्रेि
है । ज्ञान की खोज करते रहने से र्नुष्ट्य को अनुभमू त होती है मक उसका आत्र्ा उसके भौमतक शरीर से मभन्न

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है । अमधक उन्नमत करने पर उसे मनमवमशेष ब्रह्म तर्ा परर्ात्र्ा का ज्ञान होता है । जब वह पूणमतया शद्ध ु हो जाता है तो
उसे ईश्र्वर के मनत्य िास के रूप र्ें अपनी स्वाभामवक मस्र्मत की अनुभमू त होती है । इस प्रकार शद्ध ु भक्त की संगमत र्ें
आतम, मजज्ञास,ु धन का इच्छुक तर्ा ज्ञानी स्वयं शद्ध ु हो जाते हैं । मकन्तु प्रारमम्भक अवस्र्ा र्ें मजस व्यमक्त को परर्ेश्र्वर
का पूणमज्ञान होता है और सार् ही जो उनकी भमक्त करता रहता है, वह व्यमक्त भगवान् को अत्यन्त मप्रय होता है । मजसे
भगवान् की मिव्यता का शुद्ध ज्ञान प्राप्तहोता है, वह भमक्त द्वारा इस तरह सुरमक्षत रहता है मक भौमतक कल्र्ष उसे छू भी
नहीं पाते ।

उदारा: सवप एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् ।


आमस्थत: स मह यक्त ु ात्मा मामेवानत्तु मां गमतम् ॥ १८ ॥

उदारा:—पवशाल हृदय वाले; सवे—सभी; एव—पनिय ही; एते —ये; ज्ञानी— ज्ञानवाला; तु—लेपकन;
आत्मा एव—मेरे समान ही; मे—मेरे; मतम्—मत में; आमस्थत:—पस्थत; स:—वह; मह—पनिय ही; युक्त-
आत्मा—भपक्त में तत्िर; माम्— मझु ; एव—पनिय ही; अनुत्तमाम्—िरम, सवोच्च; गमतम्—लक्ष्य को ।

मनस्सन्देह ये सब उदारचेता व्यमक्त हैं, मकन्तु जो मेरे ज्ञान को प्राप्त है, उसे मैं अपने ही समान मानता हाँ।
वह मेरी मदव्यसेवा में तत्पर रहकर मुझ सवोच्च उद्देश्य को मनमश्चत रूप से प्राप्त करता है।

तात्पयप : ऐसा नहीं है पक जो कम ज्ञानी भक्त हैं वे भगवान् को पप्रय नहीं हैं। भगवान् कहते हैं पक सभी उदारचेता हैं
क्योंपक चाहे जो भी भगवान् के िास पकसी भी उद्देश्य से आये वह महात्मा कहलाता है। जो भक्त भपक्त के बदले कुछ
लाभ चाहते हैं उन्हें भगवान् स्वीकार करते हैं क्योंपक इससे स्नेह का पवपनमय होता है। वे स्नेहवश भगवान् से लाभ की
याचना करते हैं और जब उन्हें वह प्राप्त हो जाता है तो वे इतने प्रसन्न होते हैं पक वे भी भगवद्भपक्त करने लगते हैं। पकन्तु
ज्ञानी भक्त भगवान् को इसपलए पप्रय है पक उसका उद्देश्य प्रेम तथा भपक्त से िरमेश्वर की सेवा करना होता है। ऐसा भक्त
भगवान् की सेवा पकये पबना क्षण भर भी नहीं रह सकता। इसी प्रकार िरमेश्वर अिने भक्त को बहुत चाहते हैं और वे
उससे पवलग नहीं हो िाते।
श्रीमद्भागवत में (९.४.६८) भगवान् कहते हैं—
साधवो र्हदयं मह्यं साधनू ां र्हदयं ्वहम्।
मदन्यत्ते न जानवन्त नाहं तेभ्यो मनागवप ॥
“भक्तगण सदैव मेरे हृदय में वास करते हैं और मैं भक्तों के हृदयों में वास करता ह।ूँ भक्त मेरे अपतररक्त और कुछ नहीं
जानता और मैं भी भक्त को कभी नहीं भूलता। मेरे तथा शद्ध ु भक्तों के बीच घपनि सम्बन्ध रहता है। ज्ञानी शुद्धभक्त कभी
भी आध्यापत्मक सम्िकत से दरू नहीं होते, अत: वे मझु े अत्यन्त पप्रय हैं।”

बहिां जन्मिामन्ते ज्ञािवान्मां प्रपद्यते ।


वासदु ेवः सवमनमनत स महात्मा सदु ु लमभः ।। १९ ।।

२४३
बहनाम्—अनेक; जन्मनाम्—जन्म तथा मृत्यु के चक्र के ; अन्ते—अन्त में; ज्ञान वान्—ज्ञानी; माम्—मेरी;
प्रपद्यते—शरण ग्रहण करता है; वासुदेव:—भगवान् कृ ष्ण; सवपम— ् सब कुछ; इमत—इस प्रकार; स:—ऐसा; महा-
आत्मा—महात्मा; सु दुलपभ:—अत्यन्त दल ु तभ है ।

अिेक जन्म-जन्मान्तर के बाद नजसे सचमुच ज्ञाि होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण
जािकर मेरी शरण में आता है । ऐसा महात्मा अत्यन्त दुलमभ होता है ।

तात्पयम : भमक्त या मिव्य अनुिानों को करता हुआ जीव अनेक जन्र्ों के पश्चात् इस मिव्यज्ञान को प्राप्त कर
सकता है मक आत्र्-साक्षात्कार का चरर् लक्ष्य श्रीभगवान् हैं । आत्र्-साक्षात्कार के प्रारम्भ र्ें जब र्नष्ट्ु य भौमतकता
का पररत्याग करने का प्रयत्न करता है तब मनमवमशेषवाि की ओर उसका झक ु ाव हो सकता है, मकन्तु आगे बढ़ने पर वह
यह सर्झ पता है मक आध्यामत्र्क जीवन र्ें भी कायम हैं और इन्हीं से भमक्त का मवधान होता है । इसकी अनुभमू त होने
पर वह भगवान् के प्रमत आसक्त हो जाता है और उनकी शरण ग्रहण कर लेता है । इस अवसर पर वह सर्झ सकता है
मक श्रीकृ ष्ट्ण की कृ पा ही सवमस्व है, वे ही सब कारणों के कारण हैं और यह जगत् उनसे स्वतन्त्र नहीं है । वह इस भौमतक
जगत् को अध्यामत्र्क मवमवधताओ ं का मवकृ त प्रमतमबम्ब र्ानता है और अनुभव करता है मक प्रत्येक वस्तु का
परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण से सम्बन्ध है । इस प्रकार वह प्रत्येक वस्तु को वासुिेव श्रीकृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत सर्झता है । इस प्रकार
की वासुिेवर्यी व्यापक दृमष्ट होने पर भगवान् कृ ष्ट्ण को परर्लक्ष्य र्ानकर शरणागमत प्राप्त होती है । ऐसे शरणागत
र्हात्र्ा िल ु मभ हैं ।
इस श्लोक की सुन्िर व्याख्या श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् र्ें (३.१४-१५) मर्लती है –
सहस्रशीषाद पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भस्ू मां स्वश्र्वतो वृत्यात्यास्तष्ठर्् र्शागां ल
ु म् ।।
पुरुष एवेर्ां सवं यद्भूतां यचच भव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यर्न्नेनास्तरोहस्त ।।
छान्र्ोर्गय उपस्नषर्् (५.१.१५) र्ें कहा गया है – न वै वाचो न चक्षूांस्ष न श्रोत्रास्ण न मनाांसीत्याचक्षते प्राण इस्त
एवाचक्षते ह्येवैतास्न सवादस्ण भवस्न्त – जीव के शरीर की बोलने की शमक्त, िेखने की शमक्त, सुनने की शमक्त, सोचने की
शमक्त ही प्रधान नहीं है ।सर्स्त कायों का के न्द्रमबन्िु तो वह जीवन (प्राण) है । इसी प्रकार भगवान् वासुिेव या भगवान्
श्रीकृ ष्ट्ण ही सर्स्त पिार्ों र्ें र्ल ू सत्ता हैं । इस िेह र्ें बोलने, िेखने, सुनने तर्ा सोचने आमि की शमक्तयाँ हैं, मकन्तु यमि
वे भगवान् से सम्बमन्धत न हों तो सभी व्यर्म हैं । वासुिेव सवमव्यापी हैं और प्रत्येक वस्तु वासुिेव है । अतः भक्त पूणम
ज्ञान र्ें रहकर शरण ग्रहण करता है (तुलनाथद भगवद्गीता ७.१७ तर्ा ११.४०) ।

कामैस्तैस्तैह्रमतज्ञािाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः ।
तं तं नियममास्थाय प्रकृ त्या नियताः स्वया ।। २० ।।

कामै:—इच्छाओ ं द्वारा; तै: तै:—उन उन; हृत—मवहीन; ज्ञाना:—ज्ञान से; प्रपद्यन्ते— र्रण लेते हैं;
अन्य—अन्य; देवता:—देवताओ ं की; तम् तम्—उस उस; मनयमम्— मवधान का; आस्थाय—पालन करते
हुए; प्रकृ त्या—स्वभाव से; मनयता:—वर् में हुए; स्वया—अपने आप

२४४
नजिकी बुनद्ध भौनतक इच्छाओ ं द्वारा मारी गई है, वे देवताओ ं की शरण में जाते हैं और वे अपिे-अपिे
स्वभाव के अिुसार पूजा नवशेष नवनध-नवधािों का पालि करते हैं ।

तात्पयम : जो सर्स्त भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो चक ु े हैं, वे भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं और उनकी भमक्त र्ें
तत्पर होते हैं । जब तक भौमतक कल्र्ष धल ु नहीं जाता, तब तक वे स्वभावतः अभक्त रहते हैं । मकन्तु जो भौमतक
इच्छाओ ं के होते हुए भी भगवान् की ओर उन्र्ख ु होते हैं, वे बमहरंगा द्वारा आकृ ष्ट नहीं होते ।चँमू क वे सही उद्देश्य की
ओर अग्रसर होते हैं, अतः वे शीघ्र ही सारी भौमतक कार्ेच्छाओ ं से र्क्त ु हो जाते हैं । श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है मक
र्नष्ट्ु य को चामहए मक स्वयं को वासिु ेव के प्रमत सर्मपमत करे और उनकी पजू ा करे , चाहे वह भौमतक इच्छाओ ं से रमहत
हो या भौमतक इच्छाओ ं से पूररत हो या भौमतक कल्र्ष से र्ुमक्त चाहता हो । जैसा मक भागवत र्ें (२.३.१०) कहा गया
है –
अ ामः सवद ामो वा मोक्ष ाम उर्ारधीः ।
तीव्रेण भस्ियोगेन यजेत पुरुषां परम् ।।
जो अल्पज्ञ हैं और मजन्होंने अपनी आध्यामत्र्क चेतना खो िी है, वे भौमतक इच्छाओ ं की अमवलम्ब पूमतम के
मलए िेवताओ ं की शरण र्ें जाते हैं । सार्ान्यतः ऐसे लोग भगवान् की शरण र्ें नहीं जाते क्योंमक वे मनम्नतर गुणों वाले
(रजो तर्ा तर्ोगुणी) होते हैं, अतः वे मवमभन्न िेवताओ ं की पूजा करते हैं । वे पूजा के मवमध-मवधानों का पालन करने र्ें
ही प्रसन्न रहते हैं । िेवताओ ं के पूजक छोटी-छोटी इच्छाओ ं के द्वारा प्रेररत होते हैं और यह नहीं जानते मक परर्लक्ष्य
तक मकस प्रकार पहुचँ ा जाय । मकन्तु भगवद्भक्त कभी भी पर्भ्रष्ट नहीं होता । चँमू क वैमिक सामहत्य र्ें मवमभन्न उद्देश्यों
के मलए मभन्न-मभन्न िेवताओ ं के पूजन का मवधान है, अतः जो भगवद्भक्त नहीं है वे सोचते हैं मक िेवता कुछ कायों के
मलए भगवान् से श्रेि हैं । मकन्तु शद्धु भक्त जानता है मक भगवान् कृ ष्ट्ण ही सबके स्वार्ी हैं । चैतन्यचररतामृत र्ें (आमि
५.१४२) कहा गया है – ए ले ईश्र्वर ृ ष्ण, आर सब भृत्य – के वल भगवान् कृ ष्ट्ण ही स्वार्ी हैं और अन्य सब िास
हैं । िलतः शद्ध ु भक्त कभी भी अपनी आवश्यकताओ ं की पमू तम के मलए िेवताओ ं के मनकट नहीं जाता । वह तो
परर्ेश्र्वर पर मनभमर रहता है और वे जो कुछ िेते हैं, उसी र्ें संतुष्ट रहता है ।

यो यो यां यां तिुं भिः श्रद्धयानचमतुनमच्छनत ।


तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव नवदधाम्यहम् ।। २१ ।।

यः यः – जो जो; याम् याम् – मजस मजस; तिुम् – िेवता के रूप को; भिः – भक्त; श्रद्धया – श्रद्धा
से; अनचमतुम् – पूजा करने के मलए; इच्छनत – इच्छा करता है; तस्य तस्य – उस उसकी; अचलाम् –
मस्र्र; श्रद्धाम् – श्रद्धा को; ताम् – उस; एव – मनश्चय ही; नवदधानम – िेता ह;ँ अहम् – र्ैं ।

मैं प्रत्येक जीव के हृदय में परमात्मा स्वरूप नस्थत हूँ । जैसे ही कोई नकसी देवता की पूजा करिे की
इच्छा करता है, मैं उसकी श्रद्धा को नस्थर करता ह,ूँ नजससे वह उसी नवशेष देवता की भनि कर सके ।

२४५
तात्पयम : ईश्र्वर ने हर एक को स्वतन्त्रता प्रिान की है, अतः यमि कोई पुरुष भौमतक भोग करने का इच्छुक है
और इसके मलए िेवताओ ं से सुमवधाएँ चाहता है तो प्रत्येक हृिय र्ें परर्ात्र्ा स्वरूप मस्र्त भगवान् उसके र्नोभावों
को जानकर ऐसी सुमवधाएँ प्रिान करते हैं । सर्स्त जीवों के परर् मपता के उप र्ें वे उनकी स्वतन्त्रता र्ें हस्तक्षेप नहीं
करते, अमपतु उन्हें सुमवधाएँ प्रिान करते हैं, मजससे वे अपनी भौमतक इच्छाएँ पूरी कर सकें । कुछ लोग यह प्रश्न कर
सकते हैं मक सवमशमक्तर्ान ईश्र्वर जीवों को ऐसी सुमवधाएँ प्रिान करके उन्हें र्ाया के पाश र्ें मगरने ही क्यों िेते हैं?
इसका उत्तर यह है मक यमि परर्ेश्र्वर उन्हें ऐसी सुमवधाएँ प्रिान न करें तो मिर स्वतन्त्रता का कोई अर्म नहीं रह जाता ।
अतः वे सबों को पणू म स्वतन्त्रता प्रिान करते हैं – चाहे कोई कुछ करे – मकन्तु उनका अमन्तर् उपिेश हर्ें भगवद्गीता र्ें
प्राप्त होता है – र्नुष्ट्य को चामहए मक अन्य सारे कायों को त्यागकर उनकी शरण र्ें आए । इससे र्नुष्ट्य सुखी रहेगा ।
जीवात्र्ा तर्ा िेवता िोनों ही परर्ेश्र्वर की इच्छा के अधीन हैं, अतः जीवात्र्ा न तो स्वेच्छा से मकसी िेवता की
पूजा कर सकता है, न ही िेवता परर्ेश्र्वर की इच्छा के मवरुद्ध कोई वर िे सकते हैं जैसी मक कहावत है – ‘ईश्र्वर की
इच्छा के मबना एक पत्ती भी नहीं महलती ।’ सार्ान्यतः जो लोग इस संसार र्ें पीमड़त हैं, वे िेवताओ ं के पास जाते हैं,
क्योंमक वेिों र्ें ऐसा करने का उपिेश है मक अर्क ु -अर्कु इच्छाओ ं वाले को अर्क ु -अर्क ु िेवताओ ं की शरण र्ें
जाना चामहए । उिाहरणार्म, एक रोगी को सूयमिेव की पूजा करने का आिेश है । इसी प्रकार मवद्या का इच्छुक सरस्वती
की पूजा कर सकता है और सुन्िर पत्नी चाहने वाला व्यमक्त मशवजी की पत्नी िेवी उर्ा की पूजा कर सकता है । इस
प्रकार शास्त्रों र्ें मवमभन्न िेवताओ ं के पूजन की मवमधयाँ बताई गई हैं । चँमू क प्रत्येक जीव मवशेष सुमवधा चाहता है,
अतः भगवान् उसे मवशेष िेवता से उस वर को प्राप्त करने की प्रबल इच्छा की प्रेरणा िेते हैं और उसे वर प्राप्त हो जाता
है । मकसी मवशेष िेवता के पूजन की मवमध भी भगवान् द्वारा ही मनयोमजत की जाती है । जीवों र्ें वह प्रेरणा िेवता नहीं िे
सकते, मकन्तु भगवान् परर्ात्र्ा हैं जो सर्स्त जीवों के हृियों र्ें उपमस्र्त रहते हैं, अतः कृ ष्ट्ण र्नुष्ट्य को मकसी िेवता के
पूजन की प्रेरणा प्रिान करते हैं । सारे िेवता परर्ेश्र्वर के मवराट शरीर के अमभन्न अंगस्वरूप हैं, अतः वे स्वतन्त्र नहीं
होता । वैमिक सामहत्य र्ें कर्न है, “परर्ात्र्ा रूप र्ें भगवान् िेवता के हृिय र्ें भी मस्र्त रहते हैं, अतः वे िेवता के
र्ाध्यर् से जीव की इच्छा को पूरा करने की व्यवस्र्ा करते हैं । मकन्तु जीव तर्ा िेवता िोनों ही परर्ात्र्ा की इच्छा पर
आमश्रत हैं । वे स्वतन्त्र नहीं हैं ।”

स तया श्रद्धया युिस्तस्याराधिमीहते ।


लभते च ततः कामान्मयैव नवनहतानन्हताि् ।। २२ ।।

स:—वह; तया—उस; श्रद्धया—श्रद्धा से; युक्त:—युक्त; तस्य—उस देवता की; आराधनम्—िूजा के पलए;
ईहते—आकांक्षा करता है; लभते—प्राप्त करता है; च— तथा; तत:—उससे; कामान्—इच्छाओ ं को; मया—मेरे
द्वारा; एव—ही; मवमहतान्— व्यवपस्थत; मह—पनिय ही; तान्—उन

ऐसी श्रद्धा से समनन्वत वह देवता नवशेष की पज ू ा करिे का यत्ि करता है और अपिी इच्छा की पनू तम
करता है । नकन्तु वास्तनवकता तो यह है नक ये सारे लाभ के वल मेरे द्वारा प्रदत्त हैं ।

तात्पयम : िेवतागण परर्ेश्र्वर की अनुर्मत के मबना अपने भक्तों को वर नहीं िे सकते । जीव भले ही यह भल ू
जाय मक प्रत्येक वस्तु परर्ेश्र्वर की सम्पमत्त है, मकन्तु िेवता इसे नहीं भल
ू ते । अतः िेवताओ ं की पूजा तर्ा वामं छत िल

२४६
की प्रामप्त िेवताओ ं के कारण नहीं, अमपतु उनके र्ाध्यर् से भगवान् के कारण होती है । अल्पज्ञानी जीव इसे नहीं
जानते, अतः वे र्ख ु मतावश िेवताओ ं के पास जाते हैं । मकन्तु शद्ध
ु भक्त आवश्यकता पड़ने पर परर्ेश्र्वर से ही याचना
करता है परन्तु वर र्ाँगना शुद्धभक्त का लक्षण नहीं है । जीव सार्ान्यता िेवताओ ं के पास इसीमलए जाता है, क्योंमक
वह अपनी इच्छाओ ं की पूमतम के मलए पगलाया रहता है । ऐसा तब होता है जब जीव अनुमचत कार्ना करता है मजसे
स्वयं भगवान् पूरा नहीं करते । चैतन्यचररतामृत र्ें कहा गया है मक जो व्यमक्त परर्ेश्र्वर की पूजा के सार्-सार्
भौमतकभोग की कार्ना करता है वह परस्पर मवरोधी इच्छाओ ं वाला होता है । परर्ेश्र्वर की भमक्त तर्ा िेवताओ ं की
पजू ा सर्ान स्तर पर नहीं हो सकती, क्योंमक िेवताओ ं की पजू ा भौमतक है और परर्ेश्र्वर की भमक्त मनतान्त आध्यामत्र्क
है ।
जो जीव भगवद्धार् जाने का इच्छुक है, उसके र्ागम र्ें भौमतक इच्छाएँ बाधक हैं । अतः भगवान् के शद्धु भक्त को
वे भौमतक लाभ नहीं प्रिान मकये जाते, मजनकी कार्ना अल्पज्ञ जीव करते रहते हैं, मजसके कारण वे परर्ेश्र्वर की भमक्त
न करके िेवताओ ं की पूजा र्ें लगे रहते हैं ।

अन्तवत्तुिलंतेषांतिवत्यल्पमेधसाम् ।
देवान्देवयजो यानन्त मििायानन्तमामनप ।। २३ ।।
अन्त-वत्—नाशवान; तु—लेपकन; िलम्—िल; तेषाम्—उनका; तत्—वह; भवमत—होता है; अल्प-
मेधसाम्—अल्िज्ञों का; देवान्—देवताओ ं के िास; देव यज:—देवताओ ं को िूजने वाले; यामन्त—जाते हैं; मत्—
मेरे; भक्ता:—भक्तगण; यामन्त—जाते हैं; माम्—मेरे िास; अमप—भी

अल्पबुनद्ध वाले व्यनि देवताओ ं की पूजा करते हैं और उन्हें प्राप्त होिे वाले िल सीनमत तथा क्षनणक
होते हैं । देवताओ ं की पज ू ा करिे वाले देवलोक को जाते हैं, नकन्तु मेरे भि अन्ततः मेरे परमधाम को प्राप्त
होते हैं ।

तात्पयम :भगवद्गीता के कुछ भाष्ट्यकार कहते हैं मक िेवता की पूजा करने वाला व्यमक्त परर्ेश्र्वर के पास पहुचँ
सकता है, मकन्तु यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है मक िेवताओ ं के उपासक मभन्न लोक को जाते हैं, जहाँ मवमभन्न िेवता
मस्र्त हैं – िीक उसी प्रकार मजस तरह सूयम की उपासना करने वाला सूयम को या चन्द्रर्ा का उपासक चन्द्रर्ा को प्राप्त
होता है । इसी प्रकार यमि कोई इन्द्र जैसे िेवता की पूजा करना चाहता है, तो उसे पूजे जाने वाले उसी िेवता का लोक
प्राप्त होगा । ऐसा नहीं है मक मकसी भी िेवता की पूजा करने से भगवान् को प्राप्त मकया जा सकता है । यहाँ पर इसका
मनषेध मकया गया है, क्योंमक यह स्पष्ट कहा गया है मक िेवताओ ं के उपासक भौमतक जगत् के अन्य लोकों को जाते
हैं, मकन्तु भगवान् का भक्त भगवान् के परर्धार् को जाता है ।
यहाँ पर यह प्रश्न उिाया जा सकता है मक यमि मवमभन्न िेवता परर्ेश्र्वर के शरीर के मवमभन्न अंग हैं, तो उन
सबकी पजू ा करने से एक ही जैसा िल मर्लना चामहए । मकन्तु िेवताओ ं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, क्योंमक वे यह नहीं
जानते मक शरीर के मकस अंग को भोजन मिया जाय । उनर्ें से कुछ इतने र्ख ु म होते हैं मक वह यह िावा करते हैं मक अंग
अनेक हैं, अतः भोजन िेने के ढगं अनेक हैं । मकन्तु यह बहुत उमचत नहीं है । क्या कोई कानों या आँखों से शरीर को
भोजन पहुचँ ा सकता है? वे यह नहीं जानते मक ये िेवता भगवान् के मवराट शरीर के मवमभन्न अंग हैं और वे अपने
अज्ञानवश यह मवश्र्वास कर बैिते हैं मक प्रत्येक िेवता पृर्क् ईश्र्वर है और परर्ेश्र्वर का प्रमतयोगी है ।

२४७
न के वल सारे िेवता, अमपतु सार्ान्य जीव भी परर्ेश्र्वर के अंग (अंश) हैं । श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है मक
ब्राह्मण परर्ेश्र्वर के मसर हैं, क्षमत्रय उनकी बाहें हैं, वैश्य उनकी कमट तर्ा शद्रु उनके पाँव हैं, और इन सबके अलग-
अलग कायम हैं । यमि कोई िेवताओ ं को तर्ा अपने आपको परर्ेश्र्वर का अंश र्ानता है तो उसका ज्ञान पूणम है । मकन्तु
यमि वह इसे नहीं सर्झता तो उसे मभन्न लोकों की प्रामप्त होती है, जहाँ िेवतागण मनवास करते हैं । यह वह गन्तव्य नहीं
है, जहाँ भक्तगण जाते हैं ।
िेवताओ ं से प्राप्त वर नाशवान होते हैं, क्योंमक इस भौमतक जगत् के भीतर सारे लोक, सारे िेवता तर्ा उनके सारे
उपासक नाशवान हैं । अतः इस लश्लोक र्ें स्पष्ट कहा गया है मक ऐसे िेवताओ ं की उपासना से प्राप्त होने वाले सारे िल
नाशवान होते हैं, अतः ऐसी पूजा के वल अल्पज्ञों द्वारा की जाती है । चँमू क परर्ेश्र्वर की भमक्त र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
सल ं ग्न व्यमक्त ज्ञान से पणू म मिव्य आनन्िर्य लोक की प्रामप्त करता है अतः उसकी तर्ा िेवताओ ं के सार्ान्य उपासक
की उपलमब्धयाँ पृर्क् -पृर्क् होती हैं । परर्ेश्र्वर असीर् हैं, उनका अनुग्रह अनन्त है, उनकी िया भी अनन्त है । अतः
परर्ेश्र्वर की अपने शद्ध ु भक्तों पर कृ पा भी असीर् होती है ।

अव्यिं व्यनिमापन्िं मन्यन्ते मामबुद्धयः ।


परं भावमजािन्तो ममाव्ययमिुत्तमम् ।। २४ ।।

अव्यक्तम्—अप्रकट; व्यमक्तम्—स्वरूि को; आपन्नम्—प्राप्त हुआ; मन्यन्ते—सोचते हैं; माम्—मझु को;


अबुद्धय:—अल्िज्ञानी व्यपक्त; परम्—िरम; भावम्—सत्ता; अजानन्त:—पबना जाने; मम—मेरा; अव्ययम्—
अनश्वर; अनुत्तमम्—सवतश्रेि

बनु द्धहीि मिष्ट्ु य मझ


ु को ठीक से ि जाििे के कारण सोचते हैं नक मैं (भगवाि् कृ ष्ट्ण) पहले निराकार
था और अब मैंिे इस स्वरूप को धारण नकया है । वे अपिे अल्पज्ञाि के कारण मेरी अनविाशी तथा सवोच्च
प्रकृ नत को िहीं जाि पाते ।

तात्पयम : िेवताओ ं के उपासकों को अल्पज्ञ कहा गया है । भगवान् कृ ष्ट्ण अपने साकार रूप र्ें यहाँ पर अजुमन से
बातें कर रहे हैं, मकन्तु तब भी मनमवमशेषवािी अपने अज्ञान के कारण तकम करते रहते हैं मक परर्ेश्र्वर का अन्ततः स्वरूप
नहीं होता । श्रीरार्ानुजाचायम की परम्परा के र्हान भगवद्भक्त यार्ुनाचायम ने इस सम्बन्ध र्ें िो अत्यन्त उपयुक्त श्लोक
कहे हैं (स्तोत्र रत्न १२) –
त्वाां शीलरूपचररतैः परमप्र ृ ष्टैः
सत्त्वेन सास्त्त्व तया प्रबलैश्र्च शास्त्रैः ।
प्रख्यातर्ैवपरमाथदस्वर्ाां मतैश्र्च
नैवासरु प्र ृ तयः प्रभवस्न्त बोद्धमु ् ।।
“हे प्रभ!ु व्यासिेव तर्ा नारि जैसे भक्त आपको भगवान् रूप र्ें जानते हैं । र्नुष्ट्य मवमभन्न वैमिक ग्रंर्ों को
पढ़कर आपके गणु , रूप तर्ा कायों को जान सकता है और इस तरह आपको भगवान् के रूप र्ें सर्झ सकता
है । मकन्तु जो लोग रजो तर्ा तर्ोगुण के वश र्ें हैं, ऐसे असुर तर्ा अभक्तगण आपको नहीं सर्झ पाते । ऐसे अभक्त
वेिान्त, उपमनषि् तर्ा वैमिक ग्रर्ं ों की व्याख्या करने र्ें मकतने ही मनपुण क्यों न हों, वे भगवान् को सर्झ नहीं पाते ।”

२४८
ब्रह्मसांस्हता र्ें यह बताया गया है मक के वल वेिान्त सामहत्य के अध्ययन से भगवान् को नहीं सर्झा जा
सकता । परर्पुरुष को के वल भगवत्कृ पा से जाना जा सकता है । अतः इस श्लोक र्ें स्पष्ट रूप से कहा गया है मक न
के वल िेवताओ ं के उपासक अल्पज्ञ होते हैं, अमपतु वे अभक्त भी जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत से रमहत हैं, जो वेिान्त तर्ा
वैमिक सामहत्य के अध्ययन र्ें लगे रहते हैं, अल्पज्ञ हैं और उनके मलए ईश्र्वर के साकार रूप को सर्झ पाना सम्भव
नहीं है । जो लोग परर्सत्य को मनमवमशेष करके र्ानते हैं वे अबुद्धयः बताये गये हैं मजसका अर्म है, वे लोग जो
परर्सत्य के परर् स्वरूप को नहीं सर्झते । श्रीमद्भागवत र्ें बताया गया है मक मनमवमशेष ब्रह्म से ही परर् अनुभमू त
प्रारम्भ होती है जो ऊपर उिती हुई अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा तक जाती है, मकन्तु परर्सत्य की अमन्तर् अवस्र्ा भगवान्
है । आधमु नक मनमवमशेषवािी तो और भी अमधक अल्पज्ञ हैं, क्योंमक वे पूवमगार्ी शंकराचायम का भी अनुसरण नहीं करते
मजन्होंने स्पष्ट बताया है मक कृ ष्ट्ण परर्ेश्र्वर हैं । अतः मनमवमशेषवािी परर्सत्य को न जानने के कारण सोचते हैं मक कृ ष्ट्ण
िेवकी तर्ा वासुिेव के पुत्र हैं या मक राजकुर्ार हैं या मक शमक्तर्ान जीवात्र्ा हैं । भगवद्गीता र्ें (९.११) भी इसकी
भत्समना की गई है । अवजानस्न्त माां मढू ा मानुषीं तनुर्ामश्रतर्् – के वल र्ख ु म ही र्झु े सार्ान्य पुरुष र्ानते हैं ।
तथ्य तो यह है मक कोई मबना भमक्त के तर्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत मकये मबना कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ
सकता । इसकी पुमष्ट भागवत र्ें (१०.१४.२९) हुई है –
अथास्प ते र्ेव पर्ाम्बुजिय प्रसार्लेशानुगहृ ीत एव स्ह ।
जानास्त तत्त्वां भगवन् मस्हन्मो न चान्य ए ोऽस्प स्चरां स्वस्चन्वन् ।।
“हे प्रभ!ु यमि कोई आपके चरणकर्लों की रंचर्ात्र भी कृ पा प्राप्त कर लेता है तो वह आपकी र्हानता को सर्झ
सकता है । मकन्तु जो लोग भगवान् को सर्झने के मलए र्ानमसक कल्पना करते हैं वे वेिों का वषों तक अध्ययन करके
भी नहीं सर्झ पाते ।” कोई न तो र्नोधर्म द्वारा, न ही वैमिक सामहत्य की व्याख्या द्वार भगवान् कृ ष्ट्ण या उनके रूप को
सर्झ सकता है । भमक्त के द्वारा की उन्हें सर्झा जा सकता है । जब र्नुष्ट्य हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे
राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस र्हानतर् जप से प्रारम्भ करके कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पणू मतया तन्र्य हो जाता है, तभी
वह भगवान् को सर्झ सकता है । अभक्त मनमवमशेषवािी र्ानते हैं मक भगवान् कृ ष्ट्ण का शरीर इसी भौमतक प्रकृ मत का
बना है और उनके कायम, उनका रूप इत्यामि सभी र्ाया हैं । ये मनमवमशेषवािी र्ायावािी कहलाते हैं । ये परर्सत्य को
नहीं जानते ।
बीसवें श्लोक से स्पष्ट है – कार्ैस्तैस्तैहृमतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यिेवताः – जो लोग कार्ेच्छाओ ं से अन्धे हैं वे अन्य
िेवताओ ं की शरण र्ें जाते हैं । यह स्वीकार मकया गया है मक भगवान् के अमतररक्त अन्य िेवता भी हैं, मजनके अपने-
अपने लोक हैं और भगवान् का भी अपना लोक है । जैसा मक तेईसवें श्लोक र्ें कहा गया है – र्ेवान् र्ेवजयो यास्न्त
भद्भिा यास्न्त मामस्प – िेवताओ ं के उपासक उनके लोकों को जाते हैं और जो कृ ष्ट्ण के भक्त हैं वे कृ ष्ट्णलोक को जाते
हैं, मकन्तु तो भी र्ख ु म र्ायावािी यह र्ानते हैं मक भगवान् मनमवमशेष हैं और ये मवमभन्न रूप उन पर ऊपर से र्ोपे गये
हैं । क्तया गीता के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है मक िेवता तर्ा उनके धार् मनमवमशेष हैं? स्पष्ट है मक न तो िेवतागण, न
ही कृ ष्ट्ण मनमवमशेष हैं । वे सभी व्यमक्त हैं । भगवान् कृ ष्ट्णपरर्ेश्र्वर हैं, उनका अपना लोक है और िेवताओ ं के भी अपने-
अपने लोक हैं ।
अतः यह अद्वैतवािी तकम मक परर्सत्य मनमवमशेष है और रूप ऊपर से र्ोपा (आरोमपत) हुआ है, सत्य नहीं
उतरता । यहाँ स्पष्ट बताया गया है मक यह ऊपर से र्ोपा हुआनहीं है । भगवद्गीता से हर् स्पष्टतया सर्झ सकते हैं मक
िेवताओ ं के रूप तर्ा परर्ेश्र्वर का स्वरूप सार्-सार् मवद्यर्ान हैं और भगवान् कृ ष्ट्ण समच्चिानन्ि रूप हैं । वेि भी पुमष्ट
करते हैं मक परमसत्य आनन्र्मयोऽभ्यासात्– अर्ामत् वे स्वभाव से ही आनन्िर्य हैं और वे अनन्त शभु गुणों के आगार

२४९
हैं । गीता र्ें भगवान् कहते हैं मक यद्यमप वे अज (अजन्र्ा) हैं, तो भी वे प्रकट होते हैं । भगवद्गीता से हर् इस सारे तथ्यों
को जान सकते हैं । अतः हर् यह नहीं सर्झ पाते मक भगवान् मकस तरह मनमवमशेष हैं? जहाँ तक गीता के कर्न
हैं, उनके अनुसार मनमवमशेषवािी अद्वैतवामियों का यह आरोमपत मसद्धान्त मर्थ्या है । यहाँ स्पष्ट है मक परर्सत्य भगवान्
कृ ष्ट्ण के रूप और व्यमक्तत्व िोनों हैं ।

िाहं प्रकाशः सवमस्य योगमायासमावृतः ।


मढू ोऽयं िानभजािानत लोको मामजमव्ययम् ।। २५ ।।

न—न तो; अहम्—मैं; प्रकार्:—प्रकट; सवपस्य—सबों के पलए; योग-माया— अन्तरंगा शपक्त से;
समावृत:—आच्छापदत; मूढ:—मख ू त; अयम्—यह; न—नहीं; अमभजानामत—समझ सकता है; लोक:—लोग;
माम्—मझु को; अजम्—अजन्मा को; अव्ययम्—अपवनाशी को

मैं मूखों तथा अल्पज्ञों के नलए कभी भी प्रकट िहीं हूँ । उिके नलए तो मैं अपिी अन्तरंगा शनि द्वारा
आच्छानदत रहता ह,ूँ अतः वे यह िहीं जाि पाते नक मैं अजन्मा तथा अनविाशी हूँ ।

तात्पयम : यह तकम मिया जा सकता है मक जब कृ ष्ट्ण इस पृथ्वी पर मवद्यर्ान र्े और सबों के मलए दृश्य र्े तो
अब वे सबों के सर्क्ष क्यों नहीं प्रकट होते? मकन्तु वास्तव र्ें वे हर एक के सर्क्ष प्रकट नहीं र्े । जब कृ ष्ट्ण मवद्यर्ान र्े
तो उन्हें भगवान् रूप र्ें सर्झने वाले व्यमक्त र्ोड़े ही र्े । जब कुरु सभा र्ें मशशुपाल ने कृ ष्ट्ण के सर्ाध्यक्ष चनु े जाने पर
मवरोध मकया तो भीष्ट्र् ने कृ ष्ट्ण का सर्र्मन मकया और उन्हें परर्ेश्र्वर घोमषत मकया । इसी प्रकार पाण्डव तर्ा कुछ अन्य
लोग उन्हें परर्ेश्र्वर के रूप र्ें जानते र्े, मकन्तु सभी ऐसे नहीं र्े । अभक्तों तर्ा सार्ान्य व्यमक्त के मलए वे प्रकट नहीं
र्े । इसीमलए भगवद्गीता र्ें कृ ष्ट्ण कहते हैं मक उनके मवशुद्ध भक्तों के अमतररक्त अन्य सारे लोग उन्हें अपनी तरह
सर्झते हैं । वे अपने भक्तों के सर्क्ष आनन्ि के आगार के रूप र्ें प्रकट होते र्े, मकन्तु अन्यों के मलए, अल्पज्ञ अभक्तों
के मलए, वे अपनी अन्तरंगा शमक्त से आच्छामित रहते र्े ।
श्रीमद्भागवत र्ें (१.८.१९) कुन्ती ने अपनी प्रार्मना र्ें कहा है मक भगवान् योगर्ाया के आवरण से आवृत
हैं, अतः सार्ान्य लोग उन्हें सर्झ नहीं पाते । ईशोपस्नषर्् र्ें (र्न्त्र १५) भी इस योगर्ाया आवरण की पुमष्ट हुई
है, मजससे भक्त प्रार्मना करता है –
स्हरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यास्पस्हतां मख ु म् ।
तत्त्वां पूषन्नपावृणु सत्यधमादय दृष्टये ।।
“हे भगवान! आप सर्ग्र ब्रह्माण्ड के पालक हैं और आपकी भमक्त सवोच्च धर्म है । अतः र्ेरी प्रार्मना है मक
आप र्ेरा भी पालन करें । आपका मिव्यरूप योगर्ाया से आवृत है । ब्रह्मजयोमत आपकी अन्तरंगा शमक्त का आवरण
है । कृ पया इस तेज को हटा ले क्योंमक यह आपके समच्चिानन्ि मवग्रह के िशमन र्ें बाधक है ।” भगवान् अपने मिव्य
समच्चिानन्ि रूप र्ें ब्रह्मजयोमत की अन्तरंगाशमक्त से आवृत हैं, मजसके िलस्वरूप अल्पज्ञानी मनमवमशेषवािी परर्ेश्र्वर
को नहीं िेख पाते ।
श्रीमद्भागवत र्ें भी (१०.१४.७) ब्रह्मा द्वारा की गई यह स्तुमत है – “हे भगवान्, हे परर्ात्र्ा, हे सर्स्त रहस्यों के
स्वार्ी! संसार र्ें ऐसा कौन है जो आपकी शमक्त तर्ा लीलाओ ं का अनुर्ान लगा सके ? आप सिैव अपनी

२५०
अन्तरंगाशमक्त का मवस्तार करते रहते हैं, अतः कोई भी आपको नहीं सर्झ सकता । मवज्ञानी तर्ा मवद्वान भले ही
भौमतक जगत् की परर्ाणु संरचना का या मक मवमभन्न ग्रहों का अन्वेषण कर लें, मकन्तु अपने सर्क्ष आपके मवद्यर्ान
होते हुए भी वे आपकी शमक्त की गणना करने र्ें असर्र्म हैं ।” भगवान् कृ ष्ट्ण न के वल अजन्र्ा हैं, अमपतु अव्यय भी
हैं । वे समच्चिानन्ि रूप हैं और उनकी शमक्तयाँ अव्यय हैं ।

वेदाहं समतीतानि वतममािानि चाजमिु ।


भनवष्ट्यानण च भतू ानि मां तु वेद ि कश्र्चि ।। २६ ।।

वेद—जानता ह;ूँ अहम्—मैं; समतीतामन—भतू काल को; वतपमानामन—वततमान को; च—तथा; अजपनु —हे
अजुतन; भमवष्यामण—भपवष्य को; च—भी; भूतामन—सारे जीवों को; माम्—मुझको; तु—लेपकन; वेद—जानता है;
न—नहीं; कश्चन—कोई

हे अजमिु ! श्रीभगवाि् होिे के िाते मैं जो कुछ भूतकाल में घनटत हो चुका है, जो वतममाि में घनटत हो
रहा है और जो आगे होिे वाला है, वह सब कुछ जािता हूँ । मैं समस्त जीवों को भी जािता हूँ, नकन्तु मुझे
कोई िहीं जािता ।

तात्पयम : यहाँ पर साकारता तर्ा मनराकारता का स्पष्ट उल्लेख है । यमि भगवान् कृ ष्ट्ण का स्वरूप र्ाया
होता, जैसा मक र्ायावािी र्ानते हैं, तो उन्हें भी जीवात्र्ा की भाँमत अपना शरीर बिलना पड़ता और मवगत जीवन के
मवषय र्ें सब कुछ मवस्र्रण हो जाता । कोई भी भौमतक िेहधारी अपने मवगत जीवन की स्र्ृमत बनाये नहीं रख पाता, न
ही वह भावी जीवन के मवषय र्ें या वतमर्ान जीवन की उपलमब्ध के मवषय र्ें भमवष्ट्यवाणी कर सकता है । अतः वह यह
नहीं जानता मक भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य र्ें क्या घट रहा है । भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हुए मबना वह ऐसा नहीं कर
सकता ।
सार्ान्य र्नुष्ट्यों से मभन्न, भगवान् कृ ष्ट्ण स्पष्ट कहते हैं मक वे यह भलीभाँमत जानते हैं मक भतू काल र्ें क्या
घटा, वतमर्ान र्ें क्या हो रहा है और भमवष्ट्य र्ें क्या होने वाला है लेमकन सार्ान्य र्नुष्ट्य ऐसा नहीं जानते हैं । चतुर्म
अध्याय र्ें हर् िेख चक ु े हैं मक लाखों वषम पूवम उन्होंने सूयमिेव मववस्वान को जो उपिेश मिया र्ा वह उन्हें स्र्रण
है । कृ ष्ट्ण प्रत्येक जीव को जानते हैं क्योंमक वे सबों के हृिय र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मस्र्त हैं । मकन्तु अल्पज्ञानी प्रत्येक
जीव के हृिय र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मस्र्त होने तर्ा श्रीभगवान् के रूप र्ें उपमस्र्त रहने पर भी श्रीकृ ष्ट्ण को परर्पुरुष के
रूप र्ें नहीं जान पाते, भले ही वे मनमवमशेष ब्रह्म को क्यों न सर्झ लेते हों । मनस्सन्िेह श्रीकृ ष्ट्ण का मिव्य शरीर अनश्र्वर
है । वे सूयम के सर्ान हैं और र्ाया बािल के सर्ान है । भौमतक जगत र्ें हर् सूयम को िेखते हैं, बािलों को िेखते हैं और
मवमभन्न नक्षत्र तर्ा ग्रहों को िेखते हैं । आकाश र्ें बािल इन सबों को अल्पकाल के मलए ढक सकता है, मकन्तु यह
आवरण हर्ारी दृमष्ट तक ही सीमर्त होता है । सूयम, चन्द्रर्ा तर्ा तारे सचर्चु ढके नहीं होते । इसी प्रकार र्ाया परर्ेश्र्वर
को आच्छामित नहीं कर सकती । वे अपनी अन्तरंगा शमक्त के कारण अल्पज्ञों को दृश्य नहीं होते । जैसा मक इस
अध्याय के तृतीय श्लोक र्ें कहा गया है मक करोड़ों परुु षों र्ें से कुछ ही मसद्ध बनने का प्रयत्न करते हैं और सहस्त्रों ऐसे
मसद्ध पुरुषों र्ें से कोई एक भगवान् कृ ष्ट्ण को सर्झ पाता है । भले ही कोई मनराकार ब्रह्म या अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा की
अनुभमू त के कारण मसद्ध हो ले, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मबना वह भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को सर्झ ही नहीं सकता ।

२५१
इच्छाद्वेषसमुत्थे ि द्वन्द्वमोहेि भारत ।
सवमभूतानि सम्मोहं सगे यानन्त परन्तप ।। २७ ।।

इच्छा—इच्छा; द्वेष—तथा घृणा; समुत्थेन—उदय होने से; द्वन्द्व—द्वन्द्व से; मोहेन—मोह के द्वारा; भारत—हे
भरतवंशी; सवप—सभी; भूतामन—जीव; सम्मोहम्—मोह को; सगे—जन्म लेकर; यामन्त—जाते हैं, प्राप्त होते हैं;
परन्तप—हे शत्रओ
ु ं के पवजेता

हे भरतवशं ी! हे शत्रनु वजेता! समस्त जीव जन्म लेकर इच्छा तथा घृणा से उत्पन्ि द्वन्द्वों से मोहग्रस्त
होकर मोह को प्राप्त होते हैं ।

तात्पयम : जीव की स्वाभामवक मस्र्मत शद्ध ु ज्ञान रूप परर्ेश्र्वर की अधीनता है । र्ोहवश जब र्नुष्ट्य इस
शद्धु ज्ञान से िरू हो जाता है तो वह र्ाया के वशीभतू हो जाता है और भगवान् को नहीं सर्झ पाता । यह र्ाया इच्छा
तर्ा घृणा के द्वन्द्व रूप र्ें प्रकट होती है । इसी इच्छा तर्ा घृणा के कारण र्नुष्ट्य परर्ेश्र्वर से तिाकार होना चाहता है
और भगवान् के रूप र्ें कृ ष्ट्ण से ईष्ट्याम करता है । मकन्तु शद्ध ु भक्त इच्छा तर्ा घृणा से र्ोहग्रस्त नहीं होते अतः वे सर्झ
सकते हैं मक भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण अपनी अन्तरंगाशमक्त से प्रकट होते हैं । पर जो द्वन्द्व तर्ा अज्ञान के कारण र्ोहग्रस्त हैं, वे
सोचते हैं मक भगवान् भौमतक (अपरा) शमक्तयों द्वारा उत्पन्न होते हैं । यही उनका िभु ामग्य है । ऐसे र्ोहग्रस्त व्यमक्त र्ान-
अपर्ान, िख ु -सुख, स्त्री-पुरुष, अच्छा-बुरा, आनन्ि-पीड़ा जैसे द्वन्द्वों र्ें रहते हुए सोचते रहते हैं ”यह र्ेरी पत्नी है, यह
र्ेरा घर है, र्ैं इस घर का स्वार्ी हँ, र्ैं इस स्त्री का पमत हँ ।” ये ही र्ोह के द्वन्द्व हैं । जो लोग ऐसे द्वन्द्वों से र्ोहग्रस्त रहते
हैं, वे मनपट र्ख ु म हैं और वे भगवान् को नहीं सर्झ सकते ।

येषां त्वन्तगतं पापं जिािां पण्ु यकममणाम् ।


ते द्वन्द्वमोहनिममि
ु ा भजन्ते मां दृढव्रताः ।। २८ ।।

येषाम्—पजन; तु—लेपकन; अन्त-गतम्—िूणततया पवनष्ट; पापम्—िाि; जनानाम्— मनुष्यों का; पुण्य—


िपवत्र; कमपणाम्—पजनके िूवत कमत; ते —वे; द्वन्द्व—द्वैत के ; मोह—मोह से; मनमपक्त
ु ा:—मक्त
ु ; भजन्ते—भपक्त में
तत्िर होते हैं; माम्—मझु को; दृढ व्रता:—संकल्ििूवतक

नजि मिुष्ट्यों िे पूवमजन्मों में तथा इस जन्म में पुण्यकमम नकये हैं और नजिके पापकमों का पूणमतया
उच्छे दि हो चुका होता है, वे मोह के द्वन्द्वों से मुि हो जाते हैं और वे संकल्पपूवमक मेरी सेवा में तत्पर होते हैं ।

तात्पयम : इस अध्याय र्ें उन लोगों का उल्लेख है जो मिव्य पि को प्राप्त करने के अमधकारी हैं । जो
पापी, नामस्तक, र्ख
ू म तर्ा कपटी हैं उनके मलए इच्छा तर्ा घृणा के द्वन्द्व को पार कर पाना कमिन है । के वल ऐसे परुु ष
भमक्त स्वीकार करके क्रर्शः भगवान् के शद्ध ु ज्ञान को प्राप्त करते हैं, मजन्होंने धर्म के मवमध-मवधानों का अभ्यास
करने, पुण्यकर्म करने तर्ा पापकर्ों के जीतने र्ें अपना जीवन लगाया है । मिर वे क्रर्शः भगवान् का ध्यान सर्ामध र्ें

२५२
करते हैं । आध्यामत्र्क पि पर आसीन होने की यही मवमध है । शद्ध ु भक्तों की संगमत र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अन्तगमत ही
ऐसी पि प्रामप्त सम्भव है, क्योंमक र्हान भक्तों की संगमत से ही र्नुष्ट्य र्ोह से उबर सकता है ।
श्रीमद्भागवत र्ें (५.५.२) कहा गया है मक यमि कोई सचर्चु र्ुमक्त चाहता है तो उसे भक्तों की सेवा करनी
चामहए (महत्सेवाां िारमाहुस्वदमि ु े ः), मकन्तु जो भौमतकतावािी पुरुषों की संगमत करता है वह संसार के गहन अंधकार की
ओर अग्रसर होता रहता है (तमोिारां योस्षताां सङस्गसङम्) । भगवान् के सारे भक्त मवश्र्व भर का भ्रर्ण इसीमलए करते हैं
मजससे वे बद्धजीवों को उनके र्ोह से उबार सकें । र्ायावािी यह नहीं जान पाते मक परर्ेश्र्वर के अधीन अपनी
स्वाभामवक मस्र्मत को भल ू ना ही ईश्र्वरीय मनयर् की सबसे बड़ी अवहेलना है । जब तक वह अपनी स्वाभामवक मस्र्मत
को पुनः प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक परर्ेश्र्वर को सर्झ पाना या संकल्प के सार् उनकी मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें पूणमतया
प्रवृत्त हो पाना कमिन है ।

जरामरणमोक्षाय मामामश्रत्य यतमन्त ये ।


ते ब्रह्म तमद्वदु: कृ त्स्नमध्यात्मं कमप चामखलम् ॥ २९ ॥

जरा—वृद्धावस्था से; मरण—तथा मृत्यु से; मोक्षाय—मपु क्त के पलए; माम्—मझु को, मेरे; आमश्रत्य—
आश्रय बनाकर, शरण लेकर; यतमन्त—प्रयत्न करते हैं; ये—जो; ते—ऐसे व्यपक्त; ब्रह्म—ब्रह्म; तत्—वास्तव में उस;
मवदु:—वे जानते हैं; कृ त्स्नम्— सब कुछ; अध्यात्मम्—पदव्य; कमप—कमत; च—भी; अमखलम्—िूणततया ।

जो जरा तथा मृत्यु से मुमक्त पाने के मलए यत्नर्ील रहते हैं, वे बुमद्धमान व्यमक्त मेरी भमक्त की र्रण
ग्रहण करते हैं। वे वास्तव में ब्रह्म हैं क्य़ोंमक वे मदव्य कमों के मवषय में पूरी तरह से जानते हैं ।

तात्पयप : जन्म, मृत्यु, जरा तथा रोग इस भौपतक शरीर को सताते हैं, आध्यापत्मक शरीर को नहीं। आध्यापत्मक
शरीर के पलए न जन्म है, न मृत्यु, न जरा, न रोग। अत: पजसे आध्यापत्मक शरीर प्राप्त हो जाता है वह भगवान् का िार्तद
बन जाता है और पनत्य भपक्त करता है। वही मक्त ु है। अहं ब्रह्मापस्म—मैं आत्मा ह।ूँ कहा गया है पक मनुष्य को चापहए
पक वह यह समझे पक मैं ब्रह्म या आत्मा ह।ूँ जीवन का यह ब्रह्मबोध ही भपक्त है, जैसा पक इस श्लोक में कहा गया है।
शद्ध
ु भक्त ब्रह्म िद िर आसीन होते हैं और वे पदव्य कमों के पवर्य में सब कुछ जानते रहते हैं ।
भगवान् की पदव्यसेवा में रत रहने वाले चार प्रकार के अशुद्ध भक्त हैं जो अिने-अिने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं
और भगवत्कृ िा से जब वे िूणततया कृ ष्णभावनाभापवत हो जाते हैं, तो िरमेश्वर की संगपत का लाभ उठाते हैं । पकन्तु
देवताओ ं के उिासक कभी भी भगवद्धाम नहीं िहुचूँ िाते। यहाूँ तक पक अल्िज्ञ ब्रह्मभतू व्यपक्त भी कृ ष्ण के िरमधाम,
गोलोक वृन्दावन को प्राप्त नहीं कर िाते। के वल ऐसे व्यपक्त जो कृ ष्णभावनामृत में कमत करते हैं (माम् आपश्रत्य) वे ही
ब्रह्म कहलाने के अपधकारी होते हैं, क्योंपक वे सचमचु ही कृ ष्णधाम िहुचूँ ने के पलए प्रयत्नशील रहते हैं। ऐसे व्यपक्तयों
को कृ ष्ण के पवर्य में कोई भ्रापन्त नहीं रहती और वे सचमचु ब्रह्म हैं ।
जो लोग भगवान् के अचात (स्वरूि) की िूजा करने में लगे रहते हैं या भवबन्धन से मपु क्त िाने के पलए पनरन्तर
भगवान् का ध्यान करते हैं, वे भी ब्रह्म अपधभतू आपद के तात्ियत को समझते हैं, जैसा पक भगवान् ने अगले अध्याय में
बताया है ।

२५३
सामधभूतामधदैवं मां सामधयज्ञं च ये मवदु: ।
प्रयाणकालेऽमप च मां ते मवदुयपक्त
ु चेतस: ॥ ३० ॥

स-अमधभूत—तथा भौपतक जगत् को चलाने वाले पसद्धान्त; अमधदैवम्—समस्त देवताओ ं को पनयपन्त्रत


करने वाले; माम्—मझु को; स-अमधयज्ञम्—तथा समस्त यज्ञों को पनयपन्त्रत करने वाले; च—भी; ये—जो; मवदु:—
जानते हैं; प्रयाण—मृत्यु के ; काले—समय में; अमप—भी; च—तथा; माम्—मझु को; ते—वे; मवदु:—जानते हैं;
यक्त
ु -चेतस:—पजनके मन मझु में लगे हैं ।

जो मझ
ु परमेश्वर को मेरी पणू प चेतना में रहकर मझ
ु े जगत् का, देवताओ ं का तथा समस्त यज्ञमवमधय़ों
का मनयामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं।

तात्पयप : कृ ष्णभावनामृत में कमत करने वाले मनुष्य कभी भी भगवान् को िूणततया समझने के िथ से पवचपलत
नहीं होते। कृ ष्णभावनामृत के पदव्य सापन्नध्य से मनुष्य यह समझ सकता है पक भगवान् पकस तरह भौपतक जगत् तथा
देवताओ ं तक के पनयामक हैं। धीरे -धीरे ऐसी पदव्य संगपत से मनुष्य का भगवान् में पवश्वास बढता है, अत: मृत्यु के
समय ऐसा कृ ष्णभावनाभापवत व्यपक्त कृ ष्ण को कभी भल ु ा नहीं िाता। अतएव वह सहज ही भगवद्धाम गोलोक
वृन्दावन को प्राप्त होता है ।
यह सातवाूँ अध्याय पवशेर् रूि से बताता है पक कोई पकस प्रकार से िूणततया कृ ष्णभावनाभापवत हो सकता है ।
कृ ष्णभावना का शभु ारम्भ ऐसे व्यपक्तयों के सापन्नध्य से होता है जो कृ ष्णभावनाभापवत होते हैं। ऐसा सापन्नध्य
आध्यापत्मक होता है और इससे मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान् के संसगत में आता है और भगवत्कृ िा से वह कृ ष्ण को भगवान्
समझ सकता है । साथ ही वह जीव के वास्तपवक स्वरूि को समझ सकता है और यह समझ सकता है पक पकस प्रकार
जीव कृ ष्ण को भल ु ाकर भौपतक कायों में उलझ जाता है । सत्संगपत में रहने से कृ ष्णभावना के क्रपमक पवकास से जीव
यह समझ सकता है पक पकस प्रकार कृ ष्ण को भल ु ाने से वह प्रकृ पत के पनयमों द्वारा बद्ध हुआ है । वह यह भी समझ
सकता है पक यह मनुष्य जीवन कृ ष्णभावनामृत को िुन: प्राप्त करने के पलए पमला है, अत: इसका सदिु योग िरमेश्वर की
अहैतुकी कृ िा प्राप्त करने के पलए करना चापहए ।
इस अध्याय में पजन अनेक पवर्यों की पववेचना की गई है वे हैं— दख ु मे िडा हुआ मनुष्य, पजज्ञासु मानव,
अभावग्रस्त मानव, ब्रह्म ज्ञान, िरमात्मा ज्ञान, जन्म, मृत्यु तथा रोग से मपु क्त एवं िरमेश्वर की िूजा । पकन्तु जो व्यपक्त
वास्तव में कृ ष्णभावनामृत को प्राप्त है, वह पवपभन्न पवपधयों की िरवाह नहीं करता। वह सीधे कृ ष्णभावनामृत के कायों
में प्रवृत्त होता है और उसी से भगवान् कृ ष्ण के पनत्य दास के रूि में अिनी स्वाभापवक पस्थपत को प्राप्त करता है । ऐसी
अवस्था में वह शद्ध ु भपक्त में िरमेश्वर के श्रवण तथा गुणगान में आनन्द िाता है। उसे िूणत पवश्वास रहता है पक ऐसा करने
से उसके सारे उद्देश्यों की िूपतत होगी । ऐसी दृढ श्रद्धा दृढव्रत कहलाती है और यह भपक्तयोग या पदव्य प्रेमाभपक्त की
शरुु आत होती है। समस्त शास्त्रों का भी यही मत है। भगवद्गीता का यह सातवाूँ अध्याय इसी पनिय का साराश ं है ।

इस प्रकाि श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अर्धयाय “भगवदज्ञ् ान” का भवक्तवेदान्त ता्पयष पर्ू ष हुआ ।

२५४
अध्याय आठ
भगवत्प्रानप्त
अजुमन उवाच
नकं तद्ब्रह्म नकमध्यात्मं नकं कमम पुरुषोत्तम ।
अनधभूतं च नकं प्रोिमनधदैवं नकमुच्यते ।। १ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; नकम्– क्या; तत्– वह; ब्रह्म– ब्रह्म; नकम्– क्या; अध्यात्मम्–
आत्र्ा; नकम्– क्या; कमम– सकार् कर्म; पुरुष-उत्तम – हे परर्पुरुष; अनध-भूतम् – भौमतक जगत्; च– तर्ा; नकम्–
क्या; प्रोिम्– कहलाता है; अनध-दैवम्– िेवतागण; नकम्– क्या; उच्यते– कहलाता है ।

अजमिु िे कहा – हे भगवाि्! हे पुरुषोत्तम! ब्रह्म क्या है? आत्मा क्या है? सकाम कमम क्या है? यह
भौनतक जगत क्या है? तथा देवता क्या हैं? कृ पा करके यह सब मुझे बताइये ।

तात्पयम : इस अध्याय र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण अजुमन के द्वारा पूछे गये, “ब्रह्म क्या है?” आमि प्रश्नों का उत्तर िेते हैं ।
भगवान् कर्म, भमक्त तर्ा योग और शद्ध ु भमक्त की भी व्याख्या करते हैं । श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है मक परर् सत्य
ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् के नार् से जाना जाता है । सार् ही जीवात्र्ा या जीव को ब्रह्म भी कहते हैं । अजुमन आत्र्ा
के मवषय र्ें भी पूछता है, मजससे शरीर, आत्र्ा तर्ा र्न का बोध होता है । वैमिक कोश (मनरुक्त) के अनुसार आत्र्ा
का अर्म र्न, आत्र्ा, शरीर तर्ा इमन्द्रयाँ भी होता है ।
अजुमन ने परर्ेश्र्वर को पुरुषोत्तर् या परर् पुरुष कहकर सम्बोमधत मकया है, मजसका अर्म यह होता है मक वह ये
सारे प्रश्न अपने एक मर्त्र से नहीं, अमपतु परर्पुरुष से, उन्हें परर् प्रर्ाण र्ानकर, पूछ रहा र्ा, जो मनमश्चत उत्तर िे सकते
र्े ।

अनधयज्ञः कथं कोऽत्र देहेऽनस्मन्मधुसूदि ।


प्रयाणकाले च कथं ज्ञेयोऽनस नियतात्मनभः ।। २ ।।

अनधयज्ञः– यज्ञ का स्वार्ी; कथम्– मकस तरह; कः– कौन; अत्र– यहाँ; देहे– शरीर र्ें; अनस्मि्–
इस; मधुसूदि– हे र्धसु ूिन; प्रयाण-काले– र्ृत्यु के सर्य; च– तर्ा; कथम्– कै से; ज्ञेयः अनस– जाने जा सकते
हो; नियत-आत्मनभः– आत्र्सयं र्ी के द्वारा ।

हे मधुसूदि! यज्ञ का स्वामी कौि है और वह शरीर में कै से रहता है? और मृत्यु के समय भनि में लगे
रहिे वाले आपको कै से जाि पाते हैं?

२५५
तात्पयम :अस्धयज्ञ का तात्पयम इन्द्र या मवष्ट्णु हो सकता है । मवष्ट्णु सर्स्त िेवताओ ं र्ें, मजनर्ें ब्रह्मा तर्ा मशव
समम्र्मलत हैं, प्रधान िेवता हैं और इन्द्र प्रशासक िेवताओ ं र्ें प्रधान हैं । इन्द्र तर्ा मवष्ट्णु िोनों की पूजा यज्ञ द्वारा की
जाती है । मकन्तु अजुमन प्रश्न करता है मक वस्तुतः यज्ञ का स्वार्ी कौन है और भगवान् मकस तरह जीव के शरीर के भीतर
मनवास करते हैं?
अजुमन ने भगवान् को र्धसु ूिन कहकर सम्बोमधत मकया क्योंमक कृ ष्ट्ण ने एक बार र्धु नार्क असुर का वध
मकया र्ा । वस्तुतः ये सारे प्रश्न, जो शंका के रूप र्ें हैं, अजुमन के र्न र्ें नहीं उिने चामहए र्े, क्योंमक अजुमन एक
कृ ष्ट्णभावनाभामवत भक्त र्ा । अतः ये सारी शक ं ाएँ असरु ों के सदृश हैं । चँमू क कृ ष्ट्ण असरु ों के र्ारने र्ें मसद्धहस्त र्े,
अतः अजुमन उन्हें र्धसु ूिन कहकर सम्बोमधत करता है, मजससे कृ ष्ट्ण उस के र्न र्ें उिने वाली सर्स्त आसुरी शंकाओ ं
को नष्ट कर िें ।
इस श्लोक का प्रयाण ाले शब्ि भी अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक अपने जीवन र्ें हर् जो भी करते हैं, उसकी
परीक्षा र्ृत्यु के सर्य होनी है । अजुमन उन लोगों के मवषय र्ें जो मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगे रहते हैं यह जानने के
मलए अत्यन्त इच्छुक है मक अन्त सर्य उनकी िशा क्या होगी? र्ृत्यु के सर्य शरीर के सारे कायम रुक जाते हैं और र्न
सही िशा र्ें नहीं रहता । इस प्रकार शारीररक मस्र्मत मबगड़ जाने से हो सकता है मक र्नुष्ट्य परर्ेश्र्वर का स्र्रण न कर
सके । परर् भक्त र्हाराज कुलशेखर प्रार्मना करते हैं, “हे भगवान्! इस सर्य र्ैं पूणम स्वस्र् हँ । अच्छा हो मक र्ेरी र्ृत्यु
इसी सर्य हो जाय मजससे र्ेरा र्न रूपी हसं आपके चरणकर्लोंरूपी नाल के भीतर प्रमवष्ट हो सके ।” यह रूपक
इसमलए प्रयुक्त मकया गया है क्योंमक हसं , जो एक जल पक्षी है, वह कर्ल के पुष्ट्पों को कुतरने र्ें आनन्ि का अनुभव
करता है, इस तरज वह कर्लपुष्ट्प के भीतर प्रवेश करना चाहता है । र्हाराज कुलशेखर भगवान् से कहते हैं, “इस सर्य
र्ेरा र्न स्वस्र् है और र्ैं भी पूरी तरह स्वस्र् हँ । यमि र्ैं आपके चरणकर्लों का मचन्तन करते हुए तुरन्त र्र जाऊँ तो
र्झु े मवश्र्वास है मक आपके प्रमत र्ेरी भमक्त पूणम हो जायेगी, मकन्तु यमि र्झु े अपनी सहज र्ृत्यु की प्रतीक्षा करनी पड़ी
तो र्ैं नहीं जानता मक क्या होगा क्योंमक उस सर्य र्ेरा शरीर कायम करना बन्ि कर िेगा, र्ेरा गला रूँध जायेगा और र्झु े
पता नहीं मक र्ैं आपके नार् का जप कर पाउँगा या नहीं । अच्छा यही होगा मक र्झु े तुरन्त र्र जाने िें ।” अजुमन प्रश्न
करता है मक ऐसे सर्य र्नष्ट्ु य मकस तरह कृ ष्ट्ण के चरणकर्लों र्ें अपने र्न को मस्र्र कर सकता है?

श्रीभगवानवु ाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोिवकरो नवसगमः कममसंनज्ञतः ।। ३ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; अक्षरम्– अमवनाशी; ब्रह्म– ब्रह्म; परमम्– मिव्य; स्वभावः– सनातन
प्रकृ मत; अध्यात्मम्– आत्र्ा; उच्यते– कहलाता है; भूत-भाव-उिव-करः – जीवों के भौमतक शरीर को उत्पन्न करने
वाला; नवसगमः– सृमष्ट;कमम-सकार् कर्म; संनज्ञतः– कहलाता है ।

भगवाि् िे कहा – अनविाशी और नदव्य जीव ब्रह्म कहलाता है और उसका नित्य स्वभाव अध्यात्म
या आत्म कहलाता है । जीवों के भौनतक शरीर से सम्बनन्धत गनतनवनध कमम या सकाम कमम कहलाती है ।

२५६
तात्पयम : ब्रह्म अमवनाशी तर्ा मनत्य और इसका मवधान कभी भी नहीं बिलता । मकन्तु ब्रह्म से परे परब्रह्म होता
है । ब्रह्म का अर्म है जीव और परब्रह्म का अर्म भगवान् है । जीव का स्वरूप भौमतक जगत् र्ें उसकी मस्र्मत से मभन्न
होता है । भौमतक चेतना र्ें उसका स्वभाव पिार्म पर प्रभत्ु व जताना है, मकन्तु आध्यामत्र्क चेतना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
उसकी मस्र्मत परर्ेश्र्वर की सेवा करना है । जब जीव भौमतक चेतना र्ें होता है तो उसे इस संसार र्ें मवमभन्न प्रकार के
शरीर धारण करने पड़ते हैं । यह भौमतक चेतना के कारण कर्म अर्वा मवमवध सृमष्ट कहलाता है ।
वैमिक सामहत्य र्ें जीव को जीवात्र्ा तर्ा ब्रह्म कहा जाता है, मकन्तु उसे कभी परब्रह्म नहीं कहा जाता ।
जीवात्र्ा मवमभन्न मस्र्मतयाँ ग्रहण करता है – कभी वह अन्धकार पणू म भौमतक प्रकृ मत र्ें मर्ल जाता है और पिार्म को
अपना स्वरूप र्ान लेता है तो कभी वह परा आध्यामत्र्क प्रकृ मत के सार् मर्ल जाता है । इसीमलए वह परर्ेश्र्वर की
तटस्र्ा शमक्त कहलाता है । भौमतक या आध्यामत्र्क प्रकृ मत के सार् अपनी पहचान के अनुसार ही उसे भौमतक या
आध्यामत्र्क शरीर प्राप्त होता है । भौमतक प्रकृ मत र्ें वह चौरासी लाख योमनयों र्ें से कोई भी शरीर धारण कर सकता है,
मकन्तु आध्यामत्र्क प्रकृ मत र्ें उसका एक ही शरीर होता है । भौमतक प्रकृ मत र्ें वह अपने कर्म अनुसार कभी र्नुष्ट्य रूप
र्ें प्रकट होता है तो कभी िेवता, पश,ु पक्षी आमि के रूप र्ें प्रकट होता है । स्वगमलोक की प्रामप्त तर्ा वहाँ का सुख
भोगने की इच्छा से वह कभी-कभी यज्ञ सम्पन्न करता है, मकन्तु जब उसका पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पुनः र्नुष्ट्य
रूप र्ें पृथ्वी पर वापस आ जाता है । यह प्रमक्रया कर्म कहलाती है ।
छाांर्ोर्गय उपस्नषर्् र्ें वैमिक यज्ञ-अनुिानों का वणमन मर्लता है । यज्ञ की वेिी र्ें पाँच अमग्नयों को पाँच प्रकार की
आहुमतयाँ िी जाती हैं । ये पाँच अमग्नयाँ स्वगमलोक, बािल, पृथ्वी, र्नुष्ट्य तर्ा स्त्री रूप र्ानी जाती हैं और श्रद्धा, सोर्,
वषाम, अन्न तर्ा वीयम ये पाँच प्रकार की आहुमतयाँ हैं ।
यज्ञ प्रमक्रया र्ें जीव अभीष्ट स्वगमलोकों की प्रामप्त के मलए मवशेष यज्ञ करता है और उन्हें प्राप्त करता है । जब यज्ञ
का पुण्य क्षीण हो जाता है तो वह पृथ्वी पर वषाम के रूप र्ें उतरता है और अन्न का रूप ग्रहण करता है । इस अन्न को
र्नष्ट्ु य खाता है मजससे यह वीयम र्ें पररणत होता है जो स्त्री के गभम र्ें जाकर मिर से र्नष्ट्ु य का रूप धारण करता है । यह
र्नुष्ट्य पुनः यज्ञ करता है और पुनः वही चक्र चलता है । इस प्रकार जीव शाश्र्वत रीमत से आता और जाता रहता है ।
मकन्तु कृ ष्ट्णभावनाभामवत परुु ष ऐसे यज्ञों से िरू रहता है । वह सीधे कृ ष्ट्णभावनार्ृत ग्रहण करता है और इस प्रकार ईश्र्वर
के पास वापस जाने की तैयारी करता है ।
भगवद्गीता के मनमवमशेषवािी भाष्ट्यकार मबना करण के कल्पना करते हैं मक इस जगत् र्ें ब्रह्म जीव का रूप धारण
करता है और इसके सर्र्मन र्ें वे गीता के पँद्रहवें अध्याय के सातवें श्लोक को उद्धतृ करते हैं । मकन्तु इस श्लोक र्ें
भगवान् जीव को “र्ेरा शाश्र्वत अंश” भी कहते हैं । भगवान् का यह अंश, जीव, भले ही भौमतक जगत् र्ें आ मगरता
है, मकन्तु परर्ेश्र्वर (अच्युत) कभी नीचे नहीं मगरता । अतः यह मवचार मक ब्रह्म जीव का रूप धारण करता है ग्राह्य नहीं
है । यह स्र्रण रखना होगा मक वैमिक सामहत्य र्ें ब्रह्म (जीवात्र्ा) को परब्रह्म (परर्ेश्र्वर) से पृर्क् र्ाना जाता है ।

अनधभूतं क्षरो भावः पुरुषश्र्चानधदैवतम् ।


अनधयज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।। ४ ।।

अनधभतू म्– भौमतक जगत्; क्षरः– मनरन्तर पररवतमनशील; भावः– प्रकृ मत; परुु षः– सयू म, चन्द्र जैसे सर्स्त
िेवताओ ं समहत मवराट रूप; च– तर्ा; अनधदैवतम्– अमधिैव नार्क; अनधयज्ञः– परर्ात्र्ा; अहम्– र्ैं
(कृ ष्ट्ण); एव– मनश्चय ही; अन्ि– इस; देहे– शरीर र्ें; देह-भृताम्– िेहधाररयों र्ें; वर– हे श्रेि ।

२५७
हे देहधाररयों में श्रेष्ठ! निरन्तर पररवतमिशील यह भौनतक प्रकृ नत अनधभूत (भौनतक अनभव्यनि)
कहलाती है । भगवाि् का नवराट रूप, नजसमें सूयम तथा चन्द्र जैसे समस्त देवता सनम्मनलत हैं, अनधदैव
कहलाता है । तथा प्रत्येक देहधारी के हृदय में परमात्मा स्वरूप नस्थत मैं परमेश्र्वर (यज्ञ का स्वामी)
कहलाता हूँ ।

तात्पयम : यह भौमतक प्रकृ मत मनरन्तर पररवमतमत होती रहती है । सार्ान्यतः भौमतक शरीरों को छह अवस्र्ाओ ं
से मनकलना होता है – वे उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक रहते हैं, कुछ गौण पिार्म उत्पन्न करते हैं, क्षीण होते
हैं और अन्त र्ें मवलप्तु हो जाते हैं । यह भौमतक प्रकृ मत अस्धभतू कहलाती है । यह मकसी मनमश्चत सर्य र्ें उत्पन्न की
जाती है और मकसी मनमश्चत सर्य र्ें मवनष्ट कर िी जाती है । परर्ेश्र्वर का मवराट स्वरूप की धारणा, मजसर्ें सारे िेवता
तर्ा उनके लोक समम्र्मलत हैं, अस्धर्ैवत कहलाती है । प्रत्येक शरीर र्ें आत्र्ा समहत परर्ात्र्ा का वास होता है, जो
भगवान् कृ ष्ट्ण का अंश स्वरूप है । यह परर्ात्र्ा अस्धयज्ञ कहलाता है और हृिय र्ें मस्र्त होता है । इस श्लोक के प्रसंग
र्ें एव शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक इसके द्वारा भगवान् बल िेकर कहते हैं मक परर्ात्र्ा उनसे मभन्न नहीं है । यह
परर्ात्र्ा प्रत्येक आत्र्ा के पास आसीन है और आत्र्ा के कायमकलापों का साक्षी है तर्ा आत्र्ा की मवमभन्न
चेतनाओ ं का उद्गर् है । यह परर्ात्र्ा प्रत्येक आत्र्ा को र्क्त
ु भाव से कायम करने की छूट िेता है और उसके कायों पर
मनगरानी रखता है । परर्ेश्र्वर के इन मवमवध स्वरूपों के सारे कायम उस कृ ष्ट्णभावनाभामवत भक्त को स्वतः स्पष्ट हो जाते
हैं, जो भगवान् की मिव्यसेवा र्ें लगा रहता है । अस्धर्ैवत नार्क भगवान् के मवराट स्वरूप का मचन्तन उन नविीमक्षतों
के मलए है जो भगवान् के परर्ात्र्ा स्वरूप तक नहीं पहुचँ पाते । अतः उन्हें परार्शम मिया जाता है मक वे उस मवराट
पुरुष का मचन्तन करें मजसके पाँव अधोलोक हैं, मजसके नेत्र सूयम तर्ा चन्द्र हैं औ मजसका मसर उच्च्लोक है ।

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।


यः प्रयानत स मिावं यानत िास्त्यत्र संशयः ।। ५ ।।

अन्त-काले– र्ृत्यु के सर्य; च– भी; माम्– र्झु को; एव– मनश्चय ही; स्मरि्– स्र्रण करते हुए; मुक्त्वा–
त्याग कर; कलेवरम्– शरीर को; यः– जो; प्रयानत– जाता है; सः– वह; मत्-भावम् – र्ेरे स्वभाव को; यानत– प्राप्त
करता है; ि– नहीं; अनस्त– है; अत्र– यहाँ; संशयः– सन्िेह ।

और जीवि के अन्त में जो के वल मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है, वह तुरन्त मेरे स्वभाव
को प्राप्त करता है । इसमें रंचमात्र भी सन्देह िहीं है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत की र्हत्ता िमशमत की गई है । जो कोई भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अपना शरीर
छोड़ता है, वह तुरन्त परर्ेश्र्वर के मिव्य स्वभाव (मद्भाव) को प्राप्त होता है । परर्ेश्र्वर शद्ध ु ामतशद्ध ु है, अतः जो व्यमक्त
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है, वह भी शद्ध ु ामतश द्ध
ु होता है । स्मरन् शब्ि र्हत्त् वपू णम है । श्रीकृ ष्ट्ण का स्र्रण उस अशद्ध ु
जीव से नहीं हो सकता मजसने भमक्त र्ें रहकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अभ्यास नहीं मकया । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक
जीवन के प्रारम्भ से ही कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अभ्यास करे । यमि जीवन के अन्त र्ें सिलता वाछ ं नीय है तो कृ ष्ट्ण का

२५८
स्र्रण अमनवायम है । अतः र्नुष्ट्य को मनरन्तर हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे –
इस र्हार्न्त्र का जप करना चामहए । भगवान चैतन्य ने उपिेश मिया है मक र्नुष्ट्य को वृक्ष के सर्ान समहष्ट्णु होना
चामहए (तरोररवसस्हष्णनु ा) । हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – का जप करने
वाले व्यमक्त को अनेक व्यवधानों का सार्ना करना पड़ सकता है । तो भी इस र्हार्न्त्र का जप करते रहना चामहए,
मजससे जीवन के अन्त सर्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत का पूरा-पूरा लाभ प्राप्त हो सके ।

यं यं वानप स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।


तं तमेवैनत कौन्तेय सदा तिावभानवतः ।। ६ ।।

यम् यम्– मजस; वा अनप– मकसी भी; स्मरि्– स्र्रण करते हुए; भावम्– स्वभाव को; त्यजनत– पररत्याग
करता है; अन्ते– अन्त र्ें; कलेवरम्– शरीर को; तम् तम्– वैसा ही; एव– मनश्चय ही; एनत– प्राप्त करता है; कौन्तेय–
हे कुन्तीपुत्र; सदा– सिैव; तत्– उस; भाव– भाव; भानवतः– स्र्रण करता हुआ ।

हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मिष्ट्ु य नजस-नजस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को
निनश्चत रूप से प्राप्त होता है ।

तात्पयम : यहाँ पर र्ृत्यु के सर्य अपना स्वभाव बिलने की मवमध का वणमन है । जो व्यमक्त अन्त सर्य कृ ष्ट्ण का
मचन्तन करते हुए शरीर त्याग करता है, उसे परर्ेश्र्वर का मिव्य स्वभाव प्राप्त होता है । मकन्तु यह सत्य नहीं है मक यमि
कोई र्ृत्यु के सर्य कृ ष्ट्ण के अमतररक्त और कुछ सोचता है तो उसे भी मिव्य अवस्र्ा प्राप्त होती है । हर्ें इस बात पर
मवशेष ध्यान िेना चामहए । तो मिर कोई र्न की सही अवस्र्ा र्ें मकस प्रकार र्रे ? र्हापरुु ष होते हुए भी र्हाराज भरत
ने र्ृत्यु के सर्य एक महरन का मचन्तन मकया, अतः अगले जीवन र्ें महरन के शरीर र्ें उनका िेहान्तरण हुआ । यद्यमप
महरन के रूप र्ें उन्हें अपने मवगत कर्ों की स्र्ृमत र्ी, मकन्तु उन्हें पशु शरीर धारण करना ही पड़ा । मनस्सन्िेह र्नष्ट्ु य के
जीवन भर के मवचार संमचत होकर र्ृत्यु के सर्य उसके मवचारों को प्रभामवत करते हैं, अतः उस जीवन से उसका
अगला जीवन बनता है । अगर कोई इस जीवन र्ें सतोगुणी होता है और मनरन्तर कृ ष्ट्ण का मचन्तन करता है तो
सम्भावना यही है मक र्ृत्यु के सर्य उसे कृ ष्ट्ण का स्र्रण बना रहे । इससे उसे कृ ष्ट्ण के मिव्य स्वभाव को प्राप्त करने र्ें
सहायता मर्लेगी । यमि कोई मिव्यरूप से कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें लीन रहता है तो उसका अगला शरीर मिव्य (आध्यामत्र्क)
ही होगा, भौमतक नहीं । अतः जीवन के अन्त सर्य अपने स्वभाव को सिलतापूवमक बिलने के मलए हरे ृ ष्ण हरे
ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे का जप सवमश्रेि मवमध है ।

तस्मात्सवेषु कालेषु मामिुस्मर युध्य च ।


म्यनपमतमिोबनु द्धमाममेवैष्ट्यस्यसश
ं यः ।। ७ ।।

तस्मात्– अतएव; सवेषु– सर्स्त; कालेष–ु कालों र्ें; माम्– र्झु को; अिस्ु मर– स्र्रण करते रहो; यध्ु य–
युद्ध करो; च– भी; मनय– र्झु र्ें; अनपमत– शरणागत होकर; मिः– र्न; बुनद्धः– बुमद्ध; माम्– र्झु को; एव– मनश्चय
ही; एष्ट्यनस– प्राप्त करोगे; असश
ं यः– मनस्सन्िेह ही ।

२५९
अतएव, हे अजमुि! तुम्हें सदैव कृ ष्ट्ण रूप में मेरा नचन्ति करिा चानहए और साथ ही युद्ध करिे के
कतमव्य को भी पूरा करिा चानहए । अपिे कमों को मुझे समनपमत करके तथा अपिे मि एवं बुनद्ध को मुझमें
नस्थर करके तुम निनश्चत रूप से मुझे प्राप्त कर सकोगे ।

तात्पयम : अजुमन को मिया गया यह उपिेश भौमतक कायों र्ें व्यस्त रहने वाले सर्स्त व्यमक्तयों के मलए बड़ा
र्हत्त्वपणू म है । भगवान् यह नहीं कहते मक कोई अपने कतमव्यों को त्याग िे । र्नष्ट्ु य उन्हें करते हुए सार्-सार् हरे
ृ ष्ण का जप करके कृ ष्ट्ण का मचन्तन कर सकता है । इससे र्नुष्ट्य भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो जायेगा और अपने र्न
तर्ा बमु द्ध को कृ ष्ट्ण र्ें प्रवृत्त करे गा । कृ ष्ट्ण का नार्-जप करने से र्नष्ट्ु य परर्धार् कृ ष्ट्णलोक को प्राप्त होगा, इसर्ें कोई
सन्िेह नहीं है ।

अभ्यासयोगयुिेि चेतसा िान्यगानमिा ।


परमं पुरुषं नदव्यं यानत पाथामिुनचन्तयि् ।। ८ ।।

अभ्यास-योग– अभ्यास से; युिेि– ध्यान र्ें लगे रहकर; चेतसा– र्न तर्ा बुमद्ध से; ि अन्य गानमिा– मबना
मवचमलत हुए; परमम्– परर्; पुरुषम्– भगवान् को; नदव्यम्– मिव्य; यानत– प्राप्त करता है; पाथम– हे
पृर्ापुत्र; अिुनचन्तयि्– मनरन्तर मचन्तन करता हुआ ।

हे पाथम! जो व्यनि मेरा स्मरण करिे में अपिा मि निरन्तर लगाये रखकर अनवचनलत भाव से भगवाि्
के रूप में मेरा ध्याि करता है, वह मुझको अवश्य ही प्राप्त होता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण अपने स्र्रण मकये जाने की र्हत्ता पर बल िेते हैं । र्हार्न्त्र हरे ृ ष्ण का
जप करने से कृ ष्ट्ण की स्र्ृमत हो आती है । भगवान् के शब्िोच्चार (ध्वमन) के जप तर्ा श्रवण के अभ्यास से र्नुष्ट्य के
कान, जीभ तर्ा र्न व्यस्त रहते हैं । इस ध्यान का अभ्यास अत्यन्त सुगर् है और इससे परर्ेश्र्वर को प्राप्त करने र्ें
सहायता मर्लती है । पुरुषम् का अर्म भोक्ता है । यद्यमप सारे जीव भगवान् की तटस्र्ा शमक्त हैं, मकन्तु वे भौमतक कल्र्ष
से युक्त हैं । वे स्वयं को भोक्ता र्ानते हैं, जबमक वे होते नहीं । यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है मक भगवान् ही अपने मवमभन्न
स्वरूपों तर्ा नारायण, वासुिेव आमि स्वांशों के रूप र्ें परर् भोक्ता हैं ।
भक्त हरे ृ ष्ण का जप करके अपनी पूजा के लक्ष्य परर्ेश्र्वर का, इनके मकसी भी रूप नारायण, कृ ष्ट्ण, रार् आमि
का मनरन्तर मचन्तन कर सकता है । ऐसा करने से वह शद्ध ु हो जाता है और मनरन्तर जप करते रहने से जीवन के अन्त र्ें
वह भगवद्धार् को जाता है । योग अन्तःकरण के परर्ात्र्ा का ध्यान है । इसी प्रकार हरे ृ ष्ण के जप द्वारा र्नुष्ट्य अपने
र्न को परर्ेश्र्वर र्ें मस्र्र करता है । र्न चचं ल है, अतः आवश्यक है मक र्न को बलपवू मक कृ ष्ट्ण-मचन्तन र्ें लगाया
जाय । प्रायः उस प्रकार के कीट का दृष्टान्त मिया जाता है जो मततली बनना चाहता है और इसी जीवन र्ें मततली बन
जाता है । इसी प्रकार यमि हर् मनरन्तर कृ ष्ट्ण का मचन्तन करते रहें, तो यह मनमश्चत है मक हर् जीवन के अन्त र्ें कृ ष्ट्ण
जैसा शरीर प्राप्त कर सकें गे ।

२६०
कनवं पुराणमिुशानसतारमणोरणीयांसमिुस्मरेद्यः ।
सवमस्य धातारमनचन्त्यरूपमानदत्यवणं तमसः परस्तात् ।। ९ ।।

कनवम्– सवमज्ञ; पुराणम्– प्राचीनतर्, पुरातन; अिुशानसतारम्– मनयन्ता; अणोः– अणु की तुलना
र्ें; अणीयांसम्– लघतु र; अिुस्मरेत–् सिैव सोचता है; यः– जो; सवमस्य– हर वस्तु का; धातारम्–
पालक; अनचन्त्य– अकल्पनीय; रूपम्– मजसका स्वरूप; आनदत्य-वणमम् – सूयम के सर्ान प्रकाशर्ान; तमसः–
अधं कार से; परस्तात्– मिव्य, परे ।

मिष्ट्ु य को चानहए नक परमपरुु ष का ध्याि सवमज्ञ, परु ाति, नियन्ता, लघतु म से भी लघतु र, प्रत्येक के
पालिकताम, समस्त भौनतकबुनद्ध से परे, अनचन्त्य तथा नित्य पुरुष के रूप में करे । वे सूयम की भाूँनत तेजवाि
हैं और इस भौनतक प्रकृ नत से परे, नदव्य रूप हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें परर्ेश्र्वर के मचन्तन की मवमध का वणमन हुआ है । सबसे प्रर्ख ु बात यह है मक वे
मनराकार या शन्ू य नहीं हैं । कोई मनराकार या शन्ू य का मचन्तन कै से कर सकता है? यह अत्यन्त कमिन है । मकन्तु कृ ष्ट्ण
के मचन्तन की मवमध अत्यन्त सुगर् है और तथ्य रूप र्ें यहाँ वमणमत है । पहली बात तो यह है मक भगवान् पुरुष हैं – हर्
रार् तर्ा कृ ष्ट्ण को पुरुष रूप र्ें सोचते हैं । चाहे कोई रार् का मचन्तन करे या कृ ष्ट्ण का, वे मजस तरह के हैं उसका
वणमन भगवद्गीता के इस श्लोक र्ें मकया गया है । भगवान् कमव हैं अर्ामत् वे भूत, वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य के ज्ञाता हैं,
अतः वे सब कुछ जानने वाले हैं । वे प्राचीनतर् पुरुष हैं क्योंमक वे सर्स्त वस्तुओ ं के उद्गर् हैं, प्रत्येक वस्तु उन्हीं से
उत्पन्न है । वे ब्रह्माण्ड के परर् मनयन्ता भी हैं । वे र्नुष्ट्यों के पालक तर्ा मशक्षक हैं । वे अणु से भी सूक्ष्र् हैं । जीवात्र्ा
बाल के अग्र भाग के िस हजारवें अश ं के बराबर है, मकन्तु भगवान् अमचन्त्य रूप से इतने लघु हैं मक वे इस अणु के भी
हृिय र्ें प्रमवष्ट रहते हैं । इसमलए वे लघतु र् से भी लघतु र कहलाते हैं । परर्ेश्र्वर के रूप र्ें वे परर्ाणु र्ें तर्ा लघतु र् के
भी हृिय र्ें प्रवेश कर सकते हैं और परर्ात्र्ा रूप र्ें उसका मनयन्त्रण करते हैं । इतना लघु होते हुए भी वे सवमव्यापी हैं
और सबों का पालन करने वाले हैं । उनके द्वारा इन लोकों का धारण होता है । प्रायः हर् आश्चयम करते हैं मक ये मवशाल
लोक मकस प्रकार वायु र्ें तैर रहे हैं । यहाँ यह बताया गया है मक परर्ेश्र्वर अपनी अमचन्त्य शमक्त द्वारा इन सर्स्त
मवशाल लोकों तर्ा आकाशगंगाओ ं को धारण मकए हुए हैं । इस प्रसंग र्ें अस्चन्त्य शब्ि अत्यन्त सार्मक है । ईश्र्वर की
शमक्त हर्ारी कल्पना या मवचार शमक्त के परे है, इसीमलए अस्चन्त्य कहलाती है । इस बात का खंडन कौन कर सकता
है? वे भौमतक जगत् र्ें व्याप्त हैं मिर भी इससे परे हैं । हर् इसी भौमतक जगत् को िीक-िीक नहीं सर्झ पाते जो
आध्यामत्र्क जगत् की तुलना र्ें नगण्य है तो मिर हर् कै से जान सकते हैं मक इसके परे क्या है? अस्चन्त्य का अर्म है
इस भौमतक जगत् से परे मजसे हर्ारा तकम , नीमतशास्त्र तर्ा िाशममनक मचन्तन छू नहीं पाता और जो अकल्पनीय है ।
अतः बुमद्धर्ान र्नुष्ट्यों को चामहए मक व्यर्म के तकों तर्ा मचन्तन से िरू रहकर वेिों, भगवद्गीता तर्ा भागवत जैसे
शास्त्रों र्ें जो कुछ कहा गया है, उसे स्वीकार कर लें और उनके द्वारा सुमनमश्चत मकए गए मनयर्ों का पालन करें । इससे
ज्ञान प्राप्त हो सके गा ।

प्रयाणकाले मिसाचलेिभिया युिो योगबलेि चैव ।


रुवोममध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैनत नदव्यम् ।। १० ।।

२६१
प्रयाण-काले– र्ृत्यु के सर्य; मिसा– र्न से; अचलेि– अचल, दृढ़; भक्त्या– भमक्त से; युिः– लगा
हुआ; योग-बलेि– योग शमक्त के द्वारा; च– भी; एव– मनश्चय ही; रुवोः– िोनों भौहों के ; मध्ये– र्ध्य र्ें; प्राणम्–
प्राण को; आवेश्य– स्र्ामपत करे ; सम्यक् – पूणमतया; सः– वह; तम्– उस; परम्– मिव्य; पुरुषम्– भगवान्
को; उपैनत– प्राप्त करता है; नदव्यम्– मिव्य भगवद्धार् को ।

मृत्यु के समय जो व्यनि अपिे प्राण को भौहों के मध्य नस्थर कर लेता है और योगशनि के द्वारा
अनवचनलत मि से पूणमभनि के साथ परमेश्र्वर के स्मरण में अपिे को लगाता है, वह निनश्चत रूप से भगवाि्
को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें स्पष्ट मकया गया है मक र्ृत्यु के सर्य र्न को भगवान् की भमक्त र्ें मस्र्र करना चामहए ।
जो लोग योगाभ्यास करते हैं उनके मलए संस्तुमत की गई है मक वे प्राणों को भौहों के बीच (आज्ञा चक्र) र्ें ले आयें ।
यहाँ पर षट्चक्रयोग के अभ्यास का प्रस्ताव है, मजसर्ें छः चक्रों पर ध्यान लगाया जाता है । परन्तु मनरन्तर
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लीन रहने के कारण शद्ध ु भक्त भगवत्कृ पा से र्ृत्यु के सर्य योगाभ्यास के मबना भगवान् का स्र्रण
कर सकता है । इसकी व्याख्या चौिहवें श्लोक र्ें की गई है ।
इस श्लोक र्ें योगबलेन शब्ि का मवमशष्ट प्रयोग र्हत्त्वपूणम है क्योंमक योग के अभाव र्ें चाहे वह षट् चक्रयोग हो
या भमक्तयोग – र्नुष्ट्य कभी भी र्ृत्यु के सर्य इस मिव्य अवस्र्ा (भाव) को प्राप्त नहीं होता । कोई भी र्ृत्यु के सर्य
परर्ेश्र्वर का सहसा स्र्रण नहीं कर पाता, उसे मकसी न मकसी योग का, मवशेषतया भमक्तयोग का अभ्यास होना
चामहए । चँमू क र्ृत्यु के सर्य र्नुष्ट्य का र्न अत्यमधक मवचमलत रहता है, अतः अपने जीवन र्ें र्नुष्ट्य को योग के
र्ाध्यर् से अध्यात्र् का अभ्यास करना चामहए ।

यदक्षरं वेदनवदो वदनन्तनवशनन्त यद्यतयो वीतरागाः ।


यनदच्छन्तो ब्रह्मचयं चरनन्ततत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।। ११ ।।

यत्– मजस; अक्षरम्– अक्षर ॐ को; वेद-नवदः– वेिों के ज्ञाता; वदनन्त– कहते हैं; नवशनन्त– प्रवेश करते
हैं; यत्– मजसर्ें; यतयः– बड़े-बड़े र्मु न; वीत-रागाः– संन्यास-आश्रर् र्ें रहने वाले संन्यासी; यत्– जो; इच्छन्तः–
इच्छा करने वाले; ब्रह्मचयमम–् ब्रह्मचयम का; चरनन्त– अभ्यास करते हैं; तत्– उस; ते– तुर्को; पदम्– पि
को; सङ् ग्रहेण– संक्षेप र्ें; प्रवक्ष्ये– र्ैं बतलाउँगा ।

जो वेदों के ज्ञाता हैं, जो ओकं ार का उच्चारण करते हैं और जो संन्यास आश्रम के बडे-बडे मुनि हैं, वे
ब्रह्म में प्रवेश करते हैं । ऐसी नसनद्ध की इच्छा करिे वाले ब्रह्मचयमव्रत का अभ्यास करते हैं । अब मैं तम्ु हें वह
नवनध बताऊूँ गा, नजससे कोई भी व्यनि मुनि-लाभ कर सकता है ।

तात्पयम : श्रीकृ ष्ट्ण अजुमन के मलए षट् चक्रयोग की मवमध का अनुर्ोिन कर चक


ु े हैं, मजसर्ें प्राण को भौहों के
र्ध्य मस्र्र करना होता है । यह र्ानकर मक हो सकता है अजुमन को षट् चक्रयोग अभ्यास न आता हो, कृ ष्ट्ण अगले

२६२
श्लोकों र्ें इसकी मवमध बताते हैं । भगवान् कहते हैं मक ब्रह्म यद्यमप अमद्वतीय है, मकन्तु उसके अनेक स्वरूप होते हैं ।
मवशेषतया मनमवमशेषवामियों के मलए अक्षर या ओ ां ार ब्रह्म है । कृ ष्ट्ण यहाँ पर मनमवमशेष ब्रह्म के मवषय र्ें बता रहे हैं
मजसर्ें संन्यासी प्रवेश करते हैं ।
ज्ञान की वैमिक पद्धमत र्ें छात्रों को प्रारम्भ से गुरु के पास रहने से ब्रह्मचयम व्रत का पालन करते हुए ओकं ार का
उच्चारण तर्ा परर्मनमवमशेष ब्रह्म की मशक्षा िी जाती है । इस प्रकार वे ब्रह्म के िो स्वरूपों से पररमचत होते हैं । यह प्रर्ा
छात्रों के आध्यामत्र्क जीवन के मवकास के मलए आवश्यक है, मकन्तु इस सर्य ऐसा ब्रह्मचयम जीवन (अमववामहत
जीवन) मबता पाना मबलकुल सम्भव नहीं है । मवश्र्व का सार्ामजक ढाँचा इतना बिल चक ु ा है मक छात्र जीवन के
प्रारम्भ से ब्रह्मचयम जीवन मबताना संभव नहीं है । यद्यमप मवश्र्व र्ें ज्ञान की मवमभन्न शाखाओ ं के मलए अनेक संस्र्ाएँ हैं,
मकन्तु ऐसी र्ान्यता प्राप्त एक भी सस्ं र्ा नहीं है जहाँ ब्रह्मचयम के मसद्धान्तों र्ें मशक्षा प्रिान की जा सके । ब्रह्मचयम के
मबना आध्यामत्र्क जीवन र्ें उन्नमत कर पाना अत्यन्त कमिन है । अतः इस कमलयुग के मलए शास्त्रों के आिेशानुसार
भगवान् चैतन्य ने घोषणा की है मक भगवान् कृ ष्ट्ण के पमवत्र नार् – हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे
राम राम राम हरे हरे – के जप के अमतररक्त परर्ेश्र्वर के साक्षात्कार का कोई अन्य उपाय नहीं है ।

सवमद्वारानण संयम्य मिो हृनद निरुध्य च ।


मूध््याधायात्मिः प्राणमानस्थतो योगधारणाम् ।। १२ ।।

सवम-द्वारानण– शरीर के सर्स्त द्वारों को; संयम्य– वश र्ें करके ; मिः– र्न को; हृनद– हृिय र्ें; निरुध्य– बन्ि
कर; च– भी; आधाय– मस्र्र करके ; आत्मिः– अपने; प्राणम्– प्राणावायु को; आनस्थतः– मस्र्त; योग-
धारणाम् – योग की मस्र्मत ।

समस्त ऐनन्द्रय नक्रयाओ ं से नवरनि को योग की नस्थनत (योगधारणा) कहा जाता है । इनन्द्रयों के समस्त
द्वारों को बन्द करके तथा मि को हृदय में और प्राणवायु को नसर पर के नन्द्रत करके मिष्ट्ु य अपिे को योग में
स्थानपत करता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें बताई गई मवमध से योगाभ्यास के मलए सबसे पहले इमन्द्रयभोग के सारे द्वार बन्ि करने
होते हैं । यह प्रत्याहार अर्वा इमन्द्रयमवषयों से इमन्द्रयों को हटाना कहलाता है । इसर्ें ज्ञानेमन्द्रयों – नेत्र, कान, नाक,
जीभ तर्ा स्पशम को पूणमतया वश र्ें करके उन्हें इमन्द्रयतृमप्त र्ें मलप्त होने नहीं मिया जाता । इस प्रकार र्न हृिय र्ें मस्र्त
परर्ात्र्ा पर के मन्द्रत होता है और प्राणवायु को सर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है । इसका मवस्तृत वणमन छिे अध्याय र्ें
हो चक ु ा है । मकन्तु जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है अब यह मवमध व्यावहाररक नहीं है । सबसे उत्तर् मवमध तो
कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । यमि कोई भमक्त र्ें अपने र्न को कृ ष्ट्ण र्ें मस्र्र करने र्ें सर्र्म होता है, तो उसके मलए अमवचमलत
मिव्य सर्ामध र्ें बने रहना सगु र् हो जाता है ।

ओनमत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामिस्ु मरि् ।


यः प्रयानत त्यजन्देहं स यानत परमां गनतम् ।। १३ ।।

२६३
ॐ– ओकं ार; इनत– इस तरह; एक-अक्षरम्– एक अक्षर; ब्रह्म– परब्रह्म का; व्याहरि्– उच्चारण करते
हुए; माम्– र्झु को (कृ ष्ट्ण को); अिुस्मरि्– स्र्रण करते हुए; यः– जो; प्रयानत– जाता है; त्यजि्– छोड़ते
हुए; देहम्– इस शरीर को; सः– वह; यानत– प्राप्त करता है; परमाम्– परं; गनतम्– गन्तव्य, लक्ष्य ।

इस योगाभ्यास में नस्थत होकर तथा अक्षरों के परं संयोग यािी ओक


ं ार का उच्चारण करते हुए यनद
कोई भगवाि् का नचन्ति करता है और अपिे शरीर का त्याग करता है, तो वह निनश्चत रूप से आध्यानत्मक
लोकों को जाता है ।

तात्पयम : यहाँ स्पष्ट उल्लेख हुआ है मक ओर््, ब्रह्म तर्ा भगवान् कृ ष्ट्ण परस्पर मभन्न नहीं हैं । ओर््, कृ ष्ट्ण की
मनमवमशेष ध्वमन है, लेमकन हरे ृ ष्ण र्ें यह ओर्् समन्नमहत है । इस युग के मलए हरे ृ ष्ण र्न्त्र जप की स्पष्ट संस्तुमत
है । अतः यमि कोई – हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस र्न्त्र का जप करते
हुए शरीर त्यागता है तो वह अपने अभ्यास के गुणानुसार आध्यामत्र्क लोकों र्ें से मकसी एक लोक को जाता है । कृ ष्ट्ण
के भक्त कृ ष्ट्णलोक या गोलोक वृन्िावन को जाते हैं । सगुणवामियों के मलए आध्यामत्र्क आकाश र्ें अन्य लोक
हैं, मजन्हें वैकुण्ि लोक कहते हैं, मकन्तु मनमवमशेषवािी तो ब्रह्मजयोमत र्ें ही रह जाते हैं ।

अिन्यचेताः सततं यो मां स्मरनत नित्यशः ।


तस्याहं सुलभः पाथम नित्ययुिस्य योनगिः ।। १४ ।।

अिन्य-चेताः– अमवचमलत र्न से; सततम्– सिैव; यः– जो; माम्– र्झु (कृ ष्ट्ण) को; स्मरनत– स्र्रण करता
है; नित्यशः– मनयमर्त रूप से; तस्य– उस; अहम्– र्ैं ह;ँ स-ु लभः– सुलभ, सरलता से प्राप्य; पाथम– हे
पृर्ापुत्र; नित्य– मनयमर्त रूप से; युिस्य– लगे हुए; योनगिः– भक्त के मलए ।

हे अजमिु ! जो अिन्य भाव से निरन्तर मेरा स्मरण करता है उसके नलए मैं सुलभ हूँ, क्योंनक वह मेरी
भनि में प्रवृत्त रहता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें उन मनष्ट्कार् भक्तों द्वारा प्राप्तव्य अमन्तर् गन्तव्य का वणमन है जो भमक्तयोग के द्वारा
भगवान् की सेवा करते हैं । मपछले श्लोकों र्ें चार प्रकार के भक्तों का वणमन हुआ है – आतम, मजज्ञासु, अर्ामर्ी तर्ा
ज्ञानी । र्मु क्त की मवमभन्न मवमधयों का भी वणमन हुआ है – कर्मयोग, ज्ञानयोग तर्ा हियोग । इस योग पद्धमतयों के
मनयर्ों र्ें कुछ न कुछ भमक्त मर्ली रहती है, लेमकन इस श्लोक र्ें शद्ध ु भमक्तयोग का वणमन है, मजसर्ें ज्ञान, कर्म या हि
का मर्श्रण नहीं होता । जैसा की अनन्यचेताः शब्ि से सूमचत होता है, भमक्तयोग र्ें भक्त कृ ष्ट्ण के अमतररक्त और कोई
इच्छा नहीं करता । शद्ध ु भक्त न तो स्वगमलोक जाना चाहता है, न ब्रह्मजयोमत से तािात्म्य या र्ोक्ष या भवबन्धन से र्मु क्त
ही चाहता है । शद्ध ु भक्त मकसी भी वस्तु की इच्छा नहीं करता । चैतन्यचररतार्ृत र्ें शद्ध ु भक्त को मनष्ट्कार् कहा गया
है । उसे ही पणू मशामन्त का लाभ होता है, उन्हें नहीं जो स्वार्म र्ें लगे रहते हैं । एक ओर जहाँ ज्ञानयोगी, कर्मयोगी या
हियोगी का अपना-अपना स्वार्म रहता है, वहीं पूणमभक्त र्ें भगवान् को प्रसन्न करने के अमतररक्त अन्य कोई इच्छा नहीं
होती । अतः भगवान् कहते हैं मक जो एकमनष्ट भाव से उनकी भमक्त र्ें लगा रहता है, उसे वे सरलता से प्राप्त होते हैं ।

२६४
शद्ध
ु भक्त सिैव कृ ष्ट्ण के मवमभन्न रूपों र्ें से मकसी एक की भमक्त र्ें लगा रहता है । कृ ष्ट्ण के अनेक स्वांश तर्ा
अवतार हैं, यर्ा रार् तर्ा नृमसंह मजनर्ें से भक्त मकसी एक रूप को चनु कर उसकी प्रेर्ाभमक्त र्ें र्न को मस्र्र कर
सकता है । ऐसे भक्त को उन अनेक सर्स्याओ ं का सार्ना नहीं करना पड़ता, जो अन्य योग के अभ्यासकतामओ ं को
झेलनी पड़ती हैं । भमक्तयोग अत्यन्त सरल, शुद्ध तर्ा सुगर् है इसका शभु ारम्भ हरे ृ ष्ण जप से मकया जा सकता
है । भगवान् सबों पर कृ पालु हैं, मकन्तु जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है जो अनन्य भाव से उनकी सेवा करते हैं वे उनके
ऊपर मवशेष कृ पालु रहते हैं । भगवान् ऐसे भक्तों की सहायता अनेक प्रकार से करते हैं । जैसा की वेिों र्ें
( ठोपस्नषर्् १.२-२३) कहा गया है – यमेवैष वृणतु े तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा स्ववृणतु े तनुां स्वाम् – मजसने परू ी तरह से
भगवान् की शरण ले ली है और जो उनकी भमक्त र्ें लगा हुआ है वही भगवान् को यर्ारूप र्ें सर्झ सकता
है । तर्ा गीता र्ें भी (१०.१०) कहा गया है – र्र्ास्म बस्ु द्धयोगां तम्– ऐसे भक्त को भगवान् पयामप्त बमु द्ध प्रिान करते
हैं, मजससे वह उन्हें भगवद्धार् र्ें प्राप्त कर सके ।
शद्ध
ु भक्त का सबसे बड़ा गुण यह है मक वह िेश अर्वा काल का मवचार मकये मबना अनन्य भाव से कृ ष्ट्ण का ही
मचन्तन करता रहता है । उसको मकसी तरह का व्यवधान नहीं होना चामहए । उसे कहीं भी और मकसी भी सर्य अपना
सेवा कायम करते रहने र्ें सर्र्म होना चामहए । कुछ लोगों का कहना है मक भक्तों को वृन्िावन जैसे पमवत्र स्र्ानों र्ें या
मकसी पमवत्र नगर र्ें, जहाँ भगवान् रह चक ु े हैं, रहना चामहए, मकन्तु शुद्धभक्त कहीं भी रहकर अपनी भमक्त से वृन्िावन
जैसा वातावरण उत्पन्न कर सकता है । श्री अद्वैत ने चैतन्य र्हाप्रभु से कहा र्ा, “आप जहाँ भी हैं, हे प्रभ!ु वहीं वृन्िावन
है ।”
जैसा मक सततम् तर्ा स्नत्यशः शब्िों से सूमचत होता है, शुद्धभक्त मनरन्तर कृ ष्ट्ण का ही स्र्रण करता है और
उन्हीं का ध्यान करता है । ये शुद्धभक्त के गुण हैं, मजनके मलए भगवान् सहज सुलभ हैं । गीता सर्स्त योग पद्धमतयों र्ें से
भमक्तयोग की ही संस्तुमत करती है । सार्ान्यतया भमक्तयोगी पाँच प्रकार से भमक्त र्ें लगे रहते हैं – (१) शान्त भक्त, जो
उिासीन रहकर भमक्त र्ें यक्त ु होते हैं, (२) िास्य भक्त, जो िास के रूप र्ें भमक्त र्ें यक्त
ु होते हैं, (३) सख्य भक्त, जो
सखा रूप र्ें भमक्त र्ें युक्त होते हैं, (४) वात्सल्य भक्त, जो र्ाता-मपता की भाँमत भमक्त र्ें युक्त होते हैं तर्ा (५) र्ाधयु म
भक्त, जो परर्ेश्र्वर के सार् िाम्पत्य प्रेर्ी की भाँमत भमक्त र्ें यक्त ु होते हैं । शद्ध
ु भक्त उनर्ें से मकसी र्ें भी परर्ेश्र्वर की
प्रेर्ाभमक्त र्ें युक्त होता है और उन्हें कभी नहीं भल ू पाता,मजससे भगवान् उसे सरलता से प्राप्त हो जाते हैं । मजस प्रकार
शद्ध ु भक्त क्षणभर के मलए भी भगवान् को नहीं भल ू ता, उसी प्रकार भगवान् भी अपने शद्ध ु भक्त को क्षणभर के मलए भी
नहीं भल ू ते । हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस र्हार्न्त्र के कीतमन की
कृ ष्ट्णभावनाभामवत मवमध का यही सबसे बड़ा आशीवामि है ।

मामुपेत्य पुिजमन्म दु:खालयमशाश्र्वतम् ।


िाप्िुवनन्त महात्मािः संनसनद्धं परमां गताः ।। १५ ।।

माम्—मझु को; उपेत्य—प्राप्त करके ; पनु :—पिर; जन्म—जन्म; दु:ख-आलयम्— दखु ों के स्थान को;
अर्ाश्वतम्—क्षपणक; न—कभी नहीं; आप्नुवमन्त—प्राप्त करते हैं; महा-आत्मान:—महान िुरुर्; संमसमद्धम्—
पसपद्ध को; परमाम्—िरम; गता:— प्राप्त हुए ।

२६५
मुझे प्राप्त करके महापुरुष, जो भनियोगी हैं, कभी भी दुखों से पूणम इस अनित्य जगत् में िहीं
लौटते, क्योंनक उन्हें परम नसनद्ध प्राप्त हो चुकी होती है ।

तात्पयम : चँमू क यह नश्र्वर जगत् जन्र्, जरा तर्ा र्ृत्यु के क्लेशों से पूणम है, अतः जो परर् मसमद्ध प्राप्त करता है
और परर्लोक कृ ष्ट्णलोक या गोलोक वृन्िावन को प्राप्त होता है, वह वहाँ से कभी वापस नहीं आना चाहता । इस
परर्लोक को वेिों र्ें अव्यि, अक्षर तर्ा परमा गस्त कहा गया है । िसू रे शब्िों र्ें, यह लोक हर्ारी भौमतक दृमष्ट से परे
है और अवणमनीय है, मकन्तु यह चरर्लक्ष्य है, जो र्हात्र्ाओ ं का गन्तव्य है । र्हात्र्ा अनभु वमसद्ध भक्तों से मिव्य
सन्िेश प्राप्त करते हैं और इस प्रकार वे धीरे -धीरे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त मवकमसत करते हैं और मिव्यसेवा र्ें इतने लीन
हो जाते हैं मक वे न तो मकसी भौमतक लोक र्ें जाना चाहते हैं, यहाँ तक मक न ही वे मकसी आध्यामत्र्क लोक र्ें जाना
चाहते हैं । वे के वल कृ ष्ट्ण तर्ा कृ ष्ट्ण का सार्ीप्य चाहते हैं, अन्य कुछ नहीं । यही जीवन की सबसे बड़ी मसमद्ध है । इस
श्लोक र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण के सगुणवािी भक्तों का मवशेष रूप से उल्लेख हुआ है । ये भक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें जीवन की
परर्मसमद्ध प्राप्त करते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, वे सवोच्च आत्र्ाएँ हैं ।

आब्रह्मभुविाल्लोकाः पुिरावनतमिोऽजमिु ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुिजमन्म ि नवद्यते ।। १६ ।।

आ-ब्रह्म-भुवनात्—ब्रह्मलोक तक; लोका:—सारे लोक; पुन:—पिर; आवमतपन:— लौटने वाले; अजपनु —


हे अजुतन; माम्—मझु को; उपेत्य—िाकर; तु—लेपकन; कौन्तेय—हे कुन्तीिुत्र; पुन: जन्म—िुनजतन्म; न—कभी
नहीं; मवद्यते—होता है ।

इस जगत् में सवोच्च लोक से लेकर निम्ितम सारे लोक दुखों के घर हैं, जहाूँ जन्म तथा मरण का
चक्कर लगा रहता है । नकन्तु हे कुन्तीपत्रु ! जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है, वह निर कभी जन्म िहीं लेता ।

तात्पयम : सर्स्त योमगयों को चाहें वे कर्मयोगी हों, ज्ञानयोगी या हियोगी – अन्ततः भमक्तयोग या
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त की मसमद्ध प्राप्त करनी होती है, तभी वे कृ ष्ट्ण के मिव्य धार् को जा सकते हैं, जहाँ से वे मिर
वापस नहीं आते । मकन्तु जो सवोच्च भौमतक लोकों अर्ामत् िेवलोकों को प्राप्त होता है, उसका पुनजमन्र् होते रहता
है । मजस प्रकार इस पृथ्वी के लोग उच्चलोकों को जाते हैं, उसी तरह ब्रह्मलोक, चन्द्रलोक तर्ा इन्द्रलोक जैसे उच्चतर
लोकों से लोग पृथ्वी पर मगरते रहते हैं । छान्र्ोर्गय उपस्नषर्् र्ें मजस पंचामग्न मवद्या का मवधान है, उससे र्नुष्ट्य ब्रह्मलोक
को प्राप्त कर सकता है, मकन्तु यमि ब्रह्मलोक र्ें वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अनुशीलन नहीं करता, तो उसे पृथ्वी पर मिर से
लौटना पड़ता है । जो उच्चतर लोकों र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रगमत करते हैं, वे क्रर्शः और ऊपर जाते रहते हैं और प्रलय
के सर्य वे मनत्य परर्धार् को भेज मिये जाते हैं । श्रीधर स्वार्ी ने अपने भगवद्गीता भाष्ट्य र्ें यह श्लोक उद्धतृ मकया
है –
ब्रह्मणा सह ते सवे सम्प्राप्ते प्रस्तसञ्चरे ।
परस्यान्ते ृ तात्मानः प्रस्वशस्न्त परां पर्म् ।।

२६६
“जब इस भौमतक ब्रह्माण्ड का प्रलय होता है, तो ब्रह्मा तर्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनरन्तर प्रवृत्त उनके भक्त अपनी
इच्छानसु ार आध्यामत्र्क ब्रह्माण्ड को तर्ा मवमशष्ट वैकुण्ि लोकों को भेज मिये जाते हैं ।”

सहस्त्रयुगपयमन्तमहयमद् ब्रह्मणो नवदु: ।


रानत्रं युगसहस्त्रान्तां तेऽहोरात्रनवदो जिाः ।। १७ ।।

सहस्र– एक हजार; यगु – यगु ; पयमन्तम्– समहत; अहः– मिन; यत्– जो; ब्रह्मणः– ब्रह्मा का; नवदुः– वे जानते
हैं; रानत्रम्– रामत्र; युग– युग; सहस्त्रान्ताम्– इसी प्रकार एक हजार बाि सर्ाप्त होने वाली;ते– वे; अहः-रात्र– मिन-
रात;
नवदः– जानते हैं; जिाः– लोग ।

मािवीय गणिा के अिुसार एक हजार युग नमलकर ब्रह्मा का नदि बिता है और इतिी ही बडी ब्रह्मा
की रानत्र भी होती है ।

तात्पयम : भौमतक ब्रह्माण्ड की अवमध सीमर्त है । यह कल्पों के चक्र रूप र्ें प्रकट होती है । यह कल्प ब्रह्मा का
एक मिन है मजसर्ें चतुयुमग – सत्य, त्रेता, द्वापर तर्ा कमल – के एक हजार चक्र होते हैं । सतयुग र्ें सिाचार, ज्ञान तर्ा
धर्म का बोलबाला रहता है और अज्ञान तर्ा पाप का एक तरह से मनतान्त अभाव होता है । यह युग १७,२८,००० वषों
तक चलता है । त्रेता युग र्ें पापों का प्रारम्भ होता है और यह युग १२,९६,००० वषों तक चलता है । द्वापर युग र्ें
सिाचार तर्ा धर्म का ह्रास होता है और पाप बढ़ते हैं । यह युग ८,६४,००० वषों तक चलता है । सबसे अन्त र्ें
कमलयगु (मजसे हर् मवगत ५ हजार वषों से भोग रहे हैं) आता है मजसर्ें कलह, अज्ञान, अधर्म तर्ा पाप का प्राधान्य
रहता है और सिाचार का प्रायः लोप हो जाता है । यह युग ४,३२,००० वषों तक चलता है । इस युग र्ें पाप यहाँ तक
बढ़ जाते हैं मक इस यगु के अन्त र्ें भगवान् स्वयं कमल्क अवतार धारण करते हैं, असरु ों का सहं ार करते हैं, भक्तों की
रक्षा करते हैं और िसु रे सतयुग का शभु ारम्भ होता है । इस तरह यह मक्रया मनरन्तर चलमत रहती है । ये चारों युग एक
सहस्र चक्र कर लेने पर ब्रह्मा के एक मिन के तुल्य होते हैं । इतने ही वषों की उनकी रामत्र होती है । ब्रह्मा के ये १०० वषम
गणना के अनुसार पृथ्वी के ३१,१०,४०,००,००,००,००० वषम के तुल्य हैं । इन गणनाओ ं से ब्रह्मा की आयु अत्यन्त
मवमचत्र तर्ा न सर्ाप्त होने वाली लगती है, मकन्तु मनत्यता की दृमष्ट से यह मबजली की चर्क जैसी अल्प
है । कारणाणमव र्ें असंख्य ब्रह्मा अटलांमटक सागर र्ें पानी के बुलबुलों के सर्ान प्रकट होते और लोप होते रहते
हैं । ब्रह्मा तर्ा उनकी सृमष्ट भौमतक ब्रह्माण्ड के अंग हैं, िलस्वरूप मनरन्तर पररवमतमत होते रहते हैं ।
इस भौमतक ब्रह्माण्ड र्ें ब्रह्मा भी जन्र्, जरा, रोग और र्रण की मक्रया से अछूते नहीं हैं । मकन्तु चँमू क ब्रह्मा इस
ब्रह्माण्ड की व्यवस्र्ा करते हैं, इसीमलए वे भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा र्ें लगे रहते हैं । िलस्वरूप उन्हें तुरन्त र्ुमक्त प्राप्त
हो जाती है । यहाँ तक मक मसद्ध सन्ं यामसयों को भी ब्रह्मलोक भेजा जाता है, जो इस ब्रह्माण्ड का सवोच्च लोक
है । मकन्तु कालक्रर् से ब्रह्मा तर्ा ब्रह्मलोक के सारे वासी प्रकृ मत के मनयर्ानुसार र्रणशील होते हैं ।

अव्यिाद् व्यियः सवामः प्रभवन्त्यहरागमे ।


रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यिसज्ञं के ।। १८ ।।

२६७
अव्यिात्– अव्यक्त से; व्यियः– जीव; सवामः– सारे ; प्रभवनन्त– प्रकट होते हैं; अहः-आगमे– मिन होने
पर; रानत्र-आगमे– रामत्र आने पर; प्रलीयन्ते– मवनष्ट हो जाते हैं; तत्र– उसर्ें; एव– मनश्चय ही; अव्यि–
अप्रकट; संज्ञके – नार्क, कहे जाने वाले ।

ब्रह्मा के नदि के शुभारम्भ में सारे जीव अव्यि अवस्था से व्यि होते हैं और निर जब रानत्र आती है
तो वे पिु ः अव्यि में नवलीि हो जाते हैं ।

भतू ग्रामः स एवायं भत्ू वा भत्ू वा प्रलीयते ।


रात्र्यागमेऽवशः पाथम प्रभवत्यहरागमे ।। १९ ।।

भूत-ग्रामः– सर्स्त जीवों का सर्हू ; सः– वही; एव– मनश्चय ही; अयम्– यह; भूत्वा भूत्वा– बारम्बार जन्र्
लेकर; प्रलीयते– मवनष्ट हो जाता है; रानत्र– रामत्र के ; आगमे– आने पर; अवशः– स्वतः; पाथम– हे
पृर्ापुत्र; प्रभवनत– प्रकट होता है; अहः– मिन; आगमे– आने पर ।

जब-जब ब्रह्मा का नदि आता है तो सारे जीव प्रकट होते हैं और ब्रह्मा की रानत्र होते ही वे असहायवत्
नवलीि हो जाते हैं ।

तात्पयम : अल्पज्ञानी पुरुष, जो इस भौमतक जगत् र्ें बने रहना चाहते हैं, उच्चतर लोकों को प्राप्त कर सकते
हैं, मकन्तु उन्हें पनु ः इस धरालोक पर आना होता है । वे ब्रह्मा का मिन होने पर इस जगत् के उच्चतर तर्ा मनम्नतर लोकों
र्ें अपने कायों का प्रिशमन करते हैं, मकन्तु ब्रह्मा की रामत्र होते ही वे मवनष्ट हो जाते हैं । मिन र्ें उन्हें भौमतक कायों के
मलए नाना शरीर प्राप्त होते रहते हैं, मकन्तु रामत्र के होते ही उनके शरीर मवष्ट्णु के शरीर र्ें मवलीन हो जाते हैं । वे पनु ः
ब्रह्मा का मिन आने पर प्रकट होते हैं । भत्ू वा-भत्ू वा प्रलीयते– मिन के सर्य वे प्रकट होते हैं और रामत्र के सर्य पुनः
मवनष्ट हो जाते हैं । अन्ततोगत्वा जब ब्रह्मा का जीवन सर्ाप्त होता है, तो उन सबका संहार हो जाता है और वे करोड़ो
वषों तक अप्रकट रहते हैं । अन्य कल्प र्ें ब्रह्मा का पुनजमन्र् होने पर वे पुनः प्रकट होते हैं । इस प्रकार वे भौमतक जगत्
के जािू से र्ोमहत होते रहते हैं । मकन्तु जो बुमद्धर्ान व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत स्वीकार करते हैं, वे इस र्नुष्ट्य जीवन का
उपयोग भगवान् की भमक्त करने र्ें तर्ा हरे ृ ष्ण र्न्त्र के कीतमन र्ें मवताते हैं । इस प्रकार वे इस जीवन र्ें कृ ष्ट्णलोक को
प्राप्त होते हैं और वहाँ पर पुनजमन्र् के चक्कर से र्क्त
ु होकर सतत आनन्ि का अनुभव करते हैं ।

परस्तस्मात्तु भावोऽन्योऽव्यिोऽव्यिात्सिातिः ।
यः स सवेषु भतू ेषु िश्यत्सु ि नविश्यनत ।। २० ।।

परः– परर्; तस्मात्– उस; त–ु लेमकन; भावः– प्रकृ मत; अन्यः– िसू री; अव्यिः– अव्यक्त; अव्यिात्–
अव्यक्त से; सिातिः– शाश्र्वत; यः सः– वह जो;सवेषु– सर्स्त; भूतेषु– जीवों के ; िश्यत्स–ु नाश होने पर; ि–
कभी नहीं; नविश्यनत– मवनष्ट होती है ।

२६८
इसके अनतररि एक अन्य अव्यय प्रकृ नत है, जो शाश्र्वत है और इस व्यि तथा अव्यि पदाथम से परे
है । यह परा (श्रेष्ठ) और कभी ि िाश होिे वाली है । जब इस संसार का सब कुछ लय हो जाता है, तब भी
उसका िाश िहीं होता ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण की पराशमक्त मिव्य और शाश्र्वत है । यह उस भौमतक प्रकृ मत के सर्स्त पररवतमनों से परे है, जो
ब्रह्मा के मिन के सर्य व्यक्त और रामत्र के सर्य मवनष्ट होती रहती है । कृ ष्ट्ण की पराशमक्त भौमतक प्रकृ मत के गणु से
सवमर्ा मवपरीत है । परा तर्ा अपरा प्रकृ मत की व्याख्या सातवें अध्याय र्ें हुई है ।

अव्यिोऽक्षर इत्युिस्तमाहु: परमां गनतम् ।


यं प्राप्य ि निवतमन्ते तद्धाम परमं मम ।। २१ ।।

अव्यिः– अप्रकट; अक्षरः– अमवनाशी;इनत– इस प्रकार; उिः– कहा गया; तम्– उसको; आहुः– कहा
जाता है; परमाम्– परर्; गनतम्– गन्तव्य; यम्– मजसको; प्राप्य– प्राप्त करके ; ि– कभी नहीं; निवतमन्ते– वापस आते
हैं; तत्– वह; धाम– मनवास; परमम्– परर्; मम– र्ेरा ।

नजसे वेदान्ती अप्रकट और अनविाशी बताते हैं, जो परम गन्तव्य है, नजसे प्राप्त कर लेिे पर कोई
वापस िहीं आता, वही मेरा परमधाम है ।

तात्पयम :ब्रह्मसस्ां हता र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण के परर्धार् को स्चन्तामस्ण धार् कहा गया है, जो ऐसा स्र्ान है जहाँ
सारी इच्छाएँ पूरी होती हैं । भगवान् कृ ष्ट्ण का परर्धार् गोलोक वृन्िावन कहलाता है और वह पारसर्मण से मनमर्मत
प्रसािों से यक्त
ु है । वहाँ पर वृक्ष भी हैं, मजन्हें कल्पतरु कहा जाता है, जो इच्छा होने पर मकसी भी तरह का खाद्य पिार्म
प्रिान करने वाले हैं । वहाँ गौएँ भी हैं, मजन्हें सुरमभ गौएँ कहा जाता है और वे अनन्त िग्ु ध िेने वाली हैं । इस धार् र्ें
भगवान् की सेवा के मलए लाखों लमक्ष्र्याँ हैं । वे आमि भगवान् गोमवन्ि तर्ा सर्स्त कारणों के कारण कहलाते
हैं । भगवान् वंशी बजाते रहते हैं (वेणु क्तवणन्तम्) । उनका मिव्य स्वरूप सर्स्त लोकों र्ें सवाममधक आकषमक है, उनके
नेत्र कर्लिलों के सर्ान हैं और उनका शरीर र्ेघों के वणम का है । वे इतने रूपवान हैं मक उनका सौन्ियम हजारों
कार्िेवों को र्ात करता है । वे पीत वस्त्र धारण करते हैं, उनके गले र्ें र्ाला रहती है और के शों र्ें र्ोरपंख लगे रहते
हैं । भगवद्गीता र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण अपने मनजी धार्, गोलोक वृन्िावन का संकेत र्ात्र करते हैं, जो आध्यामत्र्क जगत् र्ें
सवमश्रेि लोक है । इसका मवषि वृतान्त ब्रह्मसांस्हता र्ें मर्लता है । वैमिक ग्रंर् ( ठोपस्नषर्् १.३.११) बताते हैं मक
भगवान् का धार् सवमश्रेि है और यही परर्धार् है (पुरुषान्न परां स् स्ञ्चत्सा ाष्ठा परमा गस्तः) । एक बार वहाँ पहुचँ कर
मिर से भौमतक ससं ार र्ें वापस नहीं आना होता । कृ ष्ट्ण का परर्धार् तर्ा स्वयं कृ ष्ट्ण अमभन्न हैं, क्योंमक वे िोनों एक
से गुण वाले हैं । आध्यामत्र्क आकाश र्ें मस्र्त इस गोलोक वृन्िावन की प्रमतकृ मत (वृन्िावन) इस पृथ्वी पर मिल्ली से
१० र्ील िमक्षण-पवू म मस्र्त है । जब कृ ष्ट्ण ने इस पृथ्वी पर अवतार ग्रहण मकया र्ा, तो उन्होने इसी भमू र् पर, मजसे
वृन्िावन कहते हैं और जो भारत र्ें र्र्ुरा मजले के चौरासी वगमर्ील र्ें िै ला हुआ है, क्रीड़ा की र्ी ।

२६९
परुु षः स परः पाथम भिया लभ्यस्त्विन्यया ।
यस्यान्तःस्थानि भूतानि येि सवमनमदं ततम् ।। २२ ।।

परुु षः– परर्पुरुष; सः– वह; परः– परर्, मजनसे बढ़कर कोई नहीं है; पाथम– हे पृर्ापुत्र; भक्त्या– भमक्त के
द्वारा; लभ्यः– प्राप्त मकया जा सकता है; तु– लेमकन; अिन्यया– अनन्य, अमवचल; यस्य– मजसके ; अन्तः-स्थानि–
भीतर; भूतानि– यह सारा जगत; येि– मजनके द्वारा; सवमम–् सर्स्त; इदम्–जो कुछ हर् िेख सकते हैं; ततम्– व्याप्त
है ।

भगवाि्, जो सबसे महाि हैं, अिन्य भनि द्वारा ही प्राप्त नकये जा सकते हैं । यद्यनप वे अपिे धाम में
नवराजमाि हैं, तो भी वे सवमव्यापी हैं और उिमें सब कुछ नस्थत है ।

तात्पयम : यहाँ यह स्पष्ट बताया गया है मक मजस परर्धार् से मिर लौटना नहीं होता, वह परर्पुरुष कृ ष्ट्ण का
धार् है । ब्रह्मसांस्हता र्ें इस परर्धार् को आनन्िमचन्र्य रस कहा गया है जो ऐसा स्र्ान है जहाँ सभी वस्तुएँ परं आनन्ि
से पूणम हैं । मजतनी भी मवमवधता प्रकट होती है वह सब इसी परर्ानन्ि का गुण है – वहाँ कुछ भी भौमतक नहीं है । यह
मवमवधता भगवान् के मवस्तार के सार् ही मवस्तृत होती जाती है, क्योंमक वहाँ की सारी अमभव्यमक्त पराशमक्त के कारण
है, जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया गया है । जहाँ तक इस भौमतक जगत् का प्रश्न है, यद्यमप भगवान् अपने धार् र्ें ही
सिैव रहते हैं, तो भी वे अपनी भौमतक शमक्त (र्ाया) द्वारा सवमव्याप्त हैं । इस प्रकार वे अपनी परा तर्ा अपरा शमक्तयों
द्वारा सवमत्र – भौमतक तर्ा आध्यामत्र्क िोनों ब्रह्माण्डों र्ें – उपमस्र्त रहते हैं । यस्यान्तःस्थास्न का अर्म है मक प्रत्येक
वस्तु उनर्ें या उनकी परा या अपरा शमक्त र्ें मनमहत है । इन्हीं िोनों शमक्तयों के द्वारा भगवान् सवमव्यापी हैं ।
कृ ष्ट्ण के परर्धार् र्ें या असख्ं य वैकुण्ि लोकों र्ें भमक्त के द्वारा ही प्रवेश सम्भव है, जैसा मक भक्तत्या शब्ि द्वारा
सूमचत होता है । मकसी अन्य मवमध से परर्धार् की प्रामप्त सम्भव नहीं है । वेिों र्ें (गोपाल-तापनी उपस्नषर्् ३.२) भी
परर्धार् तर्ा भगवान् का वणमन मर्लता है । ए ो वशी सवदगः ृ ष्णः । उस धार् र्ें के वल एक भगवान् रहता
है, मजसका नार् कृ ष्ट्ण है । वह अत्यन्त ियालु मवग्रह है और एक रूप र्ें मस्र्त होकर भी वह अपने को लाखों स्वांशों र्ें
मवस्तृत करता रहता है । वेिों र्ें भगवान् की उपर्ा उस शान्त वृक्ष से िी गई है, मजसर्ें नाना प्रकार के िूल तर्ा िल
लगे हैं और मजसकी पमत्तयाँ मनरन्तर बिलती रहती हैं । वैकुण्ि लोक की अध्यक्षता करने वाले भगवान् के स्वांश
चतुभमजु ी हैं और मवमभन्न नार्ों से मवख्यात है – पुरुषोत्तर्, मत्रमवक्रर्, के शव, र्ाधव, अमनरुद्ध, हृषीके श, संकषमण,
प्रद्युम्न, श्रीधर,िार्ोिर, जनािमन, नारायण, वार्न, पद्मनाभ आमि ।
ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३७) भी पुमष्ट हुई है मक यद्यमप भगवान् मनरन्तर परर्धार् गोलोक वृन्िावन र्ें रहते हैं, मकन्तु वे
सवमव्यापी हैं तामक सब कुछ सुचारू रूप से चलता रहे (गोलो एव स्नवसत्यस्खलात्मभतू ः) । वेिों र्ें (श्र्वेताश्र्वतर
उपस्नषर्् ६.८) कहा गया है – परास्य शस्िस्वदस्वधैव श्रयू ते। स्वाभास्व ी ज्ञानबलस्क्रया च– उनकी शमक्तयाँ इतनी
व्यापक हैं मक परर्ेश्र्वर के िरू स्र् होते हुए भी दृश्यजगत र्ें मबना मकसी त्रमु ट के सब कुछ सचु ारू रूप से सचं ामलत करती
रहती हैं ।

यत्र काले त्विावृनत्तमावृनत्तं चैव योनगिः ।


प्रयाता यानन्त तं कालं वक्ष्यानम भरतषमभ ।। २३ ।।

२७०
यत्र—पजस; काले—समय में; त—ु तथा; अनावृमत्तम्—वािस न आना; आवृमत्तम्— वािसी; च—भी;
एव—पनिय ही; योमगन:—पवपभन्न प्रकार के योगी; प्रयाता:— प्रयाण करने वाले; यामन्त—प्राप्त करते हैं; तम्—
उस; कालम्—काल को; वक्ष्यामम—कहगूँ ा; भरत-ऋषभ—हे भरतों में श्रेि !

हे भरतश्रेष्ठ! अब मैं उि नवनभन्ि कालों को बताऊूँ गा, नजिमें इस संसार से प्रयाण करिे के बाद योगी
पिु ः आता है अथवा िहीं आता ।

तात्पयम: परर्ेश्र्वर के अनन्य, पणू म शरणागत भक्तों को इसकी मचन्ता नहीं रहती मक वे कब और मकस तरह शरीर
को त्यागेंगे । वे सब कुछ कृ ष्ट्ण पर छोड़ िेते हैं और इस तरह सरलतापूवमक, प्रसन्नता समहत भगवद्धार् जाते हैं । मकन्तु
जो अनन्य भक्त नहीं हैं और कर्मयोग, ज्ञानयोग तर्ा हियोग जैसी आत्र्-साक्षात्कार की मवमधयों पर आमश्रत रहते
हैं, उन्हें उपयुक्त सर्य र्ें शरीर त्यागना होता है, मजससे वे आश्र्वस्त हो सकें मक इस जन्र्-र्ृत्यु वाले संसार र्ें उनको
लौटना होगा या नहीं ।
यमि योगी मसद्ध होता है तो वह इस जगत् से शरीर छोड़ने का सर्य तर्ा स्र्ान चनु सकता है । मकन्तु यमि वह
इतना पटु नहीं होता तो उसकी सिलता उसके अचानक शरीर त्याग के संयोग पर मनभमर करती है । भगवान् ने अगले
श्लोक र्ें ऐसे उमचत अवसरों का वणमन मकया है मक कब र्रने से कोई वापस नहीं आता । आचायम बलिेव मवद्याभषू ण
के अनुसार यहाँ पर संस्कृ त के ाल शब्ि का प्रयोग काल के अमधिाता िेव के मलए हुआ है ।

धमू ो रानत्रस्तथा कृ ष्ट्णः षण्मासा दनक्षणायिम् ।


तत्र चान्द्रमसं जयोनतयोगी प्राप्य निवतमते ।। २५ ।।

धमू ः– धआ ु ँ; रानत्रः– रात; तथा– और; कृ ष्ट्णः– कृ ष्ट्णपक्ष; षट् -मासाः– छह र्ास की अवमध; दनक्षण-
अयणम्– जब सूयम िमक्षण मिशा र्ें रहता है; तत्र– वहाँ; चान्द्र-मसम्– चन्द्रलोक को; जयोनतः– प्रकाश; योगी–
योगी; प्राप्य– प्राप्त करके ; निवतमते– वापस आता है ।

जो योगी धुए,ूँ रानत्र, कृ ष्ट्णपक्ष में या सूयम के दनक्षणायि रहिे के छह महीिों में नदवंगत होता है, वह
चन्द्रलोक को जाता है, नकन्तु वहाूँ से पुिः (पृथ्वी पर) चला आता है ।

तात्पयम : भागवत के तृतीय स्कंध र्ें कमपल र्मु न उल्लेख करते हैं मक जो लोग कर्मकाण्ड तर्ा यज्ञकाण्ड र्ें
मनपणु हैं, वे र्ृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं । ये र्हान आत्र्ाएँ चन्द्रर्ा पर लगभग १० हजार वषों तक (िेवों
की गणना से) रहती हैं और सोर्रस का पान करते हुए जीवन का आनन्ि भोगती हैं । अन्ततोगत्वा वे पृथ्वी पर लौट
आती हैं । इसका अर्म यह हुआ मक चन्द्रर्ा र्ें उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं, भले ही हर् अपनी स्र्ूल इमन्द्रयों से उन्हें
िेख न सकें ।

अनग्िजयोनतरः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।

२७१
तत्र प्रयाता गच्छनन्त ब्रह्म ब्रह्मनवदो जिाः ।। २४ ।।

अनग्िः– अमग्न; जयोनतः– प्रकाश; अहः– मिन; शुक्लः– शक्ु लपक्ष; षट् -मासाः– छह र्हीने; उत्तर-
अयणम्– जब सूयम उत्तर मिशा की ओर रहता है; तत्र– वहाँ; प्रयाताः– र्रने वाला; गच्छनन्त– जाते हैं; ब्रह्म– ब्रह्म
को; ब्रह्म-नवदः– ब्रह्मज्ञानी; जिाः– लोग ।

जो परब्रह्म के ज्ञाता हैं, वे अनग्िदेव के प्रभाव में, प्रकाश में, नदि के शभ


ु क्षण में, शक्ु लपक्ष में या जब
सूयम उत्तरायण में रहता है, उि छह मासों में इस संसार से शरीर त्याग करिे पर उस परब्रह्म को प्राप्त करते हैं ।

तात्पयम : जब अमग्न, प्रकाश, मिन तर्ा पक्ष का उल्लेख रहता है तो यह सर्झना चामहए मक इस सबों के
अमधिाता िेव होते हैं जो आत्र्ा की यात्रा की व्यवस्र्ा करते हैं । र्ृत्यु के सर्य र्न र्नुष्ट्य को नवीन जीवन र्ागम पर ले
जाता है । यमि कोई अकस्र्ात् या योजनापूवमक उपयुमक्त सर्य पर शरीर त्याग करता है तो उसके मलए मनमवमशेष
ब्रह्मजयोमत प्राप्त कर पाना सम्भव होता है । योग र्ें मसद्ध योगी अपने शरीर को त्यागने के सर्य तर्ा स्र्ान की व्यवस्र्ा
कर सकते हैं । अन्यों का इस पर कोई वश नहीं होता । यमि संयोगवश वे शभु र्हु तम र्ें शरीर त्यागते हैं, तब तो उनको
जन्र्-र्ृत्यु के चक्र र्ें लौटना नहीं पड़ता, अन्यर्ा उनके पुनरावतमन की सम्भावना बनी रहती है । मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें शद्ध
ु भक्त के मलए लौटने का कोई भय नहीं रहता, चाहे वह शभु र्हु तम र्ें शरीर त्याग करे या अशभु क्षण र्ें, चाहे
अकस्र्ात् शरीर त्याग करे या स्वेच्छापूवमक ।

धमू ो रानत्रस्तथा कृ ष्ट्णः षण्मासा दनक्षणायिम् ।


तत्र चान्द्रमसं जयोनतयोगी प्राप्य निवतमते ।। २५ ।।

धमू ः –धआ ु ँ; रानत्रः –रात; तथा –और; कृ ष्ट्णः –कृ ष्ट्णपक्ष; षट् -मासाः –छहर्ास की अवमध; दनक्षण-
अयणम् – जब सूयम िमक्षण मिशा र्ें रहता है; तत्र –वहाँ; चान्द्र-मसम् –चन्द्रलोक को; जयोनतः –प्रकाश; योगी
–योगी; प्राप्य –प्राप्त करके ; निवतमते –वापस आता है।

जो योगी धुए,ूँ रात्री, कृ ष्ट्णपक्ष में या सूयम के दनक्षणायि रहिे के छह महीिों में नदवंगत होता है, वह
चन्द्रलोक को जाता है, नकन्तु वहाूँ से पुिः (पृथ्वी पर) चला आता है ।

तात्पयम: भागवत के तृतीय स्कंध र्ें कमपल र्मु न उल्लेख करते हैं मक जो लोग कर्मकाण्ड तर्ा यज्ञकाण्ड र्ें
मनपणु हैं, वे र्ृत्यु होने पर चन्द्रलोक को प्राप्त करते हैं । ये र्हान आत्र्ाएँ चन्द्रर्ा पर लगभग १० हजार वषों तक (िेवों
की गणना से) रहती हैं और सोर्रस का पान करते हुए जीवन का आनन्ि भोगती हैं । अन्ततोगत्वा वेपथ्ृ वीपर लौट
आती हैं । इसका अर्म यह हुआ मक चन्द्रर्ा र्ें उच्चश्रेणी के प्राणी रहते हैं, भले ही हर् अपनी स्र्ूल इमन्द्रयों से उन्हें
िेख न सकें ।

शुक्लकृ ष्ट्णे गती ह्येते जगतः शाश्र्वते मते ।

२७२
एकया यात्यिावृनत्तमन्ययावतमते पुिः ।। २६ ।।

शुक्ल– प्रकाश; कृ ष्ट्णे– तर्ा अंधकार; गती– जाने के र्ागम; नह– मनश्चय ही; एते– ये िोनों; जगतः– भौमतक
जगत् का; शाश्र्वते– वेिों र्ें; मते– र्त से; एकया– एक के द्वारा; यानत– जाता है; अिावृनत्तम्– न लौटने के
मलए; अन्यया– अन्य के द्वारा; आवतमते– आ जाता है; पुिः– मिर से ।

वैनदक मतािस ु ार इस सस
ं ार से प्रयाण करिे के दो मागम हैं – एक प्रकाश का तथा दूसरा अंधकार
का । जब मिुष्ट्य प्रकाश के मागम से जाता है तो वह वापस िहीं आता, नकन्तु अंधकार के मागम से जािे वाला
पिु ः लौटकर आता है ।

तात्पयम : आचायम बलिेव मवद्याभषू ण ने छान्र्ोर्गय उपस्नषर्् से (५.१०.३-५) ऐसा ही मववरण उद्धतृ मकया
है । जो अनामि काल से सकार् कर्ों तर्ा िाशममनक मचन्तक रहे हैं वे मनरन्तर आवगर्न करते रहे हैं । वस्तुतः उन्हें
परर्र्ोक्ष प्राप्त नहीं होता, क्योंमक वे कृ ष्ट्ण की शरण र्ें नहीं जाते ।

िैते सृती पाथम जािन्योगी मुह्यनत कश्र्चि ।


तस्मात्सवेषु कालेषु योगयुिो भवाजमिु ।। २७ ।।

ि– कभी नहीं; एते– इन िोनों; सृती– मवमभन्न र्ागों को; पाथम– हे पृर्ापुत्र; जािि्– जानते हुए भी; योगी–
भगवद्भक्त; मुह्यनत– र्ोहग्रस्त होता है; कश्चि– कोई; तस्मात्– अतः; सवेषु कालेषु – सिैव; योग-युिः–
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें तत्पर; भव– होवो; अजमिु – हे अजमुन ।

हे अजमिु ! यद्यनप भिगण इि दोिों मागों को जािते हैं, नकन्तु वे मोहग्रस्त िहीं होते । अतः तमु भनि में
सदैव नस्थर रहो ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण अजुमन को उपिेश िे रहे हैं मक उसे इस जगत् से आत्र्ा के प्रयाण करने के मवमभन्न र्ागों को
सनु कर मवचमलत नहीं होना चामहए । भगवद्भक्त को इसकी मचन्ता नहीं होनी चामहए मक वह स्वेच्छा से र्रे गा या
िैववशात् । भक्त को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें दृढ़तापूवमक मस्र्त रहकर हरे ृ ष्ण का जप करना चामहए । उसे यह जान लेना
चामहए मक इन िोनों र्ागों र्ें से मकसी की भी मचन्ता करना कष्टिायक है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें तल्लीन होने की सवोत्तर्
मवमध यही है मक भगवान् की सेवा र्ें सिैव रत रहा जाय । इससे भगवद्धार् का र्ागम स्वतः सुगर्, सुमनमश्चत तर्ा सीधा
होगा । इस श्लोक का योगयुि शब्ि मवशेष रूप से र्हत्त्वपूणम है । जो योग र्ें मस्र्र है, वह अपनी सभी गमतमवमधयों र्ें
मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत रहता है । श्री रूप गोस्वार्ी का उपिेश है – अनासिस्य स्वषयान् यथाहदमपु यञ्ु जतः–
र्नुष्ट्य को सांसाररक कायों से अनासक्त रहकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें सब कुछ करना चामहए । इस मवमध से,
मजसे यि ु वैरार्गय कहते हैं, र्नष्ट्ु य मसमद्ध प्राप्त करता है । अतएव भक्त कभी इन वणमनों से मवचमलत नहीं होता, क्योंमक
वह जानता रहता है मक भमक्त के कारण भगवद्धार् का उसका प्रयाण सुमनमश्चत है ।

२७३
वेदेषु यज्ञेषु तपःसु चैव दािेषु यत्पुण्यिलं प्रनदष्टम् ।
अत्येनत तत्सवमनमदं नवनदत्वा योगी परं स्थािमुपैनत चाद्यम् ।। २८ ।।

वेदेष–ु वेिाध्ययन र्ें; यज्ञेषु– यज्ञ सम्पन्न करने र्ें; तपःसु– मवमभन्न प्रकार की तपस्याएँ करने र्ें; च–
भी; एव– मनश्चय ही; दािेषु– िान िेने र्ें; यत्– जो; पुण्य-िलम्– पुण्यकर्म का िल; प्रनदष्टम्– सूमचत; अत्येनत–
लाँघ जाता है; तत् सवमम–् वे सब; इदम्– यह; नवनदत्वा– जानकर; योगी– योगी; परम्– परर्; स्थािम्– धार्
को; उपैनत– प्राप्त करता है; च– भी; आद्यम्– र्ल ू , आमि ।

जो व्यनि भनिमागम स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययि, तपस्या, दाि, दाशमनिक तथा सकाम कमम करिे
से प्राप्त होिे वाले िलों से वंनचत िहीं होता । वह मात्र भनि सम्पन्ि करके इि समस्त िलों की प्रानप्त करता
है और अन्त में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : यह श्लोक सातवें तर्ा आिवें अध्यायों का उपसंहार है, मजनर्े कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त का मवशेष
वणमन है । र्नुष्ट्य को अपने गुरु के मनिेशन र्ें वेिाध्ययन करना होता है, उन्हीं के आश्रर् र्ें रहते हुए तपस्या करनी होती
है । ब्रह्मचारी को गुरु के घर र्ें एक िास की भाँमत रहना पड़ता है और द्वार-द्वार मभक्षा र्ाँगकर गुरु के पास लाना होता
है । उसे गुरु के उपिेश पर ही भोजन करना होता है और यमि मकसी मिन गुरु मशष्ट्य को भोजन करने के मलए बुलाना
भल ू जाय तो मशष्ट्य को उपवास करना होता है । ब्रह्मचयम पालन के ये कुछ वैमिक मनयर् हैं ।
अपने गुरु के आश्रर् र्ें जब छात्र पाँच से बीस वषम तक वेिों का अध्ययन कर लेता है तो वह परर् चररत्रवान बन
जाता है । वेिों का अध्ययन र्नोधमर्मयों के र्नोरंजन के मलए नहीं, अमपतु चररत्र-मनर्ामण के मलए है । इस प्रमशक्षण के
बाि ब्रह्मचारी को गृहस्र् जीवन र्ें प्रवेश करके मववाह करने की अनर्ु मत िी जाती है । गृहस्र् के रूप र्ें उसे अनेक यज्ञ
करने होते हैं, मजससे वह आगे उन्नमत कर सके । उसे िेश, काल तर्ा पात्र के अनुसार तर्ा सामत्त्वक, राजमसक तर्ा
तार्मसक िान र्ें अन्तर करते हुए िान िेना होता है, जैसा मक भगवद्गीता र्ें वमणमत है । गृहस्र् जीवन के बाि वानप्रस्र्
आश्रर् ग्रहण करना पड़ता है, मजसर्ें उसे जंगल र्ें रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर और क्षौर कर्म आमि मकये मबना
कमिन तपस्या करनी होती है इस प्रकार र्नुष्ट्य ब्रह्मचयम, गृहस्र्, वानप्रस्र् तर्ा अन्त र्ें संन्यास आश्रर् का पालन करते
हुए जीवन की मसद्धावस्र्ा को प्राप्त होता है । तब इनर्ें से कुछ स्वगमलोक को जाते हैं और यमि वे और अमधक उन्नमत
करते हैं तो अमधक उच्च्लोकों को या तो मनमवमशेष ब्रह्मजयोमत, या वैकुण्िलोक या कृ ष्ट्णलोक को जाते हैं । वैमिक ग्रंर्ों
र्ें इसी र्ागम की रूपरे खा प्राप्त होती है ।
मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवशेषता यह है मक र्नुष्ट्य एक ही झटके र्ें भमक्त करने के कारण र्नुष्ट्य जीवन के
मवमभन्न आश्रर्ों के अनुिानों को पार कर जाता है ।
इर्ां स्वस्र्त्वा शब्ि सूमचत करते हैं मक र्नुष्ट्य को भगवद्गीता के इस अध्याय र्ें तर्ा सातवें अध्याय र्ें मिये हुए
कृ ष्ट्ण के उपिेशों को सर्झना चामहए । उसे मवद्वता या र्नोधर्म से इस िोनों अध्यायों को सर्झने का प्रयास नहीं करना
चामहए, अमपतु भक्तों की संगमत से श्रवण करके सर्झना चामहए । सातवें से लेकर बारहवें तक के
अध्याय भगवद्गीता के सार रूप हैं । प्रर्र् छह अध्याय तर्ा अमन्तर् छह अध्याय इन र्ध्यवती छहों अध्यायों के मलए
आवरण पात्र हैं मजनकी सुरक्षा भगवान् करते हैं । यमि कोई गीता के इन छह अध्यायों को भक्त की संगमत र्ें भलीभाँमत

२७४
सर्झ लेता है तो उसका जीवन सर्स्त तपस्याओ,ं यज्ञों, िानों, मचन्तनों को पार करके र्महर्ा-र्मण्डत हो उिे गा,
क्योंमक के वल कृ ष्ट्णभावनार्ृत के द्वारा उसे इतने कर्ों का िल प्राप्त हो जाता है ।
मजसे भगवद्गीता र्ें तमनक भी श्रद्धा नहीं है, उसे मकसी भक्त से भगवद्गीता सर्झनी चामहए, क्योंमक चौर्े
अध्याय के प्रारम्भ र्ें ही कहा गया है मक के वल भक्तगण ही गीता को सर्झ सकते हैं, अन्य कोई भी भगवद्गीता के
अमभप्राय को नहीं सर्झ सकता । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक वह मकसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े; र्नोधमर्मयों से नहीं ।
यह श्रद्धा का सूचक है । जब भक्त की खोज की जाती है और अन्ततः भक्त की संगमत प्राप्त हो जाती है, उसी क्षण
से भगवद्गीता का वास्तमवक अध्ययन तर्ा उसका ज्ञान प्रारम्भ हो जाता है । भक्त की सगं मत से भमक्त आती है और
भमक्त के कारण कृ ष्ट्ण या ईश्र्वर तर्ा कृ ष्ट्ण के कायमकलापों, उनके रूप, नार्, लीलाओ ं आमि से संबंमधत सारे भ्रर् िरू
हो जाते हैं । इस प्रकार भ्रर्ों के िरू हो जाने पर वह अपने अध्ययन र्ें मस्र्र हो जाता है । तब उसे भगवद्गीता के
अध्ययन र्ें रस आने लगता है और कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने की अनुभमू त होने लगती है । आगे बढ़ने पर वह कृ ष्ट्ण के
प्रेर् र्ें पूणमतया अनुरक्त हो जाता है । यह जीवन की सवोच्च मसद्ध अवस्र्ा है, मजससे भक्त कृ ष्ट्ण के धार् गोलोक
वृन्िावन को प्राप्त होता है, जहाँ वह मनत्य सुखी रहता है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े आठवें अध्याय ”भगवत्प्रास्प्त” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

२७५
अध्यायिौ
परम गुह्य ज्ञाि
श्रीभगवािवु ाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यसूयवे ।
ज्ञािं नवज्ञािसनहतं यजज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽश्रुभात् ।। १ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– श्रीभगवान् ने कहा; इदम्– इस; तु– लेमकन; ते– तुम्हारे मलए;गुह्य-तमम्– अत्यन्त
गुह्य; प्रवक्ष्यानम– कह रहा ह;ँ अिसूयवे– ईष्ट्याम न करने वाले को; ज्ञािम्– ज्ञान को; नवज्ञाि– अनुभतू
ज्ञान; सनहतम्– समहत; यत्– मजसे; ज्ञात्वा– जानकर; मोक्ष्यसे– र्क्त
ु हो सकोगे; अशुभात्– इस कष्टर्य संसार से ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे अजमिु ! चूँनू क तमु मझ


ु से कभी ईष्ट्याम िहीं करते , इसीनलए मैं तम्ु हें यह परम
गुह्यज्ञाि तथा अिुभूनत बतलाऊूँ गा, नजसे जािकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुि हो जाओगे ।

तात्पयम : जयों-जयों भक्त भगवान् के मवषयों र्ें अमधकामधक सुनता है, त्यों-त्यों वह आत्र्प्रकामशत होता जाता
है । यह श्रवण मवमध श्रीमद्भागवत र्ें इस प्रकार अनुर्ोमित है – “भगवान् के संिेश शमक्तयों से पूररत हैं मजनकी अनुभमू त
तभी होती है, जब भक्त जन भगवान् सम्बन्धी कर्ाओ ं की परस्पर चचाम करते हैं । इसे र्नोधमर्मयों या मवद्यालयीन
मवद्वानों के सामन्नध्य से नहीं प्राप्त मकया जा सकता, क्योंमक यह अनुभतू ज्ञान (मवज्ञान) है ।”
भक्तगण परर्ेश्र्वर की सेवा र्ें मनरन्तर लगे रहते हैं । भगवान् उस जीव मवशेष की र्ानमसकता तर्ा मनिा से
अवगत रहते हैं, जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है और उसे ही वे भक्तों के सामन्नध्य र्ें कृ ष्ट्णमवद्या को सर्झने की बुमद्ध
प्रिान करते हैं । कृ ष्ट्ण की चचाम अत्यन्त शमक्तशाली है और यमि सौभाग्यवश मकसी को ऐसी संगमत प्राप्त हो जाये और
वह इस ज्ञान को आत्र्सात् करे तो वह आत्र्-साक्षात्कार की मिशा र्ें अवश्य प्रगमत करे गा । कृ ष्ट्ण अजुमन को अपनी
अलौमकक सेवा र्ें उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्सामहत करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय र्ें उसे परं गह्य ु बातें बताते
हैं मजन्हें इसके पूवम उन्होंने अन्य मकसी से प्रकट नहीं मकया र्ा ।
भगवद्गीता का प्रर्र् अध्याय शेष ग्रर्ं की भमू र्का जैसा है, मद्वतीय तर्ा तृतीय अध्याय र्ें मजस आध्यामत्र्क
ज्ञान का वणमन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तर्ा आिवें अध्याय र्ें मजन मवषयों की मववेचना हुई है वे भमक्त से
सम्बमन्धत हैं और कृ ष्ट्णभावनार्ृत पर प्रकाश डालने के कारण गह्य ु तर कहे गये हैं । मकन्तु नवें अध्याय र्ें तो अनन्य
शद्धु भमक्त का ही वणमन हुआ है । िलस्वरूप यह परर्गुह्य कहा गया है । मजसे कृ ष्ट्ण का यह परर्गुह्य ज्ञान प्राप्त है, वह
मिव्य पुरुष है, अतः इस संसार र्ें रहते हुए भी उसे भौमतक क्लेश नहीं सताते । भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें कहा गया है मक
मजसर्ें भगवान् की प्रेर्ाभमक्त करने की उत्कृ ष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् र्ें बद्ध अवस्र्ा र्ें रहता हो, मकन्तु
उसे र्क्त
ु र्ानना चामहए । इसी प्रकार भगवद्गीता के िसवें अध्याय र्ें हर् िेखेंगे मक जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह
र्क्त
ु पुरुष है ।

२७६
इस प्रर्र् श्लोक का मवमशष्ट र्हत्त्व है । इर्ां ज्ञानम् (यह ज्ञान) शब्ि शद्धु भमक्त के द्योतक हैं, जो नौ प्रकार की
होती है – श्रवण, कीतमन, स्र्रण, पाि-सेवन, अचमन, वन्िन, िास्य, सख्य तर्ा आत्र्-सर्पमण । भमक्त के इन नौ तत्त्वों
का अभ्यास करने से र्नुष्ट्य आध्यामत्र्क चेतना अर्वा कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक उि पाता है । इस प्रकार, जब र्नुष्ट्य का
हृिय भौमतक कल्र्ष से शद्ध ु हो जाता है तो वह कृ ष्ट्णमवद्या को सर्झ सकता है । के वल यह जान लेना मक जीव
भौमतक नहीं है, पयामप्त नहीं होता । यह तो आत्र्ानुभमू त का शभु ारम्भ हो सकता है, मकन्तु उस र्नुष्ट्य को शरीर के कायों
तर्ा उस भक्त के आध्यामत्र्क कायों के अन्तर को सर्झना होगा, जो यह जानता है मक वह शरीर नहीं है ।
सातवें अध्याय र्ें भगवान् की ऐश्र्वयमर्यी शमक्त, उनकी मवमभन्न शमक्तयों – परा तर्ा अपरा – तर्ा इस भौमतक
जगत् का वणमन मकया जा चक ु ा है । अब नवें अध्याय र्ें भगवान् की र्महर्ा का वणमन मकया जायेगा ।
इस श्लोक का अनसयू वे शब्ि भी अत्यन्त र्हत्त्वपणू म है । सार्ान्यतया बड़े से बड़े मवद्वान् भाष्ट्यकार भी भगवान्
कृ ष्ट्ण से ईष्ट्याम करते हैं । यहाँ तक मक बहुश्रतु मवद्वान भी भगवद्गीता के मवषय र्ें अशद्ध ु व्याख्या करते हैं । चँमू क वे
कृ ष्ट्ण के प्रमत ईष्ट्याम रखते हैं, अतः उनकी टीकाएँ व्यर्म होती हैं । के वल कृ ष्ट्णभक्तों द्वारा की गई टीकाएँ ही प्रार्ामणक
हैं । कोई भी ऐसा व्यमक्त, जो कृ ष्ट्ण के प्रमत ईष्ट्यामलु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूणमज्ञान प्रिान कर
सकता है । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण को जाने मबना उनके चररत्र की आलोचना करता है, वह र्ख ु म है । अतः ऐसी टीकाओ ं से
सावधान रहना चामहए । जो व्यमक्त यह सर्झते हैं मक कृ ष्ट्ण भगवान् हैं और शुद्ध तर्ा मिव्य पुरुष हैं, उनके मलए ये
अध्याय लाभप्रि होंगे ।

राजनवद्या राजगुह्यं पनवत्रनमदमुत्तमम् ।


प्रत्यक्षावगमं धम्यं सुसुखं कतममु व्ययम् ।। २ ।।

राज-नवद्या– मवद्याओ ं का राजा; राज-गह्य ु म्– गोपनीय ज्ञान का राजा; पनवत्रम्– शद्धु तर्; इदम्–
यह; उत्तमम्– मिव्य; प्रत्यक्ष– प्रत्यक्ष अनुभव से; अवगमम्– सर्झा गया; धम्यमम–् धर्म; सु-सुखम्– अत्यन्त
सख
ु ी; कतममु –् सम्पन्न करने र्ें; अव्ययम्– अमवनाशी ।

यह ज्ञाि सब नवद्याओ ं का राजा है, जो समस्त रहस्यों में सवामनधक गोपिीय है । यह परम शुद्ध है और
चूूँनक यह आत्मा की प्रत्यक्ष अिुभूनत करािे वाला है, अतः यह धमम का नसद्धान्त है । यह अनविाशी है और
अत्यन्त सुखपूवमक सम्पन्ि नकया जाता है ।

तात्पयम :भगवद्गीता का यह अध्याय मवद्याओ ं का राजा (राजमवद्या) कहलाता है, क्योंमक यह पूवमवती
व्याख्यामयत सर्स्त मसद्धान्तों एवं िशमनों का सार है । भारत के प्रर्ख ु िाशममनक गौतर्, कणाि, कमपल, याज्ञवल्क्य,
शामण्डल्य तर्ा वैश्र्वानर हैं । सबसे अन्त र्ें व्यासिेव आते हैं, जो वेर्ान्तसूत्र के लेखक हैं । अतः िशमन या मिव्यज्ञान के
क्षेत्र र्ें मकसी प्रकार का अभाव नहीं है । अब भगवान् कहते हैं मक यह नवर् अध्याय ऐसे सर्स्त ज्ञान का राजा है, यह
वेिाध्ययन से प्राप्त ज्ञान एवं मवमभन्न िशमनों का सार है । यह गुह्यतर् है, क्योंमक गुह्य या मिव्यज्ञान र्ें आत्र्ा तर्ा शरीर
के अन्तर को जाना जाता है । सर्स्त गह्य ु ज्ञान के इस राजा (राजमवद्या) की पराकाष्टा है, भमक्तयोग ।
सार्ान्यतया लोगों को इस गुह्यज्ञान की मशक्षा नहीं मर्लती । उन्हें बाह्य मशक्षा िी जाती है । जहाँ तक सार्ान्य
मशक्षा का सम्बन्ध है उसर्ें राजनीमत, सर्ाजशास्त्र, भौमतकी, रसायनशास्त्र, गमणत, जयोमतमवमज्ञान, इजं ीमनयरी आमि र्ें

२७७
र्नष्ट्ु य व्यस्त रहते हैं । मवश्र्वभर र्ें ज्ञान के अनेक मवभाग हैं और अनेक बड़े-बड़े मवश्र्वमवद्यालय हैं, मकन्तु िभु ामग्यवश
कोई ऐसा मवश्र्वमवद्यालय या शैमक्षक संस्र्ान नहीं है, जहाँ आत्र्-मवद्या की मशक्षा िी जाती हो । मिर भी आत्र्ा शरीर
का सबसे र्हत्त्वपूणम अंग है, आत्र्ा के मबना शरीर र्हत्त्वहीन है । तो भी लोग आत्र्ा की मचन्ता न करके जीवन की
शारीररक आवश्यकताओ ं को अमधक र्हत्त्व प्रिान करते हैं ।
भगवद्गीता र्ें मद्वतीय अध्याय से ही आत्र्ा की र्हत्ता पर बल मिया गया है । प्रारम्भ र्ें ही भगवान् कहते हैं मक
यह शरीर नश्र्वर है और आत्र्ा अमवनश्र्वर । (अन्तवन्त इमे र्ेहा स्नत्यस्योिाः शरीररणः) । यही ज्ञान का गुह्य अंश है-
के वल यह जाना लेना मक यह आत्र्ा शरीर से मभन्न है, यह मनमवमकार, अमवनाशी और मनत्य है । इससे आत्र्ा के मवषय
र्ें कोई सकारात्र्क सूचना प्राप्त नहीं हो पाती । कभी-कभी लोगों को यह भ्रर् रहता है मक आत्र्ा शरीर से मभन्न है और
जब शरीर नहीं रहता या र्नष्ट्ु य को शरीर से र्मु क्त मर्ल जाती है तो आत्र्ा शन्ू य र्ें रहता है और मनराकार बन जाता है ।
मकन्तु यह वास्तमवकता नहीं है । जो आत्र्ा शरीर के भीतर इतना सक्रीय रहता है वह शरीर से र्क्त ु होने के बाि इतना
मनमष्ट्क्रय कै से हो सकता है? यह सिैव सक्रीय रहता है । यमि यह शाश्र्वत है, तो यह शाश्र्वत समक्रय रहता है और
वैकुण्िलोक र्ें इसके कायमकलाप अध्यात्र्ज्ञान के गुह्यतर् अंश हैं । अतः आत्र्ा के कायों को यहाँ परा सर्स्त ज्ञान
का राजा, सर्स्त ज्ञान का गुह्यतर् अंश कहा गया है ।
यह ज्ञान सर्स्त कायों का शद्ध ु तुर् रूप है, जैसा मक वैमिक सामहत्य र्ें बताया गया है । पद्मपुराण र्ें र्नुष्ट्य के
पापकर्ों का मवश्ले षण मकया गया है और मिखाया गया है मक ये पापों के िल हैं । जो लोग सकार्कर्ों र्ें लगे हुए हैं वे
पापपूणम कर्ों के मवमभन्न रूपों एवं अवस्र्ाओ ं र्ें िँ से रहते हैं । उिाहरणार्म, जब बीज बोया जाता है तो तुरन्त वृक्ष नहीं
तैयार हो जाता, इसर्ें कुछ सर्य लगता है । पहले एक छोटा सा अंकुर रहता है, मिर यह वृक्ष का रूप धारण करता है,
तब इसर्ें िूल आते हैं, िल लगते हैं और तब बीज बोने वाले व्यमक्त िूल तर्ा िल का उपभोग कर सकते हैं । इसी
प्रकार जब कोई र्नुष्ट्य पापकर्म करता है, तो बीज की ही भाँमत इसके भी िल मर्लने र्ें सर्य लगता है । इसर्ें भी कई
अवस्र्ाएँ होती हैं । भले ही व्यमक्त र्ें पापकर्ों का उिय होना बन्ि हो चक ु ा को, मकन्तु मकये गये पापकर्म का िल तब
भी मर्लता रहता है । कुछ पाप तब भी बीज रूप र्ें बचे रहते हैं, कुछ िलीभतू हो चक ु े होते हैं, मजन्हें हर् िख
ु तर्ा
वेिना के रूप र्ें अनभु व करते हैं ।
जैसा की सातवें अध्याय के अट्ठाइसवें श्लोक र्ें बताया गया है जो व्यमक्त सर्स्त पापकर्ों के िलों (बन्धनों) का
अन्त करके भौमतक जगत् के द्वन्द्वों से र्क्त ु हो जाता है, वह भगवान् कृ ष्ट्ण की भमक्त र्ें लग जाता है । िसू रे शब्िों र्ें, जो
लोग भगवद्भमक्त र्ें लगे हुए हैं, वे सर्स्त कर्मिलों (बन्धनों) से पहले से र्क्त ु हुए रहते हैं । इस कर्न की पुमष्ट पद्मपुराण
र्ें हुई है –
अप्रारब्द्धफलां पापां ू टां बीजां फलोन्मख ु म् ।
क्रमेणैव प्रस्लयेत स्वष्णभु स्िरतात्मनाम् ।।
जो लोग भगवद्भमक्त र्ें रत हैं और उनके सारे पापकर्म चाहे िलीभतू हो चक ु े हो, सार्ान्य हों या बीज रूप र्ें हों,
क्रर्शः नष्ट हो जाते हैं । अतः भमक्त की शमु द्धकाररणी शमक्त अत्यन्त प्रबल है और पस्वत्रम् उत्तमम् अर्ामत् मवशुद्धतर्
कहलाती है । उत्तम का तात्पयम मिव्य है । तमस् का अर्म यह भौमतक जगत् या अंधकार है और उत्तर् का अर्म भौमतक
कायों से परे हुआ । भमक्तर्य कायों को कभी भी भौमतक नहीं र्ानना चामहए यद्यमप कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है मक
भक्त भी सार्ान्य जनों की भाँमत रत रहते हैं । जो व्यमक्त भमक्त से अवगत होता है, वही जान सकता है मक भमक्तर्य कायम
भौमतक नहीं होते । वे आध्यामत्र्क होते हैं और प्रकृ मत के गुणों से सवमर्ा अिमू षत रहते हैं ।

