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ु के संचार सिद्धांत
सभी पुराणों में महर्षि नारद एक अनिवार्य भूमिका में प्रस्तत
ु हैं। उन्हें दे वर्षि की संज्ञा दी गई, परन्तु उनका कार्य
दे वताओं तक ही सीमित नहीं था। वे दानवों और मनुष्यों के भी मित्र, मार्गदर्शक, सलाहकार और आचार्य के रूप में
उपस्थित हैं। परमात्मा के विषय में संपूर्ण ज्ञान प्रदान करने वाले दार्शनिक को नारद कहा गया है । महाभारत में
भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि नारद आदर्श व्यक्तित्व हैं। श्री कृष्ण ने उग्रसेन से कहा कि नारद की विशेषताएं
अनक
ु रणीय हैं।
संचार संबंधी भारतीय अवधारणा के बारे में जानना काफी रोचक और दिलचस्प होगा। आधुनिक संकल्पना में
अन्तर्राष्ट्रीय संचार एवं संवाद की बात जोर-शोर से की जाती है , जो भारतीय चेतना और स्मति
ृ में गहरे व्याप्त
है । भारत में केवल अंतःवैयक्तिक संचार के कई ऐसे अनछुए पहलू हैं, जो मनष्ु य की आंतरिक सक्रियता को
सक्ष्
ू म और सक्ष्
ू मेतर ढं ग से व्याख्यायित करती हैं। साहित्यकार निर्मल वर्मा के शब्दों में -‘‘गंगा महज एक नदी
नहीं, हिमालय सिर्फ पहाड़ नहीं, वाराणसी और वंद
ृ ावन महज शहर नहीं हैं। मनुष्य का अतीत संग्रहालयों में बंद
नहीं है , न ही उसके दे वता यूनानी दे वताओं की तरह पौराणिक काल के स्मति
ृ -चिन्ह्र हैं। मिथक और यथार्थ,
पौराणिक स्मति
ृ और वर्तमान जीवन, दे वता और मनष्ु य आज भी एक साथ रहते हैं। सैकड़ों विश्वासों,
आस्थाओं, समति
ृ यों और संस्कारों का यह संगम और पारस्परिक संपर्क -संवाद केवल भारतीय संस्कृति में ही
संभव हो सकता था-जिसमें संपूर्ण मनुष्य की परिकल्पना निहित रहती है ।’’
यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि भारतीय मानस संचार की अंतः-प्रेरणा को सिर्फ अपने भीतर समेटे रखने का
आदी नहीं है । यहां विचारों, अनुभवों और जानकारियों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी सतत ् प्रवाह है । यह परकाया प्रवेश की
स्थिति है । भारतीय परं परा में संवाद-चर्चा या शास्त्रार्थ का प्रभाव हर जगह विद्यमान है । ऋग्वेद में संवाद-
सक्
ू त के अन्तर्गत दशम मंडल में सरया-पणि(कुतिया और गौ) संवाद है , तो यम-यमी तथा परू
ु रवा-उर्वशी संवाद
का भी उल्लेख है। मण्डल तीन में विश्वामित्र और नदी संवाद एवं कठोपनिषद् में नचिकेता-यम के बीच अद्भत
ु
संवाद प्रकरण है। बहृ दारण्यक में याज्ञवल्क्य ऋषि का मैत्रय
े ी और गार्गी से संवाद स्मरणीय है । इसी तरह
रामचरितमानस में शिव-पार्वती संवाद और काकभुसुण्डी-गरुण संवाद भारतीय संचार की पारं परिकता का शाश्वत
प्रमाण हैं। इन अन्तर्वैयक्तिक संवादों में परू ी सष्टि
ृ का लोक-व्यवहार समाहित है ।
भारतीय संचार-पद्धति में अंतःवैयक्तिक संचार एवं अंतर्वैयक्तिक संचार के अतिरिक्त समह
ू संचार के भी साक्ष्य
मौजूद हैं। रामचरित मानस में वर्णित याज्ञवल्क्य ऋषि का ऋषि-सभा में संवाद तथा सुत्तपिटक् में महात्मा
