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आन कुमार
ISBN : 9788170284901
थम सं रण : 2016 © राजपाल ए सज़
राजपाल ए सज़
1590, मदरसा रोड, क ीरी गेट-िद ी-110006
फोन: 011-23869812, 23865483, फै : 011-23867791
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म
1. रामायण की ावना
आदश पु ष कौन है ?; का की उ ि ; किव की साधना; रामायण का
चार।
2. बालका
अयो ा का वैभव; दशरथ का ऐ य; पु ेि -य ; राम-ज ; कुमारों की िश ा-
दी ा; िव ािम का आगमन; ताड़का-वध; िस ा म-या ा; िमिथला की या ा;
अह ो ार; धनुभग, राम-सीता का िववाह; राम-परशुराम िववाद।
3. अयो ाका
जनगणमन-अिधनायक राम; रामािभषेक का ाव; म रा की कुम णा; रं ग
म भंग; ऋिषपथ पर थान; अयो ा म हाहाकार; भरत की िच कूट-या ा;
राम का िच कूट से थान।
4. अर का
द कार म वेश; िवराध-वध; दि ण के आ मों का िनरी ण; राम-अग
िमलन; पंचवटी-वास; शूपणखा की दु गित; खर-दू षण-वध; मारीच की माया
और सीता-हरण; राम का पंचवटी से थान; कब -वध; राम-शबरी-िमलन ।
5. िक ाका
राम-हनुमान-िमलन; राम-सु ीव की िम ता; बािल-वध; राम का एका वास;
राम की चेतावनी; सीता की खोज।
6. सु रका
हनुमान का लंका-गमन; सीता-हनुमान-िमलन; अशोक-वािटका का िवनाश;
रावण-हनुमान-संवाद; लंका-दहन; हनुमान की दे श-या ा।
7. यु का
सै - याण; लंका म हल-चल; राम-िवभीषण की मै ी; सेतु-िनमाण; लंका पर
चढ़ाई; यु ार ; दू सरे िदन का यु ; तीसरे िदन का यु ; चौथे िदन का यु ;
पां चव िदन का यु ; छठे िदन का यु ; सातव िदन का यु ; आठव िदन का
यु ; नव-दसव िदन के यु ; ारहव-बारहव-तेरहव िदन के यु ; राम-रावण
का महायु ; रावण-वध; राम-सीता का पुनिमलन; राम का दे श-आगमन;
राम का रा ािभषेक; राम-रा ।
प रिश
िववाह के कुछ समय बाद भरत िपता के कहने से श ु के साथ निनहाल चले गए ।
केकय-दे श म मामा-नाना ने उ बड़े - ेह से रखा और अिधक काल तक वहीं रोक
िलया । अयो ा म केवल राम-ल ण रह गए ।
जनगणमन-अिधनायक राम–राम राज-काज म वृ िपता की सहायता करने
लगे । उनम कुछ ऐसी िवशेषताएं थीं, िजनके कारण वे थोड़े ही समय म पूिणमा के
च मा के समान सवि य हो गए ।
शरीर से राम अितशय पवान्, बल-वीयशाली तथा सव शुभ ल ण स थे ।
उनका ऐसा भावशाली था िक लोग सहज म दशनमा से उनके ित
अनुर हो जाते थे ।
भाव से वे और भी सौ तथा दे वता प थे । उनका अ :करण अ
िवशाल, पिव और मा-दया- ेम-उदारता जैसी सरस सा क भावनाओं से
ओत ोत था । वे बड़े ही स दय तथा शा ा ा थे; सदा सबका भला ही सोचते थे
और सुख-दु :ख म कभी हष-िवषाद से मोिहत नहीं होते थे ।
संयम और सदाचार-पालन म राम की बराबरी करनेवाला कोई नहीं था । राजपु
होकर भी वे तप ी की भां ित िनयम-संयम से रहते थे । स , धम और लोक तथा
कुल की रीित-नीित म उनकी असीम ा थी । लोक-धम की मयादा का उ ंघन न
तो वे यं करते थे और न दू सरों को करने दे ते थे । नीच और िन त आचार-िवचार
से उ घृणा थी ।
राम िवल ण ितभाशाली, सवशा -िवशारद् , कुशल राजनीित , े व ा
और पु षा रकोिवद (मनु के मन की बात को भां पने वाले, आदमी पहचानने
वाले) थे । उ ोंने सां गोपां ग वेदों का अ यन िकया था और धम के सू त ों को
भली भां ित समझा था । उ वयोवृ , ान-वृ और शीलवृ स नों की संगित
िवशेष ि य थी ।
राम जैसे ानी थे, वैसे ही ा ािभमानी, वीर, कठोर, स ती और महान
कम ोगी भी थे । उनम श -साम , साहस-उ ाह, धैय-आ िव ास आिद
सम वीरोिचत गुण थे । उनके हष- ोध कभी िन ल नहीं होते थे । स नों का
उपकार और दु जन का दमन करने म वे सवथा समथ थे और िकसी भी प र थित म
कभी आ दीनता या पौ षहीनता नहीं िदखाते थे ।
राम यु िव ा के पूण प त और धुरंधर महारथी तथा अि तीय धनुधर थे ।
उनके शौय-वीय पर जा को बड़ा भरोसा था ।
लोक म ित ा ा करने के िलए िकसी म इतने ही गुण ब त ह, लेिकन
राम म कुछ और भी िवशेषताएं थीं । वे स े दय से ािणमा के िहतैषी थे, सभी
वणों के और ेक अव था के मनु ों से ेम करते थे, उनके घरों पर जाकर
कुट ी की भां ित कुशल समाचार पूछते थे और सबके पा रवा रक हष-शोक म
स िलत होते थे । जनसाधारण के ित उनम इतनी आ ीयता थी िक सुखी जनों से
िमलकर वे सुख अनुभव करते थे और िकसी को दु खी दे खकर यं भी दु :खी हो
जाते थे । उ ोंने अपना सारा जीवन ही जनता को समिपत कर िदया था । लोक
अनुरंजन उनका सव ेय था और उसके िलए वे बड़े से बड़ा क झेल लेते थे ।
सामा वहार म राम अ िश , सरल और सरस थे । वे सबके आ -
स ान का ान रखते थे और िकसी को नीचा न िदखा कर सबको ऊपर उठाने का
य करते थे । श - भु के दशन की वृित उनम नहीं थी । राम िकसी भी
अव था म शील-सौज नहीं ागते थे । छोटे -बड़े सबसे वे ेमपूवक िमलते थे और
िमलने पर पहले ही स मुख से कुशल- पूछकर तब मधुर तथा दय श
श ों म बात करते थे । उनके मुख से ोध की दशा म भी कभी दु वचन नहीं
िनकलते थे । बातचीत म वे आ - शंसा, परिन ा, कुतक, दु रा ह और
िम ाभाषण से दू र रहते थे ।
राम परम गुण ाही थे–िकसी के अवगुण न दे खकर उसके गुणों पर ही ि रखते
थे । कोई उनका साधारण-सा भी काम कर दे ता तो उसे वे ब त मानते और उसके
उपकार को सदै व याद रखते थे, लेिकन दू सरों के अपकारों को तुर भूल जाते थे,
मा कर दे ते थे ।
इसी कार की राम म सैकड़ों िवशेषताएं थीं । लोकरं जन म वे च मा के समान,
मा-सिह ुता म पृ ी के समान और बल-परा म म इ के समान थे । कोसल
की जा ऐसे जनानुरागी महापु ष को शी अपने शासक के प म दे खना चाहती
थी । वे कोसलेश न होकर भी जनता के दयेश थे ।
पु वानों म े राजा दशरथ राम का आ ो ष दे खकर हष से फूले नहीं समाते
थे । वे अब अित वृ हो चले थे, अतएव अपने जीवनकाल ही म ऐसे सवगुणस
पु को रा के सम अिधकार सौंप दे ना चाहते थे । अपने परामशदाताओं की
स ित से उ ोंने राम को शी युवराज का पद दे ने का िन य कर िलया ।
रा ािभषेक का ाव–राजा य िप त थे, िफर भी इस िवषय म सबकी
स ित से ही काय करना आव क समझते थे । उ ोंने कैकय और िमिथला के
राजाओं को छोड़कर शेष सभी िम राजाओं को यथाशी अयो ा आने का
िनम ण भेजा, साथ ही, चुपचाप राम के अिभषेक की तैयारी भी आर कर दी ।
िनि त ितिथ पर सभी आम त राजागण तथा कोसल रा के चारों वणों के
जा- ितिनिध अयो ा के सभा-भवन म उप थत ए । राजा दशरथ ने सबके आगे
अपने वृ और असमथता का वणन करके, अपने तथा लोक के िहत िलए राम को
युवराज बनाने का ाव रखा और सबसे इस स म िवचार कट करने
का अनुरोध िकया ।
राजा के मुख से वा व म, लोकमत ही िनत आ था । जाजनों और
नरनायकों ने राम की भू र-भू र शंसा करके एक र से इस ाव का समथन
िकया । राम के पीछे ऐसा सुसंगिठत लोकबल दे खकर दशरथ को बड़ी स ता ई
। उ ोंने उप थत स नों को इस सु र िनणय के िलए दय से ध वाद िदया और
भरी सभा म म यों तथा पुरोिहतों से कहा–सवस ित से राम को युवराज बनाने का
िन य हो गया । म इस पिव चै मास म कल ही राम का अिभषेक करना चाहता ं
। कल ात:काल शुभ मु त म यह मंगलकाय ार हो जाएगा ।
इस घोषणा के बाद राजा ने अपने परम िव ासपा म ी सुम ारा राम को
सभा म बुलवाया । उ अपने पास े आसन पर बैठा कर वे बोले–राम! तुम मेरे
े पु हो । तुमने अपने लोको र गुण-च र से मुझे तथा सारी जा को मोिहत
कर िलया है । तुम इस रा के ामी होने के सवथा यो हो । जनता ने े ा से
तु अपना शासक िनवािचत िकया है । अतएव म कल ही तु युवराज-पद पर
िति त क ं गा । तुम सावधानी से राजधम का पालन करना और कुल की पर रा
के अनुसार जा-पालन म िन त र रहना ।
इसके बाद सभा िवसिजत ई । रा के अिधकारी और कमचारीगण महो व
के ब म हो गए । राजा दशरथ महल म पधारे । वहां उ ोंने राम को
एका म बुलाकर उनसे कहा–व ! मेरी अब एक ही लालसा शेष है िक म अपनी
आं खों से तु ऐ य भोगते दे खू । मेरे जीवन का अब कोई भरोसा नहीं है , इसीिलए
तु ारा अिभषेक शी हो जाना चािहए । इस समय भरत निनहाल म है । म चाहता
ं िक उसके दू र रहते-रहते यह काय हो जाए । कारण यह है िक भरत य िप स न
है , पर स नों का मन भी कभी-कभी चंचल हो जाता है । अतएव म कल ही तु
युवराज बनाकर रा के सम अिधकार तु सौंप ढू ं गा । तुम आज िवशेष
सावधान रहना, ोंिक ऐसे काय म नाना िव -बाधाओं की स ावना रहती है ।
यह कहकर राजा म यों के साथ अिभषेक स ी काय पर िवचार करने लगे
। राम उठकर कौश ा के महल म गए । वहां उ ोंने माता को शुभ संवाद सुनाया ।
ेहमयी कौश ा ने आन व क राम को दय से लगा िलया । उनके घर म उसी
ण से मंगलगान और दान-पु आिद होने लगे ।
राम के रा ािभषेक का समाचार रा -भर म िवद् युत की गित से फैल गया ।
महापुरी अयो ा महासागर की भां ित तरं िगत हो उठी । घर- ार, हाट-बाट तोरण-
ब नवारों से सजाए जाने लगे । घरों म यों और सड़कों पर बालकों की टोिलयां
आन त होकर बधाई के गीत गाने लगीं ।
म रा की कुम णा–एक ओर तो राजनगरी का मनोरम ृंगार और थान-
थान पर मंगलाचरण हो रहा था, दू सरी ओर रं ग म भंग डालने का गु कुच चल
पड़ा । इसकी संयोिजका थी–कैकेयी की एक मुंहलगी, कुबड़ी-कु पा दासी म रा
।
कैकेयी को उस समय तक अिभषेक-स ी बातों का पता नहीं था । वह अपने
रं गभवन म आराम से सो रही थी । म रा ने छ े से नगरी का साज-बाज दे खा और
नीचे आकर एक दू सरी दासी से आक क हष व का कारण पूछा ।
दासी ने सब-कुछ बता िदया । उसे सुनते ही म रा का दय बैठ गया । वह
तुर कौश ा के महल की ओर दौड़ी । वहां राम-माता बड़े हष से भां ित-भां ित के
मंगल-कृ कर रही थी । कुबड़ी मन ही मन कुढ़ती ई त ाल लौटकर कैकेयी के
शयनागार म आई और ककश र म बोली–अरी मूढ़ रानी! उठ जाग, अचेत ों
पड़ी है , घोर अनथ होने वाला है ।
कैकेयी ने चौंककर पूछा–म रे , कुशल तो है ! तू इस तरह ों है ?