२७८
कहा जाता है मक भमक्त की सम्पन्नता इतनी पूणम होती है मक उसके िलों का प्रत्यक्ष अनुभव मकया जा सकता
है । हर्ने अनुभव मकया है मक जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण के पमवत्र नार् (हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम
राम राम हरे हरे ) का कीतमन करता है उसे जप करते सर्य कुछ मिव्य आनन्ि का अनुभव होता है और वह तुरन्त ही
सर्स्त भौमतक कल्र्ष से शद्ध ु हो जाता है । ऐसा सचर्चु मिखाई पड़ता है । यही नहीं, यमि कोई श्रवण करने र्ें ही नहीं
अमपतु भमक्तकायों के सन्िेश को प्रचाररत करने र्ें भी लगा रहता है या कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार कायों र्ें सहायता
करता है, तो उसे क्रर्शः आध्यामत्र्क उन्नमत का अनुभव होता रहता है । आध्यामत्र्क जीवन की यह प्रगमत मकसी पूवम
मशक्षा या योग्यता पर मनभमर नहीं करती । यह मवमध स्वयं इतनी शद्ध ु है मक इसर्ें लगे रहने से र्नुष्ट्य शद्ध
ु बन जाता है ।
वेर्ान्तसूत्र र्ें (३.३.३६) भी इसका वणमन प्र ाशश्र्च मदण्यभ्यासात् के रूप र्ें हुआ है, मजसका अर्म है मक भमक्त
इतनी सर्र्म है मक भमक्तकायों र्ें रत होने र्ात्र से मबना मकसी सिं ेह के प्रकाश प्राप्त हो जाता है । इसका उिाहरण नारि
जी के पूवमजन्र् र्ें िेखा जा सकता है, जो पहले िासी के पुत्र र्े । वे न तो मशमक्षत र्े, न ही राजकुल र्ें उत्पन्न हुए र्े,
मकन्तु जब उनकी र्ाता भक्तों की सेवा करती रहती र्ीं, नारि भी सेवा करते र्े और कभी-कभी र्ाता की अनुपमस्र्मत
र्ें भक्तों की सेवा करते रहते र्े । नारि स्वयं कहते हैं-
उस्चछष्टलेपाननुमोस्र्तो स्िजैः
स ृ त्स्म भञ्ु जे तर्पास्तस् स्ल्बषः ।
एवां प्रवृत्तस्य स्वशुद्धचेतस-
स्तद्धमद एवात्मरुस्चः प्रजायते ।।
श्रीमद्भागवत के इस श्लोक र्ें (१.५.२५) नारि जी अपने मशष्ट्य व्यासिेव से अपने पूवमजन्र् का वणमन करते हैं ।
वे कहते हैं मक पूणमजन्र् र्ें बाल्यकाल र्ें वे चातुर्ामस र्ें शुद्धभक्तों (भागवतों) की सेवा मकया करते र्े मजससे उन्हें
उनकीसंगमत प्राप्त हुई । कभी-कभी वे ऋमष अपनी र्ामलयों र्ें उमच्छष्ट भोजन छोड़ िेते और यह बालक र्ामलयाँ धोते
सर्य उमच्छष्ट भोजन को चखना चाहता र्ा । अतः उसने उन ऋमषयों से अनर्ु मत र्ाँगी और जब उन्होंने अनर्ु मत िे िी
तो बालक नारि उमच्छष्ट भोजन को खाता र्ा । िलस्वरूप वह अपने सर्स्त पापकर्ों से र्क्त ु हो गया । जयों-जयों वह
उमच्छष्ट खाता रहा त्यों-त्यों वह ऋमषयों के सर्ान शद्ध ु -हृिय बनता गया । च म
ँ ू क वे र्हाभागवत भगवान् की भमक्त का
आस्वाि श्रवण तर्ा कीतमन द्वारा करते र्े अतः नारि ने भी क्रर्शः वैसी रूमच मवकमसत कर ली । नारि आगे कहते हैं –
तत्रान्वहां ृ ष्ण थाः प्रगायताम्
अनुग्रहेणाशृणवां मनोहराः ।
ताः श्रद्धया मेऽनुपर्ां स्वशृण्वतः
स्प्रयश्रवस्यांग ममाभवर्् रूस्च: ।।
ऋमषयों की संगमत करने से नारि र्ें भी भगवान् की र्महर्ा के श्रवण तर्ा कीतमन की रूमच उत्पन्न हुई और
उन्होंने भमक्त की तीव्र इच्छा मवकमसत की । अतः जैसा मक वेर्ान्तसूत्र र्ें कहा गया है – प्र ाशश्र्च मदण्यभ्यासात् –
जो भगवद्भमक्त के कायों र्ें के वल लगा रहता है उसे स्वतः सारी अनुभमू त हो जाती है और वह सब सर्झने लगता है ।
इसी का नार् प्रत्यक्ष अनभु मू त है ।
धम्यदम् शब्ि का अर्म है ”धर्म का पर्” । नारि वास्तव र्ें िासी के पुत्र र्े । उन्हें मकसी पािशाला र्ें जाने का
अवसर प्राप्त नहीं हुआ र्ा । वे के वल र्ाता के कायों र्ें सहायता करते र्े और सौभाग्यवश उनकी र्ाता को भक्तों की
सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ र्ा । बालक नारि को भी यह सुअवसर उपलब्ध हो सका मक वे भक्तों की संगमत करने से ही
सर्स्त धर्म के परर्लक्ष्य को प्राप्त हो सके । यह लक्ष्य है – भमक्त, जैसा मक श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है (स वै पसुां ाां परो

२७९
धमों यतो भस्िरधोक्षजे) । सार्ान्यतः धामर्मक व्यमक्त यह नहीं जानते मक धर्म का परर्लक्ष्य भमक्त की प्रामप्त है जैसा मक
हर् पहले ही आिवें अध्याय के अमन्तर् श्लोक की व्याख्या करते हुए कहचक ु े हैं (वेर्ेषु यज्ञेषु तपःसु चैव) सार्ान्यतया
आत्र्-साक्षात्कार के मलए वैमिक ज्ञान आवश्यक है । मकन्तु यहाँ पर नारि न तो मकसी गुरु के पास पािशाला र्ें गये र्े,
न ही उन्हें वैमिक मनयर्ों की मशक्षा मर्ली र्ी, तो भी उन्हें वैमिक अध्ययन के सवोच्च िल प्राप्त हो सके । यह मवमध
इतनी सशक्त है मक धामर्मक कृ त्य मकये मबना भी र्नुष्ट्य मसमद्ध-पि को प्राप्त होता है । यह कै से सम्भव होता है? इसकी
भी पुमष्ट वैमिक सामहत्य र्ें मर्लती है- आचायदवान् पुरुषो वेर्। र्हान आचायों के संसगम र्ें रहकर र्नुष्ट्य आत्र्-
साक्षात्कार के मलए आवश्यक सर्स्त ज्ञान से अवगत हो जाता है, भले ही वह अमशमक्षत हो या उसने वेिों का
अध्ययन न मकया हो ।
भमक्तयोग अत्यन्त सख ु कर (ससु ख ु म्) होता है । ऐसा क्यों? क्योंमक भमक्त र्ें श्रवणां ीतदनां स्वष्णोः रहता है,
मजससे र्नुष्ट्य भगवान् की र्महर्ा के कीतमन को सुन सकता है, या प्रार्ामणक आचायों द्वारा मिये गये मिव्यज्ञान के
िाशममनक भाषण सुन सकता है । र्नुष्ट्य के वल बैिे रहकर सीख सकता है, ईश्र्वर को अमपमत अच्छे स्वामिष्ट भोजन का
उमच्छष्ट खा सकता है । प्रत्येक िशा र्ें भमक्त सुखर्य है । र्नुष्ट्य गरीबी की हालत र्ें भी भमक्त कर सकता है । भगवान्
कहते हैं – पत्रां पुष्पां फलां तोय–ां वे भक्त से हर प्रकार की भेंट लेने को तैयार रहते हैं । चाहे पात्र हो, पुष्ट्प हो, िल हो या
र्ोडा सा जल, जो कुछ भी संसार के मकसी भी कोने र्ें उपलब्ध हो, या मकसी व्यमक्त द्वारा, उसकी सार्ामजक मस्र्मत
पर मवचार मकये मबना, अमपमत मकये जाने पर भगवान् को वह स्वीकार है, यमि उसे प्रेर्पूवमक चढ़ाया जाय । इमतहास र्ें
ऐसे अनेक उिाहरण प्राप्त हैं । भगवान् के चरणकर्लों पर चढ़े तुलसीिल का आस्वािन करके सनत्कुर्ार जैसे र्मु न
र्हान भक्त बन गये । अतः भमक्तयोग अमत उत्तर् है और इसे प्रसन्न र्द्रु ा र्ें सम्पन्न मकया जा सकता है । भगवान् को तो
वह प्रेर् मप्रय है, मजससे उन्हें वस्तुएँ अमपमत की जाती हैं ।
यहाँ कहा गया है मक भमक्त शाश्र्वत है । यह वैसी नहीं है, जैसा मक र्ायावािी मचन्तक सामधकार कहते हैं ।
यद्यमप वे कभी-कभी भमक्त करते हैं, मकन्तु उनकी यह भावना रहती है मक जब तक र्मु क्त न मर्ल जाये, तब तक उन्हें
भमक्त करते रहना चामहए, मकन्तु अन्त र्ें जब वे र्क्त ु हो जाएँगे तो ईश्र्वर से उनका तािात्म्य हो जाएगा । इस प्रकार की
अस्र्ायी सीमर्त स्वार्मर्य भमक्त शद्ध ु भमक्त नहीं र्ानी जा सकती । वास्तमवक भमक्त तो र्मु क्त के बाि भी बनी रहती है ।
जब भक्त भगवद्धार् को जाता है तो वहाँ भी वह भगवान् की सेवा र्ें रत हो जाता है । वह भगवान् से तिाकार नहीं होना
चाहता ।
जैसा मक भगवद्गीता र्ें िेखा जाएगा, वास्तमवक भमक्त र्ुमक्त के बाि प्रारम्भ होती है । र्क्त ु होने पर जब र्नुष्ट्य
ब्रह्मपि पर मस्र्र होता है (ब्रह्मभतू ) तो उसकी भमक्त प्रारम्भ होती है (समः सवेषु भतू ेषु मद्भस्िां लभते पराम्) । कोई भी
र्नुष्ट्य कर्मयोग, ज्ञानयोग, अष्टांगयोग या अन्य योग करके भगवान् को नहीं सर्झ सकता । इन योग-मवमधयों से
भमक्तयोग की मिशा मकंमचत प्रगमत हो सकती है, मकन्तु भमक्त अवस्र्ा को प्राप्त हुए मबना कोई भगवान् को सर्झ नहीं
पाता । श्रीमद्भागवत र्ें इसकी भी पुमष्ट हुई है मक जब र्नुष्ट्य भमक्तयोग सम्पन्न करके मवशेष रूप से मकसी र्हात्र्ा
से श्रीमद्भागवत या भगवद्गीता सुनकर शुद्ध हो जाता है, तो वह सर्झ सकता है मक ईश्र्वर क्या है । इस प्रकार भमक्तयोग
या कृ ष्ट्णभावनार्ृत सर्स्त मवद्याओ ं का राजा और सर्स्त गह्य ु ज्ञान का राजा है । यह धर्म का शद्ध ु तर् रूप है और इसे
मबना कमिनाई के सुखपूवमक सम्पन्न मकया जा सकता है । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक इसे ग्रहण करे ।

अश्रद्दधािाः पुरुषा धममस्यास्य परन्तप ।


अप्राप्य मां निवतमन्ते मृत्युसस
ं ारवत्ममनि ।। ३ ।।

२८०
अश्रद्यधािाः– श्रद्धामवहीन; पुरुषाः– पुरुष; धममस्य– धर्म के प्रमत; अस्य– इस; परन्तप– हे
शत्रुहन्ता; अप्राप्य– मबना प्राप्त मकये; माम्– र्झु को; निवतमन्ते– लौटते हैं; मृत्युः– र्ृत्यु के ; सस
ं ार– संसार
र्ें; वत्ममनि– पर् र्ें ।

हे परन्तप! जो लोग भनि में श्रद्धा िहीं रखते, वे मुझे प्राप्त िहीं कर पाते । अतः वे इस भौनतक जगत् में
जन्म-मृत्यु के मागम पर वापस आते रहते हैं ।

तात्पयमः श्रद्धामवहीन के मलए भमक्तयोग पाना कमिन है, यही इस श्लोक का तातपयम है । श्रद्धा तो भक्तों की
संगमत से उत्पन्न की जाती है । र्हापुरुषों से वैमिक प्रर्ाणों को सुनकर भी अभागे लोग ईश्र्वर र्ें श्रद्धा नहीं रखते । वे
मझझकते रहते हैं और भगवद्भमक्त र्ें दृढ़ नहीं रहते । इस प्रकार कृ ष्ट्णभावनार्ृत की प्रगमत र्ें श्रद्धा र्ख्ु य है
। चैतन्यचररतामृत र्ें कहा गया है मक श्रद्धा तो वह पूणम मवश्र्वास है मक परर्ेश्र्वर श्रीकृ ष्ट्ण की ही सेवा द्वारा आरी मसमद्ध
प्राप्त की जा सकती है । यही वास्तमवक श्रद्धा है । श्रीमद्भागवत र्ें (४.३१.१४) कहा गया है:-
यथा तरोमदल ू स्नषेचनेन तृप्यस्न्त तत्स् ां धभजु ोपशाखाः ।
प्राणोपहाराचच यथेस्न्द्रयाणाां तथेव सवादहदणमचयुतेज्या ।।
“वृक्ष की जड़ को सींचने से उसकी डालें, टहमनयाँ तर्ा पमत्तयाँ तुष्ट होती हैं और आर्ाशय को भोजन प्रिान
करने से शरीर की सारी इमन्द्रयाँ तृप्त होती हैं । इसी तरह भगवान् की मिव्यसेवा करने से सारे िेवता तर्ा अन्य सर्स्त
जीव स्वतः प्रसन्न होते हैं ।” अतः गीता पढ़ने के बाि र्नुष्ट्य को चामहए मक वह गीता के इस मनष्ट्कषम को प्राप्त हो-र्नुष्ट्य
को अन्य सारे कायम छोड़कर भगवान् कृ ष्ट्ण की सेवा करनी चामहए । यमि वह इस जीवन-िशमन से मवश्र्वस्त हो जाता है,
तो यही श्रद्धा हैं ।
इस श्रद्धा का मवकास कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवमध है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्तयों की तीन कोमटयाँ हैं । तीसरी
कोमट र्ें वे लोग आते हैं जो श्रद्धामवहीन हैं । यमि ऐसे लोग ऊपर-ऊपर भमक्त र्ें लगे रहें तो भी उन्हें मसद्द अवस्र्ा प्राप्त
नहीं हो पाती । सम्भावना यही है मक वे लोग कुछ काल के बाि नीचे मगर जाएँ । वे भले ही भमक्त र्ें लगे रहें, मकन्तु पूणम
मवश्र्वास तर्ा श्रद्धा के अभाव र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें उनका लगा रह पाना कमिन है । अपने प्रचार कायों के िौरान हर्ें
इसका प्रत्यक्ष अनुभव है मक कुछ लोग आते हैं और मकन्हीं गुप्त उद्देश्यों से कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण करते हैं । मकन्तु
जैसे ही उनकी आमर्मक िशा कुछ सुधर जाती है मक वे इस मवमध को त्यागकर पुनः पुराने ढरें पर लग जाते हैं ।
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें के वल श्रद्धा के द्वारा ही प्रगमत की जा सकती है । जहाँ तक श्रद्धा की बात है, जो व्यमक्त भमक्त-
सामहत्य र्ें मनपुण है और मजसने दृढ़ श्रद्धा की अवस्र्ा प्राप्त कर ली है, वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रर्र् कोमट का व्यमक्त
कहलाता है । िसू री कोमट र्ें वे व्यमक्त आते हैं मजन्हें भमक्त-शास्त्रों का ज्ञान नहीं है, मकन्तु स्वतः ही उनकीदृढ़ श्रद्धा है
मक कृ ष्ट्णभमक्त सवमश्रेि र्ागम है, अतः वे इसे ग्रहण करते हैं । तृतीय कोमट के व्यमक्त को यह श्रद्धा तो रहती है मक कृ ष्ट्ण
की भमक्त उत्तर् होती है, मकन्तु भागवत तर्ा गीता जैसे शास्त्रों से उसे कृ ष्ट्ण का पयामप्त ज्ञान प्राप्त नहीं हो पता । कभी-
कभी तृतीय कोमट के व्यमक्तयों की प्रवृमत्त कर्मयोग तर्ा ज्ञानयोग की ओर रहती है और कभी-कभी वे मवचमलत होते
रहते हैं, मकन्तु जयोंही उनसे ज्ञान तर्ा कर्मयोग का सिं षू ण मनकल जाता है, वे कृ ष्ट्णभावनामर्ट की मद्वतीय कोमट या
प्रर्र् कोमट र्ें प्रमवष्ट होते हैं । कृ ष्ट्ण के प्रमत श्रद्धा भी तीन अवस्र्ाओ ं र्ें मवभामजत है और श्रीमद्भागवत र्ें इनका वणमन
है । भागवत के ग्यारहवें स्वधं र्ें प्रर्र्, मद्वतीय तर्ा तृतीय कोमट की आमस्तकता का भी वणमन हुआ है । जो लोग कृ ष्ट्ण

२८१
के मवषय र्ें तर्ा भमक्त की श्रेिता को सुनकर भी श्रद्धा नहीं रखते और यह सोचते हैं मक यह र्ात्र प्रशंसा है, उन्हें यह
र्ागम अत्यमधक कमिन जान पड़ता है, भले ही वे ऊपर से भमक्त र्ें रत क्यों न हों । उन्हें मसमद्ध प्राप्त होने की बहुत कर्
आशा है । इस प्रकार भमक्त करने के मलए श्रद्धा परर्ावश्यक है ।

मया ततनमदं सवं जगदव्यिमुनतमिा ।


मत्स्थानि सवमभूतानि ि चाहं तेष्ट्ववनस्थतः ।। ४ ।।

मया – र्ेरे द्वारा; ततम् – व्याप्त है; इदम् – यह; सवमम् – सर्स्त; जगत् – दृश्य जगत; अव्यि-मूनतमिा –
अव्यक्त रूप द्वारा; मत्-स्थानि – र्झु र्ें; सवम-भतू ामन – सर्स्त जीव; ि – नहीं; च – भी; अहम् – र्ैं; तेषु –
उनर्ें; अवनस्थतः – मस्र्त ।

यह सम्पूणम जगत् मेरे अव्यि रूप द्वारा व्याप्त है । समस्त जीव मुझमें हैं, नकन्तु मैं उिमें िहीं हूँ ।
तात्पयम : भगवान् की अनभु मू त स्र्ल ू इमन्द्रयों से नहीं हो पाती । कहा गया है मक –
अतः श्रीकृ ष्ट्णनार्ामि न भवेि् ग्राह्यमर्मन्द्रयैः ।
सेवोन्र्ख
ु े मह मजह्वािौ स्वयर्ेव स्िुरत्यिः ।।
(भमक्तरसार्ृत मसन्धु १.२.२३४)
भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के नार्, यश, लीलाओ ं आमि को भौमतक इमन्द्रयों से नहीं सर्झा जा सकता । जो सर्मु चत
मनिेशन से भमक्त र्ें लगा रहता है उसे ही भगवान् का साक्षात्कार हो पाता है । ब्रह्मसंमहता र्ें (५.३८) कहा गया है –
प्रेर्ाञ्जनच्छुररतभमक्तमवलोचनेन सन्तः सिैव हृियेषु मवलोकयमन्त – यमि मकसी ने भगवान् के प्रमत मिव्य प्रेर्ामभरूमच
उत्पन्न कर ली है, तो वह सिैव अपने भीतर तर्ा बाहर भगवान् गोमवन्ि को िेख सकता है । इस प्रकार वे सार्ान्यजनों
के मलए दृश्य नहीं हैं । यहाँ पर कहा गया है मक यद्यमप भगवान् सवमव्यापी हैं और सवमत्र उपमस्र्त रहते हैं, मकन्तु वे
भौमतक इमन्द्रयों द्वारा अनुभवगम्य नहीं हैं । इसका संकेत अव्यक्तर्मु तमना शब्ि द्वारा हुआ है । भले ही हर् उन्हें न िेख
सकें , मकन्तु वास्तमवकता तो यह है मक उन्हीं पर सब कुछ आमश्रत है । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया जा चक ु ा है
मक सम्पूणम दृश्य जगत् उनकी िो मवमभन्न शमक्तयों – पता या आध्यामत्र्क शमक्त तर्ा अपरा या भौमतक शमक्त – का
संयोग र्ात्र है । मजस प्रकार सूयमप्रकाश सम्पूणम ब्रह्माण्ड र्ें िै ला रहता है उसी प्रकार भगवान् की शमक्त सम्पूणम सृमष्ट र्ें
िै ली है और सारी वस्तएु ँ उसी शमक्त पर मटकी हैं ।
मिर भी मकसी को इस मनष्ट्कषम पर नहीं पहुचँ ना चामहए मक सवमत्र िै ले रहने के कारण भगवान् ने अपनी
व्यमक्तगत सत्ता खो िी है । ऐसे तकम का मनराकरण करने के मलए भगवान् कहते हैं “र्ैं सवमत्र हँ और प्रत्येक वस्तु र्झु र्ें है
तो भी र्ैं पृर्क् हँ ।” उिाहरणार्म, राजा मकसी सरकार का अध्यक्ष होता है और सरकार उसकी स्जमक्त का प्राकट् य
होती है, मवमभन्न सरकारी मवभाग राजा की शमक्त के अमतररक्त और कुछ नहीं होते और प्रत्येक मवभाग राजा की क्षर्ता
पर मनभमर करता है । तो भी राजा से यह आशा नहीं की जाती मक वह प्रत्येक मवभाग र्ें स्वयं उपमस्र्त हो । यह एक
र्ोटा सा उिाहरण मिया गया । इसी प्रकार हर् मजतने स्वरूप िेखते हैं और मजतनी भी वस्तुएँ इस लोक र्ें तर्ा परलोक
र्ें मवद्यर्ान हैं वे सब भगवान् की शमक्त पर आमश्रत हैं । सृमष्ट की उत्पमत्त भगवान् की मवमभन्न शमक्तयों के मवस्तार से
होती है और जैसा मक भगवद्गीता र्ें कहा गया है – मवष्टभ्याहमर्िं कृ त्स्नर्् – वे अपने साकार रूप के करण अपनी
मवमभन्न शमक्तयों के मवस्तार से सवमत्र मवद्यर्ान हैं ।

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ि च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्र्वरम् ।
भूतभृन्ि च भूतस्थो ममात्मा भूतभाविः ।। ५ ।।

ि– कभी नहीं; च– भी; मत्-स्थानि – र्झु र्ें मस्र्त;भूतानि– सारी सृमष्ट; पश्य– िेखो; में– र्ेरा; योगम्
ऐश्र्वरम्– अमचन्त्य योगशमक्त; भूत-भृत–् सर्स्त जीवों का पालक; ि– नहीं; च– भी; भूत-स्थः– मवराट अमभव्यमक्त
र्ें; मम– र्ेरा; आत्मा– स्व, आत्र्; भतू -भाविः – सर्स्त अमभव्यमक्तयों का स्त्रोत ।

तथानप मेरे द्वारा उत्पन्ि सारी वस्तएु ूँ मझ


ु में नस्थत िहीं रहतीं । जरा, मेरे योग-ऐश्र्वयम को देखो! यद्यनप मैं
समस्त जीवों का पालक (भताम) हूँ और सवमत्र व्याप्त हूँ, लेनकि मैं इस नवराट अनभव्यनि का अंश िहीं हूँ, मैं
सृनष्ट का कारणस्वरूप हूँ ।

तात्पयम: भगवान् का कर्न है मक सब कुछ उन्हीं पर आमश्रत है (मत्स्थास्न सवदभतू ास्न) । इसका अन्य अर्म नहीं
लगाना चामहए । भगवान् जगत् के पालन तर्ा मनवामह के मलए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरिायी नहीं हैं । कभी-कभी हर् एटलस
(एक रोर्न िेवता) को अपने कंधों पर गोला उिाये िेखते हैं, वह अत्यन्त र्का लगता है और इस मवशाल पृथ्वीलोक
को धारण मकये रहता है । हर्ें मकसी ऐसे मचत्र को र्न र्ें नहीं लाना चामहए मजसर्ें कृ ष्ट्ण का इस सृमजत ब्रह्माण्ड को
धारण मकये हुए हों । उनका कहना है मक यद्यमप सारी वस्तुएँ उन पर मटकी हैं, मकन्तु वे पृर्क् रहते हैं । सारे लोक
अन्तररक्ष र्ें तैर रहें हैं और यह अन्तररक्ष परर्ेश्र्वर की शमक्त है । मकन्तु वे अन्तररक्ष से मभन्न हैं, वे पृर्क् मस्र्त हैं ।
अतः भगवान् कहते हैं “यद्यमप ये सब रमचत पिार्म र्ेरी अमचन्त्य शमक्त पर मटके हैं, मकन्तु भगवान् के रूप र्ें र्ैं उनसे
पृर्क् हँ ।” यह भगवान् का अमचन्त्य ऐश्र्वयम है ।
वैमिककोश स्नरुस्ि र्ें कहा गया है – युज्यतेऽनेन र्घु दटेषु ायेष–ु परर्ेश्र्वर अपनी शमक्त का प्रिशमन करते हुए
अमचन्त्य आश्चयमजनक लीलाएँ कर रहे हैं । उनका व्यमक्तत्व मवमभन्न शमक्तयों से पणू म है और उनका सक ं ल्प स्वयं एक
तथ्य है । भगवान् को इसी रूप र्ें सर्झना चामहए । हर् कोई कार् करना चाहते हैं, तो अनेक मवघ्न आते हैं और कभी-
कभी हर् जो चाहते हैं वह नहीं कर पाते । मकन्तु जब कृ ष्ट्ण कोई कायम करना चाहते हैं, तो सब कुछ इतनी पूणमता से
सम्पन्न हो जाता है मक कोई सोच नहीं पाता मक यह सब कै से कुआ । भगवान् इसी तथ्य को सर्झाते हैं – यद्यमप वे
सर्स्त सृमष्ट के पालन तर्ा धारणकताम हैं, मकन्तु वे इस सृमष्ट का स्पशम नहीं करते । के वल उनकी परर् इच्छा से प्रत्येक
वस्तु सृजन, धारण, पालन एवं संहार होता है । उनके र्न और स्वयं उनर्ें कोई भेि नहीं है जैसा हर्ारे भौमतक र्न र्ें
और स्वयं हर् र्ें भेि होता है, क्योंमक वे परर्ात्र्ा हैं । सार् ही वे प्रत्येक वस्तु र्ें उपमस्र्त हैं, मकन्तु सार्ान्य व्यमक्त यह
नहीं सर्झ पाता मक वे साकार रूप र्ें मकस तरह उपमस्र्त हैं । वे भौमतक जगत् से मभन्न हैं तो भी प्रत्येक वस्तु उन्हीं पर
आमश्रत है । यहाँ पर इसे ही योगम् ऐश्र्वरम् अर्ामत् भगवान् की योगशमक्त कहा गया है ।

यथाकाशनस्थतो नित्यं वायु: सवमत्रगो महाि् ।


तथा सवामनण भतू ानि मत्स्थािीत्यपु धारय ।। ६ ।।

२८३
यथा– मजस प्रकार; आकाश-नस्थतः– आकाश र्ें मस्र्त; नित्यम्– सिैव; वायुः- हवा; सवमत्र-गः – सभी
जगह बहने वाली; महाि– र्हान; तथा– उसी प्रकार; सवामनण भूतानि– सारे प्राणी; मत्-स्थानि– र्झु र्ें
मस्र्त; इनत– इस प्रकार; उपधारय– सर्झो ।

नजस प्रकार सवमत्र प्रवहमाि प्रबल वायु सदैव आकाश में नस्थत रहती है, उसी प्रकार समस्त उत्पन्ि
प्रानणयों को मुझमें नस्थत जािो ।

तात्पयम : सार्ान्यजन के मलए यह सर्झ पाना कमिन है मक इतनी मवशाल सृमष्ट भगवान् पर मकस प्रकार आमश्रत
है । मकन्तु भगवान् उिाहरण प्रस्तुत करते हैं मजससे हर्ें सर्झने र्ें सहायता मर्ले । आकाश हर्ारी कल्पना के मलए
सबसे र्हान अमभव्यमक्त है और उस आकाश र्ें वायु मवराट जगत् की सबसे र्हान अमभव्यमक्त है । वायु की गमत से
प्रत्येक वस्तु की गमत प्रभामवत होती है । मकन्तु वायु र्हान होते हुए भी आकाश के अन्तगमत ही मस्र्त रहती है, वह
आकाश से परे नहीं होती । इसी प्रकार सर्स्त मवमचत्र मवराट अमभव्यमक्तयों का अमस्तत्व भगवान् की परर् इच्छा के
िलस्वरूप है और वे सब इस परर्इच्छा के अधीन हैं जैसा मक हर्लोग प्रायः कहते हैं उनकी इच्छा के मबना एक पत्ता
भी नहीं महलता । इस प्रकार प्रत्येक वस्तु उनकी इच्छा के अधीन गमतशील है, उनकी ही इच्छा से सारी वस्तुएँ उत्पन्न
होती हैं, उनका पालन होता है और उनका संहार होता है । इतने पर भी वे प्रत्येक वस्तु से उसी तरह पृर्क् रहते हैं, मजस
प्रकार वायु के कायों से आकाश रहता है ।
उपमनषिों र्ें कहा गया है – यद्भीषा वातः पवते– “वायु भगवान् के भय से प्रवामहत होती है” (तैमत्तरीय उपमनषि्
२.८.१) । बृहिारण्यक उपमनषि् र्ें (३.८.१) कहा गया है – एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गास्गद सूयदचन्द्रमसौ स्वधृतौ
स्तष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गास्गद यावापृस्थव्यौ स्वधृतौ स्तष्ठतः – “भगवान् की अध्यक्षता र्ें परर्ािेश से
चन्द्रर्ा, सयू म तर्ा अन्य मवशाल लोक घर्ू रहे हैं ।” ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.५२) भी कहा गया है –
यचचक्षुरेष सस्वता स लग्रहाणाां
राजा समस्तसरु मस्ू तदरशेषतेजाः ।
यस्याज्ञया भ्रमस्त सम्भृत ालचक्रो
गोस्वन्र्मास्र् पुरुषां तमहां भजास्म ।।
यह सूयम की गमत का वणमन है । कहा गया है मक सूयम भगवान् का एक नेत्र है और इसर्ें ताप तर्ा प्रकाश िै लाने
की अपार शमक्त है । तो भी यह गोमवन्ि की परर् इच्छा और आिेश के अनुसार अपनी कक्षा र्ें घर्ू ता रहता है । अतः
हर्ें वैमिक सामहत्य से इसके प्रर्ाण प्राप्त है मक यह मवमचत्र तर्ा मवशाल लगने वाली भौमतक सृमष्ट पूरी तरह भगवान् के
वश र्ें है । इसकी व्याख्या इसी अध्याय के अगले श्लोकों र्ें की गई है ।

सवमभूतानि कौन्तेय प्रकृ नतं यानन्त मानमकाम् ।


कल्पक्षये पिु स्तानि कल्पादौ नवसृजाम्यहम् ।। ७ ।।

सवमभतू ानि– सारे प्राणी; कौन्तेय– हे कुन्तीपत्रु ; प्रकृ नतम्– प्रकृ मत र्ें; यानन्त– प्रवेश करते हैं; मानमकाम्–
र्ेरी; कल्प-क्षये – कल्पान्त र्ें; पुिः– मिर से; तानि– उन सबों को; कल्प-आदौ– कल्प के प्रारम्भ र्ें; नवसृजानम–
उत्पन्न करता ह;ँ अहम्– र्ैं ।

२८४
हे कुन्तीपुत्र! कल्प का अन्त होिे पर सारे प्राणी मेरी प्रकृ नत में प्रवेश करते हैं और अन्य कल्प के
आरम्भ होिे पर मैं उन्हें अपिी शनि से पुिः उत्पन्ि करता हूँ ।

तात्पयम : इस मवराट भौमतक अमभव्यमक्त का सृजन, पालन तर्ा संहार पूणमतया भगवान् की परर् इच्छा पर मनभमर
है । ल्पक्षये का अर्म है, ब्रह्मा की र्ृत्यु होने पर । ब्रह्मा एक सौ वषम जीमवत रहते हैं और उनका एक मिन हर्ारे
४,३०,००,००,००० वषों के तल्ु य है । रामत्र भी इतने ही वषों की होती है । ब्रह्मा के एक र्हीने र्ें ऐसे तीस मिन तर्ा
तीस रातें होती हैं और उनके एक वषम र्ें ऐसे बारह र्हीने होते हैं । ऐसे एक सौ वषों के बाि जब ब्रह्मा की र्ृत्यु होती है,
तो प्रलय हो जाता है, मजसका अर्म है मक भगवान् द्वारा प्रकट शमक्त पुनः मसर्ट कर उन्हीं र्ें चली जाती है । पनु ः जब
मवराटजगत को प्रकट करने की आवश्यकता होती है तो उनकी इच्छा से सृमष्ट उत्पन्न होती है । ए ोऽहां बहु स्याम्–
यद्यमप र्ैं अके ला ह,ँ मकन्तु र्ैं अनेक हो जाउँगा । यह वैमिक सूमक्त है (छान्र्ोर्गय उपस्नषर्् ६.२.३)। वे इस भौमतक शमक्त
र्ें अपना मवस्तार करते हैं और सारी मवराट अमभव्यमक्त पुनः घमटत हो जाती है ।

प्रकृ नतं स्वामवष्टभ्य नवसृजानम पुिः पुिः ।


भूतग्रामनममं कृ त्स्िमवशं प्रकृ तेवमशात् ।। ८ ।।

प्रकृ नतम्– प्रकृ मत र्ें; स्वाम्– र्ेरी मनजी; अवष्टभ्य– प्रवेश करके ; नवसृजानम– उत्पन्न करता ह;ँ पुिः पुिः –
बारम्बार; भूत-ग्रामम्– सर्स्त मवराट अमभव्यमक्त को; इमम्– इस; कृ त्स्िम्– पूणमतः; अवशम्– स्वतः; प्रकृ तेः–
प्रकृ मत की शमक्त के ; वशात्– वश र्ें ।

सम्पूणम नवराट जगत मेरे अधीि है । यह मेरी इच्छा से बारम्बार स्वतः प्रकट होता रहता है और मेरी ही
इच्छा से अन्त में नविष्ट होता है ।

तात्पयम : यह भौमतक जगत् भगवान् की अपराशमक्त की अमभव्यमक्त है । इसकी व्याख्या कई बार की जा चक ु ी


है । सृमष्ट के सर्य यह शमक्त र्हत्तत्त्व के रूप र्ें प्रकट होती है मजसर्ें भगवान् अपने प्रर्र् पुरुष अवतार, र्हामवष्ट्ण,ु के
रूप र्ें प्रवेश कर जाते हैं । वे कारणाणमव र्ें शयन करते रहते हैं और अपने श्र्वास से असंख्य ब्रह्माण्ड मनकालते हैं और
इस ब्रह्माण्डों र्ें से हर एक र्ें वे गभोिकशायी मवष्ट्णु के रूप र्ें प्रवेश करते हैं । इस प्रकार प्रत्येक ब्रह्माण्ड की सृमष्ट होती
है । वे इससे भी आगे अपने आपको क्षीरोिकशायी मवष्ट्णु के रूप र्ें प्रकट करते हैं और मवष्ट्णु प्रत्येक वस्तु र्ें, यहाँ तक
मक प्रत्येक अणु र्ें प्रवेश कर जाते है । इसी तथ्य की व्याख्या यहाँ हुई है । भगवान् प्रत्येक वस्तु र्ें प्रवेश करते हैं ।
जहाँ तक जीवात्र्ाओ ं का सम्बन्ध है, वे इस भौमतक प्रकृ मत के गभमस्र् मकये जाते हैं और वे अपने-अपने
पवू मकर्ों के अनसु ार मवमभन्न योमनयाँ ग्रहण करते हैं । इस प्रकार इस भौमतक जगत् के कायमकलाप प्रारम्भ होते हैं ।
मवमभन्न जीव-योमनयों के कायमकलाप सृमष्ट के सर्य से ही प्रारम्भ हो जाते हैं । ऐसा नहीं है मक ये योमनयाँ क्रर्शः
मवकमसत होती हैं । सारी की सारी योमनयाँ ब्रह्माण्ड की सृमष्ट के सार् ही उत्पन्न होती हैं । र्नष्ट्ु य, पश,ु पक्षी – ये सभी
एकसार् उत्पन्न होते हैं, क्योंमक पूवम प्रलय के सर्य जीवों की जो-जो इच्छाएँ र्ीं वे पुनः प्रकट होती हैं । इसका स्पष्ट
सक ं े त अवशम् शब्ि से मर्लता है मक जीवों को इस प्रमक्रया से कोई सरोकार नहीं रहता । पूवम सृमष्ट र्ें वे मजस-मजस

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अवस्र्ा र्ें र्े, वे उस-उस अवस्र्ा र्ें पुनः प्रकट हो जाते हैं और यह सब भगवान् की इच्छा से ही सम्पन्न होता है ।
यही भगवान् की अमचन्त्य शमक्त है । मवमभन्न योमनयों को उत्पन्न करने के बाि भगवान् का उनसे कोई नाता नहीं रह
जाता । यह सृमष्ट मवमभन्न जीवों की रुमचयों को पूरा करने के उद्देश्य से की जाती है । अतः भगवान् इसर्ें मकसी तरह से
बद्ध नहीं होते हैं ।

ि च मां तानि कमामनण निब्ध्िनन्त धिञ्जय ।


उदासीिवदासीिमससिं तेषु कममसु ।। ९ ।।

ि– कभी नहीं; च– भी; माम्– र्झु को;तानि– वे;कमामनण– कर्म; निबध्िनन्त– बाँधते हैं; धिञ्जय– हे धन के
मवजेता; उदासीि-वत्– मनरपेक्ष या तटस्र् की तरह; आसीिम्– मस्र्त हुआ; असिम्– आसमक्तरमहत; तेषु– उन;
कममसु– कायों र्ें ।

हे धिञ्जय! ये सारे कमम मुझे िहीं बाूँध पाते हैं । मैं उदासीि की भाूँनत इि सारे भौनतक कमों से सदैव
नवरि रहता हूँ ।

तात्पयम : इस प्रसंग र्ें यह नहीं सोच लेना चामहए मक भगवान् के पास कोई कार् नहीं है । वे अपनेवैकुण्िलोक
र्ें सिैव व्यस्त रहते हैं । ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.६) कहा गया है – आत्मारामस्य तस्यास्स्त प्र ृ त्या न समागमः– वे सतत
मिव्य आनन्िर्य आध्यामत्र्क कायों र्ें रत रहते हैं, मकन्तु इन भौमतक कायों से उनका कोई सरोकार नहीं रहता । सारे
भौमतक कायम उनकी मवमभन्न शमक्तयों द्वारा सम्पन्न होते रहते हैं । वे सिा ही इस सृमष्ट के भौमतक कायों के प्रमत उिासीन
रहते हैं । इस उिासीनता को ही यहाँ पर उर्ासीनवत् कहा गया है । यद्यमप छोटे से छोटे भौमतक कायम पर उनका
मनयन्त्रण रहता है, मकन्तु वे उिासीनवत् मस्र्त रहते हैं । यहाँ पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का उिाहरण मिया जा
सकता है, जो अपने आसन पर बैिा रहता है । उसके आिेश से अनेक तरह की बातें घटती रहती हैं – मकसी को िाँसी
िी जाती है, मकसी को कारावास की सजा मर्लती है, तो मकसी को प्रचरु धनराशी मर्लती है, तो भी वह उिासीन रहता
है । उसे इस हामन-लाभ से कुछ भी लेना-िेना नहीं रहता । वेर्ान्तसूत्र र्ें (२.१.३४) यह कहा गया है – वैषम्यनैघदण्ृ ये न–
वे इस जगत् के द्वन्द्वों र्ें मस्र्त नहीं है । वे इन द्वन्द्वों से अतीत हैं । न ही इस जगत् की सृमष्ट तर्ा प्रलय र्ें ही उनकी
आसमक्त रहती है । सारे जीव अपने पूवमकर्ों के अनुसार मवमभन्न योमनयाँ ग्रहण करते रहते हैं और भगवान् इसर्ें कोई
व्यवधान नहीं डालते ।

मयाध्यक्षेण प्रकृ नतः सूयते सचराचरम् ।


हेतुिािेि कौन्तेय जगनद्वपररवतमते ।। १० ।।

मया– र्ेरे द्वारा; अध्यक्षेण– अध्यक्षता के कारण; प्रकृ नतः– प्रकृ मत; सूयते– प्रकट होती है; स– समहत; चर-
अचरम्– जड़ तर्ा जगं र्; हेतिु ा– कारण से; अिेि– इस; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; जगत्– दृश्य जगत; नवपररवतमते–
मक्रयाशील है ।

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हे कुन्तीपुत्र! यह भौनतक प्रकृ नत मेरी शनियों में से एक है और मेरी अध्यक्षता में कायम करती है,
नजससे सारे चर तथा अचर प्राणी उत्पन्ि होते हैं । इसके शासि में यह जगत् बारम्बार सृनजत और नविष्ट
होता रहता है ।

तात्पयम : यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है मक यद्यमप परर्ेश्र्वर इस जगत् के सर्स्त कायों से पृर्क् रहते हैं, मकन्तु
इसके परर् अध्यक्ष (मनिेशक) वही बने रहते हैं । परर्ेश्र्वर परर् इच्छार्य हैं और इस भौमतक जगत् के
आधारभमू र्स्वरूप हैं, मकन्तु इसकी सभी व्यवस्र्ा प्रकृ मत द्वारा की जाती है । भगवद्गीता र्ें भी कृ ष्ट्ण यह कहते हैं – “र्ैं
मवमभन्न योमनयों और रूपों वाले जीवों का मपता हँ ।” मजस प्रकार मपता बालक उत्पन्न करने के मलए र्ाता के गभम र्ें
वीयम स्र्ामपत करता है, उसी प्रकार परर्ेश्र्वर अपनी मचतवन र्ात्र से प्रकमत के गभम र्ें जीवों को प्रमवष्ट करते हैं और वे
अपनी अमन्तर् इच्छाओ ं तर्ा कर्ों के अनुसार मवमभन्न रूपों तर्ा योमनयों र्ें प्रकट होते हैं । अतः भगवान् इस जगत् से
प्रत्यक्ष रूप र्ें आसक्त नहीं होते । वे प्रकृ मत पर दृमष्टपात करते हैं, इस तरह प्रकृ मत मक्रयाशील हो उिती है और तुरन्त ही
सारी वस्तुएँ उत्पन्न हो जाती हैं । चँमू क वे प्रकृ मत पर दृमष्टपात करते हैं, इसमलए परर्ेश्र्वर की ओर से तो मनःसन्िेह मक्रया
होती है, मकन्तु भौमतक जगत् के प्राकट् य से उन्हें कुछ लेना-िेना नहीं रहता । स्र्ृमत र्ें एक उिाहरण मर्ला है जो इस
प्रकार है – जब मकसी व्यमक्त के सर्क्ष िूल होता है तो उसे उसकी सुगमन्ध मर्लती रहती है, मकन्तु िूल और सुगमन्ध
एक िसू रे से मवलग रहते हैं । ऐसा ही सम्बन्ध भौमतक जगत् तर्ा भगवान् के बीच भी है । वस्तुतः भगवान् को इस
जगत् से कोई प्रयोजन नहीं रहता, मकन्तु वे ही इसे अपनी दृमष्टपात से उत्पन्न करते तर्ा व्यवमस्र्त करते हैं । सारांश के
रूप र्ें हर् कह सकते हैं मक परर्ेश्र्वर की अध्यक्षता के मबना प्रकृ मत कुछ भी नहीं कर सकती । तो भी भगवान् सर्स्त
कायों से पृर्क् रहते हैं ।

अवजािनन्त मां मढू ा मािषु ीं तिमु ानश्रतम् ।


परं भावमजािन्तो मम भूतमहेश्र्वरम् ।। ११ ।।

अवजािनन्त– उपहास करते हैं; माम्– र्झु को; मूढाः– र्ख


ु म व्यमक्त; मािुषीम्– र्नुष्ट्य रूप र्ें; तिुम–्
शरीर; आनश्रतम्– र्ानते हुए; परम्– मिव्य; भावम्– स्वभाव को; अजािन्तः– न जानते हुए; मम– र्ेरा; भूत–
प्रत्येक वस्तु का; महा-ईश्र्वरम्– परर् स्वार्ी ।

जब मैं मिुष्ट्य रूप में अवतररत होता हूँ, तो मूखम मेरा उपहास करते हैं । वे मुझ परमेश्र्वर के नदव्य
स्वभाव को िहीं जािते ।

तात्पयम : इस अध्याय के पूवमवती श्लोकों से यह स्पष्ट है मक यद्यमप भगवान् र्नुष्ट्य रूप र्ें प्रकट होते हैं, मकन्तु वे
सार्ान्य व्यमक्त नहीं होते । जो भगवान् सारे मवराट जगत का सृजन, पालन तर्ा सहं ार करता हो वह र्नष्ट्ु य नहीं हो
सकता । तो भी अनेक र्ख ु म हैं, जो कृ ष्ट्ण को शमक्तशाली पुरुष के अमतररक्त और कुछ नहीं र्ानते । वस्तुतः वे आमि
परर्परुु ष हैं, जैसा मक ब्रह्मसस्ां हता र्ें प्रर्ाण स्वरूप कहा गया है – ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः– वे परर् ईश्र्वर हैं ।
ईश्र्वर या मनयन्ता अनेक हैं और वे एक ििसू रे से बढ़कर प्रतीत होते हैं । भौमतक जगत् र्ें सार्ान्य प्रबन्धकायों
का कोई न कोई मनिेशक होता है, मजसके ऊपर एक समचव होता है, मिर उसके ऊपर र्न्त्री तर्ा अन्य उससे भी ऊपर

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राष्ट्रपमत होता है । इनर्ें से हर एक मनयन्त्रक होता है, मकन्तु एक िसू रे के द्वारा मनयमन्त्रत होता है । ब्रह्मसांस्हता र्ें कहा
गया है मक कृ ष्ट्ण परर् मनयन्ता हैं । मनस्सन्िेह भौमतक जगत् तर्ा वैकुण्िलोक िोनों र्ें ही कई-कई मनिेशक होते हैं,
मकन्तु कृ ष्ट्ण परर् मनयन्ता हैं (ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः) तर्ा उनका शरीर समच्चिानन्ि रूप अर्ामत् अभौमतक होता है ।
मपछले श्लोकों र्ें मजन अद्भुत कायमकलापों का वणमन हुआ है, वे भौमतक शरीर द्वारा सम्पन्न नहीं हो सकते ।
कृ ष्ट्ण का शरीर समच्चिानन्ि रूप है । यद्यमप वे सार्ान्य व्यमक्त नहीं हैं, मकन्तु र्ुखम लोग उनका उपहास करते हैं और
उन्हें र्नुष्ट्य र्ानते हैं । उनका शरीर यहाँ मानुषीम् कहा गया है, क्योंमक वे कुरुक्षेत्र युद्ध र्ें एक राजनीमतज्ञ और अजुमन के
मर्त्र की भाँमत सार्ान्य व्यमक्त बनकर कर्म करते हैं । वे अनेक प्रकार से सार्ान्य परुु ष की भाँमत कर्म करते हैं, मकन्तु
उनका शरीर समच्चिानन्ि मवग्रह रूप है । इसकी पुमष्ट वैमिक सामहत्य र्ें भी हुई है । सस्चचर्ानन्र् रूपाय ृ ष्णाय– र्ैं
भगवान् कृ ष्ट्ण को नर्स्कार करता हँ जो समच्चिान्नि रूप हैं (गोपाल तापनी उपस्नषर्् १.१) । वेिों र्ें ऐसे अन्य वणमन
भी हैं । तमे ां गोस्वन्र्म्– आप इमन्द्रयों तर्ा गायों के आनन्िस्वरूप गोमवन्ि हैं । सस्चचर्ान्नर्स्वग्रहम्– तर्ा आपका
रूप समच्चिान्नि स्वरूप है (गोपाल तापनी उपस्नषर्् १.३५) ।
भगवान् कृ ष्ट्ण के समच्चिानन्िस्वरूप होने पर भी ऐसे अनेक तर्ाकमर्त मवद्वान तर्ा भगवद्गीता के टीकाकार हैं
जो कृ ष्ट्ण को सार्ान्य पुरुष कहकर उनका उपहास करते हैं । भले ही अपने पूवम पुण्यों के कारण मवद्वान असाधारण
व्यमक्त के रूप र्ें पैिा हुआ हो, मकन्तु श्रीकृ ष्ट्ण के बारे र्ें ऐसी धारणा उसकी अल्पज्ञता के कारण होती है । इसीमलए वह
र्ढू कहलाता है, क्योंमक र्ख ु म पुरुष ही कृ ष्ट्ण को सार्ान्य पुरुष र्ानते हैं । ऐसे र्ख ु म पुरुष कृ ष्ट्ण को सार्ान्य पुरुष
इसीमलए र्ानते हैं, क्योंमक वे कृ ष्ट्ण के गुह्य कायों तर्ा उनकी मवमभन्न शमक्तयों से अपररमचत होते हैं । वे यह नहीं जानते
मक कृ ष्ट्ण का शरीर पूणमज्ञान तर्ा आनन्ि का प्रमतक है, वे प्रत्येक वस्तु के स्वार्ी हैं और मकसी को भी र्मु क्त प्रिान
करने वाले हैं । चँमू क वे कृ ष्ट्ण के इतने सारे मिव्य गुणों को नहीं जानते, इसीमलए उनका उपहास करते हैं ।
ये र्ढू यह भी नहीं जानते मक इस जगत् र्ें भगवान् का अवतरण उनकी अन्तरंगा शमक्त का प्राकट् य है । वे
भौमतक शमक्त (र्ाया) के स्वार्ी हैं । जैसा मक अनेक स्र्लों पर कहा जा चक ु ा है (मम माया र्रु त्यया), भगवान् का
िावा है मक यद्यमप भौमतक शमक्त अत्यन्त प्रबल है, मकन्तु वह उनके वश र्ें रहती है और जो भी उनकी शरण ग्रहण कर
लेता है, वह इस र्ाया के वश से बाहर मनकल आता है । यमि कृ ष्ट्ण का शरणागत जीव र्ाया के प्रभाव से बाहर मनकल
सकता है, तो भला परर्ेश्र्वर जो सम्पूणम मवराट जगत् का सृजन, पालन तर्ा संहारकताम है, हर् लोगों जैसा शरीर कै से
धारण कर सकता है? अतः कृ ष्ट्ण मवषयक ऐसी धारणा र्ख ू मतापूणम है । मिर भी र्ख ु म व्यमक्त यह नहीं सर्झ सकते मक
सार्ान्य व्यमक्त के रूप र्ें प्रकट होने वाले भगवान् सर्स्त परर्ाणओ ु ं तर्ा इस मवराट ब्रह्माण्ड के मनयन्ता मकस तरह हो
सकते हैं । बृहत्तर् तर्ा सूक्ष्र्तर् तो उनकी मवचार शमक्त से परे होते हैं, अतः वे यह सोच भी नहीं सकते मक र्नुष्ट्य-जैसा
रूप कै से एक सार् मवशाल को तर्ा अणु को वश र्ें कर सकता है । यद्यमप कृ ष्ट्ण असीर् तर्ा ससीर् को मनयमन्त्रत
करते हैं, मकन्तु वे इस जगत् से मवलग रहते हैं । उनके योगमैश्र्वरम् या अमचन्त्य मिव्य शमक्त के मवषय र्ें कहा गया है मक
वे एकसार् ससीर् तर्ा असीर् को वश र्ें रख सकते हैं, मकन्तु जो शद्ध ु भक्त हैं वे इसे स्वीकार करते हैं, क्योंमक उन्हें
पता है मक कृ ष्ट्ण भगवान् हैं । अतः वे पूणमतया उनकी शरण र्ें जाते हैं और कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर कृ ष्ट्ण की भमक्त र्ें
अपने को रत रखते हैं ।
सगुणवामियों तर्ा मनगुमणवामियों र्ें भगवान् के र्नुष्ट्य रूप र्ें प्रकट होने को लेकर कािी र्तभेि है । मकन्तु यमि
हर् भगवद्गीता तर्ा श्रीमद्भागवत जैसे प्रार्ामणक ग्रर्ं ों का अनश ु ीलन कृ ष्ट्णतत्त्व सर्झने के मलए करें तो हर् सर्झ
सकते हैं मक कृ ष्ट्ण श्रीभगवान् हैं । यद्यमप वे इस धराधार् र्ें सार्ान्य व्यमक्त की भाँमत प्रकट हुए र्े, मकन्तु वे सार्ान्य

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व्यमक्त हैं नहीं । श्रीमद्भागवत र्ें (१.१.२०) जब शौनक आमि र्ुमनयों ने सूत गोस्वार्ी से कृ ष्ट्ण के कायमकलापों के मवषय
र्ें पूछा तो उन्होंने कहा –
ृ तवान् स् ल मादस्ण सह रामेण े शवः ।
अस्तमत्यादस्न भगवान् गूढः पटमानुषः ।।
“भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण ने बलरार् के सार्-सार् र्नुष्ट्य की भाँमत क्रीड़ा की और इस तरह प्रच्छन्न रूप र्ें उन्होंने
अनेक अमतर्ानवीय कायम मकये ।” र्नुष्ट्य के रूप र्ें भगवान् का प्राकट् य र्ख ु म को र्ोमहत बना िेता है । कोई भी र्नुष्ट्य
उन अलौमकक कायों को सम्पन्न नहीं कर सकता मजन्हें उन्होंने इस धरा पर करके मिखा मिया र्ा । जब कृ ष्ट्ण अपने
मपता तर्ा र्ाता (वासुिेव तर्ा िेवकी) के सर्क्ष प्रकट हुए तो वे चार भजु ाओ ं से युक्त र्े । मकन्तु र्ाता-मपता की प्रार्मना
पर उन्होंने एक सार्ान्य मशशु का रूप धारण कर मलया – बभवू प्रा ृ तः स्शशःु (भागवत १०.३.४६) । वे एक सार्ान्य
मशश,ु एक सार्ान्य र्ानव बन गये । यहाँ पर भी यह इमं गत होता है मक सार्ान्य व्यमक्त के रूप र्ें प्रकट होना उनके मिव्य
शरीर का एक गुण है । भगवद्गीता के ग्याहरवें अध्याय र्ें भी कहा गया है मक अजुमन ने कृ ष्ट्ण से अपना चतुभमजु रूप
मिखलाने के मलए प्रार्मना की (तैनेव रूपेण चतुभदजु ेन) । इस रूप को प्रकट करने के बाि अजुमन के प्रार्मना करने पर
उन्होंने पूवम र्नुष्ट्य रूप धारण कर मलया (मानुषां रूपम्) । भगवान् के ये मवमभन्न गणु मनश्चय ही सार्ान्य र्नुष्ट्य जैसे नहीं
हैं ।
कमतपय लोग, जो कृ ष्ट्ण का उपहास करते हैं और र्ायावािी िशमन से प्रभामवत होते हैं, श्रीमद्भागवत के
मनम्नमलमखत श्लोक (३.२१-२९) को यह मसद्ध करने के मलए उद्धतृ करते हैं मक कृ ष्ट्ण एक सार्ान्य व्यमक्त र्े । अहां
सवेषु भतू ेषु भतू ात्मावस्स्थतः सर्ा– परर्ेश्र्वर सर्स्त जीवों र्ें मवद्यर्ान हैं । अच्छा हो मक इस श्लोक को हर् जीव
गोस्वार्ी तर्ा मवश्र्वनार् चक्रवती िाकुर जैसे वैष्ट्णव आचायों से ग्रहण करें , न की कृ ष्ट्ण का उपहास करने वाले
अनमधकारी व्यमक्तयों की व्याख्याओ ं से । जीव गोस्वार्ी इस श्लोक की टीका करते हुए कहते हैं मक कृ ष्ट्ण सर्स्त
चराचारों र्ें अपने अश ं मवस्तार परर्ात्र्ा के रूप र्ें मस्र्त हैं । अतः कोई भी नविीमक्षत भक्त जो र्मन्िर र्ें भगवान् की
अचामर्मू तम पर ही ध्यान िेता है और अन्य जीवों का सम्र्ान नहीं करता वह वृर्ा ही र्मन्िर र्ें भगवान् की पूजा र्ें लगा
रहता है । भगवद्भक्तों के तीन प्रकार हैं, मजनर्ें से नविीमक्षत सबसे मनम्न श्रेणी के हैं । नविीमक्षत भक्त अन्य भक्तों की
अपेक्षा र्मन्िर के अचममवग्रह पर अमधक ध्यान िेते हैं, अतः मवश्र्वनार् चक्रवती िाकुर चेतावनी िेते हैं मक इस प्रकार
की र्ानमसकता को सुधारना चामहए । भक्त को सर्झना चामहए मक चँमू क कृ ष्ट्ण परर्ात्र्ा रूप र्ें प्रत्येक जीव के हृिय र्ें
मवद्यर्ान हैं, अतः प्रत्येक व्यमक्त परर्ेश्र्वर का मनवास या र्मन्िर है, इसीमलए मजस तरह कोई भक्त भगवान् के र्मन्िर का
सम्र्ान करता है, वैसे ही उसे प्रत्येक व्यमक्त का सर्मु चत सम्र्ान करना चामहए, मजसर्ें परर्ात्र्ा मनवास करता है ।
अतः प्रत्येक व्यमक्त का सर्मु चत सम्र्ान करना चामहए,कभी उपेक्षा नहीं करनी चामहए ।
ऐसे अनेक मनमवमशेषवािी हैं जो र्मन्िरपूजा का उपहास करते हैं । वे कहते हैं मक चँमू क भगवान् सवमत्र हैं तो मिर
अपने को हर् र्मन्िरपूजा तक ही सीमर्त क्यों रखें? यमि ईश्र्वर सवमत्र हैं तो क्या वे र्मन्िर या अचममवग्रह र्ें नहीं होंगे?
यद्यमप सगुणवािी तर्ा मनमवमशेषवािी मनरन्तर लड़ते रहेंगे, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पूणम भक्त यह जानता है मक यद्यमप
कृ ष्ट्ण भगवान् हैं, मकन्तु इसके सार् वे सवमव्यापी भी हैं, मजसकी पुमष्ट ब्रह्मसस्ां हता र्ें हुई है । यद्यमप उनका मनजी धार्
गोलोक वृन्िावन है और वे वही ँ मनरन्तर वास करते हैं , मकन्तु वे अपनी शमक्त की मवमभन्न अमभव्यमक्तयों द्वारा तर्ा
अपने स्वाश ं द्वारा भौमतक तर्ा आध्यामत्र्क जगत् र्ें सवमत्र मवद्यर्ान रहते हैं ।

मोघाशा मोघकमामणो मोघज्ञािा नवचेतसः ।

२८९
राक्षसीमासरु ीं चैव प्रकृ नतं मोनहिीं नश्रताः ।। १२ ।।

मोघ-आशाः – मनष्ट्िल आशा; मोघ-कमामणः– मनष्ट्िल सकार् कर्म; मोघ-ज्ञािाः– मविल


ज्ञान; नवचेतसः– र्ोहग्रस्त; राक्षसीम्– राक्षसी; आसुरीम्– आसुरी; च– तर्ा; एव– मनश्चय ही; प्रकृ नतम्– स्वभाव
को; मोनहिीम्– र्ोहने वाली; नश्रताः– शरण ग्रहण मकये हुए ।

जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसरु ी तथा िानस्तक नवचारों के प्रनत आकृ ष्ट रहते हैं । इस
मोहग्रस्त अवस्था में उिकी मुनि-आशा, उिके सकाम कमम तथा ज्ञाि का अिुशीलि सभी निष्ट्िल हो जाते
हैं ।

तात्पयम : ऐसे अनेक भक्त हैं जो अपने को कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त र्ें रत मिखलाते हैं, मकन्तु अन्तःकरण से
वे भगवान् कृ ष्ट्ण को परब्रह्म नहीं र्ानते । ऐसे लोगों को कभी भी भमक्त-िल—भगवद्धार् गर्न-प्राप्त नहीं होता । इसी
प्रकार जो पुण्यकर्ों र्ें लगे रहकर अन्ततोगत्वा इस भवबन्धन से र्क्त ु होना चाहते हैं, वे भी सिल नहीं हो पाते,
क्योंमक वे कृ ष्ट्ण का उपहास करते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, जो लोग कृ ष्ट्ण पर हँसते हैं, उन्हें आसुरी या नामस्तक सर्झना
चामहए । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया जा चक ु ा है, ऐसे आसुरी िष्टु कभी भी कृ ष्ट्ण की शरण र्ें नहीं जाते । अतः
परर्सत्य तक पहुचँ ने के उनके र्ानमसक मचन्तन उन्हें इस मर्थ्या पररणार् को प्राप्त कराते हैं मक सार्ान्य जीव तर्ा
कृ ष्ट्ण एक सर्ान हैं । ऐसी मर्थ्या धारणा के कारण वे सोचते हैं मक अभी तो वह शरीर प्रकृ मत द्वारा के वल आच्छामित
है और जयोंही व्यमक्त र्क्त ु होगा, तो उसर्ें तर्ा ईश्र्वर र्ें कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । कृ ष्ट्ण से सर्ता का यह प्रयास
भ्रर् के कारण मनष्ट्िल हो जाता है । इस प्रकार का आसुरी तर्ा नामस्तक ज्ञान-अनुशीलन सिैव व्यर्म रहता है, यही इस
श्लोक का सक ं े त है । ऐसे व्यमक्तयों के मलए वेिान्त सत्रू तर्ा उपमनषिों जैसे वैमिक वाङ्मय के ज्ञान का अनुशीलन सिा
मनष्ट्िल होता है ।
अतः भगवान् कृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्त र्ानना घोर अपराध है । जो ऐसा करते हैं वे मनमश्चत रूप से र्ोहग्रस्त
रहते हैं, क्योंमक वे कृ ष्ट्ण के शाश्र्वत रूप को नहीं सर्झ पाते । बृहस्िष्णस्ु मृस्त का कर्न है –
यो वेस्त भौस्त ां र्ेहां ृ ष्णस्य परमात्मनः ।
स सवदस्मार्् बस्हष् ायदः श्रौतस्मातदस्वधानतः ।
मख
ु ां तस्यावलोक्तयास्प सचेलां स्नानमाचरे त् ।।
“जो कृ ष्ट्ण के शरीर को भौमतक र्ानता है उसे श्रमु त तर्ा स्र्ृमत के सर्स्त अनुिानों से वंमचत कर िेना चामहए ।
यमि कोई भल ू से उसका र्ँहु िेख ले तो उसे तुरन्त गंगा स्नान करना चामहए , मजसे छूत िरू हो सके ।” लोग कृ ष्ट्ण की
हँसी उड़ाते हैं क्योंमक वे भगवान् से ईष्ट्याम करते हैं । उनके भाग्य र्ें जन्र्-जन्र्ान्तर नामस्तक तर्ा असुर योमनयों र्ें रहे
आना मलखा है । उनका वास्तमवक ज्ञान सिैव के मलए भ्रर् र्ें रहेगा और धीरे -धीरे वे सृमष्ट के गहनतर् अन्धकार र्ें
मगरते जायेंगे ।”

महात्मािस्तु मां पाथम दैवीं प्रकृ नतमानश्रताः ।


भजन्त्यिन्यमिसो ज्ञात्वा भूतानदमव्ययम् ।। १३ ।।

२९०
महा-आत्मिः– र्हापुरुष; तु– लेमकन; माम्– र्झु को; पाथम– हे पृर्ापुत्र; दैवीम्– िैवी; प्रकृ नतम्– प्रकृ मत
के ; आनश्रताः– शरणागत; भजनन्त– सेवा करते हैं; अिन्य-मिसः– अमवचमलत र्न से; ज्ञात्वा– जानकर; भूत–
सृमष्ट का; आनदम्– उद्गर्; अव्ययम्– अमवनाशी ।

हे पाथम! मोहमुि महात्माजि दैवी प्रकृ नत के संरक्षण में रहते हैं । वे पूणमतः भनि में निमग्ि रहते हैं
क्योंनक वे मुझे आनद तथा अनविाशी भगवाि् के रूप में जािते हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें महात्मा का वणमन हुआ है । र्हात्र्ा का सबसे पहला लक्षण यह है मक वह िैवी प्रकृ मत
र्ें मस्र्त रहता है । वह भौमतक प्रकृ मत के अधीन नहीं होता और यह होता कै से है? इसकी व्याख्या सातवें अध्याय र्ें
की गई है – जो भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करता है वह तुरन्त भौमतक प्रकृ मत के वश से र्क्त ु हो जाता है । यही
वह पात्रता है । जयोंही कोई भगवान् का शरणागत हो जाता है वह भौमतक प्रकृ मत के वश से र्क्त ु हो जाता है । यही
र्ल ू भतू सूत्र है । तटस्र्ा शमक्त होने के कारण जीव जयोंही भौमतक प्रकृ मत के वश से र्क्त ु होता है त्योंही वह
आध्यामत्र्क प्रकृ मत के मनिेशन र्ें चला जाता है । आध्यामत्र्क प्रकृ मत का मनिेशन ही िैवी प्रकृ मत कहलाती है । इस
प्रकार से जब कोई भगवान् के शरणागत होता है तो उसे महात्मा पि की प्रामप्त होती है ।
र्हात्र्ा अपने ध्यान को कृ ष्ट्ण के अमतररक्त अन्य मकसी ओर नहीं ले जाता, क्योंमक वह भलीभाँमत जानता है
मक कृ ष्ट्ण ही आमि परर् पुरुष, सर्स्त कारणों के कारण हैं । इसर्ें तमनक भी सन्िेह नहीं है । ऐसा र्हात्र्ा अन्य
र्हात्र्ाओ ं या शुद्धभक्तों की संगमत से प्रगमत करता है । शद्धु भक्त तो कृ ष्ट्ण के अन्य स्वरूपों, यर्ा चतुभमजु र्हामवष्ट्णु
रूप से भी आकृ ष्ट नहीं होते । वे न तो कृ ष्ट्ण के अन्य मकसी रूप से आकृ ष्ट होते हैं, न ही वे िेवताओ ं या र्नुष्ट्यों के
मकसी रूप की परवाह करते हैं । वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें के वल कृ ष्ट्ण का ध्यान करते हैं । वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनरन्तर
भगवान् की अमवचल सेवा र्ें लगे रहते हैं ।

सततं कीतमयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः ।


िमस्यन्तश्र्च मां भिया नित्ययुिा उपासते ।। १४ ।।

सततम्– मनरन्तर; कीतमयन्तः– कीतमन करते हुए; माम्– र्ेरे मवषयर्ें; यतन्तः– प्रयास करते हुए; च– भी; दृढ-
व्रताः– सक
ं ल्पपूवमक; िमस्यन्तः–नर्स्कार करते हुए; च– तर्ा; माम्– र्झु को; भक्त्या– भमक्त र्ें; नित्य-युिाः–
सिैव रत रहकर; उपासते– पूजा करते हैं ।

ये महात्मा मेरी मनहमा का नित्य कीतमि करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे िमस्कार
करते हुए, भनिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं।

तात्पयम : सार्ान्य पुरुष को रबर की र्हु र लगाकर र्हात्र्ा नहीं बनायाजाता । यहाँ पर उसके लक्षणों का वणमन
मकया गया है – र्हात्र्ा सिैव भगवान् कृ ष्ट्ण के गणु ों का कीतमन करता रहता है, उसके पास कोई िसू रा कायम नहीं रहता ।
वह सिैवकृ ष्ट्ण के गुण-गान र्ें व्यस्त रहता है । िसू रे शब्िों र्ें, वह मनमवमशेषवािी नहींहोता । जब गुण-गान का प्रश्न उिे
तो र्नुष्ट्य को चामहए मक वह भगवान् के पमवत्र नार्,उनके मनत्य रूप, उनके मिव्य गुणों तर्ा आसार्ान्य लीलाओ ं की

२९१
प्रशसं ा करते हुएपरर्ेश्र्वर को र्महर्ामन्वत करे । उसे इन सारी वस्तुओ ं को र्महर्ामन्वत करना होता है,अतः र्हात्र्ा
भगवान् के प्रमत आसक्त रहता है ।
जो व्यमक्त परर्ेश्र्वर के मनराकार रूप, ब्रह्मज्योस्त, के प्रमत आसक्तहोता है उसे भगवद्गीता र्ें र्हात्र्ा नहीं कहा
गया । उसे अगले श्लोक र्ें अन्य प्रकारसे वमणमत मकया गया है । र्हात्र्ा सिैव भमक्त के मवमवध कायों र्ें, यर्ा मवष्ट्णु
के श्रवण-कीतमन र्ें, व्यस्त रहता है, जैसा मक श्रीमद्भागवत र्ें उल्लेख है । यहीभमक्त श्रवणां ीतदनां
स्वष्णोः तर्ा स्मरणां है । ऐसा र्हात्र्ा अन्ततः भगवान् के पाँचमिव्य रसों र्ें से मकसी एक रस र्ें उनका सामन्नध्य प्राप्त
करने के मलए दृढव्रतहोता है । इसे प्राप्त करने के मलए वह मनसा वाचा मदणा अपने सारे कायमकलापभगवान् कृ ष्ट्ण की
सेवा र्ें लगाता है । यही पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत कहलाता है ।
भमक्त र्ें कुछ कायम हैं मजन्हें दृढव्रत कहा जाता है, यर्ा प्रत्येकएकािशी को तर्ा भगवान् के आमवभामव मिवस
(जन्र्ाष्टर्ी) पर उपवास करना । ये सारे मवमध-मवधान र्हान आचायों द्वारा उन लोगों के मलए बनाये गये हैं जो
मिव्यलोक र्ेंभगवान् का सामन्नध्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं । र्हात्र्ाजन इन मवमध-मवधानों कादृढ़ता से पालन करते हैं ।
िलतः उनके मलए वामञ्छत िल की प्रामप्त मनमश्चत रहती है ।
जैसा मक इसी अध्याय के मद्वतीय श्लोक र्ें कहा गया है, यह भमक्त न के वलसरल है अमपतु, इसे सुखपूवमक मकया
जा सकता है । इसके मलए कमिन तपस्या करने कीआवश्यकता नहीं पड़ती । र्नुष्ट्य सक्षर् गुरु के मनिेशन र्ें इस जीवन
को गृहस्र्,संन्यासी या ब्रह्मचारी रहते हुए भमक्त र्ें मबता सकता है । वह संसार र्ें मकसी भीअवस्र्ा र्ें कहीं भी भगवान्
की भमक्त करके वास्तव र्ें र्हात्र्ा बन सकता है ।

ज्ञाियज्ञेि चाप्यन्ते यजन्तो मामुपासते ।


एकत्वेि पृथक्त्वेि बहुधा नवश्र्वतोमुखम् ।। १५ ।।

ज्ञाि-यज्ञेि– ज्ञान के अनुशीलन द्वारा; च– भी; अनप– मनश्चय ही; अन्य– अन्य लोग; यजन्तः– यज्ञ करते
हुए; माम्– र्झु को; उपासते– पजू ते हैं; एकत्वेि– एकान्त भव से ; पृथक्त्वेि– द्वैतभाव से; बहुधा– अनेक प्रकार
से; नवश्र्वतः मुखम्– मवश्र्व रूप र्ें ।

अन्य लोग जो ज्ञाि के अिुशीलि द्वारा यज्ञ में लगे रहते हैं, वे भगवाि् की पूजा उिके अद्वय रूप में,
नवनवध रूपों में तथा नवश्र्व रूप में करते हैं ।

तात्पयम : यह श्लोक मपछले श्लोकों का सारांश है । भगवान् अजुमन को बताते हैं मक जो मवशुद्ध कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें लगे रहते हैं और कृ ष्ट्ण के अमतररक्त अन्य मकसी को नहीं जानते, वे र्हात्र्ा कहलाते हैं । तो भी कुछ लोग ऐसे भी
होते हैं जो वास्तव र्ें र्हात्र्ा पि को प्राप्त नहीं होते, मकन्तु वे भी मवमभन्न प्रकारों से कृ ष्ट्ण की पूजा करते हैं । इनर्ें से
कुछ का वणमन आतम, अर्ामर्ी, ज्ञानी तर्ा मजज्ञासु के रूप र्ें मकया जा चक ु ा है । मकन्तु मिर भी कुछ ऐसे भी लोग होते
हैं जो इनसे भी मनम्न होते हैं । इन्हें तीन कोमटयों र्ें रखा जाता है – १) परर्ेश्र्वर तर्ा अपने को एक र्ानकर पूजा करने
वाले, २) परर्ेश्र्वर के मकसी र्नोकमल्पत रूप की पजू ा करने वाले, ३) भगवान् के मवश्र्व रूप की पजू ा करने वाले ।
इनर्ें से सबसे अधर् वे हैं जो अपने आपको अद्वैतवािी र्ानकर अपनी पूजा परर्ेश्र्वर के रूप र्ें करते हैं और इन्हीं का
प्राधान्य भी है । ऐसे लोग अपने को परर्ेश्र्वर र्ानते हैं और इस र्ानमसकता के कारण वे अपनी पूजा आप करते हैं ।

२९२
यह भी एक प्रकार की ईशपूजा है, क्योंमक के सर्झते हैं मक वे भौमतक पिार्म न होकर आत्र्ा है । कर् से कर्, ऐसा
भाव तो प्रधान रहता है । सार्ान्यतया मनमवमशेषवािी इसी प्रकार से परर्ेश्र्वर को पूजते हैं । िसू री कोमट के लोग वे हैं जो
िेवताओ ं के उपासक हैं, जो अपनी कल्पना से मकसी भी स्वरूप को परर्ेश्र्वर का स्वरूप र्ान लेते हैं । तृतीय कोमट र्ें
वे लोग आते हैं जो इस ब्रह्माण्ड से परे कुछ भी नहीं सोच पाते । वे ब्रह्माण्ड को ही परर् जीव या सत्ता र्ानकर उसकी
उपासना करते हैं । यह ब्रह्माण्ड भी भगवान् का एक स्वरूप है ।

अहं क्रतरु हं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।


मन्त्रोऽहमहमेवाजयमहमनग्िरहं हुतम् ।। १६ ।।

अहम्– र्ैं; क्रतुः– वैमिक अनुिान, कर्मकाण्ड; अहम्– र्ैं; यज्ञः– स्र्ातम यज्ञ; स्वधा– तपमण; अहम्–
र्ैं; अहम्– र्ैं; औषधम्– जड़ीबूटी; मन्त्रः– मिव्य ध्वमन; अहम्– र्ैं; एव– मनश्चय ही; आजयम्– घृत; अहम्–
र्ैं; अनग्िः– अमग्न; अहम्– र्ैं; हुतम्– आहुमत, भेंट ।

नकन्तु मैं ही कममकाण्ड, मैं ही यज्ञ, नपतरों को नदया जािे वाला अपमण, औषनध, नदव्य ध्वनि (मन्त्र),
घी, अनग्ि तथा आहुनत हूँ ।
तात्पयम :ज्योस्तष्टोम नार्क वैमिक यज्ञ भी कृ ष्ट्ण है । स्मृस्त र्ें वमणमत र्हायज्ञ भी वही हैं । मपतृलोक को अमपमत
तपमण या मपतृलोक को प्रसन्न करने के मलए मकया गया यज्ञ, मजसे घृत रूप र्ें एक प्रकार की औषमध र्ाना जाता है, वह
भी कृ ष्ट्ण ही है । इस सम्बन्ध र्ें मजन र्न्त्रों का उच्चारण मकया जाता है, वे भी कृ ष्ट्ण हैं । यज्ञों र्ें आहुमत के मलए प्रयुक्त
होने वाली िग्ु ध से बनी अनेक वस्तुएँ भी कृ ष्ट्ण हैं । अमग्न भी कृ ष्ट्ण है, क्योंमक यह अमग्न पाँच तत्त्वों र्ें से एक है, अतः
वह कृ ष्ट्ण की मभन्ना शमक्त कही जाती है । िसू रे शब्िों र्ें, वेिों र्ें कर्मकाण्ड भाग र्ें प्रमतपामित वैमिक यज्ञ भी पणू मरूप
से कृ ष्ट्ण हैं । अर्वा यह कह सकते है मक जो लोग कृ ष्ट्ण की भमक्त र्ें लगे हुए हैं उनके मलए यह सर्झना चामहए मक
उन्होंने सारे वेिमवमहत यज्ञ सम्पन्न कर मलए हैं ।

नपताहमस्य जगतो माता धाता नपतामहः ।


वेद्यं पनवत्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च ।। १७ ।।

नपता– मपता; अहम्– र्ैं; अस्य– इस; जगतः– ब्रह्माण्ड का; माता– र्ाता; धाता– आश्रयिाता; नपतामहः–
बाबा; वेद्यम्– जानने योग्य; पनवत्रम्– शद्ध
ु करने वाला; ॐकारः– ॐ अक्षर; ऋक् – ऋग्वेि; साम–
सार्वेि; यजुः– यजुवेि; एव– मनश्चय ही; च– तर्ा ।

मैं इस ब्रह्माण्ड का नपता, माता, आश्रय तथा नपतामह हूँ । मैं ज्ञेय (जाििे योग्य), शनु द्धकताम तथा
ओक
ं ार हूँ । मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुवेद भी हूँ ।

तात्पयम : सारे चराचर मवराट जगत की अमभव्यमक्त कृ ष्ट्ण की शमक्त के मवमभन्न कायमकलापों से होती है । इस
भौमतक जगत् र्ें हर् मवमभन्न जीवों के सार् तरह-तरह के सम्बन्ध स्र्ामपत करते हैं, जो कृ ष्ट्ण की शमक्त के अमतररक्त

२९३
अन्य कुछ नहीं हैं । प्रकृ मत की सृमष्ट र्ें उनर्ें से कुछ हर्ारे र्ाता, मपता के रूप र्ें उत्पन्न होते हैं वे कृ ष्ट्ण के अमतररक्त
कुछ नहीं हैं । इस श्लोक र्ें आए धाता शब्ि का अर्म स्त्रष्टा है । न के वल हर्ारे र्ाता मपता कृ ष्ट्ण के अंश रूप हैं, अमपतु
इनके स्त्रष्टा िािी तर्ा िािा कृ ष्ट्ण हैं । वस्तुतः कोई भी जीव कृ ष्ट्ण का अंश होने के कारण कृ ष्ट्ण है । अतः सारे वेिों के
लक्ष्य कृ ष्ट्ण ही हैं । हर् वेिों से जो भी जानना चाहते हैं वह कृ ष्ट्ण को जानने की मिशा र्ें होता है । मजस मवषय से हर्ारी
स्वाभामवक मस्र्मत शद्ध ु होती है, वह कृ ष्ट्ण है । इसी प्रकार जो जीव वैमिक मनयर्ों को जानने के मलए मजज्ञासु रहता है,
वह भी कृ ष्ट्ण का अंश, अतः कृ ष्ट्ण भी है । सर्स्त वैमिक र्न्त्रों र्ें ॐ शब्ि, मजसे प्रणव कहा जाता है, एक मिव्य
ध्वमन-कम्पन है और यह कृ ष्ट्ण भी है । चँमू क चारों वेिों – ऋग्वेि, यजवु ेि, सार्वेि तर्ा अर्वमवेि र्ें प्रणव या ओकं ार
प्रधान है, अतः इसे कृ ष्ट्ण सर्झना चामहए ।

गनतभमताम प्रभु: साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।


प्रभवः प्रलयः स्थािं निधािं बीजमव्ययम् ।। १८ ।।

गनतः– लक्ष्य; भताम– पालक; प्रभुः– भगवान्; साक्षी– गवाह; निवासः– धार्; शरणम्– शरण; सुहृत्–
घमनि मर्त्र; प्रभवः– सृमष्ट; प्रलयः– संहार;स्थािम्– भमू र्, मस्र्मत; निधािम्– आश्रय, मवश्रार् स्र्ल; बीजम्– बीज,
कारण;अव्ययम्– अमवनाशी ।

मैं ही लक्ष्य, पालिकताम, स्वामी, साक्षी, धाम, शरणस्थली तथा अत्यन्तनप्रय नमत्र हूँ । मैं सृनष्ट तथा
प्रलय, सबका आधार, आश्रय तथा अनविाशी बीज भी हूँ।

तात्पयम : गमत का अर्म है गन्तव्य या लक्ष्य, जहाँ हर् जाना चाहते हैं। लेमकन चरर्लक्ष्य तो कृ ष्ट्ण हैं, यद्यमप
लोग इसे जानते नहीं । जो कृ ष्ट्ण को नहींजानता वह पर्भ्रष्ट हो जाता है और उसकी तर्ाकमर्त प्रगमत या तो आंमशक
होती है या मिरभ्रर्पणू म । ऐसे अनेक लोग हैं जो िेवताओ ं को ही अपना लक्ष्य बनाते हैं और तिानुसारकिोर मनयर्ों का
पालन करते हुए चन्द्रलोक, सूयमलोक, इन्द्रलोक, र्हलोक जैसेमवमभन्न लोकों को प्राप्त होते हैं । मकन्तु ये सारे लोक
कृ ष्ट्ण की ही सृमष्ट होनेके कारण कृ ष्ट्ण हैं और नहीं भी हैं । ऐसे लोक भी कृ ष्ट्ण की शमक्त की अमभव्यमक्तयाँहोने के कारण
कृ ष्ट्ण हैं, मकन्तु वस्तुतः वे कृ ष्ट्ण की अनुभमू त की मिशा र्ें सोपान काकायम करते हैं । कृ ष्ट्ण की मवमभन्न शमक्तयों तक
पहुचँ ने का अर्म है अप्रत्यक्षतःकृ ष्ट्ण तक पहुचँ ना । अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक कृ ष्ट्ण तक सीधे पहुचँ े, क्योंमक
इससेसर्य तर्ा शमक्त की बचत होगी । उिाहरणार्म, यमि मकसी ऊँची इर्ारत की चोटी तक एलीवेटर(मलफ्ट) के द्वारा
पहुचँ ने की सुमवधा हो तो मिर एक-एक सीढ़ी करके ऊपर क्यों चढ़ाजाये? सब कुछ कृ ष्ट्ण की शमक्त पर आमश्रत है ।
प्रत्येक जीव के हृिय र्ें मस्र्त होनेके कारण कृ ष्ट्ण परर् साक्षी हैं । हर्ारा घर, िेश या लोक जहाँ पर हर् रह रहें हैं,
सबकुछ कृ ष्ट्ण का है । शरण के मलए कृ ष्ट्ण परर् गन्तव्य हैं, अतः र्नुष्ट्य को चामहए मक अपनीरक्षा या अपने कष्टों के
मवनाश के मलए कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करे । हर् चाहें जहाँ भीशरण लें हर्ें जानना चामहए मक हर्ारा आश्रय कोई
जीमवत शमक्त होनी चामहए । कृ ष्ट्ण परर्जीव हैं । चँमू क कृ ष्ट्ण हर्ारी उत्पमत्त के कारण या हर्ारे परर्मपता हैं, अतः
उनसेबढ़कर न तो कोई मर्त्र हो सकता है, न शभु मचन्तक । कृ ष्ट्ण सृमष्ट के आमि उद्गर् और पलेके पश्चात् परर्
मवश्रार्स्र्ल हैं । अतः कृ ष्ट्ण सभी कारणों के शाश्र्वत कारण हैं ।

२९४
तपाम्यहमहं वषं निगृह्णाम्युत्सृजानम च ।
अमृतं चैव मृत्युश्र्च सदसच्चाहमजमिु ।। १९ ।।
तपानम– ताप िेता हँ, गर्ी पहुचँ ाता ह;ँ अहम्– र्ैं; अहम्– र्ैं; वषमम–् वषाम; निगृह्णानम– रोके रहता
ह;ँ उत्सृजानम– भेजता ह;ँ च– तर्ा; अमृतम्– अर्रत्व; च– तर्ा; एव– मनश्चय ही; मृत्युः– र्ृत्यु; च– तर्ा; सत्–
आत्र्ा; असत्– पिार्म; च– तर्ा; अहम्– र्ैं; अजमिु – हे अजुमन ।

हे अजमिु ! मैं ही ताप प्रदाि करता हूँ और वषाम को रोकता तथा लाता हूँ । मैं अमरत्व हूँ और साक्षात्
मृत्यु भी हूँ । आत्मा तथा पदाथम (सत् तथा असत्) दोिों मुझ ही में हैं ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण अपनी मवमभन्न शमक्तयों से मवद्युत तर्ा सूयम के द्वारा ताप तर्ा प्रकाश मबखेरते हैं । ग्रीष्ट्र् ऋतू र्ें
कृ ष्ट्ण ही आकाश से वषाम नहीं होने िेते और वषाम ऋतु र्ें वे ही अनवरत वषाम की झड़ी लगाते हैं । जो शमक्त हर्ें जीवन
प्रिान करती है वह कृ ष्ट्ण है और अंत र्ें र्ृत्यु रूप र्ें हर्ें कृ ष्ट्ण मर्लते हैं । कृ ष्ट्ण की इस मवमभन्न शमक्तयों का मवश्लेषण
करने पर यह मनमश्चत हो जाता है मक कृ ष्ट्ण के मलए पिार्म तर्ा आत्र्ा र्ें कोई अन्तर नहीं है, अर्वा िसू रे शब्िों र्ें, वे
पिार्म तर्ा आत्र्ा िोनों हैं । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत की उच्च अवस्र्ा र्ें ऐसा भेि नहीं र्ाना जाता । र्नुष्ट्य हर वस्तु र्ें
कृ ष्ट्ण के ही िशमन करता है ।
चँमू क कृ ष्ट्ण पिार्म तर्ा आत्र्ा िोनों हैं, अतः सर्स्त भौमतक प्राकट् यों से युक्त यह मवराट मवश्र्व रूप भी कृ ष्ट्ण है
एवं वृन्िावन र्ें िो भजु ावाले वंशी वािन करते श्यार्सुन्िर रूप र्ें उनकी लीलाएँ उनके भगवान् रूप की होती हैं ।

त्रैनवद्या मां सोमपाः पूतपापा


यज्ञैररष्ट्वा स्वगमनतं प्राथमयन्ते ।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्र्िनन्त नदव्यानन्दनव देवभोगाि् ।। २० ।।

त्रै-नवद्याः– तीन वेिों के ज्ञाता; माम्– र्झु को; सोम-पाः – सोर् रसपान करने वाले; पूत– पमवत्र; पापाः–
पापों का; यज्ञैः– यज्ञों के सार्; इष्ट्वा– पूजा करके ; स्वः-गनतम्– स्वगम की प्रामप्त के मलए; पाथमयन्ते– प्रार्मना करते
हैं; ते– वे; पुण्यम्– पमवत्र; आसाद्य– प्राप्त करके ; सुर-इन्द्र– इन्द्र के ; लोकम्– लोक को; अश्ननन्त– भोग करते
हैं; नदव्याि्– िैवी; नदनव– स्वगम र्ें; देव-भोगाि्– िेवताओ ं के आनन्ि को ।

जो वेदों का अध्ययि करते तथा सोमरस का पाि करते हैं, वे स्वगम प्रानप्त की गवेषणा करते हुए
अप्रत्यक्ष रूप से मेरी पूजा करते हैं । वे पापकमों से शुद्ध होकर, इन्द्र के पनवत्र स्वनगमक धाम में जन्म लेते हैं,
जहाूँ वे देवताओ ं का सा आिन्द भोगते हैं ।

तात्पयम :त्रैस्वयाः शब्ि तीन वेिों – सार्, यजःु तर्ा ऋग्वेि – का सचू क है । मजस ब्राह्मण ने इन तीनों वेिों का
अध्ययन मकया है वह मत्रवेिी कहलाता है । जो इन तीनों वेिों से प्राप्त ज्ञान के प्रमत आसक्त रहता है, इसका सर्ाज र्ें
आिर होता है । िभु ामग्यवश वेिों के ऐसे अनेक पमण्डत हैं जो उनके अध्ययन के चरर्लक्ष्य को नहीं सर्झते । इसीमलए

२९५
कृ ष्ट्ण अपने को मत्रवेमियों के मलए परर्लक्ष्य घोमषत करते हैं । वास्तमवक मत्रवेिी भगवान् के चरणकर्लों की शरण
ग्रहण करते हैं और भगवान् को प्रसन्न करने के मलए उनकी शुद्धभमक्त करते हैं । भमक्त का सूत्रपात हरे ृ ष्ण र्न्त्र के
कीतमन तर्ा सार्-सार् कृ ष्ट्ण को वास्तव र्ें सर्झने के प्रयास से होता है । िभु ामग्यवश जो लोग वेिों के नार्र्ात्र के छात्र
हैं वे इन्द्र तर्ा चन्द्र जैसे मवमभन्न िेवों को आहुमत प्रिान करने र्ें रूमच लेते हैं । ऐसे प्रयत्न से मवमभन्न िेवों के उपासक
मनमश्चत रूप से प्रकृ मत के मनम्न गुणों के कल्र्ष से शद्ध ु हो जाते हैं । िलस्वरूप वे उच्चतर लोकों, यर्ा र्हलोक,
जनलोक, तपलोक आमि को प्राप्त होते हैं । एक बार इन उच्च लोकों र्ें पहुचँ कर वहाँ इस लोक की तुलना र्ें लाखों
गणु ा अच्छी तरह इमन्द्रयों की तमु ष्ट की जा सकती है ।

ते तं भक्ु त्वा स्वगमलोकं नवशालं


क्षीणे पुण्ये मत्यमलोकं नवशनन्त ।
एवं त्रयीधमममिुप्रपन्िा
गतागतं कामकामा लभन्ते ।। २१ ।।

ते– वे; तम्– उसको; भुक्त्वा– भोग करके ; स्वगम-लोकम्– स्वगम को; नवशालम्– मवस्तृत; क्षीणे– सर्ाप्त हो
जाने पर; पुण्ये– पुण्यकर्ों के िल; मत्यम-लोकम्– र्ृत्युलोक र्ें; नवशनन्त– नीचे मगरते हैं; एवम्– इस प्रकार; त्रयी–
तीनों वेिों र्ें; धममम–् मसद्धान्तों के ; अिुप्रपन्िाः– पालन करने वाले; गत-आगतम् – र्ृत्यु तर्ा जन्र् को; काम-
कामाः– इमन्द्रयसुख चाहने वाले; लभन्ते– प्राप्त करते हैं ।

इस प्रकार जब वे (उपासक) नवस्तृत स्वनगमक इनन्द्रयसुख को भोग लेते हैं और उिके पुण्यकमों के
िल क्षीण हो जाते हैं तो वे मृत्यल
ु ोक में पिु ः लौट आते हैं । इस प्रकार जो तीिों वेदों के नसद्धान्तों में दृढ
रहकर इनन्द्रयसुख की गवेषणा करते हैं, उन्हें जन्म-मृत्यु का चक्र ही नमल पाता है ।

तात्पयम : जो स्वगमलोक प्राप्त करता है उसे िीघमजीवन तर्ा मवषयसुख की श्रेि सुमवधाएँ प्राप्त होती हैं, तो भी उसे
वहाँ सिा नहीं रहने मिया जाता । पुण्यकर्ों के िलों के क्षीण होने पर उसे पुनः इस पृथ्वी पर भेज मिया जाता है । जैसा
मक वेर्ान्तसूत्र र्ें इमं गत मकया गया है, (जन्मायस्य यतः) मजसने पूणम ज्ञान प्राप्त नहीं मकया या जो सर्स्त कारणों के
कारण कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झता, वह जीवन के चरर्लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाता । वह बारम्बार स्वगम को तर्ा मिर
पृथ्वीलोक को जाता-आता रहता है, र्ानो वह मकसी चक्र पर मस्र्त हो, जो कभी ऊपर जाता है और कभी नीचे आता
है । सारांश यह है मक वह वैकुण्िलोक न जाकर स्वगम तर्ा र्ृत्युलोक के बीच जन्र्-र्ृत्यु चक्र र्ें घर्ू ता रहता है ।
अच्छा तो यह होगा मक समच्चिानन्िर्य जीवन भोगने के मलए वैकुण्िलोक की प्रामप्त की जाये, क्योंमक वहाँ से इस
िख
ु र्य संसार र्ें लौटना नहीं होता ।

अिन्यानश्र्चन्तयन्तो मां ये जिाः पयमपु ासते


तेषां नित्यानभयिु ािां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। २२ ।।

२९६
अिन्याः– मजसका कोई अन्य लक्ष्य न हो, अनन्य भाव से; नचन्तयन्तः– मचन्तन करते हुए; माम्– र्झु को; ये–
जो; जिाः– व्यमक्त; पयमपु ासते– िीक से पूजते हैं; तेषाम्– उन; नित्य– सिा; अनभयुिािाम्– भमक्त र्ें लीन र्नुष्ट्यों
की; योग– आवश्यकताएँ; क्षेमम्– सुरक्षा, आश्रय; वहानम– वहन करता ह;ँ अहम्– र्ैं ।

नकन्तु जो लोग अिन्यभाव से मेरे नदव्यस्वरूप का ध्याि करते हुए निरन्तर मेरी पूजा करते हैं, उिकी
जो आवश्यकताएूँ होती हैं, उन्हें मैं पूरा करता हूँ और जो कुछ उिके पास है, उसकी रक्षा करता हूँ ।

तात्पयम : जो एक क्षण भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मबना नहीं रह सकता, वह चौबीस घण्टे कृ ष्ट्ण का मचन्तन करता है
और श्रवण, कीतमन, स्र्रण पािसेवन, वन्िन, अचमन, िास्य, सख्यभाव तर्ा आत्र्मनवेिन के द्वारा भगवान् के
चरणकर्लों की सेवा र्ें रत रहता है । ऐसे कायम शभु होते हैं और आध्यामत्र्क शमक्त से पूणम होते हैं, मजससे भक्त को
आत्र्-साक्षात्कार होता है और उसकी यही एकर्ात्र कार्ना रहती है मक वह भगवान् का सामन्नध्य प्राप्त करे । ऐसा भक्त
मनमश्चत रूप से मबना मकसी कमिनाई के भगवान् के पास पहुचँ ता है । यह योग कहलाता है । ऐसा भक्त भगवत्कृ पा से
इस संसार र्ें पुनः नहीं आता । क्षेम का अर्म है भगवान् द्वारा कृ पार्य संरक्षण । भगवान् योग द्वारा पूणमतया
कृ ष्ट्णभावनाभामवत होने र्ें सहायक बनते हैं और जब भक्त पूणम कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो जाता है तो भगवान् उसे िख ु र्य
बद्धजीवन र्ें मिर से मगरने से उसकी रक्षा करते हैं ।

येऽप्यन्यदेवताभिा यजन्ते श्रद्धयानन्वताः ।


तेऽनप मामेव कौन्तेय यजन्त्यनवनधपूवमकम् ।। २३ ।।

ये– जो; अनप– भी; अन्य– िसू रे ; देवता– िेवताओ ं के ; भिाः– भक्तगण; यजन्ते– पजू ते
हैं; श्रद्धयाअनन्वताः - श्रद्धापूवमक; ते– वे; अनप– भी; माम्– र्झु को; एव– के वल; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; यजनन्त–
पजू ा करते हैं; अनवनध-पवू मकम् – त्रमु टपणू म ढगं से ।

हे कुन्तीपुत्र! जो लोग अन्य देवताओ ं के भि हैं और उिकी श्रद्धापूवमक पूजा करते हैं, वास्तव में वे भी
मेरी पूजा करते हैं, नकन्तु वे यह त्रुनटपूणम ढंग से करते हैं ।

तात्पयम : श्रीकृ ष्ट्ण का कर्न है ”जो लोग अन्य िेवताओ ं की पूजा र्ें लगे होते हैं, वे अमधक बुमद्धर्ान नहीं होते,
यद्यमप ऐसी पूजा अप्रत्यक्षतः र्ेरी पूजा है ।” उिाहरणार्म, जब कोई र्नुष्ट्य वृक्ष की जड़ों र्ें पानी न डालकर उसकी
पमत्तयों तर्ा टहमनयों र्ें डालता है, तो वह ऐसा इसीमलए करता है क्योंमक उसे पयामप्त ज्ञान नहीं होता या वह मनयर्ों का
िीक से पालन नहीं करता । इसी प्रकार शरीर के मवमभन्न अंगों की सेवा करने का अर्म है आर्ाशय र्ें भोजन की पूमतम
करना । इसी तरह मवमभन्न िेवता भगवान् की सरकार के मवमभन्न अमधकारी तर्ा मनिेशक हैं । र्नष्ट्ु य को अमधकाररयों
या मनिेशकों द्वारा नहीं अमपतु सरकार द्वारा मनमर्मत मनयर्ों का पालन करना होता है । इसी प्रकार हर एक को परर्ेश्र्वर
की ही पजू ा करनी होती है । इससे भगवान् के सारे अमधकारी तर्ा मनिमशक स्वतः प्रसन्न होंगे । अमधकारी तर्ा
मनिेशक तो सरकार के प्रमतमनमध होते हैं, अतः इन्हें घसू िेना अवैध है । यहाँ पर इसी को अस्वस्धपूवद म् कहा गया है ।
िसू रे शब्िों र्ें कृ ष्ट्ण अन्य िेवताओ ं की व्यर्म पूजा का सर्र्मन नहीं करते ।

२९७
अहं नह सवमयज्ञािां भोिा च प्रभुरेव च ।
ि तु मामनभजािनन्त तत्त्वेिातश्च्यवनन्त ते ।। २४ ।।

अहम्– र्ैं; नह– मनमश्चत रूप से; सवम– सर्स्त; यज्ञािाम्– यज्ञों का; भोिा– भोग करने वाला; च–
तर्ा; प्रभुः– स्वार्ी; एव– भी; च– तर्ा;ि– नहीं; त–ु लेमकन; माम्– र्झु को; अनभजािनन्त– जानते हैं; तत्त्वेि–
वास्तव र्ें; अतः– अतएव; च्यवनन्त– नीचे मगरते हैं; ते– वे ।
मैं ही समस्त यज्ञों का एकमात्र भोिा तथा स्वामी हूँ । अतः जो लोग मेरे वास्तनवक नदव्य स्वभाव को
िहीं पहचाि पाते, वे िीचे नगर जाते हैं ।

तात्पयम : यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है मक वैमिक सामहत्य र्ें अनेक प्रकार के यज्ञ-अनुिानों का आिेश है, मकन्तु
वस्तुतः वे सब भगवान् को ही प्रसन्न करने के मनमर्त्त हैं । यज्ञ का अर्म है मवष्ट्णु । भगवद्गीता के तृतीय अध्याय र्ें यह
स्पष्ट कर्न है मक र्नुष्ट्य को चामहए मक यज्ञ या मवष्ट्णु को प्रसन्न करने के मलए ही कर्म करे । र्ानवीय सभ्यता का
सर्ग्ररूप वणामश्रर् धर्म है और यह मवशेष रूप से मवष्ट्णु को प्रसन्न करने के मलए है । इसीमलए इस श्लोक र्ें कृ ष्ट्ण कहते
हैं, “र्ैं सर्स्त यज्ञों का भोक्ता ह,ँ क्योंमक र्ैं परर् प्रभु हँ ।” मकन्तु अल्पज्ञ इस तथ्य से अवगत न होने के कारण क्षमणक
लाभ के मलए िेवताओ ं को पूजते हैं । अतः वे इस संसार र्ें आ मगरते हैं और उन्हें जीवन का लक्ष्य प्राप्त नहीं हो पाता ।
यमि मकसी को अपनी भौमतक इच्छा पूमतम करनी हो तो अच्छा यही होगा मक वह इसके मलए परर्ेश्र्वर से प्रार्मना करे
(यद्यमप यह शुद्धभमक्त नहीं है) और इस प्रकार उसे वांमछत िल प्राप्त हो सके गा ।

यानन्त देवव्रता देवानन्पतन्ॄ यानन्त नपतृव्रताः।


भूतानि यानन्त भूतेजया यानन्त मद्यानजिोऽनप माम् ।। २५ ।।

यानन्त– जाते हैं; देव-व्रताः– िेवताओ ं के उपासक; देवाि्– िेवताओ ं के पास; नपतिॄ –् मपतरों के
पास; यानन्त– जाते हैं; नपतृ-व्रताः– मपतरों के उपासक; भूतानि– भतू -प्रेतों के पास; यानन्त– जाते हैं; भूत-इजयाः–
भतू -प्रेतों के उपासक; यानन्त– जाते हैं; मत्– र्ेरे; यानजिः– भक्तगण; अनप– लेमकन; माम्– र्ेरे पास ।

जो देवताओ ं की पूजा करते हैं, वे देवताओ ं के बीच जन्म लेंगे, जो नपतरों को पूजते हैं, वे नपतरों के
पास जाते हैं, जो भूत-प्रेतों की उपासिा करते हैं, वे उन्हीं के बीच जन्म लेते हैं और जो मेरी पूजा करते हैं वे
मेरे साथ निवास करते हैं ।

तात्पयम : यमि कोई चन्द्रर्ा, सूयम या अन्य लोक को जाना चाहता है तो वह अपने गन्तव्य को बताये गये मवमशष्ट
वैमिक मनयर्ों का पालन करके प्राप्त कर सकता है । इनका मवशि वणमन वेिों के कर्मकाण्ड अंश र्शदपौणदमासी र्ें हुआ
है, मजसर्ें मवमभन्न लोकों र्ें मस्र्त िेवताओ ं के मलए मवमशष्ट पजू ा का मवधान है । इसी प्रकार मवमशष्ट यज्ञ करके
मपतृलोक प्राप्त मकया जा सकता है । मपशाच पूजा को काला जािू कहते हैं । अनेक लोग इस काले जािू का अभ्यास
करते हैं और सोचते हैं मक यह अध्यात्र् है, मकन्तु ऐसे कायमकलाप मनतान्त भौमतकतावािी हैं । इसी तरह शुद्धभक्त

२९८
के वल भगवान् की पूजा करके मनस्सन्िेह वैकुण्िलोक तर्ा कृ ष्ट्णलोक की प्रामप्त करता है । इस श्लोक के र्ाध्यर् से यह
सर्झना सुगर् है मक जब िेवताओ ं की पूजा करके कोई स्वगम प्राप्त कर सकता है, तो मिर शद्ध ु भक्त कृ ष्ट्ण या मवष्ट्णु के
लोक क्यों नहीं प्राप्त कर सकता? िभु ामग्यवश अनेक लोगों को कृ ष्ट्ण तर्ा मवष्ट्णु के मिव्यलोकों की सूचना नहीं है, अतः
न जानने के कारण वे नीचे मगर जाते हैं । यहाँ तक मनमवमशेषवािी भी ब्रह्मजयोमत से नीचे मगरते हैं । इसीमलए
कृ ष्ट्णभावनार्ृत आन्िोलन इस मिव्य सूचना को सर्चू े र्ानव सर्ाज र्ें मवतररत करता है मक के वल हरे ृ ष्ण र्न्त्र के
जाप से ही र्नुष्ट्य मसद्ध हो सकता है और भगवद्धार् को वापस जा सकता है ।

पत्रं पुष्ट्पं िलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छनत ।


तदहं भियपु हृतमश्र्िानम प्रयतात्मिः ।। २६ ।।

पत्रम्– पत्ती;पुष्ट्पम्– िूल; िलम् - िल; तोयम्– जल; यः– जो कोई; मे– र्झु को; भक्त्या–
भमक्तपूवमक; प्रयच्छनत– भेंट करता है; तत्– वह; अहम्– र्ैं; भनि-उपहृतम्– भमक्तभाव से अमपमत; अश्नानम–
स्वीकार करता ह;ँ प्रयत-आत्मिः– शुद्धचेतना वाले से ।

यनद कोई प्रेम तथा भनि के साथ मुझे पत्र, पुष्ट्प, िल या जल प्रदाि करता है, तो मैं उसे स्वीकार
करता हूँ ।

तात्पयम : मनत्य सुख के मलए स्र्ायी, आनन्िर्य धार् प्राप्त करने हेतु बुमद्धर्ान व्यमक्त के मलए यह अमनवायम है
मक वह कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें तत्पर रहे । ऐसा आश्चयमर्य िल प्राप्त करने की मवमध
इतनी सरल है की मनधमन से मनधमन व्यमक्त को योग्यता का मवचार मकये मबना इसे पाने का प्रयास करना चामहए । इसके
मलए एकर्ात्र योग्यता इतनी ही है मक वह भगवान् का शुद्धभक्त हो । इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता मक कोई क्या है और
कहाँ मस्र्त है । यह मवमध इतनी सरल है मक यमि प्रेर्पवू मक एक पत्ती, र्ोड़ा सा जल या िल ही भगवान् को अमपमत
मकया जाता है तो भगवान् उसे सहषम स्वीकार करते हैं । अतः मकसी को भी कृ ष्ट्णभावनार्ृत से रोका नहीं जा सकता,
क्योंमक यह सरल है और व्यापक है । ऐसा कौन र्ख ु म होगा जो इस सरल मवमध से कृ ष्ट्णभावनाभामवत नहीं होना चाहेगा
और समच्चिानन्िर्य जीवन की परर् मसमद्ध नहीं चाहेगा? कृ ष्ट्ण को के वल प्रेर्ाभमक्त चामहए और कुछ भी नहीं । कृ ष्ट्ण
तो अपने शद्ध ु भक्त से एक छोटा सा िूल तक ग्रहण करते हैं । मकन्तु अभक्त से वे कोई भेंट नहीं चाहते । उन्हें मकसी से
कुछ भी नहीं चामहए, क्योंमक वे आत्र्तुष्ट हैं, तो भी वे अपने भक्त की भेंट प्रेर् तर्ा स्नेह के मवमनर्य र्े स्वीकार करते
हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत करना जीवन का चरर्लक्ष्य है । इस श्लोक र्े भस्ि शब्ि का उल्लेख िो बार यह करने के
मलए हुआ है मक भमक्त ही कृ ष्ट्ण के पास पहुचँ ने का एकर्ात्र साधन है । मकसी अन्य शतम से, यर्ा ब्राह्मण, मवद्वान, धनी
या र्हान मवचारक होने से, कृ ष्ट्ण मकसी प्रकार की भेंट लेने को तैयार नहीं होते । भमक्त ही र्ल ू मसद्धान्त है, मजसके मबना
वे मकसी से कुछ भी लेने के मलए प्रेररत नहीं मकये जा सकते । भमक्त कभी हैतक ु ी नहीं होती । यह शाश्र्वत मवमध है । यह
परब्रह्म की सेवा र्ें प्रत्यक्ष कर्म है ।
यह बतला कर मक वे ही एकर्ात्र भोक्ता, आमि स्वार्ी और सर्स्त यज्ञ-भेंटों के वास्तमवक लक्ष्य हैं, अब
भगवान् कृ ष्ट्ण यह बताते हैं मक वे मकस प्रकार भेंट पसंि करते हैं । यमि कोई शुद्ध होने तर्ा जीवन के लक्ष्य तक पहुचँ ने
के उद्देश्य से भगवद्भमक्त करना चाहता है तो उसे चामहए मक वह पता करे मक भगवान् उससे क्या चाहते हैं । कृ ष्ट्ण से प्रेर्

२९९
करने वाला उन्हें उनकी इमच्छत वस्तु िेगा और कोई ऐसी वस्तु भेंट नहीं करे गा मजसकी उन्हें इच्छा न हो, या उन्होंने न
र्ाँगी हो । इस प्रकार कृ ष्ट्ण को र्ांस, र्छली या अण्डे भेंट नहीं मकये जाने चामहए । यमि उन्हें इन वस्तुओ ं की इच्छा
होती तो वे उनका उल्लेख करते । उल्टे वे स्पष्ट आिेश िेते हैं मक उन्हें पत्र, पुष्ट्प, जल तर्ा िल अमपमत मकये जायें और
वे इन्हें स्वीकार करें गे । शाक, अन्न, िल, िधू तर्ा जल – ये ही र्नुष्ट्यों के उमचत भोजन हैं और भगवान् कृ ष्ट्ण ने भी
इन्हीं का आिेश मिया है । इनके अमतररक्त हर् जो भी खाते हों, वह उन्हें अमपमत नहीं मकया जा सकता, क्योंमक वे उसे
ग्रहण नहीं करें गे । यमि हर् ऐसा भोजन उन्हें अमपमत करें गे तो हर् प्रेर्ाभमक्त नहीं कर सकें गे ।
तृतीय अध्याय के तेरहवें श्लोक र्ें श्रीकृ ष्ट्ण बताते हैं मक यज्ञ का उमच्छष्ट ही शद्ध
ु होता है, अतः जो लोग जीवन
की प्रगमत करने तर्ा भवबन्धन से र्क्त ु होने के इच्छुक हैं, उन्हें इसी को खाना चामहए । उसी श्लोक र्े वे यह भी बताते
हैं मक जो लोग अपने भोजन को अमपमत नहीं करते वे पाप भक्षण करते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, उनका प्रत्येक कौर इस संसार
की जमटलताओ ं र्ें उन्हें बाँधने वाला है । अच्छा सरल शाकाहारी भोजन बनाकर उसे भगवान् कृ ष्ट्ण के मचत्र या
अचाममवग्रह के सर्क्ष अमपमत करके तर्ा नतर्स्तक होकर इस तुच्छ भेंट को स्वीकार करने की प्रार्मना करने से र्नुष्ट्य
अपने जीवन र्ें मनरन्तर प्रगमत करता है, उसका शरीर शद्ध ु होता है और र्मस्तष्ट्क के श्रेि तन्तु उत्पन्न होते हैं, मजससे
शद्धु मचन्तन हो पाता है । सबसे बड़ी बात तो यह है मक वह सर्पमण अत्यन्त प्रेर्पूवमक करना चामहए । कृ ष्ट्ण को मकसी
तरह के भोजन मक आवश्यकता नहीं रहती, क्योंमक उनके पास सब कुछ है, मकन्तु यमि कोई उन्हें इस प्रकार प्रसन्न
करना चाहता है, तो वे इस भेंट को स्वीकार करते हैं । भोजन बनाने, सेवा करने तर्ा भेंट करने र्ें जो सबसे र्ख्ु य बात
रहती है, वह है कृ ष्ट्ण के प्रेर्वश कर्म करना ।
वे र्ायावािी मचन्तक भगवद्गीता के इस श्लोक का अर्म नहीं सर्झ सकें गे, जो यह र्ानकर चलते हैं मक परब्रह्म
इमन्द्रयरमहत है । उनके मलए यह या तो रूपक है या भगवद्गीता के उद्घोषक कृ ष्ट्ण के र्ानवीय चररत्र का प्रर्ाण है । मकन्तु
वास्तमवकता तो यह है मक कृ ष्ट्ण इमन्द्रयों से युक्त हैं और यह कहा गया है मक उनकी इमन्द्रयाँ परस्पर पररवतमनशील हैं ।
िसू रे शब्िों र्ें, एक इमन्द्रय िसू री इमन्द्रय का कायम कर सकती है । कृ ष्ट्ण को परर् ब्रह्म कहने का आशय यही है ।
इमन्द्रयरमहत होने पर उन्हें सर्स्त ऐश्र्वयों से युक्त नहीं र्ाना जा सकता । सातवें अध्याय र्े कृ ष्ट्ण ने बतलाया है मक वे
प्रकृ मत के गभम र्े जीवों को स्र्ामपत करते हैं । इसे वे प्रकृ मत पर दृमष्टपात करके करते हैं । अतः यहाँ पर भी भक्तों द्वारा
भोजन अमपमत करते हुए भक्तों को प्रेर्पूणम शब्ि सुनना कृ ष्ट्ण के द्वारा भोजन करने तर्ा उसके स्वाि लेने के ही सर्रूप
है । इस बात पर इसीमलए बल िेना होगा क्योंमक अपनी सवोच्च मस्र्मत के कारण उनका सुनना उनके भोजन करने के
ही सर्रूप है । के वल भक्त ही मबना तकम के यह सर्झ सकता है मक परब्रह्म भोजन कर सकते हैं और उसका स्वाि ले
सकते हैं ।

यत्करोनष यदश्र्िानस यजजुहोनष ददानस यत् ।


यत्तपस्यनस कौन्तेय तत्कुरुष्ट्व मदपमणम् ।। २७ ।।

यत्– जो कुछ; करोनष– करते हो; यत्– जो भी; अश्नानस– खाते हो; यत्– जो कुछ; जहु ोनष– अमपमत करते
हो; ददानस– िान िेते हो; यत्– जो; यत्– जो भी; तपस्यनस– तप करते हो; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; तत्–
वह; कुरुष्ट्व– करो;मत्– र्झु को;अपमणम्– भेंट रूप र्ें ।

३००
हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अनपमत करते हो या दाि देते हो और जो
भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अनपमत करते हुए करो ।

तात्पयम : इस प्रकार यह प्रत्येक व्यमक्त का कत्तमव्य है मक अपने जीवन को इस प्रकार ढाले मक वह मकसी भी
िशा र्ें कृ ष्ट्ण को न भल
ू सके । प्रत्येक व्यमक्त को अपने जीवन-मनवामह के मलए कर्म करना पड़ता है और कृ ष्ट्ण यहाँ पर
आिेश िेते हैं मक हर व्यमक्त उनके मलए ही कर्म करे । प्रत्येक व्यमक्त को जीमवत रहने के मलए कुछ न कुछ खाना पड़ता
है अतः उसे चामहए मक कृ ष्ट्ण को अमपमत भोजन के उमच्छष्ट को ग्रहण करे । प्रत्येक व्यमक्त को कुछ न कुछ धामर्मक
अनुिान करने होते हैं, अतः कृ ष्ट्ण मक संस्तुमत है, “इसे र्ेरे हेतु करो” । यही अचमन है । प्रत्येक व्यमक्त कुछ न कुछ िान
िेता है, अतः कृ ष्ट्ण कहते हैं, “यह र्झु े िो” मजसका अर्म यह है मक अमधक धन का उपयोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत आन्िोलन
की उन्नमत के मलए करो । आजकल लोग ध्यान मवमध के प्रमत मवशेष रूमच मिखाते हैं, यद्यमप इस युग के मलए यह
व्यावहाररक नहीं है, मकन्तु यमि कोई चौबीस घण्टे हरे ृ ष्ण का जप अपनी र्ाला र्ें करे तो वह मनमश्चत रूप से
र्हानतर् ध्यानी तर्ा योगी है, मजसकी पुमष्ट भगवद्गीता के छिे अध्याय र्ें की गई है ।

शुभाशुभिलैरेवं मोक्ष्यसे कममबन्धिै: ।


सन्न्यासयोगयुिात्मा नवमि ु ो मामुपैष्ट्यनस ।। २८ ।।

शुभ– शभु ; अशुभ– अशभु ; िलैः– िलों के द्वारा; एवम्– इस प्रकार; मोक्ष्यसे– र्क्त
ु हो जाओगे; कमम–
कर्म के ; बन्धिैः– बन्धन से; संन्यास– संन्यास के ; योग– योग से; युि-आत्मा– र्न को मस्र्र करके ; नवमुिः–
र्क्त
ु हुआ; माम्– र्झु े; उपैष्ट्यसी– प्राप्त होगे ।

इस तरह तुम कमम के बन्धि तथा इसके शुभाशुभ िलों से मुि हो सकोगे । इस संन्यासयोग में अपिे
नचत्त को नस्थर करके तमु मि
ु होकर मेरे पास आ सकोगे ।

तात्पयम : गुरु के मनिेशन र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर कर्म करने को युि कहते हैं । पाररभामषक शब्ि युि-
वैरार्गय है । श्रीरूप गोस्वार्ी ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है (भस्िरसामृतस्सन्धु २.२५५)—
अनासिस्य स्वषयान्यथाहदमपु युञ्जतः ।
स्नबदन्धः ृ ष्णसम्बन्धे युिां वैरार्गयमचु यते ।।
श्रीरूप गोस्वार्ी कहते हैं मक जब तक हर् इस जगत् र्ें हैं, तब तक हर्ें कर्म करना पड़ता है, हर् कर्म करना बन्ि
नहीं कर सकते । अतः यमि कर्म करके उसके िल कृ ष्ट्ण को अमपमत कर मिये जायँ तो वह युिवैरार्गय कहलाता है ।
वस्तुतः संन्यास र्ें मस्र्त होने पर ऐसे कर्ों से मचत्त रूपी िपमण स्वच्छ हो जाता है और कताम जयों-जयों क्रर्शः आत्र्-
साक्षात्कार की ओर प्रगमत करता रहता जाता है, त्यों-त्यों परर्ेश्र्वर के प्रमत पणू मतया सर्मपमत होता रहता है । अतएव
अन्त र्ें वह र्क्त ु हो जाता है और यह र्मु क्त भी मवमशष्ट होती है । इस र्मु क्त से वह ब्रह्मजयोमत र्ें तिाकार नहीं होता,
अमपतु भगवद्धार् र्ें प्रवेश करता है । यहाँ स्पष्ट उल्लेख है – माम् उपैष्यसी– वह र्ेरे पास आता है, अर्ामत् र्ेरे धार्
वापस आता है । र्मु क्त की पाँच मवमभन्न अवस्र्ाएँ हैं और यहाँ स्पष्ट मकया गया है मक जो भक्त जीवन भर परर्ेश्र्वर के

३०१
मनिेशन र्ें रहता है, वह ऐसी अवस्र्ा को प्राप्त हुआ रहता है, जहाँ से वह शरीर त्यागने के बाि भगवद्धार् जा सकता है
और भगवान् की प्रत्यक्ष संगमत र्ें रह सकता है ।
मजस व्यमक्त र्ें अपने जीवन को भगवत्सेवा र्ें रत रखने के अमतररक्त अन्य कोई रूमच नहीं होती, वही वास्तमवक
संन्यासी है । ऐसा व्यमक्त भगवान् की परर् इच्छा पर आमश्रत रहते हुए अपने को उनका मनत्य िास र्ानता है । अतः वह
जो कुछ करता है, भगवान् के लाभ के मलए करता है । वह जो कुछ करता है, भगवान् की सेवा करने के मलए करता है ।
वह सकार्कर्ों या वेिवमणमत कतमव्यों पर ध्यान नहीं िेता । सार्ान्य र्नुष्ट्यों के मलए वेिवमणमत कतमव्यों को सम्पन्न
करना अमनवायम होता है । मकन्तु शद्ध ु भक्त भगवान् की सेवा र्ें पणू मतया रत होकर भी कभी-कभी वेिों द्वारा अनर्ु ोमित
कतमव्यों का मवरोध करता प्रतीत होता है, जो वस्तुतः मवरोध नहीं है ।
अतः वैष्ट्णव आचायों का कर्न है मक बुमद्धर्ान से बमु द्धर्ान व्यमक्त भी शद्ध
ु भक्त की योजनाओ ं तर्ा कायों को
नहीं सर्झ सकता । िीक शब्ि है – तााँर वाक्तय, स्क्रया, मद्रु ा स्वज्ञेह ना बुझय (चैतन्यचररतामृत, र्ध्य २३.३९) । इस
प्रकार जो व्यमक्त भगवान् की सेवा र्ें रत है, या जो मनरन्तर योजना बनाता रहता है मक मकस तरह भगवान् की सेवा की
जाये, उसे ही वतमर्ान र्ें पूणमतया र्क्त
ु र्ानना चामहए और भमवष्ट्य र्ें उसका भगवद्धार् जाना ध्रवु है । मजस प्रकार कृ ष्ट्ण
आलोचना से परे हैं, उसी प्रकार वह भक्त भी सारी भौमतक आलोचना से परे हो जाता है ।

समोऽहं सवमभूतेषु ि मे द्वेष्ट्योऽनस्त ि नप्रयः ।


ये भजनन्त तु मां भक्त्या मनय ते तेषु चाप्यहम् ।। २९ ।।

समः– सर्भाव; अहम्– र्ैं; सवम-भूतेषु– सर्स्त जीवों र्ें; ि– कोई नहीं; मे– र्ुझको;द्वेष्ट्यः– द्वेषपूणम; अनस्त–
है; ि– न तो; नप्रयः– मप्रय; ये– जो; भजनन्त– मिव्यसेवा करते हैं; तु– लेमकन;माम्– र्झु को; भक्त्या– भमक्त
से; मनय– र्झु र्ें हैं; ते– वे व्यमक्त; ते ष–ु उनर्ें; च– भी; अनप– मनश्चय ही; अहम्– र्ैं ।

मैं ि तो नकसी से द्वेष करता हूँ, ि ही नकसी के साथ पक्षपात करता हूँ । मैं सबों के नलए समभाव हूँ ।
नकन्तु जो भी भनिपूवमक मेरी सेवा करता है, वह मेरा नमत्र है, मुझमें नस्थत रहता है और मैं भी उसका नमत्र हूँ ।

तात्पयम : यहाँ पर प्रश्न मकया जा सकता है मक जब कृ ष्ट्ण का सबों के मलए सर्भाव है और उनका कोई मवमशष्ट
मर्त्र नहीं है तो मिर वे उन भक्तों र्ें मवशेष रूमच क्यों लेते हैं, जो उनकी मिव्यसेवा र्ें सिैव लगे रहते हैं? मकन्तु यह
भेिभाव नहीं है, यह तो सहज है । इस जगत् र्ें हो सकता है मक कोई व्यमक्त अत्यन्त उपकारी हो, मकन्तु तो भी वह
अपनी सन्तानों र्ें मवशेष रूमच लेता है । भगवान् का कहना है मक प्रत्येक जीव, चाहे वह मजस योनी का हो, उनका पुत्र
है, अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तुएँ प्रिान करते हैं । वे उस बािल के सदृश हैं जो सबों के ऊपर
जलवृमष्ट करता है, चाहे यह वृमष्ट चट्टान पर हो या स्र्ल पर, या जल र्ें हो । मकन्तु भगवान् अपने भक्तों का मवशेष
ध्यान रखते हैं । ऐसे ही भक्तों का यहाँ उल्लेख हुआ है – वे सिैव कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहते हैं, िलतः वे मनरन्तर कृ ष्ट्ण र्ें
लीन रहते हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत शब्ि ही बताता है मक जो लोग ऐसे भावनार्ृत र्ें रहते हैं वे सजीव अध्यात्र्वािी हैं और
उन्हीं र्ें मस्र्त हैं । भगवान् यहाँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मस्य ते अर्ामत् वे र्झु र्ें हैं । िलतः भगवान् भी उनर्ें हैं ।
इससे येयथा माां प्रपयन्ते ताांस्तथैव भजाम्यहम् की भी व्याख्या हो जाती है – जो भीर्ेरी शरण र्ें आ जाता है, उसकी र्ैं
उसी रूप र्ें रखवाली करता हँ । यह मिव्य आिान-प्रिान भाव मवद्यर्ान रहता है, क्योंमक भक्त तर्ा भगवान् िोनों

३०२
सचेतन हैं । जब हीरे को सोने की अँगूिी र्ें जड़ मिया जाता है तो वह अत्यन्त सुन्िर लगता है । इससे सोने की र्महर्ा
बढती है, मकन्तु सार् ही हीरे की भी र्महर्ा बढती है । भगवान् तर्ा जीव मनरन्तर चर्कते रहते हैं और जब कोई जीव
भगवान् की सेवा र्ें प्रवृत्त होता है तो वह सोने की भाँमत मिखता है । भगवान् हीरे के सर्ान हैं, अतः यह संयोग
अत्युत्तर् होता है । शद्ध
ु अवस्र्ा र्ें जीव भक्त कहलाते हैं । परर्ेश्र्वर अपने भक्तों के भी भक्त बन जाते हैं । यमि भगवान्
तर्ा भक्त र्ें आिान-प्रिान का भाव न रहे तो सगुणवािी िशमन ही न रहे । र्ायावािी िशमन परर्ेश्र्वर तर्ा जीव र्ें र्ध्य
ऐसा आिान-प्रिान का भाव नहीं मर्लता, मकन्तु सगुणवािी िशमन र्ें ऐसा होता है ।
प्रायः यह दृष्टान्त मिया जाता है मक भगवान् कल्पवृक्ष के सर्ान हैं और र्नष्ट्ु य इस वृक्ष से जो भी र्ाँगता है,
भगवान् उसकी पूमतम करते हैं । मकन्तु यहाँ पर जो व्याख्या िी गई है वह अमधक पूणम है । यहाँ पर भगवान् को भक्त का
पक्ष लेने वाला कहा गया है । यह भक्त के प्रमत भगवान् की मवशेष कृ पा की अमभव्यमक्त है । भगवान् के आिान-प्रिान
भाव को कर्म के मनयर् के अन्तगमत नहीं र्ानना चामहए । यह तो उस मिव्य अवस्र्ा से सम्बमन्धत रहता है मजसर्ें
भगवान् तर्ा उनके भक्त कर्म करते हैं । भगवद्भमक्त इस जगत का कायम नहीं है, यह तो उस अध्यात्र् का अश ं है, जहाँ
शाश्र्वत आनन्ि तर्ा ज्ञान का प्राधान्य रहता है ।

अनप चेत्सुदुराचारो भजते मामिन्यभाक् ।


साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवनसतो नह सः ।। ३० ।।

अनप– भी; चेत–् यमि;सु-दुराचारः– अत्यन्त गमहमत कर्म करने वाला; भजते– सेवा करता है; माम्–
र्ेरी; अिन्य-भाक् – मबना मवचमलत हुए; साधुः– साधु पुरुष; एव– मनश्चय ही; सः– वह; मन्तव्यः– र्ानने
योग्य; सम्यक् – पूणमतया; व्यवनसतः– संकल्प करना; नह– मनश्चय ही; सः– वह ।

यनद कोई जघन्य से जघन्य कमम करता है, नकन्तु यनद वह भनि में रत रहता है तो उसे साधु माििा
चानहए, क्योंनक वह अपिे सक
ं ल्प में अनडग रहता है ।

तात्पयम : इस श्लोक का सुर्रु ाचारः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, अतः हर्ें इसे िीक से सर्झना होगा । जब
र्नुष्ट्य बद्ध रहता है तो उसके िो प्रकार के कर्म होते हैं – प्रर्र् बद्ध और मद्वतीय स्वाभामवक । मजस प्रकार शरीर की
रक्षा करने या सर्ाज तर्ा राजय के मनयर्ों का पालन करने के मलए तरह-तरह के कर्म करने होते हैं, उसी प्रकार से बद्ध
जीवन के प्रसंग र्ें भक्तों के मलए कर्म होते हैं, जो बद्ध कहलाते हैं । इनके अमतररक्त, जो जीव अपने अध्यामत्र्क
स्वभाव से पूणमतया मभज्ञ रहता है और कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें या भगवद्भमक्त र्ें लगा रहता है, उसके मलए भी कर्म होते हैं,
जो मिव्य कहलाते हैं । ऐसे कायम उसकी स्वाभामवक मस्र्मत र्ें सम्पन्न होते हैं और शास्त्रीय दृमष्ट से भमक्त कहलाते हैं ।
बद्ध अवस्र्ा र्ें कभी-कभी भमक्त और शरीर की बद्ध सेवा एक िसू रे के सर्ान्तर चलती हैं । मकन्तु पुनः कभी-कभी वे
एक िसू रे के मवपरीत हो जाती हैं । जहाँ तक सम्भव होता है, भक्त सतकम रहता है मक वह ऐसा कोई कायम न करे , मजससे
यह अनुकूल मस्र्मत भंग हो । वह जानता है मक उसकी कर्म-मसमद्ध उसके कृ ष्ट्णभावनार्ृत की अनुभमू त की प्रगमत पर
मनभमर करती है । मकन्तु कभी-कभी यह िेखा जाता है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत व्यमक्त सार्ामजक या राजनीमतक दृमष्ट से
मनन्िनीय कायम करबैिता है । मकन्तु इस प्रकार के क्षमणक पतन से वह अयोग्य नहीं हो जाता । श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया
है मक यमि कोई पमतत हो जाय, मकन्तु यमि भगवान् की मिव्य सेवा र्ें लगा रहे तो हृिय र्ें वास करने वाले भगवान् उसे

३०३
शद्धु कर िेते हैं और उस मनन्िनीय कायम के मलए क्षर्ा कर िेते हैं । भौमतक कल्र्ष इतना प्रबल है मक भगवान् की सेवा
र्ें लगा योगी भी कभी-कभी उसके जाल र्ें आ िँ सता है । लेमकन कृ ष्ट्णभावनार्ृत इतना शमक्तशाली होता है मक इस
प्रकार का आकमस्र्क पतन तुरन्त रुक जाता है । इसीमलए भमक्तयोग सिैव सिल होता है, क्योंमक जैसा मक अगले
श्लोक र्ें बताया गया है मक जयोंही भक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पूणमतया मस्र्त हो जाता है, ऐसे आकमस्र्क पतन कुछ सर्य
के पश्चात् रुक जाते हैं ।
अतः जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त है और अनन्य भाव से हरे ृ ष्ण र्न्त्र का जप करता है, उसे मिव्य
मस्र्मत र्ें आसीन सर्झना चामहए, भले ही िेववशात् उसका पतन क्यों न हो चक ु ा हो । साधरु े व शब्ि अत्यन्त
प्रभावात्र्क हैं । ये अभक्तों को सावधान करते हैं मक आकमस्र्क पतन के कारण भक्त का उपहास नहीं मकया जाना
चामहए, उसे तब भी साधु ही र्ानना चामहए । मन्तव्यः शब्ि तो इससे भी अमधक बलशाली है । यमि कोई इस मनयर्
को नहीं र्ानता और भक्त पर उसके पतन के कारण हँसता है तो वह भगवान् के आिेश की अवज्ञा करता है । भक्त की
एकर्ात्र योग्यता यह है मक वह अमवचल तर्ा अनन्य भाव से भमक्त र्ें तत्पर रहे –
नृस्सांह पुराण र्ें मनम्नमलमखत कर्न प्राप्त है –
भगवस्त च हरावनन्यचेता
भृशमस्लनोऽस्प स्वराजते मनुष्यः ।
न स्ह शश लुषचछस्बः र्ास्चत्
स्तस्मरपराभवतामपु ैस्त चन्द्रः ।।
कहने का अर्म यह है मक यमि भगवद्भमक्त र्ें तत्पर व्यमक्त कभी घृमणत कायम करता पाया जाये तो इन कायों को
उन धब्बों की तरह र्ान लेना चामहए, मजस प्रकार चाँि र्ें खरगोश के धब्बे हैं । इन धब्बों से चाँिनी के मवस्तार र्ें बाधा
नहीं आती । इसी प्रकार साध-ु पर् से भक्त का आकमस्र्क पतन उसे मनन्िनीय नहीं बनाता ।
मकन्तु इसी के सार् यह सर्झने की भल ू नहीं करनी चामहए मक मिव्य भमक्त करने वाला भक्त सभी प्रकार के
मनन्िनीय कर्म कर सकता है । इस श्लोक र्ें के वल इसका उल्लेख है मक भौमतक सम्बन्धों की प्रबलता के कारण कभी
कोई िघु मटना हो सकती है । भमक्त तो एक प्रकार से र्ाया के मवरुद्ध यद्ध ु की घोषणा है । जब तक र्नुष्ट्य र्ाया से लड़ने
के मलए पयामप्त शमक्तशाली नहीं होता, तब तक आकमस्र्क पतन हो सकते हैं । मकन्तु बलवान होने पर ऐसे पतन नहीं
होते, जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है । र्नुष्ट्य को इस श्लोक का िरू ु पयोग करते हुए अशोभनीय कर्म नहीं करना
चामहए और यह नहीं सोचना चामहए मक इतने पर भी वह भक्त बना रह सकता है । यमि वह भमक्त के द्वारा अपना चररत्र
नहीं सुधार लेता तो उसे उच्चकोमट का भक्त नहीं र्ानना चामहए ।

नक्षप्रं भवनत धमामत्मा शश्र्वच्छानन्तं निगच्छनत ।


कौन्तेय प्रनतजािीनह ि मे भिः प्रणश्यनत ।। ३१ ।।

नक्षप्रम्– शीघ्र; भवनत– बन जाता है; धमम-आत्मा– धर्मपरायण; शश्र्वत-शानन्तम्– स्र्ायी शामन्त
को; निगच्छनत– प्राप्त करता है; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; प्रनतजािीनह– घोमषत कर िो; ि– कभी नहीं; मे–
र्ेरा; भिः– भक्त; प्रणश्यनत– नष्ट होता है ।

३०४
वह तुरन्त धमामत्मा बि जाता है और स्थायी शानन्त को प्राप्त होता है । हे कुन्तीपुत्र! निडर होकर घोषणा
कर दो नक मेरे भि का कभी नविाश िहीं होता है ।

तात्पयम : इसका कोई िसू रा अर्म नहीं लगाना चामहए । सातवें अध्याय र्ें भगवान् कहते हैं मक जो िष्ट्ु कृती
है, वह भगवद्भक्त नहीं हो सकता । जो भगवद्भक्त नहीं है, उसर्ें कोई भी योग्यता नहीं होती । तब प्रश्न यह उिता है मक
संयोगवश या स्वेच्छा से मनन्िनीय कर्ों र्ें प्रवृत्त होने वाला व्यमक्त मकस प्रकार भक्त हो सकता है ? यह प्रश्न िीक ही
है । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें कहा गया है, जो िष्टु ात्र्ा कभी भमक्त के पास नहीं िटकता, उसर्ें कोई सद्गणु नहीं
होते । श्रीमद्भागवत र्ें भी इसका उल्लेख है । सार्ान्यतया नौ प्रकार के भमक्त-कायों र्ें युक्त रहने वाला भक्त अपने हृिय
को भौमतक कल्र्ष से शद्ध ु करने र्ें लगा होता है । वह भगवान् को हृिय र्ें बसाता है, िलतः उसके सारे पापपूणम
कल्र्ष धुल जाते हैं । मनरन्तर भगवान् का मचन्तन करने से वह स्वतः शुद्ध हो जाता है । वेिों के अनुसार ऐसा मवधान है
मक यमि कोई अपने उच्चपि से नीचे मगर जाता है तो अपनी शुमद्ध के मलए उसे कुछ अनुिान करने होते हैं । मकन्तु यहाँ
पर ऐसा कोई प्रमतबन्ध नहीं है, क्योंमक शुमद्ध की मक्रया भगवान् का मनरन्तर स्र्रण करते रहने से पहले ही भक्त के हृिय
र्ें चलमत रहती है । अतः हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस र्न्त्र का
अनवरत जप करना चामहए । यह भक्त को आकमस्र्क पतन से बचाएगा । इस प्रकार वह सर्स्त भौमतक कल्र्षों से
सिैव र्क्त
ु रहेगा ।

मांनहपाथमव्यपानश्रत्ययेऽनपस्यु: पापयोियः ।
नस्त्रयोवैश्यास्तथा शुद्रास्तेऽनपयानन्तपरांगनतम् ।। ३२ ।।

माम्– र्ेरी; नह– मनश्चय ही; पाथम– हे पृर्ापत्रु ; व्यपानश्रत्य– शरण ग्रहण करके ; ये– जो; अनप– भी; स्यःु – हैं;
पाप-योियः– मनम्नकुल र्ें उत्पन्न; नस्त्रयः– मस्त्रयाँ; वैश्याः– वमणक लोग; तथा– भी; शूद्राः– मनम्न श्रेणी के
व्यमक्त; तेअनप– वे भी; यानन्त– जाते हैं; पराम्– परर्; गनतम्– गन्तव्य को ।

हे पाथम! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्िजन्मा स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शुद्र
(श्रनमक) क्यों ि हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं ।

तात्पयम : यहाँ पर भगवान् ने स्पष्ट कहा है मक भमक्त र्ें उच्च तर्ा मनम्न जाती के लोगों का भेि नहीं होता
। भौमतक जीवन र्ें ऐसा मवभाजन होता है, मकन्तु भगवान् की मिव्य भमक्त र्ें लगे व्यमक्त पर यह लागू नहीं होता । सभी
परर्धार् के अमधकारी हैं । श्रीमद्भागवत र्ें (२.४.१८) कर्न है मक अधर् योनी चाण्डाल भी शद्ध ु भक्त के संसगम से
शद्ध
ु हो जाते हैं । अतः भमक्त तर्ा शद्ध ु भक्त द्वारा पर्प्रिशमन इतने प्रबल हैं मक वहाँ ऊँचनीच का भेि नहीं रह जाता
और कोई भी इसे ग्रहण कर सकता है । शद्ध ु भक्त की शरण ग्रहण करके सार्ान्य से सार्ान्य व्यमक्त शद्ध ु हो सकता
है । प्रकृ मत के मवमभन्न गुणों के अनुसार र्नुष्ट्यों को सामत्त्वक (ब्राह्मण), रजोगुणी (क्षमत्रय) तर्ा तार्सी (वैश्य तर्ा शद्रु )
कहा जाता है । इनसे भी मनम्न परुु ष चाण्डाल कहलाते हैं और वे पापी कुलों र्ें जन्र् लेते हैं । सार्ान्य रूप से उच्चकुल
वाले इन मनम्नकुल र्ें जन्र् लेने वालों की संगमत नहीं करते । मकन्तु भमक्तयोग इतना प्रबल होता है मक भगवद्भक्त
सर्स्त मनम्नकुल वाले व्यमक्तयों को जीवन की परर् मसमद्ध प्राप्त करा सकते हैं । यह तभी सम्भव है जब कोई कृ ष्ट्ण की

३०५
शरण र्ें जाये । जैसा मक व्यपास्श्रत्य शब्ि से सूमचत है, र्नुष्ट्य को पूणमतया कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करनी चामहए । तब वह
बड़े से बड़े ज्ञानी तर्ा योगी से भी र्हान बन सकता है ।

नकंपुिब्रामह्मणाःपुण्याभिाराजषमयस्तथा ।
अनित्यमसुखंलोकनममंप्राप्यभजस्वमाम् ।। ३३ ।।

नकम्– क्या, मकतना; पिु ः– मिर; ब्राह्मणाः– ब्राह्मण; पण्ु याः– धर्ामत्र्ा; भिाः– भक्तगण; राज-ऋषयः –
साधु राजे; तथा– भी; अनित्यम्– नाशवान; असुखम्– िख ु र्य; लोकम्– लोक को; इमम्– इस; प्राप्य– प्राप्त
करके ; भजस्व– प्रेर्ाभमक्त र्ें लगो; माम्– र्ेरी ।

निर धमामत्मा ब्राह्मणों, भिों तथा राजनषमयों के नलए तो कहिा ही क्या है! अतः इस क्षनणक दुखमय
संसार में आ जािे पर मेरी प्रेमाभनि में अपिे आपको लगाओ ।

तात्पयम : इस संसार र्ें कई श्रेमणयों के लोग हैं, मकन्तु तो भी यह संसार मकसी के मलए सुखर्य स्र्ान नहीं है ।
यहाँ स्पष्ट कहा गया है – अस्नत्यम् असुखां लो म्– यह जगत् अमनत्य तर्ा िख ु र्य है और मकसी भी भले र्नुष्ट्य के
रहने लायक नहीं है । भगवान् इस संसार को क्षमणक तर्ा िख ु र्य घोमषत कर रहे हैं । कुछ िाशममनक, मवशेष रूप से
र्ायावािी, कहते हैं मक यह संसार मर्थ्या है, मकन्तु भगवद्गीता से हर् यह जान सकते हैं मक यह संसार मर्थ्या नहीं है,
यह अमनत्य है । अमनत्य तर्ा मर्थ्या र्ें अन्तर है । यह संसार अमनत्य है, मकन्तु एक िसू रा भी संसार है जो मनत्य है । यह
संसार िख ु र्य है, मकन्तु िसू रा संसार मनत्य तर्ा आनन्िर्य है ।
अजमनु का जन्र् ऋमषतल्ु य राजकुल र्ें हुआ र्ा । अतः भगवान् उससे भी कहते हैं, “र्ेरी सेवा करो, और शीघ्र
ही र्ेरे धार् को प्राप्त करो ।” मकसी को भी इस अमनत्य संसार र्ें नहीं रहना चामहए, क्योंमक यह िख ु र्य है । प्रत्येक
व्यमक्त को भगवान् के हृिय से लगना चामहए, मजससे वह सिैव सख ु ी रह सके । भगवद्भमक्त ही एकर्ात्र ऐसी मवमध है
मजसके द्वारा सभी वगों के लोगों की सारी सर्स्याएँ सुलझाई जा सकती हैं । अतः प्रत्येक व्यमक्त को कृ ष्ट्णभावनार्ृत
स्वीकार करके अपने जीवन को सिल बनाना चामहए ।

मन्मिाभवमििोमद्याजीमांिमस्कुरु ।
मामेवैष्ट्यनसयुक्त्वैवमात्मिंमत्परायणः ।। ३४ ।।

मत्–मिाः - सिैव र्ेरा मचन्तन करने वाला; भव– होओ; मत्– र्ेरा; भिः– भक्त; मत्– र्ेरा; याजी–
उपासक; माम्– र्झु को; िमस्कुरु– नर्स्कार करो; माम्– र्झु को; एव– मनश्चय ही; एष्ट्यनस– पाओगे; युक्त्वा– लीन
होकर; एवम्– इस प्रकार; आत्मािम्– अपनी आत्र्ा को; मत्-परायणः – र्ेरी भमक्त र्ें अनरु क्त ।

अपिे मि को मेरे नित्य नचन्ति में लगाओ, मेरे भि बिो, मझ ु े िमस्कार करो और मेरी ही पज
ू ा करो ।
इस प्रकार मुझमें पूणमतया तल्लीि होिे पर तुम निनश्चत रूप से मुझको प्राप्त होगे ।

३०६
तात्पयम : इस श्लोक र्ें स्पष्ट इमं गत है मक इस कल्र्षग्रस्त भौमतक जगत् से छुटकारा पाने का एकर्ात्र साधन
कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । कभी-कभी कपटी भाष्ट्यकार इस स्पष्ट कर्न को तोड़र्रोड़ कर अर्म करते हैं : मक सारी भमक्त
भगवान् कृ ष्ट्ण को सर्मपमत की जानी चामहए । िभु ामग्यवश ऐसे भाष्ट्यकार पािकों का ध्यान ऐसी बात की ओर आकमषमत
करते हैं जो सम्भव नहीं है । ऐसे भाष्ट्यकार यह नहीं जानते मक कृ ष्ट्ण के र्न तर्ा कृ ष्ट्ण र्ें कोई अन्तर नहीं है । कृ ष्ट्ण
कोई सार्ान्य र्नुष्ट्य नहीं है, वे परर्ेश्र्वर हैं । उनका शरीर, उनका र्न तर्ा स्वयं वे एक हैं और परर् हैं । जैसा
मक ू मदपुराण र्ें कहा गया है और भमक्तमसद्धान्त सरस्वती गोस्वार्ी ने चैतन्यचररतामृत (पंचर् अध्याय, आमि लीला
४१-४८) के अनभु ाष्ट्य र्ें उद्धतृ मकया है – र्ेहर्ेहीस्वभेर्ोऽयां नेश्र्वरे स्वयते क्तवस्चत् – अर्ामत् परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण र्ें तर्ा
उनके शरीर र्ें कोई अन्तर नहीं है । लेमकन इस कृ ष्ट्णतत्त्व को न जानने के कारण भाष्ट्यकार कृ ष्ट्ण को मछपाते हैं और
उनको उनके र्न या शरीर से पृर्क् बताते हैं । यद्यमप यह कृ ष्ट्णतत्त्व के प्रमत मनरी अज्ञानता है, मकन्तु कुछ लोग जनता
को भ्रमर्त करके धन कर्ाते हैं ।
कुछ लोग आसुरी होते हैं, वे भी कृ ष्ट्ण का मचन्तन करते हैं मकन्तु ईष्ट्यामवश, मजस तरह कृ ष्ट्ण का र्ार्ा कंस करता
र्ा । वह भी कृ ष्ट्ण का मनरन्तर मचन्तन करता रहता र्ा, मकन्तु वह उन्हें शत्रु रूप र्ें सोचता र्ा । वह सिैव मचन्ताग्रस्त
रहता र्ा और सोचता रहता र्ा मक न जाने कब कृ ष्ट्ण उसका वध कर िें । इस प्रकार के मचन्तन से हर्ें कोई लाभ होने
वाला नहीं है । र्नुष्ट्य को चामहए मक भमक्तर्य प्रेर् र्ें उनका मचन्तन करे । यही भमक्त है । उसे चामहए मक वह मनरन्तर
कृ ष्ट्णतत्त्व का अनुशीलन करे । तो वह उपयुक्त अनुशीलन क्या है? यह प्रार्ामणक गुरु से सीखना है । कृ ष्ट्ण भगवान् हैं
और हर् कई बार कह चक ु े हैं मक उनका शरीर भौमतक नहीं है अमपतु समच्चिानन्ि स्वरूप है । इस [प्रकार की चचाम से
र्नुष्ट्य को भक्त बनने र्ें सहायता मर्लेगी । अन्यर्ा अप्रार्ामणक साधन से कृ ष्ट्ण का ज्ञान प्राप्त करना व्यर्म होगा ।
अतः र्नुष्ट्य को कृ ष्ट्ण के आमि रूप र्ें र्न को मस्र्र करना चामहए, उसे अपने र्न र्ें यह दृढ़ मवश्र्वास करके
पूजा करने र्ें प्रवृत्त होना चामहए मक कृ ष्ट्ण ही परर् हैं । कृ ष्ट्ण की पूजा के मलए भारत र्ें हजारों र्मन्िर हैं, जहाँ पर भमक्त
का अभ्यास मकया जाता है । जब ऐसा अभ्यास हो रहा हो तो र्नष्ट्ु य को चामहए मक कृ ष्ट्ण को नर्स्कार करे । उसे
अचममवग्रह के सर्क्ष नतर्स्तक होकर र्नसा वाचा कर्मणा हर प्रकार से प्रवृत्त होना चामहए । इससे वह कृ ष्ट्णभाव र्ें
पणू मतया तल्लीन हो सके गा । इससे वह कृ ष्ट्णलोक को जा सके गा । उसे चामहए मक कपटी भाष्ट्यकारों के बहकावे र्ें न
आए । उसे श्रवण, कीतमन आमि नवधा भमक्त र्ें प्रवृत्त होना चामहए । शुद्ध भमक्त र्ानव सर्ाज की चरर् उपलमब्ध है ।
भगवद्गीता के सातवें तर्ा आिवें अध्यायों र्ें भगवान् की ऐसी शुद्ध भमक्त की व्याख्या की गई है, जो कल्पना,
योग तर्ा सकार् कर्म से र्क्त ु है । जो पूणमतया शद्ध
ु नहीं हो पाते वे भगवान् के मवमभन्न स्वरूपों द्वारा तर्ा मनमवमशेषवािी
ब्रह्मजयोमत तर्ा अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा द्वारा आकृ ष्ट होते हैं, मकन्तु शद्ध
ु भक्त तो परर्ेश्र्वर की साक्षात् सेवा करता है ।
कृ ष्ट्ण सम्बन्धी एक उत्तर् पद्य र्ें कहा गया है मक जो व्यमक्त िेवताओ ं की पूजा र्ें रत हैं, वे सवाममधक अज्ञानी हैं,
उन्हें कभी भी कृ ष्ट्ण का चरर् वरिान प्राप्त नहीं हो सकता । हो सकता है मक प्रारम्भ र्ें कोई भक्त अपने स्तर से नीचे मगर
जाये, तो भी उसे अन्य सारे िाशममनक तर्ा योमगयों से श्रेि र्ानना चामहए । जो व्यमक्त मनरन्तर कृ ष्ट्ण भमक्त र्ें लगा रहता
है, उसे पूणम साधपु ुरुष सर्झना चामहए । क्रर्शः उसके आकमस्र्क भमक्त-मवहीन कायम कर् होते जाएँगे और उसे शीघ्र
ही पणू म मसमद्ध प्राप्त होगी । वास्तव र्ें शद्ध ु भक्त के पतन का कभी कोई अवसर नहीं आता, क्योंमक भगवान् स्वयं ही
अपने शद्ध ु भक्तों की रक्षा करते हैं । अतः बुमद्धर्ान र्नुष्ट्य को चामहए मक वह सीधे कृ ष्ट्णभावनार्ृत पर् का ग्रहण करे
और ससं ार र्ें सख ु पवू मक जीवन मबताए । अन्ततोगत्वा वह कृ ष्ट्ण रूपी परर् परु स्कार प्राप्त करे गा ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े नवें अध्याय ”परम गुह्य ज्ञान” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

३०७
अध्याय दस
श्रीभगवाि् का ऐश्वयम
श्रीभगवानवु ाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः ।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यानम नहतकाम्यया ।। १ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; भूयः– मिर; एव– मनश्चय ही; महा-बाहो– हे बमलष्ट भजु ाओ ं
वाले; शृण–ु सुनो; मे– र्ेरा; परमम्– परर्; वचः– उपिेश; यत्– जो; ते– तुर्को; अहम्– र्ैं; प्रीयमाणाय– अपना
मप्रय र्ानकर; वक्ष्यानम– कहता ह;ँ नहत-काम्यया– तुम्हारे महत (लाभ) के मलए ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हे महाबाहु अजमुि! और आगे सुिो । चूूँनक तुम मेरे नप्रय सखा हो, अतः मैं तुम्हारे
लाभ के नलए ऐसा ज्ञाि प्रदाि करूूँगा, जो अभी तक मेरे द्वारा बताये गये ज्ञाि से श्रेष्ठ होगा ।

तात्पयम : पराशर र्ुमन ने भगवान् शब्ि की व्याख्या इस प्रकार की है – जो पूणम रूप से षड् ऐश्र्वयों – सम्पूणम
शमक्त, सम्पणू म यश, सम्पणू म धन, सम्पूणम ज्ञान, सम्पणू म सौन्ियम तर्ा सम्पणू म त्याग – से यक्त
ु है, वह भगवान् है । जब कृ ष्ट्ण
इस धराधार् र्ें र्े, तो उन्होंने छहों ऐश्र्वयों का प्रिशमन मकया र्ा, िलतः पराशर जैसे र्ुमनयों ने कृ ष्ट्ण को भगवान् रूप र्ें
स्वीकार मकया है । अब अजुमन को कृ ष्ट्ण अपने ऐश्र्वयों तर्ा कायम का और भी गुह्य ज्ञान प्रिान कर रहे हैं । इसके पूवम
सातवें अध्याय से प्रारम्भ करके वे अपनी शमक्तयों तर्ा उनके कायम करने के मवषय र्ें बता चक ु े हैं । अब इस अध्याय र्ें
वे अपने ऐश्र्वयों का वणमन कर रहे हैं । मपछले अध्याय र्ें उन्होंने दृढ़ मवश्र्वास के सार् भमक्त स्र्ामपत करने र्ें अपनी
मवमभन्न शमक्तयों के योगिान की चचाम स्पष्टतया की है । इस अध्याय र्ें पुनः वे अजुमन को अपनी सृमष्टयों तर्ा मवमभन्न
ऐश्र्वयों के मवषय र्ें बता रहे हैं ।
जयों-जयों भगवान् के मवषय र्ें कोई सुनता है, त्यों-त्यों वह भमक्त र्ें रर्ता जाता है । र्नुष्ट्य को चामहए मक भक्तों
की संगमत र्ें भगवान् के मवषय र्ें सिा श्रवण करे , इससे उसकी भमक्त बढ़ेगी । भक्तों के सर्ाज र्ें ऐसी चचामएँ के वल उन
लोगों के बीच हो सकती हैं, जो सचर्चु कृ ष्ट्णभावनार्ृत के इच्छुक हों । ऐसी चचामओ ं र्ें अन्य लोग भाग नहीं ले
सकते । भगवान् अजुमन से स्पष्ट शब्िों र्ें कहते हैं मक चँमू क तुर् र्झु े अत्यन्त मप्रय हो, अतः तुम्हारे लाभ के मलए ऐसी
बातें कह रहा हँ ।

ि मे नवदु: सरु गणाः प्रभवं ि महषमयः ।


अहमानदनहम देवािां महषीणां च सवमशः ।। २ ।।

ि– कभी नहीं; मे– र्ेरे; नवदुः- जानते हैं; सुर-गणाः – िेवता; प्रभवम्– उत्पमत्त या ऐश्र्वयम को; ि– कभी
नहीं; महा-ऋषयः– बड़े-बड़े ऋमष; अहम्– र्ैं ह;ँ आनदः– उत्पमत्त; नह– मनश्चय ही; देवािाम्– िेवताओ ं का; महा-
ऋषीणाम्– र्हमषमयों का; च– भी; सवमशः– सभी तरह से ।

३०८
ि तो देवतागण मेरी उत्पनत्त या ऐश्र्वयम को जािते हैं और ि महनषमगण ही जािते हैं, क्योंनक मैं सभी
प्रकार से देवताओ ं और महनषमयों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ ।

तात्पयम : जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें कहा गया है, भगवान् कृ ष्ट्ण ही परर्ेश्र्वर हैं । उनसे बढ़कर कोई नहीं है, वे
सर्स्त कारणों के कारण हैं । यहाँ पर भगवान् स्वयं कहते हैं मक वे सर्स्त िेवताओ ं तर्ा ऋमषयों के कारण हैं । िेवता
तर्ा र्हमषम तक कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ पाते । जब वे उनके नार् या उनके व्यमक्तत्व को नहीं सर्झ पाते तो इस क्षद्रु लोक
के तर्ाकमर्त मवद्वानों के मवषय र्ें क्या कहा जा सकता है? कोई नहीं जानता मक परर्ेश्र्वर क्यों र्नुष्ट्य रूप र्ें इस पृथ्वी
पर आते हैं और ऐसे मवस्र्यजनक असार्ान्य कायमकलाप करते हैं । तब तो यह सर्झ लेना चामहए मक कृ ष्ट्ण को जानने
के मलए मवद्वता आवश्यक नहीं है । बड़े-बड़े िेवताओ ं तर्ा ऋमषयों ने र्ानमसक मचन्तन द्वारा कृ ष्ट्ण को जानने का प्रयास
मकया, मकन्तु जान नहीं पाये । श्रीमद्भागवत र्ें भी स्पष्ट कहा गया है मक बड़े से बड़े िेवता भी भगवान् को नहीं जान
पाते । जहाँ तक उनकी अपूणम इमन्द्रयाँ पहुँच पाती हैं, वहीं तक वे सोच पाते हैं और मनमवमशेषवाि के ऐसे मवपरीत मनष्ट्कषम
को प्राप्त होते हैं, जो प्रकृ मत के तीनों गुणों द्वारा व्यक्त नहीं होता, या मक वे र्नः-मचन्तन द्वारा कुछ कल्पना करते हैं,
मकन्तु इस तरह के र्ख ू मतापूणम मचन्तन से कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झा जा सकता ।
यहाँ पर भगवान् अप्रत्यक्ष रूप र्ें यह कहते हैं मक यमि कोई परर्सत्य को जानना चाहता है तो , “लो, र्ैं
भगवान् के रूप र्ें यहाँ हँ । र्ैं परर् भगवान् हँ ।” र्नुष्ट्य को चामहए मक इसे सर्झे । यद्यमप अमचन्त्य भगवान् को
साक्षात् रूप र्ें कोई नहीं जान सकता, तो भी वे मवद्यर्ान रहते हैं । वास्तव र्ें हर् समच्चिानन्ि रूप कृ ष्ट्ण को तभी
सर्झ सकते हैं, जब भगवद्गीता तर्ा श्रीमद्भागवत र्ें उनके वचनों को पढ़ें । जो भगवान् की अपरा शमक्त र्ें हैं, उन्हें
ईश्र्वर की अनुभमू त मकसी शासन करने वाली शमक्त या मनमवमशेष ब्रह्म रूप र्ें होती हैं, मकन्तु भगवान् को जानने के मलए
मिव्य मस्र्मत र्ें होना आवश्यक है ।
चँमू क अमधकांश लोग कृ ष्ट्ण को उनके वास्तमवक रूप र्ें नहीं सर्झ पाते, अतः वे अपनी अहैतुकी कृ पा से ऐसे
मचन्तकों पर िया मिखाने के मलए अवतररत होते हैं । ये मचन्तक भगवान् के असार्ान्य कायमकलापों के होते हुए भी
भौमतक शमक्त (र्ाया) से कल्र्षग्रस्त होने के कारण मनमवमशेष ब्रह्म को ही सवमश्रेि र्ानते हैं । के वल भक्तगण ही जो
भगवान् की शरण पूणमतया ग्रहण कर चुके हैं, भगवत्कृ पा से सर्झ पाते हैं मक कृ ष्ट्ण सवमश्रेि हैं । भगवद्भक्त मनमवमशेष
ब्रह्म की परवाह नहीं करते । वे अपनी श्रद्धा तर्ा भमक्त के कारण परर्ेश्र्वर की शरण ग्रहण करते हैं और कृ ष्ट्ण की
अहैतुकी कृ पा से ही उन्हें सर्झ पाते हैं । अन्य कोई उन्हें नहीं सर्झ पाता । अतः बड़े से बड़े ऋमष भी स्वीकार करते हैं
मक आत्र्ा या परर्ात्र्ा तो वह है, मजसकी हर् पूजा करते हैं ।

यो मामजमिानदं च वेनत्त लोक महेश्र्वरम् ।


असम्मूढः स मत्येषु सवमपापै: प्रमुच्यते ।। ३ ।।

यः– जो; माम्– र्झु को; अजम्– अजन्र्ा; अिानदम्– अमिरमहत; च– भी; वेनत्त– जानता है; लोक– लोकों
का; महा-ईश्र्वरम्– परर् स्वार्ी; असम्मढू ः– र्ोहरमहत; सः– वह; मत्येष–ु र्रणशील लोगों र्ें; सवम-पापैः– सारे
पापकर्ों से; प्रमुच्यते– र्क्त
ु हो जाता है ।

३०९
जो मुझे अजन्मा, अिानद, समस्त लोकों के स्वामी के रूप में जािता है, मिुष्ट्यों में के वल वही
मोहरनहत और समस्त पापों से मुि होता है ।

तात्पयम : जैसा मक सातवें अध्याय र्ें (७.३) कहा गया है – मनुष्याणाां सहस्त्रेषु स्ियतस्त स्सद्धये– जो लोग
आत्र्-साक्षात्कार के पि तक उिने के मलए प्रयत्नशील होते हैं, वे सार्ान्य व्यमक्त नहीं हैं, वे उन करोड़ो सार्ान्य
व्यमक्तयों से श्रेि हैं, मजन्हें आत्र्-साक्षात्कार का ज्ञान नहीं होता । मकन्तु जो वास्तव र्ें अपनी आध्यामत्र्क मस्र्मत को
सर्झने के मलए प्रयत्नशील होते हैं, उनर्ें से श्रेि वही है, जो यह जान लेता है मक कृ ष्ट्ण ही भगवान्, प्रत्येक वस्तु के
स्वार्ी तर्ा अजन्र्ा हैं, वही सबसे अमधक सिल अध्यात्र्ज्ञानी है । जब वह कृ ष्ट्ण की परर् मस्र्मत को पूरी तरह सर्झ
लेता है, उसी िशा र्ें वह सर्स्त पापकर्ों से र्क्त ु हो पाता है ।
यहाँ पर भगवान् को अज अर्ामत् अजन्र्ा कहा गया है, मकन्तु वे मद्वतीय अध्याय र्ें वमणमत उन जीवों से मभन्न
हैं, मजन्हें अज कहा गया है । भगवान् जीवों से मभन्न हैं, क्योंमक जीव भौमतक आसमक्तवश जन्र् लेते तर्ा र्रते रहते
हैं । बद्धजीव अपना शरीर बिलते रहते हैं, मकन्तु भगवान् का शरीर पररवतमनशील नहीं है । यहाँ तक मक जब वे इस
लोक र्ें आते हैं तो भी उसी अजन्र्ा रूप र्ें आते हैं । इसीमलए चौर्े अध्याय र्ें कहा गया है मक भगवान् अपनी
अन्तरंगा शमक्त के कारण अपराशमक्त र्ाया के अधीन नहीं हैं, अमपतु पराशमक्त र्ें रहते हैं ।
इस श्लोक के वेस्त्त लो महेश्र्वरम् शब्िों से सूमचत होता है मक र्नुष्ट्य को यह जानना चामहए मक भगवान् कृ ष्ट्ण
ब्रह्माण्ड के सभी लोकों के परर् स्वार्ी हैं । वे सृमष्ट के पूवम र्े और अपनी सृमष्ट से मभन्न हैं । सारे िेवता इसी भौमतक
जगत् र्ें उत्पन्न हुए, मकन्तु कृ ष्ट्ण अजन्र्ा हैं, िलतः वे ब्रह्मा तर्ा मशवजी जैसे बड़े-बड़े िेवताओ ं से भी मभन्न हैं और
चँमू क वे ब्रह्मा, मशव तर्ा अन्य सर्स्त िेवताओ ं से स्त्रष्टा हैं, अतः वे सर्स्त लोकों के परर् पुरुष हैं ।
अतएव श्रीकृ ष्ट्ण उस हर वस्तु से मभन्न हैं, मजसकी सृमष्ट हुई है और जो उन्हें इस रूप र्ें जान लेता है, वह तुरन्त
ही सारे पापकर्ों से र्क्त ु हो जाता है । परर्ेश्र्वर का ज्ञान प्राप्त करने के मलए र्नष्ट्ु य को सर्स्त पापकर्ों से र्क्त ु होना
चामहए । जैसा मक भगवद्गीता र्ें कहा गया है मक उन्हें के वल भमक्त के द्वारा जाना जा सकता है, मकसी अन्य साधन से
नहीं ।
र्नुष्ट्य को चामहए मक कृ ष्ट्ण को सार्ान्य र्नुष्ट्य न सर्झे । जैसा मक पहले ही कहा जा चक ु ा है, के वल र्ख
ु म
व्यमक्त ही उन्हें र्नुष्ट्य र्नाता है । इसे यहाँ मभन्न प्रकार से कहा गया है । जो व्यमक्त र्ख ु म नहीं है, जो भगवान् के स्वरूप
को िीक से सर्झ सकता है, वह सर्स्त पापकर्ों से र्क्त ु है ।
यमि कृ ष्ट्ण िेवकीपुत्र रूप र्ें मवख्यात हैं, तो मिर अजन्र्ा कै से हो सकते है? इसकी व्याख्या श्रीमद्भागवत र्ें भी
की गई है – जब वे िेवकी तर्ा वसुिेव के सर्क्ष प्रकट हुए तो वे सार्ान्य मशशु की तरह नहीं जन्र्े । वे अपने आमि रूप
र्ें प्रकट हुए और मिर एक सार्ान्य मशशु र्ें पररणत हो गए ।
कृ ष्ट्ण की अध्यक्षता र्ें जो भी कर्म मकया जाता है, वह मिव्य है । वह शभु या अशभु िलों से िमू षत नहीं
होता । इस जगत् र्ें शभु या अशभु वस्तुओ ं का बोध बहुत कुछ र्नोधर्म है, क्योंमक इस भौमतक जगत् र्ें कुछ भी शभु
नहीं है । प्रत्येक वस्तु अशभु है, क्योंमक प्रकृ मत स्वयं ही अशभु है । हर् इसे शभु र्ानने की कल्पना र्ात्र करते
हैं । वास्तमवक र्ंगल तो पूणमभमक्त और सेवाभाव से युक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत पर ही मनभमर करता हैं । अतः यमि हर् तमनक
भी चाहते हैं मक हर्ारे कर्म शभु हों तो हर्ें परर्ेश्र्वर की आज्ञा से कर्म करना होगा । ऐसी
आज्ञा श्रीमद्भागवत तर्ा भगवद्गीता जैसे शास्त्रों से या प्रार्ामणक गुरु से प्राप्त की जा सकती है । चँमू क गुरु भगवान् का
प्रमतमनमध होता है, अतः उसकी आज्ञा प्रत्यक्षतः परर्ेश्र्वर की आज्ञा होती है । गुरु, साधु तर्ा शास्त्र एक ही प्रकार से

३१०
आज्ञा िेते हैं । इन तीनों स्त्रोतों र्ें कोई मवरोध नहीं होता । इस प्रकार से मकये गये सारे कायम इस जगत् के शभु ाशभु
कर्मिलों से र्क्तु होते हैं । कर्म सम्पन्न करते हुए भक्त की मिव्य र्नोवृमत्त वैराग्य की होती है, मजसे संन्यास कहते
हैं । जैसा मक भगवद्गीता के छिे अध्याय के प्रर्र् श्लोक र्ें कहा गया है मक, जो भगवान् का आिेश र्ानकर कोई
कतमव्य करता है और जो अपने कर्मिलों की शरण ग्रहण नहीं करता (अनास्श्रतः मदफलम्), वही असली संन्यासी
है । जो भगवान् के मनिेशानुसार कर्म करता है, वास्तव र्ें संन्यासी तर्ा योगी वही है, के वल संन्यासी या छद्म योगी के
वेश र्ें रहने वाला व्यमक्त नहीं ।

बुनद्धज्ञामिसम्मोहः क्षमा सत्यं दमः शमः ।


सखु ं दु:खं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ।। ४ ।।
अनहंसा समता तुनष्टस्तपो दािं यशोऽयशः ।
भवनन्त भावा भूतािां मत्त एव पृथनग्वधाः ।। ५ ।।

बुनद्धः– बुमद्ध;ज्ञािम्– ज्ञान; असम्मोहः– संशय से रमहत; क्षमा– क्षर्ा;सत्यम्– सत्यता; दमः– इमन्द्रयमनग्रह;
शमः– र्न का मनग्रह; सुखम्– सुख; दुःखम्– िख ु ; भवः– जन्र्; अभावः– र्ृत्यु; भयम्– डर; च– भी; अभयम्–
मनभीकता; एव– भी; च– तर्ा; अनहंसा– अमहसं ा; समता– सर्भाव; तुनष्टः– सन्तोष; तपः– तपस्या; दािम्–
िान; यशः– यश; अयशः– अपयश, अपकीमतम; भवनन्त– होते हैं; भावाः– प्रकृ मतयाँ; भूतािाम्– जीवों की;मत्तः–
र्झु से;एव– मनश्चय ही; पृथक् -नवधाः – मभन्न-मभन्न प्रकार से व्यवमस्र्त ।

बुनद्ध, ज्ञाि, संशय तथा मोह से मुनि, क्षमाभाव, सत्यता, इनन्द्रयनिग्रह, मिनिग्रह, सुख तथा
दुख, जन्म, मृत्य,ु भय, अभय, अनहसं ा, समता, तनु ष्ट, तप, दाि, यश तथा अपयश – जीवों के ये नवनवध गण

मेरे ही द्वारा उत्पन्ि हैं ।

तात्पयम : जीवों के अच्छे या बुरे गुण कृ ष्ट्ण द्वारा उत्पन्न हैं और यहाँ पर उनका वणमन मकया गया है । बुमद्ध का
अर्म है नीर-क्षीर मववेक करने वाली शमक्त, और ज्ञान का अर्म है, आत्र्ा तर्ा पिार्म को जान लेना । मवश्र्वमवद्यालय
की मशक्षा से प्राप्त सार्ान्य ज्ञान पिार्म से सम्बमन्धत होता है, यहाँ इसे ज्ञान नहीं स्वीकार मकया गया है । ज्ञान का अर्म है
आत्र्ा तर्ा भौमतक पिार्म के अन्तर को जानना । आधुमनक मशक्षा र्ें आत्र्ा के मवषय र्ें कोई ज्ञान नहीं मिया
जाता, के वल भौमतक तत्त्वों तर्ा शारीररक आवश्यकताओ ं पर ध्यान मिया जाता है । िलस्वरूप शैमक्षक ज्ञान पूणम नहीं
है ।
असम्मोह अर्ामत् संशय तर्ा र्ोह से र्मु क्त तभी प्राप्त हो सकती है, जब र्नुष्ट्य मझझकता नहीं और मिव्य िशमन
को सर्झता है । वह धीरे -धीरे मनमश्चत रूप से र्ोह से र्क्त ु हो जाता है । हर बात को सतकम तापूवमक ग्रहण करना
चामहए, आँख र्ँिू कर कुछ भी स्वीकार नहीं करना चामहए । क्षमा का अभ्यास करना चामहए । र्नुष्ट्य को समहष्ट्णु होना
चामहए और िसू रों के छोटे-छोटे अपराध क्षर्ा कर िेना चामहए । सत्यम् का अर्म है मक तथ्यों को सही रूप से अन्यों के
लाभ के मलए प्रस्ततु मकया जाए । तथ्यों को तोड़ना र्रोड़ना नहीं चामहए । सार्ामजक प्रर्ा के अनुसार कहा जाता है मक
वही सत्य बोलना चामहए जो अन्यों को मप्रय लगे । मकन्तु यह सत्य नहीं है । सत्य को सही-सही रूप र्ें बोलना
चामहए, मजससे िसू रे लोग सर्झ सकें मक सच्चाई क्या है । यमि कोई र्नुष्ट्य चोर है और यमि लोगों को सावधान कर

