You are on page 1of 22

प्रस्तावना - वेदाङ्गों में व्याकरण विशेष रूप से पठनीय है ।

व्याकरण का अध्ययन किए बिना कोई भी व्यक्ति वर्णों के


उच्चारण तथा उनकी प्रक्रिया नहीं जान सकता इसलिए
व्याकरण के विषय में यह उक्ति प्रचलित है -

यद्यपि बहु न अधीषे तथापि पठ पत्र


ु व्याकरणम ् l

स्वजनः श्वजनो मा भत
ू ् सकलं शकलं सकृत ् शकृत ् ll

इस प्रकार व्याकरण का अध्ययन अवश्य ही करना चाहिए और


व्याकरण में भी तिङ्न्त प्रकरण ध्यानपूर्वक और एकाग्रता से
पढ़ना चाहिए क्योंकि तिङ्न्त प्रकरण से ही क्रिया पद बनते हैं
जिनके कारण ही वाक्य संरचना संभव हो पाती है , कभी कभी तो
वाक्य के लिए एक क्रियापद ही पर्याप्त होता है - यथा , गच्छामि
, भवामि , नमामि इत्यादि इत्यादि।
व्याकरण का यह भाग जितना महत्वपूर्ण है उतना ही जटिल भी
है । इसका अध्ययन करते हुए अनेक बातों का ध्यान में होना
अति आवश्यक है जिनमें से एक है सेट/अनिट् धातुओं का
यथावत ् उपयोग। व्याकरण के विद्यार्थियों से प्रायः इस सम्बंध
में त्रटि
ु यां हो जाया करती हैं। जो सबसे अधिक विद्यार्थियों को
क्लिष्ट लगता है वह इट् सम्बन्धी क्रादिनियम।

क्रादिनियम उस नियम को कहते हैं जब कृ, स,ृ भ,ृ व,ृ स्त,ु द्र,ु
स्त्र,ु श्रु इन आठ धातुओं द्वारा लिट् लकार में सेट/अनिट् की
प्रक्रिया को समझा जाता है । इस नियम में कृ सभी धातओ
ु ं के
आदि में पढ़ा गया है अतः इस नियम का क्रादिनियम के नाम से
व्यवहार किया जाता है ।

यहां इट् सम्बन्धी तथा क्रादिनियम के विशेष सूत्रों का संक्षेप में


विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है -

इट् आगम तथा क्रादिनियम से सम्बंधित विशेष सत्र


ू इस प्रकार
हैं -
1.आर्धधातु कस्ये ड् वलादे ः।
2.एकाच उपदे शेऽनुदात्तात्।
3.कृसृभृवृस्तु दरु
् स्रुश्रुवो लिटि।
4.अचस्तास्वत् थल्यनिटो नित्यम् ।
5.उपदे शेऽत्वतः।
6.ऋतो भारद्वाजस्य।

2. अब क्रमशः इन सत्र
ू ों की व्याख्या की जाती है -

(1) आर्धधातु कस्ये ड् वलादे ः ( अष्टा० 7.1.35)

वत्ति
ृ : - वलोदे रार्धधातुकस्य 'इट्' आगमः स्यात ्।

व्याख्याः वलादि आर्धधातुक को इट् आगम हो।


धातोः' (अष्टा. 3.1.91) के अधिकार में विहित प्रत्ययों में जो
'तिङ्' और 'शित ्' से भिन्न हैं वह प्रत्यय 'आर्धधातक
ु ' कहलाते हैं
तथा प्रदत्त सूत्र के

द्वारा ऐसे आर्धधातक


ु प्रत्यय जिनमें 'वल' प्रत्याहार आदि में हैं
उनको इट् के आगम का विधान किया गया है ।

इट् आगम करने के लिए यह सामान्य नियम है तथा इसके सत्र



ु ों को इट् की प्राप्ति होती है किंतु
के सभी वलादि आर्धधातक
व्याकरण शास्त्र का नियम है कि जहाँ जहाँ कोई सामान्य सूत्र
प्राप्त होता है वहां वहां उसका निषेध करने वाला सत्र
ू भी मिलता
है । अतः अब आर्धधातक
ु स्येड् वलादे ः के निषेध सत्र
ू का कथन
किया जाता है -