म रा और भी अिधक ता कट करके बोली–रानी! तुमने कुछ सुना िक
नहीं? तु ारे सुख-सौभा का अ होने वाला है । महाराज कल ही राम का
अिभषेक करगे । भरत को यहां से दू र भेजकर वे कौश ा के बेटे को ग ी दे ने जा
रहे ह । तुम सावधान हो जाओ ।
कैकेयी इसे सुनते ही उठ बैठी और म रा को एक सु र आभूषण भट करके
बोली–म रे ! तूने आज मुझे अ ि य संवाद सुनाया है । बता, म तुझे ा
पुर ार दू ँ ? ा सचमुच कल राम का अिभषेक होगा? मेरे िलए इससे बढ़कर
स ता की बात और ा होगी? म राम और भरत म कोई अ र नहीं मानती ।
म रा ितलिमला उठी और उस गहने को फककर रोषपूवक बोली–रानी!
तु ारी तो बु ही मारी गई है , इसी से शोक के थान पर तु हष हो रहा है । भला
कोई समझदार ी अपनी सौत के लड़के की उ ित दे खकर स होती है ! सोचो
तो, आगे तु ारी ा दशा होगी! राम अिधकार पाते ही सबसे पहले अपने ित ी
भरत का सवनाश करगे । भरत की उ ोंने मार डाला या दू र भगा िदया, तो तुम
कहीं की न रहोगी । तुम कौश ा की तु दासी बन जाओगी । तु ारी पु वधू को
सीता की चेरी बनकर रहना होगा । और म? म तो दासी की दासी बनकर ही रह
सकूंगी । इन बातों को अ ी तरह समझ लो रानी! मुझ से कौश ा का मान न दे खा
जाएगा ।
इतने पर भी कैकेयी िवचिलत नहीं ई और राम की शंसा करती ई बोली–
म रे ! राम का क ाण हो । उसके रा म सबका भला होगा । भाइयों म वे सबसे
े और े ह, अत: वही रा के स े अिधकारी ह । उनके अ ुदय से तुझे ा
स ाप हो रहा है ? म तो राम को भरत से भी अिधक मानती ं । वे मेरी सेवा
कौश ा से अिधक ही करते ह । उनके राजा होने से भरत का भी राजा होना ही
समझी, ोंिक राम भाइयों को अपने समान ही मानते ह और उ अपना सव
अपण करने को उ त रहते ह ।
म रा ल ी सां स लेकर िफर बोली–ओह! ा क ं ! अभा वश तु कुछ का
कुछ सूझ रहा है पगली रानी! िसंहासन पर एक ही बैठता है । राम के राजा
होते ही भरत के सारे अिधकार समा हो जाएं गे । वे मारे -मारे घूमगे । और सुनो,
तुमने सौभा के मद म चूर होकर कौश ा के साथ अब तक जो दु वहार िकया
है , उसका पूरा बदला वह राजमाता होते ही लेगी । इसिलए तुम सावधान हो जाओ
और ऐसा उपाय करो िक राम वन को चले जाएं और उनके थान पर भरत का
अिभषेक हो । अब अिधक सोचने-िवचारने का समय नही है …
म रा की कुम णा से कैकेयी की मित कुछ ही णों म पलट गई । वह िचंितत
होकर बोली–म रा, तू ठीक ही कहती है , लेिकन यह काय कैसे िस होगा?
दु ा दासी इतनी दे र म ब त-कुछ सोच चुकी थी । उसने शी उ र िदया–रानी!
इसका सहज उपाय सुनो । तु याद होगा िक एक बार महाराज श रासुर के
िव इ की सहायता करने गए थे । तुम भी पित के साथ गई थीं । यु म
महाराज दानवों के भीषण हार से आहत-अचेत होकर रथ म िगर पड़े थे । तुम उ
रण- े से बाहर उठा ले गईं, तब उनके ाण बचे । याद करो रानी! उस िदन इस
महान् उपकार के बदले म महाराज ने तुमसे दो इ त वर मां गने को कहा था ।
तुमने उस समय यही कहा था िक आगे जब आव कता होगी, वर मां ग लूगी । तु ीं
ने वहां से लौटने पर यह सब मुझे बताया था । अब वर मां गने का अ ा अवसर है ।
तुम कोप-भवन म जाकर अपने ये गहने-कपड़े उतारकर फक दो और मैले-कुचैले
कपड़े पहनकर ज़मीन पर लेट जाओ । राजा तु मनाने आएं गे, लेिकन उनके लाख
मनाने पर भी जब तक वे तु ारी मनोकामना पूण करने का वचन न द स न होना
।उ ित ाब करके पहले तो उस यु वाली घटना की याद िदलाना, िफर एक
वर से राम के िलए चौदह वष का वनवास और दू सरे से भरत का रा ािभषेक मां ग
लेना । चौदह वष म जा राम को भूल जाएगी और भारत की भुता सदा-सवदा के
िलए थािपत हो जाएगी…
रं ग म भंग–म रा की ेरणा से कैकेयी उसी समय कोप-भवन म प ं ची और
अपने ब मू व ाभूषण फककर मिलन वेश म भूिम पर लेट गई ।
राजा दशरथ तीसरे पहर के बाद अ :पुर म पधारे । कैकेयी को वे सबसे अिधक
चाहते थे, इसिलए पहले उसी के महल म गए । वहां ितहारी से पता चला िक रानी
कोप-भवन की ओर गई है । राजा होकर कोप-भवन म प ं चे । कैकेयी अशुभ
वेष म मुंह ढं के ठी पड़ी थी । उसके मू वान् व ाभूषण इधर-उधर िबखरे थे ।
वृ राजा को वह परम सु री त णी ाणों से भी अिधक ि य थी । वे पास
बैठकर धीरे -धीरे उसके शरीर पर हाथ फेरते ए बोले– ाणि ये! तेरा यह ा हाल
दे ख रहा ं ? सच-सच बता, तुझे ा ेश है ? तू ा चाहती है ? तेरी स ता के
िलए हम अपने ाण तक दे ने को तैयार ह । तेरे कहने से हम णमा म िकसी धनी
को िनधन, िनधन को धनी और राजा को रं क और रं क को राजा बना सकते ह ।
दे वी! तेरी इ ा के िव कुछ भी करने की श हमम नहीं है । तू स हो जा
और हम अपनी मनोकामना बता दे …
राजा के ब त मनाने पर कैकेयी धीरे से बोली–महाराज! यिद आप यह ित ा
कर िक म जो क ं गी, उसे आप मान लगे, तो म अपनी इ ा आपको बता दू ं गी, नहीं
तो थ के िलए ों क ं !
काममोिहत राजा ने कहा–मािननी! म अपने ज -ज ा र के पु ों की तथा
ाण ारे राम की शपथ लेकर कहता ं िक तू जो कहे गी, वही क ं गा ।
तब कैकेयी स होकर बोली–सूय, च , पृ ी, आकाश, दे वता आिद इसके
सा ी रह । महाराज! आपने श रासुर के यु म मुझसे दो वर मां गने को कहा था ।
मने उस समय कुछ नहीं मां गा लेिकन आज मां गती ं । एक वर तो म चाहती ं िक
राम के थान पर मेरे पु भरत का अिभषेक हो; और दू सरा यह िक राम तप ी के
वेश म तुर यहां से चले जाएं और चौदह वष वन म िनवास कर ।
कैकेयी के मुख से ऐसे दा ण वचन सुनकर राजा हो गए । उनके मुख से
उस समय केवल यही उ ार िनकले–मुझे िध ार है ! इसके बाद शोक की ती ता
के कारण वे मूिचछत हो गए । मू ा भंग होने पर उ ोंने कैकेयी को ितर ार-भरी
ि से दे खा और कहा–पािपनी! कुलघाितनी! िजस राम ने तेरी इतनी सेवा की है ,
िजसने तुझे अपनी जननी से भी अिधक माना, उसके िलए तेरे मन म ऐसा दु भाव ों
उ आ? तू तो अब तक िन उसकी शंसा करती थी, उसी को अपना े पु
कहती थी; िफर तेरी बु आज इस तरह ों पलट गई िक तू मुझे ित ाब
करके उसे घर से िनकलवाना चाहती है ? कैकेयी! म अपना सव ाग सकता ं ,
पर जीते-जी अपने दय-धन राम को िवलग न होने दू ं गा । म तेरे चरणों पर िसर
रखकर िवनती करता ं िक इस हठ को छोड़ दे । इस वृ ाव था म मेरे ऊपर दया
कर । म हाथ जोड़ता ं , तेरे पैरों पड़ता ं , तू राम को वन भेजने के िलए मुझे बा न
कर ।
राजा रोते ए कैकेयी के पैरों पर िगर पड़े । कैकेयी उनकी ाथना को टु कराकर
बोली–महाराज! आप नामी स ती होकर भी ित ा से िवमुख होना चाहते ह! यह
घोर ल ा और कलंक की बात होगी । आप अपने धम और यश की र ा कीिजए ।
यिद आप मेरी बात न मानगे तो म िवष खाकर आ ह ा कर लूंगी ।
राजा उस अि यवािदनी के मुख की ओर दे खकर ‘हा राम! हा राम!’ कहते ए
िगर पड़े । उनकी दशा पागलों जैसी हो गई । कुछ दे र म वे िफर संभलकर बोले–
दु े! तू यह नहीं सोचती िक यिद म धमा ा राम को घर से िनकाल दू ं गा तो संसार
मुझे ा कहे गा? म तो समाज म मुंह िदखाने के यो भी नहीं र ं गा । जो कौश ा
दासी, िम , प ी, बहन और माता के समान मेरी संभाल करती है और केवल तेरी
स ता के िलए िजसका म अब तक अनादर ही करता रहा, उसे ा कहकर
सा ना दू ं गा? कैकेयी! म राम के िबना जीिवत नहीं रह सकूंगा । िजसने तेरा इतना
भला िकया, उसी को तू आज जाल म फंसाकर मारना चाहती है ! वा व म, यह मेरे
ही कुकम का फल है । तेरे जैसी पािपनी को गले लगाकर मने अपने हाथ से अपने
गले म फां सी की र ी डाल ली है । मेरे िलए यह घोर दु :ख और ल ा की बात होगी
िक मेरे जीते-जी राम जैसा सुपु अनाथ की तरह मारा-मारा घूमे । अतएव कैकेयी!