३११
मिया जाय मक अर्क ु व्यमक्त चोर है, तो यह सत्य है । यद्यमप सत्य कभी-कभी अमप्रय होता है, मकन्तु सत्य कहने र्ें
संकोच नहीं करना चामहए । सत्य की र्ाँग है मक तथ्यों को यर्ारूप र्ें लोकमहत के मलएप्रस्तुत मकया जाय । यही सत्य
की पररभाषा है ।
र्मः का अर्म है मक इमन्द्रयों को व्यर्म के मवषयभोग र्ें न लगाया जाय । इमन्द्रयों की सर्ुमचत आवश्यकताओ ं की
पूमतम का मनषेध नहीं है, मकन्तु अनावश्यक इमन्द्रयभोग आध्यामत्र्क उन्नमत र्ें बाधक है । िलतः इमन्द्रयों के अनावश्यक
उपयोग पर मनयन्त्रण रखना चामहए । इसी प्रकार र्न पर भी अनावश्यक मवचारों के मवरुद्ध संयर् रखना
चामहए । इसे शम कहते हैं । र्नुष्ट्य को चामहए मक धन-अजमन के मचन्तन र्ें ही सारा सर्य न गँवाए । यह मचन्तन शमक्त
का िरू ु पयोग है । मन का उपयोग र्नुष्ट्यों की र्ल ू आवश्यकताओ ं को सर्झने के मलए मकया जाना चामहए और उसे ही
प्रर्ाणपवू मक प्रस्ततु करना चामहए । शास्त्रर्र्मज्ञों, साधपु रुु षों, गरुु ओ ं तर्ा र्हान मवचारकों की सगं मत र्ें रहकर मवचार-
शमक्त का मवकास करना चामहए । मजस प्रकार से कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अध्यामत्र्क ज्ञान के अनुशीलन र्ें सुमवधा ही
वही सुखम् है । इसी प्रकार र्ःु खम् वह है मजससे कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अनुशीलन र्ें असुमवधा हो । जो कुछ
कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मवकास के अनुकूल हो, उसे स्वीकार करे और जो प्रमतकूल हो उसका पररत्याग करे ।
भव अर्ामत् जन्र् का सम्बन्ध शरीर से है । जहाँ तक आत्र्ा का प्रश्न है, वह न तो उत्पन्न होता है न र्रता
है । इसकी व्याख्या हर् भगवद्गीता के प्रारम्भ र्ें ही कर चक ु े हैं । जन्र् तर्ा र्ृत्यु का संबंध इस भौमतक जगत् र्ें शरीर
धारण करने से है । भय तो भमवष्ट्य की मचन्ता से उद्भूत है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहने वाला व्यमक्त कभी भयभीत नहीं
होता, क्योंमक वह अपने कर्ों के द्वारा भगवद्धार् को वापस जाने के प्रमत आश्र्वस्त रहता है । िलस्वरूप उसका
भमवष्ट्य उजजवल होता है । मकन्तु अन्य लोग अपने भमवष्ट्य के मवषय र्ें कुछ नहीं जानते, उन्हें इसका कोई ज्ञान नहीं
होता मक अगले जीवन र्ें क्या होगा । िलस्वरूप वे मनरन्तर मचन्ताग्रस्त रहते हैं । यमि हर् मचन्तार्क्त ु होना चाहते हैं, तो
सवोत्तर् उपाय यह है मक हर् कृ ष्ट्ण को जाने तर्ा कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनरन्तर मस्र्त रहें । इस प्रकार हर् सर्स्त भय से
र्क्त
ु रहेंगे । श्रीमद्भागवत र्ें (११.२.३७) कहा गया है – भयां स्ितीयास्भस्नवेशतः स्यात् – भय तो हर्ारे र्ायापाश र्ें
िँ स जाने से उत्पन्न होता है । मकन्तु जो र्ाया के जाल से र्क्त ु हैं, जो आश्र्वस्त हैं मक वे शरीर नहीं, अमपतु भगवान् के
अध्यामत्र्क अश ं हैं और जो भगवद्भमक्त र्ें लगे हु ए हैं , उन्हें कोई भय नहीं रहता । उनका भमवष्ट्य अत्यन्त उजजवल
है । यह भय तो उन व्यमक्तयों की अवस्र्ा है जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें नहीं हैं । अभयम् तभी सम्भव है जब कृ ष्ट्णभावनार्ृत
र्ें रहा जाए ।
अस्हसां ा का अर्म होता है की अन्यों को कष्ट न पहुचँ ाया जाय । जो भौमतक कायम अनेकानेक
राजनीमतज्ञों, सर्ाजशामस्त्रयों, परोपकाररयों आमि द्वारा मकये जाते हैं, उनके पररणार् अच्छे नहीं मनकलते, क्योंमक
राजनीमतज्ञों, सतर्ा परोपकाररयों की मिव्यदृमष्ट नहीं होती, वे यह नहीं जानते मक वास्तव र्ें र्ानव सर्ाज के मलए क्या
लाभप्रि है । अमहसं ा का अर्म है मक र्नुष्ट्यों को इस प्रकार से प्रमशमक्षत मकया जाए मक इस र्ानविेह का पूरा-पूरा
उपयोग हो सके । र्ानविेह आत्र्-साक्षात्कार के हेतु मर्ली है । अतः ऐसी कोई संस्र्ा या संघ मजससे उद्देश्य की पूमतम र्ें
प्रोत्साहन न हो, र्ानविेह के प्रमत महसं ा करने वाला है । मजससे र्नुष्ट्यों के भावी आध्यामत्र्क सुख र्ें वृमद्ध हो, वही
अमहसं ा है ।
समता से राग-द्वेष से र्क्त
ु ो द्योमतत होती है । न तो अत्यमधक राग अच्छा होता है और न अत्यमधक द्वेष ही । इस
भौमतक जगत् को राग-द्वेष से रमहत होकर स्वीकार करना चामहए । जो कुछ कृ ष्ट्णभावनार्ृत को सम्पन्न करने र्ें
अनुकूल हो, उसे ग्रहण करे और जो प्रमतकूल हो उसका त्याग कर िे । यही सर्ता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत युक्त व्यमक्त को

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न तो कुछ ग्रहण करना होता है, न त्याग करना होता है । उसे तो कृ ष्ट्णभावनार्ृत सम्पन्न करने र्ें उसकी उपयोमगता से
प्रयोजन रहता है ।
तुस्ष्ट का अर्म है मक र्नुष्ट्य को चामहए मक अनावश्यक कायम करके अमधकामधक वस्तुएँ एकत्र करने के मलए
उत्सुक न रहे । उसे तो ईश्र्वर की कृ पा से जो प्राप्त हो जाए, उसी से प्रसन्न रहना चामहए । यही तुमष्ट है । तपस् का अर्म है
तपस्या । तपस् के अन्तगमत वेिों र्ें वमणमत अनेक मवमध-मवधानों का पालन करना होता है – यर्ा प्रातः-काल उिाना
और स्नान करना । कभी-कभी प्रातःकाल उिान अमत कष्टकारक होता है , मकन्तु इस प्रकार स्वेच्छा से जो भी कष्ट सहे
जाते हैं वे तपस् या तपस्या कहलाते हैं । इसी प्रकार र्ास के कुछ मवशेष मिनों र्ें उपवास रखने का मवधान है । हो
सकता है मक इन उपवासों को करने की इच्छा न हो, मकन्तु कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मवज्ञान र्ें प्रगमत करने के संकल्प के
कारण उसे ऐसे शारीररक कष्ट उिाने होतेहैं । मकन्तु उसे व्यर्म ही अर्वा वैमिक आिेशों के प्रमतकूल उपवास करने की
आवश्यकता नहीं है । उसे मकसी राजनीमतक उद्देश्य से उपवास नहीं करना चामहए । भगवद्गीता र्ें इसे तार्सी उपवास
कहा गया है तर्ा मकसी भी ऐसे कायम से जो तर्ोगुण या रजोगुण र्ें मकया जाता है, आध्यामत्र्क उन्नमत नहीं
होती । मकन्तु सतोगुण र्ें रहकर जो भी कायम मकया जाता है वह सर्न्ु नत बनाने वाला है, अतः वैमिक आिेशों के
अनुसार मकया गया उपवास आध्यामत्र्क ज्ञान को सर्न्ु नत बनाता है ।
जहाँ तक िान का सम्बन्ध है, र्नुष्ट्य को चामहए मक अपनी आय का पचास प्रमतशत मकसी शभु कायम र्ें लगाए
और यह शभु कायम है क्या? यह है कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मकया गया कायम । ऐसा कायम शभु ही नहीं, अमपतु सवोत्तर् होता
है । चँमू क कृ ष्ट्ण अच्छे हैं इसीमलए उनका कायम (मनमर्त्त) भी अच्छा है, अतः िान उसे मिया जाय जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
लगा हो । वेिों के अनुसार ब्राह्मणों को िान मिया जाना चामहए । यह प्रर्ा आज भी चालू है, यद्यमप इसका स्वरूप वह
नहीं है जैसा मक वेिों का उपिेश है । मिर भी आिेश यही है मक िान ब्राहर्णों को मिया जाय । वह क्यों? क्योंमक वे
अध्यामत्र्क ज्ञान के अनुशीलन र्ें लगे रहते हैं । ब्राह्मण से यह आशा की जाती है मक वह सारा जीवन ब्रह्ममजज्ञासा र्ें
लगा िे । ब्रह्म जानातीस्त ब्राह्मणः – जो ब्रह्म को जाने, वही ब्राह्मण है । इसीमलए िान ब्राह्मणों को मिया जाता
है, क्योंमक वे सिैव आध्यामत्र्क कायम र्ें रत रहते हैं और उन्हें जीमवकोपाजमन के मलए सर्य नहीं मर्ल पाता । वैमिक
सामहत्य र्ें सन्ं यामसयों को भी िान मिये जाने का आिेश है । सन्ं यासी द्वार-द्वार जाकर मभक्षा र्ाँगते हैं । वे धनाजमन के
मलए नहीं, अमपतु प्रचारार्म ऐसा करते हैं । वे द्वार-द्वार जाकर मभक्षा र्ाँगते हैं । वे धनाजमन के मलए नहीं, अमपतु प्रचारार्म
ऐसा करते हैं । वे द्वार-द्वार जाकर गृहस्र्ों को अज्ञान की मनद्रा से जगाते हैं । चँमू क गृहस्र् गृहकायों र्ें व्यस्त रहने के
कारण अपने जीवन के वास्तमवक उद्देश्य को, कृ ष्ट्णभावनार्ृत जगाने को, भल ू े रहते हैं, अतः यह संन्यामसयों का कतमव्य
है मक वे मभखारी बन कर गृहस्र्ों के पास जाएँ और कृ ष्ट्णभावनार्ृत होने के मलए उन्हें प्रेररत करें । वेिों का कर्न है मक
र्नुष्ट्य जागे और र्ानव जीवन र्ें जो प्राप्त करना है, उसे प्राप्त करे । संन्यामसयों द्वारा यह ज्ञान तर्ा मवमध मवतररत की
जाती है, अतः संन्यासी को ब्राह्मणों को तर्ा इसी प्रकार के उत्तर् कायों के मलए िान िेना चामहए, मकसी सनक के
कारण नहीं।
यशस् भगवान् चैतन्य के अनुसार होना चामहए । उनका कर्न है मक र्नुष्ट्य तभी प्रमसमद्ध (यश) प्राप्त करता
है, जब वह र्हान भक्त के रूप र्ें जाना जाता हो । यही वास्तमवक यश है । यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें र्हान बनता है
और मवख्यात होता है, तो वही वास्तव र्ें प्रमसद्ध है । मजसे ऐसा यश प्राप्त न हो, वह अप्रमसद्ध है ।
ये सारे गणु ससं ार भर र्ें र्ानव सर्ाज र्ें तर्ा िेवसर्ाज र्ें प्रकट होते हैं । अन्य लोकों र्ें भी मवमभन्न तरह के
र्ानव हैं और ये गुण उनर्ें भी होते हैं । तो, जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रगमत करना चाहता है, उसर्ें कृ ष्ट्ण ये सारे गुण

३१३
उत्पन्न कर िेते हैं, मकन्तु र्नुष्ट्य को तो इन्हें अपने अन्तर र्ें मवकमसत करना होता है । जो व्यमक्त भगवान् की सेवा र्ें
लग जाता है, वह भगवान् की योजना के अनुसार इन सारे गुणों को मवकमसत कर लेता है ।
हर् जो कुछ भी अच्छा या बुरा िेखते हैं उसका र्ल ू श्रीकृ ष्ट्ण हैं । इस संसार र्ें कोई भी वस्तु ऐसी नहीं, जो कृ ष्ट्ण
र्ें मस्र्त न हो । यही ज्ञान है । यद्यमप हर् जानते हैं मक वस्तुएँ मभन्न रूप र्ें मस्र्त हैं, मकन्तु हर्ें यह अनुभव करना
चामहए मक सारी वस्तुएँ कृ ष्ट्ण से ही उत्पन्न हैं ।

महषमयः सप्त पवू े चत्वारो मिवस्तथा ।


मिावा मािसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः ।। ६ ।।

महा-ऋषयः– र्हमषमगण; सप्त– सात; पूवे– पूवमकाल र्ें; चत्वारः– चार; मिवः– र्नुगण; तथा– भी; मत्-
भावाः– र्झु से उत्पन्न; मािसाः– र्न से; जाताः– उत्पन्न; येषाम्– मजनकी; लोके – ससं ार र्ें; इमाः– ये
सब; प्रजाः– सन्तानें, जीव ।

सप्तनषमगण तथा उिसे भी पूवम चार अन्य महनषम एवं सारे मिु (मािवजानत के पूवमज) सब मेरे मि से
उत्पन्ि हैं और नवनभन्ि लोकों में निवास करिे वाले सारे जीव उिसे अवतररत होते हैं ।

तात्पयम : भगवान् यहाँ पर ब्रह्माण्ड की प्रजा का आनुवंमशक वणमन कर रहे हैं । ब्रह्मा परर्ेश्र्वर की शमक्त से
उत्पन्न आमि जीव हैं, मजन्हें महरण्यगभम कहा जाता है । ब्रह्मा से सात र्हमषम तर्ा इनसे भी पूवम चार र्हमषम –
सनक, सनन्िन, सनातन तर्ा सनत्कुर्ार – एवं सारे र्नु प्रकट हुए । ये पच्चीस र्हान ऋमष ब्रह्माण्ड के सर्स्त जीवों
के धर्म-पर्प्रिशमक कहलाते हैं । असख्ं य ब्रह्माण्ड हैं और प्रत्येक ब्रह्माण्ड र्ें असख्ं य लोक हैं और प्रत्येक लोक र्ें नाना
योमनयाँ मनवास मनवास करती हैं । ये सब इन्हीं पच्चीसों प्रजापमतयों से उत्पन्न हैं । कृ ष्ट्ण की कृ पा से एक हजार मिव्य
वषों तक तपस्या करने के बाि ब्रह्मा को सृमष्ट का ज्ञान प्राप्त हुआ । तब ब्रह्मा से सनक, सनन्िन, सनातन तर्ा सनत्कुर्ार
उत्पन्न हुए । उनके बाि रूद्र तर्ा सप्तमषम और इस प्रकार भगवान् की शमक्त से सभी ब्राह्मणों तर्ा क्षमत्रयों का जन्र्
हुआ । ब्रह्मा को मपतार्ह कहा जाता है और कृ ष्ट्ण को प्रमपतार्ह – मपतार्ह का मपता । इसका उल्लेख भगवद्गीता के
ग्यारहवें अध्याय (११.३९) र्ें मकया गया है ।

एतां नवभूनतं योगं च मम यो वेनत्त तत्त्वतः ।


सोऽनवकल्पेि योगेि युजयते िात्र संशयः ।। ७ ।।

एताम्– इस सारे ; नवभूनतम्– ऐश्र्वयम को; योगम्– योग को; च– भी; मम– र्ेरा; यः– जो कोई; वेनत्त– जानता
है; तत्त्वतः– सही-सही; सः– वह; अनवकल्पेि– मनमश्चत रूप से; योगेि– भमक्त से; यजु यते– लगा रहता है; ि– कभी
नहीं; अत्र– यहाँ; संशयः– सन्िेह, शंका ।

जो मेरे इस ऐश्र्वयम तथा योग से पूणमतया आश्र्वस्त है, वह मेरी अिन्य भनि में तत्पर होता है । इसमें
तनिक भी सन्देह िहीं है ।

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तात्पयम : आध्यामत्र्क मसमद्ध की चरर् पररमणमत है, भगविज्ञ् ान । जब तक कोई भगवान् के मवमभन्न ऐश्र्वयों के
प्रमत आश्र्वस्त नहीं हो लेता, तब तक भमक्त र्ें नहीं लग सकता । सार्ान्यतया लोग इतना तो जानता हैं मक ईश्र्वर र्हान
है, मकन्तु यह नहीं जानते मक वह मकस प्रकार र्हान है । यहाँ पर इसका मवस्तृत मववरण मिया गया है । जब कोई यह
जान लेता है मक ईश्र्वर कै से र्हान है, तो वह सहज ही शरणागत होकर भगवद्भमक्त र्ें लग जाता है । भगवान् के ऐश्र्वयों
को िीक से सर्झ लेने पर शरणागत होने के अमतररक्त कोई अन्य मवकल्प नहीं रह जाता । ऐसा वास्तमवक
ज्ञान भगवद्गीता , श्रीमद्भागवत तर्ा अन्य ऐसे ही ग्रंर्ों से प्राप्त मकया जा सकता है ।
इस ब्रह्माण्ड के संचालन के मलए मवमभन्न लोकों र्ें अनेक िेवता मनयुक्त हैं, मजनर्ें से ब्रह्मा, मशव, चारों कुर्ार
तर्ा अन्य प्रजापमत प्रर्ख ु हैं । ब्रह्माण्ड की प्रजा के अनेक मपतार्ह भी हैं और वे सब भगवान् कृ ष्ट्ण से उत्पन्न
हैं । भगवान् कृ ष्ट्ण सर्स्त मपतार्हों के आमि मपतार्ह हैं ।
ये रहे परर्ेश्र्वर के कुछ ऐश्र्वयम । जब र्नष्ट्ु य को इन पर अटूट मवश्र्वास हो जाता है, तो वह अत्यन्त श्रद्धा सर्ेत
तर्ा संशयरमहत होकर कृ ष्ट्ण को स्वीकार करता है और भमक्त करता है । भगवान् की प्रेर्ाभमक्त र्ें रूमच बढ़ाने के मलए
ही इस मवमशष्ट ज्ञान की आवश्यकता है । कृ ष्ट्ण की र्हानता को सर्झने र्ें अपेक्षा भाव न वरते, क्योंमक कृ ष्ट्ण की
र्हानता को जानने पर ही एकमनष्ट होकर भमक्त की जा सकती है ।

अहं सवमस्य प्रभवो मत्तः सवं प्रवतमते ।


इनत मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमनन्वताः ।। ८ ।।

अहम्– र्ैं; सवमस्य– सबका; प्रभवः– उत्पमत्त का कारण; मत्तः– र्झु से; सवमम–् सारी वस्तुएँ; प्रवतमते– उद्भूत
होती हैं; इनत– इस प्रकार; मत्वा– जानकर; भजन्ते– भमक्त करते हैं; माम्– र्ेरी; बध ु ाः– मवद्वानजन; भाव-
समनन्वताः– अत्यन्त र्नोयोग से ।

मैं समस्त आध्यानत्मक तथा भौनतक जगतों का कारण ह,ूँ प्रत्येक वस्तु मुझ ही से उिूत है । जो
बुनद्धमाि यह भलीभाूँनत जािते हैं, वे मेरी प्रेमाभनि में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते
हैं ।

तात्पयम : मजस मवद्वान ने वेिों का िीक से अध्ययन मकया हो और भगवान् चैतन्य जैसे अमधकाररयों से ज्ञान प्राप्त
मकया हो तर्ा यह जानता हो मक इन उपिेशों का मकस प्रकार उपयोग करना चामहए, वही यह सर्झ सकता है मक
भौमतक तर्ा आध्यामत्र्क जगतों के र्ूल श्रीकृ ष्ट्ण ही हैं । इस प्रकार के ज्ञान से वह भगवद्भमक्त र्ें मस्र्र हो जाता
है । वह व्यर्म की टीकाओ ं से या र्ख ू ों के द्वारा कभी पर्भ्रष्ट नहीं होता । सारा वैमिक सामहत्य स्वीकार करता है मक
कृ ष्ट्ण ही ब्रह्मा, मशव तर्ा अन्य सर्स्त िेवताओ ं के स्त्रोत हैं । अर्वमवेि र्ें (गोपालतापनी उपस्नषर्् १.२४) कहा गया
है – यो ब्रह्माणां स्वर्धास्त पूवं यो वै वेर्ाांि गापयस्त स्म ृ ष्णः– प्रारम्भ र्ें कृ ष्ट्ण ने ब्रह्मा को वेिों का ज्ञान प्रिान मकया
और उन्होंने भतू काल र्ें वैमिक ज्ञान का प्रचार मकया । पनु ः नारायण उपस्नषर्् र्ें (१) कहा गयाहै – अथ परुु षो ह वै
नारायणोऽ ामयत प्रजाः सृजेयते– तब भगवान् ने जीवों की सृमष्ट करनी चाही । उपमनषि् र्ें आगे भी कहा गया है –
नारायणार्् ब्रह्मा जायते नारायणार्् प्रजापस्तः प्रजायते नारायणार्् इन्द्रो जायते । नारायणार्ष्टौ वसवो जायन्ते

३१५
नारायणार्े ार्श रुद्रा जायन्ते नारायणार््िार्शास्र्त्याः– “नारायण से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं, नारायण से प्रजापमत उत्पन्न
होते हैं, नारायण से इन्द्र और आि वासु उत्पन्न होते हैं और नारायण से ही ग्यारह रूद्र तर्ा बारह आमित्य उत्पन्न होते
हैं ।” यह नारायण कृ ष्ट्ण के ही अंश हैं ।
वेिों का ही कर्न है – ब्रह्मण्यो र्ेव ीपुत्रः – िेवकी पुत्र, कृ ष्ट्ण, ही भगवान् हैं (नारायण उपस्नषर्् ४) । तब यह
कहा गया – ए ो वै आसीन्न ब्रह्मा न ईशानो नापो नास्र्गनसमौ नेमे यावापृस्थवी न नाक्षत्रास्ण न सूयदः– सृमष्ट के प्रारम्भ र्ें
के वल भगवान् नारायण र्े । न ब्रह्मा र्े, न मशव । न अमग्न र्ी, न चन्द्रर्ा, न नक्षत्र और न सूयम (महा उपस्नषर्् १) । महा
उपस्नषर्् र्ें यह भी कहा गया है मक मशवजी परर्ेश्र्वर के र्स्तक से उत्पन्न हुए । अतः वेिों का कहना है मक ब्रह्मा तर्ा
मशव के स्त्रष्टा भगवान् की ही पूजा की जानी चामहए ।
मोक्षधमद र्ें कृ ष्ट्ण कहते हैं –
प्रजापस्तां च रूद्र चाप्यहमेव सृजास्म वै ।
तौ स्ह माां न स्वजानीतो मम मायास्वमोस्हतौ ।।
“र्ैंने ही प्रजापमतयों को, मशव तर्ा अन्यों को उत्पन्न मकया, मकन्तु वे र्ेरी र्ाया से र्ोमहत होने के कारण यह
नहीं जानते मक र्ैंने ही उन्हें उत्पन्न मकया ।” वराह पुराण र्ें भी कहा गया है –
नारायणः परो र्ेवस्तस्माज्जातश्र्चतुमदख ु ः।
तस्माद्र रुद्रोऽभवद्देवः स च सवदज्ञताां गतः ।।
“नारायण भगवान् हैं, मजनसे ब्रह्मा उत्पन्न हुए और मिर ब्रह्मा से मशव उत्पन्न हुए ।” भगवान् कृ ष्ट्ण सर्स्त
उत्पमत्तयों से स्त्रोत हैं और वे सवमकारण कहलाते हैं । वे स्वयं कहते हैं, “चँमू क सारी वस्तुएँ र्झु से उत्पन्न हैं, अतः र्ैं
सबों का र्ल ू कारण हँ । सारी वस्तुएँ र्ेरे अधीन हैं, र्ेरे ऊपर कोई भी नहीं हैं ।” कृ ष्ट्ण से बढ़कर कोई परर् मनयन्ता नहीं
है । जो व्यमक्त प्रार्ामणक गुरु से या वैमिक सामहत्य से इस प्रकार कृ ष्ट्ण को जान लेता है, वह अपनी सारी शमक्त
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगाता है और सचर्चु मवद्वान परुु ष बन जाता है । उसकी तुलना र्ें अन्य लोग, जो कृ ष्ट्ण को िीक
से नहीं जानते, र्ात्र र्ख ु म मसद्ध होते हैं । के वल र्खु म ही कृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्त सर्झेगा । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त
को चामहए मक कभी र्ख ू ों द्वारा र्ोमहत न हो, उसे भगवद्गीता की सर्स्त अप्रार्ामणक टीकाओ ं एवं व्याख्याओ ं से िरू
रहना चामहए और दृढ़तापूवमक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अग्रसर होना चामहए ।

मनच्चत्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।


कथयन्तश्र्च मां नित्यं तुष्ट्यनन्त च रमनन्त च ।। ९ ।।

मत्-नचत्ताः– मजनके र्न र्झु र्ें रर्े हैं; मत्-गत-प्राणाः– मजनके जीवन र्झु र्ें अमपमत हैं; बोधयन्तः– उपिेश
िेते हुए; परस्परम्– एक िसू रे से, आपस र्ें; च– भी; कथयन्तः– बातें करते हुए; च– भी; माम्– र्ेरे मवषय
र्ें; नित्यम्– मनरन्तर; तुष्ट्यनन्त– प्रसन्न होते हैं; च– भी; रमनन्त– मिव्य आनन्ि भोगते हैं; च– भी ।

मेरे शुद्ध भिों के नवचार मुझमें वास करते हैं, उिके जीवि मेरी सेवा में अनपमत रहते हैं और वे एक दूसरे
को ज्ञाि प्रदाि करते तथा मेरे नवषय में बातें करते हुए परमसन्तोष तथा आिन्द का अिभ ु व करते हैं ।

३१६
तात्पयम : यहाँ मजन शुद्ध भक्तों के लक्षणों का उल्लेख हुआ है, वे मनरन्तर भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें रर्े
रहते हैं । उनके र्न कृ ष्ट्ण के चरणकर्लों से हटते नहीं । वे मिव्य मवषयों की ही चचाम चलाते हैं । इस श्लोक र्ें शद्ध ु भक्तों
के लक्षणों का मवशेष रूप से उल्लेख हुआ है । भगवद्भक्त परर्ेश्र्वर के गुणों तर्ा उनकी लीलाओ ं के गान र्ें अहमनमश
लगे रहते हैं । उनके हृिय तर्ा आत्र्ाएँ मनरन्तर कृ ष्ट्ण र्ें मनर्ग्न रहती हैं और वे अन्य भक्तों से भगवान् के मवषय र्ें बातें
करने र्ें आनन्िानुभाव करते हैं ।
भमक्त की प्रारमम्भक अवस्र्ा र्ें वे सेवा र्ें ही मिव्य आनन्ि उिाते हैं और पररपक्वावस्र्ा र्ें वे ईश्र्वर-प्रेर् को
प्राप्त होते हैं । जब वे इस मिव्य मस्र्मत को प्राप्त कर लेते हैं, तब वे सवोच्च मसमद्ध का स्वाि लेते हैं, जो भगवद्धार् र्ें
प्राप्त होती है । भगवान् चैतन्य मिव्य भमक्त की तुलना जीव के हृिय र्ें बीज बोने से करते हैं । ब्रह्माण्ड के मवमभन्न लोकों
र्ें असख्ं य जीव मवतरण करते रहते हैं । इनर्ें से कुछ ही भाग्यशाली होते हैं, मजनकी शद्ध ु भक्त से भेंट हो पाती है और
मजन्हें भमक्त सर्झने का अवसर प्राप्त हो पाता है । यह भमक्त बीज के सदृश है । यमि इसे जीव के हृिय र्ें बो मिया जाये
और जीव हरे ृ ष्ण का श्रवण तर्ा कीतमन करता रहे तो बीज अक ं ु ररत होता है, मजस प्रकार मक मनयर्तः सींचते रहने से
वृक्ष का बीज िलता है । भमक्त रूपी आध्यामत्र्क पौधा क्रर्शः बढ़ता रहता है, जब तक वह ब्रह्माण्ड के आवरण को
भेिकर ब्रह्मजयोमत र्ें प्रवेश नहीं कर जाता । ब्रह्मजयोमत र्ें भी यह पौधा तब तक बढ़ता जाता है, जब तक उस उच्चतर्
लोक को नहीं प्राप्त कर लेता, मजसे गोलोक वृन्िावन या कृ ष्ट्ण का परर्धार् कहते हैं । अन्ततोगत्वा यह पौधा भगवान्
के चरणकर्लों की शरण प्राप्त कर वहीं मवश्रार् पाता है । मजस प्रकार पौधे र्ें क्रर् से िूल तर्ा िल आते हैं, उसी
प्रकार भमक्तरूपी पौधे र्ें भी िल आते हैं और कीतमन तर्ा श्रवण के रूप र्ें उसका मसंचन चलता रहता है । चैतन्य
चररतामृत र्ें (र्ध्य लीला , अध्याय १९) भमक्तरूपी पौधे का मवस्तार सेवणमन हुआ है । वहाँ यह बताया गया है मक जब
पूणम पौधा भगवान् के चरणकर्लों की शरण ग्रहण कर लेता है तो र्नुष्ट्य पूणमतया भगवत्प्रेर् र्ें लीन हो जाता है, तब
तक एक क्षण भी परर्ेश्र्वर के मबना नहीं रह पाता, मजस प्रकार मक र्छली जल के मबना नहीं रह सकती । ऐसी अवस्र्ा
र्ें भक्त वास्तव र्ें परर्ेश्र्वर के संसगम से मिव्यगणु प्राप्त कर लेता है ।
श्रीमद्भागवत र्ें भी भगवान् तर्ा उनके भक्तों के सम्बन्ध के मवषय र्ें ऐसी अनेक कर्ाएँ हैं
। इसीमलए श्रीमद्भागवत भक्तों को अत्यन्त मप्रय है जैसा मक भागवत र्ें ही (१२.१३.१८) कहा गया है – श्रीमद्भागवतां
पुराणां अमलां यिैष्णवानाां स्प्रयम् । ऐसी कर्ा र्ें भौमतक कायों, आमर्मक मवकास, इमन्द्रयतृमप्त तर्ा र्ोक्ष के मवषय र्ें कुछ
भी नहीं है । श्रीमद्भागवत ही एकर्ात्र ऐसी कर्ा है, मजसर्ें भगवान् तर्ा उनके भक्तों की मिव्य प्रकृ मत का पूणम वणमन
मर्लता है । िलतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत जीव ऐसे मिव्य सामहत्य के श्रवण र्ें मिव्य रूमच मिखाते हैं, मजस प्रकार तरुण तर्ा
तरुणी को परस्पर मर्लने र्ें आनन्ि प्राप्त होता है ।

तेषां सततयुिािां भजतां प्रीनतपूवमकम् ।


ददानम बुनद्धयोगं तं येि मामुपयानन्त ते ।। १० ।।

तेषाम्– उन; सतत-यि ु ािाम्– सिैव लीन रहने वालों को; भजताम्– भमक्त करने वालों को; प्रीनत-पवू मकम् –
प्रेर्भावसमहत; ददानम– िेता ह;ँ बुनद्ध-योगम्– असली बुमद्ध; तम्– वह; येि– मजससे; माम्– र्झु को;
उपयानन्त– प्राप्त होते हैं; ते– वे ।

३१७
जो प्रेमपूवमक मेरी सेवा करिे में निरन्तर लगे रहते हैं, उन्हें मैं ज्ञाि प्रदाि करता हूँ, नजसके द्वारा वे मुझ
तक आ सकते हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें बुस्द्ध-योगम् शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । हर्ें स्र्रण हो मक मद्वतीय अध्याय र्ें भगवान् ने
अजुमन को उपिेश िेते हुए कहा र्ा मक र्ैं तुम्हें अनेक मवषयों के बारे र्ें बता चुका हँ और अब र्ैं तुम्हें बुमद्धयोग की
मशक्षा िँगू ा । अब उसी बुमद्धयोग की व्याख्या की जा रही है । बुमद्धयोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर कायम करने को कहते हैं
और यही उत्तर् बमु द्ध है । बमु द्ध का अर्म है बमु द्ध और योग का अर्म है यौमगक गमतमवमधयाँ अर्वा यौमगक उन्नमत । जब
कोई भगवद्धार् को जाना चाहता है और भमक्त र्ें वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण कर लेता है, तो उसका यह कायम
बमु द्धयोग कहलाता है । िसू रे शब्िों र्ें, बमु द्धयोग वह मवमध है, मजससे र्नष्ट्ु य भवबन्धन से छूटना चाहता है । उन्नमत
करने का चरर् लक्ष्य कृ ष्ट्णप्रामप्त है । लोग इसे नहीं जानते, अतः भक्तों तर्ा प्रार्ामणक गुरु की संगमत आवश्यक
है । र्नुष्ट्य को ज्ञात होना चामहए मक कृ ष्ट्ण ही लक्ष्य हैं और जब लक्ष्य मनमिमष्ट है, तो पर् पर र्न्िगमत से प्रगमत करने पर
भी अमन्तर् लक्ष्य प्राप्त हो जाता है ।
जब र्नुष्ट्य लक्ष्य तो जानता है, मकन्तु कर्मिल र्ें मलप्त रहता है, तो वह कर्मयोगी होता है । यह जानते हुए मक
लक्ष्य कृ ष्ट्ण हैं, जब कोई कृ ष्ट्ण को सर्झने के मलए र्ानमसक मचन्तन का सहारा लेता है, तो वह ज्ञानयोग र्ें लीन होता
है । मकन्तु जब वह लक्ष्य को जानकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त र्ें कृ ष्ट्ण की खोज करता है, तो वह भमक्तयोगी या
बुमद्धयोगी होता है और यही पूणमयोग है । यह पूणमयोग ही जीवन की मसद्धावस्र्ा है ।
जब व्यमक्त प्रार्ामणक गुरु के होते हुए तर्ा आध्यामत्र्क संघ से सम्बद्ध रहकर भी प्रगमत नहीं कर पाता, क्योंमक
वह बुमद्धर्ान नहीं है, तो कृ ष्ट्ण उसके अन्तर से उपिेश िेते हैं, मजससे वह सरलता से उन तक पहुचँ सके । इसके मलए
मजस योग्यता की अपेक्षा है, वह यह है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मनरन्तर रहकर प्रेर् तर्ा भमक्त के सार् सभी प्रकार की
सेवा की जाए । उसे कृ ष्ट्ण के मलए कुछ न कुछ कायम रहना चामहए, मकन्तु प्रेर्पवू मक । यमि भक्त इतना बमु द्धर्ान नहीं है
मक आत्र्-साक्षात्कार के पर् पर प्रगमत कर सके , मकन्तु यमि वह एकमनष्ट रहकर भमक्तकायों र्ें रत रहता है, तो भगवान्
उसे अवसर िेते हैं मक वह उन्नमत करके अन्त र्ें उनके पास पहुचँ जाये ।

तेषामेवािुकम्पाथममहमज्ञािजं तमः ।
िाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञािदीपेि भास्वता ।। ११ ।।

तेषाम्– उन पर; एव– मनश्चय ही; अिुकम्पा-अथमम–् मवशेष कृ पा करने के मलए; अहम्– र्ैं; अज्ञाि-जम्–
अज्ञान के कारण; तमः– अंधकार; िाशयानम– िरू करता ह;ँ आत्म-भाव– उनके हृियों र्ें; स्थः– मस्र्त; ज्ञाि–
ज्ञान के ; दीपेि– िीपक द्वारा; भास्वता– प्रकाशर्ान हुए ।

मैं उि पर नवशेष कृ पा करिे के हेतु उिके हृदयों में वास करते हुए ज्ञाि के प्रकाशमाि दीपक के द्वारा
अज्ञािजन्य अंधकार को दूर करता हूँ ।

तात्पयम : जब भगवान् चैतन्य बनारस र्ें हरे ृ ष्ण के कीतमन का प्रवतमन कर रहे र्े, तो हजारों लोग उनका
अनुसरण कर रहे र्े । तत्कालीन बनारस के अत्यन्त प्रभावशाली एवं मवद्वान प्रकाशानन्ि सरस्वती उनको भावक ु

३१८
कहकर उनका उपहास करते र्े । कभी-कभी भक्तों की आलोचना िाशममनक यह सोचकर करते हैं मक भक्तगण अंधकार
र्ें हैं और िाशममनक दृमष्ट से भोले-भाले भावक ु हैं, मकन्तु यह तथ्य नहीं है । ऐसे अनेक बड़े-बड़े मवद्वान पुरुष हैं, मजन्होंने
भमक्त का िशमन प्रस्तुत मकया है । मकन्तु यमि कोई भक्त उनके इस सामहत्य का या अपने गुरु का लाभ न भी उिाये और
यमि वह अपनी भमक्त र्ें एकमनि रहे, तो उसके अन्तर से कृ ष्ट्ण स्वयं उसकी सहायता करते हैं । अतः कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
रत एकमनि भक्त ज्ञानरमहत नहीं हो सकता । इसके मलए इतनी ही योग्यता चामहए मक वह पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर
भमक्त सम्पन्न करता रहे ।
आधमु नक िाशममनकों का मवचार है मक मबना मववेक के शद्ध ु ज्ञान प्राप्त नहीं मकया जा सकता । उनके मलए
भगवान् का उत्तर है – जो लोग शद्ध ु भमक्त र्ें रत हैं, भले ही वे पयामप्त मशमक्षत न हों तर्ा वैमिक मनयर्ों से पूणमतया
अवगत न हो, मकन्तु भगवान् उनकी सहायता करते ही हैं, जैसा मक इस श्लोक र्ें बताया गया है ।
भगवान् अजुमन को बताते हैं मक र्ात्र मचन्तन से परर् सत्य भगवान् को सर्झ पाना असम्भव है, क्योंमक भगवान्
इतने र्हान हैं मक कोरे र्ानमसक प्रयास से उन्हें न तो जाना जा सकता है, न ही प्राप्त मकया जा सकता । भले ही कोई
लाखों वषों तक मचन्तन करता रहे, मकन्तु यमि भमक्त नहीं करता, यमि वह परर् सत्य का प्रेर्ी नहीं है, तो उसे कभी भी
कृ ष्ट्ण या परर् सत्य सर्झ र्ें नहीं आएँगे । परर् सत्य, कृ ष्ट्ण, के वल भमक्त से प्रसन्न होते हैं और अपनी अमचन्त्य शमक्त
से वे शद्धु भक्त के हृिय र्ें स्वयं प्रकट हो सकते हैं । शुद्धभक्त के हृिय र्ें तो कृ ष्ट्ण मनरन्तर रहते हैं और कृ ष्ट्ण की
उपमस्र्मत सूयम के सर्ान है, मजसके द्वारा अज्ञान का अंधकार तुरन्त िरू हो जाता है । शद्ध ु भक्त पर भगवान् की यही
मवशेष कृ पा है ।
करोड़ो जन्र्ों के भौमतक संसगम के कल्र्ष के कारण र्नुष्ट्य का हृिय भौमतकता के र्ल (धमू ल) से आच्छामित
हो जाता है, मकन्तु जब र्नुष्ट्य भमक्त र्ें लगता है और मनरन्तर हरे ृ ष्ण का जप करता है तो यह र्ैल तुरन्त िरू हो जाता
है और उसे शद्ध ु ज्ञान प्राप्त होता है । परर् लक्ष्य मवष्ट्णु को इसी जप तर्ा भमक्त से प्राप्त मकया जा सकता है, अन्य मकसी
प्रकार के र्नोधर्म या तकम द्वारा नहीं । शद्ध ु भक्त जीवन की भौमतक आवश्यकताओ ं के मलए मचन्ता नहीं करता है, न तो
उसे कोई और मचन्ता करने की आवश्यकता है, क्योंमक हृिय से अंधकार हट जाने पर भक्त की प्रेर्ाभमक्त से प्रसन्न
होकर भगवान् स्वतः सब कुछ प्रिान करते हैं । यही भगवद्गीता का उपिेश-सार है । भगवद्गीता के अध्ययन से र्नष्ट्ु य
भगवान् के शरणागत होकर शद्ध ु भमक्त र्ें लग जाता है । जैसे ही भगवान् अपने ऊपर भार ले लेते हैं, र्नुष्ट्य सारे भौमतक
प्रयासों से र्क्त
ु हो जाता है ।

अजुमन उवाच
परं ब्रह्म परं धाम पनवत्रं परमं भवाि् ।
पुरुषं शाश्र्वतं नदव्यमानददेवमजं नवभमु ् ।। १२ ।।
आहुस्त्वामृषयः सवे देवनषमिामरदस्तथा ।
अनसतो देवलो व्यासः स्वयं चैव ब्रवीनष मे ।। १३ ।।

अजपनु : उवाच—अजुतन ने कहा; परम्—िरम; ब्रह्म—सत्य; परम्—िरम; धाम— आधार; पमवत्रम्—शद्ध ु ;


परमम्—िरम; भवान्—आि; परुु षम्—िरुु र्; र्ाश्वतम्— पनत्य; मदव्यम्—पदव्य; आमद-देवम्—आपद स्वामी;
अजम्—अजन्मा; मवभुम—् सवोच्च; आहु:—कहते हैं; त्वाम्—आिको; ऋषय:—साधगु ण; सवे—सभी; देव-

३१९
ऋमष:—देवताओ ं के ऋपर्; नारद:—नारद; तथा—भी; अमसत:—अपसत; देवल:— देवल; व्यास:—व्यास;
स्वयम्—स्वयं; च—भी; एव—पनिय ही; ब्रवीषी—आि बता रहे हैं; मे—मझु को ।

अजमिु िे कहा- आप परम भगवाि्, परमधाम, परमपनवत्र, परमसत्य हैं । आप नित्य, नदव्य, आनद
पुरुष, अजन्मा तथा महाितम हैं । िारद, अनसत, देवल तथा व्यास जैसे ऋनष आपके इस सत्य की पुनष्ट करते
हैं और अब आप स्वयं भी मुझसे प्रकट कह रहे हैं ।

तात्पयम : इन िो श्लोकों र्ें भगवान् आधुमनक िाशममनक को अवसर प्रिान करते हैं, क्योंमक यहाँ यह स्पष्ट है मक
परर्ेश्र्वर जीवात्र्ा से मभन्न हैं । इस अध्याय के चार र्हत्त्वपणू म श्लोकों को सनु कर अजमनु की सारी शक ं ाएँ जाती रहीं
और उसने कृ ष्ट्ण को भगवान् स्वीकार कर मलया । उसने तुरन्त ही उद्घोष मकया ”आप परब्रह्म हैं ।” इसके पूवम कृ ष्ट्ण कह
चक ु े हैं मक वे प्रत्येक वस्तु तर्ा प्रत्येक प्राणी के आमि कारण हैं । प्रत्येक िेवता तर्ा प्रत्येक र्नुष्ट्य उन पर आमश्रत
है । वे अज्ञानवश अपने को भगवान् से परर् स्वतन्त्र र्ानते हैं । ऐसा अज्ञान भमक्त करने से पूरी तरह मर्ट जाता
है । भगवान् ने मपछले श्लोक र्ें इसकी पूरी व्याख्या की है । अब भगवत्कृ पा से अजुमन उन्हें परर्सत्य रूप र्ें स्वीकार
कर रहा है, जो वैमिक आिेशों के सवमर्ा अनुरूप है । ऐसा नहीं है मक परर् सखा होने के कारण अजुमन कृ ष्ट्ण की
चाटुकारी करते हर उन्हें परर्सत्य भगवान् कह रहा है । इन िो श्लोकों र्ें अजुमन जो भी कहता है, उसकी पुमष्ट वैमिक
सत्य द्वारा होती है । वैमिक आिेश इसकी पुमष्ट करते हैं मक जो कोई परर्ेश्र्वर की भमक्त करता है, वही उन्हें सर्झ
सकता है, अन्य कोई नहीं । इन श्लोकों र्ें अजुमन द्वारा कहे शब्ि वैमिक आिेशों द्वारा पुष्ट होते हैं ।
े न उपस्नषर्् र्ें कहा गया है परब्रह्म प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं और कृ ष्ट्ण पहले ही कह चक ु े हैं मक सारी वस्तुएँ
उन्हीं पर आमश्रत हैं । मण्ु ड उपस्नषर्् र्ें पुमष्ट की गई है मक मजन परर्ेश्र्वर पर सब कुछ आमश्रत है, उन्हें उनके मचन्तन
र्ें रत रहकर ही प्राप्त मकया जा सकता है । कृ ष्ट्ण का यह मनरन्तर मचन्तन स्मरणम् है, जो भमक्त की नव मवमधयों र्ें से
हैं । भमक्त के द्वारा ही र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण की मस्र्मत को सर्झ सकता है और इस भौमतक िेह से छुटकारा पा सकता है ।
वेिों र्ें परर्ेश्र्वर को पमवत्र र्ाना गया है । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण को परर् पमवत्र र्ानता है, वह सर्स्त पापकर्ों से
शद्ध ु हो जाता है । भगवान् की शरण र्ें गये मबना पापकर्ों से शुमद्ध नहीं हो पाती । अजुमन द्वारा कृ ष्ट्ण को परर् पमवत्र
र्ानना वेिसम्र्त है । इसकी पुमष्ट नारि आमि ऋमषयों द्वारा भी हुई है ।
कृ ष्ट्ण भगवान् हैं और र्नुष्ट्य को चामहए मक वह मनरन्तर उनका ध्यान करते हुए उनसे मिव्य सम्बन्ध स्र्ामपत करे
। वे परर् अमस्तत्व हैं । वे सर्स्त शारीररक आवश्यकताओ ं तर्ा जन्र्-र्रण से र्क्त ु हैं । इसकी पुमष्ट अजुमन ही
नहीं, अमपतु सारे वेि पुराण तर्ा इमतहास ग्रंर् करते हैं । सारे वैमिक सामहत्य र्ें कृ ष्ट्ण का ऐसा वणमन मर्लता है और
भगवान् स्वयं चौर्े अध्याय र्ें कहते हैं, “यद्यमप र्ैं अजन्र्ा ह,ँ मकन्तु धर्म कीस्र्ापना के मलए इस पृथ्वी पर प्रकट होता
हँ ।” वे परर् पुरुष हैं, उनका कोई कारण नहीं है, क्योंमक वे सर्स्त कारणों के कारण हैं और सब कुछ उन्हीं से उद्भूत
है । ऐसा पूणमज्ञान के वल भगवत्कृ पा से प्राप्त होता है ।
यहाँ पर अजमनु कृ ष्ट्ण की कृ पा से ही अपने मवचार व्यक्त करता है । यमि हर् भगवद्गीता को सर्झना चाहते हैं तो
हर्ें इन िोनों श्लोकों के कर्नों को स्वीकार करना होगा । यह परम्परा-प्रणाली कहलाती है अर्ामत् गुरु-परम्परा को
र्ानना । परम्परा-प्रणाली के मबना भगवद्गीता को नहीं सर्झा जा सकता । यह तर्ाकमर्त मवद्यालयी मशक्षा द्वारा
सम्भव नहीं है । िभु ामग्यवश मजन्हें अपनी उच्च मशक्षा पर घर्ण्ड है, वे वैमिक सामहत्य के इतने प्रर्ाणों के होते हुए ही
अपने इस िरु ाग्रह पर अड़े रहते हैं मक कृ ष्ट्ण एक सार्ान्य व्यमक्त है ।

३२०
सवममेतदृतं मन्ये यन्मां वदनस के शव ।
ि नह ते भगवन्व्यनिं नवदुदेवा ि दािवाः ।। १४ ।।

सवमम–् सब; एतत्– इस; ऋतम्– सत्य को; मन्ये– स्वीकार करता ह;ँ यत्– जो; माम्– र्झु को; वदनस– कहते
हो; के शव– हे कृ ष्ट्ण; ि– कभी नहीं; नह– मनश्चय ही; ते– आपके ; भगवि्– हे भगवान्; व्यनिम्– स्वरूप को; नवदुः–
जान सकते हैं; देवाः– िेवतागण; ि– न तो; दािवाः– असरु गण ।

हे कृ ष्ट्ण! आपिे मझ
ु से जो कुछ कहा है, उसे मैं पण
ू मतया सत्य मािता हूँ । हे प्रभ!ु ि तो देवतागण, ि
असुरगण ही आपके स्वरूप को समझ सकते हैं ।

तात्पयम : यहाँ पर अजुमन इसकी पुमष्ट करता है मक श्रद्धाहीन तर्ा आसुरी प्रकृ मत वाले लोग कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ
सकते । जब िेवतागण तक उन्हें नहीं सर्झ पाते तो आधमु नक जगत् के तर्ाकमर्त मवद्वानों का क्या
कहना ? भगवत्कृ पा से अजुमन सर्झ गया मक परर्सत्य कृ ष्ट्ण हैं और वे सम्पूणम हैं । अतः हर्ें अजुमन के पर् का
अनुसरण करना चामहए । उसे भगवद्गीता का प्रर्ाण प्राप्त र्ा । जैसा मक भगवद्गीता के चतुर्म अध्याय र्ें कहा गया
है , भगवद्गीता के सर्झने की गुरु-परम्परा का ह्रास हो चक ु ा र्ा, अतः कृ ष्ट्ण ने अजुमन से उसकी पुनःस्र्ापना
की, क्योंमक वे अजुमन को अपना परर् मप्रय सखा तर्ा भक्त सर्झते र्े । अतः जैसा मक गीतोपमनषि् की भमू र्का र्ें हर्ने
कहा है, भगवद्गीता का ज्ञान परम्परा-मवमध से प्राप्त करना चामहए । परम्परा-मवमध के लुप्त होने पर उसके सूत्रपात के मलए
अजुमन को चनु ा गया । हर्ें चामहए मक अजुमन का हर् अनुसरण करें , मजसने कृ ष्ट्ण की सारी बातें जान लीं । तभी
हर् भगवद्गीता के सार को सर्झ सकें गे और तभी कृ ष्ट्ण को भगवान् रूप र्ें जान सकें गे ।

स्वयमेवात्मिात्मािं वेत्थ त्वं परुु षोत्तम ।


भूतभावि भूतेश देवदेव जगत्पते ।। १५ ।।

स्वयम्– स्वय;ं एव– मनश्चय ही; आत्मिा– अपने आप; आत्मािम्– अपने को; वेत्थ– जानते हो; त्वम्–
आप; पुरुष-उत्तम– हे पुरुषोत्तर्; भूत-भावि– हे सबके उद्गर्; भूत-ईश– सभी जीवों के स्वार्ी; देव-देव– हे सर्स्त
िेवताओ ं के स्वार्ी; जगत्-पते– हे सम्पूणम ब्रह्माण्ड के स्वार्ी ।

हे परमपुरुष, हे सबके उद्गम, हे समस्त प्रानणयों के स्वामी, हे देवों के देव, हे ब्रह्माण्ड के प्रभु! निस्सन्देह
एकमात्र आप ही अपिे को अपिी अन्तरंगाशनि से जाििे वाले हैं ।

तात्पयम : परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण को वे ही जान सकते हैं, जो अजुमन तर्ा उनके अनुयामययों की भाँमत भमक्त करने के
र्ाध्यर् से भगवान् के सम्पकम र्ें रहते हैं । आसरु ी या नामस्तक प्रकृ मत वाले लोग कृ ष्ट्ण को नहीं जान सकते । ऐसा
र्नोधर्म जो भगवान् से िरू ले जाए, परर् पातक है और जो कृ ष्ट्ण को नहीं जानता उसे भगवद्गीता की टीका करने का

३२१
प्रयत्न नहीं करना चामहए । भगवद्गीता कृ ष्ट्ण की वाणी है और चँमू क यह कृ ष्ट्ण का तत्त्वमवज्ञान है, अतः इसे कृ ष्ट्ण से ही
सर्झना चामहए, जैसा मक अजुमन ने मकया । इसे नामस्तकों से ग्रहण नहीं करना चामहए ।
श्रीमद्भागवत र्ें (१.२.११) कहा गया है मक –
वर्स्न्त तत्तत्त्वस्वर्स्तत्त्वां यज्ज्ञानमियम् ।
ब्रह्मेस्त परमात्मेस्त भगवास्नस्त शब्द्यते ।।
परर्सत्य का अनुभव तीन प्रकार से मकया जाता है – मनराकार ब्रह्म, अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा या भगवान् । अतः
परर्सत्य के ज्ञान की अमन्तर् अवस्र्ा भगवान् है । हो सकता है मक सार्ान्य व्यमक्त, अर्वा ऐसा र्क्त ु पुरुष भी मजसने
मनराकार ब्रह्म अर्वा अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा का साक्षात्कार मकया है, भगवान् को न सर्झ पाये । अतः ऐसे व्यमक्तयों को
चामहए मक वे भगवान् को भगवद्गीता के श्लोकों से जानने का प्रयास करें , मजन्हें स्वयं कृ ष्ट्ण ने कहा है । कभी-कभी
मनमवमशेषवािी कृ ष्ट्ण को भगवान् के रूप र्ें या उनकी प्रार्ामणकता को स्वीकार करते हैं । मकन्तु अनेक र्क्त ु पुरुष कृ ष्ट्ण
को पुरुषोत्तर् रूप र्ें नहीं सर्झ पाते । इसीमलए अजुमन उन्हें पुरुषोत्तर् कहकर सम्बोमधत करता है । इतने पर भी कुछ
लोग यह नहीं सर्झ पाते मक कृ ष्ट्ण सर्स्त जीवों के जनक हैं । इसीमलए अजुमन उन्हें भतू भावन कहकर सम्बोमधत करता
है । यमि कोई उन्हें भतू भावन के रूप र्ें सर्झ लेता है तो भी वह उन्हें परर् मनयन्ता के रूप र्ें नहीं जान पाता । इसीमलए
उन्हें यहाँ पर भतू ेश या परर् मनयन्ता कहा गया है । यमि कोई भतू ेश रूप र्ें भी उन्हें सर्झ लेता है तो भी उन्हें सर्स्त
िेवताओ ं के उद्गर् रूप र्ें नहीं सर्झ पाता । इसमलए उन्हें िेविेव, सभी िेवताओ ं का पूजनीय िेव, कहा गया है । यमि
िेविेव रूप र्ें भी उन्हें सर्झ मलया जाये तो वे प्रत्येक वस्तु के परर् स्वार्ी के रूप र्ें सर्झ र्ें नहीं आते । इसीमलए
यहाँ पर उन्हें जगत्पमत कहा गया है । इस प्रकार अजुमन की अनुभमू त के आधार पर कृ ष्ट्ण मवषयक सत्य की स्र्ापना इस
श्लोक र्ें हुई है । हर्ें चामहए मक कृ ष्ट्ण को यर्ारूप र्ें सर्झने के मलए हर् अजुमन के पिमचन्हों का अनुसरण करें ।

विुमहमस्यशेषेण नदव्या ह्यात्मनवभतू यः ।


यानभनवमभूनतनभलोकानिमांस्त्वं व्याप्य नतष्ठनस ।। १६ ।।

विुम्– कहने के मलए; अहमनस– योग्य हैं; अशेषेण– मवस्तार से; नदव्याः– िैवी, अलौमकक; नह– मनश्चय
ही; आत्मा– अपना; नवभूतयः– ऐश्र्वयम; यानभः– मजन; नवभनू तनभः– ऐश्र्वयों से; लोकाि्– सर्स्त लोकों को;
इमाि्– इन; त्वम्– आप; व्याप्य– व्याप्त होकर; नतष्ठनस– मस्र्त हैं ।

कृ पा करके नवस्तारपूवमक मुझे अपिे उि दैवी ऐश्र्वयों को बतायें, नजिके द्वारा आप इि समस्त लोकों
में व्याप्त हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक से लगता है मक अजुमन भगवान् सम्बन्धी अपने ज्ञान से पहले से सन्तुष्ट है । कृ ष्ट्ण-कृ पा से
अजमनु को व्यमक्तगत अनभु व, बमु द्ध तर्ा ज्ञान और र्नष्ट्ु य को इन साधनों से जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, वह सब प्राप्त
है, तर्ा उसने कृ ष्ट्ण को भगवान् के रूप र्ें सर्झ रखा है । उसे मकसी प्रकार का संशय नहीं है, तो भी वह कृ ष्ट्ण से
अपनी सवमव्यापकता की व्याख्या करने के मलए अनरु ोध करता है । सार्ान्यजन तर्ा मवशेषरूप से मनमवमशेषवािी
भगवान् की सवमव्यापकता के मवषय र्ें अमधक मवचारशील रहते हैं । अतः अजुमन श्रीकृ ष्ट्ण से पूछता है मक वे अपनी

३२२
मवमभन्न शमक्तयों के द्वारा मकस प्रकार सवमव्यापी रूप र्ें मवद्यर्ान रहते हैं । हर्ें यह जानना चामहए मक अजुमन सार्ान्य
लोगों के महत के मलए यह पूछ रहा है ।

कथं नवद्यामहं योनगंस्त्वां सदा पररनचन्तयि् ।


के षु के षु च भावेषु नचन्त्योऽनस भगवन्मया ।। १७ ।।

कथम्– मकस तरह, कै से; नवद्याम् अहम्– र्ैं जान सकँू ; योनगि्– हे परर् योगी; त्वाम्– आपको; सदा–
सिैव; पररनचन्तयि्– मचन्तन करता हुआ; के षु– मकस; के षु– मकस; च– भी; भावेषु–
रूपों र्ें; नचन्त्यः-अनस– आपका स्र्रण मकया जाता है; भगवि्– हे भगवान्; मया– र्ेरे द्वारा ।

हे कृ ष्ट्ण, हे परम योगी! मैं नकस तरह आपका निरन्तर नचन्ति करूूँ और आपको कै से जाि?ूूँ हे
भगवाि्! आपका स्मरण नकि-नकि रूपों में नकया जाय?

तात्पयम : जैसा मक मपछले अध्याय र्ें कहा जा चक ु ा है, भगवान् अपनी योगर्ाया से आच्छामित रहते
हैं । के वल शरणागत भक्तजन ही उन्हें िेख सकते हैं । अब अजुमन को मवश्र्वास हो चक ु ा है मक उसके मर्त्र कृ ष्ट्ण भगवान्
हैं, मकन्तु वह उस सार्ान्य मवमध को जानना चाहता है, मजसके द्वारा सवमसाधारण लोग भी उन्हें सवमव्यापी रूप र्ें सर्झ
सकें । असुरों तर्ा नामस्तकों समहत सार्ान्यजन कृ ष्ट्ण को नहीं जान पाते, क्योंमक भगवान् अपनी योगर्ाया शमक्त से
आच्छामित रहते हैं । िसू री बात यह है, मक ये प्रश्न जनसार्ान्य के लाभ हेतु पूछे जा रहे हैं । उच्चकोमट का भक्त के वल
अपने ही ज्ञान के प्रमत मचंमतत नहीं रहता अमपतु सारी र्ानव जाती के ज्ञान के मलए भी रहता है । अतः अजुमन वैष्ट्णव या
भक्त होने के कारण अपने ियालु भाव से सार्ान्यजनों के मलए भगवान् के सवमव्यापक रूप के ज्ञान का द्वार खोल रहा
है । वह कृ ष्ट्ण को जानबूझ कर योस्गन् कहकर सम्बोमधत करता है, क्योंमक वे योगर्ाया शमक्त के स्वार्ी हैं, मजसके
कारण वे सार्ान्यजन के मलए अप्रकट या प्रकट होते हैं । सार्ान्यजन, मजसे कृ ष्ट्ण के प्रमत कोई प्रेर् नहीं है, कृ ष्ट्ण के
मवषय र्ें मनरन्तर नहीं सोच सकता । वह तो भौमतक मचन्तन करता है । अजुमन इस संसार के भौमतकतावािी लोगों की
मचन्तन-प्रवृमत्त के मवषय र्ें मवचार कर रहा है । े षु े षु च भावेषु शब्ि भौमतक प्रकृ मत के मलए प्रयुक्त हैं (भाव का अर्म
है भौमतक वस्तु) । चँमू क भौमतकवािी लोग कृ ष्ट्ण के आध्यामत्र्क स्वरूप को नहीं सर्झ सकते, अतः उन्हें भौमतक
वस्तुओ ं पर मचत्त एकाग्र करने की तर्ा यह िेखने का प्रयास करने की सलाह िी जाती है मक कृ ष्ट्ण भौमतक रूपों र्ें
मकस प्रकार प्रकट होते हैं ।

नवस्तरेणात्मिो योगं नवभूनतं च जिादमि ।


भूयः कथय तृनप्तनहम श्रृण्वतो िानस्त मेऽमृतम् ।। १८ ।।

नवस्तरेण– मवस्तार से; आत्मिः– अपनी; योगम्– योगशमक्त; नवभूनतम्– ऐश्र्वयम को; च– भी; जि-अदमि –
हे नामस्तकों का वध करने वाले; भयू ः– मिर; कथय– कहें; तृनप्तः– तमु ष्ट; नह– मनश्चय ही; शृण्वतः– सनु ते हुए; ि
अनस्त– नहीं है; मे– र्ेरी; अमृतम्– अर्ृत को ।

३२३
हे जिादमि! आप पुिः नवस्तार से अपिे ऐश्र्वयम तथा योगशनि का वणमि करें । मैं आपके नवषय में
सुिकर कभी तृप्त िहीं होता हूँ, क्योंनक नजतिा ही आपके नवषय में सुिता हूँ, उतिा ही आपके शब्द-अमृत
को चखिा चाहता हूँ ।

तात्पयम : इसी प्रकार का मनवेिन नैमर्षारण्य के शौनक ऋमषयों ने सूत गोस्वार्ी से मकया र्ा । यह मनवेिन इस
प्रकार है –
वयां तु न स्वतृप्याम उत्तमश्लो स्वक्रमे ।
यचछृ ण्वताां रसज्ञानाां स्वार्ु स्वार्ु पर्े पर्े ।।
“उत्तर् स्तमु तयों द्वारा प्रशमं सत कृ ष्ट्ण की मिव्य लीलाओ ं का मनरन्तर श्रवण करते हुए कभी तृमप्त नहीं
होती । मकन्तु मजन्होंने कृ ष्ट्ण से अपना मिव्य सम्बन्ध स्र्ामपत कर मलया है वे पि पि पर भगवान् की लीलाओ ं के वणमन
का आनन्ि लेते रहते हैं ।” (श्रीमद्भागवत १.१.१९) । अतः अजुमन कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें और मवशेष रूप से उनके
सवमव्यापी रूप के बारे र्ें सुनना चाहते है ।
जहाँ तक अमृतम् की बात है, कृ ष्ट्ण सम्बन्धी कोई भी आख्यान अर्ृत तुल्य है और इस अर्ृत की अनुभमू त
व्यवहार से ही की जा सकती है । आधुमनक कहामनयाँ, कर्ाएँ तर्ा इमतहास कृ ष्ट्ण की मिव्य लीलाओ ं से इसमलए मभन्न
हैं क्योंमक संसारी कहामनयों के सुनने से र्न भर जाता है, मकन्तु कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें सुनने से कभी र्कान नहीं
आती । यही कारण है मक सारे मवश्र्व का इमतहास भगवान् के अवतारों की लीलाओ ं के सन्िभों से पटा हुआ है । हर्ारे
पुराण मवगत युगों के इमतहास हैं, मजनर्ें भगवान् के मवमवध अवतारों की लीलाओ ं का वणमन है । इस प्रकार बारम्बार
पढ़ने पर भी मवषयवस्तु नवीन बनी रहती है ।

श्री भगवानवु ाच
हन्त ते कथनयष्ट्यानम नदव्या ह्यात्मनवभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ िास्त्यन्तो नवस्तरस्य मे ।। १९ ।।

श्रीभगवाि् उवाच– भगवान् ने कहा; हन्त– हाँ; ते– तुर्से; कथनयष्ट्यानम– कहगँ ा;नदव्याः– िैवी; नह– मनश्चय
ही; आत्म-नवभूतयः– अपने ऐश्र्वयों को; प्राधान्यतः - प्रर्ख ु रूप से; कुरुश्रेष्ठ– हे कुरुश्रेि; ि आनस्त– नहीं
है; अन्तः– सीर्ा; नवस्तरस्य– मवस्तार की; मे– र्ेरे ।

श्रीभगवाि् िे कहा – हाूँ, अब मैं तुमसे अपिे मुख्य-मुख्य वैभवयि


ु रूपों का वणमि करूूँगा, क्योंनक हे
अजमिु ! मेरा ऐश्र्वयम असीम है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण की र्हानता तर्ा उनका ऐश्र्वयम को सर्झ पाना सम्भव नहीं है । जीव की इमन्द्रयाँ सीमर्त
हैं, अतः उनसे कृ ष्ट्ण के कायम-कलापों की सर्ग्रता को सर्झ पाना सम्भव नहीं है । तो भी भक्तजन कृ ष्ट्ण को जानने का
प्रयास करते हैं, मकन्तु यह र्ानकर नहीं मक वे मकसी मवशेष सर्य र्ें या जीवन-अवस्र्ा र्ें उन्हें परू ी तरह सर्झ
सकें गे । बमल्क कृ ष्ट्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य हैं मक भक्तों को अर्ृत तुल्य प्रतीत होते हैं । इस प्रकार भक्तगण उनका
आनन्ि उिाते हैं । भगवान् के ऐश्र्वयों तर्ा उनकी मवमवध शमक्तयों की चचाम चलाने र्ें शद्ध ु भक्तों को मिव्य आनन्ि

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मर्लता है, अतः वे उनको सुनते रहना और उनकी चचाम चलाते रहना चाहते हैं । कृ ष्ट्ण जानते हैं मक जीव उनके ऐश्र्वयम
के मवस्तार को नहीं सर्झ सकते, िलतः वे अपनी मवमभन्न शमक्तयों के प्रर्ख ु स्वरूपों का ही वणमन करने के मलए राजी
होते हैं । प्राधान्यतः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम हैं, जबमक उनके स्वरूप अनन्त हैं । इन सबको सर्झ पाना सम्भव नहीं
है । इस श्लोक र्ें प्रयुक्त स्वभस्ू त शब्ि उन ऐश्र्वयों का सूचक है, मजनके द्वारा भगवान् सारे मवश्र्व का मनयन्त्रण करते
हैं । अमर ोश र्ें स्वभस्ू त का अर्म मवलक्षण ऐश्र्वयम है ।
मनमवमशेषवािी या सवेश्र्वरवािी न तो भगवान् के मवलक्षण ऐश्र्वयों को सर्झ पाता है, न उनकी िैवी शमक्तयों के
स्वरूपों को । भौमतक जगत् र्ें तर्ा वैकुण्ि लोक र्ें उनकी शमक्तयाँ अनेक रूपों र्ें िै ली हुई हैं । अब कृ ष्ट्ण उन रूपों को
बताने जा रहे हैं, जो सार्ान्य व्यमक्त प्रत्यक्ष रूप से िेख सकता है । इस प्रकार उनकी रंगमबरंगी शमक्त का आंमशक वणमन
मकया गया है ।

अहमात्मा गडु ाके श सवमभूताशयनस्थतः ।


अहमानदश्र्च मध्यं च भूतािामन्त एव च ।। २० ।।

अहम्– र्ैं; आत्मा- आत्र्ा; गुडाके श– हे अजुमन; सवम-भूत – सर्स्त जीव; आशय-नस्थतः– हृिय र्ें
मस्र्त; अहम्– र्ैं; आनद– उद्गर्; मध्यम्– र्ध्य; च– भी; भूतािाम्– सर्स्त जीवों का; अन्तः– अन्त; एव– मनश्चय
ही; च– तर्ा ।

हे अजमिु ! मैं समस्त जीवों के हृदयों में नस्थत परमात्मा हूँ । मैं ही समस्त जीवों का आनद, मध्य तथा
अन्त हूँ ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें अजुमन को गुडा े श कहकर सम्बोमधत मकया गया है मजसका अर्म है, ”मनद्रा रूपी
अधं कार को मजतने वाला ।” जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार र्ें सोये हुए हैं, उनके मलए यह सर्झ पाना सम्भव नहीं है
मक भगवान् मकन-मकन मवमधयों से इस लोक र्ें तर्ा वैकुण्िलोक र्ें प्रकट होते हैं । अतः कृ ष्ट्ण द्वारा अजुमन के मलए इस
प्रकार का सम्बोधन र्हत्त्वपूणम है । चँमू क अजुमन ऐसे अंधकार से ऊपर है, अतः भगवान् उससे मवमवध ऐश्र्वयों को बताने
के मलए तैयार हो जाते हैं ।
सवमप्रर्र् कृ ष्ट्ण अजुमन को बताते हैं मक वे अपने र्ल ू मवस्तार के कारण सर्ग्र दृश्यजगत की आत्र्ा हैं । भौमतक
सृमष्ट के पूणम भगवान् अपने र्ल ू मवस्तार के द्वारा पुरुष अवतार धारण करते हैं और उन्हीं से सब कुछ आरम्भ होता
है । अतः वे प्रधान र्हत्तत्व की आत्र्ा हैं । इस सृमष्ट का कारण र्हत्तत्व नहीं होता, वात्सव र्ें र्हामवष्ट्णु सम्पूणम भौमतक
शमक्त या र्हत्तत्व र्ें प्रवेश करते हैं । वे आत्र्ा हैं । जब र्हामवष्ट्णु इन प्रकटीभतू ब्रह्माण्डों र्ें प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक
जीव र्ें पुनः परर्ात्र्ा के रूप र्ें प्रकट होते हैं । हर्ें ज्ञात है मक जीव का शरीर आत्र्ा के स्िुमलंग की उपमस्र्मत के
कारण मवद्यर्ान रहता है । मबना आध्यामत्र्क स्िुमलगं के शरीर मवकमसत नहीं हो सकता । उसी प्रकार भौमतक जगत्
का तब तक मवकास नहीं होता, जब तक परर्ात्र्ा कृ ष्ट्ण का प्रवेश नहीं हो जाता । जैसा मक सुबलउपस्नषर्् र्ें कहा
गया है – प्र ृ त्यास्र् सवदभतू ान्तयादमी च नारायणः– परर्ात्र्ा रूप र्ें भगवान् सर्स्त प्रकटीभतू ब्रह्माण्डों र्ें मवद्यर्ान हैं ।
श्रीमद्भागवत र्ें तीनों पुरुष अवतारों का वणमन हुआ है । सात्वत तन्त्र र्ें भी इनका वणमन मर्लता है । स्वष्णोस्तु
त्रीस्ण रूपास्ण पुरूषाख्यान्यथो स्वर्ःु - भगवान् इस लोक र्ें अपने तीनों स्वरूपों को प्रकट करते हैं – ारणोर् शायी

३२५
स्वष्ण,ु गभोर् शायी स्वष्णु तथा क्षीरोर् शायी स्वष्ण।ु ब्रह्मसांस्हता र्ें (४.४७) र्हामवष्ट्णु या कारणोिकशायी मवष्ट्णु का
वणमन मर्लता है । यः ारणाणदव भजस्त स्म योगस्नद्राम्– सवमकारण कारण भगवान् कृ ष्ट्ण र्हामवष्ट्णु के रूप र्ें
कारणाणमव र्ें शयन करते हैं । अतः भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड के आमि कारण, पालक तर्ा सर्स्त शमक्त के अवसान हैं ।

आनदत्यािामहं नवष्ट्णुजयोनतषां रनवरंशुमाि् ।


मरीनचममरुतामनस्म िक्षत्राणामहं शशी ।। २१ ।।

आमदत्यानाम्—आपदत्यों में; अहम्—मैं ह;ूँ मवष्णु:—िरमेश्वर; ज्योमतषाम्—समस्त ज्योपतयों में; रमव:—


सयू त; अंर्-ु मान्—पकरणमाली, प्रकाशमान; मरीमच:—मरीपच; मरुताम्—मरुतों में; अमस्म—ह;ूँ नक्षत्राणाम्—तारों
में; अहम्—मैं ह;ूँ र्र्ी— चन्द्रमा ।

मैं आनदत्यों में नवष्ट्णु, प्रकाशों में तेजस्वी सूयम, मरुतों में मरीनच तथा िक्षत्रों में चन्द्रमा हूँ ।

तात्पयम : आमित्य बारह हैं, मजनर्ें कृ ष्ट्ण प्रधान हैं । आकाश र्ें मटर्मटर्ाते जयोमतपुंजों र्ें सूयम र्ख्ु य है
और ब्रह्मसांस्हता र्ें तो सूयम को भगवान् का तेजस्वी नेत्र कहा गया है । अन्तररक्ष र्ें पचास प्रकार के वायु प्रवहर्ान
हैं, मजनर्ें से वायु अमधिाता र्रीमच कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमध है ।
नक्षत्रों र्ें रामत्र के सर्य चन्द्रर्ा सवमप्रर्ख
ु नक्षत्रहै, अतः वह कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमध है । इस श्लोक से प्रतीत होता है
मक चन्द्रर्ा एक नक्षत्र है, अतः आकाश र्ें मटर्मटर्ाने वाले तारे भी सूयमप्रकाश को पररवमतमत करते हैं । वैमिक वाङ्मय र्ें
ब्रह्माण्ड के अन्तगमत अनेक सूयों के मसद्धान्त की स्वीकृ मत प्राप्त नहीं है । सूयम एक है और सूयम के प्रकाश से चन्द्रर्ा
प्रकामशत है, तर्ा अन्य नक्षत्र भी । चँमू क भगवद्गीता से समू चत होता है मक चन्द्रर्ा नक्षत्र है, अतः मटर्मटर्ाते तारे सयू म
न होकर चन्द्रर्ा के सदृश है ।

वेदािां सामवेदोऽनस्म देवािामनस्म वासवः ।


इनन्द्रयाणां मिश्र्चानस्म भूतािामनस्म चेतिा ।। २२ ।।

वेदािाम्– वेिों र्ें; साम-वेदः– सार्वेि; अनस्म– ह;ँ देवािाम्– िेवताओ ं र्ें; अनस्म– ह;ँ वासवः– स्वगम का
राजा; इनन्द्रयाणाम्– इमन्द्रयों र्ें; मिः– र्न;च– भी; अनस्म– ह;ँ भूतािाम्– जीवों र्ें; अनस्म– ह;ँ चेतिा– प्राण,
जीवन शमक्त ।

मैं वेदों में सामवेद हूँ, देवों में स्वगम का राजा इन्द्र हूँ, इनन्द्रयों में मि ह,ूँ तथा समस्त जीवों में जीविशनि
(चेतिा) हूँ ।

तात्पयम : पिार्म तर्ा जीव र्ें यह अन्तर है मक पिार्म र्ें जीवों के सर्ान चेतना नहीं होती, अतः यह चेतना परर्
तर्ा शाश्र्वत है । पिार्ों के संयोग से चेतना उत्पन्न नहीं की जा सकती ।

३२६
रुद्राणां शंकरश्र्चानस्म नवत्तेशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूिां पावकश्र्चानस्म मेरू: नशखररणामहम् ।। २३ ।।

रुद्राणाम्– सर्स्त रुद्रों र्ें; शङकरः– मशवजी; च– भी; अनस्म– ह;ँ नवत्त-ईशः– िेवताओ ं का
कोषाध्यक्ष; यक्ष-रक्षसाम्– यक्षों तर्ा राक्षसों र्ें; वसूिाम्– वसुओ ं र्ें; पावकः– अमग्न; च– भी; अनस्म– ह;ँ मेरुः–
र्ेरु; नशखररणाम्– सर्स्त पवमतों र्ें; अहम्– र्ैं हँ ।

मैं समस्त रुद्रों में नशव हूँ, यक्षों तथा राक्षसों में सम्पनत्त का देवता (कुबेर) हूँ, वसुओ ं में अनग्ि हूँ और
समस्त पवमतों में मेरु हूँ ।

तात्पयम : ग्यारह रुद्रों र्ें शक


ं र या मशव प्रर्ख
ु हैं । वे भगवान् के अवतार हैं, मजन पर ब्रह्माण्ड के तर्ोगुण का भार
है । यक्षों तर्ा राक्षसों के नायक कुबेर हैं जो िेवताओ ं के कोषाध्यक्ष तर्ा भगवान् के प्रमतमनमध हैं । र्ेरु पवमत अपनी
सर्ृद्ध सम्पिा के मलए मवख्यात है ।

परु ोधसां च मुख्यं मां नवनद्ध पाथम बृहस्पनतम् ।


सेिािीिामहं स्कन्दः सरसामनस्म सागरः ।। २४ ।।

पुरोधसाम्– सर्स्त पुरोमहतों र्ें; च– भी; मुख्यम्– प्रर्ख


ु ; माम्– र्झु को; नवनद्ध– जानो; पाथम– हे
पृर्ापुत्र; ब्रहस्पनतम्– ब्रहस्पमत; सेिािीिाम्– सर्स्त सेनानायकों र्ें से; अहम्– र्ैं ह;ँ स्कन्दः– कामतमकेय; सरसाम्–

सर्स्त जलाशयों र्ें; अनस्म– र्ैं ह;ँ सागरः– सर्द्रु ।

हे अजमिु ! मुझे समस्त पुरोनहतों में मुख्य पुरोनहत ब्रहस्पनत जािो । मैं ही समस्त सेिािायकों में
कानतमकेय हूँ और समस्त जलाशयों में समुद्र हूँ ।

तात्पयम : इन्द्र स्वगम का प्रर्खु िेवता है और स्वगम का राजा कहलाता है । मजस लोक र्ें उसका शासन है वह
इन्द्रलोक कहलाता है । ब्रहस्पमत राजा इन्द्र के पुरोमहत हैं और चँमू क इन्द्र सर्स्त राजाओ ं का प्रधान है, इसीमलए
ब्रहस्पमत सर्स्त पुरोमहतों र्ें र्ख्ु य हैं । जैसे इन्द्र सभी राजाओ ं के प्रर्ख
ु हैं, इसी प्रकार पावमती तर्ा मशव के पुत्र स्कन्ि
या कामतमकेय सर्स्त सेनापमतयों के प्रधान हैं । सर्स्त जलाशयों र्ें सर्द्रु सबसे बड़ा है । कृ ष्ट्ण के ये स्वरूप उनकी
र्हानता के ही सूचक हैं ।

महषीणां भृगुरहं नगरामस्म्येकमक्षरम् ।


यज्ञािां जपयज्ञोऽनस्म स्थावराणां नहमालयः ।। २५ ।।

३२७
महा-ऋषीणाम्– र्हमषमयों र्ें; भृगुः– भृगु; अहम्– र्ैं ह;ँ नगराम्– वाणी र्ें; अनस्म– ह;ँ एकम्-अक्षरम्–
प्रणव; यज्ञािाम्– सर्स्त यज्ञों र्ें; जप-यज्ञः– कीतमन, जप; अनस्म– ह;ँ स्थावराणाम्– जड़ पिार्ों र्ें; नहमालयः–
महर्ालय पवमत ।

मैं महनषमयों में भृगु हूँ, वाणी में नदव्य ओक


ं ार ह,ूँ समस्त यज्ञों में पनवत्र िाम का कीतमि (जप) तथा
समस्त अचलों में नहमालय हूँ ।

तात्पयम : ब्रह्माण्ड के प्रर्र् ब्रह्मा ने मवमभन्न योमनयों के मवस्तार के मलए कई पुत्र उत्पन्न मकये । इनर्ें से भृगु
सबसे शमक्तशाली र्मु न र्े । सर्स्त मिव्य ध्वमनयों र्ें ओकं ार कृ ष्ट्ण का रूप है । सर्स्त यज्ञों र्ें हरे कृ ष्ट्ण हरे कृ ष्ट्ण कृ ष्ट्ण
कृ ष्ट्ण हरे हरे । हरे रार् हरे रार् रार् रार् हरे हरे – का जप कृ ष्ट्ण का सवाममधक शद्ध
ु रूप है । कभी-कभी पशु यज्ञ की भी
सस्ं तुमत की जाती है, मकन्तु हरे ृ ष्ण यज्ञ र्ें महसं ा का प्रश्न ही नहीं उिता । यह सबसे सरल तर्ा शुद्धतर् यज्ञ है । सर्स्त
जगत र्ें जो कुछ शभु है, वह कृ ष्ट्ण का रूप है । अतः संसार का सबसे बड़ा पवमत महर्ालय भी उन्हीं का स्वरूप
है । मपछले श्लोक र्ें र्ेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु र्ेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेमकन महर्ालय कभी चल नहीं
है । अतः महर्ालय र्ेरु से बढ़कर है ।

अश्र्वत्थः सवमवृक्षाणां देवषीणां च िारदः ।


गन्धवामणां नचत्ररथः नसद्धािां कनपलो मुनिः ।। २६ ।।

अश्र्वत्थः– अश्र्वत्र् वृक्ष; सवम-वृक्षाणाम्– सारे वृक्षों र्ें; देव-ऋनषणाम्– सर्स्त िेवमषमयों र्ें; च–
तर्ा; िारदः– नारि; गन्धवामणाम्– गन्धवमलोक के वामसयों र्ें; नचत्ररथः– मचत्ररर्; नसद्धािाम्– सर्स्त मसमद्ध प्राप्त
हुओ ं र्ें; कनपलः-मुनिः– कमपल र्ुमन ।

मैं समस्त वृक्षों में अश्र्वत्थ हूँ और देवनषमयों में िारद हूँ । मैं गन्धवों में नचत्ररथ हूँ और नसद्ध पुरुषों में
कनपल मुनि हूँ ।

तात्पयम : अश्र्वत्र् वृक्ष सबसे ऊँचा तर्ा सुन्िर वृक्ष है, मजसे भारत र्ें लोग मनत्यप्रमत मनयर्पूवमक पूजते
हैं । िेवताओ ं र्ें नारि मवश्र्वभर र्ें सबसे बड़े भक्त र्ाने जाते हैं और पूमजत होते हैं । इस प्रकार वे भक्त के रूप र्ें कृ ष्ट्ण
के स्वरूप हैं । गन्धवमलोक ऐसे मनवामसयों से पूणम है, जो बहुत अच्छा गाते हैं, मजनर्ें से मचत्ररर् सवमश्रेि गायक
है । मसद्ध पुरुषों र्ें से िेवहुमत के पुत्र कमपल र्मु न कृ ष्ट्ण के प्रमतमनमध हैं । वे कृ ष्ट्ण के अवतार र्ाने जाते हैं । इनका
िशमन भागवत र्ें उमल्लमखत है । बाि र्ें भी एक अन्य कमपल प्रमसद्द हुए, मकन्तु वे नामस्तक र्े, अतः इन िोनों र्ें र्हान
अन्तर है ।

उच्चै:श्रवसमश्रवािां नवनद्ध माममृतोिवम् ।


ऐरावतं गजेन्द्राणां िराणां च िरानधपम् ।। २७ ।।

३२८
उच्चैःश्रवसम्– उच्चैःश्रवा; अश्र्वािाम्– घोड़ो र्ें; नवनद्ध– जानो; माम्– र्झु को; अमृत-उिवम्– सर्द्रु
र्न्र्न से उत्पन्न; ऐरावतम्– ऐरावत;गज-इन्द्राणाम्– र्ख्ु य हामर्यों र्ें; िराणाम्– र्नुष्ट्यों र्ें; च– तर्ा; िर-
अनधपम्– राजा ।

घोडो में मुझे उच्चैःश्रवा जािो, जो अमृत के नलए समुद्र मन्थि के समय उत्पन्ि हुआ था । गजराजों में
मैं ऐरावत हूँ तथा मिुष्ट्यों में राजा हूँ ।

तात्पयम: एक बार िेवों तर्ा असुरों ने सर्द्रु -र्न्र्न र्ें भाग मलया । इस र्न्र्न से अर्ृत तर्ा मवष प्राप्त हुए । मवष
को तो मशवजी ने पी मलया, मकन्तु अर्ृत के सार् अनेक जीव उत्पन्न हुए, मजनर्ें उच्चैःश्रवा नार्क घोडा भी र्ा । इसी
अर्ृत के सार् एक अन्य पशु ऐरावत नार्क हार्ी भी उत्पन्न हुआ र्ा । चँमू क ये िोनों पशु अर्ृत के सार् उत्पन्न हुए
र्े, अतः इनका मवशेष र्हत्त्व है और ये कृ ष्ट्ण के प्रमतमनमध हैं ।
र्नुष्ट्यों र्ें राजा कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमध है, क्योंमक कृ ष्ट्ण ब्रह्माण्ड के पालक हैं और अपने िैवी गुणों के कारण
मनयुक्त मकये गये राजा भी अपने राजयों के पालनकताम होते हैं । र्हाराज युमधमिर, र्हाराज परीमक्षत तर्ा भगवान् रार्
जैसे राजा अत्यन्त धर्ामत्र्ा र्े, मजन्होंने अपनी प्रजा का सिैव कल्याण सोचा । वैमिक सामहत्य र्ें राजा को ईश्र्वर का
प्रमतमनमध र्ाना गया है । मकन्तु इस युग र्ें धर्म के ह्रास होने से राजतन्त्र का पतन हुआ और अन्ततः मवनाश हो गया
है । मकन्तु यह सर्झना चामहए मक भतू काल र्ें लोग धर्ामत्र्ा राजाओ ं के अधीन रहकर अमधक सुखी र्े ।

आयुधािामहं वज्रं धेिुिामनस्म कामधुक् ।


प्रजिश्र्चानस्म कन्दपमः सपामणामनस्म वासुनकः ।। २८ ।।

आयुधािाम्– हमर्यारों र्ें; अहम्– र्ैं हँ; वज्रम्– वज्र; धेिूिाम्– गायों र्ें; अनस्म– र्ैं ह;ँ काम-धुक्– सुरमभ
गाय; प्रजिः– सन्तान, उत्पमत्त का कारण; च– तर्ा; कन्दपमः– कार्िेव; सपामणाम्– सपों र्ें; अनस्म– ह;ँ वासनु कः–

वासुमक ।

मैं हनथयारों में वज्र हूँ, गायों में सुरनभ, सन्तनत उत्पनत्त के कारणों में प्रेम के देवता कामदेव तथा सपों में
वासुनक हूँ ।

तात्पयम: वज्र सचर्चु अत्यन्त बलशाली हमर्यार है और यह कृ ष्ट्ण की शमक्त का प्रमतक है । वैकुण्िलोक र्ें
मस्र्त कृ ष्ट्णलोक की गाएँ मकसी भी सर्य िहु ी जा सकती हैं और उनसे जो मजतना चाहे उतना िधू प्राप्त कर सकता
है । मनस्सन्िेह इस जगत् र्ें ऐसी गाएँ नहीं मर्लती, मकन्तु कृ ष्ट्णलोक र्ें इनके होने का उल्लेख है । भगवान् ऐसी अनेक
गाएँ रखते हैं, मजन्हें सुरमभ कहा जाता है । कहा जाता है मक भगवान् ऐसी गायों के चराने र्ें व्यस्त रहते हैं । कंिपम कार्
वासना है, मजससे अच्छे पत्रु उत्पन्न होते हैं । कभी-कभी के वल इमन्द्रयतृमप्त के मलए सभं ोग मकया जाता है, मकन्तु ऐसा
संभोग कृ ष्ट्ण का प्रमतक नहीं है । अच्छी सन्तान की उत्पमत्त के मलए मकया गया संभोग कंिपम कहलाता है और वह
कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमध होता है ।

३२९
अिन्तश्र्चानस्म िागािां वरुणो यादसामहम् ।
नपतृणामयममा चानस्म यमः संयमतामहम् ।। २९ ।।

अिन्तः– अनन्त; च– भी; अनस्म– ह;ँ िागािाम्– िणों वाले सापों र्ें; वरुणः– जल के अमधिाता
िेवता; यादसाम्– सर्स्त जलचरों र्ें; अहम्– र्ैं ह;ँ नपतण
ॄ ाम– मपतरों र्ें; अयममा– अयमर्ा; च– भी; अनस्म– ह;ँ
यमः– र्ृत्यु का मनयार्क; सयं मताम्– सर्स्त मनयर्नकतामओ ं र्ें; अहम्– र्ैं हँ ।

अिेक िणों वाले िागों में मैं अिन्त हूँ और जलचरों में वरुणदेव हूँ । मैं नपतरों में अयममा हूँ तथा
नियमों के निवामहकों में मैं मृत्युराज यम हूँ ।

तात्पयम : अनेक िणों वाले नागों र्ें अनन्त सबसे प्रधान हैं और इसी प्रकार जलचरों र्ें वरुण िेव प्रधान हैं । ये
िोनों कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमधत्व करते हैं । इसी प्रकार मपतृलोक के अमधिाता अयमर्ा हैं जो कृ ष्ट्ण के प्रमतमनमध हैं । ऐसे
अनेक जीव हैं जो िष्टु ों को िण्ड िेते हैं, मकन्तु इनर्ें यर् प्रर्ख
ु हैं । यर् पृथ्वीलोक के मनकटवती लोक र्ें रहते हैं । र्ृत्यु
के बाि पापी लोगों को वहाँ ले जाया जाता है और यर् उन्हें तरह-तरह का िण्ड िेने की व्यवस्र्ा करते हैं ।

प्रह्लादश्र्चानस्म दैत्यािां कालः कलयतामहम् ।


मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैितेयश्र्च पनक्षणाम् ।। ३० ।।

प्रह्लादः– प्रिाि; च– भी; अनस्म– ह;ँ दैत्यािाम्– असरु ों र्ें; कालः– काल; कलयताम्– िर्न करने वालों
र्ें; अहम्– र्ैं ह;ँ मृगाणाम्– पशुओ ं र्ें; च– तर्ा; मृग-इन्द्रः– मसंह; अहम्– र्ैं ह;ँ वैितेयः– गरुड़; च– भी;
पनक्षणाम्– पमक्षयों र्ें ।

दैत्यों में मैं भिराज प्रह्लाद हूँ, दमि करिे वालों में काल हूँ, पशुओ ं में नसंह हूँ, तथा पनक्षयों में गरुड हूँ ।

तात्पयम : मिमत तर्ा अमिमत िो बहनें र्ीं । अमिमत के पुत्र आमित्य कहलाते हैं और मिमत के िैत्य । सारे आमित्य
भगवद्भक्त मनकले और सारे िैत्य नामस्तक । यद्यमप प्रहलाि का जन्र् िैत्य कुल र्ें हुआ र्ा, मकन्तु वे बचपन से ही परर्
भक्त र्े । अपनी भमक्त तर्ा िैवी गुण के कारण वे कृ ष्ट्ण के प्रमतमनमध र्ाने जाते हैं ।
िर्न के अनेक मनयर् हैं, मकन्तु काल इस संसार की हर वस्तु को क्षीण कर िेता है, अतः वह कृ ष्ट्ण का
प्रमतमनमधत्व कर रहा है । पशओ ु ं र्ें मसंह सबसे शमक्तशाली तर्ा महंसक होता है और पमक्षयों के लाखों प्रकारों र्ें
भगवान् मवष्ट्णु का वाहन गरुड़ सबसे र्हान है ।

पविः पवतामनस्म रामः शस्त्रभृतामहम् ।


झषाणां मकरश्र्चानस्म स्त्रोतसामनस्म जािवी ।। ३१ ।।

३३०
पविः– वायु; पवताम्– पमवत्र करने वालों र्ें; अनस्म–ह;ँ रामः– रार्; शस्त्र-भृताम्– शस्त्रधाररयों र्ें; अहम्–
र्ैं; झषाणाम्– र्छमलयों र्ें; मकरः– र्गर; च– भी; अनस्म– ह;ँ स्त्रोतसाम्– प्रवहर्ान नमियों र्ें; अनस्म–
ह;ँ जािवी– गंगा निी ।

समस्त पनवत्र करिे वालों में मैं वायु हूँ, शस्त्रधाररयों में राम, मछनलयों में मगर तथा िनदयों में गंगा हूँ ।

तात्पयम : सर्स्त जलचरों र्ें र्गर सबसे बड़ा और र्नुष्ट्य के मलए सबसे घातक होता है । अतः र्गर कृ ष्ट्ण का
प्रमतमनमधत्व करता है ।और नमियों र्ें , भारत र्ें सबसे बड़ी र्ाँ गंगा है । रार्ायण के भगवान् रार् जो श्रीकृ ष्ट्ण के
अवतार हैं, योद्धाओ ं र्ें सबसे अमधक शमक्तशाली हैं ।

सगामणामानदरन्तश्र्च मध्यं चैवाहमजमिु ।


अध्यात्मनवद्या नवद्यािां वादः प्रवदतामहम् ।। ३२ ।।

सगामणाम्– सम्पूणम सृमष्टयों का; आनदः– प्रारम्भ; अन्तः– अन्त; च– तर्ा; मध्यम्– र्ध्य; च– भी; एव–
मनश्चय ही; अहम्– र्ैं ह;ँ अजमिु – हे अजुमन; अध्यात्म-नवद्या– अध्यात्र्ज्ञान; नवद्यािाम्– मवद्याओ ं र्ें; वादः–
स्वाभामवक मनणमय; प्रवदताम्– तकों र्ें; अहम्– र्ैं हँ ।

हे अजमिु ! मैं समस्त सृनष्टयों का आनद, मध्य और अन्त हूँ । मैं समस्त नवद्याओ ं में अध्यात्म नवद्या हूँ
और तकम शानस्त्रयों में मैं निणामयक सत्य हूँ ।

तात्पयम : सृमष्टयों र्ें सवमप्रर्र् सर्स्त भौमतक तत्त्वों की सृमष्ट की जाती है । जैसा मक पहले बताया जा चक ु ा
है, यह दृश्यजगत र्हामवष्ट्णु ‘गभोिकशायी मवष्ट्णु तर्ा क्षीरोिकशायी मवष्ट्णु द्वारा उत्पन्न और सचं ामलत है । बाि र्ें
इसका संहार मशवजी द्वारा मकया जाता है । ब्रह्मा गौण स्त्रष्टा हैं । सृजन, पालन तर्ा संहार करने वाले ये सारे अमधकारी
परर्ेश्र्वर के भौमतक गुणों के अवतार हैं । अतः वे ही सर्स्त सृमष्ट के आमि, र्ध्य तर्ा अन्त हैं ।
उच्च मवद्या के मलए ज्ञान के अनेक ग्रंर् हैं, यर्ा चारों वेि, उनके छह वेिांग, वेिान्त सूत्र, तकम
ग्रंर्, धर्मग्रंर्, पुराण । इस प्रकार कुल चौिह प्रकार के ग्रंर् हैं । इनर्ें से अध्यात्र् मवद्या सम्बन्धी ग्रंर्, मवशेष रूप से
वेिान्त सूत्र, कृ ष्ट्ण का स्वरूप है ।
तकम शामस्त्रयों र्ें मवमभन्न प्रकार के तकम होते रहते हैं । प्रर्ाण द्वारा तकम की पुमष्ट, मजससे मवपक्ष का भी सर्र्मन
हो, जल्प कहलाता है । प्रमतद्वन्द्वी को हराने का प्रयास र्ात्र स्वतण्डा है, मकन्तु वास्तमवक मनणमय वार् कहलाता है । यह
मनणमयात्र्क सत्य कृ ष्ट्ण का स्वरूप है ।

अक्षराणामकारोऽनस्म द्वन्द्वः सामानसकस्य च ।


अहमेवाक्षयः कालो धाताहं नवश्र्वतोमख ु ः ।। ३३ ।।

३३१
अक्षराणाम्– अक्षरों र्ें; अ-कारः– अकार अर्ामत् पहला अक्षर; अनस्म– ह;ँ द्वन्द्वः– द्वन्द्व
सर्ास; सामानसकस्य– सार्मसक शब्िों र्ें; च– तर्ा; अहम्– र्ैं ह;ँ एव– मनश्चय ही; अक्षयः– शाश्र्वत;कालः–
काल, सर्य; धाता– स्त्रष्टा; अहम्– र्ैं; नवश्र्वतः-मुखः – ब्रह्मा ।

अक्षरों में मैं अकार हूँ और समासों में द्वन्द्व समास हूँ । मैं शाश्र्वत काल भी हूँ और स्त्रष्टाओ ं में ब्रह्मा हूँ ।

तात्पयम : अ-कार अर्ामत् सस्ं कृ त अक्षर र्ाला का प्रर्र् अक्षर (अ) वैमिक सामहत्य का शभु ारम्भ है । अकार के
मबना कोई स्वर नहीं हो सकता, इसीमलए यह आमि स्वर है । संस्कृ त र्ें कई तरह के सार्मसक शब्ि होते हैं, मजनर्ें से
रार्-कृ ष्ट्ण जैसे िोहरे शब्ि द्वन्द्व कहलाते हैं । इस सर्ास र्ें रार् तर्ा कृ ष्ट्ण अपने उसी रूप र्ें हैं, अतः यह सर्ास द्वन्द्व
कहलाता है ।
सर्स्त र्ारने वालों र्ें काल सवोपरर है, क्योंमक वह सबों को र्ारता है । काल कृ ष्ट्णस्वरूप है, क्योंमक सर्य
आने पर प्रलयामग्न से सब कुछ लय हो जाएगा ।
सृजन करने काले जीवों र्ें चतुर्मख ु ब्रह्मा प्रधान हैं, अतः वे भगवान् कृ ष्ट्ण के प्रमतक हैं ।

मृत्य:ु सवमहरश्र्चाहमुिवश्र्च भनवष्ट्यताम् ।


कीनतमः श्रीवामक्च िारीणां स्मृनतमेधा धृनतः क्षमा ।। ३४ ।।

मृत्यु:—मृत्यु; सवप-हर:—सवतभक्षी; च—भी; अहम्—मैं ह;ूँ उद्भव:—सृपष्ट; च—भी; भमवष्यताम्—भावी


जगतों में; कीमतप:—यश; श्री:—ऐश्वयत या सुन्दरता; वाक् — वाणी; च—भी; नारीणाम्—पस्त्रयों में; स्मृमत:—स्मृपत,
स्मरणशपक्त; मेधा—बपु द्ध; धृमत:—दृढता; क्षमा—क्षमा, धैयत ।

मैं सवमभक्षी मृत्यु हूँ और मैं ही आगे होिे वालों को उत्पन्ि करिे वाला हूँ । नस्त्रयों में मैं
कीनतम, श्री, वाक् , स्मृनत, मेधा, धृनत तथा क्षमा हूँ ।

तात्पयम : जयोंही र्नुष्ट्य जन्र् लेता है, वह क्षण क्षण र्रता रहता है । इस प्रकार र्ृत्यु सर्स्त जीवों का हर क्षण
भक्षण करती रहती है, मकन्तु अमन्तर् आघात र्ृत्यु कहलाता है । यह र्ृत्यु कृ ष्ट्ण ही है । जहाँ तक भावी मवकास का
सम्बन्ध है, सारे जीवों र्ें छह पररवतमन होते हैं – वे जन्र्ते हैं, बढ़ते हैं, कुछ काल तक संसार र्ें रहते हैं, सन्तान उत्पन्न
करते हैं, क्षीण होते हैं और अन्त र्ें सर्ाप्त हो जाते हैं । इन छहों पररवतमनों र्ें पहला गभम से र्मु क्त है और यह कृ ष्ट्ण
है । प्रर्र् उत्पमत्त ही भावी कायों का शभु ारम्भ है ।
यहाँ मजन सात ऐश्र्वयों का उल्लेख है, वे स्त्रीवाचक हैं – कीमतम, श्री, वाक् , स्र्ृमत, र्ेधा, धृमत तर्ा क्षर्ा । यमि
मकसी व्यमक्त के पास ये सभी, या इनर्ें से कुछ ही होते हैं, तो वह यशस्वी होता है । यमि कोई र्नष्ट्ु य धर्ामत्र्ा है, तो वह
यशस्वी होता है । संस्कृ त पूणम भाषा है, अतः यह अत्यन्त यशमस्वनी है । यमि कोई पढ़ने के बाि मवषय को स्र्रण रख
सकता है तो उसे उत्तर् स्र्ृमत मर्ली होती है । के वल अनेक ग्रर्ं ों को पढ़ना पयामप्त नहीं होता, मकन्तु उन्हें सर्झकर
आवश्यकता पड़ने पर उनका प्रयोग र्ेधा या बुमद्ध कहलाती है । यह िसू रा ऐश्र्वयम है । अमस्र्रता पर मवजय पाना धृमत

३३२
या दृढ़ता है । पूणमतया योग्य होकर यमि कोई मवनीत भी हो और सुख तर्ा िख
ु र्ें सर्भाव से रहे तो यह ऐश्र्वयम क्षर्ा
कहलाता है ।

बृहत्साम तथा साम्िां गायत्री छन्दसामहम् ।


मासािां मागमशीषोऽहमृतूिां कुसुमाकरः ।। ३५ ।।

बृहत्-साम– बृहत्सार्; तथा– भी; साम्िाम्– सार्वेि के गीतों र्ें; गायत्री– गायत्री र्त्रं ; छन्दसाम्– सर्स्त
छन्िों र्ें; अहम्– र्ैं ह;ँ मासािाम्– र्हीनों र्ें; मागम-शीषमः– नवम्बर-मिसम्बर (अगहन) का र्हीना; अहम्– र्ैं
ह;ँ ऋतिू ाम्– सर्स्त ऋतओ ु ं र्ें; कुसमु -आकरः– वसन्त ।

मैं सामवेद के गीतों में बृहत्साम हूँ और छन्दों में गायत्री हूँ । समस्त महीिों में मैं मागमशीषम (अगहि)
तथा समस्त ऋतुओ ं में िूल नखलिे वाली वसन्त ऋतु हूँ ।

तात्पयम: जैसा मक भगवान् स्वयं बता चुके हैं, वे सर्स्त वेिों र्ें सार्वेि हैं । सार्वेि मवमभन्न िेवताओ ं द्वारा गाये
जाने वाले गीतों का संग्रह है । इन गीतों र्ें से एक बृहत्सार् है मजसको ध्वमन सुर्धरु है और जो अधमरामत्र र्ें गाया जाता
है ।
संस्कृ त के काव्य के मनमश्चत मवधान हैं । इसर्ें लय तर्ा ताल बहुत ही आधमु नक कमवता की तरह र्नर्ाने नहीं
होते । ऐसे मनयमर्त काव्य र्ें गायत्री र्न्त्र, मजसका जप के वल सुपात्र ब्राह्मणों द्वारा ही होता है, सबसे अमधक र्हत्त्वपूणम
है । गायत्री र्न्त्र का उल्लेख श्रीमद्भागवत र्ें भी हुआ है । चँमू क गायत्री र्न्त्र मवशेषतया ईश्र्वर-साक्षात्कार के ही मनमर्त्त
है, इसमलए यह परर्ेश्र्वर का स्वरूप है । यह र्न्त्र अध्यात्र् र्ें उन्नत लोगों के मलए है । जब इसका जप करने र्ें उन्हें
सिलता मर्ल जाती है, तो वे भगवान् के मिव्य धार् र्ें प्रमवष्ट होते हैं । गायत्री र्न्त्र के जप के मलए र्नुष्ट्य को पहले
मसद्ध परुु ष के गणु या भौमतक प्रकृ मत के मनयर्ों के अनसु ार सामत्त्वक गणु प्राप्त करने होते हैं । वैमिक सभ्यता र्ें गायत्री
अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है और उसे ब्रह्म का नाि अवतार र्ाना जाता है । ब्रह्मा इसके गुरु हैं और मशष्ट्य-परम्परा द्वारा यह
उनसे आगे बढ़ता रहा है ।
र्ासों र्ें अगहन (र्ागमशीषम) र्ास सवोत्तर् र्ाना जाता है क्योंमकभारत र्ें इस र्ास र्ें खेतों से अन्न एकत्र मकया
जाता है और लोग अत्यन्त प्रसन्न रहते हैं । मनस्सन्िेह वसन्त ऐसी ऋतू है मजसका मवश्र्वभर र्ें सम्र्ान होता है क्योंमक
यह न तो बहुत गर्म रहती है, न सिम और इसर्ें वृक्षों र्ें िूल आते है । वसन्त र्ें कृ ष्ट्ण की लीलाओ ं से सम्बमन्धत अनेक
उत्सव भी र्नाये जाते हैं, अतः इसे सर्स्त ऋतुओ ं र्ें से सवाममधक उल्लासपूणम र्ाना जाता है और यह भगवान् कृ ष्ट्ण
की प्रमतमनमध है ।

द्यतू ं छलयतामनस्म तेजस्ते जनस्विामहम् ।


जयोऽनस्म व्यवसायोऽनस्म सत्त्वं सत्त्ववतामहम् ।। ३६ ।।

द्यूतम्– जुआ; छलयताम्– सर्स्त छमलयों या धतू ों र्ें; अनस्म– ह;ँ तेजः– तेज, चर्किर्क; तेजनस्विाम्–
तेजमस्वयों र्ें; अहम्– र्ैं ह;ँ जयः– मवजय; अनस्म– ह;ँ व्यवसायः– जोमखर् या साहस; अनस्म– ह;ँ सत्त्वम्– बल;

३३३
सत्त्व-वताम्– बलवानों का; अहम्– र्ैं हँ ।

मैं छनलयों में जुआ हूँ और तेजनस्वयों में तेज हूँ । मैं नवजय हूँ, साहस हूँ और बलवािों का बल हूँ ।

तात्पयम : ब्रह्माण्ड र्ें अनेक प्रकार के छमलयाँ हैं । सर्स्त छल-कपट कर्ों र्ें द्यूत-क्रीड़ा (जुआ) सवोपरर है
और यह कृ ष्ट्ण का प्रतीक है । परर्ेश्र्वर के रूप र्ें कृ ष्ट्ण मकसी भी सार्ान्य पुरुष की अपेक्षा अमधक कपटी (छल करने
वाले) हो सकते हैं । यमि कृ ष्ट्ण मकसी से छल करने की सोच लेते हैं तो उनसे कोई पार नहीं पा सकता । उनकी र्हानता
एकांगी न होकर सवाांगी है ।
वे मवजयी परुु षों की मवजय हैं । वे तेजमस्वयों का तेज हैं । साहसी तर्ा कर्मिों र्ें वे सवाममधक साहसी और कर्मि
हैं । वे बलवानों र्ें सवाममधक बलवान हैं । जब कृ ष्ट्ण इस धराधार् र्ें मवद्यर्ान र्े तो कोई भी उन्हें बल र्ें हरा नहीं
सकता र्ा । यहाँ तक मक अपने बाल्यकाल र्ें उन्होंने गोवधमन उिा मलया र्ा । उन्हें न तो कोई छल र्ें हरा सकता है, न
तेज र्ें, न मवजय र्ें, न साहस तर्ा बल र्ें ।

वृष्ट्णीिां वासुदेवोऽनस्म पाण्डवािां धिञ्जयः ।


मुिीिामप्यहं व्यासः कवीिामुशिा कनवः ।। ३७ ।।

वृष्ट्णीिाम्– वृमष्ट्ण कुल र्ें; वासुदेवः– द्वारकावासी कृ ष्ट्ण; अनस्म– ह;ँ पाण्डवािाम्– पाण्डवों र्ें; धिञ्जय–
अजुमन; मुिीिाम्– र्मु नयों र्ें; अनप– भी; अहम्– र्ैं ह;ँ व्यासः– व्यासिेव, सर्स्त वेिों के संकलकताम; कवीिाम्–
र्हान मवचारकों र्ें; उशिा– उशना, शुक्राचायम; कनवः– मवचारक ।

मैं वृनष्ट्णवंनशयों में वासुदेव और पाण्डवों में अजमिु हूँ । मैं समस्त मुनियों में व्यास तथा महाि
नवचारकों में उशिा हूँ ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण आमि भगवान् हैं और बलिेव कृ ष्ट्ण के मनकटतर् अंश-मवस्तार हैं । कृ ष्ट्ण तर्ा बलिेव िोनों ही
वासुिेव के पुत्र रूप र्ें उत्पन्न हुए, अतः िोनों को वासुिेव कहा जा सकता है । िसू री दृमष्ट से चँमू क कृ ष्ट्ण कभी वृन्िावन
नहीं त्यागते, अतः उनके मजतने भी रूप अन्यत्र पाये जाते हैं वे उनके मवस्तार हैं । वासुिेव कृ ष्ट्ण के मनकटतर् अंश-
मवस्तार हैं, अतः वासुिेव कृ ष्ट्ण से मभन्न नहीं है । अतः इस श्लोक र्ें आगत वासुर्ेव शब्ि का अर्म बलिेव या बलरार्
र्ाना जाना चामहए क्योंमक वे सर्स्त अवतारों के उद्गर् हैं और इस प्रकार वासुिेव के एकर्ात्र उद्गर् हैं । भगवान् के
मनकटतर् अंशों को स्वांश (व्यमक्तगत या स्वकीय अंश) कहते हैं और अन्य प्रकार के भी अंश हैं, जो मवमभन्नांश
(पृर्कीकृ त अंश) कहलाते हैं ।
पाण्डुपत्रु ों र्ें अजमनु धनञ्जय नार् से मवख्यात है । वह सर्स्त परुु षों र्ें श्रेितर् है, अतः कृ ष्ट्णस्वरूप है । र्मु नयों
अर्ामत् वैमिक ज्ञान र्ें पटु मवद्वानों र्ें व्यास सबसे बड़े हैं, क्योंमक उन्होंने कमलयुग र्ें लोगों को सर्झाने के मलए वैमिक
ज्ञान को अनेक प्रकार से प्रस्ततु मकया । और व्यास को कृ ष्ट्ण के एक अवतार भी र्ाने जाते हैं । अतः वे कृ ष्ट्णस्वरूप
हैं । कमवगण मकसी मवषय पर गंभीरता से मवचार करने र्ें सर्र्म होते हैं । कमवयों र्ें उशना अर्ामत् शक्र ु ाचायम असुरों के
गुरु र्े, वे अत्यमधक बुमद्धर्ान तर्ा िरू िशी राजनेता र्े । इस प्रकार सुक्राचय कृ ष्ट्ण के ऐश्र्वयम के िसू रे स्वरूप हैं ।

३३४
दण्डो दमयतामनस्म िीनतरनस्म नजगीषताम् ।
मौिं चैवानस्म गुह्यािां ज्ञािं ज्ञािवतामहम् ।। ३८ ।।

दण्ड:—दण्ड; दमयताम्—दमन के समस्त साधनों में से; अमस्म—ह;ूँ नीमत:— सदाचार; अमस्म—ह;ूँ
मजगीषताम्—पवजय की आकांक्षा करने वालों में; मौनम्— चप्ु िी, मौन; च—तथा; एव—भी; अमस्म—ह;ूँ
गह्य
ु ानाम्—रहस्यों में; ज्ञानम्—ज्ञान; ज्ञान-वताम्—ज्ञापनयों में; अहम्—मैं हूँ ।

अराजकता को दमि करिे वाले समस्त साधिों में मैं दण्ड हूँ और जो नवजय के आकाक्ष
ं ी हैं उिकी मैं
िीनत हूँ । रहस्यों में मैं मौि हूँ और बुनद्धमािों में ज्ञाि हूँ ।

तात्पयम : वैसे तो िर्न के अनेक साधन हैं, मकन्तु इनर्ें सबसे र्हत्त्वपूणम है िष्टु ों का नाश । जब िष्टु ों को िमण्डत
मकया जाता है तो िण्ड िेने वाला कृ ष्ट्णस्वरूप होता है । मकसी भी क्षेत्र र्ें मवजय की आकांक्षा करने वाले र्ें नीमत की
ही मवजय होती है । सुनने, सोचने तर्ा ध्यान करने की गोपनीय मक्रयाओ ं र्ें र्ौन ही सबसे र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक र्ौन
रहने से जल्िी उन्नमत मर्लती है । ज्ञानी व्यमक्त वह है, जो पिार्म तर्ा आत्र्ा र्ें, भगवान् की परा तर्ा अपरा शमक्तयों र्ें
भेि कर सके । ऐसा ज्ञान साक्षात् कृ ष्ट्ण है ।

यच्चानप सवमभूतािां बीजं तदहमजमिु ।


ि तदनस्त नविा यत्स्यान्मया भूतं चराचरम् ।। ३९ ।।

यत्– जो; च– भी;अनप– हो सकता है; सवम-भूतािाम्– सर्स्त सृमष्टयों र्ें; बीजम्– बीज; तत्– वह; अहम्–
र्ैं ह;ँ अजमिु – हे अजमनु ; ि– नहीं; तत्– वह; अनस्त– है; नविा– रमहत; यत्– जो; स्यात्– हो; मया– र्झु से; भतू म्–
जीव; चर-अचरम्– जंगर् तर्ा जड़ ।

यही िहीं, हे अजमिु ! मैं समस्त सृनष्ट का जिक बीज हूँ । ऐसा चर तथा अचर कोई भी प्राणी िहीं है, जो
मेरे नबिा रह सके ।

तात्पयम : प्रत्येक वस्तु का कारण होता है और इस सृमष्ट का कारण या बीज कृ ष्ट्ण हैं । कृ ष्ट्ण की शमक्त के मबना
कुछ भी नहीं रह सकता, अतः उन्हें सवमशमक्तर्ान कहा जाता है । उनकी शमक्त के मबना चर तर्ा अचर, मकसी भी जीव
का अमस्तत्व नहीं रह सकता । जो कुछ कृ ष्ट्ण की शमक्त पर आधाररत नहीं है, वह र्ाया है अर्ामत् ”वह जो नहीं है ।”

िान्तोऽनस्त मम नदव्यािां नवभूतीिां परन्तप ।


एष तद्दू ेशतः प्रोिो नवभतू ेनवमस्तरो मया ।। ४० ।।

३३५
ि– न तो; अन्तः– सीर्ा; अनस्त– है; मम– र्ेरे; नदव्यािाम्– मिव्य;नवभूतीिाम्– ऐश्र्वयों की; परन्तप– हे
शत्रओु ं के मवजेता;एषः– यह सब; तु– लेमकन; उद्देशतः– उिाहरणस्वरूप; प्रोिः– कहे गये; नवभूतेः– ऐश्र्वयों
के ; नवस्तरः– मवशि िशमन; मया– र्ेरे द्वारा ।

हे परन्तप! मेरी दैवी नवभूनतयों का अन्त िहीं है । मैंिे तुमसे जो कुछ कहा, वह तो मेरी अिन्त
नवभूनतयों का संकेत मात्र है ।

तात्पयम : जैसा मक वैमिक सामहत्य र्ें कहा गया है यद्यमप परर्ेश्र्वर की शमक्तयाँ तर्ा मवभमू तयाँ अनेक प्रकार से
जानी जाती हैं, मकन्तु इन मवभमू तयों का कोई अन्त नहीं है, अतएव सर्स्त मवभमू तयों तर्ा शमक्तयों का वणमन कर पाना
सम्भव नहीं है । अजुमन की मजज्ञासा को शान्त करने के मलए के वल र्ोड़े से उिाहरण प्रस्तुत मकये गये हैं ।

यद्यनद्वभूनतमत्सत्त्वं श्रीमदूनजमतमेव वा ।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंऽशसम्भवम् ।। ४१ ।।

यत् यत्—जो-जो; मवभूमत—ऐश्वयत; मत्—युक्त; सत्त्वम्—अपस्तत्व; श्री-मत्—सुन्दर; ऊमजपतम्—तेजस्वी;


एव—पनिय ही; वा—अथवा; तत् तत्—वे-वे; एव—पनिय ही; अवगच्छ—जानो; त्वम्—तुम; मम—मेरे;
तेज:—तेज का; अंर्—भाग, अंश से; सम्भवम्—उत्िन्न ।

तुम जाि लो नक सारा ऐश्र्वयम, सौन्दयम तथा तेजस्वी सृनष्टयाूँ मेरे तेज के एक स्िुनलंग मात्र से उिूत हैं ।

तात्पयम : मकसी भी तेजस्वी या सुन्िर सृमष्ट को, चाहे वह अध्यात्र् जगत र्ें हो या इस जगत र्ें, कृ ष्ट्ण की
मवभमू त का अशं रूप ही र्ानना चामहए । मकसी भी अलौमकक तेजयक्त ु वस्तु को कृ ष्ट्ण की मवभमू त सर्झना चामहए ।

अथवा बहुिैतेि नकं ज्ञातेि तवाजमिु ।


नवष्टभ्याहनमदं कृ त्स्िमेकांशेि नस्थतो जगत् ।। ४२ ।।

अथवा– या; बहुिा– अनेक; एतेि– इस प्रकार से; नकम्– क्या; ज्ञातेि– जानने से; तव– तुम्हारा; अजमुि– हे
अजुमन; नवष्टभ्य– व्याप्त होकर; अहम्– र्ैं; इदम्– इस; कृ त्स्िम्– सम्पूणम;एक– एक; अंशेि– अंश के द्वारा; नस्थतः–
मस्र्त ह;ँ जगत्– ब्रह्माण्ड र्ें ।

नकन्तु हे अजमिु ! इस सारे नवशद ज्ञाि की आवश्यकता क्या है? मैं तो अपिे एक अंश मात्र से सम्पूणम
ब्रह्माण्ड में व्याप्त होकर इसको धारण करता हूँ ।

तात्पयम : परर्ात्र्ा के रूप र्ें ब्रह्माण्ड की सर्स्त वस्तुओ ं र्ें प्रवेश कर जाने के कारण परर्ेश्र्वर का सारे भौमतक
जगत र्ें प्रमतमनमधत्व है । भगवान् यहाँ पर अजुमन को बताते हैं मक यह जानने की कोई सार्मकता नहीं है मक सारी वस्तुएँ

३३६
मकस प्रकार अपने पृर्क-पृर्क ऐश्र्वयम तर्ा उत्कषम र्ें मस्र्त हैं । उसे इतना ही जान लेना चामहए मक सारी वस्तुओ ं का
अमस्तत्व इसमलए है क्योंमक कृ ष्ट्ण उनर्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें प्रमवष्ट हैं । ब्रह्मा जैसे मवराट जीव से लेकर एक क्षुद्र चींटी तक
इसीमलए मवद्यर्ान हैं क्योंमक भगवान् उन सबर्ें प्रमवष्ट होकर उनका पालन करते हैं ।
एक ऐसी धामर्मक संस्र्ा (मर्शन) भी है जो यह मनरन्तर प्रचार करती है मक मकसी भी िेवता की पूजा करने से
भगवान् या परं लक्ष्य की प्रामप्त होगी । मकन्तु यहाँ पर िेवताओ ं की पूजा को पूणमतया मनरुत्सामहत मकया गया है, क्योंमक
ब्रह्मा तर्ा मशव जैसे र्हानतर् िेवता भी परर्ेश्र्वर की मवभमू त के अंशर्ात्र हैं । वे सर्स्त उत्पन्न जीवों के उद्गर् हैं और
उनसे बढ़कर कोई भी नहीं है । वे असर्ोध्वम हैं मजसका अर्म है मक न तो कोई उनसे श्रेि है, न उनके तल्ु य । पद्मपरु ाण र्ें
कहा गया है मक जो लोग भगवान् कृ ष्ट्ण को िेवताओ ं की कोमट र्ें चाहे वे ब्रह्मा या मशव ही क्यों न हो, र्ानते हैं वे
पाखण्डी हो जाते हैं, मकन्तु यमि कोई ध्यानपवू मक कृ ष्ट्ण की मवभमू तयों एवं उनकी शमक्त के अश ं ों का अध्ययन करता है
तो वह मबना मकसी संशय के भगवान् कृ ष्ट्ण की मस्र्मत को सर्झ सकता है और अमवचल भाव से कृ ष्ट्ण की पूजा र्ें
मस्र्त हो सकता है । भगवान् अपने अश ं के मवस्तार से परर्ात्र्ा रूप र्ें सवमव्यापी हैं, जो हर मवद्यर्ान वस्तु र्ें प्रवेश
करता है । अतः शद्ध ु भक्त पूणमभमक्त र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अपने र्नों को एकाग्र करते हैं । अतएव वे मनत्य मिव्य पि र्ें
मस्र्त रहते हैं । इस अध्याय के श्लोक ८ से ११ तक कृ ष्ट्ण की भमक्त तर्ा पूजा का स्पष्ट संकेत है । शद्ध ु भमक्त की यही
मवमध है । इस अध्याय र्ें इसकी भलीभाँमत व्याख्या की गई है मक र्नुष्ट्य भगवान् की संगमत र्ें मकस प्रकार चरर् भमक्त-
मसमद्ध प्राप्त कर सकता है । कृ ष्ट्ण-परम्परा के र्हान आचायम श्रील बलिेव मवद्याभषू ण इस अध्याय की टीका का सर्ापन
इस कर्न से करते हैं–
यच्छमक्तलेशात्सूयामिया भवन्त्यत्युग्रतेजसः ।
यिंशेन धृतं मवश्र्वं स कृ ष्ट्णो िशर्ेऽच्यमते ।।
प्रबल सूयम भी कृ ष्ट्ण की शमक्त से अपनी शमक्त प्राप्त करता है और सारे संसार का पालन कृ ष्ट्ण के एक लघु अंश
द्वार होता है । अतः श्रीकृ ष्ट्ण पजू नीय हैं ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े र्सवें अध्याय ”श्रीभगवान् ा ऐश्र्वयद” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

३३७
अध्याय ग्यारह
नवराट रूप
अजुमन उवाच
मदिुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसनं ज्ञतम् ।
यत्त्वयोिं वचस्तेि मोहोऽयं नवगतो मम ।। १ ।।

अजमिु ःउवाच– अजुमन ने कहा; मत्-अिुग्रहाय– र्झु पर कृ पा करने के मलए; परमम्– परर्; गुह्यम्– गोपनीय;
अध्यात्म– आध्यामत्र्क; संनज्ञतम्– नार् से जाना जाने वाला, मवषयक;यत्– जो; त्वया– आपके द्वारा; उिम्–
कहे गये; वचः– शब्ि; तेि– उससे;मोहः– र्ोह; अयम्– यह; नवगतः– हट गया; मम– र्ेरा ।

अजमिु िे कहा – आपिे नजि अत्यन्त गुह्य आध्यानत्मक नवषयों का मुझे उपदेश नदया है, उसे सुिकर
अब मेरा मोह दूर हो गया है ।

तात्पयम : इस अध्याय र्ें कृ ष्ट्ण को सर्स्त कारणों के कारण के रूप र्ें मिखाया गया है । यहाँ तक मक वे उन
र्हामवष्ट्णु के भी कारण स्वरूप हैं, मजनसे भौमतक ब्रह्माण्डों का उद्भव होता है । कृ ष्ट्ण अवतार नहीं हैं, वे सर्स्त
अवतारों के उद्गर् हैं । इसकी पूणम व्याख्या मपछले अध्याय र्ें की गई है ।
अब जहाँ तक अजुमन की बात है, उसका कहना है मक उसका र्ोह िरू हो गया है । इसका अर्म यह हुआ मक वह
कृ ष्ट्ण को अपना मर्त्र स्वरूप सार्ान्य र्नुष्ट्य नहीं र्ानता, अमपतु उन्हें प्रत्येक वस्तु का कारण र्ानता है । अजुमन
अत्यमधक प्रबुद्ध हो चक ु ा है और उसे प्रसन्नता है मक उसे कृ ष्ट्ण जैसा मर्त्र मर्ला है, मकन्तु अब वह यह सोचता है मक
भले ही वह कृ ष्ट्ण को हर एक वस्तु का कारण र्ान ले, मकन्तु िसू रे लोग नहीं र्ानेंगे । अतः इस अध्याय र्ें यह सबों के
मलए कृ ष्ट्ण की अलौमककता स्र्ामपत करने के मलए कृ ष्ट्ण से प्रार्मना करता है मक वे अपना मवराट रूप
मिखलाएँ । वस्तुतः जब कोई अजुमन की ही तरह कृ ष्ट्ण के मवराट रूप का िशमन करता है, तो वह डर जाता है, मकन्तु
कृ ष्ट्ण इतने ियालु हैं मक इस स्वरूप को मिखाने के तुरन्त बाि वे अपना र्ल ू रूप धारण कर लेते हैं । अजुमन कृ ष्ट्ण के इस
कर्न को बार बार स्वीकार करता है मक वे उसके लाभ के मलए ही सब कुछ बता रहे हैं । अतः अजमनु इसे स्वीकार
करता है मक यह सब कृ ष्ट्ण की कृ पा से घमटत हो रहा है । अब उसे पूरा मवश्र्वास हो चक ु ा है मक कृ ष्ट्ण सर्स्त कारणों
का कारण हैं और परर्ात्र्ा के रूप र्ें प्रत्येक जीव के हृिय र्ें मवद्यर्ान है ।

भवाप्ययौ नह भतू ािां श्रतु ौ नवस्तरशो मया ।


त्वत्तः कमलपत्राक्ष महात्म्यमनप चाव्ययम् ।। २ ।।

भव - उत्पमत्त; अप्ययौ - लय (प्रलय); नह - मनश्चय ही; भूतािाम् - सर्स्त जीवों का; श्रुतौ - सुना गया
है ; नवस्तरशः - मवस्तारपूवमक; मया - र्ेरे द्वारा;त्वत्तः - आपसे; कमल-पत्र-अक्ष - हे कर्ल नयन; माहात्म्यम् -
र्महर्ा; अनप - भी; च - तर्ा; अव्ययम् - अक्षय,अमवनाशी ।

३३८
हे कमलियि! मैंिे आपसे प्रत्येक जीव की उत्पनत्त तथा लय के नवषय में नवस्तार से सुिा है और
आपकी अक्षय मनहमा का अिुभव नकया है ।

तात्पयम: अजुमन यहाँ पर प्रसन्नता के र्ारे कृ ष्ट्ण को कर्लनयन (कृ ष्ट्ण के नेत्र कर्ल के िूल की पंखमड़यों जैसे
िीखते हैं) कहकर सम्बोमधत करता है क्योंमक उन्होंने मकसी मपछले अध्याय र्ें उसे मवश्र्वास मिलाया है - अहां ृ त्स्नस्य
जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा - र्ैं जगत की उत्पमत्त तर्ा प्रलय का कारण हँ । अजमनु इसके मवषय र्ें भगवान् से
मवस्तारपूवमक सुन चक ू ा है । अजुमन को यह भी ज्ञात है मक सर्स्त उत्पमत्त तर्ा प्रलय का कारण होने के अमतररक्त वे इन
सबसे पृर्क् (असगं ) रहते हैं । जैसा मक भगवान् ने नवें अध्याय र्ें कहा है मक वे सवमव्यापी हैं, तो भी वे सवमत्र स्वयं
उपमस्र्त नहीं रहते । यही कृ ष्ट्ण काअमचन्त्य ऐश्र्वयम है, मजसे अजुमन स्वीकार करता है मक उसने भलीभाँमत सर्झ मलया
है ।

एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मािं परमेश्र्वर ।


दृष्टुनमच्छानम ते रूपमैश्र्वरं पुरुषोत्तम ।। ३ ।।

एवम् - इस प्रकार;एतत् - यह; यथा- मजस प्रकार; आत्थ- कहा है; त्वम्- आपने; आत्मािम् - अपने
आपको;परम-ईश्र्वर– हेपरर्ेश्र्वर; द्रष्टुम् - िेखने के मलए; इच्छानम - इच्छा करता ह;ँ ते- आपका; रूपम् -
रूप; ऐश्र्वरम्- िैवी; पुरुष-उत्तम – हेपुरुषों र्ें उत्तर्।

हे परुु षोत्तम, हे परमेश्र्वर!यद्यनप आपको मैं अपिे समक्ष आपके द्वारा वनणमत आपके वास्तनवक रूप में
देख रहा हूँ, नकन्तु मैं यह देखिे का इच्छुक हूँ नक आप इस दृश्य जगत में नकस प्रकार प्रनवष्ट हुए हैं ।मैं आप
के उसी रूप का दशमि करिा चाहता हूँ ।

तात्पयम :भगवान् ने यह कहा मक उन्होंने अपने साक्षात् स्वरूप र्ें ब्रह्माण्ड के भीतर प्रवेश मकया है, िलतः यह
दृश्यजगत सम्भव हो सका है और चल रहा है । जहाँ तक अजुमन का सम्बन्ध है, वह कृ ष्ट्ण के कर्नों से प्रोत्सामहत
है,मकन्तु भमवष्ट्य र्ें उन लोगों को मवश्र्वास मिलाने के मलए,जो कृ ष्ट्ण को सार्ान्य पुरुष सोच सकते हैं, अजुमन चाहता है
मक वह भगवान् को उनके मवराट रूप र्ें िेखे मजससे वे ब्रह्माण्ड के भीतर से कार् करते हैं,यद्यमप वे इससे पृर्क् हैं ।
अजुमन द्वारा भगवान् के मलए पुरुषोत्तर् सम्बोधन भी र्हत्त्वपूणमहै । चँमू क वे भगवान् है,इसीमलए वे स्वयं अजुमन के भीतर
उपमस्र्त हैं, अतः वे अजुमन की इच्छा को जानते हैं । वे यह सर्झते हैंमक अजुमन को उनके मवराट रूप का िशमन करने
की कोई लालसा नहीं है, क्योंमक वह उनको साक्षात् िेखकर पूणमतया संतुष्टहै । मकन्तु भगवान् यह भी जानते हैं मक
अजमनु अन्यों को मवश्र्वास मिलाने के मलए ही मवराट रूप का िशमन करना चाहता है । अजमनु को इसकी पमु ष्ट के मलए
कोई व्यमक्तगत इच्छा न र्ी । कृ ष्ट्ण यह भी जानते हैं मक अजुमन मवराट रुप का िशमन एक आिमश स्र्ामपत करने के मलए
करना चाहता है, क्योंमक भमवष्ट्य र्ें ऐसे अनेक धतू म होंगे जो अपने आपको ईश्र्वर का अवतार बताएँगे। अतः लोगों को
सावधान रहना होगा । जो कोई अपने को कृ ष्ट्ण कहेगा, उसे अपने िावे की पुमष्ट के मलए मवराट रूप मिखाने के मलए
सन्नद्ध रहना होगा ।

३३९
मन्यसे यनद तच्छक्यं मया द्रष्टुनमनत प्रभो ।
योगेश्र्वर ततो मे त्वं दशमयात्मािमव्ययम् ।। ४ ।।

मन्यसे- तुर् सोचते हो; यनद- यमि; तत् - वह; शक्यम्- सर्र्म; मया - र्ेरे द्वारा;द्रष्टुम् - िेखे जाने के
मलए; इनत- प्रकार;प्रभो - स्वार्ी; योग-ईश्र्वर- हे योगेश्र्वर; ततः- तब; मे - र्झु े;त्वम् - आप; दशमय-
मिखलाइये; आत्मािम् - अपने स्वरूप को; अव्ययम्– शाश्र्वत।

हे प्रभु! हे योगेश्र्वर!यनद आप सोचतेहैं नक मैं आपके नवश्र्वरूप को देखिे में समथम हो सकता ह,ूँ तो
कृ पा करके मुझे अपिा असीम नवश्र्वरूप नदखलाइये।

तात्पयम :ऐसा कहा जाता है मक भौमतक इमन्द्रयों द्वारा न तो परर्ेश्वर कृ ष्ट्ण को कोई िेख सकता है,न सुन सकता
है और न अनुभव कर सकता है । मकन्तु यमि कोई प्रारम्भसे भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें लगा रहे, तो वह भगवान् का
साक्षात्कार करने र्ें सर्र्म हो सकता है । प्रत्येक जीव आध्यामत्र्क स्िुमलंगर्ात्र है, अतःपरर्ेश्र्वर को जान पाना या
िेख पाना सम्भव नहीं है। भक्तरूप र्ें अजुमन को अपनी मचन्तनशमक्त पर भरोसा नहीं है, वह जीवात्र्ा होने के कारण
अपनी सीर्ाओ ं को और कृ ष्ट्ण की अकल्पनीय मस्र्मत को स्वीकार करता है। अजुमन सर्झ चक ु ा र्ा मक क्षुद्र जीव के
मलए असीर् अनन्त को सर्झ पाना सम्भव नहीं है ।यमि अनन्त स्वयं प्रकट हो जाए,तो अनन्त की कृ पासे ही उसकी
प्रकृ मत को सर्झा जा सकता है। यहाँ पर योगेश्र्वर शब्ि अत्यन्त सार्मक है, क्योंमक भगवान् के पास अमचन्त्य शमक्त है
।यमि वे चाहें तो असीर् होकर भी अपने आपको प्रकट कर सकते हैं। अतः अजुमन कृ ष्ट्ण की अकल्पनीय कृ पा की
याचना करता है । वह कृ ष्ट्ण को आिेश नहीं िेता। जब तक कोई उनकी शरण र्ें नहीं जाता और भमक्त नहीं
करता, कृ ष्ट्ण अपने को प्रकट करने के मलए बाध्य नहीं हैं। अतः मजन्हें अपनी मचन्तन शमक्त (र्नोधर्म) का भरोसा है, वे
कृ ष्ट्णिशमन नहीं कर पाते ।

श्रीभगवानवु ाच
पश्य मे पाथम रूपानण शतशोऽथ सहस्त्रशः ।
िािानवधानि नदव्यानि िािावणामकृतीनि च ।। ५ ।।

श्रीभगवाि् उवाच -भगवान् कहा; पश्य - िेखो; मे - र्ेरा; पाथम - पृर्ापुत्र; रूपानण- रूप;शतशः-
सैकड़ों;अथ- भी;सहस्त्रशः- हजारों;िािा-नवधानि- नाना रूप वाले; नदव्यानि - मिव्य; िािा - नाना प्रकार के ; वणम -
रंग; आकृ तीनि - रूप; च - भी ।

भगवाि् िे कहा –हे अजमिु , हे पाथम! अब तुम मेरे ऐश्र्वयम को, सैकडों-हजारों प्रकार के दैवी तथा नवनवध
रंगों वाले रूपों को देखो ।

३४०
तात्पयम : अजुमन कृ ष्ट्ण के मवश्र्वरूप का िशमनामभलाषी र्ा, मिव्य होकर भी दृश्य जगत् के लाभार्म प्रकट होता
है । िलतः वह प्रकृ मत के अस्र्ाई काल द्वारा प्रभामवत है । मजस प्रकार प्रकृ मत (र्ाया) प्रकट-अप्रकट है, उसी प्रकार
कृ ष्ट्ण का यह मवश्र्वरूप भी प्रकट तर्ा अप्रकट होता रहता है । यह कृ ष्ट्ण रूपों की भाँमत वैकुण्ि र्ें मनत्य नहीं रहता ।
जहाँ तक भक्त की बात है, वह मवश्र्व रूप िेखने के मलए तमनक भी इच्छुक नहीं रहता, लेमकन चँमू क अजुमन कृ ष्ट्ण को
इस रूप र्ें िेखना चाहता र्ा, अतः वे यह रूप प्रकट करते हैं । सार्ान्य व्यमक्त इस रूप को नहीं िेख सकता । श्रीकृ ष्ट्ण
द्वारा शमक्त प्रिान मकये जाने पर ही इसके िशमन हो सकते हैं ।

पश्यानदत्यान्वसन्रू ुद्रािनश्र्विौ मरुतस्तथा ।


बहन्यदृष्टपवू ामनण पश्याश्र्चयामनण भारत ।। ६ ।।

पश्य - िेखो; आनदत्याि् - अमिमत के बारहों पुत्रों को; वसूि-् आिों वसुओ ं को; रुद्राि् - रूद्र के ग्यारह रूपों
को; अनश्र्विौ- िो अमश्र्वनी कुर्ारों को;मरुतः- उञ्चासों र्रुतों को; तथा - भी;बहनि- अनेक;अदृष्ट- िेखे
हुए; पूवामनण - पहले, इसके पूवम, पश्य -िेखो,आश्र्चयामनण- सर्स्त आश्चयों को; भारत - हे भरतवंमशयों र्ें श्रेि ।

हे भारत! लो, तुम आनदत्यों, वसुओ,ं रुद्रों, अनश्र्विीकुमारों तथा अन्य देवताओ ं के नवनभन्ि रूपों को
यहाूँ देखो । तुम ऐसे अिेक आश्चयममय रूपों को देखो, नजन्हें पहले नकसी िे ि तो कभी देखा है, ि सुिा है ।

तात्पयम : यद्यमप अजुमन कृ ष्ट्ण का अन्तरंग सखा तर्ा अत्यन्त मवद्वान र्ा, तो भी वह उनके मवषय सबकुछ नहीं
जानता र्ा । यहाँ पर यह कहा गया है मक इन सर्स्त रूपों को न तो र्नुष्ट्यों ने इसके पूवम िेखा है, न सुना है । अब कृ ष्ट्ण
इन आश्चयमर्य रूपों को प्रकट कर रहे हैं ।

इहैकस्थं जगत्कृ त्स्िं पश्याद्य सचराचरम् ।


मम देहे गुडाके श यच्चान्यद् द्रष्टुनमच्छनस ।। ७ ।।

इह - इसर्ें; एक-स्थम् - एक स्र्ान र्ें; जगत् - ब्रह्माण्ड; कृ त्स्िम् - पूणमतया; पश्य - िेखो; अद्य - तुरन्त; स -
समहत; चर - जंगर्; अचरम् - तर्ा अचर, जड़;मम - र्ेरे; देहे - शरीर र्ें; गुडाके श - हे अजुमन; यत् - जो; च -
भी; अन्यत् - अन्य, और; द्रष्टुम् - िेखना;इच्छनस - चाहते हो ।

हे अजमिु ! तुम जो भी देखिा चाहो, उसेतत्क्षण मेरे इस शरीर में देखो । तुम इस समय तथा भनवष्ट्य में
भी जो भी देखिा चाहते हो, उसको यह नवश्र्वरूप नदखािे वाला है । यहाूँ एक ही स्थाि पर चर-अचर सब
कुछ है ।

तात्पयम: कोई भी व्यमक्त एक स्र्ान र्ें बैिे-बैिे सारा मवश्र्व नहीं िेख सकता । यहाँ तक मक बड़े से बड़ा
वैज्ञामनक भी यह नहीं िेख सकता मक ब्रह्माण्ड के अन्य भागों र्ें क्या हो रहा है । मकन्तु अजुमन जैसा भक्त यह िेख

३४१
सकता है मक सारी वस्तुएँ जगत् र्ें कहाँ-कहाँ मस्र्त हैं । कृ ष्ट्ण उसे शमक्त प्रिान करते हैं, मजससे वह भतू , वतमर्ान तर्ा
भमवष्ट्य, जो कुछ िेखना चाहे, िेख सकता है । इस तरह अजुमन कृ ष्ट्ण के अनुग्रह से सारी वस्तुएँ िेखने र्ें सर्र्म है ।

ि तु मां शक्यसे द्रष्टुमिेिैव स्वचक्षुषा ।


नदव्यं ददानम ते चक्षु: पश्य मे योगमैश्र्वरम् ।। ८ ।।

ि - कभी नहीं; तु - लेमकन;माम् - र्झु को; शक्यसे - तर्ु सर्र्म होगे; द्रष्टुम् - िेखने र्ें; अिेि - इन; एव -
मनश्चय ही; स्व-चक्षुषा - अपनी आँखों से; नदव्यम् - मिव्य; ददानम - िेता ह;ँ ते - तुर्को; चक्षुः - आँखें; पश्य -
िेखो; मे - र्ेरी; योगम् ऐश्र्वरम् - अमचन्त्य योगशमक्त ।

नकन्तु तुम मुझे अपिी इि आूँखों से िहीं देख सकते । अतः मैं तुम्हें नदव्य आूँखें दे रहा हूँ । अब मेरे
योग ऐश्र्वयम को देखो ।

तात्पयम : शद्ध ु भक्त कृ ष्ट्ण को, उनके िोभजु ी रूप के अमतररक्त, अन्य मकसी भी रूप र्ें िेखने की इच्छा नहीं
करता । भक्त को भगवत्कृ पा से ही उनके मवराट रूप का िशमन मिव्य चक्षुओ ं (नेत्रों) से करना होता है, न मक र्न से ।
कृ ष्ट्ण के मवराट रूप का िशमन करने के मलए अजुमन से कहा जाता है मक वह अपने र्न को नहीं, अमपतु दृमष्ट को बिले ।
कृ ष्ट्ण का यह मवराट रूप कोई र्हत्त्वपूणम नहीं है, यह बाि के श्लोकों से पता चल जाएगा । मिर भी, चँमू क अजुमन इसका
िशमन करना चाहता र्ा, अतः भगवान् ने उसे मवराट रूप को िेखने के मलए मवमशष्ट दृमष्ट प्रिान की ।
जो भक्त कृ ष्ट्ण के सार् मिव्य सम्बन्ध से बँधे हैं, वे उनके ऐश्र्वयों के ईश्र्वरमवहीन प्रिशमनों से नहीं, अमपतु उनके
प्रेर्र्य स्वरूपों से आकृ ष्ट होते हैं । कृ ष्ट्ण के बालसगं ी, कृ ष्ट्ण सखा तर्ा कृ ष्ट्ण के र्ाता-मपता यह कभी नहीं चाहते मक
कृ ष्ट्ण उन्हें अपने ऐश्र्वयों का प्रिशमन कराएँ । वे तो शद्ध ु प्रेर् र्ें इतने मनर्ग्न रहते हैं मक उन्हें पता ही नहीं चलता मक
कृ ष्ट्ण भगवान् हैं । वे प्रेर् के आिान-प्रिान र्ें इतने मवभोर रहते हैं मक वे भल ू जाते हैं मक श्रीकृ ष्ट्ण परर्ेश्र्वर हैं ।
श्रीर्द्भागवत र्ें कहा गया है मक कृ ष्ट्ण के सार् खेलने वाले बालक अत्यन्त पमवत्र आत्र्ाएँ हैं और कृ ष्ट्ण के सार् इस
प्रकार खेलने का अवसर उन्हें अनेकानेक जन्र्ों के बाि प्राप्त हुआ है । ऐसे बालक यह नहीं जानते मक कृ ष्ट्ण भगवान्
हैं । वे उन्हें अपना मनजी मर्त्र र्ानते हैं । अतः शक ु िेव गोस्वार्ी यह श्लोक सुनाते हैं –
इत्थां सताां ब्रह्म-सुखानुभत्ू या
र्ास्यां गतानाां परर्ैवतेन ।
मायास्श्रतानाां नरर्ार े ण
सा ां स्वजहुः ृ त-पुण्य-पुञ्जाः ।।
“यह वह परर्पुरुष है, मजसे ऋमषगण मनमवमशेष ब्रह्म करके र्ानते हैं, भक्तगण भगवान् र्ानते हैं और सार्ान्यजन
प्रकृ मत से उत्पन्न हुआ र्ानते हैं । ये बालक, मजन्होंने अपने पवू मजन्र्ों र्ें अनेक पण्ु य मकये हैं, अब उसी भगवान् के सार्
खेल रहे हैं ।” (श्रीमद्भागवत १०.१२.११) ।
तथ्य तो यह है की भक्त मवश्र्वरूप को िेखने का इच्छुक नहीं रहता, मकन्तु अजमनु कृ ष्ट्ण के कर्नों की पमु ष्ट करने
के मलए मवश्र्वरूप का िशमन करना चाहता र्ा, मजससे भमवष्ट्य र्ें लोग यह सर्झ सकें की कृ ष्ट्ण न के वल सैद्धामन्तक या
िाशममनक रूप से अजुमन के सर्क्ष प्रकट हुए, अमपतु साक्षात् रूप र्ें प्रकट हुए र्े । अजुमन को इसकी पुमष्ट करनी

३४२
र्ी, क्योंमक अजुमन से ही परम्परा-पद्धमत प्रारम्भ होती है । जो लोग वास्तव र्ें भगवान् को सर्झना चाहते हैं और अजुमन
के पिमचन्हों का अनुसरण करना चाहते हैं, उन्हें यह जान लेना चामहए मक कृ ष्ट्ण न के वल सैद्धामन्तक रूप र्ें, अमपतु
वास्तव र्ें अजुमन के सर्क्ष परर्ेश्र्वर के रूप र्ें प्रकट हुए ।
भगवान् ने अजुमन को अपना मवश्र्वरूप िेखने के मलए आवश्यक शमक्त प्रिान की, क्योंमक वे जानते र्े की अजुमन
इस रूप को िेखने के मलए मवशेष इच्छुक न र्ा, जैसा मक हर् पहले बतला चक ु े हैं ।

सजं य उवाच
एवमुक्त्वा ततो राजन्महायोगेश्र्वरो हररः ।
दशमयामास पाथामय परमं रूपमैश्र्वरम् ।। १ ।।

सञ्जयःउवाच–सजं य ने कहा; एवम्– इस प्रकार; उक्त्वा–कहकर; ततः–तत्पश्चात्; राजि्– हे राजा; महा-


योग-ईश्र्वरः– परा शमक्तशाली योगी; हररः– भगवान् कृ ष्ट्ण ने; दशमयाम् आस – मिखलाया; पाथामय– अजुमन
को; परमम्– मिव्य; रूपमैश्र्वरम्– मवश्र्वरूप ।

संजय िे कहा – हे राजा! इस प्रकार कहकर महायोगेश्र्वर भगवाि् िे अजमिु को अपिा नवश्र्वरूप
नदखलाया ।

अिेकवक्त्रियिमिेकाअिुतदशमिम् ।
अिेकनदव्याभरणं नदव्यािेकोद्यतायुधम् ।। १० ।।
नदव्यमाल्याम्बरधरं नदव्यगन्धािल ु ेपिम् ।
सवामश्र्चयममयं देवमिन्तं नवश्र्वतोमुखम् ।। ११ ।।

अनेक—कई; वक्त्र—मख ु ; नयनम्—नेत्र; अनेक—अनेक; अद्भुत—पवपचत्र; दर्पनम्—दृश्य; अनेक—अनेक;


मदव्य—पदव्य, अलौपकक; आभरणम्—आभर्ू ण; मदव्य—दैवी; अनेक—पवपवध; उद्यत—उठाये हुए; आयध ु म्—
हपथयार; मदव्य— पदव्य; माल्य—मालाएूँ; अम्बर—वस्त्र; धरम्—धारण पकये; मदव्य—पदव्य; गन्ध— सुगपन्धयाूँ;
अनुलेपनम्—लगी थीं; सवप—समस्त; आश्चयप-मयम्—आियतिूणत; देवम्—प्रकाशयुक्त; अनन्तम्—असीम;
मवश्वत:-मुखम्—सवतव्यािी ।

अजमिु िे इस नवश्र्वरूप में असंख्य मुख, असंख्य िेत्र तथा असंख्य आश्चयममय दृश्य देखे । यह रूप
अिेक दैवी आभूषणों से अलंकृत था और अिेक दैवी हनथयार उठाये हुए था । यह दैवी मालाएूँ तथा वस्त्र
धारण नकये थे और उस पर अिेक नदव्य सगु नन्धयाूँ लगी थीं । सब कुछ आश्चयममय, तेजमय, असीम तथा
सवमत्र व्याप्त था ।

३४३
तात्पयम: इस िोनों श्लोकों र्ें अने शब्ि बारम्बार प्रयोग हुआ है, जो यह सूमचत करता है की अजुमन मजस रूप
को िेख रहा र्ा उसके हार्ों, र्ख ु ों, पाँवों की कोई सीर्ा ण र्ी । ये रूप सारे ब्रह्माण्ड र्ें िै ले हुए र्े, मकन्तु भगवत्कृ पा
से अजुमन उन्हें एक स्र्ान पर बैिे-बैिे िेख रहा र्ा । यह सब कृ ष्ट्ण की अमचन्त्य शमक्त के कारण र्ा ।

नदनव सूयमसहस्त्रस्य भवेद्युगपदुनत्थता ।


यनद भाः सदृशी सा स्यािासस्तस्य महात्मिः ।। १२ ।।

नदनव– आकाश र्ें; सूयम– सूयम का;सहस्त्रस्य– हजारों; भवेत–् र्े; युगपत्– एकसार्; उनत्थता– उपमस्र्त;
यनद– यमि; भाः– प्रकाश; सदृशी– के सर्ान; सा– वह;स्यात्– हो;भासः– तेज; तस्य– उस; महात्मिः– परर्
स्वार्ी का ।

यनद आकाश में हजारों सूयम एकसाथ उदय हों, तो उिका प्रकाश शायद परमपुरुष के इस नवश्र्वरूप के
तेज की समता कर सके ।

तात्पयम : अजुमन ने जो कुछ िेखा वह अकथ्य र्ा, तो भी संजय धृतराष्ट्र को उस र्हान िशमन का र्ानमसक मचत्र
उपमस्र्त करने का प्रयत्न कर रहा है । न तो संजय वहाँ र्ा, न धृतराष्ट्र, मकन्तु व्यासिेव के अनुग्रह से संजय सारी
घटनाओ ं को िेख सकता है । अतएव इस मस्र्मत की तुलना वह एक काल्पमनक घटना (हजारों सूयों) से कर रहा
है, मजससे इसे सर्झा जा सके ।

तत्रैकस्थं जगत्कृ त्स्िं प्रनवभिमिेकधा ।


अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ।। १३ ।।

तत्र– वहाँ; एक-स्थम्– एकत्र, एक स्र्ान र्ें; जगत्– ब्रह्माण्ड;कृ त्स्िम्– सम्पूणम;प्रनवभिम्– मवभामजत;
अिेकधा– अनेक र्ें; अपश्यत्– िेखा;देव-देवस्य– भगवान् के ; शरीरे– मवश्र्वरूप र्ें; पाण्डवः– अजुमन ने; तदा–
तब ।

उस समय अजमिु भगवाि् के नवश्र्वरूप में एक ही स्थाि पर नस्थत हजारोंभागों में नवभि ब्रह्माण्ड के
अिन्त अंशों को देख सका ।

तात्पयम :तत्र (वहाँ) शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । इससे सूमचतहोता है मक जब अजुमन ने मवश्र्वरूप िेखा, उस
सर्य अजमनु तर्ा कृ ष्ट्ण िोनों ही रर् परबैिे र्े । यद्ध
ु भमू र् के अन्य लोग इस रूप को नहीं िेख सके , क्योंमक कृ ष्ट्ण ने
के वलअजुमन को दृमष्ट प्रिान की र्ी । वह कृ ष्ट्ण के शरीर र्ें हजारों लोक िेख सका । जैसामक वैमिक शास्त्रों से पता
चलता है मक ब्रह्माण्ड अनेक हैं और लोक भी अनेक हैं ।इनर्ें से कुछ मर्ट्टी के बने हैं, कुछ सोने के , कुछ रत्नों के , कुछ
बहुत बड़े हैं,तो कुछ बहुत बड़े नहीं हैं । अपने रर् पर बैिकर अजुमन इन सबों को िेख सकता र्ा ।मकन्तु कोई यह नहीं
जान पाया मक अजुमन तर्ा कृ ष्ट्ण के बीच क्या चल रहा र्ा ।

३४४
ततः स नवस्मयानवष्टो हृष्टरोमा धिञ्जयः ।
प्रणम्य नशरसा देवं कृ ताञ्जनलरभाषत ।। १४ ।।

ततः– तत्पश्चात्; सः– वह; नवस्मय-आनवष्टः – आश्चयमचमकत होकर; हृष्ट-रोमा– हषम से


रोर्ामं चत; धिञ्जयः– अजुमन; प्रणम्य– प्रणार् करके ; नशरसा– मशर के बल; देवम्– भगवान् को; कृ त-अञ्जनलः–
हार् जोड़कर; अभाषत– कहने लगा ।

तब मोहग्रस्त एवं आश्चयमचनकत रोमानं चत हुए अजमिु िे प्रणाम करिे के नलए मस्तक झुकाया और वह
हाथ जोडकर भगवाि् से प्राथमिा करिे लगा ।

तात्पयम: एक बार मिव्य िशमन हुआ नहीं मक कृ ष्ट्ण तर्ा अजुमन के पारस्पररक सम्बन्ध तुरन्त बिल गये । अभी
तक कृ ष्ट्ण तर्ा अजुमन र्ें र्ैत्री सम्बन्ध र्ा, मकन्तु िशमन होते ही अजुमन अत्यन्त आिरपूवमक प्रणार् कर रहा है और हार्
जोड़कर कृ ष्ट्ण से प्रार्मना कर रहा है । वह उनके मवश्र्वरूप की प्रशंसा कर रहा है । इस प्रकार अजुमन का सम्बन्ध मर्त्रता
का न रहकर आश्चयम का बन जाता है । बड़े-बड़े भक्त कृ ष्ट्ण को सर्स्त सम्बन्धों का आगार र्ानते हैं । शास्त्रों र्ें १२
प्रकार के सम्बन्धों का उल्लेख है और वे सब कृ ष्ट्ण र्ें मनमहत हैं । यह कहा जाता है मक वे िो जीवों के बीच, िेवताओ ं
के बीच या भगवान् तर्ा भक्त के बीच के पारस्पररक आिान-प्रिान होने वाले सम्बन्धों के सागर हैं ।
यहाँ पर अजुमन आश्चयम-सम्बन्ध से प्रेररत है और उसीर्ें वह अत्यन्त गम्भीर तर्ा शान्त होते हुए भी अत्यन्त
आह्ग्िामलत हो उिा । उसके रोर् खड़े हो गये और वह हार् जोड़कर भगवान् की प्रार्मना करने लगा । मनस्सन्िेह वह
भयभीत नहीं र्ा । वह भगवान् के आश्चयों से अमभभतू र्ा । इस सर्य तो उसके सर्क्ष आश्चयम र्ा और उसकी प्रेर्पूणम
मर्त्रता आश्चयम से अमभभतू र्ी । अतः उसकी प्रमतमक्रया इस प्रकार हुई ।

अजुमन उवाच
पश्यानम देवांस्तव देव देहे
सवांस्तथा भूतनवशेषसङ् घाि् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासिस्थ-
मृषींश्र्च सवामिुरगांश्र्च नदव्याि् ।। १५ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन ने कहा; पश्यानम– िेखता ह;ँ देवाि्– सर्स्त िेवताओ ं को; तव– आपके ; देव- हे
प्रभ;ु देहे– शरीर र्ें; सवामि–् सर्स्त; तथा– भी; भूत– जीव; नवशेष-सङघाि्– मवशेष रूप से एकमत्रत; ब्रह्माणम्–
ब्रह्मा को; ईशम्– मशव को; कमल-आसि-स्थम्– कर्ल के ऊपर आसीन; ऋषीि्– ऋमषयों को; च– भी; सवामि–्
सर्स्त; उरगाि्– सपों को; च– भी; नदव्याि्– मिव्य ।

अजमिु िे कहा – हे भगवाि् कृ ष्ट्ण! मैं आपके शरीर में सारे देवताओ ं तथा अन्य नवनवध जीवों को
एकत्र देख रहा हूँ । मैं कमल पर आसीि ब्रह्मा, नशवजी तथा समस्त ऋनषयों एवं नदव्य सपों को देख रहा हूँ ।

३४५
तात्पयम : अजुमन ब्रह्माण्ड मक प्रत्येक वास्तु िेखता है, अतः वह ब्रह्माण्ड के प्रर्र् प्राणी ब्रह्मा को तर्ा उस मिव्य
सपम को, मजस पर गभोिकशायी मवष्ट्णु ब्रह्माण्ड के अधोतल र्ें शयन करते हैं, िेखता है । इस शेष-शय्या के नाग को
वासुमक भी कहते हैं । अन्य सपों को भी वासुमक कहा जाता है । अजुमन गभोिकशायी मवष्ट्णु से लेकर कर्ललोक मस्र्त
ब्रह्माण्ड के शीषमस्य भाग को जहाँ ब्रह्माण्ड के प्रर्र् जीव ब्रह्मा मनवास करते हैं, िेख सकता है । इसका अर्म यह है मक
अजुमन आमि से अन्त तक की सारी वस्तुएँ अपने रर् र्ें एक ही स्र्ान पर बैिे-बैिे िेख सकता र्ा । यह सब भगवान्
कृ ष्ट्ण की कृ पा से ही सम्भव हो सका ।

अिेकबाहदरवक्त्रिेत्रं
पश्यानम त्वां सवमतोऽिन्तरूपम् ।
िान्तं ि मध्यं ि पुिस्तवानदं
पश्यानम नवश्र्वेश्र्वर नवश्र्वरूप ।। १६ ।।

अिेक– कई; बाहु– भजु ाएँ; उदार– पेट; वक्त्र– र्ख


ु ; िेत्रम्–आँखें; पश्यानम– िेख रहा ह;ँ त्वाम्– आपको;
सवमतः– चारों ओर; अिन्त-रूपम्– असंख्य रूप; ि अन्तम्– अन्तहीन, कोई अन्त नहीं है; ि मध्यम् – र्ध्य
रमहत; ि पुिः– न मिर; तव– आपका; आनदम्– प्रारम्भ; पश्यानम– िेखता ह;ँ नवश्र्व-ईश्र्वर– हे ब्रह्माण्ड के
स्वार्ी; नवश्र्वरूप– ब्रह्माण्ड के रूप र्ें ।

हे नवश्र्वेश्र्वर, हे नवश्र्वरूप! मैं आपके शरीर में अिेकािेक हाथ, पेट, मुूँह तथा आूँखें देख रहा हूँ, जो
सवमत्र िै ले हैं और नजिका अन्त िहीं है । आपमें ि अन्त दीखता है, ि मध्य और ि आनद ।

तात्पयम: कृ ष्ट्ण भगवान् हैं और असीर् हैं, अतः उनके र्ाध्यर् से सब कुछ िेखा जा सकता र्ा ।

नकरीनटिं गनदिं चनक्रणं च


तेजोरानशं सवमतो दीनप्तमन्तम् ।
पश्यानम त्वां दुनिमरीक्ष्यं समन्ता-
द्दीप्तािलाकम द्युनतमप्रमेयम् ।। १७ ।।

नकरीनटिम् – र्कु ु ट युक्त;गनदिम् – गिा धारण मकये; चनक्रणम् – चक्र सर्ेत;च – तर्ा;तेजःरानशम् –
तेज;सवमतः – चारों ओर;दीनप्त-मन्तम् – प्रकाश युक्त;पश्यानम – िेखता ह;ँ त्वाम् – आपको;दुनिमरीक्ष्यम् – िेखने र्ें
कमिन;समन्तात् – सवमत्र;दीप्त-अिल – प्रजजवमलत अमग्न;अकम – सयू म की;द्यनु तम् – धपू ;अप्रमेयम् – अनन्त ।

आपके रूप को उसके चकाचौंध के कारण देख पािा कनठि है, क्योंनक वह प्रजजवनलत अनग्ि नक
भाूँनत अथवा सूयम के अपार प्रकाश की भाूँनत चारों ओर िै ल रहा है । तो भी मैं इस तेजोमय रूप को सवमत्र
देख रहा हूँ, जो अिेक मुकुटों, गदाओ ं तथा चक्रों से नवभूनषत है ।

३४६
त्वमक्षरं परमं वेनदतव्यं
त्वमस्य नवश्र्वस्य परं निधािम् ।
त्वमव्ययः शाश्र्वतधममगोप्ता
सिातिस्त्वं पुरुषो मतो मे ।। १८ ।।

त्वम्—आि; अक्षरम्—अच्यतु ; परमम्—िरम; वेमदतव्यम्—जानने योग्य; त्वम्— आि; अस्य—इस;


मवश्वस्य—पवश्व के ; परम्—िरम; मनधानम्—आधार; त्वम्—आि; अव्यय:—अपवनाशी; र्ाश्वत-धमप-गोप्ता—
शाश्वत धमत के िालक; सनातन:— शाश्वत; त्वम्—आि; परुु ष:—िरमिरुु र्; मत: मे—मेरा मत है ।

आप परम आद्य ज्ञेय वास्तु हैं । आप इस ब्रह्माण्ड के परम आधार (आश्रय) हैं । आप अव्यय तथा
पुराण पुरुष हैं । आप सिाति धमम के पालक भगवाि् हैं । यही मेरा मत है ।

अिानदमध्यान्तमिन्तवीयम-
मिन्तबाहुं शनशसूयमिेत्रम् ।
पश्यानम त्वां दीप्तहुताशवक्त्रं
स्वतेजसा नवश्र्वनमदं तपन्तम् ।। १९ ।।

अनामद—आपदरपहत; मध्य—मध्य; अन्तम्—या अन्त; अनन्त—असीम; वीयपम— ् मपहमा; अनन्त—


असख्ं य; बाहुम—् ुभ ज ाएूँ ; र्मर्—चन्द्रमा; स य
ू प —तथा सय
ू ;
त ने त्र म्
— आूँ ख ें ; पश्यामम—दे खता ह;ूँ त्वाम्—
आिको; दीप्त—प्रज्ज्वपलत; हुतार्-वक्त्रम्— आिके मख ु से पनकलती अपग्न को; स्व-तेजसा—अिने तेज से;
मवश्वम्—पवश्व को; इदम्—इस; तपन्तम्—तिाते हुए ।

आप आनद, मध्य तथा अन्त से रनहत हैं । आपका यश अिन्त है । आपकी असंख्यभुजाएूँ हैं और सूयम
चन्द्रमा आपकी आूँखें हैं । मैं आपके मुख से प्रजजवनलत अनग्िनिकलते और आपके तेज से इस सम्पूणम
ब्रह्माण्ड को जलाते हुए देख रहा हूँ ।

तात्पयम : भगवान् के षड् ऐश्र्वयों की कोई सीर्ा नहीं है । यहाँ परतर्ा अन्यत्र भी पुनरुमक्त पाई जाती है, मकन्तु
शास्त्रों के अनुसार कृ ष्ट्ण की र्महर्ाकी पुनरुमक्त कोई सामहमत्यक िोष नहीं है । कहा जाता है मक र्ोहग्रस्त होने या
परर्आिाि के सर्य या आश्चयम होने पर कर्नों की पुनरुमक्त हुआ करती है । यह कोई िोष नहीं है ।

द्यावापृनथव्योररदमन्तरं नह
व्याप्तं त्वयैकेि नदशश्र्च सवामः ।
दृष्ट्वािुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यनथतं महात्मि् ।। २० ।।

३४७
द्यौ– बाह्य आकाश से लेकर; आ-पृनथव्योः– पृथ्वी तक; इदम्– इस; अन्तरम्– र्ध्य र्ें; नह– मनश्चय
ही; व्याप्तम्– व्याप्त; त्वया– आपके द्वारा; एके ि– अके ला; नदशः– मिशाएँ; च– तर्ा; सवामः– सभी;दृष्ट्वा–
िेखकर; अिुतम्– अद्भुत; रूपम्– रूप को; उग्रम्– भयानक; तव– आपके ; इदम्– इस; लोक– लोक; त्रयम्–
तीन; प्रव्यनथतम्– भयभीत, मवचमलत; महा-आत्मि्– हे र्हापुरुष ।

यद्यनप आप एक हैं, नकन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उिके बीच के समस्त अवकाश में
व्याप्त हैं । हे महापुरुष! आपके इस अिुत तथा भयािक रूप को देखके सारे लोक भयभीत हैं ।

तात्पयम: इस श्लोक र्ें याव्-आ-पृस्थव्योः (धरती तर्ा आकाश के बीच का स्र्ान) तर्ा लो त्रयम् (तीनों
ससं ार) र्हत्त्वपूणम शब्ि हैं, क्योंमक ऐसा लगता है मक न के वल अजुमन ने इस मवश्र्वरूप को िेखा, बमल्क अन्य लोकों के
वामसयों ने भी िेखा । अजुमन द्वारा मवश्र्वरूप का िशमन स्वप्न न र्ा । भगवान् ने मजन मजनको मिव्य दृमष्ट प्रिान
की, उन्होंने युद्धक्षेत्र र्ें उस मवश्र्वरूप को िेखा ।

अमी नह त्वां सुरसङघा नवशनन्त


के नचिीताः प्राञ्जलयो गृणनन्त ।
स्वस्तीत्युक्त्वा महनषमनसद्धसङघाः
स्तुवनन्त त्वां स्तुनतनभः पुष्ट्कलानभः ।। २१ ।।

अमी– वे सब; नह– मनश्चय ही; त्वाम्– आपको; सरु -सङघाः– िेव सर्हू ;नवशनन्त– प्रवेश कर रहे
हैं; के नचत्– उनर्ें से कुछ; भीताः– भयवश; प्राञ्जलयः–हार् जोड़े; गृणनन्त– स्तुमत कर रहे हैं; स्वनस्त– कल्याण
हो; इनत– इस प्रकार;महा-ऋनष– र्हमषमगण; नसद्ध-सङ् घाः– मसद्ध लोग; स्तुवनन्त– स्तमु त कर रहे हैं;त्वाम्–
आपकी; स्तुनतनभः– प्रार्मनाओ ं से; पुष्ट्कलानभः– वैमिक स्तोत्रों से ।

देवों का सारा समूह आपकी शरण ले रहा है और आपमें प्रवेश कर रहा है ।उिमें से कुछ अत्यन्त
भयभीत होकर हाथ जोडे आपकी प्राथमिा कर रहें हैं । महनषमयोंतथा नसद्धों के समूह ”कल्याण हो” कहकर
वैनदक स्तोत्रों का पाठ करते हुए आपकीस्तुनत कर रहे हैं ।

तात्पयम : सर्स्त लोकों के िेवता मवश्र्वरूप कीभयानकता तर्ा प्रिीप्ततेज से इतने भयभीत र्े मक वे रक्षा के
मलए प्रार्मना करने लगे ।

रुद्रानदत्या वसवो ये च साध्या


नवश्र्वऽनश्र्विौ मरुतश्र्चोष्ट्मपाश्र्च ।
गन्धवमयक्षासरु नसद्धसङघा
वीक्षन्ते त्वां नवनस्मताश्र्चैव सवे ।। २२ ।।

३४८
रूद्र– मशव का रूप; आनदत्याः– आमित्यगण; वसवः– सारे वस;ु ये– जो; च– तर्ा; साध्याः–
साध्य; नवश्र्वे– मवश्र्वेिेवता; अनश्र्विौ–अमश्र्वनीकुर्ार; मरुतः– र्रुद्गण; च– तर्ा; उष्ट्ण-पाः– मपतर; च–
तर्ा; गन्धवम–गन्धवम; यक्ष– यक्ष; असुर– असुर; नसद्ध– तर्ा मसद्ध िेवताओ ं के ; सङ् घाः– सर्हू ;वीक्षन्ते– िेख रहे
हैं;त्वाम्– आपको;नवनस्मताः– आश्चयमचमकत होकर; च– भी;एव– मनश्चय ही; सवे– सब ।

मर्व के मवमवध रूप, आमदत्यगण, वस,ु साध्य, मवश्वेदेव, दोऩों अमश्वनीकुमार, मरुद्गण, मपतृगण,
गन्धवप, यक्ष, असुर तथा मसद्धदेव सभी आपको आश्चयपपूवपक देख रहे हैं ।

रूपं महत्ते बहुवक्त्रिेत्रं


महाबाहो बहुबाहरूपादम् ।
बहदरं बहुदंष्ट्राकरालं
दृष्ट्वा लोकाः प्रव्यनथतास्तथाहम् ।। २३ ।।

रूपम्– रूप; महत्– मवशाल; ते– आपका;बहु– अनेक; वक्त्र– र्ख ु ; िेत्रम्– तर्ा आँखें; महा-बाहों – हे
बमलष्ट भजु ाओ ं वाले; बहु– अनेक; बाहु– भजु ाएँ; उरु– जाँघें; पादम्– तर्ा पाँव; बहु-उदरम्– अनेक पेट; बहु-
दंष्ट्रा– अनेक िाँत; करालम्– भयानक ; दृष्ट्वा– िेखकर; लोकाः– सारे लोक; प्रव्यनथताः– मवचमलत; तथा– उसी
प्रकार; अहम्– र्ैं ।

