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{ कुद्धज्त ककः तन्ः कः )

विणा मारोचकश्यपेनोपदिष्ठ
तच्चरण दुद [चर्ण सात्म्य वसचता

तद्धश्येन वात्स्येन प्रतिसस्छृता।


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नेयालराजरारुरणा षं० हेमराजशम॑सा


र्खितेन
विस्ततन उपाद्धातेन सिता
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अायुकेदालङर श्रीसत्यपाल भेषगाचायं-


छतथा
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विन्योतिनीः' दिन्दीत्याख्यया, उपद्धातहन्दी-
भाषानुचवादेन च
समुदसिता ।
नलति
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` चोखम्बा-संस्करत-सीरिज, वनारस-
से

सन्‌. १९५द्‌
प्रकाशकः--
जथकूष्णदास हरिदास गु
चौखम्बा संस्कृत सीरिज्न आफिस,
पो० बाक्स नं० ८; बनारस ।

पुनसुद्णादिकाः सर्वेऽधिकाराः प्रकाशकाधीनाः


वि० संचत्‌ २०१०५

खद्रकः--
विधाविलास प्रेस,
ननारस-१
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पाठकों के सम्मुख आयुवेद के प्राचीन भ्रन्थ काश्यपसंहिता का हिन्दी अनुवाद उपस्थितं करते हुए
मुञ्चे प्रसन्नता है । अनुवादक के सामते प्रधान दृष्टिकोण प्रन्थ के सूल विषयक स्पष्ट करना होता है । साथ
ही विषय का व्यतिक्रम न हो यद भी उप्ते भ्यान मेँ रखना पड़ता है । इन दोनों बातों का सामञ्खस्य रखने
का मने अपनी ओर से यथाशक्ति प्रयत्न किया है । काश्यपसंहिता आयुर्वेद का एक अस्यन्त प्राचीन प्रन्थ हैः |
यह्‌ चरक तथा सुश्रुत का ही समकन्न माना जता है । इसकी उपलब्धि नेपाल मँ अभीतक खरिडितरूप
मेदी हई है। कालक्रम से मरि अनेक प्राचीन आयुर्वेदिक तथा अन्य प्रन्थ मी रिलु्र हो चुके हैँ । इन
बिद म्रन्थो मे से जो अनेक मन्थ समय २ पर उपलब्ध हुए हँ उन्दी मेँ से काश्यपपंदिता भी एक हे।
यद्यपि यद्‌ ग्रन्थ अभी तक पूणक्प से न शं मिला हैःतथापि जजरित एषं खरिडित रूप में उपलब्ध होने पर
मी यह्‌ हमर महान्‌ आयुर्द कोपर की अप्रूल्य निधि समी जानी चाहिये तथा समय प्रबाहु से भविष्य मं
इस मन्थ के अ्रशिष्ट अंशो की उपलब्धि की आशा भी रखनी चाहिये । |
इस न्थ का मुख्य विपय कोमारथत्य हे अर्थात्‌ इसमे वालको के रोगः उनका पालन पोषण, स्तन्य-
शोधन एं धात्रीचिकित्सा आदि का विशद वणेन मिलता हे । कोमारशरत्य अष्टाङ्ग आयुर्वेद का एक अवि.
भासय अङ्क है । इसके अभाव मे अष्टाङ्ग आयुत्रद पूण नदीं कहा जा सकता । जिस प्रकार आयुवेद के आठ
अङ्गो मे से इस समय शालाक्यः पिष, तथा मूतविद्या आदि केवल नाममात्र को ही अशिष्ट है उसी प्रकार
अरङ्ग आयु्ैद का कौ मारभरस्य सम्बन्धी विषय भी इस भ्न्थ के उपलब्ध होने से प्तक केवल नाममात्र को
हीथा। इस कोमारभ्रूव्य का प्रधान स्माचायं जीवक माना जाता है। अभी तक इस जीवक का कोई भी
विरोष परिचय हमे उपलव्य नदीं था । इस न्थ के उपलब्ध दो जाने से जीवक के विषय म भी हमें अनेक
प्रकार का ज्ञान मिल जाता दै । इससे उसके पिता, जन्मस्थान एवे आचाय का परिचय मिलता है । कौमार-
भ्रत्य के प्रधान आचाय जीवक, तथा इस संहिता के विषय मे उपोद्धात भे विशेष वणेन किया गया है ।
इसके विषय मेँ मुञ्चे पुनः धिशेष करं नदीं कहना दै । इस पन्थ मँ बालकों के विषय मँ अनेक देसी बातें
दीद दै जो अन्य प्राचीन आयुर्वद्विक प्रन मेँ साधास्मतया देखने को नहीं मिलती ह । उदाहरण के लिये
वालको के लेहन, सल्निपात, फक्षरोग आदि का इसमे विशेष वणेन किया गया है । बालकों के दन्तोर्पत्ति
का इतना विशद वर्णन अन्यत्र कदी नहीं मिलता हे । स््रेदन के भरकरण मे अत्यन्त चयोदे बालकों के लिये
अन्य स्वरेदो क साश्र विशेषरूपं से दस्तस््ेद का विधान दिया गया ह । हस्तस्रेद्‌ से अभिप्राय हाथों को गमं
करके उनके द्वारा स्रेदन दने से द ।द्धोदे बालक अत्यन्त नाज्जुक होते हँ । थोड़ी सी भी अधिक गरमी से
बालकों के उष्णता के कन्दर विचलित हो जति हँ इस लिये उन्हं स्वेदन अध्यन्त सावधानी से देने की
द्रावश्यकता होती है । दस्तस्ेद से यह भय नहीं रहता, इसमें हार्थो द्वारा उष्णता का नियन्त्रण सुविधापूेक
किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त अन्य अन्था मे संच्तेप मँ दिये हुए वेदनाध्यायः लक्तणाध्याय, बालग्रह
आदि का इसमे धिशद घर्णन किया गया है । रक्तगुल्म तथा गभ॑ में प्रायः श्रम उत्पन्न हो जातादै। इनकी
सेदक परीद्धा इस दिता मे अयन्त विस्तार से दी गईं ह । विषम च्वरके वेगों के विषय में यहां एक्‌
विलङ्कल नवीन शंका उपरिथत करके उसका युक्ति पृक बड़ा सुन्दर उत्तर दिया गया हे । विषमञ्वर के
अन्येयष्क, तृतीयक तथा चतु्क के समान अन्य भेद क्यों नदीं होते १ अर्थात्‌ जिस प्रकार विषमञ्वर्‌ प्रति-
दिन, तीसरे दिन एं चौथे दिन होता है उसी प्रकार पांचवें तथा छठे दिन भी इसके वेग स्यो नहीं होते १ ¦
इसका उत्तर दिया हैः कि इस वरिषसञ्यर के आमाशय, छाती; कर्ठ तथा सिरयेचारदही स्थान द । इनके
अतिरिक्त इतका कोट स्थान नदीं है । इसलिये अन्य स्थानामाप्र से इसके अन्य वेग नहीं होते ह । इन
उपर्युक्त स्थानो मे से आमाश्यमें दर्प के पहुंचने परञ्र का वेगहोतादहे। एकस्थान से दृत्तरे स्थान
तक दोप को प्ुचने मे एक अदोरात्र लगता है अर्थात्‌ अन्पेद्युष्क का स्थान षछछाती हैः। हाती सेआमाशय
तक दोप पहनने मे एक अहोरात्र लगता दै । इप्तलिये अन्येयुष्क का वेग र४्षंटेमं होता । ठृतीयक
का स्थान कर्ठ माना गया है । करट से द्याती तक एक अहोरात्र तथा हावी से आमाशय तक पहुंचने मँ
( २)
` दृखरा अहोरात्र लगता ह इसलिये तृतीयक का वेग तीसरे दिन होता है । इसी प्रकार चतुर्थक का स्थानं
सिर दः । उसे आमाशय तक पहं चने मे तीन अहोयत्र लगते ह अर्थात्‌ चतुथेक का वेग चौथे दिन होता दै ।
इनके अतिरिक्त धिषमञ्वर का कोई श्थान नहीं हे इसलिये चौथे दिन कै बाद इसका कोटं वेग नीं
होता ह । यद्‌ अयन्त युक्तिसंगत उत्तर दिया गया हे । इसी प्रकार अन्य भी बहुत से नवीन षिषय इस
संहिता मेँ दृष्टिगोचर होते दै । इस प्रकार संपूणं रष्ियां से कौमारश्रूत्य के विषय में यह्‌ एक पूणं प्रामाणिक
ग्रन्थ माना जा सकता दै । अनेक वर्षो से मेरौ इच्छा इसके अनुवाद करने की थी । चोखम्बा संस्कृत पुस्तकालय
के उ्यवस्थापकां के सस्मयत्नों से उस इच्छा को पूणे कर्ने का अवसर मद्ये उपलन्ध हो गया । इस भ्रन्थ
के साथ राजगुरु हेमराज जी ने जो एकर अत्यन्त षिद्रत्तापूणे एवं सारगर्भित उपोद्धात लिख दिया है उससे तो
इस भरन्थ की उपादेयता ओर मी बद गर हे । इसमे आयुर्वेद का विस्ठृत इतिहास एवं विकासक्रम दिया गया दै
तथा आयुर्वेद के प्रधान भ्न्थों एवं उनके आचार्या का भी विस्तृत विवेचन किया गया है । परन्तु यह्‌
उपोद्धात संस्कत भाषा मे लिखा होने से आयुवेद के अनेक एसे प्रेमी; जो संस्कृत से अनभिज्ञ &ै, इससे
विरेष लाभ नदी उठा पाते, इसी लिये इस संहिता के अनुवाद का प्रशन जब मेरे सामने आया तो मूल भन्थ
के साथ २ उपोद्धात का अतुवाद्‌ करना भी गने आवश्यक समा, इससे यदपि ग्रन्थ का कलेवर अधश्य बद्‌
गया है परन्तु इससे इसकी उपयोगिता निर्विवाद्‌ बद्‌ गह है ।
| | € € ॥
पुञ्य हेमराज जी ने सहषं अत्यन्त उदारतापूषेक प्रकाशक को सानुवाद्‌ उपोद्धात दापने की खीषरति प्रदान
करदी इसके लिये मैँ तथा प्रकाशक उनके अत्यन्त आभारी हे । चौखम्बा संस्कत पुस्तकालय के उयवस्थापक
श्री जयकृष्णदास हरिदासजी गप्र मी अत्यन्त घन्यवाद्‌ के पात्र हैँ जिन्होने इस महान्‌ अथे-संकट काल मेँ
भी आर्थिक लोलुपता से चिरत होकर सेवाभाव से दी इस भरन्थ का प्रकाशन कर आयुर्वेद जगत की एक महान्‌
तति की पूतिकरदी है| श्री अत्रिदरेवजी गप्र का मँ अस्यन्त आभारी द्रुं उन्दींकी निरन्तर प्रेरणा का
फल है कि मै आप लोगों के सम्मुख इसका अनुघाद उपरिथत कर सका हूं, उनको भँ धन्यवाद तो नही
दे सक्ता क्योकिवे मेरे गुरु । काश्यपसंहिता का अनुवाद करना मेरे लिये सरल नदीं था क्योकि
यह एक अत्यन्त प्राचीन भ्रन्थ ह जिसमे स्थान २ परं अनेक तिषय एवं शच्द एेसे आये हुए है जो बिलकुल
अप्रसिद्ध एवं अस्पष्ट है । इनके अतिरिक्त सबसे अधिक कटिनाई जो थी वह्‌ यद्‌ फि यह्‌ मन्थ स्थान २
पर खण्डित अवस्था मेँ हे । इन कठिनाइयों के होते हुए भी प्रकाशक के द्वारा निरन्तर प्रोत्साहन मिलते
रहने से दी मै इस काये को पूणं कर सका हँ अतः म उनका अत्यन्त कृतज्ञ हं |
इस संहिता के अनुबाद काय मे सज्ञे बहुत से व्यक्तियों से अत्यन्त श्चमूल्य सहायता प्राप्न हुई दै
उनको भै हृदय से धन्यवाद देता द्रं । गुरुकुल आयुर्वेद महाविद्यालय के वयोवृद्ध उपाध्याय श्री कतिराज
हरिदास जी शाद्धी न्यायतीथे का भँ अत्यन्त आभारी ह्रंजिनसे सुद्धे समय २ पर बहुमूल्य सहायता मिलती
रही है । श्री पं० हरिदत्त जी वेदालङ्कारः श्री पं० रामनाथ जी वेदालङ्कार तथा श्री पठ शंकरदेव जी विद्या
लङ्कार को भी भँ धन्यवाद देता हंइनसे श हर प्रकार की सहायता प्राप्त होती रही है । ऋषिुल आयुर्वेद
कालेज के विद्यार्थी छऋषिप्रकाश को भी हम धन्यवाद्‌ दिये निना नहीं रह सकते जिन्होनि हमारे इस
काये मे अत्यन्त सहयोग प्रदान किया । अन्त मँ सुञ्चे अपनी धमेपतंनी श्रीमती सुशीलादेवी को भी अवश्य
धन्यवाद देना चाहिये जिनकी आत्मिक सदायता एवं इच्छाशक्ति के चिना यह्‌ कायं पुरा नहीं हो सकता था ।
` अन्त मेँ हिन्दी अनुबाद के विषय मँ भँइतना अवश्य कह देना चाहता ह कि इस संहिता में क एेसे
विषय आये हुए हँ जो अत्यन्तं अस्पष्ठ एवं संद्ग्ध द । बहुत प्रयत्न करने पर भी मै उनको स्पष्ट नहीं कर
सका ह । उन संदिग्ध स्थलों का हमने अन्य करई बद्ध वेदयो के निरदेशानुसार केवल शब्दानुवाद्‌ मात्र कर दिया
है । विद्धान्‌ पाठक उन संदिग्ध स्थलों के विषय मेँ मुञ्चे अपने धिचार लिख सदे तो उनका आभारी
होते हुए उन स्थलों का अगले संस्करण मे स्पष्ट करने का प्रयत्न करूंगा |
धस एतीय, ग. नितेद्क--
. विर संनत्‌ २०१५ ~ .. सत्यपाल आयुरवेदालङ्कार
सेस्कृत-उपोद्धातस्य संक्चिक्षा विषयानुक्रमणिका
विषयाः विषया
उपोद्धातप्रस्तात्ः त्र देशविशेषनिदेशः “° ° ००
९ सोपक्रप श्रायुषेदपरिच्छेदः | & भारतीयभेषन्यसमर्थनपरिच्छेदः ।
श्रायुवे द विषयोपन्थास भारतीयभैषज्यविदयायाः पाचीनत्वम्‌" ˆ ` ...
्रायुवद्स्य प्राचीनत्वम्‌ हिपोक्रिटससम्बन्धी विमशैः ~°* .,,
श्रायुर्चेदः ग्रीसःरतीयवेद्यकयोः मायिको विषयस॑वाद्‌्ः -* `
वेदायुचदयोः संबन्धः म्राचीनप्रीसवेयकसंप्रदायाः --
वेदे श्रायुवंदीया चिषयाः # #
यवनेभारती पविषयाणातुपादानम्‌
२ श्रा जाय पर्डि>ढो ग्रन्थवस्चिग्रसहितः। भारतीयविदुषां भ्रीसोपगमः “``
श्रायुवेंदस्य प्रकाशः, श्राचार्यश्च , #
ॐ @ @
्मलेवजेन्डरद्रारा भारतालेकःसारः
त्रेय -श्रुतपंहिते ˆ" भारताक्ेकश्रसारे शोकशिलालेखः ` ˆ ˆ
मेडसंहिता ग्रीसभारतयोः पुराकालात्‌ संबन्धः * ˆ *
हारीतसंहिता ` ग्रीसे शच्वेयकस्य पश्चात्‌ प्रचारः ` *“
नचोपलब्धेय काश्यपसंहिता प्राचीनमिघ्रे मेषज्यविक्ञानम्‌
कश्यपस्य विमशंः असीरियबेविलोनिययोः पूं भेषज्यज्ञानम्‌
जीवकस्य विमशंः ` * मिभ्रवेबिल्लोनियेरानचीनेषु भारतीयशब्दादिसाम्यम्‌
वातस्य पाचीनभारतस्य देशान्तरसंबन्धः ` * ...
प्रसद्रस्रतानि श्माचार्यान्तराणि `" ` न्वन्तर्थादीनां पौक॑कलिकता `ˆ -**
धन्वन्तरिर्दिवोदासश्व भारतीयखोतसो देशक्नालव्या्तिः ˆ". `"
सुतः ,..
पौष्कलावतकरवीय)रधायाचार्येष वितकंः ``ˆ
द्मात्रेयः “““ २ ५ <
द्मरधिवेशः हि *
चरकः ... ,+ भारतीयभूगभ॑तः प्राचीन मेषज्यदृ्टिः -
प्राचीनतत्तरेशभेषज्यविमशंस्यावश्यकता ˆ**
वार्योविद्‌-दार्चाट-नग्नजिद्‌-भेडा |
रसम्रन्था + ५ उपसंहारपरिख्तेदः।
म्राचीनाचार्याणां गौरवासुसंघानम्‌
२ संस्कार्त॒लनादिसखदहितो बिषयपरिच्छैद
प्राचीनग्रन्थानां विलोपो रक्षा च `“
ग्रतिसस्कार ““° ५५२
मेपालग्रन्थमालायाः प्रथमप्रकाशः
अस्य भ्रन्थ्य संहितात्वं तन्त्रत्वं च 1 श
६२ साहाप्यसमादरः `“ " ““
करयपात्रेयमेडख॒श्रुतम्रन्थानां ठलनाविमशंः 1, परिरिप्‌।
मस्य म्रन्थस्य चिषयः
# न शै
६५ ज्वरसमुचये काश्यपसंहितायाः श्लोकर्सवादः

काडरयपसटिताश्गं समागतान्याचायान्तर.णां नामानि


नाम. पु. नाम. |
गार्थः ५०७ ` ` ००, ००१
दाश्चाहः २२
माठरः ,.५ ... .,,
भागवः ्रमितिः ` "` २९
भत्रे पुनः ,,. „० =*
वार्योविद: |
पाराशयंः "“" `“ " “*“
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काङ्कायनः " “^ 1, सलः ... ,,. -.,


कृष्णो भरदाजः “" (6,
वृद्धकाश्यपः `“ " " “ “*"
दिरण्याक्षः (1, वैदेष्ो जनकः ५०० ०» ५ ००५

वैदेहो निमिः (0,


वात्स्यः ` *** 9 9 2 त ।

धन्वन्तरिः ^ "°
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्मनायासो यक्षः 9० ७ (ह) ^ १ $
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सा श्तु ५८ १५ ५44५१९५६
५. लाकावनणन्न
प ।
॥*' पो कोति पुनेन

विषय ° |विषय . ` | पू०


उपोद्धात प्रस्ताव `“ " ' ७ भातीय मेषज्य सपमरथन परिर्चेद्‌ ।
९ सोपक्रस श्राय॒वद्‌ परि्दिद्‌ । भ्यरतीय चिकित्सा का वणन ' " ““ . ७२
उपक्रम सित श्रायर्वेद सम्बन्धी विवरण १ हिपोक्रिरक्त सम्बन्धी विचार "”“ ८२
श्मायर्चैद की प्राचीनता | २ ग्रस तथा मारत कौ चिक्रिला मे समानताएं `“ ८४
प्रायुचेद | # प्राचीन ग्रीप वेयक संप्रदाय -** ९०
वेद तथा श्मयुैद का परस्पर सम्बन्ध ˆ" > ययन द्वारा सारतीय विषयो का ग्रहण "*“ ९२
वेद में रायुद सम्बन्धी विषय ^“° ५, स्परतौय द्िद्रानो करा ग्रीस में जाना ˆ““ ' ६४
2 ग्रन्थपरियय सहित शाचायं परिचयं लेग्जेण्डर द्वारा <स्तीयज्ञान का प्रपारं "८" ९५
प्रायु्वैद्‌ का प्रकाश शओरौर आाचायं | ११ भारतीय श्मालेकके म्रसारमे अ्रशक.-के.शिलासेख का स्थान९७
द्मात्रेय तथा सुश्रुत संदिताएं “° १४ ग्रीस तथा मारत का प्राचीन काल से सम्बन्ध 7* ९८
मेड संदिता “" “* १५ म्री मं शद्चिक्रिःसाका वाद्में प्रचार “ˆ १००
टारीत „, "** "^, सीरिया तथा वेविललोनिया में प्राचीन काल्ञ सें
नवीनोपलय्ध काश्यप सरिता" ˆ [र सेषज्य विषयक ज्ञान ˆ“ "** १०४
कश्यप सम्बन्धी विमशं "** ` "° “ १६ मिघ्र, वविङ्ेनिया, रान, चीन शादि दैशासं
जीवक सम्बन्धी विवार "*" `" २१ ६ (रतीय शब्दा करा स्प नि ५,
वातस्य निहपण , "“ “ २३ प्रायीन : रत कराच्यन्य दंशा 7 सथ दम्वन्ध्‌ः*“ १०५
म्रसदवश निदष्ट अन्य आचार्यों कादिवरण `“ २८ धन्वःतर्‌ सादिया कौ प्राचीनता “** १०७
धन्वन्तरि तथा दिवोदास `" “*" र, प्रत्येक देथ तथा कालमें भरतीव्र खोता करौ व्याप्नि १०८
युत | “^ ^ ३२ पौप्कलावत, कर्रीये तथा अमौरप्रं प्रादि स्ाचार्याके
द्मात्रेय | ००, ++ 9 । ३६
विषय में चिचार "“" >
द्रभिवेश # # क र 9 । र ५
वेदिक सािरयमूलक मारतीय मेषस्य ११२ |
चरका --* ` ^ , भारतीय भगम के यनुसनार प्राचान मैषस्यविषयक विमश्वं ११२
चायोर्विद, दारुवाह, नप्नजित्‌ तथा भंड ""“ ५१ भिन्नर् देशोके प्राचीन भषञ्यके चिमर की ्माचश्यरक्ता११४
रघ > ग्रन्थ ` “* ५२ ५ उपसदा परिच्द्‌।
२ संस्कःण. को तुलना तथा तत्सम्बन्धी विषय प्राचीन श्राचार्यो क्रा गौर -“*, ११५
्रतिस॑स्कार ५३ प्राचौन मन्थोकालेपश्चौर उनक्रौरशा ˆ“ ११६
इस ग्रन्थ का संहितात्व तथाः तन्त्रह्व ` ˆ" ६३, रपा ग्रन्थमाला का प्रथम प्रकाश ““* ११८
कश्यप, श्रात्रेय, मेड तथा पुश्चुत के ग्रन्था की परस्पर तुलना ४ छरतज्ञता भरकाशन """ "“ " ,
इस मन्थ का विषय "“ “** ६७ परिशिष्ट |
इस मेँध्याये हृए देशो काचणेन "** ७० ज्वरसमुचय मेँ काश्यपसंदिता के मिलने चाले श्लोकं १२०

प्राप्तस्यानम्‌
चाछम्बा-सस्कत-इरतकाटय
पो० वा० नं० ८, बनारस-
आयुष्यास्नायमास्नाय नानोन्मेपेर्विवध्यं च |
जगतः श्रेयसे सक्ताः स्मरणीया दयामयाः ॥ १ ॥
यस्ातिभरसासिक्त आयुषदमहातसरू ।
फलत्यय्ापि जगति महात्मानो जयन्ति ते ॥ २॥

( १ ) सोपक्रमं आयुवेदपरिच्छेदः--
ए +

यस्किमपि प्रे्ञावता पुरः प्रदश्य॑मानं किमिदं किमथंमितीद.


प्रथमां निन्ञासां स्वतः समुत्थापयति । यावद्धि
उपोद्धात तन्नावगम्यते तावन्न प्रवतंते सविकेषा दृष्टिः | निश्वप्रचमेवेदं विपश्चितां सुखमेव परमः पुरूषाथं इति ।
तर्च सुखं दुःखनिच्रत्यात्मकं दुःखविरोधिभा-
परीत्तक्छणाम्‌ खामान्यतोऽवगते विरेषलिज्ञा- |
सोन्मुखीकरोति खोकान्‌ । सति हि बाह्ये सामा- | भरायुचद्‌- वान्तः वेति द्विधा निरूप्यते विह्वद्धिः । उभय-
न्यविक्लानेऽमीप्सितमरथसुपादातुं, जिहासितमपार्थं च परिह | विषयो- थाऽपि तष्टम्धये सवषां समीहा । सति हि
कद्पते रोकः । तामेतामादिमाकाङन्ं प्रशमयितुं ज्ञाखादावनुब- | पन्यासः दुःखे तन्निचरत्तिर्वां सुखं वा नोदेतु प्रमवतिं ।
न्धनिरदेशवस्मस्तुतम्रन्थसम्बन्धिनोऽन्तरङ्गान्‌ बहिरङ्शच कश्चन | दुभ्खं नाम बाधनालक्षणं सर्वाधिकमप्रियं
विशेषतो निरीरहिताय्‌ विषयान्‌. भूमिकाप्रस्ताबनादिरूपेणोप- | जगति । यदतीतमपि स्मर्यमाणं बाधते, वतंमानमपि यैः केशि.
हृत्य मन्थः पुरस्कियत इति सञुचितः सम्परतिको विपशित्ल- दुपायेनिवर्तयिषुमिष्यते, आगाम्यपि साधनावरुम्बेन परिह
ग्रदायः। अञुमाचारमनुरन्धाने चेतसि प्रतिभातमन्यत्न परिष्ष्ट | भ्रय्यते । नहि कोऽपि सचेता आत्मनो दुःखं समीहते ।
च यत्किञ्चन विवेचक्ानां पुरतः कतिपयैः शब्दैः समुपाहर |यावन्तो व्यापारास्तन्निवस्यं सुखं साधयितुं प्रवरव्यन्ते, परं सुख-
रेखनीयं पुरःसरति ॥ । समीहया प्रवत॑मानोऽप्ययथावेदनेन समुपचारपथं परिहायाप.
तत्रास्मिन्युपोद्धाते पञ्च परिच्ठेदा- ¦ चारवत्म॑नि प्रवृत्तो दुःखेन खलीक्रियते रोकः। एतस्येव मार्गा.
८ १) सोपक्रम आयुर्वैदपरिच्छेदः। ¦छोकाय सर्वाणि श्चाखाणि सवं लोकाश्च प्रावतंन्त प्रवर्तन्ते च ॥
(२) आचायेपरिच्छिदो {मन्थपरिचयसहितः। दुःखं च मनःदारीरादिकमात्मानं निमित्तीकृत्य जायमान.
( ३ ) संसकारतुलनादिसहितो.विषयपरिच्छेदः। माध्याप्मिकं, पञ्चभूतप्राण्यादिभूतनि
कायं निमित्तीकृत्य जाय-
(४ ) मारतीयभैषव्यसमथनपर्च्छिदः। मानमाधिमौतिकं, अरहयदषरा्तसविनायकादिकं देवनिकायं ७

`निमित्तीकरत्य जायसानमाधिदुविकमिति त्रिषु प्रस्थानेषु निभ-


(५) उपसंहापरिच्ेदः | उयते । एषु नानाप्रस्थानेषु यं कञ्चन दुःखविश्ेषममिरुचय तत्त.
बनधं श्रोतु
सिद्धसम्न्धं
सिद्ध सिद्धसम्ब
` द१. सिद्धार्थं भरोत नोता
श्रोता मवततते
प्रवतत ।। ` धिदृततिप्रधानोपायप्रव्नेन जआध्यास्मिकानि साङ्कथादिदं-
राखादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ॥ नानि, उपासना्चाखाणि, नीतिभेष्या्ेहिकन्ञाल्ञाणि चाथ
` ( देखोकवातिकस्योपक्रमे ) , बन्ति भवन्ति ॥ |
& उपोद्धातः ।
त आ + (+ + + + |
+ +

परमेतान्याध्यास्मिकान्येहिकानि च सर्वाणि शल्लाणि यदा किरु खष्टरा भूतानि भौतिकानि च ष्टानि तदात्व
शरीरिणां सजीवनसुपरूभ्येव स्वात्मङाभाय कर्पन्ते । यः एव प्राणिनां दीदीटुप्यसः्नान्यपि विज्ञेयानि
कश्चन सचेता नवनवोर्ाहसम्पन्नः सदुपायान्‌ विक्ञाय तत्प- ्रायुचेदस्य बभूढधः । उद्पन्नमान्रा एव मिथ्योपचारेण वि-
ख्ष्कितेन वर्त्मना आत्मानञुन्निनीषुः करमेण समीहितं स्थानमा- पाचीनत्वप्र नष्टः प्राणिनः कथद्रं सर्जनश्रममशवन्तं
रों पारथति । दुर्जीवनेन स्वरुद्रतिः कियत्याऽपि मात्रया कुर्युः । यथा यथा ते चिरं संततां प्राप्नुवन्ति
पुरः सर्तंमपारयन्नात्मना कमप्युपयोगं साधयितुं न प्रभव तथा तथा सष्टुः समीहितं किमपि सम्पादयितुं पारयेयुः ।
तीति श्ारीराच्‌ जीवनोपायान्‌ प्रतिपादयन्छाखं विशेषतः सत्तां रुन्धवन्तोऽपि विकलाङ्गाः कतमस्मे कामाय कल्पेरन्‌ ।
दाखान्तराणासप्युपजीभ्यं भवति । प्रथमतः शारीरबाधया अतः सत्वबखावष्टव्येन सकरी मभावेन चिरमवस्थानमादित
विना छता स्थितिरस्माञ्जीवनाहुपेया पेहिकीः माञ्चुष्मिकीश्चो-
एवापेच्यत । असिमश्च खटः शिरपश्रपञ्चे चरा अचरा भोक्तारो
न्नतीमयति । श्चरीरं नाम नानाविधैः स्थूलसूचमातिसुकमैर- मोज्या एवमादयो नेके मभेदः । भोक्तभोऽयानामप्यसंस्येयाः
वयतैर्महनाभिस्तत्तदशक्चित्राप्रक्रियामिर्यथावद्प्रमेयनैश्वरशिरप- प्रकाराः। न खल सर्वेषां मोक्कृणां सर्वाणि मोऽयजातान्यनुकू्‌-
मयं महायन्मिवा वरोक्यते । यत्र कचन स्थुरेषु सूचमेषु खानि, अपितु भोक्तुणां जातिदेशकाखावस्थामेदेनोपकाराया-
वांऽलेषु दश्याऽदश्या वा या काचन दिक्रिया समुत्प्यमाना पकारायापि प्रतिनियतानि । नद्येकस्यानुकूरं ग्रतिकूरं वा चस्तु
समस्तं शरीर, न केवरं शरीरमपि हु तदनुस्यूतं शरीरशरीरि तथेवस वषाम्‌ , एकस्याप्यनुद् म्रतिकं वा न सर्वं सर्वदा,
समवायार्मकमन्तरास्मानमपि विकरुभावं प्रापयति । शरीरः अपितु तत्राप्यवस्थादिविशेषेण उ्य्वरस्थितम्‌। इतश्च कस्य कदा
विक्रियया विश्ियमाणः शरीरी विकखेनान्तरात्मना शेधिल्य- किमनुद्धरं, किं वाऽस्य साधनं, किच्च प्रतिदरं, कथं तदुदयः,
मापन्नो दुःखान्तराण्यमपि निरसितुं न भवति । शरीरे निवि को चाऽस्य प्रश्शमनोपाय इति उपादेये तदुपायः, हेयं हेयहेतुः;
दुःखान्तराणां परिदारोपाया विधातुं पार्यन्ते, फएरन्ति च । हानसाधनमि्येतानि तदात्व एव विक्ञेयान्यभुचन्‌ । सर्वास्व.
शरीर एवामयेन विकलर्ताय्युपेते तदनुषङ्गेणान्तःकरणे च षणासु प्राणैषणा प्राथभ्येनोदेतुमर्हति । अतश्च प्राणिनां सष्टिरे-
व्यथिते कठिनतपश्व्यांतीथारनपरोपकारथ्रश्तयो धार्मिका वायुरवेद्स्य बीजन्यासः
विषयाः शिह्पवाणिज्यवातदिश्ान्तरञ्मणादय आ्थिका “अनुत्पायेव प्रजा आयुर्वेदमेवाम्रेऽखजत्‌, इति सश्रतोक्त-
उद्योगाः; यथाकाममाहारविहारविषयोपभो गादयः कामिकाः
प्रयोगाः, मानसिकविचारविशेषक्रोघरोमायान्तरिकराश्चुदमने. स्तौरयेन 'आयुरवदमेवागरेऽखजन्ततो विश्वानि भूतानि" इति
काश्यपसंहितायां ८ एर ६१ ) सृष्टितोऽप्यायर्वैदस्य उयेष्ठधं
न्दियजयेश्वरभजनादयो मोन्लोपाया भपि न यथावत्‌ प्रवत्त॑पितं निरदिश्यमानमपि निभित्तनेमित्तिकयोः पौर्वापर्यानुक्रममनुस-
राक्यन्ते। उन्तमेव--धमाथंकाममो्ताणामारोग्यं मूलसाधनम्‌ः
(च. सू. अ. १) इति॥ | [ि नधाय (अग्निहोत्रं जहोति, यवागूं पचतिः इत्यादौ पाटक्रमाद्‌
वद्धीयांसमार्थक्रममिव “तंव प्रसादस्य पुरस्त सम्पदः" इति
` तदेवभारोग्यपरिष्टुते जीवनतरौ सम्यञ्चि फएरानि फएरन्ती-
प्रसादे सम्पद्‌: क्तेपिष्ठभावमिव वस्तुतः सृष्टया सहायुर्वेदस्य
ति तत्सम्पत्या चिरजीवनाय सुजीवनभावाय च श्ारीरब्राधाम-
धनिष्ठ नेदिष्ठं च सम्बन्धमारङ्कारिकोक्त्याऽभिन्यनक्ति। कि
यान्येहिकानि च दुःखान्यवश्यं परिहरणीयानि भवन्ति ! शारी.
राणि दुःखानि च नानाविधरोगास्मना शतधा प्ररोहन्ति । ते वा वारकस्थोत्पत्तेः पूवं स्तन्योद्मनमिव सृष्टः म्रथमत आयु
त्र शतशो रोगा नेकेनोपायेनोपदेशेन वा विज्ञेयाः परिहर- विज्ञानं स्वरसतोऽपि सम्भवति ! विकासवाददश्षा भौतिकसषटेः
णीया वा भवन्तीति तेषां निब्ृत्तयेऽनुस्पादाय च ये याचन्त पूर्वमोषधिवनस्पस्यादीनां सृष्टः प्रतिपादनमपि भूतोद्धवात्‌
उपाया व्यवस्थितयस्तेषां यावदूबुद्धिवरोदयं परिक्तानमाव- प्रागेव मेषज्यविह्धानस्य बीजन्यासं द्यति! भात्रेयाचार्येण
श्यकं देहिनाम्‌ ॥ . तु शखोऽयमायुरवेदः शाश्वतो निर्दिश्यते, अनादिस्वात्‌ स्वभाव-
` तन्न हेया दुःखात्मानो रोगा, तेषां हेतवः (निदानादीनि ) संसिद्धरुष्षणसरवात्‌? ( च. सू. अ. ३० ) इत्यादिना आयुतेँदीया-
देयरोगाणां हानं ( निच्रत्तिः ), हाने साधनानि ( मेषजा- ववोधोपदेशयोः सादिषेऽपि संसारस्येवायुरवेदवि्तान परम्पराया
दीनि ) चेति चतुर्धां विज्ञातभ्यानि भवन्ति । हेयानां स्वरू. अप्यनादिस्वं निदिष्टमस्ति ॥ |
पाणि परिचिष्य ज्ञातेस्तदीयहेतुमिः पूर्वमेव परिदहियमागैस्तद- आयुरवेदशन्दार्थप्रद्चनेऽस्यां कार्यपसंहितायामू-“लायु-
जुत्पत्तये, विन्ञतेश्च हानसाधनेः कथञ्चनोप्पन्नानामपि तेषां जीवितु च्यते, विद्‌ क्तने धातुः, विद्लरूमे
निंद्य भवितव्यम्‌ ॥
च; आयुरनेन क्षानेन विद्यते ज्ञायते विन्दते
| | ह
. . खोकानां श्रेयः साधनतया हितावहेषु विविपेषु ज्ञान. श्ायुधेद्‌ः छभते न !रष्यरतीष्यायुरवेटः' (प° ६१) इति
विक्लानप्रमदरेषु स्वोपजीभ्यं यद्‌विज्ञानर्नं तदेवायर्वेदचिक्तानः दीर्धजीवितस्य क्तापकमुपायप्रतिपादनद्वारा प्राप
मि्युच्यते । एतद्रीयं विज्ञानं न केवलं स्वस्य कमविनाशकं च शाखमायुवेद्‌ इति विधीयमानं
एकट्रभ्यक्तिमा.
स्म वोपङ्कतये, अपरि च॒ कुटुम्बस्य समाजस्य देशस्याप्युपक्ृ- १. उदेति पूर्वछुखमं ततः फरं घनोदयः प्राक्‌ तदनन्तरं पयः ।
तथे सञु्तये च भवतीस्यवश्यं विज्ञेयं शरीरिभिः, उपदेषटव्यं निमित्तनैमित्तिकयोरयं क्रमस्तव प्रसादस्य पुरस्तु सम्पदः ॥
च विज्ञावृभिरिति विशेषतोऽ्थवानस्यावबोध उपदेशश्च ॥ .. "+~ (राघरुन्तङे
७अङ्कं)
|
उपोद्धातः । | 2
छ छ क क 9

निर्व॑चनमस्य स्वरूपं प्रयोजनं च निदृशंयति । एवं च भु थ्चेवेदेन सहाङ्गङ्गिभावं निदिंशति । ““चतुर्णाश्चकसामयज्ञुरथवं-


वंदशाघ्रादायुषः स्वरूपं, येस्तदुपेयते ते उपायाः, विद्यमान वेदानामथर्वैवेदे भक्तिरादेश्या ( च. सू. अ. १० >)इद्युक्िख-
मायुर्थेविन्तायते तानि ठक्तणानि च वेद्यन्ते, तानि विञाय जनात्रेया चार्योऽपि छग्वेदादिभिश्वतु्भिः सहास्य सम्बन्धमपरि-
यथोपदेशं प्रवृत्त आयुरवस्थापयति च, एतञ्ज्ञानमन्तरेणाय ठं सखभ्बन्धमवबो.
हर्‌ भक्तिपदेन अथवेवेदेन संहेवास्य नेदिष्
थावस्रवतेमान आयुर्विनाश्ञाय प्र॑मवतीति ससाधनायुरवस्था धयति । अस्यां काश्यपसंहितायां तु ( प्र. ६१) “जयुेदं
पकलास्मायुरवेद शब्दार्थः ॥ ` कथं चोरपन्नः१ इति प्रश्ने “अथ्ववेदोपनिषत्सु प्रागु्पक्चःः
तदिदं उयाधिपसिमिोत्तः स्वास्थ्यपरिरत्तणं चेति प्रयोजनद्रय- हव्युत्तरेण प्रथमतोऽथर्वमूखकसं निर्दिश्य, “कं च वेदं श्रयति"
मात्रेयसुश्रतोक्तिभ्यामपि समन्वेति ॥ दति प्रशनान्तरे “अथर्वैवेदमित्या, तन्न हि रक्ता-बरि-होम-
जयुर्वेदशब्दोऽयं बह्शाखाविस्तीणं चिकित्साविन्ञानम- रान्ति `“ "धरतिकर्मविधानमुदिष्टे विशेषेण, तद्रदायुवदेः
ववोधयन्न केवरं मानवीयं मेषज्यमभिग्रेति, छन्तु दस्व्यश्चग- तस्मादथर्ववेदं श्रयति, सर्वान्‌ वेदानिव्येके इव्युपन्यस्य,
वादीनां पश्यपर्तिणां, वृक्तकतादीनामुद्धिजानामपि भषञ्यानि ““आयुरवैदमेवाश्रयन्ते वेदाः... -तस्मादुव्रूमः ऋग्वेद्यजवंद्‌
गर्णाति । पालकाप्य-मतङ्ग-श्षालिहोत्रादयो रहस्स्यश्वादि सामवेदाथर्ववेदेभ्यः पञ्च मोऽयमायुरवेदः'” इष्युद्िखन्नाचार्यो
भेषञ्योपदेशाचार्यास्तदीयोपदेश्रूपास्तत्परम्परागताश्च मन्था विषयविरोषसच्िकर्वेणाथर्वसम्बन्धवादमादौ निर्दिश्य, सर्वेषु
एवं वृक्तायुवरे काश्यपसारस्वतपराशरयादय आचार्यास्तदुपदे वेदेषु न्यूनाधिकभवेनेतद्धिषयोपलम्मेन स्ववेदसम्बन्धवादम
शपरम्परागता विषया वराहस्तंहितायां भटोरपटीयतत्प्रकरण प्येकीयमतव्वेनोल्खिख्य, बद्याश्वीन्द्रादिसम्प्रदायपरम्परया क्रम
व्याख्यायाययुपवनविनोदादिषु च बहुश्च उद्धिख्यन्ते । धन्वन्त विकसषितस्यायुदेदीयविन्ञानस्य स्वतन्तरप्रस्थानान्तररूपेण
रिणाऽपि नराश्वगोगजन्रुक्तायुवदनां सुश्रतायोपदेश्नस्य विज॒म्भिततया चेद्‌ान्तरवत्‌ सर्वोपजीब्यतायाः पुरषनिः्रेयस-
जाग्नेयपुराणे ( अ. २७९-२९२ ) उज्ञेखोऽस्ति । परं धन्वन्त- परतायाश्च दश्च॑नेन वित्तेयविषयश््ुलितभवेन प्रथगवस्थित-
रिकिश्यपत्रेयादीनां मानवीयायुरेद्त्रिभागविषयं विशेषत स्यायुर्वेदस्य स्वीये विषये प्राघान्येनोपादेयस्वमभिप्रेसय महा-
` उदिश्य म्रवतंनेन प्रकृतो पयोगेन चात्रापि तमेवा धिक्स्य प्रदश्यंते भारतस्य पञ्चमवेदत्ववत्‌ पञ्चमवेदस्थानीयस्वमपि .रुवविचारा-
अस्याऽऽयक्तानसम्पदपतया वेदशब्देनोररेखः कियते रूढमन्ततः प्रकाङ्ञयति ॥
तेर्थिकेः । वेदो नामार्याणां सर्वादिमो `ज्ञान विज्ञानराशिः।
“जायुदमशङ्मुपाङ्गमथरवेवेदस्य' इति सुश्रतोक्तावुपा
तत्रैव पूवषां क्षानानि विक्षानानि च सम््तानि। आर्याणां
तपःप्रणिघानारोकोऽञ्वरेषु हृदयेषु प्रातिभप्रकाद्रूपेण वर्त॑मा-
ङ्पददर्शनेन साक्तास्सम्बद्धस्याङ्गतया, अङ्गसम्बन्धस्योपाङ्गत-
याऽऽपाततोऽवगमाष्दाङ्गेष्वप्यङ्गत्वमायुवदस्य; अङ्गान्यनूपा
नाऽभ्याहतस्वरूपाऽऽयक्तानसम्पद्रेदश्चब्देन व्यवादहियत ।* तेषु
सानविक्ञानप्रस्थानेष्वेकतमदेतद्िक्ञानमपि ॥ ङ्गानि भवन्तीव्यनुसन्धाय वेदकारदुत्तरं शिक्तायज्गानां,
ऋग्यजञःसामाथ्वनामभिविभक्तानां वेदानाभुपवेदसूपेण ततोऽपि पश्चादुपाङ्गभूतस्यायुरवेदस्य कार इति सुश्रुतस्यार्वां
धयुवद-गान्धर्ववेद्‌-स्थापत्यवेदायुरवेदा उच्चिख्यन्ते । उपशन्दो ग्भावसाधने केषाञ्चिद्धिदुषां दष्टाबुन्मिषति । परयुपङ्गशब्देना-
पाततस्तथा प्रतीतावपि वेदाङ्गेषु रि्ताकत्पादिषु वेैद्यकविद्याया
हि सश्चिङृष्टं सम्बन्धमभिप्रेति । तत्र केन वेदेन
वेदाय॒चेवयोः सहास्याऽध्यु्ेवस्य सम्बन्ध इतति विचारे “इह विरोषतः सम्बन्धस्यादरशनेन, प्रत्युत वक््यमाणदिश्ा श्रौतथ्-
न्धेभ्यो ब्राह्मणेषु, ततोऽपि संहितासु यथापूवमायुवेदीयविषया
सम्बल्धः खल्वायुवंदमष्टाद्धुपाद्गमथववेदस्थः इति णामतिश्ञयदक्तनेन, तत्राप्यथर्ववेदे बाहुर्यो परस्भेन च वेदेनैव
(सू. अ. १) सुश्चुताचा्यः कण्ठत पएुवायुर्ेदस्या-सहास्य नेदिषः सम्बन्धः प्रतीयते । अङ्गत्वं नामाऽप्रधानत्वं
१. चरकसंदितार्या-“हितादितं खखं दुःखम्‌ इत्याद्विना
दोषस्वमिवावयवत्वमपि । तच्छुरीरान्तरयुप्रविश्योपकत णि
आत्मनो भोगायतनस्य पञ्चभूतविकारात्मकस्य शसीरस्य, भोगसाध- स्निपत्योपकारकाणि, छुरीराद्‌बहिभूयोपकत्‌ गि आराटुप-
नानां चक्षुरादीच्ियाणा, मनसोऽन्तःकरणस्य, ज्ञानप्रतिसन्धातुरात्म- कारकाणीति दहिविधास्यङ्गानि मीमांसकेरविंभज्यन्ते, यान्यन्त-
नश्वेषामदृष्टविक्ेषनिष्पत्नः संयोग एवायुःपदाथैः; आयुषः स्वरूपं, तत्र रङ्ग-वबदहिरङ्शषब्दाम्यामपि विम्य व्यवहर्तुं शक्यन्ते ।वेद्शरी
हिताहिते, पथ्यापथ्ये, तकत्फरीमूते सुखदुःखे, आयुषस्तन्तदवस्थातु" राद्हिभंतानि शिक्लादीनि बहिरङ्गान्येव भवन्ति । वचयमाण-
ख्याणि रक्षणानि चेत्येभिः साधनफलादिभिः समन्वितमायुर्वैदयति रीत्याभेषञ्यायुष्यसंशमनीयकमादीनां बहूनामायुवेदविषया्णां
जञापयततीत्यायर्वेद इति प्रवचनं निर्दिद्यते ( छत्रस्थाने १ अ. ३० ) वेदसंहिताभ्यन्तरेऽपि प्रोततया तच्छरीरमनुभ्रविष्ट आयुवेद्स्स्व-
२. सुश्रते-“ायुरस्मिन्विधतेऽनेन वाऽऽ्युरविन्दतीत्यायुर्व॑दः" | न्तरङ्गभावमेव भजति । नानाविक्तानमहारय्िरूपे वेदे या्चिको
देति करन दारीरेन्धियसचात्मसयोगरूपमायुरस्मिन्‌ प्रतिपाधतया महान्‌ भ्रधानविषयः, जायुवेदीयविषयाद्यः प्रासङ्गिका आच-
विते, आयुरनेन विधते ज्ञायते विचायते वा, आयुरनेन चिन्दति न्तरविषया द्यत आयुर्वेदीयं वित्ञानं वदिकविक्तानशरीरमनु-
प्रापमोतीत्यायुवेंद इति निवैचनं विधीयते ( ख. अ. १) । प्रविष्टं सत्तदवयवरूपमङ्ग मयति ।महावयवानामङ्गत्वं, स्वरवाव-
रारिदोत्रः सुश्र॒ताय हयायरवेदस॒क्तवान्‌ यवानाुपाङ्गस्वमिति हिधा विभागं प्रद्श्यं बाह्वादीन्‌ करा्दीश्च
पारुकाप्योऽङ्गराजाय गजायुवंदमव्वीत्‌ ॥
१. प्रणम 9 तएव कालोऽ 1, प 2, ©, पभ,
( अश्चिपुराणे २९२ अध्याये )
४. उपोद्धातः ।
तिकिनतु कनि ५.५.

निदशंयता दल्लनाचा्ेणापि जायुदस्यान्तशङ्गस्वमेव समर्थितं याणाञ्युपरम्भेन विक्ेषत ऋग्वेदेन सहास्य सम्बन्थमभिपरेत्य


भवति । यिं बहिरङ्ानां शिक्ञादीनामप्यङ्गभावमुपादाय त्रयीदशा किल भ्यासर्कन्दादिभिः केश्चन पूर्वाचर्येस्तथाऽभ्यु-
सुश्रतस्योपाङ्गस्वोज्ञेखः स्यात्तदा शिक्तादेरपि पश्चाद्ावौचिस्यवत पगतं सम्भाव्यते । यदा कम॑करापस्यापि विकासविभागवि-
आयुर्वेदस्य भूतदषटरपि प्राग्भावः सुश्रतेनेवोक्तः कथं न व्याह रोषेण श्ान्तिकपौष्टिकाधेहिकश्रेयःकर्माणि देहिकागन्तुकसंशा.
न्येत । शिक्तादिषु बहिर्धेष्वप्वन्यवहतेन वेदशब्देनायुरेदस्य मनकमांणि चोपादाय तस्रधानस्याथर्ववेदस्य प्रथश्गणनया
निर्देशोऽपि पूर्व॑भावित्मेवास्य प्रगुणयति । विक्तानमहोदधेवे- वेदिकं विज्ञानं चतुर्धां व्यभञ्यत,¶तदाऽऽधर्वणे विज्ञाने सैषञय-
दस्येकतरङ्गरूपेण वर्तमानमिदमायुरवेदीयविन्ञानं वेदशषरीरमनु- कमांण्यायुष्यकर्माणि भूतादिपरिहारक्मांणि बहूुक्षः परथग्भावे-
प्रविष्टमनुसन्धाय केचन उपवेदक्षब्देन, अवयवावयविभावा- नादृश्यन्त ।-कोौशिकसू्ङ्ताऽपि तथेव तश्र तन्न विनियोगः
पक्ञमनुसन्धाय केचन वेदा्गश्षब्देन, स्वेरपावयवात्मकमनुसन्धा- प्रदर्ितः। तदेवमाथर्वणप्रक्छिवायां विशेषरूपमवा
पस्य शान्ति.
य केचन वेदोपाङ्गश्च्देन, व्यवहरन्तो मिथोऽव्याहतं खमन्वयं. कपौिकादिश्चबरितस्य भैषभ्यवित्चानस्य क्रमशो विकसनेन
गमयन्ति । किं बहूना, कश्यपाचार्यण तु उपशतदमप्यनुपादाय सराकमायुरवेदीयविषयस्यापि विकसनाद्रचयमाणदिन्ञा वेदान्त
पश्चमवेदष्वेन निदिषटमस्ति ! अन्तरवयवाश्च अवयविना सहै. रेभ्योऽथवेवेदे एतदीयविषयबाहूलयदश्चंनाच्च तादार्विकीं सिथति-
वावतिष्टन्ते, नावयविसमयादुत्तरः समयोऽवयवानाम्‌। वदै. सुषादाय अथर्वणा सहास्य नेदिष्ठं सम्बन्धमनुपश्यद्धिः पा
वञुपवेदशब्दस्षामानाधिकरण्येन चतंमानोऽयञुपद्गशब्दोऽपि- चयिर्धन्वन्त्यात्रेयकश्यपादिभिः पूंनिदिष्टरेखेरथर्वोपाङ्गस्वम-
भायुरवेदसुपर्येवारोहयति, नतरामर्बाग्भाव्ङ्कोद्याय कटपते ॥ य्ववेदेविरेषभकप्यादेशनमथर्वमूरकस्व चोक्तं युक्तिसङ्गतमव-
हहेदमनुसन्धीयते--बाह्यणोपनिषन्महामारतपुराणस्टृव्या गभ्यते ॥
दिषु बेदचतुष्टयोज्ञेखो परम्भेऽपि अथंवधेदे ऋर्यजःसामाथरव. आष॑परम्परायामानुश्रविकरूपेणानुवर्तमानस्य पूवैरपि क्तुर-
वेदानामु्रेखेन, त्रिषु वेदैष्वथर्ववेदस्थौनुलरेलेन च त्रेयीवि- स्मरणेन, भ्यो बह्याणं विदधाति पव॑ यो वै
भागः प्राथमिक इति विवेचकानां भणितिः । तन्न मन्त्रा्मके वेदे श्रायुवेदीया वेव प्रहिणोति तस्मै' इत्यादिना पूव॑सि-
बेदे पया्षिका ऋष्‌, गद्याप्म यजः, रीव्यात्मकं सामेति विषया --, दस्येवेश्वरत्तानाव्मकस्यास्य जगर्छष्टम
नसि
त्रिधा विभागः) अस्मिदधयीविभागेऽथरवंमन्त्राणामपि यथा- प्रतिभानोर्खेखेन, ऋषीणामपि केवरं म
स्वमन्त्ाबः । भारहदुभूमिकास्वादिमक्ञानसम्पत्‌ त्रयीरूपेण न्तरद्ष्टतया च निस्यं पद्पदा्थंसम्बन्धमवलम्बमानस्यास्य ज-
थदेब प्रादुबेभूव, तदाऽप्यायुषंदविक्ञानमासीदेवेति ऋग्यजुः नादिनित्यष्वमिति षेदाथंमीमांसकानां पूवांचार्याणां सिद्धान्तः)
सामसु त्रिष्वपि तन्न त्रोपरभ्यमानेस्तद्विषयेरवगम्यते। वेदेऽपि तस्माच्‌ परमेश्वरात्‌ ऋचः सामानि जज्ञिरे यजश्राजा
अथर्ववेदस्य प्रमेयवेशिष्टयेन प्रथमणनायामनेन सह चत्वारे यतेत्युरखेखोपरूगमेन शब्दस्य पर्युच्चारणं नवोस्प्या तत्समु-
बेदाः । ब्राह्मणोपनिषस्सु स्मृतिमीमांसादिष्वपि वेदानां चातु- दायास्मकस्य वेदस्य न नित्यत्वमपितु सगोदावीश्वरेण विरच्यो-
विध्योररेढश्चतुवंदविदां निदंशश्चोपरुभ्यते । तेन कग्यज्ञुः- पदेश्चनात्‌ पौरूषेयत्वमेव, तथाऽपि सकलदो षाशङ्काविनिञुंक्तस्य
सामाथववेदानां चतुर्णां पुराकारुदेव समकनत्ततया प्रामाण्य. परमाक्चस्य परमाष्मनः डृतिरूपतया सर्वाङितोऽबाधितं प्रामा-
मित्येतस्मिन्विषये न्यायमन्नर्यां बेदसवंस्वे च बहू प्रपञ्चित ण्यमिति ता्किंकादीनं सिद्धान्तः। अनादिरपौरूषेयः पौरूषेय
मस्ति! अथर्ववेदेन सह चतुर्णा वेदानाुपवेदान्‌ प्रदशेयता आर्षो वा भवतु वेदः, कशास्य प्रकाषस्योद्मस्य वा ताचिकः
चरणव्यूह्रता “छऋग्बेदस्यायुवेंद उपवेद ह्याह भगवान्‌ समुचितश्च समय इतीदानीं प्रसक्तानुप्रसत्छो विचार भास्तां
श्यासः स्कन्दो वा, इति व्यासस्कन्दमतरूपेण ऋषवेदोपवेदख- तावत्‌! सर्वथाऽपि पूर्ब॑तमेरपि सर्वाति्षायिनि प्रमाणपदे
मायुरवेदस्यो्ञिखितं दश्यते । तदुक्त्या त्रिष्वपि वेदप्रस्थागेष्वे. अरतिष्ठापितोऽयमपरिच्छिघाद्होः कारादायांणां रिरःसु समानि.
तद्विषयरामेऽपि, ऋग्वेदे स्ववेधयोरधिनोः सु्ेष्वन्यन्नापि तोऽस्तीव्यन्र न कस्यापि शिप्रतिपत्तिः। अधत्वेऽपि प्रान्यः
तादाविकैरतीतेश्च पुराष्रत्तः सह बहुश्च घायुर्ैदीयविक्ञानविष- वाश्चात्याश्च विपरित एनं प्रायः संमानद्शेव पश्यन्ति ।
१. यस्माद्चोऽपातक्षन्यज्ञयंस्माद
पाकषन्‌ । केवलं पुरातप्वामुसन्धानधडा वैदिकं साहिव्यं पर्यारोच्चयतां
सामानि यस्य छोमान्यथवोङ्गिरसो सुखम्‌) (अथवं १०।७]२० विवेचकानां विचारविरोषाणां निरीकणेऽपि केषाशिद्रादश्षसह-
२. तस्माचज्ञात्सव॑हुत ऋचः सामानि जङ्िरे । खवर्षपूर्वस्ववादः, केषाश्चिच्वतुःसहसरवर्षप्रागभाववादश्चेवमा-
छट्दांसि जज्ञिरे तस्मा्जुस्तस्मादजायत । द्यो बहवः पक्ताः स्वस्वविचारारूढा दश्यन्ते। यथातथाऽपि
ऋक्‌ १०७८; यज्ञुः ३१।७; अथव १७।६।१३ रोके यावन्ति प्राचीनसाहित्यानितिषु सर्वप्रथमं वैदिकसाहित्य-
२.सावा एषा वाम्‌त्रेधा विहिता-ऋचौ यजूषि प्ामानि। मित्यत्र न केषामपि विमतिः । तेनास्य वैदिकविन्ञानैस्य, एत-
| ` ( रातपथ १०।५।१७ ) द्र्भगतस्यायुवेदीयविक्ञानस्यापि समय उपर्यवारोहति। तस्मिन्‌
४, तज्ञोरः पुस्तकाल्यगतायामुमामहेशसंवाद रूधायामन्यस्यां वैदिके विक्ञानभ्युहे विक्ञानान्तराणीवायुवेदीयं विज्ञानमपि
कादयपसंहितायामपि--“ऋग्वेदस्योपवेदाङ्नं कारयपं रचितं पुरा बहुश ओतं प्रोतं च दश्यते । तथाहि-
रक्षमन्थ महातेजः अभमैयं मम दीयताम्‌ (¢ इति ऋग्वेदस्योपवे-
` ` दस्वेनोहेखोऽस्ति । ". , . ,, ए गरज तरा ञ्जाथर्वणानि । ( ताण्डयमहानराह्यणे १२. ९. १० )

उपोद्धातः ।
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+र)
` +
पणी नीती की की मी मी क जी मी भभ
हि

ऋग्वेदसंहिताया--जराजीणंस्यस्यवनस्य वन्दनस्य च मीवाबलासोपचितपाकारण्शो विषूचिकाह्द्रोगार्म चर्मरोगकुष्टाङ्-


छषेरधिभ्यां रसायनेन पुनर्थोवनापादनं (१. ११६. १०। भेदादीनां रोगाणासुद्रेखश्चोपरभ्यते ॥
१. ११७. १३} १, ११९. ७. ); दासैरग्नौ जखेऽपि प्रेषणे तेत्तिरीयसंहितायां काम्येष्टिमकरणे दिपक चमोन्म-
रत्ितस्य दीर्घतमसः पुनदासेन वितष्टश्चिरोवक्तसोप्यश्धिभ्यां दपरिहारस्य च प्रार्थना, यच्मराजयचमजयन्यसेगोत्पत्तर्विषथो
जीवनेन दशयुगपर्यन्तं जरां परिहायं रक्षणं ( १. १९८. ४-६ ); (३. १.१ १.।२. ४. १४. ९ >)दश्यते ॥ |
रणे शयुभिरिलन्नपदायाः खेखनूपपल्न्या विश्पखानाम्न्या अधिः सामसंहितायां खक्मरविष्टानां मन्त्राणां प्रवेशेनायुर्े-
भ्यामायस्रजङ्घायोजनं ( १. ११६. ५५ ); विरिरशाङ्गस्यान्या- द्विषयावबोधकानां मन्त्राणाञ्ुपरुम्मेन च साग्नोऽप्यस्मिन्‌
दैरवयवसङ्कटनं ( १, ११७. १९); शशन्रुभिचिश्चकलीक्रृतस्य विषये ऋगौकमस्यमवगम्यते ॥ ५
श्यावाश्वस्याङ्गशकखानि संयोर्य प्रवयुञ्जीवनं ( १. ११७.२७४ ); अथवंसंहितायां त॒विशेषेणैतदीया बहुविधा विषया ,
किमन्यत्‌ , दधीचस्य शिरः पथक्छ्रत्य संरदयाश्चशिरः संयोज्य दश्यन्ते। तन्नोपशतं सूक्तानि मन्तराश्चैतद्विषये रभ्यन्ते। ऋगादिषु
तस्मादश्िभ्यां मघुविधाया म्रहणे तस्याश्चशिरश्खे2े पुनस्ताभ्यां प्राय एेतिहासिकेन रूपेण कचन प्रसङ्गेनाप्यायरवेदविषयाः समा.
ूर्वशिरसः संयोजनम्‌ ( 9. ११६. १२। +. ११७. २२ गच्छन्ति; अथवंणि तु अन्तराऽन्तरा रोगाः, शारीरकावयवाः,
जन्धाय ऋञ्ाश्चाय द्टिदानसम्‌ ( १, ११६. १६। १. ९१७. १७); ` रोगप्रतीकारविदोषाः, तत्तदोषधीनां तेषु तेषु रोगेषूपयोगिता
अन्धाय कण्वाय चक्ुर्दानं, बधिराय नार्ष॑दाय श्नोत्रदानं चेवमाद्यो बहवो विषयाः रोता दृश्यन्ते; येनायुर्ेदस्याथव-
( 4. ११७. ८ ); पङ्वे परा्रूजाय विगुणजानवे श्रोणषंये च सम्बन्धः संफुरीभवति । तत्र -
गतिदानम्‌ ( १. ११२. ८ ) वधिमस्या नपुंसकभतृकाया अपि रोगविषये--तक्म ( ज्वर ) रोगस्य वर्णनं (६.२१.
ुत्रोश्पाद्नं (१. ११६. १३); चिश्वकाय विनषटपुतरदशेनं १-२ ); तद्धेदानां सततश्लारद-मरष्म-शीत-वार्षिक.तृतीयकादीनां
( १, ११६. २३); ऊुष्ठरोगेण भरतारमप्राप्य पिवृगरहे जीयंन्त्याः निदेशः (१. २६. ४ । ५. २२. १-१४); तक्मविभेदास्तन्र मण्डः
कन्तोवतीपुञ्या घोषायाः कुष्टं निवाय भवृदानं ( १. ११७. ७); कोपयोगः ( ७. १२२. १.२); तदावे जाङ्गलप्रदेशतया कि
कुषेन श्यामवर्णाय श्यावाय रोगं निवाय सुन्द्रख्चीद।पनम्‌ ) सुञवद्ाहीकगान्धाराङ्गमगधादिषु तक्मप्रत्ेपनि्ेशः . (ण.
( १. ११७. ८ ) इष्यादीन्यश्िनोरदूयुतान्यवद्‌ानानि, देवभि- २२. १४ ); बरासस्यास्थिपरहृद्यपीडकःत्वं ( ६. १४. १-३ %
षरभ्यासधिभ्यां वायुदुए्थिन्यादिभिरिवानुदलमेषजस्य प्रदा- मन्यागण्डमारायाः ५५ बिमेदस्वं, मेभ्यगण्डमारायाः ७० प्रमे.
नस्य प्रार्थना ( 9. ८९. ४ ); अश्चिभ्यामोषधिवनस्पत्यादीनां दस्वे, रकन्ध्यगण्डमारायाः ९९ प्रभेदष्वं ( ६. रण. ¶१-३ %;
प्रक्चेणाभिव्यल्ननं (१. ११६.८ ); युवां भेषव्येन भिषजौ अपचितः ('गण्डमारायाः ) एनी-श्येनी-करष्णा-रोहिण्य-सूति-
स्थ हइत्यधिनोः प्रार्थनम्‌ ( १. १५८. ६ ); अक्तिद्शंनसर्वेन्वि- केति मेदनिदर्शनं ८ 8. ८२. १-२ ) शीष॑ि-रीर्षामय-कणं.
यसामर्थ्यजरानिवृत्तिश्ञतवर्षायुः प्राप्तयर्थमधिनोः प्राभ्रनं शूल-विरोहित-विषर्पकाञङगमेदाऽङ्गउवर-विश्वाङ्गय-विश्वक्षा -
( १.११६. २५ ); आच॑स्कस्य संयुषेश्च निष्त्तप्रसवाया अपि रदतक्म-बरास-हर्मि-यचमोधः-काहावाह-क्छोमोद्रनाभि-
गोरधिभ्यां प्रसवस्य पयोबाहूुङ्यस्य च सम्पादनम्‌ ( १. ११६. ी-
्जगतपीडा-विद्रध- वात
"हृ द्यगतयच्म-पार्धपृ्ठिवं्तणान्त्रमञ
३२. । १. ११७. २० )\ इन्दरेणापि अन्धाय परावजाय दशेदानं, कारा-ऽकूजी-पादजानुभ्रो णिपरिमंसोनूकोग्णिहारीषवेदनादि -
पङ्कवे श्रोणाय गतेदनम्‌ ( २. १५. ७») इन्देण अपारायाश्चमं- नानारोगाणां वर्णनं च ८ ३. १३. १-२२ दश्यते ॥
रोगस्य, तितु: खल्वाटस्य च निवारणम्‌ (८.९१. ७); द्िरा्णां
इन्द्रस्यौषधिधारकत्वं ( २. २६.७ ); नानाविषकृमिवणेनं तघ््- द्रारीरकविष्ये--शरीरनाडीधमनीनिदेश्चः,
तीकारश्च ( १. १९१. १-१६ ); नानायषमरोगनिरसनं ( 4०. शातरवस्य धमनीनां सहखष्वस्योर्रेखश्च ( ¶. १७. १. ४। ७.
१६३. १-६ ); सौरप्रतीकारेण हृद्रोगादीनां निरसनं ( १.५०. ३६.२ ); नानारोगैः सह क्षारीरावयववर्णनं ( २. ३३. १-७
११-१३ ); जरस्य भेषजसवम्‌ ( १०. १३७. ६ । 4. २३. १९); `नानाक्षरीरावयवोर्रेखः (२. ३२. २।४. १२. ४। १०.२.
जोषधीनां वणनम्‌ ( १०. ९७. १-२३ ); यचमान्ञातयचमराज- ¦ $ । १०. ९. १३-२५ >); केश्चास्थिक्लावमांसमञ्जापर्वोर्पादाष्टी-
यचमग्राहिप्ष्टयामयसिपसिमिहृद्धोगप्रष्टतीनां रोगाणायुर्रेखः ` वच्छिरोहस्तमुखप्र्ठिवर्जद्यपार््जिद्धाम्रीवाकीकसस्वगादीनाघ्चुि *
( १०, ९७. १०५. १३७. १६१. १६७ ) इव्याद्यो बरवो विष- | लरेखश्च ( ११. १०. ११-१५ ) श्यते ॥
यस्तन्न तत्रोपरुभ्यन्ते ॥ | प्रतीकारविषये--मूत्रावाते शरशखादिभिमुत्रनिः-
सारणं मेदनं वा (१. २. १-९); सुखप्रसवस्तद्धिक्रियायां योनि- `
शुङ्खयज्ञुःसहितायामपि | दवादशाध्यात्रे सूक्त्वये |मेदनादि ( १. 98. १-६ ); जरुधावनेन बरणोपचारः (५.५७.
( १२. ७५-८९. । १२ ९०-१०१ ) जषघीनामगवुङ्करस्वं; १-३ ); अपचितां पिडकानां शराकावेधनम्‌ ( ७.७८. १-र );
यचमनाश्कस्वं, यस्तासां खनको यदथं च खननमुभ्वेषामुप- रछवणोपचारः ( ७. ८०. १~-२ ) एकमाद्याः
क्च २ ~

प्रक्रियाः; बहिरदेश्ाच्हुरीरान्तरनुप्रविश्यं रोगकारकाणां नन


अपचिति
कारकं, बरासार्चःश्वयधुगण्डश्छी पद्यदमसुखपाकत्ततादिना-
क्कस्वं; तन्र तत्र (१९.८१-९३ । २०.५-९। २५.१-९ । ३१.१०
विधङ्मी णपं तज्निरस नस्य च वणनं २ 89. १५.)क्गिपि" =
१३३०1 ८-१०) अश्वस्य मनुष्यस्य च शारी राङ्गोल्रेखः, यचमा- ।सिकादन्तादिषु प्रविश्य रोगकारकाणां येवासकष्कषेनरक
-६ उपोढातः ।
५. +,

विल्कासीनां मीणां नाक्ञनं (५. २६. १-१३ ); स्तभ्विन्येकशुङ्गप्रतन्वस्यंश्मतीकण्डिनी विशाखावेशवदेभ्युग्राऽ-


छृमिवर्णने, मनुष्यगताना रावादिगतानां च मीणा सौरङिरः वकोर्वातीष्दणशचङ्कया विरूपेण नानौषधघीनां प्रकाराणां च वर्णै;
गनिंवारणं ( २.२२. ५-६ );हानिकारङाणां रोगजन्तूनां सौरः नानावीर्दरसनिर्मितगुटिकाव्सकवेयाघ्रमणेर्वणनम्‌, जरवत्थदरम-
किरण नाशनं ( ४. ३७ १-१२); सौररक्तकिरणेहंदोगकामल- सोमननीहियवानां, पुप्पवतीप्रसुमतीफटिन्यफर प्रकाराणां विष-
पाण्डवादिरोगनाश्ञनं ( १. २२. १-४ ); प्रातरातपस्वेदनप्रभा- दूषणीकरत्यानाशनवरसनासनादिगुणानामोषधीनां च वर्णनं
सानजलखानानां शारीररोगनाक्ञकव्वं ( ३. ७. +-७ );हृदय (८. ७. १-२८ ); दर्भभङ्ग (श्ण) यवसहसोमवर्ण॑नं
रोगे हेमवश्नदीजकोपचारः ( ६. रध, १-३ ); जलस्य सर्वरोगौ. (११. ८ १५); ब्राह्यणनामकोषधेर्विषहरत्यम्‌, भयस्कम्भौषधेर्वि-
वध्वं ( ६. ९२ ३ ); वानस्प्यपर्व॑तीयवायोरारोग्यसाधनघ्वं पदिश्धराखनणादिहितकरव्वेपणांधिशङगकुडमलानां ज्नखप्राण्यो.
%( १, ९२. १-४ ), वायोरभैषत्वम्‌ ( ४. १३ २-२ ); आरोग्यव घथिविषहरस्वं (४. &. १-८); चरणाप्रक्रयाय्योषधीनां विषहरस्वं
पनं ( २. १०. १-८ ); छेव्यनाशनोपायदशनं (६. १३८.१ ~); (४. ७. १-७ ); नानाजातीयसर्पादीनुक्खिख्य तानुववास्तुवायो-
यैवमादयो विषया रुभ्यन्ते ॥ । षधीनां विषहरस्ववर्णनं ८ ९- १३. १-११ ); मधघुपरुष्णीक्लीपा.
रानां सर्पविषनाश्चकच्वं ( ६.१२ १-२ ); ग्याख्याभेदैन वस्मी.-
प्रोषधविषये--नक्तधमाच्कप्णाऽसिक्तीनदसंजव्नेषधीनां कश्चदः धिरच्योषधेवां विषनाश्कत्वं ( ६. १००. १-२३ ); मधु
किङासपरितादिनाश्षकस्वं (१. २३. १-४); सुपणांऽऽसुरीसरू कौषधेर्नानाविधसर्पङृमिविषनिवतंकत्वं ( ७. ५६. १-८); विषे-
पाश्यामांचौषधीनां खमभ्नोगनिवारकवं ( १.२४. १-४ ); वल्मी णैव विषप्रतीकारः (७. ८८. १); विषदोहनविध्या विषप्रती-
करभ्यौषधघधविरोषस्य अतीस्तारातिमूत्रनाडी्रणादिनाशकष्वं
कारः ( ८. ५. १-१६ } ८, ६. १-४ ); पर्क्रागमे रेन्दशान्तौ
(२. ३. 9६); पृष्णिपण्यां गभनाशरच्छविकारमरतीकारसरीरवर- द॒र्भसणिचन्धनं ( १९. २८. १-१०। १०. २९. १-९ ! १९. ३०.
दविकारकत्वं (२. २५. १-४); हरिणश्वङ्गस्य त्चमणश्च कयदुष्ठा १-५ >); पुष्टिकामस्यौदुस्वरमणिबन्धनं ( १९. ३१. १-१४ );
पस्मारादिनादाकत्वं (३. ७. १-३); शतवीर्याया दूर्वाया स्युभयनिवरत्तये दभ॑मणिबन्धनं ( १९. ३२. १-२। १९. ३२.
दीर्घायुभ्यनानारोग निहंणकारकत्वं ( इ. ण ३८ ) वृषाय. १-९ >)चेत्यादयः शतश ओषधीनां निर्देशाः प्रमदाः भ्रथोगा
ष्मा्यौषधीनां ब्ष्यस्वं ( ४. ४. १-८ ); रोहिण्योषधेर्भससन्धा- उपयोगाश्च तन्न तन्नोपरभ्यन्ते ॥
नक्ञतपरतीकारकतवेन वर्णनं ( ४. १२. १-७ ); सहदेवया अपा-
मार्गस्य च तृषान्ञघेन्दियादिगतनानारोगङ्कव्याशन्वादिनाशक- व्राह्यणय्स्थेष्वपि-एेतरेये-षफएचन शरीरोपपत्तेः प्राणस्य-
घेन महिमवर्णनम्‌ (४. १७. १-८। ४. १८ ९-८ । ४. १९. चोज्ञेखः, अशिवनो्दववेयघ्वनिरदेशः, जानेन्द्ियवर्णनम्‌ (५. २२),
१-८); जपामागेस्य पापनिवतंकस्वं मुखदन्तशोधकत्वे च ओषधीनां रोगनिवारकव्वम्‌ ( २. ४० ); अञ्जनेन नेत्रामयनि.
(७.६७. १-३); सिराच्योषधे्महिमगानं (५. ५, १-०); कुष्टोष- वृत्तिः ( १.२ );. शापादप्युन्माद्ङ्ष्टादीनामुद्धवः, शुमःरोपा.
सेस्वक्मयचमङष्टादिनाशकस्वं (५. ४. १-१० ); ऊष्टौषधेर्वणंनं ख्याने वर्णकोपेन जखोदररोगः, दछन्दोग्ये--हदयनादीवर्ण-
( ६. ६५. १-३ ), कुष्टधूपस्य तवमनाश्चकस्व कष्टस् ं, य विश्वमे षः नम्‌ (८. १.६); जआहारपाकप्रकरिया (९.९ ), निद स्वमप्नोर्टेखः
जत्वयातुधानतक्मनाश्षकव्वादिमदह िमा ( १९. ३९. १-१०) ; (४.३. २ ), पामारोगवणंनम्‌ ( ४. १. ८ ), रोगं निरस्य षघोड-
्षर ीकव िद् यरी कप् रठि काव िश् वशा रदत क्म सु जङ्गिडौषधोपयोगः राधिकशतवर्षयुष्यकारकस्योपायस्योर्रेखः (३. १६);
आाक
(५. २२. ५-२४ ); जङ्गिडौषधेबंणने, तन्मणगिवन्धनं, तस्य े ्वङ्गानां (१. ९. १.) मदुष्याङ्गानां (२.
करस्यानाश्चकत्वमायुष्करस्वं, विष्कन्ध (वातरोग ) नाञ्च ४.बृह११)दरप्यक --अश
हृद्यतन्नाडीनां वणनं (२. १. ५९।४. २. ३।४, २.२०),
स्वम्‌,जाशरीकविश्षरीकवरासष्ष्टयामयविश्वशारदतकमनाश्चकव्वं मयुष्यव्ृक्तयोस्तुरुना (३. ९. २८ ), नेत्ररचना (२.२. ३ >,
(२.४. १-६।१९. ३४ १-३०); जङ्गिडस्य विष्कन्धहरत्वं, विश्च. मध्युरखेखः (३. २. ११); शापाद्रोगोत्पत्तिः (३.७. १।३,
सेषजस्वं, यचमहरप्वंवातरोगनाशकस्व, धिन्नददुपामादिष्वग्दो- ( ९. २६ ); सामविधानव्राह्मणे-सपैभ्यो रणं ( २. ३.
षदुनांमरोगनाशकस्वे (५९ ३५. 9-५); विषाणोषधे रक्तछरवे ३. )› भूताक्छान्तिः (२. २.२.) रोगाक्रान्तिः (२. ३.३.१;
वातरोगे च हितकारकत्वं ( ६. ८४. १-३ ); वरणौषधेंदमनाः
हाकत्वं ( ६. ८५. १-३ ); पिप्पल्याः चिष्तातिविद्धवातीक्ुतरोग' तैत्तसीयारण्यकेो-कृमिवर्णनम्‌ (४. ३६, १);प्नोच्रन्येषु-
मेषजस्वं ( ६. १०९. १-२ );वलासविद्रधरोहितकविसह्पकरो. द्राश्वलायनीये--यत्तीयपञ्यषु ऋरिवि्चु च परिहरणीयानां
गेषु -चीपदुनामकौषधेरुपयोगः ( ६. ३२७. १-६); दैवीतितः । रोगाणां निदेशः; श्रापस्तम्बीये-ङकमिवणनम्‌ (१५, १९.५);
छ्योषधेः केशचवर्धनोपायस्य वर्णनं ( ६. १२६ ५-३। ६. १३७. शृद्यभ्रयेषु-आदवलायनीये--पूयोदयास्तसमययोः शय-
-१-३ ); गुणुटधपूपस्य गन्धेन यचमनाश्चः ( १९. २६. १-३ ); नस्य रोगहेतुर्वं (२. ७. १.२), यजभाने परिहरणीयश्य रोग.
जलवायुद्धाय प्रसर्पिणां रोगाणां नाशचकसेन अजशङ्गयाः, स्योज्ञेखः (१. २६. २०); पशुरोगनिवर्तंनम्‌ (४. ८. ४०).
अद्वारा प्रसर्पिंणां रोगाणां नाशकष्वेन गुग्गुहुपौलानल द्ाह्कयायनीये--श्षएरीरपीडासमये वेदमन्त्रगाननिषेधः (४,
द्ची्तगन्धिप्रमन्दिनीनां, प्रस्ारिरोगनाश्कस्वेन अश्वत्थन्यप्रोध- ` ७. ३६ ), आग्रहायणयज्ञे भोञ्यवस्तुषु भूतनिवर्तनं ( ३. ८),
शिखण्ड्वायोषधीनां च वणनम्‌ ( ४. ३७. ५-१२ ); ोषधीनां | सर्वरोगनिवर्दनं ( ५. ६. १-२ ); गोभिलीये--रोगनिव-
महिमगानम्‌ ( ६. २१. १-२ ) असिक्री्ष्णाए्ष्णि्रस्वेणती- , तंकमन्त्रोहरेखः. (४.९. २ ), सपदंशोपायः (४. ९. १६);
' उपोद्धातः ।
+ ^ + ^+ ^+ + # ४ १ 0 + + + ~# + + ~^
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श्रापस्तम्बीये--हणखियाः एद्यपत्रादिभिरभिमन्व्रणं (२ प्राचीनकारे शारीरधातुवेषभ्याद्य इव रसोभूतप्रेतपिशा-


९. १०), अधंरिरः पीडायाः करमिहेतुकसवनिदेंशः, बारुके अप चग्रहक्कन्दादीनां सुदरादिदेवानां कोपवेश्ादयोऽपि `रोगकारण-
स्माररोगस्य हेतुतया ऊुक्कुरभूतस्योर्लेखः (७. १८. 9 ), । तया मता आसन्‌ , येन वेदिकमन्त्ररिङ्गादपि “रङोहामीब.
बारे रेत्रियरोगपरिहारः (६. १५. ४); पारस्करेये- चातनः? इत्यादिरूपेण रोगनिरसनाय तन्निदानभूतानां रक्तः
शिरपीडाया मदनेन प्रतीकारः (३-६); हिरण्यकेलोये- प्र्ठतीनामपाकरणमप्युपायतया निर्दिषटयुपलम्यते । पश्चात्तन-
अग्ने रोगनाश्चकत्वं ( १. २. २८), बारुकस्य चेश्रियरोगनिवर्त॑नं वे्यकग्रन्येष्वप्युन्मादापस्मारादिषु भूताचवेकश्चादीनामपि निदा-
(२.३. १०); खादिरे-ङृमिव्णनं (४.४. ३) नत्वेनोल्खेख उपरम्यते । वैदिकाचस्थायामप्येतच्छेविंरेषेणः
कोशिकसुत्रादिष्वाथरव॑णमन्त्रविशेषाणां तत्र तत्र रोगे तन्निदा
गोरोगनिच्रत्तये होमधूमप्रदेशे चारणं (४.३. १३), सर्पं नभूतरकः्र्स्यपसारणपरष्वेन विनियोग
शोपायः ( ४. ४-१ ) इतीदश्चा आयुेंदसम्बन्धिनो विषयास्तन्र ` गकारणव्वेन निरसनीयतयाऽथर्वादिमन्त्रेषु उपदर्शितः । तत्तद्रो
निर्दिष्टा नानाजा-
तत्र न्यूनाधिकरूपेणोपरभ्यन्ते ॥ | तीयङ्कभ्याद्योऽपि रोगकारणीभूतरक्तोभूतादिपर इत्यपि. केषा.
वेदिके साषिष्ये जायुरवेदीयविषयानुपादाय ब्लूफीरड च्िद्धिचारोऽस्ति । -ते च रोगवीजाणुकीरा रक्तोभूताद्यो वेस्यु-
(14. 210000€्‌त ), हिखब्राण्ड ( 4, प्ा1160190त ), कैरेण्ड भयथाऽपि सम्भवन्ति । त्रिशिरखिपादस्करोचनादिरूपेणः
( 29191 ), ड. पी काडीयर्‌ (२. ०6167 ), जाङी (. ० | उवरादिरोगाणां मूतंयो अन्थकृद्धिरस्टिखिता दश्यन्ते, यास्त-
118 ), बोलिडः ( ©. "0. 20111 ) प्षीमरं ( 2170102 ) प्रभ
निनिदानभूतानां रक्तप्श्चतीनां बीजाणुकीटानां वा - रूपाण्य+
तिभिः पाश्चाव्येविपश्चिद्धिः भारतीयेरपि केश्चन विद्धद्धिबंहुशो ध्यारोप्य कर्पिता अपि सम्भवन्ति अद्यते सूचमवीक्षण-
निरूपितमस्ति । सव्िषु विमरशंस्योपयोगिष्वेऽपि प्रासङ्ञिकवि- यन्त्रेरवेक्षणे तेषु तेषु रोगेषु .विचित्रविभिन्नाङ्कतयो `रोग
स्तरभयेनेह विरम्यते ॥ बीजाणुकीटा उपलभ्यन्ते । एवंविधान्भीषणाङृतीन्‌ कीटाणूनः
कौशिकसूत्रकृता तत्तन्मन्त्राणां विनियोगस्य प्रदर्शने तन्म- न्तरशोपर्डधवद्धिः पुरातने्म॑हर्ष्यादिभिस्तेषां रकज्ञोरूपेण वर्णनं
नत्रमहिमानमादक्ञयता चतुर्थाध्याये (अथ भेषञ्यानिः दस्युष- विहितं किम ! भद्यापि पवंतीयादिजातिषु उवरादीनां. भूतादि,
कम्य तत्तद्रोगप्रतीकारोपवर्णने तत्तन्मन्तेरमिमन्भ्य जलौषधा जन्यत्वमङ्गीक्कत्य अपामा नप्राण्यन्तरसंक्रामणवबङिदानाद्यो
दिषानहवनमार्जनादयोऽपि बहश उपाया उपवर्णिता दृश्यन्ते । माभ्तिका उपचाराः `प्रायो विधीयन्ते, सफरूतायुपयान्ति च.#
मन्त्रसंहितामादाय प्रधृत्तेऽस्मिन्मान्त्रिकविधानान्यप्यनुस्यूतानि अध्यसवे फाचिक्कञ्यवहाररूपेण दृश्यमाना अपीदशा- उपाया. न
भवन्तु नाम, परं-तक्मरेगे वातिके मांसमेदःपानं, श्रेप्मिके निमरखाः, अगिं ज्ञु प्राच्चीनवेदिकावस्थात अरभ्येवानुवत॑मानां
मधुपानं, वातपित्तजे तेरूपानं, धनुर्वाताङ्कम्पक्षरीरभङ्गादिवा- विच्छिक्नविकराङ्गेन केनापि सूपेणावशिष्यन्ते इस्यभ्यवसातुं
तरोगेषु ध्रतस्य नस्यदानं, रधिरवहने खीरजसोऽतिप्रवतेने हवाक्यते। ददशो मान्त्िक्रप्रक्रियासंवलितो भेषञ्यविषरयो न
शुष्कपङ्कमृत्तिकापानं, हृद्रोगे कामरे च भ्याधितस्य हरिद्रौदन केवर प्राचीनभारत एव, अपि तु प्राचीनमिश्रपाश्चात्यदेशेषु
भोजनं, श्वेतकुष्े यावज्ञोहितं कुष्ठं गोमयेन प्रधृष्य भ्ृङ्गराजष्टरि- उत्तरामेरिकापयन्तदेशान्तरेष्वपि भासीदिति तत्तदीयपूर्वदृत्ता-
नदर वारुणीनीरिकापुष्पाणि पिदा रेपनं, वातत विकारे पिप्पल- नुसन्धानतः रफुदीभवति ॥
प्राशनं, शसखावधाते रूधिरप्रवहिः ग्याधिस्थरे कथितलान्ञोदक- आथवंणसम्प्रदाये केवर मान्त्रिकी भूतविद्येव रोगनिरख-
सेचनं, राजयच्मङ्कुष्टरिरोरोगसवं गात्रवेदनासु नवनीतमिश्रङ्क नोपाय आसीदिति केषाच्चिष्िचारो न सर्वाश तः स्थिरी भवति ।
पिष्टेन म्याधितशशरीरर्ेपनं, शखाभिघाते छथितदुग्धटाक्तापानं दिके समये मिभ्याहारव्यवहारा इव पापामि भूतप्रेतादथो
गण्डमाायां शङ्कं षष्ठा ठेपनं, जलौकां संस्ञ्य रुधिरप्रवाहणं, |रद्वादिदेवकोपा अपि रोगहेतुतया, ओषधविशेषाणां प्रयोगा
सैन्धवरुवणचुणंप्रकिरणं, बणे गोमूत्रेण बणमर्दनं, मूत्रपुरीषप्र `इव तत्तदेवतानामाराधनेन प्रसादनानि, मन्त्रविरोषेभतादी
तिरोधे सेदनीयहरी तक्यादिद्रभ्यबन्धनम्‌, आखुकिरिपूतीकम न्यपारयि ` >गिणां मार्जनजखाभिषेचनाभिमन्त्रणधूपनादी
यितजरसपरमन्दसाव्रस्कानां जरेनारोड्व पानम्‌, `अश्वाद्यारोहणं, न्यपि रोगनिरसन. गयतया उपङभ्यन्तां नाम, तथाऽपि पूरवो
बाणमोक्तणं, `गोदोहन्यां जरे एकविंशतियवाज्निधाय स्ने पदर्दितदि्ा बहूनां रोगाणां कचन शटयप्रक्रियायाः बहूना
उध्व॑मुखे तज्ञलप्रवेशनं, खोहक्चखाकायाः प्रवेशनं, यवगोधूमव- हरीरावयवानामनेकसङ्खधानां तत्तद्रोगनिबहंकाणामोषधीनां
ज्वीपश्यमूरपाविकाक्राथरूपस्य जरूविसोरफाण्टस्य पानसित्या । च मन्त्रछिङ्गतः स्पष्टमवगमेन मन्त्रविद्यायामिव सेषजप्रक्रिया-
दीनि मेषजान्यपि ्रतीकारोपायतया निदिष्टानि सन्ति। मन्त्र यामप्याथवणी प्र्ृत्तिरासीदिति स्फुरीभवत्येव । तेन मन्त्र
प्रतिछठापनीयेऽपि श्चन््युदके शमी-शम-कार-व्ा-शाम्य- विद्या भोषधिविधथा चेव्युभये वव्मनी पूवैः परिगीते भवग-
वाका-तकाश्चा-पटाश्च-वाशशा--शिदापा-किम्बल-सिपुन- दर्भा भ्येते 1 परमाधर्वणसुक्तमन्त्राणां केषालिच्छाग्दिकार्थारोचने
पामार्ग-कृति-लो ्ट-वल्मी क--वपा-दुर्वाप्रान्त~बीहि-यवाद्यः ।भूतविधाधसंप्क्तायुवेंदीयविषयप्रतिपादकव्वेन ˆ.दश्यमानानी-
शान्तौषधयो निरे विधीयमानास्तहुदकस्य `भेषभ्यदश्ञाऽपि मपि कौरिकसूत्रक्ृताऽभिचरमन्त्रकरण्डकबन्धनयूतापसारणाः
बहुबाधापहारि्वं ज्ञापयन्तीति मान्तिक्यां क्रियायामिव भेष दिपरष्वेन विनियोजजनं जरांदिप्रतिपादकानां `शन्नोदेवीसियाः
जवरिद्यायामपि सुत्रङ्ृतस्तदुपात्ताथवंसंहितायां अप्यान्तरः सम दिमन्त्राणां `शानिग्रहादिपरस्वेन गृद्यकारादिभिर्विनियोजनर्भिवं
न्वयो विक्तायते॥ - ` ` ~ कालछमागतं दृष्टिमेदं धिभावयति ॥ ~. ~
८ उपोद्धातः ।
क + ++ 04104 + + + ^)

ऋवसहितानामरपमान्रया दश्यमानाया मान्तिकोपचार- यति । सोऽयं प्राचीन जायुर्वेदो बह्वाश्चीन्द्रसंहितारूपेण प्रथ


म्र्रियाया सैषजञ्यविद्यायाश्चाथवंणे आधिक्यदशशनेन विकासः, गाद्मनाऽवस्थितः स्यात्‌ ! येन केश्चनाचार्येरूपवेदरूपेण, कश्य.
तदनु मन्तरलिङ्गतः केवरुभेषुभ्यावक्नोधकस्वेन दष्टानामपि पेन पञ्चमवेदख्पेण निर्दंशनमपि साधु सिध्यति । (सोऽयं प्रत्नो
मन्त्राणां मान्तरिकप्रक्रियया कौशिकसुत्रहृता विनियोजनस्य मूलभूत भायुवेदः करारकारमुखप्रविष्ठतया न परथगुपरभ्यते,
दमेन सत्सुत्रकाटे मान्त्रिकप्रक्रियाया विकासविरोषः प्राते. केवरं वेदिकर्सदितादिषु तत्र तत्र विररुविकीर्णभावमापररः
तेति क्रमविकासपररपराऽवसीयते । किवा अथवां भूतवियाया- केथ्नाैः, सस्प्रदायपरस्परया केषा्िन्महर्षिप्रशतीनां छे.
माचायं सीदिति श्रयते । तत एवाथवेणे वेदे भूतविद्याया खन्यामवततीर्णैः केश्चनांरोरघासमलाभमवगमयति, शरक च
मान्त्िकभर्नियायाश्च विषया बहुलतया संमिरिता भवेयुः । ददाति ॥
अस्मिन्‌ कौमारण््व्यतन्तरे बाररेगेषु स्कन्दापस्मारग्रहपूतना" „ उपरभ्यमानायुवेदीयप्राचीनसंहितागतानू [परिदश्यमान्‌-
द्यो निदानतया धूपनपूजनादयः प्रतीकारतयः इव धातु. वेदिकस्ताहित्यगताश्चायुवदीयविषयान्‌ पुरे निधाय विमक्षंऽपि
दैषभ्यादिकमपि रोगहेतृतया तनत्तदौषधोपयोगा जपि निवह रोगाणां संज्ञाः, जोषधीनां नामानि, प्रयोगप्रक्निया, निरूपण.
णोपायतय। प्रतिपाचमानाः पूर्वकारानुच्रत्तामुभयतो दशं शरी च, बहुशो वैरुक्ण्येन श्यन्ते । आ्षसंहितागतेषु विषयेषु
जिदयन्ति॥ ` ति वैदिकबिषयेभ्यः क्रमागता विकसितावस्थाऽपि विकेषविधया
वैदिकसाहित्ये बहुशो वेयकविषयोपरम्मेऽपि पूर्वोपदि- र्यते । भाषाश्लाखदृश्िरपि एवंरूपा परिचरति न स्वरपान्तरारे
तरील्या ऋण्वेदे भशिपरष्टतीनां तत्तदवदानरूपाणां मेषर्यविष. सम्भावयति । प्राचीनस्वेन संमानितानां सत्रादिग्रन्थानागुप-
याणां केवलमेतिदासिकेन स्पेणोपलम्भो भवति । कया प्रक्रि षिसहसरबषंपूवंतनानां कचिङेखानां वौद्धसाहिस्मरानां, किं बहुना
ययाऽध्िभ्यां विश्पराया जहा योजिता, ऋल्राश्चस्य चड्षी काश्यपात्रेयधन्वन्तरिरेिखानामष्याघुनिकटेखेः सह तुरुनायां
उन्मीलिते श्रोणस्य जानु प्रगुणीकृतमिस्यादयो विधानविशेषा । रेखशेल्या* भाषादशा च यावदृन्तरमुपरभ्यते, ततोऽष्यतिमा-
न ततोऽवगस्यन्ते । कचित्‌ कानिचिदोषधानि कीर््यन्ते, न तत्न त्रयाऽन्तरं वदिकपंहितागतादायुर्वेदविषयादाषंसंहितागते तद्धि-
9 ४ ४

तेषामुपयोगप्रक्रिया निर्दिश्यते । अथवंसंहियां यद्यपि नाना- ।षये समीच्यते। सोऽयमीदृशो विदोषो बहोः समयस्यान्तरारुः
रोर, खौवधानि, रोगहेतवः, इतिग्रथृत्तयः, अञुकौषध्युपयो- |मन्तरा न सम्भवति । यस्मिन्‌ कस्मिक्णपि साहित्ये वि्तान-
गोऽश्ुकरोगप्रतीकार इत्यादयो विषयविशेषा जपि कचन मन्त्र |विकासः कमिक एव दश्यते । भयुर्वेदीयविन्ञनेऽपि वेदिकसा
छङ्ककेऽवगम्वन्ते, तथाऽपि मेतावता तदीयोपयोगप्रक्षियावि. हिस्यात्‌ संहितातन्त्रसाहित्ये विषयविकास् उपरभ्यमानो बहु
शेषा ज्ञातध्या अवबुध्यन्ते इति मन्त्रलिङ्गानि केवरं तादाखि- कालक्रमागतां पूर्वपरम्परामवरुम्बते 1 वेदिकसंहितासाहिस्यमन
मावदवित्तानपरिस्थितिं सूचयन्ति ॥ ब्राह्मणोपनिषत्करपसूत्रादिधारासु विररख्तया वहन्नप्यायुरवेद्‌-
धयत्रौषधीः समग्मत राजानः समिताविव । विज्ञानप्रवाहः स्वाचार्यपरम्पराप्रवाहपरिपोषमन्तरा प्राचीना.
विप्रः स उच्यते भिषपरक्ञोहामीव चातनः षंसंहितातन्त्रादिषु क्ानोदधि कथमनुदृशयेत्‌ । तेन तत्र तत्र
( ऋक्‌. १०. ६५. ६ ) पू्वाचायरपि निदिष्टानां नामशेषाणामन्येषामनिदिं्टानां नाश्ना-
ऽपि विल्सानां च पूव॑तराचार्ाणामौपदेशिकी विक्ञानपरम्परैव
शवं तेराजन्‌ भिषजः सदखमु्वीं गभीरा सुमतिस्तेऽतु॥ भस्मिन्नायुवेंदीयविन्ञानप्रवाहे वेदिक साहित्यं प्राचीनसंहिता-
| ( ऋष्‌ १.२४.९ ') श्वान्तरा सेतुरूपेण वर्तेत । अदश्ययाऽप्यनया मध्यसेतुभूतया
शतं ह्यस्य भिषजः सदसरमुत षीरुधः ||“ परम्परया अन्ततो गत्वा एकद्रसहलवर्भभ्योऽप्यन्यूनयैव भवि.
( थव २.९.२३ ) तभ्यम्‌ । “विविधानि श्ाखाणि भिषजां प्रचरन्ति रोके", द्यु.
हत्यादिमन्त्ररिङ्गेभ्यः क्षत जोषधीनां संग्रहीतसे चिप्रा िखन्नात्रेयाचार्यः स्वसमयेऽप्याचार्यान्तरशाख्रोपलम्भं दर्ञंय.
(स्ख

भिषज सनु , भिषजोऽपि न केवरमेकट्ाः, अपितु शतशः; ति । तेनात्रेयादिभ्यः पू॑ंमप्याचार्यान्तराणं सर्वं स्फुटीभवति॥
श्रोषधितेन ज्ञाता रुतादयोऽपि न षिरखाः छन्तु सहश्लश्च इेदमनुसन्धेयं भवति, वैदिके जयुेदीय विज्ञाने श्षस्यप्र-
मापक्िष्यवगमनेनातिपूंकारेऽपि शतन एतश्रस्थानयायिभि- क्रियायां श्ारीरकादिविभागान्तरेषु वा सूच्मा जपि विचारि.
म॑हर्षिभिरवरुर््यमानस्तदीयं विक्तानविशेषं विशदीङ्र्वन्‌ , ।शोषाः ससुन्मिषन्ति । ओीषधप्रक्षियायाः पर्यारोचने धातुरतर-
उपयोगरक्रियां कारस्येन निद्ंयन्‌ , भेदैः %द्खलितस्यैमै. साद्यस्तादाविकीं प्रकियामनारूढाः, वनस्पस्यादीनि साधार-
पञ्यविषयेस्तदेकप्रधानतया सन्टधोऽन्य एवायुर्वेदः एथग्प्र |णान्येदौषधानि प्रायः प्रचयुजञ्यमानानि विज्ञायन्ते । तत्रापि
ल्थरङूपेणावस्थितः स्यात्‌। यतो विज्ञेयानां विषयविरोषापां पूर्वोिषटमन्त्रटिद्गाद्याो चनेन जङ्गिडकुषठरोदिण्यपामारगप्रश्तयः
च वेदैष प्राय पूकेकश्च एव पदार्थास्तत्तदरोगोपशषमाय प्रयुज्यमाना भास.
सूचनाः, ` तदुपयोगेन सक्नातराभानामितिवृत्तानि
दश्च वश्च विरलविकीणैसवेनास्माभि्ंभ्यन्ते । वेदशब्देन सम- जित्यवम्यते 1 कौरिकषू्द्दपि प्रायस्तयेवेकेकेषां वस्तूनां
मदुेरुषृतपिष्पलकाष्टादीनां तन्न तत्र रोगे उपयोगं दर्शयति ।
व- | आख्विषोरपराण्ट-खङ्गराजादिपुष्परसङेप-नवनीतमिश्रकुषटपि-
एरेप-कथितदुग्धलाक्षापानादीन्‌ द्विन्नवस्तु योगोपचाराचू कति
उपोद्धातः । | ९
न कि म जि पोतो त १

पयानेवोद्धिखति । तत्तद्रोगाणां तत्तहीषषहयणां वस्तूनां च यथा वग्गादिनिर्दिं्टजीवकसाह्र्यादूजुद्स्यासिमन्ुपदेशे


देनानौषधयो-
नानोषथयो-
वद्वगमे यथावसरं परिहारोपायाः स्वयमूहितुं शक्यन्ते इति गरूपाणां बहूनामौषधानामुज्ञेखदचनेन नानाद्रव्ययोगौषधक-
निध्याय मूरूपरिभाषारूपेण विद्तेयायच्‌ शाखा्थानुपादाय वाति. ल्पनाऽपि जुद्समयात्‌ पएूव॑तः प्रचलिताऽऽसीदिति अन्थान्तरा-
कपैत्तिकर्रष्मिकतद्धरजीवनीध्रेहणीयतर्पणीयसंशमनीयचरश्या- दृप्यवगस्यते । पाश्वात्यभैषज्यपद्धतावपि निर्हरणीयदोषानुसा-
दिरूपेण वर्गश्च ओषधीर्विंभञ्य मूरुभूतानि निहरणसाधभानि रेण विज्ञाततत्तद्गुणागुणानि वस्तूनि का्य॑कारे सम्मिश्रूय भ्रयो-
पञ्चकर्माणि चेवमादीन्‌ ग्रधानविषयान्‌ सङ्गृह्य तत्तससंहिताक- गस्य सम्प्रदाये पूवंतः प्रवर्तमाने संङ्कीर्णदौषमयानां रोगविहे-
तृभिः सूत्रस्थानमादितो न्यवभ्यत । तावताऽपि यथावद्विक्तेन षाणां निवर्हणाय २५८५४ योगौषधान्यपि अद्यत्वे प्रकल्प्यन्ते ।
विशद्धप्रतिभानवता प्रणिधानकलिपते्योगौषधे रोगाः परिदर्तं नुखक्षाफामलादिरूपेण कानिचित्‌ निबन्धेषु अकाश्यन्ते च ।
दाक्यन्त इति सूत्रस्थानमात्रमपि सैषज्यपर्यासं पूर्वरूपमिति पूर्वापर: स्थानभेदः संक्तेपविस्ताररूपेण स्वप्रमेयं{यथावदवबो-
वक्तुं न खह्धु न शक्यते । अयत्वेऽपि अराम्यपर्वेतीयादिव्यवहरेषु धयन्तीभिः संहिताभिः पश्चात्तनेर्निबन्पैश्ेवं विश्चदीकृतमप्येत-
तच्र तत्र रोगे एकद्ववानस्पव्यौषधोपयोगस्तथेव निर्वाहश्चामिद- हविानं दिष्दरनमान्नं भवति । शारीरिकी प्राङ्तिकी च परि
श्यमानः प्राचीनां मौकिकीं रक्रियामनुघतां निदशंयति । अन- स्थितिर्म ख्ध॒ सर्वेषां सर्वदा सर्वत्ेकरूप्यं वहति । प्रतिव्यक्ति.
न्तरं तत्तद्वस्तूनां गुणागुणपरीत्ताजुभवे विवधंमाने रोगेषु मिथः प्रकृतिविभेदेन स एव रोगोऽप्युचचावचेदोषान्तरसम्पृक्तैरपि तैस्तै-
साङ्कर्यमवाप्तानां सर्वदोषाणामेकप्रयोगेण परिजिहीषया समान- दोषेर्विभिद्यानेकरूपतां धत्ते । यथा थथा देश्काटजकवायवाहा-
गुणानां विरोषगुणानां चौषधानां योगेन सामूदहिकप्रयोगद्श्िरपि रविंहारादिपरिस्थितिविभेदेन -दोषसाङ्र्येण नानारूपत्वम
पद्य
म्रावतंत । यथा यथा प्राणिनिकायस्याभिवरद्धिः, देशकार्जल- रोगा वर्धेरन्‌, नवनवाकृतयश्च भरादुभवेयुः, तथा तथा देश्ञका-
वायवज्ञपानस्थानावस्थादीनां परिवृत्तिः, मिथः सन्निकर्षसङ्षा रादिविशेषाननुसन्धाय ओषधविशेषाणामावपोद्धापौ मान॒
दीनां चोढयः, तन्मूला बाद्या अआगमभ्यन्तराश्च शारीरिक विकारा लुभावौ निक्तेपरचनापीौर्वापर्यक्रमविरोषादिकं वा प्रकल्प्य नव-
नानारोगात्मना प्रादुरासस्तथा तथाऽनुक्रमेण तत्परिच्छेदस्य नवानां अरतीकारोपायानामनुभवविथुद्धानामोषधान्तराणाञुप-
तज्निबरृयुपायच्छौशरस्याप्युपचयेन परिस्थितिविभेदतः स एव चयेन संररणमुपच्ंहणमपि प्राचीन आयुवेद विक्तानकोश्ञ
रोगोऽनेकधा दश्यमानः कश्चन सङ्कीर्णेन नवरूपेण नवया संज्ञा- समपेश्तते ॥
याऽपि व्यवहियमाणो बभूव । परिहरणीयतत्तदोषपरिपन्थिनां
वस्तूनां व्यूहास्मकानि योगौषधान्यप्यनेकशः करिपितानि
भवेयुः ।ईद्शानि पूरैः कल्पितानि प्रणिधानोज्जवरेष्वन्तःकर- ८ २) आचायंपरिच्छेदो ग्रन्थपरिचयस्तहितिः ।
णेषु स्वयं प्रतिभातानि योगौषधान्यप्यन्त्निवेश्य प्रायः सूत्न-
स्थानरभ्यान्‌ विषयानुपाद्ाय विचारविरेषेश्चोपलद्य सूत्रस्थान- | सेषु भजावर्गेषु स्वास्थ्यपरिपारनायापेदणीयामायर्वेदवि-
विवरणाव्मना किर स्थानान्तराण्यपि संयोभ्य समुचितेन संहि. ` द्यामवधायं स्वयम्भूरेव संहितारूपेण प्रथमत
तारूपेण निबन्धने महर्षयः प्रवृत्ताः स्युः । एवयमुत्तरोत्तरं पू्वा- श्रायुर्वद्स्य प्रकाशयामास । सेयमश्वीन्दराचयनुक्रमेण आपं
प्रकाराः समाज्ञमवतीणां रोके प्रश्वारं प्रपेदे इति पूर्वदत्तं
पराजुभवसिद्धान्‌. रोगविरोषांस्तत्परिहारोपायविशषांश्चानुप्रवेश्य
श्राचार्याश्च. वर्णयन्स्यायुेंदाचार्याः। अस्तु नाम स्वयम्भू
देशकारूपरिस्थितिविशेषानुसन्धानसमुन्मिषितद्टयो विष्ठांसोऽ-
पक्रमं प्रकाशः, देवो वा उपदेश्चः, आर्षोवा
प्यनेकानायुर्वेदग्रन्थान्‌ निबबन्धुः । इत्थं नानाद्रन्ययोगचिद्धा- सर्ग आयुर्वेदस्य, सर्वथाऽप्येतदीय प्रादुभांवः भ्रततर एव ।
नामौषधानां प्रयोगपद्धतिरपि नार्वाचीना स्यात्‌। एदनमहादायेन ..
-.-~~-----------4-----------~-----------~----------
_ +

पूवेतुरष्कस्थानगत तङ्हाङ्ग (70 7०१०४ )स्थरोपलन्धं प्राची-


१८ क †स्वयम्भूर्हा प्रजाः सिखक्षुः प्रजानां परिपालनाथेमायुैवभे-
नपुस्तकमिति हानेख्महाशयेन निर्दिष्टे पुस्तके भराचीनेरानभा- ८ कादयपसंहितायां ए. ६१.)
वायं ऽसृजत्‌ 1
षानुवादेन सह यो मूरसंस्करतरेखोऽस्ति, तत्र भगवता (द्धन)
(ख ) इह ` खख्वायुवेदमषटङ्गयुपाङ्मथवैवेदस्यालुतपाचैव प्रजा
जीवकं सम्बोध्योपदिष्ा ओषधविरेषोक्तय उपकभ्यन्ते। महा- |
दलोकरतसहखमध्यायसहस्रं च कृतवान्‌ स्वयम्भूः ॥ {
१. ‰. ©. 20404 9ा]६४7 (06100190 | ` (-खुश्रुते ख,अ. १)
, .. | ०1, २, 416 |` (ग) ्रह्मणा हि यथा पोत्तमाशुवद परजापतिः (चरके ख अ, १)
२ छा० उ०
१०५ उपोद्धातः ।
ए त + - ~न त न" र
-------------
कि 6 ५
~ + 0

आयुर्वेदीयभूटप्रम्धेभ्य इत्थं सम्प्दायक्रमोऽवगम्यते--


ह कक

नह्यय

धनौ
इन्द्रः
।---------
[न 6 | ( चरकसंदिताल्लेखात्‌ )
)
खात्‌
( सुधुतसंहितालते ( काष्यपसंहिनाल्ेखात्‌ )
धन्वन्तरि | भरयपवसिषनिशवः भरद्वाजः
|
दिवोदासः एषां पुत्राः शिष्याश्च । जातरयषननः
सुश्रतौपधेनव- अध्चिवेरामेड-
वैतरणीरभ्च- जतुकर्णपराश्चर-
हारी तत्तारपाणयः।
पौष्कलावतकरवीयं-
गोपुररक्तितभोजादयः ।
अस्यां काश्यपसंहितायामुपदेशषपरम्परानिदहने “स्वयम्भू- तन्मतम्रतिष्ठापनं चावबोधयन्स्यात्रेयोक्तिः काप्यत्रात्रेयसंहिता-
जहयाऽऽयुवेदमगेऽखजत्‌; ततश्च तं पुण्यमाुर्वेदमधिम्यां कः यामन्तरनुपरभ्यमाना संशयमावहति 1 तदेवमात्रेयगुरत्वेन
परददौ, ताविन्दराय, इन्द्र छषिभ्यश्चतुभ्येः कश्यपवसिष्ठत्रिभर- मन्यमानो भरद्राजः कतम इति चैतावता निश्चेतुं शक्यते 1
गुम्यः, ते पत्रेभ्यः शिष्येभ्यश्च प्रददुहिताधंम्‌" € ० ६१ ) इति काश्यपसंहितायां रोगाध्याये ( पृ. ३९ ) केवरं कप्णभरदवाज-
रेखेन इन्द्रात्‌ साप्ादेव कश्यपादिभिः पुरातनेमंहिभिः मथ स्योङ्घेखोऽस्ति। सोऽपि सविरोषणो विभिन्नो भारद्वाजोऽवगम्यते।
मत एषा विद्या प्रा्ठाऽवगम्यते । चरकोपक्रमथरन्थे रोगेरुपदु- आयुर्वेदाध्ययनविधाने काश्यपीये ( पर. ९४ ) म्रजापत्यश्-
तानां छोकानासुद्धारोपायस्य विविस्सया समवेतानां महर्षीणां न्द्राणां सर्वप्रस्थानपरमाचार्यस्य परमपुरपावतारस्य धन्वन्तरेः;
म्रेरणय। इन्द्रसुपेत्य तस्मादायुरवेदमवाप्य प्रतिनिदृत्तो भरद्वाजो स्वप्रस्थानमूलाचार्यस्य कश्यपस्य स्वाहाकारदैवत
स्वेन निर्देश
महर्षीनुपदिदेशेति निर्देशेन दन्द्रोपदिष्टाद्वरद्वाजादेव महर्षीणा- इव आत्रेयसंहितायामपि (च. वि. अ. ८ ) म्रजापत्यश्वीन्द्‌-
मेतद्धिधाधिगमो रुभ्यते! भरद्वाजो नाम ञयुेदविदयायाः धन्वन्तरीणामेव नामनिर्देशेन सह स्वाहाकारविधानमस्ति ।
कश्चन प्राचीन आचायों उवरसमुचयादिषृदधुतैस्तदवचनेरप्यव- तत्र सूत्रकारिणास्रषीणामिति सामान्यतोऽप्युर्केखेन ततो
गम्यते । महाभारतेऽपि वे्यकाचायंस्य भरद्वाजस्य नि्दंशोऽ मरद्राजस्यापि ग्रहणं सम्भवति । परं स्वीयग्रस्थाने इन्दाव्‌-
स्ति । चरकसंहितायामुपकमोत्तरभन्धे भरद्वाजस्य द्विधोह्लेखो नन्तराचार्यभावेन स्वस्यापि शगुरूतवेन च दृ्टस्यास्य विशेषतो
दश्यते । वातकराकरीये ( च. सू. ज. १२), आत्रेयभद्रका- नाश्ना महणं समुचितं किमिल्युपेकितं स्यात्‌! यथाहि काश्य
प्यीये (च. सू. अ. २६) च कुमार्षिरोभरद्वाजस्य मतं पीयोक्तौ कश्यपात्निवसिष्टगुपु इन्दस्य साक्तादौपदेरिकः
दर्ितमस्ति । स च भरद्वाजो विरोषणेन ्यावरृत्तोऽन्य एवाव- सम्बन्धो दर्दितः, तथेवात्रेयसदितायामपि रसायनपादे ( च.
गम्यते । एतदीयं मतमात्रेयेण प्रतिरिक्चं च । यन्नःपुरषीये चि.अ 9) गु्वत्निवसिष्ठकश्यपानामङ्ियोऽगस्त्यपुरुस्त्य-
(च. सू, अ, २५), खुड्खीकागभांवक्रान्तौ ( च. शा. अ. ३) वामदेवासितगौतमादीनां च सात्तादेवेन्द्राद्रसायनौषधघोपदेशः
च अविरोषितस्य भरद्राजस्य मतोर्खेखोऽस्ति। तत्रापि भर प्रदर्शितः नात्रापि भरद्वाजस्थोश्ेखोऽस्ति ! वहुकाखान्तरेण
ह्वाजमतमात्रेयेण प्रतिकतेप्यकुक्तावेव निचिक्षमस्ति। उत्तरत्र परर्वापर्यवतामप्याचार्यांणां चरकोपक्रसम्रन्थे महर्पिसमवये
( च. च्चा. अ. ३) प्रतिरिंक्तेन भरद्वाजेन जिन्ञासया पृष्टे आत्रे सहभावनिरदशः, उन्तरमन्थानुरूपरेखभौटेस्तत्रादङ्छनमपि
येण विशेषविवरणं प्रदत्तं चास्ति । नद्येव निर्देशोऽस्थापि गुर संशाययति । इतश्च भरद्राजादेव मदर्पीणामायुर्वेदविद्याखर्िघ
भावीचिव्यं संगमयति । वातकरुकरीये "कुमारकशिराः इति दश्ैश्वरकीय उपक्रमग्रन्थः किमाश्षयक इति विमश्चस्थान-
भरहाजविशेषणमात्रेयगुरभरद्राजनिषेधार्थम्‌ इति, खुडधीका- मेतत्‌। तदेवं सर्वतोऽनुसन्धाने कश्यपवसिष्टातरिश्ठगुमहपि
गभावक्रान्तौ “भरद्ाजशाब्देनेह नात्रेयगुररुच्यते किन्तन्य एव भिरतिपुराकारादेव स्वपुत्रशिष्यसन्ततिष्वायुर्वेदविद्या प्रच-
भरह्ाजगोत्नः कश्चित्‌ इष्युकिरखष्टीकाकारश्कपाणिरभयत्र तिता । येनात्रेयादिशाब्दानां गोत्रनामतया आत्रेयपरम्परायां
` निरदिषटस्य भरद्वाजस्य गुरुत्वाभावं स्पष्ट दर्शंयति ।चपाण्युक्त- चरकसंहितामूकभूताचार्य आत्रेयपुनवैसुः, अन्ये कृष्णाग्रे
दिज्ञा गोत्रवाचकेन भरद्वाजशब्देनाभिधेयानां बहूनां सम्भवेन भिचा त्रेयादयोऽपि दृश्यन्ते । कश्यपपरम्परायामपि काश्यपः
अश्रिपरम्पराप्रा्तविदयेनाप्यात्रेयेण कस्माद्धिदधरहाजादपि एत- बृद्धकारयपादय अन्येऽप्याचारयाः प्रतीयन्ते । एकाचार्यगोन्र-
हिश्नाया ग्रहणस्य सम्भवेऽपि भरद्राजस्योपदेशग्रहणं संमाननं परम्परागतेनापि वेशिष्टवराभाय भावचार्यान्तराष्ि्ाय्रहणस्या
उपोद्धातः । ११

प्यौचिष्येन चरकोपक्रमटेखानुसारेण स्वपूर्वपरम्पराप्राप्षचियेना- नामेकेकच्योऽपि परिहतये अच्षटदरारकोपायानामिव दष्टोपाया-


प्यात्रेयपुनवंसुना भरद्वाजादपि शिक्ताविशेषो गहीतः नामपि कमशो विकासेनाथवंणविकासमषप्युपजीव्य शारीर-
चति, श्छगुपरम्परागतेनापि जीवकेन मारीचकश्यपविद्याया मेष्ये जखक्रियाप्राधान्यञ्पादाय शल्यं, बहिन्ियभ्रधा-
ग्रहणमस्यामपि संहितायां दश्यते। महाभारतर्ेखतो भर- नोत्तमाङ्गमुपादाय श्ारूक्यं, बरूवीर्याभिषद्धिप्राघान्यम्ुपादाय
दाजाद्वन्वन्तरे्वियालाभस्य, दिवोदासस्य भरद्राजाश्रमग्रापेश्च वाजीकरणं, वयःस्थापनादिमहाफल्दीधंम्रयोगविशेषायुषा-
रामेऽपि सुश्रतसंहितारेखतो धन्वन्तरिदिवोदासस्य इन्द्रा- दाय रसायनम्‌, ऋतुगभंवबाल्यादिप्राथमिकावस्थासभ्बन्धयु
देवेतद्ियारुब्धिरवगम्यते । यथातथाऽपि सवेषासिन्दस्य पर- पादाय कौमारश्वत्यम्‌, एतदितरक्ञारीरमानसभेषञ्य-
माचार्यतया साक्तात्‌ परम्परया वा मूलोपदेष्ट्वो्ञेखः संवाद्‌ा- मुपादाय कायचिकित्सा, वहिरगन्तुकविङकतिग्ररमने सपं
यैव जायते। त॒ एते धन्वन्तरिमारीचकश्यपात्रेयपुनर्वसवो बुधिकप्र्ठतिप्राण्यादिविषविश्नवमुपादाय अगदतन्त्र, भूतम्ह-
यथास्वं विक्तानानि लखोकोपङ्रतये संहितारूपेणान्तेवासिन उपा- स्कन्दादिदेववर्गविश्चवमुपादाय भूतविद्या, इति चरिविधदुःख-
दिदिषुः । तदेवं वेदिकविक्ानपरमभूमिकायां बाह्यं विक्तान- शाखाविशेषानयु सन्धाय तन्तखतीकारदशाऽष्टौ प्रस्थानानि
वीजयुप्टभ्य प्रदुभूतोऽयं चिरस्न आयुर्ेदकल्पतस्रथिन्दर- विभक्तानि म्रतीयन्ते । पूर्वाचार्याणामनुसन्धाने बह्यण इन्द्रस्य
कश्यपात्रिवसिष्ठभरगुप्रश्डतिपरम्परथा धन्धन्तर्यात्रेयकश्यपेरन्ये- च सर्वप्रस्थानीयविन्तानव्यहे आचा्थंभावो रम्यते । महाभारत-
रपि पूर्वाचार्यैः प्रयत्नेन प्रतिशाखं परिष्करस्य पर्ट्वितः पुष्पित खेखत इन्द्राज्ञव्धोपदेशयो भर्ाजः; हरिवंशखेखतो भरद्राजात्‌
फर्तिश्च कारग्रासावसिषटेः कतिपयेरपि फः शिष्यपरम्परा- सुश्चुतसंहितार्ेखत इन्द्रादेव रूब्धोपदेश्षो धन्वन्तरिश्च स्व-
द्वाराऽयापि खोकानुजीवयतीति सन्तोषस्येव विषयः ॥ भरस्थानविज्ञ नेषुसामूहिकन्ञानवानवगम्यते। एकेकशयो विषयस्य
यद्यपि वेदिके साहिव्ये आयर्वेदीयविक्तानस्याष्टधा विभाग- विकासेन बहुरीभवेऽदय्वे एकेकङ्गभैषज्यविशेषविज्ञानवशादे
निदेशोऽष्टाङ्गानां नामोस्रेखश्च न दश्यते, आत्रेयरेखतो बाद्य- केकविभागसिषग्भाववत्तन्र तत्र विशेषवेदुष्यसम्पत्तय शिष्याणां
चिन्ञानसमये हेतलिङ्गोषधन्तानरूपत्रिसुत्रात्मना तदवस्थान- हणधारणसौकर्याय च महाभारतरेखतो भरद्वाजेन, हरिवंश
मवद्ुध्यत इति वेदिकं तद्धिन्तान पुरा त्रिस्कन्धात्मकमासीदि रेखंतो धन्वन्तरिणा जयुवेदीयविक्ञानमष्टसु प्रस्थानेषु विभज्य
त्ववगम्यते, तथाऽपि वेदिकायुरवेदविषयाणां सङ्ग्रहणे पूर्वोप- विकसितमेकेक प्रस्थानं पृथक्प्रथग्भावेन शिष्येभ्य उपदिष्टं
दरितदिश्चा अशिनोरूपवणने जद्मयोजनशकरीकृतशरीरसन्धा- प्रचारमापादितं चेस्यवगमेन तद्ुपक्रममष्टौ मरस्थानानि प्रथक्पू-
नदृष्टिश्रोच्नप्रदानकुष्ठादिनिवारणच्यवनरसायनापुच्रापुच्रोव्पादना- थक्प्रवादरूपेण रोके प्रसृतानि म्रतीयन्ते । कायचिकित्सा
दीनामेन्धस्तवनेऽप्येवमेव नानाविषयाणामुपलम्भेन, ऋऋग्यज्ञ- प्रस्थानीयायामात्रेयसंहितायां कौमारश्ठत्यप्रस्थानीयां काश्यप-
रथर्वोपनिषदादिषु नानाविधमेषन्यानामोषधिविद्याया भूत- संहितायामपिं साधारणाचार्येः प्रजापतीन्द्रादिभिः सह॒ धन्व-
विद्याया विषपरिहारवियायाश्च तत्र तत्र दशनेन शल्यशा- न्तरेहौम्यदेवतात्वेन निर्देशनं, नानाग्रस्थानेषु धान्वन्तरघृता-
राक्यकायचिकित्सागदभूतविद्यारसायनादी नामष्टविधानामेव देरुपादानमपि धन्वन्तरेरटाङ्गविभागाचायंस्वं व्यनक्ति। न
विक्ञानविरशोषाणां विषयाः पृथकपरथय्पा अपि तस्मिन्‌ विन्ञाने केवरं मूरूधन्वन्तरिः, अपितु तस्सम्प्रदायं रुञ्धवानू हितीयो
प्रविष्टा एवासन्निस्यवगम्यते। भूतविय्यायामाचार्योऽथर्वा, महा- धन्वन्तरिदिंवोदासोऽपि अष्टस्वङ्घेषु कतमञमुपदिश्चामीति सुश्वतं
भारतेऽप्युपरुभ्यमानोऽगदतन्त्राचायंः काश्यपः, कौमारण्रत्या- प्रष्ठा शस्यं प्रधानीङत्योपदिशतु भवानिति तेनाभ्यर्थितः शल्य-
चार्यः कश्यपः, शारूक्याचार्या गाग्यंगाख्वादयः, शल्याचचार्या प्रधानं विज्ञानं तस्मे उपदिदेश्ेति सुश्रुतसंहितायासुपक्रमभगे
क्ौनकाद्य एवमेकंकम्रस्थानाचार्यतयाऽवगम्यमानानां महषीणां रेखेन, पश्चादष्टाङ्गविचस्य कण्ठतोऽपि निदृरेन च अष्टाङ्ग-
प्राचीनतरस्वेन दश्षनमायुवेदवित्तानस्यषष्टप्रस्थानेषु विभक्तसवम- विद्याचार्थं आसीदिति व्यक्तीभवति । अष्टज्गविदो भरद्टाजादि
पि प्राचीनकारूपरिच्ष्टं दशेयति। येनेककप्रस्थानवेशेष्यं केषान्चि नाद्रा र्न्धोपदेरोनात्रेयपुनवंसु नोपदिष्टेरभिवेशादिभिः षड्भि
न्महर्षिविदोषाणां विश्रुतयेऽजायत । केषुचित्त सर्वप्रस्थानीय- प्रथक्पृथक्तन्त्राणां ्रणयनस्योल्टेखेन, घन्वन्तरिणा दिवोदासेन
विक्ञानानां सामूहिकरूपेणावस्थानमपि भवेत्‌ । ऋगपेक्तयाऽ- रल्यम्राधान्यमादायोपदिष्टेन सुश्रुतेन सुश्वसंहिताया निबन्धन-
थर्व॑संहितायामोषधिभेषज्यभूतचातनविषापहरणादिविषयाणां स्योररेखेन च तयोः क्रचन प्रस्थानान्तरीयविषयाणामप्युपरम्भेऽ
विकासावस्थाया निदशनेन एकंकांशोऽपि कारुकमेण विज्ञान- पि तेषां प्रसङ्गेन रेत एव तच्रायुस्यूततया श्राधान्यतो व्यपदेशा ` `
विषैः पुष्टिमापद्यमानो मरहणधारणम्रयोगसौकर्याय पृथक्प्रथ-
क्प्रस्थानरूपेण विभागम्रति्ामापन्नः स्यात्‌ । अआ समये
आध्यास्मिकाधिदेविकाथिभोतिकरूपाणां त्रिविधानां हु्वा- १. तस्य गेहे समुखन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा ।
काशिराजो महाराजः सवेरोगप्रणाशनः ॥
१. हेठरिङ्गोषधन्ानं स्वस्थातुरपरायणम्‌ । ` आयुवेद मरद्राजात्‌ प्राप्येदं भिषजा क्रियाम्‌ । ` |
त्रिष शाश्वतं पुण्य बुधे यं प्रजापतिः ॥ तमष्टधा पुनव्यस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत्‌ ॥ (हरिवंशचेअ.२९)
सोऽनन्तपारं तरिस्कन्धमायुवेदं महामतिः । २. अष्टाङ्वेद विद्रासं दिवोदासं महौजसम्‌! =
यथावदचिरात्सवं बुबुधे तन्मना मुनिः ॥ (चरक सत्र.म.१ ) विश्व(मिधञ्तः श्रीमान्‌ सुश्चतः परिगच्छति) (प.उ.त.अ.६६)

१९ उपोद्धातः}
क ^ क + + + + 997 ।

भवन्तिः इति न्यायेन भरद्राजस्याषटाङ्गसम्प्द्‌ येष्वेकतमोऽय- न्मतोदहेदो भार्गववा्यो विदकाङ्कायनद्कष्णभरद्राजदारवाहदहिर-


मान्रेयपुनर्वसोः कायचिरित्ाप्राधानः सम्प्रदायः, धन्वन्तरेदि- ण्याकषयैदेहनिमिगाग्यंमाठरात्रेयुनर्वसुपाराश्र्यभेडकोत्साख्या-
. वोदासस्य वाऽटाङ्गसम्परद यिष्वेकतमोऽयं सुश्रुतस्य शल्यप्रधानः नामाचार्यान्तराणाुल्रेखश्रोपलभ्यमानो बद्टूनायुर्ेदीयान्‌
सम्धदाय इति सम्प्रदायद्वयं चिरादवशिष्टमदयाप्यास्ते । कौमारः पूर्वाचार्याननुस्मारयति ॥
श्रव्यप्रस्थाने आत्रेयादपि पूर्वस्य मारीष्वकश्यपसस्प्रदायस्याप्य- एषु कतिपयानां पराश्चरभेडकाङ्कायनहारीतक्ारपाणिजात्‌-
^ ल्यस्येदानीञुपलम्भेन सम्पदायत्रयं पुरो भवति । चरकसुश्चुत- कण्यादीनामाधिनभारद्राजमोजभानुपुत्रकपिखवलभालुकिखर -
संहितयोर्खश्तोऽन्तर्शतस्य कौमारणश्त्यविषयस्य स्वतन्त्र नादविश्वामित्रादीनामन्येषां चाचार्याणां मधुकोराचरकश्चश्रुत-
अरस्थानभविन संहितातन्त्रास्मना प्रथगेवमुपरम्भात्‌ सुश्चुतो- व्याख्यादिष्ु॒ताडपत्रीयभ्राचचीनञ्वरसमुच्चयञ्वरचिकिंव्सिता-
न्तरतन्तरे संक्षिप्तरूपेण सन्रिवेशितानां शारक्यादिविषयान्तय- दिषु चोद््टतानि चचनान्यपि कतिपयानि लभ्यन्ते, तेनैषां
` णामपि . रवमेव स्ाङ्गपूर्णाः संहितादयस्तत्तदचार्याश्चानेके अन्थसस्वं स्पष्टमवल्ुध्यते । येषाुद््टतानि चचनान्यद्य याव-
`भवेयुरिति निशं शक्यते ॥ प्रस्थानान्तराणि कालवशेन हन्त न्नोपरुग्धानि ताद्श्षानामपिं तत्र तच्र तन्त्रकवृस्वेन सूत्रकारि
दानीं विदध्षानि इस्यन्यदेतत्‌ ›परं महाभारतहरिवंशसुश्रुता- त्वेन निर्देश्चनान्मतोपादानाच्च तेषामपि मन्थसत्वमनुमीयते ।
-दिषृष्ठिखितोऽ्मष्टाङ्विभागः प्राचीन एव । तदेवं कायचिकि- हेमाद्ररछ्तणग्रकाशोद्‌ते शारिदोचो्ताश्चशाखेऽप्यश्चामिपेक-
स्वायां भरद्वाजसम्परदायः, कस्यप्रस्थाने धन्वन्त्रिसम्परदाय- मन्त्रश्कोकेषु आयुर्वेदस्य कर्तार इति वहूनाखषीणां नामानि
श्चेति दधा विभक्तोऽसौ पुनरष्टधा प्रचदृत इति करपना कीतिंतानि द्यन्ते ॥
नत्मराभाय । अतश्च देवाद्यगात्‌ प्रशवव्य्वाची नसमयपरयन्तं देवमहर्िप्रशर-
` ` तदेवमार्वेऽपि समये कार्करमेणाष्टङ्गेषवेकैकोऽपि विभागो तयो बहव आयुर्दाचा्या बभूवुः । अष्टाङ्गस्यायुर्वेदस्य एके
। विकासमुपगच्छस्ैस्तैराचयेरेकेकक्षोऽपि सविरोषं न्यरूप्यत, कोऽपि विभागस्तत्तदाचारय्रन्थप्रणयनेनोपदेश्ेनच परमां पुष्टि
`येन तन्र तत्र विभागे ते ते प्रधानाचार्यपदमरच्लुः । सुशरुते- मापादित इति सङ्कलने महततम आयुरवेदीयो. मन्थरारिः सम्म
` विदेहनिमेः शाराक्यतन्त्कृखेन, `सुश्चुतौपपरेनवौररपौप्क- वेत्‌ । परं कालमहिम्ना श्ाखान्तराणामिव आयुवेदरत्नाकर-
` छावतादीनां श्ल्यतन्त्रकृखेन, शौनकङृतवीरयपाराश्यमा्कण्ड- स्यापि हन्त ! बहून्यमूल्यरत्नानि विद्छोपञ्ुपगतानि ! एतदी-
` यसुभूतिगौतमानां पूर्वाचार्थस्वेन निर्देशः, च॑रकसंहितायामभ्ि- यभ्राचीनविदक्तम्न्थविषयके आलोचने श्रीयुतमदीयाप्षतमवि-
` वेशभेडादीना षण्णां चिकित्स ातन्त्र करतया निर्दशषः, काङ्कायं न- प
इद्टरगणंनाथसेनमहोदयेः गिरीन्दनाधञुखोपाध्यायग्रश्तिभारः
` वार्योविदहिरण्याचकुशिकमैत्रेयकुदासाङ्कृत्याथनङमारशिरोभ-
` रद्वाजवडिकशधामार्गवमारीचिकाप्यकाीपतिवामकपारीचिन्मौ- १. हेमाद्रैटक्षणग्रकाशयस्य १५२५ ( वरम ) संवहिखितं प्राचीनं
इल्यश्षरलोमकौशिकभदकाप्यघन्वन्तर्यादीनां मतोल्रेखः, जीणैपुस्तकवयैकं मत्सङयदेऽस्वि । तत गजप्रकरणे पराटक्रप्यादिवचना-
शङ्गिरोजमदभ्निकश्यपकाश्यपादीनां बहूनाष्धषीणां नामोदेशः; नीवाश्चप्रकरणे शसाटिदोत्रव्चनानि बहुश छदधरत्रानि सन्ति, ततेव
अस्मिन्‌ बृद्धजीवकीयतन्त्रेऽपि सूत्रस्थानरोगाध्याय ( षर, ३९ ) इलोकोडारोऽस्ति--
सिद्धिस्थानराजपुन्रीयाध्यायवमनविरेचनीयाध्यायम्न्धेषु तन्त- वसिष्ठौ वामदेवश्च च्यवनो मारविस्तथा ।
विश्वाभित्नो जमदभि्मारद्वाजश्च वीयेवान्‌ ॥
१, महामारते सभापव॑णि-आधयुवेदस्तथाऽषटा्ञो देहस्तत्र असितो देवलश्चैव कौकषिकश्च महाव्रतः । .
| भारत( ११।१९७} | साविर्गाख्वश्चैव माकंण्डेयस्तु वीयवाभ्‌ ॥
एवं पू्वैनिदिष्टयोमेहाभारतहरिर्वररेखयोः । गौतमश्च "भागश्च आगरुपर (2) काश्यपस्तथा
"२. सुश्चते--“श्लारक्यतन्त्रामिहिता विदेदाधिपकीतिताः" आत्रेयः चाण्डिलश्रैव तथा नारदपर्वतौ ॥
. .. , (सु, उ, अ. १४)॥ काण्वगो नद्ुषश्चैव श्ाङिदोत्रश्च वीयंवान्‌ |
२. सुश्वते--ओषधेनवमौरभं सौश्ुतं पोष्फखावतम्‌ । अभ्चिवेरो मातरश्च जवुकणैः परारारः ॥
शेषाणां सद्यतन्व्राणां नामान्येतानि निर्दिशेत्‌ (छ.सू-अ.४) हारीतः क्षारपाणिश्च निमिश्च वदतां वरः ।
` ४, सुश्चते-शरीरनिमितिविषये शौनैकमतोछेखः (ख.चा.अ.२)। अदाङ्िकिश्च भगवान्‌ श्वेतयेतभृयुस्तथा ॥
५. चरके--अभ्रिवेदश्च मेडश्च जतूकणैः पराश्चरः । जनकथव राजधिस्तयैव दि विनश्चजित्‌ ।
हारीतः क्षारपाणिश्च जगृहस्तन्सुनेकेवः ॥ विश्वदेवाः समरुतो भगर्वो बृषस्पत्तिः
तन्त्रस्य कतां प्रथममध्िवेश्ो यतोऽभवत्‌ । | इन्द्रश्च देवराजश्च सवंोकचिकित्सकाः ।
अथ भैडादयश्चकरः स्वं सवं तन्वं कृतानि च ॥ .(च.य.अ.१) ॥ एते चान्ये च बहव ऋषयः संधितन्रताः ॥
आयुर्वेदस्य कर्तारः सुलातं ठ दिरन्तु ते ॥ (प. १५९)
६. सतरस्थाने वातकंलाकरीय'८ १२ १ यजैः पुरुषीय ( २५ )
` अआध्रेयभद्रकाप्यीया (२६) ध्ययेषु1 - ` २. प्रत्यक्षशारीरभूमिकायाम्‌ ॥
. - - ७, चरङोपक्रमभन्पे (च. ख. अ, १)॥. “- । ३. पाणा 0 [पता 11. 661.14 2
उपोद्धातः |
१३
॥ # व(~ +
व + ^
-

यनव्व्व्वव्यव्वय-
तीयविदठद्धिः पाश्चात्यविद्टद्धिरपि वहु निरूपित्तमेवेति
ता वप््यव्न्प्पप्
य------ कककककककककककक
~ ककककरित

षुरित्यप्युपवण्यंते पुरावत्तरेखफेन । असोकनृपपौत्रसमये बौद्ध-


पिष्टपेषणमर्हति ॥ धमेण साकं भारतीय आयुर्वेदः सिहरूमप्यनुप्राविशत्‌ । भार-
बहुशशिरस्नानां ्रन्थरत्नानां विलोपेन विषादमनुभावय- तीयायुवंदो विशेषरूपेण बह्वीमिष्टीकाभिथँतो वाग्भदसितिन्बत-
तोऽस्यायुरवेदमहोदधेर्महिमानमविरोपयितुम- परदेशे स्वप्रभावं प्रकाश्य ततो मङ्गोरुपर्यन्तमपि प्रचचार ।
्ातरेयसुश्च- वश्िष्टमा त्रेयधन्वन्तरिसंहितगोरयं चरकसु- भारते विटुप्ता अप्यनेका वाग्भटस्य रीका अद्यापि तिव्वतग्रदे-
त संहिते श्रुतसंहितानामभ्यां विरात्प्रसिद्तरमुपर- रोऽनूदिता खभ्यन्ते ॥
भ्यते । अनयोमूधन्यभावगौरवस्य सुप्रथित- अद्यत्वे मेडसंहितानाम पथ्यङेखबहुखा संरिक्तरेखाऽभ्याऽपि
तया सूयाचन्द्रमसोराखोकान्तरमिव न परिचियाय भकारोऽ- संहिता कङिकातायां समुच्च प्रकाशिताऽस्ति ।
पच्यते ॥ सेडसंहिता आपच्छायानुरूपरचनादर्शनेन साऽपि प्राची.
अष्टङ्गहदयकतुर्वारभरस्य समय जआचार्यान्तराणामपि आ- नाऽऽषीं संहिता प्रतीयते । परमुपकमोपसंहार-
युवेदीयाः संहिताद्यः स्युनांम, तथाऽपि-- भागयोमध्ये मध्येऽपि बहशो विच्छिन्नविकल ङ्गाऽुद्धिवहुला
यदि चरकमधीते तदुशुवं सुश्चतादि- च दृश्यते । सहस्रवरषपू्ंङिखितं उवरससुचचयस्य ताडपत्रपुस्त-
प्रणिगदितगदानां नाममात्रेऽपि बाह्यः ॥ कमेकञुपरुभ्धमस्ति । यत्रािनभारद्वाजादीनामिव सेडस्यापि
अथ चरकविहीनः पक्रियायामसिन्नः केवरं उवरग्राकरणिकानि बहूनि वचनान्युद्ष्टतानि दश्यन्ते।
किमिव खद करोतु व्याधितानां वराकः ॥ तेषु दिच्रसंस्यका एव श्खोका उपरूब्धमृद्धितमेडसंहितायां
। ( अष्टाङ्गहृय. उ. अ. ४०) संवादं रभन्ते, तदुद्टतानि श्लोकान्तराणि तु न प्राप्यन्ते ।
इति केवरं चरकाध्ययने सौशरुतोक्तरोगविशेषाणां नाम्नाऽ प्राचीनेतद्भन्थोद्‌ृ्ानां तावतां ररोकानामनत्र संवादेन सेयं
प्यक्ञानं भवेत्‌ , सुश्रुतमात्राध्ययने कथं वा प्रतीकारभक्रियावि- भेडसंहिता न खलं न प्राचीनेति वक्तुंशाक्यते, परमेकस्मिक्नेव
शोषक्तानमिति चरकसुश्रुतयोर्योरप्यवश्यसुपादेयत्वमित्यायुव- उवरप्रकरणे उद्धता अप्यन्ये श्लोकाः, एवं तन्तरसारनामके
दीयविक्ञानाकररूपेण संमाननीयद्शा उपवर्णनेन मध्यकाछे सङ्द्महान्तर्रन्थे मेडनाम्ना उद्धताः प्रकरणान्तरीयाः श्लोकाः,
वाग्मटसमयेऽप्येतावेव अन्धौ सर्वोपर्यास्तामित्यवगम्यते । एवं टीकाटरिस्तच्र तत्र मेडनाम्नोद्‌ शताः शोका अप्यस्या मेड-
सहखवर्षपूर्वट्िपिमये ज्वरसमुच्चय पुस्तकेऽपि चरकसुश्चुतवच- संहितायां भ्रायो न द्यन्ते । अस्मिन्‌ ब्रद्धजीवकीये बस्तिकर्म.
नानि बहश उपात्तानि, चतुर्थङातान्दीङिखिते नावनीतकमुरत- समयनिदंशप्रसङ्गे “षडषेभ्रष्ठतीनां त॒.मेऽ” (सिद्धस्थान. अ. १)
केऽपि चरकोक्तानि वचनानि संवदन्ति, सुश्रुतस्य नाम्नाऽप्य- इति षडर्पोत्तरं बस्तिक्मवादो भेडमतस्वेनो क्ञिखितोऽस्ति ।
स्टेखोऽरित । बाणमष्टोये ह्व चरिते पौनवंसववैचङमारस्य उपरुन्धमेडसंहितायां वाङानामथ बद्धानां युवमध्यमयो-
निर्देशेन आत्रेयपुनवंसुसम्भदायस्य तदासेऽपि अ्रचार उपल- स्तथा । स्वस्थानामातुराणां च बस्तिकमं प्रशस्यतेः इति बस्ति-
च्यते । यद्‌ प्रश्व्यनयोरुद्धवस्तदादिविचारगौरवेण गुणातिश- कर्मणः सर्वसाधारण्येनोपयोगोस्टेखोपलम्भनं न संवादाय
यमहिम्ना चरकसुश्ुतसंहितयोद्यं रोके प्रचरद्रुपतया समयेन जायते । एवं तत्र तन्नोपलभ्यमानानां बहूनां वचनानामन्रानु-
भरताद्हिरपि स्वारोकं भासारयत्‌ , अद्यापि कैयवर्गा्णां परुम्भेन सेयं मेडसंहिता वहुष्ववयवेषु विशेषतो विच्छिन्ना
हृदयसर्व॑स्वायत एव । सक्माष्टम॑नवमश्चताब्दीषु श्रगतिपथा- संशयं चादधानाऽवगम्यते । वाग्भटेनापि एवमेव विच्छिन्नाज्ञे-
भिञुखे आरब्यदेशे पार्सीकदेशे च मारतीयमेषज्यविद्याया; परुम्मेन वा चरकसुश्रुतसंहितयोर्विास्यां विषयनिरूपणस्य
समादरेण चरकघुश्रुतसंहिते अनूदिते । आरव्यमाषायामनूदि- नातिविज्णदतया वा- |
तश्चरकः सरक नाम्ना, सुश्चुतः ससखद्‌नाम्ना ज्ञायते | “अनर “ऋषिप्रणीते भक्तिशेनमुक्त्वा चरकसुश्चुतौ ।
सीनः ( 4०४58 ) अवृूरसी, ( 40४ ह.2ञं ) अवूसिरावि,
मेडा्याः किं न पच्यन्ते तस्माग्राह्यं सुभाषितम्‌ ॥*
( ^"ष्थप्ध ) नामकानामारज्यवेद्यकयन्थानां केटिनभाषानु- | ( अष्टङ्गहृदये उ. तं. अ. ४०) ।
वदेष्वपि चरकनाम पुनः पुनरूपात्तं श्रूयते । अरबेरनी ( .41- इति मेडविषये कटाक्षितं दश्यते ॥ |
लाप ) नामकस्य पर्यटकस्य पुस्तकालये चरकाुवाद
आसीदित्यपि तदीयाङ्रभाषानुवादे रूभ्यते । अलमनसूरो अद्यत्वे संसु भकारिता प्राय एतदूनुरूपैव दवित्ररतवर्ष-
( 41१9050 75274 4. 1). ) वहूनायुवंदमन्थाँश्चरकस्य
पूवंटटिखिताऽपि हारीतसंहिता भिरुति। सा
सपंचिकिर्साग्रकरणं सुश्रुतं चान्ववादयत्‌ । तदीयो रजस्‌ हारीत- तु प्राचीनाषरेखच्छायाराहिष्येन साधारणसं.
( 047९8 )नामा चरकं बहुमानयति स्म । सिरसीननामकस्य संहिता ग्रहप्रायततया दृश्यमाना न प्राचीना न वाऽऽ
पाश्चाव्यस्य पूजा अपि भारतीयमायुरवेदं चरकसुश्चते चावेदि- संमन्तुं शाक्यते । प्राचीने ज्वरसमुच्चये बहुशो . `
हारीतनाम्नोद्‌ तानि शकोकवचनानि दृश्यन्ते, अन्थान्तरेष्वपि
१.६.
२. ©. वि,
छ.1160४.
ऋच्ण्ण र्‌
२. ए.
छत इ
890प्र.न तत्र तत्रोद्ष्टतानि हारीतवचनानि दृश्यन्ते, परं तानि वचनानि `
२. परापत इपएद्पठप्ि ए पतनः 81185 887943.
नास्मिन्रुपर्ड्धहारीतसंहितापुस्तके रभ्यन्त इति विसंवादोऽ
४. कितवे अरफैरिस्त एण्टिकिटी ओप दिन्दु मेडिसिन ॥ , प्यन्यस्या एुव प्राचीनहारीतसंहितायाः पूरव॑सस्वमनुमापयति ।
१४ उपोद्धतिः।
कि ति ५

प्राचीनहारीतम्रन्थरोपमनुसखन्धाय तन्नामाविटुसतये द्याद्धना संहिता भवेत्‌ , अपि पु पएतदीयमैषञ्योपक्रमणीयाध्यायीयक-


केनापि पश्चाद्धवेन विदुषा हारीतनाग्नेतदकन्थस्वनासौजन्यमा- तिषयपत्रमिलितस्तदुक्तविवरणसंवादी उपलभ्यमानो उ्वरसमु-
विष्टं संभाव्यते ॥ स्वयः, किं वा एतादृशमेव प्राची नसंग्रहाव्मकं अन्थान्तरं स्या-
चिरासखसिद्धयोश्वरकसुश्रतसंहितयोरचिरोपर्भ्धाया मेड- दिति सम्भाज्यते ॥
संहितायाश्चोपरभ्ध्यनुकमेण चतुथ॑तां चहत्यपि उपरुव्परेतन्ताडपन्रपुस्तकस्याद्तिः २११ ५९२, प्रतिप
नवोपलब्धेथं प्राचीनाषरेख क्रियया वरिषयगाम्भी्येण सार पङ्कयः ६, सर्वादिमः पन्राद्कः २९, अन्तिमश्च २६४, अन्तरान्त-
काष्यप- पूरणंतया स्रेयसुश्रुतसंहितयोः समकक्तं निव. राऽपि बह्रशो विद्धस्ानि पत्राणि । उपर्ब्धेतस्पुस्त्स्यायन्त-
संहिता न्धरमनुभावयन्ती कोमारत्यप्रस्थानीयेयं योमध्ये मध्ये च खण्डिततयाऽवकशिष्टपत्रोपरन्धये वहुप्रयतित,
आचीना काश्यपसंहिता वबुद्धजीवकतः- परं छघ्तानि पत्राणि प्रतीकान्तरं चानवाप्येतावत्येव विश्रमित-
व्यमभूत्‌ । लुस्तपन्राणि मुद्धितारम्भपच्रपादरिप्पण्यां निदि
ज्राकना परिणता प्रतिकखेन देवेन बहुका र्विरोपं प्राप्य टानि । अन्थपर्याखेचनायामादौ दशद्वादराध्याया त्रिच्छिज्नाः
दिया यत्र छचनान्तर्बिरीयावस्थितेन जिणेशीरणनेकेन प्राची- अन्तेऽपि लिख्भागस्य ८० अध्यायेषु २६ अध्यायपर्यन्तमेव
नताडप्रएस्तकारमनोपख्ब्धा प्राणशेषा विचिदन्नविकरेन सखेन ततः पश्चान्तनो भागोऽपि विच्ित्नः । वतंमनेप्वपि
शरीरेणात्मानमिदानीं मरादुष्करोति । करार्कार्कवङितावय- पत्रेषु बहुशः पत्राण्यं्ञतः इकटीभूतानि, येन तच तत्र विद्धु-
वाया अपि शेषैरप्यवयतर्निजं गाम्भीर्थगौरवं दशेयन्त्याधिरेण पाः पद्यः शब्दा अक्तरादयश्च चिन्दरुमाख्या सुद्रणे सूचिताः
नाम्नाऽपि विदधक्षायाः प्रसनाया अस्या आपंसंहिताया सामो सन्ति । एतदीया छिपिः प्राचीना । तत्रापि बहूुभगेषु छिपी-
महौँज्ञाभ इव विदुषां तोषायैव जायेत ॥ नामेकजातीयत्वेऽपि खेखमेददशेनेन द्वाभ्यां रेखकाभ्यामेक-
पुरा नेपारुदेशमुपगततैः श्रीयुतविद्वहवरमहामहोपाधायदहर- स्मिन्‌ समये खण्डो विलिख्य समापितमिदं मूटपुस्तकं
ग्रसाददाचिमदोदयैः--“नेपाखे मया ३८ पत्रास्मिका कश्यप- प्रतीयते । उपक्रमोपसहारभागयोविखोपेन ततो चिन्तेया चिरषा
मार्मवसेवादरूपा वैदयकविषयिगण्यपूर्णां म्राचीना काश्यपसंहिता न क्िमप्यववोद्धुमपार्यन्त । समाप्िभागस्यानुपर्न््या ततो
रूभ्धा, यत्रादौ मेषज्योपक्रमणीयमष्टमपत्रतो उवरनिदानं निरूपि- विज्ञेयो रेखस्मयोऽपि नोपलभ्यते । परमेतदीयरिण्याङ्रतेः,
तमस्ति! चरकसुश्रुतकश्यपाशिनात्रेयमेडपराश्चरहारीतजत्‌क- अक्तरनिर्िष्टानां पचाङ्कानां, कचनाध्यायश्छोकाङ्कानां, ताडप-
गादीनां क्चनान्यप्युद्ध्तानि सन्ति । भैषज्योपक्रमणीयनाम-
त्रायामविस्तारयोश्चायुसन्धानेन सप्ताटशतवर्षपू्वतनोऽयं पुस्त-
सचवेऽप्यौषधविषयोर्रेखो न।स्तिः इति विवरणेन सह काश्य- करेल इत्यनुमातुं शक्यते । परमस्मिक्नाद्शंपुस्तकेऽपि तंदीया-
पसंहिताया उपरुम्भवृ्ते शभ ०२ ४16 उण, 0 3४२ दृ्छीपुस्तकगताक्तराणां विरोपेन किर कचन विनेवाक्तरमवरो-
शपो कक्णपञण्पः8 ( 1895-0 1900 ›पत्रे प्रकाशितम्‌ , पितस्य स्थलस्य द्ञनेनेतदीयादश्शमूलपुस्तकमप्येतादगेव जरा-
तद्विवरणं 7 णपऽ १०१ महाशयेन /697न€ पुस्तकेऽप्युक्लि-
जीणं प्राचीनं सम्भाग्यते । युश्तकाक्रतिपरिक्तानाय पृष्ठद्रयस्य
खितं दश्यते । तदीयधिवरणानुरूपं पुस्तकं नेपाखुराजकीयपु- ग्रतिच्छायाऽप्यत्र सन्निवेशिताऽस्ति ॥
स्तकाल्ये तेरेव निर्माय प्रकाशिते तदीयपुस्तकसूचीपत्रेऽपिं न
दृश्यते, बहिरपि सयस्नं पर्यारोचने तादृशं काश्यपसंहितापु- प्राचीनाचार्यवे्यकथन्येषु सुश्रुतसंदिता चरकसंहिता नवो-
स्तक नासाद्यत । परं उवरनिदानादिविषये नानाषवचनसंग्रह- पर्न्धेयं काश्यपसं हितेति यदिदं महनीयमार्षं
रूपः प्राचीनस्ताडपत्रीयो ऽवरसमु्ययो नाम वे्यकयन्थो क द्यपस्य ग्र थत्रयमिद्रनीमस्माकं पुरः सम्ुपतिष्टठते, तत्र
नेपारेऽन्यत्राप्युपरुभ्यते, अस्मस्सकश्षोऽप्यस्ति ! यत्र ञ्वरवि- विप्राः सुश्चतसंहितायां धन्वन्तरिः, चरकसंहितायां
षये बहुशः काश्यपवचनानि, तदुक्तविवरणानुरूप्येण चरकश्च- पुनर्व॑सुरत्रेय इवास्यां काश्यपसंहितयां कश्य
तकश्यपाधिनमेडादिवचनान्यपि संगृहीतानि द्यन्ते । काश्य- पो मूरुभूत उपदेशक इत्यवगम्यते ॥
पवचनोपन्यासे ““श्णु मार्गव तखा्थं सन्निपातचिज्ञेषणम्‌?? कोऽयमाचार्यः कश्यप इति जिन्नासायामस्यां संहितायामु-
इति काश्यपसंहिताखिभागर्म्यवचनोद्धारदश्चनेन तदंसे
खण्डिततया ततो विदोषतो विरयस्या-
भार्गवकर्यपसंवादरूपस्वमपि संवदति ! तदीयविवरणे आदौ पक्रमोपसंहारभागयोः याये इत्थ-
भेषज्योपक्रमणीयोरुरेखेन, उवरसञुच्चये तदभावेन, कार्यपसं- परिक्तानेऽपि एतदीयपरिचयायात्रेव संहिताकस्पाध्
हितप्याः खिरूभागे वृततीयाच्यायस्य मेषञ्योपक्रमणीयनामतया मुल्लिखितं दश्यते-
चं अष्टपत्रप्॑न्तं खिकूमागीयकाश्यपसंहिताया मैषज्योपक्मणी- “द्यन्ते वधत्रासादुदेवर्धीणां परायताम्‌ ।

याध्यायोऽपि तच्र संपएक्तः किठेति प्रतिभाति। अस्यां प्रकार्यमा- रोगाः सवे सञुत्पन्नाः सन्तापाद्‌देहचेतसोः ॥
नायां काश्यपसंहितायां तुचरकसुश्ुतादीनांवचनोद्धारो नास्ति। भ्रागुर्पत्तिस्तथाऽन्येषां रोगाणां परिकीर्तिता ।
श्राचीनतमायामस्यामर्वाम्भवानां चरकादीनां वाक्यानासुद्धा- कृतत्रेतान्तरत्वेन प्रादुभंता यथा बरृणाम्‌ ॥
रेण नाप्रि भवितम्यम्‌ । न चात्र ज्वरग्रकरणमेव, नाप्यीषधानु- ` ततो हितार्थं खोकानां कश्यपेन महर्षिणा ।
पदेशः, तेन तदृष्टिपथसुपेतो भ्रन्थः सर्वश्ितया नेषा कार्यप- पितामहनियोगाच दष्टा च स्ानचह्नषा ॥
उपोद्धातः 1 १धु.

(क 0 त सा 8 का 0 + + 0 000 ^ 0000 छ च|
#+ ^

तपसा निर्भितं तन्त्रश्रषयः प्रतिपेदिरे । काश्यपन्ञब्देन तद्रो्रोद्धवानां स्ामान्यतोऽवगसो भवति ।


जीवको निर्गततमा ऋचीकतनयः चिः ॥ गोत्रप्रवरनिर्देश्चाचार्यांणां रेखानुसखन्धाने बोधायनेन मूलगोच्न-
जगरहेऽगरे महातन्त्रं सच्चिकेप पुनः स तत्‌ । प्रवतंकस्येकस्येव कश्यपस्योज्ञेखेऽपि, प्रवरेषु कश्यपश्चब्देन
भाभ्यनन्दन्त तस्व मुनयो वारुभाषितम्‌ ॥ व्यवहरणेऽपि, कश्यपान्‌ व्याख्यास्यामः, इद्युपक्रम्य तदरोन्री-
ततः समक्तं सर्वेषामृषीणां जीवकः शुचिः । यानवान्तरगोत्रप्रवतेकान्‌ विभागो निर्दिश्य, अन्ते “त्येते
गङ्गाहदे कनखरे निम्नः पञ्चवार्षिंकः ॥ निध्रवाः कश््यपाः' इ्युपसंहस्य च काश्यपगोच्रोद्धवा अवान्तर
बलीपर्तिविग्रस्त उन्ममन सुहूत्तकात्‌ । गोत्रग्रवतेकाः काश्यपशब्देन भ्यवहतुं योग्या अपि कर्यपशब्देन
ततस्तदद्धुतं दृटा सुनयो विस्मयं गताः ॥ व्यवहृत दृश्यन्ते । अपस्तम्बाश्वरूायनकाव्यायनादीनामप्येव-
बृद्धजीवक इत्येव नाम चक्रुः शिशोरपि । मेवोज्ञेखा उपलभ्यन्ते । तत्र वहुव्यक्तिनिर्देशपरस्वेन गोत्रस्य
गरत्यगरहणन्त तन्त्रं च भिषवश्रेष्टं च चक्रिरे ॥ यरोपे कश्यपा इति व्यवहारसंभवेऽपि, शतपथर्वंशाह्यणे
ततः कचियुगे तन्त्रं नष्टमेतयदच्छुया हरितः कश्यपः, शिल्पः कश्यपः; नेधरुविः कश्यपः" इति हरि
अनायासेन यक्तेण धारितं रोकभूतये ॥ तादीनां मिथो विभिन्नानामेककव्यक्तीनामपि कश्यपशब्देन
वृष्टजीवकवंश्येन ततो वात्स्येन धीमता । निर्देशोऽस्ति । तेन प्राकारे काश्यपानां काश्यपशब्देनेव विरे-
जनायासं प्रसाद्याथ रब्धं तन्त्रमिदं महत्‌ ॥ षन्यक्तीनां कश्यप्चब्देनापि म्राधिको व्यवहारसंप्रदायः अरती-
ऋग्यजुःसामवेदांखीनधीत्याङ्गानि स्वंशः। यते ।तेन गोच्रप्रवरान्निर्िंशतां बोधायनादीनां रेखतो मूरुक-
लिवकश्यपयत्तांश्च म्रसाद्य तपसा धिया ॥ श्यपस्येव तत्परम्पररागतस्याऽवान्तरकश्यपस्यापि कश्यपशब्दे-
संस्कृतं तस्पुनस्तन्तरं चृद्धजीवकनिर्मितम्‌ । नावबोधो जायते । परं कश्यपपरम्परायां बोधायनादिभिरम्य-
धम॑कीर्तिसुखार्थाय प्रजानामभिवृद्धये ॥ स्य मारीचस्यानिदंशेन आषंसगे कश्यपस्य मरीचिपु्रव्वेनान्य-
स्थनेष्वष्टसु शाखायां यद्यज्नोक्तं प्रयोजनम्‌ । त्रोपलम्भाद्ोधायनादिरेखतो मूलकंश्यप एव मरीचिपुत्रतया
तत्तद्धयः प्रवच्यामि खिरेषु निखिखेन ते ॥" इति मारीच इति वक्तव्यमेव । मत्स्ये गोत्रप्रवरनिददो मरीचेः पुत्रं
इतश्च दक्तयत्ते समुपजातादुपद्नवादुत्पन्नेः प्राचीनेश्च नाना- कश्यपं मूरुगोत्रमरवतकं निदिश्य तत्सन्ततिष्ववान्तरगोन्रप्रवर्त-
रोगः पीडिताज्ञोकानमिसमीच्य तदुदिधीषेया पितामहनियोगेन कानामुदुदेशे कश्यपा मारीचा अपि पुनः परथग्भावेन निर्दिश
दृश्यन्ते । गोत्रम्रवरविषयसङ्ग्रहकारः कमखाकरोऽपि मास्स्यो
महर्षिः कश्यप आर्षतपोविक्तानवरेनेतन्महातस्त्रं निमाय ऋषी
्तकश्यपविभागसुक्खिखन्‌ “अथ कश्यपा इस्युपक्रम्य कश्यपप-
नुपदिदेश । सर्वेभ्यः प्रागिदं तन्त्र गहीत्वा ऋन्तीकपुत्रो जीवको
रम्परागतमन्यमेक मारीचं गोच्रप्रवतंकमूषिमेकवचनान्तेन
नाम बारमुनिर्विस्तृतस्यास्य संरिं्तं रचनान्तरमकरोत्‌ । बाल-
शब्देन निर्दिशति । कश्यपपरम्परागतसवेनास्य मारीचस्यापि
जलिपितमिति मुनयस्तन्नाङ्गी चक्रुः; तेन पञ्चवार्षिको वारो कश्यपस्वं युज्यते च । तेन कश्यपपरम्परागतो द्वितीयोऽपि
जीवकः सर्वेषाग्रषीणां पुरतः कनखरे गङ्गाहदे निमज्ज्य बरीप-
सितव्याक्षबरद्धरूपेण करणादुन्ममज ।तेनाद्ुतेन विस्मिता मुनय मारीचः कश्यप आसीदित्यवगम्यते । चरकोपक्रमग्रन्थे समवे
शिशोरपि बरृदधाङ्खतेस्तस्य चुद्धज्ञीवक इति नाम विधाय १. अथ कड्यपानां च्यापयः कारयपावत्सारनेभरुवेति ।
तं भिषगुत्तममनुमान्य तदीयं तन्त्रं स्वीचक्रुः । ततः ककिका- | (आपस्तम्बप्रवरकाण्डे
कवरोन लुक्प्रचारमेतत्तन्त्रं देवादनायासनास्ना केनचिदयक्तजा- कश्यपानां कार्यपावत्सारासितेति। (आश्वलायनम्रवरकाण्डे )
तीयेन प्राप्य खोककस्याणाय रक्षितम्‌ । तदनु ब्ृद्धजीवकस्यंव कश्यपान्‌ व्याख्यास्यामः । ८ कात्यायनलौगाक्षिप्रवरकाण्डे
वंद्योद्धवो वात्स्यो नामाधीतवेदवेदाङ्गः शिवकश्यपभक्तो विद्वान्‌ २. अनृष्यानन्तयं विदादिभ्योऽन्‌ ४।१।१०४५ यजनोश्च २।५९४ `
जनायासयक्ं प्रसाद्य ततस्तत्तम्त्रमधिगत्य उुद्धिवेभवेन श्रमेण | ( पाणिनिखत्रे )
३. हरितात्‌ करयपाद्धरितः क्यपः रिस्पात्‌ कद्यपाच्छिस्प
च कीर्तिधर्मप्रजासुखाभिष्चद्यये प्रतिसंस्छत्य प्रकाशयामास ।
कदयपः कसश्यपाज्नशरुवेः कद्यपो नंश्रविः । (रतपथवशचव्राह्यणे) .
अष्टसु स्थानेष्वनुक्तं विषयान्तरं खिररूपेण संयोजितमित्येत-
. मरीचेः कश्यपः पुत्रः कश्यपस्य महामुने ।
दीयभितिचृत्तं रम्यते ॥ गोत्रकाराचृषौन्‌ वक्ष्ये तेषां नामानि मै श्रणु।
आर्षेऽपि समये मन्त्रबादह्यणादिषु कश्यपकाश्यपशब्दाभ्या-
मभिधीयमाना अनेके महषयः; अन्थान्तरेष्वप्यनेके तन्नामानो
विद्भस उज्घिस्यमाना दृश्यन्ते । तेषु कतमोऽस्याः कौमारशत्य- कष्टायनाश्च हारीता आजिहायनहास्तिकाः |
संहिताया मूराचा्यः, यस्योपदेशो बृद्धजीवकमनु सङ्क्रान्त इति वैकणयाः कद्यपाश्च सासिसा दारितायनाः ॥ ( मास्स्ये
परिच्छेदाय विवेचनीयं मवति । तत्र, अत्रिकश्यपादीनां गोत्र ५. अथ कदयपाः `"काष्ठायनः मारीचः आनिदहायनः'' "इति ।
भवतंकमूलाचायंत्वेनोपरम्भात्‌ कश्यपक्रब्देन मूककश्यपस्य, मात्स्योक्ताः। ` (प्रवरदपणे )
६. अङ्गिरा जमदथिश्च वसिष्ठः कदयपो अथुः : - . ^ |
१. अनायासेन यक्षेण, अनायासं प्रसाचाथ-इति पूरवापरसंगमनेन ` काङ्कायनः कैकेयो धौम्यो मारीचिकाश्यपौ
अनायास इति यक्षस्य नामोष्ेखं इत्यवगम्यते । ( चरकसंहितायां घ, अ. १)
¶६ उपोद्धातः ।
मन, ११५
+ 0 १ ॥ ~ [^ 1 ^^ ५१ न

तानां महषीणामुद्देशे कश्यपं प्रथमतः पृथङिनर्दिस्य मारीचि- इनिवृंत्तिवादस्य चरमपष्तयाऽञ्तरेयेण प्रदात; अस्थां
काश्यपाविति द्विवचनान्तपदेन मारीचः काश्यपस्य च प्रधक्त- काश्यपसंहितायामपि-
योररेखेन कश्यपः काश्यपो मारीचिश्चेति त्रयो विभिन्ना चन्ियाणि गर्भस्य सर्वाङ्गावयवास्तथा |
अवगस्यन्ते ॥ तृतीये मासि युगपत्निवंतंन्ते यथाक्रमस्‌ ॥ ( पर० ५० )
अस्यां काश्यपसंहितष्यां पूर्वापरशब्दानुसन्धाने प्रघ्यध्या- इति स्वाचार्यस्य मारीचकश्यपस्य सिद्धान्तरूपेण स्वाङ्ग
ञुपक्रमोपसंहारयोः श्रूति ह स्माह कश्यपः इति, कछषचनान्त- ¦ निर्बतिवादस्य संवादोपरम्भेन चात्रेयसंदिता्यां मारीचित्वेन
राऽ्पि “इत्याह कश्यपः, ( खिलस्थाने अ. १० ), इति, कश्यप केश्यपसवेन चात्रेयेण निर्दिष्टस्य पूर्वाचाय॑स्येक्यानुसन्धानेनत्रेय
( लिरस्थान अ. ९० ), "कश्यपोऽ्रवीत्‌ (सिद्धस्थान ज. ३) पुनर्वसुनाऽपि ससंमानं निर्दिष्टः पूर्वाचार्य वेदयविद्याचायंस्य
इति, एवमन्यत्रापि बहुश्षः कश्यपश्षब्देनाचार्यस्योरलेखो दश्यते। राज्वैवायोविदस्य सहभावी मारीचः कश्यप एवास्याः संहि-
चन मारीचशब्देनापि लिर्देशोऽस्ति । पूर्वापरन्येकवक्यस्वा- ताया उपदेषटेति तस्संवदेनापि ददीभवति । एत्तस्संहितायां
मुखन्धाने कश्यपषएव मारीचस्वेन, मारीच एव कश्यपत्वेन बोधायनादिटेखे च भारीचरशब्देन भ्यवहारोऽस्ति । मरीचिल्ञ-
वयवहतो दृश्यमान एतदाचायं मारीचं कश्यपं बोधयति । स व्दादपव्यार्थऽणि स शब्दः सिद्धयति । आत्रेयसंहितायां “धौम्यो
च सवेत्रेकवचनान्तेन सारीचहशाब्देन कश्यपशब्देने च व्यव्‌- मारीचिकारयपौ, मरीचिरुवाच, सारीचिः कश्यपः इतीका-
हृततथा एकव्यक्तिरूप इति स्पष्ट प्रतीयते । आत्रेयसंहितायां रान्तपार्दशेनेऽपि मरीचिक्चब्दस्य वाह्वादिगणेऽपि पटेन
वातकलाकलीये वार्योविदेन सह पतप्रतिपक्तभावेन दरि वार्योविदसहमावेन च इज्य्रत्यये मारीचिश््दस्यापि मारीच-
तसंवादस्यं मारीचेरत्रेयेण प्रदर्शनादवा्योविदसहभावी स शब्दपर्यायस्वमेवायाति । अत दूज. ( ४।१।९५ ) इति सूत्रेण
मारीचो गम्यते । अस्यामपि संहितायाम्‌- सारीचशब्दान्मारीचिाब्दसाधनेऽपि एकान्तरमात्रमुपादाय
दति वार्योविदायेदं महीपाय महाचरषिः। मारीचेन मारीचिना च सह वार्थोविदसादचयं सम्भवति ॥
शंस सवैमलिरं वाखानामथ भेषजम्‌ ॥ (खिलस्था. अ. ३२) एवं च सति पूर्वोपदर्ितदिश्ा मारीचकश्यपनास्ना व्यव-
दरसयेतस्संहिताचा्यस्य मारीचस्य वा्योविदसहभावः प्रद्‌ हत शक्ययोरूभयोखमिनास्यां संहितायां क्िप्योपक्रमणीया-
श्यते । आत्रेयसंहितायां पश्चाच्छारीरनिवरत्तिविषये विम ध्याये इन्द्रादवाक्तवियेः कश्यपान्यादिमिः पुत्रहिष्यसन्तति-
विप्रतिपचिवादास्नत्र बहुविधाः सुत्रकारिणामृषीणां सन्तिः ारैतद्वियायाः प्रचारस्योक्त्या वोधायनादयुक्तो मरीचिपुो
इति पूर्वाचार्थमतनिदँशोपक्रमे प्राठविभेदेन छचन पुस्तके मूरुकश्यप एतदाचायं त्यपि सम्भवति; कतत्रेतान्तरे वहू-
मारीचिकश्यपस्य क्रचन पुस्तके कश्यपस्यात्रेयेणोल्टेखात्‌ ; रोगोर्पत्या लोकवाधां शमयितुं कश्यपेनेपा संहिता निरमायि
"तत्र कश्यपः सर्वानिति इति पाटविशेषे कश्यपस्य सर्वा- यस्सं्ेपात्मक ब्रद्धजीवकतन्त्रं कटिदुगप्रा्ठौ चितं पश्चाद्वा
तस्येन रुन्ध्वा संस्कृतमिति संहिताकस्पाध्यायरेखेन, आत्रेय-
१, उपास्यमानमृषिभिः कश्यपं वृद्धजीवकः । (१. २३ ) रेखतः काङ्कायनादिसहमाषिनो मारीविकश्यपस्योपलग्मेन
प्रजापतिं समासौनसृषिभिः पुण्यकमेमिः । | च कश्यपपरम्परागतो सास्स्योक्तो द्वितीयो मारीच पतद्ाचार्य
प्रच्छ्‌ विनयाद्धद्रन्‌ कद्यपं वृद्धजीवकः ॥ (चिकित्सास्था, )} इत्यपि संभवतीष्येतावताऽनयोरयमेवेति निर्धारयितुं दुष्करं
हुताभिरोवर
स्तन कश्यपं लोकपूजितम्‌ । भवति । मास्स्यादुक्तो ह्ितीयो मारीचकर्यप एव वा भवतु,
वृद्धो विरेषमन्विच्छन्‌ प्रच्छ्‌ विनये स्थितः॥ (कल्पस्थाने. वि.क.अ.) स मूरुकश्यपपरम्परायां कथित इति नवाधारपितं शक्यते
ततो हितार्थं कोकानां कश्यपेन महषिणा । तथाऽपि अवान्तरगोत्रऽपि मन्त्द्रषटणामेव प्रवतकत्वाभ्युपगमेन
तपसा निमितं तन्तरशृषयः प्रतिपेदिरे ॥ (कद्पस्था. सं. क. अ. )
, महर्षि करयपं वृद्धं वेदवेदाङ्गपारगम्‌ । (चिरस्थान, अ. २)
तस्यापि प्राचीनस्वमेवायाति । संहिताकल्पाध्याये करौ विदु-
पस्य वृद्धजीवकतन्त्रस्य चास्स्येन यक्तादवाप्य संस्करृतत्वस्योल्छे
कदयपं छोककतारं मागवः परिप्रच्छति । (खिरस्थान, अ. २)
२. मारीचमासीनभृषि पुराणं इता्चिदोतरं ज्वरुनाकंतुल्यम्‌ । चेन ततोऽपि पूचतनस्य बद्धजीवकतन्त्रस्यापि मूरभूताया
(कस्पस्था. मो. क, अ. ) काश्यपसंहितायास्ततोऽपि सुतरां अ्रकार इति संहिताकारः
कश्यप उपर्येवारोहति । पाणिनीयसम्प्रदाये विदादिगणम्रविरे
मारीचभृषिमासीनं प्राह स्थविरजीवकः । (कर्पस्था. ष, क, अ, )
२, सुद्वित्वरकपुस्तकेऽर विप्रतिपत्तित्रादोषखे रोक्चत्वादयि- कश्यपश्ष्दे बहुत्वे बोध्ये एव गोत्रमस्ययलुको विधानेन तनि
नत्यभ्िति मारीचिः क्यपः, युगपत्सवाज्गनिवन्तिरिति धन्वन्तरि 179 पुस्तके कारयपनिरूपने स एव पाठो गृदीतश्च । वार्याथिदस्षमा-
इत्ति पाठदश्नेन सुष्टतेरेखाद्न्वन्तरेरप्येतत्सिदधान्तद्ैनेन च सर्वाङ्ग विनो मारीचकदयपस्यैतःसदिताचायंवयाऽऽ्रेयस्ंहितायामपि तत्संबा-
नि््रै्तिवादो षन्वन्तरेः, अचिन्त्यस्ववादः कदयपस्येत्यायाति । परम- दौ कर्यपः स एव निर्दिष्ट शत्यवधारणेन अत्र स्वैन्धियाणि गभ॑स्य'
स्तु. नामं धन्वन्तरेरपि स एव सिद्धान्तः, विन्त एकरस्मिशटिखिते चरकः इत्याद्विवाक्येन ८ए. ७० ›)स्ाद्निषृंन्तिवादस्य सिद्धान्ततया दर्शि-
पुस्तके “क्यपः सर्वाङ्गनिवरत्िःः इति नाम्नः पू्ैनि्दंशेन सह तत्वेन अचिन्त्यल्ववादस्याानुपलम्भेन विर्द्धसिद्ान्तान्तरस्याभावौः
क्रथपस्य सर्वाङ्निवृत्तिवादं दशेयन्‌ पाठ उपलभ्यते । श्रीयुतगिरी- चित्येन च कद्यपस्य सरवाङ्गनिशैन्तिवादं दर्॑यश्नेव पाठः सङ्गतो
दद्रनाथयुखोपाच्यायेरपि पशचण्पा ग (ण्ठा) दुभ 1, २ दृश्यते; परवांपरपदपाठविषयांसो विचारणीयः ॥
उपोद्धातः । ९७
॥ + +
^ (^-^

यमाननुरोधिनो वंशवबाद्यणरेखस्यानु सन्धाने एकस्यापि व्यक्ति- मरीचिपु्रः कश्यपः" इति तं परिचाययति ।! च्रहदेवतायामपि

विषशषस्य कश्पज्ञब्देन प्राग््यवहारस्योपलम्भेनात्र काश्यप- एतत्सूक्तसहखस्य कश्यपदृष्ट्वं कीत्यंते । सायनाचार्योऽपिं


स्यापि कश्यपशब्देन निर्देशः पाणिनेः प्राक्तनं भ्यव जातवेदसमन्त्रे मारीचिकश्यपष्टषिं निर्दिशति । बंभरुसक्ते तु
हारमभिव्यनक्ति ॥ सूत्रक्ृदपि मारीचकश्यपारषैस्वं कण्ठत उद्ञिखति ! आथर्वेण-
अस्यां काश्यपसंहितायां धन्वन्तरेमंतोपादानेन, तस्सम्प्- सवानुक्मसूत्रेऽपि परेतना जितमिति जातवेदस्यसृक्तद्रष्टा
दायानु्ायिनो दिवोदासस्य सुश्च॑तस्य च नामानुल्छेखेन, मरीचिः काश्यपः १ ( मारीचः कश्यपः उद्धिख्यते ॥
महाभारते गुरुदक्लिणाप्रदेयाश्वानां प्राप्त्य काशीपति दिवोदास. अत्रेदं मे प्रतिभाति-छण्वेदे नवममण्डटेऽन्यत्र च
मुपेयुषे गाख्वाय हिमवन्मूरे वायन्यदिशि मारीचिकाश्यपा- काश्यपावत्सारेण काश्यपनिध्रविना मारीचकश्यपेन च
श्रमस्य निरदैशनस्योपरम्मेन च धन्वन्तरिमिनु तचतुथ- टष्टान्यनेकसूक्तानि सन्ति । यानि सायनेनापि तथेव
सन्ततेर्दिवोदासादनतिपू्ं किं वा तत्समकारे हिमवन्मूरे विन्रृतानि । तेषु दिन्यौषधिः सोमोऽनेकधा स्तूयते ।
कुताश्रमोऽसौ मारीचकूश्यप इस्यायाति, यत्रैतस्संहितोक्तं गङ्ग जातवेदस्यमन्तरेऽगनैः स्तवनेऽपि सौमिको विषयस्तन्ना-
द्वारनिवासिष्वमपि समन्वेति ॥ प्यनुस्यूतोऽस्ति । जातवेदस्यादिकं च सूक्तसहस्ं
अवान्तरगोच्रप्रवर्तकस्य मारीचकश्यपस्येतससंहिताचार्यसव- कश्यपाषमिति सर्वानुक्रमसूत्रक्ृदादयो निर्दिशन्ति । उपरूभ्य-
स्वीकारेऽपि चरकोपक्रमम्रन्ये मारीचः काश्यपाच्च पृथक्तश्यपस्य मान ऋग्वेदे सहसखरमितानां मारीचकश्यपार्षसुक्तानां न खलु
प्राचीनस्योपलम्भेनास्यां संहितायामपि इन्द्रान्तेवासिनः कश्य- संगमनं सम्भवति । जातवेदस्य-स्थरे व्वेकमेवेदमेकचं सृतं
पात्‌ सन्तव्यादिष्वायुर्वेदविद्यानुवरत्तेरर्रेखेन च अत्रिश्टग्वादि- दश्यते । जातवेद्स्यस्य सयोवरृषेति सूक्तस्य चान्तरा पएष्छोन-
सहचरान्मूरुकश्यपदेवेयं विद्या मारीचकश्यपेऽप्यनुृत्तेति सहस्रसूक्छानां सत्वस्य सर्वानुकमसूत्रे च्रहदेवतायां षडगुर-
बोद्धुं श्यते, येन तस्परम्परागतेन मारीचेनेयं संहिता निर शिष्योद्धतश्चौनकल्चाकपृण्यादिनिर्देशे ज स्पष्टं प्रतीत्या तेषां
मायि । अतश्च वमनविरेचनीयध्याये (सि. स्था.) बृद्धकाश्य- विरोषः स्फुटीभवति । खिरुरूपेण वर्त॑मानानामेषां सृक्ताना-
पमतं प्रदश्यं अथ कश्यपोऽत्रवीत्‌'इति स्वमतमप्रदशेनं पश्चा- माञ्नायाच्च्युतिरिति षडगुरुशिष्येण स्पष्टमुक्तम्‌। विदक्तमन््रानु-
वस्य मारीचकश्यपस्येव युञ्यते, न खदु मूलकश्यपस्य । सन्धाने सर्वानुकरमटीकाकरत्‌ षड्गुरुशिष्यस्स्वत्रेकर्चद्‌ वृचतृच-
आचार्यान्तरसतनिर्देशोत्तरं सनामोल्छेखं स्वमतग्रतिपादनस्य ग्श्ट॒तीनि सहसर्च॑पर्यन्तानि सूक््ानीति प्रथमतो निर्दिश्य,
प्राचीना दरी कौटिरीयार्थशाखादिष्वात्रेयसंहितायामपि १, जववेदस्यं सक्तसहखमेक एन्द्रे कदयपापं वदन्ति
दृश्यते । (इति ह स्माह कश्यपः इति वाक्यसम्पुरितस्या-
जातवेदसे खक्तमाचं त॒ तेषामेकभूयस्स्वं मन्यते श्चाकपूणिः ॥
ध्यायस्याभ्यन्तरेऽपि आचार्यान्तरमतनिर्दैशं विनाऽपि कचन
( ब्रहदेवतायाम्‌ प्र, ९२)
'इति कश्यपः इत्याह कश्यपः (खि. स्था. १०अ. ९८-६६श्को.) २, बश्चुदश् मारयोचः कदयपौ वा द्वपदम्‌ ।
इति वाक्यं यदत्रोपरभ्यते, तन्नवोद्धावितं तमथं सूचयितुं ( ऋक्सवाँतुक्रमे मं, ८ ख, २९)
ग्रन्थक्त एव स्वनामोस्रेखनमिव्यपि सम्भवति, मारीचकश्य- २. एतनाजितमिति मरीचिः काश्यप उमे जगत्यौ जातवेदसम्‌
पस्य संहितायां कश्यपाय स्वाहाः इति ( प्र. ५७ ) स्वाहा- ( ७।६३ ) इत्यथवंसवौनुकरमख्त्रे मरीचिः कादयपः इति
कारदेवतात्वेन कश्यपोलरेखे प्राचीनकश्यपरस्वस्यावश्यवक्त पाठदशनेऽपि वंशायचुक्रमे कदयपस्थ मारीचस्वेनोप-
व्यतया मूरकरश्यपपरम्परात एवैतत्सन्ततौ वियानुबरस्या रम्मात्‌ कादयपस्य मरीचेरनुपरम्मात्‌, शक्सर्वानुक्रमे
तद्धिपये पूर्वाचा्यकश्यपोपदेक्ञमवबोधयितुं तरस्मरणमित्यपिं जातवेदस्ये मारीचकदयपापयस्वेनास्मिन्नपि जातवेदस्ये तथा-
सम्भवति ॥ त्वौचिव्याच्च ञेखादिकृतो बणैविपर्यासः किल १
आदिमः परम्पशगतो वा भवतु कश्यपः, नैतावन्मान्रेण ४, जातवेदस एका जातवेद स्यमेतदाद्धीन्येकभूयाि खत्तसहघ-
स प्राचीनतयाऽवगम्यते; वेदिकसादिव्यारोचनेऽपि मन्त्दरध- मेतत्कदयपाषैम्‌ । ८ स्वानुक्रमण्तरे ) ।
तयोक्िखितो दश्यते । कात्यायनीये ऋक्सवौनुकमसुत्रे कश्य- ५. जातवेदस्यं क्तसहभेके ""* ““" जातवेदसे खक्तमायं ठ तेषा-
पेन काश्यपेश्च टष्टेषु बहुषु सूक्तेषु दर्षितेषु जातवेदस्यादि मैकभूयस्त्वं मन्यते शाकपूणिः । ( बरहदेवतायाम्‌ }
सुक्तसहसरं कश्यपार्षं निर्दिष्ट, तद्वयाख्यायां षड्गुरचिष्यः “अयं ६. िकखक्तानि चैतानि खाचैवा्च॑मधीमहे ! `
शौनकेन स्वयं प्रोक्तमृष्यनुक्रमणे विदम्‌ ॥
१. महामारते उद्योगपवेणि ११० अध्याये ।
पवास्पूवांसहल्स्य खक्तानामेकभूयसाम्‌ ।
२. हुताधचिदो्मासीनं गङ्गाद्वारे प्रजापतिम्‌ । (ल. क, अ, ) जातवेदस इत्यायं कश्यपाषेस्य शुश्चुम ॥ `
` ३. जातवेदस एका जातवेदस्यमेतदादीन्येकभूयांसि सत्तसदख- आस्नायोक्तेरेव च्युतत्वेऽपि खरस्य कश्यपर्षरनेकपक्त-
मेतत्कदयपाषेम्‌ । ( ऋक्सवांनुक्रमै मं. १ ख. ९९)
४. एतत्यक्तसहखं कर्यपाषैमिति । आष दनं यत्तत्कश्यपा्ष॑म्‌। द्ेनेन माहात्मज्ञानार्थोऽयसुपदेशः प्रासङ्िकः । (वेदार्थ
दीपिकायाम्‌ ए. ९१ )
अयं स करयपो मरीचिपुच्र इति वक्ष्यते म।रोचः करयप इति। ७. जातवेदस इत्येकचंमादियेषां तान्येतदादीनि रक्तानि एकः `
(वेदाथेदीपिकायाम्‌ ° १, ९१ } भूयास्येकचेबेहुतराणि |
२ का० उ०
१८. उपोद्धातः १,

न्तराऽन्तरा प्रविषैः पदविशेषेरप्येतत्संहिताचचार्यः कश्यपो


+ म

तस्परिगणने एकर्च॑सूक्तस्येवात्रोपलग्धेन एकोनशतपञ्काधिक-


पद्चरुक्ाणि चोऽत्र विद्धक्षा इति गणितमर्यादया दशयति । नासाऽऽदहिता्िर्वेदवेदाङ्गपारद्शा प्रजापतिस्थानीयो गङ्गाह्ार्‌
परमष्वेदे एपौकमन्त्रच्रद्धयादिप्रक्रियया सूक्तेषु मन्तरचरिन्यास- निवासी महर्षिमारीचः कश्यप इति स्पष्ठीभवसि 1 ततश्च चरक-
रीतेः क्राप्यदर्षनेन, सूत्रे श्रहद्वतायां चास्मिन्‌ सूक्तसहसे संहितामूकाचार्यस्यात्रेयस्व पु्र्वसुद्मेवरेनत्पंहिताचार्यस्य
एकर्चवा्ुरयस्योक्ततया च तावर्संश्यस्वं नोपपद्यते 1 स संख्या- कश्यपस्य मारीचक्छव्देन विरोषतः परिच्छेदः ॥
= निरवैशः सङ्गतोऽस्तु न वा, तथाऽप्यस्मिन्‌ सुक्तसहसरे एकच कौमारश्रत्यम्रस्थानीयाया अस्याः संहिताया र्ेखादपिं
बाह्ल्योक्स्या एकचनां बहुसंख्यत्वेऽपि सूक्तान्तराां वहुचा- मारीचः कश्यपो बृद्धकाश्यपश्चेति दवावाचार्यां गम्येते । येन
नामपि तत्रानुप्रवेशसम्भवेन सहखशो मन्त्रा आसन्निति त्‌ मारीचकशश्यपोपदेश्षर्पायासस्यां संहितायां =वमनपिरेच-
सिध्यत्येव । कश्यपा्वेतूपरम्यमानेषु काश्यपापेषु चान्येषु नीयप्रकरणे परसतश्रेण्यां चृद्धश्टाश्यपमतं पूवं॑निर्दिश्य
सूक्तेषु दिव्यपरमौषधेः सोमस्याभिष्टुतिदशेनेन विदधषष्वन्येषु पश्चात्‌ "जथ कश्यपोऽत्रघीत्‌ इतिं -स्वसिद्धान्तरूपेण कश्यपः
सहलो मन्त्रेष्वप्येवमेव प्राय ओषध्यादीन वणेनं सम्भवति मतप्रदर्शनस्य स्पष्टतया मारीचक्ब्देन व्यवहियसमाणः कश्यप
कश्यपस्यायरवैदविद्याचारयस्वस्य, तत्परस्पराया तदनुकृततेश्च एवास्याः संहिताया उपदेष्टा, वृद्धकाश्यपरूवाचार्यान्तर एवेति
काश्यपसंहितायाघ्ुर्रेखेन कश्यपसंहितायां महाङरतेवरंदजीव- स्यष्टमवगम्यते । प्रस्यध्यायस्‌ “इतिह स्माह कश्यपः, इति
केन पश्चात्‌ संक्तेपणस्याप्युररेखेन च इदमेव विधं सू्तसहस्र निर्देशो महपि कश्यपमिस्यादिरूपेण बहुशोऽत्र निर्देशोऽपीद्‌-
कार्यपसंहितात्मकमासीत्‌ किरु ? 1 आयुवेदीय विषयान्तरं मेवोपोढरयति । अस्यापि कश्यपस्य महषिं कश्यपं वृद्धमिति
प्रतिपादयन्‌ स भागः कश्यपेन ऋर्वेदेऽनुप्रवेरितः लिररूप- कचन (खिरस्थान.रअ.) वृद्धस्वोल्रेखस्तु ्ाननृदधसवं वयोबृद्धस्वं
तया समयेन ततो विच्युतः पशचा्विलोपुफगतोऽपिं संभवति । वाऽभिपनेति। लिरुभागपुभ्पिकायामेकस्यां (खिर. १२७.) वृद्ध
पश्चाचिर्देद्यमाणे काश्यपसंहितानाञ्चोपलभ्यमाने संहितान्तरे- काश्यपीयाया संहितायामिति खेखस्तु भआपातपतितः संभाव्यते;
ऋगर्वेदस्योपवेदाङ्गं काश्यपं रचितं पुरा । किं वा चरकसंहितायां पश्चाद्धाे छष्णात्रेयादिमतोल्टेखवद्‌-
लन्तम्रन्धं मह तेजः अमेयं मम दीयताम्‌ १ ॥ त्रापि ब्रद्धजीवकीयभावमापन्ने चिमे अध्चार्थान्तरस्य बद्ध
रेख-
इति ऋण्वेदोपवेदरूपेण र्त्रन्थार्मकं काश्यपं दशेन- काश्यपस्य मतमादाय निर्देशनेन बृद्धकाश्यपीयायामिति
मुस्यमानमपि इदमेव विदश्च काश्यपसंहितारूपसूक्तस हसं ममपि सम्भवति ॥
रुच्यीकरोति कि १ विलसूपेगावस्थितानां स्वदष्टसहस- महाभारते रहकदंशोपाख्याने शप्तं राजानं परीदितं दष्टं
सुक्तानामीदशानां परदृ्टानां सूक्तानां च ` संहितासुपादाय गच्छुतस्तक्ञकस्य राज्ञो दंशम्रतिकारायारच्छतो महर्षः काश्य-
कश्यपाचार्येणायुरवैदस्य पश्चमवेदस्थानीयस्वं शिष्योपकरमणीया- पस्य च पथि समागमेन संवादं उपरम्यते । सोऽयं काश्यप-
ध्याये ( प° ६२ > उपवर्णितं किघ्ु १ इस्यपि तकः समुदेति । शाग्दितो मारीचराब्देनाऽचिक्षेषितो महरपिर्चिषहरविध्याविच-
तामेव. खिरुरूपेणावस्थितामायुर्वैदीयविषयाववोधिनीं कश्य- लषणः कश्यपपरम्परागतो भिन्न इवावगसम्यते ॥।
पस्य महासंहितामुपादाय तदीयविषयानन्तर्निधाय ब्ृद्धजीव- ` इलछनेन सुश्रतव्याख्योयां काश्यपनाञ्ना, माघवनिदान-
केन सं्तिप्य तन्त्रास्मना विहितं न क्यु? यथा तथाचा व्याख्यायां मधुकोले ब्रद्धकाश्यपनास्ना शलोकाबुद्ुतौ दृश्येते ।
भवतु, उपरुम्यमानेयं काश्यपसंहिता .वेदावुस्युतमूरुमहातरो- तयोः श्छ्ेकयोरगदतन्त्रीयविषयायबोधेन तवेतौ कार्यपवुद्ध-
रेव संक्लिप्ः स्वरूपविदोषः पयंवश्यति ॥ काश्यपौ अगदतन्त्राचायौं भिन्न प्रतिभातः॥
तदेवमेतस्संहितायःः संहिताकस्पाध्यायङेखेनोस्मिन्‌
मन्येऽ
पितामदुनियोगाच दष्टा च ज्ञानचक्षुषा ।
दयुचं तृचं चतुकरचं पद्चचंमित्यादि सदस्चांन्तान्यत्र तपसा निर्मितं तन्त्रमूषयः प्रतिपेदिरे ॥ (संहिताकस्पः )
सन्ति" `" एतावत्यक्तसहखं कदयपाषेम्‌ महु कश्यपं वृद्धं वेदवेदाङ्गपराम्‌ ॥ (खिरस्थान )
, ( वेदाथधीपिकायाम्‌, ए. ९२ ) १. राज्ञः समीपं ब्रहम्िः काद्यपो गन्त॒मैच्छत ।
१. सयोवृषीयान्ता वेदमध्यास्त्वखिरुमध्यगाः । गच्छाम्यहं तं त्वरितः सयः कलुंमपञ्वरम्‌ ॥
ऋचस्तु पञ्चरक्षाः स्युः सैकोनर्तपन्चकम्‌ ॥ | (महाभारते मास्तीकपवेणि. अ. ४६)
| ( वेदाथंदीपिकायाम्‌ ए. ९२ ) २. ननु काश्यपेन मुनिना सियादिष्वस्चिकमं प्रतिषिद्धं, तथा
२. इुताथिहोत्रमासीनं गङ्गाद्वारे प्रजापतिम्‌ । च तद्वचन -
पप्रच्छः स्थनिरः कारे प्रजानां हितकाम्यया ॥ (रु. कल्पः ) , न श्षिरालायुसन्ध्यस्थिममस्वपि कथच्रन ।
, प्रजापति समासीनसषिभिः पुण्यकमभिः । दंश्षस्योतकतैनं काय दाहो वा भिषजाऽभनिना ॥
~. पम्रच्छ्‌ विनयाद्विदान्‌ कदयपं वृद्धजीवकः ॥ ( ज्व, चि. अ. ) | | ८ निबन्धसद्हे ए. अ. १)
मारीचमासीन्रषिं पुरणं इताथिषोतरं ज्वरनाकंतुस्यम्‌ । २. वृद्धकादयपः-- .
~. . ` - तपोदमाच्रारनिधि महान्तं. प्रच्छ्‌ सिष्य: स्थविरोऽनुकूरम्‌॥ संयोगजं च द्विविधं वतीयं भिश्रसुच्यते । |
“~ ` ~ ( भौजनकल्पः ) . गरः स्यादनिषं तत्र सविषं छतरिमं स्द्तम्‌ ॥ ( भधुकोक्चे )
#) सि | ॥॥ [1
1
उपोद्धातः । | १९
+ 0 + 1


वचच्च्यच्च्च्यय्
^तृषिर्षिक्रषेः काश्यपस्यः ( १।२२६ ), (नोदा्स्वरितो-
|° + + च +

काश्यपसंहितानान्ना मद्वासप्रदेदे युद्वितोऽगदतन्त्रविषयक-


द्यमगाग्यंकाश्यपगार्वानामू, ( ८।४।६७ ) इति सूत्रङृता विभिन्नोऽन्यो गन्धोऽप्येक उपरम्यते । तत्र गार्डीविद्या, विष-
पाणिनिना प्राचीनवेयाकरणेषु स्मरतः कश्यपोऽपि अरस्थाना- हरा भेषञ्यभ्रयोगाः, मान्तरिक्रयोगाः, विषवत्यो
न्तरविद्वानन्य एवावगम्यते। चिल्पाचार्यत्वेन कश्यपस्य निरदैश-
जातयस्त-
सरभेदः, द॑श्ादिविशेषाश्च वर्णिताः। एतदीयो रेखो इद्लन-
स्तेत्तिरीयसंहितयां दयते ॥ मधुकोोदधतयोरगदतन्त्रविषयकयोः शछोकयोश्चतोऽपि सम-
काश्यपंसंहितानानैकाऽन्या संहिता उमामहेश्वरमश्चमति- कच्ता गरौढतां नार्हति । न चात्र तौ शोको । तेनागदतन्त्रीय-
वचनरूपेण निवद्धा चिकित्साविषयिणी र्ष्वी तञ्जोरपुस्त- स्यान्यस्थेवार्वाचीनकाश्यपस्य प्राचीनागदाचार्यकारयपसापर-
कार्ये ( ० 10780 > विद्यते । यदीयपूरवार्धमाशस्य श्रीयुत- दायिकोपदेश्चानुसारिणोऽन्यस्येव वा कस्यचिज्ञेख ॒दत्यनुमी-
वेद्यवरथाद्वजीमहाभागान्मयाऽप्युरुडधः ग्र्िरेखः। अचर यते! एतदीयच्छायागन्धोऽपरि नास्यां कौमारश्रत्यप्रस्थानी-
ूर्वाधे नानावातरोगा ज्वरा म्रहण्यतीसारार्शसि, एषां निद्‌- यायां संहितायाम्‌ ॥ |
नानि, पापानि, तच्छमनौषधोपायाः, निदानपापापहानि तदेवं कश्यपकाश्यपरब्दयोर्विंभिन्नतया दर्शनेन एषा-
सदरिवविष्ण्वाराधनादिविधानानि च संकेपेण द्षितानि। सुपरिनिर्दिष्टानां काश्यपानां प्राचीनवेन दश्यमानानामपि
तत्र पूर्वाधंस्याऽन्तमागे 'बाररोगस्यः दव्युपक्रम्य-- विषयधिसंवादेन, काश्यपसंहितानाश्चा रुभ्यमानयोरपरिनिर्दि-
“स्वाङ्ग मूर्धि कन्ते दे श्रोणी द्वेपादबाहुकम्‌ । एटयोगरन्थयोरवांचीनमन्थान्तरस्वेन, एषां काश्यपानां मारचघे-
पिटकं दुरं कण्ड्‌ तिमिरं इमिसंलम्‌ ॥ नाऽविशेषणेन च कोमारश्त्याचायों मारीचकश्यपो नाम
पूयं रक्तं खवत्ति च वेदनं श॒ष्कमङ्गनम्‌ । . विभिन्नः प्राचीन आचायः, तन्मूला चेयं नवोपरन्धा प्राचीना
विदाहं श्ोषमस्यन्तबारुकं पिच्छिपिच्छिरास्‌ ॥ संहिता बिभिन्नवेति निर्घायंते। कश्यपोपदि्टवेऽपि तदीय
एते गुणविकाराश्च पैतरूपं सञ्जद्धवम्‌ । | त्वावबोधिना प्रत्ययेन सह प्रयुज्यमानया समानाधिकरणसमसे
तत्पेत्तनाडीनाश्ार्थं राल्लादिरेद्यकं तथा ॥ पुंवद्धावे च काश्यपी संहिता इत्यर्थमादाय कार्यपसंहितेत्यस्या
मासं मासत्रयं नित्यं बाख्पेत्तविनाश्चकम्‌ । नाम समुचितमेव ॥ _ |
अश्वगन्धिधरतं सेवेद्धिडङ्गादिषृतं तथा ॥ अष्टाङ्हदये . बालामयम्रतिषेधाध्याये बृदढकश्यपनान्ना
वाङुचीधृतविख्यातं बाखकं पिच्छिलं हरेत्‌ ॥ कश्यपनाक्ना द्वावौषधयोगालुद्धिखितौ दरयेते । चछृद्धकस्यपस्य
दरति पार्व॑तीपरमेश्वरसंवादे काश्यपसंहितायां पूर्वार्धं समा- कश्यपस्य च विभिन्रतया निरदैशेनास्यां ,कश्यपस्य संहितायां
प्तम्‌” इत्यवसानमस्ति ॥ बरद्धकश्यपोक्तविषयासंवादेऽपि कश्यपनान्ना निर्दि्ो बाङानां
दत्थ॑रूपाया अस्याः संहिताया रेखो न श्रीढो, नापि सुसं- १. अस्या आरम्भः- .
स्तः, नाप्यतिप्राचचीनश्रणीमधिरोदुमर्हति । वारमैषज्यं च कादयपं ते महात्मानमादित्यसमतेजसम्‌ ।
नात्र प्राधान्येन च्णितम्‌, अन्ते केवरञुपरिनिर्दिषटश्ोका एत. अभिवाद्याभिसङ्गन्य गोतमः पर्ंष्च्छत ॥ `
द्विषयका दृश्यन्ते ।ब्रृद्धजीवकीयतन्त्रगतरेखेन सह नातोऽ गोतमः-- _
पि विषयविशेषे रचनायां मैषन्येऽपि संवादः साम्यं चायानु- त्वं हि वेदविदां अष्टो ज्ञानानां परमो निधिः।
विधानमपि । तान्त्रिकप्रक्रियानुसारिणी विभिजनैवेयमेतन्नाश्ना ग्रजापतेरात्ममवो भूतमभ्यविदुन्तमः ॥
निर्दिष्टा संहिता । एतदीय उपदेष्टा काश्यपश्चब्दितोऽपि विभिन्न समाप्निः- |
एवावगम्यते ॥ | अभिषेकात्‌ पर मन्त्री यन्घरधारणमाचरेत्‌।
पूववदक्षिणां दचात्‌ पुव॑वत्फलमाप्नुयात्‌ ॥
१, यत्तं शिद्पं कश्यप रोचनावदिन्द्रियावत्पुष्कङं चिघ्रभावु । एवं प्रकारं यः कयात्तस्य सिद्धिमैवेदू्नवम्‌ ॥
यस्मिन्त्छयां अपिता सप्त साकं तस्मिन्‌ रानानमधिविश्रयैनम्‌॥ इति कादयपीये गरूडपच्चाक्षरीकस्पे अभिषेकयन्बधारण-
| ( तेत्तिरीयसंहितायाम्‌) विधिनांम रयोदश्चोऽध्याय इति ॥
२. अस्या आरम्भयन्थ एवम्‌-- ¦ २. समङ्गाधातकोलोध्रकुरत्नरवराहयः।
कौरासंशिखरे रम्ये पा्ब॑तीपरमेश्वसै । महासदाक्षुद्रसदक्षद्रविखदलाडइमिः॥ . = `
अन्योन्यरुखलीलायामैकान्तसुखगोष्टिषु ॥ ` सकापांसफलैस्तोये साधितैः साधितं श्रतम्‌। `
पावती पतिमालोक्यं कृताजकिरमाषत । क्षीप्मस्तुयुतं हन्ति शीघं दन्तोद्धवोद्धवान्‌ ॥
नि पापं विविधं (7 ) रोगं (: )मिविधं नरकं पथ (वद्‌ )] विविधानामयनितवङ्द्धकद्यपनि्मितम्‌॥ . ` ` ,
शङ्कर उवाच-- - ~~~ ~ ( जष्टङ्गद्ृदये प्र, ४५८) =. `
नानापापवणंनान्ते- २३. वचादिङ्खुविडङ्गानि सैन्धवं गज्पिप्परी । . _ | `
ऋ^वेद स्योपवेदाज्गं कारयपं रचितं पुरा । ` पाठ प्रतिविषा व्योषं दचाङ्गः कश्यपोदितः॥ =. |
रक्षमरन्थं महातेजः अमेयं भम दीयताम्‌ ॥ इत्यादि । ~ : ( जष्ट्गहदये ए,ष्६२) = `
९० । उपोद्धातः ।
५ 5 णप
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आ न मि भि ।+ ११ पि नि ^ 81

ग्रह्रो दश ङ्गधूपो धूपग्रकरणे ( कदपस्थाने >किचचिदटस्तुविशेषे उ्वरसमुचयो नाम उ्वरविषये प्राचीनाप॑मूटवचनानामेक-


पाठविभेदैनोपरुभ्यते। बारानां यत्तरक्तःप्र्तिवाधाहरतया त्रसंग्रहरूपः प्राचीनो अन्धः । यदीयं ताडपुस्तकं छिप्यनुमानेन
अभयधृतसाश्ना कश्यपेन (प्र. ६) निर्दिष्टं धृतं वाग्मटेनापि सप्ता्टडातवर्षपू्वतनमेकं, द्वितीयं च ४४ नेपाङी (५. 1). 924)
( घु. ४९५ ) निर्दिषठं श्यते । यावद्रस्तूनां रलोश्चव्वादेश्च संवा- संवत्सरे रिधितं मत्सकाशेऽसिति । पुस्तकरेदस्मभनाप्येवं
देन तदैवेति निश्चीयते ॥ प्राचीने रचनासमगेन ठ ततीऽपि प्राचीनेऽस्मिन्‌ मन्थे बहुश
खोराङ्प्देशभूशभात्निऽकासितो वावरमनुखि्टाख्यया- श्लोकाः कश्यपनाश्नोद्शताः सन्ति, अपि तेपां श्खोकानमस्यां
प्रसिद्धो नावनीतक्ं नाम प्राचीनो वे्यकम्रन्थः। यस्य सूजप- संहितायां पूर्णतया संवादोऽस्ति। स संवादः पश्चा्निदे च्यते ।
त्ीयप्राचीनङ्पिमात्रानुसन्धानेनापि तृतीयचतुथंशतब्दीरि- तेन॒ तदुपात्तः काश्यपोऽप्येतस्संहिताचायः कश्यप एव,
खितमिदं पुस्तकमिति निर्धार्यते विवेचकफेः। अन्थरचना त तदुद्शताः श्कोका अप्येतस्घंहितागता एवेति सविरोषं
सुतरां ततोऽपि प्राचीना । अत्रात्रेयक्तारपाणिजतूकणपराश्चर- निश्चीयते ॥
मेडहारीतयुश्वुतकाश्यपजीवकानां नामान्यप्युपान्तानि दश्यन्ते। सुश्चतव्यास्याथां निबन्धसंग्रहे अष्टाङ्गहदयरीकायां चरक-
ग्राचीनानामेषामाचार्यांगं संहितोत्तयोगौपधानामन्र सङ्ग्रही चक्रपाणिटीकायां कश्यपनाश्रोदृषटता द्वित्राः श्लोका अन्येऽ
ततया अष्टङ्गहृदयोक्तभीगस्यंकस्याप्यनु्खेखेन कश्यपकाश्य- प्युपरूभ्यन्ते । परमस्याः संहिताया बहशो मागेपु अुटितत-
पत्रेयसुश्रतमेडादिभ्य उत्तरं वाग्भटात्‌ पथं तज्निबन्धनमनु- य।ऽत्रानुपभ्यमानस्ते श्खोकास्ुरितमागपतिताः स्युः ॥
मातं शक्यते ¦ एतदीये चतुर्शाध्याये कोमारभर्यरूपे काश्यप- पीयूषधारायां गभांघानप्रकरणे-“उक्तं च कश्यपसंहितायां,
नान्ना जीवकनाश्ना च तदीयोपदेरतो भावामुषादेन कानि- वपद्रादशकादूध्वमित्युपक्रम्य--
चिद्योगौषधानि निर्दिटान्युपभ्यन्ते। कौमारभ्त्यप्रकरणेऽ अन्तःपुष्पं भवत्येव पनसोदुम्बरादिवत्‌ ।
स्मिञ्जीवकेन सह निर्दिष्टः काश्यपः सोऽयमेवेतस्पंहिताचायों अतस्तु तत्र कुवीत तत्सङ्गं द्धिमान्नरः ॥
भवितुमर्हति । स्वाथऽगि तद्चेत्रीयबोधने वा कश्यपस्य काश्यप इति श्खोकोद्धासे दश्यते) अस्य श्छोकस्य स्योतिर्विपयके
गन्थे उद्धारदर्धनेन ज्यौतिपतिषयिण्या अन्यस्याः कश्यपसंहि-
शब्देनापि व्यवहर्तुं शक्यतया कश्यपपदस्थाने काश्यपपदमा- ताया अपि भवितुं संभवोऽस्ति । काश्यपसंहितायां जाति-
पातपतितं स्यात्‌ । तत्रैव दश्यते-
सूत्रीयाध्याये ( प. ७९) उपक्रान्तस्य गभांघानादिसम्बद्धस्य
आसवेन सुजातेन बाङानां दापयेद्धिषर्‌ | विषयस्याशतोऽवशिष्टस्यांशतसखटिततया अस्मिञ्च्छरोके आप
सुखं भवति तेनास्य काश्यपस्य वचो यथा ॥ श्छोकः 4० रचनया ग्माधानविषयग्रतिपादनेन चेतत्कार्यपसंहिताया-
` तेन कोष्टगतो वायुः चिग्रमेव प्रमुच्यते । मयं श्लोकस्तत्न चुटितभागे पतितोऽपि सम्मवति । तथात्वे तत्र
` शिरोरोगेषु शमनं वमनं चेव शाम्यति ॥ ११ पीयुषधारोषिष्टा कश्यपसंहिता इयमेव भषितुमर्हति ॥
करृमिगैदगतो यस्य गुटिकायाः प्ररोपयेत्‌ । ूर्वोषिष्टसंहितकस्पाध्यायोक्त्या ( कल्पस्थाने ) कश्यपो
तेनास्य सौर्यं मवति काश्यपस्य वचो यथा ॥ १२ जीवक स्य पदिष्टा महातन्त्रूपरा संहिता करखरस्थेन छन्ी-
शकंरा्ौ दसंयुक्तों पाययीते चिकित्सकः ।
सुखीभवति तां पीत्वा काश्यपस्य वचो यथा ॥ १३
विमरौः द्युत्रेण बृद्धनोवङनाम्ना प्रसिद्धेन महर्विणाऽ-
इति किञ्चन रुटिकौषधमुपादाय कश्यपोक्त्यनुवादरूपेण धिगत्थ संचिप्य तन्त्ररूपेण प्रकारिता दव्यवगम्यते ॥
योगविशेषः प्रतिपायते । नावनीतके त्पू्टोकानां विद्धक्ततया महाभारतादौ जामद्ग्न्योपाख्याने ऋचीकनाश्नो महै.
किंरूपमिदं गुटिकौषधमिति न जायते । काश्यपसंहितायां तत्र रुल्टेख उपरुभ्यते ! अखीरियन्प्रदेशीयपूवंदृत्तेऽपि गारुवादि-
तच्र ( लिरस्था. १७, १८ अ.) गुरिकौषधानां रचना उपयोगश्च नामवत्‌ ऋचीकस्यापि नामोपरुभ्यते । साधकान्तसेपरम्म-
दश्यते । तेष्वेवान्यतममुपादाय स्वानुभवसिद्धेनानुपानविरेषेण मन्तरा अस्य बृद्धजीवकस्य पिता कतमोऽयग्रचीक इति न
साकमन्र निर्दिष्टं विमाम्यते ॥ १, कादयपोकेतं इलोकमाह गयदासः-
्राचीने रवगीये बारुतन्त्रे काश्यपस्य वृद्धकाश्यपस्य च अरजस्का यदा नारी रटेष्मरेता चजेदतौ ।
नामोर्रेखोऽस्ति । कौमारतन्त्रऽस्मिन्नाचायमावेन ब्ृद्धकाश्य- अन्यसक्ता मवेतपीतिजायते कुम्मिरुस्तदा ॥
येन सह निर्दिष्टः काश्यपोऽप्ययमेव कोमारभ्त्याचार्य; कश्यप ( सश्चतरीकाथां निबन्धे )
इति ज्षायते ॥ २, कक्ष्यपः-- _
भूयो वैति पजन्यो गङ्गाया दक्षिणे जलम्‌ |
१. ब्राह्मीसिद्धाथंकवचासारिवाङ्कष्ठसेन्धवैः। तेन प्रावृषवर्षाख्यौ ऋत्‌ तेषां प्रकद्पितौ ॥
सकणैः साधितं पीतं वाढ्मेषास्छृतिृद, ध्रतम्‌ ॥ गङ्गाया उम्तरे कूरे नि 11
आयुष्यं पाप्मरक्षोप्न भूतोन्मादनिवदणम्‌ ॥ भूयः सौतमतस्वेषां हेमन्तरिरदिरवृतु ॥
| ( अ्टङ्गहदये उम्तरस्थाने अ० १ ) (हेमद्रेरष्टङ्गटीकायां चक्रपागेधरकरीकायान्च )
` . . ‰. एष अन्धो युरोपप्रदेश्चे रद्दौरम्रदेरेऽपि यद्ितोऽस्ति। ३. स॒दूतेचिन्तामणेः संस्कारग्रकरणे प्रथमरखोकन्याख्यायाम्‌।
उपोद्धातः ।
२१
निश्चेतुं सक्यते ।
8

कमारायाभयाय निवेदयन्‌ स॒तेनास्वीकारेण सदङ्गियत ।


दिप्राचीनवेयकम्रन्धेष्वपि वृद्धजीवकनाम जीवकनाम वा न राजग्रासादाभ्यन्तर एवास्य वासभवनं निरमीयत । ततो
दृष्टिपथसुपेति । परं नावनीतके कौमारख््यप्रकरणे कारयपी- मागधनृपतेविम्वसारस्य तीं भगन्द्ररोगमेकेन रेपेन न्यवा- ।
यस्यैव जीवकीयस्याप्यौपधस्य दर्दिरोगे उरेधाते च सनाभ- रयत्‌। तेन श्रीतः स राजा पञ्चशषतनार्याभूषणैः स्कृत्य तं
ग्राहय ल्टेखो बारुमैषज्यविषयानुपङ्तेण कर्यपसाहचरयेण तरूणजीवकं स्वस्यान्तःपुरस्य बुद्धभुखभिद्सङ्कानामपि भष.
चामुमेव ध्द्धजीवकमववोधयन्‌ प्रतीयते । अस्मिन्‌ बृद्जीव- ञ्यसेवानुमतिदानेनानुजम्राह । ततः सक्षवरपेभ्यः
शिरोवेदन-
कीये छुदिरोगग्रकरणस्य खण्डिततया तदीयौषधं न संवादाय । याऽ्दिंतस्य कस्यचिन्छेष्टिनो भैषज्याय बहुकारं शयनं प्रति-
उरोधातग्रकरणे ओषधनिर्देशिनां श्टोकानां मध्ये जुटितत- ज्ञाप्य
प्रघरत्तस्तदीयं कपाटं निर्भिद्य ततः कृमिद्रयं निष्कास्य
याऽवश्षिष्टमाये पिप्पल्या सहोपयोज्यस्यान्तर्जिलीनस्य कस्य-
परिषीव्य कतिपयेर्दिनै
चिदौषधस्य प्रयोगो गम्यमानः संवादमनुमापयति । संश्चत- प्राप । ततो राजाक्षयाः स्वास्थ्यं सम्पादय प्रभूतधनसत्कारं
वाराणसीमूपेत्यन्त्रमन्थिरोगेण पीडि-
स्योत्तरतन्त्रे “ये च विस्तरतो दृष्टाः ऊुमाराबाधदेतवः” इति तस्य कस्यापि श्र्टिपुत्रस्य
ोदरं विदार्य चिक्षिस्सयाऽऽरोग्यं
सामान्यतो निर्दिष्टे कौमारश्लये “पार्वतकजीवकवन्धकपभ्च- समपादयत्‌ । तेनापि
श्रेष्टिना धनैः सदक्रियत। ततो नरपते-
तिभिः” इति विशदीकु्घता उद्ञनाचय ंण निर्िषटोऽपि जीवकः राज्तयोजयिनीमुपेत्य तद्‌भूजः म्र्योतस्य पाण्डुरोगं धृतप्रयोगेण
कौमारश्वस्याचायंश्रण्यासुज्ञिखिततयाऽयमेव ब्रद्जीवको मवि- रमयितुं प्रवन्रते । घतमनिच्छन्
महति । चक्रदत्तेनापि जीवकनान्ना सौरेशवरध्रतमुद्शतमस्ति। पाय्य वमने राजकोपाद्ध तं वपति कषायरूपेण तन्नि.
येन पूर्वोपस्थापितां हस्तिनीमास्ड्य
अन्यत्रापि दीकायन्े कुमारसुखावहस्य कासश्रासादिहसैषध- पलायितो राजगृहं
प्रस्याययौ । जओौषधय्रयुक्तेन वमनेन नीरोगो
विशेषस्य जीवकनाघ्ना उद्धारो इश्यते ॥ | राजा शिबिदेशोद्धवराङ्कवायुपायनं जीवकाय प्रेषयत्‌ । तत
कोऽयं च्रद्धजीवक इत्यनु सन्धाने उुद्धसमये वर्तमानस्य
आनन्द्तथागतस्य सूचनया जीवको रुग्णं भगवन्तं बुद्धं
कुमारभचः शब्देन विरोषितस्य जीवकनाश्नः कस्यचितरसिद्ध- विरेचनौषधप्रयोगेण स्वस्थीचका
र । जीवकः प्रद्योतेन वाराण-
वे्यस्य महावम्गनामके पारीन्थे बौद्धजातके तिव्बतीयोप- सीपतिना चार्पितं राङ्कवकम्बरखादिकं भिद्धसङ्घा्थं भगवते
कथायां च दइतिव्रत्तमुपटम्यते । तत्र कुमार्भच्चविरेषणस्य तथागतायापयाससेति ॥
जीवक पश्च पसिद्धवे दयव्वस्य न्घ दुकशमेन विमर्ष तेषु तिब्बंतदेशीयोपकथासु विम्बसारस्य सुनिष्यायामुसपन्ः
वौद्धन्थेषु निर्दिष्टं तदीयेतिवृन्तं फिञ्चिदिहोपन्यस्यते-- युत्रो मात्रा मज्ञृषायामुत्सृष्टो बाख्को जीवको राजकुमारेण
महावग्गनासके पारीभन्थे अष्टमाध्याये एवमुक्ञिखित- अभयेन पारित हति कुमारश्त (व्य) नाश्ना प्रसिद्धिं गतः ।
मस्ति--राजगृहे सारावतीनार्न्या कयाऽपि गणिकया प्रसूत- सोऽधीतभेषभ्यविदयो राजङुमारा्षया कपारभेदनादिश्स्य-
मत्रं सूपं निधाय दासीद्वारा वहिर्स्छषटं वारुकं राजकुमारोऽ- तन्त्रविन्ञानाय तकशिरूसुपेस्य शल्यतन्त्रे परमबिदुष आत्रे
भयो नाम दृषा प्रास्रादमानीय परिचिारिकाद्भारा पुपोष । सोऽयं याच्ञां ुब्ध्वाऽतिनिष्णातो बभूव । स्वगुरोरात्रेयादप्यस्य .
वटक उसृष्टोऽपि जीवतीव्य्थेन ज्ञीघकः इति नन्नाऽभ्यधी- कचन भेषज्यकौदारुं ददर, इति विरोषोऽस्ति । ४५० ^. 1),
यत । राजकुमारेण पाठितः पोषित इति पाटीभाषानुसारेण समयर्खितायां बुद्धधोष ¢) कृतायां धम्मपदब्यौख्यायां
कु(को) मारमच्र ( कौमारण्टस्यः, कुमारण्डतः ) इत्यपि तन्ना- जीवकेन पञ्चरातभिश्चसहितदुद्धस्य भोजनं, ञुद्धस्य पादनणस्य
माभूत्‌ । ततः समयेन विन्रदधः स ॒जीविकाथे चिदयामर्जयितु चिकित्सनं च निर्दिष्टमस्ति । सतीगुम्बजातके, संकिच्चनातके,
राजकुमारमननुमान्यव तक्तशिरासुपेतस्तत्रत्यादिक्प्रमुखात्‌ चुल्लहंसजातंके च जीवकस्य निदेशोऽस्ति ॥ `
कस्माद ्ात्‌सक्तव्पांणि वे्यविचयामयरदीत्‌ । ग्रहणधारणपदटुः स कदाचिदम्बपारीनामकोद्याने विहारमेकं निर्माय सार्ध.
स भषञ्यविद्यानिपुण आचार्येण पाथेयं द्खा विचृष्टस्ततः दादशशतमिद्धभिः सह बुद्धमामन्ग्य सच्चकार । राजगृहे श्रीगुक्-
परिखायां कश्चन स्तूपोऽपि तेन निरमाथि । सोऽयं जीवको
प्रत्यागमत्‌ । मागे साकेतस्ुपगतः सक्षवर्षेभ्यः शिरोवेदनयाऽ-
दिंताया एकस्याः श्रष्िन्या गृहसुपेतः स॒ तसुणभिषक्‌ पृतन- विम्बसारपुत्रमजातशतरं इुदधदर्शनाय प्रेरयत्‌ । इत्या्या अन्या
स्यौषधेनारोग्यं सम्पाद्य सत्काररुग्धेन बहुद्रव्यदासरथादिना अपि तदाख्यायिका जातकादिबौदधमन्थेषुपरुभ्यन्ते । एतद्धि
सह राजगृहं प्राप ! अर्नितमेश्वयं पोषणग्रवयुपकाररूपेण राज- षये वुंद्
नामके पुस्तके श्री 014९८४८४ विदुषा श्रीयुतगिरीन््-
१. मार्गीं सपिप्यरीं पाठां पयस्यां मधुनाऽन्विताम्‌ । नाथमहोदयेनापि बहु किखितमस्ति। जीवकेन स्वगृहस्य
दरुष्मिकायां लिदहेच्छर्यामिति होवाच जीवकः ॥ १, गल 79168 2. 15109, ०२

द्रेदत्यो रुवुकत्वक्‌ शवदष् यासकस्तथा ! ` [ता8 भिल्ल०८ ए०] 7 २. &4 पैः ¦
शृङ्गवेर यवोशव दार्वी वृक्षादनीं तथा ॥
क्षीरस॒त्वाथयेदेभिः पिप्पलीध्रतसंयुतम्‌ । |
उरोधातेषु दातव्यमिति दोवाच जीवकः = `
( नावतौतके १५१०५ ) ||
२२.
उपोद्धातः 1
त मात ज ण म 0 + + ^,
न ण न (नित

पुराकाराद्विभक्तेष्वष्टसु प्रस्थानेष्वन्यतमं वारुचिकित्सनात्मकं


तिके क ^ + 0


सभीपे श्रीगुपरिखायाघ्ुदयानं बुद्धस्य भ्याख्यानचस्वरं
निसितमासीत्‌ । गृहचत्वरब्हादीनां विन्यासस्य किंचिच्छष- कौमारण्यवयं, तदुषदेष्टारस्तद्विदश्च कौमारश्त्या उच्यन्ते ।
चिह्भमयाप्युपरभ्यत इतिं विकमहाशयेनोक्तमसिति ॥ ्रक्तस्यास्य मन्थस्य बार्चिकिव्याप्रधानतया “कोमारशवत्य-
चञुच्यते(प.&१), कोमार्रत्यमतिवधंनमेत- `
एवमुपवणेनेन बुद्धस्य विभ्वखारस्य च सामयिक इतः मष्टानां तन्त्राणामा
दुक्तम्‌ (ओषधमेपजीय ेन्ियाध्या ये)ः इति मन्धखेखेनः काश्य-
२५०० वर्षपूर्वं (8, 0. 600. )प्रसिद्धो भिषजीवको नाम
बभूवेति ज्तायते ॥ पीयसंहितायां कौमारश्स्येः? इति पुप्पिकारेखेन च कौमारण्टल्य-
त्वं “कौमारश्वत्यास्खवपरे जङ्गमस्थावराश्रयात्‌ । द्वियोनि ब्रुबते-
, चौद्धमन्धोक्तोऽयं जीवको मगधदेशीयो विभ्बसारस्य
्श्यायां जुजिष्यायां वोदपन्न पुत्रस्तरगवेचय्वेन निर्विष्टः \ स धूपं कश्यपस्य मते
स्थिताः ८ धूपकल्पे ), भिषक्ौमारशस्यस्तै
वेद्य (घात्रीचिकिसाध्याये), दद्युर्टेखेन एतदाचायेस्य कश्यपस्य
बाद्योत्तरं तकशिासुपेद्य तत्रस्यादाचा्यात्‌ सक्षवर्षणि
वौद्ध- एतसस्थानविद वे्याचार्यान्तराणामपि कौोमारश्त्यवं निर्दिश्य
विद्याधीप्य र्धतद्ववोध इति महावग्गरेखेन इदस्य
सिक्वगां सत्कतां वयश्चेत ि, तिव्वत ीयकथया स्तूपनि माता पश्ा- ते ।बुद्धसामयिकजीवकस्य तु कुमारेणाभयेन पारितः पोप्ति-
वद्धा छरति क्र्वा विद्याभ्यसनात्‌ पूवमेव कमारण्वत्यहाब्देन तदेकनियतो
तथातप भविष्ट इति, मञ्छमनिकायरेखेन बुद्धस्य
जटिः ज्ञर्णागत उपासक्ोऽभूदिति चावगम्यते । एतत्तन्त
रा- स्यवहारो वौद्धम्रन्थे निर्दिश, नतु कौमारण्टस्यवेत्तुतया । तथात्वे
चार्थस्तु जीवकः कनखलस्थः ऋचीकषुत्रः पञ्चवार्षिकोऽपिं वाटचिक्रित्सनं तदेतस्य च कथं तत्र नोर्रष्येत । कमारः
वठीपर्ितवत्तया ब्रृद्वरूपेण दृस्यमानो वेदवेदाङ्गपारगस्य भ्तस्य जीवकभिपजो विरोपविद्यारूपतयाऽस्य प्रस्थानस्य
हिताग्नेः कश्यपस्पान्तेवासी महर्षिभिरादतो निजवंशोद्वस्य कौमारशरव्यरूपत्वमित्यपि पुरासमयादेवास्य प्रस्थानस्येतन्नाञ्ना
शिवकश्यपभक्तस्य साङ्गवेदाध्यायिनः ग्रतिसंस्कर्ुर्वारस्यस्य व्यपदेरोन, सुश्चुतनावनीतकादिष्वपि तथोरुरेखेन, न॒ कैवं
पूर्वपुरुषः श्रौतस्मा्त॑पथेकनिष्ठ इत्यस्माद्‌ अन्थात्‌ प्रतीयते ॥ जीवकस्य, अपि सवेतस्परस्थानविदां केनापि मरेणापाटितानां
बुद्धस।मधिकस्य जीवकस्य भेषञ्येतिदत्त राजगरहश्रष्ठिनः पार्वतकबन्धकादीनामपि कौमारश्टत्याचा्य॑तेनोर्टेखेन च न
कपाटं वाराणसीघ्रे्टिनश्चान्तरं विदय चिकित्स नोर्रेखेन शल्य कथयितुं ज्ञक्यते। न चास्य तन्त्राचार्यस्य वौद्धत्वं कुतोऽप्या-
तन्ते विकेष्ञववं प्रकाशते, बारुचिक्िस्सावृत्तान्तो न॒ रुभ्यते । याति । बोद्धविदुषो ङेखनी वाग्धारा वाऽन्तःकरणाज्जिःसरन्तीं
शंर्यतन्तरवेच्ततयोरेखेन तस्य वाख्चिक्ित्सायां चिकित्सान्तरे चौद्धच्डायामस्मिस्तन्त्रे कापि कथं न प्रतिपधेत । तेन वौद्ध-
वाञवेदनं भवतीति न मेऽभिप्रायः, शल्यतन्त्रा्चायंस्यापि गरन्थोक्तजीवकस्य एतत्तन्त्राचायंस्य कृद्धजीवकस्य च बहुशो
सुश्रतस्यावशिषटान्तरोपदेशोऽसूयेवः तथाऽपि सुश्र॒तस्य शस्य- बरेरूप्यङृतो विभेदः ॥
तन्त्र इव जस्य बारुमैषग्ये समादतत्वे तद्विषयका वृत्तान्ता जेनग्रन्थपरिच्टयोरत्सर्पिण्यवसरपिंणी
पदयोरत्र दर्शनेन जैने.
रब्धं योग्याः, नघवेवं निर्दिश्यते } एतचन्त्रा चार्थस्य जीवकस्य तिहासपर्यारोचनेऽपि श्रुतन्धरराजकुमारो जीवन्धर-जीवस्वा-
तूयक्रमात्‌ प्रष्ति बाकानामेव चिकिस्सा भ्रधानविषयतेनानु- म्थपराभिधानो जीवकनासेकः प्रसिद्धः पुरुष उपरुभ्यते । यस्य
सयूतेति बारतन्तराचायंसव स्पष्टमेव ॥ . महापुराण-जीवन्धरचरित्र-गद्यचिन्तामण्यादिजैनग्रन्थेष्विति ~
उुद्धसमये काश्यपस्य जीवकस्य चेतिदासिकेन सहोपरम्भेन बृतमुपरभ्यते । स राजकुमारः पिचृजनपदानिरस्तः स्ववी्य-
एतत्तन्त्रे सहभूतौ काश्यपो जीवकश्चोभौ जुद्धसामयिको बौद्ध- कौश्षखेन प्रसिद्धो वैरिणो निहव्य राजपद प्रतिष्ठितो जेनधर्म-
अरन्धोक्तावि्यपि शङ्कितुं न युज्यते । काश्यपच्िषु आातषु निष्ठित उपवर्ण्यते। अस्य स्वोपकृतगन्धर्वपदत्तविषहरमन्त्रप्रभा"
वयेष्ठः पूर्वंदानिको याज्चिकश्चासीत्‌, स उसबिल्वग्रामे उुद्धेन वेण रपदादिव विषापहरणशाक्तिरासीदिति ज्ञायते । नास्य ततो
कौद्धधरम दीक्षितः, तमालोक्य बिम्बसारोऽपि बौद्धधर्म ॑जग्रा- तैयविद्याचार्थ्वं नतरां कौमारश्रत्यविरवं रेशतोऽप्यवगम्यते ॥
हेति बौद्धमतग्रविष्टस्य काश्यपर्येतिवृत्ते महावम्गे उपरभ्यते। जीवकीयेऽसिमस्तसत्रे ्रौतमागानुस्यूता एव अनेके विषया-
ततश्चास्य दार्चनिकस्वमेवावगम्यते, न पुनवै्यकबिद्स्वं, नतरां १. दन्तजन्माघ्यायेऽश्चुभदन्तज्ञान्तये माश्ीषटिविधानम्‌ । च.१२)
कौमारग्स्याचार्यत्वं, न वाऽस्य मरीचिपुत्ररवोर्रेखः। बौद्ध ` िष्योपक्रमणीये वैदिकं शिष्यसंस्ारविधानम्‌ 1 (पृ. ५७ »
अन्थोन्तजीवकस्य तिव्वततीयकथोपादानेऽपि तक्तशिरास्था- आयुवेदस्य वेदसम्बद्धत्वं त्स्थानीयत्वं शिक्षाकद्पदवनिरक्त
दत्रियादध्ययनमायाति, न तु काश्यपात्‌ मगघदेश्षीयादिति ` वृन्तच्छन्दोयक्ञसंस्तरन्ञ '"“क्षणीयत्वनिदं
शश्च। ( ए. ६२)
वौद्धकारयपस्य कश्यपस्य च बहुशो वेरुप्यान्न नामसाम्यमात्रेण गर्माधक्रान्तौ शधरयुणोपेतसरवंगतसंसारिजीवनिर्देलः। (र. ७२)
साहित्यं जीवकपरिच्छेदाय कल्पते ॥ ` जातिखत्रीये श्रौतं पूत्रेष्टिविधानम्‌ 1 (प. ८१)
किञ्च, द्धसामयिकस्य जीवकस्य पाटीखेखे ऊमारभच्च ओषधभेषजीये स्वस्रदोषद्यमनः सावित्रीदोमः।
इति कमारश्रत्यतवेनोररेखादेतत्तन्तराचार्यस्य कौमारशवस्यवित्तया धूपनकल्पे वैदिकमन्ोहेखः । ( १. १३६)
चोभयोरेकस्वशङ्काऽपि विचारे नावतिष्ठते । यत आयुर्वेदस्य रेवतीकस्पे शाब्दी आर्थी च बैदिकी प्रक्रिया ।
१. 816व775४ &.€00148 ° (€ ट्छ स] जातकर्मोत्तरीये श्रतप्रक्रियया निष्कम्रणादिविधानम्‌ ।
01 ९, 15. | तत्र तत्न वैदिकमन्घरदेवताबुरेखः।
उपोद्धातः । २३
५५८५

रेखाश्चोपरभ्यन्ते । एतावता बुद्धजनसास्रदायिकाभ्यां नौद्ध- लेखोऽन्यत्रप्युपरभ्यते । मान्विकमक्रियया बारुचिद्


ितसां
जेनमन्थोक्ताभ्यां जीवकाभ्यां विभिन्नतया दश्यमानोऽन्य एव प्रदशयद्रावणतन्त्रमपि भ्राचीनसवेक्षते । पञ्चर्ताया
महामायू-
प्राचीनः ऋचीकस्य पुघ्रो ब्रद्टजनीवकोऽस्य तन्त्रस्य निवन्धा रीविधायां तत्तदेश्षगतपूज्ययरोदेशे--
इति अन्थमर्यांदयाऽकगम्यते \ “कौशाम्ब्यां चाप्यनायासो भदविकायाः च भदिकः ॥ `
संहिताकल्पाध्यायरेखेन (कल्पस्थाने) वुद्धजीवङीयतन्त्र- इति कोशम्बीररकसेनाऽनायाना्नो यदस्य निद
रूपतामापन्नामिमां काश्यपसंहितां कारुवरोन शोऽस्ति । कोशाम्बी छुद्धसमयेऽपि मरसिद्धाऽऽसीव्‌ । एवं तट्न्थ-
वात्स्यः विट््तामनायासनाश्नो .यक्तादधिगस्य जीवक. रेखेन तदाव्वेऽपि पूज्यश्रण्यां निरदि्टस्यानायासस्य बहुप्ाग्भ्‌-
व॑ंरोद्धवोऽधघीतवेदवेदाङ्गः शिवकश्यपभक्तो तत्वं गम्यते । उुद्धसमयेऽपि पूज्यदुद्धौ भ्रविष्टाया यन्तजाते;
वारस्यो नामं लोककल्याणाय पुनः संस्करत्य मकाश्यामासेत्य- क्सर्वसमये' वतमानादनायसादवर्स्यस्येतत्तन्त्राधिगमोक्त्या
वगमेन कोऽयं प्रतिसंस्कतां वास्स्यः कश्च॒ तत्समय इति निनज्ञा- बुद्धसमयादनर्वाग्भावस्तदविग्रकर्षो वा वास्स्यस्यापीव्यवध
ाः
सायामुपस्थितायामेतावदिह जुद्धाबुपतिष्ठते ॥ रयितुं शक्यते । एकस्मिन्प्राचीनपुस्तफ महामायूरीविद्याया
वारस्य इति वत्सगोच्रोद्धवत्वसुपादाय केवरं कुलनाम । उपसंहारे आयंमहामायूरीवि्या विनष्टा यक्तयुखात्‌ प्रतिरब्धः
जीवकस्य भार्गवस्वेनोज्ञेखाष्ठत्सस्य शगुकुरोः्धवतवाज्ी वकवव्चो- इ्युल्रेखदशेनेन यकतेभ्योऽपि विचयासंपरदायावगमो रभ्यते 1
वत्वेन निर्विंष्टस्यास्य प्रतिसंस्क्ुवार्स्यस्वं युज्यते । वंश्नाद्य- तेनानायासयक्तादेतत्तन्त्राधिगमोऽपि न खलु न युञ्यते । आत्रे
णादावपि "वार्स्याद्रार्स्यः इति वात्स्योक्ञेख उपरम्यते । वंश- यगाग्यंशौनकादिवदार्षेयनाप्ना व्यवह्रणमप्यस्य वास्स्यस्यं
नान्नः साधारणतया बाह्यणोक्लिखितो वात्स्योऽयमन्यो मेति . स्राचीनतामवगमयत्ति । सोऽयं वास्स्योऽधीतवेदवेदाङ्गस्वेन
निर्धारयितुं न शाक्यते । किमयिधानोऽयं प्रतिसंस्कर्ता वासस्य शिवकश्यपभक्ततवेन च निर्दिष्टतया वेदमागांजुयायीत्यपिं
कतमश्च जीवकसन्ततिपरग्परायामिति न विरोषतः परिच्छि- म्नन्थमर्यादयाऽऽयाति ॥ |
यते । शअमनायाखयत्तं प्रसाद्य तःमादेतन्त च्रावासि स्वरय परमत्रदं विचारणोयमापतत्ति--यदस्मिन्‌ बद्‌धजीवक्ीये
निर्दिशन्नसौ यक्तजातीनां विदयासमरद्धानां स्वसमये सखमा- रारीरस्थाने (घर. ६५) कारनिरूपणे आदियुगं दैवयुगं
त्मनोऽभिन्यनक्ति । यक्चजातयः पुराकालात्‌ प्रसिद्धा सच्‌ । कृतयुगमिति त्रिधा विभक्त उन्नतावस्थारूपः शभकार उत्स-
यक्ताणां मारतीयैः सह परिचयः सम्पर्कशच व्राचीन एव ।यन्नाणां पिणीशब्देन, अरेता द्वापरं कङिरिति निधा विभक्तोऽवनस्य-
सम्प्रदायो बौद्धधमांदपि राचीन द्युक्लिखता श्रीयुतकुमीर- वस्थारूपोऽश्ुभकालोऽवसर्पिंणीशब्देन, उन्तरोत्तरमवदहीयमा-
स्वामिना तद्धिषये बहु विवेचितमस्ति! स सम्प्रदायः पश्वा नानि शारीरसंहननानि नारायणादिशाब्दैः, आयुर्मानानिं च
दौदजेनसम्प्रदाययोरन्तर्भावमरु्ध । प्राचीनेषु बौद्धमन्थेषु परितोपमशब्देन व्यवहृतानि दृश्यन्ते । एतत्तन्त्रीयेऽस्मिन्नरो
जेनाङ्गोपाङ्गगन्थेष्वपि यक्ञाणां निर्दशो दश्यते । इुद्धसमयेऽपि निरूपितं युगमेदेनाश्रुता्टमद्‌ सुतमीदशं शारीरविन्यासयै-
भारते यक्ताणां पूजा प्रचकिताऽऽसीत्‌ ।भारते इतस्ततो यक्ताणां चन्यं गभावस्थास्थितिं विकासवादसिद्धान्तमवनतिवादसि-
प्राचीना मूतयोऽपि रभ्यन्ते । न केवरं भारत एव, रमट- दान्तं वा कथमवरम्बते, कि वाऽस्य वक्तव्यमिति तनत्तद्धिषया-
जागुड-बाल्हिकादिसीमान्तग्रदेशेष्वपि यक्ञाणां पुरा पू्यताऽ- वगाहनकुशकानां विचारपभे सञ्ुपस्थाप्यते। एतदुक्तायाः प्रक्रि
वगम्यते । नहि कस्यापि जीवनसमये पुव देववस्पूञ्यभाव उप- यायाः स्वाश्तः संवादाभावेऽपि चरे विग्शनस्थाने तृतीया-
जायते । बरूवीयंविचयादिसखद्राया जातेः समयान्तरेण देव- ध्याये कृतयुगस्य आदिकारुरूपोऽवान्तरविभागः, रारीरसंह-
वर्संमाननमपि भवितुमहेति । तत्र वास्येन विटतेतततन्त्ररामे ननायुमां नादीनामपि यथोत्तरमवनतिः संक्षिप्य निरद्टोषः
हेतुतया निर्दिंटस्तेन सह सङ्गतः कोऽयमनायासो नाम यन्न रुभ्यते । तंदथाख्यायां चक्रपाणिना यथापूर्वसुरकर्षवादे यथो.
इति विधारे तन्नाक्नो यश्नस्योल्रेख एवमेकत्रोपरभ्यते । पञ्च तरमपकर्षवादे उपष्टम्भक न्यासवचनमष्युद्‌ छतमिस्येवसुतकर्षा-
रक्तानामकं बौद्तन्त्रमेकमिदानीं यदुपरभ्यते, तस्य चीनभाषा-
पकषतारतम्यनिर्देशः शरुतिस्खत्यनुयायिसम्परदायेऽप्यंदतो `
यामपि बहु वाराननुवादा बभू वुः। येष्वेकतमोऽनुवादः दश्यते । श्रीजाकोवीमहारायोऽप्येषा अक्रिय
&. 12. 317-329 `वरषाभ्यन्तरे मध्येशियागत्तेन कूचभिष्णा ा पुराणसंमतेति
वर्णयति ॥ | `"
पोश्रीमित्रेण विहित इति;निरूप्यते । भारतीयस्यास्य अन्थस्य
तावति दुरे तस्समये जातोऽनुवाद्‌ उपरभ्यमानो रचनाकालं ९. जादिकाले शैरेन्द्रसारसंहननस्थिरशरीराः रषा वमूञुरमिता-
खुतरां ततोऽपि बहुप्राचीनमनुमापयति । तस्मिन्नपि मन्थे उप- बुभ” .कृतयुगस्यादौ । श्यति त॒ कृतयुगे केषान्िदत्यादा-
नात्‌ साम्पत्निकानां. ज्रीरगौरवमासीत्‌** "““ *“ ततस्त्रेतायां
. शतद्वयं यक्ताणां निदेंशस्तत्तदेशरक्तकतया वेश्रवणादीनां यच्ता- ` ”““ प्राणिनो हासमवापुरायुषः ।
धिपानामाराधनविधानं, .तदाराधनतो वातपित्तशटेष्मरोगनि- ` |
इत्ते वेदयाना, गर्भवारुनाधकनारगरहपूजनादी नामुज्ञेखोऽपि ( चरकविमानस्थाने अर ४३) `
दश्यते ।तत्रेव अन्थे महामायूरीविद्या प्रकरणे रमटदेशरक्तकतया ९० पुरषाः सर्वसिद्धाश्च चतनंषैशतादुषः । इते तरेतायुगेऽप्येवं
रावणस्य निरदेशोऽस्ति । मन्त्रविद्यया रोगनिदत्तिविषये रावणो- ` पादज्चौ हस्ति कमात्‌ ॥ ( चरकटीकायां चक्रपाणिः) = `
ˆ ` २. ए०५7०1०]०५९९)# ह्वदाष्टात कत्‌ एषुप्ज्छकणु
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२४ उपोदातः ।
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महापुराणक्भकृतिजीवसमासदृततिभरशतिषु जेनग्रन्थेषु | नव रूपेण रूपान्तरेण वा सचं प्रतीयते । तेन महाचीरोपच्छमं


उत्र्पिण्यवसर्पिणीकालविभागस्य वच्रादिश्चारीर संहननम् रभेदस्य जेनक्म्पदायो गौतमोपक्रमं वौद्धसम्प्रदाय इत्यवधारणाय पुनः
पल्योपमाचयायुर्मानविरेषस्य चोपवरणनोपलम्भेऽपि तेषु व्च पुनगवेषणेन शोध्यमान इति हासोऽचाप्यपूर्णं एवं । वेदवाद्यप-
ऋषभनाराचादिषडधिधसेहलनानासुदेशेन, आयुंमनस्य पर्योप- थानुयायिनां पूर्वकारेऽपि सवं दीग्व॑निका्यन्थलेखतोऽप्या-
मसागरोपमष्दाभ्यां निदरोन, अस्मिन्‌ बृद्धजीवकीये तु नाराः याति ¦! उपनिषदादिभ्वपि तार्साकेपदशंनेन तथाविधानां
यणार्धनारायणकैश्चिकप्रस्िपिशितरूपाणां चतु्विधसंहननाना- पुरासमयेऽपि सखं सूच्यते । अस्तिनास्तिदिष्टं मतिः (४, ४,
मायुमानस्यापि पलितोपमरशव्दितस्य निर्देशेन विषयस्य च्छुयो- ६० 9 इति सत्रेण पाणिनिरप्युभयेपां सद्धावमववो धयति ।
परम्भेऽपि न सर्वार्मना संवादो दश्यते धं । जेनग्रन्थरेखानुसारेण पाश्चनाथादीनां पूर्वाचार्याणां बहृन्तरा-
वाद्यसम्परदाथानामिव श्रौतसस्प्रदायस्यापि वडुशः पव लस्य सामेन पल्येरयेद प्ये पः माव ष्वि्ेष्स्यः
अन्था विपताः! पू्॑समयप्रधिद्धाः शब्दाः पश्चात्तनस्पात्ता महत्तया च आरहतसम्प्रदायपूर्वपरस्पराया द्राधिष्टतया उस्स-
अपि पूर्वसस्प्दायग्न्थानुषलम्मे यत्र दृश्यन्ते तदीयव्वेनानु- पिण्यादयो विशेषा जाहंता . अपि भवन्तो महावीरात्‌ पूर्ेषां
खन्धीयमाना भवन्ति । पूर्वापरमन्थपर्यारोचनेऽपरि एतावन्तं समयत एव प्रसिद्धा बहुशः सम्भवन्ति, किया श्रौतस्मातेग्रन्थेपु
विषयरेशमन्तरा नात्र अन्ये आर्ईती बोद्ध वा आध्यात्मिकी रभ्यमानेषु अनुपरम्मेऽपि विदुश्षम्राचीनम्रन्थेषु व्यवहृता अपि
अन्या वा काचन प्रक्रिया दश्यते । प्रस्युत यस्मिन्नध्याये उस्स- सम्भवन्ति! तादञानामेषां महावीरात्‌ पूेमेवार्मिस्तन्त्रे उपा-
पिण्यवसर्पिणी निरदेशस्तत्रैवोत्तरवाक्येषु समुदयकारणोख्वेसे दानसम्भवेऽरिमिन्नर्वाची नविपयानुवेधश्ङ्का न ददी भवति ॥
८ पर. ६७ ) अव्यक्तमहदादिक्रमेण सांख्यददेनानुरूपा सषि रेवतीकल्पाध्याये ( कल्पस्थाने ) अतद्तीषिच्ायाः प्राङ्क
ग्रकरिया, उत्तरस्मिन्‌ गभावक्र ान्स्य् याये ( प्र. ७१) ईश्वर तशावरशब्दवटितस्य केयूरीक्ष्देन गर्भितस्य मन्त्रस्यापि निद
गुणोपेतसर्वगतसंसरिजीवनिर्दशता शरौतदशनाजुगतेव दर्यत दोऽस्ति ! मातङ्कया उररेखो दरिणाम्नाय इव वीद्वसम्प्रद्‌ा-
दरति, युप उद्धताव्ररददुभःशसकय सहयनायुसःनायुन्यासोऽ- येऽप्युपलभ्यते 1 नेतावताऽस्या वौद्धविद्यात्वमेवेच्यवसातुं श-
पि श्ौदस्मःनदवसस्यदाययरस्थसययन एव स्प्रादिति वक्तु न क्यते । अ्रे्रेतद्धिचो पक्रमरेघे वेदिकसधिमखं निर्दिश्य “मातङ्ग
खल न शक्यते । तथाऽपि उत्छपिंण्यवस्सपिणीदाव्दुयोभ्य- नाम विद्या ब्रह्मर्षिराजधिसिद्चारणपृजिताऽचिता मतङ्घेन मह-
मानेषु श्रौतस्मारतभरन्धेषु कराप्यनुपरुब्धिः, जेनग्रन्ेषु बाहल्ये- षिणा कश्यपपुत्रेण कनीयसा महता तपसोग्रेण पितामहादेवा-
नोपरन्धिः, नामसंख्याचैषम्येऽपि संहननविशेषाणामपि तत्रेवो- सादिताः इति तदुत्पत्तिं श्रौतसम्प्रदायोद्धवां स्पष्टमभिधाय
रछेखदन्षेनं च एतत्न्त्रीयेऽस्मन्चे जेनसम्पदायविषयानुविम्बनं वेदिक्येव पदस्या तद्टिधानमुपसंहतमपि । तेन मातङ्गी विद्या
बद्धाबुपस्थापयति । अत्रत्य आयुर्मानीयः पकितोपमशब्दोऽपि बौद्धतन्तरेप्वपि कचन पश्चादुपरभ्यतां नाम, परमेषा विद्या
तेषु व्यवहृतस्य पल्योपमृशब्दस्य विछृतरूप्‌ किरति बोध्यते । प्रागापषसमयेऽप्यासीदेवेति एतदुक्लिखितायः मातङ्गा न बौद्ध-
सेन्यपिरटसंबर्गवरहत्कोशेः 0९ ०107९601४ 0 26112100 &06 विद्याद्वन्ङ्कास्थानमच्रोदेति । शादनमहारपेन तूडहाङ्स्थरोप-
9१95 मन्येऽपि एते श्रब्दा जेनसाम्पदायिकतया निर्दिष्टाः रूव्धे प्राचीनग्रन्थे भगवतो बुद्धस्य जीवकं प्रव्युपदेरो, वावरमे-
सन्ति! अभिधानरनजेन्द्रनामके जेनन्रहस्कोोऽप्येषां शब्द्‌- नुक्किप्यगते नावनीतकसहस्थिते ग्रन्थे, पञ्चरत्तादिपु प्राचीन-
विरोषाणामर्थविवरणं तदीयप्रक्रियानु
सारि दस्यते । जेनसम्पर- वौद्धमन्येष्वपि प्राङ़्तभाषाशब्दघरितमन्त्रज्यवहारदरशंनेन चतुर-
दायविषयसुपादायोस्स्पिण्यवसर्पिणीरब्दयोरनिवरणं काल- क्ीतिसिद्धानां नाथादीनां समयात्‌ पू्व॑तरकारेऽपि भराक्रतशब्द्‌-
विदोषपरसवेन 1178 3166500 विुष्या प्रदशितमस्ति । घटितिमन्त्रन्यवहार आसीदेवेति मन्त्रे प्राकरृतश्चब्दप्वेदानमपिं
बौद्धसम्प्रदायरेखेऽपि श्रीहाडीविदुषा एष विषयो निरूपितो न किञ्चिदेव ॥ | ` `
स्ति! तदेवमार ्हतसम्प ्रदाययि षयस्याश तोऽप्यत ्र भरतिच्छ ाया- किञ्च रेवतीकर्पाध्याये (कल्पस्थाने) जातहारिणीनिरदैश-
हृटिस्तस्सम्प्रदायोदे गमोत्तरतां प्रतिभासयति ॥ प्रसङ्गे भिद्धणीविरोषेषु श्रमणिका निभन्थी चेत्यनयोरप्युल्रे-
छिन्त जैनसम्परदाये महावीरस्य जुद्धसस्प्रदाये गौतमबुद्धस्य खोऽस्ति । यद्यपि वबौद्धसम्प्रदायभिद्धबोधकतया श्रमणकरब्दो
विरोषग्रसिद्धतया तत्तन्मताचार्यतेन दशेनेऽपि तेषामेव म्न्थेषु वौद्धैः पश्चात्तनम्रन्थद्रदधिश्च व्यवहियते नाम, सहाभाप्यक्ृता
महावीरात्‌ पू्वेभूतानां पाशच॑नाथादीनां त्रयोविंशतितीथेङ्कराणां येषां च विरोधः शाश्वतिकः" (२. ४. ९) दस्यव शाश्वतिंक-
सौतमलुद्धात्‌ पूर्वभूतानां कनकमुन्यादीनामप्युररेखेन, अो-विरोषे ्रमणव्राद्यणमिच्युदाहरणस्य दानेन तस्समये वौद्धनाद्य-
गौ ात्‌ पूवंवर्तिनः कनकसुनेः स्तूपस्य जीणो- णयोर्मिथः सद्क्षमादाय श्रमणश्चब्दो वौद्धमिन्धपरोऽवगम्यते
नृपतिना तमञुद्ध
द्वारिठरेखस्य त्सतूपस्य चोपरम्भेन पू्वमप्येतन्मतयोरने-
नचात्मनाऽऽगत्य यदहीयितं ( स्तम्भश्च ) त्थापितः" इति।
१. ए० [ फ प्त, १९८०४०२. 209. प्ण) 9 450९6 एप तपश 2. 165.
| २. ¶06€ पर्क ०9 वक्800 र. ध 2-76. | १. दीरनिकाये--( १ )पूरणकस्सषः (२ ) मक्डङ्गोसारः
२. 09008] 0 5061157 ?, 7-8 एए 8, पभ, (३ ) अजितवकेराकम्बलि,( ४ ) पबुद्धका च्यायन,( ५ )सन-
४, “देवानां प्रियेणप्रियदहिना राज्ञाचदं
शवषा भिषिक्तेन बुद्धस्य यवेरुस्थिपुन्त, ( £ )निग्गन्थनाथपुन्त, |
कनकसुनेः स्तूपो द्वितीयं वधितः (विंदतिब ) षौमिपिक्तेन | 8041181 94163 ए. 0.1, भ 0. {3
उपोद्धातः । २५
प्व
च्---------------
च, तथाऽपि ततः पूवंमपि (कुमारः श्रमणादिभिः इति ( योऽपि महावीरादपि पूर्वकारुत एव नि््रन्थसम्ब्रदायोदय इति
१. ७० >)सुष्रक्रृता पाणिनिना श्रमणशब्दोरंरेखाशोद्धजेनसम्भ- निरूपयति । जेनसस्पदाये महावीरादपि पूर्वेषामादिनाथपाश्च-
दायोदये सति ततः प्रतिफङितोऽयं शब्द्‌ इति वक्तु नाति । नाथादीनामपि आचार्थ॑भावस्य जेनग्न्थेभ्योऽपि दश्यमानतया,
्रमणक्ञाब्द्‌ः कायक्टेशादिश्रमशीरसवरूपं निर्वचनमादाय वेख- पूवतीथङ्कररूपेण तत्सम्मदाये तेषामप्यदावधि संमान्यमान-
नससूत्रे तृतीयाश्रमस्थवोधकतय्‌, घृहदरण्यके व्यागिभिह्धबो- तया च एतत्सम्प्रदायस्य महावीरेण 'विश्ञेषतो चिकासनेन तस्य
धकतया, तैक्तिरीयोरण्यके रामाय॑णौदिषु च.नेकेषु प्रसनतरथन्थेषु प्रधानाचायंभावेन पश्चात्‌ प्रसिद्धावपि निर्थन्थसम्दायो जैन-
भिद्तापसविरोषवोधकतया पुराकालात्‌ प्रयुक्तो बहुश्च उपल- सुस्प्रवायोऽपि भवन्‌ पूर्वपर्वतीर्थङ्करपरस्परानुचरत्तो विन्तायते ।
भ्यते । श्रमणशब्दः पुराकारदेव म्यवहृत आसीदिति श्रीयुत- जनः स्वसास्प्रदायिकमिह्वो धाय ज्यवहियतःं नाम, निचृत्तहृद्‌-
चिन्तामंणिवैचमहाश्चयादिभिरपि निर्दिष्टमस्ति ॥ यमन्थि्वरूपां निरक्तिमुपादाय विवेकनल्ञानकन्तामारूढमवबो-
निर्भन्थकश्षब्दस्यानुसन्धाने दिग्धनिकाये तदाते प्रचकि- धयज्नि्न्थशब्दः, हदयग्न्धिविमोकघस्याध्यास्मिकसम्पद्रूपेणो-
तानां सम्प्रदायन्तराणां श्रेण्यां कस्यचित्‌ प्रस्थानान्तरीयस्य स आदितिकसम्प्रदायभ्न्थेभ्वेपि पुराकारादेव प्रचरितो-
प्रतिपक्तभावेन निर्दिष्टस्य निग्गन्थनाथपुत्त ( निर्मन्थनाथपुत्र ) दश्यते ॥
शब्देनोरुखेख उपरम्यते ! निर्भ्न्थश्चब्दस्य जेनसाम्परदायिक- प्वंसमयतः प्रसिद्धानेवेच्याज्च्छुब्दानुपादाय वौद्धे्ैनैः
भिह्धषु प्रसिद्धया तदात्वे महावीरस्य तथाविधमप्रतिपक्ञभावस्य श्रमणनिर््न्थात्मना स्वस्वसम्प्रदायभिह्नव्यवहारः पश्वात्छृतोऽ-
सम्भवितया च निर्मन्थनाथपुत्रक्षब्देन निर्दिष्टो महावीर इतिं वगम्यते । भाषातच्सिद्धान्तच्शा घरिकादिब्दवत्‌ काप
विवेचकेरुच्यते । किन्तु महावीरो निर्भन्थनाथयुत्रः, तस्य पिता रम्परथा भरत्नानामपि शब्दानां ख्पान्तरेऽ्थान्तरे वा सङ्क्रमणं
आचार्यो वा निर््न्थनाथः, ततश्च नाथपद्स्वारस्येन पितृसम- बहुश उपरुभ्यते । प्रत्नेवौधायनाश्वलायनवराहापस्तम्बादिभिः
येऽपि नि्॑न्थानां प्रसिद्धया बाहुल्येन च भवितव्यमिति न सूत्रकारप्रयुखेः श्रौतस्मार्तयागभूमिवोधकतया बहुशस्तत्र
महावीरोद्धावितत्वं निभरन्थसम्पदायस्य, अपितु ततोऽपि तत्र प्राचीनमन्धेषु भुक्तो विहंरशब्दो वौद्धभिह्धसद्ावासवोध-
पूतः प्रचङितरवमेव वक्तम्यं भवति । श्रीविन्टरनीजमहोद्‌- नाय,रमशानस्थचिनत्ताभीष्टदेवताशचत्थदेवायतनचेत्रजार्थेषु भ
१. वेखानसख्ते--श्रामणीयकविधानेनाधायाघार इत्वा भ्रामण- युक्तशत्यंशब्दः स्तूपवबोधनाय बौद्धेः प्रयुज्यते । पुराकारात्तपो"
काञ्चिमादाय वृततीयाश्चमं गच्छेत्‌" “““ ˆ“ श्रमणकाय स्वाहा १. आत्मरामाश्च मुनयो नियंन्था अप्युरुक्रमे ।
( वेखानसधर्ममरनः १-६ ) वुवन्त्यहेतुकीं मक्तिमित्थंभूतयुणो दरिः ॥ ( भागवते )
२. ब्रृहदारण्यके--अत्र पिताऽपिता भवति" '' """भरमणोऽश्रमण- २. मिते हृदयय्न्थिरिदचन्ते सवंसंदायाः ।
स्तापसोऽतापसः । श्रमणः परित्राडिति भाष्यम्‌ । > प्रभवन्ते ( स॒ण्डकोपनिषदि भगवद्गीतायां च )
( १४, ७, १. २२) यदा सवं प्रभिन्ते हृदयस्येह यन्थयः । |
२. तैन्तिरीयारण्यके--वातरदाना ह वा ऋषयः श्रमणा र्वै ( कृटोपनिषदि २-१५
मन्थिनो बमूढ्खुः ( २, ७. १. ) ॑
२. विहारः- |
सायनग्याख्यायां-वातरङनाख्या ऋषयः भमणास्तपस्िन-
यागाथं यत्र यच यावती भूमिः शव्यादिभिः परिमाण-
विदिष्टत्वेन विहिता। तत्र तत्र तावती भूमिविहारञचनब्दवाच्या।
ऊध्यैमन्थिन उरष्वरेतसो बभूवुः ।
| ( भ्रौतपदःर्थनिवंचने ए, २) \
४, रामायणे--तपसा भुञ्जते चापि श्रमणाश्चैव भुञ्जते
उन्तरत उपचारो विहारः ( बौधायनीयधम॑खतरे १-७-१ )
( १-१४-१२ ) श्रमणां धर्मनिपुणामभिगच्छेति राघवः । गां चोपसंसष्टं विहारं चान्तरेण मा संचारिषटेति संप्रेष्यति ।
( १-१) ( आपस्तम्बश्ौतख. १-१२-१२ )
५, श्रमणा वातर्चना सुनयो धमंकोविदाः } | दक्षिणावद्विहर प्रपचते पुवेणोत्करमपरेण प्रणीताः 1
६. ताण 9 8४19 [नप्लकप८ (रतत एल7०त). | ( आश्वलायनश्रौतख.. १-९२-४);
(1. ४. ४४0१६, ॥ि न विहारादपप्यावतेत । ८ मेवरायणीयवाराहगृद्ययतरे ए. १)
७. ( १ ›पूरणकस्स॑प, ८ २ › मक्खक्गोसार, ( २ ) अजित- ४. चत्यः- - | .
कंरकम्बकि, (८४) पबद्धकाच्चायन) (५) सज्ञयवेरुत्थिपुन्त चेत्यव्क्षं चिति यूपं चण्डारुं वेदयिक्रयम्‌ ।
( ६ ) निर्गन्धनाथपुत्र । [र एतानि नाद्यणः सृष्टा सचेलो जर्माविश्चेत्‌ ॥
८. भद्रा९,^न06 हाट 06709 पले पपत ग ` „~ 4 बोधायनधमंखतरे १-९-५)
एणाः ग +€ 8६५ त € च 8183, 7161, 180 चेत्ययज्ञे प्राकूसििष्कृतश्ैत्याय वरं इरेत्‌ ।
तलश्ट]०€१. छप ग चल न णताः 8600 न (ल शवा ` ( आश्रलायनगृह्यख . १-१२-१ )
91893 ( £, €. पा€ =एलप्ला-1658 ). =त180णपृ 01 चित्ते मवाश्वै्याः, शङ्करः पश्युपतिः; इत्येवमादय इति टीका!
[ता त्लाशप्प्ट-कि, शप्प्लाणह् ४०] वृक्षाः पतन्ति चेत्याश्च आमेष नगरेषु च! = `.
(२. 424). ` | ( इति मष्यभारते ६-ई-४०)।
9 काण ०
२ उपोद्धातः ।

रिष्योपकरमणीयाध्याये ( पु. ५७ ) दागन्देनार्धैन च पदिकवि.