म तेरे पैरों पड़ता ं , मेरे ऊपर दया कर; मेरे और मेरे महान् कुल की मानमयादा को
िम ी म मत िमला…
राजा इसी तरह दे र तक रोते-िगड़गेड़ाते रहे , लेिकन कैकेयी का डय िवत
नहीं आ । धीरे -धीरे िदन बीत गया । रात म दशरथ की मनो था और भी ती हो
गई । वे ित ापाश से छु टकारा पाने के िलए ब त छटपटाए, लेिकन कैकेयी अपने
हठ पर अड़ी ही रही । जागते-रोते रात बीत गई, पर राजा के दु :खों का अ नहीं
आ । सवेरे तक उनका शरीर िशिथल और पीला पड़ गया । उस दशा म कैकेयी ने
िफर कहा–महाराज! अब शी ाितशी राम को चौदह वष का बनवास और भरत को
राजग ी दे कर मेरी अिभलाषा पूण कीिजए, अ था म आ ह ा करने जा रही ं …
दशरथ ‘ ोध से कां पते ए बोले–अनाय! मने िववाह म अि दे व के सम म
पढ़कर तेरे िजस हाथ को पकड़ा था, उसे म आज छोड़ता ं । साथ ही, म तेरे गभ से
उ भरत का भी प र ाग करता ं । तेरे या भरत के हाथों से म अपना ेतकम
भी नहीं होने दू ं गा । राम- ोिहयों से मेरा कोई स नहीं है …
महल के एक कोने म यह सब हो रहा था; बाहर का दू सरा ही रं ग-ढं ग था । सारी
महापुरी सु र ढं ग से सज गई थी, थान- थान पर तोरण-ब नवार बने थे, घर-घर
पर रं ग-िबरं गी जाएं फहरा रही थीं, भां ित-भां ित के मंगलवा बज रहे थे, चारों ओर
अद् भूत उ ास छाया था । अिभषेको व दे खने के िलए बाहर से भी झुंड के झुंड
मनु गाते-बजाते चले आ रहे थे । महल के आसपास दशकों का िवशाल समुदाय
ेक ण बढ़ता ही जा रहा था ।
धीरे -धीरे अिभषेक का शुभ मु त िनकट आ गया । रा के गणमा नाग रक,
आम त राजागण तथा अनेक ऋिष-मुिन और पुरोिहत आिद सभाभवन म आ गए ।
ऐसे अवसर पर िजसे सबसे आगे रहना चािहए था, उसको वहां पर न दे खकर सबको
आ य आ।
महिष विस ने सुम ारा राजा दशरथ के पास शी पधारने का स े श भेजा ।
उस समय तक िकसी को कैकेयी के कुच का पता नहीं था, सुम शी ता से
महल म राजा के पास गए ।
राजा दशरथ िसर नीचा िकए उदास बैठे थे । वृ म ी ने जाते ही अिभवादन
करके उनसे अिभषेको व म पधारने का अनुरोध िकया । राजा उ र म एक श
भी नहीं बोले और सुम की तरफ एकटक दे खने लगे । तब कैकेयी बोली–सुम !
महाराज रात-भर अिभषेक के िवषय म िच न करते-करते थक गए ह, उ झपकी
आ रही है ; तुम शी राम को बुलाओ!
सुम राजा ा की ती ा म वहीं खड़े रहे । कुछ दे र बाद राजा ने यं कहा–
सुम ! मेरे ारे राम को शी बुला लाओ…
सुम रथ लेकर राम के भवन म गए । राम अिभषेक के िलए सुस त होकर
बैठे थे । िपता का स े श पाते ही वे ल ण को साथ लेकर तुर चल पड़े । माग म
दशना ुक जनता ने बड़े हष से उनका अिभन न िकया, अटा रयों से यों ने
उनके ऊपर फूल और लाजा बरसाई ।
जनता को आन से आ ोिलत करके लोकािभराम राम राजधाम म प ं चे ।
जाते ही उ ोंने माता-िपता के चरणों म णाम िकया । उ र म दशरथ केवल ‘राम’
कहकर चुप हो गए । वे न तो कुछ बोल सके और न राम की ओर दे खने का ही
साहस कर सके । राम ने राजा की ओर ान से दे खा । उनके मुख पर घोर उदासी
छाई ई थी, अंगों की का और चेतना म हो गई थी । वे अ ाकुल और
िवि -से िदखाई दे ते थे । राम को यह सब दे खकर बड़ा आ य आ । उ ोंने
कैकेयी से राजा की था का रह पूछा ।
कैकेयी धृ तापूवक बोली–राम! महाराज तु ारे ही स म एक बात को
लेकर बड़े धम-संकट म पड़ गए ह । संकोचवश वे तुमसे उिचत बात कहने म
िहचक रहे ह । यिद तुम इनके वचन का मान रख सको तो म सब कुछ तु
बता दू ं ।
राम ने सिवनय कहा–दे िव! म िपता की आ ा का पालन अव क ं गा; यिद वे
मुझे आग म कूदने को भी कहगे तो म सहष कूद पडूगा । आप मेरा िव ास कीिजए;
राम दो तरह की बात नहीं बोलता ।
तब कैकेयी राम को दे वासुर-सं ाम की सारी घटना सुनाकर बोली–राम! तु ारे
ित ाब िपता से मने एक वर यह मां गा िक तुम आज ही तप ी के वेश म यहां से
चले जाओ और चौदह वष तक वन म िनवास करो । अब तुम अपने और उनके
स -धम की र ा करो । इस िवषय म महाराज की आ ा की ती ा न करो । वे
मोहवश ऐसे िकंकत िवमूढ़ हो गए ह िक उनसे कुछ भी कहते नहीं बनता ।
कैकेयी के मुख से मृ ु-तु दु ःखद वचन सुनकर भी राम िथत नहीं ए ।
उ ोंने स मन से कहा–माता! म िपताजी की ित ा की र ा के िलए आज ही
यहां से चला जाऊंगा । आप भरत को बुलवा लीिजए; म अपना सव उ दे ने को
तैयार ं ।
इस पर कैकेयी पुनः बोली–राम, जब तक तुम नहीं जाओगे, महाराज इसी तरह
मोह-शोक म डूबते-उतराते रहगे, इसिलए तुम यशाशी दं डक वन को चले जाओ ।
राजा दशरथ इसे सुनते ही ‘िध ार है ’ कहकर शोक से मूिचठत हो गए । राम
कैकेयी को वन जाने का वचन दे कर अपनी माता से िवदा लेने गए । उस समय
उनका िच माया-मोह-मु स ासी की भां ित शा और िवकार-रिहत था । माग
म उ ोंने अिभषेक के िलए सुस त मंडप की तरफ दे खा तक नहीं । अपने छ -
चमर आिद ागकर वे स तापूवक कौश ा से िमलने गए । ल ण भी साथ थे ।
कौश ा उस िदन ब त स थीं, ोंिक उस िदन उनके पु का अिभषेक होने
वाला था । राम ने जाकर उ अपने वन-गमन का संवाद सुनाया । उस दय-
िवदारक समाचार को सुनते ही वे मूिचछत होकर िगर पड़ीं । चैत होकर उ ोंने
राम से सारा हाल पूछा और अपने कम को दोष दे ते ए कहा–बेटा! इससे बढ़कर
दु :ख की बात और ा होगी! मेरे भा म तो सुख था ही नहीं । सोचा था िक पु
होने पर मेरे िदन पलटगे, सो वह भी नहीं आ । म िनरं तर कैकेयी की सेवा म लगी
रहती थी, लेिकन उसकी दासी के बराबर भी मेरा मान नहीं था । अब तो कोई मुझे
और भी न पूछेगा । मेरे त-अनु ान आज िन ल हो गए ।
तेज ी ल ण उस समय तक चुप थे । कौश ा की बात सुनकर वे बोले–माता!
राजा एक तो कामी ह, दू सरे अित वृ , इससे उनकी बु हो गई है । भाई राम
ने कोई अपराध नहीं िकया है , िजसके िलए उ रा से िनवािसत िकया जाए । कौन
धमा ा िपता ऐसे स ु का प र ाग करे गा !
इसके बाद वे और भी अिधक ु होकर राम से बोले–भैया! आप अभी चलकर
अपना अिभषेक कराइए । हमारे रहते कौन आपको िसंहासन पर बैठने से रोकेगा ।
िपता भी यिद कैकेयी के कहने से इसम बाधक होंगे तो म उस बूढ़े, कामी, िनल ,
अधम , अिववेकी को आज अव मा ं गा । म अपने बाणों से भरत के िहत-साधकों
का सवनाश कर डालूंगा !
बीच ही म कौश ा ने राम से िफर कहा–बेटा! तु ारे िपता को कैकेयी ने बहका
िलया है , तुम उनकी अनुिचत बात मत मानो तु ारे ऊपर मेरा भी कुछ अिधकार है ।
म तु वन जाने से रोकती ं ।
राम ने िवनयपूवक उ र िदया–मां ! िपताजी की आ ा का उ ंघन करने की
श मुझम नहीं है । उनकी आ ा मेरे िलए ही नहीं, तु ारे िलए भी मा है , वे मेरे
िपता और तु ारे पित ह । अब तुम मुझे आज ही वन जाने की अनुमित दो ।
इसके बाद वे ल ण से बोले–ल ण! तुम मेरी बु के अनुसार चली । ोध-
शोक से िणक आवेश म धम की हािन करना उिचत नहीं है । अब तुम मेरे वन-
गमन की तैयारी करो । इसम महाराज और माता कैकेयी का कुछ दोष नहीं है । यह
सब भा का खेल है । जीवन म ऐसा उलट-फेर, चढ़ाव-उतार होता ही रहता है ।
ल ण पुनः दप से बोले–भैया! भा के भरोसे रहना तो कापु षों का काम है ।
म अपने पौ ष-परा म से आपको राजिसंहासन पर बैठाऊंगा । यिद िकसी ने
िवरोध िकया तो म अपने बा बल से अयो ा को मनु -रिहत बना दू ं गा ।
राम ग ीर होकर बोले–ल ण! अधम और अपवाद से यु रा मुझे नहीं
चािहए । म िपता के स -धम की र ा के िलए आज ही वन को जाऊंगा । मेरे जैसे
के िलए रा -लाभ और वनवास म कोई िवशेष अ र नहीं है । मुझे तो इनम
से वनवास ही महान अ ुदयकारक जान पड़ता है । तुम अनायोंिचत िवचार ाग दी
और शी मेरी या ा की तैयारी करो ।
ल ण चुप हो गए । कौश ा रोती ई राम से िलपट गई और यं भी उनके
साथ वन जाने का आ ह करने लगीं । राम ने उ समझा-बुझाकर वन जाने की
आ ा मां गी । कौश ा उ एकटक दे खती ई बोलीं–अ ा राम! जाना ही चाहते
हो तो जाओ । होनहार को कौन टाल सकता है । म चौदह वष तक तु ारी राह
दे खती बैठी र ं गी । तुम सकुशल लौटना । िजस धम का तुम िन पालन करते हो,
वही तु ारी र ा करे , माता-िपता के पु तु ारे सहायक हों, सभी िदशाएं तु ारे
िलए मंगलमयी हों, दे वता-मनु , पशु-प ी, पृ ी-आकाश, जल-वायु, सूय-च सभी
तु ारे ित क ाणकारी हों । मेरे त-पूजन का सम फल तु िमले; तु ारा
शा -अ यन सफल हो! लोक की दै वी श यां तु ारे अनुकूल हों! बेटा! जाओ,
म रोम-रोम से तु आशीवाद दे ती ं । तु ारी वनया ा तु ारे िलए और सभी के
िलए शुभ हो ।
धमशील कौश ा ने शुभ या ा के िनिम अनेक धािमक अनु ान िकए, और
िफर राम को दय से लगाकर िवदा कर िदया । राम वहां से सीता के पास गए ।
सीता को इन बातों का कुछ भी पता नहीं था । राम ने उ भी सारा हाल बताया और
अ म िवदा मां गते ए कहा–सीता! अब हम लोग चौदह वष बाद ही िफर िमलगे ।
तुम मेरी वृ ा माता की संभाल रखना और सदा भरत की इ ा के अनुकूल ही