हे महाबाहु! आपके इस अिेक मख


ु , िेत्र, बाहु,जाघं , पाूँव, पेट तथा भयािक दाूँतों वाले नवराट रूप
को देखकर देवतागण सनहत सभी लोक अत्यन्तनवचनलत हैं और उन्हीं की तरह मैं भी हूँ ।

िभःस्पृशं दीप्तमिेकवणं
व्यात्ताििं दीप्तनवशालिेत्रम् ।
दृष्ट्वा नह त्वां प्रव्यनथतान्तरात्मा
धृनतं ि नवन्दानम शमं च नवष्ट्णो ।। २४ ।।

िभः-स्पृशम्– आकाश छूता हुआ; दीप्तम्– जयोमतमर्य; अिेक– कई; वणमम–् रंग; व्याि– खल ु े
हुए; आििम्– र्ख ु ; दीप्त– प्रिीप्त; नवशाल– बड़ी-बड़ी; िेत्रम्– आँखें; दृष्ट्वा– िेखकर; नह– मनश्चय ही; त्वाम्–
आपको; प्रव्यनथतः– मवचमलत, भयभीत; अन्तः– भीतर; आत्मा– आत्र्ा; धृनतम्– दृढ़ता या धैयम को; ि–
नहीं; नवन्दानम– प्राप्त ह;ँ शमम्– र्ानमसक शामन्त को; च– भी; नवष्ट्णो– हे मवष्ट्णु ।

हे सवमव्यापी नवष्ट्ण!ु िािा जयोनतममय रंगोंसे यि


ु आपको आकाश का स्पशम करते, मख
ु िै लाये तथा
बडी-बडी चमकती आूँखें निकालेदेखकर भय से मेरा मि नवचनलत है । मैं ि तो धैयम धारण कर पा रहा हूँ, ि
मािनसकसतं ुलि ही पा रहा हूँ ।

३४९
दष्ट्ं राकरालानि च ते मुखानि
दृष्ट्वैव कालािलसनन्िभानि ।
नदशो ि जािे ि लभे च शमम
प्रसीद देवेश जगनन्िवास ।। २५ ।।

दष्ट्ं रा– िाँत; करालानि– मवकराल; च– भी; ते - आपके ; मख ु ानि– र्ख


ु ों को; दृष्ट्वा– िेखकर; एव– इस
प्रकार; काल-अिल– प्रलय की; सनन्ि-भानि– र्ानो; नदशः– मिशाएँ;ि– नहीं;जािे– जानता ह;ँ ि– नहीं; लभे–
प्राप्त करता ह;ँ च– तर्ा; शमम– आनन्ि; प्रसीद– प्रसन्न हों; देव-ईश– हे िेवताओ ं के स्वार्ी; जगत्-निवास– हे
सर्स्त जगतों के आश्रय ।

हे देवेश! हे जगनन्िवास! आप मुझ पर प्रसन्िहों ! मैं इस प्रकार से आपके प्रल्यानग्ि स्वरूप मुखों को
तथा नवकराल दाूँतों कोदेखकर अपिा सन्तुलि िहीं रख पा रहा । मैं सब ओर से मोहग्रस्त हो रहा हूँ ।

अमी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः


सवे सहैवावनिपालसङ् घै ।
भीष्ट्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ
सहास्मनदयैरनप योधमुख्यै: ।। २६ ।।
वक्त्रानण ते त्वरमाणा नवशनन्त
दष्ट्ं राकरालानि भयािकानि ।
के नचनद्वलग्िा दशिान्तरेषु
सन्दृश्यन्ते चनू णमतैरूत्तमाङ् गै: ।। २७ ।।

अमी– ये; च– भी; त्वाम्– आपको; धृतराष्ट्रस्य– धृतराष्ट्रके ;पुत्राः– पुत्र; सवे– सभी;सह– समहत; एव–
मनस्सन्िेह; अवनि-पाल– वीर राजाओकं े ; सङ् घै– सर्हू ; भीष्ट्मः– भीष्ट्र्िेव; द्रोणः– द्रोणाचायम; सूत-पुत्रः– कणम;
तथा– भी; असौ– यह; सह– सार्; अस्मदीयैः– हर्ारे ; अनप– भी;योध-मुख्यैः– र्ख्ु ययोद्धा; वक्त्रानण– र्ख ु ों र्ें;
ते– आपके ;त्वरमाणाः– तेजीसे; नवशनन्त– प्रवेश कर रहे हैं; दंष्ट्रा– िाँत; करालानि– मवकराल;भयािकानि–
भयानक; के नचत्– उनर्ें से कुछ; नवलग्िाः– लगे रहकर; दशि-अन्तरेष–ु िाँतों के बीच र्ें; सन्दृश्यन्ते– मिख रहे
हैं; चूनणमतैः– चणू म हुए; उत्तम-अङगैः– मशरोंसे ।

धृतराष्ट्र के सारे पत्रु अपिे समस्त सहायकराजाओ ं सनहत तथा भीष्ट्म, द्रोण, कणम एवं हमारे प्रमख

योद्धा भी आपके नवकराल मुखमें प्रवेश कर रहे हैं । उिमें से कुछ के नशरों को तो मैं आपके दाूँतों के
बीचचनू णमत हुआ देख रहा हूँ ।

३५०
तात्पयम: एक मपछले श्लोक र्ें भगवान् ने अजुमन को वचन मिया र्ा मक यमि वह कुछ िेखने इच्छुक हो तो वे उसे
मिखा सकते हैं ।अब अजुमन िेख रहा है मक मवपक्ष के नेता (भीष्ट्र्, द्रोण, कणम तर्ा धृतराष्ट्र के सारे पुत्र) तर्ा उनके
सैमनक और अजुमन के भी सैमनक मवनष्ट हो रहे हैं । यह इसका संकेत है मक कुरुक्षेत्र र्ें एकत्र सर्स्त व्यमक्तयों की र्ृत्यु के
बाि अजुमनमवजयी होगा । यहाँ यह भी उल्लेख है मक भीष्ट्र् भी, मजन्हें अजेय र्ाना जाता है,ध्वस्त हो जायेंगे । वही गमत
कणम की होनी है । न के वल मवपक्ष के भीष्ट्र् जैसे र्हानयोद्धा मवनष्ट हो जाएँगे, अमपतु अजुमन के पक्ष वाले कुछ र्हान
योद्धा भी नष्टहोंगे ।

यथा िदीिां बहवोऽम्बुवेगाः


समद्रु मेवानभमख
ु ा द्रवनन्त ।
तथा तवामी िरलोकवीरा
नवशनन्त वक्त्राण्यनभनवजवलनन्त ।। २८ ।।

यथा– मजस प्रकार; िदीिाम्– नमियों की;बहवः– अनेक; अम्बु-वेगाः–जल कीतरंगें; समुद्रम्– सर्द्रु ; एव–
मनश्चय ही; अनभमुखाः– की ओर; द्रवनन्त –िौड़ती हैं; तथा– उसी प्रकार से; तव– आपके ; अभी– ये सब; िर-
लोक-वीराः – र्ानवसर्ाज के राजा; नवशनन्त– प्रवेश कर रहे हैं; वक्त्रानण– र्खु ों र्ें; अनभनवजवलनन्त–
प्रजजवमलत हो रहे हैं ।

नजस प्रकार िनदयों की अिेक तरंगें समुद्रमें प्रवेश करती हैं, उसीप्रकार ये समस्त महाि योद्धा भी
आपके प्रजजवनलतमुखों में प्रवेश कर रहे हैं ।

यथा प्रदीप्तं जवलिं पतङ् गा


नवशनन्त िाशाय समृद्धवेगाः ।
तथैव िाशाय नवशनन्त लोका-
स्तवानप वक्त्रानण समृद्धवेगाः ।। २९ ।।
यथा– मजस प्रकार; प्रदीप्तम्– जलती हुई;जवलिम्– अमग्न र्ें; पतङगाः– पमतंग,े कीड़े र्कोड़े; नवशनन्त–
प्रवेश करते हैं; िाशाय– मवनाश के मलए; समृद्ध– पूणम; वेगाः– वेग; तथा एव– उसी प्रकार से; िाशाय– मवनाश के
मलए; नवशनन्त– प्रवेश कररहे हैं; लोकाः– सारे लोग; एव– आपके ; अनप– भी; वक्त्रानण– र्ख ु ों र्ें; समृद्ध-वेगाः–
पूरे वेग से ।

मैं समस्त लोगों को पूणम वेग सेआपके मुख में उसी प्रकार प्रनवष्टहोते देख रहा हूँ, नजस प्रकार पनतंगे
अपिेनविाश के नलए प्रजजवनलत अनग्ि में कूदपडते हैं ।

लेनलह्यसे ग्रसमािः समन्ता-


ल्लोकान्समग्रान्वदिैजवमलनिः ।
तेजोनभरापूयम जगत्समग्रं

३५१
भासस्तवोग्राः प्रतपनन्त नवष्ट्णो ।। ३० ।।

लेनलह्यसे– चाट रहे हैं; ग्रसमािः – मनगलते हुए; समन्तात्– सर्स्त मिशाओ ं से; लोकाि्– लोगों
को; समग्राि्– सभी; वदिैः– र्ख ु ों से; जवलनिः– जलते हुए; तेजोनभः– तेज से; आपूयम– आच्छामित
करके ; जगत्– ब्रह्माण्ड को;समग्रम्– सर्स्त; भासः– मकरणें; तव – आपकी; उग्राः– भयंकर; प्रतपनन्त– झल
ु सा
रही हैं; नवष्ट्णो– हेमवश्र्वव्यापी भगवान् ।

हे नवष्ट्णु!मैं देखता हूँ नक आप अपिे प्रजजवनलत मुखों से सभी नदशाओ ं के लोगों को निगलरहे हैं ।
आप सारे ब्रह्माण्ड को अपिे तेज से आपरू रत करके अपिीनवकरालझल ु साती नकरणों सनहत प्रकट हो रहे हैं ।

आख्यानह मे को भवािुग्ररूपो
िमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ।
नवज्ञातुनमच्छानम भवन्तमाद्यं
ि नह प्रजािानम तव प्रवृनत्तम् ।। ३१ ।।

आख्यानह– कृ पया बताएँ; मे– र्झु को; कः– कौन; भवाि्– आप; उग्र-रूपः– भयानक रूप; िमः-अस्तु–
नर्स्कार हो; ते– आपको; देव-वर– हे िेवताओ ं र्ें श्रेि; प्रसीद– प्रसन्न हों; नवज्ञातुम–् जानने के मलए; इच्छानम–
इच्छुक ह;ँ भवन्तम्– आपको; आद्यम्– आमि; ि– नहीं;नह– मनश्चय ही; प्रजािानम– जानता ह;ँ तव–
आपका; प्रवृनत्तम्– प्रयोजन ।

हे देवेश!कृ पा करके मुझे बतलाइये नक इतिे उग्ररूप में आप कौि हैं? मैं आपको िमस्कार करता ह,ूँ
कृ पा करके मझ ु पर प्रसन्ि हों । आप आनद-भगवाि् हैं । मैं आपको जाििा चाहताहूँ, क्योंनक मैं िहीं जाि पा
रहा हूँ नक आपका प्रयोजि क्या है ।

श्रीभगवानवु ाच
कालोऽनस्म लोकक्षयकृ त्प्रवृद्धो
लोकान्समाहतमनु मह प्रवृत्तः ।
ऋतेऽनप त्वां ि भनवष्ट्यनन्त सवे
येऽवनस्थताः प्रत्यिीके षु योधाः ।। ३२ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; कालः - काल; अनस्म - ह;ँ लोक - लोकोंका; क्षय-कृ त - नाश करने
वाला; प्रवृद्धः - र्हान; लोकाि् - सर्स्त लोगों को; समाहतममु ् - नष्ट करने र्ें;इह– इस संसार र्ें;प्रवृत्तः - लगा
हुआ; ऋते - मबना; अनप - भी; त्वाम् - आपको; ि - कभी नहीं; भनवष्ट्यनन्त - होंगे; सवे - सभी; ये -
जो; अवनस्थताः - मस्र्त; प्रनत-अिीके षु - मवपक्ष र्ें; योधाः - सैमनक ।

३५२
भगवाि् िे कहा - समस्त जगतों को नविष्ट करिे वाला काल मैं हूँ और मैं यहाूँसमस्त लोगों का
नविाश करिे के नलए आया हूँ । तुम्हारे (पाण्डवों के ) नसवादोिों पक्षों के सारे योद्धा मारे जाएूँगे ।

तात्पयम :यद्यमप अजुमन जानता र्ा मक कृ ष्ट्ण उसके मर्त्र तर्ा भगवान् हैं, तो भी वहकृ ष्ट्ण के मवमवध रूपों को
िेखकर चमकत र्ा । इसमलए उसने इस मवनाशकारी शमक्त के उद्देश्य के बारे र्ें पूछताछ की । वेिों र्ें मलखा है मक परर्
सत्य हरवस्तु को, यहाँ तक मक ब्राह्मणों को भी, नष्ट कर िेते हैं । ठोपस्नषर्् का (१.२.२५) वचन है –
यस्य ब्रह्म च क्षत्रां च उभे भवत ओर्नः ।
मृत्युयदस्योपसेचनां इत्था वेर् यत्र सः ॥
अन्ततः सारे ब्राह्मण, क्षमत्रय तर्ा अन्य सभी परर्ेश्र्वर द्वारा काल-कवमलतहोते हैं । परर्ेश्र्वर का यह रूप सबका
भक्षण करने वाला है और यहाँ परकृ ष्ट्ण अपने को सवमभक्षी काल के रूप र्ें प्रस्तुत करते हैं । के वल कुछपाण्डवों के
अमतररक्त युद्धभमू र् र्ें आये सभी लोग उनके द्वारा भमक्षत होंगे ।
अजुमन लड़ने के पक्ष र्ें न र्ा, वह युद्ध न करना श्रेयस्करसर्झता र्ा, क्योंमक तब मकसी प्रकार की मनराशा न
होती । मकन्तु भगवान् काउत्तर है मक यमि वह नहीं लड़ता, तो भी सारे लोग उनके ग्रास बनते, क्योंमकयही उनकी इच्छा
है । यमि अजुमन नहीं लड़ता, तो वे सब अन्य मवमध से र्रते ।र्ृत्यु रोकी नहीं जा सकती, चाहे वह लड़े या नहीं । वस्तुतः
वे पहले से र्ृतहैं । काल मवनाश है और परर्ेश्र्वर की इच्छानुसार सारे संसार को मवनष्ट होनाहै । यह प्रकृ मत का मनयर्
है ।

तस्मात्त्वमुनत्तष्ठ यशो लभस्व


नजत्वा शत्रूि् भुङ्क्ष्व राजयं समृद्धम् ।
मयैवैते निहताः पवू ममेव
निनमत्तमात्रं भाव सव्यसानचि् ।। ३३ ।।

तस्मात्– अतएव; त्वम्–तुर्; उनत्तष्ट– उिो; यशः– यश; लभस्व– प्राप्तकरो; नजत्वा– जीतकर; शत्रूि–्
शत्रओ
ु ं को; भुङ्क्ष्व– भोग करो; राजयम्– राजय का; समृद्धम्– सम्पन्न;मया–र्ेरे द्वारा; एव– मनश्चय ही; एते– ये
सब; निहताः– र्ारे गये;पूवमम् एव– पहलेही; निनमत्त-मात्रम्– के वलकारण र्ात्र; भव– बनो; सव्य-सानचि्– हे
सव्यसाची ।

अतःउठो! लडिे के नलएतैयार होओ और यश अनजमत करो । अपिे शत्रुओ ं को जीतकरसम्पन्ि राजय
का भोग करो ।ये सब मेरे द्वारा पहले ही मारे जा चुके हैं औरहे सव्यसाची! तुम तो युद्ध मेंकेवल निनमत्तमात्र
हो सकते हो ।

तात्पयम:सव्यसाची काअर्म है वह जो युद्धभमू र् र्ें अत्यन्त कौशल के सार्तीर छोड़ सके । इस प्रकार अजुमनको
एक पटु योद्धा के रूप र्ें सम्बोमधत मकयागया है, जो अपने शत्रओ ु ं को तीर सेर्ारकर र्ौत के घाट उतार सकता
है । स्नस्मत्तमात्रम्– “के वल कारण र्ात्र” यह शब्ि भीअत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । संसार भगवान् की इच्छानुसार गमतर्ान है ।
अल्पज्ञ पुरुषसोचते हैं मक प्रकृ मतमबना मकसी योजना के गमतशील है और सारी सृमष्ट आकमस्र्क है ।ऐसा

३५३
अनेकतर्ाकमर्त मवज्ञानी हैं, जो यह सुझाव रखते हैं मक सम्भवतया ऐसा र्ा, या ऐसा होसकता है, मकन्तु इस प्रकार के
“शायि” या “हो सकता है” का प्रश्न ही नहींउिता । प्रकृ मत द्वारा मवशेष योजना संचामलत की जा रही है । यह योजना
क्याहै? यह मवराट जगत् बद्धजीवों के मलए भगवान् के धार् वापस जाने के मलएसुअवसर (सुयोग) है । जब तकउनकी
प्रवृमत्त प्रकृ मत के ऊपर प्रभत्ु व स्र्ामपतकरने की रहती है, तब तक वे बद्धरहते हैं । मकन्तु जो कोई भी परर्ेश्र्वर कीइस
योजना (इच्छा) को सर्झ लेता है औरकृ ष्ट्णभावनार्ृत का अनुशीलन करता है, वहपरर् बुमद्धर्ान है । दृश्यजगत की
उत्पमत्ततर्ा उसका संहार ईश्र्वर की परर्अध्यक्षता र्ें होता है । इस प्रकार कुरुक्षेत्र कायुद्ध ईश्र्वर की योजनाके अनुसार
लड़ा गया । अजमनु युद्ध करने से र्ना कर रहा र्ा,मकन्तु उसे बतायागया मक परर्ेश्र्वर की इच्छानुसार उसे लड़ना होगा ।
तभी वह सुखीहोगा । यमिकोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत से पूररत हो और उसका जीवन भगवान् की मिव्य सेवा र्ेंअमपमत हो, तो
सर्झो मक वह कृ तार्म है ।

द्रोणं च भीष्ट्मं च जयद्रथं च


कणं तथान्यािनप योधवीराि् ।
मया हतांस्तवं जनह माव्यनथष्ठा
युध्यस्व जेतानस रणे सपत्िाि् ।। ३४ ।।

द्रोणम् च– तर्ा द्रोण; भीष्ट्मम्– भीष्ट्र् भी; जयद्रथम् च– तर्ाजयद्रर्;कणमम–् कणम; तथा– और; अन्याि्–
अन्य; अनप– मनश्चय ही; योध-वीराि्– र्हानयोद्धा; मया– र्ेरे द्वारा; हताि्– पहले ही र्ारे गये; त्वम्– तुर्; जनह–
र्ारो;मा– र्त; व्यनथष्ठाः– मवचमलत होओ; युध्यस्व– लड़ो; जेता अनस– जीतोगे;रणे–युद्ध र्ें; सपत्िाि्– शत्रुओ ं
को ।

द्रोण, भीष्ट्म, जयद्रथ, कणम तथा अन्य महाि योद्धा पहले ही मेरे द्वारामारेजा चुके हैं । अतः उिका वध
करो और तनिक भी नवचनलत ि होओ । तमु के वल युद्धकरो। यद्ध ु में तमु अपिे शत्रओ ु ं को परास्त करोगे ।

तात्पयम : प्रत्येक योजना भगवान् द्वारा बनती है, मकन्तु वे अपनेभक्तों परइतने कृ पालु रहते हैं मक जो भक्त उनकी
इच्छानुसार उनकी योजना का पालनकरतेह,ैं उन्हें ही वे उसका श्रेय िेते हैं । अतः जीवन को इस प्रकार
गमतशीलहोनाचामहए मक प्रत्येक व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करे और गुरु के र्ाध्यर् सेभगवान् को जाने । भगवान् की
योजनाएँ उन्हीं की कृ पा से सर्झी जातीहैं और भक्तों कीयोजनाएँ उनकी ही योजनाएँ हैं । र्नुष्ट्य को चामहए मक
ऐसीयोजनाओ ं का अनुसरण करे औरजीवन-संघषम र्ें मवजयी बने ।

सञ्जय उवाच ।
एतच्रुत्वा वचिं के शवस्य
कृ ताञ्जनलवेपमािः नकरीती ।
िमस्कृ त्वा भयू एवाह कृ ष्ट्णं
सगद्गदं भीतभीतः प्रणम्य ।। ३५ ।।

३५४
सञ्जयः उवाच– संजय ने कहा; एतत्– इस प्रकार; श्रुत्वा– सुनकर;वचिम्– वाणी; के शवस्य– कृ ष्ट्ण
की; कृ त-अञ्जनलः– हार् जोड़कर; वेपमािः– काँपतेहुए; नकरीटी– अजुमन ने; िमस्कृ त्वा– नर्स्कार करके ; भूयः–
मिर; एव– भी; आह –बोला; कृ ष्ट्णम्– कृ ष्ट्ण से; स-गद्गदम् – अवरुद्ध स्वर से; भीत-भीतः– डरा-डरा सा;प्रणम्य–
प्रणार् करके ।

संजय िे धृतराष्ट्र से कहा- हे राजा! भगवाि् के मुख से इि वचिों कोसुिकरकाूँपते हुए अजमिु िे हाथ
जोडकर उन्हें बारम्बार िमस्कार नकया । निरउसिेभयभीत होकर अवरुद्ध स्वर में कृ ष्ट्ण से इस प्रकार कहा ।

तात्पयम : जैसा मक पहले कहा जा चक


ु ा है, भगवान्के मवश्र्वरूप के कारण अजमनु आश्चयमचमकत र्ा, अतः वह
कृ ष्ट्ण को बारम्बारनर्स्कार करने लगा औरअवरुद्ध कंि से आश्चयम से वह कृ ष्ट्ण की प्रार्मना मर्त्रके रूप र्ें नहीं,
अमपतुभक्त के रूप र्ें करने लगा ।

अजुमन उवाच ।
स्थािे हृषीके श तव प्रकीत्याम
जगत्प्रहृष्ट्यत्यिुरजयते च ।
रक्षांनस भीतानि नदशो द्रवनन्त
सवे िमस्यनन्त च नसद्धसङ् घाः ।। ३६ ।।

अजमिु ः उवाच– अजुमन नेकहा; स्थािे– यह िीक है; हृषीक-ईश– हेइमन्द्रयों के स्वार्ी; तव–
आपके ; प्रकीत्याम– कीमतम से; जगत्– सारा ससं ार;प्रहृष्ट्यनत– हमषमत हो रहाहै; अिरु जयते– अनरु क्त हो रहा है; च–
तर्ा; रक्षांनस– असुरगण; भीतानि– डर से; नदशः– सारी मिशाओ ं र्ें; द्रवनन्त– भाग रहे हैं; सवे– सभी; िमस्यनन्त–
नर्स्कार करते हैं; च– भी; नसद्ध-सङ् घाः– मसद्धपरुु ष ।

अजमिु िे कहा – हे हृषीके श! आपके िाम के श्रवण से संसार हनषमत होताहै औरसभी लोग आपके प्रनत
अिुरि होते हैं । यद्यनप नसद्धपुरुष आपको िमस्कारकरतेहैं, नकन्तु असुरगण भयभीत हैं और इधर-उधर भाग
रहे हैं । यह ठीक ही हुआहै ।

तात्पयम:कृ ष्ट्ण सेकुरुक्षेत्र युद्ध के पररणार् को सुनकर अजुमन प्रवृद्ध हो गया और भगवान्के परर् भक्त तर्ा मर्त्र के
रूप र्ें उनसे बोला मक कृ ष्ट्ण जो कुछ करतेह,ैं वहसब उमचत है । अजुमन ने पुमष्ट की मक कृ ष्ट्ण ही पालक हैं और भक्तों
के आराध्यतर्ा अवांमछत तत्त्वों के संहारकताम हैं । उनके सारे कायम सबों के मलएसर्ान रूप से शभु होते हैं । यहाँ पर
अजमनु यह सर्झ पाता है मक जब यद्ध ु मनमश्चतरूप से होना र्ा तो अन्तररक्ष से अनेक िेवता, मसद्ध तर्ा उच्चतर लोकोंके
बुमद्धर्ानप्राणी युद्ध को िेख रहे र्े, क्योंमक युद्ध र्ें कृ ष्ट्ण उपमस्र्तर्े । जब अजुमन नेभगवान् का मवश्र्वरूप िेखा तो
िेवताओ ं को आनन्ि हुआ, मकन्तु अन्य लोग जो असरु तर्ानामस्तक र्े, भगवान् की प्रशसं ा सनु कर सहन न करसके ।
वे भगवान् के मवनाशकारी रूपसे डर कर भाग गये । भक्तों तर्ा नामस्तकोंके प्रमत भगवान् के व्यवहार की अजुमनद्वारा

३५५
प्रशसं ा की गई है । भक्तप्रत्येक अवस्र्ा र्ें भगवान् का गुणगान करता है,क्योंमक वह जानता है मक वेजो कुछ भी करते
हैं, वह सबों के महत र्ें है ।

कस्माच्च ते ि िमेरन्महात्मि्
गरीयसे ब्रह्मणोंऽप्यानदकत्रे ।
अिन्त देवेश जगनन्िवास
त्वमक्षरं सदसत्तत्परं यत् ।। ३७ ।।

कस्मात्– क्यों; च– भी; ते– आपको; ि– नहीं; िमेरि्– नर्स्कारकरें ; महा-आत्मि्– हे र्हापरुु ष; गरीयसे–
श्रेितर लोग; ब्रह्मणः– ब्रह्माकीअपेक्षा; अनप– यद्यमप; आनद-कत्रे– परर् स्त्रष्टा को; अिन्त– हेअनन्त; देव-ईश– हे
ईशों के ईश; जगत्-निवास– हे जगत के आश्रय; त्वम्– आपहैं; अक्षरम्–अमवनाशी; सत्-असत्– कायम तर्ा
कारण; तत्-परम्– मिव्य; यत्– क्योंमक ।

हे महात्मा! आप ब्रह्मा से भी बढकर हैं, आपआनद स्त्रष्टा हैं । तोनिर आपको सादर िमस्कार क्यों ि
करें? हे अिन्त, हेदेवेश, हे जगनन्िवास! आप परमस्त्रोत, अक्षर, कारणों के कारण तथा इस भौनतकजगत् के
परे हैं ।

तात्पयम: अजुमन इस प्रकार नर्स्कारकरके सूमचत करता है मक कृ ष्ट्ण सबोंके पूजनीय हैं । वे सवमव्यापी हैं
औरप्रत्येक जीव की आत्र्ा हैं । अजुमन कृ ष्ट्णको महात्मा कहकर सम्बोमधत करताहै, मजसका अर्म है मक वे उिार तर्ा
अनन्त हैं ।अनन्त समू चत करता है मक ऐसाकुछ भी नहीं जो भगवान् की शमक्त और प्रभाव से आच्छामितन हो और
िेवेश काअर्म है मक वे सर्स्त िेवताओ ं के मनयन्ता हैं और उन सबके ऊपर हैं। वे सर्ग्रमवश्र्व के आश्रय हैं । अजुमन ने
भी सोचा मक यह सवमर्ा उपयक्त ु है मकसारे मसद्ध तर्ा शमक्तशाली िेवता भगवान् को नर्स्कार करते हैं, क्योंमक
उनसेबढ़करकोई नहीं है । अजुमन मवशेष रूप से उल्लेख करता है मक कृ ष्ट्ण ब्रह्मा सेभी बढ़करहैं, क्योंमक ब्रह्मा उन्हीं के
द्वारा उत्पन्न हुए हैं । ब्रह्माका जन्र् कृ ष्ट्णके पूणम मवस्तार गभोिकशायी मवष्ट्णु की नामभ से मनकले कर्लनालसे हुआ ।
अतःब्रह्मा तर्ा ब्रह्मा से उत्पन्न मशव एवं अन्य सारे िेवताओ ं कोचामहए मक उन्हें नर्स्कार करें । श्रीमद्भागवत र्ें कहा
गया है मक मशव, ब्रह्मा तर्ा इन जैसे अन्यिेवता भगवान् का आिर करते हैं । अक्षरम् शब्िअत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक
यहजगत् मवनाशशील है, मकन्तु भगवान् इसजगत् से परे हैं । वे सर्स्त कारणों के कारण हैं, अतएव वे इस भौमतक
प्रकृ मतके तर्ा इस दृश्यजगत के सर्स्त बद्धजीवों से श्रेिहैं । इसमलए वेपरर्ेश्र्वर हैं ।

त्वमानददेवः पुरुषः पुराण-


स्त्वमस्य नवश्र्वस्य परं निधािम् ।
वेत्तानस वेद्यं च परं च धाम
त्वया ततं नवश्र्वमिन्तरूप ।। ३८ ।।

३५६
त्वम्– आप;आनद-देवः– आमि परर्ेश्र्वर; पुरुषः– पुरुष; पुराणः–प्राचीन, सनातन; त्वम्– आप; अस्य–
इस; नवश्र्वस्य– मवश्र्व का; परम्– मिव्य;निधािम्– आश्रय; वैत्ता– जानने वाला; अनस– हओ; वेद्यम्– जाननेयोग्य,
ज्ञेय; च– तर्ा; परम्– मिव्य; च– और;धाम– वास, आश्रय; त्वया– आपके द्वारा; ततम्–व्याप्त; नवश्र्वम्–
मवश्र्व; अिन्त-रूप– हे अनन्तरूप वाले ।

आप आनद देव, सिाति पुरुष तथा इस दृश्यजगत के परम आश्रय हैं । आप सबकुछ जाििे वाले हैं
और आप ही सब कुछ हैं, जो जाििेयोग्य है । आप भौनतक गणु ों सेपरे परम आश्रय हैं । हे अिन्त रूप!
यहसम्पूणम दृश्यजगत आपसे व्याप्त है ।

तात्पयम: प्रत्येकवस्तु भगवान् पर आमश्रत है, अतः वे ही परर् आश्रयहैं । स्नधानम् का अर्म है – ब्रह्म तेज सर्ेत
सारी वस्तुएँ भगवान् कृ ष्ट्ण पर आमश्रतहैं । वे इस ससं ारर्ें घमटत होने वाली प्रत्येक घटना को जानने वाले हैं और यमि
ज्ञान का कोईअन्त है, तो वे ही सर्स्त ज्ञान के अन्त हैं । अतः वे ज्ञाता हैं और ज्ञेय (वेद्य)ं भी । वे जानने योग्य हैं, क्योंमक
वे सवमव्यापी हैं । वैकुण्िलोकर्ें कारण स्वरूप होने से वे मिव्य हैं । वे मिव्यलोक र्ें भी प्रधान पुरुषहैं ।

वायुयममोऽनग्िवमरुणः शशाङ् कः
प्रजापनतस्त्वं प्रनपतामहश्र्च ।
िमो िमस्तेऽस्तु सहस्रकृ त्वः
पुिश्र्च भूयोऽनप िमो िमस्ते ।। ३९ ।।

वायःु - वाय;ु यमः - मनयन्ता; अनग्िः - अमग्न; वरुणः - जल; शश-अङ् कः -चन्द्रर्ा; प्रजापनतः -
ब्रह्मा; त्वम्- आप; प्र-नपतामहः - परबाबा; च - तर्ा; िमः - र्ेरा नर्स्कार;िमः - पुनः नर्स्कार; ते -
आपको; अस्तु - हो; सहस्त्र-कृ त्वः- हजार बार; पिु ः-च - तर्ा मिर; भयू ः - मिर; अनप - भी; िमः -
नर्स्कार; िमःते - आपको र्ेरा नर्स्कार है ।

आप वायु हैंतथा परम नियन्ता हैं । आप अनग्ि हैं, जल हैं तथा चन्द्रमा हैं । आप आनदब्रह्मा हैं और
आप प्रनपतामह हैं । अतः आपको हजार बार िमस्कार है और पुिःिमस्कार है ।

तात्पयम: भगवान् को वायु कहा गया है, क्योंमक वायु सवमव्यापी होने के कारण सर्स्त िेवताओ ं का र्ख्ु य
अमधिाता है। अजुमन कृ ष्ट्ण को प्रमपतार्ह (परबाबा) कहकर सम्बोमधत करता है, क्योंमक वेमवश्र्व के प्रर्र् जीव ब्रह्मा के
मपता हैं ।

िमः पुरस्तादथ पृष्ठस्ते


िमोऽस्तु ते सवमत एव सवम ।
अिन्तवीयामनमतनवक्रमस्त्वं
सवं समाप्िोनष ततोऽनस सवमः ।। ४० ।।

३५७
िमः– नर्स्कार; पुरस्तात्– सार्ने से; अथ– भी;पृष्ठतः– पीछे से; ते– आपको; िमः-अस्तु– र्ैं नर्स्कार
करता ह;ँ ते– आपको; सवमतः– सभी मिशाओसं े;एव– मनस्सन्िेह; सवम– क्योंमक आप सब कुछ हैं; अिन्त-वीयम–
असीर्पौरुष;अनमत-नवक्रमः– तर्ा असीर् बल; त्वम्– आप; सवमम–् सब कुछ; समाप्िोनष – आच्छामितकरते
हो;ततः– अतएव; अनस– हो;सवमः– सब कुछ ।

आपको आगे, पीछे , तथा चारों ओर से िमस्कार है । हे असीम शनि! आपअिन्तपराक्रम के स्वामी
हैं । आप सवमव्यापी हैं, अतः आप सब कुछ हैं ।

तात्पयम : कृ ष्ट्ण के प्रेर् से अमभभतू उनका मर्त्र अजुमन सभी मिशाओ ं सेउनकोनर्स्कार कर रहा है । वह स्वीकार
करता है मक कृ ष्ट्ण सर्स्त बल तर्ा पराक्रर्के स्वार्ी हैं और युद्धभमू र् र्ें एकत्र सर्स्त योद्धाओ ं से कहीं अमधक श्रेिहैं
।स्वष्णपु ुराण र्ें (१.९.६९) कहा गया है –
योऽयां तवागतो र्ेव समीपां र्ेवतागणः ।
स त्वमेव जगत्स्त्रष्टा यतः सवदगतो भवान् ।।
“आपके सर्क्ष जो भी आता है, चाहे वह िेवता ही क्यों नहो, हे भगवान्!वह आपके द्वारा ही उत्पन्न है ।”

सखेनत मत्वा प्रसभं यदुिं


हे कृ ष्ट्ण हे यादव हे सखेनत ।
अजािता मनहमािं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेि वानप ।। ४१ ।।
यच्चावहासाथममसत्कृ तोऽनस
नवहारश्यासिभोजिेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ।। ४२ ।।

सखा– मर्त्र; इनत– इस प्रकार; मत्वा– र्ानकर; प्रसभम्– हिपूवमक; यत्– जो भी; उत्तम्– कहा गया; हे
कृ ष्ट्ण– हे कृ ष्ट्ण; हे यादव– हे यािव; हे सखा – हेमर्त्र; इनत– इस प्रकार; अजािता– मबना जाने; मनहमािम्–
र्महर्ा को; तव– आपकी;इदम्– यह; मया– र्ेरे द्वारा; प्रमादात्– र्ख ू मतावश;प्रणयेि– प्यार वश; वा अनप– या
तो; यत्– जो; च– भी; अवहास-अथमम–् हँसी के मलए; असत्-कृ तः – अनािर मकयागया; अनस– हो; नवहार–
आरार् र्ें; श्या– लेटे रहनेपर; आसि– बैिे रहने पर;भोजिेषु– या भोजन करते सर्य;एकः– अके ले; अथवा–
या; अनप– भी;अच्यतु – हेअच्यतु ; तत्-समक्षम् – सामर्यों के बीच; तत्– उनसभी; क्षामये– क्षर्ाप्रार्ीह;ँ त्वाम्–
आपसे; अहम्– र्ैं; अप्रमेयम्– अमचन्त्य ।

आपको अपिा नमत्र मािते हुए मैंिे हठपूवमक आपकोहे कृ ष्ट्ण, हे यादव, हेसखा जैसे सम्बोधिों से
पुकारा है, क्योंनक मैं आपकीमनहमा को िहीं जािता था ।मैंिे मूखमतावश या प्रेमवश जो कुछ भी नकया है,

३५८
कृ पया उसके नलए मुझे क्षमा कर दें। यही िहीं, मैंिे कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-
साथ खाते या बैठेहुए, कभी अके ले तो कभी अिेक नमत्रोंके समक्ष आपका अिादर नकया है । हे अच्युत!मेरे
इि समस्त अपराधों को क्षमाकरें ।

तात्पयम : यद्यमप अजुमन के सर्क्ष कृ ष्ट्ण अपनेमवराट रूप र्ें हैं,मकन्तु उसे कृ ष्ट्ण के सार् अपना र्ैत्रीभाव स्र्रण
है । इसीमलए वह मर्त्रता के कारणहोने वाले अनेक अपराधों को क्षर्ा करने के मलएप्रार्मना कर रहा है । वह
स्वीकारकरता है मक पहले उसे ज्ञात न र्ा मक कृ ष्ट्णऐसा मवराट रूप धारण कर सकते हैं, यद्यमपमर्त्र के रूप र्ें कृ ष्ट्ण ने
उसे यहसर्झाया र्ा । अजुमन को यह भी पता नहीं र्ा मकउसने मकतनी बार ‘हे र्ेरे मर्त्र’ ‘हे कृ ष्ट्ण’ ‘हे यािव’ जैसे
सम्बोधनों के द्वाराउनका अनािर मकया है और उनकीर्महर्ा स्वीकार नहीं की । मकन्तु कृ ष्ट्ण इतने कृ पालु हैंमक
इतनेऐश्र्वयमर्मण्डत होने पर भी अजुमन से मर्त्र की भमू र्का मनभाते रहे । ऐसाहोता है भक्त तर्ा भगवान् के बीच मिव्य प्रेर्
का आिान-प्रिान । जीव तर्ाकृ ष्ट्ण कासम्बन्ध शाश्र्वत रूप से मस्र्र है, इसे भल ु ाया नहीं जा सकता, जैसामक हर्
अजुमन के आचरण र्ें िेखते हैं । यद्यमप अजुमन मवराट रूप का ऐश्र्वयमिेख चक ु ा है, मकन्तुवह कृ ष्ट्ण के सार् अपनी र्ैत्री
नहीं भलू सकता ।

नपतानस लोकस्य चराचरस्य


त्वमस्य पूजयश्र्च गुरुगमरीयाि् ।
ि त्वत्समोऽस्त्यभ्यनधकः कुतोऽन्यो
लोकत्रयेऽप्यप्रनतमप्रभाव ।। ४३ ।।

नपता - मपता; अनस - हो; लोकस्य - पूरे जगत के ; चर - सचल; अचरस्य - तर्ाअचलों के ; त्वम् - आप हैं
; अस्य - इसके ; पूजयः - पूजय; च - भी; गुरुः -गुरु; गरीयाि् - यशस्वी, र्महर्ार्य; ि - कभी नहीं; त्वत्-समः -
आपके तल्ु य; अनस्त - है; अभ्यनधकः - बढ़ कर; कुतः - मकस तरह सम्भव है; अन्यः - िसू रा; लोक-त्रये - तीनों
लोकों र्ें; अनप - भी; अप्रनतम-प्रभाव - हे अमचन्त्यशमक्त वाले ।

आप इस चर तथा अचर सम्पूणम दृश्यजगत के जिकहैं । आप परम पूजय महाि आध्यानत्मक गुरु हैं । ि
तो कोई आपके तुल्य है, िही कोई आपके समाि हो सकता है । हे अतुल शनि वाले प्रभु! भला तीिों
लोकोंमें आपसे बढकर कोई कै से हो सकता है?

तात्पयम: भगवान्कृ ष्ट्ण उसी प्रकार पूजय हैं, मजस प्रकार पुत्र द्वार मपता पूजय होता है ।वे गुरु हैं क्योंमक सवम प्रर्र्
उन्हीं ने ब्रह्मा को वेिों का उपिेश मियाऔर इस सर्य अजुमन को भगवद्गीता का उपिेश िे रहे हैं, अतः वे आमि गुरु
हैंऔर इस सर्य मकसी भी प्रार्ामणक गरुु को कृ ष्ट्ण से प्रारम्भ होने वालीगरुु -परम्परा का वश ं ज होना चामहए । कृ ष्ट्ण का
प्रमतमनमध हुए मबना कोई न तोमशक्षक और न आध्यामत्र्क मवषयों का गुरु हो सकता है ।
भगवान् कोसभी प्रकार से नर्स्कार मकया जा रहा है । उनकी र्हानता अपररर्ेय है । कोई भीभगवान् कृ ष्ट्ण से
बढ़कर नहीं, क्योंमक इस लोक र्ें या वैकुण्ि लोक र्ें कृ ष्ट्णके सर्ान या उनसे बड़ा कोई नहीं है । सभी लोग उनसे मनम्न
हैं । कोई उनकों पारनहीं कर सकता । श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् र्ें (६.८) कहा गया है मक -

३५९
न तस्य ायं रणां च स्वयते
न तत्समश्र्चाभ्यस्ध श्र्च दृश्यते ।
भगवान् कृ ष्ट्ण के भी सार्ान्य व्यमक्त की तरह इमन्द्रयाँ तर्ा शरीर हैं, मकन्तु उनके मलए अपनी इमन्द्रयों, अपने
शरीर, अपने र्न तर्ा स्वयं र्ें कोईअन्तर नहीं रहता । जो लोग र्ख ु म हैं, वे कहते हैं मक कृ ष्ट्ण अपने आत्र्ा, र्न, हृिय
तर्ा अन्य प्रत्येक वस्तु से मभन्न हैं । कृ ष्ट्ण तो परर् हैं, अतः उनके कायम तर्ा शमक्तयाँ भी सवमश्रेि हैं । यह भी कहा जाता
है मक यद्यमपहर्ारे सर्ान उनकी इमन्द्रयाँ नहीं है , तो भी वे सारे ऐमन्द्रय कायम करतेहैं । अतः उनकी इमन्द्रयाँ न तो सीमर्त
हैं, न ही अपणू म हैं । न तो कोईउनसे बढ़कर है, न उनके तल्ु य कोई है । सभी लोग उनसे घट कर हैं ।
परर् पुरुष का ज्ञान, शमक्त तर्ा कर्म सभी कुछ मिव्य है ँ । भगवद्गीता र्ें (४.९) कहा गया है -
जन्म मद च मे स्र्व्यमेवां यो वेस्त्त तत्त्वतः ।
त्यक्तत्वा र्ेहां पुनजदन्म नैस्त मामेस्त सोऽजुदन ।।
जो कोई कृ ष्ट्ण के मिव्य शरीर, कर्म तर्ा पूणमता को जान लेता है, वह इस शरीरको छोड़ने के बाि उनके धार् को
जाता है और मिर इस िख ु र्य संसार र्ें वापस नहींआता । अतः र्नुष्ट्य को जान लेना चामहए मक कृ ष्ट्ण के कायम अन्यों
से मभन्नहोते हैं । सवमश्रेि र्ागम तो यह है मक कृ ष्ट्ण के मनयर्ों का पालन मकयाजाय, इससे र्नुष्ट्य मसद्ध बनेगा । यह भी
कहा गया है मक कोई ऐसा नहीं जो कृ ष्ट्णका गुरु बन सके , सभी तो उनके िास हैं । चैतन्य चररतामृत (आमि ५.१४२)
सेइसकी पुमष्ट होती है - ए ले ईश्र्वर ृ ष्ण, आर सब भृत्य - के वल कृ ष्ट्णईश्र्वर हैं, शेष सभी उनके िास हैं । प्रत्येक
व्यमक्त उनके आिेश का पालनकरता है । ऐसा कोई नहीं जो उनके आिेश का उल्लंघन कर सके । प्रत्येक व्यमक्तउनकी
अध्यक्षता र्ें होने के कारण उनके मनिेश के अनुसार कायम करता है ।जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें कहा गया है मक वे सर्स्त
कारणों के कारण हैं ।

तस्मात्प्रणम्य प्रनणधाय कायं


प्रसादये त्वामहमीशमीड् यम् ।
नपतेव पत्रु स्य सखेव सख्यु:
नप्रयः नप्रययाहमनस देव सोढुम् ।। ४४ ।।

तस्मात् - अतः; प्रणम्य - प्रणार्् करके ; प्रनणधाय - प्रणत करके ; कायम् -शरीर को; प्रसादये - कृ पा की
याचना करता ह;ँ त्वाम् - आपसे; अहम् - र्ैं; ईशम् - भगवान् से; ईड् यम् - पूजय; नपता इव - मपता तुल्य; पुत्रस्य–
पुत्र का;सखा इव -मर्त्रवत्; सख्युः - मर्त्र का; नप्रयः - प्रेर्ी; नप्रयायाः - मप्रया का; अहमनस - आपको चामहए; देव -
र्ेरे प्रभ;ु सोढुम् - सहन करना ।

आप प्रत्येक जीव द्वारा पूजिीय भगवाि् हैं । अतः मैं गीरकर सादर प्रणामकरता हूँ और आपकी कृ पा
की याचिा करता हूँ । नजस प्रकार नपता अपिे पत्रु कीनढठाई सहि करता है, या नमत्र अपिे नमत्र की घृष्टता
सह लेता है, या नप्रयअपिी नप्रया का अपराध सहि कर लेता है, उसी प्रकार आप कृ पा करके मेरीत्रुनटयों को
सहि कर लें ।

३६०
तात्पयम: कृ ष्ट्ण के भक्त उनके सार् मवमवध प्रकार के सम्बन्ध रखते हैं - कोई कृ ष्ट्ण को पुत्रवत्, कोई पमतरूप र्ें,
कोई मर्त्र रूप र्ें या कोई स्वार्ी के रूप र्ें र्ान सकता है । कृ ष्ट्णऔर अजुमन का सम्बन्ध मर्त्रता का है । मजस प्रकार
मपता, पमत या स्वार्ी सबअपराध सहन कर लेते हैं उसी प्रकार कृ ष्ट्ण सहन करते हैं ।

अदृष्टपवू ं हृनषतोऽनस्म दृष्ट्वा


भयेि च प्रव्यनथतं मिो मे ।
तदेव मे दशमय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगनन्िवास ।। ४५ ।।

अदृष्ट-पूवमम् - पहले कभी न िेखा गया; हृनषतः - हमषमत; अनस्म -ह;ँ दृष्ट्वा - िेखकर; भयेि - भय के
कारण; च - भी; प्रव्यनथतम् - मवचमलत, भयभीत; मिः - र्न; मे - र्ेरा; तत् - वह; एव - मनश्चय ही; मे -
र्झु को; दशमय -मिखलाइये; देव - हे प्रभ;ु रूपम् - रूप; प्रसीद - प्रसन्न होइये; देव-ईश -ईशों के ईश; जगत्-
निवास - हे जगत के आश्रय ।

पहले कभी िदेखे गये आपके नवराट रूप का दशमि करके मैं पुलनकत हो रहा ह,ूँ नकन्तु साथही मेरा
मि भयभीत हो रहा है । अतः आप मुझ पर कृ पा करें और हे देवेश, हेजगनन्िवास! अपिा पुरुषोत्तम भगवत्
स्वरूप पुिः नदखाएूँ ।

तात्पयम : अजुमन को कृ ष्ट्ण परमवश्र्वास है, क्योंमक वह उनका मप्रय मर्त्रहै और मर्त्र रूप र्ें वह अपने मर्त्र के
ऐश्र्वयम को िेखकर अत्यन्त पल ु मकतहै । अजमनु यह िेख कर अत्यन्त प्रसन्न है मक उसके मर्त्र कृ ष्ट्ण भगवान् हैंऔर वे
ऐसा मवराट रूप प्रिमशमत कर सकते हैं । मकन्तु सार् ही वह यह मवराटरूप को िेखकर भयभीत है मक उसने अनन्य
र्ैत्रीभाव के कारण कृ ष्ट्ण के प्रमतअनेक अपराध मकये हैं । इस प्रकार भयवश उसका र्न मवचमलत है, यद्यमप
भयभीतहोने का कोई कारण नहीं है । अतएव अजुमन कृ ष्ट्ण से प्रार्मना करता है मक वेअपने नारायण रूप मिखाएँ, क्योंमक
वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं । यहमवराट रूप भौमतक जगत के ही तुल्य भौमतक एवं नश्र्वर है । मकन्तु
वैकुण्िलोकर्ें नारायण के रूप र्ें उनका शाश्र्वत चतुभमजु रूप रहता है । वैकुण्िलोकर्ें असंख्य लोक है और कृ ष्ट्ण इन
सबर्ें अपने मभन्न नार्ों से अंश रूप र्ेंमवद्यर्ान हैं । इस प्रकार अजुमन वैकुण्िलोक के उनके मकसी एक रूप को
िेखनाचाहता र्ा । मनस्सन्िेह प्रत्येकवैकुण्िलोक र्ें नारायण का स्वरूप चतुभमजु ी है, मकन्तु इन चारों हार्ों र्ें वे मवमभन्न
क्रर् र्ें शंख, गिा, कर्ल तर्ा चक्रमचन्ह धारण मकये रहते हैं । मवमभन्न हार्ों र्ें इन चारों मचन्हों के अनुसारनारायण
मभन्न-मभन्न नार्ों से पुकारे जाते हैं । ये सारे रूप कृ ष्ट्ण के हीहैं, इसमलए अजुमन कृ ष्ट्ण के चतुभमजु रूप का िशमन करना
चाहता र्ा ।

नकरीनटिं गनदिं चक्रहस्त-


नमच्छानम त्वां द्रष्टुमहं तथैव ।
तेिैव रूपेण चतुभमज ु ेि
सहस्रबाहो भव नवश्र्वमूते ।। ४६ ।।

३६१
नकरीनटिम् - र्क ु ु ट धारण मकये; गनदिम् - गिाधारी; चक्रहस्तम् - चक्रधारणमकये;इच्छानम - इच्छुक
ह;ँ त्वाम् - आपको; द्रष्टुम् - िेखना; अहम् -र्ैं; तथा एव - उसी मस्र्मत र्ें; तेि-एव - उसी; रूपेण - रूप
र्ें; चतुःभुजेि -चार हार्ों वाले; सहस्त्र-बाहों - हे हजार भजु ाओ ं वाले; भव - हो जाइये; नवश्र्व-मूते - हे मवराट रूप ।

हे नवराट रूप! हेसहस्त्रभुज भगवाि्! मैं आपके मुकुटधारी चतुभमज ु रूप का दशमि करिा चाहताह,ूँ
नजसमें आप अपिे चारों हाथों में शख ं , चक्र, गदा तथा पद्म धारण नकये हुए हों । मैं उसी रूप को देखिे की
इच्छा करता हूँ ।

तात्पयम:ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३९) कहा गया है - रामास्र्मस्ू तदषु लास्नयमेनस्तष्ठन् - भगवान् सैकड़ों हजारों रूपों र्ें
मनत्य मवद्यर्ान रहते हैं मजनर्ेंरार्, नृमसहं , नारायण उनके र्ख्ु य रूप हैं। रूप तो असख्ं य हैं, मकन्तु अजुमनको ज्ञात र्ा मक
कृ ष्ट्ण ही आमि भगवान् हैं, मजन्होंने यह क्षमणक मवश्र्वरूपधारण मकया है । अब वह प्रार्मना कर रहा है मक भगवान् अपने
नारायण मनत्यरूपका िशमन िें । इस श्लोक से श्रीमद्भागवत के कर्न की मनस्सन्िेह पुमष्ट होतीहै मक कृ ष्ट्ण आमि भगवान्
हैं और अन्य सारे रूप उन्हीं से प्रकट होते हैं । वे अपने अंशों से मभन्न नहीं हैं और वे अपने असंख्य रूपों र्ें भी ईश्र्वरही
बने रहते हैं । इन सारे रूपों र्ें वे तरुण िीखते हैं । यही भगवान् कास्र्ायी लक्षण है । कृ ष्ट्ण को जानने वाला इस भौमतक
संसार के सर्स्त कल्र्ष सेर्क्त ु हो जाता है ।

श्रीभगवानवु ाच ।
मया प्रसन्िेि तवाजमिु ेदं
रूपं परं दनशमतमात्मयोगात् ।
तेजोमयं नवश्र्वमिन्तमाद्यं
यन्मे त्वदन्येि ि दृष्टपवू मम् ।। ४७ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; मया - र्ेरे द्वारा;प्रसन्िेि -प्रसन्न; तव - तुर्को; अजमिु - हे
अजुमन; इदम् - इस; रूपम् - रूप को; परम् - मिव्य; दनशमतम् - मिखाया गया; आत्म-योगात् - अपनी अन्तरंगाशमक्त
से; तेजःमयम् - तेज से पूणम; नवश्र्वम् - सर्ग्र ब्रह्माण्ड को; अिन्तम् -असीर्; आद्याम् - आमि; यत् - जो; मे-
र्ेरा; त्वत् अन्येि - तुम्हारे अमतररक्त अन्य के द्वारा;ि दृष्ट पूवमम् - मकसी ने पहले नहीं िेखा ।

भगवाि् िे कहा - हे अजमुि! मैंिे प्रसन्ि होकर अपिी अन्तरंगा शनि के बलपर तुम्हें इस संसार में अपिे
इस परम नवश्र्वरूप का दशमि कराया है । इसके पूवम अन्य नकसी िे इस असीम तथा तेजोमय आनद-रूप को
कभी िहीं देखा था ।

तात्पयम: अजमनु भगवान् के मवश्र्वरूप को िेखना चाहता र्ा, अतः भगवान्कृ ष्ट्ण ने अपने भक्त अजमनु पर
अनुकम्पा करते हुए उसे अपने तेजोर्य तर्ाऐश्र्वयमर्य मवश्र्वरूप का िशमन कराया । यह रूप सूयम की भाँमत चर्क रहा
र्ाऔर इसके र्खु मनरन्तर पररवमतमत हो रहे र्े । कृ ष्ट्ण ने यह रूप अजुमन कीइच्छा को शान्त करने के मलए ही मिखलाया

३६२
। यह रूप कृ ष्ट्ण मक उस अन्तरंगाशमक्तद्वारा प्रकट हुआ जो र्ानव कल्पना से परे है ।अजुमन से पूवम भगवान् के
इसमवश्र्वरूप का मकसी ने िशमन नहीं मकया र्ा, मकन्तु जब अजुमन को यह रूपमिखाया गया तो स्वगमलोक तर्ा अन्य
लोकों के भक्त भी इसे िेख सके । उन्होंनेइस रूप को पहले नहीं िेखा र्ा, के वल अजुमन के कारण वे इसे िेख पा रहे र्े ।
िसू रे शब्िों र्ें, कृ ष्ट्ण की कृ पा से भगवान् के सारे मशष्ट्य भक्त उसमवश्र्वरूप का िशमन कर सके , मजसे अजुमन िेख रहा
र्ा । मकसी ने मटका की हैमक जब कृ ष्ट्ण समन्धका प्रस्ताव लेकर ियु ोधन के पास गए र्े, तो उसे भी इसीरूप का िशमन
कराया गया र्ा । िभु ामग्यवश ियु ोधन ने शामन्त प्रस्तावस्वीकार नहीं मकया, मकन्तु कृ ष्ट्ण ने उस सर्य अपने कुछ रूप
मिखाए र्े । मकन्तवु े रूप अजमनु को मिखाए गये इस रूप से सवमर्ा मभन्न र्े । यह स्पष्ट कहागया है मक इस रूप को पहले
मकसी ने भी नहीं िेखा र्ा ।

ि वेदयज्ञाध्ययिैिम दािै- िम च नक्रयानभिम तपोनभरुग्रै: ।


एवरू
ं पः शक्य अहं िृलोके द्रष्टुं त्वदन्येि कुरुप्रवीर ।। ४८ ।।

ि - कभी नहीं; वेद- यज्ञ - यज्ञ द्वारा; अध्ययिैः - या वेिों के अध्ययन से; ि - कभी नहीं; दािैः - िान के द्वारा;
ि - कभी नहीं; च - भी; नक्रयानभः - पुण्य कर्ों से; ि - कभी नहीं; तपोनभः - तपस्या के द्वारा; उग्रैः - किोर; एवम्-
रूपः - इस रूप र्ें; शक्यः - सर्र्म; अहम् - र्ैं; िृ-लोके - इस भौमतक जगत र्ें; द्रष्टुम् - िेखे जाने र्ें; त्वत् - तुम्हारे
अमतररक्त; अन्येि - अन्य के द्वारा; कुरु-प्रवीर - कुरु योद्धाओ ं र्ें श्रेि ।

हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पूवम मेरे इस नवश्र्वरूप को नकसी िे िहीं देखा, क्योंनक मैं ि तो वेदाध्ययि के द्वारा, ि
यज्ञ, दाि, पुण्य या कनठि तपस्या के द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ ।

तात्पयम : इस प्रसंग र्ें मिव्य दृमष्ट को भलीभाँमत सर्झ लेना चामहए । तो यह मिव्य दृमष्ट मकसके पास हो सकती
है? मिव्य का अर्म है िैवी । जब तक कोई िेवता के रूप र्ें मिव्यता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे मिव्य दृमष्ट प्राप्त
नहीं हो सकती । और िेवता कौन है? वैमिक शास्त्रों का कर्न है मक जो भगवान् मवष्ट्णु के भक्त हैं, वे िेवता हैं
(मवष्ट्णभु क्ताः स्र्ृता िेवाः) । जो नामस्तक हैं, अर्ामत् जो मवष्ट्णु र्ें मवश्वास नहीं करते या जो कृ ष्ट्ण के मनमवमशेष अंश को
परर्ेश्र्वर र्ानते हैं, उन्हें यह मिव्य दृमष्ट नहीं प्राप्त हो सकती । ऐसा संभव नहीं है मक कृ ष्ट्ण का मवरोध करके कोई मिव्य
दृमष्ट भी प्राप्त कर सके । मिव्य बने मबना मिव्य दृमष्ट प्राप्त नहीं की जा सकती । िसू रे शब्िों र्ें, मजन्हें मिव्य दृमष्ट प्राप्त है, वे
भी अजुमन की ही तरह मवश्र्वरूप िेख सकते हैं ।
भगवद्गीता के मवश्र्वरूप का मववरण है । यद्यमप अजुमन के पूवम वह मववरण अज्ञात र्ा, मकन्तु इस घटना के बाि
अब मवश्र्वरूप का कुछ अनुर्ान लगाया जा सकता है । जो लोग सचर्चु ही मिव्य हैं, वे भगवान् के मवश्र्वरूप को िेख
सकते हैं । मकन्तु कृ ष्ट्ण का शद्ध ु भक्त बने मबना कोई मिव्य नहीं बन सकता । मकन्तु जो भक्त सचर्चु मिव्य प्रकृ मत के हैं,
और मजन्हें मिव्य दृमष्ट प्राप्त हैं, वे भगवान् के मवश्र्वरूप का िशमन करने के मलए उत्सक ु नहीं रहते । जैसा मक मपछले
श्लोक र्ें कहा गया है, अजुमन ने कृ ष्ट्ण के चतुभमजु ी मवष्ट्णु रूप को िेखना चाहा, क्योंमक मवश्र्वरूप को िेखकर वह
सचर्चु भयभीत हो उिा र्ा ।
इस श्लोक र्ें कुछ र्हत्त्वपूणम शब्ि हैं, यर्ा वेियज्ञाध्ययनैः जो वेिों तर्ा यज्ञानुिानों से सम्बमन्धत मवषयों के
अध्ययन का मनिेश करता है । वेिों का अर्म हैं, सर्स्त प्रकार का वैमिक सामहत्य यर्ा चारों वेि (ऋग्, यज,ु सार् तर्ा

३६३
अर्वम) एवं अिारहों पुराण, सारे उपमनषि् तर्ा वेिान्त सूत्र । र्नुष्ट्य इस सबका अध्ययन चाहे घर र्ें करे या अन्यत्र ।
इसी प्रकार यज्ञ मवमध के अध्ययन करने के अनेक सूत्र हैं - कल्पसूत्र तर्ा र्ीर्ांसा-सूत्र । िानैः सुपात्र को िान िेने के
अर्म से आया है; जैसे वे लोग जो भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें लगे रहते हैं, यर्ा ब्राह्मण तर्ा वैष्ट्णव । इसी प्रकार
मक्रयामभः शब्ि अमग्नहोत्र के मलए है और मवमभन्न वणों के कर्ों के सूचक है । शारीररक कष्टों को स्वेच्छा से अंगीकार
करना तपस्या है । इस तरह र्नुष्ट्य भले ही इस कायों - तपस्या, िान, वेिाध्ययन आमि को करे , मकन्तु जब तक अजुमन
की भाँमत भक्त नहीं होता, तब तक वह मवश्र्वरूप का िशमन नहीं कर सकता । मनमवमशेषवािी भी कल्पना करते रहते हैं
मक वे भगवान् के मवश्र्वरूप का िशमन कर रहे हैं, मकन्तु भगवद्गीता से हर् जानते हैं मक मनमवमशेषवािी भक्त नहीं हैं ।
िलतः वे भगवान् के मवश्र्वरूप को नहीं िेख पाते ।
ऐसे अनेक परुु ष हैं जो अवतारों की सृमष्ट करते हैं । वे झिू े ही सार्ान्य व्यमक्त को अवतार र्ानते हैं, मकन्तु यह
र्ख
ु मता है । हर्ें तो भगवद्गीता का अनुसरण करना चामहए, अन्यर्ा पूणम आध्यामत्र्क ज्ञान प्रामप्त की कोई सम्भावना
नहीं है । यद्यमप भगवद्गीता को भगवत्तत्व का प्रार्मर्क अध्ययन र्ाना जाता है, तो भी यह इतना पूणम है मक कौन क्या
है, इसका अन्तर बताया जा सकता है । छद्म अवतार के सर्र्मक यह कह सकते हैं मक उन्होंने भी ईश्र्वर के मिव्य
अवतार मवश्र्वरूप को िेखा है, मकन्तु यह स्वीकायम नहीं, क्योंमक यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख हुआ है मक कृ ष्ट्ण का भक्त बने
मबना ईश्र्वरके मवश्र्वरूप को नहीं िेखा जा सकता । अतः पहले कृ ष्ट्ण का शद्ध ु भक्त बनना होता है, तभी कोई िावा कर
सकता है मक वह मवश्र्वरूप का िशमन कर सकता है, मजसे उसने िेखा है । कृ ष्ट्ण का भक्त कभी भी छद्म अवतारों को या
इनके अनुयामययों को र्ान्यता नहीं िेता ।

ि वेदयज्ञाध्ययिैिम दािै-
िम च नक्रयानभिम तपोनभरुग्रै: ।
एवरू ं पः शक्य अहं िृलोके
द्रष्टुं त्वदन्येि कुरुप्रवीर ।। ४८ ।।

ि - कभी नहीं; वेद- यज्ञ - यज्ञ द्वारा; अध्ययिैः - या वेिों के अध्ययनसे; ि - कभी नहीं; दािैः - िान के
द्वारा; ि - कभी नहीं; च - भी; नक्रयानभः - पुण्य कर्ों से; ि - कभी नहीं; तपोनभः - तपस्या के द्वारा; उग्रैः -
किोर; एवम्-रूपः - इस रूप र्ें; शक्यः - सर्र्म; अहम् - र्ैं; िृ-लोके - इसभौमतक जगत र्ें; द्रष्टुम् - िेखे जाने
र्ें; त्वत् - तुम्हारे अमतररक्त; अन्येि - अन्य के द्वारा; कुरु-प्रवीर - कुरु योद्धाओ ं र्ें श्रेि ।

हे कुरुश्रेष्ठ! तुमसे पूवम मेरे इस नवश्र्वरूप को नकसी िे िहीं देखा, क्योंनक मैं ि तो वेदाध्ययि के द्वारा, ि
यज्ञ, दाि, पुण्य या कनठि तपस्याके द्वारा इस रूप में, इस संसार में देखा जा सकता हूँ ।

तात्पयम: इस प्रसगं र्ें मिव्य दृमष्ट को भलीभाँमत सर्झ लेना चामहए । तो यहमिव्य दृमष्ट मकसके पास हो सकती
है? मिव्य का अर्म है िैवी । जब तक कोईिेवता के रूप र्ें मिव्यता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे मिव्य दृमष्टप्राप्त नहीं
हो सकती । और िेवता कौन है? वैमिक शास्त्रों का कर्न है मक जोभगवान् मवष्ट्णु के भक्त हैं, वे िेवता हैं (स्वष्णभु िाः
स्मृता र्ेवाः) । जोनामस्तक हैं, अर्ामत् जो मवष्ट्णु र्ें मवश्वास नहीं करते या जो कृ ष्ट्ण के मनमवमशेष अंश को परर्ेश्र्वर र्ानते
हैं, उन्हें यह मिव्य दृमष्ट नहींप्राप्त हो सकती । ऐसा सम्भव नहीं है मक कृ ष्ट्ण का मवरोध करके कोई मिव्यदृमष्ट भी प्राप्त कर

३६४
सके । मिव्य बने मबना मिव्य दृमष्ट प्राप्त नहीं कीजा सकती । िसू रे शब्िों र्ें, मजन्हें मिव्य दृमष्ट प्राप्त है, वे भीअजुमन की ही
तरह मवश्र्वरूप िेख सकते हैं ।
भगवद्गीता र्ेंमवश्र्वरूप का मववरण है । यद्यमप अजुमन के पूवम वह मववरण अज्ञात र्ा, मकन्तु इस घटना के बाि
अब मवश्र्वरूप का कुछ अनुर्ान लगाया जा सकता है । जोलोग सचर्चु ही मिव्य हैं, वे भगवान् के मवश्र्वरूप को िेख
सकते हैं । मकन्तुकृष्ट्ण का शद्ध ु भक्त बने मबना कोई मिव्य नहीं बन सकता । मकन्तु जो भक्तसचर्चु मिव्य प्रकृ मत के हैं,
और मजन्हें मिव्य दृमष्ट प्राप्त हैं, वेभगवान् के मवश्र्वरूप का िशमन करने के मलए उत्सुक नहीं रहते । जैसा मकमपछले श्लोक
र्ें कहा गया है, अजमनु ने कृ ष्ट्ण के चतभु मजु ी मवष्ट्णु रूप कोिेखना चाहा, क्योंमक मवश्र्वरूप को िेखकर वह सचर्चु
भयभीत हो उिा र्ा ।
इस श्लोक र्ें कुछ र्हत्त्वपणू म शब्ि हैं, यर्ा वेर्यज्ञाध्ययनैः जो वेिोंतर्ा यज्ञानुिानों से सम्बमन्धत मवषयों के
अध्ययन का मनिेश करता है । वेिों का अर्म हैं, सर्स्त प्रकार का वैमिक सामहत्य यर्ा चारों वेि (ऋग्, यज,ु सार् तर्ा
अर्वम) एवं अिारहों पुराण, सारे उपमनषि् तर्ा वेिान्त सूत्र । र्नुष्ट्य इस सबका अध्ययन चाहे घर र्ें करे या अन्यत्र ।
इसी प्रकार यज्ञ मवमधके अध्ययन करने के अनेक सूत्र हैं - ल्पसूत्र तथा मीमाांसा-सूत्र। र्ानैःसुपात्र को िान िेने के अर्म
से आया है; जैसे वे लोग जो भगवान् की मिव्यप्रेर्ाभमक्त र्ें लगे रहते हैं, यर्ा ब्राह्मण तर्ा वैष्ट्णव । इसी
प्रकारस्क्रयास्भः शब्ि अमग्नहोत्र के मलए है और मवमभन्न वणों के कर्ों के सूचकहै । शारीररक कष्टों को स्वेच्छा से
अंगीकार करना तपस्या है । इस तरहर्नुष्ट्य भले ही इस कायों - तपस्या, िान, वेिाध्ययन आमि को करे , मकन्तु जबतक
अजुमन की भाँमत भक्त नहीं होता, तब तक वह मवश्र्वरूप का िशमन नहीं करसकता । मनमवमशेषवािी भी कल्पना करते
रहते हैं मक वे भगवान् के मवश्र्वरूपका िशमन कर रहे हैं, मकन्तु भगवद्गीता से हर् जानते हैं मक मनमवमशेषवािीभक्त नहीं
हैं । िलतः वे भगवान् के मवश्र्वरूप को नहीं िेख पाते ।
ऐसे अनेक पुरुष हैं जो अवतारों की सृमष्ट करते हैं । वे झिू े ही सार्ान्यव्यमक्त को अवतार र्ानते हैं, मकन्तु यह
र्ख ु है । हर्ें तो भगवद्गीता काअनसु रण करना चामहए, अन्यर्ा पणू म आध्यामत्र्क ज्ञान प्रामप्त की कोईसम्भावना नहीं

म ा
है । यद्यमप भगवद्गीता को भगवत्तत्व का प्रार्मर्क अध्ययन र्ानाजाता है, तो भी यह इतना पूणम है मक कौन क्या है,
इसका अन्तर बताया जासकता है । छद्म अवतार के सर्र्मक यह कह सकते हैं मक उन्होंने भी ईश्र्वर के मिव्य अवतार
मवश्र्वरूप को िेखा है, मकन्तु यह स्वीकायम नहीं, क्योंमकयहाँ पर स्पष्ट उल्लेख हुआ है मक कृ ष्ट्ण का भक्त बने मबना
ईश्र्वर के मवश्र्वरूप को नहीं िेखा जा सकता । अतः पहले कृ ष्ट्ण का शद्ध ु भक्त बनना होताहै, तभी कोई िावा कर सकता
है मक वह मवश्र्वरूप का िशमन कर सकता है, मजसेउसने िेखा है । कृ ष्ट्ण का भक्त कभी भी छद्म अवतारों को या इनके
अनुयामययोंको र्ान्यता नहीं िेता ।

मा ते व्यथा मा च नवमूढभावो
दृष्ट्वा रूपं घोरमीदृङ्ममेदम् ।
व्यपेतभी: प्रीतमिाः पुिस्त्वं
तदेव मे रूपनमदं प्रपश्य ।। ४९ ।।

मा - न हो; ते - तम्ु हें; व्यथा - पीड़ा, कष्ट; मा - न हो; च - भी; नवमढू -भावः - र्ोह; दृष्ट्वा -
िेखकर; रूपम् - रूप को; घोरम् - भयानक; ईदृक् - इस; व्यपेत-भीः - सभी प्रकार के भय से र्क्त
ु ; प्रीत-मिाः -

३६५
प्रसन्नमचत्त; पुिः - मिर;त्वम् - तुर्; तत् - उस; एव - इस प्रकार; मे - र्ेरे; रूपम् - रूप को; इदम् - इस;प्रपश्य -
िेखो ।

तमु मेरेभयािक रूप को देखकर अत्यन्त नवचनलत एवं मोनहत हो गये हो । अब इसे समाप्तकरता हूँ । हे
मेरे भि! तुम समस्त नचन्ताओ ं से पुिः मुि हो जाओ । तुमशान्त नचत्त से अब अपिा इनच्छत रूप देख सकते
हो ।

तात्पयम:भगवद्गीता के प्रारम्भ र्ें अजुमन अपने पूजय मपतार्ह भीष्ट्र् तर्ागुरु द्रोण के वध के मवषय र्ें मचमन्तत
र्ा । मकन्तु कृ ष्ट्ण ने कहा मक उसेअपने मपतार्ह का वध करने से डरना नहीं चामहए । जब कौरवों की सभा र्ेंधतृ राष्ट्र के
पुत्र द्रौपिी को मववस्त्र करना चाह रहे र्े, तो भीष्ट्र् तर्ाद्रोण र्ौन र्े, अतः कत्तमव्यमवर्ख
ु होने के कारण इनका वध होना
चामहए ।कृ ष्ट्णने अजुमन को अपने मवश्र्वरूप का िशमन यह मिखाने के मलए कराया मक ये लोगअपने कुकृ त्यों के कारण
पहले ही र्ारे जा चक ु े हैं । यह दृश्य अजुमन कोइसमलए मिखलाया गया, क्योंमक भक्त शान्त होते हैं और ऐसे जघन्य कर्म
नहीं करसकते । मवश्र्वरूप प्रकट करने का अमभप्राय स्पष्ट हो चक ू ा र्ा । अब अजुमनकृ ष्ट्ण के चतुभमजु रूप को िेखना
चाह रहा र्ा । अतः उन्होंने यह रूप मिखाया ।भक्त कभी भी मवश्र्वरूप िेखने र्ें रूमच नहीं लेता क्योंमक इससेप्रेर्ानुभमू त
का आिान-प्रिान नहीं हो सकता । भक्त या तो अपना पूजाभावअमपमत करना चाहता है या िो भजु ा वाले कृ ष्ट्ण का
िशमन करना चाहता है मजससेवह भगवान् के सार् प्रेर्ाभमक्त का आिान-प्रिान कर सके ।

सञ्जय उवाच ।
इत्यजमिु ं वासुदेवस्तथोक्त्वा
स्वकं रूपं दशमयामास भयू ः ।
आश्र्वासयामास च भीतमेिं
भत्ू वा पिु ः सौम्यवपमु महात्मा ।। ५० ।।

सञ्जयःउवाच - संजय ने कहा;इनत - इस प्रकार; अजमिु म् - अजुमन को; वासुदेवः - कृ ष्ट्ण ने;तथा - उस
प्रकार से; उक्त्वा - कहकर; स्वकम् - अपना, स्वीय; रूपम् - रूप को; दशमयाम् आस- मिखलाया; भूयः -
मिर; आश्र्वासयाम्आस- धीरज धराया; च - भी; भीतम् - भयभीत;एिम् - उसको; भूत्वा - होकर; पुिः -
मिर; सौम्य वपुः - सुन्िर रूप; महा-आत्मा - र्हापुरुष ।

संजय िे धृतराष्ट्र से कहा - अजमिु से इस प्रकार कहिे के बाद भगवाि् कृ ष्ट्णिे अपिा असली चतुभमज

रूप प्रकट नकया और अन्त में दो भुजाओ ं वाला रूपप्रदनशमत करके भयभीत अजमिु को धैयम बूँधाया ।

तात्पयम:जब कृ ष्ट्ण वासुिेव तर्ा िेवकी के पुत्र के रूप र्ें प्रकट हुए तो पहले वेचतुभमजु नारायण रूप र्ें ही प्रकट
हुए, मकन्तु जब उनके र्ाता-मपता नेप्रार्मना की तो उन्होंने सार्ान्य बालक का रूप धारण कर मलया । उसी प्रकारकृ ष्ट्ण
को ज्ञात र्ा मक अजुमन उनके चतुभमजु रूप को िेखने का इच्छुक नहींहै, मकन्तु चँमू क अजुमन ने उनको इस रूप र्ें िेखने
की प्रार्मना की र्ी, अतःकृ ष्ट्ण ने पहले अपना चतुभमजु रूप मिखलाया और मिर वे अपने िो भजु ाओ ं वालेरूप र्ें प्रकट

३६६
हुए । सौम्यवपुः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । इसका अर्महै अत्यन्त सुन्िर रूप । जब कृ ष्ट्ण मवद्यर्ान र्े तो सारे लोग
उनके रूप पर हीर्ोमहत हो जाते र्े और चँमू क कृ ष्ट्ण इस मवश्र्व के मनिेशक हैं, अतः उन्होंनेअपने भक्त अजुमन का भय िरू
मकया और पुनः उसे अपना सुन्िर (सौम्य) रूपमिखलाया । ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.३८) कहा गया है -
प्रेमाञ्जनचछुररतभस्िस्वलोचनेन - मजस व्यमक्त की आँखों र्ें प्रेर्रूपी अंजन लगा है, वाहीकृ ष्ट्ण के सौम्यरूप का िशमन
कर सकता है ।

अजमनु उवाच ।
दृष्ट्वेदं मािुषं रूपं तव सौम्यं जिादमि ।
इदािीमनस्म सवं ृत्तः सचेताः प्रकृ नतं गतः ।। ५१ ।।

अजमिु ःउवाच - अजुमन ने कहा; दृष्ट्वा - िेखकर; इदम् - इस; मािुषम् -र्ानवी; रूपम् - रूप को; तव -
आपके ; सौम्यम् - अत्यन्त सुन्िर; जिादमि - हेशत्रुओ ं को िमण्डत करने वाले; इदािीम् - अब; अनस्म - ह;ँ संवृत्तः -
मस्र्र; स-चेताः - अपनी चेतना र्ें; प्रकृ नतम् - अपनी प्रकृ मत को; गतः - पुनःप्राप्त हँ ।

जब अजमिु िे कृ ष्ट्ण को उिके आनद रूप मेंदेखा तो कहा - हे जिादमि! आपके इस अतीव सुन्दर
मािवी रूप को देखकर मैं अबनस्थरनचत्त हूँ और मैंिे अपिी प्राकृ त अवस्था प्राप्त कर ली है ।

तात्पयम : यहाँ पर प्रयुक्त मानुषां रूपम् शब्ि स्पष्ट सूमचत करता हैं मकभगवान् र्ूलतः िो भजु ाओ ं वाले हैं । जो
लोग कृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्तर्ानकरउनका उपहास करते हैं, उनको यहाँ पर भगवान् की मिव्य प्रकृ मत से
अनमभज्ञबताया गया है । यमि कृ ष्ट्ण र्नष्ट्ु य होते तो उनके मलए पहले मवश्र्वरूप और मिरचतभु मजु नारायण रूप मिखा
पाना कै से सम्भव हो पाता? अतः भगवद्गीता र्ें यहस्पष्ट उल्लेख है मक जो कृ ष्ट्ण को सार्ान्य व्यमक्त र्ानता है और
पािक को यहकहकर भ्रान्त करता है मक कृ ष्ट्ण के भीतर का मनमवमशेष ब्रह्म बोल रहा है, वहसबसे बड़ा अन्याय करता
है । कृ ष्ट्ण ने सचर्चु अपने मवश्र्वरूप को तर्ाचतुभमजु मवष्ट्णरू ु प को प्रिमशमत मकया । तो मिर वे मकस तरह सार्ान्य
पुरुषहो सकते हैं? शद्ध ु भक्त कभी भी ऐसी गुर्राह करने वाली टीकाओ ं से मवचमलतनहीं होता, क्योंमक वह
वास्तमवकता से अवगत रहता है । भगवद्गीता के र्ूलश्लोक सूयम की भाँमत स्पष्ट हैं, र्ख ू म टीकाकारों को उन पर प्रकाश
डालनेकी कोई आवश्यकता नहीं है ।

श्रीभगवानवु ाच ।
सुदुदमशमनमदं रूपं दृष्टवािनस यन्मम ।
देवा अप्यस्य रूपस्य नित्यं दशमिकाङ् नक्षणः ।। ५२ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; सु-दुदमशमम् - िेख पाने र्ेंअत्यन्त कमिन; इदम् - इस; रूपम् - रूप
को; दृष्टवाि् अनस - जैसा तर्ु नेिेखा; यत् - जो; मम - र्ेरे; देवाः - िेवता; अनप - भी; अस्य - इस; रूपस्य -रूप
का; नित्यम् - शाश्र्वत; दशमि-काङ् नक्षणः - िशमनामभलाषी ।

३६७
श्रीभगवाि् िे कहा - हे अजमिु ! तुम मेरे नजस रूप को इस समय देख रहे हो, उसे देख पािा अत्यन्त
दुष्ट्कर है । यहाूँ तक नक देवता भी इस अत्यन्त नप्रयरूप को देखिे की ताक में रहते हैं ।

तात्पयम: इस अध्यायके ४८वें श्लोक र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण ने अपना मवश्र्वरूप मिखाना बन्ि मकया औरअजुमन को
बताया मक अनेक तप, यज्ञ आमि करने पर भी इस रूप को िेख पानाअसम्भव है । अब सुर्र्ु दशदम् शब्ि का प्रयोग मकया
जा रहा है जो सूमचत करताहै मक कृ ष्ट्ण का मद्वभजु रूप और अमधक गुह्य है । कोई तपस्या, वेिाध्ययन तर्ािाशममनक
मचतं न आमि मवमभन्न मक्रयाओ ं के सार् र्ोड़ा सा भमक्त-तत्त्व मर्लाकारकृ ष्ट्ण के मवश्र्वरूप का िशमन सभं वतः कर
सकता है, लेमकन 'भमक्त-तत्त्व' के मबना यह संभव नहीं है, इसका वणमन पहले ही मकया जा चक ु ा है । मिर भीमवश्र्वरूप से
आगे कृ ष्ट्ण का मद्वभजु रूप है, मजसे ब्रह्मा तर्ा मशव जैसेबड़े-बड़े िेवताओ ं द्वारा भी िेख पाना और भी कमिन है । वे
उनका िशमन करनाचाहते हैं और श्रीमद्भागवत र्ें प्रर्ाण है मक जब भगवान् अपनी र्ाता िेवकी के गभम र्ें र्े, तो स्वगम के
सारे िेवता कृ ष्ट्ण के चर्त्कार को िेखने के मलएआये और उन्होंने उत्तर् स्तुमतयाँ कीं, यद्यमप उस सर्य वे दृमष्टगोचर नहीं
र्े । वे उनके िशमन की प्रतीक्षा करते रहे । र्ख ू म व्यमक्त उन्हें सार्ान्य जनसर्झकर भले ही उनका उपहास कर ले और
उनका सम्र्ान न करके उनके भीतर मस्र्तमकसी मनराकार'कुछ' का सम्र्ान करे , मकन्तु यह सब र्ख ू मतापूणम व्यवहार है ।
कृ ष्ट्ण के मद्वभजु रूप का िशमन तो ब्रह्मा तर्ा मशव जैसे िेवता तक करनाचाहते हैं ।
भगवद्गीता (९.११) र्ें इसकी पुमष्ट हुई है -अवजानस्न्त माां मढू ा मानुषीं तनुमाश्रीतम् - जो लोग उपहास करते हैं,
वेउन्हें दृश्य नहीं होते । जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें तर्ा स्वयं कृ ष्ट्ण द्वाराभगवद्गीता र्ें पुमष्ट हुई है , कृ ष्ट्ण का शरीर
समच्चिानन्ि स्वरूप है । उनका शरीर कभी भी भौमतक शरीर जैसा नहीं होता । मकन्तु जो लोग भगवद्गीता याइसी प्रकार
के वैमिक शास्त्रों को पढ़कर कृ ष्ट्ण का अध्ययन करते हैं, उनके मलएकृ ष्ट्ण सर्स्या बने रहते हैं । जो भौमतक मवमध का
प्रयोग करता है उसके मलएकृ ष्ट्ण एक र्हान ऐमतहामसक पुरुष तर्ा अत्यन्त मवद्वान मचन्तक हैं, यद्यमप वेसार्ान्य व्यमक्त
हैं और इतने शमक्तर्ान होते हुए भी उन्हें भौमतक शरीर धारणकरना पड़ा । अन्ततोगत्वा वे परर्सत्य को मनमवमशेष र्ानते
हैं, अतः वे सोचतेहैं मक भगवान् ने अपना मनराकार रूप से ही साकार रूप धारण मकया । परर्ेश्र्वरके मवषय र्ें ऐसा
अनर्ु ान भौमतकतावािी है। िसू रा अनर्ु ान भी काल्पमनक है । जोलोग ज्ञान की खोज र्ें हैं, वे भी कृ ष्ट्ण का मचन्तन करते
हैं और उन्हें उनके मवश्र्वरूप से कर् र्हत्त्वपूणम र्ानते हैं । इस प्रकार कुछ लोग सोचते हैंमक अजुमन के सर्क्ष कृ ष्ट्ण का जो
रूप प्रकट हुआ र्ा, वह उनके साकार रूप सेअमधक र्हत्त्वपूणम है । उनके अनुसार कृ ष्ट्ण का साकार रूप काल्पमनक है ।
उनकामवश्र्वास है मक परर्सत्य व्यमक्त नहीं है । मकन्तु भगवद्गीता के चतुर्मअध्याय र्ें मिव्य मवमध का वणमन है और वह
कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें प्रार्ामणकव्यमक्तयों से श्रवण करने की है । यही वास्तमवक वैमिक मवमध है और जो लोगसचर्चु
वैमिक परम्परा र्ें है, वे मकसी अमधकारी से ही कृ ष्ट्ण के मवषय र्ेंश्रवण करते हैं और बारम्बार श्रवण करने से कृ ष्ट्ण
उनके मप्रय हो जाते हैं । जैसा मक हर् कई बार बता चक ु े हैं मक कृ ष्ट्ण अपनी योगर्ाया शमक्त से आच्छामितहैं । उन्हें हर
कोई नहीं िेख सकता । वही उन्हें िेख पाता है, मजसके सर्क्षवे प्रकट होते हैं । इसकी पुमष्ट वेिों र्ें हुई है , मकन्तु जो
शरणागत होचक ु ा है, वह परर्सत्य को सचर्चु सर्झ पाता है । मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत से तर्ाकृ ष्ट्ण की भमक्त से
अध्यामत्र्क आँखें खल ु जाती हैं और वह कृ ष्ट्ण को प्रकट रूपर्ें िेख सकता है । ऐसा प्राकट् य िेवताओ ं तक के मलए
िल ु मभ है, अतः वे भीउन्हें नहीं सर्झ पाते और उनके मद्वभजु रूप के िशमन की ताक र्ें रहते हैं । मनष्ट्कषम यह मनकला मक
यद्यमप कृ ष्ट्ण के मवश्र्वरूप का िशमन कर पाना अत्यन्तिल ु मभ है और हर कोई ऐसा नहीं कर सकता, मकन्तु उनके
श्यार्सुन्िर रूप को सर्झपाना तो और भी कमिन है ।

३६८
िाहं वेदैिम तपसा ि दािेि ि चेजयया ।
शक्य एवंनवधो द्रष्टुं दृष्टवािनस मां यथा ।। ५३ ।।

ि - कभी नहीं; अहम् - र्ैं; वेदैः - वेिाध्ययन से; ि - कभी नहीं; तपसा -कमिन तपस्या द्वारा; ि - कभी
नहीं; दािेि - िान से; च - भी; इजयया - पूजासे; शक्यः - संभव है; एवम् -नवधः - इस प्रकार से; द्रष्टुम् - िेख
पाना; दृष्टवाि् - िेख रहे; अनस - तुर् हो; माम् - र्झु को; यथा - मजस प्रकार ।

तुम अपिे नदव्य िेत्रों से नजस रूप का दशमि कर रहे हो, उसे ि तोवेदाध्ययि से, ि कनठि तपस्या से, ि
दाि से, ि पज
ू ा से ही जािा जा सकता है । कोई इि साधिों के द्वारा मझ
ु े मेरे रूप में िहीं देख सकता ।

तात्पयम: कृ ष्ट्ण पहले अपनी र्ाता िेवकी तर्ा मपता वासुिेव के सर्क्ष चतुभमजु रूप र्ें प्रकट हुए र्े और तब
उन्होंने अपना मद्वभजु रूप धारण मकया र्ा । जोलोग नामस्तक हैं या भमक्तमवहीन हैं, उनके मलए इस रहस्य को सर्झ
पाना अत्यन्तकमिन है । मजन मवद्वानों ने के वल व्याकरण मवमध से या कोरी शैमक्षकयोग्यताओ ं के आधार पर वैमिक
सामहत्य का अध्ययन मकया है, वे कृ ष्ट्ण को नहींसर्झ सकते । न ही वे लोग कृ ष्ट्ण को सर्झ सकें गे, जो औपचाररक
पूजा करने के मलएर्मन्िर जाते हैं । वे भले ही वहाँ जाते रहें, वे कृ ष्ट्ण के असली रूप को नहींसर्झ सकें गे । कृ ष्ट्ण को तो
के वल भमक्तर्ागम से सर्झा जा सकता है, जैसा मककृ ष्ट्ण ने स्वयं अगले श्लोक र्ें बताया है ।

भक्त्या त्विन्यया शक्य अहमेवंनवधोऽजमिु ।


ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेि प्रवेष्टुं च परन्तप ।। ५४ ।।

भक्त्या - भमक्त से;तु - लेमकन; अिन्यया - सकार्कर्म तर्ा ज्ञान के रमहत; शक्यः - सम्भव; अहम् -
र्ैं; एवम्-नवधः - इस प्रकार; अजमिु - हे अजमुन; ज्ञातमु ् - जानने; द्रष्टुम् - िेखने; च - तर्ा; तत्त्वेि - वास्तव
र्ें; प्रवेष्टुम् - प्रवेश करने; च - भी; परन्तप - हे बमलि भजु ाओ ं वाले ।

हे अजमिु ! के वल अिन्य भनि द्वारा मुझे उस रूप में समझा जा सकता है, नजसरूप में मैं तुम्हारे समक्ष
खडा हूँ और इसी प्रकार मेरा साक्षात् दशमि भीनकया जा सकता है । के वल इसी नवनध से तुम मेरे ज्ञाि के
रहस्य को पा सकतेहो ।

तात्पयम: कृ ष्ट्ण को के वल अनन्य भमक्तयोग द्वारा सर्झाजा सकता है । इस श्लोक र्ें वे इसे स्पष्टतया कहते हैं,
मजससे ऐसे अनामधकारीटीकाकार जो भगवद्गीता को के वल कल्पना के द्वारा सर्झाना चाहते हैं, यह जानसकें मक वे
सर्य का अपव्यय कर रहे हैं । कोई यह नहीं जान सकता मक वे मकसप्रकार चतभु मजु रूप र्ें र्ाता के गभम से उत्पन्न हुए
और मिर तुरन्त ही िोभजु ाओ ं वाले रूप र्ें बिल गये । ये बातें न तो वेिों के अध्ययन से सर्झी जासकती है, न
िाशममनक मचतं न द्वारा । अतः यहाँ स्पष्ट कहा गया है मक न तोकोई उन्हें िेख सकता है और न इन बातों का रहस्य ही
सर्झ सकता है । मकन्तु जोलोग वैमिक सामहत्य के अनुभवी मवद्यार्ी हैं वे अनेक प्रकार से वैमिकग्रंर्ों के र्ाध्यर् से
उन्हें जान सकते हैं । इसके मलए अनेक मवमध-मवधान हैंऔर यमि कोई सचर्चु उन्हें जानना चाहता है तो उसे प्रर्ामणक

३६९
ग्रंर्ों र्ेंउमल्लमखत मवमधयों का पालन करना चामहए । वह इन मनयर्ों के अनुसार तपस्या करसकता है । उिाहरणार्म,
कमिन तपस्या के हेतु वह कृ ष्ट्णजन्र्ाष्टर्ी को, जोकृ ष्ट्ण का आमवभामव मिवस है, तर्ा र्ॉस की िोनों एकािमशयों को
उपवास कर सकताहै । जहाँ तक िान का सम्बन्ध है, यह बात साफ़ है मक उन कृ ष्ट्ण भक्तों को यहिान मिया जाय जो
संसार भर र्ें कृ ष्ट्ण-िशमन को या कृ ष्ट्णभावनार्ृत को िै लानेर्ें लगे हुए हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ानवता के मलए वरिान है ।
रूप गोस्वार्ी नेभगवान् चैतन्य की प्रशंसा परर् िानवीर के रूप र्ें की है, क्योंमक उन्होंनेकृष्ट्ण प्रेर् का र्क्त ु रीमत से
मवस्तार मकया, मजसे प्राप्त कर पाना बहुत कमिनहै । अतः यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रचार करने वाले व्यमक्तयों को
अपनाधन िान र्ें िेता है, तो कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रचार करने के मलए मिया गया यहिान ससं ार का सबसे बड़ा िान है ।
और यमि कोई र्ंमिर र्ें जाकर मवमधपूवमक पूजाकरता है (भारत के र्मन्िरों र्ें सिा कोई न कोई र्मू तम, सार्ान्यतया
मवष्ट्णयु ा कृ ष्ट्ण की र्मू तम रहती है) तो यह भगवान् की पजू ा करके तर्ा उन्हें सम्र्ानप्रिान करके उन्नमत करने का अवसर
होता है । नौमसमखयों के मलए भगवान् कीभमक्त करते हुए र्ंमिर-पूजा अमनवायम है, मजसकी पुमष्ट श्र्वेताश्र्वतरउपस्नषर्् र्ें
(६.२३) हुई है -
यस्य र्ेवे परा भस्ियदथा र्ेवे तथा गुरौ ।
तस्यैते स्थता ह्याथादः प्र ाशन्ते महात्मनः ।।
मजसर्ें भगवान् के मलए अमवचल भमक्तभाव होता है और मजसका र्ागमिशमन गुरुकरता है, मजसर्ें भी उसकी
वैसी ही अमवचल श्रद्धा होती है, वह भगवान् कािशमन प्रकट रूप र्ें कर सकता है । र्ानमसक मचन्तन (र्नोधर्म) द्वारा
कृ ष्ट्ण कोनहीं सर्झा जा सकता । जो व्यमक्त प्रार्ामणक गुरु से र्ागमिशमन प्राप्त नहींकरता, उसके मलए कृ ष्ट्ण को सर्झने
का शभु ारम्भ कर पाना भीकमिन है । यहाँ पर तुशब्ि का प्रयोग मवशेष रूप से यह सूमचत करने के मलए हुआ है मक
अन्य मवमध नतो बताई जा सकती है, न प्रयुक्त की जा सकती है, न ही कृ ष्ट्ण को सर्झने र्ेंसिल हो सकती है ।
कृ ष्ट्ण को चतुभमजु तर्ा मद्वभजु साक्षात् रूपअजुमन को मिखाए गये क्षमणक मवश्र्वरूप से सवमर्ा मभन्न हैं । नारायण
काचतभु मजु रूप तर्ा कृ ष्ट्ण का मद्वभजु रूप िोनों ही शाश्र्वत तर्ा मिव्य हैं, जबमक अजमनु को मिखलाया गया मवश्र्वरूप
नश्र्वर है । सुर्र्ु दशदम् शब्ि काअर्म ही है “िेख पाने र्ें कमिन”, मजससे पता चलता है मक इस मवश्र्वरूप कोमकसी ने नहीं
िेखा र्ा । इससे यह भी पता चलता है मक भक्तों को इस रूप कोमिखाने की आवश्यकता भी नहीं र्ी । इस रूप को
कृ ष्ट्ण ने अजुमन कीप्रार्मनापरमिखाया र्ा, मजससे भमवष्ट्य र्ें यमि कोई अपने को भगवान् का अवतार कहे तो लोगउससे
कह सकें मक तुर् अपना मवश्र्वरूप मिखलाओ ।
मपछले श्लोक र्ें नशब्ि की पुनरुमक्त सूमचत करती है मक र्नुष्ट्य को वैमिक ग्रंर्ों के पामण्डत्यका गवम नहीं होना
चामहए । उसे कृ ष्ट्ण की भमक्त करनी चामहए । तभी वहभगवद्गीता की टीका मलखने का प्रयास कर सकता है ।
कृ ष्ट्णमवश्र्वरूप से नारायण के चतुभमजु रूप र्ें और मिर अपने सहज मद्वभजु रूप र्ेंपररणत होते हैं । इससे यह
सूमचत होता है मक वैमिक सामहत्य र्ें उल्लेमखतचतुभमजु रूप तर्ा अन्य रूप कृ ष्ट्ण के आमि मद्वभजु रूप ही से उद्भूत हैं ।
वेसर्स्त उद्भवों के उद्गर् हैं । कृ ष्ट्ण इनसे भी मभन्न हैं, मनमवमशेष रूप कीकल्पना का तो कुछ कहना ही नहीं । जहाँ तक
कृ ष्ट्ण के चतुभमजु ी रूपों कासम्बन्ध है, यह स्पष्ट कहा गया है मक कृ ष्ट्ण का सवाममधक मनकट चतुभमजु ी रूप (जो र्हामवष्ट्णु
के नार् से मवख्यात हैं और जो कारणाणमव र्ें शयन करते हैंतर्ा मजनके श्र्वास तर्ा प्रश्र्वास र्ें अनेक ब्रह्माण्ड मनकलते
एवं प्रवेशकरते रहते हैं) भी भगवान् का अंश है । जैसा मक ब्रह्मसांस्हता र्ें (५.४८) कहागया है -
यस्यै स्नश्र्वस्सत ालमथावलम्ब्द्य
जीवस्न्त लोमस्वलजा जगर्ण्डनाथाः ।
स्वष्णमु दहान् स इह यस्य लास्वशेषो

३७०
गोस्वन्र्मास्र् पुरुषां तमहां भजास्म ।।
“मजनके श्र्वास लेने से ही मजनर्ें अनन्त ब्रह्माण्ड प्रवेश करते हैं तर्ापुनः बाहर मनकल आते हैं, वे र्हामवष्ट्णु
कृ ष्ट्ण के अंश रूप हैं । अतः र्ैंगोमवन्ि या कृ ष्ट्ण की पूजा करता हँ जो सर्स्त कारणों के कारण हैं ।” अतःर्नुष्ट्य को
चामहए मक कृ ष्ट्ण के साकार रूप को भगवान् र्ानकर पूजे, क्योंमक वहीसमच्चिानन्ि स्वरूप है । वे मवष्ट्णु के सर्स्त रूपों
के उद्गर् हैं, वे सर्स्तअवतारों के उद्गर् हैं और आमि र्हापुरुष हैं, जैसा मक भगवद्गीता से पुष्टहोता है ।
गोपाल-तपनी उपस्नषर्् र्ें (१.१) मनम्नमलमखत कर्न आया है
सस्चचर्ानन्र्रूपाय ृ ष्णायास्क्तलष्ट ाररणे ।
नमो वेर्ान्तवेयाय गुरवे बुस्द्धसास्क्षणे ।।
“र्ैं कृ ष्ट्ण को प्रणार् करता हँ को समच्चिानन्ि स्वरूप हैं । र्ैं उनकोनर्स्कार करता हँ, क्योंमक उनको जान
लेने का अर्म है, वेिों को जान लेना । अतः वे परर् गुरु हैं ।” उसी प्रकरण र्ें कहा गया है - ृ ष्णो वै परमांर्ैवतम् - कृ ष्ट्ण
भगवान् हैं (गोपाल तापनी उपस्नषर्् १.३) । ए ो वशी सवदगः ृ ष्ण ईड् यः - वह कृ ष्ट्ण भगवान् हैं और पूजय हैं
। ए ोऽस्प सन्बहुधायोऽवभास्त - कृ ष्ट्ण एक हैं, मकन्तु वे अनन्त रूपों तर्ा अंश अवतारों के रूपर्ें प्रकट होते हैं (गोपाल
तापनी १.२१) ।
ब्रह्मसांस्हता (५.१) का कर्न है-
ईश्र्वरः परमः ृ ष्णः सस्चचर्ानन्र्स्वग्रहः ।
अनास्र्रास्र्गोस्वन्र्ः सवद ारण ारणम् ।।
“भगवान् तो कृ ष्ट्ण हैं, जो समच्चिानन्ि स्वरूप हैं । उनका कोई आमि नहीं है, क्योंमक वे प्रत्येक वस्तु के आमि
हैं । वे सर्स्त कारणों के कारण हैं ।”
अन्यत्र भी कहा गया है - यात्रावस्तणं ृ ष्णाख्यां परां ब्रह्म नरा ृ स्त -भगवान् एक व्यमक्त है, उसका नार् कृ ष्ट्ण है
और वह कभी-कभी इस पृथ्वी परअवतररत होता है । इसी प्रकार श्रीमद्भागवत र्ें भगवान् के सभी प्रकार के अवतारों
का वणमन मर्लता है, मजसर्ें कृ ष्ट्ण का भी नार् है । मकन्तु यह कहा गयाहै मक यह कृ ष्ट्ण ईश्र्वर के अवतार नहीं हैं, अमपतु
साक्षात् भगवान् हैं (एते चाश ां लाः पुांसः ृ ष्णस्तु भगवान् स्वयम्) ।
इसी प्रकारभगवद्गीता र्ें भगवान् कहते हैं - मत्तः परतरां नान्यत - र्झु भगवान् कृ ष्ट्ण के रूप से कोई श्रेि नहीं है ।
अन्यत्र भी कहा गया है - अहम् आस्र्हीर्ेवानाम् - र्ैं सर्स्त िेवताओ ं का उद्गर् हँ । कृ ष्ट्ण से भगवद्गीता ज्ञानप्राप्त करने
पर अजुमन भी इन शब्िों र्ें इसकी पुमष्ट करता है - परां ब्रह्मपरां धाम पस्वत्रां परमां भवान्। अब र्ैं भलीभाँमत सर्झ गया मक
आप परर् सत्यभगवान् हैं और प्रत्येक वस्तु के आश्रय हैं । अतः कृ ष्ट्ण ने अजुमन को जोमवश्र्वरूप मिखलाया वह उनका
आमि रूप नहीं है ।आमि रूप तो कृ ष्ट्ण है । हजारोंहार्ों तर्ा हजारों मसरों वाला मवश्र्वरूप तो उन लोगों का ध्यान
आकृ ष्ट करनेके मलए मिखलाया गया, मजनका ईश्र्वर से तमनक भी प्रेर् नहीं है । यह ईश्र्वरका आमि रूप नहीं है ।
मवश्र्वरूप उन शद्ध ु भक्तों के मलए तमनकभी आकषमक नहीं होता, जो मवमभन्न मिव्य सम्बन्धों र्ें भगवान् से
प्रेर्करते हैं । भगवान् अपने आमि कृ ष्ट्ण रूप र्ें ही प्रेर् का आिान-प्रिान करतेहैं । अतः कृ ष्ट्ण से घमनि र्ैत्री भाव से
सम्बमन्धत अजमनु को यहमवश्र्वरूप तमनक भी रुमचकर नहीं लगा, अमपतु उसे भयानक लगा । कृ ष्ट्ण के मचरसखा अजमनु
के पास अवश्य ही मिव्य दृमष्ट रही होगी, वह भी सार्ान्य व्यमक्त नर्ा । इसीमलए वह मवश्र्वरूप से र्ोमहत नहीं हुआ ।
यह रूप उन लोगों को भले हीअलौमकक लगे, जो अपने को सकार् कर्ों द्वारा ऊपर उिाना चाहते हैं, मकन्तभु मक्त र्ें रत
व्यमक्तयों के मलए तो िोभजु ा वाले कृ ष्ट्ण का रूप ही अत्यन्तमप्रय है ।

३७१
मत्कममकृन्मत्परमो मििः सङगवनजमतः ।
निवैरः सवमभूतेषु यः स मामेनत पाण्डव ।। ५५ ।।

मत्-कमम-कृ त - र्ेरा कर्म करने र्ें रत; मत्-परमः - र्झु को परर् र्ानते हुए; मत्-भिः - र्ेरी भमक्त र्ें
रत; सङग-वनजमतः - सकार् कर्म तर्ा र्नोधर्म के कल्र्ष से र्क्त ु ; निवैरः - मकसी से शत्रुरमहत;सवम-भूतेषु - सर्स्त
जीवोंर्ें; यः - जो; माम् - र्झु को; एनत - प्राप्त करता है; पाण्डव - हे पाण्डु के पुत्र ।

हे अजमिु ! जो व्यनि सकाम कमों तथा मिोधममके कल्मष से मुि होकर, मेरी शुद्ध भनि में तत्पर रहता
है, जो मेरे नलएही कमम करता है, जो मझ ु े ही जीवि-लक्ष्य समझता है और जो प्रत्येक जीव सेमैत्रीभाव रखता
है, वह निश्चय ही मुझे प्राप्त करता है ।

तात्पयम: जो कोई मचन्र्य व्योर् के कृ ष्ट्णलोक र्ें परर् पुरुष को प्राप्त करके भगवान् कृ ष्ट्ण से घमनि सम्बन्ध
स्र्ामपत करना चाहता है, उसे स्वयं भगवान्द्वारा बताये गये इस र्न्त्र को ग्रहण करना होगा, अतः यह
श्लोक भगवद्गीता कासार र्ाना जाता है । भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंर् है, जो उन बद्धजीवों की औरलमक्षत है, जो इस
भौमतक संसार र्ें प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने र्ें लगे हुए हैं और वास्तमवक आध्यामत्र्क जीवन के बारे र्ें नहीं जानते
हैं । भगवद्गीता का उद्देश्य यह मिखाना है मक र्नुष्ट्य मकस प्रकार अपने आध्यामत्र्क अमस्तत्वको तर्ा भगवान् के सार्
अपने सम्बन्ध को सर्झ सकता है तर्ा उसे यह मशक्षा िेनाहै मक वह भगवद्धार् को कै से पहुचँ सकता है । यह श्लोक
उस मवमध को स्पष्ट रूपसे बताता है, मजससे र्नुष्ट्य अपने आध्यामत्र्क कायम र्ें अर्ामत् भमक्त र्ेंसिलता प्राप्त कर सकता
है । भस्िरसामृत स्सन्धु र्ें (२.२५५) कहा गया है-
अनासिस्य स्वषयान् यथाहदमपु यञ्ु जतः ।
स्नबदन्धः ृ ष्णसम्बन्धे युिां वैरार्गयमचु यते ।।
ऐसा कोई कायम न करे जो कृ ष्ट्ण से सम्बमन्धत न हो । यह कृ ष्ट्णकर्म कहलाता है । कोई भले ही मकतने कर्म क्यों न
करे , मकन्तु उसे उनके िल के प्रमत आसमक्तनहीं होनी चामहए । यह िल तो कृ ष्ट्ण को ही अमपमत मकया जाना चामहए ।
उिाहरणार्म, यमि कोई व्यापार र्ें व्यस्त है, तो उसे इस व्यापार कोकृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें पररणत करने के मलए, कृ ष्ट्ण को
अमपमत करना होगा । यमि कृ ष्ट्णा व्यापार के स्वार्ी हैं, तो इसका लाभ भी उन्हें ही मर्लना चामहए । यमि मकसी व्यापारी
के पास करोड़ों रुपए की सम्पमत्त हो और यमि वह इसे कृ ष्ट्ण को अमपमत करना चाहे, तो वहऐसा कर सकता है । यही
कृ ष्ट्णकर्म है । अपनी इमन्द्रयतृमप्त के मलए मवशाल भवनन बनवाकर, वह कृ ष्ट्ण के मलए सुन्िर र्ंमिर बनवा सकता है,
कृ ष्ट्ण काअचाममवग्रह स्र्ामपत कर सकता है और भमक्त के प्रार्ामणक ग्रंर्ों र्ें वमणमतअचाममवग्रह की सेवा का प्रबन्ध करा
सकता है । यह सब कृ ष्ट्णकर्म है । र्नुष्ट्यको अपने कर्मिल र्ें मलप्त नहीं होना चामहए, अमपतु इसे कृ ष्ट्ण को अमपमतकरके
बची हुई वस्तु को के वल प्रसाि रूप र्ें ग्रहण करना चामहए । यमि कोईकृ ष्ट्ण के मलए मवशाल भवन बनवा िेता है और
उसर्ें कृ ष्ट्ण का अचाममवग्रहस्र्ामपत कराता है, तो उसर्ें उसे रहने की र्नाही नहीं रहती, लेमकन कृ ष्ट्ण कोही इस भवन
का स्वार्ी र्ानना चामहए । यही कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । मकन्तु यमि कोईकृ ष्ट्ण के मलए र्मन्िर नहीं बनवा सकता तो वह
कृ ष्ट्ण-र्मन्िर की सिाई र्ें तो लगसकता है, यह भी कृ ष्ट्णकर्म है । वह बगीचे की िेखभाल कर सकता है । मजसके
पासर्ोड़ी सी भी भमू र् है - जैसा मक भारत के मनधमन से मनधमन व्यमक्त के पास भीहोती है - तो वह उसका उपयोग कृ ष्ट्ण
के मलए िूल उगाने के मलए कर सकता है । वहतुलसी के वृक्ष उगा सकता है, क्योंमक तुलसीिल अत्यन्त र्हत्त्वपूणम हैं

३७२
औरभगवद्गीता र्ें कृ ष्ट्ण ने उनको आवश्यक बताया है । पत्रां पुष्पां फलां तोयम्। कृ ष्ट्ण चाहते हैं मक लोग उन्हें पत्र, पुष्ट्प,
िल या र्ोड़ा जल भेंट करे और इसप्रकार की भेंट से वे प्रसन्न रहते हैं । यह पत्र मवशेष रूप से तुलसीिल हीहै । अतः
र्नुष्ट्य को चामहए मक वह तुलसी का पौधा लगाकर उसे सींचे । इस तरहगरीब से गरीब व्यमक्त भी अपने को कृ ष्ट्णसेवा
र्ें लगा सकता है । ये कमतपयउिाहरण हैं, मजस तरह कृ ष्ट्णकर्म र्ें लगा जा सकता है ।
मत्परमःशब्ि उस व्यमक्त के मलए आता है जो अपने जीवन का परर्लक्ष्य, भगवान् कृ ष्ट्ण के परर्धार् र्ें उनकी
संगमत करना र्ानता है । ऐसा व्यमक्त चन्द्र, सूयम यास्वगम जैसे उच्चतर लोकों र्ें अर्वा इस ब्रह्माण्ड के उच्चतर्
स्र्ानब्रह्मलोक तक र्ें भी जाने का इच्छुक नहीं रहता । उसे इसकी तमनक भी इच्छानहीं रहती । उसकी आसमक्त तो
आध्यामत्र्क आकाश र्ें जाने र्ें रहती हैं । आध्यामत्र्क आकाश र्ें भी वह ब्रह्मजयोमत से तािात्म्य प्राप्त करके भीसंतुष्ट
नहीं रहता, क्योंमक वह तो सवोच्च आध्यामत्र्क लोक र्ें जाना चाहताहै, मजसे कृ ष्ट्णलोक या गोलोक वृन्िावन कहते
हैं । उसे उस लोक का पूरा ज्ञानरहता है, अतः वह अन्य मकसी लोक को नहीं चाहता । जैसा मक मद्भिः शब्ि सेसूमचत
होता है, वह भमक्त र्ें पूणमतया रत रहता है । मवशेष रूप से वह श्रवण, कीतमन, स्र्रण, पािसेवन, अचमन, वन्िन, िास्य,
सख्य और आत्र्मनवेिन - भमक्तके इन नौ साधनों र्ें लगा रहता है । र्नुष्ट्य चाहे तो इन नवों साधनों र्ें रतरह सकता है
अर्वा आि र्ें, सात र्ें, नहीं तो कर् से कर् एक र्ें तो रत रह सकताहै । तब वह मनमश्चत रूप से कृ तार्म हो जाएगा ।
सङग-वस्जदतः शब्िभी र्हत्त्वपूणम है । र्नुष्ट्य को चामहए मक ऐसे लोगों से सम्बन्ध तोड़ ले जोकृ ष्ट्ण के मवरोधी
हैं । न के वल नामस्तक लोक कृ ष्ट्ण के मवरुद्ध रहते हैं, अमपतु वे भी हैं, जो सकार् कर्ों तर्ा र्नोधर्म के प्रमत आसक्त
रहते हैं । अतः भमक्तरसार्ृत मसन्धु र्ें (१.१.११) शद्ध ु भमक्त का वणमन इस प्रकार हुआ है
अन्यास्भलास्षताशन्ू यां ज्ञान मादयानावृतम् ।
आनु ू ल्येन ृ ष्णानुस्शलनां भस्िरुत्तमा ।।
इस श्लोक र्ें श्रील रूप गोस्वार्ी स्पष्ट कहते हैं मक यमि कोई अनन्य भमक्तकरना चाहता है, तो उसे सर्स्त
प्रकार के भौमतक कल्र्ष से िरू रहना चामहए जोसकार्कर्म तर्ा र्नोधर्म र्ें आसक्त हैं । ऐसी अवामं छत सगं मत तर्ा
भौमतक इच्छाओ ं के कल्र्ष से र्क्त ु होने पर ही वह कृ ष्ट्ण ज्ञान का अनुशीलन कर सकता है, मजसेशुद्ध भमक्त कहते
हैं । आनु ू ल्यस्य सां ल्प प्रास्त ू ल्यस्य वजदनम् (हरी भस्ि स्वलास ११.६७५) । र्नष्ट्ु य को चामहए मक अनक ु ू ल भाव
से कृ ष्ट्ण के मवषय र्ें सोचे और उन्हीं ले मलएकर्म करे , प्रमतकूल भाव से नहीं । कंस कृ ष्ट्ण का शत्रु र्ा । वह कृ ष्ट्ण
के जन्र् से ही उन्हें र्ारने की तरह-तरह की योजनाएँ बनाता रहा । मकन्तु असिलहोने के कारण वह सिैव कृ ष्ट्ण का
मचन्तन करता रहा, मकन्तु उसकी वह कृ ष्ट्णभावनाअनुकूल न र्ी, अतः चौबीस घंटे कृ ष्ट्ण का मचन्तन करते रहने पर भी
वह असुर हीर्ाना जाता रहा और अन्त र्ें कृ ष्ट्ण द्वारा र्ार डाला गया । मनस्सन्िेह कृ ष्ट्णद्वारा वध मकये गये व्यमक्त को
तुरन्त र्ोक्ष मर्ल जाता है, मकन्तु शद्ध ु भक्तका उद्देश्य यह नहीं है । शद्ध
ु भक्त तो र्ोक्ष की भी कार्ना नहीं करता ।
वहसवोच्च्लोक, गोलोक वृन्िावन भी नहीं जाना चाहता । उसका एकर्ात्र उद्देश्यकृ ष्ट्ण की सेवा करना है, चाहे वह जहाँ
भी रहे ।
कृ ष्ट्णभक्तप्रत्येक से र्ैत्रीभाव रखता है । इसीमलए यहाँ उसे स्नवैरः कहा गया हैअर्ामत् उसका कोई शत्रु नहीं
होता । यह कै से सम्भव है? कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ेंमस्र्त भक्त जानता है मक कृ ष्ट्ण की भमक्त ही र्नष्ट्ु य जीवन की सर्स्त
सर्स्याओसं े छुटकारा मिला सकती है । इसे उसका व्यमक्तगत अनुभव रहता है । िलतः वह इसप्रणाली को -
कृ ष्ट्णभावनार्ृत को - र्ानव सर्ाज र्ें प्रचाररत करना चाहता है । भगवद्भक्तों का इमतहास साक्षी है मक ईश्र्वर चेतना का
प्रचार करने के मलएकई बार भक्तों को अपने जीवन को संकटों र्ें डालना पड़ा । सबसे उपयुक्त उिाहरणजीसस क्राइस्ट
का है । उन्हें अभक्तों ने शल ू ी पर चढ़ा मिया, मकन्तुउन्होंने अपना जीवन कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रसार र्ें उत्सगम मकया ।

३७३
मनस्सन्िेहयह कहना मक वे र्ारे गये िीक नहीं है । इसी प्रकार भारत र्ें भी अनेक उिाहरणहैं, यर्ा प्रहलाि र्हाराज तर्ा
िाकुर हररिास । ऐसा संकट उन्होंने क्योंउिाया ? क्योंमक वे कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रसार करना चाहते र्े और यह
कमिनकायम है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त जानता है मक र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण के सार् अपनेसम्बन्ध को भल ू ने के कारण ही कष्ट
भोग रहा है । अतः र्ानव सर्ाज की सबसे बड़ीसेवा होगी मक अपने पड़ोसी को सर्स्त भौमतक सर्स्याओ ं से उबारा
जाय । इस प्रकारशद्ध ु भक्त भगवान् की सेवा र्ें लगा रहता है । तभी हर् सर्झ सकते हैं मक कृ ष्ट्णउन लोगों पर मकतने
कृ पालु हैं, जो उनकी सेवा र्ें लगे रहकर उनके मलए सभीप्रकार के कष्ट सहते हैं । अतः यह मनमश्चत है मक ऐसे लोग इस
शरीर छोड़ने के बाि परर्धार् को प्राप्त होते हैं ।
सारांश यह मक कृ ष्ट्ण ने अपनेक्षणभंगुर मवश्र्वरूप के सार्-सार् काल रूप जो सब कुछ भक्षण करने वाला है
औरयहाँ तक मक चतभु मजु मवष्ट्णरू ु प को भी मिखलाया । इस तरह कृ ष्ट्ण इन सर्स्तस्वरूपों के उद्गर् हैं । ऐसा नहीं है मक
वे आमि मवश्र्वरूप या मवष्ट्णु की हीअमभव्यमक्त हैं । वे सर्स्त रूपों के उद्गर् हैं । मवष्ट्णु तो हजारों लाखोंहैं, लेमकन भक्त
के मलए कृ ष्ट्ण का कोई अन्य रूप उतना र्हत्त्वपूणम नहीं, मजतना मक र्ल ू िोभजू ी श्यार्सुन्िर रूप । ब्रह्मसस्ां हता र्ें कहा
गया है मक जोप्रेर् या भमक्तभाव से कृ ष्ट्ण के श्यार्सुन्िर रूप के प्रमत आसक्त हैं, वेसिैव उन्हें अपने हृिय र्ें िेख सकते
हैं, और कुछ भी नहीं िेख सकते । अतःर्नुष्ट्य को सर्झ लेना चामहए मक इस ग्यारहवें अध्याय का तात्पयम यही
हैमककृ ष्ट्ण का रूप ही सवोपरर है एवं परर् सार है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े र्गयारहवें अध्याय “स्वराट रूप” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूरा हुआ ।

३७४
अध्याय बारह
भनियोग
अजुमन उवाच ।
एवं सततयुिा ये भिास्त्वां पयमपु ासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यिं तेषां के योगनवत्तमाः ।। १ ।।

अजमिु ः उवाच - अजुमन ने कहा; एवम् - इस प्रकार; सतत - मनरन्तर; युिाः -तत्पर; ये - जो; भिाः -
भक्तगण; त्वाम् - आपको; पयमपु ासते - िीक सेपूजते हैं; ये - जो;च - भी; अनप - पुनः;अक्षरम् - इमन्द्रयों से
परे ; अव्यिम् - अप्रकट को; तेषाम् - उनर्ें से; के - कौन; योगनवत्-तमाः -योगमवद्या र्ें अत्यन्त मनपुण ।

अजमिु िे पछ ू ा - जो आपकीसेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यि निनवमशेष ब्रह्म की पज
ू ाकरते हैं,
इि दोिों में से नकसे अनधक पूणम (नसद्ध) मािा जाय न?

तात्पयम: अब तक कृ ष्ट्ण साकार, मनराकार एवं सवमव्यापकत्व को सर्झा चक ु े हैंऔर सभी प्रकार के भक्तों और
योमगयों का भी वणमन कर चक ु े हैं । सार्ान्यतःअध्यात्र्वामियों को िो श्रेमणयों र्ें मवभामजत मकया जा सकता है -
मनमवमशेषवािी तर्ा सगुणवािी । सगुणवािी भक्त अपनी सारी शमक्त से परर्ेश्र्वरकी सेवा करता है । मनमवमशेषवािी भी
कृ ष्ट्ण की सेवा करता है, मकन्तुप्रत्यक्ष रूप से न करके वह अप्रत्यक्ष ब्रह्म का ध्यान करता है ।
इस अध्यायर्ें हर् िेखेंगे मक परर् सत्य की अनुभमू त की मवमभन्न मवमधयों र्ें भमक्तयोगसवोत्कृ ष्ट है । यमि कोई
भगवान् का सामन्नध्य चाहता है, तो उसे भमक्तकरनी चामहए ।
जो लोग भमक्त के द्वारा परर्ेश्र्वर की प्रत्यक्ष सेवा करतेह,ैं वे सगुणवािी कहलाते हैं । जो लोग मनमवमशेष ब्रह्म का
ध्यान करते हैं, वे मनमवमशेषवािी कहलाते हैं । यहाँ पर अजुमन पूछता है मक इन िोनों र्ेंसे कौन श्रेि है । यद्यमप परर् सत्य
के साक्षात्कार के अनेक साधन है, मकन्तु इस अध्याय र्ें कृ ष्ट्ण भमक्तयोग को सबों र्ें श्रेि बताते हैं । यहसवाममधक
प्रत्यक्ष है और ईश्र्वर का सामन्नध्य प्राप्त करने के मलए सबसेसुगर् साधन है ।भगवद्गीता के मद्वतीय अध्याय र्ें भगवान् ने
बताया है मक जीवभौमतक शरीर नहीं है, वह आध्यामत्र्क स्िुमलगं है और परर् सत्य परर् पणू म है । सातवें अध्याय र्ें
उन्होंने जीव को परर् पूणम का अंश बताते हुए पूणम परही ध्यान लगाने की सलाह िी है । पुनः आंिवें अध्याय र्ें कहा है
मक जोर्नष्ट्ु य भौमतक शरीर त्याग करते सर्य कृ ष्ट्ण का ध्यान करता है, वह कृ ष्ट्ण के धार्को तरु न्त चला जाता है । यही
नहीं, छिे अध्याय के अन्त र्ें भगवान् स्पष्टकहते हैं, मक योमगयों र्ें से, जो भी अपने अन्तः-करण र्ें मनरन्तर कृ ष्ट्ण
कामचंतन करता है, वही परर् मसद्ध र्ाना जाता है । इस प्रकार प्रायः प्रत्येकअध्याय का यही मनष्ट्कषम है मक र्नुष्ट्य को
कृ ष्ट्ण के सगुण रूप के प्रमतअनुरक्त होना चामहए, क्योंमक वही चरर् आत्र्-साक्षात्कार है ।
इतने पर भी ऐसेलोग हैं जो कृ ष्ट्ण के साकार रूप के प्रमत अनुरक्त नहीं होते । वेदृढ़तापूवमक मवलग रहते है यहाँ
तक मक भगवद्गीता की टीका करते हुए भी वेअन्य लोगों को कृ ष्ट्ण से हटाना चाहते हैं, और उनकी सारी भमक्त

३७५
मनमवमशेषब्रह्मजयोमत की और र्ोड़ते हैं । वे परर् सत्य के उस मनराकार रूप का ही ध्यानकरना श्रेि र्ानते हैं, जो इमन्द्रयों
की पहुचँ के परे है और अप्रकट है ।
इस तरह सचर्चु र्ें अध्यात्र्वामियों की िो श्रेमणयाँ हैं । अब अजुमन यहमनमश्चत कर लेना चाहता है मक कौन-सी
मवमध सुगर् है, और इन िोनों र्ें से कौनसवाममधक पूणम है । िसू रे शब्िों र्ें, वह अपनी मस्र्मत स्पष्ट कर लेनाचाहता है,
क्योंमक वह कृ ष्ट्ण के सगुण रूप के प्रमत अनुरक्त है । वह मनराकारब्रह्म के प्रमत आसक्त नहीं है । वह जान लेना चाहता है
मक उसकी मस्र्मतसुरमक्षत तो है । मनराकार स्वरूप, चाहे इस लोक र्ें हो चाहे भगवान् के परर्लोक र्ें हो, ध्यान के मलए
सर्स्या बना रहता है । वास्तव र्ें कोई भी परर् सत्यके मनराकार रूप का िीक से मचतं न नहीं कर सकता । अतः अजमनु
कहना चाहता हैमक इस तरह से सर्य गँवाने से क्या लाभ? अजुमन को ग्याहरवें अध्याय र्ेंअनुभव हो चक ू ा है मक कृ ष्ट्ण
के साकार रूप के प्रमत आसक्त होना श्रेि है, क्योंमक इस तरह वह एक ही सर्य अन्य सारे रूपों को सर्झ सकता है
और कृ ष्ट्ण के प्रमत उसके प्रेर् र्ें मकसी प्रकार का व्यवधान नहीं पड़ता । अतः अजुमनद्वारा कृ ष्ट्ण से इस र्हत्त्वपूणम प्रश्न के
पूछे जाने से परर्सत्य के मनराकार तर्ा साकार स्वरूपों का अन्तर स्पष्ट हो जाएगा ।

श्रीभगवानवु ाच ।
म्यावेश्य मिो ये मां नित्ययुिा उपासते ।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युितमा मताः ।। २ ।।

श्री-भगवाि् उवाच - श्रीभगवान् ने कहा; मनय - र्झु र्ें; आवेश्य - मस्र्रकरके ; मिः - र्न को; ये -
जो; माम् - र्झु को;नित्य - सिा;युिाः - लगेहुए; उपासते - पूजा करते हैं; श्रद्धया - श्रद्धापूवमक; परया -
मिव्य; उपेताः - प्रित्त; ते - वे; मे - र्ेरे द्वारा; युि-तमाः - योग र्ें परर्मसद्ध; मताः - र्ाने जाते हैं ।

श्रीभगवाि् िे कहा - जो लोगअपिे मि को मेरे साकार रूप में एकाग्र करते हैं, और अत्यन्त
श्रद्धापवू मकमेरी पज
ू ा करिे में सदैव लगे रहते हैं, वे मेरे द्वारा परम नसद्ध मािेजाते हैं ।

तात्पयम: अजुमन के प्रश्न का उत्तर िेते हुएकृ ष्ट्ण स्पष्ट कहते हैं मक जो व्यमक्त उनके साकार रूप र्ें अपने र्न को
एकाग्रकरता है, और जो अत्यन्त श्रद्धा तर्ा मनिापूवमक उनको पूजता है, उसे योगर्ें परर् मसद्ध र्ानना चामहए । जो इस
प्रकार कृ ष्ट्णभावनाभामवत होता है, उसके मलए कोई भी भौमतक कायमकलाप नहीं रह जाते, क्योंमक हर कायम कृ ष्ट्ण के
मलएमकया जाता है । शुद्ध भक्त मनरन्तर कायमरत रहता है - कभी कीतमन करता है, तो कभी श्रवण करता है, या कृ ष्ट्ण
मवषयक कोई पुस्तक पढता है, या कभी-कभीप्रसाि तैयार करता है या बाजार से कृ ष्ट्ण के मलए कुछ र्ोल लाता है, या
कभीर्मन्िर झाड़ता-बुहारता है, तो कभी बतमन धोता है । वह जो कुछ भी करता है, कृ ष्ट्ण सम्बन्धी कायों के अमतररक्त
अन्य मकसी कायम र्ें एक क्षण भी नहींगँवाता । ऐसा कायम पूणम सर्ामध कहलाता है ।

ये त्वक्षरमनिदेश्यमव्यिं पयमपु ासते ।


सवमत्रगमनचन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम् ।। ३ ।।
सनन्ियम्येनन्द्रयग्रामं सवमत्र समबुद्धयः ।
ते प्राप्िुवनन्त मामेव सवमभूतनहते रताः ।। ४ ।।

३७६
ये - जो; तु - लेमकन; अक्षरम् - इमन्द्रय अनुभमू त से परे ; अनिदेश्यम् -अमनमश्चत; अव्यिम् -
अप्रकट; पयमपु ासते - पूजा करने र्ें पूणमतयासंलग्न; सवमत्र-गम् - सवमव्यापी; अनचन्त्यि् - अकल्पनीय;च - भी; कूट-
स्थम् - अपररवमतमत; अचलम् - मस्र्र; ध्रुवम् - मनमश्चत; सनन्ियम्य - वशर्ें करके ;इनन्द्रय-ग्रामम् - सारी इमन्द्रयों
को;सवमत्र - सभी स्र्ानोंर्ें; सम-बुद्धयः - सर्िशी; ते - ये; प्राप्िुवनन्त - प्राप्त करते हैं; माम् - र्झु को; एव - मनश्चय
ही; सवम-भूत-नहते - सर्स्त जीवों के कल्याण के मलए; रताः - संलग्न ।

लेनकि जो लोग अपिी इनन्द्रयों को वशमें करके तथा सबों के प्रनत समभाव रखकर परम सत्य की
निराकार कल्पिा के अन्तगमत उस अव्यि की परू ी तरह से पज
ू ा करते हैं, जो इनन्द्रयों कीअिभ
ु नू त के परे है,
सवमव्यापी है, अकल्पिीय है, अपररवतमिीय है, अचल तथाध्रुव है, वे समस्त लोगों के कल्याण में संलग्ि
रहकर अन्ततः मुझे प्राप्तकरते है ।

तात्पयम: जो लोग भगवान् कृ ष्ट्ण की प्रत्यक्षपूजा न करके , अप्रत्यक्ष मवमध से उसी उद्देश्य को प्राप्त करने का
प्रयत्नकरते हैं, वे भी अन्ततः श्रीकृ ष्ट्ण को प्राप्त होते हैं । “अनेक जन्र्ों के बाि बुमद्धर्ान व्यमक्त वासुिेव को ही सब कुछ
जानते हुए र्ेरी शरण र्ें आताहै।” जब र्नुष्ट्य को अनेक जन्र्ों के बाि पूणम ज्ञान होता है, तो वह कृ ष्ट्ण कीशरण ग्रहण
करता है । यमि कोई इस श्लोक र्ें बताई गई मवमध से भगवान् के पासपहुचँ ता है, तो उसे इमन्द्रयमनग्रह करना होता है,
प्रत्येक प्राणी की सेवाकरनी होती है, और सर्स्त जीवों के कल्याण-कायम र्ें रत होना होता है । इसकाअर्म यह हुआ मक
र्नुष्ट्य को भगवान् कृ ष्ट्ण के पास पहुचँ ना ही होता है, अन्यर्ापूणम साक्षात्कार नहीं हो पाता । प्रायः भगवान् की शरण र्ें
जाने के पूवमपयामप्त तपस्या करनी होती है ।आत्र्ा के भीतर परर्ात्र्ा का िशमन करने के मलए र्नुष्ट्य को िेखना, सुनना,
स्वाि लेना, कायम करना आमि ऐमन्द्रय कायोंको बन्ि करना होता है । तभी वह यह जान पाता है मक परर्ात्र्ा
सवमत्रमवद्यर्ान है । ऐसी अनुभमू त होने पर वह मकसी जीव से ईष्ट्याम नहीं करता - उसेर्नुष्ट्य तर्ा पशु र्ें कोई अन्तर नहीं
मिखता, क्योंमक वह के वल आत्र्ा का िशमनकरता है, बाह्य आवरण का नहीं । लेमकन सार्ान्य व्यमक्त के मलए
मनराकारअनुभमू त की यह मवमध अत्यन्त कमिन मसद्ध होती है ।

क्लेशोऽनधकतरस्तेषामव्यिासिचेतसाम् ।
अव्यिा नह गनतदुम:खं देहवनिरवाप्यते ।। ५ ।।

क्लेशः - कष्ट; अनधकतरः - अत्यमधक; तेषाम् - उन;अव्यि - अव्यक्त के प्रमत; आसि -


अनुरक्त; चेतसाम् - र्न वालों का; अव्यिा - अव्यक्त की ओर; नह - मनश्चय ही; गनतः - प्रगमत;दुःखम् - िख
ु के
सार्; देह-वनिः -िेहधारी के द्वारा; अवाप्यते - प्राप्त मकया जाता है ।

नजिलोगों के मि परमेश्र्वर के अव्यि, निराकार स्वरूप के प्रनत आसि हैं, उिके नलए प्रगनत कर
पािा अत्यन्त कष्टप्रद है । देहधाररयों के नलए उसक्षेत्र में प्रगनत कर पािा सदैव दुष्ट्कर होता है ।

३७७
तात्पयम: अध्यात्र्वामियों का सर्हू , जो परर्ेश्र्वर के अमचन्त्य, अव्यक्त, मनराकार स्वरूप के पर् का अनुसरण
करता है, ज्ञान-योगी कहलाता है, और जोव्यमक्त भगवान् की भमक्त र्ें रत रहकर पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहते हैं, वेभमक्त-
योगी कहलाते हैं । यहाँ पर ज्ञान-योग तर्ा भमक्त-योग र्ें मनमश्चतअन्तर बताया गया है । ज्ञान-योग का पर् यद्यमप र्नष्ट्ु य
को उसी लक्ष्य तकपहुचँ ाता है, मकन्तु है अत्यन्त कष्टकारक, जब मक भमक्त-योग भगवान् कीप्रत्यक्ष सेवा होने के कारण
सुगर् है, और िेहधारी के मलए स्वाभामवक भी है । जीव अनामि काल से िेहधारी है । सैद्धामन्तक रूप से उसके मलए यह
सर्झ पानाअत्यन्त कमिन है मक वह शरीर नहीं है । अतएव भमक्त-योगी कृ ष्ट्ण के मवग्रह कोपूजय र्ानता है, क्योंमक
उसके र्न र्ें कोई शारीररक बोध रहता है, मजसे इस रूपर्ें प्रयक्त ु मकया जा सकता है । मनस्सन्िेह र्मन्िरर्ें परर्ेश्र्वर
के स्वरूप की पूजा र्मू तमपूजा नहीं है । वैमिक सामहत्य र्ें साक्ष्य मर्लता हैमक पूजा सगुण तर्ा स्नगुदण हो सकती है ।
र्मन्िर र्ें मवग्रह-पजू ा सगणु पजू ाहै, क्योंमक भगवान् को भौमतक गणु ों के द्वारा प्रिमशमत मकया जाता है । लेमकन भगवान्
के स्वरूप को चाहे पत्र्र, लकड़ी या तैलमचत्र जैसे भौमतक गुणोंद्वारा क्यों न अमभव्यक्त मकया जाय वह वास्तव र्ें
भौमतक नहीं होता । परर्ेश्र्वर की यही परर् प्रकृ मत है ।
यहाँ पर एक र्ोटा उिाहरण मियाजा सकता है । सड़कों के मकनारे पत्रपेमटकाएँ होती हैं, मजनर्ें यमि हर् अपने
पत्रडाल िें, तो वे मबना मकसी कमिनाई के अपने गन्तव्य स्र्ान पर पहुचँ जाते हैं । लेमकन यमि कोई ऐसी पुरानी पेमटका,
या उसकी अनुकृमत कहीं िेखे, जो डाकघरद्वारा स्वीकृ त न हो, तो उससे वही कायम नहीं हो सके गा । इसी प्रकारईश्र्वर ने
मवग्रहरूप र्ें, मजसे अचम-मवग्रह कहते हैं, अपना प्रर्ामणक (वैध)स्वरूप बना रखा है । यह अचाम-मवग्रह परर्ेश्र्वर का
अवतार होता है । ईश्र्वर इसी स्वरूप के र्ाध्यर् से सेवा स्वीकार करते हैं । भगवान्सवमशमक्तर्ान हैं, अतएव वे अचाम-
मवग्रह रूपी अपने अवतार से भक्त की सेवाएँस्वीकार कर सकते हैं, मजससे बद्ध जीवन वाले र्नुष्ट्य को सुमवधा हो ।
इसप्रकार भक्त को भगवान् के पास सीधे और तुरन्त ही पहुचँ ने र्ें कोई कमिनाईनहीं होती, लेमकन जो लोग
आध्यामत्र्क साक्षात्कार के मलए मनराकार मवमध काअनुसरण करते हैं, उनके मलए यह र्ागम कमिन है । उन्हें उपमनषिों
जैसे वैमिकसामहत्य के र्ाध्यर् से अव्यक्त स्वरूप को सर्झना होता है, उन्हें भाषा सीखनीहोती है, इमन्द्रयातीत
अनुभमू तयों को सर्झना होता है, और इन सर्स्त मवमधयोंका ध्यान रखना होता है । यह सब एक सार्ान्य व्यमक्त के
मलए सगु र् नहीं होता । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्तरत र्नष्ट्ु य र्ात्र गरुु के पर्प्रिशमन द्वारा, र्ात्रअचाममवग्रह के मनयमर्त
नर्स्कार द्वारा, र्ात्र भगवान् की र्महर्ा के श्रवणद्वारा तर्ा र्ात्र भगवान् पर चढ़ाये गये उमच्छष्ट भोजन को खाने से
भगवान् कोसरलता से सर्झ लेता है । इसर्ें तमनक भी सन्िेह नहीं मक मनमवमशेषवािी व्यर्मही कष्टकारक पर् को ग्रहण
करते हैं, मजसर्ें अन्ततः परर् सत्य का साक्षात्कारसंमिग्ध बना रहता है । मकन्तु सगुणवािी मबना मकसी संकट, कष्ट या
कमिनाई के भगवान् के पास पहुचँ जाते हैं । ऐसा ही संिभम श्रीमद्भागवत र्ें पाया जाताहै । यहाँ यह कहा गया है मक
अन्ततः भगवान् की शरण र्ें जाना ही है (इस शरणजाने की मक्रया को भमक्त कहते हैं) तो यमि कोई, ब्रह्म क्या है और
क्यानहीं है, इसी को सर्झने का कष्ट आजीवन उिाता रहता है, तो इसका पररणार्अत्यन्त कष्टकारक होता है । अतएव
यहाँ पर यह उपिेश मिया गया है मकआत्र्-साक्षात्कार के इस कष्टप्रि र्ागम को ग्रहण नहीं करना चामहए, क्योंमकअमन्तर्
िल अमनमश्चत रहता है ।
जीव शाश्र्वत रूप से व्यमष्ट आत्र्ाहै और यमि वह आध्यामत्र्क पणू म र्ें तिाकार होना चाहता है तो वह अपनी
र्ल
ू प्रकृ मत के शाश्र्वत (सत्) तर्ा ज्ञेय (मचत्) पक्षों का साक्षात्कार तो करसकता है, लेमकन आनन्िर्य अंश की प्रामप्त
नहीं हो पाती । ऐसा अध्यात्र्वािीजो ज्ञानयोग र्ें अत्यन्त मवद्वान होता है, मकसी भक्त के अनग्रु ह सेभमक्तयोग को प्राप्त
होता है । इस सर्य मनराकारवाि का िीघम अभ्यास कष्ट काकारण बन जाता है, क्योंमक वह उस मवचार को त्याग नहीं
पाता । अतएव िेहधारीजीव, अभ्यास के सर्य या साक्षात्कार के सर्य, अव्यक्त की प्रामप्त र्ें सिैवकमिनाई र्ें पड़

३७८
जाता है । प्रत्येक जीव अंशतः स्वतन्त्र है और उसे यह अच्छीतरह सर्झ लेना चामहए मक वह अव्यक्त अनुभमू त उसके
आध्यामत्र्क आनन्िर्य आत्र् (स्व) की प्रकृ मत के मवरुद्ध है । र्नुष्ट्य को चामहए मक इस मवमध को न अपनाये । प्रत्येक
जीव के मलए कृ ष्ट्णचेतना की मवमध श्रेि र्ागम है, मजसर्ें भमक्तर्ें पूरी तरह व्यस्त रहना होता है । यमि कोई भमक्त की
अपेक्षा करना चाहताहै, तो नामस्तक होने का संकट रहता है । अतएव अव्यक्त मवषयक एकाग्रता कीमवमध को, जो
इमन्द्रयों की पहुचँ के परे है, जैसा मक इस श्लोक र्ें पहले कहाजा चक ु ा है, इस युग र्ें प्रोत्साहन नहीं मर्लना चामहए ।
भगवान् कृ ष्ट्ण नेइसका उपिेश नहीं मिया ।

ये तु सवामनण कमामनण मनय संन्यस्य मत्पराः ।


अिन्येिैव योगेि मां ध्यायन्त उपासते ।। ६ ।।
तेषाम हं समुद्धताम मृत्युसंसारसागरात् ।
भवानम ि नचरात्पाथम म्यावेनशतचेतसाम् ।। ७ ।।

ये - जो;तु - लेमकन;सवामनण - सर्स्त; कमामनण - कर्ों को; मनय -र्झु र्ें; संन्यस्य - त्याग कर;मत्-पराः -
र्झु र्ें आसक्त; अिन्येि - अनन्य; एव - मनश्चय ही;योगेि - ऐसे भमक्तयोग के अभ्यास से; माम् - र्झु को; ध्यायन्तः -
ध्यान करते हुए; उपासते - पूजा करते हैं; तेषाम् - उनका; अहम् -र्ैं; समुद्धताम - उद्धारक; मृत्यु - र्ृत्यु के ; संसार -
संसार रूपी; सागरात् - सर्द्रु से; भवानम - होता ह;ँ ि - नहीं; नचरात् - िीघमकाल के बाि; पाथम - हे पृर्ापुत्र;मनय -
र्झु पर; आवेनशत - मस्र्र; चेतसाम् - र्नवालों को ।

जो अपिे सारे कायों को मुझमें अनपमत करके तथा अनवचनलत भाव से मेरी भनि करते हुए मेरी पूजा
करते हैं और अपिेनचत्तों को मझ ु पर नस्थर करके निरन्तर मेरा ध्याि करते हैं, उिके नलए हेपाथम! मैं जन्म-मृत्यु
के सागर से शीघ्र उद्धार करिे वाला हूँ ।

तात्पयम: यहाँ पर स्पष्ट कहा गया है मक भक्तजन अत्यन्त भाग्यशाली हैं मकभगवान् उनका इस भवसागर से तुरन्त
ही उद्धार कर िेते हैं । शुद्ध भमक्त करनेपर र्नुष्ट्य को इसकी अनुभमू त होने लगती है मक ईश्र्वर र्हान हैं और
जीवात्र्ाउनके अधीन है । उसका कत्तमव्य है मक वह भगवान् की सेवा करे और यमि वह ऐसानहीं करता, तो उसे र्ाया
की सेवा करनी होगी ।
जैसा पहले कहा जाचक ु ा है मक के वल भमक्त से परर्ेश्र्वर को जाना जा सकता है । अतएव र्नुष्ट्य कोचामहए मक
वह पूणम रूप से भक्त बने । भगवान् को प्राप्त करने के मलए वहअपने र्न को कृ ष्ट्ण र्ें पूणमतया एकाग्र करे । वह कृ ष्ट्ण के
मलए ही कर्म करे । चाहे वह जो भी कर्म करे लेमकन वह कर्म के वल कृ ष्ट्ण के मलए होना चामहए । भमक्त का यही आिशम
है । भक्त भगवान् को प्रसन्न करने के अमतररक्त और कुछभी नहीं चाहता । उसके जीवन का उद्देश्य कृ ष्ट्ण को प्रसन्न
करना होता है औरकृ ष्ट्ण की तमु ष्ट के मलए वह सब कुछ उत्सगम कर सकता है मजस प्रकार अजमनु नेकुरुक्षेत्र के यद्ध ु र्ें
मकया र्ा । यह मवमध अत्यन्त सरल है । र्नुष्ट्य अपनेकायम र्ें लगा रह कर हरे ृ ष्ण र्हार्न्त्र का कीतमन कर सकता है ।
ऐसेमिव्य कीतमन से भक्त भगवान् के प्रमत आकृ ष्ट हो जाता है ।
यहाँपर भगवान् वचन िेते हैं मक वे ऐसे शुद्ध भक्त को तुरन्त ही भवसागर सेउद्धार कर िेंगे । जो योगाभ्यास र्ें बढ़े
चढ़े हैं, वे योग द्वारा अपनी आत्र्ाको इच्छानुसार मकसी भी लोक र्ें ले जा सकते हैं और अन्य लोग इस अवसर

३७९
कोमवमभन्न प्रकार से उपयोग र्ें लाते हैं, लेमकन जहाँ तक भक्त का सम्बन्ध है, उसके मलए यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है
मक स्वयं भगवान् ही उसे ले जाते हैं । भक्त को वैकुण्ि र्ें जाने के पूवम अनुभवी बनने के मलए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती
। वराह पुराण र्ें एक श्लोक आया है -
नयास्म परमां स्थानमस्चदरास्र्गस्तां स्वना ।
गरुडस् न्धमारोप्य यथेचछमस्नवाररतः ।।
तात्पयम यह है मक वैकुण्िलोक र्ें आत्र्ा को ले जाने के मलए भक्त कोअष्टांगयोग साधने की आवश्यकता नहीं
है । इसका भार भगवान् स्वयं अपने ऊपरलेते हैं । वे यहाँ पर स्पष्ट कर रहे हैं मक वे स्वयं ही उद्धारक बनते हैं । बालक
अपने र्ाता-मपता द्वारा अपने आप रमक्षत होता रहता है, मजससे उसकीमस्र्मत सुरमक्षत रहती है । इसी प्रकार भक्त को
योगाभ्यास द्वारा अन्य लोकोंर्ें जाने के मलए प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती, अमपतु भगवान् अपनेअनग्रु हवश
स्वयं ही अपने पक्षीवाहन गरुड़ पर सवार होकर तुरन्त आते हैं औरभक्त को भवसागर से उबार लेते हैं । कोई मकतना ही
कुशल तैराक क्यों न हो, औरमकतना ही प्रयत्न क्यों न करे , मकन्तु सर्द्रु र्ें मगर जाने पर वह अपने कोनहीं बचा सकता ।
मकन्तु यमि कोई आकर उसे जल से बाहर मनकाल ले, तो वह आसानीसे बच जाता है । इसी प्रकार भगवान् भक्त को
इस भवसागर से मनकाल लेते हैं । र्नुष्ट्य को के वल कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सुगर् मवमध का अभ्यास करना होता है ,
औरअपने आपको अनन्य भमक्तर्ें प्रवृत्त करना होता है । मकसी भी बुमद्धर्ानव्यमक्त को चामहए मक वह अन्य सर्स्त
र्ागों की अपेक्षा भमक्तयोग को चनु े ।
नारायणीय र्ें इसकी पुमष्ट इस प्रकार हुई है-
या वै साधनसम्पस्त्तः पुरुषाथदचतुष्टये ।
तया स्वना तर्ाप्नोस्त नरो नारायणाश्रयः ।।
इस श्लोक का भावार्म यह है मक र्नुष्ट्य को चामहए मक वह न तो सकार् कर्म कीमवमभन्न मवमधयों र्ें उलझे, न ही
कोरे मचन्तन से ज्ञान का अनश ु ीलन करे । जोपरर् भगवान् की भमक्त र्ें लीन है, वह उन सर्स्त लक्ष्यों को प्राप्त करता
हैजो अन्य योग मवमधयों, मचन्तन, अनुिानों, यज्ञों, िानपुण्यों आमि सेप्राप्त होने वाले हैं । भमक्त का यही मवशेष वरिान
है ।
के वलकृ ष्ट्ण के पमवत्र नार् - हरे कृ ष्ट्ण, हरे कृ ष्ट्ण, कृ ष्ट्ण कृ ष्ट्ण, हरे हरे , हरे रार्, हरे रार्, रार् रार्, हरे हरे - का
कीतमन करने से ही भक्त सरलता तर्ासुखपूवमक परर् धार् को पहुचँ सकता है । लेमकन इस धार् को अन्य मकसी
धामर्मकमवमध द्वारा प्राप्त नहीं मकया जा सकता ।
भगवद्गीता का मनष्ट्कषम अिारहवें अध्याय र्ें इस प्रकार व्यक्त हुआ है -
सवदधमादन् पररत्यज्य मामे ां शरणां व्रज ।
अहम् त्वाां सवदपापेभ्यो मोक्षस्यष्यास्म मा शचु ः ।।
आत्र्-साक्षात्कार की अन्य सर्स्त मवमधयों को त्याग कर के वल कृ ष्ट्णभावनार्ृतर्ें भमक्त सम्पन्न करनी
चामहए । इससे जीवन की चरर् मसमद्ध प्राप्त की जासकती है । र्नुष्ट्य को अपने गत जीवन के पाप कर्ों पर मवचार करने
की आवश्यकतानहीं रह जाती, क्योंमक उसका उत्तरिामयत्व भगवान् अपने ऊपर ले लेते हैं । अतएव र्नष्ट्ु य को व्यर्म ही
आध्यामत्र्क अनुभमू त र्ें अपने उद्धार का प्रयत्ननहीं करना चामहए । प्रत्येक व्यमक्त को चामहए मक वह परर् शमक्तर्ान
ईश्र्वरकृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करे । यही जीवन की सवोच्च मसमद्ध है ।

म्येव मि आधत्स्व मनय बुनद्धं निवेश्य ।

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निवनसष्ट्यनस म्येव अत ऊध्वं ि संशयः ।। ८ ।।

मनय - र्झु र्ें; एव - मनश्चय ही;मिः - र्न को; आधत्स्व - मस्र्र करो; मनय - र्झु र्ें; बुनद्धम् - बुमद्ध
को; निवेश्य - लगाओ; निवनसष्ट्यनस - तुर् मनवास करोगे; मनय - र्झु र्ें; एव - मनश्चय ही; अतः-ऊध्वमम् -
तत्पश्चात्; ि - कभी नहीं; संशयः - सन्िेह ।

मझु भगवाि् में अपिे नचत्त को नस्थर करो और अपिी सारी बनु द्ध मझ
ु में लगाओ । इस प्रकार तमु
निस्सन्देह मुझमें सदैव वास करोगे ।

तात्पयम: जो भगवान् कृ ष्ट्ण की भमक्त र्ें रत रहता है, उसका परर्ेश्र्वर के सार् प्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है । अतएव
इसर्ें मकसी प्रकार का सन्िेह नहीं मक प्रारम्भ से ही उसकी मस्र्मत मिव्य होती है । भक्त कभी भौमतक धरातल पर नहीं
रहता - वह सिैव कृ ष्ट्ण र्ें वास करता है । भगवान् का पमवत्र नार् तर्ा भगवान् अमभन्न हैं । अतः जब भक्त हरे
ृ ष्ण कीतमन करता है, तो कृ ष्ट्ण तर्ा उनकी अन्तरंगाशमक्त भक्त की मजह्वा पर नाचते रहते हैं । जब वह कृ ष्ट्ण को भोग
चढ़ाता है, जो कृ ष्ट्ण प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण करते हैं और इस तरह इस उमच्छष्ट (जूिन) को खाकर कृ ष्ट्णर्ाय हो जाता
है । जो इस प्रकार सेवा र्ें ही नहीं लगता, वह नहीं सर्झ पाता मक यह सब कै से होता है, यद्यमप भगवद्गीता तर्ा अन्य
वैमिक ग्रंर्ों र्ें इसी मवमध की संस्तुमत की गई है ।

अथ नचत्तं समाधातुं ि शक्िोनष मनय नस्थरम् ।


अभ्यासयोगेि ततो मानमच्छाप्तुं धिञ्जय ।। ९ ।।

अथ - यमि, अतः; नचत्तम् - र्न को;समाधातुम् - मस्र्र करने र्ें; ि - नहीं; शक्िोनष - सर्र्म नहीं हो; मनय -
र्झु पर; नस्थरम् - मस्र्र भाव से; अभ्यास-योगेि - भमक्त के अभ्यास से;ततः - तब; माम् - र्झु को; इच्छ - इच्छा
करो; आप्तुम् - प्राप्त करने की; धिम्-जय - हे सम्पमत्त के मवजेता, अजुमन ।

हे अजमिु , हे धिञ्जय! यनद तुम अपिे नचत्त को अनवचल भाव से मुझ पर नस्थर िहीं कर सकते, तो तुम
भनियोग के नवनध-नवधािों का पालि करो । इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करिे की चाह उत्पन्ि करो ।

तात्पयम: इस श्लोक र्ें भमक्तयोग की िो पृर्क् -पृर्क् मवमधयाँ बताई गई हैं । पहली मवमध उस व्यमक्त पर लागू
होती है, मजसने मिव्य प्रेर् द्वारा भगवान् कृ ष्ट्ण के प्रमत वास्तमवक आसमक्त उत्पन्न कर ली है । िसू री मवमध उसके मलए है
मजसने इस प्रकार से भगवान् कृ ष्ट्ण के प्रमत आसमक्त नहीं उत्पन्न की । इस मद्वतीय श्रेणी के मलए नाना प्रकार के मवमध-
मवधान हैं, मजनका पालन करके र्नष्ट्ु य अन्ततः कृ ष्ट्ण-आसमक्त अवस्र्ा को प्राप्त हो सकता है ।
भमक्तयोग इमन्द्रयों का पररष्ट्कार (संस्कार) है । संसार र्ें इस सर्य सारी इमन्द्रयाँ सिा अशुद्ध हैं, क्योंमक वे
इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगी हुई हैं । लेमकन भमक्तयोग के अभ्यास से ये इमन्द्रयाँ शद्ध
ु की जा सकती हैं, और शद्ध ु हो जाने पर वे
परर्ेश्र्वर के सीधे सम्पकम र्ें आ जाती हैं । इस संसार र्ें रहते हुए र्ैं मकसी अन्य स्वार्ी की सेवा र्ें रत हो सकता
ह,ँ लेमकन र्ैं सचर्चु उसकी प्रेर्पूणम सेवा नहीं करता । र्ैं के वल धन के मलए सेवा करता हँ । और वह स्वार्ी भी र्झु से

३८१
प्रेर् नहीं करता, वह र्झु से सेवा कराता है और र्झु े धन िेता है । अतएव प्रेर् का प्रश्न ही नहीं उिता । लेमकन
आध्यामत्र्क जीवन के मलए र्नष्ट्य को प्रेर् की शद्ध ु अवस्र्ा तक ऊपर उिना होता है । यह प्रेर् अवस्र्ा इन्हीं इमन्द्रयों
के द्वारा भमक्त के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है।
यह ईश्र्वरप्रेर् अभी प्रत्येक हृिय र्ें सुप्त अवस्र्ा र्ें है । वहाँ पर यह ईश्र्वरप्रेर् अनेक रूपों र्ें प्रकट होता
है, लेमकन भौमतक संगमत से िमू षत हो जाता है । अतएव उस भौमतक संगमत से हृिय को मवर्ल बनाना होता है और उस
सुप्त स्वाभामवक कृ ष्ट्ण-प्रेर् को जागृत करना होता है । यही भमक्तयोग की पुरु मवमध है ।
भमक्तयोग के मवमध-मवधानों का अभ्यास करने के मलए र्नुष्ट्य को मकसी समु वज्ञ गरुु के र्ागमिशमन र्ें कमतपय
मनयर्ों का पालन करना होता है - यर्ा ब्रह्मर्हु तम र्ें जागना, स्नान करना, र्मन्िर र्ें जाना तर्ा प्रार्मना करना एवं हरे
ृ ष्ण कीतमन करना, मिर अचाम-मवग्रह पर चढ़ाने के मलए िूल चनु ना, अचाम-मवग्रह पर भोग चढ़ाने के मलए भोजन
बनाना, प्रसाि ग्रहण करना अमि । ऐसे अनेक मवमध-मवधान हैं, मजनका पलान आवश्यक है । र्नुष्ट्य को शुद्ध भक्तों से
मनयमर्त रूप से भगवद्गीता तर्ा श्रीमद्भागवत सुनना चामहए । इस अध्याय से कोई भी ईश्र्वर-प्रेर् के स्तर तक उि
सकता है और तब भगवद्धार् तक उसका पहुचँ ना ध्रवु है । मवमध-मवधानों के अन्तगमत गुरु के आिेशानुसार भमक्तयोग
का यह अभ्यास करके र्नुष्ट्य मनश्चय ही भगवत्प्रेर् की अवस्र्ा को प्राप्त हो सके गा ।

अभ्यासेऽप्यसमथोऽनस मत्कममपरमो भव ।
मदथममनप कमामनण कुवमनन्सनद्धमवाप्स्यनस ।। १० ।।

अभ्यासे - अभ्यास र्ें; अनप - भी; असमथमः - असर्र्म; अनस - हो; मत्-कमम - र्ेरे कर्म के प्रमत; परमः -
परायण; भव - बनो; मत्-अथमम् - र्ेरे मलए; अनप - भी; कमामनण - कर्म ; कुवमि् - करते हुए; नसनद्धम् - मसमद्ध
को; अवाप्स्यनस - प्राप्त करोगे ।

यनद तमु भनियोग के नवनध-नवधािों का भी अभ्यास िहीं कर सकते, तो मेरे नलए कमम करिे का
प्रयत्ि करो, क्योंनक मेरे नलए कमम करिे से तुम पूणम अवस्था (नसनद्ध) को प्राप्त होगे ।

तात्पयम: यमि कोई गुरु के मनिेशानुसार भमक्तयोग के मवमध-मवधानों का अभ्यास नहीं भी कर पाता, तो भी
परर्ेश्र्वर के मलए कर्म करके उसे पूणामवस्र्ा प्रिान कराई जा सकती है । यह कर्म मकस प्रकार मकया जाय, इसकी
व्याख्या ग्याहरवें अध्याय के पचपनवें श्लोक र्ें पहले ही की जा चक ु ी है । र्नुष्ट्य र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार हेतु
सहानुभमू त होनी चामहए । ऐसे अनेक भक्त हैं जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार कायम र्ें लगे हैं । उन्हें सहायता की
आवश्यकता है । अतः भले ही कोई भमक्तयोग के मवमध-मवधानों का प्रत्यक्ष रूप से अभ्यास न कर सके , उसे ऐसे कायम
र्ें सहायता िेने का प्रयत्न करना चामहए । प्रत्येक प्रकार के प्रयास र्ें भमू र्, पूँजी, संगिन तर्ा श्रर् की आवश्यकता
होती है । मजस प्रकार मकसी भी व्यापार र्ें रहने के मलए स्र्ान, उपयोग के मलए कुछ पँजू ी, कुछ श्रर् तर्ा मवस्तार करने
के मलए कुछ संगिन चामहए, उसी प्रकार कृ ष्ट्णसेवा के मलए भी इनकी आवश्यकता होती है । अन्तर के वल इतना ही
होता है मक भौमतकवाि र्ें र्नुष्ट्य इमन्द्रयतृमप्त के मलए सारा कायम करता है, लेमकन यही कायम कृ ष्ट्ण की तमु ष्ट के मलए
मकया जा सकता है । यही मिव्य कायम है । यमि मकसी के पास पयामप्त धन है, तो वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार के मलए
कोई कायामलय अर्वा र्मन्िर मनमर्मत कराने र्ें सहायता कर सकता है अर्वा वह प्रकाशन र्ें सहायता पहुचँ ा सकता

३८२
है । कर्म के मवमवध क्षेत्र हैं और र्नुष्ट्य को ऐसे कर्ों र्ें रूमच लेनी चामहए । यमि कोई अपने कर्ों के िल को नहीं त्याग
सकता, तो कर् से कर् उसका कुछ प्रमतशत कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार र्ें तो लगा ही सकता है । इस प्रकार
कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मिशा र्ें स्वेच्छा से सेवा करने से व्यमक्त भगवत्प्रेर् की उच्चतर अवस्र्ा को प्राप्त हो सके गा, जहाँ
उसे पूणमता प्राप्त हो सके गी ।

अथैतदप्यशिोऽनस कतंु मद्योगमानश्रतः ।


सवमकममिलत्यागं ततः कुरु यतात्मवाि् ।। ११ ।।

अथ - यद्यमप; एतत् - यह; अनप - भी; अशिः - असर्र्म; अनस - हो; कतममु ् - करने र्ें; मत् - र्ेरे
प्रमत; योगम् - भमक्त र्ें; आनश्रतः - मनभमर; सवम-कमम - सर्स्त कर्ों के ;िल - िल का; त्यागम् - त्याग; ततः -
तब; कुरु - करो; यत-आत्मवाि् - आत्र्मस्र्त ।

नकन्तु यनद तुम मेरे इस भाविामृत में कमम करिे में असमथम हो तो तुम अपिे कमम के समस्त िलों को
त्याग कर कमम करिे का तथा आत्म-नस्थत होिे का प्रयत्ि करो ।

तात्पयम: हो सकता है मक कोई व्यमक्त सार्ामजक, पाररवाररक या धामर्मक कारणों से या मकसी अन्य अवरोधों के
कारण कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायमकलापों के प्रमत सहानुभमू त तक मिखा पाने र्ें अक्षर् हो । यमि वह अपने को प्रत्यक्ष रूप
से इन कायमकलापों के प्रमत जोड़ ले तो हो सकता है मक पाररवाररक सिस्य मवरोध करें , या अन्य कमिनाइयाँ उि खड़ी
हों । मजस व्यमक्त के सार् ऐसी सर्स्याएँ लगी हों, उसे यह सलाह िी जाती है मक वह अपने कायमकलापों के संमचत िल
को मकसी शभु कायम र्ें लगा िे । ऐसी मवमधयाँ वैमिक मनयर्ों र्ें वमणमत हैं । ऐसे अनेक यज्ञों तर्ा पण्ु य कायों अर्वा
मवशेष कायों के वणमन हुए हैं, मजनर्ें अपने मपछले कायों के िलों को प्रयुक्त मकया जा सकता है । इससे र्नुष्ट्य धीरे -धीरे
ज्ञान के स्तर तक उिता है । ऐसा भी पाया गया है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायमकलापों र्ें रूमच न रहने पर भी जब र्नुष्ट्य
मकसी अस्पताल या मकस सार्ामजक संस्र्ा को िान िेता है, तो वह अपने कायमकलापों की गाढ़ी कर्ाई का पररत्याग
करता है । यहाँ पर इसकी भी संस्तुमत की गई है, क्योंमक अपने कायमकलापों के िल के पररत्याग के अभ्यास से र्नुष्ट्य
क्रर्शः अपने र्न को स्वच्छ बनाता है, और उस मवर्ल र्नःमस्र्मत र्ें वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत को सर्झने र्ें सर्र्म होता
है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत मकसी अन्य अनुभव पर आमश्रत नहीं होता, क्योंमक कृ ष्ट्णभावनार्ृत स्वयं र्न को मवर्ल बनाने
वाला है, मकन्तु यमि कृ ष्ट्णभावनार्ृत को स्वीकार करने र्ें मकसी प्रकार का अवरोध हो, तो र्नुष्ट्य को चामहए मक अपने
कर्मिल का पररत्याग करने का प्रयत्न करे । ऐसी िशा र्ें सर्ाज सेवा, सर्िु ाय सेवा, राष्ट्रीय सेवा, िेश के मलए उत्सगम
आमि कायम स्वीकार मकये जा सकते हैं, मजससे एक मिन र्नुष्ट्य भगवान् की शद्ध ु भमक्त को प्राप्त हो सके । भगवद्गीता र्ें
ही (१८.४६) कहा गया है - यतः प्रवृमत्तभमतू ानार्् - यमि कोई परर् कारण के मलए उत्सगम करना चाहे, तो भले ही वह
यह न जाने मक परर् कारण कृ ष्ट्ण हैं, मिर भी वह क्रर्शः यज्ञ मवमध से सर्झ जाएगा मक परर् कारण कृ ष्ट्ण ही है ।

श्रेयो नह ज्ञािभ्यासाजज्ञािाद्धयािं नवनशष्ट्यते ।


ध्यािात्कममिलत्यागस्त्यागाच्छानन्तरिन्तरम् ।। १२ ।।

३८३
श्रेयः - श्रेि; नह - मनश्चय ही;ज्ञािम् - ज्ञान; अभ्यासात् - अभ्यास से; ज्ञािात् - ज्ञान से; ध्यािि् -
ध्यान; नवनशष्ट्यते - मवमशष्ट सर्झा जाता है; ध्यािात् - ध्यान से; कमम-िल-त्यागः - सर्स्त कर्म के िलों का
पररत्याग; त्यागात् - ऐसे त्याग से; शानन्तः - शामन्त; अिन्तरम् - तत्पश्चात् ।

यनद तुम यह अभ्यास िहीं कर सकते, तो ज्ञाि के अिुशीलि में लग जाओ । लेनकि ज्ञाि से श्रेष्ठ ध्याि
है और ध्याि से भी श्रेष्ठ कमम िलों का पररत्याग क्योंनक ऐसे त्याग से मिुष्ट्य को मिःशानन्त प्राप्त हो सकती
है ।

तात्पयम: जैसा मक मपछले श्लोकों र्ें बताया गया है, भमक्त के िो प्रकार हैं - मवमध-मवधानों से पणू म तर्ा भगवत्प्रेर्
की आसमक्त से पूणम । मकन्तु जो लोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत के मनयर्ों का पालन नहीं कर सकते, उनके मलए ज्ञान का
अनुशीलन करना श्रेि है, क्योंमक ज्ञान से र्नुष्ट्य अपनी वास्तमवक मस्र्मत को सर्झने र्ें सर्र्म होता है । यही ज्ञान
क्रर्शः ध्यान तक पहुचँ ाने वाला है, और ध्यान से क्रर्शः परर्ेश्र्वर को सर्झा जा सकता है । ऐसी भी मवमधयाँ हैं
मजनर्े र्नुष्ट्य अपने को परब्रह्म र्ान बैिता है, और यमि कोई भमक्त करने र्ें असर्र्म है, तो ऐसा ध्यान भी अच्छा
है । यमि कोई इस प्रकार से ध्यान नहीं कर सकता, तो वैमिक सामहत्य र्ें ब्राह्मणों, क्षमत्रयों, मवषयों तर्ा शद्रू ों के मलए
कमतपय कतमव्यों का आिेश है, मजसे हर् भगवद्गीता के अंमतर् अध्याय र्ें िेखेंगे । लेमकन प्रत्येक िशा र्ें र्नुष्ट्य को
अपने कर्मपजल का त्याग करना होगा - मजसका अर्म है कर्मिल को मकसी अच्छे कायम र्ें लगाना ।
संक्षेपतः, सवोच्च लक्ष्य, भगवान् तक पहुचँ ने की िो मवमधयाँ है - एक मवमध है क्रमर्क मवकास की और िसू री
प्रत्यक्ष मवमध । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त प्रत्यक्ष मवमध है । अन्य मवमध र्ें कर्ों के िल का त्याग करना होता है, तभी
र्नुष्ट्य ज्ञान की अवस्र्ा को प्राप्त होता है । उसके बाि ध्यान की अवस्र्ा तर्ा मिर परर्ात्र्ा के बोध की अवस्र्ा और
अन्त र्ें भगवान् की अवस्र्ा आ जाती है । र्नष्ट्ु य चाहे तो एक एक पग करके आगे बढ़ने की मवमध अपना सकता
है, या प्रत्यक्ष मवमध ग्रहण कर सकता है । लेमकन प्रत्यक्ष मवमध हर एक के मलए संभव नहीं है । अतः अप्रत्यक्ष मवमध भी
अच्छी है । यह तो उन लोगों के मलए है, जो इस अवस्र्ा को प्राप्त नहीं हैं । उनके मलए तो त्याग, ज्ञान, ध्यान तर्ा
परर्ात्र्ा एवं ब्रह्म की अनुभमू त ही पालनीय है । लेमकन जहाँ तक भगवद्गीता का सम्बन्ध है, उसर्ें तो प्रत्यक्ष मवमध पर
ही बल है । प्रत्येक व्यमक्त को प्रत्यक्ष मवमध ग्रहण करने तर्ा भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाने की सलाह िी जाती है ।

अद्वेष्टा सवमभूतािां मैत्रः करुण एव च ।


निमममो निरहंकारः समदु:खसुखः क्षमी ।। १३ ।।
संतुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्र्चयः ।
म्यनपमतमिोबुनद्धयो मििः स मे नप्रयः ।। १४ ।।

अद्वेष्टा - ईष्ट्याममवहीन; सवम-भतू ािाम् - सर्स्त जीवों के प्रमत; मैत्रः - र्ैत्रीभाव वाला; करुणः - ियाल;ु एव -
मनश्चय ही; च - भी; निमममः - स्वामर्त्व की भावना से रमहत; निरहंकार - मर्थ्या अहक ं ार से रमहत; सम -
सर्भाव; दुःख - िख ु ; सख
ु ः - तर्ा स ु ख र्ें ; क्षमी - क्षर्ावान; सन्तष्ट
ु ः - प्रसन्न, त ष्ट
ु ; सततम् - मनरन्तर; योगी -
भमक्त र्ें मनरत; यत-आत्मा - आत्र्संयर्ी; दृढ-निश्र्चयः - संकल्प समहत; मनय - र्झु र्ें; अनपमत - संलग्न; मिः -
र्न को; बुनद्धः - तर्ा बुमद्ध को; यः - जो; मत्-भिः - र्ेरा भक्त; सः - वह; मे - र्ेरा; नप्रयः - प्यारा ।

३८४
जो नकसी से द्वेष िहीं करता, लेनकि सभी जीवों का दयालु नमत्र है, जो अपिे को स्वामी िहीं मािता
और नमथ्या अहंकार से मुि है, जो सुख-दुख में समभाव रहता है, सनहष्ट्णु है, सदैव आत्मतुष्ट रहता
है, आत्मसंयमी है तथा जो निश्चय के साथ मुझमें मि तथा बुनद्ध को नस्थर करके भनि में लगा रहता है, ऐसा
भि मुझे अत्यन्त नप्रय है ।