बुद्ध का अपने शिष्यों से संवाद उदाहरण हैं। ये शिष्य मत-नेता(व्चपदपवद स्मंकमत) होते थे, जिनका दायित्व
गरु
ु की बातों को लोक में प्रचारित-प्रसारित करना होता था। संचार की भारतीय अवधारणा को समझने के लिए
आत्म-चेतना और आत्म-दृष्टि का सर्वप्रथम विकास किया जाना आवश्यक है अन्यथा आधुनिक तकनीक और
प्रौद्योगिकी आधारित संचार-तंत्र ही सर्वगुण संपन्न एवं सर्वशक्तिमान मालूम होंगे, जिनका हाल के दिनों में
बतौर आयातित संस्कृति भारत में दखल तेजी से बढ़ा है ।
हाल ही में ब्रिटे न में किए गए एक सर्वेक्षण से स्पष्ट है -‘‘अब व्यक्ति को किसी से सीधे संवाद या संपर्क रखने
और आसपास के लोगों के सख
ु -दख
ु में शरीक होने के बजाय आभासी संबंधों(टमतजनंस त्मसंजपवद) में ज्यादा
दिलचस्पी है । आवाजों, शब्दों, गतियों, और रं गों की हर पल गतिमान बदलती आभासी दनि
ु या में खोया रहने
वाला व्यक्ति न सिर्फ अकेला होता है , बल्कि सार्थक सामाजिक संबंध बना पाने के लिए भी नाकाबिल हो जाता
है । इस स्थिति में नेट सर्च करना, ई-मेल करना, चैटिग
ं , सोशल नेटवर्किं ग और टीवी दे खना वास्तविक जीवन के
प्रत्यक्ष सख
ु से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते हैं।’’
इस बात से इन्कार संभव नहीं है कि आज संबंधों में आत्मीयता के लिए जगह घटी है । सामाजिक वातावरण
में मानवीयता के लिए स्थान सरु क्षित नहीं है । भारत प्रकारांतर से जीवन के जिस अनभ
ु वजनित विचार-दृष्टि
को सांस्कृतिक विरासत का संवाहक मानता आया है , वह आज नष्ट होने की कगार पर है । साहित्यकार निर्मल
वर्मा के शब्दों में -‘‘भारतीय संस्कृति का मनष्ु य और सष्टि
ृ से संबंध सार्वभौमिक संपूर्णता के आदर्श पर
आधारित रहा है । भारतीय संस्कृति में आज भी समस्त विकृतियों मसलन ढोंग, पाखण्ड, कर्मकाण्ड, दकियानूसी
आचरण, अंधविश्वास आदि के बावजद
ू वे तत्व मौजद
ू हैं, जिनके रहते मनष्ु य को कभी इतनी स्पर्धा और
अहम्केन्द्रित अभिमान नहीं हुआ कि प्रगति की लालसा में वह सष्टि
ृ गत अनिवार्य संबंधों का ही संहार कर
दे ।’’
यह ब्रिटिश राजनीतिज्ञ लार्ड मैकाले की उस चिंता का निराकरण है , जिसमें उसने स्वीकार किया था-‘‘हम भारत
में पश्चिमी संस्कृति का प्रभत्ु व तब तक स्थापित नहीं कर पायेंगे, जबतक भारतीय शिक्षा पद्धति से संस्कृत
भाषा को पूरी तरह निष्काषित नहीं कर दे ते।’’
यह सोच या विचारधारा मैकाले की व्यक्तिगत नहीं है । पूरे पश्चिम की अवधारणा संकीर्ण और पूर्वग्रह से
ग्रसित है । असल में उनका समाज भारत की तरह सांस्कृतिक बहुलता और बहुभाषिकता से परिचित नहीं है
और न ही उनमें एशियाई समाजों की भांति खल
ु ा सांस्कृतिक आदान-प्रदान हो सका है । पश्चिम का संबध
ं
दस
ू री संस्कृतियों से हमेशा शक्ति आधारित रहा है । जिस कारण किसी और समाज की बौद्धिक संपदा की
सराहना और उसे पचा सकने की प्रवति
ृ उनमें नहीं है। खासकर भारत जैसे समाज की तो हरगिज ही नहीं, जो
कभी पश्चिम का उपनिवेश रह चुका है ।