यौदधः अ्रयुज्यते। अर्वाचीनसशिक्ष्टन्यवहारानुर्तद्दयानाम- धानेन शिष्योपनयनं, तत्रैवाधिसोमग्रजापत्याद्धिवेदिकदेवतानां
घत्वे ते विहारादयः शब्दा वौद्वसाम्प्रदायिका इव प्रतिभान्तु स्वाहाकारः, जातिसू्रीयाध्याये { प्र. ७९ >) वैदिकी वाक्यर्‌-
नाम, नेतावत्ता प्राचीनन्यवहारमपर्याखोच्यावा चीनसवं वक्तु चना, हीनदन्तोद्धवे ( प्र. ४८ >) मारुनीष्धिस्थाटीपराकष्ोमचि-
च्क्यते 1 एवमेवावरोक्िखिताः भ्रमणनिर्मन्थादयः शब्दाः प्राची
नतापसविरोषानेवावन्रोधयन्ति ॥
तत्रैव “रिष्गिनी परिानिका श्रमणका निर्न्थी कण्डनी
्वीरचल्कख्धारिणी चरिकी मातृमण्डक्िकी अवेक्षणिका?? र्पाध्याये ( कर्पस्थाने ) व्राह्मणवाक्यादुरूपागि देतिहासिक-
रेवतीकल्पे) इति भिक्षावृत्या गृहाद्‌ गृहान्तरे गमने स्वसंसर्गेण वाक्यानि, तत्रैव देवतोदेशे वसुरुद्रादि्यानामेव कीर्तन,
नातहारिणीं सङ्क्रामचन्तीनं नानाभिद्धकीणां श्रेण्यां निदि दीघजिह्वी च छन्दसि ( ४-१-५९ > इति सूचचता पाणिनिना
ष्टेषु प्रभेदेषु परिाजिकाश्रमणकानिभन्थीर्चिहाय नान्येषां प्रमे- छोन्दसस्वेनाभ्युपगत्ताया ङीप््रययवस्या दीधजिहयधा उल्लेखः,
दानां कचन अन्थान्तरेषु सेकसम््रदायेषु वाऽद्यतवे विहोषत- भोजनकल्पाध्याये (कल्पस्थाने) कादरी पुण्डाङ्गवङ्गकाचसागरा-
उपरन्धिरस्ति ! पश्चात्तनग्रन्ेषु दश्यमानान्‌ हंसपरम्हंसकुरी- नुपकोशरुकरिङ्गदेशानां, देशसात्म्याध्याये ( खिरस्थाने )
कवहूदकादिभेदाननुक्िख्य कारुवश्चान्नामतोऽपि विद्ुशषप्रा- कुमारवतंनिकटिव पौण्ड्‌ वर्धनष्धत्तिकाव ्री च-
रपर्षभदधमानादीनां
याणामेषां सम्प्रदायविशेषाणासुर्रेखस्य दशनं सर्वेषु प्रसेदेषु हूना माचीनदेशविदोषाणां कीतनं, पल्युत प्रचिद्भतरस्य पाण्ड्य-
प्राचीनभावमवयोध्यति ॥ स्याकीतनं, तत्रैव वाहीकभिपगुर्टेखे ( प्र. २६) सत्यपि
यवनरोमकादिमिपजामनुररेखन, राजतेव्य्यारास्स्यवोधने
तत्रैव रेवतीकस्पाध्याये जातहारिणीनिरदेशप्रसङ्गे सिह- (भोजनकल्पे) इच्वाङ्कसुबाहुस गरनटुषद्विरी पसरतमयपर्यन्ता-
रोड्धादयो देहाधिशेपाः, सुतमागघाद्यो जात्तिषिरोषाश्च नामेव प्राचीननूपाणासुपादानं, रसधातुरतलौपधानां प्रायः का.
निदिष्टाः सन्ति। तत्र खदासकयवनपर्हवतुषारकम्बोजादीना- प्यव्यवहरणं, सयुद्यकारणोर्लेखे ( प्र, ६७ ) अष्टूनग्रक्रतीन्‌
मुरुरेखोऽस्ति ! यवनश्ञब्दवत्व्लाद्यः शब्दा अपि मनुस्श्रत्या- पोडशविकारांश्च निर्दिश्य प्राचीनसांख्यदनस्मैवोपजीवनं,
दिषूपरभ्यन्ते \ रेतिहदासिकेरपि खक्षादयो जातयः पुराकालाव- बौद्धानां जेनानां तदीयाध्याव्मवादस्याप्यनुपादानं," दी्ताञ्मयो
स्थितस्वेन निरूप्यन्ते । इन्सादक्छोपीडिया निरानिकापुस्तके घस्मराः स्नेहनित्याः, (ष. २०) नीरं सात्म्यं चीरमाहर
हणानां चतु्थंशताज्यां ( 379 4. 1). ) युरोपम्रवेकास्योर्े- पवित्रम्‌ ( मोजनकस्पे) इत्यादिवैदिकच्छायदन्दःप्योपदर्शन-
खेऽपि इतः २५०० वर्षभ्यः पूरवेभवे अवेस्तामन्थे हनु ( हण >) मित्यादीनि बहुशः रलभावसाधनान्
जातेः प्रतिपक्िवीरजातितया तज्ातीयानां ' जरथुष्टरादपि पूर्व जीवकीयतन्त्रस्य युपरभ्यमानानि अस्यबृद्-
बहुप्राचीनतामवगमयन्ति । हेमाद्याद पुरा-
भवेन केरसप ( ८९५७५ >) नान्ना इरानदेशनृपतिना विज- णवचनेरारोग्यज्ञाकानिर्माणविधाने
यस्य चोरुरेखेन हूणानां ( 5. 0. 700 >) समय इति जे. जे. | इदयदाव्यांय
सत्यपि आधरुनिक्ररोधका-
शिरारेखदेशान्तरीयमतान्तरीयरेतरादीन्‌ संबा-
मोदीमंहाशयेन अरतिपादितमस्ति । महाभारतेऽपि हृणपन्ञवय- दकानपेतन्ते दति तदनुसारिण्य
चनस्कयपुण्ड्किरातद्रविडखशादीनाुल्रेख उपर्भ्यते । गर्गा ा समश्रमामेनिदासिक्रच्टव्ाऽऽ-
खोचने २३०० वर्ष॑पूव्॑मश्चोकस्य सर्वसाघारणचिकरिव्साख्यो-
दिभ्यो यज्‌ ( ४-१-१०५ ) इति पाणिनिसूत्रोक्तगणे शशकस्य,
इन्द्रवस्णेति ( ४-१-४९ ) सूत्रे यवनस्य, कम्बोजाख्टक्‌ ( ४- डाटनसुयशोखाभस्य दशनेन, कौटिीयेऽपि दुर्गनिवेशे मैष-
१-१७-९ ) इति सुच्रवार्तिकोक्तकम्बोजादिगणेऽपि शकयवन- ज्यगहविन्यासस्योल्टेखेन, चरकादिषु रसायनश्षाखानिरदे
योर्रेखोऽस्ति । तेनेद्शाः शब्दाः पुराकाटेऽपि प्रसिद्धा एवा- सत्यपि सवंसाधारणाय आरोम्यशञाखाया भनिर्दैरोन, अत्र
सन्निति क्तायते ॥ कल्पोल्रेखेऽपि रसायनञश्चाखायास्तार्शचिकरित्साख्यादेश्च नि-
माणस्यानुररेखनं, परवयुत ( प्र ५९ >) रोगिगृहसुपगस्य भिष-
अस्मिन्‌ अन्धे म्रत्यध्यायस्‌ 'असुकाध्यायं व्याख्यास्यामः,
ग्भिर्भषज्यस्य विधानस्य प्रक्रियोपदेदयदूर्खनमप्यस्य अन्धस्य
इत्युपक्रम्य ति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः" इव्युपसंहरणं, ग्रलतरसमयनिवन्धनमवबोधयति । कश्यपेन सह
प्रश्नप्रतिव-
चनभवेन निरदेशनमपि -बृद्धजीवकस्य पाचीनमेव समयं प्रत्या-
ध्चैत्यमायतनं तुल्ये इत्यमरः । ययति । काश्यपीयमहासंहितां संक्िप्य ब्रद्धजीवकरेनास्य
चतुम्पथाशरैत्यवृक्षः समाजाः प्रेक्षणानि च । तन्त्रस्य प्रणयनोल्रेखेन काश्यपीयसंहिताकारस्तु सुतरां
[र (मनुस्छृतौ ९-२६४१। ततोऽपि प्राचीन एव ॥
अहङ्कारस्तमो रुद्रश्चित्तं चेत्यस्ततोऽमवत्‌ !
`
^ ` ङिन्तु श्रमणकाब्दस्य बाह्यणादिमरन्थेषूपरुम्भवहन्थिशष्द- `
(भागवतपुराणे २-२२-६० )।
स्योपनिषदादिषूपरम्मेऽपि निर्॑न्थशब्दस्य तापसविकशेषादिवो-
९. यौ वै युवाप्यधौयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः (मनुस्टतिः )।
२, १.0. ए0क्पतकपप्टा (णप्लपगठ) एठोप्रण्टः
धकतया भागवतपुराणवर्ज वेदिकम्रन्थेषु महाभारतादिप्राचीन-
.68 अन्थेषु च स्पष्टतया नोपकम्भोऽस्ति । पश्चाद्धवेर्नागार्जनादिभि-
`“ . -३, आदिपवेणि १७५ अध्याये, एवमादिस्थकेषु । `
सपायहद्ये ककितिनिस्तरे च जेनावबोधकतयेवायं निग्न्थशब्दो-
# रि ` । ष १५ + ॥
उपोद्धातः । २७
(२
#
कक क क

व्यवहृतोऽस्ति । आस्तिकदार्शनिकैरवाचस्प॑स्यादिभिरपि वेदबा कटपाध्याये विकसितो रेखः कश्यपजीवकसमयादृनु वात्स्य-


समये उपजातः किभ्ु इति बहुश्च; सम्भाव्यते! अविभागेन
ह्यदार्शनिकश्रेण्यामिमे निर्दिष्टा द्यन्ते । निर्भन्थसम्प्रदायो-
जेनसम्प्रदाय एवेति आ्रुनिकविदुषामपि धारणाऽस्ति । अस्यां प्रतिसंस्कारे ईद्यन्येव संशयावहानि फरानि फङन्तीत्यम्
संहितायां दश्यमानौ जेनसम्पदायस्यासाधारणाबुत्सर्पिण्यवस- वच्यते । संहिताकल्पाध्यायपूतौ संरिरुष्टस्य वात्सीयस्वे-
पिंणीशब्दावयप्येतस्य सहयोगेनोपोद्धर्नाय पुरो भवतः। ततश्च नाभ्युपगतस्य खिकमागस्य देशसास्म्याध्याये खिला.
महावीरादपि पूर्वेषां तीथंङ्कराणां समयतो न चेत्‌, अस्मिन्‌ सपूरव॑वर्तिनि ` भोजनकर्पाध्यायेऽपि सास्म्यसस्बन्धसु-
सम्प्रदाये अ्रधानाचा्यंभावसापक्नस्य महावीरस्य सजिद्धष्टास्स- पादाय वहवः भराचीनदेशाः कीर्तिताः सन्ति । मोजनक-
मयत एषां शब्दविशेषाणां कोके प्रसिद्धया ताद्ालिकोऽयं ल्पाध्यायीयरेखे कुरकतेत्रुपक्रम्य चतुर्दिगगतेषु बह्ुदेशेषूहिखि-
सम्परदायान्तरशब्दविरेषानुप्रवेशोऽसिमस्तन्तरे इति वक्तव्यमेव । तेषु सिन्धुसौवीरादयः पाश्चात्याः, काश्मीरचीनादय उदीच्याः,
शकहूणपर्हवखश्यवनकम्बोजादिशब्दविशेषाणां सहभावो कारी पुण्ड़ङ्गवङ्गादयः पौरस्त्याः सामान्यदेशाः, दक्तिणतः
बुद्धसमयादर्वाग्भावमवगमय तीर्यर्वाचीनविवेचकानां धारणाऽ करिङ्गपटननामदेया एव देश्चा निर्दिष्टाः सन्ति । रामायणसमये
प्यस्ति । तथा च महावीयोत्तरमेवास्य अन्थस्योदय इति शङ्का दाक्तिणात्यनगराणां विरोषतोऽनुपरम्भवदन्नापि करिङ्गपटनयो-
स्थानमच्रोदेति ¦ परमनिशितसमयानां कतिपयशब्दविशेषा- नैमेदापयंन्तमेव च निर्देशोऽस्ति। लिरुभागीयदेशसात्या-
णामनुप्रवेशदनमात्रेण ग्रन्थस्य कारोऽवधारथितुं न शक्यते ।ध्याये तु चुटिततया उपरुन्धे पूरवंदक्ञिणदेशनिदंरोऽन्येषां प्राची-
नदेशविशेषाणामुल्रेखे सत्यपि चिरिपारी-चीर-चोर-पुरिन्द्‌-
तनत्रापिपश्चाखतिसंस्टछृतलेन स्पष्टमुक्तेषु अन्धेषु गर्भगतान्‌ सन्दि-
ग्धान्‌ कियतः । शञ्दविरोषानुपादायेव समुच्चितस्य अन्धस्य दविडादयो दूरगता अपि दािणाव्यदेश्लाः, पूवंतोऽपि मारव.
कारावधारणं तु साहससेव । विवेचकानां पूर्व॑तकांवधारिति- तनिकरिवषादयो विशेषदेशा इति विकसितम्रक्रियया निर्देशो-
अपि कति विषयाः समयवशेन बलवत्तरतकन्तरोदये विपरि. दश्यते । अरोकशिरारेखे प्राचीनसाहित्यान्तरेष्वप्युपरभ्यमा-
वृत्ता इश्यन्ते। उक्तन्चाभियुक्तैः (तकाप्रतिष्टा नात्‌! इति ॥ नतया एते देशा अपि प्राचीना एवेस्यत्र दिग्दशनं पश्चाद्विधा-
्चीनस्वावबोधाय जागरूकाणि पूर्वोक्तरक्षणानि णमपसार्ं स्यते! तथाऽप्युभयतो देश्निर्दशस्य च॒रनयाऽनुसन्धाने
अर्वाचीनविवेचकधारणाया अवटम्बनेऽपि कारुवशाद्टिक्तस्य बरद्धजीवकीयपूर्वभागसमयस्य वात्सीयखिरूमागसमयस्य च
तन्त्रस्य वास्स्येन यक्तादधिगत्य पश्चात्‌ संस्करणस्य त्रैवसंहिता- बहुन्तरारं स्पष्टीभवति । खिरुभागीयदेशसास्याध्याये मग-
कट्पाध्याये स्वसुखोरुरेखेन, अस्मिन्‌ रेवतीकर्पाध्याये दश्य- धासु महारषष्टूमिति चोर्रेखोऽस्ति । वेदेऽपि मगधोररेखेन,
माना निर्भन्थादयो न कफेवरुमतरेव, पूर्वत्र दृश्यमाना उत्सर्पि- जरासन्धसमयेऽपि मगधराज्यस्य निरदंशेन, पुरातवान्वेषिभि-
ण्यादयोऽपि पश्चाद्धवत्वसंश्चायकाः शब्द्विदोषा विषयविरोषाश्च रदयस्वे राजगृहे तस्स्थानोपलम्मेन चात्र निदिष्टं मगधराज्यं
जीवकीयतन्त्रसिद्धिमनु संस्करणावसरे वास्स्यरेखनीतः प्रविष्टा- प्राचीनतरमप्यववोदूधुं शक्यते, तथाऽपि पूर्वभागे देशेदेशे
अपि भवितुं सम्भवन्ति । चरकसंहितायां सुश्रुतपूवंभागे च नाम्नाऽप्यनुक्ञिखितस्य मगधस्योत्तरत्र महाराष्टरूतयोर्रेखेने,
परतन्त्रीयस्य वारग्रहविषयस्याभावेऽपि सुश्रुतस्योत्तरतन्त्र पाण्ड्यदेशस्य पाटरिपुत्रस्याप्यनुर्रेखेन, बौद्धमन्थे भ्रतिद्धाद्‌-
दराखाक्यकौमारण्वत्यादिप्रस्थानान्तरीयविषयाणामपि संगरहीतः नायासयक्तात्‌ स्वपूर्वपुरुषतन्त्रराभोल्खेखेन च बुद्धमहावीरोत्तरं
तया तन्र २७तः ३८ प्र्यन्ताध्यायेषु कौमारशरस्यविषयनिदेशे मूरे नन्दचन्द्रगुक्ठादिसमये वोपजाते मगधस्य महारा्टूप्रतिष्ठाकारे
जआचार्यनामानुल्रेखेऽपि पार्वतकजीवकबन्धकग्रश्ठतिभिरिति वात्स्यस्य समुद्धवः सम्भाग्यते । तेन तदीयसंस्करेऽनुपरविष्ट
विवरणकरतरदेखेन कश्यपजीवकादीनां कौमारस्यतन्त्रादेवेत- करञु एभिः शब्दविशेषैः सन्देह आपादित इत्यत्र दष्टः मव-
द्विषयोप्रहणं बहूुशाः सम्भवति सुश्रुतीये बाठतन्त्रप्रकरणे णीभवति ॥ |
(उ. तं. अ. २७ > निर्दिष्टाः स्कन्द्रेवतीश्चीतपूतनाशकुनीमुख- नावनीतकढ़ृडून्णादिरेखतः कौमारश्टस्यभिषजो जीवक
मण्डिकामैगमेषादयो ये खीरूपाः पुंरूपाश्च बार्ग्रह स्तत्संवा- नाम्न उपरुम्भेन, महावगगादिबोदधग्रन्थेषु कैौमारणश्रव्यशब्देन
दिन एव अरहा अत्र बृद्धजीवकीये चिकिंस्ितस्थानीयवारग्रहा- विदोषितस्य प्रसिद्धवैदयस्य जीवकामिधानस्येतिवृत्तरामेन च `
ध्याये दृश्यन्ते । रेवतीकल्पाध्याये रेवत्याः प्रभेदरूपेण उभयोर्वेयकवैदुष्यं, नामसाम्यं, कौमारश्त्यशब्दोलरेखं च
जातहारिणीनां ये किशेषास्तेषां प्रतिफटनं सुश्रुतोत्तरतन्त्र सामान्यत उपादाय बौद्धभन्थो्छो जीवक एव कौमारशवत्या-
न दश्यते । दवयोरध्याययोर्विषयाणां समकारुटिखितस्वे जात- चार्यो जीवक इति केषाच्िद्ठिदुषां मतं दश्यते । यावदिदं बरृदध-
हारिणीविषयाणामगि न्यूनाधिकतया सुश्ुतोत्तरतन्त्रे प्रतिफल
नेन भवितव्यम्‌ । रेवतीग्रहस्कन्दादीनां चिक्िस्तितस्थानीयः
जीवकीयं तन्त्रं नोपरब्धमासीत्तावत्‌ कौमारश्वस्यमिषजो ब्रद्जी-
वकस्य परिच्छिदकानां साधनानामितोऽचुपरभ्धिः, बौदमन्थेषु `
बालग्रहाध्याये निरूपणे उपजातेऽपि पुना रेवतीकस्पाध्याये बहुशो जीवकस्य प्रसिद्धिशवेति इग्धाश्वरथन्यायदशा उभयोर
रेवतीविकासरूपाणां बहूुविधानां जातहारिणीनां पवांपरमरन्थ- क्यमभिमन्तं समुचितमेवाखीत्‌, एतत्तन्त्रकतंजीवकस्य बौद्धः `
रेखापेक्छयाऽतिविकसितप्रक्छियया निरूपणदशनेन सोऽयं रेवती-
ग्रन्थनिर्दि्टस्य जीवकस्य च तादल्म्ये एतत्तन्त्राचायों बृद्धनीः
चकादी- वको जुद्धसामयिक इति निश्वेयतया पूर्वोपदरितनसुस्सर्पि- `
१. सख्यत्ौचाम्‌-शाक्यभिक्षनिन्थकसंसारमो
नामागमामासाः परिहृता मवन्ति। २ शारीरक । । ण्यादिशब्दानामनुवेधस्यापि समन्वयेन संशयोतत्निस्थानं न॒ = `
२.८ उपोदा{तः ।
(१५१५, ८८५ त +++ + + + ++ + + ^^ ^+ +^ + 0 + पभम ++ + +

दृश्यते च ¦! परमिदानीमेतदीयस्येतन्तन्तरस्योपरभ्ध्या ततो वतमाना म्रतिसंस्कृतसुश्चुतसंहितेव मूटसुश्रुतसंहिता ।घन्वन्त-


बहुभिरंशेवद्जीवकीयपरिचयविरोषस्यावगमे पूर्वोक्तदिशा र्सिंहिता च, वर्त॑माना बार्स्यसंस्कृतसंहितेव बृद्धजीवकीयतन्त्न
पितृविभेदः, देशविमेदः, गुरविभेदः, सचिरोषणनिर्विरोषणनाम- मूलकाश्यपसंहिता च भवन्ती एकाऽपि मन्थत्रयात्मनाऽस्माकं
भेदः, धा्मिकपथविमेदश्चैवमादयो बहवो विसंवाद उपरभ्य- पुरो भवति । उपटभ्यमनेष्वेषु प्राचीनग्रन्थेषु मरतिसंस्कतृ
णा
न्ते । वोद्धमन्थोक्तजीवकस्य कौ
मारभ्यते कुमारेण पारितल्वं चरकस्य नागाज्ञुनादेरनिश्ितस्य वास्यस्य च क्ता तृतीया,
निदानतया महाव उद्घिख्यते, न त॒ कोमास्थरत्यग्रस्थानाचा- तत उपरि तन्त्रकतू णामग्निवेडस्य सुश्ुतस्य दद्धजीवकस्य चे
यत्वम्‌ ! तथा प्रसिद्धस्य महवै्यस्य कौमारभ्त्यविद्याऽपि कन्त द्वितीया, ततीऽ्युपरि मूरसंहिताकत्‌ णामात्रेयस्य दिवो
चेतसि चकास्तु नाम, किन्तु वहुपु बौद्धमन्थेषु तदीयेतिद्रत्तानां दासरूपतामापन्स्य धन्वन्तरेमांरीचकश्यपस्य च कन्ता
चिक्िस्सनादीनां च सविस्तरुपवणेने सत्यपि किमिति नाम प्रथमेत्यात्रेयधन्वन्तरिकृश्यपा एषु मस्थानेषु प्राचीनतमा
कौमारश्रत्यवित्वं॑तष्िषयके तादशचप्रौदतन्त्रस्य निर्मातृस्वं च मूराचा्याः ॥
रेदातोऽपि न सूचितं स्यात्‌ । पएतत्तन्तरस्यान्तरङ्गस्शा विचार- प्राचोनतमत्वेन रष्टानामेषामात्रेयधम्बन्तरिकश्यपार्ना.
णेऽपि वितंवादकमेवोपरुभ्यते। तृडहादगतहानेलोपलन्धप्रा- मूलाचार्यांणां यथास्वं समयविदेषनिर्धारणस्य॒दुप्करस्वेऽपि
चीनभ्रन्थरेखतो बुद्धेन स्वसामयिकजीवकाय भेषज्यविषयस्य
किरूपमेषां पौर्वापर्यं, सहभावो वा कयोध्ित्‌ , यरात्रेयभिवेशच-
उपदेश्ानं दश्यते! स एवायं ब्रृद्धजीवको यद्यभविष्यत्तदा तन्ना-
रक-धन्वन्तरिदिवोद्‌ाससुश्रत-कश्यपन्रद्धजी वकवास्स्यादिभि
भ्यन्तरे तत्र तत्र धन्वन्तयांदीना मिव बार्हिकभिषजः काङ्काय-
रन्थैरपि पूर्वाचार्ेरेतष्ठिज्ञानं प्रतिष्टामवापितं, तेषां कदोद्धव-
-नस्य वेदेरिकम्रेच्छुभिषगादीनामपि नामानि मैषज्यविषयवि- इति निशितं समयं प्रदर्ययितुं न कोऽपि धारावाहिक एेतिहा-
रोषांश्वाजुद्शयश्नसौ स्वोपदेशकं भगवन्तं बुद्ध, तदीयोपदेशल- सिकरेखोऽस्माकमवदम्बनायेति तत्परिच्छेदाय प्रचतनं इःसा-
उ्धौषधविदोषान्‌, ग्रसङ्गतस्तदीयभ्यास्मिकविषयं वा कथं हसमिव । तथाऽपि कियन्तमवधिं यावदेते उपयांरोदुं प्रभ-
रेश्तोऽपि नासूचयिष्यत्‌ । न चात्र वौद्धी च्छाया केकतोऽप्यु- वन्ति, कियतो वाऽवधेरधोऽवतरितुमेते प्रतिर्ष्यन्ते, तथानि-
पटरभ्यते । महावग्गादिरेखतसतदीयजीवकस्य शस्यतन्त्रेऽपि धविचारसाधनानां केपाल्चिटुपटम्भेनापि कश्चनास्फुटोऽपि सम-
-विद्रोषनिष्णात्वं कृतहस्तस्वं च प्रतीयते । अरसिमिस्तन्त्रे तु योऽवगम्येत; येनैषामेकस्यापरेण साकं स्वीयसमविपयरङ्गभू-
शल्यतन्त्रीयविषयस्य परतन्त्रीयत्वेन तटस्थतया निदंशो- माववतीर्णानां पर्यालोचने कश्यपस्य जीवकस्य वाव्स्यस्यापि
ऽस्ति । तदेवं बौद्धगन्थोक्तान्मागधादभयपुच्राद्‌ सुजिष्यागर्मं समयावधारणे कोऽप्याखोकः ्रदीयेतेति तत्र तन्न बिवेचकानां
सम्भवाज्ीवकाहिभिश्नः प्राचीनः कनखलरप्रान्तीय ऋचीकपुत्रः बिदुषामभिप्रायेः सह स्वस्य हृदये ग्रतिभातमपि निदशयिवुं
कश्यपकल्िष्यो महर्षिभिरादतः कौमारप्रत्यचायं एतत्तन्त्रकर्ता
किसपीदोपन्यस्यते-
बृद्जीवको दश्यत इस्यरुम्‌ ।
सुश्रुतसंहितायां धन्वन्तरिरूपेण काशिराजेन दिवोदासेन
| सुश्रतस्योपदेशनं निर्दिष्टमस्ति । धन्वन्तरेरदि
पिनिनिकनियोञकवपक्रणप्तणे

घम्बन्तरि- बोदासस्य परिचयाय पर्यालोचने वेदेषु के्ा-


[1

तदेवं कर्यपेनोपदिष्टां भ्राथभिकीं संहितां महानिबन्धरू- दिवोदासश्च चार्यस्य धन्वन्तरेरर्लेखो न दश्यते ! ऋषु
पामधिगव्य वृद्धजीवकस्तदीयं विस्तृतांशं सं-
्म्रेषु थत्र वेद्यकविषथा दृश्यन्ते तत्र विदोषतो-
प्रसङ्घस्म- क्तिप्य संचिक्तर्पान्तरं ज्यदृधात्‌,तदेव सभ- देवमिषजोरध्िनोरेव भिषगभावेनोपवर्णनं रभ्यते। ऋगवेद प्रथम-
तानि श्रा- यान्तरेण वाप्स्यः प्रतिलंस्छरः्य प्रकाश्चयामा- मण्डरादिषु बहुषु स्थानेषु दिवोदासनाश्नो गूपस्योर्रेखोऽस्ति ।
चा्यान्त- सेति संहिताकल्पाध्यायनिर्देरेन यथाऽऽतरेयेण वैदिके तदुपवणने अतिथिग्वः ज्ञम्बरशश्रुः उदासपिताः इत्वा
सणि प्रथमोपदिष्टं संहितामन्तमान्य अभ्निवेश्चस्त- दयो विदषाः शौर्यवीर्यकमाणि चोपकभ्यन्ते । काठकसंहिताया-
न्त्ररूपतामानिनाय, तदेव तन्त्रं चरकेण पुनं मपि मन्त्रभागे बच्चश्चदिवोदासस्योर्रेखोऽस्ति । अस्य वेदिक-
संस्कृत्य वतंमानरूपेण प्रकाशितं; यथा वा दिवोद्ासखूपेण दिवोदासस्य काश्या राजव्वं धन्वन्तरिणा सह सम्बन्धश्च न
धन्वन्तरिणा प्रथमोपदिष्टं संहितामन्तभाव्य सुश्चतः संहिता- ततः प्रतीयते । तेनास्य ऋगेदोक्ञिखितस्य कारकोक्गिखितस्य
रूपेण निबवन्ध, तामेव नागाजञुनत्वेन संभावितोऽन्यो वा च दिवोदासस्य अतिप्राचीनः काठः, न वाऽयं वे्याचार्थः ॥
कश्चन प्रतिसंस्कर्ता संस्छ्रत्य वतंमानस्पेण प्रकाशयामास; तथेव पौराणिकेतिहासेष्वप्यनेके दिवोदासनामान उपरुभ्यन्ते ।
काश्यपेनोपदिष्टा मूरुभूतः महासंहिता श्रद्धजीवकेन संक्ष्य तेषु हेरिवंरो २९ अध्याये काचस्य वंदो धन्वन्तरेर्दिवोदासस्य
तन्वररूपतामवापिता समयान्तरेण बारस्येन प्रतिसंस्कत्य प्रका-
शिता वतंमानरूपेणास्मदुषृष्टिपथञ्युपगतेतीदानीं मूरुसंहितानां १. हरिवंदास्य वाराणस्यां गोविन्दरचन्द्रविजयरभ्ये १२०१
तदुपान्तरभूततन्त्राणां च पथगनुपरुम्भेनोपरभ्यमानय्न्था- संवत्सरे किखितं प्राचीनं ताडपवपुस्तकमस्मत्संयदाल्येऽस्तिः
ह्मना वतमाना चरकसंहितेवाग्निवेशतन्त्रमत्रेयसंहिता चं तदीयपारुसंवादेऽप्ययमैव वंश्चावुक्रम आयाति।
उपोद्धातः । २९

च काश्िराजत्वेनोपरम्भोऽस्ति । तद्ंशानुक्रमश्वेद्थम्‌- महाभारते सञुदमथनोपाख्याने धन्वन्तरेर्दवस्याविर्भावो


कञ्चः ल्रेखोऽस्ति । पुराणादिष्वपि धन्वन्तरेनि्देश उपरम्यते ।
जभेयपुराणे सुद्रादुस्पन्नस्य धन्वन्तरेरायुवेदप्रदश्ेकस्वेनापि
दीर्घतपाः
निर्दशलोऽस्ति! परं वेदे धन्वन्तरेस्द्खेखाुपरम्भेन, हरिवंशे
न समुद्रमथनादाविभूतस्याव्जदेवस्य धन्वनृपपुत्रतयाऽवतरणे
यौगिकेन धन्वन्तरिनाश्ना व्यवहारस्य दश्ञेनेन चोभयोः सङ्-
धन्वस्तरिः मनेऽब्जस्येव धन्वन्तसिभावेन द्रयोरमेदमनुखन्धाय समुदा-
तमान
दुरन्ते: मसङ्गे दैवस्याठ्जस्यापि भाविना धन्वन्तरिनास्ना कचन
यवहारः कृतः कि इति प्रतिभाति । येन वे्याचायंस्य दिवो
भीमरथः ( भीमसेनः) दासपूर्वपुरुषस्य धन्वन्तरेरन्जदेवरूपतया लौकिकेस्तेर्थिकेश्च
देवभावेन व्यवहरणमपि युज्यते ॥
दिवोदासः
अस्मिन्दिवोदासे भरद्वाजसम्बन्धस्य, वाराणसी निवेडानस्थ,
म्रतद॑न पुत्रस्य प्रतदंननाश्चश्च संवादेन हरिवंशोक्तस्य भारतोन्तस्य
चेक्यमवगन्तुं शक्यते । कौषीतकि ( साङ्ख्यायन ) बंद्यणे
वत्स कौषी तकिगाद्यणोपनिषद्यपि देवोदासिः प्रतदन इति शब्दनि
|^
अलकः शेन दिवोद्ासपुत्रस्य प्रतदंनस्य बद्यवियारूब्धेराख्यायिका
दश्यते । काटकसंहितायामपि ब्राह्यणांदो आरगिसमकारिकस्य
अत्र काश्चपौत्रो धन्वनामा नृपः समुद्रमथनोस्पन्नस्यान्जना- मैमसेनेर्दिवोदासस्योल्टेख उपरूभ्यते ॥
स्नोदेवस्याराघनेन धन्वन्तरिनामानमब्जावताररूपं पुत्रमवाप । एवं दशेनेन काश्चनृपतिसन्ततिरूपाः सर्वेऽप्यमी काशनृपेण
स धन्वन्तरिर्भरदाजादायुर्ेदविचयोपदेश्मादाय तद्िक्तानमष्टधा
भ्यस्य, शिष्येभ्य उपादिशत्‌ । अस्य प्रपौत्रो दिवोदासो प्रतिष्ठापिततया किर काश्चिनाश्ना प्रसिद्धस्य देशस्य तुपतितया
वाराणसीं नगरीं निवेरायामास । दिवोदासस्य युचः प्रतद॑नोऽ कालिराजदाब्देन रीतिताः; धन्वनृपस्य पुत्रतया तदाव्मजस्य
भवत्‌ 1 दिवोदाससमये श्रूल्यां वाराणसीं प्रतर्दनस्य पौच्रोऽरूर्को घन्वन्तस्निश्ना व्यवहारः, आत्रेयादीनामिव पूर्वाचार्थाद्धर-
नाम काशिराजः पुनर्भिवेशयामासेति हरिवंशरेखाद्वगम्यते । द्वाजादेव धन्वन्तरेरपि जआयुवंदविद्याखाभो हरिवंशरेख स्पती
यते । महाभारतदहरिवंशादिरेखे धन्वन्तरेः प्रपौत्रस्य दिवोद-
हरिवंशखेखे शरूल्याथा वाराणस्या दिवोदासेन स्थापनस्योर्छे
खेन वाराणस्यास्ततः पूर्वमपि सखागमेऽपि महाभारतायुशा- सस्य काशिराजस्य वंयविद्याचायत्वाकीतनेऽपि सुश्रुते काश्ची-
राजस्य दिवोदासस्य सुश्रताद्यपदेषटत्वोल्रेखसंवादेन च वेदया-
सनपर्वरेखादिवोदासेनेव वाराणस्या निर्माणमवगम्यते ॥
चार्यस्य धन्वन्तरेः स्रिक्रृ्टचतुथंसन्ततिचवेन पूर्वपुरुषविद्या-
महाभारतेऽपि चतुषु स्थानेषु दिवोदासस्य नामास्ति । समाद्रणेन दिवोदासस्थापि वेद्यविद्याचा्यभावः सुसङ्गत एव ।
महाभारतरेखादपि दिवोदासस्य कारीपतित्वं, वाराणसी प्रति- धन्वन्तरेः सज्िकृष्टसन्ततिषवेन, तदीयसंप्रदायभकाश्चकसैन
छटापकस्वं, हेहयेभ्यः पराजये मरदाजशरणगमनं, तद्टिहित- धन्वतरिस्थानापन्नतया धन्वन्तरेरवताररूपसवेन संमान्य सुश्चत-
पुतरेष्टया प्रतर्दननामकवीरपुत्रोव्पादनमित्यादय एतत्संवादिन- संहितायां “धन्वन्तरिं दिवोदासं सुश्र॒तग्रश्रतय उचुः” ( सू
एव विषया दृश्यन्ते । तच्र दिवोदासस्य पूवपुरूषेषु अन्तरान्त- अ. १ »)इति द्वयोरौपचारिकोऽभेदज्यवहारो न खलवनुचितः।
रागतानि व्यक्व्यन्तराणि अन्तर्निधाय प्रसिद्धतया दष्टानां आयुरवेदाचा्यसेनावगतस्य धन्वन्तरेः प्रपौत्रो दिवोदासः,
हर्य॑श्चादी नामेव नामोस्टेखः प्रतीयते । अधिषुराणे (अ. २७८ )सुश्रुते चायुर्वदोपदेष्टा धन्वन्त्यवताररूपो दिवोदास इत्युभयो
गरूडपुराणेऽपि (अ. १३०, श्छ. ८-११ ) वेद्यस्य धन्वन्तरेर्वशे सङ्कमनेन धन्वन्तरेरायुर्वेदीयसमस्प्रदायः शिष्यपरम्परायामिव
चतुथं दिवोदासः कीतितोऽस्ति ॥ स्वसन्ततौ दिवोदासेऽपि अनुधृत्तः स्पष्टं प्रतीयते । मत्सका-
१, तेन वारणारनामकः कश्चन वाराणसीं निम॑मे इति प्रवादो १. धन्वन्तरिस्ततो देवो वपुष्मानुदतिष्ठत ।
निरः । ( हिन्दीविश्वकोशचे कायौ-रब्दे ) शवेतं कमण्डलुः बिभ्रदसरतं यत्र तिष्ठति ॥ |
२. सौदेवस्त्वथ कारी दिवोदासोऽभ्यष््यित। दिवोदासस्तु ( आद्विपवेणिं अ० १६)
विज्ञाय वीर्यं तेषां यतात्मनाम्‌ ॥ वाराणसीं महातेजा निमय २. ततो भन्वन्तरि्विष्णुरायुवेद प्रदशेकः । |
राक्रद्यासनात्‌ । अनुशासन अ. २९। निभ्रत्कमण्डलु' पृणमथतेन समुत्थितः ॥ (अ्चिपुराणे ३ अ०)
३. उद्योगपर्वणि अ. ११७, आलुश्ासनिके दानधमंप्रकरणे अ. २९ ३. अथ ह स्माह दैवोदासिः प्रतदनो नैमिषीयाणां सत्रञरुपगम्यौ- `
राजधर्मप्रकरणे अ. ९६, आद्विपवंणि च । पास्य “`विचिकित्सां पप्रच्छ । ( कीषीतकिनाह्यणे २६-५ )
४. महाबलो महाकीयैः काशीनामीश्वरः प्रभुः 1 ४, प्रतदनो ह वै दवोदासिरिनद्रस्य प्रियं धामोपजगाम। `
दिवोदास इति ख्यातो भमसेनिनसाधिपः ॥ | ( कोषीतक्युपनिषदि ₹-१).
` (उद्योगे अ० ११७) ` ५, दिवोदासो भैमसेनिरार्णिद्यवाच (काठकसंहिता ७-१-८) ।
६५ उपोद्धातः
८.०५. क + + 0
"५९, ~ १५0 ~~~“ ^^ - ॥+ ॥ 8 90०

स्थताडयक्रीये सुश्रतसंहितापुस्तके स्वादौ श्रस्युवाच भगवान्‌ कौषीतक्रिबाद्यणस्य समयविचारे श्वेतकेतोरारणेर्नाश्च


धन्वन्तरिः इति वाक्यं नास्ति ! वन्तरिदिवोदास्सकाशे कथान्तराणां च संवादेन कौपीतक्युपनिषदो ब्रहदरण्यकस्य च
सुश्रुतादीनाभुषगमोङ्ञेखात्‌ पूर्वं तादडवाक्यस्य सच्चमपिं समः समय इति पाश्चास्यविदुपा वेवरमहाश्येन निर्दिशमस्ति।
नोचितं दश्यते ॥ श्रीयुत चिन्टरनिजचिदुपोऽप्यत्र समान एवाभिप्रायः! तेने
पूर्वो हरिवंश्षख्खे कलियुगे दिवोदासेन वाराणस्या कौषीत करिबाह्यणमेतरेयवाद्यणात्‌ पश्चा्तनमङ्गीक्रियते । श्रीयुत
प्रतिष्टापनोक्त्या धन्वन्तरेस्तत्पमरपौत्रस्य दिवोदासस्य च समयः चिन्तामणिवे्यमहारयस्तु रेतरेयव्राद्यणे ( ७-११ ) कौषीत-
कलियुगीनः प्रतीयते । कतमश्च सः कलियुगसमय इति तत कि्राद्यणवाक्योद्धासे दरयते, वेवरमहोद्रयेन विनेव साधनं तस्य
परिनच्छित्तं न शस्यते ॥ तत्र ्रजतिष्ठव्व्ुच्यते; तेनेतरेयवाद्यणात्‌ पूर्वतनं कौषीतकिबा-
काश्चीयुवराजस्य ब्रह्मदत्तस्य तक्षरिरयामायुवदाध्ययना- द्यणं 5 ©. 2500 सामधिकमिति साधयति । एस्‌. वी. दीक्ति
योपगमनं जातकम्रन्थे, काञिराजपदमधितिष्ठता बह्यदत्तेन सह तमहाशयो ज्यौतिषगणनाधारेण 1. 0५. 2000150 एतदन्त-
जीवकस्य समागमव्रत्त महावग्ये उपरम्यते । महावग्गे काश्ली- रारं समयं कौषीतकिवाह्यणस्य दर्शयति । कौषीतक्रिनाद्यणस्य
श्ब्दोप्यऽस्ति, परं वाराणसीशब्दो बाहुस्येन प्रयुज्यते । बुद्ध ( १७-४ >)यास्कनिर्क्ते ( ९-९ >)उपादानात्‌, त्रिशदध्याया-
नापि वाराणक्षीशष्दिते प्रदेदो धर्मचक्रस्य म्रवर्तनमु्घिस्यते । त्मकस्य कोपीतकिव्राह्यणस्य ““न्रशच्त्वारिङतो ब्राद्यणे संज्ञायां
जातकम्रल्येष्वपि बहुशो वाराणसीकषब्दः समायाति । पाणि- उण्‌? (५-१-६२) इति सूत्रे कोपीतकिपूर्वपुरूपस्य कुपीतकस्य
निना देशवाचकः काशीराब्दः सुतर स्पष्टं निर्दिष्टः! नगरवाचको “विकणङकपीतकात्‌ काश्यपे, (४-१-१२४) इति सूत्रे पाणिनिना
वाराणसीशषब्दो नदयादिगणे प्रवेशितो दश्यते । भाप्यकरताऽपि म्रहणाच कोपीतक्षि्ाह्यणं पाणिनेर्यास्कादपि प्राचीनमिति श्रीयु
वाराणसेय इव्युदाहरणं बहशः प्रदत्तमस्ति । जावारोपनिषद्‌- तकीथमहासयोऽपि वदति। पाणिनेः समयविचारे मन्नुश्रीमूल-
दिषु वाराणसीशब्दस्याप्युपरम्भैऽपि वराह्यणग्रन्थेषु ब्राचीनोप- कल्पाघारेण र्िखिते इतिहासे जायसवारमहोदयः 2. 0. 266
निषु काश्लीश्चब्दस्योपरम्भसत्वेऽपि, वाराणसीश्चब्दस्यानुप- 9२8 पाणिनेः समय इति, अन्ये केचन }. ©. 40५ इति वदन्ति।
रस्सेन रेश्षधिशेषवाचकः काश्चीरब्दः पुराकाखात्‌ ्रचङिति परं पाणिनीये वेदवेदाङ्गसंम्रदायम्रवर्तकपिदेशनगरमामनदनदी
नगरीविद्धेएवादचकफो वाराणसीश्चब्दस्त प्राचीनोपनिषत्समयाद- प्रश्रदयुज्ञेखसम्थ्रते गीतसमवबुद्धमदाव्रीरसंप्रदायसम्बन्धिन एक-
नन्तरमेव प्रसिद्धिञयुपगत दइस्छुपगम्यते ¦पुराणादिषु काशीवा- स्यापि विषयस्याकामेन श्रीयुतबुद्रमहावीराभ्यां प्राक्‌ ( 1. 0
राणसीखब्दाघुभावेवोपम्येते । इतिहासपर्यारोचने बुद्धसम- 1 00-300 ) पाणिनिसमय इति वहून्‌ समयानेतद्टिषये निं
यादनु कदाचिस्कोरखनृपतिभिः, कदाचिन्मागधेः रिष्युनागेः, मज्य विचारं प्रकरीकर्वतो गोल्डस्टकरमटोद्यस्य सिद्धान्त
तदनु मौर्यशङ्रपषयपतिभिः, दर्षवर्धनेनापि वाराणस्या विज- श्रीयुतबेख्वल्करमहाशयस्य श्रीयुतभाण्डारकरमहाश्चयस्याप्ये
यस्येतिहासा उपरुभ्यन्ते । तत्तदीयनृपाणाभमितिवृत्तानु
सन्धाने वप्रायोऽभिव्रायः। श्रीचुतचिन्तमणिपरिनायफैः 1. ©. 900
धन्वन्तर्दिवोदासप्रतरदनानां नामान्यर्वाक्समये नोपरम्यन्ते । समयो निदिष्टोऽस्ति ! एवं विभिन्नमतानां दर्धनेऽपि
पाणि-
प्रत्युत वार्तिक ष्दिवश्च दासे इति दिवोदाससाधनस्य निना ततोऽपि पूर्वतनेन यास्केन च गृह्यमाणं ततोऽपि पूर्वतनं
महाभाष्यङतो “दिवोदासाय गायते" इति निदर्चनस्य दशनेन, कोषीतक्नाह्यणं बह्पूर्वसमयकखेन प्रतिमासमानमप्यन्ततो
कौषीतकिबराह्यणे तदुपनिषदि क्सर्वानुकमसूप्रेऽपि देवोदासे गत्वा जुद्धससयान्नावागित्यत्र सर्वेषामेकमस्यमेच 1 एवमैतरेय-
प्रतर्दनस्य, काटकसंहिताया बाद्यणमागवाक्ये भेमसेनेर्दिवोदा- कोषीतकरिबाह्यणसमयोरान्तराछ्किऽयं दिवोदास उपनिषत्का-
सस्योल्ेखेन, एतस्संवादिनोः महाभारतदहरिवंश्योः वेयविद्याचा- किकोऽवगम्यमानः स्वप्रपितामहं धन्वन्तरिं स्वस्मादपि प्राक्तनं
्यधन्वन्तरिप्रपौत्रस्य वाराणसीनिवेशकस्य प्रतदैनपितुररकै- निश्चाययति ॥
प्रपितामहस्य दिवोदास्य कलिदुगीनस्योपरम्मेन च दिवो
१. त1300क 9 1161901 116807६ 0९ "लल ९., 52,
` दासस्य समयः कलियुगे पेतरेयब्राह्यणकारे कास्कबाह्यणस्य
>. प्190ाष्‌ 9 179 [शाप्रा€ 0 पलप.
कोषीतकिराह्यणस्य तदुपनिषदश्च समयेन सच्चिद्षटः किञ्चिपपूर्व
२. 81810८7 0 68191 [नदाणपाषट ©, प्र, ४४148.
तनो वा इत्यायाति ॥
४. (ताञ 0 [तोशय 4.आ०्धगणङ्‌ 8. ए. [आशा
१. अस्मिन्‌ पुस्तके वहवः पाठमेदा द्यन्ते । तप्संहितान्ते ५. र्वम्‌ उ थुषपाक28 गृण्थ516 0. एल) 7. 42
सोश्चतो निवण्डरप्यस्ति । एतत्‌. पुस्तकपाठसंवादेन सह सुशत- ६. 4" [पला पाज 0 [एता९. 0 ह, २. परभ्मा०
हितायाः संस्करणान्तरमिदानीं श्रीमदाप्रतमयादवजीमहाभागैः 88४] {. 15
प्रकादयते ॥ ७. -एाणा07 015 01966 10 8 क0शरप ततोष्धपः€ एए 69०.
२, कादयादिम्यष्न्नि ठौ ४।२।११६ । 105॥प्लः
३. नादिभ्यो ठक्‌ ४५।२।९७ वाराणसेयः । <. अशटया8 0 सिव्गाध (मपाा, 0 8. ए, 261२६.
1.4.14
४. गायति इति कारिका । ९. -पवाऽणाङ ० ४06 0९069 एत 20 90तक्तरभा,
५, प्रसेनानीश्चतुरविंरतिदंवोदासिः प्रतद्र॑नः । १०. (1280 0 विश 1 लाध्णाट ए८10 ९५०१ फ
: (कात्ययनौयऋछक्सरवालुक्रमण्यां ख. ५२ )। (. *, ४०५४ }. 129.
उपोद्धातः ।

मिखिन्दपहोनामके पाटीभ्न्थे 7. 0. द्वितीयशशताब्दीगतं धन्वन्तरैेरेव नाम गृहीतम्‌ , अन्ये घवाचार्याः प्रभरतिशब्देनैव


भिरिन्दं ( 21608114€7 14109 ° 3901४ ) प्रति नागसेन- गृहीताः । पाटीख्खे तु धन्वन्तरिनाञ्ना सह वेतरणभोजयोरपि
स्योक्तो “चिकिटसकानां पूर्वका आचाराः; इद्युपक्रम्य कीर्ति. चिकिस्छकव्वेनोपादानमस्ति ! सुश्रुतसंहितायां प्रारस्मवाक्ये
तेष्वाचार्येषु धन्वन्तरेरण्युपादानमस्ति । तत्र रोगोत्पत्तिनिदा- धन्वन्तरिरूपदिवोद्दि द्यारुन्धये स्ुपेतानामन्ते-
ाससकाश
नस्वमावससुस्थानचिकित्साक्रियादिवेत्राचायरूपेणोपादानात्‌ , वाचिनेसुह्ञेखे वेतरणस्यापिं निर्दैशेऽस्ति । तत्रसूश्चतथ्रश्रतय
चिकित्सकानां पूर्व॑काघा्यां इति नागसेनेन स्वस्मात्‌ पूर्ववर्सया अचुरिति म्रश्तिपदेन भोजादीनां ग्रहणमिति उनल्लनाचार्थेण व्या-
चार्यरूपेण चिकित्सकाचार्यभावेन तस्य निर्देशनाच्च एतन्ञि ख्यातमस्ति । मस्सकाश्चस्थे प्राचीने सुश्चतस्य ताडपुस्तके
दिंष्टेधन्वन्तरिः महाभारतादिषुआयुर्वेदीयय्रन्ेष्वपि ख्भ्यमान श्धैपधेनर्वेतरणौरभ्रपौरफखाउतकरवीयगोपुररक्तितभोज्ञ
सुश्रतसंहिताथामाचार्यमवेन च्े यः प्राचीनो धन्वन्तरि स सुश्रुतमरष्तय उरुः इति मूले एव वेतरणस्थेव भोजस्यापि
एवायमिति स्पश्टमवबुध्यते । किंवा अत्र कपिख्नारदादिभिः स्पष्टमुल्लेखोऽस्ति । अस्मिन्‌ पारीजातकच्खे दिवोदाखान्तेवा-
सहोपादानेन धन्वन्तरिक्दौ भूरधन्वन्तरिमभिप्रेति । किञ्च सिनोवतरणमोजयोः साहचर्येण तदुपात्तो धन्वन्तरिं मूला-
8. 0. द्वितीयवृतीयशताब्दीनिर्मितयोर्भरूचसाचीस्तूपथोः शिख- चायः, अपितु धन्वन्तर्यवताररूपतया धन्वन्तरिशब्देन सुश्रत-
चित्ररेखानां संवादेन, भर्चस्तूपे जातकानां नामतोऽप्युज्ञेखेन संहितायां व्यवहतस्तद्र॑शीयो दिवोदासः ग्रतीयते । अच सुश्च
च पाटीजातकम्नन्थानां तदस्वेऽपि सं प्रसिद्धिश्च विद्यति । तादीनामन्येपासनुल्छेंऽपि उपनिषत्छारे दिकेदासस्योपल-
2. 0. चतुर्थशतान्यां वेश्षारयामुपजातायां बौद्धमहासभायामपि म्भेन, सुश्रुतसंहिताथां दिवोदासस्य धन्वन्तरिरूपतया भ्यव-
तेषां जातकम्न्थानां म्रकिद्धिरसीदिति मेक्डोनटखादयः पाश्चा- हरणादिवोदासात्मकस्य . धन्वन्तरेरन्तेवासिनोवैतरणभोजयो
त्यविद्रहरा अपि वदन्ति । ग्न्थप्रसिद्धेरप्येवंमावे ग्रन्थस्य ततः सुश्रतसंहितोक्तयोः संवादेन, जातके निर्दिष्टस्य विषमरतीकार-
पराक्तनत्वं तु सुतरामेव ! तच्र अयोघरनान्नि पौलीजातके बुद्ध- विषयस्य सुश्चतसंहितायां कल्पस्थाने संवादेन च भोजवेतर- .
स्यैकस्मिन्‌ पूर्वजन्मनि राजपुत्रावस्थायां धर्मचर्याये राज्तोऽनुक्ता- णाभ्यां सह निर्दिष्टानां सुश्रतादीनामपि समानकालिकमन्ते
रन्धये धन्वन्तरिवेतरणभोजाख्यांधिकित्सकान्नामग्राहं गृहीत्वा वासिववं सुश्रुतोक्तं संवदति । आग्नेयपुराणख्ेखतः सुश्चतस्या-
जओषधिभिर्विषापहरणेन च खोकोपकारिणो धन्वन्तरिसद्शा पि आयुरवेदधिद्याग्रहणे घन्वन्तयन्तेवासित्वं स्थिरीभवति च ।
विद्वांसोऽपि श्रद्युमुखं प्रविष्टा इति रृत्योमंहिमानसुक्घिस्य तदेवं दिवोदासरूपमवाक्चस्य धन्वन्तरे्बद्रजातकम्रन्धेभ्योऽप्य-
द्चितो धर्मानुरागस्तत्कथायां प्रदश्यैते । तस्कथोर्टेखेन बुद्धस्य तिप्राचीनसेनोपरम्भात्तत्पूरवपुरषस्य मूरधघन्वन्तरेस्ततोऽपि
पूर्वजन्मावस्थायामपि धन्वन्तरिवेतरणभजानामस्माल्ञोकाद्‌- प्राग्भावः सुतरामेव ॥
प्यतीतत्वम्‌ , इदमपि कतमस्मिन्‌ पूर्वजन्मनीति बह्पूर्वत्वं ततो धन्वन्तरिक्ेपणकामरसिहित्यादिष्छकोक्तो विक्रमीयनवरस्ने-
त्तायते । आर्थसूरीयजातकमारखायामपि अयोगहनातके व्याधि- ्वम्यतमो धन्वन्तरिरेव प्रसिद्धवे्याचा्यं इत्यपि कस्यचिन्मत-
नादाकवैदयवर्यां घन्वन्तरिप्रश्तयोऽपि विनां गता इति धन्व- मस्ति । परं पूर्वोक्तदिशा प्राचीनस्य वेद्ाचायधन्वन्तरेरुपर-
न्तर्यादीनामतीतभवेन ससंमानं निरदृश्ोऽस्ति । जर्यसुरीयरेखे ` ग्मेन घन्वन्तरिनामसाम्यं तद्भान्तयेऽजायत। नवरत्नेषु गणितो
धन्वन्तरि कविः, नास्य वेचयाचार्यत्वं कुतोऽप्यायाति ॥




भन्ते नागत्तेन, ये ते असं टिकिच्छुकानां पुष्वका आचा- काश्यपसंहितायां शिष्योपक्रमणीयाध्याये (प्रु. ५७ )


रिया, नारदो, धम्मन्तरि, अङ्गिरसो, कपिको, कण्टरग्गिसामो, हयैम्यदेवतानिर्दैरोप्रजापत्यश्वीन्दराणां, स्वीयतन्त्रपूर्वाचार्थस्य
अतुलो, पुव्वक्च्चायनो, सव्ये ये ते आचारिय। स कियेव रोथुप्पन्ति कश्यपस्येव, अच्यादीननुक्िस्य प्रस्थानान्तराचायंस्य धन्वन्तर
च निदान च समभावं च ससुल्थानं च रिकिच्छ्ं च किरियांच रपि स्वाहाकारविधानेन धन्वन्तरेरूपाद्‌ानं समादरश्चोपरुभ्यते।
सिद्धासिद्धां च सव्यान्‌ तं निरवसेसं जानित्वा इमस्मिन्‌ काये एतका दिवोदासस्य सुश्रतस्य घन्वन्तर्यनुयायिनोऽपि नान्रोर्रेखो
तेगा उपञ्जिसन्तीति एक्रापदारेन कलाप्रग्गाहं कारित्वा स्तं बन्धिस, ` ऽस्ति । तेन द्विबणीये परतन्त्रस्य समयमिति (चि.अ. छे. ५.)
सन्वन्ननौ एते सव्ये । ( मिखिन्दपन्हौ एषो वट 0 कि
शल्यधिषयस्य परतन्त्रीयव्वेनोपादानमपिं धान्वन्तरं सम्प्रदाय-
११600 ए. 219 )
भ्युपस्थापयति । आत्रेयसंहितायाम्‌ इति धन्वन्तरि,
२. आसीविसा कुपिता यं दसन्ति रिकिच्छुका रपत विसं धान्वन्तरं मतं, धान्वन्तराः' इति बहुशो धन्वन्तरेस्त-
परं
दसन्ति। | त्साप्रदायिकानां च पूर्वांचार्यसवेन ससंमानं निरदेशनमस्ति,
नमन्चनो दद्विसं हनन्तितंमे मति होति चरामि धम्मम्‌। दिवोदासस्य सुश्च॒तस्य च तत्रापि नाम स्पष्टं नोदृङ्कितम्‌ ।
घम्मन्तरि वैतरणि च भोजो विसाति दा च सुश्चतेऽपि आत्रेयस्य कश्यपस्यापि न नामोल्छेखोऽस्तीति मारी
भुजङ्कमानम्‌ । चिकश्यपात्‌ पुनर्वसोरात्रेयाच्च धन्वन्तरेः पूरवाचायत्वमवगम्यते।
खयन्ति ते कालकता तयेव ( अयोधरजातके )
१. सर्वा्गनिवृत्िदयुपपदिति धन्वन्तरिः ( सत्र ६. १८), दाहे. `
| ३. हत्वा विषाणि च तपोवलसिद्धमन्त्रा व्याधीतृणासुपदयय्य च
वैचवययाः । धान्वन्तसीयाणामव्रापि भिषजां मतम्‌ ( चिकित्सा० ५, ६४), इदं `
धन्वन्तरिप्र्तयोऽपि गता विनाशं धमय मे नमति (मवति) ठ शव्यहतुंणां (चि० १३. १८२ }, ताः चव्यपिद्धिः कशरेशचि- `
तेन मतिबनान्ते ॥ ( ायंद्ररीये जातके ).
६२ उपोडातः ।
1

िसाग्प् खेन, आत्रेयसंहिवायां वातकलाकलीये मारीचिकश्यपात्रेयपुन-


कक

कारयपीये धन्वन्तरिमित्रोर्खेखः, आात्रयीये त॒ धन्वन्तर लीभवे वस्वोः संवादशरूपोररेखस्योपरम्भेन, उभयत्र रब्दान्तरेण वि-
दाविकानामग्युर्लेख इति धन्वन्तरिसर्प्रदायस् य वहु
च सरद्वाजश्योर्टेखेन च, एषामाचाया-
आ््रेयपुनर्वसोरूदयः प्रतीयते । भात्रेयादपि धन्वन्तरेः नोपितस्याविक्षेषितस्य य ति ॥ |
ायिन अभ्निव ेशाद्‌ मेडाचच च धन्वन् तरेः । ्टः समयो अन्थमर्यविवा
पूवसव णामनतिविप्रक्रष ादयाऽऽया
पूर्वे
व सति तदनुथ

सुतरामेव । मेडसंहितायां चरकसंहितायामपि भान्वन्तरखेता- सशुतसंहिताया निमाता सुशटुताचायो विश्वामित्रपुन्र इति
दीनाञुररेखोऽप्येतदेव स्पश्यति सुश्रुत शारीरस्थाने सुशरतः सशुतसंहिताथानेवक्छसस्ति ! -चकरदत्तेनापि तद्टरी
तृतीयाध्याये शौनककृतवीर्यपाराशर्यमाकण्डेयसुमूतिगौ तमानं ~ _ कार्यां तथव निर्दिष्टमस्ति । महाभारतेऽपि विश्वामि
प्राचीनतमानां पूर्वाचार्याणां निदेशः । आत्रेयकाश्यपसंितः चस्य पुत्रेषु सुश्वुतस्य नामोपरमभ्यते । ग्वदे तत्तन्मन्त्रानां दरष्टा
योस्त॒ काङ्कायनादीनामपि पूर्वाचायेववेन निर्दशोऽस्ति ! उर्छन- |रामाग्र धनुविद्योपदेष्टा च विश्वामित्रो महषिरन्य एव प्राची न-
निपत् काटिक दिवोद ्‌ासश िष्यस ्वेनो -
रेखादिवोदासान्तेवासितया काङ्कायनस्याभ्युपगमः कस्यचि- | तरः स्यात्‌ । सुश्ुतस्य ओप न ासवदौ प-
न्मतेन निर्दि्टः। तथात्वे दिवोदासान्तेवासितया क्ातस्य र्टेखेन सुश्रुतसंहितायां कृप्णनामोप लस्मे च दिवोद
जातस्य कश्ययात्रेयवदरो्रपर-
काङ्कायनस्य आगत्रेयसंहितायां काश्यपसंहितायामपि निर्दशेन |निषदे कारे श्रीकृप्णोदधवादुत्तरंजोऽयं सुश्रुताचार्थः प्रतीयते ।
्यात्म
` आपियकाश्यपाभ्यां दिवोदासस्य धन्वन्तरेश्च पूस्व प्रगुणी- |म्परागतस्य विश्वामित्रस
भवति 1 विश्वामित्रमुनिः स्वपुत्र
0।
ं सुश्चुतं कारिर५ाजधन्वन्तरि (दिवोदास)
भरदाजाद्वन्वन्तरेरायु्वेदविद्याराभस्य, दिवोदासेना पि भर सकारोऽध्ययनाय परषयदिति भावभ्रकाशेऽप्यस्ति । उज्ञनन्या-
द्वाजस्याश्रयणस्य हरिवंरो उल्खेखेन त्रिपुरषान्तरिताभ्या धन्व-
ख्यां विश्वामित्रनाञ्चोद्‌ शतं वंयकयिषयकं वचनमपि रभ्यते ।
ज एकव व्यक्ति र्त कोऽयं विश्वामित्र इति न सम्यक्‌ परिचीयते ॥
न्तरिदिवोदासाभ्यां सह सम्बद्धो भरद्रा
तदरोज्ीयं व्यक्तिद्वसमिति नावधायंते । चरकसंहिताय ामपि उप- सुश्रुतसंहितायाः समयविचारे हेस (६९५५) नामा पाश्चात्य-
करमम्रन्थे भरदराजादात्रेयस्यायुवदविद्याराभः, उत्तरत्र कचन विद्धान्‌ सुश्रतादयो द्वाद्ल्षताब्दीवतिन इति, श्रीयुत जोन्स
मरद्राजमतस्याक्रेयेण प्रतिन्तेपः; (वातकलाकलीये कमारशिरः विर्सनाद्यः ( १००९६, 1० ) नवमदशमरता्दीवर्तिन
रोगा- इति, अन्येऽपि पञ्चमचतुर्थशताब्दीषु सुश्च॒तस्य समय इत्यर्वा-
इति विशेषितस्य मरद्वाजस्य निदश्लः, कार्यपसंहितायां
ध्याये ( घर. ३९ ) कृप्णभारद्वाजस्य निर्देशश्चास्ति तेनायुवेद्‌- गाकर्षणवचांसि जरपन्ति ॥
विद्याया नानाभरद्वाजानामाचार्यभावोऽवगम्यते ! तदेवमेकेन ^६प^पपी१दटा05 0 ॥9०€ 11९60 10 1 50 4106|
तदधोत्रगतविभिच्रन्यक्िरूपेण वा भरद्वाजेन सह घन्वन्तरिमारी- प्ण), (लाणप्पद 4. 0, ४8 € एतदः फक्वाप्रऽजः06 ००४
चकरश्यपात्रेयपुनर्वसुदिवोदासानां नातिविप्रकृष्टकाछिकः सम्ब- 81108 085384९8 0४ 011 (978116€} पा एटा धद्वुपटलपणर
न्धः प्रतीयते 1 आत्रेयपुनर्वसुना मारीचकश्यपेन च गृद्यमाणो फ 08539263 10 16 फार 0 (9०९४ 900. ६87६४.
धन्वन्तरिः धन्बन्तरिसन्ततिव्वेन तज्नाम्ना व्यवहियमाणो दिवो- हद्यं भ्याग्डोनरु ( #४*०0णल]] >)महाशयो लिखति ॥
दासोऽपि भवितुं संभवतीति धान्वन्तरमतरूपेण दिवोदासमत- ग्‌ [षदप ०१ अ]6, 1 ( 8पञ^पपपर 2) 870 {06
निर्देश इत्यपि वक्त शक्यते, तथाऽपि कश्यपेन स्वाहाकारदेव- १. विश्ामिव्रतः श्रीमान्‌ सुश्रतः परिप्रच्छति ।
ताव्वेनापि धन्बन्तरेनि्दशादात्रेयकश्यपाभ्यासुभाभ्यां कारिरा-
जलेन प्रसिद्धस्य दिवोदासस्य भाहकं काचीपतित्वदिवोदास- ( रश्चतसंहिता उ. तं अ. ६६ )।
त्वादिकं कमपि विशेषमनिरदिंश्य केवरं धन्वतरिशब्दमान्रेण विश्चमित्रारतं दिष्पसपि सुश्वुतमन्वदात्‌ 1
तस्य निर्देशनात्‌ , महाभारतादिरेखतो धन्वन्तरेरषटप्रस्थाना- | ( सुश्चतसदिता चि. अ. २)।
च्चार्यस्वेन तदीयसंहिताया मपि पूं सच्वावगमाच्च मूखधन्वन्त- २ अथ परमकारुणिको विश्वामितच्रञतः सश्तः दाच्यप्रधानमा-
रितिंहितागतं विषयमेवाभिरुच्यात्रेयकश्यपाभ्यां धान्वन्तरमत- युवेदतन्त्रं प्रगतमारणग्धवान्‌ ( चक्रदतते ) ।
भमुषान्तं बहुलः सम्भवति ।पूर्वोपदश्ितद्शा दिवोदासनृपेण सह ३. आनुश्ासनिके प्रवणि ४ गध्याये।
संगताय गार्वाय केवरं मारीचकाश्यपीयाश्रमनिरदेशनस्य ४, महेन्द्रयमक्रृष्णा्ना ब्रह्मणानां गवामपि 1 तपसा तेजसा वापि
महाभारते उपलम्मेन दिवोदाससमये मारीचस्य कश्यपस्याती- प्रद्ाम्यष्वं क्िवाय वै ॥ ( सश्चते चिकित्सास्थाने. अ. ३० )
तत्वं, किवा तदाश्रमे मारीचस्य कश्यपस्यापि सच्वमासीदित्यपि ५, अथ ज्ञानदृशा पिदवा्मित्प्रभृतयोऽविद्रन्‌ ।
वन्तंशक्यते । तेन धन्वन्तरेः पश्चादिवोदासात्‌ पूर्व, किंवा दि. अय धन्वन्तरिः साक्षात्कादिरजोऽयसुच्यते ॥
वोदाससमये मारीचः कश्यप आसीत्‌ । चरककाश्यपसंहितयो- विश्वामित्रो सुनिस्तेषु पुत्र स॒श्चतसुक्तवान्‌ 1
रात्रेयेण मारीचिकश्यपस्य, मारीचकश्यपेनात्रेयपुन्व॑सोस्र्रे- वत्स वाराणसीं गच्छ त्वं विच्छैदरयरवषमाम्‌ ॥ ( भावप्रकारे )
६. "तथा चोक्तं विद्वाभि्रेण-यावशुकस्य पानं त॒॒कुत्थक्षार-
१, “अन्ये तु-ओपथेनवादयोऽष्टौ, प्रशृतिथरहणात्‌ निमिकाङ्का. वारिभिः ( सु. टी. उद्णः. ) ।
यनगाग्यंगाल्वाः; ` | ७. ताण 9 रिश [िन्थिभरापाह | 6. 4.
एवमेतान्‌ दादश रिष्यानाहुः” इति सुश्चुतसंदहितारौकायां 178640716]] ], 436.
उनः (१.२) ` | < प्रत 0 [णकान [नोप्लपत्प८ एष्‌ तलः ए. 166
उपोद्धातः । ३
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णाऽ 65600111 10 क्त कोठ त @ 00 कत्तु एल्‌ 08- रिक्तकः सुश्चतः'? इति भैषज्यविद्याया भाचार्यप्रवररूपेण ससम
पलप ददा १ (लाथ पिरप 10 € म्प्र ० नगौरवं सुश्रुतस्य कीर्तनुपरभ्यते 1 तदेवसुपद्धिसदखवर्षसम-
87912 10179. इत्थं वेबर्‌ ( €!€) येनायनागाञनेनाप्याचार्यद्शा सनामनिदेश्ं सुश्रतस्योर्टेख-
महाश्चश्चेऽपि
डिखति ॥ उपरभ्यमानस्ततोऽर्वाचीनस्ववादुरतिरोधाय पर्यास्तमेकमपीदं
अन्ततो गत्वा हव गोवन ( प. ५०७०० ) नामको विद्धः साधनम्‌ ॥
स्तु सुश्रतो नाम न कोऽपि बभूवेति बहवो जस्पन्ति । यदि अपरञ्च, पूर्वादिष्टस्य खोराङेपलर्टधस्य अजर यल्ावल्दरद-
कोऽपि स्यात्तदाऽपि सक्रटिस एवेव्यपि मुक्तकण्टं वदति ॥ कपुस्तकस्य दिपियादुरन्ध्ादेऽतरे तृतीया चतुर्थी वा श्ता-
तत्रेवसुपन्यस्यते--उपद्धिसहखव्षपूर्वतनस्य दाश्ञ॑निकस्या- ञ्दी रेखसमय इति सर्वैर्निर्धास्तिमस्ति । अद्यत्वे इव शछरिति
्यनागोज्ैनस्य उपायह्दयं नाम दाश्चंनिकमन्थ उपक्ञ्धः। भारते म्रापकेवा्पश्षकटम्योमयानकब्दवाहकादिसाधनेर्विना्रते पूरव
मूरुसंस्कृतरेखानुपलम्भेऽपि पुराखमयाचचचीनभाषायां वर्तमाना- कारे मारतीयस्यास्य अन्थस्य दुर्गमतावद्‌दूरपर्यन्तं प्रचाराय
द॒नुवादादस्मस्परममित्रेण श्रीयुततुचीमहाशयेन संस्छृतभाषायां ग्राप्तये च विशेषतः समयस्यापेक्लिततया त्टन्थरचना ततोऽपि
ग्रतयनूद्याद्यत्वे यः ग्रकाशितोऽस्ति, तस्मिन्‌ मन्थे पूर्वं तन्त्रान्त- पूर्वतनी वक्तव्येव । अव्र मङ्गखनिर्देे बुद्धोल्रेखदर्शनेन अुद्ध-
णां विषयोहेशभ्रसङ्ग-“भषयिविद्या षडिवधा-जओषधिनाम समयमनु कतिपू्वेकारे एतड्न्थर्चनेति न परिच्छियते । ईरो
जोषधिगुणः, ओषधिरसः, ओषधिवीर्य, सन्निपातो, विपाकश्चेति प्राचीनेऽस्मिन्‌ म्नन्थे जत्रेयस्य तदनुगानां क्षारपाणिहारीतजा-
भेषञ्यधमाःः इति भेषज्यविद्यायाः प्रधानविंषयान्‌ भ्रश्य तूकण्यपराशरमेडादीनां काश्यपजीवकयोः सुश्चतस्य च नामानि
पश्चादागमवणनग्रसङ्क “यथा सुवेद्यको भेषजङकशखो मेत्रचित्तेन तदीयौषधोद्धाराश्च सन्ति । तदुद््टतानां केषाच्चिदौषधपाटानां
१, -उिप 7090 3प्रञ प्र 195 0660
वतमानचरकसंहितायामुपरूम्भेऽप्यात्रेयनाम्ना तत्र॒ निर्देशो
१6160 अतपर
5110818.706 7 #06 6911, छा 88 166) 1४66 कुरुकुछाया उपदेशनोल्छेखेन तान्िकः राक्यभिक्षनागाज्ञुनः शार-
110 806191६5, वाहनसामयिक इति सिध्यति । हुयन्‌-सङ्गो हि बोधिसच्वतया धातु-
6. ताश्णपत्‌ ग [ता [शतलपा€, त्र, तर, 60 ग दविद्वत्तया च शाक्वाहनसरासयिक नागाज्ुनसुदिखति। नागाजुनेन
10. 1441 45. राख्याहनाय रसायनगुरिकोपधस्य प्रद्ानमपीतिवृन्ते ङभ्यते ।
२, नागाजैननामानोऽनेके विदांसःप्राक्तना उपलभ्यन्ते । नागा- नागाजुनेन स्वसुहदे शातवाहनाय रलेकावस्याः प्रदानस्य “समति.
जनरचनारूपेणोपलब्धेषु वक्षपुर-योगद्चतक-तत्वप्रकादादिषु बहुष क्रामति च कियत्यपि काटे तामेकावरीं तस्मान्नागराजान्नागाज्जुनो
गन्थेषु कक्षपुटदिकोतुकमन्धानां प्रणेता सिद्धनागाज्जैन इति विदेष- नाम“ ` "लेभे च, त्रिससुद्राधिपतये ` शातवाहनाय नयेन्राय सुहृदे
नाम्ना व्यवहियते । वे्कविषये योगरातकं नाम प्राप्तप्रकाङ्मेव, स ददौ ताम्‌?” इति हर्षचरिते (उ. ८ ) बाणभट्टस्य ङेखनादप्ये-
यस्य॒तिन्बतभाषायामप्यनुवाद उपलभ्यते । नागाज्जनीय एवान्यः तयोः समकारसौहारदं प्रतीयतते। ततश्च सातवाहनसामयिको नागाज्ञैनौ
शचित्तानन्दपटीयसतीः' नाम ताडपत्रीयः संस्छृतवैचकथन्थस्थतिन्यत- बोधिसच्वस्थानीयो महाविद्वस्तन््रविधानिपुणो रसायनेऽपि प्रसिद्धो
मदेन गीममे वतेते इति श्रूयते । तन्त्रसंवबकितवोद्धाध्यात्मविषये वैफेऽपरि विद्यनासीदिति निश्चीयते । तेन च तन्त्रसंबङितबौद्धाध्या-
तच्चप्रकाराः; परमरहस्यसखासिसंबोधिः, समयमसुद्रा एवमादयः । त्मग्न्धास्तत्वप्रकाद्चादयोऽस्येव तान्तिकबोधिसखनागाजुंनस्य भवितु-
केवरुवौद्धादरनिकविषये माध्यमिकवृत्तिः, तर्कीशाखम्‌ , उपायहृदयमेव- मर्हन्ति । पारल्िपुत्रे शिरखापटय्के उत्कीणी “नागाज्ञेनेन छिखिता
मादयौ अन्था दृदयन्ते । एषां प्रस्थानविरेषमन्थानां निमाता नागा- स्तम्भे पाटहिपुत्रके” इति वृन्देन चक्रपाणिना च छिखिता नागां
जनो विभिन्न एको वेत्ति विचारणीयं भवति । तत्र-अष्टमश्चताग्यां नीयास्तत्तद्रोगप्रतीकारका ओषधयो गविदेषा अप्यस्येव नागाञ्चैनस्य
मारते पय॑टितुमागतः अल्वेरनीनामको यात्रिकः स्वस्माच्छतवषपूं भवेयुः । सप्तमरताब्दीसमयं निर्दिशन्‌ अल्वेरनीटेखस्तु इयन्‌सङ्ग- `
रसायनविचानिपुणो बोधिसच्ोऽतीव प्रसिद्धो नागाजननामा विद्वान्‌ ङेखादपि प्रतिहततया तदुक्तनागाज्जैनान्तरस्यानुपर्म्भेन च आनु-
वभूयेति निरूपयति । सप्तमद्यतान्यां मारतसुपागतो द्ययन्‌सङ्गनामा श्रविकं काल्पनिक समयस्य ज्ञातवाहनसामयिकमेव नगाजँनम-
चेनिकयात्रिकः `स्वस्मात्‌ सप्ताष्टलताब्दीपुवंतनः रान्तिदेवाश्वधोषा- भि्रैतीति प्रत्तिमात्ति । तान्िकविषयासंसृष्ा केवरुमध्यात्मम्रधाना
दिवत्‌ प्रसिद्धतरो बौद्धविद्वान्‌ बोधिः पाषाणमपि रसायनेन प्रौढा माध्यभिकटम्तौ उपायहृदये ( च्छयानुवादरूपेण प्रकारिते) च
वण विदधानो नागान; शातवाहनभित्रं बभूवेति वयति । राज- केखरौली दृदयमाना तान्तरिकनागालनाद्विभिन्नस्यैव नागाज्ञुनस्य
तरङ्गिणीकारो बुद्धाविमावात्‌ साध॑डरातवर्पौत्तर नागाजजैनो नाम महा- कृतिमवबोधयति । उपायहृदये दशेनान्तरविषयखस्वनाप्रसङ्गे भेषन्य-
विद्वानभूदित्युछ्ठिखति । तदेवमनेकधा विभेदेन ज्ञायमानाः समयाः विद्यायाः प्रधानविषयरूपेण षण्णां मैषज्यधर्माणां केवलं साधारणनाम-
संवादकान्तरसाहाय्येनान्यतरस्यैव प्रामाण्यमथवा नागाज्ञीनानामैव मतरेणोद्ृद्ननाद्धातुरसायनविषयाणां रेरातोऽप्यसखस्ननेनं चास्योपाय-
विभेदंमनभ्युपगम्य नेकस्मिन्नागाचैने संगम्यन्ते । शार्वाहुनाय हृदयस्य माध्यमिकवृन्तेश्च निमाता महायानपथम्रतिष्ठापको दारोनिक .
..
ननि शनो
नागाजञ॑नेन पत्रप्रेषणस्य दृम्तमन्यत्र प्रकारितमेवास्ति । मदीये संयहे आय॑नागाज्जनः प्राचीन इत्यवगम्यते । राजतरङ्गिण्यां निदि
` ताडप्ीयं विज्ञककितं संस्छतभाषानिवद्धमैकं श्राल्वाहनचरितमस्ति । नागाञ्जनस्व॒॒बैौद्धोऽपि सन्नररपतितवेन वण्यते । माध्यमिकादिकतना- `
. तत्र ““दृष्टत्वो बोधिसत्त्वो महासच्वौ महाराजगुरः .श्रीनागाजुना- ` गाजनस्य कुतोऽपि नृपतिभावस्यालामेन विभिन्न एवायं समाननाम
भिधानः ओक्यभिक्षृरजः? इति स्पष्टोल्केखेन बोधिस्स्थानीयः नृपति्ांगाजेन इति भाति ॥
“५ का० उण
२४ उपोद्धातः ।
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० # + ^ 00 0

"ऽस्ति । चरकाचार्यस्य नागा्ज॑नस्य चात्र नामोल्खरेखो नास्ति । निष्पन्नतयेव अकारान्तनिष्पन्नसौश्रुतयब्दस्यात्रोपधागतोकार-


्यरकनाघ्ना प्रधिद्धाथाश्चस्कसंहिताया आधिर्भावोत्तरमस्य नाव- गुणनिच्त्तिनिदर्शनेऽनुपयोगितया हठन्तप्रकृतिकस्यैवास्य तदु-
` नीतकस्य जन्म यद्यभविष्यत्तदा वाग्भटादिप्रन्धेष्विवान्रापि पयोगितया अदन्तान्निप्पन्ने सौश्रुतशब्दे नात्र फर्परैपम्यमपितं
, तथा प्रसिद्धस्याचार्यस्य चरकस्य नास किमिति नोदधरिष्यत । रन्तान्निष्पन्न एवेत्यववोधयितु प्रङ़त्या सह तज्निदर्शनं सार्थ-
तेन चरकसमयादष्यस्य पूरवैत्वं किमिति सन्दिह्यते । बौद्धेन कमाय भवति । एवं ततद्धितेष्वचामादेः ( ७।२११७ ) इति
- निबन्ध वैयकेऽपि प्रसिद्धस्य बौद्धाचार्यस्य नागार्जुनस्य, एव- सूत्रभाष्येऽपि अन्त्योपधाग्रद्धयपवादकस्वेनाऽऽदयचो बृद्धिविधने
- मन्यस्यापि वौद्धाचार्यस्य वैके असिद्धस्य सचे तार्दस्यापिं अदन्ते सुश्वुतरब्दे उपधावरृद्धथप्रसक्त्या तसप्रसङ्गवति हरन्त
नाम किमिति नाम सोपात्तं मेत्‌ । तेन आत्रेयस्य तंहर्ग्याणां सुश्चुतदब्दे एव तज्रिवशंनौचिव्यममुसन्धाय हटन्तग्रकृत्या संह `
` सुश्चुताचायेस्य काश्यपज्ीवकयोरदयोत्तरं नागाञ्खनसमयाद्‌ पू सौश्चुतपदं निर्दिष्टं माप्यकारेण ! एवमुभयन्रादन्तसुश्चुतश्दे
तनोऽयं न्थ इस्यवगमेन तत्राप्युपाच्तस्य सुश्वुतस्य नागाुना- मरकृतिच्वशङ्कानिरासाथं हरन्तग्रकरतेर्पादानायासं कुवन्‌ भाष्य-
दिसमयात्‌ पूर्वभावे इदमप्युपोद्रर्कं भवति ॥ कारः प्रस्युत सौश्रुतश्चब्दस्य अदन्तः सुश्ुतशब्दोऽपि प्रकृतिर-
पंन केवटमार्यनागा्जुनान्नवनीतकारादपि प्राचीनत्वं सु- स्तीति प्रत्याययति ! अत एवं कार्तकौजपादिसूत्रे निर्दिटस्य,
शतस्य, अपितु महामाप्यक्रतः “तद्धितेष्वचामादेः (७.२. सौश्रतपार्थिवज्ञब्दस्यः “गोत्रान्तेवासिमाणवब्राह्मणेपु क्षपे
` ११७); इको गुणन्द्धी ( १. १. ३.) इति सूत्रव्याख्याने “सौ- (९।२।६९)” ९ #
इति सूत्रे
+
निदश्चनीभूतस्य
|
भार्यासौश्चुत्ब्दस्य


श्रुतः इति, “शाकपार्थिवादीनायुपकंल्यानस्‌ ( २, १, १७०)" योगाथं निदुशयतां काशिकापदमंञ्नरीन्यासङृदादीनां सुश्रुतस्य
इति वार्तिके 'ङतपवासाः सीश्रुतः कुतपसौश्रुतः इति निदरौ- छोत्राःसौश्रुताः, सुश्वुतापत्यं सौश्रुतःइति, कचन कस्यचित्सुशरुतो-
` नेन महामाप्यकारहार्तिककारादप्यस्य प्राग्मवत्वं ज्ञायते ¦ चै- ऽपस्यं सौश्चत इति चनिर्व॑चनेन सुश्चुतशाब्दातसुशरुच्छवब्दादवा सौभर
. तावदेव, मगवता पाणिनिनाऽपि “का्तैौजपादयश्च ८ ६. २. तशब्द्स्यनिष्पादनाद्वहोःसमयात्‌ पूषरेभिर्व्यांकरणाचयैरपिसु-
, २७)” इति सूत्रीयगणे 'सौश्चुतपार्थिवाः इति श्ब्दस्योदेरोना- शत सुश्चुत इत्युभावपि शब्दौ सौश्रुतशषब्दग्रङ्तितय स्वीकृतौ तद.
पत्यसम्वन्ध्यादिवोधकप्स्यखान्तेन सौश्रुतदाब्देन प्रदरछनान्न ग्रमाणीकुरुतः । कुतपसौश्रुता इति वात्तिकभाप्यक्ृद्धयां पार्थिव-
केवर सुश्रुतस्य, तर्दश्यस्य तदन्तेवासिनो वा तस्संवन्धिनोऽपि सौश्रुताःदति गणपाक्रृता च निर्दि्टयोः शच्दयोः सुश्रच्छब्दादेव
-पराणिनितोऽपि पूर्वत्वमवगस्यते ॥ सौश्ुतशव्दस्य निप्पत्तिर्नतु सुश्तशब्दादित्यत्र किन्नाम साध-
अत्र महाभाष्यकृता शसुश्रुत-सौश्रुतः इति निदे कमर्‌ १ पाणिनीयोपदेशरूपेणाभ्युपगते गणपाठे -रश्यमाना
हरन्तसुश्रच्छब्दोपादानेन, कातैकौजपादिगणे सौश्ुतशब्दघटि- सब्दाः सवं पाणिनिनेव परिगणिता इति न मे निर्बन्धः, सम-
तशब्दस्य दरशनेऽपि तस्य गणे पश्चासवेक्ञस्यापि सम्भवितया यविशेषेणापि कश्चन शब्दोऽनुमरवेषटं शक्रोति; किन्तु पाणिनेः
पाणिन्युपदिष्टलयानिश्चयेन, भा्यज्कताऽव्याख्यातस्य तत्सूतरस्य सचिहृष्टाभ्यां विवरणकार्भ्यं अाचीनाभ्यां भाव्यवार्चिकारा-
पाणिनीयस्वानवधारणेन, भाष्यरेखतः सुश्रुतस्य वैयकाचार्यवे भ्यामपि सुत्रोदाहरणे मद्धितो गणपाडे उपलभ्यमानः सौश्रत-
. साधकस्य लिङ्गस्यालामेन च महाभाष्यक्रता सूचितोऽयमेव शब्दो न प्राणिनीय दति, विशेषवक्तव्याभवेन मध्ये मध्येऽन्या-
-सुश्चुत इति निधारयितुं न शक्यते दति पश्चाच्यविदुपो वेव- ख्यातानि सूत्राणि माप्येऽनुपादानेनापाणिनीयानीति च सन्दे-
: रमहाङयस्य मतं दश्यते । हनं साहसमेवानुरन्धे । भाप्यङृताऽन्यास्यातानां वह्ुश्ः सूत्रा-
तत्रेदयुच्यते-सुश्रुच्छव्दः
. किप्यत्ययेः सुश्रुतशब्द्‌ः क्तमस्यये निष्पन्नो त्‌ शृतः कर्म्कत्‌ णामपाणिन ीचव्वोक्तौ तत्तदध्यायपाद्‌न्तगतसूत्रगणना वा कथं
कर्मकर इष्यादिङ्राब्दवत्‌ । केवरं ब्रत्ययसेदकरतमांशिक- समन्वीयात्‌ । पाणिनीये कार्तकौजपादिगणे निर्दिष्टानां गणद्घा-
- विशेषमेवावबो धयन्नेकमेवार्थं बोधयितुं शक्रोति । श्वको शुण- व्दानामनुसन्धाने शेखरादिषु सौश्रुतपार्थिवा इति पाटलाभेन
वृद्धी इति सूत्रभाष्ये अन्त्ययोरेवेकारोकारयोर्भुण इति विरेषो- तदुसरणे विभिन्नानां सौश्रुतानां पार्थिवानां च मिथः सम्ब-
. क्त्या अग्नि वायु बभ्रु मण्डु" दत्यादीकारोकारान्तश्चब्दस्थर
एव गुणो, न तूपधागतेकारोकारयोरिति निदर्शयितुं हलन्तशब्द्‌ १. कार्तकौजपादयश्च ( ६. २. २१ ) 1 |
एव म्रस्युदाहरणदानौचिव्येन सुशरुच्छब्दे तदभावावचोधाय (क) सौश्चतपाथेवाः सुश्ुतस्य प्रथोश्च छावाः ( कारिका ) |
सुश्रुत-सौश्रत” इति हरन्तप्रकृतिसुपादाय भाष्यकृता नि- खश्चुतस्य द्याः सौशताः, एथोरदयात्राः पाथिवाः ।
| - - ( न्यासः )
दिष्टं दश्यते । सुशरुच्छब्दादिव सुश्ुतशब्दादपि ` सौश्चुतशब्दो ॥ि
निष्पद्यत पुव । बाभ्र्यमाण्डन्यान्दुयोः केवलं वश्चुमण्डुश- | (ख) गोत्रान्तेवासिमाणवनव्रह्यणेषु क्षिपे (&. २. ६९ )।
. ब्दाभ्यां निष्पन्नतयाऽव्यभिचारेण१ म्रङृतिनिदर्शनस्याप्रयोजन-
4 हि
भायांसौश्चतः सुश्चुतापत्यस्य भार्याप्रधानतयाऽशषैपः
# | (काशिका )।
सष गोतीति सुश्रत्‌ तस्यापत्यं सौश्वुतः (पदमशरी) |
सुश्चुतोऽपत्यं सौश्चत इत्यण्‌ । भार्याप्रधानं सौश्ठतो-
मार्यासीश्चतः; सुश्च॒तस्य भार्याभ्रधानतयेत्यनेन समा-
१. पाशणकृ ग पता त्प्ल एत 60६, 2, 2661.. नाधिकरणेनात्र समास इति दर्दायति । सुश्चुतोऽपत्य-
.| मित्यनेनापि -सौश्ुतस्याऽण््रत्ययान्तत्वम्‌ ( न्यासः )।
॥क |
उपोद्धातः । ३५

न्धोऽवगम्यते । पार्थिवशब्दादपि सौश्रतशब्दस्य पूर्वप्रयोगस्य दिवोदासस्य ब्राह्मणोपनिषदादिषूपरुब्ध्या, दिवोदाखाद्िश्वामि-


दरनेन तदात्वे सौश्चतानां राजभिः संमानन प्रतिष्ठा चासीदिः त्रपुतरेण सुश्रुतेन वेधविद्याया अरहणस्य सुश्चुतसंहितायामुर्छे-
व्यनुमीयते । सौश्रुताः पार्थिवाश्चेति बहुवचनगर्भ॑समास एव खेन, महाभारतेऽपि विश्वाजिनच्रपुदेषु सुश्रतस्य दर्शनेन च शल्य-
सौश्रतपार्थिवा इति निष्पच्या पाणिनिसमयेऽपि वहः सुश्त- प्रस्थानाचायंस्येवास्य सुश्तस्य सस्प्रदायप्रवतंकाचा्यतया
संप्रदायानुयायिनो भिषजो बहुशः पार्थिवः सह संबद्धा आस- प्रविद्धिः पू्खमयादवगम्यते । सुश्रतसंहितायामार्षर्चनायाः
न्निति बहववचनान्तपददानेन प्रत्याय्यते! सुश्रतसंहितासूत्रस्थाने प्रायो दशनं, वौद्धच्छायाया अदनं, धातुरसाद्यौषधानां प्रायो
युक्तसेनीयाध्याये वेदेन सवतो निरीकच्य नृपस्य रक्षणं, स्कन्धा ऽनुपयोगदश्चेनं, लोनकङतवीयंपारा्लयमाकंण्डेयसुभूतिगौतमा-
वारेऽपि साहिव्येन वर्तनं, राक्ञाऽपि के्यस्य संमाननं विशेषतो ख्यानां केषाञ्चिदेव प्राचीनाचार्याणाुज्ञेखः, दिवयोदाससुश्रत-
ङशब्दयोः स्वरग्रक्रियायाञुदाहरणस्योपलम्भश्चास्याचायंस्य प्राची-
विधीयते । सुत्रस्थानोपसंहरेऽप्येतच्छाखं राक्षां महात्मनां भष-
उयायाध्येतव्यमिव्येतद्वि्याविंदां राजभिः सह विरोषसम्बन्धो नव्वमेव ्रगुणयन्ति 1 पुरास्मयात्‌ परितः प्रसिद्धतरतया सर्वेषां
बुद्धाघुपस्थितं शल्यवे्यकाचायमेनं सुश्चतं विह्ययानुपस्थित-
द्योत्यते । “रतं ते राजन्‌ भिषजः सहस्रम्‌, ( ऋकू १, २४. ९ )
इति मन््रलिङ्गादपि पुराकाकदेव राक्षां भिषजां च मिथः संव- स्यान्यस्य कर्पनायां न कोऽपि मानावरूम्ब इति व्याकरणसू-
स्घोऽवगम्यते। महाभारते कौटि लीयेऽपि साङ्प्रासिके प्रसद्ध त्रवातिंकमभाप्यकारेरपि निर्दिष्टोऽयमेव सुश्चुतः पाणिनेरपि पूरवै-
विशेषतः शखचिकित्पाविदां सहभावो निर्दिष्टोऽस्ति । यात्ृया- तनो दिवोदासवदुपनिषत्काख्कि इति निशवेतव्यं भवति ! बर-
तभ्यासितादिसर्वावस्थासुपयोगितया शसाखविमरदघ्र्तिभिः चन्तं प्राचीनमाश्रयं भङ्क्त्वेव न खटुदासितव्यं भवति । उक्तमे
सेनापरिवृढेभूपतिभिः शल्यविद्यानिष्णातानां विश्लेषापे्ता एका- वाभियुक्तै--“भ्यास्यानतो विरोषप्रतिप्तिनं हि सन्देदाद्‌-
न्ततः समुचिता च । सुश्रुतस्य शल्यप्रस्थानाचायतया तस्सा- रक्षणम्‌? इति ॥
स््रदायिकानां सौश्रतानामपि पार्थिवेः सह नेदिष्ठं सम्बन्धसुपा- किञ्च अभ्रेयपुराणे ( अ, २७९-२९२ ) नराश्वगवायुर्वेद्‌-
दाय प्रचरितः “सौश्रतपार्थिवाःः इति शब्दः पाणिनिना प्रवे जिज्ञासया प्च्छुते सुश्रताय धन्वन्तरिणा तस्योपदेशनस्योल्ञ
शितो दश्यमानस्तदत्वि न केवरं सुश्चुतस्य, अपितु तद्नुया- खद्द्ेनेन धन्वन्तरिरिव तदन्तेवासी सुश्र॒तोऽपि नरायुरवेदवद्र-
यिनां सौश्रतानां शखत्रेयानामपि पूर्वतः भ्रसिर्दि, बाहुल्येन वाश्वायुर्वेदयोरपि विक्ञाता प्रतीयते । सोऽयमघ्रेयोक्तः सुश्रुतो
राजङुरे प्रचारं चावगमयति । कालिकाद्नुसरेण 'सौश्रुतपा- ऽपि धन्वन्तरिसाहचर्यात््‌ सुश्रतसंहिताया निबन्धेव स्यात्‌ ।
धवाः इति पाठान्तरोपाद्‌ाने सौश्रुतानां राजभिः सह सम्बन्ध एकस्यापि बहुषु धिचाप्रश्थानेषु चिन्ञातृत्वं बहशो इश्यते ।
एतत्पदान्नावघुभ्यत इत्यन्यदेतत्‌, परं सौश्चुतानां भसिद्धिरभ्य- द्ारििचमन्थे प्रष्टमावेन सुश्चतस्य नाभनिर्देश्च उपरभ्यते ।
हितखं चास्मादपि (शब्दात्‌ प्रतीयत एव । व्याकरणरेखतः अश्वशाखभ्रवतकस्य श्ाङिदोच्रस्य विषये श्रीयुतगिरीन्द्रनाथ-
सश्चतो वे्यकाचायं इति विशेषतः परच्छेदारमेऽपि “सुश्रु महोदयेर्विरोषतो निरूपितमस्ति 1 कल्िकातामुद्वितजयदृत्तीया-
तस्य द्राः सुश्रताः” इति सौश्रतकब्दयो गाथं कण्ठतो दौ- श्रचिफित्सितभूमिकायामपि किञ्चिदस्ति । विदोषान्तरं तत-
यतः प्राचीनवेयाकरणस्य काशिकाङ्तस्तद्विवरणकतुन्यासका- एवावसेयसर । शाटिहोत्र्रम्थस्य कियताऽप्यंशेन तत्र तत्र
रस्यापि रेखतः स मूरभूतः सुश्रुतो न साधारणं व्यक्स्यन्तर- पुस्तकालये उपलम्भः श्रयते । मया तस्यादशेनेऽपि पूर्वनिर्दिष्
मपि तु विद्यासम्प्रदायप्रवतेनद्वारा सौश्रुतानामाचायंभूत आसी हेमादरेरछत्तणप्रकारोऽश्चप्रकरणे शालिदोच्रीयश्वशाखवचनानि का-
दिति तु स्पष्टमवगम्यते \ शइाट्याचायमेनं सुश्रतं विहाय विद्या- निचिदुद्धतानि दृश्यन्ते । `तत्र सुश्ुतमिन्रजिद्धान्धारादिभि
संप्रदायम्रवतंकस्यान्यस्य सुश्चुतस्य न काप्युपरम्भोऽस्ति। भिष- पुत्रैः, गगादिभिः शिष्यश्च पृष्टेन शारिदहोत्राचायंणाश्वविषयाणा-
गाचार्यस्य सुश्रतस्य नागाज्ैनेनोपायहृदये, वाग्भटनावनीतक- मुपदेशने, ग्र्टतया शाखिहोत्रपुत्रस्वेन सुश्रुतस्योज्ञेखश्च दश्यते ।
ञवरसमुचयादिरे्ेषु, जयव्म॑शिरारेखेऽपि कीर्तिततया, एत- िष्यस्याप्यन्यत्न कचन अन्थान्तरे पुत्ररूपेण निर्देशो दश्येत
दीयम्रन्थस्येव आरबादिदेरोऽप्यनुवादेन, हरिवंशरेखसंवादिनो नाम, परमत्र-“पुत्राः शिष्याश्च पृच्छन्ति विनयेन महायु-
निम्‌ 1" इति पुत्राणां शिष्याणां च परथडनिरदशदश्चनेन, सुश्च॒त-. `
१. युक्तसेनस्य नृपतेः परानभिजिगीषतः ।
सिपजा रक्षणं कायं यथा तदुपदेश्ष्यते ॥
स्यानेकवारं पुत्रवेनेव स्पष्टसृज्ञेखेन च शाङिदोत्रेणाश्वराखमर-
पदिष्ट एष सुश्रुतः शाङिहोत्रस्य पुत्र एवेस्यवधायते । सुश्रुतसं
चिन्तयेन्नृपतिं व्यः श्रेयांसीच्छन्विचक्षणः ।
वेचो ध्वज इवाभाति चृपतद्वि यपृजितः ॥ 14190 परोण्धं००््‌ वृप्मपट्यु रण्‌ वा 2. 47
( सश्चते खत. अ. ३४) सालिहोत्ररषिश्रेष्ठं सुश्चतः परिपृच्छति ।
२, दमं विधि योऽतुमतं महुयुनेनेपषिमुख्यस्य परेद्धि यलतः। एवं पृष्टस्तु पुत्रेण ्ाङिदोत्रोऽभ्यमाषत ॥
स भूमिपाराय विधातुमौषधं महात्मनां चाह॑ति खरिसन्तमः। -शारिदोत्रमृच्छन्त पुत्राः सुशतसङ्गताः । = ` ‰ `~
| (सुश्च. ख, अ. ४६) व्याख्यातं शारिदत्रेण पुत्राय परि्च्छिते॥ = `` ~"
` ३. महाभारते उदोगे १५९।१५२ अध्याययोः, मीष्मपवंणि मि्रजित्परयुखाः पुत्रा भूयः पितरमन्रुवन्‌ । ॥
१२० अध्यायेच) ` | | द्ालिद्यो्रः सुतं ग्राहः हयानां स्वरलक्षणम्‌ ॥ ।
४. कौटिलीय साढथ्रामिकाधिकरणे अ, १०। इत्यादि ( शाटिदोत्रीये.)
२६९ उपोद्धातः ।
[9 ~+ न ~." ५... ८ (म, क ५, ~ [त # नि

हिताया शचस्यम्रस्थानाचार्यः सुश्रतस्त॒ विश्वामित्रपुतरस्वेन निर्दि तया निर्दिष्टः शाषिदहोच्रः प्राचीन आचार्यः कीर्यते, शाङिहोच्र-
ऽस्ति । महाभारतरेखादपीदं संवदतीत्यवोचाम } आचीर्य- मन्थे इच्वाछुसगरयेः शाखिहोत्रसकादो म्रश्चस्य निर्देशोऽपि
परिच्छेदे पूर्वनिरदिष्ु शाटिहोत्रोष्ताश्चामिपेकमन्वश्केकेष्वायु भ्राक्तनत्वं दर्थंयति । शाटिदहोच्रस्य न केवर पञ्चतन्त्राद्‌वेवो
वदकत्त णां निर्दैसे आत्रेयस्य तदन्तेवासिनामभिवेश्च हारीतन्तार- ल्रेखोऽपि तु महाभारतेऽपि वनपर्वणि अश्वहृदयधिदौ नरुस्योः
पाणिजोतृकर्यपरास्चरादीनामन्येषां चाचार्याणासुज्ञेख सत्यपि पार्याने तदुरखेखोऽस्ति । तच्राश्चुःखचित्वेन विदोषणात्‌ प्रकर
वन्तरे्दिवोदाखस्य च नोह्धेखोऽस्ति । यदि नाम श्ािहोत्रो- णवसाच्च तन्रोक्िखितः शालिहोच्नः स रएदायमाचायं इति
पदिष्टो धन्वन्तर्युपदिष्टश्च सुश्ुत एक एवाभविष्यत्‌ तद्‌ाऽश्ववे- निश्चीयते । उपरुभ्यमाना शरिदहोत्रसतंहिता शाङिरहोच्रस्येवं
यकाचार्यः श्ािहोत्रस्तदन्तेवासी सुश्रतो वा तादाविकं स्तरेखरूपा, किंवा संस्कारेण रूपान्तरमापन्ना, अथवा तदी-
प्रसिद्धतरमाचायं धम्वन्तरि दिवोदासं च तच्रायुवंदकवृष्ु कथ यसम्प्रदायपरस्परागतोपदेशरूपेति स्वन्यदेतत्‌ , परमश्वश्लाख्रस्य
नाघ्नाऽपि नोदरेखिष्यत्‌ । सुश्चतसंहिताया निबन्धा सुश्रतोऽपि परमाचा्यः शारिः प्राचीनतर इत्यत्र न संशयः । ईशस्य
अश्वशाखविभागीयलेऽपि वंके एकप्रस्थानग्रायत्तया तथाप्रसिद्धं प्राचीनस्य सुनेयंधिष्ठिरभ्रात्रा नखेन स्वम्रन्थे मङ्गलाचरणे
स्वस्य पितरमाचार्य वा क्ञारिहोन्नं किमिति कापि प्रसङ्गनापि आचा्यभवेन संमाननमपि युज्यते, पूर्वापर्न्थसंगमनं चं
न निरदेच्यत्‌ \ आचार्यान्तरवे्यकविषयेरपि सम््रते पश्ास्स- मवति । ईदशं पुरासमयात्‌ प्रसिद्धं प्राचीनमाचा्यं विहाय
म्बद्धे उन्तरतन्तेऽपि सुश्चुतेन सौश्रतेन संस्कत्रां वा किमिति त्रङ्गघोष्ाब्देन जश्वघोषं कल्पयित्वा शारिदहोत्रसुश्रुतयोस्तसपु-
तन्नाम नोद्िखितं स्यात्‌ । तेन श्षाटिदहोच्रस्योपदेश्यः पुतः त्रपीत्रभावकल्पनमितिहासमेव विक्चावयति । अश्वक्ञाखस्य
सुश्रतः, धन्वन्तरेरपदेश्यो विशामित्रपुत्रः सुश्रतश्च विभिन्नौ ग्रथमप्रवतंकः शाङिहोन्नः, स ॒चेदश्वघोषपुत्रस्तहिं कनिष्कोत्तर-
दश्येते । दुंभगणछ्कते सिद्धोपदेशसदुम्रहनाम्केऽवेयकमन्थे- मेवास्य प्रस्थानस्योदयेन भवितन्यं, तथाचाभ्युपगते कौटि रीयेऽ-
श्षारिहोच्ेण गर्गेण सुश्रतेन च भाषितम्‌ । थं खेऽपि अश्वानां श्ाखानि्मांणमाहारकस्पना कुख्जाव्युल्ले
त्व यद्राजिक्लाखस्य तत्सथेमिह संस्थितम्‌ ॥ खश्चैवमादयो वहवः शचालिहोत्रीयविषयाः संरेपेण निर्दिष्टा
इति निर्दयेन सुश्वुतस्याप्यश्चवेयकोपदेषटस्वमायाति, परमा- दृश्यन्ते, अश्वानां चिकित्सका अपि गृहीताः सन्ति, तेषां तत्र
प्ेयपुराणो्तया धन्वन्तरिशिष्यस्य सुश्रुतस्याप्यश्चवेद्यकविचे कुत उद्रमो वक्तव्यः। अश्ोकनृपतिना भारती्सेन्स्यज्युपाद्ाय
नोपरुम्भादेतशनिर्दिष्टः सुश्रतः श्ारिदोन्रीयो धान्वन्तरो वेति स्वदेश इव देक्ान्तरेष्वपि क्लिलाटेखेन भ्रमाणीकतमश्वादिपश-
स्पष्टं न परिच्छिद्यते । अस्तु वा दुरमगणोक्तः सुश्रतः शाङिहो चिकित्साख्यानामुद्धाटनं कं नाम विद्याधारमाश्रयेत । अश्ववो-
व्रगर्गसाहचर्याच्छाखिहोत्रीयः, तदुक्त्या एतदीयोऽपि कश्चनाश्व- घो बुद्धसाम्परदायिकः प्रधानाचायं इति स्पष्टमेव ! शाङिदहोत्रर-
ज्ञाखग्मन्थः श्यात्‌ , परमस्य श्ारिदोत्रपुन्नस्य सुश्रुतस्य ग्रन्थो खेऽश्वामिषेकथ्रकरमे श्रौतानामेव महर्षीणां नामानि, बद्यघोषः,
श्रौतं यत्तविधानं, वाजिनां देवरूपत्वनिर्दशेऽपि श्रौतस्मातंद-
न कोऽपि सख्प्रतसुपरभ्यते, तदीयस्य अन्थस्योल्छेखो वचनः
स्योद्धारोऽपि, फि बहुना नाममान्रमपि गणक्रतग्रन्थं विना वानामेवोरूटेखश्च दृश्यमानः शाटििदहोच्राचायस्य वेदमागाँनु-
नान्यत्राश्चायुवैदीयमन्थेष्वप्युपरुभ्यते । ततस्तस्य सुश्ुतस्य यायित्वमेवं निश्चाययति । शाखिदहोत्रीये रेखे सुश्चुतसंहिताया-
विषये सम्प्रति किमपि वन्तं न शक्यते । धान्वन्तरसुश्चुतस्य तु मपि बौद्धच्छायाया अनुपरूम्मोऽनयोस्धघोषस्य वुद्धाचार्यस्या-
म्न्थोपरुम्भतः, मन्थान्तरनिदेश्तः, आचार्यान्तरो प्महणतः, पत्यत्वं व्याघटयति । अश्वघोपः साकतवचरती, शालिहोत्रः पश्चि-
शिरारेखादयररेखतश्च यथा प्रसिद्धिरस्ति, न तथा तस्य शारि मोत्तरप्रदेशीय इत्यनयोः ग्रदेशविभेदोऽपि विसंवादमेव दश्चंय-
टोच्रपुत्रस्य सुश्वुतस्य प्रसिरद्धिदृश्यते । अतो यत्र सुश्ुतस्य ति) अश्वघोषपुत्रतया करिपितस्य शाछिहोत्रस्य पुत्रेण सुश्चतेन
कीर्तनं तत्र साघधकवाधकान्तरोपलम्भमन्तरा रर्यम्रस्थानाचा- सह शल्यप्रस्थानाचा्यंस्य सुश्रतस्यासेदेऽभ्युपगम्यमाने कनि
यो धान्वन्तरः सुश्रत एव बद्धाबुपतिष्ठते ॥ प्काश्वघोपयोः सामयिकेन नागाज्ञनेन तत्पौत्रत्रथा सम्भावितस्य
` अनयोः सुश्रतयोरक्यं मनसि कृखा शाकिहोत्रखेखतः सुश्रु सुश्चुतस्य सुभरसिद्धमिवक्स्वेनाचायंदशा महिमगानं कथं सम-
तस्य शालिहोत्रपुत्रस्वं नकुखकृतेऽश्चिकित्सिते- येत, नागाज्नेन सुश्रतसंहितायाः संस्करणस्य प्रवादोऽपि
पायाः ख तुरङ्गघोषतनयः श्रीशालिहोत्रो सुनिः। विपर्यस्येत्‌ । हयोः सुश्रतयोरभेदे कनिष्कसामयिकष्वे च सति
इति प्रारम्भपदयरेखदश्ञनेन तरद्धोषरब्देनाश्वघोषभुपा- पाणिनिवार्तिंकभाष्यकाराणां सुश्चतश्छष्दोपादानं किमारम्बन-
दाय शाछिहोच्रश्याश्वधोषपुत्रस्वं च सङ्ग्रभ्य तुरङ्गघोषो हयधो मासादयेत्‌ )तेन न किञचिदेतदिति विरम्यते ॥
सोऽश्चघोषशचेकः, तत्पुत्रः शालिहोत्रः, त्पुत्रः सुश्रत इति कनि
ष्कसामयिकादश्चधोषादपि शटिहोत्रसुश्चुतयोरर्वाग्भावसाधकं समयंअन्ततो विक्रमाब्दारम्भात्‌
सोपपत्तिकं साधयतो हाने पूर्वं षषटशताब्द्यां
( 4. 7, सुश्रुतस्य
एष्वनए
वयुहनकौच्छरूमपि कस्यचिदुदृश्यते । परं नेपारूदेशो परुन्पेऽ्च-
चिकिस्सितस्य पुस्तकद्वये मङ्गराचरणोक्तं तत्पद्यमेव नास्तीति
१. शालिहोत्रोऽथ किन्तु स्याद्धयानां कुर्वित ।
भूरे कुटारः, अस्तु वा तत्पदं, तथाऽपि श्ाषिहोत्रमन्थेऽश्वचि ( वनपवंणि ७२ अध्याये )
|
किस्सितादौ च बरह्मणा इन्द्रेण वा सह सम्बद्धो मूरसंहिताकरतृ-
नाभि
२. कौरिखीये अद्वाध्यक्षुपरकरणे ३० अध्याये, साद्याभिकेऽपि
१ ¶० १२। २७ पृष्ठे हस्त्यदवयोः कुलमाव्युष्लेखोऽर्ति
उपोद्धातः ३७
++ + + + ॥+
व्व
प्ण] ) नामकस्य पाश्चाच्यविहुषो रेखादपि ततोऽनर्वाचची ताया उपक्रमे काशिराजं दिवोद्ासमुपेवानामौपधेनवौरभरपौ
नत्वं सिध्यति । केचन यथावद्निश्चीयमानोऽपि सुश्र॒तस्य करावतकरवीयगोपुररहितसुश्चतम्रश्ठतीनामन्तेवासितया नि-
समय ईरवीयाब्दोपक्रमात्‌ षटशताब्दीपूै एव नतं ततोऽ दशोत्तरम्‌ -
वाचीन इति; अन्ये सुश्चते सक्चविधङ्कष्टनिरूपणं दश्यते, यस्य ओपधेनवमौर्रं सौशतं पौष्करावतम्‌ ।
रोगस्य भारदीगैश्वःनदेशीरैरपि २५०० वरषपू्वं ज्ञानमुपरुन्ध- रेषाणां शल्यतच्राणां सूलान्येतानि निर्दिरोत्‌ ॥
मासीदिति सुश्रतश्योपसाद्ददविसदहखयषंपूवेत्वं सम्भाग्यते इत्यपि इति ओपपरेनवौरघ्रपुष्करावतसुश्रताचार्यप्रणीततन्त्रामि
निर्दिशन्ति । सुश्रुतसंहिताया रेटिनमाषायामनुवादको द्यास- तदीयाथकमरत्ययनन्तेः सोश्रतादिपदेः अदस्य एतेषां सवषु ज्ञल्य-
लर ( प्रछगरः ) नामकः पाश्चाच्यविद्धस्तथा श्रीयुतगिरीन्द्र- तन्त्रेषु प्राधान्यनिदंशेन तन्नि्दिष्टस्य सौश्चुतस्यान्यदीयपूर्वत
नाथम्रुखोपाध्यायोऽपि ईंशवीयान्दारम्मादुपसदहखवषे (8. 0 त्रतवे तन्न्यायेन ओपधेनवादितन्त्राणामपि जौपधेनवायाचार्य
1000 }पूर्वतनः सुश्रुत इति निर्दिशति ॥ तन्त्रभ्यः प्रुथक्त्वेन पूंसिद्धानां वक्तव्यत्वापातात्‌ , कौरिलीयाः
एवंविधेर्विवेचकविंदुषायुपन्यासे्विचारद्छ्या च सुश्रत दिप्राचीनय्न्थेष्वपि स्वीयग्रन्थे स्वीयनामोल्रेखदर्शनस्य भायि
संहितायाः पूर्वो भागोऽन्ततो गत्वाऽपि इतः २६०० वषं- कतया स्वीयसौश्रततन्त्रस्य ओपघेनवादितन्त्राणामिव प्राधा
पूर्वोऽवगम्यते ॥ न्यावबोधाय निर्देश्ौचित्याच, टीकाकारैरर्वाचीननिवन्धकारेशच
सुश्रते पूर्वाचार्येषु निर्दिष्टः सुभूतिगौतमः शाक्यसिंहस्य कचन गृहीतो घृद्धसुश्रुतस्त॒ कतमः, कदा सम्भूतः, कश्चाश्य
शिष्य इति बुद्धोत्तरभावित्वं सुश्चुतस्येति केचिश्चिदशंयन्ति । ग्रन्थः, कस्मिन्परस्थाने तस्याचा्थंत्वमिति सर्वस्यास्य निरीन-
अष्टसाहलिकाश्चतसाहसखादिके बौद्धभरन्थे सुभूतेनाम उपलभ्यते तया पूवोषिष्टं प्रसिद्धं दिवोदासान्तेवासितया सुश्रुतं सुश्रतं
नाम । परं तत्र आयुप्मस्पुभूतिस्थविरसुमूतिशब्दैरेव व्यव- परित्यज्यापरिच्छेचस्य ब्रृदधसुश्चुतस्य शल्यम्रस्थने पूर्वाचार्यत-
हारः कृतोऽस्ति, न तु सुभूतिगौतमस्य तत्रोज्ेखो दश्यते । बौद्ध- साधकं ददं साधनान्तरमपेचयते । उपरूभ्यमानसुश्चतंसंहि
अन्धेषु सुभूतेरध्यात्मविषय एवोज्ञेखोऽस्ति, वै्यविद्याचार्यतवं न तायां क्चनावांचीनविषयग्रतिभासोऽपि संस्करणवशेन प्रति.
कुचरापि निर्दिष्टमिति सुश्ुतोक्तः सुभूतिगौतमो न बौद्धोऽन्य- फक्ितः, कचन पाठमेददोषोऽपीस्यत्र संस्करणप्रकरणे दिग्दर्शनं
एव प्राचीनो वैद्याचायेः। सुभूतिगौतमस्य बौद्धते तमपि पूवां विधास्यते =

. र्य॑नि
चार्यच्छा पश्यतः सुश्रतस्य रेखे वोद्रसंप्रदायच्छायाः कथं वेदिक्यामवस्थायामायनिवासस्थरुस्य परिस्थित्यनुसरिण
नोपरम्येरन्‌ । प्रस्युत अत्रबौद्वच्छयानुपरम्भ वास्य सुभूते विभक्तानां वसखन्तम्रीष्मवर्षाररद्ेमन्तशिशिरास्यानां षण्णाञ्र-
रबौद्धस्वं दठयति । स्थविरसुभूतेर््याकरणथयुपरभ्यते इति नाम- तूनाुल्छेखो बेदिके साहित्ये दश्यते । एषुवे सन्तमन्यं वोप-
साम्यमात्रेण सोऽपि सुभूतिः प्राचीनो बुद्धस्य प्रधानशिष्य इति ऋम्य जात एक छछतुपयांवतेः संवस्सरास्मको भवति, प्राचीन.
वक्तं शक्येत किमु ?॥ परिस्थितौ कल्पितोऽयशरतुविभागः पश्चादप्यनुवत्तंमानो श्वस `
वै्यकटीका्रद्धिः कचिद्विहितस्य वृद्धसुश्चतोक्तवचनोद्धारस्य न्तादिभ्यष्ठक्‌ ( ४. २. ६२ )' इति सूने पाणिनिनाऽपि गृहीतः,
वुशेनेन तदुद्धुतवचनानां वतंमानसुश्रुतसंहितायामनुपरुम्भेन अद्यापि रोके प्रचरति च । सुश्वतसंहिताया ऋतुचर्याध्याये
ओपधेनवमौरभ्रमिति सुश्चतोक्तपये सौश्चतस्य पृथडनिदैरेन च उन्तरायणादिमारभ्य शिर्िरादयो देमन्तान्ताः प्रचटितपरक्नि-
वर्तमानसुश्चतसंहितातः प्रथगेव ब्द्धसुश्चुतस्य सौश्रततन्त्र पूवं यानुरूपाः षडतवः पूरं निर्दिष्टाः, तदनुपद्मेव शीतोष्णवर्षा
मासीदिति कथयितुमपि सुश्रतसंहितायां श्रदधसुश्रुतस्य पूर्वा रूपसमयभेदेनं त्रिदोषाणामुपचयप्रकोपसंरमनावस्थामुपादाय
चार्यव्वेनानिर्दैशात्‌ , महाभारतादावपि विश्वामित्रपुत्र्वेन अस्मिन्समये उपचयम्रकोपौ भजन्नयं दोषोऽस्मिन्समये संशम-
सुश्वुतस्येवोल्ञेखात्‌ , महाभाष्यकारनाचनीतकनागाज्ंनवाग्मट- नीय इति भषञ्यपरक्रियोपयोगि विन्तानाय इह वित्यादिना
उवरसमुचयादिरेखेऽपि सुश्रतनास्नेव निदंशात्‌ , एतदीयवच- दक्तिणायनोपक्रमं विभागान्तरमपि पुनरद॑ितम्‌ । तत्र वर्षाश-
नानामेव तेषु संवादाच, आरब्यादिदृरदेश्ञान्तरेष्वस्येव सुश्च रद्धेमन्तचसन्तयरीष्मप्राव्रडाख्यानां षडतूनामुल्रेखेन प्राथमि.
तस्य संहितया अनुवादात्‌ प्रचाराच्च, कम्बोडियादिगतयङो क्यां म्रञ्धियायां चतुरो मासान्‌ शीतस्य, मासद्वयं वृष्टः श्टिती
वर्म्॑िखटरेघेऽपि सुश्रतस्थेवोद्चेखात्‌ , ्रद्सुश्चतनाश्नोपल- यप्रक्रियायां तु मासद्वयं शीतस्य, चतुरो मासान्‌ प्रष्ठः समय
` इप्रेषु वचनेषु प्राचीनरचनारूपग्रौढेरदर्शनेन, तद्वचनविषयतो इति विज्ञेष आयाति । द्वितीया प्रक्रिया भैषज्यविक्ञानोपयोगा-
ब्ृद्सुश्रतस्य शल्यप्रस्थानाचायस्वानिरधारणात्‌ ; सुश्रुतसंहिं योपात्ता दश्यते । काश्यपीये कऋतविमानमन्स्य खण्डित.
त्वेऽपि जआत्रेयमेडसंहितयोरपि छतुविमाने भैषज्यसंबद्धा ती.
१, ६४१63146 ‰{€01610€ 0; 4101616 11418 1४] यैव प्रक्रिया गृहीताऽस्ति । एवञ्चायुरवदीयपद्तौ भैषग्यदशा
२. त1890ाष 9 1041580 16010106 [न 2, 676. हिमशिक्लिरयोरमेदं भ्राब्रडुषंयोर्विभेदं भजत ऋतुविरेषक्रम- `
©, कच, धप्पागृध्ववकृष् |
३. पाण 0 {1071901 ‰164न0८ ब २. 518 १. यजुवेदे--वक्तन्तेन वना इत्यादि -(२१. २१.२८}
_ 1
(४ ` ॐ. 9 ॐ ९. 578 नवेषु; वसन्तायेति ( २४. २० )मन्त्रेच।
५. विणा्व98] [पशप्रलणौ8 ग प्ल प्तप, ए 6. `. प्ामवेदै--वसन्त इन्नुरन्त्यौ मीष्म इन्तुरन्त्यः।
`
-कप्रप्वागुण्वत
१० 2. 15, वषोण्यचु रारदो हेमन्तरिरिर शन्नुरन्त्यः॥ (६।१३।२)-
२८ उपोद्धातः ।
97 गी
श्य थः पठशपःमः नान्न दनतपटजकत्ेनभको
५ [क क + क 00 0 = [कक त + त + । ५ क न ॥ + 9) [ -- ~+ 0 ^
॥# १0१)

स्याचाररपयरहणमववोधयिषुभ्‌ “दृह तु" इति पदेनायुचदीयं यद्यपि भावयप्रकाशकृता काश्यां दिवोदाससकाशाद्रेयक-


पन्थानयुदिश्य स्वदेक्ञानुरूपो विभागः सुश्रुते दश्वितः। इद्‌- विद्याभ्ययनाय विश्वामित्रेण पुत्रस्य सुश्चुतस्य मनिसूुदतेन
म्परस्यसेवेदश्शब्दस्य केनचिद्धीक कताऽभ्युपगतं च । परं शाख साकं प्रेषणस्य निदयोन, सुश्रतसंहितायासाश्रमस्थं का्षिराजं
विशेषे सा्वदेक्षिकस्येकरूप्येण ऋतुविभागस्य बोधने न सामः दिवोदासमुपेत्य सुश्रतादीनां प्रश्चस्योपदेशरखाभस्योर्रेखनेन चं
्नस्यमायाति । न हि भारतेऽल्यत्र वा सवेत्रेकरूप तुवि- काश्यां कचनाश्रमे सुश्चतस्योपदेशनमपि सम्भवति । परं
भागः देशभेदेन शीतोष्णदशयोर्विभेदादातवलक्षणानि वहुंश तथास्वे इह विति पश्चाज्निर्दिष्टस्य चतमौस्यवृशिदवो देशस्य
भिचन्ते । सिहर (सीखन) प्रदेये प्रायः सव॑दा समया शीतो काश्यामननुकुरूतया, सहाभारतादिगतदिवोदासकथाथं हैह-
ष्णदश्यया समग्रायाः षड़तवो भवन्तीति नेवं भावः सवत्र । येराक्रान्तस्य दिवोदासस्य राज्यञ्र॑शे मरद्ाजाश्रमोपगमस्य
कचन दोरयमतिश्यानं वहुसमयं हृदयमाकम्पयति, कछचनौ राभेन च राज्यश्चंरोन मुन्याश्रमोपगमे, फि वा पूर्ेषां राक्ता
ष्पयमभिचृद्धं बहुकारं सर्व॑तस्तापयति, कचन बु्टिबहुरुतां मन्तिमे वयसि वानम्रस्थचर्याया दर्शनेन वानप्रस्थञ्युपादाय
चहति । मद्रासादिप्रदेलेषु मार्मपौषयोराश्रमञ्चयं उदच्छन्ति, तपोवनोपगमे, वृष्टिसमयप्राचुर्यवति गङ्गाद्रारदक्िण्रदेशे दिवोः
फाल्गुने वचेत्रे तत्परानि पच्यन्ते । यथायथोत्तरीय दासेन सुश्चुतस्योपदेशनं विहितं किरेति सम्भाग्यते! तेन इहं
पर्वतीयः म्रदेश्यस्तथा तथा पश्चाद्धावः। येन नेपारे पावतप्र- लिति आश्चमस्थमिति च समन्वेति । आश्रमस्थलमुपेत्योपदि-
देर वैशासे जाच्रमज्ञर्युदधवः, अन्ततो भाद्रा्चिनयोस्तर्फरानि रातोऽपि दिवोदासस्य पूर्वाधिपव्यञ्रुपादाय सुश्चते कारिराज-
पच्यन्ते । एवमेव शाकपुष्पष्ठटौषथ्यादीनासपि देरभेदेन त्वेन निदृशमपि युज्यते । महाभाष्यकृता शाकपार्थिवादि
-विभिन्नः समयोऽवुभूयते । दैशविन्णेषतः शीतोष्णजल्वायव्‌ा- ( २. ३. ७० > गणोदाहरणे कुतपवासाः सौश्र॑तः कुतपसोश्रतः”
दीनां परिद्त्या यत्र यारश्चौ परिस्थितिस्तद्‌नुसरेणव गुणागु- इति निदश्यं सुश्चतसम्बन्धिनां सौश्रतानां कम्बरूपकुतप-
णान्‌ विक्ताय भिषग्भिः प्रवतेनीयं भवति । तेन “इह तु” प्राधान्योर्रेखनेन सौश्चुतानामपि हिमवदविभ्रकरष्टदेशवासिस्वं
इस्यनेन तदुपदेशस्थर्मववो घयितु युज्यते । पूचप्रचकितां पद्र- सायते । म्रचण्डगीप्मोप्मणा सर्ज॑नकपाटायितायः वारणस्यां
तिमादयै निर्दिश्य इदिति उपदेस्थट्विशेषे प्राचइुपारूप- वसतः कुतपप्राधान्यवादे न नामकिमपि यौक्तिरूमालस्बनं भवेच्‌
बृष्टिसमयद्रैगुण्यम्रदश्चनेन शीतसमयस्य द्वैमासिकत्वं वषांसम- अव्रैवस्रतुविभागद्वयोल्टेखो गणितभ्रक्रियया संहितानिर्मा
यस्य चातर्मास्यत्वं त्र बोध्यते इस्येवाचगन्तुं युज्यते । स्थानसे- णस्य संस्करणस्य च १५०० वर्पान्तरितिं काटभेदं व्यनक्तीति
देन वर्पासमयस्य तारतम्यमप्यनुभूयत एव । भारतेऽपि श्रीयुत्तस्य एकेन्द्रनाथघोपमहाश्चयस्य विचारविदोषो दृश्यते ।
ीष्मान्ते वङ्घेपसागरस्य आरन्योपसागरस्य वा जरं निपीय पूर्वोपदर्ितरीत्या बहुपुरुषानन्तरितानां धन्वन्तरिदिवीदास-
प्रस्थितो जरूदो वायवीयां गतिमनुगच्छुस्तत्तसदेशेषु क्रमश्च सुश्चतानां तु नैतावत्छमयान्तरारं सम्भवति ।सुश्रताजुयायिना
वर्षन्‌ स्वीययात्रायां हिमाद्रेरन्येपां वोचगिरीणां शिखरः प्रति- सौश्च॒तेनान्येन वा केनचिवश्चास्छंस्करणे इदं संभवति । परसुन्त-
सुद्धपराष्गतिश्िरापु्ञ्यादिप्रदेरोष्विव स्थाने स्थाने चिरं बहुल रतभ्त्रसंहिताया वतसानसुश्वसंहिदष्या एव सप्तमा्टमन्-
तया च जं वर्षंति । अथा यथा तथाभावः तथा तथा बृष्टि ताव्योः आरव्यादिद्िखान्तरेप्वप्यनृदिततया, कम्बो डियागत-
समयस्य बह्स्यभुपजायते इति प्राङृतिकपरिस्थिव्यनुरूपो यज्लोवर्मशिररेखेऽप्युर्टेखेन तावद्‌ दूरुदेशचान्तरेष्दपि भ्रचरि
वैक्ानिकानां सिद्धान्तः) सौश्रुते तच्रतये भेषज्यानुकूरे छतु- काटविशेषस्याप्यपेत्तिततया, वाग्मरञ्वरसयुच्चयादिरेचेष्व-
विभागे वर्षाप्रावृषोः स्वरूपयिदेपः पथ्या प्रदर्श्यते काष्ीप्रदेशे प्युत्तरतन्त्रसहिताया एवास्याः संवादेन च नागार्युनविदहित-
तु वर्षासमयस्य दैयुण्याभावेन वर्षाप्राच्डघरितो द्वितीयो विभा. संस्कारप्रयादभ्युपगमेनापि संस्कारनिप्पज्ञेतस्स्वरूपस्थिते
गोऽननुक्रलतं वहन्‌ इति तदनुरूपमेव प्रदेशान्तरं दर्ह॑यद- रन्ततो गत्वा सक्चदषा्टादशाखतवरप॑पूवैद्वनिश्वयेन तदुपरिगणि-
वगमयति । सुश्रुतयीकायां काश्यपवचनववेन निर्दि्टाभ्यां-- तप्रक्रियागतपच्नदशशतवर्पयोजने मूरसंहिताया द्वात्रिरशच्छत-
५भूयो वषति पञजंन्यो गङ्धाया दर्तिणे जरम्‌ । वपंप्राग्भावं आयाति ॥
तेन प्राधृषवर्षास्यौ तू तेषां प्रकलिपितौ ॥ धन्वन्तरेर्दिबोदासस्य, वार्योविदंस्य वामकसयापि काश्ची
पतित्वेन निर्देशादीच्शेवंहुभिवे्याचयें राजर्षिभिः काश्यां पुरा-
गङ्गाया उत्तरे कूरे हिमवद्धिमसङ्करे ।
भूथः शीतमतस्तेषां हेमन्तशिशिरा्तू ॥ १. विश्वामित्रो सुनिस्तेषु पुत्रं सश्चतसु्तवान्‌ ।
इति शछोकाभ्यां गङ्गाया उत्तरतो हिमाख्यपरिसरप्रदेे हि वत्स ! वाराणसीं गच्ड्‌ त्व विश्व्॑यपबहमाम्‌ ॥
मशिलचिर्शोः, गङ्ाया दक्तिणतः श्रदेशे प्रावृडवर्षयोः परिस्थितिः तत्र नाम्ना द्विवोदासः कारिसाजोऽस्ति बाहुजः ।
बध्यते । अत्र गङ्गापदेन वाराणसेयगङ्गोपादाने तु तदरक्ञिणोन्तर- स हि धन्वन्तरिः साक्षादायुवंदविदां वरः ॥
योरेवं विभेद्स्य दुर्वचतया तत्र गङ्गापदेन गङ्गाद्वारादुपरिवर्तिनीं पितुवेचनमाकण्ये सुश्चुतः कारिकां गतः ।
गङ्गामादाय तत उत्तरतो हिमसमयद्वगुण्यं, तदक्तिणद्कभागे तेन साधं समध्येतुं मुनिख्ल रतंययौ ॥ ८ भावप्रकाशे )
` च्ृषिसमथदरेगुण्यं प्रदर्ितं सम्भवति । एततसमानन्यायेन इह- २. 1007190 प्र7840ण००्‌/ (पण्णा रण्‌ ए ९. 55
लिति निदिं बुटिखमयद्वरुण्योपरुक्चितं स्थरं गङ्गादक्तिणवि ३. काश्यसंहितायां ( ३३ ) एृ्े-“कारिराजं महायुमिः इति ॥
भागीयं स्थानं स्यादिति सम्भाव्यते ॥ ४. चरके “काशीपतिरवामकः” इति ( सत्र, अ. २५) ॥
उपोद्धातः ।
[भि
8
व~ ३९
काटे वे्यवि्यायाः प्रतिष्ठापनमवगम्यते ।बुद्धकालिकस्य काशी- रात्रेयश्च आचायां अवगम्यन्ते । अन्येऽप्यनेक्ते अग्रिपरम्परागता-
युवराजस्य ब्रह्मदत्तस्यायुर्वेदविद्याभ्ययनाय तक्तशिलागमनस्यआचायां भवेः । यथा कश्यपपरस्परायां - मारीचशब्दैन
जातकन्थे निरदैशोपरम्भेन पूर्वंपरम्परानुब्नामायुर्वेदविदयां विशेषितः कश्यपः कौमारशर्यसंहितायाम्‌, एवमेवान्रेयपरस्प-
रितं काशिराजङरे चिरकार्मनुरागोऽवगम्यते । ओौपधेन- रायां पुनवंसुनाप्ना विजञेपित आत्रेयः अभिवेशादीनाभ
वौरभ्रसौश्चतपौष्करावतानां चतुर्णा सुश्रुते समप्राघान्यनिर्देशेन कश्रकसंहितामूलोपदेशक आचार्यः । स एवायं सुनवसुरुपदेश-
पूर्वपुरषीयं सौश्ुतमौपधेनवादिक्ं वा कतमन्तन्त्र तत्र प्रसृतमा- अन्द्रभागाया मात॒नास्ना चरके “यथाप्रक्षं भगवता ात्रेय-
्याहृतं
सीदिति विशेषोस्रेखानुपटम्मेऽपि नगारनमाष्यकारादिभिः चान्दरभागिना ” (स्‌. १३) इति, भडसंहिता्यां “सुश्रोता
सुश्रुतसौश्रुतानं विशेषतो ग्रहणेन ओौपधेनवादीनां नाश्नाप्य- नाम मघावी चान्द्रूभागसुवाच ह” ( घ. ३९
) इति चान्द्र-
निदेशेन च सौश्रुतः सम्प्रदायः पश्चिमदिग्मागेऽपि विशेषतः भागः चान्द्रभागी भुनवसुरित्यपि भ्यवहृतो दश्यते । चरके
पूरवप्रदेरो प्रचित आसीदिव्युहितुं शक्यते । पश्िमग्रदेशे काय- त्रिवेनाष्टौ ससुदिष्टाः कृष्णात्रेयेण धीमता ( सूत्र. अ. ११ )
चिकिर्साप्रस्थानं, काश्यादिपूरवधदेशेषु सौश्रुतं शस्यप्रस्थाने इति एकद्वस्थाने, मेडसंहितायामपि “छष्णात्रेयं पुरस्य कथौ-
प्रचङक्ितिमासीदिति तं नियन्त नैव शक्यते । काशिस्थधन्वन्त- धकुेह पयः” इति कचन दरषणात्रयनान्ना व्यवहारस्य दर्शनेन
रिसम्प्रदायेऽप्यष्टम्रस्थानोल्छेखो दश्यते । ““विधिधानि शाखाणि पुनवसुरात्रेय एव छष्णात्रेयशव्दैनापि व्यवहियते इत्यपि
भिषजां प्रचरन्ति रोके" ( च.विं. अ. ८) दस्यातरेयोऽपि सर्वतो केषाञ्चिन्मतम्‌ । अपरे तु प्रीकण्ठदत्तशिवदासादिभिः कष्णा-
नानाविधभेषज्यविच्यायाः प्रचारं सखञुखेनोद्धिरति । चरक- तेयनाघ्ना शारक्यविषयकवचनान्तराणामुल्छेखेन ` आत्रेयपुन-
संहितारेखात्पाञ्चारकास्पिल्यादिषु, मेडरेखाद्वान्धारेषु, काश्य- वंसोरन्य एव कृष्णात्रेय इत्यपि वदन्ति । चरकसंहितायामा-
पटेखाद्वङ्गाद्वारकनखलादिष्वायुर्वैदविचोपदेश्चस्य दर्शनेन तत्रापि दितोऽन्तपरयन्तमात्रेयनाश्नाऽञतरेयपुनर्वसुनान्ना वा भ्रायो व्यव-
सा विद्या प्रतिष्ठिता दश्यते । तेन गान्धारादारभ्य, न केवरं हरणेन, मेडसंहितायामपिं पुनर्वसुनाश्चाऽऽतरेयस्य म्यवहरणस्य
गान्धारादपिं तु बार्हीकभिषजः काङ्कायनस्यापि तदाखे उप. म्रायिकतया, आत्रेयपरस्परायां वं्त॑मानस्य छ्ष्णात्रेयना्न आचा-
रम्भेन बार्हीकात्‌ काशीपर्यन्तं पश्चिमोत्तरपरदेशेषु भेषज्य- यन्तरस्यापि मतसुपादाय कचन तन्निदैशनस्य चरकभेड-
विद्यायाः ग्रचारः समुन्नतिश्च पूवेमासीदिव्यनुमातुं शक्यते ।
संहि
हेतयोः समस्भवितया, कष्णात्रेयराब्दयोरेकछत् सहमयोगस्या-
-परं काशीयुवराजेन ब्रह्मदत्तेन तत्तशिरां गत्वा वेधविद्याया- जुपरम्भेन च छ्रम्णात्रेयः पुनर्व॑सुरत्रेयश्च विभिन्रावाचायौं
अध्यधनस्य जातकमन्थात्‌ , मगधाश्चिर्मतेन बुद्सामभ्रिकेन | -इत्यपि वक्तुं शक्यते ॥
जीवकेन सनच्निक्रष्टं काशीमुपेच्य तक्तशिखाद्युपेस्य भेषञ्यवियायां | चरकसंहितायामात्रेयपुनर्वसुना वार्योविदस्य तस्सहभाविनो.
विशञेषवेदु्यस्य संपादनस्य, ततोऽधीस्य निधत्तेन तेन जीवकेन -मारीचिकश्यपस्य च पूर्वाचार्यंदशा उल्छेखनस्य पूवरिर्दिष्टतया
विदां रुन्भ्वा राजपदस्थस्य बद्यदत्तस्य समये कस्यचिच्छेष्टि- मारीचकश्यपादुत्तरभावी, चरकसंहितागतेनोल्खेखेन काम्पिल्य
पुत्रस्योदरं विदार्य काश्यां शसखचिकि्सयोज्ञाघनस्य, अन्येषा- राजधान्यां पाञ्चारप्रदेशे बतंमानः पुनर्वसुरात्रेय आचार्य.
मपि बहुशो रोगिणां तच्र तच्र शखचिकिव्सया कायचिकित्सया द्स्यवगम्यते ॥ एवमस्यां काश्यपसंहितायां पाद्चतुष्कवर्णने-
च जीवकस्य ख्यातेश्च महावग्गरेखतोऽवगमेन, जातकम्नन्थेभ्यो अस्य पाद्चदुष्कस्य मन्यन्ते श्रष्ठमातुरम्‌ । `
देशदेशान्तरतोऽप्यधिजिगसिषृणां तत्रोपगमघ्र्तोपरुम्मेन च तदथं गुणवन्तो हि त्रयः पादा इैष्सिताः !
विधयान्तराणामिव भैषग्यविद्यायाः कारुकरमेण जुद्धसभिह््टसमये नेति प्रजापतिः राह भिषडमूटं चिकिस्सितम्‌ ॥
. काश्यपेक्तया शस्यप्रस्थानीयविद्याया अपि तक्तशिरादिषु |
विन्तानगौरवं मतीयते । काश्यां पश्चात्‌ समये समये राज्योप- (ष. २८-३९)
इति केवरं चकुष्पादकरीर्तनं, तद्पि संक्ि्षठेतेन, चरक-
"छवस्येतिहासतोऽप्यवगमेन समयवशाद्धासः, आचार्यविरोषेश्च- संहितायां खुङ्ाकचतष्पाद्ाध्याये तेषां चतुष्पदानां चातुरगण्
येन
चांबाहुस्येन तक्तशिरादिष्वतिशयस्याधानमपि सम्भवति । षोडशाकरूतयोपल्रंहणम, उत्तरत्र महाचतुष्पादाध्यायेऽपि तस्मैव
अन्ततो गत्वा अशोकनृपसमये स्वदेश्च इव विदेशपर्यन्तमपि -विरोषविवरणं वरण्यमानमपि कश्यपात्रेययोः पौर्वापर्यमवगम-
` चिकित्साख्यादीनामुद्धाटनेनेयं सैषज्यविद्या दूरदूरं प्रससार च। -थन्‌ कश्यपसमयादात्रेयसमये उत्तरभाविनि कमम्ाप्तं विचार
परं तारे विद्यापीठे तच्षशिरादिपरिसरमप्रदेरोऽपि पश्वात्समया- विकासमवबोधयति ॥ |
न्तरे विद्याहयासमुपजगाम । तत्रापीतिहदासरभ्येन राज्यविष्वा-

दिनेव हेतना भवितव्यम्‌ । तथैव बुद्धसमये तकशिरापेकया
1 क , एवं रोगनिरदशे काश्यपी संरिसक्रियया रोगविभागस्तद्‌
काश्यां तस्था विद्याया हास इवानुभूयते ॥
जुबद्धा विषयाश्चेकेनेव सप्तविंरतितमाध्यायेन निर्दि्ाः सन्ति,
आत्रेयीये तु तद्विषये चस्वारोऽध्यायाः, तत्र॒ महारोगाध्याये
“न्द्र ऋषिभ्यश्चतुर्भ्यः काश्यपवसिष्टानिश्रगुम्यस्ते पुत्रेभ्यः एकरिमिन्नेव काश्यपीयोक्तविषयसंवादिनो विषयाः सन्ति, त-
शिष्येभ्यश्च प्रददुर्हितार्थम्‌" इति (रू. ६१ ) पूर्वतने कियन्तःशिरसीयादिकेऽध्यायत्रये विशेषान्तरनिर्दैशोवि- `
आयः कार्यपसंहितायां पू॑संप्रमयोस्खेखेन आयुर्वेद कासदशयुन्मीरु्यति । एवमनुसन्धाने बहुलो निदशनानि `
विदयायामत्रेरप्यन्यतमःसंग्रदायः ग्रवृत्तोऽवगम्यते । दृश्येरन्‌ ॥ ` | "~ '
यत्र गोत्रनाज्ना आत्रेयास्या भिष्षुरात्रेयः, कृष्णात्रेयः, पुनर्वसु. न केवरं .कश्यपात्रेययोः पौर्वापर्यमात्रमपि तु चक्कसंहि.
© उपोद्धातः ।
भ नी 1 7) = न जन ज ज जन न
जि ५

तार्या पूरवोपदर्भिते ग्मावक्रान्तिविषयकनानामतोपवणने %विप्र- तिप्तभेनोर्खेदधेऽपि नेपामेतावतेव समकाटकत्वं क्पयितं


तिपत्तिवादासूवन्र बहुविधाः सूत्रकारिणाूषीणां सन्ति” इति शक्यते । अतीताचायविषयानपि पुरःस्थपुस्तकादिगतान्‌


कुमारशिरोभरदाजकाङ्कायनभद्रकाप् यभद्रश
नकवडिशव ौ बुद्धावाकखय्य परस्परं चधिसंस्देण सेखनस्यापिं प्राचीना
ेदे हन-
नकथधन्वन्तयाचायः सह मारीचकश्यपस्यापि सूत्रकारिणासूषी- ओैखी । तेनेतरा्चार्याणामेकतो नाममतोर्रेखमान्रं न समस-
णाभितिपदेन सूचकत्वं सुखेन निर्दिश्य सनामम्राहं मतोर्रे- मयकव्वं साधयति । यत्र तु योराचार्ययोग्रम्धेषु भिथो नामो.
सेन एषां महर्षीणां अ्रन्था अपि अत्रेयपुनवंसुना दृष्टा अवगता. . ल्खेखो मतनिदेशयो चा पश्चात्तनस्य पूरेण निर्देश्षाखस्मवेन तथा-
रेति स्पष्टं सामेन आच्रेयपुनर्वसोभन्थनिर्माणात्‌ पूवमेव मारी- भावे जीवकवर्स्थ दि =+ 1. दै स्छथसते पूर्वोतरयोर-
चकश्यपीयो मन्थः प्रसिद्ध भसीदिष्यपि विशदीभवति ॥ प्याचायंयोर्मिथो गन्थेषु नाममतनिर्दे्ं विधाय पश्चाच्तनैः
चरकसंहितायां महाचतुष्पादाध्याये “प्रतिकुर्वन्‌ सिध्यति संस्करणमपि संभवति । किंवा त्योरेवाचाययोः समसमयक-
रतिङकर्बन्प्रियते अप्रतिङुवन्‌ सिध्यति अग्रतिङ्कवैन्प्रियते तस्मा- तया स्वयमेव मिथो नामादिनिदेश्चनमपि युज्यते, इतीदशषु
उेषजममेषजेनाविरिष्टम्‌ः इति मेत्रेयमतमननुकूकं निर्दिश्य पश्चास्रतिसंस्करतेषु ग्रन्थेषु मिथो नासथहव्यदिनः पवय सम-
तत्खण्डनपरतया “मिथ्या चिन्त्यत इत्यात्रेयः", इत्यात्रेयसि- समयकत्वं चेति सूच्मया दशा साधनान्तरेविवेचनीयं भवति ॥
द्वान्तोरर्खेन मेडसंहितायां चतुष्ादाध्याये अग्रतिङ्वंतोऽपि तिव्वतीयोपकथायां तत्तक्षिखास्थिताद्‌त्रेयाज्जीवकस्याध्य-
सिद्धि वदतो मतं खण्डयत आत्रेयस्य सक्शब्दसंवादं सनामग्राहं यनोल्खेखोपलम्मेन बुद्धकारीनजीवकस्य गुरूर चेय एव पुनर्व-
सिद्धान्तस्य प्रदर्शनेन चरकसंहितायां भरद्राजाज्ञन्धं चिकि. सुरात्रेय इति सचस्वा चरूसंहिद। सख (चर्यस्य ६; व॑ सदरेयस्यस
स्साविन्तानं प्रगुणीद्त्यात्रेयपुनवसुनोपदिषटेभेडाम्निवेश्ादिभिः एव बुद्धकारीनःसमय द्रतिवहुभि्विवेचकेरविपधिद्धिः सन्धार्यते।
षडभिः प्रधक्तन्त्रप्रणयनोर्रेखेन तं संवादयता भेडसंहितायां परं जीवकस्य विषये{तिव्वतदेखीय उत सिदटल्रैीय चह्यदेशीया
प्रत्यध्यायमित्याह भगवानात्रेय इत्यात्रेयस्योपदे्तया निर्देशेन अपि उपकथा दश्चयन्त । मिथः कथांोप्यनैकाप्म्यमासु दश्यते।
शचरीरनिर्वत्तिविषये पूर्वाचार्यमतोर्र्ेखे' कश्यपस्यापि नामोर्रे- जीवकस्याध्ययनोपवणने सहावरशटेतस्तद शिलां कस्माच्चि-
तेन॒ चप्रेयस्मेव कश्यपस्यापि सेडात्‌ प्राक्तनस्वमित्यपि देव दिश प्रसुखादाचायाज्जीवकस्याध्ययनमा याति, न तु तद्गु
निर्विचादमेव ॥ | | रोरात्रेयत्वं ततः परिच्छेत्तु शक्यते । चुरटकसेष्िजातकेऽपि
सेडसंहितायामात्रेयकश्यपयोः कश्यपसंहितायां भेडात्रेय- तक्तरिखायां पञ्चरातमाणवकाचायंस्य दिक्प्रमृखस्य बोधित.
पुनरवस्वोश्चरकसंहितारूपायामात्रेयसंहितायां _मारीचिकश्यप- स्वस्य निर्देशः, तत्कथायां पापकस्य जीचकस्य च नामनि. `
स्येति परस्परं नामोर्रेखेन, चरकसंहितायामात्रेयेण वार्योविद्‌- शोऽप्यस्ति 1 सिहरोपकथां तु शक्रेण विशेणमहिमानं भापितात्‌
मारीचिकश्यपयोः पत्तप्रतिपक्तसंवादस्य कश्यपसंहितायां वार्यो- कपलच्य ( कपिछात्त १ ) गुरोर्जीचकस्यराध्ययनमुद्घिस्यते ।
विदाय कश्यपेनोपदेश्ानस्योररेखेन च समसामयिकानामपि ब्रहमदेरीयोपंकथायां तु न तक्तशिटायाम्‌, अपि तु वाराणस्यां
नानाचार्याणं प्रसिद्धतराणं मिथो मतोपादानस्य नामनिर्दे- गर्वा जीवकस्याभ्ययनं निर्दिश्यते! इत्येवञयुपकथानां मिथो
दस्य भावितया च मेडास्टेशतः पू्व॑भाविनोः परस्परं सनाम- विरोधेन कस्या उपकथायाः म्रमाणविधयाऽङ्गीकरणं विधीयेत ।
आह मतसुक्ञिखतोरत्रेयमारीचकश्यपयोर्वयस्तारतम्येन सम- विरोध्युपकथान्तरेः सह॒ विवदमानायास्तिव्वतीयकथायाः
खमयकस्वमपि युक्तिखहं भवति ॥ केवलमुक्तिुपाद्‌ाय आत्रेयस्यार्वागवतार ममर््राग्भावसाधनवद्ध-
अथवा अस्यां काश्यपसंहितायां स्वोपजी वकयोघरद्रजीवक- परिकरेभ्य एव रोचताम्‌ । ईद्याुवटपरमाणद्ुषादाय चरक-
वास्ययोर्मतोल्रेखस्य कश्यपेन विधातुमयोग्यतया चरद्रजीवकर- संहितामूराचायस्यात्रेयपुनवंसोः समयनिधांरणं दुःसाहसं-
चात्स्ययोर्नाममतोर्रेखः पश्चास्संस्करण प्रतिसंस्करणावसर एव
प्रविष्टोऽवश्यमेव वक्तव्यः । एवमेव मेडादीनी पश्चाद्धवानां
१, वार्था सौ 10 व्ह ४० अपता फष्तामनण्ड
(€ 2०68807" 466९ ॥0 1द्थ०, 1110. 46 (78 0001
नाममतोर्रेखः संस्करण पश्चासविष्टोऽपिं सम्भवति ॥
116 ४0101€ 0 644 धा09160, 95 वृररधर9 1१ =एद्९ा
एवञ्च सति कौटिलीयादिप्राचीनग्रन्धेषु मानवद्रहस्पतिवा- क्ष०वृपी10 (06 प्ट ४ 2040-7 00, ध) 88
तन्याधिगप्रश्ठतीनामेवं यास्कादिगुहीतानां पूर्वाचार्याणां पग्र 8009. {0 &47010151€/ 01616106 0 दिषप्रप्ण४ 74004,
१. सिध्यति प्रतिक्ुबीण इत्यात्रेयस्व शासनम्‌ । प-कर 0 एपतती्300 ए 806०९ पिणत `
अपि चाप्रतिकुर्वांण इत्याख्यद्धदरशौ नकः! 0. 259.
नस्वैतां वुद्धिमत्रेयः रौनकस्यानु मन्यते । २. पाक) 1 00 ॥0 भणिते एलोोर्ः ४४ (व्०ण्कण |
प्रतिकव॑ति सिद्धिहि वर्णो्सादस्मम्विता ॥ । ६0 28 ह्लाह्स-भपटभ्पा
९8) 06 16801९6 00 रप्रतद 16त7-
| | ( भेउसंहितायाम्‌,. ष. १५) ॥ लो06. प्र पलृभात५ १० 00८, ए2०6प [णण प्रणवा |
, अत्र मेडेन शौनकनाम्ना गृहीतस्य प्रतिमतस्य चरके मैत्रेयनाम्ना #11€ ताद्०्न०ण 9 9 00पड कशल 206 800 एवह = ` ॥
निदेशो द्दयते। गृहीतमतस्य संवादोपलम्भेन सुद्वितचरकपाठे €ण्णाहटणा एष्‌ 78 66 [मीनान्‌ 70 1706 करन७भ०प,
समयवदेन नामविपयांसः, अथवा दौनक इतति कुकनाम्ना मतरे प106€-1.€६९४५ ० € 8070656 8०019 7. 19
इति मातृनाम्ना एक वाचाया निर्दिषटोऽपि सम्भवत्ति॥ , ` भि प्ण प6्शलण ¢. ९70१५06४, ।
उपोद्धातः | १
न न चय---
मन्ये । आत्रेयस्य जीवकगुर्त्वे जीवकेन स्वीयतन्प्रे आत्रेयस्य मभ्निवेशसंहितायामाभ्रेयपुनर्वसोदयदेश्स्थानानि यावन्ति की-
गुरुभवेन निदैशनं किमिति नं विधीयेत ॥ तितानि तत्र नेकत्रापि तक्शिराऽनुस्मर्थते। एव॑रूपां तचरि-
क्याङ्भर-विनयस्य तृतीयभागे ६१ अध्याये ( ९२-१०८ रामनुपादाय काग्पिस्यःद्ाबुपदैशनस्यौर्रेखेन तक्रिराया-
पत्रेषु ) जीवकङुमार-( छु गे सोन चु ) नाम्नो भिषग्राजस्यै- स्तस्समये प्रसिद्धिरेव नासीत्‌ । तस्या विचापीरमावसमयात्‌
वमाख्यानं दश्यते-“जीवको राजानं प्रार्थ्यं जीविकार्थं भैषज्य पर्वमेव कासििल्ये आश्रेयपुनर्वसुनाऽथिवेश्चस्योपदेश्षनं प्रतीयते ।
विचयं परिर्वा कपारुमेदनचिकिरसनविद्याविज्ञानाय काभ्पल्यदेशो हि वेदसमयात्‌ प्रष्टि प्रसिद्धः। शुञ्धयजुैद-
खायां ( ध्येजोग्‌ ) भिषग्राजस्य ध्युन्‌ शेकि भ्रु ( निस्यप्रक्त ) तेत्तिरीयमेत्रायणीयकारकसंहितासु

च काग्पिल्यकब्दो रुभ्यते ।
नाश्नस्तद्धियाविशेषन्तश्य सकासे गन्तुं राजानमभ्यर्थयामास । पाञ्चारशब्दोऽपिं वेदेषु ाद्णेषु उपनिष्स्वपि दश्यते! नैवं <, $

ततो निव्यप्रज्तविदुषो भेषज्यवि्याविशेषरुन्धये तत्रागच्छुतो तक्तशिराया वेदेषु ब्राह्मणेषु उपनिषत्सु वा प्रायीनभन्धेषु उवे
मस्पुत्रस्य जीवकस्याध्ययनम्रबन्धो विधेय इति तक्लशिकानृप- सोऽस्ति । महौभारतेऽप्युपक्रमोपसंहारधायोरेव, रामायणेऽ-
तये पद्मसार ( पद्म हि डिङ्‌ पो ) नाम्ने छिखितं बिम्बसारप- प्युत्तरकाण्डे एव तदुज्ञेखोपरम्भात्ततशिलायाः पश्चाद्वावः स्पष्ट-
त्रमादाय तक्तशिखां गतो जीवकः प्राप्तपत्रेण व्रपेणोक्ताज्निव्यप्रज्त मवगम्यते । न केवकस तरेवदुचर्वसु नऽद्िरेशेरे, नानादेशानु-
( ्युन्‌ रोकि भु ) भिष्राजाद्धेषज्यविचयां जग्राह इति । पवणयता सारीचकाश्यपेन तदन्तेवासिना ब्रद्धजीवकेनापि
श्युन्‌=सदा अथवा नित्यः; रकि = प्राया भु =सूनु, तक्तशिखा नोक्लिखिता । न वा सुश्रुतसंहितायां सेडसंहिता्यां
सम्बन्धी" इति योगा्थमादाय तिञ्बतीयभाषायास्तदीयगुर- वा तन्नामोपरभ्यते । बुद्धसामयथिकजीवकाचार्यः केवरुमा्रेय-
वाचकस्य श्युन्‌ शोकि शुः इति तस्मिन्नाख्याने बहुवारं प्रयु शब्देन तक्तशिखागततवेन च निर्दिश्यते । चरकीयात्रे्ाचायों
त्तस्य शाब्दस्य दशनेन जीवकश्य गुरस्तक्षशिकायां वर्तमानो हि आत्रेयपुनर्वसुशब्देन कम्पिल्यस्थानीयत्वेन निर्दिश्यते इति
भिषग्राजः कपारमेदनचिकिस्सनविद्यायां विरोषतः प्रसिद्धो स्पष्टो विदोषः । एकस्येवात्रेयस्यान्तेवासिनौ एतौ जीवकाभि-
नित्य-( सदा ) प्रज्ञो नामेति त्तिब्बतीयोपाख्यानमूलरेखतःवेश्चौ यद्यभविष्यतां तद्‌ जीवककथा्या तादशप्रधानसती््य-
समायाति । राहुरुसाङ्ङ्ृस्यायनेन पाङीभाषातो हिन्दीभाषा- स्याभिवेशस्य नाम, अभिवेशङेखे वा ताद्शविशिष्टञुद्धिमत्तया
यामनूदिते विनयपिरकेऽपि-“उस समय तक्षशिरामे ( एक ) प्रसिद्धस्य जीवकस्य नाम किमिति न निरदेच्यत । अभ्िवेश-
दिशा-प्रसुख (= दिगन्तग्रसिद्ध ) वेच रहता था? (पू० २६७) स्याचायं जत्रेयपुनवेसुः कायचिकिष्सायामेवाचार्योऽवगम्यते ।
दृस्थं टिखितं वतते । नात आत्रेयो जीवकगुररिति पर्येतु येनाथिवेश्षादिभिरपि तद्टिषय एव संहिता निरमायि । जीव-
शक्यते । (तिञ्वतीयोपकथात आत्रेयो जीवकगुर्रवगम्यतेः काचायं आत्रेयः कायचिकिस्सायां, ततोऽपि विशेषतः श्रल्यम्र-
इति वदतां विदुषामपि नाम किमप्यवरम्बनान्तरं बरूवदिति स्थाने परिनिष्ठित आसीदिति अन्तेवासिनो जीवकस्य सेषज्य-
विम्षस्थानमेतत्‌ ॥ | प्रश्चियातः स्पष्टीभवतीति विद्याप्रस्थानविशेषोऽप्यनयोरात्रेययो-
ग्यक्तिमेदं साधयति । एवं दर्शनेन तत्तशिकाभ्युत्थानात्‌ पूरव॑त-
किञ्च-आत्रेयपुनवंसुनाऽभिवेश्चस्योपदेशनस्थानं “जनपद्‌- नोऽयं काश्यपात्रेयागनिवेशभेडदिवोदासादीनामायुरवेदविद्योपदे-
मण्डरे पाञ्चारन्तेत्रे काम्पिस्यराजधान्यामू? इति नि्दैशोन
कास्पिल्यम्रदेश इति स्पष्टमेव । यदि नाम इुद्धसामयिकजीवकी- शनम्रहणधारणसमय इति कथं वक्तु न शक्यते । पुवं पाणि-
नीये कच्छादिगणे ( ४. २. १३२. ), तक्षरिरादिगणे (४.३.
येतिवत्ते तिज्बतीयकथाजातकादिषु तच्षशिरायामात्रेयादध्यय-
९३) दश्यमानस्य पाश्चच्यग्रसिद्धदेशवाचकस्य काशमीरशब्द्‌-
नोररेखेन तन्तशिराध्यापक आत्रेयोऽञ्चिवेशस्योपदेशचकः स्यात्त-
दा तक्रिराया उद्टेखोऽभिवेशसंहितायां कथं न दृश्येत । स्य वेदुब्राह्यणेष्विव आत्रेयाभिवेशसंहितायामयुपरुम्मेन तदष्वे
तकरशिरप्रदेशे भूगभनिगतप्राचीननगरत्रये दक्ञिणभागस्थो १. पारश हिमवतः श्युमे (षृ. ५), वने चेरे रम्ये ध. १२९),
विर्माउण्डसंत्तको भागः पूवंकारिकः 23. 0. १०००-१२०० जनपदमण्टले पा्चारक्षेत्रे वानििस्वराजग्रान्द्‌ "र लऽवनसिवेस्नः
समयासरसिद्ध आसीदिति रेतिहासिका वदन्ति । पाणिनिनाऽ ब्रवीत्‌ (ए, २३६ ) पञ्गङ्के पुनवंसुम्‌ ( ए. ४२४), वौरासरे नन्दनो.
पि तक्ञरशिरायाः सूत्रे नदशः शक्यते । बुद्धसमयादपि पूर्वस- पमे (१. ४८० ) इत्यादि \ | |
मये तक्शिरायां विदयप्रचार आसीदिति ेतिहातिकेरप्युपव- २ अम्बे अम्बिके" """ " "" खभद्विकां कम्पीलवास्तिनीम्‌- ,
प्यते । मागधस्य जीवकस्य काडीराजबह्यदत्तस्यापि तक्तरि- | | ~. ( यजुवद २३. १८) ।
रायां वैयशाखाभ्ययनायोपगमनोररेखेन तदासे तत्तश्िरा २. पञ्चारानां समित्तिमैयाय (शतपथब्राह्मण ) 1`
विच्यान्तराणामिव आयुर्वेदविद्चाया अपि प्रधानं विच्ापीटमा- ४. उपलभ्यमानमहाभारते तक्षरिाराब्द आदिप्रवणि वृतीया- `
सीदिति महावम्गजातकादिरेखेभ्योऽपि ब्यक्तमेव । पुनर्वसो- ध्याये द्विवारं, स्वर्गातोहणपर्वणि ५.अध्याये च इरयते-“गुखे प्राङ्‌ `
रात्रेयस्य तद॒न्तेवासिनोऽभिवेश्षस्य च तत्सामयिकसवे आत्रेय- नमर्छृप्य ( ६।५५ अध्यायतः ) इत्यारभ्य महामारतस्योपक्रमः, = `
संहिताकन्रां जथिवेशसंहिताकत्रां वा तादश्याः प्रसिद्धविद्यापी- ततः पूवंतनो मागस्तु सतिन पश्चात्‌ पूरित इति महाभारतविमै `
ठरूपायास्तक्तशिखाया नामोपादुनं किमिति न क्रियेत । तस्या ( 19189 0. 2. 1. पणा कश] ए त ए मया
निर्दिष्टमस्ति |
` ‰.सिन्ुक्षरिलादिभ्योऽगजो (पाणिनिम्‌. ४-३-९२) ५. रामायणे उन्तरकाण्डे १९४ अध्याये २०१ रोके ॥
६ का० उ०
र उपोद्धातः ।
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कादमीरदेदास्य सद्धावेऽपि वि्यापीरभावेन प्रसिद्धेः पूवतनस्त- दितायां ( प्र. ७७ >) पुनर्व॑सुमतस्वेनोपरम्यमानो दवैविध्यवादो
दीयो गौणमावोऽवद्ुध्यते । अन्यथा काम्पिस्यपाञ्चार्परिसर- भरद्वाजमतत्वेन, चातुर्विध्यवादो गौतममतत्येन पारकाप्ये
प्रादुभूतायामात्रेयसंहितायां काम्पिल्यादिसनिक््टस्य तथा दश्चितः । ` पाक्काप्ये प्रयोगतः साक्तविभ्यवादोऽधिवेश्लमतत्वेनो-
प्रसिद्धस्य काश्मीरस्यानुर्टेखः कौतुकं किं न जनयति ॥ क्विखितोऽस्ति । वर्तमानचरकसंहितायां खेहान्तराणामुज्ञेखे
एवं च तिब्वतीयोपकथायाः प्रामाण्याभ्युपगमेन तदाचाय- सत्यपि चतुर्णा सेहानामेव विदेषतः प्रयोगा दर्यन्ते । सोऽयं
स्यात्रेयत्वभ्युपगमेऽपि गोत्रचोधकेनात्रेयश्ब्देन नानाव्यक्तीनां संस्कारद्तो विदोषः किमु !॥
व्यवहारस्य दकशशेनेन, गोत्रवाचकात्रेयसब्दमाच्रयुपादाय सोऽय- पू ऋषयो वेदवेदाङ्गविषयेष्विव केचन आयुेद विषयेष्वपि
मेवत्रेयपुनर्वसुरिति न निश्चेतुं लक्यते । किन्तु बौद्धन्थोक्त- स्ानवन्त आसक्निति तत्र तच्र गतेर्विंपयेरवगम्यते । `यद्यपि
जीवकाध्ययनस्थानसवेन निर्दिष्टायास्तत्तिरखाया अध्यापकेन समानाभिधानवन्तोऽनेके संभवन्ति, मञ्क्मनिकाये गोतम-
तेऽ्बतीयकथातोऽवगस्यमान आत्रेय आत्रेयपुनर्वसोः पश्चा- इद्धेन. सहाध्यास्मिकचर्चापरस्य सञ्चक ( सत्यक >)नामकस्य
इवो उुद्धकारिकोऽन्य एव गोत्रनास्ना व्यवहृत आत्रेयः कोऽपि निगण्ड ( निर्न्थ ) नाथयुत्रस्यापि गोत्रनाश्ना अस्िवेशशब्देन
स्यादिति सम्भाव्यते 1राज्षरवार्योविदस्य बुद्धसमये तदुत्तरं वा सम्बोधनञ्ुपरभ्यते । साधकवाधकम्रमाणान्तरोपरम्भं चिना
न क्ापीतिहासे उपलग्भोऽस्ति । वार्योधिदसहभाविनः पुनर्व- स ए्ायं न वाऽयमिति निशेतुं न शक्यते, व्यक्तिविरोषनिरधार-
सोरात्रेयस्य मारीचकश्यपेन सहाविप्रृष्ट ओपनिषदः समय णेन संभावनां दढयितुं साधनान्तरविकासोऽपेच्यते, तथाऽपि
इत्यवोचाम । तेनात्रेयपुनव॑सोः समयो उुद्धकारिक्‌ इति निर्धा- बाह्यणोपनिपत्काछिकत्वेन सम्थितानां दिवोदासग्रतर्दनादीना-
रयितुमवरम्बितं साधनं दुर्बं प्रतिभाति ॥ सनतिविप्रकृषटस्वेन आत्रेयस्य प्रदर्िततया तस्कालिक आचरेय-
चरकसंहितायामत्रेयपुनर्वसोः प्रधानान्तेवासितया निर्हि. शिष्योऽभिवेश्चः शतपथराद्यणे आयुवेदीयविपयाणामप्युपर-
ष्टोऽभिवेशः, तत्सतीर्थ्यां सेडादयश्च तस्सामथिका म्भेन तदीयवंहान्राह्यणे नििंटस्याभ्िवेश्यस्य पूर्थपुरूषतया
श्मधिवेशः एव मचितुमहंन्ति ॥ त्तायमानोऽभ्िवेज्ञः किमयमिष्यपि वहाः सम्भवति । आत्रेयो
अभिवेशसंहितायां तक्तशिराया अनुज्ञेखेन ऽस्मिक्नायुवेदग्रस्थाने परमाचार्यः, यस्याधिवेक्ादयः षट्‌ प्रधा-
पाणिनीयसूत्रे तक्शिराया उर्रेखेन, पाणिनिना गगादिगंणे नतमाः शिभ्यास्तदुपदेरशस्तिस्संहितोक्तीश्चोपादाय स्वस्वचिचा-
जतूकणपराश्शर भ्रिवेरशब्दानामुरुरेखेन च अध्िवेशस्य पाणि- रविशेषावनद्ध्निबन्धनेः प्रथक्पृथक्प्राकारयन्‌ । तेषु, अभिवेश-
-नितोऽपि पूर्वः समयः प्रतीयते । यद्यपि पाणिनीयेषु तेषु तेषु स्य सुख्यतन््रकतृस्वेन चरकरसंहिताया उपक्रमोक्ञेखादभिवेश्ष-
गणेषु समानवगीया एव शब्दा उदिश्यस्ते इति न नियमः, तन्त्रं सर्वमूर्धन्यमासी दित्यपि प्रतीयते । एकस्यापि नभोमध्य-
तथाऽपि भाषाप्रगतिदशा प्राय एकजातीयेषु शब्देषु भ्रत्यया- मणेः म्रभायास्तत्तत्परदेशतारतम्यवशेन प्रतिफटनतारतम्यवद्‌ा-
दयेकरूप्येण शब्दानां म्रायिकी एक किरता टश्यते \येन पाणि. त्रेयाचा्यस्योपदेशा अभिवेशहारीतक्तारपाणिप्रश्ठतीनां बिदुषा-
नीयगणेषु ऋषिदेशनदीनगरपराण्यादिवरगीयाः शब्दाः सह गृही मन्तःकरणेषु पतिता यथास्वं ग्रहणधारणमननप्रयोगाजुभववि
ताः प्रायशो श्यन्ते । अस्मिन्‌ गगांदिगणे जतूकर्णपराक्चरभिष- शोपेविभिन्नभावेन विशेषात्मना उचाचच्तविभिन्नतन्त्राणां निव-
जचिकिस्सितच्चन्दानां पाठेन सक्निधिपाठमवाघ्तः पराशारशब्दो न्धने कारणतामुपजग्मुः। तेष्वपि अश्रिवेशस्य निवन्धनं प्राथ-
बे्ाचायस्य पराशरस्य बोधकः स्याच्‌ । तस्मिन्‌ गणे प्रविषटोऽ- म्यं विशिष्टतां च रोके दशयामास । अतः किट अभ्िेशातन्त्र-
भिवेशरब्दोऽपि समानन्यायेन आत्रेयशिष्यस्य वैयाचार्यस्याभि मेव चरकाचार्येण संसत सर्वतः प्रसिद्धिमापेदे । अस्य वेश्षि-
वेशस्य बोधको बहुशः सम्भवति ¦! तथाववेऽभिवेशस्य पाणिने षटयमेव हारीतक्तारपाण्याद्याचार्थान्तरम्न्थानां प्रचारविररी-
रपि प्राक्तनस्वमायाति ॥ भावेनाद्यते विलोपायापि हेतुतामवाप फिर ? ॥
पूवंनिरदिषटषु हेमाद्िरुलणप्रकाशोद्धतसारिषहोत्रशटोकेषु आ- आत्रेयपुनवंसूपदेश्षमादाय निवद्धाया अ्रिवेद्ाक्षहिताया
युचदकतृ णां नामाचस्यामभिवेशस्य हारीतक्तारपाणिजातूक्ण॑प- पश्चात्‌ संस्कवंतयोक्षिखितश्वरकाचार्यः कतमः
रादरादिभिः सतीभ्यंतया क्षतेराचार्येणात्रेयेण च सह नामो- चरकः किसमयको वेति चिमे यथपि तत्र तत्र अन्येषु
ज्ञेलो दश्यते । पाठकाप्यच्रते हस्त्यायुर्वेदेऽपि चतर्थस्थाने ४ चरकदाब्दुप्रयोगः, तेन शब्देन तच तत्र विभिन्ना
अध्याये खरंहविशेषवणनेऽभिवेशचस्य मतोज्ञेखोऽस्ति । चरकसं- नानार्थाः प्रतीयमाना अप्युपरमभ्यन्ते; तथाऽपि 'एतमर्थमुपादाय
१. सिन्धुतक्षरिरादिभ्योऽणजौ । ( पाणिनि. इ. ४. ३. ९३ )
२- गगौदिभ्यो यञ्‌ । (पाणिनि. छ. ४, १, १०५ ) १. मज्भमनिकाये पृ, १३८ ।
२. आग्निवेहयादाभिवेस्यः ( दतपथब्राह्यणे ) ॥
२, अत्रैवोपोद्धातरेखे आचार्यपरिच्छेदे ० १२ `
३. { करष्णयजुबद्धैया एकतमा क्ाखाऽपि चरकनाम्ना प्रसि-
तचथा-नवनीतं इतं मस्तिष्कं मञ्ना तैं फलतैर मेदो वसा
सुक्रमित्येते नव स्नेदविशेषाः । तत्र श्ुक्रमस्तिष्कन्यपेता गार्ग्य | द्ाऽस्ति, यच्छ्छखीयाश्चरका इत्ति शतपथादिषुटिखिता
= म्रोवाच, प्रयोगतः स्नेहान्‌ सप्ताभिवेशः, चतुरः स्नेदांसतेषा प्राह , दृदयन्ते |
7 रुलितिविस्तरे १९ अध्यये “अन्यतीधिकश्रमणब्राह्मण-
गौतमः सपिस्तैरुं वसा भस्ना चेति, भरद्वाजस्तु स्थावरजङ्गमौ दौ
चरकपरित्राजकानाम्‌”” इत्ति भमणादिशरण्यां केषाच्धि- -
विद्रेषौ प्राहु) (पारुकाप्ये. ए. ५८१ ) ॥
. . श्ररणरीरानां तपोदृ्तीनां बोधकश्रकङब्दो रभ्यते 1
उपोद्धातः । ७२
(नि वि कि 0 का #काक
+ + क

वे्याचायश्चरकनान्ना प्रसिद्ध आसीत्‌ , अभ्युकोऽयमाचा्यं इति सन्‌ भावप्रकाश्ोक्तरीत्या रोषावतारश्चरकः कीर्तितः किर ! ।
निर्धायं यथावत्परिच्छेत्तं न शक्यते ॥ बृहज्ातकम्याख्याङ्तो रुद्रस्य ङेखानुसारेण वेदयविद्याया विरो
भावप्रकारो जयुर्वेदाचार्याणामुपवर्णने साद्गान्‌ | षविद्वानसौ रोकोपकारदश्चा सिच््ुस्या मामे मामे चरित्वा
न्तगतमायर्वेदं च ज्ञातवतः शेषस्य प्रथिवीघ्रुत्तमवगन्तं चररू- वेद्यविद्याया उपदेशेन भैषज्येन च लोकोपकारं विदधान
पेणावतीणंस्यावताररूपो वेदवेदाङवेदिनः कस्यचिन्मुनेः पुत्रः आसीत्‌ । अतः फिर सञ्चरणश्ीरुभिह्णरूपार्थमादाय चरक-
आयुवेदवेत्ता चरकाचार्यश्चर इवेति निर्वंचनमादाय तेन नाञ्च नान्चा प्रसिद्धः स्यादित्यपि बहुलः सम्भवति । अस्तु नाम
ग्रसिद्ध॒ अआत्रेयिष्येरभिवेश्चादिभिर्विंहतान्यायुवंदीयतन्त्राणि यथातथाऽपि अस्य चरकनास्ना ख्यातिः, सोऽयं चरकाचार्यं
उपादाय संस्कृत्य समाहत्य चरकसंहितानाश्चा मन्थं निववन्धे आत्रेयसंहितोपदेशमयुपादायाभ्िवेखनिबद्धस्य तन्त्रस्य भरतिसं-
ति चरकसंहिताम्रणेतरायुरवेदाचार्थस्य चरकस्येतिव्त्तसुक्लिखित- स्करस्य॒ग्रकाश्चनेन आयुवदीयभेषञ्यविद्यायामतिनिष्णाततया
मुपरुभ्यते ॥ पूर्वसमयादेवाचार्यकुन्तौ .संमानित आसीदिस्यवगम्यते, येन
चरकशाब्दो वै्यरूपमर्थं बोधयति, येन एकद्वस्थरे व्यक्त्य- ाग्भटादयोऽपि चरकाचा्यं विशेषतः कीर्तयन्ति । जयन्तभट्यो-
ऽपि स्यायमज्ञर्या-मत्यन्तीकृतदेराकाख्पुरुषदराभेदानुसशिसि-
न्तरेऽपि चरकरा्दन्यवहारो दश्यते इत्यपि केचनोपवणयन्ति ।
मस्तम्यस्तपदार्थ॑शाक्तिनिश्चयाश्चरकादयः इति सबडमानमेन-
परं चरकश्चब्दस्य वै्यपर्यायव्वे अभिधानभ्न्भेव्वपि वेद्यपर्याय- माचार्यमनुस्मरति ॥
श्रेण्यां तदुल्ञेखेन, सश्चतादिष्वाचार्यान्तरेष्वपि तस्प्रयोगेण
च भवितव्यं, न चैवमस्ति, अपि तु चरकसंहिताप्रणेतरि व्यक्ति एतदीयसमयविचारे “कर्चरकाल्छुक्‌ ( ४-३-१०९ )"
विरोषे एव रूढोऽयं शब्दस्तमेव निसर्गत उपस्थापयति । तेन इति पाणिनिना चरकशब्दस्य निदेशाचरकाचायंस्य पाणिनेरपि
कचन व्यक्त्यन्तरे दश्यमानोऽयं चरकराब्द्‌ः करङिभीम इत्यादि प्राक्तनस्वमिति केश्चन विद्धद्वरेः प्रतिपादितम्‌ । परमस्मिन्‌ सूत्र
वदौपचारिक इति वक्तव्यमेव । आयुरवेदीयविषयाणामथर्ववेदे निर्दिंष्टश्वरकः कटसाहच्यांचरणभ्यूहोक्तिसंवादाच्च संहिताद्रष्टा,
विरोषोपरम्मेन कश्यपसुश्चतसंहितयोरिव पएतदीयसंहिताया- किंवा तत्सांश्रदायिकोऽन्य एव प्राचीनो महर्षिरिति निश्चीयते ।
मप्यथर्ववेदस्यास्मिन्‌ विषये प्राधान्यकीर्तनं चरकदाखीयस्वेऽपि चरकञ्चाखासंहिताऽप्य्यस्वे मृद्वितोपरभ्यते । “माणवकचर-
चरकाचार्यस्य न व्याहन्यते । तेन गोचत्रनाश्नाऽऽत्रेयस्येव श्ाखा- काभ्यां खज्‌” इति सूघ्रान्तरे ( ५-१-१४ ) उपात्तश्चरकशब्दो-
ना्नाऽप्यस्य चरक इति प्रसिद्धिरपि सम्भवति । किंवा तद्व्य- ऽपि जिष्वस्य स्वराथ॑तया निदेशेन स्वरस्य विशेषतो वेदिक्यां
क्तश्चरक इति रूठमेव संकेतनाम स्यात्‌ । अथवा पश्िमवि- गरक्रियायास्ुपयोगाच रोकिकेकनचरकव्यक्तिपरत्वकट्पनपे्तया
मागे पूर्वं नागजातीनाभितिवृत्तोपरम्मेन तस्नातीयो विद्धान्‌ नवरकशाखीयपर एव कल्पयितुमुचितः ्रतिभात्ति॥ `
याक्ञवस्क्यस्पृतिव्यास्यायां विश्वरूपाचार्येण तथा च
[7 वसयाहमिदहिरेण ब्रहव्नातके ( १५-१ ) प्रत्रज्यायोगवर्णने चरकाः पठन्ति” इस्युद्धते वाक्ये अधिनोर्भेषज्यो पदेशदशेनेन
“काक्या नौविकमिच्लुबृद्धनचरका निमन्थवन्यारानाः आपाततो वेयविषयववग्रतिभासेऽपि मधुन आपदि ब्ह्य्र्या-
इत्युपात्तस्य चरकराग्दस्य भद्रोत्पलेन “चरकश्चक्रधरः” ग्रतिघातकतवे साधकतया निर्दिषटस्वेन एतत्समश्रेण्यां वाजसने-
इति; रुद्रेण “चरका योगाभ्यास्तकुरला यिनामपि वचनोद्धारेण तव्साहचर्याचच चरका इति चरका
युद्राधारिण-
्िकित्सानिपुणाः पाखण्डमेदाः इति व्याख्यानं सीया एव निर्दिष्टा इति स्पष्टमवदुध्यते । कारिकावरत्तेरखानु-
विहितमस्ति । सारेण वैशम्पायनान्तेवासिनश्चरकसवेन व्यवहारोऽपि चरकरशा-
91 श्रीहषेण नैषधचरित ( ५११६ ) देवाकर्णय सुश्वतेन खाप्रवर्तकव्वेनेव दश्यते ॥
चरकस्योत्तेन जानेऽखिलम्‌ःः इति द्वितीयाथ चरः स्यश्च शुद्खयजःसंहितायां ३० अध्याये पुरुषमेधप्रकरणे ९८ मन्त्रे
एव चरक इत्यपि बोधितमस्ति | दुष्कृताय चरकाचार्यम्‌, इति मन्त्रप्रतीको दश्यते । तस्य
प्र ब्रह्मणे बह्मणमिति तेत्तिरीयसंहितामन्वगते चरकाचार्य॑- व्याख्याने हिन्दीभाषाभाष्यक्रुता मिश्रमहाशयेन चरकाचार्यो
प्रदे माष्यक्रृता सायनेन वंश्चायनर्तक इति व्याख्यानेन वेयश्षाखाचार्यं इव्यथः कृतः, ततश्च वेद्याचा्यंश्चरकोऽतिम्राचीन
नटविशेषोऽपि चरकशब्देन बोध्यते ॥ इत्यपि केनचिदुच्यते । परं तथान्यक्तिपरकत्वेन व्याख्याने
९. अनन्तश्चिन्तयामास रोगोपश्सकारणम्‌ । किंवा मूं स्यात्‌ । पएकेनेव पुरुषमेधे चरकाचायंस्य दुष्करतदेव-
सच्िन्त्य स स्वयं तत्रं मुनेः पुत्रो बभूव ह ॥ [०
पं

प्रसिद्धस्य विशुद्धस्य वेदवेदाङ्गवेदिनः । १. तथा च चरकाः पठन्ति-श्वेतकेत हारुणेयं ब्रह्मचर्य किलासौ


यत श्वर इवायात्तौ न ज्ञातः केनचिचतः॥ जग्राह । तमथ्िनावूचतुः, मधघुमसौ किरु ते भषज्यमिति । सहोवाच
तस्माचरकनाम्नाऽ्सौ ख्यातश्च क्षितिमण्डले । ब्रह्मचर्यमानी कथं मध्वश्नीयामिति । तौ होचतुः यदा चात्मना पुरूष
आत्रेयस्य सुनः शिष्या अग्निवेद्यादयो मवन्‌ ॥ जीवति अथान्यस्सुक्रृत कसेमीत्यात्मानं सवंत गोपायेत्‌ । अथ खल्वा- `
सुनयो बहुवस्तेश्च कृतं तन्तं स्वकं स्वकम्‌ । हर्वाजसनेयिनः ""`इत्यादि ८ याज्ञवस्क्यटीका बालक्रीडा १-२-३२ )
तेषां तन्त्राणि संस्कृत्य समाहृत्य विपश्चिता ॥ | २. चरक इति वैदाम्पायनस्याख्या, तःसंबन्थेन सवे तदन्तेवा-
चेरकेणात्मनो नाम्ना अन्धोऽयं चरकः कृतः । ८ भावप्रकाशचे ) सिनश्चरका इत्युच्यन्ते ॥ ( कारिकावृत्तिः ४-२-१०४) =. `
(1. उपोद्धातः ।
॥ ^ + # 9, ^ 9 ~ + + ~ + + + 0 +

तायै वयुपदर्णे पश्चात्तनेन यज्वना क उपहियेत 1 महीधररेण ख्यान्येनेव चरकनाश्नाऽभिधाने वा द्विन्नाम कारणं स्यात्‌ ।
तु चरकाणामाचा्थं गुरुमिति सामान्यखूपेणाच्यक्तमेव विवरणं महाभाष्ये गोनरदींयस्त्वाहेति निर्देशेन भाव्यङ्रदधो नददेशीयस्व-
विहितम्‌ । चरकशाखीयानामाचार्यसिति चरकशाखीयोपादा- मास्मनो बोधयतीस्यपि विचारचिशेषोऽस्ति । गोनदंस्तु “एड्‌ः
नमपि प्रकरणासङ्कतं अतिभाति ! यतो हि अस्मिन्‌ प्रकरणे माचां देशः इति सूत्रव्याख्याने काशिकाकृता गोनर्दीयशब्दो-
जातिविरोषाणां नानाव्रत्तिमतां च पुरषाणां मेघोपहरणीयत- दाहरणेन भ्राग्देश्चान्तगतोऽवल्ुभ्यते इति वतमानो गोण्डाप्रदेश्
योपादानं दश्यते । न तु कस्यापि शाखाविशेषाद्ुयायिनो इति निरूप्यते श्रीयुतमाण्डारकर्महोदयेन । कश्मीरस्य
व्यक्तिविदोषस्य वा । अस्मिन्नेव मन्त्रे कितवादयः प्रायो दुवेत्ति- पूर्वेतिचते गोनर्दनपोपरम्मेन काश्मीरप्रदेशो गोन्द॑देश इस्यपि
मन्तो निश्चश्रेणीकाः पुरुषास्तढुचिताभ्यो देवताभ्यो निवे्यमाना कस्यचिन्मतमस्ति। यदि भाष्यकार एत गोनर्दीयस्तर्हिं तस्य
ज्ञायन्ते, तेन दुष्छरृतदेवताये समप्यंमाणश्चरकाचार्योऽपि कश्चन चरकस्य चाभेदे चरकः ्रतिसंस्कारांरे कचनास्मनो गोनदेदेशं
दुषरैत्तिमानेव भवितुं युञ्यते । एतस्पदं चरकाचार्थपरं तच्छा- कथं नोद्धिखति ! चरकसंहितायां त पाञ्चारपश्चनदकाग्पिस्य-
खीयानामाक्तेपपरमिति क्ानकोशक्रतां मतं, प्ररं शतपथे चरक- ग्रदेशानायरल्टेखोऽस्ति, नतु कुत्रापि गोनदंस्य । चरकराब्दस्य
दाखीयवोधकस्य चरकपदश्य बहुसो दशंनेऽपि कमविरेषे नामान्तरत्वे गोनर्दीयस्त्वाहेति वदन्‌ व्याकरणमहाभाभ्यकारश्च-
तदीयसम्प्रदायमा््रं तत्रावबोध्यते, न तु तदारेपः। तैत्तिरीयः रकस्स्वाहेति सङ्ृदपि कथयितुं कथं नाम विस्मरेत्‌ । तदेवं
ब्ाह्यणगतमन्त्रेऽपि दुष्कृताय चरकाचार्यमिति पदमस्ति 1 तत्र समयनामदेक्ानां धिसंवादा अनयोर्भेदमेव साधयितुं प्रगुणी-
सायनेन चरकाचा्थं वंशाग्रव(नोर्वनस्य शिच्तयितारं नटविशेष- भवन्ति 1! पतञ्जरेमंहाभाष्यरेखोऽन्तराऽन्तरा लोकोक्तिगर्मः
मित्यर्थः करतः, न तत्र चरकञ्चाखाचार्योऽभिप्रेयते ! कृष्णयचरवै- समासन्यासोक्तिवहुखः सहसरा दुर्वेधो विभिन्नग्रकारः ! चरक-
दीय मन्ते दश्यमानस्य पदस्य भकेपदशा तद्िभागीयचरक- संहितायां चरकरेखस्वेन संभाव्यमान आंशिकरेखस्तु गभी.
शाखाचार्यपरस्वं नापि युज्यते इति परकरणथ॒द्धिमनुरुध्य साय- रार्थोऽपि सरसम्राञ्ञखरचनया सहृदयहदयमनुरञ्जयन्नन्यासेव
नीयव्याख्यानवदव्रापि ताद्डा एव दुदधे्तिकः प्रसयेतुं युञ्यते । रीतिमवरम्बसानः समी च्यव इति रेखहेटी विभेदोऽपि अनै.
चरः स्यदश्चर षव चरक इति स्वाथे प्रत्ययेन नैष॑ध इव चरका- क्यमेदोपोद्धल्यति । चरकेणािवेरातन््रस्य केवर संस्कारमात्रो-
चार्यपदेनाच्र श्यशवृत्तीनां प्रधानतम इव्यप्यथैः सम्भवति । ल्लेखान्याकरणे महाभाप्यरूपं विशार नवं मन्थं, योगे सूत्ररूपं
तथा सति प्रकरणशुद्धिः, किंतवसज्निधानं, दुघ्रैत्ततया योग्यं शीषण्यं ग्रन्थं विरचयन्‌ पतञ्जकिर्वि्यकाचार्यो भर्वेस्तत्र स्वं
योग्याय दातव्यमिति न्यायेन इुष्टरतदेवताये निवेदनं च सद्ग- नवं प्रतिमानमयं निचन्धरेखमपहाय पररेखसंस्कारमानेण
च्छते । यज्ञमौष्यङता द्यानन्दस्वामिना भक्तकाणामाचार्थं कथसमारमनः सन्तोषं चापादयेतत्‌ । क्षिवद्‌ासेन चक्रदत्तरीकायां च
इव्यथो निर्दिष्टः, अयसथ॑श्चरगतिभक्तणयोरिति धातुसुपादाय (तदुक्तं पातञ्रः दद्युदिश्योद्‌ तस्य शोकस्य रसविषयकतया
ङिखितः स्यात्‌ ॥ दर्शनेन चरकसंदितायामनुपरम्भेनच रसवेयकेऽन्यदेव पातञ्ज-
^न्वरके पतञ्जलिः" इति नागेश्षस्य, “पातञ्चर्महाभाष्य- रुतन्चरं पतञ्जरेरासीदिति ज्ञायते। वेयकरसविपये मन्थनिर्माता
धातुरसायनाचायेः परतञ्जरिश्वरकसंहितायां रसधास्वाद्यौपधवि-
चरकप्रतिसंस्छतेःः इति चक्रपाणिदत्तस्य च उक्स्योस्तदुपोदढर-
कतया विक्तानभिद्धभोजभावसिश्नाधयुक्तीनां प्रामाण्यमङ्गीद्भत्य षयं कथं वा न प्रवेशयेत्‌ । चरके हि धातूनां नासोदेक्षं सक्रद-
कैधिन्रकपतञ्जल्यो रेक्ये, दैिदनयोरनेक्ये न्च स्वमतमृपवर्णि . सेन्दरोपादानं च विहाय नेदशविषयः क्रापि विरेषविधया निर्दिष्ट
तमालोक्य विचाराङढे स्वमनसि प्रतिभातं किञ्चिदुपन्यस्यते- उपलभ्यते 1 न चा रसवेद्यके मदीये अन्थान्तरे विस्तृतमिति
कचन तत्सूचनादानमपि दश्यते । एकस्मिन्नेव बे्यकविषये
पतञ्जरिर्हिं अरुणद्यवनः सकेतमिति यवन क्रमणमती- उभयथा अन्धनिर्मावृसवे रसवेद्यके पातञ्नरतन्त्रमिति, 'अभि-
तस्मैन, पुष्पमिचधं याजयाम इति अदोकमञु वेदिकधर्म प्रसयु- वेशाछ्ते तन्वे चरकप्रतिसंस्कृते इ्युरटेखेन कायचिकिस्सायां
ज्ीवयन्तं पुष्पभिन्रे वतंमानखेनोकिखन्‌ विक्रमाब्दारम्भादुदधि. चरकसंदितेति विभिन्ननाममभ्यां व्यवहरणे वा को हेतुः स्यात्‌ ।
श्तवर्षपूर्ववर्तितया निश्चीयते । भाण्डारकरमहोदयेनापि महा. स्वयमात्मना चरकेण, प्रतिसंस्कत्रा दडवरेन, प्राची नटीकाकर्व-
भाष्यपुरणपाश्चास्येतिहासादीनारोच्य महाभाष्यकारस्य 3.6. भिर्महारहस्चिन्द्रादिमिः, वाग्भरादिभिराचाययान्तरेश्च एकेनैव
२०० समयो जिरधार्तिऽस्ति ! तथा च चरकस्य म्राचीनतरत्वा- चरकनान्ना एेकरूप्येण व्यवदियमाणस्याचार्यस्य पश्चाद्धतेन
भ्युपगमे दूरे सङ्गमनम्‌, त्रिपिटकरेखमात्रेण कनिष्कसामयिः चक्रपाणिना नागेश्चाचार्येण च पतञ्जटिसरैनोल्टेखने किन्नाम
करवस्वीकरे. तु कनिष्कयुष्पमिन्रसामयिकयोद्धिचश्चतवर्षान्त- मूं स्यात्‌} पतञ्जलचविद्यायामप्याचार्यतया योगे व्याकरणे
रितयोश्वरकपतञ्जल्याचार्थयोरेकम्यक्तिवकर्पना प्रतिहन्यते च अन्थनिमातृल्वेनास्य भोजादिभिर्निर्दश्षो न खलु न सङ्गब्ुते॥ `
योगो व्याकरणे च पतञ्जरिनान्ना व्यवहृतस्य वैचयके तदनुक्ञि.
पातञ्जटमहाभाप्यचरकप्रतिसंस्छृतेः।
मनोवाक्रायदोषाणां हर्तरऽहिषतये नमः ॥
१ „ कन्या न्तःपुरबाध नाय यदधीकारन्नदोषा नृपं दरौ मन्वि-
प्रवरश्च तुस्यमगदङ्कारश्च तावूचतुः । देवाकण॑य सुश्रुतेन चरकस्योक्तेन । इति रेखेन चरक एव पतञ्जङिरितिसाधनमपि न शब्द्‌.
` नानेऽखिलं स्यादस्या न्दं विना न दशरने तापस्य ` कोऽपि क्षमः ॥ स्वारस्यमनुङ्र रुभते । अत्र चरकपदं तक्नामकम्यक्तिपरं
` . (नैषधीयचरिते ४, ११६ ) |
यद्यभ्युपेयते, तदा चरकायाहिपतये इति कथयितव्यमासीत्‌ ।
उपोद्धातः । ४५
0^ +

चरकशब्दस्य प्रतिसंस्छतपदेन सहभावो नोपपद्यते, नामेकदेशे णीयतया व्याकरणग्रस्थानाचार्यभावनिदशनीभूता उन्तयः ₹ाव्व्‌-


नामग्रहणमिति ध्यायेन चरकसंहितायाश्चरकशषब्देनोपादाने वि्ेषा अन्यानि लिङ्गानि वा चरकसंहितायां न भ्रवेशितानी-
ग्रतिरसंस्छतपदेन सहान्वयो मयति । तथा च त्यपि वक्तुं सक्यते, तथाऽपि महाभाव्यङेखे सूत्मात्रपारव-
पूव॑सिद्धस्य म्न्थविशेषस्य भ्रतिसंस्कतां पतञ्ञटिरिति ततः श्येन यथाकामं स्वीयाभिर्वाम्धाराभिरदाहरणैः साधकोक्तिभि-
प्रतीयेत, न तं चरक एव पतञ्ञरिरिति । “इति चरके पत- रोंकोक्तिभिरपि विन्तानस्य व्यास्यानस्य च स्वं कौररं प्रद.
ञ्जलिः इति नागेशोक्तेः को वाऽऽशयः । चरकसंहिताग्न्थे यता भाष्यकारेण चरकाचार्याभावानुवद्धा वेद्यकविषया रभ्या-
पतजरेरियस्क्तिरिति चेत्तदुद्टतोक्तेराजचपूठ्यां चरकसंहितायां वसरेष्वपि बहशः स्थरेषु किमिति नोकिखिता दृश्यन्ते ।
भवितन्यम्‌, तदुद्टतवाक्यस्यास्यां संहितायामयुपरम्भोऽसु- यत्रांशे सूत्रादिपारवश्येन अवश्यवक्तन्यवया वा निर्देशस्ता-
मायं वर्णयितुं प्रतिरूणद्धि । अत्र हि सून्चस्थाने एकादश्चा- द्शांशेषु तदीयहादंविकास इति वक्तुं नौचित्यमावहति ।
ध्याये, विमानस्थाने चतुर्थाध्यायेऽप्याप्तस्वनिर्वचनमन्ययेवानु- यथा-- वातिकं पेत्तिकं रश्रेम्मिकमिव्यादि शब्दसाधनो-
पूर्व्यां रम्यते, न तु तदुद््टतानुपूर्व्या । इति-चरकस्योपरि दाहरणानि, नैत्तादशानि लिङ्गानि वैयकवित्वगमकानि
पतञ्जरिरिव्यथंमादाय चरकव्याख्याने पतञ्जङ्िरेवमाहेस्यपि भवितुं शक्नुवन्ति । तत्र हि “तस्य निमित्तं संयोगोरपातौ
ततः प्रत्येतुं शक्यते तथा च चरकनव्याख्याकतंः पतञ्जररिय- ( ५-१-२८ ) इति सूत्रे तस्य निमित्तप्रकरणे “वातपि्त-
मुक्तिरि्यायाति । ततश्च पतञ्ञेरेश्चरके व्यास्यानुपरभ्यमानाऽ श्रेष्मभ्यः शमनकोपनयोरुपतंस्यानं कर्तव्यं, सज्निपाताचस्चेति
प्यासीदिति ततः ग्रतीयते । चरकस्य व्याख्याकारः पतञ्जलिनं वक्तव्यम्‌ इति वार्तिकयोः परवशतया "वातिकं पैत्तिकं श्रै.
तु चरक एव पतञ्जङ्िरिति केचनेदानीमयुपवर्ण॑यन्त्यपि । भ्मिकं सान्निपातिकम्‌, इस्युदाहरण्णनि दत्तानि । एवम्‌ “उदः
चरकस्य पतञ्जलिता सन्जूषाख्या व्याख्याऽऽसीदिति आयं- स्थास्तम्भोः पूवस्य ( ८-४-६१ >)» इति सूत्रे “उदपूर्व
्रदीपनामके आधुनिकपुस्तके लिखितमस्तीति पतञ्जलिश्वरकस्य स्कन्दे च्छुन्दस्युपसंख्यानं, रोगे इति वार्तिंकोदाहरणव्वेनाव-
मन्जूषास्यटीकाकार इति केचन कल्पयन्ति ! नागेशक्रते मन्ञू- श्यवक्तव्यतया “उत्कन्दको रोगः इत्युदाहृतं माष्यङ्ता ! परं
षार्ये व्याकरणग्रन्थे पूवोक्ञिखितचरकवाक्योद्धारोऽस्ति । यत्र तथा अन्यथा वोदाहतुँमुषन्यस्तं वा स्वातन्च्यं मन्थक्रृत-
मञ्जूषा तु नागेक्षकरतो व्याकरणमग्रन्थः ्रसिद्ध एव 1 पतञ्जलि- स्तत्र तदुपन्यासस्तदीयामन्तर्वासनामवगसमयति । भा्यक्रता
कृता सञ्जूषानान्नी चरकरीका न छचन दश्यते श्रूयते वान वा शः संप्रसारणम्‌ ( ६-१-६२ )' इति सूत्रभ्याल्याने “अन्तरे-
चक्रपाण्यादिभिरपि दीकाकारेस्तनचिर्देशः कृतोऽस्ति ! तेन साध- णापि निमित्तशन्दं निभित्तार्थोऽवगस्यतेःः इस्युपन्यस्य ““दधि-
नान्तरोपलम्भमन्तरा निश्चयस्य कर्तुमश्यक्यतया ““चरकम्रति- चपुसं प्रत्यन्तो उ्वरः, उवरनिमित्तमिति गम्यते; नइरोदकं पाद्‌-
संस्कृतेः? इति, “चरके पतञ्लिः" इति अस्फुटार्थाः शब्दाः रोगः, पादरोगनिमित्तमिति गम्यते; आयुवै धृतम्‌ , आयुर्नि-
न द्रयोरेक्यसाघनाय व्याख्यानादिसाधनाय वाऽवरम्बनी- मित्तमिति गम्यतेःः इति निदर्शनानि भद्त्तानि ! “आयु घृतम्‌?
भवितुमर्हन्ति ॥ इतिवत्‌ दधित्रपुसं प्रव्यत्नो ज्वरः, नइलोदकं पादरोग इयपि
अपरञ्च, यः खद्धु"विषयो देश्ञादि वा येन विरोषतः परि ग्राचीनाचार्यवाक्ययोरद्धरणमवगम्यते । तत्र निमित्तनिमित्ति-
चितः परिशीलितो भवति स एव तस्य हदयेऽनुस्युतः पुनः नोरमेदोपचारप्रदशशंकेषु अन्येष्वपि बहुषु निद्शनेषु सम्भवस्स्वे-
पुनस्पस्थायी च भवति । यथाहि महाभाग्ये पाटदिपुत्रस्याने- तदुपादानमस्याचार्यस्य वेद्यकसम्प्रदाय विष्वमचवोधयति रो-
करा उरुटेखदक्श॑नेन तस्य विशेषतः पस्चियेन निवासेन वा कान्‌ । नेतावताऽस्य चरकाचार्यत्वमायाति । यदि नामानयो-
हृदये उपस्थानमुन्नीयते । एकस्य नानाविषयेषु अन्थनि्माणि रेकयं स्यात्तदा व्याकरणमन्थे प्रसङ्गोपात्ता ईदा विषयाः स्वीये
एकत्र अपरम्रन्थसम्बद्धविषयोपल्यासप्रस्तावे जञमत्र प्रतिपदि. वे्यकम्रन्थे असाधारण्येन किमिति नो्चिख्येरन्‌ 1 दधित्रपुसस्य
तमेतदिति उभयोरेकवाक्यव्वावबोधनस्य च निबन्धकरतां उवरहेतुभावेन, नइ्‌रोदकस्य पादरोगहेतुतया उल्रेखश्चरके कथं
सम्प्रदायः । एवं नानानिबन्धदरतां केचन विषा उक्तयो नोपरुभ्यते । न च उक्कन्दको नाम कश्चन रोगो भावप्रकाशादौी
युक्तयश्चातिभ्रियाः सन्तो नानाप्रस्थानेषु सङ्गमय्योपन्यस्ता अपि रुभ्यमानोऽपि चरके रुभ्यते । महाभाष्यज्तस्तथा परिचयेन
दृश्यन्ते । यथाहि भामतीक््रा अन्थादाबुपन्यस्ता व्यापक- निचासेन प्रेम्णा वा बहुवारमुर्रेखपदं गतं पाटरिपुत्रं चरकसं-
विरुद्धोपरुन्धियुक्तिदंशेनान्तरस्वनिवन्धेष्वपि किर्चिदपविपर्या- हिताया किमिति सकृदपि नोपरूभ्यते । गर्गादिगणे भविष्टा-
सेन बहुश्च उपन्यस्यते । एवमेव चरकाचार्यस्य महाभाष्यङ्कतः न्यग्निवेशपराशरजत्‌क्णपदानि वे्याचार्यसमारकाण्युपादायो-
पतञ्जखेश्ैक्ये महाभाष्यगता विषयाश्चरकरेखे, चरकीयविषया दृाहरणदानौचित्येऽपि भाष्यकृता न तदुदाहरणानि दत्तानि ।
वा महाभाष्ये तदीयह्दयेक्षयाः किमिति पदे पदे नोप- अन्यत्र स्थकत्रये अग्निवेश्योर्रेखेऽपि स्वरविषय एवोपादानेन
रभ्येरन्‌ । यद्यप्यात्रेयाभििवेशसंहितायाश्चरकेण केवलं प्रति- वे्याचार्यत्वरूपेणाग्निवे्यस्याववोधनं परिचयो वा भाष्यकृता `
संस्करणान्मूलम्रन्थपरवशतया स्वीयरेखन्याः ससङ्कोचं प्रसार न कापि कृत्तः 1 चरकनिर्दिं्टानामन्येषां भाचीनवेचाचार्याणाम-. `
साधारणं नामापि महाभाष्यङ्कता न कीर्तितम्‌ ॥ ` ` `=
१, तवाप्तोपदेशरूपः ब्दः प्रमाणम्‌ । आप्रो नामलुभवेन
वस्तुतत्तवस्य कात्सन्यंन निश्चयवान्‌ रागादिवद्यादपि नान्यथा यामल्दा- `
१. आघन्तवदेकस्मिन्‌ ( १-१-२० ) स्वारतात्संहिता
., वादी यः. सः इति चरके पतञ्चछिः ( नागेशमन्जूषायाम्‌ ) ॥ तानाम्‌ (१-२-२९) समासस्य (६-१-२२) उलभण्विषु
उपोद्धातः ।
त भोजि
कि छ क छ ^छ क ^च

ादिगणे प्रवि खविषयेऽपि विश्श्यमाने एवं प्रतिभाति । शारीरे प्रथमाध्याये


कतूकथादि सुत्र (४-२-६०) व्याख्याने उक्थ | पूवाद त्रयोविंदातिथरश्नेषु षद्धातुसमयायात्मके चतुरविर-


स्याप्यायुरवैद्चब्दस्य उकप्रस्ययरूपस्यानिदशेनम्‌ ; तत्रैव तितच्वसमवा
५५
=

यात्मके वा चेदनायोगनिवर्तनाह कम॑पुरुषे एक-


विद्यारक्गेत्यादिवार्तिकसम्बन्धिवियोदाहरणे शवायसविधिकः,
विरातिप्रश्नान्‌ समाघाय-“क चेता वेदनाः सव निवृत्ति या-
सार्पनियिकः, आङ्गविद्यः, धार्मविद्यः, त्रैविद्यः इति न्त्यशेषतःः इल्युपन्यस्तस्य सर्ववेदनानिवृत्तपुरूपविषयकस्य
निदशर्यापि स्वयमाचा्थभावेनाधिष्टिताया अआयुवेदविद्यायाः म्रश्नान्तरस्योत्तरणाय--
ससम्भमं नामानुषादनं; रोगाख्यायां ण्वुल्वहुरम्‌ ( ३-३-
१०८) इति सूत्रव्यास्प्राने रोगवाचकराब्दोदाहरणादानं; व्योम मोन्ते च सर्वासां वेदनानामवर्तनम्‌ ।
रोगाच्वापनयने (५-४-४९ ) इति चिकित्ारूपविरुक्षणार्थं मोक्ते निन्रर्तिर्निः्ेपा योगो मोन्तप्रवतंकः ॥""
तविल्यव्ययस्य काक्चिकादाविव श्रवाहिकातः ऊरः इत्यादरेक- इति अन्तःकरणविषयदुर्योगजनितसुखदुःखराहिस्यावस्थो-
स्याप्युदाहरणस्यादानमपि माव्यकारस्य चरकाचायंभावे कौतु- दयस्वरूपस्य योगस्योपादानमस्ति 1 पुनः पञ्चमाध्याये
कं जनयति ॥ पूर्वोक्तमेव विषयं विवरीतुमधिवेयपृरष्ठेनात्रेयेण प्रवरृत्तिनिघृत्ती
"चतुर्थे बहुं छन्दसिः ( २-२-६२ ) इति ।सूत्रे ष्यरथे विभज्य दर्शयता निन्ुच्यास्मकेऽपव् पूर्वोक्ताः सस्सङ्गवद्धचया-
चतुर्थ वाच्या, इति वार्तिकोदादरणव्वेनोदाहते तैत्तिरीयवाक्ये दयः साधनखेन गच्वाक्येः सविरेषं पुनः अतिपादिताः । अन-
रजस्वरूाभिः पारनीया धर्म॑शाखानुरूपा नियमाः, अन्यथा- योः पूर्वापराध्याययोरेक एव विषयो भङ्गीमेदेनात्रेयेणेव निर-
भवे सन्तदयनिष्टो्पत्तिरूपफटानि च सविशेषं महाभाष्ये पित इति प्रविसंस्कवचरकेन सम्भावित्तात्‌ पतञ्जरेः प्राक्तन
निरूपितानि । इध्थमेव सुश्रते शारीरद्ितीयाध्याये (पृ. २०१) एवासौ रेखविषय इति भाति ॥
सफटनिर्दैशं विश्षदरूपेण प्रायः संवादिना स्वरूपेण निर्दिष्ट सुश्चते चिकिस्साशणखोपयोगितया तदधिकस्य पञ्चमहा-
मस्ति । सम्भावितपतज्नल्यमेदेन चरकाचार्येण तु श्ारीरजा- भूतक्षरीरिसमवायाप्मकस्य कर्मपुरपस्य, मेडसंहितायामपि
तिसूत्राध्याये ( प्र. ३३७ ) महाभाष्ये सविशेषमुद्धता अपि तथाविधस्यैव षड्धातुचेतनासमवायरूपस्य, अस्तां काश्यपीया-
रजस्बखानियमाः सामान्यत एवोक्ताः, फलानि च नोह्धिखिता- यामपि “ञरीरेश्ियात्मसच्सभुदयं (रूप) पुरूपमाचक्षते आत्मा-
नि, पा््राशेऽपि विसंवादश्चेव्यप्यवधेयम्‌ ॥ नमे ( पृ. ६७)” इति शरीरशरीस्सिमवायात्मकस्येव निद
भाप्यकारोक्वया स्स्येधातोर्धनीभावार्थकात्‌ खीकाब्दः, सूधा- शनेन एतदनुरूपप्राचीनसिद्धान्तरीच्या आत्रेयेणापि तावदेव नि-
तोः प्रवृर्यथंकात्‌ पुंसृशब्दौ निष्पाद्यते, तेन घनीभावरूपार्थ- दिश्य स्वीयवैद्यदश्चंनपरिपारनस्यौचिव्येऽस्मिन्‌ प्रकरणे मोक्लो-
मादाय सखीरमग्यवहार इष्यायाति । चरकटेखाद्धनीभावमादाय पयोगिनो योगवरिषयस्य निदर्शनं पश्चाच्रकेणेव प्रतिसंस्करणे
पुरुषस्ं प्रदश्य॑ते । प्रसवस्य मातृघमस्वेन शू माणिगर्भविमो- प्रवेशितं स्यादित्यभ्युपगमेऽपि एतदीया पातञ्नरुसूत्रोत्छा च
चने' द्रति पाणिनीयधातुपाटाच्च रोके इव खी सूते, माता सूते योगग्रक्रिया नैकरूप्येण रुभ्यते । पातज्नरे ध्योगधित्तवृत्तिनि-
इति प्रयोगः स्वारसिक एव 1 भाष्य॑कारोक्तपरकरियया तु प्रसव- रोधः ( १.२), ता एव सवीजः समाधिः ( १. ४५); तस्याः
स्य पुङूषधर्मववेन निर्देशात्‌ पुमान्‌ सूते इस्येव स्वारसिकः,ग्रयो- पि निरोषे सर्बनिसेघानिर्वीजः समाधिः ( १.५०) इत्यादि.
गः, माता सूते इति प्रयोगस्तु अर्थान्तरविवक्तया जौपचारिक सूत्रैः अन्तःकरणस्य वहिनर्ीर्निरुष्य आत्माकारेकवृत्तिस्थाप-
इस्यवलुध्यते, इति चरकस्य भाष्यकारस्य च म्रक्रिंयाविमेदः नमन्तत आस्मा कारव्ृत्तेरपि निरोधेन निवातदीपायितसव-
एवमुपदर्ितैः साधकेवांधकेश्च चरकाचार्यस्य पतञ्चरेश्वाऽभेद्‌- व्यवस्थापनमिति सम्प्रसातासम्प्रज्तात्तकन्षामेदाभ्यां दहिषा
साधनाय सेदाभ्युपगम एव प्रयणीभवति मदीयदशटिको- विभिन्नो योगः, तादशयोगोदये च ऋतम्भरप्रज्तादीनि फरानिः
णोन्मेषः ॥ ` | | मोक्षस्वरूपं च “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्‌ ( १.३.) पुरषा-
किञ्च, चरकसंहितायां शारीरस्थानप्रथमाध्याये पुरुषवणेनग्र- शून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः केवह स्वरूपनिष्ठा वा चिति-
सङ्गे टस्य योगविषयस्य पातञ्जख्योगविषयेण सह संवदो शक्तेः, ( ४. ३४ )"” इति अत्मनोऽसङ्कटस्थचिर्स्वरूपमात्रवि-

1

श्रान्तिश्चरमसिद्धान्तरूपेण वर्ण्यते । चरकसंहितायां त-


१. तषो रात्रीः या खर्वेण पिवति तस्थै खर्वो जायते, यां मल- “'आत्मेन्दियमनोर्थानां सन्निकर्षात्‌ प्रवतंते ।
वद्वाससं सम्भवन्ति यस्ततो जायते सोऽभिश्चस्तः, यामरण्ये तस्यै सुखदुःखमानरम्भादात्मस्थे मनसि स्थिरे ।
स्तेनः, यां पराचीं तस्मै हीतंयुख्यप्रगद्मः, या क्लि तस्या अप्सु |
निवर्तते तदुभयं वरिवं चोपजायते ।
मारकः, याऽभ्यङ्क्ते तस्यै दुश्चया, या प्ररिखते तस्यै खरूतिरपमारी,
सङरीरस्य योगत्तास्तं योगणपयो विदुः 1" इति
यादृ्ते तस्यै ` काणः, या दतो धावतत तस्यै श्यावदन्‌, या नखानि
निङ्न्तते तस्थे कुनखी, था कृणत्ति तस्ये क्लीवः, या रज्जं यजति इन्दरियान्तःकरणादिकं ;बहिर्विंषयेभ्यः परावत्यं मनस
तस्या उद्भवः, या पर्णं न पिवति तस्य उन्मादो जायतते, अदट्याये आत्मनि स्पेर्यापादनं योग इति, |
जारमनाये तन्तुः ॥ “7 ` 7 “मत्तो रजस्तमोऽमावाद्रुचस्कमेसं यात्‌ ।
` ~ . २.खियाम्‌ (५।९।३) उञमहामष्ये॥ . . . वियोगः कर्मसंयोगैरपुनर्भव उच्यते ॥› इति
.. - , ॐप्रत्यक्षज्ारीरमूमिकायां पृ*८.॥. . .-.. „ रजस्तमोगुणनिवर्तने . केवरसास्विकस्वापादनेन कर्मशये
उपोद्धातः । &७
(1. + + + न + 0 ^ ^ ^ + + + ^+ त

कारीरान्तःकरणादिभिः सह आत्मनः स्थायी वियोगो मोक्त इतिं न्ते । एषु ब्रह्मचर्यादयः केचन पातञ्नखेऽपि यमनियमादङ्गेषु
चोपवण्यंते ॥ मरविक्ान्ति, सस्सङ्गोपवासशाखधारणम्रभ्तयो न तत्र साधने-
जनयोस्तुरनायां चरकीये शुद्धखस्वरोषतया केवरात्माका- षूल्िख्यन्ते, प्रव्युत तत्र अभ्यासवेराग्ये योगहेतुतया प्रणवोपा-
रान्तःकरणच्रुततिस्थे्यरूपेण योगेन तरेगुण्यावस्थासम्पा्यश्षरी सनमेन्यादिचित्तपरिकमप्राणायामासनादयोऽङ्भावेन विदोषेण
रान्तःकरणसंयोगापगमस्थेयं पातज्नरे तु कीत्यंमानाश्चरकसंहितायां नोक्ञिख्यन्त इति साध्नाशेऽपि
मोक्तपदाथस्वेन,
अन्ततो निर्बीजरूपतापच्या सर्वान्तःकरणवृत्तिविख्यपुनरनुद्‌- न सर्वाश्चतः सारूप्यम्‌ । येन केनचिदंरेन तौस्यंतु
यरूपयोगेनान्तःकरणिकन्रत्तिरूपसुखदुःखच्छायानुदेयेन कटस्थ- मुख्योपादैयांो सवत्र संभवत्येव । न च योगविदा पतञ्जररे-
चिन्मान्ररूपतयाऽऽव्मनः प्रतिष्ठापनरूपो मोत इति वाविभूता, अपि तु ततः पू्व॑मपि महाभारतादिष्वपि वर्ण्यते ।
सुख्यग्रमेय फर्योः स्वरूपवेरुकण्यमू्‌ । तेन चरकोक्तो योगः हिरण्यगर्भो योगस्य वक्तेति हिरण्यगर्भसमयादेव योगविद्यायाः
““च्रात्मस्थे मनसि स्थिरे रजस्तमो-ऽभावात्‌ , शुद्ध शाश्वतिक उदयः कीर्यते । महेञ्जोदारोभूग्भादपि योगस्थपुर्‌-
सस्वसमाधानात्‌?' इस्थेवं चिन्यस्तानां पदानां स्वारस्येन, रज षमूर्तंरुपरम्भात्‌ योगस्यातिपूवंकाखादनुचृत्तिरभारते इति सर
जान्मासंखाख्येन विदुषाऽपि स्वीये रिपोटेपत्रेऽप्युक्ञिखितमस्ति ।
स्तमोवृत्तिपरिहरिण विश्यद्धसश्वावशेषेण साखिकन्ुत्तिप्रधानस्य
मनस आस्मनि स्थैर्योक्स्यववोधेन पातञ्चरे सम्प्रज्ातकक्तायां श्रीयुतद्‌ासरुप्षेनापि छिखितं वतते । ततश्च स्वरूपतो हेतुतः
फरूतो विदशेषोपायतः पार्भिाषिकशब्दविरेषतश्च वेरुक्तण्यद्‌-
ग्रतिपादिते योगविषये एव चिश्राम्यति । यदि मनोख्यादिकं
कानेन पातञ्जख्योगप्रक्रियायां कालानुक्रमिकविषयविकासस्य
रतिपादितममविष्यत्तदेव साखिकनरत्तेरपि परिहारेण ध्येय चानु सन्धानेन उमयोरंखशेल्या विभेदेन च विभिन्नर्ेखनीद्वय-
माच्रप्रकाश्ावस्थारूपासंप्र्तातावस्थो योगोऽस्मादवागंस्यत ।
मवगम्यते ॥
पातञ्जरे त॒ सम्प्रत्तातकन्लातोऽप्युपरितन्यामसम्प्रज्तातकन्लायां
योगस्य विश्रान्तिस्तत एवेष्टसिद्धिः प्रतिपाद्यते इति सुसख्यकन्ता- महाभारते “अतः परं प्रवच्यामि योगशाखमयुत्तमम्‌?
वैरुक्षण्यमारोच्यते ॥ इत्यारभ्योपन्यस्तायां योगविद्यायामप्येवमेव इन्दियनिरोधपूर्वकं
मनस आस्मनि स्थेर्यपूवंकं मोन्ञयोगः कायः, तदुपायतया योग-
एवम -- शाखाभ्यासः, एकान्तश्ीरखुतया संयमः, इन्द्रियजयादयः कार्यां
''अआवेशश्चेतसो क्षानमर्थानां न्दतः क्रिया ।
दशि; श्रो स्मरतिः कान्तिरिशतश्चाप्यदशनम्‌ ॥ ` १. 011९7106
870 70. 10वप्रऽ (1रा177न० ४०], 1.
इत्यष्टविधमाख्यातं योगिनां बर्मेश्वरम्‌ 1 2. 54,
श॒दसस्वसमााधानाततस्सवंसुपजायते ॥ °` २. त19गप 0 10019 01105000 {958 प
इति चरकीये परपुरप्रवेश्षादयोऽष्टावेव योगविभूतयः, ता ४०1. 1. 2. 226
अपि आत्मनि मनःस्थेर्यरूपस्य सुख्यप्रमेयमूतस्य विभूतय ३. महामारते आश्वमेधिके अनुगीतापवेणि १९ अध्याये-
कीरस्यन्ते। तासासैश्वरबररूपेणाभिनन्दनं विघायेव विश्रम्यते च} अतः पर प्रवक्ष्यामि योगद्लाख्मस॒त्तमम्‌ ।
पातञ्जरे तु आस्मविषयकस्य योगस्य ऋतम्भरप्रत्तादीन्येव पएरू- युज्ञन्तः सिद्धिमात्मान यथा परयन्ति योगिनः ।॥ १५ ॥
नि । तत्साधनावस्थायामभ्यासदार्व्याय तचारकादिवत्‌ प्रव्यय- तस्योपदेर वक्ष्यामि यथावच्वं निबोध मै ।
कायरूपादिषु तेषु तेषु विषयान्तरेषु विधीयमानस्य धारणा- यदररेश्चारयननित्यं पश्यत्या्मानमात्मनि ॥ १६ ॥
ध्यानसमाधितिकारमकस्य योगाङ्गभूतस्य संयमस्य विभूतिरू- इन्द्रियाणि तु संहृत्य मन आत्मनि धारयेत्‌ ।
पतेन परचित्तन्ञान-सर्वभूतरूतन्नान-पूर्वंजातिन्ञान-हस्तिबर- तीन्रं तप्त्वा तपः पूव मोक्षयोगं समाचरेत्‌ ॥ १७ ॥
भुवनज्ञान-तारा्यूहन्ञान-कायग्यूहन्ञानाद्यो बह्वयः सिद्धयो तपस्वी सततं युक्तो योगश्ाखमथाचरेत्‌।
विभूतिपादे वर्ण्यन्त इति विभिन्न हेतहेतुमद्धावः, भक्रियाऽपि मनीषी मनसा विप्रः पदयन्नात्मानमात्मनि ॥ १८ ॥ .
विभिन्ना, कचनेकस्मिन्नपि विषये विभिन्नानां पारिभाषिक- ।
स चेच्छक्लोत्ययं सार्योक्तुमात्मानमात्मनि
शब्दानां व्यवहारश्च, न च विभूतीनामष्टसंस्यापार्नमपि । ता तत एकान्तरीलः स पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ १९ ॥
अपि विभूतयः “ते समाधाबुपसगाग्युस्थाने सिद्धयः (३. ३६)" संयतः सततं युक्त आत्मवान्विजितेन््रियः।
इति सुख्ययोगमार्गन्याघातकत्वाद्विचस्थानीयतया न समभि तथाऽयमात्मनाऽऽत्मानं सम्प्रयुक्तः प्रपश्यति ॥ २० \
नन्द्यन्ते ॥
योगमोच्तोपायवणनेऽपि-- यदा हि युक्तमात्मानं सम्यक्पश्यति देदश्त 1
'“सतामुपासनं सम्यगसतां परिवजंनम्‌ । न तस्येश्वरः कश्चित्‌ त्रैलोक्यस्यापि यः प्रमुः॥ २४॥
बरह्मचर्योपवासश्च नियमाश्च परथग्विघाः ।। अन्यान्याश्चैव तनवो यथेष्टं प्रतिपद्यते । [
धारणं धर्मशाखाणां विक्षानं विजने रतिः । विनिवृत्य जरामृत्यू न शोचति न हष्यति ॥ २५॥ .:
विषयेष्वरतिर्मोज्ते व्यवसायः परा तिः ॥ देवानामपि देवत्वं युक्तः कारयते वशी ।
इत्यादिना सस्सङ्गासस्सङ्गवजेनाद्यो बहव उपायस्वेन ण्यं रह्म चाग्ययमाप्नोति हित्वा देहमशाश्वतम्‌ ॥ २६ ॥ इति ॥...
८ उपोद्धातः ।
+ ह +क छा +का^ च + का ^ + ^ का चा आ ता+का + का ^ 01 + ^ ^ व का
न किक क व+ ^ ^

एव । आयुरवेदीयेषु प्राचीनरन्थेषु चुट रेडःध्त वादीयपद्‌ा-


एवं योगेन यथेष्टं नानाक्ञरीरप्रतिपत्तिः, देवानामपि वशीकरणं,
निर्भथत्वमङ्केखो निस्परहस्वयिस्यादीनि च जायन्ते इति निरू- थोपन्यासे उदाद्धितमेव । कश्यपेन तु भिषजां मिथो विमक्ञ `
पितो यः म्ा्चीनयोगविषयस्तस्य सर्वास छायाननुविधानेऽ विषयोपन्यासे सन्धायसम्भाषमेव प्रदश्यं विगृद्यसतम्भाषाया-
प्येतदीयम्रक्रियायाःसान्निध्य्मस्यां चरकीययोगप्रक्रियायां दश्यत विषयो (प्रू. ६१ ›) रशत एव सूचितो न प्रपञ्चितः । एवं
इति भ्राचीन एव योगस्य पन्था अनेनोपात्तो न त॒ पातञ्जरोक्त दर्शनेन प्रप्वीनाचायंगहीतमार्यैण अप्रियेमक्षिदेश्येन च स्वीय- `
इति भाति । तेनानयोराचायंयोरिमौ विभिन्नौ योगपरक्रिया- संहिताया सन्धायसम्भावायामेव धिश्रान्तं भवितुमर्हति
विरोषौ नामेदसाधनाय, प्द्युत मेदसाधनायेव पुरःसरतः ॥ मेषज्यविषये पकललग्रतिपत्तभावेल यथाकथमपि स्वस्वपक्तग्रतिष्ठा-
पनपरपक्चनिरसननिर्वन्धे नव्यः ससर म दादस्द
योगसुत्रकृतः पतञ्नेर्महाभाव्यकरेतः परतञ्चरेरप्येकयं विभे- नसन्धानस्येवौचिव्येन भिदुद्धसस्म प्य दु््ेभितं चखजाति- `
= ५८ १. ~~
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द -

ति । महाभाष्यकारसमयस्य
दो वेत्यन्नापि विदुषां मततमेदोऽस् निग्रहस्थानादीनां प्रपञ्चो हितं पन्थानं कण्टकितं जनयति ।
धातुरसायनविषयोस्थानात्‌ परक्तनतवैन रखायनक्षाखाचायः पत- उपरभ्यमानचरकसंहितायां वादविपयोज्ेखे-
` इ्ङिरपि विभिन्नः, केवरं नामसाभ्यमेषामिस्यपिं केषाचिदवि-
चारः! तदेषासैक्थमैक्यं वेति विमर्खन्तरे प्रृतविच्छैदभिये- ““विगृह्यभाषा तीच हि केषाञ्चिद्‌ द्रोहमावहेत्‌ ।
दानीं विरम्यते ॥ कुरशाटा नाभिनन्दन्ति करटं समितौ सताम्‌" ॥
( विमाने. अ. ८ )
अर्वेरूनीनामको खेखकस्त॒ अभिवेशचरकयोरमेदमनस-
न्धत्ते ! "तत्त अधिवेशकृते तन्त्रे चरकमतिसंसते" इति तन्व इति खन्धायसस्मायाया विषयस्योपसंहतौ तत्रैव पक्तपातः
कर्तृतया प्रतिषंस्कर्व॑तया चानयोः स्पष्टं विभेदोक्ेलेन प्रतिह-' प्रथमतो दर्तः ! एतावत्‌ पयन्त एव चिधय आत्रेयीय उप-
न्यते । विभिन्नयोरचार्ययोव्मक्तिमेदेऽपि तदीयक्रस्योरेकेनैव न्यासः स्यात्‌ । ततः परं विग॒द्यसंभापायाः पदाथेविदोषानुपा-
स्वरूपेण सिष्यमाणतया यङाःशेषयोरनयो ्रन्थतापर्येण हन्त ! दाय प्रवृत्तः “द्रमानि खलु पदानि भिपग्बादक्ताना्थमधिगम्याः-
सम्प्रतमैक्यमिव सञ्चातम्‌ ॥ नि भवन्तिः इ्यारभ्य “इति वादभार्गपदानि यथोहेशमभि-
उपरुभ्यमानम्रतिसंस्छृतचरकसंहितायामपि प्राचीनसांख्य- निर्दिष्टानि मवन्ति” इव्येतावत्पर्यन्त उपक्रमो पसंहारप्रथक्कृतो-
ु्शनस्थैवातिमात्रयाऽवरुम्बनेन, वौद्धमतच्छायाया अग्रवेशेन, ग्रन्थः प्रसक्तानुप्रसक्तपथेन पश्चाचचरकसमये प्रविष्टः फिरेति
संस्कारपरविष्टतया संभाव्यमानेषु रेखविषयेष्वपि प्राचीनप्रौढ- सन्दिद्यते । पुराकारेऽपि विभिन्नमतानां नानाचार्याणां भावेन
रचनादर्शनेन च प्रतिसंस्कतां चरकोऽपि नार्वाचीनः प्रतिभाति । मिथस्तेषां विमर्शास्तद्थं वादनियिमा अपि प्रमाणान्तरोपरम्भं
किन्तु भिषग्नितीयाध्यायरे न्यायदशं नीया न्यायनिग्रहस्थानाद- विना नासन्निति न निश्चयेन वक्तुंशस्यते ! भासकवेः प्रतिमा-
यो बहुशः पदार्थाः समीच्यमाणा अस्य विषयस्य प्राचीनतर्‌- नाटके प्राचीनाचार्यशाखेपु मेधातिथीयन्यायशाखं प्रतिष्टित.
स्वमभ्युपेतु प्रतिषदयन्ति । श्रौतदार्शनिकमरन्थषु गौतमसत्रा- मवगम्यते । तत्रापि वाद्विषयोज्ञेखः सम्भवति । परमत्र वाह
स्पर्यार्थशाखस्य प्रथगुक्ञेेन न्यायदाखमिति द्दमात्रेण तर्को
सर्व, चौद्धदाशंनिकमन्थेषु नागाज्ञनीयोपाय ( कोशल्य ) हृदं
मीमांसा विषयान्तरं वा, तक॑श्षाख्रव्वेऽपि तत्र वाद्विषथ आ
यादिप्रन्धेभ्यः पूर्व, न्यायच्छटजातिनिय्रहस्थानादीनां विग्य
सीन्न वा, सन्नपि किमाद्मक आसीदिति न निश्वेतुं शम्यते ।
सम्भाषायाञुपयोगिनां पदार्थानां निरूपणानुपरम्मेन बौद्धानां
महायानिकविचारोदये सस्युभयतः सङ्क पक्तप्रतिपत्तजयपरा-गौतमनागाज्ञेनादिभ्यः पूर्वतनेषु ग्रन्थेषु एतद्िषयानुपरुम्मेन
जयनियमनव्यवस्थाया विकासस्याुसन्धेयतया कतिपयपूर्वस- सामान्यरूपेण पूर्वतो वर्तमानानमेवेपां विषयाणां गौतमना-

मयाज्ञुमात्रया प्रवृत्त एष विवादविषयो गौतमनागार्जुनादि- गाज्ज॑नादीनां मह्नप्रतिमन्लभावोदये विकेपतः प्रसर इति वक्तु
भिभन्थप्रणयनेनोभयतः परिप्डरत्य नियमितोऽचगम्यते । पक्तप्र शाक्यते । एतद्न्तर्निथ्याय चरकगीतमनागाञ्॑ननिदिंवादवि-
तिपक्तभवेन विवादो हि पश्चाद्धयेदिङ्गागधर्मकीर्िप्रशतिभि्वौ- षयाणां तुलनायां पौरवापर्यपर्याखे
चने न्यायावयवविद्वान्ततस्प-
दवाचार्यैः प्रमाणससुचयप्रमाणवा्तिकवादन्यायहेतुचिन्द्वादिथन्थे- मेदादिषु चरकगौतमोक्तयोः सास्परदशेनेऽपि, गौतमेन कथात
षु, न्यायवेशेषिकाचायैवारस्यायनभाष्योदयोतकरवार्तिंकतातप- विध्यमुद्िश्य सन्धायसम्भाषारूपस्य वादस्य तच्वञुभुत्सुकथा-
यंटीकाताव्पर्यपरिशद्ध्यादिषु, जेनाचार्येश्च तच्वसद्य्रहादिषु त्मकतया, विगृद्यसंभाषारूपस्य जल्पस्य पक्षग्रतिपक्लकथार्मक-
स्वभन्थेषु मध्यकारेऽपि विवर्धितः परिदृश्यते । तेन यत्र यत्र तया, जर्पोपयोगितया चुल्जातिनिग्रहस्थानादीनां च निर्देष
विमर्ावसरस्तत्र तत्र विम्दीयपदा्थानामनुप्रवेशः सामयिक- नेन, चरकेण तु उपायहृदये न गा्नेनेव विवादपर्यांयरूपं
१. 1 पाण ० णता पाणण मि 0989 १. साङ्गोपाङ्गं वेदमथीये मानवीयं धमेद्चास्नं महिशरं योगद्राल्ं
| | प्ण]. २. 261. बाहंस्पत्यमर्थसाखं मेधात्तियन्थायश्याखं प्रचेतसं श्राद्धस्य चेति।
ए भ०४९ शश 0 भभम ए प, त, ०००३. ( प्रतिमानारके ृ. ७९)
२, उपायहृदयं नाम बैौद्धदाशैनिकाचार्य॑ण नागाजुनेन प्रणी २, चीनमाषाङुवदि तिमतीयभाषानुवादवस्रतिदाब्दच््रयाया
विवादविषयको ग्रन्थः, तस्य मूलग्रन्धस्य लोपेऽपि चौनभाषायामनु- भावानुवादमाव्रदद्चनेऽपि यथाबरिथततदलुबादतः संस्कृते विदित
` बादोपकम्भेन ग्रो तुचचीमारायेन संसते परत्यजुबादः इतो सत्यजुवादतो रभ्पानां विषयाणां तुरना ॥
` उपोद्धातः । ४९
ण क अ ५ +” 0

वाद्मभिप्रेवय तदयुबद्धतया दखुजातिनिभ्रहस्थानादीना निर्द- | चरकस्य कनिष्कवेयसे उपायद्टदये ैषञ्यविषयप्रसक्घेन


कानेन, तत्रापि छख्जातिनिग्रहस्थानग्रमेदानां चरकोक्त पिया सुश्चुतमनुस्मरन्नार्यनागाज्ज॑नः स्वसामयिकबौद्धनरपतेः कनिष्क-
गौतमोक्तं विभागसंस्याधिक्योपरुम्भेन विकसितावस्थायाः, स्य रानङुख्वे्ं तादशं प्रसिद्धविद्वांसं चरकाचार्थं किमिति
उपायहदये केषुचित्पदार्थेषु गीतमचरकोक्तरीतितः भरक्रियान्तरेण ना्नोक्िखिफुं॑विस्तवास्‌ स्यादित्यपि व्याघटयति चेतः।
संदेपदनेऽपि॥ अधिकन्यूनत्रविध्य-च््टान्तद्रैविध्य-सिद्धान्तध- यदि नाम साधनान्तरेश्रकाचार्यस्य ततोऽप्य्वाचीनस्वमसा-
म॑नचातुर्विध्य-विङतिविधग्रशनोत्तरखम्बन्धादीनं बहूुविरोषविष- धयिष्यत तदा आ्यनागाैनेन सुश्रुतमनुस्मरता चरकस्यासु-
याणां विकसितानां दश्चेनेन, विकासवाद्क्रमोपादाने चरकसम- ज्ञेखान्नागाञ्जैनसमयादर्वाचीनश्चरकसमय इत्यभ्युपागंस्यतं ।
याद्भीतमनागाज्च॑नसमये चिचारविकासोपरञ्ध्या एकस्मिन्नेव दाक्षेनिकग्रन्थभूतेऽस्मिन्ुपायह्दये रेतः भविष्े प्रासङ्गिके वेद्य
विवादयुगेऽनुस्यूतानामपि चरकगौतमनागाज्चैनानां किञ्चित्का- कविषये पूर्वेषामात्रेयाभिवेशकश्यपादीनामिव बहुसखमयमती-
रान्तरेण पौर्वापर्यमिति गौतमनागाजनसमयाचरकसमयः पूर्वै तस्य चरकाचार्यस्य वौद्धसम्प्दाये प्रविष्टतया दृष्टस्य प्रसिद्धस्य
अ्रतीयते । श्रीयुतसुरेन्धनाथदोसगुप्तमहाशयेनापि उभयतो जीवकस्य च जार्यनागाज्ञ॑नेन नामानिद॑शनं न खलु नोपपद्यते ।
विगरद्यसंभाषाया विषयान्‌ विखश्य गोतमाच्चरकरय प्राग्भाविषे तदनुरुरेखमान्रेणा्वागभावाभ्युपगमे आत्रेयादीनामपि तथात्वं
स्वाभिप्राय उद्धाटितो विद्यते ॥ । कथं न शङ्कयेत । सुश्रतसम्प्रदायस्य काश्यां, चरकसम्प्रदायस्य
„ बौदधत्रिषिरकस्य चीनभोषानुवादे कनिष्कनृपते राजऊुर- पाञ्चारुकाम्पिर्यादिपश्चिमप्रदेडे उदयेन तचत्र तत्र विमागप्रदे-
वे्श्चरको नाम रास्या दुधिकिरस्यं रोगं न्यवारयदिति वणेनो- रेषु कमशोऽनयोर्विंकसनौचित्यात्‌ पवतः प्रदेशेषु सुश्रतसम्पद्‌ा-
परुम्मेन चरकाचायंस्य कनिष्कसामयिकल्वराभादुपप्रथमशता- यस्य विकसनं प्रसिद्धिश्च विरेषतोऽजायत, येन श्यामकम्बोडि-
व्दीभवश्वरकाचाय॑इति पाश्चात्यपण्डितसिटवं नरेभीमहाश- याप्रदेक्ञगतयशोवर्मनयवर्मेरिराठेखेषु वेचाचा्यस्वेन सुश्ुत-
यानामभ्युपगमः । तदात्वे दा्शनिकार्यनागार्जनस्येतिहासिकोप- स्योल्केख उपकभ्यते । नागार्जुनस्य द्किणदेशे मगधप्रदेशेऽपिं
रम्भेन नागाज्जुनीये उपायद्दये इव चरकीयरेखेऽपि विगृद्य- विरोषतः सम्बन्धः, तेन पूर्वीयविभागे प्रसिद्धतरतय स्वसमाज-
संभाषीयविषयोपन्यासेन च आर्यनागाज्ञैनचरकाचायंयोः कनि- मानिततया च सुश्रतस्थेव बुद्धौ प्रथममनुस्णटत्या नागार्जनेनोप-
षकसामयिकत्वं संवदतिः। परं हिररेखेतिवृत्तादिभिः कनिष्क- ` अहणं कृतं किरेत्यपि वक्तु शक्यते ।परं चरकस्य कनिष्कराजकु-
सपतेवीँद्स्वस्य, नागाज्जनाचारये कनिष्कसामयिकत्वस्य च्व ` रुभिषग्भावे मिथः सहभावसम्पकैवेदुष्यपरिचयादिकसुपेतेना-
बहुशः सिद्धावपि तन्तरपरतिसंस्कर्तशरकस्येव कमिष्कराजकुरु- यनागाज्ैनेन सुश्चतादपि चरकः प्रथमतः कथं नायुस्मर्येत ।
वैचयस्वोक्ञेखे प्रामाण्यविषये मतविभेदोऽस्ि । श्रीयुतकीथ्‌- राजतरङ्गिणीकृताऽपि कनिष्कवृत्ते चरकः कथं नोह्विस्येत च ।
महाश्षयस्यापि तथेव मतं वर्तते ! चरकस्य कनिष्कसामयिकत्वे गौतमसूच्राविभांवात्‌ पूर्वमपि न्यायवितण्डादीनां पदार्थानां
तदीयराजङुख्वैयसे च कथं नेतदीयरेषे कापि बौद्सं्रदाय- प्रचार आसीच्‌, चरकीया रेखज्ञेटी ब्राह्यणम्रन्थच्छायानुविधा-
चछायानुवेधो दश्यते, कथं वा वैदिकमन्त्रादी्िरदिंश्य श्रीतप्र- यिनी दश्यते, तेन चरको न कनिष्कस्य सामयिक इति सिरम-
क्रिययैव व्यवहरणं चरकसंहितायां संगच्छैत, इत्यपि ग्याघातकं हादायादयः कथयन्ति ॥ .. ` ।
निर्दिशन्ति । आत्रेयाभिवेक्षग्रन्स्य चरकाचार्येण केवरं प्रतिसं- तदेवं चरकाचार्यस्य समयान्वेषणे यथोपरम्भसुपपत्तिवाद्‌-
स्करणोक्त्या पूर्वाचार्यरेखे सांख्यदर्शनस्य श्रौतग्रक्रियायाश्च गर्भाणि बहूनि मतानि विपश्चितां सक्पथसुपयन्ति । यथातथ-
वि्मानतथा चरश्टीयतस्संस्करणेऽपि न बौद्धच्छायानुप्रेश्षः, मस्य समयं परिच्छिद्यावधारयितुमसाधारणानि साघनान्तरा-
नैतावता प्रतिसंस्कर्तश्चरकस्यातिप्राचीनस्वं साधयितुं शक्यते,
ण्यपि गवेषणीयानि भवन्ति श्रीयुतप्रफुञ्ञचन्द्र॑रायमहोद्येनापि
इस्यपि केचन वदन्ति । केचन कचिस्स्वभाववाद्‌युङ्ञेखस्थरे चरकस्य सुश्रुतस्य च समयविचारे बह प्रपञ्चितमस्ति ॥
बौद्धमतमहिति ठीकाङ्ता चक्रपाणिना व्याख्यानाद्त्र बौदम-
तस्याप्यंशतः प्रवेशोऽस्तीव्यपि वदन्ति । केचित्तु स्वभाववादो
हि न बौद्धानामेव, ततः प्राक्षारादपि प्रदृत्त इति नैतावता अस्यां काश्यपसंहितायां रोगाध्याये काश्यपसम्मतरोग्ै-
अन्थ-
विध्यंवादितया, वमनविरेचनीयाध्यायेऽपि
, बौद्धमतानुप्रवेश इति वक्तुशक्यते दस्यपि प्रतिवद्न्ति ॥ |,
बा्यौचिद्‌- छव्याऽन्यक्तस्य मतबिरेषस्य वादितयाच“दति
क्‌

१. पाभ जी पता एा1108ग0ष $. 1. एर दारुवाद- वार्योविद (सि.स्था.अ.३) इति वार्याबिदस्यो-


109अकद्ुपप 9, | ॥ नञ्नजञिद्धेडाः छेखोऽस्ति। @कडुणकविकित्साध्यायान्ते वारो-
२, 10९36 2441156 (07071016.
३, पणा. 4518146. 1896 ¶,. शा. 2. 44५7. १. सुश्रतोदितया वाचा समुद्याचारसास्या 1 `
४, 0७, 80007त्‌7णडु ४0 धक्वोप्०ण सऽ #16 एकु
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एको वैः परत्रापि प्रजान्याधीन्‌ जहार यः +`


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0४8६, णभु कट ०४८०४ धद] 6 रश्म आनम योऽधातयद्राटररजो सुजारीन्‌ मेषजायुषैः । ` .;
8000168 1611. #116¶ 00106 00 ०३ ४ 8 196 १६४९. प्र)णप़ २, पाभग्फ ० चाप्तप् 0डापंक्नपु एण. 1.2. 0" छान
ण इन्कगम नभप्य९, 4, ए, भकः २, 406 | ` , ३, हौ रोमौ निजश्वागन्दशरेति वार्योविद्‌ः। (१. २९). `
४ {° उण
५५८ उपोद्धातः ।

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१ +का+)च + क 0
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विदनृषतये भारीचकश्ययेन . वारुमैषज्यस्योपदेश्चो नि्दिे- वाहो ज्ञायते । तत्रैव रोगाध्याये रोगपाञ्चविभ्यवादितया “पञ्च
ऽस्ति । उन्तरभागे बहशो जीवकस्य प्रश्ने सम्बोधने च सत्यपि रोगा आगन्तुवातपित्तकफत्रिदोषना इति दास्वाहो राजर्षिः"
"पार्थिव (खि. स्था.अ, १० ),विक्षापते (लि.स्था.ज. १०); नृपो- ८ धर. ३९ ) इति तस्य राजर्षिखेनोरूखेखोऽस्ति । रोगद्रैविध्यवा-
तम (खि. स्था.अ. १०), चप, नराधिपः इति सध्ये सध्ये दृश्य दितया वार्योविदस्य, रोगपाश्चविध्यवादितया दार्वाहस्य च
मानं राजसम्बोधनं राजान्तरस्याम्रकृततया एत्र नाश्ना निदिं गृथङ्धिदेोन विभिच्न्यक्तित्वं स्पष्टं भासते, ऊत्रस्योऽयं दारवाहो
तमेव वार्योविदमभिप्रेतीति; देशसास्म्याध्याये (काशिराजो राजर्षिरिति न ततः स्पष्टीभंवति । किन्तु-अष्टा्संम्रहस्योन्तर-
(कारिरालं ) महासुनिः (खि. स्था.अ.२५) इति काशिराजस्वेन स्थाने विषवेगविषये पुनर्वसुनञ्नजिदिदेह्यरुम्वायनधन्वन्तरिम-
निदिष्टोऽपि स एव स्यादिति च कच्यते । तेनेतज्ञेखान्मारीच- तविशेषोल्रेखदर्चनेन नस्नजिन्नामकोऽपि वेद्याचार्योऽवगम्यते ।
कश्यपस्योपदेश्यभूतस्तत्समकारो वे्याचार्यो वार्योविद्‌ः काश्षि- तदीयेन्दुव्यास्यंयां "नस्ननितो द्ारवाहिनः इति नञ्ननिदारुवा-
राज इत्यायाति । अशच्रेयसंहितायां वात्तकराकरीयाध्याये दि्षब्दो सामानाधिकरण्येनोपात्तौ । अत्रे्न्तश्लब्देनोपादानेऽपि
(च, सु. अ. ५२) मारीचिवार्योविद्योः पक्तप्रतिपक्तमावेन चरकचक्रपाणिच्यास्योयां दास्वाहनाञ्ना वचनोद्धारस्य द्च॑नेन
निरदैशषनमपि तयोः सहभावं संवादयति । वौतकराकरीये, यजैः काश्यपीयायामपि द्‌ारबाहनाच्ना मतोल्रेखेन चान्त्यव्णमान्न-
पुरषीये, आत्रेयभद्रकाष्यीये च आत्रेयेण-सह समवेतानां मह- विभिन्ना एकैवेयं व्यक्तिः प्रतिभाति । अन्यत्र कचन निर्दिष्टो
षणां सहभावेन वायोधिदस्य निश आत्रेयवार्योविदयोरपि दार्कोऽपिं नामैकदेशन्यायेनायमेव दास्वाहः किञ्च १ । वास्वा-
सहभावं, तन्न तत्र तदीयमतविरषोल्ञेखो वार्योविदस्य वै्याचा- हेन सहैक्यमनुसन्धाय नञ्ननितोऽनुसभ्धाने मेडसंहिताया
य॑त्वमपि स्पष्टमवबोधयति । यन्नःपुरुषीये आत्रेयसहभःमेन मृद्धितपुस्तके- |
काशिपतितवेन च निर्देशाद्‌ वाम॑कोऽपि काशिराजो परचयाचार्य वगान्धारभूमौ राजर्षिमभ्रनित्स्वगमार्गदः ।
इत्यवबुध्यते । काकचिराजवेनोपरुभ्यमानानां वैचयाचार्याणां सङ्गृह्य पादौ पप्रच्छ चान्द्रभागं पुनवेसुम्‌ ॥
दिवोदास-बामक-वार्योविदानां त्रयाणां मिथः फिरूपं पौर्बा- एवमुक्तस्तथा तस्मे महर्षिः पार्थिवर्षये ।
पमिति नैतावता परिच्छत्तं शाक्यते । वा्योचिदस्येदानीं विषयोगेषु विन्ञानं प्रोवाच वदतां वरः ॥ (पू. ३०)
ग्रन्थस्य वचनोद्धारस्य वा बहुशोऽनुपरम्मेऽपि आत्रेयकाश्यप-
संहितयोस्तदीयमतोद्धारदशंनेन तदात्वे प्रसिद्धिं दधान आाचा- इति राजपिम्निदित्येवं पाठदश्ेनेऽपि श्रीमदि्यादवजी-
य॑विरेषोऽयमिस्यवगन्तुं शक्यते । कश्यपेन वारभैषज्यमुपदि. महभागौस्तस् नोरपुस्तकारु्यगतपुस्तकात्‌ "राजर्षिनेश्नजिःसवर्ण-
पाटस्योपरम्भेनः पू्वापरवाक्यानुसारतः प्रथमा
तया निरविंशोऽयमपि कौमार्त्यप्रस्थानस्याचा्यैः किमु १ । मार्गदः इति्दपाटस्यैवौच
तदेवमान्रेयपुनवंसोर्मारीचकश्यपस्य च सहभावेनोभयतो नि- न्तराजर्षिखब ित्येन च तरपाठाजुसारेण नस्मजिन्नाम
| विशेवार्योविदो राजर्षिरपि मिथो नामोदरेखं कर्वतोरात्रेयपुन- मेडसमकारिकः कोऽपि
गान्धारपार्थिवः चन्द्रभागाया मातुः
सम्बन्धमादा य किर चान्द्रभागसं ्तितस्य पूरवापरसन्द्भसिद्धस्य
` वेसुमारी चकश्यपयोः कारुतोऽविम्रकर्षमवगमयति ॥ ` पुनर्वसोरात्रेयस्य सकारो विषविषयकं भ्रशनं चकारेति नायते ।
किंञ्चास्यां काश्यपसंहितायाम- अष्टाङ्ग्टदये रसादरक्छमित्यस्यार्णदन्तव्याख्यायां नं्रजितो चच-
'उपास्यमानमरषिभिः कश्यपं बुद्धजीवकः । नोद्धारस्य दर्शनेन, अ्टाज्गसंमरहे विषविषये ति नञ्मजितो
चोदितो दारवाहेन वेदनार्थेऽभ्य चोदयत्‌ 1› ( पृ. ३३) मतम्‌” इत्युङ्ञेखेन, भेदेऽपि विषविषये एतलपररनस्य दशनेन च
इति निरदैशेन पूवैभागे चरद्धजीवकस्य प्रदृतायांपररको दारु- सोऽयमेवेति संवादो ददीभवति । दारवाहस्य नञ्मजितश्च पार्थि-
चखेनोपकम्भात्‌ , इन्दुरेखतो इयोः सामानाधिकरण्याच्चानयो-
१. इति वार्योविद्‌येदः महीपाय महानृषिः । दादंस सर्वम- विषये तत्तन्नाश्नोपलभ्यमाना विरोषा गुणोपसंहारन्यायेन सम-
` चिरं बालानामथ मेषजम्‌ 1 ( चि. स्था.म. १३ )
१. द्दुष्यति प्रथमे रक्त द्वितीये श्वयथूद्धवः ।"" “सप्तमे मरणं
वेग इत्ति नग्नजितो मतम्‌ । ( अष्टङ्गहदये )
२. नग्नजितो दारुवाहिनोऽप्यत्र दुष्यति प्रथमे रक्तमित्यादि-
३, पुरा प्रव्यक्षपमौणं भगवन्तं पुनवसुम्‌ 1 समेतानां महर्षीणां क्रमेण संक्तवेगा इति सतम्‌ ( इन्दुञ्याख्यायाम्‌ पृ, ३१४ )
` प्रादुरासीदियं कथा 1" ' 'चार्योविदस्तु नेत्याह नद्येव कारणं मनः २. यदाह दारुवाहः--खक्ष्मसक्ष्मतरस्थेषु दूर्दूरतरेषु च ।
तथर्षीणां विवदतामुषाचेदः पुनवेुः । ( चरके ख. अ. २५) दोषो रक्तादिमार्गेषु शनैरल्यं चिरेण यत्‌ ॥*"" ""“
४. अत्रेयो भद्रकाप्यश्च“ `" श्रीमान्वार्योविदप्रैव राजा मति- ( चरकचक्रपाणिन्या्यायां चि. अ. ३)
मतां वरः 1“ "` "तेषां तन्रोपविष्टानामियमर्थवती कथा 1" ^" ४. चरकचक्रपाणिन्याख्यायां चि. अ. ३॥
षद्रसा इति वार्योविदो राजषिः ( चरके दर. म. २६ ) | प. निणैयस्तागःसुद्रितचरकद्वितीयसंस्करणमभूभिकायां द्रष्टव्यम्‌ ।
। ६. (नग्नजिदप्याह--तव्रादाररसात्पू्वं॑रसधातुविवर्धते । रक्तं
५. तदनन्तरं कारिपतिर्वामको वाव्यमर्थवित्‌ ।'"* """अच्रियस्य |
` -कचनमचुनिशम्य पुनरेव वामकः काशिपतिरुवाच भगवन्तमात्रेयम्‌ । धातुरसाश्चैव रक्ताख्यान्मांसमेव च ।॥' अषटङ्गहदयटीकायां शारीरे ! ॑
(चरके सू, अ, २५)
उपोद्धातः । ` धद ¶

न्वयं प्राप्नुवन्तोऽस्य गान्धाररजर्षेन केवरं विषविषय एव, रेनाधिगम्य तत्तषिदयाप्रकाशकानां महर्षीणां . निदे
्ष्णात्र-
अपितु वेविद्यायामाचार्यभावमवगमयन्ति । पूनि (रु. यस्य चिङिस्सितोपदेशकस्वसुक्लिखितं दश्यते । छष्णात्रेय
एव
१२) ारिरेोवरोक्ताशजञाखेऽप्यायुवदकृतृणां मध्ये बिन्नजितो पुनवेसुरात्रेयो भवतु मा वा । मेडेऽपि चरकसंहितायां कृष्णातन-
नाम दश्यते, सोऽप्ययमेव स्यात्‌ । मस्स्ये वास्तु्ासरोपदेशक- यस्याप्युपदेशोज्ञेखेन ततसहभाविनः पुनर्वसोर त्रेयस्य
तवेनापि नप्नजित उज्ञेखोऽस्ति, स नसनित्‌ गान्धारो राजा बाऽ-
महाभार.
तकालात्‌ प्राचीनव्वं ततोऽप्यायाति ॥
न्यो वेति न ततोऽवधार्यते ॥ तदेवमात्रेयसहभाविभाषेन मारीचकश्यपोक्ञेठः, वार्योवि-
` किञ्च-रेतरेयत्रह्यणे सत्रिययज्वनां फर्चमसभक्तणस्य दस्य मारीचकश्यपात्रेयपुनवंसुसहभावः, क्रष्णात्रेयस्य पुनव-
साग्प्रदायिकस्प्रद्शने न्मनितो गान्धारस्योज्ञेखोऽस्ति । ततः स्वात्रेयसामानाधिकरण्यं, चिकिस्सितप्रवर्तंकत्येन दछष्णत्रेयस्य
सवदिग्िजयराष्टूसम्पदादेः एकस्य तत्रिययजमानत्वस्य चोज महाभारते निरदंशः, आत्रेयान्तेवासितया मेडोक्ञेखः, भेडसह-
खेन नस्ननिन्नाम स्त्रियो गान्धारमहाराजः फर्चमसभत्तणेन भावितयाऽऽत्रयंुनर्वसूपदेश्यतया च गान्धारनृपस्य नञ्चनित-
गरतिष्ठितश्रीकः सर्वशत्रुविजयी चासीदिति म्यते। एवमत्र उज्ञेखः, नभतो दास्वाहस्य च सामानाधिकरण्यं, दार्वाहस्य
निर्दिष्टो गान्धारमहाराजो नञ्मजिदेव देशनामादिसाम्येन सेडेन कार्यपीये निदेशः, गान्धारनृपस्य नभ्रनितं एेतरेयव्राह्मणे,
ससंमानं राजपितया निर्दिष्टो गान्धारराजो नन्ननिद्धवितुमर्हति। गान्धारस्य प्राणविदो नस्रजितस्तस्पुत्रस्य स्वर्भितोऽपि शतप-
शतपथबरह्यणेऽपिं चिस्यां प्राणसदुपधाने नाञ्ननितः ( नप्ननि- थबराह्मणे कीतनं, दिवोदासस्य व्राह्यणोपनिषदादिपूपरस्भः,
पुत्रस्य ) स्वजिं, गान्धारस्य नञ्जनितशचोज्ञेलोऽस्ति । तत्र तलमूवंपुरुपस्वेन धन्वन्तरेछभक्चत्येवं स्वतो दशाः भरवत्यं दिचा-
प्राणमहिमवक्तुत्वस्य राजन्यबन्धुस्वस्य च निरदैरोन शारीरविद्या- रणे मारीचकरश्यपः, पुनवंसुरात्रेयः, भेडः, नभ्रनिहास्वाहः,
चायो गान्धारराजरषिर्नमरजिदेवानेनापि निर्दिष्टः प्रतीयते । अत्र वार्योविदशचते भेषज्यविद्याचार्या रेतरेयश्षतपथकालादन्वाचीना-
तदीयुत्रस्य स्वजित्नानोज्ञेखो भेडरेखे स्वर्गमागंद्‌ इति नञ्म- धन्वन्तरिदिवोदासवद्‌ बाह्यणोपनिषत्समये सहभावेन रेश्चतः
जितो विरोषणं च कञ्चन तदीयविजयवृत्तान्तं साम्येन सूचयति पौर्वापर्येण वा वतमाना आसन्निस्यवधारयितखज्ञः पन्थाः
किमु ?। एवं संवादेन नम्नजित एेतरेयशतपथकालादनवाचीन- पुरो मवति॥ ` ! =
र्वेऽनुसन्धीयमाने “नम्नजितो दाूवाहिनोऽप्यत्रः इति इन्दुखेखे तदेवंबेदकालादूरभ्य प्रतिष्ितेयं भारतीयायुवेदविद्या नाह"
अपिशब्दसत्तया व्यक्तिद्वयकल्पनेऽपि ओपदेक्षिकेन सम्बन्धेन णोपनिषत्कारेऽपीद्शोमहषिभिभारते तन्नापि विरेषतो बहुभि-
नस्जिस्सम्बन्धस्य पुनवंसोरात्रेयस्य तदन्तेवासिनो सेडाचार्थ- राचार्येः पथिमविभागे. परायुन्नतिमापादिताऽऽसीदिति निधा.
स्यापि एेतरेयरतपथव्राद्यगकारादनर्वाग्माव जायति तेन यंते इत्यलम्‌ ॥ | |
स्वणमागंद्‌ इति पददनेन पारसीकमहाराजस्य दारायसनाच्नः
समसमयकौ (8.0. 521-485 ) गान्धारमहाराज नम्नजिद्धेडौः भावप्रकाञ्चायर्वाचीनग्रन्थेषु कानिचिद्ैदेशिकान्यौषधानि,
इति कल्पनं न समीचीनं प्रतिभाति ॥ काचन वेदेश्या प्रक्रिया, धातुरसादीनां विरोष-
एवं महाभारते युगान्तेऽन्तहितान्‌ वेदेतिहासादीस्तपोव- र्सग्रन्थाः प्रयोगाः, अहिफिनादीनाद्चुपयोगाश्रेव्यादयोऽ्बा.
१. सृगुरतरिवसिषठथ विश्वकाः मयस्तथा । चीना विषया उपलभ्यन्तां नाम; ततः किय
नारदो नम्रजिचेव विशालक्षः पुरन्दरः । ताऽपि समयेन पूर्वतनेषु सिद्धयोगादिषु पारदधाष्वादीनां सा
मान्यतः प्रयोगद्शंनोपरुम्मेऽपि ततः पूर्वं बाग्मटसमयपर्यन्त- `
अष्टादरैते विख्याता वास्तुराश्लोपदेदकाः । मपीडदशा पिषया विशेषतोऽप्रविष्टा इश्यन्ते । चतुर्थीश्चता्दी-
| . (मास्स्ये २५२ अध्याये)
पुस्तकसर्खतया सम्भाविते बावरोद्ष्टतनावनीतकादौ, ततोऽपि
२. “तमेवमेतं भक्षं प्रोवाच रामो भभैवेयो विश्वन्तराय सौष- पूरवसवेन सम्भाविते हानंकोपर्न्धरेखुस्तकेऽपि स्वणादिधात्‌-
अनाय ।“" "“ “एतयैव प्रोवाच तुरः कावषेयो जनमेजयाय पारीक्षि- नासुज्ञेखेऽपि तदीयज्ञोधनादिविकेषप्रश्िया पारदाधुपयोगाश्च न
ताय ।""" "मीमाय वेदराय, नम्मनिते गान्धाराय “ते ह ते विशेषत उपरभ्यन्ते। अन्ततो महावम्गीयजीवकेतिन्त्ते भेष-
सवं एव महस्नग्युरेतं मक्ष भक्षयित्वा सवै हैव महाराजा आुरादवित्य ज्यानुपयोगिनो वनस्पतरविषये . गुरणाऽलुयुक्तेन जीवकेन तथा
इव ह स्म श्रियं प्रतिष्ितस्तपन्ति सर्वाभ्यो दिग्भ्यो वकिमाहवन्तः““' विधस्यैकस्याण्यनुपरन्धिकीर्तने, तन्न घृतनस्यादिभिरौषधैः श"
उरं हास्य राषटूमव्यथ्यं वत्ति य एवमेतं भक्षं भक्षयतति क्षत्रियो खक्रियया वा रोगिणां चिक्रिसनं, रसधात्वादीनां काप्यनु `
यजमानः” देतरेयाह्मणे ३५. «८. ृ. ८९२ ( आनन्दाश्रमञुद्रिते ) | मपि
योजनं चोपरुभ्यमान न्तमपि
जीवकसमयपर्य रसधा्वा्यौ* `
र. अथ ह स्माह स्वजिन्ा्जितः, नघ्नजिद्रा गान्धारः प्राणो वै || वेदविदधेद भधवान्‌ वेदाङ्गानि बरहस्पतिः। =. ` `
समञ्ननप्रसारणं यस्मिन्‌ वा अङ्गे प्राणो मवति तत्सं चाच्रति भाग॑वो नीतिशाखं ठ जगाद जगतो हितम्‌ ॥ _ . `
सारयति" "“"तदुषाच राजन्यबन्धुरिव त्वेव तदुबाच''*
44 (व नारदो वेद भरद्वाजो धयुयहम्‌.। = ` : ~
बराह्मणे ८-१-४-१० । ` + चरितं गाग्यैः क्ृष्णात्रेयश्चिकित्सितम्‌ ॥
४. छुगान्तेऽन्तर्ितान्‌ वेदान्‌ सेतिदासान्‌ मद्य नाणकानि तैसतेस्तानि वादिभिः, .: ,
| :..

ठेभिरे तपसा पूतमुज्ञाताः खयम्भुवा ॥ | ॥॥0) <| ८ रान्तिपवंपि


4५ अहम) ("` `

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र्ति भुन पु नक,
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उपोद्धातः ॥ `

षथानामप्रचरनमवरामयति । चैरकसुश्ुतंयोरपि घावूनां धानिषये परसियादैशस्य तसपवदेसानां च बहुशोनिर्दशोऽसति ।


मणीनां वौषधेषु उदेशमान् दश्यते, न तु तेषां शोधनाक्िं तेन पूर्वंभारत एव आविर्भूतं रसौषधमरक्रिया । भारतीयवै-
तस्सिद्धान्यौषधानि पारदौषधोज्ञेखोऽदहिफेनादयो वा निर्दिष्टाः यानामारग्यदेक्ोपगसमस्य चरकसुश्रुताश्यनुवादस्य भरतीय-
काश्यपीये तु सिकुभागे आत्रेयमेडरेखयोरिव श्लोधादिषु चिकित्साया आद्रणेनापि भारतादेव आरब्यादिदेशेष्वपि एत-
द्वित्रिवारमेव अयोरजस्तान्नरजसोरूपयोगोज्ञेखोऽस्ति। काश्यपीये द्वियायाः भचासे गम्यते । एकाददाद्रादशङताग्दीखमये आर
तच्डोधनभस्मीकरणादेरनि्दैदेऽपि भक्तणेऽप्युषयोगरेखेन शोधः ज्यदेरोऽपि रसम्रक्रिया उन्नतावस्थायामासीदिति तदीयेति-
नादिकमभिमरेतं स्यादिव्यनुमीयते । एतावदन्तरेण धात्वादीनां छरत्ततो विन्ञायते । तेन रसङशोधनादिपरिन्तानमारन्यदेशादुप-
पारदस्य चोपयोगो नान्न दश्यते । नवाऽहिरेनाद्योऽन्येवाऽवा रुञ्यं भारतेनेति कथनं यक्किञ्चिदेव । रसप्रक्रिया बहुशषताब्दी-
नीना विषया इश्यन्ते इति यथा यथा श्राक्तनस्वं तथा तथेषां पर्यन्तं पाश्वस्येयुरो पदेशीयेरनुपादेयव्वबुद्धया न परिगृहीता
पश्चाद्धवविषयाणां विररुताऽ्लुपादानं चेच्यते ॥ समयेन तदीयगुणपरिक्तानेऽवाक्समयत पव पाश्चात्यदेशेषु
प्रचकितेति समुक्धिखन्तीतिहासरेखकाः पी. सी. रायप्रश्तयो-
कुतः कदाऽस्योद्धम ! इति विचारे-रसायनविद्यायां प्रयुज्य महानुभावाः ॥
मानः केमिष्टरी ( 0णण््णमा ) शब्द्‌ः-अरूकेमी-विन्तानमव-
रक्तपारदं ओसदेशे रोमदेशे च भारताद्रतमिति रेखोपल-
बोधयति 1 केमिष्ट्रीकचब्दो भिश्रदेशीयात्‌'क्यामीः शब्द्‌न्निष्पन्न- स्भेन तदुपवणेने जायसवारुमहोद्येन रक्तपारदं
रससिन्दूर-
इति मिश्देशात्‌ प्रादुभूता रसायनविद्या आरन्यदेशे. भ्रीसदेशे मिति कोष्ठके वितं दश्यते । परं रससिन्दूरे रक्तपारदृशब्द्‌-
च प्रसव्य ;ततो धुरोपदेशे प्रससारेति कस्यचिन्मतं वतेते ॥
स्याप्रयोगव्नेन हिङ्कखपर्यायेषु तच्छष्दोपरम्मेन च सोऽयं
केचन-मिश्चदेशे तद्धियावाची क्यामीः शब्दो नोपरुभ्यते। न रक्तपारदश्षब्दो हिङ्करुमान्रपरः स्यादिति भाति ॥
वातत्र रसायनविद्यायःः प्रागुद्वेतिषृतचे किमप्युपरुभ्यते) केभि- भारते रसविद्याज्ञानं पुरेवासीदिति तप्रथमश्चतीम्दीवर्तिनो-
षटीशब्दो हि तृतीयज्चताब्दीभवादारन्याच्‌ “किमाद्" काब्दाज्नि- मतृहरेः उस्खातं निधिशङ्कया िितितटं ध्माता गिरेधांतवः,
ष्पन्नः 1 सोऽयं शब्द एरकेमीकण्दाथं सिनिसनामकेन विदुषा इव्युङ्ञेखेनापि ददीक्रियत इत्यादि केचंनोपचर्णयम्ति ॥
-स्वीयेऽभिधानमन्े निर्दिश्यते । सेयं विद्या न वा भिश्रदेशे, न
धातूनां वितानं प्रथमत एवासीदिति तु अआभ्रेयसुश्चुतका-
वा भ्रीखदेशे समुद्भूता । तथात्वे हेरोडोरख-डायोडोरस- श्यपादीनां धातङ्गेखेनापि ज्ञायते । बारुकेभ्यो जातमात्रेभ्यः
.प्टुचाट-ष्ठीनीरश्रतिमिः प्राचीनेस्तदीयविद्धन्निः किमिति सुवणेप्राशचन-तदवरेहनादिरूपं तत्फल-गौरवं च कश्यपेना-
तद्टिषये किमपि नोक्ञिख्येत ।मिश्रदेक्ीयानां मोसदेशीयानां च प्युपदिष्टमस्ति ( प° ४) धातूनां रत्नानां च धारणादिना
तृतीयचतुर्थ॑श्षताग्दीपयंन्तं रसायनविद्याया ज्ञानमेव नासीत्‌ । आयुरारोग्यादिश्रेयस्करव्वं श्रुतिषु स्छतिषु चोल्लिखितं बहुशषो-
एल्केमीविद्यायां पारदस्य प्रयोगः पश्चादेवोपरभ्यते। तेन दश्यमानमतिपुराकारादेव तदुपयेगोगपरिक्तानं भारतीयानाम-
पाश्चास्यदेरेषु रसायनवरिचयाविदां सर्वप्रथम आरव्यदेशीयो- भिव्यनक्ति । यजुर्वेदे “थमो देग्यो भिषक्‌, इति सद्रस्यापि
म्याजरनामको -विद्धानिति निश्चितमस्ति । तत एवैषा विद्या प्रथमवेचाचार्यतवं प्रतिपाद्यते । जात्रेयादिमिर्बह्यणः प्राथमिक.
सर्वत्र प्रससारेति केचन वदन्ति ॥ केचन वैदिकसमये सोमर- त्वसुल्िख्यते, न तत्र सद्रस्योर्रेखः। तन्त्रश्षाखे नाथसम्परदा-
सस्य बहुश्षो व्यवहारदरनेन रसायनविद्याया उद्धव ऋम्वेद्‌- यीयमन्थेऽपि रसवे्यकस्य विषयस्तत्र तत्रोपरभ्यते ! तन्त्रा
कारादेव भारते भासीत्‌। तन्मूरुकतया चरकादिसमये यूष- नाथसस्प्रदाये च शिवस्य परमाचार्यत्वं निर्दिश्यते। तेन
ज्ञारीररसादिषु रसशब्दो व्यवाहियत । तदनु रसस्यैव तरल- तान्व्रिकादिभरचकितरसवै्कादिरूपग्रस्थानान्तरे मूखाचार्यस्वं
-तागुणमादाय पारदे दवीकृतधात्रुष्वपि स शब्दो व्यवहृतोऽ- रूढस्य मवितुमहंति 1 रसविषयस्य प्राचीनतन्त्रमरन्थेष्वप्युप-
भूदिति भारतीयरसग्रक्रियाया मूख्मतिपुरातनम्‌ । रसक्रिया कभ्यमानतया चरकसुश्चुतकाश्यपीयादिषु ङेशतोऽपि तदक्च.
हि रसविषयकतान्निकमन्धेषु प्राथमिकतया, तद्नुगृहीतेषु नेन च अरवांचीनत्वमेवेति न वक्तुं शक्यते । अरवदेशे स्तम-
पश्चात्तनरसग्रन्थेषु विकसिततया समीच्यते। सेयं प्रकिया शताब्दीतः भचटितस्यापि रसायनस्य युरोपीयेः षोडकाश्चता-
नागाज्ैनेन प्रवर्धितेति विवेचकानां विचारोन्मेषश्च ! लोहशास्ं ` ब्दीत एवच ग्रहणमिव पू्वेतः प्रचरितस्यापि तन्त्रोक्तस्य रस.
पतञ्जलिना मिर्मितमासी दिति बहुस्थरेषु निरदि्टमस्ि। पार- वेद्यकस्य ॒वैदिकसंग्रदायानुरक्तद्टिभिरातरेयादिभिः स्वसमये
.सीकमतप्रवतंकाजलरथुषटात्‌ प्रगेव तदेशनिवासिनो ये मागी- रेशत एव अहणमारम्धमासीदित्यपि वक्तं न खलु न शक्यते ॥
जातीयास्तेरियं रसायनगुक्तविच्या भारतीयबराह्मणेभ्योऽधिगतेति धातूनां श्नोधनादिना योगेन च तन्त्रोक्ता भारतीयाऽपि
तदीयेतिहासाद्पि ज्ञायते । ओीसदेश्ीयरसायनमन्धेष्वपि तद्धि नानारसीषधनिर्माणप्रक्रिया बहुपुराकारे गुप्ताऽप्रचङिता आंक्षि-
करूपेण वतमाना वाऽऽसीत्‌। पश्चात्कारेनागादुनादिभिर्भारतीयैः `
१, (सुवर्णं समलाः पत्र रोदाः ससिकताः सुधा । रसविद्याचर्यः प्रकाशं विकासं चापादिता स्यात्‌ । येन अलनतर- `
मनःशिराढे मणयो रवणं गेरिकाशने ॥ 1
अन्थेष विशेषेण तदूयुपरम्भ इति वक्तुमनः प्रवणीभवतीत्यरम्‌॥
मोममोषधमुदिष्टमः ( चरकदनस्थाने अ, १) `
- २, पाथिनाः सुवणैरजतमण्सुक्तमनःशिाग्रकपाखाद्यः ! `
रि तकरा किन

१. मठृदरिः प्रथमङताम्दीवर्तीति विचा्यमेतत्‌ । |


. ( सुशुते सक्तस्थाने अ. १). |. २. धि तपण तमप€००६ 1919. 2. 1516
उपोद्धातः । ५३
ग्किष्कष्कष्कके 0 ॥# +

(३) संस्कारतुलनादिक्षदितो विषयपरिच्छेदः अनेन ` संचितस्य विस्तारः, विस्तृतस्य संेपश्च चर-


कीयनिबन्धनस्य मरक्रियाद्
वयं समीयते । तच संिस्स्य पूर्व.
्ाचीनाचार्थनाश्नोपरुन्धासु संहितासु श्रृद्धजीवकीयतन्तर- अन्थस्य स्थाने विस्तृतरेखान्तरस
रूपा काश्यपसंहिता, चरकसंहितारूपा आत्रेयागनिवेशसंहिता,
्य विस्तृतस्य पूर्व्रन्थस्य
स्थाने संरि्षरे खान्तरस् य यथौचित्य ं स्चनमिति .आवापो्राप-
सुश्रुतसंहितारूपा धन्वन्तरिसंहिता, भेड- म्रकरिययाऽपि सस्भवति । किं वा पूर्व्रन्थस्य "संरिक्षस्य नाति.
प्रतिसंस्कारः संहिता च प्राचीनेति ताश कचनार्वाची- विशदतया तदुत्तरं पुनस्तस्य विहादीकरणेन विस्तृतरेखान्तर,
| नव्वसंशायकानां पद्वाक्यप्रचन्धविरेषाणा-
पूवग्रन्थस्य विस्तृतस्य ग्रहणधारणयोः सौकर्याय सारांशमादाय
मनुप्रवेश्लोऽपि संस्कारवक्ञादेव स्यादिति च सविरोषुपदरितम्‌॥ संग्रहणेन संकिसिरेखान्तरमपीति संग्रहिग्रहथक्रियया पौन
तत्न काश्यपसंहितायाः संरिक्षस्वरूपविशेषस्य ब्रृद्धजीव- त्तथग्रक्रियया वाऽपि संभवति । अनयोः प्रक्निययोः प्रथमा
कीयतन्त्रस्य वास्येन प्रतिसंस्करणमेतदीये संहिताफल्पाध्याये जावापोद्वापप्रक्रिया यदि गृहीताऽभविष्यत्‌ , तदा आत्रेयसं-
( क० स्था० ) कण्टोक्तमेव । आत्रेयसंहितारमकस्याग्निवेश्ञत- हिताऽग्निवेशतन्त्ररूपस्य मूरग्रन्थस्य स्वरूपं बहुरनांऽदोन विष-
सत्रस्य चरकाचार्येण प्रतिसंस्करणं च चरकसंहितायाः अधिवेश्ल-. यांसमापरस्यत । तथाष्वे नवमेव विरचनमुपजातम
िति चरक-
करते तन्त्रे चरकम्रतिसंस्कृते” इति शोके स्पष्टमेवोक्तमस्ति । संहितायां ग्रन्थाभ्यन्तरे आत्रेयाग्निवे्ञप्र
तिवचनप्रकनादयुपन्य
सुश्चुतसंहितायाः प्रतिसंस्करणस्य अन्थाम्यन्तरे स्पषटक्तेरदशे- सस्यापि किं वा प्रयोजनं स्यात्‌ । तद्विषये वक्तव्य सामान्य-ा-
नेऽपि उद्लनादिभिष्टीकाकार्रर्नागा॑नीयं संस्करणयु्धिख्यते । विशेषात्मना शष्रीङ्व्याजुक्सवा संरेपविस्ताररूपेण
वाक्यसे-
प्रतिसंस्कर्ता नागाञ्जनो मवतु मा वा, तन्न तत्र विषयान्तर देन च पुनः पुनः कथनं चरकसंहितायामु परमभ्यमानं किंहेतुकं
दर्शनादिना संस्कारनिष्यन्नमेतदवर्वमानस्वरूपमिति त॒ स्वै्िद- स्यात्‌ , इति मूरसंहितायाः केवरूमावापोद्वापप्रक्रियया संस्क-
द्विरवधार्यत एव ! मेडसंहितायां कश्यपमतस्वेनो क्ञिखितः
रणेन नवनिबन्धनात्मकस्वं न चरकसंहितायाः, अपि तु मूल-
(चज्रिति कश्यपः" इति चल्र्निब्त्तिवादः, कश्यपोद्‌ छतो भेडीयः मन्थे कचन संक्षिप्योक्तस्य. विषयस्य विशदीकरणात्मना वि-
षदुर्षोत्तरं विरेचनवादश्च उपरुभ्चमेडसंहितायां विसंवाद सटृतरेलस्य कचन विस्तरेणोक्छस्ं विपा
द्शेयतीव्युक्तमैव ८ पृ. १३) 1 भेडसंहितायां उवरसमुच्चयो- तदु्थग्रहणधारणोपयोगिनः संतिप्तरेखस्यापि विन्यासेन पौ-
दुष्टतमेडवचनानां निरीच्तणे भेडनाश्नोद्‌९तेषु पञ्चाशदधिकेषु नरूकथप्रक्रिययाऽपि संस्करणं चरकाचार्येण विहितं संभान्यते॥
श्छोकेषु मुद्ितमेडसंहितायां रेशेत ( सारध॑श्ोकत ) एव चरकाचार्यं उपरभ्यमानेतस्संहिताया न स्वातन्त्येण
संवादेन उ्वरप्रकरणमिव प्रकरणान्तरमपि बहुशखुटितं विकर निर्माता, अपि तु पूवंषिद्धस्य आत्रेयसंहितागभितस्याग्निवेहयत-
ङ्गमन्तराऽन्तरा विषयान्तरं पुनः प्रतिसंस्करणं च स्पष्टमवद्ु- न्त्रस्य प्रतिसंस्कतेवेत्यस्मिन्‌ विचारे इयं समन्वयदष्टिरन्मिषति-
ध्यते । तदीयो विष्ठवो मेडसंहितायां धियमन्यथा गमयति । आत्रेयसंहितायां निदानविकिस्सितादिस्थानेषु प्रायो विष.
एकमात्रेयोपदेशमादाय पृथकप्रथङ्गिवन्धोरभ्रिवेशभेडयोः पश्चा- यानुपाद्ायेवाध्यायनामनिर्देशेऽपि
५, निदं
सूत्रविमानशारीरादिस्थाने
नरिदर्धीयिष्यमाणं बहुशः प्रबन्धनसाम्यं कचनांशे संवादासाद्‌- छचन विषयविशेषोपादाने सस्यपिं समाारीरादिस्ानेष
नमप्यनुसन्धीयमानं धियः पुनः परावर्तयति । तदेवं भेडसंहि- दाय कल्पितानि दीघञ्जीवितीयापामार्गतण्डुरीयारग्वधीयक-
तायां दश्यमानो दोषः कारस्येव श्षिरसि पातनीयः। पुनःसं- तिधापुरुषीयातस्यगोत्रीयादीनि अध्यायनामानि बहुशो दश्य-
स्करणोरखेखस्त॒ न क्ाप्युपरभ्यते, तथाऽपि पुनः अरतिसंस्करणं न्ते । जादिप्रतीकुपादाय नामकरणे कानिचिन्नामानि विभ-
क्तिगर्भपदव्यूहरूपाण्यपि दश्यन्ते। तत्तद्ध्यायोपसंहारसंग्रह-
स्वन्नापि जातं स्पष्टमवद्ुध्यते ॥ श्ोकेऽपि तेनैव नाम्ना तदध्यायोर्रेखद््शनेन इमान्यध्याय-
तन्रात्रेयसंहितादीनुषादाय निबद्धानामभ्िवेशतन्त्रादीनां
नामानि नाघ्येतृसंप्रदायमात्रकल्पितानि, अपि तु अन्थकन्तरेव
-चरकाचार्यादिभिः किंरूपं संस्करणं व्यधायीति विम चरकस्य रेखनीतो निर्गतानीति निश्चीयते । भेडसंहितायामपि सूत्रवि-
संस्करणे दढबरेन संस्करणक्रिया एवमुपव्णिता दश्यते- मानज्ञारीरेन्दियस्थ नेष्वादिप्रतीकम्राहीणि नामानि एकद्ववणै-
धविस्त ौरयति सेशोक्तं संदिपत्यति विस्तरम्‌!
संस्का कुर्ते तन्तं पुराणं च पुनर्नवम्‌ ॥ इति । विभेदेऽपि कानिचिदुभयतः साम्येन दश्यन्ते । यथाहि
# श्रध्यायनामानि शरध्यायादिप्रतीकाः-- | ॥
। | 1 ~
ति चरके- मेड-
नवेगान्धारणीयः न वेगान्‌ धारयेद्धीरः न वेगान्‌ धारयेद्धीमान्‌
मात्राशितीयः मात्रा स्यादाहारमात्रा मात्राशी स्या्धिपक्राश्ची.
आत्रेयभद्रकाष्यीयः जआत्रेयो भूद्रकाप्यश्च आत्रेयः खण्डकण्यश्च. `
यस्यश्यावनिमित्तीयः यस्य श्यावे परिष्वस्ते यस्य श्यावे उमे नेत्र
अवाकृरिरसीयः ___ जवादट्शिरा वा जिह्ञा वा_ अवाक्शिरा वा जिह्ला वा.__
- १.न्ञोषयत्येष
्णयव्यम भूतानि
मूतामि दारुणो
दारणो विषमज्वरः
विषमज्वरः । सु.
यु.पु.
पु, धू.
¶. १२१
१२
त्रिफङा कषायसिदधेन धृतेन मतिमान्‌ भिषक्‌ । स्नेदयेत यथान्यास॑ युक्त्या वृषध्तेनवा । ए. १२२
२. केशों विस्तरत्य संक्षिपत्यतिविस्तरम ॥ संस्कारः कुरते तन्वं संस्छृतं च पुननैवम्‌ ॥ .(इति ताडपत्रपुस्तके.पाठः ) . - „` ~
५४ उपोडातः 1
कौ + + ^ क!

एवं न्यायेनातरेयमेडयोः संवादीनि इन्दियोपक्रसणीय-ति- रेखद्धये सम्भवति । मिथोऽनपेन्तभवेन एकसुत्रानपेक्तभवेन


सैवणीय-वातकराकरीय-विधि्लोगितीय-द्राणायतनीय - च निष्पन्नयोः स्वतन्त्ररेखयोनेवंभावः सहतः संभवति ।
दक्तमूलीयाष्टोद्रीय-~रसविमान-पुषनि(वि)चय-खुड़ीकाग्भा- तेन आत्रेयेण त्मतीकेनोपक्रम्योपदिष्टानामध्यायानां वाक्यानि
वनऋछान्ति-जातिसूत्रीयादीनि नामानि च दश्यन्ते ॥ विषयांश्चोपादाय स्वस्वावबुद्धोपवंहणरूपाण्यर्थान्तराण्यप्यन्त-
सनेहाध्यायस्वेदाध्यायादीनां निदानचिकिल्खाभ्यायादीनां निवेश्य भडाग्निवेशाभ्यां पृथकथक्तन्त्रस्य प्रणयनादैवंरूपं
च विषयानुपगुह्य विहितानां नाम्नां साम्यस्य स्वतः सम्भवेऽपि साम्यं मिथः घञ्ञातमवगस्यते ॥
एवसुभयत्रेकेन प्रतीकेनाध्यायोपक्रमः, विभक्तिगर्भमपि प्रतीक- कचन आत्रेयसंहितायामादिप्रतीकञ्चुपादाय निबद्धानि कै-
मुपादायाध्यायनामकरणं, समाननामस्वध्यायेषु विशेषविषयाणां षाञ्चिदध्यायानां नामानि भेडसंहितायामध्यायादिप्रतीकविमे-
साम्यं च दश्यमानमेकसूत्रानुरेधेन विभिन्नकवैभ्यां विहिते देऽपि समानानि दृश्यन्ते । यथाहि-
भेडचर्कसंहितयोरध्यायनामानि- चरके प्रतीकः- मेड प्रतीकः--
व्याधितरूपीथम्‌. वौ पुरुषौ व्याधितरूपौ भवतः गुरव्याधिर्नरः कथित्‌ .
सरीरविचयः शरीरविचयः शरीरोपकाराथं इह खस्वोजस्तेजः. `
शरीरसंख्या शरीरसंख्यामवयवश्चः इह खद शरीरे षट्‌खचः.
ूर्वरूपीयम्‌ पूवंरूपाण्यसाध्यानां अन्तरो हितकायस्ु.
गोमयचुर्णीयम्‌ . यस्य गोमयनचूर्णां चूणं शिरसि यस्यैव.
एवं दललैनेन आत्रेयसंहितायां तत्तदुपकरमप्रतीकसुपादाय व्य- उत्तरर्मिन्नध्याये मेत्रेया(ौनक !त्रेयमतयोः पन्तप्रतिपत्त-
वहतेस्तेर्नामभिः प्रतीकेश्वाग्निवेकोन व्यवहते मेडेन स्वरसे प्रती- भावेन निर्देश इति त एव चिपया एफेन रुष्वारमना अष-
कविभेदेऽपि पूर्वपरम्परागतेस्तेरेव नामभिर्व्यवहतं प्रतीयते ।' रेण महात्मना यरतिपादिता दृश्यन्ते । एवमेव बहुशः स्थरे-
तेषां नाम्नां प्रतीकानां चात्रेयीयतया उभयन्न एकैकन्लो द्विश- ष्वभ्िवेरातन्त्रे भेडतन्त्रे च यथाक्रमं गौरवं राघवं चानुस-
श्रानुरूष्यं समुचितमेव । अग्निवे्ञीयमात्रखे तु सतीर््वेन मे- न्धातुं राक्येते ॥
डन तदनुसरणे बीजं दुर्निरूपं स्यात्‌ । चरकाचार्येण तैःप्रतीकै- काश्यपसंहितायां
चरकसंहितायां मेडसंहितायां सुश्चतसं-
रुपक्रम्य चरकसंहिता स्वयं निबद्धाऽभविष्यत्तद्‌ा ततः ग्राक्छनो हितायामपि गद्यमयानि पद्यमयानि च वाक्यानि दश्यन्ते ।
भेडः कथमिदमन्वसरिष्यत्‌। मेडाग्निवेदासंहितयोः स्थाना- क्षारपाणिजतूकणहारी
नामषटतयाऽध्यायानां सविशशतत्वेन
तादीनां वाक्यान्यपि कानिचिद्‌ गचरू-
संस्यासाम्यमप्येतदेव द- पामि कानिचित्‌ पद्यरूपाणि
शयति । सिध्यति प्रतिङ्कवांण इत्यात्रेयस्य शासनमूः इति तदीयग्रन्थानपि गयपद्यो रीकाकारेर्टषटतानि दश्यमानानि
भयसंघर्तिननुमापयन्ति । उवरसमु-
मेडसंहितायां चतुष्पादाध्याये ( पर. १५) अप्रतीकारवादं ख- स्चये एकं ज्वरविषयकमान्रन्ुपादाय तद्टिषये कार्यपात्रेयसुश्र-
ण्ड़यत्‌ आत्रेयस्य सनामग्राहं सशब्दच्छायोपादानं निर्दिष्टं मतं तादीनां हारीतादीनां सती््यानामन्येषासपि म्राचीनाचार्या्णां
चतेमानचरकसंहितायां महाचतुष्पादाभ्याये ( सू. अ. १० ) केवरं पद्यवाक्यान्युद्‌ छतान्युपरभ्यन्ते । तत्र गृहीतानां हारीत-
सेषिस्तरं निदिं संवदति ।ईद्शस्यात्रेयमतव्वेन निर्दिषटस्योभ- त्ारपाणिजतुकणंमेडादीनां सतीर्थ्यानामाचार्याणां वाक्यान्यु-
यत्र संवादोपरूम्भ आत्रेयोपदेशस्यैतदारमना पूर्वसचवं स्पष्टं पादायानुसन्धाने शब्दानुपू
रवींभङ्गी
गसथति च । खुडाकचतुष्पादाध्याये चरके मेडे चैकरूप्येणोप- नरसन्टन्धः समानो निगर्भोऽवद्ुध्यते विमेदेऽप्येकाचार्योपदेशसू-
। भेडतन्त्रवञ्जतृकर्णहारी-
कम्भमाना शहृण्डचक्रत्यादयः धिद्धान्तश्खोका अप्यात्रेयसंहि- तन्ञारपाण्यादीना
मात्रेयान्तेवासिनामन्येपामपि समस्पूर्णतन्त्राणि
तागता भविततमर्हन्ति । एवंरूपेरभयतः संवादिभिरध्यायनाम- यद्यरृप्स्यन्त, मेडतन्त्र मपि सकरुमधिकरूमरुप्स
भिर्विषयादिभिश्रानयोः संहितयोरन्तरनुस्यूताऽजत्रेयसंहिता पू- वाणि पुरो निधायारोचने एकोपदेशमूरख्कतया ्यत, तदा स-
सर्वतोऽनु दत्ता-
वंमासीदेवेति उद्धातुपस्थाण्यते । तामात्रेयसंहितामन्त्माम्य एतेऽजाः प्राचीना अत्रेयीयाः, मिथो व्याचरत्ता दमऽशास्तदेक-
तदीयविषर्योशोपादाय यथास्वं विचारवि्ेषोपवरहिताभिः स्वो- विदोषदष्टिविकासरूपाः संकारविभूतयो वेति पर्च्छिददशाः
क्तिभिरम्यन्तराऽन्तरा परिपोभ्य च संेपगप्रियेण मेडेन संरिप्ता- प्रसृत्या अभिवेखतन्त्रस्य चरकग्रतिसंस्करणस्य च विरोषमुन्
मी-
त्मना, विस्तारप्रियेगाग्निवेरोन विस्तृतस्मना सैव संहिता प्रथ- खयितुं विशेषारोकरामेन सीकर्यमभविभ्यत्‌ । तदेवं
कंणयत्तन्त्ररूपतामनायि । मेड चतुष्पाद्विषये एक एवाध्यायः,
उवरससुच-
योद्‌ तकतिपयवचनविषयसंबाद्द्टिरपि सनह्यचारिणामुचाव-
तत्र रथमत आत्रेयशौनकंयोर्विप्रतिपत्तिवादमुपादाय भिषजो चनानाचित्तभूमिकाष्वेकात्रेयाचार्योपदेश्चनीजवपेन परितः स-
` क्ञानवेशिष्टबदृ्टिरात्रेयस्य, ततश्वतुष्पादानां वर्भनान्ते सिद्धा- जातीयनेकाङ्करोदयं निश्चाययति ॥ |
न्तरूपेण भिषक्प्राधान्यवादोल्छेखः संकतेपेण दर्घितः 1 जात्रेयीये चरकसंहिताविषये चरकनाम्ना ्रसिद्धेयं संहिता चरकाचा-
तद्विषये द्वावध्यायौ, तत्र पूर्वस्मिन्‌ खुडकाध्याये चतुष्पादूा- य॑स्य कृतिरिति, रुघुरूपस्य पूर्वतन्त्रस्य सर्वाशतः परिवर्तनप-
उुपवण्यं सिदधान्तरूपेण सविशेषं भिषक्पादग्राधान्योल्छेखः, । रिविधनादिना चरकाचार्येण नवमेव निबन
्धनं कृतमिति, आयु-
उपोद्धातः । ५१९६

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^

जघ्वं गर्भस्याननुमन्यमानस्य भरद्वाजस्य मतंप्रतिर्तिप्य तत्स्था.


08
[एक

वेदविदां महर्षीणां समयाये तत्र तत्नोपजातान्‌ विमर्षानाकण्यं


सद्य चरकाचर्येणेयं चरकसंहिता न्यवध्यतेति च नाना- पयत आत्रेयसिद्धान्तस्य निरदँशोऽस्ति । चरके खुड़ीकाध्यायेऽपि
विधा पिचारवितकौ दश्यन्ते। परं पूरवक्तदिशा मूरभूताया सं एव विषयः, इद्युभयोः संवादेन एवंरूप एवात्रेयीय अशि
आत्रेयसंहितायास्तन्मूटकस्याधिवेश्यतन्वस्य च पूवंसतवस्य वेश्य उपन्यासः स्यात्‌ । चरके तदुत्तरं पुनरन्यो महागर्भावक्रा-
स्पष्टावगसेन .अधिवेशक्ते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते, इति स्पष्टतया न्त्यध्यायोऽस्ति । तत्र गर्भ॑सम्बन्धीन्येव विषयान्तराणि निरू-
चरकोकद्या च तन्त्रनिवन्धाऽथिवेश्च एव, चरकस्तु तन्त्रान्त- पितानि । तेषां विषयाणां भेडेऽनुपरम्मेन चरकीयः पश्चात्तनो
रेभ्यः सश्चच्चितैः स्वविचारारूदेश्च विषयाम्तरैः समुप्य ज- विकासः प्रतिभाति । अथवा खुड़ीकापददशेनेन महागर्भाव्क्रा-
न्यानपि संस्कारोचितविधीन्‌ पिधाय अथिवेशतन्त्रस्य प्रतिस न्त्यध्यायस्यापि पूर्वत आधिवेश्यसंहितायां सस्वं, सेडे खण्डित-
स्करतैव । चरक एवास्य रचयिता यद्यभविष्यत्‌ तदा किमिति स्वम्‌ , इत्यपि संभवति ॥ ` `
स आचार्यः स्वं नाम कर्थं तथारूपे ण नोदरेखिष ्यत्‌। अभिवे- वतंमानचरकसंहिताया उपक्रमग्रन्थे ऋषीणां समवाये
शस्य नामानि ग्नन्थाभ्यन्तरे सम्बोधनादिरूपेण बहुशो रभ्य मरद्वजेनेन्दरसकाश्चाज्ञब्धस्यायुवदस्य ्रकाश्चनात्‌ तमप्राक्तवत-
नते, मैवं चरकस्य नाम चरकप्रतिसंस्कृते इद्युर्रेखवजं कापि आत्रेयस्य शिष्यैरग्निवे्ादिमिस्तन्वप्रणयनस्य अग्निवेशादि.
मन्थान्तर्परभ्यते ! उन्तरश्नन्थपूरफो टडबरोऽपि-- तन्त्राणां युवि प्रतिष्टायाश्चाभिवेशेन कथनायेक्तया चरकेण
'अतस्तन्त्रोत्तममिदं चरकेणातिदुद्धिना । स्वसंस्कियमाणमन्थस्य साग्प्रदायिकत्वोत्करष्टव्वादिमहिमगान-
संस्कृतं तत्त॒ संसषटं विभागेनोपरुचयते ॥ स्यौचिच्यात्‌ , अभिवेरोन पश्चा्काप्येतद्ि्याथा भारद्राजोपदेशष-
यस्य द्वादश्चसाहस्ी हदि तिष्टति संहिता । प्रारसूतचनाव्‌ , प्रद्यु भारद्वाजमतस्य प्रतिक्ेपदश्शनेन भारद्रा-
चिक्रितसा बहिवेश्स्य स्वस्थातुरहिते प्रति ॥
जसम्बन्धविरोषोदरेखे तदौदासीन्यावगमाच, अयातो दीर्घज्ञ
वितीयमध्यायं भ्यास्यास्यामः, इति. ह स्माह भगवानात्रेयः!
इति व्दैश्रकस्य केवकं संस्कतृष्व, द्ादकश्षसाहसरसंहिताया- हति वाक्यद्वयान्ते हिताहितं सुखं दुःखं" इत्यादित एवाभिवे-
ज्निदेश्षीयस्वं च स्पष्टं निर्दिशति 1 चरकस्य विशेषनिषन्टभावे शतन्त्रस्य प्रारम्भे अन्तरागतो अन्थावतरणिकांश्चरकाचर्येण
तदुत्तरस्तदुपजीवी तदीयञन्धपूरको च्डबलोऽपि कथमेवमभि- पूरितिः स्यादिष्यपि सम्भाग्यते। . हिताहितमित्यादिकस्य
वेशं कर्व॑तयो स्किख्य चरकं संसकृत्वेनेव ङिखित्‌। स्वतः सञ्च- अन्थस्य प्राचीनप्रौदेरनुरूपरेखच्छायायास्त्पू्वाक्ये षिसंवादो-
रणश्षीरतयाऽन्वर्था चरकसंक्ञ वहताऽऽचार्येण सवंतोऽस्य ऽपि एतदेवाल्यातुं हृदयमभिभुखीकरोति ॥ . `
गन्थस्य संस्करणेन प्रचारणेन प्रवचनेन प्रयोगकौश्चरेन वर्तमानचरकसंहितायां मेडसंहितायां च दश्यमानयोः
उपकारपथस्य प्रवर्तनेन च चरकसंहितेति तन्नाम्ना प्रसिद्धिः नवेगान्धारणीयाभ्याययोस्तुखनायां चरकसंहितागतरेखे वेगनि-
भरवृत्ता स्यात्‌ । सैव प्रसिद्धिश्वरकाचा्थस्य कतसवभरान्तयेऽनाय- 8 ¦
सेधौचित्यानौचित्यसम्बद्धस्येव विषयस्य, मेडख्ेे त॒ अध्याय-
तेति मन्ये ॥
स्योपक्रमोपसंहारयोस्तद्धिषयसत्वेऽपि मध्ये तद्नुस्यूतानां दन्त-
तेन पूर्वोपदर्शितच्वबरीयसंस्कृरणपरिभाषोक्तरीस्या कचन
धावनधूमवर््यादिविषयान्तराणामपि तस्थने दर्शनेन अभ्िवे-
पदविरोषा वाक्यविरोषाः सन्दर्भविशेषा वा संस्कतंशवरकाचा- कीये सन्दर्भ्यद्धिः, मेडरेखे रचनायां किं वा उपरन्पुस्तकस्य
य॑स्य रेखनीतो निर्मत्यानुप्रविष्टा भवेयुः । सामान्यतोऽनुस- विकत्था तद्श्युद्धिरवगम्यते॥ ` _
न्धाने केचनेदस्चा विषयाश्चरकाचार्थस्य रेखनीसम्बन्धमिवाव-
भासयन्ति- | नावनीतके आत्रेयमतवेनोदू'्टतानां बहूनां योगौषधविशे-
च्चरकसंहितायां निर्दिष्टे बादन्यायवि षये दश्यमानस्य पश्चा- षाणां चरकसंहितायां संवादेऽपि द्वि्रयोगौषधानामसंवादेन,
तनविषयविकासस्य चरकसामयिकस्वसम्भावना पूर्वं दश्चितेव॥ ्रीयुतचक्रपाणिशचिवदासादिभिः अग्निवेश्लनाम्नोद्‌ धतानां कति-
स्वेद्क्रियाविभागनिरूपणे मेडसंहितायां सङ्करपरस्तरसे- पयश्छोकानां चरकसंहितायामदश्शनेन च अभ्निवेशसंहितातः
` काद्थोऽष्टावेव विभागाः कीर्तिताः सन्ति। उपरम्यमानचरक- संस्करणावसरे कियान्‌ भागो निष्कासितश्चत्यप्यनुमीयते॥
संहितायां मेडोक्विखितानष्टौ मेदोस्ततोऽन्यान्‌ पञ्चभेदानप्यु-इत्थमुपदरितदिशा ` भेडसंहितामभ्िवेशतन्त्रं ` च पुरो
पादाय त्रयोद्शविधाः स्वेदा निर्वि्ा दृश्यन्ते । त्रयोद्शधा
निधाय प्रतिविषयसुभयत जारोचने स्थलान्तरेष्वपि चरकसं-
विभागस्य्रेयोपदिष्तवे आत्रेयानुगामिन्यां मेडसंहितायांमपि हितागता मेडसंहितागताश्च विशेषा बहुशो गवेषकानां नयः
तावद्धिरेव सेदै॑वितव्यम्‌ । काश्यपसंहितायामपि अष्टविभा- |
गम्यते । प्राची- | नयोः प्रतिभासेरन्‌ ॥
गनिर्दरोन भाचीनो विचारोऽष्टविभागसम्बद्धोऽवाकटोर
प्ैर्टविभागैः सह योजितेषु भेदान्तरेषु जेन्त ूाकशब्दयो- चरकसंहितायामध्यायाम्यन्तरेऽपि तच्रतत्रोक्तानां गद्यवा- `
संहेपेण कचन विस्तरेण `
रबह्ययोरिव दश्यमानतया च भेद्‌न्तराणामनुयोजनेन त्रयोद्‌ क्यार्थानां प्रायः पद्यैः कचन गच्ैरपिमध्य े मध्येऽपि भवन्ति `
िदंशनमनुमापयति ॥ च सदु्हविरहरूपत्वमापाद् यते ।
ङाभेदवर्णनं चरकाचार्थस्य विकासद्टेरन ्थं क्चनोपपा- `
श्छोकाः” इत्यादिरूपेण कचन सद्नन्ते्हारअतर
मेढे खुडीकागर्मावकरान्तेरष्याय एक एव । तत्र मातापित- चात्र, अत्र ोधय श्लेकाःः =।
न्तः पद्मरेखाः, ग्रव्यध् यायम
-
इल्युषटा्थसंगराहकाः कोका जपि दृश्यन्ते । संवितस्य विवर
` दृकाथंमवब
शवदुमती वषं ९, शृ ३५८। `
.६ उपोद्धातः ।
= ~~ "५ "~~ ~^. न #॥ + त प त त ल त, ॥+ 98
+ 0

केन शष्टमसौकर्य, त्रिस्ठतस्य संरेपभेन धारणसीकयं भावयन्त भिवेश्चसंहितारूपस्वेऽपि वरिरङ्च्शछा वत॑मानसंहितायाश्चरकसं-


दर्थं रेखाः आचीनाचा्यरेखेपूपरुभ्यन्ते । व्याकरणमदहाभाष्य- । हितानाश्ना ख्यातिर्पाजायत फिर ! ॥
कारस्यापीयं लेखी । दम श्नस्यदिष्यदि कारिकाध्रतिपाद्या- | भेडसंहिताया। अपि तावदध्याया्मकस्वावगमेन च पूरव
थानं चूरणिकार्येरसयवावकयेर्विङ दकरण, श्ाखदीपिकाभाम- सविंशाभ्यायश्चतात्मकम्रन्थस्य स्थानाष्टकरूपस्य आत्रेयेण
स्यादिषु विष्ततध्रघद्कथ॑स्य कारिकारूपेण सङ्प्रहणं दश्यते । अभिवेशेन चोपदेशनस्योक्स्या साकल्येन वर्तमानस्यास्य
सुश्रुतकाश्यपीयादिष्वपि सद्य्रहविग्रहरूपेण द्विधा वर्णनं तत्र ग्रन्थस्य अपस्मारम्रकरणोत्तरभागस्य काटवश्षाद्विरोपेन चरक्छ-
-तत्रोपरभ्यते । इस्थमेकस्यापि विषयस्य उुभुरसूनां हदयोद्‌बो- समयेऽप्यसंस्कारेण पश्चादात्रेयोपदिष्टहारीतादीनामुपदेशेभ्यो
धनाय समासेन ग्यासेन द्विधा निरूपणं मूलाचायंस्यापि विषयाननुखन्धाय दडवखः पूरणं चकार किरति संभाव्यते ।
सम्भवति । एकग्रकारेण पएर्वाचायोक्ते पुनरपरथा पश्चात्‌ संस्कत पश्चास्पूरिते तावति भगे प्ापेक्तयाऽव्रतीर्णः पदयप्रायो चिभिन्न-
निरूपणमपि सम्भवति । गहनेषु विषयेष्वन्तर्मिमडन्ुणासुपयो- रेखोऽप्येतदेव समर्थयति ॥
गचेव्थसुक्तिमेदो न पौनस्क्त्यदोषमावहतीति प्रतिपत्तये- अग्निवेद्यनाम्ना चक्रपाणिशिवदासादिभिर्द््तानां वच-
। "गदो ्तोयः पुनः श्छोकैर्थः समनुगीयते । नानां दश्ञेनेन तावत्समयपर्यन्तमभिवेशतन्त्रस्योपरुन्धिरासीत्‌
तद्रयक्तिव्यवसाया्थं द्धिर्क्तं तन्न गछते ॥* किखेत्यपि सम्भावयितुं शक्यते) परं तथाते दढबरुखमयेऽपि
दति चरकसंहितायां स्पष्टमेवोक्तमस्ति । इत्थं समासन्या- तदवस्थितिसम्मवेन अग्निवेशतन्त्रस्येव शेषभागयोजनेन
सरूपाभ्यां रचनाकौशं शरीदिर्ग्याससमासौ च, इति गुणस्वेन पूरणसुपेच्य शिरोन्छुबरृच्या बहुभ्यस्तन्त्रान्तरेभ्यो विषयान्‌
-न पुनर्दोषेन की््यतेऽभियुक्तैः ॥ समुच्चित्य चिकित्सास्थानान्तससदकाभ्यायान्‌ सिद्धिक्पस्थाने
च निबद्ध पूरणे दढवरः किमिति प्रवर्तेत । अथिवेशतन्त्रतः
, तदैवं चरकाचार्येणाभिषेशतन्त्रं वाक्यश्च उपादायेव उपप- पूरणमनुल्िख्य तन्त्रान्तरेभ्यः पूरणं स स्वमुखेन वणयि ।
त्तिपूर्तये संिक्षये विश्षदीकृतये ग्रहणधारणोपयोगिततया च उपसहख्रवर्षपूर्वङिखितपुस्तकोपरम्मेन ततोऽपि प्राचीनतया-
स्वयमात्मना पूरणीयतया उपवंहणीयतया च श्ष्टानि पदानि ऽवगते उ्वरसयमुखये चरकस्य वचनोद्धारे सत्यप्यश्चिवेशवचनो-
चाक्यानि प्रघटकौँशानुप्रवेश्य भूरुवाक्यानां (स्वीयवाक्यानां च द्वाराभवेन, वाग्मरादिभिरपि चरकस्येवोल्ञेखेन, हारूरसीदनरप-
तिरुतण्डुरभावायमानमेव अ्रतिसंस्करणं व्यधायि । यथाहि समयेऽप्यस्या एव चरकसंहिताया अनुवादेन च वाग्भटद्डबर-
भारतग्रन्थमन्तर्भिवेश्येव नानोपाख्यानादीनि वैदास्पायनादिप्र- दिसमयात्‌ पू्वमेवाभिवेशतन्त्रस्य विलुधिरनुमीयते । चक्रपा-
श्नग्रतिवचनादीनि पूरणिकावाक्यानि आद्यन्तयोरूपक्रमोपसंहा- णिक्षिवदासादिपर्यन्तमप्यञिवेशतन्त्रोपरम्मेऽभिवेश्यस्य चरकस्य
रग्रन्थौँश्च निवेश्योपन्ंहणेन भारतस्य महाभारतभाव इति च तत्र तत्र विषये साम्ये वैषम्ये च बहुशः प्रदर्शयितव्ये कति-
महाभारतविमर्ऽन्यत्रास्माभिः प्रतिपादितमस्ति । एवं प्रायमे- पयानामेवाभिवेडावचनानायुद्धारदशेनं प्राचीननिबन्धेषु टीकासु
` वात्र संस्करणेन परिमार्जितरूपान्तरमुपपादितं चरकाचार्येण । विहितेभ्य उद्वारेभ्यस्तदुपरम्भं योतयति ॥ |
येन मूरुगन्थपरवशतया मूरूमन्धस्य यादसो †विषयपौर्वापर्य- सश्र॒तसंहितायास्तु संस्करणे न स्पष्टतया अन्थरेखोऽस्ति ।
क्रमः स एव संस्कारोत्तरमपीत्यस्यां चरकसंहितायां सुश्चतसंहि- केवरं 'प्रतिसंस्कर्तीऽपीह नागाजज॑नःः इति उल्ञनरेखमुपलभ्य
तापेक्छया विश्वङ्कितो ग्रन्थसन्द्भं इति.रोकदृषटिश्वरकाचार्थे- । सुश्रुतसंहितायाः प्रतिसंस्कर्तारं नागान केचिन्मन्यन्ते । नागा-
णापि न परिजहे 1 स्वातन्न्येणानेन निबद्धं यद्यभविष्यत्‌ तद्‌ जनस्य ्रतिसंस्कवभावेऽपि सुश्चतस्य ततः पूरव॑तन्वं सिद्धयति ।
-तादशः भौढविद्वान्‌ पौर्वापर्यकरमसन्दर्भश॒द्धिं कथं नादषंयिष्यत्‌। किन्तु वतमाना सुश्वुतसंहिता नागाजैनेन प्रतिसंस्छृतेस्यत्र न
समासम्यासभेदेन पौनस्क्त्यमापन्नस्य परकीर्णस्य विषयस्याप्ये-
किमपि बरवस्साधनमयुपरभ्यते इति पूर्वमेवोक्तम्‌ । यदि स-
कत्र सङ्करुनेन तथाभावं कथं न. प्यंहरिप्यत्‌ । एवंसंस्करणे मरतिसंस्कर्तांऽभविष्यत्‌ तदा चरके 'अभिवेश्षद्रते तन्त्रे चरकप्रति-
उवरससुच्छये आशिनभारद्वाजादीनामपि वचनोपलम्मेन तदूर- संस्कृतेः इति रेखवदृत्रापि स्वस्य प्रतिसंस्क्वृतां कथं नोदरे-
शिपथं गतत्वेन सम्भावनीयानां भारद्वाजादिसंहितानामप्यनु-
विष्यत । आर्यनागाज्ञैनस्य अन्यनागा्जुनस्यापि म्न्थान्तरेषु
सन्धानेन ततोऽपि सङ्गृहीता विषयाश्चरकाचार्येणात्रानुपरवे-
शिता भवेयुः! तदेवं बहुभिः भ्रयतनेर््यापारश्च भरतिसंसङ्त्य दास्यवचिषयसूचनाऽपि कचन नोपरभ्यते । आ्य॑नागाञ्जनस्य
उपायहृदये सुश्चुतस्य नामकीर्त॑नेऽपि पूरवनिर्दि्टमेषज्यविद्यानि-
भ्राचीनेयं संहिता बहुविचारविषयपृणेतां नीता स्यात्‌ । येनैत- रूपणे हाट्यविषयः पृथक्तया नोपात्तः । श्ञान्तिप्रधाने बौद्धमार्गे
त्परि्तानेन तन्त्रान्तराणां गताथेतामस्या महनीयतां च
संहितान्ते इटबरः स्वमुखेनोदिरति-- ` परिनिष्टितो बोधिसत्वस्थानीयो विद्धान्‌ शसखसाध्यायां शस्य-
| विद्यायां तो वा प्रदत्तः स्यादित्यपि सन्देग्षि चेतः। जआर्यना-
` "यदिहास्ति तवुन्यत्र यन्नेहास्ति न त्कचित्‌, इति ॥ गाजनेनान्येन तान्त्रिकनागाज्चुनेन वाऽस्याः संस्करणे दडवास-
, , तदनेन गुणगीरवेण_अन्वर्थ॑स्य॒चरकनान्न भानुरूप्येण नाजुस्यूता बौद्ीष्चायाऽवश्यमस्ां प्रेष्टुमहंति ! न खल्वस्यां
सवेतश्ररिस्व रचारणेन किलास्य अन्थस्परान्तरङ्गहशा आात्रेया- संहितायां कचन केशतोऽपि बौद्धसम्प्रदायच्छायोपरुभ्यते,
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, १, निदानस्थाने अ. २. लो. ४१९॥ . -. .