तात्पयम: शद्ध
ु भमक्त पर पनु ः आकर भगवान् इन िोनों श्लोकों र्ें शद्ध ु भक्त के मिव्य गणु ों का वणमन कर रहे
हैं । शद्ध
ु भक्त मकसी भी पररमस्र्मत र्ें मवचमलत नहीं होता, न ही वह मकसी के प्रमत ईष्ट्यामलु होता है । न वह अपने शत्रु
का शत्रु बनता है । वह तो सोचता है “यह व्यमक्त र्ेरे मवगत िष्ट्ु कर्ों के कारण र्ेरा शत्रु बना हुआ है, अतएव मवरोध
करने की अपेक्षा कष्ट सहना अच्छा है ।” श्रीमद्भागवतम् र्ें (१०.१४.८) कहा गया है – तत्तेऽनु म्पाां सुस्मीक्षमाणो
भञ्ु जान एवात्म ृ तां स्वपा म् । जब भी कोई भक्त र्सु ीबत र्ें पड़ता है, तो वह सोचता है मक भगवान् की र्ेरे ऊपर कृ पा
ही है । र्झु े मवगत िष्ट्ु कर्ों के अनुसार इससे अमधक कष्ट भोगना चामहए र्ा । यह तो भगवत्कृ पा है मक र्झु े मर्लने
वाला पूरा िण्ड नहीं मर्ल रहा है । भगवत्कृ पा से र्ोड़ा ही िण्ड मर्ल रहा है । अतएव अनेक कष्टपूणम पररमस्र्मतयों र्ें भी
वह सिैव शान्त तर्ा धीर बना रहता है । भक्त सिैव प्रत्येक प्राणी पर, यहाँ तक मक अपने शत्रु पर भी, ियालु होता
है । मनर्मर् का अर्म यह है मक भक्त शारीररक कष्टों को प्रधानता नहीं प्रिान करता, क्योंमक वह अच्छी तरह जानता है
मक वह भौमतक शरीर नहीं है । वह अपने को शरीर नहीं र्ानता है, अतएव वह मर्थ्या अहक ं ार के बोध से र्क्त
ु रहता
है, और सुख तर्ा िख ु र्ें सर्भाव रखता है । वह समहष्ट्णु होता है और भगवत्कृ पा से जो कुछ प्राप्त होता है, उसी से
सन्तुष्ट रहता है । वह ऐसी वस्तु को प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता जो कमिनाई से मर्ले । अतएव वह सिैव
प्रसन्नमचत्त रहता है । वह पूणमयोगी होता है, क्योंमक वह अपने गुरु के आिेशों पर अटल रहता है, और चँमू क उसकी
इमन्द्रयाँ वश र्ें रहती हैं, अतः वह दृढ़मनश्चय होता है । वह झिू े तकों से मवचमलत नहीं होता, क्योंमक कोई उसे भमक्त के
दृढ़संकल्प से हटा नहीं सकता । वह पूणमतया अवगत रहता है मक कृ ष्ट्ण उसके शाश्र्वत प्रभु हैं, अतएव कोई भी उसे
मवचमलत नहीं कर सकता । इन सर्स्त गणु ों के िलस्वरूप वह अपने र्न तर्ा बमु द्ध को पणू मतया परर्ेश्र्वर पर मस्र्र
करने र्ें सर्र्म होता है । भमक्त का ऐसा आिशम अत्यन्त िल ु मभ है, लेमकन भक्त भमक्त के मवमध-मवधानों का पालन करते
हुए उसी अवस्र्ा र्ें मस्र्त रहता है और मिर भगवान् कहते हैं मक ऐसा भक्त उन्हें अमत मप्रय है, क्योंमक भगवान् उसकी
कृ ष्ट्णभावना से युक्त कायमकलापों से सिैव प्रसन्न रहते हैं ।

यस्मान्िोनद्वजते लोको लोकान्िोनद्वजते च यः ।


हषाममषमभयोद्वेगैममि
ु ो यः स च मे नप्रयः ।। १५ ।।

यस्मात् - मजससे; ि - कभी नहीं; उनद्वजते - उमद्वग्न होते हैं; लोकः - लोग; लोकात् - लोगों से; ि - कभी
नहीं; उनद्वजते - मवचमलत होता है; च - भी; यः - जो; हषम - सख ु ; अमषम - िख
ु ; भव - भय; उद्वैगैः - तर्ा मचन्ता
से; मुिः - र्क्त
ु ; यः - जो; सः - वह; च - भी; मे - र्ेरा; नप्रयः - मप्रय ।

नजससे नकसी को कष्ट िहीं पहुूँचता तथा जो अन्य नकसी के द्वारा नवचनलत िहीं नकया जाता, जो
सुख-दुख में, भय तथा नचन्ता में समभाव रहता है, वह मुझे अत्यन्त नप्रय है ।

३८५
तात्पयम: इस श्लोक र्ें भक्त के कुछ अन्य गुणों का वणमन हुआ है । ऐसे भक्त द्वारा कोई व्यमक्त कष्ट, मचन्ता, भय
या असन्तोष को प्राप्त नहीं होता । चँमू क भक्त सबों पर ियालु होता है, अतएव वह ऐसा कायम नहीं करता, मजससे मकसी
को मचन्ता हो । सार् ही, यमि अन्य लोग भक्त को मचन्ता र्ें डालना चाहते हैं, तो वह मवचमलत नहीं होता । वास्तव र्ें
सिैव कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लीन रहने तर्ा भमक्त र्ें रत रहने के कारण ही ऐसे भौमतक उपद्रव भक्त को मवचमलत नहीं कर
पाते । सार्ान्य रूप से मवषयी व्यमक्त अपने शरीर तर्ा इमन्द्रयतृमप्त के मलए मकसी वस्तु को पाकर अत्यन्त प्रसन्न होता
है, लेमकन जब वह िेखता है मक अन्यों के पास इमन्द्रयतृमप्त के मलए ऐसी वस्तु है, जो उसके पास नहीं है, तो वह िख ु
तर्ा ईष्ट्याम से पूणम हो जाता है । जब वह अपने शत्रु से बिले की शंका करता है, तो वह भयभीत रहता है, और जब वह
कुछ भी करने र्ें सिल नहीं होता, तो मनराश हो जाता है । ऐसा भक्त, जो इन सर्स्त उपद्रवों से परे होता है, कृ ष्ट्ण को
अत्यन्त मप्रय होता है ।

अिपेक्षः शुनचदमक्ष उदासीिो गतव्यथः ।


सवामरम्भपररत्यागी यो मििः स मे नप्रयः ।। १६ ।।

अिपेक्षः - इच्छारमहत; शुनचः - शद्ध


ु ; दक्षः - पटु; उदासीिः - मचन्ता से र्ुक्त; गत-व्यथः - सारे कष्टों से
र्क्त
ु ; सवम-आरम्भ - सर्स्त प्रयत्नों का; पररत्यागी - पररत्याग करने वाला; यः - जो;मत्-भिः - र्ेरा भक्त; सः -
वह; मे - र्ेरा; नप्रयः - अमतशय मप्रय ।

मेरा ऐसा भि जो सामान्य कायम-कलापों पर आनश्रत िहीं है, जो शुद्ध है, दक्ष है, नचन्तारनहत है, समस्त
कष्टों से रनहत है और नकसी िल के नलए प्रयत्िशील िहीं रहता, मझ
ु े अनतशय नप्रय है ।

तात्पयम: भक्त को धन मिया जा सकता है, मकन्तु उसे धन अमजमत करने के मलए सघं षम नहीं करना
चामहए । भगवत्कृ पा से यमि उसे स्वयं धन की प्रामप्त हो, तो वह उमद्वग्न नहीं होता । स्वाभामवक है मक भक्त मिनभर र्ें िो
बार स्नान करता है और भमक्त के मलए प्रातःकाल जल्िी उिता है । इस प्रकार वह बाहर तर्ा भीतर से स्वच्छ रहता
है । भक्त सिैव िक्ष होता है, क्योंमक वह जीवन के सर्स्त कायमकलापों के सार को जानता है और प्रार्ामणक शास्त्रों र्ें
दृढ़मवश्वास रखता है । भक्त कभी मकसी िल र्ें भाग नहीं लेता, अतएव वह मचन्तार्क्त ु रहता है । सर्स्त उपामधयों से
र्क्त
ु होने के कारण कभी व्यमर्त नहीं होता, वह जानता है मक उसका शरीर एक उपामध है, अतएव शारीररक कष्टों के
आने पर वह र्क्तु रहता है । शुद्ध भक्त कभी भी ऐसी वस्तु के मलए प्रयास नहीं करता, जो भमक्त के मनयर्ों के प्रमतकूल
हो । उिाहरणार्म, मकसी मवशाल भवन को बनवाने र्ें कािी शमक्त लगती है, अतएव वह कभी ऐसे कायम र्ें हार् नहीं
लगाता, मजससे उसकी भमक्त र्ें प्रगमत न होती हो । वह भगवान् के मलए र्ंमिर का मनर्ामण करा सकता है और उसके
मलए वह सभी प्रकार की मचन्ताएँ उिा सकता है, लेमकन वह अपने पररवार वालों के मलए बड़ा सा र्कान नहीं बनाता ।

यो ि हृष्ट्यनत ि द्वेनष्ट ि शोचनत ि काङ् क्षनत ।


शुभाशुभपररत्यागी भनिमाियः स मे नप्रयः ।। १७ ।।

३८६
यः - जो; ि - कभी नहीं;हृष्ट्यनत - हमषमत होता है; ि - कभी नहीं;द्वेनष्ट - शोक करता है;ि - कभी
नहीं; शोचनत - पछतावा करता है; ि - कभी नहीं; काङ् क्षनत - इच्छा करता है; शुभ - शभु ; अशुभ - तर्ा अशभु
का; पररत्यागी - त्याग करने वाला; भनि-माि् - भक्त; यः - जो; सः - वह है; मे - र्ेरा; नप्रयः - मप्रय ।

जो ि कभी हनषमत होता है, ि शोक करता है, जो ि पछताता है, ि इच्छा करता है, तथा शुभ तथा
अशुभ दोिों प्रकार की वस्तुओ ं का पररत्याग कर देता है, ऐसा भि मुझे अत्यन्त नप्रय है ।

तात्पयम: शद्ध
ु भक्त भौमतक लाभ से न तो हमषमत होता है और न हामन से िख ु ी होता है, वह पुत्र या मशष्ट्य की
प्रामप्त के मलए न तो उत्सक
ु रहता है
, न ही उनके न मर्लने पर ि ख
ु ी होता है । वह अपनी मकसी मप्रय वस्तु के खो जाने पर
उसके मलए पछताता नहीं । इसी प्रकार यमि उसे अभीमप्सत की प्रामप्त नहीं हो पाती तो वह िख ु ी नहीं होता । वह सर्स्त
प्रकार के शभु , अशभु तर्ा पापकर्ों से सिैव परे रहता है । वह परर्ेश्र्वर की प्रसन्नता के मलए बड़ी से बड़ी मवपमत्त
सहने को तैयार रहता है । भमक्त के पालन र्ें उसके मलए कुछ भी बाधक नहीं बनता । ऐसा भक्त कृ ष्ट्ण को अमतशय मप्रय
होता है ।

समः शत्रौ च नमत्रे च तथा मािापमाियो: ।


शीतोष्ट्णसुखदु:खेषु समः सङगनववनजमतः ।। १८ ।।
तुल्यनिन्दास्तुनतमौिी सन्तुष्टो येि के िनचत् ।
अनिके तः नस्थरमनतभमनिमान्मे नप्रयो िरः ।। १९ ।।

समः - सर्ान; शत्रौ - शत्रु र्ें; च - तर्ा; नमत्रे - मर्त्र र्ें; च - भी; तथा - उसी प्रकार; माि -
सम्र्ान; अपमाियोः - तर्ा अपर्ान र्ें; शीत - जाड़ा; उष्ट्ण - गर्ी; सुख - सुख; दुःखेषु - तर्ा िख ु र्ें; समः -
सर्भाव; सङग-नववनजमतः - सर्स्त संगमत से र्क्त ु ु; त ल्य - सर्ान; निन्दा - अपयश; स्तन
ु तः - तर्ा यश र्ें; मौिी -
र्ौन; सन्तुष्टः - सन्तुष्ट; येि के िनचत्– मजस मकसी तरह;अनिके तः– मबना घर-बार के ;नस्थरः – दृढ़;मनतः–
संकल्प;भनिमाि् - भमक्त र्ें रत; मे - र्ेरा; नप्रयः - मप्रय;िरः - र्नुष्ट्य ।

जो नमत्रों तथा शत्रुओ ं के नलए समाि है, जो माि तथा अपमाि, शीत तथा गमी, सुख तथा दुख, यश
तथा अपयश में समभाव रखता है, जो दूनषत संगनत से सदैव मुि रहता है, जो सदैव मौि और नकसी भी
वस्तु से संतुष्ट रहता है, जो नकसी प्रकार के घर-बार की परवाह िहीं करता, जो ज्ञाि में दृढ है और जो भनि में
संलग्ि है - ऐसा पुरुष मुझे अत्यन्त नप्रय है ।

तात्पयम: भक्त सिैव कुसगं मत से िरू रहता है । र्ानव सर्ाज का यह स्वभाव है मक कभी मकसी की प्रशसं ा की
जाती है, तो कभी उसकी मनन्िा की जाती है । लेमकन भमक्त कृ मत्रर् यश तर्ा अपयश, िख ु या सुख से ऊपर उिा हुआ
होता है । वह अत्यन्त धैयमवान होता है । वह कृ ष्ट्णकर्ा के अमतररक्त कुछ भी नहीं बोलता । अतः उसे र्ौनी कहा जाता
है । र्ौनी का अर्म यह नहीं मक वह बोले नहीं, अमपतु यह मक वह अनगमल आलाप न करे । र्नुष्ट्य को आवश्यकता पर
बोलना चामहए और भक्त के मलए सवाममधक अमनवायम वाणी तो भगवान् के मलए बोलना है । भक्त सर्स्त पररमस्र्मतयों

३८७
र्ें सुखी रहता है । कभी उसे स्वामिष्ट भोजन मर्लता है तो कभी नहीं, मकन्तु वह सन्तुष्ट रहता है । वह आवास की
सुमवधा की मचन्ता नहीं करता । वह कभी पेड़ के मनचे रह सकता है, तो कभी अत्यन्त उच्च प्रसाि र्ें, मकन्तु वह इनर्ें
से मकसी के प्रमत आसक्त नहीं रहता । वह मस्र्र कहलाता है, क्योंमक वह अपने संकल्प तर्ा ज्ञान र्ें दृढ़ होता है । भले
ही भक्त के लक्षणों की कुछ पुनरावृमत्त हुई हो, लेमकन यह इस बात पर बल िेने के मलए है मक भक्त को ये सारे गुण
अमजमत करने चामहए । सद्गणु ों के मबना कोई शद्ध ु भक्त नहीं बन सकता । हरावभिस्य ु तो महद्गणु ाः - जो भक्त नहीं
है, उसर्ें सद्गणु नहीं होता । जो भक्त कहलाना चाहता है, उसे सद्गणु ों का मवकास करना चामहए । यह अवश्य है मक उसे
इन गणु ों के मलए अलग से बाह्य प्रयास नहीं करना पड़ता, अमपतु कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त र्ें सल
ं ग्न रहने के कारण
उसर्ें ये गुण स्वतः ही मवकमसत हो जाते हैं ।

ये तु धमाममृतनमदं यथोिं पयमपु ासते ।


श्रद्दधािा मत्परमा भिास्तेऽतीव मे नप्रयाः ।। २० ।।

ये - जो; तु - लेमकन; धमम - धर्म रूपी; अमृतम् - अर्ृत को; इदम् - इस; यथा - मजस तरह से, जैसा; उिम् -
कहा गया; पयमपु ासते - पूणमतया तत्पर रहते हैं; श्रद्दधािाः - श्रद्धा के सार्; मत्-परमाः - र्झु परर्ेश्र्वर को सब कुछ
र्ानते हुए; भिाः - भक्तजन; ते - वे; अतीव - अत्यमधक;मे - र्ेरे; नप्रयाः - मप्रय ।

जो इस भनि के अमर पथ का अिुसरण करते हैं, और जो मुझे ही अपिे चरम लक्ष्य बिा कर
श्रद्धासनहत पूणमरूपेण संलग्ि रहते हैं, वे भि मुझे अत्यनधक नप्रय हैं ।

तात्पयम: इस अध्याय र्ें िसू रे श्लोक से अमन्तर् श्लोक तक - मय्यावेश्य मनो ये माम् (र्झु पर र्न को मस्र्र
करके ) से लेकर ये तु धमादमतृ म् इर्म् (मनत्य सेवा इस धर्म को) तक - भगवान् ने अपने पास पहुचँ ने की मिव्य सेवा की
मवमधयों की व्याख्या की है । ऐसी मवमधयाँ उन्हें अत्यन्त मप्रय हैं, और इनर्ें लगे हुए व्यमक्तयों को वे स्वीकार कर लेते
हैं । अजुमन ने यह प्रश्न उिाया र्ा मक जो मनराकार ब्रह्म के पर् र्ें लगा है , वह श्रेि है या जो साकार भगवान् की सेवा
र्ें । भगवान् ने इसका बहुत स्पष्ट उत्तर मिया मक आत्र्-साक्षात्कार की सर्स्त मवमधयों र्ें भगवान् की भमक्त मनस्सन्िेह
सवमश्रेि है । िसू रे शब्िों र्ें, इस अध्याय र्ें यह मनणमय मिया गया है मक सुसंगमत से र्नुष्ट्य र्ें भमक्त के प्रमत आसमक्त
उत्पन्न होती है, मजससे वह प्रर्ामणक गुरु बनाता है, और तब वह उससे श्रद्धा, आसमक्त तर्ा भमक्त के सार् सुनता
है, कीतमन करता है और भमक्त के मवमध-मवधानों का पालन करने लगता है । इस तरह वह भगवान् की मिव्य सेवा र्ें
तत्पर हो जाता है । इस अध्याय र्ें इस र्ागम की संस्तुमत की गई है । अतएव इसर्ें कोई सन्िेह नहीं रह जाता मक
भगवत्प्रामप्त के मलए भमक्त ही आत्र्-साक्षात्कार का परर् र्ागम है । इस अध्याय र्ें परर् सत्य की जो मनराकार धारणा
वमणमत है, उसकी संस्तुमत उस सर्य तक के मलए की गई है, जब तक र्नुष्ट्य आत्र्-साक्षात्कार के मलए अपने आपको
सर्मपमत नहीं कर िेता है । िसू रे शब्िों र्ें, जब तक उसे शद्धु भक्त की सगं मत करने का अवसर प्राप्त नहीं होता तभी तक
मनराकार की धारणा लाभप्रि हो सकती है । परर् सत्य की मनराकार धारणा र्ें र्नुष्ट्य कर्मिल के मबना कर्म करता है
और आत्र्ा तर्ा पिार्म का ज्ञान प्राप्त करने के मलए ध्यान करता है । यह तभी तक आवश्यक है, जब तक शद्ध ु भक्त
की संगमत प्राप्त न हो । सौभाग्यवश यमि कोई शुद्ध भमक्त र्ें सीधे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगना चाहता है तो उसे आत्र्-
साक्षात्कार के इतने सोपान पार नहीं करने होते । भगवद्गीता के बीच के छः अध्यायों र्ें मजस प्रकार भमक्त का वणमन

३८८
हुआ है, वह अत्यन्त हृियग्राही है । मकसी को जीवन-मनवामह के मलए वस्तुओ ं की मचन्ता नहीं करनी होती, क्योंमक
भगवत्कृ पा से सारी वस्तुएँ स्वतः सुलभ होती हैं ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े बारहवें अध्याय “भस्ियोग” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

३८९
अध्याय तेरह
प्रकृनत, पुरुष तथा चेतिा
अजुमन उवाच
प्रकृ नतं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च ।
एतद्वेनदतुनमच्छानम ज्ञािं ज्ञेयं च के शव ।।१।।
श्रीभगवानुवाच
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रनमत्यनभधीयते ।
एतद्यो वेनत्त तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इनत तनद्वदः ।।२ ।।

अजमिु ः उवाच - अजुमन ने कहा; प्रकृ नतम् -प्रकृ मत; पुरुषम् - भोक्ता; च - भी; एव - मनश्चय ही; क्षेत्रम् -
क्षेत्र, खेत; क्षेत्र-ज्ञम् - खेत को जानने वाला; एव - मनश्चय ही; च - भी; एतत् - यह सारा; वेनदतुम् - जानने के
मलए; इच्छानम - इच्छुक ह;ँ ज्ञािम् - ज्ञान;ज्ञेयम् - ज्ञान का लक्ष्य; च - भी; के शव - हे कृ ष्ट्ण; श्रीभगवाि् उवाच -
भगवान् ने कहा; इदम् - यह;शरीरम् - शरीर; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; क्षेत्रम् - खेत; इनत - इस प्रकार; अनभधीयते -
कहलाता है; एतत् - यह; यः - जो; वेनत्त - जानता है; तम् - उसको; प्राहुः - कहा जाता है; क्षेत्र-ज्ञः - खेत को जानने
वाला; इनत - इस प्रकार; तत्-नवदः - इसे जानने वालों के द्वारा ।

अजमिु िे कहा - हे कृ ष्ट्ण! मैं प्रकृ नत एवं पुरुष (भोिा), क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञाि एवं ज्ञेय के नवषय में
जाििे का इच्छुक हूँ । श्रीभगवाि् िे कहा - हे कुन्तीपुत्र! यह शरीर क्षेत्र कहलाता है और इस क्षेत्र को जाििे
वाला क्षेत्रज्ञ है ।

तात्पयम: अजुमन प्र ृ स्त, पुरुष, क्षेत्र, क्षेत्रज्ञ, ज्ञान तर्ा ज्ञेय के मवषय र्ें जानने का इच्छुक र्ा । जब उसने इन सबों
के मवषय र्ें पूछा, तो कृ ष्ट्ण ने कहा मक यह शरीर क्षेत्र कहलाता है, और इस शरीर को जानने वाला क्षेत्रज्ञ है । यह शरीर
बद्धजीव के मलए कर्म-क्षेत्र है । बद्धजीव इस ससं ार र्ें बँधा हुआ है, और वह भौमतक प्रकृ मत पर अपना प्रभत्ु व प्राप्त
करने का प्रयत्न करता है । इस प्रकार प्रकृ मत पर प्रभत्ु व मिखाने की क्षर्ता के अनुसार उसे कर्म-क्षेत्र प्राप्त होता है । यह
कर्म-क्षेत्र शरीर है । और यह शरीर क्या है? शरीर इमन्द्रयों से बना हुआ है । बद्धमजव इमन्द्रयतृमप्त चाहता है, और
इमन्द्रयतृमप्त को भोगने की क्षर्ता के अनुसार ही उसे शरीर या कर्म-क्षेत्र प्रिान मकया जाता अमह । इसीमलए बद्धजीव के
मलए यह शरीर क्षेत्र अर्वा कर्मक्षेत्र कहलाता है । अब, जो व्यमक्त अपने आपको शरीर र्ानता है, वह
क्षेत्रज्ञ हलाता है । क्षेत्र तर्ा क्षेत्रज्ञ अर्वा शरीर और शरीर के ज्ञाता (िेही) का अन्तर सर्झ पाना कमिन नहीं
है । कोई भी व्यमक्त यह सोच सकता है मक बाल्यकाल से वृद्धावस्र्ा तक उसर्ें अनेक पररवतमन होते रहते हैं, मिर भी
वह व्यमक्त वही रहता है । इस प्रकार कर्म-क्षेत्र के ज्ञाता तर्ा वास्तमवक कर्म-क्षेत्र र्ें अन्तर है । एक बद्धजीव यह जान
सकता है मक वह अपने शरीर से मभन्न है । प्रारम्भ र्ें ही बताया गया है मक र्ेस्हनोऽस्स्मन् - जीव शरीरके भीतर है, और
यह शरीर बालक से मकशोर, मकशोर से तरुण तर्ा तरुण से वृद्ध के रूप र्ें बिलता जाता है , और शरीरधारी जानता है

३९०
मक शरीर पररवमतमत हो रहा है । स्वार्ी स्पष्टतः क्षेत्रज्ञ है । कभी कभी हर् सोचते हैं “र्ैं सुखी ह”ँ , “र्ैं पुरुष ह”ँ , “र्ैं स्त्री
ह”ँ , “र्ैं कुत्ता ह”ँ , “र्ैं मबल्ली ह”ँ । ये ज्ञाता की शारीररक अपामधयाँ हैं, लेमकन ज्ञाता शरीर से मभन्न होता है । भले ही
हर् तरह-तरह की वस्तुएँ प्रयोग र्ें लाएँ - जैसे कपड़े इत्यामि, लेमकन हर् जानते हैं मक हर् इन वस्तुओ ं से मभन्न
हैं । इसी प्रकार, र्ोड़ा मवचार करने पर हर् यह भी जानते हैं मक हर् शरीर से मभन्न हैं । र्ैं, तुर् या अन्य कोई, मजसने
शरीर धारण कर रखा है, क्षेत्रज्ञ कहलाता है -अर्ामत् वह कर्म-क्षेत्र का ज्ञाता है और यह शरीर क्षेत्र है - साक्षात् कर्म-क्षेत्र
है ।
भगवद्गीता के प्रर्र् छह अध्यायों र्ें शरीर के ज्ञाता (जीव), तर्ा मजस मस्र्मत र्ें वह भगवान् को सर्झ सकता
है, उसका वणमन हुआ है । बीच के छह अध्यायों र्ें भगवान् तर्ा भगवान् के सार् जीवात्र्ा के सम्बन्ध एवं भमक्त के
प्रसगं र्ें परर्ात्र्ा का वणमन है । इन अध्यायों र्ें भगवान् की श्रेिता तर्ा जीव की अधीन अवस्र्ा की मनमश्चत रूप से
पररभाषा की गई है । जीवात्र्ाएँ सभी प्रकार से अधीन हैं, और अपनी मवस्र्ृमत के कारण वे कष्ट उिा रही हैं । जब पुण्य
कर्ों द्वारा उन्हें प्रकाश मर्लता है, तो वे मवमभन्न पररमस्र्मतयों र्ें - यर्ा आतम, धनहीन, मजज्ञासु तर्ा ज्ञान-मपपासु के
रूप र्ें भगवान् के पास पहुचँ ती हैं, इसका भी वणमन हुआ है । अब तेरहवें अध्याय से आगे इसकी व्याख्या हुई है मक
मकस प्रकार जीवात्र्ा प्रकृ मत के सम्पकम र्ें आता है, और मकस प्रकार कर्म ,ज्ञान तर्ा भमक्त के मवमभन्न साधनों के द्वारा
परर्ेश्र्वर उसका उद्धार करते हैं । यद्यमप जीवात्र्ा भौमतक शरीर से सवमर्ा मभन्न है, लेमकन वह मकस तरह उससे सम्बद्ध
हो जाता है, इसकी व्याख्या की गई है ।

क्षेत्रज्ञं चानप मां नवनद्ध सवमक्षेत्रेषु भारत ।


क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोज्ञामिं यत्तजज्ञािं मतं मम ।। ३ ।।

क्षेत्र-ज्ञम् - क्षेत्र का ज्ञाता; च - भी; अनप - मनश्चय ही; माम् - र्झु को; नवनद्ध - जानो; सवम - सर्स्त; क्षेत्रेषु -
शरीर रूपी क्षेत्रों र्ें; भारत - हे भरत के पुत्र;क्षेत्र - कर्म-क्षेत्र (शरीर); क्षेत्र-ज्ञयोः - तर्ा क्षेत्र के ज्ञाता का; ज्ञािम् -
ज्ञान; यत् - जो; तत् - वह; ज्ञािम् - ज्ञान;मतम् - अमभर्त; मम - र्ेरा ।

हे भरतवंशी! तुम्हें ज्ञात होिा चानहए नक मैं भी समस्त शरीरों में ज्ञाता भी हूँ और इस शरीर तथा इसके
ज्ञाता को जाि लेिा ज्ञाि कहलाता है । ऐसा मेरा मत है ।

तात्पयम: शरीर, शरीर के ज्ञाता, आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा मवषयक व्याख्या के िौरान हर्ें तीन मवमभन्न मवषय मर्लेंगे
- भगवान्, जीव तर्ा पिार्म । प्रत्येक कर्म-क्षेत्र र्ें, प्रत्येक शरीर र्ें िो आत्र्ाएँ होती हैं - आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा । चँमू क
परर्ात्र्ा भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण का स्वांश है, अतः कृ ष्ट्ण कहते हैं - “र्ैं भी ज्ञाता ह,ँ लेमकन र्ैं शरीर का व्यमष्ट ज्ञाता नहीं
हँ । र्ैं परर् ज्ञाता हँ । र्ैं शरीर र्ें परर्ात्र्ा के रूप र्ें मवद्यर्ान रहता हँ ।”
जो क्षेत्र तर्ा क्षेत्रज्ञ का अध्ययन भगवद्गीता के र्ाध्यर् से सूक्ष्र्ता से करता है, उसे यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है ।
भगवान् कहते हैं, “र्ैं प्रत्येक शरीर के कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हँ ।” व्यमक्त भले ही अपने शरीर का ज्ञाता हो, मकन्तु
उसे अन्य शरीर का ज्ञान नहीं होता । सर्स्त शरीरों र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मवद्यर्ान भगवान् सर्स्त शरीरों के मवषय र्ें
जानते हैं । वे जीवन की मवमवध योमनयों के सभी शरीरों को जानने वाले हैं । एक नागररक अपने भमू र्-खण्ड के मवषय र्ें
सब कुछ जानता है, लेमकन राजा को न के वल अपने र्हल का, अमपतु प्रत्येक नागररक की भ-ू सम्पमत्त का, ज्ञान रहता

३९१
है । इसी प्रकार कोई भले ही अपने शरीर का स्वार्ी हो, लेमकन परर्ेश्र्वर सर्स्त शरीरों के अमधपमत हैं । राजा अपने
साम्राजय का र्ल ू अमधपमत होता है और नागररक गौण अमधपमत । इसी प्रकार परर्ेश्र्वर सर्स्त शरीरों के परर् अमधपमत
हैं ।
यह शरीर इमन्द्रयों से युक्त है । परर्ेश्र्वर हृषीके श हैं मजसका अर्म है “इमन्द्रयों के मनयार्क” । वे इमन्द्रयों के आमि
मनयार्क हैं, मजस प्रकार राजा अपने राजय की सर्स्त गमतमवमधयों का आमि मनयार्क होता है, नागररक तो गौण
मनयार्क होते हैं । भगवान् का कर्न है, “र्ैं ज्ञाता भी ह।ँ ” इसका अर्म है मक वे परर् ज्ञाता हैं, जीवात्र्ा के वल अपने
मवमशष्ट शरीर को ही जानता है । वैमिक ग्रन्र्ों र्ें इस प्रकार का वणमन हुआ है -
क्षेत्रास्ण स्ह शरीरास्ण बीजां चास्प शभु ाशभु े ।
तास्न वेस्त्त स योगात्मा ततः क्षेत्रज्ञ उचयते ।।
यह शरीर क्षेत्र कहलाता है, और इस शरीर के भीतर इसके स्वार्ी तर्ा सार् ही परर्ेश्र्वर का वास है, जो शरीर
तर्ा शरीर के स्वार्ी िोनों को जानने वाला है । इसीमलए उन्हें सर्स्त क्षेत्रों का ज्ञाता कहा जाता है । कर्म क्षेत्र, कर्म के
ज्ञाता तर्ा सर्स्त कर्ों के परर् ज्ञाता का अन्तर आगे बतलाया जा रहा है । वैमिक ग्रन्र्ों र्ें शरीर, आत्र्ा तर्ा
परर्ात्र्ा के स्वरूप की सम्यक जानकारी ज्ञान नार् से अमभमहत की जाती है । ऐसा कृ ष्ट्ण का र्त है । आत्र्ा तर्ा
परर्ात्र्ा को एक र्ानते हुए भी पृर्क् -पृर्क् सर्झना ज्ञान है । जो कर्मक्षेत्र तर्ा कर्म के ज्ञाता को नहीं सर्झता, उसे
पूणम ज्ञान नहीं होता । र्नुष्ट्य को प्र ृ स्त, पुरुष (प्रकृ मत के भोक्ता) तर्ा ईश्र्वर (वह ज्ञाता जो प्रकृ मत एवं व्यमष्ट आत्र्ा का
मनयार्क है) की मस्र्मत सर्झनी होती है । उसे इन तीनों के मवमभन्न रूपों र्ें मकसी प्रकार का भ्रर् पैिा नहीं करना
चामहए । र्नुष्ट्य को मचत्रकार, मचत्र तर्ा तूमलका र्ें भ्रर् नहीं करना चामहए । यह भौमतक जगत्, जो कर्मक्षेत्र के रूप र्ें
है, प्रकृ मत है और इस प्रकृ मत का भोक्ता जीव है, और इन िोनों के ऊपर परर् मनयार्क भगवान् हैं । वैमिक भाषा र्ें इस
प्रकार कहा गया है (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् १.१२) - भोिा भोर्गयां प्रेररतारां च मत्वा । सवं प्रोिां स्त्रस्वधां ब्रह्ममेतत्। ब्रह्म के
तीन स्वरूप हैं - प्र ृ स्त कर्मक्षेत्र के रूप र्ें ब्रह्म हैं, तर्ा जीव भी ब्रह्म है जो भौमतक प्रकृ मत को अपने मनयन्त्रण र्ें रखने
का प्रयत्न करता है, और इन िोनों का मनयार्क भी ब्रह्म है । लेमकन वास्तमवक मनयार्क वही है ।
इस अध्याय र्ें बताया जाएगा मक इन िोनों ज्ञाताओ ं र्ें से एक अच्यतु है, जो िसू रा चयतु । एक्स श्रेि है, तो
िसू रा अधीन है । जो व्यमक्त क्षेत्र के इन िोनों ज्ञाताओ ं को एक र्ान लेता है, वह भगवान् के शब्िों का खण्डन करता
है, क्योंमक उनका कर्न है “र्ैं भी कर्मक्षेत्र का ज्ञाता हँ “। जो व्यमक्त रस्सी को सपम जान लेता है वह ज्ञाता नहीं है । शरीर
कई प्रकार के हैं और इसके स्वार्ी भी मभन्न-मभन्न हैं । चँमू क प्रत्येक जीव की अपनी मनजी सत्ता है, मजससे वह प्रकृ मत
पर प्रभतु ा की सार्थ्यम रखता है, अतएव शरीर मवमभन्न होते हैं । लेमकन भगवान् उन सबर्ें परर् मनयन्ता के रूप र्ें
मवद्यर्ान रहते हैं । यहाँ पर च शब्ि र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक यह सर्स्त शरीरों का द्योतक है । यह श्रील बलिेव मवद्याभषू ण
का र्त है । आत्र्ा के अमतररक्त प्रत्येक शरीर र्ें कृ ष्ट्ण परर्ात्र्ा के रूप र्ें रहते हैं, और यहाँ पर कृ ष्ट्ण स्पष्ट रूप से
कहते हैं मक परर्ात्र्ा कर्मक्षेत्र तर्ा मवमशष्ट भोक्ता िोनों का मनयार्क है ।

तत्क्षेत्रं यच्च यादृक्च यनद्वकारर यतश्र्च यत् ।


स च यो यत्प्रभावश्र्च तत्समासेि मे श्रृणु ।। ४ ।।

३९२
तत् - वह; क्षेत्रम् - कर्मक्षेत्र; यत् - जो; च - भी; यादृक् - जैसा है; च - भी; यत् - जो; नवकारर -
पररवतमन; यतः - मजससे; च - भी; यत् - जो; सः - वह; च - भी; यः - जो; यत् - जो;प्रभावः - प्रभाव; च -
भी; तत् - उस; समासेि - संक्षेप र्ें; मे - र्झु से; शृणु - सर्झो, सुनो ।

अब तुम मुझसे यह सब संक्षेप में सुिो नक कममक्षेत्र क्या है, यह नकस प्रकार बिा है, इसमें क्या
पररवतमि होते हैं, यह कहाूँ से उत्पन्ि होता है, इस कममक्षेत्र को जाििे वाला कौि है और उसके क्या प्रभाव
हैं ।

तात्पयम: भगवान् कर्मक्षेत्र (क्षेत्र) तर्ा कर्मक्षेत्र के ज्ञाता (क्षेत्रज्ञ) की स्वाभामवक मस्र्मतयों का वणमन कर रहे
हैं । र्नुष्ट्य को यह जानना होता है मक यह शरीर मकस प्रकार बना हुआ है, यह शरीर मकन पिार्ों से बना है, यह मकसके
मनयन्त्रण र्ें कायमशील है, इसर्ें मकस प्रकार पररवतमन होते हैं, ये पररवतमन कहाँ से आते हैं, वे कारण कौन से हैं, आत्र्ा
का चरर् लक्ष्य क्या है, तर्ा आत्र्ा का वास्तमवक स्वरूप क्या है ? र्नुष्ट्य को आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा, उनके मवमभन्न
प्रभावों, उनकी शमक्तयों आमि के अन्तर को भी जानना चामहए । यमि वह भगवान् द्वारा मिए गये वणमन के आधार
पर भगवद्गीता सर्झ ले, तो ये सारी बातें स्पष्ट हो जाएँगी । लेमकन उसे ध्यान रखना होगा मक प्रत्येक शरीर र्ें वास
करने वाला परर्ात्र्ा को जीव का स्वरूप न र्ान बैिे । ऐसा तो सक्षर् पुरुष तर्ा अक्षर् पुरुष को एकसार्ान बताने
जैसा है ।

ऋनषनभबमहुधा गीतं छन्दोनभनवमनवधै: पृथक् ।


ब्रह्मसूत्रपदैश्र्चैव हेतुमनिनवमनिनश्र्चतै: ।। ५ ।।

ऋनषनभः - बुमद्धर्ान ऋमषयों द्वारा; बहुधा - अनेक प्रकार से; गीतम् - वमणमत; छन्दोनभः - वैमिक र्न्त्रों
द्वारा; नवनवधैः - नाना प्रकार के ; पृथक् - मभन्न-मभन्न; ब्रह्म-सत्रू - वेिान्त के ; पदैः - नीमतवचनों द्वारा; च - भी; एव -
मनमश्चत रूप से; हेत-ु मनिः - कायम-कारण से; नवनिनश्र्चतैः - मनमश्चत ।

नवनभन्ि वैनदक ग्रंथों में नवनभन्ि ऋनषयों िे कायमकलापों के क्षेत्र तथा उि कायमकलापों के ज्ञाता के
ज्ञाि का वणमि नकया है । इसे नवशेष रूप से वेदान्त सूत्र में कायम-कारण के समस्त तकम समेत प्रस्तुत नकया
गया है ।

तात्पयम: इस ज्ञान की व्याख्या करने र्ें भगवान् कृ ष्ट्ण सवोच्च प्रर्ाण हैं । मिर भी मवद्वान तर्ा प्रार्ामणक लोग
सिैव पूवमवती आचायों का साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं । कृ ष्ट्ण आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा की द्वैतता तर्ा अद्वैतता सम्बन्धी इस
अतीव मववािपणू म मवषय की व्याख्या वेर्ान्त नार्क शास्त्र का उल्लेख करते हुए कर रहे हैं, मजसे प्रर्ाण र्ाना जाता
है । सवमप्रर्र् वे कहते हैं “यह मवमभन्न ऋमषयों के र्तानुसार है ।” जहाँ तक ऋमषयों का सम्बन्ध है, श्रीकृ ष्ट्ण के
अमतररक्त व्यासिेव (जो वेर्ान्त सत्रू के रचमयता है) र्हान ऋमष हैं और वेर्ान्त सत्रू र्ें द्वैत की भलीभाँमत व्याख्या हुई
है । व्यासिेव के मपता पराशर भी र्हमषम हैं और उन्होंने धर्म सम्बन्धी अपने ग्रंर्ों र्ें मलखा है - अहम् त्वां च तथान्ये -
“तुर्, र्ैं तर्ा अन्य सारे जीव अर्ामत् हर् सभी मिव्य हैं, भले ही हर्ारे शरीर भौमतक हों । हर् अपने अपने कर्ों के

३९३
कारण प्रकृ मत के तीनों गुणों के वशीभतू होकर पमतत हो गये हैं । िलतः कुछ लोग उच्चतर धरातल पर हैं और कुछ
मनम्नतर धरातल पर हैं । ये उच्चतर तर्ा मनम्नतर धरातल अज्ञान के कारण हैं, और अनन्त जीवों के रूप र्ें प्रकट हो रहे
हैं । मकन्तु परर्ात्र्ा, जो अच्युत हैं, तीनों गुणों से अिमू षत है, और मिव्य है ।” इसी प्रकार
र्लू वेर्ों र्ें, मवशेषतया ठोपस्नषर्् र्ें आत्र्ा, परर्ात्र्ा तर्ा शरीर का अन्तर बताया गया है । इसके अमतररक्त अनेक
र्हमषमयों ने इसकी व्याख्या की है, मजनर्ें पराशर प्रर्ख ु र्ाने जाते हैं ।
छन्र्ोस्भः शब्ि मवमभन्न वैमिक ग्रर्ों का सूचक है । उिाहरणार्म, तैत्तरीय उपस्नषर्् जो यजुवेि की एक शाखा
है, प्रकृ मत, जीव तर्ा भगवान् के मवषय र्ें वणमन करती है । जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है क्षेत्र का अर्म कर्मक्षेत्र
है । क्षेत्रज्ञ की िो कोमटयाँ है - जीवात्र्ा तर्ा परर् पुरुष । जैसा मक तैत्तरीय उपस्नषर्् र्ें (२.९) कहा गया है - ब्रह्म पुचछां
प्रस्तष्ठा । भगवान् की शमक्त का प्राकट् य अन्नमय रूप र्ें होता है, मजसका अर्म है - अमस्तत्व के मलए भोजन (अन्न) पर
मनभमरता । यह ब्रह्म की भौमतकतावािी अनुभमू त है । अन्न र्ें परर् सत्य की अनुभमू त करने के पश्चात् मिर प्राणमय रूप र्ें
र्नुष्ट्य सजीव लक्षणों या जीवन रूपों र्ें परर् सत्य की अनुभमू त करता है । ज्ञानर्य रूप र्ें यह अनुभमू त सजीव लक्षणों
से आगे बढ़कर मचन्तन, अनुभव तर्ा आकांक्षा तक पहुचँ ती है । तब ब्रह्म की उच्चतर अनुभमू त होती है, मजसे
मवज्ञानर्य रूप कहते हैं, मजससे जीव के र्न तर्ा जीवन के लक्षणों को जीव से मभन्न सर्झा जाता है । उसके पश्चात्
परर् अवस्र्ा आती है, जो आनन्िर्य है, अर्ामत् सवद-आनन्र्मय प्रकृ मत की अनुभमू त है । इस प्रकार से ब्रह्म अनुभमू त
की पाँच अवस्र्ाएँ हैं, मजन्हें ब्रह्म पुचछां कहा जाता है । इनर्ें से प्रर्र् तीन - अन्नर्य, प्राणर्य तर्ा ज्ञानर्ाय -
अवस्र्ाएँ जीवों के कायमकलापों के क्षेत्रों से सम्बमन्धत होती है । परर्ेश्र्वर इन कायमकलापों के क्षेत्रों से परे
है, और आनन्र्मय है । वेिान्त सूत्र भी परर्ेश्र्वर को आनन्र्मयो ऽभ्यासात् कहकर पुकारता है । भगवान् स्वभाव
से आनन्र्मय हैं । अपने मिव्य आनन्ि को भोगने के मलए वे मवज्ञानर्य, प्राणर्य, ज्ञानर्य तर्ा अन्नर्य रूपों र्ें मवस्तार
करते हैं । कायमकलापों के क्षेत्र र्ें जीव भोक्ता (क्षेत्रज्ञ) र्ाना जाता है, मकन्तु आनन्र्मय उससे मभन्न होता है । इसका
अर्म यह हुआ मक यमि जीव आनन्िर्य का अनगु र्न करने र्ें सख ु र्ानता है, तो वह पणू म बन जाता है । क्षेत्र के ज्ञाता
(क्षेत्रज्ञ) रूप र्ें परर्ेश्वर की और उसके अधीन ज्ञाता के रूप र्ें जीव की तर्ा कायमकलापों के क्षेत्र की प्रकृ मत का यह
वास्तमवक ज्ञान है । वेर्ान्तसत्रू या ब्रह्मसूत्र र्ें इस सत्य की गवेषणा करनी होगी ।
यहाँ इसका उल्लेख हुआ है मक ब्रह्मसूत्र के नीमतवचन कायम-कारण के अनुसार सुन्िर रूप से व्यवमस्र्त हैं । इनर्ें
से कुछ सूत्र इस प्रकार हैं - न स्वयर्श्रतु ेः (२.३.२); नात्मा श्रतु ेः (२.३.१८) तर्ा परात्तु तचछुतेः (२.३.४०) । प्रर्र् सूत्र
कायमकलापों के क्षेत्र को सूमचत करता है, िसू रा जीव को और तीसरा परर्ेश्र्वर को, जो मवमभन्न जीवों के आश्रयतत्त्व
हैं ।

महाभूतान्यहङकारो बुनद्धरव्यिमेव च ।
इनन्द्रयानण दशैकं च पञ्च चेनन्द्रयगोचराः ।। ६ ।।
इच्छा द्वेषः सुखं दु:खं सङघातश्र्चेतिा धृनतः ।
एतत्क्षेत्रं समासेि सनवकारमदु ाहृतम् ।। ७ ।।

महा-भतू ानि - स्र्लू तत्त्व; अहङकारः - मर्थ्या अमभर्ान; बनु द्धः - बमु द्ध; अव्यिम् - अप्रकट; एव - मनश्चय
ही; च - भी; इनन्द्रयानण - इमन्द्रयाँ; दश-एकम् - ग्यारह; च - भी; पञ्च - पाँच; च - भी; इनन्द्रय-गो-चराः - इमन्द्रयों
के मवषय; इच्छा - इच्छा; द्वेषः - घृणा; सुखम् - सुख; दुःखम् - िख ु ; सङघातः - सर्हू ; चेतिा - जीवन के

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लक्षण; धृनतः - धैयम; एतत् - यह सारा; क्षेत्रम् - कर्ों का क्षेत्र; समासेि - संक्षेप र्ें; स-नवकारम् - अन्तः-मक्रयाओ ं
समहत; उदाहृतम् - उिाहरणस्वरूप कहा गया ।

पचं महाभूत, अहंकार, बुनद्ध, अव्यि (तीिों गुणों की अप्रकट अवस्था), दसों इनन्द्रयाूँ तथा मि, पाूँच
इनन्द्रयनवषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात, जीवि के लक्षण तथा धैयम - इि सब को संक्षेप में कमम का क्षेत्र
तथा उसकी अन्तःनक्रयाएूँ (नवकार) कहा जाता है ।

तात्पयम: र्हमषमयों, वैमिक सूक्तों (छान्िस) एवं वेर्ान्त-सूत्र (सूत्रों) के प्रार्ामणक कर्नों के आधार पर इस संसार
के अवयवों को इस प्रकार सर्झा जा सकता है । पहले तो पृथ्वी, जल, अमग्न, वायु तर्ा आकाश - ये पाँच र्हाभतू
हैं । मिर अहक ं ार, बुमद्ध तर्ा तीनों गुणों की अव्यक्त अवस्र्ा आती है । इसके पश्चात् पाँच ज्ञानेमन्द्रयाँ हैं -
नेत्र, कान, नाक, जीभ तर्ा त्वचा । मिर पाँच कर्ेमन्द्रयाँ - वाणी, पाँव, हार्, गुिा तर्ा मलगं - हैं । तब इन इमन्द्रयों के
ऊपर र्न होता है जो भीतर रहने के कारण अन्तःइमन्द्रय कहा जा सकता है । इस प्रकार र्न सर्ेत कुल ग्यारह इमन्द्रयाँ
होती हैं । मिर इन इमन्द्रयों के पाँच मवषय हैं - गंध, स्वाि, रूप, स्पशम तर्ा ध्वमन । इस तरह इन चौबीस तत्त्वों का सर्हू
कायमक्षेत्र कहलाता है । यमि कोई इन चौबीसों मवषयों का मवश्लेषण करे तो उसे कायमक्षेत्र सर्झ र्ें आ जाएगा । मिर
इच्छा, द्वेष, सुख तर्ा िख ु नार्क अन्तः-मक्रयाएँ (मवकार) हैं जो स्र्ूल िेह के पाँच र्हाभतू ों की अमभव्यमक्तयाँ
हैं । चेतना तर्ा धैयम द्वारा प्रिमशमत जीवन के लक्षण सूक्ष्र् शरीर अर्ामत् र्न, अहक ं ार तर्ा बुमद्ध के प्राकट् य हैं । ये सूक्ष्र्
तत्त्व भी कर्मक्षेत्र र्ें समम्र्मलत रहते हैं ।
पंच र्हाभतू अहक ं ार की स्र्ूल अमभव्यमक्त हैं, जो अहक
ं ार की र्ल ू अवस्र्ा को ही प्रिमशमत करती है, मजसे
भौमतकवािी बोध या तामस बुमद्ध कहा जाता है ।यह और आगे प्रकृ मत के तीनों गुणों की अप्रकट अवस्र्ा की सूचक
है । प्रकृ मत के अव्यक्त गणु ों को प्रधान कहा जाता है ।
जो व्यमक्त इन चौबीसों तत्त्वों को, उनके मवकारों सर्ेत जानना चाहता है, उसे मवस्तार से िशमन का अध्ययन
करना चामहए । भगवद्गीता के के वल साराश ं मिया गया है ।
शरीर इन सर्स्त तत्त्वों की अमभव्यमक्त है । शरीर र्ें छह प्रकार के पररवतमन होते हैं - यह उत्पन्न होता है, बढ़ता
है, मटकता है, सन्तान उत्पन्न करता है और तब यह क्षीण होता है और अन्त र्ें सर्ाप्त हो जाता है । अतएव क्षेत्र
अस्र्ायी भौमतक वस्तु है लेमकन क्षेत्र का ज्ञाता क्षेत्रज्ञ इससे मभन्न रहता है ।

अमानित्वमदनम्भत्वमनहस ं ा क्षानन्तराजमवम् ।
आचायोपासिं शौचं स्थैयममात्मनवनिग्रहः ।। ८ ।।
इनन्द्रयाथेषु वैराग्यमिहंकार एव च ।
जन्ममृत्युजराव्यानधदु:खदोषािुदशमिम् ।। ९ ।।
असनिरिनभष्ट्वङगः पत्रु दारगृहानदषु ।
नित्यं च समनचत्तत्वनमष्टानिष्टोपपनत्तषु ।। १० ।।
मनय चािन्ययोगेि भनिरव्यनभचाररणी ।
नवनविदेशसेनवत्वमरनतजमिसंसनद ।। ११ ।।
अध्यात्मज्ञािनित्यत्वं तत्त्वज्ञािाथमदशमिम् ।

३९५
एतजज्ञािनमनत प्रोिमज्ञािं यदतोऽन्यथा ।। १२ ।।

अमानित्वम् - मवनम्रता; अदनम्भत्वम् - िम्भमवहीनता; अनहंसा - अमहंसा; क्षानन्तः -


सहनशीलता, समहष्ट्णतु ा; आजमवम् - सरलता; आचायम-उपासिम् - प्रार्ामणक गुरु के पास जाना; शौचम् -
पमवत्रता; स्थैयमम् - दृढ़ता; आत्म-नवनिग्रहः - आत्र्-संयर्; इनन्द्रय-अथे षु - इमन्द्रयों के र्ार्ले र्ें; वैराग्यम् -
वैराग्य; अिहंकारः - मर्थ्या अमभर्ान से रमहत; एव - मनश्चय ही; च - भी; जन्म - जन्र्; मृत्यु - र्ृत्यु; जरा -
बढ़ु ापा;व्यानध - तर्ा रोग का; दुःख - िख ु का; दोष - बरु ाई; अिदु शमिम् - िेखते हुए; सनिः - मबना आसमक्त
के ; अिनभष्ट्वङगः - मबना संगमत के ;पुत्र - पुत्र; दार - स्त्री; गृह-आनदषु - घर आमि र्ें;नित्यम् - मनरन्तर; च -
भी; सम-नचत्तत्वम् - सर्भाव;इष्ट - इमच्छत; अनिष्ट - अवामं छत, उपपनत्तषु - प्राप्त करके ; मनय - र्झु र्ें; च -
भी; अिन्य-योगेि - अनन्य भमक्त से; भनिः - भमक्त; अव्यनभचाररणी - मबना व्यवधान के ; नवनवि -
एकान्त; देश - स्र्ानों की;सेनवत्वम् - आकाक्ष
ं ा करते हुए; अरनतः - अनासक्त भाव से; जि-सस ं नद - सार्ान्य लोगों
को; अध्यात्म - आत्र्ा सम्बन्धी; ज्ञाि - ज्ञान र्ें; नित्यत्वम् - शाश्र्वतता; तत्त्वज्ञाि - सत्य के ज्ञान के ; अथम -
हेतु; दशमिम् - िशमनशास्त्र; एतत् - यह सारा; ज्ञािम् - ज्ञान; इनत - इस प्रकार; प्रोिम् - घोमषत; अज्ञािम् -
अज्ञान; यत् - जो; अतः - इससे; अन्यथा - अन्य, इतर ।

नवििता, दम्भहीिता, अनहंसा, सनहष्ट्णुता, सरलता, प्रामानणक गुरु के पास


जािा, पनवत्रता, नस्थरता, आत्मसंयम, इनन्द्रयतृनप्त के नवषयों का पररत्याग, अहंकार का
अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अिुभूनत, वैराग्य, सन्ताि, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओ ं
की ममता से मुनि, अच्छी तथा बुरी घटिाओ ं के प्रनत समभाव, मेरे प्रनत निरन्तर अिन्य भनि, एकान्त स्थाि
में रहिे की इच्छा, जि समहू से नवलगाव, आत्म-साक्षात्कार की महत्ता को स्वीकारिा, तथा परम सत्य की
दाशमनिक खोज - इि सबको मैं ज्ञाि घोनषत करता हूँ और इिके अनतररि जो भी है, वह सब अज्ञाि है ।

तात्पयम: कभी-कभी अल्पज्ञ लोग ज्ञान की इस प्रमक्रया को कायमक्षेत्र की अन्तः-मक्रया (मवकार) के रूप र्ें र्ानने
की भल ू करते हैं । लेमकन वास्तव र्ें यही असली ज्ञान की प्रमक्रया है । यमि कोई इस प्रमक्रया को स्वीकार कर लेता
है, तो परर् सत्य तक पहुचँ ने की सम्भावना हो जाती है । यह इसके पूवम बताये गये चौबीस तत्त्वों का मवकार नहीं
है । यह वास्तव र्ें इन तत्त्वों के पाश से बाहर मनकलने का साधन है । िेहधारी आत्र्ाचौबीस तत्त्वों से बने आवरण रूप
शरीर र्ें बन्ि रहता है और यहाँ पर ज्ञान की मजस प्रमक्रया का वणमन है वह इससे बाहर मनकलने का साधन है । ज्ञान की
प्रमक्रया के सम्पूणम वणमन र्ें से ग्यारहवें श्लोक की प्रर्र् पंमक्त सवाममधक र्हत्त्वपूणम है - मस्य चानन्ययोगेन
भस्िरव्यस्भचाररणी - “ज्ञान की प्रमक्रया का अवसान भगवान् की अनन्य भमक्त र्ें होता है ।” अतएव यमि कोई भगवान्
की मिव्य सेवा को नहीं प्राप्त कर पाता या प्राप्त करने र्ें असर्र्म है, तो शेष उन्नीस बातें व्यर्म हैं । लेमकन यमि कोई पूणम
कृ ष्ट्णभावना से भमक्त ग्रहण करता है, तो अन्य उन्नीस बातें उसके अन्िर स्वयर्ेव मवकमसत हो आती हैं । जैसा
मक श्रीमद्भागवत र्ें (५.१८.१२) कहा गया है - यस्यास्स्त भस्िभदगवत्यस् ञ्चना सवैगुदणैस्तत्र सुराः । मजसने भमक्त की
अवस्र्ा प्राप्त कर ली है, उसर्ें ज्ञान के सारे गणु मवकमसत हो जाते हैं । जैसा मक आिवें श्लोक र्ें उल्लेख हुआ है, गरुु -
ग्रहण करने का मसद्धान्त अमनवायम है । यहाँ तक मक जो भमक्त स्वीकार करते हैं, उनके मलए भी यह आवश्यक

३९६
है । आध्यामत्र्क जीवन का शभु ारम्भ तभी होता है, जब प्रार्ामणक गुरु ग्रहण मकया जाय । भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण यहाँ पर
स्पष्ट कहते हैं मक ज्ञान की यह प्रमक्रया ही वास्तमवक र्ागम है । इससे परे जो भी मवचार मकया जाता है, व्यर्म होता है ।
यहाँ पर ज्ञान की जो रूपरे खा प्रस्तुत की गई है उसका मनम्नमलमखत प्रकार से मवश्लेषण मकया जा सकता
है । मवनम्रता (अमास्नत्व) का अर्म है मक र्नुष्ट्य को, अन्यों द्वारा सम्र्ान पाने के मलए इच्छुक नहीं रहना चामहए । हर्
िेहात्र्बुमद्ध के कारण अन्यों से सम्र्ान पाने के भख ू े रहते हैं, लेमकन पूणमज्ञान से युक्त व्यमक्त की दृमष्ट र्ें, जो यह जानता
है मक वह शरीर नहीं है, इस शरीर से सम्बद्ध कोई भी वस्तु, सम्र्ान या अपर्ान व्यर्म होता है । इस भौमतक छल के
पीछे -पीछे िौड़ने से कोई लाभ नहीं है । लोग अपने धर्म र्ें प्रमसमद्ध चाहते हैं, अतएव यह िेखा गया है मक कोई व्यमक्त
धर्म के मसद्धान्तों को जाने मबना ही ऐसे सर्िु ाय र्ें समम्र्मलत हो जाता है, जो वास्तव र्ें धामर्मक मसद्धान्तों का पालन
नहीं करता और इस तरह वह धामर्मक गरुु के रूप र्ें अपना प्रचार करना चाहता है । जहाँ तक आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें
वास्तमवक प्रगमत की बात है, र्नुष्ट्य को चामहए मक वह अपनी परीक्षा करे मक वह कहाँ तक उन्नमत कर रहा है । वह इन
बातों के द्वारा अपनी परीक्षा कर सकता है ।
अस्हसां ा का सार्ान्य अर्म वध न करना या शरीर को कष्ट न करना मलया जाता है, लेमकन अमहसं ा का वास्तमवक
अर्म है, अन्यों को मवपमत्त र्ें न डालना । िेहात्र्बुमद्ध के कारण सार्ान्य लोग अज्ञान द्वारा ग्रस्त रहते हैं और मनरन्तर
भौमतक कष्ट भोगते रहते हैं । अतएव जब तक कोई लोगों को आध्यामत्र्क ज्ञान की ओर ऊपर नहीं उिाता, तब तक
वह महसं ा करता रहता होता है । व्यमक्त को लोगों र्ें वास्तमवक ज्ञान मवतररत करने का भरसक प्रयास करना चामहए
मजससे वे प्रबुद्ध हों और इस भवबन्धन से छूट सकें । यही अमहसं ा है ।
समहष्ट्णतु ा (क्षास्न्तः) का अर्म है मक र्नुष्ट्य अन्यों द्वारा मकये गये अपर्ान तर्ा मनरस्कार को सहे । जो
आध्यामत्र्क ज्ञान की उन्नमत करने र्ें लगा रहता है, उसे अन्यों के मनरस्कार तर्ा अपर्ान सहने पड़ते हैं । ऐसा इसमलए
होता है क्योंमक यह भौमतक स्वभाव है । यहाँ तक मक बालक प्रिाि को भी जो पाँच वषम के र्े और जो आध्यामत्र्क
ज्ञान के अनश ु ीलन र्ें लगे र्े सक ं ट का सार्ना करना पड़ा र्ा, जब उनका मपता उनकी भमक्त का मवरोधी बन
गया । उनके मपता ने उन्हें र्ारने के अनेक प्रयत्न मकए, मकन्तु प्रिाि ने सहन कर मलया । अतएव आध्यामत्र्क ज्ञान की
उन्नमत करते हुए अनेक अवरोध आ सकते हैं, लेमकन हर्ें समहष्ट्णु बन कर सक ं ल्पपवू मक प्रगमत करते रहना चामहए ।
सरलता (आजदवम्) का अर्म है मक मबना मकसी कूटनीमत के र्नुष्ट्य इतना सरल हो मक अपने शत्रु तक से
वास्तमवक सत्य का उद्घाटन कर सके । जहाँ तक गुरु बनाने का प्रश्न है, (आचायोपासनम्), आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें प्रगमत
करने के मलए यह अत्यावश्यक है, क्योंमक मबना प्रार्ामणक गुरु के यह सम्भव नहीं है । र्नुष्ट्य को चामहए मक
मवनम्रतापूवमक गुरु के पास जाए और उसे अपनी सर्स्त सेवाएँ अमपमत करे , मजससे वह मशष्ट्य को अपना आशीवामि िे
सके । चँमू क प्रार्ामणक गुरु कृ ष्ट्ण का प्रमतमनमध होता है,अतएव यमि वह मशष्ट्य को आशीवामि िेता है, तो मशष्ट्य तुरन्त
प्रगमत करने लगता है, भले ही वह मवमध-मवधानों का पालन न करता रहा हो । अत्वे जो मबना मकसी स्वार्म के अपने गुरु
की सेवा करता है, उसके मलए यर्-मनयर् सरल बन जाते हैं ।
आध्यामत्र्क जीवन र्ें प्रगमत करने के मलए पमवत्रता (शौचम्) अमनवायम है । पमवत्रता िो प्रकार की होती है -
आन्तररक तर्ा बाह्य । बाह्य पमवत्रता का अर्म है स्नान करना, लेमकन आन्तररक पमवत्रता के मलए मनरन्तर कृ ष्ट्ण का
मचन्तन तर्ा हरे ृ ष्ण र्ंत्र का कीतमन करना होता है । इस मवमध से र्न र्ें से पूवम कर्म की संमचत धमू ल हट जाती है ।
दृढ़ता (स्थैयदम)् का अर्म है मक आध्यामत्र्क जीवन र्ें उन्नमत करने के मलए र्नष्ट्ु य दृढ़सक ं ल्प हो । ऐसे सक ं ल्प
के मबना र्नुष्ट्य िोस प्रगमत नहीं कर सकता । आत्र्संयर् (आत्म-स्वस्नग्रहः) का अर्म है मक आध्यामत्र्क उन्नमत के पर्
पर जो भी बाधक हो, उसे स्वीकार न करना । र्नुष्ट्य को इसकाअभ्यस्त बन कर ऐसी मकसी भीवस्तु को त्याग िेना

३९७
चामहए, जो आध्यामत्र्क उन्नमत के पर् के प्रमतकूल जो । यह असली वैराग्य है । इमन्द्रयाँ इतनी प्रबल हैं मक सिैव
इमन्द्रयतृमप्त के मलए उत्सुक रहती हैं । अनावश्यक र्ाँगों की पूमतम नहीं करनी चामहए । इमन्द्रयों की उतनी ही तृमप्त की
जानी चामहए, मजससे आध्यामत्र्क जीवन र्ें आगे बढ़ने र्ें अपने कत्तमव्य की पूमतम होती हो । सबसे र्हत्त्वपूणम, मकन्तु
वश र्ें न आने वाली इमन्द्रय जीभ है । यमि जीभ पर संयर् कर मलया गया तो सर्झो अन्य सारी इमन्द्रयाँ वशीभतू हो
गई । जीभ का कायम है, स्वाि ग्रहण करना तर्ा उच्चारण करना । अतएव मनयमर्त रूप से जीभ को कृ ष्ट्णामपमत भोग के
उमच्छष्ट का स्वाि लेने र्ें तर्ा हरे ृ ष्ण का कीतमन करने र्ें प्रयुक्त करना चामहए । जहाँ तक नेत्रों का सम्बन्ध है, उन्हें
कृ ष्ट्ण के सन्ु िर रूप के अमतररक्त अन्य कुछ नहीं िेखने िेना चामहए । इससे नेत्र वश र्ें होंगे । इसी प्रकार कानों को कृ ष्ट्ण
के मवषय र्ें श्रवण करने र्ें लगाना चामहए, और नाक को कृ ष्ट्णामपमत िूलों को सूँघने र्ें लगाना चामहए । यह भमक्त की
मवमध है, और यहाँ यह सर्झना होगा मक भगवद्गीता के वल भमक्त के मवज्ञान का प्रमतपािन करती है । भमक्त ही प्रर्ख ु
एवं एकर्ात्र लक्ष्य है । भगवद्गीता के बुमद्धहीन भाष्ट्यकार पािक के ध्यान को अन्य मवषयों की ओर र्ोड़ना चाहते
हैं, लेमकन भगवद्गीता र्ें भमक्त के अमतररक्त अन्य कोई भी मवषय नहीं है ।
मर्थ्या अहक ं ार का अर्म है, इस शरीर को आत्र्ा र्ानना । जब कोई यह जान जाता है मक वह शरीर नहीं, अमपतु
आत्र्ा है तो वह वास्तमवक अहक ं ार को प्राप्त होता है । अहकं ार तो रहता ही है । मर्थ्या अहक ं ार की भत्समना की जाती
है , वास्तमवक अहक ं ार की नहीं । वैमिक सामहत्य र्ें (बृहर्ारण्य उपस्नषर्् १.४.१०) कहा गया है - अहां ब्रह्मास्स्म - र्ैं
ब्रह्म ह,ँ र्ैं आत्र्ा हँ । “र्ैं हँ” ही आत्र् भाव है, और यह आत्र्-साक्षात्कार की र्क्त ु अवस्र्ा र्ें भी पाया जाता है । “र्ैं
ह”ँ का भाव ही अहक ं ार है लेमकन जब “र्ैं ह”ँ भाव को मर्थ्या शरीर के मलए प्रयुक्त मकया जाता है, तो वह मर्थ्या
अहक ं ार होता है । जब इस आत्र् भाव (स्वरूप) को वास्तमवकता के मलए प्रयुक्त मकया जाता है, तो वह वास्तमवक
अहक ं ार होता है । ऐसे कुछ िाशममनक हैं, जो यह कह सकते है मक हर्ें अपना अहक ं ार त्यागना चामहए । लेमकन हर्
अपने अहक ं ार को त्यागे कै से? क्योंमक अहक ं ार का अर्म है स्वरूप । लेमकन हर्ें मर्थ्या िेहात्र्बुमद्ध का त्याग करना ही
होगा ।
जन्र्, र्ृत्यु, जरा तर्ा व्यामध को स्वीकार करने के कष्ट को सर्झना चामहए । वैमिक ग्रन्र्ों र्ें जन्र् के अनेक
वृत्तान्त हैं । श्रीमद्भागवत र्ें जन्र् से पवू म की मस्र्मत, र्ाता के गभम र्ें बालक के मनवास, उसके कष्ट आमि का सजीव
वणमन हुआ है । यह भलीभाँमत सर्झ लेना चामहए मक जन्र् बहुत कष्टपूणम है । चँमू क हर् भल ू जाते हैं मक र्ाता के गभम र्ें
हर्ें मकतना कष्ट मर्ला है, अतएव हर् जन्र् तर्ा र्ृत्यु की पुनरावृमत्त का कोई हल नहीं मनकाल पाते । इसी प्रकार र्ृत्यु
के सर्य भी सभी प्रकार के कष्ट मर्लते हैं, मजनका उल्लेख प्रार्ामणक शास्त्रों र्ें हुआ है । इनकी मववेचना की जानी
चामहए । जहाँ तक रोग तर्ा वृद्धावस्र्ा का प्रश्न है, सबों को इनका व्यावहाररक अनुभव है । कोई भी रोगग्रस्त नहीं
होना चाहता, कोई भी बूढ़ा नहीं होना चाहता, लेमकन इनसे बचा नहीं का सकता । जब तक जन्र्, र्ृत्यु, जरा तर्ा
व्यामध के िख ु ों को िेखते हुए इस भौमतक जीवन के प्रमत मनराशावािी दृमष्टकोण नहीं बना पाते, तब तक आध्यामत्र्क
जीवन र्ें प्रगमत करने के मलए कोई प्रोत्साहन नहीं रह जाता ।
जहाँ तक संतान, पत्नी तर्ा घर से मवरमक्त की बात है, इसका अर्म यह नहीं मक इनके मलए कोई भावना ही न
हो । ये सब स्नेह की प्राकृ मतक वस्तएु ँ हैं । लेमकन जब ये आध्यामत्र्क उन्नमत र्ें अनक ु ू ल न हों , तो इनके प्रमत आसक्त
नहीं होना चामहए । घर को सुखर्य बनाने की सवोत्तर् मवमध कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत से पूणम
रहे, तो वह अपने घर को अत्यन्त सख ु र्य बना सकता है, क्योंमक कृ ष्ट्णभावनार्ृत की मवमध अत्यन्त सरल है । इसर्ें
के वल हरे ृ ष्ण, हरे ृ ष्ण, ृ ष्ण ृ ष्ण , हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम हरे हरे - का कीतमन करना होता
है , कृ ष्ट्णामपमत भोग का उमच्छष्ट ग्रहण करना होता है, भगवद्गीता तर्ा श्रीमद्भागवत जैसे ग्रन्र्ों पर मवचार-मवर्शम करना

३९८
होता है, और अचाममवग्रह की पूजा करनी होती है । इन चारों बातों से र्नुष्ट्य सुखी होगा । र्नुष्ट्य को चामहए मक अपने
पररवार के सिस्यों को ऐसी मशक्षा िे । पररवार के सिस्य प्रमतमिन प्रातः तर्ा सांयकाल बैि कर सार्-सार् हरे
ृ ष्ण र्न्त्र का कीतमन करें । यमि कोई इन चारों मसद्धान्तों का पालन करते हुए अपने पाररवाररक जीवन को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत करने र्ें ढाल सके , तो पाररवाररक जीवन को त्याग कर मवरक्त जीवन मबताने की
आवश्यकता नहीं होगी । लेमकन यमि यह आध्यामत्र्क प्रगमत के मलए अनुकूल न रहे, तो पाररवाररक जीवन का
पररत्याग कर िेना चामहए । र्नुष्ट्य को चामहए मक कृ ष्ट्ण के साक्षात्कार करने या उनकी सेवा करने के मलए सवमस्व
न्योछावर कर िे, मजस प्रकार से अजमनु ने मकया र्ा । अजमनु अपने पररजनों को र्ारना नहीं चाह रहा र्ा, मकन्तु जब वह
सर्झ गया मक ये पररजन कृ ष्ट्णसाक्षात्कार र्ें बाधक हो रहें हैं, तो उसने कृ ष्ट्ण के आिेश को स्वीकार मकया । वह उनसे
लड़ा और उसने उनको र्ार डाला । इन सब मवषयों र्ें र्नुष्ट्य को पाररवाररक जीवन के सख ु -िखु से मवरक्त रहना
चामहए, क्योंमक इस संसार र्ें कोई भी न तो पूणम सुखी रह सकता है, न िख ु ी।
सुख-िख ु भौमतक जीवन को ि म
ू षत करने वाले हैं । र्नष्ट्
ु य को चामहए मक इन्हें सहना सीखे, जैसा
मक भगवद्गीता र्ें उपिेश मिया गया है । कोई कभी भी सुख-िख ु के आने-जाने पर प्रमतबन्ध नहीं लगा सकता, अतः
र्नुष्ट्य को चामहए मक भौमतकवािी जीवन-शैली से अपने को मवलग कर ले और िोनों ही िशाओ ं र्ें सर्भाव बनाये
रहे । सार्न्यतया जब हर्ें इमच्छत वस्तु मर्ल जाती है, तो हर् अत्यन्त प्रसन्न होते हैं और जब अमनमच्छत घटना घटती
है, तो हर् िख ु ी होते हैं । लेमकन यमि हर् वास्तमवक आध्यामत्र्क मस्र्मत को प्राप्त हों, तो ये बातें हर्ें मवचमलत नहीं कर
पाएँगी । इस मस्र्मत तक पहुचँ ने के मलए हर्ें अटूट भमक्त का अभ्यास करना होता है । मवपर् हुए मबना कृ ष्ट्णभमक्त का
अर्म होता है भमक्त की नव मवमधयों - कीतमन, श्रवण, पूजन आमि र्ें प्रवृत्त होना, जैसा नवें अध्याय के अमन्तर् श्लोक र्ें
वणमन हुआ है । इस मवमध का अनुसरण करना चामहए ।
यह स्वाभामवक है मक आध्यामत्र्क जीवन-शैली का अभ्यस्त हो जाने पर र्नुष्ट्य भौमतकवािी लोगों से मर्लना
नहीं चाहेगा । इससे उसे हामन पहुचँ सकती है । र्नष्ट्ु य को चामहए मक वह यह परीक्षा करके िेख ले मक वह अवामं छत
संगमत के मबना एकान्तवास करने र्ें कहाँ तक सक्षर् है । यह स्वाभामवक ही है मक भक्त र्ें व्यर्म के खेलकूि या मसनेर्ा
जाने या मकसी सार्ामजक उत्सव र्ें समम्र्मलत होने की कोई रूमच नहीं होती, क्योंमक वह यह जानता है मक यह सर्य
को व्यर्म गवाँना है । कुछ शोध-छात्र तर्ा िाशममनक ऐसे हैं जो कार्वासनापूणम जीवन या अन्य मवषय का अध्ययन करते
हैं, लेमकन भगवद्गीता के अनुसार ऐसा शोध कायम और िाशममनक मचन्तन मनरर्मक है । यह एक प्रकार से व्यर्म होता
है । भगवद्गीता के अनुसार र्नुष्ट्य को चामहए मक अपने िाशममनक मववेक से वह आत्र्ा की प्रकृ मत के मवषय र्ें शोध
करे । उसे चामहए मक वह अपने आत्र्ा को सर्झने के मलए शोध करे । यहाँ पर इसी की संस्तुमत की गई है ।
जहाँ तक आत्र्-साक्षात्कार का सम्बन्ध है, यहाँ पर स्पष्ट उल्लेख है मक भमक्तयोग ही व्यावहाररक है । जयोंही
भमक्त की बात उिे , तो र्नुष्ट्य को चामहए मक परर्ात्र्ा तर्ा आत्र्ा के सम्बन्ध पर मवचार करे । आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा
कभी एक नहीं हो सकते, मवशेषतया भमक्तयोग र्ें तो कभी नहीं । परर्ात्र्ा के प्रमत आत्र्ा की यह सेवा मनत्य है, जैसा
मक स्पष्ट मकया गया है । अतएव भमक्त शाश्र्वत (मनत्य) है । र्नुष्ट्य को इसी िाशममनक धारणा र्ें मस्र्त होना चामहए ।
श्रीमद्भागवत र्ें (१.२.११) व्याख्या की गई है - वर्स्न्त तत्तत्त्वस्वर्स्तत्त्वां यज्ज्ञानमियम् - जो परर् सत्य के
वास्तमवक ज्ञाता हैं, वे जानते हैं मक आत्र्ा का साक्षात्कार तीन रूपों र्ें मकया जाता है - ब्रह्म, परर्ात्र्ा तर्ा
भगवान् । परर् सत्य के साक्षात्कार र्ें भगवान् पराकािा होते हैं, अतएव र्नष्ट्ु य को चामहए मक भगवान् को सर्झने के
पि तक पहुचँ े और भगवान् की भमक्त र्ें लग जाय । यही ज्ञान की पूणमता है ।

३९९
मवनम्रता से लेकर भगवत्साक्षात्कार तक की मवमध भमू र् से चल कर उपरी र्ंमजल तक पहुचँ ने के मलए सीढ़ी के
सर्ान है । इस सीढ़ी र्ें कुछ ऐसे लोग हैं, जो अभी पहली सीढ़ी पर हैं, कुछ िसू री पर, तो कुछ तीसरी पर । मकन्तु जन
तक र्नुष्ट्य उपरी र्ंमजल पर नहीं पहुचँ जाता, जो मक कृ ष्ट्ण का ज्ञान है, तक तक वह ज्ञान की मनम्नतर अवस्र्ा र्ें ही
रहता है । यमि कोई ईश्र्वर की बराबरी करते हुए आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें प्रगमत करना चाहता है, तो उसका प्रयास मविल
होगा । यह स्पष्ट कहा गया है मक मवनम्रता के मबना ज्ञान सम्भव नहीं है । अपने को ईश्र्वर सर्झना सवाममधक गवम
है । यद्यमप जीव सिैव प्रकृ मत के किोर मनयर्ों द्वारा िुकराया जाता है, मिर भी वह अज्ञान के कारण सोचता है मक “र्ैं
ईश्र्वर ह।ँ ” ज्ञान का शभु ारम्भ “अर्ामनत्व” या मवनम्रता से होता है । र्नुष्ट्य को मवनम्र होना चामहए । परर्ेश्र्वर के प्रमत
मवद्रोह के कारण ही र्नुष्ट्य प्रकृ मत के अधीन हो जाता है । र्नुष्ट्य को इस सच्चाई को जानना और इससे मवश्र्वस्त होना
चामहए ।

ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यानम यजज्ञात्वामृतमश्र्िुते ।


अिानदमत्परं ब्रह्म ि सत्तन्िासदुच्यते ।। १३ ।।

ज्ञेयम् - जानने योग्य; यत् - जो; तत् - वह; प्रवक्ष्यानम - अब र्ैं बतलाऊँगा; यत् - मजसे; ज्ञात्वा -
जानकर; अमृतम् - अर्ृत का; अश्नुते - आस्वािन करता है; अिानद - आमि रमहत; मत्-परम् - र्ेरे अधीन; ब्रह्म -
आत्र्ा; ि - न तो; सत् - कारण; तत् - वह; ि - न तो; असत् - कायम, प्रभाव; उच्यते - कहा जाता है ।

अब मैं तुम्हें ज्ञेय के नवषय में बतलाऊूँ गा, नजसे जािकर तुम नित्य ब्रह्म का आस्वादि कर सकोगे । यह
ब्रह्म या आत्मा, जो अिानद है और मेरे अधीि है, इस भौनतक जगत् के कायम-करण से परे नस्थत है ।

तात्पयम: भगवान् ने क्षेत्र तर्ा क्षेत्रज्ञ की व्याख्या की । उन्होंने क्षेत्रज्ञ को जानने की मवमध की भी व्याख्या
की । अब वे ज्ञेय के मवषय र्ें बता रहे हैं - पहले आत्र्ा के मवषय र्ें, मिर परर्ात्र्ा के मवषय र्ें । ज्ञाता अर्ामत् आत्र्ा
तर्ा परर्ात्र्ा िोनों ही ज्ञान से र्नुष्ट्य जीवन-अर्ृत का आस्वािन कर सकता है । जैसा मक मद्वतीय अध्याय र्ें कहा
गया है, जीव मनत्य है । इसकी भी यहाँ पुमष्ट हुई है । जीव के उत्पन्न होने की कोई मनमश्चत मतमर् नहीं है । न ही कोई
परर्ेश्र्वर से जीवात्मा के प्राकट्य का इमतहास बता सकता है । अतएव वह अनामि है । इसकी पुमष्ट वैमिक सामहत्य से
होती है - न जायते स्ियते वा स्वपस्ित् ( ठोपस्नषर्् १.२.१८) । शरीर का ज्ञाता न तो कभी उत्पन्न होता है, और न
र्रता है । वह ज्ञान से पूणम होता है ।
वैमिक सामहत्य र्ें (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर् ६.१६) भी परर्ेश्र्वर को परर्ात्र्ा रूप र्ें - प्रधान क्षेत्रज्ञपस्तगुदणेशः-
शरीर का र्ख्ु य ज्ञाता तर्ा प्रकृ मत के गुणों का स्वार्ी कहा गया है । स्र्ृमत वचन है - र्ासभतू ो हरे रेव नान्यस्यैव
र्ाचन । जीवात्र्ाएँ सिा भगवान् की सेवा र्ें लगी रहती हैं । इसकी पुमष्ट भगवान् चैतन्य के अपने उपिेशों र्ें भी
है । अतएव इस श्लोक र्ें ब्रह्म का जो वणमन है, वह आत्र्ा का है और जब ब्रह्म शब्ि जीवात्र्ा के मलए व्यवहृत होता
है, तो यह सर्झना चामहए मक वह आनन्र्ब्रह्म न होकर स्वज्ञानब्रह्म है । आनन्र् ब्रह्म ही परब्रह्म भगवान् है ।

सवमतःपानणपादं तत्सवमतोऽनक्षनशरोमख ु म् ।
सवमतःश्रुनतमल्लोके सवममावृत्य नतष्ठनत ।। १४ ।।

४००
सवमतः - सवमत्र; पानण - हार्; पादम् - पैर; तत् - वह;सवमतः - सवमत्र; अनक्ष - आँखें; नशरः - सर; मुखम् -
र्ँहु ; सवमतः - सवमत्र; श्रुनत-मत् - कानों से युक्त;लोके - संसार र्ें; सवमम् - हर वस्तु; आवृत्य - व्याप्त करके ; नतष्ठनत -
आवमस्र्त है ।

उिके हाथ, पाूँव, आखें, नसर तथा मुूँह तथा उिके काि सवमत्र हैं । इस प्रकार परमात्मा सभी वस्तुओ ं में
व्याप्त होकर अवनस्थत है ।

तात्पयम: मजस प्रकार सयू म अपनी अनन्त रमश्र्यों को मवकणम करके मस्र्त है, उसी प्रकार परर्ात्र्ा या भगवान् भी
हैं । वे अपने सवमव्यापी रूप र्ें मस्र्त रहते हैं, और उनर्ें आमि मशक्षक ब्रह्मा से लेकर छोटी सी चींटी तक के सारे जीव
मस्र्त हैं । उनके अनन्त मशर, हार् , पाँव तर्ा नेत्र हैं, और अनन्त जीव हैं । ये सभी परर्ात्र्ा र्ें ही मस्र्त हैं । अतएव
परर्ात्र्ा सवमव्यापक है । लेमकन आत्र्ा यह नहीं कह सकता मक उसके हार्, पाँव तर्ा नेत्र चारों मिशाओ ं र्ें हैं । यह
सम्भव नहीं है । यमि वह अज्ञान के कारण यह सोचता है मक उसे इसका ज्ञान नहीं है मक उसके हार् तर्ा पैर चतुमिमक
प्रसररत हैं, मकन्तु सर्मु चत ज्ञान होने पर ऐसी मस्र्मत र्ें आ जायेगा तो उसका सोचना उल्टा है । इसका अर्म यही होता
है मक प्रकृ मत द्वारा बद्ध होने के कारण आत्र्ा परर् नहीं है । परर्ात्र्ा आत्र्ा से मभन्न है । परर्ात्र्ा अपना हार् असीर्
िरू ी तक िै ला सकता है, मकन्तु आत्र्ा ऐसा नहीं कर सकता । भगवद्गीता र्ें भगवान् कहते हैं मक यमि कोई उन्हें
पत्र, पुष्ट्प या जल अमपमत करता है, तो वे उसे स्वीकार करते हैं । यमि भगवान् िरू होते तो मिर इन वस्तुओ ं को वे कै से
स्वीकार कर पाते? यही भगवान् की सवमशमक्तर्ता है । यद्यमप वे पृथ्वी से बहुत िरू अपने धार् र्ें मस्र्त हैं, तो भी वे
मकसी के द्वारा अमपमत कोई भी वस्तु अपना हार् िै ला कर ग्रहण कर सकते हैं । यही उनकी शमक्तर्ता है । ब्रह्मसांस्हता र्ें
(५.३७) कहा गया है - गोलो एव स्नवसत्यस्खलात्मभतू ः - यद्यमप वे अपने मिव्य लोक र्ें लीला-रत रहते हैं, मिर भी
वे सवमव्यापी हैं । आत्र्ा ऐसा घोमषत नहीं कर सकता मक वह सवमव्याप्त है । अतएव इस श्लोक र्ें आत्र्ा (जीव)
नहीं, अमपतु परर्ात्र्ा या भगवान् का वणमन हुआ है ।

सवेनन्द्रयगुणाभासं सवेनन्द्रयनववनजमतम् ।
असिं सवमभृच्चैव निगमण ु ं गुणभोिृ च ।।१५ ।।

सवम - सर्स्त; इनन्द्रय - इमन्द्रयों का; गुण - गुणों का; आभासम् - र्ल
ू स्त्रोत; सवम - सर्स्त; इनन्द्रय - इमन्द्रयों
से; नववनजमतम् - मवहीन; असिम् - अनासक्त; सवमभृत् - प्रत्येक का पालनकताम; च - भी; एव - मनश्चय
ही; निगमण
ु म् - गुणमवहीन; गुण-भोिृ - गुणों का स्वार्ी; च - भी ।

परमात्मा समस्त इनन्द्रयों के मल


ू स्त्रोत हैं, निर भी वे इनन्द्रयों से रनहत हैं । वे समस्त जीवों के
पालिकताम होकर भी अिासि हैं । वे प्रकृ नत के गुणों के परे हैं, निर भी वे भौनतक प्रकृ नत के समस्त गुणों के
स्वामी हैं ।

४०१
तात्पयम: यद्यमप परर्ेश्र्वर सर्स्त जीवों की सर्स्त इमन्द्रयों के स्त्रोत हैं, मिर भी जीवों की तरह उनके भौमतक
इमन्द्रयाँ नहीं होती । वास्तव र्ें जीवों र्ें आध्यामत्र्क इमन्द्रयाँ होती हैं, लेमकन बद्ध जीवन र्ें वे भौमतक तत्त्वों से
आच्छामित रहती हैं, अतएव इमन्द्रयकायों का प्राकट् य पिार्म द्वारा होता है । परर्ेश्र्वर की इमन्द्रयाँ इस तरह आच्छामित
नहीं रहती । उनकी इमन्द्रयाँ मिव्य होती हैं, अतएव मनगुमण कहलाती हैं । गुण का अर्म है भौमतक गुण, लेमकन उनकी
इमन्द्रयाँ भौमतक आवरण से रमहत होती हैं । यह सर्झ लेना चामहए मक उनकी इमन्द्रयाँ हर्ारी इमन्द्रयों जैसी नहीं
होती । यद्यमप वे हर्ारे सर्स्त ऐमन्द्रय कायों के स्त्रोत हैं, लेमकन उनकी इमन्द्रयाँ मिव्य होती हैं, जो कल्र्षरमहत होती
हैं । इसकी बड़ी ही सन्ु िर व्याख्या श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् र्ें (३.१९) अपास्णपार्ो जवनोग्रहीता श्लोक र्ें हुई है । भगवान्
के हार् भौमतक कल्र्षों से ग्रस्त नहीं होते, अतएव उन्हें जो कुछ अमपमत मकया जाता है, उसे वे अपने हार्ों से ग्रहण
करते हैं । बद्धजीव तर्ा परर्ात्र्ा र्ें यही अन्तर है । उनके भौमतक नेत्र नहीं होते, मिर भी उनके नेत्र होते हैं, अन्यर्ा वे
कै से िेख सकते? वे सब कुछ िेखते हैं - भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य । वे जीवों के हृिय र्ें वास करते हैं, और वे जानते हैं
मक भतू काल र्ें हर्ने क्या मकया, अब क्या कर रहे हैं और भमवष्ट्य र्ें क्या होने वाला है । इसकी पुमष्ट भगवद्गीता र्ें हुई
है । वे सब कुछ जानते हैं, मकन्तु उन्हें कोई नहीं जानता । कहा जाता है मक परर्ेश्र्वर के हर्ारे जैसे पाँव नहीं हैं, लेमकन
वे आकाश र्ें मवचरण कर सकते हैं, क्योंमक उनके आध्यामत्र्क पाँव होते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, भगवान् मनराकार नहीं
हैं, उनके अपने नेत्र, पाँव, हार् सभी कुछ होते हैं, और चँमू क हर् सभी परर्ेश्र्वर के अंश हैं, अतएव हर्ारे पास भी ये
सारी वस्तुएँ होती हैं । लेमकन उनके हार्, पाँव, नेत्र तर्ा अन्य इमन्द्रयाँ प्रकृ मत द्वारा कल्र्षग्रस्त नहीं होतीं ।
भगवद्गीता से भी पुमष्ट होती है मक जब भगवान् प्रकट होते हैं, तो वे अपनी अन्तरंगा शमक्त से यर्ारूप र्ें प्रकट
होते हैं । वे भौमतक शमक्त द्वारा कल्र्षग्रस्त नहीं होते, क्योंमक वे भौमतक शमक्त के स्वार्ी हैं । वैमिक सामहत्य से हर्ें पता
चलता है मक उनका सारा शरीर आध्यामत्र्क है । उनका अपना मनत्यस्वरूप होता है, जो समच्चिानन्ि मवग्रह है । वे
सर्स्त ऐश्र्वयम से पूणम है । वे सारी सम्पमत्त के स्वार्ी हैं और सारी शमक्त के स्वार्ी हैं । वे सवाममधक बुमद्धर्ान तर्ा ज्ञान
से पणू म हैं । ये भगवान् के कुछ लक्षण हैं । वे सर्स्त जीवों के पालक हैं और सारी गमतमवमध के साक्षी हैं । जहाँ तक
वैमिक सामहत्य से सर्झा जा सकता है, परर्ेश्र्वर सिैव मिव्य हैं । यद्यमप हर्ें उनके हार्, पाँव, सर, र्ख ु नहीं
िीखते, लेमकन वे होते हैं और जब हर् मिव्य पि तक ऊपर उि जाते हैं, तो हर्ें भगवान् के स्वरूप के िशमन होते
हैं । कल्र्षग्रस्त इमन्द्रयों के कारण हर् उनके स्वरूप को िेख नहीं पाते । अतएव मनमवमशेषवािी भगवान् को नहीं सर्झ
सकते, क्योंमक वे भौमतक दृमष्ट से प्रभामवत होते है ।

बनहरन्तश्र्च भूतािामचरं चरमेव च ।


सुक्ष्मत्वात्तदनवज्ञेयं दूरस्थं चानन्तके च तत ।। १६ ।।

बनहः - बाहर; अन्तः - भीतर; च - भी; भूतािाम् - जीवों का; अचरम् - जड़; चरम् - जंगर्; एव - भी; च -
तर्ा; सूक्ष्मत्वात् - सूक्ष्र् होने के कारण; तत् - वह; अनवज्ञेयम् - अज्ञेय; दूर-स्थम् - िरू मस्र्त; च - भी; अनन्तके -
पास; च - तर्ा; तत् - वह ।

परमसत्य जड तथा जगं म समस्त जीवों के बाहर तथा भीतर नस्थत हैं । सक्ष्ू म होिे के कारण वे भौनतक
इनन्द्रयों के द्वारा जाििे या देखिे से परे हैं । यद्यनप वे अत्यन्त दूर रहते हैं, नकन्तु हम सबों के निकट भी हैं ।

४०२
तात्पयम: वैमिक सामहत्य से हर् जानते हैं मक परर्-पुरुष नारायण प्रत्येक जीव के बाहर तर्ा भीतर मनवास करने
वाले हैं । वे भौमतक तर्ा आध्यामत्र्क िोनों ही जगतों र्ें मवद्यर्ान रहते हैं । यद्यमप वे बहुत िरू हैं, मिर भी वे हर्ारे
मनकट रहते हैं । ये वैमिक सामहत्य के वचन हैं । आसीनो र्रू ां व्रजस्त शयानो यास्त सवदतः ( ठोपस्नषर्् १.२.२१) । चँमू क
वे मनरन्तर मिव्य आनन्ि भोगते रहते हैं , अतएव हर् यह नहीं सर्झ पाते मक वे सारे ऐश्र्वयम का भोग मकस तरह कर
सकते हैं । हर् इन भौमतक इमन्द्रयों से न तो उन्हें िेख पाते हैं, न सर्झ पाते हैं । अतएव वैमिक भाषा र्ें कहा गया है मक
उन्हें सर्झने र्ें हर्ारा भौमतक र्न तर्ा इमन्द्रयाँ असर्र्म हैं । मकन्तु मजसने, भमक्त र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत का अभ्यास करते
हुए, अपने र्न तर्ा इमन्द्रयों को शद्ध
ु कर मलया है, वह उन्हें मनरन्तर िेख सकता है । ब्रह्मसस्ां हता र्ें इसकी पमु ष्ट हुई है मक
परर्ेश्र्वर के मलए मजस भक्त र्ें प्रेर् उपज चक ु ा है, वह मनरन्तर उनका िशमन कर सकता है । और भगवद्गीता र्ें
(११.५४) इसकी पमु ष्ट हुई है मक उन्हें के वल भमक्त द्वारा िेखा तर्ा सर्झा जा सकता है । भक्तत्या त्वनन्यया शक्तयः।

अनवभिं च भूतेषु नवभिनमव च नस्थतम् ।


भूतभतृम च तजज्ञेयं ग्रनसष्ट्णु प्रभनवष्ट्णु च ।। १७ ।।

अनवभिम् - मबना मवभाजन के ; च - भी; भूतेषु - सर्स्त जीवों र्ें; नवभिम् - बँटा हुआ; इव - र्ानो; च -
भी; नस्थतम् - मस्र्त; भूत-भतृम - सर्स्त जीवों का पालक; च - भी;तत् - वह; ज्ञेयम् - जानने योग्य; ग्रनसष्ट्णु-
मनगलते हुए, संहार करने वाला; प्रभनवष्ट्णु - मवकास करते हुए; च - भी ।

यद्यनप परमात्मा समस्त जीवों के मध्य नवभानजत प्रतीत होता है, लेनकि वह कभी भी नवभानजत िहीं
है । वह एक रूप में नस्थत है । यद्यनप वह प्रत्येक जीव का पालिकताम है, लेनकि यह समझिा चानहए नक वह
सबों का सहं ारकरता है और सबों को जन्म देता है ।

तात्पयम: भगवान् सबों के हृिय र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मस्र्त हैं । तो क्या इसका अर्म यह हुआ मक वे बँटे हुए
हैं? नहीं । वास्तव र्ें वे एक हैं । यहाँ पर सूयम का उिाहरण मिया जाता है । सूयम र्ध्याह्न सर्य अपने स्र्ान पर रहता
है, लेमकन यमि कोई चारों ओर पाँच हजार र्ील की िरू ी पर घुर्े और पूछे मक सूयम कहाँ है, तो सभी लोग यही कहेंगे मक
वह उसके सर पर चर्क रहा है । वैमिक सामहत्य र्ें यह उिाहरण यह मिखाने के मलए मिया गया है मक यद्यमप भगवान्
अमवभामजत हैं, लेमकन इस प्रकार मस्र्त हैं र्ानो मवभामजत हों । यही नहीं, वैमिक सामहत्य र्ें यह भी कहा गया है मक
अपनी सवमशमक्तर्ता के द्वारा एक मवष्ट्णु सवमत्र मवद्यर्ान हैं, मजस तरह अनेक पुरुषों को एक ही सूयम की प्रतीमत अनेक
स्र्ानों र्ें होती है । यद्यमप परर्ेश्र्वर प्रत्येक जीव के पालनकताम हैं, मकन्तु प्रलय के सर्य सबों का भक्षण कर जाते
हैं । इसकी पुमष्ट ग्याहरवें अध्याय र्ें हो चुकी है, जहाँ भगवान् कहते हैं मक वे कुरुक्षेत्र र्ें एकत्र सारे योद्धाओ ं का भक्षण
करने के मलए आये है । उन्होंने यह भी कहा मक वे काल के रूप र्ें सब का भक्षण करते हैं । वे सबके प्रलयकारी और
सहं ारकताम हैं । जब सृमष्ट की जाती है, तो वे सबों को र्ल ू मस्र्मत से मवकमसत करते हैं और प्रलय के सर्य उन सबको
मनगल जाते हैं । वैमिक स्तोत्र पुमष्ट करते हैं मक वे सर्स्त जीवों के र्ल ू तर्ा सबके आश्रय-स्र्ल हैं । सृमष्ट के बाि सारी
वस्तएु ँ उनकी सवमशमक्तर्ता पर मटकी रहती हैं और प्रलय के बाि सारी वस्तएु ँ पुनः उन्हीं र्ें मवश्रार् पाने के मलए लौट
आती हैं । ये सब वैमिक स्तोत्रों की पुमष्ट करने वाले हैं । यतो वा इमास्न भतू ास्न जायन्ते येन जातास्न जीवस्न्त
यत्प्रयन्त्यस्भसस्ां वशस्न्त तर्ब्र् ह्म तस्िस्जज्ञासस्व (तैस्त्तरीय उपस्नषर्् ३.१) ।

४०३
जयोनतषामनप तजजयोनतस्तमसः परमुच्यते ।
ज्ञािं ज्ञेयं ज्ञािगम्यं हृनद सवमस्य नवनष्ठतम् ।। १८ ।।

जयोनतषाम् - सर्स्त प्रकाशर्ान वस्तुओ ं र्ें; अनप - भी; तत् - वह; जयोनतः - प्रकाश का स्त्रोत; तमसः -
अन्धकार; परम् - परे ; उच्यते - कहलाता है; ज्ञािम् - ज्ञान; ज्ञेयम् - जानने योग्य; ज्ञाि-गम्यम् - ज्ञान द्वारा पहुचँ ने
योग्य; हृनद - हृिय र्ें; सवमस्य - सब; नवनष्ठतम् - मस्र्त ।

वे समस्त प्रकाशमाि वस्तओ ु ं के प्रकाशस्त्रोत हैं । वे भौनतक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं । वे
ज्ञाि हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञाि के लक्ष्य हैं । वे सबके हृदय में नस्थत हैं ।

तात्पयम: परर्ात्र्ा या भगवान् ही सूयम, चन्द्र तर्ा नक्षत्रों जैसी प्रकाशर्ान वस्तुओ ं के प्रकाशस्त्रोत हैं । वैमिक
सामहत्य से हर्ें पता चलता है मक वैकुण्ि राजय र्ें सूयम या चन्द्रर्ा की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंमक वहाँ पर
परर्ेश्र्वर का तेज जो है । भौमतक जगत् र्ें वह ब्रह्मजयोमत या भगवान् का आध्यामत्र्क तेज र्हत्तत्व अर्ामत् भौमतक
तत्त्वों से ढका रहता है । अतएव इस जगत् र्ें हर्ें सूयम, चन्द्र, मबजली आमि के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती
है, लेमकन आध्यामत्र्क जगत् र्ें ऐसी वस्तुओ ं की आवश्यकता नहीं होती । वैमिक सामहत्य र्ें स्पष्ट है मक वे इस
भौमतक जगत् र्ें मस्र्त नहीं हैं, वे तो आध्यामत्र्क जगत् (वै ु ण्ठ लो ) र्ें मस्र्त हैं, जो मचन्र्य आकाश र्ें बहुत ही
िरू ी पर है । इसकी भी पुमष्ट वैमिक सामहत्य से होती है । आस्र्त्यवणं तमसः परस्तात् (श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् ३.८) । वे
सूयम की भाँमत अत्यन्त तेजोर्य हैं, लेमकन इस भौमतक जगत के अन्धकार से बहुत िरू हैं ।
उनका ज्ञान मिव्य है । वैमिक सामहत्य पमु ष्ट करता है मक ब्रह्म घनीभतू मिव्य ज्ञान है । जो वैकुण्िलोक जाने का
इच्छुक है, उसे परर्ेश्र्वर द्वारा ज्ञान प्रिान मकया जाता है, जो प्रत्येक हृिय र्ें मस्र्त हैं । एक वैमिक र्न्त्र है (श्र्वेताश्र्वतर-
उपस्नषर्् ६.१८) - तां ह र्ेवम् आत्मबस्ु द्धप्र ाशां ममु क्ष ु वु ै शरणमहां प्रपये। र्मु क्त के इच्छुक र्नष्ट्ु य को चामहए मक वह
भगवान् की शरण र्ें जाय । जहाँ तक चरर् ज्ञान के लक्ष्य का सम्बन्ध है, वैमिक सामहत्य से भी पुमष्ट होती है - तमेव
स्वस्र्त्वास्त मृत्युमेस्त - उन्हें जान लेने के बाि ही जन्र् तर्ा र्ृत्यु की पररमध को लाँघा जा सकता है (श्र्वेताश्र्वतर
उपस्नषर्् ३.८) ।
वे प्रत्येक हृिय र्ें परर् मनयन्ता के रूप र्ें मस्र्त हैं । परर्ेश्र्वर के हार्-पैर सवमत्र िै ले हैं, लेमकन जीवात्र्ा के
मवषय र्ें ऐसा नहीं कहा जा सकता । अतएव यह र्ानना ही पड़ेगा मक कायम क्षेत्र को जानने वाले िो ज्ञाता हैं-एक
जीवात्र्ा तर्ा िसू रा परर्ात्र्ा । पहले के हार्-पैर के वल मकसी एक स्र्ान तक सीमर्त (एकिेशीय) हैं, जबमक कृ ष्ट्ण के
हार्-पैर सवमत्र िै ले हैं । इसकी पुमष्ट श्र्वेताश्र्वतर उपस्नषर्् र्ें (३.१७) इस प्रकार हुई है - सवदस्य प्रभमु ीशानां सवदस्य शरणां
बृहत् । वह परर्ेश्र्वर या परर्ात्र्ा सर्स्त जीवों का स्वार्ी या प्रभु है, अतएव वह उन सबका चरर् लक्ष्य है । अतएव
इस बात से र्ना नहीं मकया जा सकता मक परर्ात्र्ा तर्ा जीवात्र्ा सिैव मभन्न होते हैं ।

इनत क्षेत्रं तथा ज्ञािं ज्ञेयं चोिं समासतः ।


मिि एतनद्वज्ञाय मिावायोपपद्यते ।। १९ ।।

४०४
इनत - इस प्रकार; क्षेत्रम् - कर्म का क्षेत्र (शरीर);तथा - भी; ज्ञािम् - ज्ञान; ज्ञेयम् - जानने योग्य; च -
भी; उिम् - कहा गया;समासतः - संक्षेप र्ें; मत्-भिः - र्ेरा भक्त; एतत् - यह सब; नवज्ञाय - जान कर; मत्-
भावाय - र्ेरे स्वभाव को; उपपद्यते - प्राप्त करता है ।

इस प्रकार मैंिे कमम क्षेत्र (शरीर), ज्ञाि तथा ज्ञेय का संक्षेप में वणमि नकया है । इसे के वल मेरे भि ही
पूरी तरह समझ सकते हैं और इस तरह मेरे स्वभाव को प्राप्त होते हैं ।

तात्पयम: भगवान् ने शरीर, ज्ञान तर्ा ज्ञेय का संक्षेप र्ें वणमन मकया है । यह ज्ञान तीन वस्तुओ ं का है - ज्ञाता, ज्ञेय
तर्ा जानने की मवमध । ये तीनों मर्लकर मवज्ञान कहलाते हैं । पणू म ज्ञान भगवान् के अनन्य भक्तों द्वारा प्रत्यक्षतः सर्झा
जा सकता है । अन्य इसे सर्झ पाने र्ें असर्र्म रहते हैं । अद्वैतवामियों का कहना है मक अमन्तर् अवस्र्ा र्ें ये तीनों
बातें एक हो जाती हैं, लेमकन भक्त ऐसा नहीं र्ानते । ज्ञान तर्ा ज्ञान के मवकास का अर्म है अपने को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
सर्झना । हर् भौमतक चेतना द्वारा संचामलत होते हैं, लेमकन जयोंही हर् अपनी सारी चेतना कृ ष्ट्ण के कायों र्ें
स्र्ानान्तररत कर िेते हैं, और इसका अनुभव करते हैं मक कृ ष्ट्ण ही सब कुछ हैं, तो हर् वास्तमवक ज्ञान प्राप्त कर सकते
हैं । िसू रे शब्िों र्ें, ज्ञान तो भमक्त को पूणमतया सर्झने के मलए प्रारमम्भक अवस्र्ा है । पन्द्रहवें अध्याय र्ें इसकी मवशि
व्याख्या की गई है ।
अब हर् सारांश र्ें कह सकते हैं मक श्लोक ६ तर्ा ७ के महाभतू ास्न से लेकर चेतना धृस्तः तक भौमतक तत्त्वों
तर्ा जीवन के लक्षणों की कुछ अमभव्यमक्तयों का मवश्लेषण हुआ है । ये सब मर्लकर शरीर तर्ा कायमक्षेत्र का मनर्ामण
करते हैं, तर्ा श्लोक ८ से लेकर १२ तक अमास्नत्वम् से लेकर तत्त्वज्ञानाथद-र्शदनम् तक कायमक्षेत्र के िोनों प्रकार के
ज्ञाताओ,ं अर्ामत् आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा के ज्ञान की मवमध का वणमन हुआ है । श्लोक १३ से १८ र्ें अनास्र् मत्परम् से
लेकर हृस्र् सवदस्य स्वस्ष्ठतम् तक जीवात्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का वणमन हुआ है ।
इस प्रकार तीन बातों का वणमन हुआ है - कायमक्षेत्र (शरीर) , जानने की मवमध तर्ा आत्र्ा एवं परर्ात्र्ा । यहाँ
इसका मवशेष उल्लेख हुआ है मक भगवान् के अनन्य भक्त ही इन तीनों बातों को िीक से सर्झ सकते हैं । अतएव ऐसे
भक्तों के मलए भगवद्गीता अत्यन्त लाभप्रि है, वे ही परर् लक्ष्य, अर्ामत् परर्ेश्र्वर कृ ष्ट्ण के स्वभाव को प्राप्त कर सकते
हैं । िसू रे शब्िों र्ें, के वल भक्त ही भगवद्गीता को सर्झ सकते हैं और वांमछत िल प्राप्त कर सकते हैं - अन्य लोग
नहीं ।

प्रकृ नतं पुरुषं चैव नवद्धयिादी उभावनप ।


नवकारांश्र्च गुणांश्र्चैव नवनद्ध प्रकृ नतसम्भवाि् ।। २० ।।

प्रकृ नतम् - भौमतक प्रकृ मत को; पुरुषम् - जीव को; च - भी;एव - मनश्चय ही; नवनद्ध - जानो; अिादी -
आमिरमहत; उभौ - िोनों; अनप - भी; नवकाराि् - मवकारों को; च - भी; गण ु ाि् - प्रकृ मत के तीन गणु ; च - भी; एव -
मनश्चय ही; नवनद्ध - जानो;प्रकृ नत - भौमतक प्रकृ मत से; सम्भवाि् - उत्पन्न ।

प्रकृ नत तथा जीवों को अिानद समझिा चानहए । उिके नवकार तथा गुण प्रकृ नतजन्य हैं ।

४०५
तात्पयम: इस अध्याय के ज्ञान से र्नुष्ट्य शरीर (क्षेत्र) तर्ा शरीर के ज्ञाता (जीवात्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा िोनों) को
जान सकता है । शरीर मक्रयाक्षेत्र है और प्रकृ मत से मनमर्मत है । शरीर के भीतर बद्ध तर्ा उसके कायों का भोग करने
वाला आत्र्ा ही पुरुष या जीव है । वह ज्ञाता है और इसके अमतररक्त भी िसू रा ज्ञाता होता है, जो परर्ात्र्ा
है । मनस्सन्िेह यह सर्झना चामहए मक परर्ात्र्ा तर्ा आत्र्ा एक ही भगवान् की मवमभन्न अमभव्यमक्तयाँ हैं । जीवात्र्ा
उनकी शमक्त है और परर्ात्र्ा उनका साक्षात् अंश (स्वांश) है ।
प्रकृ मत तर्ा जीव िोनों ही मनत्य हैं । तात्पयम यह है मक वे सृमष्ट के पहले से मवद्यर्ान हैं । यह भौमतक अमभव्यमक्त
परर्ेश्र्वर की शमक्त से है, और उसी प्रकार जीव भी हैं, मकन्तु जीव श्रेि शमक्त है । जीव तर्ा प्रकृ मत इस ब्रह्माण्ड के
उत्पन्न होने से पूवम से मवद्यर्ान हैं । प्रकृ मत तो र्हामवष्ट्णु र्ें लीन हो गई और जब इसकी आवश्यकता पड़ी तो यह
र्हत्-तत्त्व के द्वारा प्रकट हुई । इसी प्रकार जीव भी उनके भीतर रहते हैं, और चँमू क वे बद्ध हैं, अतएव वे परर्ेश्र्वर की
सेवा करने से मवर्ख ु हैं । इस तरह उन्हें वैकुण्ि-लोक र्ें प्रमवष्ट होने नहीं मिया जाता । लेमकन प्रकृ मत के व्यक्त होने पर
इन्हें भौमतक जगत् र्ें पुनः कर्म करने और वैकुण्ि-लोक र्ें प्रवेश करने की तैयारी करने का अवसर मिया जाता है । इस
भौमतक सृमष्ट का यही रहस्य है । वास्तव र्ें जीवात्र्ा र्ल ू तः परर्ेश्र्वर का अंश है, लेमकन अपने मवद्रोही स्वभाव के
कारण वह प्रकृ मत के भीतर बद्ध रहता है । इसका कोई र्हत्त्व नहीं है मक ये जीव या श्रेि जीव मकस प्रकार प्रकृ मत के
सम्पकम र्ें आये । मकन्तु भगवान् जानते हैं मक ऐसा कै से और क्यों हुआ । शास्त्रों र्ें भगवान् का वचन है मक जो लोग
प्रकृ मत द्वारा आकृ ष्ट हैं, वे कमिन जीवन-संघषम कर रहे हैं । लेमकन इस कुछ श्लोकों के वणमनों से यह मनमश्चत सर्झ लेना
होगा मक प्रकृ मत के तीन गुणों के द्वारा उत्पन्न मवकार प्रकृ मत की ही उपज हैं । जीवों के सारे मवकार तर्ा प्रकार शरीर के
कारण हैं । जहाँ तक आत्र्ा का सम्बन्ध है, सारे जीव एक ही हैं ।

कायमकारणकतृमत्वे हेतु: प्रकृ नतरुच्यते ।


परुु षः सख
ु दु:खािां भोिृ त्वे हेतरुु च्यते ।। २१ ।।

कायम - कायम; कारण - तर्ा कारण का; कतृमत्वे - सृजन के र्ार्ले र्ें; हेतःु - कारण; प्रकृ नतः -
प्रकृ मत; उच्यते - कही जाती है; पुरुषः - जीवात्र्ा; सुख - सुख; दुःखािाम् - तर्ा िख
ु का; भोिृ त्वे - भोग
र्ें; हेतुः - कारण; उच्यते - कहा जाता है ।

प्रकृ नत समस्त भौनतक कारणों तथा कायों (पररणामों) की हेतु कही जाती है, और जीव (पुरुष) इस
संसार में नवनवध सुख-दुख के भोग का कारण कहा जाता है ।

तात्पयम: जीवों र्ें शरीर तर्ा इमन्द्रयों की मवमभन्न अमभव्यमक्तयाँ प्रकृ मत के कारण हैं । कुल मर्लाकर ८४ लाख
मभन्न-मभन्न योमनयाँ हैं और ये सब प्रकृ मतजन्य हैं । जीव के मवमभन्न इमन्द्रय-सुखों से ये योमनयाँ मर्लती हैं जो इस प्रकार
इस शरीर या उस शरीर र्ें रहने की इच्छा करता है । जब उसे मवमभन्न शरीर प्राप्त होते हैं, तो वह मवमभन्न प्रकार के सख ु
तर्ा िख ु भोगता है । उसके भौमतक िुख-सुख उसके शरीर के कारण होते हैं, स्वयं उसके कारण नहीं । उसकी र्ल ू
अवस्र्ा र्ें भोग र्ें कोई सन्िेह नहीं रहता, अतएव वही उसकी वास्तमवक मस्र्मत है । वह प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने के
मलए भौमतक जगत् र्ें आता है । वैकुण्ि-लोक र्ें ऐसी कोई वस्तु नहीं होती । वैकुण्ि-लोक शद्ध ु है, मकन्तु भौमतक जगत्
र्ें प्रत्येक व्यमक्त मवमभन्न प्रकार के शरीर-सुखों को प्राप्त करने के मलए कमिन संघषम र्ें रत रहता है । यह कहने से बात

४०६
और स्पष्ट हो जाएगी मक यह शरीर इमन्द्रयों का कायम है । इमन्द्रयाँ इच्छाओ ं की पूमतम का साधन हैं । यह शरीर तर्ा हेतु
रूप इमन्द्रयाँ प्रकृ मत द्वारा प्रित्त हैं, और जैसा मक अगले श्लोक से स्पष्ट हो जाएगा, जीव को अपनी पूवम आकांक्षा तर्ा
कर्म के अनुसार पररमस्र्मतयों के वश वरिान या शाप मर्लता है । जीव की इच्छाओ ं तर्ा कर्ों के अनुसार प्रकृ मत उसे
मवमभन्न स्र्ानों र्ें पहुचँ ाती है । जीव स्वयं ऐसे स्र्ानों र्ें जाने तर्ा मर्लने वाले सुख-िख
ु का कारण होता है । एक
प्रकार का शरीर प्राप्त हो जाने पर वह प्रकृ मत के वश र्ें हो जाता है, क्योंमक शरीर, पिार्म होने के कारण, प्रकृ मत के
मनयर्ानुसार कायम करता है । उस सर्य शरीर र्ें ऐसी शमक्त नहीं मक वह उस मनयर् को बिल सके । र्ान लीमजये मक
जीव को कुत्ते का शरीर प्राप्त हो गया । जयोंही वह कुत्ते के शरीर र्ें स्र्ामपत मकया जाता है,उसे कुत्ते की भाँमत आचरण
करना होता है । वह अन्यर्ा आचरण नहीं कर एकता । यमि जीव को सूकर का शरीर प्राप्त होता है, तो वह र्ल खाने
तर्ा सकू र की भाँमत रहने के मलए बाध्य है । इसी प्रकार यमि जीव को िेवता का शरीर प्राप्त हो जाता है, तो उसे अपने
शरीर के अनुसार कायम करना होता है । यही प्रकृ मत का मनयर् है । वेिों र्ें (मण्ु ड उपस्नषर्् ३.१.१) इसकी व्याख्या इस
प्रकार की गई है - िा सुपदणा सयुजा सखायः। परर्ेश्र्वर जीव पर इतना कृ पालु है मक वह सिा जीव के सार् रहता है और
सभी पररमस्र्मतयों र्ें परर्ात्र्ा रूप र्ें मवद्यर्ान रहता है ।

परुु षः प्रकृ नतस्थो नह भुङ्िे प्रकृ नतजान्गुणाि् ।


कारणं गुणसङ् गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु ।। २२ ।।

परुु षः - जीव; प्रकृ नतस्थः - भौमतक शमक्त र्ें मस्र्त होकर; नह - मनश्चय ही; भुङ्िे - भोगता है; प्रकृ नत-
जाि् - प्रकृ मत से उत्पन्न; गुणाि् - गुणों को;कारणम् - कारण; गुण-सङ् गः - प्रकृ मत के गुणों की संगमत; अस्य - जीव
की; सत्-असत् - अच्छी तर्ा बुरी; योनि - जीवन की योमनयाँ; जन्मसु - जन्र्ों र्ें ।

इस प्रकार जीव प्रकृ नत के तीिों गुणों का भोग करता हुआ प्रकृ नत में ही जीवि नबताता है । यह उस
प्रकृ नत के साथ उसकी सगं नत के कारण है । इस तरह उसे उत्तम तथा अधम योनियाूँ नमलती रहती हैं ।

तात्पयम: यह श्लोक यह सर्झने के मलए र्हत्त्वपूणम है मक जीव एक शरीर से िसू रे शरीर र्ें मकस प्रकार िेहान्तरण
करता है । िसू रे अध्याय र्ें बताया गया है मक जीव एक शरीर को त्याग कर िसू रा शरीर उसी तरह धारण करता है, मजस
प्रकार कोई वस्त्र बिलता है । वस्त्र का पररवतमन इस संसार के प्रमत आसमक्त के कारण है । जब तक जीव इस मर्थ्या
प्राकट्य पर र्ग्ु ध रहता है, तब तक उसे मनरन्तर िेहान्तरण करना पड़ता है । प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने की इच्छा के
िलस्वरूप वह ऐसी प्रमतकूल पररमस्र्तयों र्ें िँ सता रहता है । भौमतक इच्छा के वशीभतू हो, उसे कभी िेवता के रूप
र्ें, तो कभी र्नुष्ट्य के रूप र्ें, कभी पश,ु कभी पक्षी, कभी कीड़े, कभी जल-जन्तु, कभी सन्त पुरुष, तो कभी खटर्ल के
रूप र्ें जन्र् लेना होता है । यह क्रर् चलता रहता है और प्रत्येक पररमस्र्मत र्ें जीव अपने को पररमस्र्मतयों का स्वार्ी
र्ानता रहता है, जबमक वह प्रकृ मत के वश र्ें होता है ।
यहाँ पर बताया गया है मक जीव मकस प्रकार मवमभन्न शरीरों को प्राप्त करता है । यह प्रकृ मत के मवमभन्न गुणों की
सगं मत के कारण है । अतएव इन गणु ों से ऊपर उिकर मिव्य पि पर मस्र्त होना होता है । यही कृ ष्ट्णभावनार्ृत कहलाता
है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त हुए मबना भौमतक चेतना र्नुष्ट्य को एक शरीर से िसू रे शरीर र्ें िेहान्तरण करने के मलए
बाध्य करती रहती है, क्योंमक अनामि काल से उसर्ें भौमतक आकाक्ष ं ाएँ व्याप्त हैं । लेमकन उसे इस मवचार को बिलना

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होगा । यह पररवतमन प्रर्ामणक स्त्रोतों से सुनकर ही लाया जा सकता है । इसका सवमश्रेि उिाहरण अजुमन है, जो कृ ष्ट्ण से
ईश्र्वर-मवज्ञान का श्रवण करता है । यमि जीव इस श्रवण-मवमध को अपना ले, तो प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने की मचर-
अमभलमषत आकांक्षा सर्ाप्त हो जाए, और क्रर्शः जयों-जयों वह प्रभत्ु व जताने की इच्छा को कर् करता जाएगा, त्यों-
त्यों उसे आध्यामत्र्क सुख मर्लता जाएगा । एक वैमिक र्ंत्र र्ें कहा गया है मक जयों-जयों जीव भगवान् की संगमत से
मवद्वान बनता जाता है, त्यों-त्यों उसी अनुपात र्ें वह आनन्िर्ाय जीवन का आस्वािन करता है ।

उपद्रष्टािमु न्ता च भताम भोिा महेश्र्वरः ।


परमात्मेनत चाप्युिो देहेऽनस्मन्पुरुषः परः ।। २३ ।।

उपद्रष्टा - साक्षी; अिुमन्ता - अनुर्मत िेने वाला; च - भी;भताम - स्वार्ी; भोिा - परर् भोक्ता; महा-ईश्र्वरः -
परर्ेश्र्वर; परम्-आत्मा - परर्ात्र्ा; इनत - भी; अनप - मनस्सन्िेह; उिः - कहा गया है; देहे - शरीर र्ें; अनस्मि् -
इस; पुरुषः - भोक्ता; परः - मिव्य ।

तो भी इस शरीर में एक नदव्य भोिा है, जो ईश्र्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अिुमनत देिे वाले
के रूप में नवद्यमाि है और जो परमात्मा कहलाता है ।

तात्पयम: यहाँ पर कहा गया है मक जीवात्र्ा के सार् मनरन्तर रहने वाला परर्ात्र्ा परर्ेश्र्वर का प्रमतमनमध है । वह
सार्ान्य जीव नहीं है । चँमू क अद्वैतवािी मचन्तक शरीर के ज्ञाता को एक र्ानते हैं, अतएव उनके मवचार से परर्ात्र्ा
तर्ा जीवात्र्ा र्ें कोई अन्तर नहीं है । इसका स्पष्टीकरण करने के मलए भगवान् कहते हैं मक वे प्रत्येक शरीर र्ें
परर्ात्र्ा-रूप र्ें मवद्यर्ान हैं । वे जीवात्र्ा से मभन्न हैं, वे पर हैं, मिव्य हैं । जीवात्र्ा मकसी मवशेष क्षेत्र कायों को भोगता
है, लेमकन परर्ात्र्ा मकसी सीमर्त भोक्ता के रूप र्ें या शारीररक कर्ों र्ें भाग लेने वाले के रूप र्ें मवद्यर्ान नहीं
रहता, अमपतु साक्षी, अनुर्मतिाता तर्ा परर् भोक्ता के रूप र्ें मस्र्त रहता है । उसका नार् परर्ात्र्ा है, आत्र्ा नहीं ।
वह मिव्य है । अतः मबलकुल स्पष्ट है मक आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा मभन्न-मभन्न हैं । परर्ात्र्ा के हार्-पैर सवमत्र रहते
हैं, लेमकन जीवात्र्ा के ऐसा नहीं होता । चँमू क परर्ात्र्ा परर्ेश्वर है, अतएव वहअन्िर से जीव की भौमतक भोग की
आकांक्षा पूमतम की अनुर्मत िेता है । परर्ात्र्ा की अनुर्मत के मबना जीवात्र्ा कुछ भी नहीं कर सकता । जीव भक्त ु है
और भगवान् भोक्ता या पालक हैं । जीव अनन्त हैं और भगवान् उन सबर्ें मर्त्र-रूप र्ें मनवास करता है ।
तथ्य यह है मक प्रत्येक जीव परर्ेश्र्वर का मनत्य अंश है और िोनों मर्त्र रूप र्ें घमनितापूवमक सम्बमन्धत हैं ।
लेमकन जीव र्ें परर्ेश्र्वर आिेश को अस्वीकार करने की, प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने के उद्देश्य से स्वतन्त्रतापूवमक कर्म
करने की प्रवृमत्त पाई जाती है । चँमू क उसर्ें यह प्रवृमत्त होती है, अतएव वह परर्ेश्र्वर की तटस्र्ा शमक्त कहलाता है ।
जीव या तो भौमतक शमक्त र्ें या आध्यामत्र्क शमक्त र्ें मस्र्त हो सकता है । जब तक वह भौमतक शमक्त द्वारा बद्ध रहता
है, तब तक परर्ेश्र्वर मर्त्र रूप र्ें परर्ात्र्ा की तरह उसके भीतर रहते हैं, मजससे उसे आध्यामत्र्क शमक्त र्ें वापस ले
जा सकें । भगवान् उसे आध्यामत्र्क शमक्त र्ें वापस ले जाने के मलए सिैव उत्सुक रहते हैं, लेमकन अपनी अल्प
स्वतन्त्रता के कारण जीव मनरन्तर आध्यामत्र्क प्रकाश की सगं मत िुकराता है । स्वतन्त्रता का यह िरु ोपयोग ही बद्ध
प्रकृ मत र्ें उसके भौमतक संघषम का कारण है । अतएव भगवान् मनरन्तर बाहर तर्ा भीतर से आिेश िेते रहते हैं । बाहर से
वे भगवद्गीता उपिेश िेते हैं और भीतर से वे जीव को यह मवश्र्वास मिलाते हैं मक भौमतक क्षेत्र र्ें उसके कायमकलाप

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वास्तमवक सुख के मलए अनुकूल नहीं है । उनका वचन है “इसे त्याग िो और र्ेरे प्रमत श्रद्धा करो । तभी तुर् सुखी
होगे ।” इस प्रकार जो बुमद्धर्ान व्यमक्त परर्ात्र्ा र्ें अर्वा भगवान् र्ेंश्रद्धा रखता है, वह समच्चिानन्िर्य जीवन की
ओर प्रगमत करने लगता है ।

य एवं वेनत्त पुरुषं प्रकृ नतं च गुणै: सह ।


सवमथा वतममािोऽनप ि स भूयोऽनभजायते ।। २४ ।।

यः - जो; एवम् - इस प्रकार; वेनत्त - जानता है; पुरुषम् - जीव को; प्रकृ नतम् - प्रकृ मत को; च - तर्ा; गुणैः -
प्रकृ मत के गणु ों के ; सह - सार्; सवमथा - सभी तरह से ; सह - सार्; सवमथा - सभी तरह से; वतममािः - मस्र्त
होकर; अनप - के बावजूि; ि - कभी नहीं; सः - वह; भूयः - मिर से; अनभजायते - जन्र् लेता है ।

जो व्यनि प्रकृ नत, जीव तथा प्रकृ नत के गुणों की अन्तःनक्रया से सम्बनन्धत इस नवचारधारा को समझ
लेता है, उसे मुनि की प्रानप्त सुनिनश्चत है । उसकी वतममाि नस्थनत चाहे जैसी हो, यहाूँ पर उसका पुिजमन्म िहीं
होगा ।

तात्पयम: प्रकृ मत, परर्ात्र्ा, आत्र्ा तर्ा इनके अन्तःसम्बन्ध की स्पष्ट जानकारी हो जाने पर र्नुष्ट्य र्क्त
ु होने का
अमधकारी बनता है और वह इस भौमतक प्रकृ मत र्ें लौटने के मलए बाध्य हुए मबना वैकुण्ि वापस चले जाने अमधकारी
बन जाता है । यह ज्ञान का िल है । ज्ञान यह सर्झने के मलए है मक िैवयोग से जीव इस संसार र्ें आ मगरा है । उसे
प्रार्ामणक व्यमक्तयों, साध-ु पुरुषों तर्ा गुरु की संगमत र्ें मनजी प्रयास द्वारा अपनी मस्र्मत सर्झनी है, और तब मजस रूप
र्ें भगवान् ने भगवद्गीता कही है, उसे सर्झ कर आध्यामत्र्क चेतना या कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त करना है । तब यह
मनमश्चत है मक वह संसार र्ें मिर कभी नहीं आ सके गा, वह समच्चिानन्िर्य जीवन मबताने के मलए वैकुण्ि-लोक भेज
मिया जायेगा ।

ध्यािेिात्मनि पश्यनन्त के नचदात्मािमात्मिा ।


अन्ये सांख्येि योगेि कममयोगेि चापरे ।। २५ ।।

ध्यािेि - ध्यान द्वारा; आत्मनि - अपने भीतर; पश्यनन्त - िेखते हैं; के नचत् - कुछ लोग; आत्मािम् -
परर्ात्र्ा को;आत्मिा - र्न से; अन्ये - अन्य लोग; साङ् ख्येि - िाशममनक मववेचना द्वारा; योगेि - योग पद्धमत
द्वारा; कमम-योगेि - मनष्ट्कार् कर्म के द्वारा;च - भी; अपरे - अन्य ।

कुछ लोग परमात्मा को ध्याि के द्वारा अपिे भीतर देखते हैं, तो दूसरे लोग ज्ञाि के अिश
ु ीलि द्वारा
और कुछ ऐसे हैं जो निष्ट्काम कममयोग द्वारा देखते हैं ।

तात्पयम:भगवान् अजुमन को बताते हैं मक जहाँ तक र्नुष्ट्य द्वारा आत्र्-साक्षात्कार की खोज का प्रश्न है, बद्ध
जीवों की िो श्रेमणयाँ हैं । जो लोग नामस्तक, अज्ञेयवाािी तर्ा सश
ं यवािी हैं, वे आध्यामत्र्क ज्ञान से मवहीन हैं । मकन्तु

४०९
अन्य लोग, जो आध्यामत्र्क जीवन सम्बन्धी अपने ज्ञान के प्रमत श्रद्धावान हैं, वे आत्र्िशी भक्त, िाशममनक तर्ा
मनष्ट्कार् कर्मयोगी कहलाते हैं । जो लोग सिैव अद्वैतवाि की स्र्ापना करना चाहते हैं, उनकी भी गणना नामस्तकों एवं
अजेयवामियों र्ें की र्ें की जाती है । िसू रे शब्िों र्ें, के वल भगवद्भक्त ही आध्यामत्र्क ज्ञान को प्राप्त होते हैं, क्योंमक वे
सर्झते हैं मक इस प्रकृ मत के भी परे वैकुण्ि-लोक तर्ा भगवान् है, मजसका मवस्तार परर्ात्र्ा के रूप र्ें प्रत्येक व्यमक्त र्ें
हुआ र्ें, और वे सवमव्यापी है । मनस्सन्िेह कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा भगवान् को सर्झने का
प्रयास करते हैं । इन्हें श्रद्धावानों की श्रेणी र्ें मगना जा सकता है । सांख्य िाशममनक इस भौमतक जगत का मवश्लेषण २४
तत्त्वों के रूप र्ें करते हैं, और वे आत्र्ा को पच्चीसवाँ तत्त्व र्ानते हैं । जब वे आत्र्ा की प्रकृ मत को भौमतक तत्त्वों से
परे सर्झने र्ें सर्र्म होते हैं, तो वे यह भी सर्झ जाते हैं मक आत्र्ा के भी ऊपर भगवान् है, और वह छब्बीसवाँ तत्त्व है
। इस प्रकार वे भी क्रर्शः कृ ष्ट्णभावनार्ृत की भमक्त के स्तर तक पहुचँ जाते हैं । जो लोग मनष्ट्कार् भाव से कर्म करते
हैं,उनकी भी र्नोवृमत्त सही होती है । उन्हें कृ ष्ट्णभावनार्ृत की भमक्त के पि तक बढ़ने का अवसर मिया जाता है । यहाँ
पर कहा गया है मक कुछ लोग ऐसे होते हैं, मजनकी चेतना शद्ध ु होती है,और वे ध्यान द्वारा परर्ात्र्ा को खोजने का
प्रयत्न करते हैं, और जब वे परर्ात्र्ा को अपने अन्िर खोज लेते हैं, तो वे मिव्य पि को प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार अन्य
लोग हैं, जो ज्ञान के अनुशीलन द्वारा परर्ात्र्ा को जानने का प्रयास करते हैं । कुछ ऐसे भी हैं जो हठयोग द्वारा, अपने
बालकों जैसे मक्रयाकलापों द्वारा, भगवान् को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं ।

अन्ये त्वेवमजािन्तः श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।


तेऽनप चानततरन्त्येव मृत्युं श्रुनतपरायणाः ।। २६ ।।

अन्ये - अन्य;तु - लेमकन; एवम् - इस प्रकार; अजािन्तः - आध्यामत्र्क ज्ञान से रमहत; श्रुत्वा -
सनु कर; अन्येभ्यः - अन्यों से; उपासते - पजू ा करना प्रारम्भ कर िेते हैं; ते - वे; अनप - भी; च - तर्ा; अनततरनन्त -
पार कर जाते हैं; एव - मनश्चय ही; मृत्युम् - र्ृत्यु का र्ागम; श्रुनत-परायणाः - श्रवण मवमध के प्रमत रूमच रखने वाले ।

ऐसे भी लोग हैं जो यद्यनप आध्यानत्मक ज्ञाि से अवगत िहीं होते पर अन्यों से परम पुरुष के नवषय में
सुिकर उिकी पूजा करिे लगते हैं । ये लोग भी प्रामानणक पुरुषों सेश्रवण करिे की मिोवृनत्त होिे के कारण
जन्म तथा मृत्यु पथ को पार कर जाते हैं ।

तात्पयम: यह श्लोक आधमु नक सर्ाज पर मवशेष रूप से लागू होता है,क्योंमक आधमु नक सर्ाज र्ें आध्यामत्र्क
मवषयों की मशक्षा नहीं िी जाती । कुछ लोग नामस्तक प्रतीत होते हैं, तो कुछ अजेयवािी तर्ा िाशममनक, लेमकन वास्तव
र्ें इन्हें िशमन का कोई ज्ञान नहीं होता । जहाँ तक सार्ान्य व्यमक्त की बात है, यमि वह पुण्यात्र्ा है, तो श्रवण द्वारा प्रगमत
कर सकता है । यह श्रवण मवमध अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, श्रवण द्वारा प्रगमत कर सकता है । यह श्रवण मवमध अत्यन्त
र्हत्त्वपणू म है । आधमु नक जगत र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत का उपिेश वाले भगवान् चैतन्य ने श्रवण पर अत्यमधक बल मिया
र्ा, क्योंमक यमि सार्ान्य व्यमक्त प्रार्ामणक स्त्रोतों से के वल श्रवण करे , तो वह प्रगमत कर सकता है - मवशेषतया चैतन्य
र्हाप्रभु के अनुसार यमि वह हरे ृ ष्ण, हरे ृ ष्ण, ृ ष्ण, ृ ष्ण, हरे , हरे / हरे राम, हरे राम, राम, राम, हरे , हरे - मिव्य ध्वमन
को सुने । इसीमलए कहा गया है मक सभी व्यमक्तयों को मसद्ध पुरुषों से श्रवण करने का लाभ उिाना चामहए, और इस
तरह क्रर् से प्रत्येक वस्तु सर्झने र्ें सर्र्म बनना चामहए । तब मनमश्चत रूप से परर्ेश्र्वर की पूजा हो सके गी । भगवान्

४१०
चैतन्य र्हाप्रभु ने कहा है मक इस युग र्ें र्नुष्ट्य को अपना पि बिलने की आवश्यकता नहीं है ,अमपतु उसे चामहए मक
वह र्नोधामर्मक तकम द्वारा परर्सत्य को सर्झने के प्रयास को त्याग िे । उसे उन व्यमक्तयों का िास बनना चामहए , मजन्हें
परर्ेश्र्वर का ज्ञान है । यमि कोई इतना भाग्यशाली हुआ मक उसे शुद्ध शुद्ध भक्त की शरण मर्ल सके और वह उससे
आत्र्-साक्षात्कार के मवषय र्ें श्रवण करके उसके पिमचन्हों पर चल सके , तो उसे क्रर्शः शुद्ध भक्त का पि प्राप्त हो
जाता है । इस श्लोक र्ें श्रवण मवमध पर मवशेष रूप से बल मिया गया है, और यहसवमर्ा उपयुक्त है । यद्यमप सार्ान्य
व्यमक्त तर्ाकमर्त िाशममनकों की भाँमत प्रायः सर्र्म नहीं होता, लेमकन प्रार्ामणक व्यमक्त श्रद्धापूवमक श्रवण करने से इस
भवसागर को पार करके भगवद्धार् वापस जाने र्ें उसे सहायता मर्लेगी ।

यावत्सञ्जायते नकनञ्चत्सत्त्वं स्थावरजङ् गमम् ।


क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात्तनद्वनद्ध भरतषमभ ।। २७ ।।

यावत् - जो भी ; सञ्जायते - उत्पन्न होता है; नकनञ्चत् - कुछ भी; सत्त्वम् - अमस्तत्व; स्थावर -
अचर; जङगमम् - चर; क्षेत्र - शरीर का; क्षेत्र-ज्ञ - शरीर ; संयोगात् - संयोग (जुड़ने) से; तत्-नवनद्ध - तुर् उसे
जानो; भरत-ऋषभ - हे भरतवंमशयों र्ें श्रेि ।

हे भरतवंनशयों में श्रेष्ठ! यह जाि लो नक चर तथा अचर जो भी तुम्हें अनस्तत्व में दीख रहा है, वह
कममक्षेत्र तथा क्षेत्र के ज्ञाता का संयोग मात्र है ।

तात्पयम: इस श्लोक र्ें ब्रह्माण्ड की सृमष्ट के भी पूवम से अमस्तत्व र्ें रहने वाली प्रकृ मत तर्ा जीव िोनों की
व्याख्या की गई है । जो कुछ भी उत्पन्न मकया जाता है, वह जीव तर्ा प्रकृ मत का सयं ोग र्ात्र होता है । वृक्ष, पवमत
आमि ऐसी अनेक अमभव्यमक्तयाँ हैं, जो गमतशील नहीं हैं । इनके सार् ही ऐसी अनेक वस्तुएँ हैं, जो गमतशील हैं और ये
सब भौमतक प्रकृ मत तर्ा परा प्रकृ मत अर्ामत् जीव के सयं ोग र्ात्र हैं । परा प्रकृ मत, जीव के स्पशम के मबना कुछ भी उत्पन्न
नहीं हो सकता । भौमतक प्रकृ मत तर्ा आध्यामत्र्क प्रकृ मत का सम्बन्ध मनरन्तर चल रहा है और यह संयोग परर्ेश्र्वर
द्वारा सम्पन्न कराया जाता है । अतएव वे ही पर तर्ा अपरा प्रकृ मतयों के मनयार्क हैं । अपरा प्रकृ मत उनके द्वारा सृष्ट है
और परा प्रकृ मत उस अपरा प्रकृ मत र्ें रखी जाती है । इस प्रकार सारे कायम तर्ा अमभव्यमक्तयाँ घमटत होती हैं ।

समं सवेषु भूतेषु नतष्ठन्तं परमेश्र्वम् ।


नविश्यत्स्वनविश्यन्तं यः पश्यनत स पश्यनत ।। २८ ।।

समम् - सर्भाव से; सवेषु - सर्स्त; भूतेषु - जीवों र्ें; नतष्ठन्तम् - वास करते हुए; परम-ईश्र्वरम् - परर्ात्र्ा
को; नविश्यत्सु - नाशवान; अनविश्यन्तम् - नाशरमहत; यः - जो; पश्यनत - िेखता है; सः - वही; पश्यनत - वास्तव
र्ें िेखता है ।

जो परमात्मा को समस्त शरीरों में आत्मा के साथ देखता है और जो यह समझता है नक इस िश्वर शरीर
के भीतर ि तो आत्मा, ि ही परमात्मा कभी भी नविष्ट होता है, वही वास्तव में देखता है ।

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तात्पयम: जो व्यमक्त सत्संगमत से तीन वस्तुओ ं को - शरीर, शरीर का स्वार्ी या आत्र्ा, तर्ा आत्र्ा के मर्त्र को
- एकसार् संयुक्त िेखता है, वही सच्चा ज्ञानी है । जब तक आध्यामत्र्क मवषयों के वास्तमवक ज्ञाता की संगमत नहीं
मर्लती, तब तक कोई इन तीनों वस्तुओ ं को नहीं िेख सकता । मजन लोगों की ऐसी संगमत नहीं होती, वे अज्ञानी हैं, वे
के वल शरीर को िेखते हैं, और जब यह शरीर मवनष्ट हो जाता है, तो सर्झते हैं मक सब कुछ नष्ट हो गया । लेमकन
वास्तमवकता यह नहीं है । शरीर के मवनष्ट होने पर आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा का अमस्तत्व बना रहता है, और वे अनेक
मवमवध चर तर्ा अचर रूपों र्ें सिैव जाते रहते हैं । कभी-कभी सस्ं कृ त शब्ि परमेश्र्वर का अनवु ाि जीवात्र्ा के रूप र्ें
मकया जाता है, क्योंमक आत्र्ा ही शरीर का स्वार्ी है और शरीर के मवनाश होने पर वह अन्यत्र िेहान्तरण कर जाता
है । इस तरह वह स्वार्ी है । लेमकन कुछ लोग इस परर्ेश्र्वर शब्ि का अर्म परर्ात्र्ा लेते हैं । प्रत्येक िशा र्ें परर्ात्र्ा
तर्ा आत्र्ा िोनों रह जाते हैं । वे मवनष्ट नहीं होते । जो इस प्रकार िेख सकता है, वही वास्तव र्ें िेख सकता है मक क्या
घमटत हो रहा है ।

समं पश्यनन्ह सवमत्र समवनस्थतमीश्र्वरम् ।


ि नहिस्त्यात्मिात्मािं ततो यानत परां गनतम् ।। २९ ।।

समम् - सर्ान रूप से; पश्यि् - िेखते हुए; नह - मनश्चय ही; सवमत्र - सभी जगह; समवनस्थतम् - सर्ान रूप से
मस्र्त;ईश्र्वरम् - परर्ात्र्ा को; ि - नहीं; नहिनस्त - नीचे मगराता है; आत्मिा - र्न से; आत्मािम् - आत्र्ा
को; ततः - तब; यानत - पहुचँ ता है; पराम् - मिव्य; गनतम् - गन्तव्य को ।

जो व्यनि परमात्मा को सवमत्र तथा प्रत्येक जीव में समाि रूप से वतममाि देखता है, वह अपिे मि के
द्वारा अपिे आपको रष्ट िहीं करता । इस प्रकार वह नदव्य गन्तव्य को प्राप्त करता है ।

तात्पयम: जीव, अपना भौमतक अमस्तत्व स्वीकार करने के कारण, अपने आध्यामत्र्क अमस्तत्व से पृर्क् हो
गया है । मकन्तु यमि वह यह सर्झता है मक परर्ेश्र्वर अपने परर्ात्र्ा स्वरूप र्ें सवमत्र मस्र्त हैं, अर्ामत् यमिवह भगवान्
की उपमस्र्मत प्रत्येक वस्तु र्ें िेखता है, तो वह मवघटनकारी र्ानमसकता से अपने आपको नीचे नहीं मगराता, और
इसमलए वह क्रर्शः वैकुण्ि-लोक की ओर बढ़ता जाता है । सार्ान्यतया र्न इमन्द्रयतृमप्तकारी कायों र्ें लीन रहता
है, लेमकन जब वही र्न परर्ात्र्ा की ओर अन्र्ख ु होता है, तो र्नुष्ट्य आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें आगे बढ़ जाता है ।

प्रकृ त्यैव च कमामनण नक्रयमाणानि सवमशः ।


यः पश्यनत तथात्मािमकतामरं स पश्यनत ।। ३० ।।

प्रकृ त्या - प्रकृ मत द्वारा; एव - मनश्चय ही; च - भी; कमामनण - कायम; नक्रयमाणानि - सम्पन्न मकये
गये; सवमशः - सभी प्रकार से; यः - जो; पश्यनत - िेखता है; तथा - भी; आत्मािम् - अपने आपको; अकतामरम् -
अकताम; सः - वह; पश्यनत - अच्छी तरह िेखता है ।

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जो यह देखता है नक सारे कायम शरीर द्वारा सम्पन्ि नकये जाते हैं, नजसकी उत्पनत्त प्रकृ नत से हुई है, और
जो देखता है नक आत्मा कुछ भी िहीं करता, वही यथाथम में देखता है ।

तात्पयम: यह शरीर परर्ात्र्ा के मनिेशानुसार प्रकृ मत द्वारा बनाया गया है और र्नुष्ट्य के शरीर के मजतने भी कायम
सम्पन्न होते हैं, वे उसके द्वारा नहीं मकये जाते । र्नुष्ट्य जो भी करता है, चाहे सुख के मलए करे , या िख ु के मलए, वह
शारीररक रचना के कारण उसे करने के मलए बाध्य होता है । लेमकन आत्र्ा इन शारीररक कायों से मवलग रहता है । यह
शरीर र्नष्ट्ु य के पवू म इच्छाओ ं के अनुसार प्राप्त होता है । इच्छाओ ं की पूमतम के मलए शरीर मर्लता है, मजससे वह
इच्छानुसार कायम करता है । एक तरह से शरीर एक यंत्र है, मजसे परर्ेश्र्वर ने इच्छाओ ं की पूमतम के मलए मनमर्मत मकया
है । इच्छाओ ं के कारण ही र्नष्ट्ु य िखु भोगता है या सख ु पाता है । जब जीव र्ें यह मिव्य दृमष्ट उत्पन्न हो जाती है, तो
वह शारीररक कायों से पृर्क् हो जाता है । मजसर्ें ऐसी दृमष्ट आ जाती है, वही वास्तमवक द्रष्टा है ।

यदा भूतपृथग्भावमेकस्थमिुपश्यनत ।
तत एव च नवस्तारं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।। ३१ ।।

यदा - जब; भूत - जीव के ; पृथक् -भावम् - पृर्क् स्वरूपों को; एक-स्थम् - एक स्र्ान पर; अिुपश्यनत -
मकसी अमधकारी के र्ाध्यर् से िेखने का प्रयास करता है; ततःएव - तत्पश्चात् ; च - भी; नवस्तारम् - मवस्तार
को; ब्रह्म-परब्रह्म; सम्पद्यते - प्राप्त करता है;तदा - उस सर्य ।

जब नववेकवाि् व्यनि नवनभन्ि भौनतक शरीरों के कारण नवनभन्ि स्वरूपों को देखिा बन्द कर देता
है, और यह देखता है नक नकस प्रकार जीव सवमत्र िै ले हुए हैं, तो वह ब्रह्म-बोध को प्राप्त होता है ।

तात्पयम: जब र्नुष्ट्य यह िेखता है मक मवमभन्न जीवों के शरीर उस जीव की मवमभन्न इच्छाओ ं के कारण उत्पन्न
हुए हैं और वे आत्र्ा से मकसी तरह सम्बद्ध नहीं हैं, तो वह वास्तव र्ें िेखता है । िेहात्र्बुमद्ध के कारण हर् मकसी को
िेवता, मकसी को र्नुष्ट्य, कुत्ता, मबल्ली आमि के रूप र्ें िेखते हैं । यह भौमतक दृमष्ट है, वास्तमवक दृमष्ट नहीं है । यह
भौमतक भेिभाव िेहात्र्बुमद्ध के कारण है । भौमतक शरीर के मवनाश के बाि आत्र्ा एक रहता है । यह आत्र्ा भौमतक
प्रकृ मत के सम्पकम से मवमभन्न प्रकार के शरीर धारण करता है । जब कोई इसे िेख पाता है, तो उसे आध्यामत्र्क दृमष्ट प्राप्त
होती है । इस प्रकार जो र्नुष्ट्य, पशु, ऊँच, नीच आमि भेिभाव से र्क्त ु हो जाता है उसकी चेतना शद्ध ु हो जाती है और
वह अपने आध्यामत्र्क स्वरूप र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत करने र्ें सर्र्म होता है । तब वह वस्तुओ ं को मजस रूप र्ें
िेखता है, उसे अगले श्लोक र्ें बताया गया है ।

अिानदत्वानन्िगमण
ु त्वात्परमात्मायमव्ययः ।
शरीरस्थोऽनप कौन्तेय ि करोनत ि नलप्यते ।। ३२ ।।

४१३
अिानदत्वात् - मनत्यता के कारण; निगमण ु त्वात् - मिव्य होने से; परम - भौमतक प्रकृ मत से परे ; आत्मा -
आत्र्ा; अयम् - यह; अव्ययः - अमवनाशी; शरीर-स्थः - शरीर र्ें वास करने वाला; अनप - यद्यमप; कौन्तेय - हे
कुन्तीपुत्र; ि करोनत - कुछ नहीं करता; ि नलप्यते - न ही मलप्त होता है ।

शाश्र्वत दृनष्टसम्पन्ि लोग यह देख सकते हैं नक अनविाशी आत्मा नदव्य, शाश्र्वत तथा गुणों अतीत
है । हे अजमिु ! भौनतक शरीर के साथ सम्पकम होते हुए भी आत्मा ि तो कुछ करता है और ि नलप्त होता है ।

तात्पयम: ऐसा प्रतीत होता है मक जीव उत्पन्न होता है, क्योंमक भौमतक शरीर का जन्र् होता है । लेमकन वास्तव
र्ें जीव शाश्र्वत है, वह उत्पन्न नहीं होता और शरीर र्ें मस्र्त रह कर भी, वह मिव्य तर्ा शाश्र्वत रहता है । इस प्रकार
वह मवनष्ट नहीं मकया जा सकता । वह स्वभाव से आनन्िर्य है । वह मकसी भौमतक कायम र्ें प्रवृत्त नहीं होता । अतएव
भौमतक शरीरों के सार् सम्पकम होने से जो कायम सम्पन्न होते हैं, वे उसे मलप्त नहीं कर पाते ।

यथा सवमगतं सौक्ष्म्यादाकाशं िोपनलप्यते ।


सवमत्रावनस्थतो देहे तथात्मा िोपनलप्यते ।।३३।।

यथा - मजस प्रकार; सवम-गतम् - सवमव्यापी; सौक्ष्म्यात् - सूक्ष्र् होने के कारण; आकाशम् - आकाश; ि -
कभी नहीं; उपनलप्यते - मलप्त होता है; सवमत्र - सभी जगह; अवनस्थतः - मस्र्त; देहे - शरीर र्ें; तथा - उसी
प्रकार; आत्मा - आत्र्ा,स्व; ि - कभी नहीं; उपनलप्यते - मलप्त होता है ।

यद्यनप आकाश सवमव्यापी है, नकन्तु अपिी सक्ष्ू म प्रकृ नत के कारण, नकसी वस्तु से नलप्त िहीं
होता । इसी तरह ब्रह्मदृनष्ट में नस्थत आत्मा, शरीर में नस्थत रहते हुए भी, शरीर से नलप्त िहीं होता ।

तात्पयम: वायु जल, कीचड़, र्ल तर्ा अन्य वस्तुओ ं र्ें प्रवेश करती है, मिर भी वह मकसी वस्तु से मलप्त नहीं
होती । इसी प्रकार से जीव मवमभन्न प्रकार के शरीरों र्ें मस्र्त होकर भी अपनी सूक्ष्र् प्रकृ मत के कारण उनसे पृर्क बना
रहता है । अतः इन भौमतक आँखों से यह िेख पाना असम्भव है मक जीव मकस प्रकार इस शरीर के सम्पकम र्ें है और
शरीर के मवनष्ट हो जाने पर वह उससे कै से मवलग हो जाता है । कोई भी मवज्ञानी इसे मनमश्चत नहीं कर सकता ।

यथा प्रकाशयत्येकः कृ त्स्िं लोकनममं रनवः ।


क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृ त्स्िं प्रकाशयनत भारत ।। ३४ ।।

यथा - मजस तरह; प्रकाशयनत - प्रकामशत करता है; एकः - एक; कृ त्स्िम् - सम्पणू म; लोकम् - ब्रह्माण्ड
को; इमम् - इस; रनवः - सूय;म क्षेत्रम् - इस शरीर को; क्षेत्री - आत्र्ा; तथा - उसी तरह; कृ त्स्िम् -
सर्स्त; प्रकाशयनत - प्रकामशत करता है; भारत - हे भरतपत्रु ।

४१४
हे भरतपुत्र! नजस प्रकार सूयम अके ले इस सारे ब्रह्माण्ड को प्रकानशत करता है, उसी प्रकार शरीर के
भीतर नस्थत एक आत्मा सारे शरीर को चेतिा से प्रकानशत करता है ।

तात्पयम: चेतना के सम्बन्ध र्ें अनेक र्त हैं । यहाँ पर भगवद्गीता र्ें सूयम तर्ा धपू का उिाहरण मिया गया
है । मजस प्रकार सूयम एक स्र्ान पर मस्र्त रहकर ब्रह्माण्ड को आलोमकत करता है, उसी तरह आत्र्ा सूक्ष्र् रूप कण
शरीर के हृिय र्ें मस्र्त रहकर चेतना द्वारा शरीर को आलोमकत करता है । इस प्रकार चेतना ही आत्र्ा का प्रर्ाण
है, मजस तरह धपू या प्रकाश सयू म की उपमस्र्मत का प्रर्ाण होता है । जब शरीर र्ें आत्र्ा वतमर्ान रहता है, तो सारे शरीर
र्ें चेतना रहती है । मकन्तु जयोंही शरीर से आत्र्ा चला जाता है त्योंही चेतना लुप्त हो जाती है । इसे बुमद्धर्ान व्यमक्त
सगु र्ता से सर्झ सकता है । अतएव चेतना पिार्म के सयं ोग से नहीं बनी होती । यह जीव का लक्षण है । जीव की
चेतना यद्यमप गुणात्र्क रूप से परर् चेतना से अमभन्न है, मकन्तु परर् नहीं है, क्योंमक एक शरीर की चेतना िसू रे शरीर से
सम्बमन्धत नहीं होती । लेमकन परर्ात्र्ा, जो आत्र्ा के सखा रूप र्ें सर्स्त शरीरों र्ें मस्र्त हैं, सर्स्त शरीरों के प्रमत
सचेष्ट रहते हैं । परर्चेतना तर्ा व्यमष्ट-चेतना र्ें यही अन्तर है ।

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञािचक्षुषा ।
भूतप्रकृ नतमोक्षं च ये नवदुयामनन्त ते परम् ।। ३५ ।।

क्षेत्र - शरीर; क्षेत्र-ज्ञयोः - तर्ा शरीर के स्वार्ी के ; एवम् - इस प्रकार; अन्तरम् - अन्तर को; ज्ञाि-चक्षुषा -
ज्ञान की दृमष्ट से; भूत - जीव का;प्रकृ नत - प्रकृ मत से; मोक्षम् - र्ोक्ष को; च - भी; ये - जो; नवदुः - जानते हैं; यानन्त -
प्राप्त होते हैं;ते - वे; परम् - परब्रह्म को ।

जो लोग ज्ञाि के चक्षुओ ं से शरीर तथा शरीर के ज्ञाता के अन्तर को देखते हैं और भव-बन्धि से मुनि
की नवनध को भी जािते हैं, उन्हें परमलक्ष्य प्राप्त होता है ।

तात्पयम: इस तेरहवें अध्याय का तात्पयम यही है मक र्नुष्ट्य को शरीर, शरीर के स्वार्ी तर्ा परर्ात्र्ा के अन्तर
को सर्झना चामहए । उसे श्लोक ८ से लेकर १२ तक र्ें वमणमत र्मु क्त की मवमध को जानना चामहए । तभी वह परर्गमत
को प्राप्त हो सकता है ।
श्रद्धालु को चामहए मक सवमप्रर्र् वह ईश्र्वर का श्रवण करने के मलए सत्संगमत करे , और धीरे -धीरे प्रबुद्ध
बने । यमि गुरु स्वीकार कर मलया जाए, तो पिार्म तर्ा आत्र्ा के अन्तर को सर्झा जा सकता है और वही अमग्रर्
आत्र्-साक्षात्कार के मलए शभु ारम्भ बन जाता है । गुरु अनेक प्रकार के उपिेशों से अपने मशष्ट्यों को िेहात्र्बुमद्ध से र्क्तु
होने की मशक्षा िेता है ।उिाहरणार्म - भगवद्गीता र्ें कृ ष्ट्ण अजुमन को भौमतक बातों से र्क्त
ु होने के मलए मशक्षा िेते हैं ।
र्नष्ट्ु य यह तो सर्झ सकता है मक यह शरीर पिार्म है और इसे चौबीस तत्त्वों र्ें मवश्ले मषत मकया जा सकता
है; शरीर स्र्ूल अमभव्यमक्त है और र्न तर्ा र्नोवैज्ञामनक प्रभाव सूक्ष्र् अमभव्यमक्त हैं । जीवन के लक्षण इन्हीं तत्त्वों की
अन्तः-मक्रया (मवकार) हैं, मकन्तु इनसे भी ऊपर आत्र्ा और परर्ात्र्ा हैं । आत्र्ा तर्ा परर्ात्र्ा िो हैं । यह भौमतक
जगत् आत्र्ा तर्ा चौबीस तत्त्वों के संयोग से कायमशील है । जो सम्पूणम भौमतक जगत् की इस रचना को आत्र्ा तर्ा
तत्त्वों के सयं ोग से हुई र्ानता है और परर्ात्र्ा की मस्र्मत को भी िेखता है, वही वैकुण्ि-लोक जाने का अमधकारी बन

४१५
पाता है । ये बातें मचन्तन तर्ा साक्षात्कार की हैं । र्नुष्ट्य को चामहए मक गुरु की सहायता से इस अध्याय को भली-भाँमत
सर्झ ले ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े तेरहवें अध्याय “प्र ृ स्त, पुरुष तथा चेतना” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद हुआ ।

४१६
अध्याय चौदह
प्रकृनत के तीि गुण
श्रीभगवानवु ाच ।
परं भूयः प्रवक्ष्यानम ज्ञािािां ज्ञािमुत्तमम् ।
यजज्ञात्वा मुियः सवे परां नसनद्धनमतो गताः ।। १ ।।

श्री-भगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; परम् - मिव्य; भूयः - मिर; प्रवक्ष्यानम - कहगँ ा; ज्ञािािाम् - सर्स्त
ज्ञान का; ज्ञािम् - ज्ञान; उत्तमम् - सवमश्रेि; यत् - मजसे; ज्ञात्वा - जानकर;मुियः - र्मु न लोग; सवे - सर्स्त; पराम् -
मिव्य; नसनद्धम् - मसमद्ध को; इतः - इस संसार से; गताः - प्राप्त मकया ।

भगवाि् िे कहा - अब मैं तुमसे समस्त ज्ञािोंमें सवमश्रेष्ठ इस परम ज्ञाि को पुिः कहूँगा, नजसे जाि लेिे
पर समस्त मनु ियों िे परम नसनद्ध प्राप्त की है ।
.
तात्पयम: सातवें अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय तक श्रीकृ ष्ट्ण परर् सत्य भगवान् के मवषय र्ें मवस्तार से
बताते हैं । अब भगवान् स्वयं अजुमन को और आगे ज्ञान िे रहे हैं । यमि कोई इस अध्याय को िाशममनक मचन्तन द्वारा
भलीभाँमत सर्झ ले तो उसे भमक्त का ज्ञान हो जाएगा । तेरहवें अध्याय र्ें यह स्पष्ट बताया जा चक ु ा है मक मवनयपूवमक
ज्ञान का मवकास करते हुए भवबन्धन से छूटा जा सकता है । यह भी बताया जा चक ु ा है मक प्रकृ मत के गुणों की संगमत
के िलस्वरूप ही जीव इस भौमतक जगत् र्ें बद्ध है । अब इस अध्याय र्ें भगवान् स्वयं बताते हैं मक वे प्रकृ मत के गुण
कौन-कौन से हैं, वे मकस प्रकार मक्रया करते हैं, मकस तरह बाँधते हैं और मकस प्रकार र्ोक्ष प्रिान करते हैं । इस अध्याय
र्ें मजस ज्ञान का प्रकाश मकया गया है उसे अन्य पूवमवती अध्यायों र्ें मिए गये ज्ञान से श्रेि बताया गया है । इस ज्ञान को
प्राप्त करके अनेक र्मु नयों ने मसमद्ध प्राप्त की और वे वैकुण्िलोक के भागी हुए । अब भगवान् उसी ज्ञान को और अच्छे
ढंग से बताने जा रहे हैं । यह ज्ञान अभी तक बताये गये सर्स्त ज्ञानयोग से कहीं अमधक श्रेि है और इसे जान लेने पर
अनेक लोगों को मसमद्ध प्राप्त हुई है । अतः यह आशा की जाती है मक जो भी इस अध्याय को सर्झेगा उसे मसमद्ध प्राप्त
होगी ।

इदं ज्ञािमुपानश्रत्य मम साधम्यममागताः ।


सगेऽनप िोपजायन्ते प्रलये ि व्यथनन्त च ।। २ ।।

४१७
इदम् - इस; ज्ञािम् - ज्ञान को; उपानश्रत्य - आश्रय बनाकर; मम - र्ेरा; साधाम्यमम् - सर्ान प्रकृ मत
को; आगताः - प्राप्त करके ; सगे अनप - सृमष्ट र्ें भी; ि - कभी नहीं; उपजायन्ते - उत्पन्न होते हैं; प्रलये - प्रलय
र्ें; ि - न तो; व्यथनन्त - मवचमलत होते हैं; च - भी ।

इस ज्ञाि में नस्थर होकर मिुष्ट्य मेरी जैसी नदव्य प्रकृ नत (स्वभाव) को प्राप्त कर सकता है । इस प्रकार
नस्थत हो जािे पर वह ि तो सृनष्ट के समय उत्पन्ि होता है और ि प्रलय के समय नवचनलत होता है ।

तात्पयम: पूणम मिव्य ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाि र्नुष्ट्य भगवान् से गुणात्र्क सर्ता प्राप्त कर लेता है और जन्र्-
र्रण के चक्र से र्क्त
ु हो जाता है । लेमकन जीवात्र्ा के रूप र्ें उसका वह स्वरूप सर्ाप्त नहीं होता । वैमिक ग्रन्र्ों से
ज्ञात होता है मक जो र्क्तु ात्र्ाएँ वैकुण्ि जगत् र्ें पहुचँ चक
ु ी हैं, वे मनरन्तर परर्ेश्र्वर के चरणकर्लों के िशमन करती हुई
उनकी मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें लगी रहती हैं । अतएव र्मु क्त के बाि भी भक्तों का अपना मनजी स्वरूप नहीं सर्ाप्त होता ।
सार्ान्यतया इस संसार र्ें हर् जो भी ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह प्रकृ मत के तीन गुणों द्वारा िमू षत रहता है । जो ज्ञान
इन गुणों से िमू षत नहीं होता, वह मिव्य ज्ञान कहलाता है । जब कोई व्यमक्त इस मिव्य ज्ञान को प्राप्त होता है, तो वह
परर्पुरुष के सर्कक्ष पि पर पहुचँ जाता है । मजन लोगों को मचन्र्य आकाश का ज्ञान नहीं है, वे र्ानते हैं मक भौमतक
स्वरूप के कायमकलापों से र्क्त ु होने पर यह आध्यामत्र्क पहचान मबना मकसी मवमवधता के मनराकार हो जाती
है । लेमकन मजस प्रकार इस संसार र्ें मवमवधता है, उसी प्रकार आध्यामत्र्क जगत र्ें भी है । जो लोग इससे पररमचत
नहीं हैं, वे सोचते हैं मक आध्यामत्र्क जगत् इस भौमतक जगत् की मवमवधता से उल्टा है । लेमकन वास्तव र्ें होता यह है
मक आध्यामत्र्क जगत् (मचन्र्य आकाश) र्ें र्नुष्ट्य को आध्यामत्र्क रूप प्राप्त हो जाता है । वहाँ के सारे कायमकलाप
आध्यामत्र्क होते हैं और यह आध्यामत्र्क मस्र्मत भमक्तर्य जीवन कहलाती है । यह वातावरण अिमू षत होता है और
यहाँ पर व्यमक्त गणु ों की दृमष्ट से परर्ेश्र्वर के सर्कक्ष होता है । ऐसा ज्ञान प्राप्त करने के मलए र्नष्ट्ु य को सर्स्त
आध्यामत्र्क गुण उत्पन्न करने होते हैं । जो इस प्रकार से आध्यामत्र्क गुण उत्पन्न कर लेता है, वह भौमतक जगत् के
सृजन या उसके मवनाश से प्रभामवत नहीं होता ।

मम योनिममहद्ब्रह्म तनस्मन्गभं दधाम्यहम् ।


सम्भवः सवमभूतािां ततो भवनत भारत ।। ३ ।।

मम - र्ेरा; योनिः–जन्र्-स्त्रोत;महत् - सम्पूणम भौमतक जगत्;ब्रह्म - परर्; तनस्मि् - उसर्ें; गभमम् -


गभम;दधानम - उत्पन्न करता ह;ँ अहम् - र्ैं; सम्भवः - सम्भावना; सवम-भूतािाम् - सर्स्त जीवों का; ततः -
तत्पश्चात्; भवनत - होता है; भारत - हे भरत पुत्र ।

हे भरतपत्रु ! ब्रह्म िामक भौनतक वस्तु जन्म का स्त्रोत है और मैं इसी ब्रह्म को गभमस्य करता हूँ, नजससे
समस्त जीवों का जन्म होता है ।

तात्पयम: यह संसार की व्याख्या है - जो कुछ घमटत होता है वह क्षेत्र (शरीर) तर्ा क्षेत्रज्ञ (आत्र्ा) के संयोग से
होता है । प्रकृ मत और जीव का यह सयं ोग स्वयं भगवान् द्वारा सम्भव बनाया जाता है । र्हत्-तत्त्व ही सर्ग्र ब्रह्माण्ड का

४१८
सम्पणू म कारण है और भौमतक कारण की सर्ग्र वस्तु, मजसर्ें प्रकृ मत के तीनों गुण रहते हैं, कभी-कभी ब्रह्म कहलाती
है । परर्पुरुष इसी सर्ग्र वस्तु को गभमस्त करते हैं, मजससे असंख्य ब्रह्माण्ड सम्भव हो सके हैं ।वैमिक सामहत्य र्ें
(मण्ु ड उपस्नषर्् १.१.१) इस सर्ग्र भौमतक वस्तु को ब्रह्म कहा गया है - तस्मार्ेतर्् ब्रह्म नामरूपमन्नां च
जायते । परर्पुरुष उस ब्रह्म को जीवों के बीजों के सार् गभमस्त करता है । पृथ्वी, जल, अमग्न, वायु आमि चौबीसों तत्त्व
भौमतक शमक्त हैं और वे महर्् ब्रह्म अर्ामत् भौमतक प्रकृ मत के अवयव हैं । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें बताया जा चक ु ा
है मक इससे परे एक अन्य परा प्रकृ मत-जीव-होती है । भगवान् की इच्छा से यह परा-प्रकृ मत भौमतक (अपर) प्रकृ मत र्ें
मर्ला िी जाती है, मजसके बाि इस भौमतक प्रकृ मत से सारे जीव उत्पन्न होते हैं ।
मबच्छू अपने अंडे धान के ढेर र्ें िेती है और कभी-कभी यह कहा जाता है मक मबच्छू धान से उत्पन्न हुई
। लेमकन धान मबच्छू के जन्र् का कारण नहीं । वास्तव र्ें अडं े र्ाता मबच्छू ने मिए र्े । इसी प्रकार भौमतक प्रकृ मत जीवों
के जन्र् का कारण नहीं होती । बीज भगवान् द्वारा प्रित्त होता है और वे प्रकृ मत से उत्पन्न होते प्रतीत होते हैं । इस तरह
प्रत्येक जीव को उसके पूवमकर्ों के अनुसार मभन्न शरीर प्राप्त होता है, जो इस भौमतक प्रकृ मत द्वारा रमचत होता
है, मजसके कारण जीव अपने पूवम कर्ों के अनुसार सुख यािख ु भोगता है । इस भौमतक जगत् के जीवों की सर्स्त
अमभव्यमक्तयों के कारण भगवान् हैं ।

सवमयोनिषु कौन्तेय मूतमयः सम्भवनन्त याः ।


तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः नपता ।। ४ ।।

सवम-योनिषु - सर्स्त योमनयों र्ें;कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; मूतमयः - स्वरूप; सम्भवनन्त - प्रकट होते हैं; याः -
जो; तासाम् - उन सबों का;ब्रह्म - परर्; महत् योनिः - जन्र् स्त्रोत; अहम् - र्ैं; बीज-प्रदः - बीजप्रिाता;नपता -
मपता ।

हे कुन्तीपत्रु ! तमु यह समझ लो नक समस्त प्रकार की जीव-योनियाूँ इस भौनतक प्रकृ नत में जन्म द्वारा
सम्भव हैं और मैं उिका बीज-प्रदाता नपता हूँ ।

तात्पयम: इस श्लोक र्ें स्पष्ट बताया गया है मक भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण सर्स्त जीवों के आमि मपता हैं । सारे जीव
भौमतक प्रकृ मत तर्ा आध्यामत्र्क प्रकृ मत के संयोग हैं । ऐसे जीव के वल इस लोक र्ें ही नहीं, अमपतु प्रत्येक लोक
र्ें, यहाँ तक मक सवोच्च लोक र्ें भी, जहाँ ब्रह्मा आसीन हैं, पाये जाते हैं । जीव सवमत्र हैं - पृथ्वी, जल तर्ा अमग्न के
भीतर भी जीव हैं । ये सारे जीव र्ाता भौमतक प्रकृ मत तर्ा बीजप्रिाता कृ ष्ट्ण के द्वारा प्रकट होते हैं । तात्पयम यह है मक
भौमतक जगत् जीवों को गभम र्ें धारण मकये है, जो सृमष्टकाल र्ें अपने पूवमकर्ों के अनुसार मवमवध रूपों र्ें प्रकट होते
हैं ।

सत्त्वं रजस्तम इनत गुणाः प्रकृ नतसम्भवाः ।


निबध्िानन्त महाबाहो देहे देनहिमव्ययम् ।। ५ ।।

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सत्त्वम् - सतोगुण; रजः - रजोगुण; तमः - तर्ोगुण; इनत - इस प्रकार; गुणाः - गुण; प्रकृ नत - भौमतक प्रकृ मत
से; सम्भवाः - उत्पन्न; निबध्िनन्त - बाँधते हैं; महा-बाहो - हे बमलि भजु ाओ ं वाले; देहे - इस शरीर र्ें; देनहिम् -
जीव को; अव्ययम् - मनत्य, अमवनाशी ।

भौनतक प्रकृ नत तीि गुणों से युि है । ये हैं - सतो, रजो तथा तमोगुण । हे महाबाहु अजमिु ! जब शाश्र्वत
जीव प्रकृ नत के संसगम में आता है, तो वह इि गुणों से बूँध जाता है ।

तात्पयम: मिव्य होने के कारण जीव को इस भौमतक प्रकृ मत से कुछ भी लेना-िेना नहीं है । मिर भी भौमतक जगत्
द्वारा बद्ध हो जाने के कारण वह प्रकृ मत के तीनों गणु ों के जािू से वशीभतू होकर कायम करता है । चँमू क जीवों को प्रकृ मत
की मवमभन्न अवस्र्ाओ ं के अनुसार मभन्न-मभन्न प्रकार के शरीर मर्ले हुए हैं, अतएव वे उसी प्रकृ मत के अनुसार कर्म
करने के मलए प्रेररत होते हैं । यही अनेक प्रकार के सुख-िख ु का कारण है ।

तत्र सत्त्वं निममलत्वात्प्रकाशकमिामयम् ।


सुखसङ् गेि बध्िानत ज्ञािसङ् गेि चािघ ।। ६ ।।

तत्र - वहाँ;सत्त्वम् - सतोगुण; निममलत्वात् - भौमतक जगत् र्ें शद्ध


ु तर् होने के कारण; प्रकाशकम् - प्रकामशत
करता हुआ; अिामयम् - मकसी पापकर्म के मबना; सुख - सुख की; सङ् गेि - संगमत के द्वारा; बध्िानत - बाँधता
है; ज्ञाि - ज्ञान की; सङ् गेि - संगमत से; च - भी; अिघ - हे पापरमहत ।

हे निष्ट्पाप! सतोगण
ु अन्य गण
ु ों की अपेक्षा अनधक शद्ध
ु होिे के कारण प्रकाश प्रदाि करिे वाला और
मिुष्ट्यों को सारे पाप कमों से मुि करिे वाला है । जो लोग इस गुण में नस्थत होते हैं, वे सुख तथा ज्ञाि के
भाव से बूँध जाते हैं ।

तात्पयम: प्रकृ मत द्वारा बद्ध मकये गये जीव कई प्रकार के होते हैं । कोई सुखी है और कोई अत्यन्त कर्मि है, तो
िसू रा असहाय है । इस प्रकार र्नोभाव ही प्रकृ मत र्ें जीव की बद्धावस्र्ा के कारणस्वरूप हैं । भगवद्गीता के इस
अध्याय र्ें इसका वणमन हुआ है मक वे मकस प्रकार मभन्न-मभन्न प्रकार से बद्ध हैं । सवमप्रर्र् सतोगुण पर मवचार मकया
गया है । इस जगत् र्ें सतोगुण मवकमसत करने का लाभ यह होता है मक र्नुष्ट्य अन्य बद्धजीवों की तुलना र्ें अमधक
चतुर हो जाता है । सतोगुणी पुरुष को भौमतक कष्ट उतना पीमड़त नहीं करते और उसर्ें भौमतक ज्ञान की प्रगमत करने की
सूझ होती है । इसका प्रमतमनमध ब्राह्मण है, जो सतोगुणी र्ाना जाता है । सुख का यह भाव इस मवचार के कारण है मक
सतोगुण र्ें पापकर्ों से प्रायः र्क्त
ु रहा जाता है । वास्तव र्ें वैमिक सामहत्य र्ें यह कहा गया है मक सतोगुण का अर्म ही
है अमधक ज्ञान तर्ा सख ु का अमधकामधक अनभु व ।
सारी कमिनाई यह है मक जब र्नुष्ट्य सतोगुण र्ें मस्र्त होता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है मक वह ज्ञान र्ें
आगे है और अन्यों की अपेक्षा श्रेि है । इस प्रकार वह बद्ध हो जाता है । इसके उिाहरण वैज्ञामनक तर्ा िाशममनक
हैं । इनर्ें से प्रत्येक को अपने ज्ञान का गवम रहता है और चँमू क वे अपने रहन-सहन को सुधार लेते हैं, अतएव उन्हें
भौमतक सुख की अनुभमू त होती है । बद्ध जीवन र्ें अमधक सुख का यह भाव उन्हें भौमतक प्रकृ मत के गुणों से बाँध िेता

४२०
है । अतएव वे सतोगुण र्ें रहकर कर्म करने के मलए आकृ ष्ट होते हैं । और जब तक इस प्रकार कर्म करते रहने का
आकषमण बना रहता है, तब तक उन्हें मकसी न मकसी प्रकार का शरीर धारण करना होता है । इस प्रकार उनकी र्मु क्त की
या वैकुण्िलोक जाने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती । वे बारम्बार िाशममनक, वैज्ञामनक या कमव बनते रहते हैं और
बारम्बार जन्र्-र्ृत्यु के उन्हीं िोषों र्ें बँधते रहते हैं । लेमकन र्ाया-र्ोह के कारण वे सोचते हैं मक इस प्रकार का जीवन
आनन्िप्रि है ।

रजो रागात्मकं नवनद्ध तृष्ट्णासङ् गसमि


ु वम् ।
तनन्िबध्िानत कौन्तेय कममसङ् गेि देनहिम् ।। ७ ।।

रजो - रजोगुण; राग-आत्मकम् - आकांक्षा या कार् से उत्पन्न; नवनद्ध - जानो; तृष्ट्णा - लोभ से; सङ् ग -
सगं मत से; समुिवम् - उत्पन्न;तत् - वह; निबध्िानत - बाँधता है; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; कमम-सङ् गेि - सकार् कर्म
की संगमत से; देनहिम् - िेहधारी को ।

हे कुन्तीपुत्र! रजोगुण की उत्पनत्त असीम आकांक्षाओ ं तथा तृष्ट्णाओ ं से होती है और इसी के कारण से
यह देहधारी जीव सकाम कमों से बूँध जाता है ।

तात्पयम: रजोगुण की मवशेषता है, पुरुष तर्ा स्त्री का पारस्पररक आकषमण । स्त्री पुरुष के प्रमत और पुरुष स्त्री के
प्रमत आकमषमत होता है । यह रजोगुण कहलाता है । जब इस रजोगुण र्ें वृमद्ध हो जाती है, तो र्नुष्ट्य भोग के मलए
लालामयत होता है । वह इमन्द्रयतृमप्त चाहता है । इस इमन्द्रयतृमप्त के मलए वह रजोगुणी सर्ाज र्ें या राष्ट्र र्ें सम्र्ान
चाहता है और सन्ु िर सन्तान, स्त्री तर्ा घर समहत सख ु ी पररवार चाहता है । ये सब रजोगणु के प्रमतिल हैं । जब तक
र्नुष्ट्य इनकी लालसा करता रहता है, तब तक उसे कमिन श्रर् करना पड़ता है । अतः यहाँ पर यह स्पष्ट कहा गया है मक
र्नष्ट्ु य अपने कर्मिलों से सम्बद्ध होकर ऐसे कर्ों से बँध जाता है । अपनी स्त्री, पुत्रों तर्ा सर्ाज को प्रसन्न करने तर्ा
अपनी प्रमतिा बनाये रखने के मलए र्नुष्ट्य को कर्म करना होता है । अतएव सारा संसार ही न्यूनामधक रूप से रजोगुणी
है । आधमु नक सभ्यता र्ें रजोगुण का र्ानिण्ड ऊँचा है । प्राचीन काल र्ें सतोगुण को उच्च अवस्र्ा र्ाना जाता
र्ा । यमि सतोगुणी लोगों को र्मु क्त नहीं मर्ल पाती, तो जो रजोगुणी हैं, उनके मवषय र्ें क्या कहा जाए ?

