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उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट होगा कि आयुर्वेद अर्थात् भारतीय वैद्यकशास्त्र ऐहिक जीवन के साथ-
साथ पारलौकिक जीवन का भी विचार करता है, जिससे उसके मार्गदर्शन के अनुसार आहार-विहार तथा
आचार-विचार रखनेवाले मनुष्य को ऐहिक सुख-स्वास्थ्य के साथ-साथ पारलौकिक सद्गति भी प्राप्त
हुआ करती है। अपने वैद्यक-शास्त्र की यह विशेषता है, इसलिए वैद्यकीय सुभाषिक साहित्य को पढ़ते
समय इसको ध्यान में रखना चाहिए। 'व्यञ्जनादिशुभाविद्या' अ०४५ श्लोक १६ देखें ।
कहा है- मलिनीकरणान्मलाः । (शाङ्गधर) शरीर को मलीन करनेवालों को वैद्यक में 'दोष' कहते हैं और
इन्हीं से शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं। अतः शरीर की दृष्टि से मल का अर्थ वातादि विकृ ति दोष
तथा उनसे उत्पन्न हुए रोग-दोषा अपि रोग- शब्दं लभन्ते । (चरक) लक्षणम्-व्याकरम् - लक्ष्यं च लक्षणं
चैतत् समुदितं व्याकरणं भवति । (पातञ्जल-महाभाष्य) चिकित्सा-चिकित्साशास्त्र (Therapeutics), रोग
उत्पन्न होने पर उसका प्रतीकार करने का शास्त्र-चिकित्सा रुक्प्रतिक्रिया । (अमरकोश) बोलचाल में
लोग वैद्यकशास्त्र और चिकित्साशास्त्र एक ही समझते हैं, परन्तु यह ठीक नहीं है। वैद्यकशास्त्र
(Science of medicine) व्यक्ति तथा समाज के रोगारोग्य का सर्वतोमुख विचार करने वाला व्यापक
शास्त्र है; चिकित्साशाख उसका एक अंग है जिसमें के वल रोगहरण का विचार होता है। इसी को ही
कार्बचिकित्सांग कहते हैं-कायचिकित्सा नाम सर्वांगसंश्रितानां व्याधीनां ज्वररक्तपित्त-
शोषोन्मादापस्मारकु ष्ठमेहातिसारादीनामुपशमनार्थम् । (सुश्रुत) अध्यात्म-अध्यात्मशास्त्र बुद्धिमलों को
नष्ट करके मनुष्य को सद्गति या मुक्ति प्रदान करता है।
शारीरिक तथा मानसिक विकारों के हेतु होते हैं। आयुर्वेद में इनको 'प्रज्ञापराध' कहते हैं-बुद्ध्या
विषमविज्ञानं विषम च प्रवर्तनम्। प्रज्ञापराधं जनीयात् । (चरक) इनका नाश करने के लिए
आयुर्वेदोपदेश में अध्यात्मविद्या भी समाविष्ट है। इसलिए आयुर्वेद उभयलोकहिकर है तथा उसके
अध्यात्मविद्यापूर्ण उपदेश के अनुसार व्यवहार करने से तथा अन्यों से कराने से परमधर्म की प्राप्ति
होती है ऐसा कहा है-तस्यायुषः पुण्यतमो वेदो वेदविदां मतः। वक्ष्यते यन्मनुष्याणां लोकयोरुभयोर्हितः
।। यच्चायुर्वेदोक्तमध्यात्ममनुध्यायति वेदयत्यनुविधीयते वा सोऽस्य परो धर्मः । (चरक) नीचे 'एकं
शास्त्रं' श्लोकवक्तव्य भी देखिए ।
परलोक में सुखप्राप्ति के लिए निम्न चार दान बतलाये हैं। भयातुर को अभयदान, रोगी को
औषधिदान, विद्यार्थी को विद्यादान और क्षुधातुर को अन्नदान ।
वक्तव्य-अभयदान-आरोग्यदान। भय के अनेक कारण होते हैं। मृत्यु भय का सबसे बड़ा कारण होता
है। मृत्यु के अनेक कारण होते हैं। सर्वसामान्य कारण व्याधि है। अतः व्याधिग्रस्त होने पर व्याधित
को औषधि देकर व्याधिनिर्मुक्त करने से उसे अभयदान मिलता है। तात्पर्य, इन चार महादानों में से
दो महादानों का श्रेय के वल चिकित्सा से प्राप्त होता है।
आरोग्यदान की श्रेष्ठता-दान नाना प्रकार के होते हैं; उन तुच्छफल देने वाले दानों से क्या करना है ?