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१. इत्यध्यायदात विंशमात्रेयुनिवाश्जयम्‌ ॥

उपोद्धातः । ५७
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महेन्द्ररामकरष्णानां बाह्यणानां गवामपि 1 सुश्वुतोन्तरतन्तरे. रसरसेददश्ेनपरस्य चतुःषष्टयध्यायस्य


तपसा तेजसा वाऽपि प्रशाम्यध्वं रिचाय पे ॥ दोषप्रभेददशंनपरस्यान्तिमस्य अध्यायस्य चान्तरा पञ्चष्टित-
इति रामक्रष्णादीनां महिमोल्ेखस्तत्र तत्र॒वेदिकमन्त्र- मोऽध्यायस्तन्तरयुक्त्यध्यायः। कोटिलीयार्थराखेऽप्यन्तिमस्तन्त्र-
प्रयोगः, अध्याव्मविषये सांख्यद्र्शनग्रहणं च दश्यते । तदेवं युक्त्यभ्यायः । उभयोर्युंगपदारोचने उभयत्र द्वर््रिश्चद्िधानां
नागाज्ुनस्य सुश्रुतसंहितामरतिसंस्कतभाव अत्मनः साधनाय तन्त्रयुक्तीनामधिकरणादीनामूह्यान्तानां तदन्त्गतानामुहेशनि
वलर्वत्प्रमाणमपेक्तते । सुश्वतस्य पुनः संस्करणमुपलभ्यतेऽस्मा- दँशोपदेशापदेशप्रदेशातिदेशादीनां मन्थान्तरेष्वदष्टानामसाधा-
भिरिति बहूनां प्राच्यानां पाश्चाच्यानां च विदुषामभिध्रायः। रणप्रसेदानामन्येषां च पदार्थानां केवरं स्वस्ववे्यकनेतिकविषः-
चचिदर्वाचीनविषयाणामप्यनुप्रवेशदशनेनात्रापि संस्करणरे यकोदाहरणवजं निर्वचनसाम्यं दश्यमानमेकस्यापरत्र च्छायानु-
खनी प्रविष्टा इति ममाप्यभिप्रेतम्‌ । परमेतदीये संस्करणे वेधमनुमापयति । तत्र कतरस्यान्यतरस्मिश्छायानुवेध इतिं
चरकसंहितायामिव न पौनस्वस्यास्मकं संस्करणं प्रायः समो- पर्यारोचने कौरिरीये ओौपनिषदाधिकरणसमाक्षौ म्न्थान्ते
चयते । संस्कतां च उत्तरतन्त्रभागयोजकश्च अयमिति स्पष्टं शाखीययुक्तिप्रदशंनमिव सुश्रुतोत्तरतन्त्रे सदग्रवे्टम्हयो रस-
तु न ज्ञायते, परं मस्सकाशस्थे ६२३ नेवारसंवज्ञिखिते ताडप- मेददोषभेदघ्रकरणयोरन्तरा तन्त्रयुक्स्यभ्यायप्रवेशः पूवांपरसद्ग-
त्रीये सुश्रुत-पुस्तके पुश्पिकायां पूवभगे शसुश्चते शल्यतन्त्रे'इति, तिदाख्यमनुपयन्नन्यदीयच्छायानुवेधेन संस्करणान्तरे बाऽनुप्रवे्ं
उत्तरतन्त्रान्ते (द्रति सौश्चते महोत्तरतन्ते चतुःषष्ितमोऽध्यायः, ` सम्भावयति । चरकसंहितायामपि मन्थान्ते तन्त्रयुक्तेर्विषया
अतो निवण्टु भविष्यति इतिः तदुत्तरगते निषण्टुभागे समाप्ते उदेश्शमात्रेण निविष्टा दृश्यन्ते ! तेऽपि चडवबलरूपृरितांश्च एव ।
'सौश्चस्यां संहितायां महोत्तरायां निघण्टुः समाप्तः" इति रेखो पश्चात्तनेऽप्युत्तरतन्त्रे धन्वन्त्यंक्तिरूपतया पूर्व॑भागसम्बन्धेन
दश्यते । इदमर्थप्रस्ययान्तेन सौश्चतराब्देन सुश्चुतम्रन्थस्यापि
प्रामाणिकस्वविरेषमवगमयितुं (यथोवाच भगवान्‌ धन्वन्तरिः"
ग्रहणं सम्भवति, परं पूर्वापरभागयोरेकनिवम्श्टभावे . एकेनेव इति पूर्वभागवररेखोऽत्राप्यनुप्रवेशितो रेखकेनेति सम्भाभ्यते।
रूपेणोल्ञेखरय सञुचिततया पूर्वमगे सुश्चुतशशब्देन, उत्तरभागे तदस्यां सुश्रुतसंहितायामनुप्रवेश्यविषयान्तराणि मूरग्रन्थोत्तर-
सौश्रतशब्देन विभिन्नतया निर्देशः पूर्वभागः सुश्चुताचार्थस्य, मुत्तरतन्त्ररूपेण पृथक्तयंव संयोजितानि नतु चरक इव तन्त्रान्त-
उन्तरभागस्तद्रंश्यस्य सौश्रताचार्यस्येति बुद्धावारोहयति । रारुष्वेवेकदारीरतामापाद्य । येन नवपुराणयोर्विषययोः संहिता-
निघण्टुभागे उपक्रमे दिवोदासोपदेकश्ञसम्बन्धस्योङ्ञेखदरशनेऽपि न्तरसंगहीतविषयाणामपि परिच्छेदेन दशनं सुकरमुपजायते ।
मूरखाचायस्येकतया ग्रन्थस्य समूलस्वेन प्रामाण्यविशेषमाधातुं सुश्रुतसंहितायां प्रथमाध्यायान्ते “सविंशमध्याय्यतं प्सु
तथा निर्देशनस्य सम्भवितया,एतदीयरेखस्य किञ्चिदवतीर्णतया, स्थानेषु संविभज्य उत्तरे तन्त्रे रोषानर्थान्‌ व्याख्यास्यामः” इतिं
तस्मि्निषण्डुभागे उत्तरभागीयज्षब्दविरोषाणामपि प्रवि्टतया च मुद्ितपुस्तकपाठदशेने पूर्वसंहितासमये उत्तरतन्त्रस्यापि सद्धा
स निधण्टुभागोऽपि सौश्रुतस्येव भवितुमर्हति । उन्तरतन्तर वप्रतीत्या हयोर्भांगयोः समकारूखमेवायाति । परं मदीय-
संयोज्यापूर्णाशपूरकेण सौश्चताचार्येण पूर्वभागेऽपि कचन संस्क- सद््हाल्यगते भ्राचीनताडपत्रपुस्तके तत्र तत्र बहुशः पाठ-
रणविद्ोषोऽपि विहितः स्यात्‌। महाभाष्यकरतः सौश्रतशब्द- मेदाः सन्ति । अत्रापि ^....-. संविभञ्य उत्तरे वच्यामः' इति
घटितनिदश्चंनस्य दक्षनेन सौश्रतानामपि पूं प्रसिद्धिः, सुश्रत- ठोऽस्ति । येन १२० अध्यायान्‌ पञ्चस्थानेषु विभज्य अत
वंशथानां सौश्चुतानां शल्यविद्याविदां पार्थिवैः सह सम्बन्धमा- उत्तरं वच्याम इस्येव ्रन्थाश्यो, न किरोत्तरतन्त्रनिरदश इति
दाय सौश्रतपार्थिवा इति पूर्वतः प्रसिद्धिरिति पूर्वं दर्धितमेव । ग्रतिभाति । वृतीयाध्यायादौ अध्यायगणने मुद्ितपुस्तके दश्य-
तेन सुश्रुतस्य वंश्येन साम्प्रदायिकेन वा सौश्रुताचार्येण सुर मानः "तदुत्तरं षदषषटिःः इत्यंशोऽपि ताडपुस्तके नास्ति । किन्तु
तस्य पूवंतन्त्रं॑संस्कृतमुत्तरतन्त्र॑ निघण्टुमागश्च योजिते अतःपरं स्वनाम्नेव तन्त्रमुत्तरमुच्यतेः दस्यारम्भविहिता उन्त-
इत्यनुमीयते ॥ रतन्त्राध्यायविषयसंग्राहकाः विधिनाऽघीत्य युज्ञाना भवन्ति
पूवाचायंसंहितामुपरभ्यापि प्रस्थानान्तरीयाचार्यग्रन्थेभ्यो णदा भुविः इत्यन्ताः श्खोकास्तु ताडपुस्तकेऽपि सन्ति ।
विशेषान्तराणामवगमे तान्यमप्यनुप्रवेश्य पूवंसंहिताया न्यूनता- पश्चादुत्तरतन्त्रभागयोजनोत्तरं तद्विषयसुचीररोका दमेऽप्यनु-
परिहारेण सर्वाङ्गपू्तये प्रयत्नस्य साघुतया दशनेन किर पश्चा- म्रविष्टा बहुशः सम्भवन्ति ॥
द्योजकेन तन्त्रान्तरावगतविषयाणामपि संयोजनं, पूर्वतन्यां वृद्धजीवकीये तु 'पूव॑तन्याः काश्यपसंहिताया महेन ब्रद्ध-
दिवोदाससंहितामपादाय निबद्धायां सुश्रुतषंहितायामृत्तरत- जीवकेन संक्तिष्यतन्त्रे निर्भितमिति संहिताकल्पाभ्यायरेखेन
न्त्ररूपेण विहितं स्यात्‌ । उत्तरभागे निषिष्ठा विषया विदेहा- काश्यपीयसंहिता येन रूपेणासीन्न तेनेव स्वरूपेण ब्द्धजीवक-
धिपादिकीर्तितद्चारक्यादितन्त्रान्तरसम्बंद्धा इति तदुक्त्येव तन््ररूपतामापन्ना, अपितु सं्ि्तरचनान्तरेण रूपान्तरमापं्तौ
स्पष्टीभवति । तत्रत्ये कौमारश्वत्यप्रकरणे मूरे आचाययान्तर- इति स्पष्टमवबुध्यते । परं ब्रद्धजीवकेन सं्ञेपणेऽपि मूलसंहिता-
निर्देरो कुमाराबाधहेतुभिरिति सामान्यत उर्रेखेऽपि तदी मनपेच्य न स्वातन्न्येण रचनं विहितमपि तु तदीयोपदेद्यरू- `
काङ्कता पार्व॑तकबन्धकजीवकादिभिरिति निर्देशनेन जीवकस्ये- पाणि वाक्यानि तदर्थाश्चान्तमान्येव मध्ये मध्ये विच्छैदनीयवि- `
तद्भन्थोपरुम्मेन च काश्यपजीवकादिप्रोक्तास्तदीयविषयानप्यु- स्तृतांशानपहाय महत्याः संहिताया रुष्वाकारता केवलं विहिता
पादुायोत्तरतन्त्रे योजनं कृतं सम्भाग्यते ॥ इति तल्रेखतः प्रतीयते ॥ |
का० उ०
९८ उपोद्धातः । `
+ 8 ~ +
+ 0 0 ^ ता^ काक ।

अघ्रादितोऽन्तपय॑न्तं प्रत्यध्यायं पूर्वभारी | एवं दर्शनेन पूर्बोन्तरयोद्योभागयोः परस्परसम्बद्धयोरेक-


इत्याह भगवा कश्यपः, इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः? ङारीरभावेन समुच्धितस्यास्य मन्थस्य कश्यपसंहितारूपस्वमा-
इस्युपक्रमोपसंहारवाक्ययोरेवयरूप्यदद्॑नेऽपि तदन्तर्गतानि न पाततः प्रतीयते । परं पूर्वभागस्यान्ते पूर्व्रन्थोपसंहारस्मकः
संवांणि वाक्यानि कश्यपस्य, अपितु सिद्धान्तोपदेशवाक्यान्येव संहिताकरपाध्यायो भ्रन्थसमासेर्निदशंको रम्यते । गन्थस्य
तदीयानि, सध्ये मध्ये तत्तद्टिषयोपन्यासाय पूरणिकारूपेण सावदोषस्वे सर्वान्त एवोपसंहरणं युज्यते । भाचीने आत्रेयभेड-
निर्दिष्टानि उपक्रमोपसंहरणवाक्यादीनि पश्वादुचरद्धजीवकेन योरायुवेदीये संहिते सूत्रनिदानादिभिरषट्रस्थानैविशत्युत्तर-
वभ्चरस्वरूपतापादने पूरितान्यपि भवितुमर्हन्ति । जायन्तयोः शताध्यायेश्च पूणे समुपलभ्येते । तयेवाच्रापि पूर्वभाग एवाष्टौ
सर्वेष्वध्यायेषु इत्याह कश्यपः, इव्युल्रेखनं त सर्वस्यास्य स्थानानि तावन्तोऽध्यायाश्च पूयन्ते । संहिताकल्पाध्याय
विषयस्य रवकपोरुकल्पनारूपस्वमपद्वय कश्यपोपक्ञभावेन खेखेनापि-
कश्यपोक्तसंहिताया एव साररूपतया च प्रामाण्यं व्यवस्थाप- सूत्रस्थाननिदानानि विमानान्यास्मनिश्चयः ।
यितुं जीवकेन विहितं स्थात्‌ । त्याह कश्यपः इ्युपक्रम्य इन्द्रियाणि चिकित्सा च सिद्धिः कल्पाश्च संहिता ॥
निर्दिषटस्यापि प्रकरणस्याभ्यन्तरे पूवंभागे (साहसादतिबारस्य ( दरो. ७)
सवं नेच्छति कश्यपः” ( घर. १२२ ), मजवसथोस्त॒ मण्डं सर्वेषा इति संहिताया अष्टवेवोपविभागाः प्रदश्य॑न्ते । तदन्ते
. कश्यपः पूर्वम्‌ ( प्रू. १७ ), अथ कश्यपोऽव्रवीव्‌ सर्वमप्येतद- (समासा चेयं संहिता, अतः परं खिरस्थानं भविप्यतिः इति
सम्यक्‌" दस्यादिषु स्थर, खिरुमागेऽपि ^“पाययेदिति कश्यपः संहिताससािसूचकं पुष्िकावाक्यमपि दश्यते ! अनेन अष्टभिः
(अ. १० श्छो.७द), यथास्वमिति कश्यपः (अ. १० श्लो. ६ ६),पेय स्थानैः स्विशश्लताघ्यायैश्च वर्तमाना बद्धजीचकेन संक्तिप्तविन्या-
इति ट स्माह कश्यपः (अ. १०.५८) हव्यादिस्थणेषु पुनःकश्य- सान्तरमापादितेयं पू्व॑भागास्मिका काश्यपसंहितेति प्रतीयते ॥
पडब्दोल्खेखनं तदीयसिद्धान्तानामर्थानुवादं जीवकष्रतं सूचयति, तदुत्तरमनुक्तपरिशि्पूरणिकारूपेण पू्मागोक्तानां कति-
क्रिवा ब्ृद्धजीवकोपदेककस्य मारीचकश्यपस्य तन्न तत्र (इति पयानां विषयाणां विकासग्रक्रियया इतस्ततोऽपि सङ्गृहीतानां
कश्यपः” इत्यनुदेशनं प्राचीनकश्यपपरम्परामभिग्रेति । शब्द- काश्यपोक्तानां विक्ञेयानां विषयविरोषाणां योजनया च पूर्व
तोऽथतो वोभयथाऽपि गृहीताः सिद्धान्तायुक्तयः प्राधान्येन भागोक्तकममनुपादायेव प्रकीर्णविपयसङ्ग्रहायितः अदीष्य.
#।
व्यपदेशा भवन्तीतिन्यायेन कश्यपीयाःसंमान्यन्ते। मनुस्म्रव्या- ध्यायात्मकः खिरभागः आगन्तूनामन्तेनिवेशन्यायेन सुश्रुते
दिषु म्राचीननिबन्धेषु शिष्येण गुणा मनोः, सामश्रवादिभि- १२० अध्यायात्मकपूर्वसंहितोत्तरभुत्तरतम्चवत्‌ पुनर्यो जितः
यां्ञवरक्यस्य शब्दतोऽर्थतश्चोपदेशान संगृह्य सम्पूर्य च प्रतीयते ॥
निनद्धेषु मनसंहितायाक्ञवस्क्यसंहितादिनामभिर्ग्यवहारस्योप-
- छुम्भेन अआचीनाषेरचनासु दश्यमाना शेरी अत्राप्युचिता मेघदूतादिष केषुचिद्धन्थेषु क्थांशान्‌ द्विधा विभज्य पूर्वो.
समीच्यते ।पूर्व॑सम्प्रदायोल्केखे तरभागरूपेण विभागदर्शनेन नैवं सर्वत्र नियन्तुं शक्यते,
कश्यपस्येव तदुत्राणां काश्य-
पानामपि आचायभवेऽवबोधितेऽपि भरत्यध्यायमुपक्रमोपसंहा- तथाऽपि कादम्बरीदश्यकुमारादिषु पूर्वोत्तरभागयो रचनमेदः
रयोः ¶इति.ह स्माह कश्यपः? इति, मन्थाभ्यन्तरेऽपि तवर तत्र क्रचन कर्तमेदस्य स्पष्टमुररेखश्च । तद्येषु पश्चाप्पूरितांशस्य
कम्य॒पोऽनवीत्‌ इति कश्यपः दस्यादिरूपेण सर्वत्र कश्यप- केवरमुत्तरभागनाम्नेव एरथग्न्यवहारः । मन्थनाम तु सम्चि-
शब्दे
नेव एतदीय आचाय उक्खिख्यते ॥ तयौविस्तरमिच्डामि श्रौतं लक्षणमेव च ॥ |
अस्मिन्‌ मन्थे संहिताकर्पान्तः पूवभागस्तदुत्तरः लिल- ( पृ, १२३ )
भागश्चेति भागद्रयमीच्यते । उभयोर्मागयोः प्रत्यभ्यायसुप- स तिकौपक्रमाध्याये यच्च वक्ष्ये धिके मुने ।
क्रमोपसंहारयोः स्याह कश्यपः? इति कश्यपो पदेश्चरूपस्वेनोज्ञ- तदिहापि ्रयोक्तथ्यं सन्निपातचिकित्सितम्‌ ॥
खवाक्यानि सन्ति ॥ उ्वरसमुच्ये कश्यपनाश्नोदृ्टतानि वच- ( पिदोषकटपे )
नानि एतद्भन्थस्य पूरव॑भागस्थानि उन्तरभागस्थानि च संवादाय ` खिलमागे--कदयपं सवद्याख्लक सव॑लोकगुरं गुरुम्‌ ।
रुभ्यन्ते । उभयत्र कश्यपस्य उपदेष्टेतया पूर्वभागे सर्वत्र भागेवः परिपप्रच्छ संशयं संितत्रतः । |
जीवकस्य, उत्तरभागेऽपि बुधा जीवकस्यैव कचन जव्यक्त्यन्त- प्रोक्तं ज्वरचिकित्सायां विषमत्वस्य कारणम्‌ 1
रस्यापि उपदेश्यतयोररेखोऽसिति । अत्र पृवंत्तरभागयोरेको- वक्षतुमहंसि तकवेन सविशेषं सविस्तरम्‌ ।
पदेकासवगोधकानि पूरवमन्थेन सहोत्तरन्धस्य उत्तरघ्न्धेन सह | | (अ, १. रलो. २-४)
पू्वमर
न्थस्य च संयोजकानि वाक्यान्युभयोर्भागयोरपंरभ्यन्त अथ खल्वस्माभिः पूर्वं यद्रसविमनेऽभिदहितं ललाद्विचतुर्विशति-
े ॥
ररि
विधमाहारमारन तस्येदानीं प्रतिकस्पविशेषाजुपदेक्ष्यामः ॥ (अ. ५ गद्य ३)
१. पूवभगे-पमरच्छ निनयाद्वदवान्‌ कदयपं वृद्धनीववः , परिषेकास्त॒ बाखनां दन्तजन्मनि ये मया ।
उतस्थाने भगवता निर्दिष्टो द्विविधौ ज्वरः कीतितास्ते प्रयोक्तव्याः परिभूताक्षिरोगिषु ॥
पुनरष्टविषः प्रोक्तो निदाने त्वदरिना ॥ | (अ. १२ दलो. २५)
( ए, ९३) पूर्वंउ्वरनिदाने त॒ प्रोक्तः प्रप्येकश्यो मया।
प्लस्थाने भगवता ढौ जणौ परिकीतितौ । यथावृ्रेषां रूपाणि सप्रवक्ष्याम्यतः परम्‌ ॥ _ ..
उपोद्धातः । ५९
तस्यैवकाद्म्
कादम्वबरीदशक
रीदगक़ुमारचर
मार्वरितमित्
्तमितययादिकम
ादिक्मेव ।
। रामाग
रामायणेऽपि विषयगम्मीरमाज्नोपलम्यति
्मप | व-र्भरभाकवश्
---- चपरभ्यते
---- । एवं =
दरयनेन ==
प्रायो दास्वाहमे-
रामचन्द्रसदसि ऊुशरुवाभ्यां गीताद्धागादुत्तरो भागः पश्चा- रिताय जीवकाय कश्यपेन विहितानुपदेश्षान्‌ भराघान्येनोपादाय
त्पूरित एव स्यादिति वहूनां विदुषां विचारः। तद्धागस्योत्तर- पूवभागः प्रौढभ्रायग्रक्रियया, जीचकाय वार्यो विदादिभ्योऽन्ये-
काण्डनाश्ना भ्यवहारेऽपि समुचितभन्थस्येकेनैव नान्ना भ्यव- भ्यश्चान्यत्रापि समये समये कश्यपो पदिष्टान्‌ विषयानुपादायोत्त- -
हतिः। दहशस्थेषु यत्रोत्तरभागे रेखदैस्या विभेदोऽनुसन्धी- रभागो विकसितप्रायघ्रक्रियया निदः प्रतीयमानो रेखनीमेदं
यते, तत्र कठमेदेन समयभेदेन वा निर्माणमेदः प्रायिकोऽनु- समयभेदं चानुमापयति । संहिताकल्पाध्यायोक्तौ वृद्धजीवकनि-
भूयते । सुश्रुतेऽपि पूर्वभागे कौमारश्वस्याराक्यादिविषयान्त- वद्धतन्त्रस्य कञ्चित्कालं टु्तस्य प्राप्त्या वार्स्येन संस्करणस्य
राणां विकासेन संयोजनोचितानां विषयाणामुपलम्मेन एक- निर्देशोत्तर-
कतस्वे तत्र तत्रैव सविस्तरं वर्णनौचिस्येऽपि पूर्वत्र रारयग्रस्थान- स्थानेष्वष्टसु शाखायां यचकोक्तं प्रयोजनम!
पराधान्यरकताये कशत एव तादृशा विषया दृश्यन्ते । विस्तृताः तत्तद्यः प्रवच्यामि खिखेषु निखिखेन ते ॥ (सं.क.श्लो.२८)
म्रस्थानान्तरीयविषया उत्तरतन्तरूपेण प्ुनरूपलमभ्यमानाः पश्चात्‌ इव्युक्ति्हि वार्स्यस्येव भवितुमर्हति । तेनष्टास्थानात्मकमेव
पूरिता इस्यवगन्तुमौ चित्येन उत्तरतन्त्रनाश्ना निर्दिश्यन्ते 1 काश्यपसहितासंतपरूपं बृद्धजीवक
रेखरचनाभेदेनापि निर्माणभेदोऽनुसन्धीयते । एवमेव काश्य ीयं पूर्वतन्त्रे, तत्रानुक्तान्‌
सप्रयोजनान
ाचार्यान्तरय्न्थेभ्य उपदेरापरम्परातश्चागतान्‌कश्य-
पीयेऽपि खिकभागस्य पूर्वभागेन सहैव रचिते पूर्वभागे
पोपदिष्टविषयानप्युपादाय वास्स्येनेव खिरुभागरूपेणान्तेयोजना
प्रविष्टेष उवरादिव
ु िषयेष्वेव लिरभागोक्तानां ज्वरादिविषय-
गतविशोषान्तराणामपि सहयोगेन एकपिण्डभावेन निरू. विहिता इति प्रतिभाति । वास्स्येनास्य भागस्य योजनेऽपि
पणौचित्ये विशेषान्तराणां खिरभागे पुनः कथनेन उपदेश- काश्यपीयो पदे्ञानां शब्दतोऽर्थतश्चेतस्ततः सङ्कहणेन उच्चावच-
स्थानसमयोपदेश्यव्यक्तिमेदा्यवगमेन च पूर्वमन्थस्य खिल- ` रूपेणावस्थितेभ्यस्तत्तद्‌म्न्थान्तरगतेभ्यो रेखेभ्यो गृहीतानामं- |
भागस्य च कवृभेदेन समयभेदेन वा रचनाविमेदोऽनु- शानां विभिन्नभवेनात्र खिकूभागे कचन प्रौढा क्षचन साधारण्या
च प्रक्रियया ग्रन्थरेखदन॑सुसङ्गतमेव । वार्योविदकाङ्कायनभा-
सन्धातुं शक्यते । ऋण्वेदादिष्वपि लिररूपेण संयु- रद्ाजदास्वाहहिरण्याक्तवेदेहानां पूर्वेषां तत्सामयिक
क्तस्य भागस्य समयान्तरमङ्गीक्ियते विवेचकैः । अत्रापि लिल- ानां चाचार्या-
णां मतानि निर्दिश्य ब्रद्धजीवकस्यापि मतविरेषो निर्दिष्टः । अस्य
नान्ना निदेंशोऽपि समयसेदं कर्व॑मेदं चानुमापयति । नतन्तरं | बृद्धजीवकस्य समसमयकान्तेवासितया तदीयमतस्यापि कश्य-
सखिरमुच्यतेः इति संहिताकल्पाध्यायवाक्यदर्शनेन लिल-
पेन स्वयं जीवकेन वा पूर्वपततश्रेण्यां निर्दिश्यान्ते चरमसिद्धा-
भागसंहितायास्तस्या एव संहिताया बृद्धजीवकीयतन्त्रस्वरूप-
न्तरूपेण कश्यपमतनिदेंशनं सम्भवतु नाम, परं पश्चाहमनवि- `
तामापन्नाया ष्रृद्धजीवकीयतन्त्रसं, विरुभागीयविषयाणामपि
विरेचनाध्याये (सि. स्था.) कौत्सपाराशर्थ्द्काश्यपवैदेह-
काश्यपोपदेशास्मकववेनात्रानुस्यूततया सखिरस्यास्य ग्रन्थस्य वार्योविदा
संहितास्वं नां भराचां तादास्विकानां चाचार्याणां मतनिर्दसोत्तरं
चोपपन्नं मवति । अच्र पूर्वभागे- वार्स्यमतं निर्दिश्य सर्वेषामेषां पूर्ववादसेन चरमसिद्धान्ततया
, उपास्यमानद्षिभिः कश्यपं ब्रद्जीवकः। कश्यपमतनिर्दशस्थले प्रविष्टो वास्स्यः सिद्धान्तवादरूपेण निदि.
चोदितो दास्वाहेन वेदनार्थेऽभ्यचोदयत्‌ ।। ८ घृ. ३२ ) ्टात्‌ कश्यपमतात्‌ पूवं पूर्ववादरूपेण वहूकालोत्तरोद्धवस्य
इति दारवाहप्ररितस्य च्रद्जीवकस्य कश्यपेनोपदेशनमवग- परतिसंस्कर्तंवारस्यस्य कश्यपेन बृद्धजीवकेन वा निरदेशानौचि-
म्यते । तदनुसारेण पूर्वभागे प्रायो बहुष्वध्यायेषु जीवकस्य व्येन एतद्मन्थसंस्कर्तां वासस्य एवायमिति शङ्कितं न युज्यते ।
प्रभ्नः कश्यपस्य ्रतिवचनं चास्ति । वरस्य शुगुसन्ततितया अनत्रोटिरिखिताः कौरसपाराशर्यादयः सर्वे प्राचीनाचार्थां एवेति
वातस्यस्य -पू्व॑पुरुषत्वेन निर्दिष्टस्य जीवकस्य भार्गवकब्देन तत्समश्रेण्यां निरदि्ेन वास्सयेनापि प्राचीनेनेव भवितन्यम्‌ ।
सम्बोधनोचिस्येऽपि केवर्मेकत्र “भार्गवास्थीनि,.० (पृ. ७५ ) शतपथे वंशब्राह्यणे भारद्राजपाराश्चर्याभिवेश्यहारीतकाप्यगा-
इति भागंवशब्देन सम्बोधनमस्ति । अन्यत्र तु जीवकशब्दे- रवजातूकण्यात्रेयादयो बहवः प्राचीना षय उपरभ्यन्ते ।
नेव सम्बोधनं दश्यते । उत्तरभागे तु दार्वाहस्य नामोर्छेखो तैः सह वास्स्यस्थाप्थुर्रेखोऽस्ति । एतन्नामान जआयुरवेदाचार्या
नास्ति । कचनेव जीवकरब्देन सम्बोधनं, प्रायो भार्गवकाब्देन अप्यायुरवेद-अन्थेभ्योऽवगम्यन्ते । यथप्यन्न बह्मविदयापरम्परानि-
सम्बोधनं चास्ति अन्तर्वल्लीचिकिस्सितङुकणकाध्यायादौ कचन देशेनेषामायरवेदाचार्यस्वं नायाति, समाननामानोऽन्येऽपि सम्भ-
जीवकभागवशग्दभ्यां संबोधनं जीवकम्रश्नं च विहाय श्वृष ! वन्ति, तथाऽप्येते बह्मविद्याविद्‌ एव केवरं, नत्वायुरवेद विद्‌
नराधिप! विशां पते ! इत्यादिरूपेण राज्ञः सम्बोधनानि सन्ति। इति न नियन्तुं शक्यते । एषां पूरव॑कक्तायां स्ववेधत्वेन प्रसिद्ध-
एकत्र द्रति वार्योदिदायेव्‌" इति (खि.स्था.अ.१३) वार्योविदस्य योरश्िनोरप्युरेखेन तत्परम्परागतानामेषामायुरवेदेऽप्याचार्य-
कश्यपेनोपदेश्च नमप्युक्ञिखितं दश्यते। रेखरचनाया अनुसन्धाने भावो न खल न सम्भवी । आयुवदीयमन्धेभ्यस्तदीयपूरवाचार्य-
पूर्वभागे प्रायो रेखप्रौहिः आर्षभावप्राचुर्यं विषयगाम्भीर्य च त्वेन ज्ञायमानानांम एषां बहूनां नाञ्नामस्मिन्‌ वंशब्राह्मणे प्रायः `
रयते, उत्तरभागे तुप्रायो विकसिता विषयाः, प्राज्ञका निरू- सहभावेन दश्चनात्त एवेमे स्युरिति सम्भावयितुं शक्यते॥. .‰ `
पणप्रक्रिया च दश्यते रेवतीकर्पचर्मद्कजातकर्मोततरीयशूरचि- प्रतिसंस्कर्रा वारस्येन न केवरं लिरभागयोजना विहता,
किस्सिताध्यायादिषु कचन पूर्वभागानुरूपा भ्रौढा आर्षी रचना किन्त॒-“संछृतं , तत्‌. घुनस्तन्त्र, इद्धजीवकनिमितम्‌,.,'
उपोद्धातः ।
की
0000
000 09 शक कका

(संक. श्लो. २७) इति संहिताकरपाध्यायरेखेन पूर्वभागेऽपि नवा अपि विचारविशेषाः समुद्धवन्ति। पूर्वेषामाचार्याणां
संसकरणरेखन्यनुप्रवेक्षितेति स्षष्टमधेलुध्यते ! परमनेन वास्स्येन सिद्धान्ता अपि पश्चात्तनीनाचार्यान्तराणं विचारान्तरै
स्वीयवक्तव्यान्यण्यनुप्रवेश्य विरोषधिषयसंश्तस्य लिरुभागस्य रन्यथा प्रतिभासमानः प्रतिसंस्करणे रूपान्तरं परित्याग-
प्थदडिनिवध्य संयोजनेन पूर्वभागे मूटग्रन्थविपर्यास्रूपो न तथा सुपगच्छन्तोऽपि सम्भवन्ति । कचन निर्मला अपि पूव
विशेषग्रतिसंस्कारोऽस्मिस्तन्त्रे विहितः स्यात्‌, अपि तु कचन सिद्धान्ताः पश्चास्सेस्करणे पुरुषसुकभेदो षेमालिन्युप
या-
पूरणिकावाक्यानि कचन स्वीयमतविशेषं तदात्वे समयागतान्‌ न्ति। यदि नाम चरकसंहितायां चिकिस्सितस्थानीयान्तस-
विषयांश्च कोश्चनानुप्रवेश्य यथावस्थित एव पूर्वग्रन्थे तत्र तत्र प्दश्ञाध्यायानां सिद्धिकल्पस्थानयोश्च धिरोपेन दडवराचा-
पदवाक्योप्ंहणमात्रं विहितं स्यादित्यनुसन्थीयते ॥ येण पश्चात्पूरितततया तावान्भागो चडवटस्यैव रचनारूपः, तत्र
यस्यं कस्यापि वस्तुनो निबन्धस्य वा गुणाघानेनोञ्ज्वरी- न आत्रेयस्याभनिवेशस्य चरकाचा्यस्य च रेखन्याः प्रवेश इति
छंतये प्रवर्तन्ते प्रतिसंस्छर्तारः। एवमुदषटप्रक्ियया संस्करणेन अन्तभगे पृथगवस्थितस्य तावद्धागस्य विचारसौष्टवासौष्टवे
तासु प्राचचीनसंहितासु रेखस्य विषयविरशेषाणां वा सङ्कोचवि- दृढवबलस्येव शिरसि । एवमेवाध्िवेश्चचरकाम्यामपि स्वीयवि-
कासादिभिर्नवग्रतिमातविषयाणां प्रवेश्चनेम, जसाधुतया ट्ट चारविशेषरेखानां परिच्डेद्यरूपेण पूरव॑म्रन्थान्ते प्रथक्सश्रिवेश्ो
श्षानां परिहाणेन परिवर्तनेन चेवमादिभिः संस्कारविरेचैर्नवी- व्यधास्यत, कि वा अ्ध्रिवेश्चतन्त्रमयापि प्रथगरुप्स्यत, तदा
कृतानि दश्यमानानि रूपान्तराणि समपाद्न्तेति प्रतिसस्ट्न- उभयोः संवादे तत्र तत्र भागे दृश्यमानाः सदसन्तो विचारा
तृणां प्रयलः स्थाने मवतु नामः, परमत्रैवं मनसि प्रतिभाति । उक्तयश्च तस्मिस्तस्मिन्नेव स्वातिश्यमाधास्यन्त। अपितु
एवमासां पनः पुनः संस्करणेषु प्राचीनसंहितारेखानां प्रतिस ूर्वपश्चाद्धवाचा्यांणामुक्त्यो्गङ्गायमुनयोरिवैकत्रैव संमिश्रणे
स्कर्व॑रेखानां न नीरकीरसम्भेदविधानेन प्रतिसंस्कर्दनिवन्धेषु उपजाते पूवंतन्त्रे च पथगनुपरुभ्ये, कचन दृश्यमानानां सद-
प्राचीनसंहितानामन्तभावः समजनि । ततश्च प्राचीनाघ्रेयसंहि- सतासुन्मेषाणां यश्ञोऽयश्चश्च प्राचीनाचार्यस्य पश्चात्तनाचार्थस्य
ताया अथिवेशेनोपन्रदणं, अथिवेशसंहितायाश्चरकाचार्येण संस्क- वेत्यनिश्चयेन पश्चात्तनाचायंसमये उपजातस्यापि अन्यथाभा-
रणस्‌, एवं कश्यपसंहिताया ब्ृद्धजीवकेन संक्षेपणं तदीय. वस्य प्राचीनाचार्येषु दोपः शङ्कनीयः सम्भवति । न केवरमेष
तन्त्रस्य वारस्येन पुनः प्रतिसंसकरणमिति इयन्ति पदानि प्रसङ्गश्चरकसंहितायामेव, अपि तु सुश्रुतसंहितायां काश्यप-
वाक्यानि प्रवन्धाश्चैतदीयानीति दुःशक इदानीं परिच्छेदः । संहितायामपि पश्चास्संस्करणे प्रविष्टा काश्चन चिक्रृतयः अर्वाज्च
यथा प्राचीननावनीतकमूलग्रन्थस्य नवग्रवैशितरेेन सह विषयाश्च क्चनोपरभ्यमाना अस्येत्यनिश्चीयमाना मूरुसंदिता-
प्रतिसस्क्ृतस्य लाहोरप्रदेशात्‌ प्रकाशनेन प्रतिसंस्कत्र निबन्धृणां महषीणामप्यर्वाग्भावशङ्काये अपसिद्धान्तजञङ्कायै
पूर्णविषयपरिपूरणादिनोपक्ृतमेव, संस्करणे वाग्भटनगेन्द्र- च जायन्ते । यथाहि भारतस्य पश्चादुपवंहणेन महाभारतभा-
नाथादिपश्चात्तनोद्धावितौषधानामप्यनुप्रवेशनेनानुभवविद्ेवहु- वापत्तौ ततः पश्चाद्वा पुनः पुनः संस्करणे प्रविष्टानां शब्दुविशे-
भिरौषधैः समुपचरेदितमपीति सन्तोषस्येव बिषयः ! परमस्मिन्‌ पादीनां प्रवेशसमयानिरारणेन मूख्मारतमप्यर्वागाकृष्यमाणः-
श्रकाशने ङ्िपिभेदेन कोष्टकाभ्यन्तरविन्यासादिना व्यास्यारूपेम मिव दृश्यते । एवं चरकसंहितायां दश्यमानो विकसितो निभ
बा नवपूरितांशषस्य ग्रदि प्रकाक्चनमभविष््रत्तदा इयानंशः हस्थानस्योत्तरो विशेषविषयः आत्रेयस्याश्धिवेशस्य चरकस्य वा
भ्राचीन इयानंश्ञो नवसंस्करणे भ्रवेशित इति सुतरां पर्यच्छै- ठेखगत इस्यनिश्चीयमान आत्रेयस्यापि अर्वागाकर्षणङ्यङ्काये
हत्यत । सम्प्रति मूलनावनीतकमात्रस्य यूरोप खाहोरप्रदेदो च जायते 1 एवमेव अस्यां काश्यपसंहितायां दृश्यमाना उस्सर्पि-
प्रथदसुद्रितस्योपलब्ध्या उभयोः सङ्गमने प्राचीननवीनांक्षाना- ण्यप्रसर्पिण्याद्यः केचन शब्दविशेषा वार्स्यीये प्रतिसंस्करण
मधुना परिच्छेदः छतं शक्यते, तथाऽपि समयवजशेनास्य मूर- एव प्रविष्टा भवितुमहा अपि काश्यपस्यब्द्रजीवकस्य वास्स्यस्य
भ्रन्थमात्रपुस्तकस्यानुपरुब्धौ अ्रतिसंरृतपुस्तकमात्रात्तथा परि वेति अनिर्धायंमाणाः सन्तः कश्यपवृद्धजीवकयोः भ्राची-
च्येतुं नैव शक्येत । वाग्भटनगेन्द्रनाधादुज्ञेवरिक्गेन नगेन्दना- नत्वसाधकेषु बहुषु रुरणेषुः जागरूकेष्वपि अर्वाचीनस्वशङ्कायं
थविदुषोऽप्यनु मूलनावनीतकोदय इति संशयस्थानं पश्चात्त. जायन्ते ॥
ननां जायेत च ! तथेव पुरासमये काश्यपसंहितात्रेयसंहिता-
वीनां तदृनुस्यूतानामभिवेशसंहिताचृद्धजीवकीयतन्त्रदीनां चर- प्राचीनमन्थेष्वेव इतस्ततः करणेन नवविचाराणामण्यनु-
कवारस्यादिविहितग्रतिसंस्कारमन्ेभ्यः पथगुपरम्भः स्यादेव 1 परवेशनेन पुनः संस्करणं न केवरं भारतीयपूर्वगरन्थेष्वेव, अपि
श्रचरितेः प्रतिसंस्कृतरूपान्तरैः ूरव॑सरूपागामपरचारतो विरो- । तु पूर्वसमये देशान्तरेष्वपीष्टश्येव प्रक्रियाऽऽसीत्‌ । ्रीसदेक्षी-
६, हिपोक्षिटसस्य मन्थेऽपि एवमेव प्राची-
. द
पेन्‌ पुरातनानि स्वरूपाणि विरीनान्यभूवन्‌ । प्रतिसंस्करणे च | यप्राचीनभ िषगाचार्य स्य
`कति पूवैतनांशचास््यक्ताः कति वा नवांशाः
प्रवेशिताः कति ननवीनविषययोस्तिरतण्डुरुभावेनाविभागप्रकरियया पुनः पुनः
चाशा रूपान्तरमापादिता भवेयुः । येन॒ तत्तदीयांशानां संस्करणस्योपजाततया तत्रतयेरपि विवेक्तुं न शक्यते । एवं
परिच्छेदेन सहाचार्यसमयस्य पर्च्छेदोऽपि दुष्करः समजनि ॥ मिश्रदेशेऽपि पएवरेस-प्येयिरसनामकस्य प्राचीनभ्रन्थस्यापि
पुनः पुनः संस्करणमजायत 1 पूेगरन्ेष्वेवे नवविचारोदये
नानाविधासृूञ्चावचासु प्र्ताभूमिकासु उद्धीयमानेः ग्रति-
| भानविरोषैराचा्यान्तरोपदे्ादीनामलुसन्धानबिरोषश्च नव १.४. ८, ए, ए 42. 151.
उपौद्धावः । ६१

तेषामपि तदभ्यन्तर एवानुभ्रवेश्चनं, कचन पुस्तकम्रान्तभागे सिद्धान्ताः पश्चादधवरर्नैत्तानिकप्रगत्या बहून्‌ समयानपसिद्धान्ती-


रेखनं, टीकारिप्पण्यादिरूपेण निदिरानां नवविचाराणामपि करता जपि अध्यतवे पुनरष्टेः सुपरिष्करे पुनः भ्रतिष्टाप्यन्ते।
ग्रस्थमध्य एव प्रवेशनं संस्करणेऽमूत्‌ । प्राचीनम्रन्थस्य सारांश- प्राचीनसमये विक्ताचसाधनं किमाव्मकमासीदिति न परिच्ि-
माननं तत्न विन्यस्तमप्यभूत्‌ । स्थानभेदेन रूब्धानां पाध्मेदाना चयते, तथाऽपि प्राचीनसम्प्रदायपरस्परया अनुभवविकासेन
मपि तत्रैवानुप्रवेशो व्यधीयत । येन पूर्वग्रन्थे कव्य्॑ञाः प्राचीनाः चिरतस्परतग्रा तपःप्रणिधानालोकेन चोञञ्वरेषु पूर्वेषां हृदयेषु
कस्याः पुनः संस्करणे प्रविष्टा द्यपि परिच्डेत्तुमसक्या अभू- प्रतिभात विषया निर्मखा अपि बहुशः सम्भवन्ति ॥
वन्‌ । समये समये जायमानानां नवनवविचाराणामेकतरवानु- स एव विषयः पुनः पुनर्विचारणे परिमाज॑नेनौजञ्वल्य-
परवेशनेन पूर्वापरमरन्थरे खे मिथो विसंवादो व्याघातश्च दि सुपेति । तेनेच ग्रन्थक स्वीयः पूर्वनिवन्धः परिमा्जितवि-
पथसुपेतः, इस्थं पू्वापरविचाराणां मिश्रणस्य प्राचीनः सम्प्र चारान्तरोदये आवापोद्वापप्रक्रियया. अन्यथाऽपि संस्क्रियत
दायः समयेन सर्वतो विष्ठवाय समुपस्थितः ॥ तदा स्वस्मिन्नेव हृदये पुनः पुनरपि प्रतिभातानां विचाराणा-
ूर्वोपदर्िताभिरूपपत्तिभिर्महावग्गपाटीजातकतिभ्बती य- मेकभावानुस्यूततया मिथः सम्पकेण सुख्यग्रमेयानुबन्धेन
कथादिभिरपि प्राक्तनतया दश्यानां धन्वन्तरिकश्यपजीवका- ताद्ालिकानामेव विषयाणामनुप्रवेरोेन च ख संस्कारो गुणा-
दीनां तस्समानन्यायेनात्रेयसुश्चतादीनामपि प्रतिसंस्कारवश्चात्‌ धानायैव जायते न पुनः. समयान्तरे शङ्काविष्टवोदयाय ।
प्रा्स्यास्यार्वाचीनविषयावबोधिनः कस्यचित्पदस्य वाक्यस्य एवंरूपं संस्करणं प्रशस्यतेऽभियुक्तै-
विषयस्य वा दद्नमात्रेण मूलम्रन्थस्याप्यर्वागाकषेणायासे 'आवापोद्धरणे तावद्यावदोखायते मनः ।
२३०० वर्षपूर्वमोकनृपतिना सर्वतः समुद्धारितेषु सवेसाधार- पदस्य स्थापिते स्थेय हन्त सिद्धा सरस्वती ॥ इति
णचिकिस्साख्येषु अपेत्तणीयानां सुविचारपूर्णानां सवांज्गसम्पन्न- किन्तु प्राचीनानां महर्षिप्रथतीनामुपदेशात्मकेषु ` अन्धेषु
मन्थानं, तेषु परिनिष्टितानां भिषजां, सुपरीक्तितानामौषधा- पश्चात्समये आरोचनेऽभिप्रायमेदेन निगृूढगर्माणां पूर्ववाक्या-
नाम्‌, अभिनन्दनीयानां सेषञ्यम्रक्रियाणां च स्पृहा कथङ्कारं नामन्यथा प्रतिभासेन तत्तव्सामयिकेनवविचरेः पूर्वविचाराणा-
पूर्येत ! कश्यपात्रेयसुश्रतादयः प्राचीनाः भ्रीढविद्वांसस्तदीय- मन्यथा प्रतिपत्या च नवोदितविचारविशेषादीननुप्रवेश्य
ग्रन्थश्च पश्चादवतार्यन्ते, नातः पूवं म्न्थास्तदास्वे प्रसिद्धतया पूर्वग्रन्थानामावापोद्रापग्रक्रियया परिवर्तनेन विकासेन संते
सम्भाव्यन्ते । ४०१ वी. सी समये मेमनूननामकस्य पारसी- पणेन च रूपान्तरकरणात्मके प्रतिसंस्करणे पश्चात्तनानां प्रष-
कसम्राजो राजङ्करयै्यः टी. सी. यस. नामा यवनवैद्य आसी- सिनं समीचीनाऽवभासते । पूर्वेषां सिद्धान्तानां रेखानां वा
दिति तदीयेतिहासोपरुम्भवद्धारते तदात्वे कस्यापि देकान्त- विपर्यासे स्वरूपमेव म्रच्यवेत, दोषान्तरशङ्कया वा मर्निमाऽ
रीयभिषजस्तचिदिस्साल्येष्वागमनवृत्तं किमपि नोपरभ्यते । वभासेत। पूर्वेषामपि सूत्रभाष्यादीनाभुक्तानुष्तद्विसक्तादिचिन्तया
वी. सी. पूर्वकार्किमहावञ्नप्राच्चीनवोद्धवेद्यकम्न्थोऽप्यात्रेया- रोधनीयतादश्चेने सूत्राद्यक्तराणि यथावदेवावस्थाप्य वार्तिका-
दिविद्धान्तानुसारीति नातः पार्थक्येनावतिष्ठते । सरववंप्राथम्य- द्यात्मना एथदध्निवन्धनेन विद्वदन्तररास्मनो विचारान्तरं भरद्‌.
रूपेणोपर्ब्धान्‌ कश्यपात्रेयसुश्चुतादिन्थास्तद्विदश्च परित्यज्य श्यते, न पुनस्तदनुसारेण सूत्रभाष्यादिगतानि पदवाक्यादीनि
अनुपस्थितानां केषां कल्पनया शिखारेखप्रतिष्टापितास्ते सवं- अन्यथात्वमापद्यन्ते । एवमेव समयवदेन नवविचारोदभेन,
साधारणचिकित्साख्या अआत्मराममासादयेयुः 1 आत्रेयादी- विचारविकासेन, पूर्वोक्तिरपसिद्धान्तभावदश्चंनादिना च पश्चा
नामद्ोकचिकिस्साख्योद्धाटनोत्तरस्वे रोकोपकारदक्ाऽ्यन्तमु- स्रतिसंस्करणमभिरष्यद्धिमू रुमन्थान्‌ यथावदेवावस्थाप्य तत्र
पादेयस्तादशः साधारणौषधाल्यः किमिव्येभिषूपेच्येत। न वखिररूपेण परथक्संयोजनं समारोचनामयं अन्थान्तरं स्वविचा-
खट्ट तद्‌नुप्रभावितः कोऽपि रेख आत्रेयादीनां दश्यते ॥ रविरोषसहङ्कतं व्याख्यानादिकं वा विधीयेत, तदा प्राचीना-
एवं केचन स्थुरुसिद्धान्ता अपसिद्धान्ता अपूर्णाज्ला वा वांचीनविषयाणाममिश्रणेन प्रथक्परिच्छेदो, विचारविकासवि-
छचन सुश्रुतादिनिबन्धेष्वद्यते समीच्यमाणा अपि केषा्िद्‌- ज्तानं, पूर्वापरविचाररेखसौष्टवासौष्टवविभागध्चेति सर्वमविष्लवं
श्रद्धायै जायन्ते । तदिदं मूररेखस्य प्रतिसंस्कारस्य च नीर सम्पद्येत ॥. | `
तीरायितस्येव विजुम्मितं सम्भवति । समयवदोन विक्ञानस्य किञ्च, प्राचीनमभावानुस्यूतेष्वपि ग्रन्थेषु संहायितानां कतिः
विद्यान्तराणां यन्त्रविद्ेषाणां चोन्तरोन्तरं परिष्करणेनाद्यत्वे नव- पयानां शब्दविरोषाणां द्चनमात्रेणापि समस्तस्य मन्थस्या-
नवानां सिद्धान्तानाुन्मेषेण भ्ाचीनानां पूर्वेसिद्धान्ताः स्थूरा ्वाचीनस्ववादे केषाञ्चिदाधुनिकानां विदुषां दृष्टिः प्रवणीभवरति ।
अपसिद्धान्ता वा इदानीं अरतिभासन्तां नाम, परं विचारद्टिनं परं प्राचीनम्रन्थेष्वसंस्कारविशेषेणापि ताद्शानां शब्दानाम. `
खल खीभिता । एकेन साधुदृष्टमण्यन्योऽन्यथा पश्यति । एक- नुप्रवेशस्य सम्भवेन न तावतेव साधनेन मन्थस्यार्वाचीनस्वं
स्मिन्‌ समये साधु साधितमपि समयान्तरे अन्यथाऽऽलो- कल्पयितुं युज्यते । केचन विवेचका ददश्षान्‌ शब्द्विरोषान-
च्यते 1 यथा हि भारतीये वेदक पूर्वतः प्रवृत्तां शोधितधातु- | न्यान्‌ वा कांश्चन तन्र प्रतिभातानू विषयानन्तरनुसन्धाय
किल
रसौषधोपयोगपद्धति वैदेशिका विद्वांसो बह्वीः शताब्दीः अनु. स्वाभिप्रेतं ससाधनं विषयं वहिरप्रकाश्यैव केवरुमस्य अन्था
|. क्न

स्यायं कारः स्यादिव्येव प्रदस्य सांश्चयिकीं उक्तं पुर्सारयतन्तिः।


4 ४०६ सांश् कीं
१ (4 . „वति, - , '

पादेयामहितावहां च वदन्त आसंस्तः एवाद्यत्वे तामूपादेयां


साध्वीं साधयन्तस्तया व्यवहरन्ति च! एवमेव कति पू्वषां |परंतेषां तथा दष्टो कानि साधनान्यनुखंदितानीति चै ज्ाग्रन्ते ।
& उपोद्धार्तः ।
00
00 + + + 6
+9) क 8 80
9 0 ^ 7 +

एवमध्यकतैः साधनैर्विमर्शपथः समाच्छाद्यत । तेषां मनसि


प्रतिभातायासदाधारणानां साधनानां स्पष्टतयाऽचगम एव त्त्य एुकीयसूत्रतया, चरकच्डवखाद्युक्तयः प्रतिसंस्कवेसूत्रतया
याथातथ्यं निषद्ररयिहुमलुमन्दं च परेषां विचारद्शः प्रवत्तये एकत्रैव ग्रथिता उपरूम्यमानसंहितयोरन्तभवति । तथवात्रापिं
सौकर्यं जायेतेति मे पतिमाति ॥ कशयपोक्तयो गुरसूत्ररूपेण, ब्रद्धजीवकीयोक्तयः श्चिष्यसूत्ररूपेण,
आचार्यान्तरोक्तयः एकीयसूत्ररूपेण, वारस्योक्तयः अरतिसंस्कवै-
अस्मिन्‌ ग्रन्थे संहिताकल्पाध्याये (संहिताकल्पं व्यास्या-
स्यामः, इद्युपक्रम्य- सूत्ररूपेणेकत्रेव सन्निविष्टाः सवेयुः ॥
स पृषटोऽन्येन वेधेन प्रनयात्‌ संहितािधिम्‌ । तेन यथा आत्रेयेण महर्षिणा प्रथमोपदिष्टं संहितामुपादा-
शस्य अरन्थस्यकात स्थानमद्‌ तन्त्रं कस्माचम्मतस्य्रतसम्‌ याथिवेशधिकिस्सातन्नं व्यरचयत्‌, तदेव चरकाचार्यः प्रतिसं-
खंहिताव्वं इन्द्रियाणि चिकित्सा च सिद्धिः कर्पाश्च संहिताः स्करस्य प्रकाश्चयामासेति आत्रेयसंहितेव अभिवेरातन्च्रूपतामा-
पश्नाऽदत्वे चरकसंहितारूपेण दश्यते । यथा चा अष्प्रस्थाना-
` तन्बस्वं च अष्टौ स्थानानि बोध्यानि ततोऽतस्तःत्रप्रुच्यते ।
स्मकं धन्वन्तयुपदे्ं गुहीतवता दिवोदासेन प्रस्थानान्तराणा-
सिकान्यक्ीतिरध्यायास्तन्त्रं सखिलमुच्यते ।
मुपदेश्षस्य विरपेऽपि शस्यप्रस्थानमेकं प्रधानीद्त्योपदिष्टं
पारणं द्यस्य तन्त्रस्य वेदानां पारणं यथा
संहितामादाय सुश्रुतः स्वीयं तन्तं निबवन्ध, तदेव समयान्तरे
तपसा निर्मितं तन्त्ररषयः प्रतिपेदिरे ।
संस्छृतमित्य्यत्वे धन्वन्तरिसंहिता विशेषतः शस्यप्रस्थाने सुश्र-
जगहेऽमरे महातन्त्रे सचिक्तेप पुनः स तत्‌ ।
तसंहितारूपेण दृश्यते । तथेव संहिताकल्पाध्यायरेखात्‌ काश्य-
ततः कलियुगे नष्टं तन्त्रमेतयदच्छया ।
पसंहिता सं्षिप्ररूपान्तरेण बृद्धजीवकीयतन्त्रसं समयान्तरे
अनायासं प्रसा्ाथ र्ल्घं तन्त्रसिदं महत्‌ ।
वार्स्यीयप्रतिसंस्करणञ्चोपेता एतद्‌ग्रन्थात्मनाऽस्माभिरुपरुभ्यते।
संस्कृतं तस्पुनस्तन्तर ब्रद्धजीवकनिर्भितम्‌ ।>
द्युल्लिस्य “समाप्ता चेयं संहिताः इद्युपसेहारेण संहिता- यथा यथोत्तरा कल्ला समुखन्ना तथा तथा पूर्वां कन्ता पृथग्वतं-
मानाऽपि भावापोद्रापविवधेनसंस्कारादिनिष्पन्नस्य स्वरूपान्त-
त्वेन तन्त्रस्वेन चोभयथाऽस्य व्यवहारो मूखे पुप्पिकावाक्ये रस्योदयेन प्रचारेण च विरोपञुपगता किंवा उत्तरकक्तायाम
; -
ष्वपि दश्यते । उपक्रमोपसंहारन्थयोरस्मिन्‌ पुस्तके खण्डित- न्तःप्रविष्टा एकक्षरीरतामयु
पगता, इति तार्तीयिकीं संस्कारकच्ता-
तया कथं अन्थावतारणं कथं वोपसंहरणमिति यमपि परोक्तम, मुपेदय परिनिप्पन्ना इमाः संहितास्तन्त्रा प्रतिसंस्कृततन्
अतस्ततो विज्ञेयो विशेषो निटीनः॥ णि त्राणि
परं संहिताशचब्दव्यवहारकारस्तन्त्रशाब्दव्यवहारकारात्‌ वाऽस्माकं स्खोविषयीभवन ्ति । ययपि पूर्वांपरग्न्था पयांरोचने
कचन्‌ प्राचीनप्रौठतरतमरेखरेल्याः कचन साधारण्या रेखप्र-
पू्ेतनः । पुरा द्याघं युगे निबद्धा ग्रन्थाः प्रायस्तत्तत्संहिता-
रूपेण, ततः परं पूवाचा्॑र्निवद्धा मन्थाः प्रायस्तन्त्ररूपेग शरियाया द्नेन मिथः प्राचीनतरतमरेखसंवादनेनापि सूच्मे
क्तिकायां कचन परिच्छदाखेकः प्रकाशेत, तथाऽपि चरकसंहि-
म्यवहियन्त । संहिताशब्दो हि, संहननशरियात्मकं विप्रकीर्णानां
तेषां तेषामाषप्रातिमक्ञानवखप्राप्तप्रकाशानामुपदेशादीनां सामू- तायां क्रियानंश आत्रेयस्य, कियान्‌ वा अश्चिवेशस्य, को वा
चरकाचायंस्य रेखः, सुश्रतसंहितायां च कियानंश्ञो धन्वन्तरेः
हिकरूपेणेकन्र स्युहनरूपमथ गर्मीकरोति । तन्तरशब्दश्च प्रक-
रणसन्द्भादिविक्ञेषोषन्यासेः शाखरूपतामापन्नमर्थ दर्शयति । मूखसंहितायांः, को वा दिवोदासस्य, कतमो वा सुभ्रुतस्य,
अतः आत्रेयघन्वन्तरिकसश्यपादिभिर्पदिष्टा अन्थाः संहिता- कश्च प्रतिसंस्कतुरुखः; अस्यां काश्यपसंहितायामपि कियानंश्च
रूपेण, अभिवेशसुश्वुतश्रुद्धजीवकादिभिमूंरसंहितासु प्रकरणो कश्यपसंहितायाः, को वा वृद्धजीवकस्य, कतमो वा .वार्स्यस्य
पन्यापपूरणादिभिः खन्रब्धशाखरूपतासम्पादनेन निबद्धास्त- रेखः शाब्द आर्थो वा कीद्शोऽत्र ब्रद्धजीवकस्य सकतेप इति
ल््ररूपेण निबद्वास्तन्त्ररूपेण व्यवहता-भवितुमर्दन्ति ॥ सर्याशतो याथातथ्येन परिच्छेत्तं न शक्यते ॥
तन्त्रप्रणेता प्रथममभ्चिवेो यतोऽभवत्‌! प्राचीनंहितासु प्रागुपरुन्धाश्चरकभेडसुश्रतसंहिता इमां
अथ मेडादयश्चकुः ! स्वं स्वं तन्त्र. ... ^. नवोपर्ञ्धां कार्यपसंहितां च पुरो निधाय
दति चरके उपक्रमणिकायमन्थेऽभिवेक्ादीनां तन्त्रक्ृत्वे- कश्यपाय -स्थानाध्यायप्रकरगादिप्रन्थर्चनाया विषयाणां
नोररेख इममेवार्थमुपोष्ठख्यति ॥ मेडसुश्चुत- च विचारणे मिथः साभ्यं वैषम्यं चेवमी-
संहितासु स्वयमेव फं वा तदुपदिष्टं शब्देनार्थेन वा ग्रन्थाना- च्यते-- ि
सङ्गृह्य रिष्यादिभिर्निवन्धनस्य प्रायिकः सम्प्रदायः। शिष्या- ठलना अस्याः काश्यपसंहितायाः प्रकरणान्यथ्या-
दिभिर्निवन्धनेऽपि तेषामनुवादकमात्ररूपतया मूराचायना- विमशं याश्च मन्धक्ररंव कस्पस्थानस्यान्तिमाध्याये
म्नेव संहिताव्यवहारः समीच्यते 1 तन्त्रकरतो मूरुसंहितामन्त-
इव्थञुपवणितानि-
भाग्य उपक्रमोपसंहारप्रश्षप्रतिवचनस्वीयविशेषान्तराणि मता-
न्तरागि चसश्रिवेश्य तन्त्ररूपता प्रापयन्ति ।विदोषान्तराण्यनुपर-
अष्टौ सथानानि वाच्यानि ततोऽतस्तन्त्रमुच्यते ।
वेश्य प्रतिसंस्कर्तारो बृहदाकारं सम्पादयन्ति इति प्रतिसंस्कतंरनि- १. चतुर्विधानि हि सत्राणि मवनिति तयथा--प्र्विसंस्कतंयत्र-
बन्धने तन्त्र, तदभ्यन्तरे संहिताऽन्तर्भवति ॥ मैकीयख्चं दिष्यघतं गुरुष्चं चः इति चक्रदन्तन निदिश्रनिः।
यथा हि चरकसुशरुतसंहितयोरात्रेयघन्वन्तयुंक्तयो गुरसूतर-। ( चरफन्याख्यायां ) ख० अ० १। । , .


उपोद्धातः । ६३

अध्यायानां शतं विशं योऽघीते सतु पारगः ॥ नानाविशेषविषयग्रहरोगमेदभेषज्यभ्रक्रियादीनां बहुशो विभे-


सूत्रस्थाननिदानानि विमानान्यात्मनिश्वयः। देऽपि उपरब्धभागे सेहाध्यायादयः समाननामानः साधारणा
इन्द्रियाणि चिकित्सा च सिद्धिः कल्पाश्च संहिताः । |विषथा अनतिविसंवादिप्रक्रियया एवमीच्यन्ते-
सूत्रस्थानं चिकिसा च चिंशदध्यायके उसे । काश्यपसंहितावाम्‌-- श्त्रेय(चरक)संहितायाम्‌-
निदानानि विमानानि शारीराण्यष्टकानि तु २२ सद्कुयः खेहाध्यायः १३ सह्कुयः खेहाभ्यायः
सिद्धयो हादश्ञाध्यायाः कल्पाश्चेवेन्दियाणि च । २२ + स्वेदाध्यायः १४ ,, स्वेदाध्यायः
खिरान्यश्ीतिरध्यायासतन्त्रं सखिलमुच्यते ॥ २४ ,, उपकल्पनीयाध्यायः १५ , उपकल्पनीयाध्यायः
ततश्चास्याः संहितायाश्चरकमेडसुश्चुतसंहितानां च स्थाना- २५ ,, वेदनाध्यायः १६ ,, चिकित्सप्राश्चतीयाध्यायः
ध्यायसंमेखने इत्थं परिदश्यते- २६ ,, चिङित्सासम्पदी-
स्थानानि चरद्धजीचकीये. चरके. मेडतन्वरे, सुशुते. याध्यायः १७ ,; कियन्तःक्षिरसीयाध्यायः
सूत्रस्थानम्‌ अध्यायाः ३० ३० ३० ६ २७ ,; . रोगाध्यायः १८ ,, त्रिक्लोधाध्यायः
निदानस्थानम्‌ , ८ ८ ८ १६ १९ , अष्टोद्रीयरोगाध्यायः
त्रिमानस्थानम्‌ ,, < ८ ८ ९ २० , महारोगाध्यायः
शारीरस्थानम्‌ ,, < ८ ८ १० २१ ,; अष्टौनिन्दितीयाध्यायः
इन्दियस्थानम्‌ , ५२ १२ १२ ‰ आत्रेयसंहितायां काश्यपसंहितायां च कचन शब्दालुपूर्व्या
चिकित्सास्थानम्‌,, ३० ३० २० ० क्रचन शब्द्रचनायां . विमेदेऽपि विष्रयोपन्यासे कचन रेखप्र-
सिद्धिस्थानम्‌ , १२. ५२ ९...(१२ ¢) क्रियायामपि मिथः समानेव च्छाया समीचयते ॥
कल्पस्थानम्‌ ; १२ 9२ ८...१२१) ८ १ काश्यपसं हिताया बुद्धजीवकीये खिरूभागे (अ. २. शो. १०६)
१२० १२० १२० १२० यथा विषं यथा शसं यथाऽ्चिरशनिर्यथा । ।
खिर्भागः ,; < ६६ तथौषधमवित्तातं विज्ञातमसरतोपमम्‌ ॥
चतुर्षु ग्रन्थेषुखिख्वजं काश्यपीयचरकमेडसंहितानांत्रया- आत्रेय(चरक)संहितायां सूत्रस्थानप्रथमाध्याये--
णां स्थानान्यष्टौ, तेष्वध्याया अपि तावन्तः, अध्यायसमष्टिरपि- यथा विषं यथा शे यथाऽभ्चिरशनिर्यथा ।
१२०मितेव।
= १
केवरं# काश्यपीयचरककसि
संहितयोः सिद्धिकल्पस्थानयोः तथौषधमविज्ञातं विक्ञातमश्टतं यथा ॥
पौर्वापर्यव्यस्ययः ।मन्थावयवविभजने प्राथमिकस्य दवैतीयिकेन इति समानानुपूर्विकः शोक उभयत्र दश्यते । तदीदशः
तार्तीयिकेन च छायाग्रहणं, किं वा एकपू्वाचार्यसम्प्रदायानुसरणं शोकः पूर्व॑तनस्यैकस्य पश्चा्तनेनापरेण गहीतः, कंवा अन्यस्यैव
कच्यते । सर्वेषामेषामाचार्यांणां तत्र तत्र पश्चिमविभागे वर्तितया पूर्वाचा्यस्य शोकोऽयं पश्चादुभाम्यां गृहीतोऽपि सम्भवति ॥
सन्निकषेण समच्छायाग्रहणमुपपद्यते च । तत्रापि चरकमेडसंहि- (२) काश्यपीयायाम्‌- `
तयोरेकचिकित्साप्रस्थानीयस्वेन, एकस्यैवात्रेयस्योपदेशमादाया- ओौषधं चापि दुर्युक्तं ती चणं सम्पद्यते विषम्‌ ।
भरिवेशभेडादिभिस्तन्त्रस्य प्रणयनोरकेखेन च विषयाणां बहशः विषं च विधिना युक्तं मेषजायोपकर्पयेत्‌ ॥
सन्निकर्षेण नामनिरदैशे विषयनिरूपणे च विरोषतः साम्यमनु- आत्रेयीयायाम्‌-
भूयते । यथा च चरके निदानस्थाने अष्टौ व्रधानरोगा उपात्ता- ओषधं द्यनभिज्ञातं नामरूपगुणैखिभिः।
स्तथेव भडभ्रन्थेऽपि । चिकित्सितस्थाने उभयोरपि तानेव पूवो. विज्ञातं चापि दुर्युक्तमन्थयोपपद्यते ॥
दिष्टानष्टौ रोगान्‌ प्रथमत उपादाय तदुत्तरं स्वस्वबुच्छपारूढा योगादपि विषं तीचणमुत्तमं भेषजं भवेत्‌ 1
अन्ये बहवो रोगा जपि चिकित्सायै 'निर्दिष्टाः । उभयोः सून्न- भेषजं चापि दुरुक्तं तीच्णं सम्पद्यते विषम्‌ ॥
स्थाने समाननामानस्तुल्यविषया अध्यायाः पूर्वं॑प्रद््िता | । (च.सू.अ.4)
एव । एवसुत्तरत्रापि बहुश्षश्डायानुवेधः पर्यारोचनपथमवत- एवं काश्यपीयायां खिर उवरचिकित्सायाम्‌ (अ, २ श्चो.४२ )
रति । केवरं मेडस्य संरिक्तमनतिसारगर्भितं साधारणम्‌, अचने- सर्पिः पित्तं शमयति शोत्यात्‌ स्नेहाच्च मारुतम्‌ ।
यस्य किं वाऽधिवेशस्य तु प्रथमत एव प्रौढतररेखरल्या विष- समानगुणमप्येतत्‌ संस्काराजीयते कफम्‌ ॥
यगम्भीयण पश्चाच्चरकद्टबराभ्यां संस्करणेनापि विकासितम- आत्रेयीयायां उ्वरनिदने १ अध्याये- [र
गाधावबोधमनेकरहस्यपू्णमसाधारणं निबन्धनं समीच्यते ॥ स्नेहाद्वातं शमयति शो्यात्‌ पित्तं नियच्छति ।
` अस्याः काश्यपसंहितायाः कौमारणरव्यग्रस्थानान्तरीयतया धृतं तुल्यगुणं दोषं संस्कारात्त जयेत्‌ कफम्‌ ॥ . . `
बाख्विषयानुबन्धेन धात्री गभिणीसूतिका्यनुसम्बन्धेन च | (च.नि,.अ, १).
काश्यपीयायाम्‌-- ` | ~
१, भेडसंहिताया अध्याया भप्यन्येषु स्थानेषु समानाः, सिद्धि. मनावसे वसन्ते, प्राच्रषि तेरु पिवेच्छरदि सर्पिः। `. `
कटपयोः खण्डितयोरपि चरककारयपीयतोल्यानुमानेन १२० सम- सर्पिंवां सर्वेषां सर्वस्मिन्‌ शस्यते पातुम्‌ ॥ `
छयडप्राया ज्ञायन्ते | | । अनुपानमुष्णसुद्कसुक्तं घृतस्य, तैरस्य यूषमिच्छुन्ति। .
६४ उपोद्धातः ।
एषि रि क व ^ ता
^छ ^क 0 8 1
क क न + न ~ ह

केषाञ्चिदध्यायानां न्यूनाधिकमवेन संक्ञास्वपि तौल्यमनुस-


[न क मि 1) ५५ १, ॥॥

मजवसयोस्त मण्डं, सर्वेषां कश्यपः पूंम्‌ ॥


आत्रेयीयायास्‌ ( चरकसंहितायाम्‌ ) न्थीयमानमेषा पूवैकसस्प्रदायानुसरणं, सज्चिकरृटसमयम्रचलि-
सर्पिः शरदि पातव्यं वसा मजा च माधवे तेकनिवन्धरोरीं वा गमयति ॥ -
तैं प्राचृषि नाव्युप्णक्चीते स्नेहं पिवेन्नरः ॥ कश्यपात्रेयधन्वन्तरिपरिगरहीतसंग्रदायानामेषां विभिन्नपर-
जलुष्णं घृते पेयं, यूषस्तैरे च शस्यते । स्थानव्वेऽपि परस्परं परिक्तानं समाद्रश्चासीत्‌ ॥
वसामजोस्तु मण्डः स्यात्‌ सर्वेषुप्णमथाम्बु वा ॥ काश्यपीये आत्रेयपुनर्वसोः सनामनिर्दश्षं मतोद्धारश्चास्ति ।
(च, सू. अ.१३ ) दिनणीयाध्याये (षू. १२३ ) शल्यग्रक्चियां मनसि
दति स एवाथ उभयोः केवरं रचनामेदेन दश्यते ॥ निधाय-
(३) काश्यपीये रोगाध्याये ( प्र. ३९) रोगविषये परतन्त्रस्य समयं प्रतरुवन्न च विस्तरम्‌ ।
एकायष्टान्तमेदपन्ता असंख्येययादश्च, एवमेव भात्रेयीयायामपिं न शोभते सतां मध्ये दुल्धः फाक इवा्चितः ॥
सूत्रस्थाने २६ अध्याये रसविषये एुकाचष्टान्तभेद्पच्ता भसंख्ये- अवश्यं भिषजा स्वेतञ्क्ञातव्यमनसुयया ।
तस्मात्‌ समयमान्नं भो श्ण चारहितेप्सया ॥
यवादश्चेति ससान प्रक्रिया ॥
इति शस्यप्रधानविद्याया उपादेयस्वं निदिंश्य, अतिबार-
(४) रोगोददेरोऽपि काश्यपीये अशीतिवातिकाः, चवा-
४१ ) ये विषये ““तेषामुपक्रम.. .. . संशमनं, वन्धनमुकिलिन्नप्रक्तारुनं,
रििसत्तिकाः, चिं्चतिः ग्कैभ्िकाः इति ( पर.
कस्कप्रणिघानं, शोधनं, रोपणं, सवर्णीकरणमिव्येतेः. . ^ . -शम-
ये रोगा निर्दिषटास्त एव तावन्त एव नाश्नाऽपि प्रायः समाना
येत्‌, खावणपाटनदहनसीवनेषणसाहसादीन्यतिवारेषु न
श्ररद्ीयेऽपि सूत्रस्थाने २० अध्यात्रे उदिष्टा दरस्थेतद्विषयेऽपि
कुर्यात्‌, इल्युपक्रम्य बन्धव्णरोपणादिग्रयोगा रोगाध्याये
बहुशः साम्यमनुसन्धीयते ॥
(५) कार्यपीयायां रहणाध्याये ( घर- ५१ ) साि- (ष्र४६९)-
कराजसतामससच्वाना यथाऽवान्तरिभागाः, जत्रेयीयाया
वैसर्पणं चात्र वदन्ति सिद्धं रक्तावसेकं च विद्रोषणं च ।
ज्ञारीरे ७ अध्याये वरुं साचिकेष्वे कविभे दन्यू नतया अन्ये नत्वेव वारस्य विरोपणं हितं नेवातिसंशोधनरक्तमोक्षणे ॥
समाना एव विभागाः ! उभयोरंखजेरीप्यांरोचनेऽपि गभीर- लिम्पः सुशीतेर्मधुरैरदाटिभिस्तत्रोपचायेऽद्नटेपसे चनः ॥
विचारानुस्यूतो नवनवोन्मेषविदोषसन्ट्धः भ्रीढतरो रेखोऽ- इति उचितश्षल्यक्रिया च निर्दिष्टा । अश्मरीभ्रकरणे (पर.१२२)-
सुभूयते ॥ | कालयवव्यश्मरी बस्तौ वर्धमानाऽवतिष्ठते ।
` सुश्रुतसंहितायास्तु खिरपूव॑तने भागे १२० मिताया तीयते न्षीयमाणस्य पुम्यमाणस्य पुष्यति ॥
अध्यायसमष्टिसंख्यायाः साम्येऽपि विमानेन्दियसिद्धिवजं तस्मान्न निस्यं सजति तस्योद्धरणमिष्यते ।
पञ्चैव स्थानानि, तेष्वध्यायसंख्या अप्यसमाना । गभावक्रान्त्य- अर्मरयद्वरणं तीच्णमौषधं सोत दरणम्‌ ॥
ध्यायादौ वारुधान्यादिसम्बद्वनिषयाणामप्यनुस्यूततया कण- साहसादतिवारेषु स्व नेच्छति कश्यपः ॥
वेघस्तन्यपरीच्ासा॒द्िककूरणसच्प्रभेदादीनां केषश्िद्धिष- इव्यश्मयुंद्रणसुक्त्वा अतिवारूविपये निपिद्धमस्ति । तेन
याणां प्रायो बृद्धजीवकीयोक्ततौस्यमस्ति । शल्यभधाने सुश्रुते शर्यप्रस्थानक्रियायाः सादरं परिचयः प्रयोगाप्रयोगपरिच्छेदश्च
सश्वप्रघानपिषयसम्बद्धविष्रयाः पू्वैभागे शाटाक्यादिप्रस्थाना- कश्यपस्य दश्यते ॥
न्तरीयचिषयाः खिलभागे सन्ति । खिकमागाभ्यायाश्च ६६ एव। आत्रेयसंहितायामपि कार्यपीयमतोररेखः.घान्वन्तरषतो-
बृद्धजीवकीये तु वारुकोपयोपिनः प्रधानविषयान्‌ पूवंभागे पयोगोऽप्यस्ति ॥
संसिक्तप्रक्रियया निर्दिश्य विभागेऽपि प्रायस्ताद्शा धान्या दाहे धान्वन्तरीयाणामन्रापि भिषजां मतम्‌ (च.चि.ज. ९)
दिसम्बद्धाश्च विशेषविषया केचन पू्वंमागोक्छा अपि पुनविंरो- दत्यादिवाक्येरवहुशो धान्वन्तरीयग्रक्रिया निर्दिष्टाः । तेना-
चरूपेण च प्रतिपादिताः, अत्र विरुभागाध्यायाः ८० मिता स्यापि तत्परिक्लानं विरेषतोऽवगम्यते ॥
इति कयाचिदूद््टया साम्यस्‌, अन्यया दष्टधा भिन्नमाग॑प्रस्था- मेडद्हितायामपिं चरकनिर्दि्टात्रेयमतोल्छेखः कश्यपमतोर्रेखः,
यितया दिषयाणां विभागानां निरूपणप्रक्रियाया रोगनिर्देश्षा- पिबेत्‌ कल्याणकं सपिंघान्वन्तरमथापि वा ॥ (पृ. १९१)
दीनां वैषम्यं च समीच्यते ॥ धान्वन्तरं पिबेच्छपिः सरहनारथंषु कुष्ितः ॥ ( प्र. १४२ )
धान्वन्तरं पिबेत्‌ सपि; प्राजापत्यमथापि वा॥ (पर. १६३)
एषां पूरवैषामार्षम्रन्थानां निबन्धनस्यारोचने शारीरेन्िय- इति धान्वन्तरौषधोपयोगः, चिद्रोदरे ८पृ. १६८ )अर्शसि
विमानसिद्धथादिस्थानीयविषयचिक्तोषाणां स्थानान्तरे विषया- (षृ. १८२) च शद्धक्रियानिर्देशश्चास्ति। तेनानेनापि
ननुप्रवेश्य कचन सुश्रुते तरस्थानविशेषस्य एथगुपादानेऽपि आत्रेयकश्यपोपदेश्चस्य धन्वन्तरिक्षम्प्रदायस्य च समादुरणं
अन्येष्विव तत्रापि अष्टस्थानीयविषयाणासुपादानेन अवान्त- गम्यते ॥ | -,
राध्यायानां कचनेकत्र वैषम्येऽपि बहुत्र साम्यं,
संख्यासु सर्वत्रकरूप्यं, प्रतिपाद्यविषयेष्वपि स्वस्वप्रधानप्रस्था- सुश्रुतसंहितायामप्यश्मरीध्रकरणे (चि. ज. ७)
नसंबन्धविभिन्नविषयानेवम्भावेऽपि साधारणविषयाणां सवं धृतेः तरैः कषायश्च सीरःसोत्तरबस्तिभिः।
्रानुस्युतिः, तत्तरस्थानाध्यायेषु तत्द्धिषयनिरूपणस्य समानता, यदि नोपशमं गच्देच्छेदस्तत्रोत्तरो विधिः ॥

६५
उपोद्धातः ।
४ + ^ ^ ^ + +^ पा ०.८१

` कशरुस्यापि वेद्यस्य यतः सिद्धिरिहाधरुवा 1 चिकित्सारूपस्वमनुपाख्यता किल आयुरवेदस्यष्ाङ्ेषु कौमारः


उपक्रमो जघन्योऽयमतः स परिकीर्तितः ॥ श्वत्यं नाममात्रेणोदिश्य तद्विषये उदासितमेव ॥ |
इव्युररेखेन शङ्यतन्त्राचार्योऽपि कायचिकिाप्रस्थानस्य अस्यां काश्यपसंहितायां त॒ बाकुकाना्ुस्पन्तौ रोगेषु
समादरं दर्शंयति । अषटग्रस्थानाचार्यतया ज्ञायमानस्य धन्व- निदानेषु प्रतीकारेषु अहादिग्रतिषेधे तत्संबम्धितयाऽन्तर्वली-
न्तरेः प्रस्थानान्तरनिबन्धेषु कौमारश्वस्थादिषिरोपविषया अपि दुष््रजाताधान्यादीनां दोषनिहरणे च विक्ेयान्‌ विषयान्‌ तदु-
विरोषतो निर्दिष्टा भवेयुः, अस्मिन्‌ शल्यप्रस्थानीयेऽपि निचन्धे पष्टम्मकतया श्षारीरेन्दियविमानादिस्थानीयविषयानपि प्राघा-
पूर्वभागे शारीरस्थाने गर्भिणीभ्याकरणादौ ( प° ३०३ ) न्येनोपादाय प्रासद्गिकैर्विषयान्तरेशान्तराऽन्तराऽऽपू्यं निरू
कौमारण्टप्यसंबन्धिनोऽपि विषयाः प्रसङ्गेन रेशतो निर्दिष्टाः पणद्ञनेन आदितोऽन्तपर्यन्तमनुस्यूतस्यास्य विषयस्य उप-
सन्ति । तत्राचार्यान्तरप्रस्थानान्तयेल्खेखं विनेवेद्शविषयो- ख्ञ्य भाग इव व्रुटितभगेष्वपि सम्भवितया चास्य प्रन्थस्य
पवणनं काश्यपसिद्धान्तमभिलच्य स्वतो वा विहितमिति सर्वाङ्गसम्पन्नकौमोरश्रत्यस्थानीयस्वं साधु युस्यते ॥
` नावधार्यते, किन्खेतावताऽस्याचार्यस्य कोमारभ्स्यविषयेऽपि अच्र रन्थे तत्र तत्र निर्दिषरवारुसम्बन्धिमिः प्ररनेः प्रति-
विचारविरोष आसीदिति वक्तुं शक्यते । एकेकम्स्थानाचायां वचनैः, 'कौमारश्वस्यमष्टानां तन्त्राणामाचयञुच्यते (पू. ६१ ),
जप्यते प्रस्थानान्तराचार्यांणां विषयेषु तानाद्ियन्ते । अद्य- कोमारण्रत्यमतिवर्धेनमेतदुक्तम्‌ ( प्रू. ९२ ) इत्यादिग्रन्था-
त्वेऽपि शारीरतत्तदवयवविकेषयिकिस्सानिष्णाताः पाश्चास्यवि- भ्यन्तरीणरेखेः, कचन च्कौमारग्टस्येः इति (प्र. ९२, १४५,
दयामिषजोऽवयवान्तरभैषभ्ये तद्विरोषविन्ञानवतस्तदाचार्याना- संहिताकद्पे >)पुभ्पिकारेखेन च तदेव कण्ठतः स्फुटीक्रियते ॥
द्वियन्ते। कायचिकित्सकाः शखचिकिस्सकान्‌ राखचिकित्सकाश्च प्राचीने नावनीतके कौमारश्टस्यविषयतया निर्दिष्टे चतुद
कायचिकिस्सकास्तत्तदुचितभेषज्येऽपेचषन्ते च । युक्तं चेतत्‌ । दाध्याये कश्यपजीवकयोर्नामनिर्दैरोन सह नानौषधप्रयोगो-
किन्तु आत्रेयमेडादिभिः काश्यपात्रेयादयो नामग्राहं गृहीताः, ल्रेखदर्शनेन, अष्टाङ्गहदयस्योत्तरतन्त्रे कौमारश्वस्यविषयसुपा-
सुश्रुतेन कायचिकिटसका नामतो न निर्वि्टाः केवरं तेषां दायोङ्ञिखितेऽध्यायत्रये, कश्यपोक्ततवेन निर्दिटयोद॑न्तरोग-
विषयाः सूचिताः, करश्यपेनात्रेयस्य नामनिर्देशेऽपि `शिभ्योप- मेषन्यग्रहहरदश्चाङ्गधूपयोः काश्यपीयोक्त-(पर. ७). च्छायानु-
रमणीये धन्वन्तरये स्वाहेति देवतारूपेण धन्वन्तर्निदशं विधायिनः स्तन्यदोषपरीक्तादेश्च दक्ञनेनाभ्यामपि कौमारणशटत्ये
विहायान्यच्नाचार्यरूपेण धन्वन्तरेनाम सम्रतिकोपलन्धम्मन्थ- एतस्योपजीवनं समीचयते । सुश्रुतीये कौमारशत्ये “ये च
भागे गहीतं न दश्यते, केवरं शर्यसम्प्रदायमात्रोर्रेखः कतः) विस्तरतो टाः कुमाराबाधहेतुमिः" इति सामान्यनिर्दरोऽपिं
स च सम्प्रदायो घन्वन्तरे्दिवोदासस्यान्येषां वा पूर्वाचार्थाणा- तदीयन्याख्यायां उज्लनेन ““पार्वतकजीवकवन्धकबरष्टतिभिः"
मिति न परिच्छेत्तं शक्यते 1वेदेऽप्येतद्विषयोपरम्भेन बेदसम- इति उहिखितेषु कौमारशस्याचार्येषु त्रिषु द्रौ नाममात्रेण
यादेव धारावाहिकरीत्याऽनुव्त॑मानेयं शचस्यविया आत्रेयकश्य- शिष्येते, एतद्धन्थोपलर्मेन जीवकः पुनरन्ीवति ॥
पादिभ्यः पूवमपि प्रतिष्ठिता समाता चासीत्‌। आन्रेयेणापि "कौमारश्वस्यास्तवपरे जङ्गमस्थावराश्रयात्‌ ।
~

धन्वन्तरैरेवोरुरेखो विहितो, न तु दिवोदासस्य सुश्रुतस्य वा । द्वियोनि बुवते धूपंकश्यपस्य मतेस्थिताः॥ (क० धूपकस्पे);
)

धान्वन्तरीयशब्देन च सुश्चतादयोऽभिमेता उतान्य एव पू इत्यत्रोररेखेन छौमारण्धव्येऽन्येऽपि प्राञ्च आचार्या बभू: ।


धान्वन्तरदास्यसम्प्रदायाचायां इति च नावधार्यते, केवलं अन्येऽपि कश्यपस्योपजीवका आसन्‌ , कश्यपः कौमार्य
तर्रेखेन रखसग्प्रदायिकपूर्वाचायंमार्गामिन्ञतवमायाति॥ प्रधानाचार्थं आसीदिस्यवगम्यते ॥ .
विषयश्चास्य ग्रन्थस्य कौमारश्वस्यम्‌ । तस्मयोजनं च कौमारश्स्ये श्षारीरभ्रकृतिविपयासेन स्कन्दरेवत्यादिबार-
विषय 'कौमारश्वव्य नाम॒ ङुमारमरगधान्रीचीरदोषसंश्चो-
धनार्थं दुषटस्तन्यप्रहसुस्थानां च व्याधीनामुप- ग्रहयैद्धतेन स्तन्या दिदोषेण च जायमानानां बारुकाबाधानां
शमनार्थम्‌ ( सू. अ. १ ) इति सुश्रुतेन निर्दिष्टम्‌ । तेन च निरसनस
ुदिश्य नानाभेषज्यानि, बालयमहपरतीकाराः, अन्येऽप्े
तदुस्ूता विषया उपवण्यन्ते । तदिदं कोमार्टसयं कायचिः
सख्म्रन्थस्य शल्यप्रधानतया सूच्रस्थानोदेशग्न्थालुसारेणोत्तर- किव्साय ा भूतविद्यायाश्च बारभेषज्योपयो गिनस्तदृुषङ्गेण गभ-
तन्त्रे २७ तः ३८ पर्यन्तं द्वादक्चाध्यायेः कौ मारश्टस्यमनुवर्णि- सम्बरद्धश्च विषयान्‌ प्राधान्येनोपादाय समुप
तम्‌ । परं तत्र धिदेषतो ग्रहस्कन्दपूतनादिप्रतिषेधविधानानि
धात्रीसुतिकादि
पेण ससुदेतीस्यसिमिशचिकिस्साप्रस्थानस्येव
तदुपयोगीनि कतिपयोषधानि केवरुसुपदर्चिता नीत्यस्मिन्विषये ह्य प्रथक्प्रस्थानरू
ज्ञातज्यानां बहूनां विषयाणामवरिष्यसाणतया एतदीयं कौमा- मूतविच्य
ाप्रस्थानस्यापि विषयाः प्रविशन्ति 1 भेष्यविदेव
रश्छस्यमांक्चिकमेव रच्यते । चरकाचार्येण तु सम्रन्थस्य काय- भूतम्रहादिभ्रतिष
ेधविद्या वेदिक्यामप्यवस्थायामासीदेव . ।
छान्दोग्योपनिषदि सक्षमाध्याये 'नकतत्रविद्ां भूतविद्यां सपजन-
१, नवग्रहाङृतिन्ञान स्कन्दस्य च निषेधनम्‌ । विद्यास्‌, इति प्राचीनवि्यासु मूतवियाऽ्पि निरि -)ल अथर्व- `
अपस्मार शकुन्यौश्च रेवत्याश्च पुनः एथक्‌ ॥ वेदेऽप्येतदीया विषयास्तदुपयोगिनो मन्त्रा श्च बहुश परभ्यन ्ते `
पूतनायास्तथाऽन्धाया मण्डिकाश्चीतपूतना । धि इति पूरवुक्तमेव । अत षवेयमाधर्वणविचचा तेनापि कीत्यते।
नैगमैषचिकित्सा च ग्रहोत्त्तिः सयोनिजा ॥ इतिहासद्शाऽप ारेऽवगम्यमानाऽति.
ीयं भूतविद्या सवतः भराक
` -कुमारतन्तरमित्येतच्छरीरेषु च कीतितम्‌ । (सशवतद्स्थनेः श्राचीनकालादेवारमनः सत्ताम
१1

वगमयति ॥ |
९ धछा० उण
६६ उपोद्धातः ।
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दौमारविषमे क्रियाकाट्गुणौत्तरतन्तरस्परभ्यते । तत्न वाल्य्रहरूपेण स्कन्दस्योररेखस्तदाराधनविधानं चास्यां


कुमारवाधाकय यहास्तत्तदिनमायवपभेदेन पीडाकरा वारुग्रह- संहितायां दश्यते । स्कन्दस्योपासनाप्रणाली प्राचीना 1 छान्दो
विरोषास्तञ्चिवाश्छा सन्घ्प्रयोगाः कल्पाः काडिविदौषधादीनि ग्योपनिषद्रीतासहाभाष्यादिष्यपि स्छन्दस्योर्रेखोऽस्ति । महा-
` धालवादीनि च बहशो निरूपितानि । तत्र शङ्धनीरेवतीचूतना- भारते वनपवंणि सीणां ग्भनाश्चकसवेन उाटरक्ताकरस्वेन च
भ्योऽन्येऽप्यपशतं बाखय्रहाः, यन्त्रा अपि पौराणिकच्छायोप- स्कन्दस्योररेखोऽस्ति । स्कम्दादीनां वारु्रहरूपेणोपवर्भनं
जीविनः, वि्रानसालायदतादि स्छन्दमाकच्डेयपुराणादिका- महाभारतीयं सुश्चतोक्तं च प्रायः साम्येन दश्यते 1 पारस्कर-
क्यानि, वाटचिकिस्साखतकस्याणवमक्कतवार्तन्त्रयोगसुधा- गृद्यसूत्रेऽपि नवजातवाखकविनाश्शषेतुतया स्कम्दस्योररेखो
निध्यादयोऽर्वाचीननिवन्धम्रन्धाश्चाद्यष्ये वारतन्त्रविषये उपल- वतते । एतद्विषये श्रीयुतमन्मथञ्ुखोपाध्यायेन वषिरेषतो
भयन्ते । तेष्वपि चर्पशासदिनभेदेन विभिन्ना बालग्रहा इति तेषु वर्णितमस्ति ॥
करियाकारगुणोत्तरे चेकछच्डाया ग्रक्रियाऽवगस्यते । अस्यां कार्य अस्यां काश्यपसंहितायां तच्र तत्रानेके मनवीना.विषथा-
पसंहितायां तु कतिपये एव ग्रहपूतनादयः, वधमासदिनभेदेन विचाराः, रमणीया निरूपणरीतयः, विशेषो पपत्तिदृष्टयश्च प्रति
विभिन्ना ग्रहा नेच, स्छन्दरेवतीपदनादित्राचीननासमिरेव तेषा- भासमाना निवन्धस्य प्राचीनार्पोन्तेषगौरवमवगमयन्ति ।
सुल्रेखः, मन्त्रा पि प्रायो वेदिकच्छायालुविधायिनः, छचन तथाहि-
(मातङ्गीविदयोपदेशे क. रेवतीकल्पे ) प्राकरतकषब्दगभों मन्त्रोप- दन्तजन्माध्याये ( प्र. १५ ) दन्तानां विमेदाः, तेषां सस्प-
देशः, भषञ्यविपयोऽपि विभिन्न इस्यनयो्मिथो विभिन्ना प्रक्रिया दिपत्‌, कुमाराणां कमारीणां च दन्तेषु वेरेष्यमित्यादयो दन्त-
समुपलच्यते । उभयतो विपयतुरनाा क्रियाकाट्गुणोत्तरादि विषयका विक्ञानविदेषा अन्यत्रादुपर्ब्धा उपलभ्यन्ते ॥
निर्दरेषु विकासावस्थाप्रकरियाया दश्चनेन तदपेक्तया काश्यपः स्वेदाध्याये (प्र. २६ > स्वेद्विषये बहवो विक्ञात्य-
संहितायां वद्ुप्राचीव्छस्पदाया्ेरः ससीच्यते । सुश्रुते विषया निरूपिताः सन्ति। सम्प्रतिकवाप्पस्वेदनादिप्रभियि-
निरिश्यमाना वारग्रहा अप्यन्थिःदप्व्याएदुभ्यद््यह्ति ॥ पेक्तया एतदीयप्रक्रियायां न विचारन्यूनता वक्तं शक्यते}
रावणच्रतं वाटङमारनन्परं दरम्रीववारुतन्त्रं देव्मिधीय- वाटानां स्वेदने मार्भिकी प्रक्रिया च समी च्यते ॥
समानमेकं प्राचीनं वारतन्त्रमुपरभ्यते । थस्य पष्टपस्तमदताच्छां लक्षणाध्याये ( पर. ४७) सासुद्विकरुक्तणानि सविरोषं
चचीनभाषायां त्रिहितोऽनुयादोऽप्यस्तीति श्रयते ¦ एतदु ग्रन्थविषये निरूपितानि, परमन्ते खण्डितानि । छक्तणग्रकाशोद्‌्टतपारा-
भिणा० वश्वृप्ट पिभ््गणणट एष)ऽ मान्नि पुस्तके विशेषतो शरसंहितायामप्येतादशान्येव प्रौढानि सामुद्धिकरकषणानि
-निरूपितमस्ति तदात्वे तावति दुरे जातादुवादतया ततोऽपि वर्तन्ते !चुितांशचस्य विपयस्तत एवाध्यवकतेयः ॥
आचीनेऽस्मिन्‌ यन्थेऽपि वर्पमास्दिनभेदेन व्यवस्थितानां रोगे उपद्वान्तरो्पत्तौ पूर्वरोगस्योपद्रवस्य वा कैवं
अ्रहपूतनादिप्रमेदानामुर्टेखेन एषा विकसिताऽपि म्रक्िया ग्रथमग्रतीकारमतमननुमान्य तीब्तरमुपक्रम्योभयोहिते प्रती-
ना्वांचीना वक्तुशक्यत इत्यविकसितपद्वतेस्ततोऽपि प्राग्मावः कारे स्वमतसुपद्षितम्‌ ८ पृ. ३९ ) ॥
सुतराम्‌ ॥ प्रसवविरम्बे परोक्तस्य व्यायामञ्रुसर्घातादिपक्तस्य सयु
| क्तिकं निरसनम्‌ ( पृ. ८५) ॥
१. वार्चिरित्सामतं नाम स्वीयैः परपयेशय प्येवीरसम्बन्थि-
अतिवारेपु अश्मर्खुदधरण-तीच्णोपधादिप्रयोगेषु मार्भिकी
रोगौषधानां विष्टितसंदयहं कायगतपवरिखितं जीषीपरायं पुस्तकं अननुक्ञा ( प्रु. १२२ )॥
नेपारुराजकीयपुस्तकाटये विदयते ॥
वसितिक्र्मणो वार्कादिषु सुम्रयुक्तस्य असृतस्थानीयस्य
२. अस्मिन्‌ बारतन्दरे नन्दा सनन्द पूतना मुलंमण्डिका कपू
भिषक्पितृवार्कादीनां सर्वेषां श्रेयस्करस्वं, दुष्प्रयुक्तस्य तु
तना शकुनिका द्युष्करेपरती अयंका प्रतिक्ामिक्रमिका पिलिपिच्दकं अनर्थावहस्वमिति बाटके कस्मात्‌ ससयादारभ्य बस्तिकमेत्यन्न
कामुकेति द्वादश. मातृका निदिष्ठः सति| अन्धलेख एवमाद्विरूपेण
बहूनामाचार्यांणां स्वस्य च मतोपन्यासेन गभीरो विचारः
दृरयते- ( पर. १४७ ) ॥
प्रथमे दिवसे माते वर्पव्ा गृणाति नन्दना नाम मावृक्ना। तया
बारानां फएक्छरोगे त्रिचक्ररथोद्धावनस्‌ ( प्र. १४१ ) ॥
गृहीतमत्रेण प्रथमं भवति ज्व) अद्युभं खन्द मु्वत्यात्कारं च
एकनाभिकयोः कस्मात्‌ तुर्यं मरणजीचितम्‌ ।
करोति, स्तन्यं न गर्ञाति। वलि तस्य प्रवद्यामि येन संपद्यते ल्युमम्‌ 1
रोगारोभ्यं सुखं दुःखं न त॒ चषि: समानजा ॥
नदुभयतटमृन्तिकां गृदयीतय पुत्तटिथां छया चोदन, श्पुष्पं, शा:
इत्यादिना यमरुविषये विचित्रः प्रशनविशेषः, सोपपत्तिकं
सप्तथ्वजाः, सप्प्रदीपाः; सप्तस्स्तिकाः) सप्तपटाः) सपद्चष्डुटिकाः)
चोत्तरम्‌ (रेवतीकल्पे श्छो० ६२ ) ॥
सप्तजम्बुकलानि;) सप्त मृष्टिकाः) गन्धाः; पुष्पं, ताम्बर, मस्स्यमासं,
सुराग्रभक्तं च पूवेस्यां दि्ि चतुष्थे मध्याहं बरखिदियः, ततोऽश्वस्थ- १ मगवानू सनष्ुमारस्तं स्कन्द इप्यायक्षते (छान्दोग्ये ।
२ सेनानीनामहं खम्दः (भगवद्गीतायाम्‌ , । [ि
कुम्भे प्रक्षिप्य शचान््युद्रफेन स्लापयेत्‌ । रसोनसिद्धाथकमेषश्रङ्गनिः
म्बपत्रशिषनिमास्येगांरकं धूपयेत्‌ । र्नमो रावणाय अमुकस्य ग्यार्धिं | 'जीविकायं चापण्ये" इति खन्नन्याख् याने महाभाष्य शिवः स्कन्द
` हन हन सुच्र मुञ्च हीं फट्‌. स्वाहा । एवं दिनत्रयं बर दत्वा चतुथं ¦ इति ॥
एण 1.2, ९0०१
दिवसे ब्राह्मणं भोजयेत, › अतः सम्पद्यते श्युमम्‌ ॥ म {06190 प्रभरेम दृण
उपोदढातैः । ६७ `
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विषमज्वरनिदेशाध्याये तृतीयचतुर्थादिऽ्वराणां मन्थेभ्वप्यात्रेयसुश्रुतकश्यपादित आरभ्भाचपयंन्तमपि भारती-


विभवि सम्भवन्तीनामुपपत्तीनां वर्णनमस्ति (खिरस्थानेऽ. १)॥ यग्रक्रियायां त्रिदोषपद्तिर्धाराप्रवाहगव्याऽनुवर्तते । सुश्रुते `
वार्कानां षष्टे मासि स्वँराचायंरन्नप्राश्ञनस्य विधानेऽपि वातपित्तकफानां त्रयाणां धातूनां दोषाणां वा देहसम्भवे रोगो
एतदीयाचार्यण तस्सस्कारविधानं निदिश्य षष्टे मासि फलटभ्रा- दत्तौ वा हतुस्वपन्लो वहुशो निर्दिष्टः । सश्चते कचन चिदोष- `
दानमात्र, द्रादशमासिकस्याक्नमभिरुषतोऽस्पश्चोऽन्रभोजनमिति पक्लस्यकीयत्वेनोज्ञिश्य रक्तस्यापि चतुथहेतुभवो निर्दिष्टः । `
अनुपचिताधिवरस्यातिशिशोः खदुपाकेन फररसेनेवोपयोगः, पू्वंकालिके महावञ्चस्य प्राचीनवोद्धवे्यकम्न्थे बावरोपर्न्ध-
संवस्सरोत्तरमेवान्नोपयोगः कीर्यते । आधुनिकः पाश्चास्यवेद्यक- नवनीतादिन्धेषु त्रिदोषप्रभ्ियेदावटस्विता दृश्यते । जीवक-
निष्णातेरपि एवेमेवातिबारेषु फलोपयोगो वर्पौत्तरमेवान्नोप- चिकित्साप्रक्नियायां महावमो विनयपिटकेऽपीयमेव त्रिदोषः
योगः साधीयस्सेन कीर्यते ( खिङस्थनि अ. १३) ॥ पद्धतिरपात्ता दश्यते । काव्यायनीयवार्तिकफेऽपि वातपित्त
वेदनाध्याये वाचा स्ववेदनां प्रकटयितुमश्षक्तानां बालानां कफानां समभिव्याहारो दश्यते । ४. 0. ४६० वर्षपूर्वभवस्य `
तत्तच्चेष्टाविशोषेस्तत्तद्रोगाणां तत्तदङ्वेदनानां च आनुमानिक- हिपोक्षिटसनान्नः प्राचीनपाश्चास्यवे्यजन्मनोऽपि पूर्वं भारते
विज्ञानवर्णनम्‌ ( एर. ३३) ॥ त्रिदोषपद्धतिः परिनिष्टिताऽऽसीत्‌। तदीयवेयकविक्चाने पित्त
रोगाणां विक्तानोपायाः निदानपूर्वरूपरूपादयः चरकसंहि- कफ़रक्तजरानां चतुर्णां दोषतया प्रदर्॑नमपि भारतीयप्राचीन-
तायां विमानस्थाने चतुर्थाध्याये- ` त्रिदोषपद्धतेर्वासनयोपरक्ते तन्मनसि सौश्रतविक्लानपरगत्या
आप्ततश्चोपदेशोन प्रव्यत्तकरणेन च । विचारविकाञ्च उन्नीयते ॥
अनुमानेन च व्याधीन्‌ सम्यग्‌ विद्याद्विचक्षणः ॥ अत्रेदं प्रतिभाति--प्राण्विक्ताने स्पष्टं पाथक्येन सर्वानुस्यू- `
इति प्र्यत्तादयस्तद्टिक्तानोपाथाः प्रद्िताः। सुश्रतेनापि ततयाऽवगम्यमानौ अभिः सोमश्च उष्णं शीतश्च वा मौलिकि
"मज

देश्नस्परनप्रश्नादय उपाया उक्िखिताः । तेन प्राचीने सम्प्र तत्वे अवभासतः। येन वेदिक्यां यागप्रक्रियायामस्यादित
दाये दशंनस्परानम्रश्नादिमिर्निदानादिपञ्चरूपाणि विविच्य एवारभ्या्रीषोमयोः पथपासनाऽ्नुवर्त॑ते । श्षारीरिक्यां परि. `
रोगपरिन्ञानं निर्दिश्यते । नाडीविन्ञानस्योल्टेखश्चरकसुश्रता- स्थिव्यामपि ज्लीतोष्णमावेन सोमा्िरूपयोः शुक्रो गितयोषह"
दिषु प्राचीनग्रन्थेषु अस्यां काश्यपसंहितायामपि न निर्दिष्टः । सम्भवहेतुतया तदनुषक्गगा्नीषोमीयवं गर्भस्य सुश्चतेऽपि
नाडीपरीक्ताया अर्वाचीनग्रन्थेष्वेव निर्देश्लोपरम्भेन स एष निर्दिष्टमस्ति । वायोस्सवेतद्‌ द्ययोगभावितया तदन्यतरान्तः- `
विषयः पश्चात्कारे प्रचरितोऽवगम्यते । नाडीविज्ञानस्य भार- प्रवेशोऽपि अर्थ॑क्रियाविदोषविकासदशा स्वरजस्तमांसीवाभि. `
ताच्चीनोपगमेन भारतीयमेवेदं विक्ञानमिस्यपि मतमस्ति । वायुसोमास्मकतया वातपित्तकफाख्रयो धातवो देहधारतया `
सेयं प्रक्रिया भारत एवोद्‌भूता देशान्तरसम्प्रदायच्छायथा विकारेण दोषतामाप् रोगजनकतया च प्राचीनायुर्वैदविदधि- `
वाऽत्र प्रचरतेति विचारी धिषधान्तरष्वादास्तां तावत्‌ । यथा निरधार्यन्त, तन्मूक्किवेयं च्रिदोषपद्दतिः कश्यपात्रेयमेडा. `
तथापि प्राचीनग्रन्थेष्वेतस्य विषयस्यानुररेखेन पूर्वकाटिकखं दिभिः प्रलाचायंरपादीयत च । यथा यथा क्रमशो विचार
समथ॑यितुं प्रमाणान्तरमपेच्यते । वारुकविषये तु अतिबाल- विशेषोन्मेषः, तथा तथा नवनवानि तच्वान्यपि पुरःस्फुरन्ति।
कानां वाक्डक्तितरैकल्येन यथावदववोधनाक्ञमतया तदीये. अतः किर सुश्रुताचार्येण बहुशो वातपित्तकफानां श्रयाणां
्टाविहेषे रोगविज्ञानस्य प्रक्रियाऽपि अस्यां काश्यपसंहितायां दोषाणां निदानतामभ्युपगम्यापि म्रथमकक्तायां चयाणामेषां
वेदनाध्याये ( प्र. ३२ ), अन्यत्रापि तत्र तत्र वर्णिता दश्यते ॥ दोषस्वेऽपि द्वैतीयिक्यां कन्ञायां विङ्कतेन रक्तेनापि बहन्थो
प्राचीनाचायाः सुच्मविचारशक्द्युन्मिषितदृष्टयो येषु येषु वस्य विमं तेषां त्रयाणामिव चतुथंस्य रक्तस्यापि बणादौ
विषयेषु प्रवतन्ते तत्र तत्रान्तस्तरूपयन्तमवगाद्य मार्भिकेरप- प्राधान्यवाद्‌ उपदिष्टः। हिपोक्रीटस विदुषो वेचयकविज्ञाने पित्त
न्यासेरूपदेश्यान्यथावद्वबोधयन्ति। कौमारश्त्यविषये प्र्ुत्तेन कफरत्तनरानां चतुर्णा दोषतया प्रदर्शनमपि भारतीयभ्ाचीनः
कश्यपेन आचार्यान्तरीणसवंसाधारणविषया इव बालकेष्वति- तरिदोषपद्धतेर्वासनयोपरक्ते तन्मनसि सौश्चुतविक्ञानप्रगत्यां `
वारुकेषु चोपयो गिनोऽनेके विषयाः सम्यक्‌ सुचिता उपरुभ्यन्ते ॥ विचारविकार्च उन्नीयते । तदेवं विचारविकासः कालानुक्रमेण `
वातपित्तकफानां त्रयाणां दोषाणां निरदेश्षो वेदिके रेखेऽ- पुरातनयद्तेरेव परिष्कारं ददयति ॥
प्युपलमभ्यते । ऋग्येदे-त्रिधात शमं वहतं शभस्पतिः इति १ वातपिन्तरलेष्माण ण्व दैहसंमधदेतवः । तरेवाव्यापनैोम-
त्रिधातुश्चब्दोर्खोऽस्ति। यः शब्दो वातपित्तकफरूपत्रिदोष- यो षवेसन्नििष्टः ररीरमिदं धायंतेऽगारमिव स्थूणाभिसितसृभिरतश्च `
परस्वेन सायनाचार्थेण व्याख्यातः । मिर्डविदुषाऽपि {तदे विस्थूणमाहुरेके । त एव व्यापन्नाः प्रल्यदेतवः । तदेभिरेव शोणितच- `
वाङ्गीकृतम्‌ । जीमरग्रश्ठतिभिः के्िदन्य एवार्थो विहितः तूर्यैः संमवसिथतिपरल्येष्वप्यविरदितं शरीरं भवति । सुरते सस्थे ` `
किन्तु अथर्ववेद उपलभ्यमानेषु वातगुल्मवातीकघतेत्या दिपदेष्व- २१ अश्याये ॥
थान्तरस्यासङ्गस्या सर्वत्ेकरूप्यस्यौचिस्येन त्रिदोषपरत्वमेव २ आतैवं॑श्योणिततं लभेयं, अश्रीषोमीयत्वाद्‌ गर्मस्य (सुधर: ` `
संगच्छते नार्थान्तरम्‌" इ्युक्ञिखितं पी. सी. रायमहोदयेन । य॒त्रस्थाने अ. १४) ~
१ हिष्ट ओर्‌ हण्ड केमिष्ट्री ४०1 1 भूमिकायां एप्प ३ तच वीयं द्विविषयुष्णं सीतं च, अश्नीषोमीयत्वास्जगतः ८ सुश्रते
पौ. सी. राय प्रस्थाने अ, ४०.)
उपोद्धातः ।
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000 क क 8
निकाषा
कक का क का

काश्यपसंहितायां करपरथाने ८ ललुनकरपे ) कौतुककारी भिषजः काङ्कायनस्य नामनिदशेन बा्हीकानां पुनः पुनर्‌-
[1

141.
22६

त्योपऽप्द््ति। चीनदेश्षान्तर्मते कासगरः


1 | षूगृ {= ६ र
दरेखेन च विन्नायते। बार्हीकदेश्चस्तु यवनानामाक्रमणात्‌
नामकस्थाने बौद्धस्तयेन सह वावरनामकेन पाश्चास्यान्वेषकेण प्रागपि इरानियज्ञातीयानां साम्राज्ये प्रतिष्ठितो वह्खप्रेशः।
भूराभटुपरम्येषु सस्रन्धेषु त्रयो वेचकथन्थाः, येषु नावनी- तदाखे तत्रत्याया इरानजातेः सखयुन्नतिसखमये तदीयभिषजां
तकं नामकः, तीयो र्नस्य विशेषरुणगौरवाववोधको तदीयौषधानां च भारतीयपुरातनग्नन्थेप्रूपादानं सङ्गच्छते च ॥
मन्थः, तृतीयश्च ७२ श्कोकास्मको नानायोगौीषधनिरूपको रेखः। मावम्रकारो पारसीकयवान्या उर्रेखेन पश्चात्तनदेश्ान्तर-
एषां रेखखमयेऽपि प्राचीने तदीयरचनाकारस्ततोऽपि प्राचीन वस्तृपादानदर्शनेऽपि चरकसुश्रुतकाश्यपीयादिग्राची नग्न्थेषु न
इति ूर्वमुक्तमेव । मद्धिते नावनीतकेऽपि आदितः सविस्तरं तथोस्टेखोऽस्ति । किन्तु यवानीशब्दमात्रस्य नि्देश्ोऽस्ति ।
काशिराजेन सुश्चुतायोपदिष्टं खश॒नविधानमस्ति ! तत्र ख्शन- यवानीक्ब्दस्तु न यवनशब्दाजनिष्पन्नो न वा यवनसम्बन्धाभि-
स्योवपत्तौ कचन प्रयोगांरषु विभेददश्ञनेऽपि काश्यपीयल्शथु- धायी । इन्दर्वरणेतिषूत्रे चवरन्दाद्यवारशन्दौ निष्पाद्यते
नकर्पीयग्रयोगच्छाया बहुत ईच्यते । भाषारचनारोचनेऽपि पाणिनिना । वार्तिककृता काव्यायनेन यवादोषेः ईति दुष्ट
नायनीतंकरेखात्‌ काश्यपीयङर्ेखे प्राग्भावः स्फुरति । चरक यवा स शब्दः खियां साध्यते । अतोऽयं भारतीय एव प्राची-
संहितायामपि लश्चनोपयोगोऽस्ति । इत्थं पुरा कालमैषन्य- नो यवानीकब्दोऽपि नान्यथा श्ङ्काये प्रभवति ॥
अन्धेऽप्युपरम्यमानो रशुनोपयोगोऽर्वाग्मावश्ङ्काये न प्रभवति ।
खश्नं हि स्वगुणगौरवेण केवरं रसेन ऊनभिव्यन्वर्थतया एतस्पुस्तकस्योपरुभ्यमानान्तिमपच्रगते देशसास्म्याध्याये
रसोनमित्यप्युच्यते । भेषजेघु विशेषतो गीयते चायुवदे । (खिरुस्थाने) देशविेषेण रोगविरोषान्‌ निद्‌-
धार्भिकद्ष्टया स्श्तिम्रन्थेषु रुश्चुनं द्विजेभ्यो विगीयतां नाम, च देशवि- शयितं तदरात्वे एतद्धियासपुन्मेषादिद्शा
सेषञ्यन्थेषु गुणगौरवेण किन्न प्रश्षस्यताम्‌ । अस्यां काश्य- सेषनिदिशः किल प्रसिद्धं इररेत्र मध्यदेश प्रकल्प्य तदनु.
पसंहितायां पुराकाल एवाण्रतोद्राराज्ञश्चनस्योत्पत्तिमभिधाय सारेण पूर्वादिगतानां देश्विशेषाणासुर्रेखो-
स्थानदोषेण दुर्गन्धमिदं द्विजेराह्यमिति धर्म॑शाखम्यादां प्रमो दश्यते । यदि नामायमध्यायः साकल्येनोपारूप्स्यत
स्पष्टमुलिखज्ञोकोपकारद्शा तस्य गुणमहिमानं करूपं च निरू- तद्न्येऽपि वहवो देशास्तादाच्विका भवागमिष्यन्त । पर- `
पयायास तस्कर्पाध्याये महर्षिः कश्यपः। जातिविदोषेरभ- मेतावस्येवास्य पुस्तकस्य षिच्छेदेन इधितस्यार्धंकवर एव
याणां सुरादीनां स्वेषु निषिद्धानां हस्तिमांसखरमूत्रादीना- ग्रतिरोध इवोक्कलिका वलराज्निगृहीतन्या भवति । अन्त्यभा-
मपि गुणविचारेण तच्र तत्र॒ रोगेषूपयोगोर्रेखा अ्षेष्वपि गविरोपेन तच्रोक्धिवितानां पश्चिमोत्तरदेश्ानामपरिक्ञानेऽपि `
मैषज्यगुणेषु बहुश उपलभ्यन्ते नैतावता तेषामुपदेशकानां पूर्वदिग्गताः दरिणदिग्गताश्च कत्तिपये देशा विज्ञायन्ते । यद्यपि
ध्मभार्मपरिव्याग इति न वा धर्मदढन्तैरप्युपादेय इत्यपि ूर्वदक्षिणगता अपि प्राचीनाः सर्वे देशा नोक्लिलिताः, अपितु
शङ्कनीयं भवति । उन्तमेव-- रोगोचिता एव केचनोह्धिखिता भवेयुः । तेषु प्रियङ्क-नवध्वान-
'न श्ञाखमस्तीस्येतावत्‌ प्रयोगे कारणं भवेत्‌ । वानसी-मुुद-विवेह-वटानामुपरभ्यमानग्रन्थान्तरेषु संवाद्‌-
रसवीर्यविपाका हि श्वमांसस्यापि वेद्यके ।' कनिर्देशालमेनानिर्धारणेऽपि तस्सहचरितानामघो निर्दिष्टानां
( वास्स्यायनीये कामसूत्रे सां. अ. अ. २) देरानाम्नां प्राचीनव्वेन वित्तायमानतया सवांणीमानि प्राची-
"इति 1श्येनयागस्य हिंसारूपतयाऽनुपादेयस्वेऽपि तदोष- नकालाद्यवहूतान्यवगम्यन्ते। अधस्तनानिं देशनामानि प्राची-
मङ्कीङ्गस्याभिचारेणेहिकं सदुदक कामयतामिष्टसाघनाय शश्येने- नपर्चियेन सह श्रीयुतकनिङ्हामविहुपा श्रीयुतनन्दराकम-
नाभिचरन्‌ यजेतः इति श्रौतमपि विधानमुपरुभ्यत एव 1 श्यो होदयेन श्रीयुत ४. 4. "60४०४ महाशयेन स्वीयप्राचीनभौ-
हि दिंसितमिच्छेत्‌ तस्यायमभ्युपायः' इति शवरस्वामिभिरेतत्‌ गोरिकम्रन्थेषु निर्दिं्टान्युपरभ्यन्ते ॥
समर्थितं च । ल्शनस्योल्रेख) गौतमधर्मसूत्रे ( १५. ३० ), मध्ये- कुरुत्तेज्भदेशः-रतयोजनमितः। स तु सर्वत्र प्रसिद्धः ।
मनुस्मृतौ (५. ५, १९ >, याज्ञवह्व्यस्मरतौ ( १. १७६ ) महा- पोरस्त्यदेशाः-
भारते ( ८. २०२७, ५२. ४३६२ ) अप्यस्ति ॥ | कुमारव्तनीः- महाभारते ( सभा० अ० २९) कुमारदै.
-हिङ्कप्रयोगदर्षनमपि नार्वाचीनस्वकषङ्काये प्रभवति । यततो शस्थोष्टेखोऽस्ति । सोऽयं रीवासमीपगतः
दिङ्‌ बोः कारात्‌ पूर्वत उपादीयते भारतीयग्रन्थेषु । धार्मिक- कुमारदेश्च दइव्युच्यते ॥ |
गरन्थेष्वपि श्राद्धादौ दिङ्क पितप्रियसुक्लिख्यते । चरकसुश्ुतयोः करीवर्घः --अद्यसे वदुरो वर्धमानगान्ते वर्तमानः कटवा-
काश्यपीये तच तन्रौषधेषु तस्पहयोगो वर्ण्यते । काश्यपीयादौ म्देश्छोऽयमि्युच्यते \
दिङ्कवाचकतया बारहीकशब्दोऽपि प्रयुज्यते । तेन बार्हीकादे- ९ इन्द्रवरुणमवदावंरदरमृडदिमारण्ययवथवनमातुखाचायांणामा-
` श्चान्तरादस्य भारतीयैः परिचय उपयोगो वा विदितः स्यात्‌ । | `
येनास्य तद्वानान्नाऽपि व्यवहार इति म्रतिभाति । परं भार नुक्‌ (पाण सऽ ४-१-४९)
२ 411060४ 660 ग 0418.
तस्य बार्हीकदेशस्य च मिथः सम्पक॑स्तदीयवे्यानां च परि- ३ ७९०९४018} 1160100४.
श्रयः पूर्वंकारादेवासीदिति आत्रेयकश्यपादिभिरपि बारहीक- । ४ ^ शणं 1०019 (08111086 0150 प 01078 एणा).
उपोद्धातः | ॑ ६९ `
न 7 र, ५६. १ "^ # + "न, ^ ५ ५. १8 ^ ~~ ८ 4 - -^ - - -५-^\

प्रगघः--ऋरषेदरेऽथवपरेदे च मगघदेशरयोरटेखररशनेनास्पर कौरोयवखस्य चीनांशकस्वेन पुराकाटास्रधिद्धिः,


युरासमयादेव स्वनाम्ना प्रसिद्धिशूपरभ्यते । मागध. वर्माप्रदेशे विशेषतः कौशेयवाणिज्यं तस्देश्स्य `
स्योर्रेखस्ते्तिरीयवाद्यणे ( ३. ४. १, ५. ), जंमि- चीनराञ्यववमप्यासीत्‌। चीनकेतिकप्रव्ययान्त- `
नीयनाद्यणे ( ५६५५ ) अप्यस्ति ॥ शब्देन ख्घुचीनरूपः स प्रदेशो बोधितः प्रति.
च्षभद्रीपः- महाभारते ( वनपर्व० अॐ० ८५) ऋधम मासते ॥ |
स्योल्रेखोऽस्ति । वब्रहस्संहितायामपि दक्षि को शद्यम्‌--गोशर्दे तः उत्तःकोशर्देश् राप्रायणे
णतः ऋषभो निर्दिष्टोऽस्ति । महुरासन्निहित ( उत्तर अ. ०), पद्यपुराणे ८ उत्तर० अ.
ऋषभपवतग्रदेशषः इति केचन वदन्ति । परं ६८ ), अवदानशतकादिषु च निर्दिशेऽस्ति ॥
पूवंदेशस्थित एव षभद्रीपोऽस्याभिमतः क लिङ्घःप्‌- महाभारते ( वन० अ. ११३) सहदेवदिभ्वि-
। स्यात्‌ ॥ जये, बरृहस्संहिता्यां, अशोकशिरारेखेऽप्युर्कि-
\ण्ड्वधनकम्‌-- पुण्ड्‌व्धंनमप्परेतदे गोच्यते ! पुण्डदैश.य खितमस्ति । महाभारतसमये उस्छर्स्य बहवो
राजधानीयमासीत्‌ । दरिवंश-पद्य-बद्या- गाः करिङ्गराज्यान्तगता आसन्‌! काङिद्‌ा-
ण्डपुराणादिषु वासुदेवनृपते राजधानी ससमये करिङ्घोस्करौ भिन्नावास्ताम्‌ (रघुवंसे ४)॥
स्वेन निर्दिश्यते च । सोऽयमद्यस्ये मार- दात्तिणत्यदेष्ाः
दाप्रान्तगतपाण्डुवाप्रदेशः कथ्यते । महा- काश्ची-- महाभारते ( भीष्म० अ. २), पादरूमे ( उत्तर
भारते भीमदिग्विजये पूवंस्यां पुण्ड्देश्चः, अ. ७४ ›)अपि उर्रिखिताऽस्ति । महाभाष्येऽपिं
वराहसंहितायां पौण्डूदेश उक्ञिखितोऽ-' चीरचोरकाञ्चीनामुर्रेखोऽस्ति । द विडचोखदेश्चस्य
सिति ।श्रीयुतपार्जिटरमहोदयः पुण्ड पौण्डु राजधान्यासीत्‌ । जदयत्वेऽपि काञ्ची ( काञ्जीवरम्‌ )
नच भिन्नौ स्वीकृत्य पुण्डो गङ्खाया उत्तर ्रसिद्धेव ॥
तोऽङ्गवङ्गयोर्मभ्ये, पौण्डो गङ्गाया दक्तिणतो कावीरम्‌- सोऽयं कवेरीनदीपरिसरशरदेशः सम्भा्यते ।
वर्तमानसन्थारूपरगन्‌न्तर्गतवीरभूमप्रदेश कावेर्यां उल्खेखः स्कन्दपुराणादिषु दश्यते ।
इति निरूपयति ॥ काङिदासेनापीयसुस्लिखिता (रघु° ४)ऽस्ति ॥
स॒न्तिकावघमानकम्‌- - वधंमानदेशः सम्भाव्यते ।
सोऽयं विरिपाल्लीौ-- च्रिचिनापद्यया लौकिकं नामान्तरं आति।
माकंण्डेयपुराणवेतारुपच्चविशस्या - रावणसेनापतेखिशिरोनामकस्य नाम्ना पूर्व
दिषु विन्ध्यस्योत्तरतः, देवीपुराणे = त्रिशिरः पल्लीति नामासीत्‌। तस्या एव समय-
(अ. ४६ >)वङ्गसमीपे वधंमानदेश वरोन त्रिचिनापल्ञीति नाम्ना प्रसिद्धिरभूत्‌।
उक्खिखितोऽस्ति ॥ अस्या एव समयवशेन उरगपुरं निचुख्पुरमि
हा भीमदिग्विजपे पूवस्यां कर्थटदेशस्थो
कवंटम्‌--प्रभारते त्यपि नामान्तरं बभूव! पूर्वं पाण्ड्यानां
| ल्छेखोऽस्ति । श्हत्संहितायामप्यस्य निरदेशोऽस्ति । चोरानां चेयं राजघान्यासीत्‌ ॥
मातङ्गम्‌--युक्तिकल्पतरी कामरूपस्य दचतिणपूरलो सतङ् चीरसन्यम्‌- चीष्देशो महाभाष्येऽप्युलिनिखितः । चीरे.
| देको रघ्नखनितया निर्दिष्टोऽस्ति ॥ शब्दः केरलपुत्रशब्दस्यापश्रष्टसंतिक्षंरूपान्तर-
ताघ्रलि्म्‌- महाभारते (मीष्म० अ. ९› सभार अ. २ ९) मुच्यते। सोऽयमद्यत्वे मेसूरराज्येऽन्त्भवति ॥
भीमसेन दिग्िजपे बहस्संहितायामन्येषु पुरा- सोरः-- चोरः चोर दस्येक एव ! अरोकश्रु रेखे चोडश
णवौद्धथन्थदशकुमारचरितादिष्वपि निर्दिष्ट ब्देन व्यवहारोऽस्ति! काञ्चीपुरनृपतेश्चोखनाम्नोऽ
मसिति 1हुयन्सङ्गेनाप्येतदुल्किखितम्‌ । अशो- भिधानेन तन्नामासीत्‌। पर्यपुराणे चोरस्य द्रविड-
करिरटेखेऽपि निर्दिष्टमस्ति । सोऽयं वङ्गीय- देशे उल्छेखोऽस्ति । पाणिनीयगणपटेऽपि देशवाची
मेदिनापुरथ्रान्तगतः तमद्ूकनाम्ना प्रविद्धो चोरुशब्दो दश्यते । बहस्संहितायामप्युक्धिखितो
देशोऽवगम्यते ॥ ऽस्ति । सोऽयमद्यत्वे कारोमण्डलप्रदेशेऽन्तर्भवति ॥
चीनकम्‌--चीनदेशस्योररेखो महाभारते (समा० अ. ५१) पुलिन्दः-महा भारते सहदे बदिग्विजिथे दक्लिणतः पुिन्द्‌
| मनुस्मृतौ ( १०-४४ ) चास्ति! साहित्यपरिष- स्योल्खेखोऽस्ति ।! अशोकशिररेखेऽपि दश्यते ।
त्पत्रिकायां चीनशब्दो वतंमानस्य अनामा नर्मदातटे विन्ध्यगिरेमेध्यदेशे पुलिन्ददेश
(4५८८९ >) देशस्य बोधकतया दरितः। थृमहोदयेन म्दश्यते । तारातन्त्रे कामरूपोत्तर-
१ अस्यां संहितायां सचीरकमितिपाठे खिरु-अ. २५) युद्धितेऽपि मागे, महाभारते वनपवेणि हरिद्टारोत्तरपशिम-
चरस्य दक्षिणतः पश्चादरद्यमाणतया, पूव॑तश्चीनस्यौचिव्येन, प्राचीन- प्रदेशेऽपि पुरिन्दोर्रेखेन पुरिन्दजातिमादाया-
छ्प्यां नकारस्य रेफपाठसं मेनापि सचीनकमित्येव युक्तं प्रतिभाति ॥ । ` न्यत्रापि प्रयोगो ज्ञायते । हिमाख्यग्रान्तगतजा- `
७० उपोद्धातः ।
० + ~ 0 + ^^ 00 व क

तिषु ुरिन्दशब्दः पश्चात्‌ प्रायुञ्यतेति


होदयो निरूपयति ॥
| वण्यंमान आभीरदेक्े गज॑रभ्रान्तीयः सम्भवति ।
यच्रभिज्ञाः साम्प्रतमपि निवसन्ति । बृहस्संहि- `
ड(द्र)विडः- महाभारते वनपर्वणि, वदाहसं हितामटस्य- तायामपि दङ्तिणनेकछत्यभाये आभीरदेशो निरि.
व्यादिष्वप्युक्ञिखितोऽस्ति । मद्रासतः कन्याकुमा- ष्टोऽस्ति ५
रीपर्यन्तो देशो दविडनाम्ना व्यवहृत आसीत्‌ । एवसूङ्किखिता इमे देशाः प्राचीना एव वित्तायन्ते । अन्न
बूटरमह दायो द्रविडस्यैव चोरू इति नामान्तरं मगधासु महाराष्टरूमिति सगधस्य महाराष्टूखेन निर्देशः कौश-
वक्ति ॥ ` स्यदेशस्योज्ञेखश्चास्ति । कोश्चरदेश्चः ४. 0. 400 समये मगध-
करघाटः- महाभारते ( सभा० अ, ३१ >) सहदेवदिग्वि- राज्याङ्गभूत उपवर्ण्यते । बुद्धसमये फोशल्देश्स्य प्रतिष्ठाऽ
जये दक्तिणतः करहाटकदे्स्योल्रेखोऽस्ति। स्का- प्यासीत्‌ । मगघे महाराष्टूपरिस्थितिर्मारयेभ्यः पूर्वंनन्दकारे
न्दं सद्याद्विखण्डे कारद्टृदेक्ञस्य राजधानी निर्दि- बद्धकाटिकशिश्युनागवंशीयाजातशघ्रु
समयेऽपि 7. 2. च्यान-
षाऽस्ति। भाण्डारकरमहोदयेनापि ए. ॥. 7. जीमिहोदयेः, घ. 7. चौधरीमहोदयेरपि स्वीये घ्राचीनभारत-
पुस्तके एष देशो बणितोऽरित । अद्यते कराड पुस्तके वर्णिताऽस्ति । कोञर्स्य पृथगुज्ञेखेन पाण्ठ्यदेशस्या-
इति प्रसिद्धः स देशो विक्ञायते ॥ कीतंनेन सह मगधे महाराद्टरमावोक्ञेखोऽयं बुद्धकालिकीं परि
कान्तारम्‌- महाभारते सहदेवदिग्िजये दक्तिणदः कान्ता स्थिति सूचयति । वात्स्येन पूरिते खिर्मागे एवं दर्शनेन,
` रकदेशस्योल्ञखोऽस्ति ! अरण्यकमप्येतदेवेति वद. वास्स्यीये प्रतिसंस्करणे उस्सरपिंण्यवसर्पिंणी शरमणनिर्भन्थक्ञक-
न्ति। महाभारते ( सभा० अ. ३१), देवीपुरा- पज्ञवहूणादिसंङायावहशशब्ददश्चनेनापि वास्स्यस्य उुद्धेन सह-
णेऽप्यरण्यस्योर्टेखोऽस्ति । सोऽयं देश्चोऽदयप्वे सामयिकः सन्निकर्पोऽनु मीयते ॥
ओरङ्गावादप्रदेशो दक्षिणकोङ्कणं च । तच्नव्या अत्रेव पूर्वभागे मोजनकल्पाध्याये-( श्लो. ४०-५१ )ऽपि
राजधानी तगर इत्यासीत्‌ , येदानीं दौलतावाद- केपाच्चिदशानां नामान्यु्धिखितानि सन्ति । तेपु कतिपयानां
नाम्ना निर्दिश्यते ॥ प्रसिद्धानां ऊुरु-कुरुरेत्र-नेमिप-पाञ्चार-कोशर-शूरसेन-
वराहः वितस्ताया दक्षिणतो राहा व्रतरस्थानरय वरा मस्स्य-दशाण-िचिराद्वि-(देमाद्वि)विपाशा-सारस्वत-सिन्धु-
दभूरुकसेन प्रसिद्धिरिव कोश्िकीतीरे नेपारूपरि- सोवीर-कारमीर-चीना-ऽपरचीन-खशबाहीक-काशी-पुण्डा-
सरप्रदेशे वतंमानस्य कोकामुखतीथंस्थानस्य चरा- ऽङ्ग-वद्ग-कलिङ्ग-किरातादिदेश्लानां महाभारतादिषु प्राचीनम- .
हक्लेत्रतया पूर्वसमयात्‌ प्रसिद्धिरस्ति! वराहपु- न्थेष्वप्युपरम्मेन प्राचीनस्वमेवावधार्यते । अन्येषां माणी-
राणेऽप्यस्य महिमा गीयते । परमनच्र दाक्तिणाव्य- चर-दारीतपाद्‌-दासेरक-श्ञातसार-रामण-काचा-ऽनूपकपद -
देशेषु गणितस्य वराहस्य पाश्चाच्यपौरस्त्यदेशयो- नानां तु नामान्यप्यन्यन्न न सुख्भानीव्यग्रसिद्धा एते देश्चा जपि
स्तयोरसङ्गमनीयतया द्तिणतोऽवस्थितमस्यमेव पुराकाट एव स्यवहृता क्तायन्ते । एते देशाः कुचत्याः पश्चिमो-
पुरा प्रसिद्धं वराददेशमभिप्रव्यसौ शब्दः ! यः सा- त्रग्रदेशस्था वेति विचारयन्तु विद्वांसः । खिकगते देशोक्ञेे'
म्प्रतं 'वरारः नाम्ना निर्दिश्यते स एव किमु १ ॥ महारष्टरस्वेन निदिष्टोऽपि मगधोऽत्र नाम्नाऽपि न निर्दिष्टः ।
श्राभीरः--प्रजरदेशस्य दक्तिणपूचमागस्थो नम॑दामुखप्रदेश्च कोश्चटस्तृज्ञिवितोऽस्ति । अन्येऽपि तत्रोक्लिखिताः केचन देश-
आभीरनाम्ना व्यवह्त आसीत्‌ । अयमेव ग्रीकैः विशेषा अच्रन निर्दिष्टाः । प्रस्युत पूर्वेन निश्चीयमानाः
41011 दइत्यभ्यघीयत । महाभारते ( सभा० चिन्धु-सौवीर-कुर-पाश्चाल-बाहीकादयः प्राचीनाः केचन
अ. २१) समुद्रसन्निधो सोमनाथसन्निहितगर्जर- पश्चाष्िटक्तन्यवहारा अपि देशा एव पूर्वभागे दश्यन्त इस्य-
देश्ीयसरस्वतीतीरे आभीरा निविष्टाः! गुजैरस्य नयोः पवेत्तिरभागगतयोर्द्विक्षेषोज्ेखयोरयुसन्धाने बुद्धसम-
दक्िणतः सूरतप्रदेशोऽप्याभीरदेरे भिरित आसी. यसक्निकणे क्तायमानाद्वारस्यात््‌ पूर्व॑भागनिबन्धु्द्जीवकस्य
दिव्थपि कस्यचिन्मतम्‌ ! तारातन््रे कोङ्कणद्न्नि- मूलाचायंस्य कश्यपस्ापि प्राचीनत्वं विशेषतोऽनुसन्धीयते
णतस्तापतीपधिमतयरपर्यन्तमामीरो निर्दिष्टः । इत्यरु पञ्लवितेन ॥
ल्यासनमहोदयो वायविरे निर्दिष्ट आफीर (0/0)
( © , भारतीयमंषज्यप्तमथनपरिच्छ्दः-
ण) षै
देश एवाभीर इति मन्यते । भारतस्य पथिमत-
स्तापतीतो देवगढपर्यन्तो देश अमीर इति इलि- ` अस्या भारतीयायु्वेदविद्यायाः स्वोयग्राचीनसग्प्रदायपरः
यडमहोदयस्य मतम्‌ । वन्करिडमहोदयः सिन्धु- म्परयंवाभ्
,
युत्थानम्‌ , उतास्यां# देश्चान्तरीयवेद्यकेन
(६
ापि शिरा-
नदस्य पूत आभीरं मन्यते । विष्णु-( अ० & ) न्यासः । किं वा यूरोपप्रदेशेऽपि सर्वप्राथम्येन ओसदेशे सभ्य
ब्रह्माण्डपुराणयोराभीरदेशे सिन्धुनया उर्रेखो- तायाः मृषञ्यवि्य
४ , ४
ायाश्वोद्येतिल्ततस्यावगमेन तदीयवेद्यक
५,
स्य
ऽस्ति । आभीरशब्दस्य जातिवाचकतया तश्िवा- भारतीयवेद्यके मरभावानुप्रवेशः, फि वा परेषामधमर्म॑भाव-
समादायान्येऽपि देशा जभीरनाम्ना व्यवहृतः मनुपेतमपि भारतीयवेधकं भारत एव विश्रान्तुत बहिः-
सन्तु नाम । अचर कुरते मध्ये कृत्वा दक्तिणतो मदेश्ानपि स्वारोकोद्धासितानू विद्धौ । एषां विषयाणां `
उपोद्धातः ७|

^
+. ~

` विमं विना भारतीयायुवेदचोतसः पूरवपरिस्थितेन सम्यगव. |भेदेन अरसरन्तस्ते केचन पाश्चाततयप्रदेशेषु केचन पौरस्स्यग्रदेशे-
१ न न ज न न,

भासः, पूर्ेषामायुरवैदाचार्याणामपि आरतीयपरम्परयैव भप- प्वभ्युपगताः, पोरस््या शाखेव भारतीयेति निरूपयन्ति । प्र.
देशिकः सम्प्रदायोऽपि शेधिल्यमापदेत इत्यस्मिन्‌ विषयेऽपि सृपर्ब्धेषु सांसारिकसाहिषेषु ऋग्वेदः सर्वप्रथमं साहिव्य-
विवेचनमत्रो पष्टम्भकं भवेदिति तद्टिषयके विमं नानाविदुषां मिति सर्वेरङगीक्रियते ! तदालोचने त्रोक्धिखिता देश्चनदीनगर-
मतान्यय्युपदश्यं स्वमनघि प्रतिश्रातया दन्ञा किमपि ग्ामपवतादयः सर्वै पाञ्चाटसिन्धुसौवीरादिपरिसरप्देशगता-
केचन भारतीयविक्ञानात्‌ पाशाच्यविन्ञानस्य प्राग्भाव सा- एव दृश्यन्ते । तत्रस्यानासार्यागामन्यतः ङतश्चिदागसनं तेषा-
धयितुं कृतद्ुद्यः उभयतः केषुचिदंशेषु सादर्यमवलस्ज्य मन्यलूवाभिजनं वोक्िवितं न किमप्युपरभ्यते । तत्र सुरजा
भारतीयवेयके पाश्वाच्यवि्तानप्रभावानुग्रयेशषः, सेडस्य गान्धा- तीयानाससुराणां च भिथः सष्षादिव्त्तं च कभ्यते । एतदनु-
रवर्तितयोन्ञेखेन यवनसग्पकात्‌ तदीयवेचके यावन्रमावाु- सन्धानेन पाञ्चाटधिन्धुसौ वीरप्रदेशस्तस्सन्जिकषेरानवेव्छोनिया-
` वेध-इति चोपन्यस्यन्ति ॥ ऽघीरियादिपदेशश्च पूरवाभिजनस्थानमवगम्यते । आस्तां ताव-
अन्ये केचन एवञुपवणंयन्ति-सरवप्रथमतया यूरेएविभागे दिदं पू्वाभिजनधिपयकं विचाशन्तरम्‌ । किन्तु याः खदु
भेषञ्यविद्याया उद्य ईशवीयाव्दारम्भात्‌ पूर्वं पञ्चमशताब्चां प्राचीना जातयस्तासां प्राचीनासु भाषासु छऋम्वेदस्य भाषाया.
(8. 0. ४६० ) हिपोकरेटिस ८ प्1ए१००४९ ) नाम्नो ीक- प्रप्णाो ( णीय), काक 6५, कलटा€ पवना 9
विदुषः समजनि । यस्तन्नस्यवेचविच्यायाः पितेस्युच्यते ! तदीये ४४656 665 भ6 प्रात, ४8 195 (ल्ट एतो ०६६५ गप ण
मेषञ्यन्थे यूरोपदेशोऽनुद्धविनां केवरं भारतीयस्वेन तत एव पएणा10प8 उतनृथा8, 0णु 10 116 एला तण (ज एता.
विजञेयानां जीरकार्रकमरिचस्वगेकातेजःपन्रादीनामौषधेषु प्रयो- 9818 {0 1116 24४0178, 106 4.वृद) ए 86ु० ( 116 1106
गस्य, तत॒ उपषष्िवरषोत्तरस्य ८ > ¢. ४०० ) धियोश्रष्टस 1800. 07 716 4125 ),0 {116 [109 ्त71100 2150 018
( 71८00" >). नाम्नो भिषजो रेखेऽपि भारतीयानां 06 ८0वहाप पाण, 06 ग प्राह 3988 11 आट (भप
बहुशो वनस्पतीनां प्रयोगस्य, एवमन्येरपि प्राचीनपाश्वाच्यवेचे- 0858. | । वि
, भारतीयवनस्पत्याद्यौषधानामुच्धेखनस्य दशनेन च तेषु भार- 81168 0 &०05 [16 01४, 519, ०48, प.
तीयवे्यकविन्ञानप्रभावोऽवगम्यते इति ॥ | प४, 61९, 8६ 0660 018608६€व ४ {€ 11156110017008
तदस्मिन्युभयविधे विमर्च वस्तुतसखमवधारथितुं सैषञ्य- 1106 कणा)3, ०० जला १०८९३ त {16 11686006 01
विद्याया इव सभ्यताया यातायातस्य पूर्वतिहासादेश्च षिचार- 1116 4718 ९6९0 1800-1400 2, 0, 7९ [च्ल
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1001६ [01806 8110108 06 100-119212.08 9० {1€ {096
१ 1 18 ८0 दजन) 9ह्व प पनया 1000-.4.7ए- णना 11000 टे ०8] (6 [1 00-वादृण पादा
0, जाल, पका, जिवएकाा0, वटप्रणां९, 1४910 - ०6176, {प111€7 {0 ५16 0451 {015 1019, ^
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0 #€ ०000702 दै 0 1०00 पाणु 19९६6 लिला प प्ाऽ्त ०४ ला 25 00 त०पाणी प्रा प्र
11051 [0080 ॥€ ष्ट्व न 06 56८0०त्‌ 11160. 7600 086 18 छा 19 9 5] कपालः एचप०त्‌ कपत.
पा 2.0. (116 3068658 0 € 6000010 (पृक 1908- 095 1116 36९9 ला§8 0 106 (ण्ठ 4 पश्चा 1809 ५४९९
पथट€ ल्लः 72 च एानणऽ ण पतप्रद्वषत्‌ 1 € ५४11९६१ एल्प्छप्स् लटपरल ण ौीणोऽ ग्पण780, 8716 {0ात.्180 = `
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७२ उपोद्धातः ।
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स्तद्धवतत्यमाविरूपेण वहुश्षः साम्यदर्चनेन भाषातच्चदक्ञाऽपि नामसदशना्म्ना चोज्ञेखोपटरमेन वेदिकसभ्यतायाः चू्वंतावति


वहोः कारासपूर्वमेकस्मादेव मूलबृक्तात्‌ परितः ज्ाखाप्रसरणम- दूरेऽप्यालोकप्रसरणं स्पष्टोभवति ॥
लुमीयते विवेचकंः ॥ सुमेरियन्प्रदेश्लीयानां पूर्वनृपाणां भारतीयम्रन्थद्टानां च
न केवरं भाषादृष्टिरेव, अपितु प्राचीनतमासु पाश्चाच्यजा- पूचनृपाणां केवरं वर्णापश्रेशमात्रतो विशिष्टमानुकरमिकं साम्यं
तिषु भारतीयजातौ च विषयान्तरीयसभ्यताया अपि बहुश वेन्छोनियान अरननाम्नाऽभिहितस्यादिमन्यवस्थापकस्य
साम्यमनुसन्धीयते 1 तन्नेकस्यां प्राचीनतमपरिस्थितौ वर्तमाना भारतीयग्न्थोक्तस्य सनोश्च नाम्ना कार्येण च साम्यं, तन्नरव्य-
सभ्यता ततः प्रसृतासु शाखासु प्रसरन्ती पाश्चाच्यगप्राचीनजा- शिकारेखादिगतप्रसनव्यावहारिकनियमेषु बहशो मानवीय-
तिषु भारतीयश्ाखायां च न्यूनाधिकभावेन समच्छायामापा- व्यवहारसाम्यं चोपरभ्यते। सुमेरियन्प्रदेशोपलब्धनामवस्तु-
दयामास। फ वा वेदिकी आर्यसभ्यता परितः प्रसरन्ती पाशा रेखादिषु भारतीयग्रन्थद्ष्टानां बहुशः साम्योपरुभ्मे श्रीयुत-
त्यप्रदेश्ीयपूर्वनातिष्वपि स्वं प्रतिफटनं विदधौ इति विचारा- वाटेल परहाश्येनापि वहुशो निरूपितमस्ति । उभयत एवं
न्तरसमुपतिष्ठते ॥ राक्तामानुकमिकं सार्य सुमेरियन्प्देशीये्ैषैमारतस्याधिष्ठा-
बेऽ्रोनिर्यापरदेशे कसाइरिषु -। ए 9551168 8. 0. 1760 ) नेन, भारतीये नृपैः सुमेरियन्प्रदेशादिपर्यन्तसपि शासित-
वंशतेद्धवानां राजङ्कमारणां नामसु सूयन्दमरच्छृब्दानां; पश्चि- त्वेन वोभयथाऽपि संभवति ¦ नद्येकदेशाधीशानां देशान्तराधि-
मैरियाः केपोडोसिया-( 0०7०००५०) स्थाने हितादंदी पत्यं न संभवति ॥
( प्ा#॥65 ›- मित्तानी ( धा प्भ। ) नारन्योः भ्राचीनजाव्यो सुराणामसुराणां च मिथः प्राकरृतिकेन धिरेधेन संमर्दादि-
मिथः सङ्क्षोत्तरमुपजाते ८8. 0. 1860 ) सन्धि्चिरारेखे कान्‌ विषयानुपादाय पुराणेषु छग्बेदेऽपि असुरोर्रेखो बहशो
सयोवाहिकसम्बन्धे च साक्तितया मिन्रवरुगेन्द्र नास्रस्यानां, दश्यते । असीरियन्‌-वेन्छोनियनूजातीनामुपास्या प्रधानदेवता
घोगसंक्ाय ( 01४7 1र८पां 8. ¢. 1400 ) ्चिटारेखे संख्या- असुरञहुरना्नोपरुभ्यन्ते ! भसीसरियनूशब्दोऽपि प्राचीनभार-
वाचकादिरछब्दानां; सिस्पिप्यारश्टादनदेशोद्धवानां राक्तामार्य- तीयेर्विंशेषतः परिचितानसुरान्‌ ग्रत्यायन्टश्यते ॥
अद्यस्वे श्रीयुतसिटानरायडमहाश्चयस्य, डाक्टर हेनरी
एप ८9 07 एप 006 ~ त फद्कफोडं-महाशषथस्य चाध्यत्तभावेन्‌ इराकप्रदेशीये टयरुजगर-
4 ए 618 [0 4814 वत मनामकस्थाने भूगमान्वेषणे भय्माक्हेपस्य प्राचीनमन्दिरस्य
1 {16 2381४68 110 €8{9015760 & तण श तदन्तःकोष्ठेऽनेकेषां महय्पू्णप्राचीनवस्तूनां कतिपयानां महे
ए9 षाग + 1760 8. ©. {0 #6 181९8 त लष एप००९३ दारोभूग्मोपलन्धवस्तुसंवादिनामप्युपरुम्भेन इराकदेशस्य
९ ४6 +€ नाका नलणल8-8"पपऽ (पिप ), पञ्चसहस्रवपपूत्समभ्यतायां सारतीयसभ्यतायाः म्रभाव आसी
( 1०23, ( [पता ), पिष ( -क्पा90 ) ६- 0प९98 दिति; तथा श्रीयुतसरभरेलष्टी नमहारयस्यान्वेषणे बलुचि-
( 9782 109६82०१). प्ल =प्ौ0वप८हत 2180 06 6 स्तानम्रदेदी द्रिणिरानम्रदेशे चोपर्ब्धानां भ्ाचीनवस्तूनां
0 10786 {07 (16 पए5 +7706, निदशनेन भारतस्य प्राचीनसुमेरियाम्रदेशस्य ८ साम्परतिकेरा-
` % 4. प्रणति 9०6 ष € पऽ 0 11190), 56 १ 6€०{€८ {0419 ए 9110४812 11, 4, 7. 7५
16त 3 € प्फ एप्रए9€ऽ शभु, 906 {€ [०28 ०],
0 16 प€8 7 1560 2. ॥, #६ द€# ४6 24168 9 २ “पुमेरियन्प्रदेशीयाः पूत चृपाः- |
6.72 &03-{1-09-719, [7 प्-९-08, 0111-8, 86 “उकुसि, वकु, निमिरूद, पुनपुन, नक्षअने नः... शयुर, मनि-
०-5४-2#- 1-1-19. 2016 0 16 91 2४8 ०६0 रमज, नरमर्थश, दीपः इ० इव; पिकुक्षि, निमि, पुरज्ञय,
धपा) 140165-रिपका9) 0 पञा2) 6 पा. अनेना. . सगर, जसमन्न, अंद्ुमान्‌; दिटीपः इत्यादयश्च बहुशः
8 व्ल एच लप 05०० ( ण्ण 1400 क्रमदश्च समाना दृख्यन्तेः" इति सरस्वतीमासिकस्य १९३७ अप्रेर-
2. ©. ) ० 116 कणा, ८०5 4 पाालाऽ- संख्यायां वणितमस्ति ! |
91149, ९98) 10918, 82.118, 08 ए, ३ 081४” 8 [800 &16 1806 1४8 [ए १, 8. ४४16
4 {€ प1॥68 0 (५17940५8 009 8०६6 % १910910. .41ए6 |
481 1916 प86 20 76 16४ 20 15४0 (लफप्पऽ 8, ४ अद्यस्वे वैडट (1. 4. ४९५५]] ) महादरयेन मदहेनो-
0. 0६. € एानागणञ-पो3, परप, पल ल कपो, 900 दरो-दरप्या-मूगसनिगंतानां मेसोपोयमिया-समेरियन्प्रदेशोपल-
116 {0108 प्र0 0 ¶€ एल 50608 10-प्रप्््‌ ( 8, व्धानां सुद्राद्रीनामितिदासदीनां च विष्ेषालसन्धानपूर्वं तुरनया
` 70 ) €८ भारतीयानां प्राचीननृपाणां तदे्लोपरब्धमुद्रा्धिपु णकद्विपुरुषपयेन्तमपि `
ह एत, छत व0न्प्णल४ऽ १7560१६0. 8 (6-ल्‌ू- समच्छायतया नामसार्म्य, केषांचिदक्षराणां सङ्केतानां वस्वन्तराणां
। धाका0४ कट ६6४ 1187168 07 80706 70068 0 सिप & &1त दिल्पककादीनां च समच्छायं प्रतिपा उभयोद॑श्चयौः प्राक्तन
+ ए9168प्रं०€ 820 1686 8180 100 [€ 4 18101650, सम्बन्धविषये एक यन्थं 0४65 0 1९115810 10 2906 ४114
एप, सिपक त००, २०११०१०, 6 | धप. निमय स्वीयो विचारः प्रकरीक्ृतोऽस्ति ॥ |
| उपोौदातः । ७
नदेशस्य ) च प्राचीनः समसभ्यतासम्बन्ध आसीदिश्यपि तेषां मत्य्तानुभवमेव साक्तितयोपादाय भारतस्य श्राचोनाव-
रिपोरटपत्रादिभ्योऽवगम्यते ॥ स्थाया अनुसन्धनेऽप्येतदीया सभ्यता प्राचीनतमैवावलो-
` प्यारिष्टाहून ( ?०८"८ ) प्रदेशस्य भूगर्भनिर्गतसभ्य- क्यते-महेञ्ोदारोभूगभांढवयः प्राचीनतमा दैवमूर्तयोऽप्ुप.
तायाः परीक्षणे त्पदेश्चस्य समये समये विभिन्नदेशीयेराक्रा- रुन्धाः । तत्र बह्यविष्णुमहेश्वराणां संवलनरूपा त्रिमूर्तिः,
न्ततया तत्र तेषु तेषु स्थानेषु तत्तदीयानां पूर्वरक्तणानामुपर- हस्तिव्याघ्रखड्गि्गसहिता शिवमूरतिः,
म्भेऽपि एकस्मिन्स्थाने सर्वप्राचीनतया महेञ्जोदरोगप्रदेशोपल- दश्यते । खीदेवता ( 9४१ 6०08 › मूर्तयः खीदेवतामूर्तिरपि
उधसंवादिनां ्राचीनभारत
चिन्धुतीरे वालु-
ीयसभ्यताचिह्वानासुपरम्भेन भार कास्थाने इराम-पसिया-एतियामाइनर-सीरियिा-प्यारिष्टा-
तीय एव सभ्यतारोकस्तच्र सर्वप्राथमिक इति मेधिक्सोसीद- इन-सादप्रस-एजिषएन्सीतट-बास्कन-मिश्वदेशेष्वपि, ओसदै-
दीटेखः प्रतिपादयति ॥ शस्य केगद्वीपै अभपृष्टयोः सिंहन्याघधरसमन्विता 101०8
अद्यत्वे परिस्छृतपथरथादिव्यवस्थयाऽपिं | नाश्ना व्यवहता देवी मूर्तिः, एरोनियादेदो सिंहवाहना ००९
सुन्दरखरत्पात्रादीनां सन्निकृष्टेऽपि नगरान्तरे नीयमानानां रन्त- नाश्चा ञ्यवहता देवीमूतिंश
्च प्राचीना लभ्यन्त इति महेज्लोदा-
णाय कियद्वधीयते जनेः । बंहीयो भिरटर्गमैः पार्वस्यराकरा-
दिप्रदे्ेरन्तरितानां मिश्रष्याटिष्टाहनेराकभारतानां चिरकाला- रोविवरणपुस्तकादुपरम्भो भारतीयं च देश्ान्तरीयं समसृप्रानु"
वस्थायिनामरुङ्कारादीनां यातायातसौकर्येऽपि स्वल्पमण्याधा- वेधं दशंयति ॥
तमसहमानानां ्ष्पात्नादीनामपि शिह्पसाम्यमसाधारणं मिथः धामिक विषये सप्तमपश्चमपुरूषाभ्यन्तरे वैवाहिकसभ्वन्धनिषेधनियभै
परिचय चिद्धमुपरुच्यते ॥ “वध्वा वरस्य वा तातः करूटस्थाघदि सप्तमः"! इति प्राचीनस्सृतिनियम
न केवरूमेतावदेव, पाश्चास्यानां प्राचीनशाखासु भारती- साम्यस्य प्राचीनरोमग्री्तादिदेदसम्मदायौपरन्धेषु किङ्गपूजन-
यानां प्राचीनपरिस्थितौ च दृष्टानि धार्मिकसामाजिकाध्यास्मि- नन्दिपूजन-पितृश्राद्वाभिशालाऽ्रहोम-गुरकलरिक्षाप्रणाली- जात-
कादिषु बहुषु विषयेषु समसूत्रानुवेधसाधनानि सभ्यतासाभ्य- संस्कार-पुनजेन्मवादाध्यात्मवादादिषु भारतीयासाधारणविषयप्रतिवि.
रूक्षणानि एेतिहासिकतत्तदरेखतो बहुशो रुभ्यन्ते ॥ म्बनस्य; बृटिश्ानां पूव॑तमावस्थारूपायाः कैर्ट ( ८6० ) जाति
¶ @प्माथक्‌ चणप्8] त 06 115५ 90भल 2811. मीचायाणां इ.इड ( [910 }-जातीयानां धा्िकनियभेषु विदाति-
28107. वपान्तं ब्रह्मचयेधारणम्‌ , अन्तिमे वयसि वानप्रस्थचर्या, उन्चकुके
२८क) मिश्रदेशलीये पूवसंप्रदायेऽपरिवतैनीयक्ुरुपरम्परालसा- विद्यादानम्‌ ; आत्मनोऽमरत्ववाद इत्यादिकेषु मारतीयासाधारणधर्म-
रिपौरोदित्य-सेनाव्त्ति--चिस्पव्यापार-दास्यरूपचतुःप्रस्थानविभाये च्छायाया दशनेन मारतीयसभ्यतासम्बन्धौ न केवरं प्राचौनतर्‌-
भारतीयवणेभेदच्छायाः तदीये पृवृ्ते भारतीये शव जरप्लावनवृन्त मूलशाखास्वेव अपि त॒ ततः परं विमक्तासपश्ाखाजातिन्यवदहरष्वप्यु-
परभ्यतते ॥
प्रजापतिस्थानीय कः शब्दितदेवतोष्ठेखः; तदेदीयभाषायां मात-
दवु-आत्मू-पुष-उषा-आप-जपूप-त्रादिशब्देषु बहुषु माता-इम- १ ब्रह्मविष्णुमहे्रा मारते प्राचीनतरकारदेवोपास्यन्ते ।
आत्मा-पुष्प-उषा-आप-अपूप नरादिश्ञब्दानां किच्चिद्धिकृव्याऽवि- भिन्नभिन्नदेवौपासनामा् देशकाान्तरेण प्रचरित तत्तदुपासना.
फरभवेन च रब्द्तोऽथेतश्च साम्यमपीक्षयते । एतद्विषये शीयुत- पथानां परस्परविमर्द परिदठमेकीकरणेन उमामदेश्वरहरिहरादौ
ध्यानचन्द्रमहाङरयेन ८ (प्श्नशः]़ पणया०४] नामिव अह्विष्णुमहेश्वराणामभेदभावमवबौधयन्ती संवरितांकारा
0 0716 8००९.
फ १०, क, 1०2, 2. 250), श्रीयुताविनाश्चन्द्रमहारयेनापि चिमूतिरप्युपास्यतां प्रथेदे । दिलीपचृपेण कामिकाचके त्रिमूरतरुपासना
(१९१० 1०478 ०] 1, २, १4५5 9 वहु लिखितं वतेते । मन््रान्त- विहिताऽऽसीदिति दे वीपुराणेऽपि ( अ. ६० ) दश्यते । बहु पुराका- |
रदेवात्र प्रसिद्धतया मारतस्येवासाधारण्य एता देवताः । येन महः
रे्विव शाखाभेदक्ृतं पाठभेद विनैव .एकयैवाुपर्व्या भारतं न्याम्ुवतो
वैदिकस्य सावित्रीमन्रस्यावगमेन तेतान्यैश्च ऋगादिसौरमन्नैः प्रति- दारो प्रदेशेऽपि तिमूतिदिवमूरत्यीदीनामुपलम्भः समुचितं एव 1
पाचस्य सयेदेवस्योपासनं भारतीयः प्राचीनोऽसाधारणो धर्मः । दैदरामूतिभिः सदहैवोपलब्धा खीमूतिरपि भारतीयैः पुराकारादुपासि- `
भारतस्य दूरपश्चिमभागवति प्रलतरं नष्टं श्रष्टं वि्ाल्तमं मार्तण्ड- तायाः सीदे वताया एव मृतिः । राक्तेरुपासनासं प्रदाय भारते प्राची-
मन्दिरमपि भारतीयानां चिरानुदृत्तं उर्योपासनमवबोधयति । मिश्र-
नकाखादेवाजुवतैते । कुरुजातयोऽपि भारते पुराकारादनुवतंन्ते 1
देशे प्राचीननगरेऽप्रचङ्तिस्य सर्योपासनस्य पश्वात्‌ " ""“नृपति- महाभारतरामायणपुराणादिष्वपि दुर्गादिदेवीनामुपासनेतिहासा अनेके
कभ्यन्ते । निगमवत्पुराकारादेव प्रसिद्धास्तन्त्रादयो बहुश आगमा- `
समये जनेः परतिरोधेऽपि वलातपवरतनेतिहासः, पञ्चसदखवषपूवैतनेन
तदीयतस् अपि दाक्तेमंहिमानमुपासनामुपासकान्‌ मह्यादीश्च प्रतिपादयन्ति 1
तमाधिशवेन साकं वैदिकोक्तिच्यायानुषिधायियंस्तोजसुत्कीण- पू्वापरप्रसतप्राकारायिते हिमवति अववाग्परागभागयातायातसाधनघा-
्ोपलभ्यते। पञ्चसहछवषपूवंतनानां भिदेशोपरुब्यमाण्डरिल्यकला-
दीनाम्त्वे गमेषणेन महेजओदारो -हरप्पादिप्रदेदाभूग्मनिर्गतानां टीद्रारदेदरूपेषु उद्यान-जारन्धर-पूणंगिरि-कामरूपेषु चत्वारि
पराची-
रक्तेमदापीठानि तव तत्रान्यान्यपि शतशः पीठोपपीठनि भारते
नभारतवस्तुरिल्पकलादीनां च तुलनायां न केवुभयेषां समानता, पुराकालान्मान्यन्ते । राक्तिप्रभेदानां कास्यादीनास॒त्पत्तश्वरित्राणन्चे- . `
किन्तु मि्रीयानतिरशयाना भारतीयाः कलादयो विवेचरैविचिच्यमाना
भिश्रादपि भारतस्य अ्यैष्टगभित समघत्रानुवेधं म्रत्याययन्ति ॥
( ख ) रोमदेशीयगप्राचीनजाततिः इटस्वास (70508) नाम्ना
हासा मारतीया पव । शकतशुपासनासन्भदायौ दविसदतर््ोऽ-
वौचीन इति वदतां केषाद्चदविुषां प्रतिवादाय महेजोदारोपूरब्धा
इदृदयः प्राचीनतरा मूतंयोऽपि विवेचकानां न्यनान्युद्धाययन्ति ।
१० काण्डण०् | ॑
७७. उपोद्धातः ।
. का छ छ शा श का 00000000

- भारतीयानां पुराकारे दृरदृरदेननान्तरप्यन्तमय्युपगमस्त- गमः, रोगाणां भूतप्रेतपिश्ाचाच्युपसर्गरूपस्वं, दुदंस॑भीषणमू-


त्पस्वियश्च श्ायते । वेदिक्यामप्यवस्थायां भुच्युप्रशतीनां द्री त्यादिकल्पना, रोगनिरसनायाभिमन्न्य जरादिपानमौषधवि-
पान्तरगमनमवाप्यते ! प्राचीनेतिहासजुसन्धाने ययातितर- शेषभक्षणम्‌, जौषधिविोषधारणं, प्रतिसरवरन्धनं, पिषटकधूल्या-
पतेः पुत्राणामनुब्रहतुवैसुप्रश्तीनां स्वनियोगापरिपारनेन दिभी रोगिणामावरणं, बृक्षविंरोषपल्लवादिभी रोगिणो मार्जन,
पित्रा ्रीरान्तरेषु निष्कासनं, पाण्डवेदूरदूरदेशानामपि विजयः, रोगकारकदुष्टदेवताभ्यश्चागशूकरादिवखिदिानं, तान्त्रिकपद्धता-
महाभारतीययुद्धभूमौ दृरदेश्षनृपाणामपि सद्धावः, भारतीय- विच प्रतिपकव्यक्तैः केशनखपादधूल्यायभिमन्त्रेणेन प्रतिकृति
नृपादीनां गान्धारादिपश्चिमग्रान्तीयेः सह चैवाहिकसम्बन्धः, निमायापमा्ज॑नम्‌, ऋश्वेदोपरुन्धमांकदेवतासमच्छायनाश्ना
पुराभे नीरखना नामोर्रेखः, पाशथाच्यदैशीयग्राचीनेतिहास- महंकाख्यदेवताया उपासनेन रोगपरिहार्शरैवमादयो बहव जाथ-
मुढादिष्वपि नामसंवादं रुब्धवतां केषाञ्चिन्नुपादीनां भारत- व॑णतान्त्रिकादिभारतीयग्रयोगसमानप्राया उपायादयो दश्यन्ते।
हशिवंशादिषु नामोपरम्भः, मनुसंहितायामपि देश्चान्तरीयला- भमोजन्पूवं प्रातरौषधोपयोगः, विरेचनस्य महिमा, सैरेन
तिविरेषाणां भूरुखोतोनिर्दैशनमित्यादीनि प्राचीनभारतस्य विरेचनम्‌, उदरामये पर्वतीयरवणोपयोगः रश्चनोपयोगः, मेह-
देशान्तरेषु सम्बन्धभवगमयन्ति। पश्चादपि (2.0. 217 समये) रोगे मूत्रपरीक्षणं, दन्तरोगे कीटानां हेत॒ता, इत्यादयोऽप्यायुरवै-
( एम शण, तण्ण्णणणद्रपं ) सश्राजो राज्ये भारतादष्टादश्न- दीयविचारानुरूपा विचारा चस्तूपयोगा अपि तेषां रभ्यन्ते ।
भिक्तणां चीनदेढो उपगमचृत्त, ?. 0. %00 शताव्यां तदान यथा आाथर्वणसम्प्रदाये य एव शान्तिपुषटयादिप्रयोक्तारो धा-
नामकचीनदेश्ीयपुरुषस्य भारते यातायातवृत्ते च श्रीयुतका- भिका आचार्यास्ते मान्विक्या प्रक्रियया ओौषधाद्यपयोगेन च
किदासनागमंहारशयेनोक्धिखितमस्नि ॥ ` | रोगपरिहरतारो भिषजोऽप्यासन्‌ , ये अथर्वाणोऽभिधीयन्ते, एव-
प्राचीनसभ्यताया यातायातविषये वहूनां विवेचकानां मेव मिश्रादिदेखीयमपूर्ववृत्तेऽपि धर्मगुरव एव रोगादेरपि चिि-
बहुशो विचाराः सन्ति ! समय एव याथातथ्यं सफुटीकरिष्यति) सक्लका ( एपल<ञ+ 0०60" ) आसन्‌ , येन तदीया देवारख्या एव
तथेतरथापि वा भारतीयप्राचीनार्याणां प्राचीनपाश्ात्यजातीनां ग्राधान्येन चिकिस्सास्थानान्यासम्‌ । तादशस्थणेषु ओौषधोल्छे-
च सभ्यतासु अतिपुराकारेऽपि सज्जिङृष्टो मिथःसम्बन्ध आसी- खरेखा अप्यरुभ्यन्त ॥ ` |
दिति वक्तु श्षक्यते ॥ | | बेकोनियाप्रदेे रोगिणां चिकित्साये आपणादिषु जनस-
आस्तां तावदसौ सभ्यतान्तरसम्बन्धः, प्रकृते चेधकविप- समवायेषु उपस्थाप्यमानानां वृत्तोपरम्भेन तदात्वे तत्र मैषज्य-
येऽप्यमितो दशं म्रसायं विचारणे इदं पुरो मवति -- | विद्याया विशेषोन्नतिर्नासीदिति हेरोडोरस्‌ नाश्च रेतिहासिक-
लोके यावन्ति प्राचीनवे्यकानि तेषु सर्वषु ऋग्वेदोत्तरम्‌ विहुष उक्तेः प्रतिवादरूपेण क्याम्बलथोम्सन्नामफो विद्धान्‌
्राथवणं वे्यक्रसाहिव्यं सर्वप्रथममिति सम्मान्यते। अथर्ववेदो बेब्छोनियानां वेधकः नानुन्नतमासीत्‌ , शाखभिषजः शल्यधिकि-
भारतीयचिकिस्साविक्ञानस्योप्पत्तिसथानमिति वेषानिकदृश्िप- रसायामन्यथार्वाणा दण्ड्या इति टेमूर्व॑न्‌ ( प्रटणप्णप्ाभण। १
भेऽष्यमूट्योऽयं ग्रन्थ इत्युच्यते ॥ ` | सृपसमये राजनियम एवासीत्‌ , इति दश्ंयस्‌ 8.0. 700 समये
आथवणे तेषुतेषु रोगेषु मन्त्रपक्रियया ओषधप्रक्षियया च अर्द॑नना (^0५-०९५२ } नामकवैयेन ङिखिते ` `उपरुग्ये
हिधा चिकित्सा प्रदश्यंते । एवम्भयेनेव कौशिकसूच्रकताऽपि बरत्तान्तपत्रे नेत्रचिक्रित्सनेन सपताष्टदिवसेरारोग्यस्य, नासिका-
छचन मन्त्रोपयोगेन केवरं जरादीनां सेचनेन पनेन वा वि- व्रणाददिरूपचारेणोपजातस्य रुधिरखावस्यान्तरौषधपट्बन्धेन
नियोगः प्रदश्यंते । छचन मन्त्रेण सहापि तेषु तेषु रोगेषु प्रतीकारस्य चेवमादीनां प्रतीकारादीनां सफल्ताया उल्रेखो-
ौषधविशेषाणामप्युपयोगो विहितोऽस्ति । रोगोत्पत्तौ कारण- परम्मेन पूर्वसमयादेव भेषज्यविक्ञानमपि तन्न सयुक्नतमासी-
त्वेन दुष्टा देवविशेषा ग्रहस्कन्दादयो यातुधाना वा मन्त्ेपूप- दिति निश्चाययति ॥ | |
रुभ्यन्ते । तेषां निरसनद्शा मान्तिी प्रक्रिया, रोगाणां निर. भासीरियप्रदेदो पूवंकाटेऽपि श्चश्चचिकित्सा विदोषतः
सनाय जओषधप्रक्रियाऽप्यथर्ववेदीयमैषभ्ये र्यते तत उन्तरो- प्रचङ्ितिाऽऽखीदिति पलल 1.06क£ महोदयेन ठ्िखि-
तरं मन्त्रविद्ययोप्वारपथमतिङय्य भौपधघोपचारपथः प्रस तमस्ति ॥ र.
सार 1 परमन्ततोऽदयापि छचनांशविरेषेमान्त्रिकविधाऽप्युपचा- मिश्रदेक्षीये प्राचीने पेपर्याख्ये स्वक्पत्चे सादधश्षतं रोगाः,
ररूपेण अन्धेषु व्यवहारेषु चानुवर्तत एवेत्यवोचाम ॥ तथा एवस ( ८९8 ) त्वक्पत्र उवरोद्ररोगजछो दरदन्तश्चोथ-
आसीरियवेष्ठोनिय प्रदेदो पूर्वकारे भारतीयपूरव्टाविवः प्रतयः ९७० विधा रोगाश्चोपवणित दृश्यन्ते । तदशीय द्रादश्च.
जशचिपुरुषसहवाससम्पकंसम्भाषणोच्छिष्टभोजनादिना रोगा- वंश्षसमयरिखिते एकस्मिन्‌ पुस्तके तत्रत्यायाः कस्यध्िन्नार्या-
रजोविकाराबुदादयो रोगाः, अद्यत्वेऽभ्युपगम्यमाना नेत्ररोगाणां
एवमासेतदिमाचकं विष्वगभिव्याप्य वर्तमानो भारते समुन्न: ग्रमेदाश्च ङभ्यन्ते, सुष्वमरोगाणामपि तत्र गणनादक्षंनेन न
रक्त्युपाप्तनापसम्प्दायो युणमदिम्ना शाखोपद्ालाभिर्विजुम्भमाणे तत्र रोगाणां बाहुल्यमनुमेयमपि त॒ तदावे तन्नत्यानां विदुषां .
देरान्तरेषूपरुब्धानां सखलौदेधतामूतीनां ततरतयैर्नामान्तरेण व्यवदारऽपि रोगविषये विक्ञानबाहुल्यसुन्रतमा सीदिति प्रतीयते ।हेरोडोटस्‌-
तत्र तत्र मारतीयसतभ्यतायाः प्रभावं प्रसारयति !
१ तवः [ता (2, 22) 0 एना पष्ट १2. ए. ए पण्‌ 4.2. 146 ए ए, 0 पृप्पकृऽणय, -,
२ अयुर्वद वो नव्यरसायन १.५ २४, &, ‰. प्० 4. ?. 757. |
उपोद्धातः । ७५ `
(नना कक का क

विद्वानपि नीरुनदीपरिखरप्रदेशं स्वास्थ्यप्रदं वर्णयति । तन्र- गस्य बहुधा साम्मीच्यते इत्यपि जारी (ग. पण)
त्यानामपि असीरि्यादिग्रदेशान्तरेभ्विव मूतम्रेतदेवप्रकोपादितो महाशयो ङ्खिति ॥
रोगोतपत्तिवाद्‌ आसीत्‌ । विफित्सापिषयका अन्था मन्त्रमया चीनप्रदेशे खाद्धचतुःसहस्रवरषपूर्वतमे तदीयम्रन्थे दक्स.
जासन; धार्मिकाः पुरोहिताध्िक्ित्सका अष्यासन्‌, इति दखप्रकारा उवरस्य, चतुदशभागा आमाशयस्थ निर्दिष्टाः
0026 ९१०५४ विद्भा्निरूपयति । म्राच्चीनमिश्रदेशेऽप्यथर्व- सन्ति। नाडीपरीक्तायां तत्र विरेषदृष्टिरासीत्‌ । 8. 0. 400
वेदानुरूप्येण मन्त्रतन्त्रस्हितस्य चिकिस्साविक्ञानस्य रसायन- वर्षपूवेत आरभ्य प्रतिवषेमुपजायमननामामयानां निरघ॑ण्टपत्रं
शाखस्य च व्यवहार आसीदिति ४. ॥०""९० मेहाङ्योऽ- कल्पितमासीत्‌ । चीनदेक्षीयभेष्यम्रन्थे आ््र॑क-द्‌ाडिममूख-
प्युद्खिखति ।प्राचीनमिश्रदेशे तेटघ्रृतवृत्तमेषल्यानामपि ग्यव- वतसनाभ-गन्धक-पारद्‌-वहुविधम्राणिमलमूत्रासङ्कयचकपन्र-
हारः श्रयत इति श्रीयुतसुरेन्दनथद्ासगुक्षमदाश्चयोऽपि मूखादीनामौषधरूपेणोल्छेखांऽस्ति । चीनदेदोऽयापि रक्तो
निदि्शिति ॥ द्रन्याणां ब्ृ्तपत्रमूखादीन्योपधरूपे विक्रीयन्ते 1 श्षीतरावेध-
रोमदेशीयग्राचीनेषूष्कनर्‌ ( "50071 )--जातेः, ग्रीसदे नविन्ञानं तत्र पू्वमेवासीत्‌। चिकित्साक्लाखेतिहासप्रणेता `
शीयप्राचीनजातेश्च पूवेवृत्तेऽपि रोगनिरत्तये देवतोपासना्राथ- ग्यारिसन्रमहाशयो याथातथ्येन चीनदेरी्यंभारतादेव भेषञ्य-
नावल्याद्यो मान्त्रिका उपंचारा अय्युपरुभ्यन्ते ॥ विद्याऽरस्भीति निरूपयति इति श्रीसुरेन््रनाथदासयुप्तमदहा-
केट्टिकजातीयविचारे वंयकस्य धमंस्य च मिथो घनिष्टः शयेन निरदि्टमस्ति ॥ |
सम्बन्धः! तदीया घमगुरवो इइडनामका एव चिकित्सका चीनराञ्यस्य 8. 0. 200 सामयिकतया चीनोररेखगरम
अप्यासन्‌ । जआथवंणपद्धताविव तेबामपि मान्न्िके अषधसम्ब- कोरिस्यश्चास्तरं नातिग्राचीनमिति कस्थचिदभ्युपगमे अवेस्ता-
न्धिनि चिक्ित्सने द्िरासीदिति 7. 508 हयेद्यो लिखति ॥ मन्थे निदिष्टासु पञ्चसु जातिषु चीनानामप्युर्रुखदशनेन
यूरोपीयययुटन ( 1०५४० )-जतेः आचीनचिकिस्सायां चीनस्य प्राचीनसवमेव । चीननामक्‌ माण्डङ्िकराञ्यं 8. 0. 900
मस्तवगेस्य { 1656४ ) माज्तरिकप्रयोगेण (6087005 ) राताव्यामासीदिति मोदीमदहाशयेन निदिंष्टमिति जयचन््रवि-
सह कतिपयभ।रतीयवेदिकमन्त्राणां सादश्यमुपरम्यते, कमि. द्यालङ्कारमहादया वणेयति ॥ |
रोगेऽस्थिभङ्गचिकिस्सायां तु विशेषरूपेण तत्सादृश्यं सुस्पष्टं तुफोंनम्रदशादक्लिणतः काराशरनामके स्थने पूर्वघमये
परिदृश्यते इति एडार्वारे कृच्‌ (40 भथा `[दप ) केचन प्राचनक्चजाताया आसन्‌ । इदंशवीयारम्भा्पूवं कदा
अपि ङिखति ॥ | तेषां तच्रपगसम ईति किमपि न ज्षायतं । सा कूचजातिरार्यशा-
एतजातेः प्राचीनविचारे भूतानां देवप्रकोपस्य पापानां च खीया इप्यनुमन्यतं सर्वेः। पश्चाद्‌ इ्विचरतान्दीसमये वणिग्जनः
रोगे कारणस्वं, दृवप्रकोपजे पश्चुवस्यादीनांप्रतीकारः, रोगपरि- सह बाद्धधममप्रचाराय तत्रापगतान्‌ भारतीयभिच्सूनाढोक्य
हाराय ब्रृस्वगादूौ तदीयमन्त्रं विक्ष्य हस्तादौ धारणं मन्त्र- अस्मदीयपू्ेदृश्चद्धवा एतं भारतीया दत्यास्मीयभावेन बह्शस्ते
पाठः, यन्त्रघारणं दवमूष्याप्कवजलर्पानं, घूपादिभिभूंतायपसा- सदृङवन्नितातब्रृत्त तेषाश्ुपरुभ्यत ॥ |
रणग्रनिया चासादिति £. 8०१०० महाज्चयो 4. १०] मह- एतभ्ातेस्तल्नदेशस्य च विषये चीनभाषायामुद्धिखितं
शयोऽपि वणंयति । एषां विषयाणामनुसन्धाने जाथर्वणप्रक्रिया- प्रागितिन्रत्तमेवञ्चुपरम्यते । हितीयद्यताब्यां मध्येशियापरि
या भारतीयायुवेदीयप्रक्छिय।याश्च तत्रापि बहुधा साम्युप- सरभ्रदेशान्‌ भिजयसनेनापि च॑नराज्येन बर्बत्या कूचजात्याऽ-
रभ्यते । दिशरुनियादिजाव्यन्तरेऽवपि शब्द्विरोषाचारव्यवहा- धिष्ठितेऽस्मिन्‌. मद॑रो आक्रन्तुमशक्ये सव्युमयोदशयोमिथो
रायुवदीयविषयादिषु भारतीयच्डुयानुवेधो इश्यते ॥ मंन्रीसम्बन्धः स्थापितोऽभूत्‌ । ईशवीयाब्दारम्भोत्तरं २६५
ˆ उन्तरामेरिकाया रेडद्ण्डियन वच्यारोी ( 06101९68 ) ३१६ अब्दस्मयान्तरे तत्र बौद्धधमः पूणेतया प्रचरितः
जातीयानां प्राचीने मान्त्िकभेषञ्येऽपि आथवणमान्त्रिकम्रयो आसीव्‌ । ऊुमारजीवनामा बोद्धभिद्धस्तत्रैवासीव्‌। अन्येऽपि
बोद्धमिकवस्तन्रापगताः । बहूनि बाद्स्तूपमन्द्राण्यपि निर
१ {. > © ४०], 4, 2. 749 मीयन्त । तान्यपि भूगमाऽपरम्यन्ते । भास्ताया बाणजो
२. 86106०४ (€ 0065 ०6 1 नुला16016 बीद्धघमप्रचारकाश्चानेनव पथा चानद्शयातायाततमङ्कवेन्‌ ।
= 81-88. दशवोयाब्द्‌रम्भादयाक्लारूदेवारम्यं दुचिणदद्यस्थाना चन्दर
३ प्रवासो २४ भग १ खण्ड, ५४ १९४ १ 116 ५0817008 0 {€ 4.1 ५४८0४ 1४9८ 0660
४ 1, & 2, 0] 4. 2. {47 |
पि ०0000960 सत प्रा6 84५6व 7गपोषह जा ४८ (06.
५ 4. द पि1 लान पाप एलान कालपत८ 8]
01665 2110 छटा 80613 (पट =कणणद्ु पह [0वाण्ड
0117095 0०६ ए 2. 4974 & 118-157.

भमग्ग्
0 दग्रा 4068, . = 2, +. ९. ४01 4. 2. 1544. . |
, & {06 ०परः6 ग रणप०९8 80 करप्रा९३ 18 ६6०1९
ए 100क00900105 स 0100 97९ 0661 00717097 ए 4
पाप का 76 कलाऽहप्द् 00 0 उदपा 97 २ प्रवासी ३४ भाग १खण्ड. पृ. १५४ न.
प्रवुप्पप्पिः ३ भारतके इतिदासके रूपरेखा १, ७००.
गग्रगा, ए, ह. ४ एन ५.2, 154. ४ {418 804 (1109 2० ‰, 2, 24
उपोद्धातः ।
4५ क

कक कक क कक कक ककककककककगागषये ॥मि गि

व्यापारमार्गेप्येष एवासीत्‌ । इयन्सङ्गनामा चैनिकपरिाज- मेनियन्स ( .4.०03९71621928 ) तृपङुरे, तथा प्रथमडेसियिख


कोऽप्यनेनेव चर्मना भारतसुपागमव्‌, इत्येवमनर्वाचीनं तदीयं ( भपप 1. 8. 0 521 ) चृपसमये डेमोकेडियस ( 60५.
चीनभारतसहयोगि प्राग्वृत्तमवगम्यते । तत्र भूगर्मशोधनेऽतः ४९५९ )नामा, समयान्तरे स्टेसियस ( 0८८७795 ) अपोटोनी-
परमपि प्रदत्ते प्राचीनभारतसम्बन्धीनि बहूनि विरेषन्तरा- डस्‌ ( 42०1०५0९ ) नामानौ च प्रीकवया असन्‌ । इरान-
ण्युपरच्धु शक्येरज्नित्या शास्यते । तन्न बाह्यरिप्यां र्िलितानि देशीये ओकदेशीये च भषञ्ये वडुशो ` विचारसाम्येन इरानदेशे
म्राचीनसंस्करतपुस्तकानि मारतीयसंस्टछृतय्रन्थेभ्यः कूचभाषाया- पीकवेचकस्य प्रभावोऽप्यासीदि्युररेखोऽपि रस्यते । इरान-
मनूदिताः काष्टपद्िकोत्की्णां टिखिताश्वानुवाद्यन्था अपि प्रदेशेऽपि खसेनियन्सनुपवंरो राजक ग्रीकवेद्या इव भारतीया.
बहुश उपर्ब्धाः । भूगादहूनि प्राचीनवस्तून्यप्युपरञ्धानी- वेया अप्यासन्‌, विदेशीयानां तदृदेश्ीयानां च वैयार्नां मिथः
त्यपि स्टादनमहाशयेन निदिष्टमस्ति ॥ प्रतिस्प्धाऽऽसीदिति स्पीगरूमहाशयोऽप्युङ्ञिखंति ! तेन इरान-
भषातच्वविदा 4. 0. उर्नरमहाशयेन तदीयकूचभा- देशीयवे्ये येष्वंशेषु गसोपक्ञमुद्‌भूता असाधारणा विषयाः
षायाः संस्छृतेन सह तुरुनायां मारतीयायुरवेदीयौषधिवाच- परिच्छिद्यन्ते, तेषु ग्रीसवेद्यकस्य प्रभावः स्या्नाम, परं येयक-
कानां संस्कृतश्च्दानां कानिचिदुचि्तानिं कानिचिद्धाषोच्ा- विषये ये भारतीयायुरवेदीयरोगशारीरकादिविषयका । विचाराः
रणक्रतवेचिन्यमात्रवन्ति रूपाणि कानिचित्तद्धवरूपाणि च समानतया तन्नोपकभ्यन्ते, ये वा यीकादिसाधारणा अपि
स्वरूपाण्युपलभ्यन्ते । रायरु परियारिकिसोसाद्टीपत्रिदधायां भारतीया विचारास्तत्र ज्ञायन्ते, तेषु भारतीयवैच्यानां तदीय-
प्रकारितमस्ति। ते शब्दा यथा-- वे्यकस्य च प्रभावो निरूपणीयः । म्रीसवैचयके भारतीयायुदी-
माञ्चष्ठ॒ ८ मन्निष्ठा ) सुचमेरु ८ सूच्मेखा ) यविषयाणामपि साम्यं कीथ-( ^. 8. एल ) महादायेन
करञ्चपीज (करज्नवीज) प्रियङ्कु (प्रियङ्गु) यथा निर्दिष्टमस्ति, तेष्वंरषु तत्रापि साक्ात्‌ परंपरया वा `
अपमाकं (अपामार्ग) विर ( विडङ्ग) भारतीयः प्रभावः पश्चाज्निरूपयिष्यते । इरानदेरेन सह भारत-
सासि (ज्रि) उपद्रव (उपद्रव) स्य देशतोऽपि सन्निकर्षोऽस्ति। तस्येव प्रथमडेरियसनृपतेः
मरगी (मार्गीं ) शारुवर्णीं ( शारपर्णी ) साहास्यभावेन 8. ©. 479 समये प्ठेरियारणस्थरे म्रीसवीरैः
किञ्चे (किञ्जल्क) करोत ( गिरोध) सह भारतीयसेनाया युद्ध॑स्योज्ञेवनमपि लभ्यते! तदेवम्‌ इरान.
तकर्‌ ( तगर ) कुन्तकं (गुन्दक ) भारतयोर्धनतरे मिथः सम्बन्धे भारतीयवे्ानामपि तत्र प्रति.
पृङ्करच ( शङ्गराज ) चिपक (जीवक) तत्वे चागम्यमाने भारतीयवेद्यानां विशेषरूपेण तन्न प्रभावो
करुणसारि (कारानुसारी ) शच्पो ( शिरापा) निरूपणीयः । किमन्यत्‌ , दरानदेशीयपश्भारति ( एलां )
पितरी (विदारी) पिप्पारु (पिप्पली) भाषायां भिषजमेषजमन्त्रादिङछब्दखमाना वेषज ( 26911928,
अश्वकान्ता ( अश्वगन्धा) मोततें ( भजमोदा ) 3९3४] ), भिजिष्क ( उदज६९ ), माथ? इत्यादिङब्द्‌ष अष्यु-
तेचवती ( तेजोवती) कोरोज्ञा (गोरोचन ) परभ्यन्ते । किं बहुना अर्भिनियन्‌ ( ^"४०्५९० ) माषायामपि
मेत (मेदा) ` पिस्सौ ( विश्वा) एषां शब्दानामेव स्वरूपान्तराणि (एअ), 73016
खादिरि (खदिर) सुमां (सोम) नि

इस्येवमनिश्चितपूवंसमयात्‌ तावति दूरे वत॑मानायाः १ 20 ००109601& 9 ्लाक्वा०, 21. 00205 0] 4,


प्राचीनक्‌चजातेरा्यजातीयत्वस्य स्पष्टोररेखेन तस्संवादयता ?. 759 एए 1५, ¢, (*ऽक्णण्धु, |
पश्चास्सङ्गतानां भारक्तीयानामास्मीयतेन समादरोख्रेखेन च २ 91९६1 "1105 1 "00996 क 7 ए0णाणणः
भारतीयार्यजातिष्वेन निश्चितानां कचानां भाषायामपि भारः ०010163 प्ल्टि0 00910908 कधि ००706९व कप 0४९९
तीयोषधिशब्दानां विङकत्याऽविङ्ृत्या च बहुशोऽनुमवेशदनि 0168. 7 #0€ 393881078118, 100, € 000 (ज7श्लर
सति भारतीयजातेस्तघ्पदेशोपगमेन साकं ते शब्दा अपि तन्नो- 001731078115 90 € ८09 (पा, 87 सिफिदद्भ 28 त ण
पगताः किं वा समयेनोपगतःः स्युः, उभयथाऽपि भारतीयायु- 110४0 {096 {00388 कृशम 21802 पला सन्म 17066
वेदस्य तावति देशकारूविप्रकर्षेऽपि प्रचारः प्राची नगौरवाय ॥ 2130, ( ए प्छ, ) 9. ©, 2. # 0 1४ २. 759,
इरानाभिनजनानां पारसीकानामवेस्तास्ये .मूरमन्ेऽथर्व- २ 6४८४6 70418 0 1911995 रश्द् ४. 4. 7, 110४
वेदस्य तदीयभाषायां देववाण्याश्च विदेषतः सन्निकर्षो दश्यते ! ०. 1, २. 15. ,
तेषाम्ुपास्या देवता भारतीयैः परिचितस्यासुरस्योचारणमात्रवि- ‰@ "10€ 001707001686 (लए 0 10416४06 =10तलिदणप
1601006), ¶6811089, पल्वल, 0 =कीफशमक्पः
भेदेनाहरनान्ना निर्दिश्यते। अग्न्युपासन-गोपूजन-सूर्योपासन-
13 88681488, 007९90०0 00 8४ =उरशा
होमप्राधान्य-मित्रादिदेवताम्र्धतिषु बहुषु विषयेष्वपि प्राचीन-
भआरतस्यारोकस्तत्न भासते । इरानजातीया भारतीयार्येभ्य एल भु, 171 एलायंस 22 0028 णात 88 =-56शा9्‌,
एव विभक्ता इतीतिद्टसवििरप्युक्लिस्यते । इरानप्रदेरो एक. एण 06 =(णजा पाठाः प्रहे गपप्शप णदरत
प्ण एलु ४3 79 ऋएतला एला 900 चपाला
१ [पपलपा००6 6458 'प0] [1 2. 5655179, २, 1028, 1." 11111 1
| 5, 0) £ 95], ए, ९, #0) 4) ९, {6¶,
अपोदातंः ॥ ।।
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ह्यन्ते । इरानभाषायामपि वेचवाचको भिनिष्कञ्ञब्दः, एवमादिरूपेण दूरदूरमपि प्राचीनेष्वनेकदेशेषु शाखोपशा-


ओषधवाचको वेषजंशब्दोऽपि भारतीयमिषग्मेषजरज्दयोरेवो- खारूपासु प्राचीनानेकजातिष्वपि न्यूनाधिकरूपेण भारतीयप्रा-
चारविभेदछतः स्वरूपविरोषः । तथाविधौ अथर्ववेदोक्तौ ग्ने ची नम्यवहतीनामाथवंणम्रक्रियासाम्येन मान्त्रिकप्रक्ियया
दोक्तौ च प्रधानशऽ्दावपि भारतात्‌ तत्र सङ्क्रान्तौ चेत्‌ तत्र मेषजोपयोगेन च चिकिस्सनसम्प्रदायस्य च गमकान्यस्चाधारः-
मारतीयायुवेदस्य प्रभाव एतावताऽपि बह्ुशोऽनुमातुं शंक्यते । णलन्तणानि बहशो दश्यन्ते । येषु प्रकृतविच्छैद्‌विस्तरभयादि-
किं बहुना पारसीकमतप्रवतंकाजनरथुष्टादपि प्राक्तनैस्तद्‌ देश्ीय- ङमान्रमिह निदितम्‌ । एवं दशनं भारतस्य देश्ञान्तराणां
निवापिभिर्मागीजातीयस्यिं गुप्ता वे्यकविद्या भारतीयव्राह्यणे चातिपुराकारादेव मिथः परिचयं सम्पकं व्यवहारं विद्याविन्ञा-
भ्योऽधिगतेति चतुथश्ताव्या रोमेतिदासरेखकानामर अमीनस्‌ नादिसखङ्क्रमणादिकं च निश्चाययति ॥
मर्िनस्‌, प्रश्वतीनां रेखोपलम्मेन, इरानदेरेऽतिपुराकारादेव प्राचीनभारतस्य सभ्यताया विषयन्तरविभागेध्िव आयु
भारतीयवेद्यकग्रभावस्य स्पष्टतया ततः परमपि भारतीयवे- वेदीयविभागेऽपि प्राचीन एवोन्मेषः । आध्यात्मिकफेषु विचारेषु
द्यानामुपगमन्रततोपरुम्भेन च भारतीयायुवंदस्यारोकस्तत्र वाद्येषु कराकोशरादिषु च पुरास्रमयाद्धिकसितां दशं दधद्धा-
चिरात्‌ प्रतिफएङितः स्पष्टीभवति । आयुरवेदीयम्न्थेषु चरकबुद्ध- रतं सर्वोपजीग्यश्ञारीरयात्रोपयो गिनि भेषज्यप्रस्थाने कथसुद्‌ा-
जीवकीयादिषु बारहीकमिषक्तेन काङ्कायनो निदिंशेऽस्ति । सीत । ञायुर्वेदीयसंहितासु त॒ रोकखष्टेः समकालमेव बद्यण-
पुरा बहुकारमिरानाधिपस्येनाधिष्टितो बरखुप्रदेश्ो बाल्दीक- आथुवेदृद्रमः प्रतिपाद्यते । वेदिकं साहित्ये यथा हि विचान्त-
राब्देन बोध्यते । काङ्कायनस्य सुश्रुतव्याख्योद्‌तसुश्रतसतीथ्यं- राणि तथेव वेद्यकविषया अपि ऋग्यज्ुःसामतेत्तिरीयादिषु
त्वोक्तेः प्रामाणिके 'बार्हीकभिषजां वरः इति निर्दिष्टेन काङ्का- ततोऽप्याथवणे विशेषत उपरुभ्यन्ते ॥
यनेन तन्र प्रवर्तिता वेद्यकविद्या भारतीयेव सिध्यति ।अन्यथाऽपि वेदिकसमयादेवायुर्वेदविद्यायाः संमाननेन उपवेद्पदमुपा-
भारतीयाचार्येः सह पक्षप्रतिपक्तमावेन दर्सितसंवादस्य काङ्काय- दीयते ।वैदिके समयेऽपि नानाप्रस्थानान्तरेश्विव आयुवेदीये
नस्य आचार्य्कक्तौ संमानेन निवन्धंग्रहादौ संस्छरतभाषामयानां प्रस्थनेऽपि पूवं महषंयो बहुशः कतपरिदीखनास्तस्वदशो
तदीयवचनानासुद्धारदसंनेनापि भारतीयानुरूप एव तदीयोऽपि वभूुः । वेदिके समये इतशो व्याः, सहं जोषधानि, अने-
सम्प्रदायो न देशान्तरीयः, बुद्सामयिकस्य जीवकस्याध्यापक- कशा रोगाः, तस्रतीकारोपायाश्चासन्निति प्रतिपादितमेव । ततः ¦
त्वेनाभ्युपगतेनात्रेयेण काश्यपेनापि निर्दिष्टस्य बारदीकभिषजां पराक्षारेऽपि भ्ुनिकविचारेण उपत्रिखहखवषप्राचीनतयाऽनु-
वरस्य काङ्कायनस्य समयो म्रीकवेयेः सह सम्पकंञुपेतानां सन्धीयमानेषु एेतरेय-श्चतपथ-कोषीतक्यादिनाह्यणेषु दन्दो-
पू्वोहिखितनामिरानद्रपाणां समयाद्‌ अन्ततोऽपि गत्वा ग्यादयुपनिषस्सु गर्मोपनिषदि श्रौतसूत्रादिष गृद्यसूत्रादिषु
एकद्वशतव्षेपूवं एव दश्यत इति तत्र॒ भारतीनां सम्बन्धः रामायंणमहाभारतंपुराणादिष्वपि अङ्गप्रव्यज्दौनि च्ारीरक्ाभि
प्रभावश्च न कि प्राचीनतरः सिद्धयति ! प्रत्युत एतावन्तोऽखा- रोगास्तस्परिदारोपाया मेषजानि एवमाद्ाय आयुरवदीयविषया-
इति परिच्छेत्तं न शक्यन्ते, तदपि इरानप्रदेशाद्धारताच कतिपये स्तस्सम्बन्धिन इतिहासा उपाख्यानान्युज्ञेखाश्चोपरभ्यन्ते ।
वेद्यकविषया म्रीसवेयके प्रतिसङ्कान्ताः सन्तीति मतमपि महाभारते युंद्ादिष्वपि साङ्प्रामिकसैन्येः सह वधानां चिङ्कि-
2. ए. बुदेत्कोरो निर्दिष्टमस्ति ॥ त्सकानामपि खद नयनं सर्वोपकरणोपेतानां श्ाखविक्ञारद्‌नां
१, ¶6&6 15 10 वृप्छछप्रगा & (वल्ल 110१९066 लल बहूनां वैद्यानां युद्धशिबिरेष्ववस्थापने, तदद्वारा जातानां भरती.
01 176 01641081 (06086 एप्प 10 अ्नृहप {787
{16 [1भप815 प्र 1 € 45९5४ 76 कणत 244,
116 नाका 0 17656 (60पप्प््मा8,) क€ ॐ6 1101 र
10161) 28 (लरनन्0 वलतप€्ध लला पला [ता
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१. रदेमणविरल्यीकरणम्‌। [र
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हण &07010्णद्ु धा € प्क ०१९०९ 13 ग घ्6 390९ | तत्संगृह्य ययौ राज्ञां ये चापि परिचारकाः |
828 93 {19 0 € -4.प€ॐ ॥्€€ 23 70 ०00 (08 | ५८ उधोगे अ. १५१
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कारमरदृत्तिरपि तत्र तत्र दश्यते।एष विषयो मश्थूम॑हारयेनापि नुपुत्र-भोज-कपिर्वरादीनामाचार्याणां भूतत्न्त्रस्य चा्घे


निर्दिष्टोऽस्ति । रमायणे सुषेणवे्यकथा प्रसिद्धंव ॥ मूलयन्थानुपरम्मेऽपि तेषां वच्चनानि ताडपन्रीये प्राचीने ञवर-
कौटिरीये सोङ्य्यामिकाधिकरणे शाखयन्त्रागदस्नेहवखहः समुच्चये, केषाच्चिदेषामाचार्याणामन्येषामपि कतिपयानां
स्तचिकिस्सकसू्यादीनामपि सेनाण्ष्टम गेऽवस्थानं निरदिष्टमस्ति॥ वचनानि पश्चात्तनेषु तन्त्रसार चरकादिव्याख्यासु निबन्धय्र-
न्थेषु च समुद्ष्टतानि बहुन्युपरम्यन्ते । एवञ्युपरम्मेन ताच-
पुराणेतिहासादिष्वपि न खस्पेष विषयो विररूः ॥ त्कारपयंन्तसपि तेषामाचार्याणां म्रन्था उपरुभ्यमानाः पर्दी.
तदेवं गुरुदर्तिणाप्रदेयाश्वानां प्राप्स्ये कारीपति दिवोदास- ल्यमानाश्चासन्निति स्पष्टप्रतीतयेऽद्यापि चिहमवश्िभ्यते ॥
सुपेयुषे गाख्वाय हिमवन्मूके वायन्यदिलि मारीचकश्यपाश्च- प्राचीनेरात्रेयकश्यपादिभिः काम्पिस्यगङ्गाद्धारादिकं त्त-
मस्य निर्दशनस्योपरुम्भेन दिवोदाखादनतिपूं॑किं वा तत्स रस्थानमलङ्कव॑द्धिरायुर्ेदाचायंस्तत्तर्स्थरेष्वेव स्वोपदेदापरम्प-
मकारे कताश्रमो मारीचकश्यप इति महाभारतोर्टेखः, मारी- रया सिम्यसंप्रदायाचचभिवधनेन स्वस्वीया विचारा एव फेवटं
चकश्यपश्य ऋव्सर्वानुक्रमसूत्रे बरहदेवतायामप्युपरम्भः, ज- न प्रकाशिताः, अपितु अद्यते वेयविद्यापीरमधिषितैस्तैसतेशरैया-
त्रेथसदहभाविभावेन मारीचकश्यपोख्लेखः, चार्योविदस्य मारी- चर्येस्तत्र तत्र प्रदेरो सम्भूय वैयसंमेखनसमितिमवस्थाप्य
चक्छश्यपात्रेयपुनर्धससहभावः, छष्णात्रेयस्य पुनव॑स्वात्रेयसा- स्वस्वविचारोद्‌भूत्तानां नवनवानां प्राचीनानाञ्च विषयाणां
मानाधिकरण्यं, चिकिस्सितप्रवतंकत्वेन करष्णात्रेयस्य महाभारते विमदशैनमिव माचीनकारेऽपि यदा कदाचित्‌ देशदेशान्तराग-
निर्देशः, आत्रेयान्तेवासितया मेस्योर्छेडखः सेडसहभावितया- तैस्तदानीन्तनेः प्रसिद्धेसतेस्तैराचायैस्तेषु तेषु स्थोनेषु सम्भूय
ऽञत्रेयपुनर्वसूपदेश्यतया च गान्धारपरपस्य नग्नजित उल्छेखः, परिषद्मवस्थाप्यापि परस्परविम्ां विधीयमाना आसन्‌ ।
नग्नजितो दुमर्वादस्य च सामानाधिकरण्यं, दार्घाहस्य येनेवं विमञ्च शाणसङ्कषोञ्ज्वरानि रत्नानीव तानि तानि सि-
काश्यपीये निदेशः, गान्धारनरपस्य नग्नजित एेतरेयनाह्यणे, द्वान्तरस्नानि, नवनवा विचाराः, स्वस्वाभिप्रायविचाराश्च स्व-
गान्धारस्य प्राणविदो नग्नजितस्तस्पुत्रस्य स्वजिततोऽपि रातप- स्वसंहितासु निर्दिष्टाः दश्यन्ते ॥ |
थव्राद्यणे कीर्तनं, दिवोदासस्य कोपीतकरिबाद्णे कोषीतक्युप- पाणिनिनाऽपि गगांदिभ्यो यनिति ( ४-१-१०५ ) सूत्री.
निषदि काटकसंहिताब्राद्यणांशे महाभारतेऽप्युपरम्भः, तसूर्व- यगगादिगणे जतूक्णपराशराग्निवेश्चब्दानायुर्रेखनेन, -कथा-
पुरुषत्वेन धन्वन्तरेखाभश्चदयेवं सर्वतो स्शः प्रवस्यं विचारणे दिभ्यष्टगिति ( ४-०७-२) सूत्रे कथादिगणे आयु्वेदश्षब्वं
समारीचकश्यपः, पुनर्वसु त्रयः, मेडः;, नग्नजिद्ार्वाहः, वार्यो प्रवेश्य तत्र साधुरित्यथं “आयुर्वैदिकःः इति पद्साधनेन च
व्िदश्चैते मैषज्यविद्याचार्या रेतसेयकौषीत किश्चतपथकारटकबाद्य- तद्‌ाव्वेऽण्यायुर्वेदविद्या समुन्नतावस्थायामासीत्‌, तत्र कशला-
णकाटादनवाचीना घन्वन्तरिदिवोदासवदु बाह्यणोपनिषत्सदह्‌- विद्वांसोऽपि बहव आसन्नित्यपि प्रतीयते । ममन्त्रायुर्वेदप्रामा-
भावेन छेडातः पीवांप्यण वा वतंमाना आसन्निति पूर्य प्रति- प्यवस्चं तस्प्रामाण्यमापप्रामाण्यात्‌? इति ( २-१-६० ) सूत्र
पादितमेव॥ कृता गौतमेन तनत्तदौषधोपयोगोपदे्चाजु सारेण तत्तद्रोगनिन्ु-
: आत्रेयकश्यपादिभिरपि कति पूवचार्याणां मतानि बहूनि त्यादीनां रामेन मायुर्वेदस्य विषभूताशनिग्रतिषेधार्थानां म-
नामानि च गृहीतानि दृश्यन्ते ! एषामात्रेयादीनां संहिताकर्त- न्त्राणां च तत्तस्योगविरोषे फरानुपष्टवेन यथा प्रामाण्यं व्यव्‌-
तयाऽपि पूवाचार्योपदिष्टानां विग्रकटर्णविषयाणां संहननमभि- स्थितमेतत्तल्येषु सर्वेषां वेदानां प्रामाण्यमिति आयुवदादेः प्रामा-
-ग्यज्यते ॥ | . ण्यं सिद्धवत्‌ कत्वा तज्निदक्षनेन सर्वेषां वेदानां प्रामाण्यस्य म्यव-
तदेवं वेदिकास्समयात्‌ परम्परानुचरृत्ता कमविकासेन वि- स्थापनेन प्राचीनाचार्याणामेषां समयेऽप्यायुर्वेदति्यायाः प्रचारः,
बृद्धा चिकित्साविद्या पूरेतनमन्थानां विरोपेनायत्वेऽनुपरम्भे- संमानन, प्रामाण्यं चाभ्युपगतमासीदिति च ज्ञायते, न्यायम-
ऽपि उपरुभ्यमानात्रेयसुश्रुतकश्यपादिमन्थान्त्गतविषयाणां अरीकारेण जयन्तमहेनाप्यस्मिन्विषये सुनिरूपितमस्ति ॥ `
निभ्याने तस्खमये परां म्रीदिमापन्नाऽनुभूयते । चिङ्धित्खाप्र महावग्गादिपारीग्रन्थरेखे काराञज्जन~रसाञ्जन-खोतोञ्चनः
धानेरात्रेधकश्यपमेडादिभिरपि शल्यप्रक्षियायाः सूचनेन शस्य- गोरिकाद्यीषधानां, भगन्द्रादिरोगाणां त्रिदोषाणां, स्वेद्‌नवस्ति-
विच्ाऽपि प्राचीना तदात्वे प्रस्थानविरोषरूपेग प्रढिमादधा- कर्मादीनां च भारतीयायुर्वेदिकविषयाणां तदीयसब्देर््यवहता-
नाऽवगम्यते । एभिरेवात्रेयादिभिरद्धिखितेषु श्ाङाक्यादि षड्‌
विभागान्तरेष्वपि विचारपूरणाः प्रौढा अन्याः स्युः! कारुवरोने- ६. एप मोजः प्राचीनाचायेः सुश्चतसमकालनो न्तु
षामपि रोपो महते खेदाय ॥ धारानगयाधीदयः ॥ । ।
| २. दिमवतः पारव, चैत्ररथवने, जनपदभण्डरे पाब्रार्षेतर
जाश्िन-मारद्राज-जवृकर्ण-पराशर-हारीत॑-चारपाणि-मा- |
काम्पिस्यराजधान्यां, पश्चगङ्के च आयुर॑दयीयपिचाराय महर्षीणां सम-
वायश्चरकसदहितायां तत्र तत्रो्िखितोऽस्ति । तत्रैव विमानस्थाने
६, <ण्वृपपप् मं प्ाण्ठप फव्वानप्ट ४ 2. 0, धप । परिषदोऽपि निरूपणमस्ति । काश्यपसंहित
| 4. 7. 2. 21, 52, परिषद? ८ए. ७९ ) “भूयसः ( पृ. १५३ ायामपि जातिषत्रीये “ति
) इति परिषदो विद्रत्तम-
_ २, चिनित्सकाः शकयन्वरागदस्नवददस्ताः ` जियश्चाततपान- वायस्य चोद्धेखोऽस्ति ॥ . ` „.
रक्िण्यः उद्धषेणीयाः ¶षतोऽवुगच्छेयुः ( करटिीये मभिकरणे १०) र न्यायमअयाँम्‌ (१, २५३-२६०) {
उपौद्रातः । ७६
+^ श ^तश थ छ ^छ + + + त, काक +का+ का + +छ +क क क
क + का^का+ + ।का+ +, कक

नामुपलम्मेन जीवकीयचिकिस्सनवृत्तन च उद्धसमयेऽपि (2 आत्रेयाचार्थेण !सुश्चते-अष्टसु भरस्थानेषु कतमत्‌ परस्थानयुप-


0. 600 » एतदीयः प्रचारो बहुशः स्फुटीभवति ॥ दिशामीति दिवोदासोक्तिवत्‌ पुनवंसोरत्रेयस्योक्त्यदोनेन
महावग्गीयजीवकस्य चरित्रालुसन्धाने गुरुणा परीक्ञायं आत्रेयसंहितायां विषतन्त्रादिविषयान्तराणामनुप्रवेश्षेऽपि शल्य
वनस्पत्यारोचनाय नियुक्तेनानेनकस्याप्यनुपयोगिनो वनस्पते विध्याविषयस्यानुपदैशेन च तच्छिष्याणां षण्णां कायचिकित्सा-
रनुपरम्भव्णनेन सेषजग्रयोगेण बहूनां तीब्रोगाणां चिकित्स- विषय एव भ्रन्यग्रणयनेन शस्यप्रस्थाने श्िप्यभूतस्यान्यस्य
नेतिचरत्तेन च कायचिकित्सायाम्‌, अन्त्रमेदनकपारमेदनपयं- कस्यापि नामानुपरुस्मेन च अद्ये कायचिकित्साविषये शख-
न्तया शखप्रकरिययाऽपि चिकित्सनेन शर्यप्रस्थानेऽप्यसाधा- चिकरित्साविषये चासाधारणवेदुष्यवतां भिषजां ( फन"
रणं विरोषविक्तानं तदीयमवगस्यते । तस्य महावग्गतिञ्बतीय- 9१. ऽपा&९०० ›पार्थक्येन प्रसिद्धिवत्‌ तदास्वे पुनर्वसोरात्रेय-
कथाजातकादिरेखेभ्यो बुद्धस्य तत्काटीननुपादीनां च चिकि स्यापि कायचिकिरसाविषय एवासाधारणवेदुष्यमाच्ार्यभाव-
त्सनस्य निरदैरोन तस्य बुद्धसामयिक्तवं, तह्ेखात्तस्य तत्तरि- श्चासीदिति परिक्तायते । महावश्गीयजीवकस्य तु काथचिकि
रायामध्ययनमपिं निश्चेतुं श्चक्यते । परं महावग्गरेखात्‌ तदि त्सायामिव शल्यचिक्रित्सायामप्यसाधारणं वेदुष्यमीच्यते 1
हाप्रसुखात्‌ कस्माचिदेवाचार्यात्‌ तदध्ययनमायाति । तिञ्च- पुनर्वसोरात्रेयस्य शिष्यतवेऽस्येद्यस्यासाधारणस्य सतीथ्यंस्य
तीयोपकथात आच्रेयात्‌ तदध्ययनं प्रतीयते इति केचन अभ्निवेश्षादीनां षष्णां पुनर्वस्वात्रेयशिष्याणां सहभावेन किमिति
वदन्ति । तस्य मूरं तु न प्राप्यत इति पूर्वं( प्र. ४१) उक्त नाम नोपादीयेत । आत्रेयपुनवंसोरपि पूवंतनस्यात्निपरम्पराग-
मेव! तेन स चात्रेयः चरकसंहिताया मूाचायंः पुनवंसुरात्रेय- तस्यान्यस्यैवात्रेयस्यान्तेवासी जीवकः स्यादित्यपि कल्पयितु
'एवेति न ततोऽवधायंते । चरकसंहिताया रेखादपि पुनवंसुरा न हाक्यते । तथाष्वे चरकसंहितायामुपक्रमयन्थे मध्येऽपि
तेयो, भि्चुरात्रेयः, छ्ष्णात्रेय इति त्रय आत्रेयास्तदानीं वेय प्रसिद्धानां पूर्वैषामायुरवैद विदामाचार्याणां निर्देशे तथा प्रसिद्ध-
विद्यायामाचार्थव्वेन प्रसिद्धा ज्ञायन्ते । आत्रेय इति गोत्रनाम । तरस्य महाभिषजो जीवकस्य नाम किमिति नोपात्तं स्यात्‌ ।
तद्रोत्नोन्ना अनेके पूर्वापरा आत्रेयशाब्देन श्शब्यन्ते । जीवक- बुद्धसामयिकजीवकरुरोरात्रेयादप्यर्वाचीनस्वेन संभावनेऽनेना-
स्याचार्यस्वेनाभ्युपगत आत्रेयः कतम इति एतावतेवानिश्चीय- त्रेयपुनर्वसुना काश्चीनरेशयोर्वार्योविदवामकयोवदेहनिमेश्च समं
समानतया आन्रेयशब्दसाम्यमात्रेण स एव पुनवंसुरात्रेयो जीव- सामयिकसङ्ञेखं कुवंता वेदयविद्याध्येतृतया- जातकादुक्तस्य
कगुरूरिति न वन्तं शक्यते 1 आत्रेयेण तिदखौषणीयाध्याये त्रिवि काशीपतेर्बह्य दत्तस्यापि नाम किमिति नोपादीयेत । तत्साम-
धौषधवर्णने शशखप्रणिधानं पुनण्देदनमेदनन्यधनदारणरेख- यिकेन काश्यपेनापि कथं नोपादीयेत । अभिवेश्चस्याचार्यो हिं
नोत्पाटनप्रच्छनसीवनेषणक्ारनलोकसश्चः इति `शखप्रणिधा- जआात्रेयपुनवंसुशब्देन काम्पिल्यस्थानीयेन निर्दिश्यते । बुद्ध
नस्य नाममात्रोदेशोऽस्ति ( घर. ५७८ ) । सोऽपि तदध्या- सामयिकजीवकाचार्थत्वेन ज्तात आत्रेयस्तु तत्तशिखागतत्वेन
यीयविषयाणामन्ते कुष्णात्रेयत्वस्योक्षेखात्तदीयः प्रतीयते । निर्दिश्यते ! काम्पिल्यं वेदकाकात्‌ प्रसिद्ध, तक्तरिला तु पश्चा,
काश्यपसंहिता्यां "परतन्त्रस्य समयम्‌" इति शल्यविद्यायाः देव प्रसिद्धतरेत्यवोचाम ! अर्वाचीनतया कल्पने अनेनात्रेयपु-
परतन्त्ररूपेणोक्ञेखवदत्रेयेणापि शधान्वन्तरीयाणामू, “एकः न्वसुना तथा ्रसिद्धायास्तक्तशिरायाः पाटरिपुत्रस्य च नाम
इत्यादिङग्देरधान्वन्तरसंग्रदायो निर्दिष्टः । चिकित्सास्थाने किमिति नोपादीयेत, इत्येवमारोचने आत्रेयपुनवंसोः कालो
हिविणीयाध्याये श्ल्यप्रस्थानीयोपचचाराणामपि नि्देशोऽस्ति । नार्वाग्‌ भवित शक्रोति । ततः पश्यात्तनोऽन्य एव वसिष्ठादिज्च
परं ख निर्दशः पश्चादद्टबलपूरितांश्च एव । ठीकाकत णां मतम इ्दवद्ोत्रनाग्ना आत्रेयज्ञब्देन व्यवहृतः शल्यप्रस्थाने कायचि-
देन तदंशस्यात्रेयाभ्चिवेरीयांशतववादेऽपि तत्रैवाध्याये--“इति कित्सायां च वेदुष्यश्शारी. तक्तरिकायामाचायः स्यात्‌ । तत
षड्विधमुदिष्टं शखक्म मनीषिभिः ( श्यो. ६१ ), तेषां एव ्ुद्धसामयिकेन जीवकेनाधीतं स्यादिति कथयितुं शक्यते ।
चिकित्सा निर्दिष्टा यथास्वं स्वे चिकिस्सितेः ( शो. ११९ ) अतः केवलमात्रेयशष्दमात्रसुपादाय पुनवेसुरात्रेय एवास्य
द्युक्तेः स्वारस्येन प्रस्थानान्तरीयः परकीयः संप्रदायो निर्दिष्टो जीवंकस्य गुरुरिति साधयितुं बरवस्रमाणमपेच्यते, इत्यादि
ऽवगम्यते ! ततः पूरव॑मर्चधिङ्किस्सितप्रकरणे (अ. १२ ) अश- पूर्वं( प्र, ४१ ) प्रतिपादितमेव । तस्य बृद्धनीवकनाम्ना अप-
सामुपचाररूपेण नानाविधौषधप्रयोगान्‌ प्रथमं निर्दिश्य रस्य जीवकनाभ्ना प्रसिद्धिरपि इयोर्भदं पूर्वापरभावं `चावबोध-
तत्राहुरेके श्शखेण कर्तनं हितमर्शंसाम्‌ । यति। एवं परित आलरोचनेन तिव्बतीयोपकथोक्तात्रेयोऽपि
दाहं क्षारेण चाप्येके दाहमेके तथाऽप्चिना । | पुनर्वसोरात्रेयाद्विभिन्नः पश्चात्तनश्चत्यायाति ॥
भस्स्येतद्धरितन्त्रेण धीमता चष्टकमणा ॥
क्रियते त्रिविधं कमं अंशस्तत्र सुदारुणः +
यदि नाम पूर्वोपदरितदिन्ा एतत्तन्त्राचायस्य बरद्रजीव- `
कस्य महावग्गादिकवीद्न्थनिर्दि्टस्य प्रसिद्धवेद्यवरस्य जीवक-
| (चि. अ. १२, शो, २३ ) स्य च जन्मस्थानरुरकुरचिकिटसनेतिहासादीनां मिथो विभि- `
इति शखन्तारदाहक्रियाया एकीयखेन परकीयस्वापरपर्यां चरानां विभेदं साधयतां बहूनां बाधकविसंवादकानां दशनेऽपि -
ताना-
यरूपेण निर्देशनं, तन्न अल्पन्ञानेन हानिसंभवाद्धरितन्त्रत् स्वस्वविषयोपरक्तदृ्िभिर्टिखितेष्वितिहासेषु तथेतरथा बोल्छे-
वश्यकस्वं ब्रवत तस्मिन्‌ विषये स्वस्य ताटस्थ्यमिवावबोध्यते खेऽपि म्रमेयाशमात्रमनु सन्धाय सवाद्‌
सम्भावनीयः । महा- वि|