(2) एकाच उपदे शेऽनुदात्तात्।


वत्ति
ृ : - उपदे शे यो धातुरेकाज अनुदात्तश्च तत
आर्धधातक
ु स्येण न

ऊदन्तैौति-रु-क्ष्णु-शीङ्-स्नु-नु-क्षु-श्वि-डीङ-श्रिभिः ।

वङ्
ृ -वभ्
ृ यां च विनैकाचोऽजन्तेषु निहताः स्मत
ृ ाः ।।

व्याख्या : - उपदे श अवस्था में जो धातु एक अच ् वाली तथा साथ


ही अनुदात्त भी हो तो उस धातु से परे आर्धधातुक प्रत्यय को इट्
का आगम नहीं होता।

अनुबन्धों से मुक्त करके धातुओं का एकाच्त्व या अनेकाच्च


दे खा जाता है । यथा-"डुकृञ ् करणे'। यहाँ अनब
ु न्धों को छोड़कर
कृ' ही अवशिष्ट रहता है अतः यह धातु एकाच है ।

अजन्तों में ऊदन्तों ( सभी नहीं ) तथा ऋदन्तों ( सभी नहीं ) को


छोड़कर शेष सभी धातुएं अनुदात्त होती हैं।
इसके अतिरिक्त कौन सी धातु अनद
ु ात्त और कौन सी उदात्त है
? इस का संग्रह लघु - सिद्धान्त - कौमुदी में वरदराज ने कर रखा
है । उन सभी का धातुओं का विवेचन प्रकरण समाप्त करने के
पश्चात परिशिष्ट भाग के अंतर्गत दिया जाएगा।

यह सूत्र उपदे श में जो एक अच ् तथा अनुदात्त धातुएं हैं उन सभी


से इट् का निषेध करता है किंतु प्रकरण अनुसार इसका भी
अपवाद सत्र
ू प्राप्त होता है जो इस सत्र
ू का आंशिक रूप से निषेध
करता है -

( 3) कृसृभृवृस्तु दरु
् स्रुश्रुवो लिटि।

वत्ति
ृ : क्रादिभ्य एव लिट इण्न स्याद् अन्यस्मादनिटोऽपि
स्यात ् ।।
विशेष : - इस सूत्र को क्रादिनियम के नाम से भी जाना जाता है ।

व्याख्या : कृ, स,ृ भ,ृ व,ृ स्त,ु द्र,ु स्त्र,ु श्र-ु इन आठ धातओ
ु ं से परे
लिट् को इट् का आगम न हो, किंतु अन्य अनिट् धातुओं से परे
लिट् को इट का आगम हो जाये।

कृ , भ ृ , व ृ में कोई अनब


ु ंध नहीं लगा हुआ अतः इन सबसे दो दो
धातुओं का ग्रहण होता है , शेष सभी से केवल एक एक धातु का
ही ग्रहण किया जाता है -

1. कृ - डुकृञ् करणे , कृ हिंसायाम्


2. सृ - सृ गतौ
3. भृ - भृञ् भरणे , डुभृञ् धारणपोषणयो:
4. वृ - वृङ् सम्भक्तौ , वृञ् वरणे
5. स्तु - ष्टुञ् स्तु तौ
् - दरु
6. दरु ् गतौ
7. स्त्रु - स्त्रु गतौ
8. श्रु - श्रु श्रवणे

उपरोक्त आठ धातओ
ु ं से लिट् में इट् का आगम न हो

एकाच उपदे शऽे नुदात्तात ् से तो सर्वत्र इट् का निषेध प्राप्त किंतु


प्रदत्त सूत्र ने उसमें भी नियम कर दिया कि यदि लिट् में वलादि
आर्धधातक
ु से इट् की प्राप्ति है तो केवल क्रादिनियम के अंतर्गत
पढ़ी गई धातुओं से ही इट् के आगम का निषेध हो अन्य धातुओं
से नहीं चाहे वे उपदे श - अवस्था में ' एकाच उपदे शऽे नद
ु ात्तात ् '
के अनस
ु ार एक अच ् वाली अनद
ु ात्त धातए
ु ं ही क्यों न हों।

इस प्रकार क्रादिनियम द्वारा ' एकाच उपदे शऽे नद


ु ात्तात ् ' का
ू लिट् में निषेध प्राप्त हो जाता है किंतु पन
संपर्ण ु ः आवश्यकता के
अनस
ु ार क्रादिनियम का भी आंशिक अपवाद सत्र
ू प्राप्त होता है
जो लिट् में क्रादिनियम की शर्तों को बांध दे ता है जिससे
क्रादिनियम का संपर्ण
ू लिट् में अधिकार नहीं हो पाता।