तमस्त्वज्ञािजं नवनद्ध मोहिं सवमदेनहिाम् ।


प्रमादालस्यनिद्रानभस्तनन्िबध्िानत भारत ।। ८ ।।

तमः - तर्ोगुण; तु - लेमकन; अज्ञाि-जम् - अज्ञान से उत्पन्न; नवनद्ध - जानो; मोहिम् - र्ोह; सवम-देनहिाम् -
सर्स्त िेहधारी जीवों का; प्रमाद - पागलपन;आलस्य– आलस;निद्रानभः - तर्ा नींि द्वारा; तत् - वह; निबध्िानत -
बाँधता है; भारत - हे भरतपुत्र ।

हे भरतपुत्र! तुम जाि लो नक अज्ञाि से उत्पन्ि तमोगुण समस्त देहधारी जीवों का मोह है । इस गुण के
प्रनतिल पागलपि (प्रमाद), आलस तथा िींद हैं, जो बद्धजीव को बाूँधते हैं ।

४२१
तात्पयम: इस श्लोक र्ें तु शब्ि का प्रयोग उल्लेखनीय है । इसका अर्म है मक तर्ोगुण िेहधारी जीव का अत्यन्त
मवमचत्र गुण है । यह सतोगुण के सवमर्ा मवपरीत है । सतोगुण र्ें ज्ञान के मवकास से र्नुष्ट्य यह जान सकता है मक कौन
क्या है, लेमकन तर्ोगुण तो इसके सवमर्ा मवपरीत होता है । जो भी तर्ोगुण के िे र र्ें पड़ता है, वह पागल हो जाता है
और पागल पुरुष यह नहीं सर्झ पाता मक कौन क्या है । वह प्रगमत करने की बजाय अधोगमत को प्राप्त होता है । वैमिक
सामहत्य र्ें तर्ोगुण की पारीभाषा इस प्रकार िी गई है - वस्तुयार्ात्म्यज्ञानावरकं मवपयमयज्ञानजनकं तर्ः - अज्ञान से
वशीभतू होने पर कोई र्नष्ट्ु य मकसी वस्तु को यर्ारूप र्ें नहीं सर्झ पाता । उिाहरणार्म, प्रत्येक व्यमक्त िेखता है मक
उसका बाबा र्रा है, अतएव वह भी र्रे गा, र्नुष्ट्य र्त्यम है । उसकी सन्तानें भी र्रें गी । अतएव र्ृत्यु ध्रवु है । मिर भी
लोग पागल होकर धन सग्रं ह करते हैं और मनत्य आत्र्ा की मचन्ता मकये मबना अहमनमश किोर श्रर् करते रहते हैं । यह
पागलपन ही तो है । अपने पागलपण र्ें वे आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें कोई उन्नमत नहीं कर पाते । ऐसे लोग अत्यन्त आलसी
होते हैं । जब उन्हें आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें समम्र्मलत होने के मलए आर्मन्त्रत मकया जाता है, तो वे अमधक रूमच नहीं
मिखाते । वे रजोगुणी व्यमक्त की तरह भी समक्रय नहीं रहते । अतएव तर्ोगुण र्ें मलप्त व्यमक्त का एक अन्य गुण यह भी है
मक वह आवश्यकता से अमधक सोता है । छह घंटे की नींि पयामप्त है, लेमकन ऐसा व्यमक्त मिन भर र्ें िस-बारह घंटे तक
सोता है । ऐसा व्यमक्त सिैव मनराश प्रतीत होता है और भौमतक द्रव्यों तर्ा मनद्रा के प्रमत व्यसनी बन जाता है । ये हैं
तर्ोगुणी व्यमक्त के लक्षण ।

सत्त्वं सुखे सञ्जयनत रजः कममनण भारत ।


ज्ञािमावृत्य तु तमः प्रमादे सञ्जयत्युत ।। ९ ।।

सत्त्वम् - सतोगणु ; सख ु े - सख
ु र्ें; सञ्जयनत - बाँधता है; रजः - रजोगणु ; कममनण - सकार् कर्म र्ें; भारत -
हे भरतपुत्र; ज्ञािम् - ज्ञान को; आवृत्य - ढक कर; तु - लेमकन; तमः - तर्ोगुण; प्रमादे - पागलपन र्ें; सञ्जयनत -
बाँधता है; उत - ऐसा कहा जाता है ।

हे भरतपुत्र! सतोगुण मिुष्ट्य को सुख से बाूँधता है, रजोगुण सकाम कमम से बाूँधता है और तमोगुण
मिुष्ट्य के ज्ञाि को ढक कर उसे पागलपि से बाूँधता है ।

तात्पयम: सतोगुणी पुरुष अपने कर्म या बौमद्धक वृमत्त से उसी तरह सन्तुष्ट रहता है मजस प्रकार
िाशममनक, वैज्ञामनक या मशक्षक अपनी मवद्याओ ं र्ें मनरत रहकर सन्तुष्ट रहते हैं । रजोगुणी व्यमक्त सकार् कर्म र्ें लग
सकता है, वह यर्ासम्भव धन प्राप्त करके उसे उत्तर् कायों र्ें व्यय करता है । कभी-कभी वह अस्पताल खोलता है और
धर्ामर्म संस्र्ाओ ं को िान िेता है । ये लक्षण हैं, रजोगुणी व्यमक्त के , लेमकन तर्ोगुण तो ज्ञान को ढक िेता है । तर्ोगुण र्ें
रहकर र्नष्ट्ु य जो भी करता है, वह न तो उसके मलए, न मकसी अन्य के मलए महतकर होता है ।

रजस्तमश्र्चानभभयू सत्त्वं भवनत भारत ।


रजः सत्त्वं तमश्र्चैव तमः सत्त्वं रजस्तथा ।। १० ।।

४२२
रजः - रजोगुण; तमः - तर्ोगुण को; च - भी; अनभभूय - पार करके ; सत्त्वम् - सतोगुण; भवनत - प्रधान
बनता है; भारत - हे भरतपुत्र;रजः - रजोगुण; सत्त्वम् - सतोगुण को; तमः - तर्ोगुण; च - भी; एव - उसी
तरह; तमः - तर्ोगुण; सत्त्वम् - सतोगुण को; रजः - रजोगुण; तथा - इस प्रकार ।

हे भरतपुत्र! कभी-कभी सतोगुण रजोगुण तथा तमोगुण को परास्त करके प्रधाि बि जाता है तो कभी
रजोगुण सतो तथा तमोगुणों को परास्त कर देता है और कभी ऐसा होता है नक तमोगुण सतो तथा रजोगुणों
को परास्त कर देता है । इस प्रकार श्रेष्ठता के नलए निरन्तर स्पधाम चलती रहती है ।

तात्पयम: जब रजोगणु प्रधान होता है, तो सतो तर्ा तर्ोगणु परास्त रहते हैं । जब सतोगणु प्रधान होता है तो रजो
तर्ा तर्ोगुण परास्त हो जाते हैं । यह प्रमतयोमगता मनरन्तर चलती रहती है । अतएव जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें वास्तव र्ें
उन्नमत करने का इच्छुक है, उसे इन तीनों गुणों को लाँघना पड़ता है । प्रकृ मत के मकसी एक गुण की प्रधानता र्नुष्ट्य के
आचरण र्ें, उसके कायमकलापों र्ें, उसके खान-पान आमि र्ें प्रकट होती रहती है । इन सबकी व्याख्या अगले अध्यायों
र्ें की जाएगी । लेमकन यमि कोई चाहे तो वह अभ्यास द्वारा सतोगुण मवकमसत कर सकता है और इस प्रकार रजो तर्ा
तर्ोगुणों को परास्त कर सकता है । इस प्रकार से रजोगुण मवकमसत करके तर्ो तर्ा सतो गुणों को परास्त कर सकता
है । अर्वा कोई चाहे तो वह तर्ोगुण को मवकमसत करके रजो तर्ा सतोगुणों को परास्त कर सकता है । यद्यमप प्रकृ मत
के ये तीन गुण होते हैं, मकन्तु यमि कोई संकल्प कर ले तो उसे सतोगुण का आशीवामि तो मर्ल ही सकता है और वह
इसे लाँघ कर शुद्ध सतोगुण र्ें मस्र्त हो सकता है, मजसे वासुर्ेव अवस्र्ा कहते हैं, मजसर्ें वह ईश्र्वर के मवज्ञान को
सर्झ सकता है । मवमशष्ट कायों को िेख कर ही सर्झा जा सकता है मक कौन व्यमक्त मकस गुण र्ें मस्र्त है ।

सवमद्वारेषु देहेऽनस्मन्प्रकाश उपजायते ।


ज्ञािं यदा तदा नवद्यानद्ववृद्धं सत्त्वनमत्युत ।। ११ ।।

सवम-द्वारेषु - सारे िरवाजों र्ें; देहे अनस्मि् - इस शरीर र्ें; प्रकाशः - प्रकामशत करने का गुण; उपजायते -
उत्पन्न होता है; ज्ञािम् - ज्ञान; यदा - जब; तदा - उस सर्य; नवद्यात् - जानो; नववृद्धम - बढ़ा हुआ; सत्त्वम् -
सतोगुण; इनत उत - ऐसा कहा गया है ।

सतोगुण की अभीव्यनि को तभी अिुभव नकया जा सकता है, जब शरीर के सारे द्वार ज्ञाि के प्रकाश
से प्रकानशत होते हैं ।

तात्पयम: शरीर र्ें नौ द्वार हैं - िो आँखें, िो कान, िो नर्ुने, र्ँहु , गुिा तर्ा उपस्र् । जब प्रत्येक द्वार सत्त्व के
लक्षण से िीमपत हो जायें, तो सर्झना चामहए मक उसर्ें सतोगणु मवकमसत हो चक ू ा है । सतोगणु र्ें सारी वस्तएु ँ अपनी
सही मस्र्मत र्ें मिखती हैं, सही-सही सुनाई पड़ता है और सही ढंग से उन वस्तुओ ं का स्वाि मर्लता है । र्नुष्ट्य का
अन्तः तर्ा बाह्य शद्ध
ु हो जाता है । प्रत्येक द्वार र्ें सख
ु के लक्षण मिखते हैं और यही मस्र्मत होती है सत्त्वगणु की ।

लोभः प्रवृनत्तरारम्भः कममणामशमः स्पृहा ।

४२३
रजस्येतानि जायन्ते नववृद्धे भरतषमभ ।। १२ ।।

लोभः - लोभ; प्रवृनत्तः - कायम; आरम्भः - उद्यर्; कममणाम् - कर्ों र्ें; अशमः - अमनयमन्त्रत; स्पृहा -
इच्छा; रजनस - रजोगुण र्ें; एतानि - ये सब; जायन्ते - प्रकट होते हैं; नववृद्धे - अमधकता होने पर; भरत-ऋषभ - हे
भरतवंमशयों र्ें प्रर्ख
ु ।

हे भरतवनं शयों में प्रमख


ु ! जब रजोगण
ु में वृनद्ध हो जाती है, तो अत्यनधक आसनि, सकाम कमम, गहि
उद्यम तथा अनियनन्त्रत इच्छा एवं लालसा के लक्षण प्रकट होते हैं ।

तात्पयम: रजोगुणी व्यमक्त कभी भी पहले से प्राप्त पि से संतुष्ट नहीं होता, वह अपना पि बढाने के मलए
लालामयत रहता है । यमि उसे र्कान बनवाना है, तो वह र्हल बनवाने के मलए भरसक प्रयत्न करता है, र्ानो वह उस
र्हल र्ें सिा रहेगा । वह इमन्द्रय-तृमप्त के मलए अत्यमधक लालसा मवकमसत कर लेता है । उसर्ें इमन्द्रयतृमप्त की कोई
सीर्ा नहीं है । वह सिैव अपने पररवार के बीच तर्ा अपने घर र्ें रह कर इमन्द्रयतृमप्त करते रहना चाहता है । इसका कोई
अन्त नहीं है । इन सारे लक्षणों को रजोगुण की मवशेषता र्ानना चामहए ।

अप्रकाशोऽप्रवृनत्तश्र्च प्रमादो मोह एव च ।


तमस्येतानि जायन्ते नववृद्धे कुरुिन्दि ।। १३ ।।

अप्रकाशः - अँधेरा; अप्रवृनत्तः - मनमष्ट्क्रयता; च - तर्ा; प्रमादः - पागलपन; मोहः - र्ोह; एव - मनश्चय
ही; च - भी; तमनस - तर्ोगणु ; एतानि - ये; जायन्ते - प्रकट होते हैं; नववृद्धे - बढ़ जाने पर; कुरु-िन्दि - हे कुरुपत्रु ।

जब तमोगण
ु में वृनद्ध हो जाती है, तो हे कुरुपत्रु ! अूँधेरा, जडता, प्रमत्तता तथा मोह का प्राकट् य होता
है ।

तात्पयम: जहाँ प्रकाश नहीं होता, वहाँ ज्ञान अनुपमस्र्त रहता है । तर्ोगुणी व्यमक्त मकसी मनयर् र्ें बँधकर कायम
नहीं करता । वह अकारण ही अपनी सनक के अनुसार कायम करना चाहता है । यद्यमप उसर्ें कायम करने की क्षर्ता होती
है, मकन्तु वह पररश्रर् नहीं करता । यह र्ोह कहलाता है । यद्यमप चेतना रहती है, लेमकन जीवन मनमष्ट्क्रय रहता है । ये
तर्ोगुण के लक्षण हैं ।

यदा सत्त्वे प्रवृद्धे तु प्रलयं यानत देहभृत् ।


तदोत्तमनवदां लोकािमलान्प्रनतपद्यते ।। १४ ।।

यदा - जब; सत्त्वे - सतोगणु र्ें; प्रवृद्धे - बढ़ जाने पर; तु - लेमकन; प्रलयम् - सहं ार, मवनाश को; यानत -
जाता है; देह-भृत् - िेहधारी; तदा - उस सर्य; उत्तम-नवदाम् - ऋमषयों के ; लोकाि् - लोकों को; अमलाि् -
शद्ध
ु ; प्रनतपद्यते - प्राप्त करता है ।

४२४
जब कोई सतोगुण में मरता है, तो उसे महनषमयों के नवशुद्ध उच्चतर लोकों की प्रानप्त होती है ।

तात्पयम: सतोगुणी व्यमक्त ब्रह्मलोक या जनलोक जैसे उच्च लोकों को प्राप्त करता है और यहाँ िैवी सुख भोगता
है । अमलान् शब्ि र्हत्त्वपूणम है । इसका अर्म है, “रजो तर्ा तर्ोगुण से र्क्त
ु ” । भौमतक जगत र्ें अशमु द्धयाँ हैं, लेमकन
सतोगुण सवाममधक शुद्ध रूप है । मवमभन्न जीवों के मलए मवमभन्न प्रकार के लोक हैं । जो लोग सतोगुण र्ें र्रते हैं, वे उन
लोकों को जाते हैं, जहाँ र्हमषम तर्ा र्हान भक्तगण रहते हैं ।

रजनस प्रलयं गत्वा कममसङ् नगषु जायते ।


तथा प्रलीिस्तमनस मूढयोनिषु जायते ।। १५ ।।

रजनस - रजोगुण र्ें; प्रलयम् - प्रलय को; गत्वा - प्राप्त करके ; कमम-सङ् नगषु - सकार् कमर्मयों की संगमत
र्ें; जायते - जन्र् लेता है; तथा - उसी प्रकार; प्रलीिः - मवलीन होकर; तमनस - अज्ञान र्ें; मूढ-योनिषु - पशयु ोमन
र्ें; जायते - जन्र् लेता है ।

जब कोई रजोगुण में मरता है, तो वह सकाम कनममयों के बीच जन्म ग्रहण करता है और जब कोई
तमोगुण में मरता है, तो वह पशुयोनि में जन्म धारण करता है ।

तात्पयम: कुछ लोगों का मवचार है मक एक बार र्नुष्ट्य जीवन को प्राप्त करके आत्र्ा कभी नीचे नहीं मगरता । यह
िीक नहीं है । इस श्लोक के अनुसार, यमि कोई तर्ोगणु ी बन जाता है, तो वह र्ृत्यु के बाि पशयु ोमन को प्राप्त होता
है । वहाँ से र्नुष्ट्य को मवकास प्रक्रर् द्वारा पुनः र्नुष्ट्य जीवन तक आना पड़ता है । अतएव जो लोग र्नुष्ट्य जीवन के
मवषय र्ें सचर्चु मचमन्तत हैं, उन्हें सतोगणु ी बनना चामहए और अच्छी संगमत र्ें रहकर गणु ों को लाँघ कर
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होना चामहए । यही र्नुष्ट्य जीवन का लक्ष्य है । अन्यर्ा इसकी कोई गारंटी (मनमश्चतता) नहीं
मक र्नुष्ट्य को मिर से र्नुष्ट्ययोमन प्राप्त हो ।

कममणः सुकृतस्याहु: सानत्त्वकं निममलं िलम् ।


रजसस्तु िलं दु:खमज्ञािं तमसः िलम् ।। १६ ।।

कममणः - कर्म का; स-ु कृ तस्य - पुण्य; आहुः - कहा गया है; सानत्त्वकम् - सामत्त्वक; निममलम् -
मवशद्ध
ु ; िलम् - िल; रजसः - रजोगुण का; तु - लेमकन; िलम् - िल; दुःखम् - िखु ; अज्ञािम् - व्यर्म; तमसः -
तर्ोगणु का; िलम् - िल ।

पण्ु यकमम का िल शद्ध


ु होता है और सानत्त्वक कहलाता है । लेनकि रजोगण ु में सम्पन्ि कमम का िल
दुख होता है और तमोगुण में नकये गये कमम मूखमता में प्रनतिनलत होते हैं ।

४२५
तात्पयम: सतोगुण र्ें मकये गये पुण्यकर्ों का िल शद्ध ु होता है अतएव वे र्मु नगण, जो सर्स्त र्ोह से र्क्त
ु होते
हैं, सुखी रहते हैं । लेमकन रजोगुण र्ें मकये गये कर्म िख ु के कारण बनते हैं । भौमतक सुख के मलए जो भी कायम मकया
जाता है उसका मविल होना मनमश्चत है । उिाहरणार्म, यमि कोई गगनचम्ु बी प्रासाि बनवाना चाहता है तो उसके बनने के
पूवम अत्यमधक कष्ट उिाना पड़ता है । र्ामलक को धन-संग्रह के मलए कष्ट उिाना पड़ता है और प्रासाि बनाने वाले
श्रमर्यों को शारीररक श्रर् करना होता है । इस प्रकार कष्ट तो होते ही हैं । अतएव भगवद्गीता का कर्न है मक रजोगुण
के अधीन होकर जो भी कर्म मकया जाता है उसर्ें मनमश्चत रूप से र्हान कष्ट भोगने होते हैं । इससे यह र्ानमसक तुमष्ट हो
सकती है मक र्ैंने यह र्कान बनवाया या इतना धन कर्ाया लेमकन यह कोई वास्तमवक सख ु नहीं है । जहाँ तक तर्ोगणु
का सम्बन्ध है कताम को कुछ ज्ञान नहीं रहता अतएव उसके सर्स्त कायम उस सर्य िख ु िायक होते हैं और बाि र्ें उसे
पशु जीवन र्ें जाना होता है । पशु जीवन सिैव िख ु र्य है, यद्यमप र्ाया के वशीभ त
ू होकर वे इसे सर्झ नहीं पाते ।
पशओ ु ं का वध भी तर्ोगुण के कारण है । पश-ु वमधक यह नहीं जानते मक भमवष्ट्य र्ें इस पशु को ऐसा शारीर प्राप्त
होगा, मजससे वह उनका वध करे गा । यही प्रकृ मत का मनयर् है । र्ानव सर्ाज र्ें यमि कोई मकसी र्नुष्ट्य का वध कर िे
तो उसे प्राणिण्ड मर्लता है । यह राजय का मनयर् है । अज्ञान वश लोग यह अनुभव नहीं करते मक परर्ेश्र्वर द्वारा
मनयमन्त्रत एक पूरा राजय है । प्रत्येक जीमवत प्राणी परर्ेश्र्वर की सन्तान है और उन्हें एक चींटीतक का र्ारा जाना सह्य
नहीं है । इसके मलए र्नुष्ट्य को िण्ड भोगना पड़ता है । अतएव स्वाि के मलए पशु वध र्ें रत रहना घोर अज्ञान है ।
र्नुष्ट्य को पशुओ ं के वध की आवश्यकता नहीं है, क्योंमक ईश्र्वर ने अनेक अच्छी वस्तुएँ प्रिान कर रखी हैं । यमि कोई
मकसी कारण से र्ांसाहार करता है तो यह सर्झना चामहए मक वह अज्ञानवश ऐसा कर रहा है और अपने भमवष्ट्य को
अंधकारर्य बना रहा है । सर्स्त प्रकार के पशओ ु ं र्ें से गोवध सवाममधक अधर् है क्योंमक गाय हर्ें िधू िेकर सभी
प्रकार का सुख प्रिान करने वाली है । गोवध एक प्रकार से सबसे अधर् कर्म है । वैमिक सामहत्य र्ें (ऋग्वेि
९.4.६४) गोस्भः प्रीस्णत-मत्सरम् सूमचत करता है मक जो व्यमक्त िधू पीकर गाय को र्ारना चाहता है वह सबसे बड़े
अज्ञान र्ें रहता है । वैमिक ग्रर्ं ों र्ें (स्वष्ण-ु परु ाण १.१९.६५) एक प्रार्मना भी है जो इस प्रकार है -
नमो ब्रह्मण्यर्ेवाय गोब्राह्मणस्हताय च ।
जगस्द्धताय ृ ष्णाय गोस्वन्र्ाय नमो नमः ।।
“हे प्रभ!ु आप गायों तर्ा ब्राह्मणों के महतैषी हैं और आप सर्स्त र्ानव सर्ाज तर्ा मवश्र्व के महतैषी हैं ।”
तात्पयम यह है मक इस प्रार्मना र्ें गायों तर्ा ब्राह्मणों की रक्षा का मवशेष उल्लेख है । ब्राह्मण आध्यामत्र्क मशक्षा के
प्रतीक हैं और गाएँ र्हत्त्वपूणम भोजन की, अतएव इन िोनों जीवों, ब्राह्मणों तर्ा गायों, को पूरी सुरक्षा प्रिान की जानी
चामहए । यही सभ्यता की वास्तमवक प्रगमत है । आधमु नक सर्ाज र्ें आध्यामत्र्क ज्ञान की उपेक्षा की जाती है और
गोवध को प्रोत्सामहत मकया जाता है । इससे यही ज्ञात होता है मक र्ानव सर्ाज मवपरीत मिशा र्ें जा रहा है और अपनी
भत्समना का पर् प्रशस्त कर रहा है । जो सभ्यता अपने नागररकों को अगले जन्र्ों र्ें पशु बनने के मलए र्ागमिशमन करती
हो, वह मनमश्चत रूप से र्ानव सभ्यता नहीं है । मनस्सन्िेह, आधमु नक र्ानव-सभ्यता रजोगुण तर्ा तर्ोगुण के कारण
कुर्ागम पर जा रही है । यह अत्यन्त घातक युग है और सर्स्त राष्ट्रों को चामहए मक र्ानवता को र्हानतर् संकट से
बचाने के मलए कृ ष्ट्णभावनार्ृत की सरलतर् मवमध प्रिान करें ।

सत्त्वात्सञ्जायते ज्ञािं रजसो लोभ एव च ।


प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञािमेव च ।। १७ ।।

४२६
सत्त्वात् - सतोगुण से;सञ्जायते - उत्पन्न होता है; ज्ञािम् - ज्ञान; रजसः - रजोगुण से; लोभः - लालच; एव -
मनश्चय ही; च - भी; प्रमाद - पागलपन; मोहौ - तर्ा र्ोह; तमसः - तर्ोगुण से; भवतः - होता है; अज्ञािम् -
अज्ञान; एव - मनश्चय ही; च - भी ।

सतोगुण से वास्तनवक ज्ञाि उत्पन्ि होता है, रजोगुण से लोभ उत्पन्ि होता है और तमोगुण से
अज्ञाि, प्रमाद और मोह उत्पन्ि होता हैं ।

तात्पयम: चँमू क वतमर्ान सभ्यता जीवों के मलए अमधक अनुकूल नहीं है, अतएव उनके मलए कृ ष्ट्णभावनार्ृत की
सस्ं तमु त की जाती है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत के र्ाध्यर् से सर्ाज र्ें सतोगणु मवकमसत होगा । सतोगणु मवकमसत हो जाने पर
लोग वस्तुओ ं को असली रूप र्ें िेख सकें गे । तर्ोगुण र्ें रहने वाले पश-ु तुल्य होते हैं और वे वस्तुओ ं को स्पष्ट रूप र्ें
नहीं िेख पाते । उिाहरणार्म, तर्ोगुण र्ें रहने के कारण लोग यह नहीं िेख पाते मक मजस पशु का वे वध कर रहे हैं, उसी
के द्वारा वे अगले जन्र् र्ें र्ारे जाएँगे । वास्तमवक ज्ञान की मशक्षा न मर्लने के कारण वे अनुत्तरिायी बन जाते हैं । इस
उच्छृ ं खलता को रोकने के मलए जनता र्ें सतोगुण उत्पन्न करने वाली मशक्षा िेना आवश्यक है । सतोगुण र्ें मशमक्षत हो
जाने पर वे गम्भीर बनेंगे और वस्तुओ ं को उनके सही रूप र्ें जान सकें गे । तब लोग सुखी तर्ा सम्पन्न हो सकें गे । भले
ही अमधकांश लोग सुखी तर्ा सर्ृद्ध न बन पायें, लेमकन यमि जनता का कुछ भी अंश कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवकमसत कर
लेता है और सतोगुणी बन जाता है, तो सारे मवश्र्व र्ें शामन्त तर्ा सम्पन्नता की सम्भावना है । नहीं तो, यमि मवश्र्व के
लोग रजोगुण तर्ा तर्ोगुण र्ें लगे रहे तो शामन्त और सम्पन्नता नहीं रह पायेगी । रजोगुण र्ें लोग लोभी बन जाते हैं
और इमन्द्रय-भोग की उनकी लालसा की कोई सीर्ा नहीं होती । कोई भी यह िेख सकता है मक भले ही मकसी के पास
प्रचरु धन तर्ा इमन्द्रयतृमप्त के मलए पयामप्त साधन हों, लेमकन उसे न तो सुख मर्लता है, न र्नःशामन्त । ऐसा संभव भी
नहीं है, क्योंमक वह रजोगणु र्ें मस्र्त है । यमि कोई रंचर्ात्र भी सख ु चाहता है, तो धन उसकी सहायता नहीं कर
सके गा, उसे कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अभ्यास द्वारा अपने आपको सतोगुण र्ें मस्र्त करना होगा । जब कोई रजोगुण र्ें रत
रहता है, तो वह र्ानमसक रूप से ही अप्रसन्न नहीं रहता अमपतु उसकी वृमत्त तर्ा उसका व्यवसाय भी अत्यन्त
कष्टकारक होते हैं । उसे अपनी र्यामिा बनाये रखने के मलए अनेकानेक योजनाएँ बनानी होती हैं । यह सब कष्टकारक
है । तर्ोगुण र्ें लोग पागल (प्रर्त्त) हो जाते हैं । अपनी पररमस्र्मतयों से ऊब कर के र्द्य-सेवन की शरण ग्रहण करते हैं
और इस प्रकार वे अज्ञान के गतम र्ें अमधकामधक मगरते हैं । जीवन र्ें उनका भमवष्ट्य-जीवन अन्धकारर्य होता है ।

ऊध्वं गच्छनन्त सत्त्वस्था मध्ये नतष्ठनन्त राजसाः ।


जघन्यगुणवृनत्तस्था अधो गच्छनन्त तामसाः ।। १८ ।।

ऊध्वमम् - ऊपर; गच्छनन्त - जाते हैं; सत्त्व-स्थाः - जो सतोगुण र्ें मस्र्त हैं; मध्ये - र्ध्य र्ें; नतष्ठनन्त - मनवास
करते हैं;राजसाः - रजोगणु ी; जघन्य - गमहमत; वृनत्त-स्थाः - मजनकी वृमत्तयाँ या व्यवसाय; अधः -
नीचे, मनम्न;गच्छनन्त - जाते हैं; तामसाः - तर्ोगुणी लोग ।

सतोगुणी व्यनि क्रमशः उच्च लोकों को ऊपर जाते हैं,रजोगुणी इसी पृथ्वीलोक में रह जाते हैं, और
जो अत्यन्त गनहमत तमोगुण में नस्थत हैं, वे िीचे िरक लोकों को जाते हैं ।

४२७
तात्पयम : इस श्लोक र्ें तीनों गुणों के कर्ों के िल को स्पष्ट रूप से बताया गया है । ऊपर के लोकों या
स्वगमलोकों र्ें, प्रत्येक व्यमक्त अत्यन्त उन्नत होता है । जीवों र्ें मजस र्ात्रा र्ें सतोगुण का मवकास होता है, उसी के
अनुसार उसे मवमभन्न स्वगम-लोकों र्ें भेजा जाता है । सवोच्च-लोक सत्य-लोक या ब्रह्मलोक है,जहाँ इस ब्रह्माण्ड के
प्रधान व्यमक्त, ब्रह्माजी मनवास करते हैं । हर् पहले ही िेख चकु े हैं मक ब्रह्मलोक र्ें मजस प्रकार जीवन की आश्चयमजनक
पररमस्र्मत है, उसका अनुर्ान करना कमिन है । तो भी सतोगुण नार्क जीवन की सवोच्च अवस्र्ा हर्ें वहाँ तक पहुचँ ा
सकती है ।
रजोगुण मर्मश्रत होता है । यह सतो तर्ा तर्ोगुण के र्ध्य र्ें होता है । र्नुष्ट्य सिैव शद्ध
ु नहीं होता,लेमकन यमि
वह पणू मतया रजोगणु ी हो, तो वह इस पृथ्वी पर के वल राजा या धमन व्यमक्त के रूप र्ें रहता है । लेमकन गणु ों का मर्श्रण
होते रहने से वह नीचे भी जा सकता है । इस पृथ्वी पर रजो या तर्ोगुणी लोग बलपूवमक मकसी र्शीन के द्वारा उच्चतर-
लोकों र्ें नहीं पहुचँ सकते । रजोगुण र्ें इसकी सम्भावना है मक अगले जीवन र्ें कोई प्रर्त्त हो जाये ।
यहाँ पर मनम्नतर् गुण, तर्ोगुण, को अत्यन्त गमहमत (जघन्य) कहा गया है । अज्ञानता (तर्ोगुण) मवकमसत करने
का पररणार् अत्यन्त भयावह होता है । यह प्रकृ मत का मनम्नतर् गुण है । र्नुष्ट्य-योमन से नीचे
पमक्षयों, पशुओ,ं सरीसृपों, वृक्षों आमि की अस्सी लाख योमनयाँ हैं, और तर्ोगुण के मवकास के अनुसार ही लोगों को
ये अधर् योमनयाँ प्राप्त होती रहती हैं । यहाँ पर तामसाः शब्ि अत्यन्त सार्मक है । यह उनका सूचक है, जो उच्चतर गुणों
तक ऊपर न उि कर मनरन्तर तर्ोगुण र्ें ही बने रहते हैं । उनका भमवष्ट्य अत्यन्त अंधकारर्य होता है ।
तर्ोगुणी तर्ा रजोगुणी लोगों के मलए सतोगुणी बनने का सुअवसर है और यह कृ ष्ट्णभावनार्ृत मवमध से मर्ल
सकता है । लेमकन जो इस सुअवसर का लाभ नहीं उिाता, वह मनम्नतर गुणों र्ें बना रहेगा ।

िान्यं गण ु ेभ्यः कतामरं यदा द्रष्टािपु श्यनत ।


गुिेभ्यश्र्च परं वेनत्त मिावं सोऽनधगच्छनत ।। १९ ।।

ि - नहीं; अन्यम् - िसू रा; गुणेभ्यः - गुणों के अमतररक्त; कतामरम् - कताम; यदा - जब; द्रष्टा - िेखने
वाला; अिुपश्यनत - िीक से िेखता है; गुणेभ्यः - गुणों से; च - तर्ा; परम् - मिव्य; वेनत्त - जानता है; मत्-भावम् -
र्ेरे मिव्य स्वभाव को; सः - वह; अनधगच्छनत - प्राप्त होता है ।

जब कोई यह अच्छी तरह जाि लेता है नक समस्त कायों में प्रकृ नत के तीिों गुणों के अनतररि अन्य
कोई कताम िहीं है और जब वह परमेश्र्वर को जाि लेता है, जो इि तीिों गुणों से परे है, तो वह मेरे नदव्य
स्वभाव को प्राप्त होता है ।

तात्पयम: सर्मु चत र्हापरुु षों से के वल सर्झकर तर्ा सर्मु चत ढगं से सीख कर र्नष्ट्ु य प्रकृ मत के गणु ों के सारे
कायमकलापों को लाँघ सकता है । वास्तमवक गुरु कृ ष्ट्ण हैं और वे अजुमन को यह मिव्य ज्ञान प्रिान कर रहे हैं । इसी प्रकार
जो लोग पणू मतया कृ ष्ट्णभावनाभामवत हैं, उन्हीं से प्रकृ मत के तीनों गणु ों के कायों के इस ज्ञान को सीखना होता
है । अन्यर्ा र्नुष्ट्य का जीवन कुर्ागम र्ें चला जाता है । प्रार्ामणक गुरु के उपिेश से जीव अपनी आध्यामत्र्क
मस्र्मत, अपने भौमतक शरीर, अपनी इमन्द्रयाँ, तर्ा प्रकृ मत के गुणों के अपनी बद्धावस्र्ा होने के बारे र्ें जान सकता

४२८
है । वह इन गुणों की जकड़ र्ें होने से असहाय होता है लेमकन अपनी वास्तमवक मस्र्मत िेख लेने पर वह मिव्य स्तर को
प्राप्त कर सकता है, मजसर्ें आध्यामत्र्क जीवन के मलए अवकाश होता है । वस्तुतः जीव मवमभन्न कर्ों का कताम नहीं
होता । उसे बाध्य होकर कर्म करना पड़ता है, क्योंमक वह मवशेष प्रकार के शरीर र्ें मस्र्त रहता है, मजसका संचालन
प्रकृ मत का कोई गुण करता है । जब तक र्नुष्ट्य को मकसी आध्यामत्र्क र्ान्यता प्राप्त व्यमक्त की सहायता नहीं
मर्लती, तब तक वह यह नहीं सर्झ सकता मक वह वास्तव र्ें कहाँ मस्र्त है । प्रार्ामणक गुरु की संगमत से वह अपनी
वास्तमवक मस्र्मत सर्झ सकता है और उसे सर्झ लेने पर, वह पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्र हो सकता
है । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त कभी भी प्रकृ मत के गणु ों के चर्त्कार से मनयमन्त्रत नहीं होता । सातवें अध्याय र्ें बताया
जा चक ु ा है मक जो कृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाता है, वह प्रकृ मत के कायों से र्क्त
ु हो जाता है । जो व्यमक्त वस्तुओ ं को
यर्ारूप र्ें िेख सकता है, उस पर प्रकृ मत का प्रभाव क्रर्शः घटता जाता है ।

गुणािेताितीत्य त्रीन्देही देहसमुिवाि् ।


जन्ममृत्युजरादु:खैनवममुिोऽमृतमश्र्िुते ।। २० ।।

गुणाि् - गुणों को; एताि् - इन सब; अतीत्य - लाँघ कर; त्रीि् - तीन; देही - िेहधारी; देह -
शरीर; समुिवाि् - उत्पन्न; जन्म - जन्र्; मृत्यु - र्ृत्यु; जरा - बुढ़ापे का; दुःखै - िख
ु ों से; नवमुिः -
र्क्त
ु ; अमृतम् - अर्ृत; अश्नुते - भोगता है ।

जब देहधारी जीव भौनतक शरीर से सम्बद्ध इि तीिों गुणों को लाूँघिे में समथम होता है, तो वह
जन्म, मृत्य,ु बुढापा तथा अिेक कष्टों से मुि हो सकता है और इसी जीवि में अमृत का भोग कर सकता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें बताया गया है मक मकस प्रकार इसी शरीर र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत होकर मिव्य मस्र्मत र्ें रहा
जा सकता है । सस्ं कृ त शब्ि र्ेही का अर्म है िेहधारी । यद्यमप र्नष्ट्ु य इस भौमतक शरीर के भीतर रहता है, लेमकन अपने
आध्यामत्र्क ज्ञान की उन्नमत के द्वारा वह प्रकृ मत के गुणों के प्रभाव से र्ुक्त हो सकता है । वह इसी शरीर र्ें
आध्यामत्र्क जीवन का सुखोपभोग कर सकता है, क्योंमक इस शरीर के बाि उसका वैकुण्ि जाना मनमश्चत है । लेमकन
वह इसी शरीर र्ें आध्यामत्र्क सुख उिा सकता है । िसू रे शब्िों र्ें, कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त करना भव-पाश से र्मु क्त
का संकेत है और अध्याय १८ र्ें इसकी व्याख्या की जायेगी । जब र्नुष्ट्य प्रकृ मत के गुणों के प्रभाव से र्क्तु हो जाता
है, वह भमक्त र्ें प्रमवष्ट होता है ।

अजमिु उवाच ।
कै नलमङ्गैस्त्रीन्गुणािेताितीतो भवनत प्रभो ।
नकमाचारः कथं चेतास्त्र ं ीन्गण
ु ािनतवतमते ।। २१ ।।

अजमिु ःउवाच - अजमुन ने कहा; कै ः - मकन; नलङगैः - लक्षणों से; त्रीि् - तीनों; गण
ु ाि् - गणु ों को; एताि् - ये
सब; अतीतः - लाँघा हुआ; भवनत - है; प्रभो - हे प्रभ;ु नकम् - क्या; आचारः - आचरण; कथम् - कै से; च -
भी; एताि् - ये; त्रीि् - तीनों;गुणाि् - गुणों को; अनतवतमते - लाँघता है ।

४२९
अजमिु िे पूछा - हे भगवाि्! जो इि तीिों गुणों से परे है, वह नकि लक्षणों के द्वारा जािा जाता
है ? उसका आचरण कै सा होता है ? और वह प्रकृ नत के गुणों को नकस प्रकार लाूँघता है ?

तात्पयम: इस श्लोक र्ें अजुमन के प्रश्न अत्यन्त उपयुक्त हैं । वह उस पुरुष के लक्षण जानना चाहता है, मजसने
भौमतक गणु ों को लाँघ मलया है । सवमप्रर्र् वह ऐसे मिव्य पुरुष के लक्षणों के मवषय र्ें मजज्ञासा करता है मक कोई कै से
सर्झे मक उसने प्रकृ मत के गणु ों के प्रभाव को लाँघ मलया है ? उसका िसू रा प्रश्न है मक ऐसा व्यमक्त मकस प्रकार रहता है
और उसके कायमकलाप क्या हैं ? क्या वे मनयमर्त होते हैं, या अमनयमर्त? मिर अजुमन उन साधनों के मवषय र्ें पूछता
है, मजससे वह मिव्य स्वभाव (प्रकृ मत) प्राप्त कर सके । यह अत्यन्त र्हत्त्वपणू म है । जब तक कोई उन प्रत्यक्ष साधनों को
नहीं जानता, मजनसे वह सिैव मिव्य पि पर मस्र्त रहे, तब तक लक्षणों के मिखने का प्रश्न ही नहीं उिता । अतएव
अजुमन द्वारा पूछे गये ये सारे प्रश्न अत्यन्त र्हत्त्वपूणम हैं और भगवान् उनका उत्तर िेते हैं ।

श्रीभगवानवु ाच ।
प्रकाशं च प्रवृनत्तं च मोहमेव च पाण्डव ।
ि द्वेनष्ट सम्प्रवृत्तानि ि निवृत्तानि काङ् क्षनत ।। २२ ।।
उदासीिवदासीिो गुणैयो ि नवचाल्यते ।
गुणा वतमन्त इत्येवं योऽवनतष्ठनत िेङ्गते ।। २३ ।।
समदु:खसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चिः ।
तुल्यनप्रयानप्रयो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुनतः ।। २४ ।।
मािापमाियोस्तल्ु यस्तल्ु यो नमत्राररपक्षयो: ।
सवामरम्भपररत्यागी गुणातीतः स उच्यते ।। २५ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; प्रकाशम् - प्रकाश; च - तर्ा;प्रवृनत्तम् - आसमक्त; च - तर्ा; मोहम् -
र्ोह;एव च - भी; पाण्डव - हे पाण्डुपुत्र; ि द्वेनष्ट - घृणा नहीं करता; सम्प्रवृत्तानि - यद्यमप मवकमसत होने पर; ि
निवृत्तानि - न ही मवकास रुकने पर; काङ् क्षनत - चाहता है; उदासीि-वत् - मनरपेक्ष की भाँमत ;आसीिः -
मस्र्त; गुणैः - गुणों के द्वारा;यः - जो; ि - कभी नहीं; नवचाल्यते - मवचमलत होता है; गुणाः - गुण; वतमन्ते -
कायमशील होते हैं; इनत एवम् - इस प्रकार जानते हुए; यः - जो; अवनतष्ठनत - रहा आता है; ि - कभी नहीं; ईङगते -
महलता डुलता है; सम - सर्ान; दुःख - िख ु ; सुखः - तर्ा सुख र्ें; स्व-स्थः - अपने र्ें मस्र्त; सम - सर्ान रूप
से; लोष्ट - मर्ट्टी का ढेला; अश्म - पत्र्र; काञ्चिः - सोना; तुल्य - सर्भाव; नप्रय - मप्रय; अनप्रयः - तर्ा अमप्रय
को; धीरः - धीर; तुल्य - सर्ान; निन्दा - बुराई; आत्म-संस्तुनत - तर्ा अपनी प्रशंसा से;माि -
सम्र्ान; अपमाियोः - तर्ा अपर्ान र्ें; तल्ु यः - सर्ान; नमत्र - मर्त्र; अरर - तर्ा शत्रु के ; पक्षयोः - पक्षों या िलों
को; सवम - सबों का; आरम्भ - प्रयत्न, उद्यर्; पररत्यागी - त्याग करने वाला; गुण-अतीतः - प्रकृ मत के गुणों से
परे ; सः - वह; उच्यते - कहा जाता है ।

४३०
भगवाि् िे कहा - हे पाण्डुपुत्र! जो प्रकाश, आसनि तथा मोह के उपनस्थत होिे पर ि तो उिसे घृणा
करता है और ि लुप्त हो जािे पर उिकी इच्छा करता है, जो भौनतक गुणों की इि समस्त पररनक्रयाओ ं से
निश्चल तथा अनवचनलत रहता है और यह जािकर नक के वल गुण हीनक्रयाशील हैं, उदासीि तथा नदव्य बिा
रहता है, जो अपिे आपमें नस्थत है और सुख तथा दुख को एकसमाि मािता है, जो नमट्टी के ढेले, पत्थर एवं
स्वणम के टुकडे को समाि दृनष्ट से देखता है, जो अिुकूल तथा प्रनतकूल के प्रनत समाि बिा रहता है, जो धीर
है और प्रशंसा तथा बरु ाई, माि तथा अपमाि में समाि भाव से रहता है, जो शत्रु तथा नमत्र के साथ सामाि
व्यवहार करता है और नजसिे सारे भौनतक कायों का पररत्याग कर नदया है, ऐसे व्यनि को प्रकृ नत के गण ु ों से
अतीत कहते हैं ।

तात्पयम: अजुमन ने भगवान् कृ ष्ट्ण से तीन प्रश्न पूछे और उन्होंने क्रर्शः एक-एक का उत्तर मिया । इन श्लोकों र्ें
कृ ष्ट्ण पहले यह सक ं े त करते हैं मक जो व्यमक्त मिव्य पि पर मस्र्त है, वह न तो मकसी से ईष्ट्याम करता है और न मकसी
वस्तु के मलए लालामयत रहता है । जब कोई जीव इस संसार र्ें भौमतक शरीर से युक्त होकर रहता है, तो यह सर्झना
चामहए मक वह प्रकृ मत के तीन गुणों र्ें से मकसी एक के वश र्ें है । जब वह इस शरीर से बाहर हो जाता है, तो वह
प्रकृ मत के गुणों से छूट जाता है । लेमकन जब तक वह शरीर से बाहर नहीं आ जाता, तब तक उसे उिासीन रहना
चामहए । इसे भगवान् की भमक्त र्ें लग जाना चामहए मजससे भौमतक िेह से उसका र्र्त्व स्वतः मवस्र्ृत हो जाय । जब
र्नुष्ट्य भौमतक शरीर के प्रमत सचेत रहता है तो वह के वल इमन्द्रयतृमप्त के मलए कर्म करता है, लेमकन जब वह अपनी
चेतना कृ ष्ट्ण र्ें स्र्ानान्तररत कर िेता है, तो इमन्द्रयतृमप्त स्वतः रूक जाती है । र्नुष्ट्य को इस भौमतक शरीर की
आवश्यकता नहीं रह जाती है और न उसे इस भौमतक शरीर के आिेशों का पालन करने की आवश्यकता रह जाती
है । शरीर के भौमतक गुण कायम करें गे, लेमकन आत्र्ा ऐसे कायों से पृर्क् रहेगा । वह मकस तरह पृर्क् होता है? वह न
तो शरीर का भोग करना चाहता है, न उससे बाहर जाना चाहता है । इस प्रकार मिव्य पि पर मस्र्त भक्त स्वयर्ेव र्क्त ु
हो जाता है । उसे प्रकृ मत के गुणों के प्रभाव से र्क्त
ु होने के मलए मकसी प्रयास की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती ।
अगला प्रश्न मिव्य पि पर आसीन व्यमक्त के व्यवहार के सम्बन्ध र्ें है । भौमतक पि पर मस्र्त व्यमक्त शरीर को
मर्लने वाले तर्ाकमर्त र्ान तर्ा अपर्ान से प्रभामवत होता है, लेमकन मिव्य पि पर आसीन व्यमक्त कभी ऐसे मर्थ्या
र्ान तर्ा अपर्ान से प्रभामवत नहीं होता । वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर अपना कतमव्य मनबाहता है और इसकी मचन्ता
नहीं करता मक कोई व्यमक्त उसका सम्र्ान करता है या अपर्ान । वह उन बातों को स्वीकार कर लेता है, जो
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें उसके कतमव्य के अनुकूल हैं, अन्यर्ा उसे मकसी भौमतक वस्तु की आवश्यकता नहीं रहती, चाहे वह
पत्र्र हो या सोना । वह प्रत्येक व्यमक्त को जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के सम्पािन र्ें उसकी सहायता करता है, अपना मर्त्र
र्ानता है और वह अपने तर्ाकमर्त शत्रु से भी घृणा नहीं करता । वह सर्भाव वाला होता है और सारी वस्तुओ ं को
सार्ान धरातल पर िेखता है, क्योंमक वह इसे भलीभाँमत जानता है मक उसे इस संसार से कुछ भी लेना-िेना नहीं
है । उसे सार्ामजक तर्ा राजमनमतक मवषय तमनक भी प्रभामवत नहीं कर पाते, क्योंमक वह क्षमणत उर्ल-पुर्ल तर्ा
उत्पातों की मस्र्मत से अवगत रहता है । वह अपने मलए कोई कर्म नहीं करता । कृ ष्ट्ण के मलए वह कुछ भी कर सकता
है, लेमकन अपने मलए वह मकसी प्रकार का प्रयास नहीं करता । ऐसे आचरण से र्नुष्ट्य वास्तव र्ें मिव्य पि पर मस्र्त हो
सकता है ।

मां च योऽव्यनभचारेण भनियोगेि सेवते ।

४३१
स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। २६ ।।

माम् - र्ेरी; च - भी; यः - जो व्यमक्त; अव्यनभचारेण - मबना मवचमलत हुए; भनि-योगेि - भमक्त से; सेवते -
सेवा करता है; सः - वह;गुणाि् - प्रकृ मत के गुणों को; समतीत्य - लाँघ कर;एताि् - इन सब; ब्रह्म-भूयाय - ब्रह्म पि
तक ऊपर उिा हुआ; कल्पते - हो जाता है ।

जो समस्त पररनस्थनतयों में अनवचनलत भाव से पण ू म भनि में प्रवृत्त होता है, वह तरु न्त ही प्रकृ नत के
गुणों को लाूँघ जाता है और इस प्रकार ब्रह्म के स्तर तक पहुूँच जाता है ।

तात्पयम : यह श्लोक अजुमन के तृतीय प्रश्न के उत्तरस्वरूप है । प्रश्न है - मिव्य मस्र्मत प्राप्त करने का साधन क्या
है? जैसा मक पहले बताया जा चक ु ा है, यह भौमतक जगत् प्रकृ मत के गुणों के चर्त्कार के अन्तगमत कायम कर रहा
है । र्नुष्ट्य को गुणों के कर्ों से मवचमलत नहीं होना चामहए, उसे चामहए मक अपनी चेतना ऐसे कायों र्ें न लगाकर उसे
कृ ष्ट्ण-कायों र्ें लगाए । कृ ष्ट्णकायम भमक्तयोग के नार् से मवख्यात है, मजनर्ें सिैव कृ ष्ट्ण के मलए कायम करना होता
है । इसर्ें न के वल कृ ष्ट्ण ही आते हैं, अमपतु उनके मवमभन्न पूणाांश भी समम्र्मलत हैं - यर्ा रार् तर्ा नारायण । उनके
असंख्य अंश हैं । जो कृ ष्ट्ण को मकसी भी रूप या उनके पूणाांश की सेवा र्ें प्रवृत्त होता है, उसे मिव्य पि पर मस्र्त
सर्झना चामहए । यह ध्यान िेना होगा मक कृ ष्ट्ण के सारे रूप पूणमतया मिव्य और समच्चिानन्ि स्वरूप हैं । ईश्र्वर के ऐसे
रूप सवमशमक्तर्ान तर्ा सवमज्ञ होते हैं और उनर्ें सर्स्त मिव्यगुण पाये जाते हैं । अतएव यमि कोई कृ ष्ट्ण या उनके
पूणाांशो की सेवा र्ें दृढ़संकल्प के सार् प्रवृत्त होता है, तो यद्यमप प्रकृ मत के गुणों को जीत पाना कमिन है, लेमकन वह
उन्हें सरलता से जीत सकता है । इसकी व्याख्या सातवें अध्याय र्ें पहले ही की जा चक ु ी है । कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण
करने पर तरु न्त ही प्रकृ मत के गणु ों के प्रभाव को लाँघा जा सकता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत या कृ ष्ट्ण-भमक्त र्ें होने का अर्म
है, कृ ष्ट्ण के सार् सर्ानता प्राप्त करना । भगवान् कहते हैं मक उनकी प्रकृ मत समच्चिानन्ि स्वरूप है और सारे जीव परर्
के अश ं हैं, मजस प्रकार सोने के कण सोने की खान के अश ं हैं । इस प्रकार जीव अपनी आध्यामत्र्क मस्र्मत र्ें सोने के
सर्ान या कृ ष्ट्ण के सर्ान गुण वाला होता है । मकन्तु व्यमष्टत्व का अन्तर बना रहता है अन्यर्ा भमक्तयोग का प्रश्न ही
नहीं उिता । भमक्तयोग का अर्म है मक भगवान् हैं, भक्त है तर्ा भगवान् और भक्त के बीच प्रेर् का आिान-प्रिान चलता
रहता है । अतएव भगवान् र्ें और भक्त र्ें िो व्यमक्तयों का व्यमष्टत्व वतमर्ान रहता है, अन्यर्ा भमक्तयोग का कोई अर्म
नहीं है । यमि कोई भगवान् जैसे मिव्य स्तर पर मस्र्त नहीं है, तो वह भगवान् की सेवा नहीं कर
सकता । उिाहरणार्म, राजा का मनजी सहायक बनने के मलए कुछ योग्यताएँ आवश्यक हैं । इस तरह भगवत्सेवा के मलए
योग्यता है मक ब्रह्म बना जाय या भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हुआ जाय । वैमिक सामहत्य र्ें कहा गया है ब्रह्मैव
सन्ब्रह्माप्येस्त। इसका अर्म है मक गुणात्र्क रूप से र्नुष्ट्य को ब्रह्म से एकाकार हो जाना चामहए । लेमकन ब्रह्मत्व प्राप्त
करने पर र्नुष्ट्य व्यमष्ट आत्र्ा के रूप र्ें अपने शाश्र्वत ब्रह्म-स्वरूप को खोता नहीं ।

ब्रह्मणो नह प्रनतष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च ।
शाश्र्वतस्य च धममस्य सख ु स्यैकानन्तकस्य च ।। २७ ।।

४३२
ब्रह्मणः - मनराकार ब्रह्मजयोमत का; नह - मनश्चय ही; प्रनतष्ठा - आश्रय; अहम् - र्ैं ह;ँ अमृतस्य - अर्त्यम
का; अव्ययस्य - अमवनाशी का; च - भी; शाश्र्वतस्य - शाश्र्वत का; च - तर्ा; धममस्य - स्वाभामवक मस्र्मत
(स्वरूप) का; सुखस्य - सुख का; एकानन्तकस्य - चरर्, अमन्तर्;च - भी ।

और मैं ही उस निराकार ब्रह्म का आश्रय हूँ, जो अमत्यम, अनविाशी तथा शाश्र्वत है और चरम सुख का
स्वाभानवक पद है ।

तात्पयम: ब्रह्म का स्वरूप है अर्रता, अमवनामशता, शाश्र्वतता तर्ा सुख । ब्रह्म तो मिव्य साक्षात्कार का
शभु ारम्भ है । परर्ात्र्ा इस मिव्य साक्षात्कार की र्ध्य या मद्वतीय अवस्र्ा है और भगवान् परर् सत्य के चरर्
साक्षात्कार हैं । अतएव परर्ात्र्ा तर्ा मनराकार ब्रह्म िोनों ही परर् पुरुष के भीतर रहते हैं । सातवें अध्याय र्ें बताया जा
चक ु ा है मक प्रकृ मत परर्ेश्र्वर की अपरा शमक्त की अमभव्यमक्त है । भगवान् इस अपरा प्रकृ मत र्ें परा प्रकृ मत को गभमस्र्
करते हैं और भौमतक प्रकृ मत के मलए यह आध्यामत्र्क स्पशम है । जब इस प्रकृ मत द्वारा बद्धजीव आध्यामत्र्क ज्ञान का
अनुशीलन करना प्रारम्भ करता है, तो वह इस भौमतक जगत् के पि से ऊपर उिने लगता है और क्रर्शः परर्ेश्र्वर के
ब्रह्म-बोध तक उि जाता है । ब्रह्म-बोध की प्रामप्त आत्र्-साक्षात्कार की मिशा र्ें प्रर्र् अवस्र्ा है । इस अवस्र्ा र्ें
ब्रह्मभतू व्यमक्त भौमतक पि को पार कर जाता है, लेमकन ब्रह्म-साक्षात्कार र्ें पूणमता प्राप्त नहीं कर पाता । यमि वह चाहे
तो इस ब्रह्मपि पर बना रह सकता है और धीरे -धीरे परर्ात्र्ा के साक्षात्कार को और मिर भगवान् के साक्षात्कार को
प्राप्त हो सकता है । वैमिक सामहत्य र्ें इसके उिाहरण भरे पड़े हैं । चारों कुर्ार पहले मनराकार ब्रह्म र्ें मस्र्त र्े, लेमकन
क्रर्शः वे भमक्तपि तक उि गए । जो व्यमक्त मनराकार ब्रह्मपि से ऊपर नहीं उि पाता, उसके नीचे मगरने का डर बना
रहता है । श्रीमद्भागवत र्ें कहा गया है मक भले ही कोई मनराकार ब्रह्म की अवस्र्ा को प्राप्त कर ले, मकन्तु इससे ऊपर
उिे मबना तर्ा परर् परुु ष के मवषय र्ें सूचना प्राप्त मकये मबना उसकी बमु द्ध मवर्ल नहीं हो पाती । अतएव ब्रह्मपि तक
उि जाने के बाि भी यमि भगवान् की भमक्त नहीं की जाती, तो नीचे मगरने का भय बना रहता है । वैमिक भाषा र्ें यह भी
कहा गया है - रसो वै सः; रसां ह्येवायां लब्द्ध्वानन्र्ी भवस्त - रस के आगार भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को जान लेने पर र्नुष्ट्य
वास्तव र्ें मिव्य आनन्िर्य हो जाता है (तैस्त्तरीय-उपस्नषर्् २.७.१ ) ।परर्ेश्र्वर छहों ऐश्र्वयों से पूणम हैं और जब भक्त
मनकट पहुचँ ता है तो इन छह ऐश्र्वयों का आिान-प्रिान होता है । राजा का सेवक लगभग राजा के सर्ान ही पि का
भोग करता है । इस प्रकार शाश्र्वत सुख, अमवनाशी सुख तर्ा शाश्र्वत जीवन भमक्त के सार्-सार् चलते हैं । अतएव
भमक्त र्ें ब्रह्म-साक्षात्कार या शाश्र्वतता या अर्रता समम्र्मलत रहते हैं । भमक्त र्ें प्रवृत्त व्यमक्त र्ें ये पहले से ही प्राप्त रहते
हैं ।
जीव यद्यमप स्वभाव से ब्रह्म होता है, लेमकन उसर्ें भौमतक जगत् पर प्रभत्ु व जताने की इच्छा रहती है, मजसके
कारण वह नीचे मगरता है । अपनी स्वाभामवक मस्र्मत र्ें जीव तीनों गुणों से परे होता है । लेमकन प्रकृ मत के संसगम से वह
अपने को तीनों गुणों-सतो, रजो तर्ा तर्ोगुण - र्ें बाँध लेता है ।इन्हीं तीनों गुणों के संसगम के कारण उसर्ें भौमतक
जगत् पर प्रभत्ु व जताने की इच्छा होती है । पणू म कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त र्ें प्रवृत्त होने पर वह मिव्य पि को प्राप्त होता है
और उसर्ें प्रकृ मत को वश र्ें करने की जो इच्छा होती है, वह िरू हो जाती है । अतएव भक्तों की संगमत कर के भमक्त
की नौ मवमधयाँ - श्रवण, कीतमन, स्र्रण आमि का अभ्यास करना चामहए । धीरे -धीरे ऐसी सगं मत से तर्ा गरुु के प्रभाव
से र्नुष्ट्य की प्रभतु ा जताने वाली इच्छा सर्ाप्त हो जाएगी और वह भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त र्ें दृढ़तापूवमक मस्र्त हो
सके गा । इस मवमध की सस्ं तुमत इस अध्याय के बाइसवें श्लोक से लेकर इस अमन्तर् श्लोक तक की गई है । भगवान् की

४३३
भमक्त अतीव सरल है, र्नुष्ट्य को चामहए मक भगवान् की सेवा र्ें लगे, श्रीमवग्रह को अमपमत भोजन का उमच्छष्ट
खाए, भगवान् के चरणकर्लों पर चढ़ाये गये पुष्ट्पों की सुगंध सूँघे, भगवान् के लीलास्र्लों का िशमन करे , भगवान् के
मवमभन्न कायमकलापों और उनके भक्तों के सार् प्रेर्-मवमनर्य के बारे र्ें पढ़े, सिा हरे ृ ष्ण हरे ृ ष्ण ृ ष्ण ृ ष्ण हरे
हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।। इस र्हार्न्त्र की मिव्य ध्वमन का कीतमन करे और भगवान् तर्ा उनके भक्तों के
अमवभामव तर्ा मतरोधानों को र्नाने वाले मिनों र्ें उपवास करे । ऐसा करने से र्नुष्ट्य सर्स्त भौमतक गमतमवमधयों से
मवरक्त हो जायेगा । इस प्रकार जो व्यमक्त अपने को ब्रह्मजयोमत या ब्रह्म-बोध के मवमभन्न प्रकारों र्ें मस्र्त कर सकता
है, वह गणु ात्र्क रूप से भगवान् के तल्ु य है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े चौर्हवें अध्याय “प्र ृ स्त े तीन गणु ” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

४३४
अध्याय पन्द्रह
पुरुषोत्तम योग
श्रीभगवानवु ाच ।
उध्वममूलमधःशाखमश्र्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांनस यस्य पणामनि यस्तं वेद स वेदनवत् ।। १ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; उध्वम-मूलम् - उपर की ओर जड़ें; अधः - नीचे की ओर; शाखम् -
शाखाएँ; अश्र्वत्थम् - अश्र्वत्र् वृक्ष को; प्राहुः - कहा गया है; अव्ययम् - शाश्र्वत; छन्दांनस - वैमिक स्तोत्र; यस्य -
मजसके ; पणामनि - पत्ते; यः - जो कोई; तम् - उसको; वेद - जानता है; सः - वह; वेदनवत् - वेिों के ज्ञाता ।

भगवाि् िे कहा - कहा जाता है नक एक शाश्र्वत अश्र्वत्थ वृक्ष है, नजसकी जडे तो ऊपर की ओर हैं
और शाखाएूँ िीचे की ओर तथा पनत्तयाूँ वैनदक स्तोत्र हैं । जो इस वृक्ष को जािता है, वह वेदों का ज्ञाता है ।

तात्पयम: भमक्तयोग की र्हत्ता की मववेचना के बाि यह पछ ू ा जा सकता है, “वेिों का क्या प्रयोजन है?” इस
अध्याय र्ें बताया गया है मक वैमिक अध्ययन का प्रयोजन कृ ष्ट्ण को सर्झना है । अतएव जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत है, जो
भमक्त र्ें रत है, वह वेिों को पहले से जानता है ।
इस भौमतक जगत् के बन्धन की तुलना अश्र्वत्र् के वृक्ष से की गई है । जो व्यमक्त सकार् कर्ों र्ें लगा है, उसके
मलए इस वृक्ष का कोई अन्त नहीं है । वह एक शाखा से िसू री र्ें और िसू री से तीसरी र्ें घर्ू ता रहता है । इस जगत्
रूपी वृक्ष का कोई अन्त नहीं है और जो इस वृक्ष र्ें आसक्त है, उसकी र्ुमक्त की कोई सम्भावना नहीं है । वैमिक
स्तोत्र, जो आत्र्ोन्नमत के मलए हैं, वे ही इस वृक्ष के पत्ते हैं । इस वृक्ष की जड़ें ऊपर की ओर बढ़ती हैं, क्योंमक वे इस
ब्रह्माण्ड के सवोच्चलोक से प्रारम्भ होती हैं, जहाँ पर ब्रह्मा मस्र्त हैं । यमि कोई इस र्ोह रूपी अमवनाशी वृक्ष को सर्झ
लेता है, तो वह इससे बाहर मनकल सकता है ।
बाहर मनकलने की इस मवमध को जानना आवश्यक है । मपछले अध्यायों र्ें बताया जा चक ु ा है मक भवबन्धन से
मनकलने की कई मवमधयाँ हैं । हर् तेरहवें अध्याय तक यह िेख चक ु े हैं मक भगवद्भमक्त ही सवोत्कृ ष्ट मवमध है । भमक्त का
र्लू मसद्धान्त है - भौमतक कायों से मवरमक्त तर्ा भगवान् की मिव्य सेवा र्ें अनरु मक्त । इस अध्याय के प्रारम्भ र्ें ससं ार से
आसमक्त तोड़ने की मवमध का वणमन हुआ है । इस संसार की जड़ें ऊपर को बढ़ती हैं । इसका अर्म है मक ब्रह्माण्ड के
सवोच्च्लोक सपणू म भौमतक पिार्म से यह प्रमक्रया शरू ु होती है । वहीं से सारे ब्रह्माण्ड का मवस्तार होता है, मजसर्ें
अनेक लोक उसकी शाखाओ ं के रूप र्ें होते हैं । इसके िल जीवों के कर्ों के िल के , अर्ामत् धर्म, अर्म, कार् तर्ा
र्ोक्ष के , द्योतक हैं ।
यद्यमप इस संसार र्ें ऐसे वृक्ष का, मजसकी शाखाएँ नीचे की ओर हों और जड़ें ऊपर की ओर हों, कोई अनुभव
नहीं है, मकन्तु बात कुछ ऐसी ही है । ऐसा वृक्ष जलाशय के मनकट पाया जा सकता है । हर् िेख सकते हैं - जलाशय के
तट पर उगे वृक्ष का प्रमतमबम्ब जल र्ें पड़ता है, तो उसकी जड़ें ऊपर तर्ा शाखाएँ नीचे की ओर मिखती हैं । िसू रे शब्िों

४३५
र्ें, यह जगत् रूपी वृक्ष आध्यामत्र्क जगत् रूपी वास्तमवक वृक्ष का प्रमतमबम्ब र्ात्र है । इस आध्यामत्र्क जगत् का
प्रमतमबम्ब हर्ारी इच्छाओ ं र्ें मस्र्त हैं, मजस प्रकार वृक्ष का प्रमतमबम्ब जल र्ें रहता है । इच्छा ही इस प्रमतमबमम्बत
भौमतक प्रकाश र्ें वस्तुओ ं के मस्र्त होने का कारण है । जो व्यमक्त इस भौमतक जगत् से बाहर मनकलना चाहता है, उसे
वैश्लेमषक अध्ययन के र्ाध्यर् से इस वृक्ष को भलीभाँमत जान लेना चामहए । मिर वह इस वृक्ष से अपना सम्बन्ध
मवच्छे ि कर सकता है ।
यह वृक्ष वास्तमवक वृक्ष का प्रमतमबम्ब होने के कारण वास्तमवक प्रमतरूप है । आध्यामत्र्क जगत् र्ें सब कुछ
है । ब्रह्म को मनमवमशेषवािी इस भौमतक वृक्ष का र्ल ू र्ानते हैं और साख्ं य िशमन के अनसु ार इसी र्ल ू से पहले
प्रकृ मत, पुरुष और तब तीन गुण मनकलते हैं और मिर पाँच स्र्ूल तत्त्व (पंच र्हाभूत), मिर िस इमन्द्रयाँ (िशेमन्द्रय), र्न
आमि । इस प्रकार वे सारे ससं ार को चौबीस तत्त्वों र्ें मवभामजत करते हैं । यमि ब्रह्म सर्स्त अमभव्यमक्तयों का के न्द्र
है, तो एक प्रकार से यह भौमतक जगत् १८० अंश (गोलाद्धम) र्ें है और िसू रे १८० अंश (गोलाद्धम) र्ें आध्यामत्र्क
जगत् है । चँमू क यह भौमतक जगत् उल्टा प्रमतमबम्ब है, अतः आध्यामत्र्क जगत् र्ें भी इस प्रकार की मवमवधता होनी
चामहए । प्रकृ मत परर्ेश्र्वर की बमहरंगा शमक्त है और पुरुष साक्षात् परर्ेश्र्वर है । इसकी व्याख्या भगवद्गीता र्ें हो चक ु ी
है । चँमू क यह अमभव्यमक्त भौमतक है, अतः क्षमणक है । प्रमतमबम्ब भी क्षमणक होता है, क्योंमक कभी वह मिखता है और
कभी नहीं मिखता । परन्तु वह स्त्रोत जहाँ से यह प्रमतमबम्ब प्रमतमबमम्बत होता है, शाश्र्वत है । वास्तमवक वृक्ष के भौमतक
प्रमतमबम्ब का मवच्छे िन करना होता है । जब कोई कहता है मक अर्क ु व्यमक्त वेि जानता है, तो इससे यह सर्झा जाता
है मक वह इस जगत् की आसमक्त से मवच्छे ि करना जानता है । यमि वह इस मवमध को जानता है, तो सर्मझये मक वह
वास्तव र्ें वेिों को जानता है । जो व्यमक्त वेिों के कर्मकाण्ड द्वारा आकृ ष्ट होता है, वह इस वृक्ष की सुन्िर हरी पमत्तयों से
आकृ ष्ट होता है । वह वेिों के वास्तमवक उद्देश्य को नहीं जानता । वेिों का उद्देश्य, भगवान् ने स्वयं प्रकट मकया है और
वह है इस प्रमतमबमम्बत वृक्ष को काट कर आध्यामत्र्क जगत् के वास्तमवक वृक्ष को प्राप्त करना ।

अधश्र्चोध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा


गण
ु प्रवृद्धा नवषयप्रवालाः ।
अधश्र्च मूलान्यिुसन्ततानि
कमामिुबन्धीनि मिुष्ट्यलोके ।। २ ।।

अधः - नीचे; च - तर्ा; उध्वमम् - ऊपर की ओर; प्रसृताः - िै ली हुई; तस्य - उसकी; शाखाः -
शाखाएँ; गुण - प्रकृ मत के गुणों द्वारा; प्रवृद्धा: - मवकमसत; नवषय - इमन्द्रयमवषय; प्रवालाः - टहमनयाँ; अधः - नीचे
की ओर; च - तर्ा; मूलानि - जड़ों को; अिुसन्ततानि - मवस्तृत; कमम - कर्म करने के मलए; अिुबन्धीनि -
बँधा; मिुष्ट्य-लोके - र्ानव सर्ाज के जगत् र्ें ।

इस वृक्ष की शाखाएूँ ऊपर तथा िीचे िै ली हुई हैं और प्रकृ नत के तीि गणु ों द्वारा पोनषत हैं । इसकी
टहनियाूँ इनन्द्रयनवषय हैं । इस वृक्ष की जडें िीचे की ओर भी जाती हैं, जो मािवसमाज के सकाम कमों से
बूँधी हुई हैं ।

४३६
तात्पयम : अश्र्वत्र् वृक्ष की यहाँ और भी व्याख्या की गई है । इसकी शाखाएँ चतुमिमक िै ली हुई हैं । मनचले भाग
र्ें जीवों की मवमभन्न योमनयाँ हैं, यर्ा र्नुष्ट्य, पश,ु घोड़े, गाय, कुत्ते, मबमल्लयाँ आमि । ये सभी वृक्ष की शाखाओ ं के
मनचले भाग र्ें मस्र्त हैं । लेमकन ऊपरी भाग र्ें जीवों की उच्चयोमनयाँ हैं-यर्ा िेव, गन्धवम तर्ा अन्य बहुत सी उच्चतर
योमनयाँ । मजस प्रकार सार्ान्य वृक्ष का पोषण जल से होता है, उसी प्रकार यह वृक्ष प्रकृ मत के तीन गुणों द्वारा पोमषत है ।
कभी-कभी हर् िेखतें हैं मक जलाभाव से कोई-कोई भख ू ण्ड वीरान हो जाता है, तो कोई खण्ड लहलहाता है, इसी
प्रकार जहाँ प्रकृ मत के मकन्ही मवशेष गुणों का आनुपामतक आमधक्य होता है, वहाँ उसी के अनुरूप जीवों की योमनयाँ
प्रकट होती हैं ।
वृक्ष की टहमनयाँ इमन्द्रयमवषय हैं । मवमभन्न गुणों के मवकास से हर् मवमभन्न इमन्द्रय मवषयों का भोग करते हैं ।
शाखाओ ं के मसरे इमन्द्रयाँ हैं - यर्ा कान, नाक , आँख, आमि, जो मवमभन्न इमन्द्रय मवषयों के भोग से आसक्त हैं ।
टहमनयाँ शब्ि, रूप, स्पशम आमि इमन्द्रय मवषय हैं । सहायक जड़ें राग तर्ा द्वेष हैं , जो मवमभन्न प्रकार के कष्ट तर्ा
इमन्द्रयभोग के मवमभन्न रूप हैं । धर्म-अधर्म की प्रवृमत्तयाँ इन्हीं गौण जड़ों से उत्पन्न हुई र्ानी जाती हैं, जो चारों मिशाओ ं
र्ें िै ली हैं । वास्तमवक जड़ तो ब्रह्मलोक र्ें है, मकन्तु अन्य जड़ें र्त्यमलोक र्ें हैं । जब र्नुष्ट्य उच्च लोकों के पूण्य कर्ों
का िल भोग चक ु ता है, तो वह इस धरा पर उतरता है और उन्नमत के मलए सकार् कर्ों का नवीनीकरण करता है । यह
र्नुष्ट्यलोक कर्मक्षेत्र र्ाना जाता है ।

ि रूपमस्येह तथोपलभ्यते
िान्तो ि चानदिम च सम्प्रनतष्ठा ।
अश्र्वत्थमेिं सुनवरुढमूल-
मसङ् गशस्त्रेण दृढेि नछत्त्वा ।। ३ ।।
ततः पदं तत्पररमानगमतव्यं
यनस्मन्गता ि निवतमनन्त भूयः ।
तमेव चाद्यं परुु षं प्रपद्ये
यतः प्रवृनत्तः प्रसृता पुराणी ।। ४ ।।

ि - नहीं;रूपम् - रूप; अस्य - इस वृक्ष का; इह - इस संसार र्ें; तथा - भी; उपलभ्यते - अनुभव मकया जा
सकता है; ि - कभी नहीं; च - भी; आनदः - प्रारम्भ; ि - कभी नहीं; च - भी; सम्प्रनतष्ठा - नींव; अश्र्वत्थम् -
अश्र्वत्र् वृक्ष को; एिम् - इस; सु-नवरूढ - अत्यन्त दृढ़ता से; मूलम् - जड़वाला; असङग-शस्त्रेण - मवरमक्त के
हमर्यार से; दृढेि - दृढ़; नछत्वा - काट कर; ततः - तत्पश्चात्; पदम् - मस्र्मत को; तत् - उस; पररमानगमतव्यम् -
खोजना चामहए; यनस्मि - जहाँ; गताः - जाकर; ि - कभी नहीं; निवतमनन्त - वापस आते हैं; भूयः - पुनः; तम् -
उसको; एव - ही; च - भी; आद्यम् - आमि; पुरुषम् - भगवान् की; प्रपद्ये - शरण र्ें जाता ह;ँ यतः -
मजससे;प्रवृनत्तः - प्रारम्भ; प्रसृता - मवस्तीणम; परु ाणी - अत्यन्त परु ानी ।

इस वृक्ष के वास्तनवक स्वरूप का अिभ ु व इस जगत् में िहीं नकया जा सकता । कोई भी िहीं समझ
सकता नक इसका आनद कहाूँ है, अन्त कहाूँ है या इसका आधार कहाूँ है ? लेनकि मिुष्ट्य को चानहए नक इस
दृढ मूल वाले वृक्ष को नवरनि के शस्त्र से काट नगराए । तत्पश्चात् उसे ऐसे स्थाि की खोज करिी चानहए जहाूँ

४३७
जाकर लौटिा ि पडे और जहाूँ उस भगवाि् की शरण ग्रहण कर ली जाये, नजससे अिानद काल से प्रत्येक
का सूत्रपात तथा नवस्तार होता आया है ।

तात्पयम: अब यह स्पष्ट कर मिया गया है मक इस अश्र्वत्र् वृक्ष के वास्तमवक स्वरूप को इस भौमतक जगत् र्ें
नहीं सर्झा जा सकता । चँमू क इसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं, अतः वास्तमवक वृक्ष का मवस्तार मवरुद्ध मिशा र्ें होता
है । जब वृक्ष के भौमतक मवस्तार र्ें कोई िँ स जाता है, तो उसे न तो यह पता चल पाता है मक यह मकतनी िरू ी तक िै ला
है और न वह इस वृक्ष के शभु ारम्भ को ही िेख पाता है । मिर भी र्नष्ट्ु य को कारण की खोज करनी ही होती है । “र्ैं
अर्क ु मपता का पुत्र ह,ँ जो अर्क ु का पुत्र है, आमि” - इस प्रकार अनुसन्धान करने से र्नुष्ट्य कोब्रह्मा प्राप्त होते
हैं, मजन्हें गभोिकशायी मवष्ट्णु ने उत्पन्न मकया । इस प्रकार अन्ततः भगवान् तक पहुचँ ा जा सकता है, जहाँ सारी
गवेषणा का अन्त हो जाता है । र्नुष्ट्य को इस वृक्ष के उद्गर्, परर्ेश्र्वर, की खोज ऐसे व्यमक्तयों की संगमत द्वारा करनी
होती है, मजन्हें उस परर्ेश्र्वर का ज्ञान प्राप्त है । इस प्रकार ज्ञान से र्नुष्ट्य धीरे -धीरे वास्तमवकता के इस छद्म प्रमतमबम्ब से
मवलग हो जाता है और सम्बन्ध-मवच्छे ि होने पर वह वास्तव र्ें र्ूलवृक्ष र्ें मस्र्त हो जाता है ।
इस प्रसंग र्ें असङग शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है, क्योंमक मवषयभोग की आसमक्त तर्ा भौमतक प्रकृ मत पर प्रभतु ा
अत्यन्त प्रबल होती है । अतएव प्रार्ामणक शास्त्रों पर आधाररत आत्र्-ज्ञान की मववेचना द्वारा मवरमक्त सीखनी चामहए
और ज्ञानी पुरुषों से श्रवण करना चामहए । भक्तों की संगमत र्ें रहकर ऐसी मववेचना से भगवान् की प्रामप्त होती है । तब
सवमप्रर्र् जो करणीय है, वह है भगवान् की शरण ग्रहण करना । यहाँ पर उस स्र्ान (पि) का वणमन मकया गया है, जहाँ
जाकर र्नुष्ट्य इस छद्म प्रमतमबमम्बत वृक्ष र्ें कभी वापस नहीं लौटता । भगवान् कृ ष्ट्ण वह आमि र्ूल हैं, जहाँ से प्रत्येक
वस्तु मनकली है । उस भगवान् का अनुग्रह प्राप्त करने के मलए के वल उनकी शरण ग्रहण करनी चामहए, जो श्रवण,कीतमन
आमि द्वारा भमक्त करने के िलस्वरूप प्राप्त होती है । वे ही भौमतक जगत् के मवस्तार के कारण हैं । इसकी व्याख्या पहले
ही स्वयं भगवान् ने की है ।अहां सवदस्य प्रभावः - र्ैं प्रत्येक वस्तु का उद्गर् हँ । अतएव इस भौमतक जीवन रूपी प्रबल
अश्र्वत्र् के वृक्ष के बन्धन से छूटने के मलए कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण की जानी चामहए । कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करते ही
र्नष्ट्ु य स्वतः इस भौमतक मवस्तार से मवलग हो जाता है ।

निमामिमोहा नजतसङ् गदोषा


अध्यात्मनित्या नवनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैनवममुिाः सुखदुःखसंज्ञै-
गमच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् ॥ १५- ५ ॥

निः-रमहत; माि-झिू ी प्रमतिा; मोहाः-तर्ा र्ोह; नजत-जीता गया; सङ् ग-संगमत की; दोषाः-
त्रमु टयाँ; अध्यात्म-आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें; नित्याः-शाश्र्वतता र्ें; नवनिवृत्त -मवलग; कामाः-कार् से; द्वन्द्वैः-द्वैत
से; नवमि ु ाः-र्क्त
ु ; सख
ु -दुःख-सख
ु तर्ा िख ु ; सज्ञं ैः-नार्क; गच्छनन्त-प्राप्त करते हैं; अमढू ाः-र्ोहरमहत; पदम्-
पि,स्र्ान को; अव्ययम्-शाश्र्वत; तत्-उस ।

४३८
जो झूठी प्रनतष्ठा, मोह तथा कुसंगनत से मुि हैं, जो शाश्र्वत तत्त्व को समझते हैं, नजन्होंिे भौनतक काम
को िष्ट कर नदया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुि हैं और जो मोहरनहत होकर परम पुरुष के शरणागत
होिा चाहते हैं, वे उस शाश्र्वत राजय को प्राप्त होते हैं ।

तात्पयम: यहाँ पर शरणागमत का अत्यन्त सुन्िर वणमन हुआ है । इसके मलए मजस प्रर्र् योग्यता की आवश्यकता
है, वह है मर्थ्या अहक ं ार से र्ोमहत न होना । चँमू क बद्धजीव अपने को प्रकृ मत का स्वार्ी र्ानकर गमवमत रहता
है, अतएव उसके मलए भगवान् की शरण र्ें जाना कमिन होता है । उसे वास्तमवक ज्ञान के अनश ु ीलन द्वारा यह जानना
चामहए मक वह प्रकृ मत का स्वार्ी नहीं है, उसका स्वार्ी तो परर्ेश्र्वर है । जब र्नुष्ट्य अहकं ार से उत्पन्न र्ोह से र्क्त
ु हो
जाता है, तभी शरणागमत की प्रमक्रया प्रारम्भ हो सकती है । जो व्यमक्त इस ससं ार र्ें सिैव सम्र्ान की आशा रखता
है, उसके मलए भगवान् के शरणागत होना कमिन है । अहक ं ार तो र्ोह के कारण होता है, क्योंमक यद्यमप र्नुष्ट्य यहाँ
आता है, कुछ काल तक रहता है और मिर चला जाता है, तो भी र्ख ू मतावश वह सर्झ बैिता है मक वही इस संसार का
स्वार्ी है । इस तरह वह सारी पररमस्र्मत को जमटल बना िेता है और सिैव कष्ट उिाता रहता है । सारा संसार इसी
भ्रान्तधारणा के अन्तगमत आगे बढ़ता है । लोग सोचते हैं मक यह भमू र् या पृथ्वी र्ानव सर्ाज की है और उन्होंने भमू र्
का मवभाजन इस मर्थ्या धारणा से कर रखा है मक वे इसके स्वार्ी हैं । र्नुष्ट्य को इस भ्रर् से र्क्त ु होना चामहए मक
र्ानव सर्ाज ही इस जगत् का स्वार्ी है । जब र्नुष्ट्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से र्क्त ु हो जाता है, तो वह
पाररवाररक, सार्ामजक तर्ा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगमतयों से र्क्त
ु हो जाता है । ये त्रुमट-पूणम संगमतयाँ ही उसे संसार
से बाँधने वाली हैं । इस अवस्र्ा के बाि उसे आध्यामत्र्क ज्ञान मवकमसत करना होता है । उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन
करना होता है मक वास्तव र्ें उसका क्या है और क्या नहीं है । और जब उसे वस्तुओ ं का सही-सही ज्ञान हो जाता है तो
वह सुख-िख ु , हषम-मवषाि जैसे द्वन्द्वों से र्क्त
ु हो जाता है । वह ज्ञान से पररपूणम हो जाता है और तब भगवान् का
शरणागत बनना सम्भव हो पाता है ।

ि तिासयते सयू ो ि शशाङ् को ि पावकः ।


यद्गत्वा ि निवतमन्ते तद्धाम परमं मम ।। ६ ।।

ि-नहीं; तत्-वह; भासयते-प्रकामशत करता है; सूयमः-सूय;म ि-न तो; शशाङकः -चन्द्रर्ा; ि - न तो; पावकः -
अमग्न, मबजली; यत् - जहाँ; गत्वा - जाकर; ि - कभी नहीं; निवतमन्ते - वापस आते हैं; तत्-धाम - वह
धार्; परमम् - परर्; मम - र्ेरा ।

वह मेरा परम धाम ि तो सूयम या चन्द्र के द्वारा प्रकानशत होता है और ि अनग्ि या नबजली से । जो लोग
वहाूँ पहुूँच जाते हैं, वे इस भौनतक जगत् में निर से लौट कर िहीं आते ।

तात्पयम : यहाँ आध्यामत्र्क जगत् अर्ामत् भगवान् कृ ष्ट्ण के धार् का वणमन हुआ है, मजसे कृ ष्ट्णलोक या गोलोक
वृन्िावन कहा जाता है । मचन्र्य आकाश र्ें न तो सयू मप्रकाश की आवश्यकता है, न चन्द्रप्रकाश अर्वा अमग्न या
मबजली की, क्योंमक सारे लोक स्वयं प्रकामशत हैं । इस ब्रह्माण्ड र्ें के वल एक लोक, सूयम, ऐसा है जो स्वयं प्रकामशत
है । लेमकन आध्यामत्र्क आकाश र्ें सभी लोक स्वयं प्रकामशत हैं । उन सर्स्त लोकों के (मजन्हें वैकुण्ि कहा जाता है)

४३९
चर्चर्ाते तेज से चर्कीला आकाश बनता है, मजसे ब्रह्मजयोमत कहते हैं । वस्तुतः यह तेज कृ ष्ट्णलोक, गोलोक
वृन्िावन से मनकलता है । इस तेज का एक अंश र्हत्-तत्त्व अर्ामत् भौमतक जगत् से आच्छामित रहता है । इसके
अमतररक्त जयोमतर्मय आकाश का अमधकांश भाग तो आध्यामत्र्क लोकों से पूणम है, मजन्हें वैकुण्ि कहा जाता है और
मजनर्ें से गोलोक वृन्िावन प्रर्खु है ।
जब तक जीव इस अंधकारर्य जगत् र्ें रहता है, तब तक वह बद्ध अवस्र्ा र्ें होता है । लेमकन जयोंही वह इस
भैमतक जगत् रूपी मर्थ्या, मवकृ त वृक्ष को काट कर आध्यामत्र्क आकाश र्ें पहुँचता है, त्योंही वह र्क्त ु हो जाता है ।
तब वह यहाँ वापस नहीं आता । इस बद्ध जीवन र्ें जीव अपने को भौमतक जगत् का स्वार्ी र्ानता है, लेमकन अपनी
र्क्त
ु अवस्र्ा र्ें वह आध्यामत्र्क राजय र्ें प्रवेश करता है और परर्ेश्र्वर का पाषमि बन जाता है । वहाँ पर वह
समच्चिानन्िर्य जीवन मबताता है ।
इस सूचना से र्नुष्ट्य को र्ुग्ध हो जाना चामहए । उसे उस शाश्र्वत जगत् र्ें ले जाये जाने की इच्छा करनी चामहए
और सच्चाई के इस मर्थ्या प्रमतमबम्ब से अपने आपको मवलग कर िेना चामहए । जो इस संसार से अत्यमधक आसक्त
है, उसके मलए इस आसमक्त का छे िन करना िष्ट्ु कर होता है । लेमकन यमि वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण कर ले, तो उसे
क्रर्शः छूट जाने की सम्भावना है । उसे ऐसे भक्तों की संगमत करनी चामहए जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत होते हैं । उसे ऐसा
सर्ाज खोजना चामहए, जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रमत सर्मपमत हो और उसे भमक्त करनी सीखनी चामहए । इस प्रकार वह
संसार के प्रमत अपनी आसमक्त मवच्छे ि कर सकता है । यमि कोई चाहे मक के सररया वस्त्र पहनने से भौमतक जगत् का
आकषमण से मवच्छे ि हो जाएगा, तो ऐसा सम्भव नहीं है । उसे भगवद्भमक्त के प्रमत आसक्त होना पड़ेगा । अतएव र्नुष्ट्य
को चामहए मक गम्भीरतापूवमक सर्झे मक बारहवें अध्याय र्ें भमक्त का जैसा वणमन है वही वास्तमवक वृक्ष की इस मर्थ्या
अमभव्यमक्त से बाहर मनकलने का एकर्ात्र साधन है । चौिहवें अध्याय र्ें बताया गया है मक भौमतक प्रकृ मत द्वारा सारी
मवमधयाँ िमू षत हो जाती हैं, के वल भमक्त ही शुद्ध रूप से मिव्य है ।
यहाँ परमां मम शब्ि बहुत र्हत्त्वपणू म हैं । वास्तव र्ें जगत का कोना-कोना भगवान् की सम्पमत्त है, परन्तु मिव्य
जगत परर् है और छह ऐश्वयों से पूणम है । ठोपस्नषर्् (२.२.१५) र्ें भी इसकी पुमष्ट की गई है मक मिव्य जगत र्ें सूयम
प्रकाश, चन्द्र प्रकाश या तारागण की कोई आवश्यकता नहीं है, (न तत्र सयू ो भास्त न चन्द्र तार म्) क्योंमक सर्स्त
आध्यामत्र्क आकाश भगवान् की आन्तररक शमक्त से प्रकाशर्ान है । उस परर् धार् तक के वल शरणागमत से ही
पहुचँ ा जा सकता है,अन्य मकसी साधन से नहीं ।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सिातिः ।


मिःषष्ठािीनन्द्रयानण प्रकृ नतस्थानि कषमनत ।। ७ ।।

मम - र्ेरा;एव - मनश्चय ही; अंशः - सूक्ष्र् कण; जीव-लोके - बद्ध जीवन के संसार र्ें; जीव-भूतः - बद्ध
जीव; सिातिः - शाश्र्वत; मिः - र्न; षष्ठानि - छह; इनन्द्रयानण - इमन्द्रयों सर्ेत; प्रकृ नत - भौमतक प्रकृ मत
र्ें; स्थानि - मस्र्त;कषमनत - सघं षम करता है ।

इस बद्ध जगत् में सारे जीव मेरे शाश्र्वत अंश हैं । बद्ध जीवि के कारण वे छहों इनन्द्रयों के घोर सघं षम
कर रहे हैं, नजसमें मि भी सनम्मनलत है ।

४४०
तात्पयम : इस श्लोक र्ें जीव का स्वरूप स्पष्ट है । जीव परर्ेश्र्वर का सनातन रूप से सूक्ष्र् अंश है । ऐसा नहीं है
मक बद्ध जीवन र्ें वह एक व्यमष्टत्व धारण करता है और र्क्त ु अवस्र्ा र्ें वह परर्ेश्र्वर से एकाकार हो जाता है । वह
सनातन का अंश रूप है । यहाँ पर स्पष्टतः सनातन कहा गया है । वेिवचन के अनुसार परर्ेश्र्वर अपने आप को असंख्य
रूपों र्ें प्रकट करके मवस्तार करते हैं, मजनर्ें से व्यमक्तगत मवस्तार स्वष्णतु त्त्व कहलाते हैं और गौण मवस्तार जीव
कहलाते हैं । िसू रे शब्िों र्ें, मवष्ट्णु तत्त्व मनजी मवस्तार (स्वांश) हैं और जीव मवमभन्नांश (पृर्कीकृ त अंश) हैं। अपने
स्वांश द्वारा वे भगवान् रार्, नृमसंह िेव, मवष्ट्णर्ु मू तम तर्ा वैकुण्िलोक के प्रधान िेवों के रूप र्ें प्रकट होते हैं । मवमभन्नांश
अर्ामत् जीव, सनातन सेवक होते हैं । भगवान् के स्वाश ं सिैव मवद्यर्ान रहते हैं । इसी प्रकार जीवों के मवमभन्नाश ं ो के
अपने स्वरूप होते हैं । परर्ेश्र्वर के मवमभन्नांश होने के कारण जीवों र्ें भी उनके आंमशक गुण पाये जाते हैं, मजनर्ें से
स्वतन्त्रता एक है । प्रत्येक जीव का आत्र्ा रूप र्ें, अपना व्यमष्टत्व और सक्ष्ू र् स्वातत्र्ं य होता है । इसी स्वातत्र्ं य के
िरू
ु पयोग से जीव बद्ध बनता है और उसके सही उपयोग से वह र्क्त ु बनता है । िोनों ही अवस्र्ाओ ं र्ें वह भगवान् के
सर्ान ही सनातन होता है । र्क्त ु अवस्र्ा र्ें वह इस भौमतक अवस्र्ा से र्क्त ु रहता है और भगवान् के मिव्य सेवा र्ें
मनरत रहता है । बद्ध जीवन र्ें प्रकृ मत के गुणों द्वारा अमभभतू होकर वह भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त को भल ू जाता है ।
िलस्वरूप उसे अपनी मस्र्मत बनाये रखने के मलए इस संसार र्ें अत्यमधक संघषम करना पड़ता है ।
न के वल र्नुष्ट्य तर्ा कुत्ते-मबल्ली जैसे जीव, अमपतु इस भौमतक जगत् के बड़े-बड़े मनयन्ता-यर्ा ब्रह्मा-मशव
तर्ा मवष्ट्णु तक, परर्ेश्र्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अमभव्यमक्तयाँ हैं, क्षमणक नहीं । षदस्त (संघषम करना) शब्ि
अत्यन्त सार्मक है । बद्धजीव र्ानो लौह शृंखलाओ ं से बँधा हो । वह मर्थ्या अहक ं ार से बँधा रहता है और र्न र्ख्ु य
कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धके लता है । जब र्न सतोगुण र्ें रहता है, तो उसके कायमकलाप अच्छे होते
हैं । जब रजोगुण र्ें रहता है, तो उसके कायमकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तर्ोगुण र्ें होता है, तो वह जीवन
की मनम्नयोमनयों र्ें चला जाता है । लेमकन इस श्लोक से यह स्पष्ट है मक बद्धजीव र्न तर्ा इमन्द्रयों सर्ेत भौमतक शरीर
से आवररत है और जब वह र्क्त ु हो जाता है तो यह भौमतक आवरण नष्ट हो जाता है । लेमकन उसका आध्यामत्र्क
शरीर अपने व्यमष्ट रूप र्ें प्रकट होता है । माध्यास्न्र्नायन श्रस्ु त र्ें यह सूचना प्राप्त है - स वा एष ब्रह्मस्नष्ठ इर्ां शरीरां
मत्यदमस्तसृज्य ब्रह्मास्भसम्पय ब्रह्मणा पश्यस्त ब्रह्मणा शृणोस्त ब्रह्मणैवेर्ां सवदमनभु वस्त । यहाँ यह बताया गया है मक जब
जीव अपने इस भौमतक शरीर को त्यागता है और आध्यामत्र्क जगत् र्ें प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यामत्र्क
शरीर प्राप्त होता है, मजससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आर्ने-सार्ने बोल सकता है और सुन
सकता है तर्ा मजस रूप र्ें भगवान् हैं, उन्हें सर्झ सकता है । स्र्ृमत से भी यह ज्ञात होता है-वसस्न्त यत्र पुरुषाः सवे
वै ु ण्ठ-मतू दयः-वैकुण्ि र्ें सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों र्ें रहते हैं । जहाँ तक शारीररक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप
जीवों तर्ा मवष्ट्णु र्ूमतम के मवस्तारों (अंशों) र्ें कोई अन्तर नहीं होता । िसू रे शब्िों र्ें, भगवान् की कृ पा से र्क्त ु होने पर
जीव को आध्यामत्र्क शरीर प्राप्त होता है ।
ममैवाांश शब्ि भी अत्यन्त सार्मक है, मजसका अर्म है भगवान् के अंश । भगवान् का अंश ऐसा नहीं होता, जैसे
मकसी पिार्म का टूटा खंड़(अंश) । हर् मद्वतीय अध्याय र्ें िेख चक ु े हैं मक आत्र्ा के खंड नहीं मकये जा सकते । इस
खडं की भौमतक दृमष्ट से अनभु मू त नहीं हो पाती । यह पिार्म की भाँमत नहीं है, मजसे चाहो तो मकतने ही खण्ड कर िो
और उन्हें पुनः जोड़ िो । ऐसी मवचारधारा यहाँ पर लागू नहीं होती, क्योंमक संस्कृ त के सनातन शब्ि का प्रयोग हुआ है ।
मवमभन्नाश ं सनातन है । मद्वतीय अध्याय के प्रारम्भ र्ें यह भी कहा गया है मक प्रत्येक व्यमक्त के शरीर र्ें भगवान् का
अंश मवद्यर्ान है (र्ेस्हनोऽस्स्मन्यथा र्ेह)े । वह अंश जब शारीररक बन्धन से र्क्त ु हो जाता है, तो आध्यामत्र्क आकाश
र्ें वैकुण्िलोक र्ें अपना आमि आध्यामत्र्क शरीर प्राप्त कर लेता है, मजससे वह भगवान् की सगं मत का लाभ उिाता

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है । मकन्तु ऐसा सर्झा जाता है मक जीव भगवान् का अंश होने के कारण गुणात्र्क दृमष्ट से भगवान् के ही सर्ान
है, मजस प्रकार स्वणम के अंश भी स्वणम होते हैं ।

शरीरं यदवाप्िोनत यच्चाप्युत्क्रामतीश्र्वरः ।


गृहीत्वैतानि संयानत वायुगमन्धानिवाश्यात् ।। ८ ।।

शरीरम् - शरीर को; यत् - मजस; अवाप्िोनत - प्राप्त करता है;यत् - मजस; च - तर्ा; अनप - भी; उत्क्रामनत -
त्यागता है;ईश्र्वरः - शरीर का स्वार्ी; गृहीत्वा - ग्रहण करके ; एतानि - इन सबको; संयानत - चला जाता है; वायुः -
वाय;ु गन्धाि् - र्हक को;इव – सदृश;आशयात् - स्त्रोत से ।

इस सस
ं ार में जीव अपिी देहात्मबुनद्ध को एक शरीर से दूसरे में उसी तरह ले जाता है, नजस प्रकार वायु
सुगनन्ध को ले जाता है । इस प्रकार वह एक शरीर धारण करता है और निर इसे त्याग कर दूसरा शरीर धारण
करता है ।

तात्पयम : यहाँ पर जीव को ईश्र्वर अर्ामत् अपने शरीर का मनयार्क कहा गया है । यमि वह चाहे तो अपने शरीर
को त्याग कर उच्चतर योमन र्ें जा सकता है । इस मवषय र्ें उसे र्ोड़ी स्वतन्त्रता प्राप्त है । शरीर र्ें जो पररवतमन होता
है, वह उस पर मनभमर करता है । र्ृत्यु के सर्य वह जैसी चेतना बनाये रखता है, वही उसे िसू रे शरीर तक ले जाती है ।
यमि वह कुत्ते या मबल्ली जैसी चेतना बनाता है, तो उसे कुत्ते या मबल्ली का शरीर प्राप्त होता है । यमि वह अपनी चेतना
िैवी गुणों र्ें मस्र्त करता है, तो उसे िेवता का स्वरूप प्राप्त होता है । और यमि वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें होता है, तो वह
आध्यामत्र्क जगत र्ें कृ ष्ट्ण लोक को जाता है, जहाँ उसका सामन्नध्य कृ ष्ट्ण से होता है । यह िावा मर्थ्या है मक इस
शरीर के नाश होने पर सब कुछ सर्ाप्त हो जाता है । आत्र्ा एक शरीर से िूसरे शरीर र्ें िेहान्तरण करता है, और
वतमर्ान शरीर तर्ा वतमर्ान कायमकलाप ही अगले शरीर का आधार बनते हैं । कर्म के अनुसार मभन्न शरीर प्राप्त होता है
और सर्य आने पर यह शरीर त्यागना होता है । यहाँ यह कहा गया है मक सूक्ष्र् शरीर, जो अगले शरीर का बीज वहन
करता है, अगले जीवन र्ें िसू रा शरीर मनर्ामण करता है । एक शरीर से िसू रे शरीर र्ें िेहान्तरण की प्रमक्रया तर्ा शरीर र्ें
रहते हुए संघषम करने को षदस्त अर्ामत् जीवन संघषम कहते हैं ।

श्रोत्रं चक्षुः स्पशमिं च रसिं घ्राणमेव च ।


अनधष्ठाय मिश्र्चायं नवषयािुपसेवते ।। ९ ।।

क्षोत्रम् - कान; चक्षुः - आँखें; स्पशमिम् - स्पशम; च - भी; रसिम् - जीभ; घ्राणम् - सूँघने की शमक्त; एव -
भी; च - तर्ा; अनधष्ठाय - मस्र्त होकर; मिः - र्न; च - भी; अयम् - यह;नवषयाि् - इमन्द्रयमवषयों को; उपसेवते -
भोग करता है ।

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इस प्रकार दूसरा स्थूल शरीर धारण करके जीव नवशेष प्रकार का काि, आूँख, जीभ, िाक तथा स्पशम
इनन्द्रय (त्वचा) प्राप्त करता है, जो मि के चारों ओर संपुंनजत है । इस प्रकार वह इनन्द्रयनवषयों के एक नवनशष्ट
समुच्चय का भोग करता है ।

तात्पयम : िसू रे शब्िों र्ें, यमि जीव अपनी चेतना को कुत्तों तर्ा मबमल्लयों के गुणों जैसा बना िेता है, तो उसे
अगले जन्र् र्ें कुत्ते या मबल्ली का शरीर प्राप्त होता है , मजसका वह भोग करता है । चेतना र्ूलतः जल के सर्ान
मवर्ल होती है, लेमकन यमि हर् जल र्ें रंग मर्ला िेते हैं, तो उसका रंग बिल जाता है । इसी प्रकार चेतना भी शद्ध ु
है, क्योंमक आत्र्ा शद्धु है लेमकन भौमतक गुणों की संगमत के अनुसार चेतना बिलती जाती है । वास्तमवक चेतना तो
कृ ष्ट्णभावनार्ृत है, अतः जब कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होता है, तो वह शद्ध
ु तर जीवन मबताता है । लेमकन यमि
उसकी चेतना मकसी भौमतक प्रवृमत्त से मर्मश्रत हो जाती है, तो अगले जीवन र्ें उसे वैसा ही शरीर मर्लता है । यह
आवश्यक नहीं है मक उसे पुनः र्नुष्ट्य शरीर प्राप्त हो - वह कुत्ता, मबल्ली, सूकर, िेवता या चौरासी लाख योमनयों र्ें से
कोई भी रूप प्राप्त कर सकता है ।

उत्क्रामन्तं नस्थतं वानप भुञ्जा िं वा गुणानन्वतम् ।


नवमूढा िािुपश्यनन्त पश्यनन्त ज्ञािचक्षुषः ।। १० ।।

उत्क्रामन्तम् - शरीर त्यागते हुए; नस्थतम् - शरीर र्ें रहते हुए; वा अनप - अर्वा; भुञ्जािम् - भोग करते
हुए; वा - अर्वा; गुण-अनन्वतम् - प्रकृ मत के गुणों के अधीन; नवमूढाः - र्ख ु म व्यमक्त; ि - कभी नहीं; अिुपश्यनत -
िेख सकते हैं; ज्ञाि-चक्षुषः - ज्ञान रूपी आँखों वाले ।

मूखम ि तो समझ पाते हैं नक जीव नकस प्रकार अपिा शरीर त्याग सकता है, ि ही वे यह समझ पाते हैं
नक प्रकृ नत के गुणों के अधीि वह नकस तरह के शरीर का भोग करता है । लेनकि नजसकी आूँखें ज्ञाि से
प्रनशनक्षत होती हैं, वह यह सब देख सकता है ।

तात्पयम :ज्ञान-चक्षुषः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । मबना ज्ञान के कोई न तो यह सर्झ सकता है मक जीव इस
शरीर को मकस प्रकार त्यागता है, न ही यह मक वह अगले जीवन र्ें कै सा शरीर धारण करने जा रहा है, अर्वा यह मक
वह मवशेष प्रकार के शरीर र्ें क्यों रह रहा है । इसके मलए पयामप्त ज्ञान की आवश्यकता होती है, मजसे प्रर्ामणक गुरु
से भगवद्गीता तर्ा अन्य ऐसे ही ग्रंर्ों को सुन कर सर्झा जा सकता है । जो इन बातों को सर्झने के मलए प्रमशमक्षत
है, वह भाग्यशाली है । प्रत्येक जीव मकन्हीं पररमस्र्मतयोंर्ें शरीर त्यागता है, जीमवत रहता है और प्रकृ मत के अधीन
होकर भोग करता है । िलस्वरूप वह इमन्द्रय भोग के भ्रर् र्ें नाना प्रकार के सुख-िख ु सहता रहता है । ऐसे व्यमक्त जो
कार् तर्ा इच्छा के कारण मनरन्तर र्ख ु म बनते रहते हैं
, अपने शरीर-पररवतम न तर्ा मवशे ष शरीर र्ें अपने वास को सर्झने
की सारी शमक्त खो बैिते हैं । वे इसे नहीं सर्झ सकते । मकन्तु मजन्हें आध्यामत्र्क ज्ञान हो चक ु ा है, वे िेखते हैं मक
आत्र्ा शरीर से मभन्न है और यह अपना शरीर बिल कर मवमभन्न प्रकार से भोगता रहता है । ऐसे ज्ञान से यक्त ु व्यमक्त
सर्झ सकता है मक इस संसार र्ें बद्धजीव मकस प्रकार कष्ट भोग रहे हैं । अतएव जो लोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें अत्यमधक
आगे बढ़े हुए हैं, वे इस ज्ञान को सार्ान्य लोगों तक पहुचँ ाने र्ें प्रयत्नशील रहते हैं, क्योंमक उनका बद्ध जीवन अत्यन्त

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कष्टप्रि रहता है । उन्हें इसर्ें से मनकल कर कृ ष्ट्णभावनार्ृत होकर आध्यामत्र्क लोक र्ें जाने के मलए अपने को र्क्त

करना चामहए ।

यतन्तो योनगिश्र्चैिं पश्यन्त्यात्मन्यवनस्थतम् ।


यतन्तोऽप्यकृ तात्मािो िैिं पश्यन्त्यचेतसः ।। ११ ।।

यतन्तः - प्रयास करते हुए; योनगिः - अध्यात्र्वािी, योगी; च - भी; एिम् - इसे; पश्यनन्त - िेख सकते
हैं; आत्मनि - अपने र्ें; अवनस्थतम् - मस्र्त; यतन्तः - प्रयास करते हुए; अनप - यद्यमप; अकृ त-आत्मािः - आत्र्-
साक्षात्कार से मवहीन; ि - नहीं; एिम् - इसे; पश्यनन्त - िेखते हैं; अचेतसः - अमवकमसत र्नों वाले, अज्ञानी ।

आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त प्रयत्िशील योगीजि यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं । लेनकि नजिके मि
नवकनसत िहीं हैं और जो आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त िहीं हैं, वे प्रयत्ि करके भी यह िहीं देख पाते नक क्या
हो रहा है ।

तात्पयम : अनेक योगी आत्र्-साक्षात्कार के पर् पर होते हैं, लेमकन जो आत्र्-साक्षात्कार को प्राप्त नहीं है, वह
यह नहीं िेख पाता मक जीव के शरीर र्ें कै से-कै से पररवतमन हो रहा है । इस प्रसंग र्ें योस्गनः शब्ि र्हत्त्वपूणम है ।
आजकल ऐसे अनेक तर्ाकमर्त योगी हैं और योमगयों के तर्ाकमर्त संगिन हैं, लेमकन आत्र्-साक्षात्कार के र्ार्ले र्ें
वे शन्ू य हैं । वे के वल कुछ आसनों र्ें व्यस्त रहते हैं और यमि उनका शरीर सुगमित तर्ा स्वस्र् हो गया,तो वे सन्तुष्ट हो
जाते हैं । उन्हें इसके अमतररक्त कोई जानकारी नहीं रहती । वे यतन्तोऽप्य ृ तात्मानः कहलाते हैं । यद्यमप वे तर्ाकमर्त
योगपद्धमत का प्रयास करते हैं, लेमकन वे स्वरूपमसद्ध नहीं हो पाते । ऐसे व्यमक्त आत्र्ा के िेहान्तरण को नहीं सर्झ
सकते । के वल वे ही ये सभी बातें सर्झ पाते हैं, जो सचर्चु योग पद्धमत र्ें रर्ते हैं और मजन्हें आत्र्ा, जगत् तर्ा
परर्ेश्र्वर की अनभु मू त हो चक
ु ी है । िसू रे शब्िों र्ें, जो भमक्तयोगी हैं वे ही सर्झ सकते हैं मक मकस प्रकार से सब कुछ
घमटत होता है ।

यदानदत्यगतं तेजो जगिासयतेऽनखलम् ।


यच्चन्द्रमनस यच्चाग्िौ तत्तेजो नवनद्ध मामकम् ।। १२ ।।

यत् - जो; आनदत्य-गतम् - सूयमप्रकाश र्ें मस्र्त; तेजः - तेज;जगत् - सारा संसार; भासयते - प्रकामशत होता
है; अनखलम् - सम्पूण;म यत् - जो; चन्द्रमनस - चन्द्रर्ा र्ें; यत् - जो; च - भी; अग्िौ - अमग्न र्ें; तत् - वह; तेजः -
तेज;नवनद्ध - जानो;मामकम् - र्झु से ।

सूयम का तेज, जो सारे नवश्र्व के अंधकार को दूर करता है, मुझसे ही निकलता है । चन्द्रमा तथा अनग्ि
के तेज भी मझु से उत्पन्ि हैं ।

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तात्पयम: अज्ञानी र्नुष्ट्य यह नहीं सर्झ पाता मक यह सब कुछ कै से घमटत होता है । लेमकन भगवान् ने यहाँ पर
जो कुछ बतलाया है, उसे सर्झ कर ज्ञान प्राप्त मकया जा सकता है । प्रत्येक व्यमक्त सूय,म चन्द्रर्ा, अमग्न तर्ा मबजली
िेखता है । उसे यह सर्झने का प्रयास करना चामहए मक चाहे सूयम का तेज हो; या चन्द्रर्ा, अमग्न अर्वा मबजली का
तेज, ये सब भगवान् से ही उद्भूत हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का प्रारम्भ इस भौमतक जगत् र्ें बद्धजीव को उन्नमत करने के मलए
कािी अवसर प्रिान करता है । जीव र्ल ू तः परर्ेश्र्वर के अंश हैं और भगवान् यहाँ पर इमं गत कर रहे हैं मक जीव मकस
प्रकार भगवद्धार् को प्राप्त कर सकते हैं ।
इस श्लोक से हर् यह सर्झ सकते हैं मक सयू म सम्पणू म सौर र्ण्डल को प्रकामशत कर रहा है । ब्रह्माण्ड अनेक हैं
और सौर र्ण्डल भी अनेक हैं । सूय,म चन्द्रर्ा तर्ा लोक भी अनेक हैं, लेमकन प्रत्येक ब्रह्माण्ड र्ें के वल एक सूयम
है । भगवद्गीता र्ें (१०.२१) कहा गया है मक चन्द्रर्ा भी एक नक्षत्र है (नक्षत्राणामहां शशी) । सयू म का प्रकाश परर्ेश्र्वर
के आध्यामत्र्क आकाश र्ें आध्यामत्र्क तेज के कारण है । सूयोिय के सार् ही र्नुष्ट्य के कायमकलाप प्रारम्भ हो जाते
हैं । वे भोजन पकाने के मलए अमग्न जलाते हैं और िै क्टररयाँ चलाने के मलए भी अमग्न जलाते हैं । अमग्न की सहायता से
अनेक कायम मकये जाते हैं । अतएव सूयोिय, अमग्न तर्ा चन्द्रर्ा की चाँिनी जीवों को अत्यन्त सुहावने लगते हैं । उनकी
सहायता के मबना कोई जीव नहीं रह सकता । अतएव यमि र्नुष्ट्य यह जान ले मक सूयम, चन्द्रर्ा तर्ा अमग्न का प्रकाश
या तेज भगवान् कृ ष्ट्ण से उद्भूत हो रहा है, तो उसर्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत का सूत्रपात हो जाता है । चन्द्रर्ा के प्रकाश से सारी
वनस्पमतयाँ पोमषत होती हैं । चन्द्रर्ा का प्रकाश इतना आनन्िप्रि है मक लोग सरलता से सर्झ सकते हैं मक वे भगवान्
कृ ष्ट्ण की कृ पा से ही जी रहे हैं । उनकी कृ पा के मबना न तो सूयम होगा, न चन्द्रर्ा, न अमग्न और सूयम, चन्द्रर्ा तर्ा अमग्न
के मबना हर्ारा जीमवत रहना असम्भव है । बद्ध जीव र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत जगाने वाले ये ही कमतपय मवचार हैं ।

गामानवश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।


पष्ट्ु णानम चौषधी: सवामः सोमो भत्ू वा रसात्मकः ।। १३ ।।

गाम् - लोक र्ें; आनवष्ट्य - प्रवेश करके ; च - भी; भतू ानि - जीवों का; धारयामी - धारण करता ह;ँ अहम् -
र्ैं; ओजसा - अपनी शमक्त से; पुष्ट्णानम - पोषण करता हँ ; च - तर्ा; औषनधः - वनस्पमतयों का; सवामः -
सर्स्त; सोमः - चन्द्रर्ा; भूत्वा - बनकर; रस-आत्मकः - रस प्रिान करनेवाला ।

मैं प्रत्येक लोक में प्रवेश करता हूँ और मेरी शनि से सारे लोक अपिी कक्षा में नस्थत रहते हैं । मैं
चन्द्रमा बिकर समस्त विस्पनतयों को जीवि-रस प्रदाि करता हूँ ।

तात्पयम: ऐसा ज्ञात है मक सारे लोक के वल भगवान् की शमक्त से वायु र्ें तैर रहे हैं । भगवान् प्रत्येक अण,ु प्रत्येक
लोक तर्ा प्रत्येक जीव र्ें प्रवेश करते हैं । इसकी मववेचना ब्रह्मसांस्हता र्ें की गई है । उसर्ें कहा गया है - परर्ेश्र्वर का
एक अश ं , परर्ात्र्ा, लोकों र्ें, ब्रह्माण्ड र्ें, जीव र्ें, तर्ा अणु तक र्ें प्रवेश करता है । अतएव उनके प्रवेश करने से
प्रत्येक वस्तु िीक से मिखती है । जब आत्र्ा होता है तो जीमवत र्नुष्ट्य पानी र्ैं तैर सकता है । लेमकन जब जीमवत
स्पमू लगं इस िेह से मनकल जाता है और शरीर र्ृत हो जाता है तो शरीर डूब जाता है । मनस्सन्िेह सड़ने के बाि यह शरीर
मतनके तर्ा अन्य वस्तुओ ं के सर्ान तैरता है । लेमकन र्रने के तुरन्त बाि शरीर पानी र्ें डूब जाता है । इसी प्रकार ये
सारे लोक शन्ू य र्ें तैर रहे हैं और यह सब उनर्ें भगवान् की परर् शमक्त के प्रवेश के कारण है । उनकी शमक्त प्रत्येक

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लोक को उसी तरह र्ार्े रहती है, मजस प्रकार धल ू को र्ट्ठु ी । र्ट्ठु ी र्ें बन्ि रहने पर धल
ू के मगरने का भय नहीं
रहता, लेमकन जयोंही धूल को वायु र्ें िैं क मिया जाता है, वह नीचे मगर पड़ती है । इसी प्रकार ये सारे लोक, जो वायु र्ें
तैर रहे हैं, वास्तव र्ें भगवान् के मवराट रूप की र्ट्ठु ी र्ें बँधे हैं । उनके बल तर्ा शमक्त से सारी चर तर्ा अचर वस्तुएँ
अपने-अपने स्र्ानों पर मटकी हैं । वैमिक र्न्त्रों र्ें कहा गया है मक भगवान् के कारण सूयम चर्कता है और सारे लोक
लगातार घर्ू ते रहते हैं । यमि ऐसा उनके कारण न हो तो सारे लोक वायु र्ें धल ू के सर्ान मबखर कर नष्ट हो जाएँ । इसी
प्रकार से भगवान् के ही कारण चन्द्रर्ा सर्स्त वनस्पमतयों का पोषण करता है । चन्द्रर्ा के प्रभाव से समब्जयाँ सुस्वािु
बनती हैं । वास्तव र्ें र्ानव सर्ाज भगवान् की कृ पा से कार् करता है, सख ु से रहता है और भोजन का आनन्ि लेता
है । अन्यर्ा र्नुष्ट्य जीमवत न रहता । रसात्म ः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । प्रत्येक वस्तु चन्द्रर्ा के प्रभाव से परर्ेश्र्वर
के द्वारा स्वामिष्ट बनती है ।

अहं वैश्र्वािरो भूत्वा प्रानणिां देहमानश्रतः ।


प्राणापािसमायुिः पचाम्यन्िं चतुनवमधम् ।। १४ ।।

अहम् - र्ैं; वैश्र्वािरः - पाचक-अमग्न के रूप र्ें पूणम अंश; भूत्वा - बन कर; प्रानणिाम् - सर्स्त जीवों
के ; देवम् - शरीरों र्ें; आनश्रतः - मस्र्त; प्राण - उच््वास, मनश्र्वास; अपाि - श्र्वास; समायुिः - सन्तुमलत रखते
हुए; पचानम - पचाता ह;ँ अन्िम् - अन्न को; चतुः-नवधम् - चार प्रकार के ।

मैं समस्त जीवों के शरीरों में पाचि-अनग्ि (वैश्र्वािर) हूँ और मैं श्र्वास-प्रश्र्वास (प्राण वायु) में रह कर
चार प्रकार के अन्िों को पचाता हूँ ।

तात्पयम: आयुवेि शास्त्र के अनुसार आर्ाशय (पेट) र्ें अमग्न होती है, जो वहाँ पहुँचे भोजन को पचाती है । जब
यह अमग्न प्रजजवमलत नहीं रहती तो भख ू नहीं जगती और जब यह अमग्न िीक रहती है, तो भख ू लगती है । कभी-कभी
जब अमग्न र्न्ि हो जाती है तो उपचार की आवश्यकता होती है । जो भी हो, यह अमग्न भगवान् का प्रमतमनमध स्वरूप
है । वैमिक र्न्त्रों से भी (बृहर्ारण्य उपस्नषर्् ५.९.१) पुमष्ट होती है मक परर्ेश्र्वर या ब्रह्म अमग्नरूप र्ें आर्ाशय के
भीतर मस्र्त है और सर्स्त प्रकार के अन्न को पचाते हैं (अयमस्र्गनवैश्र्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेर्मन्नां पचयते) । चँमू क
भगवान् सभी प्रकार के अन्नों के पाचन र्ें सहायक होते हैं, अतएव जीव भोजन करने के र्ार्ले र्ें स्वतन्त्र नहीं है । जब
तक परर्ेश्र्वर पाचन र्ें सहायता नहीं करते, तब तक खाने की कोई सम्भावना नहीं है । इस प्रकार भगवान् ही अन्न को
उत्पन्न करते और वे ही पचाते हैं और उनकी ही कृ पा से हर् जीवन का आनन्ि उिाते हैं । वेर्ान्तसूत्र र्ें (१.२.२७) भी
इसकी पुमष्ट हुई है । शब्द्र्ास्र्भ्योऽन्तः प्रस्तष्ठानाचच - भगवान् शब्ि के भीतर, शरीर के भीतर, वायु के भीतर तर्ा यहाँ
तक मक पाचन शमक्त के रूप र्ें आर्ाशय र्ें भी उपमस्र्त हैं । अन्न चार प्रकार का होता है - कुछ मनगले जाते हैं
(पेय) , कुछ चबाये जाते हैं (भोजय), कुछ चाटे जाते हैं (लेह्य) तर्ा कुछ चसू े जाते हैं (चोष्ट्य) । भगवान् सभी प्रकार के
अन्नों की पाचक शमक्त हैं ।

सवमस्य चाहं ह्रनद सनन्िनवष्टो


मत्तः स्मृनतज्ञामिमपोहिं च ।

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वेदैश्र्च सवैरहमेव वेद्यो
वेदान्तकृ द्वेदनवदेव चाहम् ।। १५ ।।

सवमस्य - सर्स्त प्रामणयों; च - तर्ा; अहम् - र्ैं; हृनद - हृिय र्ें; सनन्िनवष्टः - मस्र्त; मत्तः - र्झु
से; स्मृनतः - स्र्रणशमक्त; ज्ञािम् - ज्ञान; अपोहिम् - मवस्र्ृमत; च - तर्ा; वेदैः - वेिों के द्वारा; च - भी; सवैः -
सर्स्त; अहम् - र्ैं ह;ँ एव - मनश्चय ही; वेद्यः - जानने योग्य, ज्ञेय; वेदान्त-कृ त - वेिान्त के संकलकताम; वेदनवत् -
वेिों का ज्ञाता; एव - मनश्चय ही; च - तर्ा;अहम् - र्ैं ।

मैं प्रत्येक जीव के हृदय में आसीि हूँ और मझ ु से ही स्मृनत, ज्ञाि तथा नवस्मृनत होती है । मैं ही वेदों के
द्वारा जाििे योग्य हूँ । निस्सन्देह मैं वेदान्त का संकलिकताम तथा समस्त वेदों का जाििे वाला हूँ ।

तात्पयम : परर्ेश्र्वर परर्ात्र्ा रूप र्ें प्रत्येक जीव के हृिय र्ें मस्र्त हैं और उन्हीं के कारण सारे कर्म प्रेररत होते
हैं । जीव अपने मवगत जीवन की सारी बातें भल ू जाता है, लेमकन उसे परर्ेश्र्वर के मनिेशानुसार कायम करना होता है, जो
उसके सारे कर्ों के साक्षी है । अतएव वह अपने मवगत कर्ों के अनुसार कायम करना प्रारम्भ करता है । इसके मलए
आवश्यक ज्ञान तर्ा स्र्ृमत उसे प्रिान की जाती है । लेमकन वह मवगत जीवन के मवषय र्ें भल ू ता रहता है । इस प्रकार
भगवान् न के वल सवमव्यापी हैं, अमपतु वे प्रत्येक हृिय र्ें अन्तयामर्ी भी हैं । वे मवमभन्न कर्मिल प्रिान करने वाले हैं । वे
न के वल मनराकार ब्रह्म तर्ा अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा के रूप र्ें पूजनीय हैं, अमपतु वे वेिों के अवतार के रूप र्ें भी पूजनीय
हैं । वेि लोगों को सही मिशा बताते हैं, मजससे वे सर्मु चत ढंग से अपना जीवन ढाल सकें और भगवान् के धार् को
वापस जा सकें । वेि भगवान् कृ ष्ट्ण मवषयक ज्ञान प्रिान करते हैं और अपने अवतार व्यासिेव के रूप र्ें कृ ष्ट्ण ही
वेिान्तसत्रू के सक ं लनकताम हैं । व्यासिेव द्वारा श्रीमद्भागवत के रूप र्ें मकया गया वेिान्तसत्रू का भाष्ट्य वेिान्तसत्रू की
वास्तमवक सूचना प्रिान करता है । भगवान् इतने पूणम हैं मक बद्धजीवों के उद्धार हेतु वे उसके अन्न के प्रिाता एवं पाचक
हैं, उसके कायमकलापों के साक्षी हैं तर्ा वेिों के रूप र्ें ज्ञान के प्रिाता हैं । वे भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के रूप र्ें भगवद्गीता के
मशक्षक हैं । वे बद्धजीव द्वारा पूजय हैं । इस प्रकार ईश्र्वर सवमकल्याणप्रि तर्ा सवमियार्य हैं ।
अन्तः प्रस्वष्टः शास्ता जनानाम्। जीव जयोंही अपने इस शरीर को छोड़ता है, इसे भल ू जाता है, लेमकन परर्ेश्र्वर
द्वारा प्रेररत होने पर वह मिर से कार् करने लगता है । यद्यमप जीव भल ू जाता है, लेमकन भगवान् उसे बुमद्ध प्रिान करते
हैं, मजससे वह अपने पूवमजन्र् के अपूणम कायम को मिर से करने लगता है । अतएव जीव अपने हृिय र्ें मस्र्त परर्ेश्र्वर
के आिेशानुसार इस जगत् र्ें सुख या िुख का के वल भोग ही नहीं करता है, अमपतु उनसे वेि सर्झने का अवसर भी
प्राप्त करता है । यमि कोई िीक से वैमिक ज्ञान पाना चाहे तो कृ ष्ट्ण उसे आवश्यक बुमद्ध प्रिान करते हैं । वे मकस मलए
वैमिक ज्ञान प्रस्तुत करते हैं ? इसमलए मक जीव को कृ ष्ट्ण को सर्झने की आवश्यकता है । इसकी पुमष्ट वैमिक सामहत्य
से होती है –योऽसौ सवैवेर्ैगीयते। चारों वेर्ों, वेर्ान्त सूत्र तर्ा उपस्नषर्ों एवं पुराणों सर्ेत सारे वैमिक सामहत्य र्ें
परर्ेश्र्वर की कीमतम का गान है । उन्हें वैमिक अनिु ानों द्वारा, वैमिक िशमन की व्याख्या द्वारा तर्ा भगवान् की भमक्तर्य
पूजा द्वारा प्राप्त मकया जा सकता है । अतएव वेिों का उद्देश्य कृ ष्ट्ण को सर्झना है । वेि हर्ें मनिेश िेते हैं, मजससे कृ ष्ट्ण
को जाना जा सकता है और उनकी अनभु मू त की जा सकती है । भगवान् ही चरर् लक्ष्य है । वेर्ान्तसत्रू (१.१.४) र्ें
इसकी पुमष्ट इन शब्िों र्ें हुई है - तत्तु समन्वयात् । र्नुष्ट्य तीन अवस्र्ाओ ं र्ें मसमद्ध प्राप्त करता है । वैमिक सामहत्य के
ज्ञान से भगवान् के सार् अपने सम्बन्ध को सर्झा जा सकता है, मवमभन्न मवमधयों को सम्पन्न करके उन तक पहुचँ ा जा

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सकता है और अन्त र्ें उस परर् लक्ष्य श्रीभगवान् की प्रामप्त की जा सकती है । इस श्लोक र्ें वेिों के प्रयोजन, वेिों के
ज्ञान तर्ा वेिों के लक्ष्य को स्पष्टतः पररभामषत मकया गया है ।

द्वानवमौ पुरुषौ लोके क्षरश्र्चाक्षर एव च ।


क्षरः सवामनण भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ।। १६ ।।

द्वौ - िो; इमौ - ये; परुु षौ - जीव; लोके - ससं ार र्ें; क्षरः-च्यतु ; च-तर्ा; अक्षरः-अच्यतु ; एव-मनश्चय ही; च-
तर्ा; क्षरः-च्युत ; सवामनण-सर्स्त; भूतानि-जीवों को; कूट-स्थः- एकत्व र्ें; अक्षरः-अच्युत; उच्यते-कहा जाता है ।

जीव दो प्रकार हैं - च्युत तथा अच्युत । भौनतक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और
आध्यानत्मक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत कहलाता है

तात्पयम: जैसा मक पहले बाताया जा चक ु ा है भगवान् ने अपने व्यासिेव अवतार र्ें ब्रह्मसूत्र का संकलन मकया ।
भगवान् ने यहाँ पर वेर्ान्तसूत्र की मवषय वस्तु का सार-संक्षेप मिया है । उनका कहना है मक जीव मजनकी संख्या अनन्त
है, िो श्रेमणयों र्ें मवभामजत मकये जा सकते हैं च्युत (क्षर) तर्ा अच्युत (अक्षर) । जीव भगवान् के सनातन पृर्क्कीकृ त
अंश (मवमभन्नांश) हैं । जब उनका संसगम भौमतक जगत् से होता है तो वे जीवभूत कहलाते है । यहाँ पर क्षरः सवादस्ण
भतू ास्न पि प्रयुक्त हुआ है, मजसका अर्म है मक जीव च्युत हैं । लेमकन जो जीव परर्ेश्र्वर से एकत्व स्र्ामपत कर लेते हैं
वे अच्युत कहलाते हैं । एकत्व का अर्म यह नहीं है मक उनकी अपनी मनजी सत्ता नहीं है बमल्क यह मक िोनों र्ें मभन्नता
नहीं है । वे सब सृजन के प्रयोजन को र्ानते हैं । मनस्सन्िेह आध्यामत्र्क जगत् र्ें सृजन जैसी कोई वस्तु नहीं हैं, लेमकन
चँमू क, जैसा मक वेर्ान्तसत्रू र्ें कहा गया है, भगवान् सर्स्त उद्भवों के स्त्रोत हैं, अतएव यहाँ पर इस मवचारधारा की
व्याख्या की गई है ।
भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण के कर्ानसु ार जीवों की िो श्रेमणयाँ हैं । वेिों र्ें इसके प्रर्ाण मर्लते हैं अतएव इसर्ें सन्िेह
करने का प्रश्न ही नहीं उिता । इस संसार र्ें संघषम-रत सारे जीव र्न तर्ा पाँच इमन्द्रयों से युक्त शरीर वाले हैं जो
पररवतमनशील हैं । जब तक जीव बद्ध है, तब तक उसका शरीर पिार्म के संसगम से बिलता रहता है । चँमू क पिार्म
बिलता रहता है, इसमलए जीव बिलते प्रतीत होते हैं । लेमकन आध्यामत्र्क जगत् र्ें शरीर पिार्म से नहीं बना होता
अतएव उसर्ें पररवतमन नहीं होता । भौमतक जगत् र्ें जीव छः पररवतमनों से गुजरता है -
जन्र्, वृमद्ध, अमस्तत्व, प्रजनन, क्षय तर्ा मवनाश । ये भौमतक शरीर के पररवतमन हैं । लेमकन आध्यामत्र्क जगत् र्ें
शरीर-पररवतमन नहीं होता, वहाँ न जरा है, न जन्र् और न र्ृत्यु । वे सब एकवस्र्ा र्ें रहते हैं । क्षरः सवादस्ण भतू ास्न-जो
भी जीव ,आमि जीव ब्रह्मा से लेकर क्षुद्र चींटी तक भौमतक प्रकृ मत के संसगम र्ें आता है, वह अपना शरीर बिलता है ।
अतएव ये सब क्षर या च्युत हैं । मकन्तु आध्यामत्र्क जगत् र्ें वे र्क्त ु जीव सिा एकावस्र्ा र्ें रहते हैं ।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदानह्रतः ।


यो लोकत्रयमानवश्य नबभत्यमव्यय ईश्र्वरः ।। १७ ।।

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उत्तमः - श्रेि; पुरुषः - व्यमक्त, पुरुष; तु - लेमकन; अन्यः - अन्य; परम - परर्; आत्मा - आत्र्ा; इनत - इस
प्रकार; उदाहृतः - कहा जाता है; यः - जो; लोक - ब्रह्माण्ड के ; त्रयम् - तीन मवभागों र्ें; आनवश्य - प्रवेश
करके ; नबनभनतम - पालन करता है; अव्ययः - अमवनाशी;ईश्र्वरः - भगवान् ।

इि दोिों के अनतररि एक परम पुरुष परमात्मा है जो साक्षात् अनविाशी है और जो तीिों लोकों में
प्रवेश करके उिका पालि कर रहा है ।

तात्पयम : इस श्लोक का भाव ठोपस्नषर्् (२.२.१३) तर्ा श्र्वेताश्र्वतरउपस्नषर्् र्ें (६.१३) अत्यन्त सुन्िर ढगं
से व्यक्त हुआ है । वहाँ यह कहा गया है मक असख्ं य जीवों के मनयन्ता मजनर्ें से कुछ बद्ध हैं और कुछ र्क्त ु हैं एक परर्
पुरुष है जो परर्ात्र्ा है । उपमनषि् का श्लोक इस प्रकार है - स्नत्यो स्नत्यानाां चेतनिेतनानाम् । सारांश यह है मक बद्ध
तर्ा र्क्त
ु िोनों प्रकार के जीवों र्ें से एक परर् पुरुष भगवान् है जो उन सबका पालन करता है और उन्हें कर्ों के
अनुसार भोग की सुमवधा प्रिान करता है । वह भगवान् परर्ात्र्ा रूप र्ें सबके हृिय र्ें मस्र्त है । जो बुमद्धर्ान व्यमक्त
उन्हें सर्झ सकता है वही पूणम शामन्त लाभ कर सकता है अन्य कोई नहीं ।

यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादनप चोत्तमः ।
अतोऽनस्म लोके वेदे च प्रनथतः पुरुषोत्तमः ।। १८ ।।

यस्मात् - चँमू क; क्षरम् - च्युत; अतीतः - मिव्य; अहम् - र्ैं ह;ँ अक्षरात् - अक्षर के परे ; अनप - भी; च -
तर्ा; उत्तमः - सवमश्रेि; अतः - अतएव; अनस्म - र्ैं ह;ँ लोके - संसार र्ें; वेदे - वैमिक सामहत्य र्ें; च -
तर्ा; प्रनथतः - मवख्यात; परुु ष-उत्तमः - परर् परुु ष के रूप र्ें ।

चूँनू क मैं क्षर तथा अक्षर दोिों के परे हूँ और चूँनू क मैं सवमश्रेष्ठ हूँ, अतएव मैं इस जगत् में तथा वेदों में
परम पुरुष के रूप में नवख्यात हूँ ।

तात्पयम: भगवान् कृ ष्ट्ण से बढ़कर कोई नहीं है - न बद्धजीव न र्क्त ु जीव । अतएव वे पुरुषोत्तर् हैं । अब यह
स्पष्ट हो चक ु ा है मक जीव तर्ा भगवान् व्यमष्ट हैं । अन्तर इतना है मक जीव चाहे बद्ध अवस्र्ा र्ें रहे या र्क्त
ु अवस्र्ा
र्ें, वह शमक्त र्ें भगवान् की अकल्पनीय शमक्तयों से बढ़कर नहीं हो सकता । यह सोचना गलत है मक भगवान् तर्ा
जीव सर्ान स्तर पर हैं या सब प्रकार से एकसर्ान हैं । इनके व्यमक्तत्त्वों र्ें सिैव श्रेिता तर्ा मनम्नता बनी रहती
है । उत्तम शब्ि अत्यन्त सार्मक है । भगवान् से बढ़कर कोई नहीं है ।
लोके शब्ि “पौरुष आगम (स्र्ृमत-शास्त्र) र्ें” के मलए आया है । जैसा मक मनरुमक्त कोश र्ें पुमष्ट की गई है -
लोक्तयते वेर्ाथोऽनेन - “वेिों के प्रयोजन स्र्ृमत-शास्त्रों र्ें मववेमचत है ।”
“भगवान् के अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा स्वरूप का भी वेिों र्ें वणमन हुआ है । मनम्नमलमखत श्लोक वेिों र्ें
(छान्र्ोर्गयउपस्नषर्् ८.१२.३) आया है - तावर्ेष सम्प्रसार्ोऽस्माचछरीरात्समत्ु थाय परां ज्योस्तरूपां सम्पय स्वेन
रूपेणास्भस्नष्पयते स उत्तमः पुरुषः। “शरीर से मनकल कर परर् आत्र्ा का प्रवेश मनराकार ब्रह्मज्योस्त र्ें होता है । तब वे
अपने इस आध्यामत्र्क स्वरूप र्ें बने रहते हैं । यह परर् आत्र्ा ही परर् पुरुष कहलाता है ।” इसका अर्म यह हुआ मक

४४९
परर् पुरुष अपना आध्यामत्र्क तेज प्रकट करते तर्ा प्रसाररत करते रहते हैं और यही चरर् प्रकाश है । उस परर् पुरुष
का एक स्वरूप है अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा । भगवान् सत्यवती तर्ा पराशर के पुत्ररूप र्ें अवतार ग्रहण कर व्यासिेव के रूप
र्ें वैमिक ज्ञान की व्याख्या करते हैं ।

यो मामेवमसम्मूढो जािानत पुरुषोत्तमम् ।


स सवमनविजनत मां सवमभावेि भारत ।। १९ ।।

यः - जो; माम् - र्झु को; एवम् - इस प्रकार; असम्मूढः - संशयरमहत;जािानत - जानता है; पुरुष-उत्तमम् -
भगवान्; सः - वह; सवम-नवत् - सब कुछ जानने वाला; भजनत - भमक्त करता है; माम् - र्झु को; सवम-भावेि - सभी
प्रकार से; भारत - हे भरतपुत्र ।

जो कोई भी मुझे संशयरनहत होकर पुरुषोत्तम भगवाि् के रूप में जािता है, वह सब कुछ जािता है ।
अतएव हे भरतपुत्र! वह व्यनि मेरी पूणम भनि में रत होता है ।

तात्पयम : जीव तर्ा भगवान् की स्वाभामवक मस्र्मत के मवषय र्ें अनेक िाशममनक ऊहापोह करते हैं । इस श्लोक
र्ें भगवान् स्पष्ट बताते हैं मक जो भगवान् कृ ष्ट्ण को परर् पुरुष के रूप र्ें जनता है, वह सारी वस्तुओ ं का ज्ञाता है ।
अपूणम ज्ञाता परर् सत्य के मवषय र्ें के वल मचन्तन करता जाता है , जबमक पूणम ज्ञाता सर्य का अपव्यय मकये मबना
सीधे कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लग जाता है , अर्ामत् भगवान् की भमक्त करने लगता है । सम्पूणम भगवद्गीता र्ें पग पग-पर इस
तथ्य पर बल मिया गया है । मिर भी भगवद्गीता के ऐसे अनेक कट्टर भाष्ट्यकार हैं, जो परर्ेश्र्वर तर्ा जीव को एक ही
र्ानते हैं ।
वैमिक ज्ञान श्रस्ु त कहलाता है, मजसका अर्म है श्रवण करके सीखना । वास्तव र्ें वैमिक सूचना कृ ष्ट्ण तर्ा उनके
प्रमतमनमधयों जैसे अमधकाररयों से ग्रहण करनी चामहए । यहाँ कृ ष्ट्ण ने हर वस्तु का अतं र सन्ु िर ढगं से बताया है, अतएव
इसी स्त्रोत से सुनना चामहए । लेमकन के वल सूकरों की तरह सुनना पयामप्त नहीं है, र्नुष्ट्य को चामहए मक अमधकाररयों से
सर्झे । ऐसा नहीं मक के वल शष्ट्ु क मचन्तन ही करता रहे । र्नुष्ट्य को मवनीत भाव से भगवद्गीता से सुनना चामहए मक
सारे जीव भगवान् के अधीन हैं । जो भी इसे सर्झ लेता है, वही श्री कृ ष्ट्ण के कर्नानुसार वेिों के प्रयोजन को सर्झता
है, अन्य कोई नहीं सर्झता ।
भजस्त शब्ि अत्यन्त सार्मक है । कई स्र्ानों पर भजस्त का सम्बन्ध भगवान् की सेवा के अर्म र्ें व्यक्त हुआ है ।
यमि कोई व्यमक्त पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत है अर्ामत् भगवान् की भमक्त करता है, तो यह सर्झना चामहए मक उसने सारे
वैमिक ज्ञान सर्झ मलया है । वैष्ट्णव परम्परा र्ें यह कहा जाता है मक यमि कोई कृ ष्ट्ण-भमक्त र्ें लगा रहता है, तो उसे
भगवान् को जानने के मलए मकसी अन्य आध्यामत्र्क मवमध की आवश्यकता नहीं रहती । भगवान् की भमक्त करने के
कारण वह पहले से लक्ष्य तक पँहुचा रहता है । वह ज्ञान की सर्स्त प्रारमम्भक मवमधयों को पार कर चक ु ा होता
है । लेमकन यमि कोई लाखों जन्र्ों तक मचन्तन करने पर भी इस लक्ष्य पर नहीं पहुचँ पाता मक श्रीकृ ष्ट्ण ही भगवान् हैं
और उनकी ही शरण ग्रहण करनी चामहए, तो उसका अनेक जन्र्ों का मचन्तन व्यर्म जाता है ।

इनत गुह्यतमं शास्त्रनमदमुिं मयािघ ।

४५०
एतद्बुद्ध्वा बुनद्धमान्स्यात्कृ तकृ त्यश्र्च भारत ।। २० ।।

इनत - इस प्रकार; गुह्य-तमम् - सवाममधक गुप्त; शास्त्रम् - शास्त्र;इदम् - यह; उिम् - प्रकट मकया गया; मया -
र्ेरे द्वारा; अिघ - हे पापरमहत; एतत् - यह; बुद्ध्वा - सर्झ कर; बुनद्धमाि - बुमद्धर्ान; स्यात् - हो जाता है; कृ त-
कृ त्यः - अपने प्रयत्नों र्ें परर् पूणम; च - तर्ा;भारत - हे भरतपुत्र ।

हे अिघ! यह वैनदक शास्त्रों का सवामनधक गप्तु अंश है, नजसे मैंिे अब प्रकट नकया है । जो कोई इसे
समझता है, वह बुनद्धमाि हो जाएगा और उसके प्रयास पूणम होंगे ।

तात्पयम: भगवान् ने यहाँ स्पष्ट मकया है मक यही सारे शास्त्रों का सार है और भगवान् ने इसे मजस रूप र्ें कहा है
उसे उसी रूप र्ें सर्झा जाना चामहए । इस तरह र्नुष्ट्य बुमद्धर्ान तर्ा मिव्य ज्ञान र्ें पूणम हो जाएगा । िसू रे शब्िों
र्ें, भगवान् के इस िशमन को सर्झने तर्ा उनकी मिव्य सेवा र्ें प्रवृत्त होने से प्रत्येक व्यमक्त प्रकृ मत के गुणों के सर्स्त
कल्र्ष से र्क्त ु हो सकता है । भमक्त आध्यामत्र्क ज्ञान की एक मवमध है । जहाँ भी भमक्त होती है, वहाँ भौमतक कल्र्ष
नहीं रह सकता । भगवद्भमक्त तर्ा स्वयं भगवान् एक हैं, क्योंमक िोनों आध्यामत्र्क हैं । भमक्त परर्ेश्र्वर की अन्तरंगा
शमक्त के भीतर होती है । भगवान् सूयम के सर्ान हैं और अज्ञान अंधकार है । जहाँ सूयम मवद्यर्ान है, वहाँ अंधकार का
प्रश्न ही नहीं उिता । अतएव जब भी प्रार्ामणक गुरु के र्ागमिशमन के अन्तगमत भमक्त की जाती है, तो अज्ञान का प्रश्न ही
नहीं उिता ।
प्रत्येक व्यमक्त को चामहए मक इस कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण करे और बुमद्धर्ान तर्ा शद्ध ु बनने के मलए भमक्त
करे । जब तक कोई कृ ष्ट्ण को इस प्रकार नहीं सर्झता और भमक्त र्ें प्रवृत्त नहीं होता, तब तक सार्ान्य र्नुष्ट्य की दृमष्ट
र्ें कोई मकतना बमु द्धर्ान क्यों न हो, वह पणू मतया बमु द्धर्ान नहीं है ।
मजस अनघ शब्ि से अजुमन को संबोमधत मकया गया है, वह सार्मक है । अनघ अर्ामत् “हे मनष्ट्पाप” का अर्म है
मक जब तक र्नष्ट्ु य पापकर्ों से र्क्त ु नहीं हो जाता, तब तक कृ ष्ट्ण को सर्झ पाना कमिन है । उसे सर्स्त
कल्र्ष, सर्स्त पापकर्ों से र्क्त ु होना होता है, तभी वह सर्झ सकता है । लेमकन भमक्त इतनी शद्ध ु तर्ा शमक्तर्ान्
होती है मक एक बार भमक्त र्ें प्रवृत्त होने पर र्नुष्ट्य स्वतः मनष्ट्पाप हो जाता है ।
शद्धु भक्तों की संगमत र्ें रहकर पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त करते हुए कुछ बातों को मबलकुल ही िरू कर िेना
चामहए । सबसे र्हत्त्वपूणम बात मजस पर मवजय पानी है, वह है हृिय की िबु मलता । पहला पतन प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताने
की इच्छा के कारण होता है । इस तरह र्नुष्ट्य भगवान् की मिव्य प्रेर्ाभमक्त को त्याग िेता है । िसू री हृिय की िबु मलता है
मक जब कोई अमधकामधक प्रभत्ु व जताने की इच्छा करता है, तो वह भौमतक पिार्म के स्वामर्त्व के प्रमत आसक्त हो
जाता है । इस संसार की सारी सर्स्याएँ इन्हीं हृिय की िबु मलताओ ं के कारण हैं । इस अध्याय के प्रर्र् पाँच श्लोकों र्ें
हृिय की इन्हीं िबु मलताओ ं से अपने को र्क्त ु करने की मवमध का वणमन हुआ है और छिे श्लोक से अंमतर् श्लोक
तक परुु षोत्तम योग की मववेचना हुई है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े पन्द्रहवें अध्याय “परुु षोत्तम योग” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद परू ा हुआ ।

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अध्याय सोलह
दैवी और आसुरी स्वभाव
श्रीभगवानवु ाच ।
अभयं सत्त्वसंश्रुनद्धज्ञामियोगव्यवनस्थनतः ।
दािं दमश्र्च यज्ञश्र्च स्वाध्यायस्तप आजमवम् ।। १ ।।
अनहंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शानन्तरपैशुिम् ।
दया भूतेष्ट्वलोलुप्त्वं मादमवं ह्रीरचापलम् ।। २ ।।
तेजः क्षमा धृनतः शौचमद्रोहो िानतमानिता ।
भवनन्त सम्पदं दैवीमनभजातस्य भारत ।। ३ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; अभयम् - मनभमयता; सत्त्व-सश ं नु द्धः - अपने अमस्तत्व की शमु द्ध; ज्ञाि -
ज्ञान र्ें; योग - संयुक्त होने की; व्यवनस्थनतः - मस्र्मत; दािम् - िान; दमः - र्न का मनग्रह; च - तर्ा; यज्ञः - यज्ञ की
सम्पन्नता; च - तर्ा; स्वाध्यायः - वैमिक ग्रन्र्ों का अध्ययन; तपः - तपस्या; आजमवम् - सरलता; अनहस ं ा-
अमहसं ा;सत्यम् - सत्यता; अक्रोधः - क्रोध से र्मु क्त; त्यागः - त्याग; शानन्तः - र्नःशामन्त; अपैशुिम् - मछद्रान्वेषण
से अरुमच; भूतेषु - सर्स्त जीवों के प्रमत; अलोलुप्त्वम् - लोभ से र्मु क्त; मादमवम् - भद्रता; िीः -
लजजा; अचापलम् - संकल्प; तेजः - तेज, बल; क्षमा - क्षर्ा; धृनतः - धैय;म शौचम् - पमवत्रता; अद्रोहः - ईष्ट्याम से
र्मु क्त; ि - नहीं; अनत-मानिता - सम्र्ान की आशा; भवनन्त - हैं; सम्पदम् - गुण; दैवीम् - मिव्य
स्वभाव; अनभजातस्य - उत्पन्न हुए का; भारत - हे भरतपुत्र ।

भगवान् ने कहा—हे भरतपुत्र! मनभपयता, आत्मर्ुमद्ध, आध्यामत्मक ज्ञान का अनुर्ीलन, दान, आत्म-
संयम, यज्ञपरायणता, वेदाध्ययन, तपस्या, सरलता, अमहंसा, सत्यता, क्रोधमवहीनता, त्याग, र्ामन्त,
मछद्रान्वेषण में अरुमच, समस्त जीव़ों पर करुणा, लोभमवहीनता, भद्रता, लज्जा, संकल्प, तेज, क्षमा, धैयप,
पमवत्रता, ईष्याप तथा सम्मान की अमभलाषा से मुमक्त—ये सारे मदव्य गुण हैं, जो दैवी प्रकृ मत से सम्पन्न
देवतल्ु य परुु ष़ों में पाये जाते हैं ।

तात्पयम: पन्द्रहवें अध्याय के प्रारम्भ र्ें इस भौमतक जगत् रूपी अश्र्वत्र् वृक्ष की व्याख्या की गई र्ी । उससे
मनकलने वाली अमतररक्त जड़ों की तुलना जीवों के शभु तर्ा अशभु कर्ों से की गई र्ी । नवें अध्याय र्ें
भी र्ेवों तर्ा असुरों का वणमन हुआ है । अब, वैमिक अनुिानों के अनुसार, सतोगुण र्ें मकये गये सारे कायम र्ुमक्तपर् र्ें
प्रगमत करने के मलए शभु र्ाने जाते हैं और ऐसे कायों को िैवी प्रकृ मत कहा जाता है । जो लोग इस र्ैवीप्र ृ स्त र्ें मस्र्त
होते हैं, वे र्मु क्त के पर् पर अग्रसर होते हैं । इसके मवपरीत उन लोगों के मलए, जो रजो तर्ा तर्ोगुण र्ें रहकर कायम
करते हैं, र्ुमक्त की कोई सम्भावना नहीं रहती । उन्हें या तो र्नुष्ट्य की तरह इसी भौमतक जगत् र्ें रहना होता है या मिर वे

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पशयु ोमन र्ें या इससे भी मनम्न योमनयों र्ें अवतररत होते हैं । इस सोलहवें अध्याय र्ें भगवान् िैवीप्रकृ मत तर्ा उसके
गुणों एवं आसुरी प्रकृ मत तर्ा उसके गुणों का सर्ान रूप से वणमन करते हैं । वे इन गुणों के लाभों तर्ा हामनयों का भी
वणमन करते हैं ।
मिव्यगुणों या िैवीप्रवृमत्तयों से युक्त उत्पन्न व्यमक्त के प्रसंग र्ें प्रयुक्त अस्भजातस्य शब्ि बहुत सार-गस्भदत है । िैवी
पररवेश र्ें सन्तान उत्पन्न करने को वैमिक शास्त्रों र्ें गभामधान संस्कार कहा गया है । यमि र्ाता-मपता चाहते हैं मक
मिव्यगुणों से युक्त सन्तान उत्पन्न हो, तो उन्हें सार्ामजक जीवन र्ें र्नुष्ट्यों के मलए बताये गये िस मनयर्ों का पालन
करना चामहए । भगवद्गीता र्ें हर् पहले ही पढ़ चक ु े हैं मक अच्छी सन्तान उत्पन्न करने के मनमर्त्त र्ैर्नु -जीवन साक्षात्
कृ ष्ट्ण है । र्ैर्ुन-जीवन गमहमत नहीं है, यमि इसका कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रयोग मकया जाय । जो लोग कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें
हैं, कर् से कर् उन्हें तो कुत्ते-मबमल्लयों की तरह सन्तानें उत्पन्न नहीं करनी चामहए । उन्हें ऐसी सन्तानें उत्पन्न करनी
चामहए जो जन्र् लेने के पश्चात् कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो सकें । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें तल्लीन र्ाता-मपता से उत्पन्न सन्तानों
को इतना लाभ तो मर्लना ही चामहए ।
वणादश्रमधमद नार्क सार्ामजक संस्र्ा - जो सर्ाज को सार्ामजक जीवन के चार मवभागों एवं कार्-धन्धों अर्वा
वणों के चार मवभागों र्ें मवभामजत करती है - र्ानव सर्ाज को जन्र् के अनुसार मवभामजत करने के उद्देश्य से नहीं
है । ऐसा मवभाजन शैमक्षक योग्यताओ ं के आधार पर मकया जाता है । ये मवभाजन सर्ाज र्ें शामन्त तर्ा सम्पन्नता
बनाये रखने के मलए है । यहाँ पर मजन गुणों का उल्लेख हुआ है, उन्हें मिव्य कहा गया है और वे आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें
प्रगमत करने वाले व्यमक्तयों के मनमर्त्त हैं, मजससे वे भौमतक जगत् से र्क्त ु हो सकें ।
वणामश्रर् संस्र्ा र्ें संन्यासी को सर्स्त सार्ामजक वणों तर्ा आश्रर्ों र्ें प्रधान या गुरु र्ाना जाता है । ब्राह्मण को
सर्ाज के तीन वणों - क्षमत्रयों, वैश्यों तर्ा शद्रू ों - का गुरु र्ाना जाता है, लेमकन संन्यासी इस संस्र्ा के शीषम पर होता है
और ब्राह्मणों का भी गुरु र्ाना जाता है । संन्यासी की पहली योग्यता मनभमयता होनी चामहए । चँमू क संन्यासी को मकसी
सहायक के मबना एकाकी रहना होता है, अतएव भगवान् की कृ पा ही उसका एकर्ात्र आश्रय होता है । जो यह सोचता
है मक सारे सम्बन्ध तोड़ लेने के बाि र्ेरी रक्षा कौन करे गा, तो उसे संन्यास आश्रर् स्वीकार नहीं करना चामहए । उसे यह
पणू म मवश्र्वास होना चामहए मक कृ ष्ट्ण या अन्तयामर्ी स्वरूप परर्ात्र्ा सिैव अन्तर र्ें रहते हैं, वे सब कुछ िेखते रहते हैं
और जानते हैं मक कोई क्या करना चाहता है । इस तरह र्नुष्ट्य को दृढ़मवश्र्वास होना चामहए मक परर्ात्र्ा स्वरूप कृ ष्ट्ण
शरणागत व्यमक्त की रक्षा करें गे । उसे सोचना चामहए “र्ैं कभी अके ला नहीं हँ, भले ही र्ैं गहनतर् जंगल र्ें क्यों न
रहँ । र्ेरा सार् कृ ष्ट्ण िेंगे और सब तरह से र्ेरी रक्षा करें गे ।” ऐसा मवश्र्वास अभयम् या मनभमयता कहलाता है । संन्यास
आश्रर् र्ें व्यमक्त की ऐसी र्नोिशा आवश्यक है ।
तब उसे अपने अमस्तत्व को शद्ध ु करना होता है । संन्यास आश्रर् र्ें पालन मकये जाने के मलए अनेक मवमध-
मवधान हैं । इनर्ें सबसे र्हत्त्वपूणम यह है मक संन्यासी को मकसी स्त्री के सार् घमनि सम्बन्ध नहीं रखना चामहए । उसे
एकान्त स्र्ान र्ें स्त्री से बातें करने तक की र्नाही है । भगवान् चैतन्य आिशम संन्यासी र्े और जब वे पुरी र्ें रह रहे
र्े, तो उनकी भमक्तनों को उनके पास नर्स्कार करने तक के मलए नहीं आने मिया जता र्ा । उन्हें िरू से ही प्रणार् करने
के मलए आिेश र्ा । यह स्त्री जामत के प्रमत घृणाभाव का मचह्न नहीं र्ा, अमपतु सन्ं यासी पर लगाया गया प्रमतबन्ध र्ा
मक उसे मस्त्रयों के मनकट संपकम नहीं रखना चामहए । र्नुष्ट्य को अपने अमस्तत्व को शद्ध ु बनाने के मलए जीवन की मवशेष
पररमस्र्मत (स्तर) र्ें मवमध-मवधानों का पालन करना होता है । सन्ं यासी के मलए मस्त्रयों के सार् घमनष्ट सम्बन्ध तर्ा
इमन्द्रयतृमप्त के मलए धन-संग्रह वमजमत हैं। आिशम संन्यासी तो स्वयं भगवान् चैतन्य र्े और उनके जीवन से हर्ें यह सीख
लेनी चामहए मक वे मस्त्रयों के मवषय र्ें मकतने किोर र्े । यद्यमप वे भगवान् के सबसे विान्य अवतार र्ाने जाते

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हैं, क्योंमक वे अधर् से अधर् बद्ध जीवों को स्वीकार करते र्े, लेमकन जहाँ तक मस्त्रयों की संगमत का प्रश्न र्ा, वे
संन्यास आश्रर् के मवमध-मवधानों का किोरता से पालन करते र्े । उनका एक मनजी पाषमि, छोटा हररिास, अन्य पाषमिों
के सार् मनरन्तर रहा, लेमकन मकसी कारणवश उसने एक तरुणी को कार्क ु दृमष्ट से िेखा । भगवान् चैतन्य इतने किोर र्े
मक उन्होंने उसे अपने पाषमिों की संगमत से तुरन्त बाहर मनकाल मिया । भगवान् चैतन्य ने कहा, “जो संन्यासी या अन्य
कोई व्यमक्त प्रकृ मत के चंगुल से छूटने का इच्छुक है और अपने को आध्यामत्र्क प्रकृ मत तक ऊपर उिाना चाहता है
तर्ा भगवान् के पास वापस जाना चाहता है, वह यमि भौमतक सम्पमत्त तर्ा स्त्री की ओर इमन्द्रयतृमप्त के मलए िेखता है -
भले ही वह उनका भोग न करे , के वल उनकी ओर इच्छा-दृमष्ट से िेखे, तो भी वह इतना गमहमत है मक उसके मलए
श्रेयस्कर होगा मक वह ऐसी अवैध इच्छाएँ करने के पूवम आत्र्हत्या कर ले ।” इस तरह शमु द्ध की ये मवमधयाँ हैं ।
अगला गणु है, ज्ञानयोग व्यवस्स्थस्त - ज्ञान के अनुशीलन र्ें सल ं ग्न रहना । सन्ं यासी का जीवन गृहस्र्ों तर्ा उन
सबों को, जो आध्यामत्र्क उन्नमत के वास्तमवक जीवन को भल ू चक
ु े हैं, ज्ञान मवतररत करने के मलए होता है । संन्यासी
से आशा की जाती है मक वह अपनी जीमवका के मलए द्वार-द्वार मभक्षाटन करे , लेमकन इसका अर्म यह नहीं है मक वह
मभक्षुक है । मवनयशीलता भी आध्यामत्र्कता र्ें मस्र्त र्नुष्ट्य की एक योग्यता है । संन्यासी र्ात्र मवनयशीलता वश
द्वार-द्वार जाता है, मभक्षाटन के उद्देश्य से नहीं जाता, अमपतु गृहस्र्ों को िशमन िेने तर्ा उनर्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत जगाने के
मलए जाता है । यह संन्यासी का कतमव्य है । यमि वह वास्तव र्ें उन्नत है और उसे गुरु का आिेश प्राप्त है, तो उसे तकम
तर्ा ज्ञान द्वारा कृ ष्ट्णभावनार्ृत का उपिेश करना चामहए और यमि वह इतना उन्नत नहीं है, तो उसे संन्यास आश्रर्
ग्रहण नहीं करना चामहए । लेमकन यमि मकसी ने पयामप्त ज्ञान के मबना संन्यास आश्रर् स्वीकार कर मलया है, तो उसे ज्ञान
अनुशीलन के मलए प्रार्ामणक गुरु से श्रवण र्ें रत होना चामहए । संन्यासी को मनभीक होना
चामहए, उसे सत्त्वसांशस्ु द्ध तर्ा ज्ञानयोग र्ें मस्र्त होना चामहए ।
अगला गुण र्ान है । िान गृहस्र्ों के मलए है । गृहस्र्ों को चामहए मक वे मनष्ट्कपटता से जीवनयापन करना सीखें
और कर्ाई का पचास प्रमतशत मवश्र्व भर र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रचार र्ें खचम करें । इस प्रकार से गृहस्र् को चामहए मक
ऐसे कायों र्ें लगे संस्र्ान-समर्मतयों को िान िे । िान योग्य पात्र को मिया जाना चामहए । जैसा आगे वणमन मकया
जाएगा, िान भी कई तरह का होता है - यर्ा सतोगणु , रजोगणु तर्ा तर्ोगणु र्ें मिया गया िान । सतोगणु र्ें मिए जाने
वाले िान की संस्तुमत शास्त्रों ने की है, लेमकन रजो तर्ा तर्ोगुण र्ें मिये गये िान की संस्तुमत नहीं है, क्योंमक यह धन
का अपव्यय र्ात्र है । संसार भर र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत के प्रसार हेतु ही िान मिया जाना चामहए । ऐसा िान सतोगुणी होता
है ।
जहाँ तक िर् (आत्र्संयर्) का प्रश्न है, यह धामर्मक सर्ाज के अन्य आश्रर्ों के ही मलए नहीं है, अमपतु गृहस्र्
के मलए मवशेष रूप से है । यद्यमप उसके पत्नी होती है, लेमकन उसे चामहए मक व्यर्म ही अपनी इमन्द्रयों को मवषयभोग
की ओर न र्ोड़े । गृहस्र्ों पर भी र्ैर्ुन-जीवन के मलए प्रमतबन्ध है और इसका उपयोग के वल सन्तानोत्पमत्त के मलए
मकया जाना चामहए । यमि वह सन्तान नहीं चाहता, तो उसे अपनी पत्नी के सार् मवषय-भोग र्ें मलप्त नहीं होना
चामहए । आधमु नक सर्ाज र्ैर्ुन-जीवन का भोग करने के मलए मनरोध-मवमधयों का या अन्य घृमणत मवमधयों का उपयोग
करता है, मजससे सन्तान का उत्तरिामयत्व न उिाना पड़े । यह मिव्य गणु नहीं, अमपतु आसरु ी गणु है । यमि कोई
व्यमक्त, चाहे वह गृहस्र् ही क्यों न हो, आध्यामत्र्क जीवन र्ें प्रगमत करना चाहता है, तो उसे अपने र्ैर्ुन-जीवन पर
सयं र् रखना होगा और उसे ऐसी सन्तान नहीं उत्पन्न करनी चामहए, जो कृ ष्ट्ण की सेवा र्ें कार् न आए । यमि वह ऐसी
सन्तान उत्पन्न करता है, जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत हो सके , तो वह सैकड़ों सन्तानें उत्पन्न कर सकता है । लेमकन ऐसी
क्षर्ता के मबना मकसी को इमन्द्रयसुख के मलए कार्-भोग र्ें मलप्त नहीं होना चामहए ।