१, {1106080 9165 2, 98... कुमारष्टत इति वक्तुम े ऽपि ` ,


चित्ये
६८ ीचित्य
चमो ततयूवचिादुसारेण
4. उपौश्चातः ।
^-^ ^^ ^^ ^ + + मितिन
~~~ ~~~
(~~~

कुमारभ्चो इति तद्धिशेषणेन छमारण्त्य इति परिचयविरे स्तु जीवकः, तेन बारतन्त्रपरिक्ञानायापि तद्‌ाववे प्रसिद्धा करश्य-
घलाभात्‌ तस्साघधकतया राजकुमारेणाभयेन पालितस्वरूप पसंहितेवोपात्ता स्यात्‌ , आयुरवेदीयपरम्परागतानि तदात्वे उप-
यघ्पूर्यवृत्तं निरदि्टमस्ति तत्र न स्वारसिक सङ्गमनं भवति ।. रम्यानि आश्िनभारद्राजादिसंहितान्तराणि च विरेषविक्ञा-
पारीरेखतस्तस्य ुमारणश्व्यत्वे कौमारभरस्यवेत्तुव्वमेव विनिग- नायावलरस्बनानि भवेयुः । तदास्वे उपस्थितानीदश्ाना्षग्रन्थान्‌
मकं स्यात्‌ । पूर्वसम्प्रदायानुसारेण कौमारग््यङब्देन वाल- परित्यञ्य अन्थान्तरार्णा, पूवंखमये प्रसिद्धानितिहासतोऽपि
चिक्ित्वैवाववोध्यते । कालिदाचेनापि कुमारश्त्याकुशरूरिति संवादिन आत्रेयादीनाच्वार्यान्‌ विहाय अनुपस्थितेभ्यो वेदेशशि- `
तत्परस्वमभिप्रेयते । तादशस्य महाभिषजो बारचिक्िस्साच्र- कादिभ्य आचार्यान्तरेभ्यो वाऽध्ययनं कल्पयिक्त॑ न किमपि
तानल्रेघेऽपि तट्रेत्तव्वं न खद न सम्भवति । पुरावृत्ते कचन ग्रमाणमवरुख्ज्यते । यदि तथाऽमविष्यत्तदा आत्रेयसृ्धिखस्सु
नैसर्मिकविषयोपस्थितौ देवी सक्तिः किमपि कौतुकं वो्धिलितं तिञ्बतीयकथाजातकादिभ्रन्थेषु तथाऽप्युदरेलिष्यत ॥
तत्र तत्रेच्यते। त्रान्तर्निध्याने किमपि रहस्यं प्रक्रियान्तरे पुरा समयादेव विद्यासम्प्रद्‌ायोऽवरे भारतीयं पश्चिमवि-
णोपरञ्कतयाऽवबोधितं प्रतिभासते) अस्मिस्तघ्र पञ्चवार्षि- भागे तक्तशिकापरिसरभदे्ो उद्समयात्‌ पवतः पाणिनिन्या-
कस्य जीवकस्य गङ्गाहदोन्मजने त्तणादेव वलीपङितव्याक्षया डिसदशेरन्येरपि परःशतेवंदवेदाङ्गादितत्तदिषयाष्ायवेयाचा-
वृद्धभवे किमपि कौतुकं, वौद्धमन्ोत्तजीचकस्यापि पूवतनसु यश्च सुप्रतिष्ठित आसीदिति विदितमेव । एतद्विषये राइस
स्पस्यादिबास्यचरृत्तमसाधारणमिस्युभयतः किमपि बारूरहस्ं डेविडमहोदयमतमिति भारतीमासिकपत्रिकायां तक्तशिलावि.
निगृढमवभासते 1 पञ्चनदगान्धारादिपश्चिमविमगे नानाचाय- श्रवि्यार्ये आयुवैदधनुर्वेदगान्पर्वविद्याऽर्थश्चाखरसायनधर्म॑श्षा-
वथविदयाया उप्रणं, वैयकतच्रक्ृताम!चायत्वेनात्रेयस्य निदेशः, सखप्रभ्रतीनां बहूुविघानां विद्यानामध्ययनाध्यापनप्रव्र्तिः,
महावग्गखेखे आत्रेयानुर्रेलेऽपिं तिब्वतीयगाथायां तत्तशिरायां विशेषत आयुरवैदशाखस्य चर्चांबाहुल्यं चासीत्‌ । तत्र चिश्ववि-
जीवकेनातरेयाद्रेयविद्ाय ग्रहणस्योल्खेखश्चास्ति। चरके आत्रेयेण द्याख्ये बेच्छोनियन-मिशर--फिनीरियन्‌-सीरियन्‌-भरब-
मारीचिकश्यपस्योक्ञेखेऽपि तथा प्रसिद्धस्य जीवकस्यानुल्खेखेन चीनग्रश्टतिदेडापण्डिता अपि वहवो वे्यरशित्तासम्बन्धमुदिश्य
संहिताकर्तर्मरीचकश्यपाजीवकस्य पश्चात्तनव्वमायाति घद्ध- समवेता वतेन्तेति तदीयो महिमा साधूपवर्णितः, छन्तु
जीवकीये प्राचीनेन काश्यपेन सह जीवकस्य प्रश्नप्रतिवचन- तेनेचसुपवणयता तस्समये भीसभिषलजोऽपि जयुवेदरिक्ताये
सम्बन्धदर्धनमपि स्वग्रन्थस्य मौरिकत्वग्रदर्शनमेवाभिप्रेति तक्षशिरखयामागच्छन्त आसन्‌ , त्रैव जीवकोऽपि गत्वाऽऽ-
च्व सति तरुरेखनी तोऽप्युस्सर्पिण्यवसर्पिंणीनिभरन्धादितादावि- युवदशाखमपटदिति च यदुक्धिखितं तत्‌ पश्चात्तनं .बौद्धधर्मष्-
कलोकग्रसिद्धशब्दविरोषाणामनत्रानुप्रवेशनं च सम्भवति, इर्येव सरणकाङ्ुपादाय निर्दिष्टं स्यात्‌ । जातकम्न्धेष्वपि तज्षशि-
स्थारीपुराकदशा नामेकदेशसाम्यमात्रेण जत्रेयोऽपि स एव, राविद्यार्ये भारतीयतत्तस्प्देश्ागतविद्यार्थिभिभारतीयाध्याप-
शृद्धजीवकोऽपि बीद्धमन्थोन्तः प्रसिद्धो भिषग्जीवक एवेति बरा केभ्यो भारतीयपूर्वसम्प्रदायम्न्थानां स््रस्यायुर्वेदधनुवदा्थंशा-
देक्यमभ्युपगभ्येत, तदाऽपि प्रयस्य जीवकस्यापि बुद्धसमय- खादीनामेवाध्ययनमुद्धिखितं दश्यते, आत्रेयानीवकस्याध्यय-
एवायाति । न तु ततोऽपि पश्चात्कारः । इतोऽपि २६०० वषं नसमयस्तु प्रानः जीवकाध्ययनसम्बन्धिनः पश्चात्तनवौद्धसाम-
भयोऽनर्वाक्तनस्वमेव सिद्धयति ॥
यिकस्य च विषयस्येकसृतरे संग्रथनं अममुस्पादयति । महाव.
बुद्धसामयिकेन जीवकेनापि शल्यभ्रक्रियया नानाविधेरसा- ग्गीयजीवकाध्ययनसमये मगधेऽपि बौद्धधर्मस्य प्रारम्भिक्य.
धारणौषघग्रयोगेश्च सुयशस्विना उभाभ्यां हस्ताभ्यामुमे प्रस्थाने वस्थाजाताऽऽसीत ।बुद्धस्येतिव्रत्ततोऽपि तत्समये मगध~-साके-
समकन्ञायासृद्रमय्य तदात्वे परां ्रीढिमारूढे प्रदर्शिते । सद्गु तकपिरुवस्स्वादिषु स्चिक्रष्टदेशेप्वेव तदीयः प्रभावोऽवगम्यते ।
रूपदेश्ाध्ययनवरोपजाततयाऽध्ययनाध्यापनग्रणारीगोरवस्या- मन्द्रिमनिकायप्रश्रतिपालीत्रिपिटकमग्रन्थानामनुसन्धाने यमु-
नुखन्धेयतया तदास्वे प्रचारवदोन परःश्ञतानां व्यक्त्यन्तराणा- नायाः पश्चिमदिग्भागे बुद्धस्य गमनं धर्म॑प्रचारणं च नोपरुभ्य-
मपि तारतम्यभाजामायुवदविद्याविदां धिरोषतः सम्भवेन काय- ते! तत्षशिरायाः पर्चियं दधानो महावग्गरेखोऽपि तद्प्देशे *
चिकित्सायां श्षल्यस्थाने च स समयः आयर्वेद्विद्यारसा- दौद्धधर्मप्रभावं नानुदर्षयति । अरेक्जेण्डरागमनसमयेऽपि
यनेन
| पूर्णयौवनारूदोऽवगभ्यते ॥ | नृपान्तराधिष्टिते तकशचिाम्रदेकषे बौद्धधर्मप्रभावो नावगम्यते ।
आत्रेयक्षिष्यतया कीर्तितेन जीवकेन कायचिकित्साविक्ता- पश्चादश्लोकनृपतेः समये मिरिन्दरेण बौद्धधर्मग्रहणोत्तरं चा तत्र
नाय चरकसंहितायाः पूर्वाप्रतिसंस्क्ृतावस्थारूपाऽञत्रेयसंहितेव, चौद्धधर्मप्रचारेण तचक्षिकाविश्वविद्यार्येऽपि तरभावः ससुन्मि-
हशस्यप्रस्थाने विज्ञानाय आत्रेयसंहितायामपि संमानरश्ा धन्व- मेष, यदि नाम भ्रीकवेद्यानां तत्रोपगमः स्यात्‌तर्हिपश्चात्तने बीद्ध-
न्तरेरेल्रेखेन पुराकाखदसाधारण्येन भसिद्धा सश्रतसंहिता ग्रभावप्रसरणसमय एव सम्भवेत्‌ । उुद्धसामयिकस्य जीवक-
तस्पूर्वावस्थारूपा धन्वन्तरिसंहिता वाऽधीता स्यादिति तदीये स्याघ्ययनसमये तु जन्मनाऽप्यलरधसत्ताकस्य भ्रीकवेद्यकप्रथ-
तिद्त्तगतक्रियाकौडशरुफर्बल्कल्पनीयमेव । स एवान्यो वाऽ- मजनकस्य हिपोक्रिरसस्याप्यागमनमपि न सङ्गच्छते, नतरां
तदुत्तरेषामन्येषामप्यभ्यापकतवम्‌। तदा भ्रीकवेचविद्यासुगन्ध-
१. कुमारमृत्यकुदाेप्नुष्ठिते भिषग्भिरापैरथ गभ॑भ्मंणि
. .- ~ .{ रपू्रशे १ सर्ग). | १, भारती वष ४८, १. ७०४, ....
उपोद्धातः १.
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9

रुन्धये भारतीयानां यवनदेश्लोपगमस्य, अत्रोपगतेः प्राचीन. ग्रीसेतिहासरेखकेन हिरेडोरसेन ( "०१००३ 8. 0. 484-


यवनैर्भारतीयवे्यके' अतिशयाघानस्य कस्यापि अीकतैयकस्य 428 ) पाथागोरसादीनां विदुषामुल्खेखेऽपि स्वोत्तरवयसि
भारतेऽध्यापंकःवस्य वा दृत्तं भारतीये भीसीये वा इतिहासे न वतमानस्यास्य अनिर्देशेन तावत्पर्यन्तं न तथा परसिद्धिरवग-
किमपि रुभ्यते। राजदौव्यमादाय भारते समागतेन स्वयं स्यते! कासस्थानीयपूर्ववृत्तवेषफेण हरजोगेनं ८००४ )
्रीसवेद्ेन मेगस्थनीजेन मीक्वे्यानां यवनानां भारते अध्या- कासस्थानीये बहूरेखेऽप्यस्य विषये उदातितं दश्यते । अन्यन्न
पकत्वस्य प्रभावस्य चानुर्रेखेन, भव्युत चन्द्रगुप्तराञ्ये वर्तमा- ्राचीनभ्रन्थेष्वप्यस्य विरोषनिर्देशचो नं दश्यते ॥
नानां वेदेशिकजनानामामयाविते आरोग्यसम्पादनाय मारती 3. ¢. 497 आरभ्य ए. 0. 400 समयान्नातिपश्चाव्‌ स्या-
वैद्यानां `नियोजनस्यं व्यवस्थाया उर्रेखेन तदात्वे भारते द्नेन अन्थसंपादनं छतमिति ©०1९0 (0 200 -4. 7.)
भेषज्य विद्याया भारतीयवेयहस्तगतस्वं वेदेरिकानां रेशतोऽ- महाशयस्य मतम्‌ , 8. 0. 430 आरभ्य 420 पर्यन्तमिति
प्यप्रभावश्च स्पष्टमवगम्यते॥ 116"€ महार्यस्य मतम्‌ , दन्दोग्याकरणरेखश्चेरीनामयुस-
पाश्चास्यग्रीकवे्यके प्राधान्येनाचार्य॑पदं हिपोक्रिटसस्य निर्दि नधाने अखेक्जेण्डराद्नन्तरं हिपोक्रिरसम्रन्थस्य 8. 0. 300
मस्ति । तस्य जन्म कास-( 6०8 › स्थाने समये रचनेति कस्यचन मतं वर्त॑ते । तन्नाम्ना बहवो म्रन्था
हिपोक्िरस- 8. 0. 460 मतान्तरेण . १५० संवत्सरे दृश्यन्ते, तेषु परस्परविरोधरेखशेली मेदादेरदर्शनेन सर्व हिपोक्रि
सञ्वन्धी वभूव ! अनेन पितु तथ्यो सका- देसीया इति पूणतया विश्वस्य कथयितुं न शक्यते इति भेमर-
विमदः शात्‌, ७०ता०05 सकाशास्चाधीतम्‌ 1 ( 2. 7"9-८€ ) महाशयेन; केषाञ्चित्तदीयत्वेऽपि सर्वै नं
स विद्यासस्पत्तये दूरदेशानप्युपजगाम। ८५ तः , 1. ति€05 पणत्िपण४ 165€901168 10 08 09.९€ ४०६
११० वर्षपर्यन्ते तदीये जीवनावधघौ मतभेदोऽस्ति । हिपोक्छि $614€व » शाल 194 एल्टुकता 0 11100 ( ति100069468 )
टसो भेषज्यविषयाध्यापनवृत्तिमानासीदिति श्रोटागोरख (२० | 2, ९ ‰2,. # 01. ४1 2. 544. 2. ¶ाद्रालाः
19207४5 ) अन्थे, दशशंनविषये फेड़स .(2860"75 ) मन्थे च 2, {€ 516 9 ४ ॥€&५5€ 28 50106117068 & अप्रा _
ष्छेटो (1/0 8. 0. 428-548 ) नामकेन विदुषा द्विवार- 165 810 5070611065 7100, 80001300 प0लमतं6 15 0 इप्रञ))
मस्य नाम ग्रहीतमस्ति 1 टिसियस्र (¶५१्८ऽ ) नामके ४ 18760 01क्ाध०टाः 170 108 1009 ए0ा०प्र०६त्‌ पाण न्रौ
इन्दियविक्तानविषयङे मन्थे तेन नाम न गृहीतम्‌ । अरिष्टाटर ४ {1681156 5107108 2४ 18 108 व्ल] ४ 06 00610 दभ्€
( 4८506 8. ©. 384-329 ) विहुषा स्वीये नेतिकम्रन्थे ध 421 8, त. पाः प्रतो [टाः "080 400 ए. ©,
सक्रदेवास्य नाम गृहीतं दश्यते । एतदनेन हिपोक्रिटसो सैष 76) 5001156 €९.१९९06९3 0682 0 € 12061064
विद्याध्यापनन्रृत्तिमान्‌ विद्धानासीदिति समर्थितं भवति। प्र०६€&' 706 1९०6८. 0 "0€ 4 ४6 ०2678, प्006 8068
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८२९ उपोद्धातः ।
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तदीयाः किन्तु तद्॑श्येस्तदन्तेवासिभिस्तदयुयायिभिश्च छ्खिता ( एपयाण्ण०क ) मतम्‌ । अरिष्टिटलखात्‌ प्राक कापस-( ८०.
बहवः सन्तीति डपर ( 7८90€ ) सह श्येनऽ २. ¢ रायमहा- 5 ) नामके अन्थसङ््रहे हिपोशिटसीयरेखस्योद्धाराद्शनेन
हयेन; अन्यैरपि च ङिखितं वर्तते! हिपोक्रिरखात्‌ पूवंतनस्य हिपोक्रिटसनाम्ना प्रविद्धानां अन्थानां कर्तां न हिपोक्रिरसः,
डमोकेडिसस्य मन्थोऽपि हिपोक्रिरसग्न्थेषु प्रविष्ट इत्यप्युपर- अपि तु पारिबस-( एण्००६ ) नासकोऽन्य एव विद्ानित्यपिं
भ्यते । तच्र एफारिजनासको ग्रन्थो डाद्विरख्सविदुषा, आरि मतं हिपोक्िरसीयम्रन्थानुवादभूमिकायां दश्यते 1 ्राचीना-
क्युरशननामको मन्थः टेरियसविदुषा, द्वित्रा अन्ये म्रन्था नामपि ग्रन्थानां कार्वरोन पाटविरोषावापोद्रापसंस्करणपरि
मेननविदुषा पूवं विज्ञाता आसन्‌ । नेचर ओं मेन नामको वर्ध॑नादिभिर्बहुखो विकार उपजातः, इत्यादीनि पाश्चा्यविदु
भरन्थः अरिष्टाटरुविदुषा विन्ञात आसीत्‌ ,सोऽपि पाल्िवसस्य षामन्येषां चान्यान्यपि मतानि वतन्ते । ते चोपशतं हिपोक्छिर-
तं अन्धं जानाति। “हिपोकिटसस्य स्वरेखमयोऽसमुको मन्थ इतिं सनाम्ना मरसिद्धा अन्थाः पभायश एकंकविषयकप्रकरणरूपा
निश्चयेन कक्तं न शक्यते, ईदशः कोऽपि मन्थो नास्तियो रघवो दृश्यन्ते । ^, ?. १३०-२०० समये भ्यान्‌-( 6०12 )
भेषज्यपिृपदारूढस्य र चनेति वक्त शक्येत । तदीयनाम्ना नाम्ना विदुषा हिपोक्िटसनाम्ना प्रसिद्धानां कतिपयग्रन्थानां
प्रसिद्धानां अन्धानां सङ्ग्रहे उपश्चतं अन्था वर्तन्ते, येषु परस्परं विवरणं विहितमस्ति ! तेनापि दहिपोक्रिटसनारना भसिद्धा
विभिन्ना विसृद्धाश्च विचारा श्यन्ते ! विभिक्नसप्रदायिके्रीसः ग्रन्था रूपान्तरितावस्थायामरुभ्यन्त । र्धेषु अन्येष्वपि बहवो
राष्टीयविभिन्नस्थानीयेर्विभिन्नकालिकिश्च विद्रद्धिनिर्भितानां मन्था एरियामादनरप्रदेशात्‌ः एका मन्थाः सिसरीप्रदेशाव
नानाग्रन्थानामसौ सखङ्गरहो ज्ञायते, येषां मिथः षटदाताब्दी- भराता इति दर्शनेन तदुम्रन्थस्य पुरातनम्रीसराभ्येऽनुपलम्भः,
पर्यन्तमपि समयान्तरमस्तिं ! केचन अन्थास्तु रोसदेरौ ^. 1 अवस्थान्तरितस्योपरम्भश्चावदुध्यते !यदि तज्नाम्ना दृश्यमानाः
तृतीयक्षताब्दीपयन्तं निष्पन्ना अप्यत्र प्रविष्टाः सन्तिः इति सर्त मरन्थास्तदीयास्तादाखिकाश्चामविष्यन्‌, एतदीयग्रन्थानां
ए. 8. आङ्गलब्रहस्कोशेऽस्ति ! हिपोक्रिटसस्तु महानिस्युच्यते ग्रीसे तदीयसमयादेवातिशयेन प्रचारश्चाभविष्यत्‌ ; तदा ष्टे
विनेव अन्थनिमांणमस्य नाम प्रचलितमिति विरामाविजस्यं टोऽरिद्रराभ्यां भषज्याध्यापनविषये आध्यारिमिकविषये चास्य
नामसङ्कीतनमिव ष्ठेटोकूते टिमियसयन्थे ग्रीसीयप्राचीनविद्ः
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101५06८. ©. दिथ्फ पर79णप 0 पताणतप कीलो क्रिटसस्य स्वदे एव सम्प्रदायप्रचारे विश्षेषतो जागरूके तत्प-
४०1. 1 2. श्ाा. श्राद्धवा जैषज्यविद्याविरोषरन्धये भिश्रदेश्ञं नायुधाविष्यन्त
2, प्प € ( 0€0०{.€4€3 ) ०४ 789तैए 19९९ 11६५
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1109 100700० 0 € पह 65 166 प्र०1१{६त। कला€
यन्तं हेखियोपोक्िसि-स्थानीयभिषक्पुरोहितसकाक्लाद्धेषज्यवि-
60100560. प्रए00न6€ऽ * ०1. [1 2. णा.
याया अभ्ययनमितिहासे लभ्यंते । पूर्यकार इवोत्तरकारेऽपि
2. 6700०४९5 # ०. 1 2. + रर. . व्रला€ 18 ०० वृप्म॑ढ्रि० 601. 80 ४९०56 10 {16
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पए 968 ९01, 7 2, (1, ४
2, ए, 8, ‰, एण्‌, श 2, 541 &, वपद्रपहाः
उपोद्धातः । ८३

ग्रीजनानां भैषञ्यविद्याध्ययनाय मिश्रे उपगमनं तावव्पर्यन्त- ख्ब्ध्या तृतीयश्चताब्दीपर्यन्तं नवोपजातानां मन्थनामपि तत्र
मपि ग्रीसे मिश्रप्रभावपातञ्च वर्णयन्ति ॥ प्रवेदानेन, नवोदितरोमसान्राज्यावरम्बराभेन, ^. 7. सप्तमः
स्वसम्प्रदायगप्रचाराय स्यात्‌ स्नीडस ( (५4०8 )स्थानस्य शताब्द्यां रेटिनभाषायामप्यनुवादेन, यूरोपीयकतिपयदेशेष्व-
मतान्तरेण कास-( 008 `स्थानस्यापि हिपोक्रिटसेन पूर्वपुस्त- प्येतत्संप्रदायग्रसरणेन च पश्चात्कारे यथा तन्नाञ्ना प्रसिद्धानां
कार्यस्य वानं छतमिव्यभियोगेन, इतस्ततोऽपि विद्याषिव- थानां विरोषतः प्रचारो, न तथा पू्ंकारे भ्रीसे बभूवेस्यत्र
धनहेतोवां हिपोक्रिरसस्य यौवन एव वयसि स्वस्थानं परिरय- सनः प्रवभीभवति ॥
ञ्य स्थानान्तरगमनच्रत्तं चोपरभ्यते । सोऽयं तस्य स्थानत्यागो ग्यारसमयपर्यन्तमपि पौरस्त्येषु अतीरिया-पर्धिया-वेष्छो
सख्ये तदीयस्थाने प्रचारसौकयं व्याघद्येन्नाम । तदात्व नियादिदूरदेशेषु तद्भन्थोपर्ञ्ध्यदश्छनेन तत्रापि पदन्यासम-
सृद्रणकलादयभावेनाऽ्यत्व इव तस्पक्रियया क्षरति प्रचार दर्यन्ती हिपोक्रिटसीया विधा मण्डुकष्टुप्त्या पूवं भारते
सौकर्थसाधनं नासीत्‌) बहशः प्रतीकरेखानामितस्तत उप पादन्यासं कृतवती स्यादिति कठ्पयितुं मनः सङ्कचति ॥
मोऽध्ययनाध्यापनबाहृल्यञ्च पौवंकालिकं प्रचारविरेषम- हिपोक्रिटसवे्यकरेखे निदानेषु ज्वरादिरेगेषु भेषज्यप्रक्रि
भिन्यनक्ति । म्रीसे अरेक्जेन्ड्यायां वा तस्रचारविशेषः यासु भेषजेषु चेवमनेकविषयेषु भारतीयायुव.
कार्पससडग्रहयो वा पूव॑मुपजातो वर्तमानो वा यद्यभविष्यत्‌ ; ग्रखभास्त- द्वै्यकस्य साम्यं कीथ-म्याकडोख्नप्रश्रतयी
तदा ग्याटनरषटेवहिभावो नाभविष्यत्‌, एरियामादनर-सिसटी वेयकयोः महाशयाः प्रतिपादयन्ति । अस्मद्‌ दृष्टावापं

परदेशात एव उपरम्भप्रयासोऽपि तस्य नाभविष्यत्‌ । एवमेव


प्रायिको बि- बहशः साम्थं प्रतीयते! भारतीयम्रन्थेषु
छिटरे (1४1९ ) महाश्योऽपि बवीति। सादहि्भिश्रदेशे
8. 0. तृतीयश्ताब्दीभवेन इन्डीयस-( 4४47628 )विदुषा, षयसवाद्‌ः रोगादीनासु्पत्तिनिवृ्योररिष्टानां चायुखन्धां
रोमदेहे 2. 0 प्रथमश्चताब्दीभवेन एसिलपियाडिस नाय स्वप्नाध्यायः भवतंते । जसीरिया-बेन्छो
( 4ऽनल ११० ) विदुषा हिपोक्रिटसविस्दतया परिशीरनं निया-प्रदेशेष्वपि असुरवनिपाररपस्य (8. 0. ६९८-६२६ ),
कृतमवगम्यते । कासस्थरे हिपोक्रिरससाम्पदायिकपुस्तकाख्या- 1, छप दण्ाव्ञ फकप्ञमत0ा तौ ४ कष्णञुभी० 18 त
वस्थितेः प्रमाणमपिं नोपलभ्यते इति लिदट्रे महारयेरच्यते । {16 7४1 (लणीप्‌ 4. 70.80 18 % [ध्रा पलाना नह
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८६ | उपोद्धातः ।
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यस्य नाम धटरनेप-रः इति ंस्कृतश्चब्दवद्धासते, तस्य नवोद्धाविता षिषयविशेषास्तदीयशब्दच्छुयादयोऽप्यनुप्रविष्टा-


समये तच्रापि स्वप्नचिचारसंस्था प्रवुचाऽऽसीत्‌ । तादश एव अद्‌ द्यन्त, नहीयं तथातेनोपरभ्यते । भारतीया भषज्यविद्या
विचारो भीसदनिऽपिं प्राक्प्रतिफल्ितः दिपोश्रिरसीयरेखेऽपि दाश्चेनिकविषयादिसंपृक्तत्वेन प्रवर्तमानाऽद्यापि तथेवास्ते।
दृश्यमानः ?. 0. चतुर्थक्ञताष्दीपर्थन्तमपि वलंमानः पशाद्ि- भारतीयादिप्राचीनपरम्परागतपिषयाणां हिपोक्रिटसवे्के अपो-
खयमवापे्युक्िख्यते । भारतीयायुरवेदे सद्रकोपादितो जनमा- दवारदर्शनं प्रस्युत भारतीयवे्यकपरतिष्ोत्तरमेव हिपोक्रिटसवेचय-
रादिरोगप्रादुर्भावो वण्यते । एवंविध एव देवकोपतो रोगायु- कोद्यमवगमयितु प्रभवति ॥
त्पत्तेः प्रा्चीनविचारो ग्रीसदेरे आसीदिति होमररेखतः मती शारीरमूरुतच्वानि कफवातपित्तानि आसवेयकाद्धारते
यते । हिपोक्निटसपूवेपुरूषस्य एखिरुपियस ( 43०16108 )- उपात्तानीत्यपि वक्तं न शक्यते । पाश्चाच्या विद्रंसो अीसोपन्त
स्याप्येवमेव विचार आसीत्‌ ॥ त्रिघातुवाद्‌ इत्यन्न न व्यवतिष्ठन्ते, मिश्रदेशोयमेतृसम्प्रदयतो
एवं भारते यथा प्राचीनवेधकविद्या द्‌ादानिकविषयसंपर- गृहीत इस्यन्यन्मूरं प्रदशशयन्ति । भारतीयायरवेदविषयके विमं
1ऽऽसीत्‌ ,तथेव ग्रीसदेदोऽपि हिपोक्रिटसतः पूं शतवषाभ्य- कीथमहाशयोक्तेः पयांरोचने तत्र नेतिकोक्तिविरेषाणां दर्शने
न्तरे प्रवर्तमाना भेषञ्यविद्या दाशनिकविषयसंबद्धाऽऽसीदिति ऽपि उपक्रमोपसंहारदशा तदीयग्रघदकार्थग्रहणे असवेयकाद्धा-
वर्ण्यते । ततो दा्चनिकविषयादीनपाद्रुस्य केवराया मेषज्य- रतीयवेयकस्य प्राग्भावे मूकभावे च तेषामपि हृदयस्य प्रवणी
विद्याया नवोद्धावनं हिपोक्रिटसेन बिहितमिच्युज्ञिस्यते । तेन भाव इव प्रतिभाति । अतिपूव॑कालं भति दृष्टिदाने तु चरि्नों
माचीनदेरेषु मारतीयपूर्व्लोतःसाम्यवस्सु खोतःसु भ्रीसेऽपि अशिविनेति आरिवनसुक्तगते कङ्मन्त्रे त्रिधातुशब्देन वातपि
तच्छायखोतःसु विद्यमानेषु पश्चाद्‌ म्रीसदेशो प्राचीनस्रोतसां तश्रेष्मधातुत्रयमुपादाय तच्छुमननन्यसुखग्राप्ः प्रार्थनाया-
विपर्याचेन हिपोकरिरससम्रये नवस्वरूपोद्योऽचगम्यते। हिपो उपलम्भन, अथववेदे वरास ८ कफ ) रोग-निदानचिकिस्सादेः
क्रिरसेन नवोद्धावितस्य वेयकविक्ानस्य प्रभावो भारतेऽपति- ( ९. १४. १-३ ), पित्तस्य ( १. २४. 9; १८. २. १), भेषज-
ष्यत्‌, तदा तद्वदेव दाक्षेनिकादिप्राचीनसखरोतोधिषयवर्जिताया तेन व्याधिनिद्‌ानस्वेन च वातस्य (४. १३. २), चरणपुत्रार्चिः
एव सैषज्यविद्याया भारते दुक्चनमभविप्यत्‌। दिपोकरिरसेन शोचिरादिशब्दविरोषः श्रेष्मवातपित्तञ्वराणां च निर्देशदर्षनेन
५16 भमो ग ४ लद्धोणी॥ 000 10 लप्$ 18 ९.88६-
भारतीये वैद्यके श्रेष्मवातपित्तरूपत्रिधातुवादो वेदकारदेवा-
60, ` 0 ० 9 5€षट0-00090. 28 ०९४160; १€०€ 3
युवृत्तो निश्चीयते । कौशिकसूत्रेऽपि त्रिदोषोज्ञेखोऽस्ति इति
शष्णा्य 7 प्लुभपत्‌ {0 #€ प्रलाा०र१्‌ ० 9 १९७त्‌ वल,
कीथमहाद्षयो वदति । महाभारतेऽपि तदुक्ञेखो रुभ्यते । शारी
10 इपा्ुप ॥#1 6 78 अपप 10 +€ कृल्ाक्ो०प णि
राणि कफवातपित्तानि नाम कानि तचचानीस्यत्र श्रीमल्थुप्रशच-
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0 06{€016 ० प्रन, 35 १६ 0 (ट्टः 100060८९ ३. विर्न अशिना दिव्यानिभेषपजात्रिः प्राथिवानि तिरदन्तमद्धथः।
४०५ 0 70८1 13 ९ लु 97916] वहप्लणुणला४, ¶06६ मानं शंयोममकाय सलवे त्रिधा शमे वहतं रुभस्पती ॥
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पपाद ०८ फलव +0 06 तली दाल, 18 10 ००5९ सायनः-हं अशिना अस्मभ्यं दिव्यानि दरोकवर्तीनि भेषजा
60065100 10, घ्1€ रिद्ाृ‰ 85601 0 11€ {11६6 ओषधानि वि्द्॑तम्‌ । तथा पाथिवानि परथिन्यामुलन्नान्यौषधानि
तप्ा88 0 601511016008, 110160१6, 006 0 प्ल प्णानाः8 त्रिदत्तम्‌ । अद्भ्य उ अन्तरिक्षसकाद्यादप्यौषधानि धिद्तम्‌ 1"
110, 28 917680¶ 10 70 1106 4 9८२४९९१४, ६0 {€ संयोरेतनामकस्य ब्रहस्पतिपुत्रस्य “` सम्बन्धिनमोमानं सुखविरेषं
&808/7 [ऽप 28 ०116९ ण +€ 000106९ एला)])8 ममकाय सखलवे मदीयाय पुत्राय दन्तम्‌ । हे ह्युभस्पती शोभनस्यौषध-
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उपोडातः । €५

तीनां बहूनां विदुषां मतविरोषा दश्यन्त इति त्वन्यदेतत्‌ । ततान, आसदेशे दार्शनिकविषयप्रचारणं च रभ्यते । तमिमने-
परं यथा तथा वा भवतु च्रिधातुवादः प्राचीनो भारतीय एव । म्पिडोस्किसेनभ्युपगतं पूर्ववादं प्रतिक्तिपतोहिपोक्रिटसस्य
तदेवं वेदिकादतिपूवंकारात्‌ परम्परयाऽनुवतमानस्य न्रिदोष- हृद्ये भारतीयः ख प्राचीनः सिद्धान्तः साक्ञात्‌ परम्परया वा
वादस्य अ्रीसतो भारते अरतिफर्नोक्तिनं यौक्तिकी भवति । यद्‌। स्फुरित उपरुच्यते 1 पञ्चभूतेभ्यस्तत्रेकं भूतमपास्य चतु्भूतेभ्यः
भारतीयं वेयकविन्ञानं प्रादुर्बभूव, तदेव सोमसूर्थानिरानाभिव शरीरोरपत्तिमारतीयपूवेसिद्धान्ते कभ्यते । ` भूतहेतुप्रव्याख्यान-
विसर्गादानविक्तेपकायंसेपादकतया हइारीरान्तस्तस्वानां श्केभ्म- वादस्तु न भारते पूवंकालिको दश्यते । यदि नाम हिपोक्िर-
वातपित्तानामपि विक्तानञुदियाय 1 भारतीयमिदं प्राचीनवि- सीयविचाराखोको मारतेऽपतिष्यत्‌ तदा य्रस्याख्यानवादोऽपि
ज्ञानं विज्ञानान्तरेः खह देशान्तरेऽपि प्रसतु पारयस्येव । त्रिधा- भारतीये वै्केऽल्चिष्यत । तदेवं .हिपोक्रिटसेन प्रतिरिक्तस्य
त॒वादो भारतीय एव, ततत एव हिपोक्रिटसेन गहीत इति 7. 7 पूर्ववादुस्य भारते उपलम्भः, हिपोक्रिटसोदितस्य प्रतिक्तेपवा-
मोदीमंहारायेन निरूपितमस्ति ॥ दस्य भारतेऽनुपरुम्मश्चानयोटष्टिदाने कतरस्य पौर्वापयं कतर-
पाञ्चभौतिकवादो भारतीयः प्राचीनः । जायु्वेदेऽपि आत्रे स्यापरच्रालोकपात इत्यपि विद्रद्धिरवधारयितं शक्यते ॥
य-घन्वन्तरि-कश्यपादिभिः पञ्चभूतात्मकत्वं शरीरस्य भ्रद्‌- किञ्च, आत्रेयसंहितायां वातकलाकरीयाभ्याये परस्परम
सितमस्ति । येन समुदितानामेषां चेतनाविक्ञकलितत्वेनाव- तानि निक्तासमानानां महर्षीणां सम्भूय विचरे वातप्राधा-
स्थानसुपादाय रूस्योः पञ्च॑ताशब्देनापि भ्यवहारोऽस्ति । पञ्च- न्यवादितया कशभरद्वाजकाङ्कायनभार्गववार्योविदानां, पित्त-
भूतेष्वाकाद्तं एथगनभिसन्धाय चतुभूतमात्रवादो लोका- प्राघान्यवादिनो मरीचेः, कफम्राधान्यवादिनः काप्यस्य मतेषु
यतादिमतेषु प्राचचीनमारतेऽपि गृहीतो दश्यते । हिपोक्रिटसेन दर्षितेषु सर्वं एव खलु वातपित्तश्रेष्माणः प्रकृतिभूताः पुरूष-
चातुर्मौतिकल्ववाद पूतवैरभ्युपगतमेकीयरूपेणोपाढाय तत्र स्व- मायुषा महतोपपादयन्ति? इति त्रयाणामप्येषां संवङितप्राधा-
स्यानभिरचिः प्रदश्षिताऽस्ति । म्रीसदेशे एष चतुभूतवाद्‌ न्यवाद्‌ आत्रेयेण स्वोन्मेषरूपेण प्रदर्षितोऽस्ति । दहिपोक्रिरसेन
म्पिङोद्धिसेन ( 7"07९0००168 4954835 8. ©. ) प्रथमसु- एकेकमप्राघान्यवादमेकीयमतसेन प्रदश्यं पश्चाच्‌ समुच्चयवाद्‌
द्धावित इति धार्िकेतिहासे रभ्यते । तस्य एम्पिडोर्किसस्य दर्षितो दश्यते । एकेकप्राघान्यवादाः कस्य कस्येति न नाम-
इरानभारतोपकण्ठादिपूर्वदेश्षागमन, ततो दाश्षंनिकविषयपरि निर्देशोऽस्ति । ससुचयवादमपि स्वोद्धावितयिद्धान्तरूपेण न
0101, 01681668 ०१९८ 168 ९द्ुपोश्प्रेता, ४0 कध पजा०पऽ निर्दिशति \ आत्रेयेण तु तत्तन्मतान्युद्खिख्य सम्मिङितव्ववाद्‌
£116. ©18.110 पर] 8€0160168 | स्वसिद्धान्तरूपेण दक्षतः । तेन भारते पूर्व॑प्रचङिता एकेकवा-
१06 .40तिवुप्त् ० त100प 6तानणल्--न्णत ©
दाः समुच्चयवादश्चानूदिताः, तेषु सञुचथवाद्‌ स्वाभिरचिश्च
र प्धाप ८, 21 मदर्दितेति स्पष्टमवलुध्यते ॥ ॑
१. विसर्गादानविक्षिषैः सोमख्यानिङा यथा । सैतावदेव, अपि त दन्तरोगविषये चरके सुश्रते च पेत्ति-
धारयम्ति जगदहं कफपिन्तानिलास्तथा ॥ कादयः प्रमेद्‌ा दिताः । डा० हिपोक्रिटसेनापि दन्तवेष्टनशो-
( आयुवंदांची मूलतव्वे ) थरोगोल्रेखे 2:४१ ( 871८ ) इति पित्तं दोषतया निर्दि्ट-
2, 7013 एप१०, 1, ९.) 816 38 ॥1€ ९109 0 ४6 010 मस्ति । तदिद्‌ पैत्तिकदन्तरोगस्य निदानतया भारतीयेरभ्युप-
10792 11667006. ० 7 18 9 फल्‌] 10) 186 18 गतं पित्तमेव निर्दिष्टमिति शब्दापञरंश्चद्शाऽपि वीच्यते ॥
{€ 1047901 116तानचल 78 कणर, प्ठपरापत € (ल्मम्‌ त एवमेव सुखदौगंन्ध्यप्रतीकारविषये यदौषधं निर्दिष्टं तस्य
106 ८६९ ्रपप्जप्राऽ 0 ४०८00 रट.) =शदफप, ४08 220 {71618910 €0168.121611॥ (भारतीयोषधम्‌ ) इति दराब्देन यव-

दि; त 0 3 कल्णाप्‌ कऽ 007८006 ए


1. पता5णङ्‌ 9 ततप 06000
पतणएण्लभ€ञ, छल गन्ता ता कछला 11661006,
{0 113 ९1819100 न 6368568 ४०1. { 2. 22-फ २. 0. पष
एण ^11- 1061870 01620481 00166०५ १. वातकलाकलन्ञानमधिक्ृत्य परस्परमतानि जिज्ञासमाना
| ०1. 7 २. 428. समुपविश्य महषयः पग्रच्छुरन्योन्यम्‌ । "“"भगवान्पुनव॑सुरात्रेय उवाच
३. परं खादीन्यहंकाराठुखचन्ते यथाक्रमम्‌ सवं एव भवन्तः सम्यगाहुरन्यत्रेकान्तिक्वचनात्‌ । सर्वं एव॒ खल्ध
ततः सम्पूर्णशवाङ्गो जातोऽभ्युदित उच्यते ॥ वातपिन्तदरेष्माणः """ तदृषयः सवं एवासुमेनिरे वचनमात्रेयस्य
सरीरं हि गते तसि्मिन्द्ुन्यागारमचेतनम्‌ । मगवतोऽभिननन्दुश्च । ( चरकसत्रे. अ. १२. पृ. ७८-८१)
80016 0 {160 ऽधकु 18# & 1180 15 01000, 08
. पच्चमूतावशेषत्वात्‌. पञ्चत्वं गतयुच्यते ॥
। ( चरकल्लारीरे ९ अध््राये ॥ ) 1381 16 18 0116, 9 € 08 16 13 01600. 28107903
` 116 € "लभ 5म828, 911 ०१३ ४06 58006 शुग),
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८8 उपोद्धात १ ।
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हारः करो वर्त॑ते इति ॐ० जे. जे. मोदी 1,. 1, & £. 1.. इश्यते । तस्य योगौषधस्थ “हिपोक्रासः इति तन्नामसङ्कत-
7. 8, ( एण. ) महाक्णयेन निरूपितमस्ति । भारतादेव दशेनेन तदीयमेव तद्रस्तुपरिक्ानं ददीभवति । 3. ©. ३५०
तस्मिन्‌ रोगे तस्य ओौषधस्य परिक्ञातव्वेनेव भारतीयौषधमिति वषभवेन धियोफष्टस ( पणट्णणधभ॑पऽ ) विदटुषाऽपि पकस
सं्ञाङरणं संभवति 1इदमेकमेव पदमपि तस्य भारतीयं भेष इण्डिका ( 0४3 10109 , नामकौषघरे इण्डिकाश्ब्दो निर्दि
उग्रविन्तानं साधयति । फिसन्यत्‌ , दहिपोक्रिरसीये मेरिरिया ्रोऽस्ति । बहशो भारतीयवनस्पत्योषधीनां ओसदेरे उपग.
मेडिका ( निघण्डु ) म्नन्थे । 'जतमनसी ( जर्मांसी ); मस्य॒चृत्तं॑पोकाकादिविद्टदधिरप्युल्लिख्यते । यान्यौषधानि
जिद्धिवेर ( श्ङ्गवेर ), पिपरनिथ्रम्‌ ( मरीचं पिप्परी वा ), मारत एवोद्धवन्ति, यानि मारतीयवेयेस्तेषु तेषु रोगेषूपयो
पेपेरी ( पिप्पली ), पेपर्स रिज ( पिष्पलीमूलम्‌ ) जयन्ते, नहि तेषां परिज्ञानं विना तानि ग्रीसभिषजो हदये
कोस्तस ८ कुष्ठे ), करद॑मोमोस ( कर्दमम्‌ ), सकरून (शकरा); वतः ्रतिभातं कल्पन्ते । अनेनव निदानेन डा० हिपोकरिट-
इत्यादय ओंषधवाचकब्दा मारतीयायुर्वेदसंस्कृतराञ्दानां सस्य भेंषञ्यविषये भारतीयभैषज्यविषयाणां रोगनिदानौष-
सश्रिद्ष्टा अपश्ंशाः स्पष्टं दृश्यन्ते । भारतीयतिरुवाचके धो पतचचारादिषु दश्यमानं साम्यमपि तस्य भारतीयविक्ञानमूल-
“चिस्मं दइण्डिकम्‌ः शब्दे, भारतीयकरन्नवाचके श्यारेडपा कतां द्रयितुं शक्नोति । एवमेह बहूनि प्रमाणानि निर्दिश्य
दण्डिकाः शब्दे च भारतवाचकस्य दृण्डिकशब्दस्य प्रयोग डा० जे० अ० मोदीमहाशयेन 153 ^ ८८९९५१४ & वुपश्नलार
द्॒ष॑नेन तस्य भारतपरिक्तानं भारतीयवस्तुविशोषाणां व्यवहार इव्यत्र, रायरुएशियारिकसोखाइस्यां पठिते पत्रेऽपि सर्वविदे
उपादानच्च साक्षाक्रियते । हिपोक्रासं ( 6709००४४ ) नाम्नि सीयभेषस्यपद्धतीनां भारतीयायुर्वेदपद्धतिरेव मूलमिति निरू-
योमौषपरे भारतीयासाघधारणवस्तूनां खगादरंकश्चकंराणां प्रवेशो पितमस्ति । तदीयवेद्यकम्नन्ये भारतमात्रोद्धविनोऽनेके ईद्शा-
वनस्पत्योषधयो निर्दिशः। तेन शब्दतोऽथतश्च भारतीय-
1. € ०05 पलप 19. [1 7, 666.
वेद्यकविन्ञानं तस्य साक्तात्‌ परम्परया वाऽऽपीदित्यकामेनाप्य-
2. प्राञतार्‌ 0 [लाड [प 07, लोपं 2. 50 90
भ्युपगन्तव्यं मवति ॥
एप (1) 07161] (001760९८ {10८66618
0. 1] 2. 421
यद्यपि “भारताद्‌ बहुश्ञो विक्तानान्तराणि म्रीसेन गृही
3, 9) 8010 7५6 (टरणप्र€3 ४06 (सः, पत1000.-
तानि, भपञ्यविदया ग्रहीता न वा, भषञ्यविधयायां ओसस्य
0729168 170 1113 {हल 11९0168 160070061108 86९९६81
प्रभावः पतितो न वेत्यपि निश्चेतुं न शाक्यतेः इति प्रथमतो
1{7012.0 2048 ०6090064 10 दिक्पा ककड ग पप्लोः
निर्दिश्य, श्रिपिटकसंवादेन चरकस्य कनिष्कस्तामयिकस्वावगमे
भण{हत्‌०ाः १३४९, 85 707 1705916९, 36880 10070
भारतीयवे्यकात्‌ प्राक्तनव्वं हिपोक्रिटसस्य, तेन भ्रीसस्य भारते
( प्र]९), अकः०५६०8 बकका0081 (च 808 ८082081 ), 005-
प्रभावः पतितः इति स्याकडोनटमहाश्चयेन पश्चाल्चिखितं
फल])9 पापपला ( दप्णतपाप)) =दाषद्ाप्लः गौीनभ्‌€
दृश्यते । परं यदि नाम चरकाचायं एवास्या आ्रेयसंहिताया-
( शिण्रटा४ }, शिलः कवृष्टत्णः ( विक्पनाप ), €.) 1
मूकाचार्योऽभविप्यत्‌, तदा पएवमनुसन्धीयमानं पौर्वापयं
€ 775 (लापय णा पाल तीअ 218, 02050065,
समभविप्यत्‌ । तत्र चरकाचायंः खलं चरकनाम्ना प्रसिद्धाया-
£ (स्ट्छार एतशेन), 0णाणप्णिप 0१६80१64 धल 10647 आत्रेयसंहितायाः न निर्माता, अपि तु पश्चात्‌ भ्रतिसंस्करतँव ।
609] कोउ जभ क्षप {047 9008 कात, रका संहितायाः कारस्तु आभ्रेयाग्निवेश्चयोः समय इति पूर्वमुक्त-
०. (धप्ा00९, १० 10606 मेव । काश्यपमेडादिनिर्दैशसंवादोऽप्युमेवाथं द्ढयति ।
{70€॥ {8र€ †0 {716 876}
7४६0. 7 1018 € 000६ 0 ला) 11९4168, आत्रेयस्स्वौ पनिपत्कारिक दत्यवोचाम । अन्ततो गत्वा तिन्ब-
{ण 100 20९8 3 16661460 ‰ऽ 9 51900870 करणपुर, तीयो पकथावरम्बनेऽपि बुद्धात्रार्वाचीन आत्रेयः सिद्धयति ।
^ अ 0 150 9 478) 1160168} 86160८८ 2. 125 अनेन पौर्वापर्यन्यायेन प्रद्युत आत्रेयस्य विद्याप्रभावो हिपो
ण प, प. 209द१931011 9९6, | क्रिटस्े्यके पतित इति वक्तव्यमायाति, न पुनर्घेप्रीत्यम्‌ ॥
(1 ) (66 28 अप्णीष्ष 10 17€ 97068 0 0द् । हिपोष्पिटसाच्‌ पूर्वोद्धवेन वेयेन दइम्पीडोष्धिस ( 76.
४ 6789 ल्वानणद-लि्, एलृ€-0, =एदलशत्व्डाप्‌ 2४, 1, {2018 10 &€€0€ ४ ५५०५४ €.£. 86४
(०98, 2्ाणाऽ 1०1९-9), लाए 9,ए प 2* 7116 ८९8 0 +€ {75180 पए फटा ह्ा0क्ा
018, 310दुधशा४ त, {ह881107108, ति81८0708, 24611100 706 ० 10 (€ (णप््पु 0 भलाष मी, एप 70 ग्रह
सिक््800, 100. 1९870808, ४००४) = (तप्र्टुपाप, । (०01६8 २5 €],
(141) तगर ० 4 पः 27601591 3९००६. ( 8०८९ )
प्रलादणोऽपा 10 4.007€0॥ {0618 ९. 202 च. वणप एण 9 8908010 [ल्भा 2. 42] 04.
11९01676. | 6. 7{४6601&]]
8. पाण्य, 8 ०त्‌ छहवानेडा वणः ० क्ण, &. -6.00070170् ४0 (शुर ४६41100, 791९9, 001६
70806 ण 776 एणातर€ते क =शुभत्€8 शत० 28 लोन), 000168, -4.018780188, 126000३ ४0 08 पणवाः
1086 &110. 8४. 9. 2. ¶०. 1 2. 584. 100 {07268 0 0हणश् (एणण€ 10 वलाः ४ शफ
उपोद्धातः । ८9
व + ^ सा त +

१००९३ ›नम्नाऽपि अध्यास्मविचा पूर्वदेशादेवाघीता, समैषञ्य- सताऽप्यनेन भारतीयवे्यानां समाद्रणं तदुदरारौषधिकरणमपि


विद्याऽपि तत एवाधीता स्थादिति; हिपोक्रिरसेनापि मैषभ्य- प्रयत भारतीयवैच्यकविक्ञानस्यैव स्द्धिमतिरेकं च साध-
विद्या भारतादेवाधीता इति च केचन वद्न्ति। हिपोक्रिर यति । भारतोपकण्डञ्मुपगतेन उेरियसेनापि हिपोकिटस्साप्र-
सस्य भारतागमनं गोण्डरीयटाकुरमहाशयेन निर्दिंष्टमष्युप- दायिकस्य सम्प्रदायान्तरीयस्य चवा अीसंवेधयकस्य. भरते
रभ्यते । ईइम्पीडोद्धिखस्य भारतोपकण्ठडपयंन्तमागमनस्य प्रचारणोपदेशनादेबरंतस्यारामेन स्वीये इण्डिकानाम्नि अन्थेऽ-
साघकप्रमाणोपरूम्भेऽपि हिपोक्रिटसस्य भारतागमने प्रमाणं प्यनुल्रेखेन च तदद्वाराऽपि भारते प्रभावपातो न दश्यते ।
किंरूपमिति पर्थवेक्लणीयं भवति । दहिपोक्रिरसेन न केवलं ्रस्युत उत्तरभारतमेत्य विनिवृत्ते तेन स्वीये त्रयोधिंहति-
स्वदेश एव, अपि तु दूरदेशं नप्युपेव्य विक्ञानानि सच्चितानीति म्न्थास्मके प्िकानाश्चि मन्थे इण्डिकाना्चि अन्धे च भारत.
विदुषां निदेशेन सवतो विक्ञानमधुबिन्दूधिन्वानस्यास्य पुरा विषये बहुशो निरूपितमस्ति । तन्न भारतीयगजकपिश॒कसा-
कारतो मेषञ्यादिविद्यासु प्रतिष्ठिते भारते तदुपकण्टे वाऽप्यु र्किाकीटरङ्गादिविषये इवं वनस्पतिविशेषस्यापि वर्णनं छतम्‌ ।
पगमो न खलु न सम्भवति, किन्तु स्पषटोर्रेखानुपरम्मेन भारते शिरोरोगदन्तरोगनेत्ररोगञ्ुखचणास्थिचणादयो रोग-
भारते तेन विद्यायाः प्रदानमिव साक्तादादानमपि नेव विशेषा न भवन्तीति च वर्भितमस्तीष्युद्छेखोपरम्भेन भारत-
निश्चेतुं शक्यते ॥ मुपगतेन इरानसम्राजो राजकुरुवेयपदे प्रतिष्ठितेनानेन भ्रीस-
यद्यपि प्रथमडरियखन्रपसमये (8. £. 521 ) डेमोके- व्येन भारतीयविषयसङ्ग्हे भारते पूर्वतः प्रतिष्ठिताया-
डिसनाग्नो यवनञ्चल्यवेयस्य इरानदेशे आगमनवृत्तं कभ्यते वेयकविद्याया विषयान्तराण्यपि विशेषतः सङ्ख्य स्वात्मा
तथाऽपि तत्सषमयस्य हिपोक्रिरसात्‌ प्राग्भवेन तद्द्वारा हिपो विनोदितः स्यादिति प्रतिभाति ॥
क्रिरसीयस्तस्परदायग्रभावपातशङ्काया अपि नावसरः! हिषो मास्तु हिपोक्रिटसीयवेधकम्रभावपातो भारते, किन्तु हिपो
क्रिटससमयादुत्तरं देरियसस्य अरद॑रीरमेमनून ( 41०67९९5 क्रिटसात्‌ पूर्वमपि अीसदेले प्रिनोसन्स जंफ्‌
एशलण000 23.04. 404-859 ) वृपस्मये 5. 0 चतुथेशता- प्राचीन कास (2९०0४008 0 0 ) फट
व््यामिरानदेशे भारतोपकण्डे च, मेगस्थनीजस्य ?. ©. चतुर्थ ग्रीसवेयक- प्रिरेरिकं ( 115 ल6066 )
क्ातान्यन्ते भारते उपगमब्रत्तं छभ्यते । तथाऽपि तयोः हिषो
क्रिटसस्यैव सम्प्रदायानुयायिवे साधकं प्रमाणं नोपलभ्यते । सम्प्रदायाः ट्र्पिडोड्िष ( 20160००] ) जिडोखं
उेसियिसेन हिपोकिरसीयस्य आर्टिंकुरेसननामकमन्थस्य सक्रद- ( 01005 ) इति चयः सस्परदाया आसन्‌ +
भिधानेऽपि तव्साम्प्रदायिकस्वमेवास्येत्यच्र साधकं नोपलभ्यते। यत्र डमोकेडिस 12¢70००९063 ( प्रश्तयः ) पाथागोरससम-
राजदौव्यमादाय भारतमुपगतस्य मेगस्थनीजस्य ्रीसवैद्यवे 1. 9. 8. ४०1. #{ 2. 882.
स्यपि भ्रीसवेद्यकविषयाणामुपदेशनप्रचारणप्रयोगाद्यल्टेखो 2. 6 9प्ाह्०्‌ {0516008 ग ॥€ 1005,
न काप्युपरभ्यते। प्रस्युत तेनापि भारतीयवेयानां प्रशंसनं ४0]. [ 2. 344. ण ©. पि. पिपपानु0तवापदृभ्न,
तदद्वारा वेदेशिकजनानामारेग्यसम्पादनसुक्ञिखितमस्ति ।वैयेन &, 06 7610028 0 (03 214 16 एि75{ एष्ण16€-
11105000, 60५6 1166 15 > 16४8 € ` 11510168] 96 ( ५16 टा 06०६ € | €811167, 81#00पद्0 000 816
0050 9 € अल्४ऽ 08510806 10 प€16९0 ॥प 5प्}00086त ६० € शशः] (050 पत.110006968 ) 510फ प्र
[पतान धजष्ड् पगादीष, एा98 10 #€ 64168 80100] ०9 ० हिष्ट =क्त कऽ
प्राण्‌ ततप तालम १०. 1 2. 22. 081 0 घ्€ 1878] 01500 ग 01369563, 68106081] ४0
ए 7. 9. ©, एण. +€ [0 0षणा्त 9 ४ 1949] 0८ ०० 1219 1356.
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४00 प्ो€त 1178 {110 71€0&€ 0 16616716 10 1018 4, 710176000165 10 ॥0पा3#€व 50006 क €मपालिः
90011 पाणक़ 0 4 7र90 1९41081 8न€1५€ 2, 190 1080 [10110क्पऽ, 88 ॐ 16016106 कः एकताल प्रक
ए त. त. 8098 119]66. & {0031078.70, #110ए६1 € 15 ०1160 म अभ ४76 प -
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८८ उपोद्धातः ।
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१1 ^ ५ 0 7 9 ५ ५ "+ नि ~ १ (नि त न
१ ४.४. ५ ५.५.

कालिका सैषञ्यविद्ासं आसन्निति ज्ञायते । तेषां प्रभावो यति !भरीसे सविज्ञानं मेषज्यं ८. 0. षष्ठराताब्दीत एवोप-
भारते पतितो वेति तर्कोऽपि नास्पदं रभते । तेषामपि पूर्व करान्तमिति भरो. ओसखर ( 087" ) विद्वानपि कथयति ।
सम्प्रदायानां हिपोक्रिटसात्‌ प्राक्‌ छतवषभ्यन्तर एव ससवमव- दिपोक्रिटसात्‌ पूतेषु तेषु सम्प्रदायेष्वपि भारतीयभषज्य-
गम्यते, नातोऽधिकतं प्राचीनखम्‌ । तेष्वपि सम्प्रदायेष्वेकः स इव द्‌ाहीनिकविषयादिसंपक्तता, भारतीयश्रब्दविरोषच्छाया-
एव प्राचीनो मच्रप्रधानः सम्प्रदायः प्रतिभाति । इतरयोदाश्ं दिकं चेदशानि भारतीयविक्ञानचिद्ान्युपरभ्यन्ते । यीसंवेध-
निकविषयस्च॑वङितव्वमस्ति 1 भारताद्ध्यात्मविद्यां भ्रीसे नयत कात्‌ पूवंतनतया भिश्चदेरो भेषञ्यविन्तानस्योपटम्मेन, मिश्र
पाथागोरसस्य समकारिकितया, तेन सह स॑म्बन्धवत्तया; ग्रभावपातवत्तस्योपलम्भेन च भ्रीसेन भेषञ्यविक्तानं भिश्नात्‌
पाथागोरससम्बन्धे वक्यमाणतया च तयोः पूर॑खम्प्रदाय- म्राप्ठमिति निदश्यते । भारतीयासाधारणचिद्धानि तु भारत-
योरपि केनाप्यंशेन मारतीयविषयसम्पकंदरक्षनेन ग्रीसोपक्षता स्याप्यालोकं गमयन्ति ! भीसे भेषज्यविन्ञानोदयस्य भिश्रीय-
ताद्शी वित्तानसम्बद्धता वान तथोपर्भ्यते । सुसानगरस्य मिव भारतीयमपि पूवंखोत इस्यु्लिख्यते विवेचकेः ॥ |
कारागारे दासैः सह निगडितेन ठेमोकेडिसेन इराननृपतेर श्वात्‌ उत्तरीयप्राचीनतरमूकसमभ्यतायाः श्ाखाप्रश्ञाखामेदेन
पतनेन विश्छथीभूतस्य पादस्य शसं विनेव यथास्थानं सन्धाने सवतः प्रसरणे पूवंशाखया मारते इव पश्िमशाखया ओसादि
नारोम्यसम्पादनाद्धाग्येन यश्सिविताया रामेऽपि तद्विषये
देशेष्वपि भंषज्यविक्तानं पुराकारदेव म्रचृत्तमासीदित्यपि
वर्णने शखाय्यपकरणैः परिपूर्णसाभावस्योल्रेेन तावत्पय॑न्तं सम्भावयितुं न शक्यते ।प्राचीनम्रीसमहाकवेहो मरस्य ओडिसी
हाखप्रक्रियाया असे अपरिपूर्णस्वावगमनेन च ग्रीसवे्यकस्य ( 00856 ) नामके प्रन्थे देवबलादेव रोगाणामुखत्तिः, तन्नि-
तदा प्रथमावस्था समर््य॑ते ! यदि नाम ग्रीसदेशे पूवत वृत्तिरपि देवप्रसादादेव; _पूजायक्तमन्त्रोपासनादिभ्यो रोगा-
म्रौढभावेन मैषज्यविद्या विरोषततः प्रावर्तिप्यत, तदा कथमन- निचतंन्ते इति निदेशो दश्यते ! तदीये इङ्ियिड, (1114 )
न्तरं हिपोक्रिटसः पित्रृपदञमुपारोच्यत । तथा पद्मधिषखूठे नाग्नि मन्थे शखकमणो छेशत आभा दश्यते, साऽपि बेब्टो
नानेन हिपोक्रिटसेन तदाखे ीसदेशे सविन्नानभेषञ्यविद्याया नियाप्रभावत एव सङ्क्रान्ता स्यादिति भेमरस्य (पर्णाः
सेशवावस्थैव समवबोध्यते। भ्रीसदेशे तदासे भषञ्यविन्तानं मतमस्ति । तदीये अन्धद्वये कच्रापि अन्तः पेयाद्योषधोपयोः
कीर्तनीयं यद्यभविष्यत्‌ , तदा मिश्रगतां मंषज्यवि्ां द्षटरा गादे रोगनिवृच्युपायतया निदेशो न दश्यते । म्राचीनकाल-
पर्यटतः पाथामोरसस्य विस्मयो ्ओोरसेन उल्किख्यते, सोऽपिं 1. इनला76 06410706, € ए0तेप्न 0 8 पपत
कथसुदभनिष्यत्‌। तेन तदास्वे देशान्तरारोकेन कासादिं 1ला7्ण साध 0011000, #9त 268 =केद्धाप 70 8 16109
स्थानेषु सविन्ञानयैषञ्यविध्याया नवोत्थानस्वेऽपि मिध्रादा- पदर०1९ (्ठपुप्पन०ठ ०६ 105 भात =न्णातान्रि०0ऽ काठ
विव कीर्तनीयावस्था नासीदिति पाथागोरसस्य विस्मयः सुच- 1€ अ1द्€ारउ 10 € शं (लफ्पा)€5) 08161. € (0
06058९6. 710 ४6 उ1000न५ ५९०३6 एददु1060 2 िप्पषटठ्म्‌ [0ञ्पलणा8 ० +€ प्ा0वण5, एण, 1 2, 829
4५४९ 6156९368 एप 0. वि. शपा्ोग््वारश्वः
प्र0०००८४८९ऽ ४०. 1. [एष्षठ्वपरना०प ९. +. 2, 4116 7 ध6€ कत रभा ४० 10 ॥ल्उनुभ॑क्षणा१,
1. तभ 9 61५८ ४०1. {# ०6 ‰. 180, 39. 060९, ४06 एवन अ ४8 ४ (0000800 0 106
2, 9. 2, ५०1, 1 ?. 584. 000प]४ 820 #0€ एक्णाश्न्‌, 90 ना एध्लपोक्षा अला, 0
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1797६116#06 पागल ० 1 पणरपलु ऽप्०तोसंव€व 116076706 70 ४06 तलत 8&€ प ्रप्ऽ 06 7९८०
80 51 एप्रा€ 19५ 0० पणः ए४तप्५९8 ( ति्००४प्३ | 860 &8 & 186 1९०00 वप्र 2 2, ४०.
„ 84) पाञणष्फ भ 0८666 0, प 2, 395 छ 2, 540. ॥
70068, = ए, ४, ‰. 2. १०1. ¶ 2, 540, .
उपोद्धातः ।
क + पिति किति पि जि)

धारणानुसरेण देवोपासनामन्त्राचुपायानामेव रोगप्रतीकारे शब्दाः भारतीयप्राचीनशब्दच्छायाप्राहिणो बहुशो दृश्यन्ते इति


पायतया विक्लायमानानां त्रेखे उपलम्भेन, तदीय एव रेखे 00700९० तीण महाशयो निरूपयति ॥
देवप्रसादान्मिश्रदेरेन रोगरमनोषधयः प्राप्ता इद्युर्रेखस्य ग्रीकभेषञ्ये तदेशीयपू्वेजातेः सिनोयन-( 17109" }
दर्शनेन, मिश्रविषय एव तावदुद्खिस्य स्वदेश्चविषये किमप्य- नाभिकायाः स्वच्छतानियमानां, मेसोपोट-
युक्ञिख्य मौनावरूम्बनेन च तावस्कारूपर्यन्तमपि भीसदेशे यवनेर्भार मिया-ऽसीरिया ~ मिश्रेरानभारतादिदेशेभ्यः
बेक्ञानिकभेषज्यविद्याविरेषस्यानुदयो दैशान्तरादप्यनधिगम तीयविष- शारीररचनान्तानस्य, मूतप्रेतादिभ्यो रोगो-
स्पष्टीभवति ॥ याणामुपा- स्पत्तिवादस्य, ओषधिरचनाचिद्यायाः, अने-
से पौराणिककथायां ( 01959०1 प्राण्य ) भेषञ्य- दानम्‌ कौषधानामायुदीयाचारन्यवहाराणां, लस्य-
वृत्तस्य दर्शनेऽपि सर्वं तन्नस्यं मेषञ्यवृत्तं न पूर्वस्रोतोविनिगत- सम्बन्धिश्खविज्ञानस्य चोपसदुग्रहणेन
मिति वाज ( 58 ) महोदयोऽपि निर्दिशति ॥ चस्वारि खरोतांसि तसरादुभावे आसन्‌ ,एतावन्तोऽशा अस्येति
भारतीयवे्यके ग्रीसवे्यके च बहशो विषयसाम्यं दश्यते
न परिच्छेत्तं शक्यतेः इति इन्साइक्रोपीडियाविरानिकाया-
हृति पूर्व प्रदर्ितमेव ।द्वित्रविषयविचारादिषु विभिन्नदेशवि-
मप्युर्रेखेन एतावर्तोऽशा इप्यपरिच्छेदेऽपि इरानवेचकस्येव
दुषां हृदयेष्वाकस्मिकोऽप्युन्मेषसंवादः सम्भवति } परमनेक-
भारतीयतरैयकस्यापि कतिपयानां विषयाणां म्रीसवेदकेप्र तिसं-
विषयाणामसाधारणविषयाणां चेकतोऽपरत्र भ्रभावपातं पिना क्रमणं स्पष्टीभवति ॥
साक्षात्‌ परम्परया वा मिथो यातायातादिसग्पकविशेषमन्तरा
एकस्यापरत्र विषयग्रतिफलनं दुर्निरूपं भवति । आर्यमन्यानां कस्मिन्‌ कस्मिन्‌ समये कस्मात्‌ कस्मादेलाद्धेषञ्यविद्या-
सम्बन्धिनां केषां केषां विषयाणां म्रीसे प्रतिसंक्रमणसुपजा- .
प्राचीनमूरसखरोतसश्छायारूपेण श्ाखोपशाखास्वनुवतनस्य मा-
न्त्रिकभेषञ्यप्रक्रियांशे प्रायः पूर्व॑मुपरुम्भेऽपि, श्ाखोपशाखासु
तमिति याथातथ्येन निरूपयितुं दुष्करत्वेऽपि भारताद्‌ आसे
सम्भाव्यमानानि प्रमाणतो दष्टानि द्वाराः
विभक्ताया वेक्तानिकभेषज्यविच्याया भारत इव भसे पूर्वतोऽ- तद्विषयालोकपाताय
गि प्रद्श्यन्त-
नुवृत्तेः साधकप्रमाणानुपकम्मेन अ्रीसवेद्यके भारतीयवेध्के च
दश्यमानं साम्यं भारतात्तत्र, ततो वा भारते, साक्तादथवा देक्ञा- 1. 0ष्राः ०९108] अश ०४९ 0पद्टा क पठता ४6
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म्भावो भ्यते । प्रत्युत पूर्वोपदर्षितदिश्ा भारतीया असा- {© ८७ ‰४]€ & ०180069 प्र€ अं ्ाकपोपिः ० ००065 ०३६
धारणविषयाः, भारतीयज्शब्दच्छाया, भारतीयस्वेन मुखेनेव 10 (ताण्ठप कपण फ, € पठता 0पलणमुक्प्रपह _
कचनोल्ञेखश्चेवमादयः प्राचीनम्रीसवे्यके दश्यमानाः सात्तात्‌ त € पल, ग0€ त पोञ० ० प्ल णभ 100
भिश्रादिदेशान्तरं द्वारीकरव्य वा भारतीयभेषञ्यविज्ञानस्य य॑ साप 84 सप्त.
कञ्चन आलोकं म्रीसवे्यके पतितमवबोधयन्ति ॥ 371700158111. ©. (लाहा
नारन्दाविश्वविद्याख्ये एषु रोगेषु एवं शसखचिकिव्साऽऽसी 301100110109, 0 @6€ा€०६पा
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हिपोक्रिटसात्‌ पूवैतनेन दार्शनिकेन हेराक्किटिसेन (प्र | क्चिखितं दश्यते 1 भारतात्तेन भेषज्यविन्ञानमपि गीतमिति
नगथपऽ ) 8. ©. ५०४ वं छिखिते पुस्तके वहुवारमृक्धिखितः स्पष्टरेखस्य प्राचीनस्यानुपरम्भेऽपि पाथागोरसस्य संस्था 5.0
पाथागोरसो ( 2५४५९०१5 ) नाम ग्रीखविद्धान्‌ 7. 6. ५८२- षष्टशताञ्यां स्थापिता इति; पाथागोरससम्मदायानुयायिनस्त.
४७० समये ग्रीसे सज्ञात इति ज्ञायते! तस्य पाथागोरसस्य दुत्तरवयोन्तेवासिनो दाश्चनिका एव तत्र प्रथमतो भेषञ्यवि-
भारते उपगमनं, भारतादाध्यास्िकान्‌ दाश्चंनिकांश्च विषयान्‌ त्ताने श्ल म्रावतंय्निति; तेषामेव विद्यायाः प्रभावो हिपोक्ि-
विक्ताय तेषां भरीखदेशले म्रचारणं च पोकाक्छ ( ?०८००1.९.) खोडर रसीयविन्ञाने पतित इति चोज्ञेखेन भारताद्धिधयाभारं नयत
( 3०४०९१९ ) प्रश्रतिभिः पाश्चाच्येरबहभि्भारतीयेश्च विद्टद्धिर- पाथागोरसस्यानुयायिनस्तनच्र प्राथम्येन मेषञ्यविन्षानाभिसुखा
दारनिका एव हिपोक्रिटसीये हृदये भारतीयभेषञ्य विक्तानोद-
1. 10069168 # 01. {¶ 2. 452 याय द्रारतां गता भवेयुः! पाथागोरसाभिधायिनः “पुस्थगो-
(४) £. 2706} 5४5! “€ 726 1184 32 ( {7018 )
रसः इति ग्रीकशब्दस्य संस्छृतमूलरूपं बुद्धगुरुरिति पोकाक-
४ 31६64 07: ४९ एपा008€ 0६ 8 तवृप्10द् प्र0०म]€026 ( ९०००५२८ ) कोरनुक ( 00०४"००० ) म्रशछुतिविदुषां निद
एष 0४०४8, 4.09 870068, 01110 294 046८3 10 कोऽस्ति । पाथागोरसीये दर्शने भारतीयवौद्धदर्छनस्य प्रति-
2.€ः2.708 08716 €11111611 100110807€8 30 1९९५6. फरनं वहुश्शश्चासिति । न केवरं दशने, अपि तु तदीये गणितेऽपि
पतांणतप इणुटप०पप ९. 288, 2३4; 2395 0९ त. 3. 89१४. माता माननम

(४) (6911. 1४ 13, धा 16 ( 10840193 ) ष्अंप्त 00 187 वहार९त 1४ तण एए, 2 1४ ए85 09 [0०
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भारतीयप्राचीनशर्वगणितस्य विषयसाम्यं दश्यत इति गोरसानुयायिनां दानिकानां भेषज्यविद्यासम्बन्धस्य हिपोः


डा. थिबोटमहाशयेन षिभूतिभूषणदत्तमहाकशयेन च छिखित- क्रिटसे प्रभावपातस्य च दर्नेन पाथागोरसस्यापि भेषन्यवि-
मस्ति। भारते तदास्वे प्ररूढानि दरशंनगणितादीनि बहशो जानवर्वं बहुशः सम्भाव्यते । क्रोटनस्थानस्थः अत्कमेदनो
विज्ञानानि गह्णानेनानेन दार्शंनिकविषयोपसन्टब्धा विरोषतो ( 41५10260 ) नाम पाथागोरससंस्थाया अष्यनुयायी भ-
खछोकोपयोगिनी चिरप्रतिष्ठिता भारतीया भैषज्यविद्याऽपि सीत्‌, वेयविद्यानुरागी स. हिपोक्रिटससम्प्रदाये पूर्णरूपेण
ग्रहीता बहुशः सम्भवति ! भारतीया मैषऽयविद्याऽपि स्वप्रभावं दर्चितवानिष्युर्रेखदरशनेन पाथागोरसस्यापि मैषज्य-
पाथागोरसेन ग्रीसदेशे नीतेति बेङञो ( 3०0" ) महाशयेन, वि्यासम्बन्धिनी . संस्थाऽऽसीदिव्यनुमीयते । पाथागोरसीयः
सुश्ुतानुवादभूमिकायां ६.1, भिषय्रनमहाशयेन, गण्डली विद्याविषयाणामनुसन्धाने मानवशरीरे मानयिकशारीरिकवि.
यठाङ्करेण, ५. प्र. सुखोपाध्यायेनाप्युर्ल्िखितमस्ति । पाथा- कृतिनिषत्तये सङ्गीतप्रयोगाद्यपायोपयोगः, जाङ्तिपरीक्षया `
&९०060771081 ४060767. 0 06 470 एनृ008०४, एद, 1, शारीरान्तर्विंकारपरिताने, पंशुमांसभक्षणस्थाहितावह्वेनं
प 11101 19010100 83071068 {0 एप08098, भऽ 80]१९0 ततो निवत्तनस्य श्रेयस्त्वस्‌ , आरोग्यसंम्पत्तये पथ्यविषये
फ़ ४6 प्र114008 8 16981 0 वहप्र९३ तभपालय, वणप समादरः, श्ारीरिकशक्तिवधंकोपायानु सन्धानं, भ्यक्तिमेदेन प्रक
0000 पाण 6 0०पनृप्ञण ग ए, इन्प्ण्ल्वला आ #्€ तिवेषम्यात्‌ सर्वेषामाहारस ्य नेकरूप्यमपि तु यथाप्रकृति तष्ट
ए९्6ः 70011050लः 0९व 118 10150011.8्011 10 {71679. धानम्‌ , ईदशा षिषया जपि रुभ्यन्ते इति; पाथागोरसस्यं
पतशणक्‌ 0 ताता कटणोऽ्त्‌ यावन्त आदेशस्तेषु शारीरसौष्टवमपादयितुं स्वानुकूरुपध्य-
0 1. 2. ¢. पमि. ९. न सेवनादिनियमपरिपारनोपदेश्ाय विशिष्टस्थानं दीयते हंति,
1. षण्णा, 43976 80नंलप ९०४9 1875 2. 297 पाथागोरससम्प्रदाये रोगनिदृत्तये अन्तरपयोऽयौषधप्रयोगापे-
2. 96९606८ 0 € 8.108.070
पी 2115080 1) प, तथा विशेषतः पभ्याहारविहारादिनियमपरिपारने, ओषधे उपः
| ९. 104 योज्येऽपि यावच्छुक्यं केपादिबाद्यशरीरोपचारे विशेषदिरसी-
3, प€ 2९90 11080006 ( 09०83 ) 100०6 दिति; 8. 0. ५३० वरं करोटनस्थानमुपेस्योपदेशान्‌ दातुं वृत्ते
178 पपध68 2० पाल कृ968 010 € =एश पाथागोरसे तत्रोपगतेखिशतजनेस्तदुपदेश्ं स्वीकृत्य ओषधोप
ण [779 ध, २०८० 71 #75 69 7 (९666 पगादपि पथ्याहारविहारादिपरिपा्नेन ज्ारीरस्वास्थ्यरक्ञ.
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उपोद्धातः 1.
९२ ^
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दयाया मीसे नयनं च २. ©. राय॑महोदथेन वर्णितमस्ति । भारते


याय शपथः कृतंइति; बहून्‌ देशान्‌ पथटन्‌ मिश्नदेशसुपगतः पाञ्चभौतिकवादवच्चातुभौंतिकवादस्यापि पूर्वकारादुपलम्भः,
भ॑षज्य-
पाथामोरसस्तन्नागन्तुकानामपि ग्रहणलारसोपपादक अनेन एर्पीडोवलिसेन चतुभूतवादस्य ग्रीसे अभूतपूवं नवप्र-
विचया्रचारनिरोषं टरा विस्मयमव चेति; क्रोटनरदेशे पाथागस्यो- चारणं, नवभेषज्यसग्प्रदायस्यपप्युद्धाचनं, हिपोक्रिरसेन तद्भ्यु-
स्तेन सह सङ्गे न पाथागोरससाम्प्रदायिकस्य मीरोनामक
पगतचातुमौतिकशरीरवादस्य ्र्याख्यानं, तेन पूवंसम्पदाय-
जामाच्रा उेमोफैडिस-( 2९५०२९०९ ) नाम्ना प्रवर्तितो भेष- त्रये आवापोष्रापविधया परिष्छत्या च स्वसम्परदायस्योद्धावनं
ज्यविषयकः सम्प्रदायः 2. 0. तृत्तीयचतुरथशताअ्चोः प्रचलति
चावगम्यमानमनेन हिपोक्रिरस्पूर्वजातेन एम्पीडोक्टिसेन सा-
आसीत्‌ इति च ग्रोदुस ( ५०४९३) विदुषा निर्दिष्टतया मैष- दशेनविदाया
स्यसाखसम्बन्धिन उपदेशान्‌ ददानः, तदुपदेश्चम्राहिभिरादि सताद्धारतमेत्य किवा इरानद्वारा भारतीयाया
यमाणः, मिश्रे मेषञ्यविचयो्षतिं दृष्टा प्रहृष्यन्‌ › भैषज्यसम्प्दव दार्ीनिकविषयसम्पृक्ताया भैपञ्यविद्याया अष्युपादानं
स्यादिति निदृशष॑यति !एतद्द्वाराऽपि भारतीयं भेष-
दायभ्रवर्तकस्थ डेमोकेडिसस्य स्वान्तेवासिसम्बन्धं समागमं च विहितमेव प्रविषठ, हिपोकरिरसीयहृदयेऽपि सङ्क्रान्त मवि-
वह्नय पाथागोरसो भेषभ्यविन्तानस्यापि समादतां ज्ञाता प्रव ञ्यविन्चानं भसे त्य
त॒मर्हति । एवसुपकणेन इरानभारतादिप्राच्यदेशानुपे
वैविता चासीदिति समर्थितं भवति । भारतादाशेनिकविषय- या वा पाश्चाच्यदेश्ोपसंक्रमणे
गाहितया मिश्रगतभषञ्यविदयादरषतया चोह्ञेखाद्धारते मिश्र भारतीयविधयाथाः साच्ञास्परम्पर
ग्रीकविद्वासः पूर्ैतिवृत्तेषु निरीयाव्‌-
चाऽऽातसवेन ज्ञातस्य स्वासथ्यसम्बन्धिभिरबहुश्च उपदेशोस्तद्वि द्ारभूता अन्येऽपि कति
यामिरचि प्रकाशयतः पाथागोरसस्य सैषञ्यविषयविल्ञानविशे' स्थिताः, विदधतिघत्ता वा मवेयुः। स्पष्टोररेखं धिना न परि.
घाणां सद्धयस्तद्विषये विस्मयमावहतो मिश्राच्‌, एतद्टिषये
च्छेततं शक्यते ॥
न केवरं पूर्वकारे, दिपोक्रिश्सस्य पश्चाप्समयेऽपि भारतीय-
ूर्वकारादेव प्रतिष्टिताद्धारतादपि सञ्नातो भवितुमर्हति । इस्थं
च म्रोद॒सनिरदिष्टानां तदीयोपदेशगतस्वास्थ्यसम्बन्धिविषयाणां व्यवहारदर्शनाथ ॑मुपेतस्य इविमेरसस्य ( 2,९"०1४5 ) निदश-
नेनापि पूर्वपरम्परानुबृत ्तं भारतीयसभ्यताम्येतुं ततः पू
भारतीयायुर्ेदे रुभ्यतया हिपोक्रिटसीयभेषज्यवित्तानेऽपि भार स्युः) पूतो भारतोप-
तीयतैद्यकविषयसाम्यस्य बहुशोऽनुसंहितस्वेन च भारतसम्ब- मपि कति ग्रीसदेश्ीया भारतस्रपेताःभारतीया सभ्यता स्वदेशे
न्धमनुदक्च॑यता पाथागोरसेन साक्लात्‌ परम्परया वा भारतीय- कण्टमधिष्टितै्वा यवनैः॥ कियती |
विक्ञानालोकेन पौर्वकाक्किं सितमिति श्रतिसंक्रामिता स्यात्‌
न केवरं असदेक्ीयानां भ्राच्यदेरे आगमनम्‌, अपि तु
समर्थयितुं हृदयं पुरः स्फुरति ॥ भारतीयानामपि विदुषा वैद्यानां च पाश्चा-
किञ्च, हिपोक्रिरसाच्ातिपूवं असे वतंमनेषु च्िषु भेषभ्य-
तसम्प्रदायेषु एकतमसम्प्रदायग्रचतंकस्य पएुम्पीडोक्िसस्यापिं भारतीय.
स्वदेशेषु उपगमने, नयनं, प्रेषणं समा-
हरानभारतोपकण्टम्रदेशपयन्तमुपगसनं, विदुषां द्रणमुपदेशने चेवमादीन्यपि पूरतिघृकतषु-
ग्रीसोपगमः पटभ्यन्ते-
1. गू 9» इलाध एत्‌ 9 ४९७८ 261066८8 (0
7. ५. 930 सामयिक्स्य प्रविद्धगायकश्य अरिष्टारररि
सिप ) चाट पणता क पपकएलय, ए०प्ात कलप प्यस्य अरिष्टोक्सेनस ८ ^191०>€0४5 ) नामकस्य रेखतः
श्थरटेऽ एक 9 उण 0. एक 00) 10 =एक09दुत88 206 0 सदेशस्य एथेन्सराजघान्यां वर्तमानेन सोकेटिस-(६०५५९ 7.
छन जला, 80गणटु ४ एल्छपहः ताल, गभ ४1 ०05€- 0.५69-299) नाम्ना प्रसिद्धेन दार्शनिकेन सह मानवात्मविषये
‰810069, ४§ £ 10९0 0६ पण१०,. तदीयसिद्धान्तमुपहासरूपेण प्रतिवदतः कस्यचिद्धारतीयस्य
पि9णप 0 ७९९०६ प्ण, एष्र ?, 22967015. मिथ जाध्यासिकसम्भापणस्यावगमेन, 1४56४०७ विदुषाऽपि
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उपोद्धातः। ९३:
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मात्‌ पूर्वमपि भारतीयविदुषां ्रीसदेे उपगमः, ओसभाषाया नानां दशा उन्मीङिता भवेयुः । विजिगीषया भारतमभ्युपेत्य
विज्ञानं, ग्रीसदेशीयग्रसिद्ध विद्भद्धयोऽपि भारतीयानां विचारः कञ्चन प्रदेशमपि विजितवतो यबनेशस्य अरेकव्जेण्डरस्य
गौरवं च स्पष्टं प्रतीयते ॥ क्षटिति प्रतिनिवतंने चिरकारात्‌ प्रोषितानां स्वसेन्यानाम-.
शान्तिः केवर न हेतुः `प्रतीयते! अपि तु स्वसेन्यज्ञण्णं पूवां
यत्खलु राष्टूमात्मानभु्िनीषति तत्‌ तदासे विद्यादिभिः गमनमार्ग परिहाय नवेन नौमार्योण स्ञटिति म्रतिनिवर्तने
सश्ृद्धानि राष्टरान्तराणि दूरतोऽपि पयार मुद्राराक्तसोक्स्यालोचनेन किञ्चन कारणास्तरमपि स्यादित्या
द्रज्ञेकज्ेण्डर- चथयति ।स्वस्य गौरवाधानाय तेषां वित्तान लोच्यते । भारतं मविष्टस्यापि यवनैक्ञस्य क्षटिति प्रतिनिवतं-
इस भारता. विशेषान्‌ सचेत प्रयतते च | सयुन्नताया नोल्टेखेन तदाते चाणक्यसाचिन्यसुपेतेन चन्द्रगु्िनाधिष्टिते
देशान्तसीयविच्यायाः सुयशषःप्रसरणेन अन्तरान्तरोपजातानाधातानपि विषह्य स्वपू्वंसम्प्रदायरत्तण-
लोक्प्रसार;ः
परिचयं माषावित्तानं प्रयोगानुभवसापफ शीरे भारते न तथा यावनप्रभावस्य प्रसरणमुपलच्यते ॥
स्यमनु श्रद्धाविश्रासातिश्चये तदीयग्रन्था उपादीयन्ते, तद्विद्‌ "तकरशिराकाश्युञ्जयिनी विदर्भादिषु भारतीया विश्वविदा.
संमान्यन्ते, तदीयभरक्रियोपादीयते । बहुपूर्वसमयात्‌ समुन्रति- ठ्या आसन्‌ । अरक्जेण्डरेण तक्तशिराया आक्रमणसमये
पदमारूढं भारतीयं वैथकविक्तानं श्रवणारोकनक्ञानपर्यारो तक्षरिला समस्ते पएक्षियाखण्डे सर्वातिशायि भारतीयविद्या-
चनसमादरादिपूर्वमुपादातु म्रीकादिवेदेशिकविदुषां पू्समया- पीठमासीत्‌ । तत्र सर्वाः कराः, सर्वाणि वित्तानानि, सेनिकीं
देव भारते खमागमनं न खल्वाश्वर्यावहम्‌ । विज्ीगीषुराष्टरम- विद्यां, मेषज्यविद्यं च श्िकरयद्धि्बहुमिमहाविद्रद्धिरधिष्टितो
भिगम्यराष्टाणां बरवीर्यसभ्यतापरिस्थितीः प्रथमतो विविच्येव देशदेशान्तरेभ्यः समागच्छुद्धिवेहुमिविद्याथिभिश्च सखद्धो महान्‌
पादौ प्रसारयतीति भारतमभ्यागच्छुतो यवनपतेः प्रागपि भार विश्वविद्यालय आसीत्‌; यो भारतीयविद्यानां भरसिद्धतरं
तीयां परिस्थितिं यथावद्ववोद्धमनेके विचक्षणा यवना अत्रो स्थानं बभूव । तत्रापि सर्वां विद्या अतिशय्य भेषम्यविद्याया-
पगताः स्युः! भारतोपकण्टमधिष्टितेर्वा यवनेरधिभारतं यव- मस्य विश्वविद्यार्यस्य विशेषतः प्रसिद्धिः प्रतिष्टा चासीत्‌ इति
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उपोदातंः ।
का काका छ + + ^क ^ 9 +

वि्राण्ट ( ए एण्या ) महाशयो वर्गयति । “तक्ता लितमस्तीति रासन ( २०६०१ महाशयेन वर्णितं रुभ्य-
मह्तसेन्नविश्षीला नगर्थासीतः इति एरियन ( पाध ) ते । ख कल्याणो विद्वान्‌ भ्रीखपर्थन्तमपि गत आसीदिति
महारायोऽपि निर्दिशति ॥ म्याक्समूरूरमहारयो वर्णयति । एतदेकं निद्र्खनमपि भार-
= सिन्धु्मीपरथमूषकराञ्यवणने तद्देीया जनाः १३०
तस्य तद स्वेऽष्याध्यास्मिकं गौरवं फियदासीदिति द्यति ॥
वर्षपर्यन्तमपि जीवन्ति स्म । तेषामेवं दीघायुष्यस्य परिमिता तेन स्वसेनायां स्वेषु यवनवेचेषु॒सस्स्वपि ` सर्पविषचिकि-
हार एव निदानम्‌ । विचयान्तरेभ्यो वें्कविद्यामेवध्येतु ं ते त्सायास्तेषां क्तानाभावेन सपतिषचिकिर्सकानां भारतीय-
प्रवणीभवन्ति? इति अरेक्जेण्डरस्य इतिदासेखकः एरियन्‌ वैद्यानां, रोगान्तंरभैषभ्येष्वपि क्रियाकौशलातिशशयदर्शनेन स्याद्‌
( 482 } नामको वदतीति हिमिथमहाशयो वंणंयतिं । सूष- भारतीयवेद्यानामलेकजेण्डरेण स्वे स्कन्धावारे . स्थापनस्य,
कमरदेरो च्िशदधिकशतवर्षायुष्यस्यासाधारणतया दच्च॑नमखे- स्वदेशं म्रतिनिवतंमानेन तेन यवनाधिपेन भारतीयविदुषां
$ ४५ क ( % `

वनेण्डरस्य विन्धुप्रदेश्चपर्थन्तम्‌ागमनं चात्र मूषकम्रदेश्स्य 1. 00१०९ ताण ० 10० एण्‌, 1


विरेषोल्छेखे हेतः स्यात्‌ । ष्टरौवो (8५४०) महाज्ञयोऽपि ए ए. व. 1ब5०२ ए. 259; 381.
धृ ल १०००४ एप्ञपल तला कल [00 €त6 1० भणत 116, 2. 0 भपपालः8 पतितम 9 8००8. [7४.
छ तलु प्राह ग ०९५५०८१ पुवं वर्णयति । पाथागोरसादी-
२. 158 ( २, 0. ५. )
तिवृत्तान्तरेभ्यो भारते आध्यास्मिकादिविदयान्तरेष्वपि गोरः 2. {€ §6५1€0९€ 6001४९4 †0 ¶6प्र?91) १०४४ #0 #€
वस्य स्पष्टतया विचयान्तरपिकलश्रा सैषज्यविक्ञाने तेषां पूणत्व- ४ € 0६ 16 (ट्नु.8 7 [001४ ( 827 ए. ©, ). 4192,
मेवानेनापि खेखेन प्रकरीक्रियते । अन्येषु बहुषो भारतीयः "06 (ट्लर 0150010, 10 वटञ्लभ ४४८ च्व्प्वाप्नि० णी
विद्वससु अजिगमिपस्सु अरेक्जेण्डरेण तच्तशिरातः सादरं सह {०4189 84 {॥1€ ॥110€ 0 (€ 1005100 0 416 9०4€८ 06
नीतः कस्याण-(ापप्भः५)) ९000०५९5 98 3107065 एप ४96
७ १९९.४, 7९75 10 & (प््०णऽ 196}, 010 कलीन 20
{6६3 11164 ४12 ए219.005) नामको भारतीयो दार्शनिको
8१811 ५८६१1१01 #€ [120४ ए0कजन०३ 9 16 तन्न,
र्वान्‌ तं साधिपतिं परितो बतंमानेपु दुरनिकविद्रजनेषु 4165.820€7 १.10. 113 म ऽग्न एप्मीलं०+ दाट्ल :
सर्वमहत्तरोऽति संमान्यश्चासीत्‌। पश्चादेहजिहासया चितामारो- 011 9101809, 10 {1636 18त 0 0001688 लोप 11्णााप्ति
हतस्तस्य म्रीसाधिपतिनाऽन्तिमसंमानगीरवमतिशयेन व्यधायि 0 १6६] का 09568 ण 50 भर€-ए07४६, णप 0007000 17
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उपोद्धातः ९५ |


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.सादरं सहनयनस्य, मागे सवदेशसुपेस्यापि सर्पदष्टानां भारतीय- तत्तदपदेशेभ्विव दविष्ेषु पयंन्तगतेषु सीरियामिश्रमेकडोनिया-
हारा चिकरित्सनस्य च तवीयत्रृत्तत उपरम्मेन आयुरवैदीय पश्िममिश्रेपिरसयवनकम्बोजादिदेरेष्वपि भारतीयधर्मप्रति-
प्रभावः पश्चादपि ग्रीसदेशचं प्रविश्षज्नाखोकष्यते ॥ | छापनमश्लोकेन विहितमवगम्यते । कार्चक्रव्याख्यायां विम॑ल-
न केवरं पूर्वंकार `एव, पश्चादपि अशलोकनृपततिसमये म्रभायामपि बुद्धनिर्वाणोत्तरं तत्तदेरोषु तत्त्दाषासु यानत्रयपिं
| तदीयत्रयोदश्लसंख्यरिरारेखानुसरेण अष्ट टकत्रयबौद्धमन्थानासनुचादेन धर्मम्रचारो निर्िष्टोऽस्ति । तत्रापि
भारताल्लोक- योजनक्षतान्तरारेषु अन्तियोक-(योन) पारसीकदेश्चस्य नीलनद्यत्तरे स्क्मदेशस्य चोल्खेखोऽस्ति ॥
| | ग्रसारे यवननरपस्य ( 41001108. {९05 ©, © ` अशोकनृपतिना न केवलं धर्मविजयो धर्मानङ्िष्िश्च
छक्षोक- 261-246 141 ० शः ), तुमयसस्य उधायि, अपि तु तदीये शाहावाजगदीप्रदेशस्थै-
` ्िल्लालेखः ( 01608608 111206110105, 108 सवत्र विजिते देदानां प्रियस्य प्रियदरशिनो राशो
१ एध १8६५-2५7 8, 6. ), अन्तिको
ये चान्ता यथा चोडाः पाण्ड्याः; सत्यपुच्रः केरलयपुघ्-
ननृपस्य ८ 4४४६6005 001९168 01 }190600}2 ) ‰78-239
2, 6. ), मगस्य (10१९४ 0 „1९06 0 6 एल
स्ता्रपणीं अन्तियोको नाम यवनसजो, ये चान्ये
ए 61९ 258 2.6. ), अटीकसुन्द्रस्य ( अर्कूजेण्ड-
|. तस्यान्तियोकस्य सामन्ता राजानः, सर्व॑ देवानां
रस्य ) ( ^€ 0 एप 214-258 8, ८. प्रियस्य प्रियदरिनो राक्षो द्धे चिकित्सते कृते मनुष्य-
मतान्तरेण ^1९29.14€7 ° (01101 252-१44 ए. ८. ) च चिकित्सा च पशचिकिरसा च, श्रोषधानि मनुष्यो
देशेषु यवनकम्बोजेषु नीचचोरुपाण्डयताम्रपर्णीयद्रदविषवच्र- पगोनि च पश्षगानि च यच्नयन न सन्ति सर्घ॑च-
नाभकनाभप्रान्तभोजपितिनिक्यान्ध्रपुलिन्दादिष्वपि अद्ोकस्य हारितानि च रोपितानि च । मागेषु वुत्ता रोपिता उद्‌-
धमेविजयो धमानुरिष्टिश्च उपरम्यते । एतद्रेखतो भारतीय- पानानि च खानितानि प्रतिभोगाय प्शमवुष्याणाम'
| इतिहितीयशिररेखे अश्चोकेन भारते तत्तसप्रदेशेष्विव भारतवबहिः
1 1१9८3 इति नियाकंसेन कथितमिति छिखितमस्ति ।
4187115 {0108 अन्धे, ५424 कल्मपऽ ६3 23, 084
भूतेषु अन्तियोकस्य यवनराजस्य तस्य समन्ताद्रतिनासन्येषां नू-
पाणां च देशेष्वपि सनुम्याणां पशूनामपि दिविधाश्चिकित्सासंस्थाः
^162:.14€7 180. 21} € 054 शमा ० € 1041805
11 116 1681108 भट ९नहनल्वे =कत्णपाति 110, 8त 186
प्रवर्तिताः, मनुष्याणां पश्चूनां चोपयोगीन्यौ षधान्यपि व्यवस्थापि-
तानि ओषधिधृक्ताः फरूमूा दितस्वोऽपि यथापेक्तं सर्वत्र नीता
, ९४५९6 001910द्ं०४ #0 06 0846 {ए०प््ा०प 06
रोपिताश्चेति रेखेन भारत इव बद्येषु अन्तियोकादीनां देशेष्वपि
-त्काण]) पमी 1 कपृणणट कला प्ट 96 8प्ण्पात प्ठृभाः 0
तदापर्यन्तमपि भारतीयचिकित्सापद्वतेमारतीयौषधानां च
{116 ८08] ६९०४, एप \0656 रलाफ 82016 11610 ९ 81}
अपेक्तणं प्रवर्तनं प्रचारणं च स्फुटीभवति । चयोदशे धर्मविजय-
0 (प्रा& 006८ 615९8568 820 8105 8180. ‰, 223
शिरारेखे अन्तियोकेन समं तमंया-ऽन्तिकोन-मगा-ऽलीकसु-
इति नियाकसस्योक्तेरुदारोऽस्ति । एतडेखतः आधुनिकाआहि तुण्डिका न्द्रनृपाणां चतुर्णां स्पष्टमेवोर्रेखोऽस्ति तत्र अषटशतयोजनानि
इव ते नासन्‌, अपि तु अष्टप्रस्थानान्तगते विषतन्त्रे इव भंषञ्यान्तर- | परितो वतंमानतयां च तददेशानां निर्देशो दश्यते । हितीये
विघास्वपि विन्ञानवन्त आसन्‌ , डटृखा भारतीयवैधा अलेकजेण्डरेण शिरखेखे अन्तिथोको यवनराजस्तु नामग्राहं गृहीतोऽसि ।
स्वयमगृह्यन्त अनायिषत चेति प्रतीयते । केभ्निजदिष्टरीगते एतच्ेवे |
नियाकंसोन्तेः "पा ५९86 पाप 506 16) स€6 21016 10 १. “इह तथागताभिसम्बुद्धे भगवति परिवृते सति सङ्गीति-
. 06 कलः त1368568 216 9105 2180. वक्याुपलम्भः केवल- कारकेयानच्रयं पुस्तके छिखितं, तथागतनिययैन पि्क्यं मगधमाषया
माहितुण्डिकमिव प्रतिभासयन्‌ कौतुकं जनयति । सिन्धुमाषया, खत्रान्तं संस्कृतभाषया, पारमितानयं मन्त्रनयं तन्रतन्ता-
(४) 45012, भ, 4, अप्रा ?. 188; = . न्तर संस्कृतभाषया प्राकृतभाषया अपञ्चंशभाषया संस्छृतदावरादिम्ले
(0) 4801९ [धत श््प पत (पापल 2. 166 | च्छमाषया इत्येवमादिः सर्वञदेरितो धमौः.-सङ्गोतिकारमैरिखितः ! `
(५) .-45०1०9, . -. 88009 2. 45-46 तथा बोटविषये यानत्रयं बोटमाषया छिखित, चीने चीनभाषया,
२.८.“*""देवानां प्रियस्य .यो धरमविजयः स च पुनछब्धो महाचीने महाचौ नभाषया, पारसिकदेशेपारसिकमभाषया, `शीतानच-
देवानां प्रियस्येहुः च सवेष्वन्तेष्यष्टखपि योजनङ्चतेष, यत्र अन्तियोको नतर चम्पकविषयभाषया, वानरविषये (वानर )`भाषया, सुवर्णाख्यं
नाम यवनराजः परं च तस्मादन्तियोकाच्चत्वारो राजानस्तुरमयो' (सुवण ) विषयमभाषया, नीखानयत्तरे स्क्मविषयमाषया, सुरम्मा- `
माम, अन्तिकोनो नाम, मगो नाम, अलीकसन्दरो नाम, -नीचाः विषये ( सुरम्मा ) भाषया, एवं कोटिकोरिग्रामास्मकेषु षण्णवत्तिविष- `
चौडाः पाण्ड्या एवं ताञ्रपर्णीया एवमेव हि दरदाः, चिषवञेष्‌. यवनैक्‌ येषु ( षण्णवति ) विषयमाषया किखितम्‌ । एनं द्वादशचखण्डेषु `स्वग- `
म्बोजेषु नामके नाभकम्रान्तेष भोजपितिनिक्येषु अन्धरपुखिन्देषु सवत्र मत्येपातारेषु नानासङ्गीतिकारके्यानत्रयं छिखितभ्‌ इति ।
देवानां प्रियस्य धमाँनुदिष्टिमनुवतेन्ते । यत्रापि दूता देवानां प्रियस्य कारचक्ररीकायां विमरप्रमायां ताडपत्रीयायां ४४पृत्रे, ॥॥ |
न यान्ति तत्रापि श्वुत्वा देवानां प्रियस्य धम॑वृत्तं विधानं धमानुरिष्टि 2" णिइलएिणणड ० ^+०६9 एषु प्रिण्डश, २, 51, 66.
„ धमरमनुविदधत्यनुविधास्यन्ति च" इति त्रयोदसः रिलङेखः। - २, अनयोद्ितीयत्रयोदशरिकालेखयोः सौरियाधिपतेः अन्तयोः
९६ उपोद्धाकः ।
[9 (हि ~ +^ 9 0 0 एक क क क 00000000 णी नि जी ती

अन्िषां तु थे चान्ये तस्यान्तियोकस्य सामन्ता राजानः “भारतीये असीये च प्राचीनवैचकविक्ताने बहुकः साम्यं
. इति तस्य समन्ताद्र्तितया सामान्यत एबोररेखदर्शनेऽपिं दश्यते । तत्र मरीसीयचिन्नाने मारतीयविज्ञानस्य प्रभावं केचिन्न
अत्तियोकसाहच्याद्धौगोलिकटष्च्या सीरियाप्रदेडो परितो मन्यन्ते, केचन संशेरते; तद्धिस्मयावहम्‌ । हस्तरिखितप्राचीन-
वर्तमानतया सामन्तस्ौचिव्याच्च त्रयोदश्चशिरारेखे अन्ति- पुस्तकोपरम्भात्‌
प्राक्‌ प्रिद्धप्राच्ीनभारतीयग्रन्थानां समया-
योकेन समं निर्दिश ये तुम॑यान्तिकोनमगारीकसुन्दरनरपाः, वधारणं दुष्करमेवासीत्‌। परं भारतीयानां विन्षानककरादिषु
त एव अत्रापि राजान इस्यवबोधिता भवेयुः । मरीसाधिपते बहशः शाखासु परनिरपेत्तभावेन विचारः, देश्ान्तरविन्तना-
जरेकजेण्डरस्य प्राक्तनतया अश्ोकसामयिकनृपान्तरः सहेकका- रोकस्यावधीरणं चासीत्‌ । भारतीयभेषञ्यधिषयकेऽन्वेषणे
लिकलाभावेऽपि भारते आगमनेन पूर्वैः परिचितस्य अलेक्जे- अस्वे बहशो भारतीयविषयाणां भारतोपन्ञभाव आसीदिः
ण्डरस्य पौर्वकाटिकं सम्बन्धं कचयीक्रत्य अलीकसुन्दररब्देनात्र व्यसौ पन्ञो बहुभिरङ्गीक्रियतेः इतिः (भारतीयायाः भ्राचीन-
प्रसिद्धं ग्रीसाधिपमसखेवजेण्डरमुपादाय ग्रीसदेशो इत्यपि बोद्ध {000 1116 प्क11687 (1716 #0 1800, 866८005 {0 106]1॥11€
शक्यते । परं समयवेपम्येण नृपान्तराणां तत्सामयिकतया 1116 700८6006 0 € 010 {0418 1/€4190€ 00 #6 014
अत्र अरीकसुन्दरकब्देन म्रीस्ाधिपतिमखेक्जेण्डरमनववोध्य 1द्€]र {€641006, € 0026010८ 0 ५०6 2768604
अक्ोकसामयिक एपिरसप्रदेश्चीयो मतान्तरेण कोरिन्थप्रदेी- ल्म छलतवोमे०९, एणं फप्णणेण्ड ध ण पणाः
योऽरेक्नेण्डरो गृह्यते पेतिहासिकेः । राजान इतिपददर्शनेन 16 1188 {0 101 113 0010100 82 ऽथप़ 4118 2४ 38
अश्लोकसमकाङिक एवारेवजेण्डरः स्याव्‌ । तथ स्वेऽपि अषटश्त- 62980090] #0 8प]070056, 81{10पद्0 01600 00007000
योजनान्तररेषु परितो देशेषु घािकम्रभावपातस्य, सीरियाया 6९1460८6 28 201 १६६४ 0660 42860१64, (2 "010.
समन्ताद्वतेषु देशेषु भारतीयभेपञ्यग्रस्थानस्यापि विशेषत प. 11€ 01181068 0 #846 एर = ४06 ४०
्रभावपातस्य, ग्रीसपू्ेखोतःस्थानत्वेनमभ्युपगते मिश्रेऽप्येत- 0००४168, 800€ [001९466 0६ € 00108 0६ +€
सप्रभावारेकपातस्य चास्माच्छिरखारेखद्रयादयगमेन, मीसस्य 10909५5 9 {1019 05 19ए6 7661060 1176 लकाः
मिश्रसीस्यिोपान्तवर्तितया, एपिरसको रिन्धप्रदेशयोरपि त लोप (ल्लः लीरा, 00 प्रा गलाः 906 90 ४
-म्सान्तःपातितया, ्रीसेन भारततदीयविद्ययोः परिचियस्य 1४४€८ 6710 ग 130 ( €#€ 10९85160 0 4168
श्राप्ततया, ओ्रीसाध्यात्मविद्यायां भारतीयदर्हानप्रभावोपरुम्भेन, 006: {४06 (लेण ) ल पलाह्०ा)8 0लौकल्ट ६ ४0
हिषोक्रिटसनाम्ना उत्तरोत्तरं अन्थसङ्कलनस्य तदूमन्थेष्वायुवै- 00प†प3 0608706 वुप#6 01056 ० 66 एतु6 प क.
-दीयविषयसाम्यस्याप्यवगमेन च दादानिके धार्मिके च विषये 0प्र; 9 एल {07 ऽशाः 0८०५९६५ 6०8, [0पध 106
इव भेषरपविन्ञानविषयेऽपि स्तात्‌ परम्परया वा अशोकसम- €697]26८ (ए 0 13 {€7104, ४5 0698 17000 106
येऽपि भारतीय आलोको ्रीसेऽपि विभाग्यते। तदातेऽपि ०६8 0 पतए०णक्ौ€३, 010800प1068 पतै 08162,
-भारतीयायुवैदविय्यायाः, भारतीयचिकित्सापद्धतेः, भारतीयौ एकषः10प्ऽ पपुः ४00 71617005 0 +1€०४060४ =60910१6५
षधघानां, भारतीयवद्यानां, भारतीयवं्यकयन्थानां च पाश्चाच्य- 0 06 05५४8 9 1019 का 26010160 0 106
देशेष्वपि कियानारोकः कियद्वा गौरवं चासीदिस्यवचोधः 1078011000€18 9 071660९.
पर्याप्तो मवति । पनी" ठपल४म्‌ कर्प ५८€ एण्‌, 71 2), 425-426.
'अद्यपय॑न्तं साधकविरोषानुपरम्मेऽपि ्राक्ठारे भीसभा- 1, कवलणणल्टूलः 883६-6 अप्ीष्तीप ए6कष्€प
रतयोर्मिथो यातायातवाणिज्यसम्बन्धदर्ष- {10190 &26 (ल्लः ८6410106 ° ५06 {९0100 28 70 18
| ग्ीसभारतयोः नेन भारतीयकेयकविन्ञानं ग्रीसेशीयानां 09116 804. 10 एल{श्ा तरला 80 अपप्णट 094 1 33
.पुराकालात्‌ श्रुतौ पतितं प्रतीयते । अलेवनेण्डरसम- 19८0 ऽपां ५0४ 06 गज्काणम् 9 #€ [णण
. सम्बन्धः यतस्तु बहूकारपयन्तं म्रीसभारतयोर्घनिष्ठ 185 7ष्वुप्छाङ्ग एव्€प पुप्ट०पल्ध 0 6५60 वक्पलत्‌, 06
सम्बन्धस्यावरामेन, दिषोक्रिटस-ख्यास- 71076 80 28 13 'ए€ 8106€ #0€ ५868 0 € 01016
कोरादडिस ( 71080०16 )्यालनादीनां खेलायनुसन्धानेन 10010080 10418. 0९8 € 7४60 (0 ॥0€ =&1690630
चच नानाविधोषधानि रोगनिवतंनपद्धतयश्च यानि भारतीयभि- 07८, 219 06०6 #€ ०07860्छमए 0 6 09
चम्मिर्म्यवहतानि, तामि अभ्यासिभिर््रसतिभिषग्भिरुपात्तानि ९066 एडप्प्ञला08 ॥ल वपल 1496, |
प्रतीयन्तेः इति बक ( 5० ) महाशयो निर्दिशति ॥ {प 600शवदाक्ीतप ०६ #6 ०पऽद्ता 70060८ात€०४
-कस्यैव यव्रनसजवेन निरशादलीककनन्दरस्य तथापेनाभिर्दे्ाञ्च 261116१€00€008 0 06 10418४5 10 10080 79001063 ती
-पूपेकाठे सिभियाप्रदेदयतजातेरेव यवनद्चब्देन व्यवहार आसौन्नमु 8076086 ‰4 क्न, ४०१ 0 त्रालोए 8्टाऽ100 = 000 गलं
इति प्रतीयते! साम्प्रतिका तु यवन्चब्डैन यका एवावबोष्धन्ते 104९०५6३, ४ € प्रणत ज गणः ध५-पप, 1४066 एप
इति धारणाऽस्ति ! विचारणीयमेतत्‌ । ६०६०४ त800ग्रश768 18 20 शष्ठ्पा ० 76 जगपद्टणभप ०
1, [98भ0008 0 4300४ तिपाप्टऽ० 2. 6661 ` [एदा 06016106 170 108 7309 5911604 8 प्ा8.
“ ‰. प्छ 70 [918 090, 06 अक 9 शतन दरप्पलाषटध, तिश्णपा 0 धद्मनह रण्‌. 1 २, 48.
उपोद्धातः । ९७
क, क + ^ ^ [का + का^ 0

जषञ्यविदयाया आछरोचने तदीयगूढविचारसूच्मबुद्धिविकासरेख- श्रीयुतरमेशष्चन्द्रदत्तमहाशयेन स्व॑कीयपुस्तकेऽपीत्थं कि-


सौष्ठवादीनामनुसन्धाने तदीयं स्थानमस्युच्चमासीदिति ज्ञायते खितं वर्त॑ते ।
दति च न्यूवर्मर ( पर्णाशः ) विद्वानपि वणंयति ॥ उत्तरकारेऽपि भारतीयतै्यो मंकनामकः अरबाधिपतेः
पाश्चस्यदेशेः सह भारतस्य पुराकालादेव मिथः परिचय ( खरिका ) हारनभरूरसीद्‌ ( ^. 7. 700 ) नामकस्य राज-
सम्पको व्यवहारश्च आसीदिति हरोडोटसफीरोष्टटसुप्रश्टतय कुखसुपेव्य तदीयरोगं निरवारयत्‌ , चरकीयविषतन्त्रस्य पर
प्राचीनाः पाश्चाच्यविद्वांसोऽप्युक्ञिखन्ति । जेसोडस्‌-आफिसे यनभाषायामनुवादं चाकरोत्‌ › इति; 39€ ( ज्ञस्य ) नाम-
नस-अश्िकेनस-दत्यादिप्राचीनतत्तदाचार्यसंगरहीता रेखा अ- कोऽपि भारतीयवैद्यः खकिफाहारनभरूरसीदस्य राजङुरे आ-
प्येतदेव द्रढयन्ति ! प्रथमशताब्दीभवस्य प्ठेनीनामकस्य ग्रीक- सीत्‌, स प्यारिष्टाद्नम्रदेदरे गखा तत इजिष्टग्रदेश्चमुपेत्य
विहुषो रेलादपि भारतीयानां वनस्पस्यौषधानां योगौषधाना- तत्रैव देहं जहौ, इति च आरणन्यविदुषा इन्वजसेवनाम्ना निर्दि
मपि विक्रयाय म्ीसदेडे नयनमित्यादय उपलभ्यन्ते । भ्रीस- 0.७, व &ाल्€ुऽ कल€ा€ ४०९८ 001९ 1९001 {८00 0001
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१३ काण्डम
९८ उपोद्धातः ।
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मस्ति । एतदहशंनेन इतः पवंमपि कति भारतीया चिह्टसो न्तराणामिव सात्तात्‌ परम्परया या .मारतस्थाप्यधमर्गभावं
वेद्याश्च दूरदूरमपि प्राप्ताः सस्माव्यन्ते ॥ भजस्थेवेति प्रतिभाति, न पुनः पश्चाहुदित म्रीखस्य सविक्षाना
तदेवसुपदक्षितदिद्ला पाथागोरसादिससमयतः समये समये भैषज्यचिद्या पूर्वतः प्रतिष्ठिते भारतीयायुरवेदयैदयके ठेशतोऽपि '
बहूनां मीकजनानां विखारुन्धये मारतोपगमस्य, भारताद्धार- आलोकग्रदानाय वभूवेति अप्रतिहतं दशंनसुन्मिषति ॥
तोपकण्ाद्रा भारतीयविषयाणामवगमस्य, भारतीयविदुषामपि महाविदुषा हिपोक्रिटसेच भैषञ्यविषये देशाम्तरेभ्यः म्रक्रि-
केषा्चित्‌ पूवंकाराद्‌ भ्रीखदेश्ोपगसमस्य, भारतीयचिदुषां तत्र यान्तरेभ्योऽपि चा उपयोगिनो विषयान्‌ निरीच्य स्वीयदिचार-
समाद्रस्य, भारताश्निवतंने भारतीयवेयानासतिशयाचुसम्धा- निकषोऽज्वलांश्च विषयानुपादाय भैषञ्यविषये अघ्यु्तमा निव-
नेन रीसाधिपतिना स्वदेशे नयनस्य, अश्लोकसमयेऽपि तदीय- न्धाः सम्पादिताः! येनासौ पाश्चास्यदेश्ीयवेद्यकस्य पितृपद-.
शिरखरेखानुसारेण पाश्चाच्यदेशेषु मारतीयमेपञ्यम्रस्थानम- मध्यतिष्टत्‌ । हिपोक्रिटसचिचारे ये विषयास्तदीयपरिषकितवि-
व्चारस्य चेतिष्ृत्ततो रुमेन, हिपोक्रिटसनाम्ना प्रसिद्धानां सर्वेषां चारोद्‌भूताः स्युस्तेषु तदुपद्छभाव एवच स्यात्‌ । परं ये भारती-
ग्रन्थानामपौर्वकाङिकव्वस्य पश्चादपि विकसितविक्ञानसयानां यायुबेदविषयसंवादिनः शब्दा विषया विचारा वा दृश्यन्ते तेषु.
खेखानां तत्र सम्मेरुनस्य विद्टद्धिः परिदृष्टतया, भारतीयवेद्यके सात्तात््‌ परम्परया वा मारतीयम्राचचीनवेयकस्यव प्रतिफटनं
भओसवैचकासाधारणिङ्गालुपरम्मेन, प्रस्युत भारतीयवैयकच्ु- वक्तव्यं मवति । पूवंतनवाद्यदेसीयभपर्यसम्प्रदायानां भारतीय-
यारिङ्गानां भ्रीस्रैयके बहुश उपरुम्मेन च पुराकाटादेव पूर्वाचार्यैरनुखृतस्वे भारतीयमपूर्वाचार्य्॑रन्थेरपि बाद्यसम््रदा-
मिथः परिचियमितस्ततो यातायातं कर्वद्धिः पाथागोरसादि याुरूपेरेव भवितव्यं, न च तथाऽर्ति । किन्तु पूर्वोपदरित-.
भि्भारतीयेवां भारतीयभंषज्यविक्वानं न्यूनाधिकरंशैः समये रीत्या ( प्र. ६२-&५ >) एकमूषानिषिक्तनानाग्रतिमावदेकस्या-.
समये मीसवे्यकस्य शरीरपुषटये सम्पादितञ्युपर्च्यते; हिपोकरिः मेव भूमिकायां निष्पन्ना एता विभिम्ना निवन्धनाकरतयः श्रा-
टखसमयतस्ततः फियतोऽपि पृ्॑समयतो वा उदिते वेन्ञानिके चीनायुर्वेदीयादेकस्मादेवा्षंसखोतसः समुद्‌मूतमात्मानमववोध- .
असभेषन्ये मिश्रवेव्छोनियादिभराचीनदेशान्तरविन्ञानानामपि यन्ति । टतः पूवंतना अप्येतस्स्लोतोगता आषंग्रन्था विषर्य-
प्रभावो न्युनाधिकम
विन पतित्त एव, किन्तु म्रीसमेपञ्यं देदा- विभेदेऽप्येत्तत्खोतःपातिन्येवच्रत्या वतमानाः स्युरियनुमो-
16113 ३ 184 {€ 7६६8, ५10८ 10415{00860 8711164 यन्ते । ततश्च दहिपोक्रिरसेन मरवर्तितस्य पूचंतनस्य वा ग्रीस-
#0 (6 8गुए01505 ( 31100808 ), 10, एष रकाद, वेयकस्यारोको वेदकारदनुस्यूततन्तौ इतिहासतो भौगर्भिक-
६110 €ष्€ा). 7016 190 ॥प्रा190. 10818, (0प्रः€0 1246६ ट्शा च तदिदधिगुणपूवकारेऽपि ग्रौढतां दशयति भारतीयायुर्वेद्‌-
70110 2410070 0 (प्ा९. [10501468 710 ष्टे 30 1 वेके पतितः स्यादिति वच्छ जिह्वा ्रतिरध्यते ॥
८9} (टषप्रःफ &. 0., 25 ५1८ 1109 =(नु०प्रड पप्पठपा ०४ यद्यपि पञ्चसहसखवस्सरात्‌ पूवं उयौतिषविद्यायाः समुत्पा-
€ ला) 9 1166169 ० ४€ 2206048, ०५. 07, 0 दका अपि भारतीया एवेति पाश्चास्यविद्रंसोऽपि बदम्ति । परं,
093 770 90 €.€ उ0तृप्ाप् एण [0 प्ल ती गरीसदेशे ज्यौतिषवियौन्नतौ द्ितीयश्चताब्दीभवस्य कस्यचिद्य-
018 19619 1164169 ऋऽ 3160. 17000. ४0€ =001€ 206 वनविदुषो भाषामयो जातकम्मन्थो चिचारगौरवेण प्रसरन्‌ भार
€+ ०५६११ 11९61८9 ° +€ प प७. 116 3911686 02.71ए तीयेरप्यादररणेन देववाण्यामन्‌दितो यचनज्ञातकनाम्ना भा
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उपोद्धातः | ९९

जीविदुषामपीयमेव दृष्टिः । हिपोक्रिटसस्य भ्यायामरुभ्यज्ञारी


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श्चात्तना ज्यौतिषाचार्या अपि यवनाचार्यं निर्दिशन्ति । कार-


क्रमेण यावना रमरुताजिकादिविषया अपि भारतीयं विक्ञान- रहितादिवाद्यत्तानवजमान्तरशारीरक्तानं विशेषतो नासीदिति
मनुप्राविश्षन्‌ । एवं रोमकसिद्धान्तोऽपि भारते प्रसिद्धि प्राप। किटरे ( 4716 ) महाशयस्य मतं योटसोऽप्युल्लिखति 1 हिपो
प्राचीनवे्यकविषये स्वयमंशो यावनः प्रसाद्‌ इत्यत्र न किमपि क्रिटसीयम्रन्थे अंशत एव शरीरकन्लानं दश्यते, तदपि मिश्रतः
साधकमुपरभ्यते । वैचकविषये प्राचीनः कोऽपि यावनोऽति- प्राप्तमिति ग्रीसेतिदृत्ते ङभ्यते । गरीसे अस्थिधमन्यादिविषय-
दायः सस्पकैः सहयोगो वाऽभविष्यत्‌ , तदा शारीरके शर्यप्- सानस्य प्रदश्णकः पूवंरेखविशेषो न रम्यते इति कीथंमहाश्च-
क्रियायां कायचिकित्सायासौषधेषूपचरेषु अन्यासु वा वेधयक- योऽपि वदति । सुश्च॒तसच्छः प्राचीनशारीरकम्रन्थो भ्रीसदेे पूर्व
प्रक्रियासु काऽपि यावनी प्रतिच्छाया प्राचचीनभारतीयायुर्वेदय- नासीदिति व्यानजीमहाशयोऽपि निर्दिडाति ॥
न्थेषु सुतरामरुप्स्यत ॥ साख्वे्यकस्य काश्यादिपूवंदेरे प्रवृत्ततया भारतीयपधि-
आत्रेयकश्यपादयः पूवांचार्याः काङ्कायनो नाम बाह्वीक- मविभागे तक्षशिरादौ कायचिकित्सा वित्तानस्येव पूर्वं वर्तमान-
भिषक्‌ , बाह्ीकभिषजो वा, बाहीकास्त्वपरेः इत्यादिशब्दे तया पाश्चतच्येः प्रथमतः सत्रिङ्रष्टात्‌ प्चिमविभागतः कायचिः
काङ्कायनं नामतोऽन्यांश्च बाहलीकवेयान्‌ बाद्यानपि ससंमानमा- कित्साविक्षानमेव नीतं, समयकमेण पूर्वदेशेऽपि स्वग्रसरणसम्प-
चार्यभाषेन निर्विशन्ति । `आत्रेयकश्यपाभ्यामप्युक्ञिखितोऽयं कपरिचयाद्‌ाबुपजाते तत्रत्यं शखवेयकविन्ञानमपि पश्ान्गीत-
बाह्वीकदेशः म्रीकानामाक्रमणात्‌ पूर्वं बल्षखनाम्ना प्रसिद्ध मिति देतुको विचारविशेषः कस्यचिद्विदुषो दश्यते । परं तत्रेद-
रानप्रदेशषः। तदात्वे तत्रापि वेयविद्यायाः समुन्नतिः, साऽपि मजुसन्धेयं भवति,ः--शखवेधकसम्प्रदायस्य . कािराजेन
आत्रेयाद्यक्ताचा्यविरोषविमश्ंश्रेण्यां काङ्कायनस्य निर्देशद्धार- दिवोदासेन प्रतिष्ठापना प्राधान्येन काश्यादिपूर्वदेशीयस्वावग-
तीयवेदयपरक्रियातो नातिचिसंवादिनी केवरं तत्र तत्र विषये मेऽपि आत्रेयमेडकश्यपादिभिरपि धान्वन्तरा इतिबहूवचना-
विचारविशेषमाच्रमादधती प्रतीयते । सुश्रतव्यास्याकाररेखस्य न्तशब्दविरोषेः अस्थानान्तररूपेण निर्देशात्‌ कायचिकित्साप्रधा-
समूरुते तु सुश्रतचा्यंसतीर्थ्यश्रेण्यां काङ्कायनोर्रेखेन बाह्वी- नेषु स्वोपदेशेष्वपि शसख्चिकित्सासम्बन्धिनां कतिपय विषयाणां
कभिषजां वर” इनि निर्दिष्टे काङ्कायनेऽपि भारतीयसखोतोगतमेव सूचनाचच अआत्रेयादिभिः कायचिकित्साविज्ञानेनोऽञ्वकिते
वे्यकचविन्तानं स्फुटीभवति ॥ पथ्िमप्रदेशोऽपि शखवेयकविज्ञानं म्रचकितं, तत्साम्दायिकाश्च
एवमपक्षपातं सबहुमानं बाद्यदैशविदुषोऽपि आचार्यक वहव आसन्निति च ज्ञायते । तक्तशिखायामध्ययनेन विशिष्ट-
निज्ञिप्य गुणग्राहितां कतन्नतां निदशंयन्तः कश्यपात्रेयादयो वेदुष्यमवा्चस्य जीवकस्य महावग्गाद्‌ चुक्ञिखितः शखचिकि-
भारतीयाचार्यां भारतीयवे्कं यवनाचा्यैः प्रभावितं चेत्‌ कथं स्साकोशरातिशयस्तत्र शखचिकित्साविक्तानस्यापि उक्करषं
तान्नाम्नाऽपि नोलिखेयुः ॥ स्फुटीकरोव्येव । सुश्रतसंहितायां दिवोदासशिष्यव्वेन निर्दिष्टा
यद्यपि शरीरवतां स्वास्थ्यसम्पत्तये न्यूनाधिकेन येन केनापि सुश्रतसतीथ्यां नानादेश्चीया अप्यवल्ुभ्यन्ते। तेषु शल्थविषये
| रूपेण भेषञ्यमिव राज्यसम्बन्धेन मिथो राज्ञां विशिष्टतन्तरकवतयोज्ञिखितेषु स्वेन सह चतुप्वांचार्यैषु पौष्कला.
भ्रोसे श्चख- संमर्दस्य पुराकारादेव स्वषु देशेषु जायमान- 1 [7४0९ प्15॥0ा 0 0166९66 (क 6०168, |
४0]. [४ 2. 325.
-सैद्यकस्य प- तया तदनुषद्धेणाहतभरत्याहतोपचाररूपं शय. 2. (ला€ 81 8हप्का9्‌ 6207868 10 ४06 60]€न्00,
-अादत्पचार; चिकिस्सनमपि केनचिद॑रोन पुराकारेऽपि 0 100 € 61651, 0 प्णपतऽ ० ४0€ ९०, 08९७
| भवित॒म्ह॑ति । होमरर्खतो भ्रीसेऽपि शखवै- प 16 छतु एष का 2 40 ९, 2. ©, 1 ०३
द्यकस्य आभेव प्रतिभाति । तथाऽपि भारतीयं भैषज्यविन्ञानं 90770763 10 व्टतभ्नण एदुष्ए0एण एष 04 192 न
नयद्धिः प्रतिसंकामयद्धिवा पाश्चास्येः पाथागोरसादिभिः काय- 1 ष्फ 06 0 एष्व ०प्द्वा०. 8. 23. एण, उ 2. 588
चिकित्छाविन्ञानं यथा प्रथमतः प्रतिष्ठापित, न तथा वैज्ञानिक 16 वरली०106 ९१1०९८८ ग वलोक्षलं00 ( 06४, 17628
शखवेयमपि 1 तत्त कायचिकित्साविन्ञानोदयस्य पश्चात्‌ समया- &110. 76९06 ) 25 1€0त6&€व 91711057 110708.00708016
न्तरेणेव ग्रीसे प्रचलितं प्रतीयते । मिश्रदेशे 5. ¢. वृतीयशता- थाप ए 9086006 0 आपू श्ण ल्लः 1513 ग
ब्यां सविन्ञानं शखवेद्यकमासीत्‌ , म्रीसदेरोनाऽभूतपूवं शखवे- 068 ग € प्रा 004 ४5 760०060 10 ४2 (दाश्लर
द्यकं 8. 0. प्रथमशताब्द्यां मिश्रदेश्ादधिगतमिव्युल्रेख उपल- इप्रादुलप. पाणु त 8808, [7 4. 2. ल 2. 514.
भ्यते । हिपोक्रिटसीयरेखादपि तदाष्वे तस्य शिराधमन्यस्थ्या- | 4. 2० अप्पा ग 09ल्णण्काल्मा वकमप९७, शपन्‌ =
दिक्ारीरकत्तानं सामस्स्येन नासीदिति प्रतीयते । ©. 2. व्यान- 83 € 711 70 ¶1€ पपी०४5 ग (भार, 96 उपवन
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40 एकणौप्पं& [भला 15 प्रला€ कण 0280069; 16601 ण ५. ओौपधेनवमौरभरंसौश्वतं पौष्करावतम्‌
(प्रा9) 0158९000 6 ०& 7900560 एत "06 66९8 देषाणां शव्यतन्ताणां मूलान्येतानि निर्दिशेत्‌ ।
(तलालणंड 1 4+पनलण- 1041-6, प. ए8ण]1 2. 191 | स॒श्वतसंहितायां ५ अध्याये
खयोदातः ।
१००

प्रौढतरतां दृष्टवता गुणगौरयः स्वदेशं समेधयितुं प्रयलवत!


ककव

वतस्योदरेोऽस्ति। प्राचीनगान्धारराजधानीसवेनावगम्यस्य
महता मीसाधिपेन अखेक्नेण्डरेण गान्धाराचार्यपौप्कलावतस्य
पुष्करावतस्याभिजनसम्बन्धं चहश्नयं पौष्कराचतौ भवितुम-
सुश्चतस्यापि वा खम्प्रदायेन तक्तशिरूपुष्कलावतगान्धारादि-
हति । वदीयोऽपि सम्प्रदायस्तक्चिकापरिसरे प्रचकितः स्यात्‌ । प्रदेदोषु सद्वस्य वैत्तानिकशखवे्यकस्यापि विशेषतः समाद्र
अतैपगवोऽप्याचार्थः पश्चिमग्रदेशीयः, वाहवीकभिषक्ाङ्ायन द्रव उपथ्हणं च विहितमिति भारतीयचिकिव्सकानां स्वे स्कन्धा-
ओरओओो ऽपि आधुनिकभारतद्राह्यः पश्चिमोत्तरप्रदैशीय इति
वारे स्थापनस्य स्वदेशो नयनस्य चेतिवृत्तं व्याख्याव्येव ।
पश्चात्‌ तकैयिष्यते । एवं द्चैनेन तक्षशिरागान्धारादिपरिसर-
सौश्रुतसम्परदायस्य तत्राप्रसरणाभ्युपगमपकतेऽपि विषयेभ्यो विरज्य वनस्थवृत्तिभुपाददानमाध्यास्मिकविद्वासं
देशोऽपि
कड्याणं ( 919०8 ›तक्तशिानृपतेः प्रेषणग्ररणसाहाय्यमप्यु-
पश्चिमतः प्रसिद्धेन संभावितानामेषामाचार्यान्तराणां सम्प्र
दायैरपि शखतैयकविक्तानसमद्धतामात्मनोऽवगमयति । जीच- पादाय स्वदेदो विद्यागौरवाधानाय नीतवता तेन रोकोपयो-
कस्य तक्तशिरायामध्ययनसमये तद्भुरूणा विहितस्य कपारुभे- गिनो विशेषतः संमर्दठृत्तिमी राजभिरपेक्तणीया शश्लभिषजः ।
दनस्य तत्रापि जीवकस्य विशेषद्े्च जातकग्रन्थात्‌ , ततोऽ- कायचिकरित्सका अपि वहुल्लो नीता अवश्यं भवितुरमहन्ति
धीर्य निश्रतेन जीवकेन विहितस्य कपारुमेदनस्यापि महाव- अखेकजेण्डरेतिषृत्ते इत्थंभावोपलम्भः, ?. ५. ३२७ वष भारत-
्गङ्खतोऽबगम्यमानतया तत्तशिरायामूध्वजन्चुविभागीयका- समुपेतस्य अरेकरेण्डरस्य प्रस्यावत॑नन्मरणादण्यनन्तरसुद्धारि-
खक्यविक्ञानस्यापि प्रचार आसीदिति वक्तुं शक्यते । तायामखेकजेण्डियायां वै्ञानिकशश्वेयकस्योद्रतिदर्श॑नं चं
8. 0. ३२० वै भारतमुपेतस्य अखेक्लेण्डरस्य प्रव्याव्तं- मिथः समेत्य तन्नापि भारतीयप्रभावपातं गुणाधायकं न कि
नान्मरणादष्यनन्तरं 5. 0. २०४ संवत्सरे मिश्रदेदो अरेक्ने- ग्रत्याययति ॥
ण्ड्यायामुद्ार्ति सदग्रहाट्ये (1४५५००५ ) हीरोफिर्स इरानदेशे मिश्रदेशीयेशिकिस्सकैः प्रथमडरियसनृपतेधि-
( पनणपाचड ) एरासिष्टरेट ८ ए ०अ7४४प३ ) नामकाम्यां सिव्सनघ्रत्तस्यो पटम्भात्‌ मिश्रदेरो 8. 0. वृतीयश्षताब्दीतः
शारीरकन्तानखम्बन्धिरेखारनां स्थापनं कृतं, यत्‌ ^. 0. द्विती- पूर्वमपि शदरयवैद्यकमासीदिति प्रतीयेत, परं तेषां तत्रासफर-
यश्ञताब्दीभवेन म्रीसविदुषा म्यारनेनान्विष्यापि न प्राक्षमि- तावत्तं तदीयामवस्थामपि ध्वनयति । मिश्रे पौर्वकाछ्िकिस्य
्युर्छेखो'दश्यते । ग्याटनेनापि मिश्रादेव शारीरविक्लानस्यो- श्ारीरकविक्तानस्य निदनं नाप्युपरभ्यते । सच्वेऽपि तत्र
परुब्धेः, विषयान्तराणां चानुसन्धानतो मिश्रदेशे तृतीयज्ाता- मारतीयः ्रभावः पश्चादशंयिप्यते ॥
ष्दीतः क्ञारीरकस्य शखवे्यकस्य च चिशेषज्ञानमासीदित्यव- ्रीसदेशोपरुञ्धप्राचीनमभूर्तिषु मांसपेश्चीनां यथावद्ङ्कनद्‌-
गम्यते ! मीसदेशीयेषु मिश्वदेश्ीयेषु च शल्यवे्यकशस्त्ेषु भार हनिन तन्न शारीरकन्लानं विशेपतः पुराकारदेव आसीदिष्यपिं
तीयद्ल्यतरै्यकरखाणां साम्यमप्युपरभ्यते ।प्ीसवेयकशखाणि तकित न शक्यते । चित्रमूर्तिषु मांसपेश्ीनामङ्कनं त॒ भारते
सुशचतोक्तशखालुरूपाणीति 9. प. संखोपाध्यायोऽपि जवीति । सुमेरियवेव्छोनियादिप्रेशेष्वपि पूर्धकारुत उपरुभ्यते । चित्र
हररोऽप्येवसुक्लिखति । तदिद्‌ दश्यमानं साम्यमपि भारती- मूर्तिषु बाह्यपेश्यादीनामङ्कने सौष्टवमसोष्टवे च चित्रकलायां
यश्चखकरैयकस्य येः कैध्िदंशेः अभावपातमनुमापयति ॥ दोश्रमक्छौशरं चावबोधयतः। आन्तरशारीरकावयवपरिज्ला-
भारते इतस्ततः प्रौढभावेन वतमाना नानाविद्ाः, नस्यापि सद्धावे चिच्रकरायां गुणाघानमपि सम्भवतीत्यत्र न
विरोषतो विधयान्तरेभ्योऽपि शल्यवेयकविभागीयस्य कायचि- कस्यापि विमतिः 1 परं यथावचित्राङ्कनदशंनमाच्रेणान्तः-क्ारी-
किस्वाविभागीयस्य च सैषज्यवित्तानस्य तक्तरिरादिप्रदेशेषु र्कावयवानामपि विरेषक्तानं करपयितुं न शक्यते । शखवेध-
1, (9 ) 1४18 ००# प्रतत] अतलः 76 वल 0 41९९-
कोपयोगि शारीरकविक्तानं स्वान्तरं सूच्मं वहुविषयोपचंहितं
एवल #0€ अदा 80 106 109 त ल कवप्रहट्प्यण
विभिन्नमेव 1 अदयत्वेऽपि चिच्रकखायां निष्णाता अप्यान्तरशा-
& ^16ध10ए8 ( 304 8, ©. ), धा धल हा 20810.
रीरकल्ञानविनाक्ृताः, अन्तः्षारीरकन्लानपूणां अपि चित्रनिर्माणि
अङ्कृतहस्ताश्च बहुशो द्यन्त एव । बाह्यमान्तरं चेदं वित्तानं
प्णलोऽ, ादशाभप्छ 20 पतलाणएणापञ प६००प९त (रलः
परथक्पुथकप्रस्थानरूपमेवेति एकतो विक्ञानदशनं विन्ञानान्तर-
078600प्श7९8. 70 06 प्व1€ 9 6816४ 700€ ग (ए फणा]
16118116 € {814 प्रलाहणशण, 10 ^.7107600 12678 मप्यवगमयितुं न प्रभवति ॥
९, 192 ©. त. ए816ा]1. यः खलु मिराण्डरो नाम ग्रीसदेशीयः साकेतपर्यनतं
( 0) भटर कऽ 16 0४56 00 पत70००९४९, भारतमभ्येत्य पश्चाद्‌ बौद्धघर्ममग्हीत्‌ , तदीयवृत्तसम्बन्धिनि
लाट 13 00 तणप्रणी मौ +€ क76क्भलयत् ग 02856०00 0 मिचिन्दप्रश्ननामके बौद्धपालीग्रन्थे यवनाधिपं मिराण्डरं
€ प्रप्र 000 10 प्ल 61९5० 8०00018 ०7 त.९१०- ्रसयुपदेदे धन्वैन्र्यादीनाुर्लेलश्च पूर्वं (पर. २१ ) प्रदित
एणाण्ड 820 काढ अ४४08 7 76 पपात (दलफैप्मत 2. 0. 1. कपदप४१०, करका, 40783 810 हषा...
; एिभण्पु ० 8 [नोप्रभापपह ९. 514-.4. 2. हल. „4... 41] लल ॥ल०ला४ [ा०कणहु च्मणणद्णिङ 9०0
2. 8िप्प्न्डा [परमप्णालछ 0 06 त0तपड, | ० प्€003€ुर९७ 82 कारध0प्र णक 001188100, प्ल पा
०1. 7 2. 3422348 पि 0. प, प्णगृष्वाणष्म, 0 0)3९85€ 800 1४8 ०४प६€ &00 2भप्ः€ ९.26 एदा
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उपोडातंः | १०१
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एव । बाणविद्धबणे मांसविङ््यां त्रिदोषघरद्धयाउवराद्यतपत्तौ एवमेव डयज ( 7192 ), डाक्टरहश्चवबगं ( 71, 175०1106


यथा चरणं शखेणावकायं क्तारादिभिः संशोध्य र्पेन शोथं 7६ ), डाक्टर इुरेट ( 1, प्रपणा<+ ), डाक्टर वाद्‌ (7?
निवर्त्य शखचिकित्सका भिषजश्चोपचरस्ति, तथा विधाने न प्ा5€ ), विटूनी (फणध्ण्छ ) प्रभृतिभिम॑दोदयेरपि समर्थितं
पापम्‌, अपितु खोकोपकार इति दृष्टान्तविधया वणोपचारे वतते ॥
शखचारने ्णवन्धे च तदीयाः सूच्मा विशेषाः, स्थरे स्थरे प्राचीनानां मीसदेश्ीयानामन्येषां च बहूनां विदुषां रेखा-
विरेचनरोगोर्पत्ति निदानौषधप्रयोगादीनां बहूनां वं्यकविषया- प्राचीनयिश्रे चसन्धाने ग्रीसवैद्यकस्य मूलं सिश्रीयं `सरोतः
णामुल्खेखाश्च तत्न सन्ति ॥ भेषल्य- प्राघधान्येनावगभ्यते ! ग्रीसे वे्ानिकवेयको-
ए. ५. ६०० वर्षपूर्वमपि भारतीयभेषञ्यविद्याऽतीवोन्रता- विज्ञानम्‌ दयात्‌ पूर्वमेव मिश्रे वेानिकं वैचकं प्रति.
ऽऽसीत्‌ , शखचिकिस्तनम्‌ , अस्थ्यादिक्तानं, शारीरककौशं शितिमुपरुभ्यते च । देशसम्निकर्षोऽपीदं सङ्गमयति । तेन
चासीदिति; भारतीयप्राचीनवेयकथन्धेऽपि शारीरकविन्ञानस्य मिश्रीयभेषज्यविन्ानवीजेभ्योऽपि रीस तदीयनवाङ्करा उदिताः
विषतो विवरणं सर्वषां विस्मयावहमुपलभ्यते इति; हिपोक्रि प्रतीयन्ते ॥
टसीयसम्भवाये शवच्छेदनविद्याया विवरणं न रुच्यते, टेरिय-
लवा] 28€ ~ [70090 ५16 ऽग्न व्टचपार् एरदणाः€ (प-
सस्य भारते आगमनमपि रभ्यते, भ्रीसीयह्ारीरकविक्ञानस्य
8४--8त {€ ए6८पा19 ०617043 0 वशीणप्तेणः.
मूटं भारतीयशारीरकविन्ञानमिवयेतन्न प्रत्याख्यातुं शक्यते
{6106 07 400४ 1018-2. 1, ९०] [1
इति चेवमादयो भारतीयवे्कस्य गोरवोर्रेखाः हानरु( 5०.
एर तितध0९,
९01९ ›महादायस्य बहुशो दश्यन्ते ॥
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एण्‌. हषा 11. पत500 06 9 `86110 8४5110९ क 10]€ 71848.
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१०२ उपोडातः ।
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मिश्रगतं सैषञ्यविन्ञानमपि केनापि देशान्तरविक्षानेनानु- इन-पेपिरसस्य प्रायः ए. 0. 1850 मयस्‌ , एडविनरिमथे


प्राणितञ्चुत स्वस्यामेव भूमिकायां स्वबलेनेवोषितं मरतिष्टितं नोपरब्धानां स्वदपन्राणां प्रायः 8. 0. 1600 समयम्‌ , एवि.
चेति निर्धघारथितमसाधासणानि विनिगमक्रानि परिच्येत्तव्यानि रस-पेपिरसस्य प्रायः ?. 0. उपसदण्चवर्षपूर्वं समयं सम्भाव-
भवन्ति! अक्नोकशिखारेखतस्तस्समरे ८ 8. ©. 272-488 ) यन्ति । परमेषां ससथनिरदैये विदुषां मतसेदस्थापि दर्शनेन
मिश्रेऽपि भारताद्धैषञ्यसंस्थानां मेषजानां च प्रवर्तनस्य स्पष्टो काल्पनिके समये न्यूनाधिकभावोऽपि सम्भवेत्‌ । काहुन-पेपि-
परम्मेन, भारताद्टिढषो भिषजश्च सादरं नीतवतोऽखेकजेण्डरः- रसपनरे विरेचनादिर्विपयः, एेडविन-रस्मिथोपरञ्धेषु स्वक्पत्रेषु
स्ोपरममनु (8. 0. 323 ) अखेवजेण्ड्यायामुदिते भषज्यवि- सर्यमसम्बद्धाः ४८ विषयाः, रोगपरिक्तानं, प्रतीकारः, व्यवहार-
ज्तानयिशेषे मारतीयविज्ञानप्रभासम्पकंस्य वह्ुशः सम्भवितया गतोषधानि, रोगचिकित्साप्रक्रिया च; -एविरस-पेपिरसपन्र
च. एतस्समपतस्व मिश्रेपि मारतीयभेषञ्यविक्तानप्रभाचुवेधो सपदंशनादयः क्षयान्ताः १७०, मताम्तरे ७०० रोगा निर्दिश
वक्तव्यं एव 1 अशोकशिरारेषेऽपि निर्दिषटेन मिश्राधिपतिना सन्तीति च वर्भयन्ति विवेचकाः । "कतिपयानि रोगप्रतीकार-
तुरसय ( ९0९ 211०.4610008 ) नाना अरेक्नेण्ड्याया व्यवस्थापत्राणि चोपख्ब्यानि। येषु कतिपयेषु पञ्लीरधिरं,
प्रविद्धपुस्तकाटयस्य स्थापनमथवा वधनं व्यधायि; तदीय शूकरकणदन्तमांसमेदांचि, कच्छुपमस्तिप्क, शयितायाः खियाः
पुस्तकालयस्य कार्याध्यक्तो भारतीयानां वहूनां मन्थानामनु- स्तन्यं, बह्यचारिण्याः धिया मूत्रं, सयुष्यगदंभश्वसिहमा्जार-
वादे समुत्सुक आसीदिति एपीफेनिस ( ष्पः प७ ) महो- यूक्ुक्रमिस्यादीन्यौषधानि निर्दिष्टानि दर्यन्ते। कतिपयेषु
द्येन वर्गितमस्तीति माण्डाररीये अक्ञोकनाध्चि पुस्तके मान्विकी भरक्रियापि निर्दिष्टाऽस्ति । प्रायस्ते मान्त्रिकग्रयोगेषु
दश्यते । इरानग्रीसयोः ( 2. 0. 479 )सामथिके युद प्टेप्यिा- विश्वासवन्त जन्‌ । द्वादर्वंश्ञस्य रास्या निखलातरवेन सह
रणस्थरे ग्रीसवीरेः सह॒ मारतीयसेनाया अपि संमर्दस्य पूवं चपकाणि ( ४४७०७ ), रघुद्ग्यः ( 870००5 ), शुभ्कौषघानि,
( पृ. ७६ ) निर्दिष्टस्य सन्धाने इरानेन सह॒ भारतस्य मूखानि चोपर््धानिः दव्यपि चिर्डूराण्ट ८ ५11] 0 पप्मणं )
घनिष मैत्रीसम्बन्धश्च आसीदिति तु स्पद्मेव ! अभिय्ातव्यस्य महाश्चयो निरूपयति । एवञ्रुपरम्मेन मिश्रे पुराकारेऽपि
मरीसस्य भारतेन, अभ्यायातानां भारतीयानां म्रीसेनाप्यवश्यं भप्रज्यम्रव्रततिरासीदिति जायते । मिश्रे मेपज्यविद्यासम्बन्धिनो
विज्ञेयतया मसभारतयोः दहिपोक्रिटसतः पूर्वमपि भिथ रेखास्त्वक्पत्र ( पेपेरी >)रूपेण मन्दिरेषु स्थाप्यमाना आसन्‌
परिचयो नासीदिति न वक्तं शक्यते । तस्मिन्‌ युद्धे मारतीया- राजङखेऽपि मान्त्रिकभेपञ्यग्रक्िया, तस्याः प्रतिष्ठा चासीत्‌ ।
नामिव भिश्रीयानामपि सहभवेतिव्रत्तोपरम्भेन मिश्रभारत- नुष्याणां देवानां चारोग्यसंपादकतया ररानामकदैवताया
योरपि मिथः परिचप्रः सम्भवति! युयुत्सया परकीयदेशषं निर्देशः एविरस-पेपिरसपत्रे ख्यते इ्यपि वदन्ति । भारते
यान्स्या भारतीयसेना सह॒ महामारतकौरिरीयरेलानुसारेण रविरिव तदीयो “रा देवः प्रतीयते ॥ |
आारतीैर्भिषम्भिरपि मवितम्यमेव । तदास्वे न केवरं ्रीसेन असीर्थि-वेन्छो नियाप्रदैयेऽपि प्राचीनमेपञयसम्बन्धि
विरोपतः सहयो गिभिर्मिश्रीयेरपि भारतीयभिषलजां परिचियरा- विषयोपरम्मः पृतं (७४ ) ददित्त एव । के्छोनियनीयप्रा-
भोऽनुमीयते । परं ततः प्राक्तनं भिश्रीयं भंषञ्यवित्तानं सापे चीननृपस्य देमूवन्‌ ( 21010180} 8,
` निरपेत्ं वेति निर्णयो वि्वारमपेत ्तते ॥ ` ्रसीरिया ©. 100 मतान्तरेण 8. ©. 2500)
मिश्रगतं प्राचीनं भषञ्यविक्तानं किमास्मकमासीदिव्यनुस- 2 उक्लोनिय- नामकस्य सामयि कानां जयोदशरेखा गां निग॑-
न्धाने एविरस-पेपिरस ( 00675 230८७ ) नाम्ना ख्यातानि योः पू भेष-मनवृत्तुषटभ्यते । यत्र साघुभावेन बगादि-
घ्वकपतच्राणि प्राचीनमैषज्यविक्तानचिह्वान्युपर्न्धानि । येषु का- उयक्ानम्‌ चिकि सकानां प्रदेयं पारितोपिकद्रभ्यं शखचि-
ग्0€ कण्ठ शात ०0860 कणत कहा गुल कित्सनात्रौ विपर्ययक्कतां उण्डनमिययादयो विष- `
0005 1४४€ 7९ एनत 107 868 10 [प्प78 २० पाः
याः सन्तीस्युच्यते । मिथ्योपचारिणां चिकित्सकानां दण्डो
` 0060. 8प्राह९००३ ४9६ 0९6 &01९ 10 00८0 7700
मन्वादिभिरपि निर्दिषटोऽस्ति । दिमूवेन्नृपक्य सामयिकं पूण
` € ( 15008 ) ४16 फृशाकठय 9 एप्प.
(प 101#06 588; 06 01601691 56००९, भु्0कण् 1. 11€ धाक ग ता पोभ्ण०) ९. 18288; ए जना)
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: 06808 97107601. † 4. ए, {‰„ 9, ९01, ¶ 2. 750.
100्0वप्रण्ण 0 पपणिप्रालाण् 309४ @©18911197 ` ध चिकित्सकाः सवषां मिथ्याप्रचरतां दमः।
2, 2 | अमानुषेषु प्रथमो मारुषेषु तु मध्यमः । मनुस्मृतौ ९. २८४,
1, 4.80 8- 0 1, ‰, 9909 2. 158* यिषङ्‌ मिथ्याचरन्‌ दण्ड्यस्तियक्षु प्रथमं दमम्‌ 1
१. ७) ताभ 9 6७16606 0], ४ २. 20; ए ाण॑6७, मातुष मध्यमं राजपुरषेषन्तमं दमम्‌ |
(9) लामा 100)9 0 91695 ष 2२०. 1,2. 15, याज्ञव्क्यस्मृतौ, २. २४२
#
उपोद्धातः । १०३
(कका का का ^ क + + 0 ^ 0 ^ 0 ^ ^ सा ता, त वा का स क आ क प ।सि भ न
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वर्णनमनुपरभ्य तादास्विकी परिस्थितिर्नेतावता सम्यक्‌ परि- कतमः वेन्दिदादनामको विभागोऽस्ति । तदीयेषु प्रकरणेषु
च्यते । तदुत्तरमसुरवनिपाल्समये भेषस्यविद्यायां विरेषो भेषञ्यसम्बन्धिनो विषयाः सन्ति । तत्र सामावंदोद्धवः भितो
ऽवगम्यते । येन पूवेतः प्रवतत मान्त्रिकोपचारः शेथिल्यमा- नाम सवेप्रथमो वेय आसीत्‌ , स रोगनिघृत्तये अहरोमञ्दानामकं
नीयत । परं तदास्वेऽपि माच््रिी भ्रक्रिया तत्रानुवर्तसानाऽऽ तदीयं देवं सम्प्राथ्यं सोमेन सह वधंमाना रोगनाशिनीर्दशसह-
सीत्‌) भेषञ्यविद्यायां बेन्छोनियनीयं खतो मिश्रस्य पवंस्रोत खाण्योषधीरमे; वनस्पतीनां होमः ( सोमः ) राजाऽऽसीत्‌ । `
इव्युच्यते कथिद्धिपिद्धिः ॥ स भितः क्षधवेर्यात्‌ संहरवराच् रोगनिवतंकोपायान्‌ विन्लाय :
मिश्रबेब्छोनियाऽसीर्यिाचाल्डियाप्षमेस्यिादिप्राचीनदेश्षीय- कखचिकिव्साविक्लानं च प्राप्य उ्वरकासश्िरोरोगक्लयादीन्‌.
सभ्यताया अनुसन्धाने भारतीयन्ञन्दभतिच्छा- रोगान्‌ न्यवास्यत्‌. इत्यादीनीतिचत्तानि, तत्तद्रोगविशेषोपचारा. .
मिध्ररेष्हो- यानां शब्दानां भा.तीयविषयप्रतिविः्बायि- द्यः, वेद्ेरिन्द्रियोषधतनत्रिर्माणक्तानवद्धिः सुश्ीरे रोगिप्रसाद-.
` नियेरन- कश्च भवितव्यभिस्यादयः शिक्ताविरेषाश्च तत्र रभ्यन्त इति
तानां विषयाणां तेष तेषु प्राचीनस्थानेषूपल- वण्यते । जेन्दावस्थायां तदीय वेदिकसाहिव्ये चारोच्यमानयोः
चीनेषु भार- स्मः, किं बहुना इ्वाङप्रभतीनां मार्तीय- देवतानां वेदिकदेवतानां च शब्दसाम्यं न केवल -देवताविषये, -
तीयशब्दा- पूर्वनपनार्नामपि सुमेरियाध्दैश्चीयनूपनामपर- तदीयगाथानामयुवादतः संस्छृतशब्दानां बुशस्तौर्यमस्तील्यु
दिसाम्यम्‌. वाोपम्मः समलभ्बतासःवग्धमनुदर्शयती. पवर्ण्यते। प्राचीनभारतसम्प्रदायः इवाग्न्युपासनहोमेष्टया--
ति. केषुचिदं रोष कचन भंषरञ्यसम्बन्धिशब्द दियागम्रश्रतयो विषयाः सन्तीति पूवं ( पृ. ७६ ) वर्गितमेव ।.
विषयविरोषादीनां विम्बानुबिम्बभावोऽप्यस्तीति च ( परु. हमशशब्दितस्य सोमस्य प्रशंसा ओषधिरजवं यागोष
७२-७६ ) पूर्वंनिरदि्टमस्ति ! अन्येऽप्येवंरूपा दश्यन्ते- योगश्चैवमादयस्तच्न दृश्यन्ते ॥
। जेन्दभाषायां संस्छृतमाषाथां च विम्बानुविम्बभा
भारते, मिश्रे. | भारते वेब्लोनिययाम शब्दा दश्यन्ते-- .
सूयः(हरिः) होरस अहि ई
ईरः ओषिरीस | सत्यव्रत हसिसद ` खंस्छृतम्‌. . जेन्द. सस्छृतम्‌. . जेन्द्‌.
ईश्वरी ईैसिस्‌ | अदहन्‌ दहन्‌ सरस्वती दरहयती .| असुर अहुर
शिव सेव दहन दगनु सप्सिन्धु ह्दिन्दु -| देव ` देव
शक्ति. सेखेत चन्द्र सिन सोम ठओम | विश्वेदेव विश्योदैव
अरकरति पर्त वायु विन नासस्य नाहत्य नर्शंस नेयोसंघ.
शेत सेत मरत्‌ ` मतु, मर्त अर्यमन्‌ ` एर्यमन वायु वयु
मातृ मेतेर दिनेश ` दियानिसु विवस्वत्‌ विवङ्ध्वत्‌ | वृत्रहा वेरेत्रघ
सूर्यवंशी सूरियस | माईडिक मर्दक कान्यउंदानस्‌ कवउस दानव दानव.
क्षत्रिय खेत अप्‌ अप्सु अध्वर्यु रथ्वी ` इष्टि इरिति
अत्रि अत्तिस्‌ तमस्‌ व्यामत आहुति आजृहति | होता जओता
मित्र मिथ पुरोहित पटेसिस वर्हिः वरेश्मन्‌ | आप्री आप्री
शरद्‌ सर्दी भ्र सेढ . गाथा गथा | पश्च पथु
रवि रा ` | तेमात वियामत्‌ अथवन्‌. भश्रवनच्‌ ` | अहि अजि
भारत इव मिश्रे लिङ्गपूजनं बृषस्यादरः, बेञ्छोनियायां यन्ति यज्ञ जपानपात्‌ ` . अपंनपार्‌
पृश्न्याः पूजा इत्यादयो बहवः समसभ्यतासम्बन्धा विन्ञायन्ते॥ इत्यादयो बहुशः शब्द्‌स्तद्धवतस्समादिरूपेण एकच्चायाच-
इरानीयानां ्राचीनमूकम्रन्थस्य जेन्दावस्तायाश्चतुषं भागे- गाहिनो द्यन्ते । एतदहिषये (७8102, ण च. षि. कााष्नलुक्ध
1. प्रान्‌ 9 4518 [प 01051९8त २. 492 ४95 ग 1..211115 इत्यत्र विरोषतो निरूपितमस्ति । वेदे
2, 9. ‰. 9. ०1. ए 2. 841 [र दव अवेस्तायामपि प्रधानदेवताखयसखिशस्संस्यया गण्यन्ते । `
(४) 6 ‰{04€८71 एिटणल्क, व ८6 1910 । एवं दश्ञनेन प्राचीनेरानस्य प्राचीनभारतस्य च सम्बन्धो
९. 5240-5353. मिश्रासीरियाबेच्लोनियादेश्षापेत्तयाऽपि धनिष्ठ आसीदिति
(0) {१९५1५ 10418 ए -4.. ©. 95 ९. 228-2 ग्रतीयते॥ ` ` ` वि
| 261.-465 1178180 चीनदेशेऽपि प्राचीनभेषञ्यविषयोपरुम्भः पूर्वं (घ्र. ७५)
।। 4 (४) 776 (0 प 1910
पि€राल्स-०९ . 1.7० दण ०.1 (8.8. ४ एन) `
2, 580-558, ` 2. 225-980.; = `
(0) 716 1010 एप्प प्र€रोल्क ( 866 19 ) 2. 2888 01. 016, लुक्कागा ० #€ एभडऽ
(9) 20811150; [060 ( 1889 ), | ए 2. पर्पट. 267
१०४ उपोद्धातः ।
त "का ता शा, का, च का^ ^ + +
कक कक क क क तत कक
ता क श क

निर्दिष्ट एव । तदेश्ीयस्य सवप्राचीनस्य भेषञ्यग्रन्थस्य (2 सर विलियम्‌ जोन्स (अ 109 10768 ), मेजरवि


0. 2597 ) समयो वर्ण्यते । चीनदेदो भारतीयस्य बौद्धधर्मस्य हफोडं ( 90 "11700 ), दुद्स्‌ उयाकोरिओद्‌ ( 10 पऽ
ग्रभावपातः, तद्व्म॑प्रचारक्छाणां भारतीयानां तत्रोपगमः, भार १8४००11० › ्रष्ठतिभिरपि सम्यताकरूस्छतित्तानानि भारता-
तीयग्रन्थानामपि तत्र पूर्वकात्‌ भचारः, महाभारताद्िषु देव मिश्रदेशेऽपि गतानीति प्रतिपादितं वतते ॥
मारतीयप्राचीनभ्रन्थेष्वपि चीनदेशस्य चीनांश्वकादेः, तन्त्र 'भारतीयभेषभ्यविद्यायाः प्रभावो ्रीसवै्यके पतित इति
अन्येषु चीनाचारस्य निर्देशः, कौटिस्यार्थ्ञाखे चीनदेक्ञागत- अर्धेन मनसा पाश्चास्या रोका मन्यन्ते । सिश्रप्सियाऽरेबिया-
वस्तुषु शुस्कव्यवस्थानिर्देशचश्चेत्यादीनां मिथो च्यवहारसाधना- द्वारा भारतीयं भैषञ्यविक्तानं मसे उपगतं, मिश्रप्तियाऽ्रेवि-
नामुपलम्मेन वदिकस्मये स देज्ञः केन नास्ना व्यवहृत भासी यादेशौरपि भारताररग्धम्‌ः इति स्वमतमनुदशयन्‌ जे. जे
दित्यक्तानेऽपि चीननाश्ना तदेश्चस्य भारतेन, भारतस्यापि तेन मोदीमहाशयः (सवेदेशीयानां भषज्यपद्तीनां मूरमेकमेव,
परिचयो मिथो यातायातवाणिस्यादिसम्बन्धश्च पू्कारादैवा- पाथागोरसेन दिपोक्रिरसपूर्वजेवां ग्रीसदेशे यद्धेषय विज्ञानं
सीदिति स्पष्टठौमचति । काश्यपसंहितायामपि चीनदेश्षस्यो- प्रथमतो गहीतं तदपि मिश्रदेश्षीयानार्षीणां साहाय्येन प्राप्त,
क्ेलोऽस्ति ॥ 1. ऊप पाभ प००९३, 77 #1€ गलु0प न ५०6 जश्न
भारतचीनयोरन्तरावत्मगते कारङारनामकस्थाने वतंमा- 4 51840 80० 213 164 ४० 0€ा€र्ट पा पट प
नायां प्राचीनक्ू्वभाषायामपि भारतीयोषधवाचकराल्दविरो- 8€ ९९10 70 ए्€ा10€ 2263 0010035६ म ४०८ {00190
षाणां तस्समतद्धवादिरूपेणोपर्म्भः पूर्वं ८ पृ. ७५ 47208, 824 क्8 1116 भ्ण (0110 वठपनवलाः
दर्शित एव ॥ +€ कुध¶1510183782 0 प्र ए पा४०३ 0 € 0 तौ
उपदकश्चितदिश्षा असीस्यिा-वेब्लोनिया-मेसोपोरामिया- 090 "10799 406 भमला 09706 0 दए. 10616
मिध्रादिप्राचीनोन्नतदेशेषु श्ाखोपश्चाखारूपासु 18, 07 10९ ० 11970, ०0 पद्वत्‌ 9 "€ 2607808
प्राचीन- प्राचीनपाश्चाच्यजातिषु च, कि बहुना अमेरिका- कणोणद € 0०४0 1५00 1012. प्७ नाएपा्अश्ाल]
भारतस्य गतरेडदृण्डियनचीनादिसुदयर्यन्तमपि अद्ययाव- €९4€06& 193 1९60. 8010€ एप्प =क1618--
1.0प
देश्चान्तर- दुपरन्धभारतीयग्रन्थभूगर्भो परुग्धविषयाचारग्य- 1४001110 एप्णठणष्ु मलःच कपि, 0 1 शह हपट
नंपोकप्०ण #0 ७९६०९ ४०१ प्ल 1४ ४टा ०९पप्टम्ता९त 1
सम्बन्धः वहारादीनामायुर्ेदीयमैषञ्यविद्यायाश्च तन्न तत्र
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न्युनाधिकरूपेण तुरुना परिदृश्यते । आथर्वणे 80160068 {7070 1०018. 11066 18 एह 19 € एष
यथा भूतादिवादप्रक्रियया मान्त्रिकम्रक्रियया च संवर्तं
80 0€वाले0€ कतो) 13 ए 10 ५16 [वाक अहा,
मेष्य, प्राय एवं प्रकार एव भैषज्यसम्प्रदायः प्राचीनेषु प्रायः 810 ॥0€ा€ 383 पता 7 10€ ९]80078४6 [एवा इषर्भृहा
सर्वेषु देशेषु, प्रायः सर्वापु प्राचीनजातिषु च पूर्वोक्तदि्ञा 09 28 कष्ण 10 #6 7167691 ऽने€००८ 9 पट
विवेचकरूपवण्यंते । नद्येवं चिष्वक्प्रदेशेषु बहशोऽसाधारणाः
300४ ताण 9 4पृ90 हतात्‌ 8०९००0९
संवादाः काकतालीयन्यायेन स्वतः सञु्वितुं युज्यन्ते । ईदशी 29. 194-195,
प्राच्चीनभारतस्य प्राचीनदेश्चान्तराणां च बहुशोऽशेषु समान-
2, 1 8९608 > 1191-0 €81160 801188701 ° #16€
विषयता साक्षात्‌ परम्परया वा मिथः परियं सम्पकं व्यवहारं
10 प्ट0०€ ग € [पताक ध्वने ०४ ५06 श्ल
चैकान्ततोऽवगमयति ॥
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ग्राचीनभारतस्य पुराकारदेव देश्ान्तरेः सह सम्बन्ध
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आसीदिति अनेकेर्विहृद्धिरंक्ञिखितं चास्ति । मिश्रदेदे तस्स
श्वान०९ ९९४९ ध ठप, 001, 2८879 ४१०१ 4181012.
कृष्टस्थानान्तरेष्वपि भारतस्य वाणिज्यसस्बन्ध आसीदिति पिठ 1 ०४8 0९60 70९९0 ४1४४ ©7६6 €व1म06 ५० ४
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उपौदात १ । १०५
[त काकिका 0 0 जी

मिश्रीयेरपि रहस्यपूर्णात्‌ पूरदेशादधिगतम्‌? इति वादइजम- यानस्य सिरोनदेशा्नोमार्गेण स्वं चीनदेशं प्रति निवत॑नस्य,
होदयस्य मतञुपवर्णयति। यूरोपीयग्राचीनराष्षूकनतेः प्रागेव गरीसदेशे रोमदेशे च नौद्वारेव सौकर्येण सम्भविनो -भारतीय-
भारतेन अयोतिषगणितविक्लानमेषऽ्यादिविय्यासुन्नतिव्य॑धायिः हस्तिरसिंहादिनयनवृत्तस्य, पश्चिमदिश्यपि भारतात्‌ क्षटिति
खभ्यताया ज्ञानस्य च तवानामुमः पूर्वदेशे बभूवः प्रतिनिव्तमानस्य यवनेरितुररेक्नेण्डरस्य महस्य सेनाये पर्या.
तत एव पश्चिमदिि तेषां प्रतिसंक्रमणमभूत्‌ ; न तु पश्चिमतः पानां नावाञुपस्थितेरनुसन्धानेन, भिश्रमेसोपोटामियादिषु
जलतटस्थपथादपि जरूपथस्याजुङ्ल्येन च भारतस्य पाश्वात्य-
ूर्वदेदो इति मोनियर विखियम्त ( ४. 0016 (१179205 ) देशे
मंहा्चयोऽपि निरूपयति ॥ देशेः सह षुराकाछन्मिथो - यातायातपरिचयसम्पकदिका च्य-
पूर्वसमये सिन्धोः परेगतान्‌ देश्ञानप्यन्तर्निधाय तादा- वहृतिनं कथमपि व्याहन्यते ॥
व्िककेन्द्रभूतात्‌ तक्षशिराशंरावतीपरिसरभ्देश्ात्‌ प्राच्यामा-
भारतीयायुर्वदविज्ञानल्रोतसो मूलोद्रममनुसन्धावुं दृष्टिभु-
सामदेश्मवाच्यां चोरादिदेश्चान्‌ यावदेकास्मतयाऽतिबहोः जनम्यारोचने--उपलमभ्यमानायुरवेदप्रन्थाचायं -
कारात्‌ प्रतिष्ठितस्य प्राचीनभारतस्य प्रतीच्यां प्रतिवेशिस्था- धन्वन्तय- तया ज्ञायमानानां घन्वन्तरिदिवोदासकाश्य.
नीयानां मिश्रादिदेश्षानां मिथो यातायातसम्पकंपरिचयादिसि दीनां पोषे- पत्रेयाग्निवेशमेऽसुश्रतादीनामपि नार्वाचीनः
द्वये कियती दूरता भ्याघातिका वक्तंशक्येत ॥ काक्लिकता समयः | घन्वन्तरेमंहामारते, हरिवंशे, पुरा-
्ेदिक्यामष्यवस्थायां सुज्युप्र्तीन ां द्वीपान्तरग मनमनु- | णान्तरेषु ( प्र. २९), मिलिन्दपहोपारीभ्रन्थे
दद्यतवैसूनां पित्रा निष्कासितानां द्वीपान्तरोप गमेन वंशान्तर- ( परू. ३१ ), अयोघरजातके ( पर. ३१ ), चोररेखेन; भीमसेनः
प्रवर्तनं, पाण्डवैदरदूरदेशानामपि विजयश्रैवमादीनाञुपलम्भेन पुत्रस्य दिवोदासस्य हरिवंशे, महाभारते, काटकतसंहितार्था,
भारतीयानां ह्वीपान्तस्थातायातादिकमवगस्यते इति पूर्वं परतर्द॑नपितृत्वेन दिवोदासस्य कौषोतक्गि्राह्मणे, कौषीतक्युपनि'
( पृ. ७४ ) वितमेव । ऋण्वेदादिष्वपि सायुदिकनावासु- षदि (प्र, २९), कातीयऋक्सर्वानुक्रमे, (प्र, ३० )
ल्केखः, प्राचीनमन्थेष्वपि सायुद्रिकवणिजां शुर्कग्यवस्था महाभाष्ये च निर्देरोन; दिवोदासप्रतिष्ठापितस्वेन निर्दिष्टाय।
चोपरुभ्यते । वेदे 'पणिशनास्ना देशान्तरेषु यायिनां श्रेणीरू- वाराणस्या महावगगादावप्युज्ञेखदशशंनेन (प्र. २९-३०), मारीच-
पाणां वणिजां निर्देशो दश्यते । एताच्शरेव वणिग्जनेः पशि- काश्यपस्य महाभारते, ऋक्सर्वानुक्रमे, बहदेवतायाम्‌ (य, १७)
मेरियाभ्रीसमिश्रसेमेरिकप्रदेदेषु प्रभावः पातित्‌ इति ए. सी. अथर्वसर्वानुक्रमे च निदेशेन; मेडनिर्दिष्टस्य गान्धारस्य नग्न
दासमहाशयोऽप्युर्किखति । महाजनकराङ्खजातकयोरपि भार जितः एेतरेयशतपथनब्ाह्यणयोः ८ घ. ५१ ›) निर्देरोन; सेडस्य
तीयवणिजां विहर्बेश्छोनियासौ बणभूमिपरदेरेषु गमनसुद्धि- आत्रेयान्तेवासितया गान्धारनग्नजिस्ाहिस्येन च निरदेेन;
खितमस्ति। कालिदासकविनाऽपि रघुञुपरुचय पारसीकप- आत्रेयस्य मारीचकश्यपेन, सवाक्योद्धारमाचा्यतया भेदेन,
न्तमैपि स्थरूपथेनाभियाने दृष्टिः प्रदत्ता वतते । पश्चादपि कृष्णात्रेयनास्ना च महाभारते निर्देशेन; भारह्वाजस्यापि महा-
चीनदेक्चात्‌ खोतानघारीद्वारा स्थरुपयेन भारतयुपेतस्य फाहि- भारते निर्देशेन च भारष्ाजधन्वन्तरिदिवोदासात्रेयमारीचि-
1. (४) 1०६ प्राह पऽ ४ त104०8 8४4. 10806 601. काश्यपनग्ननिहारवाहवायोंविदानां सन्निङृष्टकारिकेन मिथः
91619016 8 ए068 70 8०00फङ्‌, 9186019, काण.
सम्बन्धेन एते उपनिषस्कालिका आचायां इति तत्र तत्र पूर्व
मुपदरदितमस्ति । उपनिषस्कारुविचारे पाश्चात्यविद्भन्मतानां
#0, एणहणु भत 0९01०7०९, प #0 लपक पलप ऽप06-
प्ग्पति 10 ष्णा, 1णाहटु एलन इण 0 656 ऽन
ूर्व॑( ष. ३० ) प्रदरितस्वेऽपि कौषीतक्येतरेययोः 7. 0. 2600
@0९8 सला€ 0पाोर6वै प पील 009 कपना 059ण8 ५; इति चिन्तामणिविनायकमहाशयेन, ज्यौतिषगणनानुसारेण
एप्रा०€, | 8. 0. 1850-9900 इति दीक्तितमहाशयेन समर्थितमस्ति ।
प1016-8908, 0, कणा, 1. 0 णाल पाना पारीरेखतो महावमारेखतः सिहरब्रह्मदेशीयोपकथातास्तब्च-
| ?. रा. तीयमूलरेखतोऽपि जीवकुररा्रेय एवेति साधने भ्रमाणानु-
|
(४) 18 णै ल ०४७९ पभ पत कपानां लला
परम्मेन, अत्रियस्य तक्षशिरोत्थानादुत्तरभवते पाञ्चालगङ्खगा-
हवारपरिसरपरदेरेषु बम्भम्योपदिश्चता तेन विद्यापीठभवेन प्रसि- `
ग तणशभानण 8० कणााह्ठणटणाालणौ 09८ शकक ण
द्वयास्तक्षरिलाया जवश्यमुपादेयस्वेन प्रद्युत तन्नाम्नोऽप्यनु
8108160 10 ४6 ए89, 820 शुत 7090 06 095 0 ४0 पादानेन, मारीचकश्यपेन गृह्यमाणनामतया च आत्रेयपुनवं-
(एद -10 0 € ९8४ ४0 ४06 एच"
` ४त २. त्यात.
सोरनर्वाचीनत्वस्यावधारणेनापि तिनञ्बतीयोपकथामादाय जी-
| `
वकगुरोरात्रेयो जुद्धसमकारिक इत्याशङ्का नावतिष्ठते । जीव-
२. रोकोऽयं भारतं वषं शरावत्यास्तु योऽवधेः । व्यवहतोऽन्य एव `
ुरिति च पूं (र. ४०~ वि
करुरोरातेयव्वाभ्युपगमेऽपि गोत्रनास्ना
वैस
, . देशः प्राण्दक्षिणः प्राच्य उदीच्यः पश्चिमोत्तरः ॥
। 3. िष्ध्ता० 10019 णि 4. 0. 7093 2" 198-008. |
कोऽष्यातरयः स्यात्‌ , न व्वात्रेयपुन
४२-७९ ) निर्दिष्टमेव । ज. जे, मोदीमहाशयः सुशर॒तस्य `
¦4" रणलाक्ण्याऽ8 एक्ट 108 80 16 पाठर
पएणण्‌त ण पतत, ©, प्वभ्को००) 2.5. .
५ पारसीकांस्ततो जेतुंपरतस्थे स्थरवर्पेना ॥ रघुवंशे ४ सर्ग, . ९०0४, =रप्थप्तनि प शपतः =तेक्षि अपानम

-१४ कार डन |
१०६ उपोद्धातः ।
की'+)छ

ए. ©. 1500 समर्थं, डोरोधिया च्यापलिनमहःज्ञयो हिपोक्िट- सादिते शवक्चरीरे कपारुभेदखन्धानाङ्क उपरञ्धः, योऽद्यत्वे-
संवसयात्‌ 1200 वर्षपू्ं धन्वन्तर्सिमयं वणेयति । भ्रीयुता- ऽतिनिष्णातेरपि शस्यविद्धिः समुचितः समर्थ्यते । भिश्रदेरे
्यकुमारमजूमदारमदाश्चयः जनकस्य विदेहराजस्य 8. ^. विक्रमाब्दारम्भात्‌ सार्ध॑ष्टिशतवषेपूवं ( ए. 0. 301 ) शल्यवि-
2500, अगस्त्यस्य
ए. ¢. 2207, जावारस्य 8. €. 2000, द्याया उन्नत्यवस्था, ततः शातद्वयवर्षाननु तदनु विधानेन अस-
जारः 2. 0. 1900, पेरस्य 8. 0. 1800, कवथस्यं 8. ^. देशेऽपि शस्यवि्योदय इतीतिहासविदामुर्टेखोऽस्त । सौश्चुते
1600, धन्वन्तरेः ए. 0. 1600, सैमरथेर्दिवोदासस्य 8. 0. राल्यविन्ताने देशान्तरीयश्षल्यविधायाश्छायानुपटम्भेन समय-
1500, चरकसुश्रुतसंहितयोः 8. ¢. 1400, 1500 समयं विचारे अन्ततो गस्वाऽपि सुश्रुतस्य २६०० वर्षम्योऽर्वाचीन-
निर्दिक्ंति । "भारते भैषञ्यवि्याऽपि वहोः पू्वंसमयदेवोच्चता- ताया वक्तुमहक्यतया बहशः पाश्चास्यविद्भद्धिरपि तथैव निष्ट
ऽऽसीत्‌? इति ए. 9. <. महाश्चयोऽपि बवीति; "धर्मदन- मतो पवणनेन च देच्चान्तरीयेभ्यः प्रागेव सुश्चुतसमये भारं
विक्ञान-कला-सङ्गीत-मैषञ्यविद्यासु ८. 0. 1500 तः तीया शस्यविद्या प्रौढावस्था्युपगता ज्ञायते । काश्यपसंहिता-
8. ©. 500 पर्यन्तं भारतस्य तुखनां स्पर्धा च कतुं योग्यं यामात्रेयसंहितायामपि शस्यविद्याविषयोर्रेखेन ततः पूर्वमपि
। । ` ४
किमपि राष्ट्रान्तरं नापस्तीत्‌ः 4. 0. इति चरर्जीमिहाश्योऽपि तसप्रचार आसीदित्यवगस्यते ।! महावमगीये जीवकेतिहासेऽपि
4

कपारूभेदनान्त्रवेधनादीनां शल्यप्रस्थानीयाना प्रस्थानान्तरी-


निरूपयति नाधार धन्वन्तयत्रियकाश्यपादिमूटम्रन्थेषु याणां च भैषभ्यानां भारते विशेषकौशरूमीच्यते ! ततः प्रागपि
मिश्रीयहिपो क्रिटसीयादिरेखेष्विव पश्चास्संस्करणवरोन केषाच्ि- रामायणमहाभारतादियुद्ेषु यदेव जनानां मिथः संमदं बाणा.
दर्वाचीनव्वेन शङ्कयमानानामंशानां प्रवेशञाभ्युपगमेऽपि, जीणो- दीनां शस्यानि शरीरेष्वन्तमंग्नानि निष्कास्तनीयान्यभूवंस्तदा-
द्वारप्रक्रियया नूतनशिल्पसङ्कीर्णानां प्राचीनमन्दिरिभवनादीनां ऽपि तदटुद्धरणविघाया विज्ञेयतया श््योडरणविघानाग्ना
यथा सर्वोश्षतो नूतनस्वं वक्तुं न शक्यते तथैवात्रापि मौखिक शल्यवरिया स्वस्याः सत्वमववोधयति । किमेतावदेव, आयुर्वै
प्राचीनस्वं न कथमपि व्याहन्यते इत्येष विषयः पूवं (प्र. ६०- दीयभ्रवाहस्य पूपूवोद्धमारोचने अथवंद्छगादिष्वपि पूर्वपद्‌.
६१ >)वित्त एव ॥ रितदिश्चा मगनसन्धानाद्यः श्ल्यविषया उपलभ्यन्ते ॥
सुमेरियन्मिश्रादिप्रदेश्ानां पुरा कारे तथोन्नतसभ्यताया- उपरभ्यमानम्रन्था धन्वन्तयात्रेयकश्यपमेडादय एव ना-
उपलम्भे तव्सहयोगि भारतं तदात्वे मोहनिद्रया सुषुप्तं स्या- स्मिन्नायुवेदप्रस्थाने मूकाचायाः, पश्चाखसिद्धैः
दिति न खलु सम्भावयितुं शक्यते । पू्वैतने मिश्रदेश्षमूगर्भा- भार्तीय- संहिताकवंमिः कश्यपात्रेयसुश्रुतादिभिरेकैक-
810 {906 0 1101970 ऽपाहधपृ, ऋ100 805९ 7४ 9
स्रोतसो प्रस्थानाचार्यपीटमधिष्ठितैः कति पूर्वाचार्या-
18४1 (टातण् 8. €, 1४3 8०10... ...... | देशक्षाल- नाम्ना निर्दिष्टाः, कति तु विरेव नामनिदेश-
ए. 1. 0, ©. ४०1. [ 2. 415-16. व्याभिः मपर परे दप्यादिशब्देरेव सूचिताः ।ततः पूरव
1. रत, ५06 पतः ० ततप {41681 तमाः भारद्वाजाश्चिनादयोऽपि संहिताकततया
80€002, 06018760, 00 > 0060 ९एलशतैप्रा68 1016 स्षायन्ते । आश्िनादिसंहितासु कारुबरेनाद्यते दु्शनपथम-
पि70006968, 09४ (पतल 35 [089 ९९.१15९४5९ 13 1९02- प्राक्तास्वपि तदीयविषयवचनोद्धारादयः ताडपत्रीयञ्वरसमु-
19९," 806 70 10 {पप € 169१६ 1०0 009१९ ६३ स्ययादिभ्राचीनवेधकम्रन्थेपूपरम्यन्ते। आयुर्वदन्येभ्योऽश्वी-
€ 27096 116 56 1100856} #0 30र%€. नद्रभरद्ाजादीनां परमाचायंभावस्तत्परम्परयाऽस्य सम्प्रदायस्य
80116 4 3९0४8 ° 700 प 21601681 हल्ण॥ प्रसरणं च विह्ञायते । अश्वीन्द्रादीनां भिषग्मावो वेदेऽप्युप-
२. 11; पि 0ग०्ाल कव0. वर्ण्यते । सेयं सम्प्रदायपरम्परा भारतीयं श्रोतः समुन्नमयति ।
2. 706 तप ताण एर ^ 90 कभा080 [शदप्0- एवमायुर्ेदीयः प्रवाहः पूरवपूर्वतोऽनुसन्धीयमानो वैदिकात्‌
०४ 2. 474-76, 791. समयादास्मनः उदयं सगद्धिं चाबबोधयति । तस्मात्‌ प्राचीन-
8. 16006 ९150 1606796 ४० दुर १९६००५९० तरसमयादेव वेदिकविक्ञानमदहारोखदुद्रच्दायुवेंदीयं स्रोत.
10 {0018 &3 ‰€]] 88 18 .फ. स्तन्तदाचायेविचारधारोपचरंहितं बहून्‌ समयान्‌ बहून्‌ देश्ांश्चा-
40600 [पतढ४ एवप्वछठण 7, 49; एए ए, ४. ल्त. भिन्याप । भारतीयमिदं खोतो वंशाङ्कर इव केवरमुपर्युः
4. 10 199 ए6ंक९९० 06 १९४5 1500 ४० 500 8. ©. रिभिवेन वतमानं नासीत्‌, अपि तु नानप्रदेज्ञीयानां बहू-
४७९ ए९०ूट ० [ता काठ 50 [कः ३0४६०0९ 70 प्रलुहणप, नामाचायांणामनुखन्धानेऽपि समन्ततोऽपि भरसृतमासीदिति
16१008०8, 0110800, 8०9९००९ =&, =फत्शं०; ४9 प्रतीयते ॥ |
6010706, ४0४४ 00 ०{0€7 29700 घ्णाात 5४० 89 लए काङ्कायनस्य सुश्रुतसती््यंभावो डल्ख्णेन प्रदर्ितोऽस्ति ।
पए, 0 0007066 ज पाट 70 छप 0 0 €8€ 071900}068 काङ्कायनो हिं "बाहीकभिषक्‌ , बाहीकभिषजां वरः इति
0 पण०क)१8&. = ` | आत्रेयेण बाहीकदेक्षीयभिषगुत्तमस्वेन निर्दिष्टो दृश्यते । मारी.
१, ¢, (श्लु, क पव ग 0 प्ा०५प५ €. चकश्यपेनापि एतन्मतं सनामग्राहं निर्विं्टमस्ति। तेनाय-
भि पभ) भणत, ए. उ, मपि तादास्विकवं्ञातो बाद्यदेशीयः प्राचीनतमो दशयते ।
उपोद्धातः १८९७

बाह्वीकभिषग्जनेषु मुख्यत्वेन नज्ञातस्यास्य काङ्कायनस्य दिवो देशीय एवायमाचा्यः पौष्कलावतः सम्भाव्यते । सुश्चतेन शल्य-
दासिष्यभवेऽवगम्यमाने भारतीयभेषञ्यविद्याया न केवलं प्रधानतन्त्रकततया सविशेषं निदिष्टोऽयं शखवेधके गान्धारदे
भारते, अपितु बहिरपि आदश्षेभवेन प्रसरणं, भारतस्य शस्यापि पुरा प्रतिष्ठामवबोधयति ॥
सप्रदेशेभ्य इव बाह्य भदेशेभ्योऽप्येतदधिगमायं जिक्लासूनामन्ते-
करवीयञब्दः “करवीरम्रदेशो भवः इत्यथंमववबोधयज्चिव
वा्तिभावेनोपगमश्च प्रतीयते । तस्य॒ दिवोदासशशिभ्यलाभा- भाति। करवीरपुरं दषद्वत्यास्तटे जआसीदिद्युपलभ्यते । कालिका-
वेऽपि तदीयमतस्य भारतीयः पूर्वाचायंरपि निर्दिष्टतया मिथः
पुराणेऽप्यस्य करवीरपुरस्योक्ञेखोऽस्ति । दष्टती वेदेऽपि भसि
परिचयः स्पष्टीभवति ॥ द्धा । करवीरपुरोद्धवसमेन तस्य तथाऽभिहितस्वे तस्प्रदेश्ीयत्वम-
न केवरं काङ्कायनः, ओपधेनववेतरणौरश्रपौष्कलावतकर-
प्यस्याचार्थंस्य सम्भवति । किंवा शखचिकिस्साविष्धत्तया करगतं
वीयंगो पुररक्तितभोजादयोऽपि दिवोद्ासान्तेवासिन आस्विति तत्कोश्षरूरूपं वीयं वहन्नाचार्यविशेषोऽनेन नाश्ना प्रसिद्धोऽपि
सुश्रुतरेखतो ज्ञायते । अयोधरनाभ्नि पारीजातके बुद्धस्य
सम्भवति ॥
पूवजन्मावदानोज्ञेखे अतीतवे्याचार्यत्वेन धन्वन्तरिणा सह सुश्र-
तसतीर्भ्ययोर्भोजवेतरणयोः पूर्वं ८पर॒ ११ ) निर्दिषटोऽपयुज्ञेख किञ्च--दरानदेश्षीयप्राचीनवेस्तामन्थाभ्यन्तरे वेन्दिदाद
पूवंकारूसम्बन्धमेव प्रत्याययति । एवं द््चनेन भौपपरेनवादयस्ते नाच्च भेषज्यप्रकरणे तदीयश्चस्यचिकिस्सावित्ञानस्य मूकाचार्थः
आचार्याः पौवंकाङ्िकाः, नामा्यनुसन्धानेन नानादेशीयाश्चाव- चधवेयनाश्ना कीर्तितोऽस्ति। अद्यत्वे व्यवहियमाणस्य वेन्दिदा-
घुध्यन्ते ॥ दशब्दस्य प्राचीनं स्वरूपं विदेवोदात इत्युच्यते । वैदिकसम्भ-
पूवेषामभिधानानि पितुमातुराचार्यस्य गोत्रस्य देशस्य दाये सखमीचीनभावावबोधकेषु सुरदेवादिशब्देषु तेषामसदर्थाव-
असाधारणगुणविदोषस्य वा सम्बन्धमुपादाय मासेन किरु सदथंपयंवसानाय असुरविदेवादिरूपेण प्रयोगस्य
पोष्कलाव- व्यवहृतानि अयज्ञो दृश्यन्ते 1. तेन प्राचीन- दशनेन तन्न्यायेन देवोद्‌ातशब्देऽपि "दिव'-शब्देन सह भवि~
शब्दस्य सम्पकण भंषञ्यविद्यायुतविभागवोधको विदेवोदात-
तकरवीर्यो ज्यक्तिविरेषाणां नाम्नो दर्शने देशग्यक्तिवि- शाज्दः अपञ्चंशभावेन देवोदाससम्परदायमभिम्ेति किमु इति
रादयाचा- शेषादिकं किन्नाम मृटुपादायेत्थं ज्यवहत तकनाऽप्युदेति । जहुरमब्दात जोषधीन्‌ स्थेयात्‌ सोहरवराच्च
येषु वितकः , भिति जिज्ञासा निवेक्तं नयने उन्भीरयति । कायचिकित्साशखविकिव्साविज्ञाने च धितोऽवाक्तवानिति, तत्र
-एतनन्यायेन साधितशब्दात्मकाः पौष्करावता- दाखविन्ञानस्याद्य उद्धावकः क्लधवे्यं इति चोद्धिख्यते । भित-
द्यो नामविरोषा अपि कञ्चन देशविशेषं व्यक्तिविशेष वा मूर- स्याप्याचार्यभावेन निर्दिष्टौ क्तथवेयः सोहरवरश्च कौ ! इव्यनुस-
सम्बन्धितयो पादाय तत्र जातः, तत्र मवः इत्यादर्थविरोषप्रस्य- न्धातुं युज्येते । पिदेवोदातशब्दे देवोदासक्ञब्दस्य प्रतिभानेन
येन निष्पन्ना भवेयुः ॥ तत्साहचर्येण चिकिस्साविक्ञानाचायंविरेषे सोहरवरे सुश्चतस्य,
तत्र पुष्करावतो नाम न कोऽपि व्यक्तिविरोषो भारतीये- शास्यचिकित्साविन्ञाननवोद्धावके त्तथवेयं दिवोदासश्षिष्यस्य
तिन्रत्ते कुभ्यते। किन्तु प्रदेश विशेषबोधकतया स शब्दो रभ्यते। रास्यप्रस्थानाचायंस्य सुश्रुतसतीध्यस्य करवीयंस्य शब्दतः
पौष्करावतो नाम 'पुष्कलावतदेरो भवः इत्यर्थमादाय देशनाश्ना कार्यतश्च सन्निकर्षेण काचन जामा उदेति । भारतीयपूर्वाचा्य-
तथा व्यवहृतः प्रतिभाति । पौष्कलावतो नाम॒ भरतयुत्रेण | कतो निर्देशो बाहीकभिषजः काङ्कायनस्य भारतेन परिचयमिव,
पु्कखेन निवेशित इति विष्णुपुराणेऽस्ति । बाल्मीकिरामायंगेऽ- वेन्दिदादनिर्देशो भारतीयाचार्याणां दिवोदाससुश्रतकरवीर्यां
प्येतदु्ञेखोऽस्ति । .आसन्दीवत्पस्त्यावच्छु्यणावदित्यादिभिर्व- णामिरानेन परिचयमभिन्यञ्जयति किमु १1 अवेस्तायां भारः
ददृष्टस्थाननामभिमंहाभारतोक्तवारणावतनान्ना च सह सारूप्यं तीयशछब्द विषयादीनां साम्यं पूवंमुक्तमेव । तद्तमेषज्यानुसः
वहदिदं पौष्करावतनाम स्वरूपेणापि भारतपधिमविभागीय- न्धानेऽपि-
प्राचीनदेद म्रत्याययति । एतन्नान्नी गान्धारराजस्य प्राचीना
राजधानी चासीत्‌ । अखेक्जेण्डरागमनसमयेऽपीयं नगरी गान्धारे १. ओपधेनवमौरभ्रं सौभ्रुतं पौष्करावतम्‌। `
प्राधान्येनासीत्‌। एरियन्‌-ष्टरेवो-ररेमीप्र्ुतिभिर्बहुभिः भ्राची- दोषाणां राव्यतन्तराणां मृलान्येतानि निर्दिशेत्‌ ॥
नग्रीसविद्रद्धिः सिन्धोर्नातिदूरे महानगरतया अस्या उल्लेखेन | स॒श्चुते. स स्था. अ. ४
ग्ीकजनैरपि विशेषतः परिचिता कीर्तिता चेयमीसीव्‌ ! तस्म- | ` 9. 8भ्णश्४- फगनाछणत)) ०. 7 2. 112; =
1. ४ प्ण ( 31, प्र, ती, 4 ) 805 0९ 0. 85 07१६६ & ‰&. प
णि त्र. प्र, (5० ४१०]. 1, 2, 819 (9) 2838 07 6 ्लोकिण) ० ह 98 =
१, पददा, 003. 101, 114 19350 [र ए 1. प्?2 2. 968. `
५, 4. 8. 3. 1840, २. 476
प्टिपभू3 ( एणान्‌);
(४) 26०१८०४९ एष (8. ए. ए, एण्‌. कए)
एणाः भहरकीं
3४, ) 6] 15 8150 0 687 अॐ€ ४० 70 {97 जण
२. छत, एणपालाल्ा =
€ 14४8 ‡ 26०१९१९३४९ 2#४ 1 ( 9. ए, >. ४०]. 1४ )
| न्पपतालह~शुभ्जी€ण6 क (तेः 2, 184 2. १०४6-2? प. [भ06भलध,
१५०८
कौ श + + 0 00000919, 8 छ छ क छ "क छ क क का ह

्थववेदे छवेस्तायथा्‌ श्रथः


तक्मन्‌ तनु वरः चित्त, शल्यचिक्कितसार्थं सौवर्णामच्छुरिका च न्धे इस्युपंव-
अप्वा अजह अपवाह ण्यंते । विसचित्तमितति शब्दे ‹विषचिक्षिरसा विषद्स्यं वा, अस्य
पामा (सुश्रुतेऽपि ) पामन्‌ राब्द्स्य छायेव प्रतिभाति । भारतीये सम्मदायेऽपि कणवेधे
क्ीषक्तिः सारसस्य सोवर्णसूच्याः, चूडक्षुरक्म॑णि सुवर्णसम्प्क्तननरस्य उपादेयत्वं
शिरोरोग
सारणः सारन भ्यते ।सुश्रुते शस्यचिक्रित्साश पवने
खो “तानि ८ शबखाणि )
` एवं कुरुष ( वुष्टबण >, दुरक्‌ ( अश्मरी ),अधोस्ति ( शी- भरायशो खोहान ि भवन्ति ः इत्युक् तमस्ति ! यस्य व्यास्यार्या
णांस्थि ), दु (उव)रइस्यादिशाब्देष्वपि कुर्‌, षत्‌ +" "ऽस्थि, “लोहाः पन्च सुवर्णाद्यः' इति सुवर्णपसुखभावेन निर्दैशोऽस्ति ।
दाह इत्यादिसंस्करतशब्दापभ्रं शता प्रतीयते ¦ अन्येष्वपि शब्दै- एवं दशनेन तदीयम्रथमवैदयस्य त्रितस्याऽप्याचार्यभावेन निरि.
षवनुसन्धाने बहुश्चः साम्यं प्रतिच्छाया वोपरुचयेत । अवेस्तायां स्यावबोधरॐ थरेर्थब्दे करवीर्य-रेत्रवीर्य-तवीर्यत्यादिभार-
मानसं श्ञारीरकं चेति द्विधो स्वास्थ्यं वण्यते । सुश्रुतेऽपि पुनश्च तीयसंस्छृतच्छायाया दृश्यमानतया भारतीयसम्प्रदाये श्ञाय-
हिविधाः शारीरा मानसाश्च' (सू. स्था. अ. २४ ) इति दवेषि- मानः करवीर्योऽन्यो वाऽन्ञायमानः कश्चन भारतीयो भिषगा-
ध्योर्रेखोऽस्ति। अवेस्तायां मन्थ ( मन्त्र), उर्वर ( उर्वीरिह ), चायं इव स प्रतिभाति ॥
केरेत( कर्तिंका, कर्तरी, करपत्रं वा ) इति मन्त्रवनस्पत्योषधि- वि तूढहाङ्गतहान॑रोपरुब्धग्राचीनकेखे जीवकाय बुद्धेन कृते
शखरूपाख्रयो रोगनिवर्तनोपौयाः कीर्तिताः सन्ति । भारतीये < पूवं (षर. २८ ) निर्दिष्टे संस्ट्रृतेन सह प्राचीनेरा.
मैषज्यसम्प्रदायेऽपि मन्त्रौषधशखरूपाधिधा मरतीकारोपायाः नभाषानुवादस्याप्युपरम्भो भारतीयमेषज्यविषयस्य प्राचीने.
पूर्वानुचत्ता दृश्यन्ते । अवेस्तायां 'गौकिरंन, इति, यस्य पश्ाद्ध- राने ग्रहणमादरं स्वभाषायामनूध्यापि प्रचारं च दर्शयति ॥
वभाषायां "गोकार्तं, इति रूपं जातम्‌, तस्य सर्वप्रधानीषधि- अवेस्तायां भेषज्यग्रस्थानोद्धावकत्वेन भ्रितस्य, रोगनिशत्े
बरत्षमादेन निरदेशोऽस्ति । यः शब्दौ गोकणे' इति भश्वगन्धा- भा्ंना कर्ँतया भ्ैतानस्य निदशेन, वेदेऽपि त्रितस्य तैतनस्य
वाचकस्य संस्छृतश्नब्दस्य विङृतिखि भाति । अश्वगन्धाया चोपरम्भेन वेदे अवेस्तायां च निदिं्टाविमी शब्द्सामीप्यादेकौ
भायु्वेदेऽपि प्राशस्त्यं कीर्यते । सोमस्य यज्ञसम्बन्धितया जओष- स्यातामिति बहूनां विदुषां दृ्िरस्ति । ऋभवे त्रैतनस्य सङ्हु- `
धिभवेन चोभयथाऽप्युपयोग उभयत्र दश्यते । अवेस्तायां रखेखेऽपि जिघांसया दीर्घ॑तमछषिं जरागन्योः पातयतस्तदङ्ग-
भैषज्यविद्वान, वेः, रोगः, रोगनिवृ्युपाय इति भैषज्यस्य च्छेदकस्य दासजातीयस्य भावेन निरदेशद्नादधिभ्यां भूयो
चर्वारः पादाः कौतिताः सन्ति । आयुवेदीयसम्परदायेऽपि सैष- रक्षितस्यापि दीधैतमस ऋषेः प्रतिपक्तः कश्चन विपक्षः स तरैतन
ज्यविज्ञानं, वेद्यः, रोगः, परिचारक इति कचन अंदर गणनीर्या- इति प्रतीयते; परं नास्य भेषज्यसम्बन्धो वैदिकारुरेखाश्वभ्यते ।
शविमेदेऽपि धन्वन्तरिकरयपात्रेयमेडादिभिश्चतुष्पादसिद्धान्त त्रितस्य ऋग्वेदेऽथर्ववेदे च बहु उज्ञेखेऽपि छषचन त्रितक्षब्दोऽ
` |गन्यादिदेवताविरोषपरषेन व्याख्यातोऽस्ति । यत्र मानवभावा-
१. सारणसारनख्नब्दयोयवुपु्द
साम्येऽपि वैदिकस्य अतीसार-
चवोधकः स शब्दोऽस्ति तत्र कचन सुकतदरष्टृषिभावेन त्रितस्यो.
बोधकतया, अवेस्तागतस्य शषिरोरोगबोधकतया निर्देशेन अर्थभेदो
द्दयते 1 |
परुम्भोऽस्ति ।चरृहद चतायां यास्कनिर््तंऽपि छषित्वमु्धिखित-
‰. 7, ‰. 2. »०1, 7 2. 758 ए 1, ¢, (४5. मस्ति । द्रोषु स्थरेषु व्वर्थान्तरमेव । यत्र तु वेदे आष्यः
" 3, एद रण्‌. वप्र 2. १५8 †5 1, 0. 0%र्ल, आष्स्यः त्रितः” इति, अवेस्तायाम्‌ 'आण्न्यः त्रितः" इति शब्दतो
4 (४) दात्८8४४ एष 1 (8. 2. 2, प्र०, प्र), बहुशः साम्यं दश्यते, तत्र परिवेद्नदुःस्वसस्वर्णंकारमाराकारा-
>. 227.
दिदुष्कृतमार्जनस्थानस्वेनापि त्रितस्योल्ञेखदक्शनेन पैदिके सम्प्र- `
दाये हेयभावेन गृहीततया सुराणामसुर इव तरितेऽपि विपक्ष
@) 2. ‰,„ ए. ०. {प्र ?.758 एए 1, 6. 0र््यला).
5. {£ 18 6प्त०णऽ # एला {79४ 0110 ०1641681 1. @ 65 कन्तक ल्म जपःफलभड
80167006 9180 41800 ण3066 ४1€ पाः ह्लं ( 2809 ) 0 1 कथ 9 एणा 1 कलर, ज कोपन) ८ - नण ४त
7161010९. पतौ), 00सटप्टा, पला पहणप्मालते 88 च {€ ए४६€ कला८ 8८# पए ६०9. ए€ स प्रदाण £ 99
एणभन9, ५186856, फत्ताल०९, ४6 पप्एट रण€ त7709- 70 1९91९ का प्रणो 28 कथा ४8 € तौ क.
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६. युशते-वेथो न्याध्युपसश्च भेषजं परिचारकः । (४) 8. 7, 2. एग. 1, 2. 758.
| एते पादाश्चिकित्सायाः कम॑साधनदेतवः ॥ १. 8888 0 77€ पनु ग € 97578
[र | | | य. स्था.
अ. ४ | ण 1. प्च, 2. 97-18. ।
` कादयपीये--भिषक्‌ , मेषजम्‌ › आतुरः, परिचारक इति र. २७ २. ऋक्‌१.१५८. ३.
` चरकेमिषग््रग्याण्युपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्‌ ॥ ४ ऋक्‌६.४८७. १४-१५। अथव ६. ११२. १।६. ११४. ३।
1 ~“. । सु.स्था.अ,.९ | । १९. ५६९ ई, `
उपोटति च,
१०९
भावोऽवदध्यते । त्रितस्य धितस्य चेकते वैदिकाधिनभेषभ्यस- निधारणं कर्तुंन शक्यते! किंवा गोपुरमिति अ्ञातनगरान्तरस्य
स्प्रदायस्येव इरानीयस्य . धरितभेषज्यसम्प्रदायस्यापि समयो सम्बन्धेन व्यवहृत गोपुररक्ितोऽपि सम्भवति ॥
विरेषेणोप्यारोहति । किन्तु चिते भैषञ्यविषयसम्बन्धो न कापि ` प्राचीनो भोजदेश्ञः कान्यकुन्नदेशगतभागीरथ्या द्तिणे तटे
वेदे दश्यते । तैत्तिरीयसंहितायामेकनत्र ( $. ८, १०. २) आयु- पञ्चद्ञषोडशक्रोशान्तरारे आसीदिवयुपवर्ण्यते । दिवोदासान्ते-
ष्यदातृतया त्रितस्य प्रा्थनोपरम्मेन वैदिके त्रितेऽपि भैषज्यस- वासी भोजाचायों भोजदेश्सम्बन्धमादाय तन्नान्ना व्यवहतः
म्बन्धो दश्यत इति मार्टिन ( धी? ) विदुषा कथ्यते, तथाऽ सम्भवति ॥ | | .
पि तत्र त्रितज्ञब्दस्य अग्न्यर्थकव्वेन व्याख्याततया रज्ञसुयप्रा- | उपधेनोरपत्यसम्बन्धमादाय ओौपधेनव इति निष्पद्यते ।
करणिकतया च प्रकते त्रिते भैषज्यविषयसम्बन्धस्ततोऽपि न आओीपधेनवो नामाचारयोऽन्यत्र नोपलभ्यते । किन्तु उपगोरपत्य-
स्फुटीभवति । विचारणीयोऽयं तकंविषयः ॥ मौपगव इति पाणिनीयसूत्रोदाहरणे महामाष्यज्कृता उपण्ब-
ओरभ्रशब्दो हि उरश्रस्यापत्यमिति उरभ्रे भव इति वाऽ पत्यरूपेण जौपगवो निर्दिषटोऽस्ति । विष्णुपुराणे मिधिलानृपतेः `
सीरध्वजस्य अ्रातुः काशिराजस्य कुशध्वजस्य वंशोद्धव एक
मादाय व्यक्तिविरोषस्य देश विदोषस्य वा वाचकादुरश्रशब्दा- उपगुखभ्यते । उपगुर्नाम वसिष्टगोत्रोद्धव ऋषिविशेषोऽपि
निष्पन्नः स्यात्‌ । उरभ्रम्यक्तिः उरञ्देक्लो वा प्राग्भारते न ज्ञाय-
रुभ्यते । ओरवकोत्सनरृपतिपुरोहिस्य सौश्रवस उपगोराख्यानं
ते । उरभश्चब्द उरणङाब्दश्च मेषावबोधकतयः प्रसिद्धौ, ेदेऽ-
प्युपरभ्येते । सिन्धौ संगच्छन्त्या उर्णावस्या नघा वेदेऽप्युल्रे- पञ्चविंशाह्यणे ( १४. ६. ८ ) दृश्यते । ओौपगवे्ुनरचात्रा
खोऽस्ति । गान्धारे तदुत्तरदेशेषु च मेषप्राञयं पुराऽपि कीर्त्यते। मीपगवीया इति महाभाष्यज्कृता (४. १, ३, ९० ) छिखित-
तस्ाचुर्यसम्बन्धेनेव स्यात्‌ नधा अपि उरणावतीति नाम निर सिद्ध तया दछन्रसम्परदायप्रचतकत्वमौपगवस्यावगम्यते। सोऽयं श्र
च्यते । अध्वर्यवो य उरणं जघान इति छऋडमन्त्रे (२,१४.४)
ओपगव एव ओपधेनवः किमु ! पर्यायशषब्दैरपि पूर्वेषां
इन्द्रेण हतस्य उरणनामकस्यासुरस्योररेल उपरम्यते । बि. |निश्चीयते
कचन भ्यवहारो दृस्यते । कोऽयमौपधेनवः कत्रव्यश्चेति न
खोनदेशस्य प्राचीननगरेष्वेकम्‌ उर' नामकं नगरमनुश्रयते । ॥ | [र
ईदशास्तकां दृदगप्रमाणपर्येषणामन्तरेण न किमपि निश्वाय-
यत्‌ चाल्डियनानां समये अब्राहामस्य प्रधानस्थानं, सुमेरिय- यितु
प्रभवन्ति
नानां 8. 0. 2000 पूर्वसमये सेमेटिकसत्तायाः प्रारम्भे सारगा- मानि भारते । तदपि दद्षितेन पथा तरकंतानीमान्याचार्वना-
तत्र तत्र प्रदेशेष्विव बहिरवूरदेशेष्वपि धान्वन्तरः-
नवशजानन्तरम्‌ “उर गुरः नाश्नः उर एन गरः नाश्नो वा वरृपस्य . सम्प्रदायालोकम्रसरणे हइारसद्धावं सम्भावयन्ति। एवंन्यायेन
समये उरनगरं प्रधानं, वाबिरोनसमयस्यान्तपर्यन्तं धार्भिक- न केवरं धान्वन्तरसम्भरदायस्येव, किन्तु विभागान्तरीयभेषल्य-
वाङ्मययोर्विषययोः प्रसिद्ध तरंचासीत्‌ । उरनगरे प्राचीनस्य विक्ञानानामप्याोकस्य परितः प्रसरणाय द्वाराणि भवेयुः!
ध्ठैर नग्सुः ( ए कवशपपणप 8. 6. 2300-2200 ) नामकस्य
किमन्यत्‌ , ऋण्वेदेऽपि प्रयुज्यमानस्य बैद्यवाचकस्य भिषक-
"वसिनः ( एण" ) नामकस्य च तपस्य रिररेखौ प्राप्तौ । शब्दस्य ओौषधवाचकस्य मेषज-शब्द्स्य च विङ्कृतमा
। इन्द्रेण कारं
असीरियन्प्देश्ीयपूर्वजातयः असुरखवेनाभ्युपगम्यन्ते स्फुटमव बोधयन्तौ बिजिष्क (एु)८ ) बेषज ( 569 )
हत उरणस्तदेशीयः सम्भावय ' शाक्यते । उरशब्दस्य उरश्रा- शब्दौ इरानदेक्षीयपर्थ॑भारतीयभाषा्या, विश्षिष्क ( 57190 )
दिशब्देष्वनुगमस्तदेशसम्बन्धसुचनाय चेतः संशाययति ।उर्‌. वेशषष्क ( ए"#\€ ) शब्दौ अर्मिनियनूभाषायामप्युपलभ्येते
प्रदेरो भारतीयशारश्त्तकाष्टमुपख्ड्धमासीदिति ए, सी. दासो इति पूर्वं (षर. ७६ >) निर्दिष्टमस्ति । चै्यौषधवाचकयोः
वर्णयति । तदेशवाचकस्य उरशब्दस्य सम्बन्धेन उरभशब्दो प्रधानश्चब्दयोरपि एवंरूपेण पूरवंकारे दूरदेश्षान्तरपरसरणेऽवगम्य-
निष्पन्नश्चेत्‌ काङ्कायनेन बाहीकप्रदेश्च इव दिवोदासरिष्येणोर- माने पएतद्विद्याभ्रस्थानविषयाणां परितः प्रसरणे न किमपि
आचार्येण उरप्देशोऽपि उपरक्नितः किंसु इति तकंणास्थान- कौतुकम्‌ । वाडेकमहाकशषयेन सुमेरियन्धदेक्षीयम्राचीनसुदरागतैः
युदेति॥ |
~ ` गोघररदितनाञ्ना वा निर्दि गोषुसे रितशरेति ~ द्वावाचायौ
शरेति | | त्रेःरैःक दिपितानां
स ्कतिकाचरे तदेशीयजब्दानां
केर्पितानां तदेश्षी यकश्चब्दानां च
यदहाब्दानांंँभारतीयश्ब्दानां
वृगु-ष्गु- ` सख-शक. रधिया-गाधि.
केचन मन्यन्ते । केचन समष्िनान्ना व्यवहंत एक एवेति मन्य-
न्ते । दाविणात्यश्षितपम्रन्थे गोपुरस्य निदेशात्‌ दाक्तिणात्यदेश्ेषु
` वगव-मारंन, इन्दुर-इन्द सुसिन-सेण
गुग-गग.. ` अस्सि-अश्चि.,
एमद्रर-मुद्ल,
- गोपुरस्याद्यापि ` विशेषतः प्रसिद्धया. च गोपुरनान्ना व्यवहृत हनक-जनक. गर्ह-गाल्व. उर्वस-हर्यश्च,
आचार्यो दाहिणात्योऽपि मवितुं सम्भवति । किन्तु महाभारते
` एवंदिश्षा बहशो विम्बायुबिम्बभावेन साम्यं सम्भावित. `
रामायणेऽपि गोपुरस्य पुर्वाराथंकस्योपकम्भेन एतावतेव देश- | मस्ति। फं बहुना धन्वन्तरिदिवोदासयोरपि त्रोद्ावनं
1, 05585 ०2 ९ | लोहमयः ण ४९ एश ` | इतम्‌ । तद्भतपूवरपादीनामिक्षवीयाब्दरम्भतः उपद्ितरसहस्र-
` ण प, पषण. 2. श्ध-18.
1, 6९ग्ह४ण्ड एगध ०६ 4 नेधः४ ।व
, ` 9. एवान [01८ हत प्ताजगङ् ?.१21-23 ~ - पलम्‌ (एदा, फ करप्ण्त० 19] ए, 2, 38, = `
[र णि 8. ^. एभा) तहर, 2. 1700--ऽप्रल#» 36४18 तदन. कन्यम्‌ = | |
: . 3, एद्वर्९01० 19» णि 4. 0. 788 २, 216न््‌9, गप 7 ९०6 8०0 प्ाभणतृ, ए 6, ऋश्वदना, =
च + क व 0
^ ^ क त
न) कमी + 9000 ^
नि

यनानाजाततीनां निदेशे हूणपारसीकचीनादिभिः सह रमणजा-


[क छ क क क क क क क 99

तीनां, निषधस्योत्तरतो रमणवर्षस्य निदेशश्च दश्यते । एवमु-


ल्रेखदर्शनेन अरमेनियाग्रदैशपयन्तमपि भारतीयपूर्वाचार्याणां
परिचय आसीदिव्यनुमातुं शक्यते । अलेक्जेण्डरेण सह नीता-
सङ्गमो मारीचकाश्थपाश्रमद्रतवं च महाभारतोक्तमपि पूं नाम्‌, अशलोकसमये इतस्ततः प्रेषितानां च विदुषां कानि
( पृ. १७ >) निर्दिष्टमेव । तस्य गारुवस्य अश्वरिप्साग्रसङ्गेन नामानीति इतिहासो निगृहते । “यिशुखष्टस्य समये मिश्रदेदो
इतस्ततो दुरेऽपि पर्थटनं महाभारतरेखादायाति । सुमेरियन्प्र- शेराप्यूत' नारना प्रसिद्धाः केऽपि विरक्ता भिन्खवृत्तय आसन्‌ ।
देशीयपूर्वमुदरादष्टो गद्हो नाम गारूव इति वाडेरमहाशायेन येषां शित्ताप्रभावो थिश्युखष्टेऽपि पपात । दमे पूवदेशाभिजना-
सम्भाव्यते ।समुद्ररमौद्वल्यादीनामपि भारते वंद्याचायंतयोपल- धर्मोपदेशेन साकं चिक्रित्सामपि कुर्वाणा असन्‌ । येषां नाम्ना
ग्धिरसिति । समेरियन्पदेश्षीये एमद्भरे “अज्‌? इति वे्यविदा- पाश्चाच्यचिकित्साशाखे “भेराप्युतिक्सः नामको विभागविहे
ज्ञानावबोधकं विदहोषणमस्तीव्यपि वाडेरमहाङयेनोच्यते । पोऽस्ति । एषां थेराप्यूतानां जीवनं भारतीयथेरो ( स्थविर )
यदि गर्ह-गारवयोः, एमद्रर-युद्धख्योरक्यं भवेत्‌ तदा भार- भिद्धकाणामिवासीत्‌ । अश्योकसमये पाश्चाच्यप्रदेरोषु गतानां
तीयायवैदविचयाचार्यः भिद्धकाणां चिकिस्सकानां च सन्ततय एते भवेयुः इति
समेरियन्प्देशोऽप्युपरन्नितः सम्भ-
वेदिति वितकोऽप्युदेतं शक्रोति! परमतिप्राचीनविषयतया भारतीयेतिहासमन्थे जयचन्द्रविधयाङ्कारो वणयति । पोकाकम-
प्राचीनमुद्धाच्राणामपि पेकमस्येनानिश्िततया तदीयेषु सम्भा- हाङयोऽप्येवमेव निरूपयति । देशान्तरीयेतिहासेष्वपि कति
वित्तगार्वजनकधन्वन्तरिदिवोदासादिषु भेषञ्यवेत्तववादेर्विषय- निरीना! भवेयुः । देक्लान्तरेतिहासगतान्यपि कति भारतीय-
स्यानुपरुम्भेन च पूणंतयाऽनुसन्धानं विना नेतावन्मात्रेण नामानि देश्ान्तसभापासु बहुशो विद्रत्या अपरिचेयभावमापय
प्रकृते याथातथ्येन न किमपि वक्तं शक्यत इव्यास्तां तावदे- तदेशीयव्यक्तिनामानीव प्रतीयमानानि स्युः । यथा हि करोनस
तत्‌ ! अस्यां काश्यपसंहितायां भोजनकल्पाध्याये (पृ. २०६) ( {९४००8 ) न।म्नाऽमिहितो भारतीयः कल्याण इति विवे
सात्म्याशनप्रसङ्गे काश्मीरचीनापरचीनादिभिः सह॒ वाहीक- चकैर्निरूप्यमाणः स एवायमिति परिचीयते । एवंभावेन बहुशो
दासेरकशातसाररामणदेश्चानामप्युररेखोऽस्ति। दासेरकदेशो विकारविवेचकद्शो बहिमवेन च भारतीया अपि अपरिचेय-
माख्वाप्रान्तीय इति केधिदुच्यते । परं महाभारतेऽनेकस्थ- भावेन देशान्तरीया इव भ्रतीयमाना इतिहासगर्भगता भवेयुः!
रेषु दासेरकोदरेखे माखवस्य प्रथगुर्रेखदशनेन मार्वदेशा- कतिपयेषु
जायमाना सदसती प्रत्यभिक्तासम्भावनाऽपि
दन्य एव स देक्ञ इति ततः प्रतीयते । शातसारः को देश इति विचाराय दशः प्रेरयति ॥
च न प्रतीयते! तथाऽपि बाह्लीकरामणदेहसाहिप्येन दासेर- चरकसुश्रुतकाश्यपभेडादीनां प्राचीनग्रन्थेषु गृहीतनाम्नां
करातसारयोरपि तत्सश्चिङ्ष्टदेशविरोषस्वमनुमीयते । रमण- पूर्वाचार्याणामन्येषामपि नामान्येकेकश उपादाय यथावन्न
देशस्तु अरमेनिया (^: ) देशं इति निरूपितोऽस्ति । वचनं, प्याखोचनं, विपयानुसन्धानमपि आयुवेदीयपूवाव-
रामणपर्व॑तस्योल्छेखो जेन्दावस्तायामण्यसिति ।महाभारते उत्तरी स्थाया देशतः कारुतः स्वरूपतोऽपि विवेकाय यं कमपि
सालोकं मार्गमुपदर्शयेदेव, किन्तु विस्तरभयादिदानीमेताव-
1. {0848/€ा99 --98, 060४0768 नम्य
तेवोपरभ्यते ॥
० .^1601€0# & 11६41४91 11418, ए. 54
एफ नप००० 19 वश्क बेदिकसाहिष्ये मान्त्रिकप्रक्रियाया उपलम्भेऽपि केवलमेष-
२. मीष्मपवेणि १६७. १३२-३३ 1द्रोणपवेणि ११. १६-१७ जप्रक्रियाया अपि नादपान वा साधारणाः
(४) पि ०१फ १६९--.4. ए1600९970 10700 0 18 वैदिकसा- जपि उ भसावारणा बहुशो विश्या ऋग्वेदेऽपि
ि एाप०, प्क 15 4 पालण्‌9 -( 100. 407, €. 26, ) 2. 166 हिव्यमूलकं दृश्यन्ते; अथववेदे तु शारीरकाणि ओषधयः
¶४९ (द्दात नण त लपन &
भ।रतोयमे- शखवेदयकविषया रोगनिरदशा .रोगोपचारा-
| 21६41698} 10419. एप पिपणय० 18 08
षठ्यसमर्थ- शेत्येतादशा भेषञ्यविषय। ओताः प्रोताश्चेति
(9) क्छ ४०8 ण (दुगणट् णकभ03 106 95)
?. 288 नम्‌ पूवे ८ट. ९-७ ) निदिष्टमेव । षष्टयधिक-
600४९९७9 28 {1 (8. 8. ४, ९०], रशा) त्रिश्तास्थि्ञानं शतसहसरक्षः तिरा (हिरा )
` ` `" प, 0९
४. उन्तराश्चापरे म्लेच्छाः करर भरतसन्तम १. भारतीय शतिहदासकी रूपरेखा माग २ १. ५९६.
2, ¶061& 100 66606! ॥़ ९०५०6४6.
. यवनाश्चीनकाम्बोजना दारुणा म्टेच्छजातयः ॥
सङ्ृदग्रहाः कुरु्धाश्च हूणाः पारसिकैः सह । ३. द्वाद प्रधयश्चक्रमेकं त्रीणि नभ्यानि क उ तं तच्चिकेत ।
तैव रमणाश्चीनास्तथैव दहमाछिकः ॥ तवादताख्लीणि इतानि शङ्कवः षष्टिश्च कीला अविचाचला ये ॥
| ति .--मीष्मपवणि ९ अध्याये अथवं, १०, ८. ४
दक्षिणेन, शवेतस्य निषधस्योन्तरेणःतु।! ४. शतस्य धमनीनां सदस्य दिराणाम्‌ ।
..वषं रमणकं नाम -जायन्ते ततन मानवाः. ॥ -तत्रैव ८ अध्याये अस्भुरिन्मघ्यमा इ्माः साकमन्ता अरंसत ॥ अथव. १, १७. १
उपोद्धातः । १११

1

धमनीनां पौर्वकाडिकं ज्ञानं मन्त्रलिङ्गाद्पि स्फुटीभवति ! शत- | याओजोषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यखिधुगं
तानानमासीदिति ध्वा
पथिपरिज्ञ
पथव्राह्मणेऽप्यस्थ्नां षष्टयधिकत्रिश तानां वर्णनमस्ति । वेदिकया पुरा" इति वेदिकादेव मन्त्रलिङ्गाद्‌ दश्यते ॥
यागमरक्रियायां पाशुकविभागे न केवकं पश्चूनां, मनुष्याणामपि किञच-वेदिक्यां
=. +
नक्तर्टो शतभिषद्नामकस्य
| - _, „ ~ ..
नकतन्नस्य या-
मेधेषु तत्तदवयवानां पृथक्छरणं विनियोजनं च दश्यमानं उ्यानुवक्यातत्तिरीयमन्त्रयोः वर्णस्य ज्तभिषड्नक्घन्रस्य च
तद्विषयकं विज्ञान विशेषं व्यनक्ति । वपाहृदयादुद्धरणे हस्तकौ- शतशश ओषधीर्निष्पा्य आयुष्यकारकत्वादिकञुपवण्यंते । तेना-
शरूमपि बित्ञानवर्धकमभ्यासं दश्षेयति । अथववेदस्य द्म- स्मान्मन्त्रशिङ्गाच्छंतज्ञो भेषजानां -दातृतयाऽस्य नक्षत्रविरेषस्य
काण्डद्धितीयसूक्ते शारीरकार्थ्नामानुकमिकं समीचीनं च वर्णनं तन्नाम्ना ज्यवहारः पौर्वकाकिकोौऽवगम्यते । तश्रैव ाद्यणवा-
लभ्यते 1वेदकार्किमरतीयैः प्रथमं शरीरस्य शारीरकविच्ञा- क्यान्तरे असुरप्रहारशतस्य चिकिस्सनेन देवानामारोम्यरुब्धि-
नस्य च मिथः सस्बन्धमावहन्तो विषयाः परिक्ञाता भख ्यस्मिन्नचत्रे वभूव स एव शातभिषगिति निर्वचनतान्तरमपि
इति वेदिकविषये वेदुष्यवद्धथां कीथम्याकडोनरुमहाशयाभ्या- सूचितमस्ति । कृत्तिकादिनक्षन्रकाको गणनयाऽप्यतिप्राचीनः।
मपि छिखितमस्ति ॥ | | | तेष्वेकतमनक्तत्रवाचकस्य शतभिषक्छुब्दस्य वैदिके समयेऽपि
ऋगथर्वयजुम॑न्त्रलिङ्गतो विरोषतो बह्धीनामोषधीनां ज्ञानं निरूढस्यायु खन्धाने तावताऽपि शतसहखश ओषधीनां तदु-
विनियोगश्च पूर्वंदित एव विकृतमभ्ायवयवानां रोहणसन्धा- पयोगानां ततो खाभानां चावगमोऽतिपूर्वकारदेवासीदिति
ग्रतीयते॥
नाद्यर्थमोषधीनां भार्थनाऽथर्ववेदे दश्यते । ऋश्वेदे सोमस्य ` २,
ओषधिराजंस्वेन वर्णनमपि बहुश उपरुभ्यते । सौमिकी याक्ति- | आध्यास्मिकप्रक्रियायामुपनिषद्यपि
नाञ्यादीनां विज्ञानं
कग्रक्रिया यदा प्रबृत्ताऽऽसीत्‌ तया साकमेव सोमस्य ग्रधानौ- भ्यते । योगमार्गेऽपि शारीराणां भराणवहानां सूच्माणामपि
षधिभावेन परिज्ञानं दश्यते । अधिनोदवमिषग्भावं सोमाधिन- नाडीनां बहुशो विक्ानं यथाकाममान्तरवायोः सञ्चारणनिरो-
योधंनिष्टं सम्बन्धं च बहुशो मन्त्रसिङ्गानि गमयन्ति । सुश्रुतेऽ- धनादिकोडारं च रुभ्यते । तान्धिक्यां पद्धत्यामपि षट्चक्रमेदनं
पि सोमस्यौषधिभावेन बहुशो नि्देशोऽस्ति । सोमस्य तत्तरस्थानेभ्यो वर्णानाुत्पत्तिविभावनं, मूर्धभागे कर्णाक्तिनासि-
यातिक्यां संस्थायां ।सेषजसंस्थायां च सम्बन्धविशेषावगमोऽ- कादिसम्बन्धिनीनां तत्तदेन्दरियकादिविल्ञाननाडीनामनुसन्धानं
प्येतद्विद्यायाः प्राचीनतरत्वं दुर्ञंयति । अथर्वणि कुष्टौषधवर्णन- क्ञानवहनाडीनां केन्द्रस्थानीये गुरुपदे ऊण्डङिनीतः ससुत्था-
सक्ते ` पिताया जीवशक्तेः संयोजनेन राभास्वादनमित्यादयः सूच्मा
देन कष्टस्य
` इच्वाकुकाम्यवसैः पूर्वकारे परिन्लानस्य निर्देश-
- ९ | 1नविरेषा अन्तसुखी विरोषसंविदमवभासयन्ति ।
ने न . ओषधिविरोष
ओषधिवि ाणामन्वेषणं परिक्लानं
स च पूवकाका
पूवंकारदे
देव व || आन्तरवित्तानव
महेजजोदारोभूरर
बहूनामासीदिस्यपि मन्त्रलिङ्गतो लभ्यते । नेतावदेव, वेदमन्त्र
िशेष =
्मोपर्ब्धयोगमूर्तीनां द
विन्यासवैशिव्यमपि यौ.
सहखश ओषधीनां शतशो भिषजां चः तादाचिकीं प्रज्तपिम- ` ~ गिकान्तःक्रियाविन्ानकौशदं भाचीनतरं साधयति! (~^
व॑तन्त,
व.
प्युद्धिरति । न केवर वेदकारु एव, जपि तु त्रियुगात्‌ पूर्व॑मप्यो- १. (क फ क्षत्रस्यः राजा वरुणोऽधिराजः । नक्षताणां इतमिषग्वसिष्ठः।
तौ देवेभ्यः कृणुतो दीवंमायुः । रतं सहा भेषजानि धन्तः ॥
इमा यास्ते रातं हिराः सहं धमनीरुत । | | | ( अनुवाक्या )
तासां ते सवांसामहमदमना विरमप्यधाम्‌॥ अथव. ७. ३६. २ सायनः" "“* "तौ वरणञ्चतमभिषजौ देवेभ्यो देवा्थं यजमानस्य
१. रातपथे १२. १. २ । १२. ३. २। दीषंमायुः कृणुतः । तत्सिद्धयर्थं॑शतं दातसंख्याकानि सहखसंख्या-
2. ¶्116 1प्लाल्9ं ग € #ल्वात 10478718 8९61708 दक्षु कानि च भेषजान्यौषधानि षन्तः संम्पादयतः ॥ |
+ 1&९९८ 1९ ०००६ १० ट =त0तण्ञावल्तत5 त 0९8- ( ख ) यज्खं नो राजा वरुण उपयातु 1तन्नो विदवे अभि संयन्तु देवाः ।
05 60प०९५०६५ रा € 81810170 0 1176 ०, 11३ ` तन्नो नक्षत्रं शतभिषण्जुषाणम्‌ । दीघमायुः प्रतिरदधेषजानि॥
४ एप 0 06 4 प्रवा २९१8 ( र, 2 ) €ाप्ा0ला४६९8
0 ए 0 ४0९. ण्व र 50€ शुण०४०ो ६० सायनः" *" "“"रातभिषगाख्यं तत्न्षत्रं नोऽस्मभ्यं दीर्घमायुध्िर-
8008९ 8710 0 तलाणुङ भ57 दला. ि कारमायुष्यं मेषजानि तदथान्यौषधानि च प्रतिरत्‌ प्रकर्षेण ददातु ॥
7, 1, 0. ©. 20९01048 ए]. 71, ?. 415. ` तेन्तिसीयन्राह्यणे ३. का. १. प्र.
३. सं ते मञ्ना मज्ज्ञा भवतु समु ते परुषाः परः । २- यच्छतममिषञ्यन्‌ तच्छतभिषक्‌ ॥ तैत्तिरीय ब्राह्मणे १.५.२.९.
सं ते म{सस्य विलस्तं समस्थ्यपि रोहतु ॥ सायनः--यस्मिननकषत्रऽसुरछृतं -प्रहाराणां शतं देवा अभिषज्यन्‌
मस्ना मज्ज्ञा सं धीयतां चमेणा चमं रोहतु । ` | अनायासेन चिकिस्सिंतवन्तः तस्य दातमिषगिति नाम ॥
अस्य्‌ ते अस्थि रोदतु मांसं मांसेन रोहतु ॥ २. राते ह्येका हृदयस्य नाच्यस्तासां मू्धांनमभिनिःसतैका।
रोम लोभ्ना सं करपया त्वचा सं कल्पया त्वचम्‌ ! तयोध्वंमायन्नखतत्वमेति विभ्वगन्या उत्क्रमणे मवन्ति ॥ `
अख्क्‌ ते अस्थि रोहतु चनं सं बेद्योषधे ॥ | कटोपनिषदि.& १६
ष _ अथव. ४. १२. ३.५ & {16 ध ऽप०पड ०१९१111 09580 0. पलार, ` `
` ५यंत्वावेद पूव दश्वाको यंवा त्वा कुष काम्यः । 116.» €76 ७०५8 &3 9इप्68 ० 81010 ` _ `
यं वा वसौ यमास्यस्तेनासि विश्वभेषजः ॥ अथर्व १९.३९. ९ ` च ~ 7 ` ` पएणञ्वणा0. एलन =
११२ उपोद्धातः ।
+
+ + ^ + ^
^-

जी. रेरे ८ ४.५. 1७८) महाशयेन वैदिकमन्त्रानवरम्ब्य


7 ति 00 क ^)

ज्िखितमस्ति । वेदस्य कणग्यज्ञःसामाथर्वप्रस्थानानां क्तश्च


आन्तरनाडीचक्रादीनां तत्तदधिष्ठातृदैवतादीनां च विषयेषु सहखशश्च शाखा विभक्ताः प्रतिपाद्यन्ते चरणव्यूहकृता । काल-
बहुशः भ्रकाश उमद्धाविततोऽस्ति ॥ धमण वहुशः शाखानामुच्छेदेऽपि उपरभ्यन्ते अद्यापि अनेकाः
याक्वस्क्यस्श्रतौ योगसम्बन्धेन शरीरोर्पत्तिप्रदशने सवि शाखाः । कतिपयज्ञाखान्तराणां श्रौतस्मा्त॑सूत्रादीन्युपरभ्यः
वरणानि षष्टयधिकत्रिशतास्थीनि प्राणायतनानि सक्षशतसिरा मानानि तन्मूरश्चतिश्ञाखानां विरोपमप्यनुमापयन्ति ।
नवशतस्नायुन्‌ द्विशतधमनीः पञ्चह्यतपेश्ीः केशरोमाणि रसा- सोऽयं वेद्‌ आनुश्चविकरम्रक्रियया तत्तच्छाखाविरोषरूपेण अति-
दिपरिमाणानि हृदयनिर्ग॑ता हासप्ततिसहखनादीश्च निरूप्यत- पूवेकाटादायांणामसंस्यमहर्षीणां वसतिषु हृदयेषु मुखेषु च
द्विक्ानं योगोपयोगिततया निदिं्टमस्ति ! रामायणमहाभारता- आतग्रोतां विष्वग््यापिनीं महनीयामात्मनः स्थितिमवनोध-
दिष्वपि श्चख्वेधकादिविषयोऽस्तीप्युक्तमेव । कौटिरीयेऽपि श- यति । एतादृशे जआम्नायसम्प्रदाये अजश्वमेधसद्शस्य महनीयः
खवे्यकादिसम्बन्धिनो विषया बहुशो छभ्यन्ते । तन्न चतुदंशे यागस्याङ्गतया भेषजाख्यानं गीयमानमासीत्‌ । यत्‌ श्युतेरध्य-
ओौपनिषदाधिकरणे परधघातादुभुतोस्पादनभेषज्यमन्त्रयोगस्वव- यनाध्यापनप्रक्रियया, अहरहः पारायणाभ्यास्षरीत्या, या्तिक-
कोपघातप्रतीकारसम्बन्धिनो बहक ओषध्यादीनां प्रयोगा कल्पप्रयोगचर्चानुष्ठानास्विज्यादिवरमेना च आरषवसतिषु सम-
अपि सन्ति ॥ न्तादुद्धोष्यमाणं सत्‌ मन्दिरा्यवस्थितकतिपयभेषभ्यसम्बन्धि
वेद्‌खलु सांसारिकेषु स्वंसारिव्येषु वर्षिष्ठः सम्मान्यते रेखविषयेभ्यः कचनोपरृन्धशिरेष्टकादिगतभेषञ्य विषयेभ्योऽ-
रोकेः। प्राचीनतमहितादरीमित्तानीजत्योमिथः सन्धिरिख- न्यूनं महत्वं, म्यापिकां स्थिति, वेदिकदेवताम्राहिरेखन्तरेभ्य
रेखे नासत्यमिन्नरवर्णेन्द्रा दिवेदिकदेवतानां साक्तितयोल्रेखस्य पूर्वप्रतिष्ठिताया वेदिकसभ्यताया उद्यसहभवेनातिग्राचीनतां
पूर्वं( ष. ७२ ›निर्दिषटस्यानुसन्धाने तदात्वे स्वप्रतिज्ञापारने च भारतीयभेषज्यम्रस्थानस्य साधयति । इत्येवं नानाक्षाखा-
सा्ितया वेदिकदेवतानामुपादानदश्चंनमिदं वेदिकसभ्यताया ग्रसतऋछगथव दिष्वपि वहुश्षोऽनुस्युतविषयतया, यागीयप्रयो
केवरं तादाव्विकत्वं नावबोधयति, अपि तु तदास्वे तावति दुरे गेऽप्यन्तर्गयमानाख्यानतया, जायुर्वेदनाम्ना वदिकम्रस्थान-
माषान्तरीयजाव्यन्तरीयशिरारेखेऽपि वैदिकदेवतानां साक्षि विशेषेण पुराकाराद्‌ विभक्ततया चातिप्राच्चीनाद्धारतीया-
भावेन निदश्शनं सभुक्किरणं च दृश्यमानं वेदिकसमभ्यताया ह्रदिकान्मूटस्लोतसः परम्परया प्रवर्तमानतया निशितस्थास्या
सर्वोपरिभवेन भरतिष्टया प्रचारेण च सह पूर्वपरस्परयाऽनुदृक्ति भारतीयभैषम्यविन्ञानस्य पूर्वोपकरान्तं भारतीयं सुसम्थितं
बहुपू्काङ्िकतां च दक्शंयति । न केवरमेतावदेव, यौ खलु भवति ॥
नासत्यौ भेषज्यविद्यायाः पूर्वाचार्यभावेन ग्वेदादिकसाित्ये सत्यस्मुक्त कोल्नरक-- 7. ०06०००९ )महाद्गायेन
~~
बहुशः कीतिंतौ दश्येते, तयोरप्यत्र शिरारेखे उत्कीतंनं भेष- 16 त्100008 कटाह ८९०68 904 ०01८४06४) इति;
ज्यविक्ञानस्यापि ततः प्राचीनता ध्वनयति ॥ तथा-(13 0 ९ ०४8८ ४ #€ शका] 68॥ (ललणलाऽ
किञ्च-वेदिकीषु यज्ञसंस्थासु अश्वमेधस्य महती कक्षा ० भणत्0ण &पत्‌ €पोटणह्टणालणा डर शकक णप
प्रतिष्ठा चासीत्‌ । परितो नृपतीनवनाम्य स्वं गौरवं ख्यापयि- ०४८९0 10 ४16 9७, &०१ 807९9 (0 प्राह ए9ञ ० €
त॒मासुष्मिकं श्रेयश्च साधयितुं वी्वद्धिः प्राचीनतमेरप्यनेके- प6७--०0४ ००० प्ल रद ४० ४८ 7951. इति मोनियर्‌
राजभिरेतद्यागस्यानुष्टानं बहुशः पूर्वेतिव्र्तेषु दश्यते । वेदका- विरियम् महाश्येनापि ॥
लादारभ्य प्रवतंमानोऽयं यागोऽन्ततो वैदिकधर्म॑पुनस्ज्जीव- यस्य भारतस्य खट प्राचीना सभ्यता मिश्रमेसोपोटामि-
यता पुष्यमित्रेणापि विहितस्तदीयं नाम सगौरवं प्रतिष्टापया- यादिप्राचीनसभ्यतया सह संबदन्ती तामप्यु-
मास । समुदढ्रगुक्षस्य शिरारेखेऽपि यवुकरेखः सम्मानदशा भारतीय- दंषधाग्रे गन्तुमिव समीहते, तादृशस्य भार-
वीच्यते । सोऽयं यागः प्रायः श्रतेः सर्वासु शाखासु संहितासु | भूगभेतः तस्य मरहेजोदारोपवेशमूगभोपरम्धानां निवा-
बराह्मणेषु श्नौतसूत्ेषु च निर्दिष्टोऽस्ति । हदशेऽश्वमेधे राजपरि प्राचचीनमे- सस्थरसानागारमरप्रणाद्यादीनामनुखन्धाने'
षदि महर्षीणामम्रतः संवत्सरपयन्तं गीयमानासु तत्तद्वाथासु
तृतीयेऽद्धि भेषजविद्यास्यानं गीयमानतया आश्वरोयनसुत् षज्य दर्यमानमाधुनिकैः स्थापत्यविधाङकाटैरप्य-
शा शयनसऽपि निर्दिष्टसुपलमभ्यते। अश्वमेधे मेषजविद्या- भिनन्दनीयं प्राचीननिमांणमपि पञ्चसहस्रवरष-
सीदिति म्याक््स॑मूरुर
कर्समूखर ( #{श्0प्रोालः ) विदुषाऽप्यु | पूर्वमपि भारतीयं स्वास्थ्यवेधकविक्तानं पूर्णतयाऽभिष्यनक्ति।
तत्रेव भूगभान्महच्छुयामगोलकमप्युपरुन्धम्‌ । यदूनुसन्धाने
१. याज्ञवस्क्यस्मृती प्रायश्चिम्ताष्याये यतिधम॑प्रकरणे ।
| डा. सनाउङ्खानामकेन रसायनाचा्यण डो० हमीदनामकेन च
दलो° <४-११० भिषग्वरेण च परीच्य ^शिरजतुगोरुकमिदं पर्व॑तीयप्रदेशाद-
२. अथवांणो वेदः सोऽयमिति यद्मेषजं निशान्तं स्यान्त्निगदेत्‌!
त्रोपगतम्‌, इदं मूत्ररोगादिषु बहुषु रोगेपूषयुञ्यते, ओषधकर्म-
आश्वलायनभौतय॒त्रे ५, ण्येवास्य विरेषोपयोगः इस्यादि विवरणं प्रदत्तम्‌ । एवंविधेन
३. अथववेद वेदः सोऽयमिति भेषजं निगदेत्‌ । परीक्षकाणां विवरणेन सह॒ तदुपकम्भषटत्तं सर जानमाशंर
ंख्यायनश्रौतयन्ने १६
4, 4. पाण 9 4 पटा उदन कना 1. 16068 0 & 009] 0}90 9090६, 18९९ एल्टः
१, पभ्प्णप्रालः ए. १0. ( ?. 0. फ. ) । {0१08 7 #€ 7 6769 80 इ 8 4९85 804 ४१6 1090
उपोद्धाक्तः । ११३
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महोदयेन प्रकाक्ितमस्ति एवं शिखाजतदरशनं भेषञ्यविधाया- |एवमुपलम्भेन भारतीयः भेषञ्यविद्या हृतिहासद्शाऽपि पञ्च-
आखोकाय उञ्ञ्वटं दीपकभिव प्रतिभाति । शिरुजतोरूपयोगो सहस्रवषभ्य उपरि आरोहति ॥
धन्वन्तर्यात्रेयकश्यपादिमिरपि बहशो निर्दिष्टः! नावनीतकेऽ- इहैदमप्यनुसन्परेयं भवति-यथा हि महेश्चोदारोभूगर्भाश
पि ततप्रयोगोऽस्ति ¦! यस्य ताद्शम्रदेशे नोद्धवः अपितु नुसखन्धानेन पञ्चसहखवर्षभ्यो नार्वाचीनत्वं
दूरतः पवतग्रदेशादानयनं भवति, तस्य भेषञ्यायेव प्राचीने- प्राचीनतत्त- भारतीयसम्यतायाः रपष्ठीभवतति । तथैव
रपि उपयोगो निर्दिष्टः ! यस्य महारसायनकल्पो सिमा च द रभेषल्य- प्राचीनटेखवस्त्वादीनां पर्वकृदण्पन दशनेन
गीयते भारतीये जायु्वेदे । चिरकारूभूगर्भसमाधिना विनष्टा विमरोस्या- भिश्रवेब्लोनियासीरिथाची नादिदेशानामपि
नामौषधादीनामनुपरम्भौचिस्येन जौचित्यवतो यस्य कस्यचि वश्यकला. सभ्यता चतुःपश्चप्षहसर्वदैवर्षीयसी लिश्वी-
, दपि विषयस्य देवादुपरम्भस्यासाधारणव्वेनानुसन्धेयतया ईह- यते । पुराकारेऽपि समभ्यतासभ्रद्रतया
शस्यासाधारणौषधवस्तुनधिरावस्थितस्योपलम्भो भारतीयं प्रा- रुच्यमागेष्वेषु प्राचीनदेशेषु बह्ुको ज्ानविक्तानविदेषेरपि
चीनवेयकं समुट्द्योतयति । एतावति कारन्तर इतराणि कानि भवितभ्यम्‌ । तत्रापि विरोषतो जीवनोपयोगिन्या व्यावहारि
वा वं्यकचिह्लानि उपरुभ्येरन्‌ ॥ | क्या भैषञ्यविद्यया त्ववश्यमेव भवितव्यम्‌ ¦ सञु्रतानां
तत्रेव भूगभभाचे खट्धं खगा न तत्रोद्धविनः, अपि तृश्वहिमा- म्राचीनदेशानां भेषञ्यविषये आत्मीयानि पूर्वो तस्यपि भवे
ख्यादिषु सम्भविनः तादलानां शङ्गाण्यप्यनेकशः पुल्लीभूता- युः । पेपेरीनिदिष्टानि पल्लीरधिर-शूकरादिमांसमेदः-कच्छुप-
स्युपलन्धानि । आथवंणसंहितायां हरिणश्चङ्गस्य क्तत्रिय ८ कय- स्तिष्क-मनुष्यश्क्रोषधाद्रीनि भारतीयायर्वेदसम्परदये प्रायः
कुष्टापस्मारादि ) रोगनारनोपयोगिताया उपलम्मेन वैदिके अनुपरभ्यमानानि तदीयासाधारणपूवंस्रोतघ्ः भ्रवुत्तानीव
समयेऽपि तस्य॒ भेषजरूपेणोपादेयताऽऽसीदित्यवगमादश्नोप- रतिभान्ति । एवमन्यत्रापि स्वस्वपू्वंसम्पदायागता अप्ाधा-
ख्ग्धानां हरिणश्चङ्ञाणामप्यौषधाथं सङ्ग्रहः स्यात्‌! हरिणश्च- रणा अपि विषया भवेयुः । बाह्वीकसिषजः काङ्कायनस्य निद्‌-
ङगण्यद्यापि श्रङ्पुटा्योषधेषु भारतीयेरुपयोज्यन्त एव । तत्र रशनेन अन्येऽपि कति वैदेशिका भिषजो भारतीयः, भारतीया
हरिणश्रङ्गाण्यौषधाथ वाणिज्यार्थं सङ्गृहीतानि स्युरिति सर अपि वेदेिकर्विज्ञाता भवेयुः । अस्यां काश्यपसंहितायां खिर-
जानमाशंर्महोदयेनापि स्वाय उद्धारितोऽस्ति ॥ भागे सूतिकोपक्रमणीयाध्याये-वेदेश्याश्च प्रयच्छन्ति विविधा
तत्प्रदेशे बहूनि धातुशन्मयानि क्रीडनकान्यप्युपलन्धानि । स्खेच्छुजातयः' इत्यत्र ८ पृ० ३०७ ) वेदैश्या विविधा ग्रे
काश्यपीये जातकर्मोत्तरीयाध्याये ८ पृ० ३१६), चरकेऽपि चछुजातय इति सामानाधिरण्योज्ञेखेन भारताढहिर्भूता बहुविधा
जातिसूत्रीयाध्याये विनोदाय खुद्धिविकासाय च नानाविधपश- स्लेच्छुजातय एतद्रन्थङ्कताऽपि परिज्ञाता अवगम्यन्ते । म्लेच्छु-
पच्यादयाकृतीनां बालक्रीडनकानामुपवणनमप्युपरुभ्यते । ीड- शब्दो महाभारतहरिवंक्ञादिप्राच्चीनम्नन्येष्वपि दश्यते। ययाते
नकानामप्यायुरवेदीयविषयेः संह सम्बन्धो न खल्वाश्चर्यावहः। रुपाख्याने पितुराक्ञाया अननुपारुनेन ठर्वसुरसुर॑द्यश्च शापेन
06ट0 & एप, ,,,..1 82.08 पा], +€ -4.70118601001681 वेदबाद्यानां ग्रेच्छानां वंशग्रवतंका उद्खिखिताः सन्ति ।
(1619 7" 10018 185 00 87००66९१ 70 वला) प्रत्यन्तो म्रेच्छुदेशः स्यादिति कोशकृदु ञ्ञेखेन भारतप्रव्यन्तवेशषा-
11118 57051800, {४ 15 0४ 8 10६, एप &प भलहणौ स्थानां स्रच्छानामयं निदेशः स्यात्‌ । किं वा--पाणिनीयधातु-
106010776 6811९66 8 ाद्री॥, गोला 213 गला 19९] ८६९१ पटठेऽपिम्छेच्छधातस्पात्तः महाभाष्यकृता पतञ्जलिना तेऽसुराः
&{ € ९8९0 † 0910 10419 28 > (प्रः€ 0 रकत०यऽ देऽख्यो हेऽख्य इति कुर्वन्तः पराबभू बुस्तस्मान्स्लेच्छा मा भूमे
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¶19€ 2093 0 णऽ ऽप0$8066 1086 पि 70. यन्प्रश्ठतयो विदोषन्ञानवत्यो भारतवबाद्या विविधा ग्लेच्छजा-
पत41110 13 छरा 10 4060 1... [# 23 € 180 तयोऽत्र म्रेच्छश्ब्देनावबोधिता अपि सम्भवन्ति । सोऽयं
811 कोणा €गृप्त९ तणा #06 ००८ प्रा 8९ वेदेश्यम्छेच्छवेदयोक्ञेखः विरभागगतस्वेन जीवकसमये बात्स्य-
एवा प्त ४ 0गृलण०१११०. प0€ 10091765 7 10 समये वां देश्ञान्तरीयवेद्यकप्रन्छियाविशेषस्याप्यवगमेन तेन
11 00०8 976 € 10, (लान्‌ 81 पलः 1971265 त निर्दिंष्टोऽपि सम्भवति । चरकेऽपि विमानस्थाने विविधानि `
+€ पत101819.88,., ,..2 हि भिषजां शाखाणि प्रचरन्ति रोके" इति रोके नानाविधमे- त
| 110€40490 & € {0 पऽ (राका ¶ ०]. [1 षजराखप्रचारो निर्दिषटः। अथत्वे सौरचिकित्वा-जरचिकित्वा- `
षि १०४ 21918102] भेषज्यचिकित्सा-शखचिकित्सादिनानाप्रक्रियाणां प्रचारवव्‌ `
१. हरिणस्य रघुष्यदोधि सौषेणि भेषजम्‌ । सक्ितनियं विषाणया तदासे भारतेऽन्यत्र बिदेदोऽपि प्रक्रियान्तरेरपि भेषज्यप्रचारो- `
वि षूचीनमनौनशत्‌॥ अनु त्वा हरिणो दृषा पद्धिश्वतुभिरक्रमौत्‌ 1 ऽवलुभ्यते वेदकारादुयुवतंमानस्य भारतीयायुवदसम्परदा- नि :.

विषाणे विभ्यगुष्पितं यदस्य क्षिचियं हृदि ॥ ८ अथवं, ३।७१-२, यस्य भारतीयत्व एव समर्थितेऽपि कार्क्षमेण भारतीयविषः ।
१.५ वकार उर
११७
उपोद्धातः ।
ए क का त, क क 0 ति त
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८ ५ ) उवसंहारपरिच्छेदः-
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याणं वेदे्षिकसम्प्रदायेषु, वेदेशिकसम्धरदायविषयाणां भारती |


वका क म ^

1) ^ +

यसग्प्रदाै न्यूनाधिकेरंशेरन्रवेशः प्रतिफङनमपि सम्भवति । विदितमेवेतद्िदुषा, पूर्वसमये धन्वन्तरिकश्यपत्रेयादिभि-


वराचीननानादेक्षगतानां प्राचीनसेषम्यविषयाणां यथावदनुस- राच्ये ्विंचारशाणनिघर्षणेनोऽञ्यरीकरतानि
न्धानसन्तरा तदीयं तादाखिकं मेषज्यसम्बन्धिक्तानं किमात्मकं प्रासनाचा- सिद्धान्तरलानि पाश्चास्यविक्तानभास्करम्रभा-
किमवस्थं चाक्षीत्‌ , स्वीयमेव तेषामसाधारणं पू्व॑खोतः, कि याणां गोर- तरलितदटृ्टभिरपि सम्प्रति सबहुमानं पर्या-
वा प्रकीयस्ोतसोऽपि प्रतिफकलिता विषया आसन्‌ इति वानुसखन्धा- लोच्यन्ते, उपादीयन्ते, प्रञ्चस्यन्ते चेति
नैतावता सामान्यदश्नेन किमपि परिच्छेत्तु शक्यते । तत्र तत्र नम्‌ किथानगाघो विचारोदधिः पूर्वेषाम्‌ । यत्र
गतानास्परिकल्ाविषयाणां यथावद्विचारात्‌ प्राक्‌ परिच्ठेद्‌-
चिरं निरद्निश्वासमवगादेः पाणिपूरं रलान्या-
टिः सम्भावनायामेव पर्यवस्यति, न पर्यन्तभूमिं प्रत्येति ।
सचन्ते । दट्शा अ्युच्चा म्रन्थविरोषाः पूर्वविभूतयो भारतस्य ।
पराचीनदेशगतान्‌ प्राचीनविषयानेकेकरा उपादाय यथावदाखो-
चन यदि विधीयेत, तदा एत॒ पएवाद्यस्वे उपलभ्यमाननिवन्धेषु सर्वप्राथग्यगौरवदशा
अस्मिन्नरोऽनयोः सम्प्रदाययोः
साम्यम्‌ , अनये्धैषम्यं, समानानामेषां बिषयाणामितोऽत्र वीच्यन्ते । एषां सूच्मया दशा विषयानुसन्धाने प्रस्येकवास्या-
परतिफरनय्‌ , इमा एतदीया असाधारणाः पूंच्य इति नि सारनिष्कषं रूपाणि सूत्रमयानि ज्ञायन्ते । यानि परिष्कृत-
परिच्छेत्तु कोऽष्यारोक उद्धवेत्‌। यद्यपि प्राचीनदेशानां पूवंप-
प्र्तातेभयेः प्रक्चनेन विश्षारविषयदिश्दर्शौनरूपतामानेतं शक्य-
नते । भूगर्भाजनानारत्नानीव निशितग्रतताधिदर्िति्यदन्तभमात्‌
रिस्थितेर्यथावदवगमकानि पूर्वचिहानि काख्वज्ञादहशे विल-
छठानीति सामस्त्येन यथावदववोधो दुष्करः प्रतिभाति, तथा- संख्यातीतानि विद्धान्तरल्नान्यासाघयन्ते कृतश्रसेः। पुरा समये
ऽपि यान्यद्याप्यवशिष्टानि उपलभ्यन्ते, तेष्वपि विचाराटोके एवंविधाः सुसंस्कृता विचारा जवगम्यमानास्तादाविकीं
परमप्येवं क्रमेण
विम-
विचारवि-
दन्ति यथाऽवबोधयन्ति, ततः
उन्मीटयमाने किमप्यन्तः स्थितं स्वरूपं यथासम्भवं अकाशेत ।
मिश्रे आ्चीनसैषज्यसम्बन्धीनि स्वक्पत्ररोगग्रतीकारव्यवस्थापः बरद्धेरवगमाय नैकमपि निदनं रुभ्यते । शस्यम्रस्थाने सुशरुत-
रादीनि यान्युपलभ्यन्ते, असीरियायां देमूर्िन्सामयिकाः संहितायाः पश्चात्‌ केवरं वाग्भय्पश्वतिमिर्ितरंशतः शल्यभर
शिकारेखगता सैषञ्यसम्बन्धिनखयोदरेखा उपरुन्धाः, दरा क्रिया निर्दिष्टा । साऽपि सौश्रुतविक्ञानस्येवांशतश्छायाग्रहण-
नीयभाचीनवस्ताम्न्थे वेन्दिदादयसनयश्तमकरणेषु भेषज्यस- मनुभावयति । किंनामास्मिनु अरस्थाने शल्पवि्ञानं तस्मिन्नेव
स्बन्धिनो ये विषया द्यन्ते, सुमेरियन्प्रदेशभूगभनिर्गता दष्ट प्रतिष्ठितं परिनिष्ठितं च । रेतिहासिकद्शाऽप्यन्ततो जीवकप-
कोस्कीणरेखा बृटिकम्यूक्षियमसञ्प्रहाख्ये सङ्ग्हीताः श्यन्ते, य॑न्तमपि तथा विक्ञानकौश्रमवगम्यते । तथोन्नतिभूमिकामा-
तेष्वपि मैषञ्यसम्बन्धिनो विषयाः सन्ती्युच्यते । चीमदेरोऽपि रूढं तद्िज्ञानमेक्पदे कुतो विलीनम्‌ । शशखक्रियायां रेशतो
ाचीनमैषञ्यसम्बन्धिनो विषया रुभ्यन्ते ! गवेषणेऽन्येऽप्यु- व्यत्ययेऽनर्थशङ्कासस्दयो वा, भीषणताददा परिहरणं बा,
परुभ्येरन्‌ । ते ना्ापि सम्यक्परीरिताः सन्ति । चतसषु कामप्रधानेर्बाह्यणादिभिरूपेकणं वा, धर्म॑राखकारेधिङित्सावृतते-
दद्वः विचारद्शमप्रसार्य स्वसवसाम्पदायिकपद्धतेरेव मोलिक- रनभिनन्दनं वा, अध्यात्मवादविजुम्भणेन रहिंसामयत्वानुस-
त्वाभिनिवेदेन पर्यवष्टम्मे एकतः प्रवणा दृ्टिवास्तविक्य्‌ाः परि- न्धानं वा, भदहिंसावाददश्षपारमितसिद्धान्तविकासो चा, किन्नाम
स्थितेः परिच्छेदाय नौचिस्यमावहति । तेन पूर्ेतिवृतेमदेजो- निदानं स्यात्‌ , येन सर्वोपका्पि तद्धिक्वानं तद्वस्तकौश्चरं तदु-
दारादिनिर्मतपूर्ववस्तुपम्भैः पूर्वविचारविरोषेश्च पञ्चसहसखवर्पा- देशने तदुपकरणपरिष्करणं च दुतगस्या हासमुपगच्छत्‌ विष्ट
धिकसम्यतालोकेन नयनसुत्रमयतां पुराकारेऽपि मिथः परिचि- स्माजहस्तादधो निपत्य भारते सम्प्रति वियाविज्ञानशरून्यासु'
ययातायाता दिसम्पकई दक्शंयतां भारतमिश्रेरानचार्डियावाही- नापितादिजातिषु रेशतोऽवशिष्यते । धन्वन्तर्सिटशेः पूर्वाचा-
कबेच्छोनियासीरियाचीनादिदेशानां पौर्वकारिक्यामुपरिकष्षायां यस्तथा ससुज्नमितेयं पूर्ववि्याऽद्यतवे तादृशानां हस्तमवलग्न्य
विचारद्शसुन्रमय्य प्ाचीनदेक्ानां ये यावन्तः प्राचीनमैषञ्य- कारश्यन वतमाना उत्तरोत्तरं हासमुपेव्य हन्त { दीपनिवांणव-
विषया उपलब्धा उपरभ्येरं्च तानू सर्वान्‌ पुरो निधाय निर्वात प्रतीते । गुणग्राहिभिर्क्रतिदीरेः पाश्चाच्यविह्ृन्भिरवा-
भारतीयप्राचीनायुर्ैदपरिस्थितिं चानुसन्धाय समव्िषमतुर- क्समयेऽश्रान्तप्रवर्तितेर्विचारः परिप्करणैर्मवनवप्रयोगानुभवे-
नादशा कुत्स्याः के विषयाः किसुपकरमाः, किञपत्ताः, काऽशः श्राऽपरिवियरूपान्तरमापाय श्ञल्यविद्या, गर्भ॑भैषभ्यं, बारभैषज्य,
कुत्र प्रतिफरितः, कस्य प्रभाव आलोको चा कस्य गौरवाधा कायचिकित्सा, विकृतिपरीकोपायविोषादयश्वाद्यतवे विरोषत'
नाय समृद्धये च बभूवेति विचारस्य समुचितोऽयमवसर उश्नतिपथमारोप्यन्ते । येन विगर्ितिनिजपूवेविद्यावरं भारत
उपस्थितोऽस्ति 1 अन्थाकोकमुद्भहतोऽरधवयस्कस्य भ्रीसवेध- मपि सम्प्रति सर्वतः प्रसरन्त्याः पाश्चात्यप्रक्रियाया वित्तानव-
भस भारतीयवैचयके प्रभावपातदङ्का यातयामेवेत्यल्मतिवि- रावशटन्धेन हस्तकौशलेन साधु सञयुपक्रियते । न केवरं इाल्य-
ण ॥ | | | | | परस्थानमेतदवस्थै क्ञाराक्यादिप्रस्थानान्तराणि तु यथोद्धूतानि
तथैव जराजीर्णभावमुपगतानि । कायचिकिस्साप्रस्थाने पश्चा-
दुपि सदलरशलो मैषज्यविद्याविदः प्रादुरभूवन्‌ , शतशो वेचक-
्न्थाश्च निरमीषन्त । येषां समूहनेऽ्ापि महान्‌ गन्थराशिः
उपोद्धातः ११५
^
"+ ४०

समीयते । परमात्रेयादिमहर्षिसमये यादशाः सिद्धान्ता विचा- । महद्रौरवस्थानं समीयते । भारतीभेरन्येरपि एतद्विज्ञानसम्प-


राश्चान्तर्विंत्तानबरेनाहमहमिकया प्रादुभूय भ्रस्थानमिमयुञ्ञ्व- दोऽधमैरविस्मरणीय एषामनुग्रहः । ते ईदशाः पूर्वैआचार्याः
कमकाषुः, नातः परं तादा सदार्घां अभिनवा विचारोन्मेषाः शतशः शिरोभिरभिनन्दनीया एवेति मे दडः प्रत्ययः ॥
पुनस्तस्प्रकाशचातिश्षयाय प्रादभवुः। पूर्वानेव सिद्धान्तानुपा- देवाद्युगादारभ्यार्याणां ज्ञानविक्तानप्रवाहः संहिताब्राह्यणो-
दाय यथाकथमपि तथेतरथा भङ्खीभेदेन वा निदश्यं कारवशेन पाचीन- पनिषत्सून्नतन्त्रभाष्ययीकोपटीकानिवन्धादिस्पेणा-
नवानुभूतेरौषधादिभिः केवरं संवर्धिताः पूर्वानुवादरूपाः संमर- अन्थानां नेकराखाभिः प्रवहननुष्याचायंनिवन्धकारादीनां
हरूपा वा निबन्धा उदैव्य नवानि शरीराणि भासयन्ति । सेष- विज्ञोषो विचारधाराभिरपलद्यसागो मानवकेन विष्वक्‌
उयविषये विशेषतः समीक्तणे धातुरस सेषञ्यप्रस्थानं नवनवयो- र्ता च सरसीकरोति । येनाद्य तस्य विक्ञानस्य शतशो
गोषधाद्याविंष्करणेन नवानुभवानुसारेणानेकम्रन्थनिर्माणिनं श्चाप-
विभागाः, प्रतिविभागमनेके पूर्वाचार्याः, तेषां
दपि समुपश्रंहितमारोच्यते । यदिदानीमपि स्व॑त आायुर्वेदीयमि
तारतम्यवन्तो विभिन्ना विचारा अप्यवगम्यन्ते । परम्‌, आर्था
षम्भिरेतदीयः पन्था उपयोगः प्रयोगः सफरुता च उपादीयते ।
यदीयो विशेषग्रचारोऽद्याष्यायुरवेदवि्यायाः प्रस्थानान्तराणां च णां मूलसर्वेस्वभूतस्याद्यविक्षानमहाकल्पतसोर्भगवतो वेदस्यापि
संरक्षणं करोतीति नेथमव्युक्तिः स्यात्‌ । प्राचीनेर्महषिभिरिव कति शाखास्तदङ्घोपाङ्गान्यपि बिच्छिन्नविकलराङ्गमावमाप्याचस्वे
ततः परमपि भैषज्यको विदेर्विमर्छंपरम्परानुबत्या नवनवाः विरोपञुपागमन्‌ । कति शाखा नामतोऽपि ग्यद्ुप््न्त ।
सिद्धान्ता निरकासिष्यन्त, पूर्वेऽपि सिद्धान्ताः प्यंष्करिष्यन्त, कासाञ्चित्संहितान्राह्यणसूत्रादिषु कछचिक्किञ्चिद्‌ वशिष्यते । पूर्वेषां
अपूर्णादाा अप्रयिष्यन्त, आनुभविकाः संस्कारविशेषा उपादे- महर्षि्रश्ठतीनामाचार्याणामुपदेश्चरूपा रेखा जपि विरोपसुपा-
चयन्त, उश्चविचारसम््तानि प्रोढतमानि निबन्धरलानि पुनः गमन्‌ । केषाञ्चिदितराचार्यैः कचनोल्लिविता मतविहेषा नाम-
पुनर्निरमासिष्यन्त, तहिं भारतीयमायुर्वेदविज्ञानमष्येतावता मात्राणि केवरूमवश्िष्यन्ते । हन्त कियतां नामान्यपि विदधु-
पानि भवेयुः ! ॥
समयेनोज्नतिशिखरमारोचयत । कार्वदोनोपेक्तया मालिन्यसु- किं बहुना, एकस्मिन्नपि विषये उपरुभ्यमानस्येकस्यापि
वेतस्य भारतीयायुर्वेदस्य गौरवमनुपश्यन्तो बहवो वेधवरा ूर्वग्रन्थस्य पृष्टपर्यावर्त॑ने कियन्तः ततोऽपि पूरवे, तैरनुर्श्ताः,
विपश्ितोऽस्याद्यखे प्रचाराय परिष्कारायोपष्टम्भाय ससुन्मी- तैस्तदात्वे विक्तातभ्न्थाः, परिश्ीरितविचारविदोषा आचार्याः
खितद्डो नवविचारमयान्‌ निबन्धान्‌ प्रचारसंस्थाः परिष्कारः केवरं नामतोऽस्माभिरिदानीं ज्ञायन्ते । यास्कनिरुक्ततोऽन्येऽपि
मार्गानोषधनिर्माणलारादींश्च प्रादुष्डरत्य पुष्टये प्रवतंमाना वेदार्थनिर्वक्तारः, पाणिनीयसुत्रतः शाकल्यगारवगार्म्या पिशकि-
दृश्यन्ते । आष्षतमेः श्रीयुतगणनाथसेनमहोदयेः भ्रत्यचतक्चारीर- काश्यपरस्फोटायनादयः पूर्वै व्याकरणाचार्यः, पाराकर्यकर्मन्द्‌-
सिद्धान्तनिदाननि्माणिन प्राचीनद्यारीरावयवविन्ञाने रोगनि- शिरारिक्शाश्वादयो भिद्धनटसूत्रादिप्रस्थानान्तराचार्याश्च, को-
दानेऽपि विशेषान्तराणि बहुश्च उद्धावितान्यवरोक्यन्ते, श्रीया-
टिीयार्थ॑शाखतः पराशरोश्नो विशाराक्षकोणपदन्तभरद्ाजवा-
मिनीभूषणरायकविरस्नमहोदयेन रोगविनिश्वयज्ञाराक्यविषप्र-
तव्याधिबाहदन्तीपुत्रपिश्युनादयः पूर्वेऽ्थंशाखाचार्याः, सायनी-
सूतिविषयाणि ख्घुतन्त्राणि निर्मितानि, डाक्टरबारङ्ृष्णशिव- यवेदभाष्यतो मेधातिथिक्ञाकपूण्यग्निस्वाम्यादयः पूर्ववेद्न्या-
राममुञ्रैमहाश्चयेनापि नेत्रचिकिरंसाविषये कोऽपि अन्धः प्रका-
कितो वतत इति संस्ङृतभाषानिबद्धान्‌ नवनिबन्धान्‌ विलोक्य
ख्यातारः, पूर्वोत्तरमीमांसासृत्रतः आश्मरथ्यकाज्ञङत्सनडरो-
मिवादरिप्रश्टतयः पूर्वे वेदोपनिषदथंमीमांसकाः, एवमुपरुभ्य-
महदिदमाशास्थानमुदेति। जराजीर्णाऽपीयं भारतीयायुर्वेदविद्यया
जागरूकाणां सुच्मधियामुद्योगिनां विपधितां भारतीयानामित-
मानश्रौतस्मार्तंदर्चनजञ्यौतिषादिम्रन्थेभ्योऽपि सहखज्ञः पूर्वैसंहि-
तातन्त्रसूत्रन्याख्याननिबन्धादिकर्तारो महषिप्रश्ठतयस्तत्तद्िष-
रेषां च सहयोगिनामवरम्बरसायनेमेव च्यवन इव पुनर्योवन- याचार्याः केवरं नामशेषा विज्ञायन्ते । कियन्तो भारतीयां
मासादयिष्यतीत्याश्षास्यते ! समयवशेन बहुषु विषयेषु वेक्ता- दार्निकादयो बौद्धाश्च ग्रन्थाश्चीनतिन्वतभाषयोरनुवादरूपेणैव
निक्या प्रगत्या, परिष्कृतया रासायनिकप्रक्रियया, नवोद्धाविते- कभ्यमानाः केव छायारूपेण वर्त॑न्ते। उपसहखवर्षपूरव॑भूता
दरवीक्तणान्तर्वी्ञणादियन्त्र विशेषैः, नवोन्मेषवतां तत्तदेशवि- अपि बौद्धभन्थाः शतश उच्छिननाः । इतयेवं श्चुतिस्पर्यागमवेद्‌ा-
दुषां साचतार्रेखनिबन्धादिह्वारा वा मिथो विमर्ष, कारीराव- ्गोपाङ्गदर्शनादिष बौद्धार्हतादिसम्प्रदायान्तरेषु च हन्तक् वा
यवसुष्मेक्तिकया, प्रव्य्रविचारमयानां शतशो निबन्धानां
ग्रका्चनेन च पाश्चास्यविद्भद्धिरचत्वे समुन्नतिपथमारोपिताया रोमहर्षणो महान्‌ विष्ख्वो न ॥ ॥ |
अनेकशाखाया भेषञ्यविदयाया आरोचने प्राचीना भारतीयायु- अस्मिन्नायुर्वेदीयविषयेऽपि उपरभ्यमानानामात्रेयसुश्रतमे-
वदविद्या केषाञ्चिद्धिचारदष्टौ स्थूरप्रतिभासमयी बालक्रीडामयी डसंहितानामस्याः काश्यपसंहितायाश्चोर्लेखतः काप्यवार्यो विद्‌-
वा साम्प्रतं प्रतिभासतां नामः; परं दुगंमगिरिनदीवनान्तराख- वामकवेदेहकाङ्घायनहिरण्याक्तशौनकपाराशर्यगार्म्यमारटरक्तौत्स-
दुष्करदेशचन्तरोपगमतत्तद्वष्ठदन्तरसम्पकंविमरशविरोषे पुरास- | मौदस्यङुशिकसुभूतिमाकंण्डेयकरवीर्यभ्रश्टततयो बहवः पराञ्च `
मये वनखेगसहवासिभिरकड्धयन्त्रादिभौतिकसाधनविरोषेरपि आय्वेदाचार्या ज्ञायन्ते, येषु केषा्चिद्टचनानि मतान्यपि तत्र
केवर प्रणिधानकक्तिनिशातान्तः प्रज्ञाबरावरम्बैः भ्राचीनाचा- तत्रोदुशतान्युपरभ्न्ते । छ विीनानि तेषां अन्थरल्नानि। `
्यैरत्रेयकश्यपधन्वन्तयादिभिरूढवाविता विचाराः, ये साम्प्रति- तेषां सर्वेषामुपरुञ्धिसम्भवे सङ्कलने महत्तम आयुरवेदीयग्न्थ- `
` कोन्नततरविक्ञानपरिष्ठरृतदृ्टिभिरण्यधापि -समाद्वियन्त पएवेति राशिः पुरो भवेत्‌ 1 उपलभ्यमानह्विच्मन्थानामन्तस्तरमवगश्च
९११६ ङपोद्धाक्तः ।

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+ +

8 9 + + +" 5

पयषिनचने प्रातिभक्तानारोकोञञ्वराः शतक्लो गभीरतत्वोपदेशा च प्रक्रियायाः पुराकारात्‌ श्रचङिततया तन्न तत्रोपलन्धैः पुरा-
अनुभूयन्ते । यदि नासैवमेव नानाभ्रस्थनेघु विभक्ताः पूर्वेषां तनलन्षणैः असीरियन्‌-गेव्छोनियन्‌-समेरियन्‌-मिश्रादिप्राची-
सर्वेषां अन्था अलप्स्यन्त, तदा फियद्धिः सद्धिचाररलनेरापू्णान्य- नदेश्चजातीनामाचुकरमिकम्राचीनसभ्य तापरिस्थितेः समयाव-
भविष्यन्‌ विविदिषूणां हदयभवनानि । कारुणिकेः पूर्व्महर्पिप्र- धारणेन सह नि्धारणस्यानुकूस्येन अतिपू्वंकारादारभ्यानु-
श्तिभि्विचारधारारसेन चिन्ञानकस्पतरोः संवधनेनानुगृहीता बरृत्तानां तदोयपूवैविषयाणां परिज्ञानाय प्रायः सुरुभः पन्थाः ।
अपि सर्वाङ्गुष्टैः फरे्व॑द्धिता इवास्महे ॥ भारतीये सम्प्रदाये तु आहितेनाथिना पात्रादिभिः सह॒ रौकि-
पुरासमयात्‌ तदा तदोपजातेः प्राङ़तिके वङृतिकेराकस्मि- काथिना वा पूर्वकारच्छुवानां दहनस्य व्यवसिथिस्या, अव-
कैश क्षोभः राष्टरीयेर्मिथो युद्धादिभिर्नेतिकैसूपद्रवेः, वारं वारं शिष्टवस्स्वन्तराणामपि वितरणादिना उच्छिन्नम्रच्छिन्नभावेन,
वेदेशिकनृपाणं विध्वंसिभिराक्रमणेः, सम्प्रदायिकैश्च परस्परं मन्दिरादीनामपि वहुवारोपजातेर्विष्टवेविंक्ततया, भराचीनरी.
सद्वर्ैः, तत्तशिखानारन्दाविक्रमकिखादिगतानां महतां पुस्त- व्यामानुश्रविकपद्धस्या संहितासूत्रादीनां प्राचीनग्न्थानां रेख-
काल्यानां भस्मसाद्ूरिसाद्धवनेः, जराम्न्यादिविप्लवेश्च सह- नाभिर्चेर्विररुतया पश्चाद्धजेताडपत्रादिषु विहितरेखानामपि
खकः प्राचीनानि अन्थरस्नानि विख्यमवापुः } न केवलं पूर्वमेव, चिरसमयवशेनान्तरान्तराभूतैः पारस्परि वैदेशिरैशच सोभ.
अद्यापि प्राचीनविद्यास्थानेघु मरामीणपणक्षारागतानां शत्च वहुशो द्ग्धश्ीणष्वस्तमायोपगमेन भारतीयपुरातनशेखेति-
अन्थोनामग्नयुरपाततः चणाद्धस्मीभावेन, कियतां पूवरविदर्चिः बरत्तादीनामध्त्वे सोतानकासगरादिभूगभगवेषणेन ीनतिन्ब-
सद्यरहीतानामपि तदीयपरिवारसन्तव्यादिषु संरक्षकस्याभावे- तादिगतरेखाञुसन्धानादिना बाऽनुखन्पेयपुरातनेतिवरत्तलन्त-
नानास्थया ाष्टूञुखनदीप्रवाहविपणिविकिरणेर्भगमारिज्नरधू- णानामतिविरलीभावेन, पुराणादिकथानामुपरम्मेऽपि मह.
सिरारिष्वक्तातवासच्यंया जराजीर्णतया कीरोद्रपातादिना च भारतीय गणेशोपाख्यानसद्सेरन्तराऽन्तराऽनुप्रविषटरर्वाचीनवि-
अवशिष्टा अपि भ्रन्था उत्तरोत्तरं विनादामुपयान्ति । सर्वमिदं षयान्तरेरारुङ्कारिकट्टथा प्रविष्टाभिरतिक्चयोक्तिभिस्तत्तव्सा-
पर्यांलोचयततः कस्य विचानुरागिणो मनः शतधा न विदीर्येत । म्भदायिकहस्त्तेपेः स्वस्वानुकरुरीत्या पूर्वविषयविरोपपरिव-
विद्यामयस्य प्राचीनकोशस्येवं विलोपो महते खेदाय !! ॥ तंनादिभिश्च मरिनीकरणेन, पुरातनांश्चानामपि देशान्तरीय-
अनभिमतं प्राचीनविद्याविनाश प्रतिरोष्ं शतशः कतम्रयस्नाः रेखशशिरारेखभुगर्भोपर्ग्धविक्ञानादिभिः संवादेन प्रामाण्यस्य
पाश्चात्या भारतीयाश्च केचन गुणम्राहिणो दयाव इतस्ततो साध्यमानतया च अद्यत्वे महंजोदारोगभांचुपरुम्धसदशानां
गवेषणाय पर्थरन्तो विनाशोन्मुखान्‌ कति प्राचीनग्रन्थानासा- पयांप्तसाधनानामनचा्षि यावत्‌ भारतस्य सामस्व्येन पूर्वपरि-
दयज्नुददी धरश्च ! खोराडादिप्रदश्ञभुगमांदिभ्य उदुष्टता बावर- स्थितिदुर्तेयतासुपेव्य तथेतरथा चा कटपयितुमप्युचितेवासीत्‌ ।
मेन्युस्करिष्टायास्यामिः प्रसिद्धा नावनीतकाद्यो विकरङ्काः परमद्यव्वे मर्हेजोदरोहरप्पादिप्रदेशभ्गर्माजु सन्धानोपरञ्धै-
पूवंरेखा अद्यत्वे निदश्येनीभवन्ति ! चीनतिव्वतादिप्रदेदायात्रया सतेसतै्विंषयेः प्राचीनभारतीयपरिस्थितौ बहुश्च आरोकः ग्रदी-
तच्रोपरन्धेभ्यो मूरुरेखेभ्योऽन्ुवादेभ्यश्च केचन केशिदुदुभियन्ते यते । भारते मर्हजोदारोहरप्पादिसट्शाः पुरातनध्देशाः गङ्गा
च । बहुमुखेरभिनन्दनीय रईद्शानां प्रयासः । बहुशो विना- तीरं यावद्रहुशचः सम्भाव्यन्ते । कारक्रमेण अनुसन्धानविब्द्धौ
दोन्मुखा भ्राचीनविद्या वदान्यानां गुणग्राहिणां श्रीमतां घीमतां तत्र तत्र भूगर्भश्चय्यागताः पदार्थाः देशान्तरीयरेखाद्यश्च
च करावरम्बमेवावशिष्टात्मरक्तासाधनमपेक्तते । येऽद्याप्यवश्षि- यथा यथा प्रकाश्मापद्ेरन्‌ , यथा वा हरप्पामहेजोदारोभूगभो-
प्यन्ते युरातनाः सद्मरन्थास्ते शतः प्रय्नेरपि गवेषणीया; परन्धाः पुरातनाक्तरटेखाः केनाप्यंदोनाद्य यावत्पर्यारोचकैः
सञ्ुद्धरणीयाश्च शक्तिमद्धिरिति बर्वती प्रस्याक्षा ॥ पल्यसमाना अप्यनिन्चीयसमानाः समयेन निधांरिताथाः पूवंविष-
पुरातनवस्तूनि बहिरश्चा, पुरातनरेखाश्वान्तर्रशा प्राचीनां यान्‌ प्रका्येयुः, तथा तथा प्राचीनभारतीयं पुराच्ुत्तं तद्‌-
परिस्थिति ज्ञपयन्ति । दइमान्यन्तरेण किं नाम यथावद्धिक्तान- रोकेन बहुश्ञः स्फुटीभावं रमेत ॥
साधनं भवेद॒तीतस्मयस्य ) पूवंकार्स्य पदार्था रेखा वा अत्रेदमेकं चक्तम्यमपि विवेचकानां पुरः सभुपस्थापनीयं
ये केऽप्युपरुन्धाः किमपि प्राक्तनववं न्युनाधिकमावेन द्षय- प्रतिभाति-अद्य्वे सुद्रायन्त्राणामितस्ततः प्रचारेण भारते
न्स्येव ! सम्भावनीयकिञ्ित्कारपौर्वापर्यण म्राचीनसभ्यता- दे्ान्तरेष्वपि प्रचरिता नवोपरुन्धा अग्रकाश्चाश्च भारतीय-
समसूत्रावनद्धेषु असोरियन्‌ वेब्छोनियन्‌-सुमेरियन्‌-मिश्रादि- ग्रन्था बहुशः प्रकाशमुपयान्ति । येनेकस्यापि सहसः प्रती-
प्राचीनज।तीनां पाश्चाच्यदेरोष्वपि कारुधर्माचुयायिन्या परि- कान्याविभूंय गृहेगृहे प्रसरन्तीति म्रचरितानामपि विशेषतो
णत्या अरकजेण्डियागतविदारपुस्तकार्यद्‌हनादिभिः समये विकासः, जघ्रकाशानामपि सर्वसाधारण्येन प्रकाञ्चः, विनेवान्वे-
समये तत्नोपजाते राजनंतिकेः साम्प्रदायिक्ध् विष्ठ्वैः पाश्चा- षणरेखनाद्यायासमस्पेनैव ग्ययेन राभश्चेति स्वपूवेतनेरद्टा-
स्यदेशेष्वपि प्राचीना पेतिहासिका विषया बहुशो विरोप- श्रुता अपि बहुशो मन्था जज्ञसा द्रष्टंपरिशषीटितिमपि प्राप्यन्त
युपगताः स्युः । तथाऽपि तेषु नानावस्तुभिररैखेन च सह दति महत्‌ सन्तोषस्थानं दश्यते । परं सुद्रगे समर्घ॑तादरा
शवानां निखननस्य कचन मन्द्रिकीर्तिप्रस्थ-( पीरामीड्‌> मसीदार्ब्येऽपि यथासम्भवं दुबरेषु कायगतपत्रेषु प्रकाश्यमानाः
स्तूप-( म्रप )प्रशटतिषु॒इतिवृ्तरेखनस्य क्रचनेष्टकाश्चिका- इढतादपन्रकायगतपन्रलिखिततौल्येन चिरमवस्थातुं न पारः
भावाद अन्धस्येतिदत्तादीनां च चिराचस्थानायोक्किरणस्य यन्ति । येन पूसुद्रितानि पुस्तकानि उपरतेरपि वर्र्ल
उपौद्धातंः | 8१७
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विक्तवर्णानि कीणंभावोन्मुखानि द्यन्ते ! मुदितानां सौर-


भीश्रीश्रीमन्नेपारमहाराजानां युद्धलमसेरजङ्गबहादुररा-
भ्येन रेखनकलाया उत्तरोत्तरं हास एव । पदच्छेदस्पष्टता- णानां नानाविधपद्वीविभूषितानां वि्यानु
शद्धथादिमिर्मनो हरतां मुद्वितयुस्तकानां सौरुभ्येन विद्यमाने नेपालग्रस्थ- रागं स्वदेशोपलब्धप्रा चीनयन्थविरोषग्रखाश्-
ष्वपि छिखितयपुस्तकेषु न संरक्तणादरद्‌ पतति । सुद्रितानां मालायाः प्र- नामिरतचि च बहुशः घमसिनस्य उपोदातो-
पुनञ्ंदणमध्ययनाभ्यापनपरस्परानुघृत्तानासेव सम्भवि, तद. धमप्रकाश्चः पन्याससरमन्वितेये काश्यपसेहिता नेपाल.
ननुषृत्तानां न पुनञयद्रणमिष्यते । कति तादरा अन्था अद्यते मन्थमारायाः प्रथमस्तवकसरूपेण प्रकाश्यते ॥
दुमा दश्यन्ते । सुद्रणदसा रठेखनात्‌, सक्रदुपजातसुदण- एतस्मिन्नपोदधातख्खे भाचामर्वाचां वा प्राच्यानां पाश्चा-
दशा पुनसुंद्रणाच्च उभयतो वञ्चितास्ते प्राचीन्रन्था उत्तमा स्यानां च येषां बिपश्चितां मन्था विचारविक्षे
अपि सन्तः पूंमुद्वितपुस्तकायुरवसाने एकद्वश्लतव्ैः सर्वत सहास्य घाश्चोद्धूस्य निदिष्टाः सन्ति तेषां नितराम-
एकदेवोच्िधेरय्‌ । कार्वरोन आनुश्चरविका अन्येऽपि बहवः सदर धमगोऽस्मि । तक्षता तदनुस्मरणमन्तण
प्राचीना विषया नार्तिभावस्ुपेता एव, अवश्िष्यमाणाः म्राची- नान्यश्णनिर्यातनस्य पन्थानमवगच्छामि ।
नानां गौरवस्मारका मन्था अपि हस्ताच्च्युता उत्तरकाडे एतद्‌ग्रन्थप्रकाशने संश्लोधने च श्रीयुताप्चततमविद्धदरवेयया-
नाम्नाऽप्यविज्ञेया मवेयुरिति महस्यनर्थशङ्का । तमिमं भावि- द्वजीत्रिकमजीमहाभागानां सपरिभ्रमं साहाय्यं बहु मानर्यै-
नमनथं पूवंतः पयांरोच्याविलोपनीयानां मन्थानं कतिपया स्तेभ्यो घन्यवादानुपहरामि । अस्मिन्‌ उपोद्धातर्ेखेऽसाधा-
न्यपि प्रतीकानि सुच्टस्थायिपत्रेषु सुदकेः प्रकाशयितुं प्रदृत्ति- रणस्षहयोगदायितयो मरफसंशोधनेऽपि साहाय्यदानेन पण्डित-
विधेया । येन॒ कतिपयास्यपि प्रतीकानि सुचिरमवस्थाय वरसोमनाथश्लमेणेऽपि रातशो धन्यवादाः} डाक्टरगोङुट-
नाल्पेन समयेन विरोपाय जायेरन्‌ । पुस्तकालयेषु तादशा- चन्द्रमहाश्येन मा्र-इन्दर विहारीशरणेन च यदत्र आङ्ल-
न्थेव दृदप्रतीकानि बहुमूहयेनापि सङ्गृह्य र्णीयानि । नैता- गन्थगतकतिप्रयस्थरूसूचनादानं व्यधायि, तदनयोरप्युपकृतिं
वदेव, कदाऽप्यविरोपनीयानि पूर्वंसर्वस्वरूपाणि संहितावरा- न विस्मरामि ॥
हयणसूत्रभाष्यादीनि त्वध्ययनपरम्परायां प्रविष्ान्यप्रविष्टन्यपि ददे गहने विमन्ञं न केवरूमायुर्वेदीयम्रन्थानां संस्छरत-
बहुभ्ययेनापि ताडपत्रेषु दडतरकायगतादिपत्रेषु वोत्तममस्या अन्धान्तराणां च परिशीरुनं पर्याप्तं भवति, अपि तु भारतीया-
विरेख्य पुस्तकाख्येषु संरक्षितुं विचयोद्धारवतानां श्रीमतां शभा नामिव भ्रीसमिश्रेरानादिदेशदेश्चान्तरीयेतिवृत्तानां परिज्ञानं,
दृष्टिः मरसखरेत्‌ । येन दठकायगतपत्रङ्खितानि सक्ताष्टशतवर्षा नानाभाषाविषयविक्तानं, प्राच्यानां पाश्चात्यानां च विपधितां
यूंषि, ताडपत्ररिखितानि सहस्राधिकव्षायुंषि अद्यते इवात मन्थाकाराः अ्रकीणरेखरूपा ये यावन्तो विचाराः सन्ति तेषा-
परमपि सुचिरमवतिष्ठैरन्‌ । भूर्जपत्रीयं पिप्पखादश्ञाखासंहिता- मनुसन्धानमर, उहापोहकौशशलम्‌, अन्तराखोकोदयेन यथार्थ-
पुस्तकमेकमप्यवरिष्टं॒चिरेणाद्य तच्डाखोपरूञ्धयेऽभूदेव । वस्तुदृष्टिः, इतीद्शानि बहुशः साधनानि अभरेगमयितुं पार-
चिरं विलीनमपि प्रमाणवार्तिकं ताडपत्रीयविन्यासकवचर- यन्ति! ददशः प्रदीपेरजुद्धासिते पथि सज्चरितुं कृतसाहस.
रितं सत्‌ सहं वर्षाणि गुहायां निरीयाप्यद्यते पुनरुऽजी- स्यास्य जनस्य कतिपयाः पदन्यासः कथमभिलक्तितस्थानस्यं
वति । किं बहुना, इष्टकोष्कीर्णरेखाः शिररेखाश्च भूगर्मात्‌ म्राक्ठये भवेयुः । दुर्बररवयवेर्विंषमे पथि सञ्चरणं साहश्षमिव
म्रादुभूय नाम्नाऽपि विद्ुप्तानां चरिसहख्रवषपूवंतनानामपि प्रतिभासत । परं “नभः पतन्त्यात्मसमं पतत्रिणः इति न्यायेन
सभ्यतां ग्रका्ञयन्ति । मेतावदेव, महेञ्जोदारो-हरप्पादिनिगंता यावदुुद्धिबलो दयुचिते चत्म॑नि वाचां विनियोगं वाग्देव्याः
मुद्राविदरोषाः पञ्चसहखवषभ्योऽपि पूवंतनीं सभ्यतां प्रकाश्य परिचयां मन्यमानो विशेषतः अपरिशी रितवैचविच्ोऽपि आयु-
भारतस्य प्राचीनं मुखं समुञज्वख्यन्ति । तावदाधिक्यं मा दुभ्रकाशकान्‌ प्राचीनमहर्षीनिनुध्यायन्‌ केवरूमेतन्मुद्रणाव- `
भवतु नाम, तथाऽपि ताडपत्रीयरेखाः सह्नाधिकवर्षाणि तु सरं यावत्‌ यथावसरलाभमायुरवदीयग्रन्थानामस्याः संहिता-
न विटधप्येरन्नेव । इदमेव काश्यपसंहितापुस्तकं ताडपत्रीयत्वे याश्च साहिव्यदशा पर्यारोचने यक्किमपि मनसि प्रतिभात.
सैव सम्भरति चिरेणाव्मनः म्काशेनाविरोपनिदश्चंनमजनिष्। सुपन्यस्य, अनभ्यस्तमागसुरूभासु आन्तिषु क्षमामभ्यर्थयन्‌,
चिरसंरत्तणसाधनमिदं धीमद्भ्यः भरीमदभ्योऽवश्यमेव रोचे- विद्याजुरागिणां महनीयानां विपश्चितां विनोदाय, वै्यमहारयानां
तेस्याश्ास्यते । दव्यरु बहुना ॥ पोस्साहनाय चेमसुपोदूघातयुष्पाज्ञलिं करकमेषु उपहरामि ॥

नेपारु-काष्टमण्डपराजधान्यां विदुषां विधेयः-


` वे० १९९४ श्रीधन्वन्तरिजयन्तीदिने हेमराजदामो
करिशिष्ख्‌
"नशन४, [ह

ञ्वरसमुर्चये काष्यपसंहितायाः श्लोकसंचादः-


ञ्वरसखसु्चयो नाम अवरविषयेऽनेकप्राचीनाषमूलवचनाना- अवप्रयोगात्‌ स्नेहानां पञ्चानां चेव कर्मणाम्‌ ॥
मेकन्र सदग्रहरूपः प्राचीनो अन्थः, यस्य मस्सङ्परहाख्ये ताड्- यथोक्तानां च हेतूनां मिश्रीभावायधोच्छ्िताः।
पत्रीयं पुस्तकद्यमस्ति 1 तयोरेकं प्राचीनाक्तरङिवितमपूर्ण, त्रयो दोषाः प्रकुप्यन्ति क्षीणे चायुषि भार्गव ! ॥
यस्यान्ते रेखसमयः ४४ नेपारसंवत्सरो निरदिं्टोऽस्ति ! अपरं ततो उ्वरादयो रोगाः पीडयन्ति श्वश्ञं मरम्‌ ।
च पूर्णंनेवारात्तरङ्िखितं छिप्यनुमानेन इतोऽ्टशतवष॑प्राचीनं सर्व॑दोषविरोधाच दुधिकिस्स्यो महागदः ॥
सम्भाग्यते । पुस्तकरेखसमयोऽष्येवं प्राचीनः, तज्िवन्धनं यथाऽञ्निवच्रपवनेनं स्यादभिहतो द्रुमः ।
कदा स्यात्‌ । तत्र आश्चिन-भारद्राज-कश्यप-चरक-सुश्रुत- वातपित्तकरैस्तद्वत्‌ क्रदरदही न जीवति ॥
मेड-हारत-भमोज-जत्‌क्ण-कपिरबखानां प्राचीनाचार्याणामेव विषाग्निशसैर्युगपन्न जीवन्ति यथा हताः ।
उवरविषयकाः शरोकास्तत्तन्नामनिर्देशेन सह सङ्कदीताः सन्ति । सन्निपातादितास्तद्रन्न जीवन्ति तपस्विनः ।
अर्वाग्मवाचार्याणां वचनासग्रूडहोऽप्यस्य भ्रन्धस्य विरोषतः हत्थं तदुपरिष्टाचच यथा प्रज्वङितं गरम्‌ ।
भ्राचीनत्वमनुमापयति । अच्र उवरविषयकाणि वहूनि काश्यप- न शक्यते परित्रातुं सन्नि पातहत [स्तथा] ॥
वचनान्युद्धतानि दृश्यन्ते, यान्यस्या काश्यपसंहितायां बहुकः दिग्धबाणाखयो व्याधाः परिवार्यं यथा खगम्‌ ।
पूर्वभागो, कानिचित्‌ लिकभागे दश्यमानानि प्रायः सवांणि संव- ञ्रन्त्यमी [ पिता ] स्तद्न्रयो दोषाः शरीरिणम्‌ ॥
दन्ति। यानि नोपरम्यन्ते, तान्यपि चुटितभागपातेन तथा सङ्गता नियतं यस्मात्‌ पातयन्ति करेवरम्‌ ।
भूतानि स्युः । कचन पाटमेदोऽपि दश्यते, सोऽपि कचन सुदि. अन्ये च. . -सन्निपातादययतो वा सन्निपाततनात्‌ ॥
सैतस्पुस्तकपाटतः साधुः प्रतीयते । तद्गतान्‌ पाटविशेषान्‌ अकस्मादिन्धियोत्पत्तिरकस्मान्मूत्रद्नम्‌ ।
स्थुराकतरेः संसूच्य मुद्रितेतस्संहितापुस्तकष्ाङकं पाश निर्दिश्य
च, 4 दरितैतस्सं9 9

अकस्माच्छीरखुचिकृतिः सन्निपाताग्ररक्तणसम्‌ ॥
तदुद्धता एतस्संहितागताः शोकाः संबादायाधो निरदिंश्यन्ते-- "तस्य उवरोऽङ्गमर्द॑स्वरताटधशोषग्रमीरुकाः ।
“पर्वोद्धवनिमित्तेन योऽपरो जायते गदः ।
सु.
-४६ अरुचिस्तन्ि विडभेदश्चासकासश्रमश्चमाः ॥
२१५

तमुपद्रवमित्याहरतीसारो यथा उ्वरे ॥ °अन्तदांहो वहिः श्षीतं तस्य वृष्णा च वर्ध॑ते ।


चिकिस्सितं यथोव्पत्ति तेषामेके प्रचक्तते तुद्यते दक्षिणं पाश्व॑मुरभ्श्लोषो गङ्ग्रहः ॥
उपद्रवाणामिव्येके पूं नेस्याह कश्यपः ॥' निष्ठी वति कफ सासक्छरचदूकण्टश्च दुष्यते |
"घृतं गुग्गुल विल्वं च देवदार पव च | १७० विदसेदश्वासहिवकाश्च वर्भन्ते' "ˆ." ॥”
एप मेश्वरो धूपः सपिथरंक्तो उ्वरापहः ॥ कारयपसंहिताया मूरताडपुस्तके १९२ तमपत्ररोपेन
<शरणु भार्गव ! तवार्थं सन्निपातविशेषणम्‌ । २१३-२५४ मुद्धितपुस्तके तस्स्थरे ( पर. २१५ ) चनुटितभागसंवादी विषयो
जानते भिषजो नैनं बहवोऽकृतबुद्धयः ॥ मधुकोश्चव्यास्योद्ध॒तभाद्ुकिंतन्त्रीयश्छोकेषु दश्यत इति टिप्पणी
दीतोपचारात्‌ सूतानां मैथ॒ना्िषमारनात्‌ |प्रदत्ताऽऽसीत्‌ । तस्येव त्रटितपत्रस्य सज्निपातग्रमेदविषयानुब-
भजागरादिवास्वप्राचिन्तेप्याखील्यकर्चनात्‌ ॥ न्धिनः श्लोका ज्वरसमुच्चये कतिपये कश्यपनान्नोद्धुता दश्य-
तथा दुःखग्रजातानां व्यभिचारात्‌ पएथग्बिधात्‌ ॥ न्ते । तप्पूर्वोत्तिरयोः १९१, १५३ पत्रयोव॑तेमानाः शोका
शिशोदुं्टपयःपानात्तथा सद्धीणेभोजनाव्‌ ॥ |अष्यरिमभ्ज्वरससूच्चये संवदन्तीति तन्मध्यविन्यासोचितेषु
विस्द्वक्म॑पानान्नसेविनां सततं वरणाम्‌ । विलक्तशरोकेषु केचन तत्र खण्डशः क्रमेण उपर्ग्धाः; त्र
अभोजनादध्यशनाद्टिषमाजी्णभोजनात्‌ ॥ मध्ये चिटु्तांहे प्रणीया: रोका इमे-
सहसा चान्नपानस्य परिवर्ताहतोस्तथा । | “तस्य शीतञवरो निद्रा छत्तष्णा पार््चसंग्रहः।
विषो
पहतवाय्वम्बुसेवनाद्रदूषणात्‌ ॥ शिरोदृद्यमन्यानां गीरवं पाश्वं [ पीडनम्‌ ] ॥ `
पर्वतोप्यकानां च प्रात्ुटकाल्ते विशेषतः । उदरं द्यते चास्य किल्चिद्गुडगुडायते।
सन्निपातः स विज्ञेयो मकरीति सुदार्णः ॥
१. उवरसमु्चये कदयपरलोकास्तत्र तत्न प्रकरणे खण्डश उद्धताः
सन्ति) यावन्तः लोकाः सहमावेन निदि दृश्यन्ते तावन्तः
“तस्य वृष्णाञ्वरग्टानिपारश्वरूदष्टिसंक्तयाः।
८ > इति सङ्केतेन निर्दिश्य, तेषां रटोकसङ्खानां तत्र पौववापर्ऽप्यन्न १. ज्वरसमुचयस्य प्राचीनजीणंतया क्वचन पिद्धपाक्षरतया च
-सुद्रितपुस्तकाडसारेण पौर्वाप्यकरमं प्रकस्प्य निर्दिष्टा इत्यवबोभ्यम्‌ ॥ तत्स्थानेऽत्र बिन्दुमाख्या निर्देशः क्रियते ॥
५ ,
उपोदढातः । ११६९
नि मी 7 ^-^ ~ पि नी नी नी नी किकी ती ती नि ता तकत क क कका क १ नी नी ती नी कक कक

पिण्डिकोद्वेष्टनं दाह ऊरुसादो बरुक्चयः ॥ विस्फोरेरथिदश्धाभेश्चीयते च समन्ततः ॥


सरक्तं चास्य विण्मूत्ं शूं निद्राविपयंयः । हृदयोद्रमन्तश्च यकःप्पीहाऽथ ˆ“ - " * ।
वितुद्ते गुदश्चास्य वस्तिश्च परिरभ्यते ॥ पच्यते तु शरीरस्थ ` ˆ" धः पूयमेति च ॥
आयम्यते भच्यते च हिक्कति प्रख्पत्यपि । श्लीणैदन्तश्च शस्युश्च तस्याप्येतद्धिशोेषणम्‌ 1
मूर्च्छते रफुरते रोति नान्ना विर्फोटको मतः ॥? “स्तब्धाङ्गः स्तज्धदश्िश्च स तु शेते हतो यथा । २१६
“तस्य दाहञ्वरो घोरो बहिरन्तश्च वर्धते । विरच्यतेऽतिमान्नं च पुरीषं बह्नश्चतः ॥
ज्ञीतं च सेवमानस्य प्रकुप्येते कफानिलौ ॥ सर्वेषां खोतसां पाकः. ----.---- ॥2
ततश्चैव त्रयो दोषा यथास्वेः स्तैरपद्तैः । “शिरोरुग्वेपथुश्वासम्ररपच्छर्यरो चकाः।
युगपद्‌ श्नन्ति कुपिताखिविधा इव पक्रगाः ॥ हीनपित्ते मध्यकफे लिङं वाताधिके सतम्‌ ॥
असाध्यः सन्निपातोऽय शीध्रकारीति कीर्यते । जम्भाप्रजागरायामविप्रखापशिरोरुनः । २१६
न हि जीवत्यहोरात्रमनेनाऽऽविष्टविमरहः ॥ मन्यास्तम्भेन स्स्युश्च तस्याप्येतद्धिशेषणम्‌ ॥?
तस्य श्ीतञवरः स्वस्नो गीरवारुस्यतन्द्रयः। श्रिदण्डवत्समबलो यथा `" “ˆ खिपादवत्‌ | २१७
दाहस्तृष्णा अमो सूर्च्छा छद्ंरोचकहद्‌
दवाः ।
यानि उवरचिकिस्सायां रूपाण्युक्तानि यानि च।
छ्ीवनं मुखमाधुयं श्रोत्रवाग्टष्टिनिय्रहः ।
श्ेष्मणो निग्रहं चास्य यदा प्रकुरुते भिषक्‌ ॥ कूटपालक इस्येष सन्निपातः सुदारुणः ॥
तदाऽस्य पित्तं कुपितं कुर्यात्‌ सोपदवं ञ्वरम्‌ । व्याधिभ्यो दारुणेम्यश्च वच्चशखाश्चितो यदा ।
निगुहीते च पित्तेऽस्य शशं वायुः प्रकुण्यति ॥ सद्यो हन्ता महाव्याधिर्जायते कूरपाल्षकः ॥
निराहारस्य बलवन्मेदो मजास्थि धावति । कुटपाल्लकविग्रस्तो न श्रणोति न पश्यति ।
तस्यौषधं गभीरस्वाद्‌ दष्टं तदेर््यकारणम्‌ ॥ न स्पन्दते न बवीति नाभिष्टौति न निन्दति ॥ `
नष्टाङ्भचेष्टो हतवागायामेन विनश्यति ॥ केवरोच्छासपरमः स्तन्धाङ्गः स्तम्धरोचनः ।
अथ तुष्टा" "ऊजं वा त्रिरात्रं नातिवतंते ॥ त्रिरात्रपरमं तस्य जन्तोर्भवति जीवितम्‌ ॥
मेदोनुगः सन्निपातः" * * `" सोऽतिदार्णः । तदवस्थं त॒ तं दृद्व मूढो व्याभाषते जनम्‌ ।
"अल्पशूरं करि ` मध्यदाहो ञ्वरः कमा त्‌ ] धर्षितो रा्ञसेर्नुनमवेरखायां चर्निि ॥
ग्ड कण्डरिरोवक्रमन्याहदयवाग्प्रहः । श्मन्यथा ब वते चके यच्लिण्या बह्मरात्तसैः ।
प्रमीरखुकः कासश्वासहिक्काजीणविसंक्तताः ॥ पिशाचेगुद्य कश्चैव तथाऽन्ये सहभोजितम्‌ ॥
ग्रथमोत्पत्तिकस्वेन शोधयन्ति कदाचन । आक्रष्टमभिक्ञस्तं च तथाऽन्ये मस्तकाहतम्‌ ।
एतस्मिन्‌ सज्निपाते त॒ कर्ण॑मूरे सुदारुणः ॥ करुदैवाचेनहतं धवितं गृहदेवतेः ॥
शोथः सञ्जायते जन्तो ००७००९,,००००१ |
नक्त्रपीडामपरे गरकर्मांणि चापरे ।
" "१. वदन्त्येनं सन्निपातं सुदारुणम्‌ ॥
वदन्ति सन्निपातं तु भिषजः कूटपाल्लकम्‌ ॥
चिरात्रोपेक्तितस्यास्य व्यर्थमाहारभेषजम्‌ ॥
सद्यः स्वस्थस्य युगपदा कुप्यन्ति ते त्रयः।
यलादाकर्षते श्रेष्मा हदयं प्रतिभिद्यते ॥ तदाऽभिवधेते देहे पित्तको विषसंश्लितः ॥
हषुणेव हतं पारव तुद्यते जुद्यतेऽपि च। विरूदभोजनात्‌ कारात्‌ परिमाणास्च कर्मणाम्‌ ।
ग्रमीरुकश्ासदिक्छा चधंन्ते च दिने दिने ॥ ्रङ्कप्यत्यनिरः शीघ्रं सोऽस्याग्निसुपटन्यते ॥
[कण्टः शू ] केरिवाव्रृतः। तस्योपहतकायागमनेः पूरवंवत्पिबतोऽश्चतः।
स्वजनं नाभिजानाति कूजस्यपि कपोतवत्‌ ॥ कफाद्भवति भूयिष्ठं यदादत्ते चतुर्विधम्‌ ॥
वच्छुरेष्मणा पूर्णः श॒ष्कवकौष्टताद्धकः तं कफं वायुरादाय खोतांस्यस्य विधावति ।
शिश्रोजगुदश्चंसो ११५०५५० ५००००००.००००५
तस्थ स्रोतांसि सर्वाणि" "---हन्ति च ॥
वाऽतिभजते ग्छानि विपरीतानि चेच्छति । पूरयितवाऽपि वायोस्ते संङदः--- --- “** ।
आयम्य बहुशः क्रशात्‌ साख छीवति चाल्पशः ॥ पिन्तं प्रकोपयत्यस्य तत्‌ पित्तं मारुतेरितम्‌ ॥
एष कर्कोटको नाम सन्निपातः सुदारुणः ॥' स्वेतः श्केष्मणा रुदढमन्योन्यमिशुनाश्रयात्‌ । २१७
"विरुपायामनः" “ "कम्पमूच्छरितिश्रमाः । -.-हल्ञासमरुचिः *“.-- विषूचिकाम्‌ ४
एकपक्ताक्तिघातं वा--- ˆ“ विशेषणम्‌ ॥ रोगान्नानावि्धोश्वान्यान्‌ कुर्वन्‌.“ " देहिनः
एष संमोहको नाम सन्निपातः सुदारुणः ॥ महते" ˆ“ `“ -“ "वायुः प्रङ्प्यति ॥
इत उत्तरं मुद्वितपुस्तके संवादिनोऽन्ये तत्रत्याः श्लोकाः
“सवंखोतोभवं स्वस्य रक्तपित्तं प्रकुप्यति । २१६ १, एष दङोकोऽत सुद्वितपुस्तके नास्ति! `
१२० उपोद्धातः ।
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यथा यथोदहल्त्वं वा प्राम्वन्ति गदा न्था(डच्छादनं नित्यं कदाचित्छ्ानमेव च ए


तथेकद्टथुष्रानाहु्हीनमध्याधिकानपि ॥ 1ङ्गरध्वरपानुष्णान्‌ कुलव्थरसशोधितान्‌ ।
कुःश्थंः ` -- ` ""रदोपिर्जायते दूटपाक्ञक | वास्तुकं तण्डुलीयं च संस्छृतं वाख्मूलकम्‌ ॥
एवमेते विनिदिष्टाः सन्निपाताख्चयोदश्च ॥ सेवते विधिवच्चेव दौ मासौ जीवितार्थिकः।
'लद्नं स्थेदनं नस्यं मर्दनं कवरुयहः २१९ त्रीन्मासश्चतुरो वाऽपि जिद्यव्वादस्य यच्मणः ॥
एतान्यादौ ग्रयुज्जीत सश्निपातेषु युक्तिवित्‌ ॥१ सुश्वतेन समश्चीयात्‌ पयसाऽऽञ्येन पैत्तिकः ।
“स्वेदाध्याये यथाग्रोक्तः स्वेदः सवाह्गिकस्तथा। २१९९ शकंराकतौद्रयुक्तेन गवां तीरेण वा पुनः ॥
तत्रास्य स्वेदयेदयक्तो यत्र यत्रास्य वेदना ॥' कपूरचूणं तृष्णायां चदने धारयेत्‌ सदा । २२४-२२५
कफो हि वायुना सप्तो विष्टम्भ पाश्वयोहंदि । २२० तेखानि गन्धपुष्पाणि नियं सुख्यानि धारयेत्‌ ॥
` "रक्तश्च पित्तेन श्ल्यवद्वाधते नरस्‌ ॥ जौदकानुपमांसानि मास(ष)पिष्ट" ^ “** 1
तस्य शुष्कस्य नीक्षस्य विलयस्य कृतात्मनः । सन्दजातानि सद्यानि युरूण्यभिनवानि च ॥
दुःखनिहरणं कतुं तिक्तादन्यन्न मेषजात्‌ ॥› पायं छकृषरं चुक्रं शप्ड लीं पानक दधि ।
(तस्य तीचणानि नस्यानि तीच्णाश्च कवलग्रहः ¦! २२० वजयेन्तानि सर्वाणि श्रद्धमोजनभेव च ॥
स्वेदं दिवाजागरणं विदध्यात्‌ पश्वशूरिनः ॥ अश्वव्यायामसंक्छृकं शीतस्तु मदिरासवम्‌ ।
मातुलङ्गदकरसभुष्णं स (-्रि)खवणान्वितम्‌ । अवश्यायं पुरोवातम्युष्णं च विवर्जयेत्‌ ॥
अन्यह्वा सिद्धिविहिवं तीच्णं नस्यं विधापयेत्‌ ॥ नि तस्य प्रशस्यन्ते शुद्धमोज्यानि जीघक ! |
तेन प्रमिते श्रेष्मा प्रस्विज्श्च प्रमिते । पथ्यानि चानुपानानि यथास्वं तानि मे श्रणु ॥
रिरोहदयमन्यास्यं रश्टिश्चास्य प्रस्रीदति ॥ गुडसर्पिपि पिप्पल्यः संस्कृता दधिसाधिताः।
“पुनः पुनश्च निद्रायां कटु नस्याज्ञनं हितम्‌ । २२० तथा मुख्यं गुडकरतं मच्या सुदमयाश्च ये ॥
तीचणद्रव्यैः सरुवणेर्मातलङ्रसद्रवैः। यवगोधूमसंस्कारा दाधिकं श॒पष्कमूरुकम्‌ ।
पलाभ्ब्युरतैरथवा कोष्णः स्युः कवरुग्रहाः ¦ द्रामककयूपश्च तिक्तयूषश्च सपिषा ॥
आद्रंकस्वरसोपेतं सैन्धवं सकटुत्रिकम्‌ ॥ एवं श्रद्धाविनयनं भिषक्कर्यादरोचके ।
आकष धारयेदास्ये निष्ठीवेच्च पुनः पुनः । अप्रमादेन धमार्थी चिक्रिस्सेन्मतिमान्‌ भिषक्‌ ॥
तेनास्य हृदये रेष्मा मन्यापाश्वंरिरोगरात्‌ ॥ तिकौपद्रवाध्याये ( यच्च चच्चय ) खिर्पु ते!
लीनो व्याकृष्यते शुष्को काघवं चास्थ जायते|
तदिहापि प्रयोक्त्यं सन्निपातचिकिस्सितम्‌ ॥
प्व॑सेदो ज्वरो निद्राश्वासकासगरामयाः ॥ `
गुदूच्यामल्कानां च स्वरसे साधितं घृतम्‌ ! लिरु-३१६
मुखाकषिगीरवं जाञ्यमुतक्रेशश्चोपदाम्यति ।
सढ्रद्‌दित्रिचतुः कुर्याद्‌ ृषटरा दोषबरावरम्‌ ॥
कलेन सारिवाश्चण्टीरोश्रदाडिमचन्दसैः ॥
एतद्धि परम प्राहुभष्जं सक्िपातिनः 0" तद्धि माद्गल्यकं नाम विषमञ्वरनाशनम्‌ ।
(उवरश्नोषार्चिष्टी हयद्रतपाण्डुनं जीधति । २२४ ज्वराणां चापि सर्वषामेतदेवाभृतोपमम्‌ ॥
स्व॑ररूणसम्पन्नः सर्वोपद्र वसंयुतः ॥ वं प्राचीनेऽस्मिन्‌ उवरसमुच्वये एतस्संहितागतानां बहुशो
त्रिरात्रोपे्तितश्चापि सन्निपातो न चिद्यति ) वचनानामुद्धारोपरुम्भः संवादश्च ताककार्पर्यन्तं काश्यप-
सन्निपाते निवृत्ते तु यो ग्याधिरवलम्बते। २२४ संहिताया; प्रचारं समादरं मन्धक्द्धिः स्वप्रामाण्योपजीवनाय
सोपद्रवं तं चिकित्सन्‌ स्वैः स्वेधिहुश्चिकिस्सितैः ॥ निर्देशनं चावगमयति ! यस्मिन्‌ खलु अन्धे प्राचीनानामेवषींणां
एकाहारबरह्मचयंरघुपानान्नसेवनम्‌ } वचनानि सङ्गृहीतानि तत्रैवं काश्यपसंहितावचनानां संवादो
जकर्मण्यमनायासः सुखशय्यासनस्थितिः ॥ न केवरं पूर्वभागस्य, अपि तु तदीयखिकभागस्यापि संवादेन
दिवा जागरणं सद्धिः सुहृद्भिश्च समागमः । तस्यापि प्राचीनतरत्वमुपोद्रख्यति ॥

हिन्दी अनुबाद
` ~< ~

` अआयुष्याम्नायमाम्नाय नानोन्मेपर्विवध्यं च |
जगतः प्रेयसे सक्ताः स्मरणीया दयामयाः | १ ||
यस्रातिभरसासिक्त शआ्मायुवद्‌ महातहः |
फ़लत्यापि जगति महात्मानो जयन्ति ते ॥ २॥ `
भ्राधुकेवेद अर्थात्‌ आयुवद्‌ को जानकर तथा उत्ते नाना उपायों द्वारा वेद़वाकर्‌ जो जगत्‌ कै कल्याणमे लगे
हए है, उन स्मरणीय
दया तथा जिनकी प्रतिभारूपौ रस से सींचा हभ यह आयुर्वेद रूपी महावृक्ष भाज तक जगत्‌ मे फल फल रहा है, उन महापुरुषों
की जय हो ॥. १-२॥
००^०००००००००७००००० ००००००००
०900०००9 © ©००० ©> ०७७०७०९ ०=©
उपोद्धात प्रस्ताव-- इस उपोद्धात में पांच विषय है-- ¦
किसी भी वसत॒ को देखकर विद्वान्‌ प्रेक्षको को यह स्वत
( १) उपक्रम सहित आयुवेद संबन्धी विवरण ।
जिज्ञासा होती हैकरि यहक्याहै तथा इसका क्या प्रयोजन है१
( २ , मन्थो फे परिचयपूवेक आचार्यो का विवरण ।
जवतक इसका ज्ञान नहीं होता तव तक विद्वान) की दृष्टि उस
| (३, संस्कार तुलना सहित विषय । `
विषय मे विेषरूप से प्रवृत्त नहीं होती । सामान्य ज्ञान हो जने प्रर
( ४) भारतीय चिकित्सा करा समर्थन ।
विशेष जिज्ञासा होती है । तथा बाह्य सामान्य ज्ञान हो जानि प्र
( ५ ) उपसंहार । | -
लोग अभीप्सित विषय को ग्रहण. करने तथा विपरीत विषय कौ
डने का प्रयत्न करते हैँ। इस प्रारम्भिक आकांक्षा को शान्त ( १) उपक्रम सहित श्रायुवेद संबन्धी विवरण
करने के ल्यि शाख के आदि मेँ अनुबन्ध निर्देश की तरह आज- यहु एक निविवाद तथ्य ह वि प्रत्येक व्यक्तिके लि रख
कर विदान्‌ छोग प्रस्तुत अन्धके कुद विशेष २ अन्तरङ्ग तथा ही अन्तिम ध्येय हे । विद्वान्‌ छोग सुख की समीक्षा दो प्रकारसे
बहिरङ्ग विषयो को भूमिका तथा प्रस्तावना आदिके रूप मे देकर करते हे प्रथम दुमका निवारण कर देना (फि्ुभाप) तथा
मन्थ को उपस्थित करते है । इस उपययंक्त आचार को दृष्टि म रखते दूसरा दुख का विरोधी भाव (00४९ )अर्थात्‌ दुःख का उत्पन्न
हए तथा, अन्य विष्यो को देखते हए हमारे मन मे जो भिचार हीन हना दोना प्रकारसे इस सुखको प्राप्त करना प्रत्येका
उतपन्न हुए दैःउन्हे विद्वानों के सामने हम संक्षेप मै भरकट करते है । व्यक्ति चाहुता हे । दुख के उत्पन्न होने पर उसकी निद्र्ति अथवा
खख का उदय होना संभव नहीं । बाधना
(कष्ट ) रक्षण वारा दुःख
१). सिद सिद् धस्त ु भोल प्रव ते
(५) सिद्धाथ सिद्धसम्बन्धु श्रोत श्रोता प्रवर्तते।।=` संसार मं सबसे भधिक अप्रिय वस्तु होती है । वह दुःख भूतकाल
शास्रादौ तेन वक्तम्यः संबन्धः सप्रयोजनः॥ (की वस्तु हौ जाने पर मी स्मरण किया जने पर॒ क्ट कौ अनुभूति
( श्लोकवार्तिकस्योपक्रमे ) करता दै, उप्तको वतेमान अवस्था मेँ प्रत्यक संमव -उपायो से दूर
( अर्थात्‌ रोता ज्ञातव्य विषय तथा उसके संबन्ध को सुनने के करनेका प्रयत्न किया जाता है, तथा उसके भविष्य की कल्पना `
रये प्रवृत्त होता है । अतः शाख के आदि मं प्रयोजन सहितं संबन्ध करये उसे पहरे से ही दूर करने का प्रयत्न किया जाता है। कौर
बतला देना चाहिये )। `. भी दसा सहृदय व्यक्ति नहीं होगा जो अपने ल्य दुःख चाहता
# प्रत्येक शास्र के चार अचुबन्ध (संबन्ध रखने वाके विषय ' हो । संसार के जितने भी व्यापार (क्रियायै ) है, उन सवका प्रयत्न
हेते दं । १, भभिकारौ .२ विषय ३. संबन्ध ४.प्रयोजन (अनुवादक) | दुखको दूर करके सुख की साधना करना है। प्ररन्तु सुख की
४: उपोद्धात का हिन्दी अनुधादं
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प्रधि ल्गा इभा मी यह सं्तार असम्यक्‌ ज्ञान वै कारण हितकारी सेकड प्रकार के रोग किसी एक ही उपाय या उपदैर द्वायान जाने
मार्गं को छोडकर अदहितकर मागं मेँ प्रवृन्त हृ दुभ्ख से आक्रान्त जा सकते है मौर नदीं दूर किये जा सकते इसल्यि इन रोगो की
क्यिजारहाहै। इस सुखम मागकोदह्ी दषते मे सव ल्ाल्ल निवृत्ति तथा इनकौ उत्पन्न हीनदहोने देने के ल्यि मनुष्यकौी
तथा लोग आजतक ल्मेरहै दै तथाद्स समयमी टमगेहुएद। जितने मी उपाय या साधन हं वे सब यथाद्क्ति अपनी बुद्धि तथा
दुःख तीन प्रकार का होता है । मन, दायर तथा आत्मा कौ निमित्त वृर कै अनुसार अवदय जानने चाहिये 1
कारकै ह्येने वाखा आध्या्मिक) पश्चमहामूर्तो से बने हए प्राणी इ सर्व लिय हमे चार्‌ बतं जाननी चाहिये ।
समूह को निमित्त करके होने वाला आधिभौतिक तथा यह यक्ष १. हेय--अर्थात्‌ दुर्खो को उत्पन्न करने वारे रोग ।
राक्षस विनायक ( गणेश ) आदि देवस्तमूह को निमित्त करके होने २. हैतु--उन रोगौ कै कारण ( निदान )
वाला आयिद्रैविक दुःख कहराता दै । इन नाना प्रस्थान मं से जिस ३, हेय अर्थात्‌ रोगो का हान ( निबृतन्नि-दूर करना ) तथा
किसीदभ्ख विज्ञेषपकीं ख्द्य क्के उस्र दुखं के निवारण कै ४. निवृत्ति के साधन ( ओषधि आद्विं उपाय )
उपायस्वरूप अध्यात्मिक सांख्य आद्वि द्येन, उपास्तनान्ञाख्र तथा
हेय ( सेगो ) के स्वरूप तथा उने निद्रान ( कारणो ) को दैख-
नीति आदि देिक शाश उपयोगीं होते है ।
कर एेसा प्रयल्ल करना चाहिये कि पदटेतो रोग उत्पन्न हीनौ
परन्तु इन सव आध्य्रास्मिक तथा टेहिक शाख आद्विर्यो का जओौर यदि उत्पन्नहो भी जवरतो ज्ञात साधन ८ ओषधि आदि) कै
तमी खाम हे जव कि प्राणियौ कौ उन्तम जीवन भाप हृजा हौ) दारा उने दूर कर्‌ द्विया जाय |
चिद्राच्‌ व्यक्ति नवीन उत्साह सै युक्त होकर तथा उत्तम उपायो को
लोगो का कल्याण करने वले हितकारी एवं विविध ज्ञान

जानकर उनके द्वारा परिष्करत मागं से अपनी उन्नति करता इभा


क्रमद्चः अभीष्ट स्थान पर्‌ पूर्टुचने मे समथ हो जता है ।` श्सके चिन्नो म जो सवद्ते अधिक उपयोगी ज्ञान है उसी को आयुर्वद्‌
यिपरीत्त अधम जीवन से दुन्खी ग्य्रक्ति कितना दी प्रयल्न क्यौन कर विज्ञान कहते हं ! यहु आयुव॑द-मिज्ञान केवर पने या कैव एकं
किसी काय॑ को सिद्ध करने मे समथै नदीं दता! इसयियि लेोर्गो दो व्यक्तियों के ्थि ही उपयोगी नदी, अपितु इससे कुम्ब,
को सजीवन कै उपा्थांका प्रतिपादन करने वितथा अन्य भी समाज, तथा सम्पूणं देशय का उपकार एवं उन्नति होती है अतः
दाख का सहारा सेना पडता है । सवं प्रथम शारीरिक क्ट के प्रत्येक व्यक्ति को दते जानना चाहिये तथा जानने वारौ को इसका `
अभाव से इस जीवन द्वारा राप्य हिक तथा पार्लोकिक उन्नति उपदेश एवं प्रचार करना चाहिये | इस प्रकार इसका ज्ञान तथा
` प्राप्त हौती है) हमारा यह शरीर नाना प्रकार कै स्थूर तथा अत्यन्त उपदेश विद्गेप रूप से उपयोगी है |
सद्म अवयर्वो तथा उन २ मवयवे की गहन क्रियाओं द्वार यथाप्रत्‌ जयुर्वेद की प्राचीनता--
न जान सकने योग्य परमात्मा की कटासरूप एक धिखाल मश्चीन जव सेष्टिके प्रारभ मँ जगत्‌ शष्ट ने पद्वमहाभूत तथा उनसे
कै समान दिखादं देता है | उस मश्लीनके स्थूर या दद्म किसी उत्पन्न पदार्थ को बनाया तमी से प्राणियो कै दीघांयुष्य कै साधर्ना
भीञंसमेदहोने वाटी दद्य या अदृद्य कोद भी पिकरति न कामीज्ञान क्राया। यदि प्राणी उत्पन्च होतेही मिथ्योपचार के
कैव्रल समस्त शरीर को जपित उससे अनुप्राणित दरीर- | कारण नष्टो ज्थेतो चछ्ष्टाका पर्रम व्यथंदही होगा | ज्यौ-
दरारीरि समवायात्मक अत्मा को भी चिकरत कर देत्री है, उ्यौवे चिर सन्ताकोौ प्राप्त करते जातेदैत्यौ २वेषखष्ाकी अभिः.
दर्ासरिक वरति से उत्पन्न हज पुरुप विकृति अन्तरात्मा पित बात को करने म समथं हो जाति हैँ। ओर यद्वि वे प्राणी
के कारण शिथिलता कौ प्राप्न हमा अन्य दुर्य से भी सप्ता कौ प्राप्त करके भी त्रिकल ( अपृणं ) अङ्गा वल दा तो उनसे
छुटकारा नदीं पा सकता है । शरीर के निरोग दौनेपरद्टी अन्य भी कोर प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, अतः आदिकारुसे ही सत्व
दुःखो से द्युटकारा पाने के उपाय विये जा सकते है तथा वै फलीभूत एवं बरु से युक्त सम्पूणं अङ्क सष्ित दी्ायुष्य की अपेक्षा दोत्ी