अब क्रादिनियम के उस आंशिक अपवाद सूत्र का कथन किया


जाता है -

(4) अचस्तास्वत् थल्यनिटो नित्यम् -

वत्ति
ृ : उपदे शऽे जन्तो यो धातुस्तासौ नित्याऽनिट्, ततः परस्य
थल ् इट् (ण) न।

व्याख्याः उपदे श में अजन्त धातु जो तास ् में नित्य अनिट् हो


उससे परे थल को इट् का आगम न हो।
तिङ्न्त प्रकरण में लट् के पश्चात लिट् आता है । लिट् के तिबादी
के स्थान पर परस्मैपद में णलादि नौ प्रत्यय आदे श होते हैं
जिनमें से थल ् भी है । परस्मैपद में होने वाले ये नौ आदे श इस
प्रकार हैं-

एकवचन ् वचन
दवि बहुवचन

प्रथम पु० तिप ् ( णल ् ) तस ् (अतुस ् ) झि(उस ्)

मध्यम प०
ु सिप ् (थल ् ) थस ् (अथस
ु ्) थ (अ)

उत्तम पु० मिप ् (णल ् ) मस ् ( म ् ) वस ् (व ्)

इस प्रकार परस्मैपदी लिट् के मध्यम पुरुष के एकवचन में सिप ्


को थल ् आदे श हो जाता है ।
क्रादिनियम के अनुसार यहां इट् का आगम प्राप्त होता है यदि
क्रादिनियम के अंतर्गत पढ़ी गयी धातओ
ु ं से प्रत्यय का विधान न
किया गया हो तो किंतु प्रकृत सूत्र थल ् में नित्य इट् का निषेध
कर दे ता है यदि वह धातु अजन्त हो तथा तास ् में नित्य अनिट्
हो तो।

इस कारण जो अजन्त धातए


ु ं क्रादिनियम से सेट हुई थी वे भी
इस सत्र
ू के द्वारा अनिट् हो जाती हैं।

जैसे - क्षि धातु उपदे श में अजन्त है और तास ् में एकाच ्० होने से
अनिट् है ( क्रादि धातओ
ु ं में भी नहीं पढ़ी गई है ) अतः
ु ार यहां थल ् में इट् प्राप्त था किंतु प्रकृत सत्र
क्रादिनियम के अनस ू
से यहां इट् का निषेध हो गया और इस प्रकार 'अचस्तास्वत ् ० '
क्रादिनियम का आंशिक अपवाद बन गया ।
इस प्रकार ' वलादि आर्धधातुक०' का बाध 'एकाच ् उपदे शे ० ' से
हुआ , ' एकाच ् उपदे श०
े ' का आंशिक बाध 'क्रादिनियम' से हुआ
और क्रादिनियम का आंशिक बाध ' अचस्तास्वत ् ० '

से हुआ।

अब पुनः प्रसंग अनुसार एक और सूत्र प्राप्त होता है जो पूर्वोक्त


सत्र
ू का आंशिक अपवाद बनता है । अब उस सत्र
ू को भी दिखलाया
जाता है -

(5) उपदे शेऽत्वतः

वत्ति
ृ : उपदे शऽे कारवतस्तासौ नित्यानिटः परस्य थल इट् न
स्यात ्।

व्याख्याः उपदे श में अकारवान ् (ह्रस्व अकार) और तास ् में नित्य


अनिट धातु से परे थल ् को इट् न हो।
पिछले सूत्र में अजन्त धातुओं में इट् के आगम का निषेध किया
गया था जो तास ् में नित्य अनिट् थी अब इस सत्र
ू के द्वारा ह्रस्व
अकार वाली धातुओं में भी इट् का निषेध किया जा रहा है । इसके
उदाहरण हैं - पच ् ,शक् , रञ्ज ् आदि। ये सब तास ् में नित्य अनिट्
हैं अतः इन से परे थल ् में भी इट् का निषेध हो जाएगा।

उपदे श में ही अकारवान ् हो ऐसा इसलिए कहा गया है कि जहाँ


बाद में गुण आदि होकर अकारवान ् बना हो, वहाँ निषेध न प्रवत्ृ त
हो जैसे - चकर्षिथ। यह कृष बिलेखनेश धातु का रूप है , उपदे श
अवस्था में यहाँ ऋकार है , अकार नहीं, गुण होने पर अवश्य
अकार हो जाता है । इसलिए उपदे श में अकारवान न होने से
निषेध की प्रवत्ति
ृ नहीं हुई।

पूर्वोक्त सूत्रों की भांति प्रकृत सूत्र का भी अपवाद सूत्र प्राप्त होता


है जो आंशिक रूप से इस सूत्र को बाध लेता है । अब यहाँ वह सूत्र
दर्शाया जाता है -
( 6 ) ऋतो भारद्वाजस्य