उनमें अभयदान के समान एक भी दान नहीं है।
(२) सत्त्वं रजस्तम इति मानसाः स्युस्त्रयो गुणाः ।
शरीरमनः स्वास्थ्यलक्षण-जिसके (सत्त्वादिगुण तथा वातादि) दोष, (जठर तथा काय की) अग्नि,
(रसादिसप्त) धातु, (पुरीषादि) मल इनकी क्रियाएँ सम हों तथा जिसकी आत्मा, इन्द्रियाँ तथा मन प्रसन्न
हों वह स्वस्थ्य कहलाता है।
वक्तव्य- इस श्लोक के प्रथमार्ध में स्वास्थ्य के जो लक्षण दिये हैं वे व्यक्ति से स्वयं अनुभूत होनेवाले
अर्थात् स्वप्रत्यय (Subjective) हैं। इसके विपरीत द्वितीयार्ध के लक्षण जितने स्वप्रत्यय हैं उतने ही
दूसरों के समझ में आनेवाले अर्थात् परप्रत्यय (Objective) भी हैं। अतः ये लक्षण अपना स्वास्थ्य तथा
अस्वास्थ्य समझने के लिए जितने उपयुक्त हैं उतने ही दूसरों के स्वास्थ्यास्वास्थ्य का अनुमान करने
के लिए भी उपयुक्त होते हैं-दोषादीनां त्वसमतामनुमानेन लक्षयेत् । अप्रसन्नेन्द्रियं वीक्ष्य पुरुषं कु शलो
भिषक् ॥ सुश्रुत ॥
१) तुलभ्रमगुणाकर्षधनुराकर्षणादिभिः ।
व्यायामव्युत्पत्ति-तुल (मुद्गर तथा उसी प्रकार के घुमाये जानेवाले भारी आयुधों) को घुमाना, रस्सा
खींचना, धनुष का आकर्षण करना इत्यादि (विविध कमों) से शरीर के विविध अङ्गों का जो आयाम
होता है उसे व्यायाम कहते हैं।
व्यायामसेवनविधि-धीरे-धीरे धनोपभोग लेना चाहिए, धीरे-धीरे मार्गगमन करना चाहिए, धीरे-धीरे पहाड़ों
पर चढ़ना चाहिए, धीरे-धीरे विद्या और धर्म का साधन करना चाहिए और धीरे-धीरे व्यायाम करना
चाहिए।
वक्तव्य-अर्थ- 'शनैः शनैश्च भोक्तव्यं' इस श्लोक को देखिए। शनैः पन्थाः- शनैरध्वसु वर्तेत योजनान्त्र
परं व्रजेत् ।। शनैर्विद्या-क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थच साधयेत् ।। शनैर्धर्मः - धर्म सञ्चिनुयाच्छनैः ।
व्यायामश्च शनैः शनैः - जो भी और जितना भी व्यायाम करना हो, धीरे-धीरे करें; जिससे करते समय
न हाँफनी मालूम हो, न करने के पश्चात् थकावट । प्राश्रमाद् व्यायामवर्जी स्यात् ।। चरक ।। दण्ड
बैठक इत्यादि दैनिक व्यायाम के प्रकारों में जो वृद्धि करना हो वह भी प्रतिदिन थोड़ी-थोड़ी करके करें।
व्यायाम से शरीर की वृद्धि जरूर होती है, परन्तु वह व्यायाम बहुत तेजी से और बहुत जल्दी बढ़ाने से
नहीं होती । Rome was not built in a day इस कहावत के अनुसार आप व्यायाम चाहे जितना करें,