चलना, ोंिक अब वे एक तो कुल के ामी, दू सरे दे श के राजा भी ह । तुम उनके
सामने भूलकर भी मेरी शंसा न करना, ोंिक ऐ यशाली पु षों को दू सरे की
शंसा अस होती है ।
सीता अ ाकुल होकर बोलीं–आयपु ! यह कैसे संभव है िक आप तो वन
म रह और म अयो ा के महलों म िनवास क ं । आपके िबना मेरे िलए ग का
वैभव भी तु है । म छाया की भां ित आपके साथ र ं गी । म आपकी अ ां िगनी और
सहगािमनी ं । मुझे आपके साथ रहने का अिधकार है । वन म आपके साथ दु :ख
भोगने पर भी मुझे महलों से अिधक सुख िमलेगा । आप मुझे भी साथ ले चिलए,
अ था आपके जाते ही म ाण ाग कर दू ं गी ।
राम ने वन के ेशों का वणन करके सीता को रोकना चाहा, पर वह बोली–
ामी! यह आपकी बड़ी कायरता है िक आप भयवश मुझे यहां छोड़कर अकेले
जाना चाहते ह । यिद मेरे िपता यह जानते िक आप पु ष के प म व ुतः ी ह तो
वे मुझे आपके हाथों म न सौंपते! आप अपने पौ ष की लाज रखने के िलए मुझे साथ
लेते चिलए । आपका संग मेरे िलए ग है और आपका िवयोग नरक! म आपका
साथ न छोडूगी ।
सीता रोती ई राम से िलपट गई । राम ने िववश होकर उ भी अपने साथ
चलने की ीकृित दे दी । उसी समय ल ण ने भी साथ चलने का हठ िकया । ब त
समझाने पर भी वे नहीं माने और बड़े भाई के पैर पकड़कर रोने लगे । अ म राम
ने कहा–अ ा ल ण! यिद कुटु ीजन तु मेरे साथ जाने की अनुमित द तो
गु वर विस के घर से मेरे सुरि त िद अ -श ले आओ और शी वन-गमन
की तैयारी करो ।
ल ण ने शी जाकर माता और प ी से वन जाने की ीकृित ली; िफर वे
विस के घर से अ -श लेकर राम की सेवा म उप थत हो गए । राम ने अपना
और सीता का सब सामान ा णों और सेवकों को दान कर िदया । तद र वे अपने
सेवकों से िवदा लेकर सीता-ल ण के साथ राजा दशरथ के पास गए ।
राम के वन-गमन का समाचार सारी अयो ा म फैल चुका था । चारों तरफ हष
के थान पर शोक छा गया । लोग बार-बार कैकेयी और दशरथ को िध ारते ए
राम के गुणों को याद करके रोने लगे । राम को राजा के महल की ओर जाते दे खकर
सब हाहाकार कर उठे ।
राजा दशरथ उस समय घोर मानिसक था से तड़प रहे थे । उ ोंने कौश ा-
सुिम ा को भी वहां बुलवा िलया था । राम उनसे अ म िवदा लेने आए । राजा उ
दे खते ही उठ खड़े ए और ेम से िवहल होकर उनकी ओर दौड़े लेिकन बीच ही म
मू त होकर िगर गड़े । राम-ल ण ने उ उठाकर पलंग पर िलटाया ।
राजा के चैत होने पर राम ने हाथ जोड़कर उनसे िनवेदन िकया–िपताजी! आप
कृपा करके मुझे द कवन जाने की अनुमित दीिजए । सीता और ल ण भी मेरे
साथ जाने का आ ह कर रहे ह और आपकी आ ा लेने आए ह । आप हम लोगों के
िलए िकसी कार का शोक न कर…
राजा राम की ओर अिनमेष ि से दे खकर बोले–राम! कैकेयी ने मेरी मित हर
ली । तुम मुझे पकड़कर ब ीगृह म डाल दो और यं आज ही अयो ा के राजा
बन जाओ ।
राम ने बड़ी न ता से कहा–िपताजी! मुझे रा का लोभ नहीं है । म आपके
वचन की र ा के िलए अब चौदह वष वन म ही िनवास क ं गा । आप मुझे जाने की
आ ाद।
राजा से कुछ कहते नहीं बनता था । कैकेयी उ बार-बार फटकारकर कहने
लगी–महाराज! शी जाने को किहए न! अब अिधक िवल न होना चािहए ।
राम यं शी जाने के िलए आ ह कर रहे थे । ऐसी प र थित म राजा दशरथ
िववश होकर बोले–राम! तुम धम ती हो; कोई तु कत -माग से िवचिलत नहीं
कर सकता । अत: व ! तुम क ाण के िलए, आ वृ के िलए और सकुशल
लौट आने के िलए स मन से वन को जाओ । म स की शपथ खाकर कहता ं
िक म अपनी त इ ा से तु वन जाने को नहीं कह रहा ं , पािपनी कैकेयी
मुझे अपने जाल म फसाकर ऐसा अनथ करवा रही है । राम! तुम मेरे धम और स
की र ा के िलए बड़ा दु र कम करने जा रहे हो । म तु रोम-रोम से आशीवाद
दे ता ं , तु ारा माग भयरिहत हो । बेटा! अब तुम संभवतः सदा के िलए मुझ से
िबछु ड़ रहे हो, ोंिक तु ारे लौटने तक म जीिवत नहीं र ं गा । इसिलए मेरे साथ
एक रात और िबता लो, तब जाओ । म तु एक िदन जी भरकर दे ख लू, तु ारे साथ
बैठकर भोजन कर लू, यही मेरी अ म लालसा है । मुझे और अपनी दु : खनी माता
को दे खो; आज हम दोनों के िलए क जाओ, कल सवेरे चले जाना ।
राजा का यह क णाजनक वचन सुनकर राम ने उ र िदया–िपताजी! म माता
कैकेयी को आज ही जाने का वचन दे चुका ं । अतएव मुझे आज ही जाने दीिजए ।
आपके धम और यश की र ा के िलए म बड़े हष ने वन को जा रहा ं ; चौदह वष
बीतते ही पुनः लौटकर आपके दशन क ं गा ।
दशरथ इसके आगे ा कहते! वे राम को छाती से लगाकर मू त हो गए ।
वहां के सभी लोग रोने लगे । थोड़ी दे र म राजा चैत ए और पास म खड़े सुम से
बोले–सुम ! राम की वनया ा का यथोिचत ब करो । उनके साथ धन-धा का
भंडार जाएगा, चतुर सेवक और मागदशक जाएं गे और मेरी चतुरंिगणी सेना भी
जाएगी ।
कैकेयी इसे सुनते ही चट-पट बोल उठी–महाराज! सब कुछ तो आप राम को दे
रहे ह, िफर भरत इस िन ार रा को लेकर ा करे गा! राम को तप ी की तरह
जाना चािहए ।
राजा तथा सभी उप थत लोग कैकेयी को िध ारने लगे । तब राम ने यं
िनवेदन िकया–िपताजी! जब मने रा ाग ही िदया तो सेना और राज स दा से
मुझे ा योजन! अब म सब कुछ भरत के िलए छोड़ जाता ं । मुझे तो अब
व ल-व चािहए... ।
कैकेयी तुर व ल-व ले आई और उ राम को दे कर बोली–लो राम, इ
पहनकर शी जाओ ।
राम ने उ लेकर पहन िलया । िफर कैकेयी ने सीता को भी तप नी का व
िदया । सीता उ पहनना नहीं जानती थीं, राम ने उसको उनकी रे शमी साड़ी के
ऊपर लपेट िदया । यह दे खते ही सब िच ा उठे –दशरथ, तु िध ार है ।
रािनयां सीता को िलपटाकर रोने लगीं । कुलगु विस की आं खों म आं सू आ गए ।
राजा दशरथ ब त ही दु :खी होकर कैकेयी से बोले–कैकेयी! तूने तो राम को ही
वनवास का वर मां गा था, िफर सीता के साथ ऐसा दु वहार ों कर रही है । म
अपनी पु वधू को इस वेश म नहीं दे ख सकता ।
इसके बाद राजा िसर नीचा करके बैठ गए । राम ने उनसे अ म िवदा मां गी ।
राजा कुछ दे र तो ‘राम-राम’ करते ए िवलाप करते रहे ; िफर सुम से बोले–
सुम ! राम को उ म रथ म बैठाकर अयो ा से बाहर प ं चा आओ । संसार म भले
आदिमयों को भलमनसाहत का बुरा फल ही िमलता है ; तभी तो सदाचारी पु माता-
िपता ारा घर से िनवािसत कर िदए जाते ह ।
सुम शी ही एक सु र रथ ले जाए । राजा ने उसम सीता के िलए उ म व
आिद रखवा िदए । इसके अन र राम-ल ण-सीता ने माता-िपता और गु जनों के
पैर छु ए । रािनयां तीनों को दय से लगाकर रोने लगीं ।
ल ण ने अपनी माता सुिम ा से जब अ म िवदा मां गी तो उस मन नी ने पु
का िसर सूचकर कहा–बेटा! बड़े भाई की सेवा के िलए म सहष तु वन जाने की
आ ा दे ती ं । छोटा भाई बड़े भाई के अनुशासन म रहे , यही लोक का सनातन धम
और उ कुल की पर रा है । राम के िलए तु अपना ाण भी दे ना पड़े तो
अव दे दे ना, घर का मोह न करना; राम को िपता, सीता को माता और वन को
अयो ा समझना । जाओ वीर पु ! िनि होकर राम के साथ जाओ…जाओ…
अ म, वहां से चलने के पूव राम सबके आगे हाथ जोड़कर बोले–आप सबसे
मेरी यह ाथना है िक इतने िदनों तक एकसाथ रहने के कारण यिद जाने या अनजाने
म मुझसे कोई अपराध आ हो, अथवा मने िकसी को भी कभी अि य वचन कहा हो
तो उसके िलए आप लोग मुझे मा कर द । अब म आप सबसे िवदा मां गता ं ।
सारा राज-भवन दन- न से गूंज उठा । राम सीता और ल ण के साथ
महल से बाहर िनकले । अ :पुर की यां भी रोती-िबलखती बाहर चली आईं ।
ऋिषपथ पर थान–रथ म राम-ल ण के अ -श रखे गए; िफर सीता को
उसम बैठाकर दोनों भाई भी बैठ गए । इसके उपरा सुम ने घोड़ों को आगे
बढ़ाया ।
राम के थान करते ही राजधानी म हलचल मच गई । मनु ही नहीं, पशु-प ी
भी शोक िवकल होकर िच ाने लगे । सारी जनता ु हो गई । िकतने ही लोग
राम का वन-गमन दे खकर मू त हो गए । पुरवासीगण अपने-अपने शरीर और
घर-बार की सुध-बुध भूलकर रथ के पीछे दौड़ पड़े । लोग बार-बार सुम को
पुकारकर कहते थे–म वर! घोड़ों को धीरे चलाइए, हम जी भरकर राम को दे ख
लेने दीिजए, अब हम राम कहां िमलगे? सबकी दशा पागलों जैसी हो गई थी ।
राजप रवार की दशा और भी शोचनीय थी । राजा दशरथ रािनयों के साथ महल
से बाहर िनकले और पैदल ही राम के रथ के पीछे दौड़े । उनके मुख से बार-बार
यही िनकलता था–राम, मेरे राम! मुझे छोड़कर कहां जाते हो! कौश ा का भी यही
हाल था । वे रथ के पीछे -पीछे ‘हा राम, हा ल ण, हा सीता, कहती ई पूरी श
से दौड़ी चली जाती थी । राम उस दय-िवदारक को अिधक नहीं दे खना चाहते
थे । उ ोंने रथ को वेग से आगे बढ़ाने की आ ा दी । इतने म दू र से राजा दशरथ ने
पुकारा-सुम ! रथ को खड़ा कर दो ।
राजा और राम के पर र िवरोधी आदे शों से सुम दु िवधा म पड़ गए । राम
उनके मनोभाव को समझकर तुर बोले–म वर इस समय आप मेरी ही आ ा के