वत्ति
ृ : तासौ नित्यानिट ऋदन्तादे व थलो नेट् भारद्वाजस्य
मते। तेन अन्यस्य स्यादे व।

व्याख्या : तास ् में नित्य अनिट् ऋदन्त धातु से परे ही थल ् को


इट् का आगम हो भारद्वाज मनि
ु के मत से।

ऋदन्त से थल ् में इट् का निषेध 'अचस्तास्वत ्' सूत्र से सिद्ध था


अतः पन
ु ः इस सूत्र का कथन भी नियमार्थ ही किया गया है और
उसके लिए हमें इस सत्र
ू के पर्ण
ू अर्थ पर विचार करना होगा।

प्रकृत सूत्र में पिछले सूत्र से ' तास्वतथल्यनिटो नित्यम ् ' इन


पदों की अनुवत्ति
ृ करने के पश्चात सूत्रार्थ इस प्रकार होगा कि
तास में नित्यानिट् केवल ऋदन्त धातु से परे ही थल ् को इट् न हो
किन्तु अन्य धातओ
ु ं से परे थल ् को इट हो जाए।

इस प्रकार पाणिनि आदि आचार्य तो अजन्त धातु मात्र से इट् का


निषेध करते हैं परन्तु भारद्वाज मनि
ु केवल ऋदन्तों से ही इट्
का निषेध करते हैं अन्यों से नहीं ।

किंतु पाणिनि ने उनका भी मत आदरार्थ प्रकट किया है । उस


समय उनके मत से भी प्रयोग होता रहा होगा इसलिए उनका
मत भी प्रमाण हैं अतः ऋदन्तभिन्न धातओ
ु ं से परे थल ् को इट्
का आगम होगा भी (भारद्वाज के मत में ) और नहीं भी होगा
(अन्य आचार्यों के मत में ), इस प्रकार विकल्प सिद्ध हो जायेगा ।

क्योंकि केवल भारद्वाज मनि


ु के मत में ही ऋदन्त धातओ
ु ं से ही
इट् का निषेध प्राप्त होता है अतः इस नियम को
भारद्वाजनियम के नाम से भी जाना जाता है ।
इस प्रकार यहां क्रमवार तरीके से इट् सम्बंधित सभी सत्र
ू ों की
विवेचना पूर्ण हुई।

3. अब कुछ धातुओं में उदाहरण के रूप में इन सूत्रों को यहां


घटाकर दिखाया जा रहा है -

(1) अद ् ( भक्षणे ) का लिट् लकार में रूप वलादि आर्धधातु क परे


रहते -

अद् धातु में लिट् लकार के परस्मैपद के मध्यम पुरुष के


एकवचन में अद् धातु से सिप ् प्रत्यय लेकर आए। लिट् के स्थान
पर ''तिङ्'' प्रत्यय आने से तिबादि की आर्धधातक
ु संज्ञा हुई।
पुनः सिप ् के स्थान पर ' णलतुसुस०' से ' थल ्' का आदे श हुआ।
अभ्यास आदि से द्वित्व होने पर स्थिति हुई -
अद् + अद् + थल ्

पन
ु ः अभ्यास आदि और हलन्त्यम ् 'थल ्' के लकार का अनब
ु न्ध
लोप करने पर स्थिति हुई -

अ + अद् + थ ्

यहां अद् से परे थल ् का थकार है जो वलादि आर्धधातक


ु है अतः
यहां 'आर्धधातुकस्येड् ० ' से इट् का आगम प्राप्त है किंतु अद्
धातु ' एकाच ्०' के अनुसार एक अच ् वाली भी है और इसके साथ
साथ अनद
ु ात्त भी है अतः इसी ' एकाच ् उपदे श०
े ' से यहां इट् का
निषेध भी प्राप्त होता है क्रादिनियम से इस धातु को इट् का
आगम प्राप्त होता है क्योंकि क्रादिनियम उन्हीं धातुओं में इट्
का निषेध मानता है जो इस नियम के अंतर्गत पढ़ी गई है चाहे वे
एक अच ् वाली तथा साथ में अनुदात्त ही क्यों न हो अतः इस अद्
धातु को पन
ु ः इट् की प्राप्ति हो जाती है परं तु 'उपदे शऽे त्वतः' से
फिर इसका बाध हो जाता है क्योंकि यह सूत्र कहता है कि
उपदे शवस्था में जो अकारवान धातु है उससे इट् का निषेध हो
जाए।