शरीर एक दिन में नहीं बनता है।- प्राश्रमाद्व्यायामवर्जी स्यात् । चरक ।।
७) मेदश्छे दकृ शोदरं लघु भवत्युत्थानयोग्यं वपुः सत्वानामपि लक्ष्यते विकृ तिमच्चित्तं भयक्रोधयोः ।
उत्कर्षः स च धन्विनां यदिषवः सिध्यन्ति लक्ष्ये चले मिथ्यैव व्यसनं वदन्ति मृगयामीदृग्विनोदः कु तः
।।(शाकु न्तल)
मृगयागुण-चरबी का नाश होने से तोंद घटकर शरीर हलका और उद्योग क्षम बनता है, जिन प्राणियों
की शिकार की जाती है उनके चित्त पर भय और क्रोध का प्रभाव होता है, वह भी देखने को मिलता
है, चलायमान लक्ष्य पर जब बाण वेध करने में सफल होते हैं तब धनुर्धारियों के लिए वह एक
आत्मगौरव की बात होती है; तात्पर्य, मृगया को व्यर्थ में व्यसन कहते हैं, इससे अधिक मनोविनोद
कहाँ से प्राप्त होगा।
जब तक शरीर में वायु है तबतक जीवन है। उसका निकल जाना मृत्यु है, इसलिए उसका नियन्त्रण
(प्राणायाम का अभ्यास) करें।
जैसे सिंह, हाथी, बाघ धीरे-धीरे वश में होते हैं (शीघ्र नहीं), वैसे धीरे-धीरे अभ्यास करने पर प्राण (वश
में होता) है, शीघ्रता करने पर वह साधक का नाश करता है।
वक्तव्य-दुःस्वप्नविध्वंसन- स्वप्न प्रायः रात्रि के अन्तिम प्रहर में अधिक दिखाई देते हैं, क्योंकि उस
प्रहर में नींद गाढ़ी नहीं होती। यदि इसी प्रहर में याने ब्राह्म मुहूर्त में उठकर स्नान किया जाय तो
स्वप्नों का आप से आप नाश हो जाता है। योगरत्नाकर में 'प्रातः स्नानं मलञ्च' ऐसा ही प्रारम्भ है।
स्नाननिषेध-भोजन करने पर, रोगपीड़ित होने पर, मध्य रात्रि में, बहुत वस्त्र पहन कर तथा अज्ञात
जलाशय में स्नान न करे ।।
आतुर:- रुग्णावस्था में स्नान करने से रोग बढ़ता है। वासोभिः सहाजत्रं- बहुत कपड़े पहनकर स्नान
करने से स्नान के समय शरीर की सफाई ठीक नहीं कर सकते हैं। इसलिए नैत्यिक स्नान अल्पवस्त्र
पहनकर करना ही उचित है। परन्तु जब अशौच इत्यादि आकस्मिक कारण हो उस समय अधिक वस्त्र
से भी स्नान करने में आपत्ति नहीं। नाविज्ञाते जलाशये-अज्ञात जलाशय में स्नान करने से कीचड़,
शैवाल में फँ स जाने का या मकरादि जलचरों का शिकार बनने का डर रहता है -
ग्राह्यद्याक्रान्तागाधरूपतया च विशेषेणाज्ञाते जलाशये च ।। मन्वर्थसुक्तावलि ।
जल से शरीरगात्र, सत्य से मन, विद्या और तप से भूतात्मा तथा ज्ञान से बुद्धि शुद्ध (तथा पवित्र) हो
जाते हैं।