भी दह्येते दै । शरीर ही यदि रोगी हो तथा उसे कारण अन्तरात्मा धी | इस संसार मे उस दिद्पकार स्य के चर, अचर, भोक्ता, .
भी स्वस्थन होतो कठोर तपस्या, तीधेभ्रमण, परोपकार आदि भोज्य, आदि अनेक भेद है । भोक्ता तथा भौज्य के मी अनेक मेद
धामिक विषय, रिद्प, वाणिज्य, वाता ( क्षि ), देशान्तर रमण होते है सब मोक्ता के स्थि भी सब प्रकार के भोज्य पदाथ.
आदि आधिक प्रयत्न, अभीष्ट आहुर विहार, विषय भोग आदि अनुकर नहीं होते, अपितु भोक्ताओ की जाति, देक; कारुतथा
रतिप्रयोग तथा मानसिक विचार क्रोध रोम आदिं भान्तरिक द्ाघुर्भ अवस्था आदि कै मेद के अनुसार ही उपकारी या अपकारी होते हैँ।
का दमनः इन्दिय निग्रह, दैरवर भजन आदि मोक्षके उपाय भी एवः व्यक्ति के लिये अनुकूल या प्रतिकरूर वस्तु भी सबके लियि समान `
सम्यक्‌ प्रकारसे होना संमवनहीहै। जैसाकि कहा भी है-- नहीं होती । उसी व्यक्तिके च्यिमी कोड वस्तु सदा एक समान.
धमोथकाममोक्षाणामारोग्यं मूढसाधनम्‌ (च. ख. म. ९) अर्थात्‌ धमं अनुकूल या प्रतिकूक नदीं दो सक्ती अपितु वहां भी अवस्था आदि `
अथं काम मोक्ष इन सवका मूर साधन आरोग्य ही है । के अनुसार दी परिवतैन होता रहता है 1 इसरियि किंस व्यक्ति के
इस प्रकार क्योकि स्वस्थ जीवन रूपी वृक्ष मेँ उम्तम फल रूगते ख्य क्व क्या अनु्ुल होता है, उसके क्या साधन दे? क्या प्रति- ,
ह इसरिये दीर्घायुष्य एवं उत्तम जीवन के ल्यि शारीरिक कर्णे कूर दै, किस प्रकार उसका उदय होता है, उसकी शन्ति काक्या
तथा रेहिक दुःखो का दूर किया जाना आवदयक है । कारीरिक दःख उपाय हैतथा रोग, रोग के कारण तथा रोगो के दूर करने के उपाय
विविध रोगौ से सैको प्रकार से उत्पन्न होते रहतत-है, तथा ये |आदिकाखष्टिके रारे से ही ज्ञानथा। सब पेषणारभो {इच्छा )
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं | ६
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न से प्राणैषणा सवते प्रथम उलन्न होती है इस प्रकार प्राणियों अत्रेय(६) तथा सुश्रुत(२) के असार भी आयुर्ैद के प्रयोजन
की उत्पत्ति के साथ दही आघुर्रदका प्रारभ होता है। व्याधि परिमौक्ष तथा स्वास्थ्यरक्षा ( (पपर भत एाहरलाप्ररट

अनुत्पायैव प्रजा 'आयुदमेवाऽरेऽसजतः ( प्राणियौ फी उत्पत्ति 716०0४4 ) प्रतीत होते है ।


से पूष ही सष्टिके प्राम मै अयुत को उन्न किया) स्रुत के | आयुर्वेद शब्द बहुत शाखा वाके चिकित्साधिज्ञान कौं
इस वाक्य वे समान भायुर्रैदमेवाभरेऽसजन्ततो पिद्वानि मूतानि प्रकट करता हआ केवर मनुष्य की चिपित्सासे दही संवन्ध नदीं
( आयुरैद को सृष्टि के प्रारभ मै उस्यन्न किया, उसके बाद सम्पूणं रखता जपित इसमे हाथी, षोड, गौ अदि पशुपक्षी तथा वृक्ष रूता
प्राणियौ को उत्पन्न किया) कारयपसंहिता के इस वाक्य केद्वारा अदि उद्धिस्न कौ चिकित्सा का भी विधान है क्ये;कि वराहसंहिता,
यद्यपि सृष्टि से मी आयुरवैद की प्राचीनता प्रकट की हे परन्तु निभिन्त भट्रोत्पल के उस प्रकरण की व्याख्या तथा उपवन विनोद अदि
तथा निमित्ती (कायं तथा कारण) कै पूर्वापर संबन्ध को दृष्टिमें गन्धो मे पालकाप्य,(९) मतङ्ग, चाख्दोत्र अदि पञ्युचि कित्सर्को, तथा
रखते हुए अ्िहोत्रं जुहोतिः यवागूं पचतिः भादि वाक्यो मे पाठ- उनके उपदेश ओर परम्परागत अर्न्थ का उष्टेख भिल्ता है । इसी
क्रम के अनुसार बलान्‌ अथेक्रम की तरह "अभिज्ञान चाकुन्तल' कै प्रकार वृक्षायुर्वेद मे भी कारयप, सारस्वत, पराशर आदि आचायं
(तव प्रसादस्य(४) पुरस्तु संपदः” इस वाक्य के अनुसार प्रसाद (कपा) एवं तपसंबन्धी उनके उपदेश भमी देखने मे अत्तिहै। अ्निपुराण
से पूवे ही संपदा्ओ के होने के समान दही वास्तव मेँ सृष्टि के साथ ( अ. २७९-२९२ ) मे धन्वन्तरि दासय मी सुश्रुत को मनुष्य हाथी,
आयुवद का आलंकारिक रूप से धनिष्ठ एवं निकट संबन्ध बतलाया घोडे, गौ तथा वृक्ष आदि से संबन्ित आयुर्वेद के उपदे का उछेख `
है 1 अथवा बालक वी उत्पतन्ति से पूष ही स्नन्य ( दूव ) कौ उत्पत्ति मिर्ता है । परन्तु धन्वन्तरिं कादयप्‌;) अघ्रेय आदि सव
के समान ही सष्टिसे पूठ भी आयुर्द की उत्पंति वस्तुतः संभव हो आचार्यौ ने मानवीय आयु को ही केकर विद्ञेषरूप से वणन धिया
सकती है । पिकासवाद की दृष्टि से मी मौतिक सष्टि से पूवे ओषथि हैइसख्यि हम भी उन्दी के अनुसार उसी को लेकर प्रदत्त होगे |
वनस्पति आदि की उत्पत्ति को स्वीकार कियाजना मी प्राणियों विद्वान्‌ लोग आधचज्ञान (प्रारभिक ज्ञान ›होने केकारण इस्तका
की उत्पत्ति से पूवं भषञ्य विज्ञान ८ मायुर्वंद ) का होना सिद्ध करता वेद राब्द से जेव करते हैँ । वेद आर्यो का सवते भारभिक
है । भगवान्‌ पुनवेसु अन्रेय ने सोऽयमायुर्वेदः सारयतो निर्दि (इशपरीय ) ज्ञान समञ्चा जाता है | इसमें प्राचीन समय का सब
इयते, अनादित्वात्‌ सखरमाघसंसिद्धलक्षणत्वातः (च. ख. अ. २०) ्ञ(न व्रिज्ञान संग्रहीत है । आर्यो कै तपस्या ्रणिवान आदिक
अर्थात्‌ यदह आयुर्वैद अनादि तथा लक्षण के सखमावसिद्ध होने से आरोक से उज्वरु हृदयो मे प्रतिमा रूप से अव्याहत आद्यज्ञान
नित्य है इस रक्षण के द्वारा आधुर्द्‌ के ज्ञान तथा उपदे के सादि रूपी संपत्ति उत्पन्न हुदै थी उसी को वेद शब्द से कहा है। उसी
( जिसका आदि कारण भिद्यमान हो ) होने पर मी संसार के समान ज्ञान विज्ञानमेसे ही एक यह आयुर्गदभी है,
आयुेद की ज्ञान परम्परा को भी अनादि दर्शाया है । वेद्‌ तथा जायुरवेद्‌ का परस्पर संबन्ध--
ऋभ्‌ › यजु, साम तथा अथववेद के क्रमः धलुवद्‌ गान्धवेद्‌,
आयुर्वेद-- स्थापत्यवेद, ( मवन निर्माण कला ) तथा आयुर्वेद उपवेद हैँ उपशब्द
आयुर्वेद शाब्द का अथं करते हुए इस कादयपसंहिता मे 'आयु- समीप अथक घोतकदहै। आयुर्वदका किप वेद के साथ संबन्ध
जीवितसुच्यते' विदज्ञाने धातुः, यिदूछलामे च, आथुरनेन ज्ञातेन है, जय हम इस विषय म विचार करते हैँ तो देखते हेंकि सश्रुता-
विद्यते ज्ञायते विन्दते रमते न रिष्यतीत्यायुर्वैदः, (आयु का अथेह चाये इह॒ खद्वायुवंदमष्टज्गमुपाङ्गमथवैवेद्स्य" (ख. अ. १ ) इस
जीवन, उसके साथ पिदज्ञाने धातु या विद खामे धातु से मायुवद (६) चरकसंहिता मै--"हिताहितं सुखं दुःखम्‌" इत्यादि द्वारा
रान्द्‌ बनता है,अर्थात्‌ इसके हयार आयु काज्ञान होता हैयाआयु अपने मोग के आयतन; पंचभूत के पिकाररूप शरीर, भोगके
की प्रापि होती है इसलिये इसे आयुरवैद कहते हैँ ) इस परिभाषा कै साधन च्च आदि इन्ियौ, मन, अन्तःकरण तथा ज्ञान कराने
हारा दीधे जीवन क्रे बतलने वके तथा उपायौ के द्वारा उसे प्राप्न वाटी अत्माका अद्ष्टपूवेक हुजा संयोग आयु नामक पदरथ,
कराने वारे अविनाशी शाख को आयुरवैद कहुते है । इस निकेवन कै आयु का सरूप, आयु वे लिय हितकर तथा अदितकर ( पथ्य ओर
द्वारा आयुर्वेद का स्वरूप तथा प्रयोजन प्रकट होता है । इस प्रकार
अपथ्य ) तथा उसके परिणाम स्वरूप उस्पन्न हुए छख दुख तथा
आयुर्वद शाख के द्वारा आयु का सरूप, जिनके द्वारा वह जाना जाता अवस्थानुरूप आधु के क्षण इत्यादि साधनों एवं फलौ से युक्त
है वे उपाय, तथा विचमान आधु के क्ष्ण को जाना जाता है।
आगयुकोजो प्राप्त कराता है अथवा उसका ज्ञान करता है उत्ते
इन सबको जानकर तथा उनफे अनुसार ठीक भचरण करते से
आयुरवंद कहा हे ( च. ख. १
_आयु स्थिर होती हेतथा इस ज्ञान के विना आचरण करने से आयु ४ (२१ सुश्रुत मे-- आयुरस्मिन्‌ विद्यतेऽनेन वाऽथ्यर्विन्दतीत्या-
विनाश की ओर अग्रसर हौ सकती है! इस प्रकार साधनं सहित युवद” के द्वारा शारीर, इन्द्रिय, सत्व तथा आत्मा का संयोगरूप आयु
आयु को स्थिर करने वाटा साख आय्धेद कहाता है ! जिसमे स्थित हो, जिसके द्वारा आयु का ज्ञान हो तथां जिससे आशु
की प्रापि दहो इत्यादि आयुर्वेद के निवेचन विये गये है ।
(१)उदेति पूर्वंकुसुमं ततः फर, घनोदयः प्रार्‌ तदनन्तरं पयः। (३) शाखिहोनत्रः सुश्रुताय द्यायुवें दयुच्छवान्‌ ।
निमित्तनेमित्तिकयोरयं क्रमस्तव प्रसादस्य पुरस्तु संपदः ॥ पालकाप्योऽङ्गराजाय गजायु्वेदमनवीत्‌॥
( श्ञाङुन्तरे ७ अङ्कं ) ` ( अश्चिपुराण २९२ अध्याय)
> उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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वाक्यके द्वात स्पष्ट रूपते आयुर्धद का अथववेद कै साथ अवयव होकर उसके शरीर कै अन्दर प्रविष्ट होने से आयुर्वेद तो अन्तरङ्ग
तथा मवयो का संबन्ध दिखाते है । आत्रेय समगवान्‌ मी 'वतुणां- रूपसे दही विचमान है। नाना ज्ञान मिज्ञानके मण्डार्‌ वेदा
रुत्व -थटेदेता दरे मक्तिरादेदयाः ( च. ख. अ. ३० ) प्रधान विषय याज्ञिक ( यक्गसंबन्धो ) है । परन्तु आयुर्वेद उसमे
इस वाक्य द्वारा ऋग्वेद आददिं चारो वेदो फै साथ थोडा बहुत संवन्ध मरसङ्गयद् अवान्तर रूप से आया हुआ होने से वैदिक विज्ञान के
होते हए मी भक्ति इब्द्र कै द्वार अथववेद कै साथ दी आयुर दारीर मं प्रविष्ट हमा अवयव अद्गरूप पे ह । बाहं आदि बडे
का घनिष्ठं संवन्य प्रकट करते है । इस कारयपसंहिता मे मी “जायु- अवयवा को अङ्गरूपं से तथा हाथ आदि द्टे अवयवो को उपाङ्गरूप
वैदः कथं चोत्पत्रः" इस प्ररन क अधेवेदोपनिपत्ु ग्रागुत्पन्नःः इस से दिखाकर सुश्रुत के रीकाकार उद्दण ने भी आयुर्वेद को अन्त.
उन्तर्‌ दवारा प्रारंभ मे इसे अथवेमूखक्‌ द्विखलाकर कं च वेदं ्रयतिः रङ्ग ही बतलाया हे । यदि वेद्‌ के वहिरक्गमूत रिक्चा आदि कौ भङ्ग
इस दूसरे प्रशन यै उत्तर मे अधरव्रेदमियाह, तत्र हि रक्षावकि मानकर उसी के अनुसार सुश्चतमे आयुर्वेद कौ उपाङ्ग माना गया
होमरान्ति" `` ““"प्रतिकम॑विधानस॒दिष्टं विद्ेणेण, तद्रदायु्वदे, तस्माद्र हौ तों क्षा जादि अङ्गा के बाद्मं होने वाले आयुर्वेद को सुश्रत
धववेदं श्रयति, सर्ान्वेदानित्येकेः यह कहकर 'आयुरवैदमेवाश्रयन्ते मही भूतखष्टिसे मी पूवं दोनेवाखा कंसे कदा गया है १ अपितु
वेदा" " “ "तस्मादन्रुमः छऋग्वेदयजुचद सामवेदाथववेदेभ्यः पच्चमोऽय- शिक्षा जदि अङ्ग मे अव्यवहृत वेद शब्द केद्वारा आयुरव॑दका
माघर्वदः” (वेद आयुर्ैद के ही आश्रित है ।इसरिये ऋक्‌; यजु, साम निर्दैत् किया जाना इमे उने पूवं कारका दी सिद्ध करताहै ज्ञान
तथा अथवेवेद्‌ के अतिरिक्त आयुर्वैद को पांचवां वेद कहा हे ) इत्यादि पिज्ञान के सुद्र वेद के एक्‌ तरङ्ग रूप से विद्यमान आयुर्वेद को
कै द्वारा आचाय पिपयसन्निकषं फे कारण पटले अथववेद से संवन्य वेद कै चरीर मे अनुप्रविष्टा देखकर कुद रोग इसे उपवेद
दिखलाकर तथा उपस्ती के साथ २ सववेदौमेदही आयुर्येद काथोडा दाब्द से अवयव अवयविभाव को देखकर कुष्ट रोग वेदाङ्गशब्द से
वुत विषय भिटने से एकीय मत से स्व वेदो कै साथ आयुर्वदका तथा स्वस अवयव कौ दृष्टि मे रखकर दुद्‌ रोग वेदोपाङ्ग राब्द्‌ द्वारा
संवन्ध दविखलाते दै । ओर अन्त मे बह्मा, अधिवनीकुमार तथा न्द्र व्यवहार करते दे दसखियि इनमे परस्पर कोद असंगति नहीं है ।
आदि की सम्प्रदाय परम्परा द्वात कमद्यः विकसित आयुर्धद कै एक इसीखिये कादयपाचा्यने तो उपद्चब्द को विल्कुल दी च्योडकर
स्वतन्व प्रस्थाने ( विज्ञान) कै रूप मे परिवर्तित होकर वेदो के इसे पच्चमवेद ही कहा हं । अन्तरवयव सदा अवयवी कै साथदही
समान ही सथ वै जीवनधारक तथा लोक कल्याण परक हौनेसे रहते ह । अवयव्‌ का समय अवयवी के बादर नहीं होता । इस प्रकार
पृथक्‌ एक दाख के रूप मँ प्रतिष्ठा तथा आयुरधद की अपने विपय में उपवेद शब्द्‌ कै समान अथं वाडा यह उपाङ्ग शब्द भी आधुरद को
प्रघानरूप से उपादैयता द्विखलकर उसे महाभारत की तर्ही प्राचीन दी सिदध कस्ता द अतः इसमे अघा चीनता की शंका नही
पांचा वेद स्वीकार किया है 1 करनी चाहिये ¦

सुश्रत कै आयुवदमष्टङ्गमुपाङ्गमथवेवेदस्यः इस वाक्य मे उपाद्व यद्यपि ब्राद्मणय्रन्थ उपनिषद्‌ महाभारत पराण तथा स्मरति आदि
राष्दर को देखकर कुछ विहान्‌(१)खश्रत तथा उसी कै द्वया आयुवेद कं मं चारो वेदौ का समानरूप मे वणन भिता है! इसके साथ दही
बहुत अर्वाचीन सिद्ध करने का प्रयल करते हं।वे कहते है वि जहां अथववेद(१) मँ ऋष्‌ › यजु, सामवेद का उ्ेख हैपरम्तुदन(र)तीनों
वेदो मं अथववेद का उख न होने से पिद्रानौ कौ सम्मति मँ यह
१,

` साक्षात्‌ संबन्ध होता है उसे अद्र कहते ह तधा अङ्क फा जिसे


संबन्ध होता हे उत्ते उपाङ्ग कहते ह अर्थात आयुर्वेद वेदाङ्ग कामं त्रयीविभाग ( ऋय यजु सामवेद) प्राचीन हं । मन्त्रात्मक वेद कै
अङ्ग हं ओर क्योकि चिक्षा आदि वेदाद्धवेद्‌ कै वाद हुए हैअत प्यत्मक ऋक्‌ ;गद्यात्मक यजु तथा गीलात्मक साम इस प्रकार
आयुर्वेद जो भिं वेदाङ्ग काङ्ग (उपाङ्ग) दै वह वैद्धिका काट तथा तीन विभागं । इस व्रयीधिमाग (तीनवेदो) मेही अथववेद कै
वेदाद्गकाट के भी वाद्‌ हुआ दै,इस प्रकारवे सश्रुतको अर्वाचीन मर्त कामी यथास्थान समविश्च दुभा है। ऋषियों केहृदर्योमें
सिद्ध करते ह । परन्तु उपाङ्ग राब्दर से आपात्ततः वैसा प्रतीत होने प्रारम म आदिमङ्ञानरूप तीनो (२) वे्दोका जब ज्ञान हुभाथा
प्र भी वेद फेअङ्ग दिक्षा कट आद्यो मे दैक पिषय यिक्ेषरूप तमी आयुर्वद विज्ञान भीथा, णेसा ऋक्‌ यज॒ तथा सामवेद में
से दिखाई नहीं देता है,अपितु श्रौत तथा ब्राह्मणय्नन्थ तथा उसप्त स्थान २ पर अगे हुए आदुर्धद के पिपयो से ज्ञात होता है। विशिष्ट
भी पृथ के संहिता यरन्थो मे आयुग्रद विपय यथापूव अधिकः मिर्ता शान क कारण अथव वेद की पृथक गणना करके इसके सदत चार
हे । इसमे म अथवं वेद मे इसका बाहुल्य होने से वेद के साथ दी वेद हौ जति हं । राह्मण, उपनिषद्‌) स्मृति तथा मीमांसा आदि भँ
इसका घनिष्ठ संवन्ध प्रतीत होता है । अङ्गका अधं अप्रधान या गौण भी चारं वेद्यं तथा उनके ज्ञाता्ओ का निर्रश मिर्ता है। इस
की तरह अवयव मी होता हे मीमांसक ने अङ्घकेदो भाग भिये
दं । जो रारौर के अन्दर प्रविष्ट होकर ( समप होकर ) उप कारकं (१)यस्माद्चोऽवातक्तन्यजयंस्मादपाकषन्‌ । सामानि यस्य
होते है उन्दं अन्तरङ्ग तथा जो शरीर वे बाहर (दूर ) से उपकारकं लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम्‌ ( अथव १०।७।२० ) |
हौ उसे बहिरङ्ग कहते है ।वैद्विक शसोर से बहिभूत होने कै कारण (२)तस्मा्न्ञात्सवंहुत ऋचः सामानि जक्तिरे । दन्दसि
रिक्षा जदि बहिरङ्ग हँ परन्तु इसवे विपरीत भैषज्य आयुष्य संश- | जक्तिरे तस्माद्यजस्तस्मादजायत । ( कव्‌ १०।७।८) यज्ज ३१।
मनौय आदिं बहुत से आयुतैद कै गिषय के वेदसंहिताओं मे मोतप्रोत ७। अथे १७।६ । ६३ )
(रसा वा एषा वाक्‌ त्रेधा विहिता कचो यजषि साः
(१) हिद भक हिन्दू कैमिस्यै-भाग १--पी. सी. राय. | मानि 1 ( शतप्रथ ११।५।१७ }
उपोद्धात का हिन्दी अनुवीदं ७
०००००
क ० 9 €> €> €> ©> €> 9 © ©> ©> 99 ऊक
प्रकार ऋक्‌ , यजु, साम, अथव इन चासौ वेदौ के पुरातन काल से |करने से पौरुषेय हैँ । तथापि सव दोषौ से रहित परम आप्र पर-
ही समकक्ष होने के प्रमाण न्यायमज्ञरी तथा वेदसवैस मँ बहुत से मात्मा कौ कृतिरूप होने से इसे प्रामाणिक तो मानना ही चाहिये 1
मिलते है । अथववेद. कै सहित चारों वेद्य के उपवेद का उछ्ेख वेद अनादि हँ, अपौरूषेय ( इंरवरीय ज्ञान ) हे, पौरषेय ८ पुरुद-
करते हुए चरणत्यूहकार ने “ऋग्वेदस्यायुर्वेद उपवेद इत्याह मगवान्‌ मतुष्यक्रेत ) हैँ,अथवा अं है ओर इस वेद की उत्पन्ति अथवां
व्यासः स्कन्दो वा” वाक्य द्वारा भगवान्‌ व्यास तथा स्कन्द्‌ के मतमें प्रकादान का कौन सा वास्तयिक तथा ठीक ठीक समय है-एतदधि-
आयुर्वेद को ऋग्वेद का (१) उपवेद बताया है । . उसकी सम्मति मेँ षयक्‌ पिचार को इस समय हम यहीं पर समाप्र करते ह । यह
तीनों वेदो मे आयुर्वेद के विषय मिर्ने पर भी ऋग्वेद मे विशेषरूपं निविवाद तथ्यहेपि प्राचीन ऋषियों द्वारा भी सबसे अधिक
सेस्वर्वेय अिनीकुमार के खक्तौ मै तथा अन्यत्र सी दूसरे अतीत प्रामाणिक माना जाने के कारण यह अस्यन्तं प्राचीन कारुसेही
पुरावृन्त कै साथ-आयुवैद विषय कै विक्षेषरूप. से मिलने से त्रणी- सम्मानित माना गया है । आजकरु कै प्राच्य तथा पार्चाव्य विद्वान्‌
विभागको दृष्टिमे रखते हर ऋग्वेद के साथ अआयुर्मद का विशेष भी इसे सन्मानकी दृष्टि से देखते है । पुरात्त्वासुसन्धान की दृष्टि
संबन्ध होने से संभवतः उप्यक्त उक्ति कही हो । परन्त उसके बाद ते वेदिक सहित्य की जलेचना करनेवाले विद्वान को यदि हम
जव कमेकाण्ड कै विकेष.पिकसित. हो जनि पर च्ान्तिक पौष्टिक देतो किसी र केमत मै यह बारह हजार वषं पूवैकाहै तथां
आदि एेहिक कल्याणकारक कमं तथा. दैहिक आगन्तुक संशमन कमं किसी र केमतमे यह चार हजार वष॑पू्वं का है-इव्यादि। इस .
मधान अथववेद की पृथक्‌ गणना करके वैदिक यिज्ञान चार भागों प्रकार अपने २ विचारो के अनुसार बहुत सेप क्ष हमारे दृष्टि गोचर
मे विभक्त हो गया तव अथववेद मे (२) सैषञ्यकमे, आयुष्यकमं होते हं परन्तु संसार मे जितने भी प्राचीन साहित्य उपखग्धदहैं
तथा भूतादि परिहारकमं विेषरूप से पृथक्‌ कर दिये गये। कौशिकः उन सवते प्र्चीन वेदिक सादित्य (वेद) है, इमे विक्तौी कां
खत्रकारने भी स्थान २परउसी प्रकार का विनियोग प्रदर्दित विरोध नही हे । इस प्रकार इस वैदिक यिज्ञान का तथा उक्ते
किया है । इस प्रकार जधवंण प्रक्रिया मै षिरोषरूप से आये हुए अन्तगेत आयुर्वेद विज्ञान का भी समय प्राचीन हीं स्थिर होता है)
रान्तिक पौष्टिक आदि क्रियाओं से युक्त भैषज्य विज्ञान के क्रमिक हस वेदिक विज्ञान रूपी भण्डार म अन्य विज्ञानो की तरह आयुर्ैद
विकास कै साथ २ आयुवेदिक विषयो के मी विकसित होने से विज्ञान मी बहुत प्रकार से ओतप्रोत दिखाई देता है । उदाहरणाथ--
तथा पूर्वोक्तातंसार अन्य वेदो कौ अपेक्षा अथववेद मेँ विद्ोषरूप से ऋग्वेद संहिता मे--तरद्ावस्था ते जीणं हुए च्यवन तथा बन्दन
इस विषयं के मिलते से तात्कालिक स्थिति के अनुसार अथववेद कै ऋषि का अदिवनीकुमारों द्वारां रस्तायन प्रयोग से पुनः यौवन की
साथ इसका घनिष संबन्ध देख कृर धन्वन्तरि आत्रेय तथा कदयप प्राप्ि-एप्पुपफलटणाम््ए ( १-११६-१० । १-११७-१३ । २-
आदि प्राचीन आव्वार्यौ ने आयुर्वेद के विषय मे 'अथवेवेद का १९१९-७) दासों द्वारा अग्नि ओर जल मेँ फेंकने परममी व्चेहुष
उपाङ्गः अथववेद मेँ विशेष भक्ति (श्रद्धा) का रखना तथा अथवै- दीघेतमस्‌ ऋषि का पुनः दास द्वारा सिर तथा द्तीके काट दिये
मूक इत्यादि जो कहा है वह युक्तिसंगत ही है । जने पर अचिविनीकुमायो हाय जीवन दान देकर दस युग पर्यन्त
वेदां मे आयुर्वेद संबन्धी विषय- वृद्धावस्था से रदित होकर जीवित रहना ( १, १५८. ४-& ) युद्धक्षेत्
वेदौ के विषयभेदो मतहै। प्रथम प्राचीन मीमांसक का सिद्धान्त मे खेल राजा की पनी विद्पला की राघ्घुभ द्वारा टग काट दी जाने
हे कि वैदिक पद्धति में श्रवणपरम्परा द्वारा वतमान, प्राचीन आचार्यौ परर अदिविनीकुमार द्वारा रोहे की जंघा जोड़ना ( १. ११६. १५ ) कटे
दारा मी कती काज्ञानन होनेसेष्यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं हुए अङ्ग वाङ अधि आदि के अवयवो को जोड़ना ( १. ११७. १९ )
यो वै वेदश्च प्रहिणोति तस्मे" इस रवेताखतरोपलिषद्‌ के वचन रश्चुओं दवाय तीन इकडे विये हुए दयावाइ के अङ्गा को जोड़कर
दारा पूवं सिद्ध एेरवर ज्ञानात्मक इस वेद कै जगत्‌ खषा के मनम पुनरुञ्जीवित करना ( १. ११७. २४ ) अर्िवनीकुमा्ो द्वारा दधीच
प्रतिभा ( इलदाम-€१€]&100 ) के रूप मे उदित होने के उछेख ( दधीन्ची या दध्यङ्‌ ) ऋषि के सिर को अलग करके उसे रखकर
से, तथां ऋषियों के मी केवर मन्त्रद्रश होने से पद. तथा पद के उसकी जगह घोड़े का सिर जोड़कर उसके हारा मुवि ( प्राण-
अथै के नित्य संबन्ध होने से यह वेद अनादि तथा निलय विया $ग्रहण करके पिर धोड़ेका सिर काटकर उसके स्थान पर
परन्तु इसके ` विपरीत तार्किको (नैयायिको ) का सिद्धान्त हैकि पुनः पहला ८ मनुष्य का )सिर जोड देना ८ १. ११६. १२।१. १९७
उस परमैदवर से ऋक्‌ , साम तथा यज्ञु के उत्पन्न होने का उ्लेख २२ ) अन्धे ऋज(रव कौ दृष्टिदान ८ १. ११६. १६।१. ११७, १७)
मिलने से वेदं रूपी शब्द के प्रत्येक उच्चारणं की नै उत्ति के अन्धे कण्व को दृष्ठिदान तथा बहुरे नाषंद को शोत्रदान ८ १,११७.८ )
कारण शब्दौ के समुदायरूप, वेदौ कामी यचपि नित्यत्व प्षंभव पङ्क ( लूजञे ) पराढृज तथा जिसके शरुटने खराव इए हैँ पेते
नहीं, अपितुयेखष्टिके प्रारंस मेँदैरवर' दवारा बनाकर उपदेश रोणषि को गत्तिदान ८ १. ११२. ८ ) नपुंसक पतिवाटी .वधचिमती
कै मी पुत्रोत्पादन (१. ११६. १३ ) विदवक को नष्ट हए पुर
। . ~ (१) तेज्ञीर कै पुस्तकार्य म विद्यमान उमा-महेश्छर संवाद ( विष्णाद्व ) की प्रि ( १. ११६. २३) कुष्ट रोग कै कारण पति
रूप एक अन्य कादयपसंहिता मे म॑ 'ऋग्वेदस्योपवेद्‌ङ्कं काश्यपं को न प्राप्त करके पितृगृह म जीणं होती हई कक्षीवती की पुत्री घोषा |
रचितं पुरा । रन्त्रन्थं महातेजः अमेयं मम दीयताम्‌ (? ) इस का कुष्ठ निवारण करके पति की प्राि कराना ( १. ११७. ७ ) ङुष्ट-
दोक के द्वारा आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद बतङाया गया है । रोग से कृष्ण वणे वे क्याव के रोग को दूर करके सन्दर पली की
(२) भेषजं वा आथर्वंणानि ( ताण्ठ्यमहानाह्यणे १२. ९. १० ) प्राति ( १. १९७. ८ ) शत्यादि अरिवनीकुमारौ-के अनेक अदुज्ुत चम- `
| उपोद्धात का हिन्दी अजु ब
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त्कार-वायु, चयः पृथिवी आदि केसमान देवसिपग्‌ अरित्रनीकुमारे द्रा रा ( १. २५. ४।५, २२.१-१४ )ज्वर के मेद्‌ तथा उनमें मण्डूक
अनुकूल मैप की प्राथना ( १.८९. ४ ) अदिवनीक्ुनार। द्वारा ओषधि ( मटक ) क! उपयोग (७, ११६. १. २ ) उस समय जागर प्रदे
वनस्पति आदि की विदेष रूप से अभिव्यक्ति (१. ११६. ८ ) तुम हाने के कारण सुंजवत्‌ › बाहीक, गान्धार, अङ्ग, मगध आदि देशौ मे
दोनो मेषस्य के द्वारा भिपक्‌ होषौ-दस प्रकार अधियौ की प्राध्ना ज्वर का निदेश (५. २२. १४) दलेष्मा का अर्थि, सन्धिस्थान
(८१. ६५८. & ) अ{ख। इरा देखना, अन्य सम इन्द्रिय हारा समथ तथा हरय कों प्रीडा देना (६. १४. १-३ ) मन्या-ग्ण्डमाश के
होना, वृद्धव्रस्थाकौ दूर करनातथासौ वषंकी आघयुकी प्रापि ५५ भद्‌ ग्रीवा कौ गण्डमाला ( 0७०४६) के ७७ मद्‌, स्कन्धं
की अरिवये। से प्राना ( १. ११६. २५) आच तथासंयु ऋषिकी गण्डमाय के ९९ मेद (६. २५. १-३ ) अपचित ( गण्डमाल-
निवृत्तप्रसवा गौ को भौ अद्धिवयौ द्वारा प्रसतव्र कराना तथा दूधका 900प& ) के एनी, र्येनी, कृष्णा, रोहिणी, सिका, आदि मेद्‌
दिलवाना ( १. ५६६. २२।१. ११७.२० ) इद्र द्वारा भी अन्धे परावृज ( ६. ८३. १-३ › रीषेक्ति, शौषीमय, वर्णद, मिखोहित, विस.
को दृष्टिदान तथा पङ्कं ( ले ) श्रौणकौ गतिदयान (२. १५. ७) दयक्‌, अङ्गभेद) अङ्गच्वर, विखाडयः विच्वतक्म, शारदतप्रम, बसाल,
इन्द्र दारा अपाला के चमंसेग तथा उसके पिता का गंजरोग (819. हरिमः, यद्मोध, कादावाद, क्लोम ( 20५४४ ) उद्र, नाभि
2683 ) दूर करना (८. ९१. ७) इन्द्र का जौपयि धारण करना हृदय गतयक्ष्म, पादवं, पृष्ठि, वक्षण ( 67070 ) आन्त्र तथा मञ्जागत
(२.२६. ७ › नाना पिष तथा कृमियौं का वणन ओर उनका प्रतिकार पीडा व्रिद्रभि वातोकर अख्जी पाद जनु श्रौणि परिमर
( १. १९१. १-६६ ) नाना प्रकारके यक्ष्नारोगषो दूर्‌ करना ( कटि या जघन प्रदेश ) उनूक ( रीढ कौ ङ्क ) उष्णिहा ( यीका-
८ १०. १६३-१-६ › दयचिकिसा दरा हृध्रौम अद्वय को दूर नाडी ) तथा षरे ठेदना आदि नाना रोगौ का वणन भिलता
कृरना ( १. ५०. १५-१३ ) जल का सैपजत्व (१०. १३७. ६।१ है ( ९. ८. १-२२ )
२३.५९) ओपपियो का वणन (१०. ९७. १-२३) यक्ना, अक्ञातयक््ना दारीर श्याख के विषय मे--दररीर की नाडी तथा धमनियोँ
( अज्ञात रोग~ 0956 ण€ ०156०5९8 ) राजयृष््ना, ग्राहि, पृष्ठया- निद्र स शिरा तथा सदस धमनिर्यो का उच्छेख (१. १७
भय, सिपसिमि तथा ह्द्रोग अद्धि का उल्लेख (१०. ९७. ६०८५ १. ४।७. ३६. २ ) नाना रोगो फ साथ ज्ारीरिक अवयव का
१२७. १६१. ५६७ ) इत्याद्वि वहत से विपय स्थान २ पर भिल्ते हं । वणन ( २. ३३. १-७ ) नाना सरीरावयो का उक्छेख ८२, २३.
शुक्ट यजः संहिता--मं मी ध्रव अध्वाय कै दो ग्क्त २।४. ६२. ४।१०. २. १।१०. ९. १२-२५ ) कडा) अस्थि, साव,
( १२. ७५. ८९ । १२. ९०. १०१ ) मे ओषयियों का सोगनाद्यकत्व, मांस,मल्ना, पव, उर्‌ (जंघा) पैर घरे, दिर, दाथ; मुख, पृष्ठ, बज॑ह्य
स्ओौपधिर्य कैखोदने बाले तथा जिनके लिये ओपधियं खोदी गई है ( स्तन ) पादवे, जिह्वा, ग्रीवा, कीकस (छोम ) तथा सचा आष्विर्यौ
उन दोनो के हिमे उपकारी होना, दरेष्मरोग, अङ, दवयथु, गण्डु, का उषे ( ११. १०. ११-१५ ) मेँ मिल्ता है ।
एलीपद्‌, य्न, मुखपाकः क्षत आद्वि रोगो का नाञ्च करना, स्थान २ रोग प्रतीकार के विषय मे-मूत्राधात रोगमेँ शर तथा शलाका
पर्‌ ( १९.८१.९३।२०.५. ९।२५. १-९११. १०-६३।३०.८-१० ) ( (५४९ ) सद्वि द्वारा मूत्र का निकाटना या मेदन करना
धोड़े तथा मनुष्य ये ररर के अङ्ग का उर्लेखः यक्ष्मा, सग, कफरोग्‌, ( १. ३, १-९ ) सुखप्रसत्रे ( पण४] [लरए ) तथा उसकी
ल्ोध, पकार, यच्च, पिपूचिका, दद्रोग; जम, चम॑रोग, कुष्ठ, अद्भभेद्‌ विति ( 4.0107100४1] €]न्€ाफ ) मे योजिभेद्‌न-8५8891811
आदि रोगो का उल्लेख मिखता है! र्ण ( १. ११. १-६ ) व्रण कौ जल हारा चिकित्सा (५. ५७.
तैत्तिरीय संहिता के काम्ये प्रकरण मेँ दृष्टिमाधि तथा यक्ना १-२३ ) प्रकी हदं पिटका (4050९58 १ का यालाका द्वारा वेधन
उन्माद आद्वि सेम फे परिहार की भ्राथना, यक्ष्म, राजयक्ष्म तथा ( ७. ७४. १-२ ), भिड्काकौ पकानेके ख्य लवण का उपचार
उससे उत्पश्न अन्य रोगौ कौ उल्त्ति का तिपय (२. ५. १. १।२. ४. ( ७. ५७६. १-२) इःयादि यल्यप्रक्रिया्प, बाहरसे इरीर मेंप्रविष्ट
१४. १५ ) में दिख देता है । होकर रोर्गो कौ उत्पन्न करने वाले विधिध क्रमिर्यो तथा उनके निक
सामसंहितामे मीकऋष्वेदमे द्विये हुए मन्त्रके प्रवे तथा लने का वणेन (२. ३१. १-५ !चघ्चु नासिका तधा दातो में प्रविष्ट
"आयुवेद संबन्धी मन्त्र के यिलने पे सामवेद भी इस धिप्रयमं होकर्‌ सगौ कौ उत्पन्न करने वारे येवास, कष्कप, एजक, रिपी
क्ऋग्वेद्‌ के समान ही प्रतीत होता है, धिद्धंक आदि कृमिर्यो कौ न्ट करना (५. २३. १-१३ )नाना रंग कै
` अथववेदे तो पिक्षेपरूप से आयुत्रद के बहुत से विषय कृमियौ का वणेन, मनुष्य तथा गौ आद्धि पद्यु मे विमान
मिलते है । वहां इस विपय के सैकड़ सक्त तथा मप्र मिलते है । करमियोका खये कीर्णो दारा नष्ट किया जाना (२. ३२.
ऋग्वेद आदिय मं तौ प्रायः केवर रेत्िदासिकरूपसे ही वहीर १-६ ) हानिकारक रोग कृमिर्यो फो स्यं की किरणौ दवाय
प्रसङ्गवदय अधयुरम॑द का भिय भाता है परन्तु अथर्वैवेदमे तो नष्ट किया जाना ( ४ ३७. १-६२ ) स्य कौ खारू किरणो
स्थान रपर रोग, सारीरिक अवयव, रोग प्रतीकार, अमुक (८१ 79}8 ) द्वारा हष्धोग, कामला, पाण्डु आदि रोगं का
जओपधि्यौ का अमुक र रोग उपयोग, इत्याद्वि वृहत सै यिपय नाद्य ( १. ४) प्रातःकाल की धूप में स्वेदन, प्रभास्नान
भरे पधे हे जिससे कि आयुर्वेद का अथववेद से संबन्य स्पष्ट प्रतीत ( &ण 08 ) तथा जट स्नान आदि द्वारा शारीरिक रोर्गोको
होता दहे) उदाहरणके स्यि रोगके पिपय मेँ-तक्म (ज्वर्‌) न्ट करना (३. ७. १-७) दोग मे नदी के दिमयुक्त जल का
रोग का वणन तथा उसके भेद्य (६. २१. १-३ ) सतत, शारद , उपयोग ( ६. २४. १-३ ) जठ का सवरोग नाश्चकत्व ( ६. ९२. ३)
भ्म; सतः वाक (वषाकम होने वाखा ).कूतरीयक आदि का जंगर तथा पवेत की वायु का आरोग्यदायकत्व (१. १२, १-४) वायु
उपोद्धात का हिन्दी अनुतराद्‌ ७
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का मेषजत्व ( ४. १३. २-३ ), आरोग्य का वणन ८२. १०. १-८ अदंमती, कण्डिनी; विदाखा, वैददेवी, उग्रा, अवकोस्या, तथा
कठञ्य-नपुंसकता नादान के उपाय (६. १३८. १-५१ इत्यादि विषय तीक्णङ्गी आदि के रूप मे नाना ओषधि्यौ तथा उनके प्रकारौ का
मिर्ते हैँ । | वणन; नाना वनस्पतिय। के रस ते निमित गुटिकात्मक वैयाघ्रमणि
ओषधि के विषय भँ--नक्त रामा कृष्णा असिक्नी तथा का वणन, अदवत्थ, दय, सौम, ब्रीहिः यव आद्रो का तथा वुष्प्‌-
ब्रह्मसंज्ञक ओषधियो का किलास (कुष्ठ ) तथा पक्ति (वाल का वारः प्रसमती, फलिनी तथा फलरदित ओषधिरयो ओर विषदूषण
डना ) आदि सोगनाद्यकत्व (१. २२. १-४) सुपणा आसुरी सरूपा क्व्यानारन तथा दरेष्मरोगनाङ्धन गुण वाली ओषधियौ का वर्णन
द्यामा आदि ओषभियो का त्वग्रोगनायकत्व ८ १, २४. १-४ ) ( ८. ७. १-२८ ) दमं भङ्ग ( खण ) यव सह सोम आदि का वर्णनं
वट्मीक ( सपकीर्वावी ) में मिल्ने वारी जौषधि्यो का अतिस्तार, ८ ११. <. ९५ ब्राह्मण नामक जपि का पिषदरत्व, अयस्कम्भ
अतिमूत्र, नाडीव्रण आदि को नाश करना (२. ३. १-६ › पृश्णिपर्णी नामक ओषधि का विषमे बुज्षे हुए शख द्वारा कयि हुए व्रण आदि
कागभनाख तथा रक्तविकारकौो दूर करने तथा शरीरी बृद्धि मे हितकर दोना तथा पणं अधिश्वद्धः कुडमल आदि का शख प्राणी
करने में ( २. २५. १-४ ) कुरंग श्रुग तथा उसके चमं का क्षय कुष्ठ, तथा ओषधिय। का विषनाद्न (४. ६. १-८ ) वरणा परक्रया आदि
तथा अपस्मार के नाद्य करने म (३. ७. १-३ ) रातय, दुर्गा का ओषधिय। का परिषहरत्व (४. ७. १-७ ) नाना जात्ति के स्फीका
दीघांयुष्य तथा नाना रोगो के दूर करने मे (३. ११. १-८), वृषा उल्कख करके तादु तथा तस्सुव आदि ओषधिर्यो के विषनाराक्‌
शष्मा जदि गौषधि्योका वृष्य रूप मै (४. ४. १-८), रोषिणी गुण कावणन ८५. १३. १-११ ) मधु रुष्णीी पारा भाद्वि ओष.
नामक ओषधि का मग्नसंधान तथा क्षत कै प्रतीकार मेँ (४, १२. पिया का सपविषनाराकत्वे ( ६. १२. १-३ › व्याख्याेद्‌ से वल्मीक
१-७ ) वणेन, सहदेवी तथा अपामागै का तषा क्षुधा आदिकी भिट्री ( सायण के मत से ) अथवा स्िखाच्य जोषेयि (भिफिथिके
इन्द्रियो कै रोगो दिसाकमे तथा राुर्ओं के नादा करने की महिमा मतसे) का विषहुरत्व (६. १००. १-३ ) मधुक नामक ओषधि
का वणेन ( ४. १७. १-८।४. १८. ६-८।४. १९. १-८ )अपामार्ग का का नानाप्रकारके सपकरमि तथा विष को दूर करना (७, ५६.
पापकी दूर करना तथा मुख ओर दांत का रोधन करना (७, ६७ १-८ ) पिष के द्वारा ही विष का प्रतीकार (७, ८८ .१ ) विषदोहनं
१-३ ) सिराच्य ओषधि की महिमा का वणन (५.५. १-९) पिद्याके द्वारा विष का प्रतीकार (८, ५. १-१६)८. £, १-४) पर
कुष षधि का तक्म (ज्वर › यक्ष्मा तथा कुष्ट नादन (८५. ४. रष्ट्र प्र आक्रमण तथा इन्द्रशान्ति के निमित्त दसमणि का बांधना
१-१० ) कुष्ठ ओषधि का वणेन ( ६. ९५. १-३ › कुष्ठ॒ जौषधि की ( १९. २८. १-१०।१९. २९. १-९।१९. ३०-१-५ ) पुष्ट की कामना
धूप का तक्म ( उपरर ) नादाकत्व तथा उसका पिदषमेषजत्वे ( सब करने वाङ व्यक्ति को ओदुम्बर सणि का वाधना ( १९. २१. १-४)
रोगो कौ ओषधि होना), यातुधान (क्रमि) तथा उपरर आदि सृष्यु के भय कौ निवृत्ति के खियि दभेमणिका बिना (१९. २२.
नाशकत्व ( १९. ३९. १-१० ) की महिमा आररीक, विद्सक, ६--२।१९. ३३. १-५ ) इत्यादि सेकडौ ओषधियो के निर्दर; मेद,
प्रयोग तथा उपयोग आदि स्थान २ पर उपरुब्ध होते हैँ! `
एष्ठिका, विद्व तथा शारद उपरो मे जङ्किड ओषधियो का उपयोग
( ५. २२. १-२४ ) जङ्किड ओषधिर्यो का वर्णन, मणिर्यो का बधना जाद्यण म्र्न्थो मेँ मी निम्न वणेन मिरूता है । देतरेय ब्राह्मण
मे-कीं कहीं शरीर की उत्पत्ति तथा प्राण करा उक्केख, अर्धिवर्यौ
तथा उसके द्रारा श्रमो का नाश, आयुष्य की प्राप्ति, विष्कन्ध
( वातरोग ) का नार तथा आश्शरौीक षिश्चरीकः कफशेग, पृ्येग कादेवताञकेवेयके रूपमे निद तथा ज्ञानेन्द्रिय का वणेन
तथा विव शारद आदि ज्वरो का नारा (२.४. १-६।१९. २४.११०) (५, २२ ) ओषधियोकारोग। को दूर केरना ( ३. ४०) अज्ञत के
जङ्गिड ओषधि का विष्कन्ध ( वातरोग) नाद्चन, विदवमेषजय, प्रयोग से नेचसोगो की निवृत्ति (१.३) रापकै द्वारा भी उन्मादः
कुष्ट मादि रोगौ की उत्पन्तिः उुनम्शेपकी क्रथामें वरुणके कोप |
यक्ष्ानखन, वाततरोगनाश्चन, दिवन; ददु, पामा आदि त्वय्ोग तथा
दुर्नाम ( अ )रोग नान ८ १९. २५. १-५ ) पिषाण ओषभि का से जछोदर रोगका होना च्छन्दोग्य में--हृदय नाड्यां का
रक्तछ्व तथा वातरोग मे हितकर होना (६. ८४. १-३ ) वरण वणेन (८. १.६ ) आहार कै पचने की भरक्रिया (६. ५! निद्रा तथा
जपि का यक्ष्मा नाक्चकत्व ८ ६. ८५. १-३ ) पिप्प का क्षिप्त, स्वप्न का उल्टेखं ८ ४.३. ३ ) पामा रोग का वणेन (४५.१.८ ) रोग
अतिबृद्ध तथा वातीकृत रोगो की ओषधि होना ( ६. १०९. १-३ को दूर करके एक सौ सोलह वषंकी आयु की प्राचि कै उपार्योका
)
कफरोगः विद्रधि, लोहितकः, विसव्यक आदि रोगो मे चीपद्रु नामक उल्लेख ( २. १६ ) ।
ब्हदारण्यक मे--भदरयके अङ्क ( १. १. १) मनुष्य के अङ्गौ
ओषधि का उपयोग ( ६. १२७. १-३ › देवीतितली ओषधि द्वारा
( २. ४. १९१) हय तथा उसकी नाड्यो का वणन ( २. १. १९।४
केरवृद्धि के उपायो का वणेन (६, १३६. १-३ ६. १२७ .१-३ '
२, ३। ४, ३, २० ) मयुष्य तथा वृक्ष की तुना (३. ९. २८) नेव
युग्युल की धूप की गन्ध द्वारा यक्ष्मा रोग का नाच (१९. २६. १-३)
की रचना (२. २.३) गृद्युका उर्लेख (३.२.११९) शापक
जल्वायु द्वारा फैलने वक रोगों के नारकके रूपमे अजशृङ्गी,
दार रोगो कौ उत्पत्ति (३. ७. १।३. ९. २६, } `
जल दारा फलन वले रोगों के नारक केरूपर्मे गुग्गुल पीरानर
द्यौक्षगन्धि प्रमन्दि आदि, तथा प्रसारिरौ्गो (114९न ०95 06568563) सामविधाननबाद्यण मं--सर्पौ से रक्षा (२.३.३२) मूर्तोका
आक्रमण (२.२. २) रोगोका आक्रमण (२.२.३२) .
के नाशक केरूप में अद्वत्थ, न्यभोध शिण्डी आदि ओषधिर्यो तेन्तिसीयारण्यक मं-कृभियो का वणन ( ४.३६.१ ) ।
का वणच ( ४.३७. १-१२ ) ओषधिर्यो की महिमा (६.२१. १-३)
श्रौतम्रन्थो मे--
असिग्नीः इष्ण; शृष्णि; प्रस्वृणती, स्तभ्विनी, एकशुङ्गा, प्रतन्वती, | आर्वरायन मँ--यज्ञीय पयु तथा ऋतिगो मे परिदस्पीय
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सगौ का निर्वै ¦ आपस्तम्ब मेँ मियो का वणन ( १५. १९. ५) । दू को मिलकर रोगीके शरीर परटेप करना, शख की -चोट
, गृ्यमन्थो भ |
आद्वलयन मै--दर्योदय तथा ख्यात के सम्य सोनेमे रोग
करा कारण (२. ७. १. २ ) यजमान मे परिहरणीय रोग का उर्लेखे सेन्धा नमक का चृणं {छि्कना ( प्ण ) व्रण मे गोमूत्र का
(१. २३. २०) प्रु्ओौ के रोग कौ दूर करना ( ४, ८. ४० 9 । उपयोग, मूत्र तथा मरु के रुक जाने पर हरीतकीं अ{ईदि भेदनीय
द्ाङ्कयायन मैँ--क्तारीरिक क्ट के समय वेदमन्त्र के गायन ( 1.6288 ) द्रव्य का वाधना, मसु पिरि पूतीक मथित जत्‌
का निषेव (४.७.३६ } आग्रहायण यज्ञ मे मोज्यवस्तुम मेभूतो की प्रमन्द तथा खावस्क जादि ओषधिर्यो को जर म घोल्कर पिलाना,
निवृत्ति (२. ८ ) सव रोगो की निवृत्ति ( ५. ६. १-२)। घोड़े आदि पर चदना, वाण का द्धोदना, गोदोहनी मेँ जक मँ २१
गोमिलीय खञ्च म--रोग निवतेक सन्त्र का उर्लेख (४,६.२) जौ डालकर शिदन ( ९73 ) को ऊपर करके उसमे ब्रह .जल
-सर्णदंश का उपाय ( ४.९. १६ ) 1 | डालना, रोहदालका ( 0भ॑प्रलैलः ण 3० ) का डारना,
आपस्तम्ब मै--स्गण खी को एदयपत्र आद्यौ के द्वारा अभिः जो, गू, वष्ट, पद्ममूल, तथा पाचिका के क्वाथ रूप आविर
ानणणी० ) फाण्टक्ा पीना इत्यादि कावणंन है। म्रौ द्वारा भ्रतिष्ठापित
मन्ित करना ( २. ९. १०) आधा सीसा ) ( प्िलप
रोग के कारणभूत ( मन्त्रित ) शान्त्ुदक मे मी शमी, शम, कारा, वंशा, शाम्य, वाका,
का कारणभूत कृभि्यो तथा बालक मै अपस्मार
वुव्ुरभूत का सिद (७.१८. १) वाल्क मे त्रिय रोग (सज तलाश्ञा, पलार; वासाः दिक्पा चिम्बरु, सिपुन, दम, अपामार्ग,

वैवृत्त 008९५४8] ) का परिहार ( ६.१५.४ , कृति, लोष्ट, वल्मीकः वपा; दुवांप्रान्त; ब्रीहि; यव आदि सान्त
पारस्कर गृह्य सत्र मे-मदैव (मालि ) के दारा विरमय ल ओपधि्यो को टार कर तैयार विये हुए उस जर को मैषञ्य कै रप्र
मे मी वहुतसे रोगौ का नाद्क वताया है! इसप्रकार मानिक
का प्रतीकार ( ३-६) ।
}
हिरण्यकेदीय गह्यम मँ--अग्नि का रोगनाद्यकलत्व ( १.२.२८ प्रक्रिया कीतरह जओपथि पिचाम भी कौदिक खत्रवार का अथर्ववेद
बावः वे कषित्रीय रोग कौ दूर करना (२. ३. १०) | से संवन्ध प्रतीत होता है) ` ` ` “
लादधिर गृष्य यतर मेँ-करमि्यौ का वणेन (४. ४. २) गोरोग प्राचीन काल मे शारीरिक धातुर्भो की विषमता. के समान
की निवृत्ति के ख्ये होमके धूम से युक्त भदेश मे विचरण करना राक्षसः भूतः प्रेत, पश्चाच, यह्‌; स्कन्द रद्र आदि देवतार्थोका
(४, ३. १२) सरपदंश का उपाय (४. ४-१) इत्यादि भुवद संबन्धी कोप आदि मी सेगके कारण माने जतिये जेसा कि रक्षोदाऽमीव-
मिषय स्थान २ पर न्यूनाधिक रूप मे उपरुब्ध दते ह । चातनः' इप्याद्वि मन्वद द्वरारोग को दूर करने के लिथिरउसर
संबन्धी विपर्यो को छेक न्लूमफी र्ड रोग के निदानभूत राक्षस ग्रख्तिकौ दूर करना उपाय रूपसे
द्विक साहित्य मे युद
्ड ( &. 0111 6096 ) केलेण्ड निर्दिष्ट हे । पाद्वात्य चिकित्सा यर्न्थो मेँ भी उन्माद, अपस्मार
( #. 81000९0 }, दिलम्रण
( 091४) डो. पी, काडियर (£ 0002 ६ ), जी आदि रोगौ मे भूत आद्धिर्यो का निदान रूप में वणन भिर्ता है।
बोरिङ्ग ( 0. ४. 80117० 4 ) समर ( 2001 0 ) इसी दृष्टि से वेद्विक समयमे भी कौशिक ख्व आद्विरयो मै उस
(थ. वगा १,
भारतीय विद्वान ौने मी तेग के निद्रान भूत्त राक्षस आद्धि्यो को दूर करने के स्यि धवेण
इत्यादि पादचात्य विद्वानों तथा कद्ध
करना उपयोगी
बहुत कु छिखा है । इन सवके विषय मं विमद्य म्र काप्रयोगियागयाह। किसर काणेसा भी भिचार दै
ने पर भी अव हम पिस्तार के मय से इते यहीं समास क्रते में द। यि थवं आदि मन्त्रँ मे उस ररोगके कारण भूतजो नाना प्रकार
२ मन्त्रक े विनियो ग के द्विखनि के करभि का उछ्ख है वह भीरेर्गो के कारणभूत राक्षसं आदि
दौश्रिक यच्चकार ने उन
उस २ मन्रकी महिमा को द्विखाति हृएश्थे अध्याय मे अथ प्रयः ही जानना चाद्ये । वे रोगो कै जीवाणु ( 6९08 )अथवा
सैषञ्यानिः इत्यादि से प्रारंभ करके उस २ रोगवे प्रतीकार कैल्यि राक्षसभूतत आदि दोनो दी संभव हे । गरन्थकासँ ने तीन सिर, तीन
उन २ मन्त्रौ द्वारा मन्वित करके जक, भपयि आदि का पिलाना पैर, तथा खाल ओंँखौ वारी ज्वर आद्रि रोगो की जो मूतिर्या (चित्र)
तथा हवन मार्जन आदि बहत से उपाय दिये हैः मन्व्रसंहिताकौ बनाई दैवे भी उन २ रोग के निदानभूत राक्षस आदि या रोरगो
छेकर बने हए कौदिकय मेँ ये मान्विक विधान भी मरे दो सकते के जीवाणुओं की अष्ति की कलना द्वारा हौ वनाई गई प्रतीत
हैःपरन्तु वातिक तक्म रोग मे मसि तथा मेद्र का पिलाना ; द्रेष्मि कं होती है । आजवल सदमवीक्षणयम्व ( 1/2010809]9९ ) द्वारादेखने
मे मधु का परान, बातपिन्तज मे तैरुपानः धनुर्वा , अङ्गकम् पः दसर-
भङ्ग आदि वातरोग मेँ रत का नस्य, रक्त के वहने तथा स्लिर्यो की
अतिरजःपरवृन्ति मै सते कीचड़ की मिदर को वोरक्र पिानाः
हृ्धोग तथा कामला मँ रोगी को दरिद्रा तथा ओदन खिलाना, श्वेत
कुष्ठ मे सूव खाल इष्टको गोवर के साथ धिसकर भृङ्गराज, दरिद्राः हआ मानकर अपमाजेन (स्चाडना-फूफना ), !दूसरे प्राणिमेँ
इन्द्रवारणौ तथा नीरिका के पूरो को पौसकर रेप करना, वातति- संक्रामण, तथा बलि देना आदि माम्विक उपचार प्रायः किये जात
कार मे पिप्परी का सेवन, शख की चोट कुगकर रक्तप्रवाह दोने हैःतथा सफर भी होते देखे जाते दै । माजकल कदींर व्यवहार
पर उस्‌ स्थान पर पकाये इए छाख के पानी द्वारा सिद्रन करना, म दिखाई देनेवे पसे उपाय एकदम .निमूषठ नहीं दहै अपितु
,राजयच्मा, कुष्ठ, धिरेतोग तथा सारे सरीर की वेदना मूमक्खन मेँ प्राचीन वेदिक अवस्था सेदी प्रारंम्‌ होकर द्यी कूटी अवस्था.
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद “

फिस्मी न किसीरूप मे आजतक मी प्रचछित हए समञ्चन जषधि्यौ का वर्णन है परन्तु वहां उनकी उपयोग विधि नहींदी
्ाहिये । इस प्रकार की मान्विक प्रक्रिया से युक्त मेषञ्य प्रक्रिया है । अथववेद मै यपि नाना रोग, ओषध, रोगो के कारण, कमि
नन केवल प्राचीन मारतमें दी थी अपितु प्राचीनः मिश्र, पाश्चासय आदि, अमुक ओषधि के सेवन से अमुकरोगका प्रतीकार इत्यादि
देश तथा उ्तरी अमेरिकाके देखो मँमीथीजेसाकिउनर देशक पिषय मी मभ्ः मै मिलते है परन्तु उनसे मी उनकी उपयौग
प्राचीन इतिहास के अतुस्न्धानसे स्पष्ट दहे। की विधि मालूम नहीं होती। इस प्रकार उन मन्त्रौ से केवल
कुद लोग का जो यह विचारदहे फि आधवेण सम्ब्रदायमें तात्कालिक आधयुवैद विक्ञान की स्थिति चित होती हे ।
केवल मान्त्रिक भूत प्य रोगों कोदूर करने का उपायथा 'यत्नोषधीः समग्मत राजानः समिताविव ।
यह स्वार मे सव्य नहीं है । वदिक समय म भिथ्याहार-विहार विग्रः ख उच्यते भिषथरक्तोहामीव चतनः॥
के समान पाप, भूतप्रेत आदि रो्गोके हेतुरूप से तथा रुद्र आदि (ऋष्‌ ६०. ९७. £ )
देवताओं का कोप एवं ओषधियो कै प्रयोग के समान उस २ दैवता शतं ते राजन्‌ भिषजः सहखमुर्वी गभीरा सुमतिस्तेऽस्तु॥
का आराधन करके उत्ते प्रसन्न करना, विरेषर मन्त्रो द्वारा भूत ( ऋक्‌. १, २४. ९ )
आद्वियो कौ दूर करने के श्यि रोगियों का माजन, जलाभिषेचन, शतं द्यस्य भिषजः सहखमुत वीर्‌धः ॥ (अथवं २.९.३२ )
अभिमन्त्रण धूपन आद्रि रोगों को दूर करने के उपायं यद्यपिः मिरुते इव्यादि मन्त्रौ से प्रतीत होतादहे कि सेकड ओषधिर्यौ के
हे तथापि पृवोक्तानुसार बहत सेरोग, राव्यप्रक्रिया्यै, बहुत से संधरहकतां विप्र भिषक्‌ (वे ) होतेये। वैधमीन केवर एकदो
सारीरिक अवयव, उस २रोग कौ दूर करने वाटी अनेक ओषधयो मे अपितु सैकडौ की संख्या में ये! ओषधिरूप से ज्ञात ठता वन-
का मन्व मेँ स्पष्ट रूप से उछख मिख्ने से यह कहा जा सकता है स्पतिया आदि मी स्वद्प नहीं अपितु हनरौकी संख्याम
कि मन््रविद्या के समान मैषञ्यप्रक्रियामे मी आथवंणी प्रवृत्ति थीं । इनसेज्ञत होता है कि इस विज्ञान के शाता सैकड़ों महषिर्यो
विमान थी । इस प्रकार प्राचीन लोग मन्रविद्या तथा ओौषधविधा दारा प्रतिपादित, सम्पूणरूप से व्यवहृत, तथा श्ंखलारूप में
दोनो हयी मार्गी का अनुसरण करते थे। परन्तु आथवंण शरक्तोंके विमान सम्पूणं ओषधियोँ से युक्त यह आयुर्वेद एक पृथक्‌ गन्थः
मरन मसे द मन्त्रौका शब्दां करते हए उनके भूतपिदया से केरूपमें विद्यमान था। क्योकि ज्ञात्य विष्यो की खतना तथा
रहित आयुवदीय विषयो के प्रतिपादक दिखाई देने पर मी गृह्यकार उनके उपयोग से होने वले लमका निर्देश वेदोँमेँ स्थान र
आदिक द्वारा जर के प्रतिपादक शतत देवीः इत्यादि मर्न्नका पर विकीणंरूप म ( 8०९८0 ) हमे मिलता है । वेद शब्दस
रानिग्रहादि परक अथं करने के समान ही कौरिक खकार द्वारा समष्टि रूप मे विचमान आदिमज्ञान का बौध होता है तथा उसकी
अभिचार ( दिसाकमं ), मन््रकरण्डबन्धन ८ रक्षापतरका वाधना) समीपत्ता वाङ व्यष्टि पिदरेष काज्ञान उपवेद शब्द से खचित होता
तथा भूतापसारण परक आदि अथं किया जाना कालक्रमागत दृषटिभेद है । गान्धवं, धानुष्य, स्थापत्य आदि कैज्ञानकी तरह व्यष्टि रूप
कौ प्रकट करता है। | ते विद्यमान आयुरी रक्षाका ज्ञान आयुर्वेद शब्द से ध्वनित
ऋपा संहिता मे अद्य मत्रा मै आईं हृद मान्विक उपचार होता दै । यह प्राचीन आयुवेद ब्रह्मा, अद्धिव तथा इन्द्र की संहिता
प्रक्रिया तथा मैषज्य विद्या की अथववेद मेँ अधिकता दिखाई देने से रूप से प्रथक्‌ रूप मे ही विद्यमान होगा । इसी कारण कुद आचार्य
विकास प्रतीत द्योता है । उसके बाद शुद्धरूप से भैषज्य का निर्दड नेइसेजो उपवेदसूपसे छिखादहै तथा कृश्यपाचायंने इसका
करने वाके मन्त्रौ का भी को्िकब्रत्रकार ने मान्विक प्रक्रिया प्चवैवेदके रूपमे निर्देश कियादहैवह टीक ही दहै। परन्तु
परक अर्थं लगाया है । इससे प्रतीत होता है कि सरकार मे मान्त्रिक कारुग्यतिक्रम से वह प्राचीन तथा मूलभूत आयुवेद आजकरु
प्रक्रिया का विष विकास हुआ था। इस्‌ प्रकार क्रमिक विकास- पृथक्‌ रूप से नदीं मिलता है । केवर वेदिक संहिताओं में कदी २
परम्परा समाप्त हो जाती है । अथवा अथव भूतपि्या का आचाय विकीर्णहूप से अथवा सम्प्रदाय परम्परा द्वारा किंसीर ऋषिक
था णेसी मी श्रुति है। इसीखियि अथववेद म भूतव्रिया तथा मन्त केखवद्ध रचना द्वारा द्यी भिर्ता है |
विद! के विषय विदेषरूप से सम्मित दै । इस कौमारभृव्य तन्त्र उपरब्ध प्राचीन आयुर्वैदिक अन्धो तथा वैदिक संहिता मन्थो
मे बालरीगो मे स्कन्द, अपस्मार ग्रह; पूतना. आदि को निदान रूप म जये हुए आयुर्वेद के विषयो का विचार करने पर रोगों के नामः
से तथा धूपन; पूजन आदि को रोग-प्रतीकाररूप से देने कै समान ओषधिर्यो के नाम, उनके उपयोग तथा निरूपण देखी भादिमें
ही धातुविषमताकोरोग कैहेतु रूप तथा उन २ ओषधियोका बहुत ह्ये मेद्‌ दिखाई देता है । वैदिक विषयो की अपेक्षा जपे
उसर्रोगको दूर करने मे उपयोग दिया दोन से प्रतीत दता है संहिता अन्धो के विषयों में क्रमागत विकसितावस्था भी विशेषरूपः
कि पूवैकार में दोन प्रक्रियां विद्यमान थीं । से दिखाई देती दहै। माषाञ्चाख् की दृष्टिसे भीत प्रकारका
वैदिक साहित्य म बहुतसे वै्कके विषयों के भिरूनै पर अन्तर थोडे समय के व्यवधानसे संभव नदींहै। केख तथा माषा
भी पूर्वोक्तान॒सार ग्वेद मे अदिवर्यो द्वारा नाना चमत्कार रूपकी री मे जितना अन्तर प्राचीन खत आदि ग्रन्ध;दो हजार .
भैषज्य विष्यो का केवरु ठेतिदह्‌सिक रूप से ही वणेन भिता है । वषं पूव के कपियो की रचनार्ओं, बौद्ध-साहिग्य तथा कादयपः,
चिस रौति से अधिया ने विरपला की ज्वा जोडी, ऋजव कौ आत्रेय, धन्वन्तरि भादि महषिरयो के ठेखोँ का आधुनिक ठेखोँ से.
अखं टीककी, शोणके जानुर्जी को क्रियाशील वनाया-इ्त्यादि है उसते मी अधिक अन्तर वैदिक संहिताओं तथा जषंसंहितार्मो
कै विश्चेष . पिधाना इससे ज्ञान नदीं दोता\ दीं २ किन्दीं म जये इए जयुवैद के विषय मँ है । यह अन्तर (भेद) बहत
२ उण ह°
१० उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद

म्बे समय के व्यवधान के विना संम्रव नहीं है । प्रत्येक साहित्य की इच्छा से समान एवं विषेष गुण वाटी ओषधिर्यां को भिरखाकर्‌
मै विज्ञान का विका क्रमिक ही हुमा करता है । अयुतरैद विज्ञान सामूहिक योग बनाकर प्रयोग करने की पिधि प्रचकिति हुई,
के विषय म भी पदिक सादित्य की अपेक्षा आपंसंहिता के स्ित्य ज्यो २ प्राणिसमूह कौ वृद्धिः देश-कार-जरु-वायु-अन्न-पान-स्थान-
चा पिकास बहुत लम्बा काठक्रमागत पूवं परम्परा कौ अपेक्षा रखता अवस्था आदि मेँ परिवतेन, व्यक्तियों म परस्पर सम्पकं एवं संघं
है । वद्धि साद्य के बट्‌ ब्राह्मण, उपनिषद्‌, क्प; खत रूपी का उदय, तथा नाना रोग स्वरूप ब्य एवं आभ्यन्तर शारीरिक
धाराम मेधिररूप से बहता हुआ युरवद्‌ चिज्ञान का प्रवाह अपनी २ पिकार उत्पन्न होते गये, त्यौ २ क्रमसे उस्र रोग तथा उसकौः
स्वायं परम्परा कै चिना प्राचौन अषं संहिता मन्धो मं उस ज्ञानो- निवृत्ति के उपायो के ज्ञत होने प्रर तथा परिस्थिति के अनुसार
दधि को कित प्रकारं प्रकट कर सकता है। इसङ्यि स्थान २ पर वही रोग अनेक रूपो मेँ दिखाई देता हुभा नये रूप्‌ तथा नये नाम
पूर्वाचायोँ दारा निर्दिष्ट, नाममत्र शेपं तथा जिनके नाम भी दुप् दवारा ग्रकट् होने ल्गा। तथा उसी के अनुसार उनर् दोषो को
द्रो चुके है रेस प्राचीन आचार्यौ कौ उपदैद्रूपी विज्ञान परम्परा दूर करने के छ्यि वस्तुर्ओकौ मिलाकर सामूहिक रूपमे यौग
ही आयुर्वद विक्ञानप्रवाह मेँ वैदिक सादिव्य एवं असंहिता को वननेख्गे होगे | फिर छऋषियोने इन पूवंकद्पित तथा अपन
मिलने वाके सेतु ( (०प्ण्ल्ण्ड पण) के रूप मे काये कर व्िह्युद्ध अन्तः करणो मै प्रस्फुरित योगोषधियो कौ मिलाकर सत्र
रहय है। यह्‌ अद्य सेतुभूत परम्परा मौ अन्तततौ ग्वा कम से स्थान मेँ आये हए विषय को अपने विचारों द्वारा बद्राकर सस्थान
कम हजार दो हजार वषं से कम नदीं हौ सक्ती! "विविधानि के अनुसार ही अन्य स्थानौ को जोड़कर इसे पूरी संहिताकारूप
स्ाख्लाणि सिप्रा प्रचरन्ति लोकै के द्वारा भगवान्‌ अत्रेय मी अधने
दिया दहोगा। इसके बाद उत्तरोत्तर अन्य विद्वानों ने पूर्वापर
समय मँ प्रचित अन्य आवार्य के चाल का उषे करता है। अनुम से सिद्ध रोगो तथा उनके प्रतिक्रारो के उपायोंको ठेकर
सप्रकार आत्रेय आद्वि ते पूर्वं भी अन्य आनार्यौकादहोनास्पष्टहै।
देश-फाङ तथा परिस्थिति के अनुसार अन्य अनेक आयुर्वेद के मन्थ
यहां यह भी विचारणीय पिप्य ह कि वेदिक आश्ुषद विज्ञान मं वनाये । इस प्रकार नाना द्र्यो के योग (समूह) से वनी हुं
ओषधिर्यो के प्रयोग की पद्धति मी अर्वाचीन नदींहै। हा(शनेले
करल्य्रक्धिया तथा अन्य दारीरिक ञआद्वि पिभा के संबन्धमेंमी
अत्यन्त स्म विचार अयि इए ह। ओपधिविमाग ( #<01०81 द्वारा निद्ि्ट, छदन दासा पठ टकी स्थित तूड्हाङ्‌ ( ¶प्ण पचपनण६-
910८) को देखने पर उसमे हरमे धावु; रत्न, रसं आदि का चीन की उम्तर~पश्चिमी सीमा पर स्थित) नामक्‌ स्थानम प्राप
उल्लेख नीं भिलता है । केवल वनस्पति आदि साव्रारण ओषधियां प्राचीन पुस्तक के प्राचीन ईरानी भापाके अनुवादक साथजौ
( प्लण०४] पण्डः ) ही प्रयुक्त की जाती हह दिखाई देती दें। मूर संस्छृत का ङेख दै उसमे भगवान्‌ बुद्ध दवारा जौप्रक को संबोधित
तथा वे जङ्गिड, कुष्ठ, रोदिणी अपामागं आद्वि वनस्पत्तियां भी उस्र करके उपदिष्ट ओपथियो का वणन भिल्ता है । महावम्य म निर्दिष्ट
तेग भे केवर पृथक्‌ २ ही व्यवहृत हदं भिर्ती हँ । फौरिक- जीवक के साहचर्यं से बुद्ध के इम उपदेशम नाना ओपधियोँ कै
स्कार ने भी टगसग उसी प्रकारसे यधु, तैल, शत, पिप्पली; योगसे वनी हुई ओपभधिये का उल्लेख दोनेप्ते नाना द्रव्यो के
काष्ठ आदि वस्तुर्ओो का अमुकर रोगमंप्रधक्‌ २ व्यव्हार किया योगसे वनी गोपपिर्योका प्रचार भीं बुद्धके समय से पहले से
हे ! आलविसोरपफाण्ट-भूङ्गराज आदि पुष्पके रस्का केपः, नवर यिद्यमान था रेता मन्य अरन्थौतेमी प्रतीत होता है। पाश्चात्य
नीत ( मक्डन ) भिक हुए कुष्ट का प्रेष ( 2४७६ ) तथा परकाये चिकित्सा पदति ममी दूर करने योग्य दोप के अनुसार अमुक
हुए दूष ओर रक्षा का पीना-इत्यादि दो तीन वस्तुभों के भिङे गुण एवं दोष वाली वस्तुभौ फो उपयोग कौ समय भिखाकरः व्यवहार
हृ योग कहौं र ह दिये है । अमुक र रोग तथा अमुकं २ दोषहर करने की प्रक्रिया प्राचीन समयमे होने पर मी आजकल अनेक `
वस्तुओं के ठीक २ ज्ञान हौ जनि पर उनके परिहार के उपाय भि हष दोषो वले रोगो को दूर करने के किय भिरी इई भोष-
यथासमय स्वयं विचारे जा सकते दै । इसी को दृष्टि म रखते ह भिर्यो रा पेटन्ट ओपयियां मी बनती हैतथा उन नुसते या फामूजे
मूर परिभाषा रूप मे शतत्य शाखो के विपर्थो कौ केकर वातिकः केरूपर मँ प्रकाद्धित भी पिया जता हे । पू्रपर स्थानभेदसे
चैत्तिकः रकैध्मिक तथा जौवनौय, वृंहणीय, तप॑णीय, संशमनीय संक्षेप णवं विस्ताशरूप से अपने क्ञातव्य विपय का टीक २ शान
एवं वृष्य अद्धि वगौनुसार ओपधियो कौ पिभक्त करके तथा रोर्गो कराने बाली संहितां तथा वतमान निबन्धो द्रवाय यिदद किया
कै प्रतीकार के भूरुभूत उपाय पञ्चकम आद्वि प्रधान विषर्योको हुआ भी यह्‌ चिकित्सा विज्ञान केवर दिग्दशेन मात्रके ल्यि दही
संगरहोत करके भिन्न २ संदितार्भौ फे रचयितार्थो ने स्तवसे पू है । सबलोगों की शारीरिक तथा प्राकरूतिक परिस्थिति सदा एकं
सत्रस्थान को बनाया । उतने कौं ही ठीक २ जानकर उनसे कस्पित जेसी नदीं रहती 1 एक ही रोग प्रत्येक व्यक्ति तथा उसकी प्रकृति
योगो के द्वारा रोग दूर्‌ विये जा सकते है इस ल्यि सन्तस्थान मात्र के मेद से विभक्त दोकर अनेक रूप वाका दो जताहै। ज्यो
भी ओषधि्यौ के खियि परया है,यह्‌ कहा जा सकता है। आजकल देश, काठ, जलवायु, आहार-विहार आदि की परिस्थिति के भेदे
भी गावो तथा पहाड़ म भिन्न र सगो भँ केवर एक दो वनस्पतिर्यो तथा दोर्षो के संयोग सेनाना रूपौ मे सोग बदते है तथानयेररूप
का प्रयोग किया जता हुआ उसी प्राचीन मौखिक प्रक्रियाको धारण करते हैद्यौ २ दे्च-काल आदि के अनुसार भोषधि्यो कै
पचित फरता है । इसे बाद धीरे २ ज्यो २ वस्तुर्ओके युर्णो आवापोद्राप, मान मेँ युर एवं खु का अन्तर तथा रचना के परौवीप+
दोर्षो का अनुमव बद्ता गया तथारोगमी रिरुष्ट (करं दोषौ ते _येक्रम को करके नये २ रोगो केप्रतिकार के उपाय तथा अनुभवसिदथ
अनुभवसिद्ध,
युक्त )दोते गये व्या रएकदही योगद्वारा स्वदर्षोको दूरकरने (१ >)जार. जी, भण्डारकर कमोरेश्लन भाग १ पु०४१६ `
(व. ।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ह
१-००-० >>> >> >> ०-9-०9 ©> <> ©> >~ >> >-८> ©> ©> © 23< ©9-€9 ०७ >> >> ७०० ठ अ०८छ छं
जओषधियो को केकर प्राचीन आयुैद विज्ञान के कोश्च को सुरक्षित नीकुमार तथा इन्द्र आदि द्वारा ऋषियों को प्राप्त दहौकर उनकै दारा
रखने तथा बहाने की आवदयकता है । लोक मेँप्रचकित हभ, आयुर्वेद के आचाय इसका ठेसा इतिहास
(२) म्रन्थ परिचय सित आचार्यो का विवरण- वतलाते हैँ। अस्तु, चाहे यह आयुवेद ब्रह्मसे प्रारम्म हुमा हो, चाह
आयुर्वेद का प्रकाश्च तथा आचार्य--उत्पन्न हए ॒प्राणि्यो देवताओं दारा उपदिष्ट दौ ओौर चाहे यह छषिवगे द्वारा प्रकारित हो,
वी स्वास्थ्यरक्चाकी दृष्टिसेखष्टिकेप्रारम्म में स्व्॑मू बह्याने ही इसमे कोद सन्देह नहीं कि इसका प्रादुर्भाव प्रत्येक अवस्था मेँप्राचीन
संहितारूप से आयुद को प्रका(शरित किया । वह भयुरवैद अधि | ही है। आयुरवद के मूलग्रन्थौ से निम्न सम्प्रदाय क्रम मिक्ता दै~~
मद्या

दन्त
|
भभिनुमार

दन्द्र
|
| |
( सुश्चुत संहिता के अनुसार ) ( काश्यप संहिता के अनुसार » ( चरक संहिता के अनुसार ).
धन्वन्तरि , करदयप वसिष्ठ अत्रि भयु मरदाज
|
दिवोदास इनवे पुत्र तथा रिभ्य अत्रय पुनवसु
सुश्रुत जओौपपरनव वैतरण अग्निवेरा भेड जतूकणं परादयर
ओरभ्रपौष्कावत करवीरं हारीत क्षारपाणिं आदि
गोपुर रक्षित मोज आदि
इस कार्यपसंहिता की उपदेश्च-परम्परा के वणेन मे (स्वयम्भू पुरुषीय (च. ख. अ. २५) तथा सुद्खीका-गमौवक्रान्ति (च. शा.
ब्रह्याऽऽयुवेदमग्रेऽसृजत, ततश्च तं पुण्यमायुरवेदमदिवभ्यां कः प्रददौ अ. २ ) अध्याय मेंविकेषण रहित भरद्ाज का मत दिया है। वहां
ताविन्द्राय; इन्द्र षिभ्यश्चतुभ्येः कर्यपवसिष्ठात्रिभगुभ्यः, ते मी मरद्वाज कै मत का आत्रेयनै ण्डनी किया है) तथा उसके
पुत्रेभ्यः शिष्येभ्यश्च प्रददुहिताथेम्‌ (१, ६१), इस केखके द्वारा बाद अपने मत का खण्डन होने पर जिज्ञासा द्वारा पृदने पर आत्रेय
इन्द्र से साक्षात्‌ ही कदयप भादि प्राचीन ऋषियों ने यह विधा ने उसका विशेष विवरण द्विया है । इस प्रकार का निदेद्य होनेसे
प्राप्त कौ ेसा प्रतीत होता हे । चरक कै प्रारम्भमें रोगो से द्वी भरद्वाज इसका गुरं प्रतीत नह्य होता है । वातकलाकलीय अध्याय्‌
हुए प्राणिर्यो की रोगसुक्तिके उपाय को द्रठने की इच्छासे मे भरद्वाज का कुमाररिरा यदह विशेषण आक्रेय के शुर भरद्रानके
समवेत हुए महषियोकी प्रेरणासे इन्द्र के पास जाकर उससे निराकरण के स्यि कहा है तथा श्युद्धीकागमवक्रान्तिः अध्याय मँ
आयुव॑द्‌ विदा को प्राप्त कर्‌ टे हुए भरद्धाज द्वारा महषि्यो को भरद्याज शब्द से यष्टु आत्रेय के गुरु का बोध नहीं है अपितु अन्यं
इसका उपदेर देने के निर्दैश से प्रतीत ह्येता हैकि इन्द्र रा उप- ही कोई भरद्वाज गोत्र वाला प्रतीतदहोतादहै, इस प्रकार लिखि कर्‌
दिष्ट भरदज से ही ऋषियों को यह विद्या प्राप्त हुदै। भरदाज रीकाकार चक्रपाणि ने स्पष्टरूपसे बतलाया है कि उपर्युक्त दोनों
आयुर्वेद विचा का कोई प्राचीन आचाय था रेसा वरसमुच्यः में स्थरो पर आया दुभा मरद्राज आत्रेय का गुरु नहीं है चक्रपाणि कौ
अये हए वचनां से मौ ज्ञात होता है महामारत मे भी वैचाचायं उक्ति वे अनुसार संभवतः गोत्रवाचक कईं मरद्ाजों के संमव होने
भरद्वाज का नि्दंश है । चरकसंहिता के उपक्रम तथा उन्तर भागम प्र अत्रि परम्परागत किसी आत्रेय ने किसी भरदाज से इस विधा
भरद्वाज का दौ प्रकार से उच्छेख किया गया है । वातकलाकलीय को महणं किया हौ परन्तु अन्य संहितामें कहीं मी भरद्वाज से
(च. ख. अ. १२) तथा अत्रेवभद्रकाप्यीय (च. घः भ. २६) उपदेश ग्रहण, उसका सम्मान तथा उसके मत की प्रतिष्ठा कौ द्विखाने
अध्यायो में कुमारशचिण भरद्वाज का मत दिया इ है । इस धिरे वारे संकेतौ के न मिर्ने से मन मे सन्देह उत्पन्न होतादहै। हसं
षण से युक्त दिया होने कै कारण यहु मरद्वाज कोई अन्य ही प्रतीत प्रकार अत्रय का गुरू भरद्वाज कौन है, इसका निश्चय नदीं कियां
होता है । सवे मत का अत्रेयने खण्डनमी कियादहै। यञ्ज जा सकता । कारयपसंहिता कै रोगाध्याय में केवर कृष्ण भरद्वाज
($) (क) स्वयम्मूर्बह्या रजाः सिद्धः प्रजानां परिपारनार्थमा- का उर्डेख है । यह भी विषशेषणयुक्त कोड विभिन्न ही सरद्रान `
युर्वेदमेवागरेऽस्जत्‌ 1 ( कादयपसं हिताया ए. ६१) प्रतीत होता है । काश्यपसंदिता के आयुवैदाध्ययन प्रकरण मेँ प्रना-
(ख) इह खल्वायुवैदमष्टङ्गमुपाङ्मथर्ववेदस्यानुत्पाचेव प्रजाः पति, अशि, इन्द्र तथा सव विचाओं के आचायं परम पुरूष धन्वन्तरि
श्लोकश्तसदसखमध्यायसहशं च क्तवान्‌ स्वयम्भूः । के साथ. अपने मन्थ के मू आचाये कश्यप का भी स्वाहाकार देव
( सुश्चते ख. अ. १) ताओं मे जिस ग्रकार निर्देश किया गया दहै, उसी प्रकार अत्रैय-
(ग) जह्यणा हि यथाप्रोक्तमायुर्ेदं जापतिः । (चरके ख.अ. ९) संहिता ( चरक. वि. अ. ८) मग्ध प्रजापत्ति अक्षिः, इन्द्रः तथा
9 उपोद्धात करा हिन्दी अश्वाद्‌
क ०-6-०० 6-9-9७© छ
धन्वन्तरि कै ही केवर स्वाहाकार का उद्केख है । वहां (खत्रकारिणा- नामो का उच्छेख तीं मिटता । तथा मप्रेय के केखानुसार बाह्म
ग्रषीणाम्‌? इस सामान्य उच्छेख द्वारा यद्यपि सरदान का हणम विज्ञान ( ब्रह्मा ने जव आयुवैद का उपदेश किया ) के समय यह्‌
हो सकता है परन्तु अपने हयी यन्थमें इन्द्र के वाद परम्परागत विज्ञान हेतु(१) ( (०5९ ), लिङ्ग ( स008 ) तथा सौषधं
आचायं एवं अपने ही गुरु रूप से निष्ट भरद्राज कै नाम तक का ( 16०४०००४ ) कै ज्ञानवाला चिषञ्रूपमेहीथा। इसप्रकार
सिर्दैल न करना उचित प्रतीत नहीं होता है । जिस प्रकार कादयप वदिक आयुर विज्ञान प्राचीनकाल मै तरिस्कन्धात्मक ही प्रतीत होता
संहिता मेंक्यप, वसिष्ठ, अत्रि तथाभ्रयुकाडन्द्र से साक्षात्‌ ओप- हे । तथापि वद्विक समायुर्वद के विष्यो के संग्रह तथा पूर्वोक्तानुसार
देशिक सम्बन्ध द्विखाया है, उसी प्रकार अघ्रेयसंहिता के रसायन- अश्चियां के वणेनमेजज्घाका नोडना, ठकडे कयि हुये शसर का
पादमे (च.चि.अ. १) भृ, अत्रि, वसिष्ठ, कदयप, अङ्िरा, सन्धानः दृष्टि तथा श्रवण दक्ति का प्राप्त कराना, कुष्ठादि का निवा-
अगस्त्य, पुस्त्य, वामदेव, असित तथा गौतम आदिका इन्द्र द्वारा रणः च्यवनरस्तायनः, अपुत्रा के पुव्रोत्पादन आदि तथा इन्द्र की स्तुति
साक्षात्‌ रसायन का उपदेश प्रदरित फियादहं। इसमे मी कहीं मभीदसी प्रकार कै नाना विषयों केमिल्ने सेतथा ऋक्‌, यज्ज
भरद्वाज का उच्टेख नहीं है । चरक कै उपक्रम यन्थ मै भिलने वाले ओर अथववेद आदि मे अनेक प्रकार की भैषज्य, ओषयि पिच्य,
महपियां के समवाय मे बहुत समयके पोवापर्यं वले आचार्यौ का भूतवि्या तथा विषय परिहार विया के स्थान २ पर भिल्नेसे शाद्य,
भी निर्दर द्येने से तथा उन्तरतन्त्र के समान ठेखं की प्रोदता मीन राखाक्य, काययचिवित्सा, अगद) भूतविद्या, रसायन आदि आँ
दीने ते कु सन्देह उत्पन्न होता है । इस प्रकार चर्क्‌ के उपक्रम भागो के विषय प्रथक्‌ ररूपमंमी उस समय ये दटेसा प्रतीत होता
म भरद्वाज द्याराही महपरियोकी जो विद्यप्रातति का निरदै् किया हे । मूतविया का अ(चायं अथर्वा, महामारत मै आया इञा अंगद
गया है उका क्या तात्य है यह नहीं कदा जा सकता! इस तन्त्राचाय कदय फौम (र श्त्याचाय कद्यप;) रारुक्यि्चायं राग्यं
प्रकार असुसन्धान करने पर कदयप, वसिष्ठ; अत्रि, भरयु, आदि एवं गावे तथा शल्याचायं स्लौनकाद्वि एक २ प्रस्थान ( विभाग)
महष द्वायाद्यै अति प्राचीन काल से अधने पत्र एवं शिष्यसन्तत्ति के आचायेरूपमें विमान प्राचीन महपियो के उल्लेख मिरने
म आयुवेद भिधा का प्रचछ्न फिया गया प्रतीत दोना है। इसीलिये से आयुतद्‌ काञाठ विभागों मे विक्त होना भी प्राचीन ही सिदध
अत्रेयं आदि ब्दः के गोघ्रवाचक्‌ हौनै से अत्रिय परम्परा चरक होताहे) दोसे एकर विमाग कौ विरचिता (8९०5 धग )
संहिता का मूल आचाय आत्रेय पुनव, कष्ण त्रेय, भिध्रु आ्रेय के कारण कुष्ट महुपियो की प्रसिद्धि दो गहै। कौ २ सव विभागो
आदि कदं देखने मँ अति ह । करयप परम्परामे भी कदयप, वृद्ध( कन )के सामृददिकरूपसेमीक्नातादो सकते है। जिस प्रकार
कारयप आदि बहुत से आचायं भिल्तेदै। एक आचायंकी गोत्र ऋग्वेद की अपेक्षा अथववेद मे ओषधि) मैपञ्य, भूतचातन, विषा-
परम्परा मे आया हभ कोड उक्ति पिक्ेष ज्ञान कै छिएट दूरे पटुरण आदि विषय विकसित रूप मेँ भिल्ते दै उसी भकार उसका
आचायेत्ते मौ पिया यण कर्‌ सकछतादै। इस प्रकार चरक कै एक २ अं कालक्रम से विक्नान द्वा पष्ट होकर महण, धारण तथा
उपक्रम के अनुसर अपनी पूवं परम्परा से विया प्राप्त करके आघ्रैय यौगके सं।कयंकी दृष्टिर प्रथक्‌ २ प्रस्थान (विज्ञान) रूपसे
विमाग। मं विमक्त हो गया। अपं समय म आध्यात्मिके, आपिदेविक
जाना सम्भव हं । जिस प्रकार शगु परम्परागत जीघक का मरीच तथा आधिमातिक तीन) प्रकारके दुख कों प्रथक्‌ २ दूरक्रने के
कश्यप द्वारा भी भिद्या महणकियिजनेकानिरद्छ इस संहितां लिये अदृष्टं उपाय। की तरह दृष्ट उपायो कै भ क्रमश्चः विकसित होने
मी भिरूता है । महाभारत मे यथपि भरद्वाज द्वारा धन्वन्तरिको से अथववेद मेँ होने वाले विकास कोद्ृष्टि मे रखते हए निम्न आठ
वियाकी प्रापि वथा दिवौदास्तका मरध्जके आश्रमम जनि का पिभागदहो गये) कारीरमपज्य मे दासैरक्रिया की प्रधानता को
उत्केख मिक्ता है तथापि सुश्च-संहिता ये अनुसार धन्वन्तरि द्विो- लेकर दास्य, वहुत सी मुख्य इन्द्र्यो की स्थिति के कारण प्रधान
दासका साक्षातदद्रद्वारा दी प्रिया-प्राप्नि का वणन भिटता है। माने जनिं व उन्तमाद्ग (चिर) कौ लेकर सारक्य, बरु तथा
परन्तु प्षबमं इन्द्र को परम आध्याय होने से साक्षात्‌ अथघ्रा वीयंकी वृद्धि संबन्धी वाजीकरण, वयःस्थापन रूप महाफर वाले
परम्परा द्वारा मरू उपदेष्टा स्वीकार किवा गया है । इन धन्वन्तरि, तथा रम्ब विक्ञेष प्रयोगो को छेकर रसायन, ऋतु, गभं तथा बालक
मारीच करयप, त्रेय पुनवेसु आदि ऋषियों ने छोकोपकार्‌ के की प्राथमिक अवस्था से संत्रन्थित कौमारशत्य, इनसे भिन्न शारी
स्यि इस प्रज्ञान कासंहिता सूप से अपने िष्यो को उपदेश रिक तथा मानसिक भेपञ्यसंवन्धी कायचिकित्सा; बाह्य आगन्तुक
किया । इस प्रकार वेदिक विज्ञान सूप भूमिथा में ब्रह्मा के यिज्ञान विकार को दान्त करने तथा सांप; विच्छ्‌ आद्वि प्राणियों के विष
सम्बन्धी वीज को ठेकर उतपन्न हमा तथा अभि, इद्र, कदयप, पिक्षार से संबन्धित अगदतन्त्र, भूतद्महस्कन्द जदि देवतार्थं के
त्रि, वसिष्ठ, शयु आद्वि परम्परा तथा धन्वन्तरि, आत्रेय, क्यप
विकारसंबन्धी भूतविध। इत्यादि । इस प्रकार तीनो दुःखो के प्रत्येक
आदि अन्व पूत्रौचार्यो द्वार प्रयत्न पू्वैकपरसयेक शाखा का परिष्कार विभाग कोलेवर्‌ उस्रके प्रतीकार कीदृष्टि से आठ प्रस्थान
करके पयित; पुष्पित, एवं फडित किया गया यह्‌ प्राचीन भयुर्वद-
रूपी कटपवृक्ष कार के यास से बचे हुए कृद्‌ फर से दिष्य पर- (9) हेतुरिङ्गौषधक्ञानं स्वस्थातुरपरायणम्‌ ।
म्प्य द्वारा माज भी लोगो को जो जीवन दान कररहादहैयह भी त्रिसूत्रं शाश्वतं पुण्यं विबुधे यं पितामहः॥
सन्तोष का ही पिषय है । सोऽनन्तपारं त्रिस्कन्धमायर्वेदं महामतिः ।
यथावद्‌ चरा६सव बुबुधे तन्मना मुनिः ॥
. यद्यपि वैदिकसादित्य मेँ मयुर्वद के जाठ विभाग तथा उनके (चरकेषख्.अ. १)
उपोद्धात का हिन्दी अनुवदिं १३
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( विमाग ) विमक्त हुए प्रतीत होते हं । प्राचीन आचायौमे बह्मा परस्थानरूप मेँ पथक्‌ संहिता कै मिरु जनेिसे हम कह सकते हैकि
तथा इन्द्र सवेप्रस्थान। ( आढ विभागो ) के ाचायं थे। महामार्त खश्चुत के उन्तरतन्त्र मे संक्षिप्न रूप से जपे हुए च्ाटक्य आदि अन्य
के अनुपार इन्द्र हाया उपविष्ट मरद्ाजतया हरिवंश पुराण कै विषयौ केभी इसी प्रकार से स्ाङ्गपूणं स्वतन्त्र संहिता तथा
अनुसार भरद्वाज से तथा सुश्रतसंहिता के अनुसार साक्षात्‌ इन्द्र आचाय होगे । अन्य प्रस्थान यचपि काप आजकल लुप्त हौ चुके
हारा उपदिष्ट धन्वन्तरि सवप्रस्थानो के आचायं माने गये हं । एक २ हैःतो भी महा(मारत, हरिवंदा, चश्च॒त आदि मे वणित यह अष्ट
विषय के अधिक्‌ विकसित हौ जाने के कारणं जिस प्रकार आजकल विभाग प्राचीन हीह. । इस प्रकार यह कल्पना करना ठीक नहीं है
एक २ अङ्ग की विष चिकित्सा द्वारा एक २ विभागके विशेषज्ञ किं कायचिकित्सा मे भरद्वाज का सम्प्रदाय तथा दस्यचिकित्सा
( 806०118४ ) होते है । उसी प्रकार उस २ विषय मे विशेष नैपुण्य मे धन्वन्तरि सम्प्रदाय ये दो विभाग पुनः आठ विभार्गो म
प्राप्त करने तथा शिष्यो के ग्रहण एवं धारण के स।कयं के किए महा- विभक्त हए है| |
भारत के अनुतर भरद्वाज ने तथा हरि (वंश के अनुसार धन्वन्तरि इस प्रकार आपै समयमे मी अष्टङ्गा मसे कालक्रम से षिकः
ते आयुर्थेदः विज्ञान फो आठ भागो मै विभक्त करके तथा एक २ सित एक २ विभाग कापिदोष रूपसे निरूपण करने से. उस
विभाग को विकसित करके प्रथक्‌ २ दिष्य को उपदेश दिया तथा विभाग मेवे २ ऋषि प्रधान आचाय माने गये है । सुश्र(र)तसंहिवा
उसका प्रचार किया । इससे प्रतीत होता हैकि आटे प्रस्थान पृथक्‌र मे च्ालाक्यतन्त्र के कतां के रूप में विदेहनिमि का, सुश्र(र)त, ओप-
प्रवाहषूप में लोक मँ प्रचलितिये) कायचिकित्सा संबन्धी आत्रेय घेनव, ओरभ्र, पौष्करवत आद्वियो का दास्यचिकित्सक के रूपमे
संहिता मे तथा कौमार्य संबन्धी कारयप संहिता मे प्रजापतिः सौ न(«क, कृतवीयै, पारायै, माकण्डेय, स॒भूतिगौतम आदि का
इन्द्र आदि आचार्यौ के साथ धन्वन्तरि का हौम्य देवतारूय से निदेश पूर्वाचाये कै रूप मे वणेन है । चरक(“+संहिता मेँ अग्निवेदा, मेड
किया जाना तथा नाना प्रस्थानोँ मे धान्वन्तर धरत आदि का विधान आदि छर्म का कायचिकित्सा के आचायंके रूप मे, कांकाद्यन,
होना धन्वन्तरि का अष्टङ्गविभागोँ का आचायं होना खचित करता वार्योविद, हिरण्याक्ष, कुदिकमेत्रेय, कुश्च, साङ्कृत्यायन, कुमारद्चिरा
है । - न केवर मूरषन्वन्तरि अपितु उसके सम्प्रदाय वाला द्वितीय मणरढाज, वडिज्ञ, धामागैव, मारीचि काप्य, काश्चीपत्ति वामक, पासी
धन्वन्तरि दिवोदास मी 'माघुैद के र्ठ अङ्गम से किसका क्षित मौद्गस्य, च्रलोम, कौशिक, भद्रकाप्यः धन्वन्तरि आदि का
उपदे करू इस प्रकार सुश्रुत से पृश्चकर इस प्रश्न के उत्तर मे मतोर्लेख, अङ्गिरा(७) जमदग्नि, कादयप आदि बहुत से ऋषिर्यो के
(्राव्यश्लाल् का उपदेश कीजियेः णेस सुश्रुत दवाय प्राथना किये नाम दिये हें) इसौ प्रकार इस वृद्धजीवकोय तन्त्र कै मी सन्नस्थान
जाने पर उसे शव्या का उपदेश दिया । इत प्रकार पुश्रुतसंहिता रोगाध्यायः सिद्धिस्थान राजपुत्रीयाध्याय, वमनविरेचनीयाध्याय तथा
के उपक्रम केरेख द्वारा तथा पीछे अपने सुंह(र) सेमी अश्न ग्रन्थ मे भिन्न २ मत आने पर माग॑व, वार्योँषिद, कांकायन, कृष्ण
आयुर्वेद का ज्ञाता दोना स्वीकार करनेसे भी अष्टाङ्ग पिभागका भरद्वाज, द।रुवाह) हिरण्याक्ष, वेदेहनिभि, गाग्यै, माठर, आत्रेय
आचायं होना सिदधदहोतादहे। अष्टङ्गके ज्ञाता भरद्राज या ईन्द्र पुनघंसु, पाराश्चयै, मेड तथा कौत्स आदि नामो वे बहुत से पूर्वं
दरारा उपदिष्ट आत्रेय पुनवेसु कै अरिनिवे आदि £ रिष्या द्वारा आचार्यो का स्मरण किया यया ह ।
पृथक्‌ २ तन्व फे निर्माण कै उचर्छेख से तथा धन्वन्तरिं दिषौदास से इनमें से पराद्यर, मेड, काङ्कायनः हारीत, क्षारपाणि जातूकर्ण
रद्यदाख का उपदेश केकर सुश्रत द्वारा सुश्चुतसंहिता के निमांणकै (9) महाभारते सभ पवेणि~'आयुर्वेदस्तथाऽ्टाङ्तो देहवांस्तत्र
उर्ले से यदययपि.उन दोनो मे कीं २ प्रसङ्गवङ्च अन्य प्रस्थानां के भारत !' एवं पूवंनिरदिष्टयोमंहाभारतहसिविंशरेखयोः।
विषय सी आ जाने से श्राधान्यतो ग्यपदेद्ला भवन्ति" शस न्यायसे ॑ ( ११।१७)
मरद्राज के अष्टङ्गसम्प्रदाय मे एक आत्रेय पुनवेषु का कायचिकित्सा ` (२ सुश्चते-श्ाराक्यतन्त्राभिहिता विदेहाधिपकी्तिताः॥
विमाग तथा धन्वन्तरि दिवोदास के अष्टाङ्ग सम्प्रदायमे से एक ( सु. उ. अ. १४)
सुश्रत का शस्यप्रधान सम्प्रदाय हे । इस प्रकार आजकरु मी चिर- (३ सुश्रते--ओौपधेनवमौरभं सौश्चतं पौष्कलावतम्‌ ।
काल से दोनो सम्प्रदाय दै । इसके अतिरिक्त कौमारश्रत्य कै व्रिषय रोषाणां ज्ञल्यतन्त्राणां नामान्येतानि निर्दिशेत्‌ ॥
म आत्रेय से मौ प्राचीन सारीचकदयप सम्प्रदाय के मी अब मिक (सु. ख. अ, ४)
जने से आजकल तीन सम्प्रदाय हो गये है । चरक तथा सुश्रुत (४) सुश्चते--शरीरनिर्मिंतिविषये शौनकमतोल्रेखः ॥
संहिता मेँ लेश्चरूप से आये हए कौमारभ्स्य के विषय में स्वतन्व ( सु, शा.अ. ३)
(१) तस्य गेहे ससुस्पन्नो देवो धन्वन्तरिस्तदा । (“) चरके--अग्निवेशश्च सेडश्च जतूकर्णः पराशरः । `
काशिराजो महाराजः स्वेरोगग्रणाश्चनः ॥ हारीतः क्षारपाणिश्च जगृहुस्तन्मुनेवचः ॥
आयुर्वेदं मरद्वाजात्‌ प्राप्येव भिषजां क्रियाम्‌ । तन्त्रस्य कर्ता प्रथममग्निवेशो यतोऽभवत्‌ ।
तमष्टधा पुनव्यंस्य शिष्येभ्यः प्रत्यपादयत्‌ ॥ अथ भेडादयश्वक्रः स्वं स्वं तन्त्रं तानि च ॥
( हरिवंशे अ. २९) (च.ख.अ. १)
(२) अष्टज्गवेद विद्वासं दिवोदासं महौजसम्‌ । (8) सूत्रस्थाने वातकटाकलीयं (१र) यजः पुरूषीय(२५)
विश्वामिन्रसतः श्रीमान्‌ सुश्च॒तः परिप्रच्डति ॥ आत्रेयभद्रकाप्यीया (२६) ध्यायेषु । (च, पर.अ. १)
| (मु.उ, तं. अ, ६६) (७) चरकोपक्रमभ्रभ्रे। ` |
१४ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
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धनन द व द क पठि मी दि पप चरति पनि चपि पणी मक पि प दि दनि क्कि धी द क प द ५

अश्विन, मारद्वाज, मज; मानुपुत्र, कपिल्ररु; भाकिः खरनाद्‌


तथा पिश्वामित्र आदि कुर आचायौँ के मधुकोशः चसक तथा सुरत है । इनके अत्यन्त प्रसिद्ध होने के कारण सय तथा चद्रमाके ल्य
की व्याख्या मे तथा ताडपत्र छिखित प्राचीन वरसमुच्चयः अन्य प्रकादा के समान इनके परिचय की आव्द्यकता नहीं है ।
तथा
'उबरन्चिकित्सितः आदि पुस्तक में उद्धृत वचनं मिंर्ने से इनके अष्टाङ्ग हृदय कै केक वाग्मट के समय यद्यपि अायुरवद्‌ कै
मन्धो की सन्ता प्रकर होती दै। तथा जिनके आजकल वचन उप- अन्य आचार्यौ की मी संहिताएं पिचम्रान थीं परन्तु फिर मी-
कन्ध नहँ ह्येते है उनके भी स्थान २ पर तन्त्रता एवं सत्कार कै यदि चरकमधीते तद्‌धुवं सुश्रुतादि-
रूप यँ निर्देश तथा मतो के दिखाददरेने से मन्थ कादहौना कष्ट ग्रणिगदितगदानां नासमात्रेऽपि बाह्यः ।
है । देमा(शद्रि के लक्षणप्रकाञ्च तथा शािदोत्रोक्त अश्वशाख् के अथ चरकविहीनः परक्रियायामखिन्नः |
अश्वामिषेक मन्तो म मी आयुवैद के कतां वे रूप म बहुत से कपियों किमिव खट्ट करेति व्याधितानां वराकः ॥
के नामद्िये दृषदं, इत्यादि रलोक द्वारा मालुम पड़ता हैश्चि यदि चरक काह
अध्ययन किया जाय तो सुश्र॒तमे अयेहृटरोग)कानाम मात्र भमी
इस प्रकार दैवयुग से केकर आजतक देवपि तथा महपिं आदि
ज्ञान नही हो सकता तथा यद्वि केक सुश्रुत का अध्ययन किया
बहुत पे आयुवैद के आचाय हुए है । अष्टङ्ग आयुर्वद के एक २
जायतो सेमे कै प्रतीकार की प्रक्रिया का ज्ञान असम्भव है। इस-
विभाग को उन २ आचार्यौ ने अन्ध निर्माण एवं उपदे द्वार बहुत
यदि संकलन किया जाय तौ आयुरवद का
ख्ये चरक तथा सुश्रुत दोनो का अध्ययन ही आक्रस्यक है । इस
वद़ाया है ! उस सव का
प्रकार मध्यकारमे वाग्भट कै समयमे मीये दोनी मन्धदही सपर
एकं बड़ा भासी अन्धं वन सकता है। परन्तु कालप्रवाहं मं अन्य माने जति ये । हजार वपं पूरं के ज्वरसञुच्य नामक पुस्तकमे मी
दाख कौ तरह आधुर्धैद के भी बहुत से अमूल्य रत्न उपो चुके
च्व तथा स॒श्ुत के बहुत से वचन दिये हृद हं । इसी प्रकार चतुधं
है । इन प्राचीन विप रन्ध के विषयमे मेरे परमभित्र श्रीयत
दाताव्दी के नावनोततक नामक पुस्तक मेँ मी चरक तथा सुश्रुत करा
गण(रोनाथ सेनजौ तथा भिरीन्द्र(द)नाथ सखो पराघ्याय आदि मारतीय उल्छेल है । बाणम के ुषैचरित मे पौनवरे्तव ( पुनव के पुत्रया
तथा बहुत से पाश्चाच्य पिदवानौ ने पर्याप्त विवेचन किया है अतः
दिष्य पेतरेचक्रुमारके निर्दर से अघ्रेय पुनव के सम्प्रदाय का
उसके पिष्टपेषण की आवश्यकता नहीं है !
भात्रे तथा सुश्र॒तसंहितार्ए--ब्हुतसे प्राचीन मन्थे केषिलोप उस सम्य भीं प्रचार मालुम पडता दै । जवसे चरक तथा सुश्रुत
संहिता का उद्भवहुभाटै तभी से दही अपने विचारा की युक्ता एवं
करै कारण क्षतिस्त मयुर्वद कौ बची हुई महिमा को स्थिर रखने गुणे; की महिमा से भारत तथा उससे बाहर भी ये अत्यन्त प्रचरित
के छिए अत्यन्त प्राचीन कार सै त्रेय तथा धन्वन्तरि की संहिता
रहं ह तथा आज मो ये ्रन्थ प्रच; के सिये स्वस्रे । सप्तम)
(४) विक्रम संवत्‌ ८ स्लिी हदं हेमाद्रि कौ शलक्षण- अष्टन तथा नवम रताब्दी मे जम कि अस्व तथा पारसीक (परिया)
प्रकार नामक एक प्राचीन जीण पुलकः मेरे संग्रहाखय महे। ददा अलन्त उन्नत अवस्था मेये उस समय म।रतीय चिकित्सा.
उसमे दाधियो फे प्रकरण मे पारूकाप्य आद्विरयो कै वचन के समान विक्षान करे आद्र की ही दृष्टि सेचरक तथा सुश्रुत संहितार्ओं का अनु-
अद्प्रकरण मेँ अनेका स्थानौ पर शरिदोव के व्चनद्धिये दँ ।वे बाद इभा धा । अस्त्री मे अनूदित चस्क-सरक नाम से तथा सुश्रुत
निम्न दै- | सद नाम से प्रसिद्ध हं । अवृक्िना (405) ), अबूरसी
वसिष्ठो वामदेवश्च च्यवनो भारविस्तथा | ८ ^ 1प पअ ), तथा सनृ्तितपि ( 40प्ञ४ण ) नामक्‌ अस्व.
विश्वामित्रो जमदग्निभारद्ाजश्च वीर्यवान्‌ ॥ के चिकिसा यर्थः के रेटिति मापा के अचुबाद्रमे भी स्थान २ परर
असितो देवलश्चैव कौशिकश्च महाचतः । चरवः फा ताम भता दै । अ(र)ख्वेरनी ( 41पशापणो ) नामक.
सावर्िगांर्वश्चेव माकंण्डेयस्तु वीर्यवान्‌ ॥ यात्री के पुस्तकालय भं चरक का अनुबाद था दसा उसके अंणरेजी
गौतमश्च" ~ ` भागश्च आगरुप () काश्यपस्तथा । अनुप्राद से ज्ञात दोता है । अकम(दोनभृर ( प्प ) ई, प,
आत्रेयः दाण्डिरशचैव तथा नारदपर्वतौ ॥ ७५२-७७य ते बहुत से धयुतरैदिक अर्थे; चरक के सपेचिभ्भित्सा
काण्वगो नहुषश्चैव हालिोत्रश्च वीयंवान्‌ । प्रकरण तथा सुश्रुत का अनु्ाद किया था। रजस्‌ ( ६४२९8 )
अग्निवेदो मातलिश्च जतुकणैः परारारः ॥ नाम का उसका वैय चरक का बहुत सम्मान कंप्ताथा। सिरसीन
हारीतः क्षारपाणिश्च निमिश्च वदतांवरः । नामक पाशाय विद्वान्‌ के पू(णरवैन मी भारतीयसघुररद तथा चरक-
अदालिकश्च मगवान्‌ श्रेतकेतु्ैगुस्तथा ॥ सुश्रुत को जानते थे देस पराकृत के केखक से मालूम पडता है ।
जनकश्चैव राजर्षिस्तथेव हि विनग्नजित्‌ 1 अद्लोक राजा फे पोते ( सम्प्रति ) के समय बौद्ध धमं के साथ भारः
विश्वेदेवाः समरुतो भगवांश्च वरहस्पतिः॥ तीय आयुर्वेद भी सिदल दीप मे पहुचा था । भारतीय आयुवैद विक
इन्द्रश्च देवराजश्र सवंरोकचिकित्सकाः । पकर बहुत सी टीकाओं से धुक्त वाग्भट तिब्बत में अपना प्रकाश्य
एते चान्ये च बहव कषयः संभ्रित्रताः ॥ (1) प. ६. 1130
: .. आयुैदस्य कर्तारः सुस्नातं तु दिशन्तु ते ॥ (ए.१५९ ) (2) 27. $90प, _
(9) त104प अणृल€०ण् णु (त 81198 8१४09.
„ (२) भस्यदारीरभूमिकायाम्‌ ॥
. (३) ताण ण वप्ता ल्म (४) किताबे सरफेरिस्त पएण्टि्विी फ हिन्दू मेडिसिन।
उपोद्धात का हिन्दी अन्चुवाद्‌ ५
कक 9-००-०० दः

मेडसंहिता कौ अपेक्षा उपरन्धि (प्रापि ) कौ दृष्टि से चौथे नम्बर प्र


पौलाकर वहां से मंगोल तकृ पहुंच गया । भारतम वडूप्त बहुतसी
होती हुई मी प्राचीन आष ठेखः, विषय कौ गम्भोरता तथा सारयुक्त
वाग्भट की टीकाए आजमी तिन्बतमें अनूदित हृदं मिलती दहं ।
होने की दृष्टि से चरक तथा सुश्रुत कौ समकक्च कौमारभृत्य विषय की
मरेडसंहिता--माज कर भेडसंहिता नाम की पयय तथा
संक्षिष्च ले वाली एक अन्य संहिता भी कलकत्ता से प्रकारित इडं यह्‌ प्राचीन कादयपसंहिता प्रतिक देव के कारण बहुत समय तक्‌
है १ अष॑द्धाया के अनुशय रचना होने से वह भौ प्राचीन तथा विटप रहकर फिर सौभाग्य से कदी दवी हुं जीणंश्चीणे अवस्था मेँ
आष प्रतीत होती है । परन्तु उपक्रम ( प्रारम्भ ) उपसंहार (समा्षि) प्राचीन ताडपत्र की पुस्तक कै रूपमेंप्राण रेष तथा स्थान पर
तथा बीच रमे मी इसमै बहुत से बुटित अंडा एवं अशुद्धियां है । खण्डित अचलौ से युक्त वृद्धजीवकीय तन्त्ररूपमे अव मिखीदहै।
आजकरु एक हजार वषं पूवं की ताडपत्रौँ पर लिखी इदं उपर ` करालकाल कै द्वारा इसके अवयवो के खण्डित हो जाने परर शेष
समुचय नामक पुस्तक मिली है जिम जश्विन, माज आद्यौ अवयवो द्वारा मौ अपने विषय की गम्भीरता को प्रकट करती इई
की तरह मेडके मी कैर उपरप्रकरण के बहुत सेसे वचन उद्धृत तथानामसेमी ठप हहं इस प्राचीन आपं संहिता का भिल्ना
दिथे गये हैँ । उनमें से उपकन्ध मुद्वित मेडसहिता मे केवर दो तीन मी विद्वानों के ल्यि सन्तोषका द्यी विषय है।
दलोका ही भिकूते हैँ। उसके अन्य च्छोक इसमे नदीं मिर्ते हं । पहले किसी समय नेपारु देश म आकर विदद्र महामहो-
इस प्राचीन पुस्तक मे इतने रलेको के मी मिख्ने से यह सहिता पाध्याय श्रीयत पण्डित हरप्रसाद शाखी ने निम्न विवरणसहित
प्राचीन नहीं है, ठेसा नदीं का जा सकता 1 परन्तु उसी ज्वरप्रकरण कादयपसंहिता का उपलब्धि वृत्तान्त पशुभी 00 नल 8९ब्ानोः
मँ मेड नाम से उदधृत अन्य इलोक, तन्त्रसार नामक अन्य संग्रह अन्ध ण 2390187 190 पऽ०1]005 ( 1895 ॥0-1900 ) नासकृ पत्र
म सेडसंहिता नाम से दिये हट अन्य प्रकरण के इलोक तथा इसी मै प्रकारित किया थातथा उक्ष -पिवरण को जूलियस्त जोली
प्रकार टीकराकासे द्वारा स्थान २ परमेड नामे उद्धृत १ रोक नामक विद्वान्‌ ने मैडिसन कौ पुस्तक मेँ मी दिया है--निषार मेँ
मी इस सुद्रित मेसंहिता मेँ प्रायः नहीं भिरूते है । इस वृद्धजीव- मुञ्चे कादयप भार्गवसंवाद रूप वेक यिषय कौ ३८ पटं कौ अपूर्णं
कीय तन्त्र ( काश्यपसंहिता ) मे बर्तिकमं के समय का निर्दश्य करते प्राचीन कारयपसंहिता भिखी है जिसके प्रारम्भ मेँ भेषज्योपक्रमणीय
हुए 'षडवषप्रशरतीनां तु मेडन द्वारामेड के मतमेँ& वषे के बाद मे आठवें पृष्ठ से ज्वर निंदान दिया हज है 1 इसमे चरक, सुश्रुत;
वरितिकमं का विधान बताया है। परन्तु उपरब्भ मेडसंहिता में करयप, आशिन, अत्रय, भेड, पराद्चर, हारीत तथा जतूकणं आदिर्यो
ध्वालानामथव्रद्धानां युवमध्यमयोस्तथा । स्मस्थानामातुराण च वस्ति- के वचन मीदिये हर है । भषज्योपक्रमणीय नाम होने पर भी
कम॑ प्रशस्यते" दरा सर्वसाधारण के छ्थि बस्तिका पिधान दिया इसमे ओषधिर्यो का उर्लेख नदीं है । इस विवरण के अनुरूप
है । यह परस्पर षिरोध है । इस प्रकार भिन्न ग्न्थो में मेडकेनाम पुस्तक नेपार राजकीय पुस्तकाख्य कै उन्दी दारां तैयार करके प्रकारित
से भिकने वाङे वचनो; कै यदह न मिलने से यह मेडसदहिता बहुत से किये हर पुस्तकों के खवीपत (1९२) मे मी नहींदयी इहै)
अरो से विचि तथा सन्देहास्पदं प्रतीत होती है इन्दी तरिच्छिनन उससे ब।हर मी यलपूबेक द्वटने पर एेसी कादयपसहिता नदीं मिली
अंसो के न मिलने तथा चरक सुश्रुत के समान इसमे विषय निरूपण है । परन्तु उ्वरनिदान आदि कै विषय मे नाना छऋषियोँ के वचनो
की अस्पष्टता के कारण ही वाग्मटने मी निम्न इलोक द्राय भेड कै का संग्रहस्वरूप प्राचीन ताडपत्रीय ज्वरसमुच्चय नास का वयक्‌
विषय मेँ कटाक्ष किया है- अन्थ नेपारु मे अन्यत्र मी भिता है तथा मेरे पास मी है,. जिसमे
ऋषिप्रणीते भक्तिश्चेन्मुक्वा चरकसुश्चतौ । ञ्वर के विषय मै बहुत से कार्यप, चरक; सुश्रुत; आशिनः. मेड
सेडाद्याः किं न पल्वन्ते तस्माद्‌ माद्यं सुभाषितम्‌ ॥ आदि के वचन दिये हृ है । कार्यपसंदहिता के खिर भागम अये
( अष्टाङ्गहूदये उ. त, अ. ४० ) हुए “शृणु सार्गव त्वाथं सन्निपातविश्चेषणम्‌' आदि वचनो के भिख्ने
हारीतसंहिता--प्रायः इसी के अनुरूप दो तीन सौ वषं पूं से ससम मार्गब तथा कद्यप का संवाद प्रकर होता है। उसके विवरणः
रिखित हारीत संहिता भी प्रकाित हुदै आजककु मिती हे । मै आदि ( प्रारम्भ ) मे भेषञ्योपक्रमणीयः के उल्लेख होने से, परन्तु
इसमे प्राचीनं आपे रेख कौ छाया न हौकर्‌ केवर साधारण संग्रह उवरसमुचय भमै इसके अभाव होने से, कास्यपसंहिता के खिरुभाग के
मात्र होने से यहन तोप्राचीनतथान आही प्रतीत होती है। तृतीय अध्याय का नाम भषञ्यौपक्रमणीय होने से संभवत्तः प्रारम्भ
प्राचीन ज्वरसमुच्चय नामक पुस्तकमें हारीत नाम से उद्धृत के आठ पृष्ठ म कारयपसंहिता के खिरुभागान्तर्गत सैषस्योपक्रमणीय `
बहुत से दोक दिये है । अन्य गरन्थौमें मौ स्थान २ प्रर हरीत अध्याय मी उसमे जोडदिया गयादहौ। इस भरकादित कादयप-
के वचन उदधृत विये गये हैः। परन्तु वे वचन उपरुब्ध हारीत- संहिता म चरक, ख॒श्रत आदिय के वचन नहीं दिये है। इस प्राचीन
संहिता मेन मिलने से किसी अन्य हय प्राचीन हारीतसंहिता पुस्तक मेँ अर्वाचीन चरक आदि के नामों का उल्ठेख दोना भी
की पूर्स्थिति का अनुमान होताहै। ेसा प्रतीत होताहै कि |नदीं चादिथे । इसमें उ्वरप्रकरण तथा ओषधिर्यो का विषय मौ नीं
संभवतः प्राचीन हारत्ंहिताके रोप को देखकर उस ( हारीत) है । इस प्रकार उनकी दृष्टि मे आया हमा वहु अन्थ सवौद्र रूप पे
कैनामको स्थिर रखनेकेज्यि पौछेहोने वाले किसी विद्यानने यह कादयसंहिता नदीं हौ सकती अपितु इस संहिता के भैषज्योपए-
हारीत के नाम से इस यन्थकी रचनाकीदो {| | क्रमणीयः अध्याय कै कुद पृष्ठ को मिलाकर उक्त विवरण वाखा अवर
, नवोपरुन्ध कार्यपसंहिता--अत्यन्त प्राचीन काल से प्रसिद्ध समुचय अथवा इसी प्रकार का कोड प्राचीन संग्रहीत्मक अन्य
चरक सुशवुत संहिता तथा अमी ( वतमान समय मे ) मिरी इ अन्धदहोगा।. . .. : . -- -- ~

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उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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हस उपरुब्ध ताडपत्र पुस्तक कौ अष्ति २१ र है। युक्त ( रिया तथा सफ़ेद वाक से युक्त ›वृद्ध रूप मै परिणतं हो
म्रतयेक प्रष्ठ दै ६ पंक्तियां दै। सवे प्रारम्भ का पृष्ट २९ जओौर गया । इतत चमस्कार के कारण विस्मित हुए समुनियो ने ब्ध
अन्तिम पृष्ठ २६४ है । तथा बीच रम यी वहुतसे एषठ विलप्ठहैं। आक्रति वारे उस वाल्क का वृद्धजीवक नाम रखकर तथा ते
दरस उपरब्ध पुस्तक के आदि, अन्त तथा मध्यकै मी स्थनर्‌ पर उत्तम वेच मानकर उसके तम्र को सीकार्‌ कर किया । उसे बाद
खण्डित होने के कारण वहतं प्रय करने पर भी खण्डित पृष्ठ तथा उष दए इस्त तन्त्र को माग्यवर अनायास नामक किसी यक्ष ने
प्रतीकः की प्राति न्दीहो सक्रीहे। कुप प्रौ का स्करेत मुद्धित भ्रात करके कोककल्याण कै लिये इसकी रक्षा कौ । इसके वाद्‌ वृद्ध
पुस्तक के प्रथम प्रष्ठ की पादटिप्पणी (00४ ०० ) मे कर द्विया जीवक देही वं मे उप्पन्नहु वेदवेदाङ्गके ज्ञाता, तणा दिव-
गया हे । भ्न्थ कै भादि के १०-१२ ध्याय खण्डित हैँ तथा अन्त मेँ क्यप के भक्ते वरात्स्य नामक विद्वन्‌ ने जनायास को प्रसन्न करके
मी खिर भागके ८० मसे केवल २५ अध्याय तकदही होने से उससे इत तन्त्र कौ प्राप्न करके कति, धमं तथा लोककल्याण के छ्य
उसके बाद काभागभी खण्डित दहै। देष वने हृद पृष्ठीमंसे मी अपनी दुद्धि तथा श्रम से उप्तका प्रतिंस्कार करके उसे प्रकारित
वहत से अंडा परे नदीं है इसलिये स्थान २ पर पिप पक्ति, दर्द किया 1 तथा इसके आठ स्थानों मँ न अये विषयो को खिलस्थान
तथा अक्षर आदिक प्रकाित करते हर विन्दुमाश्य द्वारा श्लथा करूप र इसमे जोड द्विया । इस प्रकार का इसका वृत्तान्त
भिल्ता है । "
गया है । इसकी ठिपि प्राचीन होने प्रर भी बहुतसते स्थानौ पर
वेदिक समय मे भी मम्र ब्रह्मण आदियौँ म कश्यप ओर
केखभेद होने से एक दही समयमे दो छेखको ने मिककर खण्डरूप
कारयप नान वार अनेक महपियो तथा अन्य अन्धो मै भी
म दहस मूल पुस्तक कौ पूति कौ होगी, स्रा प्रतीत होताहै। इस इस.
नाम क अनेक विद्वानों का उल्टेख मिक्ता है । इनत से कौनसा
पुस्तक के उपक्रम तथा उपसंहार कै ठ्ठ होने के कारण उसके द्वारा
करयप दस कौमार्य संदिता को मूर आनाय है जिसके उपदे
ज्ञातन्य विष्यो का कुहर थी ज्ञान नहींहो सकता । अन्तिमि भागक
की वृद्धनौवक ने अरहुण किया यह पिचारणीय पिपय ह| अति,
नभिलने से उसके लेके समय वे पिषय में मी कुर नहीं
करयप आदि के गोवभ्रवतंक मूर आचार्यं केरूय मँ सिने से
भिरा । परन्तु फिर भी इसकी लिपि की आक्रति; अक्षरो द्वारा
केरयप शब्द्‌ से मूल करयप तथा कादयप श्रब्द्‌ सै कदयपं गोत्र
निदि पृष्ठो के अद्र ( संस्था); कीं २ अध्याय ओर स्टोकोकी
मे दोनेवलि व्यक्ति का सामान्य स्पते वोध होता है। गोच प्रसं
संख्या तथा ताडपत्र फौ छम्बाई मौर चौड को देखकर यद अनु-
मान पियाजा सकताहै किष पुसकका केख सात अठ सौ ( पुरोदित का गोत्र ) के निरंश करने वाले आचार्यौ कै ले कै
अनुसन्धान में बोधायन ( धर्म॑भ्र्कार-समय टगभग ४ थी राती
वरं पूवं का है । परन्तु इसत आदह पुस्तक मेँ म्री अक्षरो के लुप्त
दप.) ने मूलगौत्र के प्रवतैक केवल एकर आचाम क्यप तथा
होने से तथा कीं २ पिना अक्षरे के यघृरे ही स्थलों के भिल्नेसे अर्यो कै स्यि काद्यप
यदह आदरं सू पुस्तक भी इस प्रकार की जराजीणं तथा प्राचीन राब्दरका व्यवहार उधित होने परर भी
कश्यपान्‌ व्याख्यास्यामः, दारा प्रारम्भ करके उस गोत्र वारे तथा
प्रतीत होती है । पुस्तक की आक्रति कै ज्ञान के स्थि मूल पुसतक कै अन्य गोत्र
प्रवतेव का पिमा पूरक निर्देश करके अन्त भँ शयत
दो प्रष्ठ कीप्रतिच्ख्यया ( प्शप्ण्वप्णा०४) मी साध मेदेद्री निध्रुवाः
वके तथा अन्य कर्यपाः द्वारा समाप्त करके कादयप गोत्र
गद है । गोत के प्रवतो का कादयप्र शब्द से व्यवहार उचित होने प्रभौ
कश्यप सम्बन्धी विमर्श-प्राचीन वैचक यर्म से हमारे कदयप्र
शाब्द रो ही व्यवहार भिया गया है। आपस्तम्ब (%गश्वाला-
सामने सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, तथा नवोपलव्ध कादयपसंदिता;
यन तथा कात्यायन आदि में मी इसी प्रकार के उव्टेखं मिकते है ।
ये जो तीन महान आं ग्रन्थ है । उनम सुशरुसंहिता मे धन्वन्तरि
बहुत व्यक्तियों के निर््रदा होने पर गोत्र(२) प्रत्यय का रोप होकर
तथा चरक संहिता में पुनव अत्रेय की तरह कादयपसंदितामें (कश्यपाः' यदह व्यवहार सम्भव होने पर मी शतपथ(२) ब्राह्मण मँ
कदयप मूल उपदेक हैँ। इस मन्थ के उपक्रम तथा उपसंहार माग "हरितः कदयपः, श्िट्पः क्यपः, नेशरुतरिः कदयपःः इत्यादि द्वारा
के खण्डित होने के कारण इस कदयप का व्रिशेप परिचय न मिलने
प्र भी संहिता के कदपस्थान कै संहिताश्रख नामक अध्प्राय मे
हरित आदि परस्पर परिभिन्न एक्‌ २व्यक्तिका भी क्यप शब्द से
हयी निम्न विवरण भिर्ता है-- | निदेदा किया हे इस प्रकार प्राचीन काल मे कदयपगोत्र वाले
व्यक्तिर्यो का कारयप इन्द्‌ क समान व्यक्तिविशेष के छिये क्यप
'दुक््यज्ञे वधत्रासाद्‌" ' “ ` "निखिरेन तेः (इलो. ६४-२८
अर्थात्‌ दक्ष के यज्ञ मँ उसन्न हुई अन्यवस्था से उलन्न प्राचीन (१) जथ कश्यपानां ज्यायः काश्यपावस्सारनेभरवेति ।
नाना सोणो से पीडित प्राणि्यो के उद्धार की द्ृ्टि से पितामह बह्मा | (आपस्तम्बप्रवरकाण्डे)
की सहायता तथा तपोवरर से महपि कदयप ने इस महान्‌ तन्त्र का कश्यपानां काश्यपावत्सारासितेति 1 (आाश्रलायनप्रवरकाण्डे)
निर्माण करके क्रपियो को उपदेश द्विया। सवंप्रथम दस विस्तृत तन्व कश्यपान्‌ व्याख्यास्यामः । (कात्यायनलौगाश्चिप्रबरकाण्डे†
को ग्रहण करके ऋचीक के पुत्र जीवक नाम वाले एक वालमुनिने (२) अनरष्यानन्तयें निदादिभ्योऽभ्‌ ४१।१०४। यञजेश्च
इसको संक्षिप्र र्चनाकेरूपमे परिणत कर द्विया परन्तु बाट २।४।९४ ( पाणिनिसत्रे )
जद्पित ( गारक का वचन ) कहकर जव अन्य ऋषिर्यो ने इसे (३) हरितात्‌ कश्यपाद्वरितः कश्यपः शित्पात्‌ कश्यपा-
स्वीकार नहीं फिया तव उसी समय सब ऋषिर्यो के देखते २ कन- च्छिर्पः कश्यपः कश्यपान्नधुवेः कश्यपो नेधुविः।
खर स्थित गङ्गा के कुण्ड मेडुबकी क्गाकर क्षण भर्‌ भँ . वर्पिङ्ति- | ¦ ( रातपथवदनाह्मणे.}
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं ९७

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दाब्द का ठ्थवहार भी प्रायः देखा गयदहै। इस प्रकार बोधायन 'करयपः (१) सर्वाङ्निवृन्तिः इस विशेष पाठ द्वारा आध्रैय नै
आदिके केसे मूर कद्यप के समान उस परम्परां वारे अन्य कंदयपं कै सर्वाङ्गनिषृत्तिवाद ( सव जङ्ग का साथ साथ उत्पच्र होना)
करयपकै छियिमी कदयप शब्द आतादहै। परन्तु कदयप. कै कौ चरमपक्षकैसरूपमेंद्धियाहै। इस कादयपसंहिता मै भो निम्न
सम्प्रदाय मेँ बोधायन आदि दारा अन्य मासैच कै निर्दैरान होने से रकोक द्वारा अपने आचाय मारीच कद्यप का स्वाङ्गनिदरन्तिवादः
तथा अन्यत्र वैद्धिक संहिताओं मै कदयप का मरचिकै पुत्ररूपमें भिता है- | ।
मिलने से यह कहा जा सकता है कि बोधायन आदि के ठेख के अनु- सर्वन्धियाणि गर्भस्य सर्वाद्गवयवास्तथा !
सार मू कश्यप ही मरीचि का पुत्र होने से मारीच है । (१)मत्स्य तृतोये मासि युगपच्निवर्तन्ते यथाक्रमम्‌ ॥
पुराण के गोघ्प्रवसे के वणेन भँ भरीचि के पुत्र कड्यपका मूटगोत्र इसी प्रकार अत्रेयसंहिता मै अव्रेय द्वारा वित्त मारीच ओर
परवरतैक कै रूप में निर्दैल करके उसकी सन्तति म अवान्तरगोच्रो कै कदयप को एक हयी मानने से आत्रेय पुनव द्वारा मी सम्भानपूवेक
प्रवतैक की दृष्टि से मरीच के पुत्र कदयपौ का पुनः निर्दश्य किया है । निर्दर किये हए आयुर्वेद कै आचायं राजपि वार्योविद का समका-
छीन मासैच क्यप ही इसत संहिता का उपदेष्टा प्रतीत होता है।
गोत्र श्रवसो कै विषय का संग्रहकर्तां (रोकमराकर (१७ राताब्दी) भी
मात्स्योक्त करयपो का उच्छेख करता हा (अथ कर्यपाः' द्वारा | इस संहिता तथा बोधायन आदि के ठेख में मारीच रब्द्‌ व्यवहृत
कदयप परम्परागतं अन्य गौघ्रप्ररेतक एक मारीच ( सरौीचके पुत्र) किया गया है । मरीचि चन्दर से अप्य अथं मे अग्‌ प्रत्यय करके
ऋषि का एकवचनान्त शब्द द्वारा निर्देश करता है। करेयप मारच शब्द वनता है। आतरैय संहितामें धौम्यो मारीचिकाश्यपौ,
परम्परागत होने से इस मासीच कामी क्यप ह्यना संगत है । मासचिरुवाच; मारीचिः कदयपः' इत्यादि इकारान्त पाठ! के मिलने
इस प्रकार कदयप परम्परागत एक दूय भी मारीच करयप इजा प्र भी मरीचि शव्द के वह्ादिगण मे पाठ होने से तथा वायोविदः
है-णेसा ज्ञात होता है। (ईइ्चरक के प्रारम्भ मै एकत्रित महर्षियों के समकालीन होने से इन्‌ प्रत्यय ह्योकर मारीचि शब्द भी मारीच
का वणेन क्ते हुए पहले कद्यप का प्रथक्‌ निदेश करके फिर राब्डकापर्याय दी है। अत इन्‌ (४।१।९५) ख द्वारा मारौच
` भमारीचिकद्यपौः इस द्विवचनान्त पद द्वारा मायचि तथा कादयप का राब्द से मायौचि ब्द बनने पर मी मारीच तथा मारौचि के साथ
पृथक्‌ निर्दे मिक्ता है । इस प्रकार कदयपं, काद्यप तथा मारीचि वार्योविद का साहचयं संभव है ।
|
तीन भिन्न २ व्यक्ति प्रतीत होते हैं | इसम्रकार पूरवोक्ता्सार मारीच तथा क्यप इन दोनाँ नार्मो
इस कादयपसंहिता मेँ प्रसेक अध्याय के प्रारम्भ तथा अन्तमं का व्यवहार संभव हौने से इस संहिता के दिष्योपक्रमणीयाध्याय
इति ह स्माह कङ्यपः”तथा कहीं २ वीच भँ मी द्रत्याह कद्यपः' म इन्द्र दारा विचा प्राप्त फिये इए कदयप, अत्रि आदि के रिष्य तथा
“इति कदयपः" 'कद्यपोऽत्रवीत' इत्यादि द्वारा बहुत से स्थानो प्रर प्रो द्वारा इस विवा कै प्रचार के उछेख से बौधायन आदि मे क्हा
कदय प(४) राष्द से आचायका उव्केख किया है ! कीं २ ()मारोच हा मरीचि पुत्र मूलकर्यप इस संहिता का आचाये हौ सकता है 1
दाब्द द्वारा मी निददैशवियादहै। पूर्वापर वाव्यौ को देखते हुए तथा सतयुग ओर त्रेतायुग के बीच मेँ उत्पच्च इृएरोगो से प्राणिर्यो
क्दयप ही मारीच तथा मारीच ही कदयपरूप से दिखाई देनेये के वष्टेःकोदूर कएनेके लि करयप ने इस संहिता का निमाण
इस मन्थ का आचायं मायैच कदयप मालूम होता है । तथा सवत्र मिया जिस्तका वृद्ध जीवकतन्वर नामक संक्षि्रूप कच्यियुग मे विलप
एक वचनान्त मारीच तथा करयप शोष्द द्वारा व्यवहृत होने से १, मुद्रित चरक पुस्तक म यिप्रतिपत्तिवाद कै वणन में परो
स्पष्टरूप से वह॒ एक व्यक्ति प्रतीत होता हे! अत्रेयसंहिता कै ्षत्वादचिन्त्यमिति मरीचिः करयपः, युगपत्स्ङ्गनि वृत्तिरिति
वातकलाकलीय -अध्याय मँ मगवान्‌ आत्रेय के द्वारा वार्योविद कै धन्वन्तरिः" इस पाठ फे मिलने से तण ॒खुश्रुतसंहिता मं मी धन्व-
साथ संवाद करते हुए मरीचिका वणेन करने से मारीच तथा न्तरि के इसी सिद्धान्त के भिल्ने से सर्वङ्गनिवृंत्ति वाद धन्वन्तरि
वार्योविद की समकक्षता प्रतीत होती है। इस कादयपसंहिता के का तथा अचिन्त्यवाद कदयप का प्रतीत होताहै। संभव हैइस
निम्न प्रसङ्ग द्वारा मी इस संहिता के भआचाये मारीच का वार्योविद [१
विषय मे धन्वन्तरि का मी यदी सिद्धान्त हो किन्तु एक हस्तर्िखित
का समकालीन होना प्रकट होता है- चरक की परतक -मै 'कदयपः सर्वाङ्गनिवन्तिः द्वारा क्यप का
इति वार्यो विदायेदं महीपाय महानृषिः । सर्बा्गनिर्वन्तिवाद का पाठ भिर्ता है । श्रौयुत गिरौन्द्रनाथ सुखो-
शशंस सवंमखिरं बारानामथ भेषजम्‌ ॥
[| र 1. ।
पाध्याय ने मी कादयप कै निरूपण मै अपनी. पुस्तक “हिष््री आफ
इण्डियन मेटिक्तिन" साग प्रथम पृष्ठ १७९ प्र यही पाठ दिया हे ।
अर्थात्‌ वार्योविद नामक राजा के खियि षि क्दयप ने बारुको
वार्योविद के खहमावी मारीच कश्यप कै इस संहिता के चायं होने `
की सम्पूणं ौषधिया का उपदेश किया। | ।
से जौर आत्रेय संहिता म आया हज क्यप मी वही होने से इस `
आत्रेय संहिता मँ पीछे शारीर निदरेत्ति ( चरीर के अङ्गो कै कादयपसंहिता मे अये हृ स्स्वैन्दियाणि गम॑स्य' इत्यादि वाक्य
गभं जें प्रकर होने ) के विषय म भिचार करते इए “मिप्रतिपत्तिवा- द्वारा सर्वा्गनिवैन्तिवाद के सिद्धान्तरूप से व्यि होने से तथा उस्म
दास्स्वत्र बहुपिधाः उञ्कारिणगषीणां सम्तिः ८ अथात्‌ शाख्रकतां अचिन्त्यवाद के न मिलने से विरुद सिद्ध॑न्तौ के अभाव के भौचित्य
ऋषियों के बहुत से एक दूसरे से विरुद्ध वाद हँ-भिन्नर र मतद) की दृष्टि से क्यप कै सर्ङगनिदेत्तिवाद वाला पाठ दही उचित
इ्यादि वाक्य दवाय पूवं आचार्यो के मतौ कानिदंश करते हए प्रतीत होता है संभवतः इसमे पूर्वापर पदो के पाठ म उलटफेर `
(१) १ से ५ तक की टि० उपौ० संस्कृत १० १५-१६ देखं । , |हो गया दै।
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होकर पुनः वासस्य दाय प्राप्त करक संस्कार फिया गया--संहिता दी दृष्टिसे मी संभवतः अन्धकार ने अपने नामत द्विषे ह;
कदपाध्याय के इस लेख के अनुसार तथा सघ्रेय कै छेष मे कांकायन परन्त मारीच कर्यप को संहिता मे कश्यपाय स्वाहाः इस प्रकार
आदि फे समक्रारीन मारीयिकदयपं के भिल्नै से मास्स्योक्त कदयप जौ स्वाहाकार देवताकेरूप मै कदयप का उदेख मिक्ता हैवह्‌
परम्परा वषे द्वितीय मारीच का मी इस संहिता का आचार्यं द्लेना प्राचीन क्र्यपका हौनाम होना
चाहे इसीदिये मूरुकरेयप
संमव हे । इस विषय मै निधयपूर्वक दुद्र नदीं कहा जा सक्ता । परम्परा द्रासा हयो उसकी सन्तति मेँ इस विधा कै प्रवृत्त
होने से
मात्स्योक्त द्वितीय मारीच कदयप कौ यद्यपि निश्चय पूरक मूर कदयप पूर्वाचाथं कदयप के उपदेश को जताने
कै छ्थि उसका नाम लेना
परम्परा वाका नहीं कहा जा सकता तौ भी अवान्तर गोत्र वाला होने संभव है|
पर मी मन्त्रदरष्टामं के प्रवेक काही उदेव होने सै वह भी प्राचीन अस्तु यह कश्यप चह मूल व्यक्ति हो भौर चाहे परम्परागत
दी हीना चाहिये । संहिताकदपाध्याय मँ कलियुग मेँलप्र हु वृद्धनी- व्यक्तिहोपेवट इतने से ही उसे अर्वाची
न नहीं कहा जासकता।
` वकतन्व का यक्षसे प्राप्न करके वात्स्य द्वारा उसका संस्कार पिये जनि वेदिक
साहित्य मेँ मौ मन्दरष्ठ के रूप मेँ इसका उछेख है। कात्या.
के उछेख मिकनेसे वृद्धजौघकनन्र की भौ मूलभूत कारयपसंहिता का यन के ऋष्‌ स्गानुक्रम खर
मे कदयप तधा वादय्पौ क्षरा दृष्ट बहुत
समय उससे मी प्राचीन होने से संहिताकार कदयप का समय प्राचीन से सर्ता से जातवेद
कैप्रारम के एक (१) हजार सक्त करयप
ही सिद्धदहोता है। पाणिनि केमते विदाद्विगणमे प्ररि हुए ऋषि प्रणीत वतायै गये हैं| उसकी व्याख्या
करता हुम (२) पडगु-
क्यप राब्द से बहुत्व अथेमे दही गोत्र प्रत्यय कैद्कू्‌(लोप)का ररिष्य अचं मरीचिपुत्रः
कश्यपः ठेता परिचय देता है । (३)
विधान है परन्त॒ वंशब्राह्मण आद्रि मै उसे विपरीत एक व्यक्ति व्रहदेवता मेँ मी इन एक हजार
स्तो का द्रष्य कदयप को ही वताया
केल्यिमौ क्द्यप चाब्द करा व्यवहार मिलने से यदा काद्यप कै है
। सायनाचार्यं ने मी जातवेदस कै मन्व मँ मारीचि करयप ऋषि
ल्यि आया हुजा कद्यपक्रब्दर पाणिनिसे मी प्राचीन प्रयोग को का निदा किया है । वश्चु्त) मे तो यघरकार्‌ ने भी खयं मारीच
सचित्‌ करता टै । करयप को ऋषिरूप से स्वीकार भिया है । माधवे सर्वानुक्रम सत
रस काद्यपसदिता मं धन्वन्तरि का मतद्विया होने से परन्तु मे मी पतना(५;जितम्‌? इत्यादि जातवेदस्‌ यक्त के द्रष्टा मायनि
उसके अनुथायौ दिवोदास तथा सुश्रुतके नामन द्योने से तथा कादयप्‌ ( मारीच, कदयप्र ) का उछ है ।
(१) महाभारत मे युगदक्षिणा मेँ दिये जनि वलि घोडः की प्राप्चि के ऋण्वेद कै नवम सण्टल तथा अन्यत्र मी कादयपावत्सार्‌,
लिय कारीपति द्विवोदास कै पास पटुचने षरे गाल्वश्चपि को कादयप निश्रूवि तथा मारीच कदयप द्वारा दृष्ट अनेक सक्त है।
हिमालय की तर्हीमे वायत्य ( पश्चिमोन्तर ) दिदामे भारीभि जिनका सायन नेभी उक्तीरूप में पिवरण द्विया है। उनम दिव्य
क्यप के आश्रम का निर्ददा होने से यह मासोचि कदयप धन्वन्तरि ओपधि सोम की अनेक मवार से स्तुति की गई है । जातवेदस्‌ के
के बाद परन्तु उसकी चतुथं सन्तति द्विघोदास कै कुद समय पू मन्त्र म अ्चिकौ स्तुत्ति करते हुए भी सोमका विषय आया हृभा
या उसके समफालीन दिमाटय की तहरी आश्रम बनाकर रहता हे । जातवेदस्‌ के प्राम के एवादनार शक्त करथप ऋपि प्रणीत दै,
धा-रेसा प्रतीत होता है । इससे इस संहिता मँ आये दए भाचार्य ठेसा सगीनुक्रम सकार आदि निर्देश कापते है । उपमध ऋण्ेद्‌
-- फे (२) सृद्राद्रार निवा मित्र की संगति भौ ठीक ब्ेखती ह|
मं मारीच कदयप्‌ ऋषि द्वारा प्रणीत ये एकर हजार सक्त नहीं मिरे
अवान्तर गोत्र प्रवतक मारीच कच्यपको भी यदि दस संहिता । दं । जातवेदस्‌ में एक क्वा वाला केवह गरही एक सक्त मिता है।
का आचाय माना जाय ती चरक फे उपक्रमे मारोचि तथा कश्यप (६) स्वानुक्रम खत, (७) वृहृदेवता तथा पड्गयुरुदिष्य द्वारा उदृत
से भिन्न प्राचीन कद्यपके भिस्नेसेतथाइ्स संहितामे भी ष््र दोनक दाकपूणि आदि के निदश्च में “जातवेद तथा सयोवृषाः
के शिष्य कदयप द्वारा अपनी सन्तति म आयुवेद धिदा के प्रचार के आद्वि सक्ते बीचके ९९९ सक्तो की त्रिद्यमानता प्रकट होने
उछेख होने से यत्रि, भयु आदि के सादचर्यसे मूलकदयप से ही से यहस्पष्टहेकि इनका रोप होचुका दै । खिलरूपर से धिचमान
यह विद्या मारीच क्यप मँ गई प्रतीत होती है । शस प्रकार परम्प ये क्त वेदो से लुप्तो चुके हैदेता पड्गररदिष्य ने सयष्ट कहा है ।
रागत मारीच ने इस संहिताका निर्माण किया प्रतीत होता है। दन व्रिटुपत मरना का अनुसन्धान कस्ते हुए सत्रौतुक्रम के दीकाकार
इसौल्यि व्रनविसेचनीयाध्याय मेँ वृद्ध कादयप का मत देकर (८) पड्गुरुदिष्य ने प्रारम मेँ एकन, दृच, दतच आदि सदस्यं
अथ क्दयपोऽ्रवीत्‌? दयाया जो अपना मत द्विया दै वह्‌ वाद्‌ मे हने पयैन्त (९) सक्तो का भिदँ करके उनकी गिनती करते हुए गणित
वले मारोच क्ड्यप केख्थिहीसंभवहैनकिमूल्वश्यपकेस्यि। के अनुसार पांच (१०) शाख चार सौ निन्यानवे ऋष्वा कै ठप
अन्य भाचार्थ के मतो को देकर अन्तम नामोद्ेख सहित अपने होने का संकेत किया है परन्तु ग्वेद मे एक २ मन्त्र को बदाकर-
मत. के प्रतिपादन करने की प्राचीन रैली कौटिलीय अश्गास्न तथा दन्तो में मन्त्रँ के विन्पास्तकी रौति कीं द्विखा नहीं दैतीहै।
अत्रिसंहिता म भी दिखा देती है । द्रति ह स्माह कश्यपः, इस्त परन्तु सत्र तथा देवता में इन हजार शरत्तो मे एक ऋचा वाटे
वाक्य द्वार प्रारभ विये हुए अध्यायके वीच मी अन्य आचार्यौ सत्तो के बाहुल्य का निर्देश है, शस प्रकार रक्त संख्या पूरी नहीं
होती । उक्त संख्या कै निदश्च की सङ्गति हो, चाहिन हो परन्तु
के मर्तो कै विना भौ कहीं २ जो ति कश्यपः शत्याह्‌ कश्यपः
आदि वाक्य अयिहृएदह बेनये एवं विनेष अर्थंको खचित करने इतना तो स्ट हैकि इन एक हजार सक्तो के एकच बाहुल्य के
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निदेश
तात
निर्देश होने
होने से
सेएवच
पवन (पक
(एक ऋना
ऋचा वे
वाके))स्ता
स्तो के
के अधिक
अधिक संख्या,
संख्या
(१) ९-२ तककी टिप्पणी उपो संखछृत ¶० १७देे। (१) १ से १० त्क कीटि० उपो संस्कृत १० १७-१८ देख ।
॥ | ॥
५५५८
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद १९
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मे होते पर भी अन्य बह्व ( वहत ऋचां वारे › सक्तौ छा प्रवेरा के पिदधे भाग में जिस प्रकार छृष्णात्रेय जदि कै मर्तो का उच्छेख
संमव ह्येते से इसमे हजारी मन्त्र थे । कदयप तथा कादयप के नाम है उसी प्रकार ब्रदधजीवक के वनाये हुए खिकमाग यै बृद्धकादयप
से उपरब्य खक्तो म दिव्यौपधि सोमर की स्तुति का बैन मिलने से नामक अन्य आचाय का उव्छेख होने से संभवतः श्वृद्धकाश्यपी-
संभवतः अन्य विदुष हजारो मन्तो मेमीप्रायः ओषधियोकाही यायाम्‌" लिखि हौ 1
वर्णन प्रतीत होता है । कश्यप के आयुर्वेद विः का आचाय होने से महाभारत के तक्षुक(?)द॑शोपाख्यान मे शापय्स्त राजा परीक्षितं
तथा कादयपसंहिता मे उसकी परम्परा मे उस विधा कौ अनुवृत्ति कौ कार्ते केलियि जते हुए तक्षक तथा राजाके प्रतीकार कै ल्यं
होने का तथा महान्‌ अक्ति वाटी कदयपसंहिता का पीछे बृद्धजी- आने वाले महषि काद्यपके परस्पर मागमे मिलने से उनका
वक द्वारा संक्षेप पिये जनि के उछेख होने से समवतः ये विद्धप्त एक संवाद भिरुता है । यहु मासच दाब्द से रदित कारयप ऋषि पिषहरं
हजार खक्त ही कादयपसंहितारूप मेँ प्रकट हुए ये। आयुर्वेद कै विद्या मे निपुण कद्यप-परम्परागत सिन ही व्यक्ति प्रतीत होता है।
विषयो का प्रतिपादन करता हुआ वहु भाग कदयप ने ऋग्वेद में टछन ते सुश्रत की (रव्याख्या मं कादयप नाम से तथौ माध-
खिलकूय से प्रविष्ट किया हये फिर कालक्रम से च्युत हौकर पीछे संभ- वनिदान की म्ुकोश् (३)ग्याख्या मे बृद्धकादयप नामस दो इलोक
वतः विलुप्त मी होगया हौ । आगे निदिष्ट काद्यपस्तंहिताः नामसे दिये हुए हँ । वे लोक अगदतन्व विषयक होने से ये काद्यप तथा
भिल्ने वारी एक अन्य संहिता मँ निम्न रलोक दिया है- बृद्धकाद्यप भी भिन्न ही अगदतन्तर के आचाय प्रतीत होते है !
ऋग्वेदस्योपवेदाङ्ग काश्यपं रचितं पुरा पाणिनि द्वारा म्तृषिदषिङ्षेः काश्थपस्यः ( १।२।२५ › तथा
ठक्षग्रन्थं महातेजः अमेयं मम दीयताम्‌ ॥ न्नोद्‌ात्तसवरितोदयमगाग्यंकाश्यपगारुवानाम्‌ः ( ८।४६७ ›)इन
उपयुक्त रोक द्वारा वणित ऋग्वेद के उपवेद रूप तथा लक्षय खो में प्राचीन वैयाकरणो की गिनतीमे दिया कादयप मी अन्य
न्थात्मक यह कादयपद श्चन मीं संभवतः उसी विघ्न कादयप सहिता- ही प्रस्थानान्तरीय विषान्‌ प्रतीत होता है। रिद्पाचायंकेरूपमें
खूप एक हजार चन्त फौ ओर लक्षय करता है । यह भी संवहो क्यप का निर्देश तैत्तिरीय(*) संहिता मे जया हआ है ।
सकता है पिः खिलरूप मे अवस्थित स्वदृष्ट सस्त तथा इसौ प्रकार | कारय पसंहिता (५) नाम की उमा महेद्वर संवाद शूप चिकित्सा
विषयक एक अन्य मी द्येरी सी पुस्तक तजर के पुस्तकाख्य में
कै अन्य परदृष्ट सन्ता की संहिता बनाकर कदयपाचायं ने रिष्योप-
(नं० १०७८० ) है, जिसके पूर्वाधं भाग का प्रतिलेख श्र वैयवर
क्रमणीय अध्याय मै आयुद कौ पंचम वेद माना है उसी खिलरूप में
अवस्थित आयुर्वद विषय का ज्ञान कराने वाली कश्यप की मासं यादव जी द्वारा युक्च भी प्राप्ठहुजदहै। इस पूर्वाधेमाग मे नाना
हिताको दही वृद्धजीवक ने संक्षिप्त करके तन्घरूप से उपस्थित किया
वातरोग, उ्वर, हणी, अतिसार, अश, इनके निदान, उनको दूर
करने के छ्य ओषधियां तथा निदानरूप पापौ कौदूर करनेकै
प्रतीत होता है अस्तु, कुद मी हो इतना तौ स्पष्ट हे कि यहु उप्‌
लियि रुद्र, रिव, विष्णु आदि का आराधन स्क्षेपसे दिया हा है ।
लभ्यमान कार्यपसंहिता वेदरूप मूक महावृक्ष का ही संक्षिप्त रूप है।
इस पूरवाधं के अन्त मेँ शबाङूरोगस्यः हारा प्रारंभ करके निम्न रलौक
इस प्रकार इस संहिता के कस्पाध्याय के ठेख(१) से तथा अन्ध दिये हुए ई--
के बीचर२मे जये हए प्रदधिकेषोसेस्पष्ट हैफि इस संहिताका
आचाय क्यप नाम वाला, आदिताग्नि (जिसने अग्नि का आधान
स्वाङ्गं मूध्नि कते ह श्रोणी दं पाद्बाहकम्‌ ।
पिटकं वदुर कण्डं तिमिरं छमिसंङुलम्‌ ॥
विया हआ है), वेदवेदान्त का पारद्रश प्रजापतिस्थानीय तथा
पूयं रक्तं वति च वेदनं श॒ष्कमङ्गजम्‌ ।
गङ्गाहमार निवासी सारोच क्स्यप हीदै। चरक संहिता बै मूल
आचाय अघ्रेय का जैसे पुनव विशेषण है वैसे ही इस संहिता कै विदाहं शोषमस्यन्तवाखकं पिच्छिपिच्छिराम्‌ ॥
एते गुणविकाराश्च पेत्तरूपं समुद्धवम्‌ ।
आचार्यं क्यप का मी मारीच विक्षेषण है 1
तत्पत्तनाडीनाशाथ रास्नादिखेद्यकं तथा ॥
कौमारभ्व्य विषयक दस संहिता कै रेख से मी मारीच कदेयप ममासं मासत्रयं नित्यं बारूपेत्तविनाश्चकम्‌ ।
तथा वृद्धकाद्यप दो भिन्न २ आचायं प्रतीत होते दै। जिसे मारीच अश्वगन्धिषृतं सेवेद्धिडङ्ादिष्तं तथा ॥
कृदयप कै उपदेशस्वरूप इस संहिता के वमनविरेचनीय प्रकरण मं वाकुचीधृतविस्यातं बारुकं पिच्छं हरेत्‌ ।
दूसरे आचार्यौ के मते मे पके बरद्धकादयप के मत का निर्देश करके इन दकोको फे बाद इति पार्वंतीपरमेश्वरसंवादे कारयंप-
अन्त मे (अथ कदयपोऽत्रवीतः द्वारा अपने ( क्यप के) मतक संहितायां पूर्वादं समाप्तम्‌ दारा इसे समाक्रकिया गया है । इस `
स्पष्टरूपमे दिया होने से मारीच कदयप दही दइस संहिता का उप-
संहिता का ठेख प्रौढ एवं सुसस्कत न दहौने से इसे प्राचीन नहीं
देष्टा, तथा वृद्धकादयप इससे भिन्न अन्य आचाय प्रतीत होते हैं । 1 जा सकता 1 उसमें वारुभेषस्य का मी सुख्यरूप से वणन नदीं
प्रत्येक अध्याय कै प्रारम्भ मे जौ "इति ह स्माह कश्यपः, दिया है हे । योव अन्तमें इस विषय के उपरिनिर्दष्ट च्छोक दिये है।
वही इसी को खचित करता है। इस क्यप ऋषि कोमीं
बृद्धजीवकीयतन्त्र के साथ इसकी विषय रचना तथा -सैषज्य की
कहं २ जोवृद्धङ्खिा है वह ज्ञानवृद्ध या वयोवृदधकी दृष्टिसे दृष्ट से बिलकुल सी समानता नहीं है । यदह तान्िक प्रक्रियाओं
श्खिा है । खिकमाग मै एक स्थान पर ब्बृद्धकाश्यपीयायां संहि- से युक्त भिन्न दी संहिता प्रतीत होती है। तथा इसका उपदेशक
तायाम्‌? जो किखा दै वह सम्भवतःप्रक्षिप्त है। अथवा चरकसंहिता , मी करयप नाम वाखा फो भिन्न ही प्रतीत होता है।

(१) ६० उपौ० संसृत पू० १८ दें ! (१) ५ तक्‌ की टि० उपौ० संस्कृत प० १८१९ देंखं |
0 ॥
२५ उपौद्धात का हिन्दी अनुवाद
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मद्रास प्रदे सै मुद्रेव कादयपसंहिता(४) नाम का अगद्तन्त्र पाणि, जातूक्रणै, पराक्ञर, मेड, हारीतः सुश्रुत, कारयप्‌ तथा जीवकं
विषयक एक अन्य ग्रन्थ मौ मिलता है। उसमे गार्टीविवा ( सप. आदि के नामे मी दिये द्ये ह । इन प्राचीन आचार्यौ की संहि-
धिचा), विषनादकः ओपधग्रयोग, साज्विकिपरयोग, पिप कौ भिन्न र ता कै योगो का इसमे संग्रह होने से परम्तु अष्टङ्गष्टदयोक्त एक्‌
जातिया ओर मेद तथादंल्च आद्धिका वरणैनहै। इस संहिताका मौयोगकेन होने से यह निबन्ध वंस्यप, कादयप्‌, आत्रेय, सुश्रत,
ङे उद्टन तथा मधुौद्च मै उद्धूत अगदतन्तर व्रिपयकः दोक तथा मेड आदि से पश्चात्‌ तथा वाग्मटसते पूरका प्रतीत होताहै।
ते केदामात्र मी नदीं मिख्ता है। इसमे वे दोनो इटोक भी नहीं दसके कौमारमव्य विषयक १४ वैँअध्याय मे कादयप तथा जीवकं
द्विये है । इस प्रकार अगद्तन्त्रके ज्ञाता किसी अन्य अर्वाचीन नाम सेकु भौषध योग द्विये है! यहां कौमारमत्यके प्रकरणम
कारयप का अथत्रा प्राचीन अगदाय कादयप के सम्प्रदाय वाले जीवक के साथ आया हुआ कादवप समवतः इसत कादयप संहिता का
भिसी अन्यकाी यह ठेख प्रतीत होताहे। इस कौमारभृष्य आचा्य॑हीदहै। स्वाथेमे अण्‌ करके अथवा उस गोत्र वे अर्धं
विषयक संहिता मे इसकी गन्ध तथानाम मी नहींहं। वयप का कादयप राब्ड द्वारा मी व्यवहार संभव होते से क्यप्‌
हस प्रकार कदयपर तथा कादयप चन्द कै भित्र २ दिशा देने वे स्थान पर कादयप दिया हुमा प्रतीत होता है । वहीं पर निम्न
रटोक दिये हँ जिनमे कश्यप के नाम से गुटिका भषधिययो करूप
सेन उपरिनिरदिष्ट कादयप कै प्राचौन होने पर भी विषयक
भेद से कारयपसंदिता नाम से मिटने वाले उपरिनिरिष्ट दोनों मन्थं म विङ्ञेष योग द्विया है-
कै अर्घाीन होने से तथादन कादयपौके साथ माच ङ्ब्रका जासवेन सुजातेन बारूनां दापयेद्धिषक्‌ ।
विक्ञेपणन ठगा होमैसे इस कौमासयध्य संहिता का आचार्य सुखं भवति तेनास्य काश्पपश्य वचो यथा ॥ ०॥
मारीचकदयप नाम वाला भिन्नही आचाय प्रतीत सेते । तथा तेन कोष्टगतो वायुः जिप्रमेव प्रमुच्यते ।
उसयी यदह नधोपट्ब्ध प्राचीन संद्धिता मी भिन्न ही प्रतीत क्िरोरोगेषु श्चमनं चमनं चेव शाम्यति ॥ ५१॥
होती है। कदयपरं द्वण उपदिष्ट हौनपर भी तदीयत्य (उस कृमिगंदगतो यस्य गुिकायाः अ्ररेपयेत्‌ ।
विपयवः ) वौधरक प्रत्यय से समानापिकरण समास होकर पुंवद्भाव तेनास्य सौख्यं भवति काश्यपस्य वचो यथा ॥ १२॥
मँ कय्यपकी संदिताः दस अथे दृणटिमें रखते हुए इतका शक॑रा्तौदरसंयुत्तां पाययीत चिक्रिःसकः ।
कारयपसंदिता यद नाम उचित हे। सुखी भवति तां पीत्वा काश्यपस्य वचो यथा ॥ १३॥
अष्टाद्ध हृदय म व्रल्य॑ कै सग कै प्रतिपेध विषयक अध्याय
नावनीतक मँ इससे पृवेकेदलोको केप होने से दख गरि
मे वृद्धकदयप (र) तथा क्यप (2) नामसेदो ओौपध योगद्धिये यमेष का क्या सरूप है यदह नदीं कटा जा सक्ता । कारयपसंहिता `
ने स्थान रमर गुटिकोपपिर्यो की रचना तथा उपयोग द्विये है,
हुए । ब्रदक्रयप तथा क्यप का पृथक्‌ २ निर्दे दोनेसेश्स
कायपसंद्धिता मै वृद्धकय्यपोत्त भिपय केन भिट्ने पर्‌ मी क्यप उन्हीं से किसी पक को लेकर अपने अनुभूत असुपान विक्षेप कै
नामसेदधिया इभ वालक का यहृषटुर दयाद्क धूध धृपभ्रमरण साथ यहां द्विया गया प्रतीत होता है, |
मे कुश पासमेद से भिल्तादहै। क्यप नामस द्विया हुमा बाटो प्राचीन रव्रणन्रूत बाह्तन्र मे काद्यप तथा वृद्धकार्यप कनाम
यै यक्षराक्षस भद्निकी वाधा को नष्टं करने याला अभयध्रत दिये ऋस कौनार्तन्व मे वृद्धछादयप के साथ आचार्यसूप में
वाग्भट(#) मे भी दिया है। चस्तुर्ज तथा रक्षोप्नप्यादि कौ समानता आया हुआ काद्यप्‌ मी यही कौमारभ्ष्याचार्थं कश्यप प्रतीत
से यदु व प्रतीत होता है। टोत्ता है ।
खोटङ्ध ( मध्य षद्चिया) नामकं स्थानके भुगभं से कावर उवरसमुचय नामका एक प्राचीन भन्थ है जिसमे ज्वर कै
मैनुर्किष्ट ( ० प्ण) स्य से प्रसिद्ध नावनीपतक विषद्रमे प्राचीन ऋपिर्यो कै वचन कासंयरह धिया गया है!
नाम काणक प्राचीन वैकः अन्ध अभी मिल्ादहै। इस पुस्तक निसकी णत ताडयपुस्तक; छ्पि के अनुसार सात-भाठ सौ व॑ पूवं
की भोजपन्न पर्‌ ङिचित प्राचीन सिपि को देखकर विद्वानों नेसे की तथा दूती ४४ नेपारी संवपसतर (ई० प० ९२४) म्ली
तीससे चौथी इताब्टयीमे किख दहभा निशिता है । अन्ध हृदं येरेपसदै। जव मन्थका खेख(हिपि) समय दय इतना
स्वनातों ससे भी प्राचीन दौनी चादिये। इसमे अत्रय, क्षार- प्राचीन हे तव यन्थकार्चना समयत इसत्रेमी प्राचीन होना
चाहिये । इस प्रन्थमें कद्यप नामसे बहुतसे रछोक द्वये हुए
(१ )2०१से४ उपो संस्कृत ए० १९-२० दे । हं । इन दोक की कादयपसंदहिताे अयि हए दको से संगति
# यद मन्ध यूरोप तथा खीर सै भी मुद्रित भा है। है, श्का पीछे निर्दर किया जायगा } इससे यह निद्वयपूर्वैक कहा
तानन म त [१ प ५ +,

इस अन्ध की उपलध्ि कै विपये मै मारतीश इतिदास शी ठिखी प्क प्रधी मिनी । चहु अब बावर~पोथी वाहटातीहै। वह.
रूपरेखा १, ९८२ (जवचनद्र॒वरिद्यालंकार ) पर लिला ३-- फट्कत्त मेँ डा० हानंखी के पास मजी ग ओर युप युग बरहम
सन्‌ १८९० मेँ त्रिं भारतीय सैना के कपिः्यैर बार नामक टिखीं संस्कृत कवे पथो सिकटी । वह्‌ वैधकका अन्ध है जिसके `
एक अप्रसरर को एक दूरे अंग्रेज फे धातक की खोज मेँ धमते फिरते पके अंश मै ल्हृरन कै गुण ववाने गये द। बावर पोथी भब
चीनी ठकिस्तान के उत्तरपु्री दौर की कुचर ( बरूचा ) नामकं आक्सप्ोडं मे है । उसके पूरे फोटो रिप्यम्तर जौर अनुतराद दानेली
बस्ती सेणक स्नूपके खण्ठदरय मेते निकाली गई मोजपप्र प्रर ने भ. स. इनि. रर मे प्रकाशित भिये दै--भनुगादक ।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद २१
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जा सक्ता है कि उपरसथुच्चय मे आया हुभा कारयप इस संहिता करते हुए डच्छन ने "पावंतकजीववन्धकम्रश्रतिभिः, दारा जिस
का आचाय कदयपही है। तथा उसमे द्विये हृए शलोक आइस जीवक का संकेत किया दहै, कोमारभृत्याचार्यौ की श्रेणी मै द्विया
संहितासेदही स्यि गये हें। होने से संभवतः वह यही बृद्धनीवक है । चक्रदत्त ने भी जीवक के
इसी प्रकार सुश्रुतकौ व्याख्या के निवन्धसंग्रह(९) अष्टा नामसे सौरेश्वर धत दिया हृभादहै। अन्य टीकायन्धौ मे मी
हृदय (२) को टीका तथा चरक कौ चक्रपाणि टीका मै करयप नाम कुमारो के लिये उपयोगी कास~श्वासनाश्चक ओषधि्यो जीवक कै
से अन्यमीदो तीन दोक दिये हुए दहै । परन्तु इस संहिताकै नाम से सदधत मिल्ती है)
बहुत से मागो कै खण्डित होने से संभवतः वे इरोक इस खण्डित यह्‌ वृद्धजीवक कौन दै १? इसका अनुसन्धान करने पर हमे
मागमे, | भगवान्‌ बुद्ध के समय के महावग्ग नामक पालीथ्न्थं बौद्धजातक
पीयूषधारा के गांवानप्रकरण(₹) मे उक्तं च कश्यप- तथा तिव्वतीय गाधा्ओ मे कुमारमन्चः यपिेषण युक्त जीवक
संहितायां, वषट्वादक्षकादूरध्वमः इत्यादि दवाय प्रास्म करके निम्न नामक किसी प्रसिद्ध वेच का वृत्तान्त भिरुता है । इसमे कुमारम
रकोक दिया है-- विशेषण तथा जीरक नामक प्रसिद्ध वैच कै मिलने से इसके परिचय
अन्तः पुष्पं भवत्येव पनसोदुम्बरादिवत्‌ । कै लिये महावग्ग नामक बौद पालीयन्थ के आस्व अध्याये निम्न
अतस्तु तत्र कुर्वीत तव्सङ्क बुद्धिमान्नरः ॥ कथानक मिरता है--
( अर्थात्‌ क्ल तथा गृलर की तरह वारह वषै बादखी
राजगृह ( वतमान राजगीर-पथ्ना जिला › भमै श्ाखावती नामं
अन्तःपुष्पा होती है, इस खियि उसके साथ बुद्धिमान्‌ पुरूष सङ्ग कर की किसी वेरया द्वारा स्यः प्रखत बाकक को दासी ने शूं (द्याज) मेँ
सकता ह ) 1
रखकर ब्राहुर फक द्विया । राजकुमार अभय उसे देखकर महल मेँ
उपथक्त रलोक के उ्योतिष के यन्म होने से कदयपसंहिता
ठे आया तथा दासी द्वार इसका पाठन-पोषण किया । 'उत्सृष्टोऽपि
नाम का अन्य व्योतिषका मन्थ मी हो सकता है । कारयपसंहिताके
जीवति" (च्या हृजा या कक दिया जाने पर भी जीवित है)
जातिषन्रीयाध्प्राय मे अये हुए गर्माधानः'से संबन्धित विषय कै
इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका नान जीरक हुआ तथा राजङ्रमार
अश्रूप में घुटित होने से तथा इस संहिता में आं रचना द्वारा
दारा पारन-पोषण किया जनि के कारण पारी भाषा कै अनुसार
ग्माधान के विषय का प्रतिपादन किया होने से यह दोक संभवतः
उस जुटित मागमे जया हुजा भमीदह्ो सकता है। उस अवस्थामें इसका नामकु (कौ) मारमच्च (कौमारमरत्य, कुमारभृतभ भी
पीयूषधारा मे वणित करयपसंहिता भी संभवतः यही हो 1 हो गया । उसके वद कालक्रमते वृद्धि कोप्राप्त होकर जीविकाकी
जीवक-संवन्धी विचार-मूरवोदिष्ट कादयपसंहिता के कल्पाध्याय दृष्टि से विदाध्ययन के ख्यि राजकुमार को विनां कहै हयी उसने
के अनुसार ज्ञातदहोता है किकरयप दारा उपदिष्ट महातन्व रूपी इस तक्षर्चिखा जाकर वहां कै किसी प्रसिद्ध वैच से सात वषं तक्‌ वैका
पिच्या का अभ्यास किया । पिदा समश्चिके बाद आचार्य ने पाथेय
संहिता को कनखल निवासी तथा ऋ चीकपुत्र वृद्धजीवक नामवाछे
[धकर उसे विदा किया मौर वह वहां से कौर गया । मार्गमे साकेत
किसी महषि ने उसे ग्रहण किया तथा संक्षिप्त करके उसे तन्वरूप मेँ
प्रकारित किया। ( अयोध्या , पहुंचकर सात वर्षते हिरोवेद्ना से पीडित किसी
महामारत के प्रारम्म मं जामदग्नौपाख्यान मे क्ल्वीक नाम सेठानी कै घर पहुचकर उस तरुण वे ने धत नस्य आदि ओषध्य
से उसकी स्वस्थ कर दिया तथा सत्कार मे मिठे हुए धन, दास तथा
के महपि का उच्छेख मिरता हे । असीरियन्‌ देद्य के पूवैवृ्तमे मी
रथ आदि केकर राजगृह प्टुंचा । उस अजित धन कों पोषणकै
गार आदि के नामक तरह ऋचीक का नाम भो भिकताहै।
प्रत्युपकार रूप मं उसने राजकुमार जमय को देना चाहा परन्तु
साधक प्रमार्णोके अभाव मे इस वृद्धनौवक का. पिता कौनसा
भ्र्चीक है, यहु नदीं कहा जा सकता । पुराण, इतिहास आदि मेँ उसने अस्यीकृत करके उसका सम्मान किया तथा राजग्रासाद .के
तथा आत्रेय सुश्रुत आदि प्राचीन वेचक अन्ध मेँ भी वृद्धनीवक या र ही उसका निवास स्थान वनवा दिया! इसके वाद मगध कै
जीवक का नाम कीं मी दिखाई नहीं देता है । परन्तु नावनीतक राजा. विभ्विक्तार का तीव्र भगन्दर रोग उसने एक ही केप मे अच्छा
क्र दिया । इससे प्रसन्न होकर राजा नै उसका ५०० सियो कै
के कोमारभत्य प्रकरण मे कश्यप के समान हयी नामग्रहण पूर्वक
छदि एवं उरोघात रोग मे जीवक की ओषधि क्रा मी उर्छेख होने से आभूषणं से सत्कार करके उस तरुण जीवक को अपने अन्तःपुर मेँ
तथा बारमेषज्य के विषय एवं कादयप के साहचयै से यदी वृद्ध रहनेवाले प्रमुख बौद भिष्ठओं कौ मी चिकित्सा की अनुमति प्रदान
कौ । फिर सात वर्षो से ्िरोवेदना से पीडित एक सेठ को किसी
जीवक प्रतीत हौोताहै। इस वृद्ध जीवक तन्त्रम छदि रोग के
प्रकरण के खण्डित होने से वह ओषधि याँ नहीं मिरूती है । ओषधि से संलञाहीन करके कपार का भेदन कके उस्म से दो
क्रमियो छो निकाल कर पुनः कपारु. को सीकर कुद दिन म उसे
उरोधात रोग मे ओषधियो का निर्दशे करने वाले रोक कीच २
स्वस्थ करके उप्तसे सत्कार रूप में बहुत सा धन प्राप्न किया । उस्तके
मे खण्डित दहै परन्तु अवरिष्ट मागमे पिप्पश्ी के साथ मिलाकर
किसी ओषपि का प्रयोग दिखाई देने से कुद समानता प्रतीत बाद राजाज्ञा से बनारस जाकर आन््रयन्थि( ¶, 8. 0 104€शाणड्‌ |
होती हे । सुश्रुत के उत्तर तन्त्र म श्ये च विस्तरतो दष्टाः कुमा- 0191105 ) रोग से पीडित किसी सेठके ठ्ड्योवै पेटका भेदनं
राबाधहेतवः करके उसको स्वस्थ किया । उ्तसेठने मी उसका धन द्वारा बहुत `
द्वारा सामान्यरूप से निर्ह करके उसकी व्याख्या
---~---------~--------~------
सत्कार किया । उसके बाद राजा की आज्ञा ्ते उज्जयिनी के राजा.
४) १ से ४ तक्‌ कौ टि° उपो० संसृत १० २०-२१ देखें । प्रयोत के पाण्डुरोग को तं प्रयोग द्वारा दान्त करने के चयि
९२ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
€ < ० © ©< € € ०-०9-6 >
८-०-०9

पहुंचा । घतकोन पीने की इच्छया वषे राजा कौ जव उसने के सम्प्रदाय में प्रविष्ट हुए, तथा मञ्श्म निकाय के अनुसार बुद्ध कै
कृषायरूप से छत का पान करा दवियातौ उसे वमनदहौ गया) तव दारणागत तथा उपासक होने की प्रतीति होती है। परन्तु कादयपं
राजाके डर से पदलेसेदही तैयार की हृदं हथिनी पर सवार होकर संहिता के अनुसार इस ग्रन्थ का आचायं जीत्रक कनखला,
भागकर राजगृह कौट गया । ओषध प्रयोग द्वारं वमन होने से ऋचीक पुत्र, पांच वषं फी मवस्था मे मी वलि-पलित (द्ुरियो तथा
स्वस्थ हुए राजाने जीवक के ल्यि शिवि देच ( शोरकोट-मध्य सफेद वारो ) के काएण वृद्ध प्रतीत दोनेवाटा, वेदवेदाङ्ग के ज्ञाता
पंजाब १ में होनेवाले सृगचमे आदि की मेर भेजी । फिर आनन्द तथा आहिताग्नि करयप का शिष्य, महपियो द्वारा सप्क्रत, अपने
तथागत शी सूचना से सगण हुए भगवान्‌ बुद्ध कौ जीवक ने विरेचन वंशो द्भव, रिवकदयप के सक्त तथा वेदवेदाङ्ग के पण्डित प्रतिंस्क्ती,
कै प्रयोग ते स्वस्थ किया। प्रचोत मौर बनारस के राजाद्वारा द्विये चात्स्य का पूैपुरुष तथा श्रुति एवं स्मृति के अनुदरूल भागं का अनु-
हए सृगचर्म, कम्बल आद्वि जीवक ने भिष्ठुकौं के खिये भगवान्‌ यायी प्रतीत होता है
तथागतं को अर्पितं कर द्विया। बुद्ध सामयिक जीवक के मपज्यसंबन्थी वृत्तान्त मे राजगृह के
तिन्ध(४)तीय गाथाओं के अनुसार विभ्वसार दारा अलिष्यामें सेठ के कपाल तथा वाराणसी कै सेठ की जतो के भेदन्‌ का उव्छेख
उत्पन्न हुए पुत्रको माताने एक टोकरी में रखक्र फक द्विया। मिख्ने से वह शल्यतम्च का विज्ञेषज्ञ प्रतीत होता हैन कि बाल
उक्त वाल्क का राजकुमार अभय ने पारन-पोपण किया इसखिये सेगो का । चव्यतन्त्र के विद्टान्‌ करूप में उव्टेख होने मव्रसे
उक्तका नाम कुमारभतत (भ्व्य) हौ गया। वह भैषज्य भिद्या का ही उसफी बालचिकितसा या अन्य चिवित्साओं मे अनसिक्गताथी,
अभ्यास करके राजकुमार की आज्ञा सै कपाटमेदन द्वि शव्यतन्त्र एेता मेरा अभिप्राय नदीं हे परन्तु जिस प्रकार रास्यतन््ाचा्यं
(शपा्लप) का विशेपज्ञान प्राप्त करने फे ल्थयि तक्षरिला स॒श्रुतका अन्य पिप्योके क्ञानकै निद हने पर मी उसकी
पटुचा । वहां शद्यतन्तर के प्रम पिद्रान्‌ अत्रिय से रिक्षा य्ह शस्यतन्व कौ विषयमे हीं प्रसिद्धिदहै उसी प्रकार यदि यह भी
कवे दार्यतन्त्र मे अत्यन्त निपुण दौ यया; तथा अपने गुर्‌ अत्रय गल्कोके रोगो का पिहेपक्ञथा तौ तद्धिपमयक्‌ वृत्तान्त अवद्य
तेमीवद्‌ गया |$. प्र. ४५० मे कयित बुद्धघौपक्रनं षम्म(र)पद्‌- भिखना चाहिये परन्तु एेसा नष्टौ भिल्ता दहे! परन्तु दस अन्यक
व्याख्या मे जीषक द्वारा ५०० भिष्युक्ौ सद्धित मगबान्‌ बुद्ध कै आचाथं जीवक कौ तो प्रारम्भ से दही ब्राररोगौ का सुख्यरूप
मोजन तथा बुद्ध के पादव्रण फी चिित्साका निर्दैल दै) इसके से अनुभव होने पे यह्‌ स्पष्ट रूप से वारुतन्च् का आचाय प्रतीत
अतिरिक्त सतीयुभ्बजात्क, संरमिच्चजात्तक तथा चुहट(द)दंसजातक द्वि होता हे । |
ममी जीवक का निर्दे है। बुद्ध के समय काद्यप तथा जीतकर फी एेतिहासिक समकाटीनता
उक्तने कमी अम्ब्रपाह्ली नामक उद्यान मे एक विहार बनवाकर मिलने के कारण ईसं ग्रन्थ मे साथ २ आये हुए कदयप तथा जीरक |
सादे बाण्हसौ (१२५०) भिष्ठरमो के सहित उद्धको निमन्वित दोनों उद्धके समकालीन तथा बौद्ध ग्रन्थो मे अयि, एसी
करके उसका सत्कार भिया । राजगृह कै श्रीयुप्र परिखा ( मोदेछा- वट्पना भी उचित नदीं है क्योफि काद्यप तीनो भाद्यो मे ज्चेष्
बस्ती ) मे उसने किसी स्तूप कामी निमण कियाथा। शस जौववः था तथा वदु दानिक ओर याक्षिक था। महावग्ग म उसके विषय
मे मिख्तादहैमिः उरु यामे दृद्धने उसे बौद्धधमं में दीक्षित
ने भिम्बक्षार्‌ के पुत्र अजातदाघ्चुको बुद्धके दर्श्नौ केल्यि प्रित
पिया था) इत्यादि अन्यमीश्स सम्बन्ध फी बहुत सी आय्यायि- धियाथा पिरि उसने देखकर पिम्बस्रारने मीं बौद्धमत को स्वीकार
कायै जातक यद्वि बौद्ध यन्थो मे मिलती । इस विषय मे ंडध(४) कर लिया! उसे दादौभिक होने का उव्डछेख्र मिलता हैइस प्रकार
नामक पुस्तक मेँ श्री 0वलणयद् नामक पिष्वान्‌ तथा श्री (मिरी उतकानतोत्रेधके रूपमरेन कौमारमृत्याचायें कै रूपमे तथा
नद्रनाथ महोदय ने बहुत कुट र्खिादहै। जीवकं ने अपने घर के न मरीचिके पत्ररूपमे ही उव्छेख मिता है । कौद्ध मन्धोक्त
समीप श्रयत परिखा मे एक उद्यान तथा दुद्धका व्याद्यानचघ्वर जीवक का तिन्वतीय कथाओं कै अनुसार भी तक्षयिला स्थित आत्रेय
( व्याख्यान के लिये वेदरी-म{गिन ) वन्रायां हआ था । गृहचल्वर; से अध्ययन का उल्लेख मिलता है नकि मगधदेशीय कादयप से ।
वृक्ष आदिय के अवदेप के चिहं वहां आजतक मी परि्यमान हें एसा दस प्रकार वौदधकादयप एवं कदयप मे बहत सी जकस्षमानताये होने
भि(६) महादयय का कहना है! से तथा फैव्रल नामं मात्रकी समानता सेद्यी जीवक के पिप्रयमें
उपर्युक्त वणन के अनुसार प्रसिद्ध जौव्रक नामक वेध बुद्ध तथा कुद नदीं का जा सक्ता ।
विम्बसार के समकारीन आज से २५०० वपं पूरे ( ईं० पू ६५० )
दस्र अतिरिक्त बौदफादटीन जीवव का कुमार हारा पालन
हुआ प्रतीत होता हे |
किया जाने कष कारण पारीमप्रा फै अनुसार कुमारभग्व तथा इस।
बौद्धयन्थोक्त जीवक का मगध देद्य कै रहने वाङ, त्रिम्बरसार
ग्रन्थ फे आचाय का कुमार (वार ) से्गौ के आचाय दोन के कारण
दारा युजिष्या नामक वेश्या मै उत्पन्न हए तथा तरण वैके रूप
कौमारभृत्य होने ते भी दोनो ण्य नहीं हो सकते क्योकि आदयुवैद
मे निर्दैश किया गया है । उस्ने बाव्याधस्था कै बाद तक्षशिला
के प्रा्वीन आय विभागो मेस एक विभाग बाटयिकित्सा संबन्धी
जाकार वदां के किद्ी जाचायं से सात वपं त्क वे्विचा का अध्ययन
दौमारभरस्य ह उसके ज्ञाता तथा उष्रेदाकः कौमारभरल्य कहरति ह ।
किया । उसके बाद महावग्य के अनुसार वौद्धभिष्ठओ के सत्तां
वैय, तिब्बतीय कथा के अनुसार स्तुपनिर्माता ओर बादर मेंतथारात इस प्रङृतमरन्थ का “कौमारश्डत्यमषशानां तन्त्राणामाद्ुच्यतेः
"कौमारश्वस्यमतिवधनमेतदुक्तमः इत्यादि न्थ के तथा का
(९) से तककी टि० उपो० संसृत ध" २१-२२ दें। श्यपीयसंहितायं कौमारभस्येः इस पुष्पिका रेख से करौमारथत्य
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं २३
क 2०० 9-39-6 © © € © € ©< ©"€ ©< <अ @©-€७ €> ©> €>-€>ॐ << ©

विषयक तथा "कौमाररत्यास्स्वपरे जङ्गमस्थावराश्रयात्‌ । द्वियो- म होने वले इस प्रतिसंस्कतीं का वास्स्य होना उचित है। वं
निं बरुवते धूपं कश्यपस्य मते स्थिताः? तथा निषक्षौमारभत्यस्तैः ब्राह्मण आदि मे मी 'वास्स्याद्रास्घ्यःः इस प्रकार बात्स्य का
इत्यादि वाक्यो द्वारा इस ग्रन्थ के आचाय कदयप तथा अन्य वर्च उस्लेख भिल्ता है । वृंसब्राह्मणमें वंद नाम से उदिर्खित यही है
का कैमारम्रत्यत्व प्रकट हौता है । इसफे विपसीत बुद्धकालीन जीवकं या कोड दूसरा यह नहीं कहा जा सकता । इस प्रतिसंस्कर्ता वत्स्य का
के ल्यितो बौद्धथन्धं मे कुमार अमय द्वारा पालन किया जाने कै क्या नाम हे तथा जीवक कौ कौन सी सन्तति ( पीद्ी) मे यह जा
करण विद्याध्यन से पूरं हयी मारथरत्य शब्द से निर्दे किया गया है,इस पिषय मेँ विदेष कु नहीं मिलता है । अनायास नामक
है, कुमारथृत्यके ज्ञाता के रूप मे उसका निर्दा नदीं है । यदि रेसा यक्ष को प्रसन्न करके उससे इस तन्त्र की प्राति का वणेन करनेसे
होता तौ वारुचिकित्सा तथा उसे ज्ञातादहोनौ का निदेड क्यो नहीं यह्‌ प्रतिसंस्कतौ यक्षजाति की विचा समरद्धि कै समय अपना सच
हे । इरके अतिरिक्त यह सी नदीं कहा जा सकता कि कुमार दारा (होना) प्रकट करतादै। यक्ष जातियां प्राचीनकाल से प्रसिद्ध
पाछिति जीवक कौ विदष विद्याके कारण दही इस प्रस्थान ( विभाग) थीं यक्षो के साथ मारतीयों का परिचय तथा सम्पक्‌ मी प्राचीनं
का नाम कौमारभृत्य हैक्यौकिप्राचीनकारसे ही इस प्रस्थान का यह ही हे। यक्ष के सम्प्रदायको वौद्धधमं से प्राचीन बतछाते हुए
नाम सुश्रुत, नावनीतक आदि में सिकता है । तथा न कैव्ररु जीवक श्रीयुतं कुमारस्वामी ने यक्षा के विषय मै वहत विवेचन
अपित॒ किसी मी कुमार द्वारा न पाले गये, पाव॑तक बन्धक आदिका किया है । यह सम्प्रदाय पछ से बौद्ध तथा जेन सम्प्रदाय कै
भीं वमार भ्रत्य[चाय क रूप में <ट्रख {जलता है । इस तन्त्र य अन्दर मिरु गया । प्राचीन बौद्ध तथा जैन अन्धौ मै सी
आचायं के बौदत्व का मी कीं निर्वैरा नही है । बौदधविदरान्‌ की यक्ष का निर्दश भिक्त है । बुद्ध कै समयमी मारतम यक्षँकी
वाणी अथवा लेखनी द्वारा अन्तःकरण से निकली बौद्ध दाया मी पूजा प्रचछ्ति थी । भारत मे इधर उधर यक्षौँ की प्राचीन मूतियां
दस मन्थ मे कहीं मी नहीं मिरूती है । इससे प्रतीत होता है कि भी मिलती ह । न केवर भारत मे-अपितु रमठ, जायुड, बाहीक
बोद्धन्थोक्त जीवक तथा इस तन्वके 1“ वृद्धनोवक मै बहुत आदि सीमाप्रन्त के प्रदेशो मं मी प्राचीन समयसे यक्षौ की.पूजा
हीमभेदहे। | का निर्दड मिरूता है । किसौ की भी अपने जीवन काल मे देवता
जेन अन्धो मेँ आये हए उत्सपिणी तथा अवसर्पिणी पद्‌ यहां की तरह पूजा नहीं की जाती । वल, वीर्य, विचा आदि द्वारा सद्धं
मिरते है तथा जैन इतिहास कै पर्यालोचन मँ जीवक नाम कै एक जाति का कद्ध समय बाद ही देवताओं कौ तरह `पूजा एवं सम्मानं
परसिद्ध पुरुष का उल्लेख मिरुता है जिते श्रुतन्धर राजकुमारः सम्भव हे । वात्स्य ने जित्त यक्ष से इस विद्ध तन्त्र-को प्राप्त किया
-जीवेन्धर तथा जीवस्वामी नाम मी है। जिसका महापुराण, जीव- था उस अनायास नामक यक्त के पिषय मे विचार करने पर एक
न्धर्वरित्र"तथां गचिन्तामणि आदि जेनमन्थो मे मी वर्णन सिरता स्थान पर उसक्रा नाम भिरूता है । आजकल पच्चरक्षा नामक्‌ -एक
हे । उस राजकुमार नै अपने पिता कमी नगरी से निकलकर अपने बौद्ध मन्थ मिरुता हैउसके चीनी भाषा मे भी बहुत से अलुषराद हु
वहुवरू से च्यु का संहार करके राजपद कौ प्राप्न किया तथ। है । जिनमें से एक अनुबाद ई. प. ३१७ से ३२२ मे मध्यणद्धिया
जनधमं स्वीकार किया। जपते द्वारा उपछ्रत एक गन्धर्वे प्राप्ठ निवासी डुचभिष्ठ पोभौमित्रने किया है ठेसा निर्देश मिकता है ।
विषहरण मन्व कै प्रभाव से इसमे स्पशैमावर ते विषापहरण राक्ति का इस भारतीय यन्थका इतने दूर तथा उस समय मेँ हुआ अनुवाद
निर्देश मिक्ता है । इस प्रकार इसका न तो वैय विधा के आचार्थत्व उसके रचनाकार को ओौर मी प्राचीन सिद्ध करता है। उस अन्ध
काओौरन फौमारमृत्यकेन्ञातादहोनेका दह्ये सिर्दैश्च मिरूताहै। म भी लगभग २०० यक्ष का निर्देश है । तथा भिन्न रदेरों के रक्षो
इस वृद्धजीवकीय तन्त मं वेदिक(१) धम से अनुप्राणित अनेक के रूप मेँ वैश्रवण ( कुवेर ) आदि यक्षाधिपौ की आराधन विधि,
` पिषय तथा ठेख भिल्ते है । इस प्रकार इस ग्रन्थ का आचार्य बौद्ध उनके आराधन से वातिक, पैन्तिक तथा दरष्मिक सगो की निवृत्ति,
तथा जनम्रन्धा म जये इए जीवक से मिनन अन्य ही कोई प्राचीन वेय, गभं के बार्कौ के रोग तथा बाल्यहौ की पूजा आदि का
ऋचीक का पुत्र वृदधजीवक है । ठेसा इस अन्थसे ज्ञात होता है। उछेख है । उसी मन्थ मै महामायूरी विचा कै प्रकरण म रमठ देर
के रक्षकयैरूपमें रवण का निर्देश है। मन्त विया द्वारा रोगति.-
वातस्य निरूपण--इस संहिता के कल्पाध्याय कै रेख से यह ज्ञात वृत्ति कैरूप मे रावण का अन्यत्र मी उच्छेख भिरूता है । मान्तिक
होता है कि वृद्धजीवकीय तन्वरूप मै मई हुदै तथा काल प्रवाह से
लुप्त इहेइस कादयपसंहिता कों अनायास नाम के यक्ष से प्राप्त करके
मक्रिया दारा बालकौ की चिकित्सा विषयक प्राचीन रावणतम्र भी
मिरुता है । पञ्चरक्षा के महामायूरी विद्याके प्रकरण मे अमुक २
जीवक के वंदीवाले, वेदवेदाङ्ग के पण्डित तथा भिवकश्यप कै भक्त देश के पूज्य यतो का निर्दैद करते इए "कौशाम्ब्यां चाष्यनायासो
वात्स्य नामक किसी विद्वान्‌ ने पुनः संस्कत करके प्रकारित किया ।
भद्िकायां च मद्विकःः इत्यादि वाक्य दारा कौराम्बी ( कौस्तम-
इस वणन से यह जिज्ञासा होती है पि यह वात्स्य कौनदहै तथा इराहाबाद के पास ) कै रक्षक रूपसे अनायास नागरक यक्ष का
किस समय हुमा है ? इसके विषय मँ निम्न उर्छेखनीय है ।
निर्देश मिता हे । कौशाम्बी बुद्ध के सभय मी प्रसिद्ध थी। इस
` वत्स गोत्र मे उत्पन्न हए अथ के अनुप्तार वातस्य यह ॒वेवक प्रकार उसच्खके द्वारा उतसत समय भमी पूज्य भरेणीमें निर्दिष्ट
कु का नामदहे। जीवक का मागव के रूपमे उर्केख होनेसे तथा अनायास यक्ष को बहुत प्राचीन होना चाहिये बुद्ध के समयमभी
वत्स के श्रगु कुर मे उत्पन्न होने का निर्दश्य होने से जीवकवंद पूज्य मानी गड यक्ष जाति के पूव समय म विद्यमान अनायास से
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(९) १ की टि° उपो० संसृत १०.२२ देखे । # उसके यक्ष संबन्धो ठेख से तुरना कीजिये । [व
९४ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
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घात्ध्य दारा इस्त त्त्र दी प्राचि का वणेन मिलने से वाश्स्य मी बुध पयालोचन करनै पर मी इस केद्रामात्र पिषय के अतिरिक्त इस
से पू प्रतीत होता है । एक प्राचीन पुस्तके महामयूगी विवा ग्रन्थ मेँ जेन एवं बौद्ध अध्यात्मिक अथवा अन्य कोद देसी प्रक्रिया
के उपसंहार मै (आयमहामायूरी विद्या विनष्टा यत्तमुखात्‌ नदीं मिरूती है।प्रव्युत जिस अध्याय मे उत्सपिणी, अवसपिणी
ग्रतिरुञ्धाः इस उव्लेव से यक्षा दाया भी विया का सम्प्रदाय दाब्दोौका निर्द॑श्है वही अगले वाव्यौ मही समुदय कारणों
(परम्परा ) मिलता है । इससे अनायास नामक यक्षते मीं इस (सृष्टि की उत्पत्ति) का उल्लेख करते हुए अभ्यक्त, महत्‌ आदि
तन्त्र की प्रापि संगत दी है । इसके अतिरिक्त आत्रेय गार्य, दौनक के क्रम से सःख्यद्शन के अनुपार ष्टि की उ्यत्तिके भिल्नैपे
आदिक समान आषंनामसेमी यह्‌ बात्स्य प्राचीन दी प्रतीत तथा इसके अगि गमावक्रान्ति अध्याय में श्रौतदश्नों कै सनुतर
होता हं। वेद-वेदाद्ध के पण्डित तथा शिप्रक्य्यप कै मक्तसूप तै देदवर के गुणो से युक्त सगत संसायं जीका निर्दलं मिश्नेसे
निर्दर भिल्ने से यह वातस्य वेदनायाः मी प्रतीतं होताहै। यह्‌ उन्नत, अवनत तथा श्रुभ, अक्चुम काल, रारीरसंहनन तथा
यहां यद एक पिचारणीय प्ररन है कि इस वृद्धजीवकर तन्व्र कै आयु के षान आद्वि का उव्टेख मी प्राचीन श्रौत एवं स्माते सम्प्र
सरारौरिक स्थानम कारका निरूपण करते हुए आद्धिधुग, देवयुग दायी के अनुसार दही प्रतीत होतादहै। तथापि उत्सपिणी तथा
तथा करनथुण हास तीन मे पिमक्तकिया हुमा उच्चपावस्था रूप शुभ अवसप्रिणी चन्र के उपनय श्रोत-स्मातं अरन्थौम कह्यंमीन
कारु को उत्सप्िणी रन्द्र से, तरेता, द्वापर तथाकटि दाय तीनमें मिलने तथा जेन्रन्धौँ मै इनके ब्रहुव्य से मिलने से, तथा नाम
पिमक्त विये हुए अवनत्यवस्थारूप अद्युभ काल को अवरसरप्रिणी दाब्दं ओौर संल्याका विभेद होने पर मी संहनन आदिके सी उन्ही
से" उत्तरोत्तर क्षीण होते हुए शारीर समूर्हो को नारावण आदि जेन ग्रन्थः मे भिल्नेसे दस संहिताके इसञंद्य मे जेन सम्प्रदाय
र्द सेतथाआयुके मानकौ पलितोपम चाच्छ द्वारा व्यवह कै विप्रय कौ शल्क भिल्ती हीह! यहां आप्रा इभा आयुका
किया गया दै । इस ग्रन्थकेद्स अद मँ मिर्दिष्ट युममेद्‌ सेन मानमत्र पडितोपम राजद सीजन म्रन्थ के परस्स्योपम शब्द का
कभी सुना गया, नक्मीदैखा गया तथा अदु रारीरपिन्यास अपश्रद्‌ प्रतीत दता ह । संण्ट पीरसंवगं व्रहत्कोद तथा जेकोबी के
कौ पिचित्र गमाँवस्था, मरिकासवाद तथा अवनतियाद्‌ मे ते किस दनसादक्टोपीटियिा आफ रिलीजने षण्ड इथिक्स-माण१९ कै
सिद्धान्त के आधार पर है यह यिचारणीय है। इस पृष्ठरण्रमेंमीये श्चन्द्र जैनसम्प्रदाय केही वतखाये है। सभि-
प्रक्रिया से पूर्णरूप से न भिटने प्र भी चरक विमान धान राजेन्द्र नामक जेन ब्रहत्कोद्यमे भी इन शब्दौ काथं उसी
स्थान ततीयाघ्याय मेँ कृतयुग का आद्धि आहसूप अवान्तर सम्य के अनुप्नार क्रियाहै। श्रीमती स्टीवेन्सनने मी ष्दी
विमागकरके रायस्संहनन तथा आयु के मान आद्वि्यो कमी यथे दारं आफ जेनिज्मः नामक पुस्तक के पृ. २७२-७६ पर सैन सम्प्र
तर अवनति का निर्देश मिता है । उसकी व्याद्या(र) मे चक्रपाणि दाय कै त्रिपर्यों फो लेफर उत्सपिणी तथा भव्रस्तपिणी दब्दोका
ते यथापूव उत्वपषैवराद्‌ तथा यथोत्तर अपकपैव्राद सलक व्यास के कखस्य अ्थैथिया रै। ६ (श्य नामक मिद्ठान्‌ ने मी बौद्ध
वन्वन कौ उद्धृत किया है। दस प्रकार उत्क तथा अप्रकपं कै तार- सम्प्रदाय केकेवमे दस पिषयका निरूपण कियादहै। इस प्रकार
तम्य का निर्देश श्रति तथा स्मृति के अमुयायी सम्प्रदायो मे मी अशू जन सम्प्रदाय दे विपरया की केदमाव श्राया भी इसे जन सम्प्रदाय
मै भिर्ता हे। भ्रीजाकीोवरी(ड) नेमी द्नसादक्टोपीटिया आफ कै उद्गमके वादका सिद्धकरती है। विन्तु जेन सश््रदायमें
रिखीजन एण्ड इथिक््सछ भागय के पृष्ठ २०२ पर्‌ हस प्र्चियाकौ महागीर तथा बुद्ध सम्प्रदाय मे गौतमदध यै विशेष प्रसिद्ध होने से
पुराणसंमत बताया है । आचाय प्रतीत होने पर मी उन्दी के अन्धो मेँ महावीर से पववत
वनाथ द्धि २३ तीर का भौर गौतमबुद्ध के पूकैवतीं कनक-
महापुराण, कम॑प्रकृति तथा जीवसमासवृत्ति आद्रि जेनम्रन्धौ
मुनि आदि का उच्छेख होने से तथा अश्ञोक द्वारा गौतम बुद्ध के पूव
म उत्सपिणी-अव्रसरपिणी काटमिभाग, वज्र आदि शासैरसंहनन कै
के स्तूप कै जोर्णोद्ार(र)तस्म्बन्धी क्रिलटेख तथा स्तूप
भेद तथा पद्योपम आदि भावुके मानो केमिल्ने प्रर भी उसमें वन्ती कलकसुनि
कालम भी हन सम्प्रदायो काङसीरूपमेया
वेज, ऋषभ, नाराच आदि £ प्रकार के दारीर संहनन तथा भाष कीप्रात्तिसे प्राचीन
के साथ होना प्रकय्होता है । इस प्रकार जन सम्प्रदाय
के मान का प्योपम तथा सागरोपम यन्य द्वारा निदे भिकने से धोड़े अन्तर
तथा वौडधसम््रदाय का गौतमषुद्ध हास प्रारम्भ
तथा इस वृद्धजीवकीय तन्त्र म नारायण, अ्धनारायणः, कौशिक ` का महीर दवाय
पिये जाने विषयक तिदस आज मी अधूरा हे। प्राचीन कार्म
तथा प्र्ञपिपि्ितरूप चार प्रकार के श्चारीर संहनन तथा आघ कै
मान कामी पङितोपम शण्ड्‌ द्वारा निर््रश दोनेसे तरिपय की थोडी मी वेद्विरुदढ सता्याधिर्यो का स दीग्धनि(दोकाय अन्धके
बहुत छाया वे भिर्ने पर सौ पृण्रूप से समानता नहीं है । ङ्ख से स्ट है । उपनिप््य मे भी तद्विषयक आक्षे के मिलने से
उनका सच प्रकट होता है । अस्िनास्तिदिषटं मततिः (४.४.६०)
बाह्य (वेदो से बाह्य -वेदपिरुद्ध ) सम्प्रदायो के समान श्रौत
| इसत स द्वारा पाणिभि ने मौ दोनौः (वेदरमनानुपायी तथा वेदविर्‌-
सम्प्रदायके मी बहुतसे प्राचीन मन्थ प्रिपहो गये है। पूं दमतानुयायी ) सम्प्रदायो का होना खचित किया है । जेन अर्थो के
सम्प्रदायो के प्रसिद्ध शब्दो को पीछे के सम्प्रदायो दवाय द्यि होने अनुसार पादवैनाथ मादि पूर्वंआचार्यो मँ परस्पर बहुत व्यवधान के
पर मी पूर्व॑सम्प्रदायके अरन्थोकेन भिल्नेसे बादर जहांये -
हयेन से पद्योपम, सागरोपम आदि शब्द वाचक संख्या कौमहत्ता
शब्द भिरते है उन्दी फ प्रतीत दने र्गते हँ म्रन्धके पूर्वापर तथाआर्हत
से तथा
से की पूव
सम्प्रदाय कौ
जाहंतसदाय के अत्यन्त
परम्परा गो
पूवं प्रम्पया दीघं होने से
अत्यन्त रषद
(९) १से त्क कीटि० उपो संत १०.२३ देख । ` | (१) १ से रे तक की टि० उपौ० सस्रत १० २५ देखं।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादे २५
1 (3 ८. [>
„0 अ 2-2७-9 9-99-6 ©>-@ ©< © © 0
उत्सर्पिणी आदि राब्द आहत ( जेनकताम्प्रदायिक ) होति हुए सी हाताआरहाहेषेपाश्री चिन्तामणि(१) वेव नै अपनी पुस्तक भं
संभवतः महावीर से पूवं समय सेदहौी प्रसिद्ध है अथवा उपरन्ध लिखा है। |
श्रौतस्मातं मन्थो म न मिलने पर भी संभवतः प्राचीन विद्धप्त मन्धो निग्रैन्थ शब्द का अनुसन्धान करते इए हम देखते है कि
म इनका ग्यवहार भया हुआ हौ । इस अवस्था म महावीर से पूरव दिग्व(र)निकाय मँ उस्र समय प्रचलित अन्य सम्प्रदायो कीश्रेमी मँ
इन रा्ब्दोंका इस अन्ध अनुप्रवेर होने से इसमे अर्वाचीन प्रस्थानान्तरीय तथा प्रतिपक्षरूप से निदिष्ट किसी व्यक्ति का निग्गन्थ-
विषयों की शङ्का नहीं हौनी चाहिये । नाथपुत्त ( नियन्थनाथ पुत्र ) रोष्द से उच्केख किया गया है कुर्‌
रेवती कृल्पाध्याय में मातङ्गी विद्या के प्राकृत शत्रर शब्द से विद्वानों का कथन है कि निन्य शब्द जैन भिष्ठुओं फे चयि प्रसिद्ध
बने केयूर सन्दर युक्त मन्त्रका निर्देश है। मातङ्गी का उल्छेख हीने से तथा उस समय महावीर के संभावित प्रतिपक्षी कै रूपमे
दक्षिणाम्नाय ८ दाक्षिणात्य वेदिक सम्प्रदाय की तरह बौद्धसम्प्रदायो मिलने से निग्रन्थनाथ पुत्र शब्द से महावीर का निर्द॑श्च किया गया
म भी भिर्ता हे । इतने मत्से ही इसे बौदधविचा नदीं कदा जा है । किन्तु महाबीर के नि््र॑न्यनाथ पुत्र होने सेउसका पिता या
सकता । यदीं रेवती कलध्याय मेही इस विचा के उपक्रमस्रूप आचार्यं नि्र॑न्थनाथ हुआ । इसमे नाथ पद कै हयेन से उसके पिता
वेदिक यज्ञ का निर्दैश करके “मातङ्गी नाम विद्या बह्यर्षिराजर्षि- कै समय भी नि्ंन्थो कौ प्रसिद्धि तथा बहुरुता होनी चाहिये! इस
सिद्धचारणपूजिताऽर्चिता ` मतङ्केन महर्षिणा कश्यपपुत्रेण प्रकार प्रतीत होता है कि निन्य सम्प्रदाय यहाकीरसे ही प्रारम्भ
कनीयसा महता तपसोभेण पितामहादेवाक्ादिता? द्वारा स्पष्ट नहीं हज है अपितु उसे पूवं मी प्रचङ्ति था। श्री विन्टरनीज(३)
रूप से इसकी उत्यत्ति श्रोतसम्प्रदार्यो से वतरा कर वैदिक पद्धतिसे ही नामक विद्वान्‌ नेमी निर्यन्थ सम्प्रदाय को महावीर से पूवे का
इसके विधान को पूरा कियाहै। इस प्रकार सम्भव है किं मताङ्गी बताया है । जेन यन्थो मँ महावीर से पू आदिनाथ पादवेनाथ
विवा पीछे से बौदधग्न्थो मँ मी कदी मिती हो । परन्तु यह्‌ विचा आदिका मभ्य आचार्थरूप में उच्टेख प्रिल्ने सेतथा आजतक भी
प्राचीन वैदिक सम्प्रदायर्मे सी निपान थी | श्सल्यि इस मन्थमें पूवं तीर्थङ्कररूप मेँ जेन सम्प्रदाय मेँ उनका सम्मान होने से प्रतीत
आया हभ मताङ्गी चब्द बोद्ध विध! की दाङ्का उत्पन्न नहीं करतां । होता है कि इस जेन सम्प्रदाय का महावीर इरया विशेष विकास
षटाइन नामक विद्वान्‌ द्वारा तूडहाङ्‌ प्रदेश ( चीन की उन्तर `पश्चिमी किया जाने से पीछे सै उसकी प्रधान आचाय रूप मे प्रसिद्धि होने
सीमा पर ) से उपबन्ध प्राचौन मन्थ मे भगवान्‌ बुद्ध के जीवकः के प्र भी निग्र॑न्थ सम्प्रदाय ही जेन सम्प्रदाय होता हआ पूर्वै.तीथकर
प्रति दिये गये उपदेशश्च मे वावर मनुस्किष्ट गत `नावनीतक कै परम्परा द्वारा ह्य प्रारम्भ हमा प्रतीत दयता है। जेनौ दाय अपने
साथ वके यन्थ मे तथा पञ्चरक्षा आदि बौद्ध अन्थमे मी प्राकृत सम्प्रदाय के सिश्च॒ओं के अथ॑ मेँ प्रयुक्त किया जने पर मी नि््र॑न्थ
भाषा कै चाब्दं से युक्त मन्त्र व्यवहार कै दिखाई देने से ८४ सिदध दाब्दं भिवृन्तह्दय अन्थिरूप निरुक्ति के अनुसार धिवेक एवं ज्ञानः
नाथ आदि के समयसे पूवं समय मेंमी प्राकृत राब्दो से युक्त की श्ेणी म आरूढ) का बौध कराने, वके तथा हृदय की (“)-्-
मन्त्रौ का व्यवहार विद्यमान था । इसख्यि मन्व मे प्रक्रत शब्दों न्थियो कै खुरुजाने रूष आध्यात्िक अथं मे आस्तिक (वैदिक.)
कै प्रवेश मात्र से कुड्‌ नहीं का जा सकता । | । सम्प्रदाय के अर्थो मे भो अस्यन्तं प्राचीन कार से प्रयुक्त इभा
इसके अतिरिक्त रेवती कदखाध्याय मँ जातहारिणिर्यो ८ उत्पन्न दीखता है ।
हए कौ नष्ट करनेवाली ) का निदश करते हर सिष्चुणिर्यो के छियि पूर्वं समय से प्रसिद्ध.श्न. शब्दो को देखकर ही बौद्ध तथा जैना
श्रमणिका तथा नि्ःथी शब्द का उच्छेख किया है। यथपि श्रमण ने श्रमण तथा नि्ैन्थ रान्य कां -पीषेसे अपने २ सम्म्रदाय के
दाब्द बौद्ध एवं पीछे के अन्य विद्वानों द्वा बौद भिष्ठको के स्यि िष्चजं के व्यि प्रयोग किया प्रतीत होता है। माषा विज्ञान की
ही प्रयुक्त किया गया है तथा महाभाष्यकार द्य ध्येषां च विरोधः दृष्टि से काल प्रवाहसे धटिका खब्दकी तरह प्राचीन शब्दां का
दाश्चतिकः१ (२. ४.९) इस खत मेँ शाश्वतिक . विरोष स्वरूप भी रूपान्तर या अर्थान्तर मँ प्रायः प्रयोग होता देखा गयाः है।
“श्रमणब्राह्यणमु? यह उदाहरण दिया होने से बौद्धो तथा ब्राह्मणं उदाहरणा बोधायन, आश्चकायन)-वराह, आपस्तम्ब आदि प्राचीनं
के परस्पर संघषे को केकर श्रमण शब्द्‌ बौद्धभिष्ु परक दी प्रतीत | एवं प्रमुख खत्रकारँ हारा श्रौत एवं स्माते यज्ञभूमि के मधे में प्राचीन
हौता है तथापि उससे पूरव पाणिनि द्वारा सी "कुमारः श्रमणादिभिः ग्रन्थो मेँ स्थान २ पर प्रयुक्त किया जाता. हृ (&) दब्द्‌
विहार
खत मेँ श्रमण शब्द का उच्छेख होने से बौद्ध तथा जेन सम्प्रदायो बौद्धो द्वारा बौडधभिष्चुकसंव के निवास स्थान कै कूप मे, तथा
कै उदय के पश्चात्‌ ही यह शब्द आया है--रेसा नहीं कहा जा दमदान मेँ स्थित चिन्त के अभीष्ट देवता, पीपर, मन्दिरः क्षेत्रज्ञ
सकता । श्रमण इन्द चारीरिक कटे आदि हरा उत्पन्न इ आदि अर्थौ मे प्रयुक्त होने वाला चैत्य(७) राब्द पीछे से स्तूपं के
( थकावट ) के अनुत्तर वेखानस(९) खर में तृतीय आश्रमवाङे रियि प्रयुक्त होने र्गा है । श्राचीन कारु में तप ज्ञान तथा अवस्थां
८वानप्रस्थी ) के अर्थं मै, ब्रहदारण्यक(र) मँ त्यागी भिष्षुन्के रूप में मेँ ब्रद्ध व्यक्ति के.ख्यि प्रयुक्त किया जाने वाला स्थविर(८) खन्द मी
तथा तेतन्तिरीयारण्यक(३) ओौर समायण८«) -आदि). अनेक प्राचीन बौद्धो दारा श्रेष्ठ तथा विशेष विद्वान्‌ के अथं में प्रयुक्त होने र्गा।
ग्रन्थो मँ भिष्चु एवं तपस्वियो के लिये प्राचीन कारक सेैही प्रयुक्त इस प्रकार अर्वाचीनता के प्रेमी इन विहार आदि खब्दो को मी
होता-हज भिरुता है । भ्रमण शब्द प्राचीन काठ से ही व्यवहृत बौडढ. साम्प्रदायिके कह सकते हैँ-परम्तु केवर इतने मात्र से प्राचीनं `
[क जाक "न

(४ से५तक क्री टि उपोण संत ४०.२५. देख। , (९) शसते < तक्‌ की दि" उपौ० ससरत ए .२५-२६ दैखं।
8 उण हण
२६ उपोद्धात का हिन्दी अनुत्राद्‌
कक अ € 9 © 6

व्यवहा? कौ चिना देते हन्द अर्गाचीन कहना उचित नदी है। प्रत्यय युक्त दीषंजिष्ठौ का उव्छेख, भोजन कलद्पाध्याय मँ कारौ,
इसी प्रकार यहाँ अये हुए श्रमण, निन्य आदि शब्द भी प्राचीन पुण्ड, अङ्गः (पूरवीबिहार ) ब्ग ( वङ्गारु ) काचः, सागर, अनुप,
तपस्वि्यो के ही सलक है। कोरक ८ अवध ) तथा किङ्ग ( उड़ीसा ) दे का तथा देशसात्म्या-
यदहं आये हए लिद्धिनी, परिवलिकरा, श्रमण का निग्रन्धी, ध्याय मँ कुमारथते, निकटिवरषे, षमद्रीप, पोण्टूवर्धन, सत्ति,
कण्डनी, चीरवछल्धारिणी, चरिकी, मात्रमण्डलिकौ तथा अवै- वर्धमान आदि बहुत से प्राचीन देश का कीतन करके इनसे अधिक
क्षणिका आदि मधुकरी वृत्ति द्वारा धर २ जाकर अपने सम्पकंसे प्रसिद्ध पाण्ड्य ( उत्तसौ मद्रास ) का मिर्देदा न करना, बाह्ीकभिषग्‌
जातहारिणी का प्रचार करती हुई नाना भिष्चणियो के श्रेणी में का उस्छेख होने पर मी यवनतथारेमके सिषजों का उव्छेखन
निर्दिष्ट मेदो मेँ से परिवाजिका, श्रमणका तथा नियन्थी को च्रोड्कर होना, राजतैल की प्र्यस्ति मे दष्क, सबहु, सगर, नहुष, दिरीप,
अन्य कोद भी मेद प्राचीन दूसरे मन्थः या सम्भ्रदायौ म आजक्रल सरत तथा गय पर्यन्त प्राचीन राजार्ओं काही उच्छेख करना, रस
नदीं मिलता है । अर्वाचीन गन्धम आये हुए हंसत, परमहंस, धातु तथा रलौ के ओषधिरूप मे व्यवहार का कहीं न भिलना,
कुटीचकः, बहूदक आदि भेदो को न दैकर केवर इन कालग्रबाह से समुद्य कारण ( सृष्टि उत्पत्ति ) के उदे में प्राचीन सांख्य द्र॑न
षिद्ध सम्प्रदायौ का ही द्विया जाना इन उपयुक्त मेदौ कौ प्राचीन के अनुसार हयी अष्टप्रकृति तथा षोडश विकास का निर्देश होना,
हयी सिद्ध करता है । परन्तु बौद्ध तथा जै्नो के अध्यात्मवाद कान मिलना तथा ष्दीप्ता
वहीं रेवती कल्धाध्याय के जातहारिणी के प्रकरण मे सिहल स्रयो घस्मराः स्नेहनित्याः, तथा ^्ीरं साप्म्यं रीरमाह्ुः पवित्रम्‌
( लङ्का ) तथा उड़ ( उडीसा) आदिदेद्र तथा दत मागध आदि इत्यादि वैद्विक दन्द एवं पथो का दैन आदि बहुत से प्राचीनता
जातिर्यो का उस्टेख भिता हे । वहां खक्घ, खक, यवन, पर्दुव को सिद्ध करने वले प्रमार्णो के भिरने से यह बृद्धजीवकषीय तन्त्र
तषार कम्बोज भद्रिका इच्लेखभौ है, यवन की तरह खश्च अत्यन्त प्राचीन प्रतीत हेता है । हेमाद्रि आदिमे पुराणौ के अनु*
आद्रि राब्दर भी मनुस्ृति द्वि मन्धो म भिरते ₹, रेतिहासिक सार आसोग्य्नाखा के निर्माण का विधान होने पर मी आजकरु कै
विद्वान्‌ मी इन जातियों को प्राचीन मानते हं । ( एणकन्‌०- विद्रान्‌ उसके निश्चय कै छ्यि उसके अनुरूप शिलरेख तथा
१6479 871५07०2 ) नामक्र पुस्तक में हू का चतुथं दताग्दरी देान्तसीय ओर मतान्तरीय र्खो की अपेक्षा रखते ह-श्सके
(दे. प. ३७२ र्मे यूरोप प्रवेश का उर्लेल भिल्ने पर भी अनुसार प्रामाणिक एवं देतिहासिक इष्टि से आलोचना” करते इए
हम देखते दैकि २२०० वर्षं पूर्वंअदोक दारा सर्वसाधारण के लियि
२५०० वषं प्राचीन अवेस्ता म्रन्थमे हूनु ( हूण ) जाति का प्रतिपश्ची
जाततिकेरूपमे वणैन मिकरने से तथा जरथुष्ट्र से भी पूवत केरसप विभित्सालय के उद्धान के मिलने तरथा कौरिीय अथद्याख् में
( ४50) ) नामक इन देदके राजा द्वारा उस्र जति की मी हु वनाति हुए उसमे भेपज्य गृह के बनने का उठेल भिलने
विजय का उव्टेख भ्िस्नै से हूर्णो का समय (३. पू ७००) है ठेस पर भी, चरक आदि मेँ रसरायनशाला का निदश्च होने प्र भी
मोद(१) महोदय ने प्रतिपादित कियादहै। महाभास्त(रोमे मी स्ंसाधारण के स्यि आरोग्यशाला का निर्दशन दोना तथा उसी
हण, पर्व; यवन, रक, पुण्र, किरात, द्रविड, खश्च आटिर्यो का के अनुकूप श्त संहिता के कद्पाध्याय मँ मी रस्ायनद्वाया तथा
उल्लेख मिरता है । “गगादिभ्यो यज्‌' ( ४-१-१०५ ) इस यत्रोक्त उप प्रकार के चिकित्सालय आद्धिकेनिमांणका न भिरना, अपितु
गण मँ दाक, दन्द्रुवस्णेतिः (४-२-४९) सत्र मे यवन तथा "कम्बो- इससे विपसीत रोगी के घर जाकर ज्य द्वारा पधि का विधान
जाटुक्‌ः ( ४-१-१७५ ) इस सतोक्त वातिक के कम्बोजादवि गणम बतलाना, इत्यादि द्वारा मी श मरन्थकानिम।ण प्राचीन ही सिदध
छक, यवन आदि का उल्लेख मिलता है । इस प्रकार इन द्य का होता है। क्यप के साथ वृद्धजीवक का उप्तर प्रद्युन्तर रूप मं
पतकाल मेँ मी प्रसिद्ध होना ष्ट है । निर्दिष्ट संघादमीस्से प्राचीन ही सिद्ध कर्ता है। काद्यपीष
दरस ग्रन्थ के प्रयेक अध्याय में जद्युकाध्यायं व्याख्यास्यामः मासंहिता को बृद्धजीवक द्ाण संकषिप्र करके इस तन्त्र के निमांण
दरार प्रारम्भ करके इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः दारा समाधि, का उहख मिलने से कारयपीय मदासंहिता का समय तो इसत
शिष्योपक्रमणीय अध्याय मं दन्द तथा अथे त्रैदिकं पिधान दारा मी प्राचीन प्रतीत दोताहे।
शिर्ष्यो का उपनयन ओर नभि, सोम, प्रजापति आद्रि पदिक | फिन्तु जिस प्रकार श्रमण हन्द बाह्मण जादि ग्रन्थो मँ मिरता
देवताओं का स्वाहाकार, जाति उतीयाध्याय मेँ वरैद्रिक वाक्य रचना, हे उसी प्रकार यन्थि शब्द्‌ के उपनिषद्‌ आदि मे मिलने पर भी
हीनदन्तोद्धद मँ मारुती इष्टि तथा स्थालीपाक होम के विधान, मि्यन्थ शाब्द का तपस्वी के अथंमें प्रयोगका भागवत पुराण को
पुत्रौत्पत्ति के नाना विधार्नो मे अन्य सवको च्योडकर इष्टि (पत्रेष्टि ) | दधोदकर अन्य वैदिक र्था तथा महाभारत आदि प्राचीन मन्थां
का विधान, स्वप्नदोषको दूर करने के ल्थि सातरित्री होम का मे कीं मी स्पष्ट रूप से उक्तेख नदीं है । अवाचीन नागान आदि
विधान, रिश्च रक्षा के छथि प्रयुक्त दोने वारे धूपर्मे “अभ्निस्तुः ले उपाय हृदय तथा छित भिस्तर नामकं ग्रन्थो मे जैना के अथेमे
आदि वेदिक वाक्य का प्रयोग, सती कलस्पाध्याय मेँ बाद्मणग्रन्थो ही यह नि््रन्थ शब्द प्रयुक्त फिया है । वाचसपति८१) भादि भास्तिक
के अनुतार ेतिहासिक वाक्य तथा वहीं व्च, रुद्र, आदित्य आदि दाह्नि्को ने मी वेदविरुदध दाशेनिको की श्रेणी मेही इन शब्दो का
देवताओं का कीतैन तथा दीघेजिद्धी च छन्द्सि (४-१-५९ ) निर्देश किया है। भिग्र॑न्थ सम्प्रदाय दी जैन संम्प्रदाय हेएेसी आशुनिक
पाणिनि के इस घ के अनुसार वैदिक प्रयोग मँ जये हए ङीप्‌ ` विष्टानोकी भी धारणा है। इस संहिता म अये हुए जैन सम्प्रदाय के
` (८१)
` (६) १२ तक कीोदि° उपो°
परत्न संत ¶० सद्दे,
जनोगसकत २६ देख । | (१) दि० उपौ० संस्कृत १० २७ देख ।
ॐपोदात का हिन्दी अनुवादं
[षु "का क, क व. क का ¬ क ज.क भा. [८ ~ [५:नि
२ [4 अ2 ।
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-उत्स्धिणी तथा अरसर्पिणी आदि असाधारण शब्द भी इसी बात को रूप मँ भिरखने से रेवती कल्पाध्याय का यह विकसित ठेख क्यप
प्रकट करते है । इस प्रकार महावीर से प्राचीन तीय के समय तथा जीवक के पश्चात्‌ वात्स्य के समय प्रतिसस्रण में प्रपिष्ट किया
यदि इन राव्य की प्रसिद्धि नदींथी तो इस सम्प्रदाय के प्रधान हुआ प्रतीत होता है । बिना विभाग कै द्वारा प्रतिसंस्ार करने प्र
आचार्यं वै रूप मे मरकट होने वारे महावीर के समय इन रब्द्रौकी प्रायः ठेसौ ह्य संश्चयोत्पादक गड़वङ़्उ त्पन्न हौ जाती है जिनका
रोक मँ प्रसिद्धि दोन से उस समय (महाव्रीर के समय ) इन दूसरे आगे वणन किया जायेगा । सहिता कल्पाध्याय कौ पूणै करने की
सम्प्रदाय कै शब्दौ का इस यन्थ मे अनुप्रवेश हुआ प्रतीत होता है) दुष्ट से वातस्य दारा जौडे हए खिलभाग के देश्चसात्म्याध्याय मे तथा
अर्वाचीन विदानो की यह भी धारणादहै कि इस यन्थमें राक, दण, खिलभाग से पृैवर्तीं मोजन कट्पाध्याय में मी सात्म्य के प्रसङ्ग मं
पल्ढव, खद, यवन तथा कम्बोज आदि जब्दौ के अनि से भी यह बहुत से प्राचीन देरो का उछेख है । मोजन कस्पाध्याय मेँ कुरुकत
ग्रन्थ बुद्ध के बाद का मालूर पड़ता है । इस प्रकार महावीर के बाद दही को केन्द्र मानकप् चारं दिशाओं कै बहुतसे देर का उदे करते
इस यन्थ का निर्माण हमा है-टेसी संका उत्पन्न होती है । किन्तु हए सिन्धु, सौवीर आदि पाश्चाव्य ( फष्ञलश ) कादमीर, चीन
अनिश्ित समय वारे कु दाब्दं के अनुप्रवेश के दशन मात्र से आदि उदीच्य ८ प्रिण्ण्ल ), कासी, पुण्ड्र, अङ्क, वङ्ग आर्दि
ही ग्रन्थ का कारु निर्धारित नहीं किया जा सकता । इसके अत्तिरिक्त पौरस्त्य ८ एच ) तथा दक्षिण (8०४० ) में कलिङ्ग, पडन,
पीडे से जिन अन्धो का प्रतिसंस्करण होने का स्पष्ट निदं हो उनमें नामदेय आदि देर्शोका हयी उछेख कियागयादहै। रामायण का
कुद सन्दिग्ध शब्द के आधार पर ही ग्रन्थ के कारु का निणेय म जिसप्रकार दक्षिणात्य ( 8०0 ) नगो का विद्धेष परिचय
करना तो ओर मी दुःसादस है । विद्वानों के किसी समय तकं द्वारा नहीं था उसी प्रकार यहां मी कलिङ्ग, पदन आदि नमंदा . पय॑न्त
निशित किये हुए यी बहुत से पिषय पीछे समय प्रवाह से अन्य देरोकादहीनिर्देदा है! खिरुभाग के देरसात्म्याध्याय के खण्डित
वरुवान्‌ तकौ के उपस्थित होने पर रारीरिक (वेदान्त) खत्र के रूप मेँ सिलने से पूवं तथा दक्षिण देश्यौ का निर्दड करते हुए प्राचीन
"तकाप्रतिष्टानाव्‌ः के अनुसार परिवतित होते देखे गये हैं देयो का उछेख होने पर मी चिरपारी, चीर चौर, पुलिन्द, द्रविड
यदि प्राचीनता को प्रकट करनेवारे पूर्वोक्त लक्षणो को कु आदि दूर्वतीं दाक्षिणात्य देक तथा कुमारवते, निकयिवषं, आदि
सप्रय के ख्यि च्रोडकर अर्वाचीन विद्वानों कौ धारणा का पूव॑वतीं देद्य का विकसतितरूप मेँ उछेख भिकूता है । अशोक कै
अवलम्बन कर तो सी कारप्रबाह से षिटुप्त इस तन्त्रं के वातस्य रिरखरेख तथा अन्य प्राचीन साहितव्यमे अये ह्ये देश मी
द्वारा यक्षसे प्राप्त करके पीछे से संस्करण करने का संहिता यद्यपि प्राचीन दी दहैेसा हम अगे ख्ठिगे तथापि दोनो में देलौ
क्या होने से न के वर्णेन कौ तुरना करते हए वृद्धजीवक के पूवेभाग तथा वबात्स्य कै
कृद्पाध्याय मँ स्वयं अपने मुख से उख
केवरु रेवती कदपाध्याय मे आये हुए निमन्थ आदि शब्ड्‌, अपितु खिल्मागमें समयकी दृष्टिसे स्पष्टह्प से बहुत अन्तर प्रतीत
पूवैमाग मँ अयि हृए उत्सपिणी आदि अवाचीनता कौ शंका उत्पन्न होता है। खिरूमाग के देश सात्म्याध्याय में मगधासु महाराष्ट्रम्‌?
करनेवले राब्ड तथा विषय मी वृद्धजीवकीय तन्व के निमांण के सा उछेख भिल्ता है । वेद मेँ तथा जरासन्ध के समय मगधका
बादर संस्करण के समय वात्स्य कौ लेखनी द्वारा प्रयिष्ट किये गये निर्देश होने से तथा पुरातत्व के विद्वानों दारा आजकल राजगृह में
प्रतीत ह्यते हैँ । चरक संहिता तथा सश्चत संहिता के पूवेभाग मेँ उस स्थान की प्राप्नि से यचपि मगध राञ्यको प्राचीन कदा
परतन्नीय बालग्रह विषय कै न मिलने पर मी स॒श्चुत के उत्तर जा सकता है, तथापि अन्धके पूवेमागमे नामद्वारा भी अनिरदिषठ
तन्त्र मेँ शारक्य, कौमारभरत्य आदि प्रस्थानान्तरीय विषयौका मी मगध का उन्तरभाग म महाराष्ट्र केरूपमेंउछेख होने से पाण्ड्यं
संयह होने से २७ से ३८ तक के अध्यायो मेँ कोमारभृत्य के प्रसङ्ग देर तथा पा्लिपुच्रके सिर्देश्यनदहोने से तथा बौद्ध अन्धौ मेँ
मे मूर मे आचाय के नाम का उछेखन होने पर मी टीकाकारोने अनायास नामक यक्ष से अपने पूवज कै मन्ध की उपरुन्ि का
जो पार्व॑तक, जीवक, बन्धक आदि का निर्देश किया है उससे प्रतीत उछख होने से बुद्ध तथा महावीर के पश्चात्‌ नन्द एवं चन्द्रुप्त के
समय मगधकौ महाराष्ट्र कै क्पमें प्रतिष्ठा के समय वात्स्य
होता है कि कस्यप जीवक आदि के कोमारशरत्य तन्त्री से ही
संवतः यह विषय लिया गया है । सुश्चुत के बालतन्व प्रकरण मं की उत्पम्ति प्रतीत होती है। इससे उस संस्कार मेँ अयेहुए
( उ. तं. अ. २७ ) जिन स्कन्द, रेवती, रीतपूतना, शकुनी, युख- ८ अनुप्रविष्ट ) इनं रब्डा से सन्देह उत्पन्न हज ग्रतीत
मण्डिका, नैगमेष आदि खी तथा पुरूषरूप बालग्रहं का वणन हैः होता है। |
उनसे भिरते जुरते दी यह का वणेन इस संहिता के चिकित्सितः नावनीतक के केखक उण आदि के लेखर्मे कौमारण्रत्य कै
स्थानीय बाङयदहाध्याय मेँ मिर्ता है । रेवतीकल्पाध्याय में रेवती आचार्यं जीवक का नाम मिलने से तथाम हावग्ग आदि बौद्ध मरन्थोर्मे
कै मेदरूप से जिन जातहारिणिर्यो का विश्षेष वणेन है वे सुश्चुत के कौमारशरृत्य पिशोषण वे प्रसिद्ध बृद्धजीवक का वृत्तान्त भिक्ने से
उन्तरतन्त्र मँ नहीं भिकरते हैँ । यदि इन दौनौ अध्यायो के विषय दोन मेँ चिकित्सापाण्डिस्य, नाम कौ समानता तथा कोमारभरत्य
साथ २ ख्खि गये द्योते तो जातदहारिणी का विषय न्यूनाधिक रूप से शाब्द का समानरूप से उच्छेख होने से बोद्ध अन्थोक्त जौक्कही'
सुश्च॑त के उन्तरतन्त्र मेँ मी अवद्य होना चादहिये-था । रेवती यह स्कन्द कौमारभृत्य का आचार्यं जीवक है-एेसा कुद विद्वान का मत है ।
आदियो का प्रथम चिकित्सितस्थानीय बाल्यदाध्याय मेँनिरूपण करने जव तक इस बृद्धजोवकीय तन्व की `उपरभ्वि नहीं इडं थी तव
कै बाद पुनः रेवती कल्पाध्पराय मे रेवती के विकासं स्वरूप बहुत सी तक कौमारशरत्य के आचार्यं ब्रद्धजीवक का परिचय देने वाले प्रमार्णे
जातहारिणियो का पूर्वापर मन्थ ङेख की अपेक्षा अत्यन्त विकसित | का अमाव दने से तथा गौड मन्धो मे जीवक को अत्यन्त असिद्धि
२६ उपोद्धात का हिन्वी अदतुवादे
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होने से दग्धाश्व्थन्याय% से दोनो को एक ही समञ्चना संगत प्रतीत रूप मं प्रकादित किया है, उसरीप्रकार क्यप द्वारा उपदिष्ट मूलभूत,
होता था । इस प्रकार इष तन्व्र के आचायं तथा वौद्धयन्धोक्त जीवक महाप्तंदिता कौ वृद्धजीवक ने संक्षिप्र करफेतन््रका रूप द्विया,
की एकाल्म्यता होने से इस तन्व कै आचायं वृद्धजीवक को वु उसीको सम्रयप्रवाह से बरात्स्य ने प्रतिसस्टेत करफे वत॑मानरूप मँ
काटीन मानने से पूवौक्तं उत्सपिणी आद्रि खन्द कौ देखकर मी हमारे सम्मुख उपस्थित फिया है । इर प्रकार आजकल मूलसंदिता
सन्देह उत्पन्न नही दहोताथा। परन्तु अवङ्स तन्व्र कौ उपरन्धि तथा उनके रूपान्तरभूत तन्त्री के पृथक्‌ २ उपरुब्ध न होने सै
हारा बृद्धलीवक्र का बृहुत-सा परिचय भिर जाने से उनके विषय से वतमान रूप मे मिठने वारी चरकसंहिता ही अग्निवेशतन्ब या
पिताकाभेद, देशभेद) गुरुभेद; विद्टैषण तथा यिह्ेपण रहित आत्रेयसंदिता होने से, वतमान भतिसंसकृत स्रुत संहिता ही मूल-
नामो का मेदः धमेभेद् आदि बहुत सी बातें भिकरुती है) चौद्ध संश्रतसंहिता या धन्वन्तरि संहिता दोने से तथा वासस्य द्वारा ग्रति.
्न्धोक्त जीवक का कोमारभृ्यत्व महात्रण के अनुसार कुमारद्वारा संस्कृत संहिता हयी वृद्धजीवकीय तन्त्र या मूलकादयप संहिता होने
पाटन किया जने कै कारणदहैन कि कौभारभरत्य का आचाय होने से उपलध्ध एक २ ग्रन्थ तीन यर्न्थौके प्रतिनिधि कैसूपमें
से, वौद्ध ्न्धोक्त जीवक संभव है-कौमारथरत्य विचा का मी पण्डित हमारे सामने उपस्थित होता है । इन उपरुन्ध तीनो प्राचीन भर्न्थो
षो, किन्तु बहुत से बौद्ध अनन्धो म उक्तकी बटनाओं तथा चिकित्सा मँ प्रति्तंस्कता के रूप म भिलने वाके चरक, नागाजुंन तथा वात्स्य
` आद्वि विपरयो का अच्यन्त पिस्तारपूवंक वणन होने पर भी उसफ़ ( अनिश्चित काल्वाला ) तरीय श्रणी मे, उनसे रपर तन्त्रकर्ता
कौमार रत्य के माचायैत्व तथा तद्विषयक इस प्रसिद्ध तन्त्र के निर्माण अश्चिवेशाः सुश्रुत तथा वृद्धजनीवक द्वितीय श्रेणी मे तथा उनक्षे भी ऊपर
का उर्लेख तक क्या नही हे ? इस तन्त्र के विषय मे अन्तरङ्ग दृष्टि मूलसंहितार्ज के आचायं (उपदेक्ञक ) अव्रेय, दिवोदासरूप
से विचार करने. परभ दोनो कापरस्पर पिमेद दही इषिगोचर धन्वन्तरि तथा मारीचकदयप प्रथमश्रेणी मेँ आते है । इस प्रकार इन
ोता दै । तूढ्दाङ्‌ (7८१ ण्ण) प्रददा भै दाने दवारा उपब्य संदिताओ मँ पुनवेषु आनेय, धन्वन्तरि तथा कदयप प्राचीनतम
.म्राचीन यन्थमे बुद्ध दासा अपने समकारीन जीषके फो उपदेश देते मूर आचाय हं।
का उल्टेख मिख्ता है । यद्वि वद्य यदह बृद्धजीषकदो तो मन्थ कै
प्राचीन रूप मेँ मिर्ने वारे आत्रेय, धन्वन्तरि, कदयप आदि
अन्दर स्थान २ पर धन्वन्तरि आद्रिकी त्द्‌ जहां बाह्ीकभिषग्‌ ; मूर आचार्यो का निधित समय निर्धारण दुष्कर होने के कारण
वोद्रायन तथा अन्य पिदशी ववो के नाम तथा चिकित्सा सम्बन्धी इनका पौवापय, परस्पर सदमाध तथा आत्रेय, अश्चिवेद्, चरक,
विपय द्विपदं वदां अपने युर भगवान्‌ बुद्ध के नाम, उफी
धन्वन्तरि, द्विवोदाप्तः सुश्रुतः क्यप, बृद्धजीवक तथा वासस्य आदि
प्रसिद्ध ओषध्यो तथा प्रसङद्धव्श्च र्हीं २ उसके आध्यास्मिक
आचा फे उद्धवे को बतटने के लिये कोद भी ारावाहिक रेति.
धिपय आदि को लेश्षरूप मे मीर्क्यो नही द्विया है । दमे वौद्धमत दासिक ठेख न भिलने से उनकै परिपय मेँ कुद्र मी कहना यथपि
की लेद्मात्र मी दाया नहीं मिलती है। मदावम्ग आद्धिकफेलेखसे दुःसादस दै तथापि हमे यह्‌ देखना है पि इनके उद्धव की अधिक
, जीचफ की शद्यतन्ध के विपये मी क्लेष प्रसिद्धि तथा कुश्चटता से अभिक तथा कम से कम कौनसी अवधि मिध्ित की जा सकती
का परिचय मिलता है । किन्तु इस य्न्थ मं शस्यतन्र का परतन्त्र हे जिसे इनके विषय मे कुट्‌ अस्पषट-साङ्ञान मी हो सके तथा
के रूप मे निदश्च कके उसके पिषय मै उद्रासीनता प्रचित होती परस्पर एक दूसरे का अन्वेषण करते हुए संभवतः द्मे क्यप; वृद्ध-
है । इस प्रकार इस य्न्थ का आचार्य, वदध धत्त मगधदेदामिवामी |
जीवक तथा वात्स्यके चिपय मे कुष्‌ प्रकाद्च भिर स्कै। श्सी
` भुजिष्या कै गमे से उत्यन्न अमय के पुत्र जीवक से भिन्न प्रचीन अभिप्राय से अन्य विद्वर्नौ के मर्तो का निर्य करते हुए इन प्राचीन
कनखर्वासी; क्टचीक का पु, कदयप का रिष्य, महर्पियो द्वारा आचार्यौ कै विषय मँ अपने हृदय कै कु भावौ कौ प्रकट करते है ।
सम्मासित तथा कौमारमृत्य विषय का आचाय प्रतीत होता है । धन्वन्तरि तथा दिवोदास--
प्रसङ्गवश्च निर्दिष्ट अन्य आचार्यो का विवरण-
कदयप द्वात उपद्विष्ट प्रारम्भिकं एवं विस्तृत महासंहिता फो
सश्रतसदिता में धन्वन्तरिरूष काड्ीराज द्विवोदौस दवाय सुश्रुत
वृद्धनीवक ने संक्षिप्त किया तथा समयान्तर से वास्स्य नै उसका
को उप्देश्त देने का निर्देश है । धन्वन्तरि दिवोदास के परिचय कै
प्रतिस्ंस्कार करके प्रकादित किया, रेसा दस संहिता के कल्पाध्याय लियि वेद्‌ मे वेघचायं धन्वन्तरि का की उव्टेल नही भिर्ता है।
मे निर्दश्च दोने से जिस प्रकार आत्रिय द्वारा प्रारम्भ मँ उपद्षट ऋप्वेद मे जहां वेक के विषय भिकते हैँवहां देवभिपग्‌ अश्विनी
संहिता को अधिवेशने तन्त्रका रूप दिया ओर रकी तन्वरको कुमारो काही वैरूप में उल्लेख हे । ऋण्वेदर के प्रथम मण्डल मेँ
चरक ने प्रतिसंसकत करके वतंमानरूप मे प्रकारित फिया, तथ जिस बहुत्‌ स्थानो पर दिवोदास नामक राजा का उव्छेख भिलताहै।
प्रकार दिवोद्यासरूप धन्वन्तरि दारा प्रारम्भ मे उपदिष्ट संहिता फो
उसके साथ “अतिथिग्वः शम्बरदाच्रुः सुदासपिताः इत्यादि श्रता
सुश्रुत ने संहितारूप से परिवर्तित पिया ओर पीछे से उष्ठीको एवं वीरता संबन्धी विशेषण दिखाई देते दँ । काठकसंहिता के मन्त
नागार्जुन या अन्य किसी प्रतिसंस्कता ने संस्कार करके वतमान. मागमे मी व्रष्नश्च द्विवोद्रास का उल्केख है । इस वैदिक दिषोदास्
काकाश्ची का राजा हना तथा धन्वन्तरि से किसी प्रकार के सम्बन्ध
# जिस प्रकार र्थके धौ के जर जनिसेरथ निष्प्रयोजन का निर्दश्य नष्ी मिलता है। इस प्रकार ऋण्वेद तथा काठकसंहिता
हौ जाता है उसी प्रकार किसौ एक आवश्यक वस्तु कै नष्टो जने म आये हए दिवोदास का समय अस्यन्त प्राचीन है तथा वह्‌ वच
पर जवर उप्तसे सम्बन्धित दूरी वस्तु स्वयं न्ट दौ जर्ये--उस भी प्रतीत नदीं दौता है, | |
अवस्था मे यहु व्यवहृत होता है । ८ अमुत्रादक ) पौराणिक इतिहास मे मी दिवोदाप्त नाम के अनेक व्यक्ति
उपोद्धात काहिन्दी अनुवाद २९
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मिलते हैँ । इनमे से हरिवंदा# पुराणके २९ वैँ अध्याये काश्च महाभारत(९) कै समुद्र मन्थन प्रकरण मे धन्वन्तरि देव कै
कै वंद मे धन्वन्तरि तथा दिवोदास का काशिराज के रूप मं उर्छेख आवि्माव का वर्णन मिक्ता है । पुराण आदिमे मी धन्वन्तरि
भिरुता है । वह वंशावली निम्न प्रकार से है- का निर्दश्य है) ओग्नेय८२ौ)पुराण मे ससुद्रमन्थन से उत्पन्न धन्वन्तरि
काच | का आयुर्वेद के प्रवतक के रूप मे निर्देश किया गया है । परन्तु वेद्‌
| में धन्वन्तरि का उच्छेख न होने से तथा हरिवंश पुराण में
दीघंतपा मन्थन से आविभूत अन्न देवता का धन्व राजा के पुत्र रूप मेँ उ्यन्न
धन्व | होने के कारण यौगिक धन्वन्तरि नाम होने से दोनो कौ सङ्गति
करने पर अब्जकै ही धन्वन्तरि हौनेसे दोनो मे अभेद मानकर
धन्वन्तरि समुद्र से उत्पत्ति के प्रसङ्ग मे अब्ज देवता कोमी भावी धन्वन्तरि
केतुमान्‌ ` नाम से ही संभवतः कहा गया है । इसील्यि वैयाचा्यं दिवोदास
कै पूरवैपुरुष धन्वन्तरि कै खयि रोकिक एवं तैथिक व्यक्तियों द्वारा
नू (८भीमसेन ) अम्ज देवता का अवतार होने से देवरूप म निर्दंश किया गया है।
भरद्वाज से सम्बन्ध, वाराणसी की स्थापना तथा प्रतद॑न नाम
दिवोदास
| के पुत्र की समानता सै हरिव तथा महाभारत म वणित दियोदासर
| की एकता प्रतीत द्योती है। कौषीतकी ( सःख्यायन ). बाह्यण(र)
| तथा कौषीतकी बाह्यो पनिषत्‌(४) मे भी देवोदासि.( दिवोदास कै
:
` | पुत्र) प्रतदनका बाह्यविद्ा कीप्राप्चिका वणेन भिर्ता है । काठ-
अल्वौ
५५.
| कृसंहिता८५) के बाह्मण अंह मे मी आरणि के समकालीन मीमतेन
कादा के पौव धन्व नामवारे राजा ने समुद्रमन्धन से उत्पन्न. के पुत्र दिवोदास का उल्लेख भिल्ता है । . |
अब्ज नामक देवता की आराधना करके अन्ज ( कमर ) के अवतार इस प्रकार हरिवंश पुराण के अनुस।र काश्च राजा की सन्तति
रूप धन्वन्तरि नामक पुत्रको प्राप्त किया। उस्र धन्वन्तरि ने रूप इन सवका काश्च राजा दारा स्थापित कारी नामकःदैश कै राजा
भारद्वाज से आयुर्वैद का ज्ञान प्राप्त करके उसे आठ भार्गो मे विभक्त | होने से कारिराज ब्द से कडा जाना, धन्व राजा का पुत्र होने से
करके दिर््यौ को उपदेश दिया । इसके प्रपौत्र दिवोदास ने वारा- उसका धन्वन्तरि नाम से व्यवहार तथा अत्रय आदि की तरह
णसी† नगरी की स्थापना की। दिवोद्ास काः पुत्रं प्रदतेन धा। | धन्वन्तरि का भी पूर्वाचार्यं भरद्वाज से ही आयर्वेद पिधा कौ उप्‌-
रुन्धि का निर्देश है । महाभारत तथा हरिवंड मे धन्वन्तरि कै म्रपौत्र
दिवोदास के समय हन्य हुई वाराणसी को प्रतद्न के पौत्र
कारीराज अलक ने पुनः बसाया, ेसा हरिवंश्चपुराण से प्रतीत होता काररीराज दिवोदास का वेचक के आचायरूप्मेँ निदेश न भिरे
है । हरिव के अनुक्तार शल्य इदे वाराणसी का दिवोदास द्वारा पर मी सुश्चत मे कारीराज दिवोदास का सुश्चत जदियो के उपदेरक
पुनः बसाये जने से वाराणसी की उप्ते पूवं मौ विद्यमानता प्रकट के रूप म उल्लेख मिखने से वेद्याचायं धन्वन्तरि की `चतुथं सन्तति
होने पर भी सहासारत(१).के अनुशासन पवं मे दिवोदास द्वारा ही ( पदौ ) में होने से तथा अपने पूवेपुरष.की विचा के आदर की
वाराणसी कै निर्माण का निर्दे है, दृष्टि से दिवोदास का भी वेच दोना सङ्गत प्रतीत होता है । धन्वन्तरि
की सन्निकृष्ट सन्तति ( चौथी पीढी ) मेँ होने से, उसके सम्प्रदाय का
" महाभारत मे मी चार८२) स्थानों पर दिवोदास कानाम आता
प्रकाञ्च कृरने के कारण तथा उसका स्थानापन्न होने से धन्वन्तरि का
है । महाभारत मे मी दिवोदास का कारीपति८2) होना, वारणसी
अवतार मानकर ख॒श्ुतसंदिता में “धन्वन्तरिं दिवोदासं सुश्चुतप्श्-
की स्थापना, हैदयो द्वात पराजित होकर भरद्वाज की शरण मे जाना,
तयः ऊचुः+आदि दारा धन्वन्तरि तथा दिवौदास का जो अभेद्‌ प्रकट
उसके हारा किये हुए पूत्रष्टि यज्ञ॒ से भ्रतद्॑न नामक वीर पुत्रक किया गया है वहु उचित ही है । आयुवेद के आचायैरूप से प्रसिद्ध
उत्पत्ति आदि भिकते जुरते विषय ही मिकूते है । इसमे दिवोदास
धन्वन्तरि के प्रपौत्र दिवोदास तथा सुश्रत में आये हए आयुर्वद के उप-
के पूवैपुरुषोौ मे अन्य व्यक्तियों के साथ कैव्रङ दयरव आदि प्रसिद्ध
शक धन्वन्तरिरूप दिवोदास इन दोनो की सङ्गति होने सेधन्वन्तरि
दे
व्यक्तयो कै हयी नाम दिये दै। अग्निपुराण (अ० २७८ ) तथा
का आयु्ेदीय सम्प्रदाय अपने रिर्य कौ तरह दिवौदासरूप अपनी
गरुडपुराण (.अ० १३९ इलोक ८-११) में मी वेद्य धन्वन्तरि की
सन्तति में मी गया हुआ स्पष्ट रूप से प्रतीत होता है। मेरे पासः
चतुथं सन्तति ८ पीढी ) में दिवोदास का नाम दिया है। सुश्रतसंहिता की एक ताडपन्र# की पुस्तक है जिसके प्रारम्भे
# वाराणसी मे गोविन्दयन्द्र विजय के राज्य मं १२०९१ संवत इत्युवाच भगवान्‌ धन्वन्तरिः" यह वाक्य नहीं है । धन्वन्तरिरूप्‌ `
भे ख्खी हई हरिवंड की एक प्राचीन ताडपत्र पुस्तक हमारे ` # इस पुस्तक मेँ बहुत से पाठ्मेद है । इस संहिता के अन्त
संयहाल्य मँ है । उसके पाठ के अनुसार मी यही क्रम मिक्ता है ! मैं श्रत का निषण्डुभमी दिया हआ है। इस संहिता कै. पाठक
† इस प्रकार वारणार नामक किसी व्यक्ति ने वाराणसी को अनुसार सुश्चतसंडिता का नया संस्करण करके मेरे मित्र श्री यादवजी
, बनाया~यह प्रवाद निमूङ है । (हिन्दी विश्वकोश-कारी शब्द दैखै) ते ग्रकारितःकिया हैः,
(१११ से ३तककीटदि० उपोण संस्कृत.¶० २९ देखें ।' (-१.) १ से ५ तक्‌ की -दि० उपो९संस्कृत १० २९ देखे ।
३० ` उपीद्धात का हिन्दी अनुवाद
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दिषोदास्त के पास सुश्रुत आद्धियो के जाने का उर्ेख होने से प्रारभ का स्वौकार किया दहै श्री चिन्तामणि(१।विनायक वै ने रेतस्य
म इस प्रकार का वाक्य होना उधित भी नहीं है। ब्राह्मण मे ( ७-११ ) कोपीतकि ब्राह्मण कै वचन दिखा कर्‌ एतस्य
पूवौदष्ट हरिवंदय पुराण कै ठकेख मँ कलियुग मेँ दिवोदास हारा ब्राह्मण से पूवं कौषीतकि ब्राह्मण का समय ईसा से २५०० वप पूर्व
वाराण्षी कौ स्थापना का उस्छेख होने से धन्वन्तरि तथा उसके सिद्ध किया। एस, वी. दीक्षित८र)ोमहोदय ने ज्योतिष की गणना
प्रपोच् दिवोदास का समय कलियुग मेँ प्रतीत होता है । परन्तु ककि- के आवार पर कौषीतकिः बराह्मण का समय ८ इ. पू. २९००-१८५० \
युग मँ फोन-सा समय है इसकी प्रतीति उससे नदीं होती । के वीच मेँ वतखाया है । कपीति बाह्मण ( १७-४) का यास्क कौ
कारी के युवराज ब्रह्मद्त का आयुर्वद के अध्ययन कै ल्य निरुक्ति ( १-९) मं आया होने से तथा तीस्त अध्याय वाके
तक्षरिखा जाने का वणेन जातक यन्थ मे तथा फिर कादीराज के पदं कौषीतकि ब्राह्मण का प्त्रिशच्चत्वारिंशतो जाद्यणे संज्ञायां उणः
पर आरूढ ब्रह्मदप्त के साथ जीवक कौ मटका वणेन महावग्गमें (५-१-६२ ) खत्म तथा कौषीतकी के पूवं पुरुष कुषीतक का
मिलता है । महावर्ण मे यदपि काशी चन्द्‌ मी आया हुआ, "विकर्णकुषीतकात्काश्यपेः ( ४-१-१२४ ) यमे पाणिनि दारा
परन्तु वहां वाराणसी छब्द को प्रयोग अधिकता से किया गया है। ग्रहण किया गया होने से कोषीतकि ब्राह्मण पाणिनि तथा यास्क सेमी
बुद्ध द्वारा मी वाराणसी मेँही धमेचक्र ( धर्मोपदेश) के प्रवतैन का प्राचीन है-रेसा कीथ८२) ने छ्लिाहै) पाणिनि के समय का
उल्लेख मिरूता है । जातक यन्ध मँ मी बहुत स्थानो प्र वाराणसी विचार करते हुए मंजुश्रीमूल करप नामक बौद्ध रेतिदासिक ग्रन्थ ऊ
आधार पर लिखि हट इतिदास मे श्री जायसवारुजी(४) ते
रष्द आता है । पाणिनि ने देर वाचक काशी ब्द का 'काश्या-
दिभ्यष्टन्निटौः (८४-२-११६ ) शख मे स्पष्ट निर्देदा कियाहै। पाणिनि का समय ( ३६६-२३८ ईस्वी पूवं) छि है तथा अन्य
तथा नगर वाचक वाराणसी ब्द नघादिगण मेँ भिल्ता है) व्यक्तियों ने (४०० श्स्वी पूर्व) लखि है । परन्तु पाणिनि केञेखम
( नद्यादिभ्यो दक्ष ४-२-९७ वाराणसेयः ) महामाष्यकारने भी वेद-वेदाङ्ध सम्प्रदायो कै प्रवतेक ऋषि, देश, नगर, माम, नद, नदे
आद्वियो का उल्छेख ह्यौने पर मी गौतम बुद्ध तथा महावीर कै
वाराणसेय उदाहरण कदं बार ॒द्विया है 1. जावालोपनिषद्‌ आदि मे
वाराणसी शन के मिलने पर भी प्राचीन उपनिषदौ मे काशी सबद सम्प्रदाय काणक भी विषय न मिलने से बुद्ध तथा महावीर से पूरव
तो भिरता हैपर वाराणसी शब्द नदीं मिलता है इससे अनुमान ( ७००-८०० ईस्वी पूवे ) पाणिनि का समय हे एसा (५ †गोर्डद्ट्
पिया जातादहे कि देशवाचक कारी इण्टर प्राचीन कारु से प्रचित कर महोदय ने छिखा दै।श्रीयत वेर्वल्कर(&) तथा माण्डारकर(9)
ह तथां नगसे थाचक वाराणसी शब्द उपनिष्के समये बादर से
कामी यही मत दै । श्रीयत चिन्तामणि (८)चिनायकवे् ने पाणिनि
ही प्रसिद्ध इभा है। पुराणो मेँकाश्ची तथा वाराणसी ये दोर्नौ का समय (९०० इस्पी पूर) वतटाया दै । इस प्रकार विभिन्न मतो कै
शब्द मिरते है । इतिहास मेँ बुद्ध के पश्चात्‌ कभी कोशल के राजार्ओ द्विखाई देने पर मी पाणिनि तथा उससे मी पूवेवतीं यास हयार
दारा, कमी मगध कै शिश्ना द्वारा, उसके वाद मौय, शुङ्ग तथा गृहीत कौपीतिं बाह्यण का खमय बहुत पठे का प्रतीत होते हए
मीकमसे षम हस विषय में सव एक मत वलेिदहै कि कौषीतकि
गुष्ठ आदि राजार्ओो द्वारा तथा जन्त मे हषेवरधैन द्वारा वाराणक्ती के
मराह्यण का समय बुद्ध कै बाद्रकातो निध्ित नदीं है। इस्त प्रकार
धिजय का वृ्तान्त भिर्ता है! उन २ राज्ज के इतिवृष्त का
फेतसेय तथा कौषीतकि ब्रह्मण के मध्यका होने से यह दिषोदास
अनुसन्धान करने पर धन्वन्तरि दिवोदास तथा प्रतदेन आदिक
उपनिपत्कारीन प्रतीत होता है आर अपने प्रपितामह धन्वन्तरि कौ
नाम हमे नदीं भिरुते दै । प्रत्युत वार्तिककार कात्यायन द्वारा
अप्रने से भी प्राचीन सिद्ध करता है ।
ष्दिवश्च दासे". दिवोदास शण्ड को सिद्ध करने, महामाष्यकार
भिखिन्दरपहो (र) ८ भिरिन्दग्रदन ) नामक पाटीग्रन्थ में द्वितीय
द्वारा ्दिवोदाखाय(६)गायते, उदाहरण के देने, कौषीतकि बाह्मण, दरताग्द्ी (स्वी पूवं) केमिखिन्द (िदणमपवलः हद
भ एषम)
उसकी उपिषद्‌ तथा ऋक्सवीनुक्रम(र)ग्रतर मेँ भी दिवोदास फे पुत्र
प्रतदंन के उररेख, काठकसंहिता के ब्राह्मण मागमे मीमसेन के पुत्र कै प्रति नार॑सतेन की उक्ति मे “चिकित्सकानां पूर्वका जाचार्याः
दिषोद्रास के उच्टेख तथा महामारत गीर दरिषंश् पुराणम भी इसी दाय प्रारभ करके गिनाये हुए आर्यो मे धन्वन्तरि कानाममी
है ¦ हस मे रोगोत्पन्ति निदान, स्मभावस्मुत्थान तथा चिकरित्स।
के समान वैच विधा के आचाय धन्वन्तरि के प्रपौत्र, वाराणसी के
स्थापक, प्रतद॑न के पिता तथा अलके के प्रपितामह तथा कलियुग आदि मे जाचायेरूप से द्विया द्धन से तथा नाभ॑सेन दवाय अपनैसे
म होमेवरे द्विघोदास के वणन मिलने से दिवोदास का समय कलि. पूवं चिकित्सा के आचायं रूपम निर्दिष्ट धन्वन्तरि महाभारत तथा
आयुर्वेद कै प्रथो में मिलने वाडा सुत संहिता का आचायं प्राचीन
युग मेँैतरेय ब्राह्मण कै समय तथा काठकबाह्मण, कौपीतकी ब्राह्मण
तथा उनकी उपनिषदो कै समय या कुद पूव सिद्ध होता है । धन्वन्तरि ही स्पष्टरूप से प्रतीत दोता है। अथवा कपिर, नारद
आद्रि के साथ अनेते यहु मूल धन्वन्तरि का द्ोतकमी हो सकता
कौपीतकि ब्राह्मण के काकु के विषय र्मे विचार करते हृए है! इस वे अतिरिक्त द्वितीय तृतीय द्रताब्दरी श्स्वी पूवेमें वने इए
श्वेतकेतु आरुणि की कथाओं के संवाद के आधार पर्‌ पश्चात्य छेखक मरुच ओर स्वी के स्तूपः के शिले के संवाद तथा भर्व के |
वेवर८३) ने छिखा हैफि कौषीतकि उपनिषद्‌ तथा बृहदारण्यक का स्तूप में जातक मन्थ कै नाम का उषे होने से पाडी जतिक अर्थी
काल समान है । विन्टरनीज(४)नामक विद्धान्‌ कामी इस विषय | की उप्त समय भी उपस्थिति तथा प्रसिद्धि सिद्ध दोती है। चतुधं
म यष्टी मत है । उसने कौषीतकि ब्राह्मण को रेतरेय ब्राह्मणसे बाद | सतान्दरी इस्वी पूवे म वशारी मेँ इड बौद्धमदहासभामे भी जातक

( ९ ) १से्तककी रिण उपी० संस्क


त १० ३० दर | (१) १से९कोटि० उपो० संस्कत १० २०-३६ देखे ।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं २.१
@ क 22 ०69 € €
2 0 -2 ०

ग्रन्थौ की प्रसिद्धि थी रेस मैक्डौनल आदि पार्चात्य विद्वान्‌ कहते कविथा, न किवैव। प्राचीन वेचाचायै धन्वन्तरि के भिर्ने से
है । शन भ्रन्थौँ के उस समय प्रसिद्ध हौने से मन्थे का सत्व तो इस केवर धन्वन्तरि नाम की समानता से यह भ्रान्ति उत्पन्न हु प्रतीत
से भी प्राचीन होना चाहिये। इनमें से अयौघर(१) ( अयोगरहु ) होतीहे। |
नामक एक जातक मेँ बुद्ध के किसी पूवं जन्म मे राजपुत्र की अवस्था कादयपसंहिता के शिष्योपक्रमणीय अध्याये दौम्य दैवता
मँ धर्मचर्या के स्यि राजा की आज्ञा प्राप्त करनेके लियि एक कथा का निर्दा करते इए प्रजापति, इन्द्रः अर्दिवनी कुमार तथा अपने
द हु है जिस मेँ धन्वन्तरि, वैतरण, भोज आदि चिकित्सकों का तन्त्र के पूर्वै आचाय कदयप के समान अन्य प्रस्थान (विभाग »
नाम केकर ओषधि तथा विषापहरण के द्वास रोगो का उपकार करने ॐ अचायै धन्धन्तरि का मी स्वाहाकार कै द्वारा यहण एवं
वाछे धन्वन्तरि के ्षमान विद्वान्‌ मीकाल के मुखम चे गये सम्मान किया गया है जव पि इस म आत्रेय आदि का उल्लेख नदीं
इत्यादि द्वारा श्रत्यु की महिमा का उ्छेल करके अपना धमाँनुराग किया गया है। दिवोदास, सुश्चुत तथा अन्य धन्वन्तरि के अनुयायियौँ
प्रकट किया गया है) इस कथा के द्वार बुद्ध के किसी पूवजन्म मं कामी इसमे उर्लेख नहीं है । द्वि्रणीय अध्याय में "परतन्त्रस्य:
भी धन्वन्तरि, वैतरण तथा भोज आदि का इक्त रोक से चके जने समयम्‌” इस पद द्वारा रच्यतन्रका परतन्त्र के रूप मेँ हण करने
(त्यु ) का उछेव किया गया है 1 यह कथा उस कै किस पूवं से मी उस्र समय धान्वन्तर सम्प्रदाय कौ उपस्थिति स्पष्ट हे ! अत्रेयं
जन्मकी दहै यह ज्ञात न दहोने पर भी अत्यन्तं प्राचीन कारुकी संहिता म मी इति (4)धन्वन्तरिः” “धान्वन्तरं मतम्‌" शधान्व-
सूचक प्रतीत होती है! आर्य॑घरीय(२) जातक माखा के अथोगृह ल्तराः१ इ.यादि दारा अनेक स्थान पर धन्धन्तरि तथा उस सम्प्रदाय
जातक म व्याधियो कै नायक धन्बन्तरि आदिका अतीतरूप में के अन्य पूर्वं चार्यो का सम्भानपूर्वैक निदश्च कियागयादहै।
सम्मानपूरवक्र सिदे किया गया है । जा्॑खरौय जात्तक मे वेव परन्तु दिवोदास तथा सुश्ुत का इस मं मी कीं स्पष्टरूप से उद्केख
धन्वन्तरि का हयी नाम किया है। अन्य आचार्यो का केवल प्रति नदीं किया है ।सुश्चत मँ जत्रैय तथा करयप का उख नहीं है । इस
शब्द से ही ग्रहण किया गया है । परन्तु पारी के ठेख मं धन्वन्तरि प्रकार मारीचि करयप तथा पुनवंसु अत्रय से धन्वन्तरि की प्राचीनता
कै साथत्रैतरण तथा भोजकेनामका भौ उेख भिरुता हे । सश्चत प्रकट होती है। इस कै अतिरिक्त कादयप संहित मेँ केवरं धन्वन्तरि
संहिता कै प्रारंभिक वाज्य मेँ धन्वन्तरि रूप दिवोदास के पास त्रि्यः- काही उषछेख होने से तथा आत्रेय संहिता मेँ धन्वन्तरि के सम्प्रदाय
प्राति के लिय उपस्थित हट रियो मे वेततरणका मी निर्दश वाल का भी उद्लेख होने से धन्वन्तरि सम्प्रदाय के फरने के बादर
किया गया है इस मे सुश्वुतग्रश्टतयः ऊचुः, इस वाक्य मे प्रभृति आत्रेय पुनव॑सु की उत्पत्ति प्रतीत होती है। धन्वन्तरि के पुनवंसु
शब्दं से मोज आदि का गहण किया गया है एेसा उछ्ण ने व्याख्या अत्रियसेमी प्राचीन सिदध दहोने सेउसके अनुयायी अग्निवेश्च
म दिया है) परन्तु मैरे पास जो सश्चत की प्राचीन ताडपुस्तक है मेड आद्वि सेतो वहु निरिचत द्यी प्राचीन है। मेडसंहिता तथा
उसके मूर मे ही ओौपधेनववेतरणौरभ्रपौष्कटावतकरवीयं- चरक संहिता मे आये हुए धान्वन्तर रत आदिके उल्लेव सेमी
गोपुररक्तितभोजसुश्चुतम्ग्टतय अचु? इस वाक्य द्वारा वैतरण यही प्रकट होता है । सुश्चुत संहिता कै शारीरस्थान कै तृतीय अध्याय्‌
कै समान मोज काभी स्पष्टरूप से उक्रेख किया गया है । इस म शौनक, कृतवीयं, पाराय, माकण्डेय, छमूतिगोतम आदि भाचीन-
अयोधर नामक ` पालीजातक में निर्दिष्ट धन्वन्तरि दिवोदास के रिष्य तम पूर्वंआचार्यौ का निर्देश मिरुता है । इसके विपरीत आत्रेय तथा
वैतरण तथा भोज के साहच ` से मूक धन्वन्तरि प्रतीत नहीं होता; कारयपसंहिता मेँ काङ्कायन आदिकाभी पूवे आचार्यो केरूपमं
अपितु धन्वन्तरि का अवतार सूय होने से सुश्चुत मे धन्वन्तरि शब्द निर्देश्य है । उलछण कौ चुश्रुत दीकामे किसी रके मत से दिवोदास
द्वारा म्यवहृत दिवोदास प्रतीत होता हे । यहां खु्चत आदि अन्य के शिष्यरू१(२) में काङ्कायन का उक्लेख किया गया है । इस अव्‌-
व्यक्तियों का उ्केख न होने पर भौ उपनिषत्‌ कारु मे दिवोदास स्थाम दिवोदासं के दिष्य काङ्कायन का अत्रय तथा काश्यप
करे मिलने से, सुश्चतसंहिता मँ दिवोदास का धन्वन्तरिरूप से व्यवहार संहितामे निर्दे होने से दिवोदास तथा धन्वन्तरि का अन्रैय तथा
होने से दिवोदासरूप धन्वन्तरि के शिष्य वैतरण तथा भोज का कश्यप ते पूर्वहोना ओर मी खुद्द हौ जाता हे । त
सुश्ुतसंदिता मेँ मिलने से तथा जातको म अये हुए विषप्रतीकार हरिवंश पुराण में धन्वन्तरि की भरद्वाज से भय्वद भ्चाक्षी
कै विषय का सुश्चतसंहिता कै कल्पस्थान में मिख्ने से भोज तथा
प्राप्ति तथा दिवोदास दवाय भी भरद्वाज के आश्रम का उक्टेख होने
वैतरण के साथ आये हुए सश्चत आदि कामी इन्दींकेसाथका
से तीन पीदियो के अन्तर वाके धन्वन्तरि तथा दिवोदास के साथ
समय प्रतीत होता है जैसा कि सुश्तसंहिता मेँ दिया है । अग्नेय सम्बद्ध भरद्ाज एक हयी व्यक्ति है अथवा उसी गोत्र का कोई अन्य
के महण करने में सुश्ुत भौ घन्व-
पुराण के अनुसार आयुर्वेद विद्या
न्यक्ति है इस पिषय मेँ कुड्‌ नहीं भिता है । चरक संहिता.के
न्तरि कै शिष्यरूप मै मिक्ता है।इस प्रकार दिवोदास रूप धन्वन्तरि उपक्रम मँ मी मरदाज दवारा अत्रय कौ विचा प्रि तथा बाद मे मर
की बौद्ध जातक अन्धो सेमी प्राचीनता सिद्ध दोने से उसके पूवं
पुरुषमूल धन्वन्तरि कौ तो उस से भी प्राचीन होना चाहिये । राज के मत का आघ्रैय द्वारा खण्डन तथा वातकराकलीय अध्याय
किस्ीरका यहभी मतदहैकि विक्रमादित्य के नवरत्न में मँ 'कुमारङिरः विद्ेषण
युक्त भरद्वाज का निर्देश है। इसी प्रकार
कार्यप संहिता के रोगोध्याय मेँ भी कृष्ण भरद्वाज का निर्देश हे
क्षपणक, अमरसिंह आदि के साथ आया हा धन्वन्तरि ही भ्रसिद्ध
हस प्रकार आयुर्वेद के र्थो भ नाना मरदवजो का आचायेरूप मेँ
बेथाचाय धन्वन्तरि है । परन्तु नतवरत्नौ मँ आया हमा धन्वन्तरि
| (१) १-२ क्रीदि० उपो० संसृत ३१-२ देष, , `
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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१. [४ (यो)
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का तथा अन्य कुद विद्वानों नेइसे चतुथ-प॑चम यताब्द का माना है ।


द्वज नामवाङे श्यक्तियो के साथ धन्वन्तरि, मासैच कदयप, ` मैकडोनरु() नामक विद्वान्‌ लिखिता है कि शुश्चुत ६० प०
पुनवंसु तथा दिवोदास का समकारीन संबन्ध प्रतीत होता है) चतथ राताब्दी से पडे का प्रतीत नदीं होता है. क्योकि बाबर
आघरेय पुनवंसु तथा मारीच कदयप द्वारा गृहीत धन्वन्तरि यद्यपि मेरस्किष्ट कै प्रकरण चरक तथा खत के साथ केवल मानौ मे हय
मूरधन्वन्तरि की सन्तति होने के कारण उस नाम से व्यवहृत दिवो- समानता नहीं रखते अपितु उनमे दाब्दं की भी समानता मिरतीहै।.
दस्त मी दहो सकता है तथापि कदयप द्वारा स्वाहाकार देवताके शूप वेवर(र) (एणः ) छिखता हैवि भाषा तथा शैली मेँ सुशं
मँ भी धन्वन्तरि का निदेश किया होने से, आत्रेय तथा कदयप दोनों की वराहमिहिर के छ्ेखौ से समानता है। |
द्वारा काडर के रूपमे प्रसिद्ध दिवोदास कौ प्रकट करने वाके अन्तश हवरं गोन (प. 6०5९०) ने तो यदू तवा
कारीप्ति तथा द्विवोद्ास आदि किसी विङ्ञेषण से रदित केवर धन्व छ्खिदियादहैकि खत नाम काको व्यक्ति आजतक हभ ही
न्तरि राब्द दारा उसका मिर्देश किया हौनेते तथा महासारत के नहीं है । ओौर यदि हामी दै तो वह साक्रिटीज (80०९ )
अनुसार धन्वन्तरि का अष्ट प्रस्था्नौ का मचाये तथा उसकौ संहिता कै अतिरिक्त ओर कोई नदीं है। |
के प्राचीन समय मँ वियमान होने के निर्दे से प्रतीत दोता है कि किन्तु उपयुक्त के विषय में हमे यहु कहना है कि रूगभग दौ
मूर धन्वन्तरि संहिता के विषयो को केकर ही आत्रेय तथा करयप ने सद वपं प्रचीन दाशनिक आय॑ नागाज्ुन% का उपायहृदय नामकं
स्थान २ पर्‌ धान्वन्तर मत दिये है) पूर्वौक्तानुसार दिवोदास नामक
(८१) १से३ तक कौ टि० उपोण संस्कृत ए० २२-३३ देसे ।
राजा कै साथ आये हए, गालव के प्रति केवर मारीच कश्यप कै
आश्रम का निर्देश महाभारत मँमिलने से दिवोदास के समय मारी- # नागाज्जुन नामवाडे अनेक प्राचीन विद्वान्‌ भिरते है।
नागाज्जुन की रचना रूप से मिलने वके कक्षपुर, योगङतक, तत्व-
न्च कद्यप का अतीत रूपमे होना प्रकट होता है अथवा आश्रम मेँ
मारीच कदयप कीं उपस्थिति भी संभवतः हो सकती है 1 इस प्रकार
प्रकाश आदि अनेक अन्ध मँ कक्पुट जादि कौतुक न्धो (जादू
रोने के अर्थो ) का प्रगेता सिद्ध नागाज्ुन-दस विदेषण युक्त नाम्‌
मारीच कर्यप का समय धन्वन्तरि के पश्चात्‌ तथा दिवोदास के पूवं
या उसके साथ आता है । चरक तथा काद्यपसं हिता म परस्पर अत्रय वाले व्यक्ति को बताया हं । वैक विषय मे योगद्घतक नाम का
दारा मारीचि क्यप करा तथा मारीचि कश्यप दारा पुनव आत्रेय अन्थ अभी मिला है जिसका तिव्धतीय मापा मँ अनुवाद भी
का निर्देश होने से, त्रेय संहिता के वाततकराकलीय अध्यायमें भिरुता हे । नागान की ही एक अन्य ¶चित्तानन्दपरीयसीः
मारीच कदयप तथा आचरेय पुनकवेसु के परस्पर संवाद का उष्ेख होने नामक वयक की संसृत मेँ छिखी हर तादपुस्तक तिष्वत के गीममःं
सेतथादोर्नो मे उसी रूप मे अथवा कुर्‌ अन्तर के साथ भरद्ाजका महे णेता नने मँ आता है । इसके अन्य भमी ग्रन्थ भिरे है
उर्रेख भिटने से श्न द्रौरनौ आचार्यौ फा काल ठ्गभग साथ २ प्रतीत तन्वो म आया हुआ बौद्ध का अध्यात्म चिषय्रक ततवप्रकाद, प्रम-
होता है । रहस्य संखायिसंबोधि तथा समयमुद्रा आदि इप्तके अन्य न्थ है।
,सुश्रत-- केवर बौद्धदशचेनो के विषय मेँ माध्यमिक वृत्ति, तकैशाक्च तथा
स॒श्चनसंदिता(१ मे चाहे कि सुश्रुत संहिता का निर्माता उपायहृदय सादि ग्रन्थ हे । इन भिन्न २ पिषय के मन्थो कानिर्माता
विश्वामित्र का पत्र सुश्रुत दै) चक्रदप्त ने मी रीका(रोमें 'एेसाहीएक ही व्यक्तिहेयाभिन्न २ यह यिचाश्णीय प्रन है। अष्टमं
ङिखिा है) महाभारत(रमे भी विश्वामित्र के पुत्रो भ सुश्वतका नाम शताब्दी मे भारतम यत्रा के छख्यि आवे हुए अच्वेरुनी नामक
भिर्ता है । छण्ेद के नाना मर्न्रौ का द्रष्टा तथा ममवान्‌ राम का यात्रीने अप्नेत्ते सौ वषं पू रसायन पिदा मे निपुण, बोधितं
धनुर्विधा का उपदेशक महिं विशाभित्र अन्य ष्टी प्राचीन व्यक्ति ( बुद्ध बनने के टिये तपस्या करने वारा ) तथा अत्यन्त प्रसिद्ध
प्रतीत होता दै । शुश्चुत का उपनिषत्कवालीन द्वियोदास कै रिष्य रूप नागाञ्जैन नामक विद्वान्‌ का उख कियाहै। ७ वीं श्तान्दी मे
मे उेख होने से तथा सुतसंहिता मँ कृष्णक नाम मिलने भारतम अये इये दयन सङ्क नामक चीनी यात्री ने अपने से
से कदयप तथा आत्रेय के समानं गोत्रेवाखा विश्वामित्र का पुत्र सात-माठ सौ वषं पूवं शान्तिदेव तथा अश्वघोष आद्वि की तरह
खत भी दिवोदास फी तरह उपनिषत्कवार मँ तथा भगवान्‌ अत्यन्त प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान्‌ श्चातवादन के भिव नागाञ्ुन का उ्ेख
फियादैजो रि रसायनके द्याया पत्थर को भी सरणं बनादेताथा।
श्रीकृष्ण वे उद्धव के पश्चात्‌ हुआ प्रतीत होता रै। ऋषि विश्वामित्र
दारा अपने पुत्र सश्चत फो कारीराज धन्वन्तरि ( दिवोदास) कै राजतरङ् गिणी के रेखक कल्दण ने बुद्ध के आपिरभावि सै १५०
पास अध्ययन के स्यि भेजने का उषख मावप्रकाद्च(५) म भी है । ( डेढ सौ ) वषं पुवं नागाज्ुन नामक प्रसिद्ध पिद्रान्‌ कै होने का
डल्छ्ण कौ व्याख्या मेँ विश्वाित्र फे नाम से उदृत पवक के वचन(६) निर्देश किया दै । इस प्रकार भिन्न २ समर्यो के भिल्ने से श्न
भी मिलते दहै इस विश्वामित्र कै विषय मेँ पूर्णं परिचय नीं नागाजुंनौ मे एकता प्रतीत नहँ हीती अर्थात्‌ ये परस्पर भित्न २
मिर्तादहै। | ~ ~ ~ . ... ^, मतीत ह्येते ह । नागाजुन द्वार स्ात्वादन को पत्र मेजने का वृन्तान्त
` सुश्वत-संहिता के समय कै विषय मँ विचार करते हुए हैस न्यत्र प्रकारित हुमा है । मेरे संग्रहाख्य मे एकर फय हभा
(988 ) नामक पाश्चात्य विद्वान्‌ ने सख्त आदि को ष्र्‌ वीं | संस्कृत माषा मेँ ताद्पच्र पर ङ्ख हभ ज्ञातवाहन चरित हैजिसमे
शताम्दी का, जोन्स विरसन (पण्धलछम1800 ) ने ९-१० इाताग्दो | शृष्टतत्वो बोधिसत्वो महास्वो महाराजगुरूः श्रीनागाजना-
| भिधानः शक्यभिद्धराजः शत प्रकार के स्पष्ट ` उछेव होने ` से
(१३.९२ तक कौ दि० उपो स्रत १०.२२ देच । | बोपिस्रचस्धानीय, कुरकरुष्ठा के उपदेश, के. कारण. तान्विक तथा
उपोडात का हिन्दी अयुचाद्‌ ३३
@-8 @.&> = 26 <€ 6० 26० 29 द 09

दानिक अन्य उपलब्ध हुभा है । मारत मै मूलसंस्छेत कख के न के वाद यद्वि नावनीतकका निर्माण इजा हो तौ वाग्मर आदि
मिलने पर भी अत्यन्त प्राचीन कारुसे चीनी माषा मे विद्यमान ग्रन्थ के समान प्रसि चरक का उल्छेख इसमे अवद्य होता । इस
अनुवाद से हमारे परम भित्र श्री तुच्ची महोदयने संस्कतमें पुनः प्रकार यहु चरक के समयसे मी प्राचीन प्रतोत होता दहै। यदि
अनुवाद करके जो प्रकाशित किया है उस अन्थकै प्रारम्भ म अन्य किसी बौद्ध ते इस मन्थ कानिर्माण किया दह्ये तो वेचकमे मीग्रसिद्ध
तन्त्र के प्रसङ्ग मेँ ओषधिविद्या षडविधा-ओषधिनाम, ओषधि. वौद्धाचार्यं नागाञ्जुन या अन्य किसी वै्क मे प्रसिद्ध बौद्धाचायं का
गुणः, जओषधिरसः, जषधिवीयं, सक्जिपातो, विपाकश्चेति भेषञ्य- मी इसमे उल्छेख होना चाहिये था । इस प्रकार यह मन्थ आत्रेय)
धमा? इत्यादि दारा सैषञ्यविद्या के प्रधान विषयौ कौ देकर बाद मेँ उसके अनुथायी, सुश्रुत. कादयप तथा जीवक के वाद तथा नागाञ्जुन
लाख का वर्णन करते हुए भयथा सुवे्यको भेषजकुशारो मेत्रचिन्तेन के समयसे पूरव॑का होने से इसमे आया सुश्रुत भी नागान से
शिक्षकः सुश्रतः' इत्यादि द्वारा भेषञ्यदिद्या के आचा्य॑रूप में पूवं का सिद्ध होताहै।
सम्मान एवं गौरव के साथ सुश्रतका नाम दवियादहै) इस प्रकार इस प्रकार सुश्रत न केवर आयं नागाज्ञुन तथा नावनीतक
लगभग दौ सहसखवषं पूवेवतीं आयं नागाजनँन द्वारा मी आचायं कै सेही प्राचीन है यपितु महामाष्यकार के तद्धितेष्वचामादेः
रूप मेँ सुश्रुत का नास द्विया होना इसकी अवावचीनता के प्रतिवाद ( ७-२-११७ ) तथा इको गुणबरुद्धी ( १-९१-३ ) सन्त। कौ व्याख्या
कै चयि पर्याप्त प्रमाण है) म 'सौश्रतः? तथा शशाकपार्थिवादीनामुपसंख्यानम्‌, (२-१-१७०)
इसके अतिरिक्त पूरवोदिष्ट खोड प्रदे से प्राप मोजपत्र पर इस वातिक मै कतपवासाः सौश्रतः कुतपसौश्रतः' निर्देश से यद्‌
लिखि हुए नावनीतक नामक मन्थकी कल्पि को देखकर सब विद्वन महामाप्यकार तथा वातिककार सेमी प्राचीन प्रतीत होता है ।
ने इसे तनीय या चतुर्थं राताब्ब्धे का भिश्चित किया है। प्राचीन इतना हयी नहीं, पाणिनि दारा कार्तकौजपाद्यश्चः ( ६-२-३७)
कार मँ आजकल के समान शीघ्र चलने वाके स्थीम दैजिन, हवाई- इस सत्र के गण सें (सौश्रतपार्थिवाःः मेँ अपत्य अथं के खललक
जहाज, तार, रेडियो आदि के अथावमें मी इस्त भारतीय यन्थ के प्रत्ययान्त कमैश्रत शब्द के दिया होने सैन केवर सुश्रुत अपितु
इतने दुग॑म तथा दूर प्रदे मेप्रचार एवं पराप्षि के खयि विद्ेष समय उसके वंश वाके अथवा उसके दिष्य ओर सम्न्बधी भी पाणिनिसे
की अपेक्षा होते से यन्थकरी रचना ओौरमी प्राचीन प्रतीत होती प्राचीन प्रतीत होते हैँ |
है । इस गन्ध मेँ मङ्गलाचरण वै रूपमेँ बुद्ध का उल्क भिलने पाश्चात्य सिद्ान्‌ वेवर (९) का मत है कि महाभाष्यकार दारा
से बुद्ध के किते समय पश्चात्‌ इस्त मन्थ की रचना हुई है यह सश्चव-सौश्रतः" मे हलन्त सुश्रुत शब्द दिया होने से कातकोज-
नही कहा जा सकता । इस प्राचीन अन्ध मै आत्रेय पुनवेसु तथा पादि गण मै सौश्रत श्ञष्द के मिर्ने पर मी बाद मे उसके प्रक्षिप
उसके अनुयायी क्षारपाणि, हारीत, जातूकणे, पराश्चर तथा मेड होने से पाणिनि द्वारा उसके उपदिष्ट होने का निश्चय न होनेसे
आदि तथा कादयप जीवक ओर सुश्रत के नाम तथा उनके नामे भाष्यकार द्वारा उस खत्र की व्याख्या न की होने से उसके पाणिनीय
ओषधि्यौ का उव्लेख मिलता है । उसमे आई हुई कुद ओषधिर्यो कै सिद्ध न होरे से तथा महाभाष्यकार द्वारा सुश्रुत के वेचकाचायं होने
वर्तमान चरक संहिता मे मिलने पर भमी उसमे आत्रेय नाम से का प्रमाण न मिख्ने से महामाष्य मे आया हमा सुश्रुत यदी व्यक्ति
उल्लेख किया गया है। चरक तथा नागाज्जुन के नामों का इसमे उक्छेख है रेसा निश्चय से नदीं क्य जा सकता । परन्तु एेसी बातत नहीं हे ।
नहीं मिता है । चरक नाम ते प्रसिद्ध चरकसंहिता के आविाव योगः भ इसी नागाजैन के प्रतीत होते ह! सप्तम शताब्दी का
साक्यभिष्ठु नागाजँन ज्ञातवाहन का समकालीन सिद्ध होता है) निर्हैद् करने वाला अल्वेरुनी का ठेख दयन्‌ सङ्क के रेख से ही खंडित
न मिक्नेसे
हयुन्‌ सङ्ग ने बोधिसत्त्व तथा धातुवाद ( रसायन ) के विद्वान्‌ होने ते हो जाने के कारण, उसके अनुसार अन्य नागार्जुन के
के सम.
इसी रातवाहन कै समकाटीन नागाजन का सम्भवतः उच्केख आनुश्नविक तथा कार्पनिक समय को लिखकर दातवाहन
किया है । नागाज॑न द्वारा सातवाहन कौ रसायन रिका ओषधि कालीन नागाज॑न से ही अभिप्राय प्रतीत होता है । माध्यमिक
वृत्ति
केदेनेका उल्लेख भी मिलता है! बाणसद्र फे हषं चरित (उ. ८) मे|. तथा उपायहृदय ८ च्ायानु्राद रूप से प्रका्ित ) मं तान्तिक विष्यो
समतिक्रामति च कियत्यपि कारे तामेकावलीं तस्मान्नागराजा- सते रहित केवर अध्यात्म प्रधान प्रौद्‌ दरी के होने से इस तान्िकं
ज्नागा्ज॑नो नाम. ---ङेमे च, त्रिसमुद्राधिपतये श्ातवाहनाय नामाज॑न से भिन्न नागाजैन की कृतियां प्रतीत होती दै । उपायहृदय
नरेन्द्राय सुदटदे स ददौ ताम्‌? इस ठेख से नागान द्वारा अपने नै दद्यंन से सिन्न विषयों के प्रसङ्ग में भैषज्य विद्या कै प्रघानविषय
मित्र श्ातवाहन कौ रत्नो की एकावटी ८(हार ) कै देने के उल्छेख रूप ६ यैषञ्य धर्मौ का केवर साधारण रूप से ( नाममात्र , निर्देश
से इन दोनो की मित्रता तथा समान कार प्रतीत होता है। होने से तथा धातु रसायन आद्ि.गिष्या का बिल्कुर उछेखव न
इस प्रकार द्ातव्राहन का समकालीन वोधिसचस्थानीय अत्यन्त ने से इस उपायहदय तथा माध्यमिक वृत्ति का निमता अन्य ही
निदान्‌ तथा तन्त्र भिचा मेँ निपुण नागा्ज॑न रसायन तथा प्ैवक का महायान पथ का स्थापक दादेनिक आर्यं नागाजुन प्रतीत होता है ।
मी विद्वान्‌ प्रतीत होता है । इस प्रकार तन्तौ से युक्त बौद्ध अध्यात्स- राजतरङ्गिणी मे निर्दिष्ट नागान कावौद्ध होनेपर मी राजा
मन्थ तक्चप्रकार्च आदि मी इस्त तान्तविक तथा बोधिसत्व नागाज्ुन के रूप भ उछेख किया गया है । माध्यमिक वृत्ति आदि के क्ता `
के हो सकते हे । पाटकिपुत्र फे शिलापट्ट पर चि हुए 'नागाज्ज॑नेन नागार्जन का कहीं मी राजाके रूप मेँ उछेख न भिल्ने से केवर |
किखिताः स्तम्भे पाटरिपुत्रकेः तथा इन्द मौर चक्रपाणि द्वारा समान नामवाला राजा नागाजन कोई भिन्न ही व्यक्ति प्रतीत दोता है।
दिये गये नागाज्जुन के असक २ रोग के प्रतिकार के छ्थि ओषध- (१) इसकी टि० उपो०संस्कृत १० ३४ का० १ देख ।
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उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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शत्‌ श्ठतः, क्म्‌ कर्मकरः? आदि र्ध की तरह ह्यो हलन्त भाष्यकार दारा व्यि हए कुतपसौश्रुतः? तथा गणाठ्कार दवारा
सुश्रुत शब्द विव प्रत्ययान्त है तथा अदन्त सुश्रुत शब्द क्त प्रत्ययान्त दिये हुए “पा्थिवसौशरुतः” र्द मे हरन्त खश्रत्‌ शब्द से सोश्रत
दे।ये दोनों दाच्द केवट प्रत्यय मेद से आंद्धिक मेद्‌ कौ प्रर करते राब्द की निष्पन्ति
हे या अदन्त सुश्रुत शब्द से दोनो म क्या मेद
हए एकर ही अथं के चकः दै । (इको गुणचरद्धीः इस यत्र कौ व्याख्या हे । मेरा यद असिप्राय
नहींहै कि पाणिनिं के उपदेशरूप मे
म॑ अन्तिम इकार तथा उकार को हौ धुण हो सकने के कारण अग्नि, मिलने वाढे गणपाठ में अथि हद सव र्द पाणिनि
द्वारा दी
वायुः वश्च, म' इ" इत्यादि इकारान्त तथा उकारान्त दब्ध मै ही उपदिष्ट हँ । समय प्रवाह से उसमें दूसरे शब्द मी पीछे से अनु.
गुण दता हे। उपधायत ('अरोऽन्त्यात्‌ पूर्वउपधा" अर्थात्‌ अन्तिम प्रविष्ट हो सकते है विन्तु णक ही काल वाके प्राचीन भाष्यकार
अल्‌- वसे पृवैवणैकवा नाम पधा होता है) इकार, उकार में तथा वातिककार आदि द्वारा सर्वके उदाहरणम दिये ह्येते से
यण नदीं हौता यह दिखलने कै स्यि हरन्त न्दम ही प्रस्युदा- गणपाठ मे भये इए सौशरुत शब्द को तथा यिदेप वक्तव्य
के न होते
ह्रणकरा द्विधा जाना संभव होने से तथा दृलन्त सुश्रुत्‌ राब्द में से व्याख्यारदहित
कु प्रौ फो केवर माष्य मै न दिया हेते से उन
