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धातोः ।३।११॥
आतत
ृ ीयाध्याय समाप्त्यन्तं ये प्रत्ययास्ते धातोः परे स्युः । 'कृदतिङ,' इति
कृत्संज्ञा।
वासरूपोऽस्त्रियाम ् ।७।१।६४॥
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धातोरिति- इस सत्र
ू से लेकर (पाणिनि कृत अष्टाध्यायी) के तत
ृ ीय अध्याय की
समाप्ति तक जो प्रत्यय कहे गये हैं, वे सब धातु से परे (आगे) हो ।
(यह अधिकार सूतर् है , कृदन्त प्रकरण के सभी सूतर् ों में इसका अधिकार जाता
है , अतएव सभी कृत् प्रत्यय धातु से परे होते हैं )
कृदिति - कृदतिङ् ।३।१।६३॥ इस सत्र
ू से तिङ्-भिन्न प्रत्ययों की कृत ्-संज्ञा होती
है ।
(तिङ, प्रत्यय-तिप् तस् झि आदि भी धातु ओं से ही परे होते हैं और कृत प्रत्यय
भी, अतः धातु ओं से होने वाले तिङ् प्रत्ययों से भिन्न प्रत्यय यत् ण्यत् तव्यत्
आदि कृत् प्रत्यय कहे जायें गे ।)
वासरुप इति – इस धातु के अधिकार में असरूप अपवाद प्रत्यय उत्सर्ग अर्थात ्
सामान्य सूत्रों द्वारा विहित प्रत्ययों के बाधक विकल्प से हों। 'स्त्रियाँ क्तिन ्' ३।
३।६४। इस सत्र
ू के अधिकार में कहे गये प्रत्ययों को छोड़कर।
उत्सर्ग का अर्थ है -सामान्य, अर्थात ् जिन प्रत्ययों के लिए किन्हीं विशेष धातुओं
की अपेक्षा नहीं रहती, जैसे तव्यत ् अनीयर् अण ् आदि प्रत्यय । अपवाद का अर्थ
है --विशेष, अर्थात ् वे प्रत्यय जो किन्हीं विशेष प्रकार की धातुओं से ही हो सकते1
हैं। जैसे यत ् ण्यत ् क आदि प्रत्यय ।
सामान्य नियमानस
ु ार सभी अपवाद प्रत्यय अपने उत्सर्ग प्रत्ययों के, अपने
स्थल में , नित्य बाधक होते हैं, पर इस प्रकरण में उत्सर्ग अपवाद प्रत्ययों के लिए
यह विशेष नियम है कि जो असरूप अपवाद प्रत्यय हैं, वे उत्सर्ग प्रत्ययों के
विकल्प से बाधक होंगे, नित्य नहीं, जैसे इसी प्रकरण में तव्यत ् तव्य अनीयर्
प्रत्यय हैं, जो कि
परन्तु सरूप (समान रूप वाले जैसे अण ् और क प्रत्यय, क्योंकि अनुबन्ध लोप
होने पर इन दोनों का 'अ' शेष रहता है ) प्रत्यय उत्सर्ग के नित्य बाधक होंगे।
परन्तु उत्सर्ग अपवाद का यह बाध्य बाधक भाव नियम "स्त्रियां क्तिन ्" इस सूत्र
के अधिकार में विहित स्त्री प्रत्ययों में नहीं लगता है , अर्थात ् यहाँ अपवाद प्रत्यय
उत्सर्ग के नित्य बाधक रहे गे, जैसे चिकीर्षा आदि प्रयोगों में 'अ प्रत्ययात ्' सत्र
ू से
अ प्रत्यय होता है , यहाँ क्तिन ् प्रत्यय (उत्सर्ग प्रत्यय) न हो सकेगा।
कृत्याः १७.१९५॥
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कर्तरि कृत ् इति - कृत प्रत्यय कर्ता अर्थ में हों। इससे सभी प्रत्यय कर्ता अर्थ में
प्राप्त हुए-
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तव्यत्तव्यानीयरः ३३१॥६॥
धातो रे ते प्रत्ययाः स्युः। एधितव्यम ्, एधनीयं त्वया । भावे औत्सगिक मेक
वचनं क्लीवत्वञ्च । चेतव्यश्चयनीयो वा धर्मस्त्वया।
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"आर्धधातु कस्ये ड् वलादे ः'' - वल प्रत्याहार जिसके आदि में हो, ऐसे आर्धधातु क
प्रत्यय के आगे रहने पर से ट् धातु को इट् का आगम हो, इस सूतर् से तव्यत् में
वलादि आर्धधातु क प्रत्यय के आगे रहने पर इट् आगम हुआ। से ट् अनिट
धातु ओं का परिगणन तिङन्तप्रकरण में किया गया है , सर्वत्र उसी के अनुसार
से ट् व अनिट् धातु ओं का परिचय प्राप्त करना चाहिये । तिङ् शित् प्रत्ययों को
छोड़कर शे ष प्रत्यय आर्धधातु क कहे जाते हैं ।
पक्तव्या इत्यर्थः ।
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(वा) केलिमर उपसंख्यानम ् - कर्म व भाव में तव्यत ् आदि के समान केलिमर्
प्रत्यय का भी उपसंख्यान (कथन) करना चाहिए।
कर्मणीति - उक्त दोनों प्रयागों में धातुओं के सकर्मक होने से कर्म में प्रत्यय हुए
हैं
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कृत्यल्यट
ु ों बहुलम ् ३।३।११३॥
क्वचित्प्रवत्ति
ृ ः क्वचिदप्रवत्ति
ृ ः, क्वचिद्विभाषा क्वचिदन्यदे व ।
ईद्यति ६।४॥६५॥
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बहुल शब्द का अर्थ है - बहुत प्रकार से होना आगे इसी बहुलता का वर्णन है -
दानीयः विप्रः (दे ने योग्य ब्राह्मण, जिसे दिया जाय) यहाँ दा (दे ना सकर्मक) धातु
से सम्प्रदान अर्थ में अनीयर् प्रत्यय होकर दानीयः रूप बना।
इन दोनों प्रयोगों में क्रमशः करण एवं सम्प्रदान में प्रत्यय हुए हैं जो कि किसी
अन्य सूत्र से नहीं हो सकते थे । अतः बाहुलक नियम से ये प्रत्यय हुए हैं।
चेयम ् - (चुनने योग्य) चित्र (चुनना सकर्मक) धातु से यत ् प्रत्यय, गुण, चेय,
प्रातिपदिक संज्ञा, सामान्य में नपंस
ु क लिंग, सु प्रत्यय, अम ्, आदे श, होकर
'चेयम ्' रूप बना।