मनः शुद्धि-मन की शुद्धि धर्म (के अनुसार आचार-विचार आहार-विहार रखने) से तथा आध्यात्मिक
विद्या (का अभ्यास करने) से होती है।
जल का महत्त्व-जल जीवसृष्टि का प्राण है, विश्व ही जलमय है; क्या स्वस्थ और क्या रोगी, किसी का
जीवन जल के बिना सम्भव नहीं है।
वक्तव्य-जीवसृष्टि जलमय है। जीव निर्जीव होने पर जलहीन होने लगते हैं। एककोशिकीय
(Unicellular) जीव पानी के समान होते हैं। मनुष्य शरीर में ३% पानी है। तात्पर्य, जीवसृष्टि का जीवन
जल पर होने से जल भी जीवन कहा है-जीवयति इति जीवनम् । जल के इस माहात्म्य के कारण
उसको देवता भी मानते हैं-जीवानां प्रसव नमोस्तु जीवनाय । (किरातार्जुनीय) ।
जलपान-अजीर्ण में (भोजन न करके के वल) पानी का सेवन औषधि का काम करता है, भोजन पच जाने
पर (अर्थात् भोजन के ३ घण्टे के उपरान्त) सेवन किया हुआ जल (पाचन में बाधा उत्पन्न न करने के
कारण) बलदायक होता है; भोजन के बीच में (घूँट-घूँट सेवन किया हुआ) जल ('प्रक्षालयेदद्धि' अ. १६,
श्लोक २ देखिए) रुचि उत्पन्न करने के कारण अमृत के समान होता है और भोजन करके तुरन्त
सेवन किया हुआ जल (पाचकरसों को पतला करके भोजन को जल्दी महास्रोत में नीचे ले जाने के
कारण) विषसम (अहितकर) होता है।
यथाविधि सेवन किया हुआ अन्न भोक्ता के द्वारा भक्षित होता है, इसके विपरीत (अयथाविधि सेवित
अन्न) भोक्ता को भक्षण करता है। प्रथम दीर्घायुष्यप्रद और स्वास्थ्यकर और द्वितीय अल्पायुष्यकर
और अस्वास्थ्यप्रद होता है, ऐसा कहते हैं।
अन्ननिरुक्ति-अत्र से प्राणी उत्पन्न होते हैं, अन्न से वृद्धि करते हैं। (प्राणियो द्वारा) भक्षण किया जाता
है (अद्यते) तथा (प्राणियों को) भक्षण करता है (अत्ति) इसलिये उसे अन्न कहते हैं।
दूध-जो तपाने पर, जमाने पर, मथाने पर स्नेह (मक्खन) को उगलता है उस सहज मधुर, पवित्र दूध की
तुलना में कौन बैठ सकता है।
६) कै लासे यदि तक्रमस्ति गिरिश.. किं नीलकण्ठो भवेद् वैकु ण्ठे यदि कृ ष्णतामनुभवेदद्यापि किं
के शवः। इन्द्रो दुर्भगतां क्षयं द्विजपतिर्लम्बोदरत्वं गणः कु ष्ठित्वं च कु बेरको दहनतामग्निश्च
किं विन्दति ।।
कै लास में यदि तक्र होता तो (विष प्राशन के पश्चात्) शंकर नीलकण्ठ क्यों
बनते ? वैकु ण्ठ में यदि तक्र होता तो कृ ष्ण काले क्यो बनते ? इन्द्र भगयुक्त, चन्द्र क्षययुक्त, गणपति
तोदयुक्त, कु बेर कु ष्ठयुक्त और अग्नि दाहयुक्त क्यों रहते ?