गुणन हो सक्रने के कारण (उपधा मे उकार होने से) माष्यकार्‌ सरघा को अपाणिनीय वत्तलाना दुःसादप्त है । माष्यकार्‌ द्वारा बहुत
ते शुश्रुत्‌-सौश्रुतः" यह हरन्त खब्द दिथा ह । दन्त सुश्रुत दाग से अभ्याख्यात खर्वो कौ यदि अपाणिनीय कह दिया जाय तो उस २
की तरद अदन्त सुश्रुत दब्दसे मी शसौश्रुतःः दाब्दं बनता हे। अध्याय तथा पाद्‌ कै जन्तमेंदी हुड खौ की संख्या किस प्रकार
बन्नञ्य, माण्डन्य इत्यादि शब्द केवर वश्रतथा मण्डुसे हौ वन पूरी हो सकती हे । पाणिनि के कातेकौजपादि गण मे निदिष्ट ब्द
सकते टं इसथ्यि इसमे प्रकरति ( मूल खन्द ) देने कौ भआयदयकता क्‌] अनुसन्धान करते हुए शेखर आदि व्याकरण ग्रन्थौ में 'सौश्रुत-
नदौनेते ही च्वश्चु-व व्यः तथा (मण्डुः-माण्डव्यःः न पाथिवाःसव्द के मिलने से भिन्न र सौध्रुत तथा पराथिवों (शना)
लिखकर केवल वा्रन्य, साण्ड्व्यदही द्वियाहै। दसी प्रकार यद्वि का परस्पर संवन्ध प्रतीत होता है। तथा पाधिवि चब्दसेभी
सौश्रुत याब् मी केवल हलन्त सु्रत्‌ शाब्द से ही वनना सम्भव सोशरुतशब्द का पूवं प्रयोग दोने से प्रतीत होता है
कि उस समय
हता तौ उस अत्रस्था मे ्रकरृतिरूप से हलन्त सुश्रत ६५ साथ में सौशरृतेः कौ राजाओं दारा सी सम्मान प्राप्त था । सौश्रुताः
पारथि-
(ऋ 9 +

देने की आवदरयवता नं थी । हलन्त सुश्रुत शब्द्‌ की तरह अदन्त वाश्चः दस वहुवचन वले समास मेँ दी शसौश्रुतपाथिवाः चन्द
सुश्रुत दाब्दरसे मी सोध्रुत शब्द वन प्कताहै। परन्तु उपधामत वना दने से पाणिनिके समयमे भी अनेक सुश्रुत सम्प्रदाय वाके
शकार) उवाः कौ वृद्धिकर उदाहरणके छथि अदन्त श्षब्दर से वना र्यो का अनेक राजार्थो के साथ सम्बन्ध प्रतीत होता है पुश्प
हआ सौश्रुत शब्द्‌ उपयोगी न दोकर दन्त शब्द से वना हुआ संहिता खलत्रस्थान के दयुक्तसेनोयाध्याय(४) मे वैव दरा यच्छी
सौशरुत शब्द्‌ उपयोगी है इसख्यि अदन्त शव्द से वने हुए सशर प्रकार निरीक्षण करफे रजा की रक्षा करना, स्कन्धावार (शििधिर
दब्दमे अथेकाभेदन होने परभी प्रक्रत ( मूल रन्भ-दटन्त ख्यवनी ) मेँ मी राजा के साथ रहनातथा राजाद्वासामीवैघका
सुश्रुत शब्द ) सधित श्रुश्रुत्‌-सौश्ुतःः देना परिशेष अर्थं रखता विरैष सन्मान करने का उल्लेख भिख्ता है । दलस्थान के उप-
हे । इसी प्रकार '्तद्धितेष्वचामादेः ( ७-२-११७) दसत सुतर संहार(२) मे भी इस याक का राजा तथा महात्मार्भौ द्रासा भध्य-
कीव्याण्या मे भी सन्तिमि उप्रधाकी वृद्धि कै अपथाद्‌ खूप यन करनेका निर्द्र दहोनैसे शस याश्चके क्षातार्ओ (वेयौ) के
म आदि अच्‌ (स्वर) की बृद्धि करने मै अदन्त मश्रुत शब्द साथ राजार्थो का विदेप संवन्ध खचित किया गयाहै। शतंते
कौ उपधाब्रद्धि सम्भव न होने से तधा हलन्त सृश्रुत्‌ शब्द दी
राजन्‌ भिपजः सहस्रम्‌" ८ ऋक्‌ १-२४-९ ) इस मन्त के अद्‌
श्स उदाहरण के रिय उपयुक्त होने से माष्यक्रार ने दन्त प्रकरति
दारा मी प्राचीन कारम राजार्थो तथा वैका परस्पर संबन्ध
( खत ) के साथ सौश्रुत शब्द दिया दै । शस प्रकार दोनो सानं प्रचित होता दै । महाभारत(३) तथा कौटिकीय८) अर्थाश्च मै मी
मे हलन्त ग्रति (सश्रुत) शब्द देक जो याष्यक्रार्‌ ने अदन्त युद्ध कै प्रकरणमें भिश्ेपरूपसे दाग्बधिकिःसाके च्ाताभोका
प्रकृति का निराकरण किया है उसने यद सिद्ध होता है कि अदन्त सहभाव निर्दिष्ट है । जिन्हे सदा चश्च से युद्ध करमे पडते दै"
सुश्रुत च्ब्दसे भी सौश्वुन ब्द वन सक्रता ह| इसलिये कामोज उन सेना से युक्त राजां क्रे साथ शव्यनिकित्सर्कोका होना
पादि गत मे निट श्सोश्रुतपार्थिवः तथा गोघ्रान्तेवासी माणव- आवरयक भी ह । सुश्रुत के शटयच्िकिस्सक हीने से दी उसके अनु.
बराह्मणेषु शेपे ( ६-२-६९ )ध्व मे निदिष्ट 'भार्यासौश्रतः, दाद यायी सुश्रुतो कै मी राजा के साथ्‌ निकट संवन्ध के अनुसार
का यौगिक अथे द्विखराने कै स्यि कादिका, पदमग( ६) तथा प्रचरित हए श्सौश्रतपार्थिवाःः राब्द वो पाणिनि दवारा गणमे
न्याप आदि भर्न्थो के रचयितार्भोने किसी स्थान पर सुश्रतस्य प्रविष्ट किया जने से न केव शुश्रुत अपितु उसके अनुयाय चर्य
चुत्राः सौश्रुताः (सुश्रुताऽपत्यं सौशरुतः, तथा किसी २ स्थान पर चिकित्सक सौश्तो की मी अत्यन्त प्राचीन कारु से प्रसिद्धितथा
कस्यचित्‌ सुश्रुतोऽपत्यं सौश्रुतः शत्यादि निर्वचन द्वारा दोन राजां द्वारा सम्मान की प्रतीति होती दै! कारिका मे शसौभश्रुत
अदन्त तथा हरन्त सुश्रुत शम्दौ से सौश्रुत शब्द वनाय है । इसे पार्थिवाः, इत पाठान्तर के मिलने ते सौश्वतौ का राजाओं के साथ
प्रतीत होता हे पि बहुत कार पूंइन व्याकरणाचार्यो द्वारा मौ अदन्त य्पि संबन्ध ज्ञात नही होता तथापि इससे सौश्रुतौ की प्रसिद्धि
तथा हलन्त दोनो शब्द्‌ सौशरृतब्द की प्रकृतिके रूप मेँ सीक्षार तथा सम्मानतौ प्रतीत होता द्ीदहे। व्याकरण कै अनुसार सुश्रत
किचे गये ये । यां यह एक प्ररन हो सवता हैकि वातिककारः तथा का वैधकराचार्यतव प्रतीत न होने पर मी शुश्रतस्य छत्राः सोश्रुता
रम२दधे / ` ` `
( १) शसक दि० उपो” संस्कृत १० २४ का (८१) १ ४ त्क की टि० उपौ० संस्कृत १० ३५ का १ देखं ।
उपौद्धात का हिन्दी अनुवदिं ३५
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द्वारा सौश्रत शब्द का अथं ङिखने वाके कारिकाकार तथा न्यास मित्रजित्‌ तथा गान्धार आदि पुत्र एवं गं आदि शिष्यौ द्वारा प्रशन
कार आदि प्राचीन वैयाकरणो के केखसे मौ वह मूलभूत सश्चत किये जनि पर राहो के अश्वसम्बन्धी उपदे तथा प्रष्टाके
साधारण व्यक्ति प्रतीत न होकर विद्या-सम्प्रदाय का प्रवतक होने रूप मे रारिहोत्र के पुत्र स्त का उर्टेख मिक्ता है । रिष्य
से सौश्रुतों का आचाय प्रतीत होता है। विद्या सम्प्रदाय के प्रवर्तक केल्यिमी किसी गन्थमें पुत्र राब्द्‌ का निदेश भिल्ताहै
के रूपमे इस साल्याचायं सुश्रुत को च्ोडकर अन्य किसी सुश्रुत परन्तु यहां पुत्राः शिष्याश्च पृच्छुन्ति विनयेन महामुनिम, इस
का कहं उर्छेख नहीं मिलता है । भिषगाचा्य सुश्रुत का नागाज्ुन वाक्य द्वारा पुत्र वं शिष्यो का पृथक्‌ २ निर्दड ोने से तथा सुश्चुत
दवारा उपायहृद्य मे, वाग्भट, नावनीतक, उरससुच्चय आदि में का अनेक वार पुत्ररूप से स्पष्ट उच्लेख होने ते शालिहोत्र द्वारां
तथा जयवमाँ कै रिरलेख मे मी उच्लेख मिलने एवं इसी केँ मन्थ अश्व्ाख् के विषय मे उपदिष्ट सश्चत चाटिहोत्रका पुत्र ही प्रतीतं `
का अरब आदि दै मे अनुवाद होने से, हरिवंश पुराणके सदृश होता हे। इसके विपरीत खश्चतसंहिता मै रव्यचिवित्सक सश्चत
दिवोदास का ब्राह्मण उपनिषत्‌ आदि मँ भिलने से, सश्रुतसंहिता का विश्वामिचके पुत्र रूपमे निदंर विया गया दहै) महाभारत
मं विदवामित्र के पुत्र सुश्रुत द्वारा दिवोदास से आयुकरद के यरहण आदिमं मी ेसाहौी भिर्ता है। पूव निदिष्ट चार्िहौत्रौक्त
का उल्क होने से तथा महाभारतम मी विदवामिन्रके पत्रमे अश्वासिषेक मन्व मे आयर्ैद के आचार्यौ का निरदैल्ल करते इण
सुश्रुत का उल्लेख होने से प्राचीन समयसेही इस राट्यचिकित्सक (१. १२) अत्रय तथा उस्तके शिष्य अग्निवेश, हारीत, क्षारपाणि,
सुश्रुत कौ ही सम्प्रदाय-प्रवतेक आचायेके रूप मँ प्रसिद्धि प्रतीत जातूकण्यै, परादार तथा अन्य आचार्यौ का उक्लेख होन परस्यै
होती हैः। धन्वन्तरि तथा दिवोदास का उल्लेख नदीं मित्ता, यदि ज्ञाकिहोत
च्छया
सुश्चतसंहिता मै आं रचना कै दिखाई देने, बौद्ध तथा धन्वन्तरि दवाय उपदिष्ट सुश्चत एकी हतौ अश्चत्रैवकके
दीखने, रस धातु आदि ओषधिर्यो के प्रायः न सिर्न, सौनक, कृत- आचार्यं चाखिदतर या उसके शिष्य सश्चत नँ आयुर्वेद के अन्य
वीयं, पारायै, माकंण्डेय, सुभूति गौतम आदि द्ध प्राचीन आचार्यौ के साथ तत्तारीन एवं अत्यन्त प्रसिद्ध धन्वन्तरि तथा
आचार्यो के ही उद्छेख होने तथा दिवौदास जओौर सश्चत शब्द के दिवोदास का उल्छेख क्यो नदीं किया । तथा सुश्ुतसंहिता के कर्ता
स्वरप्रक्रिया मे उदाहरणरूप मे भिख्ने से सुश्चताचाय प्राचीन हय सश्चत को भी अइवराखर के आचायं ह्येने पर भी एक प्रस्थान रूप
प्रतीत होता है । इसं प्रकार प्राचीन काल से अत्यन्त प्रसिद्ध तथा मे इतने प्रसिद्ध अपने पिता या आचाय चालिद्येत्र का कीं प्रसङ्ग
सवके मस्तिष्क मे विद्यमान शट्यचिकित्सक इस सुश्त को द्योड़कर वरा तो निदा करना चाहिये था । अन्य आचार्यौ कै वैक विष्यो
किसी दूरे अनुपस्थित सुश्वुत की कल्पना करना व्यथंहै। इस से मरे हए तथा पचे से मिलाये गये .उन्तरतन्व म सुश्रत, सौश्रत
ल्यि व्याकरण के खत्कार, वातिककार तथा भाष्यकारो द्वारा निर्दिष्ट या प्रतिसंस्कतां ने इसका नाम क्यो नदीं दिया । इस प्रकार रालि-
सश्चत भी यही है जो पणिनि से पूरवेदिवोदास के समान द्यी उप- होत्र का शिष्य एवं पुत्र सुश्रुत तथा धन्वन्तरि हारा उपदिष्ट विद्वा-
निषत्काखीन प्रतीत ह्येता है । बर्बान प्राचीन आश्रय कौ च्यौडकर मित्र का पुत्र सुश्रत दोनो भिन्न २ व्यक्ति प्रतीत होते है ।
उदासोन नदीं होना चाहिये । कदा भी है-- शारिहोत्रेण गर्गेण सुश्रतेन च भाषितम्‌ ।
“उयास्यानतो विरोषप्रतिपत्तिनं हि सन्देहादलक्षणम्‌ तरव यद्वाजिसाखस्य तत्सर्वमिह संस्थितम्‌ ॥
इसके अतिरिक्त आग्नेय पुराण में (अ. २७९-२९२ ) नर दुरम गण करत सिद्धोपदेरसंग्रह नामक अश्ववैयक अन्ध कै
अश्व तथा गौं से संबन्धित आयुवेद के पिषय मे जिज्ञासापूवेक उप्यक्त इलोक मेँ सुश्रुत का अश्ववै्यक कै उपदेष्टा के रूप गँ उल्लेखं
प्रन करने पर सश्चत को धन्वन्तरि द्वारा उसके उपदेरा का किया गया है । परन्तु अरिनि पुराण के अनुसार धन्वन्तरि कै शिष्यं
वर्णन भिख्ने से धन्वन्तरि के समान उस्तका शिष्य सुश्चुत मी सश्रुतका भी अववेयकका ज्ञाता दौना प्रकर होतादहै। इस
मनुष्यो के आयुवैद कौ तरह गौ तथा अश्च संबन्धी आयुवेद प्रकार यह नहीं कहा जा सकता कि इस लोक मँ अश्वद्राख् के उप-
कामी ज्ञाता प्रतीत होता है। यहु आग्नेय पुराणमें आया हज देराककेरूपमै दिया हा सुश्रत शाच्हिच्र का रिष्यदहै या
सुश्रत मी धन्वन्तरि के साहचर्यं से सुश्चतसंहिताका चायं धन्वन्तरि का) यदि शािहोत्र तथा गगे के साहचयै से इस दुरुभ
८ निबन्धा ) ही प्रतीत होता है । एक व्यक्ति का अनेक विन्ञार्नौ मंगणौक्त सुश्रुतको शाखिहोत्र कारिष्य मानभीरं तो उसी के
परवेद होना पायः भिल्ता है । राखि के मन्थ मँ प्रष्टा ( रिष्य ). वचन के अनुसार इसका अश्वद्याख्च संबन्धी कोई अन्थ होना
रूप से सुश्रुत का नाम आता दहै। अश्वाश्च के प्रवतैक सारिदहोत्र चाहिये । परन्त॒ इस शालिहोत्र के पुत्र सुश्रुत का आजकर एत-
कै विषय मे श्री भिरीन्द्रनाथ(१) महोदय ने विकेष कूप से विषैचन द्विषयक कोई ग्रन्थ नदीं मिरूता है । उसके ग्रन्थ का उर्केख वचनो
किया है। कल्कन्ता से प्रकारचित जयदन्त के अश्वचिकित्सा कौ का उद्धरणं तथा नाम माच मी इस गणक्रत ग्रन्थ के अतिरिक्त
भूमिका मे मी कुदं वणेन दिया है । एतद्विषयक सिस्तृत विवरण अन्य किसी भी आयुर्द के अरन्थमे नहीं मिरुताहै। इस छियि
वहीं से जानना चाहिये । शालिहोत्र मन्थ का ङु अद्य. कीं इस सुश्ठुत के विषय मे अव कुद सी कहना किन है। न्थ के
पुस्तकालय में संभवतः मिरूता है । मेने उसे नहीं देखा है तथापि भिल्ने से, अन्य मन्थो मे निर्दे होने से, अन्य आचार्यौ द्वारा
पूवेनिदिष्ट हेमाद्वि के रश्चणप्रकार के अश्चगप्रकरण में कुद शालि ग्रहण किया जाने से तथा रशिलङेख आदि के उकल्छेख से धान्वन्तरं
हेच के अवशा संबन्धी वचन उद्धृत मिरूते है । इसमें सुश्चुत(२) सुग कौ जिस प्रकार प्रसिद्धि है वैस शाङिहीतर के पुत्र खश्चुतकी
(१)१से२ तक की दि० उपो० संस्कृत ¶० ३५ का०र दें प्रसिद्धि नही है। इस छथि जहां भ ठ्ठतके नामका निर्देश
३६ उपीडात का हिन्दी अनुव
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मिक्ता है वहां साधक एवं बाधक प्रमाणो के अमाव मै ह्टयचिकि- सन्तति प्रतीत नदीं होती है । अश्वघोष का साकेतवती तथा दारित
त्सक एवं धान्वन्तर सुश्रुत की हौ प्रतीति होती है । पश्थितोत्तरग्रदेदावर्तीं होना भी इसी वात को प्रकट करता हे।
कुर खेग दोनो प्रतौ को एकता स्वीकार कर तथा शालिहोत्र जश्वघोप के पुत्र रूप मं केह्ित शादो के पु सुश्रत के साथ
के ङेख से सश्चत को शालिहोत्र का पुत्र मानकर नकृलक्रत अश्वचि- यदि रस्याचायं सुश्रुत का अभेद माना जाय तौ कनिष्का तथा अश्च
कित्सा के "पायाष्ः स तुरङ्गघोषतनयः श्रीश्चारिहोत्रो सुनिः' घोष कै समक्रालीन नागा्जुन ने उसके पौत्र रूप म माते गये सुश्रत
दस प्रारम्भिक वाक्य मे जये हुए तुरङ्गघोष सब्दसे अश्वधोप का की सुप्रसिद्धं सिषगाचाय॑ रूपम के प्रगंसा की है तथा इस मवस्था
ग्रहण क्के दाकिदोत्र कौ उसका पुत्र मानते दं । तथा पूरं निदेशा- म नागाजुन द्वारा सुश्रुतसंहिता का प्रतिसंस्वार पिये जाने विषयकं
ससार साखिदोत्र का पुत्र सुश्रत होनेसे शाछिदोव्रतथा सुश्रुतको निदंदाकामभी क्याजथंहै टदोनों सुश्रत काभयेद तथा किष्वं
कनिष्क के समकालीन अश्वघोष से मौ अवांचीन मानतेद। परन्तु समधिक होने पर पाणिनिः वातिककरार ( कात्यायन ) तथा साष्य-
नेपार से प्राप्त अश्वचिकित्सा कौद्ो पुस्तक मं मङ्कलाचरण वाङ्‌ कषर आदि द्वारा सुश्रत खाब्दर का ग्रहण कैसे संमव दयो पकता है,
उप्यक्त प केही न द्विये होने सै मूलम ही यह्‌ मत खण्डितं दो इसलिये यह सव भिरथंक है |
जाता है । परन्तु यदिउस्प्यकोमान मी लिया जाय तो मी अन्तमं युक्तिपूवक विक्रम संबत्‌के पूवं ६ ढी रतान्दी मे
शालिहोत्र के न्थ तथा अन्य अश्वयितरिन्साके अरन्थौ के प्रारम्भमं सुश्रुत के समयको सिद्ध करने वाके दाने (4. ए, "4०1९
बरह्मा तथा इन्द्र फे साथ आया हुमा तथा मूलसंहिता के कती कै रूप १०६०९] ) नामक प्रश्चाच्य(४) विद्वान्‌ के ठे कै अनुसार भी वह
मे निर्दिष्ट राखिहोत्र प्राचीन ही प्रतीत होता है । साटिहोतके ग्रन्थ प्राचीन सिद्ध होता द । कुच्र(र) विद्वान्‌ कहते दै कि पृरणरूप से
मै द्वा तथा सगर दारा दाछिदोच से प्रन करने का निर्दय निश्चय न दोन पर भीःसुश्रुत का समय दस्वी संवत्‌ ते ६०० दषं
होना मी द्रालिहोत्र को प्राचीन सिद्ध करता है। शालिहोत्र का पूवं हे । कुन अन्य (३)िद्ान्‌ कहते दहै भि सुश्वुन मे सात प्रकार कै
केवर पंचतन् कै प्रारम्भ में ही उल्लेख नदीं दै अपितु महाभारत वै कुष्ट वा वणन मिलता दै । शस रोगका मारत तथा चीन देल के
वनपवं(१) मे अश्वैः के पारखी नलकीक्शरा मे मी इसका उल्लेख निवाससियो ने २५०० वपं पूवं ज्ञान प्राप्त किया था। इस प्रकार सश्रत
हे | वहां माये हृए सादो का अर्व कै विशेषज्ञ रूप मे वणेन लगभग दाद हजार ( २५०० ) वपं प्राचीन प्रतीत होता है । सश्चुत-
होने से तथा अन्य प्रकरण कफो देकर वहु यही आनाय प्रतीत दत संहिता का रेटिति भाषा मे मनुब्ाद करने वाके द्यासलर(४)
है । उपकूब्धं द्राणिहोत्र संहिता चाहे रालिदोत्र कौ दस्तङिजित हो, ( पल्छशलः ) नामक्र पाश्च विदान्‌ तथा श्रीयत गिरीन्द्रताथ(८५)
चाहे ग्रनिसंस्छरन हो ओर चाहै उसी फे सम्प्रदाय वारे किसी अन्य सुख्रोपाध्याय आदिने मो दस्वी सन्‌ से लगमय एक सदस वर्षं पूरं
व्यक्ति दाया उपदिष्ट हो परन्तु अश्वद्रास्न फा परम आनात्रं शालिहोत्र ( इ८ पू० १८०० ) सुश्रत का समय निःतकिया है| ।
अस्यन्त प्राचीन न्यक्ति है इसमे किसीको सन्देह नही दहै। इस दस प्रकार भिन्न र ग्िह्ठान कै दृषछरिणस्ते धिचार्‌ करने पर
प्राचीन कऋपि कायुपिषठिर कै माद नकुल द्वागा अप्रते मन्थकै मृश्ुःसंटियाके पूवं भाग करा समय कमस कम भी आज से २६००
मङ्गलाचरण मेँ आचा्यैरूप मँ सन्मानपूवेक ग्रहण भिया जानामी वपं पूवं प्रतीत होता दहे ।
उचित है, इसमे पूर्वापर ग्रन्थ की संगति मी ठीक वरेषठती है। प्राचीन कु लोग सृश्चुवसंहितामे पूवे आब्वार्यो्षौी श्रेणी मै निषदिष्ट
काल ते प्रसिद्ध दस शपि को न्रोडकर त्रक्गघोप से अश्वधोपकी सुभूति गौतम को शक्यसि का धिष्य मानकर सुश्रुत कौ बद्धक
कर्पना करके सारिदौत्र तथा सुश्रुत को क्रमशः उसके पत्र तथा पौत्र वराद का स्प्ीकार करते ह। अष्टसादशिक्रा तथा चत्रसाहसिका आद्रि
मानने से ते सारा इतिहास द्यी गदु हो जाना दै । अश्वाश्च या द्ध यन्म यद्यपि सुभूति नाम अवदय भिटता ह परन्तु वहां
प्रथम आचाय ( प्रवता) यद्धि कनिष्क सामयिक अश्वघोष का पृत्र आयुष्मत्‌ सुभूति, स्थयिर्‌ समूनि भद्ि शव्द ह्वी दिये गये है,
हौ तो कनिष्कके बाददही इसके शाख्लका निर्माण होना चाहिमरे, मुभूतियौनय का उच्छेतर नष है । वौद्ध्न्थे। मे सुभूति कै अध्यात्र
उक्ष अवस्थार्मे कौटिलीय(र) अ्शास्न मे आये हुये अथद्याट- व्रिपय का उद्छेख किया गया ह 1 वक्र कै आनाय्य मै वहां
निर्माण, आदहार-करपना, उनकी जातिया तथा चिकित्सकः कै नाम उस्रा उस्लेत न भिल्नै स्ने सुश्वतसदिता मं आया हृजा सुभूतिः
श्त्यादि संक्षेप मे मिलने वे प्रिथ उसमे कटां से आ गये । अशक गौतम बौद्ध न होकर अन्य ही प्राचीन वेघयानार्यं प्रतीत होता है।
दारा मारतीय चिकित्सा के आधार पर अपने द्वेश फी तरह विद्शं सभूतिगौतम को यदि बौद्ध भाचा्य माना जायत उत्ते मी पू
म सी अश्व आदि प््युभो कै चिर्रित्सार्योः का उदान किया आचार्यौ मे शिनने चकि सुश्रुतके रेमे यदध हाया अवद्य भिर्नी
जाना किसके आधार प्रर माना जाय । यहुस्यष्टहै कि अश्वधोप बुद्ध त्ाहिये । बौद्ध द्ययाकेन भिल्नैसे सभूतिगौततम बौद्धनदींदहो
सम्प्रदाय का प्रधान आचार्यं है। परन्तु दालिहो्र के अन्ध रमँ सकता | स्थधिर म॒भूतिका व्याकरण मिख्ने से केवल नाम की
अश्वाभिषेकं प्रकरण में केवर श्रौत छ्पिर्यो के नाम, ब्रक्षवोप, श्रौत समानता दौने से वहं सुभूति मी प्राचीन तथाबुद्ध का प्रधान शिष्य
यज्ञविधान तथा घोड़ो कों देवताभौ के रूपमे सिद्रहय करते इृए्भी प्रतीत होता है
श्रोत एवं स्मातं देताओं का दयी उल्लेख भिल्ने से शारिोत्राचा्यं वैक दीकाकार्‌ द्वारा की २ उद्धृत वृद्ध स्वल वे वचर्न के
वेदमार्गानुयायी प्रतीत होता है । शालिहोत्र मन्थ तथा सुश्रतसंहिता द्विखाई देने से तथा उन उद्धृन वन्चर्नो कै वतमान सुश्चुतसंदिता मेँ
मेँ बोद्ध शयाकेनमभिण्नेमेभीये दोनो दौद्धाचाय अश्वघोष की न भिरूने से तथा (ओपघेनवमौरभ्रम्‌ इत्यादि सश्रुनोक्त पथ मै मी
(१) १से.२ तक की रिण उपो० संस्कृत ए०. २९ का० २ द्रे । (१)१९ते५ तक की टि० उपो संस्कृत ४० ३७ का०१ देर्ख।
$पोद्धात का हिन्दी अनुवाद २७
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सौश्रुत का पृथक्‌ निर्देश होने से कुष रोग कहते है कि वतमान के अनुरूप रिरिर से प्रारम्भ करके हेमन्त तक & ऋषठर्ओ का निदंड
सश्रुतसंहिता से भिन्न वृद्धसुश्रत का सीश्चुत तन्त्र पूवंकारु मं पिचमान करके पुनः अगे ही वाक्य मे सदी, गमी तथा वषाके मेद से तीनों
धा । परन्तु स॒श्चतसंहिता में ब्रद्सुश्चुत का पूवाचार्यो मे निर्देश न दौ के उपचय (संचय), प्रकोप एवं संदमन की अवस्था के
होने से, महाभारत के आदिमं मी बिद्वामित्रफेपुत्र कैरूपमें अनुसार अमुक समय मै उपचित एवं प्रकुपित दोष को अमुक समय
कवर सुश्रत कृ। हयी उल्लेख होने से, महाभाष्यकार, नावनीतक, मे चान्त करना चादिये इत्यादि षज्य प्रक्रिया कै उपयोगी ऋतु
` नागाज्ञ॑न, वाग्भट तथा ्वरसमुच्य आदिमे सश्चत नाम काही को बतलाने के ल्य ह्‌ तु? इत्यादि दवारा दक्षिणायन वारे विभाग
निर्दे होने से, अरव आदि दूरदेशौमेसी इस सुश्चुतकी संहिता को दिया है | इसमें वषा, शरद्‌ , हेमन्त, वसन्त, गरीष्म तथा प्राबरट्‌
काही अनुवाद एवं प्रचार होने से, कम्बोडिया स्थित यद्ोवमां क ऋतुओं का उकल्छेख होने से प्रथम प्रक्रिया ( ऋटुविमाग ) मे चार
रिलञ्खमें मी सुश्चुत काही उल्छेख होने से, वृद्धसुश्चत नाम से मास सर्दीकेतथादो मास्त वषांकफेजतेदहैं। ओर द्वितीय प्रक्रिया
भिल्ने वारे वचनो मेँ प्राचीन स्चना एवं प्रौढता नं दिखलदं देने मे दो मास सर्दी के ओौर चार माक्तवषांके होतेहै। दूसरी प्रक्रिया
से, उसके वचनो के अनुसार वृद्ध सुश्चुत का शस्याचयं सिद्ध न होने चिकित्साधिज्ञान के उपयोग के लिये प्रतीत होती है। कादयपसंहितामें
टीकाकारो एवं अवाचीन ङेखकों दारा कहीं २ उद्धृत वृद्ध सुश्चुत ऋतु सम्बन्धी अध्याय के खण्डित होने पर मी अत्रेय भौर मेडसं-
सेकौनदहै, क्वहुमादहै, इसकाकौनसा अन्थदहै, किसर प्रस्थान हिता मे मैषञ्य सम्बन्धी द्वितोय छऋत्विभाय काही रहण किया गया
( विसाग ) का यह आचायं है--इत्यादि सवर पिषयोँ के अज्ञात दने है। इस प्रकार आयुवंदीय पद्धति मे चिकित्सा की दृष्टि से हेमन्त एवं
से पृ्वदिषट दिवोदास के सिष्य, प्रसिद्ध एवं विश्रुत सुश्रुत कौ शिरिर के अभेद तथा प्रादृट्‌ मौर वषां केमेद को प्रकट करते हुए
छोड कर अज्ञात वृद्ध सुश्रुत को शय्यतन्त्र का पूर्वाचार्य सिद्ध ऋतु विष का गहण करने के ल्यि दी “इह तुः इत्यादि पद से
करने के खयि अत्यन्त दृढ प्रमाणं की आवदयकता है। इसके आयुवेदीय मागं के अनुसार स्वदेश के अनुरूप ऋतुपिमाग सुश्रुत
अतिरिक्त- । मै दिया गया है । किसी टीकाकार ने “इह” शाब्द का उपयुक्त अथं
ओपधेनवमोरभरं सोश्रतं पौष्कावतम्‌ । किया है। परन्तु यह टीक नहीं है क्योकि किपी शाल मेँ.
दोषाणां शल्यतन्त्राणां मूखान्येतानि निर्दिशेत्‌ ॥ सावैदेडिक ऋतुविभाग को एक रूप से कहना संगत नहीं प्रतीत
उपयुक्त ररोक सुश्रुतसंहिता के उपक्रम मै का्लीराज द्विषोदास दोता । भारत या अन्यक्सीभीदेदामं सव जगह एक्‌ समान
के पास शिष्यरूप से अये हट ओौपघेनव, ओर, पौष्कलावत, ऋतु विभाग नहीं हो सकता । प्रत्येक देम सदी तथा गमी के
करवीयं, गौ पुर रक्षित, सुश्रुत आदि का निरदैश करके कहा गया है | सेद से ऋतुं भायः वद्रकती रहती हैँ। सिंह प्रदे (छंका-सीलोन) . .
इनमे ओपयेनव, ओरभ्र, पुष्कलावत तथा सुश्रुत हारा बनाये हुए मं प्रायः सदा ओं ऋवुर्णे समान होती हँ । परन्तु ठेसा सव जगद्‌
त्रौ का निर्दंश्च करने के लियि तदीयाथंक प्रत्ययान्त सौध्रुत आदि नहीं हयो सकता । कदी बहुत दैर तक अत्यन्त सदी पडती है, कहीं
प॒द दिये गये है । सव तन्त्रः मै इसकी प्रधानता दिखाने के च्थिदही बहुत देर तक भयंकर ग्म पडती है ओर कीं वर्ष की बहुरूता
अपते ही न्धे मेँ पुनः सौश्रुत शब्द द्विया गया है। यद्वि इस सौश्ुत होती है । मद्रास आदि दक्षिणे प्रदेदो मे मा्ग्ीषं तथा पौष
शाब्द को देखकर अन्य सुश्रुत की कल्पना की जाय तो उस न्यायसे मे आम की मंजरियां (वौर)आ जाती ओर फाल्युन तथा
ओपधेनव आदि आचार्यौ के तन्त्र मी पथक्‌ रूप मेँ मिर्ने चाहिये । चैव मे उसके फल भी पकर जाति है । जयं २ ऊपर पवेतीय प्रदेश कौ
अपने यन्थ मेँ अपना ही नाम उल्लेख करने की प्रथा कौरिीय ओर चलते जाय त्यों २आम पकते है।इस प्रकार पवेतोय प्रदेश होने
अथंराख आदि प्राचीन थन्थौ मे मी मिलती है। इसल्ियि ओपधे- सेनेषार म वैदाख में आममे बौर आता है ओर अन्तम भाद्रपद
नव आदि तन्त्रौ के समान अपने तन्व ( सुश्रुतस्तंहिता ) की प्रधानता तथा आशिन मेँ इसके फर पकंति है । इसी प्रकार चाक, पुष्प, फल
दिखने के छ्य अपने नाम का निर्दय करना अलुचित नहीं है। तथा ओषधि आदि कै पकने का समय भीदेदामेद सेभिन्नेर होता
उपरुब्ध सुश्रुतसंहिता मेँ कीं २ जो अवाचीन विष्यो की प्रतीति है । देश के अनुसार सर्दी-गमीं तथा जलवायु आदि मै परिवतंन
होती है वहु संस्कारके कारणया पराठमेद के दोष से संभव है हो जाने के कारण जहां जेसी परिस्थिति हो, उसी के अनुसार गुण
जिसका विवरण पीके संस्करण के प्रकरण में द्विया जायगा । तथा दोषो को जानकर चिकित्सकों को चिकित्सा कायं मेँ प्रवृत्त
वैदिक अवस्था मे आर्यो के निवास स्थान की परिस्थितियों कै होना चाद्ये, इसचख्यि शह तुः पद से आचाय का उपदेश्च स्थल
अनुसार विमनक्त वसन्त, ग्रीष्म, वषा, शरद्‌ › हेमन्त तथा रिशिर इन प्रतीत द्योता है । पूव प्रचङ्िति छतु चिमाग का प्रारम्भमें निर्देश
£ तुभं का वैदिक सादहिव्य(१) मे उस्लेख भिरूता है । इनमें करके इह तु? के द्वारा उपदेश स्थर म दूसरे तु विभागमे
वसन्त या अन्य किसी एक ऋतु से प्रारम्भ करके समाप्त किये हए प्रावृट्‌ तथा वर्षा रूप वृष्टि के समयक दुगुतेदियेदोनेसेव्ह
ऋतु पयावतं ( ऋतुओं के चक्र ) को संस्र कहते है । प्राचीन
स्थान ेसा होना चाहिये जहां सदी दो मास तथा वषौ चार
परिस्थितियों मे निमित यद ऋतु विभाग वाद मे "वसन्तादिभ्यष्ठक्‌? मास होती है । स्थानभेद से वर्षा का तारतम्य (कमी अथवा अधि- _ .
(४-२-६३ ) खत दारा पाणिनि द्वारा म हण किया गया है कता ) देखने मेँ आतादहीरहै। भारतम मी भीष्मके अन्तर्मे.
तथा आजकरु भी लोक मं प्रचलित है । सुश्रुतसंहिता के छतुः्चया- बंगाल कौ खाड़ी अथवा अरब सागर से जल लेकर उटे हुए बादल |
ध्याय मे पहके उत्तरायण आदि कौ प्रारम्भ करके प्रचलिते प्रक्रिया ( मानखन ) वायन्य दिया कौ ओर वदता हआ उनर प्रदेशमे.
(१) १ की टि० उपौ० संस्कृत १० ३७ का० २ देख । करमश्चः वषा करता जाता है तथा हिमाख्य या अन्य ऊंचे पहाङ
३८ उपौद्धात का हिन्दी अनुवादं
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की चोधियौँ से रककर पश्चिम द्िक्लामंन जा सकने य कारण 08 (०05०068 ) की प्रधानता का उल्लेख होने से सुश्रुतकी `
चिरापूजी ( ताल्ब्पण ) आद्वि स्थानों म वहत अपिक वषा सन्तति या दिष्योका मी हिमालय के समीपकिसी दवेश्च मे रहते
करता है । ज्यो र्ये प्राछरतिक परिस्थितियां अधिक पैदा दौगी की कल्पना होती है । प्रचण्ड गरमीते सिर कौ तपाने वाली वारा-
त्यौ २ वर्षाके समय की अधिकता वदृती जायगी यद्‌ वैज्ञानिकों का णसी मं रहने पर कुतप प्राधान्य (कुतपरूपं कम्बक ओदना )युक्ति-
सिद्धान्त है । सुश्रुत में द्विवे हुए भपज्यानुत्रूल द्वितीय ऋतु विभाग युक्त प्रतीत नहीं होता ¦
मै वपा तथा प्रब्ट्‌ क्तु का पृथक्‌ २ निर्दैदा किया गयादहै। काशी यहां उप्त दो ऋवतुविमागो का उल्छेख देखकर श्रीयत
म वाँ समय के द्ेगुण्य काअमाव होने से इस द्वितीय ऋतुविमाग एकेन्द्रनाथ घोष) का मत दहेकि गणितक दिसावसे संहिता कै
का वहां हौना सम्मघन दोने से इहतु प्दसे उसी द्वितीय निर्माण तथा संस्करण मै १५०० (डद हजाए)
वषं का अन्तर
ऋतुविभाग के ही अनुरूप कोद दूसरा प्रदेश प्रतीत होता ह । स॒श्रुत प्रतीत्त होता हे । त्था पूर्वोक्त वणन के अनुसार धन्वन्तरि, दिवोदास
की टीका में काच्यपवै नाम सै निम्न इटोक मिलते दै तथा सुश्त मं इतने समय का व्यवधान नहींहो सकता । सुश्रत कै
भूयो वर्षति पर्जन्यो गङ्गाया दरषिणे जम्‌ । अयाय या किसी अन्य व्यक्तिद्वारा वादमे क्िथिदहुए संस्करणमें
तेन प्रावृपवर्षाख्यौ ऋतू तेषां प्रकल्पितो ॥ यह्‌ संभव हे । परन्तु स॒श्चनसंदिता क संस्करण युक्त इस उन्तरतन्त्
गद्या उत्तरे कूरे हिमवद्धिमसं
कुरे । काही सातर्बरी-ज्रीं यताब्दी मं अरव आदि दै्ौ म अनुव्राद
भूयः शीतमतस्तेषां हेमन्तशचिश्षिराघत्‌ ॥ मिलने सै तथा कम्बोडिया से भि हुए यद्ोवमा के रिलल्खम
दन रलोको के द्वारा गङ्घा के उत्तर मं दिमाल्य प्रदैश मे देमन्तं भी इसका उल्लेख भिल्ने से इतने दूर देद्य म स्सा प्रचार होने
दिरिरखूय शीतदरैरण्य तथा गङ्गाके दक्षिण मँ प्रावृट्‌ वपारूप फे लिये विद्ेष काल की अपेक्षा होने से तथा वारभट, उ्वरसमुच्चय
वृिुण्य का बौध होता हे । यहां शङ्खा? पद से वाराणसीगत्त आदि मे भी उन्तरतन्त्र के मिलने से नागाञ्जन दवाय इसमे संस्कार
ग्वा का ग्रहण न्हींहे क्योकि वष्ट गक्धाके दक्षिण तथा उन्तरमं का उव्छेख होने पर भी दत्त व्रतेमान रूप मै उपस्थित संस्कारधुक्त
उपयुक्त भद्र प्रतीत नदद होताहे। अपितु गङ्गाद्वार से निकलने संहिता का समय अन्ततीगत्वा १७-६८ सौ वपर पूवंका निश्चित होने
वाली गङ्गाका ग्रहण व्योः कां उन्तर मे इपितद्रैयण्य तथा से इसमे उपरिनिर्िष्ट १५०० ( उद्‌ हजार › वर्धं भिराने से मू
दक्षिणमँ वृषछियुण्यका होना सम्भवदहै। उपयुक्त सिद्धान्त से संहिता का काट ३२०० वपं पूवं निधित होता दै ।
¶इह्‌ तु" इस परद्र सै वृष्टि समय द्व्य व्रि गङ्गाके दक्षिण मागमे धन्वन्तरि दिवोदास, बायाँविद(२) तथा वामक(३) का्चीपति
स्थित किसी प्रदेश का यहण होना चाये । रूप से निर्दे होने से प्रतीत दोता है पि बहुत से वे्ाचाथै राज-
यद्यपि मावप्रकाङ(१) मे विश्वामित्र द्वासा अपने पुत्र सुश्रुत पिरयो दारा प्राचीन काट मे काद्यीमें वे्यक्रविया की प्रति की
कोअन्यसौ मुनि पुरक साथ द्विषोदास से वंक यिघायै गद थी । बुद्धकारीन वाङ्ची के युवराज ब्रह्मदत्तका सायुत्द तिचा
अध्ययन के श्थि काद्मी भेजने का निर्दे होने तथा सुश्रत के अध्ययन कै ङियितक्षद्िला जाने कै जातक भ्र््थो मे रि गये
संहिता में स्य आश्रम मे विद्यमान काडीराज द्विवोदास के पास्त उव्टेख से पूररपरम्परागत आयुर्वद यया वो रक्षाके स्थि काकली के
जाकर सुश्रुत आदविर्यो के अध्ययन का उल्टेख दने से काञ्ची स्थित राजकरलमे अनुराग प्रकट होता दै। सुशतक्तदितामे जौपयेनव, भौर
किसी आश्रम मे सुश्रुत आद्विये(कौ उक्र द्विया गया प्रतीत सीश्त तथा पौष्कटाघ्रत आदि चारो षास्मानसूपसे निर्द॑श्च होने
होता है ! परन्तु श्ृह तुर दवाय निर्दिष्ट उपयुक्त वृषटद्युण्य समय से तथा श्नमें से पिसके तन्व्र का उस समय व्रि प्रचलनथा
के कादि मे सभवन होने से तथा महाभारत मे मं हदे दिवोदास इसका निर्दश्य न भिस्नेपरर मौ नागार्जुन पथा दीकाकाररी ह्यय `
की कथा मे हैदर्या दाया आक्रान्त दिवोदास का राञ्य छिन जनि सश्चत तथा सौश्रुत का विक्षेप यदहण किया होने से तथा ओपधेनव
पर भरद्राज के आश्रम मे जाने का उ्ले मिलने ते संभवतः राज्य आद्धिकेनामकाभी निद॑श्चन दीने से यह्‌ कल्यना कौ जा
शिन जाने पर सुनि के आश्म मेँ अथवा प्राचीन राजा्। केअन्तिम सकतौ है फिसुश्रत का सम्प्रदाय पचिम द्विश्चामे तथा पिद्देषररूप
अवस्था मेँ वानप्रस्थ की प्रथा के भिरे से वानप्रस्थी होकर आश्रम से पूर्वै देर््ामे प्रचलिता । यतौ निश्वयसे नर्द कदा जा
मे जाकर वृष्टिसिमय की भधिकता वाले गङ्घद्रार के दक्षिणस्थ सता कि पथ्िम देल मे काय चिकित्सा तधा शादो आद्रि पूवं
किसी प्रदेश मेँद्विवोदास द्वारा सुश्रुत कौ उपदेश द्विया जाना प्रतीत के देखो मे सृष्त की दस्यचिकिम्साद्ी प्रचलति थी। काशी कै
होता है। इस प्रकार दृह तुः पदर से आश्रमस्य का अभिप्राय ध्रन्वन्तरि सम्प्रदाये भी आद प्रस्थान ( विभागो) का उल्लेख
प्रतीत होता है । आश्रम माकर उपद्र करने प्रमी द्विषोद्रासतको मिटता है । “विविधानि श्ाख्राणि भिपजां प्रचरन्ति रोके? द्वार
पू्वाधिपत्य फी दृष्टि से स्रुत मेँ कश्चिराजरूय से निर्देश भिया स्वयं आ्रेय ने मी सव स्थानौ मे अनेक विित्सा-पिक्नानो के
गया प्रतीत ह्येता है । महाभाष्यकार द्वारा शाक पार्थिवादधि (२-३-७५) प्रचार का उल्लेख किया है) चरकसंहिता कै अनुसार पाश्चाक तथा
गण के उदाहरण मँ "कतपवासाः सौश्रुतः कतपसौश्रुतः के कामिपिस्य आद्धिदेर्शो मे, मेड के ठेखानु्तार गान्धार मेँ तथा
निर्देश द्वारा सौश्रतो के कम्बररूप कुतप ( दाग कम्बल-& 50 कादयप के अनुसार गङ्गाद्वार पर स्थित कनखल आद्रि मँ आगयुर्वदः
ण ाकणार्८-70906 0 € 0 9 पतप ६0४ धिदा के उपदेश का उच्छेख भिख्नै मे उन २ स्थानों पर भी इस
कमान ७०००००००
|

(१) इव कौ
की ।
टि उपो० संस्कृत १० २८ का° २ दे । ( १) १-३ की हि० उपौ° संस्कृतं ¶० ६८ दे ।
उपोद्धात का हिन्दी अन्नुवाद
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विद्याकौ प्रतिष्ठा प्रतीत होती दहै। इस प्रकार न केवल | कते हे कि छृष्णात्रेय अच्रेय पुनव से भिच्रह्मी व्यक्ति.
अपितु बाह्मेक भिषग्‌ काङ्कायन कै उल्लेख से, बाहीक से छेक्रर चरकसंहिता मे आदि से अन्त तक आत्रेय अथवा पुनस आ
कारौ पयन्त पश्चिमोत्तर देशौ मे आयुवैद के प्रचार तथा उन्नति नाम से व्यवहार होने से, मेडसंहितामें स्प पुनर्वसु त्रेय का
का अनुमान होता है। परन्तु जातक गन्धो काश्ची कै युवराज निर्दय होने से, आत्रेय परम्परा वाठ कृष्णात्रेय नामक किसी 3
ब्रह्मदत्त द्वारा तक्षका जाकर जायुरवेद के अध्ययन के उल्लेख से, आचायंकेमतकामी चरक. तथा मेडसंहितामे दिया होनासं
महावग्ग के अनुसार मगधनिवासी वुद्ध-समकाटीन जीवक द्वारा होने से तथा दृष्णत्रेय जौर पुनर्ध॑सु अध्ेयका कीं भी एः
समीपस्थ काशी कौ उपेक्षा करके तक्षदिला जाक रमेषञ्य पिच्यामें प्रयोग न मिख्ने से क्ृष्णाव्रेय तथा पुनव आत्रेय भिन्न २ आर
विरेष कुराल्ता प्राप करके लौयने पर विचा प्राप्त करके काशिराज प्रतीतदहोते हैँ ।
पद पर प्रतिष्ठित व्रह्मद्त के समय किसी सेठ के पुत्र के पेट काओंप- चरक संहिता मे अत्रैय पुनवेमु द्वारा वार्योविद तथा उर
रेन द्वारा कार मे शख्लचिकित्सा कौ प्रतिष्ठा तथा अन्य मी वहुत सइ भावी मारोच क्यप का पूवं आचार्यके रूप मेँ उक्ठेख किं
से रोगियों को ज्रखचिकित्सा तथा कायचिकिस्सा दण नीरोग हीनेसे मारीच करयपके वाद्‌ तथा चरक संहिता के अनुस
करने के कारण उत्पन्न हदं जीवक की ख्याति के उच्लेख मिलने से काम्पिल्य की राजधानौ पाञ्चाल देश मे स्थित पुनव "आ
तथा दैशदेशान्तर से विचा प्राप्ति के ल्य जिज्ञाओं के तक्षदिला जाचभ्यं प्रतीत होते है । कादयपसंहित। के चतुष्पाद वणेन निः
आने का जातक अन्धो मे निर्देश मिलने से कालक्रम से बुद्ध के रोक दिया है- |
समय अन्य विद्याओं की तरह भैषज्य विद्या ( विष्टेष रूप से रद्य- अस्य पादचतुभ्कस्य मन्यन्ते श्रेष्ठमातुरम्‌ ।
विज्ञान ) की मी काशी की अपेक्षा तक्षदिला में अधिक प्रतिष्ठा एवं तदथं गुणवन्तो हि त्रयः पादा इेप्सिताः ॥
उन्नति प्रतीत हौती है । बाद म काञ्चीमे समय २ पर राज्यो के नेति प्रजापतिः प्राह भिषङ्मूरं चिकिस्सितम्‌ । `
उलटफेर के इतिहास मिलने से मी क्रमश्चः कार्यी मे आयुरवैद विचा उपयुक्त दकोक कै अनुसार कादयपसंहिता मेँ केवरू चुष्प।
का वणेन है ओर वहु भी सं्िप्न रूपमें। इसके विपरीत चरः
के हास तथा आचायं विद्लेषोँ दवाय चर्चा बाहुल्य के कारण तक्षशिला
मे उन्नति की सम्भावना हौ सकती है। अन्ततोगत्वा अलोक कै संहिता मं पहले खुड्डाक चतुष्पाद अध्याय मे उन चतुष्पादो
समय अपने दे के समान विदेशों मे मी चिकित्सालयं के उद्घाटन चातुयुण्य के दारा षोडद्चकलओं का वर्णन करके अगछे महाच
दारा यह अआुर्द विद्या दूर २ तक फर गद! परन्तु वादं ष्पाद अध्ययमें उसी कौ विस्तरत व्याख्या होने से कदयप त
कालक्रम से तक्षरिखा के समान उस विध्ापीठमे मौ विद्या कादहास अघ्रेय का क्रमद्यः पौर्वापर्यं प्रतीत दोताहै। तथा क्रयपके समः
हौ गया । इसका कारण भी इतिहास मे मिलने वाङ राजविष्ख्व हयै की अपेश्वा आत्रेय के समय क्रमप्राप्त अधिक विकसित अवर
होने चाहिये । इसी प्रकार बुद्ध के समय तक्षशिला कौ अपेक्षा कारी दृष्टिगोचर होती है ।
मं विद्याका हास दहो गया होगा। दी प्रकार रोगो का वणेन क्रते हृ मी कादयपसंहिता :
आत्रेय- संक्षेपसेहीरोग दिये ह तथा उनप्ति संबद्ध विषर्योको भी कवः
“इन्दः ऋषिभ्यश्चतुभ्यंः कश्यपवसिष्टात्रिगरयुभ्यस्ते पुत्रेभ्यः एक २७ वं अध्यायमेंदहीदिया गया है जव कि आत्रेय संहिताः;
शिष्येभ्यश्च प्रवदुर्हितार्थम्‌ दारा कारयपसंदिता मेँ पूं सम्प्रदाय दस विषय कै चार अध्याय दिये है । इनमें से एक महारोगाध्याः
के उल्लेख के मिल्ने से आयुर्वेदे उच्निका भी एक सम्प्रदाय मे ही कारयपौक्त सव विपर्यो को दे दिया गया है तथा इसे पूर्वं:
प्रतीत हौता है । यदा आत्रेय गोत्रवारे भिश्चुरात्रेय, कृष्णात्रेय तथा कियन्तः हिरसीय आदि तीन अध्यायो मे अन्य विषयं के दिये होः
पुनव आत्रेय नामक आचाय मिलते है । अन्य मी अनेक अचि से इसमें विकसित अवस्था दृष्टिगोचर होती है। इस प्रकार अनेष
परम्परा वके ञाचायं हौ सक्ते हैँ । जिस प्रकार कौमार-भरत्य उदाहरण भिर सकते है । |
संहिता मे कश्यप परम्परामें मारीच विद्येषण युक्त क्यप मूल न केवर केद्यप तथा अत्रय का पौर्वापर्य॑ही है अपितु चरः
आचायं है उसी प्रकार त्रेय परम्परा पुनर्वसु विशेषण वाला संहिता म गभावक्रान्ति विषयक नाना मतो के वर्णन म “विप्रति
त्रिय -अग्निवेश्च आदि का उपदेदाक तथा चरक संहिता मेँ मूल पत्तिवादारत्वत्र बहुविधा; सूत्रकारिणाखषीणां सन्तः के द्वार
उपदेरक आचाय है । उसी पुनव आत्रेय को माताके नामके कुमारदिरा भरद्वाज, काङ्कायनः सद्रकाप्य, भद्रौ नक, वडिद, वैदेह
अनुसार चरक मं-- यथाप्रश्नं भगवता व्याहृतं चन्दभागिनाः जनक तथा धन्वन्तरि आदि आचार्यो कै साथ खत्नकर्तां ऋषि वै
(खस. १३) तथा मेडसंहिता मे श्ुश्रोता नाम मेधावी चन्द्रभाग. रूप में स्वयं मारीच क्यप का नाम केकर उसके मत का उल्क
सुवाच हः ( ¶. ३९) दारा चान्द्रमाग तथा चान्द्रभागी नामसे विया होने से स्प्टहैकि आत्रेय संहिताके निर्माणके पूर्वहं
कहा गया है । चरक मैँ--श्निवेनाष्टौ समुदिष्टाः इ्रष्णात्रेयेण अन्य मन्थो को तरह मारीच कड्यपका मन्थ मी विचमान एः
धीमता? ( ए. ज. ११ ) तथा मेडसंहिता मे @रष्णात्रेयं पुरस्छ्रस्य प्रसिद्ध था । वि “ `"
कथाश्चक्रु्मैहर्षयः' इत्यादि पदौ वै आधार पर कद्ध रोग यह भी चरकसंहिता के महाचदुष्पाद अध्याय मेँ मैय ( ्रततिपक्षी)
कहते हेःकि पुनव जघरेय कौ ह क्रष्णात्रेय नाम से व्यवहृत किया के ॐ्रतिक्वेनू सिध्यति प्रतिङुर्वन्त्रियते, अप्रतिङुर्वन्सिध्यति,
गया हे । इसके विपरीत ष्णावरेय नाम से दिय हए साराक्य ५ सिध्यति प्रतिङ्वांण ` वणोत्साहसमन्विता
। भेडसंदिता्ां प,(१०
विषयक उदूधरणो को देखकर शरीकण्ठदत्त तथा शिवदास आदि यदा मेड दारा श्चौनक नमस्ते गृहीत प्रतिपक्षी के मत का
४० उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
७-6-02 96 6 ० 2-2-०9 3-9 € ©.

अग्रतिुर्वन्त्रियते तस्माद्धेषजममेषजेना विशिष्टम्‌! शस सिडान्त पर॒ किया गया हे। अथवा दो समकालीन आचार्यौ का स्वयं मी
का खण्डन करते हए “मिथ्या चिन्त्यत इत्यात्रेयः दारा आत्रेय परस्पर नाम एवं मतोष्लेख संमव है । इस प्रकार वाद्‌ म प्रति
का सिद्धान्त द्विया है। इसी के समान मेटसंदिता के चठष्पाद्‌ संस्करण कियेहुए अन्धो म परस्पर नाम आदि देखकर उनके
अध्याय मँ मी इसी उप्यक्त सिद्धान्त का खण्डन करके नामोव्छेख पौवापय अथवा समकरालीनता का निदचय करने के छियि सुकन दृष्ट
सहित अघ्रेय का बिल्कुल मिर्ता जलता मत दिया होने से तथा एवं अन्य साधनों से इनका विवेचन करना आवश्यक है ।
चरक संहिता मै भरद्वाजे प्राप् आयुर्वद वि्याको विद्चाद करके वहत से विद्वान्‌ तिन्वतीय उपकथा ( पभ 19९5 १
पुनर्वसु आत्रेय द्वारा उपदिष्ट उसके अग्निवेश; भेड आदि & दिष्यो ने मे आये हए तक्षद्चिला निवासी मात्रेय से जीवक के अध्ययन के
गहण करके एक्‌२तन्तरौ का निर्माण गिया। इस उल्लेख के भिल्ने से उल्लेख के आधार प्र बुढकालीन जीवक के गुर्‌ अत्रय को ही
उसी कै अनुसार मेडसंहिता के प्रत्येक अध्याय में इत्याह भगवा- चरक संहिता का मूल आचाय पुनव॑श् आत्रेय मानकर उसको बुद्ध-
नात्रेयः' हारा उपदेशक (आचाय) स्प्रमे अत्रेयका निर्दड कारीन निदिचत करते हं! परन्तु जीवक कै विषय मँ तित्वतीय
होने से तथा पूर्वाचार्य केवणेन मं कर्यपके भी नामका उच्टेख गाथाम के समान व्रह्मदेशीय तथा सविहद्दैशीय गाथां मी
होने.से भेद की अपेक्षा आत्रेय के समान क्यप की मौ प्राचीनता प्रचल्ति दं । इन गाथां मँ परस्पर अनेक भेद दिखाई देते है।
निविवाद सिद्ध हे, जौवक के अध्ययन विषय मं महावग्ग कै अनुसार किसे
सेडसंहिता मे आत्रेय तथा कस्यपका नाम द्वियाहे) कादयप माचायं से उसके अध्ययन का उछेखव मिलता दहै, उसके गनुसार
संहिता मे मेड तथा आत्रेय पुनव॑सुका नाम्‌ द्विया है तथा अच्रेय उसका गुरं आत्रेय धा एेत्ता प्रतीत नहीं होता । चुक सेष्टि जातक
मे मी तक्षदिश्वा मे ५०० शिष्यो के गुर्‌ किसी प्रसिद्ध वोधिसच
नति

संहिता मँ मारीच कद्यपका नाम दियादै। इसप्रकार परस्पर


नामोच्छेख होने से तथा चरक संहितामें सत्रेय द्वारा वर्योविद का निद मिलता हे ।उसकी कथाओं मँ पापक्‌ तथा जीवक काभी
निर्दा मिलता है। सिहल) की गाथाम मै शक्र द्वारा विरेष
तथा मारीच कदयप का प्रतिपक्षी केरूपमेतथा कादेयप संदितामें
करयप द्वारा वायो्विदर षने उपदेश देने का उल्छेख मिलने से विद्या पाये हए कपटक्ष्य ( कपिलाक्ष ) नामक गुर्‌ से जीवक कै
समकालीन अनेक प्रसिद्ध आचार्यो के परस्पर मनत तथा नामो्टेख अध्प्रयन का उल्लेख मिलता है। तथा बरहम्रेरा(२)की गाथाओं मँ
की संभावना दौने से मेड से कृद समय पृथे तथा परस्पर नामो तक्षदिला का वणेन नहीं है। अपितु वाराणसी जाकर जीवक कै
व्लेख सहित एक दूसरे के मत का निर्दश् करने वाले आघ्रेय तथा अध्ययन का उद्लेख भि्तादहे। इस प्रकार गाथां भे परस्पर
मारीच कदयप परस्पर समकालीन प्रतीत दते दै! अथग जिस विरोध दने से किसको प्रमाण माना जाय इन उपध्ंक्त विरोधी
प्रकार श्स कादयपसंदितार्मे अपे ग्रन्थ कै निबवन्धा एवं प्रति- कृधार्ओं मे से केवल निव्वतीय गाथाम के आधार परर अघ्रैेय कौ
संस्वर्ता वृद्धजीधरक तथा वात्स्य के नाम तथा मत का उल्लेख कृद्यप्‌ अर्वाचीन सिद्धः करना युक्तिसंगत एवं रोमन प्रतीत नहीं होता ।
रासा संभव होने से बाद मे संस्कार अथवा प्रतिसंस्कार के समय केवल इन दुवरेट प्रमाणे; के आधार प्रर चरक संहिता के मूर आचार्यं
का माना जाना चाहिये । उसी प्रकार बादमें होने वाले मंड आदि पुनर्वसु मात्रेय का समय निघरण करना दुःसाहस है। यद्वि अत्रय
का नाम तथा मतौस्टेख मौ पीछे संस्करण के अवृसर्‌ पर अनुप्रविष्ट जीवक का युम्‌ दो तौ जीवक ने अपने म्रन्थमं अत्रेयका गुर्‌ रूप
हुआ प्रतीत होता है । से निर्देश क्यो नदीं किया? क्यादगूर धिनय कै तृतीय भागं कै
इसके अनुसार कौटिखीय अथसा आद्धि प्राचीन अर्न्थौमेँ ६१ अध्याय (स्रसे १०८ पठा पर) में जीवक कुमार (चवेगे
मानव, ब्रहस्पति, वातव्याधि आदि तथा यास्क द्वारा गृहीत अभ्य सोन चु ) नामक वैराजं कै पिषय मेँ निम्न कथा मिलती है-
पूर्वाचार्य का भी पक्ष प्रतिपक्षरूपसे उल्छेख होमे परमभी इतने (जीरक ने राजा से प्राथेना करके आजीधिका कै लिये मैषञ्य विचा
मात्र से इन्दं समकालीन नर्हीकदाजा सकता । पुस्तक म टि पकर कपालमेद्न की चिकिस्साके प्रेष अध्ययनके लिये
हुए अतीत आचार्यो के विषयो फो देखकर भी परस्पर भिम तक्षदिद्ा (ध्यैजोग्‌ ) स्थित उस वद्या मं प्रवीण श्यन्‌ शेकि अ
से छिखने व भी प्राचीन दरी है । इससे अन्य आनार्यो मे एकत्र
(१) जीवकः विवित्सा धिज्ञान के अध्ययन केख्यि तक्षा
नाम एवं मतोर्टेख मात्र से उन्हे समकारीन केटना उचित नहीं
गया !वहां का आचाय उत्ते पदनि के स्यि सहमत हौ गया । उस
हे पूवं एवं पश्चात्‌ केदो आचार्यो का जां परस्पर एक दूसरेका
समय इन्द्र का सिंहासन डोखने खगा कयाकि जीवक कपलक्ष्य के
नाम एवं मतोच्छेख करना संभव प्रतीत नदीं होता वदां भी बाद
हारा धिय मे विद्ेष निप्रणतता प्राप् कर्ने खमा । जिक्तके बाद उसे
मे किये गये संस्करणों मे पूत्रंएवं उन्तरक्रारीन आचाये का परस्पर
-गौतम बुद्ध की विधित्सा को अनुमति मिरी थी! देविये
नाम एवं मतोच्लेख संभव है, जसा कि दमन यन्धमे प्रतिसंस्करण 1080091 0 8601570 0 80642 0970 ९ २२९.
कै कारण जीवक एवं वत्स्य का नाम णवं मतौच्छेख कदं स्थार्नौ (२) जीवक ने रोगो को आसेग्य प्रदान करने तथा रोगां से
चरके तैत्रेय नामसे निर्देश किया गयादहै। दोनो अर्थों मुक्ति दिखाने के लिये चिकित्सा शाश्च का अध्ययन प्रारम्भ किया ।
गृहीत मत के संवाद के मिल्नेसे मुद्भित चरक मे समयवद्च नाम उसने वाराणसी जाकर एक प्रसिद्ध चिकित्सक का शिष्यत्व स्वीकार
का परिवतैन हो सक्ता है। अथवा ह्यौनक क्ुरुका नामद्योनेस करके शरी ही अपनी प्रतिभा के कारण इस दाख मे नैपुण्य प्राप्त
तथा मैत्रेय माता के अनुसार नाम दने से संभवतः दोनो एक दही कर ख्या । देश्विये--1.€0९6 9 € 8४770656 8५1४ नि
आचायै दँ । पिह ्वलषणटण 2, 5149061 पृष्ठ १९७,
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद +
० ० छक ७०००० ०० ०> <-० <> ८०० <>९७ ०-७०-७ >> 6 <
( नित्यप्रज्ञ › नामक वैय के पास जाने कै ल्थि राजा से प्रार्थना की। समय से प्रसिद्ध है । शुक्लयजुर्वेद, तैन्तिरीय, मैत्रायणीय तथां
तव राजा ( बिम्बसार ) ने पद्चसार (पद्यदहि डिपो) नामक काठकसंहिताओं मेँ मी काम्पिल्य चब्द्‌ मिरुता है । पाच्रालक्लब्द(९)
तक्षरिखा के राजा कनाम पत्र ल्खिदियाकि मैरा पुत्र जीवक भी वेदः, ब्राह्मण यन्थ तथा उपनिषदों म मिरूता है ¦ तश्चरिकरू! का
, नित्यप्रज्ञ नामक विद्वान्‌ से मेषञ्य विद्या.कौ प्रा्चि के ल्ि आरहा इस प्रकार वेद; बाह्मण तथा उपनिषद्‌ आदि प्राचीन अनन्धो मँ
है, उसे अध्ययन का प्रबन्ध करनेकी कृषा करे! मिम्बसार का उल्लेख नही मिक्ता है । महामारतक मे मी उपक्रम तथा उप-
वहु पत्र केकर जीवकृ ने तक्षुदिला जाकर वहांके राजा कौ संहार मे ओौर रामायण८२) मे मी केवल उन्तरकाण्ड म तक्षरिखा का
दिया 1 तव राजा के कहने पर निव्यप्रज्ञ ( ष्युन्‌ रेकि भु) नामक उद्ङेख मिलने से तक्षदिका की वाद मे प्रसिद्धि प्रतीत दौतौहै।
वैय से जीषरक ने भेषञ्य विद्या का ग्रहण किया । ध्युनू्‌-सदा अथवा न केवर आत्रेय तथा अग्निवेद्च ने उसका वणन नहीं किया अपितु
निस्यः, रोकिन्प्रज्तायाः, भूः-सूनुः, सम्बन्धी -इस अथं के अनुसार नाना देशौ का वणेन करते हुए मारीच करयप तथा उसके दिष्य
तिन्वती मषा मँ उसके गुरु वाचक ध्युन्‌ शेकिम नाम कै अनेक वृद्धजीवकःने भी तक्षरिखा का उल्लेख नहीं किया हे । सुश्चतसंहिता
बार व्यवह््त होने सेज्ञात होतादहै चि जीवक का गुरु तक्षशिला तथा मेडसंहिता मे मी उसका नाम नहीं मिरुता है । -वुद्धसामयिक
मँ रहने वाखा तथा कपार भेदन चिकित्सा मेँ विष्षेष निपुण तथा जीवक के आचाय का कैवरु आत्रेय तथा तक्षदिला निवाप्तीके रूपम
प्रसिद्ध नित्यप्रज्ञ नामक कोड वेच था । राहुल साङ्छृत्यायन नामक मे निर्दड भिरुता है तथा चरकसंहिता मेँआचाय आत्रेय को अघ्रेय
बौद्ध पण्डित दारा पाली भाषा से हिन्दी भाषा मेँ अनूदित विनय पुनर्वसु ताम से तथा काभ्पिस्यनिवापस्ती के रूप मेँ वणन भिरता है।
पिर्कमें मीकिखा है कि--उस समय तक्षदिखा मे (एक) दिश- यदि जीवक ओर अग्निवेश दोनी एक हीः आत्रैयके रिष्य होते
प्रसुख ( दिगन्त प्रसिद्ध ) वैद्य रहता धा । यां मी अत्रय नाम से तो जीवक की कथा मे उसके इतने प्रसिद्ध सतीथ्यं ( सद्ध्यायी )
जीध्रक के गुरु का निर्देश नहीं भिख्ता है। तिव्बतीय गाथाम के अरिनवेश का नाम तथा अग्निवेश केठेख म उस्र विरिष्ट बुद्धि एवं
आधार पर आत्रैय को जीवक का गुर्‌ मानने वले विद्वान के पास परतिमापतम्पन्न प्रसिद्ध जीवक के नाम का निदश्च क्यो नहीं मिता
कोड अन्य प्रवर प्रमाणहै या नदी, यह विचारणीय प्ररन है। है । अर्नवे का आचार्यं आत्रेय पुनर्वसु केवर कायचिकित्सा का
इसके अतिरिक्त आत्रेय पुनवेु ने अग्निवेश को दिये गये. उपदेद्चका ही विद्वान्‌ प्रतीत होता हैँ। इसीखिये अग्निवेश आदि उसके रिर्ष्यो
स्थर (जनपदमण्डरे पाञ्चारन्तेत्रे काम्पिस्यराजघान्यामूः दारा ने मी उसी विषय मेँ अपने मन्थो की रचना की हे । इसके विपरीत
स्पष्टूप से काम्पिद्य प्रदेश वताया है । यदि तिव्बतीय एवं जातक जीवक का गुर्‌ आत्रेय कायचिकित्सा के अतिरिक्त शल्यचिकित्सा
कथार्ओो के आधार पर्‌बुद्ध सामयिक जीवक्‌ कै तक्षदिखा मे आत्रेय मे विशेष कुशल धा जैसा कि उसके रिष्य जौवक कौ चिकित्सा
दारा अध्ययन कै उष्डेख के अनुसार तक्षरशिका के अध्यापक आत्रेय प्रक्रिया द्वारा स्पष्ट है । इस प्रकार चिकित्सा के विभागो की विभि-
कौ ही अग्निवेश का गुरु माना जाय तो अग्निवेशसंहिता मै तक्ष- न्नता मी दोनो अ्ररयो को भिन्न र व्यक्ति सिद्ध करतीं है\ उपयुक्त
शिखा का उच्छेव क्यो नहीं भिल्ता है । तक्षशिला मे भूगभं से वणेन के अनुसार यह कहा जा सकता है कि तक्षरिरा की विधापीट
निकटे हए तीन नगो मे से दक्षिण दिद्चा वे विमीडण्ड नामक के रूप म उन्नति एवं प्रसिद्धि से पूवं ही काश्यप, अत्रय, अग्निवेन्चः
भागको रेतिहासिक विद्वान्‌ १०००-१२०० वषं दैस्वी पूव का मानते मेड तथा दिवोदास आदि का आयुवेद के उपदेश के ग्रहण णवं
है । पाणिनि ८१) ने भी अपने सतर मेँ तक्षशिला का निर्देश किया धारण का समय है 1इसी प्रकार पाणिनि के कच्छादि गण( ४-र-
है । इतिहास के विदान्‌ बुद्ध सेमी पूर्वं तक्षशिला म षिधा का १२३ ) तथा तक्षशिलादि गण (४-२-९३ ) म जये हट देशवाचकं
प्रचार मानते है । सहावग्ग तथा जातक के अनुसार मगधनिषासी कादमीर राब्द के वेद तथा ब्राह्मण अरन्थोकी तरह अच्रेय तथा
जीवक तथा कादरी के राजा ब्रह्मदप्त का वैक शाख कै अध्ययन कै अग्निवेश्संहितार्ओं म न मिलने से प्रतीत होता है कि कादमीर कौ
स्यि तरदिखा जाने का उकल्छेख मिख्ने से प्रतीत होताहैकि उस उस समय विमानता होने पर भी विचयापौठ रूप मेँ प्रसिद्धि दने
समय तक्षक्लिला अन्य विन्राओं के समान आयुर्वैद विचाभ्का मौ ते पूर्वंउसकी स्थिति गौण ( अप्रसिद्ध ) थी । अन्यथा पाच्रार (गङ्गा
प्रधान विद्यापीठ ( एणर्लमशंष्ि ) था । पुनव आत्रेय तथा उसके यमुना का प्रदेश ) तथा काम्पिल्य ( कभ्पिल-फरुखावाद्‌ ) . के
शिष्य अरिनवेश् को यदि उप्त समय माना जय तौ अग्निवेद- आसपास छिखी गई आत्रेय संहिता मेंकाम्पिल्य के समीपवतीं तथा
संहिता तथा आघ्रेयसंहिता के रचयिताओं ने उस प्रसिद्ध विद्यापीठ- इतने प्रसिद्ध काश्मीर का उच्लेख न होना आश्चयं का विषय है ।
रूप तक्षदिखा का अपने अर्थो मँ वणेन क्यो नदीं किया। अग्नि- इसके अतिरिक्त सिब्बतीय गाथां को प्रमाण मानकर यदिः
वेसं हिता में पुनवैु आत्रेय के जितने मी उपदेश (र) स्थानो का जीवक के आचार्यं को आनेय माना भी जाय तौ भी गोत्रवाचक --------
-

उर्लेख किया है, उनम एक मी स्थान पर तरद्धिखा का नाम नहीं


____ ~
-___~_____

% उपकब्ध महामारत मेँ रक्षश्िला शब्द आदिपवं के तृतीयाः


----~~____
___-_----~

है । इतनी प्रसिद्ध तक्षशिला का ग्रहण न करके काम्पिव्य आदि मं तथा स्वर्गारोहण


४५
पर्वंके
[क त
पांचर्वे
4
अध्याय मे आता.

|
“ ,

टे करने से प्रतीत होता हे वि उस समथ तक्षशिला | ध्याये


विमद दो वार
उपदेश का उद्लेख है ! गुरवे ्राङ्नमस्छ्रत्यः ८ १-५५ अध्याय ) से महाभारत का
करी प्रसिद्धि ही नदीं थौ । इसलिये तक्षशिरा की विचपीठ के रूप
उपक्रम है ! उससे पहला भाग यत्त द्वारा बाद मे पूरा किया गयाहै-
मेँ प्रसिद्धिसे पूवं दी काम्पिद्य मँ आत्रेय पुनवंखु दवारा अग्निवेर
ठेसा महाभारत के विमद्वौ मै ( एकपवेषमभः 0.2, 1. १०
को उपदे दिया गया प्रतीत होता है । काम्पिल्य) देश्च वैदिक तए] एषा, 1प ) मैने निर्देश किया है । \
८१) १ से तक कीटि० उपो० संस्कृत १० ४९ का° १-२ देखे । |। ं ४९ का० र देखे। ` ``
(श) ९-र कौ दि०उपौ° संस्कृत९०
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आत्रेय साब्द्‌ द्वारा अनेक व्यक्ति्यो का उस्लेख मिल्ने से केवल यचपि एक नाम बारे अनेक व्यक्ति हो सकते है तौ भी मञ्छम-
गोत्रवाचक आत्रेय ब्द से ही उतत पुनव आत्रेय नहीं कदा जा निकाय (९ मैगौतम बुद्ध के साथ आध्यात्मिक चचां करने वाठे स्रक्‌
सकता । किन्तु तिञ्तीय कथा कै अनुसार बोद्ध ्॒नन्थक्त जीवक ८ सत्यक ) नामक निगण्ठ ( नि्न्थ ) नाथ पुत्रका भी गोच्रपरक
के समध्ययन स्थान तक्षशिखा का अध्यापक आत्रेय, पुनवैसु आत्रेय अभिवेद्य रंष्द्‌ दारा निर्देश किया गया है। पक्ष एवं विपक्ष कौ
के पश्चात्‌ वौद्धकारीन तथा केवट गोत्र की समानता वाका कदं युक्तयो के अमाव मेँ यद्‌ वही अभिवेद्य है मथवा न्दी, यहु निश्चय
अन्य ही अत्रैय प्रतीत होता हे । राजपिं वार्योचिद का बुद्ध के समय करना कथिन है कर्योवि किसी व्यक्ति विरैषके निणेय करनेके
या उसके वाद्र इतिहास मे कदी उल्लेख नद्यं भिरता ! वार्योविद खयि दृढ साधौ की अपेक्षा होती है तथापि आत्रेय, ब्राह्मण अन्ध
के समकारौन पुनवेसु अघ्रेय का मारीच कदयप के साथ तथा एवं उपनिषदे के समय के सिद्ध विये हुए दिवोदास्त, प्रतदेन आदिः
उपनिषत्कालीन समय प्रतीत होता है । इसर्यि मात्रेय पुनवंख को कै ही समान काल वह हौने से. उप्तका शिष्य अश्चिवेश शतपथ,
बुद्धकालीन निश्चित करना अत्यन्त दुर प्रमाणो पर आश्रित है ब्रह्मण मे आयुर्वदीय विषर्यो के -मिरने से संभवतः वज ब्राह्मण (रोमं
जभिवेश्- | निदिष्ट अभिवेद्य ( अथिवेदा का शिष्य अथवा सन्तति) का पूवे
चरकसंहिता मे त्रेय पुनवैसु के प्रधान रिष्यकूप मे निदविष्ट पुरुष प्रतीत होता है । अव्रेय इसत प्रस्थान मे प्रधान आचाय माना
अगिनिवेदा तथा उसके सतीथ्यं (सदपाटी ) भी उसीके समकालीन । गया है । उसे अभिवेद्य आदि ६ प्रधान दियो ने उसके उपदेश
होने चाहिये! को ग्रहण करके अपने २ विचासौ के अनुसार थम्‌ २ तन्त्र वनाये 1
उनसे से स॒ख्य तन्तव्रक्त के रूप मे चरकसंहिता मँ उक्केख होने से
अभ्िवेश संहिता में तक्षदिखाका रव्टेख न होने से परन्तु अभिक प्रतिष्ठित माना जाता था। जिस
पाणिनि(१) कफे यृघ्लो मै तक्षदिटा का उर्डेख मिलने से तथा पाणिनि अचिते का तन्त्र सवते
प्रकार आकाश के मध्यमे स्थित एकी मणि की प्रमा उस्र प्रदेश
दारा गर्णाद्वि(र) गण मँ जतूकणै, परार तथा अथिवेश शब्द का
उक्केख द्विया होने से अभिवेद्य का समय पाणिनि से मी पूवं प्रतीत ॐ तारतम्य के अनुसार भिन्न २ प्रतीत होती है उसी प्रकार एकी
आचार्यं आत्रेय के उपदेदा अभिवद, हारीत, क्षारपाणि आदि
हनोता है! यपि देना कोई नियम न है धिः पाणिनि के उनर
मद्यान्‌ शिर्ष्यो के अन्तःकरर्णो म जाकर अपने र ग्रहण, धारणः
गणो मे समानवर्गीय ( समान श्रणीके) शब्ददही दिये गये द
मनन, प्रयोग एवं अनुभव की राक्तिके सिन र दोन से भिन्नर
तथापि भाषाकी दृष्टि से प्रायः एक जाति के रार म प्रत्यय आदि
योग्यता बारे तन्त्र के निर्माणके कारण हए । इनमें से अश्चिवेद्य तन्व
दी समानता होने से रब्दौ की एकाकारता दिखाई देती हैजिप्तसे
पाणिनिकै गण में ऋषि, देश्य; नदे, नगर तथा प्राणिवाचक्‌ शाब्द सत्रे विदिष्ट था । इत्तीटिपे बादर म इस अध्िवेश तन्त्र का ही चरक
प्रायः साथर द्ियेहुएदै। इस गगीदि गण मै जतृक्षणे, पराशरः
च ने संस्वरण करके रोके प्रसिद्ध पिया\! इसकी विदिष्टता कै
कारण ही हारीत तथा क्षारपाणि आददिं अन्य चार्यो के अन्धका
7 01

भिषज्‌ तथा चिकित्ित आद्वि चन्दो के पाठ से सिपन्‌ तथाविकि-


स्सित र्द के सान्निष्य से पराशर शब्द वैधाचायं परादारका प्रचार कम था अर इसीटिये भाजवे विदु हुणहं।
वरक--~
बोधक प्रतीत होतादै। उस गणर्मे आया हुमा अग्निवेश्य शब्द पुनवसु आत्रेय फे उपद्ेश्च को ग्रहण करके वना हदं अथिवेश्‌
भी उसी न्याय से अग्रिय के चिष्य वे्याचा्थं अविनवेश का बोधक संहिता का पीछे प्रतिसंस्कतां के रूपमे मिलने बाडा चरक कौन
होना चाहिये । इससे अग्निवेद् पाणिनिसे भी प्राचीन प्रत्रीत हुआ ड तथा किस समय हुप्ा है इतका विचार करने पर हम देखते
होता है । ~ ` हेभि यथपि भिन्न र र्थो म विभिन्न जगह प्र चरक शब्द का
है,पिर
पूवैनिदिष्ट(२) हेमाद्ि रक्षणप्रकाश मेँ उदभरेत सारिदत्र के | प्रयोग माता है तथापि उनसे विभिन्न स्थी का बोध दहौता
भाचाये हे दैःवे आचायें
शलोको मे आयुर्वेदाचाय कौ खली मेँ दारीत, क्षारप्राणि, जातूक्णे, भौ चरक नाम से प्रसिद्ध आयुर्वेद के को$ ा।_
कहा जा सकत
परादार आदि सतीर्य सहित अग्निवेश का नामोव्लेखे आचाय चरक अयु व्यक्ति हे ये यह निश्वयपूवेक नहीं
आत्रेय वे साथ मितां है । पारकाप्यकरृत दस्त्यायवेद के चतुधैस्थान `
(१११-रकीटि० उपर संसक्त पृ० ४२काणरदे
्।
अग्निवेश का नाम से प्रसिद्ध
के चतुथं अध्याय मे स्नेह विदेष(४) के वणन मे
# (0 कृष्ण यजुतरैद की एक शाखा भी चरक
रतप
नाम आता है । चः्कसंहिता मे पुनव के नामस द्विये हृए दैवि है । उस काणा को मानने वाते भीचरक कहलाते ह-देसा |
धयवाद्‌ को पारकाप्य मँ भरद्वाजके नाम से तथा चातुर्विध्यवादं आदि ब्ार्णो मे छिखा भिरता दै ।
ाय मे
को गौतम के मतके रूपमे दिया हा है। पारकाप्य मेँ साप्तवि- (प) रुकितिस्तर नामक बौद अन्ध कै ध्म भध्य के साथ
-श्यवाद्‌ को अग्निवेदाके मतवेरूप मेँ दिया इमा दै) वतमान | (अन्यतीधिकभमणबराह्मणचस्कपरिव्राजकानाम्‌? में श्रमर्णौ
चरकसंहिता मे अन्य स्ने का उच्छेख मिर्ने९ पर भी चार स्न | चरकं शब्द आता है जो कुच अमणशीठ तपस्वियो का बोधक हे।
का दी यख्य प्रयोग भिता है । यद प्ररिवतेन संस्करण के कारण मे संन्यास के वमन
(ॐ) वराहमिदिरने बदस्नातक ( १५-१ )
नि

प्रतीत द्योता है । । का नियंन्थ-() वन्यारान


न~श्लाक्या जीविवा-(#) भिश्चकवद्धचर धि "मोको (मा [न [क 1 [+ ।

(#) जीयिक--भाजीविक सम्प्रदाय जिसका रवतत गौतमबड


प ४७४०१७०१.

. स्थान २ पर भये हुए पिषर्यो से प्रतीत दोताहै कि प्राचीन


7 का क 1111111. पम । त पे

मषिं बेद-वेदाङ्ग की तरह आयुवैद के विष्यो के भी पण्डितिये। का समकारीन मद्खञिपुतव्र गोसारु वाहे!
(८१) १ स्तक कीटदि०उपो० सस्त १०४२ का० \ देर्ख।
उंपौद्धात का हिन्दी अनुवादं ४९.
भावप्रकाञ्च % म जहां आयुर्वेद के आचार्यौ का वणन भिल्ता भी इसकी चरकरूप मे प्रसिद्धि दो सकती है। अथवा उस व्यक्ति का
हेवहां दिक्षा, कर्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष तथा इन्द आदि चरक यहु नाम रूढि रूप से भी हो सकता है । अथवा प्राचीन कार
६ वेदाङ्गो सहित वेद तथा अथवेवेद कै अन्तग॑त आयुरवैद के ज्ञाता म पश्चिम दिरामे नागजाति का इतिहास भिर्ता है, भावप्रकाश
रोषनागने भूमण्डर का वृत्तान्त जानने के ल्थि चर ( गुक्षचर ) के अनुसार उस जाति का कोड विद्धान्‌ शेषनाय के अवतारके रूप
रूप मेँ वेद्‌ तथा वेदाज्खौ के ज्ञाता किसी सुनि के यहां आयुवेद के मे चरक नामसे प्रसिद्ध हुवा हो! ब्रहञ्नातक कै व्याख्याकार रुद्र
पण्डित के रूप मे अवतार य्रहण किया तथा "चर इवः इस निवेचन के अनुसार वहु आयुर्वेद विद्या का विकषेष पण्डित था ! वहं लोकोप-
कै अनुसार चरक नाम से प्रसिद्ध इभा । फिर उसने आत्रैय के शिष्य कार कौ दृष्टि से मधुकरी वृत्तिं धारण करके गाव २ मधूमर२ क्र
अभिवेश आदि द्वारा बनाये हये आयुर्धैद कै तन्त्र का संस्कार करके वेचक के उपदे तथा चिकित्सा दारा लोगो का उपकार करता था ।
चरकसंहिता नामक ग्रन्थ का. निर्माण किया। इस प्रकार चरक अतः संचरण्लौख (घूमने वारे) सिक्का रूप धारणकरनेसै
संहिता के प्रणेता तथा आयुर्वेद के आचायं चरक का इतिहास चरक नाम से उसकी प्रसिद्धि हुईं हौ यह भी सम्भव है। अस्तु,
मिर्तां है । इसका किसी भी कारण चरक नाम प्रसिद्ध इञा हयो, परन्तु इस चर-
चरक शब्द वेचसात्र का ज्ञान कराता है इससे एक दौ स्थले काचायेका अत्रैयसंहिता के उपदेशो को यहण करके अश्चिवेशं
पर अन्य व्यक्तयो के खयि मी चरक शब्द का व्यवहार दिखाददेता दारा बनाए हुये तन्त्र का प्रतिसंस्कतीं होने से आयुर्वेद विचामें
है, ठेसा भी बहुत से रोग कहते है । परन्तु चरक शब्द का वैचमात्र अतिनिपुण होने के कारण प्राचीन समयसे ही आचार्योकी श्रेणी
कै पर्याय के रूप मे अभिधान यर्न्थो (कोक) मे प्रयोग होने परं सुश्त में सन्मान था, रेता प्रतीत होता है। इसील्ियि वाग्भट आदि्योने
आदि अन्य आचार्योके ल्थयिसी चरक शब्दका प्रयोग होना मी चर्काचायंका विशेषसरूप से कीतेन किया है। जयन्त भद्ध
चाहिये था, परन्तु ठेसा नहीं हे, अपितु चरक संहिता के प्रणेता ( मध्यकालीन कादमीरी दानिक ) ने भी अपनी न्यायमश्नसेर्मे
व्यक्ति विद्धेष के ल्य रूढ हुआ येह चरक राब्द सखभावतः उसीका मत्यक्तीकतदश्कारुपुरुषदन्ञाभेदायुसारिसमस्तव्यस्तपदार्थंद-
बोध कराता है। शस प्रकार कुद अन्य व्यक्तियों के लिये प्रयुक्त क्तिनिश्चयाश्चरकादयः, इस प्रकार से चरकाचयं को बहुत सन्मान
हु यह चरक शब्द कलियुगी भीमः कौ तरह ओौपचारिक के साथ स्मरण किया है,
( लाक्षणिक ) हयी समञ्लना चाहिये । अथववेद मेँ आयुर्वेद के विषयौ | न्वरकृ के समय का विचार करते हुये पाणिनिके “कंटचरक्छा.
के विेषरूप से मिर्ने से करयप तथा सुश्चत-की संहिता के समान चक्‌ ( ४-२-१०९ ) खल मे चरक शब्द देखकर कु विद्वान्‌ कहते
चरकसंहिता मँ मी अथववेद के प्रधानरूप से वणन होने से उसका | वि चरक पाणिनिपेमीपूरवंहृदहै। परन्तु शस खरम जाया
चरक शाखा वाखा होने पर मी च॑रकाचायं होने मे कोई व्याघात हआ चरक रखाब्ड कठ शब्द कै साहचंयं से तथा चरणनब्युह (वेद की
नहीं होता । राला ) मे गिनये होने से चरकराखा संहिता का निर्माता है अथवा
इसध्रक।र गोत्र † नामसे अत्रेयकी तरह साखाकेनामसे उसी सम्प्रदाय का कोड अन्य दही प्राचीन महि होना चादिये।
आदि म चरक शब्द दिया है जिसकी व्याख्या करते इए भट्रोत्पल आजकृकू चरक शाखा संहिता मुद्रित हश भिर्तीभी है शस
(चरकश्चकऋधरः अथात्‌ चक्र धारण करने वाङ तथा रुर ने “चरका प्रकार (माणवकचरकाभ्यां खञ्‌? ( ५-१-१४ ) उन्न मँ आया हुवां
योगाभ्याखकुराखा मुद्राधारिणध्िकिसानिपुणाः पाखण्डमेदाः न्वरक साब्ड भी चरक नामक एक लौकिक व्यक्ति परक हौनेकी
अर्थात्‌ योगाभ्यास मे कुदार मुद्रा (योगासन की अवस्था विदोष) को ` अपेक्षा चरकन्ञाखापरक दोना अधिक उचित प्रतीत होता है क्योकि
धारण करने वारे तथा चिकित्सा मे निपुण संप्रदाय विक्ञेष वाङे- जित्‌ का स्वरपिषयक पिधान है तथा स्वर का विकेषरूपसे वेदिकं
ग्रक्रियामें दही प्रयोग होतादहै।
यह अथं किया है ।
(1९) श्री हषे ने नैषधचरित (४~११६) मे देवाकणंय सुश्चतेन | याज्ञवल्क्य स्मृति की व्याख्या मेँ विश्वरूपाचार्यं (८ वीं शताब्दी).
| 4 :* पठन्ति ॥ अशधि्यो
एव चरकः? अथात्‌ गुप्तचर अथे किया हे ।. # चरक रेखा कते है-- आरुणी कै पुत्र छेतकेतु को उसने
(ण) ब्रह्मणे बाद्यणमिति, तैत्तिरीय संहिता के इस मन्त्र मेँ आये ब्रह्मचयं धारण कराया । उसे अधिनीकुमारौ (श) ने मधु (२) तथा
हये चरक रब्द का भाष्यकार सायनने बांस के अग्रभाग पर लेक मांस ओषधिरूप में बताया । उस्ने कदहा-- ब्रह्मचयं कों धारण करने
करने वाखा नट अर्थं किया है। | | | वाला मै मधु ( चरावं ) कैसे सेवन करू । उन्दने उत्तर दिया किं
ॐ# 'अनन्तश्िन्तयामास । 1`"अन्धोऽयं चरकः कृतः । यदि मनुष्य अपनी आत्मा द्वारा जीवित रहता है त वहं दूसरे पुण्यं
इत्यादि ( मावगप्रकाद पूवैखण्ड शम प्रकरण ६०-६५ )
(१) चिकित्सा की सजिकर तथा मेडिकल दोर्नो पतिर्यो कोः
[च क शि 2010

। (अनुवादक )
† गोत्र-अपस्यं पौन्रपरश्टति गोत्रम्‌? 1. ( ४-१-१६२ ) जानने बारे! आजकर के अनुसार उन्दं 7.8. 2.8 कहाजा
। ( अनुवादक ) सकता है । ।
[,

{ सद्रलिह्व शेषनाग का अवतार्‌ परतक्ञलि को माना है तथा | (२) मधु श्राव । चरक मे मी मधु शब्द शराव के छथि आया. `
अंगे पतञ्जलि ओौर चरक को अभेद प्रदरित किया है अतः यांहै--"विबन्धष्नं कफध्नं च मधु रुष्वर्पमारूतम्‌, 1 ( च. ख, २७
अनन्त ( शेष ) का अवतार चरक को माना दै। . (अनुवादक ) अ,-१८६ ) ` .; ( अयुवादकृ ) ।
उपीद्धात का हिन्दी अचु्वोदि
[४६
"भाग [वः 1
6 [> ^24 [८.1
॥ + [८ए (36 (>

प्रकार चर का अथै स्पदन्दरूतकियादै ओर चरसे स्वाथेम कन्‌


प्रतीत होने षर भी आपत्काल मे मधु ( शराव) के बह्मच्यंका प्रत्यय करफे चरक बनाया है वैसे दी यहां मी खपदन्दूतवृत्ति बालों
वाधक न ह्यकर साधकः के रूप मँ निर्दड दै । इसके साथ ही वाज- का प्रधान यहम अथौ सक्ताहे। इस अवस्थामे प्रकरण
सनेयिर्यौ के बचन दिये होने से तथा उनके साहचर्यं से यह स्पष्ट दै शुद्धि कितव-८ जुवारियो ) की संगति तथा दुत्त होने से योग्य
कि यहां चरक शब्द चरक शाखावालोके स्यिदही प्रयुक्त हमा कौ योग्य ग्यक्तिकेलियिदहदी अपित्‌ करना चाहिये-दस न्यायकै
है । काद्धिकावृत्ति के ङेखानुसार मी वेै्चम्पायन कै ख्यिजो चष्क अनुसार दष्करत देवता फो अपण किया जाना उचित प्रतीत होता
दाब्दं का व्यवहार दुभा है वहु मी चरक शाखा के प्रवतंक होने से है । यजुर्वेद के भाष्यकार श्रीस्वामी दयानन्द जीने खाने बलो का
ही दे! (वेदाम्पायन कानाम चस्क है1इसीटिये उसके सवर शिष्य आचार्यं (भोजनम ) अथै किया हे। यह सथं चर्‌ गतिभक्त--
भी चरक कहलाते है- काशिकावृत्तिः ४-३-०४ ) णयोः इस धातु से किया प्रतीत होता है ।
शुक्ल यजुःसंहिता के ३० अध्याय के पुरुपमेषप्रकरण के नागेद्ा भद्ध ८ व्याकरण के पण्डित) की वचर पतञ्नङिः'
१८ वे मन्त्र मे दवुष्टृताय चरकाचायम्‌* यह्‌ मनर खण्ड आता तथा चक्रपाणि कौ 'पातञ्नरमहाभाग्यचरकम्रतिसंस्छ्तैः इन
हे । उसकी व्याख्या करते इए हिन्द माणा माध्यकार भिध्रजी ने उक्त्य के आधार पर स्थिर की हृ पिज्ञानमिष्च, भोज; भावमिश्र
वरकाचायं का अर्थं दरैयाचायं किया है इसे केयाचायं चरक अत्यन्त आदि के वचनो को प्रमाण मानकर कुष्‌ लोग चप्क भौर पतञ्ञकि
प्राचीन हृद है,एेसा भी को$ २ कदते दै । परन्तु शस प्रकार व्यक्ति कौ एक ही मानते दै तथा करर खोग भिन्न मानते है। इस
परक अथं करने मे क्या कारण दहो सकता है। पुरुषमेव में चरका- दिपय मे हमरे विचार निम्न है--
चारक दुष्कर देवता को अ्ैण करनेके बादर फिर य्या किस पतल ने (अर्णद्यवनः साकेतम्‌? अथात्‌ यवनो (यूनानिर्यो)
वस्तु वो उपहार मेदे मदीधरनेतौ केवल चस्कोका आचाय ने अयोध्या पर आक्रमण किया--दइस्र वाक्य दवाय यूनानिर्यो कै
अर्थात्‌ गुर्‌ इस प्रकार सामान्यकूष से अव्यक्त दही निवरणदेषद्धिया आक्रमण करो अतीतरूप मे तथा प्पुष्यमिन्ने याजयामः अर्थात्‌
है । चरक शासा ब्रां का आचार्यं वरह अथं मौ प्रकरण विरुद्ध पुष्यमित्र की स्तुति करते दहै" इस वाक्य हारा अशोक के बाद वेद्धिक
प्रतीत होता ह क्योकि इस प्रकरण मे भिन्नर जाति तथा भिन्नर्‌ वृत्ति धर्म के पुनसद्धारक पुष्यमित्र को वतैमानरूप से उच्ेख किया हं |
( आजीविका ) वारे पुरषे! फा मेषोपहरमीय के रूप म उपादान बस प्रकार प्रतश्लि विक्रम सं्रतके प्रारभते दोसौ वषं पृवंका
दिखाई देता है, ( अर्थात्‌ यश्च मै बलि केरूपरमे संभवतः ये जाते निश्चित होता है। भाण्डारकर महोद्रयने मी महाभाष्य, पुराण
ह दीखते दै) नकि किसी सालाविहेष के अनुयायी या न्यक्ति पाश्चाच्च्य इतिहास आदि की आलोचना करके महाभाष्यकार पतज्नलि `
विक्चेष का। इसी मन्त्र मे कितव-८ जवारी ) आदि दुवृत्तिमान्‌ कासमयरश्सातेदोसौ पूवं निधित पियादहे। ञ्यादा प्राचीन
( दुष्ट आचरण बे) निम्नश्रेणौ न जाक्षर्‌ केप्रर निपियकफे केके अनुसारदही चरक को यदि
के रोर्गो कौ अपन यौग्य
ओर पुष्यमित्र
देवताओं के अर्पण किया जाता हुमा दिख देता है! स्तते णेसा | कनिष्क का समकालीन स्वीक्षार करं तो कनिष्क्र
प्रतीत होताहैभि दुष्कृत देषताकौ अपण किया जने वारा कै समयमे दो तीन सौ वषं का अन्तर होने से क्रमश्लः इनके
समर्यो
चरकाचायः मी कोई दशरैन्तिमान दी दोना चाये! मरौ के यान | म हने वाके चरक ओर पतश्जरि को एक मानने की कल्पना समाप्त
मोद्य {(207००0९4}४ ) के कत का मत दै कि यु पद्र चरक हमे जाती है । |
शाला वाल पर आक्षेप दै। परम्तु शतपथे ब्ाह्मणरमे चरक शास्राका' योग अर व्याकरण मे व्यवहृत परत्जकि नामको वैके
बोध कराने गाला चरक पदर कद बार दिखा देने पर भी केवर न देकर वहां अन्य ही चरक नामदेनेमेंक्याहेठदो सकताहै।
उस संदाय मात्रका बोधकदहोताहै, नचि उस पर कोड आक्षेप । महाभाष्य म “गोनर्दीयस्स्वाहः रेरा निर्दशं दोने सै भाष्यकार
तैनतिरोय ब्राह्मण के मन्व मे भौ दुष्कृताय चरकाचार्यम्‌ यह्‌ अपने आपको गोनदं देशवाप्ती प्रकट करता है । “एङ्‌ प्राचां देशः
पर्‌ है, वह सायन ने चरकाचा्य॑ का बांस प्र खेर करने वार का दस यूत की व्याख्या मे कारिकाकारने गोनदौय उदाहरण दिषा
आचार्यं अर्थात्‌ नट अथं किया हैकिन्तु वहं चरक शाखा कै आनवाय | है, इससे गोनद देच पश्चिम भागे प्रतीत दता है। भाण्डारकन्‌
का कही गोध नहीं होता । कृष्णयजुर्वेद के मन्त्र मँ द्विखाईं देने | मह्योद्यने से वर्तमान शगोण्डाः बतराया है कादमीर राज्य के
वारे पद का, अष्षिपकौ दृष्टि, उसं विभाग की चरकशखाका प्राचीन इतिदास मे गोनद नामक राजा का वणेन मिलने से कारमीर
आचाय प्र अथं करना उपयुक्त नही है। शस प्रकार प्रकरणंकौ उसकी सदेखियो ने राजा को इसकी खलना दी । तमथ राजा ने
वृष्टिमे रखते हृ सायन की व्याख्याके समान यदहाभी उसी मन्त्री तथा वै के सहित प्रवेश करिया । उस समय मन्त्री तथा वेव
प्रकार दु्वृन्तिमान अथं ही उपयुक्त है। नैषध चरितकर्मे जिस दोनो ने रना से कदा--कन्या के शरीर के सेग के विषय मे राजा
भी कर सक्ता दै।इस प्रकार मनुष्य सव तरद्‌ से अपनी रक्षा करे | का कोई द्रोष नहीं है ! हे राजन्‌ ! आप खनं-अच्छी प्रकार सुने हुए
( अर्थात्‌ चिकित्सा के रूप मेँ आवश्यकता होने पर मांस तथा शराब चरक (दूत) के वचनसेमें सव दरु जानताह्ंकि शस दमयन्ती
कामी सेवन करिया जा सकता है) इसपर वाजसनेयिर्यो ( शच को नर राजा कौ द्विये विना इसका सन्ताप दूर कुद नहीं दोगा अथवा
के अनुसार मँ षव जानता हं कि
यलैद की एक शाखा वारे ) ने कहा--इत्यादि""“ˆ"*( याञ्चवस्कय | चरक तथा सुश्रत के वचनो
दीका बारक्रीडा १-२-३९ ) इस दमयन्ती का ताप ( ज्वर ) नठद्र (खस ) के बिना दूर नदीं
गर सकता है। ( यद्‌ इलो दयथैक है ) ,
# निस समय दभयन्ती नर राना के गेम मे मूष्ठिति दौ
उपोदढात का हिन्दी अजुवदि ५
© @७ 9-००-6७ 99 690 6 ७ 2 99७ © ७-90-2 छ

ही गोनद देशदेणेसामी किसीरकामतहै। यद्धि माष्यकार नवरक पद्‌ उस नामके व्यक्तिके लि आयांद्यतौ "चरकाय
पतज्लि ही गोनर्दीय हो ओर उसका चरक से अभेददहोतो चरक- हिपतयेः कहना चाद्दिये था। चरक दन्द का प्रतिसंस्छरत पद के
संहिता कै प्रतिसंस्करणमं चरक अपनेदेद गोनद का कदींमौ साथ आना उपयुक्त नहीं है क्योकि "नामेकदेशे नामग्रहणम्‌?
उल्लेख क्यो नहीं करता । चरकसंहिता मं पाश्च ( रुदेलखण्ड अथात्‌ नाम के एक अच से सम्पूणं नामका ्रहणदहौ जता है-
ओर मेरठ डिवीजन ), प्र॑ंचनद्र ( पंजाब ), काम्पिल्य ( फर्खावाद्‌ इसके अनुसार चरक शब्द से यदि चरकसंहिता का यद्हण किया
जिले मे कम्पि गाम) आदि प्रदेशो का उच्छेष है परन्तु वहू जाय तो प्रतिसंस्छरत पद के साथ अन्य हय सकता है) इससे चरकं
गोनद का कहीं नामतक सी नदींहै। यदि पतज्ञलिकादही दूय नाम से पू्प्रसिड्‌ किसी मन्थ विशेष का प्रतिसंस्कता पत्तज्जरि ह
यह प्रतीत होता हैन कि चरक ही पतञ्जलि है
नाम चरक हो तो व्याकरणनहामाष्यकार पतज्जङि 'गोनरदीयस्स्वाहः
कहता हज “चरकस्स्वाह? एेसा एक बार भौ क्या नहीं कहता । अव्‌ हमे देखना है कि इति चरके पतञ्जलिः नागेशः
इस प्रकार समयः, नाम तथा देर्योकेभेदसेये दोना पृथक्‌ रही चार्य की इस उक्ति काक्या आद्यदो सकता है? (चरकसंहिता
सिद्ध होते ह । पतञ्जलि के महाभाष्य मे वीच रमे लोकरोक्तियां; ग्रन्थ मै पत्तञ्ञकि का यह वचन है' यदिटेसाअथदहौ तो इत उद्धूत
समासोक्तियां एवं भ्यासोक्तियो का बाहुस्य है तथा उसकी भाषा वचन को (चरक संहिताः मे भिरुना चाहिये परन्तु इस उद्धूत
एक दम दुर्बोध है परन्तु चरक संहितामें चरक दारा संभावित वाक्य का चरक संहितामेन होना इस आद्य के विपसीतहै।
केखांश्च गंमौर अर्थं वाखा होता हमा मी सरस्त एवं मनोहर रचना चरकसंहिता के खत स्थान के ११ वं अध्याय तथा परिमान स्थान कै
तै हृदय व्यक्तियों के हृदय को आनन्दित करता हुआ अन्यही ये अध्याय मे आप्त का निवंचन इ्तमे उद्धूत रीतिसे भिन्नदी
शेटी का प्रतीत होतादै। इसप्रकार लेखकी रोखीका भेदमभी सतिसेकियादहै। इस्त प्रकार चरकं प्र पतज्लि यह अथं करवै
दोनो के अरैक्य (मेद) कोह प्रकट करता है। इसके अतिरिक्त चरक की व्याख्या में पतञ्जलि ने एेसा कहा यह मी अथं हो सकता
यद्वि पतक्नछि ही चरकहोतो व्याकरण के नये तथा विदाक यन्थ है । इस प्रकार चरक के व्याख्याकार पतज्छि की यह उक्ति दै,
महासाष्य एवं योग कै विषय मँ शौषेण्य ( सवेशरेष्ठ ) पातज्ङ योग-
ठेता समक्षना चाहिये । इससे प्रतीत होता है कि चरकसंहिता पर
सत्र का निर्माण करने वारा पतञ्जलि, वैक म अपने प्रतिभायुक्त पतञ्जलि की व्याख्या अन्तुपकब्ध होने पर मी, थी अवदय । कुच
नये अन्थका निर्माण न करके केवर दूसरे के ठेखं॒पर संस्कारमात्र लग आजकल यह कहने भी ल्गे हैं कि पतञ्जलि स्वयं चरक न
करके कैसे सन्तोष कर सकता था । होकर चरक का व्याख्याकार था । ऊद रोग कहते है वि पतञ्जलि
चरकसंहिता कौ मञुषा नामक टीका का करने वाठाहे क्योकि
दतत की रीका भ शिवदास ने (तदुक्तं पातज्जरे" इस उदस्य आर्यप्रदीप नामक आधुनिक पुस्तकमे च्खिाहै कि चरकसंहिता
सेजोदश्लोक दिया है उसके रसपिषय प्रतीत दोनेसे; तथा इस की पतज्जलिकरत मजूषा व्याख्या थी । नागश्च द्याया रचित मंजूषा
दलकः के चरक संहिता म उपर्ब्ध न होने से ठेस प्रतीत होता
ख्य व्याकरण मन्थ मेँ पूर्मर्किखित-
इति चरके पतञ्जलिः यद
है वि रसपरैयक में पतक्जल्ि काकोई अन्य दही मन्थ है! रसवेचक वाक्यः दिया हु है । मंजूषा नागेश दारा बनाया हुजा व्याकरण
के विषय म मन्थ छिखिने वारा रसायनाचायं. पतञ्जलि अपने दूसरे का यन्थ प्रसिद्ध ही है । पतज्ञङिङ्रित चरक वेगे मंजृप्रा दीन क्य
म्रन्थ चरकसंहिता मेँ रस धातु आदि ओौषधों को क्यो नदीं प्रविष्ट दिखाई देती है भौर न कहीं सुनने म आती है ओौरन चक्रपाणि
करता! चकर्मे सो धातुओं का केवर नाममात्र आताहै तथा आदि टीकाकारो ने इसफा निर्देश दी किया है । इस प्रकार अन्य
पारदका भौ कैवरु एक वार वणन है । इसके सिवाय कीं मी इस साधने ( पक्ष की युक्तियों ) के अभावमें निश्वयन कर सक्नेसे
विषय का विश्चेष उच्छेख नदी किया है, ओर न इस विषय को अधने न्चरकमरतिसंस्करतेः तथा (चरके पतञ्जलिः आदि अस्पष्ट वाक्यो के
रसनैयक के दूसरे अन्ध मेँ विवृत रूपसे देने कौ उना दी है । आधार पर दोनों को एक सिद्ध नदीं किया जा सकता ।
एक ही वैक क विषय मँ रसवैयक मेँ पातञ्जरतन्व नाम से तथा इसके अतिरिम्त जो विषय अथवा देश जिसका विष शूप
अग्निवेशकृते तन्त्रे चरकम्रतिसंस्कृते? के अनुसार कायचिकित्सा से परिचित एवं अभ्यस्त हो वही अनुप्राणित हौकर बार २ उसके
मे चरकसंहिता इन दो विभिन्न नामोंसे मन्थ निर्माण काक्या हृदय मँ अता है) उदाहर्णके ल्यि महाभाष्य में पाटद्पित्र
प्रयोजन. दो सकता है । जव स्वयं चरक; प्रतिसंस्वतँ दृढबर, प्राचीन के अनेक बर उच्छेठ हौनेसे महाभाष्यकार का उससे विशेष
टीकाकार भट्टार हरिचन्द्र आदि तथा अन्य वाग्भट आदि आचार्यौ
परिचय तथा उनका निवासस्थान म्रतीत होताहै। एक व्यक्ति कै
ने सव जगह समानरूप. से एक हयी चरक नाम से व्यवहार किया
नाना विषयो मेँ म्रन्थ निमांण करने पर॒ एक मन्थ मै दूसरे यन्ध
है, तव अर्वाचीन चक्रपाणि तथा नगेश ने ही क्यो पतज्जछि नाम
से उच्छेख किया है ? पतञ्जलि के आयुर्वेद के मौ आचाय होने से
से संबन्धित विषय आने पर असुर यन्थ मे इसका प्रतिपादन किया
योग, व्याकरण तथा वैचक मँ मन्थ निमांण करने से भोज आदि गया हैएेसा कहना तथा दोनो अन्धो मै एक ही भाद्चय के क्चन `
देना मन्थकार का तरीका है । इस प्रकार अनेक. अन्धो के. रचयि-
द्वारा इसका निर्देश न होना टीक नदीं है ।
पातञ्ञखमहाभाष्यचरकम्रतिसंस्कृतेः # आप्तोपदेश रूपः शब्द प्रमाण माना जाता है) अनुभव .
मनोवाक्रायदोषाणां हर्ंऽदहिपतये नमः ॥ दवारा बास्तयिक तख का जिते पूणं निद्वय हौ तथाजौ रागदेषाद्वि
चक्रपाणि के इत केख द्वारा मी चरक हौ पतज्जलि है यह सिद्ध के कारण भी कमी इससे विपरीत न कहे उसे आप्त कहते ` दै-ठेसा .
फरना कोद शब्दयोजना के अनुकरूर नदीं हे! यां पर यदि चरक मेँ.पतञ्नलि ने कदा । ( नागेरमन्नूषायाम्‌ 91. = `
६६ ऽपोदधोत का हिन्दी अधुना
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होने से यो प्रकट करने यले बहुत से उदाहरणो के संभव होने पर इन्हीं


ताभ केकुञ पिषय, उक्तियां एवं युक्तिय अत्यन्त प्रिय
पूर्वोक्त उदाहरणा के देने से सदाभाष्यकारका वैद्यके पिषयका
नाना ग्रन्थौ भै णकदहील्यमे प्रावः मिलती दं जसे कि मानती जानना प्रतीतो सकता हे परन्तु केवल इतने मात्र से उसका

के कर्ता वाचस्पतिमिश्र फ जपने अन्धके प्रारममंदी हु व्याप चरक होना सिद्ध नहीं होता) यदिइनदोनो की एकताहौतौो
विश तथा उपट~>ि4 युक्तियां उसके दूसरे दैन के निबन्धो मं ग्रसङ्गयद व्याकरण कै मरन्थमें आये हुये इस तरह के विषय अपने
मी धोड़े बहुत अन्तर से प्रायः भिखती ह । इसी प्रकारं चरकाचाये
वेय यन्थ मे उसने क्यौ नदींच्छिदहै। दधित्रपुप्का उरक
एवं मदहामाष्यकाए पतञ्जलि के एक ही होने पर महाभाष्यगत व्रिषय
देतु रूप मे तथा नडरलोद्छकां पादरोगणके हितुलूप मे उ्छेष
चरकसंहिता मँ ओर चरकसंहिता के विषय महामास्य मं जगह २
चरके क्यो नदीं भिता, ओर उत्कन्दक नाम का रोग माव-
क्यो नदीं मिरते जवर कि दोनो विचा का उद्गम एक दी हय
प्रकाद मै भिख्ने पर मौ चरक मे प्य नदीं भिर्ता । महायाष्य-
सै इमा हो । यपि इसमें यह कदा जा सकता है फि अग्निवेदय कार ने पिक्ञेषरूप से परिचय, निवासि प्वं प्रेमके कारण जिस्ष
संदिता का चरक केवल प्रतिसंस्कता दै इल खि मू अन्यके प्रारछ्िपुच्र का वार २ उच्छेख पिया है चरकसंहिता मेँ उसका वणेन
प्रवदवतीं होकर उसने संकोच के साथ अपनी लेखनी कौ चखाया एक वार मी क्यौ नदीं भिल्ता। गगद्िगण म अये हुये वैवा-
हे र श्सी लिय मदाभाप्यकास के भार्वौ को व्यक्त करने वारी
चर्यो कै स्मरण कने वारे अग्निवेश पराद्यर, जतुकणं आदि शरदो
उक्तिया, खन्द तथा अन्य धिदेपताएं चरकसंहिता मेः सविर्हित नहा के उदाहरण देना उचित होने पर भी साध्यका< ने उनके उद्राहरण
की दै परन्तु महाभाष्यमे तो केवल स्वौकी दी परव्शताथी
नहीं द्विये। अन्यत्र मी 'आद्यन्तवदेकस्मिन्‌ः ( १-१-२० )
उसे महामाष्यकार ने जव खच्छन्दतापूंक अयनी वाग्बायः 'स्वरितात्संहितायामचुद्रात्तानाम्‌ः ८ !-२-३९ ) समासस्य
उदाहरण साधनोक्ति एवं लोकोक्तिः दवारा मिक्ञान एं व्याख्यान
( ६-१-२२३ } आद्वि ख्य की व्याख्या म अभिवेश्च का उर्केख
नै अपने कौशल का प्रदरशचैन भिया है, तवर कद स्थ प्र अवरसर्‌
त ) |होते पर सरका षिपय हौनेसे ही माष्यकारने अभिवेद्य का
प्रा्ठदोने पर भी चरकाचायके भ्व से आव्रदध ( ओतप्रो वरयाचार्यफे कूपे करटी मी परिचय नहीँद्वियादहै। चरके द्विये
खत
्रेयक्र कै पिषर्यो फो उतने क्यो नहीं प्रविष्ट त्रिया । जहा क्रं
कि,

हप अन्य प्राचीन वैचाचार्यौ के महामाष्यकारने नाम तक भी नहीं


के परवश दौकर उसे वे पिषय आवद्यक इष से कहने पड |
दिये,
उनम वे उसे द्य के मिकास नदीं कदे जा सक्ते है । जेते कवल
वातिक, पैत्तिकः, दठेष्मिक दगडो के उदाहरण देना वेचक विका क्रतूथादवि खत ( ४-२-६० ) की व्याख्या मेँ उक्थादिगण में
जानना नदीं कदा जा सवता । वदं तस्य निमित्तं संयोगोस्पातोः भये हये आुर॑द शब्द य एकर प्रत्यय केरूप का उसने निदश्च
( ५-१-३८ ) त पर निमित्त अथं के स्यि द्विये इवे 'वातपित्त- नदीं पिया है) बहुं "विद्यारकणेव्यादिः वातिक मेँ विचाके
श्टेष्मभ्यः श्मनको पनयोरुपसंख्यानं कतेष्यं, सच्चिपाताच्चेति उदाहरण रूप वायसमियिकरः, सापरंधियिक्रः; आङ्गविद्यः, धामेविचः,
वक्तव्यम्‌, इन वार्तिका के परवश दोर्‌ दी वातिकः व्तिक) ्रैविधः, आदि देकर मौ सयं भचार्यरूप से अधिष्ठित आयुरवद्‌-
दरेष्मिक, सान्निपातिक सदि उद्राहरण द्विये | इसी प्रकार भाष्य मिघा का प्रतिष्ठापूर्ैक नाम म्यी न लेना, रोगाख्यायां ण्वुल्‌ वहु
कार ने “उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य ( ८-४ ६६) यत्र के उदः रुम्‌ ( २-२-१०८ ) मरत कौ स्याख्या मं रोयवाचक शन्दका
उद्राहूरण न देना, शरोगाच्चापनयने" (५-४-४९) इस खत्म
पूर्वतरे स्कन्दे च्छन्दस्युपसंख्यानं रोगे इस वातिक के उदा्द्रण
चिधित्सा रूप पिद्ेप अथेमे कारिका की तप तसिल्‌ प्रत्यय कै
मे लाचासी ओ “उस्कन्दको रोगः" दिया दै। परन्तु जह[ उद्रादरण
देना अन्धकार की अपनी इच्छा पर दो वहा दिया हमा उद्राहरण ्रवाहिकातः कुरू आद्रि फिसी एक्का मी वणैनन होने परभी
ही ग्रन्थकार के अन्तर्मत भारौ को प्रकट कप्ताहै। भष्यकारने भाष्यकार को चरक कदूना आशवर्यकरास्क दीह ।
शः सम्प्रसारणमूः हस खत कौ व्याख्या मं अन्तरेणापि निमित्त- ^्चतु्य्धं वहु चछन्दसिः ( २-२-६२) यथ फे शषष्ठध्थ
शाब्देन निमिततार्थोऽवगम्यतेः यदह छिखकर उ4रमिमित्तक दधिः चतुर्थी वाच्याः इत वातिक के उदाहरण के रूपमे द्ियेहये
त्रपुसंभ्रव्यचतो ज्वरः पदरोगनिमिनत्तक (नड्वररोदकं पादरोगः" तेन्तिरीय(४) वाक्य मँ रजस्वला के पन करने योग्य धर्मश्च कै
तथा जआुमिभित्तक आयु धतम, ये उदाद्रण व्य है| भियम दिये दै उनके पालन न करने पर सन्तान की अनिशेदपन्निरूप
यहां पर "आयु धतम समान (दुधित्रपुसं भत्य्तो उवरः फल होते रै- दसा महामाष्वमे गिशेषसूपसे दिया है। इती
तथा नड्लोदकं पादरोगः? भी प्राचीन आचार्यौ के वार्यो के दौ प्रकार सुश्रुत के शारीरस्थन के द्वितीयं अध्थाये मी फलनिर्देश
उद्धरण प्रतीत होति ह । अन्य भी निभिनत्त तथा निभित्तिके अभेद सहित इती प्रकार यै नियम द्विये दै । परन्तु पतश्चछि से अभेद
रूप मे संमातरित चरकाचायं ने शारीस्जतिषत्राध्याय मे महामष्य
# दह्ये ओर खीरेके एक साथ खानेसे प्रत्यक्षरूपसे ज्वर मे विश्षरूय से उर्छिखित भिषर्यो को सामान्यरूपरसे ही कहा दै
दयो जाता है । (अनुवादक } तथा उसके फक नहीं के दै । पारश (बतै्नो ) मे मीमेदहै।
¶ भ्नड्वरोदकम्‌? जिसमे नड या सरकष्ठे अधिक दो देसे पानी यद मी एक पिचवारणीय विषय है ।
(ठहरा इभा जोषद का पानी) से पादरोग हो जातत दै । (अनुव्रादक) भाष्यकार के अमुसार स्त्यै धातु से घनीमाव अथमे खी
`“ ‡ भायुशैतं नदी पुण्यं भयं चौरः सुखं प्रिया ।
वैरं द्यंगुस्कनं श्रेयो बराह्णपूजनमू ॥ ( अनुतादक ) ( १ ) इसकी रि उपो० संस्कतं १० ४६ का० १ देखे ।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ५७

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दाब्द बनता है । ( स्त्यै ्टयै संघाते ) तथा शसू! धातु से प्रवृत्ति अथं निरोधः ८१-२) प्ता र्वं सबीजः समाधिः ( १-४५ )
मे पस शब्द बनता है । इसी प्रकार घनीभाव रूप अथै को लेकर खी तस्यापि निरोषेन सर्वनिरोधाश्चिर्बीजः समाधिः, ( १-५० )#
राब्द कां व्यवहार्‌ हौता है) चरक के अनुसार धनीभाव कौ लेकर इत्यादि खलो द्वारा अन्तःकरण की बदिषरन्तियों कौ रोक कर
पंस चब्द का व्यवहार होता है ।प्रसव मताका धम होने से तथा सात्मस्वरूप एक बृत्ति की स्थापना करना ओर अन्त म आत्माकार
षूङ्‌ ्राणिगर्भविमोचने, इस पाणिनीय धातुपाठ के अनुसार वृन्तिको भीं सेक कर निवात दीपकी तरद अपने आपकौ स्थिर
व्यवहार मे “खी सूते, “माता सूतेः आदि प्रयोगही ठोकं हं) कर्‌ केना--इस प्रकार सं्रज्ञात ओर असम्प्रज्ञात भेद से ( सत्रीज
परन्तु माष्यकार के अनुसार प्रसव पुरुष का धमं होने से पुमान्‌ तथा निर्वीज मेद से) दो प्रकारका योग दिया है! ओर इस प्रकार
सूते? यह प्रयोग ठीक है । “माता सूते? यह प्रयोग दूसरे अथेको कै योगकेहो जते पर ऋतम्भरा प्रज्ञा उपदि (ऋतं विमति इति)
भ्रकट करने से ओपचारिक्‌ ८ रक्षणिक ) जानना चाहिये इस फल होते है ! तथा. मोक्ष का स्वरूप निम्न है--^तदा वष्टु
प्रकार चरक तथा साष्यकार की प्रक्रिया मेँ मेद्‌ है। इन पक्ष-प्रति- स्वरूपेऽवस्थानम्‌? ८ १-३ › अर्थात्‌ दष्टा का अपने सरूप मै |
पश्च कौ युक्तियो के आधार पर मैरी दृष्टि मं चरक एवं पतज्ञकि के स्थित्‌ हौ जाना 'पुरूषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिभ्रसवः कवल्यं
अभेद की अपेक्षा मेद ही अधिक सिदध होता है । स्वरूपनिष्ठा वा चितिश्चक्तेः अर्थात्‌ पुरुषाधंदाल्य यार्णो का उदय
होना मौर विज्ुढ चितिद्यक्ति का अपनेरूप मेँ स्थिर. रहना ही
` इसके अतिरिक्त चरकसंहिता के रारीर स्थान के १९ म अध्याय.
मेँ पुरुष के वणैन के प्रसङ्ग मँ अये हुये योगसे पातञ्जकयोगके सोक्ष है ~ इत्यादि हाय आत्मा का किसी के साथन रहना, अपरि
विषय की तुरना. करने प्र भी यही प्रतीत होता है । दारीरस्थान वत॑नदीरुता, अपने चित्‌ स्वरूप मँ रहना, यह चरम सिडधान्त रूप
के प्रथम अध्याय मँ पूर्वोद्ष्ट २३ प्ररनौ मे से षड्धातुसमवा- से वर्णन किया है । इसके विपरीत चरकसंहिता म--
यात्मक ( खादयदचेतनाषष्टा-& धाठुञ के समवायरूप ) अथवा आत्सेद्ियमनोर्थानां सन्निकर्षात्‌ प्रव॑ते । `
तुविशतितच्वसमवायास्मक (मनोदशेन्द्रियाण्यर्थाः । भ्रकृति- ` सुखदुःखमनारम्भादात्मस्थे मनसि स्थिरे ॥
श्चाष्टधातुकी-२४ ततौ के समवायरूपः) वेदनातथा योग के निवतेन निवतंते तहुभयंवशित्वं चोपजायते ।
के योग्य कर्म॑पुरुष ( चिकित्सापिष्ठित पुरुष ) कै विषयमे २९१ सद्ारीरस्य योग्ञास्तं योग्धषयो विदुः ॥
प्रर्नौ का समाधान करके सव वेदनां जिसकी निवृष्त हो गड हे अर्थात्‌ इन्द्रियो जौर मन को बाहरी पिषर्योसे लौटाकर मन
ठेते पुरुष के विषय मेँ “क चेता वेदना सर्वा निष्ठत्ति यान्त्यरोषतः' करौ आत्मा मेँ स्थिर करना योग कहराता है । ओर
इस प्रदन कै उत्तर मेँ मगवान्‌ आत्रेय कहते हं कि- ` मोक्ञो रजस्तमोऽभावादर्वत्कमंसंत्तयात्‌ ।
वियोगः कर्मसंयोगेरपुनभंव उच्यते ॥
योगे मोक्ते च सर्वासां वेदनानामवर्त॑नस्‌ । अर्थात्‌ जब रजोगुण ओर तमोगुण समाप्च होकर केवर सच्च-
मोच्ते निव्रततिर्निभ्योषा योगो मोक्प्रवतंकः ॥
गुण रोष रहे, वल्वान प्राक्तन कृमं क्षीण हो जाये तथा रारीर ओर
अर्थात्‌ अन्तःकरण ८ मन ) के विषय कै दुर्योग ( मिथ्यायोग )
अन्तःकरण ( मन 9 के साथ आलत्माकास्थायीरूप से षियौोग दये
से उत्पन्न सुखदुःख से रहित'होने की अवस्थाका जिसमे उदय
| जाये उसे मोक्ष कहा है ।
हयौ गया हरेते योगका वणेन है । फिर ५ व अध्यायमें अभिवेद्य
इनदोर्नोकीयदि हम तुल्नाकरेतो हम देखते दहं कि चरक
कै पृष्धने पर आन्रेयने प्रवृत्ति तथा निदृत्ति कों एव्‌ २ बाट्कर
मे केवर स्वगुण के रेष रह जाने प्र आत्मा मेँ जपने अन्तःकरण की
निवृच्यात्मक अपवर्गं के स्यि पूर्वोक्त सत्सङ्ग व्रह्मचयं आदि का
वृत्तियौ कै स्थिर करने कौ योग तथा त्रैुण्यावस्था के संपादन कै
साधन कै रूपमे गचवावयो मै विेषरूप से वणन किया-है। इन
ग्य द्सीर तथा अम्तः करण के वियोग को मोक्ष कहा है। पत-
दोनों पूर्वापर अध्य्रायो मै.एक ही विषय सङ्गीमेदसे अत्रेयनेदही लिने तो सबीज.समाधि के बादं अन्तर्मे सिवींज समाधि दारां
वर्णन -किया है । इस प्रकार प्रतिसंस्कतां चरककेरूपमे संमावित
। अन्तःकरण की सव चरत्तिर्यो कै विख्य हो जाने पर उनका फिर उदय
पत्रि से प्राचीन द्ये यह केख मालूम पडता है । नद्यो उसे योग तथा अन्तःकरण (मन) कौ वृत्तिरूप सुख दुःखं
` स्रत में चिकित्सा शाख मेँ उपयोगी -दोने से चिकित्सा कै,
की दया की समानि हयौकर आत्मा का कूटस्थ ( अपरिवतनङरौर )
अधिकरण पंचमहाभूत एवं आत्मा के समवायरूप कम पुरुष. तथा चितस्वरूप होने -को `मोक्ष कष्य है 1 अतः मुख्य प्रतिपाद्य
( चिकितव्साधिष्ित कमं प्रुरष ›की, भेडसंहिता मे भी उक्ती प्रकार :
के षड्धातु एवं चेतना के समवायरूय तथा इस कादयपसंहिता म मी `
विषयो मेँ मेद दीखता है (इस प्रकार चरकोक्त योग “आत्मस्थे
इत्यादि
शरीरेन्द्रियात्मसचवसमुद्यरूपं पुरुषमाचक्तते अआत्मानमेके? मनसि स्थिरे, रजस्तमोऽभावात्‌ › शद्धसत्वसमाधानात्‌
( पृष्ठ ६७ ) के अनुसार शरीर एवं शरीरी के समवायरूप ( कम ¦ # चित्तवृत्ति के निरोधं ( (ण्णन्छणध्र ४०) 0 ०३०0 ) को
पुरुष ) काही वणन है ।इन्दीं के अनुसार प्राचौन सिद्धान्त को: गोग कहते है । उसके दो भेद है । सबीज ओौर निर्वीज समाधि
दृष्टि मेँ रखते हुए मगवान्‌ आत्रेय ने मी उतनादी ङ्खा होगा अर्थात्‌ जव वासनार्ओं का कुड्‌ अद शेष रह जाय तथा आत्म कौ
ओर मोक्ष के.ङिदि उपयोगी योग का विषय पीठे से इस प्रकरण ` सन्ता विघमान रहे तो उसे सबौज समाधि कहते हं । उत्त सवीज |
म प्रतिसंस्कार कुरते हृ चरक ने प्रविष्ट कर. दिया, यद मनत समाधिः कैम निरोध हो जाने पर सव कु निरोध हौ जाताः हे
उसे निर्वीज समाधि कहते ह जिसमे आत्मा का मी एथक्‌ अस्तित्व
भ,

चरक तथा पातज्जल यत्च में कही हह योग की प्रक्रिया सम्रान दौनी
चाहिये थौ परन्तु पेखा नीं है । पातज्जल में--'योगश्चित्तश्त्ति |न रे । ( जलुवाद्रक ) । „4. ~
उपोद्धात का हिन्दी अञ्युवाद्‌
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वाक्यो कै आघार पर रजोगुण तथा तमोथुण समाप होकर शुद्ध आसन आदिः जिनका योग के अङ्गरूप मेँ विशेष उच्छेव किया है
स्वगुण कै केप रहने पर सच्वयुण प्रधान मन के अत्मा मे स्थिर उनका चरकसंहिता मँ उल्टेख नहीं किया । इस प्रकार साधनो मेँ
हो जाने के कारण पतञ्जलि के सम्प्रज्ञातश्रणीमे के हुए योग मेँ मी पूणं समानता नदीं पाह जाती । सख्य उपादेय अंश म
थही
हयी अन्तर्निहित हो जाता हे । यदि मनकेख्यदहौनै का प्रतिपादन वहत समानता तौ सव्र जगह मिल सकती है । |
किया जाता तौ साख्िकवृत्ति के भौ परिहार से ध्येयमात्र प्रकादया- दसके अतिरिक्त योग विद्या मी पतल्कि की दही आविष्करत नहीं
वस्था रूप अप्षम्थ्रज्ञत योग का बोध होता परतश्चलि का योग दे, इसे पूवे भहामारत यदिमे मौ इसका वर्मन भिता
है।
सम्प्रज्ञतश्रेणी से मी प्रे असम्ध्रक्गात श्रेणी मे जाकर समाप्तहोताहै “हिरण्यगमे योग का वक्ता है'--इस वक्रय कै अनुसार दिरण्यगं
तथा उसी अव्रस्थामेंदीइ्टसिद्धि होती है-श् प्रकार योगकी के समयप्षेहीयोगपिचाका जाश्चतिक उदय माना गया है ।
मुख्य श्रेणियो मे मेद है। मदेलोदारो की खुदाई मेँ योगस्थ पुरुष की मूति के मिलने से भारत
चरक मे-- मे योग का प्रचलन अत्यन्त प्राचीन है-देसा सर जान मारसरे ते
आवेशश्चेतसो ज्षानमर्थानां छन्दतः क्रिया । अपनी पुस्तक (1006०१90 १४१ 14४8 नपान
*01])
दृष्टिः श्रोत्रं स्मरतिः काम्तिरिष्टितश्चाप्यदर्ञनस्‌ ॥ के ५४ पृष्ठ म अपना मत प्रदित किया है श्रीयत सुरेन््नाथदास
इत्यष्टव्रिधमाख्यातं योगिनां वरूमेशरम्‌ । गुप्त ने अपनी पुस्तक (प्ाऽणए 9 1पवा9 108गृप्
` शुद्धसससमाधानात्तस्सर्वमुपजायते ॥ ४०1) के२२६ षष्ठ पर्‌ यदी लखि हे । इस प्रकार स्वरूप, हेतु,
फर, साधन, पारिमापिक शन्द्रौ की भिन्नता, पातज्जर योग क्रिया
( इत्यादि द्वारा ८ (आठ ) योय की विमूतियां दी दै! यथा
मे समय के व्यतिक्रम ( व्यवधान } से विषय का विकसित होना
(१) दूसरेकेमनमें प्रवेशन करना (२) सत्र विष्यो का गान
तथा दोनो की क्खन शरीरम मेद होनेसे दोनो लेखक भिन्न र
८३) अपनी इच्छानुसार कायं करना (४) द्वित्व दृष्टि (५)
दिव्य श्रोत्र (६) दिव्य स्मरति (७) कास्ति८८) अपने आपको प्रतीत ह्येते दै ।
तिति कर सकना )--ये सव आत्मामं मन के स्थिर दहो जाने महाभारत के अदवमेध के भततुगीता पर्वं के १९ वै अध्याये
पर ही होनी हँ तथा उनको केवल दरीय दाक्तियां ही का दै! अतः(१) परं प्रवच्यामि योगश्चाखमनुत्तमम्‌, इसत वादय द्वारा
शपके अतिरिक्त पतश्जलि नै आत्मविपयके योगं के ऋतम्भरप्रम्ना प्रारम्भ करके दी हृदं योग व्रिधार्मे मी इसी प्रकार उद्दि्यौ को
आद्रि फल कदे है । उस्र योग कौ सिद्ध करने फी अवस्थारमे अभ्यास रोक कर मन को आत्मा मे स्थिर करके मोक्षके ख्ि योग करना
की वदनि के खयि त्राटक्राद्वि की तरह उन २ विपयो मेँ किये लिखा है तथा उसके उपाय रूप से योगदार्खो का अभ्यास, एकाम्त
जाने वे धारणा) ध्यान तथा समाधि रूप योग के अङ्गभूत्‌ संयम मे रहे कर संयम तथा इन्द्र्यो को वद्य मे करना छ्खि है। इसत
का, परचित्तश्ान; स्व॑भूतरुतक्चान (संवर प्राणियों के दद्र का प्रकार्‌ योगसे मनुष्य मे श्च्द्ातुपार नाना शरीरो को उपरन्ध
ज्ञान, पूवजातिक्नान, हस्तिविक युवनक्ञान, ताराग्यूहुश्ान, कायन्यृष्- करना) देवताभ। को वश्च मे करना, निर्भयता, अक्ले, निरृहा
ज्ञान आदि वहत सी सिद्धियो का मिभूतिपाद मे पिभूतिर्यो के रूप आदि उत्पन्न हयो जते है-दस प्रकार महाभारत मे जिस योगका
म वणैन कियाद इसत प्रकार दोर्नो मे हेतुहेतुमद्धाव (भिन्नर वणेन किया ह वद पूर्णरूप से न भिटने परर भौ इतका कुर अरा मेँ
कारणो सेभिन्नर कार्याका होना) व्रिभिन्न है, प्रक्रिया का सान्निध्य चरकसंहितागत योग प्रक्रिया मँ भिटने से हम कह सकते
मेद है, वहीं र ए्कही विषयमे भित्र र पारिभाषिक रद्रौ का दकि चस्क्ेप्राचौनयोगकाष्टौ अनुसरण किया गया हैन
पि पातञ्जल योग का इस प्रकार इन दोन आन्या्यौः की विभिन्न
प्रयोग है तथा विभूतिरयोकौ संख्यामी इसमे ८ नदीं है! उन
पिभूतियौ का मी ते समाधावुपसर्गाग्युस्थानेः के अनुसार सुख्य योग प्रक्रियां मीश्नदोर्नो को भिन्न २ न्यक्तिदही सिदध करती है।
योगकेमा्म मेँ व्याघात होनेसे पणेन नरहरी क्रिया दहै। इसके अतिरिक्त योग गर्वो के क्ता पतजलि एवं महाभाष्यकार
| पत्चङि मी एक हौ व्यक्ति दैःअथवा भित्र २, दस्मे भी विद्वानों मे
योग सौर मोक के साधन के वर्णन मं कहा है- | परस्पर मतभेद ह । महाभाष्यकार परतञ्चछि का समय
सतामुपासनं सम्यगसतां परिवजंनम्‌ । धातु एं
रसायन की उत्ति से पूवैकादोने से रसायन शाश्च का आचार्यं
ब्रह्मचर्योपवासश्च नियमाश्च पृथग्विधाः ॥
धारणं धर्म॑शास्नाणां चिज्ञानं विजने रतिः । | पतक्जङि भीभिन्नरदही व्यक्ति है -इनमे केवल नामकादी
विषयेष्वरतिमेचि व्यवसायः | साम्य हे ेसा सुरेनद्रनाथ द्रास शप्र ने अपनी पुस्तक ( प्ंभणप्‌ ०
| ॥ परा तिः ॥ | 0015१ ए 1105० ४० 1) के २६१ पृष्ठ पर खिलि है।
९.
इत्यादि द्वारा सप्सङ्ग, असत्सङ्नषजन आदि बहुत से उपाय | अभ्रासङ्गिकि होने से इस विषय मे हम अधिक धिचार नहीं करते ।
बताये है } इनमें बह्मचये भादि कुष उपाय पत्त्लि के यम-नियर्मो | :---------
,
म भी अति दै! सत्सङ्ग, उपवास, शाक्षारण आदिय को वहां | नार्मो सेये शब्द नदींयथा-- द्विये ह फिर भी ये शब्द कु थोड़े से अन्तर
त्ख |
साधर्नौ मं नहीं ङ्ख है । अपितु वहू अभ्यास तथा त्रैराग्य क्रो से अवद्य मरुते दै,
जोकियोगकेदेतुरूपमें च्विः, ओंकार की उपासना, मैत्री, | मंत्री कारूण्यमातेषु शक्ये भ्रीतिरपेक्तणम् ‌ ।
करुणा, मुदिता, उपेक्षा#आदि चित्तसम्बन्धी कमे, प्राणायाम तथा | प्रकृतिस्थेषु भूतेषु, वेदयृत्तिश्चतर्विधा ॥ `
( च. ख. ९ अ. २५ इलोक ) ( अनु० }
% चरकं मेँ यपि मेत्रौ, करुणा, युदिता, . उपेक्षा आदि इन्दी |¦ ( १) इसकी टि० उपौ० संस्कृत १० ४७ देख | |
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादे १.
स 9 9 9 ० ०-90-० ©> =€ 2-29-2 @©-@
अख्वेरनी* नामक ठेखक्‌ तो अभिवेद्य तथा चरक मै ही जाने से अनथ की संभाधना होतो है, इस ल्यि वस्तुतत्व केअजु
मानता है परन्तु यह मत भभिवेशक्रते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृतेः सन्धान कै ओौचित्यकौ दृष्टम रखते हये विगृह्यसंभाषा मे उप
जनकः

मँ तन्तरकार एवं प्रतिसंस्कतां का स्पष्ट मेद दिये होने से खण्डित हौ योगी दर, जाति, सिग्रहस्थान आदि हितकारी मागमे बाधक्‌दहौ
जाता हे । परन्तु यथपि दोनों आचाय भिन्नरहैतो मी दोनों कै जातह्‌ । |
गन्थकाएकदही व्यक्ति द्वारा संकलित किया जने से तथा उनके उपलब्ध चरक संहिता में वादविवाद कै प्रकरण मे लिखा है-
नाम मत्र रष रद्‌ जने सते वतेनान समयमे तोदोनों का अभेद विगरह्यभाषा तीचं हि केषाञ्चिद्‌ दरोहमावहेत्‌।
साहीदहौ गया है,यहु बडे दुख क्रा चिषय है। कुशला नाभिनन्दन्ति कलहं समितौ सताम्‌ ॥
वतमान मै उपकन्ध प्रतिसंस्छरृत चरकसंहिता मै मी अधिकां अर्थात्‌ इसमे सन्धायसंमापा को ही प्रधानताद्यै है। यहां तक
रूपमे प्राचीन सख्य ददनकोहीकेनेसे, बौद्ध मतकी दायान का विषय ही भगवान्‌ अन्रेय का प्रतीत होताहै। इसके बाद
होने से तथा प्रतिसंस्कार के समय संमावित रूपसे प्रविष्ट क्ेखौ भँ पिगृह्यसंभाषा के विदेष पदार्था को केकर प्रवृत्त हुये है । वहां पर
सी प्राचीन एवं प्रौढ रचना के दिखाई देने से प्रतिसंस्कतौ चरक (इमानि खदु पदानि भिषग्वादज्ञानार्थमधिगम्यानि भवन्ति?
मी अर्वाचीन प्रतीत नहीं होता। भिन्तु भिषग्जितीय अध्याय मेँ अथात्‌ ये पद्‌ वैक के विवाद विषये।के ज्ञान कै स्थि जानने
न्यायदद्ेन के निग्रह स्थान आदि बहुत से पदार्थो की समीश्चा चाहिये, यहां से प्रारम्भ करके “इति वादुमार्मपदानि यथोटेक्ल-
दोना, इसके विषय कौ प्राचीन सिद्ध करने मै बाधक सभिनिर्दिंष्टानि भवन्तिः अर्थात्‌ इस प्रकार आवद्यकतानुसार
होते हें! श्रौत (वैदिक) दा निक र्थौ गौतम वाद्विवाद के ल्यि पदौ कानिर्दैर्‌ क्र दिया । इस प्रकार प्रारभ
से पूवं तथा बौद्ध दाशैनिक मन्थ मै नागाञ्ज॑न कै उपाय- एव उपसंहार ( समाप्नि) दवाय प्रथक्‌ प्रतीत होता हुआ मन्थ
हदय आदि मन्थो से पूव बिगरृह्यसंभाषा मेँ उपयोगी न्याय, प्रकरण प्राप्त विषयों से खींचकर पीछे से चरक कै समय अनुप्रविष्टं
खल? जाति, निग्रइस्थान आदि पदार्थोके न मिल्ने से प्रतीत प्रतीत होता है प्राचीन समयमे मी विभिन्न मत वाङे भिन्न र
होता है वि बौद्ध के महायानिक विचारो के उदय होने आचार्यौ के होने से परस्पर उनम विचार विमं होता ही होगा|
पर दोना ( हीनयान तथा महायान के अनुयायिर्यौ ) म जब परस्पर इस विषय मं पूणं प्रमाणो के अभावमें हम निश्वयसे यह भीः नहीं
संयष.हुअ। तव पश्च-प्रतिपक्ष, जय-पराजय, सियम-~व्यवस्था आदि कहु सकते किं उस समय वादविवादः के नियम नदीं ये। भासकवि
कै अनुसन्धान करने प्रजो बवादविवाद का पिषय पके संक्षेप के प्रतिमा नाटक# मं प्राचीन शाख मे मेधातिथि का न्यायश्चास्
मथा उसीको गौतम तथा नागञ्जुनने यन्थनिर्माण के हारा विरोष प्रतिष्ठित माना जाता था । वहां मी वादविवाद के विषय काः
परिष्कृत `करके उसे नियमित कर दिया, पक्षप्रतिपक्षरूप से होने उर्केख है 1प्रन्तु यहां वार्ह॑स्यत्य अ्थ्ाख के पृथक्‌ उर्केख ह्येते
वे विवादके विषयको बादमें होने वारे दिडनाग, धर्मकीति के कारण न्यायज्ञाख से चब्दमात्रे द्वारातकंका अरहणहै याअन्य
आदि बौद्ध आचार्यौ हरा प्रमाण स्ुच्चय, प्रमाण वातिक वाद विषय का यह नहीं कदा जा सकता । ओर यदि तक शाख काही
न्यायहेतु निन्दु आदि मन्थो मे, न्यायवैशेषिकाचार्यौ द्वारा वात्स्यायन गहणदहो तोभी उस वाद्विवाद का विषयदहै या नही, ओौर
भाष्य, उचोत्तकर वातिकरतात्पयं टीका तात्पयै परिधि आदि अन्धो मे, होने पर भी उसका क्या स्वरूप है यह निश्वयपूर्वक नहीं
तथा जेनाचायोँ दारा तत््वसंग्रह आदि अपने यन्थोँ मँ मध्यकालम मी कहा जा सकता । गौतम तथा नागज्ञुन से पूवं के मन्थोम इस
बढ़ाया हुआ हम देखते हेः । इसत प्रकार क्षमय २ प्र विम्य के अवसर विषय के न मिलने से फेसा प्रतीत होता है कि गौतम तथा नागाजैनः
के उपस्थित हने प्र विमदंनीय ( विचारणीय ) पदार्थौ का अनु- के समय पक्षु-प्रतिपक्ष भावके विदोषरूप से प्रबल्ता धारण कर
प्रवेश ( पौषे पे प्रवेद ) होता ही रहता है । आयुर्वेद क प्राचीन लेने पर सामान्यरूप से मिर्ने वाले प्राचीन विषर्योकादह्यी विद्ेष
मन्था म सुश्रुतः भेड आदि वादविवाद के विषय मेँ उदासीन ही प्रसार हो गया है ।इन बातों को दृष्टम रखते हये चरक, गौतम.
रहे है । कदयप ने वैय के परस्पर विचारणीय विषर्यो के उपस्थित तथा नागान द्वारा निर्दिष्ट वादविवादके विष्योकी यदि हम.
दोते पर संधायसंमाषा को देकर भिगृह्यसंमाषा का विषय विस्तार पौर्वापर्यं की दृष्टि से तुलना करतो हम देने कि न्याय, प्रतिज्ञा
सेन देकर केशमात्र ही दिया दै । इन प्राचीन आचार्यो दवारा गृह्यत आदि अवयव, तथा सिद्धान्त आदि कै विषयमे चरक ओर गौतम
मागं के अनुसार अआक्रेय तथा {अभिवेश्‌ को मी भपनी संहिता में की उक्तियो मेँ समानता होने पर भी गौतम ने बाद, जल्प, वितण्डा.
सन्धरायसतमाषाको ही देना चाहिये था क्योकि चिकित्सा के विषय आदि शाख्ीय विचारो के कथत्रैविध्य कौ दृष्टि से संधाय संभाषां
म विवाद होने प्रर जग्र व्यक्ति येन केन प्रकारेण खपक्षप्रतिष्टापन रूपी वाद को तच्छन्ञान की दृष्टि से ओर विगृह्य संमषारूपी जदप्‌
एनं परपक्ष के खण्डन मँ ठ्गता है तव वस्ुतत्च के तिरोहित हो (वितण्डा) को पक्ष-प्रतिपक्षकी दृष्टिसे व्िदहै तथा ज्स्प्मे
, * महमूद गजनवौ का समवारीन तथा उसका सभा-कन
समा-कमि।
ि।
उपयोगी होने कीदृष्टिसे द्यी दर, जाति; नियहस्थान आदिकरा.
इसने भारत मँ संस्कृत का अध्ययन करके भारतीय विचार्मौ पर निर्देश किया है । परन्तु चरक की अपेक्षा गौतममे रं, जाति
पुस्तक छ्लौ है ( समय श्वी शताब्दी का पूर्वां )--अनुवादक । जिग्महस्थान आदि के विभाग तथा संख्या की अधिक्नां भिर्नेसे
1 बौद्ध धर्म का अर्वाचीन. रूप महायान है जिते भगवान्‌ . * साङ्गोपाङ्ग वेद, मु के धमे, महेरवर के योशख,
बुद्ध के मूर उपदेशो मे बहुत सा परिवर्तेन कर दिया गया है । बृहस्पति के अथंाश्च, मेधातिथि के न्यायश्चाख् ओर प्रचेता के श्राद्ध
. . .(अचुवादक ) करप को पदता ई । (प्रतिमा नारकं पृष्ठ ७९.) । 1
७ उ० हि०
उपोद्धात का हिन्दी अन्नुवाद्‌
(1कमी पकम ज [3 क 1
चानि जवि शि
# (4८.०२
४ |3:॥++#(1 ॥ 4
4।शः
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४ नह|13 क 4 क,2 1.3. क.
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-4ः।ष्णम
क४| [1 म 9.
व सि सन2
क कन 9

वि ककि सि नमित लि तोति "सि चि सनिति किण "कि कि कि तक त क कक =

चक्रपाणि ने वौद्धमत का संकेत विया है इक्तल्यि -दइस्मे बौद्ध मत


गौतम भँ विकसित अवस्था प्रतीत होती है। नागाज्जुन के उपाय-
का प्रवेद है। परन्तु इसके ्र्युन्तर मै कुष्ट छोग कहते ह कि
हदय मँ कु पदाथ गौतम भौर चरक कौ अपश्च भिन्न प्रक्रिया
द्वारा कुच संक्षिप्त ह्येने पर भी अधिवन्यूनतरैषिध्यः दृ्टान्तद्यविध्यः इतने मात्र से हय बौद्ध मत का प्रवेद नदं का जा सक्ता क्योकि
सिद्धान्तधमचातविभ्य आदि २० प्रदरोत्तर~म्बन्धी अनेक विषया
स्वभायवाद्‌ केवर वौद्धौ का दी नदीं है। इससे पहले भी
के विकसित अव्रस्था मेँ दिलाई देने से मौर विकातवाद ( £<” वरि्यमान था !
०० कल्म) की दृष्टि से चरक की अपक्वा गौतम ओर नागा- यद्वि चरक को कनिष्कका राजवैच मानतो उपायहृ्दयमें
जुन के समय मेँ त्रिकसित विचा के मिल्नैसे प्रतीत हता हं गार्जन ने जहां चिकित्सा के प्रसंग मँ सुष्तको स्मरण कियाद
किएक द्यो वादविवाद कै युवे होने षर मी कु समय के पौरव वह अपने समकालीन बौद्ध राजा कनिष्क्‌ के राजवै्य एवं इतने
पर्य स्ते चरक का समय गौतम तथा नागार्जुन के सवय से प्राचीन प्रसिद्ध विद्वान्‌ चरक का नामोरटेख तक कैसे भूक यया । .यदि
प्रतीत होताहै। थटनद्रनाथ दास नेमी अपनी ( छशण्णा 9 इन युक्तियौ के आधार पर चरकको नागजनमे मी बाद का
14199 201105गृर एण) 7 ) मेँयदी सत प्रकर किया हे! सानाजायतो वरकका समय नागाजंनसे भौ अवांचीन प्रतीत
नोद्धत्रि्टिक के चीनी असुवाद ( (0117९36 ०१६)5१ होता है । ॑
0070001९ ) मे मिलता हैकि चरकनामक वेद्य कनिष्क राजा नागार्जन द्वारा अपने दानिक मन्थ उपायहृदय मँ प्रसङ्गवश
का राजत्रैय था । उक्तने उसकी रानीके किसी भयंकर रौगकषे आये हये वैचक कै प्रकरण मे पूवैवती आत्रेय अश्िवेश्च क्यप आद्वि
चिकित्सा की थौ ¦ इससे चरकाचार्यं कलिष्कर के समय होने से की तरह चरक तथा बौद्ध मतानुयायौ जीवक का नामो्लेख न
रथम राताब्दी म इमा है देता पाश्वाच्य केक सिद्धान लेमीका करना ठीक ही है! चरक कै वहां नामोच्छेखन हीने माच्रसेही
मत है ¦ इतिहास के अनुतार दाश्चैनिक नामान का कनिष्क के य॒दि उप्ते अर्वाचीन मानल्तो इस युक्ति कै आधार पर आत्रैय
समय ह्यना तथा नागाज्जैन के उपायहृदय तथा चरकके ठेटमं आदिकोद्ी हमें अर्वाचीन सानना पड़गा। नागान के उपाय्‌-
विगृह्यसंभाषा के समानरूप मेँ भिलने से चरक तथा आये नागाञ्ुन हृदय में पुश्ुत का नामहोने पर भौ चरकका नामन दहोनेका
दोनों ह कसिष्व के समकालीन सिद्ध होते हैं । परन्तु शिकालेख कारण संभवतः यदह दहौकि सश्चत संप्रदायका प्रादुमीव काशीमें
आदि के दारा कलिष्क राजा कै वोद होने तथा नायाज्ञैन का ऊनिष्क. इञा था ओौर चरक संप्रदाय का पाच्रारु, काम्पिस्य आदि पञ्चिम्‌
के समकालीन सिद्ध होने प्र मी चरकसंहिता का प्रतित्षस्कर्ता प्रदे मे । सख्यि. उस प्रदेश मे उनकी प्रसिद्धि स्वाभाविक थी
चरक ही कनिष्क का राजवैय चरक था इसमे विदानो का मतभेदं प्रिणामस्वरूप पृं दिशा के देश मे सश्चत की अधिक प्रसिद्धि दौ
है । श्रीयुतं कीथ+ महाराय इसौ मतके दैँ। यदि चरक कनिर्ष्का गई जर इसख्यि इयाम, कम्बोडिया आदि देशो के यन्लोवमां
का समकालीन हो तथा उसका राज्वैदहौ तौ उसके ज्खोमें तथा जयव्मग कै हिरुच्खो मँ वे्केरूपमं स॒श्चुतका उक्केख
कहीं तो बौद्ध सम्प्रदाय कौ दाया ( इ्लक्क ) मिल्नी चाहिये थी मिरुता है । नागाज॑न का संबन्ध वि्ेषरूप से दक्षिण प्रदेश्च तथा
परन्तु इसके विपरीत चरकसंहितामें वैदिक मन्तो हारावैदिक प्रक्रिया मगध सेधा. इसल्यि पूवं द्विद्या म प्रसिद्ध तथा अपने समाजमें
काही प्रयोग क्यो किया गयादहै। कुद रोग इसे प्रत्युत्तरं में सम्मानित खष्चतका हीनाम्‌ उत्ते ध्यान मेंआया दहो । परन्तु स्त
कहते है कि प्राचीन अथिवेक् संहितामें सांख्य देन तथा वैदिक सेमी परे उसे चरक का नाम याद आना चाहिये था क्योकि
प्रक्रिया पहङेसे दही विमान थौ, चरक तौ इस संहिताकां केवर अपने समकालीन राजा कनिष्क के राजवैय तथा विद्वान्‌ होने कै
प्रतिसंस्क्तं मात्र था इसख्यि उसमे बौद विचार का. नाते चरक से उसका परिचय अवदय होना चाहिये था। इसके
प्रवेद नदी हो सकताथा। केवर इतनेसेद्ी चरक कौ प्राचीन
अतिरिक्त राजतरमिणी के ङेखक ( कर्ण ) ने भी कनिष्कवृत्ति
सिद्ध नहीं किया जा सकता । कु छोग कहते हँ कि चरक संहिता म चरक का नाम व्यौ नदीं दिया । इनके आधार पर॒ तथा गौतम्‌-
मँ कुष स्थल
= न पर"~ स्वभाववादुंका
4 उ्लेख
~ है ~ जिसकी
^ ~^ थैकामें` | उजके आविमविसे पूवं भी न्याय वितण्डा आदि विवाद कै विष्यो
* चरक परम्परा के अनुसार कनिष्क क! चिकित्सक था, के प्रचङित होने ओर चरक की केखन रखी मे सौ प्राचीन बाह्मण
उसने उसकी खी की कठिन रोगावस्था मे चिवित्सा की थी । परन्तु र्थो की द्यी लक्‌ मिरे से सिख. आदि विद्धान्‌ चरक को कनिष्क `
दुमाग्यवद्च पीछे से जव दम इन कहानियो को सुनतेदैःतोदम का समकालीन नदीं मानते हं।
नहीं कहु सकते कि इन कहानियो का कितना मूल्य है (पोप इस प्रकार जब हम चरके समय का अन्वेषण करतेहैंतो
ण इण्न ष्टो 4.2. एल २. 406)1 = हमं बहुत से मत दिखाई देतेहं। इसके समयके पूणं निश्चयं
† कनिष्क का समय ७८ से ९०० ईदपगरी-स्मिथ १२० ईस्वी करने के ख्ियि अभी बहुतसे प्रमाणां के खोजने की आवञ्यकवा
मानता है | (८अनुवादक )
{ ग्रबृचतिहेतुर्मावानां न निरोधेऽस्ति कारणम्‌ । है । शरीदयुत प्रफुल्ख्चन्द्र राय ने भी अपनी पुस्तक ( ता5०ण्फ 0
केचिच्वत्रापि मन्यन्ते हेतुं हैतोरवर्तनम्‌ ॥ पणव कणलणेऽप् ४० 1) म चरक तथा सश्चत के विषयमे
~ ` (च.घ.अ. १६ शोक २७) वहत्‌ से विचार प्रकर कयि)
अर्थात्‌ माव ( पदार्थौ ) की प्रवृत्ति अर्थात्‌ उत्पत्ति मै कारण
होता है परन्तु व्रिनारा मे कोई कारण नहीं । अर्थात्‌ मा वोँकानाञ्च + यद्चोवर्मा--( कम्बुज का राजा ८८९ से ९०८ ईसवी }तथा.
अकारण ही ( स्वभावतः) हो जता है । . (अनुवादक |) जयवमां--(यद भी कम्बुज का राजा १२ वाँ शताब्दौ ) । (अज्ुवादक्‌)
1,
ति [त भ ।
0
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं ५५१

वार्योविद्‌, दारूबाह, नग्नजित्‌ तथा भेड प्रतीत होते है । राजपिं दारुवाह कां का है,यह इससे प्रतीत नदीं
इस कादयपसंहिता कै रोगाध्याय म कादयपसम्मत रोगौ के होता । किन्तु अष्वङ्गसंग्रह के उत्तर स्थान मै विष के वेगो कै
हविध्यवाद८११) का उल्छेख होने से तथा वमन विरेचनीयाध्याय में विषय मे पुनवेस॒, नप्नजित्‌ विदेह, आलम्बायन तथा धन्वन्तरि
=>

मी म्नन्थकैश्चुटित होने से वार्योविद के नाम से किसी अभ्यक्त मत कै सत का उच्टेखं भिल्ते सै नञ्नजित्‌(१) नामका भी कोई
के दिय होने से वार्योविद का उच्छेख भिरता है ।कुककुणक चिकित्सा वेद्य प्रतीत होता हे । उसी की इ्दु(२) की व्याख्या मे (न्मजितो
सम्बन्धी अध्याय कै अन्त में वार्योविद नामकराजा कौ मारीच कश्यप दास्वाहिनः पद दारा नञ्चनित्‌ तथा दारुवाह दोनो चर््दो
द्वारा बारुभैषञ्य(२) के उपदेश्च का निर्दे मिता है । उन्तर मागमे कौ समानाधिकरण के रूपम दिया है। यहां इत्तन्त दारवाहिन्‌
अनेक स्थानों पर जीवक द्वार प्रन एवं सम्बोधन के मिर्ने प्र राब्द का प्रयोग होने पर भी चरके की चक्रपाणि(३)
व्याख्या मं दारूवाह नाम दिया होने से तथा काइ्यपसंहिता
भी बीच २ में पाथिव, विद्ांपते, नृपोत्तमः नृप तथा नराधिप आदि
मे मी दाख्वाह नामसे हो उल्छेख होने से केवल अन्तिमि वणं के
दारा मिलने वाले राजा के सम्बोधन, अन्य किसी दूसरे राजा कै
भेद होनेसेदोनौ एक ही व्यक्ति प्रतीत होते दह) अन्यत्र कीं र
सम्भव न होने से तथा एकं स्थान पर नामपूवेैक उल्लेख होने से
मिलक्चै वाला दारुक(४) यी संमवतः यदी दारुवाह दहदौ 1 दारुवाह्‌
उसी वार्योविद के प्रति किये गये प्रतीत हौते दहै । इसी प्रकार देरा-
तथा न्चजित्‌ के अभेद को मानकर अनुस्षन्धान करने पर सुद्वित
सात्म्याध्याय मे मी काश्चीराजो ( काशिराजं ) महामुनिः" में भेडसंहिता मे निम्न देलोक्‌ मिता है-
काशीराज द्वारा निर्दिष्ट ग्यक्ति मी वही वार्योविद प्रतीत होता हे । इस
गन्धारमभूमौ राजषिंमभ्भिजिस्स्वर्गमार्गद्‌ः ।
प्रकार इस सहिता के अनुसार मारीच कदयप का शिष्य तथा उसका
समकालीन वैाचायं वार्योविद काडर का राजा प्रतीत होता है। संगृह्य पादौ पप्रच्छ चान्द्रभागं पुनर्वसुम्‌ ॥
आत्रेय संहिता के वातकछाकरीय अध्याय मँ मासेच तथा वार्योविद
एवयुक्तस्तथा तस्मे महषः पार्थिवर्षये ।
विषयोगेषु विज्ञानं प्रोवाच वदतां वरः ॥ ( पृ २०).
का पक्च-प्रतिपक्ष रूपमे निद होने सेभी दोन का सहभाव उपयुक्त इलोक में 'राजर्षिमभिजिव्‌; इस पाठ के मिलने पर
मरतीत हता हे । वातकराकलीय(ॐ), यज्जः) पुरुषीय तथा भपत्रेय
मद्रकप्पीय(५) अध्यार्यो मं आत्रेय के साथ एकत्रित हए ऋषि्यौ मी श्री यादवजी (५) महाराज इरा तज्नोर पुस्तकाख्यं मे भिल्ने
वाली पुस्तक के अनुसार राजघिर्नस्मजिस्स्वर्णमार्गद्‌ःः पाठ दियां
मे वार्योविद का उल्छेख होने से आत्रेय तथा वार्योविद का सहभाव
होने से तथा पूर्ापर वाक्य के अनुसार पथमान्त राजपि पाठ केही
तथा स्थान २ पर उसके मतो का उच्छेखं मिलने से वा्योविदका
उचित होने से उप्त पाठ के अनुसार मेड कै समकालीन नञ्मजित्‌
वेधाचा्यं होना भी स्पष्ट है! यज्जःपुरुषीयाध्याय मे आत्रेय कै
नाम वाले किसी गान्धार के राजा द्वारा चन्द्रभागा नाम बाली माता
सहाव तथा काडीपति रूप मे निदश्च होने से वामक) मी
के अनुसार चान्द्रभाग संशा वले पुनवैदु अच्रयसे विष के पिषयमें
काद्ीराज तथा वेचाचायं प्रतीत होता है ¦! काशीराज रूप मे मिलने
प्ररन किये जाने का चिदं मिक्ता हे । अष्टङ्गहदय के दसाद्क्त- `
वाले वेधाचा्य दिवौदास, वासक तथा वार्योपिद आदितीनों क परस्पर
पौवापय के विषय मेँ अभी तक कु ज्ञात नँ है ! यचपि आजकर मित्यादि कौ अरुणदत्त की व्याख्या म नञ्ननिव्‌८६&) के वचन का
उल्लेख मिलने से अषटङ्गहृटय में (इति नश्नजितो मतम्‌” के भिलने
वायोविदर का मन्थ तथा मतोच्छेख नहीं भिरूता है तथापि अत्रय
ते तथा मेड संहिता मे सी इस पिषसम्बन्धी प्रदन फे भिल्नै से
तथा काड्यपसंहिता मे उसके मत के उल्लेख मिलने से यह कहा जा
यहु वही ( एक ही ) व्यक्ति प्रतीत होता है । दारुवाह तथा नभ्रजित्‌
सकता हैकिं यहु उस समय कोड प्रसिद्ध आचायं था। संभवतः काराजाके रूपमे उल्लेख मिल्ने से, इन्दु को टीका के अनुसार
यहु भी कदयप से वालभेषञ्य कै उपदेश को ग्रहण करने वाला
दोन का समानाधिकणकेरूपमे दियाद्ोनेसे तथादइन दोन के
कोमारमृत्य का कोड आचायं हो । इस प्रकार आत्रेय पुनर्वसु तथा
विषय मे उस र नामसे मिल्ने वले गुणं की समानता दहौनेसे
मारीच कदयप के स्रमकारीन रूप में निदिष्ट, परस्पर एक दूसरे का
हस गान्धार राजि का नाम केवर विष कै विषयमे अपितु वैवक
उच्केख करने वारे आत्रेय पुनवंसु तथा मारीच कदयप के समान
कारु वाला ही प्रतीत होता है। के विषय मे मौ आचाय भाव प्रकट होता है पृव॑निर्दष्ट शारदो
उपास्यमानस्षिभिः कश्यपं ब्ृद्धजीवकः। ब्रोक्त अश्वशाख मे भी आयुर्वेद क आचार्यौ मे विनभ्नजित्‌ का नाम
चोदितो दारवाहेन वेदनार्थेऽभ्यचोदयत्‌ ॥ मिक्ता है । यह मी संभवतः वही व्यक्ति हो। मात्स्य(७) मेँ
कारथपसंहिता के उपयुक्त वचन के अनुसार संहिता के पूरवंभाग वास्तुदाख्च ८ गह नि्माणका ) के उपदेदाक कै रूपमे भो नभ्नजित्‌
का उल्छेख है । यह नश्चजित्‌ गान्धार का राजा द्यी हैया कौ अन्यं `
मे वृद्धजीवक कौ प्ररन पुने मँ प्रेरणा देने वाला दार्वा प्रतीत न्यक्ति यह नहीं कहा जा सकता ।
होता है। वही रोगाध्याय मे "पञ्चरोगा अआगन्तुवातपित्तकषफः इसके अतिरिक्त ेतरेय ब्ाह्मण८(८) मँ क्षत्रिय .यज्वाभकै |
त्रिदोषजा इति दार्वाहो राजर्षि के द्वारा रोगों के पात्रविध्य- फलचमस भक्षण के साम्प्रदायिकल् प्रद्ेन में नश्चजित्‌ गन्धार `
वाद के मतके द्वारा उसका राजषि रूपमे निर्दर किया गयाहै। का उच्केख मिरुता है !वहीँ क्षत्रिय यजमानो के लिय ही दिग्विजय |
रोगदैविध्यवाद कैरूप मे वायौविद का तथा रोगपा्रविध्यवाद कै 4

रूप मेँ दारुबाह का पथक्‌ निर्देश होने से, ये दोन विभिन्न व्यक्ति फेशवयै कौ प्राप विये हुए, सव रानरुओ को विजय करने वरे एक || ~ ५

(१) १से६ तक करी टि० उपो० संस्कृत पृण ४९ का०२ तथा


भाणिका
मो 0७७अ नमान ॥
4

)१से <तक कीटि० .उपो० संस्कृत १० ५० का९,२


ए० ५० का० १ देखं। तया ० ५१ क्रा र्देख) _ " |
५१ उपोद्धात का हिन्दी अनुवद्‌
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इस प्रकार उपयुक्त वणेन के आधार पर यह कहा जाप्तक्ता


2/2 ४12. |कनिना विनि
|= ८ [1

नञ्नजित्‌ नाम कै श्च्िव गान्धार के सहाराजाका निर्देश भिर्ता


है । इ प्रकार यहां निर्दिष्ट गान्धार का राजा नश्जित्‌ ही देश तथा हेकि वैदिक कालम प्रारंभ हृ यह भारतीय आयुवैद विद्या
नामो की समानता के कारण भेडसंहिता मे सम्पानपूवैक राजषिरूप उपनिषदौ तथा ब्राह्मण गन्धो के समय भी इसी प्रकार महषियों
म निदिष्ट गान्धार का राजा नञ्नजित्‌ ही होना चादिये। दातपथ एवं प्राचीन आचार्यौ द्वारा भारत मै ( वि्ेषकर मारत के पश्चिम
ब्ाह्मण(१) मे मी चितिदाक्ति मेँ प्राणो कै उपधानं करने के विषय म प्रदेदों मेँ ) उन्नत्ि-की चरमसीमा पर पहुंची हुड थ ।
नघ्मजित्‌ कै पुत्र खजित्‌ तथा गान्धार के नञ्चजित्‌ का उर्रेख मिक्ता
राजन्य बन्धु का
रसशाख के प्रन्थ--
हे । वहां प्राणो की महिमा का वणेन करने वाले य्पि भवप्रकाञ्च आदि अवाचीन मन्थो म इद्‌ विदरशौ
निर्दैश ह्येते से इससे मौ रारीरविचा के आचाय गान्धार के राजा ओषधिर्यो, विदेरी चिकित्सा पद्धति, धातु रस्त आदिक विदेष
नश्नजित्‌ का ही निर्देश प्रतीत द्योता है । यहां उसके पुत्र सरणजत्‌ का प्रयोग, अफीम का उपयोग इत्यादि अवचन विषय मिरूते हँ तथा
उरे होने से तथा मैडसंदिता मे नश्चलित्‌ के “स्वगमागंद्‌ः इसइसे कु प्राचीन काल कै सिद्धयोग आदि मेँ पारद तथा धातु
विशेषण से उसकै किसी विजथ कै वृत्तान्त की खजनना मिलती है । का सामान्यरूपे प्रयोग भिर्ता दै । तथापि हम देखते हं वि
उप्यक्त वर्णन के अनुसार नप्नजित्‌ को एेतरेय तथा शतपथ ब्राह्मण वाग्भट के समय तक इस प्रकार के अवाचीन. विषय बहुत कम.
के कार का सिद्ध करते हए “नञ्नजितो दार्बाहिनोऽप्यन्नः इन्दु के उपरुब्ध होते है । संवतः चतुथं शताब्दी मे छिखित वावर नामकं
इस वाबय मेँ अपिज्चब्द्‌ के कारण यदि दो पृथक्‌ व्यक्तया कौ विद्वान्‌ द्वारा उपरब्ध नावनीतक नामक ग्रन्थ मे, तथा उक्षसेमी
कस्पना भी कौ जायत मो ओपदेङिक सम्बन्ध से न्नजित्‌ कं प्राचीन माने जाने बाले हानैरे नामक विद्वान्‌ हारा उपरुग्ध ङेख
सम्बन्ध से पुनव आत्रेय तथा उसके शिष्य मेड का समय भी म भी सरणे आदि षातुरभो का उल्छेख होने पर मी उनकी श्लोधन
देतरेय तथा द्तपथ ब्राह्मण कै काल से वादका नदीं है! इसङियि आदि की विशेष प्रक्रियार्जं तथा पारद के उपयौग आदि का पिष.
शस्वर्णमार्मद? इसत पद्‌ फे साधार्‌ पर यह कडना किं गान्धार कै रजा विवरण नदीं भिरुता ¦ महाक्म्ण मेँ जीवक के वृ्तान्त्‌ मे वनस्पतयो
नग्नजित्‌ र मेड दारायस्त नामक पारसीक राजा के समय के अन्वेषण कै ल्यि युर से नियुक्त जीवक द्वारा चिदित्सा मे अनु-
(५२१ से ४८५ ईस्वी पूवं ) के दै--युक्तिसंगत नीह! पथोगी एक मी ओषधि के न प्राप्तकर सकने के वर्णन, धत
इसी प्रकार महामारत८र) मेँ ग कै अन्त मँ अन्तित वेद, नस्य आदि ओषधियो जथवा शखक्रिया द्वार रोणियो की चिकित्सा
इतिदाप्त आदि कौ अपने तपोवल से प्राप्त करकेऽस २ विद्ाके तथा रस्त धातु आदिकेकदींमीनमिलनेसे प्रतीत द्योता है कि
प्रकाक्षक महषयः के वरिव्रण मेँकृष्णात्रेय का चिकित्सक के रूप में जीवक कै सेमय तक भौ रस घातु आदि भोषधियों
का प्रचार नहीं
उल्छेख भिकता है। यह क्रष्णात्रेय ही पुनव॑सु अघ्रेय हैँया नही, यह था ! चरक(£) तथा सुश्रत(२) मे भ्ये घातु तथा मणिर्यौ का भषधिर्यो
एक पृथक प्रदन है । तथपि मेड संहिता तथा चरक संहितामें मी मँ केवल नाम मात्र का ही उद्केखः भिरूता है । उनके शोधन,
क्ष्मात्रेय के उपदेश का उस्लेख दने से उसके सहभवी पुनतरसु | सिद्धौषध, पारदोषध तथा अहिफेन आदि का वर्णन नही भिल्ता
आत्रेय का महाभारतः से प्राचीनत् तो इसे मी प्रकट होतादहै।
हे । कादयपसंहिता के खिलूमाग मे अत्रय तथा भेड के समान
इस प्रकार आत्रेय -के सहभाव्री सूप से मरीच करयप का
सोथरोग मं केवर दो तीन वार्‌ ही अयोरज ( लोहचूर) तथा.
उर्छेख, वायोविद्‌ का अत्रेय पुनव तथा मरीच कदयप कै साथ
तात्ररज का उर्रेख मिलता है । कादयपसंहिता मे यद्यपि उनके .
सह माव, छृष्णात्रेय तथा पुनर्वसु आत्रेय का समानाधिकरण ( एक
व्यक्तित्व ) के रूप भँ निर्देश, महामारत म चिकित्सा के प्रवतेक सोधन एवं मस्मीकरण का निदद नहीं मिक्ता है तथापि खने के
किथि उनके उपयोग का निर्देश भिर्ने से यह कहा जासकता है
केरूप छृष्णात्रेय का उल्लेख, अप्रेय के शिष्य क्पमे मेडका
कि उनका
नका शोधन इत्यादि किया जता होगा। धातु तथा पारद |
उल्छेख, मेड के सहमावी तथा आत्रेय पुनवंसुके रिष्यसरूप मेँ
आदि का -उपयोग इसके-अतिरिक्त इसमे नहीं भिक्ता है । तथा
गान्धार के राजा नग्नजित्‌ कै उच्ेख, नरनजित्‌ तथा दारुवाह के ,
अहिफेन आदि अवा चीन वस्तुओं का भी इसमे निर्दे नदीं है।.
एक व्यक्तित का निदेश, दासवाह का कारयपखंहिता मेँ. निर्दर,
गान्धार के. राजा नग्नजित्‌ का एेतरेय ब्रह्मण में तथा गान्धार के. इस प्रकार ज्यो र्‌ प्राचीन अर्धो का अन्वेषण करतेदहैत्यौ. २ इमं
प्राणत के वेत्ता नग्नजित्त्‌ तथा उसके पुत्र सखजित्‌कां मी शतपथ | ये अवचीन वस्तुं केम भिकुती जती ।. ` | |
ब्राह्मण म कीतन, दितरोदास्त का बाह्मणयन्थौ तथा उपनिषदौ मे इस रसायन भिचा कौ उंसपत्ति कवं तथा कहां से हुई है.इस
उर्रेख तथां धन्वन्तरि का उसके पूवर के रूप मे मिना, इत्यादि विषय मं त्रिचार करने पर रसायन भिचा मे प्रयुक्त होने वाला `
बातो को देखकर उनके अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता हैकि कमिटी ( नाल्प ) शब्द अद्केमीविक्ञान को खचित करता `
मारच क्यप, पुनव॑सु आत्रेय, मेड, नग्नजित्‌ दारवाद तथा वार्यो हे । किसी २ व्यक्ति कामत दैकि्ैमिसरीरब्द मिश्रहेरीय क्यामीः
विद इत्यादि भैषज्य विद्या के आचाय देत्रेय तथा शतपथ ब्राह्मण | शब्दसे वना दै। इसप्रकार मिश्रदेशसे ज्दन्न इई रसायन `
के समय से बाद के नहीं हं अपितु धन्वन्तरि तथा दिवोदास्त-केद्ी विद्या जरब तथा ग्रीप्त के दारा यूरोपमे फली है। परन्तु ङ्ध
समान ब्राह्मण मन्थ तथा उपनिषदो के समय एक साथ अथवा विद्वान्‌ कदते हैँकि भिधदेश मे उस विचा के अर्थं में क्वामीः शब्दं
थोद्धे बहुत पौर्वापये के साथ विचमानभे। मिक्ता ही नदीं है । तथा वहां रसायन विद्या की प्रायुत्पत्ति कर. ~
(९) १-२ की टि० उपो० संस्कृत १०५१ का० १ देच॑। | (१११२ कौ टि० उपौ० संत १०५२ का० देच ।
उपोद्धात कां हिन्दी अनुवादं - ५३
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इतिहास के विषय मेँ मी कोई निदेश नदय मिक्ता है । छु लोगों कै पर्यायो मे मिट्ने से रक्तपारद से संभवतः हिगुर ( रिगरफ )
काकहना है कि कैमिष्ट्री शब्द्‌ तृतीय शताब्दी के अरवदैश्लीय का ग्रहण किया गया है।
किमाई' शब्द से बना हुआ है । इस 'किमाद्र" चब्द को सिनिस शप्रथमङताब्दी वे भरवरहरि के “उत्वातं निधिशङ्कया
नामक विद्वान्‌ ने अपने अभिधानं अन्थमे अल्केमी? अथं में ्तितितलं ध्माता गिरेधातवः' वचन से कुड(१) लोग कहते हैँ
प्रयुक्त किया है । इसे ज्ञात होता है कि यह विनतो भिश्वदेश् कि मारत मे रसविघा के प्राचीन होने की कस्पना ददृदहोतीहै।
म ओरनतो यीसदेश्च मे उत्पन्न हुईं है क्योकि यदि वहां उत्पन्न धातुविज्ञान पहटेसेद्ीथा यहु वात तो आत्रेय, सुश्रत तथा
होती तो क्या उस देर के देसेडोग्स, डायोडौरश प्ठचाट तथा कश्यप आदि के द्वारा धातुओं का उल्लेख किया होनेसे स्पष्टहै)
प्लीनी आदि प्राचीन केक उसके विषय मं कु मी नहीं छिखते १ कृदयप ने भी सयःजात दिद्यु के लिये स्वणप्राङ्ञन तथा उसके अवं-
लेदनरूप फ को दिया है । श्रुति एवं स्सृत्तियो मँ धातुर्भो तथा
तृतीय, चतुथं शताब्दी तक मिश्र तथा यरी वाला को ती रसायन
विधाकाज्ञान ही नीथा) अल्केमी विद्याम पारदका प्रयोगतो रत्नो के धारण आदि से आयु, आरोग्य एवं श्रेयस्‌ की प्रापि का
पीछेसे ह्ये मिलता है) इस प्रकार पाश्राच्य देर मं रसायन भिया उर्लेख भिल्ने से प्रतीत होताहै कि भारतीयों कोस विद्या के
का सवसे प्रथम जानने वाला ग्यावर नामक एक अरवदेदीय विद्वान्‌ उपयोग का ज्ञान अत्यन्त प्राचीन कालसे था । यजुवद मे श्रथमो
था। तथा अरवसेही इस्त विद्याका अन्यसव देशो मे प्रचार देव्यो भिषक्‌ दारा रद्र को भी प्रधान (जादि ) वै्ाचायं बतङाय
हुभा है । ऊद विद्वान्‌ कहते हैँ कि वैदिक कालम सौमरस का हे । अत्रेय भादिने बह्मा को प्राथमिकतादी है, वहांर््र का
वहुत अयिक व्यवहार मिलने से ऋग्वेद के समय से ही रसायन
उच्छेख नहीं है । नाथ सम्प्रदाय तथा तकंशाख्में मी स्थान रप्र
पिचा भाप्त मे प्रचलित थी 1. उसी के अनुस्तार चरक आदि के रसरैयक्‌ का विषय भिटता है । तन्त्रद्या्ल तथा नाथ सम्प्रदाय में
समय मेँ युष तथा शरीर के रस्त आदिके अथं मँ रस शब्दं का शिवकरा परम आचायङे रूपमे निर्देश कियादहै। इसप्रकार
प्रयोग होताथा। इसके बाद रस के समान तरल्ताके कारण दही तान्तिक आदि प्रचकिति रसवैधक के मन्थो मेंर्द्र का मूक (प्रधान)
पारद तथा अन्य द्रव धातुओंमेंमीरस शब्द का व्यवहार होने अवचचार्यं होना संभव है । रसविद्या कै प्राचीन तन्त्र अन्धो म मिलने
रगा । इस प्रकार भारतीय रसायन रासन का मूर अत्यन्त प्राचीन से तथा चरकः सुश्रुत ओर कारयप आदि के अन्धोँमे मी रेलरूप
है । यह रसप्रक्रिया सर्वप्रथम रस विषयक तान्तिक मन्थं मे मिर्ती मे मिल्ने से इसे अर्वाीन नदीं कहा जा सकता । यह मी कहा जां
है, तथा उसके वाद के रसथन्धोँ भँ इसका विकसित रूप दिखाई सकता हेष जिस प्रकार अरबदेद् मं सातवीं राताब्दी प्रचलितं
देता है! विद्वान का यह विचार है कि यह विदा नागज्ैन द्वारा हुए भी रसायन ज्ञस्लको युरोपवालँने सोरुहवीं (१६ वीं)
प्रारम्भ की गई है लोहराख का पतज्जछि द्वारा निमांण करने का राताब्दी मे ग्रहण किया था उसी प्रकार पूर्वं प्रचित तन्त्रोक्त रस-
अनेक स्थानो पर निर्देश मिलता है । पारसीक मत के प्रवतेक जर्‌ साख को वेदिक सम्प्रदाय वारे अच्रेय आदि महषिर्यां ने मी अपने
थुष्ट से पूवंउस देश के निवासी मागी जाति वाल द्वारा इस रुप समयमे ठेदारूप मं ग्रहण करना प्रारम्भकियाहो।
रसायन विचा को भारतीय ब्राह्मण से प्रापठ करने का वृत्तान्त उनके धातुओं के रोधन एवं योग आदिय के हारा तम्त्रोक्त.-भारतीयं
इतिहास से मिलता है । मीस देद्य के रसायन ग्रन्थोमें मीस रसौषधनिर्माण प्रक्रिया मी प्राचीन काल में गुप्त, अप्रचङ्ति अथवा
विद्या के विषयमे पारसीक (परिया)देद् का स्थानर पर दिकरूप मे वतमान थी । पीछे से उस विध्या कौ नागाज्जुन आदि
निर्देश है । इस प्रकार यह प्रतीत होता हैकि यह रसायन विदा भारतीय रसविया कै आचार्यो ने प्रकार मे लाकर विकसित फिया
सक्ते पदक मारत मदी आविभूंत हृद थी । भारतीय वचो के प्रतीत होता है । इसीरिये सम्भवतः प्राचीन अन्धं मेँ रसविधा का
अरब देशम जनेसे तथा चरक ओर सुश्रुत के असव देश में विशेष विवरण नदीं मिरुता है ।
अनुवाद होने तथा भारतीय चिकित्सा काआदर होने से भारतसे
ही अरवमे इस विद्या के प्रचार की प्रतीति होती है। अरब देश के
( ३ ) संस्करणों की तुलना तथा त्सम्बन्धी विषय
इतिहास से प्रकट हौतादहै कि १११२ वीं दताब्दीमें अरव देर ग्रतिसंस्करण-- ` |
मे भी रसायन शाख उन्नत अवस्था-मेंथा। इसखियि यह कहना प्राचीन आचार्यौ के नाम से मिरे वारी सहितां मं बृद्ध-
निरथंक हे कि पारद के दरोधन-आदहिकाज्ञान भारत ने अर्ब से जीवकीय तन्वरूप कादयपसंहिता, चरकसंहितारूप आत्रेय एव
सीखा । प° सौ० राय आदि इतिहास रेखक ङिखते हैँ कि यूरोप ग्निवेशसंहिता. सुश्रतसंहितारूप धन्वन्तरि संहिता तथा भेडसहिता-
आदि पाश्चाच्य देश वालो नै रसायन शाञ्च की उपाद्ेयता न॒ जान- ये सव प्राचीन संहितां है । उनमें जहां कीं जवांचीनता का सन्देहं
कर कड रताब्द्रौ तक -उसे यहण नहीं किया पीछे कालक्रम से उतपन्न करने वले पद, वाक्य तथा प्रबन्ध इत्यादि मिर्ते है, वे
उसके गुणौ कौ जानने पर बहुत अर्वाचीन कारु मे ही पाश्चाच्य देशों संभवतः पीछे सै संस्करण के समय अनुप्रविष्ट इए प्रतीत होते ह । `
मे इसका प्रचलन हुआ है 1 | इनमे से काश्यपसंदिता के सक्िपतरूप वृद्धजीवकीय ` तन्व के
वातस्य द्वारा प्रतिसंस्करण का उच्डेख इस संहिता के कर्पाध्याय मँ
. रक्तपारदके भारतसे प्री तथा रोम मँ जनि का वणन
भिरता है । उसके विषय मँ विवेचन कःते इट जायसवार जी ने यह विचारणीय प्रन है कि मतहरि प्रथम शताब्दी मं
रक्तपारद, शब्द रससिन्दूर के चयि व्यवहृत हुआ बतलाया है । धा-या नदय । . 110,

परन्तु रक्तपारद शब्द रससिन्दूर के च्यि न भिख्कर दियुङ ( १) इसकी टि० उपौ० संस्कृतं ¶० ५२ का० २ देख ।
उपौदात का हिन्दी अनुव

दिये होने चाहिये परन्तु चरकसंहिता मे वक्तव्य विषर्योको


स्वयं किया हुआ है । आत्रेय संहितात्मक अगिनवेश्लन्त् के चरक
तथा विशेष रूप से न ककर उसी विषय कौ संक्षेप एवं
द्वारा प्रतिसंस्करण का सिरदैश्च चरकसंहिता के अग्निवेशकृते तन्त्र सामान्य
चरकम्रतिसंस्छते' इत्यादि रोक द्याया स्पष्ट है । सद्ुतसंहिता के विस्तार से तथा वाक्यभेद से वार २ कहागया है। इत प्रकार
प्रतिसंस्करण का यद्यपि यन्थ ( सुश्रुतसंहिता ) म स्पष्ट उर्केख नहीं चरकसंहिता का आवापोह्धाप प्रक्रिया दयायाः नवनिवन्धनात्मक संस्क-
मिता है तथापि उलन आदि यैकाकार इत्ते नागाज्ञुन द्वारा प्रति- रण नहीं किया गया है अपितु मूल्यन्थ में संक्षेप मे आये दहै
इए
तथा
न पिषर्यो को स्पष्ट करने के ल्थि विस्तारसेद े दिया गया
संत मानते है । अस्तु, नागाञ्चन इसका प्रतिसंस्कतीं हौ चाहे
कदी २ विस्वत विषयो को रहण एवं धारण के उपयोगी बनाने
हयो परन्तु यह तो सव विद्वान्‌ स्वौकार्‌ करते दँ कि स्थान २पर अन्य कै चयि संधिप्र करद्धिया गयाहै। इस प्रकार चरकाचायै ने
विष्यो के भिलने के कारण खुशरुनसंहिता का वतेमानरूप प्रतिसंस्छृत
व्व्घुरिति कश्यपः, हारा दिये हुए करयप पौनरूक्तय प्रक्रिया द्वारा
मी इस्तका संस्कएण किया प्रतीत होता है ।
हो है! मेड संहिता मे
, चरकाचारयं उपरग्य संहिता का स्वतन्त्र रूप से रेखक न दौ $र
का चश्रुमिवृन्तिवाद तथा कादयपसंहिता मै मेड के नाम से दिया
आत्रेयसंहितारूप अग्निवेश तन्त्र का प्रतिसंस्कतां हीदहै। इस
हआ ६ वं के वादं विरेचन देने सम्बन्धी मत उपबन्ध भेडसतंहिता विषय मेँ निम्न प्रमाण दिये जा सक्ते है ।
मेन भिनने का उव्केव पहले किया जा चुका हे । उ्परसमुच्चय में अश्रेय संहिता के निदान, चिकित्सा आदि स्थानो मं प्रायः
उद्धूत मेड के वचनो मेँ से पचाससे अधिक भेड के इलोकोंके निषयोँ के अचुप्तार द्यी अध्यायो कै नार्मो का निर्देश क्या गया हे ।
मुद्रित भेडसंहिता म आंदिक(2) सपर मे भिर्ने से उवर्‌ प्रकरण दके विपसीत सत्र, पिमान, शारीर जादि स्थानो मे कही २ विषर्यो
की तरह अन्य प्रकरण का मी स्थान २पर खण्डित एवं अधूरा होना,
के अनुसार नाम होने पर भी अधराय कै आदि वाक्य के प्रतीक.
वीच २ मै अन्य पष्य का होना तथा पुनः किया गया प्रत्तिसंस्क-
कै अनुसार दी्घंीवितीय, अपामागतइलीय, आरग्वधीय, कतिषा-
रण स्पष्ट प्रतीत होता है। इस गड़बड़ से सन्देह उत्पन्न होता है । पुरषीय तथा अतुस्यगो्ीय इत्यादि नाम प्रायः सिरते हैँ। आदि
आत्रेय रूप एक ही आचाय के उपदेश को ग्रहण करके पृथक्‌ २ प्रतीक के अनुक्तार दिये नामों मँ कदं नाम पिभक्ति सदहितद्ो
अन्धः का निर्माण करने वाके अग्निवेद्ध तथा मेड के अन्धो में अनेक
दे द्विये गये है। उन २ अध्यायो के उपसंहार के संग्रह दोक में
समानताओं एवं सवाद के मिलने से पुनः मतिविभ्रम हो जाता है) मौ उन अध्यायो का उन्दी नामो से उच्छ फिया होने से यहं
इस प्रकार मेडसंहिता मेँ दीखने वारे दोष ( कमियां ) समय के
कहा जा सकता है कि इन अध्यायो के नाम पीछे से केवर दिष्य
कारण प्रतीत होतेह यद्यपि यहां भी प्रतिसंस्करण का कहीं
उल्लेख नही मिरूता है तथापि इसमे प्रतिसंस्करण का होना स्पष्ट है ।
सम्प्रदाय द्वारा हौ नदीं र्खे गये हँ अपितु मूल्यन्थकतां की केखनी
दारा ह्य ङ्व गये हैँ! सेडसंहिता में सी उतर, प्रिमान, शारीर तथा
अत्रय आदि की संहितां फो ठेकर बनाये हए अरिनिवेशतन्तर
इन्द्रिय आदि स्थानों मे आदिप्रतीक के अनुसार दिये हुए नाम
आदि का चरक आदि आचार्यौने जो संस्करण किया है उसके
स्वल्प से मेद के साथ इससे समानता रखते दै । उदाहरणाथं--
स्वरूप कै विषय मेँ विचार करने पर हम देखते हें कि दृढबलने
चरक द्वारा पिये संस्करण का निम्न स्वरूप बताया है-
विस्तारयति(र) रेदोक्तं संक्सिपत्यति विस्तरम्‌ ।
संस्कर्ता कुरूते तन्त्रं पुराणं च पुनर्नवम्‌ ॥
-#-& ६ इ
अर्थात्‌ संक्षि भाव को विस्तार से कह देना तथा भिस्तृतरूप ह र ट
नत दिये इए र्वो कौसेक्षेप मेँ कहु दैना यह चरक कै संस्करण
की श्ेी है, पूर्वोक्त संस्वरण आवापोद्वाप अथवा संग्रह-विद्यहं 4 €.
प्रज्रियामें त्ेकिपी एक द्वारा संभवहं। अत्रापोद्ाप प्रक्रियाका 1 दि छि
यह अभिप्राय है कि संक्षिप्त पूषैयन्य के स्थान मँ दूसरा हयी चिस्तृत
केख तैयार कर द्विया जाय तथा विस्तृत पूेन्थ के स्थान म अन्य
संक्षि केख बना दिया जाय । तथा संग्रहविग्रह प्रक्रिया काअभि-
प्राय यह दहै किपूवं अन्थमे सेक्षेपके कारण विषयके स्पष्टन
होने से उसे स्पष्ट करने के ल्य विस्तारसेदे दिया जाय, तथा
अत्यन्त विस्तारसे दिये हए विषय कौ सरल्तापूैक ग्रहण एवं
धरण कर सकने के लिये उसके सार को लेकर पुनरक्तिके रूप त्रयो जिह्वावा-
वा
अवाकृशिरा
जिह्वा
अवारूहिरा
वा
वा
भद्रकाप्पश्च
स्यादहिषक्त
मात्राज्ञी
स्यादाहारमात्रा
मात्राश्च
मँ संक्षेप से कह द्विया जाय । इनमें से यदि प्रथम ( आवापोद्राप) |
प्रकिया द्वारा संस्करण किया गया हौ ता तो अत्रैय एवं अग्निवेश 9॥

तन्त्ररूप मूल ग्रन्थ का भयिकांश्च रूप मे स्वरूप ही बदर जाता तथा


नङ दी रचना बन जातो । तथा उस अवस्था मे चरकसंहिता मेँ |
बीच २ मेँ आत्रेय तथा अग्निवेश के प्रतिवचन, प्रश्न आदि नहीं नम
अध्यायका
(९) १ से २ तक क्रे टि° उपो संत १०५३ देखे । परिध्वस्ते
श्यावनिमित्तीयः
श्यावे
यस्यअवाक्‌
मात्राहितीयः शिरसीयः
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
~ ।
|ॐ ^४3
31= ऋषे |+}॥ 2+ | (2 ,॥ 1 <॥ 1 (3 क
न ।
[८ ॥3+ |= ^> |ॐ+= [2 ।नि 9॥
=+
नक "कग क क ग क क "क क क. क क. क. क (व
+315 0५ ।~2 2 ।
#॥
|3.॥॥- +।ॐ । (=)| 6 ॥तः॥ष्द्
।ॐ}कर ।
[~| ५च. छ... ष $
॥ (3) ~4
॥+ + 2 2 2
3 वि
|3,शि | स ॥
ध ॥
पित किः `षो >=,~2 क 1 + 2
[4/3

इसी प्रकार आत्रेय तथा मडसंदहिता मेँ इन्द्ियोपक्रमणीय, तिखै- प्रतीका मे जहां समानता भिख्ती है वह आत्रेय द्वारा दोनों का
षणीय, वातकराकरीव, समान उपदेश्च द्विया जने कै कारण उचित दही दहै। अग्निवेश
विधिशोणितीय, द॑दप्राणायतनीयः; दश्च
अ्ि-
मूलीय, अषटोदरीय, रसविमान पुरुषनि(करिचय, ख्डीकागसव- संहिता मे आये हुए अध्यायो के नाम तथा प्रतीक यदि स्वयं
कान्ति तथा जातिखत्रीय इत्यादि अध्यायो के समान नाम भिर्ते है ! वेद द्वारा दिये गयेदहोतो सपीथ्यं भेड द्वारा उनके अनुसरण कयि
कोई कारण प्रतीत नद्यं होता है! जओौर यदि चरकाचायने
स्नेहन, स्वेदन तथा निदान जौर चिकित्सा सम्बन्धी अध्यायो जने का
ही उन प्रतीको द्युरा प्रारभ करके चरकसंहिता का स्वयं निर्माण
के विषयों के अनसार दिये हए नामं मे अवने आप ही समानता
कियाद तो मी उसे प्राचीन समय वारे भेड ने उसका अुसरण
के संभव होनेपर भ्ीदोनौ अन्धौ मै एकी प्रतीक के द्वात
किस प्रकार किया होगा । मेड तथा अग्निवेक् दोनो संहिताभं म
अध्याय के प्रारम्भ होने, विभक्ति युक्त प्रतीक के अनुसार ही
स्थानौ तथा ६२० अध्याओं द्वारा संख्या कौ समानताभी
अध्यायौ के नाम तथा समान नाम वाङ अध्यायो मे विद्ोष चिषय आठ
यहे प्रकट करती है । मेड संहिता के चतुष्पाद्‌ अध्याय में (० १५)
को समानता होने सेएकदही सखत्रके अनुसार (अर्थात्‌एक ही “सिध्यति प्रतिकुर्वाण इत्यात्रेयस्य रासनस्‌ द्वारा अप्रतीकार-
आचाय के उपदे कौ अहण करे ) दो विभिन्न व्यक्तियों द्वारा
वाद का खण्डन करते हुए नामपूवक दिये हुए अच्रैय कै मतका
इनका लिखा जाना संभव है यद्विउन दोनो म परस्पर कोड दतैमान चरकसंहिता के महाचवुष्पाद्‌ अध्याय ( ० अ० १०) मं
संवन्धन हौ तथा उन्दै एक हयी आचायका उपदेश नमिखदहौ
तो दो स्वतन्बरक्ेखोँंमे हस प्रकार की समानता सहज नीं प्रतीत
विस्तारपूर्वक भिल्ने से सी इसकी पुष्टि दोतीदहै। इस प्रकार
अतरिय मतके दोन अन्धो में समानसूप से मिलने से अत्रय के
हौती । इसख्यि देता प्रतीत होता है कि अत्रय द्वारा उन्हीं प्रतीक)
उपदेल्न की पृवस्थिति स्पष्ट है । चरक तथामेड दोनों में ख॒ङ्खाक
से प्रारम्भ करके उपदिष्ट अध्यार्यौ के वाक्यो एवं विषयो को
चुष्याद अध्याय मेँसमानरूप मेँ मिलने वा सृदण्ड चक्र इत्यादि
केकर अपनी २ बुद्धि के अनुसार उसे बदाकर तथा दूसरे विष्यो कौ
सिद्धान्त इ्लोक मी आत्रेयसंहिताकेदी होने चाहिये! इस प्रकार
सम्मिङित करके मेड तथा अग्निवेर ने पथक्‌ २ तन्त्रौ का निर्माण
इन दोनो संहिताओं मे समानरूप से भिलने वारे अध्यार्योके नाम
कियाहै। इसील्यि नमे परस्पर इतनी समानता है । कीं र
अघ्रेय तथा मेडसंहिता मेँ अध्यायो के आदि प्रतीको के भिन्न होने तथा विष्यो कौ देखकर यहु कहा जासक्ता है कि इन दोनो मे
पर भी अध्यायो के नाम समान ही मिरूते है । जेसे ~ ओतप्रोतरूप मेँ वि्यमान अनत्रैयसंहिता इनसे पूवं दी विद्यमान
कथे थी । उसी ` अन्रेय संहिता तथा उसके विष्यो को लेकर आवश्यकता-
नुसार अपने विचासौ से उसे परिवधित करके संक्षेपत्रिययेड ने
संक्िप्ररूप से तथा विस्तारभ्रिय अग्निवेश ने विस्तुनरूप से पृथक्‌ २
तर्न्नी के रूप मँ उपस्थित किया । भेडसंहिता में चतुष्पाद कै विषय
मै एक द्यी अध्याय दिया है । इसमे पटे आत्रेय तथा श्लौनक कै
भेड
प्रतीक
का
शिरसि
यस्येव.
चूण
४4

विप्रतिण्नतिवाद को देकर आक्रेय के ज्ञानवैरिष्ठय का वणेन किया
ख अन्तरछोहितकायस्तु
षट्‌
शरीरे
त्वच
इह है । तथा पीछे चतुष्पाद के वर्णन के वाद सिद्धान्तरूप म संक्षेप से
मिषकूप्राधान्यवाद का उक्डेख किया है । इवे विपरीत अतेय-
॥। ॥

५ संहिता मे इस विषय मँ दो अध्याय हँ । इसमें पहर सखुद्खाकाध्याय
म चतुष्पादो का वर्णन करके भिषक्‌प्राघान्यवाद कौ सिद्धान्तरूप से
देकर अगे अध्याय ( महाचतुष्पाद अध्याय ) मँ भैत्रेय ( दौनक )
गुरुभ्याधिर्नरः
कथित्‌
व्याधितरूपौ
भवतः तथा आत्रेय के मतो का पक्ष-प्रतिपक्षरूप से निर्देश कियाहै। इस
प्रतीक
षवरक
का प्रकार एक ही विषय एक ( मेडसंहिता) मे संक्ि्ठरूप में तथा
शरीरोपकाराथं
खर्वोजस्तेजः
शरीरविचयः गोमयचूणाभं
यस्य
दह शरीरसंस्यामवयवक्ष

पूवरूपण्यसान्याना दूसरे ( अग्निवेशसंहिता ) म विस्तार से दृष्टिगोचर द्योते है,
`
इस प्रकार अग्निवेद् तथा भेडसंहिता मे अन्य भी अनेक स्थानौ
पर कई विषय क्रमः विस्तार तथा संक्षेप से मिरूते हैँ ।
।4 ५ 4 ` कादयप, चरक, मेड तथा खुश्रुत-इस सब संहिता्ओं मे ग
ग ५न्नी 1 | एवं पच दोन मिलते है । रीकाकारो ने क्षारपाणि, जतूकणे, पराशर
8 ८: | आदि कै वाक्यो के भी जहां र उद्धरणद्विये हवे भी ग्ण
1: “ | पृ्यमय होने से उनके यन्य मौ गद्च-पचमय प्रतीत होत्ते ह । ज्वर- `
समुच्चय मँ केवल एक उर कै विषय मेँ काड्यप, अत्रय, श्रुतः
इनको देखने से प्रतीत होता है कि अग्निवेद् ने अघ्रेयसंहिता हारीत तथा अन्य भी प्राचीन आचार्यौ के केवर पद्यमय वाक्य
मै उन २ आदि प्रतीको के अनुसार दयि इए नाम तथा प्रतीर्को
मिलते है 1इनमे दिये हुए हारीतः क्षांरपाणि, जातूकणे तथा मेड आदि
को उसी रूप मरखादहैतथाभेडने भी अपने अन्थ॒मं आदि
प्रतीक की विभिन्नता होने पर मी अध्यायो कैवे ही पूवपरम्परागत सतीथ्यं आचार्यौ के वाक्यो को देखने पर प्रतीत होता दै कि ब्द
नाम रखे है। दोनो संहिताओं मँ अध्यायो के नामो या आदि
का मेद होने पर भी उनमे एक. ही आचाय का.उपदैश समान रः
॥.॥
उपोद्धात काहिन्दी अनुवाद
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से ह्वर्कता है । सेडसहिता के सपान आत्रेय के अन्य शिष्य ] -प्रचार, प्रवचन, प्रयोगकरुश्चलता तथा रोकोपरकार -कै स्यि प्रवृत्त
जतूकर्ण, हारीत, क्षारपाणि आदयो के मी सम्पूणं तन्त्र यदि होने के कारण उस संहिता की चरक नामस प्रसिद्धि हौ गड
उपब हो जये तथा मेड का मी सम्पूण तन्त्र अखण्डित रूप में होगी । इसी प्रसिदधिके कारण चरकाचायंः के विषय म म्रन्थ का
भि जाय तो उन सवरकी तुरना करते पर जी अञ्च एक आचाय क्ता होने की भ्रान्ति उत्पन्न हौ गहंप्रतीतहोतीहं।
के उपदेरूपर से सवम क्षमान रूप मै भिर्ता हौ ` उतना अंश दत प्रकार दुढबल कौ संस्करण की पूर्वोक्त परिभाषा के अनुसार
प्राचीन एवं आश्रैय का समक्घना चाहिये 1 तथा इनमे परस्पर स्थान २ पर्‌ द्ध पद, वात्य तथा सन्द्म॑चस्काचा्यं कौ लेखनी
जितना भित्र अंश है वह उनके अपने २ विचार ण्वं दृष्टिकोण कौ से भी अनुप्रविष्टं हो सकते है। चरकसंहिता का सामान्यसरूप से
प्रकट करता है अथवा संस्कार के कारण प्रतीत होता है। उस अनुसन्धान करने पर कुद इस प्रकार के विषय चरकाचायं की
अवस्था म अग्निवेद्य के तन्त्र तथा चरक द्वारा प्रतिसंस्कृत अंश में केखनी से लिखि गये प्रतीत ह्यते है । उदाहरण के ल्यि चरकसंहिता
मेद्‌ करते मै मी सिधा हो जायेगी । इस प्रकार ज्वरसमुचचय में म निर्दिष्ट वाद-वित्राद कै विषयमे दिखाई देनेवाली अवांयीन
आये हुए कु विष्यो मे परस्पर समानता को देखकर मौ यदौ प्रतीत विकसित अवस्था चरक के समथ की प्रतीत्त होती है जसा कि पूवं
ह्येता है कि साथ २ अध्ययन करनेवाले भिन्नर शिष्या के हृद्या राकियाजा चुका है।
म एव ही अत्रैयरूप आचाय का उपदेश उन्द प्रेरणा दे रहा है । स्वेदभ्रकरण मेँ मेडसंहिता में सङ्करस्वेद, प्रस्तरस्वेद आदि आठ
चरकसंहिता कै विषय मेँ कुछ रोग कहते हैँ विः चरक नाम से स्वेदो का ही उच्केख किया गया है । उपरुब्ध चरकसंहिता में
प्रसि संहिता चरकाचायं कौ अपनी ही कृत्ति ( रचना ) है! ऊष मरडोदिखित आढ भेद्रौ के अतिरिक्त प्व मेद ओौर मिलाकर
लोगो का विचार है कि संक्षेप से विद्यमान पृव॑तन्व को पूर्णरूप से १३ ( तेरह ) खेदो का निरदैद्च भिरूता है । यदि ये तेरह मेद अत्रय
परिवर्तितं एवं परिवर्धित करफे चरकाचा्यने एक नहं ही रचना दारा यी उपदिष्ट होते तो आत्रेय की अनुगामी भेडसंहितामें मीये
बना दी है तथा कुद रोगौ का यह भी मत है कि आयुैद कै ज्ञाता तेरह भेद दी भिक्ने चाहिये । कादयपसंहितामे मी आठ ही भेदो
ऋषि्यो दाराः परस्पर एकत्रित होकर किये गये संभाषण एवं के भिल्ते से प्रतीत होतादहे कि प्राचीन समयमे आठ विभाग ही
संवादौ कै सार को छेकर चरकाचायं ने उसे चरकसंहिता कै थे । प्राचीन आट विमागो कै साथ जोड़े हर दूसरे मेदो मं जेन्ताक
रूप म उपस्थितं किया ( वसुमती वषे ९ पृष्ठ ३७८ }--इत्यादि तथा हौराक शब्द. के स्वेथा भिन्न प्रतोत होने से पूर्वोक्त आठ भेदो
अनेक विभिन्न मत दिखाई देते है! परन्तु पूर्वोक्त वणैन के अजुप्तार के साथ अन्य पांच भेदो को मिलाकर तेरह भेदौ का वणेन करना
मूलभूत अत्रियसंहिता तथा उसी के आधार पर बनाये हए चरकाचायै की पिकासदृष्टि को प्रकट करता है ।
तन्त्र की पूर स्थिति का स्पष्ट ज्ञान होने से, तथा अभ्निवेशक्रते तन्त्र मेडसंहिता मे खुद्ीकागसौव्क्रान्ति के पिषय मेँ एक ही अध्याय
चरकम्रतिसंस्करतेः चरक की इस स्पषटोक्ति के आधार पर यह कहा है । उसमे गभं को मावृज तथा पितृन न मानने. रूप भरद्राज कै
जा सकता है कि तन्त्र का रचयिता अग्निवेश हीदहै तथाचरकने मत का खण्डन करके उस मत की स्थापना करते हुए आत्रेय कै मत
तो दूसरे तन्त्र तथा अपने विचार के अनुसार कुद अन्य उपयोगी का निर्देश किया है । चरक के खुङ्खीकाध्याय मे भी वही विषय है|
विष्यो दारा उसे बदाकर तथा अन्य भी संस्कारोपयोगी विहेषतार्भ इस प्रकार दोनों मे समानता देखकर यह कदा जा सकता है कि
कते उसमे भिलाकर इस अधिवेश्तन्र का प्रतिसंस्छार दी किया है। अभिवेश्च संहितामे आया हुआ यहयौ अत्रेय कामत है। परन्तु
यद्वि चग्क ही स्वयं इस तन्त्र का रचयिता होता तौ वह उसरूपमें चरक म उसके वाद दूसरा महागमावक्रान्त्यध्याय है। उस्म गभं
अपने नाम का उच्छेख क्यो न करता । अन्मे संत्रोधन आदिक संबन्धी अन्य षिषयोँ का निरूपण किया गया है इन विष्यो के
रूप म अग्निवेश का नाम अनेक स्थान पर मिकंता है, परन्तु मेडसंहितामे न भिल्ने से इते बादमें चरकके समय का विकाक्ष
चरक का नाम (चरकप्रतिसंस्कृते, इस उक्टेख के अतिरिक्त मन्ध कहा जा सकता है । अथवा यह भी सम्भावना हो सकती है कि
मै ओर कीं नहीं मिरूता है । चरक कै उत्तर माग को पूण करने ख॒ङ्खीका पद के दिये होने से महागर्मावक्रान्ति अध्याय भी पहले से
वाके दृढबल ते भी निम्न श्लोक के द्वारा चरक का कैवरु संस्कर्ता ही अश्चिवेरासंहितामेहो तथा मेडसंहिता मँ वह कालक्रमसे
के रूथ मँ तथा दादश्साहच्रसंदिता का अग्निवेदाकी कृति के रूप खण्डित ( कुप्त) हौ मयादौ) .
म स्पष्ट निर्देश किया है-- वतमान चरकसंहिता के उपक्रम में ऋषियौ के समुदाय में
अतस्तन्त्रोत्तममिदं चरकेणातिदुद्धिना । इन्द्र द्वारा प्राप्त आयु्ैद शा के भरद्वाज द्वारा प्रकाशन से तथा
संस्कृतं तत्त संसृष्टं विभागेनोपरुचयते ॥ आत्रेय द्वारा उस विचा को भरद्वाजे प्रष्ठ कएने का उल्लेख न
यस्य हादश्षसाहखी हृदि तिष्ठति संहिता । होने पर मौ आत्रेय कै शिष्य अग्निवेदय आदि द्वारा तन्व के निर्माण
चिकित्सा वहिवेशस्य स्वस्थतुरहितं प्रति ॥ तथा उन अभ्चिवेश आदि कै तन्नो की लोक मे प्रसिद्धि का निद
यदि चरक ही इस यन्थका रचथिताहदोतातो उसके बादका अधिवेर को अपेक्षा अपने संस्करण की उकच्छरृष्टता. दिखाने .के सिये
तथा उसके ग्रन्थ को पृणं करने वाखा दृढबरू मी अभवे कोह चरक द्वारा अधिक उचित प्रतीत हौने से, अश्चिवेश द्वारा बाद में
ग्रन्थकर्ता तथा चरक को संस्कत के रूपमे क्यौ निर्देश करता | कहीं भी भारद्वाज से इस विद्या की प्राक्षिका निर्देशन होने से.
संभवतः सव जगह धूमने फिरने की प्रकृति के कारण अन्व चरक प्रत्युत मारद्राज के मत का खण्डन कररे से तथा भारद्वाज कै
संज्ञा वारे किसी आचायं द्वारा इस ग्रन्थ करा संस्करण करके उसका |विषय मेँविशे कुद मी निर्दशन करने से प्रतीत होताहै क
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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'अथातो दीर्धै्लीवितीयमध्यायं व्याख्यास्यामः, इति ह स्माह


मगवान्रेयः» इन दो वाक्यो के बाद सीधा हिताहितं सुखं दुःखम्‌,
से अग्निदेशतन््र का प्रारम्भ हआ है तथा इनके बीच का अवतर.
गिक सम्भवतः चरकाचायं ने पूरा किया दै! “हिताहितम्‌?
इत्यादि वाक्य मेँ दीखने वारी प्रचीन म्रन्थकी प्रौढता का इससे इसी प्रकार चरकाचायं ने अग्निवि्च तन्त्र कै एक्‌ २ वाक्य
पूव के वाक्यो मे नमिल्ना मी इसी वात को प्रकट करता हे । कौ लवर कहीं उत्ते पूरा करने के चयि, कीं संक्षेप एवं विस्तार क
वर्तमान चरकसंहिता तथा मेडसंहिता के (नवेगान्धारणीय लियि तथा कद्व ग्रहण एवं धारण मे उपयोगी वनाने कै सख्यि, उसे
अध्यायो की तुल्नामे हम देखते है कि चरकसंहिता मे वेगो के पूर्णं करने तथा वंदाने की दृष्टि से अपने कुद वाक्य तथा पद्‌ आदि
निरोध के ओधित्य एवं अनौचित्य सम्बन्धी विषय कौ ही दिया है। सम्मिखिति करक मूक आचाय तथा अपने वाक्यो को तिरूतण्डुर-
इसके विपरीत मेडसंहिता मेँ अध्याय कै आदि तथा अन्त मे उस रूप मै मिलाकर प्रतिसंस्करण किया है । जिस प्रकार भारत ग्रन्थं -
विषय के होने पर भी बीच म दन्तधावन; धूमवती आदि अन्य म अनेक कथानक, वैदाम्पायन आदि के प्ररनोत्तर आदि पूरणिका
भ्रन्थो को
विषय दिये हए है । इस प्रकार अग्निवेश संहिता म सन्दभंशयुद्धि वाक्य तथा जादि जौर अन्त मे उपक्रम तथा उपसंहार
त का रूप दे दिया गया है इती प्रकार चरक
तथा सेडसंहिता मेँ ठेख, रचना अथवा उपलब्ध मन्थ की विङृति कै जोड़कर उसे सदहामार
ते मी रेता ही संस्करण करकेस्स े दूसरे परिमाज ित रूप म
कारणं अह्ुद्धि प्रतीत होती है ।
उपस्थित कर दिया है । इसल्यि मूलयन्थ के परवद्च होने कै कारण
नावनीतक नामक यन्थमेँ आत्रेय कैनामसे दिये इए बहुत
से योग एवं ओषधिर्यो के चरकसंहिता मं मिलने परमभी दौ तीन
मूकप्रन्थ मँ जैसा विषय का पौवौपर्यकम धाः प्रतिसंस्कृत न्थ मे
ओषधियो कै न सिखने से तथा चक्रपाणि शिवदास आदि द्वारा मी वैसा दो ह्येते से खश्चतसंहिता कौ अपेक्षा चरकसंहिता मै न्थ
अद्चिवेशच के नाम से उदधृत कुच रोको का चरकसंहिता म न का विषय अधिक विश्क्कलित मिक्ता दै । इस प्रकार चरकनेभी
मिलने से अग्निवेर संहिता से संस्करण कै अवप्तर पर कुद उसे टीक नहीं किया । यदि वह॒ स्वतन्त्रूप से चरकसंहिता की
अंडा निकार द्विया गया प्रतीत होता है | रचना करता हो इतना प्रौढ विद्वान्‌ होकर मौ क्या इस पौर्वापयं-
इसी प्रकार मेडसंदिता तथा अभिवेश्चतन्त्र को सामने रखकर तरमरूय सन्दमं शुद्धि को ठीक न करता । समास एवं व्यासरूप में
पुनरुक्त प्रकीणं विषय को संकलित करते हए मी उसने इस दोष
प्रत्येक विषय मेँ तुलना करने पर अन्य भौ बहुत से स्थल पर
विमेद दृष्टिगोचर होते है ।
कौ दूर क्यो नदीं किया। ज्वरसमुच्वय मं आश्विन) भारद्वाज
आदि कै वचनो कै भिलने से उनकी संहिताओं प्ते मौ विष्यो को
चरकसंहिता म अध्यायो के बौचरमेंमौ स्थान र पर आये
हए गयत्राक्यो के संक्षेप एवं विस्तार के ल्यि कीं एच तथा करीं
संह करके इस संस्करण भँ चरद्माचाय ने पसंमवतः दिये हो । इस
ग्य रूप मै मी संग्रह वं विग्महरूप मिल्ताहै। बीचरमें भी प्रकार वहुत प्रयत्न एवं परिश्रम से प्रतिसंस्छृत करके इस प्राचीन
संहिता को चरक ने अनेक विषयों से युक्त कर दिया है । इसीच्यि
(भवन्ति चान्न "अचर श्लोकाः इत्यादि दवाय कहीं संक्षेप के खयि
इस संहिता कै अन्त मँ दृद्व ने इस संहिता के ज्ञान से ही दूसरे
तथा कहीं उपपादक अथ को खचित करने के सख्यि प्च ( दरोक)
तन्तौ के ज्ञान तथा इतकी मदन्ता का निर्देश करते इष कहा है किं
दिये है तथा प्रत्येक अध्याय के अन्तमं भी शत्र श्छोकाः हारा
यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत्कचित्‌? । उपयुक्त गुणो के
अध्याय के विषयको इलोको मँ दिया इभादहै। संशि ठेखं के
कारण तथा अन्व्थैक चरक नाम के अनुरूप सव जगह घूम २ कर
ग्रहण सौकयै (आराम से समञ्चन ) के लियि विस्तृत रूप देना तथा
प्रचार करने के कारण अन्तरङ्ग दृष्टि से इस अन्थ के आत्रेय तथा
विस्तृत छेख के धारणसौकयं ( याद करने ) के च्वि संक्षिप्त रूप में
अग्निवेदा संहिता रूप द्योते पर मौ बहिरङ्ग दृष्ट से वतमान संहिता
देते की प्रणाली प्राचीन आचायौ के केलौ म मी भिकूती है।
व्याकरण महामाष्यकार की सी यदे शरी है ।इुसुमाज्लि आदि मं की चरक संहिता नाम ते हयी प्रसिद्धि है,
इस
सेटसंहिता मे भी उतनेहौ अध्यायोके होने से तथा
कारिकार्थो के प्रतिपा विष्यो का पूरणिका रूप मेँ ग्वाक्यो द्वारा जाः
विदादीकरण (स्पष्टीकरण) दिया गया है तथा शाखदीपिका मन्थ ( चरकसंहिता ) मे भी एक सौ वीस(र) अध्याय तथां
तथा अग्निवेश इसा उपदेख क्या होनेसे
मामती आदि मेँ इसके विपरीत विस्वृत मार्घो को संक्षेप से कारिका स्थानौ का मत्रेय इस सम्पूणं अन्य के अपस्मार व्रकरण ते
पि
रूप मे दिया गया है । सुश्रुत तथा काद्यपसंहिता मं भी स्थान २ पर प्रतीत होता हैके काल्वरात्‌ छक हौ जने से तथा चरक के
अग
समह तथा विग्रह ( संक्षेप ओर विस्तार ) से वणेन मिर्ता है । इस अगे उसका संस्करण न दोने से पीछे आत्रेय दवारा उपदिष्ट
` प्रकार एक ही विषय को संक्षेप एवं विस्तार दोना प्रकार से निरूपण तमय भी
हारोत आदि के अन्धौ से यिषयो को ठेकर संभवतः दद्व ते इसकी
करना मूल आचार्य के द्वारा मी सम्भव दो सकता है । किसी एक पूति की है पीछे से पूरा विये हट उतने अंश में विभिन्न पचप्रायः
` प्रकार से कही हुई पूवं आचाय की उक्ति को पीठे संस्कत द्वासा केख का होना मौ इसी का समथेन करता है । _
किसी दूसरी प्रकार मी कहा जा सकता है । चरक संहिता के निम्न अग्निवेद्य कै नाम से चक्रपाणि तथा शिवदास आदि द्वारा
इलोक दवारा यह स्पष्ट कहा गया है किं गहन विष्यो का अन्दषट उद्धृत वचनो के भिख्ने से प्रतीत होता है कि संभवतः उस समय
होकर ज्ञान माप्त करने के छ्य इस प्रकार के संशचेप एवं विस्ताररूप ृत प० ५६ का १-२ दर्ख ।। ~
८९) १~२ की टि० उपो संस्छ
उक्तिमेद मेँ पुनरुक्ति दोष नदीं होता है-- ।
८ उण ह° |
५५८ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
श्छ छक क 9 © = ० 9 © क © 2 = 9 क क ०9 © © ऊ

तक अयिवेङतन्ब उपल्ग्ध था परन्तु उस अवस्था म दृटबल वै इस प्रकार नागाज्ञुन कौ सुश्ुत का प्रतिसस्कताँ सिद्ध करने कै
समथ सी अच्चिवेद्चतन्व की उपस्थितिं कौ संभावना होने सेउस खियि अन्य बर्वान्‌ प्रमाणो की अपेक्षा है। बहुत से प्राच्य एवं
अगिनिवेदतन्त्र सेद्यी शेषभाग की पूति न करफे #$ज्िलोञ्छवृत्ति पाश्चाच्य विद्वान की सम्मति है कि वतमान समयमे सुश्चुत का पुनः
द्वारा जन्य तन्त्र से विष्यो फो एकचरितं करके दृदृबर् दवाय चिकि संस्करण ही भिल्ता है ! कष्टं २ अवीचीन विष्यो कै यिल्नेसे
स्थान के अन्तिम १७ अध्याय तथा सिद्धि ओर कर्पस्थान की पूति मेरी मो यदी राय हैकि इसका संस्करण इभाहै। परन्तु इस
करते मेँ क्या हेतु है १ अग्निवेरतन्र सै पूति न करके अन्य तन्त्रो से. संस्करण मे चरकसंहिता की तरह पुनरुक्तियां नदीं भर्ती हें।
पूति वरे फा उच्छे दृव ने स्वयं किया है । लगभग एक हजार इसमें संस्कतं तथा उत्तर मागके ठेखक का यथपि स्पष्ट उल्टेख
वष पूवे छिखित एवं उससे प्राचीन उ्वरसमुच्चय मँ चरफ के वचनो नदीं है, परन्तु मैरे पास ६३३ नेवार (नेपाटी ) संवत्‌ मे छिखित
के भिरे तथा अभिवेद्य कै वचनो कैन भिख्ने से, वाग्मट आदि ताडपत्रीय सुश्वत है उसकी पुष्पिका ८ समासि माग ) मेँ पूवेभागमें
दायामी चरक काही उव्छेख हदौनेसेतधा खलीफा हारररीद्‌ “सुश्रुते शल्यतन्त्रे' ठेसा उल्लेख है तथा उन्तरतन्त्र कै अन्तमें
के समयमभी इसी चरकसंहिताकाद्ी अनुबाद होने से प्रतीत “इति सौश्रते महोत्तरतन्त्रे चतुः्पष्टितमोऽध्यायः, अतो निघ-
होता है कि वाग्मट तथा दृढबल आदि के समयसे पूरं ही अभिवेद्य प्टुर्भविष्यति इतिः तथा उस निषण्ड माग के समाप्त होने पर--
का तन्त्र षिङ्प्ठ हो चुका था । चक्रपाणि तथा शिवदास आदि के समय सौश्रुत्यां संहितायां महोत्तरायां निधण्डुः समाप्तः, उच्लेख
तक यदि भभ्चिवेदतन्त मिलता होता तो भिन्न २ विषयो म अभिवेद्य मिरुता है । यपि इदमू? अथं प्रत्ययान्त सौश्ुन दाब्दः से सश्चत के
तथा चरफ की समानतार्ओं तथा विषमताओं का अनेक स्थानों पर मन्थकामी ग्रहण दहो सकता है तथापि पूवं तथा अपर यरन्थकै
वणेन होना चाहिये था! परन्तु इसके विपरीत यहां अग्निवेद्य कै भागमैख्खकौीएकदही चेरी के जचित्यको दृष्टम रखतेहुए
कुद हयी वचनो के उद्धरण दिये होने पे प्रतीतहोता हैकिये पूरव॑भाग मेँ सुश्चुत शब्द तथा उत्तर माग मेँभित्र ही सौश्ुत शाब्द
उद्धरण प्राचीन निबन्ध एवं दीकाओं से दिये गये है । से निर्देश होते के कारण पूवं भाग सुश्वत-ल्िखित है तथा उम्र
सुश्नसंहिता के संस्करण के भिषय मेँ यन्थ मे कहीं मी स्पष्टूप माग उसी कै वंदा वले किसी अन्य ( सौश्चुत ) व्यक्ति द्वारा छिखित
से उच्केख नदीं है । केवर ्रतिसंस्छतांऽपीह नागाज्ञैनः, उण प्रतीत होता है । निघण्डु भाग कैउपक्रम म दिवोदास के उपदन
के इस सिदे के अनुसार्य कु रेन नागाज्जुन को इसका का उर्केख होने पर भी मूर आचायंके एक हौने से यह ग्रन्थभी
प्रतिसंस्छता मानते है । नागाज्ञैन को सी प्रतिसंस्कता मानने मूर यन्थ ही है, इस सिद्ध करने के चयि संभवतः दिवोदास
प्र सुश्चुत उससे प्राचीन सिद्धि होता है। परन्तु नागाज्जुन का निर्देश कियाहो तथा निषधण्डु भागम अयि इए ठेठ मँ कु
कै वतमान सुश्रुतसंहिता का प्रतिसंस््तां होने म कोई प्रबल विकसित अवस्था होने से तथा उन्तर भागके रब्दौके विक्चेष रूप
प्रमाण नहीं भिल्ता है। यदि वह प्रतिसंस्कती होता तो चरक्‌ से भिकने से यह निघण्डु भाग भौ संभवतः सौष्ुत का हे। अपृणं
के अग्निवेशङ्खते तन्त्रे चरकप्रतिसंस्कृते, उद्रेख की तरह वह अदाको पूर्णंकरने फी दृष्टि से इसमे उन्तरतन्त्र सम्मिकित करनेवारे
भी अपना प्रतिसस्कत्मकेरूय मे उर्लेख क्यौन करता? आर्यं सौश्चुताचायं ते पू्ैभाग मेँ मी संभवतः कुष्ट संस्करण किया दौ ।
नानाजुन तथा दूरे किसी नागान के विषयमे मी अन्य मर्ध महाभाष्यकार दारा सौश्वतश्शब्द्‌ सै युक्त उदाहरण कै देने से
मे शद्यतन्त्र के विषय मेँ कहीं उल्केख नहीं मिक्ता । आं नागान सौश्चतो की मी पहले से प्रसिद्धिका बोधदहोतादहै। सुश्चुतके वंश
के'उपायहृदय में सुश्ुनका नाम द्विया होने पर भी पूर्वनिर्दि् वाङ रस्यविद्या के पण्डित सौश्ुतो का राजाओं के साथ सम्बन्ध
मेपञ्यवि्या के प्रकरण मे राव्यतन्त्र का पथक्‌ निर्देश नदी भिरुता होने के कारण दी अत्यन्त प्राचीन कारु से “सौश्रुतपार्थिवाः, उदा-
हे । तथा यदह भी विचारणीय है कि शान्तिप्रधान वौद्धमार्गानुयायौ
हरण प्रसिद्ध है ¦इस प्रकार यह कहा जासकता है कि सुश्चुत के वंश्य
तथा वौधिसत्व विद्वान्‌ होने के कारण चश्लसाध्य शल्य चिकित्सा मै वले या उसके किप्तौ दिष्य ( सौशवुताचाये ) ने पूवभाग का संस्करण
उसकी रुचि ( प्रवृत्ति ) किस प्रकार हो सक्ती धी । आर्थं नागाञ्ज॑न
करके उन्तरतन्त्र ओर निषण्टु माग उसमे पीठे से सम्मिकिति कर
या तान्िक नागान दारा य॒दि इस्तका संस्करण किया जातातो
दिया है। |
उसमे साभाषिकरूप से बौद्धमत की छाया अवश्य होती । इस
यन्थ मं कीं नाम मात्र को भौ वद्ध दाया नहीं भिर्ती है मपितु पूवंआचार्यं की संहिता कै उपरून्ध होने पर भी अन्य आचार्यो
निम्न इलोकके दारा स्थान २ पर राम तथाक्ष्ण की महिमा, के गन्धो में मिर्ने वारी विह्ेषता्ओंको केकर पूवं संहिताकी
वेदिक रन्न के प्रयोग तथा सांख्य दशन के अनुसार अध्यात्म का क्मि्यो को दूर करकै उसे सर्वाङ्ग पूणं बनने की दृष्टिसे पीेसे
पिषय दिया हा है-- पूर्ववतीं दिवोदास कौ संहिता को रेकर उसमे अन्य मन्थ के विष्यो
महेन्दरामङृष्णानां बाह्यणानां गवामपि । की संस्कतं ने उम्तरतन्त्र के रूप मेँ सम्मिलति किया प्रतीत होता
तपसा तेजसा वाऽपि प्रजञाम्यध्वं शिवायवे॥ ` है । स्वयं म्रन्थ कतां की उक्तिसे स्पष्टहै कि उन्तरतन्त्र का विषय
विदैदाधिप आदि के रालक्यतन्व से संबन्धित है । सुश्चतसंहिता
ॐ जिन्न प्रकार पक्षौ जाति भिन्न र श्थानोसे छ्लोटे करणो की
बीन र कर संग्रह करते हं उसी प्रकार भिन्न र अन्धं से जब
के उन्तरभाग म कौमारभृत्य कै प्रकरण मेँ अन्य आचार्यौ का निर्देश्य
थोड़ा २ अश संग्रह करके किती विषय को पूरा किया जाय तब
करते इए मूल मेँ यथपि छकमारावाधहेतुभिः, दाया सामान्य
उक्केख होने पर भौ टीकाकारो द्वारा पावेतक बन्धक जीवक आदि
यह्‌ शब्द व्यवहृत दोता है । ( अनुवादक ) । का निदेश किया जाने से तथा जीवक के इस . कौमार भ्रत्य विषयक
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं ५६९

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ग्रन्थ कैमिक जाने से संमवतः उस प्रकरणम काश्यप तथा जीवक वृद्धजीवकीय तन्व के विषयमे तो यह कहाजा सकताहै
के विपर्यो को मी उन्तरतन्त्र म सम्मिलित कर दिया गया है। कि प्राचीन कारयप संहिता कै बहुत विस्तृत होते से बृद्धजीधक
सुश्चुत के उन्तरतन्त्र मे रसमेद्‌ विषयक &४ अध्याय तथा दारा उक्तको संक्षिप्त करके तन्त बनाने का उच्छेख सहिता के कल्पा-
दोषमेद विषयक अन्तिम (६६ ) अध्यायके बीच में ६५ वां तन्व. ध्याय में मिलता है इसलिये जिस रूप म काश्यपसंहिता थौ उक्ती
युक्तिर्यो का अध्याय है । कौटिलीय अ्थश्ञाल् मे तन्त्रयुक्तियो का रूप में वृद्धजीवकीय तन्व नहीं है अपितु अन्य संक्षिप्त रचनाक
अन्तिम अध्याय है । इनकी तुरना करने प्र हम देखते हैकिं कारण स्पष्टरूप से उसका रूपान्तर हौ चुका है । परन्तु वृद्धजीवक
दोनों में अधिकरणे प्रारंभ करके ऊह्य पर्यन्त ३२ युक्तियांदी ने मौ संक्षेप करते इए मूलसंहिता की उपेक्षा करके स्वतन्त्र रचना
हई है । तथा वीच मै भी उदेश, निर्दर, उपदेश, अपदेश, प्रदेय, नहीं की है अपित उसीके उपदे्चरूप वाक्यो तथा विषयौकोद्यी
अतिदेक्ल आदि तथा अन्य अन्थोमेन अयेदहुए भेदो तथा अन्य लेकर विस्तृत अरो को द्योडकर उसी का केवर संकषिप्तरूप कर दिया
मी पदार्थौ में ( अपने २ वैक तथा नैतिक विष्यो को द्धोडकर ) हे जंसा किं उसके रेख से प्रतीत दहोताहे। .
परस्पर समानता को देखकर एक कौ दूसरे पर द्या प्रतीत होती कादयपसंहिता के पूवेमाग तथा खिल्मागमं मी आदि सै
अन्त तक प्रत्येक अध्याय मे इत्याह भगवान्‌ कश्यपः “ति ह
है । इनमें किसकी किस पर द्याया है इस विषय मँ परस्पर विचार
स्माह भगवान्‌ कश्यपः” इत्यादि वाक्यो के समान सूप से मिलने
करने पर हम देखते हैँ कि कौटिछीय अथंडाख मे मौपनिषदाधि
पर भौ म्नन्थके अन्दर अयेहुए सवं विषय कद्यपके हीह
करण की समाप्ि प्रर यन्धके अन्त मे तन्त्रयुक्तियां द्धी हई है।
ठेसी वात नहीं है अपितु सिद्धान्त तथा उपदेश वाक्य ही केवल
इसी प्रकार सुश्चत के उन्तरतन््रमंभी साथर दिये जाने योग्य
क्यप के है तथावीच मेँ उस विषय कै ल्यि दिये इए
रसमेद तथा दौषभेद प्रकरण के बीच में तन्वयुक्तियो के अध्याय
के दिये होने से पूर्वापर सङ्गतिकौ देखकर यह कहा जा सकता है पूरणिका कूप से उपक्रम तथा उपसंहार वाक्य पष्ठ से वृद्धः
कि यह किसी दूसरे मन्थ को देखकर किया गया है अथवा संस्करण जीवक द्वारा तन्त्र वनति समय मी संभवतः दे दिये गयेहों।
के समय मी यह अनुप्रवेश संभवदहै। चरक संहितामेमी मन्थ सव अध्यायो के आदि तथा अन्तमं (इत्याह कश्यपः यहु पदं
के अन्तमं ही तन्तरयुक्तियों का विषय दिया इआदहेै, जो कि दृद्‌- तो जीवक ने संभवतः इसर्िणएदे दियाहै कि लोग इस सारे
बर द्वारा पूरितमागमेंहै। बाद मेँ मिकये हुए उन्तरतन्त्रमे भी विषय कौ उसकी कपोलकस्पना न समन्यकर कारयपसंहिता के
पूवंभाग की तरह इसकी प्रामाणिकता सिद्ध करने के ल्य धन्वन्तरि साररूपमंदही जानकर इसे प्रामाणिक मारने) कारयपसंहिता के
की उक्तिरूप श्यथोवाच भगवान्‌ धन्वन्तरिः वाक्य छकेखकने पूवैमाग मे (साहसादतिबारूस्य सवं नेच्छन्ति कश्यपः “मज-
संमवतः स्वयं जोड द्विया है! इस प्रकार सश्चत संहिता मे पीछे वसयोस्तु मण्डं सर्वेषां कश्यपः पूर्व॑म्‌, अथ कश्यपोऽ्रवीच्‌
सम्मिलित किये हए विषयो को मूलय्न्थ के आगे उन्तरतन्वरूप मेँ सर्वमप्येतद्सम्यक्‌ , इत्यादि स्थल मे तथा खिक्मागमे सी
पव्‌ जोड़ दिया गया है । चरक के समान मू ग्रन्थके साथदही 'पाययेदिति कश्यपः यथास्वमिति कश्यपः, चेय इति ह
विषय को मिखाकर परस्पर एकाकार नही कर दिया गया है । इससे स्माह कश्यपः, इत्यादि स्थलों मे पुनः क्यप शब्द का उल्लेख
संहिता मै संग्रह कयि इट नवीन तथा प्राचीन विषयौ म परस्पर होनेसे प्रतोत होतादहेकिं जीवक द्वारा कदयप के सिद्धान्त का
जथ नुवाद किया गया है अथवा ब्रद्धजीवक के उपदेशक मारीच
सुगमता से भेद कियाजा सकता है। मुद्रित सुश्वतसंहिता मेँ
क्द्यपनेभी प्राचीन कृरयपपरम्परा कौ खचित करनैकेलियि
प्रथम अध्याय के अन्त म “स्विक्षमध्यायश्चतं पञ्चसु स्थानेषु स्थान २ पर इति कश्यपः? पद दिया है। अस्तु, ्राधान्येन
संविभञ्य उत्तरे तन्त्रे रेषानर्थान्‌ व्याख्यास्यामः; इस पाठ कै व्यपदेशा भवभ्तिः कै अनुसार इसमें अड हदं सव सिद्धान्त आदि
मिलने से पूवसंडिता कै समय उत्तरतन्त्र की मी उपस्थिति प्रतीत
उक्तियां क्यप की ही प्रतीत होती हं। मनुस्छृति आदि प्राचीन
दोनेसे दोनों माग एकी समयके हौने चाहिये। परन्तु मेरे
ग्न्थोमेंिष्यश्गुने मुके तथा सामश्रव भादि ने याज्ञवस्क्य
संय्हाक्य मे विचमान प्राचीनताडपत्र पर ल्खि हृद सुश्रुतमें
के उपदेश कफो शब्दरूप तथा मावसूपमे यहण करके तथा उपे
स्थान २ पर बहुत से पाठभेद भिरुते है । यहां मी ‹ “` -संविभ-
पूणं करके बनाई इदं संहितां के मनुसंहिता तथा याज्ञवस्क्य-
ञ्य उत्तरे व्याख्यास्यायः यह पाठ मिल्ता है। इस पाठके
अनुसार १२० अध्यायो को पांच स्थानम विभक्त करके किर
संहिता आदि नाम स्ते है । यहाभी इसी प्राचीन सं दौटीका
आगे न्याख्या करेगे, इतना ही यन्ध का आश्चय है । इस्तसे उत्तर- अनुसरण किया गया प्रतीत होता है पूवे्म्ध्रदायो का उल्लेख
करते हुए क्यप के समान उप्तके पुत्र कादयो का निर्दड होने
न््रका निर्देश नहीं मिल्ताहै। तृतीय अध्याय के परारंभर्मे पर भौ प्रत्येक अध्याय कै उपक्रम तथा उपसंहार मेँ इति ह स्माह
अध्यार्यो कौ गणना करते हुए सुद्ित पुस्तक मँ दिया हभ "तदुत्तरं
षटूष्टिः यह पाठ भी ताडपुस्तक मे नदीं भिल्ता है । किन्तु कश्यपः, तथा यन्थके मध्यमे मी स्थान २ पर कश्यपौऽ
जवीत्‌, “इति कश्यपः" आदि दारा कस्यप चब्द से ही आचाय
उनत्तरतन्त्र के अध्यायो के पिषयो को खचित करने वारे अतः परं का उर्केख किया है
स्वनाम्नेव तन्न्रमुत्तरसुच्यतेः से प्रारंभ करके "विधिनाऽधीत्य इस संहिता में दो भाग है । कपस्थान तक पूंभाग तथा उसके
युञ्जाना भवन्ति प्राणदूा मुवि इत्यादि लोक तो ताडपुस्तक बाद खिरुयाग ! दोनों दो मागो मं म्रव्येक अध्याय के उपक्रम तथा
मे भौ भिरूते है । पीछे उत्तरतन्त्र के जोड़ने के बाद उसके विषयौ उपसंहार मे कदयप के उपदेश रूप मे इत्याह कश्यपः पद्‌ `
की खत्वी वरे ये दरोक मी संभवतः पीछे से जतुप्रण्ट हो गये दो । मिकरूता है । उबरसमुच्चय मे क्यप नाम से दिये इए वचन श्त
६९ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
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संहिता के पूवैभाग तथा उत्तर भाग दोनो भ भिरूते ह । पूवैमार आदि विषयान्तर कै विकसित अवस्थाम भिन्न के कारण एक्‌
स्वै क्यप के दिष्य रूप मँ जीयक्‌ काततथा उम्तरभाग ममी ही रेखक फी रचना होने से उनका विस्तृत वणन भिलना चाहिये
अधिका रूपमे जीवकका तथा कहीं२ किसी अन्य व्यक्तिका परन्तु दल्यतन्तर कौ प्रवानताङी रक्षा केखियि ये विषय. बहुत
भी उच्छेख भिल्ता है । इसमे पूवं तथा उत्तर भागम एक ही सक्षेपसे द्विये गये दँ। उन्तरतन््रकेरूप मे पुनः मिलने वाके
उपदेल को खचित करते वाङे परस्पर संयोजक्‌ वाक्य दोन मार्गो विस्तृत प्रस्थानान्तरीय विषयों का बादमे सम्मिलित किया जाना
म सिरुते(१) है । प्रकर करने के छियि उच्चरतन्व नामसे निर्दैश्च फिया गयाहै।
इस प्रकार पथं एवं उत्तर दोनो मार्गौ के परस्पर संवद्ध होने लेख की रचना मेँ भेद के द्वारा निमाणमेँ मी मेद मालूम हयो सकता
सेएकशरौर रूपसेवना हुमा यहु ग्रन्थ आपाततः कर्यपसंहिता है। इसी प्रकार कादयपसंहिता का खिर्माग मी यदि पू्य॑भाग
रूप ही प्रतीत होता है । परन्तु पूवेमाग के अन्त मे पूतै्रन्थ के उप्‌- दे साथह्यै वनायागया होता तो पूव॑माग मे दिये इट ज्वर
संहार रूपमे यन्ध की समाधि का निदश्च कप्ते वाला कट्पाध्याय आद्धि विष्यो के साथ खिमाग मे दिये हूर उर आदि विषर्यो
दिया हज है । उसंहार कौ अन्धके अन्त मे होना चाहिये, की समानताको दृष्टि मेँ रखते इए उसी के अनुप्ार वेणन किया
अत्रेय तथा भेडकौ प्राचीन संहिता घ, निदान आदि आठ जाता परन्तु खिलसाग मं पुनः उन्हीं विषयों के देनै से तथा उप-
स्थानों तथा १२० अध्यायो मँ पूणं हुड भिक्त है । उसो कै अनु- देच स्थान, समय ओर उपदेर्य व्यक्ति का मी मेद द्विखाई देने से
सार यहां कादयपसंहितामे भी परूवेभाग मेही आढ स्थान तथा पूवंभाग तथा खिरुभाग मे अन्ध कता, समय तथा रचनाकामौ
१२० अध्याय परे हो जति है! इस संहिता के कल्पाध्याय कै निम्न भेद प्रतीत होताहै। शिद्वान्‌ रोग कऋण्वेद ममौ खिलसूप से
ररोक के अनुसार भी इसके आढ विभाग दृष्टिगोचर होते है-- सम्मिलितं विये हद भागक समय भिन्न मानते दै। यहां भी
सू्रस्थाननिदानानि चिमानान्यात्मनिश्चयः। खिल नाम सेनिर्देश्च कियाजानादही समयतथा कर्ता कैमेद्‌ कौ
इन्द्रियाणि चिकित्सा च सिद्धिः कल्पाश्च संहिता ॥ प्रकर करता है । कादयपसंहिता कै कद्पाध्याय म आए हए "तन्त्रं
इसके वाद्‌ अन्त मे 'खमाक्ता चेयं संहिता, अतः परं खिल- सखिलमुच्यतेः वाक्य के अनुत्तार खिर्स्थान मी इसी ब्ृद्धजीव-
स्थानं मविष्यतिः यद संहिता की समाप्ति का सचक पुष्िका- कीय तन्त्रका भाग प्रतीत दहोताहै। तथा खिरुमाग मेँ भये हृष
वाक्य भी दिया हुआ भिक्ताहै) इस प्रकार आठ स्थानौ तथा मिषय। के भी काश्यपकेही उपदेशसरूपहौने से खिरूभाग सहित
१२० अध्यायो वाखा यह पूवेमाग ही बृद्धजीत्क द्वारा सिक्त की गनन्थ हौ कादयपसंहिता प्रतीत होती है। परन्तु श्स संहिता के
हुड कारयपसंहिता प्रतीत होती है पूव॑भाग के निम्न इलोक से दारुवाद्‌ द्वारा प्रेरित ब्रद्धनोवक कौ
उस्तके बाद पूवमा मे अनुक्त विषयो को ( तथा पू्वैभाग में करयप का उपदेश्च दिया जाना प्रतीत होता है-
जये हृए तिष्यो को भी पिकसित रूपमे ) तथा हषर उधर से कद्ध
उपास्यमानखषिभिः कश्यपं वृद्धजीवकः।
भवदयक एवं प्रकीणं षयो को संग्रह करके पूर्वमागोत्त क्रम
चोदितो दार्वाहेन बेदनार्थेऽभ्यचोदयत्‌ ॥
को पिनाष्प्रान मेरवे दही) सुश्रुत मे १२० अध्मराय वालो पूर्व॑संहिता इस प्रकार पूवेभाग में प्रायः वहत से मध्याय मे जीवक क
के बाद उन्तरतन्तर कै समान ८० अध्याय वाला खिरुमाग पचेते प्रन तथा करयप द्वारा उत्तर दिया जाना भिरूता है । वत्स कै सृणु
जोडा गया प्रतीत होता है । कौ सन्तान हौने से वात्स्य केपू्ैपुरुषके रूपमे निर्दिष्ट जीवक
मैवदूत आदि ऊट्‌ अन्धो मे, सयं ठेखक द्वारा कथाश्च को द्ये
को भाग॑व शाब्द द्वारा सम्बोधन किया जाना उचित होने पर भी
मागो म षिभक्त करके पृथ एं उत्त माग केदियेस्लेते से सव
“भागवास्थीनिः, द्वारा केवरु एक स्थान पर भर्मव शब्द से
जगह यद्यपि एसा नियम नहीं बनाया जा सकता तथापि कादम्बरी सम्बोधन किया गया है। अन्यत्र सव स्थानो पर जीवक शब्द द्वारा
ओर दशकुमारचरित आष्वि मेँपूरं एवं उत्तरमाग मै रचना का भेदं
ही सम्बोधन किया गया है। इसके विपरीत उन्तरभाग ( खिल-
तथा कीं रल्ेखक केसी सेदका स्ट उरे निया है। इन
स्थान ) मे दारुवाह का उक्केख नहीं मिता है तथा जीवक चान्द
अर्थो मे उसके वाद मँ पूरे विये हुए भाग का केवर उत्तरभागं नाम
सेही निर्देश कयागवाहै। ्रन्धका नापर तौ सम्पूणं थन्थ कै द्यरासंवोषन भौ कदींर होहि) प्रायः सव स्थानो पर भार्मव्‌
अयुघार, कादम्बरी, दशचङ्मारचरित भादि ए हयी है। कुद विद्वानों शब्द से ही संबोधन भिरता है! अन्तवैत्नीचिकित्सा तथा कुकु.
णक आदि मध्याय मँ भौ कीं २ जीवक तथा भार्गव शब्द द्वारा
का विचारि रामायण भँमौरामवे
दारायायिहृटमागके पातका अंशवादमेघरपरपूराकुक्चकरकेतथाजोड़ा
। ।र

ल्व | सम्बोधन तथा जीवक द्वारा प्रशन न करे शूप, नराधिप, विश्चा-
है ण धृ । ५

गया हे! उस माग का उत्तरकाण्ड नामसे ए्थक्‌ व्यवहार होने म्पते, इत्यादि राजा के सम्बोधन दिये हए है तथा एक स्थान परर
प्र भी सम्पूणं ग्रन्धकातोणषकदही नाम से व्यवहार भिक्त है ।
इति
वार्योविदायेदम्‌' दारा वार्योविद को करयप्‌ के उपदेश का
उर्ङेख मिक्ता है । रेख कौ रचना का अनुसन्धान करने परर
धसे स्थानो मे जह उत्तमाग नें ठेखरैरी की भिन्नता प्रतीत द्येती
पूवेभाग मे प्रायः केख की प्रौदृता आष॑माव का प्राचयुयं तथा विषय
हो वहां कत एवं समय केभेद से निर्माण केमेद का मी अनुमान ` क
किया जाता है । जुशरुत के पूर्॑माग मेँ भी कौमारभृत्यं तथा सालाक्य तथागम्भीरता दीखती है तथा उत्तमा म प्रायः भिकसित धिषय
निरूपण शैलो भौ स्पष्ट एवं सुन्दर प्रतीत होती है । रेवतीकल्प,
चमदरजातकर्मोत्तरीय तथा श्ूचिकित्ता आदि अध्याय
( १) इसकी रि० उपो० संस्छृत ¶० ५८ का० १ देस । कृं २
पूषेमा के समान प्रौढ़ एवं आष रचना तथा पिषय
कौ गंभीरता
उपौढात का हिन्दी अनुवाद ६१
<€ ©>€ © @<० 9 <© 92 ० 9७ © ०292 ©< =
© 2-69-6 <> © 6-9-89 ©

दिखाई देती है। उपरक्त वर्णन कै अनुसार प्रतीते होताहे कि मन्धो मेँ पूर्वाचार्य केरूपमेद्विये हए बहुत से नामो का इस
मुख्यरूप से दारूवाह द्वारा प्रेरित जीवक ने कडयप द्राण दियै गये वंह ब्राह्मण मेँ प्रायः साथ २ मिख्नेसे संमवतः येवेहयी भ्यक्तिं
उपदेशो फो केकर पूर्वमाग का निर्माण किया है जिस्म कि रचना प्रतीत होते हैं । ।
लेली मौ प्रौढ़ है तथा अन्यत्र जौवक्र, वार्योविद तथा अनं मी प्रतिसंस्क्ती वातस्य ने केवर खिमाग ही नहीं जोडा है
व्यक्तियोँ को समय २ पर दिये गये करयप कै उपदेश फो लेकर अपितु कलपाध्याय के संसत तस्पुनस्तन्त्रं वृद्धजीवकनि्मितम्‌'
उत्तरमाग की र्चना की गई हैजितम कि विकसित अवस्था दिखाई इस निर्दे के कारण पूषेमागमे मौ वातस्य द्वारा संस्करण किया
देती है । इन उप्यक्त स्थल को देखने से दोनों भागम लेखनी जाना स्पष्ट प्रतीत होता है। परन्तु वात्स्य दारा अपने धिचारौ कौ
एवं समय का मेद स्पष्ट दिखाई देता है । संहिता के करपाध्याय मे मिलाकर अनेक भ्रिषयोँ से युक्त खिकमाग कौ पृथक्‌ रूप से जोडने
वृद्धजीवकतन्त्र कै कु समय तक टुप्त रहने के वाद वासस्य द्वारा से प्रतीत होतः है कि उसने पूवमाग मेँ मूर ग्रन्थक विपर्यास रूप
प्रधि एवं संस्करण के निर्देश कै वाद्‌ दिया हुभा निम्न इरोक मौ कोई विशेष प्रतिसंस्कार नहीं भरिया है अपितु पूे्न्थयेंदही केवल
वास्य द्वारा ही कहा जा सकता है-- की २ पूरणिका वाक्य, करौ अपना विदेष वक्तश्य तथा तात्कालिक
स्थामेष्वष्टसु लाखायां ययन्नोक्तं प्रयोजनम्‌ । विषयोः को देकर प्रायः उसी रूपमे ही राह,
तत्तद्‌भूयः प्रवच्यामि खिरेषु निखिरेन ते ॥ प्रतिसंस्कार का उदेश्य जिस किसो मी वस्तु अथय निबन्धे
इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि अष्टस्थानात्मक पूवैतन्त्र ही
गुणाधान द्वारा उसे उञ्ज्यर करना दता है । इस उपयुक्त प्रक्रिया
कादयपसंहिता का संक्षिप्तरूप वृद्धजीवकफीय तन्त्र है । इस पूर्वंभाग दारा संस्कार करने से उन प्राचीन संहितां के ङेख अथवा विषय
मेन आये हए आवदयक विषयो को क्यप की उपदेश परम्परा तथा कौ संक्षिप्र एवं विस्व करके नये विषये के प्रवेद करने से तथा
अन्य आचार्यौ कै भन्धौ से संय्रह करके वात्स्य द्वारा ही खिरमाग के अनुपयोगी अं कौ परिवतित करके तथा निकार करके उनका
रूप मेँ अन्त मेँ जोड द्विया गया प्रतीत होता है। वात्स्य दइ्ाराही रूपान्तर कर देने का प्रतिसंस्कताओँ का प्रयत्न संभवतः उचित हो
दस भाग के जोडे जाने प्र मी क्यप के बुध उपदे को साक्षात्‌ परन्तु इस प्रकार पुनः संस्करण होकर प्राचीन संहित्राके रेख तथा
रहण करके तथा कुद्ध हषर उधर के ग्रन्थो से एकत्रित करके दिया प्रतिसंस्कर्ताओं के ठेख परस्पर नीर-क्षीर (दूध ओर पानी) की
जने के कारण ही न्थ में कीं प्रौद्‌ ओर कहीं साधारण ररी तरह भि जाने से प्राचीन संदिताके ठ्ेखौका प्रतिसंस्कतांओं के
दृष्टिगोचर होना स्वामाविक ही दै) इसमे वार्योविद, काङ्कायन, लेखो दही अन्तमौवहो गया है। इसीलियि प्राचीन आत्रेय
सारद्वाज, दारुवाह, हिरण्वाक्ष, वेदेह तथा अन्य चार्या के मत संहिता का अध्रिवेश दवारा पिस्तार तथा उस अश्चिवेर सहिता के
देकर वृद्धनौवक का मत सीदिया हज है! अप्रतै सामयिक एवं चरकं द्वारा किये गये प्रतिसंस्करण मे तथा इती प्रकार कारयपसंहिता
श्चिष्य होने के कारण ब्रृद्धजीवक का मत फदयप दारा अथवा स्वयं कै षृद्धजीवक द्वात विये गये संक्षेप तथा उसके वस्स्य द्वारा चयि
जीवक द्वारा सी पूवेपक्षकै रूपमेँ देकर अन्त मे चरम सिद्धान्त गये प्रतिसंस्करण मे यह कहना कठिन है कि इनमे कितना अंश
रूप म करयप का मत दिया जाना यद्यपि संभव हौ सकता है किसका है । जिस प्रकार प्राचीन मृ नावनीतक अन्ध में नवीन
परन्तु बाद म वमनवरिरेवनाध्याय मे कोत्स, पाराय, वृद्धकास्यप, विष्यो के प्रवे द्वारा अपूर्णं विष्यो को पूर्णं करके लाहौर से
वैदेह, वार्योविद तथा उस समय के अन्य भी आचार्यौ के मतो का परकारित करवाकर प्रतिसंस्वता ने बहुत उपकार किया है तथा य
पवैपक्षके रूप मे निर्दर करने के वाद चरम सिद्धान्त के रूप मेँकद्यप मी सन्तोष का विषय हैकि वाग्मट, नगेन््रनाथ सदि बहुत से
कै मतके स्थान पर वात्स्यकामतदिया हुजादहै। परन्तु पूर्ववाद अर्वाचीन विद्वानों फे अनुभव सिद्ध ओषधियो कौ इसमे प्रविष्ट
कै कारण बहुत पीछे होनेवाले प्रतिसंस्कतां वातस्य का करयप तथा करके इसे ओर विस्तृत कर दिया है । परन्तु दस प्रकाशन मं यदि
ृद्धजीवक द्वारा निर्देश किया जाना सम्भव न होने से वत्स्य दी नवीन पूरित ( प्रतिसंस्छृत ) अं कौ ङ्पि के भेद्‌ द्वारा अथवा
इस मन्ध का संस्कतं प्रतीत होता है । यहां दिये इए कौत्स, पारा- कोष्ठक मँ देकर पृथक्‌ प्रकाित कर दिय जाता तो यह माम
रय आदि सव प्राचीन दही आचाय है । इसख्ियि उनके समकक्ष करते मेँ सुविधा रहती कि ग्रन्थ का कितना अज्ञ प्राचीन ( मू
आया हज वत्स्य मी प्राचीन आचा ही होना चाहिये । शथपथ ग्रन्थ ) है तथा कितना अश्च प्रतिसंस्कार मेँनया प्रविष्ट किया गया
वंदा बराह्मण मेँ मरद्राज, पाराश्चये, आभिवेरय, हारीत, काप्य, गार्व, है । इस समय खदौर तथा यूरोप से मूल नावनीतक पथक्‌ सुरद्रित
जातूकणं तथा अत्रेय आदि बहुत से प्राचीन ऋषिर्यो का उद्रेख हा उपरन्ध होता है इसलखियि उन दोन ( मूक तथा प्रतिसस्छृत )
भिता है । उन्दी के साथ वात्स्य कामी उद्छेख है। आयुवेद के अन्धो की तुरना करने पर प्राचीन एवं अवाचीन अंश म यदपि
मन्थो से इन नामों वाले आयुर्वेद के आचार्यो का सत्व मी प्रकट मेद्‌ किया जा सकता है,परन्तु कालक्रम से यदि कमी मूर अन्ध
होता है। यधपि य बह्मविच्ा का तिर्देश होने से इनका आयुरवेदा- की उपरुन्ि न हो सके तो केवल प्रतिसंस्रेत पुस्तक को देखकर `
चार्य॑त् सिद्ध नहीं होता है, समान नाम वाकेये अन्य न्यक्तिभी यह मद करना संभव नदीं होगा । इसमें वाग्मट तथा नगेन््नाथ
हो सकते है तथापि यह्‌ नहीं कदा जा सकता किं ये केवल ब्रह्मविद्या आदि का उल्लेख होने से कमी वाद मेँयद्‌ सन्दे दो सकतादै
केद्यीन्ञाता ये, आयुर्वेद के नदीं । इन्दी आचायौ कौ पूर्वै्ेणी मे कि नगन्द्रनाथ के बाद मे मूल नावनीतकः अन्ध का निर्माण इभा हे।
स्वव

के रूप `मं प्रसिद्ध [अधियो
ता ^
का उर्लेख

होने
.
से उसी परम्परा इसी प्रकार किसी समय चरक तथा वात्स्य द्वारा प्रतिसंस्कत अन्धो
मदहोनेसेये मी आयुैद के आचाय हो सकते द । आयुर्वेद कै | से कारयपसंहिता, अत्रेयसंहिता, वृद्धजीवकीय तन्व तथा अभ्िश्च
६२ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
०-2७०-०6 ७-66-6० © ७-०-6७ © © © ७-60-9
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तन्न कौ प्रथनस्थिति जवद्य रही होगी । रूपान्तर प्रतिसंस्कारो के | प्राचीन ग्रन्धोमंही नयै विचारोको पौषे प्रविष्ट करक
प्रचार के कारण प्राचीन ग्रन्धं का प्रचार कमह गया ओर पुनः संस्करण करने की प्रथा केवरु भारतीय अन्थोँमे ही नहीं मिलती
ख्थि पौचेतेवेठ्प्दो गये प्रहिंस्करणो मे कुद अं द्धोड हे अपितु अन्य देशम भी यद प्रक्रिया विद्यमान थी। मीषद
द्विया जाता है,कद्ध नवीन अं प्रथिष्ट कर दिया जाता हैतथा ङु की प्रघ्नीन चिकित्सा कै आचायं हिपोकिरस कै अन्धमे मौ इसी
अंश का रूपान्तर हौ जाता ह । इस प्रकार मन्थकेउस २ अक्के प्रकार प्राचीन एवं नवीन विषयों कौ एकव तिरतण्डल रूप से
साथ आचार्य के काठ का निणैय कए्ना मौ किन हयो जता है| मिखाकर पुनः २ संस्करण होने से उसके विषय में मी कुष विवेचन
सस्तिष्क म उदय होनेवाले नाना प्रकार ॐ विचारो तथा अन्य नदीं किया जा सकता हे । इसी प्रकार मिश्र देर म मी एवरस-
आचार्यौ कै उपै के अनुसन्धान से नये २ पिचार उत्पन्न हो प्येचिरस(१) नामक प्राचीन प्नन्थ के भी अनेक संस्करण हो चुके
जाते है । प्रतिसंस्करण के अवसर पर प्राचीन आचार्या के सिद्धान्तो हे । पूं भरन्धो मेँ ही नवीन पिच्य के उदय होने पर उन विचारं
कामी अर्वाचीन आचायौ कै विचायते सामंनस्यन होने पर का मी उसीके अन्दर अनुप्रवेश, कीं पुस्तक के एक प्रान्त परदेना
रूपान्तर हो पकता है तथा उनकौ बिल्कुल निकाला मौ जा सकता तथा कीं टका दिप्पणी के रूप मेँ सम्पूणं नये विनायको मन्थ
है । कहीं २ षिल्करु निर्भर सिद्धन्त मी पुरूष सुलभ दोषौ के के मध्यमे मी संस्करण के समय दिया जा सकता है। प्राचीन
कारण संस्करण के समय दूषित हो जति है। चरकसंहिता मँ ग्रन्थो कासारां्च मी वहां दिया जा सकता है । तथा स्थान भेदसे
चिकित्सास्थान के अन्तिम १७ अध्याय तथा सिद्धि ओर कदध्थान भिके इए पाठ मेद भ उकम द्विये जा सकते दै । इस प्रकार यह
कै लुप्रदह्ये जाने से पुनः द्दृबल दाप पूरित किया जाने से उतना भेद करना कठिन हो जाता हैकि प्राचीन ग्रन्थ मै कितना अंश
अर यदि दृटुबल कदी रचना मानी जाय तौ उप्तम आत्रेय, प्राचीन है तथा कितना अंश्ञ संस्करण के सम्य प्रविष्ट किया गया
अध्िवेरा तथा चरक मे से विसो की मी रेखनीको प्रवेश न होने से हे | समय २ पर नये २ विचारो के एकत्र अनुप्रवेशन होते जाने से
उस भाग की अच्छा या बुराई का उन्तरदायित डव प्रही पूर्वापर अन्धके मेँ कहीं २ प्रस्र विरोध तथा व्याघात मी दृष्टि
होना चाहिये । इस प्रकार यदि अशि ओौर चरक ने भौ पूवैगरन्थ गोचर होता हे। इस प्रकार प्राचीन एवं अर्वाचीन विचायं के परस्पर
के अन्त मेँ परिच्छेच के रूप से मथने २ पिचार एथक्‌ दिये होते एकत्र सम्मिरिति करने से प्मयान्तर मेँसव्र जगह गड़बड़ी होती आ
अथवा आजकल अभिवेद्य तन्त्र एक्‌ उपलब्य होता तौ उन २ मन्थो हे।पूवोक्त युक्तियो तथा महावग्म, पालीजातक ओर तिब्बतीय गधार्मो
मे उस्र माग अयि हुए जच्छेया बुरे पचार का उत्तरदायित्व के आधार पर मौ प्राचीन सिद्ध कि हुए धन्वन्तरि, कश्यप, जीवकं
उन रपरो सक्ता धा) परन्तु इसके विपरीत प्राचीन एवं तथा उपनी न्याय से मव्रैय सुश्रुते आदि के ग्रन्थौ मे मी संस्कार कै
अर्वाचीन आचार्यौ के ठेख गङ्गा-यमुना की तरह परस्पर मिहे हुए कारण आये हुड अवँचीन विषयो के स्वक विस २ पद, वाक्य
होने से तथा पूवंग्रन्थौ कै एथक्‌ उपर्व्य न हने से स्थान २ पर या विषय के ददन मत्र से हयी यदि मूख्य्रन्थ को अर्वाचीन सिद्ध
आये हुए अच्छे या बुरे विचारो का उत्तरदायिल् किल प्र है यद करने का प्रयत्न किया जाय तो २३०० वषं पूं अरोक दवारा सव
नही कदा जा सकता ।इस्त अवस्था मे अवचीन भचाये कै समय स्थानों पर उद्धाटित सवसाधारण के चिकरित्साल्यों मे खषिचार पूणं
सम्मित हुई शरुटियो का दोष सी प्राचीन भावचार्यो प्र पड़ सकता तथा सवज सम्प्त अर्धौ, उनके ज्ञाता चिकित्सकौ, अनुभूत भष.
है । यह्‌ बात केवर चरक वे विषय मेही नदींहै भपितु सुश्रत भियो तथा जन्दर चिकित्साप्रणाखियोँ के येने का जो उस्छेख मिता
संहिता तथा कादयपसंहितामें भी बाद्‌ म संस्करण के समय प्रविष्ट हे उसका क्या जाधार हो सकता है । क्यप, अघ्रेय, सुश्त आदि
हुए कुषं विकार तथा अर्वाचीन विषय के प्म्बन्य मेँ निश्वयपूवैक पराचौन प्रौढ पिद्वानौ तथा उनके अन्धौ को यदि अर्वाचीन सिदध
यह नदी कदा जा सकने के कारण कि ये किसके ह, मूरसंहिता कै षरे तो इनमें पूष के ग्रन्थ उस समय प्रसिद्ध नहीं ये । ४०१ इसी
आचाय के विषय मँ मी अवचीनता तथा उन विकारो कौ राङ्का पूवं म मेयून नामक पारसी राजा का राज्रैव टी० सी० यस
उत्यन्न हो जाती है । जिस प्रकार भारत के विस्तृत होकर महाभारत नामक एक यूनानी पेच था। इस प्रकार के उसके इतिदास के खमान
कारूष धारण कर केने पर अथवा पुनः २ हए संस्करण के अवसर मारत मं उस समय किंसीमी विदेशी चिकित्सक कै यहां के
पर्‌ प्रविष्टहुए दच्द्रौ के प्रवेदके समयका चिश्चयन होने से चिकित्सालय म जने का वृत्तान्त नदीं भिल्ता है । सा से पूवक
मूकमहामारत को भी छोग अवाचीन सिद्ध करने का प्रयत्न करते महावज्र नामक प्राचीन बौदध.वैधक अन्थ भी आत्रेय आदिक
हे । चरकसंहिता म आया इञा विकसित निग्रहुस्थान आदि का सिद्धान्त के अनुसार ही होने से शसते पृथक्‌ प्रतीत नदी होता ।
विषयं सी आत्रेय, अधिवेश्च अथवा चरक्मे से विसी की लेखनी सवरथम रूम मे भिरे वे, करयप, आत्रेय, सुश्रुत आदि कै
दारा प्रमिषट शिया गया हैइसका निश्चय न होने से श्रेय के अन्धो तथां उनके आचार्यो को यदि च्रोड दिया जाय तो ञ्चिला-
विषय मै भो अर्वाचौनता कौ शंका उतपन्च हो जाती है। इसी प्रकार रेखमें दिये इए सधेसाभारण चिकित्साक्य किन अनुपस्थित
काद्यपसंहिता मँ आये हुए उत्सर्पिणी, अवसपिणी आदि र्द का ग्यक्ति्यो की करना के आधार पर माने जायेगे । यदि ये अश्रेय
मी वात्स्य के प्रतिसंस्करणमे ही दोना सम्भव होने पर भी, निश्चयआदि आचाय अशोक कै चिकित्सालय के उदुधाटनं कै बाद्‌ कै
न ह्योने से प्राचीनता के साधक बहुत से प्रमाणो फे जागरूक होने माने जाय तो लोकोपकार कौ दृष्टि से अत्यन्त उपादेयं
हन साधारण
पर मी क्यप तथा वृद्धजीवक की अवांचौनता कौ शंका उतपन्न
कर देते द | ` (६) इसकी टि० उपो० संस्कृत प० ६० का० २ देु।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ६२
2 ००० € © © 9० 0-69०-८०
€ ९-७०-9 €> ८०९० ८>-€> 2.9 <-> >€ >€ €०-€> ७-<> €> अ2 ©
ओौषधा्ख्यो का इन अध्रिय आदिर्यो ने उच्छेख करयोन हीं किया पूवंविचारों के अन्यथा ( भिपरीतरूप मे ) प्रकट होने से पूव न्थ
है । इनके अतिरिक्त आध्रैय भादि का कोद मी रेख इनसे प्रमापित मे नवोदित विचा्तँकौ प्रविष्ट करके आवापौद्वाप प्रक्रिया द्वारा
नहीं प्रतीत होता । परिवतेन, विकास एवं संक्षेप के हारा पूव अ्रन्थ का रूपान्तर युक्त
इसी प्रकार सुश्वुतसंहिता आदिमे भी आये हुए कुष्ट स्थूल प्रतिसंस्करण करने म अर्वाचीन रोगं की जो मनोवृत्ति दै, वह
सिद्धान्त, गरुत सिद्धान्त अथवा अपूणं अघा को देखकर कुद रोगौ उचिते प्रतीत नहीं होती । प्राचीन सिद्धान्त एवं लेखो कै विपरीत
कौ इसके विषय मे अश्चद्धा उत्पन्न हौ जाती है। यह भी मूलटेख हो जाने से उनका स्वरूप ही बदर जाता है अथवा दोषो की राङ्क
तथा प्रतिसंस्कार के परस्पर नीर-क्षीरके रूपमे भले होतेसे सेवे मलिन प्रतीत होने लगते है । प्राचीन उतर, भाष्य आदिमं
ही है) कालक्रम से विज्ञान, अन्य विद्याओं तथा यन्त्र के उत्तरोत्तर उक्त, अनुक्त एवं द्विरुक्त आदि दोषो कों दूरं करने के हकिएअन्य
भिकास एवं परिष्कार हो जाने से नये २ सिद्धान्तो के प्रकट होते विद्वान ने ख आर्दियकौो उसी प्रकार रखकर अपने विचारं
जाने से प्राचीन ऋषियों के पूवं सिद्धान्त संभवतः हरमे स्थूल एवं को वातिक के रूप मे पृथक्‌ प्रकट किया है । इससे सत्र माध्य जदि
कुण्ठित भले ही प्रतीत हौ परन्तु उनका विचार करनेका ढंग मं आये हुए पदर एवं वाक्य आदि मँ अन्यथा दृष्टि उत्पन्न नहीं
( दृष्टिकोण ›)सीमित नहीं कहा जा सकता । एक व्यक्ति दास अच्छी हो पाती । इसी प्रकार समयान्तरसे न्ये विचारो के उदय ओर
समश्च जने वाली वस्तु का दूसरे द्वारा सी वैसा दौ समन्ञा जाना विकसित हो जाने से तथा पूवेसिद्धान्तों को अन्यथासिद्ध करने की
आवदयकर नहीं है । एक दिन उचित प्रतीत होने वारी वस्तु अगे दृष्टिसे प्रतिसंस्कार कप्नेके इच्छु व्यक्ति यदि मूल्यन्थ को
ह्य दिन इससे विपरीत मी मालूमहो सक्ती है। जिस प्रकार उसी रूप मं रखकर अपने विरेष विचार एवे व्याख्यानो से युक्त
मारत मँ अत्यन्त प्राचीन कारुसे प्रचलित शोधित धातुओं एवं समालोचनात्मक अन्य मन्ध को खिलरूप मे पृथक्‌ जोड दें
रसौषधियो के उपयोग की पद्धति को अन्यदेश्लीय विद्वान्‌ अनेक तो परस्पर भिभधितन द्योने से प्राचीन एवं अवाचीन विषयों
शताब्दियों तक अनुपयोगी एवं अहितकर समञ्चते रहे । वेहीलोग का पृथक्‌ २ भेद, विचार के पिकासका ज्ञान तथा पूीपर
आजकल उसको उपादेय एवं हितकर कहकर उसका व्यवहार करते केख णवं विचासँ की अच्छाई जौर बुराईका भी ज्ञान टीकर
है इसी प्रकार हमारे प्राचीन आचार्यौके बहुत से सिद्धान्त ह्यो जनेसे कोई गडबड न हौ इसके वरिपरीत कुष लोग
पाश्चाच्यतरैज्ञानिक प्रगति के कारण बहुत समय तक अन्यथा माने प्राचीन यन्थौमे सी किन्दीं सन्देदास्पद खब्दो केमिल्नेसे ह
जाते के वाद अव पुनः दृष्टिके परिष्करतहो जनेकेकारण समु समस्त मन्ध को अर्वाचीन वतलाने रुगते है । परन्तु प्राचीन अर्न्थो
चितसूप मँ माने जनेल्गेहै। प्राचीन समय मं किसी विज्ञान म संस्कारके न होने पर मी उन द्रौ का असुध्रवेरा ससव होते
वै अनुसन्धान के स्यि क्या २ साधन थे? इस परिषय मे कुर्‌ उव्टेख से केवल उन दाब्द्ौको देखकर ही ग्रन्थ को अवाचीन कहना
न भिल्ते पर भी यह कदाजा सकताहै कि प्राचीन सम्प्रदाय संगत नदीं प्रतीत होता) कुष्‌ विद्वान्‌ इस प्रकार के शब्द्‌ तथा
परम्परा, अनुभव, निरन्तर गन एवं तपस्या कै आलोक से उज्ज्वल अन्यरेसे ही विष्यो कौ उन अन्धौ मे दिखाकर अपने अभिप्राय
प्राचीन ऋषियों कै हृदयो मै प्रकट हु बहुत से सिद्धान्त जिमेल कविना प्रमाणो के सिदध चियेदह्ी उन न्थ का आनुमानिक
` णवं सुन्द्र मौ हौ सकते दै । समय वत्तलाते रहते है । परन्तु उनके उन विचारो मे क्या प्रमाण
एक ही विषय पुनः विचार करने पर अत्यन्तं परिमाजितहो है,यह नदी कहा जा सकता 1 इप् प्रकार अव्यक्त प्रमार्णो से दी
जाता है । स्वयं म्रन्थकतौ ही अपने पूवेछेख का पुनः परिमाजित विचार किया जाता है। उनके मन मै जये हुए असताधारण प्रसार्णो |
पिचासँके उद्य दहने पर अवापोद्राषप प्रक्रिया द्वा विलक्ुक कारपष्टज्ञान होने पर ही तथ्य के निधीरण मँ सविधा दो सकती हे।
विपरीत संस्कार कर सकता है । उस अवस्था म अपनेही हदय इस म्रन्थ का संहितात्व तथा तन्त्रत्व
मँ वारर उदय हृ विचारो कै परस्पर सम्प्कंसे मुख्य प्रमेय इस अन्य के संहिताकद्पाध्याय मै शसंहिताकल्पं ग्याख्या-
(ज्ञातव्य विषय † तथा तात्कालिक विषयो के अनुप्रवेश द्वारा किये स्यामः द्वारा प्रारम्भ करके निम्न दोक दिये हैँ । जिन इसका
गये संस्कार से गर्णोम ृद्धिदही दती है। समयान्तर से इसमें तन्त्र के रूप मे उक्छेव किया गया है--
गडबड की संमावना न्दी दोती। विद्वान्‌ रोग निम्न प्रकार का स पृरष्टोऽन्येन वेयेन' ' " ' “(मूर उपोद्धात पृ. ६२ देख) ।
संस्करण उचित समङ्षते है- इसके बाद (समाप्ता चेयं संहिताः द्वारा इसका उपसंहार
आवापोदधरणे तावद्यावदोखायते मनः| पिया गया है । इस प्रकार मूक जर पुष्पिका वाक्यो मेँ संहिता एवं `
पदस्य स्थापिते स्थेयं हन्त सिद्धा सरस्वती ॥ तन्त्र दोनो रूप मे इसका उल्छेख किया गया है! इस अ्रन्धके
( अर्थात्‌ जव्‌ तक मन स्थिर नदीं होता तब तक आवाप ओर उपक्रम तथा उपसंहार के खण्डित होने से उसके दारा ज्ञातव्य
उद्वाप होते रहते है परन्तु पद कै स्थिर होने पर अथात्‌ पद-पदार्ं विषय के संबन्ध मे ङुङ्‌ नहीं कहा जा सकता
के संबन्ध के सम्यक्‌ ज्ञान हो जने पर सरस्वती सिद्धो जाती दहै परन्तु संहिता शब्द का व्यवहार तन्त्र शब्दं कै व्यवहार की
अर्थात्‌ अपने वदा मेँ दहो जाती है)। अपेक्षा प्राचीन है। प्राचीन आष॑युगमे बनाये हए अन्ध प्रायः
किन्तु बाद म आलोचना करते हुए प्राचीन महपियो कै उप- संहिता नाम से तथा उस्तके बाद प्राचीन आचार्यो द्वारा नये इए
देशात्मक अन्धो म अभिप्राय भेदसे पूेग्न्थके गंभीर वार्वर्यो ग्रन्थ तन्त्र नाम से व्यवहृत होते ये । संहिता चब्द का अथं कऋिर्यो `
कै अन्यथा प्रतीतद्ोने से तथा तात्ताछिकि न्ये विचारोके दारा कै प्रतिभा एवं ज्ञान वर ते प्रा प्रकीर्णं (भिन्न र विषयो से सम्ब-
६४ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
96 ७०006690 ०6 ०-999-22 2 छ

न्विति) उपदेश को सामूहिक रूपस्ते एकत्र कपके ग्रन्थ का प्रतिरसंछरत हौकर इस ग्रन्थ के रूप मेँ हमारे सामने विद्यमान है ।
देदेनाहै। तथा तस्ते शब्द भितरे२ विषयो कों भिन्न र प्रकरण ज्यं २ उत्तरकक्षाआती ह्यो पूष्ैकक्षा पृथक्‌ रहती हुई भी,
एवं सन्दर्भ सहित सास्र का रूप देदने के अथं मेँ प्रयुक्त दोताहै। आवापोद्वाप विवधेन एवं संस्कार से अन्य स्वरूप कै उद्य वं
इस प्रकार अत्रय, धन्वन्तरि तथा कडयप आदि द्वारा मूर उपदिष्ट प्रचार फ कारण विकुप् हौ जाती है अथवा उत्तरक्क्षा मे अन्तर्हित
ग्रन्थ का संहिता नाम से व्यव्हार होना चाहिये! तथा इन मृल- होकर एक रारीर हौ जाती है (परस्पर सिरु जाती है) इस प्रकार
संहिता मँ अधिवेश, सुश्रुत, वृद्धजीध्रफ आदि द्रवाय प्रकरण कै तृतीय संस्कार से युक्त दोकर ये संहिताएं तम्र तथा ग्रतिसंस्कार
अनुसार विषर्योः को ठौक करके चाख्च का सूप देने कै बाद तेयार हमारे दृष्टिगोचर होते हं । यचपि इन ग्रन्थौ के पूवीपर पर्यालोचनं
हुए ग्रन्थो का तन्त्र नाप द्विया जाना चाहिये चरकसंहिता के करने प्र कीं प्राचीन णवं प्रौढ केद्ैली तथा कह साधारण
प्रारम्म से-- दौरी कै दिखाई देने से विषैचको को इनके विषय मँ कुच प्रकाश
तन्त्रमणेता प्रथममथिवेदो यतोऽभवत्‌ । मिक सकता है तथापि वतमान चरकसंहिता मै कितना अच्रेय को तथा
अथ मेडादयश्चकः स्वं स्वं तन्त्र" “*“ “५ ॥ कितना अंद्च अश्वश्च मौर चरक का है,सुश्रुत संहिता मँ भीितना
इत्यादि द्वार अग्निरे्च आदिय कोजो तन्वकती केरूप मं अदा मूर धन्वन्तरि का तथा कित्तना र्द दिवोदास, सु्वुत तथा
उल्लेख किया है,वहं उपयुक्त परिभाषा के अनुसार दय है । प्रतिसंस्कतां का है,इसी प्रकार कादयपसंहिता मे भी कितना अद
संहिता्भो का निर्माण ऋषिरयो द्वारा स्वयं अथवा उनकै उपदशं मूरवाद्यपसंहिता का हेओर कितना अंश बृद्धजीवक्र एवं वात्स्य का
को राब्दरशः अथवा अधेः (मावाथं ) ग्रहण करके शिष्यो द्वार हे तथा वृद्धजीवक द्वारा कयि गये संक्षेप का क्या खरूपं ह इत्यादि
किये जने की प्रायः प्रथा दै शिष्यो द्वारा निर्माण पिये जाने पर बातो का टीकर ज्ञान हीना संम नहीं है ।
भी केवर उनके भावो को प्रकट करने कै कारण संहितां का कश्यपः आत्रेय, मेड तथा सुश्रुत के भरन्थों की
नाम मूर भाचायं के अनुसार ही रखा जाता है । तन्त्रकततौ मूल परस्पर ठलना-
संहिता के उपक्रम तथा उपसंहार मे प्ररनोत्तर रूप मँ अपने तथा प्राचीन सहिताओं मे पूवं उपलब्ध चरक, मेड तथा चुश्वतसंहिता
दूसो के मर्तो फो देकर उते तन्त्र का रूप दे देते है । अन्य विशे- ओर नवीन उपलग्ब कार्यपसंहिता के स्थान, अध्याय, प्रकरण,
षतार्ओं को प्रविष्ट करके प्रतिसंस्कता मूलसंहित्ता को पिदाररूप मेँ गन्ध रचना तथा विषयों कौ परस्पर
तुरना करने पर निम्न
उपस्थित कर देते हैँ! इस प्रकार प्रतिसंस्कर्ता के रेखमें तन्त्र का समानताटं एवं विषमता
दृष्टिगोचर होती है ! इस कारपसंहिता
तथा तन्त्र मेँ संहिता का अन्तमा होता है। कै श्रकरण एवं अध्यायो का स्वयं अन्धकार ने कयस्थान के अन्तिम
जिस प्रकार उपर्ग्य चरक्‌ तथा सश्चत मेँ करमदाः अत्रेय तथा जध्याय मेंइस प्रकार वणन किया है--
धन्वन्तरि फी उक्तियां युर खत के रूप म, अ्िवेर सश्चत आदयो अष्टो स्थानानि वाच्यानि'"" “` “`` तन्त्रं सलिलमुच्यतेः
की पूरितोक्तियां रिष्य उथरूप मे, अन्य आचार्यो कौ उक्तियां ८ मूक उपोद्धात पर. ६२-६१ देख ) 1
एकीय सूत्ररूप मं तथा चरक, दृव आदि कौ उक्तियां ` ग्रतिसं- कादेयपः, चरक, मेड तथा स्न संहिता के स्थान एवं
स्वत चतर के रूप में एक्त्र(१) भित है,उसी प्रकार कार्यपसंहिता अध्यायो की तुलना निम्न प्रकार सै कौ जा सकती है-
नेमी कादयप की उक्तियां युरुसत्र के सूप मे, वृद्धनीवक की स्थन
वृद्धजीवरकोयतन््र चरक भेडतन्व सुश्रुत
उक्तियां दिष्य ख के रूप मेँ, अन्य आचार्यौ कौ उक्तियां एकीय-
खत्रस्थान अध्याय्‌ २० २० २० ४६
सत्र के रूप मँ तथा बात्स्य कौ उक्तियां प्रतिसस्तं खर के रूपमेँ निदानस्थ
ान , ८ ८ ८ १६
एकत्रित भिरुती हैँ।
विमानस्थान ८ ८ ~ >
जि प्रकार पुनर्वसु भत्रेय द्वारा सवेप्रथम उपदिष्ट संहिता को रारीरस्थान „+, द ८ ८ १०
केकर बनाये हुए अग्निवेश के तन्त्र को ही चरक द्वारा प्रतिसश्छरत इन्द्रियस्थान +,
१२ १२ १२ ५;
करके प्रकारित किया जाने से, आत्रेयसंहिता द्यी अश्चिवेश तन्त कै चिकित्सास्थान +,
२० ३० ३० ` ४०
रूप को प्राप्त करके आजकल चरक संहिताफे क्पे दृष्टिगोचर सिद्धिसधान ,,
१२ १२ ९८१२१) >€
होती है । अथवा जिस प्रकार धन्वन्तरि कै अष्टपरस्थानात्मक उपदेश कस्यस्थान > , १२ १२ < (१२ १) <
को केकर दिवोदास द्यारा अन्य प्रस्थानां के उपदेशो फे ठुप् होजाने १२० १२० १२१ १२०
भर भी केवर साद्यप्रस्थान के विषय मेँ उपदिष्ट संहिता को सुत नै खिल्माग ८०
अपने तन्त्र का रूप दिया तथा उसी का समयान्तर से संस्वार इभा,
६६
उपयुक्त चार। थन्ध। मं से चरक, मेड तथा कादयपसंहिता
५ ४& ` ५8 । | धि

जादि तीनो मे खिल स्थानको द्धोड्कर स्थान, अध्याय तथा


आजकर सुतसंहिता के रूप मे गिरती है । उसी प्रकार संहिता- ¦
अध्यायं कौ कुठ संख्या मे मी समानतान है । कादयप एवं चरक
कटपाध्याय के ठेख के अनुसार कारयपसंदहिता द्य संश्चिप्र वृद्धजीव-
कीयतन्त्र का रूप्‌ धारण करके तथा समयान्तर से वातस्य द्वारा * भेडसंहिता के सध्याय मौ अन्य स्थानो मे समान है परन्तु
सिद्धि एवं कसस्थान कै खण्डित होने पर मी चरक तथा कारयप
(१) इसकी टि० उपो० सृत ¶० ६२ का० २ देखे । ` संहिता के अनुसार कुर १२० अध्याय प्रतीत होते है । `
उपोदाते का हिन्दी अनुवादं ६५
तडिता में केवर सिद्धि एवं कलट्पस्थान कफे पृवापरकाही भेद है) "समान रोक दोनोमें श्सीरूपमे भिर्ताहै। इस
ग्रन्थ कै अवयवो का विभाजन करने पर हम कह सकते है कि प्रकार कै इलोक को देखकर प्रतीत होताहैकि एक पुवं आचार्य
कादयपसंहिता कौ चरक ओर भेडसंहिता मेँ चछया दिखाई देती है दारा उदप्रत दखोक को दूसरे अवीचीन आचाय ने अरहण किया
अथवा उपयुक्त तीनो यन्थकार्यौ नै किसी एक ही आचा्यका हो अथवा किसी एक ही पूवं आचाय का यह दलोक किन्दीं बाद
अनुसरण किया प्रतीत होता है । इन सव आचार्यौ के पश्चिमप्रदे् मेदहोने वे दोन आचार्यौने यहण क्र ल्या हौ यहम
वे निवासी होने के कारण इनक यन्थो मं समान द्ायाकादहौना संभव हे ।
उवितभीदहै ¦ इनमे से मी चरक तथा चैडसंहितामै एकदहौ २. कादयप संहिता म~~
चिकित्सा का विषय ह्यन से तथाएक्‌ ही आत्रेय के उपदैरहयौकौ जौषधं चापि दुर्युक्तं ˆ“ ( मूर उपोद्धात प. ६३ }
ग्रहण करके अभिवेश्च तथा चरक द्वारा तन्तौ कै निर्माण का उष्ेख आत्रेय संहिता मै-
मिलने सेनाम के निदद् तथा विषयो के निरूपण म विशेषरूप ओषधे ह्यनमिन्ञातं".*( मूर उपो० पृ. ६३ )
से समानता मिलती दै । चरकं तथा भेडसंहिता दोनों मेँ निदान- इसी प्रकार कादयपसंहिता के खिरस्थान के ज्वरचिकित्सा मे--
स्थान मै आठ प्रधान रोग दिये गयेदहै। चिकित्सा स्थानम भी सर्पिः पित्तं शमयति `“ ( मूर उपौ० ¶० ६३ )
- दोनो मेँ उन्हीं पूर्वोदिष्ट आठ रोगो कायै पके वणन करके फिर आअत्रेयसंहिता के उ्वरनिदान प्रथम अध्याय मे-
अगि अपनी २ बुद्धिके अनुसार बहुतसे रोगोंकी. चिकित्सा दी .स्तेहाद्‌ वातं शमयति `८ मूर उपो० षृ. ६३ )
गइ है 1 दोनो के सत्रस्थान मे अये हुए समान नाम एवं तुल्य कारयपसंहिता म~~
विषय वाके अध्यायो का उर्छेख पहले किया, दहीजा चुका है। मञ्जावसे वसन्ते `` `( मूर उपो० पृ. ६३ )
इस प्रकार आगेमी बहृुतसे स्थानौ पर समानता दिखाई देती आत्रेय ( चरक ) संहिता मे- :
है । भेद केवल इतनाही है कि मेड की रचना संक्षिप्र.साररहित तथा सर्पिः शरदि पातव्यं `“* * ( मूल उपो० ए. ६४)
साधारण है, परन्तु श्सके विपसत स्वयं आत्रेय अथवा अभिवेञ्च की इस प्रकार रचनाभेद से दोनो यर्थ मं एक ही विषय.
रचना मेँ तो प्रौढता एवं विषयगाम्भीर्यं है ही अपितु पीछे से चरक भिरुता है|
तथा दढबल द्वारा किये गये संस्करण मेँ भी" गृढ भाव एवं रहस्य- २. कादयपसंहिता के रोगाध्याये रोगके विषयमे एकस
पूणं तथा असाधारण रचना दिखाई देती है । लेकर आठ तक भेद देकर अन्त मे असंख्येयवाद दिया है । इसी
इस काश्यपसंहिता के वौमारथरत्य का मन्थ होने से इसमें प्रकार आच्नैय संहिता के खल्लस्थान २६ अध्यायमे रसके विषय
बारुकों के तथा धात्री, गर्भिणी ओर सरतिका के विषय होने से अनेक मसी एक्षे प्रारंभ करके पके आठ तक भेद देकर अन्त में
विदोष विषय, अरहरोग तथा भैषज्यप्रक्रियाओं का भेद होने पर असंख्येयवाद दिया हौनेसे दोना म समान रैली दृष्टिगोचर
मी उपरुन्ध भाग मेःस्तेहाध्याय आदि समान नाम वारे साधारण होती है। |
विषय थोडे बहुत अन्तर के साथ निम्नरूप मेँ मिरूते ईै- ४. रोगों के विषय मेँ काद्यपसंहिवा म (पृ. ४१) जौ <°
काश्यपसंहिता आत्रेय ८ चरक › संहिता वातिक, ४० पैन्तिक तथा २० ईरेष्मिक सोग दिये दै! चरकसंहिता
२२ वां स्नेहाभ्याय्‌ १३ वां स्तेहाश्याय व खत्रस्थानकेरन्वे अध्याये मीवेदह्ी रोग उतनी संख्यामें
२२ + स्वेदाध्याय १९४ ,, स्वेदाध्याय - तथा लगभग उन्ही नामों से दिये है । इस प्रकार इस विषय मेँ बहुत
२४ + उपक्ल्पनीयध्याय १५ ,, उपकस्पनीयाध्याय समानता है ।
२५ ,, वेदनाध्याय ६६ ,, चिकित्साप्राभृतीयाध्याय ५, काश्यपसंहिता के लक्षणाध्याय (१.५१) मे साच्िक राजस
२६ , चिकित्सासंपदीयाध्याय १७ ,, रियन्तःरिरलीयाध्याय तथा तामस स्वँ के जो अवान्तर मेद दिये हं, अक्रैयसंहिता कै
२७ ,, रोगाध्याय १८ ;; त्रिदरोधाध्यायः रारीरस्थान कै सातवें अध्यायमे मी केवल साच्िक मेदौ मे एक.
| १९ ,, अष्टोदरीय रोगाध्याय भेद कम है, अन्य सवभेद समानँ दोनों की केखरीटीको
२०. महारोगाध्याय देखने पर मी गम्भीर विचार एवं नये २ विषयों से युक्त प्रौढ शैखी