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गृहस्र्ों को यज्ञ भी करना चामहए, क्योंमक यज्ञ के मलए पयामप्त धन चामहए । ब्रह्मचयम, वानप्रस्र् तर्ा संन्यास
आश्रर् वालों के पास धन नहीं होता । वे तो मभक्षाटन करके जीमवत रहते हैं । अतएव मवमभन्न प्रकार के यज्ञ गृहस्र्ों के
िामयत्व हैं । उन्हें चामहए मक वैमिक सामहत्य द्वारा आमिष्ट अमग्नहोत्र यज्ञ करें , लेमकन आज-कल ऐसे यज्ञ अत्यन्त
खचीले हैं और हर मकसी गृहस्र् के मलए इन्हें सम्पन्न कर पाना कमिन है । इस युग के मलए संस्तुत सवमश्रेि यज्ञ है -
संकीतमनयज्ञ । यह संकीतमनयज्ञ - हरे ृ ष्ण, हरे ृ ष्ण, ृ ष्ण ृ ष्ण, हरे हरे , हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे - का जप
सवोतर् और सबसे कर् खचम वाला यज्ञ है और प्रत्येक व्यमक्त इसे करके लाभ उिा सकता है । अतएव
िान, इमन्द्रयसयं र् तर्ा यज्ञ करना - ये तीन बातें गृहस्र् के मलए हैं ।
स्वाध्याय या वेिाध्ययन ब्रह्मचयम आश्रर् या मवद्यार्ी जीवन के मलए है । ब्रह्मचाररयों का मस्त्रयों से मकसी प्रकार
सम्बन्ध नहीं होना चामहए । उन्हें ब्रह्मचयमजीवन मबताना चामहए और आध्यामत्र्क ज्ञान के अनश ु ीलन हेतु, अपना र्न
वेिों के अध्ययन र्ें लगाना चामहए । यही स्वाध्याय है ।
तपस् या तपस्या वानप्रस्र्ों के मलए है । र्नुष्ट्य को जीवन भर गृहस्र् ही नहीं बने रहना चामहए । उसे स्र्रण
रखना होगा मक जीवन के चार मवभाग हैं - ब्रह्मचयम, गृहस्र्, वानप्रस्र् तर्ा संन्यास । अतएव गृहस्र् रहने के बाि उसे
मवरक्त हो जाना चामहए । यमि कोई एक सौ वषम जीमवत रहता है, तो उसे २५ वषम तक ब्रह्मचयम, २५ वषम तक गृहस्र्, २५
वषम तक वानप्रस्र् तर्ा २५ वषम तक संन्यास का जीवन मबताना चामहए । ये वैमिक धामर्मक अनुशासन के मनयर्
हैं । गृहस्र् जीवन से मवरक्त होने पर र्नुष्ट्य को शरीर, र्न तर्ा वाणी का संयर् बरतना चामहए । यही तपस्या है । सर्ग्र
वणामश्रर्धर्म सर्ाज ही तपस्या के मनमर्त्त है । तपस्या के मबना मकसी को र्मु क्त नहीं मर्ल सकती । इस मसद्धान्त की
संस्तुती न तो वैमिक सामहत्य र्ें की गई है, न भगवद्गीता र्ें मक जीवन र्ें तपस्या की आवश्यकता नहीं है और कोई
कल्पनात्र्क मचन्तन करता रहे तो सब कुछ िीक हो जायगा । ऐसे मसद्धान्त तो उन मिखावटी अध्यात्र्वामियों द्वारा
बनाये जाते हैं, जो अमधक से अमधक अनुयायी बनाना चाहते हैं । यमि प्रमतबन्ध हों, मवमध-मवधान न हों तो लोग इस
प्रकार आकमषमत न हों । अतएव जो लोग धर्म के नार् पर अनुयायी चाहते हैं, वे के वल मिखावा करते हैं, वे अपनी
मवद्यामर्मओ ं के जीवनों पर कोई प्रमतबन्ध नहीं लगते और न ही अपने जीवन पर । लेमकन वेिों र्ें ऐसी मवमध को
स्वीकृ मत नहीं की गई ।
जहाँ तक ब्राह्मणों की सरलता (आजदवम्) का सम्बन्ध है, इसका पालन न के वल मकसी एक आश्रर् र्ें मकया
जाना चामहए, अमपतु चारों आश्रर्ों के प्रत्येक सिस्य को करना चामहए चाहे वह ब्रह्मचयम, गृहस्र्, वानप्रस्र् अतवा
संन्यास आश्रर् र्ें हो । र्नुष्ट्य को अत्यन्त सरल तर्ा सीधा होना चामहए ।
अस्हसां ा का अर्म है मकसी जीव के प्रगमतशील जीवन को न रोकना । मकसी को यह नहीं सोचना चामहए मक चँमू क
शरीर के वध मकये जाने के बाि आत्र्ा-स्िुमलंग नहीं र्रता, इसीमलए इमन्द्रयतृमप्त के मलए पशवु ध करने र्ें कोई हामन
नहीं है । प्रचरु अन्न, िल तर्ा िग्ु ध की पूमतम होते हुए भी आजकल लोगों र्ें पशओ ु ं का र्ांस खाने की लत पड़ी हुई
है । लेमकन पशओ ु ं के वध की कोई आवश्यकता नहीं है । यह आिेश हर एक के मलए है । जब कोई मवकल्प न
रहे, तभी पशवु ध मकया जाय । लेमकन इसकी यज्ञ र्ें बमल की जाय । जो भी हो, जब र्ानवता के मलए प्रचरु भोजन
हो, तो जो लोग आध्यामत्र्क साक्षात्कार र्ें प्रगमत करने के इच्छुक हैं, उन्हें पशमु हसं ा नहीं करनी चामहए । वास्तमवक
अमहसं ा का अर्म है मकसी की प्रगमतशील जीवन को रोका न जाय । पशु भी अपने मवकास काल र्ें एक पशयु ोमन से
िसू री पशयु ोमन र्ें िेहान्तरण करके प्रगमत करते हैं । यमि मकसी ऐसे पशु का वध कर मिया जाता है, तो उसकी प्रगमत रुक
जाती है । यमि कोई पशु मकसी शरीर र्ें बहुत मिनों से या वषों से रह रहा हो और उसे असर्य ही र्ार मिया जाय तो उसे

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पनु ः उसी जीवन र्ें वापस आकर शेष मिन पूरे करने के बाि ही िसू री योमन र्ें जाना पड़ता है । अतएव अपने स्वाि की
तुमष्ट के मलए मकसी की प्रगमत को नहीं रोकना चामहए । यही अमहसं ा है ।
सत्यम् का अर्म है मक र्नुष्ट्य को अपने स्वार्म के मलए सत्य को ताड़ना-र्रोड़ना नहीं चामहए । वैमिक सामहत्य र्ें
कुछ अंश अत्यन्त कमिन हैं, लेमकन उनका अर्म मकसी प्रार्ामणक गुरु से जानना चामहए । वेिों को सर्झने की यही
मवमध है । श्रमु त का अर्म है, मकसी अमधकारी से सुनना । र्नुष्ट्य को चामहए मक अपने स्वार्म के मलए कोई मववेचना न
गढ़े । भगवद्गीता की अनेक टीकाएँ हैं, मजसर्ें र्ूलपाि की गलत व्याख्या की गई है । शब्ि का वास्तमवक भावार्म
प्रस्ततु मकया जाना चामहए और इसे प्रार्ामणक गरुु से ही सीखना चामहए ।
अक्रोध का अर्म है, क्रोध को रोकना । यमि कोई क्षुब्ध बनावे तो ही समहष्ट्णु बने रहना चामहए, क्योंमक एक बार
क्रोध करने पर सारा शरीर िमू षत हो जाता है । क्रोध रजोगणु तर्ा कार् से उत्पन्न होता है । अतएव जो योगी है उसे
क्रोध पर मनयन्त्रण रखना चामहए । अपैशनु म् का अर्म है मक िसू रे के िोष न मनकाले और व्यर्म ही उन्हें सही न
करे । मनस्सन्िेह चोर को चोर कहना मछद्रान्वेषण नहीं है, लेमकन मनष्ट्कपट व्यमक्त को चोर कहना उस व्यमक्त के मलए
परर् अपराध होगा जो आध्यामत्र्क जीवन र्ें प्रगमत करना चाहता है । ह्री का अर्म है मक र्नुष्ट्य अत्यन्त लजजाशील
हो और कोई गमहमत कायम न करे । अचापलम् या संकल्प का अर्म है मक र्नुष्ट्य मकसी प्रयास से मवचमलत या उिास न
हो । मकसी प्रयास र्ें भले ही असिलता क्यों न मर्ले, मकन्तु र्नुष्ट्य को उसके मलए मखन्न नहीं होना चामहए । उसे धैयम
तर्ा संकल्प के सार् प्रगमत करनी चामहए ।
यहाँ पर प्रयुक्त तेजस् शब्ि क्षमत्रयों के मनमर्त्त है । क्षमत्रयों को अत्यन्त बलशाली होना चामहए, मजससे वह
मनबमलों की रक्षा कर सकें । उन्हें अमहसं क होने का मिखावा नहीं करना चामहए । यमि महसं ा की आवश्यकता पड़े, तो
महसं ा मिखानी चामहए । लेमकन जो व्यमक्त अपने शत्रु का िर्न कर सकता है, उसे चामहए मक कुछ मवशेष पररमस्र्मतयों
र्ें क्षर्ा कर िे । वह छोटे अपराधों के मलए क्षर्ा-िान कर सकता है ।
शौचम् का अर्म है पमवत्रता, जो न के वल र्न तर्ा शरीर की हो, अमपतु व्यवहार र्ें भी हो । यह मवशेष रूप से
वमणक वगम के मलए है । उन्हें चामहए मक वे काला बाजारी न करें । नास्त-मास्नता अर्ामत् सम्र्ान की आशा न करना
शद्रू ों अर्ामत् श्रमर्क वगम के मलए है, मजन्हें वैमिक आिेशों के अनुसार चारों वणों र्ें सबसे मनम्न र्ाना जाता है । उन्हें
वृर्ा सम्र्ान या प्रमतिा से िूलना नहीं चामहए, बमल्क अपनी र्यामिा र्ें बने रहना चामहए । शद्रू ों का कतमव्य है मक
सार्ामजक व्यवस्र्ा बनाये रखने के मलए वे उच्चवणों का सम्र्ान करें ।
यहाँ पर वमणमत छब्बीसों गुण मिव्य हैं । वणामश्रर्धर्म के अनुसार इनका आचरण होना चामहए । सारांश यह है मक
भले ही भौमतक पररमस्र्मतयाँ शौचनीय हों, यमि सभी वणों के लोग इन गुणों का अभ्यास करें , तो वे क्रर्शः
आध्यामत्र्क अनुभमू त के सवोच्च पि तक उि सकते हैं ।

दम्भो दपोऽनभमािश्र्च क्रोधः पारुष्ट्यमेव च ।


अज्ञािं चानभजातस्य पाथम सम्पदमासुरीम् ।। ४ ।।

दम्भः - अहक ं ार; दपमः - घर्ण्ड; अनभमािः - गवम; च - भी; क्रोधः - क्रोध, गुस्सा; पारुष्ट्यम् -
मनिुरता; एव - मनश्चय ही; च - तर्ा; अज्ञािम् - अज्ञान; च - तर्ा; अनभजातस्य - उत्पन्न हुए के ; पाथम - हे
पृर्ापुत्र; सम्पदम् - गुण; आसुरीम् - आसुरी प्रकृ मत ।

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हे पृथापुत्र! दम्भ, दपम, अनभमाि, क्रोध, कठोरता तथा अज्ञाि - ये सारे आसुरी स्वभाव वालों के गुण
हैं ।

तात्पयम: इस श्लोक र्ें नरक के राजर्ागम का वणमन है । आसुरी स्वभाव वाले लोग धर्म तर्ा आत्र्मवद्या की
प्रगमत का आडम्बर रचना चाहते हैं, भले ही वे उनके मसद्धान्तों का पालन न करते हों । वे सिैव मकसी मशक्षा या प्रचरु
सम्पमत्त का अमधकारी होने का िपम करते हैं । वे चाहते हैं मक अन्य लोग उनकी पूजा करें और सम्र्ान मिखलाएँ, भले
ही वे सम्र्ान के योग्य न हों । वे छोटी-छोटी बातों पर क्रुद्ध हो जाते हैं खरी-खोटी सनु ाते हैं और नम्रता से नहीं
बोलते । वे यह नहीं जानते मक क्या करना चामहए और क्या नहीं करना चामहए । वे अपनी इच्छानुसार, सनकवश, सारे
कायम करते हैं, वे मकसी प्रर्ाण को नहीं र्ानते । वे ये आसरु ी गणु तभी से प्राप्त करते हैं, जब वे अपनी र्ाताओ ं के गभम र्ें
होते हैं और जयों-जयों वे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों ये अशभु गुण प्रकट होते हैं ।

दैवी सम्पनद्वमोक्षाय निबन्धायासरु ी मता ।


मा शुचः सम्पदं दैवीमनभजातोऽनस पाण्डव ।। ५ ।।

दैवी - मिव्य; सम्पत् - सम्पमत्त; नवमोक्षाय - र्ोक्ष के मलए; निबन्धाय - बन्धन के मलए; आसुरी - आसुरी
गुण; मता - र्ाने जाते हैं; मा - र्त; शुचः - मचन्ता करो; सम्पदम् - सम्पमत्त; दैवीम् - मिव्य; अनभजातः -
उत्पन्न; अनस - हो; पाण्डव - हे पाण्डुपुत्र ।

नदव्य गुण मोक्ष के नलए अिुकूल हैं और आसुरी गुण बन्धि नदलािे के नलए हैं । हे पाण्डुपुत्र! तुम
नचन्ता मत करो, क्योंनक तमु दैवी गुणों से यि
ु होकर जन्मे हो ।

तात्पयम : भगवान् कृ ष्ट्ण अजमुन को यह कह कर प्रोत्सामहत करते हैं मक वह आसुरी गणु ों के सार् नहीं जन्र्ा है ।
युद्ध र्ें उसका समम्र्मलत होना आसुरी नहीं है, क्योंमक वह उसके गुण-िोषों पर मवचार कर रहा र्ा । वह यह मवचार कर
रहा र्ा मक भीष्ट्र् तर्ा द्रोण जैसे प्रमतमित र्हापुरुषों का वध मकया जाये या नहीं, अतएव वह न तो क्रोध के वशीभतू
होकर कायम कर रहा र्ा, न झिू ी प्रमतिा या मनिुरता के अधीन होकर । अतएव वह आसुरी स्वभाव का नहीं र्ा । क्षमत्रय
के मलए शत्रु पर बाण बरसाना मिव्य र्ाना जाता है और ऐसे कतमव्य से मवर्ख ु होना आसुरी । अतएव अजुमन के मलए
शोक (संताप) करने का कोई कारण न र्ा । जो कोई भी जीवन के मवमभन्न आश्रर्ों के मवधानों का पालन करता है, वह
मिव्य पि पर मस्र्त होता है ।

द्वौ भूतसगौ लोके ऽनस्मन्दैव आसुर एव च ।


दैवो नवस्तरशः प्रोि आसरु ं पाथम मे श्रृणु ।। ६ ।।

द्वौ- िो; भतू -सगौ - जीवों की सृमष्टयाँ; लोके - ससं ार र्ें; अनस्मि् - इस;दैवः - िैवी; आसरु ः - आसरु ी; एव -
मनश्चय ही; च - तर्ा;दैवः - िैवी;नवस्तरशः - मवस्तार से;प्रोिः- कहा गया; आसुरम् - आसुरी; पाथम- हे
पृर्ापुत्र; मे - र्झु से; शृणु - सुनो ।

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हे पृथापुत्र! इस संसार में सृनजत प्राणी दो प्रकार के हैं - दैवी तथा आसरु ी । मैं पहले ही नवस्तार से तुम्हें
दैवी गुण बतला चुका हूँ । अब मुझसे आसुरी गुणों के नवषय में सुिो ।

तात्पयम : अजुमन को यह कह कर मक वह िैवी गुणों से उत्पन्न होकर जन्र्ा है, भगवान् कृ ष्ट्ण अब उसे आसुरी
गुण बताते हैं । इस संसार र्ें बद्ध जीव िो श्रेमणयों र्ें बँटे हुए हैं । जो जीव मिव्य गुणों से सम्पन्न होते हैं, वे मनयमर्त
जीवन मबताते हैं अर्ामत् वे शास्त्रों तर्ा मवद्वानों द्वारा बताये गये आिेशों का मनवामह करते हैं । र्नष्ट्ु य को चामहए मक
प्रार्ामणक शास्त्रों के अनुसार ही कतमव्य मनभाए, यह प्रकृ मत िैवी कहलाती है । जो शास्त्र मवमहत मवधानों को नहीं र्ानता
और अपनी सनक के अनुसार कायम करता है, वह आसरु ी कहलाता है । शास्त्र के मवमधमवधानों के प्रमत आज्ञा भाव ही
एकर्ात्र कसौटी है, अन्य नहीं । वैमिक सामहत्य र्ें उल्लेख है मक िेवता तर्ा असुर िोनों ही प्रजापमत से उत्पन्न
हुए, अन्तर इतना ही है मक एक श्रेणी के लोग वैमिक आिेशों को र्ानते हैं और िसू रे नहीं र्ानते ।

प्रवृनत्तं च निवृनत्तं च जिा ि नवदुरासुराः ।


ि शौचं िानप चाचारो ि सत्यं तेषु नवद्यते ।। ७ ।।

प्रवृनत्तम् - िीक से कर्म करना; च - भी; निवृनत्तम् - अनुमचत ढंग से कर्म न करना; च - तर्ा; जिाः -
लोग; ि - कभी नहीं;नवदुः - जानते; आसुराः - आसुरी गुण के ; ि - कभी नहीं; शौचम् - पमवत्रता; ि - न
तो; अनप - भी; च - तर्ा; आचारः - आचरण; ि - कभी नहीं; सत्यम् - सत्य; तेषु - उनर्ें; नवद्यते - होता है ।

जो आसरु ी हैं , वे यह िहीं जािते नक क्या करिा चानहए और क्या िहीं करिा चानहए । उिमें ि तो
पनवत्रता, ि उनचत आचरण और ि ही सत्य पाया जाता है ।

तात्पयम : प्रत्येक सभ्य र्ानव सर्ाज र्ें कुछ आचार-संमहताएँ होती हैं, मजनका प्रारम्भ से पालन करना होता है ।
मवशेषतया आयमगण, जो वैमिक सभ्यता को र्ानते हैं और अत्यन्त सभ्य र्ाने जाते हैं, इनका पालन करते हैं । मकन्तु जो
शास्त्रीय आिेशों को नहीं र्ानते, वे असुर सर्झे जाते हैं । इसीमलए यहाँ कहा गया है मक असुरगण न तो शास्त्रीय मनयर्ों
को जानते हैं, न उनर्ें इनके पालन करने की प्रवृमत्त पाई जाती है । उनर्ें से अमधकांश इन मनयर्ों को नहीं जानते और
जो र्ोड़े से लोग जानते भी हैं, उनर्ें इनके पालन करने की प्रवृमत्त नहीं होती । उन्हें न तो वैमिक आिेशों र्ें कोई श्रद्धा
होती है , न ही वे उसके अनुसार कायम करने के इच्छुक होते हैं । असुरगण न तो बाहर से, न भीतर से स्वच्छ होते हैं ।
र्नुष्ट्य को चामहए मक स्नान करके , िंतर्ंजन करके , बाल बना कर, वस्र बिल कर शरीर को स्वच्छ रखे । जहाँ तक
आन्तररक स्वच्छता की बात है, र्नुष्ट्य को चामहए मक वह सिैव ईश्र्वर के पमवत्र नार्ों का स्र्रण करे और हरे
ृ ष्ण र्हार्न्त्र का कीतमन करे । असरु गण बाह्य तर्ा आन्तररक स्वच्छता के इन मनयर्ों को न तो चाहते हैं , न इनका
पालन ही करते हैं ।
जहाँ तक आचरण की बात है, र्ानव आचरण का र्ागमिशमन करने वाले अनेक मवमध-मवधान हैं, जैसे मनु-
सांस्हता, जो र्ानवजामत का अमधमनयर् है । यहाँ तक मक आज भी सारे महन्िू र्नुसंमहता का ही अनुगर्न करते हैं । इसी
ग्रर्ं से उत्तरामधकार तर्ा अन्य मवमध सम्बन्धी बातें ग्रहण की जाती हैं । र्नुसमं हता र्ें स्पष्ट कहा गया है मक स्त्री को

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स्वतन्त्रता न प्रिान की जाय । इसका अर्म यह नहीं होता मक मस्त्रयों को िासी बना कर रखा जाय । वे तो बालकों के
सर्ान हैं । बालकों को स्वतन्त्रता नहीं िी जाती, लेमकन इसका अर्म यह नहीं है मक वे िास बना कर रखे जाते हैं ।
लेमकन असुरों ने ऐसे आिेशों की उपेक्षा कर िी है और वे सोचने लगे हैं मक मस्त्रयों को पुरुषों के सर्ान ही स्वतन्त्रता
प्रिान की जाय । लेमकन इससे संसार की सार्ामजक मस्र्मत र्ें सुधार नहीं हुआ । वास्तव र्ें स्त्री को जीवन की प्रत्येक
अवस्र्ा र्ें सुरक्षा प्रिान की जानी चामहए । उसके बाल्यकाल र्ें मपता द्वारा संरक्षण प्रिान मकया जाना चामहए, तारुण्य
र्ें पमत द्वारा और बुढ़ापे र्ें बड़े पुत्रों द्वारा । र्नु-संमहता के अनुसार यही उमचत सार्ामजक आचरण है । लेमकन
आधमु नक मशक्षा ने नारी जीवन का एक अमतरंमजत अहक ं ारपणू म बोध उत्पन्न कर मिया है, अतएव अब मववाह एक
कल्पना बन चक ु ा है । स्त्री की नैमतक मस्र्मत भी अब बहुत अच्छी नहीं रह गई है । अतएव असुरगण कोई ऐसा उपिेश
ग्रहण नहीं करते, जो सर्ाज के मलए अच्छा हो । चँमू क वे र्हमषमयों के अनभु वों तर्ा उनके द्वारा मनधामररत मवमध-मवधानों
का पालन नहीं करते , अतएव आसुरी लोगों की सार्ामजक मस्र्मत अत्यन्त शोचनीय है ।

असत्यमप्रनतष्ठं ते जगदाहुरिीश्र्वरम् ।
अपरस्परससम्भूतं नकमन्यत्कामहैतुकम् ।। ८ ।।

असत्यम् - मर्थ्या; अप्रनतष्ठम् - आधाररमहत; ते - वे; जगत् - दृश्य जगत्; आहुः - कहते हैं ;अिीश्र्वरम् -
मबना मनयार्क के ;अपरस्पर - मबना कारण के ;सम्भूतम् - उत्पन्न; नकम्-अन्यत् - अन्य कोई कारण नहीं है; काम-
हैतुकम् - के वल कार् के कारण ।

वे कहते हैं नक यह जगत् नमथ्या है, इसका कोई आधार िहीं है और इसका नियमि नकसी ईश्र्वर द्वारा
िहीं होता । उिका कहिा है नक यह कामेच्छा से उत्पन्ि होता है और काम के अनतररि कोई अन्य कारण
िहीं है ।

तात्पयम : आसुरी लोग यह मनष्ट्कषम मनकालते हैं मक यह जगत् र्ायाजाल है । इसका न कोई कारण है, न कायम, न
मनयार्क, न कोई प्रयोजन - हर वस्तु मर्थ्या है । उनका कहना है मक दृश्य जगत् आकमस्र्क भौमतक मक्रयाओ ं तर्ा
प्रमतमक्रयाओ ं के कारण है । वे यह नहीं सोचते मक ईश्र्वर ने मकसी प्रयोजन से इस संसार की रचना की है । उनका अपना
मसद्धान्त है मक यह संसार अपने आप उत्पन्न हुआ है और यह मवश्र्वास करने का कोई कारण नहीं है मक इसके पीछे
मकसी ईश्र्वर का हार् है । उनके मलए आत्र्ा तर्ा पिार्म र्ें कोई अन्तर नहीं होता और वे परर् आत्र्ा को स्वीकार नहीं
करते । उनके मलए हर वस्तु पिार्म र्ात्र है और यह पूरा जगत् र्ानो अज्ञान का मपण्ड हो । उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु
शन्ू य है और जो भी सृमष्ट मिखती है, वह के वल दृमष्ट-भ्रर् के कारण है । वे इसे सच र्ान बैिते हैं मक मवमभन्नता से पूणम
यह सारी सृमष्ट अज्ञान का प्रिशमन है । मजस प्रकार स्वप्न र्ें हर् ऐसी अनेक वस्तुओ ं की सृमष्ट कर सकते हैं, मजनका
वास्तव र्ें कोई अमस्तत्व नहीं होता, अतएव जब हर् जाग जाते हैं, तो िेखते हैं मक सब कुछ स्वप्नर्ात्र र्ा । लेमकन
वास्तव र्ें, यद्यमप असुर यह कहते हैं मक जीवन स्वप्न है, लेमकन वे इस स्वप्न को भोगने र्ें बड़े कुशल होते हैं । अतएव
वे ज्ञानाजमन करने के बजाय अपने स्वप्नलोक र्ें अमधकामधक उलझ जाते हैं । उनकी र्ान्यता है मक मजस प्रकार मशशु
के वल स्त्रीपुरुष के सम्भोग का िल है, उसी तरह यह संसार मबना मकसी आत्र्ा के उत्पन्न हुआ है । उनके मलए यह
पिार्म का सयं ोगर्ात्र है, मजसने जीवों को उत्पन्न मकया, अतएव आत्र्ा के अमस्तत्व का प्रश्न ही नहीं उिता । मजस

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प्रकार अनेक जीमवत प्राणी आकरण पसीने ही से (स्वेिज) तर्ा र्ृत शरीर से उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार यह सारा
जीमवत संसार दृश्य जगत् के भौमतक संयोगों से प्रकट हुआ है । अतएव प्रकृ मत ही इस संसार की कारणस्वरूपा
है, इसका कोई अन्य कारण नहीं है । वे भगवद्गीता र्ें कहे गये कृ ष्ट्ण के इन वचनों को नहीं र्ानते - मयाध्यक्षेण प्र ृ स्तः
सूयते सचराचरम् - सारा भौमतक जगत् र्ेरे ही मनिेश के अन्तगमत गमतशील है । िसू रे शब्िों र्ें, असुरों को संसार की
सृमष्ट के मवषय र्ें पूरा-पूरा ज्ञान नहीं है, प्रत्येक का अपना कोई न कोई मसद्धान्त है । उनके अनुसार शास्त्रों की कोई एक
व्याख्या िसू री व्याख्या के ही सर्ान है, क्योंमक वे शास्त्रीय आिेशों के र्ानक ज्ञान र्ें मवश्र्वास नहीं करते ।

एतां दृनष्टमवष्टभ्य िष्टात्मािोऽल्पबुद्धयः ।


प्रभवन्त्यग्रु कमामणः क्षयाय जगतोऽनहताः ।। ९ ।।

एताम् - इस; दृनष्टम् - दृमष्ट को; अवष्टभ्य - स्वीकार करके ; िष्ट - खोकर; आत्मािः - अपने आप; अल्प-
बुद्धयः - अल्पज्ञानी;प्रभवनन्त - िूलते-िलते हैं; उग्र-कमामणः - कष्टकारक कर्ों र्ें प्रवृत्त; क्षयाय - मवनाश के
मलए; जगतः - संसार का; अनहताः - अनुपयोगी । ।

ऐसे निष्ट्कमों का अिुगमि करते हुए आसुरी लोग, नजन्होंिे आत्म-ज्ञाि खो नदया है और जो बनु द्धहीि
हैं, ऐसे अिुपयोगी एवं भयावह कायों में प्रवृत्त होते हैं जो संसार का नविाश करिे के नलए होता है ।

तात्पयम: आसुरी लोग ऐसे कायों र्ें व्यस्त रहते हैं मजससे संसार का मवनाश हो जाये । भगवान् यहाँ कहते हैं मक
वे कर् बुमद्ध वाले हैं । भौमतकवािी, मजन्हें ईश्र्वर का कोई बोध नहीं होता, सोचते हैं मक वे प्रगमत कर रहे हैं ।
लेमकन भगवद्गीता के अनसु ार वे बमु द्धहीन तर्ा सर्स्त मवचारों से शन्ू य होते हैं । वे इस भौमतक जगत् का अमधक से
अमधक भोग करने का प्रयत्न करते हैं, अतएव इमन्द्रयतृमप्त के मलए कुछ न कुछ नया अमवष्ट्कार करते रहते हैं । ऐसे
भौमतक अमवष्ट्कारों को र्ानव सभ्यता का मवकास र्ाना जाता है, लेमकन इसका िष्ट्ु पररणार् यह होता है मक लोग
अमधकामधक महसं क तर्ा क्रूर होते जाते हैं - वे पशओ ु ं के प्रमत क्रूर हो जाते हैं और अन्य र्नुष्ट्यों के प्रमत भी । उन्हें
इसका कोई ज्ञान नहीं मक एक िसू रे से मकस प्रकार व्यवहार मकया जाय । आसुरी लोगों र्ें पशु वध अत्यन्त प्रधान होता
है । ऐसे लोग संसार के शत्रु सर्झे जाते हैं, क्योंमक वे अन्ततः ऐसा अमवष्ट्कार कर लेंगे या कुछ ऐसी सृमष्ट कर िेंगे
मजससे सबका मवनाश हो जाय । अप्रत्यक्षतः यह श्लोक नामभकीय अस्त्रों के अमवष्ट्कार की पूवम सूचना िेता है, मजसका
आज सारे मवश्र्व को गवम है । मकसी भी क्षण युद्ध हो सकता है और ये परर्ाणु हमर्यार मवनाशलीला उत्पन्न कर सकते
हैं । ऐसी वस्तुएँ संसार के मवनाश के उद्देश्य से ही उत्पन्न की जाती हैं और यहाँ पर इसका संकेत मकया गया है । ईश्र्वर
के प्रमत अमवश्र्वास के कारण ही ऐसे हमर्यारों का अमवष्ट्कार र्ानव सर्ाज र्ें मकया जाता है - वे संसार की शामन्त तर्ा
सम्पन्नता के मलए नहीं होते ।

काममानश्रत्य दुष्ट्पूरं दम्भमािमदानन्वताः ।


मोहाद्गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवतमन्तेऽश्रनु चव्रताः ।। १० ।।

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कामम् - कार्, मवषयभोग की; आनश्रत्य - शरण लेकर; दुष्ट्पूरम् - अपूरणीय, अतृप्त; दम्भ - गवम; माि - तर्ा
झिू ी प्रमतिा का; मद-नन्वताः - र्ि र्ें चरू ; मोहात् - र्ोह से; गृहीत्वा - ग्रहण करके ; असत् - क्षणभंगुर; ग्राहाि् -
वस्तुओ ं को; प्रवतमन्ते - िलते िूलते हैं; अशुनच - अपमवत्र; व्रताः - व्रत लेने वाले ।

कभी ि संतुष्ट होिे वाले काम का आश्रय लेकर तथा गवम के मद एवं नमथ्या प्रनतष्ठा में डूबे हुए आसरु ी
लोग इस तरह मोहग्रस्त होकर सदैव क्षणभंगुर वस्तुओ ं के द्वारा अपनवत्र कमम का व्रत नलए रहते हैं ।

तात्पयम: यहाँ पर आसुरी प्रवृमत्त का वणमन हुआ है । असुरों र्ें कार् कभी तृप्त नहीं होता । वे भौमतक भोग के
मलए अपनी अतृप्त इच्छाएँ बढ़ाते चले जाते हैं । यद्यमप वे क्षणभगं रु वस्तओ ु ं को स्वीकार करने के कारण सिैव
मचन्तार्ग्न रहते हैं, तो भी वे र्ोहवश ऐसे कायम करते जाते हैं । उन्हें कोई ज्ञान नहीं होता, अतएव वे यह नहीं कह पाते
मक वे गलत मिशा र्ें जा रहे हैं । क्षणभगं ुर वस्तुओ ं को स्वीकार करने के कारण वे अपना मनजी ईश्र्वर मनर्ामण कर लेते
हैं, अपने मनजी र्न्त्र बना लेते हैं और तिानुसार कीतमन करते हैं । इसका िल यह होता है मक वे िो वस्तुओ ं की ओर
अमधकामधक आकृ ष्ट होते हैं - कार्भोग तर्ा सम्पमत्त संचय । इस प्रसंग र्ें अशस्ु च-व्रताः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम
है, मजसका अर्म है 'अपमवत्र व्रत' । ऐसे आसुरी लोग र्द्य, मस्त्रयों, द्यूत क्रीडा तर्ा र्ांसाहार के प्रमत आसक्त होते हैं - ये
ही उनकी अशमु च अर्ामत् अपमवत्र (गंिी) आितें हैं । िपम तर्ा अहक ं ार से प्रेररत होकर वे ऐसे धामर्मक मसद्धान्त बनाते
हैं, मजनकी अनुर्मत वैमिक आिेश नहीं िेते । यद्यमप ऐसे आसुरी लोग अत्यन्त मनन्िनीय होते हैं, लेमकन संसार र्ें कृ मत्रर्
साधनों से ऐसे लोगों का झिू ा सम्र्ान मकया जाता है । यद्यमप वे नरक की ओर बढ़ते रहते हैं, लेमकन वे अपने को बहुत
बड़ा र्ानते हैं ।

नचन्तामपररमेयां च प्रलयान्तामपु ानश्रताः ।


कामोपभोगपरमा एतावनदनत निनश्र्चताः ।। ११ ।।
आशापाशशतैबमद्धाः कामक्रोधपरायणाः ।
ईहन्ते कामभोगाथममन्यायेिाथमसञ्चयाि् ।। १२ ।।

नचन्ताम् - भय तर्ा मचन्ताओ ं का; अपररमेयाम् - अपार; च - तर्ा; प्रलय-अन्ताम् - र्रणकाल


तक; उपानश्रताः - शरणागत; काम-उपभोग - इमन्द्रयतृमप्त; परमाः - जीवन का परर् लक्ष्य; एतावत् - इतना; इनत -
इस प्रकार; निनश्र्चताः - मनमश्चत करके ; आशा-पाश - आशा रूप बन्धन; शतैः - सैकड़ों के द्वारा; बद्धाः - बँधे
हुए; काम - कार्; क्रोध - तर्ा क्रोध र्ें; परायणाः - सिैव मस्र्त; ईहन्ते - इच्छा करते हैं; काम - कार्; भोग -
इमन्द्रयभोग; अथमम् - के मनमर्त्त; अन्यायेि - अवैध रूप से; अथम - धन का; सञ्चयाि् - संग्रह ।

उिका नवश्र्वास है नक इनन्द्रयों की तनु ष्ट ही मािव सभ्यता की मल ू आवश्यकता है । इस प्रकार


मरणकाल तक उिको अपार नचन्ता होती रहती है । वे लाखों इच्छाओ ं के जाल में बूँधकर तथा काम और
क्रोध में लीि होकर इनन्द्रयतृनप्त के नलए अवैध ढगं से धिसग्रं ह करते हैं ।

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तात्पयम : आसुरी लोग र्ानते हैं मक इमन्द्रयों का भोग ही जीवन का चरर्लक्ष्य है और वे आर्रण इसी
मवचारधारा को धारण मकये रहते हैं । वे र्ृत्यु के बाि जीवन र्ें मवश्र्वास नहीं करते । वे यह नहीं र्ानते मक र्नुष्ट्य को इस
जगत् र्ें अपने कर्म के अनुसार मवमवध प्रकार के शरीर धारण करने पड़ते हैं । जीवन के मलए उनकी योजनाओ ं का अन्त
नहीं होता और वे एक के बाि एक योजना बनाते रहते हैं जो कभी सर्ाप्त नहीं होती । हर्ें ऐसे व्यमक्त की ऐसी आसुरी
र्नोवृमत्त का मनजी अनुभव है, जो र्रणाकाल तक अपने वैद्य से अनुनय-मवनय करता रहा मक वह मकसी तरह उसके
जीवन की अवमध चार वषम बढ़ा िे, क्योंमक उसकी योजनाएँ तब भी अधरू ी र्ीं । ऐसे र्ख ु म लोग यह नहीं जानते मक वैद्य
क्षणभर भी जीवन को नहीं बढ़ा सकता । जब र्ृत्यु का बल ु ावा आ जाता है , तो र्नष्ट्
ु की इच्छा पर ध्यान नहीं मिया

जाता । प्रकृ मत के मनयर् मकसी को मनमश्चत अवमध के आगे क्षणभर भी भोग करने की अनुर्मत प्रिान नहीं करते ।
आसरु ी र्नष्ट्ु य, जो ईश्र्वर या अपने अन्तर र्ें मस्र्त परर्ात्र्ा र्ें श्रद्धा नहीं रखता, के वल इमन्द्रयतृमप्त के मलए
सभी प्रकार के पापकर्म करता रहता है । वह नहीं जानता मक उसके हृिय के भीतर एक साक्षी बैिा है । परर्ात्र्ा प्रत्येक
जीवात्र्ा के कायों को िेखता रहता है । जैसा मक उपस्नषर्ों र्ें कहा गया है मक एक वृक्ष र्ें िो पक्षी बैिे हैं, एक पक्षी
कर्म करता हुआ टहमनयों र्ें लगे सुख-िख ु रूपी िलों को भोग रहा है और िूसरा उसका साक्षी है । लेमकन आसुरी
र्नुष्ट्य को न तो वैमिकशास्त्र का ज्ञान है, न कोई श्रद्धा है । अतएव वह इमन्द्रयभोग के मलए कुछ भी करने के मलए अपने
को स्वतन्त्र र्ानता है, उसे पररणार् की परवाह नहीं रहती ।

इदमद्य मया लब्धनममं प्राप्स्ये मिोरथम् ।


इदमस्तीदमनप मे भनवष्ट्यनत पुिधमिम् ।। १३ ।।
असौ मया हतः शत्रुहमनिष्ट्ये चापरािनप ।
इश्र्वरोऽहमहं भोगी नसद्धोऽहं बलवान्सुखी ।। १४ ।।
आढ्योऽनभजिवािनस्म कोऽन्योऽनस्त सदृशो मया ।
यक्ष्ये दास्यानम मोनदष्ट्य इत्यज्ञािमोनहताः ।। १५ ।।

इदम् - यह; अद्य - आज; मया - र्ेरे द्वारा; लब्धम् - प्राप्त; इमम् - इसे; प्राप्यते - प्राप्त करूँगा; मिः-रथम् -
इमच्छत; इदम् - यह; अनस्त - है; इदम् - यह; अनप - भी; मे - र्ेरा; भनवष्ट्यनत - भमवष्ट्य र्ें बढ़ जायगा; पुिः -
मिर;धिम् - धन; असौ - वह; मया - र्ेरे; हतः - र्ारा गया; शत्रुः - शत्र;ु हनिष्ट्ये - र्ारूँगा; च - भी; अपराि् -
अन्यों को; अनप - मनश्चय ही; ईश्र्वरः - प्रभ,ु स्वार्ी; अहम् - र्ैं ह;ँ अहम् - र्ैं ह;ँ भोगी - भोक्ता; नसद्धः -
मसद्ध; अहम् - र्ैं ह;ँ बलवाि् - शमक्तशाली; सुखी - प्रसन्न; आढ्यः - धनी; अनभजि-वाि् - कुलीन सम्बमन्धयों से
मघरा; अनस्म - र्ैं ह;ँ कः - कौन; अन्यः - िसू रा; अनस्त - है; सदृशः - सर्ान; मया - र्ेरे द्वारा; यक्ष्ये - र्ैं यज्ञ
करूँगा; दास्यानम - िान िँगू ा; मोनदष्ट्ये - आर्ोि-प्रर्ोि र्नाऊँगा; इनत - इस प्रकार; अज्ञाि -
अज्ञानतावश; नवमोनहताः - र्ोहग्रस्त ।

आसुरी व्यनि सोचता है, आज मेरे पास इतिा धि है और अपिी योजिाओ ं से मैं और अनधक धि
कमाऊूँ गा । इस समय मेरे पास इतिा है नकन्तु भनवष्ट्य में यह बढकर और अनधक हो जायेगा । वह मेरा शत्रु है
और मैंिे उसे मार नदया है और मेरे अन्य शत्रु भी मार नदये जाएगं े । मैं सभी वस्तुओ ं का स्वामी हूँ । मैं भोिा
हूँ । मैं नसद्ध, शनिमाि् तथा सुखी हूँ । मैं सबसे धिी व्यनि हूँ और मेरे आसपास मेरे कुलीि सम्बन्धी

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हैं । कोई अन्य मेरे समाि शनिमाि तथा सुखी िहीं है । मैं यज्ञ करूूँगा, दाि दूगूँ ा और इस तरह आिन्द
मिाऊूँ गा । इस प्रकार ऐसे व्यनि अज्ञािवश मोहग्रस्त होते रहते हैं ।

अिेकनचत्तनवरान्ता मोहजालसमावृताः ।
प्रसिाः कामभोगेषु पतनन्त िरके ऽश्रुचौ ।। १६ ।।

अिेक - कई; नचत्त - मचन्ताओ ं से; नवरान्ताः - उमद्वग्न; मोह - र्ोह र्ें; जाल - जाल से; समावृताः - मघरे
हुए; प्रसिाः - आसक्त; काम-भोगेषु - इमन्द्रय तृमप्त र्ें; पतनन्त - मगर जाते हैं; िरके - नरक र्ें; अशुचौ - अपमवत्र ।

इस प्रकार अिेक नचन्ताओ ं से उनद्वग्ि होकर तथा मोहजाल में बूँधकर वे इनन्द्रयभोग में अत्यनधक
आसि हो जाते हैं और िरक में नगरते हैं ।

तात्पयम : आसुरी व्यमक्त धन अमजमत करने की इच्छा की कोई सीर्ा नहीं जानता । उसकी इच्छा असीर् बनी
रहती है । वह के वल यही सोचता रहता है मक उसके पास इस सर्य मकतनी सम्पमत्त है और ऐसी योजना बनाता है मक
सम्पमत्त का संग्रह बढ़ता ही जाय । इसीमलए वह मकसी भी पापपूणम साधन को अपनाने र्ें मझझकता नहीं और अवैध
तृमप्त के मलए कालाबाजारी करता है । वह पहले से अपनी अमधकृ त सम्पमत, यर्ा भमू र्, पररवार, घर तर्ा बैंक पूँजी पर
र्ग्ु ध रहता है और उनर्ें वृमद्ध के मलए सिैव योजनाएँ बनाता रहता है । उसे अपनी शमक्त पर ही मवश्र्वास रहता है और
वह यह नहीं जानता मक उसे जो लाभ हो रहा है वह उसके पूवम जन्र् के पूण्य कर्ों का िल है । उसे ऐसी वस्तुओ ं का
संचय करने का अवसर इसीमलए मर्ला है, लेमकन उसे पूवम जन्र् के कारणों का कोई बोध नहीं होता । वह यही सोचता
है मक उसकी सारी सम्पमत्त उसके मनजी उद्योग से है । आसरु ी व्यमक्त अपने बाहु-बल पर मवश्र्वास करता है, कर्म के
मनयर् पर नहीं । कर्म-मनयर् के अनुसार पूवमजन्र् र्ें उत्तर् कर्म करने के िलस्वरूप र्नुष्ट्य उच्चकुल र्ें जन्र् लेता है, या
धनवान बनता है या समु शमक्षत बनता है, या बहुत सन्ु िर शरीर प्राप्त करता है । आसरु ी व्यमक्त सोचता है मक ये चीजें
आकमस्र्क हैं और उसके बाहुबल (सार्थ्यम) के िलस्वरूप हैं । उसे मवमभन्न प्रकार के लोगों, सुन्िरता तर्ा मशक्षा के
पीछे मकसी प्रकार की योजना (व्यवस्र्ा) नहीं प्रतीत होती । ऐसे आसुरी र्नुष्ट्य की प्रमतयोमगता र्ें जो भी सार्ने आता
है, वह उसका शत्रु बन जाता है । ऐसे अनेक आसुरी व्यमक्त होते हैं और इनर्ें से प्रत्येक अन्यों का शत्रु होता है । यह
शत्रुता पहले र्नुष्ट्यों के बीच, मिर पररवारों के बीच, तब सर्ाजों र्ें और अन्ततः राष्ट्रों के बीच बढ़ती जाती है ।
अतएव मवश्र्वभर र्ें मनरन्तर संघषम, युद्ध तर्ा शत्रुता बनी हुई है ।
प्रत्येक आसुरी व्यमक्त सोचता है मक वह अन्य सभी लोगों की बमल करके रह सकता है । सार्ान्यतया ऐसा
व्यमक्त स्वयं को परर् ईश्र्वर र्ानता है और आसुरी उपिेशक अपने अनुयामययों से कहता है मक, “तुर् लोग ईश्र्वर को
अन्यत्र क्यों ढूँढ रहे हो? तुर् स्वयं अपने ईश्र्वर हो! तुर् जो चाहो कर सकते हो । ईश्र्वर पर मवश्र्वास र्त करो । ईश्र्वर
को िरू करो । ईश्र्वर र्ृत है ।” ये ही आसुरी लोगों के उपिेश हैं ।
यद्यमप आसुरी र्नुष्ट्य अन्यों को अपने ही सर्ान या अपने से बढ़कर धनी और प्रभावशाली िेखता है, तो भी वह
सोचता है मक उससे बढ़कर न तो कोई धनी है और न प्रभावशाली । जहाँ तक उच्च लोकों र्ें जाने की बात है वे यज्ञों
को सम्पन्न करने र्ें मवश्र्वास नहीं करते । वे सोचते हैं मक वे अपनी यज्ञ-मवमध का मनर्ामण करें गे और कोई ऐसे र्शीन
बना लेंगे मजससे वे मकसी भी उच्च लोक तक पहुचँ जाएँगे । ऐसे आसुरी व्यमक्त का सवमश्रेि उिहारण रावण र्ा । उसने

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लोगों के सर्क्ष ऐसी योजना प्रस्तुत की र्ी, मजसके द्वारा वह एक ऐसी सीढ़ी बनाने वाला र्ा, मजससे कोई भी व्यमक्त
वेिों र्ें वमणमत यज्ञों को सम्पन्न मकये मबना स्वगमलोक को जा सकता र्ा । उसी प्रकार से आधमु नक युग के ऐसे ही
आसुरी लोग यामन्त्रक मवमध से उच्चतर लोकों तक पहुचँ ने का प्रयास कर रहे हैं । ये सब र्ोह के उिहारण हैं । पररणार्
यह होता है मक मबना जाने हुए वे नरक की ओर बढ़ते जाते हैं । यहाँ पर मोहजाल शब्ि अत्यन्त सार्मक है । जाल का
तात्पयम है र्नुष्ट्य र्छली कीभाँमत र्ोह रूपी जाल र्ें िँ स कर उससे मनकल नहीं पाता ।

आत्मसम्भानवताः स्तब्धा धिमािमदानन्वताः ।


यजन्ते िामयज्ञैस्ते दम्भेिानवनधपूवमकम् ।। १७ ।।

आत्म-सम्भानवताः - अपने को श्रेि र्ानने वाले;स्तब्धाः - घर्ण्डी; धि-माि - धन तर्ा झिू ी प्रमतिा
के ; मद - र्ि र्ें; अनन्वताः - लीन; यजन्ते - यज्ञ करते हैं;िाम - नार् र्ात्र के मलए; यज्ञैः - यज्ञों के द्वारा; ते -
वे; दम्भेि - घर्ंड से; अनवनध-पूवमकम् - मवमध-मवधानों का पालन मकये मबना ।

अपिे को श्रेष्ठ माििे वाले तथा सदैव घमंड करिे वाले, सम्पनत्त तथा नमथ्या प्रनतष्ठा से मोहग्रस्त लोग
नकसी नवनध-नवधाि का पालि ि करते हुए कभी-कभी िाम मात्र के नलए बडे ही गवम के साथ यज्ञ करते हैं ।

तात्पयम: अपने को सब कुछ र्ानते हुए, मकसी प्रर्ाण या शास्त्र की परवाह न करके आसुरी लोग कभी-कभी
तर्ाकमर्त धामर्मक या यामज्ञक अनुिान करते हैं । चँमू क वे मकसी प्रर्ाण र्ें मवश्र्वास नहीं करते, अतएव वे अत्यन्त
घर्ंडी होते हैं । र्ोड़ी सी सम्पमत्त तर्ा झिू ी प्रमतिा पा लेने के कारण जो र्ोह (भ्रर्) उत्पन्न होता है, उसी के कारण
ऐसा होता है । कभी-कभी ऐसे असरु उपिेशक की भमू र्का मनभाते हैं, लोगों को भ्रान्त करते हैं और धामर्मक सधु ारक या
ईश्र्वर के अवतारों के रूप र्ें प्रमसद्ध हो जाते हैं । वे यज्ञ करने का मिखावा करते हैं, या िेवताओ ं की पूजा करते हैं, या
अपने मनजी ईश्र्वर की सृमष्ट करते हैं । सार्ान्य लोग उनका प्रचार ईश्र्वर कह कर करते हैं, उन्हें पजू ते हैं और र्ख ु म लोग
उन्हें धर्म या आध्यामत्र्क ज्ञान के मसद्धान्तों र्ें बढ़ा-चढ़ा र्ानते हैं । वे संन्यासी का वेश धारण कर लेते हैं और उस वेश
र्ें सभी प्रकार का अधर्म करते हैं । वास्तव र्ें इस संसार से मवरक्त होने वाले पर अनेक प्रमतबन्ध होते हैं । लेमकन ये
असुर इन प्रमतबन्धों की परवाह नहीं करते । वे सोचते हैं जो भी र्ागम बना मलया जाय, वही अपना र्ागम है । उनके सर्क्ष
आिशम र्ागम जैसी कोई वस्तु नहीं, मजस पर चला जाय । यहाँ पर अस्वस्धपूवद म् शब्ि पर बल मिया गया है मजसका
अर्म है मवमध-मवधानों की परवाह न करते हुए । ये सारी बातें सिैव अज्ञान तर्ा र्ोह के कारण होती हैं ।

अहङ् कारं बलं दपं कामं क्रोधं च संनश्रताः ।


मामात्मपरदेहेषु प्रनद्वषन्तोऽभ्यसूयकाः ।। १८ ।।

अहङकारम् - मर्थ्या अमभर्ान; बलम् - बल; दपमम् - घर्ंड; कामम् - कार्, मवषयभोग; क्रोधम् -
क्रोध; च - भी; सनं श्रताः - शरणागत, आश्रय लेते हुए ; माम् - र्झु को; आत्म - अपने; पर - तर्ा पराये; देहेषु -
शरीरों र्ें; प्रनद्वषन्तः - मनन्िा करते हुए; अभ्यसूयकाः - ईष्ट्यामलु ।

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नमथ्या अहंकार, बल, दपम, काम तथा क्रोध से मोनहत होकर आसुरी व्यनि अपिे शरीर में तथा अन्यों
के शरीर में नस्थत भगवाि् से ईष्ट्याम और वास्तनवक धमम की निन्दा करिे लगते हैं ।

तात्पयम : आसुरी व्यमक्त भगवान् की श्रेिता का मवरोधी होने के कारण शास्त्रों र्ें मवश्र्वास करना पसन्ि नहीं
करता । वह शास्त्रों तर्ा भगवान् के अमस्तत्व इन िोनों से ही ईष्ट्याम करता है । यह ईष्ट्याम उसकी तर्ाकमर्त प्रमतिा तर्ा
धन एवं शमक्त के संग्रह से उत्पन्न होती है । वह यह नहीं जनता मक वतमर्ान जीवन अगले जीवन की तैयारी है । इसे न
जानते हुए वह वास्तव र्ें अपने प्रमत तर्ा अन्यों के प्रमत भी द्वेष करता है । वह अन्य जीवधाररयों की तर्ा स्वयं अपनी
महसं ा करता है । वह भगवान् के परर् मनयन्त्रण की मचन्ता नहीं करता, क्योंमक उसे ज्ञान नहीं होता । शास्त्रों तर्ा भगवान्
से ईष्ट्याम करने के कारण वह ईश्र्वर के अमस्तत्व के मवरुद्ध झिू े तकम प्रस्ततु करता है और शास्त्रीय प्रर्ाण को अस्वीकार
करता है । वह प्रत्येक कायम र्ें अपने को स्वतन्त्र तर्ा शमक्तर्ान र्ानता है । वह सोचता है मक कोई भी शमक्त, बल या
सम्पमत्त र्ें उसकी सर्ता नहीं कर सकता, अतः वह चाहे मजस तरह कर्म करे , उसे कोई रोक नहीं सकता । यमि उसका
कोई शत्रु उसे ऐमन्द्रय कायों र्ें आगे बढ़ने से रोकता है, तो वह उसे अपनी शमक्त से मछन्न-मभन्न करने की योजनाएँ
बनाता है ।

तािहं नद्वषतः क्रूरान्संसारेषु िराधमाि् ।


नक्षपाम्यजस्त्रमश्रुभािासुरीष्ट्वेव योनिषु ।। १९ ।।

ताि् - उन; अहम् - र्ैं; नद्वषतः - ईष्ट्यामलु; क्रूराि् - शरारती लोगों को; संसारेषु - भवसागर र्ें; िर-अधमाि् -
अधर् र्नुष्ट्यों को; नक्षपानम - डालता ह;ँ अजस्त्रम् - सिैव; अशुभाि् - अशभु ; आसुरीषु - आसुरी; एव - मनश्चय
ही; योनिषु - गभम र्ें ।

जो लोग ईष्ट्यामलु तथा क्रूर हैं और िराधम हैं, उन्हें मैं निरन्तर नवनभन्ि आसरु ी योनियों में, भवसागर में
डालता रहता हूँ ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें स्पष्ट इमं गत हुआ है मक मकसी जीव को मकसी मवशेष शरीर र्ें रखने का परर्ेश्र्वर को
मवशेष अमधकार प्राप्त है । आसुरी लोग भले ही भगवान् की श्रेिता को न स्वीकार करें और वे अपनी मनजी सनकों के
अनुसार कर्म करें , लेमकन उनका अगला जन्र् भगवान् के मनणमय पर मनभमर करे गा, उन पर नहीं । श्रीमद्भागवत के तृतीय
स्कंध र्ें कहा गया है मक र्ृत्यु के बाि जीव को र्ाता के गभम र्ें रखा जाता है, जहाँ उच्च शमक्त के मनररक्षण र्ें उसे
मवशेष प्रकार का शरीर प्राप्त होता है । यही कारण है मक संसार र्ें जीवों की इतनी योमनयाँ प्राप्त होती हैं - यर्ा
पश,ु कीट, र्नुष्ट्य आमि । ये सब परर्ेश्र्वर द्वारा व्यवमस्र्त हैं । वे अकस्र्ात् नहीं आई ं । जहाँ तक असुरों की बात
है , यहाँ यह स्पष्ट कहा गया है मक ये असरु ों के गभम र्ें मनरन्तर रखे जाते हैं । इस प्रकार ये ईष्ट्यामलु बने रहते हैं और
र्ानवों र्ें अधर् हैं । ऐसे आसुरी योमन वाले र्नुष्ट्य सिैव कार् से पूररत रहते हैं, सिैव उग्र, घृणास्पि तर्ा अपमवत्र होते
हैं । जगं लों के अनेक मशकारी र्नुष्ट्य आसरु ी योमन से सम्बमन्धत र्ाने जाते हैं ।

आसुरीं योनिमापन्िा मूढा जन्मनिजन्मनि ।

४६५
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गनतम् ।। २० ।।

आसुरीम् - आसुरी; योनिम् - योमन को; आपन्िाः - प्राप्त हुए; मूढाः - र्ख ु म; जन्मनिजन्मनि - जन्र्जन्र्ान्तर
र्ें; माम् - र्झु को; अप्राप्य - पाये मबना; एव - मनश्चय ही; कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; ततः - तत्पश्चात्; यानन्त - जाते
हैं; अधमाम् - अधर्, मनमन्ित; गनतम् - गन्तव्य को ।

हे कुन्तीपत्रु ! ऐसे व्यनि आसरु ी योनि में बारम्बार जन्म ग्रहण करते हुए कभी भी मझ
ु तक पहुूँच िहीं
पाते । वे धीरे-धीरे अत्यन्त अधम गनत को प्राप्त होते हैं ।

तात्पयम : यह मवख्यात है मक ईश्र्वर अत्यन्त ियालु हैं, लेमकन यहाँ पर हर् िेखते हैं मक वे असुरों पर कभी भी
िया नहीं करते । यहाँ स्पष्ट कहा गया है मक आसुरी लोगों को जन्र् जन्र्ान्तर तक उनके सर्ान असुरों के गभम र्ें रखा
जाता है और ईश्र्वर की कृ पा प्राप्त न होने से उनका अधःपतन होता रहता है, मजससे अन्त र्ें उन्हें कुत्तों, मबमल्लयों तर्ा
सूकरों जैसा शरीर मर्लता है । यहाँ यह स्पष्ट मकया गया है मक ऐसे असुर जीवन की मकसी भी अवस्र्ा र्ें ईश्र्वर की
कृ पा का भाजन नहीं बन पाते । वेर्ों र्ें भी कहा गया है मक ऐसे व्यमक्त अधःपतन होने पर कूकर-सूकर बनते हैं । इस
प्रसंग र्ें यह तकम मकया जा सकता है मक यमि ईश्र्वर ऐसे असुरों पर कृ पालु नहीं हैं तो उन्हें सवम कृ पालु क्यों कहा जाता
है? इस प्रश्न के उत्तर र्ें कहा जा सकता है मक वेर्ान्तसूत्र से पता चलता है मक परर्ेश्र्वर मकसी से घृणा नहीं करते ।
असुरों को मनम्नतर् (अधर्) योमन र्ें रखना उनकी कृ पा की अन्य मवशेषता है । कभी-कभी परर्ेश्र्वर असुरों का वध
करते हैं, लेमकन यह वध भी उनके मलए कल्याणकारी होता है, क्योंमक वैमिक सामहत्य से पता चलता है मक मजस मकसी
का वध परर्ेश्र्वर द्वारा होता है, उसको र्ुमक्त मर्ल जाती है । इमतहास र्ें ऐसे असुरों के अनेक उिाहरण प्राप्त हैं - यर्ा
रावण, कंस, महरण्यकमशप,ु मजन्हें र्ारने के मलए भगवान् ने मवमवध अवतार धारण मकये । अतएव असरु ों पर ईश्र्वर की
कृ पा तभी होती है, जब वे इतने भाग्यशाली होते हैं मक ईश्र्वर उनका वध करें ।

नत्रनवधं िरकस्येदं द्वारं िाशिमात्मिः ।


कामः क्रोधस्तथा लोभास्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ।। २१ ।।

नत्रनवधम् - तीन प्रकार का;िरकस्य - नरक का; इदम् - यह; द्वारम् - द्वार;िाशिम् - मवनाशकारी; आत्मिः -
आत्र्ा का; कामः - कार्; क्रोधः - क्रोध; तथा - और; लोभः - लोभ; तस्मात् - अतएव; एतत् - इन; त्रयम् - तीनों
को; त्यजेत् - त्याग िेना चामहए ।

इस िरक के तीि द्वार हैं - काम, क्रोध और लोभ । प्रत्येक बुनद्धमाि व्यनि को चानहए नक इन्हें त्याग
दे, क्योंनक इिसे आत्मा का पति होता है ।

तात्पयम : यहाँ पर आसरु ी जीवन आरम्भ होने का वणमन हुआ है । र्नष्ट्ु य अपने कार् को तष्टु करना चाहता
है, मकन्तु जब उसे पूरा नहीं कर पाता तो क्रोध तर्ा लोभ उत्पन्न होता है । जो बुमद्धर्ान र्नुष्ट्य आसुरी योमन र्ें नहीं

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मगरना चाहता, उसे चामहए मक वह इन तीनों शत्रुओ ं का पररत्याग कर िे, क्योंमक ये आत्र्ा का हनन इस हि तक कर
िेते हैं मक इस भवबन्धन से र्ुमक्त की सम्भावना नहीं रह जाती ।

एतैनवममुिः कौन्तेय तमोद्वारैनस्त्रनभिमरः ।


आचरत्यात्मिः श्रेयस्ततो यानत परां गनतम् ।। २२ ।।

एतैः - इनसे; नवमिु ः - र्क्त


ु होकर; कौन्तेय - हे कुन्तीपत्रु ; तमः-द्वारैः - अज्ञान के द्वारों से;नत्रनभः - तीन
प्रकार के ; िरः - व्यमक्त; आचरनत - करता है; आत्मिः - अपने मलए; श्रेयः - र्ंगल, कल्याण; ततः -
तत्पश्चात्; यानत - जाता है; पराम् - परर्; गनतम् - गन्तव्य को ।

हे कुन्तीपुत्र! जो व्यनि इि तीिों िरक-द्वारों से बच पाता है, वह आत्म-साक्षात्कार के नलए


कल्याणकारी कायम करता है और इस प्रकार क्रमशः परम गनत को प्राप्त होता है ।

तात्पयम: र्नुष्ट्य को र्ानव-जीवन के तीन शत्रुओ ं - कार्, क्रोध तर्ा लोभ - से अत्यन्त सावधान रहना
चामहए । जो व्यमक्त मजतना ही इन तीनों से र्क्त
ु होगा, उतना ही उसका जीवन शुद्ध होगा । तब वह वैमिक सामहत्य र्ें
आमिष्ट मवमध-मवधानों का पालन कर सकता है । इस प्रकार र्ानव जीवन के मवमभन्न मवमध-मवधानों का पालन करते
हुए वह अपने आपको धीरे -धीरे आत्र्-साक्षात्कार के पि पर प्रमतमित कर सकता है । यमि वह इतना भाग्यशाली हुआ
मक इस अभ्यास से कृ ष्ट्णभावनार्ृत के पि तक उि सके तो उसकी सिलता मनमश्चत है । वैमिक सामहत्य र्ें कर्म तर्ा
कर्मिल की मवमधयों का आिेश है, मजससे र्नुष्ट्य शमु द्ध की अवस्र्ा (संस्कार) तक पहुचँ सके । सारी मवमध
कार्, क्रोध तर्ा लोभ के पररत्याग पर आधाररत है । इस मवमध का ज्ञान प्राप्त करके र्नुष्ट्य आत्र्-साक्षात्कार के
उच्चपि तक उि सकता है और इस आत्र्-साक्षात्कार की पूणमता भमक्त र्ें है । भमक्त र्ें बद्धजीव की र्मु क्त मनमश्चत
है । इसीमलए वैमिक पद्धमत के अनसु ार चार आश्रर्ों तर्ा चार वणों का मवधान मकया गया है । मवमभन्न जामतयों (वणों)
के मलए मवमभन्न मवमध-मवधानों की व्यवस्र्ा है । यमि र्नुष्ट्य उनका पालन कर पाता है, तो वह स्वतः ही आत्र्-
साक्षात्कार के सवोच्चपि को प्राप्त कर लेता है । तब उसकी र्ुमक्त र्ें कोई सन्िेह नहीं रह जाता ।

यः शास्त्रनवनधमुत्सृजय वतमते कामकारतः ।


ि स नसनद्धमवाप्िोनत ि सुखं ि परां गनतम् ।। २३ ।।

यः - जो; शस्त्र-नवनधम् - शास्त्रों की मवमधयों को; उत्सृजय - त्याग कर; वतमते - करता रहता है; काम-
कारतः - कार् के वशीभतू होकर र्नर्ाने ढंग से; ि - कभी नहीं; सः - वह; नसनद्धम् - मसमद्ध को; अवाप्िोनत - प्राप्त
करता है; ि - कभी नहीं; सख
ु म् - सख
ु को;ि - कभी नहीं;पराम् - परर्;गनतम् - मसद्ध अवस्र्ा को ।

जो शास्त्रों के आदेशों की अवहेलिा करता है और मिमािे ढगं से कायम करता है, उसे ि तो नसनद्ध, ि
सुख, ि ही परमगनत की प्रानप्त हो पाती है ।

४६७
तात्पयम : जैसा मक पहले कहा जा चक ु ा है र्ानव सर्ाज के मवमभन्न आश्रर्ों तर्ा वणों के मलए शास्त्रमवमध िी
गयी है । प्रत्येक व्यमक्त को इन मवमध-मवधानों का पालन करना होता है । यमि कोई इनका पालन न करके कार्, क्रोध
और लोभवश स्वेच्छा से कायम करता है, तो उसे जीवन र्ें कभी मसमद्ध प्राप्त नहीं हो सकती । िसू रे शब्िों र्ें, भले ही
र्नुष्ट्य ये सारी बातें मसद्धान्त के रूप र्ें जानता रहे, लेमकन यमि वह इन्हें अपने जीवन र्ें नहीं उतार पाता, तो वह अधर्
जाना जाता है । र्नुष्ट्ययोमन र्ें जीव से आशा की जाती है मक वह बुमद्धर्ान बने और सवोच्च पि तक जीवन को ले
जाने वाले मवधानों का पालन करे । मकन्तु यमि वह इनका पालन नहीं करता, तो उसका अधःपतन हो जाता है । लेमकन
मिर भी जो मवमध-मवधानों तर्ा नैमतक मसद्धान्तों का पालन करता है, मकन्तु अन्ततोगत्वा परर्ेश्र्वर को सर्झ नहीं
पाता, तो उसका सारा ज्ञान व्यर्म जाता है । और यमि वह ईश्र्वर के अमस्तत्व को र्ान भी ले, मकन्तु यमि भगवान् की
सेवा नहीं करता, तो भी उसके सारे प्रयास मनष्ट्िल हो जाते हैं । अतएव र्नष्ट्ु य को चामहए मक अपने आप को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त के पि तक ऊपर ले जाये । तभी वह परर् मसद्धावस्र्ा को प्राप्त कर सकता है, अन्यर्ा नहीं ।
ाम- ारतः शब्ि अत्यन्त सार्मक है । जो व्यमक्त जान बूझ का मनयर्ों का अमतक्रर्ण करता है, वह कार् के
वश र्ें होकर कर्म करता है । वह जानता है मक ऐसा करना र्ना है, लेमकन मिर भी वह ऐसा करता है । इसी को
स्वेच्छाचार कहते हैं । यह जानते हुए भी मक अर्क ु कार् करना चामहए, मिर भी वह उसे नहीं करता है, इसीमलए उसे
स्वेच्छा कारी कहा जाता है । ऐसे व्यमक्त अवश्य ही भगवान् द्वारा िंमडत होते हैं । ऐसे व्यमक्तयों को र्नुष्ट्य जीवन की
मसमद्ध प्राप्त नहीं हो पाती । र्नुष्ट्य जीवन तो अपने आपको शद्ध ु बनाने के मलए है, मकन्तु जो व्यमक्त मवमध-मवधानों का
पालन नहीं करता, वह अपने को न तो शुद्ध बना सकता है, न ही वास्तमवक सुख प्राप्त कर सकता है ।

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कायामकायमव्यवनस्थतौ ।


ज्ञात्वा शास्त्रनवधािोिं कमम कतमनु महाहमनस ।। २४ ।।

तस्मात् - इसमलए; शास्त्रम् - शास्त्र; प्रमाणम् - प्रर्ाण; ते - तुर्हारा; कायम - कतमव्य;अकायम - मनमषद्ध
कर्म; व्यवनस्थतौ - मनमश्चत करने र्ें; ज्ञात्वा - जानकर;शास्त्र - शास्त्र का; नवधाि - मवधान; उिम् - कहा
गया; कमम - कर्म; कतममु ् - करना; इह - इस संसार र्ें; अहमनस - तुम्हें चामहए ।

अतएव मिुष्ट्य को यह जाििा चानहए नक शास्त्रों के नवधाि के अिुसार क्या कतमव्य है और क्या
अकतमव्य है । उसे नवनध-नवधािों को जािकर कमम करिा चानहए नजससे वह क्रमशः ऊपर उठ सके ।

तात्पयम : जैसा मक पन्द्रहवें अध्याय र्ें कहा जा चक


ु ा है वेिों के सारे मवमध-मवधान कृ ष्ट्ण को जानने के मलए हैं ।
यमि कोई भगवद्गीता से कृ ष्ट्ण को जान लेता है और भमक्त र्ें प्रवृत्त होकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होता है, तो वह
वैमिक सामहत्य द्वारा प्रित्त ज्ञान की चरर् मसमद्ध तक पहुचँ जाता है । भगवान् चैतन्य र्हाप्रभु ने इस मवमध को अत्यन्त
सरल बनाया - उन्होंने लोगों से के वल हरे ृ ष्ण र्हार्न्त्र जपने तर्ा भगवान् की भमक्त र्ें प्रवृत्त होने और अचममवग्रह को
अमपमत भोग का उमच्चि खाने के मलए कहा । जो व्यमक्त इन भमक्त कायों र्ें संलग्न रहता है, उसे वैमिक सामहत्य से
अवगत और सार तत्त्व को प्राप्त हुआ र्ाना जाता है । मनस्सन्िेह, उन सार्ान्य व्यमक्तयों के मलए, जो कृ ष्ट्णभावनाभामवत
नहीं हैं, या भमक्त र्ें प्रवृत्त नहीं हैं, करणीय तर्ा अकरणीय कर्म का मनणमय वेिों के आिेशों के अनुसार मकया जाना
चामहए । र्नुष्ट्य को तकम मकये मबना तिनुसार कर्म करना चामहए । इसी को शास्त्र के मनयर्ों का पालन करना कहा जाता

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है । शास्त्रों र्ें वे चार र्ख्ु य िोष नहीं पाये जाते, जो बद्धजीव र्ें होते हैं । ये हैं - अपूणम इमन्द्रयाँ, कपटता, त्रुमट करना तर्ा
र्ोहग्रस्त होना । इन चार िोषों के कारण बद्धजीव मवमध-मवधान बनाने के मलए अयोग्य होता है, अतएव मवमध-
मवधान, मजनका उल्लेख शास्त्र र्ें होता है जो इन िोषों से परे होते हैं, सभी बड़े-बड़े र्हात्र्ाओ,ं आचायों तर्ा
र्हापुरुषों द्वारा मबना मकसी पररवतमन के स्वीकार कर मलए जाते हैं ।
भारत र्ें आध्यामत्र्क मवद्या के कई िल हैं, मजन्हें प्रायः िो श्रेमणयों र्ें रखा जाता है - मनराकारवािी और
साकारवािी । िोनों ही िल वेिों के मनयर्ों के अनुसार अपना जीवन मबताते हैं । शास्त्रों के मनयर्ों का पालन मकये मबना
कोई मसमद्ध प्राप्त नहीं कर सकता । अतएव जो शास्त्रों के तात्पयम को वास्तव र्ें सर्झता है, वह भाग्यशाली र्ाना जाता
है ।
र्ानवसर्ाज र्ें सर्स्त पतनों का र्ख्ु य कारण भागवतमवद्या के मनयर्ों के प्रमत द्वेष है । यह र्ानव जीवन का
सवोच्च अपराध है । अतएव भगवान् की भौमतक शमक्त अर्ामत् र्ाया त्रयतापों के रूप र्ें हर्ें सिैव कष्ट िेती रहती है ।
यह भौमतक शमक्त प्रकृ मत के तीन गुणों से बनी है । इसके पूवम मक भगवान् के ज्ञान का र्ागम खल ु े, र्नुष्ट्य को कर् से कर्
सतोगुण तक ऊपर उिना होता है । सतोगुण तक उिे मबना वह तर्ो तर्ा रजोगुणोंर्ेंरहता है, जो आसुरी जीवन के
कारणस्वरूप हैं । रजो तर्ा तर्ोगुणी व्यमक्त शास्त्रों, पमवत्र र्नुष्ट्यों तर्ा भगवान् के सर्ुमचत ज्ञान की मखल्ली उड़ाते हैं ।
वे गुरु के आिेशों का उल्लंघन करते हैं और शास्त्रों के मवधानों की परवाह नहीं करते । वे भमक्त की र्महर्ा का श्रवण
करके भी उसके प्रमत आकृ ष्ट नहीं होते । इस प्रकार वे अपनी उन्नमत का अपना मनजी र्ागम बनाते हैं । र्ानव सर्ाज के ये
ही कमतपय िोष हैं, मजनके कारण आसुरी जीवन मबताना पड़ता है । मकन्तु यमि उपयुक्त तर्ा प्रार्ामणक गुरु का
र्ागमिशमन प्राप्त हो जाता है, तो उसका जीवन सिल हो जाता है क्योंमक गुरु उच्चपि की ओर उन्नमत का र्ागम मिखा
सकता है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े सोलहवें अध्याय “र्ैवी तथा आसरु ी स्वभाव” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

४६९
अध्याय सत्रह
श्रद्धा के नवभाग
अजुमन उवाच ।
ये शास्त्रनवनधमुत्सृजय यजन्ते श्रद्धयानन्वताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृ ष्ट्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ।। १ ।।

अजमिु ःउवाच - अजुमन ने कहा; ये - जो; शास्त्र-नवनधम् - शास्त्रों के मवधान को; उत्सृजय - त्यागकर;यजन्ते -
पजू ा करते हैं; श्रद्धया - पूणम श्रद्धा से; आनन्वताः - युक्त; तेषाम् - उनकी;निष्ठा - श्रद्धा; तु - लेमकन; का -
कौनसी;कृ ष्ट्ण - हे कृ ष्ट्ण; सत्त्वम् - सतोगुणी; आहो - अर्वा अन्य;रजः - रजोगुणी; तमः - तर्ोगुणी ।

अजमिु िे कहा - हे कृ ष्ट्ण! जो लोग शास्त्र के नियमों का पालि ि करके अपिी कल्पिा के अिस
ु ार
पूजा करते हैं, उिकी नस्थनत कौि सी है? वे सतोगुणी हैं, रजोगुणी हैं या तमोगुणी?

तात्पयम: चतुर्म अध्याय के उन्तालीसवें श्लोक र्ें कहा गया है मक मकसी मवशेष प्रकार की पूजा र्ें मनिावान्
व्यमक्त क्रर्शः ज्ञान की अवस्र्ा को प्राप्त होता है और शामन्त तर्ा सम्पन्नता की सवोच्च मसद्धावस्र्ा तक पहुचँ ता है ।
सोलहवें अध्याय र्ें यह मनष्ट्कषम मनकलता है मक जो शास्त्रों के मनयर्ों का पालन नहीं करता, वह असुर है और जो
मनिापूवमक इन मनयर्ों का पालन करता है, वह िेव है । अब यमि ऐसा मनिावान व्यमक्त हो, जो ऐसे कमतपय मनयर्ों का
पालन करता हो, मजनका शास्त्रों र्ें उल्लेख न हो, तो उसकी मस्र्मत क्या होगी? अजुमन के इस सन्िेह का स्पष्टीकरण
कृ ष्ट्ण द्वारा होना है । क्या वे लोग जो मकसी व्यमक्त को चनु कर उस पर मकसी भगवान् के रूप र्ें श्रद्धा मिखाते
हैं, सतो, रजो या तर्ोगुण र्ें पूजा करते हैं? क्या ऐसे व्यमक्तयों को जीवन की मसद्धावस्र्ा प्राप्त हो पाती है? क्या वे
वास्तमवक ज्ञान प्राप्त करके उच्चतर् मसद्ध अवस्र्ा को प्राप्त हो पाते हैं? जो लोग शास्त्रों के मवमध-मवधानों का पालन
नहीं करते, मकन्तु मजनकी मकसी पर श्रद्धा होती है और जो िेवी, िेवताओ ं तर्ा र्नुष्ट्यों की पजू ा करते हैं, क्या उन्हें
सिलता प्राप्त होती है ? अजुमन इन प्रश्नों को श्री कृ ष्ट्ण से पूछ रहा है ।

श्री भगवानुवाच ।
नत्रनवधा भवनत श्रद्धा देनहिां सा स्वभावजा ।
सानत्त्वकी राजसी चैव तामसी चेनत तां श्रृणु ।। २ ।।

श्री भगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; नत्र-नवधा - तीन प्रकार की; भवनत - होती है; श्रद्धा -
श्रद्धा; देनहिाम् - िेहधाररयों की; सा - वह;स्व-भाव-जा - प्रकृ मत के गणु के अनुसार; सानत्त्वकी -

४७०
सतोगुणी; राजसी - रजोगुणी; च - भी; एव - मनश्चय ही; तामसी - तर्ोगुणी; च - तर्ा; इनत - इस प्रकार; ताम् -
उसको; शृणु - र्झु से सुनो ।

भगवाि् िे कहा - देहधारी जीव द्वारा अनजमत गुणों के अिुसार उसकी श्रद्धा तीि प्रकार की हो सकती
है - सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी । अब इसके नवषय में मुझसे सुिों ।

तात्पयम : जो लोग शास्त्रों के मवमध-मवधानों को जानते हैं, लेमकन आलस्य या कायममवर्ख ु तावश इनका पालन
नहीं करते, वे प्रकृ मत के गुणों द्वारा शामसत होते हैं । वे अपने सतोगुणी, रजोगुणी या तर्ोगुणी पूवम कर्ों के अनुसार एक
मवशेष प्रकार का स्वभाव प्राप्त करते हैं । मवमभन्न गणु ों के सार् जीव की सगं मत शाश्र्वत चलती रही है । चँमू क जीव
प्रकृ मत के संसगम र्ें रहता है, अतएव वह प्रकृ मत के गुणों के अनुसार ही मवमभन्न प्रकार की र्नोवृमत्तयाँ अमजमत करता है ।
लेमकन यमि कोई प्रार्ामणक गुरु की संगमत करता है, तो उसकी यह र्नोवृमत्त बिल सकती है । वह क्रर्शः अपनी
मस्र्मत तर्ोगुण से सतोगुण या रजोगुण से सतोगुण र्ें पररवमतमत कर सकता है । कहने का तात्पयम यह है मक प्रकृ मत के
मकसी गुण मवशेष र्ें अंध मवश्र्वास करने से ही व्यमक्त मसमद्ध प्राप्त नहीं कर सकता । उसे प्रार्ामणक गुरु की सगं मत र्ें
रहकर बुमद्धपूवमक बातों पर मवचार करना होता है । तभी वह उच्चतर गुण की मस्र्मत को प्राप्त हो सकता है ।

सत्त्वािुरुपा सवमस्य श्रद्धा भवनत भारत ।


श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्रद्धः स एव सः ।। ३ ।।

सत्त्व-अिुरूपा - अमस्तत्व के अनुसार; सवमस्य - सबों की; श्रद्धा - श्रद्धा, मनिा; भवनत - हो जाती है; भारत -
हे भरतपत्रु ; श्रद्धा - श्रद्धा; मयः - से युक्त; अयम् - यह; परुु षः - जीवात्र्ा; यः - जो; यत् - मजसके होने से; श्रद्धः -
श्रद्धा; सः - इस प्रकार; एव - मनश्चय ही; सः - वह ।

हे भरतपुत्र! नवनभन्ि गुणों के अन्तगमत अपिे अपिे अनस्तत्व के अिुसार मिुष्ट्य एक नवशेष प्रकार की
श्रद्धा नवकनसत करता है । अपिे द्वारा अनजमत गुणों के अिुसार ही जीव को नवशेष श्रद्धा से यि ु कहा जाता
है ।

तात्पयम : प्रत्येक व्यमक्त र्ें चाहे वह जैसा भी हो, एक मवशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है । लेमकन उसके द्वारा
अमजमत स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा उत्तर् (सतोगुणी), राजस (रजोगुणी) अर्वा तार्सी कहलाती है । इस प्रकार
अपनी मवशेष प्रकार की श्रद्धा के अनुसार ही वह कमतपय लोगों से संगमत करता है । अब वास्तमवक तथ्य तो यह है
मक, जैसा पंद्रहवें अध्याय र्ें कहा गया है, प्रत्येक जीव परर्ेश्र्वर का अंश है, अतएव वह र्ूलतः इन सर्स्त गुणों से परे
होता है । लेमकन जब वह भगवान् के सार् अपने सम्बन्ध को भल ू जाता है और बद्ध जीवन र्ें भौमतक प्रकृ मत के ससं गम
र्ें आता है,तो वह मवमभन्न प्रकार की प्रकृ मत के सार् संगमत करके अपना स्र्ान बनाता है । इस प्रकार से प्राप्त कृ मत्रर्
श्रद्धा तर्ा अमस्तत्व र्ात्र भौमतक होते हैं । भले ही कोई मकसी धारणा या िेहात्र्बोध द्वारा प्रेररत हो, लेमकन र्ल
ू तः वह
मनगुमण या मिव्य होता है । अतएव भगवान् के सार् अपना सम्बन्ध मिर से प्राप्त करने के मलए उसे भौमतक कल्र्ष से
शद्धु होना पड़ता है । यही एकर्ात्र र्ागम है, मनभमय होकर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लौटने का । यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें

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मस्र्त हो, तो उसका मसमद्ध प्राप्त करने के मलए वह र्ागम प्रशस्त हो जाता है । यमि वह आत्र्-साक्षात्कार के इस पर् को
ग्रहण नहीं करता, तो वह मनमश्चत रूप से प्रकृ मत के गुणों के सार् बह जाता है ।
इस श्लोक र्ें श्रद्धा शब्ि अत्यन्त सार्मक है । श्रद्धा र्लू तः सतोगुण से उत्पन्न होती है । र्नुष्ट्य की श्रद्धा मकसी
िेवता, मकसी कृ मत्रर् ईश्र्वर या र्नोधर्म र्ें हो सकती है लेमकन प्रबल श्रद्धा सामत्त्वक कायों से उत्पन्न होती है । मकन्तु
भौमतक बद्ध जीवन र्ें कोई भी कायम पूणमतया शद्ध ु नहीं होता । वे सब मर्मश्रत होते हैं । वे शुद्ध सामत्त्वक नहीं होते । शद्ध

सत्त्व मिव्य होता है, शुद्ध सत्त्व र्ें रहकर र्नुष्ट्य भगवान् के वास्तमवक स्वभाव को सर्झ सकता है । जब तक श्रद्धा
पणू मतया सामत्त्वक नहीं होती, तब तक वह प्रकृ मत के मकसी भी गणु से िमू षत हो सकती है । प्रकृ मत के िमू षत गणु हृिय
तक िै ल जाते हैं, अतएव मकसी मवशेष गुण के सम्पकम र्ें रहकर हृिय मजस मस्र्मत र्ें होता है, उसी के अनुसार श्रद्धा
स्र्ामपत होती है । यह सर्झना चामहए मक यमि मकसी का हृिय सतोगणु र्ें मस्र्त है, तो उसकी श्रद्धा भी सतोगणु ी है ।
यमि हृिय रजोगुण र्ें मस्र्त है, तो उसकी श्रद्धा रजोगुणी है और यमि हृिय तर्ोगुण र्ें मस्र्त है तो उसकी श्रद्धा
तर्ोगुणी होती है । इअ प्रकार हर्ें संसार र्ें मवमभन्न प्रकार की श्रद्धाएँ मर्लती हैं और मवमभन्न प्रकार की श्रद्धाओ ं के
अनुसार मवमभन्न प्रकार के धर्म होते हैं । धामर्मक श्रद्धा का असली मसद्धान्त सतोगुण र्ें मस्र्त होता है । लेमकन चँमू क
हृिय कलुमषत रहता है, अतएव मवमभन्न प्रकार के धामर्मक मसद्धान्त पाये जाते हैं । श्रद्धा की मवमभन्नता के कारण ही
पूजा भी मभन्न-मभन्न प्रकार की होती है ।

यजन्ते सानत्त्वका देवान्यक्षरक्षांनस राजसाः ।


प्रेतान्भूतगणांश्र्चान्ये यजन्ते तामसा जिाः ।। ४ ।।

यजन्ते - पूजते हैं; सानत्त्वका - सतोगुण र्ें मस्र्त लोग; देवाि् - िेवताओ ं को; यक्ष-रक्षांनस- असुरगण
को; राजसाः - रजोगणु र्ें मस्र्त लोग; प्रेताि् - र्ृतकों की आत्र्ाओ ं को; भतू -गणाि् - भतू ों को; च - तर्ा; अन्ये -
अन्य; यजन्ते - पूजते हैं; तामसाः - तर्ोगुण र्ें मस्र्त; जिाः - लोग ।

सतोगुणी व्यनि देवताओ ं को पूजते हैं, रजोगुणी यक्षों व राक्षसों की पूजा करते हैं और तमो गुणी
व्यनि भूत-प्रेतों को पूजते हैं ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें भगवान् मवमभन्न बाह्य कर्ों के अनुसार पूजा करने वालों के प्रकार बता रहे हैं । शास्त्रों के
आिेशानुसार के वल भगवान् ही पूजनीय हैं । लेमकन जो शास्त्रों के आिेशों से अमभज्ञ नहीं, या उन पर श्रद्धा नहीं
रखते, वे अपनी गुण-मस्र्मत के अनुसार मवमभन्न वस्तुओ ं की पूजा करते हैं । जो लोग सतोगुणी हैं, वे सार्ान्यतया
िेवताओ ं की पूजा करते हैं । इन िेवताओ ं र्ें ब्रह्मा, मशव तर्ा अन्य िेवता, तर्ा इन्द्र, चन्द्र तर्ा सूयम समम्र्मलत हैं ।
िेवता कई हैं । सतोगुणी लोग मकसी मवशेष अमभप्राय से मकसी मवशेष िेवता की पूजा करते हैं । इसी प्रकार जो रजोगुणी
हैं, वे यक्ष-राक्षसों की पजू ा करते हैं । हर्ें स्र्रण है मक मद्वतीय मवश्र्व यद्ध
ु के सर्य कोलकत्ता का एक व्यमक्त महटलर की
पूजा करता र्ा, क्योंमक, भला हो उस युद्ध का,उसने उसर्ें काले धन्धे से प्रचरु धन संमचत कर मलया र्ा । इसी प्रकार
जो रजोगणु ी तर्ा तर्ोगणु ी होते हैं, वे सार्ान्यतया मकसी प्रबल र्नष्ट्ु य को ईश्र्वर के रूप र्ें चनु लेते हैं । वे सोचते हैं मक
कोई भी व्यमक्त ईश्र्वर की तरह पूजा जा सकता है और िल एकसा होगा ।

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यहाँ पर इसका स्पष्ट वणमन है मक रजोगुणी लोग ऐसे िेवताओ ं की सृमष्ट करके उन्हें पूजते हैं और जो तर्ोगुणी हैं -
अधं कार र्ें हैं - वे प्रेतों की पूजा करते हैं । कभी-कभी लोग मकसी र्ृत प्राणी की कब्र पर पूजा करते हैं । र्ैर्ुन सेवा भी
तर्ोगुणी र्ानी जाती है । इसी प्रकार भारत के सुिरू ग्रार्ों र्ें भतू ों की पूजा करने वाले हैं । हर्ने िेखा है मक भारत र्ें
मनम्नजामत के लोग कभी-कभी जंगल र्ें जाते हैं और यमि उन्हें इसका पता चलता है मक कोई भतू मकसी वृक्ष पर रहता
है, तो वे उस वृक्ष की पूजा करते हैं और बमल चढ़ाते हैं । ये पूजा के मवमभन्न प्रकार वास्तव र्ें ईश्र्वर-पूजा नहीं हैं । ईश्र्वर
पूजा तो सामत्त्वक पुरुषों के मलए हैं । श्रीमद्भागवत र्ें (४.३.२३) कहा गया है - सत्त्वां स्वशुद्धमां वसुर्ेव-शस्ब्द्र्तम्- जब
व्यमक्त सतोगणु ी होता है, तो वह वासिु ेव की पजू ा करता हैं । तात्पयम यह है मक जो लोग गणु ों से पणू मतया शद्ध ु हो चक ु े है
और मिव्य पि को प्राप्त हैं, वे ही भगवान् की पूजा कर सकते हैं ।
मनमवमशेषवािी सतोगणु र्ें मस्र्त र्ाने जाते हैं और वे पचं िेवताओ ं की पजू ा करते हैं । वे भौमतक जगत र्ें
मनराकार मवष्ट्णु को पूजते हैं, जो मसद्धान्तीकृ त मवष्ट्णु कहलाता है । मवष्ट्णु भगवान् के मवस्तार हैं, लेमकन मनमवमशेषवािी
अन्ततः भगवान् र्ें मवश्र्वास न करने के कारण सोचते हैं मक मवष्ट्णु का स्वरूप मनराकार ब्रह्म का िसू रा पक्ष है । इसी
प्रकार वे यह र्ानते हैं मक ब्रह्माजी रजोगुण के मनराकार रूप हैं । अतः वे कभी-कभी पाँच िेवताओ ं का वणमन करते
हैं, जो पूजय हैं । लेमकन चँमू क वे लोग मनराकार ब्रह्म को ही वास्तमवक सत्य र्ानते हैं, इसमलए वे अन्ततः सर्स्त पूजय
वस्तुओ ं को त्याग िेते हैं । मनष्ट्कषम यह मनकलता है मक प्रकृ मत के मवमभन्न गुणों को मिव्य प्रकृ मत वाले व्यमक्तयों की
संगमत से शुद्ध मकया जा सकता है ।

अशास्त्रनवनहतं घोरं तप्यन्ते ये तपो जिाः ।


दम्भाहंकारसंयुिाः कामरागबलानन्वताः ।। ५ ।।
कषमयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः ।
मां चैवान्तःशरीरस्थं तानन्वद्धयासरु निश्र्चयाि् ।। ६ ।।

अ-शास्त्र - जो शास्त्रों र्ें नहीं है; नवनहतम् - मनिेमशत; घोरम् - अन्यों के मलए हामनप्रि; तप्यन्ते - तप करते
हैं; ये - जो लोग; तपः - तपस्या;जिाः - लोग; दम्भ - घर्ण्ड; अहङ् कार - तर्ा अहक ं ार से; संयुिाः -
प्रवृत्त; काम - कार्; राग - तर्ा आसमक्त का; बल - बलपूवमक; आनन्वताः - प्रेररत; कषमयन्तः - कष्ट िेते हुए; शरीर-
स्थम् - शरीर के भीतर मस्र्त; भूत-ग्रामम् - भौमतक तत्त्वों का संयोग; अचेतसः - भ्रमर्त र्नोवृमत्त वाले; माम् -
र्झु को; च - भी; एव - मनश्चय ही; अन्तः - भीतर; शरीर-स्थम् - शरीर र्ें मस्र्त; ताि् - उनको; नवनद्ध -
जानो; आसुर-निश्र्चयाि् - आसुर ।

जो लोग दम्भ तथा अहंकार से अनभभूत होकर शास्त्रनवरुद्ध कठोर तपस्या और व्रत करते हैं, जो काम
तथा आसनि द्वारा प्रेररत होते हैं जो मूखम हैं तथा शरीर के भौनतक तत्त्वों को तथा शरीर के भीतर नस्थत
परमात्मा को कष्ट पहुूँचाते हैं, वे असरु कहे जाते हैं ।

तात्पयम : कुछ परुु ष ऐसे हैं जो ऐसी तपस्या की मवमधयों का मनर्ामण कर लेते हैं, मजनका वणमन शास्त्रों र्ें नहीं है ।
उिहरणार्म, मकसी स्वार्म के प्रयोजन से, यर्ा राजनीमतक कारणों से उपवास करना शास्त्रों र्ें वमणमत नहीं है । शास्त्रों र्ें
तो आध्यामत्र्क उन्नमत के मलए उपवास करने की सस्ं तुमत है, मकसी राजनीमतक या सार्ामजक उद्देश्य के मलए नहीं

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। भगवद्गीता के अनुसार जो लोग ऐसी तपस्याएँ करते हैं वे मनमश्चत रूप से आसुरी हैं । उनके कायम शास्त्र मवरुद्ध हैं और
सार्ान्य जनता के महत र्ें नहीं हैं । वास्तव र्ें वे लोग गवम, अहक ं ार, कार् तर्ा भौमतक भोग के प्रमत आसमक्त के कारण
ऐसा करते हैं । ऐसे कायों से न के वल शरीर के उन तत्त्वों को मवक्षोभ होता है मजनसे शरीर बना है, अमपतु शरीर के भीतर
मनवास कर रहे परर्ात्र्ा को भी कष्ट पहुँचता है । ऐसे अवैध उपवास से या मकसी राजनीमतक उद्देश्य से की गई तपस्या
आमि से मनश्चय ही अन्य लोगों की शामन्त भंग होती है । उनका उल्लेख वैमिक सामहत्य र्ें नहीं है । आसुरी व्यमक्त
सोचता है मक इस मवमध से वह अपने शत्रु या मवपमक्षयों को अपनी इच्छा पूरी करने के मलए बाध्य कर सकता
है, लेमकन कभी-कभी ऐसे उपवास से व्यमक्त की र्ृत्यु भी हो जाती है । ये कायम भगवान् द्वारा अनर्ु त नहीं हैं, वे कहते हैं
मक जो इन कायों र्ें प्रवृत्त होते हैं, वे असुर हैं । ऐसे प्रिशमन भगवान् के अपर्ान स्वरूप हैं, क्योंमक इन्हें वैमिक शास्त्रों के
आिेशों के उल्लघं न करके मकया जाता है । इस प्रसगं र्ें अचेतसः शब्ि र्हत्त्वपूणम है । सार्ान्य र्ानमसक मस्र्मत वाले
पुरुषों को शास्त्रों के आिेशों का पालन करना चामहए । जो ऐसी मस्र्मत र्ें नहीं हैं वे शास्त्रों की अपेक्षा तर्ा अवज्ञा करते
हैं और तपस्या की अपनी मवमध मनमर्मत कर लेते हैं । र्नुष्ट्य को सिैव आसुरी लोगों की चरर् पररणमत को स्र्रण करना
चामहए, जैसा मक मपछले अध्याय र्ें वणमन मकया गया है । भगवान् ऐसे लोगों को आसुरी व्यमक्तयों के यहाँ जन्र् लेने के
मलए बाध्य करते हैं । िलस्वरूप वे भगवान् के सार् अपने सम्बन्ध को जाने मबना जन्र् जन्र्ान्तर आसुरी जीवन र्ें
रहते हैं । मकन्तु यमि ऐसे व्यमक्त इतने भाग्यशाली हुए मक कोई गुरु उनका र्ागम िशमन करके उन्हें वैमिक ज्ञान के र्ागम पर
ले जा सके , तो वे इस भवबन्धन से छूट कर अन्ततोगत्वा परर्गमत को प्राप्त होते हैं ।

आहारस्त्वनप सवमस्य नत्रनवधो भवनत नप्रयः ।


यज्ञस्तपस्तथा दािं ते षां भेदनममं श्रृणु ।। ७ ।।

आहारः - भोजन; तु - मनश्चय ही; अनप - भी; सवमस्य - हर एक का; नत्र-नवधः - तीन प्रकार का; भवनत -
होता है; नप्रयः - प्यारा; यज्ञः - यज्ञ; तपः - तपस्या; तथा - और; दािम् - िान; तेषाम् - उनका; भेदम् -
अन्तर; इमम् - यह; शृणु - सनु ो ।

यहाूँ तक नक प्रत्येक व्यनि जो भोजि पसन्द करता है, वह भी प्रकृ नत के अिुसार तीि प्रकार का होता
है । यही बात यज्ञ, तपस्या तथा दाि के नलए भी सत्य है । अब उिके भेदों के नवषय में सुिो ।

तात्पयम : प्रकृ मत के मभन्न-मभन्न गुणों के अनुसार भोजन, यज्ञ, तपस्या और िान र्ें भेि होते हैं । वे सब एक से
नहीं होते । जो लोग यह सर्झ सकते हैं मक मकस गुण र्ें क्या क्या करना चामहए, वे वास्तव र्ें बुमद्धर्ान हैं । जो लोग
सभी प्रकार के यज्ञ, भोजन या िान को एकसा र्ानकर उनर्ें अन्तर नहीं कर पाते, वे अज्ञानी हैं । ऐसे भी प्रचारक लोग
हैं, जो यह कहते हैं मक र्नुष्ट्य जो चाहे वह कर सकता है और मसमद्ध प्राप्त कर सकता है । लेमकन ये र्ख ू म र्ागमिशमक
शास्त्रों के आिेशानुसार कायम नहीं करते । ये अपनी मवमधयाँ बनाते हैं और सार्ान्य जनता को भ्रान्त करते रहते हैं ।

आय:ु सत्त्वबलारोग्यसख ु प्रीनतनववधमिाः ।


रस्या नस्िग्धाः नस्थरा हृद्या आहाराः सानत्त्वकनप्रयाः ।। ८ ।।

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आयुः - जीवन काल; सत्त्व - अमस्तत्व; बल - बल; आरोग्य - स्वास्थ्य; सुख - सुख; प्रीनत - तर्ा
सतं ोष; नववधमिाः - बढ़ाते हुए; रस्याः - रस से युक्त; नस्िग्धाः - मचकना; नस्थराः - समहष्ट्ण;ु हृद्याः - हृिय को भाने
वाले; आहाराः - भोजन; सानत्त्वक - सतोगुणी; नप्रयाः - अच्छे लगने वाले ।

जो भोजि सानत्त्वक व्यनियों को नप्रय होता है, वह आयु बढािे वाला, जीवि को शुद्ध करिे वाला
तथा बल, स्वास्थ्य, सुख तथा तृनप्त प्रदाि करिे वाला होता है ।ऐसा भोजि रसमय, नस्िग्ध, स्वास्थ्यप्रद तथा
हृदय को भािे वाला होता है ।

कट्वम्ललवणात्यष्ट्ु णतीक्ष्णरुक्षनवदानहिः ।
आहारा राजसस्येष्टा दु:खशोकामयप्रदाः ।। ९ ।।

कटु - कडुवे, तीते; अम्ल - खट्टे; लवण - नर्कीन; अनत-उष्ट्ण - अत्यन्त गरर्; तीक्ष्ण - चटपटे;रुक्ष -
शष्ट्ु क; नवदानहिः - जलाने वाले; आहाराः - भोजन; राजसस्य - रजो गुणी के ; इष्टाः - रुमचकर; दुःख -
िख
ु ; शोक - शोक; आमय - रोग; प्रदाः - उत्पन्न करने वाले ।

अत्यनधक नति, खट्टे, िमकीि, गरम, चटपटे ,शुष्ट्क तथा जलि उत्पन्ि करिे वाले भोजि रजोगुणी
व्यनियों को नप्रय होते हैं । ऐसे भोजि दुख, शोक तथा रोग उत्पन्ि करिे वाले हैं ।

यातयामं गतरसं पूनत पयमनु षतं च यत् ।


उनच्छष्टमनप चामेध्यं भोजिं तामसनप्रयम् ।। १० ।।

यात-यामम् - भोजन करने से तीन घटं े पवू म पकाया गया; गत-रसम् - स्वािरमहत; पनू त -
िगु ांधयुक्त; पयमनु षतम् - मबगड़ा हुआ; च - भी; यत् - जो; उनच्छष्टम् - अन्यों का जूिन; अनप - भी; च -
तर्ा; अमेध्यम् - अस्पृश्य; भोजिम् - भोजन; तामस - तर्ोगुणी को; नप्रयम् - मप्रय ।

खािे से तीि घंटे पूवम पकाया गया, स्वादहीि, नवयोनजत एवं सडा, जूठा तथा अस्पृश्य वस्तुओ ं से युि
भोजि उि लोगों को नप्रय होता है,जो तामसी होते हैं ।

तात्पयम : आहार (भोजन) का उद्देश्य आयु को बढाना, र्मस्तष्ट्क को शद्ध ु करना तर्ा शरीर को शमक्त पहुचँ ाना
है । इसका यही एकर्ात्र उद्देश्य है । प्राचीन काल र्ें मवद्वान् पुरुष ऐसा भोजन चनु ते र्े, जो स्वास्थ्य तर्ा आयु को बढ़ाने
वाला हो, यर्ा िधू के व्यजं न, चीनी, चावल, गेह,ँ िल तर्ा तरकाररयाँ । ये भोजन सतोगणु ी व्यमक्तयों को अत्यन्त मप्रय
होते हैं । अन्य कुछ पिार्म, जैसे भनु ा र्क्का तर्ा गुड़ स्वयं रुमचकर न होते हुए भी िधू या अन्य पिार्ों के सार् मर्लने
पर स्वामिष्ट हो जाते हैं । तब वे सामत्वक हो जाते हैं । ये सारे भोजन स्वभाव से ही शद्ध ु हैं । ये र्ांस तर्ा र्मिरा जैसे
अस्पृश्य पिार्ों से सवमर्ा मभन्न हैं । आिवें श्लोक र्ें मजन मस्नग्ध (मचकने) पिार्ों का उल्लेख है, उनका पश-ु वध से
प्राप्त चबी से कोई नाता नहीं होता । यह पशु चबी (वसा) िग्ु ध के रूप र्ें उपलब्ध है, जो सर्स्त भोजनों र्ें परर्

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चर्त्कारी है । िग्ु ध, र्क्खन, पनीर तर्ा अन्य पिार्ों से जो पशु चबी मर्लती है, उससे मनिोष पशओ ु ं के र्ारे जाने का
प्रश्न नहीं उिता । यह के वल पाशमवक र्नोवृमत्त है,मजसके कारण पशवु ध चल रहा है । आवश्यक चबी प्राप्त करने की
सुसंस्कृ त मवमध िधू से है । पशु वध तो अर्ानवीय है । र्टर, िाल, िमलया आमि से प्रचरु र्ात्रा र्ें प्रोटीन उपलब्ध होता
है ।
जो राजस भोजन कटु, बहुत लवणीय या अत्यमधक गर्म, चरपरा होता है, वह आर्ाशय की श्ले ष्ट्र्ा को घटा कर
रोग उत्पन्न करता है । तार्सी भोजन अमनवामयतः वासी होता है ।खाने के तीन घंटे पूवम बना कोई भी भोजन ( भगवान्
को अमपमत प्रसािर्् को छोड़कर) तार्सी र्ाना जाता है । मबगड़ने के कारण उससे िगु ांध आती है, मजससे तार्सी लोग
प्रायः आकृ ष्ट होते हैं, मकन्तु सामत्त्वक पुरुष उससे र्ख ु र्ोड़ लेते हैं ।
उमच्छष्ट (जिू ा) भोजन उसी अवस्र्ा र्ें मकया जा सकता है, जब वह उस भोजन का एक अश ं हो जो भगवान्
को अमपमत मकया जा चक ु ा हो, या कोई साधपु ुरुष, मवशेष रूप से गुरु द्वारा,ग्रहण मकया जा चक ु ा हो । अन्यर्ा ऐसा जूिा
भोजन तार्सी होता है और वह सिं षू ण या रोग को बढ़ाने वाला होता है । यद्यमप ऐसा भोजन तार्सी लोगों को स्वामिष्ट
लगता है, लेमकन सतोगुणी उसे न तो छूना पसन्ि करते हैं, न खाना । सवोत्तर् भोजन तो भगवान् को सर्मपमत भोजन का
उमच्छष्ट है । भगवद्गीता र्ें परर्ेश्र्वर कहते है मक तरकाररयाँ, आटे या िधू की बनी वस्तुएँ भमक्तपूवमक भेंट मकये जाने पर
स्वीकार करते हैं । पत्रां पुष्पां फलां तोयम् । मनस्सन्िेह भमक्त तर्ा प्रेर् ही प्रर्ख
ु वस्तुएँ हैं, मजन्हें भगवान् स्वीकार करते हैं ।
लेमकन इसका भी उल्लेख है मक प्रसािर्् को एक मवशेष मवमध से बनाया जाय । कोई भी भोजन, जो शास्त्रीय ढंग से
तैयार मकया जाता है और भगवान् को अमपमत मकया जाता है, ग्रहण मकया जा सकता है, भले ही वह मकतने ही घंटे पूवम
तैयार हुआ हो, क्योंमक ऐसा भोजन मिव्य होता है । अतएव भोजन को रोगाणधु ारक, खाद्य तर्ा सभी र्नुष्ट्यों के मलए
रुमचकर बनाने के मलए सवम प्रर्र् भगवान् को अमपमत करना चामहए ।

अिलाकाङ् नक्षनभयमज्ञो नवनधनदष्टो य इजयते ।


यष्टव्यमेवेनत मिः समाधाय स सानत्वकः ।। ११ ।।

अिल-आकाङ् नक्षनभः - िल की इच्छा से रमहत; यज्ञः - यज्ञ; नवनध-नदष्टः - शास्त्रों के मनिेशानुसार;यः -


जो; इजयते - सम्पन्न मकया जाता है; यष्टव्यम् - सम्पन्न मकया जाना चामहए; एव - मनश्चय ही; इनत - इस
प्रकार;मिः - र्न र्ें; समाधाय - मस्र्र करके ; सः - वह; सानत्त्वकः - सतोगुणी ।

यज्ञों में वही यज्ञ सानत्त्वक होता है,जो शास्त्र के निदेशािुसार कतमव्य समझ कर उि लोगों के द्वारा
नकया जाता है, जो िल की इच्छा िहीं करते ।

तात्पयम : सार्ान्यतया यज्ञ मकसी प्रयोजन से मकया जाता है । लेमकन यहाँ पर यह बताया जाता है मक यज्ञ मबना
मकसी इच्छा के सम्पन्न मकया जाना चामहए । इसे कतमव्य सर्झ कर मकया जाना चामहए । उिाहरणार्म, र्मन्िरों या
मगरजाघरों र्ें र्नाये जाने वाले अनुिान सार्ान्यतया भौमतक लाभ को दृमष्ट र्ें रख कर मकये जाते हैं, लेमकन वह
सतोगणु र्ें नहीं है । र्नुष्ट्य को चामहए मक वह कतमव्य र्ानकर र्मन्िर या मगरजाघर र्ें जाए, भगवान् को नर्स्कार करे
और िूल और प्रसाि चढ़ाए । प्रत्येक व्यमक्त सोचता है मक ईश्र्वर की पूजा करने के मलए र्मन्िर जाना व्यर्म है । लेमकन
शास्त्रों र्ें आमर्मक लाभ के मलए पूजा करने का आिेश नहीं है । र्नुष्ट्य को चामहए मक के वल अचममवग्रह को नर्स्कार

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करने जाए । इससे र्नुष्ट्य सतोगुण को प्राप्त होगा । प्रत्येक सभ्य नागररक का कतमव्य है मक वह शास्त्रों के आिेशों का
पालन करे और भगवान् को नर्स्कार करे ।

अनभसन्धाय तु िलं दम्भाथममनप चैव यत् ।


इजयते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं नवनद्ध राजसम् ।। १२ ।।

अनभसन्धाय - इच्छा कर के ; तु - लेमकन; िलम् - िल को; दम्भ - घर्डं ; अथमम् - के मलए; अनप -
भी; च - तर्ा; एव - मनश्चय ही; यत् - जो; इजयते - मकया जाता है; भरत-श्रेष्ठ - हे भरतवंमशयों र्ें प्रर्ख
ु ; तम् -
उस; यज्ञम् - यज्ञ को; नवनद्ध - जानो; राजसम् - रजोगणु ी ।

लेनकि हे भरतश्रेष्ठ! जो यज्ञ नकसी भौनतक लाभ के नलए गवमवश नकया जाता है, उसे तुम राजसी
जािो ।

तात्पयम:कभी-कभी स्वगमलोक पहुचँ ने या मकसी भौमतक लाभ के मलए यज्ञ तर्ा अनुिान मकये जाते हैं । ऐसे यज्ञ
या अनिु ान राजसी र्ाने जाते हैं ।

नवनधहीिमसृष्टान्िं मन्त्रहीिमदनक्षणम् ।
श्रद्धानवरनहतं यज्ञं तामसं पररचक्षते ।। १३ ।।

नवनध-हीिम् - शास्त्रीय मनिेश के मबना; असृष्ट-अन्िम् - प्रसाि मवतरण मकये मबना; मन्त्र-हीिम् - वैमिक
र्न्त्रों का उच्चारण मकये मबना; अदनक्षणम् - पुरोमहतों को िमक्षणा मिये मबना; मन्त्र-हीिम् - वैमिक र्न्त्रों का उच्चारण
मकये मबना; उदनक्षणम् - परु ोमहतों को िमक्षणा मिये मबना; श्रद्धा - श्रद्धा; नवरनहतम् - मवहीन; यज्ञम् - यज्ञ
को; तामसम् - तार्सी; पररचक्षते - र्ाना जाता है ।

जो यज्ञ शास्त्र के निदेशों की अवहेलिा करके , प्रसाद नवतरण नकये नबिा, वैनदक मन्त्रों का उच्चारण
नकये नबिा, पुरोनहतों को दनक्षणा नदये नबिा तथा श्रद्धा के नबिा सम्पन्ि नकया जाता है, वह तामसी मािा
जाता है ।

तात्पयम: तर्ोगुण र्ें श्रद्धा वास्तव र्ें अश्रद्धा है । कभी-कभी लोग मकसी िेवता की पूजा धन अमजमत करने के
मलए करते हैं और मिर वे इस धन को शास्त्र के मनिेशों की अवहेलना करके र्नोरंजन र्ें व्यय करते हैं । ऐसे धामर्मक
अनिु ानों को सामत्त्वक नहीं र्ाना जाता । ये तार्सी होते हैं । इनसे तार्सी प्रवृमत्त उत्पन्न होती है और र्ानव सर्ाज को
कोई लाभ नहीं पहुचँ ता ।

देवनद्वजगुरुप्राज्ञपूजिं शौचमाजमवम् ।
ब्रह्मचयममनहस ं ा च शारीरं तप उच्यते ।। १४ ।।

४७७
देव - परर्ेश्र्वर; नद्वज - ब्राह्मण; गुरु - गुरु; प्राज्ञ - तर्ा पूजय व्यमक्तयों की; पूजिम् - पूजा; शौचम् -
पमवत्रता; आजमवम् - सरलता;ब्रह्मचयमम् - ब्रह्मचयम; अनहंसा - अमहंसा; च - भी; शारीरम् - शरीर सम्बन्धी; तपः -
तपस्या; उच्यते - कहा जाता है ।

परमेश्र्वर, ब्राह्मणों, गुरु, माता-नपता जैसे गुरुजिों की पूजा करिा तथा पनवत्रता, सरलता, ब्रह्मचयम
और अनहस
ं ा ही शारीररक तपस्या है ।

तात्पयम : यहाँ पर भगवान् तपस्या के भेि बताते हैं । सवमप्रर्र् वे शारीररक तपस्या का वणमन करते हैं । र्नष्ट्ु य को
चामहए मक वह ईश्र्वर या िेवों, योग्य ब्राह्मणों, गुरु तर्ा र्ाता-मपता जैसे गुरुजनों या वैमिक ज्ञान र्ें पारंगत व्यमक्त को
प्रणार् करे या प्रणार् करना सीखे । इन सबका सर्मु चत आिर करना चामहए । उसे चामहए मक आतं ररक तर्ा बाह्य रूप
र्ें अपने को शुद्ध करने का अभ्यास करे और आचरण र्ें सरल बनना सीखे । वह कोई ऐसा कायम न करे , जो शास्त्र-
सम्र्त न हो । वह वैवामहक जीवन के अमतररक्त र्ैर्ुन र्ें रत न हो, क्योंमक शास्त्रों र्ें के वल मववाह र्ें ही र्ैर्ुन की
अनुर्मत है, अन्यर्ा नहीं । यह ब्रह्मचयम कहलाता है । ये सब शारीररक तपस्याएँ हैं ।

अिद्वु ेगकरं वाक्यं सत्यं नप्रयनहतं च यत् ।


स्वाध्यायाभ्यसिं चैव वाङ्मयं तप उच्यते ।। १५ ।।

अिुद्वेग-करम् - क्षुब्ध न करने वाले; वाक्यम् - शब्ि; सत्यम् - सच्चे; नप्रय - मप्रय; नहतम् - लाभप्रि; च -
भी; यत् - जो; स्वाध्याय - वैमिक अध्यययन का; अभ्यसिम् - अभ्यास; च - भी; एव - मनश्चय ही; वाक् -मयम् -
वाणी की; तपः - तपस्या; उच्यते - कही जाती है ।

सच्चे, भािे वाले,नहतकर तथा अन्यों को क्षुब्ध ि करिे वाले वाक्य बोलिा और वैनदक सानहत्य का
नियनमत पारायण करिा - यही वाणी की तपस्या है ।

तात्पयम : र्नुष्ट्य को ऐसा नहींबोलना चामहए मक िसू रों के र्न क्षुब्ध हो जाएँ । मनस्सन्िेह जब मशक्षक बोले तो
वह अपने मवद्यामर्मयों को उपिेश िेने के मलए सत्य बोल सकता है, लेमकन उसी मशक्षक को चामहए मक यमि वह उनसे
बोले जो उसके मवद्यार्ी नहीं है, तो उसके र्न को क्षुब्ध करने वाला सत्य न बोले । यही वाणी की तपस्या है । इसके
अमतररक्त प्रलाप (व्यर्म की वाताम) नहीं करना चामहए । आध्यामत्र्क क्षेत्रों र्ें बोलने की मवमध यह है मक जो भी कहा
जाय वह शास्त्र-सम्र्त हो । उसे तुरन्त ही अपने कर्न की पुमष्ट के मलए शास्त्रों का प्रर्ाण िेना चामहए । इसके सार्-
सार् वह बात सुनने र्ें अमत मप्रय लगनी चामहए । ऐसी मववेचना से र्नष्ट्ु य की सवोच्च लाभ और र्ानव सर्ाज का
उत्र्ान हो सकता है । वैमिक सामहत्य का मवपुल भण्डार है और इसका अध्ययन मकया जाना चामहए । यही वाणी की
तपस्या कही जाती है ।

मिः प्रसादः सौम्यत्वं मौिमात्मनवनिग्रहः ।

४७८
भावसंश्रुनद्धररत्येतत्तपो मािसमुच्यते ।। १६ ।।

मिः-प्रसादः - र्न की तुमष्ट; सौम्यत्वम् - अन्यों के प्रमत कपट भाव से रमहत; मौिम् - गम्भीरता; आत्म -
अपना; नवनिग्रहः - मनयन्त्रण, संयर्; भाव - स्वभाव का;संशुनद्धः - शुमद्धकरण; इनत - इस प्रकार; एतत् -
यह; तपः - तपस्या; मािसम् - र्न की; उच्यते - कही जाती है ।

तथा सतं ोष, सरलता, गम्भीरता, आत्म-सयं म एवं जीवि की शनु द्ध - ये मि की तपस्याएूँ हैं ।

तात्पयम : र्न को सयं मर्त बनाने का अर्म है, उसे इमन्द्रयतृमप्त से मवलग करना । उसे इस तरह प्रमशमक्षत मकया
जाना चामहए मजससे वह सिैव परोपकार के मवषय र्ें सोचे । र्न के मलए सवोत्तर् प्रमशक्षण मवचारों की श्रेिता
है । र्नुष्ट्य को कृ ष्ट्णभावनार्ृत से मवचमलत नहीं होना चामहए और इमन्द्रयभोग से सिैव बचना चामहए । अपने स्वभाव
को शद्ध ु बनाना कृ ष्ट्णभावनाभामवत होना है । इमन्द्रयभोग के मवचारों से र्न को अलग रख करके ही र्न की तुमष्ट प्राप्त
की जा सकती है । हर् इमन्द्रयभोग के बारे र्ें मजतना सोचते हैं, उतना ही र्न अतृप्त होता जाता है । इस वतमर्ान युग र्ें
हर् र्न को व्यर्म ही अनेक प्रकार के इमन्द्रयतृमप्त के साधनों र्ें लगाये रखते हैं, मजससे र्न संतुष्ट नहीं हो पाता । अतएव
सवमश्रेि मवमध यही है मक र्न को वैमिक सामहत्य की ओर र्ोड़ा जाय, क्योंमक यह संतोष प्रिान करने वाली कहामनयों से
भरा है - यर्ा पुराण तर्ा र्हाभारत । कोई भी इस ज्ञान का लाभ उिा कर शुद्ध हो सकता है । र्न को छल-कपट से
र्क्त
ु होना चामहए और र्नुष्ट्य को सबके कल्याण (महत) के मवषय र्ें सोचना चामहए । र्ौन (गम्भीरता) का अर्म है मक
र्नुष्ट्य मनरन्तर आत्र्साक्षात्कार के मवषय र्ें सोचता रहे । कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त पूणम र्ौन इस दृमष्ट से धारण मकये
रहता है । मन-स्नग्रह का अर्म है - र्न को इमन्द्रयभोग से पृर्क् करना । र्नुष्ट्य को अपने व्यवहार र्ें मनष्ट्कपट होना
चामहए और इस तरह उसे अपने जीवन (भाव) को शद्ध ु बनाना चामहए । ये सब गणु र्न की तपस्या के अन्तगमत आते
हैं ।

श्रद्धया परया तप्तं तपस्तनत्त्रनवधं िरै: ।


अिलाकाङ् नक्षनभयमि ु ै : सानत्वकं पररचक्षते ।। १७ ।।

श्रद्धया - श्रद्धा सर्ेत; परया - मिव्य; तप्तम् - मकया गया; तपः - तप; तत् - वह; नत्र-नवधम् - तीन प्रकार
के ; िरैः -र्नुष्ट्यों द्वारा; अिल-आकाङ् नक्षनभः - िल की इच्छा न करने वाले; युिैः - प्रवृत्त; सानत्त्वकम् - सतोगुण
र्ें; पररचक्षते - कहा जाता है ।

भौनतक लाभ की इच्छा ि करिे वाले तथा के वल परमेश्र्वर में प्रवृत्त मिुष्ट्यों द्वारा नदव्य श्रद्धा से
सम्पन्ि यह तीि प्रकार की तपस्या सानत्त्वक तपस्या कहलाती है ।

सत्कारमािपज ू ाथं तपो दम्भेि चैव यत् ।


नक्रयते तनदह प्रोिं राजसं चलमध्रुवम् ।। १८ ।।

४७९
सत्-कार - आिर; माि - सम्र्ान; पूजा -तर्ा पूजा; अथमम् - के मलए; तपः - तपस्या; दम्भेि - घर्ंड से; च -
भी; एव - मनश्चय ही; यत् - जो; नक्रयते - मकया जाता है; तत् - वह; इह - इस संसार र्ें; प्रोिम् - कहा जाता
है; राजसम् - रजोगुणी; चलम् - चलायर्ान; अध्रुवम् - क्षमणक ।

जो तपस्या दंभपूवमक तथा सम्माि, सत्कार एवं पूजा करािे के नलए सम्पन्ि की जाती है, वह राजसी
(रजोगण
ु ी) कहलाती है । यह ि तो स्थायी होती है ि शाश्र्वत ।

तात्पयम:कभी-कभी तपस्या इसमलए की जाती है मक लोग आकमषमत हों तर्ा उनसे सत्कार, सम्र्ान तर्ा पूजा
मर्ल सके । रजोगणु ी लोग अपने अधीनस्र्ों से पजू ा करवाते हैं और उनसे चरण धल ु वाकर धन चढ़वाते हैं । तपस्या
करने के बहाने ऐसे कृ मत्रर् आयोजन राजसी र्ाने जाते हैं । इनके िल क्षमणक होते हैं, वे कुछ सर्य तक रहते हैं । वे
कभी स्र्ायी नहीं होते ।

मूढग्राहेणात्मिो यत्पीडया नक्रयते तपः ।


परस्योत्सादिाथं वा तत्तामसमुदाहृतम् ।। १९ ।।
मूढ - र्खु म; ग्राहेण - प्रयत्न से; आत्मिः - अपने ही; यत् - जो; पीडया - उत्पीड़न द्वारा;नक्रयते - की जाती
है; तपः - तपस्या; परस्य - अन्यों की; उत्सादि-अथमम् - मवनाश करने के मलए; वा - अर्वा; तत् - वह; तामसम् -
तर्ोगुणी; उदाहृतम् - कही जाती है ।

मूखमतावश आत्म-उत्पीडि के नलए या अन्यों को नविष्ट करिे या हानि पहुूँचािे के नलए जो तपस्या
की जाती है, वह तामसी कहलाती है ।

तात्पयम :र्ख
ू मतापणू म तपस्या के ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं, जैसे मक महरण्यकमशपु जैसे असरु ों ने अर्र बनने तर्ा
िेवताओ ं का वध करने के मलए कमिन तप मकए । उसने ब्रह्मा से ऐसी ही वस्तुएँ र्ाँगी र्ीं, लेमकन अन्त र्ें वह भगवान्
द्वारा र्ारा गया । मकसी असम्भव वस्तु के मलए तपस्या करना मनश्चय ही तार्सी तपस्या है ।

दातव्यनमनत यद्दािं दीयतेऽिुपकाररणे ।


देशे काले च पात्रे च तद्दािं सानत्वकं स्मृतम् ।। २० ।।

दातव्यम् - िेने योग्य; इनत - इस प्रकार; यत् - जो; दािम् - िान; दीयते - मिया जाता है; अिुपकाररणे -
प्रत्यपु कार की भावना के मबना; देशे - उमचत स्र्ान र्ें; काले - उमचत सर्य र्ें; च - भी;पात्रे - उपयुक्त व्यमक्त
को; च - तर्ा; तत् - वह; दािम् - िान; सनत्त्वकम् - सतोगणु ी, सामत्त्वक; स्मृतम् - र्ाना जाता है ।

जो दाि कतमव्य समझकर, नकसी प्रत्यपु कार की आशा के नबिा, समनु चत काल तथा स्थाि में और
योग्य व्यनि को नदया जाता है, वह सानत्त्वक मािा जाता है ।

४८०
तात्पयम : वैमिक सामहत्य र्ें ऐसे व्यमक्त को िान िेने की संस्तुमत है, जो आध्यामत्र्क कायों र्ें लगा हो ।
अमवचार पणू म ढंग से िान िेने की संस्तुमत नहीं है । आध्यामत्र्क मसमद्ध को सिैव ध्यान र्ें रखा जाता है । अतएव मकसी
तीर्म स्र्ान र्ें,सूयम या चन्द्रग्रहण के सर्य, र्ासान्त र्ें या योग्य ब्राह्मण अर्वा वैष्ट्णव (भक्त) को, या र्मन्िर र्ें िान िेने
की संस्तुमत है । बिले र्ें मकसी प्रकार की प्रामप्त की अमभलाषा न रखते हुए ऐसे िान मकये जाने चामहए । कभी-कभी
मनधमन को िान करुणा वश मिया जाता है । लेमकन यमि मनधमन िान िेने योग्य (पात्र) नहीं होता, तो उससे आध्यामत्र्क
प्रगमत नहीं होती । िसू रे शब्िों र्ें, वैमिक सामहत्य र्ें अमवचार पूणम िान की संस्तुमत नहीं है ।

यत्तु प्रत्युपकाराथं िलमुनद्दश्य वा पुिः ।


दीयते च पररनक्लष्टं तद्दािं राजसं स्मृतम् ।। २१ ।।

यत् - जो; तु - लेमकन; प्रनत-उपकार-अथमम् - बिले र्ें पाने के उद्देशय से; िलम् - िल को; उनद्दश्य - इच्छा
करके ; वा - अर्वा; पुिः - मिर; दीयते - मिया जाता है; च - भी; पररनक्लष्टम् - पश्चाताप के सार्; तत् -
उस; दािम् - िान को;राजसम् - रजोगुणी; स्मृतम् - र्ाना जाता है ।

नकन्तु जो दाि प्रत्युपकार की भाविा से या कमम िल की इच्छा से या अनिच्छापूवमक नकया जाता


है, वह रजोगुणी (राजस) कहलाता है ।

तात्पयम: िान कभी स्वगम जाने के मलए मिया जाता है, तो कभी अत्यन्त कष्ट से तर्ा कभी इस पश्चाताप के सार्
मक “र्ैंने इतना व्यय इस तरह क्यों मकया?” कभी-कभी अपने वररिजनों के िबाव र्ें आकर भी िान मिया जाता
है । ऐसे िान रजोगणु र्ें मिये गये र्ाने जाते हैं ।
ऐसे अनेक िातव्य न्यास हैं, जो उन संस्र्ाओ ं को िान िेते हैं, जहाँ इमन्द्रयभोग का बाजार गर्म रहता है । वैमिक
शास्त्र ऐसे िान की सस्ं तमु त नहीं करते । के वल सामत्त्वक िान की सस्ं तमु त की गई है ।

अदेशकाले यद्दािमपात्रेभ्यश्र्च दीयते ।


असत्कृ तमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ।। २२ ।।

अदेश - अशुद्ध स्र्ान; काले - तर्ा अशद्ध


ु सर्य र्ें; यत् - जो; दािम् - िान; अपात्रेभ्यः - अयोग्य व्यमक्तयों
को; च - भी; दीयते - मिया जाता है; असत्-कृ तम् - सम्र्ान के मबना; अवज्ञातम् - सर्ुमचत ध्यान मिये मबना; तत् -
वह; तामसम् - तर्ोगुणी; उदाहृताम् - कहा जाता है ।

तथा जो दाि नकसी अपनवत्र स्थाि में, अिनु चत समय में, नकसी अयोग्य व्यनि को या नबिा समनु चत
ध्याि तथा आदर से नदया जाता है, वह तामसी कहलाता है ।

४८१
तात्पयम : यहाँ पर र्द्यपान तर्ा द्यूतक्रीड़ा र्ें व्यसनी के मलए िान िेने को प्रोत्साहन नहीं मिया गया । ऐसा िान
तार्सी है । ऐसा िान लाभिायक नहीं होता, वरन् इससे पापी पुरुषों को प्रोत्साहन मर्लता है । इसी प्रकार, यमि मबना
सम्र्ान तर्ा ध्यान मिये मकसी उपयुक्त व्यमक्त को िान मिया जाय, तो वह भी तार्सी है ।

ॐ तत्सनदनत निदेशो ब्रह्मणनस्त्रनवधः स्मृतः ।


ब्राह्मणास्तेि वेदाश्र्च यज्ञाश्र्च नवनहताः पुरा ।। २३ ।।

ॐ - परर् का सूचक; तत् - वह; सत् - शाश्र्वत; इनत - इस प्रकार; निदेशः - संकेत; ब्राह्मणः - ब्रह्म का; नत्र-
नवधः - तीन प्रकार का; स्मृतः - र्ाना जाता है; ब्राह्मणाः - ब्राह्मण लोग; तेि - उससे; वेदाः - वैमिक सामहत्य; च -
भी; यज्ञाः - यज्ञ; च - भी; नवनहताः - प्रयुक्त; पुरा - आमिकाल र्ें ।

सृनष्ट के आनदकाल से ऊूँ तत् सत् ये तीि शब्द परब्रह्म को सूनचत करिे के नलए प्रयुि नकये जाते रहे
हैं । ये तीिों सांकेनतक अनभव्यनियाूँ ब्राह्मणों द्वारा वैनदक मंत्रों का उच्चारण करते समय तथा ब्रह्म को संतुष्ट
करिे के नलए यज्ञों के समय प्रयुि होती थीं ।

तात्पयम : यह बताया जा चक ु ा है मक तपस्या,यज्ञ,िान तर्ा भोजन के तीन-तीन भेि हैं-सामत्त्वक,राजस तर्ा


तार्स । लेमकन चाहे ये उत्तर् हों, र्ध्यर् हों या मनम्न हों, ये सभी बद्ध तर्ा भौमतक गुणों से कलुमषत हैं । मकन्तु जब ये
ब्रह्म-ॐ तत् सत् को लक्ष्य करके मकये जाते हैं तो आध्यामत्र्क उन्नमत के साधन बन जाते हैं । शास्त्रों र्ें ऐसे लक्ष्य का
संकेत हुआ है । ॐ तत् सत् ये तीन शब्ि मवशेष रूप र्ें परर् सत्य भगवान् के सूचक हैं । वैमिक र्न्त्रों र्ें ॐ शब्ि सिैव
रहता है ।
जो व्यमक्त शास्त्रों के मवधानों के अनुसार कर्म नहीं करता, उसे परब्रह्म की प्रामप्त नहीं होती । भले ही उसे क्षमणक
िल प्राप्त हो जाये, लेमकन उसे चरर्गमत प्राप्त नहीं हो पमत । तात्पयम यह है मक िान, यज्ञ तर्ा तप को सतोगणु र्ें रहकर
करना चामहए । रजो या तर्ोगुण र्ें सम्पन्न करने पर ये मनमश्चत रूप से मनम्न कोमट के होते हैं । ॐ तत् सत् शब्िों का
उच्चारण परर्ेश्र्वर के पमवत्र नार् के सार् मकया जाता है, उिाहरणार्म, ॐ तस्िष्णोः । जब भी मकसी वैमिक र्ंत्र का या
परर्ेश्र्वर का नार् मलया जाता है, तो उसके सार् ॐ जोड़ मिया जाता है । यह वैमिक सामहत्य का सूचक है । ये तीन
शब्ि वैमिक र्ंत्रों से मलए जाते हैं । ॐ इत्येतर्ब्र् ह्मणो नेस्र्ष्ठां नाम (ऋर्गवेर्) प्रर्र् लक्ष्य का सूचक है । मिर तत्
त्वमस्स (छान्र्ोर्गय उपस्नषर् ६.८.७) िसू रे लक्ष्य का सूचक है । तर्ा सर्् एव सौम्य(छान्र्ोर्गय उपस्नषर् ६.२.१) तृतीय
लक्ष्य का सूचक है । ये तीनों मर्लकर ॐ तत् सत् हो जाते हैं । आमिकाल र्ें जब प्रर्र् जीवात्र्ा ब्रह्मा ने यज्ञ मकये,तो
उन्होंने इन तीनों शब्िों के द्वारा भगवान् को लमक्षत मकया र्ा । अतएव गुरु-परम्परा द्वारा उसी मसद्धान्त का पालन मकया
जाता रहा है । अतः इस र्न्त्र का अत्यमधक र्हत्त्व है । अतएव भगवद्गीता के अनुसार कोई भी कायम ॐ तत् सत् के
मलए, अर्ामत् भगवान् के मलए, मकया जाना चामहए। जब कोई इन तीनों शब्िों के द्वारा तप, िान तर्ा यज्ञ सम्पन्न करता
है, तो वह कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करता है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत मिव्य कायों का वैज्ञामनक कायामन्वन है, मजससे र्नुष्ट्य
भगवद्धार् वापस जा सके । ऐसी मिव्य मवमध से कर्म करने र्ें शमक्त का क्षय नहीं होता ।

तस्माद् ॐ इत्युदाहृत्य यज्ञदाितपःनक्रयाः ।

४८२
प्रवतमन्ते नवधािोिाः सततं ब्रह्मवानदिाम् ।। २४ ।।

तस्मात् - अतएव; ॐ - ओर्् से प्रारम्भ करके ; इनत - इस प्रकार; उदाहृत्य - संकेत करके ; यज्ञ - यज्ञ; दाि -
िान; तपः - तर्ा तप की; नक्रयाः - मक्रयाएँ; प्रवतमन्ते - प्रारम्भ होती है; नवधाि-उिाः - शास्त्रीय मवधान के
अनुसार; सततम् - सिैव; ब्रह्म-वानदिाम् - अध्यात्र्वामियों या योमगयों की ।

अतएव योगीजि ब्रह्म की प्रानप्त के नलए शास्त्रीय नवनध के अिस


ु ार यज्ञ, दाि तथा तप की समस्त
नक्रयाओ ं का शुभारम्भ सदैव ओम् से करते हैं ।

तात्पयम: ॐ ति् मवष्ट्णोः परर्ं पिर्् (ऋर्गवेर् १.२२.२०) । मवष्ट्णु के चरण कर्ल परर् भमक्त के आश्रय हैं ।
भगवान् के मलए सम्पन्न हर एक मक्रया सारे कायम क्षेत्र की मसमद्ध मनमश्चत कर िेती है ।

तनदत्यिनभसन्धाय िलं यज्ञतपःनक्रयाः ।


दािनक्रयाश्र्च नवनवधाः नक्रयन्ते मोक्षकाङ् नक्षनभः ।। २५ ।।

तत् - वह; इनत - इस प्रकार; अिनभसन्धाय - मबना इच्छा मकये; िलम् - िल; यज्ञ - यज्ञ; तपः - तर्ा तप
की;नक्रयाः - मक्रयाएँ; दाि – िान की; च - भी; नवनवधाः - मवमभन्न; नक्रयन्ते - की जाती है; मोक्ष- काङ् नक्षनभः -
- र्ोक्ष चाहने वालों के द्वारा ।

मिष्ट्ु य को चानहए नक कममिल की इच्छा नकये नबिा नवनवध प्रकार के यज्ञ, तप तथा दाि
को ‘तत्’ शब्द कह कर सम्पन्ि करे । ऐसी नदव्य नक्रयाओक
ं ा उद्देश्य भव-बन्धि से मुि होिा है ।

तात्पयम : आध्यामत्र्क पि तक उिने के मलए र्नुष्ट्य को चामहए मक मकसी लाभ के मनमर्त्त कर्म न करे । सारे
कायम भगवान् के परर् धार् वापस जाने के उद्देश्य से मकये जायँ, जो चरर् उपलमब्ध है ।

सिावे साधुभावे च सनदत्येतत्प्रयुजयते ।


प्रशस्ते कममनण तथा सच्छब्दः पाथम युजयते ।। २६ ।।
यज्ञे तपनस दािे च नस्थनतः सनदनत चोच्यते ।
कमम चैव तदथीयं सानदत्येवानभधीयते ।। २७ ।।

सत्-भावे - ब्रह्म के स्वभाव के अर्म र्ें;साध-ु भावे - भक्त के स्वभाव के अर्म र्ें; च - भी; सत् - सत्
शब्ि; इनत - इस प्रकार; एतत् - यह; प्रयुजयते - प्रयुक्त मकया जाता है; प्रशस्ते - प्रार्ामणक; कमामनण - कर्ों
र्ें; तथा - भी; सत्-शब्दः - सत् शब्ि;पाथम - हे पृर्ापत्रु ; यजु यते - प्रयक्त
ु मकया जाता है; यज्ञे - यज्ञ र्ें; तपनस -
तपस्या र्ें; दािे - िान र्ें; च - भी; नस्थनतः - मस्र्मत; सत् - ब्रह्म; इनत - इस प्रकार; च - तर्ा; उच्यते - उच्चारण

४८३
मकया जाता है; कमम - कायम; च - भी; एव - मनश्चय ही; तत् - उस; अथीयम् - के मलए; सत् - ब्रह्म; इनत - इस
प्रकार; एव - मनश्चय ही; अनभधीयते - कहा जाता है ।

परम सत्य भनिमय यज्ञ का लक्ष्य है और उसे सत् शब्द से अनभनहत नकया जाता है । हे पृथापुत्र! ऐसे
यज्ञ का सम्पन्िकताम भी सत् कहलाता है नजस प्रकार यज्ञ, तप तथा दाि के सारे कमम भी जो परम पुरुष को
प्रसन्ि करिे के नलए सम्पन्ि नकये जाते हैं, 'सत्' हैं ।

तात्पयम :प्रशस्ते मादस्ण अर्ामत् “मनयत कतमव्य” सूमचत करते हैं मक वैमिक सामहत्य र्ें ऐसी कई मक्रयाएँ
मनधामररत हैं, जो गभामधान से लेकर र्ृत्यु तक सस्ं कार के रूप र्ें हैं । ऐसे सस्ं कार जीव की चरर् र्मु क्त के मलए होते हैं ।
ऐसी सारी मक्रयाओ ं के सर्य ॐ तत् सत् उच्चारण करने की संस्तुमत की जाती है । सद्भाव तर्ा साधभु ाव आध्यामत्र्क
मस्र्मत के सूचक हैं । कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करना सत् है और जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत के कायों के प्रमत सचेष्ट रहता
है, वह साधु कहलाता है । श्रीमद्भागवत र्ें (३.२८.२८) कहा गया है मक भक्तों की संगमत से आध्यामत्र्क मवषय स्पष्ट
हो जाता है । इसके मलए सताां प्रसङगात् शब्ि व्यवहृत हुए हैं । मबना सत्संग के मिव्य ज्ञान उपलब्ध नहीं हो पाता ।
मकसी को िीमक्षत करते सर्य या यज्ञोपवीत कराते सर्य ॐ तत् सत् शब्िों का उच्चारण मकया जाता है । इसी प्रकार
सभी प्रकार के यज्ञ करते सर्य ॐ तत् सत् या ब्रह्म ही चरर् लक्ष्य होता है । तर्थीयम् शब्ि ब्रह्म का प्रमतमनमधत्व करने
वाले मकसी भी कायम र्ें सेवा करने का सूचक है, मजसर्ें भगवान् के र्मन्िर र्ें भोजन पकाना तर्ा सहायता करने जैसी
सेवाएँ या भगवान् के यश का प्रसार करने वाला अन्य कोई भी कायम समम्र्लत है । इस तरह ॐ तत् सत् शब्ि सर्स्त
कायों को पूरा करने के मलए कई प्रकार से प्रयुक्त मकया जाता है ।

अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृ तं च यत् ।


असनदत्युच्यते पाथम ि च तत्प्रेप्य िो इह ।। २८ ।।

अश्रद्धया - श्रद्धारमहत; हुतम् - यज्ञ र्ें आहुमत मकया गया; दत्तम - प्रित्त; तपः - तपस्या; तप्तम् -
सम्पन्न; कृ तम् - मकया गया; च - भी; यत् - जो; असत् - झिू ा; इनत - इस प्रकार;उच्यते - कहा जाता है; पाथम - हे
पृर्ापुत्र;ि - कभी नहीं; च - भी; तत् - वह; प्रेत्य - र्र कर; ि उ - न तो; इह - इस जीवन र्ें ।

हे पाथम! श्रद्धा के नबिा यज्ञ,दाि या तप के रूप में जो भी नकया जाता है, वह िश्र्वर है । वह असत्
कहलाता है और इस जन्म तथा अगले जन्म - दोिों में ही व्यथम जाता है ।

तात्पयम : चाहे यज्ञ हो, िान हो या तप हो, मबना आध्यामत्र्क लक्ष्य के व्यर्म रहता है । अतएव इस श्लोक र्ें यह
घोमषत मकया गया है मक ऐसे कायम कुमत्सत हैं । प्रत्येक कायम कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर ब्रह्म के मलए मकया जाना
चामहए । सम्पूणम वैमिक सामहत्य र्ें भगवान् र्ें श्रद्धा की संस्तुमत की गई है । ऐसी श्रद्धा तर्ा सर्मु चत र्ागमिशमन के मबना
कोई िल नहीं मर्ल सकता । सर्स्त वैमिक आिेशों के पालन का चरर् लक्ष्य कृ ष्ट्ण को जानना है । इस मसद्धान्त का
पालन मकये मबना कोई सिल नहीं हो सकता । इसीमलए सवमश्रेिर्ागम यही है मक र्नुष्ट्य प्रारम्भ से ही मकसी प्रार्ामणक
गुरु के र्ागमिशमन र्ें कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कायम करे । सब प्रकार से सिल होने का यही र्ागम है ।

४८४
बद्ध अवस्र्ा र्ें लोग िेवताओ,ं भतू ों या कुबेर जैसे यक्षों की पूजा के प्रमत आकृ ष्ट होते हैं । यद्यमप सतोगुण
रजोगुण तर्ा तर्ोगुण से श्रेि है, लेमकन जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण करता है, वह प्रकृ मत के इन तीनों गुणों को
पार कर जाता है । यद्यमप क्रमर्क उन्नमत की मवमध है, मकन्तु शद्ध ु भक्तों की संगमत से यमि कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत ग्रहण
करता है, तो सवमश्रेि र्ागम है । इस अध्याय र्ें इसी की संस्तुमत की गई है । इस प्रकार से सिलता पाने के मलए उपयुक्त
गुरु प्राप्त करके उसके मनिेशन र्ें प्रमशक्षण प्राप्त करना चामहए । तभी ब्रह्म र्ें श्रद्धा हो सकती है । जब कालक्रर् से यह
श्रद्धा पररपक्व होती है, तो इसे इश्र्वरप्रेर् कहते हैं । यही प्रेर् सर्स्त जीवों का चरर् लक्ष्य है । अतएव र्नुष्ट्य को चामहए
मक सीधे कृ ष्ट्णभावनार्ृत ग्रहण करे । इस सत्रहवें अध्याय का यही सिं ेश है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े सत्रहवें अध्याय “श्रद्धा े स्वभाग” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पणू द हुआ ।

४८५
अध्याय अठारह
उपसंहार - संन्यास की नसनद्ध
अजुमन उवाच ।
सन्न्यासस्य महाबाहो तत्त्वनमच्छानम वेनदतुम् ।
त्यागस्य च हृषीके श पृथक्के नशनिषूदि ।। १ ।।

अजमिु ः उवाच - अजुमन ने कहा; संन्यासस्य - संन्यास (त्याग) का; महाबाहो - हे बलशाली भजु ाओ ं
वाले; तत्त्वम् - सत्य को; इच्छानम - चाहता ह;ँ वेनदतुम - जानना; त्यागस्य - त्याग (संन्यास) का; च -
भी; हृषीके श - हे इमन्द्रयों के स्वार्ी; पृथक् - मभन्न रूप से; के नश-निषदू ि - हे के शी असरु के सहं ताम ।

अजमिु िे कहा - हे महाबाहु! मैं त्याग का उद्देश्य जाििे का इच्छुक हूँ और हे के नशनिषदू ि, हे हृनषके श!
मैं त्यागमय जीवि (संन्यास आश्रम) का भी उद्देश्य जाििा चाहता हूँ ।

तात्पयम : वास्तव र्ें भगवद्गीता सत्रह अध्यायों र्ें ही सर्ाप्त हो जाती है । अिारहवाँ अध्याय तो पूवममववेमचत
मवषयों का पूरक संक्षेप है । प्रत्येक अध्याय र्ें भगवान् बल िेकर कहते हैं मक भगवान् की सेवा ही जीवन का चरर्
लक्ष्य है । इसी मवषय को इस अिारहवें अध्याय र्ें ज्ञान के परर् गुह्य र्ागम के रूप र्ें संक्षेप र्ें बताया गया है । प्रर्र् छह
अध्यायों र्ें भमक्तयोग पर बल मिया गया - योस्गनामस्प सवेषाम्...-”सर्स्त योमगयों र्ें से जो योगी अपने अन्तर र्ें सिैव
र्ेरा मचन्तन करता है, वह सवमश्रेि है ।” अगले छह अध्यायों र्ें शद्ध ु भमक्त, उसकी प्रकृ मत तर्ा कायों का मववेचन है ।
अन्त के छह अध्यायों र्ें ज्ञान, वैराग्य अपरा तर्ा परा प्रकृ मत के कायों और भमक्त का वणमन है । मनष्ट्कषम रूप र्ें यह कहा
गया है मक सारे कायों को परर्ेश्र्वर से यक्त ु होना चामहए , जो ॐ तत् सत् शब्िों से प्रकट होता है और ये शब्ि परर्
पुरुष मवष्ट्णु के सूचक हैं । भगवद्गीता के तृतीय खण्ड से यही प्रकट होता है मक भमक्त ही एकर्ात्र जीवन का चरर् लक्ष्य
है । पवू मवती आचायों तर्ा ब्रह्मसत्रू या वेिान्त-सत्रू का उद्धरण िेकर इसकी स्र्ापना की गई है । कुछ मनमवमशेषवािी
वेिान्त सूत्र के ज्ञान पर अपना एकामधकार जनाते हैं, लेमकन वास्तव र्ें वेिान्त सूत्र भमक्त को सर्झने के मलए हैं, क्योंमक
ब्रह्मसत्रू के रमचयता (प्रणेता) साक्षात् भगवान् हैं और वे ही इसके ज्ञाता हैं । इसका वणमन पन्द्रहवें अध्याय र्ें हुआ है ।
प्रत्येक शास्त्र, प्रत्येक वेि का लक्ष्य भमक्त है । भगवद्गीता र्ें इसी की व्याख्या है ।
मजस प्रकार मद्वतीय अध्याय र्ें सम्पूणम मवषयवस्तु की प्रस्तावना (सार) का वणमन है , उसी प्रकार अिारहवें
अध्याय र्ें सारे उपिेश का सारांश मिया गया है । इसर्ें त्याग (वैराग्य) तर्ा मत्रगुणातीत मिव्य पर् की प्रामप्त को ही
जीवन का लक्ष्य बताया गया है । अजुमन भगवद्गीता के िो मवषयों का स्पष्ट अन्तर जानने का इच्छुक है-ये हैं, त्याग तर्ा
संन्यास । अतएव वह इन िोनों शब्िों के अर्म की मजज्ञासा कर रहा है ।

४८६
इस श्लोक र्ें परर्ेश्र्वर कोसम्बोमधत करने के मलए प्रयुक्त हृषी े श तर्ा े स्शस्नषूर्न - ये िो शब्ि र्हत्त्वपूणम हैं ।
हृषीके श कृ ष्ट्ण हैं, सर्स्त इमन्द्रयों के स्वार्ी, जो हर्ें र्ानमसक शामन्त प्राप्त करने र्ें सहायक बनते हैं । अजुमन उनसे
प्रार्मना करता है मक वे सभी बातों को इस तरह संमक्षप्त कर िें, मजससे वह सर्भाव र्ें मस्र्र रहे । मिर भी उसके र्न र्ें
कुछ संशय हैं और ये संशय असुरों के सर्ान होते हैं । अतएव वह कृ ष्ट्ण को के मश-मनषिू न कहकर सम्बोमधत करता है ।
के शी अत्यन्त िजु ेय असुर र्ा, मजसका वध कृ ष्ट्ण ने मकया र्ा । अब अजुमन चाहता है मक वे उसके संशय रूपी असुर
का वध करें ।

श्रीभगवानवु ाच ।
काम्यािां कममणां न्यासं सन्ं यासं कवयो नवदु: ।
सवमकममिलत्यागं प्राहुस्त्यागं नवचक्षणाः ।। २ ।।

श्रीभगवाि् उवाच - भगवान् ने कहा; काम्यािाम् - काम्य कर्ों का; कमम णाम् - कर्ों का; न्यासम् -
त्याग; संन्यासम् - संन्यास; कवयः - मवद्वान जन; नवदुः - जानते हैं; सवम - सर्स्त; कमम - कर्ों का; िल -
िल; त्यागम्– त्याग को;प्राहुः– कहते हैं;त्यागम्– त्याग; नवचक्षणाः - अनुभवी ।

भगवाि् िे कहा-भौनतक इच्छा पर आधाररत कमों के पररत्याग को नवद्वाि लोग संन्यास कहते हैं और
समस्त कमों के िल-त्याग को बुनद्धमाि लोग त्याग कहते हैं ।

तात्पयम : कर्मिल की आकांक्षा से मकये गये कर्म का त्याग करना चामहए । यही भगवद्गीता का उपिेश है ।
लेमकन मजन कर्ों से उच्च आध्यामत्र्क ज्ञान प्राप्त हो, उनका पररत्याग नहीं करना चामहए । अगले श्लोकों से यह स्पष्ट
हो जायगा । वैमिक सामहत्य र्ें मकसी मवशेष उद्देश्य से यज्ञ सम्पन्न करने की अनेक मवमधयों का उल्लेख है । कुछ यज्ञ
ऐसे हैं, जो अच्छी सन्तान प्राप्त करने के मलए या स्वगम की प्रामप्त के मलए मकये जाते हैं, लेमकन जो यज्ञ इच्छाओ ं के
वशीभतू हों, उनको बन्ि करना चामहए । परन्तु आध्यामत्र्क ज्ञान र्ें उन्नमत या हृिय की शमु द्ध के मलए मकये जाने वाले
यज्ञों का पररत्याग करना उमचत नहीं है ।

त्याजयं दोषवनदत्येके कमम प्राहुममिीनषणः ।


यज्ञदाितपःकमम ि त्याजयनमनत चापरे ।। ३ ।।

त्याजयम् - त्याजनीय; दोष-वत् - िोष के सर्ान; इनत - इस प्रकार; एके - एक सर्हू के ; कमम - कर्म; प्राहुः -
कहते हैं; मिीनषणः - र्हान मचन्तक; यज्ञ - यज्ञ; दाि - िान; तपः - तर्ा तपस्या का; कमम - कर्म; ि - कभी
नहीं; त्याजयम् - त्यागने चामहए; इनत - इस प्रकार; च - तर्ा; अपरे - अन्य ।

कुछ नवद्वाि घोनषत करते हैं नक समस्त प्रकार के सकाम कमों को दोषपण ू म समझ कर त्याग देिा
चानहए । नकन्तु अन्य नवद्वाि् मािते हैं नक यज्ञ, दाि तथा तपस्या के कमों को कभी िहीं त्यागिा चानहए ।

४८७
तात्पयम : वैमिक सामहत्य र्ें ऐसे अनेक कर्म हैं मजनके मवषय र्ें र्तभेि है । उिाहरणार्म, यह कहा जाता है मक
यज्ञ र्ें पशु र्ारा जा सकता है, मिर भी कुछ का र्त है मक पशहु त्या पूणमतया मनमषद्ध है । यद्यमप वैमिक सामहत्य र्ें पश-ु
वध की संस्तुमत हुई है, लेमकन पशु को र्ारा गया नहीं र्ाना जाता । वह बमल पशु को नवीन जीवन प्रिान करने के मलए
होती है । कभी-कभी यज्ञ र्ें र्ारे गये पशु को नवीन पश-ु जीवन प्राप्त होता है, तो कभी वह पशु तत्क्षण र्नुष्ट्य योमन को
प्राप्त हो जाता है । लेमकन इस सम्बन्ध र्ें र्नीमषयों र्ें र्तभेि हैं । कुछ का कहना है मक पशहु त्या नहीं की जानी चामहए
और कुछ कहते हैं मक मवशेष यज्ञ (बमल) के मलए यह शभु है । अब यज्ञ-कर्म मवषयक मवमभन्न र्तों का स्पष्टीकरण
भगवान् स्वयं कर रहे हैं ।

निश्र्चयं श्रृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम ।


त्यागो नह पुरुषव्याघ्र नत्रनवधः सम्प्रकीनतमतः ।। ४ ।।

निश्र्चयम् - मनश्र्चय को; शृणु - सुनो;मे - र्ेरे; तत्र - वहाँ; त्यागे - त्याग के मवषय र्ें; भरत-सत्-तम - हे
भरतश्रेि; त्यागः - त्याग; नह - मनश्चय ही; पुरुष-व्याघ्र - हे र्नुष्ट्यों र्ें बाघ; नत्र-नवधः - तीन प्रकार
का; सम्प्रकीनतमतः - घोमषत मकया जाता है ।

हे भरतश्रेष्ठ! अब त्याग के नवषय में मेरा निणमय सुिो । हे िरशादूमल! शास्त्रों में त्याग तीि तरह का
बताया गया है ।

तात्पयम: यद्यमप त्याग के मवषय र्ें मवमभन्न प्रकार के र्त हैं, लेमकन परर् पुरुष श्रीकृ ष्ट्ण अपना मनणमय िे रहे
हैं, मजसे अमन्तर् र्ाना जाना चामहए । मनस्सन्िेह, सारे वेि भगवान् द्वारा प्रित्त मवमभन्न मवधान (मनयर्) हैं । यहाँ पर
भगवान् साक्षात् उपमस्र्त हैं, अतएव उनके वचनों को अमन्तर् र्ान लेना चामहए । भगवान् कहते हैं मक भौमतक प्रकृ मत
के तीन गणु ों र्ें से मजस गणु र्ें त्याग मकया जाता है, उसी के अनुसार त्याग का प्रकार सर्झना चामहए ।

यज्ञदाितपःकमम ि त्याजयं कायममेव तत् ।


यज्ञो दािं तपश्र्चैव पाविानि मिीनषणाम् ।। ५ ।।

यज्ञ - यज्ञ; दाि - िान;तपः - तर्ा तप का;कमम - कर्म;ि - कभी नहीं; त्याजयम् - त्यागने के योग्य; कायमम् -
करना चामहए; एव - मनश्चय ही; तत् - उसे; यज्ञः - यज्ञ; दािम् - िान; तपः - तप; च - भी; एव - मनश्चय
ही; पाविानि - शद्ध ु करने वाले; मिीनषणाम् - र्हात्र्ाओ ं के मलए भी ।

यज्ञ, दाि तथा तपस्या के कमों का कभी पररत्याग िहीं करिा चानहए, उन्हें अवश्य सम्पन्ि करिा
चानहए । निस्सन्देह यज्ञ, दाि तथा तपस्या महात्माओ ं को भी शुद्ध बिाते हैं ।

तात्पयम : योगी को चामहए मक र्ानव सर्ाज की उन्नमत के मलए कर्म करे । र्नुष्ट्य को आध्यामत्र्क जीवन तक
ऊपर उिाने के मलए अनेक सस्ं कार (पमवत्र कर्म) हैं । उिाहरणार्म, मववाहोत्सव एक यज्ञ र्ाना जाता है । यह मववाह-यज्ञ

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कहलाता है । क्या एक संन्यासी, मजसने अपना पाररवाररक सम्बन्ध त्याग कर संन्यास ग्रहण कर मलया है, मववाहोत्सव
को प्रोत्साहन िे? भगवान् कहते हैं मक कोई भी यज्ञ जो र्ानव कल्याण के मलए हो, उसका कभी भी पररत्याग न करे ।
मववाह-यज्ञ र्ानव र्न को संयमर्त करने के मलए है, मजससे आध्यामत्र्क प्रामप्त के मलए वह शान्त बन सके । संन्यासी
को भी चामहए मक इस मववाह-यज्ञ की संस्तुमत अमधकांश र्नुष्ट्यों के मलए करे । संन्यामसयों को चामहए मक मस्त्रयों का
संग न करें , लेमकन इसका अर्म यह नहीं है मक जो व्यमक्त अभी जीवन की मनम्न अवस्र्ाओ ं र्ें है, अर्ामत् जो तरुण
है, वह मववाह-यज्ञ र्ें पत्नी न स्वीकार करे । सारे यज्ञ परर्ेश्र्वर की प्रामप्त के मलए हैं । अतएव मनम्नतर अवस्र्ाओ ं र्ें
यज्ञों का पररत्याग नहीं करना चामहए । इसी प्रकार िान हृिय की शमु द्ध (सस्ं कार) के मलए है । यमि िान सपु ात्र को मिया
जाता है, तो इससे आध्यामत्र्क जीवन र्ें प्रगमत होती है, जैसा मक पहले वणमन मकया जा चक ु ा है ।

एतान्यनप तु कमामनण सङ् गं त्यक्त्वा िलानि च ।


कतमव्यािीनत मे पाथम निनश्र्चतं मतमुत्तमम् ।। ६ ।।

एतानि - ये सब; अनप - मनश्चय ही; तु - लेमकन; कमामनण - कायम; सङ् गम - संगमत को; त्यक्त्वा -
त्यागकर; िलानि - िलों को; च - भी; कतमव्यानि - कतमव्य सर्झ कर करने चामहए; इनत - इस प्रकार; मे -
र्ेरा; पाथम - हे पृर्ापुत्र; निनश्र्चतम् - मनमश्चत; मतम् - र्त; उत्तमम् - श्रेि ।

इि सारे कायों को नकसी प्रकार की आसनि या िल की आशा के नबिा सम्पन्ि करिा चानहए । हे
पृथापुत्र! इन्हें कतमव्य मािकर सम्पन्ि नकया जािा चानहए । यही मेरा अनन्तम मत है ।

तात्पयम : यद्यमप सारे यज्ञ शद्धु करने वाले हैं, लेमकन र्नष्ट्ु य को ऐसे कायों से मकसी िल की इच्छा नहीं करनी
चामहए । िसू रे शब्िों र्ें, जीवन र्ें जीतने सारे यज्ञ भौमतक उन्नमत के मलए हैं, उनका पररत्याग करना चामहए । लेमकन
मजन यज्ञों से र्नष्ट्ु य का अमस्तत्व शद्ध
ु हो और जो आध्यामत्र्क स्तर तक उिाने वाले हों, उनको कभी बन्ि नहीं करना
चामहए । मजस मकसी वस्तु से कृ ष्ट्णभावनार्ृत तक पहुचँ ा जा सके , उनको कभी भी बन्ि नहीं करना चामहए
। श्रीमद्भागवत र्ें भी कहा गया है मक मजस कायम से भगवद्भमक्त का लाभ हो, उसे स्वीकार करना चामहए । यही धर्म की
सवोच्च कसौटी है । भगवद्भक्त को ऐसे मकसी भी कर्म, यज्ञ या िान को स्वीकार करना चामहए, जो भगवद्भमक्त करने र्ें
सहायक हो ।

नियतस्य तु संन्यासः कममणो िोपपद्यते ।


मोहात्तस्य पररत्यागस्तामसः पररकीनतमतः ।। ७ ।।

नियतस्य - मनयत, मनमिमष्ट (कायम) का; तु - लेमकन; सन्ं यासः - सन्ं यास, त्याग; कममणः - कर्ों का;ि - कभी
नहीं; उपपद्यते - योग्य होता है; मोहात् - र्ोहवश; तस्य - उसका; पररत्यागः - त्याग िेना; तामसः - तर्ो
गणु ी; पररकीनतमतः -घोमषत मकया जाता है ।

४८९
निनदमष्ट कतमव्यों को कभी िहीं त्यागिा चानहए । यनद कोई मोहवश अपिे नियत कमों का पररत्याग
कर देता है, तो ऐसे त्याग को तामसी कहा जाता है ।

तात्पयम : जो कायम भौमतक तुमष्ट के मलए मकया जाता है, उसे अवश्य ही त्याग िे, लेमकन मजन कायों से
आध्यामत्र्क उन्नमत हो, यर्ा भगवान् के मलए भोजन बनाना, भगवान् को भोग अमपमत करना, मिर प्रसाि ग्रहण
करना, उसकी संस्तुमत की जाती है । कहा जाता है मक संन्यासी को अपने मलए भोजन नहीं बनाना चामहए । लेमकन
अपने मलए भोजन पकाना भले ही वमजमत हो, परर्ेश्र्वर के मलए भोजन पकाना वमजमत नहीं है । इसी प्रकार अपने मशष्ट्य
की कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें प्रगमत करने र्ें सहायक बनने के मलए संन्यासी मववाह-यज्ञ सम्पन्न करा सकता है । यमि कोई ऐसे
कायों का पररत्याग कर िेता है, तो यह सर्झना चामहए मक वह तर्ोगणु के अधीन है ।

दु:खनमत्येव यत्कमम कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।


स कृ त्वा राजसं त्यागं िैव त्यागिलं लभेत् ।। ८ ।।

दुःखम् - िख
ु ी; इनत - इस प्रकार; एव - मनश्चय ही; यत् - जो; कमम - कायम; काय - शरीर के मलए; क्लेश -
कष्ट के ;भयात् - भय से; त्यजेत् - त्याग िेता है; सः - वह; कृ त्वा - करके ;राजसम् - रजोगुण र्ें; त्यागम् - त्याग; ि -
नहीं; एव – मनश्चय ही;त्याग– त्याग;िलम् - िल को; लभेत् - प्राप्त करता है ।

जो व्यनि नियत कमों को कष्टप्रद समझ कर या शारीररक क्लेश के भय से त्याग देता है, उसके नलए
कहा जाता है नक उसिे यह त्याग रजो गुण में नकया है । ऐसा करिे से कभी त्याग का उच्च िल प्राप्त िहीं
होता ।

तात्पयम : जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत को प्राप्त होता है, उसे इस भय से अर्ोपाजमन बन्ि नहीं करना चामहए मक
वह सकार् कर्म कर रहा है । यमि कोई कायम करके कर्ाये धन को कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें लगाता है, या यमि कोई
प्रातःकाल जल्िी उिकर मिव्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत को अग्रसर करता है, तो उसे चामहए मक वह डर कर या यह सोचकर मक
ऐसे कायम कष्टप्रि हैं, उन्हें त्यागे नहीं । ऐसा त्याग राजसी होता है । राजसी कर्म का िल सिैव िखु ि होता है । यमि कोई
व्यमक्त इस भाव से कर्म त्याग करता है, तो उसे त्याग का िल कभी नहीं मर्ल पाता ।

कायमनमत्येव यत्कमम नियतं नक्रयतेऽजमुि ।


सङ् गं त्यक्त्वा िलं चैव स त्यागः सानत्त्वको मतः ।। ९ ।।

कायमम् - करणीय; इनत - इस प्रकार; एव - मनस्सन्िेह; यत् - जो; कमम - कर्म; नियतम् - मनमिमष्ट; नक्रयते -
मकया जाता है; अजमिु - हे अजुमन; सङगम् - संगमत, संग; त्यक्त्वा - त्याग कर; िलम् - िल; च - भी; एव - मनश्चय
ही; सः - वह; त्यागः - त्याग; सानत्त्वकः - सामत्त्वक, सतोगणु ी; मतः - र्ेरे र्त से ।

४९०
हे अजमिु ! जब मिुष्ट्य नियत कतमव्य को करणीय माि कर करता है और समस्त भौनतक संगनत तथा
िल की आसनि को त्याग देता है, तो उसका त्याग सानत्त्वक कहलाता है ।

तात्पयम : मनयत कर्म इसी र्नोभाव से मकया जाना चामहए । र्नुष्ट्य को िल के प्रमत अनासक्त होकर कर्म करना
चामहए, उसे कर्म के गुणों से मवलग हो जाना चामहए । जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर कारखाने र्ें कायम करता
है, वह न तो कारखाने के कायों से अपने को जोड़ता है, न ही कारखाने के श्रमर्कों से । वह तो र्ात्र कृ ष्ट्ण के मलए कायम
करता है । और जब वह इसका िल कृ ष्ट्ण को अपमण कर िेता है, तो वह मिव्य स्तर पर कायम करता है ।

ि द्वेष्टयकुशलं कमम कुशले िािषु जजते ।


त्यागी सत्त्वसमानवष्टो मेधावी नछन्िसश
ं यः ।। १० ।।

ि - नहीं; द्वेनष्ट - घृणा करता है; अकुशलम् - अशभु ; कमम - कर्म; कुशले - शुभ र्ें; ि - न तो; अिुषजजते -
आसक्त होता है; त्यागी - त्यागी; सत्त्व - सतोगुण र्ें; समनवष्टः - लीन; मेधावी- बुमद्धर्ान; नछन्ि - मछन्न
हुए; संशयः - सर्स्त संशय या संिेह ।

सतोगुण में नस्थत बुनद्धमाि त्यागी, जो ि तो अशुभ कायम से घृणा करता है, ि शुभकमम से नलप्त होता
है, वह कमम के नवषय में कोई संशय िहीं रखता ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त न तो मकसी व्यमक्त से घृणा करता है, न अपने शरीर को कष्ट िेने वाली
मकसी बात से । वह उपयक्त ु स्र्ान पर तर्ा उमचत सर्य पर, मबना डरे , अपना कतमव्य करता है । ऐसे व्यमक्त को, जो
अध्यात्र् को प्राप्त है,सवाममधक बुमद्धर्ान तर्ा अपने कर्ों र्ें संशय रमहत र्ानना चामहए ।

ि नह देहभृता शक्यं त्यिुं कमामण्यशेषतः ।


यस्तु कममिलत्यागी स त्यागीत्यनभधीयते ।। ११ ।।

ि - कभी नहीं; नह - मनश्चय ही; देह-भृता - िेहधारी द्वारा; शक्यम् - सम्भव है; त्यिुम् - त्यागने के
मलए; कमामनण - कर्म; अशेषतः - पूणमतया; यः - जो; तु - लेमकन; कमम -कर्म के ; िल - िल का; त्यागी - त्याग
करने वाला;सः - वह; त्यागी - त्यागी; इनत - इस प्रकार; अनभधीयते - कहलाता है ।

निस्सन्देह नकसी भी देहधारी प्राणी के नलए समस्त कमों का पररत्याग कर पािा असम्भव है । लेनकि
जो कमम िल का पररत्याग करता है, वह वास्तव में त्यागी है ।

तात्पयम :भगवद्गीता र्ें कहा गया है मक र्नष्ट्ु य कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर सकता। अतएव जो कृ ष्ट्ण के
मलए कर्म करता है और कर्म िलों को भोगता नहीं तर्ा जो कृ ष्ट्ण को सब कुछ अमपमत करता है, वही वास्तमवक त्यागी
है । अन्तरामष्ट्रीय कृ ष्ट्णभावनार्ृत सघं के अनेक सिस्य हैं, जो अपने अपने कायामलयों, कारखानों या अन्य स्र्ानों र्ें

४९१
कमिन श्रर् करते हैं और वे जो कुछ कर्ाते हैं, उसे संघ को िान िे िेते हैं । ऐसे र्हात्र्ा व्यमक्त वास्तव र्ें संन्यासी हैं
और वे संन्यास र्ें मस्र्त होते हैं । यहाँ स्पष्ट रूप से बताया गया है मक कर्म िलों का पररत्याग मकस प्रकार और मकस
प्रयोजन के मलए मकया जाय ।

अनिष्टनमष्टं नमश्रं च नत्रनवधं कममणः िलम् ।


भवत्यत्यानगिां प्रेत्य ि तु संन्यानसिां क्वनचत् ।। १२ ।।

अनिष्टम् - नरक ले जाने वाले; इष्टम् - स्वगम ले जाने वाले; नमश्रम् - मर्मश्रत; च -तर्ा; नत्र-नवधम् - तीन
प्रकार; कममणः - कर्म का; िलम् - िल; भवनत - होता है; अत्यानगिाम् - त्याग न करने वालों को; प्रेत्य - र्रने के
बाि; ि - नहीं; तु - लेमकन; संन्यानसिाम् - संन्यासी के मलए; क्वनचत् - मकसी सर्य, कभी ।

जो त्यागी िहीं है, उसके नलए इनच्छत(इष्ट), अनिनच्छत (अनिष्ट) तथा नमनश्रत - ये तीि प्रकार के
कममिल मृत्यु के बाद नमलते हैं । लेनकि जो संन्यासी है, उन्हें ऐसे िल का सुख-दुख िहीं भोगिा पडता ।

तात्पयम : जो कृ ष्ट्णभावनार्य व्यमक्त कृ ष्ट्ण के सार् अपने सम्बन्ध को जानते हुए कर्म करता है, वह सिैव र्क्त

रहता है । अतएव उसे र्ृत्यु के पश्चात् अपने कर्म िलों का सुख-िख ु नहीं भोगना पड़ता ।

पञ्चैतानि महाबाहो कारणानि निबोध मे ।


सांख्ये कृ तान्ते प्रोिानि नसद्धये सवमकममणाम् ।। १३ ।।

पञ्च - पाँच; एतानि - ये; महा-बाहो - हे र्हाबाहु; कारणानि - कारण; निबोध - जानो; मे -
र्झु से; साङ् ख्ये - वेिान्त र्ें; कृ त-अन्ते - मनष्ट्कषम रूप र्ें; प्रोिानि - कहा गया; नसद्धये - मसमद्ध के मलए; सवम -
सर्स्त; कमामणम् -कर्ों का ।

हे महाबाहु अजमिु ! वेदान्त के अिुसार समस्त कमों की पूनतम के नलए पाूँच कारण हैं । अब तुम इन्हें
मुझसे सुिो ।

तात्पयम : यहाँ पर प्रश्न पूछा जा सकता है मक चँमू क प्रत्येक कर्म का कुछ न कुछ िल होता है, तो मिर यह कै से
सम्भव है मक कृ ष्ट्ण भावना र्य व्यमक्त को कर्म के िलों का सुख-िख ु नहीं भोगना पड़ता? भगवान् वेिान्त िशमन का
उिाहरण यह मिखाने के मलए िेते हैं मक यह मकस प्रकार सम्भव है । वे कहते हैं मक सर्स्त कर्ों के पाँच कारण होते हैं ।
अतएव मकसी कर्म र्ें सिलता ले मलए इन पाँचों कारणों पर मवचार करना होगा । साख्ं य का अर्म है ज्ञान का आधार
स्तम्भ और वेिान्त अग्रणी आचायों द्वारा स्वीकृ त ज्ञान का चरर् आधार स्तम्भ है यहाँ तक मक शंकर भी वेिान्त सूत्र
को इसी रूप र्ें स्वीकार करते हैं । अतएव ऐसे शास्त्र की राय ग्रहण करनी चामहए ।
चरर् मनयन्त्रण परर्ात्र्ा र्ें मनमहत है । जैसा मक भगवद्गीता र्ें कहा गया है - सवदस्य चाहां हृस्र् सस्न्नस्वष्टः - वे
प्रत्येक व्यमक्त को उसके पूवम कर्ों का स्र्रण करा कर मकसी न मकसी कायम र्ें प्रवृत्त करते रहते हैं । और जो कृ ष्ट्ण

४९२
भावना भामवत कर्म अन्तयामर्ी भगवान् के मनिेशानुसार मकये जाते हैं, उनका िल न तो इस जीवन र्ें, न ही र्ृत्यु के
पश्चात् मर्लता है ।

अनधष्ठािं तथा कताम करणं च पृथनग्वधम् ।


नवनवधाश्र्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ।। १४ ।।

अनधष्ठािम् - स्र्ान; तथा - और; कताम - करने वाला; करणम् - उपकरण यन्त्र (इमन्द्रयाँ); च - तर्ा; पृथक् -
नवधम् - मवमभन्न प्रकार के ; नवनवधाः - नाना प्रकार के ; च - तर्ा; पृथक् - पृर्क पृर्क; चेष्टाः - प्रयास; दैवम् -
परर्ात्र्ा; च - भी; एव - मनश्चय ही; अत्र - यहाँ; पञ्चमम् - पाँचवा ।

कमम का स्थाि (शरीर), कताम, नवनभन्ि इनन्द्रयाूँ, अिेक प्रकार की चेष्टाएूँ तथा परमात्मा - ये पाूँच कमम
के कारण हैं ।

तात्पयम :अस्धष्ठानम् शब्ि शरीर के मलए आया है । शरीर के भीतर आत्र्ा कर्म करता है, मजससे कर्म िल होता
है । अतएव वह कताम कहलाता है । आत्र्ा ही ज्ञाता तर्ा कताम है, इसका उल्लेख श्रमु त र्ें है । एष स्ह द्रष्टा स्रष्टा (प्रश्न
उपस्नषर्् ४.९) । वेिान्त सूत्र र्ें भी ज्ञोऽतएव (२.३.१८) तर्ा ताद शास्त्राथदवत्त्वात् (२.३.३३) श्लोकों से इसकी पुमष्ट
होती है । कर्म के उपकरण इमन्द्रयाँ है और आत्र्ा इन्हीं इमन्द्रयों के द्वारा मवमभन्न कर्म करता है । प्रत्येक कर्म के मलए
पृर्क् चेिा होती है । लेमकन सारे कायमकलाप परर्ात्र्ा की इच्छा पर मनभमर करते हैं, जो प्रत्येक हृिय र्ें मर्त्र रूप र्ें
आसीन है । परर्ेश्र्वर परर् कारण है । अतएव जो इन पररमस्र्मतयों र्ें अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा के मनिेश के अन्तगमत
कृ ष्ट्णभावनार्य होकर कर्म करता है, वह मकसी कर्म से बँधता नहीं । जो पणू म कृ ष्ट्णभावनार्य हैं, वे अन्ततः अपने कर्ों
के मलए उत्तरिायी नहीं होते । सब कुछ परर् इच्छा, परर्ात्र्ा, भगवान् पर मनभमर है ।