युक्तायुक्त भोजन का फल-अन्न प्राणियों के प्राण हैं, अयुक्ति से वह प्राणहर विष बनकर प्राणों का
नाश करता है और युक्ति से सेवन करने पर वह रसायन होता है।
वक्तव्य-रसायन- 'रसायनं च तज्ज्ञेयं' श्लोक देखिए। युक्तियुक्तयथाविधि, जैसे आगे वर्णित है।
तक्र-भोजन के अन्त में क्या पिया जाय ? (तक्रम्), जयन्त किसका पुत्र है ? (शक्रस्य); विष्णुपद कै सा है
? (दुर्लभ), इन्द्र की तक्र दुर्लभ है ।।
वक्तव्य-अन्तरालाप का यह श्लोक है। इस श्लोक के प्रथम तीन पादों में तीन प्रश्न है और चतुर्थ पाद
में उनका क्रमशः उत्तर है। इसके अतिरिक्त चतुर्थ पाद का अपना स्वतन्त्र अर्थ भी है।
स्नेहविरहित भोजन न करें, अतिमात्रा में भोजन न करें, प्रातः संध्या काल और सायंसंध्याकाल में
भोजन न करें तथा दोपहर का भोजन (गरिष्ठ या बहुत) अधिक होने पर रात को भोजन न करें।
वक्तव्य-उद्धृतस्नेहम् - जिसमें किसी भी रूप में स्नेह न हो, रूक्ष। भोजन में स्नेह निम्न प्रकारों से हो
सकता है- (१) मलाई, मक्खन, घी इत्यादि के शुद्ध रूप में। (२) इनसे बनाई हुई मिठाई के रूप में। (३)
तेल, घी इत्यादि में बनाई हुई पूड़ी, कचौड़ी इत्यादि के रूप में। (४) तेल, घी इत्यादि में छौककर, तलकर
बनायी हुई शाक, तरकारी, सूप, यूष इत्यादि के रूप में। इनमें प्रथम प्रकार सर्वोत्तम और अन्तिम प्रकार
सबसे निकृ ष्ट होता है। रूक्ष भोजन राजसी और स्निग्ध भोजन सात्विक होता है। 'श्रेयः पुष्पफलं
वृक्षात्' अ. १०, श्लोक १० और उसकी टिप्पणी भी देखिए ।
प्रगे-प्रातःकाल में। सायम्-सायंकाल में - सायं साये प्रगे प्रातः । अमर ।। आशितः - अतितृप्तः ।।
कु ल्लूकभट्ट ।।
प्रथम किया हुआ भोजन ठीक पच जाने पर दूसरा भोजन करने वाले के पास व्याधि फटकती नहीं
है।
अनभ्यास विद्यार्जन के लिए, मलीन वस्त्र स्त्रीरूप के लिए, भोजन का भलीभाँति पच जाना रोगोत्पत्ति
के लिए और अपनी शक्ति का प्रदर्शन शत्रु के लिए घातक होता है।
वक्तव्य-प्रतिदिन सेवन किया हुआ भोजन ठीक पचता है या नहीं, इस पर यदि मनुष्य ध्यान दे और
तदनुसार आवश्यक हो तो आहार सेवन में परिवर्तन करके अजीर्ण न होने दे तो मनुष्य प्रायः
रोगपीड़ित नहीं हो सकता, क्योंकि अजीर्ण ही बहुसंख्य रोगों की जड़ होती है। 'प्रायेणाहारवैषम्यादजीर्ण'
अ. १४, श्लोक ७ देखिए । इसलिए प्रातःकाल उठने पर परगेश्वर के स्मरण के साथ पूर्व दिन के भोजन
का जीर्णाजीर्णविषयक विचार करने के लिए कहा है- ब्राह्मे मुहूतें बुद्धयेत जीर्णाजीर्ण निरूपयन् ।।
अष्टांगसंग्रह ।।
हे पाण्डु नन्दन ! मरुस्थल में जैसे वृष्टि वैसे क्षुधापीड़ित में भोजन और दरिद्र में (धनधान्यादि का) दान
सफल होता है।
जिह्वा की रससंवेदना मन्द होने से जल मधुर मालूम होता है। आँवला खाने के पश्चात् जल का