अनुसार काय कीिजए । लौटने पर यिद राजा अपनी आ ा के उ ंघन का कारण
पूछे तो कह दीिजएगा िक उस कोलाहल म कुछ बात सुनाई ही नहीं पड़ी । यह म
इसिलए कहता ं िक इस प र थित म हम िजस उपाय से भी हो सके, दु :ख को
घटाने का ही य करना चािहए । मेरे कने से राजा का ेश और भी बढ़ जाएगा
अत: रथ को शी बढ़ाइए ।
सुम ने शी गामी घोड़ों को वेग से हां का । राजा दशरथ ने रथ के पीछे िफर
भागने की चे ा की, लेिकन म यों ने उ पकड़ िलया । वे अ ुपूण ने ों से एकटक
उस वेगगामी रथ को दे खने लगे । जब वह आँ खों से ओझल हो गया तो मोही राजा
उसके पीछे की उड़ती ई धूल को उचक-उचककर दे खने लगे । उस समय उसका
शरीर पु दशन के िलए ऊपर बढ़ता-सा जान पड़ता था । कुछ दे र म जब धूल का
दीखना ब हो गया तो वे हताश होकर पृ ी पर िगर पड़े । रािनयां उ उठाने
दौड़ीं । कैकेयी को सामने दे खकर राजा ितर ारपूवक बोले–दू र हट कुलनािशनी,
हम तुझे अपना शरीर नहीं छूने दगे ।
अ रािनयां उ उठाकर महल म ले गईं । भीतर प ं चकर राजा बोले–मुझे
राम-माता के भवन म ले चलो, मेरे िच को और कहीं शा न िमलेगी ।
उ कौश ा के भवन म ले जाया गया, पर वहां भी उनकी अ था शा
नहीं ई । वे िच ाकर कहने लगे–राम, बेटा राम! तुम हम इस तरह ागकर जा
रहे हो! अब हम इस जीवन म तु नहीं दे ख सकगे, तुम जब लौटोगे तो हम नहीं
रहगे… । राजा का िच राम म लगा था । उ आसपास कुछ सूझता ही नहीं था ।
सारा घर काटने को दौड़ता था । िदन तो िकसी कार बीत गया; राम के िवयोग की
पहली रात राजा को काल-राि जैसी भयंकर तीत ई । वे राम की एक-एक बात
को याद करके तड़पने लगे ।
उस िदन अयो ा म स ाटा छाया था । राम के िबना नगरी सूनी और उदास
लगती थी । वहां की सड़क सूनी थीं, घर-बाजार-चौपाल सूने थे; म रों के कपाट
ब थे; उस िदन िकसी ने भी स ा-पूजन आिद नहीं िकया । िकसी भी घर म चू ा
नहीं जला । पशुओं ने दाना-पानी और िचिड़यों ने दाना चुगना छोड़ िदया । िदशाएं
िदन म भी काली, भयावनी लगती थीं । लोगों को अपने तन, मन और बाल-ब ों की
भी सुध नहीं रही । सब राम के िवरह से ाकुल थे ।
उधर अयो ावािसयों की एक भारी भीड़ राम के रथ के पीछे दौड़ी जा रही थी ।
राम उनसे बार-बार लौट जाने की ाथना करते थे, लेिकन सब उनके साथ खंचे से
जा रहे थे । उनम अनेक वृ भी थे । उ दौड़ते-हां फते दे खकर राम को बड़ी दया
आई । वे रथ को रोककर सीता-ल ण सिहत पैदल ही आगे बढ़े और स ा होते-
होते तमसा नदी के िकनारे प ं चे । सब थककर चूर हो गए थे, इसिलए राम ने वहीं
डे रा डाल िदया । सुम और ल ण ने िमलकर राम-सीता के िलए कोमल प ों की
एक श ा बना दी । पुरवासी-गण भूिम पर लेट गए ।
राि म तमसा नदी के िकनारे राम ल ण से बोले–सौ ! आज वास की पहली
राि है । वन म चारों ओर स ाटा है , िदशाएं मिलन हो गई ह । यह थान रोता आ-
सा तीत होता है । यहां तुम अयो ा के राजसुखों की आकां ा मत करना । आज
अयो ापुरी म मेरे िलए हाहाकार मचा होगा । लोग मुझे ब त मानते थे । िपताजी की
न जाने ा दशा होगी । कहीं वे रोते-रोते अ े न हो जाएं । धमा ा भरत उनकी
संभाल करे गा… ।
इस कार बात करते-करते वे केवल जल पीकर तृणश ा पर लेट गए । उस
िदन िकसी ने कुछ नहीं खाया । धनुधारी ल ण दू र बैठकर पहरा दे ने लगे । सुम
भी उ ीं के पास बैठे रहे ।
राम रात रहते ही उठ बैठे और िनि त नाग रकों की ओर संकेत करके ल ण
से बोले–ल ण! कोसल रा के धनी-मानी नाग रकों को भूिम पर पड़े दे खकर मुझे
बड़ा दु :ख होता है ; ये लोग मेरे िलए घर-बार ागकर िकतना क भोग रहे ह । इनम
से एक भी े ा से अथवा मेरे कहने से नहीं लौटे गा; अतएव इनके जागने से पहले
ही हम चुपचाप चल दे ना चािहए । म ेमवश ही इ ागना चाहता ं ; इनका क
मुझसे नहीं दे खा जाता ।
पुरवािसयों को वहीं सोते छोड़कर राम-ल ण-सीता रथ-सिहत तमसा के पार
चले गए । वहां राम ने सुम से कहा–म वर! आप रथ को पहले उ र की ओर
कुछ दू र तक ले जाइए, िफर घूमा-िफराकर इधर ही लौटा लाइए–ऐसा कीिजए िक
इन नाग रकों को जागने पर हमारे माग का ठीक-ठीक पता न चले ।
सुम ने ऐसा ही िकया । इसके बाद राम-ल ण-सीता रथ म बैठे और अयो ा
के दि ण तपोवन की ओर चल पड़े ।
इधर जब लोगों की आं ख खुलीं तो राम को वहां न दे खकर सब चिकत एवं ख
हो गए और चारों ओर दौड़कर खोजने लगे । नदी के िकनारे िभ -िभ िदशाओं म
रथ िच दे खकर उनकी बु म म पड़ गई । ब त दे र तक इधर-उधर भटकने के
बाद सब रोते-पछताते अपने-अपने घरों को लौटे । महापुरी उजड़ी-सी लगती थी ।
स ा होने पर भी िकसी ने दीपक नहीं जलाया । अंधेरी नगरी म सव हाहाकार
मचा था ।
उधर सूय दय होते-होते राम ब त दू र िनकल गए । िदन म कोसल रा के
सुखी-स गां वों के हरे -भरे खेतों तथा पु त वनों को दे खते-दे खते वे शीतल
जलवाली गोमती नदी के िकनारे प ं चे । उसके पार आगे जाने पर का (सई)
नदी िमली । वहां कोसल रा की दि णी सीमा समा होती थी । का को
पार करके राम ने अ ुपूण ने ों से अपनी ज भूिम को दे खा और सुम से कहा–
सुम ! वह िदन कब आयेगा जब म वन से लौटकर माता-िपता से िमलूंगा और सरयू
के िकनारे सुपु त वनों म िवहार क ं गा ।
इसके बाद वे अयो ा की ओर मुख करके खड़े हो गए और हाथ जोड़कर बोले–
इ ाकुवंशीय राजाओं से प रपािलत पु र े अयो ा! हम तुमसे िवदा मां गते ह; अब
तो चौदह वष बाद वन से लौटकर ही हम पुन: तु ारा दशन करगे… ।
सीमा ा के ब त से लोग राम के पास इकटू े हो गए और उनके वनगमन का
वृता सुनकर रोने लगे । चारों ओर से यही िन आती थी–कामी राजा दशरथ को
िध ार है ! इस रा को छोड़कर चली, राम के साथ वन म रह ।
अपने ित ामवािसयों की ऐसी ीित-सहानुभूित दे खकर राम की आं खों म आं सू
आ गए । वे सबसे िवदा लेकर पुनः आगे बढ़े और स ा होते-होते गंगा के िकनारे
ृंगवेरपुर नामक थान पर प ं चे । वहां उ ोंने एक इं गुदी वृ के नीचे डे रा डाला ।
ंृगवेरपुर म नीच जाित के िनषादों का राजा गुह िनवास करता था । दशरथ और
राम से उसकी बड़ी घिन ता थी । राम के शुभागमन की सूचना पाते ही वह ब ु-
बा वों और सेवकों को साथ लेकर ागताथ दौड़ पड़ा । िनषादराज को आते
दे खकर राम यं उठकर आगे बढ़े और उससे ेमपूवक गले िमले । गुह अयो ा
के यश ी राजकुमारों को मुिनवेश म दे खकर ख हो गया और अ न ता से
बोला–राम! आज यह मेरा परम सौभा है िक आप हमारे जनपद म पधारे ! अयो ा
की भां ित ृंगवेरपुर को भी आप अपना ही समझे और मेरे िनवास- थान पर चलकर
सुख से ठहर । हम लोग यथाश आपकी सेवा करगे ।
इतने म िनषादराज के ब त से-सेवक नाना कार के ंजन लेकर आ प ं चे ।
राम ने गुह का ढ़ आिलंगन करके कहा–िनषादराज! म तो िपता की आ ा से
राजपाट तयागकर तप ी का जीवन तीत करने िनकला ं ; इसिलए िकसी ाम
या पुर म जाना और राजसी व ुओं का उपभोग करना मेरे िलए अनुिचत होगा ।
मुझे िकसी व ु की आव कता नहीं है ।
राम के रा -िनवासन से गुह को ब त दु :ख आ । वह हाथ जोड़कर बोला–
राम! म बड़ी स ता से अपना स ूण रा आपके चरणों म अिपत करता ं । आप
राजा होकर यहीं िनवास कर ।
राम ने मुिन त का प र ाग नहीं िकया । उस िदन भी वे केवल जल पीकर इं गुदी
वृ के नीचे तृणश ा पर सो गए । ल ण भाई-भाभी के शयन का ब करके
रात म पहरा दे ने लगे । गुह और सुम उ ीं के पास बैठ गए और रात-भर राम के
ही िवषय म बात करते रहे ।
ात:काल राम ने एक सु र नाव म अपना सामान रखवाया । उसके बाद वे
सुम से हाथ जोड़कर बोले–म वर! अब हम लोग आपसे िवदा मां गते ह । आप
अयो ा लौट जाइए और िजस कार भी हो सके महाराज के दु :ख को दू र करने की
चे ा कीिजए…िपताजी के चरणों म णाम किहए और यह बता दीिजएगा िक हम
रा - ाग और वनवास का कुछ भी ेश नहीं है ; हम लोग चौदह वष बाद पुन:
उनकी सेवा म उप थत होंगे । हमारी माताओं से भी ऐसा ही कह दीिजएगा । भरत
से मेरा यह स े श किहएगा िक वे सब माताओं के साथ एक-सा वहार कर और
महाराज को सब कार से स रख ।
उस अवसर पर ल ण भी सुम से बोले–म वर! आप मेरी ओर से राजा से
पूिछएगा िक उ ोंने राम जैसे िनरपराध े पु का प र ाग ों िकया! िजसके
च र से िपतृ-भाव नहीं कट होता, उसे म िपता नहीं मानता; मेरे ाता, िपता,
ामी सब कुछ एकमा राम ह । सवि य राम को घर और रा से िनवािसत करके
राजा ने लोक-िव आचरण िकया है । ऐसे लोक ोही को राजा होने का
अिधकार नही है …
राम ने बीच ही म सुम से कहा–आय सुम ! इन बातों को महाराज से न
किहएगा । उनके िच को दु :खी करना उिचत नहीं है । अब आप अयो ा के िलए
थान कर ।
वयोवृ सुम बालकों की तरह रोते ए बोले–राम, अपने इस वृ सेवक पर
कृपा कीिजए; मुझे भी अपने साथ लेते चिलए । म इस खाली रथ को लेकर अयो ा
नहीं जाऊंगा… ।