२१, अष्टौ निन्दितीयाध्याय दृष्टिगोचर होती है ।
आत्रेय तथा काद्यपसंहितामं कहीं २ शब्दो तथा रचनामें सुश्वतसंहिता मे तो चिरस्थान से पूवंभाग में अध्यायो की कुल
मेद हौने पर भौ विषय तथा कहीं २ केखकी रैटीमे परस्पर संख्या मेँ १२० की समानता होने पर भी विमान, इन्द्रिय तथा
समानता मिरुती है । सिद्धिस्थान नहीं है, केष पांच स्थान ही दै तथा उनम मी अध्यायो
१. कादयपसहिता के खिरूमाग म~
यथा विषं यथा श्रं यथाऽचिरश्चनिर्यथा । # इसी प्रकार निम्न रलोक मी दोनो संहिताओं के श्न्धिय- `
तथौषधमविज्ञातं विक्तातम्रतोपमम्‌ ॥ | स्थानो मषक दहीरूपमे मिलता है- [वि
आत्रेय ( चरक ) संहिता के स॒ज्लस्थान के प्रथम अध्याय म- यस्य गोमयचूर्णाभं चण मूर्धनि जायते।
यथा विषं यथा शस्त्रं यथाऽचिरडानिर्यथा 1 ` सस्नेहं अश्यते चेव मासान्तं तस्य जीवितम्‌ ॥ .
तथौषधमविज्ञातं विज्ञातमञरतोपमम्‌ ॥ ( अनुवादक ) `
९ उण ह°
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
इछक नो कनि
7 [7 7. शन्तः
7... इखि
7, ८.1
१. [५ 1.१
८1[अ 12|
(> 7.
| [4 1 [क 1.५.
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की संख्या मँ समानता नहीं है \ गसावक्रान्ति अध्वाय म बार्क इत्यादि वाक्ष्यो मे अनेक स्थानो मँ धान्वन्तरीय प्रक्रिया का
तथा धात्री आदि से संव विष्के मी होने से कणेवेधः स्तन्य. निर्दैश करनेसे आच्रेयके मीइस विषयमे ज्ञान का परिचय
मिरता है |
परीक्षा, सामुद्रिक रक्षण तथा स्भेद्‌ इत्यादि कु विष्यो मे
मेडसंहिता म भी चरकसंहिता म ॒निर्दिष्ट आत्रेय के मत -तथा
प्रायः वृदधनीवकीयोक्त विषयो से समानता दिखाई देती है । रव्य
प्रधान सुश्रत शव्य से संबन्धित विषय पूर्व॑भाग मेँ हेंतथा-- क्यप के मत का उछेख मिक्ता है-
्चाङाक्य आदि अन्य विषय उत्तरतन्र म दिये इए हैँ।खिरुभाग पिवेत्कस्याणकं सर्पिः" `" "^ ( मूल उपौ० पृ. ६४) ।
मै ६६ अध्याय है । वृद्धजीवकीयतन्त्र मँ बारकोपयोगी प्रधान इत्यादि वार्यो म धान्वन्तर ओषर्थो का उपयोग दिया है।
पिष्यो का पूवैभाग मेँ पके संक्षेप मँ निर्दश्च करके फिर. खिरूमाग तथा चिद्रोदर (१. १६८ ) ओर अशेरोग (ए. १८२ मं रखक्रिया
नेमी प्रायः वेदी कुष पूवैमागम अयि हृष धात्री आदिसे का निद है। इस प्रकार मेड द्वारा मी कङ्कप; आत्रेय तथा
संवन्धित विषय विस्तारसे विये हैँ। इसमे. चिर माग.म ८० धन्वन्तरि सम्प्रदायो का आदर किये जाने का वणन "मिलता है ।
अध्याय है । इस दृष्टि से कुद्ध समानता है तथा भिन्न विषय होने खुश्वतसंहिता के अदमसी प्रकरण (चि. अ.७) म निम्न
से, उनके विभागनिरूपणरैकी तथा रोगो के निर्देश ञादिभं रलो दारा चद्यतन्वर का आचाय खश्चुन भौ कायचिकित्सा के प्रति
विषमता दिखा देतह आदर प्रकट करता है-
हन प्राचीन आपं ग्रन्थो की. रोचना ` करने पर हम देखते घुतेः क्षारः कषायेश्च' °“ * “` * "( मू उपो० ए. ६४) ।
हेःकिं शारीर, विमान, इन्द्रिय तथा सिद्धि स्थान आदि के विषयो अष्टप्रस्थांनाचायं धन्वन्तरि कै प्रस्थानान्तर (अन्य विषय संबन्धी)
को अन्य श्थानो मै देकर सुश्च में कहीं २ उस स्थानः कै पृथक्‌ दिया निबन्धो म कौमारसरत्य आदि यिङ्ेषं विषर्यो का विक्ेषरूप मे
होने पर भी अन्य भरन्थौ के समान यहां सी अष्टस्थानीय विष्यो सम्भवतः निर्देश हो । इस रदस्यसंबन्धी निवन्ध ( सुश्तसंहिता )
के होते ते अवान्तर अध्यायो मे कीं २ विषमता होने पर भी वहत वे जी पूर्वमाग मँ शारीर स्थान मेँ गभिणी के प्रकरण में (ए. ३०२)
से स्थानो मै समानता मी है। अध्यार्योँकी कुर संख्या मेँ सवत्र प्रसङ्गवदय कौोमारभृ्यसंबन्धी विष्यो का मी संक्षेप मे निदे किया
समानता है ।प्रतिपा विषयो मँ भी अपने २ य्नन्थ वै प्रधान विषर्यो गया है ! यदहं पर अन्य आचार्यो के नामनिर्देशके विना दहीजी
के मिलने पर म्म साधारण विषय सबमें मिरूते हँ । उन २अध्यायोँ इस प्रकार के कौमार्य विषय का वर्णन किया है, वह क्यप के
म उन २ विषयो के निरूपण की समानता तथा न्यूनाधिक सू्पमें मत को देखकर छिखा गया है अथवा स्वयं उसका ही मत है यह
बहुत से अध्यार्यो के नामो मे भी समानता भिरूती है! इससे तो नहीं कहा जा सकता परन्तु इतना अवद्य कहा जा सकता हे
इन सवका किसी एक ही प्राचीन सम्प्रदाय का अनुसरण किया करि वौमारशरत्यके विषय मँ भी उसका प्रवेश अवद्यथा। ये
जाना अथवा समकारु मेँ प्रचलित एक लेखद्येली प्रतीत होती हे । सयं एक २ विषयं के आचार्य होते हुए अन्य विष्यो मेँ उन २
क्यप्‌, अत्रेय तथा धन्वन्तरि के सम्प्रदाय भिन्न हौने पर आचार्याका सन्मानं करते थे! आजककर भी भिन्न २ अं्गोकी
मी इनमें परस्पर परिचय एवं आदर था । काश्यपसंहिता मेँ नाम- चिकित्सा मै विरेष निपुण (००5 ) पाश्चाच्य चिकित्सक
निर्दशपू्वैक आत्रेय पुनवंखु का मत दिया हुमा है । द्विणीयाध्याय अन्य अंगो की चिकित्सा उस र अंगके रोगोँके विदषक्ञो का
( ¶. १२३ ) मे ल्ल्पत्रिया को लच्य करके कहा है-~ आदर करते है । कायचिकित्सको ( 20 %90808 ) को राखचि-
परतन्त्रस्य समय`" "““( मूर उपो० १. ६४) । | कित्सकौ ( 88608 ) की तथा शखचिकित्सर्को कौ कायचि-
इस प्रकार दास्य विद्या की उपादेयता का निदेश करके अच्यन्त किसको की उस २ विषय मे अपेक्षा होती है । तथा यंह उचित भी
छ्तेटे वारको के रण के उपक्रम के बिषय में कहा- है कि~~ , हे । किन्तु आत्रेय, मेड आदिने करयप तथा भत्रेय आदि को
ततेषासुपकरमे' ` “ "संशमनं बन्धनमुक्िन्नरक्तारनं, कल्क मपूवक निर्दर कियादहै, किन्तु सुश्चतने कायचिकित्सकों के
ग्रणिधानं, शोधनं, रोपणं, सवर्णीकरणमिव्येतेः' “ * इामयेत्‌, नाम नहींदिये है अपि तु केवल उनके विषयो का ही निरदश
सरावणपाटनदृहनसीवनेषणसाहसादीन्यतिबारेषु न कुर्यात्‌? कियादहै। कदयप द्वारा आत्रेय के नामका निदर दने परमभी
रोगाध्याय मं त्रणकते बन्धन, रोपण आदि के निम्न प्रयौग दिष्योपक्रमणीय अध्याय मेँ “धन्वन्तरये स्वाहा? दारा देवता रूप
देकर उचित शद्यक्रिया का मी निर्देश किया है-~ | म धन्वन्तरि के नाम के निर्देश के अतिरिक्त अन्यत्र कीं मो उप-
वेसपंणं चात्र वदन्ति सिद्ध `.“ ˆ“ ( मूर उपो० पर. ६४) । रन्ध अन्ध मे आचाय रूप मेँ धन्वन्तरि केनाम का उल्लेख नहीं
अदमरी के प्रकरणम निम्न रलोको मे अदमरीके उद्धरण का किया है, अपितु केवल शद्यसम्प्रदाय का दही उल्लेख .किया है ।
निरदैश्च करके अघ्यन्त चोट वारको मँ इसका निषेध किया गया है-- वृह सम्प्रदाय धन्वन्तरि, दिवोदास अथवा अन्य किंपसी प्राचीन
स्ल्यवत्यश्मरी बस्तौ ``-“*( मूर उपो०. एर. ६४ )। आचार्य का है, यह नदी कहा जा सकता है । वेदो मं मी रस्यवि्या
इस प्रकार कश्यप द्वारा श्स्यक्रिया का . आदरपूवैक परिचय कै मिलने से यह कहाजा सक्ताहेकि वेदिककाल सेदही धारा-
एवं उसके प्रयोग तथा अप्रयोग का वणेन भिर्ता है। आत्रेयसंहिता | प्रवाह रूप मै आने वाटी यहे .चछस्यवि्या आत्रेय; कदयप. आदि से
मसौ केरयप का मत तथा घान्वन्त्र शत्‌ आदि कां उपयोग पूवं मौ त्रिघमान एवं आदृत थी । अत्रय पुनवेसु ने भी केवल
मिल्ताहै। ` `. धन्वन्तरि का हयै उल्लेखं किया है, दिवोदास तथा सश्चत.का नहीं ।
दाहि धान्वन्तरीयाणामत्रापि भिषजां मतम्‌ । (च. चि, अ. ५). यह नहीं कदा जां संकतां हैकि धान्न्तरीय छब्द से सुत आदि का
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ६७

अभिध्राय है अथवा धान्वन्तर श॒द्य सम्प्रदाय के अन्य प्राचीन है,ईस अन्ध के भिक्ने से जीवक अवदय हमारे सामने पुनः आ
आचार्यौ का महण किया जाता है। उस ठकेख से केवर रास्यसम्भ- जाता है-
दाय के पूव आचार्यौ काहयीज्ञानदोता है, कोमारश्वत्यास्त्वपरे जङ्गमस्थावराश्रयात्‌ |
इस प्रन्थ का विषय- ` द्वियोनि चुवते धूपं कश्यपस्य मते स्थिताः ॥ (क.स्था.धू.क.)
कारयपसंहिता के उपयुक्त उच्छेख सते प्रतीत होता है किं
इस ग्रन्थ का पिषय कौमारभृष्य है। इसका प्रयोजन सुश्चतने
कौमार्य के विषय मेँ अन्य मी प्राचीन आचार्थ॑हुए है । क्यप
नकौमारण्वत्यं नाम कमारभरणः**“ (मू. उपो. प. ६५) । ( स. , के अन्य मी अनुयायी थे तथा कौमारथत्य फे विषय में करदयप
अ.१) बतलाया है। अर्थात्‌ बाकर के पाङनपोषण, धात्री के क्षीरदोष प्रधान आचाय था, यह मीज्ञात होता है।
( दूषितदूध ) फे संशोधन तथा दूषितं दूष एवं ग्रहौ से उत्पन्न हौने कौमार्य के विषय मेँ, श्चारीरिकप्रक्रेति के विपरीत हौ जाने
वे सेगौँ की रान्ति के ल्यि कौोमारश्रय का प्रयौजन है । शश्वत ने से; स्कन्दरेवती आदि वार्यो कौ पिकरेति से तथा स्तन्य आदि
अपने अन्धके इास्यप्रधान होने से तर स्थान(१) के अनुसार -कै दूषित होने से उत्पन्न होने वारे वल्को के. रोगों का उर्लेख
उन्तरतन्तर मँ २७ से ३८ तक फे १२ अध्यायो मँ कौमार्य विषय करके नाना ओषधियां, बार्यहभ्रतिकार तथा अन्य सी इससे
का वर्णन कियादहै। किन्तु वहां पर विदेष रूप से यह, स्कन्द, संबन्ित विषय दिये होते हैँ। कायचिकित्सा तथा भूतविबा के
पूतना आदि कै प्रतिषेष तथा उनके ल्ि कु उपयोगी ओंषधिय। वारुमैषञ्यसंबन्धी तथा गमं, धात्री एवं सतिकासंबन्धी विषर्यो
काही उच्छेख किया है। इस प्रकार इसमे बहुत से ज्ञातव्य कौ परधानरूप से छेकए तथा उसे ही वदाकर पथक्‌ प्रस्थानकेरूप
रिषर्यो का उल्लेख न होने से स्वत का कोमारथ्स्य पूणेन होकर मे इस कोमारथरत्य का उदय हदोताहै। इसप्रकार इसत कौमार |
आशिक रूपमेद्ी प्रतीत होता है। चरकाचायं ने अपने गन्धम गत्य मेँ चिकित्सा के समान भूतविच( के विषयो कामौ प्रवेश है,
मुख्य रूप से कायचिकित्सा क ही विषय होने के कारण आयुर्वेद भेषञ्य विद्या के समान मूतग्रहादि प्रतिषेष विया वैदिक अवस्था
कै आढ अङ्गम से कौमारभृव्य का केवर नाम मात्र ही उल्लेखं | मेँ भी थी । दयान्दोग्य उपनिषद्‌ के पप्तन अध्याय म “न्लत्रविद्यां
किया हे । भूतविधां सपेजनविधाम्‌ः इरा प्राचीन षिवार्भौ मे भूतविचा
इस कारयपसंहिता मे तो बारफो की उत्पत्ति, रोग, निदान, काभीनिर्देद किया गया है । अथववेद मेँ मी यहु विद्या तथा श्सके
चिकित्सा, यह आदि का प्रतिषेध तथा उससे संबन्धित अन्तवेत्नी उपयोगी मन्त्रे वहत से मिते हँ, इसका पहुके मौ उल्लेख किया
( गर्भिणी ) तथा दुष्प्रजाता तथा धात्री आदि कै दोषौ के निहरण के जा चुका है। इसी ख्यि इते अथवेगवि्या मी कदा जाता है।
उपयोगी मिषयो तथा उसके साथ ही चारीर, इन्द्रिय तथा विमान इतिहास की दृष्टिसे मी यह भूतविद्या प्राचीन कारम सवत्र
स्थान आदि मँ अने वाले विषयों को सुंख्यरूप से देकर बीच मिलने से अपनी सत्ता कौ अत्यन्त प्राचीन कालीन सिद्ध करती दै ।
मँ प्रासङ्गिक एवं पिषयान्तसौ से उतस्तकौ पूति की है। इस प्रकार कौमारमस्य के विषय मै आजकरु क्रियाकालयुणोन्तरतन्तर
अन्धके आदि से अन्त तक मिर्ने वे इस कौमारमभृत्य विषय के मर्ता है ! उसमे बाख्फो के रोगौ को उत्पन्न करने वजे ग्रह
उपलब्ध माग की तरह खण्डित भागम मी मिलने की संमावनां उस २ दिन, मास तथावषंके येद से पीडा परहुंचाने वे विदोष
होने ते इस अन्धका विषय सर्वाङ्गसम्पन्न कौमारयृत्य प्रतीत बाङ्यह तथा उनके निवारक मन्त्रप्रयोग, कस्य; कुद ओषधियां
होता है। तथा यष्टी बात अन्धमें स्थान र पर अये हए बार तथा धातु आदिय का वणेन किया गया है । इसमे शुनी, रेषती;
संबन्धी प्रदनोत्तरो, 'कोमारश्वत्यमष्टानां तन्त्राणामाद्युच्यते पूतना आदि के अतिरिक्त अन्य मी सैकडौ बालयरह दिये है
(प. ६१) कौमारश्रत्यमतिवर्धनमेतदुक्तम्‌? (षृ. ५२ ), इत्यादि मन्त मेमी पौराणिक च्छया भिल्ती है तथा विधानमाला से
गरन्थान्तर्मत वाक्यो तथा कहीं २ पुष्पिकावावर्यो मँ आये हुए कौमा- उद्धत कन्द तथा माकण्डेय पुराण कै वाक्य दिये हृए ह । आज.
रभ्रस्ये, ८ १.९२, -१४५ सं. क. ) इयादि पदँ से भी प्रकट होती है । कर बालतन्त्र के विषय मे बारुच्निकित्सासत कल्याणवर्मां कतं
प्राचीन नावनीतक नामक मन्थ के कौमारश्रत्य विषयक चौदह- बारतन्त्र तथा योगसुधानिधि आदि अवाँचीन अन्ध भी मिलते हैं ।
हँ अध्याय मै करयप तथा ` जीवक के नामोल्छेख सहित नाना इनमें भी वर्ष, मसि तथा दिनके भेदसे विभिन्न बाख्य्रह दिय
ओषध प्रयोगो के मिलते से तथा अष्टङ्गहृदय के उन्तरतन्त्र मेँ कौमा- हए है । इस प्रकार इन ग्रन्थो मेँ तथा क्रियाकालयुणोत्तर तन्मे
रमस्य विषयक तीन अध्यायो मे कदयपके नामसे दिये इए दन्त- समान दाया मिलती है । इस कादयपसंहिता मे तो यह पूतना
सेग भैषज्य तथा यहहर द ओाङ्गधूप तथा कादयपसंहिता के अनुरूप आदि थोडे हयी यह दिये दहै तथाव, मास णवं दिनके भेदसे
स्तन्यदोष परीक्षा आदि के मिल्नेसेये दोनो लेखक भौ कौमारः पिभिन्न ग्रहो नदीं दिये, स्कन्द रेवती तथा पूतना भार्दि
भृत्ये विषय मँ इसे प्रामाणिक मानते दँ । सुश्वुतसंहिता कै प्राचीन नामो से ही इनका उर्लेख किया गया है । इसमे मन्न
. कौमारभृलय प्रकरण मे धे च विस्तरतो दृष्टाः कुमाराबाधहेतुभिः? म मी प्रायः वैदिक च्या मिरुती है । कहीं २ ( मातङ्कौविचया के
दवारा सामान्य निदेश होने पर . मी उसकी व्याख्या मे इल्लन द्वारा
'पाव॑तकजीवकबन्धकगप्रश्तिमिः, मे उदिखित कौमारश्रत्यके # वारुचिकित्सारत नाम -कौ ताडपत्र प्र॒ क्चित जीणै- |
तीन आचार्यो मेसेदो कातो केवर नामदही शेषबचा हज प्राय पुस्तक नेपाल के राजकीय पुस्तकालय म है जिसमे अपने
तथा दूरौ के बनाये हृष पो मे बारूरोगो की जीषभि्यो का संग्रह
(१) इसकी टि उपो संसृत १० ६५ देख । किया गया है । [व
उपौद्धाव छा हिन्दी अमुवदं
१, 0)

+ क 1 क. ॥
1 का. क, काक. | छन्द (3 १,
५)[9 ॥ (५ न
3 [2 ऋः,
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1प[* १5
१ ऋ. श,
1५१ ऋनि न त) क, क (न
१, शः - ।(क
†, ।1. वि

प्रकरण (पृ. २०० मे ) प्राकृतिक शम्द से युक्तमन्व मिरते ह तथा की प्रक्रियाओं सै इसमे कोड कमी दिखाई नदीं देती । वारको के
सेषज्य विषय मौ भिन्न ही हे । इस प्रकार इन दोर्नोमे विभिन्न स्वेदन के विषय मँ मामिक प्रक्रिया का वणेन मिरुता है ।
प्रक्रिया दिखाई देती है। दोनों मर्थो केविषयो की तुरना कने लक्षणाध्याय ध.५७) मैसामुद्विक रक्षणो का विशेष वणन किया है
पर क्रियाकाल्यणोत्तर तन्न म विकसित अवस्था दिखाई देती परन्तु वे अन्त मे खण्डित दै। लक्षण्रकाशनोद्धृत पाराश्चरसंहिता
हैतथा काश्यपसंहिता मेँ उसकी अपेक्षा अत्यन्त प्राचीन सम्प्रदाय मे मी इसी प्रकार के प्रौढ सास॒द्विक लक्षण दिये । इस यन्थके
का आश्र भिरता है । पुश्ठत मेँ दिये हुढ वारु मं मौ विकसित खण्डित रा कै विषय कौ भी वीं से देखना चाहिये 1
अवस्था नदीं मिरूती हे ! रोगो मै अन्य उपु्रवौ फे उत्पन्नदयो जाने पर पूवं रोगया
रावणकरत), बारकरुमारतन्र, कुमासतन्तर अथवा दशय्ीववार- उपद्रव की पृथक्‌ २ चिपित्सा के सिद्धान्तं कोन मानकर दोनो की
तन्त्र नाम एक प्राचीन वारतन््र मिकरता है! रेता मी खना साथ २ चिकित्सा कै विषय मै अपनी सम्मतिदी है (प. ३९) ।
जातादहैकि इस तन््र का छटो-सातवीं रतब्दीमे चीनीमषा प्रसव के विम्ब होने मे ((शकृ€त तलप ) अन्य
से किया गया सनाद मी है \ इस अन्ध के विषय मँ ग्िच्छियो- आचार्यौ के व्यायाम्‌ तथा सुस्तल आदिक द्वारा आघात करने कै
थीक नेक्नरु पेरिस नामक पुस्तक मे विदेष विवरण दिया हज | पक्ष का युक्तिपूकै खण्डन किया गयां है ( प. ८५ ) 1
है । उस प्राचीन कारु मे तथा इतनी दूर अनुबाद के होने से अन्ध अत्यन्त द्ोटे बालको मे अमरी के उद्धरण तथा तीक ओषः
को इसते भी प्राचीन होना चािये ¦ इस्त म्रन्थमे मी वष, मास धियौ कै प्रयोग का विष रूप से निषेध करिया गया है (धृ. १२२) ।
तथा दिनके भेद के अवुसार यह पूतना आदि के भेदका बाल्वों मेँ वस्तिकमं के अच्छी प्रकार प्रयुक्त पिये जने पर
उल्लेख होने से इस विकसित अवस्था को मौ अर्वाचीन नदीं कहा वैय वाल्क तथा उप्तफे पिताादि सबके स्थि व्ह भ्ेयस्कर दै
जा सकता, तत्र अविकसितत अवस्था को तो इससे भो अक्दय प्राचीन | तथा ठीक प्रकार से प्रयुक्त नकी जाने पर अनं करती है, इस्‌
होना चाहिये । _ | लिथि वारको मेँ किस्त समयसे लेकर बवरितिकमे करना चाये;
बालग्रह रूप से स्वन्द का उर्लेख तथा उसको आराधना विधि ` इस विषय मँ अनेक आचार्यौ तथा अपने मत कौ दैकर विष
इस संहिता मे मिलती है। स्वन्द की उपासना प्रणारी प्राचीन | विचार किया गया है (ध. १४७ )
है 1छान्दोग्य(८) उपनिषद्‌, गौता,(२) तथा महामारत(३) मे मी वालको के पफक्करोगमें तीन पहियोके स्थके निमाणका
स्कन्द का उव्छेख भिरूता है 1 महामारत कै वनपव मँ सियो ` उक्लेख मिल्ताहे ध. १४१) । |
के गभेनाराके तथा वारको के रक्षकर स्पे खन्द का उदरेख एकनाभिकयोः कस्मात्‌ तुल्यं मरणजीवितम्‌ ।
है । स्कन्द आदिर्यो का बार्यहके स्परम महामारत तथा सुश्च रोगारोभ्यं सुखं दुःखं न ठं वृिः समानजा ॥ ध. १९४ )
मँ प्रायः समाचरूप से वर्णन किया गया है! पारस्कर गृद्यसत् ` इत्यादि वाक्यो दारा यमरु ( जुड्ां बालक ) कै
मनै भी नवजात बाख्क के विनाश्च के हैतुरूप मं स्कन्द का उस्लेख विषय में विचित्र प्ररन तथा युक्तिपूवेक उत्तर द्विया है विषमञ्वर
फिया गया है। हसका श्रौयुत मन्यथ(४) नाथ सुखोपाध्याय ने. कै निदश्च मँ वृत्तीयक, चातुयिक आदि ज्वरौ कै उस र द्विन होने के
विरेषरूप से व्ण॑न किया है । किया है (पृ. २२९ )।
~ ~ वारे~ अनेक नवीन .। कारणो का| वणेन
= मे स्थान २ पर मिलने | |
दस कादयप सहिता अन्य सव आचार्यो द्वारा वारको के दे मास्त मे अक्नप्ाक्न
विषय, विचार, सुन्दर निरूपण शैली तथा विज्ञेष दृष्टिकोण स्स का विधान देते पर सी इस्त संहिता कै आचार्य
ने उस संस्कार का
निबन्ध के विषय मे प्राचीन ऋषियों के विचारों की उच्चताको निदे करके छठे मास मेँ केवल
फरल के सेवन तथा १२ मास्त कै
प्रकट करते है ¦ | | बाद अन्न चाहने पर थोडा अन्ने देने का विधान दिया होने
उदाहरण के सियि- ~ | सै, क्षीण अभित वाके अत्यन्त च्छेदे बालक को मृदु पाकवाङ़े फलो
दन्तजन्माध्याय ध. ११)मं दातो के भेद, उनके सम्पत्‌ एवं अस- के रस तथा एक्‌ वषके बाद अन्न का उपयोग लिखा है! आधुनिक
म्पत्‌(गुण भौर दोप), बालक तथा बालिकां केदतो मेँमेद इत्यादि पाश्वास्य विद्वान्‌ मी दसी प्रकार अत्यन्त दछोटे बाठकों कौ फलो क्षा
दांतों के विषय मँ अनेक नद बात मिरती है जो अन्यत्र उपलब्ध उपयोग कराते हँ तथा १२ मास्त के बादहयीषे अन्न के उपयोग कै
नदीं होती हं! | | पक्षमेदहँ(खि.स्था.अ.१६३)। _
स्वेदाध्याय २६) मे स्वेद के विषय मे अनेक ज्ञातम्य विषयौ वेदनाध्याय में वणी कै द्वारा अपनी वेदनाको प्रकट करनेमे
का निरूपण किया हे ।आधुनिक वाष्पसवेद (७९०५ 8) जादि ` असमथ बाकको की भित्र २ वेशं के द्वारा अ्ुकं २ रोग
# इस वारुतन्त्र मे नन्दा, सुनन्दा, पूतना, ुखमण्डिका कट- तथा असु २ अङ्गा की वेदनां के `मानुमानिक ज्ञान का वर्मन
पूतना, शकुनिका, शुष्करेवती, भयेका, खततिका, निक्र॑तिका, पिरि. मिरुताहै (१.३३) `. ` | |
पिच््छ्कि तथा काका श्न १२ माद्काभो का निर्देश है। अन्थ- जाप्ततश्चोपद ेशेन प्रव्यक्करणेन च ।
हेख निम्न प्रकार से ै-- ` _ , ` ~ ' अनुमानेन च भ्य ाधी
सम्यग्‌विच्याष्ध
न्‌ िचत्तणः॥
` प्रथमे विसे मासे वषवा"(मूर उपोद्धात १.६६देते )1| चरकसंदिता विमान स्थान के चतुथं अध्याय कै उपयुक्त श्डोक
दारा निदानः पूव॑रूप तथा रूप ( रक्षण ) आदिरयौ की जानने के
(२१) -४कौ दि उपो० संखत १० ९६० २ दे रिये प्रत्यक्ष आदि उपाय दिये ह । सुश्ुतने मी दश्च॑न, सपरन,
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ६९

प्ररन आदि उपायौ का उच्छेख किया है। इस प्रकार प्राचीन चिकित्सा विज्ञान मं पिन्त+ कफः रक्त तथा जरु आदिचारौ कोजौ
सम्प्रदाय मै द्येन, स्पद्च॑न तथा प्ररेन आदियो के द्वारा निदान दोपकेरूपमेंदिया दहै, वहु भी उसका हृदय भारतीय प्राचीन
आदि पञ्चरूपा की विवेचना करके रोगज्ञान का निद कियाहै।. तरिदोषपद्धति से अनुरक्त होने के कारण सुश्रुत कै विचारो की
नाडीविज्ञान का उद्टे चरक, सश्चत आदि प्राचीन अन्था तथा इस विकसित अवस्था प्रतीत होती हे ।
कारयपसंहितामें मी नहीं मिलता दहै । नाडीपरीक्षा का उस्लेख प्राचीन विज्ञान मे अभ्भि(१) तथा सौम अथवा उ.ण८२) ओर
अर्वाचीन ग्रन्थौ मेँ ही मिलने से यह विषय पीछे से प्रचङ्िति हुआ रखीतये दो मौलिक तख मनि गये है जो कि स्पष्टरूप से सव
प्रतीत होता है । नाडोविज्ञान के मारतते चीन मेँ जनिके कारण पदार्थ में ओतप्रोत हं । जिससे वेदिक यज्ञप्रक्रियामें प्रारम्भसेद्यी
यह विज्ञान भारतीय हयी प्रतीत होता है ) यह विज्ञान भारत मही अञि तथा सोम कौ उपासना की परिपाटी चरखी आ रही है
आविभूंत हुआ है अथवा किसी दूसरे देश से यहां आकर प्रचङ्ति चारीरिक परिस्थिति मी शीत तथा उष्णकै प्रतिनिधि सोम तथा
हुआ है, यह विषयान्तर होने से इसके विषय मे हम अधिक विचार अभिरूप श्चुक्र तथा रोणित कौ चरर की उत्पत्तिका कारण माना
है दसील्यि सश्चत मँ गभं को अश्मीषोमीयः कहा है। प्राचीन
नहीं करेगे 1 अस्तु, प्राचीन म्र्न्थो र्मे इस विषय के न भिल्नेसे
इसे प्राचीन कहना कठिन हे । अत्यन्त छोटे बाख्को म अपने कष्ट आयुवेँदाचार्यौ ने वात के यौगवाहौ होने से पित्त अथवा कफ कै
को दूससौ को यथावत्‌ सम्चाने के च्य वाक्‌्क्ति के उदय न साथ मिरु जाने पर्‌ मी अथं तथा क्रिया की विकसित इष्टके कारण
होने से उसकी भिन्न २ कचेष्टओं से रोगौ को प्रहवानने की प्रक्रिया स्व; रज तथा तम्र की तरह अभ्ि+वायु तथा सोमरूप वात; पिन्त, कफ
इस कादयपसंहिता के वेदनाध्याय (षृ. ३३) मे तथा अन्यत्र भीं तीनों धातु देह की धारक तथा विक्त होने पर दोषरूप होकर रोगों
स्थान २ पर मिलती है। | के कारणकेसरूपमे मानी है, इसी सिद्धान्त के अनुसार स्थापित
सतम विचार शक्ति से विवृत्त इष्टिकोण वारे प्राचीन आचाय त्रिदोष-पद्धति को दी क्यप आत्रेय तथा मेड आदि प्राचीन
आचार्यौ ने ग्रहणकियाथा | ज्यों २ क्रमन्चः विचा मेँ प्रगति
जिस २ विषय मेँ भी प्रढृत्त होते हँ उस २ विषय के अन्तस्तर तक
परवेद करके यथावत्‌ ज्ञान कराते ह) कौमारथ्रत्य के विषय में आती है त्यौ २ नये र सिद्धान्त उदित होते जाते दै। दसीटिथि
मवृत्त इद आचार्यं करयप ने अन्य आचार्यौ दारा सवंसाधारण सुश्चुत ने पहर वात, पिन्त, कफ इन तीन दोषो कौ ही प्रधानरूप
विषयो की तरह वाल्क ( विरशेषकर अत्यन्त द्धे बालका) के से रोगों का कारण बतलाकर भी पुनः विक्त रक्त के द्वारा भी बहुत
सम्बन्ध मै अनेक उपयोगी विषयो का संकेत किया है 1 से अनर्थौ ( रोगो ) को देखकर तीनों दोषो के समान चतुर्थं रक्त
कौ मीप्रधान कारण स्वीकार कियाद! हिपोक्रिरस् के -चिकित्सा
वात्‌, पित्त कफ़ आदि तीनो दोषौ का निदेश वैदिक सादित्य में विधान मेँ मी पित्त, कफ, रक्तं तथा जल इन चारौ को जो दोष-
भी भिता है । भ्वेद मेँ शत्रिधातु क्म वहतं शभस्पतिः द्वारा
रूप मँ माना है, बह मौ उसका हृदय मारतीय प्रचीन चिदोष-
चिधातु चान्द का उल्टेख किया है। इस साब्द कै सायन ने वातः पद्धति से अनुरक्त होने के कारण खुश्त के विचारो की विकसित
पित्त, कफ रूप व्रिदोपपरक व्याख्या दी है। ब्रूमफौच्ड नामक अवस्था प्रतीत होती है, इस प्रकारये विकसित इए विचार
विद्वान्‌ ने भी उसी व्याख्या कौ स्वीकार किया है । जीमर्‌ आदि कालक्रम से प्राचीन पद्धति के ही परिष्कृत रूप प्रतीत होति दें। `
ऊ विद्वान ने इसका दूसरा ही अथं किया है । किन्तु पौ. सी
राय८१) महोदय लिखते है कि अथववेद मे आये हुए वातयुस्म तथा | कादयपसंहिता के कल्पस्थान (१. १७४ } मे अद्‌भुत एवं विस्तरत
वातीकरताः इत्यादि पदो में दू्तरे अथे की सङ्गतिन होने प्ते तथालशुन कृटप का प्रयोग दिया हुमा हे । चीन देद्य कै काप्तगर नामक
सर्वत्र एक ही रूप कै जौचित्य के कारण यह रष्ट्‌ त्रिदोपपरक दही स्थान मे बावर नामक पाश्चात्य अन्वेषक को भूगभं से बौद्ध स्तूप
होना चाहिये । इसका दूसरा अथं करना सङ्गत नदीं हं । यहं के साथ सात मन्थ उपलब्ध हए हैँ जिनमे से तीन अन्थ वैधक कै
तरिदोषप्डति भन्धो मँ मी आत्रेय; कंदयप तथा सुश्रुत आदि से लेकर ह। इनमे से प्रथम नावनीतक है। दूसरे मन्ध में विस्तारपूवैक लश्युन
आन तक धारपरवाह रूप से चली आ रही है। स॒श्चतसंहिता मे के गुण दिये हं तथा तीसरा एक ७२ एषठ का मन्थ है जिसमे अनेक
अनेक स्थानौ पर वात, पिन्त कफ आदि तीनों. दोषौ अथवा धातुओं | ओषधि्यो के योग दिये हुए दै । यह पके कहा जा चुका
को देदसंमव तथा रोगोत्यत्ति मै कारण माना गयाहै । सश्चत मे इनकी लिपि के प्राचीन होने से नका निर्माण कारु ओर प्राचीन
कहीं २ तरिदोब(२) कै साथ रक्त को भी चतुधं कारण माना है। प्राचीन होना चादिये । सद्धित नावनोतक मेँ भी प्रारम्भसे ही चिस्तारपूरवैक
महावज्र के प्राचीन वौदध वै्यक्‌ मन्थ तथा बावर इरा उपर्न्ध काञ्िराज द्वारा सुश्वत को ल्ड्युन के विधान का उपदेश दिया गया
नावनीतक आदि मन्थी मे मपे तरिदोषपद्धत्तिका ही अवरम्बन किया है । उसमे रश्युन फी उत्पत्ति तथा कुद प्रयोगो मे भेद होने पर
प्रतीत द्योता है । महावग्ग तथा विनयपिर्क मे जीवक की चिकित्सा- भी बहुत अदो में कादयपीय ल्श्युन क्स्प की च्या मिख्ती है ।
पद्धति मैस यही चरिदोषप्रक्निया मिल्ती है । कास्यायन के माषा की रचना को देखने पर मी नावनीतक की अपेक्षा कादयप कै
वातिके मी वात, पित्त तथा कफ का व्यवहार दिखाई देता हे) | ठे मेँ प्राचीनता ज्ल्कतौ है । चरकसंहिता मे मी र्ह्यन का
४६० वषं ईस्वी पूवं प्राचीन दिपोक्रिटस नामक पाश्चात्य चिकित्सक प्रयोग दिया है । शस ध्रकार प्राचीनकार के चिकित्सायन्थो ममी.
के जन्म से पहर भी मारत म चिदोषपद्धति विमान थी । उसके मिर्नैवछे ल्ह्युन के उपयोग को देखकर अवाचीनता की शंका

{ १) १-२ कौं टि० उपौ० संस्कृत पण ६७ का० १-२ देखं ( १) १-२ की टि० उपो० संसृत १० ६७ का० २ देस ।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवद्‌
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उद्पन्न नहँ होनी चाहिये । युन के गुर्णो कौ अधिकता कै साभ्राञ्य मे प्रतिष्टित बरख नामक प्रदेरथा। उस इरानजाति की
रसेन ऊनम्‌ (केव एक रस कौ कमी ) इस व्युत्पत्ति के अनुसार उन्नति के समय उस जाति के वेध तथा उनकी ओषधियो का भारत
इते श्सोनः कदते है ! चिकित्सा मेँ यह विष उपयोगौ है। कै प्रचीन अन्धौ मे मिना संगत ही है |
धाभिकि दृष्टि से यचपि स्दृतिप्रन्थो मेँ इसे ब्रह्मर्णो (द्विजो ) के छियि भविप्रकारेम पारसीक यवानी ( खुरास्तानी अजवायन) कै
अवद्य गहत माना हैकिन्तु चिचित्साके ्र्न्थोमं इसकी बहुत उर्केख द्वारा अन्य देशौ कौ वस्तु्भो के भिरे पर भौ चरक,
महिमा बतलाईं है । {इस काद्यपसंहिता के: कट्पाध्याय मँ महि सश्ुत तथा काश्यप संहिता भादि प्राचीनो म इसका उल्लेख
करयप ने अभृत के उदगार्‌ (डकार) से इसकी उल्यत्ति को बतराकर नहीं मिलता हे । किन्तु केवर यवानी शब्द काही निर्देश है,
देवर स्थान दोष से दुगंनिित होने के कारप्र धर्मशाख की मर्यादा के यवानी सब्द न तो यवन शब्द्सेदही बनाहै ओर न यह यवन्‌
अनुसार द्विजौ द्याया स्ष्टूप से अग्राह्य होने प्रर भी लोकोपकार के संपन्ध कौ प्रकट करता है। ¶न्द्रवरुणभवशष्वरदमडहिमारण्य-
की दृष्टि से इसी युणमहिमा तथा कल्प का वणेन क्रिया है! यवेयवनमातुराचार्याणामानु्ः (पा. ख. ४-१-४९) इसत दमे
जांतिथिक्ेप दारा निषिद्ध सुरा आदि तथा सत्रे लियि अभक्ष्य पाणिनिने यव ब्द से यवानी शब्द बनाया है। वातिककार
स्तिमास तथा गदे के मूत्र आदिकेभीगुर्णोको दृष्टम रखते. कात्यायन ने यवाद्दोषे दारा दष्ट ८ कुस्सिति ) यव के अथं में
हए आषरन्धौ मं मौ भिन्न २ रोगो मं इनका उर्केख किया गया सखीलिङ्ग मँ यवानी शब्द बनाया है। इस प्रकार यह प्राचीन यवानी
हे गुणो के वणैन मत्र से हम यह कमी नहीं कहं सकते कि वे रब्द भी मारतीय ही हे । इसप्ते अन्य शंकाएं नदीं होनी चाहिये ।
उपदेशक विरुकर षयमावना से सूल्य थे ¦ तथा इसका यह मी
कमी अभिप्राय नदीं हैकि ध्मपरायण व्यक्तियों कौ मी इसका इस मन्थ मे आये हृए देशो का वणेन
सेवन अवदय करना चाहिये, क्योकि कहा भी है- |
इस पुस्तक के उपलब्ध अन्तिम पृष्ठ पर आये हट देरसात्म्या-
न श्ाखमस्तीत्येतावत्‌ प्रयोगे कारणं मवेत्‌ 1 ध्याय (खिलस्था.)मं देश्च विदेष के अनुप्तार सेग विशेषौ का वर्णन
रसवीर्यविपाका हि श्वमांसस्यापि वेके ॥ करने कै स्यि उस समय इस विद्या (आयुर्वेद ) की उन्नति कौ दृष्टि
( वास्स्यायनीये कामदन्ने प्तां० अ० अ० २) से प्रसिद्ध कुरक्े्र को मध्य {( (णः) मानकर उसी के
( अर्थात्‌ केर साख मेँ वणितहोने मे ही किसी वसतु का अनुसार पूवंआदि दिशाओं के देच का उक्छेख भिता है । यदि
उपयोग करना आवश्यक नदीं हैद्योकि वधक मे तो कत्त के मसि यह अध्याय सम्पूणं रूप मेँमिरता तो उस्त समय के अन्य मी बहुत
के मी रस, वीय, विपाक आदि गुणौ का वर्णन भिर्ता है) य्चपि से दरयो का परिचय मिल सकता था । परन्तु इस अध्याय के यदीं
दयेनयाग दसा की इष्टि ते अनुपादेय हैइस दोष को स्वीकार करके बीच मँ खण्डितृरूप मे ही समाप्त हौ जाने से भूते व्यक्तिके मुंह से
मी इस लोक के उत्तम फलौ कौ चाहने वाखा की इष्टसिद्धि के बलात्‌ आधा मास दीन लिये जनि के समान उक्कण्डाको कीच
ल्ि “श्येनेनाभिचरन्‌ यजेतः यद वैदिक पिधान मिक्ता हय है । हमै रोकना पड़ता है! अन्तिमिभागके छुप्तहो जनके कारण
ध्यो हि हिसितुमिच्छेत्‌ तस्यायमभ्युपायः द्वारा मीमांसा माप्य | पश्चिम तथा.उन्तर दिशा के देशों फा परिचय न मिलने पर भी पूर
के दीकाकार रवरस्वामी ने मी इका समथेन किया है । लटन का एवं दक्षिण दिशा के कुद दै का परिचय मिक्ता है । पूं एवं
उलेख गौतमथमं खत (१५-२०) मनुस्मृति ( ५-५-१९), याज्ञ- दक्षिण दिशा के मौ सव प्राचीन देशो
का उल्लेख नहीं है, अपितु
वस्वेय स्यति ( १. १७६) तथा महामारत् (८. २०३४ १३. ४३६३) केवल रोगोचित कु देशो का ही उव्छेल है । इनमे से
आदिमे भौ भिरा हं)
प्रियङ्ु-
नवश्नान-वानसी -कुमुद-विदेह तथा घट आदि देशौ का अन्य उप.
दिख (दीग-^5४०६१११९ ) को देखकर भी अर्वाचीनता, की रुष्य अन्धो मे संवादकेन मिल्नेसेनिश्वयन हो सकने पर भमी
दका उत्पन्न नहीं सकती । क्याकि हग करा अत्यन्त प्राचीन
इन साथ आये हुए निम्नङिखित दैर्शो के नाम प्राचीन प्रतीत होने
काल से मारतीय अन्धो मे उपयोग मिलता हे । धामिक मन्थो ममी
के कारण उप्यक्त सव देशो के नाम मी प्राचीन काल पतै व्यवहृत
श्राद्ध आदिमेदहीग का पितृप्रिय (पितरौँकोश्रिय)के सूपर्मे किये जते प्रतीत होते हं । निम्नङिखित
देलौ के नामो का प्राचीन
उल्छेख भिता है । चरक, सुशटुत तथा काद्यप संहिता मेँ भी स्थान २ परिचय सर्हित
उव्लेव श्रीयुत्‌ कनिङ्ह(म नामक विद्वान्‌ (401९४)
पर ओषधियो के साथ इसका उपयोग भिल्ता है । कार्यपसंहिता इ्ण््ाि 9 70078 ), श्री नन्दलाक महोदय (
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आदि मेँ हीग के लियि बाहीक ड्द का भी भरयोग किया गया है। ०४] काकण
) तथा 2, च, ए98०प (419९४ णका
इसरियि संभवतः बाहीक देच ( बरख -अफगानिस्तान का प्रदेर ) (वा0६6 (तण
0 [फतां१ एण] ) आदि ने अपते प्राचीन
बार से भारतीयों ने इसका उपयोग एवे परिचय प्राप्त किया हो ।
भौगोलिक मन्ध मे किया है| ।
सील्यि उस देश के नामके अनुत्तार ही इसका नाम
प्रतीत होता है! परन्तु आत्रेय तथा कदयप आदि द्वारा बाहीक मध्य मं--कुरकेत्र प्रदे्च ज कि १०० योजन के परेम था
भिषक्‌ क्षांकायन तथा बाह्को के पुनः २, उर्लेख से प्रतीत होता है यह सवत्र प्रसिदधहीदरै।
कि भारत तथा बाहीक देश का परस्पर सम्प तथा इन देश के पूवं दिका के देदा-
वो का परस्परः परिचयः त्यन्त प्राचीन-कार सेथा । बाहीकप्र्ेशच. | कमासवतिनी--पदाभारत ( समा अ० २९.) मै कुमार रैर
यवन यूनानि्यौ ) के आक्रमेण से पू मौ इरानियन जाति कै का उर्लेख.मिलता हे । यह्‌ रीवा के पास का कुमार देश कहलात्रा दै।
उपोद्धात का हिन्दी अनुचाद्‌ = ७१

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कटीवष--ब्रङ्गाल के वधमान प्रान्त मं आजकल कटवा प्रदेश रेरामी वसो का व्यपार भी था, तथां वंह चीनेकाराज्यमभीथा।
नाम से प्रसिद्ध है। चीनक इस कप्रत्ययान्त शब्दस लघ्रुचीनकेरूपमें उसप्रदेरका
सगध --ऋग्बेद तथा अथववेद मे भी सगवदैद्च का उल्लेख बोध होता है।
मिलने से प्राचीन समय से ही इसकी इसी नाम से प्रसिद्धि भिरती ध कौदाल्य--कोशक तथा उन्तर कोरक देर का रामायण (उन्तर्‌
है। मागध का उन्हे तैन्तिमैय ब्राह्मण (३-४-१-१) तथा अ. १० ), पद्मपुराण ( उत्तर ॐ. ६८ › तथा अवदान दातक आदिमं
जेभिनीय ब्राह्मण (१६५) मेँ मीहै, मी निदश मिता
ऋषभ होप --महामारत ( वनपवें अ० ८५) म ऋषम का लिङ्ग-~-महासारत ८ वन. अ. ११३ ) कै सहदेव दिगिजय,
उक्केख है । बृहत्संहिता मै भी दक्षिण मेँ ऋषमका निदंशहै। बृहत्संहिता तथा अश्चोक .के रिरो मे मौ इसका उस्टेख
कु लोग इसे मदुरा के समीपस्थ ऋषम पवत का प्रदेश मानते है। भिल्ता है । महामारत के समय उत्कर का बहुत सा हिस्सा कलिङ्ग
परन्तु पूर्वं दिक्षामें स्थित ऋषभदेश से ही इसक्राः अभिप्राय राज्य के अन्तगेत था! कालिदास के समय. करिङ्ग तथा उत्कल
होना चाहिये) भिन्न २ (रघुकश सगे४)
पोण्ड्वर्धनक--इसे पुण्डरवधन सी कहते है। यह पुण्ड देर की दक्षिण दिशा के देश-
राजवानी थी । हरिंश्च, पद्म तथा ब्रह्माण्डपुराण म॒वासुदेव नामक काञ्ची--प्रहामारत ८ मीष्म. अ. २) पद्यपुराण (उत्तर अ,
राजा की राजधानी केरूप मेँ इसका निर्देश है। आजकल यह ७४) म भी इसका उल्लेख है महामाष्यमे मी चीर, चोर तथा
माल्दा प्रान्त मेँ स्थित पण्डवा प्रदैश कहलाता है। महाभारत मं काञ्ची का उदलेख मिता है । द्रविड चोर देश कौ राजधानी थी ।
मीमदिग्विजय मेँपूव दिशां पुण्डू देश का उक्के है तथा बराह- काञ्ची आजकल भी “काञ्जीबरम्‌? नाम ते प्रसिद्ध है। |
संहिता मेँ पौण्डदे् का उ्छेख मिलता है।श्रीयत पाजिटर महोदय काबीर--यह कावेरी नदी के असपास का प्रदेश प्रतीत होता
इन दोनो को सिन्न २ मानकर पुण्ड को गंगाके उत्तर मँ अङ्ग है ! कवरी का उल्लेख. स्कन्दपुणण मेँ मिलता है । कालिदास ने म॑
( पूर्वी विहार -मागरूपुर का जिला ) तथा वङ्ग देश के मध्यमे, तथा इसका उल्रेख किया हे । ( रघुवंश सगं ४)
पौण्ड्रको गङ्गाके दक्षिण मे वतमान सन्धारु परगने के अन्तगेत चिरिपारी--इह त्रिचिनापष्टी का हयी दूसरा नाम प्रतीत होता
वीरभूम प्रदेय कहते! है । त्रि्चिर नामक्‌ रावण के सेनापति के नाम से इसका नाम प्रहे
सत्तिकावर्धमानक--प्रह संमवतः वधेमान प्रदेश है ! माकण्डेय वि्िरः पष्ठी था। उक्षीकी समयान्तरसे ज्िचिनापह्टी नाम से
पुराण तथा वेताल्पन्चर्विंश्चति आदि म विन्ध्य के उत्तरमंतथा देवी प्रसिद्धि हो गई है । कालान्तर से इसी के उरगपुर तथा निचुल्पुर
पुराण (अ० ४६) मेंवङ्गके समीप, वधमान देश का उच्लेख आदि नाममीहो गर दहँ। प्राचीन कार मे यहु पाण्ड्य तथा चोखो
करिया गया है। की राजधानी थी । |
कर्वट--पहाभारत के मीमदिण्विजयमें पूर्वमे कवे देश का चीरराञ्य--इसका महाभाष्य में भी उस्लेख है । चीर खन्द
उस्छेख है । ब्रहत्संहिता मँ भी इसका निदंश भिरूता है को कुड रोग कैरख्पुत्र शब्द का अपञ्रंश तथा संक्षिप्त रूप बतलाते
मातङ्ग--युक्तिकदयतर्‌ नामक यन्थमे कामरूप के दक्षिण- हं । यह आजकरू मैखर राज्य के अन्तर्गत है
पूवं म मतङ्ग देश का रत्नो की खानके रूपमे निर्दर कियागयाहै। |. चोर- चोर तथा चौल्णएकदहीदहै। अशोके दिलार्ख में
ताच्ररिक्च-द्सका महामारत ८ मीष्म. अ. ९; समा. अ. २९). चोड इाब्द से व्यवहार किया गया है । काञ्चीपुर के चोर नामक्‌
के मीमदिग्िजय, बृहत्संहिता तथा अन्य मी पुराण, बौद्धन्थ तथा राजा के नाम से इसका यह नाम था । पद्यपुराणमंं चोका द्रविड
दशकुमारचरित आदि मँ भी उच्छेख भिक्ता है । इ्यन्पङ्ग ने भी देश मे उल्केख किया गया है । पाणिनि के गणपाठ में भी देवाची
इसका उच्छेख किया है । अरोक के शिलरेखे मे मी इसका निर्देश चोर शब्द मिलता है । बृहत्संहिता मेँ मी इसका उर्लेख भिरुता
है । यह बङ्गार के मेदिनापुर प्रान्त मै तमस्क नाम से प्रसिद्ध स्थान है । यद आजकल कारोमण्डल प्रदेश के अन्तग॑त है ।
-प्रतीत होता है । एखिन्द्‌-महामारत के सहदेव दिग्विजय मेंदक्षिण मेँपुरिन्द
चीनकचीन देर का उर्छेख महाभारत (समा.अ . | का उल्केख है । अलोक के रदिलाङेख मे भी इसका निर्देश है।
५१ ) तथा मनुस्परति ( १०-४४) मेँ मी दहै। साहित्य परिषत्‌ स्मिथ्‌ नमंदा के तट पर विन्ध्य पवेत कै मध्यमे पुछिन्द देश्च को
पत्रिका मे चीन चाब्दं का वर्तमान अनामा (4008108 ) देर के बतलाता है । तारातन्तर मेँ कामरूप के उन्तरभाग मे तथा महाभारत
बोधक के रूपमे उच्लेख किया गया है। रेशमी वच्चो की प्राचीन के वनपवं म हरिद्वार के उत्तरम प्रदेश ममी पुखिन्दका
काल से चीनाशयुक के रूप मेँ प्रसिद्धि रदौ है। तथा वर्माप्रदेश् मे उल्लेख होने से प्रतीत होता है किं पुछिन्द जाति के अनुसार अन्यन्न
# इस संहिता म सचीरकम्‌? यदह पाठ च्या होने पर मी, मी इसका प्रयोग किया गया है । स्मिथ महोदय चस्ति है कि `
्चीरकाअगेदक्षिणकेदे्ो मे वणनदहोने से पूवं दिरामे चीन दिमाख्य प्रान्त की जतियोँ के स्यि पीछे से पुजिन्द शब्द प्रयुक्त
के ही ओचित्य होने से तथा प्राचौनछपिमें नकार के ` स्थान पर होरेल्गाथा धि
रकारः पाठ की सम्भावना. होने से 'सचीनकस्‌ः पाठ दही उचित ड्‌ ( इ ) बिड-महाभारत के वनपवै, वराहसंहिता तथा
प्रत्तीतदहोताहै। ` `" |मनस्दृति आदि मे मी श्सका उच्छेख है । मद्रास से केकर कन्याकु
७२ ~ उपोद्धात का शिन्दी अवाद्‌
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परिस्थिति का जार. डी. बनज तथा एच. आर्‌.


वथकमवकि ो कता क्रि
१, जमः ऋरि

मारी तक काप्रदैश द्रविड नाम से कहा जाता धा) वृखर महाशय । अन्तर्गत होने की
द्रविड का दी द्रा नाम चोर वतरते ह। | ोधरी ने अपनी प्राचीन पुस्तक मे, मौयकाल से पूवंनन्द के समय
ग वंच के अजतयन्चु केसमय उरे
करघाट -मद्ाभारत ( समा. अ. ३९) के सहदेव दिग्विजय |तथा बुद्धकालीन लिदयुना से पाण्ड्य देरा के कीतन
का प्रथक्‌ उच्लेख होने
म दक्षिणम करार देच का उद्लेख भिरूता है1स्वन्द्‌ पुराण कै |क्या हे । कोशल
रके रूप मे उच्छेख होना बुद्ध-
सद्याद्वि खण्ड मे इते काराषट्र देद्च की राजधानी छिखिा हे । माण्डा- |न कएने के साथ मगध का महाराषट्
रकर मह्येदय ने भौ ए. छ. 7). पुस्तक मेँ इस देश का वर्णन क्या वारीन समय कौ खचित करता ह । बत्स्य द्रवाय पूरित खिकभाग
षै! आजकल यदय देन कराड नाम से प्रसिद्ध प्रतीत दोताहै! मेंस वणेनके भिल्ने से तथा वत्स्य के प्रतिसंस्करण मं इन उत्स-
राक, पद्ख्वः हण आदि सन्दे-
कान्तार -महामारत कै सहदेव दिग्विजय सँ दक्षिण मे क्डन्ता- | पिणी, अवसपिणीः अरमण, नि्॑न्थि,
रन्दोकै मिलने सेमी वाच्स्य का समय बुद्धके समकालीन
रक ददा का उच्छेख भिक्ता है । इसे ही अरण्यकं मी कहते दै। । हास्पद ॑
मह्यमारत ( समा. अ, ३९) तथा देवीपुराण ममी अरण्य का उछ्ेख | प्रतीत होता हं ।
= क एङ्ावाद तथा तकण लदिताके . ~ „~ ~
भिरुता है! यह देच आजकल भाता तथादण नन इस संहिता के पूरवैमाग मे मोजनकद्पाघ्याय (शलो. ४०-५९) मे
कहलाता दै । वहां कौ राजगरानी तगर थौ ।जसका आजकल =" |मौ कुद दे कै नामका उल्केखमिरता हे। इनमे से कर-छरष्षेव-
तटताबाद हे । नैमिष-पान्नाल-कौशर-श द्वि ( दहि-
ुरसेन-मत्स्य-दक्लाण-रिदिर
~+ । |
वराह वितस्ता के५ दक्षिण मे वरादावतार के स्थान क जिस चीन
-अपरची-
५ |माद्रि )-षिपाश्चा-सारस्वत-सिम्धु-सौवीर-कादमीर-
प्रकार वरादमूल वे रूप मे प्रसिद्ध ॥ उ 1 कोरिकौ < |न-लद्च-वाहीक-काशो-पण्द्‌-ङ्ग-वज्ग-कलिङ्ग-किरात आदि छु
के किनारे नेपाल के आसपास काकायुलः स्थानकौ पराचीन |प्रपद्‌ देशौ का सहाभास्त आदि पराचीन अन्धो मे मी उच्छेल
समय से वराह कषितरकेरूप म सिदध है । वराहपुराण म मी शसक |मिलते ते ये देशा भौ प्राचोन ही प्रतीत होते है । इसके अतिरिक्त
महिमा का वणन दै। परनठु यदा जो वराह शब्द्‌ दियाह त माणीचर-दहासीतपाद्र-दसेरक-शातसार-रामणनकाच-अनूपक-~पषटन
दाक्षिणाल देशो मे गणना कीदहै, नकि पश्चिम एवंपूवं केदेशा |आदिदेश का अन्यत्र कीं नाम न भिरने से ये अप्रसिद्ध
म । इसकयि यद वराहशब्द दक्षिण दिशा क कसी दूर ह 2 |देश मौ प्राचीन कालकेही प्रतीत होतेदै।ये देश कहांकेदै
नामसे छि के रये आया प्रतीत होता हे । संभवतः यदी |इस विषय म विचार करना विद्वान का काम है) खिर्भागके
आज कक वर [ता . ९ देयो मे महारणष्ट्र्‌ के रूपम निर्दिष्ट मगधका यहां नाम भी नहीं
आमीर---युजरात के दरविण पूत भाग म स्थित नमदा नदी |दिया है । योद्यल का उच्ेल अवदय है । वदां पर॒निरदिष्ट अन्य
वे मुहाने का श्रदेश आभीर नाम से
कलाता था । शी को यूनानो | भी वहत से देशो का यहां निश नदीं है । प्रुत पराचीन सभे
(4 ) कहते थे } महामार्त मे (सभा. भ, ३६ ) समुद के |जानि वाले तथा वाद मँ जिनका व्यवहार पतह गया है रे
पास सोमनाथसते रगे हद जरात देश की सरस्वती नद रे|सिन्ु-सौवीर-ङर -पाज्राठ-तथा बाहीक आदि देशौ का ही पूव
विनारे पर आमी का निदेश मिता दै। विसर क मतम |भागं उलेल भिल्ताहै। इस प्रकार पूव तथा उन्तरभाग न
यजरात के दक्षिण भँ स्थित खरत प्रदेश भौ आमीर देश भं सम्मि- |आये हु देशौ के अनुसन्धान करने पर बुदफालीन वारस्य से पूर्-
रातन्त् > „५ प्रण नर्द पथि
छित था । तातन मँ ककण के दक्षिणमं तापी नदी कै पचिम |माग वै रचयिता दृद्नीवक तथा मूक आचाय कर्यप क प्राचीनस
किनारे तक आभीरौ का वणन मिलता ई । स्यासन महास्षय बाड |सिद्ध होता है |
विल ये मधे हुए जीर ( 0 ) देश को ही आमौर मानते ह । । “
इलियड के मतम भारतके पश्चिमम तापती से देवगद्‌ तकके ( £ ) भारतीय चिकित्सा का वणेन
अरे को आभीर कहा है । वन्किड महोदय सिन्धु नदी वै पूवं | इस भारतीय आद विया का विकास अपने प्राचीन ससम
श आमीर दश्च को भानते दँ । विष्णुपुराण ( ज. ५) तथा ब्रह्माण्ड | दायके द्वाराही हुमा है अथवा इसमे किसी दूसरे देश की
पुराणम भमीर देश मँ सि्धु नदी का उल्टे मिरता दे । | चिकित्सा का मौ सहयोग है १ बूरोप देश मेँ भस म सं भभम
आभीर शब्द के जतिवाच्क होने से जिस र प्रदेश म वहु जाति सम्यता तथा चिकित्सा के विकास का इतिहास भिल्ने से उसदेरा
रती थी उत २ का नाम मामीर दो सकता ह । यहां पर करके | की चिवित्सा का भारतीय चिवित्सा पर कोड अमाव ह अथवा
को मध्य {06४९) मानकर दक्षिण दिशा मं वणित जामीर देश |नहीं १ तथा अन्यदेशीय चिकित्सा दा अमावन होने परमौ
गुज॑रप्रान्त ( गुजरात )मे हो सकता हैः जह अजक भी भला | भारतीय चिकित्सा अपने देशा मे दी सीमितर्हीहै अथवाजका
का निवास है,बृत्संदिता म मी दक्षिण न्य भाग म आभीर | प्रभाव दूसरे देशो मे भी पचा है इत्यादि विपो पर्‌ विचार
देशकानिरदेशमिर्ताहै . | किये विना प्राचीन मारतीय आयुवेद की स्थिति का सम्यक्‌ ज्ञान
ऊपर आयि हृष ये देश प्राचीन ही ` भतीत हते दै1 बां | संमव नदीं दै तथा आरद क प्राचीन आचय का भारतीय उपदेश
भमगघासु महाराष्ट? द्वासा मगध का सहया केरूपमंनिद् परम्परा द्वारा प्रचङ्ति सम्प्रदायभी रिथिरहो जायगा। इस
तथा कौशल्य दे का उल्केख हे। ४०० वषे इईसवी, पुवंमे कोश | प्रकार उपदक्त विषयो के संबन्ध मँ विचार करने के रिये अनेकं
देश का मगप राज्य के जङ्ग केरूप मे वणेन मिक्ता ह । बध के | विद्वानों के मर्तो को देकर हमङ्‌ सपने विचार मी प्रकट करते हे
समय कोरर देक कौ मौ प्रतिष्ठा थी। महारण कयो मगधके। ङु लोग भारतीय चिकित्सा की अपेक्षा पाश्चात्य चिकित्सा `
उपोद्धाव का हिन्दी अनुवाद
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॥ +। 1:12जक जि £।
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प्रन्तु यह सव॑सम्मतः है फि संसार के उपलन्य साहित्य मे ऋग्वेद


भारतीय वधक पर पाश्चाच्य विज्ञान का प्रभाव मानते हँ तथा मेड
सबसे प्रथम एवं प्राचीन साहित्य है । ऋष्वेदमं अये हए देश्यः
का गान्धार देच कै निवासौ के रूप में उल्छेख होने से कते है कि नदी, नगर, याम तथा पवेत आदि सव, पाञ्चाल, सिन्धु तथा सौवीर |
यवनौँ क सम्पवौ के कारण उसकी चिकित्सा पद्धति मै भी यवनो
| आदि दे के आसपास कै प्रतीत होते है! इसमे अये हुए भ्यौ
का प्रभाव था। तथा उनके किसी
के वर्णन मे उनक्रा किसी अन्य स्थान से अने
इसके अतिरिक्त कुच लोग कहते है कि सवेप्रथम यूरोप में अन्य प्रथम उद्गम स्थान का निरदैश् नदीं मिलता है इसमे खर
चिवित्सा विज्ञान का प्रादुर्भाव ईसवी -संवत्‌ से पूवं पांचवी शताब्दी
तथा घुस कै परस्पर संघर्षं का दृत्तान्त भिकता है ! इसके
म (ई. पू, ४६०) दिपोक्रिरस (प)११०५२५४९७) नामक ग्रीक विद्वान्‌ अनुसन्धान से प्रतीत होता दै कि पाञ्चाल, सिन्धु तथा सौवीर का
कै द्वारा इभा है, जो कि वहां के चिकित्सा विज्ञान का पिता कहलाता
है । उसके चिकित्सार्थं मँ जीरा-अदरक-मरिच-दाल्चीनी-
प्रदेश्च मौर उसके समीप का इरानः वेविलोनिया तथा असीरिया
आदिका प्रदेश दही आर्यो का प्रथम उद्गम स्थान था) अस्तु, यहं
इलायची-तेजपत्र आदि कुर्‌ रेसी वस्तुर्ओ का प्रयोग मिक्ता प्रथम उद्गम स्थान कोड भी हो विन्त समस्त प्राचीन जातिर्यो कौ
हैजो कि यूरोप म उत्पन्न नहीं ह्योत, अपितु केवर भारतमें प्राचीन माषा के साथ ऋण्वेदकी माषा कौ समानता होने सै
उत्पन्न होती है तथा भाग्तीरयो द्वारा ही ज्ञात है । उससे. ६० वषे पूवे माषा शाख की दृष्टि से मौ विद्वान की यह सम्मति दै कि _ अव्यन्त
(८३, पू. ४०० ) थियोफ़रटस ( ¶06०07980प8 ) नामक विद्वान्‌ के
पराचीन कारम एकद्ये मूल वृक्ष की चारो जौर फैल इ ये
केख मै भी बहुत सौ भारतीय वनस्पतयो का प्रयोग . भिरता है । | ¦
साखा-प्रशाखयैदहै।
इसी प्रकार अन्य भी वहत से प्राचीन पाश्चात्य चिकित्सक द्वारा केवर भाषा
प्राचीन पाश्चात्य जातिर्यौ तथा मारतीय जाति मं
आरतीय वनस्पति्यौ तथा ओषधिर्यो का उक्केख किया होने से यह
की ही समानता नदीं है अपितु अन्य सभ्यता आदि भीं समान ह ।
कदा जा सकता है कि उनकी चिकित्सा मेँ भारतीय चिकित्सा
विज्ञान का प्रभाव है। इससे प्रतीत द्योता है कि प्राचीन परिस्थितिः में विद्यमान एक ही
इस प्रकार दोनों पक्षौ के विचारो के मिलने से वस्तुस्थिति का
सभ्यता प्राचीन पाश्चात्य जाति तथा भारतीय जाति में समानरूप
निर्णय करने के च्थि चिकित्सा विज्ञान के साथ २ सभ्यता; से कैल ग इसीखिये उनमे न्यूनाधिक समानता मिरुती है । अथवा
यातायात तथा प्राचीन इतिहास के विषय मेँ भी विचार करने. की यह भो संमव है कि वैदिक आयैसन्यता ही चारो ओर कैरुती
आवर्यकता है इसख्ियि इन सव विषर्यो के सम्बन्ध मँ भी संक्षेप हई प्राचीन पाश्चाच्य जातियो म भी पर्ुच गई हो तथा उसी की
से विचार करके हम अपने प्रकृत ( मूल ) विषय पर आयेगे । हरम रक मिरुती हो ) ।
भारतीयों के खमान अपने को आय कहने वाके पाश्वर्यो के ~ ( 0५८०४०
काकश्च [ एक प्रदेशा
ठ्प््8० ) काका पक वर्तमान जजसेनान
प्रदेरा-वतमान
प्रथम उद्गम स्थान के विषय मेँ कुद लोगो का. मत है कि उन्तरुव ( 4 भण्ड ) माना जाता है । मित्तानौ या मितन्नी ( ५6९
(1० -016 ) के समीप का प्रदेश ही उनका मू स्थान था 01823 ) अभिरेखो मेँ भित्र, नासत्य, इन्दर, वरुण आदि देवतार्ओं
तथा वहीँ से आय रोग कमद्यः पले है । कुद अन्य विद्वानों का के नाम भिरते हैतथा १८०० से १४०० इस्वी पुव के वीच मँ आर्यो
मतष्ैकि सुदूर उत्तरभागग ही आर्य का प्रथम उद्गमस्थान कै एशिया माइनर मे उपस्थित होने के अन्य भी चिह्न भिरूते हे ।
है । वहां से फौरकर कु पश्चिम प्रदेशो मे तथा कुच पूवं प्रदेशों इ्न प्रमाणो से प्रतीत होताहै कि इस कारम नई भूमि के
# यह अब सिद्धो चुका है कि प्राचीन इ्डो-जयंनः अनुसन्धान मे भ्यौ की बहुत सी चछाखार्द विद्मान थीं जौर
ग्रीक, ईरानी, स्छैवोनिकः, व्युटोनिकः श्टैी-सैरटिक तथा तुखेरियन संभवतः इसी कारु में इण्डो-इरानियन पूवं कौ ओर चल्कर
ानियर्नो
आदि सब भाषा एक ह मू भाषा से निकी हैँजिसे हम इ्डो- हिन्दुस्तान तथा इरान मे वस गये थे । इसके बाद इण्डो-इर
मतमेद्‌ दौकर दो
यूरोपियन या स्थूढ रूप से आर्यन कह सकते हे । संभवतः दूसरी न चीघही धामिक अचुद्ासतन कै प्रन पर॒ कहते दै
जिसे हम. इण्डो-आ्यैन
सह्राब्दौ स्वी पूर्वके प्रारम्भ मँ उस इण्डो-यूरोपियन अथवा विभाग हो गये तथा वद शाखा | |
आर्यन भाषा के बोरने वाख के द्वारा वह भाषा तथा एक बहत ओर मो पू मेँ हिन्दुस्तान मेँ पहुंच गे । धमं
विकसित संसृति एशिया तथा यूरोप मेँ पैरी इद थी। उस मूक दिन्दस्तानियो तथा इण्डो-आय्नौ कै साहित्य तथा
¢

तथा अवेस्त ा ) के तलनात् मक, अध्यय न


आर्यन माषा को वर्ने वारेया तो डेन्युबकीषाटी मँ हंगरी के ( अर्थात्‌ इनके ग्रन्थ अथववेद तथा
खोत एक ही धमंहे
भदान भें रहते ये जैसा कि ७11९3 ने अपनी पुस्तक (90६6 ते स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनका आदि क्म॑काण्डी था
प्राणम ० 1०00० मैकिखा है मथवा 09४० तथाजन्य विद्वानों इनके राति-रिवाज मी एक ही है । यह धमं पूणरूप से मूर आयेन
देह रूप से एक ही
ॐ अनुसार वे कैसपियन सागर के पास दक्षिण रूस मं रहते थे । तथा प्राचीन कारु भँ यह धर्मं निःसन् भा क्योकि इस कमेकाण्ड के
अस्तु, यह निविवाद है कि ये आयं लोग भूमि के उसं भाग प्र माषा के वोर्ने वार से प्रारभ इञा
बोल्ने वाली दूसरी शाखार्जो मं भी
रहते थे जहां पर भोजपत्र तथा वैत आदि के इश्च अधिकां मे होते. बहुत से अंश आयन माषा को
न प्रतीत दते है `
हैः। तथा ये वृक्ष अनेक विद्वानों के अनुसार पौँ प्रिया से पामीर मिलते हे । शनक रातिरिवाज भी बहुत प्राची वेदो मेँजये इए
तथा
तक के कषत्रम होति दै) कानी परम्परा के अनुसार आयौ का क्योकि ये दोमर के कान्य, अवेस्ता यन्थ
मूलस्थान (पकप १४८०४४९ 1101016 1870 0 ५06 42३) रति-रिवाजो के समान दी दै\
१० उन हिर

७४ उपौद्धात का हिन्दी अनुवाद


श 0 0 ८ क ० कछ क श 9 ०७2० 2 0 -2@=-©

बेविलौनिया दरा के कसाइटिसष* (1९889९5 ई० पू० १७६०} नाम तथा कायं मे समानता भिरती है तथा वहां कै शिललेखो मेँ
वंद के राजकुमार के नामो मेँ मयै, इन्द्र तथा मरुत्‌ शब्दौ के दिभे हुए प्राचीन व्यावहारिक नियमों मे मनु कै नियमों की समानता
मिलने से, पश्चिम एिया के कैपोलेसिया ((919११०५8 ) नामक दृष्टिगोचर होती है । सुमेरियन प्रदे के नाम; वस्तु तथालेखो में
स्थान मेँ दिताइटी† ( पा18ऽ )तथा मित्तानौ ( एवाश्णं ) भारतीयता की समानता के विषय मेँ श्री वेडेक* नामक पादचात््य
नामक जातियों के परस्पर संघषं के वाद्‌ कै ( 8. ¢. 1560 )सन्धि विद्वान्‌ ने भी बइुत कुद छ्विाहै।
्िललेख तथा उनके विवाह के समय साक्षीरूप से मित्र, वरुण, इस प्रकार दोनो देर के राजाओं म जो आनुक्रभिक समानता
इन्द्र तथा नासत्य आदि कै उच्छेख से, वोगस क्वाय ( 84082 मिकती है वह सुमेरियन्‌ राजाओंँ का भारत पर शासन अथवा
प्प उ, पू- १४००) के चिलरेख मँ संख्यावाचक आदि भारतीय राजां का सुमैरियन प्रदेश पर शासन का परिणाम हौ
राव्दो केमिल्नेसे तथा सीरियाश ओर पैसन ( फिलस्तीन ) सकता हैअर्थात्‌ ये दोनो वत संमव हो सकती है । दयोकि एक
के राजार्थं के नाम आयं राजाओं के नामो के समान होने से वैदिक देश्च के राजा्ओं द्वारा दृ्रे देश्च पर जासन करना सर्वथा संमव है।
सभ्यता का प्राचीन समय मेँ मी इतनी दूर्‌ प्रचार (१)होना स्पष्ट है । सुर तथा असुरो के पारस्परिक प्रक्ृतिक विरोध कौ दृष्टि में
समेरियन प्रदे तथा मारत के प्राचीन राजाओँ म साधारण रखते हुए ही पुराणो तथा छग्वेद में स्थान २ पर असुरोका उछेख
वणापश्रंश् कै अतिरिक्त विरेष समानता| भिल्ती है। उनके मिलता है । अ्तीरियन्‌ तथा बेबिलोनियन्‌ जाति कै प्रधान उपास्य
मनस्‌ (२) नामक आदि व्यवस्थापक तथा भारतीय यन्धोक्त मनु कै देवता मी असुर तथा अहुर नाम से मिख्ते हैँ । असीरियन शब्द
रघु एशिया ( एरिया माइनर ) मे आर्यो की भी प्राचीन मारतीयों द्वारा विक्णेषरूप से परिचित असुर शब्द से
उपस्थिति के प्रमाण हयी बना ग्रतीत होताहै।
* कसाइटिस्‌ (कारशी ) लोगों ने तेदरिखोनिया मँ १७६० ई आजकर श्री सियन लायड तथा उक्टर हेनरी फरोङ्कुफोडे की
पूवं मे अपना राज्य स्थापित किया धा । इनके राजा के नाभौ नै अध्यक्षता मँ इराक दे के टयल अगर नामक स्थानम जो भूगभं
हमं ऽध ( 3िपपृ9्-सूर्यं ) 1०495 (17078 इनदर ), पिकपप+४8 का अन्वेषण हुभा हे उसमे एक भग्नावक्षेष प्राचीन मन्दिर तथा
( 097प्0~मरत्‌ ) तथा 2१085 ( 1190180 ०९९४-0 } कै
उसके अन्दर के कमरे मँ अनेक मह्पूणं प्राचीन वस्तुओं तथा
नाम मिलते हं । तथा उन्दी लोगो ने ही उस समय घोडे का भी महेशोदारो की खुदाई मे मिली इई वस्तुओं से मिर्ती-जुर्ती क
प्रथम बार प्रयोग किया धा । अथात्‌ इन्हुने ही पके पह घोड़ कौ वस्तुओं के भर्ने से इराकदेश की पांच हजार वं प्राचीन
उपयोग में काना प्रचलित करिया था ।
सभ्यता मे भारतीय सभ्यता का प्रभाव दिखाई देतादहै। तथा सर
† (णिः एणापभ॑र ग्ल मै मित्तानी राजां तथा आरेलष्टौन के अन्वेषण मे बलोचिस्तान तथा दक्षिण इरान मँ उप.
दत्तो राजाओं द्वारा १२६० ईसपी पूवं म विये गथे सन्थि- कब्ध प्राचीन वस्तुर्भो के कारण उनका यह मी मतै कि मारत
पत्र मं 1-१2-19 ( इनदर ),ए -प-ए-78 (वरुण ), 1-1-2
9, तथा प्राचीन समैरिया (जजकर के इरान) का भी प्राचीन कारमं
(भित्र) तथा ०-5४-9 1-79 ( नासत्य ) आदिं आयं
परस्पर समान सभ्यता का संबन्ध था।
देवताओं के नाम मिलते ह । तथा कुद्ध मित्तानी राजां के नाम
भी उपशा, [पा < नभ आदि आयं नाम भिलते है।
मेथिक(१) सोसायशी कै केख के अनुसार फिलस्तीन ( 2165-
‡ भित्तानियो के बोगस्र क्वाय रिलक्ेख मै ( ल्गमग १५०० ४०९ ) देर की भूगभ से मिली सभ्यता का अन्वेषण करने पर
ई" पूः ) 41४५ ( एक ), पञ (त्रि), ए उस देश के प्षमय २ पर विभिन्न देशो दारा आक्रान्त हौनेकेकारण
(पच )8४४
( सात}; दक ( नव ) आदि मां संख्या मिती है। उनरस्थानो मँ उनर देशौ के पूर्वं चिह मिलने पर भी एक
9 (97०0००9 के हित्ताइती १६-१५ शताब्दी ३, पू. मेँ स्थान पर महेोदारो की खुदादै मे मिटी इई प्राचीन भारतीय
संभवत्तः कोद जायन भाषा बोकते ये। तुरना कीज्ियि-स्वनाम- सभ्यताके अनुरूप चिद के मिलने सै यह कहा जासकता है किं
कुदस्‌ ¦ ऊुइत्‌ ।क्रिया-एरिमि ( अस्ति ) वर्मान (र्ट्‌ ) की वहां भारतीय सभ्यता का प्रकाश दी सवैप्रथन पहुंचा था ।
विभक्ति
इनुमि (नोमि) खूप आदि | आजकल यात्तायात की व्यवस्था के अत्यन्त परिष्रृत होने पर
¶ 1611-6ा-4 पाथा (तेल-अल्‌-जमर्ना ) नै मिडे * भजक वैडल (1, 4. १०१0९11 ) नामके विदान्‌ ने.
हुए
प्रचीनचल्ेखों मे दमे सीरिया तथा फिलस्तीन कै राजा्ओं महेशोदारो तथा हरप्पा कँ -भूगभं से निकले इए तथा मैसेपोटेमिया
के नाम
मी आये नामो के समान भिन्ते है। उदाहरण कै ल्वि--
एध. ओर सुमेरियन प्रदेश्च मे भि इए सुद्र तथा इतिहास आदि का
0४5४, ऽप्ण97त४१४, ०७०१९ तुथा 47191088
आदि । अनुसन्धान करके उन २ दर्द मँ मिले हृएसुद्रामादिमे णक दों
॥ खमेस्यिन ग्रदेशके प्राचीन उक्छुसि, वच्छ, निमिर्द, पुनपुन, व्यक्तियों के साथ मी प्राचीन मारतीय राजा्जो की नामों मै तथा
नक्ष अनेनः""'दागुर, मनिश्मज, नरम अंश, दटीप इत्या
दि कहीं २ अक्षरो, संकेता, वस्तुओं तथा रिल्पकला आदि म समानता
राजार्जं की क्रमशः शश्नाङु, विङुक्षि, निमि, पुरश्चय, अनेना, सगर) देखकर उन्होने दोनों देर के प्राक्तन सम्बन्धो कै विषय म भेकसं
अस्समञ्जस, अदयुमान तथा दिलीप आदि मारतीय राजा्
ओं से बहुत आफ़ सिविरिजेशन इन रेस एण्ड हिस्ट्री" नामक पुस्तक मेँ अपने
समानता मिती है ( सरस्वती मासिक पत्रिका १९३२७ अप्रैल अङ्कु विचार प्रकट किये है।
)
८१) १-२ कौ रि० उपो० संस्कृत प० ७२ का” २
देखें । ( १) इसकी टि° उपौ० संस्कृत पृ० ७३ का० १ देखं।
उपोद्धात का हिन्दी जनुवांदं ७५

मी मिर्जापुर आदि के बुन्दर भिद्रीके वतंनौं कौ समीप कै साहुर प्रत्यक्ष अनुभव को ही यदि प्रमाण मानकर भारत की प्राचीन
मेमीलेजनेकेख्यिरो्गो को बहुत अधिक सावधानी बरतनी | अवस्था का अनुसन्धान कियाजायतो भारतीय सभ्यता हौ क्तव्रसे
पड़ती है । तव अत्यन्त घने, दुम तथा ककडीठे ओर पथरीङे | प्राचीन प्रतीत होती है। महेललोदारो के भूग्मैत्ते मी वहत सी
प्रे से धिरे इट मिश्र, फिलस्तीन, इराक तथा भारत मेँ परस्पर | अत्यन्त प्राचीन देवताओं की मूतियां उपलब्य हुई नमे ब्रह्मा,
सुरद अलंकार अदि के केजाने कौ सुविधा होने पर भी अत्यन्त | विष्णु तथा महदेव की सम्मिक्ति च्रिमूति, हस्ति, व्याघ्र, खडिग
नाजुक ( 11696 ) भिद्धी के बरतनौकी मी कारीगरी यँ समा- | गडा ) तथा शृण सहितरिवकी मूति तथा खी देवतार्थं की
नता देखकर यह कहा जा सकता है क्रि उनका परस्पर असाधारण | मूतियां मौ भिर्ती हँ । स्त्री देवता ( 501 0०९3 ) की मूतियां
परिचय था । सिन्धु नदौ के किनारे बाकामयस्थान मेँ, इखाम, परिया, एरिया
इतना ही नहीं अपि पाश्चास्यौ कौ प्राचीन शाखाओं तथा | माइनर, सीरिया, फिलस्तीन, साइरस, एजीरन्सीतरट, बाल्कन तथा
भारत्रीयो कौ प्राचीन परिस्थिति मेँ भिख्नै वाङ धामिक, सामाजिक मिश्रदेमे मीभिल्तीदहै। ्रीस्तदेलके क्रेरद्रीप मे अर तथ
तथा आध्यात्मिक आदिं बहुत से विषयो मँ समानताके योतक पृष्ठ भाग पर्‌ सिह तथा व्याघ्र से युक्त 10080 नामक्‌देवीकी
सभ्यता के चि एेतिदासिके* के भिन्नरर रेखोके द्वारा अनेक मति; एलोनिया देश मेँ. सिह के वाहन वारी कण्नल नामक
स्थानौ पर मिते हैँ। | प्राचीन दैवीकी मूतियां भिल्तीदहै। इस प्रकार महेजोदासे के
* (क) मिश्रदेश के पूते सम्प्रदाय मँ अपरिवत॑नीय तथा कुल- विवरण वाली पुस्तक के अनुसार मारत तथां अन्य दे मे एक्‌
परम्परागत पुरोहितता, सेनावृत्ति, रिस्पन्यापार तथा दासता (सेवा- समान खत्र का परिचय भिरुता है ।
नौकरी ) रूप चारौ विभागौ मै भारतीय वभेद की दाया मिलती द्यदि सक्षमः इस प्राचीन स्मृतिनियम की समानता कै` भिल्ने
हे । वहां के प्राचोन इतिहास मेँ मारतीय इतिहास कै समान जल- से, प्राचीन रोम तथा ग्रीस्त देश क सम्प्रदायो मेँ मिलने वारे छिङ्क-
प्लावन ( संसुद्रयत्रा ) का वणन तथा प्रजापत्ति स्थानीय क देवता पूजन; नन्दिपूजनः पितृश्राद्ध, अग्निराला, अन्नहोम, गुरुङुलरिक्षा-
का उल्लेख मिरुता है।'उस दे की भाषा के मात-दवु-ात्मू-पुष्‌- प्रणाली, जातसंस्कारः पुनजैन्म तथा अध्यात्मवाद अदि मेँ भारतीय
उषा-आप-अपूप-त्रा आदि रन्दो मेँ क्रमशः थोडे या सम्पूणं रूप पिषयों का अप्तधारण रूप से प्रतिनिम्ब भिटने से तथा अंगरेज
से माता-दभ-आत्मा-पुष-उषा-आप-अपूप्‌ तथा नर॒ आदि सब्दो जाति की पूवं अवस्था रूप केष्ट ( (४५०) जाति के धर्माचारय रूप
काञचष्द एवं अथेसे सारस्य भिल्तादहै। इस विषय मैं श्री इ्‌.इड ( पण१ ) जति के धामिक नियमों मे वीस वधं पय॑न्त
ध्यानचन्द्र्‌ ( 0ेपर्प॑लत]द वपा ०8] ग प्ण 30नश्् ०]
बरह्मचये धारण, अन्तिम अवस्था मे वानप्रस्थप्रणाङी, उच्चक्ुल मेँ
21 10. 3, ?. 250 ) तथा श्रीभविनादचन्द्र ने ( [88१९११०
पिचादान तथा आत्मा के अमरत्व इत्यादि विषयो मँ भारतीय धर्म-
णता एण 7 2. 245 › मेँ बहुत कुष्‌ छ्खिा है । अन्य मन्न च्छाया के भिख्ने से यह का जा सकता है कि भारतीय सभ्यता
की तरह साखाभेद के दारा पाठमेदके जिनाहयी एक्‌ परम्परा से का सम्बन्य न केवर अत्यन्त प्राचीन मूलशाखाओं मही था अपितु
ही मारत मँ व्याप्त हुए वैदिक सावित्री मन्त्र के ज्ञान से तथा ऋण्वेद
उसके बाद विभक्त हुईं उपजतिर्यो तथा उपदाखाओ मेँ मी
के सौर मन्त्रौ द्वारा प्रतिपा स्थं देवता कौ उपासना भारतीर्यो का भिख्ता है ।
प्राचीन असाधारण धमे समल्ला जाता है । मारत से सुदूर पश्चिमे * ब्रह्मा, विष्णु तथा महदेव की भारतम प्राचीन कारूसेहो
स्थित प्राचीन एवं विशार तथा नषटभ्रष्ट मातंण्ड ८ सय॑ देवता) का उपासना की जाती रहीहै। देद्य एवं कारु कै अनुसार भिन्न २
मन्दिर मी भारतीयो कौ चिरकाल से चली आने वाली सर्वं की देवताओं के उपास्तना में उत्पन्न हुए मतभेद्यौ को दूर करने के ल्य
उपासना को खचित करता है । भिश्रदेश के प्राचीन नगर मै अप्र उमामहेश्वर), हरि ( विष्णु ) तथा हर ( महदिव) जी की एकता के
चक्ति सर्योपासना के वाद मै किसी राजा के समय जनता द्वारा समान ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर के अभेद को प्रकट करने के लिय
प्रतिरोध करने पर॒ मौ वर्पूवैक उसके पुनः प्रवतैन का सम्मिल्तिरूप ते इनकी त्रिमूति की उपासना प्रचलति ह !देवी
इतिहास तथा पांच हजार वषं प्राचीन उ्तके समाधिङव के साध पुराण (अ. ६० ) मेँ भमौ राजा दिखीपके द्वारा काभिकाचक पर
वेदिक उक्तियो कौ छाया ( समानता ) वारा खय॑स्तोत्र खुदा हुआ तरिमूति की उपाकस्षना का उच्लेख भिरूता हे । ये अत्यन्त प्राचीन
मिलता है । भिश्च दे मै उपरुब्ध पांच हजार वर्षं प्राचीन बर्तन कार से प्रसिद्ध भारत के अ्ाधारण देवता है । इसर्यि महेशलो-
आदि की रिद्पकखा के विषय मेँ आजकर गवेषणा करते पर दारोमेमी त्रिमूति तथा श्चिवकी मूतिका भिना उचित की
महेज्ञोदारो तथा हरप्पा के भूगभं से निकली हई प्राचीन भारतीय है। इन मूतियो के साथ मिलने वाली ख्ीमूति मी भारतीर्यो दारा
शिल्पकला के साथ तुरना करने पर न कैवङ दीनं मै समानता प्राचीन कारू मे उपासना की जने वाटी खीदेवता कही मूति
ही है अपितु मिश्रदेश की अपेक्षा मी भारतीय काज की श्रेष्ठता प्रतीत होती है शक्ति की उपासना करने वाला सम्प्रदाय भी
कै कारण विद्वान्‌ लोगमिश्र की अपेक्षा भी भारत को अभिकं भारत में प्राचोन कार से चखा आ रदा है। महाभारत, रामायण
प्राचीन मानते है । ` | तथा पुराण आद्यो ममी दुगं आदि देविय की उपासना का
(ख) रोमदेश् की द्टस्कन ( ए0"प5०8 ) नामक प्राचीन इतिहास भिरूता है । वेद की तरह प्राचीन कालस्ते प्रसिद्ध
जात्तिके धामिक विषय मेँ सात तथा पांच पीडय मँ वैवाहिक तन्त्र आदि अनेक शाखो म मी शक्ति की महिमा, उसकी उपास्रना
धके निषेध के विषयमे ध्वा वरस्य वा तातः कूटस्था- तथा उसके उपासंक महियो का वणन मिक्ता हे। पूवंतथा पश्चिम
७६ उपोद्धात का हिन्दी जलुवद
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[ब 3 नौ २,
(सिक योः
2४ न), 3श्रना 2 ४1 "वा दिदि शिं "नकः चिः सिः भी चमः पमः

सारतीर्यो का प्राचीन कालम दूर र देशौ मेँ पहचने तथा अथर्ववेद मे आये हए रोमौ की मन्त्र तथा योषधि दोनों ह।रा
उनप्ते परिचय का वर्णन मिक्ता है। वेदिक कर्मे भौ जुज्यु चिकित्सा का विधानदियाहृमादहै। इसी कोदृष्टिमे रखते इए
आदि का अन्य द्वीपो भँ जाने का वृत्तान्त भिरुता है प्राचीन ही ौरिकस्तकार ने भी कीं २ रोगों मे केवर मन्त्रौ का उपयौग
इतिहास का अनुस्तन्धान करने पर ययाति राजा कै अनुद्य तथा तथा जल का प्रयोग कियादै। तथा किन्हींर रोगो मेँ मन्त्रके
तवस आदि पुरौ को आज्ञा न मानने के कारण पिता द्वारा अन्य साथ २ ओषधिर्यो का उपयोग भी किया है) रोगौत्पत्ति के कार-
दे मे निकार देना, पाण्डवो द्वारा दूर २ देलौ की विजय, महा- णमूत दुष्ट देवता तथा महस्वन्द आदियो का भी मरन मेँ वणेन
मारतकी ल्डाईैमे दूर र देश के राजाओं का एकत्रित होना; भिरूता है । अथर्ववेदीय चिकित्सा म उन यह आदिय कौदूर
मारतीय राजाओं का गान्धार आदि पश्चिम प्रान्तो कै साथ वैवाहिक करने कै ख्थि मन्तो का प्रयोग तथा रोगोँको दूर करनेके लिय
संबन्ध, पुराणम नीलूनदीकेनाम काउल्छेख, पाश्चाच्य देश कै जओषधि्यो का प्रयोग मी मिलता है । इसके वाद धीरे २ मन्त्रो दाय
प्रचीन इतिहास तथा मुद्रा आदिय मै मी समान नामोवे कुर्‌ उपचार की प्रथा क्म होकर ओषधिर्यो दवाय उपचार की प्रथा
राजाओं के नामो का महाभारत तथा हरिवंश पुराण मे भिर्ना, बदती गई । आजकल भी कु अंश मेँ अर्थो तथा व्यवहारे भी
तथा मनुसंहिता मँ मी अन्यदैद्ीय जाति के मूलघोत का वणेन माम्तिक विचा का उपचार कै कूप मेँ प्रयौग मिरुता है ।
इत्यादि द्वारा प्राचीन भारत का अन्यदेशौ के साथ संबन्ध प्रकट असौरिया तथा बेविलोनिया दशमे मौ प्राचीन कारमं
होत्ता है । वाद मे मी (ड. पू. २१७ ) (वथ अणो तप्यत) भारतीयों के आथवेण तथा तान्विक प्रयोगो के समान ही उपाय
नामक राजाके राज्य मेँ मारतसे १८ भिष्चुओं का चीनदेदा में प्रयुक्त किये जाते हुए दिखाई देते है । उदाहरण के छ्यि, अपवित्र
जनि का वर्णन तथा ईंसवौ पूवं २०० मे 0090० नामक चीनी पुरुष के सहवास, सम्परकै, संभाषण एवं उच्छिष्ट भोजन आदि
व्यक्ति के मारत मँ अने के वृत्तान्त का श्रीयुत(१) कालिदास नाग तथा मूत, प्रेत ओर पिशाच आदिर्यो से रोगो का दौना, विकरार
ने उव्लेख किया है । | एवं भयंकर मूतियो की कल्पना, रोगो कौ दूर करने के लियि सरन्न
प्राचीन समय कै यातायात कै विषय में अनेक विद्वान के दवारा अभिमन्वित जकका पीना तथा ओषध का सेवन करना,
भिन्न २ मत दहै! अस्तु, इसका स्पष्टीकरण तो समय ही करेगा, ताबीज्‌ का बांधना, पिष्टि तथा धूटि (२०१९८ ) से रोगिर्यो को
तथापि यह सिश्चितहै किम्राचीन भारतीय आर्यो तथा प्राचीन ठकना, विङ्ञेष २ व्रक्षौ के पन्त दारा रोगिर्यो को हवा करना, रोगों
पाश्चाच्य जातिर्यो की सभ्यतार्ओं मेँ अत्यन्त प्राचीन कार्म मी कौ उत्पन्न करने वाके दुष्ट देवताओं के छ्यि वकरे तथा खञर आदि
परस्पर धनिष्ठ संबन्ध अवदय था। इस सभ्यता के संवन्ध कौ की बलि देना, तान्तिक पद्धति कै समान विरोधी व्यक्ति के केश
द्तेडकर अन हम अपने प्रकृत विषय ( वैक ) पर आति हैँ। नख तथा पांवोकौी धूठि को अभिमन्तित करके प्रतीकार करना,
संसारम जितनेभी प्राचीन चिकित्सा साहित्य है उनमें ऋण्वेद मेँमिर्ने वले माक देवता कै समान ही मड नाम वे
ऋग्वेद के बाद का अथर्ववेद म आया हुमा वैक साहित्य सवते देवता की उपासना द्वारा रोगौ का परिहार इत्यादि ¦! भोजनसे
प्राचीन माना जात्ता है। मारतीय चिकित्साविक्ञान का उत्पन्ति- पूवं प्रातःकारू ओषधि का सेवन, विरेचन की महिमा, तैर कै
स्थान होने के कारण अथववेद वैज्ञानिको की दृष्टि म भी अमूल्य दारा विरेचन, उदर रोग मँ पहाड़ी नमक तथा ल्श्लुन का उपयोग,
अन्थ है(२) | प्रमेह रोग मँमूत्र कौ परीक्षा, दति केरोर्गो मं कृमिर्यो का कारण
दोना-इत्यादि ओर मी आयुर्वेद के अनुरूप अनेक विचार एवं
मं प्राकार की तरह फैठे हए हिमाख्य मेँ उन्तर तथा दक्षिण माग मेँ
-जामेके साधर्नोकेल्यि घारियोके द्वार रूपमेँ विमान उद्यान म्रयोग उनके यह भिकते हँ । जिस प्रकार आधवेण सम्प्रदाय र्मे
(स्वाप्त नदी कामप्रद), जाङन्धर, पृणमिरि तथा कामरूप देख दान्ति, पुष्टि आदिके प्रयोग करने वाके धाभिक आचाय ही
म चार शक्ति (दैवी) के महापीठ दहै! इस्कै अतिरिक्त अन्यभी मान्त्रिक प्रक्रिया एवं ओष्धो कै प्रयोगसे रोगोँको दूर कस्तेये
सेकड़ पीठ तथा उपपीठ भारत मै प्राचीनः कालसेहै। राक्ति ङ उन्हे अथवा कहते थे । उसी प्रकार मिश्र आदि दैर्शो के प्राचीन
भेदरूप काली आदि फी उत्पत्ति तथा उनके चरित्र के इतिहास इतिहास मेँभी भिरूताहैकि जो धर्मगुर होतेथेवे दही चिकित्सक्न
भी भारतीयहीदहैं। जोरोग इाक्तिकी उवासना के सम्प्रदाय भी होते ये, उन्हें ( टज 0०0 ) कहते थे, इसीख्यि उनके
को दो हजार वषं से अर्वाचीन बतलाते है उनके प्रतिवाद के ल्यि देवाङ्य ( मन्दिर ) ही चिकित्साल्य दोतेये। इन स्थानो मे
महेजोदारो मँ उपरुग्ध इस प्रकार कौ ्राचीन मूर्तियां मी पर्याप्त ओषधयो के उच्छेख संबन्धी प्राचीन ठेख भौ भिर्ते दै ।
ह! शस प्रकार उत्तर मेँ दिमाल्य से छेकर दक्षिण मँ सेतुबन्ध हेरोडोर्स्‌ नामक विद्वान्‌ छिखता है कि वैनिलोनिया देद्य में
रामेश्वर तक व्याप्त हुआ भारत मे उत्पन्न शक्ति की उपासना का चिकित्सा के स्थि रोगियों को बाजार तथा जनसमुदाय म रखने
सम्प्रदाय अपने गुर्णौ के कारण श्ाखाओं तथा उपराखाभं द्वारा के वृत्तान्तो के मिलने से प्रतीत होता हैकि उस समय वहां
` अन्यदेर्शोमे मी फैठ गया है । स्सरियि स्थान २ पर भिल्ने वाली चिकित्साविज्ञान की विद्ेष उन्नति नदीं थी परन्तु शसक प्रतिवाद
शलीदेवतार्भ को मूतियो का भिन्न र नामो द्वारा व्यवहार होने पर रूप मे(९) क्याम्बर थोम्सन नामक विद्वान्‌ हसवी पूं ७०० समय
भी वे भारतीय सभ्यता के प्रभाव को पौलाती हई प्रतीत होती है । के अद॑नना ( 47९९०8४४ ) नामक वैच का उपरुन्ध्‌ हभ
( १) १-२ की टि० उपो० संक्करेत ¶० ७४ का० १ रेखे
(१) श्सकरीदि०उपौ० संस्कृत१०७४ का२देस ।
दंपौद्धात का हिन्दी अनुवादे ७&
० कक ल 2
ककल @-@© = क

परिचय पत्र उपरि्थिति करके कहता है कि वेविरोनिया देच ए. 87070ह तथा चर. पणार नामक भिद्वान्‌ मी डिखते
निवासियो का चिकित्साविज्ञान कम नहीं था तथा बतलाता है हेकिशस जातिमे प्राचीन कारम भूत, देवप्रकोप तथा पार्पो
कि हिमूरव॑न ( प्लशणा्ण्रा्ं ) राजा के समय टेसा राजनियम को सगो का कारण, दैवप्रकोप से उत्पन्न व्याधि पश्चुवछि द्वारा
था कि विपरीत शस्यचिकित्सा करने वाङे शस्यचिकित्सक प्रतीकार, रोग परिहार के ल्य वृक्षौ कौ त्वचाओं पर मन्त्र ङ्ख
( 8१९९० ) दण्ड के भागी होते थे । उसी के दारा नेवचिकित्सा कर हाथ मे धारण करना+ मन्नरपाठ, यन्त्रधारण, देवमूतया क
म ७-८ दिन म आराम हौ जाने, नासिकाव्रण मँ बहिः उपचार स्नान ओर जरूपान कराना तथा धूप आदि कै द्वारा भूतादियों
कै द्वारा होने बे रुधिर श्चाव मे आन्तरिक ओषधिर्यो दार को दूर करना इत्यादि विधियां सिकरूती हँ । इसका अनुसन्धान
उपचार इत्यादि अनेक सफलर्ताओं का उस्लेख भमिख्नेसे ज्ञात करने प्रर इनमे भी आधवबेण तथा भारतीय आयुवेद प्रक्रियाका
होता है कि उस देशम प्राचीन काल से ही चिकित्साविन्ञान सादृश्य मिरता है । लिश्ुनिया आदि जातियों के शब्दं विशेष;
उन्नत अवस्थामें था। आचार व्यवहार तथा चिकित्सासंबन्धी विषयों मँ भारतीय च्या
असीरिया देशम प्राचीन कालम भी शख्लचिकित्सा विश्चेष- मिलती है! जोर (व.पणा्ग)ौ ने यह भी क्ख है कि
रूप से प्रचङित थी एेसा (श)पलल" 1.ज्र्द ने लिखा है 1 उत्तरो अमेरिका कौ रेड इन्डियन च्यारौकौ ( 06101668 ) जति
भिश्च देश्चके प्राचीन पेषयांख्य त्वकूपतर मँ १५० तथा धवं की प्राचीन मान्तिक्‌ चिकित्सा में भी अथववेद के मन्त्रा क बहुत
( €: ) नामक त्वक्पत्र मे ज्वर, उदर रोग, जलोदर, दन्तशोधः समानता मिरुती है !
आदि १७० प्रकार कै रोगो का वणन मिल्तादहै। उस देशक चीन दे के सादे चार हजार वपं प्राचीन अन्थमें उ्वर के
बारहवै वंदा कै समय चछ्खी हरै एक पुस्तक म किसी दस हजार भेदो तथा आमाशय के १४ विभागो का निदश्च किया
खी कै रजोविकार एवं अनुद अदि रोगो तथा आजकरू भिरे है । नाडी परीक्षा का उसमे विशेष विधान दिया है। हस्व पूवं
वके नेत्ररोरगो के भेद दिये हृ ह । उसीमे सक्षम रोर्गोकीभी ४०० वर्षं से ठेकर प्रतिवषं नये उत्पन्न होने वारे रोगों का उसमे
गणना की होने से रोगो कौ उपेक्षा नहीं की जा ` सकती अपितु एक्‌ निधण्टरपत्र ( 74९ ) दिया इजा है । चीन दश के चिकित्सा
रोगो के विषय भे वहां के विदार्नो का ज्ञान बहुत उन्नत था सा गन्ध मँ आद्रंक, दाडिममुख, वत्सनाभ ( 40006 ); गन्धकः
प्रतीत हौता है । हैरोडोटस्‌ नामक विद्रान्‌ मी नीर नदी के आस- पारद, अनेक प्रकार कै प्राणियों के मलमूत्र तथा असंख्य वृक्षो के
पासके प्रदेश को स्वास्थ्यप्रदं बतराताहै। वहां मी असीरिया पत्र एवं मूल आदिय का ओषधरूप मेँ उच्छेखं किया है, चीन
देश म आजकल मी वृक्षो ॐ पत्रमूल आदि अनेक दव्य ओषध
देश की तरह मूत, प्रेत तथा देवताओं के प्रकोप सै रोगोत्पत्ति मानी
जाती थी । (२१ 0८०४८ प्कश ) नामक विद्वान्‌ छिखता है रूपमे भिकते रै । चेचक के दीके (
४९०००0४ ) का ज्ञान
कि उनके चिकित्सायन्थ सन्त्र-बाहृल्य ये.तथा धार्मिक पुरोहित दही मी वहां प्राचीन कारूमेथा। (शश्र सुरेन्द्रनाथदाप्तने लिखा)
श्चास के इतिहास ( प्190ः$ 0 6010106
चिकित्सक भौ थे। (२) (@#. छत्प॑णलणः ) भी च्खिताहे किं है कि चिकित्सा
प्राचीन भिश्रदेश्च म भी अथववेद के अनुरूप ही मन्त्र-तन््र सदित कै रचयिता ग्यारिसन्‌ के अनुसार चीन देश वालो ने चिकित्सा
का व्यवहार हौता था। विज्ञान भारतसे ही प्राप्त कियाथा। -
चिकित्साविज्ञानः तथा रसायनङ्ाख्च
(श्री सुरेन्द्रनाथ दास गुप्ने भी क्ख हैकि प्राचीन मिश्र चीन राज्य ईस्वी पूवं २०० वषं सामयिक हौने से किसी २
देर मेँतैर, धत तथा वानस्पतिक जौषधियो का भी व्यवहार व्यक्ति का मतदहै चि कौरि्य अथंशसखर्मे चीन फा उर्रेख दने
मिरूता है ते कौटिल्य ज्ाख्च प्राचीन नदीं है परन्तु उसके विपरीत अवेस्ता
सेमदेशकी प्राचीन इटस्कन ( एप ) जाति तथा ग्रन्थ मे निदिष्ट पंच जातियों चीनका भी उर्केख होनेसे
ग्रीस देदा की प्राचीन जाति के प्रचीन इतिहास म मी सोगनिवा- चीन देच प्राचीन ही है। जयचन्द्र(र) विधकार .ने ठ्खिंहे
रण के रिय देवताओं की उपासना, प्राथना त्था व॑ि आदि मान्त्रिक चिःश्री मोदी के अनुसार चीन नाम का मण्डलिक राञ्य इस्वी
उपचार भिरुते है । ॑ पूवं ९०० राताब्दी मँ था 1
कैट्टिक जाति के मी वैवक तथा धमे का परस्पर घनिष संबन्ध तुफौन देश के दक्षिणम काराश्चर नामक स्थान मे प्राचीन
था। उसजाति के दूइ नामक धर्मगुरु ही चिकित्सक यै
( ¶, 0875 १८५) छ्िखिता है कि अथववेद की पदति कै समान £ व्रण तथा अस्थिभग्न की चिकित्सा मर््त्रौके दाप कौ जाती
दोनों चिकित्सां प्रचङ्तिर्थी।
उनम भी मान्विक तथा ओषधसंबन्धी थौ जिसकी 4. रपण ने जर्भनी के प्राचीन मसंबगं मार्तिक
युरोपीय टथटन ( पर््पणण ) जाति की प्राचीन चिकित्सा प्रयोगो के साथ तुलना की दै। (१.गगाप ए. ८४. एण
मँ मरसवर्म ( लापा ) के मान्तिक प्रयोगो ( कक8 ) 4 ?. 754 ) । | |
के साथ कुद भारतीय वैदिक मरन््ौँ का सादृद्य है । कृभिरोग तथा † अथर्ववेद के भान्तरिकःप्रयोगो की च्यारोकी जातिके पवित्र
अस्थिभग्न चिकित्सा मेँ तो यह साह्य वि्कुर स्पष्ट दिखाई देता विधान तथा उत्तर अमेरिका के रेड इन्डियन मे प्रचक्ति जन्य
है-रेसा एडालबा(&) करन्‌ (4481080 ए प") भी ङिखता है । मान्तिकि प्रयोगो के साथ पणैरूप से तलना दौ सकती है।
4 २. 754 ए प, ०९ ) ~
1.9. प्रण
(१) १ एवं २-६ तक की रि० सं. उपो. प. ७४ का. २ भौर |( 7
प. ७५ का. १ मेँ देखें (१) १-रकीरि.सं.उपो.¶.७५कारमे दे!
७८ खपौद्धात छा हिन्दी अनुवद्‌

समयमे कुछ प्राचीन कूच जातिं रहती र्थी) ₹ईस्ी सन्‌ कै पितरी ( विद्रषरी ) खादिर ( खदिर )
प्रारभ से पठे कव उनका वहं आगमन हभा, इस विषय मेँ कुद पक्र ( खक्ख) मोतर्ते ( अजमोद )
मी ज्ञात नहीं होताहै। सव लोग उपस कूच जाति को आर्यो की शाखा प्रियङ्क (प्रिजङ्कु ) कौरोज्ञा ( गोरोचन )
मानते है । बाद म २-३ शताब्दी मँ व्यापारियों के साथ बौड- विरङ्क ( विडङ्ग ) पिस्सौ ( विश्वा )
धभ प्रचार के च्यिञयेदहुए कुद भारतीय भिष्ुओं को देखकर उपद्रव ( उपद्रव ) समां ( सोम )
उन्दने अपने पृवैदेरा के भारतीय होने कै नाते उनका बहुत इस प्रकार अनिश्ित पूवं समय से इतनी दूर विदान प्राचीन
सन्मान किया-रेसा उनका (१)इतिदत्त मिलता है । बूच जाति का आयंजाति कै रूप म स्पष्ट रूप से उल्लेख हौनेसे
इस जाति तथा उस दे के विषयमे चीनी भाषसे ङ्िखित तथा उसी के अनुसार बाद मे वहां पहुचे हुए भारतीयों का उनकै
प्राचीन इतिहास म ल्खिादहेकिद्वितोय चत्ताब्दी मे मध्य एरिया दाय आत्मीय के रूप मं सन्मान का उर्लेख हने से वूच जाति
के आसपास के प्रदेदो कफो विजय करतेकी इच्छसे जब चीन मारतीय मायंजाति सिद्ध होती है। इस प्रकार भारतीय आर्यं
राज्य मै उसपर आक्रमण करनेकी इच्छाकी, उस समय उस. जातिके रूप में निश्चित हृदं कूच जाति की माषा मेँ भारतीय
प्रदेश म बलवान्‌ कूचजाति रहती थी। उसको पजय न कर ओषधिवाचक दाब्दं के विक्त एवं अवित रूप मेँ मिख्ने से यहं
सकने पर दोनो देशौ मेँ परस्पर मैत्री संबन्ध स्थापित हो गया, कहा जा सकता है किया तो भारतीय जातिके उस दरम जाने कै
हैस्वी सन्‌ के प्रारभ के बाद २१६-३१६ समय मँ वहां बौद्धधमं साथहीये चन्द भी वहां पहुंचे दयगे अथवा समयान्तर सेये शब्द
पूर्णरूप से प्रचञ्ति था । उुमारजीव नामक बौदधभिष्चक वहीं वहां पर्हचे हग । दोनों ही अवस्थां मे भारतीय आयुवेद का इतने
रहता था 1 अन्य मौ बहुत सै बौद्धमिष्चुक वहां पहुंचे थे । वहुत से दूर तथा इतने प्राचीन कार मे प्रचार होना उसकी प्राचीनता
बौदधस्तूप तथा मन्दिरिमी वहां वनयेगये ये। वे अभीत्कमभी को सिद्ध करता है ।
भूगभं से उपल होते हैँ । भारतीय व्यापारी तथा वौद्धधमे प्रचारक इरान देश के निवासी पारसियो के धवेस्ता नामक मूयन्थ
इसी मागं से चीन देशम अति जतिथे। ईस्वी सन्‌ के प्रारभ का अथववेद से तथा उसकी भाषा का देववाणी ( संस्छृत ) से विशेष
से पहले हयी दक्षिण देद्य वालके ल्थि चीनमेै यही व्यापारिक |सादृश्य दिखाई देता है । उनके उपास्य देवता अहुर का भारती
मागे था ।ह्॒न्सङ्ग नामक चीन यात्री मौ श्सौ मागंसेही भारत दारा °रिचित अघुर से उच्चारण मात्र का अन्तर है! अनि की उपा-
म अयाथा। इसप्रकार इसके चीन तथा मारतसे प्राचीन संवन्ध सना, गौपूजन; उर्योपास्तना, होमप्राधान्य तथा मित्र आदि देवताओं
कावर्ण॑न भिर्ताहै। यदि इसकी ख॒ुदाईकी जायतो अवभी सम्बन्धी जनेक विषयो मेँ भारतीय ज्चलक मिरती है । इतिहासश्नार
बहुं प्राचीन भारत से संबन्ध रखने वले बहुत से चिहं मिलने भी ङ्खितेदेंकि इरान जाति मारतीय जाति से ही विमक्त हु
कौ आद्ता है । वहां तऋ्यदे् की छ्पि मे छ्वि इए बहुत से प्राचीन है । इरान देद्य म एकमेनियन्स ( 4०090९98 ) राजा के
संस्कृत न्थ तथा मारतीय संस्कत भषा से कूचमाषा मे अनूदित कुल मेँ तथा प्रथम उरियस ( एष्ण्ड ई.पू. ५२१) नामव
काष्टपट्टिकाओं पर खुदे हुए तथा लिखि हुए अनुबाद अन्ध भी मिले राजा के समय में डमोकेडियस्‌ ( 7€000}.6068 ) नामक्‌ तथा कुद्ध
हे । सटदन(२) नामक विद्वान्‌ ने ल्खिाहै कि वहं भूगभ से जन्य समय वाद्‌ रटस्तियस ( ५6७४5 ) तथा अपोलोनीडस्‌ (4‰011001-
मी बहुत सी प्राचीन वस्तुं उपरून्ध इडं हं । 0९3 ) नामक मीक वेच थे । इरान तथा मरीस देश्च की चिकित्सा
माषा विज्ञान के पण्डिति ए० पी उल्नर ने उक्त कूच भाषा के विषय मं परस्पर विचार करने पर इरान दे की चिकित्सा में
की संस्कृत के साथ तुलना करते हुए कुद भारतीय आयुतैदिक ग्रीस देर की चिकित्सा काप्रमाव था, इस८१) पिषयक्‌ उल्लेख भी
ओषधिवाचक संस्कत शब्द वहां से द्रवक दियेदहै जो कृद तौ मिलता है । हरान देश मेँ एसेनियन्‌ राजा के राजवंश मँ यीकवै्यो
अविक्रृत (मूर ) अवस्था मेँ हें तथा द्ध म उच्चारण अधवा थोडे की तरह भारतीय वेय मी थे |स्पीगर+ नामक विद्वान्‌ ने.ङिखा
बहुत स्वरूप"को भेद हे । वे शब्द निम्न दहैँजो कि राय एश्चिया- हं कि उस देश के तथा दूसरे देर के ग्च( चिकित्सकों ) मे परस्पर
रिक सोसाइदी पतिकाः३) में प्रकारित इए है- मरतिस्पथां मी थी इस प्रकार इरान देर की चिकित्सा कै जिन
मा्रष्ठ (माजञिष्ठा ) दार्वणीं ( सालपर्णी } अदयो मे असाधारण मीक विषय मिलते है, उस २ अंश मे मीक
कर्चपीज (करज्ञवीज) किरोत (गिङोध ) चिकित्सा का प्रभाव माना जा सकता है तथापि वैक के विषयमे
अपमाकं (अपामागं) कुन्तकं ( गुन्द्र ) वहां जो २ भारतीय आयुवेद के रोग तथा शारीर सम्बन्धी विचार
सारिप ( दारिवा ) चिपक (जीवक ) समानरूप से मिरूते हँ अथवा मीक जदि साधारण भी भारतीय
मर्गं ( मार्गीं ) दाञ्चपौ ( रिरपा ) विचार वहां मिरूते हँ उनमें भारतीय चिकरित्सा तथा भारतीय वर्चो
विंन्ेर ( किक्षस्ष) पिप्पाछ ( पिप्पली )
(१) इसकी टि० सं० उपो० १० ७६ का० २ मेँ देद्ं।
तकर्‌ ( तगर ) अश्वकान्ता ( अदवगन्धा )
^ स्पीगल कहता हे कि यह्‌ स्वामाविक है कि अधिक आबादी
पद्कूरच ( भृङ्गराज). तेचवती ` (तोजोवती ) वारे नगरों मे
विदेशी चिकित्सकौ की देशी चिकित्सकौ के साथ
करुणसारि ( कालानुसारी ) मैत ( मेदा ) प्रायः प्रतिस्पधां रहती थी । ससेनियनो के समय मी यीक तेच
(१) इसकी रि० सं° उपो० पृ० ७ का०रमेदेखे। राजकु मेँमिरे है तथा स्पीगरू की सम्मति मे भारतीय कैच मी
(२) २-र की ० सं० उपो० ¶० ७६ का० १ में दे्ं। वहां अवद्य थे । ( 091 ष्टौ ) ए, 8. ए, #० 4 २. १५५,
उपोद्धात का हिन्दी अचुवादं ७९
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काही प्रभाव समञ्चना चाहिये । श्रौयुत कीथ (4. 8. एलं) ) वृत्तान्त भिलने से वहां मारतीय आयुर्वेद का प्रका चिरकाल से
महादयय ने यस्त वेचक म मारतोय आयुर्वेद विषयो की जो स्पष्ट प्रतीत हदौता है । आयुर्थद के चरक तथा ब्ृद्धजीप्रकौय आदि
समानता दिखाई देती है वहां भी साक्चात्‌ अथवा परभ्परा से ग्रन्थो मँ बाह्णीकमिषकव्‌ के रूप मेँ काङ्कायन का उर्टेव मिलता दै ।
( 70176५४ 0 {04117६५ ) मास्तीय प्रभाव दही है जिसका आगे प्राचीन कारमं बहुत देर तक इरान के आधिपत्यमे आया इजा
निरूपण किया जायगा । इरान तथा मारत देश्चमें वैसे भी परस्पर वकस देत बाह्लीक ब्द से कहरूता था । सुश्रुतसंहिता की व्याख्या
समीपता हैः 1 उसी रान देश के राजा प्रथम उरियस की सहायता मे काङ्कायन कोजो सुश्रुत का सतीथ्ये कहा ह उसे प्रामाणिक
के रूप मेँ ईस्वी पूवं ४७९ समय मेँ भारतीय सेना का मीस के मानकर वहा दिये हुर "बाह्लीकभिषजां वरः! दारा निर्दिष्ट काङ्कायन
सैनिकों फे साथ युद्ध(१) का उर्टेख मिलता है । इस प्रकार इरान द्रारा बाह्मीक देद्य मेँ प्रचलित वैद्यक वि्यामी भारतीय द्यी सिद्ध
त्था मारत के पारस्परिक धनिष्ठ सम्बन्ध मे वहां भारतीय वेचोकी होती है । इसके अतिरिक्त भारतीय आचार्यौ के साथ पक्ष प्रतिपक्ष
मी उपस्थिति होने से वहां मारतीय वैय का विशेषरूप से प्रमाव रूप मे स्वाद करनेवाठे काङ्कायन को आचार्यौ के सोथ सम्मान
प्रतीत होता दहै। इरान देशकी पद्यौ भारतीय ८ एलणभ्ग ) देने से निबन्ध संग्रह आदि मर्थो मे संस्कृत भाषा च्वि हुए
माषा मे भिषज, भेषज तथा मन्त्र आदि शब्दः से सादृद्यता उसके वचना का उल्लेख मिलने से उसका चिकित्सा सम्प्रदाय भी
रखनेवाले क्रमश्चः वेषज ( 34690928, 2681 ) भिजिष्क अन्यदेश्लीय न होकर भारतीय ही प्रतीत होतादहै। बुद्ध सामयिक
( एलुऽार ) तथा माध जादि छब्द भी भिल्ते है । अ्मीनियन जीवक्के गुरुरूपमे निर्दिष्ट अच्नेय तथा कदयप द्वारा निर्दिष्ट
( ^716280 ) साषामे मी इन सान्दो के समान ही शब्द बाह्लीकभिषक्‌ काङ्कायन का समय ग्रीक वेच के सम्पकं मेँ आये इए
(एवज, एणाअण्ल ) मिलते है। इरानी माषा मी ूर्वोिखित इरानी राजा्ओ कै समयसेकम सेक्म भी एक दों
वैचवाचक सिजिष्क शाब्द तथा मौषधथिवाचक वेषज शब्द भारतीय दाताग्दी पूवं का मिलने से वहां मारतीयोंका संबन्धं तथा प्रभाव
भिषग्‌
तथा भेषज रा्दोके ही उच्चारण भेद से रूपान्तर है। प्राचीन ही सिद्ध होता है । यचपि निश्वयपूवक कुद न कह . सकने
इस अवस्था मेँ अथववेद तथा ऋग्वेद मेँ आये हुए ये प्रधान शब्द पर भी (इनसाडकलोपीडिया त्रिटेनिकाः न।मक(१) ब्हत्कौर में
मी यदि वहां भारतसेही पहुचे तौ भारतीय आयुर्वेद का प्रभाव च्खिदहै कि इरान तथा भारतेसे ऊु्ध वेचक पिषय यरीसरैधक
इससे भी बहुत कुड्‌ अनुमान किया जा सकता है । पारसी मत मे गये हए दिखाई देते हैं ।
कै ग्रवतेक जरथुष्ट्र सेमी प्राचीन उसदेश की मागी जाति दारा इस प्रकार अव्यन्त दूर रदेदोमे चाखा तथा उपद्ाखारूप
भारतीय ब्राह्मणो से इस गुप्त वेक विद्याको पराप्ठ करने पिषयक अनेक प्राचीन जातियों मे मी न्यूनाधिक रूप से भारतीय प्राचीन
चतुधं शताग्द्री के रोम के इतिहासकेखक, अमीनस्‌ तथा मरसीनस्‌ न्यवहृतियो. अथववेद के समान मान्त्रिक प्रयोग तथा ओषधप्रयोग
आदि के ठेखो के मिर्ने से तथा इरान देश मं अत्यन्त प्राचीन दारा चिकित्सा सम्प्रदाय के खक अनेक लक्षण भिरते है ।
काल्से दही भारतीय वे्यक के स्पष्टप्रसाव तथा भारतीय वेर्यो कै अनावदयक विस्तार कै डर से इनका केवर संकेतमात्र हयै किया है ।
इन उदादरणो से भारत तथा अन्य देदौ का प्राचीन काल मे
(१) इसकी टि० सं० उपो० ए० ७७ का० १ मदे, परिचय, सम्पकं;, व्यवहार तथा विचाविज्ञान कै परस्पर विनिमय
* ओषध, विरोपण (घाव भरना), ओषधोपरचार, वैच इन का निश्चय होता दहै ।
सवके श्य एक सामान्य शब्द बेरग्‌ है । तुरना कौीजिये- संस्कत प्राचीन भारतीय सभ्यता के अन्य विष्यो की तरह आयुर्वेद
भिषज्‌-मेषल्‌ ; पहर्वी में यह शब्द वेदाज्‌ रूप म मिकूता है । मी प्राचीन ही है । आध्यात्मिक विचारो तथा बाह्य कलाकौश्चल
इसीके अत्यधिक विक्त रूप आधुनिक फारसी का बेजिशक साब्द,
आदि में उन्नति कै रदिखर पर पवा हआ भारत सवसे मुख्य
आरमीनियन भाषा कै बेङ्हिद्क ८वैय ) बेऽ्दकेर ( विरोपण-घाव
रारीरयात्रा कै ल्यि उपयोगौ चिक्गित्साविज्ञान मेँ किस्त प्रकार
मरना) है 1 8 1, 0. 9391677, ए. ए, 2. ए० 4, 2.757. उदासीन रह्‌
सकता था । आयुरव॑दीय संहितार्ओं मे तो इससष्टिकी
¶ प्राचीन इरान कै प्रचङ्ति चिकित्सा विज्ञान पर ग्रीर्कोका उत्पत्ति के साथ ही ह्या से आयुतंद का उद्गम वतलाया गया है ।
विल्कुर भी प्रभाव नहीं है । इरानिर्यो के उवेस्ता नामक मन्थ अन्य विधा कौ तरह नैक विषय भी ऋक्‌, यु, साम,
म ( 50१69 ) राब्द प्रयुक्त हआ हैजो कि निश्चित रूप में तेत्तिरीय तथा अथववेद में विशेषरूप से पाये जाते हे ।
गाथाओं की अपेक्षा प्राचौन ग्वेद तथा अथववेद मँ प्रयुक्त इए वेदिक कारुसे दी आयुवेद का सन्मान होने, से इसे उपवेद
भारतीय शब्द्‌ मेषज या मेषञ्य से निकला हुआ प्रतीत होता है। नाम द्विया गया है । वैदिक काल म अन्य विदार्जो की तरह
इस शब्द का मूरु इन्डो-युरोपियन नदीं है तथा यीकं लोग भमी आयुवेद मे भी बहत से विचारशौर तथा तखद शींऋषि हए है ।
इसे प्रयुक्त नहीं करते थे । इस राब्द का इरानी भषामें होना इस उस समय संकड़। वेया; हजारो ओषधियो, अनेक रोगो तथा उनके
बात कौ प्रकट करता है कि इरानियो ने चिकित्सा विज्ञान थीको से
उपार्यो के होने का प्रतिपादन पहले ही किया जा चुका है। उसके
नहीं, अपितु हिन्दुस्तानिर्यो से ग्रहण किया है। यदि हम यहबाद मी आधुनिकं विचारो कै अनुसार लगमग तीन हजार वषं
मान मी रे कि अथववेद तथा अवेस्ताएकदही कालके तो मौ
प्राचीन माने जपनेवाङे एेतरेय, इतपथ तथा कौषीतंक्रि आदि ब्राह्मण
यह निःसन्देहं हैकि ग्वेद इन दोनों से प्राचीन है तथा यह
दाब्द ऋग्वेद मेँ भी पायाजाता है, (१) इसकी टि० सं० उपो० पु० ७७ का०रमेंदेवै।
८० . उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
|
11 103194 2 |©< मी भी भ.

गन्धो मे छान्दोग्य तथा गर्भोपनिषत्‌ मेँ श्रौत एवं गृद्यखों मँ ओौर | के लघ दो जाने के कारण यदपि आजकल उपलब्ध नहीं ह्येता ह
रामायण्‌?(१) सहामारत(२ तथा पुराण आदि्यो मेँ मौ अङ्ग-प्रव्यज्ग, | तथापि उपलब्ध अत्रय, सुश्रत तथा कादयप आदि के अन्धो मँ जये
सारीरिक रोग, उसके परिहार के उपाय, ओषधि आदि आयुवैद के |इए विषयों को देखने से यह कहा जा सशता है कि उक्ष समय वह
विषय, उनके इतिहास तथा उपाख्यान आदि का उर्रेख भिकतता है । |विज्ञान अत्यन्त उन्नत अवस्था मेँ था । कायचिकित्सा (11९0००९)
महाभारत(ई) के युद्ध मे भौ स्थान र पर योद्धाओं के साथ वर्चो का |के विद्वान्‌ अत्रैयः, कदयप तथा मेड आदि दारा मी शस्यक्रिया
जाना, सव उपकरणों से युक्त तथा शाखो म पारङ्गत अनेक |( पण्य ) का निदेश करने से ज्ञात होता है कि शस्यविा भी
चिकित्सकों का युदधशिविरो मे उपस्थित होना तथा उनके द्वारा | प्राचौन थी तथा उस समय प्रथक्‌ प्रस्थान ( विज्ञान )के रूपँ
आहत (घायल › रोगियों की चिकित्सा का उक्रेख भिरुता है । | प्रसि थी । इन आत्रेय आदि द्वारा उदिखित शाखाक्य आदि अन्य
मत्थू(४) ने भी इस विषय का निर्देश किया है। रामायण मँ | ६ विभागों के विषयमे मी विचारपृणं एवं प्रौड मन्थ हग) काठ
सुषेण वैव की कथा प्रसिद्ध ही है वदा ये अन्थमौ लुक्च हो चुके है यह भौ खेद का विषय दै ।
कौटिरीय अथंद्याख के युद्ध ५) प्रकरण मे शख, यन्त, आशिन) भारद्वाज, जतूकण, परादार, हारीत, क्षाराणि, भानु-
स्नेह, वख तथा हस्तिचिकित्सक ओर खौचिकित्सक आदिय के मी | पुत्र, भोजं+ तथा कपिख्वर आदि आचार्यौ कर भूततन्त्र के मूक
सेना के पृष्ठ भाग मँ होने का निदश मिक्ता है । पुराण-इतिहास | अन्धो के आजकल न मिकने प्र भी उनके वचन प्राचीन ताडपन्नीय
आदि मेँ मीः यह विषय पर्याप्त मिरुता हे । ञ्वरसमुच्चय मं तथा इनके ओर इनके अतिरिक्त अन्य भी कु
. महाभारत मेँ ताहे किगाल्वक्रषि गुरुदक्षिणा में देने के |आचार्यो कै क्चन बाद के तन्व्रसार, चरक की व्याख्याओं तथा
स्यि घोड की प्रापि के छ्यि जव कारीराज दिवोदास के पास | निवन्ध्न्थो मे उद्धृत भिरूते हँ । इनसे रपष्ट ज्ञात होता है कि उस
पहुंचा तो उसे हिमालय कौ तलदटी मे वायन्यदिका में मारीच | समय तक भी उन आचार्यो के मन्थ उपरब्ध ये तथा उनका
परिशी-
कश्यप का आश्रम वतराया गया । इसप्रकार दिवोदास के कुद पूर्वं |लन मी किया जाता था । |
अथवा उसके साथही आश्म बनाकर रहने वाङ मासेच कदयप का माचीन क्रेय, कश्यप आदिः कम्पि तथा गङ्गद्वार आदि मेँ
उच्लेख, मारीच कश्यप का ऋक्सवाँनुक्रम खत तथा इहदेवता मेँ |तथा भिन्न र स्थानं मेँ रइने वाके आचार्यं उन २ स्थानों पर अप्ते
भी उल्लेख है, आत्रेय के समकाटीन के रूप मेँ मारीच कश्यप का | रिष्य सम्प्रदाय में उपदश्य परम्परा द्वारा हयी केवरु अपने विचासेँ
उक्केख, वार्योविद फा म।रीचकदयप तथा आन्रेय पुनवेसु के साथ को प्रकट नहीं करते थे अपितु जिसग्रकार आजकृर्‌ कते वेच भिन्न र
सहभाव, छृष्णात्रेय तथा पुनव आत्रेय का समानाधिकरण ( एकं |संस्थाओं तथा वि्यापीठे के प्रतिनिधि रूप में भिन्न २ संस्था तथा
व्यक्तित्व ), चिकित्साविज्ञान के प्रबतंकके रूपमे कृष्णात्रेय का |विचापौँ के प्रतिनिधि रूप म भिन्न र स्थानों
मे एकन हौकर उसे
महाभारत मेंनिदेश, आत्रेय के शिम्यरूप मेँ मेड का उक्टेख, मेड के |सम्मेरन का रूप देकर उसमे नवीन एवं प्राचीन
विष्यो के सम्बन्धं
सहभाव तथा अत्रेय पुनव के शिष्य के रूप मँ गान्धार के राजा |मे विचार करते हैँ उसीप्रकार प्राचीन कारु मी समय २ पर
नञ्मजित्‌ का उर्रेखः, न्जित्‌ तथा दारुवाह का एक ही हना, दार- |भिन्न २ देयो के तत्कालीन विद्वान्‌ एवं प्रसिद्ध आचार्य भिन्न
२१
वाहं का काश्यप संहिता मे निर्देश, गान्धार के राजा नश्नजित्‌ का | स्थानों मं एकत्र हौ कर तथा परिषत.की स्थापना करके परस्पर
देतरेय मे तथा गान्धार के प्राणवित्‌ नश्नजित्‌ तथा उसके पुत्र वजत |विचार विमं किया करते थे।
इसप्रकार विचार विम के वाद
का शतपथ ब्राह्मण म कीतेनः दिवोदास का कौषीतकित्राह्मण, वौषी- ।कसौरी पर कसे हए उञ्ज्वर रत्नो के समान वे सिद्धान्त नवीन २
तकि उपनिषत्‌; काठकसंहिता के बाह्मण अंडा तथा महाभारत मेँ |विचार तथा उनक्रे अभिप्राय आदि उनकी संहिताओं मे स्थान पातेथे।
उल्लेख तथा दिवोदास के पूर्वपुरुष के रूप मेँ धन्वन्तरि का उव्ेख पाणिनि दारा मी गगादिभ्यो यञ्‌” (४-१-१०५ ) सत्न क
इत्यादि उदाहरणा को दृष्टि मेँ रखकर विचार करने पर प्रतीत होता |गर्गादि गण मे जतूकणः, परार, अभ्रिवे् आदि दाब्दं का उछेख
हे कि मारीच कश्यपः, पुनवेखु आत्रेय, मेड, नश्नजित्‌ दारुवाह तथा |किया होने से, 'कथादिभ्यष्टकः (४-४-२ ) खक कथादि गणम
वार्योविद आदि चिकित्सा शाख के माचायं, पेतरेय, कौषीतकि, रात- |आयुर्वेद शब्द से श्साघुः
अथं मँ आयुवेदिकः पद कौ सिद्ध किया
पथ, काठकं तथा अन्य ब्राह्मण भन्धो से पूवं तथा धन्वन्तरि भौर | होने से प्रतीत होता हैकि उस समय भी आयुवंद
दिवोदास के समान दी ब्राह्मण अन्य तथा उपनिषदो के काठ मँ थोड़े |स्थाम थी तथा उस विधा विद्या उन्नत अव-
के कुश विद्वान्‌ मी बहुत से ये।
बहुत पौर्वापर्यं सम्बन्ध के साथ विचमान ये, जैसा कि पहले मी
निर्दे किया जा चुका हे । आत्रेय तथा कारयप आदि दाराभी तमवालीन न ।भ पजान हे मडि दलुरको
बहत से पूवौचायो के मत तथा नामों का निदेश भिर्ता है । इन |` न हिमालय के पाव,
आत्रेय आदिथ द्वारा संहिता के चेत्ररथ वन, जनपद मण्डल, पान्राल क्षेत्र
निर्माता होने पर
के विप्रकीणं विषय भी संगृहीत किये गये प्रतीत होते हैभी। पूरवाचार्यौ | काम्पिल ्य की राजधानी तथा प्ञ्चगङ्गा | नामक स्थानो परआायुेदीय
विषयो पर विचार करन के स्यि महषि्यो के एकतर होने का चरक
इसप्रकार वेदिक काल से परम्प रपूतक भाया इ तथां ममदः संहिता म स्थान २ पर उश्छेख भिल्ता हे
। विमानस्थान मे परिषदो
विकास के दवारा इद्धि को प्रा इमा चिकित्सा विज्ञान प्राचीन अन्धो | को निश भी है। कार्यपसंहिता
मै भी जातिरल्रीय अध्यायमें
(१) १-२ की टि० सं°उपो० १० ७७ का०र मे देख । | इति परिषद्‌ ( १. ७९ ) भूयांस ( ¶. १५२ ) इव्यादि द्वारा परिषत्‌
(४१.४५ की टि" सं० उपो० १०७८ का० १ मेदें । | तथा विद्वानों के समवाय बा उक्टेख मिलता है! |
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ८१

वमन्तरायुर्वेद प्रामाण्यवच्च तत्परामाण्यमाप्तप्रामाण्यात्‌? (२-१-६७) इस होने के समान अत्रय ने मीश्धान्वन्तरीयागाम्‌? तथा ष्फः इ्यादि
स्त्र द्रारा खकार गौतमने जिसप्रकार उन २ ओषधयो के उपयोग राब्दोँ द्वारा धन्वन्तरि सम्प्रदायक्रा निद्र फिवाहै। चिकित्सा
तथा उपदैश् कै अनुसार उन २ रोगौ की निवृत्ति से आयुकेद्‌ तथा स्थानके द्वि्रणीय अध्याये चद्यपिद्या द्वारा उपचार्य कामी
विषभूत अशनि ( विजलछी ) के प्रतिषेध के ल्यि मन्त्रके फलौको निर्देश है। परन्तु वह निर्देश पौकठेसे इृद्व्रक द्वारा पूरित अशर्म
देखकर उनकौ प्रामाणिकता को स्वीकार किया है उसी प्रकार सव्र ही मिक्ता है । टीकाकारो के विभिन्न मतके द्वारा उस अं्चकै
वेदनाओं के कयि आयुर्वेद को प्रामाणिक मानकर उसकी व्यवस्था आत्रेय अथवा अधिवेरीय होने का संद भिन्तेपरमभी उसी
करने से इन प्र चीन आचार्यौ के समय भी आयुर्वेद विचा का प्रचार, अधराय मे इति षड़्विधमुदषठं शखकमेमनीषिभिःः (दलोक ६९)
उसका सन्मान तथा प्रामाणिकता ज्ञात होती है। न्यायमञ्जरी(१) के तथा ^तेषां चिकित्सा निदि यथास्वं स्वे चि किस्सिते, (रोक ११९)
रचयिता जयन्तम ते मी इस विषय मेँ बहुत कुद रिखिा है । न्यादि वचनः ॐ भिल्नै से इसका प्रस्थानान्तरीय तथा परकीय
महावस्ग आदि पालीग्रन्धेः-म कालाज्ञन, रसाज्ञन; खौतोज्ञन सम्प्रदाय करूप मे निर्देश किया गया है। उसे पूरं अरोचिकित्सा
तथा गैरिक आदि ओषधिर्यो, मगन्दर आदि रोगो, त्रिदोष, स्वेदन, के प्रकरण `अ. १२ › मँ उपचाराथक नाना प्रकार कौ ओषधियौ का
वस्तिकर्म आदि बहुत से भारतीय आयुवदिक विष्यो के उन्दी रब्धो प्रथम निर्दे करके निम्न इलो द्वारा शख क्षार तथा दाह ( ९५४.
मे भिट्ने से तथा जीवक के चिकित्सा वृत्तान्त से बुद्धके समय 83०0 ) प्रक्रिया को दूसरे आचार्यो के मतकेरूपमेदियाहै
( ६०० ईस्थी पूवे )मी आधुवैद का प्रचार स्पष्ट प्रकट होता है । तथा अल्पज्ञान के कारण हानिकी सम्भाव्रना होनेसे पणज्ञानकी
महावग्ग मँ आये हुए जीषक के चरित्र का अनुसन्धान करने आवदयकत्‌ा दिखलाकर इस विषय मे अत्रेयाचायं ने अपने को तरस्थ
पर गुरु द्वारा ओषभिरयौ की आलोचना करने के खियि नियुक्त किये हयी रखा है- | ।
गये जीरक द्वारा एक भी अनुपयोगी अषौधि के प्राप्त न कर सकने ` तचत्राहरेके. शसेण कतंनं हितमदसाम्‌ ।
के उछेख तथा सेषज' प्रयोग द्वारा अनेक तीव्र रोगों कौ चिकित्सा दाहं त्तरेण चाप्येके दाहमेके तथाथिना ॥
अस्त्येतद्धरितन्त्रेण धीमता दष्टकमेणा ।
का इतिवृन्त भित से उसका कायचिकित्सा मँ तथा `अन्त्रभेदन
क्रियते त्रिविधं कमं श्रंशस्तत्र सुदारुणः ॥.
कपालमेदन आदि द्वारा चिकित्सा का उच्छेख मिलने से इास्यक्रिया
( चि. अ. ६२ रलोकः २३)
म मी इसके असाधारणं ज्ञान का परिचय भिरुता है । महावग्य;
तिन्वतीय कथाम तथ। जातको मं उप्तके द्वारा बुद्ध तथा तत्कारीन सुश्चनसंहिता मेँ आटो प्रस्थानोमें से किस प्रिषय मेँ उपदेह
राजा; की चिकित्साका निर्देश होने से उसका बुद्ध सामयिक करू, दिवोदास की इस उक्ति के समान अत्रिय पुनवयु की इसप्रकार
होना तथा उन्द् केखौ के अनुसार उसका तक्षशिला में अध्ययन का की किसी उक्ति केन मिलने से, त्रेयसंडिता म विषतन्त्र आदि
भी निश्चय होता है। परन्तु महावग कै अनुसार उसका किसी अन्य विषयो का प्रवेश्य द्ोने पर भी चछस्यविद्या के विषयमे उपदेश

प्रसिद्ध आचारं द्वारा ही वि्यध्ययन का उक्टेख मिलता है । कुड्‌. न' मिलने से, आनेय के दर्ओ- हिष्योँ के कायचिकित्सा पिषयक
रोग कहते हैँ कि तिब्बतीय गाथार्जो ( (४6४५ 79163 ?. 94 } ग्रन्थौ केदो निर्माण करने से, तथा अस्यचिकित्सा के विषय मं
के अनुसार आत्रेय द्वारा उसका विघाध्ययन भिर्ता है । इसप्रकार उक्के किसी मी शिष्य का उल्छेख न भिरंने से आजकरर कायचि-
वास्तविकता का निश्चयन कर सक्ते के कारण यहु नहींकदाजा कित्सा तथा शखचिकरित्सा मै असाधारण योग्यता वाङ चिकत्सर्क
कता कि यह आत्रेय ही चरक संहिता का मूर आचाय पुनवसु ( एक ञअनेक्प ४70 §पः‰९००३ ) की पृथक्‌ प्रसिद्धि के संमान उस
आत्रेय है । चरकसंहिता के अनुसार मी उस समय पुनवेसु आत्रेय, समय पुनवंसु आत्रय के कायिकिसाके पिषय मेही. असाधारण
भिष्चसात्रेय तथा कृष्णाध्नेय मादि तीन प्रथक्‌ अत्रेयो का वेद्यक परिचा पाण्त्य तथा आचांयेभावकी प्रतीति होती है। महप्रग्गमं निर्दिष्ट
के आचार्यक रूपमेँ ज्ञान होता है वस्तुतः आत्रेय केवर गौत्रनाम जीवकं की तो कायचिकित्सा के समान दाखचिकित्सा,म भी अस्ता
ह्य है। उत्त गोत्र मेँ उत्पन्न हुए अनेक व्यक्ति पूवापर सम्बन्धसे धारण विदन्त का परिचय {मिछताहै। यदि यहं जीवकं. पुनवृसु
मच्रेय नाम से कहे जा सकते हैँ । जीवक के आचायैरूप मेँ मिर्ने ¦ आच्रेय का शिष्य होता तो उस आव्रय के अभ्वं आंदि अन्य छा
वाडा आच्रेय इनमे कौनसा है, इसका निश्वयन होने से केवर शिष्यो हारा इस असाधारण योग्यता वाठे अपने संहपाटी का नामो-
आत्रेय सन्द की समानतासे इस पुनवंसु आत्रेय को ही जीवक का ल्लेख अवश्य होना चाहिये था। आत्रेय पुनव से पृषं अत्रि
गुरू कहना किन है । आत्रेय द्वारा चिखषणीयाध्याय मँ तीन प्रकार , परम्परा वाङ किसी अन्य अध्रिय का जीवक सिष्य होः यहं कसना
की ओषधियो के वणन मेँ “शखप्रणिधानं पुनश्डेदनभेदनन्यधन- मी नदीं की जा सकती । क्य,कि उस अवस्था चरकसंहिता के
दारणरेखनोत्पारनप्रच्छुन्नसी वनेषणक्षारजरोकसश्च' ( पृ. ५७८ ) उपक्रम तथा मध्य मेँ जडा प्राचीन एवं प्रसिद्ध आयुतरैदाचार्यौ का
. द्वारा सस्य चिवित्सा.का केवल नाममात्र उल्छेख.किया है तथा वह्‌ सिदद किया है बहुं इतने प्रसिद्धं तथा आयुवेद के पिद्वान्‌ जीवक
भौ उस अध्याय के विषय के अन्तम छृष्णत्रेय के नामसे दिये का नाम क्यो नहींदिया गया है । यदि अन्नेयं पुनञ्सु को बुद्ध
होने से कृष्णात्रय का ही मत प्रतीत. होता है । .कादयपसहितामें कारीन जीवक के गुह अत्रय से मी अ्वाप्रीन्‌ माना जतो
"परतन्त्रस्य समयस, द्वारा खस्यविचा का परतन्त के रूप में उल्लेख वार्योभरिद, वामक आदि काशीनरेश तथ। वैदेह निमि के. समकालीन
वणैन करते हए अत्रय पुनवखु ने .जातक कै अनुसार वैथ्क का
८. ८.१.) इसकी रि० सं० उपो० १०७८ का० २ मेदे । अध्ययनं करनेवाले काशैपति ब्रह्दत्त के नाम.का भी -उल्ेख ॥।
११ उ हि
८२ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
० क्क कक ८ क ० अ 0 9 9 ठ

नहीं किया है १ उसके समकालीन कारयप ने मी इसका नाम उल्छे न होते पर मी तिब्बतीय गाथा मेँ तक्षद्िला मे जीवक
क्यो सही द्विया ? अगिनवेद्च फे आचार्यं आत्रेय का आत्रेय पुनवैसु का अन्रिय द्वारा वैधविचा के ग्रहण का उ्छेख मिरूता है । चरक
तथा काम्पिद्प निवासी के रूप मेँ निर्दय मिलता है । बुदसामयिक संहिता मे आत्रेय द्वारा मरीचि कश्यप का उच्छेख हौने प्र॒ भी
जीवक के आचार्यं आत्रेय का तक्षद म निर्देश मिरुता है। प्रसिद्ध जीवक का उव्छेख न होते से संहिताकार मारौचकदयप की
काम्पिल्य वेदिककार से प्रसिद्ध हैतथा तक्षरिला की प्रसिद्धि तो अपेक्षा जीवक वाद का प्रतीत होता है। बृद्धनीवकीय गन्धम
पीछे हई है, जेसा फि पदक भी कडाजा चुक्रा है। यदि अत्रेय प्राचीन कदयप के साथ जोव के प्रश्नों तथा प्रतिप्ररनो का निर्देश
पुनवसु को अ्ाचीन मानाजायतो इतने प्रसिद्ध तक्षरिखा तथा मी अपने अन्थ की मौलिकता का प्रदश्चेन करने कै अभिप्राये ही
पारच्पुत्र का उसने निदं क्यो नहीं फिया। इस्त प्रकार अग्रिय प्रतीत होती है। इस अवस्था मे उसकी ठेखनी द्याया सी उस समय
पुनवेखु का कारु अर्वाचोन नदीं हो सकता है। संभवतः इसके बाद कै उत्सर्पिणी, अवसपिणी, निग्रैन्थ आदि ठोकप्रसिद्ध शर्ब्दो का
तश्चरिला मे वसिष्ठ आदि शब्दौ की तरह आत्रेय गोत्रवाला काय- प्रवेश संभव है । इस प्रकार स्थारीपुलाक न्याय से नाम तथादेश
चिकित्सा तथा शल्यचिकित्सा दोनो का पिद्रान्‌ कोई अन्य ही की समानता मात्र से जवरदस्ती इस अत्रेय को मी वह्यं माना जाय
व्यक्तिहो। उसी आत्रेय से ही बुद्धकाटीन जीवक ने संभवतः तथा ब्रद्धजीवक को मी बौद ग्रन्थोक्त जीवक ही मानाजाय तो भी
विद्यःध्ययन किया हो । इसलिये केव आत्रेय शब्द मात्र को ही आत्रेय तथा जीवक का समय बुदधकालीन सिद्ध होता है, न कि
केकर आत्रेय पुनवेषु को जीवक का गुरु सिद्ध करना उचित उसके वाद का इत प्रकार मीये २६०० वषं से अवांचीन सिद्ध
नहीं है। इन सवर वार्त कापहठे भी निदेश किया गया है, नदीं होते है।
वृद्धजीपरक तथा जीवक नाम से पृथक्‌ २ प्रसिद्धि होना भी दोनों बुद्ध सामयिक जीवक मी दाय्यप्रक्रिया तथा अनेक प्रकार कै
के मेद तथा पूवापर मावको प्रकट करता है । इस प्रकार सव वातं असघारण ओषधप्रयोर्गो सै प्रसिद्धि पाने के कारण उस्र समय
पर तिचार करने पर तिब्बतीय गाधाओं मँ निर्दिष्ट आत्रेय मी दोन प्रस्थान मं ( खस्य तथा कायचिकित्सा पिमाग) धिद्लेषरूप
पुनपंसु आत्रेय से भिन्न तथा पश्चात्‌ का प्रतीत होता है। से परसिड था । उस्र समय अच्छे गुरुओ कै कारण अध्ययन तथां
यदि पूर्गक्त धिवरण के आधार पर इस तन्त्र के आचार्यं वृद अध्यापन की प्रणाली गौरवयुक्त होने के कारण अन्य भी सैकड़ँ
जीवकं ओर महावरुग आदि बौद्ध अन्धो मेँ निदिष्ट प्रसिद्ध पैव व्यक्तियों के आयुर्वेद कै विज्ञान कायचिकित्सा तथा शाख्निकित्सा
जीवक के जन्मस्थान, युरकुल ( रिक्षास्थान ) तथा चिभरित्सा के दोन मे पूणं यौवन पर पहुंचा हुमा था ।
शतिवृर्ता मे परस्पर विपरीत संवादो के मिलने पर भी भ्रिरेष अत्रय कै शषिष्यरूप मँ उछेख होने से जीवक नै, उसके वणन
दृष्टिं से छवि गये इतिहा मँ जो श्सपे विपरीत उच्छेव मिरुता म जये हु उसके क्रिया कौशल तथा उसके परिणामो कौ इष्टि मेँ
है वह संभवतः प्रमेय अंश मात्र को केर हयी छा गया ह्ै। रखते हुए प्रतीत होता है कि कायचिर्वित्सा के ज्ञान के स्यि चरक
महावग्य में उप्तके पूवं चित्र के अनुसार उस्तका कुमारभृत्‌ नाम संहिता कौ प्राचीन अग्रतिसंस्छरेत अवस्थावाखो अत्रेयश्चंहिता का
उचित होने पर मी कुमारमचो इस विेषण से तथा राजछुमार तथा शद्यप्रस्थान केज्ञानकै खयि आत्रैयसंहिता मँ मी सन्मान
अभय दवारा पालन क्यिजनेकानिदंच होने से उफी सङ्गति पूवक धन्वन्तरि का उछ होने से प्राचीनकार मं असाधारणस्प
न्दी वेत । पालीयन्थो के अनुार उसका कौमार्य के ज्ञाता से प्रसिद्ध सुश्वतसंहिता अथवा उसकी पूवं अवस्थारूप धन्वन्तरि
केरूप्मदही निदेश दहै पूवे सम्प्रदायो कै अनुत्तार कुमारभरत्य दिता का दही अध्ययन किया था। यह्‌ जीवक वही हो, चाहे दूसरा
राब्द से वालचिकरितसताकादही बोध होता है। कालीदास(१) नेमी हो, उसने बालतन्त्रं के ज्ञान के च्यि मी उस समय प्रसिद्ध
इसी थमं इस शब्द का प्रयोग किया है। इतने प्रसिद्ध उस पैव काद्यपसंहिता का ही अध्ययन किया प्रतीत द्योता है। इनके साथ
का बालचिकरित्सा का उच्छेख न होने पर मी, उस पिषय मेँ ज्ञान
ही उससमय परम्परागत आश्विन, भारदाज आदि की उपलब्ध
हो सकता हे।प्राचीन इतिहासो मे कीं २ यैतमिक पिषर्यो के संहितां कौ मी उसने विशेषज्ञान के ल्यि संमवतः देख ल्या हो ।
उपस्थित दोने प्र किसी देवीय राक्ति अथवा किसी कौतुक | उस समय उपस्थित इन आषं यर्न्थो की भौर प्राचीन कार में
-तथऽप्णल) का स्थान २ पर उक्छेख मिलता है । इसका अन्तदि से प्रसिद्ध तथा इतिहास मेँ मौ मिर्ने वङ़् आत्रेय आदि आचार्यो को
मनन करने पर वह्‌ रहस्य किसी दूसरे रूप मेँ प्रतीत होता इ । च्रोडकर अनुपस्थित विदेशो आचार्यौ द्वारा अध्ययन की कस्पना
स्स ग्रन्थे निदि पाच वषे वाठे जीवक के गङ्ख के कुण्डम करना संगत प्रतीत नहीं होता । यदि रेता होता तो अकन्रैय का
डवकी ठगाकर्‌ क्षणभर मँ वल्पिकिति रियो एवं सफेद बाल से) उष्ेख करनेवाङे तिब्बतीय गाथार्ओ तथा जातक आदि ग्रन्थो में
युक्त होकर दृद्धभावको प्रप्त करने मेँ कु कौतक है । बौद्ध अन्धोक्त इस आदाय का निदेश भी अवद्य होता ।
जीवक का भी उत्पत्ति सवन्धी बाख्वृत्तान्त असाधारण है! इस प्राचीन कालस हयी भिन्न २ विधार्ओं के सम्प्रदार्यो द्वारा उन्नेत
भकार दौर्नौ मे कु बाररहस्य विचमान है ¦ पञ्चनद, गान्धार
आदि पश्चिम विभाग मे अनेक आचार्यो द्वारा पैवक विवा ® स्थालीपुरकन्याय--हाडी मं एक चाव को पका हुजा
की वृद्धि, जेधक के अन्धो के बनाने वारं के आचार्यं के देखकर शेषके पकनेका भी जिस प्रकार अनुमान क्र स्या
रूप मे आत्रेय का उर्लेख तथा मदावग्ग मेँ आत्रेय के नाम का जाता है उसी प्रकार किसी वस्तु के एक शा को देखकर जव शेष .
काअनुमान कर लिया जाता हैतव यह व्यवहृत होता ह ।
(८२ ) इसकी दि० संस्कृत उपो० ¶० <०्काश्मै दे ` . ।. ~ -(भलुवाकक).
उपौद्धात का हिन्दी अनुवादं ८३
१०.०.९१ १.०. .१.१,१.०.१.१.१.०..०.९...०.०.२. अ

मारतीय पश्चिम विभाग मेँ तक्षशिखाके आसपास का प्रदे बनकर आये हट स्वयं मीक वैव मेगस्थनीज ( 1९82506९ )
बुदधकार से पूवं पाणिनि, व्याडि सदृशा अन्य भी सेक वेद दारा मी धीक वर्चो कामारत मे अध्यापक होने तथा प्रभावका
वेदाङ्खो तथा आयुवंद के पण्डितो द्वारा प्रतिषठितथा ¦ इस विषय उछेख नदी किया गया है अपितु इस्के विपरीत चन्द्रगुप्र कै राज्य
मँ रास डेविड नामक विद्धान्‌ का मत भारती नामक मासिक मं रहने वले विदैदधियोौ की चिकित्सा मी *मारतीय वेयौ द्वारा
पत्रिका (वषं ४८ प०७०४ म दियाइम है फि तक्षशिला किये जनेका उषेख कियाहै । इसप्रकार स्पष्ट प्रतीत होता है
विश्वविद्यालय मै आयुर्वेद, धलुर्वंद, गान्धवै विचा, अर्थलाख, रायन, कि यारत मँ चिकित्सा विज्ञान भासर्तीयो केही हाथमे था
ध्मशास्च आदि बहुत सी विद्याओं का अध्ययन तथा अध्यापन इसमे विदेदिर्यो का नाम मात्र मी प्रमाव नहींथा।
होता था । आयुवेद शाख का विद्ेष रूप से अध्ययन होता था । हिपोक्रिटस संबन्धी विचार-
उस विश्वविद्यालय में बेविरोनियन, भिद्यर, फिनिरियन, सीरियन,
पाश्चात्य मीक ठेचक मे प्रधान आचायैके रूपमे हिपोक्रिरस
अरव तथा चीनदेकश्लके भी बहुतसे पण्डित वैक की शिक्षाक का निर्दर मिता है । उसका अन्म कास ( ५०8 ) नामक स्थान
सवन्ध मे एकत्रित होतेये । इस प्रकार तक्षशिला की महिमा का म ४६० स्वी पूवं अथवा दूसरे मत से ५५० इेस्वी पूवं मेँ हज
वणेन किया है । किन्तु उपर्युक्त वणन करते हए उसने जो यह था । इसने अपने पिता ( ८४०10९8 ) तथा ( 8०41०४8 ) से
छ्िखिादहैकि उस समय यीकलोग मी आयुर्वेद की चिकित्सा के विघाग्रहण कीथी ¦ विद्याध्ययन के च्थिदूर विदे्ौमं मी वह
स्यि तक्षरिला मेँ आत्तिथे तथा वहीं जाकर जीवक ने सी आयुर्वेद गयाथा 1 नसे ११० वषं कौ अवस्था मँ उसके जीवन कालके
शाख का अध्ययन किया था । यह समवतः बाद मँ बौद्ध कार के विषय मे अनेक मतभेद दिखाई देते ह । ‡ष्टेटो ( र] ई० पू:
प्रसारकेसमय को दृष्टम र्खते इए लिखा गया है । जातक ४२८-३४८ >)नामक विद्वान्‌ ने हिपोक्रिटस के भैषज्य विद्या
गर्न्थो मँ भी तक्षद्िला विश्वविद्यालय मेँ भारत के भिन्नर प्रैर्शो अध्यापन की दृत्तिका उछेख प्रोरागोरस ( ए०॑श्ुणणऽ ) मन्थ
से आये हुए विचाथिर्यो का भारतीय अध्यापका द्वारा भारतीय तथा दशन विषयक केद्रसं (2४०९0८७) अन्ध मंदो वार्‌
पूर्व-सम्प्रदाय कै स्मृति, आयुर्वेद, धनुवंद, अ्थंाख्र आदि यर्थ किया है । टिमियक्तं ( 11५96४9 ) नामक इन्द्रियविज्ञान विषयकं
के ही अध्ययन कां उछछेख मिलता है । आत्रेय द्वारा जीवक के ग्रन्थ मे उसने इसके नाम का उख नहं किया है । अपने
अध्ययन का कार प्राचीन है । इस प्रकार जीवक के अध्ययन नैतिक यन्थ मेँ मरिष्टाटलई ( 4 पञण्धट ई० पू० २८४-३२२ )
संबन्धी विष्यो तथा बाद के बौद्ध -सामयिक विषयो को परस्पर
एक यत्र में मिलादेनैसे श्रम उत्पन्नो गयाहै । महावग्म मँ * विदेद्धियों के च्यि भी रएेसे भारतोय अधिकारियों की
निर्दिष्ट जीरक के अध्ययनके समय मगध मी वौद्धधमं की नियुक्ति की जाती धी जिनकी च्युटी पर देखना होता था कि कोई
प्रारंभिक अवस्था उत्पन्न हौ गई थी । बुद्ध के इतिवृम्त के द्रारा विदेशी बीमार नदौ जाय । ५दि उनमें से को$ बीमार हौ जाता
मी उस समय मगध, साकेत, कपिख्वस्तु आदि आसपास कै धा तो वे अधिकारी उस्की चिकित्सा के खयि चिकित्सक कौ
प्रदेशो मे दही उसके प्रभाव की प्रतीति होती है । मज्ज्मनिकाय भेज देते थे तथा अन्य प्रकार से भी उसकी देखभार करते थे।
आदि पारीत्रिपिरक अन्था का अनुसन्धान करने पर यमुनाके ( 100०0178 11९09500९०९8 ` 220 „4पतन २, 49 )
पश्चिम विभागमे बुद्ध के जने तथा उप्तके धमप्रचार का उछेख ¶ 3५85, (सुदास), 1260268 ( जोल्जस »)तथा 8०.808
नहीं मिरूता है । तक्षदिला के वर्णन करते वाके महावग्गमे भी ( सोरानस्‌ ) ठेखको द्वारा ङिखित दहिपोक्रिय्स के प्राचीन जीवन
उस प्रदेरा मेँ बौद्धधर्म के प्रमाव का निर्दे नहीं है । अक्ञवजेण्डर चरित्रं से ज्ञात हदोताहै कि दिपोक्रिरस कास (०08) नामक
( सिकन्दर ३२६ इस्वी पूवं } के आगमन के समय भी अन्य किसी स्थान मे ४६० ईस्वी पूवे मे उत्पन्न हुञा था ।
राजा द्वारा अधिष्ठित तक्षशिला मँ वौद्धधमं का प्रमाव प्रतीत नहीं ( प17००५५८९३ ४०] 7 7. 1.11 )
दोताहै । बाद मे अशोक कै समय ८ ईस्वी पूतं २६२ से २३२) ‡ पूव मन्थ ( २००४०६०८८७ ) से हम ज्ञात होता है किं
अथवा भििन्दर द्वारा बौद्धधमंके यहण के बाद बौद्धधम का हिपोक्रिरस (0०) देश का रहने वाला एवं (4.ऽननुष्त) था तथा
प्रचार हने से तक्षशिला विश्वति्ाल्य में भी उसका भ्रमाव उसका व्यवसाय चिकित्सा ज्चाश्च के विद्यार्थियों कौ पदाना था।
सकता है । यदि यीकवै्यो का वहां आनाहआदहोतो वह बाद इस ग्रन्थ ( ९10४९0०5 ) से हरमे इसके. अतिरिक्त कुड विशेष
मे बौद्धवमं के प्रचार के समयदही संभव दहो सकता है । बुद्ध ज्ञात नहो होता कि वह हिपोक्रिरस फीस ( ्युल्क ) ठेकर विधा-
, सामयिकं जीवक के अध्ययन के समय तो मीक वैद्यक के पिता भियो को पदाता था ।
दिपोक्रिरस ( 100००५८३ ) का जन्म मी नहीं हा था ( 12.108 70४2708 311 ए, 0. ) `
इसल्यि उसका आना संमवदही नहींहै। तथान उसके वादके ( प 7एए0०न४€8 ४० 1 ९, इरा)
अन्य रोगो का वहां अध्यापक्‌ होना संभवहै । उस समय यीक | ( 866 8180 8०8 ९0 ४€07प8. {01 ०1 12. 111}
वैद्यक के अध्ययनके स्यि भारतीयोंका उनके देम जनिका § अरिधदर के अन्धो से हमे ज्ञात होता है करि दिपोक्रिसं .`
तथा यहां भारत मँ आकर भारतीय वैक में प्रवीण होकर किसी पहले से ही महान्‌ दिपौक्रिरस ( {€ 0९४ पतए0००य ६68 )
ीक वैच का भारतम अध्यापक होने का वणन भारत तथा ग्रीक करता चा । |

॥ त
- (प्रणव ण्न. वष)
८४ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद.
क ककव ७७ ७2 2 ० 1 2 |

नामक्‌ विद्वान्‌ मैः इसके. नाम का केवल एक वार ही उचछेख किया कामतदहेकिये स्व ग्रन्थ हिषौक्रिरसके ही है~यदह पूणं विश्व
हे । इसके द्वारा हिपःक्रिर्स के. भेषज्यविधा. के अध्यापन की वृत्ति के साथ नहीं कदा जा सक्ता। +*डपर (शृण) का मत्‌
करने का समथन होता है ¦ ग्रीक इतिहास रेखक दहिरोडोर्स है किडन भरन्थोँ में. कुर्‌ दिपोक्रिय्सके होने प्र मी सव उसके
( प्ल०तगपऽ ई३० पू ४०८४-४२५ ) द्वारा पाथागोरस आदि नहीं ह अपितु बहुत से ग्रन्थ उसके किसी वंवा छे, उसके रिष्य
विदानो का उल्लेय किया जाने पर भी अपनी पिद्धली अवस्था मे अथवा उसके किसौ अनुयायी द्वारा ल्चि गये प्रतीत होते है।
विद्यमान हिपोक्रिस्सका वणेन न- करने से प्रतीत होताहैकि पी. सी. राय तथा जन्य भी दिद्रानौँक्री रे्तीद्यीराय है।.
उस समय तक इसकी इतनी प्रसिद्धि नहीथी ) कास नामक स्थान दिपोक्रिरप्त से प्राचौन डमोकेडिस † के अन्धो कामी हिपोक्रिरस
के पूवेइतिहास के. अन्वेषक शदरजोग ( पतटः००६ )नामक विद्वान्‌ के मन्थां मं समवेच्च हुभा २ मिक्ता है। इनमे से एफारिन. नामक,
कोभीकास फे वहुतसे छ्ेखोँमें मी इसके विषयमे कुद विद्लेष मन्थ डाहक्लस नामक विद्वान्‌ द्वारा, आर्दीक्युलेश्न. नामक्‌.
उपेकन्ध नहीं हआ हे । अन्य प्राचीन अन्धौ मेँ मी इसके विषय म मन्थ टेरियस् विद्यन्‌ हारा तथा. दौ तीन अन्य मन्थ मेनन नामक
` विश्लेष निरद॑श्च नहीं मिल्ताहै। ` विद्वान्‌ द्वारा पहठे से ज्ञतथे । नेचर ओंफ मेन नामक यन्थ
09ृ€्णं (0, ई० प० १३०-२०० ) का मत है कि ईस्वी अरिष्टाटङ (१) विद्वान्‌ -द्वाराज्ञातथा तथा वह मीउस मन्थ कों
पूवं ४२७ से ४०० समय से पहले ही इसने अपने ग्रन्थ का संपादन पालि का जानता था । यहु निश्चय से नदीं का जा सकता किं
कियाथा । तथा ण्य कामत ईस्वी पुवं ४२० से ४२० तक अमुक मन्थ हिपोक्रिरस कौ अपनी रचना है \ रसा कोई मी मन्थ
काहे ! छान्दोग्य, व्याकरण तथा ऊेखरौली का अनुत्तन्धान नहीं भिरता है.जिते चिकित्सा विज्ञान के पितादहिपोक्रिय्स की
करने पर विसी$ २कामतहै कि अकेजेण्डर के वाद्‌ ईस्वी पूत अपनी रचना कहा जा स्के । उसके नामसे भिर्ने बले अन्धो
२०० वषं मे हिपोक्रिरस् के यन्थकी रचना हुईं थी । उसके नाम कायदि संग्रह कियाजय तो सोकडौ मन्थ. एकत्र हौ सकते है
से बहुत से न्थ उपर्य होते हँ । इनमे परस्पर विरोध तथा जिनमे परस्पर विभिन्न तथा विरुद्ध पिचार मिलते है । यहु विभिन्न
_स्खरलौ
लेखदोरी क
की भिन्रता
भिता दिखाई
दिखाई देने
देनेते
से शृथमर
शमर (ए,(2,(पयः ) सम्प्रदाय वारु तथा ग्री दश्च के विभिन्न स्थान एवं विभिन्न कार
. * कास ( 009.) मँ किये गये प्र ०००६ के अथक अन्वेषण से वाले विद्वानों दवारा लिलि गये अनेक अन्धो का. संग्रह प्रतीत होता है
मी दिपोक्रिरस केविषयमे किसी तथ्यः का ज्ञान नहीं होता है। जिनका ‡ स्मय टी इतान्दी तक मी मिलता है । शइनसाखलो.
| ` (८. ६.४. एग णा ए. 544. छ, गषव, )
नदीं कहा जा सकता । तथा उनमें से ऊुद्ध तो निधित द्यी हिपो-
ग्रन्थो की रोली कदं बार उसके कारु निर्णय का अश्रान्त क्रिससकेनहींहें।
साधन होते ह, कंडे वार नहींमी होती है । अलकार शाख का |
( ४. £" ४, ० छ] ९. 548, ‰. गाकपलाः )
वावत होना इसी प्रकार की पहचान है । यह जिन मन्धो मं
+ उनग्रन्थों मे से बहुत से निःसन्देहं उसके परिवार कै
पायाजाता हे वे प्रायः ४२७ ई० पूण से पुराने नहीं ह्येते मौर
४०० ई० पू०्पठे के होतेह क्योकि इसी समयसे एरक किंसी न्यक्ति अनुयायियो अथवा .चिरष्यो द्वाराः छ्खि गये है-जो
न्याख्यातञ के प्रमात्र से इस ओेकीमे परिवर्तेन प्रारम हौ गया था। कि उस की रचना.माने जाते है. । .
( 1276-२. 0, हक, तानप ग प्रापत्‌ (1160013
` (ताएएण्न्पभऽ एण] [पपष्ठ्वप्ल०० 2 इटा )
{ईन सव प्रमाणां से उसका काक ४३०-४२० ई० पू० | . | ०72, उणा)
ठदरता है ओर यह सिद्ध होता है कि केखक या तौ सव्यं हिपौक्रेटक्त † परन्तु हिपौक्रिरस के जन्मसेपूरवंह्यी डमोकेडिस नामक
थाया उसी वे्यक्षग्रस्थान (8००० ) का अनुयाय ओर उसका विद्वान्‌ की भ्यु हो चुकी थी जिसके समय मँ बहुत से मुख्य ठेख
तयार इर थे जिनका कि यहां अनुवाद किया गया था।
समकालीन दूसरा ही कोई योग्य विद्वान्‌ था ।
| ` ` ( व.1700०9.168 ए0] 7. प्र ) (100०५68 त०] [आ २. ए)

$ इद अंशं में व्याकरण ओर शब्दरचना सवसे अधिक्‌ ‡ इनमे से कौनसे मन्ध हिपोक्रियसके है, इस प्रन का
निधधित प्रमाणे । यदि निषेधवाची ए" उपस्मके स्थान पर कोद निधित उन्तर नहीं दियाः जासकता है| रेता को मन्थ
0ण. का प्रयोगहोतो यह निशित रूपसते उन्तर सिकन्दरिया नहीं हैजिसके छथि हम पूणं विश्वास के साथ कह स्वे कि यह `
( जिसका संस्थापक सिकन्दर मदान्‌ था) कारुका निशित चिद्ख चिकित्सा विज्ञान के पिता ( एषाः 0 वान ) हिपौक्रियस
है । २०० ई पूण के०° परवतीं लेखो की एक अन्य सक्षम चिद्चेषता का हे । उस संग्रह की पुस्त जिनकी संख्या १०० कै लगभग है
अस्वाभाविक शब्दाडम्बर ओर अभिभ्यक्ति की वक्रता है जो उतनी नाना प्रकार के तथा विरुद्ध.विचार वाले भिन्न र मर्तोँफे विद्रा
ही असंदिग्य है जितनौ रि यह अनुभवातीत है । हिपोक्रिय्स दवारा क्ख गहै । ये दिदान्‌ ग्रीसदेश तथा मीकसाहित्य मेँ
करी कु रचनां यह विश्चेषता स्पष्ट रूप से ग्रददित करती है। अत्यन्त भिन्न २ समय में हण है तथा इनमें से किन्दीं २ विदानो मेँ
( पाए०००१४९३ क ०] 1 (पप्ठतप्नन०ण २, 32. ) तो परस्पर रूगमग ५-६ सौ वष तक का अन्तर है ।
¶ु (0 एप्ञ ताए मे ठक्यमग ७० से अधिक्‌ केख ( 2.8. ० प 2.198 )
हँ
परन्तु उनर्भेसेकिसीकोमी पृणनिश्चय के साथदि
पोक्रिससका (१) श्वी रि० सं° उपो० ¶० ८२ का० ६ मेदेखं ।
उपोद्धात का हन्दी अनुवाद (किः

कछ 2 ०6०० 2 ० 6 0 2 2 2 क्छ

पीडिया व्रिटेनिका' मे क्खि है किंरोमदेश्च मेँ तृतीय * राताब्दी भीहोतातोप्ठेटे तथा अरिष्टय्ल द्वारा भैषज्य तथा माध्यास्मिकं
ईस्वी पश्चात्‌ तक कै च्चि हुए कुर्‌ मन्थो का भी इसमे विषर्यो मे इसके नाम के निदश्च को तरह ष्ये के टिमियस् नामकं
समविश है । हिपोक्रिरसर को महान्‌ का पद्‌ दिया गयाहै । न्थ मं तथा यौस के अन्य प्राचीन विद्वानों के मन्थो यी उसके
विलामाविजा (फपाएफ०माट) का मत है श्वि पिना अन्ध निमीण भषञ्य मन्थ कै प्रचार केसंबन्य मे वहत ऊर उच्छेष भिरा
के ही इसका नाम प्रचरित है । हिपोक्रिरसीय मन्थो के अनुवाद चाहिये था! यदि चिकित्सा यिज्ञान के पिता समञ्च जानेषाके
की भूमिको मे लिघाहै कि अरिष्टाटल से पूर्वंके काप (त0'एपः) हिपोक्रिरस के सम्प्रदाय काअपरनेदैरामे ही विद्लेषरूपसे प्रचार
नामक अन्धौ के संह मे हिपोतरिय्स के केख के न भिल्नै सै होता तो उसके वाद के व्यक्ति भैषज्य विधा मे विरोषता प्रप करने
प्रतीत होता हैकि हिपोकरिरस के नाम से प्रसिद्ध अन्धौ का ठेखक के लिये मिश्रदेश्चमेन जति! हिपोक्रियस के बाद ३८२-३६४
दहिपोक्रिरस नदीं है अपि तु पाल्िविस्त ( ए०८७ ) नामकं अन्य देसी पूवे मे यूडक्ससत ( ०१०३ › नामक यिद्रान्‌ दारा मिश्र
ही विद्वान्‌ है। पाश्चात्य विद्वानों कौ सम्मति है फरि प्राचीन अन्धो देश मं जाकर १५ मास तक देलियोपोटिस नामक स्थान के एक
मे मीः समय भ्रमाव -से पाठ्विशेष, आवापौद्वाप प्रक्रिया दास भिषक्‌ पुरोहित से मेषञ्य विद्या के अध्ययन का वर्णन इतिहास मेँ
संस्करण तथा परिवधैन आदि द्वारा बहुत से विकार उत्पन्न हो मिरुता(०) है । पू्ंकाल कै समान वाद मँ मी यीस्वाल का
युके हे । हिपोक्रिरस के नाम से जो सैकंड़ौ मन्थ प्रसिद्ध हैँ वे प्रायः चिकित्सा विज्ञान के अध्यरयनःके लि मिश्रे मँ जनि से उस
छोटे २ तथा एक २ विषयका व्णैन करनेवाले है। इसी पश्चात्‌ समय तक भी यीसमेर्मिश्रदेल्काप्रभाव प्रकट हयोताहै।
१३०-२०० समय में ग्यालनः (७९१९४ ) नामक विद्वान्‌ ने अपने सम्प्रदायः के ` प्रचार के चयि स्नीडस (८४108
हिपौक्रियस के नाम से प्रसिद्ध कुद यन्थौ का विवरण दिया है, अथवा मतान्तर से कासर (८08 ) नामक स्थान के रहरेवारे
उसको मी दिपोक्रियसके नाम से प्रसिद्ध मन्थ सूपान्तरित हिपोक्रिर्स के पूव पुस्तकालय को जने कै अभियोग से तथा
अवस्था मेँ ही भिक हैँ । उपकब्य अन्धो मी बहुत सेन्थ विचब्रदधि के लिपःयुवावस्था मँ ही जपने स्थान को द्ोडकर दूरी
एशिया माइनर से मिहे तथाएकं दो मन्थ सिसटी प्रदे से जगह चङे जनि का इतिहास मिकता^ है । अपने मुख्य स्थान पर
मिकेहै। इस प्रकार इन अर्थो के पुरातन यीसयाज्य मे न मिलने रहकर उसके प्रचार की सुविधाः नहीं थी - उस समय मुद्रण कला
तथा रूपान्तरित अवस्था मँ मिल्ने काज्ञानदहोताहै। यदि उसके आदिं का- अभाव होने से आजकल के समान प्रचार कौ स्त्रिधा
नाम से मिर्नेवाे सव मन्थ उस्तकै द्वारा चि हट तथा उसी कार नहीं थौ । इधर उधर मिर्नेवाले बहुत से प्रतीक केखो कै अनुसार `
के हौते तथा गमे उसके न्थोँकाउसीके समयसे हयी प्रचार प्राचीन कार मेँ अध्ययन तथा अध्यापन दह्ये प्रचार कै प्ाधन
मिकते हँ । मीस तथा अचक्जेण्डिया मेँ किये गये उसके प्रचार
+ वादके ओर बहुत से आधुनिक न्थ का कार रोमन अथवा कापस.का संग्रहं भिर जातां तो ग्याख्न कौ दृष्टि का
साम्राज्य के समयकाहै। इनमें से संमवतः बहुत पे रोम मेँ शस्व बहिभाव न होता तथा उसे केर
एरिया माइनर ओर सिसली से
पश्चात्‌ २०० वषे तककेभील््लि हुए ही द्वढने का प्रयत्न मी न किया जाता। र्ट्रि(र) का भी यदी
( 7. ए, एण ~ २. 584 ) कथन हे । ्रीस.ये बादर मिश्र
† विङामातरिजं `कहता है
देश में हस्व पूं तृतीय शताम्दी-
कि भिना छेखौ के ही प्रसिद्ध वाले एण्टरीयस नामक विद्वान्‌ तथा -रोमदे मे ईस्वी पूवं प्रथम
हिपोक्रिरस्त नाम का इस प्रकार का प्राचीन विवरण भिर्ता है । राताब्दी के एर्किरुप्रियाडिस ( 459९०१९७ ) नामव गिद्वाचू
( ६170०५5 ४०] [ र. इए)
‡ अरिष्टाव्लसे पूवे के काप्र॑स ( (णप) नामक यन्थ + (४) इस प्रकार यह निशित प्रतीत होता है कि हिपोक्रिरस
संग्रह मे हिपोक्रिरस के किसी ठेख का उद्धरण नहीं मिलता है तथा ने अपनी प्रारभिक अवस्थामें ही अपनेदेदड कोसदा के चियि
वह इसका रेखक दिपौक्रिरटस को नहीं अपि तु पाल्बिस् फो मानता च्येड दिया था । ४१५५ ने इसके तीन विभिन्न कारण दिये है-
हे । वस्तुतः उस महान्‌ चिकित्सक ( दिपौक्रिरस ) तथा उन ठे ` ए-खप्न मिला इभा आदेश्च, २-ज्ञानचृदधि करने की उसकी
के संग्रह को जिनमें उप्तका. नाम आता है, इम निश्वयपूवैक अदम्य अभिकाषा, ३-उस पर रुगाया हृ यह इल्जाम कि उसने
(01018 कै 08183, (एप के 0710068 तथा धला०) निडिया ( 01019 ) के पुस्तकालय कौ जलाया थ । |
से बाद्‌ का नहीं कह सकते । (1€3198 तथा 11001९8 चतुथं दताब्दी ( ९. 5. 2. ४०1 #] ए. 54 2, पणभफल, )
वे पूरवादधमें हर ह तथा 11९00 अरिष्टारल कारिष्यथा1 ~ ८9) दिपोक्रिरस् के पुराने जीवन वृत्तान्त मे एक विस्सा
| ( पा7००८४॥९३ ०] 1 प४ठतप्नामः 2. सग पर ) भिता है कि उसने नीडोस के इसौप्रकार के एक अन्य किस्तेके `
$ (४) इस संग्रहकामूक तो संदिग्धदहै ही, तिसपर यह अनुसार कास ( 008 ) के आरोग्यमन्दिरः के पुस्तकाख्य कौ जक्(
अपने रचनाकार ओर गालन के मध्यवती समय मे अखण्डरूप डाला ताकि वह उस पुस्तकाय मे संग्रहीत ज्ञानका एक मत्र च्नाता
ममी नहीं रहा है | ( ‰* 8. ४०1 >] 2. 584 ) होने कापूराकभच्ेस्के) |
(0) हिपोक्रिटस के इन संग्रह मेसे सवप्रथम मन्थ एदिया ( ता170०0 १४९७ रग 1२. उद)
माइनर से तथा एक या दो मन्थ संभवतः सिसली मर भिक है । (१) १-२कीटि० सं. उपौ. १. ८२ का.२ ओर ¶. श
( ए,ए. एण 2.12. ६84) |का १ मदेखें।
८६ उपौद्धात का हिन्दी अनुवाद
0 ध ०9७ © ० ०9 > © 3-2-92 ॐ ऊक
1

हिपोररिस्म ये विरोधः मँ अपना काथ करते हष प्रतीत होते हं । ग्रन्थ मँ निदान, उर आदि रोग; भैषञ्य प्रक्रिया, मैषज आदि
िर्रेकाकहना है कि कासर नामक स्थान में हिपोक्रिटस् सम्प्रदाय अनेक विषयों की मारतीय आयुवदिक चिकित्सा से समानता
के पस्तक्राल्य कै होने का प्रमाण मी नहीं भिर्ता हे चिठिरे के । बताते है । हमारी दृष्टि म भी बहुत सी समानतां हैँ । भारतीय
अनुसार ( प्र0००९॥९३ ०] 20, उ ए---र2 ) ग्रन्थो ञँ रोगे की उत्पत्ति, निवृत्ति तथा अरिष्ट लक्षणों के अनु-
कापस संग्रह के १०० से २०० वर्षं के अन्दर ग्यालन की व्याख्या सन्धान कै खयि स्वप्न कै अध्याय भिठतेहै। असीरिया, वेवि.
के वाद वह संग्रह हुआ प्रतीत दौता है) इस प्रकार सूपान्तरित लोनिया आदि दै मँ मी असुरवनिपाल ( ६६८-६२६ ईस्वी पूवं)
अवस्था मँ इधर उधर विद्यमान उसके नाम से मिलने वारे सव नामक राजाके {यहु ब्द संस्कृत के असुरावनिपार शब्द से
ग्रन्थौ का ग्यालन द्वारा स्षकलन करने से, इनमे से कुद अन्धो की वना प्रतीत होता है) समय स्वप्नां के विषय मँ विचार करने की
विज्ञान के प्रवृत्ति थी । यत्त दीनौ म मी उसी प्रकार के विचार पङ मिरते
व्याख्या करने से, उन्तरोत्तर देददे श्चान्तरो के चिकित्सा
वदने से तृतीय राताब्दी तक नये बने हृ अन्धौ का मी उसमे थेजोकिदहिपोक्रिग्सके ठेख मे मी दिखाई दैते हं तथा ईस्वी पूर्व
प्रवेद कर देते से, नवीन स्थापित रोम साघ्राज्य कै सदार से, दस्वी चतुथंराताब्दी तक मी विद्यमानये । परन्तु पीछेसेवेख्प्त हौ गये
पशात्‌ सप्तम रताब्दीमे ठैटिन भाषामें भी इसका अनुवाद प्रतीत होते है( ए. 2, 7. एण ए २. 542. ए, पादाः १
हो जाने से तथा यूरोप के कुद दै मँ भी इसके सम्प्रदाय का आयुवेद मेरद्रकेकोप आदि से महामारी आदि संक्रामक
प्रचार हौ जाने से वाद मेँ उसके नाम से प्रसिद्ध मन्थो का जितना सो्गा के उत्पन्न होने का वणन मिलता है । हौमर के रेख के अनुसार
प्रचार हुआ है उतना मीस मेँ प्राचीन कारु मे नदहींथा। प्रतीत होता हैकि ग्ीस मे भी प्राच्चीन कारु मेँ इसी प्रकार दैव
ग्यालन के समय त्क सी पृष्व के असीरिया, पर्दिया, बेवि- | प्रकोप से रोग आदि की उत्पत्ति मानी जाती थी । हिपोक्रिरस के
छोनिया आदि दूर देशो म उसके ग्रन्थकेनमिल्ने सै वहां भो पूवंपुरूष एर्किकिपियस ( 45९०३ ) का भी यही विचार था ।
हिपौक्रिरसतीय विच्याके न होने से गण्डूकप्ठुति से भारतम उक्ष इसी प्रकार भारतम प्राचीन वैद्यके दाशनिक विषयो से
विद्या का होना कैसे संभव हो सकता है । युक्त होने के समान श्रीसदेश मै हिपौक्रिरटस् से १०० वषै पूरव
गरस तथा भारत की चिकित्सा मे समानता्-- ` विद्यमान चिकित्सा धिज्ञान मी दारौनिक विष्यो से संबद्ध
तक
की तथा मैकडोनल आदि विद्वान्‌ दिपौक्रिरस्र के वेधक्‌ भिल्ता है । उसके वाद हिपोक्रिरस दारा उसमे से दानिक विषयों
* केरिस्यस ( (भपप ) के पण्ड्यिस ( 4८07९४8 }--
कौ हटाकर% केवल भैषज्य विद्याके नये प्रार्म किये जनेका
जो ई० पूण तीसगे सद्री के अन्तिमि चरणे श्रमं चिकित्सा समञ्चते हैं। दैनिक ( अन्येद्य-@००॥१0)४0 ), तृतीयक (गश)
करता थ। ओर विधिनिया ( छ 0)8 ) निवासी एखलीपिडियस तथा चातुथिक ( देपभण ) परो की मीमांसा की गई है, क्षय
( 4506] %0९8 ) जो पदली सदी ई० पूण मँ रोम मे चिकित्सा का विस्तृत विवेचन किया गया है जव कि हृद्रोगो का बहुतहयी कम
करता था--ये दोन उसके कटर जिन्दकोमेये। इनदोर्नोही का वणेन किया गया है । भ्रुण विज्ञान सम्बन्धी सादृद्य भी है, सव
कोई यन्थ आजकल नदीं मिलता है । अंगों की युगपत्‌ वृद्धि स्वीकार की गदईहै। पुंल्गि का शरीर कै
( £, 3. १०] ड २. 584.) दाहिने अंगो से सबन्ध माना गया है, जुडवां वच्चो के पैदा होने
+ अनुवाद की सबसे पुरानी पाण्डुलिपि, जो कि हमें उपलब्ध कादौर्नो म एक दही कारण बताया गयाहै। आरं मास्त काश्रण
है--दैसा की सातवीं सदी की है । यह स्पष्टतः ही जारी डायन- जीने मँ समथं ओर सातवें मास्त का जीने मेँ मसम्थं कहा गया है ।
मीडिया ( ४8701028 ) का लदीनी (11.४०९ ) अनुवाद है । सरतश्रण को गमं सै निकालने के ल्यि मी सदश्च उपाय बतलाये गये
(ए. ए ४०] > 2. 584.)
हे । सास्यचिकित्सा मेँ पथरी ओर अश के आपरेशन मँ रक्तमोक्षण
‡ यूनानी तथा भारतीय चिकित्सा प्रणाल्यां मे अनेक अंशो जोँको के प्रयोग, दागने की क्रिया ओर अनेक शल्यौपकरण तथा नेव-
म जो अत्यधिक सादृश्य है वह बहुत पहले से मशहूर है | दोनों विज्ञान
मे दाहिनी आंख की चिकित्सामें बाथ हाथ का प्रयोग करने
म हमे अनेक सादृर्य भिल्ते है 1 जसे- त्रिदोषसिद्धान्त, वात्‌, पिम्त,
की प्रथा भी सदर है । यह नहीं कहा जा सकता कि इन साद्ृस्यो
कफ के प्रकोपसै सेग होना, उवर कौ तीन अवस्थाय ओर अवान्तर
रोग यूनानिर्यो के ^.ग्धु19, पिला€७, ए एणं, से भिरते जुट्ते
मेँ कितने यूनानी प्रभाव से आये हँ ओर कितने स्वतन्त्र विकास से
उत्पन्न हुए हैँ। त्रिधातु का सिद्धान्त जौ साधारण दृष्टि से देखने पर `
है,रोहण ( पा ) के साधनों का उष्ण ओौर शीत अथवा एकदम यूनान से उधार श्या गया प्रतीत होता है-सांख्य कै
शुष्क ओर स्निग्ध जाति मेंविभाजन, दो विरुद प्रकृति की ओष- तरियुणवाद के अनुकूल हे
।त्रिगुणो मेँ एक बात का वर्णन अथर्ववेद
धियो हारा रोण का उपक्म) रोग कौ साध्यासाध्यता (०४००9) | मेँ भी मिरुता
हे भौर कौरिकः सत्र के व्याख्याकार कादावाहै कि
प्र हिपोक्रेस का बहत अधिक जोर देना, चिकित्सकों से दपथ
खत्रकार वारतयित्त कफ के सिद्धान्त को मानता था।
लिवाना, रिष्ट व्यवहार के नियम तथा चिकित्सकों के लिये आचार (पाणा 0 88151 116071८ 2. 518 १.4. 2. ल).
व्यवहार संबन्धी नियम-जिनका रोगी पर बहुत प्रभाव पड़ता है # रोमनिवासी सेस्सस्‌ ( (615४8 ) ने तथाकथित हिपोक्रिरस
तथा भौर भ अनेकं बारोक समानतां हैँ। दोनों प्रणाणियां स्वास्थ्य के अर्थो कीभूमिकामें कदाहैकि हिपौक्रिस्तने
ह्य चिकित्सा
प्र्‌ ऋतु ढे प्रभाव कौ बहुत महत्व देती हैँ। भारतीय विश्वास के । को दशनश्ाख से पृथक्‌ किया ।
विपरीत हम कदे वार तेज शराब को ओषध्‌ क रूप मेँ बहुत्‌ उपादेय (घएए००
१6 *४ 2, ह प्र,2, 8. ४० उ 2, 584 )
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ८७

उत्छे मिलता है । शस प्रकार प्राचीन देर्लोमे भारतीय प्राचीन सेविददार्नोकेमत्द्विथे इृएदहैँ। यहतोष्कं सिन्नही प्रशन है।
सभ्यताकेखोतःके समान रीस मी भिल्नेसे प्रतीत होता परन्तु त्रिधातुवाद का स्वरूप कु भी हो यह निध्ितदहै कि यह
है कि वाद म मीस देर में प्राचीन सोत को इकर हिपोक्रिरस सिद्धान्त प्राचीन एवं मारतीय द्यी है) इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन
कै समय उसे नया स्वरूप द्विया गया था! हिपोक्रिरस हारा वेदिक कार से परम्पराग्त चिद्रोषवाद को मीस से मारतम आया
नवीद्धावित सैषञ्य विज्ञान का यदि भारतमंमी प्रमावहौतातो हुमा मानना कोहं युक्तिसंगत नहीं है! मारतीय चिकिसा विज्ञान
आजकल भारतमें मी उसी प्रकार का द्ाद्निक विषयों से शत्य चै प्रादुभाव के साथदी सोम ( चन्द्रमा), खयं तथा अनिल (वायु)
चिकित्सा पिक्ान दृष्टिगोचर होता । उसमे दहिपोक्रिरस दवारा नौः के समान विसमं(१) आदान तथा विक्षिपरूप कायं करने वा
द्धावित विशेष विषय तथा उसीके शर्ब्दो की दाया आदिभी सारीरिक अन्तस्तत्व वात, पिन्त, दरेष्म का उद्य हुआथा। इस
दिखाई देनी चाहिये, परन्तु वैसा दिखाहं नहीं देतादहै। इसके भारतीय प्राचीन विज्ञान का अन्य व्रिज्ञानो के साथ अन्य दे
विपरीत भारतीय वेक आज मी दाशेनिक विधये! से युक्त तथा मँमीजानासंमवदहयेसकताहै। ञे. जे.* मोद्ीने ख्डिदहैकि
उसी रूपम विद्यमान दहै। तथा भारतीय प्राचीन परम्परागत त्रिधातुवाद भारतीय सिद्धान्त हीदहै। दहिपोक्रिरसने भारतसेद्य
विषयो के हिपोक्रियस की चिकित्सामें भिख्नेसे प्रतीत होता है इसे यरहण किया था!
कि मारतीय वैक की प्रतिष्ठाके बाद दी हिपोक्रिरस कौ चिकित्सा पाञ्चाभौतिकवाद मी प्राचीन भारतौय सिद्धान्त दहै। आयुद्‌
का प्रादुरभावि हुमा था। म मी घ्रेय, धन्वन्तरिं तथा क्यप आदि दाय इस्त रसरको
` य्‌ कहना कठिन है कि वात, पित्त, कफ आदि शारीरिक पच्चभूतात्मक वताया गया है । इसीखिये इन पद्वभूतो के समुदि
मूल तत ग्री देश से भारत मेँ आयेन हे । पाश्चात्य विद्वान्‌ | अवस्थामें न रहकर पथक्‌ रहो जने पर भृत्य को प्चत्वं(२)
चिधातुवाद कौ मीस का नदीं मानते दहै अपितु इसका मूल मिश्र शब्दसे मी कहा गया है । इन पांच भूतं मेँ से आकाङतत्व को
देरा के मैतू (2) सम्प्रदायको मानते है । भारतीय पृथक्‌ रखकर चतुभूंतवाद का सिद्धान्त लोकायत आदि मतौँमें
आयुर्वेद के विषय मेँ कीथ नामक विद्वान्‌ की उक्ति का. पर्यारोचन प्राचीन भारतम मी मिक्ता है। दिपोक्रिरस(३) ने चातुभौतिक
करने पर अरीस्वैयक मेँ चैतिक उक्ति्योँ के मिलने पर भी उपक्रम वाद को एकीयमत ( प्राचीन व्यक्ति्यो्मे से किसी एक के मतै
तथा उपसंहार कौ दृष्टि से आयुर्वेद के विषयो के भिल्ने से भारतीय के रूप मे देकर उसमे अपनी रचि प्रदरित नहींकी है। धामिर्का
वैयक को ग्रीसके वैवकसे प्राचीन तथा उसका मूल मानाहै। इतिहास मेँ मिलता है कि यीस देच मेँ यह चतुभूतवाद सवेप्रथमं
(तरिनो अशिना? इत्यादि आदिवन स म अये हुए ऋण्वेद्‌ कै एभम्विडोकिंरस ( &1५169०५९३ ई, पू, ४९५-४३५.) नामक विद्धान्‌
सन्तर मेँ चरिधातु(१) शब्द कै द्वारा वात; पिन्त, कफ रूप तीन धातुओं ने प्रारम कियाथा। इस एम्पिडोकल्सिका इरान, भारत आदि
का ग्रहण करके उनके शमन के द्वारा उत्पन्न छख कौ प्राथैना के समीप के पृकदेशौ मे आगमन, वहां से दारंनिक विषयो के ज्ञान
मिलते से, अथववेद मेँ कफरोग के निद्रान तथा चिकित्सा कै तथा यस में दासौनिक विषयौ के प्रचार का उल्छेख(४) मिरूता है
( ६. १४. १-३ ) पित्त (१. २४. १, १८. ३. ५); भेषज तथा एभ्पिडोक्लिसि हारा उद्भूत इस पृष्वाद्‌ (चतुभूत वाद ) को खण्डन
रो्मोके निदानके रूपमे वात (४,१३.२) तथा वरुणपुत्र, करते हर हिपोक्रिटस के मस्तिष्क मे प्राचीन मारतीय पाञ्चमौत्तिक-
अचि, सोचि आदि र्ब्दो के द्वारा रकेष्म, वात तथा पित्त्वं बाद का सिद्धान्त साक्षात्‌ अथवा परम्परारूप से अवदय उपस्थित
का निष्ट मिकने से मारतीय वैचक मेँ इठेष्म, वात तथा पिन्तरूप | था देता प्रतीत होता है) पञ्चमूर्तोमेंसे एकभूत कौ च्छेडकर चार
तिधातुवाद वैदिक कासे ही चला रहा प्रतीत होताहै। कीथ भूर्तो के द्वारा शरीरोत्पत्तिका वणेन सारतीय प्राचीन सिद्धान्तो
( जिस सिद्धान्त मेँ पंच-
का कहना हैकि कौरिकदत(र) म भी त्रिदोषं काउरलेखहै। | ओं मिलता है। भूत देत प्रत्याख्यानवाद
महामारत(र) मेँमी इसका उर्केख भिकता है । शारीरिक वातः भूतो का हेवरूपरमे खण्डन किया गया है ) भारतम प्राचीनकाक
पित्त, कफ आदि तत्व कौन से दँइस विषय मँ मत्थुपं आदि बहुत | में नहीं भिरता है। यदि भारतीय चिकित्सा पर हिपोक्रिरस के
----------
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सन

* त्रिषातुओं `का सिद्धान्त प्रथम इष्टि म सवथा यूनानसे. * यहु युनानौ का ( 0िध्णा्या 716 ) हौ प्राचीन भारतीय
उधार लिया गया प्रतीत होता है । | आयुर्वेद का पित्त है। यह एक सरेविदित तथ्यःहै कि आद

† भििर्थौ का मेतू का सिद्धान्त युनानिर्यो मे ( घणण्ठपा8 ) आश्रित हैओर इस त्रिधाठु के भारतीय सिद्धान्त को यूनानी वेच .
( त्रिधातु ) के सिद्धान्त के रूप मे आजतक विद्यमान हे । | के जनक ( पिता ) हिपोक्रिटस ने रोगों कै कारण कीःन्यास्या करने.
ए 2.541. )
(ए. ८. 2, पठ], के ङ्ियि अपना सिया ।
(एप्प) 911 {1107410 01611081 (०0€"€16€ $ 01.112. 428 १
‡ ये त्रिधातु हैः -वात-नाडी संस्थान, पिन्त-पाचक संस्थान.
तथा उष्णता उत्पादन, कफ-उष्णता संतुरुन तथा र्लेष्मा एवं एम्पिडाकिख्यस ने चार तचो -अ्ि, जरू, वायु, थ्वी. का
स्थिव 1 | सिद्धान्त स्थापित किया ।
(वा€ 4 पत्वं ग कन्तानण6 हरीत ©, पतप ९, %1.) | 4 ताग 0 प्लाक्008- 63 अपश 2, 140
(१९) १-३कीटि० सं० उपो० ¶१० ८४का०रमेंदेर्ख। (२) १-४की टिण्सं ० उपो० ० ८५ का० १-२ मं देखं !
८८ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
|५

विचारौका प्रभाव होता तो इसत प्रव्याख्यानवाद (प॑चभूतो के ( मरिच वा ष्पी ), पेपेरी (पिष्परी ), पेपेरिस रिज (पिष्पली-
खण्डन का सिडधान्त ) कौ मी भारतीय वैक मँ मिलना चादहिथे मूल ), कोस्तस ( कुष्ठ ), कदंमोमोस ( कदम ), सकरून ( शकरा )
था । इस प्रकार हिपोक्रिटस हारा प्रतिक्षिप्त पूष्रैवाद ( चत॒भूतवाद ) इत्यादि ओषध वाचक शाब्द स्पष्टरूप से भारतीय आयुर्वेद कै
के भारतम मिलने तथा हिपोक्रिटस द्वार नवोदित प्रत्याख्यान अपञ्र प्रतीत+ होते है । सारतीय तिरु वाचक “सिममं इण्डिकम्‌
वाद कै भारतम न मिर्ने को देखकर भी इनके पोर्वीपये का निश्चय ( 3€ऽधपणपय 20तीतप ) तथा भारतीय करज्ञ वाचक “ग्यर्डपा
किया जा सकता है तथा यह भौकद्‌। जा सकताहै कि किसका इण्डिका" दाब्दं मे मारतवाचक इण्डिकः ब्द के प्रयौग से उसका
किस पर प्रभाव है। मारत विषयक ज्ञान तथा भारतीय वस्तुओं का व्यवहार तथा उपा-
इसके अतिरिक्त आत्रेय संहिता(१) के वाततकराकरोीय अध्याय दान साक्षात्‌ प्रतीत होता है। |
म परस्पर एक दूसरे के विचा को जानने की इच्छा से एकत्र हिपोक्रास् ( ताए0०988 ) नामक योगौषधि मँ दाल्चीनी
होकर विचार करते हुए महषिर्यो मै वात्प्राधान्यवादकैे रूपमेँ अदरक तथा सकरा आदि भारतीय असाधारण ओषधियो का प्रवेश्च
कुश्च, भरद्वाज, काङ्कायन, भागव तथा वार्योविद के, पित्तप्राधान्य- | दिखाई देता है । उस योगौषध का '्िपोक्रासः नाम होने सै प्रतीत
वादी मरीचि के तथा कफम्राधान्यवाद के सरूप मं काप्यके. मतौकौ होता हे किहिपोक्रिरसर कौ उन वस्तुओ का निशित रूपसे ज्ञान
देखकर अन्त मेँ पुनव आत्रेय ते (खर्वं एव खल्यु वातपित्तश्छे था । ईस्वी पूवे ३५० में होनेवाठे धियोपफेरथ्स ( (6०9 )
ष्माणः प्रकृतिभूताः पुरुषमायुषा महतोपपादयन्ति, द्वारा तीनों नामकं विदान्‌ ने भी "फाश्वःस इण्डिका ( ए०05 104108. ) नामक्‌
के सम्मिलित प्राधान्यवाद्‌ कौ आघ्रेय ने अपने मतकेरूपमें द्विया ओषधि मं इण्ठ्का शाब्द का निर्दे किया है । बहुत सी भारतीय
है | हिपोक्रिटसश ने एकर प्राधान्यवाद को एकीय मतके रूप वानस्पतिक ओषधिर्यो के यस्त देश में पहुंचने का पोकाक(९) आदि
म देकर फिर समुच्चयवाद्‌ का निर्देश किया है। एकैकप्राधान्य- विद्वाने। ने उक्केख किया है जो ओषधियां मारत में द्य उत्पन्न होती
वाद मेँ नाम निर्दैश नहीं कयि दहै। समुच्चयवादकौ भी अपने है तथा भारतीय वेय दाय भिन्न २ रोगो मेँ प्रयुक्त की जाती है-
दवारा उद्धावित सिद्धान्त केरूप मे नहीं दिया है 1 आत्रेय ने भिन्न र प्रत्यक्ष ज्ञान के विनावे भोषधियां यीक वैः के हृदय मँ स्वयं
नर्तौ को देकर अन्त म समुच्चयवाद को अपने सिद्धान्तकेरूपमें उदित नदीं हो सकती । इसी दृष्टान्त से हिपोक्रिरस के चिकित्सा
द्विया है! इस प्रकार स्पष्ट प्रतीत होतादहैकि भारतम प्राचीन विज्ञान मेँमिरनेवाके रोग, निदान, ओौषध, उपचार आदि मारतीय
काल में प्रचलित एकैकश्ाद तथा समुच्चयवाद का अनुवाद्‌ क्षिया
गया है तथा समुच्चयवाद मँ हिपो्रिटसने अपनी रुचि प्रदरित
+) ईसा से क्गमग ५०० वर्षं पूवं हिपोक्रिरसत ने संत कै
ग्रन्थो म प्राचीन काल से वणित 3688 प्र {070० ( ति )
कीहे।
पिभाप०णणऽ वभव्णकशाओं ( जटामांसी ), ए055€्‌11 प्प
इतना ही नहीं अपितु चरक तथा सुश्चत म दन्तरोर्गो मे पैन्तिक
{लि (कु दुर्‌ ) ‰10010€' 01610४६ ( शृङ्गवेर ) एलः
आद्रि मेद दिये रै । हिपोक्रिरसने भी दन्तरोथ तथा दन्तेष्टन
आदि रोर्गौ के उल्लेख मे ९४ ( 8716 ) द्वारा पित्त का दोष टपा ( मस्व ) इत्यादि अनेक भारतीय वनस्पतयो का अपने
कैरूपमे निदेश कियाहै। इस प्रकार शाब्द (पौ) के मटेरिया भेदिका मेँ वणेन किया है । ईसा की प्रथम रतान्ध्च मैं
अपभ्रंश से भी प्रतीत होता हैकि यदा पैत्तिक दन्तरोगो के निदान | 12105001055 नामकं ग्रीक वैच ने, उस समय यूरोप के बाजार भँ
के रूप मै मारतीर्यो दारा वणित पित्तका ही संकेत है। इसी प्रकार आनेवाली अनेक भारतीय वनस्पतियो के चिकित्सा सम्बन्धी गुणो का
वहां सुखदौगंन्ध्यके प्रतिकार केचियि जिस ओषधिका निर्देश कियाहै पूणरूप से अन्वेषण करके अपने विस्तृत मैदेरिया मैडिका मेँ उन
उसका 14780 7607°धा€ण०४ ( मारतीय ओषध ) शब्द से व्यव- सम्मति कियाथा जौ कि पीठे अनेक वर्पौ तक एकं प्रामाणिक मन्थ
हार(२)किया हैरेसा जे. जे,(२) मोदी 1.11. & 8,1, 7.8.) | माना जतारहाहै।
नेञ्खिादहै। (4 9० पाणा 9 48 1161591 इनं९००६ 2, 128
उस रोगकी उस ओषधि का भारत दारा ज्ञान होने पर हयीभारतीय ए प, त, 009 ण, )=
जौषध के रूप मे उसका व्टेख करना संभव दो सकता है। यह्‌ |` (४) ग्रीक तथा भारतीय ओषधि्यौ
एक पद हौ उसके भारतीय ओषधयो के ज्ञान फो सिद्ध करता है1¦ हे । उदाहरण कै स्यि--एशधा०,. एकुके नामो भँ समानता
०्०ण४ 00
इसके अतिरिक्त दिपोत्रिरस के मैदेरिया मेडका ( निषण्डु अन्ध ) मे` 21210673, 870810011018, प्र1008, 24610 89 {91011
अये हुए जतमनसी (जगम ) जिञिवेर (शयेर), पिपरनियम्‌ |इत्यादि मीक ओषध्यो के क्रमशः पिप्पली, पिप्लीमूर कुष्ठ,
+ उनमें कु कहते हँ कि मनुष्य रक्तनिमित है, कर कहते ` शरह्गवेरः कदम, वासा, गुग्युरु तथा शकरा आदि भारतीय नाम है
हविः पित्त निमित हैओर कु लोगो का कहना है कि वह कफ- : ( न.€11611800 10 4107600 {1018 ए, 203
निमित है । वास्तव मे मनुष्य एक संधान है। विभिन्न विद्वानों ने | ध. ष, पनाह पह्वान०६ )
अपने मतो के अनुसार उसे मिन्नर नामद्धियेरहै। † हिपोक्रासत --एक दीपके एवं
हृ वैचकीय पेय-जो किं दराल्चीनी
( पाए0००४९ प्रण ए २. 5. ) अदरक आदि मसारो तथा शाकषर ओर
शारात्र के योग से बनता है ।
(१) १-२त्ककी रि. सं. उपो. ¶. ८५ कालम"२ ओर८६ (४, 8. ए० 1 2, 584. )
काका०.शमेदैर्स.. ` - ~... ~. {-१.) .इ्तकी.टि° सं०-उपो०-१०.८६ का० २. मे दे ।
उपोद्धात का हिन्दी अचुवाद €९
2 क क 2 श क 0
ल 9 9 9 69 © उक

चिकित्सा विध्या की समानता मी उसकी चिकिःसा को भारतीय हे । इम्पीडोकिल्सि के भारत के समीप तक आने का प्रमाण मिलने
विज्ञान के आधार पर स्थित हदे सिद्ध करतीहै। इसी प्रकार पर भी हिपोक्रिरस के मारत आनि के विषय मँ कोई प्रमाण भिलता
अनेक प्रमाणो के आधारपरडा. जे. जे, मोदी ने रायल एदिया. है या नहीं यह कहना कठिन है । दहिपोक्रिरस के न कैवरु अपे
टिक सोसायरी मेँ 18 ^फप०९१० & वप9्०शाप? नामक केख मेँ देर मे अपितु दूर २ दैदोौ+ मे जाकर भिन्न २ विज्ञानो कै संचय
यह सिद्ध किया है कि भारतीय आयुर्वेद ही सम्पूणं विदेरी करने का विद्वानों द्रा निर्दड सिल्नेखे प्राचीन कारम येषञ्य
चिकित्सा पद्धतियों का मूल है} उसके वैचक श्रन्थ मँ मारत विचा में प्रतिष्ठित मारत या उसके आसपास मी उसका जाना संमव
म ही उत्पन्न होनैवाटी ेसी अन्तेक वानस्पत्तिक ओषधयो का निर्दय हो सकता है किन्तु इसका स्थष्ट उल्लेख न भिल्ने से भारत कौ
मिलता है । इस प्रकार यह प्रतीत होता है कि हिपोक्रिस्स को विद्या प्रदान करने कौ तरह मारत द्वारा उसके साक्षात्‌ विद्या अरहण
भारतीय वैचक का ज्ञान अवदय था चह वहु साक्षात्‌ हयो ओौर चाहे के विषय में मी निश्वयपूवैक कुद नहीं कहा जा सकता ।
परम्परा दारा द्यी) यद्यपि प्रथम डरियस नामक राजा कै समय ( ईस्वी पूतं५२९)
म्याकडोनल(१) नायक विद्वान्‌ ने परे यहं किखकर कि “यीस डेमोकिडस् नामक यूनायी शव्यचिकित्सक के इरान देम आने
ने भारत से बहुत से विज्ञान लियिहैँ परन्तु यह निश्वयपूर्वक नहीं का वृत्तान्त(१) सिरता है तथापि डमोकिडसका समय हिपोक्रिरस
कहा जा सकता कि गीर ने भारतसे चिकित्सा का ग्रहण किया हैतथा से पूवे होते कै कारण उस्तके द्वारा इरान दे की चिकित्सा परर
सैषञ्य विद्या पर मारत का प्रभाव प्डाहैया नही" भगे छ्िखा है हिपोक्रिरस सम्प्रदायके प्रमाव की खकरा नहीं द्ये सकती है,
रि ¶त्रिपिटक के अनुसार चरक के कनिष्क सामयिक होने सै हिपोक्रिरस्त के सरमय कै बाद ेरियस(२) नामक व्यक्ति का अदंक्षीर-
हिपौक्रिटसत भारतीय वैचक से प्राचीन सिद्ध होता है इसलिये मैमनून ( ^ 66563 10601100 इई, पू, ४०४-३५९ ) नामक
भारतीय चिकित्सा परगमीस का प्रभाव पड़ा है । परन्तु यदि राज के सपय ईस्वी पूवंचतुथं दचातान्दी मे इरान तथा मारत कै
चरकाचायं ही इस अव्रेयसंहिता का मूर आचाय होता तो यह आसपास आने कातथा ईस्वी पूवं चतुथं दाताब्दी के अन्तं मँ
उप्यक्त पौवापय क्रम टीक कदा जा सकता था 1 चरकाचा्यै, चरक मैगस्थनीज(३) का भारत मे अने का वृत्तान्त भिल्ता है, परन्तु
नाम से प्रसिद्ध अत्रय संहिताका निर्माता नहींहै अपितु केवल इन दोनो व्यक्तियों के हिपोक्रिसस के ही सम्प्रदाय के अनुयायी
प्रतिसंस्कर्ता ही है । यह संहिता तो आत्रेय तथा अभ्चिवेद के समय होने का कोर प्रमाण नहीं मिलता है । टेरियस दवाय हिपोक्रिस्स के
कीदहै, यह परे ही कडाजा चुका है । काश्यप तथा मेड दिका आटीकुटेद्न नामक अन्थ का एक वार उच्छेख करने परमौ उसे
निर्देश करनामीश्सी वातको सिडक्रताहै। अश्रेयका समय प्रमाणो के अमाव मं हिपोक्रिस्स का अन्तुयायी नहीं कहा जा
पहले ही उपनिषत्काटीन बताया जा चुका है। यद्वि त्िव्वतीय सकता । राजदूत होकर भारत में अयि इट सेगस्थत्तीज के
गाथार्जो का द्यी अवरम्बन किया जाय तो मी आत्रेय बुद्ध से अर्वाचीन ग्रीक वैय होने पर भी ग्रीक वैद्यकं के उपदेद प्रचार तथा
सिद नदीं होता है ¦ इस पौ्वीपयं के अनुसार इससे विपरीत आत्रेय प्रयोग आद्वि का कीं उल्लेख नहीं मिरुता है। अपितु इसके विपरीत
काही प्रमा हिपोक्रिरस् की चिकित्सा पर प्रतीत होता हैन कि उसने मारतीय वै्घो की प्रशंसा तथा उसके हारा विदेशिर्यो
हिपौक्रिरस का प्रभाव आत्रेय प्र । की चिकित्सा का उल्छेख किया ह \वेव होति हृ मी उनके द्वारा
कु रोग कहते हैःकि हिपोक्रिरस से प्राचीन इम्पीडोकिलिस भारतीय वैर्चो का आदर किया जाना तथा उनके द्वारा चिकित्सा
( ००60०५९8 ) नामक वैच ने अध्यात्म विचा पूवदेश से का उर्केख किया जाना भारतीय चिकित्सा विज्ञान की सश्रद्धि तथा
प्राप्तकी थी \ यैषञ्य विचा मी संमवतःवहीसेप्राप्तकौथी दिपो गौरव काखचक है) मारत के समीप पर्हचे हुए टेरियस्त नामक
क्रिटसर के मारतम आने का गौण्डर्ख्वु के ठकुर ने निर्देश किया िद्धान्‌ ने मी दहिपोक्रिटस के सम्प्रदाय वाङे अथवा किसी अन्य
* भारतीय ओौषधियों के गुणो का केवरु अपने देश्ये ही सम्भ्रदायवारे ग्रीक वेदय द्वारा मारतम प्रचार तथा उपदेश का
नही अपि दूसरे देश मे भी ज्ञान था। उर्ठेख न करने से तथा अपने ईइण्डिकाः नामक न्थ मे भी
( तण ० 470 2164169 8म€166-60प्तन््‌ ) इसा उर्केख न करते से उसके द्षारा मी मारत मे यकः प्रभाव की
( १) इसकी टि० सं० उपो० ए० ८६ का०र मँ देखे, प्रतीति नहीं होती है । प्रस्युत उन्तर मारत में पर्व कर वहां से
† यूनानी परम्पराओं के अनुसार ज्ञात होता है कि १४७1९ लौटने के बाद उसने २३ मन्धो के स्वरूपवाङे अपने पक्िका(४)
060००168, 4.पक्ुण०३, 060त्०पक$पऽ तथा अन्य विद्वानों नामक तथा “इण्डिका नामक ग्रथ मँ भारत के विषय में बहुत कुद
ने दरोनसाख के अध्ययनके च्यिपृर्वीं दे्ोकी यत्रा कौ थी। खिखा है 1 इस भारतीय गज ( हाथी ), बन्दर, तोता, मेना, कीट-
इसलियि पदिया ( इरान ) के माध्यम दारा ूनानियो प्र भारतीय रङ्ग ८ कीट विद्रोष ) आदि के समान वहत सी वनस्पतिं का भी
विचारों का प्रभाव पडने कौकम से कम देतिहासिक संभावना ( शग ताअ 9 -&पकप 21601681 §भह४०८ ‰, 190
आवश्य है
( पाऽणष ० पणव कलपाक * ०1, 1 2. 2४ प त, त. कणश अणक)
छ 0" 2. ^. प्ण) * कहा जाता है कि दिपोक्रिरस नै बहुत दूरर कौ य्नर्ये
1 2, 58४. )
कीथीं।( 8. 8. ९०] त
कुर्‌ विद्वानों की रायमं हिपोक्रिटसने भारत मे चिकित्सा
साख का ज्ञान प्राप्त कियाथा।-. (१) १-४तककी दि० सं० उपो. १. <७ का, २ म देख;
१२ उश हि
क उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद

वर्णेन विया है । मारत में िरोरोग, दन्तरोग+ नेत्रतेग, सुखव्रण |के ही यथास्थान जोड़कर अच्छा कर देने सेमाग्य से यर्‌(९) के
अस्थित्रण आदि सोगौकेनदोने के उब्रेख(*) मिलने से मारत भिख्ने प्र भी तद्विषयक वणेन मेँ शख आदि उपकरणों की पूणेता
म आये हुए इरान देद्य के राजा के राजवै्य पद पर प्रतिष्ठित इस के अमाव क्‌। उल्लेख होने से उस समय तक म्रीसमें राख
ग्रीक त्रैय दारा भारतीय धिषयो केसंग्रहमे से भारत मे प्राचीन क्रिया की अपूणंता का ज्ञान होने से प्रतीत होता हे कि उस्त समय
काल से प्रतिष्टित वैचक्‌ विद्या के अन्य विष्यो का मी संभवतः ग्रीक वैचक्‌ अपनी प्रारंभिक अवस्था मेँ थी \यदि ग्रीस्मे प्राचीन्‌.
संग्रह्‌ किया है! ्् कारु से ही चिकित्सा विज्ञान प्रौढृरूप मेँ विधमान होता तो उसके
प्राचीन भीक वेक सम्प्रदाय वाद्‌ हिषोक्रिरसर को चिकित्सा विज्ञान के पिता ( एफ 0
दिपोक्रिरस के चिकित्सा विज्ञान का भारत पर संभवतः प्रमाप 16016706 ) कै पद्‌ पर आरूढ न किया जाता । हिपोक्रिरस को
उस पद पर आरूढ करने से उस समय ग्रीक वैक की रौशवावस्था
न दय, किन्तु हिपोक्रिरस सै पूवे मी यौस में प्रिनोशन्स ओं कासं
( 6006088 0 685 ) तथा फस्टं प्रतीत होती है। उस समय ग्रीस देश मे यदि भैषञ्य विधा उन्नत
प्रिरेटिक* ( 0175४ "€.
प््ोगरध6 ) इमििडोकिंकसा ( ४०१6०५९8 ) तथा स्निडसय अवस्था होती तो मोट नामक विद्वान्‌ द्वारा भिश्र देश्चकी
( 060०8) नामक तीन सम्प्रदाय ये, जिनमे पाथागोरसष के भेषञ्य पियाके विषयमे पाथागोरस के पिस्मय क्रा उर्छेख न
समकालीन डमोकेडिस ( 600०6068 ) आद्वि बहुत से विदान्‌ होता । इसख्यि पाथागोरस के विस्मय से यह खचित दयता है कि
'२)थे । भारत पर उनके प्रभा के तिषय मे मी कु नदीं कहा उस समय अन्य देके हारा कास आदि स्थानो म विज्ञानयुक्त
वैद्य
जा सकता । ये सम्प्रदाय मी दिपोक्रिसस सै अधिके अधिक्‌ सौ भेषज्य विधा के नवोत्थानके होने परममी मभिभ्रदेर के समानं
वषं पूवं(२) ही थे! इसमे अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होते है । उ्नत अवस्था नदीं थी । प्रो. मौसलरुं ( 0316; ) नामक विद्यान्‌
इन सम्प्रदार्योर्मेसे भमीषएक तौ वही मन्त्रप्रधान क्म्प्रदायदही कामी कहनादहैकि ग्रस मे विज्ञान युक्त चिकित्सा ईस्वी पूवं
प्रतीत होता हे) रेष दोना म दाश्चेनिक विषथ मिला हभ है। राताब्दी से ही प्रारम्भ हृमाहै। हिपोक्रिरस से पूवे के इन
मारत से यीस मं अध्यात्म विचा ठे जाने वाञे पाथागोरस कै सम्प्रदायो मँ मी भारतीय चिकित्सा के समान दाश्ेनिक विष्यो
समकालीन होने से, उक्षके साथ संबन्ध होने से तथा पाथागोरस का सम्मिश्रण तथा भारतीय चन्दो की चाया आदि भारतीय विज्ञाज्न
के संबन्ध मँ वणेन कर्ने बड़े उन दोनो पुव सम्प्रदायो मे मी के चिह भिल्ते हैँ। मिश्च देश में रीस देश से पूतेचिकित्सा विज्ञान
कहीं २ भारतीय विषय का सम्पकौ दिखा देने से उनमें यरीक प्रभाव के मिर्ने से ठथा मरीस देश पर मिश्र के प्रभाव का उल्छेव मिलने
तथा उतना विज्ञान का संबन्ध नहीं भिलता है। ससानगर के से प्रतोत होतादहै कि ग्ीसदेद्च ने चिकित्सा विज्ञान मिश्रईसे
कारागारमें दासौ के साथ बन्दी हृ उमोकेडिस द्वारा घोडे प्राप्त किया है । तथा भारतीय चिहण के मिलने से भारत का प्रभाव
से गिरनेसेट्ररी इई शरानदेशके राजाकी गकरो बिना शख # यद्यपि वह दाद्यक्रिया के साधनो ( उपकरण ) से सम्पन्न
* कोसि ओर पहके प्रिरेटिक ( उन्तरकाकीन-ग्रिरेरिक पृव॑का- नहीं था फिर भी पहले वषंमें हयी वहु इतना सफर इजा कि उस
लीन थे यचपि दोनों को हिपोक्रिटस से पहले का समज्ञा जाता है) दीप के निवासियो नै उससे समद्षोता कर छिया कि वह एक टेलेण्ट
के पूं विचार यहं प्रद्ित करते हैँकि कोसि के चिक्षित्सा सम्प्रदाय के वेतन पर वहां एक वषं तक रहेगा । ( लगभग ३८२ स्टङिगन=एक
म अधिक धरान रोगो के प्राकृतिक इतिहास यिदेषतः धातक भौर इजिनियन टेङेन्ट )
अधातक परिणाम कौ संभावना पर दिया जाता था ( तप्पा ७९६०८ # ०], 1 ¶ २. 180-181 6०८९७. )
( पाए०्मभ66 १०. ब र. ता. ) † पाथागोरस के स्मय मिश्रकी वैयककी इतनी उन्नति हौ
† इम्पीडोकरिकस-फिलालोपत से ऊष पहले हुभा । वह वैय की गहं थी कि एक जिज्ञासु यत्रीका ध्यान अक्ष कर सक । उसके
अपेक्षा चिकित्सकः अधिक था। यद्यपि गैलनने उसे इघ्टली कै सिद्धान्तो का श्रेणीकरण ओर विभाजन हौ गया था । उनके चिकित्सा
चिकित्सा संप्रदाय का जन्मदाता का है। उसकी रिक्षाओंका व्यवसाय के नियम निधारिते हो गये थे । |
(छ्लः०त०प्७ [1 84. पाजः 0६ 6०६९० एण. एष
चिकित्सा संबन्धी पद्‌ कृद्‌ तो जाद्‌ ओर कुड्‌ नीमहकीमी था 1
ज्ञारोरिक धातुओं पर उसका कार्यं इटली ओर सिस्री के चिकित्सा | | ९. 225. ७१०९७, )
सम्प्दायके सदृश हे जिसमे दानिक ठंग की कुड स््यंसिदध ` { शाखीय ओषधयो का-जो कि धमं ओर विज्ञान के संमिश्रण
मान्यताएं मान छी जाती है । का परिणाम है-उद्गम छी सदी ३० पू० के यूनानियो की. प्रतिमा
( ता००४68 ए0]. 1 [पषत्वप्रना० 2. 19-15., ) जौर सामाजिक अवस्था है । ( 099 ) |
देखिये-(10€ 8०8] [08्िपणटा8 ० ४९ प्ोणवप्डः
{श्न दो सम्प्रदायो के अतिरिक्त एक ओर भी प्रसिद्ध
सम्प्रदाय स्निलोस मँ था। “उग्ररूपो म पथ्य" ( श्प )
एण. 7 २. ३१9.०. य, कण्वगृष्वाप्म, )
नामक हिपोक्रिरस की रचना मेँ इसके सिद्धान्त का खण्डन है । § नीर की धारी ओर मैसोपौटभिया दोनो मे ही चिकित्सा `
( साण्नप्ण्छ पए ०). 1 णप०तप्ण्ठ० ए. 13, ) राख जादू टोने जौर विज्ञान का संमिश्रणं था) स्स प्रणाली करा
यूनान पर बहुत पूवकाल मेँ दी प्रभाव पड गया था। `
(१) १-२तककी टि. सं उपो. ¶. ८७ का० २ भौर ८८
( ज & 8. ए०1. ए. २. 541 फ ४, गणकः )
काण श््मंदेखं।
८ १) इसकी टि० सं उपो० ¶० ८८ का० श मँ देवं ।
डपोदधात का हिन्दी अनुवाद | ९१
© ०० ७ < = ©> © 2 ऊक छ
कक
भी खचितदहौता है । धिद्रानौश्का विचारहै कि ग्ीसदेश्च की विद्वान्‌ का कहना है कि उसमे आई इड सम्पूणं मैषञ्य विचा प्राचीन
चिकित्सा का प्राचीन सोत मिश्र के समान मारतमीहे। छोत से दी निकटी इह नहीं है । |
उन्तर की प्राचीन मूर सभ्यताके शाखा प्रशाखा भेदसे सव भारतीय वैक तथा यरीक्वै्क मै भिलनेवाली विष्यो की बहुत
ओर पर्ने पर पूर्वंशाखा द्वारा मारत के समान पचिम शाखाके सौ समानताओं का पे ही वर्णन कियाजा चुकाहै। विभिन्न
द्वारा यस आदिदेश मँ सौ भैषज्य परज्ञान प्राचीन काल से ही देशो के विद्वानों मे केवर दो-तीन विषयों म विचायं की समानता
प्रवृत्त हुभा हयो यह मौ संमव नहींहै! यौसके प्राचीन महाकवि तो आकस्मिकी दहो सकती है! परन्तु अनेक तथा असाध।रण
होमर ओडसी ( 00085 ) नामक यन्धमे देववर से ही. रोर्गो विष्यो की समानता, एक का दूसरे पर प्रभाव हट जिना तथा
की उत्पत्ति तथा दैवप्रसाद-पूजा, यज्ञ, मन्त्र, .उपासना आदि से साक्षात्‌ था परम्परा द्वारा परस्पर यातायात आदि के सम्पकं कं
तगो की निवृत्ति का उल्लेखं भिरता है। इसके इलियड विना संमव नदीं है 1 अपने कौ आयं कहते वालो के प्राचीन मूल
(1178 ›)नामक यन्थ मेँ रख्लक्रिया की वहत थोडी ञ्चलक मिलती सोत के छायारूप शाखा उपद्याखाओं मे मान्तिक मेषञ्य प्रक्रिया के
है । तथा भ्रोमर(९) कै मतानुसार वह मी वहां बेविरोनिया के प्रायः मिर्ने पर भी, शाखा तथा उप्चाखा्ओ मेँ विभक्त दु
प्रभाव से हयी आई प्रतीत होती है, उसके दोनों अन्थोमें कहीं मीं वैज्ञानिक भैषज्य पिबा के मारत के समान मीस मी भिर्ने के
सेग निवृत्ति के लिये ओषधिर्यो का अन्तः प्रयोग (1€ा०४] प्रञट) प्रमाण होने से दोनो देशो के चिकित्सा विज्ञान मँ समानता को
नहीं मिलता है।प्राचीन काल की धारणां के अनुसार उसके ठेख देखकर प्रतीत दोतादहै कि सक्षात्‌ अथवा दूसरे देरों केद्वारा
म रोगो प्रतीकार के ल्यि देवो की उपासना तथा मन्त्र आदिका विज्ञान का संक्रभण भारतसे ग्रस्त मँ अथवा ग्रीस से भारतर्भे
दकेख(२) मिलने से, उक्षीके लेख मेँ देवप्रसाद से ही मिश्र देश हुआ है । यदि भारतीय वैक पर ग्रस काप्रमाव होता तो मीक
दारा सेम को शमन करनेवाली ओषधि की प्राप्ति के उल्केख त्ेयक मँ आये हुए विषय, शब्द तथा प्रक्रिया न्यूनाधिक कूपसे
से तथा भिश्रदे्च के भिषय में ही उपयुक्त बतं छिखकर अपने देश भारतीय वरेयक मँ अवदय मिनी चाहिये थी, परन्तु शेसा दिखाई
कै विषयमे कु््‌भौ न छ्खिति हुए मौन अवलम्ब्‌ क्र लेने से नहीं देता है। प्रव्युत इसके विपरीत पूर्वोक्त वणैन के अनुसार
स्पष्ट हैफि उस समय तक यस्मे वैज्ञानिक भैषज्य भ्य का मारतीय असाधारण विषय, भारतीय रन्दो की दाया तथा कहीं
उद्य नदी हृभा था तथा दूसरे देलौ से उसकी प्रर्नि मी नहीं सयष्टरूपेण भारतीय नाम से दी विये गये उद्लेख के प्राचीन ग्रीक्‌
वैयक मे भिर्ते से भारतीय मैषञ्य विज्ञान का थोड़ा वहत आलोक
हुई थी ।
पर अवदय पड़ा प्रतीत होता है |
ग्रीस देश कौ पौराणिक कथ।ओँ ( 01959०४] प्र) ) मेँ प्राचीन मीक वैद्यक
ञैषञ्य विया का वृन्तान्त मिलने पर मी वाई्जई ( ४256 ) नामक
नालन्दा विश्वविचाख्य मेँ अमुक रोगौ म अमुक रख चिकित्सां
की जाती थी--दस प्रकार प्रतिपादन करके ( 70णाद (09
# (४) यूनानी चिकित्सकं द्वारा प्रयोग भ कये जाने वाठे हौ जिसके अनुसार यूनानी खत से प्राहुमूंत न दोने वाटी सभी
अनेक द्रन्य मिश्च से आतेये। यूनानी चिकित्सा के नीतिनियरमो पद्धतिर्यो को अस्वीकार कर दिया जाता है ।
का आधार मिश्री चिकित्सा के नीति नियमं मेँ निहित ह। ( {06 इप्पषटं०४ा 1[05फप्णलणी8 त 0९ -विप्तणड ¶०.
(४) इरानी ओर मारतीय चिकित्सा शाख से यूनानौ को अनेक | २. 330 ए 0कच, धप, )
बति पराप् इई । * ह्मे अपनी चिकित्सा पद्धति अरव कफे दवारा दिन्दुर्ओ से
+ इसी आओडिसी मै कहा गया है किं रोग रोर्गो कौ दैवतार्थो
मिली है । आयुरैद के न्धो मे रेतसे नाम विलुङुरु नदीं भिरते है
द्वारा बरपा किये जाति दँ (भ 396 7४ 411 ) इसलिये उनका जो किसी विदेशी अभिजन कों खचित करते दो" । १७ वीं सदी
इलाज भी वे ही कर सकते है ( ४. 297 ) इसख्यि होमर कै कीकौ चिकित्सा पदति परे
तकः यूरोपीय विवित्सा पद्धति| हिन्दुओं
समय जादू टोने की: चिकित्सा यूनानियौ मे प्रचङ्ति धीदा
असंदिग्धरूप मँ माना जा सकता हे । से यह्‌
(7. ८, ए, एण. एठा २, 540) | रचना विज्ञान की पारिभाषिक शब्दावलि की तुलना करने
| |
‡ होमर ने मिश्र को अद्धा्षखि अपितकी है क्योकि उ्तका' बात स्पषटहौ जायेगी ्रह्म ओर हिरोविलोम ।
मस्तिष्क के विमाग--रिसेन
ही "पितृदेवताः समस्त फेरियन जाति को चिकित्सा श्चास की. = ( सैरीत्रम )
(थण,
रिक्षादेताहे) | । | तलना कीजिये-कषिरोग्रह्म
0 प्ती0वपऽ प०1, 7 हिरोविलोम (0थशण्लाणण ( सैरीबेलम )
(ग06 ईउप्ी०४ा (एप्पापलपा8
९. 540 ४९. ६. फ, धप णृ0ध्वो पकप ) हृत्‌ या हृद्‌ प्र ( हारं )
६ अतः वाइज महोदय निभ्न टिप्पणी करते है--“चिकित्सा ` महाफरु (महा-मेग्ना षण्ड) = मेद्म्विलो
.
कै प्राचीन इतिहास विषयक तथ्यो को केवर यूनान ओौर रोम के इस प्रकार हम देखते है पि आयुर्वद न अपरिष्कृत शाख है
प्रसिद्ध केखर्कोमेदहीद्वदा गयादहै) ओरवे तथ्य इस दंगसे ओर न नीमदहकीमी है। इसके विपरीत शायद वदी संसार क
`
व्यवस्थित किये गये हैवि वे उस परम्परागत सिद्धान्त के अनुकूल सवस भ्राचीन जर सवते अधिक शालीय चिकित्सा पडति है।
(१) १-रकीटि० सं०उपो० प° ८९ का०र मेँ देरख। अव भी उसमे अनेक रेसी जानकारियां है जो यूरोपके किसी सी
६२ वंपौद्धात का हिन्दी अनुवाद
७०७०0०७ 9 2 22 9 €> छ ७८9 छक
ए ) नामक विद्वान्‌ लिखिता है कि भारतीय भायुर्वेद्‌ के ररीर- विधाकेब्रहणका सष प्राचीन उल्केख न भिरने पर मी ई पूर्व
सच मे कोभ विदरेल्लौ चन्द नष्टं मिल्ताहै प्रत्युत पाधाच्य छठी शताब्दी में पाथागोरसश* कौ संस्था फे स्थापित होने,
वेधकः मेँ राररिकि अवयवो के निर्दा करनेवाले वहुत से ब्द में पाथागोरसर सम्प्रदाय के अनुयाय तथा उसके दानिक रिष्यो कै
भारतीय प्राचीन शब्दौ की दाया द्विखाईं देती है । दा ही भैषज्य विज्ञान मेँ सवप्रथम रुचि प्रदर्डित करने तथा
यत्नो दास भारतीय षिषयों का प्रहण (०) महान्‌ तत्ववेन्ता परथायोरस को बहु सी प्रेरणा भारत
ए४०गणृव्वा9 ए#90158 में च्लि है कि शौक सेमिखीथी।
विकित्सामं स्सदेख्च की भिनोयन (0081 ) नामक प्राचीन (४, 80"064€ः-
ए 1080045 पत 416 1८व€ २, 44-8 9.)
जाति के स्वच्छताके नियमो के, मेसेपटेभिया, असीरिया, मित्र (१) इिन्दुओं के मतानुसार फिंसपे मानव प्रकृति का निर्माण
इरान तथा रत अद्धि देशो से श्चरीर रचना विज्ञान का, भूत प्रेत होता है--इसकी समीक्षा करते हट स्वीडन के काउन्ट ने छिखा रै
आदि्यौ द्वारा तगो की उत्पत्ति का ओषध निमाणविघाका, इस विषय मे अफ़रछातून ओर अरस्तू भी पाधागोरस कौ धारण
आयुर्वेद के समान अनेक ओषधियो का तथा चस्यसम्बन्धौ शख- को मानते है ओर धारण द्चायद भारतसे री गहं हे जहांकि
विज्ञान कै मिखने से उसकी उत्पत्ति के चार घलोत यै, परन्तु इन्मेसे पाथागोरस अपना तव्वज्ञान समृद्ध करनेके ख्यिमगयाथा।
कितना अंह फिसा है यह्‌ नदीं कहा जा सकता ।' इस प्रकार इनमें ( 11160800 ग € त1046008 2. 77, )
कितना अं किसका हैः इका ज्ञान न होने पर यह स्पष्टहै कि (€ ) रलीगरु का कथन है--पुनजन्म का सिद्धान्त मूर्तः
इरानी वैयकः की तरह भारतीय वैक के मी कुषं विषयो का यीक भारतीय उद्गम का है ओौर पाधागोरस ने उसका युनान मँ प्रचार
वे्यक मेँ प्रतिसंक्रमण हुआ है} किया । ( प्राप 0 [दाप ९. 109. )
ग्रीसदेद्यमे किस २ समय, कसि २ दैद्च से तथा भैषञ्य विद्या
सम्बन्धी किन २ परिषयो का प्रतिक्रमण हुभा है, इसका यथावत्‌ (?) शओरीयुत प्रिसिपका कथन है--पाथागेरस ने अपने
सिद्धान्त भारतीय खोत से ख्ये ये~-यह एक सवेविदित तथ्य हे ।
निरूपण कर सकना दुष्कर होने पर मी भासत से इस्त विषय कै
ज्ञान के ण्यिजो संमावरनाएं मिलती हैँ उन पर हम प्रकाश डार्खैगे। भिक के नाम से वौद्धधमं के सिद्धान्त मी बहुत प्रचरित हु है ।
( 10418 ज180001 ?. 68. )
` दिपोक्रिरस से प्राचीन हैरारिलिस्स(१) ( पलक्गलोधड )
नामक दाशेनिक द्वारा ईस्वी पूवं ५०४ मे छिखित पुस्तक में (8 ) इस विषय मे; जिसका अभी वणेन किया गया है-सचाईं
अनेक वार उदछिखित पाथागोरस ( 0५००९०४8 ) नामक ग्रीक- चाहे कुश्च भी क्यो न रही हो, ठेकिन पाथागोरस भारतीय दशन
विद्वान्‌ ₹ईस्वी पूवं ५८२-४७० मँ ग्रीस्मे हुआ प्रतीत होता है । ओर विज्ञान पर अवलम्बित था यहं वात बहुत सीमा तक टक
पोकाक ( २०९००४९ ) सरोढर्‌ ( 8०५0९ )जदि पश्चाच्च तथा जान पड़ती है । धामिक, दारेनिक या गणितक्म्बन्धी जो सिद्धान्त
अनेक मारततीय विद्वानों दवाय पाथागौरस के मारत मे आगमन तथा उसके नाम से भिल्ते है क्गमगवे समी टी सद्यी ई.पू. कै
भारत से अध्यात्मिक एवं दा्येनिक विषयो का यरहण करफे भस
भारतीया को ज्ञातथे। यदिह निरादेषयोग ही समज्ञा जाय
मँ उनके प्रचार का उर्लेखा किया गया है। भारत से मैषज्य तोये दैवयोग मौ इतने अधिक दँ कि उनका सम्मिङ्ति वज्ञन
काफी हयो जाता है, पाथागोससका दी पुनजेम संबन्धी सिद्धाम्त
अध्यवसायी चिकित्सक के रिथ बहुत उपयोगी सिद्ध हय सकती हयो! अन्य सिद्धान्तः ते अष॑बद्धसा है ओर उक्तो स्थापना की कोड
( 800९ 43608 0 प्रात ल्ताल्म्‌ कपरलणरपौ
प्रमाण श्रुखला नदीं मिरी उसके आयार पर उक्तकौ व्या्याकी
प ०06७ (ीष्कृो0 2. 7-8 \
जा सके! इसल्यि यूनानी छोग मी उसे पिदेश्ली उद्गम से आया
* यूनानी चिभित्सा के तीन छखोतहै-(१) मभिनोयन जाति, हभा समक्षते थे । पाधागोरसने यह सिद्धान्तभिश्र से लियादहो
(२) मेसोपोमिया, (३) भिभ्र । इरानी तथा मारतीय स्रोत भौ
यह संभव नहीं हैक्योकि पुराने भिभियौ को उसका ज्ञान ही नही
यूनानी चिकिसा के ठु ्ंदार्मे देनह) परन्तु यह दैन किस्त
था। पीछे प्रचार मेँ आईं धारणा के बवेजुदर यह बहुत दी
मात्रा मे है तथा उसका सरूप क्या है--इस विषय मेँ अभी निश्चय.
कम संभव दहैकि पाथागोरस भारत आया दहोगा) छेकिन उसकी
पूवक कुद नदीं कहा जा सकता है ।
(ए. 8. एण. उप 2. 198) भट भारतीयो से इरानमे इडं दो सकती है ।
1 8)डा०° एनपफौर्ड का कथन है-हम देखते है कि ज्ञानो. ( ताण 0 01०4प लालदाोऽप्फ १01. 1 २, १०-2३
पाजेन के छ्यि पाथागोरस, अनाग्जरेकस्‌ भौर पारो आदि अनेकं ङ 1. 2. ॥, एण, )
विद्वानों ने भारतकी यत्राकी थी। ये सव विद्यात्‌ पौरे यूनान पश्चिमी यूनानमे्टी सदी ङइनपू. मं पाथगोरस केञनु-
के महान्‌ तत्ववेन्ता (दाशचेनिक › कहरये । याथिर्यो का संगठन स्थापित हुभा
(सावप उण्णा 2, 248, 2342885 ण प्त, ए 38708) (स0००५68 ¶०1. 1४ २, 459. )
0 यहु निश्चितदहे कि वह्‌ (पाथागोरस) भारत आयाथा)
-¶ पुरे पहर चिकित्सा शच में अभिरुषि दिखाने वाले
मेरा विश्वास हैिमें इते स्वतःसिद्ध सामित कर सक्ता हूं । तत्ववेन्ता पाथागोरस के अनुयायी द्यी थे। क्रोट्न का अकेमेयन
( पत 1 0716606, 2०0००}२९ 2. 358. )
( पाथागोरस के बृद्धावस्था के दिर्नोँका एक युवक किष्य जिसकी
( १) इसके टि० सं० उपो० ए० ९० का० श्म देखं।
। दशेन की अपेक्षा चिकित्सा शाञ्च मँ अधिक अभिरुचि थी ) यथपि
उपोद्धात छा हिन्दी जनवाद ९३
© ०-७७-० 2 ७ अ अ ०० ००७०० ०-99-2 @-<७ €> €> ७-€ >-€> €> 9-6७-63
€> ॐ अ -&>
हिषोक्रिरस के भेषज्यविज्ञान पर उनकी दही विदा के प्रभाव पडनेके अनुवाद की भूमिका मे के० एल ०८१) भिषग्‌ रत्न, गोण्डर* कै
उल्लेख(९) से प्रतीत होता हे किं मारत से भेषञ्य विद्याकौो लेजाने ठाकुर तथा जी° एन ०८२) मुखोपाध्याय आदयो ने उल्लेख किया
वाके पाथागोरस के रिष्या हारा दही दहिपौक्रियस पर भारतीय हे । पाथागोरस के दाश्ेनिक अयुयायिरयो का हिपोक्रिरस के भैषज्य
भैषज्य विद्या का प्रभाव पड़ा है) पौकाक (९०५००१९ ) कोछन्रक विज्ञान पर प्रमावके दिखाईेदेनेसे प्रतीत होतार कि संभवतः
आदि विहा्नौ#* का कहना है कि पाथागोरस ( इंगङिश्च ) कै यीक पाथागोरस मी भैषज्य विज्ञान का वेत्ता था। कौटन नामक स्थानके
राब्द '्पत्थगीरसतः का संसत मूलसूप बुद्धगुरु है । पाथा गेरस क अस्कमेइनो ( 4170960 ) नामक विद्वान्‌ के पाथागोरस की संस्था
दछन तथा मारतीय बौद्धदरसौनौ मे परस्पर बहुत समानता है। का भी अनुयायी होने तथा वेक विद्या मे रुचि होने पै हिपोक्रिट-
केवर दशन मै ही नही, अपितु थिबोट(२) तथा पिभूतिमूषणदम्त(३) सीय सम्प्रदाय में मौ उसके पृणंल्प से प्रभाव- के उसर्टेख मिलने
आदि के अनुसार उनके गणितमे भी भारतीय प्राचीन श्ुल्यगणित से प्रतीत होता है कि पाथागोरस की मी कोई मेष्य विध्या संबन्धी
( तल्ला 9 का साषृदय मिलता है । मारत तरे उस समय दोन संस्था थी ) पाथागौरस् की विद्या के संबन्ध मे अतुसन्धान करने पर
तथा गणित आदि बहत से विष्यो का अरहण करते हर सम्भवत मानवक्चरीर मे मानसिक तथा शारीरिक रोगौ की निवृत्तिके चयि
उसने लोकोपयोगी तथा च्विरप्रतिष्ठित षल्य विद्याकामी गहण संगीत आदि साधनौ का उपयोग आक्रति परीक्षाके द्वारा शरीर के
किया ह्मे । भारतीय भेषज्य विद्याके मी पाधागौरस द्वारा मीस आन्तरिक विकार्यो का ज्ञान, पश्युमांसमक्षण अहितकासी होने से
देम ङे जये जने कै विषयमे बेद्ौ.( 26006 )‡ सुश्चुत के उसके न खाने में श्रेय, आरोग्य तथा पथ्य का महत्व, शारीरिक
विद्ुद्रू्प सै पाथागोरस का अनुयायी नहीं था फिर भी उसके दाक्तिवृद्धि के उपायों का अनुसन्धान, प्रत्येक व्यक्ति की प्रकरति के
विषम होने से सवके ल्यि आहार व्यवस्था एक्‌ समान न होकर
सम्प्रदाय से संब्ध था! पेसाजान प्ड़्तादहै किं हिपोक्रिरस्त के
प्रस्थान ( 8०001 ) प्र इसका काफी प्रभवि पड़ा ।
प्रकृति के अनुसार भिन्न २ होना, इत्यादि विषययुः मिरूते है।
( प170009165 #0} [ 1070. 2. शा. ) * यूनानियो मं चिकित्सा दाख के प्रतिष्ठापक पाथागोरस
पाथागोरस फो बुदधगुरू से अभिन्न सिद्ध किया जातारहा (५८२ दै. पू. ) के सिद्धान्त तत्वतः भारतीय ये। का जाता है
है) कलक मी दोनों कौ अचिन्नही मानते थे! सस्छरृतका उसने मिधियोंसे ज्ञान भराप्त किया। हुम आगे दिखार्येगे कि
बुदधगुर्स (प्रथमा की सु विभक्ति ) =पुथागोरस्‌ ( युनानी )= मिधि्यो ने चिकित्सााख मारत से सीखा । अपने मन्थ पाण
१५००१85 ( आग्लरूप ) । 9 एाण1०5०४प' मे एनफील्ड ने दिखाया है कि पाथागोरसने
( {018 10 &८६५८-0०५०५ुर€ £, 64. } पूवं के अर्थात्‌ हिन्दु त्ववेन्ताओं से अपने सिद्धान्त महण चयि ये।
† गणित शाख के इतिहास लिखने वाले कैन्टर ( (णण ) उसकी रिक्षाओं की बुद्धकी ्चिक्षाओं से इतनी अधिक समता है कि
को यूनानी रेागणित ओर शुदं का अत्यधिक सादय देख श्रीयत पोकोक ने अपे ग्रन्थ 70079 7 ७660९ म पराथागोरस्
कर बहुत आश्चर्य हु ¦ उस्ने इसे जेसा कि नितान्त स्वासापिंक जर बुद्धयुरु या बुद्ध को एक्‌ ही सिद्ध करने का यत्न किया है |
ह्य था यह परिणाम निकटा कि ज्ुखवशत्र सिकन्दरिया के हिरो ( 8107४ तामाङ 0 4 कृ 1160109 8०९५८ 2. 190-
प्रस्थान (२१५ ई.पू.) से प्रभावित है। श्ुख्खर्नौ का काल 191 ण पर. न. 2809१४४ 81070€€, )
कगमग आघ्वीं सदी ई.पू. हरता है। डा० धिवौट (7 ¶ पके पहले चिकित्सा राख मं अभिरुचि दिखाने वाले
गूगृणाभ्पाः ) ते दिलाया है कि ७ साध्यकेप्रमैयकोजो कि तत्ववेन्ता पाथागोरस के अनुयायी द्यी थे। ` क्रोटन को अेमैयन
पाथागोरस कै नाम परपरम्परासे चखा आतादहै हिन्दुओं ते ( पाथागोरस कै वृद्धावस्था के दिनों का एक्‌ युवक रिष्य जिसकी
पाथागोरस्र से २०० वधै पूवंद्यी हर करदियाथा। इस प्रकारवी ददन की अपेक्षा चिकित्सा शाख मेँ अधिक्र अभिरुचि थी ) यथपि
श्रौडर का यह परिणाम पष्टदहोता हे कि यूनानी तत्ववेत्ता ( पाथा- विह्ुद्ध रूप से पाथागोरस का अनुयायी नहीं था फिर भी उसके
गोरस) ने भारतस्ेप्रेरणा पादईथी। सम्प्रदाय से संबद्धथा। एेसा जान प्डता है कि हिपोक्रिरसके
( पाण ण तपवक 0 0, 2. 0, दणि प्रस्थान ( 8५0०] ) पर इसका कापी प्रभाव पड़ा ।
2. उ. ) ( न100०५8 + ०. 1 २, प. )
| ‡ महान्‌ तत्ववेत्ता ( पाथागोरस ) ने अपने तान्त्रिक रहस्य ‡ पाथागोरस्र के प्राथेना संघ, तापसोचित आत्मनिरीक्षण,
ओर्‌ अध्यात्मवाद भारतीय ब्राह्मर्णो से प्राप्न कियिथे। श्रौ पौकोक अस्यत वासनां कौ वद्य मेँ करने कै स्यि संगीत प्रयोग, उसकी
( ८००००२९ ) ने अपने ध्यूनान मे मारतः ( 10078 1 16606 ) मुख की आक्रति से विचारो ओर वास्तनाओँ को ताड जाने की शक्ति
, नामक मन्थमें उसे बुद्धय॒रु या बुद्ध से अभिन्न सिद्ध कियाहे। उसका आहार संयम ओर शारीरिक शक्ति के प्रति उसकी अत्यधिक
यह बड़ी आसानी से अनुमान किया जा सकता हैकि वहु अपने मार जागरूकता-ये सव प्रसिद्ध हँ । यह भी कहा जाता है कि वह
तीय गुरुओ से प्राप्र अनेक आयुरवदिक नुस्वे युनान ठे गया होगा । पुमांस भक्षण के चोड देने की चिश्चा देता था ।- इसका पुनजंन्म
( प्र€ पाटा 91 (लकी 0 तला 4 ४-26406 के सिद्धान्त से गहरा संबन्ध है ओर हम मान सकते हैँ कि उसने
162. ) यह मन अपनाया दोगा जप्ता कि उसकेवाद्‌ एम्पेडोकठिस नेकिया!
(१) १-३ तक की टि० संसत उपौ० ¶० ९० का० २ ओर ( पाण म 6८८०८ एण]. 7४ २, 392 फ. ७२०९8. )
९१ का०१ भं देख। (१९) १-रकीटि०सं० उपो०पृ० ९१ का० १ मेँदेख।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
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। होता है! भारत से दारौनिक विषयों के ग्रहण तथा


# 1) ब वि कि का पिः कि म

पाथागोरस के जितने मी आदेश मिरते हँ उनमें शरीर कौ स्वस्थ प्रवतत प्रतीत


अनुकर पथ्यसेवन आदिं नियमो के पारन
| मिश्र की मैषज्य विचा के देन का उव्छेख होने से भारत तथा
रखने के छथि अपे भिश्च मँ जनिवाङे पाथागोरस को मैषञ्य षिच्याका ज्ञान मिश्र तथा
दाय मँ रेम-
कत विक्षेषस्थान द्विथार# गया है । पाधागोरस के सम्प्र
मारत सोन देशो पे हआ प्रतीत होता है। इस प्रकार ्रोटस हारा
निवृत्ति के स्यि ओषधिर्यो के प्रयोग की अपेक्षा पथ्य तथा आहार
निदिष्ट उसके उपदेशो मे दिये हए स्वास्थ्य सम्बन्धी विषयों के
विहार कै नियमो के पाटन पर ध्रान दिया जता धा ओर यदि भारतीय आधुत्रैद मेँ मिलने से तथा दिपौक्रिरस के भेषञ्य विज्ञान
पत्थ]
ओषधियो का प्रयोग किया मी जाता तो अन्त प्रयोग (
नै सी भारतीय व्ैघक विषयों कौ समानता कै दिखाई देने से प्रतीत
०७९६ ) कौ अपेक्षा यथाशक्ति केप आद्रि बाह्य सारीरिक उपचार
पर विलञेष ध्यान(१) दिया जाता था । ईस प्र ५३० मे पाथोगौरस होता हैफिमारत के साथ अपने संबन्यका वणेन करने वाके
के क्रोटन नामक स्थान म पहुंच कर उपदेश देने पर वहां के तीन पाथागोरस ने साक्षात्‌ अथवा परम्परा से भारतीय विज्ञान के हारा
सौ व्यक्तियों ह्यारा उसके उपदे कै अनुसार ओषधप्रयोग को छोड ग्रस देद्चौय मेषज्य विज्ञान को प्रारमकियाथा। `
कर पथ्य तथा आदार विददार के पालन से खास्थ्य रक्षा करने को इसके अतिरिक्त दिपोक्रिय्स से कुक समय पूवेशीस में विच
मान तीन श्िकित्सा सम्प्रदायो मसे एक सम्प्रदाय के प्रवतेक
दयपथा ठेते का उच्केख मिलता है । अनेक ददो म घुूमते हुए
एम्पीडोिलस का भी इरान तथा भारत के असपास्तके प्रदेशो मे
मिश्र दे मै पहुंचकर पाथागोरस ने वहं आगन्तुओं कौ चकित
जते तथा मारतीय दाक्षनिक विद्या को रीस मँकेजने का पी०
करनेवाले मैषञ्यविया के विकञेष प्रचार को देखकर बहुत आश्वयै
प्रकट किया, कोन नामक प्रदेश मे पाथागोरस के साथ विमान सौ०(१) राय ने वर्णन किया दै । मरत मेँ पान्चभौतिक तथा चातु-
पाथागोरस के सम्प्रदाय वले मीलो नामक व्यक्ति के जवार डेमो. भौतिकवाद मी प्रारम्भे ही मिलते है । एम्पीडोक्लिप्च द्वारा रीस
केडिस ( 7€८1०}.60९8 ) वारा प्रवतिंतं भेष्यविषयक सम्प्रदाय के मे चतुभूंतव
ाद का अभूतपूवं नया प्रचार तथा नवीन भैषञ्य सम्प्र
जाना भिरा है। दिपोक्रिरसत द्वारा उस
ईस्वी पूर्व तृतीय-चतुथं इताब्दौ मे प्रचक्ति होने के ओट्स दाय कामी प्रारभ किया ) भिल्ता है
( 67०68 ) नामक विद्वान्‌ दारा निदेश होने कै अनुसार भैषञ्य चात्भौतिक शरीरवाद का ही प्रत्याख्यान ( खण्डन
प्राचोन तीनौ सम्प्रदाय ो मे आवापोद्र ाप विधि
ज्ञास संबन्धी उपदेर्दो को दैने वाला, उसके उपदेशो को अ्रहण तथा उसकै द्वारा
अपने सम्प्रदाय का उद्धव
करने वलि व्यक्तियों द्वारा आद्र किया जाने वारा, मिश्र मँ भेषस्य तथा परिष्कार के दवारा संस्कार करके
मरकट किया गया है । इस प्रकार दिपोक्रि टस के पृवेवतीं एम्पीडो-
विया की उन्रति को देखकर प्रसन्न योने वाला तथा भेषञ्य सम्प्रदाय
क प्रवर्तक डमोकेडिस को अपने रिष्यकूप मेँ स्वीकार करनेवाला विलस द्वारा भारत मे जाकर
साक्षात्‌ रूप से अथवा हरान देश कै

पाथागोरस सैषञ्यविज्ञान का मौ आदर करनेवाङा, ज्ञाता तथा दार मारतीय दैन विचा के समान द।रोनिक विषयों से सम्मिभ्ि
| मैषञ्य विचा का मी ग्रहण किया गया प्रतीत होता है। इसमे द्वारा
* फिर भी दूये ओर यह भी सर्वधा संभव लगता हैकि मी स में पहुंचा हभ भारतीय चिकिस्सा विज्ञान दिपोक्रियस के
आहार, रिक्षण ओर अध्ययन के ये नियम संगठन के अन्य सदस्यो हृदय मेँ सद्क्रान्त हो सकता दै । ऊपर श्चि हुए दिद्ा्नौ के नाम
पर कागू नदीं दौते थे । केवर उपलक्षणमात्र है । इसौप्रकार अन्य भी एसे कईं ग्रीक विद्वान्‌
( पाण 0 0९९०6 ४०1, {४ 7, 329 0०९३, ) हो सकते हैँजिनये द्वारा मारतीय पिचा साक्षात्‌ रूप से अथवा
+ पाथागोरस के क्ट खास रिष्या ने-जो कि संख्या मं तीन इरान आदि देशो के मागं से होतो इदे पाश्वाच्य देशौ मँ पहुंची हो]
सौ के कगमग मे-एक प्रकार की प्रतिज्ञा पे अपने को पाधागोरस प्राचीन इतिहास मँ उनके नाम नदीं भिरूते है इसख्यि इस विषय
के साथ ओर परस्पर एक दूसरे के साथ इद्‌ सम्बन्ध मेँ वाध ख्या मे स्पष्ट उर्केख कै जिना कुद नदीं कहा जा सकेता ।
इस संगठन के चिह्न के रूप में उन्होने विश्चिष्ट आहार, कमैकाण्ड पूर्वकारु मँ ही नही, अपितु हिपोक्रिरस के पश्चात्‌ मी भारतीय
ओर जत अपना ल्यिये। | व्यवहार कै ददन के ल्यि जये हए इविभेरस ( एप्पल )
( प्ाशणप़ 0 0१6६०९६ ४०. {४ 2, 829, 07018. ) का उदाहरण मिल्ने से प्रतीत होता है कि पूवैपरम्परागत भारतीय
‡ पाथागोरस के समय मिश्च की वैकं की इतनी उन्नति दौ सभ्यता का अध्ययन करने के स्यि इससे पूवं भी बहुतसे भीक
गई थौ किएक जिज्ञासु यत्रीका ध्यान आङ्कष्ट कर सके)! उसके विद्वान्‌ सारत मेँ आये होगे तथा उनके द्वारा बहुत सी भारतीय
सिडान्तौं का श्रेणीकरण ओर विभाजन हो गया था। उनके चिकि- सभ्यता उनके देश मेँ पहुंची होगी ।
त्सा व्यवसाय के जियम निर्धारित हयो गये थे 1 |
(९०0०३ 1 84, 4 पञ०ा€ एगाभ०8 [त 10, 4.
भारतीय विद्वान का भीस भें जाना
भण ग 6९९०९ प्रण]. ए ए, 325७018. ) केवल रीस दे वारौ का ह प्राचीन भारत मँ आगमन का
६ ओषध विज्ञान तथा शल्यचिकित्सा म जब पाथागोरस के । वणन नदी भिर्ता है अपितु भारतीय विद्वान्‌ णवं वौ का भी
पश्चाच्य देशो मं जाने, उने ज्ञान ग्रहण करने, उनका आदर तथा
ष्य मिलो का दामाद डिमोकेडस्‌ प्रसिद्ध दो रहा था तब पाथा-
गोरस्‌ क्रोटन मे विधमानथा। ` | । उनको उपदेरा देने के वृत्तान्त इतिहास मेँ मिलते है । ईस्वी पूवं
{छाज 9 ७६९०८ र ०]. [ए 2. 327-प0ाम68, ) २३० सामयिक प्रसिद्ध गश्यक अरिष्टररु के रिष्य अरिषटोक्सेनस
(१) इसकी टि सं०° ० १० ९१ का०र मंदेखं। ( १ ) इसकी दि० उपो०संस्कत ० ९२ का०२मेंदेखं।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ९
2 ०2 ० -2 --- €> क क 22 2 © द क अद क 6 09 0 0

( ^अगनलणपड ) नामक विद्वान्‌ के ठेख के अनुसार अरीस्देश की अलेक्जेर्डर द्यरा भारतीय विज्ञान का प्रसार
राजधानी एयेन्स मेँ साक्रिरीज नामक ( 8०५५४४९३ 8. © 469- जो भी राष्ट्र उन्नति करना चाहता है वह विद्या आदिसे प्षदध
99 › प्रसिद्ध दादौनिक के साथ अध्यात्म विषय में उनके सिदधन्तो तत्कालीन अन्य रट का दूर से अध्ययन करता है तथा अपने देश
का उपहास के रूप मेँ खण्डन करते हृ किसी मारतीय के अध्यात्म कै गौरव को वदने केय्यिउ्सदेद्ाके विज्ञानो कौ यहण करने
विषयक संमाषण के मिलते से तथा ( छएण्ञलणंण8 ) नामक विद्वान्‌ का प्रयत्न करतादहै। उन्नतदे्ो की विद्या के परिचय, भाषा-
दारा भौ किथे गये इस संवाद कै उद्लेख को देखकर प्रतीत होता है विज्ञान तथा उनके अनुमूत सफल प्रयोगो के वाद्‌ श्रद्धा तथा विश्वास
कि ईस्वी पूवं चतुथं शताब्दी से पूव सी भारतीय का बूनानिर्यो क्री अधिकता होने पर उनके मन्थौ का महण विया जाता है, उनके
८ यीकोँ ) के साथ परिचय था। इस प्रकार त, ©, वका0500* विद्वानौ का सन्मान किया जाता है तथा उनकी प्रक्रिया्ओ को भीं
दवारा प्रकारित ञेखसे भी प्रतीत हदौता है कि अलेवजेण्डर के भारत स्वीकार कर लिय! जाता है । उन्नत अवस्था मै पद्ुची हुई भारतीय
मे आने से पूवं मी भारतीय विद्वानों का यस में जाना, मीस भाषा स्िकित्सा चिज्ञान के श्रवण, आलेकन, न्ञानपयालोेचन्‌ तथा आदर
का ज्ञान तथा मीक विद्वान के साथ विचार विम्चं विमान था।
~ से पूव भो ग्रहण करने के ल्य ग्रीक आदि प्राचीन विद्वानों क।
मारत मँ आना देखकर हमे आश्चयं नदीं करना चाहिये विलि-
~

_ ~
______

+. यूनानी ओौर भारतीय दाशोनिक चिन्तन मं जो अदत गीषु ( विजय की इच्छा बाला ) राष्ट्र जिन्दं जीतना चाहता है उन
साद्य भिलता है उसकी ओर येव आदि अनेक मनीषी बार बार राष्ट्र के वक, वीर्यं तथा सभ्यता आदि की परिस्थितियों कौ पहले
चिद्वानो का ध्यान आष्ट करते रहे है । एरेटिक भौर सांख्य जच्छ प्रकार देखकर हयी अपने पैर बढाता है। इस सिद्धान्त कै
सम्प्रदायो तथा ओौरफिज्म (0 ) स्र बौद्धधमं के अनुसार अचक्छेण्डर के अने से पूवे मी संभवतः भारतीय
सादर सच्चे है । 8. 7. 0प्ा०ः ने अपने नवीन यन्थ (11९88826 परिस्थितिर्यो का सम्यक्‌ अध्ययन करनेके छियि बहुत से क
0 719० मँ दिखलाया है कि अफखातून की पुस्तकों म विशेषकर विद्धान्‌ मारत मे अये हौ अथवा भारत में रहने वाले यूनानियो ने
्कृपणा०-पेपसे सादृद्य बहुत अधिक हैँ। 19०48 का सिद्धान्त भारत के विषय मेँ यूनानि्यो को पूणे ज्ञान करा दिया हो । विजय
वेदान्त का हयी सरलरूप है । १० वँ अध्याय के अन्त मे अने वाला वपी इच्छा से भारत मँ जकर तथा कुचर प्रदेराको जीत केने पर
"पास्फीख्ियन एड का स्वप्नः विरु दी भारतीय रंग मर्गा भी यवनाथिपति अलेव्जेण्डर के दीघर भारतसे लौट जने में
हुआ है । द्शुयणा० मेँ वणित समाज के तीन वगे-संरक्षकः व्यव- चिरकाल से थकी हदं अपनी सेना कौ अद्यान्ति ही केवर कारण
स्थापक ओर न्यवसाशी भारतीय स्गरृतिकारो के तीन वणे-ब्राह्मण, प्रतीत्त नहीं दोता है । अपितु जिस मागंसे जयेथे उसे च्योड्कर
छत्रिय ओौर वैदय है । चन्द्रगुप्त के दरवार मेँ स्थित यूनानी राजदूत नवीन ससुद्र मामं से शीघ्र खौरजनि में सुद्राराक्षस की उक्ति के
मैगस्थनीज ने भी यदी कहा है--अनेक वार्तौमें हिन्दुओं के अनुसार कोड अन्य कारण भी प्रतीत दहौताहै। मारत मेँ आकर
नीतिनियम युनानि से मिरते जुरते हैँ । उदाहणाथं यह विश्वास मी अलेक्जेण्डर के रघ रौट जने के उल्लेखसे प्रतीत होता है
किविश्वकी सृष्टि ओर प्रल्य कारका निश्चित है, ओर यह कि कि चाणक्य नामक मन्त्री सहित चन्द्रगुप्ठ द्वारा सास्ित तथा
पृथ्वी का आकार लुक है, यह कि नियामक ओर निमात। परमात्मा समय २ पर दने वारे आधात को सहते हए अपने पूवे सम्प्रदाय
ही इसकी व्याख्या कर सकता है, विश्व कै प्रारम्भिक तत्व अनेक
हैः केकिन आप्‌ ( जक ) ततव ही पहला तत्व है जिससे विश्च कौ (गायक एरिष्टोग्जेनस्‌ भारतीयों के विषय मेँ यह्‌ कानी कहता
रचना इई है, यदह कि चार तत्व के अकावा एक ओर तत्व है है । एक भारयीय “अथेन्सः मेँ सुकरात से मिका ओर उससे पढने
जिससे आकारा तारे आदि बने है, जौर यह कि पृध्वी ब्रह्माण्ड के लगा कि तुम्दारे ददन काकार्य॑क्या है । सुकरात ने उत्तर दिया
केन्द्र मे स्थित है) इसी प्रकार जन्म तथा आत्मा एवं अन्यभी (मानवीय चरित्र ओौर काये को समञ्चन? । इस पर भारतीय दस
अनेक विष्यो म मारतीर्यो के विचार यूनानी विचारों सेमर पडा ओर कहने र्गा कि कोड मनुष्य तव तक मानवीय प्रकृति भौर
खाते है । अफरतून की तरह हयी वे भी आत्मा कौ अमरता ओर कायं ( ९0€100€09 ) कौ कैसे समञ्च सकता है जव्‌ तक कि उसे
परलोक मेँ दिथे जनि बवे दण्डो के अनेक किस्से कहते है। दैवीय कायं 2
भायः इन सायो को दैवयोग अथवा वित्ारौ का स्वतन्त्र विकास | गीय च्लि जर कार्यौकाज्ञान न दो ।
कहकर उनकी उथेक्षा की जाती री हे । हीरोडोरस्‌ ने स्ट ही | इस कथा का माव स्पष्ट है । युसेवियस ने इसे प्रामाणिक कहा
है । गायक एरिष्टोग्जेनिस्‌ "अरस्तू का रिष्यथा ओर स्वरो के
कहा है वि यूनान म पुनजैन्म का सिद्धान्त भिश्रसते आयाहे
केकिन उस युग मँ भारत ओर यूनान का संबन्ध था यह सिद्ध
विषय मँ प्रामाणिक ठेखक था। उसका काल ३२० हे. पू. है।
इसल्यि हम निःसंकोच मान सकते है किर. पू, चौथी सद्य
करने वाका को$ समसामयिक प्रमाण जव तक नहीं मिरु सका है ।
केकिन यह प्रमाणामाव की युक्ति बहुत ही निवल थुक्ति है ओर मी अथेन्स मेँ भारतीय थे जो यूनानी बोल क्तेये ओर जिन्न `
अभी हाल में यूसेबियस्र ( एष्डहणणड ) का एक महत्वपण संदभं वस्तुतः खुकरात से दासनिक च्चा की थी। इसे मारत ओर
मेरी दृष्टि मै आया है जो ठ. ^. ४. तप्नपताल् द्वारा (जोकि यूनान के पारस्परिक संबन्ध के विषय मँ हमे अपने विचारों मेँङ
(भणत र पण्‌ ग 7०8 200 [ काधि भ के परिवतंन करना दीगा 1 ` | `
लेखकः है) नजर अन्दाज कर दिया गया है । सम्दभं इस प्रकार दै- । (णपा एतमा, 1936, )
उपोद्धात छा हिन्दी अनुवादं
12 23 |[3 र.
7ऋ 2
ऋ. १ 1.2 का
2 2. क.
2१[3 ह,
2 क।
€ष्यते| परनि, 9१.५ ड क1 ~...
|१[2 7.
ड |[२ (नि)
2.। [ड प
४1€क, कः. 1 7 न |:>, ।
कड ऋ...
9.1 १

दो रक्षा तत्पर मारत देशम उस समय यूनानियोका प्रभाव विषय का सम्यक्‌ ज्ञान नदीं था । पाथागोरस आदियो के इतिवृर्तौ
| | के दवारा मास्त मे अध्यात्म आदि अन्य प्रियां कौ भी उन्नति
अधिक नहीं था ।
के स्पष्ट उल्लेख होने से, इस लेख प्तेमी यही प्रकट होतादहै कि
विल इराष्ट+ ( पता] एप्प) नामक विदान्‌ छिखता अन्व विद्याओं की अपेश्रा भैषञ्य विचा मँ भारतीय अभिक पूं
है कि “तक्षद, काची, उज्जयिनी तथा विदभं आदि नगरों थे । अन्य साथ चलने कौ इच्छा वारे बहुत से भारतीय विदानो
आरतीय वि्रचिद्याख्य थे 1 अचेकनेण्डर द्वारा तक्षशिला के आक्र म से तक्षशिला से आदरपू्वक साथ छाये हुए कस्याण ( छाप्ण्-
मण के समय तश्चरिला सम्पूणं एरिया मँ सवसे उन्नत भारतीय 70] 760०५०६३ &8 [0010168 एप € जत्श्8 ००1९0
विदववि्ाल्य था वहां सम्पूणं कलाओं, सव विज्ञान, सेनिक्‌ 0179 8181105 ) नामक सारतीय विद्वान्‌ का यीसापिपति अङे-
त्रिया तणा भैषज्य वरियाकी चिक्ना दरेने वहते बहुत से बडेर वजेण्डर अन्य सव दानिक विद्रानौ कौ अपेक्षा अधिक सन्मान
विद्रानेः तथा देच परकनान्तरेः से अये हृ वदन से विदच्याधियो द्वारा करता था पीषछठेदेह व्यागणकी इच्छासे चिता पर आरूढ होनें
समृद्ध मदान्‌ विश्ववरिधाक्य था। यह भारतीय पिद्याओं के लिये
पर ग्रीसाधिपति ने उसका अत्यन्त गौरव के साथ अन्तिम सन्मानः
अत्यन्त प्रसिद्ध स्थान हो गया था अन्य सवर वि्ार्ओ कौ अपेक्षा किथा था । रापसन() ( 79802 ) नामक विद्यान्‌ ने खिणिा है
पे इस विदवविचाङय की भैषज्य विद्याम विदेष प्रसिद्धि तथा कि दस भारतीय विद्वान्‌ का वणेन एरियन तथा स्टरषौ नामक
प्रतिष्ठा थी* । एरियन ( ^ ) नामके विद्वान्‌ का भी कहना विद्वानों ने मी किया है ) मेकेस्तमूलर के कथनानुसार वह्‌ कल्याण(२)
हे कि ^तक्षञ्चिला अत्यन्त महान्‌ तथा उच्रत नगरौ थीः। स्मिथ नामक विद्वान्‌ मरीस तकमी गयाथा। यह एक्‌ उदाहुरणदही
के अनुसार अेकलेण्डर का इतिहास केक एरियन ( ¢पंक४ ) भारत के तात्कालिक गौरव कौ खचित करता है ।
नामक विद्वान्‌ सिन्धु के समीपस्थं मूषे राज्य का वणेन करते हृष अल्क्जेण्टर द्वारा अपनी सेनाम यीकवैर्घोके होते हुएमी
लिखता है कि “उप्त ददा के रहने वाके १३० वषं ठक जौवितं रहते उनको सप॑विषचिकित्सा काज्ञान न होने से सपेविष की चिकित्सा
धरे! उनके इस दी्ौयुष्य का फारण परिमित आहार दी था) अन्य के ल्यि भारतीय वैचों फै रखने, अन्य रोगौ को चिकित्सा+ मँ
विया की अपेश्षावे वैक विद्या के अध्ययन विशेष रुचि
रखते ये" । मूषक प्रदरा मेँ १३० वषे की आयु को असाधारण रूप * यहु ( भारतीय चिकित्सा ) विज्ञान यूनानियो के मारतम
म देकर, मूषक के उल्केख द्वारा संभवतः अङेक्जेण्डर का सिन्धु आगमन पर्यन्त (३२७ ई. पू. तक ) निरन्तर बढ़ता रहा । यूनानी
प्रदेश तक आगमन सूभित कियाहै। सावो(१) (६४० ) इतिहास लेखक एरियन ने सिकिन्दर के आक्रमण के समय भारत की
नामक विद्वान्‌ भी ङिखता है कि ( ¶४6ु १० ००४ एवऽपट 9००४ अवस्था का वर्णैन करते इष एक विचित्र तथ्य का उल्लेख पिया है
7४1€ 0०0 9€ 79 शण [ण्ट दव्ं भम पालने जिसे तात्कालीन हिन्दू चिकित्सकों के गौरव का परिचय मिर्ता
म ( अर्थात्‌ उन्दै चिकित्सा विज्ञान के अतिरिक्त अन्य करिसीसी हे । वह कहता हैकि सिकन्दर की सेनाके साथ यचपि अनेक
* (2) चन्द्रयुप्त के समय मेँ उत्तरीय भारत के दौ सौ प्राचौन- कुशल यूनानी चिकित्सक वियमान पे परन्तु उन्दने सपदंश
तम नयस मै एक तक्षशिला था। एरियन देतिदािक छ्खिता है (जोि पंजावमें प्रायः होतेह) के प्रति अपनी अस्मथंता प्रकटं
कि "वह षक विक्चारु ओर समद नगर था। सावो छिखिताहै कर दी थी । . इसख्यि सिकन्दर को इस विषय मेँ मारतीय वैँ
पि यह्‌ बहुत विस्तृत नगर है तथा यहां कै कानून बहुत अच्छे को बुलाना पडता था जो कि सर्प॑दंश की सफ़रतापूवंक चिकित्सा
है, । यह नगर सेना ओर चिघाका केन्र था!" "तत्कालीन करते थे! ओैसीडोनिया का राजा इनके हस्तकौशर से इतना
सारत के कई एक यिद्छपिचयालरयो मै यह सवपते अधिक विख्यात. प्रभावित हो गया था कि निथाकंस के अनुसार उसने अपने सिविर
था] जिस प्रकार मध्यदुग म पेरिस मै क्षात्रगण एकत्र होतेये मे बहुत्‌ से अच्छे मारतीय वैद्यो को नियुक्त कर रखा था तथा अपने
उसी प्रकार तक्षशिला मै बहुत से विचा्थी एकतर हुआ करते थे । साथियो को उस्ने सपद अथवा मन्यमी दारुणरोगोमं इन
छात्र यदं के प्रसिद्ध गुरुं के पास समी प्रकार कौ कराएं ओर भारतीय वर्यो से सलाह छने को कह रखा था । एक ओर जब पि
्ञान विज्ञान सीखा करते ये। यहां का आयुकद रि्षाक्य सारे यूसेपीय विषविज्ञान के पण्डित आजतक मौ सपंविष कै लियि
पूर्वीय जगत्‌ मै खूप प्रतिष्ठित जर प्रसिद्ध था (षष्ठ ४८४६-४५२) किसी दिरिष्ट (30५0०) ओषधि की तकाशमें ल्गे हुदै,
(४) सिकन्दर के आक्रमण के समय तक्षशिला नगर विया के भारतीय चिकित्सकों को लगभग २२०० वषे पूवे इस कुशरता का
रुख केन्द्र कै रूप म समस्तं एशिया म स्वविदितं था । अपने गौरवं प्राप्न था। इसीख्यि संभवतः अल्ेवजेण्डर जित्ते भारतमें
आयुवेद पिाख्य के ल्यि तो यह ओर भौ अभिक प्रसिदधथा। सिकन्दर कहा जाता है-यहां से लोटते हृए अपने साथ कुङ्‌
त) तपण ‰. 597 )
( सण्‌ भ (ाणोभाण्प-
मारतीय चिकित्सा शाख के अध्यापकों को अपने देर ङे गयाथा।
यूनानौ चिकित्सा शख के प्रारंभिक इतिहास से मी इस अनुमान
† वहां के निवासी एक सौ तीस वषे की उमर तक पहुंचते
अथवा कर्पना की ङु पुष्टि होती हे ।
रे! उनका दीर्घायुष्य उनके सुस्वास्थ्य का परिणामथा जोकि
आहार विषथक संयम से प्राप्त किया जाता था । | (9० पऽण 9 4 पष 1647681 8िनंला०६,

(एषो ता्‌ ० णत ४र,उपा १. 108. ) 2. 189-190, फु छ, प्र, उथटुर्भ॑ञं


णीभ९९, )
( १) १-२ कीसं० उपो० पृ० ९४ का०रमेंदेखं।
(१) इसकी टि० सं”.उपौ० १० ९४ का० १ देवं,
| उपोद्धात का हिन्दी -भनु्मद ५ ६७

मीप्रवीण न्दोसे उश्लिक्जेण्डर दाया अपने शिविर म -आारत्रीय व्याख्या में .मी बुद्धके निर्वाणके बाद-उनर दे्योकी उन
मयो को रखने, स्वदेश को रौरते हए ग्रीसाधिपति द्रवाय भारतीय भाषाओ मै यानत्रय, पिटकन्रय आदि बौद्धयन्थो के अनुवादं होने सै
व्यो को आदर संहित -अपने साथ ठे जनि के तथा अपने देच धमेप्रचार का निर्दे भिल्ता है। उप्तम भी पारसीक देश त्थ
को टौरते हुए मागमे मी सारतीय चिकित्सक. दारय सपदष्टकी नील नदौ के उन्तर मेँ स्क्म देश का उच्छेख मिता है । अशक ने
चिकित्सा के उ्डेख मिख्ते से सारतीय आयुवद्‌ क्रम प्रभाव पीछे केवरु धर्मविजय ही नहीं किया था अपितु उसके शाहावाज गङी
भी ग्रीसदेश् मं दिखाददेता हे | नाभक्‌ स्थान म यङ हुए

सर्वत्र चिजिते देवानां प्रियस्य '`मनुष्याणाम" मूल उपो-


भारतीय आलोक के प्रसार मँ अशोक के
| द्वात प° ९५ दैर्खे ।
शित्राज्ेख का स्थान इस द्वितीय (१) हदिकलकेख म अश्चोक द्वारा भारतके सिन्न.२
न केवर प्राचीन कार में अपितु (४) -के सम्य उसके ॑ प्रदेयो के समान भारत से बाहर अन्तियोक नामक मरीस राजक
तथा उसके आसपास फे अन्य राजा केदेखाम मी पश्चुजां तथा
तेरह शिराञ्ेखो) के अनु्तार अन्तियोक्ः ८ योन ) नामक क
राजा (४४१००००8 १1608 8.0.26 1-246 110 9 88), मनुष्यो के छियि प्रथक्‌ २ दो प्रकार के चिकित्साख्य प्रारम्भ कियिथे
तु्म॑यस (२४०1९५९० ए१7120९101008, 108 0 20 285 तथा उन पञ्चम तथा मसुष्यो के उपयोगी ओषधिर्यो की भी
247 ए, ©.), अन्तिकोन -(41६07108 68011165 0 {80600 व्यवस्था की थी ।! आवरयकतामुसार ओषधि; फर तथा मू कै.वृक्षु
प्रतीत होता है चिः
09 278-239 ए. 0. ), "मगसः( 0998 ० 0८०८ 40 छ€ | भौ सव `स्थाना पर लगाये जाने के उच्केख से
समय तकः मारत कै समान मारत से बाहर अन्तियोक आदिः
पठण 9 ए्ाए-मृत्यु-958 8, 0. ) तथा अलीकछेन्दर ( अले | उस
वजेण्डर-^1@9व€.ी का ण8 272-258 8. 6. तथा `मतान्तर कै दे्लामे मी भारतीय चिकित्सापद्धति तथा ओषधियों की अपेक्षा
से -416.:906€7.01 (णण 252-244 7.6. ) के देशौ.तथुा ८ आवदयकता ) प्रबृन्ति तथा प्रचार.था ।. तेरहव धमंविजय शिर
तथा अलीक
यवन, क्रम्बोज, नीलं, वचर, पाण्ड्य, ताः: पर्णी, दरद विषः वज्चनाभक, ङेख मँ अन्तियोक के साथ तुम॑या, अन्तिकोन, मग
है । वह्यं इन
नामप्रान्त, भोज, पिति, निकिं, आन्ध्र तथा पुकिन्द आदि आठसौ सुन्दरः आांदि चारौ रानां का स्पष्ट उर्छेख भिल्ता
योजन के अन्तरसे पैरेहए देशौ मे भी अद्लीकः की धमेविजय राजा कै देशो के माठ सौ योजन तक फैले
हए होने का निर्दर
तथा धमं के चि मिलते है ।इस लेख से ज्ञात दोता है कि मास्त के हे ।दूसरे -शिलार्ेख मँ अन्तियोक नामकं यवनाधिपत्ति का तौ
भिन्न २ प्रदेश्लो के समान सीरिया, मिश्र, मैसीडोनिया, पश्चिमी नामपूर्वंक अहण विया गया है । अन्य राजाओं का धये चान्ये
मिथ) ्पिरस, यवन, कम्बोज आदि दूरके देशोमं मी अन्लौकने तस्यान्तियोकस्य सामन्ता राजानः? के दारा उनके समीपवर्ती
भारतीय धमे कौ प्रतिष्ठा की थी । विमरप्रभा() की कालचक्र नामक होने से सामान्यरूप से उच्छेख होने पर भी अन्तियोककरे साहचय॑से
भौगोलिक दृष्टि-ते सीरिया प्रदे के चारौ ओर स्थित दहने से तथा
# प, ठ 8080 रचित ४001686 प्राञण 0 सामन्त शब्द के ओचित्य के -कारण सम्भवतः ये वे हो जुमयः
618 नामक न्थ के प्रथम माग १,.४०६ पर नियांकस.के नाम से अन्तिकोन, मग तथा अरीकसुन्दर आदि राजा हँ जिनका तेरहगे(२)
किया गया है। मरीसाधि-
उद्धरण दिया है क्रि-“मारत मँ चिकित्सकों के लिय सप॑दष्ट रोगियों रिरङेख मे अन्तियोक के साथ निदश
के कारण अदरक के
की चिकित्सा के अतिरिक्त ओौर कोड कायं नहीं था; -व्योकि जसा | पति अकेक्जेण्डर के अशोक से प्राचीन होने
कि यूनानी रोग समद्षते थे, भारतीयों को रोग बहुत कम होते थः समकालीन .अन्यं राजार्ओ के स्ाथदहाना सम्भवन होते प्रमी
कै -पौव्रेकालिकः
तथा इसके विपसेत ^^+८1808 16104" नामक अरन्य में नियांकतत का मारत मे आने के कारण "परिचित हुए .अल्वजेण्डर्‌
भीसाधिपति
निम्न उद्धरण दिया है--सिकन्दर के पास चिकित्सा कायं में अत्यन्त सम्बन्ध कौ लक्ष्य करके अरीकपुन्दर शब्द से प्रसिद्ध
निपुण बहुत से सास्तीय ग्यक्तिये। उसने अपने सारे िषिरमें ` अखेनजेण्डर का अहणःकरके यीसदेद मे भी भारतीय प्रभाव
समल्ला
यह घोषणा क्र र्खीथीफि यदि किसी व्यक्तिको सांप काले तो जा सकता है! .परन्तु एेतिहासिक विद्वान्‌ स्मय
की विसिन्नता के
कै अह्लोक के समकाी न होने से -यदहां
उसवी शादी रिबिर मे चिकित्सा कराई जाय । परन्तु ये ही व्यक्ति कारण तथा अन्य राजाओंँ
पति जलेवजेण ्डर का श्रहण़ न करके
अन्यरोगो णवं क्ष्टौकोभी दूर करने मे समथे. थे--प, २२२ । अलीकस॒न्दर शब्द से भसाधि
इस ठेख के अनुसार वे केवर आजकल के सपेय के सशय दी नदीं अरोक के. समकारीन एपिरत प्रदे के तथा कु वदमान के मत
थे अपितु आयुवेद कै. प्रस्थान में आये इए विष्तन्त्र के समान # इन दूसरे तथा तेरहवें शिलाख्खा म॑ सीरियाधिपति जन्ति-
-का नहीं ।
वेः अन्य.चिकित्सा `िज्ञान.के मी ज्ञाताये। इसप्रकार के भारतीय योककादही थवनराजके रूपम निदरा है, अङीकसुन्दर
वेदयोःकाो सिकन्दर ने अपज्ञे प्ास-र्ला-था, तथा उन्हं अप्रते देश मं इसे न्नात होता है कि प्राचीनकारुम सीरिया देश की जातिके
के गया प्रतीत.होता है। इसप्रकार 09107026 ;ताण 9 चयि दही यवन शब्द का व्यवहार हाता था । प्र आजकल तौ
एतः में नियोकस का ; (8४ ४636 प ९०० पश फा यवन ब्द से रीस वालो का दी महण दता है। यह र विन्ारणीय 1 ,
४1610 6पाः९ छः, 013९8868 82. 878 2130 यहु वाक्रयन प्रदन है, ` `
आओौर १, ९६
मिर्चत्था उन्दकेदल-सपेसे.करेसमानत्र ही.बताचा~भाश्चयंजनक है । ८१) १-२ की टि० सं उपो० प° ९५ का०र
. (१) .१-३ तक की टि० सं०-उपो०.१० ९५ का० १-२ मे देखं । का १ सं देख+
१३ 4, हि |
९८ ङपोदधात का हिन्दी अनुवादं

से कोरिन्थ प्रदेश के, अचेवजेण्डर का ग्रहण करते हे । “याजन जओषधिर्यो तथा विकित्सापडतिर्यो का अभ्यास करने वाके भीक
इस पद के कारण यह अदोक सामयिक उलेक्लेण्डर ही प्रतीत वर्चो ने ग्रहणकिया हुभा था । `
होता है, यह्‌ सव होते हुए मी आढ सौ योजन तकके देशोंरमे भारतीय तथा ग्रीसदेशीय प्राचीनं वेक विज्ञान में बहुत सी
धा्भिक प्रभावके होने से, सीरिया के आसपास के देश मे भारतीय समानतां भिल्ती ईै। यीस के चिकित्साविज्ञान पर भारतीय
चिकित्सापदधति का मी विशेष प्रभाव होने से, इन दोनों शिररेखो प्रभाव को ऊद लोग जो नहीं मानते हँ तथा कद्ध लोग संदिग्य
मे मीस केप्राचीनसखोतके रूपमे उचिखित मिश्रमे भी भारतीय मानते हैँ उप्ते देखकर हमे आश्चयं होता है । दस्तछिखित प्राचीन
प्रभाव एवं आरोक कै भिल्ने से, रीस के. मिश्र तथा सीरिया के पुस्तकों के मिलने से पूव प्रसिद्ध प्राचीन भारतीय म्रन्थो का काल-
समीप ही दोने से, एपिरस तथा कोरिन्थ प्रदेशो के भौ प्रीसर्मे निणंय अत्यन्त कठिन था । परन्तु भारतीय विज्ञान की बहत सी
सम्मिलति होने से, यीक्त द्वारा भारत तथा उसकी विधा के परिचय राखार्ओ मे स्वतन्वरूप से विचार तथा उनम अन्यदेद्धीय विज्ञान
की प्राप्ति के उल्लेख से, यक्त की अध्यात्मिक विधामें मारतीय कै आलोक का अनादर मिर्ता है । भारतीय भेषज्य विषो के
दशनो का प्रभाव मिलने से, हिपोक्रिरस कै नाम सेउ त्तरोत्तर ग्रन्थों अन्वेषण मेँ आजकल बहुत से रोग भारतीय विष्यो का भारतीयं
के संकलन से तथा उस्तके ग्रन्थो मे आयुर्वेदीय विषयो की समानता होनाही मानेन है तथा भारतीय प्राचीन भेषञ्य विया कौ
मिलने से दाक्लेनिक तथा धामिकः विषयों के समान चिकित्सा विज्ञान आलोचना करते हए तथा उसके गुटुविचार, खष्ष्मबुदधि का विकासं
मेम अरोक के समय ग्रीस्मे भारत्तीय प्रभाव का परिचय तथा केख-सौष्टव जदि के अनुसन्धान मँ उसका स्थान अत्यन्त ऊंचा `
भिल्ता है! श्ससे उस समय मी पाश्राच्य देच म भारतीय आयु- होने का. परिचय मिलता हैः ेसा † न्यूवगेर ( शण९86्‌ )
वद पिचा, भारतीय चिकित्सापद्धति, भारतीय ओषधिर्यो, भारतीय नामक विद्वान्‌ का कहना है । `
वधो तथा भारतीय वैक अर्थौ का कितना आलोक तथा गौरव था, हेरोडोटस तथा फीलोष्टरेटस आदि प्राचीन पाश्चात्य विदानो
इसका पर्याप्त ज्ञान हौ जाता है, | कामी कहनाहै कि मारत का प्राचीन कारूसे ही पाश्चात्य देँ
के साथ परिचय, सम्पकं तथा व्यवहार था 1, प्रधम दताब्दीर्मे होने
रीस तथा भारत का प्राचीन काल से सम्बन्ध वाले ष्ठेनी ‡ नामक ग्रीक विद्वान्‌ केञ्खसेभी भारतीयों द्वारा
आजतक विष प्रमार्णो के न मिल्ने पर मी प्राचीन कारमं वानस्पत्तिक एवं योगौषधिर्यो ( 2८९0860 11९4००९ ) को
अस तथा भारत कै पारस्परिक यातायात तथा वाणिज्य के सम्बन्ध न्यूवगैर कहते है--श्स युग की भारतीय भौर यूनानी
को देखकर यह कहा जा सकता है कि मारतीय धकर मरीस मे चिकित्सा शाखो की रूपरेखा ओर अनेक विवर्णो मँ इतना अधिक
पहुंची हुई थी । * वक ( एषणः ) नाम विद्वान्‌ का कहना कि साम्यदहै कि यह कोरे आश्वयंकी वात नहीं कि कितनी दही बार
अलेक्जेण्डर के का से बहुत समय तक मरीस तथा भारत के धनिष्ठ भारतीय चिकित्साश्चाख्र की मौरिकता सन्देह की दृष्टि से देखी गदं
संबन्ध के मिलने से तथा हिपोक्रिरस, डिओसकोराद्डास ( 1108 जओौर कदं बार तौ अस्वीकार कर दी गरे । इसका विशेष कारण यह्‌
५०0९ ) तथा ग्यालन आदि के ठेखो के अनुसन्धान से प्रतीत है कि महत्वपृणं भारतीय प्रन म से अ्थिकांश का कारनिणंय
होता है कि मारतीय वेधो द्वारा व्यवहृत कौ जाने बाली बहुत सी बहुत सुरिकिल से हो पाया था ओौर अभी युर मे अनेक पाण्डुलि-
पियो के प्रकाश्च मे अनि से प्रहे तक वह भी सवथा संदिग्ध था।
# वुक्‌ ते अपने मन्थ "1116 जास ज ध्वन 600
आधुनिक खोज के पीछे विज्ञान ओर कलाओं के क्षेत्र मेँ मारती्यो
की प्रमुख सफकताओं कै विषयमे विद्वानों काञ्ुकाव उनकी मौलिकता