मीठापन इसका सर्वपरिचित उदाहरण है।
अभ्यास-(विद्याधरी वसिष्ठजी को कहती है) हे गुने ! अभ्यास से कटु द्रव्य भी प्रिय होता है। जैसे, एक
को मधु वैसे (अभ्यास से) दूसरे को नीम भी रोचक लगता है।
परन्तु मद्य स्वभावतः (शरीर की दृष्टि से) अन्न के समान होता है; अयुक्ति से सेवन करने पर वह
रोगोत्पादक और युक्ति से सेवन करने पर अमृतसम हितकर है।
जन्मान्ध (चर्मचक्षु न होने से जड़सृष्टि को) नहीं देखता (परन्तु गुणदोषों को देखता है); परन्तु
कामान्ध, मद्यमत्त और धनलोभी (बुद्धि नष्ट होने से) दोषों को नहीं देखते ।
ब्रह्मचर्यव्याख्या- शरीर, मन और वाणी-इन तीनों से सर्व अवस्थाओं में सदा सर्वदा तथा सर्वत्र
मैथुनत्याग को ब्रह्मन्नर्य कहते हैं।
वक्तव्य-व्यवहार में लोग मैथुन से के वल स्त्री-पुरुष सम्भोग समझते है परन्तु मैथुन का यह एकदेशीय
या संकु चित अर्थ है। उसका व्यापक अर्थ औ उसके आधार पर ब्रह्मचर्य का स्पष्टीकरण नीचे के
वचनों में किया गया है।
अष्टाङ्गब्रह्मचर्य-विचारी पुरुष (स्त्रियों के द्वारा पुरुषों का तथा पुरुषों के द्वारा स्त्रियों का) स्मरण,
गुणगान, उनके साथ क्रीड़ा करना, उनकी ओर कामुक दृष्टि से देखना, एकान्त में भाषण, मैथुन के लिए
सङ्कल्प करना, तदर्थ प्रयत्न और प्रयत्नसम्भोग- इन आठ अङ्गों को मैथुन और इनके विपरीत आठ
अङ्गों को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
वक्तव्य-अष्टलक्षणम् -मैथुन के विपरीत ब्रह्मचर्य होने से मैथुन के समान ब्रह्मचर्य भी अष्टाङ्ग होता
है- शब्दस्पर्शरूपरसगन्धेषु यः सङ्गव्युदासः श्रोत्राद्युपरति असङ्कल्पश्च मनस उपरतिः स
अष्टाङ्गब्रह्मचर्यम् ।। (माठरभाष्य) । ब्रह्मचर्यम्- शास्त्रीय व लौकिक दृष्ट्या ब्रह्मचर्य के अनेक अर्थ
होते हैं। (१) ब्रह्म परमात्मानमभिमुखं चरति, ब्रह्मणे चर्यं वा । ब्रह्मोपासना-यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य
चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ।। (गीता) । (२) ब्रह्म वेदं वा गुरुणा प्रदत्तं चरति, वेदार्थ चर्य वा।
वेदाध्ययन प्रतिवेदं ब्रह्मचर्य द्वादशाब्दानि पश्च वा । (याज्ञवल्क्यस्मृति)। (३) ब्रह्म बीजं
रेतस्तच्चरति, तं न मुञ्चति । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य, जिसका विवरण इस
अध्याय में किया है। संक्षेप में शाश्वत अस्खतितरेतस्त्वम् ॥ (४) शान्त पुक्तियुक्त मैथुनसेवन,
वैवाहिक ब्रह्मचर्य आहारयन्ब्रह्मचर्या प्रयोजितः । शारीरं धार्यते नित्यमागारमिवधारणै: । (अष्टाङ्गदय)।
'ऋतावृती सदारेषु १९, श्लोक २० देखिए । (५) कायिक मैथुन विमुखता, इसमें के वल कायिक ब्रह्मचर्य
पर बल दिया जाता है, इसलिए शारीरिक तप में इसका समावेश होता है-देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं
शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ।। (गीता) । (६) लाचारी से अविवाहित स्थिति या
क्वाँरापन यह ब्रह्मचर्य का लौकिक या बोलचाल की भाषा में या सर्वजनपरिचित अर्थ होता है-
ब्रह्मचारी च निर्धनः (वृद्धचाणक्य) । (७) गुरु के घर में रहकर वेदाध्ययनादि कर्म किये जाते हैं और
उनमें सफलता प्राप्त करने के लिए गुरुकृ पा की अत्यन्त आवश्यकता होती है जो गुरु की उत्तम सेवा
किये बिना प्राप्त नहीं हो सकती है। इसलिए गुरुसेवा को भी ब्रह्मचर्य कहते हैं-शुश्रूषा च गुरोर्नित्यं
ब्रह्मचर्यमितारितम् । (वसिष्ठसंहिता)।
Ashish patil, [07-01-2024 15:19]
(वृद्धचाणक्य)
आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये मनुष्यों के कर्म पशुओं के समान होते हैं; ज्ञान (या धर्म) मनुष्यों का
विशेष है, उसके बिना वे पशुसम होते हैं।
वक्तव्य-आहारादि की दृष्टि से मनुष्य और अन्य जीव इनमें कोई अन्तर नहीं होता, क्योंकि शरीररक्षा
और जातिरक्षा के ये शरीर-धर्म होने के कारण सब में समानरूपेण रखे गये हैं। परन्तु सेवन में
समानता होते हुए भी पूर्वविधि में, विशेषतया मैथुन की, दोनों में महदन्तर होता है। पशुओं में बिना
पूर्वविधि या विवाह के , मैथुन-सेवन किया जाता है और मनुष्यों में उसकी आवश्यकता हुआ करती है।
(वाजसनेयब्राह्मण)
प्रजा के लिए विवाह-जाया आत्मा का अर्धाश है। इसलिए जब तक वह भार्यावान् प्रजावान् नहीं होता है
तब तक वह अपूर्ण है। जब वही भार्यावान् प्रजावान् होता है तब वह पूर्ण होता है।
वक्तव्य-संसार की दृष्टि से पुरुष या वी पूर्ण नहीं है। दोनों मिल कर संसार होता है। शंकर जी के
अर्धनारीनटेश्वर के रूप में इस कल्पना का दि है और शंकराचार्य जैसे अजिंक्य वाद विवादपटु की
स्त्रीविषयक प्रश्न में हुई इस कलाना को साक्षी है। इसलिए पुरुष को विवाह करना विहित है।
(३) विषाद्विषं किं विषयाः समस्ता, दुःखी सदा को विषयानुरागी । धन्योऽस्ति को यस्तु परोपकारी, कः
पूजनीयः शिवतत्त्वनिष्ठः ।।
(शङ्कराचार्य)
विषय-विषालुता-विष से अधिक विषालु कौन है ? सर्व विषय सदा दुःखी कौन है ? विषयासक्त; धन्य
कौन है ? परोपकारी; पूजनीय कौन है ? शिवतत्त्व (परमात्मा) में निष्ठ ।
(चन्द्रगोमी)
विष और विषयों में बहुत अधिक अन्तर है; विष सेवन से और विषय के वल स्मरण करने से भी
घातक होते हैं (इन्द्रियों द्वारा उनका सेवन करने की आवश्यकता नहीं होती) ।
१२) न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृ ष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ।। (मनु)
विषयों की अतृप्तिकारता-कामेच्छा कामोपभोग से शान्त नहीं होती, प्रत्युत घी से जैसी अग्नि वैसे
अधिक बढ़ती है।