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ASHTANGA YOGA

BY SWAMI CARANDAS
A DIALOGUE BETWEEN CHARANDAS AND HIS GURU SUKADEVA

BY – PULKIT TANEJA
PREPRATION
• Transperency with Guru • Fix your posture
• Discipline • Practice systematically
• Moderate diet • Stay awar from company of people and
• Talk less enjoyment
• Required sleep • Control senses from temporary satisfaction
• No sour, pungent or acid fruit • Donot have desire for supernatural powers
• No deep friendship or animosity • Be content
• To make mind steady • Select a good place free from disturbance
• Do not touch opposite sex • Construct hut on levelled ground, smeared with
• Avoid 8 types of perfumes cow dung
• Donot expect
• Surrender to teacher
• Donot express anger, greed, ego, false pride or
sex
• Donot cheat others
• Donot talk with ego
• Donot believe in witch craft
• Donot believe in tonics and alchemy
YAMA
• Ahimsa
• Satya
• Asteya
• Bhrahmacharya
• Forgiveness
• Dhiraj
• Daya
• Aarjava – calm
• Mitahara
• Shauch
Niyam
• Tapa
• Santosh
• Astik
• Daan
• Seva
• Listening to philosophy
• Lajja
• Determination
• Recite mantras
• Havan
ASANA
• चरणदास निश्चय करौ, बिन आसन नहिं योग । जो आसन दृढ़ होय तो, योग सधै भजि
रोग ।। ५६ ।।
• चौरासीलख आसन जानौ । योनिनकी बैठक पहिचानौ ।।
• तिनमें चौरासी चुग लीन्हें । दुरलभ भेद सुगम सों कीन्हें ॥।
• सो तुमकूं पहिले बतलाये । जिनकूं साधौगे चितलाये ।। तिनमें दोय अधिक पराधानैं ।
तिनकूं सब योगेश्वर जानैं ।। आसन सिद्ध पदम कहलावै । इनकूं करि निश्चय ठहरावे ।।
अरु आसन सब रोग भजावें । ये दो आसन योग सधावैं ।। इन कूं साधे जो जन कोई ।
ध्यान समाधि लगावै सोई ।। चरणदास शुकदेव कहैं यों । आसन दोनों वरणौ हैं ज्यों ।।
५७ ।।
PRANAYAMA
• नासा दहिने अंगहै, पिंगल सूरज वास । इड़ा सुबायें ओर है, जहं ससियर परकास ।।८।।
• दोऊ मध्य में सुषमना, अद्भुत वाको भेव । ब्रह्म नाडिहूं कहत हैं, यौं कह सो शुकदेव ।। ९
• ।।इड़ा ब्रह्मा जमुना जहां, सुषमन विष्णु निवास ।
• और सरस्वति जानिये, येहो चरणहिं दास ।। १०
• ।।शिव पिंगल गंगा सहित, सो वह दहिने अंग । तिरवेणी याते भई, मिली जु तीनौ संग ।। ११
• ।। जुकबहुँ इड़ा स्वर चलत है, कबहूँ पिंगल माहिं । मध्य सुषमना बहत है, गुरु बिन जानै नाहिं ।।१२
• ।।सो वह अग्नि स्वरूप है, बडी योग सरदार । याहीत कारण सरे, ऐसी सुषमान नार ।।१३।।
• इनसौं प्राणायाम करीजै । पूरक कु म्भक रेचकहीजै ।। इड़ा पिंगला मारग थाकै । उलटि सुषमना चालनलागै ।। बायें खँचना पूरक जानौ