राम ने कहा–म वर! मुझे भी आपसे िबछु ड़ने म दु :ख हो रहा है , लेिकन राजा
और रा के िलए आपका यहां से लौट जाना ही ेय र है । आपके जाने से
कैकेयी को मेरे वन-गमन का पूण िव ास हो जाएगा और वह मेरे िपता को इस
स म अिधक क न दे गी ।
सुम मौन हो गए । राम ने वहीं बरगद का दू ध मंगवाया । उससे दोनों भाइयों ने
अपनी-अपनी जटाएं बनाईं । िफर वे गुह तथा सुम से िवदा लेकर सीता के साथ
नाव म बैठे और गंगा पार करके व दे श म प ं चे । आगे-आगे राम, बीच म सीता
और पीछे ल ण–इस म से तीनों वन के दु गम माग पर पैदल ही चल पड़े ।
िदन-भर चलने के बाद वे शाम को एक पेड़ के नीचे िटक गये । ल ण ने राम-
सीता के िलए कोमल प ों की सु र श ा बना दी । सबने साथ बैठकर वन के कंद-
मूल खाए ।
उस िनजन वन म राम अपने एकमा साथी ल ण से बोले–ल ण! आज
सुम भी चले गए । हम लोग अकेले ह । मुझे अयो ा की याद आ रही है । िपताजी
हम लोगों के िवयोग म िकतने दु :खी होंगे । कोई मूख भी ी के कहने से ऐसा अनथ
न करे गा, जैसा िक उ ोंने िकया है । मादास कािमयों की ऐसी ही दु गित होती है
। ल ण! म अपने बा बल से अभी अयो ा का रा ले सकता ं , िक ु अधम
और अपयश के भय से ऐसा नहीं करता । मुझे रा हािन का कुछ भी दु :ख-शोक
नहीं है । म सबसे अिधक उस माता के िलए िच त ं , िजसे मुझसे सुख की जगह
दु :ख ही िमला । म उसके िकसी काम नहीं आया । मुझे िध ार है ! ल ण! तुम
कल ही अयो ा चले जाओ और माता कौश ा और सुिम ा की संभाल करो ।
कैकेयी बड़े तु भाव की ी है ; वह भरत का बल पाकर हमारी-तु ारी माता
पर बड़ा अ ाचार करे गी…
इतना कहते-कहते राम की आं खों म आं सू आ गए । ल ण दे र तक पास
बैठकर उनको सा ना दे ते रहे । कुछ दे र बाद राम सीता के साथ पणश ा पर सो
गये; ल ण धनुष-बाण लेकर पहरा दे ने लगे ।
ातःकाल तीनो आगे बढ़े और सं ा होते-होते गंगा-यमुना के समीप महिष
भार ाज के आ म म प ं चे । भार ाज ने उ स ानपूवक अपने आ म म
ठहराया ।
दू सरे िदन राम महिष से आ ा लेकर आगे बढ़े और यमुना को पार करके दो
िदनों की या ा के बाद िच कूट प ं चे । वहां की शोभा दे खकर उनका िचत स हो
गया । ल ण ने म ािकनी नदी के िकनारे एक सु र पणकुटी बना दी । महा ा
राम उसी म सीता-ल ण के साथ बड़े सुख से रहने लगे । कृित के सुखद, शा ,
मनोरम वातावरण म वे रा - ाग और ि यजनों के िवयोग से तिनक भी िथत
नहीं ए और ल ण से बोले–ल ण! मेरा वनवास सफल हो गया; उससे मुझे दो
फल िमले–एक तो िपता के धम की र ा, दू सरा भरत का उपकार ।
अयो ा म हाहाकार–इधर सुम खाली रथ लेकर अयो ा लौटे । उस समय
तक लोगों को यह आशा थी िक राजम ी कदािचत् राम को समझा-बुझाकर लौटा
लाएं गे । उस आशा पर भी पानी िफर गया । लोग दौड़-दौड़कर सुम से पूछते थे–
म वर, राम कहां ह, उ आप कहां छोड़ आए?
सुम ा कहते! वे मुंह लटकाए ए सीधे राजमहल म गए । उ अकेले आते
दे खकर रािनयां हाहाकार कर उठीं । राजा ने होकर पूछा–सुम ! राम कहां
गए? मेरा बेटा राम इस समय कहां होगा, ा खाता होगा? सुम ! उसने िवदा होते
समय तुमसे कुछ कहा हो तो बताओ!
सुम ने रोते-रोते सारा हाल कह सुनाया । राजा अधीर होकर इस कार लाप
करने लगे–हा राम, हा ल ण, हा सीता, तुम लोग कहां हो! तु पता नहीं होगा िक
तु ारा िपता अनाथ की तरह तड़प-तड़पकर मर रहा है । आज मरते समय म अपने
ारे ब ों का मुंह दे खना चाहता ं , पर नहीं दे ख सकता–यह और कुछ नहीं, मेरे
पापों का ही फल है ।
कौश ा का इससे भी बुरा हाल था । वे िसर-छाती पीट-पीटकर रो रही थीं और
बार-बार सुम से यही कहती थीं िक मुझे िकसी तरह बेटे के पास प ं चा दी । राजा
उनकी दशा दे खकर और भी ख हो गए और उनसे अपने अपराध के िलए मा
मां गने लगे ।
राम को अयो ा से गए छः िदन हो गए थे । आधी रात के समय राजा दशरथ को
रह-रहकर अपने पूव कम का रण होने लगा । वे कौश ा के पास बैठकर आह
भरते ए बोले–कौश ा! मनु जैसा भी शुभ या अशुभ कम करता है , उसे वैसा ही
फल िमलता है । मने युवाव था म एक दु म िकया था, उसी का द आज मुझे
भोगना पड़ रहा है –पहले जो बीज बोया था, उसी के फलने का अब समय आ गया है
।
राजा अपने पूवकृत अपराध को रण करके कहने लगा–कौश ा! मेरे हाथों से
जो दु म आ था, उसे ान से सुनो । एक बार वषा ऋतु म म सरयू के िकनारे
िशकार खेलने गया था । उन िदनों मुझे श वेधी बाण चलाने का सन था । म
अ ेरे म िशकार की ताक म बैठा था; एकाएक नदी के िकनारे से हाथी के गजन
जैसा श सुनाई पड़ा । मने उसी को ल करके एक श वेधी बाण चला िदया ।
ण ही भर बाद मुझे दू र पर िकसी मनु का हाहाकार सुनाई पड़ा । म घबराकर
उस ओर गया । वहां एक त ण तप ी घायल पड़ा तड़प रहा था, पास ही एक िम ी
का घड़ा भी पड़ा था । मुझे दे खते ही वह मरणास तप ी बोला–हाय! तुमने मुझे
अकारण ों मारा? म तो एक वनवासी था, अंधे मां -बाप के िलए पानी लेने आया था
। वे ास से ाकुल होकर मेरी ती ा करते होंगे और अब तो पानी के िबना वे मर
ही जाएं गे; उनका एकमा सहारा तुमने छीन िलया! अब इतनी कृपा करो िक उनके
पास जाकर यह समाचार बता दो… ।
…वह मुझे अपनी कुटी का रा ा बताकर तड़पता आ मर गया । म कुछ दे र
तो वहीं खड़ा रहा, िफर घड़े म जल लेकर उस मृत तप ी के आ म म गया ।
वहां उसके बूढ़े अ े मां -बाप बैठे थे । मेरे पैरों की आहट पाकर वे बोले–बेटा
वणकुमार! इतनी दे र कहां रहे ? हम ास से मर रहे ह...बोलो, बेटा!
मने लड़खड़ाती जीभ से उ र िदया–महा न् म आपका पु वणकुमार नहीं,
अयो ा का राजा दशरथ ं । इसके बाद डरते-कां पते ए मने उ वण की मृ ु
का दु :ख वृता सुनाया और अपनी भूल के िलए मा मां गी । उसे सुनते ही दोनों
अधमरे -से ए दा ण िवलाप करने लगे । उनके कहने से म उ उस तप ी के शव
के पास ले गया । दोनों उस शव से िलपटकर बड़ी दे र तक रोते रहे , िफर अपने
इकलौते पु की ह ा से ु होकर मुझे शाप दे ते ए बोले–राजन्, िजस तरह आज
हम पु के िवयोग म तड़प-तड़पकर मर रहे ह, उसी तरह एक िदन तुम भी मरोगे ।
मुझे यह शाप दे कर वे दोनों वहीं मर गए ।
दे वी! आज वह शाप ितफिलत होने जा रहा है । मेरी ृित ीण होती जा रही
है , इ यां िनज व हो गई ह, िच िवकल है । मेरा ाण अब इस शरीर से िनकलना
ही चाहता है । आज तो राम के श से ही मेरी जीवन-र ा हो सकती है पर वह
दु लभ है । मने राम के साथ िकतना अनुिचत वहार िकया, िफर भी उसने तो मेरा
भला ही िकया । मने उस िनरपराध पु को घर से, रा से िनकाल िदया, लेिकन
उसने मेरे िव एक श भी नहीं कहा । राम मेरी ेक बात को सदा मानता ही
रहा; कभी उसने मेरे सामने िसर नहीं उठाया । इससे अिधक दु :ख की बात और ा
होगी िक म मरते समय अपने उस ारे पु का मुंह भी नहीं दे ख सकता!
यह कहते-कहते राजा सहसा िच ा उठे –हा राम! हा मेरे शोकहतां राम, हा
िपतृव ल राम, मेरे लाल! मेरे कुलदीपक, मेरे नाथ, रघुन न राम! तुम कहां चले
गए! ...कौश ा, सुिम ा! अब म न बचूंगा, मेरा अ काल आ गया ।
‘राम-राम’ िच ाते ए दशरथ ने आधी रात के बाद ाण ाग िदए । अ :पुर
की यां ौंची की भां ित न करने लगीं । सारी अयो ा अगाध शोक-सागर म
डूब गई ।
दू सरे िदन म यों ने राजा के शव को एक तेल के भरे कड़ाह म रख िदया,
ोंिक उस समय उनके दाह-सं ार के िलए वहां एक भी राजकुमार नहीं था ।
राजप रषद ने रा की भावी व था पर िवचार करके भरत को शी बुलवाने का
िन य िकया । कई कुशल राजदू त शी गामी घोड़ों पर उसी िदन भेजे गए । उ यह
आदे श िदया गया िक केकय दे श म प ं चकर भरत से कोई दु :खद समाचार न
बताएं गे, केवल यही कहगे िक राजगु ओं ने उ िकसी आव क काय से तुर
बुलाया है ।
अयो ा के राजदू त कई िदनों की किठन या ा के बाद केकय दे श प ं चे । वहां
उ ोंने भरत से राजगु ओं का संदेश कहा । भरत यं कई िदनों से अयो ा के
िलए िच त थे । संदेश पाते ही वे निनहाल से िवदा लेकर श ु के साथ चल पड़े ।
आठव िदन उ ोंने अयो ापुरी म वेश िकया । वहां का हाल िविच था । चारों ओर
उदासी छाई थी । सड़कों पर झाडू तक नहीं लगी थी, हाट-बाज़ार ब थे, सभी
िदशाएं सूनी और भयानक लगती थीं । पुरवासीगण भरत को दे खते ही मुंह फेर लेते
थे । िकसी के चेहरे पर स ता नहीं िदखाई दे ती थी ।
भरत घबराए ए सीधे महाराज के भवन म गए । वहां उ न दे खकर वे कैकेयी
के महल म गए । कैकेयी ने दौड़कर भरत को गले से लगा िलया और अपने भाई-
बाप आिद का कुशल समाचार पूछा । भरत ने सं ेप म उ र दे कर पूछा–मां ,
िपताजी कहां ह?
कैकेयी बोली–बेटा, जीव मा की जो अ म गित होती है , तु ारे िपता उसी को
ा ए; अब वे इस संसार म नहीं रहे ।
इसे सुनते ही भरत पछाड़ खाकर िगर पड़े और फूट-फूटकर रोने लगे । कुछ दे र
बाद उ ोंने िफर पूछा–मां , बड़े भाई राम कहां ह?