यह धातु उपदे श में अकारवान ( ह्रस्व अकार वाली ) है अतः


'उपदे शऽे त्वतः' सत्र
ू से पन
ु ः इट् का निषेध हो जाता है क्योंकि '
उपदे शऽे त्वतः' केवल अकारवान धातुओं को ही इट् का निषेध
मानता है अन्यों से नहीं इसलिए इस सूत्र के द्वारा अद् धातु से
इट् का निषेध हो जाता है परं तु पन
ु ः इस सत्र
ू का भी अपवाद सत्र

प्राप्त होता है जो अद् धातु में इट् की प्राप्ति करा दे ता है । वह सूत्र
इस प्रकार है -

इडत्त्यर्ति-व्ययतीनाम ् ( 7.2 .66 )

वत्ति
ृ : अद्, ऋ, व्येञ ् -एभ्यस्थलो नित्यमिट् स्यात ्।
व्याख्या : (खाना)

ऋ (जाना)

व्येञ ् (आच्छादन करना)

इन तीन धातुओं से परे थल को नित्य इट् का आगम हो।

'उपदे शेऽत्वतः' सूतर् से अद ् धातु को वै कल्पिक इट् की प्राप्ति


थी किन्तु ' इडत्त्यर्ति-व्ययतीनाम् ' से अद ् धातु को नित्य इट् की
प्राप्ति हो गयी जिससे लिट् लकार के मध्यम पु रुष के एकवचन
में 'आदिथ' रूप बनता है । वस् और मस् परे होने पर क् रादिनियम
से क् रमशः ' आदिव , आदिम रूप बनते हैं ।

( 2 ) हु (दानाऽदनयो: ) का लिट् लकार में रूप

हु धातु में लिट् लकार के परस्मैपद के मध्यम पुरुष के एकवचन


में हु धातु से सिप ् प्रत्यय लेकर आए। लिट् के स्थान पर ''तिङ्''
प्रत्यय आने से तिबादि की आर्धधातक
ु संज्ञा हुई। पन
ु ः सिप ् के
स्थान पर ' णलतुसुस०' से ' थल ्' का आदे श हुआ। अभ्यास से
द्वित्व आदि करने पर स्थिति हुई -

हु + हु + थल्

पुनः अभ्यास आदि और हलन्त्यम ् 'थल ्' के लकार का अनुबन्ध


लोप करने पर स्थिति हुई -

ह् + हु + थ

यहां हु धातु से परे भी वलादि आर्धधातुक परे है अतः '


आर्धधातुकस्येड् वलादे ः ' से इट् का आगम का आगम प्राप्त है
किंतु हु धातु भी एकाच ् उपदे शे अनद
ु ात्त' के अंतर्गत पढ़ी गयी है
अतः 'एकाच ् उपदे शे ० ' से इट् का निषेध हो जाता है जिसका
बाध पन
ु ः क्रादिनियम द्वारा होता है तब
अचस्तास्वत ् थल्यनिटो नित्यम ् के द्वारा थल ् में नित्य इट् का
निषेध प्राप्त होता है क्योंकि यह सत्र
ू कहता है कि उपदे श में
अजन्त धातु जो तास ् में नित्य अनिट् हो उससे परे थल को इट्
का आगम न हो।

यहां उपदे श में हु धातु अजन्त है और तास ् में नित्य अनिट् है


इसलिए हु धातु को थल ् में इट् का नित्य निषेध प्राप्त है किंतु
भारद्वाज नियम से इस सत्र
ू का भी आंशिक बाध होता है और '
ऋतो भारद्वाजस्य' अर्थात भारद्वाजनियम से हु धातु को पन
ु ः
वैकल्पिक इट् की प्राप्ति होती है क्योंकि मनि
ु भारद्वाज के मत
में केवल ऋदन्त धातओ
ु ं से ही इट् का निषेध होता है , अन्य
अजन्त धातुओं से नहीं। क्योंकि मनि
ु भारद्वाज के अतिरिक्त
अन्य सभी आचार्य इस मत से सहमत नहीं है एक पक्ष में तो
भारद्वाज नियम से इट् का आगम होकर ' जुहोविथ बनता है
तथा दस
ू रे पक्ष में इट् का निषेध होकर जुहोथ रूप सिद्ध होता है ।
वस ् , मस ् में क्रमशः क्रादिनियम से नित्य इट् का आगम हो
जाता है तथा दोनों प्रत्ययों को उवँङ् आदे श होकर क्रमशः
जह
ु ु विव और जह
ु ु विम रूप सिद्ध होते हैं।

You might also like