। ठहरावन को कु म्भक मानौं ।। फे रि उतारै रेचक वोई । प्राणायाम कहावै सोई ।।१४।।
PRANAYAMA
• अब आठो कु म्भक कहूँ, नावें भेद गुण रूप । शुकदेव कहें परसिद्ध है, योग माहिं अनूप ।।४०
• ।। प्रथम कु म्भकही कहूँ, नावँ जु सूरज भेद । दूजे ऊजाई सुनो, साधे छू टै खेद ।।४१।।11३५|
• शीतकार अरु शीतली, पंचवीं भस्त्रक जान । छठीं जु भ्रमरी नाम है, नीके समझ पिछान ।।४२।.
• नावे मूर्छा सातवीं, अटवीं के वल होय । रणजीता सबसे बड़ी आयु बढ़ाये सोय ।।४३
• पवन पूर पूरकही कीजे । पाछे बन्ध जलन्धर दीने ||
• कुं भक रेचकके मधि जानौ । हवाई बन्ध उड्यान पिछानौ ।।
• पवन जोरही सुं गहि लीजे । अर्ध ऊर्ध्व संकोचन कीजे ॥
• मध्यम कीजै पश्चिम ताने । ब्रह्म नारिके माहिं समाने ।।
• नाडीं पवन खँचिये ऐसे । भरिये सब संध्यान जु जैसे ।।
• अपान वायु कूं ऊपर लाये प्राण वायु नीचे ले जावे ॥
• जोपै यह साधन बनि आवै । योगी बूढ़ा होन न पावै ।।
• तरुण अवस्था देखे ऐसी । नितहीर है जानिये जैसी ||४४ ||
PRATYAHARA
• - प्रत्यहार जो पांचवां, समझाऊ चर्णदास । शुकदेव कह कहूँ खोलकरि, नीके समझौ
तास ।। ९० ।।प्रत्याहार पांचवां कहिये । सो योगीको निश्चय चहिये || विषय ओर
इन्द्री जो जावै । अपने स्वादन को ललचावै ।। तिनकी ओर न जाने देई । प्रत्याहार
कहावै एई ।। रोकिरोकि इन्द्रिनको लावै । ध्यान आतमा माहिं लगावै ॥ जैसे कछु आ अंग
समेटे । रंक शीतकाला में लेटै ।। जैसे माता पूत खिलावै । बालक वस्तू को ललचावै ॥
सरप आग अरु शस्तर कोई । कछू और दुखदायी होई ।। तिनको बालक नाहीं जानै ।
पकड़नको दौडे मन आनै ।।११।।दो. बालक जानत है नहीं, दुखदायी सब एह । जो
पकरूं गा हाथ से, दुख पावैगी देह ।। ९२ ।। माता जानत है सर्व, खोंटी खरी विकार ।
राखे सुतको खँचिकरि, वारंवार निहार ।।९३।। ऐसे ही बुधि ज्ञान सों, पांचौ इन्द्री रोक ।
विषय ओरसों फे रिये, लह न अपना भोग ।। ९४ ।।
PRATYAHARA
• ज्यों ज्यों इनको भोगदे, परबल होती जाहिं ।विना भोग होहीं नहीं, वह बल रहै जुनाहिं
।। ९५
• ।।नैन जु भोगै रूप को, और गन्ध को घ्रान ।षटरस भोगे जीभही, शब्दहि भोगे कान ।।
१६
• ।।त्वचा भोगि अस्पर्शको, बाढै अधिक विकार ।पांचौ इन्द्री जानिले, इनको यही अहार ।।
९७
• ।।इनसे मिलिमिलि मनबिगडि, होय गया कछु औरइन्द्री रोकै मन रुकै , रहै जु अपनी
ठौर ।।९८ ।।
• ज्यो ज्यों होवै प्राणवश, त्यों त्यों मनवश होय । ज्यों ज्यों इन्द्री थिर रहें, विषयजाय
सब खोय ।। ९९
• ।।ताते प्राणायम करि, प्राणायमहिं सार ।पहिले प्राणायामकर, पीछे प्रत्याहार ।।२०० ।।
DHARANA
• दो.- तत्वनकी कहुँ धारणा, तिनमें करै प्रवेश ।शनईशनई साधिकरि, पहुँचे निर्भयदेश ।।
१।।पहिले भूमी धारणा कीजै । ठौर काल जी में चितदीजै ।।