कैकेयी ने कहा–बेटा! राम तो सीता-ल ण के साथ वन को चले गए । उन तीनों
को घर से िनकालकर तु ारे िपता ने उ ीं के िवयोग म ाण ाग िदया । अब तु ीं
कौसल रा के ामी हो… ।
यह सब सुनकर भरत को घोर दु :ख तथा आ य आ । उ ोंने माता से सब कुछ
बताने का आ ह िकया । तब कैकेयी ने सारा हाल कह सुनाया । अ म वह
धृ तापूवक बोली–बेटा भरत! मने यह सब तु ारे िलए ही िकया है ; अब तुम
महाराज का दाह-सं ार करके ठाठ से अयो ा के राजिसंहासन पर बैठी और
रा ल ी का उपभोग करो… ।
इन बातों से भरत के मन म रा के ित अनुराग के थान पर वैरा उ हो
गया । वे कैकेयी को िध ारते ए बोले–पािपनी! यह तूने ा िकया? तेरे कारण
इ ाकुवंश का गौरव ही न हो गया । िपतृ-तु राम का थान कौन ले सकता है !
वही इस कुल और रा के ामी होंगे । म उनका दास बनकर र गा... ।
भरत के आगमन का समाचार सुनकर रा के म ीगण भी वहां आ गए ।
सबके आगे भरत ने कैकेयी की भ ना करके कहा–म यो! म शपथपूवक कहता
ं िक मेरी मां ने जो कुछ िकया, उसम मेरा हाथ नहीं है ; म इन सब बातों को जानता
भी नहीं था ।
वहां से भरत कौश ा के पास गए और उनसे िलपटकर रोने लगे । सारी रात वे
िपता और बड़े भाई की याद करके रोते ही रहे । दू सरे िदन राजा दशरथ का शव तेल
म से िनकाला गया । भरत ने च न की िचता पर उनका दाह-सं ार िकया । उसके
बाद धूमधाम से राजा का ा आ।
ा के दू सरे िदन म यों और पुरोिहतों ने भरत से िसंहासन पर बैठने की
ाथना की । भरत ने कहा–म कुल धम के िवपरीत आचरण नहीं क ं गा । यह रा
मेरे बड़े भाई राम का है । म भी उ ीं का ं । मेरे ग य िपता के वही उ रािधकारी
ह । म सम लोक के क ाण के िलए उ वन से लौटा लाऊंगा ।
इसके बाद म यों से बोले–म कल ही भाई राम को मनाने जाऊंगा । मेरे साथ
सभी कुट ीजन, पुरोिहत और म गण जाएं गे । साथ-साथ अयो ा की चतुरंिगणी
सेना और जा भी चलेगी । आप लोग या ा की तैयारी कीिजए ।
भरत की िच कूट या ा–दू सरे िदन भरत राजसेना के साथ-साथ म यों,
राजप तों और रािनयों का दल तथा सह ों पुरवािसयों का समूह लेकर चल पड़े ।
हाथी-घोड़ों और रथ-पालिकयों का तां ता लग गया ।
चलते-चलते वे ृंगवेरपुर प ं चे और रात िबताने के िलए िटक गए । िनषादराज ने
दू र से उनकी सेना का पड़ाव दे खा । वह शंिकत होकर अपने सािथयों से बोला–
दे खो, तो यह अयो ा की चतुरंिगणी सेना जान पड़ती है । मुझे तो ऐसा लगता है िक
कैकेयीपु भरत रा -लोभवश राम को मारने जा रहा है । राम मेरे ामी और मेरे
िम ह । मेरे रहते कोई उनका अिन कैसे करे गा? मेरे सािथयों! यु के िलए तैयार
हो जाओ । हमारे पास पां च सौ नाव ह । ेक नाव म सौ-सौ श धारी युवक शी
बैठ जाएं । म आगे बढ़कर भेद लेता ं । यिद वे भातृ-भाव से राम के पास जाते होंगे
तो हम उ सहष जाने दगे; अ था आज इस गंगा के िकनारे हमारा उनका ाणा
सं ाम होगा । मेरा आदे श पाते ही तुम लोग भरत की सेना को आगे बढ़ने से रोक
दे ना ।
िनषादराज गुह अपने सैिनकों को कछार म िनयु करके यं भट साम ी
सिहत भरत से िमलने गया । भरत उससे बड़े ेम से िमले । दोनों म बात होने लगीं ।
भरत ने उससे राम का पता पूछा । गुह बोला–राजकुमार! म यं आपको उनके
पास प ं चा दुं गा; लेिकन आप इतनी बड़ी सेना लेकर ों जा रहे ह? राम के ित
आपके मन म कोई दु भावना तो नहीं है ?
भरत ने कहा–िनषादराज! म िपतृ-तु भाई को स ानपूवक वन से िलवाने जा
रहा ं ।
गुह की शंका िमट गई । वह भरत के पास बैठकर बात करने लगा । भरत उसके
साथ उस इं गुदी वृ के नीचे गए, जहां राम ने एक रात तीत की थी । उनकी
तृणश ा ों की ों बनी थी । उसे दे खते ही भरत का दय भर आया । रात म वे
यं उसी तृणश ा पर लेटे ।
ात:काल गुह की आ ा से पां च सी नाव घाट पर लगा दी गईं । भरत ने बरगद
के दू ध से अपनी जटा बनाई, व ल व घारण िकया । इसके बाद वे दल-बल
सिहत नदी के पार उतरे । वहां से उ ोंने गुह के साथ भर ाज के आ म की ओर
थान िकया ।
याग प ं चकर भरत महिष भार ाज से िमले । उनके साथ िवशाल सेना दे खकर
महिष को भी कुछ शंका ई । उ ोंने पूछा–भरत! चतुरंिगणी सेना के साथ तु यहां
आने की आव कता ों पड़ी? तुम वनवासी राम का अपकार तो नहीं करना
चाहते?
भरत ने आं खों म आं सू भरकर अपने आने का योजन बताया और उनसे राम के
िनवास- थान का पता पूछा । भार ाज का संदेह िमट गया । उ ोंने राम का पता
बताकर भरत के स ूण दल को उस िदन अपने पास ठहरा िलया । दू सरे िदन वे
लोग िच कूट की ओर चले ।
चलते-चलते वह महादल िच कूट के िनकट प ं चा । उसके कोलाहल से सारे
वन म हलचल मच गई । वन के जीव-ज ु इधर-उधर भागने लगे । दू र आकाश म
धुआं उठता िदखाई पड़ा वहां पर िकसी मनु के होने का अनुमान करके भरत
उसी ओर वेग से आगे बढ़े ।
इधर से राम ने पशु-पि यों को सहसा भागते दे खा । एक ओर आकाश म
अपर ार धूल उड़ती ई िदखाई पड़ी । धीरे -धीरे कोलाहल भी सुनाई पड़ने लगा ।
राम की आ ा से ल ण एक ल े वृ पर चढ़ गए और दू र तक ि दौड़ाकर
बोले–आय! सीता को िकसी सुरि त थान म बैठाकर शी धनुष-बाण उइाइए ।
अयो ा की चतुरंिगणी सेना जा फहराती चली आ रही है । िजस भरत के कारण
इतना अनथ आ, वही हम मारने आ रहा है । आज म उसको तथा केकेयी और
म रा को भी मारकर िच की ाला शा क ं गा… ।
यह कहकर उ वीर ल ण नीचे उतरे । कटु श ों म भरत की िन ा करते ए
यु के िलए स हो गए । उ अ उ ेिजत दे खकर राम ने कहा–ल ण!
यिद म िपता की इ ा के िव भरत को मारकर यं राजा बन जाऊं तो संसार म
मेरी बड़ी िन ा होगी । लोक-िन त राजा होने म ा गौरव है ! समु -पय पृ ी
का रा मेरे िलए दु लभ नहीं है , पर म अधम से इ -पद की भी आकां ा नहीं
करता । भरत भाव से ही साधु है ; वह िन य ही ेमवश मुझसे िमलने आता होगा ।
उसके साथ यिद तुम िकसी कार का दु वहार करोगे तो उसे म अपना अपमान
समझंगा । यिद केवल रा के कारण तु ारे मन म भाई के ित ऐसा दु भाव है तो
कही । म भरत से तु सारा रा िदलवा दू ं गा । वह मेरी बात नहीं टालेगा… ।
ल ण शा हो गए । उधर भरत अपने दल को वन म खड़ा करके यं श ु
के साथ आगे बढ़े और इधर-उधर दे खते ए राम की कुिटया के सामने प ं चे । महा
तेज ी राम महिष की भां ित एक चबूतरे पर िवराजमान थे । पास ही सीता और
ल ण भी बैठे थे । बड़े भाई को उस दशा म दे खकर भरत को बड़ी ािन ई । वे
ेम से िव ल होकर उनके चरण छूने दौड़े , लेिकन बीच ही म मूिचछत होकर िगर
पड़े । राम ने दौड़कर उ उठाया और छाती से लगा िलया । दोनों की आं खों से
आं सुओं की धारा बह चली । बड़े भाई का ेहािलंगन करके भरत और श ु सीता
और ल ण से िमले ।
राम ने िमलने के बाद ही भरत से िपता का हाल-चाल और उनके आने का
योजन पूछा । भरत रोते ए बोले–भैया! िपताजी तो आपके िवयोग म इस संसार से
चल बसे । यह सब मेरी दु ा माता के कारण आ । अब आप ही हम लोगों का
सहारा ह । आप अयो ा चलकर प रवार और रा को संभािलए । हम लोग यही
ाथना करने आए ह… ।
िपता की मृ ु का संवाद सुनकर राम कुछ णों के िलए रह गए, िफर रोते
ए बोले–भरत! यह मेरा दु भा है िक मेरे कारण िपताजी को ाण- ाग करना पड़ा
। अब तो म चौदह वष बाद ही वहां जाऊंगा… ।
इसके बाद राम अपने ग य िपता को ा िल दे ने म ािकनी नदी के िकनारे
गए । वहां इं गुदी के फलों से िप दान करके वे तः बोले–पू िपता! आज
आपको दे ने के िलए मेरे पास केवल यही है । आपका वनवासी पु यं िजस व ु
से जीवन-िनवाह करता है , उसी से आपको भी तृ करना चाहता है ।
इसके अन र राम अपनी पणकुटी म लौटे तो भरत के क ों पर हाथ रखकर
रोने लगे । उधर से विस के साथ राज-प रवार की यां भी वहां आ गई । राम
दौड़कर गु तथा माताओं के चरणों पर िगर पड़े । सीता और ल ण ने भी सबका
अिभवादन िकया ।
धीरे -धीरे वहां अयो ा का पूरा दल आ प ं चा । सबके बीच म भरत राम के
चरणों पर िसर रखकर कैकेयी के अपराधों के िलए मा मां गने लगे । उ ोंने अपने
को िनद ष बताते ए राम से अयो ा लौटने की ाथना की । राम ने उ दय से
लगाकर कहा–भाई भरत! जो कुछ आ है , उसके िलए म तु अथवा माता कैकेयी
को दोषी नहीं मानता । म अब माता-िपता की आ ा के अनुसार चौदह वष वन म ही
िनवास क ं गा । तुम भी िपताजी की आ ा का स ार करो… ।
इसके बाद राम अपने कुटु यों तथा पुरवािसयों से ेहपूवक िमले । िमलते-
िमलते रात बीत गई । दू सरे िदन भरत ने राम से लौटने का बड़ा आ ह िकया । वे
उनके पैर पकड़कर मनाने लगे, राम नहीं माने । उ ोंने कहा–भरत! हमारे
स ित िपता ने जैसी व था बां धी है , हम उसी के अनुसार काय करना चािहए ।
तुम जनसमुदाय के शासक बनो, म वन का राजा बनूगा । तु ारे ऊपर राजछ की
छाया हो, म वृ ों की छाया से संतोष क ं गा; श ु तु ारी सेवा सहायता करगे और
ल ण मेरी । हम चारों भाई अपना-अपना कत करके िपता के स -धम की र ा
कर, इसी म हमारा गौरव है ।
भरत ने पुनः िनवेदन िकया–भैया, जो कुछ हो रहा है , उससे लोक म मेरी बड़ी
अपकीित होगी । आप अयो ा चलकर रा कर, म आपके थान पर चौदह वष
वन म िनवास क ं गा । इसी िवचार से म यं जटा-चीर धारण करके यहां आया
…।
गु ओं, आ ीय जनों और पुरवािसयों ने भी ब त कहा, पर ु राम लौटने के
िलए तैयार नहीं ए । भरत अ तक अपने हठ पर अड़े रहे । तब राम ने उनसे
कहा–भरत! कदािचत् तु इस बात का पता नहीं है िक तु ारे नाना ने अपनी क ा
कैकेयी के िववाह के पूव िपताजी से यह वचन ले िलया था । िक उसके गभ से उ
पु ही राजिसंहासन का अिधकारी होगा । इसके अित र दे वासुर-सं ाम म
िपताजी ने माता कैकेयी को दो वर दान िकए थे । एक से उसने तु ारे िलए रा
और दू सरे से मेरे िलए वनवास मां गा है । ऐसी दशा म महाराज के वचन का मान
होना ही चािहए । तुम अयो ा जाकर रा करो, म तु शु दय से आशीवाद
दे ता ं …
सब लोग हताश हो गए । तब महाना क िव र जाबािल राम से बोले–राम!