यूरोपीय विचारों के इतिहास में ज्ञानोदय का प्रादर्भा
ु व महत्वपूर्ण माना गया है । ज्ञानोदय का अर्थ विवेकवाद,
तकनीकी केन्द्रीयता, ज्ञान और उत्पादन का मानकीकरण, रै खिक प्रगति, सार्वभौम और निरपेक्ष सत्य में विश्वास
का प्रतिनिधित्व करने से है । इस चिंतन का असर तत्कालीन समाज पर इतना ज्यादा था कि पूरी दनि
ु या एक
खास तरह की विचारधारा में समेटी जाने लगी। पश्चिम में पनपे विचार कसौटी बन गए, जिस पर दनि
ु या की
सभी ज्ञान-परम्पराएं जांची-परखी जाने लगीं। यूरोप के ही एक चिंतक हाइडेगर ने इस प्रवति
ृ को ‘धरती का
यरू ोपीकरण’ की संज्ञा दी है ।
प्रसंगवश, यदि हम पश्चिमी चिंतक जिजेक के हवाले से कहें , तो-‘‘इसमें कोई शक नहीं है कि हमारी सोच किसी
न किसी स्थापित विचारधारा से निकलती है और हमारे जीवन का हर आयाम उससे प्रभावित होता है । जाने-
अनजाने पूंजीवादी विचारधारा ने पिछले सौ वर्षों में समाज के हर आयाम को प्रभावित किया है। इसने न
केवल सामान्य लोगों के दै निक जीवन को अपने अनस
ु ार ढाला है , बल्कि विरोध के हर स्वर को पंज
ू ीवाद के
समर्थन के स्वर में तब्दील कर दिया है ।’’
आलोचनात्मक यथार्थवाद के प्रवर्तक रॉय भास्कर के अनुसार यथार्थ की एकांगी समझ के कारण चिंतन भी
एकपक्षीय हो गया है। भौतिक सुखों के बहुतायत के बावजूद समाज घोर मानसिक संताप से गुजर रहा है।
संचार के साधन बढ़ते जा रहे हैं, लेकिन साथ ही मनष्ु य एकाकी होता जा रहा है । मनष्ु य जीवन के सक्ष्
ू मतम
अनुभवों से वंचित है । ऐसे में हिंसा, अपराध, आत्महत्या आम बात हो चली है । यह स्थिति चिंताजनक है ,
क्योंकि इससे समाज तो हिंसक होगा ही, मानवता के लिए भी संकट उत्पन्न हो जाएगा।
यदि हम संचार के परिप्रेक्ष्य में विचारधारा की बात करें , तो पाएंगे कि विचारधारा एक संपूर्ण विश्व-दृष्टि को
व्यक्त करने वाले सिद्धांत की तरह प्रयुक्त होता है , जबकि सिद्धांत को किसी विचारधारा की पूर्वपीठिका नहीं
माना जा सकता है। वैसे यह विवाद का विषय है , लेकिन कई बार स्वयं संचार-माध्यमों की भी अपनी
विचारधारा होती है । भारत के बारे में , ब्रिटे न के संचार-माध्यम की जैसी सोच है , वैसा ही रूस भी सोचे या
अमेरिका भी इसी नजरिए से भारत को दे खे, यह जरूरी नहीं। मार्क्स और एंगेल्स ने संचार-संबंधी जो
अवधारणा प्रस्तुत की है , उनके अनुसार-‘‘संचार के लिए प्रस्तुत विचारों का संबंध सिर्फ चेतना से नहीं होता है ।
वह समाज की भौतिक स्थितियों से पैदा होते हैं। खद
ु चेतना का अस्तित्व भौतिक और स्थल
ू स्वरूपों से है ।
जो भी नया वर्ग अपने से पहले शासन करने वाले वर्ग के स्थान पर अपने को प्रतिष्ठित करता है , अपनी
लक्ष्य सिद्धि की खातिर ही अपने हित को समाज के तमाम सदस्यों के समान हित के रूप में प्रस्तुत करने के
लिए बाधित होता है । यहां नए विचारों को इस रूप में प्रस्तुत करना होता है , जैसे यह किसी एक वर्ग के नहीं
बल्कि परू े समाज के विचार हैं।’’(समाप्त)