• The first Dharaṇā is known as "Thambhini",


• the second one as "Dravani".
• Third is "Dahani" and the fourth one is known as
"Bhrāmini“
• The fifth one is known as Sankhini"
SAMADHI
• अठवीं कहूँ समाधि लक्षण वर्णन करूं ।तोको सब समुझाय तेरी दुबिधा हरु ।।जबहीं लगै
समाधि योगी आनन्द लहै ।योग भया सिध जानि क्रिया कोइ ना रहे ।। मिलि ध्याता अरु
ध्यान एक हौवै जहां ।दूजा रहे न भाव मुक्ति बर्ते जहाँ ।।निरउपाधि निखेद ऐसा वह देश है
।करम भरम अरु धरम नहीं कोई लेश है ।।आपा रहै न कोय सकल आशागरै ।चिन्ताका
दुख नाहिं वासना सब जरै ।।पंच विषय ज नाहिं नहीं गुणतीनहीं ।होवै ब्रह्म स्वरूप
जीवताक्षी नहीं ।।जाग्रत स्वप्न सुषोप्ति जहां होवै नहीं ।चौथे पद को पाय होय जहँ लीनहीं
।।ऐसे कहे शुकदेव सुनौ चर्णदासही ।यह निर्द्वन्द्व समाधि करौ तहं वासही ।। ३९ ।। जहां
कछू गम ना रहे, विद्या वेद न वाद । ऋद्धिसिधि मिटि आनंदलहै, ऐसी शून्य समाधि ।।
४० ।।
• दो.अष्टपदी छन्द ।।
• तहां किये परवेश रहे न अकारही ।रूप नाम गुण क्रिया यही साकारही ।।पाप पुण्य सुख
दुःख जहां नहिं पाइये । मतमारग कु ल धर्म न देत दिखाइये ।।
SAMADHI
• भूख प्यास अरु उष्ण जहां नहिं शीत है। हर्ष शोक नहीं नेक बेर नहिं प्रीत है ।।
• इन्द्र मन नहिं रहत गलित ह्वे जात है । सिथ साधक गुरु शिष्य न भाव रहात है
• उडु गन चन्द्र न सूर न दिवस न रात है। त्वंपद ईश्वर ब्रह्म न जान्यो जात है ।।
• जैसे जल में नीर क्षीर में क्षीरही । असि पद में यों जीव नीर में नीरही ।।
• अहं मिटै मिटि जाय जू आपा थोकही । ना परमातम आतम बंध न मोक्षही ।। ऐसे कह शुकदेव यों होय समाधि में ।
वैसाही हवे जाय सोई था आदि में ।।४१।।
• दो.. हुता आदि परमातमा, बिचउठि लगा विकार । - मिलि समाधि निर्मल भवे, लहे रूप ततसार ।।४२।।
• अष्टपदी छन्द ।।
• जहँ आतमदेव अभेव सेवक नहिं सेवहै । स्वामीभी हवां नाहि पूजा नहिं देव है ।।
• नोधा नेम न प्रेम ज्ञान नहिं ध्यान है।जड़ चेतन कछु नाहिं सुरति नहीं ज्ञान है ।।
• विधि निषेध नहीं भेद अन्वैवितरेकना ।निश्चय अरु व्यवहार कछू तामें न हवा ।।
• उत्तम मध्यम भाव न शुभ ना अशुभहे|सिंह सर्प डरना ओ शस्तर को न भे है ।
• पावक दग्ध न करै बहाव जल नहीं ।हवाँ नहिं पहुँचे काल न ज्वालाहे नहीं ।।
SAMADHI
• ऐसा भवन समाधि भाग्य सो पाइये । तजि के जक्त उपाधि तहां मठ छाइये ।।
• यतन करे लख माहिं और सब भेषही । कोटिनमें कोइ होय समाधी एकही ।।
• ह्वांतक पहुंच जाय सोई सिध साध है । कहै शुकदेव पुकारि जु कठिन समाधि है ||
४३||
• दो. भक्ति योग अरु ज्ञान की, त्रैविधि कहूँ समाधि । गुरु मिलै तौ सुगमहे, नाहीं कठिन
अगाधि ।।४४ ||

• अथ भक्तिसमाधि ।।
• सब इंद्रिन को रोकिकै , करि हरि चरणन ध्यान । बुद्धि रहे सुरतिहु रहै, तौ समाधि मत
मान ।। ४५ ।। ध्याता बिसरे ध्यान में, ध्यान होय लय ध्येह । बुद्धिलीन सुरती न रहे,
पद समाधि लखिलेह ||४६।।
• अथ योगसमाधि ।।
• आसन प्राणायाम करि, पवन पंथगहिलेहि । षट चक्कर को छेद करि, ध्यान शून्य मन
देहि ॥४७॥ आपा बिसरै ध्यान में, रहै सुरति नहिं नाद । लीन होय किरिया रहित्त,
लागै योग समाध ।।४८ ।।
SAMADHI
• अथ ज्ञानसमाधि ।
• जबलगतत्त्व विचारिकरि, कहँ एक अरु दोय । ब्रह्मव्रत बांधे रहे, ह्यांलग ध्यानहिं होय ।।
४९ ।।
• मै तू यह वह भूलि करि, रहे जू सहज स्वभाय । आपा देहि उठाय करि, ज्ञान समाधि
लगाय ॥५०॥
• ज्ञान रहित ज्ञाता रहित, रहित ज्ञेय अरु जान । लगी कभी छू टै नहीं, यह समाधि
विज्ञान ।।५१।।
• पूछे आठों अंग तें, योग पंथ की बात । शुकदेव कहै तामें चलौं, गुरु कृ पा लै साथ ।।
५२।।

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