आप बु मान् होकर भी धम के ढकोसले म ों पड़ते ह! राजा दशरथ के धम की
र ा के िलए अपनी हािन करना, अपना राजपाट छोड़कर वन म क भोगना कोरी
मूखता है । आप अपना ाथ दे खए, धम और स के पचड़े म न पिड़ए । संसार म
कोई िकसी का माता-िपता, भाई या सगा-स ी नहीं है । शु शोिणत के संयोग से
जीव अकेला उ होता है , अकेला ही मरता है । दशरथ से आप सवथा िभ ह ।
उनका अब पृ ी पर कोई अ ब नहीं है । इसिलए उनके ित ा िदखाना,
िप दान करना थ है । भला मरा आ आदमी भी कहीं खा सकता है ! आप जो
कुछ है उसी को स मािनए, परो म िव ास न कीिजए । अब दशरथ के
जीवन के साथ उनकी सभी बात समा हो गई, उनका-आपका ा नाता? आप
इस झूठे स को भूल जाइए और ठाठ से चलकर रा कीिजए, मनमाना सुख
भोिगए । बार-बार यह शरीर नहीं िमलता… ।
जाबािल का यह धम-िव लाप राम को ि य नहीं लगा । वे होकर बोले–
महष! म ऐसा मयादारिहत आचरण नहीं कर सकता । यिद म ही े ाचारी हो
जाऊंगा तो मेरे पीछे सभी छ हो जाएं गे, ोंिक राजा का जैसा आचरण होता है ,
वैसा ही जा का भी हो जाता है । आपके बताए ए माग पर चलने से मेरा ही नहीं,
सारे लोक का पतन हो जाएगा । म िवषम से िवषम प र थित म भी स को नहीं
छोडूगा, ोंिक स पर ही यह लोक िटका है ; स म ही धम की थित है और
स ही ई र है । रा के िलए स और धम को ाग दे ने से संसार म मेरी ा
ित ा रहे गी? इस कमभूिम म आकर मनु को सदा शुभ काय ही करने चािहए…
।
इसे सुनकर महिष जाबािल ने कहा–राम! अयो ावािसयों को अ दु :खी
दे खकर मने केवल आपको लौटाने के िवचार से ही ऐसा कहा था, आप जैसा उिचत
समझे वैसा कर ।
महिष विस ने भी राम से लौटने का अनुरोध िकया । भरत अपने हठ पर ही
अड़े थे । राम िकसी तरह नहीं माने । अ म भरत उनकी पादु काओं को पकड़कर
बोले–अ ा भैया! अपनी ये पादु काएं मुझे दे दीिजए, म इ ीं को लेकर यहां से चला
जाऊंगा । जब तक आप नहीं लौटगे, म मुिन त धारण करके नगर के बाहर र ं गा
और इन पादु काओं को आगे रखकर वहीं से राजकाज चलाऊंगा । यिद आप चौदह
वष बीतते ही न आएं गे तो म अि म जलकर ाण दे दू ं गा ।
राम ने अपनी पादु काएं दे दीं और भरत को छाती से लगाकर कहा–भरत! अब
तुम सबको लेकर लौट जाओ । तु मेरी और सीता की शपथ है , कभी माता कैकेयी
के साथ िकसी कार का दु वहार न करना । म चौदह वष बीतते ही अव लौट
आऊंगा ।
इसके बाद राम ने माताओं और गु जनों को अ म णाम िकया, सबको
अ ुपूण ने ों से दे खा । उनका गला ऐसा ं ध गया िक वे िबना बोले ही रोते ए कुटी
के भीतर चले गए । सीता और ल ण ने भी रोते ए सबका अिभवादन िकया । सब
लोग वहां से रोते ए लौट गए ।
भरत दल-बल सिहत अयो ा लौटे । वे वहां से राम की पादु काओं को िसर पर
रखकर राजधानी के बाहर न ाम नामक थान म िनवास करने गए । म यों,
पुरोिहतों और जाजनों के आगे उन पादु काओं को िसंहासन पर थािपत करके
उ ोंने कहा–अयो ावािसयों! हमारे -आपके िलए ये पिव पादु काएं राम के चरणों
की भां ित ही व नीय ह । इनके भाव से रा म धम थािपत रहे गा । यह रा
मेरा नहीं, मेरे बड़े भाई राम का है । म इसे उनकी धरोहर मानकर य से संभालूगा ।
मेरी मां के कारण मेरे ऊपर जो कलंक लगा है , उसे िमटाने के िलए म इसी ाम म
बैठकर चौदह वष तक तप क ं गा । धमा ा राम की चरण-पादु का मेरा पथ-
दशन करगी… ।
राम की पादु काओं पर छ -चंवर आिद लगाए गए । जटा-चीरधारी महा ा भरत
सां सा रक सुख-वैभव से स ास लेकर न ाम म बस गए और वहीं से राम के नाम
पर राज-काज चलाने लगे ।
राम का िच कूट से थान–भरत के चले जाने के बाद राम ने दे खा िक वहां के
ब त-से तप ी अपना-अपना आ म छोड़कर कहीं और जाने की तैयारी म ह ।
उ ोंने एक वृ तप ी से इसका कारण पूछा । वह बोला–राम! आपके यहां रहने
से रा सराज रावण का चचेरा भाई खर शंिकत हो गया है और जन थान1 के
तप यों पर घोर अ ाचार कर रहा है । हम लोग उसी के भय से भाग रहे ह । आप
यहां से चले जाते तो हम लोगों का बड़ा उपकार होता ।
राम पहले से ही अ जाने का िवचार कर रहे थे ोंिक वहां के एक-एक थान
को दे खकर उ ेही जनों की याद आती थी और वे मोह से ाकुल हो जाते थे ।
दू सरे , भरत की सेना के िटकने के कारण वह थान हाथी-घोड़ों के मल-मू से ब त
गंदा हो गया था । इन सब कारणों से उ वह थान छोड़ना पड़ा ।
1. वतमान महारा
अर का
उपसंहार
*
भृ ापरा धे सव ािमनोद इ ते ।
प रिश -2
भगवान वा ीिक
—अर का
(धम से ही धन, सुख तथा सब कुछ ा होता है । इस संसार म धम ही सार
व ु है ।)
—अयो ाका
(स ही संसार म ई र है , धम भी स के ही आि त है ; स ही सम भव-
िवभव का मूल है ; स से बढ़कर और कुछ नहीं है ।)
—अयो ाका
(दशरथ कौश ा से–हे क ािण! मनु जैसा भी अ ा या बुरा कम करता है ,
उसे वैसा ही फल िमलता है । कता को अपने कम का फल अव भोगना पड़ता
है –“जो जस क रअ सो तस फल चाखा ।”)
अिव ान फलं यो िह कम ेवनुधावित ।
स सोचे लवेलायां यथा िकंशुकसेवकः॥
—अयो ाका
(जो मनु िबना प रणाम पर िवचार िकए ही आं ख मूंदकर काम करता है वह
बाद म–फल ा के समय–पलाश वृ की सेवा करने वाले की तरह पछताता है –
उसका म सफल नहीं होता ।
—अयो ाका
(िजसके आ य म अनेक पु ष जीते ह उसी का जीवन साथक है , जो दू सरों के
सहारे जीता है , उस असमथ-परावल ी का जीना न जीने के समान है ।
—िक ाका
(िकसी को जब ब त िदनों तक अ िधक दु :ख भोगने के बाद महान् सुख
िमलता है तो उसे िव ािम मुिन की भां ित समय का ान नहीं रहता–सुख का
अिधक समय भी थोड़ा ही जान पड़ता है ।)
—सु रका
(उ ाह ही मनु को सदा सब काय म वृ करता है । उ ाह ही जीव के
ेक काय को सफल बनाता है ।)
—िक ाका
(जो मनु परा म िदखाने के अवसर पर िवषाद होता है , उसका आ तेज
न हो जाता है और पु षाथ िस नहीं होता ।)
िन ाह दीन शोकपयाकुला न: ।
सवाथा वसीद सनं चािधग ित॥
—यु का
(उ ाहहीन, दीन और शोकाकुल मनु के सभी काम िबगड़ जाते ह; वह घोर
िवपि म फंस जाता है ।)
—िक ाका
(शोक मनु ों को कभी सुख नहीं िमलता ।)
शोक: शौयापकषणः ।
—यु का
(शोक मनु के शौय को न कर दे ता है ।)
—सु रका
( ोध की दशा म मनु को कहने और न कहने यो बातों का िववेक नहीं
रहता । कु मनु कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके
िलए कुछ भी अकाय और अवा नहीं है ।)
—यु का
(पराया मनु भले ही गुणवान् हो तथा जन सवथा गुणहीन ही ों न हो,
लेिकन गुणी परजन से गुणहीन जन ही भला होता है । अपना तो अपना है और
पराया पराया ही रहता है ।)
—िक ाका
(उपकार करना िम ता का ल ण है और अपकार करना श ुता का ।)
—िक ाका
(िम ता करना सहज है लेिकन उसको िनभाना किठन है ।)
आ तो वािप द र ो वा दु ः खत सु खतोऽिपवा ।
िनद ष सदोष वय ः परमा गित:॥
—िक ाका
(चाहे धनी हो या िनधन, दु :खी हो या सुखी, िनद ष हो या सदोष–िम ही मनु
का सबसे बड़ा सहारा होता है ।)
वसे ह सप ेन ु े नाशुिवषेण च ।
न तु िम वादे न संवसे ु सेिवना॥
—यु ख
(श ु और ु महािवषधर सप के साथ भले ही रह, पर ऐसे मनु के साथ
कभी न रह जो ऊपर से तो िम कहलाता हो, लेिकन भीतर-भीतर श ु का
िहतसाधक हो ।)
—बालक
—िक ाका
(मृ ु-पूव बािल ने अपने पु अंगद को यह अ म उपदे श िदया था–तुम िकसी
से अिधक ेम या अिधक वैर न करना, ोंिक दोनों ही अ अिन कारक होते
ह, सदा म म माग का ही अवल न करना ।)
—अयो ाका
(यिद गु भी मादवश क -अक का िवचार छोड़ दे और कुमागगामी
हो जाए तो उसे भी द दे ना आव क है ।)
—अयो ाका
(िम ा अपराधों के िलए द त िनद ष यों के ने ों से जो अ ु िगरते ह, वे
े ाचारी शासक का सवनाश कर डालते ह ।)
—यु का
(पु षाथ ही शूरवीर कहलाता है ।)
—यु का
(शूर लोग जल-शू बादलों की भां ित थ नहीं गरजते ।)
सव च िव ित ।
—यु का
( ोधी पु ष से सभी डरते ह ।)
मृदुिह प रभूयते ।
—अयो ाका
(मृदु पु ष का अनादर होता है ।)
यु िस िह च ला ।
—सु रक
(यु म सफलता अिनि त होती है ।)
भावो दु रित मः ।
—यु का
( भाव का अित मण किठन है ।)