.
शरीरवाङ्मिोनभयमत्कमम प्रारभते िरः ।
न्या्यं वा नवपरीतं वा पञ्चते तस्य हेतवः ॥

शरीर - शरीर से; वाक् - वाणी से; मिोनभः - तर्ा र्न से; यत् - जो; कमम - कर्म; प्रारभते - प्रारम्भ करता
है; िरः - व्यमक्त; न्या्यम् - उमचत, न्यायपूणम; वा - अर्वा; नवपररतम् - (न्याय) मवरुद्ध; वा - अर्वा; पञ्च -
पाँच; एते - ये सब; तस्य - उसके ; हेतवः - कारण ।

मिष्ट्ु य अपिे शरीर, मि या वाणी से जो भी उनचत या अिनु चत कमम करता है, वह इि पाूँच कारणों के
िल स्वरूप होता है ।

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तात्पयम : इस श्लोक र्ें न्याय्य (उमचत) तर्ा स्वपरीत (अनुमचत) शब्ि अत्यन्त र्हत्त्व पूणम हैं । सही कायम शास्त्रों
र्ें मनमिमष्ट मनिेशों के अनुसार मकया जाता है और अनुमचत कायम र्ें शास्त्रीय आिेशों की अवहेलना की जाती है । मकन्तु
जो कर्म मकया जाता है, उसकी पूणमता के मलए पाँच कारणों की आवशयकता पड़ती है ।

तत्रैवं सनत कतामरमात्मिं के वलं तु यः ।


पश्यत्यकृ तबुनद्धत्वान्ि स पश्यनत दुममनतः ।। १६ ।।

तत्र - वहाँ; एवम् - इस प्रकार; सनत - होकर; कतामरम् - कताम; आत्मािम् - स्वयं का; के वलम् - के वल; तु -
लेमकन;यः - जो; पश्यनत - िेखता है; अकृ त-बनु द्धत्वात् - कुबमु द्ध के कारण; ि - कभी नहीं; सः - वह; पश्यनत -
िेखता है; दुममनतः - र्ख
ु म।

अतएव जो इि पाूँच कारणों को ि मािकर अपिे आपको ही एकमात्र कताम मािता है, वह निश्चय ही
बहुत बुनद्धमाि िहीं होता और वस्तुओ ं को सही रूप में िहीं देखता ।

तात्पयम : र्ख ु म व्यमक्त यह नहीं सर्झता मक परर्ात्र्ा उसके अन्तर र्ें मर्त्र रूप र्ें बैिा है और उसके कर्ों का
संचालन कर रहा है । यद्यमप स्र्ान, कताम, चेष्टा तर्ा इमन्द्रयाँ भौमतक कारण हैं, लेमकन अमन्तर् (र्ख्ु य) कारण तो स्वयं
भगवान् हैं । अतएव र्नुष्ट्य को चामहए मक के वल चार भौमतक कारणों को ही न िेखे, अमपतु परर् सक्षर् कारण को भी
िेखे । जो परर्ेश्र्वर को नहीं िेखता, वह अपने आपको ही कताम र्ानता है ।

यस्य िाहकं ृ तो भावो बनु द्धयमस्य ि नलप्यते ।


हत्वानप स ईमाूँल्लोकान्ि हनन्त ि निबध्यते ।। १७ ।।

यस्य - मजसके ; ि - नहीं; अहङकृ त - मर्थ्या अहक ं ार का; भावः - स्वभाव; बुनद्धः - बुमद्ध; यस्य -
मजसकी; ि - कभी नहीं; नलप्यते - आसक्त होता है; हत्वा - र्ारकर; अनप - भी; सः - वह; इमाि् - इस; लोकाि् -
संसार को; ि - कभी नहीं; हनन्त - र्ारता है; ि - कभी नहीं; निबध्यते - बद्ध होता है ।

जो नमथ्या अहंकार से प्रेररत िहीं है, नजसकी बुनद्ध बूँधी िहीं है, वह इस संसार में मिुष्ट्यों को मारता
हुआ भी िहीं मारता । ि ही वह अपिे कमों से बूँधा होता है ।

तात्पयम : इस श्लोक र्ें भगवान् अजुमन को बताते हैं मक युद्ध न करने की इच्छा अहक ं ार से उत्पन्न होती है ।
अजमनु स्वयं को कताम र्ान बैिा र्ा, लेमकन उसने अपने भीतर तर्ा बाहर परर् (परर्ात्र्ा) के मनिेश पर मवचार नहीं
मकया र्ा । यमि कोई यह न जाने मक कोई परर् मनिेश भी है, तो वह कर्म क्यों करे ? लेमकन जो व्यमक्त कर्म के उपकरणों
को, कताम रूप र्ें अपने को तर्ा मनिेशक के रूप र्ें परर्ेश्र्वर को र्ानता है, वह प्रत्येक कायम को पूणम करने र्ें सक्षर्
है । ऐसा व्यमक्त कभी र्ोहग्रस्त नहीं होता । जीव र्ें व्यमक्तगत कायमकलाप तर्ा उसके उत्तरिामयत्व का उिय मर्थ्या
अहक ं ार से तर्ा ईश्र्वरमवहीनता या कृ ष्ट्णभावनार्ृत के अभाव से होता है । जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें परर्ात्र्ा या

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भगवान् के आिेशानुसार कर्म करता है, वह वध करता हुआ भी वध नहीं करता । न ही वह कभी ऐसे वध के िल
भोगता है । जब कोई सैमनक अपने श्रेि अमधकारी सेनापमत की आज्ञा से वध करता है, तो उसको िमण्डत नहीं मकया
जाता । लेमकन यमि वही सैमनक स्वेच्छा से वध कर िे, तो मनमश्चत रूप से न्यायालय द्वारा उसका मनणमय होता है ।

ज्ञािं ज्ञेयं पररज्ञाता नत्रनवधा कममचोदिा ।


करणं कमम कतेनत नत्रनवधः कममसङ् ग्रहः ।। १८ ।।

ज्ञािम् - ज्ञान; ज्ञेयम् - ज्ञान का लक्ष्य (जानने योग्य); पररज्ञाता - जानने वाला; नत्र-नवधा - तीन प्रकार
के ; कमम - कर्म की; चोदिा - प्रेरणा (अनप्रु ेरणा); करणम् - इमन्द्रयाँ; कमम - कर्म; कताम - कताम; इनत - इस प्रकार; नत्र-
नवधः - तीन प्रकार के ; कमम - कर्म के ; सङ् ग्रहः - संग्रह, संचय ।

ज्ञाि, ज्ञेय तथा ज्ञाता - ये तीिों कमम को प्रेरणा देिे वाले कारण हैं । इनन्द्रयाूँ (करण), कमम तथा कताम -
ये तीि कमम के संघटक हैं ।

तात्पयम : िैमनक कायम के मलए तीन प्रकार की प्रेरणाएँ हैं - ज्ञान, ज्ञेय तर्ा ज्ञाता । कर्म का उपकरण
(करण), स्वयं कर्म तर्ा कताम - ये तीनों कर्म के संघटक कहलाते हैं । मकसी भी र्नुष्ट्य द्वारा मकये गये मकसी कर्म र्ें ये
ही तत्त्व रहते हैं । कर्म करने के पूणम कुछ न कुछ प्रेरणा होती है । मकसी भी कर्म से पहले प्राप्त होने वाला िल कर्म के
सूक्ष्र् रूप र्ें वास्तमवक बनता है । इसके बाि वह मक्रया का रूप धारण करता है । पहले र्नुष्ट्य को सोचने, अनुभव
करने तर्ा इच्छा करने जैसी र्नोवैज्ञामनक मवमधयों का सार्ना करना होता है, मजसे प्रेरणा कहते हैं और यह प्रेरणा चाहे
शास्त्रों से प्राप्त हो, या गरुु के उपिेश से, एकसी होती है । जब प्रेरणा होती है और जब कताम होता है, तो इमन्द्रयों की
सहायता से, मजनर्ें र्न समम्र्मलत है और जो सर्स्त इमन्द्रयों का के न्द्र है, वास्तमवक कर्म सम्पन्न होता है । मकसी कर्म
के सर्स्त सघं टकों को कर्म-सग्रं ह कहा जाता है ।

ज्ञािं कमम च कताम च नत्रधैव गुणभेदतः ।


प्रोच्यते गुणसंख्यािे यथावच्छृ णु तान्यनप ।। १९ ।।

ज्ञािम् - ज्ञान; कमम - कर्म; च - भी; कताम– कताम;च – भी;नत्रधा - तीन प्रकार का; एव - मनश्चय ही; गुण-
भेदतः - प्रकृ मत के मवमभन्न गुणों के अनुसार; प्रोच्यते - कहे जाते हैं; गुण-सङ् ख्यािे - मवमभन्न गुणों के रूप
र्ें; यथा-वत् - मजस रूप र्ें हैं उसी र्ें; शृणु - सुनो; तानि - उन सबों को; अनप - भी ।

प्रकृ नत के तीि गण
ु ों के अिस
ु ार ही ज्ञाि, कमम तथा कताम के तीि-तीि भेद हैं । अब तमु मुझसे इन्हें
सुिो ।

तात्पयम : चौिहवें अध्याय र्ें प्रकृ मत के तीन गुणों का मवस्तार से वणमन हो चक


ु ा है । उस अध्याय र्ें कहा गया
र्ा मक सतोगुण प्रकाशक होता है, रजोगुण भौमतकवािी तर्ा तर्ोगुण आलस्य तर्ा प्रर्ाि का प्रेरक होता है । प्रकृ मत

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के सारे गुण बन्धनकारी हैं, वे र्मु क्त के साधन नहीं हैं । यहाँ तक मक सतोगुण र्ें भी र्नुष्ट्य बद्ध रहता है । सत्रहवें अध्याय
र्ें मवभन्न प्रकार के र्नुष्ट्यों द्वारा मवमभन्न गुणों र्ें रहकर की जाने वाली मवमभन्न प्रकार की पूजा का वणमन मकया
गया । इस श्लोक र्ें भगवान् कहते हैं मक वे तीनों गुणों के अनुसार मवमभन्न प्रकार के ज्ञान, कताम तर्ा कर्म के मवषय र्ें
बताना चाहते हैं ।

सवमभूतेषु येिैकं भावमव्ययनमक्षते ।


अनवभिं नवभिे षु तजज्ञािं नवनद्ध सानत्त्वकम् ।। २० ।।

सवम-भतू ेषु - सर्स्त जीवों र्ें; येि - मजससे; एकम् - एक;भावम् - मस्र्मत; अव्ययम् - अमवनाशी; ईक्षते -
िेखता है; अनवभिम् - अमवभामजत; नवभिे षु - अनन्त मवभागों र्ें बँटे हुए र्ें; तत् - उस; ज्ञािम् - ज्ञान
को; नवनद्ध - जानो; सानत्त्वकम् - सतोगणु ी ।

नजस ज्ञाि से अिन्त रूपों में नवभि सारे जीवों में एक ही अनवभि आध्यानत्मक प्रकृ नत देखी जाती
है, उसे ही तुम सानत्त्वक जािो ।

तातपयम: जो व्यमक्त हर जीव र्ें, चाहे वह िेवता हो, पश-ु पक्षी हो या जलजन्तु अर्वा पौधा हो, एक ही आत्र्ा
िेखता है, उसे सामत्त्वक ज्ञान प्राप्त रहता है । सर्स्त जीवों र्ें एक ही आत्र्ा है, यद्यमप पूवम कर्ों के अनुसार उनके शरीर
मभन्न-मभन्न हैं । जैसा मक सातवें अध्याय र्ें वणमन हुआ है, प्रत्येक शरीर र्ें जीवनी शमक्त की अमभव्यमक्त परर्ेश्र्वर की
पराप्रकृ मत के कारण होती है । उस एक पराप्रकृ मत, उस जीवनी शमक्त को प्रत्येक शरीर र्ें िेखना सामत्त्वक िशमन है । यह
जीवनी शमक्त अमवनाशी है, भले ही शरीर मवनाशशील हों । जो आपसी भेि है, वह शरीर के कारण है । चँमू क बद्धजीवन
र्ें अनेक प्रकार के भौमतक रूप हैं, अतएव जीवनी शमक्त मवभक्त प्रतीत होती है । ऐसा मनराकार ज्ञान आत्र्-साक्षात्कार
का एक पहलू है ।

पृथक्त्वेि तु यजज्ञािं िािाभावान्पृथनग्वधाि् ।


वेनत्त सवेषु भूतेषु तजज्ञािं नवनद्ध राजसम् ।। २१ ।।

पृथक्त्वेि - मवभाजन के कारण; तु - लेमकन; यत् - जो; ज्ञािम् - ज्ञान; िािा-भावाि् - अनेक प्रकार की
अवस्र्ाओ ं को; पृथक् -नवधाि - मवमभन्न; वेनत्त - जानता है; सवेषु - सर्स्त; भूतेषु - जीवों र्ें;तत् - उस; ज्ञािम् -
ज्ञान को; नवनद्ध - जानो; राजसम् - राजसी ।

नजस ज्ञाि से कोई मिष्ट्ु य नवनभन्ि शरीरों में नभन्ि-नभन्ि प्रकार का जीव देखता है, उसे तमु राजसी
जािो ।

तात्पयम : यह धारणा मक भौमतक शरीर ही जीव है और शरीर के मवनष्ट होने पर चेतना भी नष्ट हो जाती
है, राजसी ज्ञान है । इस ज्ञान के अनुसार एक शरीर िसू रे शरीर से मभन्न है, क्योंमक उनर्ें चेतना का मवकास मभन्न प्रकार

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से होता है, अन्यर्ा चेतना को प्रकट करने वाला पृर्क् आत्र्ा न रहे । शरीर स्वयं आत्र्ा है और शरीर के परे कोई
पृर्क् आत्र्ा नहीं है । इस ज्ञान के अनुसार चेतना अस्र्ायी है । या यह मक पृर्क् आत्र्ाएँ नहीं होती; एक सवमव्यापी
आत्र्ा है, जो ज्ञान से पूणम है और यह शरीर क्षमणक अज्ञानता का प्रकाश है । या यह मक इस शरीर के परे कोई मवशेष
जीवात्र्ा या परर् आत्र्ा नहीं है । ये सब धारणाएँ रजोगुण से उत्पन्न हैं ।

यत्तु कृ त्स्िवदेकनस्मन्काये सिमहैतुकम् ।


अतत्त्वाथमवदल्पं च तत्तामसमदु ाहृतम् ।। २२ ।।

यत् - जो; तु - लेमकन; कृ त्स्िवत् - पणू म रूप से; एकनस्मि् - एक; कायम - कायम र्ें; सिम् -
आसक्त; अहैतुकम् - मबना हेतु के ; अतत्त्व-अथम-वत् - वास्तमवकता के ज्ञान से रमहत; अल्पम् - अमत तुच्छ; च -
तर्ा; तत् - वह; तामसम् - तर्ोगुणी; उदाहृतम् - कहा जाता है ।

और वह ज्ञाि, नजससे मिुष्ट्य नकसी एक प्रकार के कायम को, जो अनत तुच्छ है, सब कुछ माि
कर, सत्य को जािे नबिा उसमें नलप्त रहता है, तामसी कहा जाता है ।

तात्पयम : सार्ान्य र्नुष्ट्य का 'ज्ञान' सिैव तार्सी होता है, क्योंमक प्रत्येक बद्धजीव तर्ोगुण र्ें ही उत्पन्न होता
है । जो व्यमक्त प्रर्ाणों से या शास्त्रीय आिेशों के र्ाध्यर् से ज्ञान अमजमत नहीं करता, उसका ज्ञान शरीर तक ही सीमर्त
रहता है । उसे शास्त्रों के आिेशानुसार कायम करने की मचन्ता नहीं होती । उसके मलए धन ही ईश्र्वर है और ज्ञान का अर्म
शारीररक आवश्यकताओ ं की तुमष्ट है । ऐसे ज्ञान का परर् सत्य से कोई सम्बन्ध नहीं होता । यह बहुत कुछ साधारण
पशओ ु ं के ज्ञान तर्ा खाने, सोने, रक्षा करने तर्ा र्ैर्नु करने का ज्ञान जैसा है । ऐसे ज्ञान को यहाँ पर तर्ोगणु से उत्पन्न
बताया गया है । िसू रे शब्िों र्ें, इस शरीर से परे आत्र्ा सम्बन्धी ज्ञान सामत्त्वक ज्ञान कहलाता है । मजस ज्ञान से
लौमकक तकम तर्ा मचन्तन (र्नोधर्म) द्वारा नाना प्रकार के मसद्धान्त तर्ा वाि जन्र् ले, वह राजसी है और शरीर को
सुखर्य बनाये रखने वाले ज्ञान को तार्सी कहा जाता है ।

नियतं सङ् गरनहतमराद्वेषतः कृ तम् ।


अिलप्रेप्सुिा कमम यत्तत्सानत्त्वकमुच्यते ।। २३ ।।

नियतम् – मनयमर्त; सङ् -रनहतम् – आसमक्त रमहत; अराग-द्वेषतः – राग-द्वेष से रमहत; कृ तम् – मकया
गया; अिल-प्रेप्सुिा – िल की इच्छा से रमहत वाले के द्वारा; कमम – कर्म; यत् – जो; तत् – वह; सानत्त्वकम् –
सतोगुणी; उच्यते – कहा जाता है ।

जो कमम नियनमत है और जो आसनि, राग या द्वेष से रनहत कममिल की चाह के नबिा नकया जाता
है, वह सानत्त्वक कहलाता है ।

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तात्पयम : मवमभन्न आश्रर्ों तर्ा सर्ाज के वणों के आधार पर शास्त्रों र्ें संस्तुत वृमत्तपरक कर्म, जो अनासक्त
भाव से अर्वा स्वामर्त्व के अमधकारों के मबना, प्रेर्-घृणा-भावरमहत परर्ात्र्ा को प्रसन्न करने के मलए आसमक्त या
अमधकार की भावना के मबना कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मकये जाते हैं, सामत्त्वक कहलाते हैं ।

यत्तु कामेप्सुिा कमम साहंकारेण वा पुिः ।


नक्रयते बहुलायासं तद्राजसमुदाहृतम् ।। २४ ।।

यत्– जो; तु– लेमकन; काम-ईप्सुिा– िल की इच्छा रखने वाले के द्वारा; कमम– कर्म; स-अहङ् कारेण–
अहकं समहत; वा– अर्वा; पिु ः– मिर; नक्रयते– मकया जाता है; बहुल आयासम्– कमिन पररश्रर् से; तत्–
ार
वह; राजसम्– राजसी;उदाहृतम्– कहा जाता है ।

लेनकि जो कायम अपिी इच्छा पूनतम के निनमत्त प्रयासपूवमक एवं नमथ्याअहंकार के भाव से नकया जाता
है, वह रजोगुणी कहा जाता है ।

अिबु न्धं क्षयं नहंसामिपेक्ष्य च पौरुषम् ।


मोहादारभ्यते कमम यत्तत्तामसमुच्यते ।। २५ ।।

अिुबन्धम्– भावी बन्धन का; क्षयम्– मवनाश; नहंसाम्– तर्ा अन्यों को कष्ट; अिपेक्ष्य– पररणार् पर मवचार
मकये मबना; च– भी; पौरुषम्– सार्थ्यम को; मोहात्– र्ोह से; आरभ्यते– प्रारम्भ मकया जाता है; कमम– कर्म; यत्–
जो; तत्– वह; तामसम्– तार्सी; उच्यते– कहा जाता है ।

जो कमम मोहवश शास्त्रीय आदेशों की अवहेलिा करके तथा भावी बन्धि की परवाह नकये नबिा या
नहंसा अथवा अन्यों को दुख पहुूँचािे के नलए नकया जाता है, वहतामसी कहलाता है ।

तात्पयम : र्नुष्ट्य को अपने कर्ों का लेखा राजय को अर्वा परर्ेश्र्वरके ितू ों को, मजन्हें यर्ितू कहते हैं, िेना
होता है । उत्तरिामयत्वहीन कर्ममवनाशकारी है, क्योंमक इससे शास्त्रीय आिेशों का मवनाश होता है । यह प्रायः महंसा
परआधाररत होता है और अन्य जीवों के मलए िख ु िायी होता है । उत्तरिामयत्व से हीन ऐसाकर्म अपने मनजी अनुभव के
आधार पर मकया जाता है । यह र्ोह कहलाता है । ऐसा सर्स्त र्ोहग्रस्त कर्म तर्ोगुण के िलस्वरूप होता है ।

मुिसङ् गोऽिहंवादी धृत्युत्साहसमनन्वतः ।


नसद्धयनसद्धयोनिमनवमकारः कताम सानत्त्वक उच्यते ।। २६ ।।

मि ु -सङगः– सारे भौमतक ससं गम से र्क्त


ु ; अिहम्-वादी– मर्थ्या अहकं ार से रमहत; धृनत– सक
ं ल्प; उत्साह–
तर्ा उत्साह समहत; समनन्वतः– योग्य; नसनद्ध– मसमद्ध; अनसद्धयोः– तर्ा मविलता र्ें; निनवमकारः– मबना पररवतमन
के ; कताम– कताम; सानत्त्वकः– सतोगुणी; उच्यते –

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कहा जाता है ।

जो व्यनि भौनतक गुणों के संसगम के नबिा अहंकाररनहत, संकल्प तथा उत्साहपूवमक अपिा कमम करता
है और सिलता अथवा असिलता में अनवचनलत रहता है, वह सानत्त्वक कताम कहलाता है ।

तात्पयम : कृ ष्ट्णभावनार्य व्यमक्त सिैव प्रकृ मत के गुणों से अतीत होता है । उसे अपना को सौंपे गये कर्म के
पररणार् की कोई आकाक्ष ं ा रहती, क्योंमक वह मर्थ्या अहक ं ार तर्ा घर्डं से परे होता है । मिर भी कायम के पणू म होने
तक वह सिैव उत्साह से पूणम रहता है । उसे होने वाले कष्टों की कोई मचन्ता नहीं होती, वह सिैव उत्साहपूणम रहता
है । वह सिलता या मविलता की परवाह नहीं करता, वह सख ु -िखु र्ें सर्भाव रहता है । ऐसा कताम सामत्त्वक है ।

रागी कममिलप्रेप्सुलमब्ु धो नहस


ं ात्मकोऽश्रुनचः ।
हषमशोकानन्वतः कताम राजसः पररकीनतमतः ।। २७ ।।

रागी– अत्यमधक आसक्त; कमम-िल– कर्म के िल की; प्रेप्सुः– इच्छाकरते हुए; लुब्धः– लालची; नहंसा-
आत्मकः– सिैव ईष्ट्यामलु; अशुनचः– अपमवत्र; हषम-शोक-अनन्वतः– हषम तर्ा शोक से युक्त; कताम– ऐसा कताम;
राजसः– रजोगुणी; पररकीनतमतः– घोमषतमकया जाता है ।

जो कताम कमम तथा कमम-िल के प्रनत आसि होकर िलों का भोग करिाचाहता है तथा जो
लोभी, सदैव ईष्ट्यामलु, अपनवत्र और सुख-दुख से नवचनलत होिे वालाहै, वह राजसी कहा जाता है ।

तात्पयम : र्नुष्ट्य सिैव मकसी कायम के प्रमत या िल के प्रमत इसमलए अत्यमधक आसक्त रहता है, क्योंमक वह
भौमतक पिार्ों, घर-बार, पत्नी तर्ा पत्रु के प्रमत अत्यमधक अनरु क्त होता है । ऐसा व्यमक्त जीवन र्ें ऊपर उिने की
आकांक्षा नहींरखता । वह इस संसार को यर्ासम्भव आरार्िेह बनाने र्ें ही व्यस्त रहता है । सार्ान्यतःवह अत्यन्त
लोभी होता है और सोचता है मक उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तुस्र्ायी है और कभी नष्ट नहीं होगी । ऐसा व्यमक्त
अन्यों से ईष्ट्याम करता है औरइमन्द्रयतृमप्त के मलए कोई भी अनुमचत कायम कर सकता है । अतएव ऐसा व्यमक्त
अपमवत्रहोता है और वह इसकी मचन्ता नहीं करता मक उसकी कर्ाई शुद्ध है या अशद्ध ु । यमि उसकाकायम सिल हो
जाता है तो वह अत्यमधक प्रसन्न और असिल होने पर अत्यमधक िख ु ी होता है। रजोगुणी कताम ऐसा ही होता है ।

अयुिः प्राकृ तः स्तब्धः शठो िैष्ट्कृनतकोऽलसः ।


नवषादी दीघमसूत्री च कताम तामस उच्यते ।। २८ ।।

अयुिः– शास्त्रों के आिेशों को न र्ानने वाला; प्राकृ तः– भौमतकवािी; स्तब्धः– हिी; शठः–
कपटी; िैष्ट्कृनतकः– अन्यों का अपर्ान करने र्ें पटु; अलसः– आलसी; नवषादी– मखन्न;दीघम-सत्रू ी– ऊँघ-ऊँघ कर
कार् करने वाला, िेर लगाने वाला; च– भी; कताम– कताम; तामसः– तर्ोगुणी; उच्यते–
कहलाता है ।

४९९
जो कताम सदा शास्त्रों के आदेशों के नवरुद्ध कायम करता रहता है, जो भौनतकवादी, हठी, कपटी तथा
अन्यों का अपमाि करिे में पटु है और तथा जो आलसी, सदैव नखन्ि तथा काम करिे में दीघमसूत्री है, वह
तमोगुणी कहलाता है ।

तात्पयम : शास्त्रीय आिेशों से हर्ें पता चलता है मक हर्ें कौन सा कार् करना चामहए और कौन सा नहीं करना
चामहए । जो लोग शास्त्रों के आिेशों की अवहेलना करके अकरणीय कायम करते हैं, प्रायः भौमतकवािी होते हैं । वे
प्रकृ मत के गुणों के अनुसार कायम करते हैं, शास्त्रों के आिेशों के अनुसार नहीं । ऐसे कताम भद्र नहीं होते और सार्ान्यतया
सिैव कपटी (धतू म) तर्ा अन्यों का अपर्ान करने वाले होते हैं । वे अत्यन्त आलसी होते हैं, कार् होते हुए भी उसे िीक
से नहीं करते और बाि र्ें करने के मलए उसे एक तरि रख िेते हैं, अतएव वे मखन्न रहते हैं । जो कार् एक घंटे र्ें हो
सकता है, उसे वे वषों तक घसीटते हैं-वे िीघमसूत्री होते हैं । ऐसे कताम तर्ोगुणी होते हैं ।

बुद्धेभेदं धृतेश्र्चैव गुणतनस्त्रनवधं श्रृणु ।


प्रोच्यमािमशेषेण पृथक्त्वेि धिञ्जय ।। २९ ।।

बुद्धेः– बुमद्ध का; भेदम्– अन्तर; धृतेः– धैयम का; च– भी; एव– मनश्चय ही;गुणतः– गुणों के द्वारा; नत्र-नवधम्–
तीन प्रकार के ; शृणु– सुनो; प्रोच्यमािम्– जैसा र्ेरे द्वारा कहा गया; अशेषेण– मवस्तार से; पृथक्त्वेि– मभन्न प्रकार
से; धिञ्जय– हे सम्पमत्त के मवजेता ।

हे धिञ्जय! अब मैं प्रकृ नत के तीिों गण


ु ों के अिस
ु ार तम्ु हें नवनभन्ि प्रकार की बनु द्ध तथा धृनत के नवषय
में नवस्तार से बताऊूँ गा । तुम इसे सुिो ।

तात्पयम : ज्ञान, ज्ञेय तर्ा ज्ञाता की व्याख्या प्रकृ मत के गुणों के अनुसार तीन-तीन पृर्क् मवभागों र्ें करने के बाि
अब भगवान् कताम की बुमद्ध तर्ा उसके संकल्प (धैयम) के मवषय र्ें उसी प्रकार से बता रहे हैं ।

प्रवृनत्तं च निवृनत्तं च कायामकाये भयाभये ।


बन्धं मोक्षं च या वेनत्त बुनद्धः सा पाथम सानत्त्वकी ।। ३० ।।

प्रवृनत्तम्– कर्म को; च– भी; निवृनत्तम्– अकर्म को; च– तर्ा; कायम– करणीय; अकायम– तर्ा अकरणीय
र्ें; भय– भय; अभये– तर्ा मनडरता र्ें; बन्धम्– बन्धन; मोक्षम्– र्ोक्ष; च– तर्ा; या– जो; वेनत्त– जानता
है; बनु द्धः– बमु द्ध; सा– वह; पाथम– हे पृर्ापत्रु ; सानत्त्वकी– सतोगणु ी ।

हे पृथापत्रु ! वह बनु द्ध सतोगण


ु ी है, नजसके द्वारा मिष्ट्ु य यह जािता है नक क्या करणीय है और क्या िहीं
है, नकस्से डरिा चानहए और नकस्से िहीं, क्या बाूँधिे वाला है और क्या मुनि देिे वाला है ।

५००
तात्पयम : शास्त्रों के मनिेशानुसार कर्म करने को या उन कर्ों को करना मजन्हें मकया जाना चामहए, प्रवृमत्त कहते
हैं । मजन कायों का इस तरह मनिेश नहीं होता वे नहीं मकये जाने चामहए । जो व्यमक्त शास्त्रों के मनिेशों को नहीं
जानता, वह कर्ों तर्ा उनकी प्रमतमक्रया से बँध जाता है । जो बुमद्ध अच्छे बुरे का भेि बताती है, वह सामत्त्वकी है ।

यया धमममधमं च कायं चाकायममेव च ।


अयथावत्प्रजािानत बुनद्धः सा पाथम राजसी ।। ३१ ।।

यया– मजसके द्वारा; धममम–् धर्म को; अधममम–् अधर्म को; च– तर्ा; कायमम–् करणीय; च– भी; अकायमम–्
अकरणीय को; एव– मनश्चय ही; च– भी; अथवा-वत् – अधरू े ढगं से; प्रजािानत– जानती है; बनु द्धः– बमु द्ध; सा–
वह; पाथम– हे पृर्ापुत्र;राजसी– रजोगुणी ।

हे पृथापुत्र! जो बुनद्ध धमम तथा अधमम,करणीय तथा अकरणीय कमम में भेद िहीं कर पाती, sxवह
राजसी है ।

अधमं धममनमनत या मन्यते तमसावृता ।


सवामथामनन्वपरीतांश्र्च बनु द्धः सा पाथम तामसी ।। ३२ ।।

अधममम–् अधर्म को; धममम–् धर्म; इनत– इस प्रकार; या– जो; मन्यते– सोचती है; तमसा– भ्रर् से; आवृता–
आच्छामित, ग्रस्त; सवम-अथामि–् सारी वस्तुओ ं को; नवपरीताि्– उलटी मिशा र्ें; च– भी; बुनद्धः– बुमद्ध; सा–
वह; पाथम– हे पृर्ापत्रु ; तामसी– तर्ोगुण से यक्त
ु ।

जो बनु द्ध मोह तथा अंधकार के वशीभतू होकर अधमम को धमम तथा धमम को अधमम मािती है और
सदैव नवपरीत नदशा में प्रयत्ि करती है, वह तामसी है ।

तात्पयम :तार्सी बुमद्ध को मजस मिशा र्ें कार् करना चामहए, उससे सिैव उल्टी मिशा र्ें कार् करती है । यह उन
धर्ों को स्वीकारती है, जो वास्तव र्ें धर्म नहीं हैं और वास्तमवक धर्म को िुकराती है । अज्ञानी र्नुष्ट्य र्हात्र्ा को
सार्ान्य व्यमक्त र्ानते हैं और सार्ान्य व्यमक्त को र्हात्र्ा स्वीकार करते हैं । वे सत्य को असत्य तर्ा असत्य को सत्य
र्ानते हैं । वे सारे कार्ों र्ें कुपर् ग्रहण करते हैं, अतएव उनकी बुमद्ध तार्सी होती है ।

धृत्या यया धारयते मिःप्राणेनन्द्रयनक्रयाः ।


योगेिाव्यनभचाररण्या धृनतः सा पाथम सानत्त्वकी ।। ३३ ।।

धृत्या – सक ं ल्प, धृमत द्वारा; यया– मजससे; धारयते– धारण करता है; मिः– र्न को; प्राण– प्राण; इनन्द्रय–
तर्ा इमन्द्रयों के ; नक्रयाः– कायमकलापों को; योगेि– योगाभ्यास द्वारा; अव्यनभचाररण्या– तोड़े
मबना, मनरन्तर; धृनतः– धृमत; सा– वह; पाथम– हे पृर्ापुत्र; सानत्त्वकी– सामत्त्वक ।

५०१
हे पृथापुत्र! जो अटूट है, नजसे योगाभ्यास द्वारा अचल रहकर धारण नकया जाता है और जो इस प्रकार
मि, प्राण तथा इनन्द्रयों के कायमकलापों को वश में रखती है, वह धृनत सानत्त्वक है ।

तात्पयम : योग परर्ात्र्ा को जानने का साधन है । जो व्यमक्त र्न, प्राण तर्ा इमन्द्रयों को परर्ात्र्ा र्ें एकाग्र
करके दृढ़तापूवमक उनर्ें मस्र्त रहता है, वह कृ ष्ट्णभावना र्ें तत्पर होता है । ऐसी धृमत सामत्त्वक होती
है । अव्यमभचाररण्या शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपणू म है क्योंमक यह समू चत करता है मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें तत्पर र्नष्ट्ु य कभी
मकसी िसू रे कायम द्वारा मवचमलत नहीं होता ।

यया तु धममकामाथामन्धृत्या धारयतेऽजमुि ।


प्रसङ् गेि िलाकाङ् क्षी धृनतः सा पाथम राजसी ।। ३४ ।।

यया– मजससे; तु– लेमकन; धमम– धामर्मकता; काम– इमन्द्रयतृमप्त;अथामि–् तर्ा आमर्मक मवकास को; धृत्या–
संकल्प या धृमत से; धारयते– धारण करताहै; अजमिु – हे अजुमन; प्रसङगेि– आसमक्त के कारण; िल-आकाङ् क्षी–
कर्मिल कीइच्छा करने वाला; धृनतः– संकल्प या धृमत; सा– वह; पाथम– हे पृर्ापुत्र; राजसी–रजोगुणी ।

लेनकि हे अजमिु ! नजस धृनत से मिुष्ट्य धमम, अथम तथा काम के िलों मेंनलप्त बिा रहता है, वह राजसी
है ।

तात्पयम : जो व्यमक्त धामर्मक या आमर्मक कायों र्ें कर्मिलों कासिैव आकाक्ष ं ी होता है, मजसकी एकर्ात्र इच्छा
इमन्द्रयतृमप्त होती है तर्ा मजसका र्न,जीवन तर्ा इमन्द्रयाँ इस प्रकार संलग्न रहती हैं, वह रजोगुणी होता है ।

यया स्वप्िं भयं शोकं नवषादं मदमेव च ।


ि नवमुञ्चनत दुमेधा धृनतः सा पाथम तामसी ।। ३५ ।।

यया– मजससे; स्वप्िम्– स्वप्न; भयम्– भय; शोकम्– शोक; नवषादम्–मवषाि, मखन्नता; मदम्– र्ोह
को; एव– मनश्चय ही; च– भी; ि– कभी नहीं; नवमुञ्चनत–त्यागती है;दुमेधा– िबु ुममद्ध; धृनतः– धृमत; सा– वह; पाथम–
हे पृर्ापुत्र;तामसी– तर्ोगुणी ।

हे पाथम! जो धृनत स्वप्ि, भय, शोक, नवषाद तथा मोह के परे िहीं जाती,ऐसी दुबमनु द्धपूणम धृनत तामसी
है ।

तात्पयम : इससे यह अर्म नहीं मनकालना चामहए मक सतोगणु ी र्नष्ट्ु य स्वप्न नहीं िेखता । यहाँ पर स्वप्न का अर्म
अमत मनद्रा है । स्वप्न सिा आता है, चाहे वह सामत्त्वक हो, राजस हो या तार्सी, स्वप्न तो प्राकृ मतक घटना है । लेमकन
जो अपने को अमधक सोने से नहीं बचा पाते, जो भौमतक वस्तुओ ं को भोगने के गवम से नहीं बच पाते,जो सिैव ससं ार

५०२
पर प्रभत्ु व जताने का स्वप्न िेखते रहते हैं और मजनके प्राण, र्न तर्ा इमन्द्रयाँ इस प्रकार मलप्त रहतीं हैं, वे तार्सी धृमत
वाले कहे जाते हैं ।

सुखं नत्वदािीं नत्रनवधं श्रृणु मे भरतषमभ ।


अभ्यासाद्रमते यत्र दु:खान्तं च निगच्छनत ।। ३६ ।।
यत्तदग्रे नवषनमव पररणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सखु ं सानत्त्वकं प्रोिमात्मबनु द्धप्रसादजम् ।। ३७ ।।

सखु म्– सखु ; त–ु लेमकन; इदािीम्– अब;नत्र-नवधम्– तीन प्रकार का;शृण–ु सनु ो; मे– र्झु से; भरत-ऋषभ–
हे भरतश्रेि; अभ्यासात्– अभ्यास से; रमते–भोगता है; यत्र– जहाँ; दुःख– िख ु का; अन्तम्– अन्त; च–
भी; निगच्छनत– प्राप्तकरता है; यत्– जो; तत्– वह; उग्रे– आरम्भ र्ें; नवषम-इव– मवष के सर्ान;पररणामे– अन्त
र्ें; अमृत– अर्ृत; उपमम्– सदृश; तत्– वह; सुखम्– सुख;सानत्त्वकम्– सतोगुणी; प्रोिम्– कहलाता है; आत्म–
अपनी; बुनद्ध– बुमद्ध की;प्रसाद-जम्– तुमष्ट से उत्पन्न ।

हे भरतश्रेष्ठ! अब मुझसे तीि प्रकार के सुखों के नवषय में सुिों,नजिके द्वारा बद्धजीव भोग करता है
और नजसके द्वारा कभी-कभी दुखों का अन्त हो जाताहै ।जो प्रारम्भ में नवष जैसा लगता है, लेनकि अन्त में
अमृत के समाि है औरजो मिुष्ट्य में आत्म-साक्षात्कार जगाता है, वह सानत्त्वक सुख कहलाता है ।

तात्पयम : बद्धजीव भौमतक सुख भोगने की बारम्बार चेष्टा करता है । इसप्रकार वह चमवमत चवमण करता
है । लेमकन कभी-कभी ऐसे भोग के अन्तगमत वह मकसीर्हापरुु ष की सगं मत से भवबन्धन से र्क्त ु हो जाता है । िसू रे
शब्िों र्ें, बद्धजीवसिा ही मकसी न मकसी इमन्द्रयतृमप्त र्ें लगा रहता है, लेमकन जब सुसंगमत से यह सर्झलेता है मक यह
तो एक ही वस्तु की पनु रावृमत्त है और उसर्ें वास्तमवक कृ ष्ट्णभावनार्ृतका उिय होता है, तो कभी-कभी वह ऐसे
तर्ाकमर्त आवृमत्तर्ूलक सुख से र्क्त
ु हो जाता है ।
आत्र्-साक्षात्कार के साधन र्ें र्न तर्ा इमन्द्रयों को वश र्ें करने तर्ार्न को आत्र्लेंमद्रत करने के मलए नाना
प्रकार के मवमध-मवधानों का पालन करना पड़ता है। ये सारी मवमधयाँबहुत कमिन और मवष के सर्ान अत्यन्त कड़वी
लगने वाली हैं, लेमकनयमि कोई इन मनयर्ों के पालन र्ें सिल हो जाता है और मिव्य पि को प्राप्त हो जाता है,तो वह
वास्तमवक अर्ृत का पान करने लगता है और जीवन का सुख प्राप्त करता है ।

नवषयेनन्द्रयसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
पररणामे नवषनमव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ।। ३८ ।।

नवषय– इमन्द्रय मवषयों; इनन्द्रय– तर्ा इमन्द्रयों के ; संयोगात्–संयोग से; यत्– जो; तत्– वह; अग्रे– प्रारम्भ
र्ें; अमृत-उपमम्– अर्ृत के सर्ान;पररणामे– अन्त र्ें; नवषम् इव– मवष के सर्ान; तत्– वह; सख ु म्–
सुख; राजसम्–राजसी; स्मृतम्– र्ाना जाता है ।

५०३
जो सुख इनन्द्रयों द्वारा उिके नवषयों के संसगम से प्राप्त होता हैऔर प्रारम्भ में अमृततुल्य तथा अन्त में
नवषतुल्य लगता है, वह रजोगुणी कहलाता है ।

तात्पयम : जब कोई युवक मकसी युवती से मर्लता है, तो इमन्द्रयाँ युवकको प्रेररत करती हैं मक वह उस युवती को
िेखे, उसका स्पशम करे और उससे संभोग करे ।प्रारम्भ र्ें इमन्द्रयों को यह अत्यन्त सुखकर लग सकता है, लेमकन अन्त र्ें
या कुछसर्य बाि वही मवष तुल्य बन जाता है । तब वे मवलग हो जाते हैं या उनर्ें तलाक (मववाह-मवच्छे ि)हो जाता
है । मिर शोक, मवषाि इत्यामि उत्पन्न होता है । ऐसा सख
ु सिैव राजसी होताहै । जो सख ु इमन्द्रयों और मवषयों के सयं ोग
से प्राप्त होता है, वह सिैव िख
ु काकारण बनता है, अतएव इससे सभी तरह से बचना चामहए ।

यदग्रे चािुबन्धे च सुखं मोहिमात्मिः ।


निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ।। ३९ ।।

यत् - जो; अग्रे - प्रारम्भ र्ें; अिुबन्धे - अन्त र्ें; च - भी; सुखम् - सुख; मोहिम् - र्ोहर्य; आत्मिः -
अपना; निद्रा - नींि; आलस्य - आलस्य; प्रमाद - तर्ा र्ोह से; उत्थम्- उत्पन्न; तत् - वह; तामसम् -
तार्सी; उदाहृतम् - कहलाता है ।

तथा जो सुख आत्म-साक्षात्कार के प्रनत अन्धा है, जो प्रारम्भ से लेकर अन्त तक मोहकारक है और
जो निद्रा, आलस्य तथा मोह से उत्पन्ि होता है, वह तामसी कहलाता है ।

तात्पयम : जो व्यमक्त आलस्य तर्ा मनद्रा र्ें ही सख ु ी रहता है, वह मनश्चय ही तर्ोगुणी है । मजस व्यमक्त को इसका
कोई अनुर्ान नहीं है मक मकस प्रकार कर्म मकया जाय और मकस प्रकार नहीं, वह भी तर्ोगुणी है । तर्ोगुणी व्यमक्त के
मलए सारी वस्तएु ँ भ्रर् (र्ोह) हैं । उसे न तो प्रारम्भ र्ें सखु मर्लता है, न अन्त र्ें । रजोगणु ी व्यमक्त के मलए प्रारम्भ र्ें
कुछ क्षमणक सुख और अन्त र्ें िख ु हो सकता है, लेमकन जो तर्ोगुणी है, उसे प्रारम्भ र्ें तर्ा अन्त र्ें िख ु ही िुख
मर्लता है ।

ि तदनस्त पृनथव्यां वा नदनव देवेषु वा पुिः ।


सत्त्वं प्रकृ नतजैममि
ु ं यदेनभः स्यानत्त्रनभगमण
ु ै: ।। ४० ।।

ि– नहीं; तत्– वह; अनस्त– है; पृनथव्याम्– पृथ्वी पर; वा– अर्वा;नदनव– उच्चतर लोकों र्ें; देवेषु–
िेवताओ ं र्ें; वा– अर्वा; पुिः– मिर; सत्त्वम्– अमस्तत्व; प्रकृ नत-जैः– प्रकृ मत से उत्पन्न; मुिम्– र्क्त
ु ; यत्–
जो; एनभः–इनके प्रभाव से; स्वात्– हो; नत्रनभः– तीन; गणु ै ः– ग ण
ु ों से ।

इस लोक में, स्वगम लोकों में या देवताओ ं के मध्य में कोई भी ऐसाव्यनि नवद्यमाि िहीं है, जो प्रकृ नत
के तीि गुणों से मुि हो ।

५०४
तात्पयम : भगवान् इस श्लोक र्ें सर्ग्र ब्रह्माण्ड र्ें प्रकृ मत के तीनगुणों के प्रभाव का संमक्षप्त मववरण िे रहे हैं ।

ब्राह्मणक्षनत्रयनवशां श्रूद्राणां च परन्तप ।


कमामनण प्रनवभिानि स्वभावप्रभवैगमण ु ै: ।। ४१ ।।

ब्राह्मण– ब्राह्मण; क्षनत्रय– क्षमत्रय; नवशाम्– तर्ा वैश्यों का;शुद्राणाम्– शद्रू ों का; च– तर्ा; परन्तप– हे
शत्रओ
ु ं के मवजेता; कमामनण–कायमकलाप; प्रनवभिानि– मवभामजत हैं; स्वभाव– अपने स्वभाव से; प्रभवैः–
उत्पन्न; गुणैः– गुणों के द्वारा ।

हे परन्तप! ब्राह्मणों, क्षनत्रयों, वैश्यों तथा शूद्रों में प्रकृ नतके गुणों के अिुसार उिके स्वभाव द्वारा उत्पन्ि
गुणों के द्वारा भेद नकया जाता है ।

शमो दमस्तपः शौचं क्षानन्तराजमवमेव च ।


ज्ञािं नवज्ञािमानस्तक्यं ब्रह्मकमम स्वभावजम् ।। ४२ ।।

शमः– शामन्तमप्रयता; दमः– आत्र्संयर्; तपः– तपस्या; शौचम्– पमवत्रता;क्षानन्तः– समहष्ट्णतु ा; आजमवम्–
सत्यमनिा; एव– मनश्चय ही; च– तर्ा; ज्ञािम्–ज्ञान; नवज्ञािम्– मवज्ञान; आनस्तक्यम्– धामर्मकता; ब्रह्म– ब्राह्मण
का; कमम–कतमव्य; स्वभावजम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभामवक ।

शानन्तनप्रयता, आत्मसयं म, तपस्या, पनवत्रता, सनहष्ट्णतु ा, सत्यनिष्ठा, ज्ञाि,नवज्ञाि तथा धानममकता – ये


सारे स्वाभानवक गुण हैं, नजिके द्वारा ब्राह्मण कममकरते हैं ।

शौयं तेजो धृनतदामक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायिम् ।


दािमीश्र्वरभावश्र्च क्षात्रं कमम स्वभावजम् ।। ४३ ।।

शौयमम–् वीरता; तेजः– शमक्त; धृनतः– संकल्प, धैयम; दाक्ष्यम्–िक्षता;युद्धे– युद्ध र्ें; च– तर्ा; अनप–
भी; अपलायिम्– मवर्ख ु न होना; दािम्–उिारता; ईश्र्वर– नेतत्ृ व का; भवः– स्वभाव; च– तर्ा; क्षात्रम्– क्षमत्रय
का;कमम– कतमव्य; स्वभाव-जम्– स्वभाव से उत्पन्न, स्वाभामवक ।

वीरता, शनि, संकल्प, दक्षता, युद्ध में धैयम, उदारता तथा िेतृत्व –ये क्षनत्रयों के स्वाभानवक गुण हैं ।

कृ नषगोरक्ष्यवानणजयं वैश्यकमम स्वभावजम् ।


पररचयामत्मकं कमम श्रद्रू स्यानप स्वभावजम् ।। ४४ ।।

५०५
कृ नष– हल जोतना; गो– गायों की; रक्ष्य– रक्षा; वानिजयम्– व्यापार;वैश्य– वैश्य का; कमम–
कतमव्य; स्वभाव-जम्– स्वाभामवक; पररचयाम– सेवा; आत्मकम्– से युक्त; कमम– कतमव्य; शूद्रस्य– शद्रु के ; अनप–
भी; स्वभाव-जम्–स्वाभामवक ।

कृ नष करिा, गो रक्षा तथा व्यापार वैश्यों के स्वाभानवक कमम हैं औरशूद्रों का कमम श्रम तथा अन्यों की
सेवा करिा है ।

स्वे स्वे कममण्यनभरतः संनसनद्धं लभते िरः ।


स्वकममनिरतः नसनद्धं यथा नवन्दनत तच्छृ णु ।। ४५ ।।

स्वे स्वे– अपने अपने; कममनण– कर्म र्ें; अनभरतः– सल ं ग्न;सनं सनद्धम्– मसमद्ध को; लभते– प्राप्त करता
है; िरः– र्नुष्ट्य; स्व-कमम– अपनेकर्म र्ें; निरतः– लगा हुआ; नसनद्धम– मसमद्ध को; यथा– मजस प्रकार; नवदनन्त–
प्राप्त करता है; तत्– वह; शृणु– सुनो ।
अपिे अपिे कमम के गुणों का पालि करते हुए प्रत्येक व्यनि नसद्ध होसकता है । अब तुम मुझसे सुिो
नक यह नकस प्रकार नकया जा सकता है ।

यतः प्रवृनत्तभमतू ािां येि सवमनमदं ततम् ।


स्वकममणा तमभ्यच्यम नसनद्धं नवन्दनत मािवः ।। ४६ ।।

यतः - मजससे; प्रवृनत्तः - उद्भव; भतू ािाम् - सर्स्त जीवों का; येि - मजससे; सवमम् - सर्स्त; इदम् -
यह; ततम् - व्याप्त है; स्व-कममणा - अपने कर्म से; तम् - उसको; अभ्यच्यम - पूजा करके ; नसनद्धम् - मसमद्ध
को; नवन्दनत - प्राप्त करता है; मािवः - र्नष्ट्ु य ।

जो सभी प्रानणयों का उदगम् है और सवमव्यापी है, उस भगवाि् की उपासिा करके मिुष्ट्य अपिा कमम
करते हुए पूणमता प्राप्त कर सकता है ।

तात्पयम : जैसा मक पन्द्रहवें अध्याय र्ें बताया जा चक ु ा है, सारे जीव परर्ेश्र्वर के मभन्नांश हैं । इस प्रकार
परर्ेश्र्वर ही सभी जीवों के आमि हैं । वेिान्त सूत्र र्ें इसकी पुमष्ट हुई है-जन्र्ा द्यस्य यतः । अतएव परर्ेश्र्वर प्रत्येक जीव
के जीवन के उद्गर् हैं । जैसा मक भगवद्गीता के सातवें अध्याय र्ें कहा गया है, परर्ेश्र्वर अपनी परा तर्ा अपरा, इन िो
शमक्तयों द्वारा सवमव्यापी हैं । अतएव र्नुष्ट्य को चामहए मक उनकी शमक्तयों समहत भगवान् की पूजा करे । सार्ान्यतया
वैष्ट्णव जन परर्ेश्र्वर की पजू ा उनकी अन्तरंगा शमक्त सर्ेत करते हैं । उनकी बमहरंगा शमक्त उनकी अतं रंगा शमक्त का
मवकृ त प्रमतमबम्ब है । बमहरंगा शमक्त पृि भमू र् है, लेमकन परर्ेश्र्वर परर्ात्र्ा रूप र्ें पूणाांश का मवस्तार करके सवमत्र
मस्र्त हैं । वे सवमत्र सर्स्त िेवताओ,ं र्नष्ट्ु यों और पशओ ु ं के परर्ात्र्ा हैं । अतएव र्नष्ट्ु य को यह जानना चामहए मक
परर्ेश्र्वर का मभन्नांश अंश होने के कारण उसका कतमव्य है मक वह भगवान् की सेवा करे । प्रत्येक व्यमक्त को
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भगवान् की भमक्त करनी चामहए । इस श्लोक र्ें इसी की सस्ं तुमत की गई है ।

५०६
प्रत्येक व्यमक्त को सोचना चामहए मक इमन्द्रयों के स्वार्ी हृमषके श द्वारा वह मवशेष कर्म र्ें प्रवृत्त मकया गया है ।
अतएव जो मजस कर्म र्ें लगा है, उसी के िल के द्वारा भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को पूजना चामहए । यमि वह इस प्रकार से
कृ ष्ट्णभावनार्य हो कर सोचता है, तो भगवत्कृ पा से वह पूणम ज्ञान प्राप्त कर लेता है । यही जीवन की मसमद्ध है । भगवान्
ने भगवद्गीता र्ें (१२.७) कहा है - तेषार्हं सर्द्धु ताम । परर्ेश्र्वर स्वयं ऐसे भक्त का उद्धार करते हैं । यही जीवन की
सवोच्च मसमद्ध है । कोई चाहे मजस वृमत्त परक कायम र्ें लगा हो, यमि वह परर्ेश्र्वर की सेवा करता है, तो उसे सवोच्च
मसमद्ध प्राप्त होती है ।

श्रेयान्स्वधमो नवगुणः परधमामत्स्विुनष्ठतात् ।


स्वभावनियतं कमम कुवमन्िाप्िोनत नकनल्बषम् ।। ४७ ।।

श्रेयाि्– श्रेि; स्व-धममः– अपना वृमत्तपरक कायम; नवगुणः– भलीभाँमत सम्पन्न न होकर; पर-धमामत–् िसू रे के
वृमत्तपरक कायम से; सु-अिुनष्ठतात् –भलीभाँमत मकया गया; स्वभाव-नियतम् – स्वभाव के अनुसार संस्तुत; कमम–
कर्म;कुवमि–् करने से; ि– कभी नहीं; आप्िोनत– प्राप्त करता है; नकनल्बषम्– पापोंको ।

अपिे वृनत्तपरक कायम को करिा, चाहे वह नकतिा ही त्रुनटपूणम ढंग सेक्यों ि नकया जाय, अन्य नकसी
के कायम को स्वीकार करिे और अच्छी प्रकार करिे की अपेक्षा अनधक श्रेष्ठ है । अपिे स्वभाव के अिुसार
निनदमष्ट कमम कभी भी पाप से प्रभानवत िहीं होते ।

तात्पयम : भगवद्गीता र्ें र्नुष्ट्य के वृमत्तपरक कायम (स्वधर्म) कामनिेश है । जैसा मक पूवमवती श्लोकों र्ें वणमन हुआ
है, ब्राह्मण, क्षमत्रय,वैश्य तर्ा शद्रु के कतमव्य उनके मवशेष प्राकृ मतक गणु ों (स्वभाव) के द्वारामनमिमष्ट होते हैं । मकसी को
िसू रे के कायम का अनुकरण नहीं करना चामहए । जोव्यमक्त स्वभाव से शद्रु के द्वारा मकये जाने वाले कर्म के प्रमत आकृ ष्ट
हो, उसेअपने आपको झिू े ही ब्राह्मण नहीं कहना चामहए, भले ही वह ब्राह्मण कुल र्ें क्यों नउत्पन्न हुआ हो । इस तरह
प्रत्येक व्यमक्त को चामहए मक अपने स्वभाव के अनुसारकायम करे ; कोई भी कर्म मनकृ ष्ट (गमहमत) नहीं है, यमि वह
परर्ेश्र्वर की सेवा के मलए मकया जाय । ब्राह्मण का वृमत्तपरक कायम मनमश्चत रूप से सामत्त्वक है, लेमकनयमि कोई र्नुष्ट्य
स्वभाव से सामत्त्वक नहीं है, तो उसे ब्राह्मण के वृमत्तपरक कायम (धर्म)का अनुकरण नहीं करना चामहए । क्षमत्रय या
प्रशासक के मलए अनेक गमहमत बातें हैं –क्षमत्रय को शत्रुओ ं का वध करने के मलए महसं क होना पड़ता है और कभी-
कभी कूटनीमत र्ेंझिू भी बोलना पड़ता है । ऐसी महंसा तर्ा कपट राजमनमतक र्ार्लों र्ें चलता है, लेमकनक्षमत्रय से यह
आशा नहीं की जाती मक वह अपने वृमत्तपरक कतमव्य त्याग कर ब्राह्मणके कायम करने लगे ।
र्नुष्ट्य को चामहए मक परर्ेश्र्वर को प्रसन्न करने के मलए कायम करे ।उिाहरणार्म, अजुमन क्षमत्रय र्ा । वह िसू रे पक्ष
से युद्ध करने से बच रहा र्ा ।लेमकन यमि ऐसा युद्ध भगवान् कृ ष्ट्ण के मलए करना पड़े, तो पतन से घबराने की
आवश्यकतानहीं है । कभी-कभी व्यापाररक क्षेत्र र्ें भी व्यापारी को लाभ कर्ाने के मलए झिू बोलना पड़ता है । यमि वह
ऐसा नहीं करे तो उसे लाभ नहीं हो सकता । कभी-कभी व्यापारीकहता है, “अरे र्ेरे ग्राहक भाई! र्ैंआपसे कोई लाभ
नहीं ले रहा ।” लेमकन हर्ें सर्झना चामहए मक व्यापारी मबना लाभ के जीमवत नहीं रह सकता । अतएव यमि व्यापारी
यह कहता है मक वह कोई लाभ नहीं ले रहा है तोइसे एक सरल झिू सर्झना चामहए । लेमकन व्यापारी को यह नहीं
सोचना चामहए मक चँमू क वहऐसे कायम र्ें लगा है, मजसर्ें झिू बोलना आवश्यक है , अतएव उसे इस व्यवसाय

५०७
(वैश्यकर्म) को त्यागकर ब्राहर्ण की वृमत्त ग्रहण करनी चामहए । इसकी शास्त्रों द्वारासंस्तुमत नहीं की गई । चाहे कोई
क्षमत्रय हो, वैश्य हो या शद्रु , यमि वह इस कायमसे भगवान् की सेवा करता है, तो कोई आपमत्त नहीं है । कभी-कभी
मवमभन्न यज्ञों कासम्पािन करते सर्य ब्राह्मणों को भी पशओु ं की हत्या करनी होती है, क्योंमक इनअनुिानों र्ें पशु की
बमल िेनी होती है । इसी प्रकार यमि क्षमत्रय अपने कायम र्ें लगा रहकर शत्रु का वध करता है,तो उस पर पाप नहीं
चढ़ता । तृतीय अध्याय र्ें इन बातों की स्पष्ट एवं मवस्तृतव्याख्या हो चक ु ी है । हर र्नुष्ट्य को यग्य के मलए अर्वा
भगवान् मवष्ट्णु के मलए कायमकरना चामहए । मनजी इमन्द्रयतृमप्त के मलए मकया गया कोई भी कायम बन्धन का कारण
है ।मनष्ट्कषम यह मनकलता है मक र्नष्ट्ु य को चामहए मक अपने द्वारा अमजमत मवशेष गणु के अनसु ार कायम र्ें प्रवृत्त हो और
परर्ेश्र्वर की सेवा करने के मलए ही कायम करने कामनश्चय करे ।

सहजं कमम कौन्तेय सदोषमनप ि त्यजे त् ।


सवामरम्भा नह दोषेण धूमेिानग्िररवावृताः ।। ४८ ।।

सहजम्– एकसार् उत्पन्न; कमम– कर्म; कौन्तेय– हे कुन्तीपुत्र; स-दोषम्– िोषयुक्त; अनप– यद्यमप; ि– कभी
नहीं; त्यजेत–् त्यागना चामहए; सवम-आरम्भाः– सारे उद्योग; नह– मनश्चय ही; दोषेण– िोष से; धूमेि– धएु ँ
से; अनग्िः– अमग्न; इव– सदृश; आवृताः– ढके हुए ।

प्रत्येक उद्योग (प्रयास) नकसी ि नकसी दोष से आवृत होता है, नजस प्रकार अनग्ि धुएूँ से आवृत रहती
है । अतएव हे कुन्तीपुत्र! मिुष्ट्य को चानहए नक स्वभाव से उत्पन्ि कमम को, भले ही वह दोषपूणम क्यों ि
हो, कभी त्यागे िहीं ।

तात्पयम : बद्ध जीवन र्ें सारा कर्म भौमतक गुणों से िमू षत रहता है । यहाँ तक मक ब्राह्मण तक को ऐसे यज्ञ करने
पड़ते हैं, मजनर्ें पशहु त्या अमनवायम है । इसी प्रकार क्षमत्रय चाहे मकतना ही पमवत्र क्यों न हो, उसे शत्रओ ु ं से यद्ध
ु करना
पड़ता है । वह इससे बच नहीं सकता । इसी प्रकार एक व्यापारी को चाहे वह मकतना ही पमवत्र क्यों न हो, अपने व्यापार
र्ें बने रहने के मलए कभी-कभी लाभ को मछपाना पड़ता है, या कभी-कभी कालाबाजार चलाना पड़ता है । ये बातें
आवश्यक हैं, इनसे बचा नहीं जा सकता । इसी प्रकार यमि शद्रु होकर बुरे स्वार्ी की सेवा करनी पड़े, तो उसे स्वार्ी की
आज्ञा का पालन करना होता है, भले ही ऐसा नहीं होना चामहए । इन सब िोषों के होते हुए भी, र्नुष्ट्य को अपने मनमिमष्ट
कतमव्य करते रहना चामहए, क्योंमक वे स्वभावगत हैं ।
यहाँ पर एक अत्यन्त सुन्िर उिहारण मिया जाता है । यद्यमप अमग्न शद्ध ु होती है, तो भी उसर्ें धआ ु ँ रहता
है । लेमकन इतने पर भी अमग्न अशुद्ध नहीं होती । अमग्न र्ें धआ ु ँ होने पर भी अमग्न सर्स्त तत्त्वों र्ें शद्ध
ु तर् र्ानी जाती
है । यमि कोई क्षमत्रय की वृमत्त त्याग कर ब्राह्मण की वृमत्त ग्रहण करना पसन्ि करता है, तो उसको इसकी कोई मनमश्चतता
नहीं है मक ब्राह्मण वृमत्त र्ें कोई अरुमचकर कायम नहीं होंगें । अतएव कोई यह मनष्ट्कषम मनकाल सकता है मक संसार र्ें
प्रकृ मत के कल्र्ष से कोई भी पूणमतः र्ुक्त नहीं है । इस प्रसंग र्ें अमग्न तर्ा धुएँ का उिाहरण उपयुक्त है । यमि जाड़े के
मिनों र्ें कोई अमग्न से कोयला मनकालता है, तो कभी-कभी धएु ँ से आँखें तर्ा शरीर के अन्य भाग िख ु ते हैं, लेमकन इन
प्रमतकूल पररमस्र्मतयों के बावजूि भी अमग्न को तापा जाता है । इसी प्रकार मकसी को अपनी सहज वृमत्त इसमलए नहीं
त्याग िेनी चामहए मक कुछ बाधक तत्त्व आ गये हैं । अमपतु र्नुष्ट्य को चामहए मक कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रहकर अपने

५०८
वृमत्तपरक कायम से परर्ेश्र्वर की सेवा करने का संकल्प ले । यही मसमद्ध अवस्र्ा है । जब कोई भी वृमत्तपरक कायम
भगवान् को प्रसन्न करने के मलए मकया जाता है, तो उस कायम के सारे िोष शुद्ध हो जाते हैं । जब भमक्त से सम्बमन्धत
कर्मिल शद्ध
ु हो जाते हैं, तो र्नुष्ट्य अपने अन्तर का िशमन कर सकता है और यही आत्र्-साक्षात्कार है ।

असिबुनद्धः सवमत्र नजतात्मा नवगतस्पृहः ।


िैष्ट्कम्यमनसनद्धं परमां सन्न्यासेिानधगच्छनत ।। ४९ ।।

असि-बुनद्धः– आसमक्त रमहत बुमद्ध वाला; सवमत्र– सभी जगह; नजत-आत्मा– र्न के ऊपर संयर् रखने
वाला; नवगत-स्पृहः – भौमतक इच्छाओ ं से रमहत; िैष्ट्कम्यम-नसनद्धम्– मनष्ट्कर्म की मसमद्ध; परमाम्– परर्; सन्ं यासेि–
संन्यास के द्वारा; अनधगच्छनत– प्राप्त करता है ।

जो आत्मसंयमी तथा अिासि है एवं जो समस्त भौनतक भोगों की परवाह िहीं करता, वह संन्यास के
अभ्यास द्वारा कममिल से मुनि की सवोच्च नसद्ध-अवस्था प्राप्त कर सकता है ।

तात्पयम : सच्चे संन्यास का अर्म है मक र्नुष्ट्य सिा अपने को परर्ेश्र्वर का अंश र्ानकर यह सोचे मक उसे अपने
कायम के िल को भोगने का कोई अमधकार नहीं है । चँमू क वह परर्ेश्र्वर का अंश है, अतएव उसके कायम का िल
परर्ेश्र्वर द्वारा भोग जाना चामहए, यही वास्तव कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त होकर कर्म
करता है, वही वास्तव र्ें संन्यासी है । ऐसी र्नोवृमत्त होने से र्नुष्ट्य सन्तुष्ट रहता है क्योंमक वह वास्तव र्ें भगवान् के
मलए कायम कर रहा होता है । इस प्रकार वह मकसी भी भौमतक वस्तु के मलए आसक्त नहीं होता, वह भगवान् की सेवा से
प्राप्त मिव्य सख ु से परे मकसी भी वस्तु र्ें आनन्ि न लेने का आिी हो जाता है । संन्यासी को पवू म कायमकलापों के बन्धन
से र्क्त
ु र्ाना जाता है, लेमकन जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें होता है वह मबना संन्यास ग्रहण मकये ही यह मसमद्ध प्राप्त कर
लेता है । यह र्नोिशा योगारूढ़ या योग की मसद्धावस्र्ा कहलाती है । जैसा मक तृतीय अध्याय र्ें पमु ष्ट हुई है –
यस्त्वात्मरस्तरे व स्यात्– जो व्यमक्त अपने र्ें संतुष्ट रहता है, उसे अपने कर्म से मकसी प्रकार के बन्धन का भय नहीं रह
जाता ।

नसनद्धं प्राप्तो यथा ब्रह्म तथाप्िोनत निबोध मे ।


समासेिैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञािस्य या परा ।। ५० ।।

नसनद्धम् - मसमद्ध को; प्राप्तः - प्राप्त मकया हुआ; यथा - मजस तरह; ब्रह्म - परर्ेश्र्वर; तथा - उसी
प्रकार; आप्िोनत - प्राप्त करता है; निबोध - सर्झने का यत्न करो;मे - र्झु से; समासेि - संक्षेप र्ें; एव - मनश्चय
ही; कौन्तेय - हे कुन्तीपत्रु ;निष्ठा - अवस्र्ा; ज्ञािस्य - ज्ञान की; परा - मिव्य ।

हे कुन्तीपत्रु ! नजस तरह इस नसनद्ध को प्राप्त हुआ व्यनि परम नसद्धावाथा अथामत् ब्रह्म को, जो सवोच्च
ज्ञाि की अवस्था है, प्राप्त करता है, उसका मैं संक्षेप में तुमसे वणमि करूूँगा, उसे तुम जािो ।

५०९
तात्पयम : भगवान् अजुमन को बताते हैं मक मकस तरह कोई व्यमक्त के वल अपने वृमत्तपरक कायम र्े लग कर परर्
मसद्धावस्र्ा को प्राप्त कर सकता है, यमि यह कायम भगवान् के मलए मकया गया हो । यमि र्नुष्ट्य अपने कर्म के िल को
परर्ेश्र्वर की तुमष्ट के मलए ही त्याग िेता है, तो उसे ब्रह्म की चरर् अवस्र्ा प्राप्त हो जाती है । यह आत्र्-साक्षात्कार की
मवमध है । ज्ञान की वास्तमवक मसमद्ध शुद्ध कृ ष्ट्णभावनार्ृत प्राप्त करने र्ें है, इसका वणमन अगले श्लोकों र्े मकया गया है ।

बुद्ध्या नवश्रुद्ध्या युिो धृत्यात्मािं नियम्य च ।


शब्दादीनन्वषयास्ं त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्यदु स्य च ।। ५१ ।।
नवनविसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमािसः ।
ध्याियोगपरो नित्यं वैराग्यं समपु ानश्रतः ।। १२ ।।
अहङ् कारं बलं दपं कामं क्रोधं पररग्रहम् ।
नवमुच्य निमममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। ५३ ।।

बुद्ध्या - बुमद्ध से; नवशुद्धया - मनतान्त शद्ध


ु ; युिः - रत; धृत्या - धैयम से; आत्मािम् - स्व को; नियम्य -
वश र्ें करके ; च - भी; शब्द-आदीि् - शब्ि आमि; नवषयाि् - इमन्द्रय मवषयों को; त्यक्त्वा - त्यागकर; राग -
आसमक्त;द्वेषौ - तर्ा घृणा को; व्युदस्य - एक तरि रख कर; च - भी; नवनवि-सेवी - एकान्त स्र्ान र्ें रहते
हुए; लघु-आशी - अल्प भोजन करने वाला; यत - वश र्ें करके ; वाक् - वाणी; काय - शरीर; मािसः - तर्ा र्न
को; ध्याि-योगपरः - सर्ामध र्ें लीन; नित्यम् - चौबीसों घण्टे; वैराग्यम् - वैराग्य का; समुपानश्रतः - आश्रय
लेकर; अहङ् कारम् - मर्थ्या अहक ं ार को; बलम् - झिू े बल को; दपमम् - झिू े घर्ंड को; कामम् - कार्
को; क्रोधम् - क्रोध को; पररग्रहम् - तर्ा भौमतक वस्तुओ ं के संग्रह को; नवमुच्य - त्याग कर; निमममः - स्वामर्त्व की
भावना से रमहत; शान्तः - शातं ;ब्रह्म-भयू ाय - आत्र्-साक्षात्कार के मलए; कल्पते - योग्य हो जाता है ।

अपिी बनु द्ध से शद्ध


ु होकर तथा धैयमपवू मक मि को वश मे करते हुए, इनन्द्रयतृनप्त के नवषयों का त्याग
कर, राग तथा द्वेष से मुि होकर जो व्यनि एकान्त स्थाि में वास करता है, जो थोडा खाता है, जो अपिे
शरीर मि तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समानध में रहता है और पूणमतया नवरि, नमथ्या
अहंकार, नमथ्या शनि, नमथ्या गवम, काम, क्रोध तथा भौनतक वस्तुओ ं के संग्रह से मुि है, जो नमथ्या
स्वानमत्व की भाविा से रनहत तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है ।

तात्पयम : जो र्नुष्ट्य बुमद्ध द्वारा शुद्ध हो जाता है, वह अपने आपको सत्त्व गुण र्े अमधमित कर लेता है । इस
प्रकार वह र्न को वश र्े करके सिैव सर्ामध र्े रहता है । वह इमन्द्रयतृमप्त के मवषयों के प्रमत आसक्त नहीं रहता और
अपने कायों र्े राग तर्ा द्वेष से र्क्तु होता है । ऐसा मवरक्त व्यमक्त स्वभावतः एकान्त स्र्ान र्ें रहना पसन्ि करता है, वह
आवश्यकता से अमधक खाता नहीं और अपने शरीर तर्ा र्न की गमतमवमधयों पर मनयन्त्रण रखता है । वह मर्थ्या
अहक ं ार से रमहत होता है क्योंमक वह अपने को शरीर नहीं सर्झता । न ही वह अनेक भौमतक वस्तुएँ स्वीकार करके
शरीर को स्र्ूल तर्ा बलवान बनाने की इच्छा करता है । चँमू क वह िेहात्र्बमु द्ध से रमहत होता है अतेव वह मर्थ्या गवम
नहीं करता । भगवत्कृ पा से उसे मजतना कुछ प्राप्त हो जाता है, उसी से वह संतुष्ट रहता है और इमन्द्रयतृमप्त न होने पर भी
क्रूद्ध नहीं होता । न ही वह इमन्द्रयमवषयों को प्राप्त करने के मलए प्रयास करता है । इस प्रकार जब वह मर्थ्या अहक ं ार से

५१०
पणू मतया र्क्त
ु हो जाता है, तो वह सर्स्त भौमतक वस्तुओ ं से मवरक्त बन जाता है और यही ब्रह्म की आत्र्-साक्षात्कार
अवस्र्ा है । यह ब्रह्मभतू अवस्र्ा कहलाती है । जब र्नुष्ट्य िेहात्र्बुमद्ध से र्क्त
ु हो जाता है, तो वह शान्त हो जाता है
और उसे उत्तेमजत नहीं मकया जा सकता इसका वणमन भगवद्गीता र्े (२.७०) इस प्रकार हुआ है -
आपूयदमाणमचलप्रस्तष्ठां समद्रु मापः प्रस्वशस्न्त यित् ।
तित् ामा यां प्रस्वशस्न्त सवे स शास्न्तमाप्नोस्त न ाम ामी ।। ७० ।।
“जो र्नुष्ट्य इच्छाओ ं के अनवरत प्रवाह से मवचमलत नहीं होता, मजस प्रकार नमियों के जल के मनरन्तर प्रवेश
करते रहने और सिा भरते रहने पर भी सर्द्रु शातं रहता है, उसी तरह वही शामन्त प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी
इच्छाओ ं की तुमष्ट के मलए मनरन्तर उद्योग करता रहता है ।”

ब्रह्मभूतः प्रसन्िात्मा ि शोचनत ि काङ् क्षनत ।


समः सवेषु भूतेषु मिनिं लभते पराम् ।। ५४ ।।

ब्रह्म-भूतः– ब्रह्म से तिाकार होकर; प्रसन्ि-आत्मा– पूणमतया प्रर्मु ित; ि– कभी नहीं; शोचनत– खेि करता
है; ि– कभी नहीं; काङ् क्षनत– इच्छा करता है; समः– सर्ान भाव से; सवेषु– सर्स्त; भूतेष–ु जीवों पर; मत्-
भनिम्– र्ेरी भमक्त को; लभते– प्राप्त करता है; पराम्– मिव्य ।

इस प्रकार जो नदव्य पद पर नस्थत है, वह तुरन्त परब्रह्म का अिुभव करता है और पूणमतया प्रसन्ि हो
जाता है । वह ि तो कभी शोक करता है, ि नकसी वस्तु की कामिा करता है । वह प्रत्येक जीव पर समभाव
रखता है । उस अवस्था में वह मेरी शुद्ध भनि को प्राप्त करता है ।

तात्पयम : मनमवमशेषवािी के मलए ब्रह्मभतू अवस्र्ा प्राप्त करना अर्ामत् ब्रह्म से तिाकार होना परर् लक्ष्य होता
है । लेमकन साकारवािी शद्ध ु भक्त को इससे भी आगे चलकर शद्ध ु भमक्त र्ें प्रवृत्त होना होता है । इसका अर्म हुआ मक
जो भगवद्भमक्त र्ें रत है, वह पहले ही र्ुमक्त की अवस्र्ा, मजसे ब्रह्मभतू या ब्रह्म से तािात्र्य कहते हैं, प्राप्त कर चक ु ा
होता है । परर्ेश्र्वर या परब्रह्म से तिाकार हुए मबना कोई उनकी सेवा नहीं कर सकता । परर् ज्ञान होने पर सेव्य तर्ा
सेवक र्ें कोई अन्तर नहीं कर सकता, मिर भी उच्चतर आध्यामत्र्क दृमष्ट से अन्तर तो रहता ही है ।
िेहात्र्बुमद्ध के अन्तगमत, जब कोई इमन्द्रयतृमप्त के मलए कर्म करता है, तो िख ु का भागी होता है, लेमकन परर्
जगत् र्ें शद्ध
ु भमक्त र्ें रत रहने पर कोई िख ु नहीं रह जाता । कृ ष्ट्णभावनाभामवत भक्त को न तो मकसी प्रकार का शोक
होता है, न आकांक्षा होती है । चँमू क ईश्र्वर पूणम है, अतएव ईश्र्वर र्ें सेवारत जीव भी कृ ष्ट्णभावना र्ें रहकर अपने र्ें पूणम
रहता है । वह ऐसी निी के तुल्य है, मजसके जल की सारी गंिगी साि कर िी गई है । चँमू क शद्ध ु भक्त र्ें कृ ष्ट्ण के
अमतररक्त कोई मवचार ही नहीं उिते, अतएव वह प्रसन्न रहता है । वह न तो मकसी भौमतक क्षमत पर शोक करता है, न
मकसी लाभ की आकाक्ष ं ा करता है, क्योंमक वह भगवद्भमक्त से पूणम होता है । वह मकसी भौमतक भोग की आकाक्ष ं ा नहीं
करता, क्योंमक वह जानता है मक प्रत्येक जीव भगवान् का अंश है, अतएव वह उनका मनत्य िास है । वह भौमतक जगत
र्ें न तो मकसी को अपने से उच्च िेखता है और न मकसी को मनम्न । ये उच्च तर्ा मनम्न पि क्षणभगं रु हैं और भक्त को
क्षणभंगुर प्राकट्य तर्ा मतरोधान से कुछ लेना-िेना नहीं रहता । उसके मलए पत्र्र तर्ा सोना बराबर होते हैं । यह
ब्रह्मभतू अवस्र्ा है, मजसे शुद्ध भक्त सरलता से प्राप्त कर लेता है । उस अवस्र्ा र्ें परब्रह्म से तािात्र्य और अपने

५११
अमस्तत्व का मवलय नरकीय बन जाता है, स्वगम प्राप्त करने का मवचार र्ृगतृष्ट्णा लगता है और इमन्द्रयाँ मवषिंतमवहीन
सपम की भाँमत प्रतीत होती है । मजस प्रकार मवषिंतमवहीन सपम से कोई भय नहीं रह जाता उसी प्रकार स्वतः संयमर्त
इमन्द्रयों से कोई भय नहीं रह जाता । यह संसार उस व्यमक्त के मलए िख
ु र्य है, जो भौमतकता से ग्रस्त है । लेमकन भक्त के
मलए सर्स्त जगत् वैकुण्ि-तुल्य है । इस ब्रह्माण्ड का र्हान से र्हानतर् पुरुष भी भक्त के मलए एक क्षुद्र चीटीं से
अमधक र्हत्त्वपूणम नहीं होता । ऐसी अवस्र्ा भगवान् चैतन्य की कृ पा से ही प्राप्त हो सकती है, मजन्होंने इस युग र्ें शद्ध
भमक्त का प्रचार मकया ।

भक्त्या मामनभजािानत यावान्यश्र्चानस्म तत्त्वतः ।


ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा नवशते तदिन्तरम् ।। ५५ ।।

भक्त्या– शद्ध ु भमक्त से; माम्– र्झु को; अनभजािानत– जान सकता है; यावाि्– मजतना; यः च अनस्म–
जैसा र्ैं ह;ँ तत्त्वतः– सत्यतः; ततः– तत्पश्चात्; माम्– र्झु को; तत्त्वतः– सत्यतः; ज्ञात्वा– जानकर; नवशते– प्रवेश
करता है; तत्-अिन्तरम्– तत्पश्चात् ।

के वल भनि से मुझ भगवाि् को यथारूप में जािा जा सकता है । जब मिुष्ट्य ऐसी भनि से मेरे पूणम
भाविामृत में होता है, तो वह वैकुण्ठ जगत् में प्रवेश कर सकता है ।

तात्पयम : भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण तर्ा उनके स्वांशों को न तो र्नोधर्म द्वारा जाना जा सकता है, न ही अभक्तगण उन्हें
सर्झ पाते हैं । यमि कोई व्यमक्त भगवान् को सर्झना चाहता है, तो उसे शद्ध ु भक्त के पर्प्रिशमन र्ें शद्ध ु भमक्त ग्रहण
करनी होती है, अन्यर्ा भगवान् सम्बन्धी सत्य (तत्त्व) उससे सिा मछपा रहेगा । जैसा मक भगवद्गीता (७.२५) कहा जा
चक ु ा है – नाहां प्र ाशः सवदस्य– र्ैं सबों के सर्क्ष प्रकामशत नहीं होता । के वल पामण्डत्य या र्नोधर्म द्वारा ईश्र्वर को
नहीं सर्झा जा सकता । कृ ष्ट्ण को के वल वही सर्झ पाता है, जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत तर्ा भमक्त र्ें तत्पर रहता है । इसर्ें
मवश्वमवद्यालय की उपामधयाँ सहायक नहीं होती हैं ।
जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण मवज्ञान (तत्त्व) से पूणमतया अवगत है, वही वैकुण्िजगत् या कृ ष्ट्ण के धार् र्ें प्रवेश कर सकता
है । ब्रह्मभतू होने का अर्म यह नहीं है मक वह अपना स्वरूप खो बैिता है । भमक्त तो रहती ही है और जब तक भमक्त का
अमस्तत्व रहता है, तब तक ईश्र्वर, भक्त तर्ा भमक्त की मवमध रहती है । ऐसे ज्ञान का नाश र्मु क्त के बाि भी नहीं
होता । र्मु क्त का अर्म िेहात्र्बुमद्ध से र्ुमक्त प्राप्त करना है । आध्यामत्र्क जीवन र्ें वैसा ही अन्तर, वही व्यमक्तत्व
(स्वरूप) बना रहता है, लेमकन शद्ध ु कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें ही मवशते शब्ि का अर्म है ”र्झु र्ें प्रवेश करता है।” भ्रर्वश यह
नहीं सोचना चामहए मक यह शब्ि अद्वैतवाि का पोषक है और र्नुष्ट्य मनगुमण ब्रह्म से एकाकार हो जाता है । ऐसा नहीं
है । स्वशते का तात्पयम है मक र्नुष्ट्य अपने व्यमक्तत्व समहत भगवान् के धार् र्ें, भगवान् की संगमत करने तर्ा उनकी
सेवा करने के मलए प्रवेश कर सकता है । उिाहरणार्म, एक हरा पक्षी (शक ु ) हरे वृक्ष र्ें इसमलए प्रवेश नहीं करता मक वह
वृक्ष से तिाकार (लीन) हो जाय, अमपतु वह वृक्ष के िलों का भोग करने के मलए प्रवेश करता है । मनमवमशेषवािी
सार्ान्यतया सर्द्रु र्ें मगरने वाली तर्ा सर्द्रु से मर्लने वाली निी का दृष्टान्त प्रस्ततु करते हैं । यह मनमवमशेषवामियों के
मलए आनन्ि का मवषय हो सकता है, लेमकन साकारवािी अपने व्यमक्तत्व को उसी प्रकार बनाये रखना चाहता है, मजस
प्रकार सर्द्रु र्ें एक जलचर प्राणी । यमि हर् सर्द्रु की गहराई र्ें प्रवेश करें तो हर्ें अनेकानेक जीव मर्लते हैं । के वल

५१२
सर्द्रु की ऊपरी जानकारी पयामप्त नहीं है, सर्द्रु की गहराई र्ें रहने वाले जलचर प्रामणयों की भी जानकारी रखना
आवश्यक है ।
भक्त अपनी शद्ध ु भमक्त के कारण परर्ेश्र्वर के मिव्य गुणों तर्ा ऐश्र्वयों को यर्ार्म रूप र्ें जान सकता है । जैसा
मक ग्याहरवें अध्याय र्ें कहा जा चक ु ा है, के वल भमक्त द्वारा इसे सर्झा जा सकता है । इसी की पुमष्ट यहाँ भी हुई
है । र्नुष्ट्य भमक्त द्वारा भगवान् को सर्झ सकता है और उनके धार् र्ें प्रवेश कर सकता है ।
भौमतक बुमद्ध से र्मु क्त की अवस्र्ा – ब्रह्मभतू अवस्र्ा – को प्राप्त कर लेने के बाि भगवान् के मवषय र्ें श्रवण
करने से भमक्त का शभु ारम्भ होता है । जब कोई परर्ेश्र्वर के मवषय र्ें श्रवण करता है, तो स्वतः ब्रह्मभतू अवस्र्ा का
उिय होता है और भौमतक कल्र्ष – यर्ा लोभ तर्ा कार् – का मवलोप हो जाता है । जयों-जयों भक्त के हृिय से कार्
तर्ा इच्छाएँ मवलप्तु होती जाती हैं, त्यों-त्यों वह भगवद्भमक्त के प्रमत अमधक आसक्त होता जाता है और इस तरह वह
भौमतक कल्र्ष से र्क्त ु हो जाता है । जीवन की उस मस्र्मत र्ें वह भगवान् को सर्झ सकता है । श्रीमद्भागवत र्ें भी
इसका कर्न हुआ है । र्मु क्त के बाि भमक्तयोग चलता रहता है । इसकी पुमष्ट वेर्ान्तसूत्र से (4.१.१२) होती है –
आप्रायणात् तत्रास्प स्ह दृष्टम्। इसका अर्म है मक र्ुमक्त के बाि भमक्तयोग चलता रहता है । श्रीर्द्भागवत र्ें वास्तमवक
भमक्तर्यी र्मु क्त की जो पररभाषा िी गई है उसके अनुसार यह जीव का अपने स्वरूप या अपनी मनजी स्वाभामवक
मस्र्मत र्ें पुनःप्रमतिामपत हो जाना है । स्वाभामवक मस्र्मत की व्याख्या पहले ही की जा चक ु ी है – प्रत्येक जीव
परर्ेश्र्वर का अंश है, अतएव उसकी स्वाभामवक मस्र्मत सेवा करने की है । र्ुमक्त के बाि यह सेवा कभी रूकती
नहीं । वास्तमवक र्मु क्त तो िेहात्र्बुमद्ध की भ्रान्त धारणा से र्क्त
ु होना है ।

सवमकमामण्यनप सदा कुवामणो मद्व्यपाश्रयः ।


मत्प्रसादादवाप्िोनत शाश्र्वतं पदमव्ययम् ।। ५६ ।।

सवम– सर्स्त; कमामनण– कायमकलाप को; अनप– यद्यमप;सदा– सिैव; कुवामणः– करते हुए; मत्-व्यपाश्रयः –
र्ेरे सरं क्षण र्ें; मत्-प्रसादात्– र्ेरी कृ पा से; अवाप्िोनत– प्राप्त करता है; शाश्र्वतम्– मनत्य; पदम्– धार्
को; अव्ययम्– अमवनाशी ।

मेरा शुद्ध भि मेरे संरक्षण में, समस्त प्रकार के कायों में संलग्ि रह कर भी मेरी कृ पा से नित्य तथा
अनविाशी धाम को प्राप्त होता है ।

तात्पयम :मर्-् व्यपाश्रयः शब्ि का अर्म है परर्ेश्र्वर के संरक्षण र्ें । भौमतक कल्र्ष से रमहत होने के मलए शद्ध

भक्त परर्ेश्र्वर या उनके प्रमतमनमध स्वरूप गुरु के मनिेशन र्ें कर्म करता है । उसके मलए सर्य की कोई सीर्ा नहीं
है । वह सिा, चौबीसों घंटे, शत प्रमतशत परर्ेश्र्वर के मनिेशन र्ें कायों र्ें संलग्न रहता है । ऐसे भक्त पर जो
कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें रत रहता है, भगवान् अत्यमधक ियालु होते हैं । वह सर्स्त कमिनाइयों के बावजिू अन्ततोगत्वा
मिव्यधार् या कृ ष्ट्णलोक को प्राप्त करता है । वहाँ उसका प्रवेश सुमनमश्चत रहता है, इसर्ें कोई संशय नहीं है । उस परर्
धार् र्ें कोई पररवतमन नहीं होता, वहाँ प्रत्येक वस्तु शाश्र्वत, अमवनश्र्वर तर्ा ज्ञानर्य होती है ।

चेतसा सवमकमामनण मनय सन्न्यस्य मत्परः ।

५१३
बुनद्धयोगमुपानश्रत्य मनच्चत्तः सततं भव ।। ५७ ।।

चेतसा– बुमद्ध से; सवम-कमामनण– सर्स्त प्रकार के कायम; मनय– र्झु से; संन्यस्य– त्यागकर; मत्-परः– र्ेरे
सरं क्षण र्ें; बुनद्ध-योगम्– भमक्त के कायों की; अपानश्रत्य– शरण लेकर; मत्-नचत्तः– र्ेरी चेतना र्ें; सततम्–
चैमबसों घंटे; भव– होओ ।

सारे कायों के नलए मझ


ु पर निभमर रहो और मेरे सरं क्षण में सदा कमम करो । ऐसी भनि में मेरे प्रनत
पूणमतया सचेत रहो ।

तात्पयम : जब र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करता है, तो वह संसार के स्वार्ी के रूप र्ें कर्म नहीं करता । उसे
चामहए मक वह सेवक की भाँमत परर्ेश्र्वर के मनिेशानुसार कर्म करे । सेवक को स्वतत्रं ता नहीं रहती । वह के वल अपने
स्वार्ी के आिेश पर कायम करता है, उस पर लाभ-हामन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता । वह भगवान् के आिेशानुसार
अपने कतमव्य का सच्चे मिल से पालन करता है । अब कोई यह तकम िे सकता है मक अजुमन कृ ष्ट्ण के व्यमक्तगत
मनिेशानुसार कायम कर रहा र्े, लेमकन जब कृ ष्ट्ण उपमस्र्त न हों तो कोई मकस तरह कायम करें ? यमि कोई इस पुस्तक र्ें
मिए गये कृ ष्ट्ण के मनिेश के अनुसार तर्ा कृ ष्ट्ण के प्रमतमनमध के र्ागमिशमन र्ें कायम करता है, तो उसका िल वैसा ही
होगा । इस श्लोक र्ें मत्परः शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । यह सूमचत करता है मक र्नुष्ट्य जीवन र्ें कृ ष्ट्ण को प्रसन्न करने
के मलए कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कायम करने के अमतररक्त अन्य कोई लक्ष्य नहीं होता । जब वह इस प्रकार कायम कर
रहा हो तो उसे के वल कृ ष्ट्ण का ही मचन्तन इस प्रकार से करना चामहए – “कृ ष्ट्ण ने र्झु े इस मवशेष कायम को पूरा करने
के मलए मनयुक्त मकया है ।” और इस तरह कायम करते हुए उसे स्वाभामवक रूप से कृ ष्ट्ण का मचन्तन हो आता है । यही
पणू म कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । मकन्तु यह ध्यान रहे मक र्नर्ाना कर्म करके उसका िल परर्ेश्र्वर को अमपमत न मकया
जाय । इस प्रकार का कायम कृ ष्ट्णभावनार्ृत की भमक्त र्ें नहीं आता । र्नुष्ट्य को चामहए मक कृ ष्ट्ण के आिेशानुसार कर्म
करे । यह अत्यन्त र्हत्त्वपणू म बात है । कृ ष्ट्ण का यह आिेश गरुु -परम्परा द्वारा प्रर्ामणक गरुु से प्राप्त होता है । अतएव गरुु
के आिेश को जीवन का र्ल ू कतमव्य सर्झना चामहए । यमि मकसी को प्रर्ामणक गुरु प्राप्त हो जाता है और वह
मनिेशानुसार कायम करता है, तो कृ ष्ट्णभावनार्ाय जीवन की मसमद्ध सुमनमश्र्चत है ।

मनच्चत्तः सवमदुगामनण मत्प्रसादात्तररष्ट्यनस ।


अथ चेत्त्वमहङ् कारान्ि श्रोष्ट्यनस नविङ् क्ष्यनस ।। ५८ ।।

मत्– र्ेरी; नचत्तः– चेतना र्ें; सवम– सारी; दुगामनण– बाधाओ ं को; मत्-प्रसादात् – र्ेरी कृ पा से; तररष्ट्यनस–
तुर् पार कर सकोगे; अथ– लेमकन; चे त–् यमि; त्वम्– तुर्; अहङ् कारात्– मर्थ्या अहक ं ार से; ि श्रोष्ट्यनस– नहीं
सनु ते हो; नविङ् क्ष्यनस– नष्ट हो जाओगे ।

यनद तमु मुझसे भाविाभानवत होगे, तो मेरी कृ पा से तमु बद्ध जीवि के सारे अवरोधों को लाूँघ
जाओगे । लेनकि यनद तुम नमथ्या अहंकारवश ऐसी चेतिा में कमम िहीं करोगे और मेरी बात िहीं सुिोगे, तो
तुम नविष्ट हो जाओगे ।

५१४
तात्पयम : पूणम कृ ष्ट्णभावनाभामवत व्यमक्त अपने अमस्तत्व के मलए कतमव्य करने के मवषय र्ें आवश्यकता से
अमधक उमद्वग्न नहीं रहता । जो र्ख ु म है, वह सर्स्त मचन्ताओ ं से र्क्त ु कै से रहे, इस बात को वह सर्झ नहीं सकता । जो
व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करता है, भगवान् कृ ष्ट्ण उसके घमनष्ट मर्त्र बन जाते हैं । वे सिैव अपने मर्त्र की सुमवधा
का ध्यान रखते हैं और जो मर्त्र चौबीसों घंटे उन्हें प्रसन्न करने के मलए मनिापूवमक कायम र्ें लगा रहता है, वे उसको
आत्र्िान कर िेते हैं । अतएव मकसी को िेहात्र्बुमद्ध के मर्थ्या अह्नाकार र्ें नहीं बह जाना चामहए । उसे झिू े ही यह
नहीं सोचना चामहए मक वह प्रकृ मत के मनयर्ों से स्वतन्त्र है, या कर्म करने के मलए र्क्त ु है । वह पहले से किोर भौमतक
मनयर्ों के अधीन है । लेमकन जैसे ही वह कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कर्म करता है, तो वह भौमतक िमु श्चन्ताओ ं से र्क्त ु
हो जाता है । र्नष्ट्ु य को यह भलीभाँमत जान लेना चामहए मक जो कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें समक्रय नहीं है, वह जन्र्-र्ृत्यु रूपी
सागर के भंवर र्ें पड़कर अपना मवनाश कर रहा है । कोई भी बद्धजीव यह सही सही नहीं जानता मक क्या करना है और
क्या नहीं करना है, लेमकन जो व्यमक्त कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर कर्म अन्तर से करता है, वह कर्म करने के मलए र्क्त ु
है, क्योंमक प्रत्येक मकया हुआ कर्म कृ ष्ट्ण द्वारा प्रेररत तर्ा गुरु द्वारा पुष्ट होता है ।

यदहङ् कारमानश्रत्य ि योत्स्य इनत मन्यसे ।


नमथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृ नतस्त्वां नियोक्ष्यनत ।। ५९ ।।

यत् - यमि; अहंकारम् - मर्थ्या अहक ं ार की; आनश्रत्य - शरण लेकर; ि योत्स्ये - र्ैं नहीं लडूँगा; इनत - इस
प्रकार; मन्यसे - तुर् सोचते हो; नमथ्या एष - तो वह सब झिू है; व्यवसायः - संकल्प; ते - तुम्हारा; प्रकृ नतः -
भौमतक प्रकृ मत; त्वाम् - तुर्को; नियोक्ष्यनत - लगा लेगी ।

यनद तुम मेरे निदेशािुसार कमम िहीं करते और युद्ध में प्रवृत्त िहीं होते हो, तो तुम कुमागम पर जाओगे ।
तम्ु हें अपिे स्वभाव वश यद्ध ु में लगिा पडेगा ।

तात्पयम : अजुमन एक सैमनक र्ा और क्षमत्रय स्वभाव लेकर जन्र्ा र्ा । अतएव उसका स्वाभामवक कतमव्य र्ा
मक वह युद्ध करे । लेमकन मर्थ्या अहक ं ारवश वह डर रहा र्ा मक अपने गुरु, मपतार्ह तर्ा मर्त्रों का वध करके वह पाप
का भागी होगा । वास्तव र्ें वह अपने को अपने कर्ों का स्वार्ी जान रहा र्ा, र्ानो वही ऐसे कर्ों के अच्छे -बुरे िलों
का मनिेशन कर रहा हो । वह भल ू गया मक वहाँ पर साक्षात् भगवान् उपमस्र्त हैं और उसे युद्ध करने का आिेश िे रहे
हैं । यही है बद्धजीव की मवस्र्ृमत । परर् पुरुष मनिेश िेते हैं मक क्या अच्छा है और क्या बुरा है और र्नुष्ट्य को जीवन-
मसमद्ध प्राप्त करने के मलए के वल कृ ष्ट्ण भावना र्ृत र्ें कर्म करना है । कोई भी अपने भाग्य का मनणमय ऐसे नहीं कर
सकता जैसे भगवान् कर सकते हैं । अतएव सवोत्तर् र्ागम यही है मक परर्ेश्र्वर से मनिेश प्राप्त करके कर्म मकया जाय ।
भगवान् या भगवान् के प्रमतमनमध स्वरूप गरुु के आिेश की वह कभी उपेक्षा न करे । भगवान् के आिेश को मबना मकसी
महचक के पूरा करने के मलए वह कर्म करे - इससे सभी पररमस्र्यों र्ें सुरमक्षत रहा जा सके गा ।

स्वभावजेि कौन्तेय निबद्धः स्वेि कममणा ।


कतंु िेच्छनस यन्मोहात्कररष्ट्यस्यवशोSनप तत् ।। ६० ।।

५१५
स्वभाव-जेि - अपने स्वभाव से उत्पन्न;कौन्तेय - हे कुन्तीपुत्र; निबद्धः - बद्ध; स्वेि - तुर् अपने; कममणा -
कायमकलापों से; कतममु ् - करने के मलए; ि - नहीं; इच्छनस - इच्छा करते हो; यत् - जो; मोहात् - र्ोह
से; कररष्ट्यनस - करोगे; अवशः - अमनच्छा से; अनप - भी; तत् - वह ।

इस समय तुम मोहवश मेरे निदेशािुसार कमम करिे से मिा कर रहे हो । लेनकि हे कुन्तीपुत्र! तुम अपिे
ही स्वभाव से उत्पन्ि कमम द्वारा बाध्य होकर वही सब करोगे ।

तात्पयम : यमि कोई परर्ेश्र्वर के मनिेशानसु ार कर्म करने से र्ना करता है, तो वह उन गणु ों द्वारा कर्म करने के
मलए बाध्य होता है, मजनर्ें वह मस्र्त होता है । प्रत्येक व्यमक्त प्रकृ मत के गुणों के मवशेष संयोग के वशीभतू है और
तिानुसार कर्म करता है । मकन्तु जो स्वेच्छा से परर्ेश्र्वर के मनिेशानुसार कायमरत रहता है, वही गौरवामन्वत होता है ।

ईश्र्वरः सवमभूतािां हृद्देशेऽजमिु नतष्ठनत ।


रामयन्सवमभूतानि यन्त्रारुढानि मायया ।। ६१ ।।

ईश्र्वरः– भगवान्; सवम-भूतािाम्– सर्स्त जीवों के ; हृत्-देशे– हृिय र्ें; अजमिु – हे अजुमन; नतष्ठनत– वास
करता है; रामयि्– भ्रर्ण करने के मलए बाध्य करता हुआ; सवम-भूतानि– सर्स्त जीवों को; यन्त्र– यन्त्र
र्ें; आरुढानि– सवार, चढ़े हुए;मायया– भौमतक शमक्त के वशीभतू होकर ।

हे अजमिु ! परमेश्र्वर प्रत्येक जीव के हृदय में नस्थत हैं और भौनतक शनि से निनममत यन्त्र में सवार की
भाूँनत बैठे समस्त जीवों को अपिी माया से घुमा (भरमा) रहे हैं ।

तात्पयम : अजुमन परर् ज्ञाता न र्ा और लड़ने या न लड़ने का उसका मनणमय उसके क्षुद्र मववेक तक सीमर्त
र्ा । भगवान् कृ ष्ट्ण ने उपिेश मिया मक जीवात्र्ा (व्यमक्त) ही सवेसवाम नहीं है । भगवान् या स्वयं कृ ष्ट्ण अन्तयामर्ी
परर्ात्र्ा रूप र्ें हृिय र्ें मस्र्त होकर जीव को मनिेश िेते हैं । शरीर-पररवतमन होते ही जीव अपने मवगत कर्ों को भल ू
जाता है, लेमकन परर्ात्र्ा जो भतू , वतमर्ान तर्ा भमवष्ट्य का ज्ञाता है, उसके सर्स्त कायों का साक्षी रहता है । अतएव
जीवों के सभी कायों का संचालन इसी परर्ात्र्ा द्वारा होता है । जीव मजतना योग्य होता है उतना ही पाता है और उस
भौमतक शरीर द्वारा वहन मकया जाता है, जो परर्ात्र्ा के मनिेश र्ें भौमतक शमक्त द्वारा उत्पन्न मकया जाता है । जयोंही
जीव को मकसी मवशेष प्रकार के शरीर र्ें स्र्ामपत कर मिया जाता है, वह शारीररक अवस्र्ा के अन्तगमत कायम करना
प्रारम्भ कर िेता है । अत्यमधक तेज र्ोटरकार र्ें बैिा व्यमक्त कर् तेज कार र्ें बैिे व्यमक्त से अमधक तेज जाता है, भले
ही जीव अर्ामत् चालक एक ही क्यों न हो । इसी प्रकार परर्ात्र्ा के आिेश से भौमतक प्रकृ मत एक मवशेष प्रकार के
जीव के मलए एक मवशेष शरीर का मनर्ामण करती है, मजससे वह अपनी पूवम इच्छाओ ं के अनुसार कर्म कर सके । जीव
स्वतन्त्र नहीं होता । र्नुष्ट्य हो यह नहीं सोचना चामहए मक वह भगवान् से स्वतन्त्र है । व्यमक्त तो सिैव भगवान् के
मनयन्त्रण र्ें रहता है । अतएव उसका कतमव्य है मक वह शरणागत हो और अगले श्लोक का यही आिेश है ।

५१६
तमेव शरणं गच्छ सवमभावेि भारत ।
तत्प्रसादात्परां शानन्तं स्थािं प्राप्स्यनस शाश्र्वतम् ।। ६२ ।।

तम् - उसकी; एव - मनश्चय ही; शरणम् गच्छ - शरण र्ें जाओ; सवम-भावेि - सभी प्रकार से; भारत - हे
भरतपुत्र; तत्-प्रसादात् - उसकी कृ पा से; पराम् - मिव्य;शानन्तम् - शामन्त को; स्थािम् - धार् को; प्राप्स्यनस - प्राप्त
करोगे; शाश्र्वतम् - शाश्र्वत ।

हे भारत! सब प्रकार से उसी की शरण में जाओ । उसकी कृ पा से तुम परम शानन्त को तथा परम
नित्यधाम को प्राप्त करोगे ।

तात्पयम : अतएव जीव को चामहए मक प्रत्येक हृिय र्ें मस्र्त भगवान् की शरण ले । इससे इस ससं ार के सर्स्त
प्रकार के िख ु ों से छुटकारा मर्ल जाएगा । ऐसी शरण पाने से र्नुष्ट्य न के वल इस जीवन के सारे कष्टों से छुटकारा पा
सके गा, अमपतु अन्त र्ें वह परर्ेश्र्वर के पास पहुचँ जाएगा । वैमिक सामहत्य र्ें (ऋग्वेि १.२२.२०) मिव्य
जगत् तस्िष्णोः परमां पर्म् के रूप र्ें वमणमत है ।चँमू क सारी सृमष्ट ईश्र्वर का राजय है, अतएव इसकी प्रत्येक भौमतक वास्तु
वास्तव र्ें आध्यामत्र्क है, लेमकन परमां पर्म् मवशेषतया मनत्यधार् को बताता है,जो आध्यामत्र्क आकाश या वैकुण्ि
कहलाता है ।
भगवद्गीता के पन्द्रहवें अध्याय र्ें कहा गया है - सवदस्य चाहां हृस्र् सस्न्नस्वष्टः - भगवान् प्रत्येक जीव के हृिय र्ें
मस्र्त हैं ।अतएव इस कर्न मक र्नुष्ट्य अन्तःमस्र्त परर्ात्र्ा की शरण ले, का अर्म है मक वह भगवान् कृ ष्ट्ण की शरण
ले । कृ ष्ट्ण को पहले ही अजुमन ने परर् स्वीकार कर मलया है । िसवें अध्याय र्ें उन्हें परम ब्रह्म परम धाम के रूप र्ें
स्वीकार मकया जा चक ु ा है ।अजमनु ने कृ ष्ट्ण को भगवान् तर्ा सर्स्त जीवों के परर् धार् के रूप र्ें स्वीकार कर रखा
है, इसमलए नहीं मक यह उसका मनजी अनुभव है, वरन् इसमलए भी मक नारि, अमसत, िेवल, व्यास जैसे र्हापुरुष इसके
प्रर्ाण हैं ।

इनत ते ज्ञािमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया ।


नवमृश्यैतदशेषेण यथेच्छनस तथा कुरु ।। ६३ ।।

इनत - इस प्रकार; ते - तुर्को; आख्यातम् - वणमन मकया गया; गुह्यात् - गुह्य से; गुह्य-तरम् - अमधक
गुह्य; मया - र्ेरे द्वारा; नवमृश्य - र्नन करके ; एतत् - इस; अशेषेण - पूणमतया; यथा - जैस;े इच्छनस - इच्छा
हो; तथा - वैसा ही; कुरु - करो ।

इस प्रकार मैंिे तम्ु हें गह्य


ु तर ज्ञाि बतला नदया । इस पर परू ी तरह से मिि करो और तब जो चाहे सो
करो ।

५१७
तात्पयम : भगवान् ने पहले ही अजुमन को ब्रहभतू ज्ञान बतला मिया है । जो इस ब्रहभतू अवस्र्ा र्ें होता है, वह
प्रसन्न रहता है,न तो वह शोक करता है, न मकसी वस्तु की कार्ना करता है । ऐसा गुह्यज्ञान के कारण होता है । कृ ष्ट्ण
परर्ात्र्ा का ज्ञान भी प्रकट करते हैं । यह ब्रह्मज्ञान भी है, लेमकन यह उससे श्रेि है ।
यहाँ पर यथेचछस्स तर्ा कुरु - जैसे इच्छा हो वैसा करो - यह सूमचत करता है मक ईश्र्वर जीव की यमत्कंमचत
स्वतन्त्रता र्ें हस्तक्षेप नहीं करता । भगवद्गीता र्ें भगवान् ने सभी प्रकार से यह बतलाया है मक कोई अपनी जीवन िशा
को मकस प्रकार अच्छी बना सकता है । अजुमन को उनका सवमश्रेि उपिेश यह है मक हृिय र्ें आसीन परर्ात्र्ा की
शरणागत हुआ जाए । सही मववेक से र्नुष्ट्यको परर्ात्र्ा के आिेशानुसार कर्म करने के मलए तैयार होना चामहए । इससे
र्नुष्ट्य मनरन्तर कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें मस्र्त हो सके गा,जो र्ानव जीवन की सवोच्च मसमद्ध है । अजुमन को भगवान् प्रत्यक्षतः
यद्ध
ु करने का आिेश िे रहे हैं । शरणागत होने के पवू म जहाँ तक बमु द्ध कार् करे र्नष्ट्ु य को इस मवषय पर र्नन करने की
छूट मर्ली है और भगवान् के आिेश को स्वीकार करने की यहीसवोत्तर् मवमध है । ऐसा आिेश कृ ष्ट्ण के प्रार्ामणक
प्रमतमनमधस्वरूप गुरु के र्ाध्यर् से भी प्राप्त होता है ।

सवमगुह्यतमं भूयः श्रृणु मे परमं वचः ।


इष्टोऽनस मे दृढनमनत ततो वक्ष्यानम ते नहतम् ।। ६४ ।।

सवम-गुह्य-तमम् - सबों र्ें अत्यन्त गुह्य; भूयः - पुनः; शृणु - सुनो; मे - र्झु से; परमम् - परर्; वचः -
आिेश; इष्टःअनस - तुर्मप्रय हो; मे - र्ेरे, र्झु को; दृढम् - अत्यन्त;इनत - इस प्रकार; ततः - अतएव; वक्ष्यानम - कह
रहा ह;ँ ते - तुम्हारे ; नहतम् -लाभ के मलए ।

चूँनू क तमु मेरे अत्यन्त नप्रय नमत्र हो, अतएव मैं तम्ु हें अपिा परम आदेश, जो सवामनधक गह्य
ु ज्ञाि
है, बता रहा हूँ ।इसे अपिे नहत के नलए सुिो ।

तात्पयम : अजुमन को गुह्यज्ञान (ब्रह्मज्ञान) तर्ा गुह्यतरज्ञान (परर्ात्र्ा ज्ञान) प्रिान करने के बाि भगवान् अब उसे
गुह्यतर्ज्ञान प्रिान करने जा रहे हैं - यह है भगवान् के शरणागत होने का ज्ञान । नवें अध्याय र्ें उन्होंने कहा र्ा -
मन्मनाः - सिैवर्ेरा मचन्तन करो । उसी आिेश को यहाँ पर भगवद्गीता के सार के रूप र्ें जोर िेने के मलए िहु राया जा
रहा है, यह सार सार्ान्यजन की सर्झ र्ें नहीं आता । लेमकन जो कृ ष्ट्ण को सचर्ुच अत्यन्त मप्रय है, कृ ष्ट्ण का शद्ध ु भक्त
है, वह सर्झ लेता है । सारे वैमिक सामहत्य र्ें यह सवाममधक र्हत्त्वपूणम आिेश है । इस प्रसंग र्ें जो कुछ कृ ष्ट्ण कहते
हैं,वह ज्ञान का सवाममधक र्हत्त्वपूणम अंश है और इसका पालन न के वल अजुमन द्वारा होना चामहए, अमपतु सर्स्त जीवों
द्वारा होना चामहए ।

मन्मिा भव मििो मद्याजी मां िमस्कुरु ।


मामेवैष्ट्यनस सत्यं ते प्रनतजािे नप्रयोऽनस मे ।। ६५ ।।

५१८
मत्-मिाः - र्ेरे मवषय र्ें सोचते हुए; भव - होओ; मत्-भिः - र्ेरा भक्त; मत्-याजी - र्ेरा पूजक;माम् -
र्झु को; िमस्कुरु - नर्स्कार करो;माम् - र्ेरे पास; एव - ही; एष्ट्यनस - आओगे; सत्यम् - सच-सच; ते -
तुर्से; प्रनतजािे - वायिा या प्रमतज्ञा करता ह;ँ नप्रयः - मप्रय;अनस - हो; मे - र्झु को ।

सदैव मेरा नचन्ति करो, मेरे भि बिो, मेरी पूजा करो और मुझे िमस्कार करो । इस प्रकार तुम निनश्चत
रूप से मेरे पास आओगे । मैं तुम्हें वचि देता हूँ, क्योंनक तुम मेरे परम नप्रयनमत्र हो ।

तात्पयम : ज्ञान का गुह्यतर् अंश है मक र्नुष्ट्य कृ ष्ट्ण का शद्ध


ु भक्त बने, सिैव उन्हीं का मचन्तन करे और उन्हीं के
मलए कर्म करे । व्यावसामयक ध्यानी बनना कमिन नहीं । जीवन को इस प्रकार ढालना चामहए मक कृ ष्ट्ण का मचन्तन
करने का सिा अवसर प्राप्त हो । र्नुष्ट्य इस प्रकार कर्म करे मक उसके सारे मनत्य कर्म कृ ष्ट्ण के मलए हों । वह अपने
जीवन को इस प्रकार व्यवमस्र्त करे मक चौबीसों घण्टे कृ ष्ट्ण का ही मचन्तन करता रहे और भगवान् की प्रमतज्ञा है मक
जो इस प्रकार कृ ष्ट्णभावनार्ाय होगा, वह मनमश्चत रूप से कृ ष्ट्णधार् को जाएगा जहाँ वह साक्षात् कृ ष्ट्ण के सामन्नध्य र्ें
रहेगा । यह गुह्यतर् ज्ञान अजुमन को इसीमलए बताया गया, क्योंमक वह कृ ष्ट्ण का मप्रय मर्त्र (सखा) है । जो कोई भी
अजुमन के पर् का अनुसरण करता है, वह कृ ष्ट्ण का मप्रय सखा बनकर अजुमन जैसी ही मसमद्ध प्राप्त कर सकता है ।
ये शब्ि इस बात पर बल िेते हैं मक र्नुष्ट्य को अपना र्न उस कृ ष्ट्ण पर एकाग्र करना चामहए जो िोनों हार्ों र्ें
वंशीधारण मकये, सुन्िर र्ख ु वाले तर्ा अपने बालों र्ें र्ोर पंख धारण मकये हुए साँवले बालक के रूप र्ें हैं । कृ ष्ट्ण का
वणमन ब्रह्मसांस्हता तर्ा अन्य ग्रर्ों र्ें पाया जाता है । र्नुष्ट्य को परर् ईश्र्वर के आमि रूप कृ ष्ट्ण पर अपने र्न को एकाग्र
करना चामहए । उसे अपने र्न को भगवान् के अन्य रूपों की ओर नहीं र्ोड़ना चामहए । भगवान् के नाना रूप हैं, यर्ा
मवष्ट्ण,ु नारायण,रार्, वराह आमि । मकन्तु भक्त को चामहए मक अपने र्न को उस एक रूप पर के मन्द्रत करे जो अजुमन के
सर्क्ष र्ा । कृ ष्ट्ण के रूप पर र्न की यह एकाग्रता ज्ञान का गह्य ु तर् अश ं है मजसका प्रकटीकरण अजमनु के मलए मकया
गया, क्योंमक वह कृ ष्ट्ण का अत्यन्त मप्रय सखा है ।

सवमधमामन्पररत्यजय मामेकं शरणं व्रज ।


अहं त्वां सवमपापेभ्यो मोक्षनयष्ट्यानम मा श्रुचः ।। ६६ ।।

सवम-धमामि् - सर्स्त प्रकार के धर्म; पररत्यजय - त्यागकर; माम् - र्ेरी; एकम् - एकर्ात्र;शरणम् - शरण
र्ें; व्रज - जाओ; अहम् - र्ैं; त्वाम् - तुर्को; सवम - सर्स्त; पापेभ्यः - पापों से; मोक्षनयष्ट्यानम - उद्धार
करूँगा;मा - र्त; शुचः - मचन्ता करो ।

समस्त प्रकार के धमों का पररत्याग करो और मेरी शरण में आओ । मैं समस्त पापों से तुम्हारा उद्धार
कर दूगूँ ा । डरो मत ।

तात्पयम : भगवान् ने अनेक प्रकार के ज्ञान तर्ा धर्म की मवमधयाँ बताई हैं - परब्रह्म का ज्ञान, परर्ात्र्ा का
ज्ञान, अनेक प्रकार के आश्रर्ों तर्ा वणों का ज्ञान, संन्यास का ज्ञान, अनासमक्त, इमन्द्रय तर्ा र्न का संयर्, ध्यान आमि
का ज्ञान । उन्होंने अनेक प्रकार से नाना प्रकार के धर्ों का वणमन मकया है । अब, भगवद्गीता का सार प्रस्तुत करते हुए

५१९
भगवान् कहते हैं मक हे अजुमन! अभी तक बताई गई सारी मवमधयों का पररत्याग करके , अब के वल र्ेरी शरण र्ें आओ
। इस शरणागमत से वह सर्स्त पापों से बच जाएगा, क्योंमक भगवान् स्वयं उसकी रक्षा का वचन िे रहे हैं ।
सातवें अध्याय र्ें यह कहा गया र्ा मक वही कृ ष्ट्ण की पूजा कर सकता है, जो सारे पापों से र्क्त ु हो गया हो ।
इस प्रकार कोई यह सोच सकता है मक सर्स्त पापों से र्क्त ु हुए मबना कोई शरणागमत नहीं पा सकता है । ऐसे सन्िेह के
मलए यहाँ यह कहा गया है मक कोई सर्स्त पापों ऐ र्क्त ु न भी हो तो के वल श्री कृ ष्ट्ण के शरणागत होने पर स्वतः र्क्त ु
कर मिया जाता है । पापों से र्क्त ु होने के मलए किोर प्रयास करने की कोई आवश्यकता नहीं है । र्नुष्ट्य को मबना
मझझक के कृ ष्ट्ण को सर्स्त जीवों के रक्षक के रूप र्ें स्वीकार कर लेना चामहए । उसे चामहए मक श्रद्धा तर्ा प्रेर् से
उनकी शरण ग्रहण करे ।
हरर भस्ि स्वलास र्ें (११.६७६) कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करने की मवमध का वणमन हुआ है -
आनु ू ल्यस्य सङ ल्पः प्रास्त ू ल्यस्य वजदनम् ।
रस्क्षष्यतीस्त स्वश्र्वासो गोप्तृत्वे वरणां तथा ।
आत्मस्नक्षेप ापदण्ये षड् स्वधा शरणागस्तः ।।
भमक्तयोग के अनुसार र्नुष्ट्य हो वही धर्म स्वीकार करना चामहए, मजससे अन्ततः भगवद्भमक्त हो सके । सर्ाज र्ें
अपनी मस्र्मत के अनुसार कोई एक मवशेष कर्म कर सकता है, लेमकन यमि अपना कर्म करने से कोई कृ ष्ट्णभावनार्ृत
तक नहीं पहुचँ पाता,तो उसके सारे कायमकलाप व्यर्म हो जाते हैं । मजस कर्म से कृ ष्ट्णभावनार्ृत की पूणामवस्र्ा न प्राप्त हो
सके उससे बचना चामहए । र्नुष्ट्य को मवश्र्वास होना चामहए मक कृ ष्ट्ण सर्स्त पररमस्र्मतयों र्ें उसकी सभी कमिनाइयों
से रक्षा करें गे । इसके मवषय र्ें सोचने की कोई आवश्यकता नहीं मक जीवन-मनवामह कै से होगा? कृ ष्ट्ण इसको
सँभालेंगे । र्नुष्ट्य को चामहए मक वह अपने आप को मनस्सहाय र्ाने और अपने जीवन की प्रगमत के मलए कृ ष्ट्ण को ही
अवलम्ब सर्झे । पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत होकर भगवद्भमक्त र्ें प्रवृत्त होते ही वह प्रकृ मत के सर्स्त कल्र्ष से र्क्त
ु हो जाता
है । धर्म की मवमवध मवमधयाँ हैं और ज्ञान, ध्यानयोग आमि जैसे शद्ध ु करने वाले अन ि
ु ान हैं
, ले मकन जो कृ ष्ट्ण के
शरणागत हो जाता है, उसे इतने सारे अनुिानों के पालन की आवश्यकता नहीं रह जाती । कृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाने र्ात्र
से वह व्यर्म सर्य गँवाने से बच जाएगा । इस प्रकार वह तरु न्त सारी उन्नमत कर सकता है और सर्स्त पापों से र्क्त ु हो
सकता है ।
श्रीकृ ष्ट्ण की सुन्िर छमव के प्रमत र्नुष्ट्य को आकृ ष्ट होना चामहए । उनका नार् कृ ष्ट्ण इसीमलए पड़ा, क्योंमक वे
सवामकषमक हैं । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण की सुन्िर, सवमशमक्तर्ान छमव से आकृ ष्ट होता है, वह भाग्यशाली है । अध्यात्र्वािी
कई प्रकार के होते हैं - कुछ मनगुमण ब्रह्म के प्रमत आकृ ष्ट होते हैं, कुछ परर्ात्र्ा के प्रमत लेमकन जो भगवान् के साकार
रूप के प्रमत आकृ ष्ट होता है और इससे भी बढ़कर जो साक्षात् भगवान् कृ ष्ट्ण के प्रमत आकृ ष्ट होता है, वह सवोच्च
योगी है । िसू रे शब्िों र्ें, अनन्यभाव से कृ ष्ट्ण की भमक्त गुह्यतर् ज्ञान है और सम्पूणम गीता का यही सार
है । कर्मयोगी, िाशममनक, योगी तर्ा भक्त सभी अध्यात्र्वािी कहलाते हैं, लेमकन इनर्ें से शुद्धभक्त ही सवमश्रेि है । यहाँ
पर मा शचु ः (र्त डरो, र्त मझझको, र्त मचन्ता करो) मवमशष्ट शब्िों का प्रयोग अत्यन्तसार्मक है । र्नुष्ट्य को यह मचन्ता
होती है मक वह मकस प्रकार सारे धर्ों को त्यागे और एकर्ात्र कृ ष्ट्ण की शरण र्ें जाए,लेमकन ऐसी मचन्ता व्यर्म है ।

इदं ते िातपस्काय िाभिाय कदाचि ।


ि चाश्रुश्रूषवे वाच्यं ि च मां योऽभ्यसूयनत ।। ६७ ।।

५२०
इदम् - यह; ते - तुम्हारे द्वारा; ि - कभी नहीं; अतपस्काय - असंयर्ी के मलए; ि - कभी नहीं; अभिाय -
अभक्त के मलए;कदाचि - मकसी सर्य; ि - कभी नहीं; च - भी; अशुश्रूष्ट्वे - जो भमक्त र्ें रत नहीं है; वाच्यम् - कहने
के मलए; ि - कभी नहीं; च - भी; माम् - र्ेरे प्रमत; यः - जो; अभ्यसूयनत - द्वेष करता है ।

यह गुह्यज्ञाि उिको कभी भी ि बताया जाय जो ि तो संयमी हैं, ि एकनिष्ठ, ि भनि में रत हैं, ि ही उसे
जो मुझसे द्वेष करता हो ।

तात्पयम : मजन लोगों ने तपस्यार्य धामर्मक अनुिान नहीं मकये, मजन्होंने कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें भमक्त का कभी
प्रयत्न नहीं मकया, मजन्होंने मकसी शद्ध ु भक्त की सेवा नहीं की तर्ा मवशेषतया जो लोग कृ ष्ट्ण को के वल ऐमतहामसक
पुरुष र्ानते हैं, या जो कृ ष्ट्ण की र्हानता से द्वेष रखते हैं, उन्हें यह परर् गुह्यज्ञान नहीं बताना चामहए । लेमकन कभी-कभी
यह िेखा जाता है मक कृ ष्ट्ण से द्वेष रखने वाले आसुरी पुरुष भीकृ ष्ट्ण की पूजा मभन्न प्रकार से करते हैं और व्यवसाय
चलाने के मलए भगवद्गीता का प्रवचन करने का धंधा अपना लेते हैं ।लेमकन जो सचर्चु कृ ष्ट्ण को जानने का इच्छुक
हो उसे भगवद्गीता के ऐसे भाष्ट्यों से बचना चामहए । वास्तव र्ें कार्ी लोग भगवद्गीता के प्रयोजन को नहीं सर्झ
पाते । यमि कोई कार्ी भी न हो और वैमिक शास्त्रों द्वारा आमिष्ट मनयर्ों का दृढ़तापूवमक पालन करता हो, लेमकन यमि
वह भक्त नहीं है, तो वह कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ सकता । और यमि वह अपने को कृ ष्ट्णभक्त बताता है, लेमकन
कृ ष्ट्णभावनाभामवत कायमकलापों र्ें रत नहीं रहता, तब भी वह कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ पाता । ऐसे बहुत से लोग हैं, जो
भगवान् से इसमलए द्वेष रखते हैं, क्योंमक उन्होंनभे गवद्गीता र्ें कहा है मक वे परर् हैं और कोई न तो उनसे बढ़कर, न
उनके सर्ान है । ऐसे बहुत से व्यमक्त हैं, जो कृ ष्ट्ण से द्वेषरखते हैं । ऐसे लोगों को भगवद्गीता नहीं सुनाना चामहए, क्योंमक
वे उसे सर्झ नहीं पाते । श्रद्धामवहीन लोग भगवद्गीता तर्ा कृ ष्ट्ण को नहीं सर्झ पाएँगे । शद्ध ु भक्त से कृ ष्ट्ण को सर्झे
मबना मकसी को भगवद्गीता की टीका करने का साहस नहीं करना चामहए ।

य इदं परमं गह्य


ु ं मिकतेष्ट्वनभधास्यनत ।
भनिं मनय परां कृ त्वा मामेवैष्ट्यत्यसंशयः ।। ६८ ।।

यः - जो; इदम् - इस; परमम् - अत्यन्त; गुह्यम् - रहस्य को; मत् - र्ेरे; भिे षु - भक्तों र्ें से; अनभधास्यनत -
कहता है; भनिम् - भमक्त को; मनय - र्झु को; पराम् - मिव्य; कृ त्वा - करके ; माम् - र्झु को; एव - मनश्चय
ही; एष्ट्यनत - प्राप्त होता है;असंशय - इसर्ें कोई सन्िेह नहीं ।

जो व्यनि भिों को यह परम रहस्य बताता है, वह शुद्ध भनि को प्राप्त करेगा और अन्त में वह मेरे पास
वापस आएगा ।

तात्पयम:सार्ान्यतः यह उपिेश मिया जाता है मक के वल भक्तों के बीच र्ें भगवद्गीता की मववेचना की


जाय, क्योंमक जो लोग भक्त नहीं हैं, वे न तो कृ ष्ट्ण को सर्झेंगे, न ही भगवद्गीता को । जो लोग कृ ष्ट्ण को तर्ा
भगवद्गीता को यर्ारूप र्ें स्वीकार नहीं करते,उन्हें र्नर्ाने ढंग से भगवद्गीता की व्याख्या करने का प्रयत्न करने का
अपराध र्ोल नहीं लेना चामहए । भगवद्गीता की मववेचना उन्हीं से की जाय, जो कृ ष्ट्ण को भगवान् के रूप र्ें स्वीकार

५२१
करने के मलए तैयार हों । यह एकर्ात्र भक्तों का मवषय है, िाशममनक मचन्तकों का नहीं, लेमकन जो कोई भगवद्गीता को
यर्ारूप र्ें प्रस्तुत करने का सच्चे र्न से प्रयास करता है, वह भमक्त के कायमकलापों र्ें प्रगमत करता है और शद्ध

भमक्तर्य जीवन को प्राप्त होता है । ऐसी शद्ध
ु भमक्त के िलस्वरूप उसका भगवद्धार् जानाध्रवु है ।

ि च तस्मान्मिुष्ट्येषु कनश्र्चन्मे नप्रयकृ त्तमः ।


भनवता ि च मे तस्मादन्यः नप्रयतरो भुनव ।। ६९ ।।

ि - कभी नहीं; च - तर्ा; तस्मात् - उसकी अपेक्षा; मिुष्ट्येषु - र्नुष्ट्यों र्ें; कनश्र्चत् - कोई; मे - र्झु को; नप्रय-
कृ त्-तमः - अत्यन्त मप्रय;भनवता - होगा; ि - न तो; च - तर्ा; मे - र्झु को; तस्मात् - उसकी अपेक्षा
उससे; अन्यः - कोई; नप्रय-तरः - अमधक मप्रय; भुनव - इस संसार र्ें ।

इस संसार में उसकी अपेक्षा कोई अन्य सेवक ि तो मुझे अनधक नप्रय है और ि कभी होगा ।

अध्येष्ट्यते च य इमं धम्यं संवादमावयो: ।


ज्ञाियज्ञेि तेिाहनमष्टः स्यानमनत मे मनतः ।। ७० ।।

अध्येष्ट्यते– अध्ययन या पाि करे गा; च– भी; यः– जो; इमम्– इस; धममम–् पमवत्र; संवादम्– वातामलाप या
संवाि को; आवयोः– हर् िोनों के ; ज्ञाि– ज्ञान रूपी; यज्ञेि– यग्य से; तेि– उसके द्वारा; अहम्– र्ैं; इष्टः–
पूमजत; स्याम्– होऊँगा; इनत– इस प्रकार; मे– र्ेरा;मनतः– र्त ।

और मैं घोनषत करता हूँ नक जो हमारे इस पनवत्र संवाद का अध्ययि करता है, वह अपिी बुनद्ध से मेरी
पज
ू ा करता है ।

श्रद्धावाििसूयश्र्च श्रृणुयादनप यो िरः ।


सोऽनप मुिः श्रुभाूँल्लोकान्प्राप्िुयात्पुण्यकममणाम् ।। ७१ ।।

श्रद्धा-वाि्– श्रद्धालु; अिसूयः– द्वेषरमहत; च– तर्ा; शृणुयात्– सुनता है; अनप– मनश्चय ही; यः– जो; िरः–
र्नष्ट्ु य; सः– वह; अनप– भी; मुिः–
र्क्त
ु होकर; शुभाि्– शभु ; लोकाि्– लोकों को; प्राप्िुयात्– प्राप्त करता है; पुण्य-कममणाम्– पुण्यात्र्ाओ ं का ।

और जो श्रद्धा समेत और द्वेषरनहत होकर इसे सिु ता है, वह सारे पापों से मुि हो जाता है और उि शभ

लोकों को प्राप्त होता है, जहाूँ पुण्यात्माएूँ निवास करती हैं ।

तात्पयम:इस अध्याय के ६७वें श्लोक र्ें भगवान् ने स्पष्टतः र्ना मकया है मक जो लोग उनसे द्वेष रखते हैं उन्हें
गीता न सुनाई जाए । भगवद्गीता के वल भक्तों के मलए है । लेमकन ऐसा होता है मक कभी-कभी भगवद्भक्त आर् कक्षा र्ें

५२२
प्रवचन करता है और उस कक्षा र्ें सारे छात्रों के भक्त होने की अपेक्षा नहीं की जाती । तो मिर ऐसे लोग खल ु ी कक्षा
क्यों चलाते हैं ? यहाँ यह बताया गया है मक प्रत्येक व्यमक्त भक्त नहीं होता, मिर भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो कृ ष्ट्ण से
द्वेष नहीं रखते । उन्हें कृ ष्ट्ण पर परर्ेश्र्वर रूप र्ें श्रद्धा रहती है । यमि ऐसे लोग भगवान् के बारे र्ें मकसी प्रार्ामणक भक्त
से सुनते हैं, तो वे अपने पापों से तुरन्त र्क्त ु हो जाते हैं और ऐसे लोक को प्राप्त होते हैं, जहाँ पुण्यात्र्ाएँ वास करती
हैं । अतएव भगवद्गीता के श्रवण र्ात्र से ऐसे व्यमक्त को भी पुण्यकर्ों का िल प्राप्त हो जाता है, जो अपने को शुद्ध भक्त
बनाने का प्रयत्न नहीं करता । इस प्रकार भगवद्भक्त हर एक व्यमक्त के मलए अवसर प्रिान करता है मक वह सर्स्त पापों
से र्क्त
ु होकर भगवान् का भक्त बने ।
सार्ान्यतया जो लोग पापों से र्क्त ु हैं, जो पुण्यात्र्ा हैं, वे अत्यन्त सरलता से कृ ष्ट्णभावनार्ृत को ग्रहण कर लेते
हैं । यहाँ पर पण्ु य मदणाम् शब्ि अत्यन्त सार्मक है । यह वैमिक सामहत्य र्ें वमणमत अश्र्वर्ेव यज्ञ जैसे र्हान यज्ञों का
सूचक है । जो भमक्त का आचरण करने वाले पुण्यात्र्ा हैं, मकन्तु शद्ध ु नहीं होते, वे ध्रवु लोक को प्राप्त होते हैं, जहाँ ध्रवु
र्हाराज की अध्यक्षता है । वे भगवान् के र्हान भक्त हैं और उनका अपना मवशेष लोक है, जो ध्रवु तारा या ध्रवु लोक
कहलाता है ।

कनच्चदेतच्रुतं पाथम त्वयैकाग्रेण चेतसा ।


कनच्चदज्ञािसम्मोहः प्रणष्टस्ते धिञ्जय ।। ७२।।

कनच्चत्– क्या; एतत्– यह; श्रुतम्– सुना गया; पाथम– हे पृर्ापुत्र; त्वया– तुम्हारे द्वारा; एक-अग्रेण–
एकाग्र; चेतसा– र्न से; कनञ्चत्– क्या;
अज्ञाि– अज्ञान का; सम्मोहः– र्ोह, भ्रर्; प्रणष्टः– िरू हो गया; ते– तुम्हारा; धिञ्जय– हे सम्पमत्त के मवजेता
(अजमनु ) ।

हे पृथापत्रु ! हे धिञ्जय! क्या तमु िे इसे (इस शास्त्र को) एकाग्र नचत्त होकर सिु ा? और क्या अब
तुम्हारा अज्ञाि तथा मोह दूर हो गया है ?

तात्पयम : भगवान् अजुमन के गुरु का कार् कर रहे र्े । अतएव यह उनका धर्म र्ा मक अजुमन से पूछते मक उसने
परू ी भगवद्गीता ढंग से सर्झ ली है या नहीं । यमि नहीं सर्झी है, तो भगवान् उसे मिर से मकसी अंश मवशेष या
पूरी भगवद्गीता बताने को तैयार हैं । वस्तुतः जो भी व्यमक्त कृ ष्ट्ण जैसे प्रार्ामणक गुरु या उनके प्रमतमनमध से भगवद्गीता
सुनता है, उसका सारा अज्ञान िरू हो जाता है । भगवद्गीता कोई सार्ान्य ग्रंर् नहीं, मजसे मकसी कमव या उपन्यासकार ने
मलखा हो, इसे साक्षात् भगवान् ने कहा है । जो भाग्यशाली व्यमक्त इन उपिेशों को कृ ष्ट्ण से या उनके मकसी प्रार्ामणक
आध्यामत्र्क प्रमतमनमध से सुनता है, वह अवश्य ही र्क्त
ु पुरुष बनकर अज्ञान के अंधकार को पार कर लेता है ।

अजमिु उवाच ।
िष्टो मोहः स्मृनतलमब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्यतु ।
नस्थतोऽनस्म गतसन्देहः कररष्ट्ये वचिं तव ।। ७३ ।।

५२३
अजमिु ःउवाच– अजुमन ने कहा; िष्टः– िरू हुआ; मोहः– र्ोह; स्मृनत– स्र्रण शमक्त; लब्धा– पुनः प्राप्त
हुई; त्वत्-प्रसादात्– आपकी कृ पा से; मया– र्ेरे द्वारा; अच्युत– हे अच्युत कृ ष्ट्ण; नस्थतः– मस्र्त; अनस्म– ह;ँ गत–
िरू हुए; सन्देहः– सारे संशय; कररष्ट्ये– पूरा करूँगा; वचिम्– आिेश को; तव– तुम्हारे ।

अजमिु िे कहा – हे कृ ष्ट्ण, हे अच्युत! अब मेरा मोह दूर हो गया । आपके अिुग्रह से मुझे मेरी स्मरण
शनि वापस नमल गई । अब मैं संशयरनहत तथा दृढ हूँ और आपके आदेशािुसार कमम करिे के नलए उद्यत
हूँ ।

तात्पयम : जीव मजसका प्रमतमनमधत्व अजमनु कर रहा है, उसका स्वरूप यह है मक वह परर्ेश्र्वर के आिेशानुसार
कर्म करे । वह आत्र्ानुशासन (संयर्) के मलए बना है । श्रीचैतन्य र्हाप्रभु का कहना है मक जीव का स्वरूप परर्ेश्र्वर
के मनत्य िास के रूप र्ें है । इस मनयर् को भल ू जाने के कारण जीव प्रकृ मत द्वारा बद्ध हो जाता है । लेमकन परर्ेश्र्वर की
सेवा करने से वह ईश्र्वर का र्क्त ु िास बनता है । जीव का स्वरूप सेवक के रूप र्ें हैं । उसे र्ाया या परर्ेश्र्वर र्ें से
मकसी एक की सेवा करनी होती है । यमि वह परर्ेश्र्वर की सेवा करता है, तो वह अपनी सार्ान्य मस्र्मत र्ें रहता
है । लेमकन यमि वह बाह्यशमक्त र्ाया की सेवा करना पसन्ि करता है, तो वह मनमश्चत रूप से बन्धन र्ें पड़ जाता है । इस
भौमतक जगत् र्ें जीव र्ोहवश सेवा कर रहा है । वह कार् तर्ा इच्छाओ ं से बँधा हुआ है, मिर भी वह अपने को जगत्
का स्वार्ी र्ानता है । यही र्ोह कहलाता है । र्क्त ु होने पर पुरुष का र्ोह िरू हो जाता है और वह स्वेच्छा से भगवान्
की इच्छानुसार कर्म करने के मलए परर्ेश्र्वर की शरण ग्रहण करता है । जीव को िाँसने का र्ाया का अमन्तर् पाश यह
धारणा है मक वह ईश्र्वर है । जीव सोचता है मक अब वह बद्धजीव नहीं रहा, अब तो वह ईश्र्वर है । वह इतना र्ख ु म होता
है मक वह यह नहीं सोच पाता मक यमि वह ईश्र्वर होता तो इतना संशयग्रस्त क्यों रहता । वह इस पर मवचार नहीं
करता । इसमलए यही र्ाया का अमन्तर् पाश होता है । वस्ततु ः र्ाया से र्क्त ु होना भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण को सर्झना है और
उनके आिेशानुसार कर्म करने के मलए सहर्त होना है ।
इस श्लोक र्ें मोह शब्ि अत्यन्त र्हत्त्वपूणम है । र्ोह ज्ञान का मवरोधी होता है । वास्तमवक ज्ञान तो यह सर्झना है
मक प्रत्येक जीव भगवान् का शाश्र्वत सेवक है । लेमकन जीव अपने को इस मस्र्मत र्ें न सर्झकर सोचता है मक वह
सेवक नहीं, अमपतु इस जगत् का स्वार्ी है , क्योंमक वह प्रकृ मत पर प्रभत्ु व जताना चाहता है । यह र्ोह भगवत्कृ पा से
या शुद्ध भक्त की कृ पा से जीता जा सकता है । इस र्ोह के िरू होने पर र्नुष्ट्य कृ ष्ट्णभावनार्ृत र्ें कर्म करने के मलए राजी
हो जाता है ।
कृ ष्ट्ण के आिेशानुसार कर्म करना कृ ष्ट्णभावनार्ृत है । बद्धजीव र्ाया द्वारा र्ोमहत होने के कारण यह नहीं जान
पाता मक परर्ेश्र्वर स्वार्ी हैं, जो ज्ञानर्य हैं और सवमसम्पमत्तवान हैं । वे अपने भक्तों को जो कुछ चाहे िे सकते हैं । वे
सब के मर्त्र हैं और भक्तों पर मवशेष कृ पालु रहते हैं । वे प्रकृ मत तर्ा सर्स्त जीवों के अधीक्षक हैं । वे अक्षय काल के
मनयन्त्रक हैं और सर्स्त ऐश्र्वयों एवं शमक्तयों से पूणम हैं । भगवान् भक्त को आत्र्सर्पमण भी कर सकते हैं । जो उन्हें नहीं
जानता वह र्ोह के वश र्ें है, वह भक्त नहीं बमल्क र्ाया का सेवक बन जाता है । लेमकन अजमनु भगवान्
से भगवद्गीता सुनकर सर्स्त र्ोह से र्ुक्त हो गया । वह यह सर्झ गया मक कृ ष्ट्ण के वल उसके मर्त्र ही नहीं बमल्क
भगवान् हैं और वह कृ ष्ट्ण को वास्तव र्ें सर्झ गया । अतएव भगवद्गीता का पाि करने का अर्म है कृ ष्ट्ण को
वास्तमवकता के सार् जानना । जब व्यमक्त को पूणम ज्ञान होता है , तो वह स्वभावतः कृ ष्ट्ण को आत्र्सर्पमण करता
है । जब अजुमन सर्झ गया मक यह तो जनसख्ं या की अनावश्यक वृमद्ध को कर् करने के मलए कृ ष्ट्ण की योजना र्ी, तो

५२४
उसने कृ ष्ट्ण की इच्छानुसार युद्ध करना स्वीकार कर मलया । उसने पुनः भगवान् के आिेशानुसार युद्ध करने के मलए
अपना धनुष-बाण ग्रहण कर मलया ।

सञ्जय उवाच ।
इत्यहं वासुदेवस्य पाथमस्य च महात्मिः ।
संवादनमममश्रौषमिुतं रोमहषमणम् ।। ७४ ।।

सञ्जय उवाच - संजय से कहा; इनत– इस प्रकार; अहम्– र्ैं; वासुदेवस्य– कृ ष्ट्ण का; पाथमस्य– अजुमन
का; च– भी; महा-आत्मिः– र्हात्र्ाओ ं का; सवं ादम्– वाताम; इमम्– यह; अश्रोषम्– सनु ी है; अिुतम्–
अद्भुत; रोम-हषमणम्– रोंगटे खड़े करने वाली ।

संजय िे कहा – इस प्रकार मैंिे कृ ष्ट्ण तथा अजमिु इि दोिों महापुरुषों की वाताम सुिी । और यह सन्देश
इतिा अिुत है नक मेरे शरीर में रोमाञ्च हो रहा है ।

तात्पयम :भगवद्गीता के प्रारम्भ र्ें धृतराष्ट्र ने अपने र्न्त्री संजय से पूछा र्ा “कुरुक्षेत्र के युद्धस्र्ल र्ें क्या
हुआ?” गुरु व्यासिेव की कृ पा से संजय के हृिय र्ें सारी घटना स्िुररत हुई र्ी । इस प्रकार उसने युद्धस्र्ल की मवषय
वस्तु कह सुनाई र्ी । यह वाताम आश्चयमप्रि र्ी, क्योंमक इसके पूवम िो र्हापुरुषों के बीच ऐसी र्हत्त्वपूणम वाताम कभी नहीं
हुई र्ी और न भमवष्ट्य र्ें पुनः होगी । यह वाताम इसमलए आश्चयमप्रि र्ी, क्योंमक भगवान् भी अपने तर्ा अपनी शमक्तयों
के मवषय र्ें जीवात्र्ा अजुमन से वणमन कर रहे र्े, जो परर् भगवद्भक्त र्ा । यमि हर् कृ ष्ट्ण को सर्झने के मलए अजुमन का
अनसु रण करें तो हर्ारा जीवन सख ु ी तर्ा सिल हो जाए । सजं य ने इसका अनभु व मकया और जैस-े जैसे उसकी सर्झ
र्ें आता गया उसने यह वाताम धृतराष्ट्र से कह सुनाई । अब यह मनष्ट्कषम मनकला मक जहाँ-जहाँ कृ ष्ट्ण तर्ा अजुमन
हैं, वहीं-वहीं मवजय होती है ।

व्यासप्रसादाच्रुतवािेतद्गुह्यमहं परम् ।
योगं योगेश्र्वरात्कृ ष्ट्णात्साक्षात्कथयतः स्वयम् ।। ७५ ।।

व्यास-प्रसादात् - व्यासिेव की कृ पा से;श्रुतवाि् - सुना है; एतत् - इस; गुह्यम् - गोपनीय; अहम् -
र्ैंन;े परम् - परर्; योगम् - योग को; योग-इश्र्वरात् - योग के स्वार्ी; कृ ष्ट्णात् - कृ ष्ट्ण से; साक्षात् -
साक्षात्;कथयतः - कहते हुए; स्वयम् - स्वयं ।

व्यास की कृ पा से मैंिे ये परम गह्य


ु बातें साक्षात् योगेश्वर कृ ष्ट्ण के मख
ु से अजमिु के प्रनत कही जाती
हुई सुिीं ।

तात्पयम : व्यास संजय के गुरु र्े और संजय स्वीकार करते हैं मक व्यास की कृ पा से ही वे भगवान् को सर्झ
सके । इसका अर्म यह हुआ मक गुरु के र्ाध्यर् से ही कृ पा को सर्झना चामहए, प्रत्यक्ष रूप से नहीं । गुरु स्वच्छ र्ाध्यर्

५२५
है, यद्यमप अनुभव मिर भी प्रत्यक्ष ही होता है । गुरु-परम्परा का यही रहस्य है । जब गुरु प्रार्ामणक हो तो भगवद्गीता का
प्रत्यक्ष श्रवण मकया जा सकता है,जैसा अजुमन ने मकया । संसार भर र्ें अनेक योगी हैं, लेमकन कृ ष्ट्ण योगेश्र्वर
हैं । उन्होंने भगवद्गीता र्ें स्पष्ट उपिेश मिया है, “र्ेरी शरण र्ें आओ । जो ऐसा करता है वह सवोच्च योगी है ।” छिे
अध्याय के अमन्तर् श्लोक र्ें इसकी पुमष्ट हुई है – योस्गनाम् अस्प सवेषाम् ।
नारि कृ ष्ट्ण के मशष्ट्य हैं और व्यास के गुरु । अतएव व्यास अजुमन के ही सर्ान प्रार्ामणक हैं, क्योंमक वे गुरु-
परम्परा र्ें आते हैं और संजय व्यासिेव के मशष्ट्य हैं । अतएव व्यास की कृ पा से संजय की इमन्द्रयाँ मवर्ल हो सकीं और
वे कृ ष्ट्ण का साक्षात् िशमन कर सके तर्ा उनकी वाताम सनु सके । जो व्यमक्त कृ ष्ट्ण का प्रत्यक्ष िशमन करता है, वह इस
गुह्यज्ञान को सर्झ सकता है । यमि वह गुरु-परम्परा र्ें नहीं होता तो वह कृ ष्ट्ण की वाताम नहीं सुन सकता । अतएव
उसका ज्ञान सिैव अधरु ा रहता है, मवशेषतया जहाँ तक भगवद्गीता सर्झने का प्रश्न है ।
भगवद्गीता र्ें योग की सर्स्त पद्धमतयों का – कर्मयोग, ज्ञानयोग तर्ा भमक्तयोग का वणमन हुआ है । श्रीकृ ष्ट्ण इन
सर्स्त योगों के स्वार्ी हैं । लेमकन यह सर्झ लेना चामहए मक मजस तरह अजुमन कृ ष्ट्ण को प्रत्यक्षतः सर्झ सकने के
मलए भाग्यशाली र्ा, उसी प्रकार व्यासिेव की कृ पा से संजय भी कृ ष्ट्ण को साक्षात् सुनने र्ें सर्र्म हो सका । वस्तुतः
कृ ष्ट्ण से प्रत्यक्षतः सुनने एवं व्यास जैसे गुरु के र्ाध्यर् से प्रत्यक्ष सुनने र्ें कोई अन्तर नहीं है । गुरु भी व्यासिेव का
प्रमतमनमध होता है । अतएव वैमिक पद्धमत के अनुसार अपने गुरु के जन्र्मिन पर मशष्ट्यगण व्यास पूजा नार्क उत्सव
रचाते हैं ।

राजन्संस्सृत्य संस्सृत्य संवादनमममिुतम् ।


के शवाजमिु यो: पुण्यं हृष्ट्यानम च मुहुममहु ु: ।। ७६ ।।

राजि्– हे राजा; सस्ं मृत्य– स्र्रण करके ; सस्ं मृत्य– स्र्रण करके ; सवं ादम्– वाताम को; इमाम्–
इस; अिुतम्– आश्चयमजनक; के शव– भगवान् कृ ष्ट्ण; अजमिु योः– तर्ा अजुमन की; पुण्यम्– पमवत्र; हृष्ट्यानम– हमषमत
होता ह;ँ च– भी; महु ुःमहु ुः– बारम्बार ।

हे राजि्! जब मैं कृ ष्ट्ण तथा अजमिु के मध्य हुई इस आश्चयमजिक तथा पनवत्र वाताम का बारम्बार स्मरण
करता हूँ, तो प्रनत क्षण आह्लाद से गद्गद् हो उठता हूँ ।

तात्पयम :भगवद्गीता का ज्ञान इतना मिव्य है मक जो भी अजुमन तर्ा कृ ष्ट्ण के संवाि को जान लेता है, वह
पण्ु यत्र्ा बन जाता है और इस वातामलाप को भल ू नहीं सकता । आध्यामत्र्क जीवन की यह मिव्य मस्र्मत है । िसू रे
शब्िों र्ें, जब कोई गीता को सही स्त्रोत से अर्ामत् प्रत्यक्षतः कृ ष्ट्ण से सुनता है, तो उसे पूणम कृ ष्ट्णभावनार्ृत प्राप्त होता
है । कृ ष्ट्णभावनार्ृत का िल यह होता है मक वह अत्यमधक प्रबद्ध हो उिता है और जीवन का भोग आनन्ि समहत कुछ
काल तक नहीं, अमपतु प्रत्येक क्षण करता है ।

तच्च सस्ं मृत्य सस्ं मृत्य रूपमत्यिुतं हरे: ।


नवस्मयो मे महान्राजन्हृष्ट्यानम च पुिः पुिः ।। ७७ ।।

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तत्– उस; च– भी; संसृत्य– स्र्रण करके ; संसृत्य– स्र्रण करके ; रूपम्– स्वरूप को; अनत–
अत्यमधक; अिुतम्– अद्भुत; हरेः– भगवान् कृ ष्ट्ण के ; नवस्मयः– आश्चयम; मे– र्ेरा; महाि– र्हान; राजि्– हे
राजा; हृष्ट्यानम– हमषमत हो रहा ह;ँ च– भी; पुिःपुिः– मिर-मिर, बारम्बार ।

हे राजि्! भगवाि् कृ ष्ट्ण के अिुत रूप का स्मरण करते ही मैं अनधकानधक आश्चयमचनकत होता हूँ और
पुिःपुिः हनषमत होता हूँ ।

तात्पयम : ऐसा प्रतीत होता है मक व्यास की कृ पा से संजय ने भी अजुमन को मिखाये गये कृ ष्ट्ण के मवराट रूप को
िेखा र्ा । मनस्सन्िेह यह कहा जाता है मक इसके पवू म भगवान् कृ ष्ट्ण ने कभी ऐसा रूप प्रकट नहीं मकया र्ा । यह के वल
अजुमन को मिखाया गया र्ा, लेमकन उस सर्य कुछ र्हान भक्त भी उसे िेख सके तर्ा व्यास उनर्ें से एक र्े । वे
भगवान् के परर् भक्तों र्ें से हैं और कृ ष्ट्ण के शक्त्यावेश अवतार र्ाने जाते हैं । व्यास ने इसे अपने मशष्ट्य सजं य के
सर्क्ष प्रकट मकया मजन्होंने अजुमन को प्रिमशमत मकये गये कृ ष्ट्ण के उस अद्भुत रूप को स्र्रण रखा और वे बारम्बार
उसका आनन्ि उिा रहे र्े ।

यत्र योगेश्र्वरः कृ ष्ट्णो यत्र पाथो धिुधमरः ।


तत्र श्रीनवमजयो भूनतध्रमुवो िीनतममनतममम ।। ७८ ।।

यत्र– जहाँ; योग-ईश्र्वरः– योग के स्वार्ी; कृ ष्ट्णः– भगवान् कृ ष्ट्ण;यत्र– जहाँ; पाथमः– पृर्ापुत्र; धिुः–धरः–
धनषु धारी; तत्र– वहाँ; श्रीः– ऐश्र्वयम;
नवजयः– जीत;भनू तः– मवलक्षण शमक्त; ध्रुवा– मनमश्चत; िीनतः– नीमत; मनतः मम– र्ेरा र्त ।

जहाूँ योगेश्र्वर कृ ष्ट्ण है और जहाूँ परम धिधु मर अजमिु हैं, वही ूँ ऐश्र्वयम, नवजय, अलौनकक शनि तथा
िीनत भी निनश्चत रूप से रहती है । ऐसा मेरा मत है ।

तात्पयम :भगवद्गीता का शभु ारम्भ धृतराष्ट्र की मजज्ञासा से हुआ । वह भीष्ट्र्, द्रोण तर्ा कणम जैसे र्हारमर्यों की
सहायता से अपने पुत्रों की मवजय के प्रमत आशावान र्ा । उसे आशा र्ी मक मवजय उसके पक्ष र्ें होगी । लेमकन
युद्धक्षेत्र के दृश्य का वणमन करने के बाि संजय ने राजा से कहा ”आप अपनी मवजय की बात सोच रहें हैं, लेमकन र्ेरा
र्त है मक जहाँ कृ ष्ट्ण तर्ा अजुमन उपमस्र्त हैं, वही ँ सम्पूणम श्री होगी ।” उसने प्रत्यक्ष पुमष्ट की मक धृतराष्ट्र को अपने पक्ष
की मवजय की आशा नहीं रखनी चामहए । मवजय तो अजुमन के पक्ष की मनमश्चत है, क्योंमक उसर्ें कृ ष्ट्ण हैं । श्रीकृ ष्ट्ण द्वारा
अजुमन के सारर्ी का पि स्वीकार करना एक ऐश्र्वयम का प्रिशमन र्ा । कृ ष्ट्ण सर्स्त ऐश्र्वयों से पूणम हैं और इनर्ें से वैराग्य
एक है । ऐसे वैराग्य के भी अनेक उिाहरण हैं, क्योंमक कृ ष्ट्ण वैराग्य के भी ईश्र्वर हैं ।
युद्ध तो वास्तव र्ें ियु ोधन तर्ा युमधमिर के बीच र्ा । अजुमन अपने जयेि भ्राता युमधमिर की ओर से लड़ रहा
र्ा । चँमू क कृ ष्ट्ण तर्ा अजमनु यमु धमिर की ओर र्े अतएव यमु धमिर की मवजय ध्रवु र्ी । यद्ध ु को यह मनणमय करना र्ा
मक संसार पर शासन कौन करे गा । संजय ने भमवष्ट्यवाणी की मक सत्ता युमधमिर के हार् र्ें चली जाएगी । यहाँ पर इसकी

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भी भमवष्ट्यवाणी हुई है मक इस युद्ध र्ें मवजय प्राप्त करने के बाि युमधमिर उत्तरोत्तर सर्ृमद्ध करें गे, क्योंमक वे न के वल
पुण्यात्र्ा तर्ा पमवत्रात्र्ा र्े, अमपतु वे किोर नीमतवािी र्े । उन्होंने जीवन भर कभी असत्य भाषण नहीं मकया र्ा ।
ऐसे अनेक अल्पज्ञ व्यमक्त हैं, जो भगवद्गीता को युद्धस्र्ल र्ें िो मर्त्रों की वाताम के रूप र्ें ग्रहण करते
हैं । लेमकन इससे ऐसा ग्रंर् कभी शास्त्र नहीं बन सकता । कुछ लोग मवरोध कर सकते हैं मक कृ ष्ट्ण ने अजुमन को युद्ध
करने के मलए उकसाया, जो अनैमतक है, लेमकन वास्तमवकता तो यह है मक भगवद्गीता नीमत का परर् आिेश है । यह
नीमत मवषयक आिेश नवें अध्याय के चौंतीसवें श्लोक र्ें है – मन्मना भव मद्भिः। र्नुष्ट्य को कृ ष्ट्ण का भक्त बनना
चामहए और सारे धर्ों का सार है – कृ ष्ट्ण की शरणागमत (सवदधमादन् पररत्यज्य मामे ां शरणां व्रज) । भगवद्गीता का
आिेश धर्म तर्ा नीमत की परर् मवमध है । अन्य सारी मवमधयाँ भले ही शुद्ध करने वाली तर्ा इस मवमध तक ले जाने
वाली हों, लेमकन गीता का अमन्तर् सन्िेश सर्स्त नीमतयों तर्ा धर्ों का सार वचन है – कृ ष्ट्ण की शरण ग्रहण करो या
कृ ष्ट्ण को आत्र्सर्पमण करो । यह अिारहवें अध्याय का र्त है ।
भगवद्गीता से हर् यह सर्झ सकते हैं मक ज्ञान तर्ा ध्यान द्वारा अपनी अनुभमू त एक मवमध है, लेमकन कृ ष्ट्ण की
शरणागमत सवोच्च मसमद्ध है । यह भगवद्गीता के उपिेशों का सार है । वणामश्रर् धर्म के अनुसार अनुिानों (कर्मकाण्ड)
का र्ागम, ज्ञान का गुह्य र्ागम हो सकता है । लेमकन धर्म के अनुिान के गुह्य होने पर भी ध्यान तर्ा ज्ञान गुह्यतर हैं तर्ा
पूणम कृ ष्ट्णभावनाभामवत होकर भमक्त र्ें कृ ष्ट्ण की शरणागमत गुह्यतर् उपिेश है । यही अिारहवें अध्याय का सार है ।
भगवद्गीता की अन्य मवशेषता यह है मक वास्तमवक सत्य भगवान् कृ ष्ट्ण हैं । परर् सत्य की अनुभमू त तीन रूपों र्ें
होती है – मनगुमण ब्रह्म, अन्तयामर्ी परर्ात्र्ा तर्ा भगवान् श्रीकृ ष्ट्ण । परर् सत्य के पूणम ज्ञान का अर्म है, कृ ष्ट्ण का पूणम
ज्ञान । यमि कोई कृ ष्ट्ण को जान लेता है तो ज्ञान के सारे मवभाग इसी ज्ञान के अंश हैं । कृ ष्ट्ण मिव्य हैं क्योंमक वे अपनी
मनत्य अन्तरंगा शमक्त र्ें मस्र्त रहते हैं । जीव उनकी शमक्त से प्रकट हैं और िो श्रेणी के होते हैं – मनत्यबद्ध तर्ा
मनत्यर्क्त
ु । ऐसे जीवों की संख्या असंख्य है और वे सब कृ ष्ट्ण के र्ल ू अंश र्ाने जाते हैं । भौमतक शमक्त २४ प्रकार से
प्रकट होती है । सृमष्ट शाश्र्वत काल द्वारा प्रभामवत है और बमहरंगाशमक्त द्वारा इसका सृजन तर्ा सहं ार होता है । यह दृश्य
जगत पुनःपुनः प्रकट तर्ा अप्रकट होता रहता है ।
भगवद्गीता र्ें पाँच प्रर्ख
ु मवषयों की व्याख्या की गई है – भगवान्, भौमतक प्रकृ मत, जीव, शाश्र्वतकाल तर्ा
सभी प्रकार के कर्म । सब कुछ भगवान् कृ ष्ट्ण पर आमश्रत है । परर्सत्यत की सभी धारणाएँ – मनराकार ब्रह्म, अन्तयामर्ी
परर्ात्र्ा तर्ा अन्य मिव्य अनुभमू तयाँ – भगवान् के ज्ञान की कोमट र्ें समन्नमहत हैं । यद्यमप ऊपर से
भगवान्, जीव, प्रकृ मत तर्ा काल मभन्न प्रतीत होते हैं, लेमकन ब्रह्म से कुछ भी मभन्न नहीं है । लेमकन ब्रह्म सिैव सर्स्त
वस्तुओ ं से मभन्न है । भगवान् चैतन्य का िशमन है ”अमचन्त्यभेिाभेि” । यह िशमन पद्धमत परर्सत्य के पूणमज्ञान से युक्त
है ।
जीव अपने र्ूलरूप र्ें शद्ध ु आत्र्ा है । वह परर्ात्र्ा का एक परर्ाणु र्ात्र है । इस प्रकार भगवान् कृ ष्ट्ण की
उपर्ा सूयम से िी जा सकती है और जीवों की सूयमप्रकाश से । चँमू क सारे जीव कृ ष्ट्ण की तटस्र्ा शमक्त हैं, अतएव उनका
संसगम भौमतक शमक्त (अपरा) या आध्यामत्र्क शमक्त (परा) से होता है । िसू रे शब्िों र्ें, जीव भगवान् की पराशमक्त से
है, अतएव उसर्ें मकंमचत् स्वतन्त्रता रहती है । इस स्वतन्त्रता के सिपु योग से ही वह कृ ष्ट्ण के प्रत्यक्ष आिेश के अन्तगमत
आता है । इस प्रकार वह िामिनी शमक्त की अपनी सार्ान्य िशा को प्राप्त होता है ।

इस प्र ार श्रीमद्भगवद्गीता े अठारहवें अध्याय “उपसांहार-सांन्यास ी स्सस्द्ध” ा भस्िवेर्ान्त तात्पयद पूणद


हुआ ।

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लेखक-पररचय
कृ ष्ट्णकृ पाश्रीर्मू तम श्री श्रीर्ि् ए. सी. भमक्तवेिान्त स्वार्ी प्रभपु ाि का जन्र् १८९६ ई. र्ें भारत र्े हुआ र्ा । अपने
गुरु र्हाराज श्रील भमक्तमसद्धान्त सरस्वती गोस्वार्ी से १९२२ र्े कलकत्ता र्ें उनकी प्रर्र् भेंट हुई । एक सुप्रमसद्ध धर्म
तत्त्ववेत्ता, अनुपर् प्रचारक, मवद्वान-भक्त, आचायम एवं चौंसि गौड़ीय र्िों के संस्र्ापक श्रील भमक्तमसद्धान्त सरस्वती
को ये सुमशमक्षत नवयुवक मप्रय लगे और उन्होंने वैमिक ज्ञान के मलए अपना जीवन उत्सगम करने की इनको प्रेरणा िी ।
श्रील प्रभपु ाि उनके छात्र बने और ग्यारह वषम बाि (१९३३ ई.) प्रयाग (इलाहाबाि) र्ें उनके मवमधवत् िीक्षा-प्राप्त मशष्ट्य
हो गये ।
अपनी प्रर्र् भेंट, १९२२ ई. र्े ही श्रील भमक्तमसद्धान्त सरस्वती िाकुर ने श्रील प्रभपु ाि से मनवेिन मकया र्ा मक
वे अंग्रेजी भाषा के र्ाध्यर् से वैमिक ज्ञान का प्रसार करें । आगार्ी वषों र्े श्रील प्रभपु ाि ने श्रीमद्भगवद्गीता पर एक
टीका मलखी, गौड़ीय र्ि के कायम र्ें सहयोग मिया तर्ा १९४४ ई. र्ें मबना मकसी की सहायता से एक अंग्रेजी पामक्षक
पमत्रका आरम्भ की मजसका सम्पािन, पाण्डुमलमप का टंकण और र्ुमद्रत सार्ग्री के प्रि ू शोधन का सारा कायम वे स्वयं
करते र्े । उन्होंने एकाएक प्रमत मनःशल्ु क बाँटकर भी इसके प्रकाशन को बनाये रखने के मलए सघं षम मकया । एक बार
आरम्भ होकर मिर यह पमत्रका कभी बन्ि नहीं हुई । अब यह उनके मशष्ट्यों द्वारा पमश्चर्ी िेशों र्े भी चलाई जा रही हे
और तीस से अमधक भाषाओ ं र्ें छप रही है ।श्रील प्रभपु ाि के िाशममनक ज्ञान एवं भमक्त की र्हत्ता पहचान कर “गौडीय
वैष्ट्णव सर्ाज “ ने १९४७ ई . र्े उन्हें भमक्तवेिान्त की उपामध से सम्र्ामनत मकया । १९५० ई . र्े चौवन वषम की
अवस्र्ा र्ें श्रील प्रभपु ािने गृहस्र् जीवन से अवकाश लेकर वानप्रस्र् ले मलया मजससे वे अपने अध्ययन और लेखन
के मलये अमधक सर्य िे सकें । तिनन्तर श्रील प्रभपु ाि नेश्री वृन्िावन धार् की यात्रा की, जहाँ वे बड़ी ही सामत्वक
पररमस्र्मतयों र्ें र्ध्यकालीन ऐमतहामसक श्रीराधा-िार्ोिर र्मन्िर र्ें रहे ।वहाँवे अनेक वषो तक गम्भीर अध्ययन एवं
लेखन र्ें संलग्न रहे । १९५९ ई. र्ें उन्होंने सन्यास ग्रहन कर मलया । श्रीराधा-िार्ोिर र्मन्िर र्ें ही श्रील प्रभपु ाि ने अपने
जीवन के सबसे श्रेि और र्हत्वपूणम ग्रन्र् का आरम्भ मकया र्ा । यह ग्रन्र् र्ा अिारह हजार श्लोक संख्या
के श्रीमद्भागवतपुराण का अनेक खण्डों र्ें अंग्रेजी र्े अनुवाि और व्याख्या । वहीं उन्होंने “अन्य लोकों की सुगर्
यात्रा”नार्क पुमस्तका भी मलखी र्ी ।
श्रीर्द्भागवतके प्रारम्भ के तीन खण्ड प्रकामशत करने के वाि श्रील प्रभपु ाि मसतम्बर १९६५ ई . र्ें अपने
गुरुिेवका धर्ामनुिान पुरा करने के मलये संयुक्त राजय अर्ेररका गये । अन्तत: श्रील प्रभपु ाि भारतवषम के श्रेि िाशममनक
और धामर्मक ग्रन्र्ों के प्रार्ामणक अनवु ाि, टीकाएँ एवं समं क्षप्त अध्ययन-सार के रूप र्ें साि से अमधक ग्रन्र्-रत्न प्रस्ततु
मकये ।
१९६५ ई . र्ें जब श्रील प्रभपु ाि एक र्ालवाहक जलयान द्वारा प्रर्र् बार न्युयाकम नगर र्ें आये तो उनके पास
भी एक पैसा भी नहीं र्ा । अत्यन्त कमिनाई भरे लगभग एक वषम के बाि जुलाई १९६६ ई.र्ें उन्होने “अन्तराममष्ट्रय
कृ ष्ट्णभावनार्ृत संघ” की स्र्ापना की । १४ नवम्वर १९७७ ई . को, कृ ष्ट्ण बलरार् र्मन्िर, श्रीवृन्िावन धार् र्ें अप्रकट
होने के पूवम तक श्रील प्रभपु ाि ने अपने कुशल र्ागम-मनिेशन के कारण इस संघ को मवश्वभर र्े सौ से अमधक र्मन्िंरो के
रूप र्े आश्रर्ों, मवध्यालयों, र्मन्िरों, संस्र्ाओ ं और कृ मष-सर्िु ायों का बृहि् संगिन वना मिया ।

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१९६८ ई . र्े श्रील प्रभपु ाि ने प्रयोग के रूप र्ें, वैमिक सर्ाज के आधार पर पमश्चर्ी वजीमनया की पहामड़यों र्ें
एक नव-वृन्िावन की स्र्ापना की । िो हजार एकड़ से भी अमधक के इस सर्ृद्ध नव-वृन्िावन के कृ मष-क्षेत्र से
प्रोत्सामहत होकर उनके मशष्ट्यों ने संयुक्त राजय अर्ेररका तर्ा अन्य िेशों र्ें भी ऐसे अनेक सर्िु ायों की स्र्ापना की ।
१९७२ ई. र्ें श्रील प्रभपु ाि ने डल्लास, िेक्सास र्ें गुरुकुल मवध्यालय की स्र्ापना द्वारापमश्चर्ी िेशों र्ें प्रार्मर्क
और र्ाध्यमर्क मशक्षा की वैमिक प्रणाली का सूत्रपात मकया । तब से, उनके मनिेशन के अनुसार श्रील प्रभपु ाि के
मशष्ट्यों ने सम्पूणम मवश्व र्ें िस से अमधक गुरुकुल खोले हैं । श्रीवृन्िावन धार् का भमक्तवेिान्त स्वर्ी गुरुकुल इनर्ें
सवमप्रर्ख ु है ।
श्रील प्रभपु ाि ने श्रीधार्-र्ायापुर, पमश्चर् बंगाल र्ें एक मवशाल अन्तरामष्ट्रीय के न्द्र के मनर्ामण की प्रेरणा िी ।यहीं
पर वैमिक सामहत्य के अध्ययनार्म समु नयोमजत सस्ं र्ान की योजना है, जो अगले िस वषम तक पणू म हो जायेगा इसी प्रकार
श्रीवृन्िवान धार् र्ें भव्य कृ ष्ट्ण-बलरार् र्मन्िर और अन्तराममष्ट्रय अमतमर् भवन तर्ा श्रील प्रभपु ाि स्र्ृमत संग्रहालय का
मनर्ामण हुआ है । ये वे के न्द्र हैंजहाँ पाश्चात्य लोग वैमिक सस्ं कृ मत का र्ल ू रूप से प्रत्यक्ष अनुभव प्राप्त कर सकते
हैं।र्ंबु ईर्ें भी श्री राधारासमबहारीजी र्मन्िर के रूप र्ें एक मवशाल संस्कृ मतक एवं शैक्षमधक के न्द्र का मवकास हो चक ु ा
है । इसके अमतररक्त भारत र्ें बारह अन्य र्हत्वपूणम स्र्ानों र्ें हरे कृ ष्ट्ण र्मन्िर खोलने की योजना कायामधीन है ।
मकन्त,ु श्रील प्रभपु ाि का सबसे बड़ा योगिान उनके ग्रन्र् हैं । ये ग्रन्र् मवद्वानोंद्वारा अपनी प्रार्ाणीकता, गंभीरता
और स्पष्टता के कारण अत्यन्त र्ान्य और अनेक र्हामवद्यालयों र्ें उच्चस्तरीय पाि् यग्रन्र्ो के रूप र्ें प्रयुक्त होते हैं ।
श्रील प्रभपु ाि की रचनाएँ ५० से अमधक भाषाओ ं र्ें अनूमित हैं । १९७२ ई. र्ें के वल श्रील प्रभपु ाि के ग्रन्र्ों के
प्रकाशन के मलए स्र्ामपत भमक्तवेिान्त बुक रस्ट, भारतीय धर्म और िशमन के क्षेत्र र्ें मवश्व का सबसे बड़ा प्रकाशक हो
गया है। इस रस्टका एक अत्यमधक आकषमक प्रकाशन श्रील प्रभपु ाि द्वारा के वल अिारह र्ास र्ें पूणम की गई उनकी
एक अमभनव कृ मत है जो बंगाली धामर्मक र्हाग्रन्र् श्रीचैतन्यचररतार्ृत का सत्रह खण्डों र्ें अनुवाि और टीका है ।
बारह वषो र्ें , अपनी वृद्धावस्र्ा की मचन्ता न करते हुए पररब्राजक (व्याख्यान-पयमटक ) के रूप र्ें श्रील प्रभपु ाि
ने मवश्व के छहोंर्हाद्वीपोंकी चौिह पररक्रर्ाँए कीं ! इतने व्यस्त कायमक्रर् के रहते हुए भी श्रील प्रभपु ाि की उवमरा लेखनी
अमवरल चलती रहती र्ी । उनकी रचनाएँ वैमिक िशमन, धर्म, सामहत्य और संस्कृ मत के एक यर्ार्म पस्ु तकालय का
मनर्ामण करती हैं ।

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