६ 19111656 वप ४० 1800" मे आधुनिक चिकित्साश्चाख के
को स्वीकार करने की ओर है ।
उद्गम यूनानी चिकित्साश्ञा्च प्र भारतीय वैधक के प्रभावको ( दलपश्ध. ताण ग कलवान ए०्‌. 1 ?, 45 )
बहुत कम स्वीकार किया थ। ! ठेकिन इतिहास का अधिक परिश्ी- † न्युबगैर का कथन हैकि (भारतीयों का वेचकरास्र भके ही
लन करने के बाद उसे अपने विचारो मँ प्रिवतेन कर यह कहना
वह भारतीर्यो की अन्य विरिष्टं स्फरताओं कौ समता न कर सकता
पड़ा कि ष्यह्‌ समञ्चना अनुचित नदी है कि दोनों देशौ के व्यापा-
होतो मी लगभग उतना ही महत्वपूरण है । ओर अपनी ज्ञानसमृद्धि
रिक सम्बन्ध के द्वारा भारतीय वेयं के अनेक चिकित्सा कायं
प्राचीन युनानियोँ को भौ ज्ञात हए होगे । यथपि अबतक इस संबन्ध गम्भीरचिन्तन एवं करमबद्र विवेचन के कारण पौरस्त्य चिकित्सा
विशिष्ट स्थान है ।
मे कोह पष्ट-भमाण तो नदी मिलता है। दूसरी ओर शतिहांस के कुद । शास्म म उसका
( कश्पाण्लपूधः, ताश््णकु 9 क्तिनणह वडान्‌हत =
अधिक्‌ अवाँचीन युगम अथात्‌ सिकन्दरके भारत पर माक्रमण के बाद ए एानकभाः पण. 1 ९. 457.)
दौर्नो देशो म धनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित दहभाजो कि कड सदियों
` ‡डायस्कोरिडस के समकालीन रोमन लेखक ए्ठिनि ने अनेक
तक अद्रूट रहा । शस युग के प्रारम्भिक दिस्त मेँ युनानौ चिकित्सकों
भारतीय ज़ी बूयियोँ ओर ओषधयो का उलेख किया है । -
ने भारतीय वथो दारा बरती जने वाटी अनेक ओषधियां ओर ( पपत 4गोणहर्शणलणी8 70 ९७०४ 8061668. 8, `
चिकित्सा कौ प्रक्रियां अपनाडी थी-रेसा हिपोक्रिटस , डायस्को-
8४9 2, 50-51. )ओर देखिये---
रिडिसु ओर गेलन के केखो से ज्ञात होता है ।
( [ण्लात्०्णा8 एकल 1009 200 ‰ € 'पटभलिः) :
(ए०प्प,. 0१] 00०० ०1, ९, 42 426) | | 0.2.109 7, 9, एकल111870 )
उपोद्धात कांहिन्दी अर्जुवाद्‌
१.५१ श नो + नि 1. क... क, १ कि ५।
ह,-, [२ 7.१
क) जीति त (म (नि) [4 ऋ, क... १न7 9 छि भनक) एषे
म त, (श इण न मष न (क ककि कक
भि पिः पि चकि तष्य क त न चि पि क क
भदः क्कः कर क च पि भि
ण्न
छ[णच छे
एण्‌दूण इछ प छे
कः, 1भ ~ म) न, क 11.4:7 ||, षकृ काक "का क ऋ कण क
"व दवि सकि चि पि र कि जत कविः स्कः क
वन्ति नमि कि कि कथ पि सि
चः चण ककि नि थ क नि सफ
थमि पि चक सि

मंक नामक किसी भारतीय वच्च ारा अरब


9 (वि

विक्रय के छिथ ग्रीसदैश म ले जाने का उल्केख भिता है। यस | दी लिखा है । पीछे मी


» हाउन अरु रश्चीद ( 4. 7. 700 ) के राज
तथा मारत कै प्राचीन कार मेँ पारस्परिक संबन्ध को तथा पक्षाघातः कै राजा ( खलीफा
अम्लपिन्त आदि रोगों मँ भारतीयों द्वारा किये जनि वले धतूरे के कुक मे जाकर उसके रोग को दूर कप्ने तथा चरक के विषतन्त्र का
प्र्धियन भाषा मेँ अनुवाद करने का उल्लेख मिक्ता है! शल्य
प्रयोग का यूरोपवालों द्वारा भी ग्रहण किये जाने का उल्केख करता
( 896४ ) नामक भी कोई भारतीय वेध खलीफा दान अक
-हुजआ रोयल* ( प्रे०फ)€ ) नामक विद्वान्‌ पाश्वाच्य देशो मँ भी
भारतीय प्रभाव का वर्णन करता है । हैमिष्यन नामक विद्वान्‌ का रश्चीद के राजकुरुम था। उसने पफिरुस्तीन तथा वहांसे मिश्र
जाकर वहीं प्राणत्याग किया-एेसा अरब के इन्न असेव नामकं
भी मतहैकि प्राचीन मीक मैयक मे भारतीय आयुर्वेद क! कुद
अंश्लो मे प्रभाव था वथा मारतीय ओर य्ीक चिकित्सा प्रणाली मं
विद्वान्‌ ने निर्दैश(९) किया है । इस प्रकार इससे पूवं मौ बहुत से
भारतीय वैध एवं विद्वानों के दूर र जने की संभावना दौ सकती है।
समानता दिखाश्देती है) स्स विषयमे वनजींदुकौी भी यदी
उपर्युक्त वर्णन के अनुसार पाथागोरपस्त आदि के समयसे
सम्मति है! श्रीयुत.रमेशचन्द्रदप्त ने भी अपनी पुस्तक मेसा
समय २ पर अनेक मीक विद्वानों के विद्याप्रा्िके च्िभारतमें
* दमे म धतूरे के पत्तौ का धूम्रपान करना यूरोप मेँ आधुनिक आने, भारत तथा उस्तके आसपास के प्रदेरोंसे विधा के ग्रहण
बात है ठेकिन भारत मै यह बहुत पुराने समय से प्रचङितिदै कृरने, प्राचीन कालम कुद भारतीय विद्ानोके मी यीक्मं
( ए ) देखिये जने, भारतीय बिद्रानों के वहां आदर, भारत से ठौरते हए यीसा-
( प्तप 20एाटर्शण०ला+8 10 ९४६०{ 30161668 ए 8. करके भारतीय
यिपति अक्ेवजेण्डर दवारा अत्यन्त अनुसन्धान
ईध] 2. 49 ^ एधवप्पत ० पा०0प 16616706 )
† जब हम यह भी देखते कि पाथागोरस ने बराह्मण-पद्धति र्वो को अपने देद्य मे ठे जाने, अरोक के रिराङेखो के अनुसार
उसके समय मी पाद्चात््य देशो. मँ भारतीय चिकित्सा विज्ञान के
. को प्रचरित कियाˆˆ-(तब हँ मानना पडता है कि प्राचीन युनानी
प्रचार के वृ्तान्त मिने, हिपोक्रिटस के नाम से प्रसिद्ध सब अन्धं
वैक पर भारतीय वैवक का कुद प्रभाव अव्य था । भारतीय ओर
के प्राचीन न होकर विद्वानों कै मतानुसार पीछे से विकसित
यूनानी वैचक की समानतां इतनी अधिक है किं काकतालीय न्याय विज्ञानयुक्त ठेखो के उनम मिर्ने से तथा भारतीय वैक मँ यक
से उनकी व्याख्या नहीं कौ जा-सकतो ।
वैयक के असाधारण विषयो के न भिल्ने से, अपितु मीक वेचक मं
(प. पतष्णाा॥००. पाञणक्‌ 9 हताम०९ ४०1. 1 2. 48)
( तलाह्णभय 70 -4.एनलण४ 10 बो> 2, 196 0 ©, त
भारतीय वैयक की द्याया अनेक स्थानो पर मिलने से प्रतीत होता
2816111 )
समय प्राचीन संस्कृति ओर विशेष कर वैयक शाख का आदि
‡ ठेसा नहीं जान पडता कि िन्दुर्ओ ने अपना वेदक का निर्माता होने का दावा यूनानी मनीषिर्यो ने स्वयं कभी नर्ही किया
ज्ञान अपनी किस पड़ोसी जातिसेखियाहौ 1 यूनानीही पेस्े थे है जो कि परवतीं विदान्‌ उनकी ओर से कर रहे हे ।
जिनसे वे यह ज्ञान ङे सकते ये लेकिन दोनो देशो की दूरौ बहुत नियसैकस्र ( उफ एरियन.) ने छ्खिाहैकि सपद कौ कौई
अधिक थी तथा उनके परस्पर संबन्ध भी सतत नदीं बने रहते यै चिकित्सा यूनानौ चिकित्सक नदीं जानते, ठेकिन भारतीय वंच
साथ दी विदेश यात्रा ओर विदेशी सम्पकं के प्रति दिन्दुर्भो | बड़ी खूबीकेसाथ कर क्तेहँ। एरियन ने दी कहा हैकि-
बडो अरुचि थी । इन सब बातो पर विचार करने से यह धारणा अस्वस्थ होने पर यूनानी लोग ब्राह्यणो से चिकित्सा करति हैँ ओर
कि हिन्दुर्ओ ने युनानिर्यो से वेधक ज्ञान प्राप्त किया; बहुत ही अयुषट वे भारतीय प्रत्येक साध्य रोग की अद्भुत ओौर दवीय विधि से
आधार पर स्थापित जान प्डतीदहै। चिकित्सा कर देते है ।
(प्लालणंऽ 7० &7मंट०#.1४ता8 ?. 191 6. 880दपुश्ट) डायसोराश्सड (इसा की पहली सदी) प्राचीन द्रन्ययुण
§ यूरोप मँ भारतीयं वैक की प्राचीनता अमी तक समद्धी विज्ञान का सबसे प्र्ुख ङेखक था । डा० रायल ने अत्यधिक खोज-
ओर मानी नहीं गह है) ओर समय आयंसंस्कृति का उद्गम पूण निबन्ध मँ दिखाया है कि डायसोरादडस पुराने भारतीय
यूनानी संस्कृति को संमद्धने. कौ प्रवृत्ति निष्पक्ष विवेचन में वहत दरव्ययुण विज्ञान का कितना ऋणी था। ३० पू० तोसरी सदी के
बडी बाधा है । जैसा किं डा० वादइजने ठीक ही कदा है--वचक भियोक्र्टस पर भी यद्य बात लागू होती है । ३० पु ५ वों सदी
के इतिहास संबन्धी तथ्यो कु अन्वेषण अभी तक केवर यूनानी ओर के यूनानी चिकित्सक क्ास्ियस के ठेखो मेँ मी भारतीय द्र््यो
रोमन ऊेखको के अन्धो मे छी किया गया है, गौर धूनानौ `संस्कृति का विवरण मिखा है । यह प्रमाण शङ्करा वहां पूणे होती है जव
से भिन्न उद्गम से निकलने वारी प्रत्येक बात कौ अमान्य करने यह सिद्ध कर दिया जाता है कि “धिकित्साराखर के पिताः के
की परिपायी के अनुकूढ उन आयोजित कर दिया गया हे । बचपन जाने वाड हिपोक्रिटस् ने अपना द्न्ययुण विज्ञान हिन्दुओं से प्राक्च
सही हम प्राचीन साहित्य से परिचित है ओर प्राचीन ठेखकों की ज्ञान के आधार पर बनाया । हम इस विषयमे डा०रोयल काञअद्म्रुत
प्रतिभा की प्रभासे दीप्र उन धटनाओं को, जो हमारे चित्त पर निबन्ध पदृने की सम्मति पाठकों को देते है । रोयरु कहते है-“{विश्व
अंकित है, स्मरण करना हरमे बहुत पसन्द है । इस प्रभाव को मिटाने की परी चिकित्सा प्रणारी के व्यि हम हिन्दुओं केऋणीहैः
कै खयि पिषय का गम्भीर परिशीरन, नवीन प्रमार्णो की जांच ( तन18*00 7 10079 *०]. 1 ?. 249. )
तथा निष्यक्चता की आवश्यकता है । ज्ञान पिपासता ओर सत्यप्रेम र्म ( हिन्दू सभ्यता का इतिहास )
नवीन रेतिहासिक प्रमार्णो का परिशीलन करने करौ प्रेरित करते दै । (१) शसकौ टि० उपो० संस्छृत ¶° ९८ का० १ म देखं ।
उपौद्धातं काः हिन्दी अनुवादे

है कि प्राचीत कालमेही परस्पर परिचित एवं यातायात करने ग्रीस देश्य मे ज्योतिषिंया की उन्नतिं के विषथ मै; द्वितीय रताब्दौ
मेः होने वाले किसी यवन ( मीक ) विद्यान्‌ का.जातकः न्थ) विचारो
9५ = कथ क

ङे पाथामौरस `आदिय अथवा भारतीयों द्वारा मीक वेकं को


वाने के ल्यि न्युनाधिकरूप मे समय २ पर भारतीय वर्क की पिरिष्टता के कारणःप्रसारितं हज. भरतीयां ` दारा सीः आदर
विज्ञान वहां पष्ठ॑चाया गयाहौ। हिपोक्रिरस्र अथवा उससे भी कीदटृष्टि से संस्तमें अनूदित किया जकर .यवनजातक. नाभ से
प्राचीनं वेज्ञानिकरूप मँ विकसित हरे ग्रोक चिवित्सां पर. ` मारतं म यावनज्योत्तिष भिचा का निग्द्नेः कराताः है । वराह-
न्यूनाधिक्यं में मिश्र, बेविलोनिया आदि अन्य प्राचीनदेर्शोः मिहिर आदि बाद कै ज्योतिषार्चायैः मी यवनाचाये काः निर्देश. करते
के विज्ञानका मौ
भीं प्रमाव पड़ा हे किन्तु यक चिर्धित्सा विज्ञान -है। इस प्रकार रोम का सिद्धन्त भीं मारत मे प्रसिदध.होःगस्रा।
अन्य दै की तरह साक्षात्‌ अथवा परम्पराः से. मारत. कीः प्राचीन वैक के" विषय मँ देपाकोर उदाहरण नहीं भ्िलता है
भी अवदय ऋणी है । तथा यह मौ निश्चितदहै कि. पीरेसे उद्वित “ जिसे उसे यवनो ढाराश्राप्त कडा ज सके । यदि वैकं कैः त्रिषय
हुई श्रीक वेक्ञानिक चिकित्सां का पूष प्रतिष्ठित भारतीय आयुर्वेद - मैःमौ ठेसा कोई प्राचीनः यवनो का सम्पकं- अथवा. सहयोगः होता
विज्ञान पर नाम मत्र मौ प्रभाव नीह | तो भारतीय खायरशाख) सय्य्रक्रिया, चिकित्स, ओषध्यो
` दहिपोज्रिरस नामक प्रकाण्ड पण्डिते अन्यदेशं एवं प्रक्रिया अथवा अन्य मीं किसी वैक्‌ प्रक्रिया के विषय मै यवन -ग्रभाव
के चिकित्सा संबन्धी विषयों का निरीक्षण करने तथा अपने विचारो | का निर्दर प्राचीन भारतीय आयुवेद कै ग्रन्थों मे अवद्य भिना
- एवं, अनुभव. के आधार पर उनम से उपयोगी विष्यो को द्धंरकर चाहिय! -: . ; ~~. -5 ~ ^. "4
चिकित्सा के.विषय मे अल्युत्तम निबन्ध तैयार कयि थे! इसल्यि ( ,
उसे, पाश्वं. चिकित्सा कां पिता (एमन ण वृल्वानेप€) आत्रेय कदयप आदि प्रोचीन भचायं “बाहीकमभिष्‌' "वाहीक.
:कहा जाता है।दिपरोतिटस भिषजो वा बाहवीकास्वपरेः श्यादि रष्दों हाराः कांकायने का
के `ग्न्थो-म जो .विषय दिये हुरहैवे
` संभवतः उप्त के परिष्कृत विचारों से उत्पन्नः हुए. `तथाः उसीःके : नमग्रहुणपूवेक तथा अन्य मीः वाह्वीक देर.के वयो काः सम्भान-
; मस्तिष्क की उपज हो किन्तु उनम भारतीय - अयुरवैद के विषयौ सेः पूवक जचायरूप से. निदश्च करते ह । आत्रेयं तथौ `केरयप `ओदिर्यो
;.समानता रखने वि जो. शब्द्‌, पिषय तथा विचार .मिरतेःहैवे द्वारा भी उद्किखित यहे बाहीकः देर यीकोंके अक्र्भणसे पूरव
वृल्ख नाम से प्रसिद्ध इरानदेशेथा। उं समथ उसः देरामें
;साष्मत्‌ अथवा परम्परा से भारतीय प्राचीन वैयक के. ही प्रतिफछ
वैकं र्धिचा
की उन्नति थी तथां बहु मी' अत्रेयं ` आदि आचार्यौ के
होने चाषिये । यदि प्राचीन मारतीय अवार्यो दरा. अन्यदेशीय
प्राचीन भैषज्य सम्प्रदार्यो का अनुसरण किया गया होता तौ उन - साथ विम्य करने वालो कीप्रेणी मे काङ्कायन कां निर्दशं होनेसे
प्राचीन आचार्यो के मन्थ मी अन्यदैशौय सम्प्रदायो, कै अनुरूप भारतीय वैबक प्रक्रिया से मिरती .जुल्ती ही थी, उनम साधारण
"ही होने चादिये भे विन्तु देसा नदीं है । अपितु पूत वणन ` भिचार मत्रे काही. अन्त था। यर्दिं सुश्रुत के. व्याद्याकार के
के अनुसार (१. ६४-६५) एक ही मृषामें रखो इर अनैकः `केख.को मूल ( 0० ) स्प.में मानाः जाय तों उसमे कौङ्कायन
का श्रुतं के. सतीथ्यं (सपाद ):- के हप" म उच्छ होने से
प्रतिमार्था के समान एक दही प्रकारकेये विभिन्न निवन्य किसी
एक हौ प्राचौन आयुवदिक अषखोत से निकले हुए प्रतीत होति |`
'बाहवीकभिषजां वरश्रारा निर्दिष्टः काङ्कायन मेः सी वर्धक विज्ञान
का खोत भारतीर्यद्ीःप्रतीतहोतां
होता है हे। `.
हे । श्सस्यि दिपोक्रिरस दारा प्रवर्तित अथवो उसे. प्राचीन | रतौ ही प्रतीत
प्रीक वधक का प्रभाव 'वैदिक कार से.चले आने वाके तथां रेति-'|. .. यदि भारतीय वधक भ्रीकं आचार्यो दवाय प्रमावित होतोतो
हासिके जर भूगभं की दृष्टि से भी उससे प्राचीन काल से प्रसि पक्षपात शल्य हकर अत्यन्त सम्मान के साथ षिदेरी विद्वानों को
मारतीय मायुवेद विज्ञान पर पड़ा हो-यह कहना कठिन है । मी आचार्यो की भ्रेणौ में रखने वारे गुणग्राही तथा ृतन्ञ .कदयप
“ यद्यपि पांच हज।र वषं पूवं ज्योतिष विधां के प्रवर्तकं भी ` आत्रेय आद्विं मारतीयं आचायं इसका अवदय उच्रेख करते ।
र्तीय दी थे, ठेसा पाश्वाच्य* विद्वान्‌ मौ कहते हैँ। परन्तु ग्रीसदेशः मे शक्चचिकिससा काबाद्‌ मेँ प्रचार
^ ज्योतिषा वे प्रनत॑क हिन्दू लोग. ये । आ्ुमिक समी |- यद्यपि. जिसःप्रकार-प्राणियो. की स्वास्थ्यरक्षा कै व्यि प्रारभ
योतिषशालीः उनके समीक्षण. की अतिप्राचीना को. स्वकर करते सेः दी न्यूनाधिकृरूप मे ओषधि, विद्यमान. थीः -उसीःप्रकारः राज्-
हे. कसिनी, बेरी ओर प्टेफेयर .आदि. विदान्‌ दमे बताते हैफि नेतिक संबन्ध. से-भिन्न.२. राजार्ओं मेँ प्राचीन. कालसे ही परस्प;
हवनदू ज्योतिषद्चाखियों के ईसुः से. तीन. .हजार वपं पूरके निरी संधषं के.परिणासस््रूपः अहत ( धायल ). व्यक्तियों के उपार्चार्‌
क्षण अभौीतक तथा उस कारम उक्त. विचाके बीच. की गई -के लिय शस्यचिकित्सा मी. किसी न किसी; रूपः मे. -प्राचोनःकाछ
उनकी. परगति को सिद्ध करते दै 1. मारत के प्राचीन ज्योतिषी एवाग सै विथमान.होनी. चाहिये.। ह्योमर.के: लेख.सेःःयीस मै भौ शस्व
कृञ निर्माण कते ये, वे ग्रहणो क नि्क्षण गौर उनके सुमय की विक्रित्साः कौ.कुङध ्चर्क भिरतीः है तथापि यहुः निश्चित है कि
धोषणाः करते थे, उन्हे चन्द्र कौ कलाञ्गो ओरः उनके अरहो की त्ति -भर्तीय भषञ्य धिज्ञान-को विदेशो म पवाते वारे पाथागोरस
का ्ञान.था ।.कोलनरुक कामत है क्रिउत्केः अयनः. गतति- संकी ` आदि पाध्वात्य दिद्भलो ने जिस भ्रकरारः कायचिकित्सा; ( 06009
मन्तन येलेमी की धारणाः से कही-मंभिकः.सीक.थे 3९000 ) कीः प्रारम्भ मेः. स्थापना; कीः थी उस प्रकार
ए |-वज्ञानिक
^ <. ($0०१ साकम ाट ^ 80 1160101 इनात ::श्ल्यचिश्रित्सा' (8पणट०9. 86४00 ): कीः स्थापना
र कैः द + ५ 4. त च, 08 39६6९ ) गरही री धीयीत मेंग्रस-सन्प्रधिकित्साकाःप्रकस्ःकयन्विर
ित्क्ता
उंपौद्धातं का हिन्दी अनुव १९१
७-७७०-७७ ऊक कछ छः ४ 10. 111. ९1...

के बाद समयान्तर से दी हा प्रतीत होता है। मिदेः मे | भी बहुवचनान्त "धन्वन्तरेः आदि दीर्य से अन्यः प्रस्थानं के
वैज्ञानिकः शखवै्यक के ईैस्वी पूवे वतीय शताब्दी मे होने तथाः म्री ख्य म निश दने से तथां अवने कायचिकित्सा प्रधाने उपदेर्यो
देशः दवारा भिश्च से ` शंखचिकित्सा के ईस्वी पूव प्रथमं राताब्दी में मेभी कखचिकित्सा सम्बन्धीः कुद चिषर्यो का निदं कस्मै से
-य्रहण करने. कां `उर्टेख (१): भिलता है ।- दिपोकिरटसतं कै केखसे प्रतीत होता है कि आत्रेयः आदिर्यो दारा चलितं कायचिकित्सः
भी प्रतीतं ह्येता हैःकि उस संमय उसे शिरा, धमनी, अस्थि आदि म प्रसिद्ध पश्चिम प्रदेय मँ मीः शखरचिकित्सो विज्ञान धरचलितिः था
का. शासरिक ८ 4 09£0101681 ) ज्ञान `विल्कुर नंदी था +.*जी तथा उस सम्प्रदाय.के.जंनुयायी मो संख्या मेँ बहुत ये { तक्षदिख
दन. बनजीः का मौ, यदी विचार है ¦ म्रौट्सं नमक विद्वान्‌ का मे अध्ययनकंरके विरिष्टं विद्न्ताः को प्राप्तकरने बाकेः जीवकके
भीं कहना हैक किररे(र) (८) के मतेर्मः हिपोक्रिरसं को स्यि महाचग्ग -आदि मे दखचिकिस्छ मे करसख्ताः का उल्लेखं
ज्लारीरिकं हितके ल्य. व्यायाम आदि बाह्य ज्ञान के अतिरिक्तं हयेन सेः तक्षशिला मे- दस्चिकिित्सा -विक्ञान कौ उन्नति मी स्पष्ट
आन्तरिकः ज्ञान विशेष नहीं था! हिपौक्रिस्तः- के मन्थो म शरीर प्रतीत होती है। सुश्वुतसंहितामें दिवोदासः के. क्िष्यः सुश्चुतके
कै विषय मे बहुत कम ज्ञान मिलतो है मौर वहः मी उसने मिश्र सतीभ्य॑के रूप मे अनेक. देवार व्यक्ति्यो का परिचि, मिख्ता
के द्वारा प्राप्त किया थारा यंस केः इतिहास मेँ`मिक्ता 1है । हे। उनमें से रस्य के विषयमंःविषेष तन्त्रो का निमांण करने. वे
कौथ नामक विद्वान्‌ ‡की "राय मेः यीसः मे अस्थि, धमनी आदि चार (१).आचार्यो मे ` पौष्कलावेत कां मी उर्लेख 'है ।' संभवतः यह
.कैज्ञान की. खचना देने वला कोई प्राचीन ठेख नहीं भिरूता-है । पौष्कलावत प्राचीन. गान्धार की.सजधानी. के रूपमे जात पुष्कलावत
.वनजी§ का मी कहना. है.कि यीस मेँ प्राचीर्न.कारुमेः सश्चत के का रहने वारा हो. ।-हो सकता ˆहे उक्तका भीः सम्प्रदायः तक्षङ्िखा
समान कोड प्राचीन शारीरिक मन्थनहींथा . : | के आसपास. के प्रदेयो मे प्रचलत्‌ हीः। -ओौपगुव मी पश्चिम.परदे्
का. रहने वारा. आचाय, था तथा बह्यीकमिषक्‌ काङ्कायनः कैः सुमन
किसी विद्यान्‌ की देसी मी सम्मति है -कि प्राचीन काठमे
जौरश्- म. आधुनिकः मारत. से.-बाहरः: पश्चिमोत्तरप्रदेश्“( पण)
फटञध णर, प्ए००९.).-. का रर्हने -वांखाः थाः जिसकी फि
आदि पश्चिम देदो मे कौयव्िवित्साका पिदेष प्रचार दौने से
हम. आगे विवेचना. करेगे ।. इसः प्रकार सौश्चतसम्प्रदाय.के ःप्रनारः-कर
पाश्चात्य दँरावा सर्वप्रथमः सन्निकृष्ट पश्चिमं विभाग से कायचिकित्सा
निदरं न.मिलने पर भी. तक्षरिखा तथा `गान्धार आदि केःआसपाक्च
काज्ञानदही अपनेदेशौमें ङेगये हौ तथा फिर समयान्तरसे
का प्रदेरा पश्चिमदैर्यो मे. प्रसिधः इन पू्ाचार्यौः केः सम्प्रदार्योः के
धीरे २ पूवंदेरों ममी अपने प्रसार, सम्पक्‌ तथा परिचय आदि
उल्लेख. के कारण. रल्लचिकित्साः मे भी- उन्नत श्~देसा प्रतीत होता
कहने पर वाद मेँ वहां के शखयैँयक केज्ञान कोमीवे अपने
है ।. जातक मन्थो के अनुस्तार जोवक.केः तक्षदिखा मे अध्ययन के
देदरामेले गये परन्तु खख्ंचिकिंत्सा सम्प्रदाय के कारिराज
समय उसके गुर्‌ हाराः कपारुमेदन करने केः उल्लेख सेः तंथा महः
दिवोदास द्वारा प्रारम्भ पिये जाने सै मुख्यरूप से कांश्ौ आदि व॒ग्ण के अनुसार वहा से अध्ययन करके लौटने प्र जीवक "दरार
"पूर्वदेो मे ही मिलने परं मी आत्रेय मेड कृदयप आंदियोँ हारा
मी ऊपाल्भेदन का~ उद्डेख .भिल्ने ते. यद्‌, कहा जाः सकता हैःक्षि
उसः समय तक्षशिला. मेः ऊष्व॑ज्ुविभागीय :शालाक्यःः विज्ञानः का
इस बात का अबतक कोई निश्चित प्रमाण नहीं मिला है ~; ; 2 \
मीप्रचरथा4
किं दिषोक्रिटस के समय या उसके पीछेकीदो. सदियों मँ यूनानी दके

वैच रोवच्छेद करतेथे। ` : २२७ ईस्वी पूव मेँ .अलेक्नेष्डर के भारतं सेलौयकरःश्सयु हीने के
(प्ना€ण18 70 4001610 17018 6. क. 806णु 2. 191.) बाद मी २९४.इस्वी पूवे मेःमिभ्र.देश केञल्वजेष्ट्रिया नगरं मेउद्वासितिं
1. संग्रह मे कई ग्रन्धं जिनमे पहला “सिर के धावः ई.पू, संग्रहालय ( षिणलपा.-).मेः हिरोफिल्सः ८ पलणृ्प्ऽ )`तथां
भ्थी.सदी .काहै। इसको कड भिश्र हस्तङिखित मत्थौ से समता एरासिष्टरेटस ( ६५०४०१४३ ).नामक. पिद्धंनो ने शरीरिकं ज्ञनं
है| हौंसकता है वि इसका कुदं अंश मिश्रौ उद्गमकादहो। | सम्बन्धी ठेखो.कौ स्थाप्रता;कीः थी जिनकेइस्वी परश्ात्‌ दितीयः शाः
` ( 2:85: पण. 7.2. 585. | ब्दी मे.होने वाले ग्यालन नामक ग्रीक विहन्‌ दि हने परं
4 क क

2 .‡. यूनानीः शल्यचिकित्सौ केः रन्यो मैः मानव रसथिरकी मी उफलन्ध नही. होने.का उर्लेखं *भिरता. है :ग्याल्ने ने -मीं
अस्थियो कीः प्रारम्भिक खवी के अभावः के कारण भारत तथां यूंनान
केः परस्पर प्राचीन संबन्धः के विषयः मे विन्दं निश्चितः प्रमाणो का `. (९) इसकी,दि०. सु? उपो. ९०.१8 कार २ मैदे; `
मिलनं ङगभग. असम्मत है २ द्धः ` # सिकन्दर -महान्‌की त्यु ओर सिंकन्दसिया ने: वस्तुः
( पाणु त 88. [नर 4. 8. पलप 2. 514; ) ग्रहारय क्रीः स्थापनां ( ३०४ ड. पु; ) तक. एरासिरटसत, हरोपि
६. अस्थिशाखीय सिद्धान्तो काः कोद संक्षिप्त संग्रह प्रारम्भिक | कस आदि महन्‌ दरीररचना विज्ञान वेत्तार्ओं ने अपने अन्वेषुर्णो
नानी. सं्हितार्जो म ,नहीं मिक्ता; जैसा कि.चरक गौर सुश्ुतः में वी छिपिबद्धं नमीः परिया.था1 ग्याखन के संमय उनकी कोई.
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| पिचमोन नदीं थी -"
८4 4. रनद

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(१): १-र' कीःटि० सं ०-उफो०१०.९९ का शरेः देवं । (खः) हिपोक्निम्सम्के "विष्यः स्थिर्वि चा ङु शीय न
योदात छा हिन्द अलुवाद
भिश्रसे द्यी सारीरविक्ञान की प्राप्ति का उल्लेख कियाहै तथा चित्रण तो भारत, सुमैरिया, बेविलोनिया आदि देशो मं भी प्राचीने
उसके अन्य विष्यो के अनुसन्धान से प्रतीत होता है कि मिश्रदेश्च कार ते ही भिरूतां है । मूति्यो मंबाह्यपेरिर्यो के चित्रण में अच्छा
मँ ठतीय शताब्दी से ज्लासैर तथा श्खविकित्ता का विशेष ज्ञान या बुराई सेतो केवर चित्रकला कौ कुशरता अथवा अकुशला का
हआ था। यी तथा मिश्रदेश कै शखवैवक के रारो से भारतीय ही परिचय भिता है । इसमे किसी का मतभेद नहीं हे कि आन्त-
सखवेचक के शलो (1050४९०5 ) की समानता मिलती है । रिक रारीरिक अवयवो का ज्ञान होने पर भी चित्रकला उसे
जौ. एन (९) मुखोपाध्याय भी कहते है कि यीकवैधक के शख बढ़ाकर दिखाया जा सकता है । परन्तु चित्र मं यथावत्‌ अक्कन कै
स॒श्रतोक्त रासो के अनुरूप थे । (२) हारे नामक विद्वान्‌ कौमभी द्रोनमात्र से आन्तरिकं शारीरिक अवयव के विंडेषज्ञान की कलना
यदी राय है। इस समानता से भारतीय शक्लचिकित्ताका मी नहीं की जास्षकती । वास्तव मेँ राखवैधक कै लिये उपयोगी रारीरिक
ग्रीकचिकित्सा पर कुद थोड़े बहुत अंडा मेँप्रभाव प्रतीत होता है । ज्ञान तो आन्तरिक, सद्म एवं बहुत विषयो से युक्त भिन्न दही वस्त॒
मारत मेँ इधर उधर प्रौदरूप मँ विद्यमान अनेक विद्याओं तथा है । आजकल भी बहत से पेते व्यक्ति मिल सकते हैँ जो चित्रकरा
अन्य विद्याओं को अपेक्षा भौ शल्य तथा कायचिकित्सा विभाग वाङे मँ निष्णात होते हट मी अन्तरिक शारीरिक ज्ञान से शल्य है तथा
षज्य विज्ञान कौ तक्षरिला आदि प्रदेशो मेँ प्रसिद्धि को दैखकर आन्तरिक शारीरिक ज्ञान मे पूणं होते हए मी चित्रकटा मे एकदम
उन्हं अपने देश मे पहुंचाने के स्थि ग्रस के राजा अलक्जेण्डर कोरे होते है। इसप्रकार बाह्य, एवं आन्तरिक ज्ञान विरकरुर भिन्न २
महान्‌ ( 416८००06 ४'€ (6०९७५ ) द्वारा गान्धार के आचार्यं वस्तुं है । इसल्यि एक विषयं म ज्ञान होने से दक्से पिषयमें
पौष्करावत तथा सुश्रुत के सम्भरदायो से तक्षरिला, पुष्कलावत तथा ज्ञान होना आवश्यक नदीं है । भारत मे साकेत ( अयोध्या ) तक
गान्धार आदि प्रदेश भे उन्नत वैज्ञानिक शखचिकित्सा का भी विच्े- पहुंचकर बाद मँ बौद्ध धमे भ्रहण करने वले थीस देश के मिकाण्डर
षरूप से आदर तथा ग्रहण किया गया था । उसका प्रमाण यह है ( 11५*०€ ) के वृत्तान्त संबन्धी मिन्द प्रन नामक बौद्ध
कि अलेक्जेण्डर के शिविर मेँ भारतीय चिकित्सका की नियुक्ति पालीवन्थ मे मरीस के राजा मिलाण्डर कै प्रति उपदे तथा धन्व-
तथा उन्हे अपने देशम ठे जाने का शतिवृष्त मिलता है। अपने न्तरि* आदि के उल्लेख का पहठे ही वणेन किया जा चुका है)
देरामें विधाकी वृद्धि के ल्यितक्षशिखा के राजा की सहायता से उस्म छ्खिादहै किबवाणा द्वारा विडत्रणमें मासि की विकृतिसे
विषयवासनार्ओं से विरक्तं होकर वानप्रस्थवृत्ति को धारण करने वाके तरिदोषकी वृद्धि होकर उर आदिहौ जने पर रखरचिकित्सकः
अध्यास्मिक विद्रान्‌ कल्याण ( 91503 ) कौ छे जाने वाडा रणको शख से ठीक करके, क्षार आदि द्वारा शोधन करके तथा
अलेक्जेण्डर बहुत से लोकोपयोगी तथा विरेषकर रात दिन संधषं केप से शोथ को हराकर उपचार करते है । रेसा करते मँ वे कोड
करने वाले राजाओं द्वारा अपेक्षणीय शखविकित्सों तथा कायचिकि- पाप नहीं करते हैँअपितु श्समे लोकोपकार की हयै भावना होती है।
त्सर्को को भी अपने देश मेँ अवदय गया होगा! अलेक्जेण्डर उपयुक्त दृष्टन्तसे उसमे ्रणोपचार, सखचालन तथा बणवरन्ध आदिमे
के इतिवृत्त मे भी श्सका उल्लेख मिलता है तथा शवौ पुवं २२७ में उसके सक्षम विचारो तथा स्थान २ पर विरेचन, रोगोत्पत्ति, निदान,
भारत मे पहुंचकर अलेक्जेण्डर के ररते हए मृत्यु के उपरान्त अके. । ओषधप्रयोग आदि बहुत से वैक विष्यो का उर्डेख मिरूता है । `
क्जेण्द्िया मे उद्धारित वैज्ञानिक शखचिकित्साके प्रदश्चेनमेमी |
दिखा देने वाला भारतीय प्रभाव इसौ बात को प्रकट करता है । * नारद, धन्वन्तरि, अंगिरा ओर कपिर आदि धिद्वान्‌ रोमोँ
इरान देश मेँ भिश्रदेशा के चिक्रित्सफीं द्वारा प्रथम डरियस की सम्प्रापति, कारण, स्वरूप, प्रगति ओर उपचार आदि कौ भली
प्रकार जानते थे । इनमें से प्रत्येक ने अपनी २ संहिताएं ( मन्थ )
नामक राजा की चिकित्सा के वृत्तान्त के भिल्ने से मिध में
हस्वौ पूपंठृतीय शतान्दीसे पूवं भी रसचिकित्सा के होने कौ यद्यपि क्विीरहै। .
प्रतीति होती है तथापि उत्तम उनकी असफलता के भी वृत्तान्त भिलिन्द प्रन
मिलने से उस र॒खचिकित्सा कौ अवस्था मी प्रकट होती है मिश्र | ( 7. ४. णऽ 0905 दास सम्पादित ए० इ शप )
मे प्राचीन काल में शारीरिक विज्ञान का उदाहरण नहीं भिर्ता है 1 | † कल्पना करो किएक रण की चिकिसा करते हुए"
ओर यदि मिलता मी हैतो उस्षपर भारतीय प्रभाव था जिसका कि एक अज्नुमवी वैच ओर इाल्यचिकित्सक तेज गन्ध वाखी ओर काटने
हम आगे वणेन करेगे वाली खुरदरी मद्दम का केप कर देते है जौर उससे तरण की शोथ
ग्रीसदेदा मे उपरुब्य प्राचीन मूतियो मे मांसपेशियो के यथावत्‌ दूरहो जाती है.*.^. । कटपनाकरो किवेउसे नश्तरसे चीर
चित्रण के दरेन से भौ यह नहीं कहा जा सकता कि उन्हे प्राचीन देतेहैँ ओर कार्टिकसे जलादैतेहै। शके वादवे उसे किसी
कार म विशेष शारीरिक ज्ञान था। मूतियों मे मांसपेशियो का ्षारीय द्रव से धुल्वाकर एक ठेप लगा देते है जिसते अन्त मँ धाव
भर जाता हे ओर वह व्यक्ति स्वस्थौ जाता है। अव हे राजन्‌ !
रही हो, ठेकिन इतना तो असंदिग है कि र. पृ. तीसय सदी । बतराओ, क्या चिकित्सक ने मर्म का ठेप, नदतर से चौर-फाड
दिरोफिल्स ओर परासिष््रेदस के सिकन्दरिया के प्रतिषठानो मे शव-
कार्थिक स्पशं ओर क्षारीय जर से प्रक्षालन-यह सब हिंसा पे प्रेरित
च्छेद प्रचर्ति था ।
| होकर किया था ।
( वाभा ०9 89०3, 11६. 2, 5114-4, ए. लक, )
( 170€ (ष््ण8 0 णु काते )
(२१) ए-२कौ दि. सं* उपो. ¶. १०० का० १ मे देख] (कतत 9 7. क. पाऽ 093 एण्‌, उ 22 ए)
खपोद्धात का हिन्दी अनुवाद १०३
किक कक क कक कक 0 0 अक के
क्छ कक

| हार्मले * (८००1९ )के अनुसार इस्वी पृवं ६०० से पूवं भी प्राचीन मिध मेँ चिकित्सा विज्ञान
भारतीय चिकित्सा विज्ञान कै अत्यन्त उन्नत दने, शखचिकित्सा, प्राचीन यीसदे् के तथा अन्य विद्वानों के ठेखोका अनु-
अस्थि आदिर्यो का ज्ञान तथा शारीरक्ञान के होने, प्राचीन भारतीय सन्धान करने पर ग्रीसवैधक का मू श्वोत सुख्यरूप से भिश्च
वरयक मन्धो मे शरीर विज्ञान कै विशेष विवरण को देखकर सबके प्रतीत होता है) यीक्षमें वैज्ञानिक चिकित्सा के प्रारभ होने से
" `
विस्मय, दिपोक्रिरस के सम्प्रदाय मँ शवच्छेदन विच( ( 1203560 पूवं ही मिश्च मेँ वैज्ञानिक चिकित्साकी प्रतिष्ठा हृदेथी। देशो की
प्रग) के न भिलने, देरियस का भारत में आगमन, भारतीय श्ारोर समीपता से भी यह बात सङ्गत प्रतीत होती है 1 इस प्रकार मीसर्मे
के खण्डनन मिश्च के सैषञ्य विज्ञान रूपी बीजों के नये अङ्कुर प्रादुभत इष प्रतीत
पिज्ञान कै भ्रीसदेश्च के शारीर चिज्ञान के मूल होने
हो सकने इत्यादि बहुत से भारतीय वेचक के गौरव के उच्छेख होते है। मिश्र का मैषञ्य विज्ञान भी किसी दुसरे दे के विज्ञान से
मिलते है । अनुभ्राणित हज हैअथवा अप्नेद्ये देदामे स्वयमैव ही प्रादु्भ॑त
( ए. 1750 )
. इसी प्रकार डायज † ( 109& ), डा. दश्ववगं होकर प्रतिष्ठित इजा है, इसका निश्चय करने कै चयि बहुतसे
एथ ) डा. हुडङेट, ( 7 प्रपान )डा, वाइन ( 77. ५१18६ ) प्रमाणो को आवश्यकता है । अशोक के शिलार्ख से उस समय
तथा विटनी ८ प्रपध्ण्थ ) आदि विद्वान्‌ भी इसीका सम॒थन (8. 0. 278-932 ) भारत से मिश्च मेँ मी मैषञ्य संस्था तथा
करते है । चिकित्सकौ के जने का स्पष्ट उल्लेख भिल्नेसे तथा भारतसे
विद्वार्नो तथा वेयौ को आदरपूर्वकं अपने देच मे ऊेजाने बाङे
हम यह मानले कि हिपोक्रिरस के समय रावच्छेद कै प्रच
अङेक्जेण्डर की गृत्यु के बाद ( 5. ¢, 328 ) उदित हुए भैषज्य
लन का कोड पृष्ट प्रमाण नदीं मिरुता है ओर हम यद जानते ही है
विज्ञान मे अनेक स्थानो पर भारतीय दाया का सम्पकं दिखाई
कि छगभग ई. पू. ४०० मेंटेरियस भारत आया था । तब इस बत देने से प्रतीत हौताहै किउस समयतक मिश्रमेंमी भारतीय
का प्रत्याख्यान खुगमता से नदीं किया जा सकता कि यूनानियो
चिकित्सा विज्ञान का प्रभाव था.। भाण्डारकर की अश्ौक(१) नामक
का शरीरर्वना विज्ञान भारतीय शरीररचना विज्ञान पर अव- | पुस्तक के अनुसार एपीफेनिसर
(धणएकणणऽ ) ने वणन किया
कम्बितदहै।.
हैकिअशोकके रिलल्ेख में भी निर्दिष्ट मिश्रके तुरमय ( एण
भारतीय अन्धौ मे निदित शरीररचना शासनीय जानकारी कफ एाभाभ्वलए0०8 ) नामक राजा ने अलेक्जेष्ड्िया के प्रसिद्ध
कौ प्रकाम लाया जाय तो शायद बहर्तो को बडा आश्चयं होगा,
पुस्तकालय की स्थापना अथवा उसकी वृद्धि की थी तथा उस पुस्त-
मुञ्चे भी पेसाद्यी हआ था । उसका विस्तार ओर सन्दभेश्ुदि काल्य का अध्यक्ष बहुत से भारतीय मर्थो के अद्ुवाद के ल्य
आश्चर्यजनक है। आवद्यकता शस बात की है कि उन प्र विचार
उत्ुक था) शरान तथा यीसके रस्वी पूवं ४७९्मे हुए युद्धम
क्रते हुए ध्यानम रखाजयिकि वे बहुत प्राचीन ( सम्भवत
प्लेयिया. के रणक्षे्र मे भरीस्र के सेनिकों के साथ पवं निर्दिष्ट
&.पृू. ्ठीसदी) है ओर परिभाषा करने की उनकी भपनी दी | (१, ७८ ) भारतीय सेना के संघषं का
रली है।
अनुसन्धान (२) करने पर
` (छल्वमण्ट ० ^प्मणह 1णतो9 2, 1 *० श्तनातो स्पष्टः हैकि श्ानका भारतके साथ धनिष्ठ
ए पत्०)1£ ) संबन्ध था । अभियात्तव्य (जितत पर आक्रमण किया जाय) ग्रीस
+ कोनिसव्म विश्वविध्ार्य के उपाध्याय डायज ने युनानी को भारत तथा अभ्यायात ( आक्रमण करने वाके) भारतीर्योको
चिकित्ता प्रणाली से भारतीय सिद्धान्तो को स्पष्ट दूंढ निकाा हे ।
ओर शरीर क्रियाविज्ञान का ज्ञान था। हिन्दू तस्ववेत्तार्ओ ( दाश्च
बङिनि के डा. दश्व॑वग कहते हैकि भारतीय विद्वान के कोरल-
निकों)कोश्सबातकाशरेयहै कि उन्होने श्त शरीर की जीवित
प्ण विधिर्यो का ज्ञान हो जने से यूरोप कौ सम्पूणं प्लारिरक सजरी रायैर के ल्यि उपयोगिता स्वीकार की, दाखांकि उन्दं शस विषय
पर नवीन प्रकाश्च पडता दै । संज्ञायुक्त त्वचा के एक हिस्से को
मे कदम र पर पूेम्ाियो का विरोध सहना पडा हिन्दू ही
दूसरे स्थान पर कगनि ( अ ह्ध्भिष्डट ) की विधि भौ पृणरूप वेद्यकराख्न की सबसे महत्वपूणं शखा-शरीर रचना विज्ञान कै
रेखक मोतियाविन्द के आपरेशन के
ते मारतीय है । यद्दी उपथक्त
स्े्रथम वेज्ञानिक ज्ञाता ओौर प्रतिपादक थे। (पू० १७९.)
अन्वेषण का यमी भारती्योौको द्यी देताहै। श्सका यूनानी आंख की तथा प्रसवसंबन्धी अन्य शल्यक्रियाय भारत मे मुदत तक
था।
इरानी अथवा अन्य किसी भी देश वा को विलकुर ज्ञान नहीं की जाती रदी हैँमौर हमारे आधुनिक शल्यचिकित्सक हिन्दुओं
कई शारीस्कि शल्यक्रियाओं के विषय .मे उन्होनि अपने एक से द्यी नाक की प्ठार्थिकि शाल्यक्रिया जान स्केदहै। ,.
` विद्वत्तापूणं निबन्ध म क्खिा हे कि भारतीरयो को सेल्यक्रिया का हरनी कहता है-- यद्यपि ओषधियो ओौर उसके साथ विनि.
अन्छाज्ञानथा रवे प्रवीणतासे यह कायं करते थे। यूनानी युक्तं मन्त्रौ के पाठ के रूप में आयुर्वेद का मूल वेदो मे मिरुता है
चिकित्सक शन क्रियाओं से सर्वथा अनभिक्ष थे । इस सदी के प्रारभ तो भी वद ( आयुवंद ) बहुत कम
महत्व की चीज है ओौर उसका
मे दमने मी उनकी जानकारी पाकर बंडा विस्मय प्रक किया । वाङ्मय ८ साहित्य ) बहुत पीछे कादहै। ` `
| ( ए. १७८-१९३ )
( 1एप्षण्वपनछण ४० कापतणलुः8 उतोत कपणाः
पाण्डीचेसी केः डा. ह्यङेट हमे विश्वास दिति ह कि धन्वन्तरि ट उपा)
को-~जो कि दिपोक्रिरस से पूवेवतीं ये (४१००४५०४) का ज्ञान था ।
डा. वाहन .का कथन है--कि हिन्दुओं को .शरीरर चना. शाख । (२) १-२.की.टि० सं उपौ. ¶.- १२०२ का. -श मेँ देखे ।
४ उपोद्धात-श्छाहिन्दी -अञ्युवादे
॥नी
व ०2 क 0 5 6 ० 3 © ॐ
० क 0 9

गीस द्वारा अवद्ध .आनने.के'. कारणः यह "कहाजा-सकता हैकि असीरिया तथां बेबिल्लोनियो मेँ प्राचीन कालं मेँ
दिपोक्रिरस से पूवै भी योसःतथा मारत का-परस्पर परिचिश्र अवदय ` :. भेषज्यं विषयकज्ञान ` ` `
था।. उक्त युद्धम. मासत्रीयो के समान मिश्र देर वालके भी अस्ीरिया तथा बेविकोनिया मँ मी प्राचीन भषञ्यसंबन्धी
सहभाव क्रा वृत्तान्त भिल्ने से मिश्र तथा मारत के भी -पस्सर
विषय का वर्णेन पहर (पृ० ७६ ) किया जाचुका है । बेविरोनिया
परिचय कौ संमावनाद्यो सकती है।. महामारत तथा कौटिल्य के के हेमूरैन्‌ ( चपणप्पधण 8. 6. 1900 `तथा अन्य मतानुसार
अनुसार युद्ध करनेकी ्छा.से दूरे देशम. जाने वारी 8. ©. 200 ) नामक्ष प्राचीन राजा के समयक तेरह लेखो के
भारतीय सेना साथ मारतीय वैर्घोको मी साथ अर्वद्रयदहौना उपरुग्य होने का वृन्तान्त भिता है । जिनमे रण आदिय की ठीक
चाहिये । -उस सम्य नकेवर ग्रीसदेर वाख द्रारा.जपितु सदह प्रकार से.चिकित्सा करने वालो कीं पारितोषिक तथा `रंखविकित्सा
योगी मिश्रदेर बारे दास मी भारमीय वेद्योके साथ .प्ररिचयक्रा म विपरीत ८ ४१०४४ ) कायं करने वाल को दण्ड इत्यादि देने
अनुमान भिया जाता है । परन्तु उसे पूवं मिभ देश को चिकित्सा का वर्णन मिरुता है । मनु(९) आदिन मी मिथ्या उपन्चार -करने
सरयमेव उन्नत हुई धी अथवा दूसरे देशौ के सहारे से इसका निणंय वांछ को -दण्ड. कौ व्यवस्था की है । हेमूवेन्‌ राजा के समय का पूणे
कुरने की आ्रदयकता है । | ५ वृम्तान्त न भिखने से केवल इतने से उस समय की परिस्थिति का
सम्यक्‌ ज्ञान नहीं होता है| उसके बाद असुरवनिपाङ(२) नामक राजा
मिश्रगत प्राचीन भैषस्य विज्ञाने के सूय के विषयं मे अनु- कै समय मैषज्य.विचा मेँ कुद उक्षति प्रतीत होती है जिससे पुवं
सन्धान करने पर प्राचीन भैषज्य धिज्ञान के चिहस्रूप रेत्रिरस
प्रचलित मान्विक उपचारौ म कु शिथिलता दिखाई देती है।
पेपिरतत `( ए6'७-एभणप्णऽ ) नमं से प्रसिद्ध सखकुपत्र उप-
परन्तु उस समय मी मान्विक प्रक्रिया हारा उपचार विद्यमान
रुव्ध हृष है । जिनमे से `कोन पेपिरस कां समय प्रायः इस्पौ
अघदरय था । कुद विद्रानौ का विचार है कि भैषज्यके पिषय मँ
पूवं १८५०; एडविन' स्मिथ द्वारा उपरुग्य त्वकूपत्र का समय . - .
मिश्र का प्राचीन घछ्लोत बेङिलोनिया प्रतीतहोताहै।
श (न क

प्रायः इसी पूं १६०० त॒था एविरस्तं पेपिस का समय प्राय


स्वी पूर्वं १००० वेषं पूं माना जाता है। परन्तु इन समयं!
मिश्र, बेविलोनिया, चीन; इयान आदि देशों में
कै विषय मेँव्रिद्रानो मे मतभेद द्यते से थोडा बहुत -अन्तस्मीदहो भारतीय शब्दों का सादृश्य
सकता है विद्यान्‌(१) लोग का कडना है कि काहुन पेपिरस मिश्र, वैजिलोनिथा, अप्ीरिया, चास्डिया तथा सुमेरिया आदि
पत्र मेँविरेचन आदि के विषयः रोग परज्ञान, प्रतिकार, उपथोग प्राचीन देशौ की सभ्यता का अनुसन्धान करने पर उन मारतीयं
म अते वाली ओषधिर्यो तथा `रोगचिकित्सा प्रक्रिया भौर एवि. राब्द एवं विषयो की समान दाया वङे इब्द॒तेथा विष्यो के
रस पपिर पत्र मे सपश से केकर क्षयपयेन्त १७० अर्थवा अन्य स्थान २ पर .मिल्ने से तथा इश्क आदि प्राचीन भारतीयं
मत से ७०० रोगो का िर्देशःकिया गया है । पिल्डूराण्ट ( प] : राजार्ओं के नार्मो केसमैरिथादेश के राजाओं मे मिलने से इनमें
एप्पकण् ) नामक विद्वान्‌ का यहमी कहना है कि “उनम कुद समान सभ्यता का प्राचीन संबन्ध प्रतीत होता है तथा कीं?
रोग प्रतीकारन्यवस्था पत्र भी प्राप्न हृएं हैजिनमे किसी मे प्ह्णी-, भैषज्य संबन्धी विषय तथा कब्दौ की- मी' समानता: मिती है
रुधिर ( {०90 -चिपकली-गुदैरे आदि का रक्त ) खजर के कान, जिनका फि परे भी (१० ७३-८२ मेँ } निर्देश किया जाचुका
दान्त, मांस तथा मेदा, कए के मसितष्क, सोई हहे खी का दूध, है । इसके अतिरिक्त निम्न शदो मे मी सादृरय(४) मिरता है--
ब्रह्मचारिणी खी का मूत्र त्तथा मनुष्य गदहा, इुत्ता, सिह, मजर मारत भित्र , भारत बेबिलोनिया
तथा युका (ज ) के शुक्र आद्यो का ओषधरूप मँ निर्देश किया सव (हरि) हदोरस् ` अहि. ई...
गया है । कुड्‌ रोगो मँ मान्त्रिक प्रररियाका भी निर्देश भिरता ईश्वर. ` ओसिरीस ` सत्यव्रतः दहसिसद्र ` ``
है । वे रोग प्रायः मन्त्रप्रयोग मे वरिरवास्तः करते थे। बारह वंश ईधरी ईिस्‌ ; अहन्‌ `` दहन्‌ ` ,
के राजाकेभूमिसे निक्ठे हट शष के साथ चषक ( ४8868 , ` शिव ` ` सेव ` "दहन ` दगनु “~
पात्र ) छोरी कड््ियां (8009003 ), दुष्कर ओषयिर्यां तथा मूक ` दक्ति ` सेखेत चन्द्रः: - सिनः ˆ
ओषधियां मी उपलब्धः हु है । इस्त वणेन से प्रतीत ह्येता हैकि .- प्रकृति ‡ प्ख वायु _ . षिच .: ...
दवेत सेत: ` मरुत्‌ ~ . मतुमतु ` .
मिश्रे प्राचीन कारुम मी चिरित्साकी ओर रुचि थी मिश्र
मारु ˆ `` सैतैर ;. दिनेश -. दियानिष'..
मे मैषञ्य पिदा सं्न्धी ठेख त्वकूपत्र ( पेपरी ) रूप(२) से मन्दिरये
. खयेवंश्लीः ˆ खरियस .. माडिक ` ः; मद्रः ~: ~;
मर्ते हृष है। राजक मे मी मेषञ्यरूप मे सन्तरप्रयौग तथा ` क्षत्रियः, . खेत... ` अप्‌ अप्सु
उसकी प्रतिष्ठा थी । कुच्‌ कोग- कहुतेः है. फि एभिरस् पेपिरस "अत्रिः ` : ; अन्तिम. . तमस्‌: . ` त्याम्‌ <
नामक पत्रं मे मनुष्यो. तथा देवताओं के ..भासेग्य को क्रते वे
मित्र.: ¦ मिश्र :: पुरोहितः 'परेसिसु
कै रूप मेँ “रा(३) नामक देषता क्रा निदेश मिकरूता है ।.उनफा यह
शरद्‌ :- ` सर्दी शष्ट सेठ
रा' देवता भारत.के ¶विः के समानर-परतीत होता ३५ | ˆ, , रथि , ; . शा: . ^ -नतेमात तियामत्‌.
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उपोद्धात का हिन्दी अ्चुवाद्‌ ध ©"

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भारत८९) के समान मिश्र मेँ लिङ्गपूजन तथा बैर का आदर ओौर के सम्बन्ध मिश्च, जसीरिया, बेविलैनिया आदि देशो कौ अपेक्ञा
बेविलोनिया मेँ पृथ्वी की पूजा इत्यादि बहुत से समान सभ्यता कै मी घनिष्ठ ये ।
संवन्ध मिरते हैं। चीनदेशमें मी प्राचीन मैषञ्य के विषय मेँ पहरे (१. ७७ )
इरान कै प्राचीन मूलग्न्थ जेन्दावस्ता के चार भागो मे एक निर्दे किया जा चुकाहै) उस देश कै सव से प्राचीन भैषञ्य
माग वेन्दिदाद नामक है, उसर्मे भेषञ्यसंबन्धी विषय दिये हुए ग्रन्थ का समय ईस्वी पूर्वं २५९७ बतलाय!(१) गया है । चीन देक
म मारतीय बौद्ध धर्मके प्रभाव, बौद्ध धभ॑का प्रचार करने वाले
हैं ¦ उसमे सामा वं्ोत्पन्न धित नाम का वेय सवैप्रथम था) उसने
` भारतीयों का वहां जाना, भारतीय अर्न्थो का वहां प्राचीन काल
रोगनिवृत्ति के लियि अपने अहुरोमज्दा नामक देवता की प्राना
से प्रचार, महाभारत तथा प्राचीन भारतीय भर्न्धौर्मे चीनदैदके
करके सोम ( चन्द्रमा) के साथर बृद्धिकौ प्रप्र होने वाली दस
चीनांङुक (रेलम-अ ) आदि का वणेन, तन्तर्रन्धो मेँ चीनी
हजार ओषधियोँ कौ प्राप्त किया । हओम ( सौम ) वनस्पतिर्यो का
आचार ८ सभ्यता ) का निर्दर, कौटिलीय अर्थद्याख मे चीन देर
राजा था। उस भित नामक वैच दारा क्षथ्रवैयं तथा सहरवर सै रोग से आई दुई वस्तुओं पर श्ुल्कव्यवस्था ( एण) का निर्दय
निवृत्ति कै उपायो को जानकर तथा रखचिकित्साविज्ञान को प्राप इत्यादि वहत से पारस्परिक व्यवहार के साधनों के मिलने से,
करके ज्वर, कास, रिसेसेग, क्षय आदि रोगो को दूर करने कै | वैदिक कामे चीनदेकल्ल का किस्त नाम से व्यवहार दौताथा इसका
वृत्तान्त तथा ओषधि्योँ के निर्माण कै पण्डित, खीर तथा रोगियों
ज्ञान न होने परमी यहु स्पष्टहे कि चीन नाम वर्देश् का
को प्रसन्न करने वाके वै्यो से भवितव्यता इत्यादि की रिक्षा को भारत से तथा मारतका चीन से परस्पर परिविय; यातायात तथा
ग्रहण करने के वृत्तान्त मिटते(२) हैँ। जेन्दावस्ता तथा वेदिकसाहित्य
वाणिज्य संवन्ध प्राचीन काल्सेदी था। काद्यपसंहितामे भी
की आलोचना करने परज्ञातदहौतादै किदोर्नौके देवतार्ओ के चीन देश का उच्छेख मिर्ता है । चीन तथा भारत के रास्ते मे
विषय मेँ शा्ग्यो का सादृद्य केवल देवताओं के नामो कै विषय में कारादार नामक स्थान पर वतमान प्राचीन कूच माषा्मे मी भारः
ही नहीं है अपितु उनमें आई हुईं गाथां के अनुवाद से प्रतीत होता
तीय ओषध वाचक रब्दौ की समानता के मिलने का परे
है कि उनमें संस्कृत ब्द की भी बहुत सी समानतां मिलती हैँ। ( पू. ७८ ) वणेन किया जा चुका हे ।
भारत कै प्राचीन सम्प्रदाय की तरह यहां सी अचि की उपास्तना;
होम, इष्टि, याग, आदि बहुत से विषय भिरुते हैँ जिनका पहले प्राचीन भारत का अन्य देशों के साथ संबन्ध
उप्ुंक्त वणैन के अनुसार असीरिय।, बेविलोनिया, मैसौपोः
( प° ७८ ) वणेन किया जा चुका है । इञम सब्द वलि सोम की
प्रशंसा, उसका ओषध्यो का राजा होना यथा यज्ञम उपयोग
टेमिया, भिश्र आदि प्राचीन उन्नत दै ओर इाखा-प्रद्राखारूप
आदि बहुत से विषय इसमे भिल्ते है । जेन्द तथा संस्कृत मषा म वर्तमान पाश्चाच्य जात्तियो मँ, यहां तक की अभैरिका गत रेड
निम्न समान रण्द(३) मिलते ह~ इण्डियन ( ६९0 1618928 ) ओर चीन आदि दूर दे्शौर्मेमी
आजतक मिलने वाली वस्तुओं मं भारतीय अन्ध; भूगभंसे मिले
संद्कत जेन्द संस्कत जेन्द हए विषय, आचारञ्-यवहार तथा आयुर्वैदीय मेषञ्य विचा की
सरस्वती रहयति असुर अहुर
समानता दिखाई देती है । जिस प्रकार आधवेण सम्प्रदाये
सप्सिन्धु हपहिन्दु देव दैव
प्रायः भूतग्रक्रिया एवं मान्तिक प्रक्रिया से युक्त चिवित्सा भिर्ती
सोम हओम विदवेदेव विरयोदेव
है उसी प्रकार का चिकित्सा सम्प्रदाय प्रायः समी प्राचीन देशो
नासत्य नाहत्य नरास नैर्योसंघ तथा जाति्यो मे भिल्ताहै। सवबदेशो मे इस प्रकार की असा-
अयंमन्‌ एयंमन्‌ वायु व्यु _
धारण समानतार्पं केवरू काकतालीय न्याय से ही नदीं हो सक्ती
विवस्वत्‌ विवङ्घ्वत्‌ वृत्रहा वेर्न
है । इस प्रकार प्राचीन मारत तथा अन्य प्राचीन देयो में बहुतसे |
काभ्यउरानस्‌ क्वउस दानव दानव | स्थानौ प्रर मिलने वाडी समानतां परस्पर साक्षात्‌. अथवा परम्परा
अध्व रथ्वी इष्टि इरित ( 7077९0४ 07 1०67९५४ ) उनके परिचय, सम्पकं तथा व्यवहार `
आहुति आज्‌ इति होता जओता कौ चित कसती है।
वहिः वरदमन्‌ आप्री आफ्री
गाथा गाथा पक पञ्च # दों वात्‌ जव एकदम अचानक ( एप्पल क०नवलणण
अथवन्‌ अथवन्‌. अहि अजि 0००४106 ) हो जाय तव उपयुक्त कहावत प्रयुक्त होती है।
यज्ञ यस्न अपांनपात्‌ अपंनपाटे जैसे एक कौवा अचानक आ जाता है ओर उसी समय तार काफक
इत्यादि बहुत से खब्द समान रूप एवं समान दाया वाले मी अचानक हयी उसके सिर पर गिर पडता है। दोनो घटनाएं अपने
मिरूते है । इस विषय मँ ( 6५४०४ 7 व. कध, कभु ह आप मँ निव्कुक सहसा हई है । ( काकस्यागमनं याद्च्कं
9959118 ए 1 1118 ) मे विशेष निरूपण किया गया है , वेदो तारस्य पतनं च । तेन तारेन पतता काकस्य वधः कृतः।
के समान अवेस्ता मे मी ३ प्रधान देवताओं की गणना की गई एवमेव देवदत्तस्य तत्रागमनं दस्यूनां चोपनिपातः। तेश्च तस्य `
हे । उपयुक्त वणेनोँ से प्रतीत्त होता है कि प्राचीन हइरान तथा भारत वधः क्तः । तत्र यो देवदत्तस्य दस्युनां च समागमः स काक-
तारुसमागमसदश्ः )--अनुवादक |
(१) १-३ करौ टि० सं° उपो १० १०३, का० १-२ मँ देदं। ( १) इसकी दि० सं० उपो० ए० १०४, का० १ मं देखे ।
१४ उ० दिन
१०६ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं

प्राचीन भारतका प्राचीन कालस ही अन्य देशो के सथविद्वान्‌ कामतद्धियाहै किं भ्सव देशो कौ चिकित्सा पद्तियों का
सम्बन्ध होते का अनेक विद्वान) ते रस्टेख किया है | भिश्च तथा
मूक एक हयी है । पाथागोरस अथवा हिपोक्रिरस कै पूव॑जौ ने यीस-
उसके समीप के अन्य स्थानम मौ मारत के वाणिज्य संवन्ध के दे मे जिक्र चिकित्सा विज्ञान का सव॑प्रथम रहण किया था वह
होने का तत्कालीन (4. ?. 100 ) मिश्र देश के परिप्लस(२) भिश्रदैद कै विद्वानों की सहायतासे द्यी प्राप्तकियाथा तथा मिश्र
(एलणएपऽ) नामक विद्वान्‌ ने मी उल्लेख क्रिया हे । सर विलियम वाल ने सीसे रदहस्यपूणं पूवे देश से प्राप्न कियाथाः। इस विषय
जोन्स॒ (अग एणी 0068 ), मेजर विस्फोडं ( धभेण म मोनियर विल्ियम्स * (४. 70016" फल)]2105) नामक्‌ विद्वान्‌
(01110 ), लुडस्‌ ज्याकौटिओद्‌ ({{0 उ९601110# ) जादि कामी कहना हैश्नि प्राचीन यूरोप के राष्ट की उन्नतिसे पूवे ही
विद्दानोने मी प्रतिपादन क्ियाहैकिमिश्र मे सभ्परता, कला तथा मारत ने ज्योतिष, यणित, विज्ञान तथा मैषलञ्य आदि विद्याओं में
स्मृति आद्विकाकज्ञान भारतसेदहीगयाथा। उन्नति करली थी । सभ्यता तथा ज्ञान कै त का प्रारम्म पृदेदेश्ं
"पाश्च विदान्‌ आये मनसे स्वौकार करते दहै कि मारतीय हु था तथा वदीतेह्ी वहु पश्चिम दिद्ा मे फैलाथा) इस्त
भेषञ्य रिद्या का प्रमाव म्रीसदेदकी चिरित्सापर प्डाहै। मिश्र, विपरीत वह पश्चिम से पूद॑देशो म नदींफैलादहै।
परिया तश अरव द्वारा भारतीय चिकित्सा विज्ञान यीस मे पहुंचा प्राचीन समय मे सिन्धु नदीकेपारकेदेशौ कौ भी सम्मि-
है तथा इन देश वार्छलोने मी इसे मारते प्राप किया है" इसप्रकार लित करके तात्काल्कि केन्द्र तक्षरिटा(१) तथा शरावती आदि ये
अपना मत प्रकट करते इुएजेणजे. मोदी ने वाहञ्ञ नामक आक्षपास के देशो से पू मँ आसाम तथा उत्तः मे चोल आदिदेश
#* सर षिख्ियम जोन्स ने रायल एरियारटिक सोसाद्टी कौ तक एकारम्य रूप से अत्यन्त प्राचीन कारू से प्रतिष्ठित मारत कै
रिपोर मे यह विश्वास व्यक्त कियादहैकि यिश्र वहुत प्राचीन कार पश्चिम मं स्थित मिश्र जादि पड़ोसी देशो से परस्पर यातायात,
मेँभारतीय आर्यो का उपनिवे् था ! मेज्ञर विल्फोडं सरीखे केखकों सम्पकं तथा परिचय भदिकेन दोनेमे कौनसी बड़ी मारी
का मतथाक्रि पुराणो का भभिश्रस्थानः मिश्रसे भिन्न नदहींथा। दूरी गधक थी
दूसरी ओर इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिला है कि मिश्रवासि्यो वैदिक काल मै भुज्यु आदि के अन्य द्वीपौ म जने, पिता दवाय
ने भारत का प्रवास कियादहौ। इस प्रकारके प्रमाणो से कई देश से निका दिये गये अनुद्य तथा तुव॑सु के अन्य द्वीपो मँ जाकर
यूरोपणेय लेखकों ने जिनमे ङस्‌ जेकोलियद्‌ प्रधान हैँ--यह नये वंद्य का प्रवतंन तथा पाण्डवं द्वारादूरर देशम मी विज्य
स्थापनाकीदहैकिमिश्रने यूनानकौ सभ्यता का पाठ पदाया जर्‌ आदियों के वृत्तान्त के भिल्नेसे भारतीयों का अन्य देर मं
यूनानि्यो से रोम को सभ्यता का दान मिला भिश्रने अपनी कला, आवागमन प्रतीत होता है! ऋग्वेद आदियों मै मी सासुद्धिक नावो
संस्कृति ओर विज्ञान भारत से प्राप्तक्षिया। भिश्र कौ चिकित्सा का उछ्ेख तथा प्राचीन अन्धौ मे मी सामुद्विक व्यापारियों की श्युल्क-
प्रणारी मे ठेसा कोड त्व नदींहै जो आयुरधैदमेन हो छेदिन व्यवस्था का उछेख मिर्ता है । वेद मे अन्य देश्लौ मै जाते वाले
इसवे विपरीत युवद मँ जो कुद है उसका बहुत बड़ा अद्य सिञ्च एक पृथक्‌श्रेणी केरूप म विमान व्यापारियौ का धरणिः नाम
की चिकित्सा प्रणाटी में नदहींरै। से निदेश मिरूता है! ए० सी० दास(र) का कहना है किं हन्दीं
( 9० तणा ० 4790 21641691 8भ€10€ न्यापारियोने ही पश्चिम एरिया, यरी, मिश्र तथा सेमेशिक
ए. 194-195 ) परदेश मे भारतीय प्रभाव डाला है। महाजनक तथा रङ्कु)
† सा प्रतीत होता हैकरि यूनानी जोषधिययों पर भारतीय नामक जातकों मे मी भारतीय व्यापारियों के सिंहल, वेविरोनिया,
ओषधिर्यो के प्रभाव कौ अधे दिलसे स्वीकार किया गयाहै तथा तथा सुवणेभूमि ( दक्षिण पूव एरिया ) आदि प्रदेशमे जने का
यह स्वीकार करते हुए वह्‌ मिश्र, इरान तथा रवे के माध्यम से उ्ेख भिख्ता है । काटिदापस्तने मीरु को लक्ष्य करके पार
यूनानी चिकित्सा पर भारत के अप्रत्यक्ष (100 ) प्रभाव को सीक(४) देश ( पारिया ) तक स्थर मार्ग से जाने का उच्छेख
भूल गया प्रतीत होता है । अव यह सिद्धहौो लुका करि थूनानी क्ियाहै। वादमें मी चीनसे खोतान धारी के रास्ते स्थलमा्मसे
चिकित्सा विज्ञान अपने ज्ञान कै लिये वहुत अंश तक इनदरो की * (8) यूरोप के बहुत से अतिप्राचीन राष्ट्र द्वारा विविधं .
ऋणी हे`" “" ओर इस प्रकार वह चिकित्सा संवन्धी ज्ञान के ल्यि विज्ञानो कै परिचय ओर प्रयोगको जानने से पर्याप्त पहर ही
भारत की ऋणी है । हिपोक्रिरस तथा पाथामोरस ने ूनानी हिन्दू लोगों ने ज्योतिष साख, बीजगणित, अंकगणित, वनस्पति `
चिकित्सा प्र मारत के अप्रत्यक्ष प्रभाव का वर्णन चकिया है...“ ओर चिकित्सा राख मे विरेष उन्नति करी थी व्याकरणम तौ
डार वाइज ने अपनी पुस्तक ' प्व 8शलण 0 11641606 उनकी उता का संकेत करने की आवद्यकता हयी नहीं है।
मँ क्िाहै कि इन सम्पूरणं चिकित्सा पत्तियों का कोई एक | ( आ. धणणालः फ्राा008 )
`, सामान्य स्नोत है.“ "यूनानौ तत्लवेत्ताओं ( दार्शनिको ) को मिभ ॥ (संस्कृत इगङ्रि डिक्शनयी १. सं. २१)
के महात्मार्ओं से सहायता प्रप्त हु धी तथा इन भिश्च के महात्मा (४) सभ्यता ओर ज्ञान के त्वौ का उद्गम सदा प्राचीसे `
ने अपना बत ऊद ज्ञान पूवं के किसौ रहस्यपू्णं देर से प्राप्त ही हआ हे । उनका प्रसार सी प्राचीस्ते प्रतीची की भोर हुमा `
-क्ियाथा। ` | . " है, नकि पश्चिमसे पूवं की मोर,
(कणप ताभ्य (पलमक त०पालना०ह एण्‌, ता ए, 426 ) (संसृत इगरिश्च दिव्शनरी धृ. सं. २३.) `
(२) १-२ की टि० सं° उपो. १. १०४५ का. १ देडे।
उपोद्धात का हिन्दी अनुर्वाद्‌ ¶१ ८७

भारतम आये हुए फाडियान नामक चीनी यात्री के सीलोन होने पर भी वह गोत्रनाम से व्यवहृत कोड अन्य त्रेय भीहो
(रक्रा) सै जल्मागंके द्वारा अषनेदेश्च चीनको ऊौयनेके, ग्रीस सकता है । जे. जे.* मोदी सश्चत का समय ईस्वी पूवं १५०० तथा
तथा सेम मँ जल्मम॑सेही सुषिधापू्तक पर्डुच सकने वाङ भारतीय डोरोथिया च्यापलिन ने धन्वन्तरि का समय हिपोक्रिस्स के समय
हाथी तथा हैर आदियों के ठेजने के दृम्तान्त से, परिचम दिरा से १२०० वषं पूव माना† है श्रीयुत अक्षयकुमार मजूमदार
मँ भी मारत से शीघ्र कोरने वाके यवनराज अल्क्रजेण्डर की महान्‌ ने विदेह के राज! जनक का समय ईस्वी पूवे २५००, अगस्त्य का
तेना वे छ्यि पर्याप्त नौकाओं की उपस्थिति के अनुक्तन्धान से तथा समय ईस्वी पूर्वं २२००, जावारुका समय ईस्वी पूवे २०००,
भिश्न, मैसेपोटमिया आदि देक मे जलमागंके ही अनुकूल होनेसे जाजलि का ईस्वी पूवं १९००, पेट का इस्वी पूवं १८००) क्वथ का
यहु स्पष्ट है पि भारत का पाश्चाच्य देशो के साथ प्राचीन कासे दयी ईस्वी पूवं १८००, धन्वन्तरि का इंस्वी पूवं १६००, भीमरथ के पुत्र
परस्पर यातायात, परिचय तथा सम्यक आदिका व्यवहार अवदय था। दिवादासका ईस्वी पू १५०० तथा चरक जओौर श्टतसंहिताके
धन्वः ८ (कन ची
न्तरे आदियां की प्राचीनता समय क्रमशः ईस्वी पूर्वै १४०० तथा १५०० मने है(१) ?. ए
एव्र { का कथन दहै कि “भारत मँ भैषज्य विद्या भी बहत प्राचीन
मारतीय आदुर्वद रूपी सखोत के मूर उद्गम का अनुस्षन्धान
करने पर प्रतीत होता है कि उपलब्ध आयुवैदिक अर्थो के आचार्य काल्सेद्ी उक्नतथी "° जे.सी.§ चग्जीका मतदहै कि इैस्वी
रूप मेँ निर्दिष्ट धन्वन्तरि, दिवोदासः काइयप, आत्रेय, अथधिवेरा,
पूवे १५०० से ५०० तक धमं, देन, विज्ञान, करा, सङ्गीत तथा
सेषज्य परिद्या मेँ कौ सी दूसरा राष्ट्र मारत की तुरना तथा स्पर्धां
मेड तथा सुश्चुत आद्यो का समय अवीचीन नहीं है। धन्वन्तरि ,
करते यौग्य नहीं धा।
का महाभारत, हरिवंशपुराण अन्य पुराणो (ए. २९), भिलिन्द-
मिश्र देद के विद्वानों तथा हिपोक्रिरस्त के चकेखौ के समान
पह्ो नामक पारीग्रन्थ ( प्र. २० ) तथां अयोघर जातक्‌ (षृ. ३९१)
प्राचीन धन्वन्तरि, आघ्रेय तथा कर्यप आदिय के मूक अन्धो में
आदि मं उल्लेख मिर्ने से, भीमसेन के पुत्र दिवोदास का हरिवंश,
पीछे संस्करण के समय कुद अर्वाचीन विष्यो के प्रवरा के मिरुने
महाभारत तथा काठकसंहिता मे ओर प्रतद्नके पिताकेरूपमें
पर भी, जिस प्रकार प्राचीन मन्दिरो को नूतन शिल्प आदिके दारा
दिवोदास का कौषीतकि ब्राह्मण, कौषीतकि उपनिषत्‌ (१. २९)
जीर्णोद्धार करने पर मी उन्हें स्वारा में नूतन नहीं कहा जा सकता
कात्यायनीय ऋकूसवांनक्रम ( १, २० ) तथा महामाप्य मेँ निर्दय
होने से, दिवोदप्त द्वारा स्थापित वाराणसी का महावग्ग आदिमे
उसी प्रकार यहां भी उनकी प्राचीन मोलिकता मेँ कोई व्याधात नहीं
उछेख मिर्ने से ध. २९-३०) मारीच क्यप का महाभारत, ऋषू-
पहुंचता ह ।
प्राचीन काट में खमरिया तथा भिन्रदेरशो की उस्र उन्नत
सर्गातुक्रम, ब्रहदेवता ८१, १८ ) तथा अथव सर्वानुक्रम मँ निदैरा
होने से, मेड दारा निर्दिष्ट गान्धार के नग्नजित्‌ का ठेतरेय तथा + दाट्यतन्त्र ( क्रियात्मक शारीर) के विषयर्म र्खिते दहु
रातपथ ब्राह्मण मे (१,५२) निर्देश होनेसे, मेडका अध्रेय श्री ञे. जे, मोदी महाद्चय लिखते है कवि भारतीय शल्यश्ाख्र कै
के दिष्य तथा गान्धार के नग्नजित्‌के साथीके रूपम निर्दड के पिता सुश्चताचायै ईसा से १५ वीं सदी पूवे हो गये है।
होने से, आघ्रेय का मारौचकदयप्‌ द्वारा, वाक्योद्धार सहित आचाय ( ए" 7. 0.0. एग. 7 2. 415-16. )
रूप मँ मेड द्वारा तथा कृष्णत्रेय नाम से महामारत मे निद दोने ¶ मारतीय चिकित्सा शाख के संस्थापक धन्वन्तरि ने
से तथा भारद्मजका मी महामारतमे निर्देश होनेसेये भारः हिपोक्रेरस से कौई १२०० वधं पूवं यह्‌ घोषित विया था कि आरोग्य
दाज, धन्यन्तरि, दिवोदास, आत्रेय; मारीचिकर्यप, नञ्नजित्‌ दार भावात्मक वस्तु है ओर रोग नकारात्मक। इस्त नकारात्मक से
वाहु तथा वार्योविद आदि परस्पर सन्निष्कृ्ट संबन्ध होने से उप. मावात्मक कीओर जाने की सम्स्याक्मी हरु करनेके ल्यिदही
निषत्‌ काीन.आचायं प्रतीत होते है जिसका पके सी कद स्थानों धन्वन्तरि ने बीड़ा उठाया था।
पर निर्देश कियाजा चुकता है। उपनिषदो के विषय र्म विचार ( 8०6 -43६्५४३ ग छप्तप =ल्कान्म्‌ व्हा
करने पर कौषीतचिः तथा रेतरेव का समय चिन्तामणि विनायक 2. 11 0९070068 (07 )
वैच महोदय ने स्वी पूर्वं २५०० वर्षं तथा ज्योत्तिष गणना के अलु- ‡ धर्मलाख ८ कानून राख ) कौ तरद चिकित्सा दाख का
सार दीक्षित ने ईस्वी पूवं १८५०-२९०० निश्चितं किया है । पाली मारतवषं मे पर्याप्त पके दी विकास हौ चुका था ।
तथा महावग्गके केख, सिहर तथा ब्रह्देरा की गाथाओं भौर (^.एललण-1एतो० त पनधत०० २. 49 8 ए, 2. एत्थ)
बतीय मूल ठेखो के अनुसार अत्रैयके द्यी जीवक कै गुर होने ६ तथ्य तौ यह है कि १५०० ई° पू० से ५०० इण पू
म प्रमाणोंकेन मिल्ने से, अकत्रेयकै तक्षरिला के उत्थान कै तक्‌ मे मार्तीय रोग धमे, अध्यात्म, दशन, विज्ञान, करा, संगीत
बाद मे होने पर पाच्चारु त्था गङ्कार के आसपास्के पदे ओर चिकित्साश्चाल मेँ इतने अधिक अगेबद्‌ गयेथेकि अन्य
घूम २कर उपदेश देने वले आत्रेयकेद्वारा विद्यापीष्के रूपमेँ कोई जाति इनकी स्थामं नदीं ख्ड़ीदहौ सकती थी जौर ज्ञान
मसिद्ध तक्षद्धिला का अवद्य उल्लेख होना चाहिये था, परन्तु विज्ञानो की इन च्ाखार्थो मे से किसी म भो उनका युकाबला कोई
उसके नामकामी निदशन हौनेसे तथा मासेच कृदयप द्वारा नदीं कृर सकता था ।
नाम का उर्केख होने से आत्रेय पुनवेषुके प्राचीन द्यी सिद्ध होने (१.५ 00 भ्प्रदपुौ- € 8000 0४ &४€ पताव
` से तिब्वतीय कथार्भो के अनुसार जीवक कै गुर्‌ आत्रेय को बुद्ध- एताध्€ते ए एषक) एष्ण्ा २, 25, }
१ देखें । †
कालीन मानने की राङ्क गक नदींहे। जीवकके गुरुके अत्रय | ८१) इसकी टि. सं० उपो० ए. १०६, का०
द©€ उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
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सभ्यता के मिख्ने से उसका सहयोगी भारत उस समय मोह निद्वा के अनेक आचार्यौ का अनुसन्धान करने पर चार्यो ओर फैला इभ
मे सोया हुआ हो, शसकौ सम्भावना नहीं हौ सकती । मिश्र दश्च के मिलता है ।
भूगमे से भिले हुए शर्वो के दारीरो में कपालमेद के सन्धान के चि छ्णने का्कायनका घुश्रुत के सतीथ्यं ( सहाध्यायी ) के
मिलते हैँजिनका आजकल के अत्यन्त कुश्च रस्य चिवित्सको इर रूपम निर्देश किया है। अग्नेय ने इसका षवाह्ीकभिषक्‌? तथा
भी समर्थन किया जाता है । रेतिहासिको के अनुसार भिश्रदेश्च में “बाह्ीकभिषजां वरः” इत्यादि पदो द्वार बाहीक देश के उच्कृष्ट वेच
विक्रमसंवत्‌ के प्रारम्भ से २५० वपं पूव (8. 0. ३०१ ) रद्य विचा कै रूप में निर्दे किया है । मारीच कर्यप ने भी नामपूवैक इसका
की उन्नतं अवस्था तथा उसके २०० वषं बादर उसी के अनुसार यी मत दिया है) इस प्रकार यदह काङ्कायन मी उस समय के लोर्गो
देशम मी शल्य विया के उदय का उेख मिल्ता है सुश्रुत के रव्य दारा ज्ञात दूसरे देश का प्राचीनतम आचाय प्रतीत होता है।
विज्ञान मे अन्यदेर्शो की दव्य विधाकीद्धाया न मिलने से सुश्रुत बाहीक देच के सुख्य वेधके क्प मेँ प्रसिद्ध इस काङ्कायन का
का समय अन्ततोगत्वा भी २६०० वषं से अवाचीन सिदध न दोन दिवोदास केशिष्यकेसरूपमें निर्दर होनेसे प्रतीत हौताहे कि
से तथा पाश्चाच विद्वानों दारा मी इस मत का समथेन भिया जाने भारतीय भेषज्य विद्या न केवल भारतम दही अपितु अन्य देशौ में
से प्रतीत होता है कि अन्य देश से पूवं हौ सुश्रुत के समय भारतीय भी आदर्श॑रूप मेँ प्रचलित थी, तथा यह"मीज्ञातदहोताहै कि भारत
रल्य विधा प्रोढावस्था मै पहुंची इदं थी ! काद्यपसंहिता तथा के सिन्नर प्रदर्श के समान अन्यदेष्ोसेमी लोग इस विद्ाकी
आत्रेयसंहितार्मे मी श्वय विद्या का उच्छेख होने से इससे पूव मी प्रा्ठि के च्यि जिज्ञासु एवं रशिष्यरूप मं यह आति थे) यदि उसे
उसके प्रचार कै होने का परिचय मिलता हे । महावग्ग तथा जीवक द्विवोदसकारिष्यन मीमाना जायतोभी सारतीय प्राचीन
कै इतिहास म भी क्पालमेदन तथा अन्त्रवेधन आदि राद्यप्रस्था- आचार्यौ द्वारा उसके मत का सिर्दश विया होने से उनका परस्पर
नीय तथा प्रस्थानान्तरीय मेषञ्यों म भरत मै विदेष कुर परिचय तौ स्पष्टहूप से था ही
र्ता दिखाई देती दहै उसमे पूर्वंमी रामायण तथा सहाभारत सुश्रुतके ञेखसेज्ञातदहोताहेकिन कवक काङ्कायन अपितु
क युद्धा मे जघ धायल व्यक्तयो के चारीरो मे चुम हृ वाण आदि जओपधेनव, वैतरण, ओरभ्र, पौष्कङावत, करवीर, गोपुररक्षित तथा
शस्यो कौ निकालने की आवश्यकता होती थी उस्र समय भी उनको मोज आदि मी दििौदास के शिष्य ये! अयोघर नामक्‌ पाटीजातक
निकालने का ज्ञान दौने से शव्योद्धरण षिद्या नाम से शस्यविच्ा मँ बुध के पूरधैजन्म के उल्लेख मँ अतीत वैय धन्वन्तरि के साथ
की उपस्थित्ति की खना मिक्ती है। इतना ही नहीं अपितु मिल्नेवाले सुश्रुत के सतीभथ्य॑ भोज तथा वैतरण का उस्छेख मौ इनके
आयुेदीय प्रवाह के निरन्तर प्राचीन उद्गम की आलोचना करने प्राचीन संवन्ध को सिद्ध करता है। इस प्रकार प्रतीत होतादहैकिये
प्र हम देखते हैँकि अथववेद तथा ऋण्वेद म मी म्संधान आदि ओषधेनव आदि आचाय प्राचीन काल के तथा पिभिन्न देशो केये।
श्रय विषय उपरन्ध होते है । पौष्कलावत, करवीये तथा श्रौरभ् आदि आचार्यो के
प्रत्येक देश तथा काल मे भारतीय स्रोतो की व्यापि विषय मं विचार--
इस अयुर्वैद विज्ञान मेँ केवर धन्वन्तरि, आत्रेय, कदयप तथा प्राचीन आचार्य के नाम प्रायः पिता, माता, आचायंगोच, देश
भेड आदि--जिनके कि ग्रन्थ उपलभ्य है-वे ही मूल आचार्यं नहीं अथवा किन्हीं अस्राधारण गुणो के अनुसार होते ये, इसलिये प्राचीन
ह अपितु पीछे एक्‌ २ प्रस्थान के आचाय करयप, आत्रेय तथा सुश्रुत
व्यक्त्य कै नामों कौ देखकर यहं स्वाभाविक जिज्ञासा होती हैकि
आदिय द्वारा कुट पूवं आचार्यौ का नाम पवक निर्देश किया गया
इनके नामो का मूल (आधार) क्याहै। इसल्यि पौष्कलावत
है तथा कु को विना नाम कै "परेः अपरे, इत्यादि शब्द से ही
आदि नाम मी किसी देर अथवा व्यक्ति विदेष के अनुसार (तत्र जातः"
खचित शिया गया है। प्राचीन भारदाज तथा आश्विन सादि भी
अथवा (तत्र मवः" अथं मेँ प्रयुक्त किये गये प्रयर्यो सहित बने हए
संदिताओं के कताँर्ओं के रूप मँ प्रसिद्ध है । आजकल कालक्रम से
प्रतीत होते है।
आधिन आदि संदिताओं केन मिलने पर भी उनका विषय तथा
उनके वचनो के उद्धरण आदि ताडपत्रीय ञ्वरसमुचय आदि प्राचीन पुष्कलावत नाम का कोई भी व्यक्ति भारतीय इतिहास म नदीं
वेचक मर्थो मे मिलते दै। आयुपद के र्थो से अशि, इनदर, भरद्राज मिक्ता है । किन्तु यह शब्द देर विेष के बोधक के रूप मँ भिरुता
मादि मू आचायंरूय मेँ तथा उन्दी की परम्परा के द्वारा शस है । इसर्यि 'पुष्करावत नामक देश मेँ होने वेः इस अं को
सम्प्रदाय का प्रसार हृजा मिलता है । अभि, इन्द्र आदिय का ठेकर दे के अनुसार यहु नाम प्रयुक्त किया गया प्रतीत होता है
वेदो मे मौ वेव के रूप मेँ उर्लेख किया गया है । इस सम्प्रदाय विष्णुपुराण(१) के अनुसार पौष्कलावत भरत के पुत्र पुष्कर दारा
परम्परा के कारण भारतीय खत भव्यन्त उन्नत अवस्था है, स्थापित देच है । वाद्मीकि रामायण८२) मेँ भी इसका उल्छेख
वेदिक कार से दी आयुवेद का उदय तथा उसकी समृद्धि प्रकर मिरुता है । वेदो म आये हृ आसन्दीवत्‌, परस्त्यावत्‌ , रा्यंणावत्‌
होती है । इस प्रकार अत्यन्त प्राचीन कार से ही त्ैदिक विज्ञान इत्यादि तथा महामारत के वारणावत्‌ आदि नाम के सदृश होने से
रूपौ विशार शरी से निकर कर यह आयुवेद रूपी सोत्र भिन्न २ यह्‌ पौष्करावत भी भारत के पश्चिम विभागका कोई प्राचीन देश
आचार्यो कौ विचार धाराओं से वृद्धि को प्राप ह्यत इ अनेक प्रतीत होता हे । गान्धार राज्य की प्राचीन राजधानी का यह नाम
देशो एवं कार मे व्वा हो गया । यद मारयीय चछोत वंशाङ्कतौ क था । अलेक्जेण्डर के आगमन के समय मी यह नग गान्धार मेँ
समान केर उपरिभाव से ही निचमान नदीं था अपितु नाना देशं (१) १-रकीटि० सं० उपौ० ¶० १०७) का० १ मेँ देखे ।
उपोद्धात का हिन्दी अचुवाद्‌ १०९
०० ७-9-29
क 9 €>< 2 © <-> ०-० ०-०-०० ०-९-८७ © ७ @७-@

प्रधानरूप से विचमान थी । एरियन्‌-सटरुबो तथा र्मी जादि बहुत पामा ( खुश्चतमेंमी) पामन्‌ चमैरोग
से प्राचीन यीक विद्वानों दारा मी सिन्धु के समीप महानगरी के सीषैक्तिः सारस्स्य रिरोरोग
रूप मे इसका उस्लेख होने से प्रतीतदहौतादहैकि यह ग्रीक रोगों सरणः सारनक#
दवारा विदयेषरूप से परिचित तथा उदिखित८१) थी । यह पौष्कलावत इसी प्रकार रुष ( दुष्ट्रण ), दुक्‌ ( अदमरी ), अधोस्ति
नामक आचाय उसरौ देल का प्रतीत होता है । सुश्रुत द्यारा विशञेषरूप ( रीणास्थ ) ददु (ञव ) र इत्यादि शब्द मी क्रमश्चः कुरुक्‌;
से रास्यप्रधान (२) तन्त्र के क्ता के खूपमे इसका निदेश होने से दुषत्‌, अस्थि तथा दाह आदि संस्कृत राब्दों के अपश्च प्रतीत होते
प्रतीत होता हैकि प्रचीन काल मेँ गन्धारदेल्ल की मी शख हे । अन्य भी बहुत से शब्द मँ समानता तथा प्रतिच्छाया भिलती
चिकित्सा मे प्रतिष्ठा थी। हे । अवेस्ता म मानसिक तथा रारीरिक दो परकार(१) के स्वास्थ्य
करवीये चन्द भी "करवीर देर में होने वारः अथं का सलक का वणेन मिल्तादहै। सुद्तमे मी पुनश्च द्िविधा-शारीरा,
प्रतीत होता हे । करवीरपुर(३) का दृषद्वती के किनरि पर होने का मानसाश्चः (ख. अ. २४) द्वारा द्वैविध्य का उल्केख किया गया
उल्केख मिल्ता है ¦ कालिका पुराणम मी करवीरपुर का उल्टेख है। हे । ज्वेस्ता मँ मन्ध ( मन्त्र ), उवैर ८ उवीँरुह › तथा केरेत (कतिक,
दृषद्वती वेद मे भमी प्रसिद्धथी) करवीर पुरमें होने के अचुत्तार कतरी अथवा करपत्र ) द्वारा मन्त्र, वानस्पतिक ओषधियां तथा शख-
उसका यह होने से इस आचाय का यह स्थान प्रतीत. होता है) रूप तीन प्रकार के सोगनिवत॑न८र) के उपायो का वर्णन किया है ।
अथवा राखचिकित्सक होने से हाथमे कुडल्तारूप वीर्यं को धारण भारतीय मेषज्य सम्प्रदायमें मीयेदही म्र, ओषधि एवं शखरूप
करने कै ( हस्तक ) कारण भी संभवतः इस्त आचाय॑का यह तीन रोगप्रतीकार के उपाय भिरूते हैँ । अवेस्ता मँ 'गौकिरनः(२)
( करवीयं ) नाम हौ | | दराब्द ( जिसका बाद में गोका रूप हो गयादहै) का प्रधान
इसके अतिरिक्त इरानदेर के प्राचीन अवेस्ता मन्थ के वेन्दिदाद ओषधवृक्ष के रूपमे निर्देद्य किया गयादहै जोकि अश्वगन्धा कै
नामक भैषज्य प्रकरण मेँ उस देश की शल्य चिकित्सा के मूल संस्कत पयाय गोकणं सन्द की विकृति प्रतीत होती है) अश्वगन्धा
आचाये का क्षश्रवैयं नाम से उल्छेख भिरता है । आजकल व्यवहृत का आयुवंद मं भी बहत माहात्म्य छिखा गया हे। दोना सम्प्रदायो
होने वले वेन्दिदाद शब्द का प्राचीन स्वरूप णविदैवादात() का मंसोम का यज्ञ तथा ओषधि दोनो रूपौ मे उपयोग मिक्ता है।
जाता है । वैदिकसम्प्रदाय मँ सन्दर मावो के बोधक सुर, देव आदि अवेस्ता मेँ भेषञ्यविज्ञान; वैच, रोग तथा रोगनिवृत्ति के उपाय
राब्दो मं विपरीत ( असुन्दर ) अर्थं को खचित करने कै छ्य असुर आदि चिकित्साके चारण पादो का वणन मिरूता है। आयुर्वेद
तथा विदेव आदि प्रयोग मिक्त है । उसी न्याय से दैवोदात छब्द मे भी धन्वन्तरि (४); क्यप, आत्रेय तथा मेड आद्यो ने थोडे
मे द्विवः शाब्द के साथ ण्विः ज्ञब्द लगाकर अैषञ्य वियाविभाग
बहुत भेद कै साथ मेषज्यविज्ञान, वैच, रोगी एवं परिचारकरूप
का बोधक विदेवोदातः राब्द दिवोदास सम्प्रदाय काही अप्रं चतुष्पाद सिद्धान्त का हयी वणन किया ह भित द्वारा अहुरमञ्द से
रूप हो सकता हे। भित नामक वैय ने अहुरम्द से ओषधियों यिषप्रतीकार के छियि "विसचित्तः तथा शस्यचिकित्सा कै छियि
तथा क्षथतरैयं ओौर सोहर्वर से कायचिकित्सा तथा शखचिकरित्सा सौवर्णा छुरिका प्राप करने का वणन मिर्ता है। "विसचिनत्त
मे शिक्षाग्रहण की, इस उच्छेख ते उस देदा मै शख्चिकित्सा का साब्द मे विषचिकित्सा अथवा "विषकरत्यः शब्द फी ञ्चल्क दिखाई
प्रारंभ करने वाला क्षधवैय॑(५) सिद्ध होता है। थि नामक तैय कै
भी आचायरूप मेँ निर्दिष्ट क्षरेयं तथा सोहरवर कौन है--इ्स पर # सारण तथा सारन खब्दो मेँ शाल्दिक समानता होते इए
विचारः करने पर हम देखते है कि विदेवोदात शब्द मेँ दिवोदास मी, अथववेद में अतिसार तथा अवेस्ता मे शिरोरोग का बौधक होने
से अथै मे मेद है। | |
शब्द्‌ का सादृश्य हौने से उसके साहचयं से चिकित्सा विज्ञान मेँ
सोहरवर की सश्चत से तथा सस्यचिकित्सा विज्ञान कै प्रारमक + यइ एक अदभुत संकेत है कि मारतीय चिकित्सादाख कै
कषथवेयं कौ दिवोदास के रिष्य, चस्यप्रस्थान के आचार्यं तथा सुश्रत मी चार पाद्‌ बताये गये दहै । उनकी गणना चिकित्सक, रोग
के सतीथ्यं करवीयं से चन्दो तथा कार्यौ मँ समानता दिखाई देतीजओौषध ओर परिचारक केरूपमेंकी गङेदहै जव कि दिपोक्रेयसतें
हे । भारत के प्राचीन आचार्यो के निर्देशानुसार बाहीकभिषक्‌ केवर तीन दही मागकियिदहं।
( १€ "1070, र्ण 3. 1., ) ए. ‰&. 2, -»ए०]. 1 ए. 759
ककायन का भारत से परिचयः की तरह वेन्दिदादके ठेखके
अनुसार दिवोदास, सुश्चत, करवीये आदि भारतीय आचार्यौ का एए 1. ©, (०3भ्नलोत,
इरान से परिचय प्रकट होता है! अवेस्ता नामक न्थ में भारतीय ‡ (>) क्षथवैयं धातुओं का प्रथम प्रयोग करने वाला था । उसने
राब्दो तथा विषय को समानता का पृं वणेन करिया जाचुका है। एक चृ प्राप्त किया जिसका कि आधार एवं प्रान्त भाग सोने के
उसमे अये इ रोगो मँ मी हमे निम्न समानतां मिलती है- वने हुए ये ! इस प्रकार चादू ( शख ) से चिकित्सा करने वाला `
अथववेद अवेस्ता अर्थं | वह प्रथम व्यक्ति था । इसी प्रकार वनस्पति्यो इयाय चिकित्सा करने
तक्मन्‌ तप्नु ञ्वर वाखा मी वही प्रथम व्यक्ति था)
अप्वा _ .. अजह अपवाह (दलातक्णा९ 1 (8.8. ए, एन र. ), 2. 2974.
(9)2. ८. 2, 'ए०1. 1 2, 758
( १) १-५ तककी रि० सं उपौ०. १०१०७, का० १-२ भ देख । ` (१) १-४तककीटि० सं०उपो० प° १०८ काश मेँदेखं।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद
|१ १... [2 ष
४. किनि)
४ न) 2. (किः
4 । 4. 7.
क ऋ"छा.
2 ऋ क. 2 क-म १[४का, ऋ 2
क 2 १.
2 ४129 1ॐ.ष्ण (१ ४
का दण काः पामि जण पि भिः कि नाण कित
कः कि कक क + 8 1 [ड जि ४=
सवक
ध्व ककि किति

मी मेषञ्य संवन्ध दिखाई


देती है ! भारतीय सम्प्रदाय मे मौ कवेवन संस्कार के ल्य सुनरणं- कौ प्राना कै मिल्नेसेमैदिकित्नितम से
खचि तथा चूढाकमै संस्कार मेँ खुवणंयुक्त उस्तरे का विधान मिरुता देता है । तथापि चित शब्द की अभिपरक व्याख्या दी होने
तथा राज्य का प्रकरण होने से वहां मी चित का भैषज्य सम्बन्ध
है । सश्चत मे यद्यचििःसा मेँ प्रयुक्त होने वाले राच्ल के विषय पिच।र कौ आवद्यकता है।
मरे छिखा है कि्तानि ( शखाणि ) प्रायो हानि प्वन्तिः । स्ट नहीं भिरुता है । इस विषय मेँ ओर
इसकी व्याख्या म छ्लि हैकि "लोहाः पञ्च सुवर्णादयः” अर्थात्‌ जओरञ्च शब्द 'उरञ्रस्यापत्यम्‌ः अथवा 'उरश्ने भवः? अथं कै
सुवर्णं जादि पच धाठुभ; के दवारा सुवणं का प्रुदरूष से निदेश अनुसार व्यक्ति अथवा दैरेवाचक उरभ्र शब्द से वना हभ प्रतीत
किया है ! उप्तं वर्णन के अनुसार उनके च्रित्तः नासकं प्रथम होता है । उरभ्र नामक कोई व्यक्ति अथवा देर प्राचीन सारतमं
वैवकेमो आचार्य्य मेँ निद कषवं शब्द म करवीयै, क्षित- नदीं मिक्ता है। वेदम उरञ्चतथाउरण शब्द मेष (भेड्‌) के
वीर्थ क्षतवीयं दइस्यादि सारतीय संसत शब्दो की समानता दिखाई बोधक के रूपमंप्रसिद्धदहै। वेदम भी सिन्व मे वहने वाली
देते से यह भारतीय सम्प्रदाय का कल्रीयै या अन्व कोई मारतीय ऊर्णावती नदी का उर्केख भिर्ता है । गान्धार तथा उक्तस उत्तर
आचाय के समान प्रतीत होता हे । के देस मे प्राचीन कारुसेही येर्षोके प्राचुयैका वणेन मिलता
है ! उसी प्राच्यं के कारण ही समवतः नदौ का नाम भौ ऊर्णावती
तूढदाङ्‌ स्थान म हानेके नामक विद्वान्‌ द्वारा उपरुन्ध लेखों (२. १४ ४)
था । “अध्वर्यवो य उरणं जघानः इस ऋग्वेद के मन्त्र मे
न जीवक के प्रति दिये गये बुद्ध कै सैषञ्यसंबन्थी उपदेशो मे उल्लेख भिर्ता है।
संस्कृत के साथ प्राचीन इरानी माषा का मौ अनुवाद उपलब्ध होने इन्द्र द्रारा मारे हए उरण नामक अखुर का
ेविलोन देर कै प्राचीन नसे मे एक “उरः नाम का नगर मिलता
से प्रतीत होता है कि प्राचीन इरान ने मारत्तीय भैषज्य को अहण
किया था तथा उस्तका आदरपूव॑क अयनी भाषा मँ अनुवाद किया था। हे जो चार्डियनों के समय अन्राहम का प्रवान स्थान तथा सुमे
रिथनो के ईस्वी पूं २००० वषं पूव सेमेटिक सत्ता के प्रारभ मै
उवेस्ता में मेषजञ्य प्रस्थान के उद्धावक के रूप में श्रित तथा
वंद्चजो कै अनन्तर “उरुरः अथव्रा “उर एन गर” नामक
रोगनिषृत्ति की प्रार्थना करनेवाङे भतान का निर्देश है! इसप्रकार सारमगान
प्रधान उर नगरथा वहु बेविखोन समय के अन्त
वेदर्मेमी तित तथा तरैतन का उ्छेख मिलता है जिससे कुश ` राजा के समय
विषयो के छ्यि प्रसिद्धथा। उर नगर
विद्वान) की रायहैकि शब्दं के सादृदयके कारण वेद तथा तक धाभिक तथा वाङ्मय ए, © 2800-2200 ) तथा.
( एः करणप
अवेस्ता मेँ आभे हएये एक ह व्यक्तिदे। ऋण्ेद मे भ्ेतन का मै 'उरनम्मु?(१)
प्क वार ही उच्छेख होने पर भी मारते की इच्छा से दीघंतमस वसिन ( एण्ड ) नामक
राजां के रिरख्ख प्राप्त इए हैं|
ऋषिको जर तथा अभि मै गिरनि वारे तथा उसके अङ्गा को काटने असीरिया की पूर्वनातियां अयुर के रूप मेँ मिलती दहै
। इन्द्रद्ारा
वाले दासजाति(र) वले का निर्दल होते से, वह अरिवयो द्वार मारा हरा उरण नामक असुर संभवतः श्सी देश काथा। उरज्न
पुनः रक्षा किये गये मौ दीषेतमस्‌ ऋषि के प्रतिपक्षी के रूपमे आदि रब्दौ मे उर शब्द कै अनेसे इसी देदासे संबन्ध प्रतीत
भिकने वाला त्रैतन प्रतत होता है । परन्तु वेदिक ठेख के अनुसार होता है। ए. सी.(र) दास ने ल्खिाहैकि “उरः देश मे भारतीय
उसका भैषज्य से संबन्ध नहीं मिर्ताहै। त्रितका ऋग्वेद तथा साखवृक्ष की ल्कदियां प्राप्त इ है । यदि श्स देश के वाचक उर
अथववेद मे अनेक वार उर्केख होने पर मी कहीं २ यह धित शब्द सब्द्‌ से ही उरभ्र शब्द बना हयो तो काङ्कायन द्वारा बाहीके देके
असनि आदि देवता परक भिरुता है । जहां यड चित्त शब्द मानव समान दिषोदास कै लिष्य उर्र द्वारा यह उर प्रदेश भी भारतीय
भावो को खचित करता हैवहां कहीं २ खक्तद्रष्ाऋषिके सूप में प्रमाव से युक्त प्रतीत होता हे ।
उसका उव्छेख मिलता है । बृदेवता तथा यास्क कौ निरुक्तिमै सी कुद कोग गोपुर रक्षित नाम से निर्दिष्ट गोपुर तथा रक्षित दी
उत्तका ऋषि के रूप मेँ उल्टेख भिरुता है । इन स्थलों पर इसका न्ित्न २ आचार्यं मानते दहै छु लोग संयुक्त ( गोपुररक्षित)
अथं भिन्न प्रतीत होता है! जहां वेद के 'आाष्यः आप्त्यः तितः नाम से एक ही व्यक्ति मानते दै । दक्षिण के रिप यन्थ में गोपुर
तथा उवेस्ता के 'ञाश्व्यः त्रितः मेँ समानता दिखाई देती है वदां का निर्देश होने से तथा आजकक भी दाक्षिणात्य देशों म गोपुर
त्रित का परिदन (दुःख ), दुःखम्न, स्वणैकार, मालाकार आदि की विशेष प्रसिद्धि होने से गोपुर नाम से व्यवहृत आचाय संभवतः
दुष्कृत माजेन स्थानी के रूप मँभी उल्छेख भिकने८९) पे वैदिक सम्प्र दाक्षिणात्य प्रतीत होता है। किन्तु रामायण तथा महाभारत मं
दाये घरों के च्थि घुसं की तरह हेयरूप मँ रहण होने से यह गोपुर का पुरदयार के रूप म मिल्नेसेदतनेसे ही देश का निधा
त्रित मौ विपक्षी म्रतीत होताहै। त्रित तथा भित की एकास्म्यता रण करना सम्भव नौं है । अथवा यह भमी सम्भव हेकि गोपुर
होने से वैदिक आशिन भैषज्य सम्प्रदाय की तरह इरानी भित नामक अन्य अज्ञातं नगर के सम्बन्ध सेभौ गोपुररक्षित नामका
॥ि
भैषज्य सम्प्रदाय का समय भी प्राचीन सिद्ध होता है। परन्तु वेद | व्यवहार किया गया हो ।
मतरितका कहीं मौ भैषज्य संबन्ध नहीं भरता है । माटिन८४) | प्राचीन भोजदेश्च के कान्थकरुन्ज ( कन्नौज.) देशस्थित भागी-
(फ्० ) नामक विद्वान्‌ का कहना हैकि तैत्तिरीय संहिता में रथीके दक्षिण तट प्रर १५-१६ कोस केषेरे मेफलेदोने का
एक्‌ स्थान पर ( १, ८. १०. २) आयुष्य केदाताके रूप मँ तरित वणन(३) मिर्ता है । दिवोदास के शिष्य मोज का संभवतः इसी
| देर के अनुसार यहनामथा।
(१) १-४ की िण्सं° उपौ० पृण १०८ का० २ जौ. १०९ . (९) ९-३ तक करी टि० सं० उपो०¶०१०९, का० १-२-
काणध्मे देखे! म देख। ~ [र
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उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद १११
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“उपधेनोरपत्यम्‌ः इस व्युत्पत्ति के अनुसार गौपधेनव शब्द प्रारम्भे सी अयुरवेद के प्रवतैकँ मे उक्षका नाम सिल्नै से
मिलता है। ओपधेनव नाम का आचार्यं अन्यत्र नहीं मिलता है गालव मी आयुर्वेद के आचार्य रूप मेँ मिक्तादहै। महाभारतम
किन्तु “उपगोरपस्यमौपगवः, पाणिनीय सत्र कै इस उदाहरणम भी गालव का कारीराज दिवोदास कै साथ सहवास तथा मारीच
महाभाष्यकार नै उपयु कै अपत्य रूप मै ओौपगव का निर्देश किया क्दयपके आश्रमके द्रश्टा केरूपय में पठे (पृ. १८) निर्देश
है । विष्णुपुराण मेँ मिथिला कै राजा सीरध्वज कै भाई काञ्चीराज कियाजा चुका हे। महाभारत के अनुसार अश्वधाश्चि के ्रसङ्गमे.
कुशध्ज के वंश म किसी उपगु का निर्दह मिर्ता हे! उपगु नाम उसकेदूर र देलौ मे पयेदन कानिरदैदा है। समेरियन प्रदे्लीय
का वसिष्ठ गोत्र म उत्यन्न एक ऋषि भी मिरताहै। ओरव प्राचीन सुद्रामे आये हुए गद्हके साथ वाडेरु ने गाख्व की समा.
कौत्स राजा कै पुरोहित सौश्रवस्‌ के पंचर्विरा ब्राह्मण ( १४. ६. ८ ) नता दिखाई है ! मुद्गर तथा मौद्गल्य आदि भी मारत मे वैचा-
मे उपगुका वर्णन मिक्ता है। महाभाष्य के (४, १, ३. ९० ) चायोांकेरूप मे भिल्तेदै। वाडेक के कथनानुसारं समैरियन
'जोपगवेयंनश्छात्रा ओपगवीयाः, इस निद से ओौपगव द्धात्र प्रदे के एमद्गल के साथ व्यविचा कैज्ञान का स॒चक “भूः
सम्प्रदाय का प्रवतेक प्रतीत होता है। यहं प्रसिद्ध ओपगव दी राब्द दिया हभाहे। इस प्रकार यदि गर्ह ओर गाख्वे तथा
सम्भवतः ओौपघेनव हो क्योकि पर्यायवाची शब्द द्वारा व्यवहार एमद्गरू ओौर सुदूगल कौ परस्पर एकात्म्यता हो तो यह मानना
करने की भी प्राचीन पद्धत्ति भिरूती है। यह ओपधेनव कौन पड़ेगा कि. सुमैरियन प्रदे मे मी मारतीय आयर्वैदाचायौ का
तथा किस प्रदेका रहने वाला ह यहु निश्चित नदीं कदाजा प्रमाव पर्चा हृजा था । परन्तु अत्यन्त प्राचीन होने से प्राचीन
सफ़ता । सद्राभों के अक्षरो केभी एक मतसे निश्चित न होने स्ते तथा
उनमें आये इए संभावित गालव, जनक, . धन्वन्तरि तथा दिवोदास
यद्यपि दृढ प्रमाणो के अभावं मेँ केवर इन तर्का के आधार पर आदि मेँ भैषज्य विषय
के संवन्ध के न मिलने से पूणं अनुशन्धान
कुटः निश्चित नहीं किया जा सकता तथापि उपयुक्त आचार्यौ के के विना
केवल इतने के आधार पर निश्वयपूषैक कुद नहीं कहा जा
नाम भारतकेभिन्नर प्रदेश फे समन दूर विदेशो मं मी सम्भ-
सकता । इस कारयपसंहिता के भोजनकल्पाध्याय (१, २०६१ मेँ
. वतः धान्वन्तर सम्प्रदाय के आलोक के प्रसार मेँ द्वारभूत दै अर्थात्‌ सात्म्याशन
प्रकरण मे कादमीर, चीन, अपरचीन आदि दैक
इनके दारा धान्वन्तर सम्प्रदाय का विदेशो मेंप्रसरार इआहै।
साथ वाहीक; दासेरकः, च्ातसार तथा रामण आदिदेर्घोकामी
इस प्रकार केवल धान्वन्तरं सम्प्रदायकेही नहीं अपितु अन्य
उर्केख मिलता है, विसी(९) किसी का विचार है कि दासेरक देश
विमागीय भैषञ्य विज्ञान कै आलोक कैल्यि मी्सी प्रकार कै
मालवा प्रान्त भें है । किन्तु महाभारत(२)
दार होगे । इससे अधिक क्या कहा जाय कि ऋग्वेदे यी प्रयुक्त मं अनेक स्थलं पर्‌
दासेरक का उल्लेख होने पर भी माल्वा का प्रथक्‌ उर्ङे मिलने
होने वारे वैय वाचक भिषक्‌ तथा ओषध वाच भेषज सब्दो
से दासेरक माल्वा से प्रथक्‌ कोई अन्य ही देद प्रतीत होता है।
के विक्रतरूप विजलिष्के ( 8€ु9४ ) तथा बेषज ( 868४४
दाब्द इरान देश की परुभारती ( पहक्वी ) भाषा में तथा बि्चिष्कर
-शातसार देश का कोड परिचय नदीं भिरता है । तथापि बाह्मीक
( एण) तथा वेञ्चष्क ( एणणञणल्‌ ) राब्द्‌ अर्मिनियन तथा रामण देद्य के साथ दियेदौने से दासेरक तथा शातसार भप
भाषामें मिख्नेका पह निदेश कियाजा चुकाहै। जव वैच उनकै समीप के ही कोद देश प्रतीत होते है । रामण देश अरमे(र).
एवं जौषध वाचकं प्रधान ब्द प्राचीन कारु मेदूर विदेशमें निया ( ^+प्पटप ) ददा को वतकाया गया है । रामण पर्वत का
पहुंचे हुए थे तव इस विद्या के विषय भी चास ओर फलेदो उस्ेख जेन्दावस्ता म मी मिलता है महाभारत(४) मेँ अनेक
तो इसमे क्या आश्चयं है । वाडेल(१) नामक विद्वान्‌ ने सुमैरियन उत्तर की जातियो के निदेश मेँ दृण, पारसीक तथा चीन जादि कै
साथ रमण जातिका तथा निषेध देके उत्तर मेँ रमणवषका
देके प्राचीन सद्र पर साङ्घृतिक अक्षसौमें च्चि हए उस
निर्देश मिलता है । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अरभे-
देश के शब्दौ तथा भारतीय शब्दौ मँ निम्न समानता प्रदरित
की है-- | निया देक तक भी मारतीय प्राचीन आचार्यो का परिचय था]
अलेच्जण्डर द्वारा साथे जाये गये तथा अशक के समय इधर
वृणु भृगु अस्सि अशि
वर्मव भागव गद्ह गाख्वे उधर मजे गये विद्वानों के नामों का इतिहास मे कुद पता नहीं
गुगं गं युधिया गाधि गता है । ईसामसीद के समय भि्रदेश मेँ श्राप्यूत नामक कुच
हनक जनक ससिन सुषेण भिश्चुदृत्ति वाके विरक्त रहते थे! जिनकौ रिक्षा का प्रभावयीश्चु-
सख दात्र एमद्गल मुद्गल सीष्ट ( ईसा मसीह ) पर मी पडा है । ये पूर्वं देशके व्यक्ति धर्मो
इन्दुर्‌ द्र उवेस्‌ द्यश्च पदे के साथ २ चिकित्सा मौ किया करते भे जिनके नाम ते
ओौर तो ओर धन्वन्तरि तथा दिवोदास काभी वहां उद्धव पाश्चात्य चिकित्सा मं धेराप्युतिक्स ( ¶0९लण०ः ) नाम से
दिखाया गया है) उस्र देश कै प्राचीन राजा का ईस्वी संवत्‌ एक यिद्टेष विमाग मी है । इन यराप्यूतो का जौवन भारतीय येसो
के प्रारम्भ से लगभग २-ई हजार वषं पूव हीना बतलाया गया (स्थविर ) भिष्ठओं के समान था । जायचन्दर(*) विधारुकार ने
है। पृवेनिदि्ट (१.१४) शाखदित्र के अन्थ मं आयुर्वेद कै मारतीय इतिहास के यन्थमे छ्खिहै किये श्यराप्यूतः अद्योक के
आचार्यो के निरदैश मे गाल्व का उल्टेख होने से तथा चरकके
(११ इसकी दि० सं०-उपो० ए० १०९ करा० २ मँ दें । (१) १-४तककीटि०सं° उपो०ष. १९० क. देखे,
+, ष ॥
क५
र†
५५२ उपोद्धात का हिन्दी अनुचाद
क क 6-9७-० ७ © क उ छनः

समय पश्चाच देशं मेँ गये हू भारतीय भिष्ठुक अथवा चिकित्सकों ही सोमका प्रधान जओौषधिके रूपमेँ परिचय. मिक्ता है । वहत
की सन्तति प्रतीत होती है। पोकाक(१) ने भो इसी आदाय के से मन्त्रा से अद्िनीङुमापसै के वेच होने तथा सोम ओर अदिविनी-
विचार प्रकट भियेदहै। अन्यदेशं के इतिहासो ममी बहुतसे कुमा के पारस्परिक धनिष्ठ संबन्धका ज्ञान होताहै। सुश्तमें
रेमे व्यक्ति निलीन अवस्था्म मिक सकते हैँ! अन्य देर्ोके मी अनेक स्थानो पर सोमका ओषथिरूप मै निर्दर भिर्ता
इतिहासो मे भी वहृतसेरेप्े भारतीय. नाम मिलते हैं जोकि हे, सोम का याज्ञिक तथा मेषजसंस्थाओं से विशेष संवन्ध होने से
उनरदेरोकी माषा के कारण विक्त होकर उन देशो के सी यहु विद्या प्राचीन सिद्ध होती है। अथववेद मै कुष्ट ओषधि
व्यक्तिर्यो के ही नाम प्रतीत होते है । जिप्त प्रकार विद्वानों के कथ- के वणेन कारक सक्त) मे कु ओषयि का प्राचीनकारू मँ इश्ाकु
नानुसार कलोनस ( 81005 ) नामक्‌ मारतीय व्यक्ति कल्याण काम्य तथा वस द्वारा ज्ञान होनेके निर्दैशसे प्रतीत होतादहै रि
प्रतीत होता है उसी प्रकार इतिहास म अन्य भी बहुत से भारतीय प्राचीन कालसे ही ओषधि्यो का अन्वेषण तथा ज्ञान बहुत से लोगौँ
व्यक्ति हो सकते है जो अपरिचित तथा अन्य देदा कै प्रतीत होति है को धा 1 इतना ही नही, अपितु वैदिक मन्त्रौ से उस समय हजार्यँ
नरक, सुशुत, कादयप तथा मेड आद्वियो के मन्धो मे माये इए ओषध्यो तथा सैक्डो वेबोके हदोनेका ज्ञान मी भिल्ताहै।
तथा अन्य भी प्राचीन आचार्यौ के नामो का निर्वचन, पर्यालोचन ओर वेदिक कारम दी नदी, अपितु श्या ओषधीः पूवां जाता
तथा विषयानुसन्धान करने पर मी देश, काल तथा स्वरूप कै अनु- देवेभ्यलियुगं पुराः इत्यादि वैदिक मन्त्र से भी ज्ञात होताहै कि
सार आयुवंद की पृ्वावस्था का थोडा बहुत परिचय भिर सकता तीनो युगो से पूव भी ओषधि काज्ञन था
है । किन्तु विस्तारभय से अब हम अधिक नहीं लिखते है । वेदिक नक्षत्र इष्ट मे शतभिषक्‌ नामक नक्षत्र का तथा याज्या,
अनुवाक्या भौर तेन्तिरीय(२) मन्त्रौ मँ वरुण तथा रतमिषक्‌ नक्षत्र
वैदिक साहित्यमूलक भारतीय भैषज्य का सेकड़ ओषधियों कौ पूणं करके आयुष्य कौ देने वारेकेरूप
बैदिक साहित्य मँ मान्त्रिक प्रत्रियार्ओ के भिल्नेपर मी मे उल्छेख भिखूताहै। इसस्यि इस मन्व के अनुसार सैकड़ों
अवेरी मेषज प्रक्रिया के भी उदाहरण कम नहीं हैँ। अपितु बहुत आओषरधिर्यो को देने वाके इस नक्षत्र का उस नाम से व्यवहार प्राचीन
से असाधारण विषय ऋण्वेद मँ मी मिरते है ओर अथववेद मँ तो प्रतीत होता है । वदं दूसरे बाह्मण वायो म रातमिषक्‌ का एक
शारीरिक जषधियां, शख्लचिकित्सा, रोगनिरदेश, सोगोपचार इत्यादि अन्य निवचंन(२ दिया है कि “असुरप्रहारलतस्य चिकिव्सनने
भैषज्य संबन्धी विषय ओततप्रोत रूप से भिर्ने का पूर्वं( पृ, ५-८ ) देवानामारोग्यकन्धियेस्मिन्न्त्रे बभुव स एव शतभिषक्‌ इति,
निदेश किया जाचुका है । वेदिक मन्त से ३६० असिथियौ(२) तथा अथात्‌ जिस नक्षत्र मँ चिकित्सा द्वासय असुँ के सैकड़ प्रहारो
सेकर्डो हजारो सिराभो(२) ( हिरा ) ओर धमनिर्यो का पौवकाछिकः सेदेवताओं को आरोग्य लाभ इभा हौ वह॒ रातभिषक्‌ नक्षत्र है ।
ज्ञान स्ट है । दातपथ(४) ब्राह्मण मै मी ३६० अस्थियोँ का वर्णन
कृत्तिका आदि नक्षत्रौ का काल गणनासे मी अत्यन्त प्राचीन
भिल्ता है।वेद्विक याग (यज्ञ) प्रक्रिया के पाञ्चुकविभाग मे न कैव सिड
होता हे । उन्म से एकं
नक्षत्रवाचक शतभिषक्‌ चन्द का
पञ्ुओं का अपितु मनुष्यो के मौव मे भिन्न २ अवयवौ कै
वेदिक कार मेँ मी अनुसन्धान करने प्र प्रतीत होता है कि लसँ
पथक्करण तथा जोडने का वणेन मिलने से तद्विषयक ज्ञान स्पष्ट प्रकर ओषधि्यो,
होता है । चर्वी तथा हृदय के निकाठने मेँ हस्तकुशषर्ता भी विज्ञान उने उपयोग तथा लाभो का अत्यन्त प्राचीनकाल से ही
ज्ञान था, ।
को बदाने वाले अभ्यासको सचित करती है।वेदिक विषयो कै पण्डित उपनिषदो
(४) मेँ मी आध्यात्मिक प्रक्रिया मँ नाडी आदि
कथं तथा म्याक्डोनर+* द्वियो ने भील्खिाहै कि “अथर्व काज्ञान मिल्तादहै। योगमागे मेँ भी शारीरिक प्राणवह ब्म
वेद के दशम काण्ड के द्वितीयखक्त मेँ शारीरिक अस्थियो का सुन्दर
नाडियों का अनेकः प्रकार का ज्ञान तथा आन्तरिक वायु के इन्ा-
एवं आनुक्रमिक वणेन मिलता है । वैदिक कार कै भारतीर्यो को
प्रारभे शरीर तथा शारीरिक शिज्ञानसे संबद्ध विष्यो काज्ञानथा। संसार सञ्चार तथा निरोध आदिमे ऊुद्चर्ता का वर्णन भिरूता
हे । तान्तविक पद्धति मेँ मौ षटुचक्रमेदन, भिन्न र स्थाने वर्णौ
ऋग्वेद, अथवेवेद्‌ तथा यजुर्वेद कै मन्व के अनुसार बहुत सौ की उत्पत्ति, मूधाभाग मे कान, आंख, नाक आदि से संबन्ध रखने
ओषधिर्यो के ज्ञान तेथा उपथोग का बणैन पके कियाजा चुका वारौ इन्द्रियो का ज्ञान कराने वाटी नाडियो का अनुसन्धान,
हे 1 विकृत तथा मञ्म सवयवों के रोहण तथा सन्धान के चयि
जञानवहा नाड्यो का केनदरस्थानीय युरुपद ( प्रधानस्थान ) मेँ कुण्ड-
ओषधि्यो की प्राथना अथर्वैवेद(५) मेंमिलती है । ग्वेद मे सोमं
जिनी से उत्पन्न हुई जीवदयक्ति के संयोग से लाभ तथा आस्वादन
का ओषधिर्योके राजाके रूपम वर्णन भी अनेक स्थार्नो पर
आदि आन्तरिक ज्ञान के हौनेका वणन भिल्नेसेदस विषयर्म
भिता है ¦ सोम संबन्धी यज्ञ कौ प्रक्रियाके प्रारभ होने के साथ
उनका अन्तसुंखी ज्ञान प्रकट होता है। महेज्ञोदारोके भूगमंमें
* वेदिक कालीन भारतीय लोगो की अभिरुचि पर्याप पहले उपङून्व योगावस्था की मूतियो कौ रचना कौ देखकर भी प्रतीत
ही रारीर शाख के मह्वपूणं प्ररो की ओर आष्ट हो गई थी । होता है किं यौगिक आन्तरिक क्रियाओं का विक्ञान प्राचीन था।
अथववेद के एक मन्त्र मेँ मानवदरीर के विविध अङ्ग का वर्णन वसन्त(५) जी. रेरे ( ए. 0. 281 ) ने वैदिक मरन म आये इ
बड़ खक्षमता जर पूणेता के साथ उपरुन् होता है ! आन्तर नाडी चक्र तथा उनके अधिष्ठतृदेवो के विष्य मे बहुत सा
ए... 0. 0. एण्नन्न्वाण्डऽ ए०1, 1 ए. 45, प्रकाद्य डाखाहै। ` |
| । | (१) १५ तुक्
‌ की दि० संर उप
ो० पूर ११० ~ ११
९ देख , (२५ १-५ तक्‌ की टि० सं° उपो० ध्र. १११ का १-२ देर्खं।
उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं १५३
नी मी 1 9, 1111
याज्ञवसक्यः१) स्मृति मे योगके द्वारा शरीर की उत्पत्ति का होती हे । कुद अन्य राखाों फे जो श्रौत एवं स्मार्तं चन्र ` उपङ्भ्ध
वणेन करते हृ विवरण सहित ३६० अस्थिर्यो, प्राणो के आयतन, होते दैःउनसे उन २ मूढ श्रुति लाखाओं के विलोप होने कां अनु-
७०० रिराओं, ९०० स्नायुओं, २०० धमनिर्यो, ५०० म सपेदि्यो मान होता है। ये वेद आनुश्विक प्रक्रिया से उन र शाखार्थं के
रस्। के परिमाण वाङ केश, रोम आदि तथा हृदय से निकली ह रूप मं अत्यन्त प्राचीन कार से असंख्य आर्यं महषियो के भावनाओं,
७२ हजार नाडयो का निरूपण करके इस विज्ञानको योग कै हृदयो तथा मुखो मँ ओतप्रोत इष मपनी चारौ ओर पौली हु
लिये उपयोगी बतलाया है । रामायण तथा महाभारतम सी राख गोरवपूणे स्थिति को खचित करते हें ¦ इस प्रकार के वैदिक सम्प्रदाय
व्यक के भिषयकेहोनेका निदेश कियाजा चुका है। कौटिलीय मंअश्वमैव सद्ृल्ञ मदखपूण यज्ञ कै अङ्गरूप म सेन संबन्धे जल्यःन
अ्थशाख मे भी सक्च; से संबन्धित बहुत से विषय मिलते हैं । का गान हौताथा। इससे श्ुतियो की अध्ययन तथा अध्यापन प्रक्रिया;
उसके चौदह ओौपनिषद अधिकरण मँ परघात, अदभुत उत्पत्ति निरन्तर पारायण तथा अभ्यास, याज्ञिक करप, प्रयग, चर्या, अनुष्ठान
वाली भेषज्य, मन्त्रयौग तथा अपनी सेनाके नारके प्रतीकार तथा ऋत्विक्‌ आदिय) के द्वारा आं विचासौमं चारौ जरसे ओतप्रोत
संबन्धी बहुत सी ओषधथियो के प्रयोग दिये हृए हैं। होने के कारण मन्दिर आद्वियोँ मे मिलने वाके कुद मैषज्यसंबन्धी
वेद संसार के सब सादहिर्त्यो मँ शष्ठ माना जाज्ञा.है। पूव लेखो तथा कहीं २ मिख्नेवाठे दिलञ्ेखो मँ आये हए भैषज्य
निदिषट प्राचीनतम हिताक्ती (सौ) तथा मित्तानी (भण) संबन्धी विषयो से पूवे प्रतिष्ठित वैक सभ्यता के उदयके साथर
जातियों के पारस्परिक सन्धििरलेख मेँ नासत्य, भित्र, वरण तथा मारतीय भैषञ्यन्रस्थान के महत्व, व्यापक स्थिति तथा प्राचीनता सिद्ध
इन्द्रं आदि वेदिक देवताओं के सोश्षिरूप में उद्छेख का अनुपन्धान होती है। इस प्रकार नाना शाखा-प्रश्ाखाओं मेँ फैले हुए छक,
करने प्र उस सरमय अपनी प्रतिज्ञाकैे पालने साक्षीरूपसे अथवे आदिर्योमें मी इसके विषयक व्याप्त होने से, याक्ञिक
किये गये वैदिक देवताओं के उच्लेख से वैदिक सभ्यता की केव प्रक्रिया मं भी इसका कौतेन होने से तथा आयुर्वेद नाम.से
तात्कारीनता हयी खचित चदही.होती है अपितु उसं समय तथा उतने वैदिक प्रस्थान कै प्राचीन काल से ही विभक्त होने से प्राचीन
दूर अन्य भाषा तथा अन्य जातियों कै शिलचेखमे मीत्ैदिक भारतीय वैदिक मूररूपी स्रत से परम्परा द्वारा प्रत्त इस भारतीय
देवताओं के साक्षीरूप मे निर्दे तथा उद्धरण के मिलने सै वैदिकं भैषज्य विज्ञान की प्राचीनता निश्चित रूप से प्रकट होती है।
सभ्यता की सर्वोपरिभावसे प्रतिज्ञा तथा प्रचार के साथर पूर्व कोलन्रुक ( 7. @०1607100}€ ) नामक विद्वान्‌ ने इसके विषय में
परम्परा दयार अनुवृत्ति तथा अस्यन्त प्राचीनता भी खचित होती | कहा है कि-€
, जभ्‌ प10008 का
ह पल्ढएप्रलःऽ५१
81त
[| ५.९ [न साहित्य ल । (4 युर त
वैदिक साहित्य म, €27065* अथ तू हि दू सदा गुर्‌ रह्‌ [य॑ म ध्य त बृ
है॥ ओर इतना ह्ये गह अपितु ऋ रवद्‌ आदि

अनेक स्थानों पर आये हुए भैषज्य विद्या कै प्राचीन आचाय नासत्यौ मोनियर्‌ विलियम्स ने कहा है कि--न्‌8 110# #€ ९886" **००*
कामी इस रिलञेख में उल्छेख होने से भैषज्य विक्ञानकौी मौ ( मूर उपोद्धात ए० ११२ देख ) सभ्यता एवं प्रकारा के प्रथम अह्भुर
प्राचीनता खचित होती है । सदा पृवमेही उदितदृणहैतथा पूर्व॑से पश्चिम की ओर दी
इसके अत्तिरिक्त वैदिक यज्ञ मेँ अश्वमेध की बडी प्रतिष्ठा समङ्ञी
सदा उनका प्रचार इभा है न कि पश्चिम से पूर्वंकी ओर।
जाती थी । प्राचीन इतिहास मे अनेक राक्तिशारी राजां दारा भारतीय भूगभे के अनुसार प्राचीन भेषञ्यपिषयक
चार्यो ओर के राजाओं को व मेँ करके अपने गौरव के बने तथा विमश-
पारलौकिक कस्याण की प्रि के ल्यिशस यज्ञके अनुष्ठान का
अनेक स्थार्नो पर वर्णन मिक्ता है । वैदिककार से प्रवत्ित इस यज्ञ जिक्त भारत कौ प्राचीन सभ्यता मिश्र, मैसोपोयभिया आदि
को अन्ततो गत्वा वैदिक धमं के पुनरुद्रारक पुष्यमित्र द्वारा भी प्राचीन देलौ की सभ्यता के साथ साद्य रखती इई उनत्ते भ
किया गया था जिससे उसकी बहुत प्रतिष्ठा बढ गड । समुद्रयुप्त कै आगे वदी हई है उप्त मारत कै महेक्ञोदारो प्रददा की खुदाई में मिङे
दिलकेख मेँ मी इस यज्ञ का सम्भानपूव॑क. उल्केख किया गया है । हुए प्राचीन निवास स्थान; स्नानागार तथा मल्प्रणारी आदि की
इस यज्ञ का प्रायः श्रुतियों कीं सभी साखाओं, . संहितार्ओ; ब्राह्यण- स्थापत्य विदा के पण्डितो द्वारा मी प्रसित प्राचीन निर्माण कलां
यरन्ो तथा श्रौत्रं मँ निर्दर भिल्ता है। इस अश्वमेध के समय से पच हजार वषं पूवे भी भारतीय स्वास्थ्य विज्ञान ८ पृश
राजाओं कौ परिषद्‌ मं महषिर्यो के सम्मुख वषं भर गाई जानेवारी 0०0व्ंण ) का पूणैरूप से परिचय मिक्ता है, वहीं खुदाई मे एक. `
भिन्न २ गाथा मेँ तीस्तरे दिन मेषज विधाके कीर्तन किये जने केरंग का बडा गोला सा मिला है जिसका अनुसन्धान एवं
का आश्वलायन(र) तथा लाङ्ख्यायन(३) पत्रमे भी निर्दे भिरुता परीक्षा करके डा० सनाउलछां नामक रसायनाचायै ((लाओ )
हे मेक्समूलर(४) ( 10ण्णणपा्य) का मी कहना हैकि अश्रमेध मेँ तथा डा० हमीद ने कहा ह कि-यह ईिखाजीत का पत्थर हैजो
भेषज विदा का कीतन किया जाता था चरणब्युहुकार ने ऋक्‌, कि पवेतीय प्रदेश्च से वहां आया है, यह मूत्ररोग आदि मँ प्रयुक्त.
यजु, साम तथा अथवं प्रस्थानां की सेकडं तथा हजारो साखा के होता है तथा विशेषरूप से यदह ओषथ कायं मेँ ही प्रयुक्त होता है॥ ` `
विभक्त होने कां प्रतिपादन क्षिया है। कालक्रमसे बहुत सी जान माश ने भौ परीक्षकं के स्स प्रकारके परिणामोँके
शाखाओं के नष्ट हो जाने पर भी आजतक अनेक शाखाएं उपलब्ध
पामान ोा पामन

% एष प्रदेश्च तथा ए8 प्रदेश मेँ पाया गया कोय जेते


(१) १-४कीटि..सं० उपौ. पर. ११२. का० १ म देस। कोठे पदाथ का इकड़ा बहुत दिनों तक एक. समस्या बना.रहा“^^"
१५५ उ० हि°
११४ उपोद्धात छा श्िन्दी अनुवाद
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सहित इसका विवरण प्रकारित किया है! इस प्रकार वदां रशिला- भिन्न २ देशो क प्राचीन भैषञ्य के विमशे की
जीत के मिलने से मैषञ्य धिया पर अच्छा प्रकरा पडता है। आवश्यकता
धन्वन्तरि, आचरेय तथा कर्यप आद्यौ ने मी अनेक स्थार्नो पर यहां यह्‌ कह देना आवश्यक है कि जिस प्रकार महेजीदारो
शिकजीत के उपयोग का सिर्दैश्च विया है नावनीतक मे मी की खुदाई का अनुसन्धान करने से भारतीय सभ्यता पांच हजार
इसका प्रयोग दिया हज है । जिस किलाजीत की उत्पत्ति उस वर्षा से प्राचीन सिद्ध होती है उसी प्रकार प्राचीन रेख तथा वस्तु
प्रदेश मेँ नदीं होती अपितु दूर के परषेतीय प्रदेश से उसे लाया आदिर्यो के चि के मिलने से मिध्र, बेषिरोनिया;, सीरिया तथा
गया है, उसका मैषज्य के रूप मेँ प्राचीन आचार्यौने भी निदश्च चीन आदि देक सभ्यतामी चार-पांच हजार बं प्राचीन
किया है) तथा उसके रसायन कल्प एवं महिमा का भारतीय निश्चित होती है इन प्राचीन सभ्य तथा उन्नत देलौ मे प्राचीन
आयुर्वद मेँ वर्णन है! चिकार तक भूगमंमें दवने से नष्ट दुई कालम भी ज्ञान-विज्ञान की विद्चेषता अवदय रही होगी तथा
ओषधियो का न मिलना स्वाभाषिक ही है परन्तु भाग्यवश्च जौ कोर जीवन के चयि उपयोगी व्याव्रदारिक भैषज्य विदा का होनातो
ओषथि अथवा वस्तु मिली मी है,उस्र असाधारण वस्तु के चिरकाल मौर मी भवश्यक है। प्राचीन उन्नत देशो के भेषञ्यसंबन्धी
के बाद मिलने से भारतीय प्राचीन वैयक्रकागौरवदह्यी वदता है। अपने पूर्व॑सोत मी होगे । पेपरी नामकं त्वक्पत्र म॑ पल्छीरुधिर,
इतने प्राचीन समय मे ओर कौन से वैयक विदहो के प्राप्त होनेकी खर आद्वियो के मांस तथा मेद, कच्डप-मस्तिष्क तथा मनुष्य
आषा की जा सकती है । वहीं भूग्म से वहां उत्पन्न न होकर शुक्र आदि बहुत सी एेस्रौ असाधारण ओषभि्यां भिरुती है जिनका
हिमाख्य मं उत्पन्न होनेवारे हरिणो के सगो के अनेक ठेर भिरूते मारतीय आयुवेद सम्प्रदाय मेँ निर्देश नहीं मिर्ता हे । इस प्रकार
है । आथवेण(१) संहिता भँ हरिण के सगो का क्षेत्रिय (क्षय, कुष्ठ, की ओषधियां उसी देश के प्राचीन खोतों से निकली इदं प्रतीत
अपस्मार आदि ) रोग के प्रतीकाराथं उपयोग मिलने से तथा वैदिक होती है इसी प्रकार अन्यदेशे मी बहुतसेटेसे असाधारण
विषय हो सक्ते हैजो उक्ती देश के प्राचीन सम्भ्रदाय से निकले
कार मे भी मेषजकूप से उसके उपयोग का उस्छेख होने से प्रतीत
होता है कि यहां मिलने बले हरिणके सगो का, ओषधिरूप भें हु प्रतीत ह्येते है । बाहीक सिषक्‌ काङ्कायनका निदेश दहोनेसे
प्रयोग करने के लियि ही संग्रह किया गया दोगा) हरिण के. सगो यह कहा ज्ञ। सकता हैफि अन्य मी बहुंतसे विदेशी चिकित्सक
को आजकरु भो भारतीय वैव ओषधिर्यो मेँ प्रयुक्त क्ते है। इस भारतीयों दारा तथा भारतीय चिकित्सक विदेश्चि्यो द्वारा ज्ञात थे।
विषय मँ जान माश्यलनेभी ल्खिादहै कि हरिण के सगो का कादथपसंहिता के खिलभाग के उतिकोपक्रमणीय अध्याय मं दिये
ओषधिर्यो अथवा वाणिज्य के छ्य संग्रह किया गयाहौगा। दए ष्वदेश्याश्च प्रयच्छन्ति विविधा ग्ेच्युजातयः' उल्लेख से
वहां प्र्‌ बहुत से धातु अथव। भिद्धौ के खिलौने भी भिे है। प्रतीत होता है किस यन्थके आचा्यैको भीभारतसे बाहर
कास्यपसंहिता के जातकर्मो्तरीय अध्याये तथा चरक के जाति. की बहुत सी म्टेच्छ जातिर्यो का ज्ञान था। म्ल सन्द महाभारत
य॒ज्लौय अध्याय र्मेभी बारां के विनौद तथा बुद्धि के विकास कै तथा हरिवंश आदि प्राचीन अन्धो ममौ मिर्तादहै। ययात्तिकी
रिय अनेक प्रकार के पश्चु-प्षयो की आकृति वाले खिलौनौ का कथाम पिताकी आज्ञाका पालन न करने से तुवं तथा अनुद्य
वणन मिलता दहै । खिलोरनौ-का आयुवेद के साथ संबन्ध दोना वो का शापं के कारण वेदवाद्य ॒म्ङेच््‌ जातियों के वंशप्रवतेक के रूप
भाश्च की बात नदींहै। इस प्रकार इतिहदास्त के अनुसार भी म उद्केख किया गया है । कोशकार के ्रव्यन्तो स्छेच्छदेश्ः
मारतोय चिकित्सा विज्ञान पाच हजार वषं से प्राचीन सिद्ध होताहै। स्यात्‌? इस उर्छेख के आधार पर संभवतः भारत की सीमां पर
स्थित देश के म्लेच्छ की ओर यह निर्देश प्रतीत दता है।
मारत सरकार के पुरात् विभाग के कौमिर्ट श्री सनाउद्छा महोदय पाणिनीय धातुपाठ म भी म्लेच्छ धातु दी हृदं है महा-
उस काठे पदाथं को जांच करने मेँ कृतका हुए है । यह स्याही का भाष्यकार पतञ्जलि ने "तेऽसुराः देख्यो हेरय इति पराबभूवु-
कड़ा नदीं हे । यह्‌ एक प्राचीन ओषधि है जिते शिकाजीत कहते स्तस्मान्ेच्छा मा भमेत्यध्येयं भ्याकरणमू” मे असरों का म्लेच्छ
है मौर जो आजकल भारत मेँ खूब प्रयोग में लाई जाती है ओर जातिके रूप मे उल्केख किया है । सिन्धु नदी के किनारे उपरुन्ध
अनेक रोर्गो को अच्छा करती है । अजीर्ण, मधुमेह तथा यङ्कृत्‌ एवं वस्तुओं म अनेक समानताओं के कारण श्ानियन्‌ तथा असी
प्ठीदा के रोगो के स्यि यह अतिश्चय उपयोगी है । यह हृदय की रियन्‌ आदि प्राचीन म्लेच्छ जातियों का भारतीर्यो के साथ परस्पर
प्रक्रिया को नियमित करती है तथा श्वास्ंस्थान के स्यि हितकारी परिचय का ज्ञान होने से संभवतः उस समय प्रसिद्ध इरानियन्‌
है । यह उम्तेजकं ओर कफनिस्सारक है । | तथा असौरियन्‌ आदि मारत से बाहर कौ विविध. उन्नत म्ठेच्छ
डा० हमीद द्वारा किया गयाङस पदाथं का विरदरेषण प्रथम जातियों का म्डच््‌ द्ब्दसे निर्देश किया गयादौ । इन विदेश्ली
परिदिष्ट मे दिया गया है । यह काला रिकाजीत चद्रानौ म से म्लेच्छ जातियो का उर्डेख इस संहिता के खिरुमागमें हदोनेसे
निकलता हैजो कि मदहेजोदासो मेँ पाये गये है । यह हिमालय कौ प्रतीत होता है कि जीवक अथवा वातस्य के समय अन्यदेश्ीय
अधोव्ती, मध्यवती ओर ऊपर की पर्वत श्रेणियो मे-पाया जाता है 1 ` चिकित्सा का मी ज्ञान होने से संभवतः उसने पेसा निर्देश किया
.. ॥गटपुन्वकषा० & ४0६ ०0० तिरत ए०. वा हो। चरक के विमान स्थान मेंभी “विविधानि हिभिषजां शाख्राणि
| ` ण नप 9381], भरचरन्ति रोकः के द्वारा उस समय -व्यवेद्यर मँ अनेक चिकित्सः
` (१) इसकी टि० सं, उपो० ¶०११२ भदे! .| पद्धति के प्रचार का निर्दा किया गया हे।आजकर सौरचिकित्सा
उपोद्धात का हिन्दी अनुबाद 4१५

८ ख्यं चिकित्सा ), जकचिकित्सा, भेषञ्यचिकित्सा तथा रख- कि कहां कै कौनसे विषय कहां है, कौन सा विषय कहां से
चिकित्सा आदि अनेक चिकित्सां के प्रचार के समान उस प्रतिफङ्ति हुमा है तथा किस विषय का प्रभाव अथवा आलोक
समय भारत तथा विदैरशोमे भीअन्य प्रक्रिया्जओके द्वारामी किस विषय परप्ड़ादहै इत्यादि। दूसरे देशो के आरोक कौ
मैषञ्य प्रचार का ज्ञान होता है। वेदिक कारु से प्रवृत्त धारण करने वाले तथा अधैषयस्क्‌ ग्रीक वेचक के भारतीय व्यक प्र
भारतीय आयुर्वेद सम्प्रदाय के भारतीय ही सिदध होने पर प्रभाव की शंका बिल्छुर निमृ है 1
भी कालक्रमसे न्युनाधिक रूपमे भारतीय विषयोका विदेशी
सम्प्रदायो मे तथा विदेश्ची विषयों का भारतीय सम्प्रदायमें अनुप्रवेश (५) उपसंहार
हो गयः प्रतीत होता है भिन्न २ प्राचीनं देयौ की चिकित्सार्ओ के प्राचीन आचार्यो का गौरव-
यथावत्‌ अनुसन्धान के बिना केवर सामान्य ज्ञान के आधार पर यहु
कहना कठिन है कि उनके तत्कालीन मैषञ्य-संबन्धी ज्ञान का विद्वानों को यहज्ञातही है कि प्राचीन स्मय मेँ धन्वन्तरि,
कदयप तथा आत्रेय आदियों द्वारा विचार्यो की कसौटी पर कस कर
क्या स्वरूप था तथा उनकौ चिकित्सा के विषय अपने दी देके
उञ्ञ्वल किये इये सिद्धन्तरूपी रत्नो को आजकर पाश्चात्य
असाधारण प्राचीन खोत से निकले हुए ये अथवा अन्यदीय स्रोतों
विज्ञान कौ चमक से चकार्चौध ष्टि वाले विद्वान्‌ मी अच्यन्त
से उनका उद्गम हुआ था। भिन्न २ स्थानों पर भिरे वे
भिन्न २ विषर्यो को देखकर हम केवल अनुमान दय कर सकते दह।
संमान कै साथ देखतेहें। इससे प्रतीत होतादहै कि प्राचीन
इस विषय का निश्चित ज्ञान कुङ्‌ नदीं हो सकता है । प्राचीन देयो महषियों का विज्ञान सागर कितना अगाधथा जिक्तरमे आज भी
कै प्राचीन विष्यो को लेकर यदि पृथक्‌ २ प्रत्येक की यथावत्‌ रत्नौ की कमी नदीं है । ये अत्युच्च यन्थ ही भारत की प्राचीन
आलोचना की जाय तो संभवतः हमे कुद परिणाम निकालने में निभूतियां हं । आजकर भिर्ने वाले सव निबन्धो मँ श््दीं रन्यो
सहायता मिलू सक्ती है कि उस समय अम्रुक २अंरो म इन की प्रधानता दिखाईदेतीदहै। सक्षम दृष्टि से विषयो का
सम्प्रदायो मे समानता थी, तथा अम्नुक अंश मे विषमता थी । समान अनुसन्धान करने पर इन अ्रन्धों कै प्रत्येक वाक्य सार एवं निष्कषं
विषयो का भी अमुक सम्प्रदाय से अमुक का उद्गम हुभाथा तथा पूणं तथा खत्रमय दिखाई देते हैँजिः परिष्कृत बुद्धि वाङ विद्वान्‌
अस्रुक २ विषय उस र सम्प्रदायके अपनेही थे कालक्रम से
अपने प्रवचन से विश्चारु विषय का रूप देसकतेदहै। इनमे से
प्राचीन देर की पूवं परिस्थिति का यथावत्‌ ज्ञान कराने वाछे परिश्रम करने वाले छोग भूगभं से नाना रत्नों के समान असंख्य
बहुत से चिो के उप्त हो जाने से सम्पूणरूप से ज्ञान होना यचपि सिद्धान्त रत्नौ को दढ कर निकार ठेतेदैँ। प्राचीन समयम
कठिन है तथापि जो अवशिष्ट चिह उपरुब्य होते हैँ उनके आधार मिलने वाके इस प्रकार कै सुसंस्कृत विचारो से तत्कालीन विचारों
पर भी उनकी अन्तः स्थित्ति का बहुत कुद ज्ञान दहो सकता है। की उश्नति का सम्यक्‌ ज्ञान होता है परम्तु उसके बाद विचारो की
मिश्र मेँ प्राचीन भैषज्य संबन्धी त्वकूपत्र तथा रोगप्रतीकार वृद्धि का एक मी णेसा उदाहरण नदीं भिर्ता है । शस्यचिकत्सा
व्यवस्थापन ( एष्लछ०एप्गा {०08 ) आदि उपक्व्ध हु है, का सुश्ुतसंहिता के वाद वाग्भट आदि दो तीन विद्वानों ने केशरूप
असीरिया मेँ हेमूवन्‌ राजा के समय के भैषज्य विषयक तेरह रिला- सेही निर्दर किया है तथा उसमे मी सौश्वुतविज्ञान की ही आंशिक
लेख मिरे है, इरान के प्राचीन अवेस्ता नामक अन्ध के वेन्दिदाद, छाया दि
खाई देती है । रेतिहासिक दृष्टि से मी -जीवक के समव
यदन तथा यदत प्रकर्णौ मे भैषज्य संबन्धी विषय भिर्ते हैँ तक यह विज्ञान हम दिखाई देता है। इतनी उन्नत अवस्थार्मे
तथा रिश म्युल्ियम कै संग्रहाय मे रखे इए सुमैरिया
पचा हुआ यहु विज्ञान सहसा कहां छौ गया दै ! इसका
प्रदेश के भूगभं से निकली इ इटो पर खुदे हृए जो शिररेख मिले कारण संमवतः दसखक्रिया मेँ केशमान्र विपरीतता से भी अनथ की
हैँउनम भौ भैषज्य संबन्धी विषय मिकरुते है। चीन मँ भी प्राचीन संभावना हो, अथवा रख क्रिया के भीषण होने कै कारण उत्ते
द्योड़ दिया गया हो, सान्तिप्रिय बाह्णो द्वारा उसकी उपेक्षा की
भैषज्य सम्बन्धी विषय मिरुते है । इसी प्रकार अन्वेषण करने पर
गड हो या धमंशाखका्यो द्वारा चिकित्सादृत्ति की निन्दा की दने
अन्य.मो बहुत से विषय मिल सकते हैँ । सव ओर दृष्टिपात किये
के कारण, अध्यात्मवाद कौ दृष्टि से इसमें ईदिसा के दिखाई देने से
निना केवल अपने सम्प्रदाय अथका चिकित्सापद्धति कौ ही मौलिक अथवा अर्दिसावाद ओर दशषपारमिता# सिद्धान्त के विकसित दने.
कहने. से ग्यक्ति वास्वविकता पर नदीं पंच सकता । इसल्यि
से इसका रोप हो गया हो । यह नदीं कहा जासकता कि श्नमे से
इस समय आवद्यकता इस बात की है किं प्राचीन इतिहास | कोनस्ला कारण सामने आया जित्तते सर्वोपकारी व्ह विज्ञान, वह
महेओदारो के भूगभे से निकली वस्तुओं तथा प्राचीन विचारों को वह उपदेश परम्परा तथा वहु उपकरणों का परिष्कार
हस्तकोराल-
सामने रखकर पांच हजार से अधिक वषौ की सभ्यता वाले तथा
प्राचीन कारु म मी परस्पर परिचय, यातायात तथा सम्पकं वाछे ॐ दश्च पारमिता- बौद्ध षमंमन्थों मे बुद्धत्व प्रापि के स्थि दस्च
मारत. मिश्र, श्यान, चाद्डिया, बाहीक, बेबिलोनिया, सीरिया तथा गुणो की पराकाष्ठा तक पहुंचना आवर्यक बताया गया है । ये दस
चीन आदि प्राचीन देसल के जितने भी भषज्य सम्बन्धी विषय गुण प्पारमिताः कदलाते हैँ। पारमिता क अर्थं है उच्चतम अवस्था. `
मिले है अथवा मिरुते रहते है उन सव कौ सामने रखकर तथा या पूणता ( ए्प्न्ण०३ ) जिससे मवुष्य भवसागर स्ते पर हो
भारतीय प्राचीन आयुवेद की परिस्थिति का भी अनुप्तन्धान करके जता है । ये निम्न दस है-२. दान २. शीर ३. क्षान्ति ४. वीयं
समानता तथा विषमता की तुलना की दृष्टि से यदह देखना चाहिये ५. घ्यान्‌ ६. प्रज्ञा ७. उपाय ८. प्रणिधानं ९. बर १०, ज्ञान + `
११६ उपोद्धात का हिन्दी अनुवादं
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इत्यादि द्रुतगति से हास कौ प्राप्न होता हज .िद्त्समाज के हाथ छोटे २ तन्तरौका निर्माण किया है तथाडा० बालकृष्ण शिवराम
से निकर कर आजकक मारत म विदयाविज्ञान से राल्य नापित मुज्ञ ने नेत्र चिकित्सा के विषय मेँ कोड मन्थ ङिखा है] इन सकत
जति ( नाद्यो ) में लेश्रूप से भिलता है । धन्वन्तरि सदृश पूर्वा माषा के नवीन निवन्धों को देखकर बहुत आशा दिखाई देती है।
चार्यो द्वारा उन्नत कौ हद वह प्राचीन विचा आजकृरू रेते व्यक्तियों जराजीणं हुई भी यह भारतीय आयुर्वेद पिबा जागरूक, सक्षम
के हार्थो मे पड़कर उत्तरोत्तर हास को प्राप्त होती हई दीप निर्वाण वुद्धि वरे तथा उद्योगी मारतीय एवं विदेशी विद्वानों के सहयोग
के समान समाप्ति कौ प्रतीक्षा कर रही है युणप्राह्मी तथा उन्नत रूपी रस(यन से ही संभवतः च्यवन ऋषि के समान पुनः यौवन
पाश्चास्य विद्वानों ने आजकरु अपे अथक विचासे, परिष्कार तथा को प्राप्त करके । समयवल्च वहुतसे विषय मे वेज्ञानिक प्रकृति,
नये २ प्रयोगो एवं अनुभर्वो से परिवतित एवं रूपान्तरित करके, परिष्कृतं रासायनिक प्रक्रियाओं, नवीन आविष्कृत दूरवीक्षण तथा
रदयतरिद्या, गभेभेषञ्य, वारभेषज्य, काययिकित्सा तथा चिक्रति- अन्तवीँक्षण आदि विष यन्तर, भिन्न रदेोके विद्वानों कै साध
विज्ञान भें विशेष रूप से उन्नति करली है, जिससे आजकल अयते साक्षात्‌ अथवा ठेख, निवन्ध अदि के द्वारा विमशे, शारीरिक
प्राचीन पिचावरु एवं पूेगौरव कौ भूरे हट भारतम मी चारों अवयवो कौ खषद्घम दृष्टि तथा नवीन विचार युक्त सैकड़ों निबन्धो कै
ओर फली हु पाथाच्यचिकित्सा के विज्ञानदुक्त कुशता से उपकार प्रकाक्चन के कारण अजकरू पाश्चाच्य विद्वान दवाय उन्नत तथा
हो रहा है) केवर रास्यचिभचित्सा को ही यह मवस्था नहीं है अनेक राखायुक्त भेषञ्य विच की आलोचना करते ह प्राचीन
अपितु काक आदि अन्य विज्ञान तो उखन्न होते ही जीर्ण-श्ीर्म मारतीय आयुर्वेद धिच! द छोगौ कौ आजकर स्थूक एवं बालक्रीडा
दो गये थे । हा, कायचिकित्सा मेँ अवदय वाद मेँ मी सैषञ्य विधा मे ही प्रतीत हो, किन्तु प्राचीन समयमे जव फि पिचार विम
के हजारो पण्डित उत्पन्न हुए है तथा सैकड़ वयक मन्थ खिति ये के छियि दुर्गम चदी, वनः प्त आदि के व्यवधान कै कारण एक
दै जिन्हे यद्वि एकत्र किया जाय तो आज मी एक विलाल अन्धरारि दूसरे देख मं जाना दुष्कर था उस समय वनके मरून आदि पद्यु
भिल सकती है । परन्तु जत्रेय आदि महषियो के समय आन्तरिक के साथ रहने वारे धन्वन्तरि, कदयप, आत्रेय आदि प्राचीन आचार्यं
विज्ञान के वर से उत्पन्न हुए जिन सिद्धान्तो एवं विचासं के कारण दवारा यन्त्र आदि भौतिक साधनों के अभाव मेँ केवर अपनी प्रणि-
आयुवेद उन्नत एवं समृद्ध हम। था, वैसे उन्नत एवं नवीन विचार धान शक्ति एवं अन्तप्कि बुद्धिके सहारेजो विचार आविष्करत
उप्तके वाद प्रकादित नहीं हुए है । केवर प्राचीन सिद्धान्त कौ ही किये गये थे उनका आश्ुनिक उन्नत विज्ञानकैे दारा परिष्कृत दृष्ट
भङ्ञीभेद से दिखाकर अथवा नवीन अनुभूतं ओषयिययौ द्वारा वाटे विद्वान्‌ आजमी जो आदर करते दहै,बह कोड कम गौरव की
संवधित करके प्राचीन अन्धो के केयर अनुवाद अथव संग्रहषूय में वात नदीं है । भारतीय तथा अन्य विद्वान्‌ भी चिरकाङ तक उनकी
नवीन शरीरो को धारण करके भित्र २ निबन्ध हमरे सामने इस छपा के जयि ऋणी रहंगे। उन प्राचीन आचार्यो का हरम
उपस्थित होते हैँ । जदं तक भैषञ्य का प्रदन है हम देखते है कि सेकड़ों वार अभिनन्दन करना चाहिये ।
नवीन योगौषधिर्यो केजागिष्कार तथा नव्रीम अनुभवो के अनुत्ार प्राचीन भन्थों का ललोप तथा उनकी रत्ता--
यन्थो के निमाण द्वारा धातु तथा रक्त ओषधिः मँ बृद्धि ह्योती इई
दिखाई देती है । आजकक मी आयुरवैदके वैव सव स्थानो पर देवथुगसे ही केकर आर्यका यह विज्ञान-प्रवाह- संहिता,
इसी के मागं को प्रहण करके उसके उपयोग तथा प्रयोमे से सफर्ता बराह्मण, उपनिषत्‌ ›एत्र) तन्त्र, माध्य, रोका, उपरीक्ा तथा निबन्ध-
प्रात कर रहे है ओर यदि हम यह कहे कि यही भिवय रूप अनेक राखाओं द्वारा बहता हज तथा ऋषिर्यो, आचार्यौ जौर
आयुद के
अन्य प्रस्थानों के नामकौ मीरक्षा कर रहा है तो यह कोई निवन्धकेखको.कौ विचार धाराओं से पुष्ट होता हआ मानव समाज
अत्युक्ति नहीं होगी । प्राचौन महषियों के समान उसके बाद कै का निरन्तर कल्याण कर रा है । इसोध्यि आजकल उस प्रज्ञान
वैय भी यदि अपने विचार रम्यं के अनुत्तर नये २ सिद्ान्तौ का
के सैकड विभाग भिल्ते है तथा प्रव्येक विभाग कै अनेक प्राचीन
आविष्कार करते, प्राचीन सिद्धान्तो का परिष्कार कर, अपूणं अंशो आनचायं तथा तारतम्य के अनुसार उनके भिभिन्न विचार द्ृष्टिमोचर
होते ह । परन्तु आर्यो के मूल सकेस्वभूत आबविज्ञान रूप महाक
को पुण करते, जपने अनुभव के अनुसार नये २ संस्कार कसते द्पतरु वेद की भी अनेक शाखां अङ्ग तथा उपाङ्ग मी वहुत कुष
उच्च विचारो वाके प्रौढ निबन्धो की पुनः २ रचना करते ता
भारतीय आदुवेद सो इतने समय मेँ उन्नति कै शिखर पर विच्छति होकर विटुप्त होगये दहे) बहुत सी चाखार्ओकेतो नाम
पहुच मी रेष नीं रहे ह तथा किन्हीं २का संहिता, बाक्षण तथा
जाता । माजकल बहुत से विद्वान्‌ वैच कावर
तथा उपेक्षासे हास खर आदिय मै कदी २ निर्देश भिलता है। इसी प्रकार प्राचीन
को प्राप्त हृ सारतोय आयुवेद कै प्राचीन मौरव कौ
दृष्ट म रखते महषि आदिं आचार्यो के उपदेश रूप ठेख मी ङ्प होचुके हैँ}
हए उसके प्रचार तथा परिष्कार कै स्यि नवीन विचारपूरण
निवरन्धौ, किन्हीं २ मतोँका केवल नाम मात्र भिल्ताहै तथा बहुतां केनाम
चार्‌ सस्थाओ।, परिष्कृत मार्गौ तथा जौषध निर्माणक्चाला
कँ मी ढप्त दीगये होगे) |
दारा नरयत्त मेख्गे ३९ दिखा देते है । आजकृक श्रीयुतं गणनाथ
सेन जी दारा प्रलक्ष शारीर तथा सिद्धान्त निदान का निर्माण यदि हम आजकर किसी मौ विषय के किसी एक मी उपरुब्धः
करके पराचीन ग्रन्थ काअध्ययन कर तो उससे ह्म बहुत से प्राचीन
पराचीन शारोरिक अवयव तथा रोगनिदान के विषय मेँ बहुत से
विरेष विचार प्रकट किथे गये है । इती प्रकार कविरत्न श्रीयामिनैः आचाये, उनके द्रा ज्ञात न्थ तथाः विशेष २ मर्तो के केवल
नामोशेख भिर्ते हैँ। यास्क के निरुक्त से अन्य भी बहुत से वेदो
भूषण राय नेरोगविनिश्चय, शाखाक्य, विष तथा प्रखति
के विषय मे के अथं करने वार्छौका ज्ञान होताहे। इसौ प्रकार पाणिनि कै
उपोद्धात का हिन्दी अनुवाद ११७

द्॒ना से शाकस्य, गालव, गाग्यै, आपिशलि, कादयप तथ। स्फोटायन उत्तरोत्तर नष्ट होते जा रहै है । इस सवको देखकर किस विचानुराग
आदि प्राचीन व्याकरणाचायौ का तथा पारक्ये, कर्मन्द, रिलारि, का हृदय दुःख से नदीं फटने लगता । अनेक विज्ञानं से पूणं इस्त
कराश्च आदि भिक्ष, नट तथा खत आदिं अन्य प्रस्था्नौ के आचार्यो
पराचीन कोर का इस प्रकार से न्ट दहो जाना वड़े दुःख कौ वात हे,
का, कौटिलीय अर्थशञाख से परार, उरन्‌ विशाङक्षः कोणप, इस प्राचीन भिचा को नाञ्च से वचने के छियि आजकल
दन्त, भरद्वाज, वातन्याधि, बाहुदन्ती, पुत्रपिञ्युन आदि प्राचीन सकड प्रयलशौरु, गुणग्रामे एवं दया भारतीय तथा पश्चात
अर्ध्ाखियो का, सायन के वेदमाप्य से मेधातिथि, शाकपूणि तथा विद्धान्‌ इयर-उधर घूम २ कर अन्वेषण करते इए विनारीन्युख
अञ्चिस्वामी आदि प्राचौन वेद के व्याख्याताओं का, पूर्वोत्तर-मी्मा- बहुत से भराचीन भरन कोद्वढ र कर निकार रदे ह। खोयक्‌
सादन से आदमरथ्य, काशकृत्स्न, ओडलोमि, वादरी आदि प्राचीन प्रदेश के भूगमसे निके इए वावर मैन्युिष्ट नाम से प्रसिद्ध
वेदोपनिषत्‌ के मोमांसकोौ का वोधदहोतादहै। इसप्रकार उपरञ्ध नावनीतक आदि बहुत से प्राचीन ङेख आजकक खण्डित अवस्था में
श्रौत स्मा दर्य॑न, ज्योतिष आदि के अन्धो से मी हजारो संहिता, मिरे है । बहुत से कोग चीन, सिन्त आदि दर्शो मे जकर वहां
तन्त, खल, व्याख्यान तथा निबन्धो के रचयिता महि आदि तथा मिर्ने वाके मूर केषो तथा अनुवादो से ऊद सन्ध को उपस्थित
भिन्न २ विषयो के आचार्यौ कै केवर नाम मात्रका बोष होता है। करते है ! इन रोगों का प्रयल अत्यन्त परशचंसनीय है । अव विना-
बहुतत्े भारतीय दानिक तथा बौद्धमन्थ चौन तथा तिग्वतो भाषाओं दोन्सुल प्राचीन विया की रक्षा एकमात्र युणम्राही विहन्‌ तथा
म अनूदित इद केवर च्लयारूप मेँ भिरूते है । केवर हजार श्रीमान्‌ ( धनी ›व्यक्ति दही कर सकते है । धनीमानी रोगों का
वषं प्राचीन बौद्धयन्थ मी सैकड़ों नष्ट दोदुके दं । इस प्रकार कौ कर्तन्य है कि जो प्राचीन यन्थ अमी तक अवरिष्ट हैँउनको परिश्रम
रोमहषण घटनां श्वुति, स्ति, आगम, वेदाङ्ग, उपाङ्ग, दलेन, आदि सेमीद्रढकर प्राप करने का प्रयज्ञ करना चाहिये।
नै अथवा बौद्ध एवं जैन सम्प्रदायो मेँ कां नहीं मिर्ती ह 1 इस पुरातन कस्तु बाह्य तथा पुरातन ठेख प्राचीन समय की अन्तः
आयुर्वैद मे मी आत्रेय, सुश्ुत, मेड तथां कारयप भादि की परिस्थिति क खचित करती रैँ। अतीत समय की अवस्था को
उपरब् संहितां के उछेख से काप्य, वार्योविद्‌, वामक, वैदेह, जानने कै चयि इनके अतिरिक्त ओर कोड साधन नदींहै। प्राचीन
काङ्कायन, हिरण्याक्ष, शौनक, पाराशयं, गाग्य, माठर, कौत्स, कालकीजो भी वस्वएं तथा लेव आदिं उपलब्ध होते है उनमें
मोद्गस्य, कुरिक, सुभूति, माकंण्डेय, करएवीये आदि वहत से प्राचीन न्यूनाधिक माव से कुद न कुद प्राचीनता की क्लर्क भिरुती ही ह ।
आयुवेद के आचार्यौ का बौध होता है जिने से क्यो के स्थान २ थोडे वहत समय के पौवापय वले प्राचीन सभ्यता के समान र्वो मे
पर वन्न तथा मत उद्धृत मिर्ते है । उन आचार्यौ के वे गन्ध बंधे हए असीरिया, वेबिलोनिया, वेविली निय सुमैरिया तथा मिश्र आदि प्राचीन
कहां ठु होगये दै । यदि वे सव न्थ उपरुब्य हौसकेतौ एक ` जातियों के पाश्चाच्य देशो मेँमीकार धमं से होने वाके अकेक्जेण्द्िया
विज्ञा आयुर्वदीय अन्थरा्चि तेयार हौसकती हे । केवर दौ तीन के विश्चाक पुस्तकालय के अञ्चिकाण्ड आदि तथा समय २ -पर होने
उपरुन्ध अर्धौ काही अच्छी प्रकार अवगाहन करने से प्रतिमा वाके राजनैतिक तथा साम्प्रदायिक विप्ठर्वो से उनकी वहन सौ प्राचीन
एवं ज्ञान से उञ्ञ्वर सैकड तच्छपूणं उपदेश का ज्ञान भिल्ता हे। । वेतिहासिक वस्तुं नट हो
गई दै । तथापि उनम अनेक वस्तुओं
इस प्रकार नाना प्रस्थान मेँ विभक्त प्राचीन आचार्यो के सव ग्रन्थ तथा ठेखो के साथ २ शवँ के भिरने से, कदीं २ पिराभिड ( पा
यदि मिरु सौ तो विद्वानों को कितना लभ हौस्कता है। कर ८0108 ) एवं स्तूप आद्यौ मे इतिहास के मिख्ने से तथा कहीं २
णामय प्राचीन महषियो द्वारा विचारधारा सधी रस्त से विज्ञान ईट, शिरां तथा धातुर्ओं में चिरकालीन न्थ तथा इतितुर्तो के
कल्पतरु को बदाने कै कारण हम उनके यपि अनुगृहीत ह तथापि मिख्ने से प्राचीन काल से प्रचकित एवं स्थान २ पर मिलने वलि
पूणं परिपक्व फक से हम वच्चित दी हं । प्राचीन लक्षणो से अस्तीरिया, वेभिलोनिया, छमैरिया तथा भिश्च
पराचीन काल से दी समय.२ प्र होने वले प्राकृतिक, वकतिकः, आदि प्राचीन देश की आलुक्रमिक प्राचीन का
सभ्यता के समय-निर्ा-
ञान भी छुगमता से हो
रण के साथ र उनके भराचौन विषर्यो
तथा माकस्मिक क्षो्मो, एक दूसरे रष्ट्रौ के परस्पर होने वे | सकता है । परन्तु इसके अतिरिक्त भारत मे प्राचीन कारु से ही
युद्ध आदि नैतिक उपदर्घो, बारम्बार होनेवाके विदेशौ शासको के आहितामि अथवा रौररिक अथिकेद्वारा श्वोको जाने की प्रथा
विध्वंसकारक आक्रमर्णो, साम्प्रदायिक संघर्षो, तक्चरिरा, नालन्दा तथा होने से अन्य अवरिष्ट वस्तुओं को मौ वितरित्त कर देने से मन्दिरं
विक्रमरिरा आदि के विच्चारु पुस्तकाल्यो के भस्मसात्‌ एवं धूलि- कमी बार २ होने वारे विप्लवो के कारण हठ हौ जाने से प्राचीन
सात्‌ होने तथा जर, अभि आदि के विप्लवो से हजारो प्राचीन यन्थ ( युर से मौखिक रूप मँ रिक्षा भ्रहुण
समय मे आनुश्रविक पद्धति
लु हयो चुके है । न केवल प्राचीन कारम अपितु आजकरु भी कौ प्रथा के कारण संहिता, छञ्च आदि प्राचीन मन्ध के
करना)
प्राचोन विास्थार्नो म अआआमीण. पणंशालाओं ( चग््ञाकार्ओं ) मेँ के कारण तथा बाद मे मोजपत्र ओर
स्थित सैकड़ौ मन्धो के अञि के उत्पात से क्षणभरमे नष्टो जाने से छेन की रुचि की विरक्ता
तथा बहुत से प्राचीन विद्वान दवारा संगृहीत अर्थो के भी अव्‌ उनकै ताडपत्र आदिर्यो पर कि हट ङेखो के भौ समय „ पर होने बाहे
परिवार तथा संतति मे संरक्षक के अभाव से,धूअनास्थासे तथा भद्रः पारस्परिक णं वैदेशिक संघषौ के कारण बहुत कु जक जाने तथा
~ ५ = <
नदी प्रवाह, बाजार भैः फेने, भूगमं एवं धूलराशि मेँ अनिश्चित

नष्ट हो जाने से, आज भारतीय इतिढृत्त के अनुसन्धान क्रे चति
काल तक पड़े रहने से, पुरने होकर जीणं-लीणेहो जने से तथा ोतान, कास्गर आदि स्थानो म हर खुदाई तथा चीन, तिरत `
दीमक आदि कीडं से खाये जाने के कारण. कचे हए यन्थ भी आदि मेभिर्ने वारे रेख के. अनुसन्धान से भारतीय वन्‌ `
६६८ डपोद्धात का हिन्दी अनुवाद

इतिवृष्त के बहुत कम लक्षण सिल्ने से, पुराण आदि कथाओं के लगती हे कि प्राचौनः आचार्यौ के गौरव का स्मरण करानि वाके
भिरने पर मी महाभारत के गणेश्लोपाख्यान के समान बीच र्मे अन्य भी मन्थ कीं हमारे हाथ से निकल कर नाम मात्र शेषन
अनुप्रविष्ट अर्वाचीन विष्यो, आलङ्कारिक दृष्ठि से प्रविष्ट रह जाय । इसखिये इस भावी आ्चंका को पहले से ही ध्यान में
क्तिर्यो तथा भिन्न २ सम्प्रदाय कै हस्तक्षेप से अपने २ अनुसार रख कर प्रकाराकों का कतेन्य है कि जिन अर्न्थो की रक्षा करना
प्राचीन के कोप तथा परिवर्तन से उसे मखिन ( विक्त ) कर देने अविरयक हौ उनकी कुष्ट प्रतियां खंडृट्‌ एवं स्थायी प्रौ पर
से तथा प्राचीन अंदोकी भौ अन्य देशो क लेखो, शिररेखोौ तथा प्रकारित करने की प्रवृत्ति बडानी चाहिये जिससेवे रीघ्रनष्ट न
भूगभ॑ से उपलब्ध विज्ञान आदि के साथ समानता होने से आजकल हौ सके । पुस्तकालय मेँ भी उन्हीं दद्‌ प्रतियौ कौ ही अत्यन्त
महेलोदारो की खुदाई से उपरुन्ध पर्याप प्रमार्णो कै भिर्ने से पूवं सुरक्षा पूवक रखना चाहिये। तथा संहिता, ब्राह्मण, खन्न, माप्य आदि
भारत की प्राचीन परिस्थिति का वास्तविक ज्ञान होना अत्यन्त कु पेते ग्रन्थ जो हमारी प्राचीनता के स्वस्व समञ्च जति हैँ(चाहे
कठिन था 1 परन्तु आजकर महे्ञोदारो तथा हरप्पा की खुदाई में वे हमारी व्यावहारिक अध्ययन परम्परामें प्रविष्ट हों चाहेनदहौँं)
मिलने वाङ भिन्न २ विष्यो से प्राचीन भारतीय परिस्थिति पर उनको किसी भी व्यय पर ताडपत्र अथवा अन्य सुद्‌ पर्न प्र
बहुत सा प्रकाश पड़ता हे । भारत मँ महेशोदारो तथा हरप्पा कै | उन्तम स्याही से लिखकर यत्नपूवेक पुस्तकाय म रखना चाहिये
समान गङ्गा के किनारे ओर भी बहुत से प्राचीन प्रदेश मिल सकते जिससे दृद पत्नौ पर च्खि हुए सात-आठ सौ वषं कौ भयु वाले
ह । तथा कालक्रम से अनुसन्धान के उपार्यो के उश्रत होने से र्ज्योर तथा ताडपत्र पर छ्खिहए हजारो वर्षी की आययुवाटे आजकल
खुदाई म ओर पदार्थं तथा केख आदि प्रकाश म आत्ते जायेगे तथा | उपरून्ध अर्थो की तरह ये मी चिरका तक सुरक्षित रह सकते
हे । भोजपत्र पर छिखित पिप्पलादराखा संहिता की केवरु एक
ज्यो २ कालक्रम से हरप्पा तथा महेश्नोदारो मँ मिर्ने वाले प्राचीन
अनिश्ित अक्षयो एवं छिपि के पडे जने से प्राचीन विषय प्रकट होते अवरिष्ट प्रति से ही हमें आजकर उप्त साखाका ज्ञान होता है,
जार्येगे, त्यो २ प्राचीन भारतीय पुरादृन्त ओर भी स्पष्ट होता जायगा । चिरकाल से विदुप्त प्रमाणवातिक ताडपत्र रूपी कवच मँ सुरक्षित
अन्त मँ हम पाठको की सेवा मे निवेदन करना चाहते है भि रखा हुआ हजारो वर्षौ के वाद भी पुनरुस्नी वित अवस्था मं उपलब्ध
आजकरु सुद्रणयन्त्रौ के बहुत प्रचार हौ जाने से भारत तथा अन्य इआ है । भूगमं से निकले हुए हंग पर खुदे हए ङेखो तथा शिला-
दे्ो भे भी प्रचरित, नवोपरब्ध तथा बहुत सै अप्रकाशित भारतीय लेखो से उन तीन हजार वषे प्राचीन लोगो की सभ्यता का ज्ञान
न्थ भी प्रकार मे आगये हैँ । इस प्रकार एक २ पुस्तक की हजारो होता है जिनका नामभी ङ्प हो चुकाथा। इत्रना ही नहीं.
परतियां होकर धर २ मेँ प्रचकित हो जाती हैँजिसे प्रचङ्ित अन्धं ` आजकरू महेओदारो तथा हरप्पा में मिलने वारौ सुद्राए पांच
कामी विशेषरूपसे प्रचार हो जाताहै, अप्रकारित गन्ध का हजार वषे प्राचीन सभ्यता को भरकाश्च मे काकर भारत के प्राचीन
सव॑ंसाधारण मं प्रकाश हो जाता है, अन्वेषण तथा ऊेखन कै परिश्रम गौरव को बढा रही हैँ। अस्तु, इतना हदो चाहे न हौ परन्तु इतना
के बिना दी अल्पन्ययसे ही अधिक लाभदहौ जाता है तथा अपने तो निश्चित हे कि ताडपत्र पर छठि हुए रेख हजारो वषं तक नष्ट
पूर्वजो द्वारा भी बहुत से अदृष्ट एवं अश्चुत प्राचीन अन्ध सहसा ही | नदीं हो सकते । यह कादयप संहिता मी ताडपर््रा पर लिखी दोने
देखने को तथा अध्ययन करने को मिरु जतिदहै। यहु यथपि कै कारण ही इतने समय के व्यवधान कै बाद भी विनाश से बचकर
सन्तोष का विषय है परन्तु आजकल के मुद्रण मं स्याही के दद्‌ होने | अव प्रकारित हो सकी है । अन्त मेँ मेँ आज्ञा करता दहं किं अन्धो
पर मी दुबेल पत्रो पर प्रकारित मन्थ इद्‌ ताडपत्रौ पर क्वि हुए के चिरस्ररक्षण का यह सवन विद्वानों एवं धनी-मानी व्यक्तियों
अन्ध की तुना मँ चिरस्थायी नदं होते है । श्सील्यि आजकल | को अवद्य पसन्द आयगा। श्सयके साथमे अपने वक्तव्य को
सौ वषं पूव प्रकाशित पुस्तकों के मी वणं विकृत हो जाति हैँ तथा वे समाप्त करता हूं 1
स्वयं मी जोणं शीणं हो जाती है । मुद्रण का की सुलभता के कारण नेपाल म्रन्थमाला का प्रथम प्रकाशन
केखनकला उत्तरोष्तर हास को प्राप हो रही है। पदच्छेद की
ञ अनेक पदवियो से विभूषित नेपारु के महाराजा धौ शर श्री
स्पष्टता तथा शुद्धि ( ^०पा्म्‌ ) के कारण मन को आकर्षित युद्ध समरोर जंगबहादुर के विद्यानुराग तथा अपने देश मेँ उपलब्ध
करने वाख मुद्धित पुस्तकों के सुरुम होने मे विद्यमान छिसित
पुस्तकों के संरक्षण का ष्यान मी कम होता जारा है । युद्धित इई प्राचीन अर्थो के प्रकारन को रुचि कै अनेक अभिनन्दनो के. साथ
उपोद्धात सहित यदह कारयपसंहिता नेपारु मन्धमाडा के प्रथम
उन्हीं पुस्तकों का पुनञंद्ण संभव दहै जो प्रायः अध्ययनं तथा
प्रकारन के कूपे प्रकाडितदहोरहीहै, ॑
अध्यापन के कामम आती दहै। जो विशेष कामँ नहीं आती है
उनका पुनमुद्रण नदीं होता है । एसे बहुत से ग्रन्थ भाजकल दुभ कृतज्ञता प्रकशच
गये हैँ। पेते ग्रन्थो को मुद्रित ह जानकर कोर छिखता भी इस उपोद्धात मेँजिन भी प्राचीन अर्वाचीन. प्राच्य तथा पाश्चत्य
नहीं तथा एक वार अुद्रण दहो जने से उनका पुनञुद्रण मी नहीं विद्वान के भन्थो अथवा विवासो को मेने उद्धृत किया है उनका
हीता। इसप्रकार दोनों ओर से वश्चित हुए ये मन्थ उन्त+ पेते हुए म अत्यन्त कृतञ्च दं । कृतञ्चता प्रकाडन के अतिरिक्त उनके ऋण से
भी पुवं थुद्रित पुस्तक की आयु के समाप्तो जनेपरसौदो सौ उकण होने का ओौर कोड उपाय मुञ्चे नदीं खञ्चता है । श्स मन्थ के
वर्षो मे सदसा समाप्त हो जाती है । कालक्रम से अन्य मौ बहुत से प्रकारान तथा संशोधनमें श्री मान्यवर आचाय यादव जी त्रिकम जी
प्राचीन आलुश्रविक विषय नष्ट हो गये है तथा यदह शका होने -महाराज ने जो परिम .णवं सहायता की है उन्हे भँ सम्मानपूरवक
शात 9 ही शकष 11
0060006066606060006006096660606000908090000660606006009006000006900000609
हु पनयद दैत{| ४ सोप र ते प मेदा पर| बर फु अवा फेह एफ परयोप्रा भिक्षि
परोप भदितेद्रर असप एवो वि दैण्द भौ |धग एकि राः एवा पका र। दह अ पे
र? धाद ला जत प च पृखदत्थ इमम ए क्नु प्रीते तथी भप
ग हिरी एण भौम पवद दैत कह मू पत्या फति, ए यव ॐभरसार दथ ऽ
पता बि शेत गथ ॐधह एं इद्र कफ मा प्रणो$विनिग पसीद फे एक
तरै! हौशद पौर रथि हेते ए भौ भष प
अत पित रषिश पता मेगहन षि ए विः प्रचीन गही धन पपे कह प्त पु पे
ते पतव केह अवक ता अय तत प्रथं क्षह भक एद पवग ते वकत अदद प परय
परी शक्छ कहीहैमीति मयो पे एयात्‌ प्रह, तथा कप्त पर श्थधन के प जो विवा एक इए १
षित शत आदि गदि अव वो पेकहत अ मष उद ए कथयित धिह वले समार पं
थ किव प्रय एं पवच द्धन परयक्रा त पीं $लि मा पदता कत इ, व्िदुपगौ पं पु
ह मित २ विरो प भुप्रथा, सहपेह, अनि तै|पे पेपिगेः णवं पसन प छि ह ग्रा
सुगो तपयत इयि कपे सानो ग भक्त ह। एषित ह गग लों १ फकाहं म ताह पपि
(त एव प्रो र गय र ए के र दाहम कते कता ह

पत शर्क
परिशिष्ट
जवर्यथुचचय पे काश्यपसंदिता के मिलने बले शोक `
उवर के विषय मे अनेक प्राचीन ऋषियों के वचनो का संग्रह उसके स्थान पर इस सुद्धि पुस्तक मै एकं टिप्पणी (१८०१ परण॑€ }
रूप एक “वगसपु्चय नामक भाचीन थन्थ है ' मेरे पुस्तकालय मेँ दी हई हैकि टित भाग का विषय मधुकरा व्याख्या मैउदेत
इस पुस्तक की तापत्र पर लिखी हरे दो प्रतियां है । शनम से एक्‌ माकितन्त्र के शलोको से समानता रखता ह । उसी बुटित (खण्डित)
प्राचीन अक्षरो मे ङ्ख हदं तथा अपूणं है जिसके अन्तम रेखका पृष्ठ के. सच्चिपातौ के मेदविषयक शोक उबरसञुचय मं कहींर
समय ४४ नैपाली संवत्सर दिया हुभा है । दूस जो है वह पूणं क्यप नाम से दिये हृए है । उस खण्डित पृष्ठ के आगे तथा पर
है तथा नेवार (नैपाली ) अक्षर मे क्ख हई है। ङ्पि को पृष्टौ केश्ोको के मी ज्वरसमुच्य मेँ भिलने से वीच के दोक
देल कर वह आठ सौ वषे प्राचीन प्रतीत होता है। पुस्तक रूपे सीवेद्यी होने चाहिये । बीच के विप्र भाग के श्लोकों मे कुद
ज्खिजने का समय हयै जव इतना प्राचीन है तव॒ उसके निबन्ध निम्न श्लोक खण्डरूप मेँ भिक है- |
कासमयतोञौर मी प्राचीन होना चाहिये। इसम आशिन,
नतस्य शीतञ्वरो निद्रा छत्तष्णा पाश्वेसङ्यहः ।
भरद्वाज, कदयप, चरक, सुश्च, मेड, हारीत, भोज, जतूकर्ण, कपि- @ @ ९9 © 88 8 99 ‰@ ५१९०७९७७ १११ "सन्निपातः सुदारणः |

लव आदि प्राचीन आचार्यौ के ही नाम निदा पूतैक ज्वरविषयक


दलोक संगृहीत है । अवाँचीन आचार्यौ के क्चनोँ के उद्धरण न दिये ( मूर उपोद्धात ए० ११८-१९ देर्खं )
होने से भी यह मन्थ प्राचीन सिद्ध होता है । इसमे कादयपके भी इसके बाद युद्वित पुस्तक से साद्य रखने वाले इलोक ज्वर
बहुत से उवरविषयक वचन दिये हए हैँजो इस कारययसंहिता कै समुचय मे निम्न भिर्ते है-
विशेषकर पृवंभाग तथा कुद खिकमाग मेँ प्रायः उसी रूप मेँ भिरूते
दे। जो यहां नदौँ मिलते हँवे ही संभवतः इस संहिता के चरित 'सर्वसरोतोभवं सस्य रक्तपित्त प्रकुप्यति ।
*००,,.,००,००,००,०, ग ्देवाम्रुतोपमम्‌ ॥? ।
भागमेंआगये हौ कदी २ थोडा बहुत पाठभेद भी मिलता है ।
उदाहरण के छ्य ज्वरसमुच्चय मेँ दिये इए पाठमेदो को मोटे अक्षरो ( मूल उपोद्धात पृष्ठ ११९-२० देखं )
मे रखकर तथा युद्धित का्यपसंहिताके पष्ट का साथमे निर्देश करणै हस प्रकार प्राचीन उवरसयुच्चय मे अनेक स्थानो पर शस
उपरसमुचय म उद्धृत इस संहिता के दलोक नीचे दिये जत्ति दै कारयपरसंहिता के उद्धरण तथा संवादो के मिरने से प्रतीत होता है
'ूरवोद्धवनिमित्तेन योऽपरो जायते गदः । कि उस समय तक कारयपसंहिता का प्रचार तथा आदर था ओर
तसुपदरवमित्याहूरतीसारो यथा ज्वरे ॥ यहु प्रामाणिक समञ्यी जाती थी । जिस गन्धम केवल प्राचीन
,,,...,..-. --- हिका प्रवरन्ते-““"--॥
ऋषियों के ही वचन संग्रहीत हो उसमें कार्यपसंहिता के न कवक
( मूर उपोद्धात ¶० ११८ देखें ) पुवं माग अपितु खिल्याग के भी उद्भर्णो के भिल्ने से यहु
मू ताडपत्रीय कादयपसंहिता के १९२ पृष्ठ कं ठप्तहोनेसे | खिल्माग मौ प्राचीन ह प्रतीत होता है। |
॥ श्री! ॥

( कोमारमृत्यम्‌ ›
नन
वन

सु्रस्थलनस्‌।
थ ४ ५८५. [काकः
म पो गा
(वा 8)

क्या दोष है! मन्दरीढ का क्या स्वप हैतथा उसके गुण भौर
१... | दोष क्या ह १ छेहन से उस्पन्न होने वारे रोग कौन रसे
तथा उनकी चिकित्सा क्या है इत्यादि सच बातो का आप
किंवा लेहयितव्यं च किंवा लेहितलक्तणम्‌ । सुनने यथार्थं उपदेश दीजिये क्योकि बालके के सुख ओर दुःख
तिलेदितदोषाः के के च दोषा श्रलेहिते ॥ ( स्वास्थ्य एवं रोग ) रेन पर ही अश्रित है ।
मन्दलीदश्य किं रूपं गुणदोषोश्च तत्र के | वक्तव्य--यह अन्थ पूर्णंरूप से नहीं मिला हे इस भरन्थ
के लेहनोद्धषा रोगाः कश्च॒ तेषा्ुपक्रमः॥ का प्रारम्भ ही २९ वें पृष्ठसेहोताहै। इससे पूर्वं के २८ पृष्टो
एतन्मे भगवन्‌ स्वं वक्तंमहेसि तततः । म किन २ विषयो का समवेहा था-यह कहना कठिन हे ।
सुख(खदुःखं हि बालानां दश्यते लेहनाश्रयम्‌ ॥ सूत्रस्थान के इस अध्याय सँ इस ेहन सम्बन्धी प्रश्न से पूवं
भगवन्‌ !वारो को किस वस्तु का ठेहन कराना चाहिये ! भी कुदं अन्य ्रश्न जीवक द्वारा अवश्य किये गये होगे क्योकि
सम्यक्‌ ठेदित के क्या रक्तग हैँ१ अतिठेहित तथा अहित कै यह अध्याय इस ठेहन सम्बन्धी प्रच से पूर्वं खण्डित हे। यह
अध्याय एकान्तरूप से यदीं से ही प्रारम्भ नहीं होता ह ! आशे
१--दृद्धनोवकीय तम्ब कौ उपलब्ध ता दपृत्र पुस्तक क आदि भगवान्‌ कश्यप द्वारा दिये गये उत्तरौ को देखते हुए भी प्रतीत
अन्त तथा मध्य म खण्डित होने से शसम २९ से प्रारभ करके होता हेकि इसे रेन के अविरति वारको की ग्रति आदि
२६४ तक पृष्ठ है । तथा २९ से छेकर २६४ तक के पृष्ठो मं भौ वौच के सम्बन्ध सें मी अन्य बहुत से प्रक्षक्ि गयेहगि।
बीच मै २०-३२, २५, २६ ४०, ४७१ ४८, ५०-७४) ७७) ७८, इस अध्याय का मुख्य विषय रहन है । बालको के
८०, ८२) ८३) ८६, ८८) ९१, ९२ ११३ ११५) ९१६) ११५, स्वास्थ्य, बर एवं बुद्धि की बद्ध के ये प्राचीन कारमं बारुकों
१२१, १२४, १२७१ १२९१ १२१; १२४; १३२५, १४२, १५५१६६६; को अनेक भ्रकार के योग रेहन ( अवरेह ) के रूपमे चटने
६९२, २२५, २४७) २४९१ २५१, २५२, २५४-२५८ तथा २६० की परस्परा थी । जिस प्रकार आजकल बाख्को के स्वास्थ्य
प्रयोग
षठ खण्डित है! इस प्रकार बीच २ मे खण्डित होने से अष्णं अंशो एवं बुद्धि के सिि अनेक प्रकार की जन्मघुष्ि्यो का
करो बिन्दुओं द्वारा खचित किया गया है । विमान पृष्टौ मँ भी कुढ क्रिया जाता है उसी प्रयोजन के छिये प्राचीन कारु मेहन
रहन योगो मेँ स्वणंका `
जीर्णं होने से तथा कुद स्याही के लप्तदो जाने से पदे नदींजा रेहन योगो का प्रचख्न था। इन
सकते है-उ्हे मी विन्दुमारा दवारा सुचित किया गया है । पाठको विदेष स्थान था । सख्णै विशेषरूप सेकेमेषावर्ध क होता!
भी मधु साथ स्वणं चटानेका
करो श्स यन्य को शस यात को ध्यान मँ रखते इए हो पना चाहिये | इसील्यि सः जात बाक्क को
कि यद मन्थ मूर पुस्तक के २९ वैएष से ही प्रारंभ हआ द! । विधन मिरता हे। बारर्को के छिये अतिदिन भ्यवहार मे भने
२ कार्थपसंहिता व वुद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ टेहाध्यायः ?

वाख इन ठेहन योगोंको द्तिण भारत में'उरमरन्द कहते हे । इसी छिवे यहां वात, पित्त तथा कष का स्थूण शब्द्‌ से नि्दंश
इति प्रष्ठ महाभागः कश्यपो लोकपूजितः । किया गया है 1 सुश्रुत सूत्रस्थान २१ अध्यायमें मी स्थूण
प्र्चं प्रोवाच निखिलं प्रजानां हितकास्यया | शाब्द का इसी अर्थ मे प्रयोग किया गया है-“वातपेन्तर्ले-
ष्माण एव देहपतंमव हेतवः । तैरेवव्यापन्सैरधो मध्योध्वसच्चिविषटैः
इस प्रकार प्रश्च किये जाने पर रोक पूजित एवं रोध्यं ररीरमिदं धारयते ऽगारभिव स्थूगासिस्तिसभिरतश्च व्रिस्थूणमाहइुरेकेःः ।
शारी भगवान्‌ कश्यप ने रोर्गो के हित की कामना से उपयुक्त इख शरीर रूपी सकान के लिये वात, पित्त तथा श्टेष्मा तीन
मरश्नो का पूर्णंरूप से उत्तर दिया । स्थूण ( स्तम्भो ) का कायं करते है! उन्हीं वात पित्त कफ
यदन्नपानं प्रायेण गर्भिणी ओखी निषेषते । रूपी तीन स्तम्भो पर यह मकान र्थितहै। वे ही स्थूण
रसो निषेवेते तादक्‌ त्रिधा ` चास्याः प्रवतेते ॥ ( स्तम्भ ) जब विक्ृतहो जते तत्र शरीरके नाक्चका
र्भिणी खी प्रायः जिस प्रकार के अन्नपान का सेवनं करती कारण होतेह! इसीचियि श्रीरकी मुख्य रूपसे येही
हे उससे वैसा ही रस बनता है तथा वह रस तीन प्रकार से तीन मरकरतियां कही गह हे ¦
कामम जताहे १.उस रसका एकमभाग साता ८ गर्भि- वातिकाः पेत्तिकाः केचित्‌ करिनश्धैष देहिनः ।
णीश्ली)केकरीरके पोषणम २. एक भाग गर्भं(पण्लप्ड)
के पोषणे तथा एक भागस्तनों की पुष्टि केलिये दन्द्रपरक्रतयश्चान्ये समस्थुणास्तथाऽपरे ॥
प्रयुक्त होता है । | अरोगास्तु ससस्थूणा वातिकाः सदाऽऽतुराः |
वक्तव्य -गर्भवती खी जिस भोजन का सेवन करती दहै कुं व्यक्ति वातमप्रकृति, कुह पित्तप्रक्ृति तथा कद श्रेष्म-
उससे स्वयं उसके शरीर कातो पोषण होता हीहै अपितु मरकृति के होते हैँ । कुछ भ्यक्ति इन्द्रं (दो दोर्षोका संयोग )
अपरा ( ८०९४० >) हारा गर्मका भी पोषण होता है। रक्त तथा कुदं समस्थुण श्रकृति के होते है । इनमे से
सुश्रत सें कहा है-“"गरम॑स्य खल रसनिमिता `“ "^ परितदधि- समस्थूण अ्रङ्ृति के भ्यक्ति स्वस्थ होते हँ तथा वातिक आदि
म॑वति 1" इसकी टीका मे डल्हण नै किख है--“रसनिभित्तेति प्रकृति के मदुष्य सदा रोगी ही होते है ।
मातुरिति शेषः 1 इसके साथ र गर्भिणी के स्तनो की भी पुष्टि वक्तव्य-वास्तव सं प्रकृतियां सुख्यरूप से उपर्युक्तं तीन ही
होती है 1सुश्रतसंहिता श्ारीरस्थान अध्याय ४ मे कहा है होती है परन्तु उन्हीं दोर्षो के परस्पर संसर्ग से वे सात भकार
शेषं चोध्वंतरमागतं पयोधरावभिप्रतिपद्यते, तस्माद्‌ गमिण्यः पीतोन्न- कीहो जाती दहै) यथा--१. वातिक २. पत्तिक २. श्रेष्मिक
तपयोधरा मवन्ति' इसकी टीका मेँउच्हण कहता है--“स्तनाश्रय- ४. वातपेत्तिकं ५. वातश्छेष्मिक ६. पित्तश्लैष्मिक तथा
मेव कफो परञ्जितं स्तन्यतायुषगतं प्रमूतायःः पुनरादाररसेनाप्याय्यतेः । ७. सम प्रङ्ृति ८ जिसमं वात पित्त तथा श्रेष्मा समानखू्प से
चरक शा०अ०््म भी कहाहै-- कच सर्वरसवानादारः विध्यमान हो) सुश्रत में भी सात प्रकार की प्रकृतियां
सियाख्िधा रसः प्रतिपद्यते स्वशरीरपुष्टये स्तन्याय गसमेवृदयये चः" । मानी ग है--सपप्क्ृतयो भवन्ति दोषैः परथक्विशः समस्तैश्च ।
मातपुष्टथथंमेकांशो द्वितीयो गरभपुष्टये | तथा चरकसू.अ ७के निम्न श्छोक मे भी-~समपित्तानिल-
तृतीयः स्तनपु््यथं, नार्यां गर्भस्तु पुष्यति । कफाः केचिद्गमांदिमानवाः। दृद्यन्ते वातलाः कचित्ित्तकाः
ररष्प्रलास्तथा । "तथा! शब्द्‌ से दन्न का रहण करके
तारक्थ्रकृतयस्तस्माद्र्भात्‌ प्रभेति देहिनः ।
उपर्युक्त सात ही ्रकरृतियां मानी गई हैँ । इन सात प्रकार की
यातपित्तकफस्थुणास्तिघ्लः प्रकृतयश्च ताः ॥ प्रकृतिर्या मं से समरथूणा ( सम ) मरकत वारे व्यक्ति स्वस्थ
नारी के गर्भं की जिसःविधि से पुष्टि होती हे, प्रारंभ माने गये हँ । तथा शेष वात आदि प्रक्रतति वारे सब व्यक्ति
(गभं) सेष्ी मनुष्यो की उसी भकार की. प्रकृतियां बन निस्य आतुर ( रोगी-अस्वस्थ ) माने गेहैँ।
जाती हँ । ये ्रक्ृतियां सुर्य रूप से तीन प्रकार की-- $. उपयुक्त सातो प्रकार की प्रकृतियां होते इष्ट भी वास्तव
वातस्थूणा २. पित्तस्थणा तथा ३. ररेष्मस्थुणा होती है। मैवेदही.च्यक्ति पूर्णरूप से स्वस्थ माने जते दै निनं तीनों
` वक्तन्य--वास्तव मेगमं को जिस ठंग का पोषण भिरुता
डे उसी प्रकार की जगे उसङ्की प्रकत बन जाती है! सुश्रुत दोष समावस्था मे विद्यमान होते द। समावस्था से यह
सभिप्राय नहीं हे किं वात पित्त तथा कफ . तीनों दोष समान
क्ा० अ० ४ मे कहा है-- शुक्रशोणितप्ंयोगे यो भयेदोष उत्कटः ।
परिभाण म वि्यमान हो अपितु सावस्था से तात्पर्यं यहहै
भ्रक्ृतिजयते तेन ` * `" `ˆ" । गर्भावस्था से ही ग्रङ्कति का निर्माण कि तीर्न दोषौ को लिख अनुपात ( 207०५०४ ) मे होना
` होता हे। उसे बद्रुना अत्यन्त कठिन है । "यः स्वभावो हि चाहिये उसी अनुपात मेँ ह । वातिक पैत्तिक आदि वास्तव में
वृस्यास्ति तस्यासौ दुरत्तक्रिमः। श्वा यदि क्रियते राजा किस नाश्ना- प्रकृतिं नही है जपितु जिस व्यक्तिमे जिस दोष की प्रधानता
त्युपानहम्‌ ॥` ( हितोपदेश )1 ि धि होती हे उसे स्थुरुरूप मे वही नाम देदिया गया है !वास्तव
. जायुवेदं के सिद्धान्तानुसार वात, पित्त, तथा कफ इन मेवे अञ्युक २ दोर्षो की बृद्धावस्था ही समश्चनी चाहिये । इन्र
तीनों दोषो पर ही शरीर की स्थिति हे। जिस प्रकार तीन ` प्रकृति कहना उपयुक्तं नहींहे। किसी भी दोष की च्द्धयवस्था
स्तम्भो से मकान की रिथति है उसी प्रकारये तीनो दोष सदारोगकोही सूचित करती हे1 दोषो की . समावस्था हीः `
समवस्था मे विद्यमान होकर शरीर का धारण करते हे।
सवारषय है1 विकासो धातुनेषमयं साभ्यं अङ्तिरुचयते । सुखंशक- =`
रुदाध्यायः १ ) सूर्बस्थानम्‌ | | र
ध भ तल श त १ १ ॥
सत क का

मारोग्यं विकासे दुःखमेव च॥ (चरकस्‌.अ. ९) दोर्षोकी बुद्धिमान्‌ चिकित्सक को चाहिये किं उत्पन्न इंए बालक
में ) ओषधि
खमावस्थाको ही ग्रहति मानादै। यहां करई रोग ह्यंका को विडङ्कफट ( वायविडङ्ग 9 के बराबर ( भारदेवे । तथा योर
उपस्थित करते है कि कोई भी व्यक्ति. समवातपित्तकफ़ नहीं मधरु तथा सर्पिस्‌ ( असमान मानना ) के साथ
हो सकते ह वयोकि प्रत्येक व्यत्ति के आहार मे थोडी बहत खिश्चकीब्द्धि होती जाय प्रत्येक मास ओषधि ( आंवरे )
की मात्रा
विषमता अवश्य होती हे ओर माता के जाहार रस के अनुसार मी बदाता जाय परन्तु विद्वान्‌ चिकित्सक आमर्क
ही भ्यक्ति्यो की प्रहृतियो का निर्माण होता हे । इसखिये माता ऊ परिमाण से अधिक ओषधि की मात्रा न बड़वे ! उदय
के आहार के विषम होने से गर्भं कभी मी समघातुप्रकरृति वक्तब्य प्राचीन कार सै वैज्ञानिक मापतोरू का
नहीं हो सकता है । अतः किसी न किसी दोष कौ प्रधानता न होने से भ्रचकित वस्तुं ही माप तोर मेँ भ्यवहत होती
होकर कोई भ्यक्ति वातपरक्ृति, कोई पित्तग्रकरति तथा को धी !इसीखियि बाख्कों की ओषधि के छि विडङ्ग तथा
श्छेष्मप्रङृति के ही होते हैँ ।इसलियि “वातिकाचाः. सदाऽतुराः”' आमलक द्वारां ओषधि ॐ परिमाण का निर्देश्च किया गया हे ।
यह कहना उचित नहीं है । भगवान्‌ आत्रेय. चरक संहिता सुश्तसंहिता के श्ारीरस्थान मेँ ओषध का परिमाण भिन्न दही
के विमान स्थानम इस तकं का खण्डन करते हुए कहते हैँ ठंग से बताया गया हे“तत्र
मासाद्य ' श्वीरपायाङ्गकिपवदय-
अह (ण) संमितामौषधमात्र ां विदध्यात्‌, कोलास्थिसंमितां कस्क-
करि--तमवत्तिपिन्तदरेष्माणं द्यतोगमिच्छन्ति भिषजः, यतः प्रकृतिश्चा-
सेग्यं, आसोग्यार्था च मेषजप्रवृत्तिः, सा चेष्टरूपा, तस्मात्‌ सन्ति
मातां क्षोरान्नादाय, कोकसंमितामन्नादायेत्ि' ! यहां बारूको का
समवातपिन्तदेप्मप्रकरेतयः 1 न तु खट सग्ति वातिप्रकृतयः, पित्तग्रक- तीन प्रकार
का श्रेणीकरण किया गया है १. कीराद्‌ रे.
एक वषं की उन्न तक वाङ्क कीराद्ः
तयः. इलेष्मप्रकरृतयो वा, तस्य तस्य किल दोषस्याधिकभावात्ता सा चीरान्नाद्‌ अन्नाद्‌ ।
२.
दोषप्रकृतिरच्यते मनुष्याणां, न च विङ्तेषु दोषेषु प्रङृतिस्थत्वसुप-
दो वर्षं तक क्तीरान्नाद तथा उससे उपर अन्नाद कहकाता है 1
प्यते, तस्मातैताः प्रकृतयः तन्ति, सम्ति तु ख॒ वातकाः, पित्तलाः ीराद के किये उतनी जौषध का विधान है जितनी अंगु
केदो पर्वंपर र्ग सके! कीरान्नाद्‌ के स्यि कोलास्थि क
दषेष्मलाश्च, अम्रकृतिस्थास्तु ते जेयाः"? । चिकिस्सक रोग समवात-
बराबर तथा अन्नादं के च्यि कोर (बेर) के बराबर
पित्तकफः पुरुष को ही नीरोग अथवा स्वस्थ मानते ह । प्रकृति
कोहो आरोग्य कहते ह ! आरोग्य के लिय ही भेषज की परठृत्ति
(भारम ) जौषध निर्धारित की गई हे। अन्य अन्मे
भिषगादीनां स्तानां धातुवैकृते | वारको को.निस्न
"परिमाण सें जौषध देने का विधान किया
होती दै । कहा भी है- चतुर्णा
गया है-प्रथमे मासि जात्य शि्योभेषनरक्तिका ! अवछ्द्या तु
ररन्तिथाठुसाम्याथौ चिकित्तेत्यभिधीयते ॥ समवातपित्तकफधातु
कतंन्या मधुश्षोरसिताश्तैः ॥ एकैकां वधैयेत्तावचावत्‌ संवत्सरो भवेत्‌।
वारे पुरुष हो सकते ह तथा होते ई ।वास्तवमें वातिक, त्तिक तदूर्ध्वं माषवृद्धिः स्यात्‌ यावत्‌ षोडशाब्दिकः ॥ आजकरु बार्को
तथा श्छेन्िक प्रहि नहीं होतीहे) वह तो दोषों की की जौषध की मात्राक्ञात करने के खियि ऽ०ण्ण् कां निम्न
प्रधानता होने से दोषप्रङृति हीहे तथा इसे अप्रकृत फामूरा व्यवहूत होता है--1116 (2 15 ४0 517106€ ४४९
( खणावस्था >ही जानना चाहिये । इसको दृष्ट मं रखते हष 2९6 10 पष्माऽ 0 पल ०६6 7 उल्मउ पऽ 1106 168प्]- 19,
कहा गया है-“वातिकायाः सदाऽऽतुराः चरकषंहिता सू. अ.७ मं पण्ड पृप्ठ्व्छा 35 प एषणः तर्ण््० त छ वतप
मी बिरुङकर रेसा दी वर्णन किया गया हैतेषामनातुराः पूं
वातलाः सदाऽऽ्त॒राः ॥ इन वातिक भरक्रतिं आदि चाङे
०56. किसी मी जाय के बार्क की मात्रा--अवस्ण केद्वारा
जायु उवस्था+ २२१ र
मलुर््यो को हम उपचार रूप से'ही स्वस्थ कह सकते हं वस्तु. च्तात की ज्ञा खकती है । उदाहरण के छिये एक वर्धं के बारुक
तस्तु इनमे अक २ दोष की प्रधानता होने सेये [१ मा की १.

चिकृततिही्है। के खयि जौषध की मात्रा


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{र्‌ अथात्‌ एष
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मानना की ड्‌
` एताः प्रकृतयः प्रोक्ता देहिनां बरद्धजीवक ¦!॥ २ =
च्वि. २,२२
बालके के लिये
इसी प्रकार तीन वषऊ के बार्क
होगी । ट्‌ =
एता आधित्य तच्छज्ञो भेषजान्युपकल्पयेत्‌ ।
य एता वेद्‌ तच्वेन न स सुद्यति भेषजे ॥ था मात्रा होनी शाहिये। इससे आगे २ सरे १६ वषं के बाको
हे वृद्धजीवक ! ये मनुष्यो की श्रकृतियां कदी गई है ।तत्वत्त ॐ ख्य ओषध की मात्रा पूर्णमान्ना कासे तथा १७ से
ही
{चिकित्सक को चाहिये कि इन अङृतियो के अनुसार २० वर्षं तक चेद मान्ना होनी चादिये\ इसके अतिरिक्ष
ओषधियो की कल्पना करे। जो चिकित्सक इन प्ङृतिर्यो वारको छी ओषध की मात्रा क्तात करने के किये (0०४
को तत्पूर्वकं जानता है अथवा उन्हं भ्यान मं रखता
तथा ाफण्ड के उपाय भी प्रयुक्त किये जाते हँ परन्तु सबसे
वह चिकिस्सा कायं में कभी भी न्यामूढ ( मोहित ) नही अधिक प्रचकिति ए०्४ का फामृंरा हीहेजो किप्रायः `
दोताहै। ` (_ ` ` `
देहिनः । व्यवहृतदहोताहे॥
विल(ड)ह्कुफलमात्रं तु जातमात्रस्य
भेषजं ` मघुसर्पिभ्यौ मतिमातुपकल्पयेत्‌ ॥ स्लीरा जननी येषामल्पक्तीराऽपि बा भवेत्‌।
वर्धमानस्य तु शिशोर्मासि मासे निवधेय त्‌ । दुष्टचीरा प्रसूता या धात्री वा यस्य तादृशी ॥
अथामलकमात्रं तु परं विद्वान्न वधयेत्‌ ॥ ` दुष्प्रजाताश्शब्याधिषीडितायाश्च _ ये. सुताः ।,
धे कश्यपसेहिता वा बुद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ | [ छेहाघ्यायः १
ग ष तस रमृनतकणाि
नह
क, का 0 व गा हि ण क १ य क व + ^ १ ५४ ^ क ^का + श +^कशा
^ + का + सा ^चा ^ क + ^ का+
+ ^ 0 ^ 1

वातिकाः पैत्तिकाये चये च स्युः कफवर्जिताः॥ अर्चि ( २०३९० ) मे, सब प्रकार के यरहरो्गो में तथा
स्तन्येन ये न तृप्यन्ति पीत्या पीला ङ्दन्त च। अलसक रोग में बारूको को जेहन न्‌ करवे । इसके अतिरिक्त;
अनिद्रा निशिये च द्यु्ये च बाला सहाशनाः ॥ प्रतिदिन, भोजन करने के उपरान्त दुदिन मे तथा सामने से
तेज वायु चरूती हो तब भी छेहन न करावे । असाव्म्य वस्तु
अल्पमूत्रपुरीषाश्च बाला दीप्रा्नयश्च ये । का ठेहन तथा अधिक मात्रा सेंभी रेहन नहीं कराना चाहिये,
निरामयाश्च तनधो शा ये च करिताः ॥ वक्तव्य--कस्या "मावृक-'कस्याणी माता यस्यः जिसकी
वचेःकमं न छुबन्ति बाला ये च अयहात्‌ परम्‌| माता कल्याण युक्त हो। कल्याण का अथं अक्तयस्वगमभी
एवंषिधाञ्दशूनाह लेहयेदिति कश्यपः | होता है । मेदिनी म कहा है--कल्याणमक्चयस्वगं 1 जिस बालक
छेहन कन्हं कराना चाहिये--उन बालको को जिनकी की माता अक्तय स्वं (मोक्त) को प्राप हो गह है तथा जिसकी
सातायाधान्नीके स्तनो म दूष बिल्कुरुन आता हो, कम विमाता ( 31९ ०४ ) हो । एसा बार्क कलयाणमातृक
जाता हो या दूषित हो अथवा जो प्रसूता हो । जो दुप्रजाता कहराता है । उर्ध्वनत्र-जच्रु से अभिप्राय म्रीवामूल अथवा
( जिसे ठीक तरह से प्रसव न इजाहो ) तथा गंभीररोग से अंसफरकार्थि ( 0ाभ्गन<-००]*"-
१००९७ >) से है । उससे
पीडित खी के वारक हौ, जिनसे वात तथा पित्त दोष की ऊपर के रोगो अर्थात्‌ श्रवण, नयन, युख, नासिकां तथा सिर
प्रधानता हो परन्तु साथमे जो कफदोष से रहितो, जो दूध के रोगो को ऊर्ध्वजघ्ुज या शाराक्य रोग कहते है ।
पीने के जाद्‌ भी वृक्ठ नहीं होते तथा दूध पीकर भी ख्गातार अलसक --यह विसूचिका का मेद्‌ है। इसकी निरुक्ति
रोते रहते हँ, जिन्हे रान्नि से नींद वही आती, जो बहुत निम्न प्रकारसे की ह~ प्रयातिनोष्वं नाधत्तात्‌ आहारोन
भोजन करते हो, जिन्हं मूत्र तथा मरू कम आता हो, जिनकी विपच्यते । भमारयेऽलसीभूतस्तेन सोऽल्सकः स्यतः ॥ कफ द्वारा
अग्नि दीक्ष हो, जो रोगशून्य होने पर भौ ततु ( पते) खदु मार्गो के सूक जने से आहार आमाश्ययमें ही स्थित रहता
( कमजोर ) अङ्गोवङ्े तथा क्रश्चर्दो, जो तीन २ दिन तक हं । वह न नीचे की ओर अताहे ओौर नञपर कीओर
मरुत्याग नहीं करते, एेसे वारको का लेहन करवे-रेस। जाता है । अन्दर ही आलसी की तरह पड़ा रहता है इसीखिये
भगवान्‌ कश्यप का मत हे । इसे जर्सक कहा हे । इसके रक्ञण निम्न होते है -कुक्षिनद्य
खेहन से यहां क्या तात्पर्य है इसका पूर्वंभी निर्देश किया तेऽत्यथं प्रताम्येत्‌ परिकरूजति ।निरुद्धो मारुतश्चैव कुश्चादपरि धावति ॥
जा चुकादहे। वाको की स्वास्थ्य रक्ता के छ्य भिन्नर सेवितान्यन्नपानानि गर्भिस्या यान्यभः " "`* ।
ओषधियां तथा स्वणं आदि मधु मं मिलाकर जो बा्कोको
चराई जाती हे उन्दं केहन कहते है ॥ तानि सल्म्यानि बालस्य तस्मात्तान्युपचारयेत्‌ ॥
५००५९१० ४५७०९०००१*५ च्च मन्दाधिजछयो जन देशकालाभ्चिमात्राणां न च छर्याद्रयतिक्रमम्‌ ]
गभं के समय गर्भिणी जितत अन्नपान का सेवन करतीहे
निद्राद्धब्विश्मूत्रः स्वल्पो यो दृढगाच्रकः ॥ बारू्को को वे ही साम्य होवे हैँ। इसटिये उन्दी का सेवन
कल्याणमाठकोऽजीर्णी गुरुस्तन्योपसेविता(तः) । कराना चाहिये । इसमे देश, कार तथा अश्चिमात्रा का म्यति.
सुतः सवेरसाशिन्या उध्वंजवुरुजान्ितः ॥ | करमन करे) अथात्‌ सात्म्य होते हए भी देश्ष, कारु तथा
मामे उ्रेऽतिसारे च कामलाशोथपाण्ड्षु । अभिमाना का भ्यान रखकर ही उनका सेवन करे अन्यथा
हृद्रोगश्वासकासेषु गुदबस्त्यदसमये ॥ सास्य होमे पर भी वे विपरीतार्थकारी सिद्ध हेगे।
५ = £ (€
आनाहं गर्डयेसपं दधंसेचक्यो(बे्ते) | वक्तन्य-बाख्क को वही अन्नपान विशेष रप से सास्यहो
# ७ # क क च ७ क क ७ क क + # # क ७ क $ $ + ह सयेमरहुषु प्य |
सकता है जिसका गभावस्था में माता द्वारा सेवन किया हो !
न॒लेहयेदलसके नाहन्यहनि नाशितम्‌ । माताके जाहारस्ससेही गभ की पुष्टि होतीहै। गर्भ॑के
प्रत्येक अवयव में उख आहार रस का प्रभाव व्याप्तो जाता
न दुर्दिनपुरोवाते नासास्म्ये नातिमात्रया | है । इसीख्यि माता जिस प्रकार के आहार का सेवन करती
केहन किन नहीं कराना चाहिये-- मन्द्‌ जठराभ्िवारे
है गर्भस्थ बाखुक की वसी ही भरकृति भी बनती है 1 सात्म्य से
निद्रालु, बहुत मल एवं मूत्रका त्याग करने वारे, स्वल्प
अभिप्राय उस वस्तु सेहे जो निरन्तर उपयोगमें आने से
एवं टद ( कठोर ) शरीर वारे, कल्याणमातृक, अजीर्ण ऊ
रोगी एवं भारी स्तन्य ( दृध ) का सेवन करने वारे, सब अनुकर हो गई हो । चरक विमानस्थान अ० १ मे कहा है
सात्म्यं नाम तत्‌ यदत्मन्युपरोते, सात्म्या्ोद्यपरया्थः।
` श्सखो अथवा आहार रसो का सेवन करने वारी खी के पुत्रो,
उर्ध्वजघ्रु रोगो से युक्त, आमरोग, ज्वर तथा अतिसार मेँ द्रव्याणां लेहनीयानां बिधिश्चेवोपदेचयते ॥
अथवा आमातिसार ओर उ्वरातिसार मे, कामरा ( पीलकिया- | विघुष्य धौते दृषदि प्राङ्मुखी लघुनाऽम्बुना
उर्पणता.€ > क्लोथ ( "गृ ) तथा पाण्डुरोग मे, हद्रोग, मभ्य मधुसर्पिभ्यां लेहयेत्‌ कनकं शिशुम्‌ ॥!
श्वास, कास, गुदरोग, बस्तिरोग, एवं उदररोग भे, सानाह ` सुत्णेप्राशनं द्येतन्मेधाग्निबलवधनम्‌ |
( 199८८ ) गण्डविसपे, बरवान्‌. छदि (वमन ) एवं आयुष्य मङ्गल पुख्य वृष्य चस्य म्रहापहम्‌ ॥।
सूत्रस्थानम्‌ । | #
रुह्ाध्यायः ? 1
ब्राह्मी मण्डूकपर्णी च चिफला चित्रको वचा ।
[क शक वव 01
क्क कक श क क) वा 00

मासात्‌ परसमेधाथी व्याधिभिने च धृष्यते |


षडभिमसिः श्रुतधरः सुवणपराशनाद्ेत्‌ ॥ शतपुष्पाशतावर्थो दन्ती नागबला चिचृत्‌ ॥
अव ठेहनीय द्र्व्योकी विधि बतराई जायगी! पूर्व एकेकं मधुस्पिभ्यो मेघाजननमभ्यसेत्‌ ।
दिशा मेह करके धोये हुए पस्थर पर थोडे से पानी के साथ ल्याणकं पञ्चगव्यं मेध्यं ब्राह्मीघरतं तथा ॥
स्वर्णं को धिस कर उसमे सधु ओर घत ( असमान मात्रा) ब्राह्मी, मण्डूकपर्णी, त्रिफला, चित्रक, वच, सौर, शतावरी,
मिराकर बारुक को चरे) यह सुवर्णप्रा्चन करता है दन्ती, नाणवङा तथा निसोथ, इनका प्रथक्‌ ₹ मधु तथा धृत
जो कि मेधा ( इद्धि ), अग्नि ओर बर को बढ़ाने वारा दै। के साथ मेधावृद्धि के लिये प्रयोग करे तथा सेधावर्धक कल्या
यह आयु को देने वारा, कल्याणकारक, पुण्यकारक, च्रभ्य्‌; णकधृत, पञद्चगव्यघृत ओर ब्राह्मीषत का भी रेदन करावे ।
वर्ण्यं ( शरीर के वणं को दीक करने वाला ) तथा ग्रहबाघार्जो वक्तम्य- चरक संहिता के उन्मादं चिकित्सा मे कल्याणक
को दूर करने वारा है! सुवरणप्रान से वारक एक मास धृत का निम्न पाट दिया दहैइसे अष्टाविति चरत भी कहते
के अन्द्र मेधायुक्त होता है तथा वह व्याधियो द्वारा आक्रान्त ई--विशाला चिफला कौन्ती देवदवरवहम्‌ । स्थिरा नतं रजन्यौ
नही होता हे । जौर वह 8 मासमे श्रुतधर ( सुनी इड बात र सारिवे दे परियङ्ककम्‌ ॥ नीटोत्परैलाम्ि्ठा दन्तीदाडिमकंसरम्‌ ।
को धारण करने बाला » हो जाता है अर्थात्‌ उसकी स्मरण तारीरापव' बृहती मारत्याः ऊसुमं नवम्‌ ॥ विडङ्ग पृश्चिप्णीं च कुष्ठ
शक्ति बहुत बद्‌ जाती हे । चन्दतपद्चकौ । अष्टाविद्यतिभिः कर्कैरेतेः कष॑समेभिषक्‌ ॥' "` “^
वक्तव्य बारुक के उत्पन्न होते ही जातकससंस्कार मे भी ^~" कल्याणकमिदं सपिः श्रेष्ठ पुंसवनेषुं च! इसे ही तन्तान्तरो
सुवर्णप्राश्चन का विधान मिरूता है । सुश्ुतसं हिता के शारीर- म पानीयकल्याणक धरत भी कहा है । इसकी मात्रा ई तोखा
स्थान सें यह विधि निम्न प्रकार से दीहै-- अथ कुमारं शता- है । चरकसंहिता के ही जपस्मार चिकित्सा मं पञ्चगव्य घूतकी
भिरद्धिराश्वाष्य जातकर्मणि छरतते मदुस्तपिरनन्तचू ग॑मङ्ुट्याऽनामिकया निर्माणविधि एवं उपयोग निम्न प्रकार से दी हे--गोर्द्रसद-
रेदयेव'"बाखूक को मघु ओर सपिंस्‌ (घत) मेंमिराकर अनन्तचूणं ध्यभ्ल क्षोरमूत्रौ; समेशरैतम्‌ । सिदध पिकदपस्मारकामलाज्वरनाशनम्‌
( सुवर्ण) का छेहन करावे ।दसी स्थान पर किंसी २ अन्थमें वहीं पर नाद्य घृत का निस्न पाठ दिया है~-्ाह्मीरस्तवचाकु्
निम्न पाठभेद मी मिरूता है--मधुसपिरनन्ताव्राह्यीरसेन छवणेचूण राङ्कपुष्पीभिरेव च । पुराणं तसुन्मादालच्म्यपस्मारपाप्मजित्‌ ॥
मङ्गदयाऽनाभिकय। ठंदयेतःः । वाग्भ मे यह प्राशन ( रेहन ) इससे आगे अन्य भी कई छेहन योग दिये गये हैँ ।
विधि भिन्न प्रकार से कही है रेन्री ब्राह्मी संखपुप्पी वचाकस्क समङ्का न्रिफ़ला त्राह्मी द्रे वलते चिच्रकस्तथा ।
मधुष्तोपेतं हरेणुमात्रं ङद्यलाभिमन्वितं सोर नाश्चत्थपत्रेण वा मधु सर्पिरिति प्राश्यं मेधायुबेलबृद्धये ॥

मेधायु्ल्जननं प्रारयेडा बाड दचानन्ता रता वर्यन्यतमव्वृणम्‌ः? मेधा आयु तथा बरु की बृद्धि के लिये मज्जिष्ठा, च्रिफरा,
यह सुवर्णमराश्चन तथा अन्य रहन वारक के जन्म के वाद्‌ बराह्यी, दोनो बरा ( बला ओौर अतिवखा ) ओर चि्नक के
तीन चार दिन तक देने का विधान है वर्योकि तीन चार दिन चृणं को समभाग केकर मधु एवं घृत मे मिराकर प्रान
तक दुग्धवहस्रोतस्‌ प्रायः बम्द्‌ रहते हँ अतः माता ( अरथम ( रहन ) करना चाहिये ।
प्रसव 'से--ए ५०५७ ) तीन चार दिन तक बारक्‌ को षं वराहा गोरी पिप्पल्यसिफला वचा ।
अपने स्तनो से दृध नहीं पिखा सकती हे । सुश्रुत मे कहा हे- ससेन्धवेधतं पकं मेघाजननमुत्तसम्‌ ॥
धमनीनां हृदिस्थानां विवृत्तव्वादनन्तरम्‌ । चतूरा्ाल्निरत्राञ खीणां कूट, बढ के अङ्कुर, गौरी ( पीत सर्षप ›)पिप्परी, भनिफरा,
स्तन्यं प्रवर्तते ॥ तस्मात्‌ प्रथमेऽहि सधुसपिरनन्तमिश्र मन्त्रपूतं तरिका वच तथा सेन्धानमक को मिराकर घत के साथ घतपाकविधि
क पाययेत्‌ , द्वितीये रक्मणासिद्धं सपिस्दृतीये च । परन्तु यहां से पकाया जाय । यह घृत उत्तम मेधाजनक हे ।
उपर्युक्त सुव्णप्राश्न या रहन से अभिप्राय प्रतीत नहीं होता
त्राह्ी सिद्धा्थकाः कुष्ठं सैन्धवं सारिवा वचा ।
हेजो कि जातकर्म के बाद दो तीन दिनि तक दिया जाता हे । पिप्पल्यश्चेति तैः सिद्धं धृतं नाश्नाऽमयं स्प्रतम्‌ ॥
अपितु यहां निरन्तर सेवन करने के ल्य ही इन ठेहर्नो का
प्रयोग दिया गया है । जैसे जजकरु छोटे शिश का भिन्न २ न पिशचान र्तासिन यक्ञान च मातरः
प्रकार की जम्मघुद्ि्यो का प्रयोग कराया जाता हे उसी तरह प्रवाधन्ते कुमारं तं यः प्रा्रीयादिदं घृतम्‌ ॥
वारक को स्वस्थ रखने के स्यि इन खे्खो का प्रयोग कराया ब्राह्ी, सरसो, कठ, सैन्धव, सारिवा ( अनन्तमूर ) ब्र
जाता इजा प्रतीत होता हे । | तथा पिप्पली से ध्रतपाक विधि से धरत सिद्ध किया जाय ।
आु्यम्‌--आयु की बृद्धि के स्थि भी सुवणं का प्रयोग दसका नाम अभय्त है । इस धरत के सेवन कोद करने वाले
को पिक्ञाच्त, राकस, यन्न तथा मातृकं बाधा `
कराया जाता है! सुश्रत चिकित्सास्थान के मेषापुष्कामीय । बारुक नहीं पटंचा पाती हे । जष्ङ्क ह. उ. ज. ¶मेमी `
अध्याय सें कहा है--अत उर्ध्वं प्रवद्यामि आयुष्कामरसायनम्‌ (कष्ट ) `
अन्वौषथसमायुक्तसंवत्सर फलप्रदम्‌ ॥ विद्वस्य चूण पुष्येतु इतं अभय धृत का यही पाठ मिरूता हे- बराह्ीिद्धा्थैकवचासारि-
वाकुषतैन्धतरैः । सकः साधितं पीतं बाडमेषास्थति्कदधतम्‌
वारान्‌ सदाः ।श्रीसूक्तेन नरः कल्पे सवर्ण दिने दविने ॥ सपिमे-
धुयुतं लि्यादलद्मीनारन परम्‌. । इत्यादि । आयुष्यं पापरकषोष्नं भूतोन्मादनिवर्हणम्‌।॥ ==. | *
१९)
7
काद्यपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ सीरोत्पस्यध्याथः १६
१ नि व 0 9 01000 010 ^ व 5

खदिरः प्रशिनिपणीं च स्यवृ(न्दनः) सैन्धवं बले | जीवनीय गण-- चरक मै निम्न दिषा है-जीवक्र्षभकौ
केवुकेति कषायः स्यात्‌ पादशिष्टो जलाठके ॥ मेदा महामेदा, काकार, क्षौरकाकोलो, युदगमाषपरण्यो जीवन्ती
अधभ्रष्थं पचेद्र तुल्यत्तीरं घृतस्य तु । मधुकमिति"? । इनमें से प्रथम & ओषधि्यां अष्टवर्ग म आती है
जिनके प्रायः अलभ्य होने से उनके स्थान पर कमः विदारी-
घृतं संबधेनं नाम लेद्यं मधुयुतं सदा ॥ कन्द, शातावरी तथा अश्वगन्धा जादि प्रतिनिधि द्रव्य चयि
निव्याधिवधेते शीघं संसपत्याशट गच्छति | जाते है । क्योकि कहा भी है-रक्ञामप्यष्टवगस्तु यतोऽयमतिदुकंमः !
पङ्कमूकाश्रुतिजडा युव्यन्ते चाशु कमेभिः ॥ नोद--यह अध्याय यहीं मध्ये ही खण्डित हो गया है ।
खदिर, प्रशिनिपणीं ८ पिटिवन ) स्यन्दन ( तिन्दुक अथवा न्म

अर्जुन ) सैन्धव, दोर्नो वरा ( वला जओौर अतिबला ) जओौर


एकोनविंरोऽध्थायः ।
केलुक ( केमुज-कन्दशाक विदोष )-इनका एक आदृक जर
मे चतुर्थश्च कषाय वनावे । इनमें समान मात्रा मे दुग्ध तथा
[म |
आधा ्रस्थ घी डाखकर घृतपाकविधि से पकवे । यह संवर्धन = क्षे क्र ५ 9 क # क @ क क# $ $ # $ > ७ © # # 9 # # 9 # ¢ ¢ + # 9 ५ ० ० + ८ +

नामका धृत दहै। इसको सद्‌ा मधु के साथ भिरखाकर रहन | स म, "` "शङ्कुनी कटुतिक्तके |

करे! इसके सेवन से बाङ्क शीघ्र ही न्याधिरहित होकर स्कन्दपषष्ठीय्रहौ ज्ञेयो व्यापन्ते सान्निपातिके |
बृद्धि को प्रप होता है, शीघ्र चलने फिरने रुगता हे तथा पङ्क
(न चरने बारे-लले ), सूक ( गुगे ), अश्रुति ( न सुनने पूतना स्वादुकंटुके शेषाः संखष्टदोषजाः ॥
वाङे-वहरे ) तथा जड (1010) वारक जर्दी उन २ क्रियाओं
वक्तव्य-यह जभ्याय भी प्रारंभमे खण्डित है ।इस अध्याय
मे घत्रीके
से युक्त हो जाते हैँ अर्थाव्‌ इसके प्रयोग से टे चरने रूगते इसमं धात्री दुधके के विषयमे विसेष विवेचन किया गया हे ।
दूधकीच्रृद्ध तथा उसके शोधन के अनेक
ई, गे बोख्ने रूगते है, वहरे सुनने लगते हैँ तथा मूर्ख प्रकार दिये
समक्चने रूगते हें । ` ` गये हँ । अहदोषो के कारण भी दूध प्रायः दूषित हो
जाता हे । सर्वप्रथम इस अध्यायमें उन्हीं भिन्न र मरहौसे
स्वरसस्याठके बाह्या घृतप्रस्थं विपौचयेत्‌ । ` दूषित हए दूध के लक्षण दिये गये हे । `
स(बत्सा)ऽजागोपयसामाढकाठकमाषपेत्‌ ॥ महो से दूषित दूध के रूकण--यदि दूधका स्वाद्‌ कटु
त्रिफलांऽशुमती द्रा्ता वचा कुष्ठं हरेण: । एवं तिक्त हो तो उसे शकुनी ग्रह से आक्रान्त ८ दूषित )
पिप्पलीपिप्पलीमूलचन्यचिच्रकनागरम्‌ ॥ समश्चना चाहिये । यदि दूध दूषित हो तथा उसमे सन्निपात
त्यक्पत्रबालकोशीरचन्दनोत्पलपद्मकम्‌ | ( सब दोषो के सम्मिलित ) के,लन्तण दिखाई देतो उख पर
शतावरी नागबला दन्ती पाठा भ्रियङ्कका ॥ स्कन्द एवं बष्ठीग्रह का प्रभाव समन्नना चाहिये } यदि दूध
देवदार हरिद्र हे जीवनीयश्च यो गणः का स्वाद्‌ स्वादु (मधुर) एवं कट हो तो पूतना का प्रकोप
| समन्नना चाहिये । शेष सब प्रकार के दूषित दूरधो से।सम्मिरित्‌
दोषो का प्रभाव होता हे,
# * ४ च*क ४५ १५५००५५० ७५७००५०७. ५...
। बहुविरमूत्रता सादौ कषाये मूत्रविडप्रहः ।
( इति ताडपत्रपुस्तके २९ तमं पन्नम्‌! । ) तेलवर्णे बली तुल्या घृतव्णे महाधनः ॥.
"5 9-क --

ब्राह्मी स्वरसं - 4 आढक । गोघृत ~ १ प्रस्थ ! जिन बञ्च यशस्वी धूमवणे त॒ शुद्धे सवगुणोदितः।
जीवित हों उन गौ तथा बकरियो का दृध--एक २ आक । भिन्न र दूषित दूरधो का मभाव-यदि दू स्वादु ( मधुर >
इसमं त्रिफला, अंशुमती ( शाल्पिणीं ), दरात्ता, वच, कूट, हैतो उसे (उस दूध के सेवन करने वारे बारुक को ) मरु
हरेणुं (रेणका-सुगन्धित द्रव्य ), पिष्यखी, पिप्पलीमूल, तथा मूत्र बहत होगा । यदि दृघ कषाय रस वाला हे
चव्यः चित्रक, नागर ( सोँठ ), त्वक्‌ ( दाख्चीनी ), पन्न तो मूत्रमह तथा मरम्रह ८ मूत्र तथा मरु की स्कावट) हो
( तेजपत्न )› बालक ( ने्रबारा ), उक्चीर ( खस ), र्वेत- जायगा । यदि दूध वेख्बणं वाखा है तो उसका सेवन करने
` चन्दन, उत्पर ( नीर कमल ), पद्मक ८ पद्याख अथवा वाला बालक बक्वान्‌ होगा । यदि दूध ध्रतवर्णं वाला है तो
श्वेत- वारक सवणे जादि
कमर ) शतावरी, नागवरा, दन्ती, पाठा, प्रियङ्खु, देवदारु; महान्‌ रेशव्युक्त होगा । यदि दूध धूम्रवर्ण
हरिद्रा, दारुहरिद्रा, जीवनीय गण की ओषधिर्या, वायविड (खष ा -धूरवण ) का है तो बारुक यञ्चस्वी होगा । तथा
ङ्ग,
` युण्ुध तथा जाति पत्री" “` इत्यादि द्रव्यो का परिभाषानुसार यदि ५१ बिलकुल शुद्ध | (सच ्रकार क दोर्घो से रहित )है
रा
कर्क डारुकर घरतपाक करे । देस ठत का रहन¦ करावे । इससे ¦ ` तो उसका सेवन करनेवा वालक सर्वगुण सम्पन्न होगा 1 `
उपक काम होते ` तस्मात्‌ संशोधनपरा नित्यं धाच्री प्रशस्यते ॥
` इसय्यि नित्य संशोधन से र्गी इई धात्री मर्यस्त मानी
१. अत्र ¶विपाचपेत्‌" इति मुद्वितपुस्तकपाठः ।` ` | गईशोहैधन।अर्थात्‌
सं करते रहदूध पिखाने वाङी धात्री (एलः पण्ट) कानित्य
९» २० पत्तः २२ परजपथेन्तो गन्धस्ताङपत्रुस्तके. खण्डितः | ना चाहिये जिससे उदूसके
ध का संशोधन `
दीरोत्पत्यध्यायः ९६ ] सूच्रस्थानम्‌) | ७
कि ४ + 1 ज ४ (ल ++ य क [नि कि + (ि + + + + 9 9,

हो जाय तथा बालक रोगम्रस्तनदहो सके! धात्री कंदूध तेखुसेवन, तथा बस्तियां सभी सीरवधंक ( दूध को बद्ने
पर ही पूणरूप से बारुक्‌ का स्वास्थ्य निभर है! अतः धात्री वे) है|
का वमन विरेचन आदि के द्वारा श्चोधन आवश्यक हे । वक्तव्य-जागे “नधुराण्यत्रपानानि"' द्वारा वहत से करीरः
म €^
कषायपानेषेमरेविरेकैः
०, रेके
पथ्यभोजनेः
मोजने
1 वर्धन के योग ओौर दिये गये है ये उपर्युक्त दो श्छोक भी
वाजीकरणसिद्धे (र
खे: कीरं विशुध्यति ॥
# ` इ, ,
यटि वहीं दिये जाते तो विषय को देखते इषु अधिक उपयुक्त
अव दुषित स्तन्य (दूध) के शोधन के भिन्न २ उपाय होता ।क्योकि दुग्धश्ोधक प्रयोगो के बीचमें ही दुरधवधंक
ङिखे जयंगे ! कषायपान, वमन, विरेचन, पथ्य ( हितकारी ) योर्ो के दिये जाने से विषय मे ङ्ध व्यासङ्ग हो जाता है
भोजन तथा वाजीकरण के किये अथवा वाजीकरण ओषधिर्यो से पाठा महष दर भरूवायुस्तकवत्सक्छ
सिद्ध किये इए स्नेहो के सेवन से धात्री का दूध शुद्ध होता हे! सारिवारिषटकटुकाः केरातं त्रिफला वचा |
निफला सातचकट्‌का पाठा मधुरसा चचा | गुडची मधुकं द्राद्ठा दशमूलं सदीपनम्‌ |
कोलचृण त्वचो जम्ब्बा देवदार च पेषितप्‌ || रक्लोघश्च परोल गणः कीरविशोधनः ॥
सषपव्रष्रतान्मन्न पातव्य च द्रसयुतम्‌ । लाभतः कथितस्तेषां कषायः स तु सेवितः ।
एतत्‌ स्तन्यस्य दुष्टस्य श्रेष्ठं शोधनमुच्यते चीरं शोधयति चिप्र चिरव्यापन्नमप्युत ॥।
` च्रिफखा, विकट ( सट, सर्व, पीपर ) पाठ, मधुरसा पाटा, सो, दारुहस्दी. जथवा देवदार, मूवां ( मोरबेरु )
( मधुयष्ट अथवा द्राच्ता ) बच, कोर ( बेर ) का चर्ण, जामुन नागरमोथा, इन्द्रजो, सारिवा, अरिष्ट ( नीम), कटुकी;
की छार, देवदार ओर सर्षप सब भिराकर एक प्रसत (८ तो०) चिरायत, त्रिफटा, वच, गिरोय, मुख्हरी, दाक्ष, दशमूल,
चूण मघु के साथ सेवन करना चाहिये ! यह दूषित दुग्ध के दीपनीय द्रव्य, रक्तोघ्न ८ श्वेत सरसो >) तथा पटोखादि गण
ख्ये भ्रष्ठ शोधन हे । | की जोषधियां ये समी दुग्धके शोधक ह। इनमेसे जोर.
द्रव्य प्राप्त हो सके उनका कषाय चनाकर सेवन करने से चिर-
वक्तव्य--८ तोर की मात्रा जजकरु के अनुसार बहत कालीनक्तीरदोषभीक्लीघ्रही दूर हो जतेहँ।
जधिक हं । इसे समयानुसारं रोगी के बरु को देखकर कम वक्तव्य-स्तन्यश्ञोधक-- चरक मे निम्न १० स्तन्यशोधक
किया जा सकता हे ।
षधियां दी रईद-पाठमहौषधसुरदारयुस्तमूर्वाय॒ड्ूचीवत्सकफक-
शङ्कवेरपटोलाभ्यां पिप्पलीचूणेचूर्णितम्‌ । किराततिक्तकडरोहिणीसारिवाकषायाणं च पानं प्ररास्यते। तथा-
यूषपथ्यं विदध्याच्च छन्नपानं च यल्लघु ॥ ऽन्येषां तिक्तकषायकडकमधुराणं द्रव्याणां प्रयोगः क्षीरविकारविशे-
जाद्रंक तथा पटोलपत्र के रस सरे पिप्परीचू्णं का सेवन षानभिसमीद्य माघां कारं चैति क्षीरविद्ोधनानि ! इसी प्रकार
करना चाहिये तथा साथ पथ्यके रूपसें यूष ओर ल्घु सुश्रत. सू- अ. ३८ में स्तन्यशोधन के ख्ये वन्ादि, हरिद्रादि
अन्नपान का प्रयोग करना चाहिये । तथा स्वादि तीन गग दियै है--वचासस्तातिविषाममयाभद्रदा-
वक्तन्य--१८ गुने जरू में मूग आदिको पकाने से यूष रूणि नागकररं चेति । हरिद्रादारुहरिद्राकलक्षोकुटजवीजानि सधु
सिद्ध होता हं । कहा है--अष्टाददायुणे नीरे िम्बीधान्य शतो रसः । चेति ॥ एतौ वचाहरिद्रारी गणौ स्तन्यविशौधनो । सुस्ताहसिद्रादाह-
विर्लान्नो घनः किञ्चित्‌ पेयातो यूष उच्यते । अथवा--करेदलान्‌ हरिद्राहरीतक्यामरकविमीतककुष्टहैमवतीवचापाटाकटरो हिणीसाङ्गंट-
वितुषान्‌ श्रष्टान्‌ चतुभांगाभ्ुसाधितान्‌ ¦ निष्पीड्य तोयमैतेषां संस्कृतं तिविषाद्राविडीमहछातकानि चित्रकश्चेति! एष युघादिको नाम्ना
यूष उच्यते ॥ यूष चेया से कु गाढा होता है ! इसीरिये कहा गणः दलेष्मविषूदनः । यो निदोषहुरः स्तन्यशोषनः पाचनस्तथा ॥
“यूषः किञ्चित्‌ घनः स्मृतः 1 | पटोरादि गण--घुश्चुत सू. अ. २८ मे कहा है--गयेख्चन्द-
धातकीपुष्पमेला च समङ्गा मरिचानि च । नकुचन्दन मूर्वां गुडू्वी पाठ कङ्रोदिणी चेति ।
जम्बूत्चं समधुकं त्तीरशोधनमुत्तमप्‌ ॥ सन्ञोद्रः कफसंसृष्टे सघृतः शेषयोभेवेत्‌ ।
धाय के एरु, एका, मंजीट, मरिच, जामुन की छाल तथा नेत्येके श्लेष्मणः स्थानात्‌ तीरं हि कफसंमवम्‌ ॥
सुरूहटी का चूर्णं उत्तम दुश्वश्ोधक होता है उपयुक्त कषाय कफसे दूषित हए दृधकेख्यि मघुके `
नाडिका सगुडा .सिद्धा हिङ्कनातिसुसंस्छृता । साथ तथा शेष दोनो ( वात तथा पित्त > से दूषिते धरत के
क्षीरं मांसरसो मद्यं तसीसवधनमुत्तमप्‌ ॥ | साथ देना चाहिये !कुच विद्वानों का मतहै किद्से धरत के
वाजीकरणसिद्धं वा क्तीरं स्षारविवधनम्‌ । साथ नहीं देना चाये क्योकि घृत श्रेष्मा (कफकेका
श्ृततेलोपसेवा च बस्तयश्च पयस्कराः ॥ स्थान है तथा दुग्ध कफ से उत्पन्न हजहै\ `
नाडिका ( काटशाक >)को गुड के साथ सिद्ध करके उसे |
मसुराः षष्टिका मुद्राः कुलत्थाः शालयो धृतम्‌। `
गृठ्यमाज पय. काले लबण चाप्यनौद्धिदम्‌ || -. `
हग तथा जायकफर से सुसंस्कृत करे ! यह सुसंस्छत योग
दूध, मांसरस, तथा मद्य जथवा वाज्ीकरण के निमित्त अथवा प्हारषिधिरदिष् यशोधनकालिकः ।
वाजीकरण ओषध्यो से सिद्ध किया हुजा दूध, षृतसेवन, गुवन्न्नेदमां सानि दिवास््प्नं च. वज्ञयेत्‌ -॥ .
८ काश्यपसंहिता षा बृद्धजीवकीयं तस्त्रम्‌ | [ दीरोत्पर्यध्यायः १९

दुग्धशोधन कार सें मसूर, पश्टिक ( सादी के चावरू ), पकाया जाय । इस पाक्य ( पा्िख्वण या सौचर्चर रवण ),
| = पता ज व

[भ

मूंग, कुटथी, शालि चावल, धृत्‌, गोदुग्ध, अजादुग्ध र गुड, विडरुवण अश धृत मिलाकर शालि चावरो का सेवन
अनौद्धिद ८छत्रिम ) ख्वण आदि आहार का सेवन करना करने से श॒ष्कसतनी ८ जिनका दूध सृशख गया है ) खयो के
चाहिये तथा गुरं अन्न, स्निग्ध दव्य, मांस एवं दिवास्वप ्न भी दूध आजाता हे ।
का व्याग कर देना चहिये । | शालिषष्टिकदर्माणां इशगन्द्रेसकटस्य च ।
वक्तम्य-चरक शा. अ. ८ से सीरशोधन कार मं निस्न सारिवावीरणेत्तूणां मूलानि इशकाशयोः ॥
आहार विधि दी गर है--प्ानाशनविषिस्त दुटक्षीराया यवगो- पेयानि पूकल्पेन श्रेष्ठं सीरविवधेम्‌ ।
पूमशालिषििकमददरेणुकढरत्यखरासौवीरकतषोदकमैरेवमेद कलन सखभावनष्टे शुष्के वा दुष्टे साध्वीक्तिते हितम्‌ ॥
करग्रायः स्यात, क्षीरदोषविरेषाश्वावक्यापेश्च तम्तदधिधानं कारय इसी प्रकार शारिधान्य, षष्टिक-घान्य, द्भ, कुश, गुन्दा
स्यात्‌ ॥ यव गोधूम आदि के सेवन के साथ २ दूध के ( जरूज दर्भ), इच्छट ( तेण मेद्‌ अथवा शर >) सारिवा,
दोषो की परीच्ता कर के उन दोषो के अनुसार ही अन्नपान के वीरण ( खस ) इतत, कुश्च तथा काश की जडं लेकर उनके
उस २ विधान का पालन करना चाहिये! साथ दुग्ध का संस्कार करके पूर्वोक्तानुसार क्राथ वनाकर
शोधनाद्रा खभाघाद्ा यस्याः चीरं विशुध्यति | सेवन करना दूध फे वदने का शरेष्ठ उपाय माना गयाहे।
तस्याः त्तीरप्रजनते प्रयतेत विचक्षणः ॥ उपर्युक्त म्रयोर्गो से स्वभाव से ही नष्ट, शुष्क अथवा दृष्ट दोषं
` विदान्‌ मैच को चाहिये किं उपर्युक्त शोधनो द्वारा अथवा ( नजर रूगने ) से दूषित हृजा दुग्ध पुनः शुद्ध सूप में
खम से ही जिस खी का दूच सुख जाता है उसके कीर प्रवर्त होने र्गता ह!
जनन ( दुग्धन्द्धि ) का प्रयटन करे । वक्तन्य--त्तीरीघरक्ञ-न्ययोधोदुम्बराश्वत्यपारीषप्लक्षपादपाः ।
मधुरास्यन्नपानानि द्रवाणि लवणानि च | चरक शा० अ०८ में दुग्धवधेक ओषधियां निम्न दी ईै--
॥ क्षीरजननानि त मचानि सीधुव्ज्यांनि माम्यानूपोदकानि च शाक.
मद्यानि सीधुव्यानि शाकं सिद्धाथकाटते
% € ^

धान्यमांसानि द्रवम्ुराम्लमूविष्ठाश्वाहाराः क्षीरिण्येश्वौषधयः क्षीरपानं


वराहमहिषादू्वं मांसानां च रसो हितः | चानायासश्चेति, वीरणराल्षि्ठिफेचिवन्लुबालिका दसंकुरकारय॒न्दर
लशुनानां पलाण्टरनां सेवने शयनं सुखम्‌ ॥ त्कटमूलकषायाणां च पानमिति क्षीरजननान्युक्तानि । इसी म्रकार
(क्रोधाध्व)मयशोकानामायासानां च जनम्‌ । सुश्रत श्ा० अ० १० स कहा ह ~ कोषसोकोवात्सव्यादिभिश्च
~या भवति बस्स इति कीरविवधनम्‌' ॥ खियाः स्तन्यनाशो मवति । अथास्याः क्षीरजननाथं सौमनस्य-
आगे इुण्धन्रद्धि के स्यि बहुत से प्रयोग दिये गये ई । सुत्पाच यवगोधूमराखिषिष्टिकमक्तिरससुरातोवीरकपिण्याकटज्चुनमत्स्य-
मधुर अन्नपान, द्रवपदार्थ, लवण, सीधुरहित म, कसेरुकश्ङ्ारकविसविदारौकन्दमधुकरतावरीनलिकालावृकारदाकप्र-
सिद्धार्थक ( श्वेत सरसो ) से भिन्न शाक, सूअर तथा महिष यृतीनि विदध्यात्‌ ॥ घोष के मैरीरिया मैडिका में सिखा
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वक्तव्य--सीधु-गन्ने के रस से बनाई हई सद्य ( भंप इप्फङ्ग ज € छक्णपाष्पपृ ९12०8 28 तलि शिण) कीलाः
015४166 ‰०००. ऽधः ०६०८ प)०८) को सीधु "कहते है । 12003. पऽ श 10०क्ष0, स61) 16768868 {06 56न 6
यह पक एवं अपक्त मेद से दो प्रकार की होती हे । भावभकाशच 0) ग जपन 21208, 085 70 &6५# © #6 ऽध्वनः ग |
म कहा है--दश्षोः पक्वैः रतैः सिदढः सीधुः पकरसश्च स । आमेसतै- 1011, एा.ग््र0 एप्लुभ8003 08.76 066 प३6्व्‌ 10 7161
रवयः सीधुः स च शीतर्तः स्मृतः॥ इसी. प्रकार शङ्खधर €&5€ 860761101 0 ८१11, ८68 13 8प्]000०86त #0 06 > {प
संहिता मे भी कहा दै-हेयः शीतरतर्शीधुरपकमधुरदरवैः । ६००४९९०९. पाश्चात्य चिकित्सा वित्नान सँ 219060४2 €
सिद्धः पकरसरदीधुरसपकमधुरद्रवः ॥ ४०6४, (सपण द्म तथा ८" मुख्य स्प से
बटादीनां च वृक्ञाणां चीरिकायाश्च वल्कलम्‌ । दुग्ध-वर्धक ओषधियां मानी गई हँ । स्तन्यवर्धन के ल्यि
उपयुक्त सब ओषधियां प्रयोग मे छाई जाती है परन्तु वास्तव
` पाक्यः कषायः कथितः चीरं तेन पुनः तम्‌ ॥ मेँ स्तन्यप्रवृत्ति का मुख्य कारण ( ०60 ) मानसिक है
पाक्यं गुडबिडेपेतं सघृतं शालिमाशयेत्‌ ।. अर्थात्‌ माता या धात्री का. वारक के प्रति प्रमया आकर्षण
शपि शुष्कस्तनीनां तत्‌ च्ीरोपजननं परम्‌ ॥ मुख्य कारण है । यदि धात्री को वाख्कके प्रति प्रेम या आकर्षण
वटादिवृच्त एवं सीरी चर्त की छट का काथ बनाकर नहीं है तो उपर्युक्त सब उपाय रुगभग व्यर्थं सिद्ध होते हँ ।
उसमे यवक्ञार डां । अव इसमे क्षीर ( दूध ) डउारुकरं पुनः इसलिये सुश्च॒त के निदान स्थान अ० १० मे कहा है कि शुक
१, अपरया या भवेत्तस्या एतत्‌ क्षीरविवधनम्‌ शति पाठ्श्चेत्‌ साघु । परवृत्ति के समान स्तन्यप्रवृत्ति भी मानसिक भावों पर आश्रित `
सीरोव्पच्यध्यायः ५६] सूत्रस्थानम्‌ । ९
अ +
9४१
० ए कक थ +. 1 # 2 त ~ ~ ~ 0 7, शा त ^ 7)
क^ ककव 0 0
प १/1

है--आदाररसयोनित्यादेवं स्तन्यमपि खियाः । तदैवापत्य संपद्‌ स्तनरोगों का कारण--जव धात्री अन्नपान ( खाने पीने)
द्च॑नात्‌ स्मरणादपि ॥ ग्रहणाच्च शरीरस्य शुक्रवत्संमवतेते ॥ स्नेहो क साथ "वच्च" को खाजाती हेतो वह वञ्च अन्न न होने से
` निरम्तरस्तत् प्रत्र हेतुरुन्यते ॥ जब माताप्रेम से बाख्क को ( ग्ल" ४००१ होने से ) पच्यमानावस्था जधवा पाकावस्था
देखती है अथवा उसे गोद मे उटाती है तव उसके स्तनो मै नहीं पचता हे । न पचा हजा वह “वज्ज वेद्‌ को प्राप्त
की ओर रक्त का प्रवाह वद्कर्‌ उनसे दुग्ध का खरावदहोने हुआ २ वायु से धकेरखा जाकर रस के साथ भिर्कर स्तन्यवहा -
लगता हे | रा ( २००००४० १०५३ >)स पटच जाता है । इससे खिरयो
अन्यादतवलाङ्कायुरयेगो बधेते सुखम्‌ । के सव खरोत वन्द हो जाते है इस प्रकार वह स्री के स्तनो
लक्तणप्‌ ॥ पदहूचकर शीघ्र ही विकार उत्पन्न करता है । अर्थात्‌ जव सखी
शिश्ुधाश्योरनापत्तिः शुद्धचीरस्य किसी रेसे विजातीय द्व्य का सेवन कर ठेती है जो वास्तव
शुद्ध क्षीर के रक्षण--वारूक के वरू, अङ्ग तथा आयु सशरीर के स्यि साम्य न हो तव वह विजातीय द्भ्य
अव्याहत ८ निर्बाध `)हो, वह रोगों से रहित ( स्वस्थ „)होकर ( 1०"6&० ४०९४ > होने से शरीर मँ परचता नहीं है तथा वह
सुख पूर्वक बृद्धि को प्रप्त होता हो तथा रि्टु एवं धात्री रशवाहिनी श्वोतो के मार्ग बन्द्‌ कर देताहै। इस प्रकार वह
को कोहकष्टनहोतो दूध को शद्ध समञ्चना चाहिये । मल स्तर्नौ मेँ पट्ुचकर विकार उस्पन्न कर देता हे ।
वक्तन्य--चरक शा० अ० ८ मे शद्ध स्तम्य के निश्च भौतिक रूपाणि पीतवज्रायाः प्रवद्ध्याम्यत उत्तरम्‌ ।
गुण दिये है-प्रकृतवरणंगन्धर ससपरसुद पत्रे दुद्यमानयुदके व्येति,
म्रकृतिभूतत्वात््‌ , तत्युष्टिकरभारोग्यकर च्चेति स्तन्यसम्पत्‌ । जिसका
्रजीणैमरतिर्लानिरनिमित्तं व्यथाऽरुचिः ॥
वर्णं गन्ध, रस तथा स्प स्वाभाविक ह ओर जो जख्युक्त पर्वभेदोऽङ्कमदेश्च शिरोरग्‌ द्‌( च पुमः ।
पात्र से दुहा जाने पर जरूके साथ मिरुकरं एक हो जाय कफोत्कलेदो उ्वरस्वृष्णा विड्भेदो मूत्रसंग्रहः ॥
वह दूध शुद्ध होता है । इसी प्रकार सुश्चुत शछा० अ० १०. स्तम्भः साव कुचयोः सिराजालेन संततः ।
भी कहा है--अथास्याः स्तन्यमप्यु परीक्षेत, तव्ेच्छीतरुममकं तनु शोथशलरुजादाहैः स्तनः स्पष्टं न शक्यते ॥
दा्वमाक्तमप्छु न्यस्तमेकीमावं गच्डत्यफेरिल्मतन्तुन्नल्छवते न स्तनकीलकमिव्याहूरथिषजस्तं विचत्तणाः ।
सीदति वा तच्छुदमिति विद्यात्‌ । तेन कुमारस्यारोग्यं शरीरोपचयो
कीलवत्‌ कठिनोऽङेष बाधमानो हि तिष्ठति ॥
बलवृद्धिशच भवति । यही रकण सुश्रत निदान स्थन में भी दिया
हे -यतक्षीरयुदके क्षि्मैकोभवत्ति पाण्डुरम्‌ । मधुरं चापिवणं च अव में “पीतवच्नाः ( जिसने वच्च का सेवन कर खिया है )
प्रसन्नं तष्टिनिदिशेत्‌ ॥ | खी के रक्त्णो का वर्णन करूंगा । पीतवञ्ञा के लन्षण--उस
खी को अजीर्ण, अरति, ग्लानि, विना कारण के शरीर सं पीडा,
संभवन्ति महारोगा अशद्धत्तीरसेवनात्‌ । अर्चि, पर्वमेद्‌ ८ सन्धर्यो मे पीडा >), अङ्गदं, शिरःशरूल,
तेषामेवोपशान्तिस्त॒ शुद्धकीरनिषेवणात्‌ ॥ दवथुः ८ आंखो मे जरुन अथवा करवधु-छीक ); अङ्गय्रह-
अशुद्ध दूध के सेवन से बाख्कको कडंव्डेरं रोगहो कषौव्दरेद्‌ (कफ के कारण जी मचरूाना ) उवर्‌, तृष्णा;
जाते । शद्ध दूध के सेवनसे वेदी रोग शन्त हो जाते चिड्मेद ( अतिसार ), मूत्र कौ र्कावर, स्तनो सं स्तम्भ
हे । अर्थात्‌ दिष्ट दूध पर दही आश्रित होताहे । यदि दूध ( अकड़ान >)खाव ( 5592९) होते द ओर चारों ओर
दोष-युक्त होगा तो उसे अनेक प्रकारके रोग दहो ज्ेगे। किराओं का जार ८ ९४०५ >)दिखाई देता हे 1 तथा शोथ
यदि दूध शुद्ध होगा तो सब रोग शान्त हो जाते हँ! ( (पीपा ), शूल ( रश्म ), सुजा ( स्पर्ाकमता
8९05210 ) के कारण
तृणे कीर तुषं शुकं मकिकिाङ्खमलाष्टकम्‌(ङानि लोष्टकः) । १{€04€11688 ) तथा दाह ( एप

केशोर्णास्थ्यादिकं विद्याद्रज्मि्युपचारतः ॥ स्तन का स्प नहीं किया जा सकता । बुद्धिमान चिकिस्सक


४ 7
इसे स्तनकीरुक ( स्तनविद्रधि 2050९58 >)कहते
वञ्च का रकण--तृण, कीट ( कीडे ) तुष (धान के ह! इसका यह नाम इस चयि है कि यह कीर की तरह
छिरके >)शूक ( ऊर्गादि भक्तक कीट ), मकरो के हरीर के किन होकर अङ्खो मँ बाधा पहुंचाता हा विद्यमान रहता है ।
अवयव तथा लोष्ठ ( पर्थर ), केशा, इन तथा अस्थि आदि
थे सब उपचार से वञ्च कहते हे । एष पिन्तात्मना शीघं पाकं सेदं च गच्छति |
सद्यन्नपानेन यदा धात्री वजरं समश्नुते । कृफाचचिरं क्लेशयति वातादाशु निघतंते (विवधते) ॥
` पच्यमानेन पाकेन दह्यनन्नत्वान्न पच्यते ॥ शाखाशिरोभिसु यदि वषिमा्गन्नि प्रपद्यते 1
अपच्यमानं विक्किन्नं वायुना समुदीरितम्‌ । ` छ्राछ्ष्यमाणं बाज्ञेन चिप्र निधांवति स्तनात्‌ ॥
रसेन सह संप्र याति स्तम्यवहाः सिराः ॥ नि्द्यमानमुत्पीडाष्रचं सकदीरशोणितम्‌ |
स्वखोतांसि दहि सखीणां धित्रतानि विशेषतः । द्मथबाऽभ्येति सहसा म्रव्यच्तं॑ चोपलभ्यते ॥
तत्‌ पयोधरमासाद्य चिप्र विङ्करुते सिया: ॥ यदि पित्त की अधिकता हो तो ग्रह स्तनकीर्क
२ काण
९१० कारयपसंहिता वा बृद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । [ दन्तजन्मिकाध्यायः २०
ल न 7) [| व # क+ १ ५,.८०५ ८ “ त ४ र थ ५

( 21910 041 -\ 3५९38 ) दीध्रही पक जाता हं तथा पककर करती है, दृसरे के यहां जिसका खार्न पार्न ( पोषण )
फूट जाता है । कण के कारण यह चिरकाल तक कृष्ट देता हं एवं तर्पण होताहै, तथा जो दूसरे के धर मे रहती ह~-वह
तथा वायु के कारण शीच्रही चट्‌ जाताहै । बाल्कके दारा स्तनकीरुक नामक रोग से मुक्त हो जाती है । अथात्‌ उपयुक्त
स्तनपान के समय आष्ट होता ( चूसखा जाता) जा प्रकार की धात्री को स्तनकीरक्‌ नामक रोग नहीं होतेदहं।
यदि वह जख! तथाक्षिर आदिकेद्रारा विपरीत मोम | दशंनीयौ स्तनो पीनो दुजातो संहतौ समी ।
न चला जाय तो स्तनके द्रा सीघ्र दही वाहर निकरु जाता सुकरौ पय॑कीलो च दृश्रा खीक्त(ल्विच्छ)न्ति दुद्टदेः ॥
है । अथवा यदि उत्पीडन करके ८ दवाकर ) दोहन किया ततो रजामवाप्नोति कायं तन्त्रादचारणम्‌ ।
जाय तो वह च्वच्चः दुग्ध तथा रक्त के साथ सहसा प्रव्यक्त
रूप से बाहर निकर आता है । इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ।
वक्तव्य--आधरुनिक विच्वान के अनुसार स्तनकीर्क को ति रीरोस्पत्तिर्नामाध्याय उनर्विंशतितमः ॥ १९॥
कप ^ 056688 या ^ 9०5९638 ०६ 116 31685; कहा 0-४-०८) ५-*

जा सकता है खे बदुकर 03८" का रूप धारण कर सकता जिस मता या धात्री के स्तन दशनीय (सुन्दर ) मोटे,
है । यह्‌ स्तनकीरुक या अन्य कोई भी स्तनरेग साधारणतया सुन्दर आष्कुति वारे, . उत्तम संघात वारे हो त्था दोनों
गर्भवती या प्रजाता चयो को ही प्रायः होताह । सुश्रुत स्तन आकार म समान; सन्दर ओर अगे से गोर, घुण्डीदार
संहिता के निदान स्थान सै स्तन रोर्गाका वणन करते इष्‌ होते है, ग्ड देखकर दुष्ट जन ईषया करते ह ( अर्थात्‌
कहा है--भमन्यः संदृत्मरा कम्यानां स्तनसं्रिताः । दोषानिस- उनकी नद्धर ख्गजातीहे) । इससे धाच्री या सातार्गण
रणात्तासां न भवन्ति स्तनामयाः ॥ तासामैव प्रजातानां गभणीन। हो जाती है । इससे तान्न भ्रक्छियार्भो का प्रयोग करना
च ताः पुनः । स्वभावादेव विवृता जायन्ते संमवन्त्यतः ॥ सक्र चाहिये 1
वाऽप्यदुग्धो वा प्राप्य दोप स्तनो स्याः ¦ रक्तं मामं चरः दूष्य
स्तनरोगाय कलयते ॥ प्रसव या गर्भावस्था से पधं खिर्यो पटरटृत्याममास इ प्न नय चतुष्पथम्‌ ||
स्तन-संभ्नित दुग्धवह खोतस्‌ ( 19५4615 ) संकुचित होते एतच्छत्वा वषचस्तथ्यश्रृषिपलन्यः प्रहषिताः ।
ह अतः उनसे दोषो का प्रवे नहीं हो सकता है । गभावस्था प्रशशंसुमेहा्मानं कश्यपं लोकपूजितम्‌ ॥ `
म या प्रसव के बाद वे स्वयमेव विस्तृत हो जाती हं इसखिये उससखीको कच्चा मांस डारुकर रच्रिको चोरहे परे
उनसे स्तनरोग होने की संभावना प्रायः बनी रहती है । जाना चाहिये । इस तथ्य बचन को सुनकर ऋषि पल्िय
घृतपानं प्रथमतः शस्यते स्तनकीलके । बहुत प्रसन्न हुई तथा खोक पूत महात्मा कश्यप की
` खोतांसि मादेवं स्तेहाघान्ति वजरं च च्यान्यते | ग्ररंसा की । एेखा मगवान्‌ कडर्यपने कहा था ।
निर्दह मदनं युक्त्या पायनं च गलेन च।
इति करीरोत्पत्तिर्नामाध्याय उनर्विशतितमः॥ १९॥
॥ ( इति ताडपच्नुस्तके ३३ तमं पत्रम्‌ । )
| ००००
शीताः सेकाः प्रजेपाश्च धिरेकः पथ्यभोजनम्‌ ॥
खाव्णंचाविदग्धस्य दोषदेहन्यपेक्या ।` 1वदाततमाऽध्यायः।
स्य पाटनं कुर्थान्मृजां विद्रधिवस्च तत्‌ ॥
अथातो दन्तजन्मिकमध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
स्तनकीलक की चिकिससा--स्तनकीर्क की चिकित्सा में
सवं प्रथम घृतपान कराना चाहुये } इस प्रकार सेह से स्रोत
इति ह्‌ स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥
गदः हो जाते है तथा 'व्र निकर जाता है 1 इसके लिये अब हम दन्तजन्मिक ( दतो की उप्पत्ति का जिसे
युक्ति पूवक रोहन (दूध निकार देना) सद॑न, तथा गरे वणन हो ) अध्याय का व्याख्यान करेगे । एेसा भगवान्‌
(मुंह ) से ओषधि का पान कराना चाहिये । फिर ॒शीतसेक कश्यप ङ्हा था)
( &०9 (ण्ण ), ग्ररेप, विरेचन तथा पथ्य भोजन थ खलु भगवन्‌ देहिनां जातानामभिव्धमा-
देना चाहिये । दोष तथा शारीर (इन दनी के वख) को
दृष्टि मे रखते हए अविदग्ध ( अपक ) विकार का ख्ावण नानां कतिषु. मासेषु दन्ता निषिच्यन्ते, निषिक्ताश्च
करना चाहिये ओर पके इए का चिद्रधि की तरह पाटनं कियता कालेन मू्तौभषन्ति, मूतीभुताश्च कदोद्भि-
| (€ 0 {01615707 ) करना चाहयं । दन्ते, कानि चेषां पृचरूपाणिः के चोपद्रवाः, क्ये
परवद्धितभोक्की च परालालिततपणा । षामुपक्रमः, किञ्च दन्तजन्म प्रशस्तमप्रशस्तं च कि;
परवेश्मरता धात्री मुच्यते स्तनकीलकात्‌ ॥ कस्माच्च समङ्खमभिवधमानं प्राणसंशयाय भवति;
जो धात्री दूसरे के यहां हितकारक (पथ्य ) भोजन. कियन्तश्च दन्ताः, कतिचेषां द्विजाः; कियता च कालेन
दन्तजल्मिकाध्यायः २० ] सूत्रस्थानम्‌ । §१
क श ^क (++ ॥ + 9 00 0

पतन्ति, पतिता वा जायन्ते, दन्तसंपदसंपच्च जाता है । उन दोन (राजदन्त) के पार्॑ञं दोनों ओर


वस्त ( 1016781 {05675 ) होते है, आर इनके दोनों भोर
कीटशीति । ३॥ दंष्ट्रा ( श्ीवनकीरुक, (५१०९ या ध; {660 ) होते ।
भगवन्‌ !प्राणियों के उस्पन्न होकर घते हुवे कितने मासं ( इस प्रकार ये & हुए ) शेष ॒स्वरूढ ( अपने उसी स्वरूप में
स दातो का निषेचन होता है (अर्थात्‌ मसूडों फे अन्दर वदने वारे ) हानव्य अर्थात्‌ हसुमरदेश में होने वारे ( चवंग
दांत वैठते ह ), निषेैचन के कितने समय वाद्‌ वे मूत॑रूप दन्त-8)0पऽ9५5 07 1019718 ) काते ह ( अर्थात्‌ ये १०
धारण करते है, मूर्तरूप होने के बाद कव प्रकट होते दुवे ) इसी प्रकार नीचे की पंक्ति में भी समन्नना चाहिये
(एते) है, दातो फे निकरे के क्या पूर्वरूप होते है, ( अर्थात्‌ २० हानभ्य ओर ५२ दोष हुवे इस प्रकार ऊरू ३२
दन्तोद्धेद ॐ समय क्या २ उपद्रव होते दहै, इन उपदवर्योकी दांव होतेह), वि |
क्या चिकित्सा हे, कौनसी दन्तोत्पत्ति परशस्त तथा कौनसी वक्तन्य-आघुनिक मतानुसार भी दन्तोद्धेद्‌ दो प्रकार
अप्रशस्त मानी गर हे, तथा वर्यो दांत अपने निश्चित परिमाण
कामाना गया है 1८१) बाल्यावस्था (1णण्प्मु ) सेंतथा
से अधिक बद्कर प्रार्णो के छ्य मय ( संकट) उत्पन्न (२) किशोरावस्था ( 0५००००० ) मे । दातो के प्रथम
कर देता हे, दांतों की संख्या कितनी होती है, इनमें से द्विज समुदाय (६) को दूध के दांत” (भार ष्ट्या र्म
(दौ बार होने वारे) कितने है, ये कितने समय में गिरते प्प्‌ [06४०४ ) कहते हैतथा दूसरे को “स्थायी दंत
ह तथा गिरकर पुनः निकर आते है, कौन से दन्तसंपत्‌ तथा ( उत्व्ण्णत्यए 26001102 ) कहते ह|
कोन से असंपत्‌ होतेह । प्रथम समुदाय के दांत (दूधके दांत ) बच्चे के उत्पन्न
अथोवाच भगवान्‌ कश्यपः--इह खलु चरणां होने के कं मास पूर्वंमसूडो के अन्दर बीज रूप से (6९८५5)
दावि शदन्ताः, तत्राष्टौ सक्रञजाताः सवरूढदन्ता भवन्ति; विद्यमान होते हँ । धीरे २ उनमें अस्थिनिर्माण (059 ४०क०य)
तः शेषा द्विजाः ¦ यावत्स्वेव च मासेषु दन्ता निषि प्रास्महोता है तथा दातो की आचरति बनकर बते इवे
च्यन्ते ताघरस्वहःसृद्धियन्ते । यावस्स्वेव च मासेषु मसूरो को विदीर्ण करके बाहर पट आते हैँ । इसी को हम
जातस्य सत उद्धिद्यन्ते ताषस्स्वेव च वर्ष॑षु पतिताः न्तोद्धेद्‌ या 1९०४०)५६ कहते हे । इस संहिता के उपर्युक्त
प्रकरण मे इन्दी तीर्न अवस्थां के स्यि करमशः निषिक्त,
पुनरुद्धियन्ते । तत्र मध्ये द्ावुत्तसो रालदन्तसंज्ञो मूतिमान्‌ तथा उद्धेदन शब्दं दिये गये ँ। इस विषय में
भवतः, तौ पथित्रौ, तस्मात्ताभ्यां खर्डे न श्राद्धमहेतिः 1011 की 219८०2600€0४ ४224 12064168 176806४ रग
अपपिच्रो हि सः । तयोरभयतः पाश्वेयोरपि वस्तौ(0; न71द7 30 10079 नामक पुस्तक के ५५ पृष्ठ पर लिखा है--
तयोरपि द॑, शेषाः स्वरूढा हानव्या इति चोच्यन्ते; (16 एद््पऽ ग चल पि ( पपार 0 प्ट्णकनक्पफ ) शलः
तथाऽधस्तात्‌ । ४॥ 195 €४ 15९4. स11110 06 ]कम 707 36१९8] 11011415 00.
76 एप्प, एप चाल€ ४ 00 € ९0ा९त्‌ रो प्रप
भगवान्‌ कश्यप ने उत्तर दिया--मनुर्ष्यो के ३२ दांत
100९. 45 05510.081107 80780068, 16 {000 1565 कपतं
होते है, इनमे आट सदनात ( केवर एक वार उत्पन्न होने
एलं०श पए 8 6६5९8 90807४0 07 1४8 =09.8प]6
वारे ) तथा उसी अपने स्वरूपमें ही बढ़ने वारे होते हे ।
224 € छप, {111 ए चपलो पहप्यठरन्य्‌ ५06 00 0868
दोष ( २४) द्विज ह । जितने मास मे दातो का निषेचन
15 अणा 91106. 1115 एकत्‌ [070द्1658, 11 208 [कः 58
होता है उतने ही दिनम बे षएटूट आते ( अर्थात्‌ यदि
2९3, 15 फ फ€ लन 1160 फट ४ष्यू 0 १ लल010&91,
चार मास सें दांत निषिक्त होतेह तो चार दिनि मँ वे फूटकर
बाहर निकल अति हँ ) ओर वच्चे के उन्न होने के बाद्‌ | दूध के दांत निम्न करम से निकरूते है-
जितने मास मे दांत षटते ८ निकलते ) हँ उतने ही वर्षो १, निचरे मध्य के त्रोटकं ( {0 भला ०९८१] पलेऽहः§ )

जें गिरकर वे पुनः निकर आते हं ( अर्थात्‌ यदि छठे मास ५से दस मास |
मै दांत निकल्ते हों तोवेदठे वषं मे गिरकर पुनः [स्थायी २ उपर के चार्यो त्रोरक ( प्ल (लार्‌ 12681 1४-
038 ) ८ से १२ मास | |
दांत ] निकर आते है ) । उपर की पक्तिमे बीचकेदो
दांतों का नाम राजदन्त ( मध्य घ्रोरक-(०५४] 1005875 ) ३. निचरे पाश्च के ्रोटक ( 10055 » तथा निचरे जोर
होता है, उनको पवित्र माना गया है, इसरिये उनके खण्डित ऊपर के प्रथम चर्ण ( 15 प्णः5) १२ से १४ मास
हो जाने पर मनुष्य श्राद्ध के योग्य नहीं रहता अर्थात्‌ वह ४. निचरे तथा ऊपर के शीवन या शीख्क ( 0५४ण्८ या
किसी का श्राद्ध नहीं कर सकता है, क्योकि वह अपवित्र हो एफ<ष्वला) १६ सेररेमास `
द्विज = ( द्वि्जीयन्ते-दयौ वार उगने वके ) अर्थात्‌ दूधकं ५. निचरे तथा उपर के दूसरे चर्बेण (2ष्व प्ण)
दात-ध111 !ब्लौ४, क्योकि दूध के दातत एक बार भिर कर २४ से ३० मास | ~
दो वारा उगतेदहै। | इस प्रकार इन २० दातो के निकरने केसाथ रदवं
१२. काश्यपसहित चा दृद्धजीवकीयते त्रम्‌ । [ दन्तजान्मकाध्यायः २०
पो म न त प त प 0 ४
च + करक
त म प ५

की अवस्था तक प्रथम दन्तोद्धेद्‌ ( एप्प एतणतणः ) कुता इन सव बातो मे जाति की विशेषता, निषेक, स्वभाव,
पूण हो जाता ह !इसके वाद दातो का दूसरा सुदाय (स्थायी माता-पिता का अनुकरण ( पनन्वाक ) तथा अपने प्राक्तन
दांत या ईन्न्नातभला लप्र) प्रारंभ होता हे। प्रथम कमो की अपेक्ता होती है एेखा प्राचीन महषि कहते ईह, तथा
समुदाय कै दातो के समान दूसरे समुदाय के दात भी जन्म अन्य भी शरीर की वृद्धि हास, गुण, दोष उत्पन्न होते हें ।
चे पूर्वंही मसु मे बीजरूप से थत होते दै परन्तु ये प्रथम वक्तव्य-- 1), {20914 2261500 अपनी पुस्तक "&0र
की अयपेक्ता भी अधिक गहरे होते हे । 17५) की पूर्वोक्त पुस्तक ०0116760 के १४ पृष्ठ पर इस विषय मे ्खिते है कि--
मही जगे छिखा हे-- 3178246 95 7 ध अणक, ४06 (ध धप्‌ 8101101 119111163 71 6 =क068.781166 0१ {€ 8५4
6105 07 {16 5९८०४ इल; 8150 6819160 1 ध16 षम 1016 16 {$€ (ल्ल तपैः 1] शणुलम् + 06 पलाध्तदप ४०५
पपा, प्ण वल्ल 862४6 += ध056 0 पल छर {16€ 080 € 0 त0पछ ॥086 &००व्‌ द्द्लरा पप 10 1111689
४९९. अर्थात्‌ दातो के बहुत से विकार तथा उनके निकर्ने के बहुत
स्थायी दांत निस्न कम से निकरुते है- से विक्त तरीके आलुवंश्िक प्रतीत होतेदँ। सुन्दर दात
९. प्रथम पश्चात्‌-चर्वण या त्रिमूटी (1 9. ८०98 )- निःसन्देह एक पारेवारिक देन है । अर्थात्‌ यदि माता पिता के
५ से ७ वर्षं दात अच्छे होते है तो प्रायः सन्तति के दांत भी अच्छ होते हे ।
२. मध्य के त्रोरक ( (ल १][पनरा8 )-६१्से ८ वर्षं नृणां तु चतुर्थादिषु मासेषु दन्ता निषिच्यन्ते |
३, पाश्च कतेन्रोरक ( 1.8{€81 11615675 )-५ सेर वर्षं तत्र सदन्तजन्म चः पूेमुत्तरदन्तजन्म च; विरलदन्त-
&. प्रथम चवण या द्धिमूरी ( 1 9. 8नप७08 )- ९ से
जन्म च, हीनदन्तता चः अधिकदन्तता च; करालद्‌-
११ वषं ` |
स्तता च, विवणेदन्तता च; स्फुटितदन्तता चामङ्खस्या
५, द्वितीय चर्व॑ण या द्विमूी ( 2 ०५. 8०5 )-
१० से १२ वषं
भवति । तन्न शान्स्यथं मारुतीमिष्टिं निर्वपेत्‌ › स्थाली-
६. श्ीवन या कीलक ( 0901165 07 € (लना, }-~ पाकमनादहिताग्नेः प्राजापत्यमिव्येकेः तथाऽन्येष्षपि
११ से १४ वषं स्वाङ्खोनाधिकभावेषुः तथा तद्धोरं प्रशाम्यति ॥ ६ ॥
७. द्वितीय पश्चात्‌ चवण या त्रिमूी ( १०. गऽ )-- पुरुषौ के ४ थे मास में दांत निषिक्त हो जाते है । सदन्तजन्य
११ से १४ वर्षं ( दांतों क सहित जन्य ), पहर उपर के दातो का निकलना
८. तृतीय पश्चात्‌ याचर्बण या त्रिमूढी या ज्ञानदन्त ( साधारणतया सवसे पहरे निचरे तथा मध्य के ्नोटक
` (६ ५. प्णक्मऽ 9 1500111 १6) --१६ से २१ वषं
10मऽय5 निकलने चाहिये ), दांतों का विररु ( दूर २-3५५.
या उससे भी बाद्में। ४५६1९ >)होना, दातो का कम होना, दातो की संख्या अधिक
होना, दांतों का करार भयंकर (-र्म्बे ) होना, दातो का
इस प्रकार ज्ञानदन्त ८ ए50०7५ 1९० ) के निकारने के
मखा होना, तथा दातो का स्फुटित होना ( खिरना >)आद्दि ये
साथर दातो की ३२ संख्या पूरी हो जाती है तथा दन्तोद्‌
मेद्‌ सब अशुभ माने गये हँ । इनकी शान्ति के ल्यि मारुती इष्टि
काकार्यभी पूर्णं हो जाताहे।
तच कुमारीणामाशुतर मत्पाबाधकरं च दन्तजन्मः ( यत्त ) करे । कुद छोग कहते हँ किं अनाहिता ञ्नि पुरषो की
स्थारीपाक ( पुरोडाश › प्रनापस्य इष्टि से करे । इसी प्रकार
सुषिरस्वादहंशानां मृदुखभावाच्च; प्रकृष्टकालमाबाधा- अन्य अङ्खोके कम या अधिकरने पररा ही करे जिससे
बहुलं तु कुमाराणामाचक्तते, घनव्वादंशानां स्थिरख्मा- वह अनिष्ट शान्त हो जाता हे । |
वाच्च 1 दन्तानां निषेकमूरित्वोदधेदब्रद्धिपतनपुनर्माव- तुर्धिधं तु दस्तजन्माचक्तते सायुद्रः संवरतं, धिवर,
निवृत्तिस्थितिपरिक्षयचलनपतनदटदुबेलता जातिषिशे- दन्तसंपदिति । तत्र सामुद्रं चयि; नित्यसंपातात्‌ , स्र
षान्निवेकात्‌ स्वभाषान्मातापित्रोरनुकरणात्‌ सखकमधि- तसधन्यं मलिषठ विवरं वीतमनिव्यलालोपहतमसंदन्न-
शोषाच्चेत्याचक्तते महषयः; तथाऽन्येऽपि शरीरब्रद्धि- दन्तत्वादाशुदन्तवेबस्येकरमासन्न(बाधमिति ॥ ७॥
हासगणदोषप्रादुरभावाः ॥ ५॥ चार प्रकार की दातं की उत्पत्ति मानी गई है-(१)
लडकिर्यो के दुत जर्दी निकिर्ते है तथा कष्ट मी कम सामुद्ध (२) संतरेत्‌ (२) विचरृत्‌ (४) दन्तसंपत्‌ । इनमें
होता है क्योकि उनके दांत सुषिर ( सच्छिद्र ) एवं खदु होते "सामुद्ग वच्चो के दातो के क्षयकी अवस्थामें होते है क्योकि
ह! ख्डकोंके दांत देर में निकरूते हैँतथा कष्ट मी मधिक उनके दांत सदा गिरते रहते दँ । संघ्त्‌-अधन्य ( अप्रशस्त )
होता हे क्योकि उनके दांत घन ( ठोस ) तथा स्थिर ८ दृद )
होते हँ । दांतों का निषेक, मूत॑रूप होना, प्रकट होना, बृद्धि, % दानैः प्रकुरुते यत्र दन्ताधरितोऽनिरुः ।
पतन ( गिरना ) गिरकर पुनः न निकलना, स्थिर रहना करालान्विकशन्दन्तान्स कराले न सिध्यति ।
( जम रना ),सीण होना हिरना, गिरना, इदता, एवं दुवः (मा, प्र. मध्यमखण्ड चि० ७२)
दन्तजन्मिकाध्यायः २० 1 सूत्रस्थानम्‌ । १३
गी प भवम
0 प क भक, न +
+ 9) मी ^ श + ^ ता^ ता, का स, का पा आ ,प सा यकता

है, इसमें दात मेरे होते ह । विवृत्‌-जिसमे निध्य खालाललाव वही रक्त, ॐ उत्पन्न होकर समान रूपं से वहने वारे व्यक्ति
( 8५ ) होता रहता है तथा होल द्वारा दातो के पूरे ठे मे क्रम से'ˆ" दतो को उत्पन्न करता ) |
नजनेके कारण दांतसेरे हो जते हो तथा उनमें सदा ( ताडपन्न पुस्तक भे २४ वा (पष्ट)
रोग होते रहते हो ॥ ७॥ | वक्तव्य-यह म्रम्थ खण्डित रूप से मिर्ता है इस चयि
चतुथे तु मासि दन्ता निषिक्ता दुबला मवन्त्याणुत त- बीचरेमेंहसके पृष्ठटुक्षहै। इस अध्याय में भी पूर्वोक्त
यिणश्चामयवहुलाश्च, पच्चमे स्यन्दनाश्च प्रह्षिणश्चास- विवरण के बाद प्रष्टौ के लुक्च होने से अध्याय को यहीं अधूरा
ही समाप्त कर देना पड़ा है । यदि यह अध्याय पूराहोता तो
यबसुलाश्च ष्ठे प्रतीपाश्च मलमादिणश्च विवर्णश्च घुणद्‌- संभवतः अध्याय के उपक्रम मंकहे हुए कद महत्व पूर्णं प्रश्नों
न्तश्च भवन्ति, सप्तमे द्विपुटाः स्फोटिनश्च राजिमन्तश्च की इसमे विवेचना मिरुती ।अस्तु, उस विषय मे तो जव
खर्डाश्च रुक्ख विषमाश्वोन्नताश्च मुषन्ति, तथ ष्टम तक इसका खण्डित रोषांश कहीं से उपर्ब्ध न हो तब तक
मासि सवरुणसंपन्ना भवन्ति,। पूता समता घनता हमे अपनी जिक्नासा को शान्त स्वना ही पडेगा पिरि भी
शुङ्कता सिग्धता छणता निमंल्तता निरामयता किच्ि- हम पाठको के ज्ञान के ल्यि आधुनिक चिन्नान की गवेषणा
दुत्तसेन्नतता, दन्तबन्धनानां च समता रक्तता खिग्धता के आधार पर यथा संभव प्रकाश्च डालने का प्रयत्न करेमे ।
बरहद्नस्थिरमूलता चेति दन्तसंपटुच्यते । दीनोल्व- वर्चो के दांत निकट्ने का समय पेसा होता है जिसमें
णसितासिताऽप्रविमक्तदन्तवन्धनघमभ्रशस्तमृषथी बद- व्यो को बहूतसे रोग हो जाया करते हँ । दातो के उद्रमके
न्ति। तत्‌ खभाव्रादन्तोदूखलकेषु यच्छोणितं गभे | विषय में आधुनिक विद्वानों के परस्पर बिरुककर विपरीत
दो सिद्धान्त हमारे दृष्टिगोचर होते हँ (१) दति के निकलने
निषिक्तं तदेव जातस्य समतोऽमिषधेमानस्य क्रमेण ` के समय बच्चे को निशचितसूप से बहूुतसे रोगे
(२) दांतो काउद्वम दातो के निकलने के विवाय ओर
४ # तै # ॐ @ # ® # + # छ 3 # @ $ क @ > क @ कै क @ # ¶ # + क © के क्षे क # ® @ ॐ ॐ क क क तर

( इति ताडपत्रपुस्तके ३४ तमं पत्रम्‌ । ) किसी बात ( रोग आदि ) का उत्तरदायी नहीं है । 1०91
29४6800 अपनी पुरक 9० 11070 के १५ पृष प्ररं
चतुर्थ मास से निषिक्त इवे २ दांत दुर्बल, शीघ्र गिरने
छिखते है“ 70 लकल ल्ग 0 तदपप्तप्म्प अ€
वारे तथा बहुत से रोगो से युक्त होते है, पांचवे मांस मं ०१९४०९६. (1 ) 9 पलाल ` धा प 71208 0 0369363
निषिक्त इए २ दात हिने वारे, हषं & एवं अन्य रोगो से 2.०0 पर0३€। तली 0४९ 0 सपण फल पल्ला, ( १)
युक्त होते रै, छठे मे निषिक्त हवे २ दूत प्रतीप-टेद, मेरे, 9 1ल्लोणटठ 15 16800016 णः पणपफढु एप ४6
[1 क क. (न इ क क ठट [२

विवर्णं तथा कीडौ से खाये हवे ( ८५०४७ ) होते है, सातवें (प्प०६ 0 {८८.११
मे निषिक्त हुए २ दांत दो पुट-जड वारे (इक दो दात
निकरुना ), चटकनेवाखे ( खिरने वाके )रेखा युक्त टे हुवे;
उपर्यत्त वात सुख्य रूपसे दूध के दातो" के विषय मं
रूक्त, विषम (समान न होना ) तथा अगे को उभडे हुवे ही है । अस्तु, आपाततः इनमे से कोई भी सिद्धान्त दीक हो,
इतना तो मानना ही पड़ेगा कि शिष्य प्रसव ( 01407211 )
होते है, जौर ८ वें मास में निषिक्त इए २ दूति सर्वगुण सम्पन्न
होते है। दातो की पूर्णता, समानता, कठोरता सफेदी क्‌समान दांतो का उद्रम स्वस्थावस्था होने पर भी किसी र
स्निग्धता, चिकनापन, निर्म॑र होना, नीरोग होना, तथा दूष मे विक्त (रोग की ) अवस्था धारण कर रेता दहै तथा
क वतो का कुदं उन्नत-बडे होना ( जिससे वे निचे दातो उस अवस्था म उसे नानां प्रकार के रोग घेर ठेते है। परन्तु
को ठक ) तथा द्न्तबन्धन ( मुडा ) का समान, छारः दन्तोद्धेद पर रोग वच्च के रोगों की जिम्मेवारी बहत अधिक
स्निग्ध तथा बड़े घन एवं स्थिर मूर वारे होना (अथात्‌ डारू देतेहँ । दन्तोद्धेद कै समय होने वारे प्रव्येक-दोटे से
उनम दत अच्छी प्रकार जमे इवे हो ) ये दन्तसंपत्‌ ( दातो रेकर चड़ तक-उपद्रव की जिम्मेवारी दन्तोद्धेद पर ही थोप
ॐ गुण ) कहरति है । दांतो का हीन (कम होना ), उल्वण दी जाती है । आयुवेद के ग्रन्थो मे इस विषय में छिखा है-
( अधिक होना ), सित-एक दम सफेद्‌ होना ( स्थायी दांतों पृहठमगे विडारानां बहिणां शिखरोद्गमे । दन्तोदभेदे च बालनां न
करा संग हल्का पीरापन- ४९०5 प्र-छिये हुवे सफेद्‌ हि किंचिन्न दूयते ॥ वास्तव मे हमें दन्तोद्धेद्‌ पर इतनी अधिक
होना चाहिये ), जसित-कारे, तथा मसू का अलग २ न जिम्मेवारी नहीं डार्नी चाहिये 1 हां, ऊ विद्रृति अवश्य हो
होना ( भव्येक दांत का मसुडा अस्पष्ट अरग दिखाद्रं॑ देना जाती ईह । बच्चो के वातसंस्थान ( दशश्ण्यऽ इफ
चाहिये ), अप्रशस्त माने गये है । दतां के गरदो (४5 ) म ऊ विकार उत्पन्न हो जाते है जिससे वच्चा चिङ्चिड़ा
न गभ॑ ॐ समय जो रक्त स्वाभाविक रूप से निषिक्त होता हे तथा कमजोर अवश्य हो जाता, है । इसके अतिरिक्त ओर

# सीतरूक्षमवाताम्लस्पश्चीनासहाः दिजः । ॐ 57० कौ पूर्वोक्त पुस्तक के ८१ पृष्ठ पर लिखा दै-^न॥


त्र स्युर्वातपिन्ताभ्यां दन्तदष; स को।ततः ॥ 276 एप ०प ० ०1००१ रक्त से दांत बनते हैं। |
( मा० प्र” मध्यसखण्ड चि० ६८ ) १. ताडपत्रपुस्तक मेँ इससे अगे दो ष्ठ खण्डित है 1
4 दे कारयपसाहता वा ब्रद्धजावक्छाय तन्त्रम्‌ [ चूडाकरणीयाध्यायः २,

न क ण स [वि # ~ [2 ~ ~,

कोर सेग हो यह आवश्यक नहीं हे । यदि चच्वे के भोजन होता है । वच्चे को लराखाव बहुत हआ करता है । दिन सें
एवं पररेधान ( कपड़ा ) की जोर ध्यान रखा जाय तो वच्चे तो यह खाव स्वाभाविक रूपसे मुंह से बाहर को गिरता
को साधारण तथा कोई कष्ट नहीं होता है । वस्वो का नि्न रहता है ! परन्तु जन बच्चारन्नि नै या दिनि मे सोता है
उपद्रव सुस्यरूप से दो जाते है- तब वह खाव बाहर न निकर कर अन्दर गरे मे जाकर
१, उवर-- किसी २ वच्चे को दम्देद्धेद्‌ के समय
ज्वर हो रवरयन्त्र के संह को वन्द्‌ कर देता है जिससे बच्चा बार २
जाया करता है । खांसता हे । | |
२. वमन-कभी २ वस्य को दम्तोद्धेद्‌ के समय वमन आके (@0८१प ००5) --दन्तोद्धेद के समय सधारणतया
प्रारंभ हो जाते हे 1 यह अवस्था विरोष रूप से तव होतीहै आगक्तेप नहीं होते परन्तु यदि वच्चे को 1०५ & हो या कोई
जव कि वच्चा लगभग १-१ वर्षका हो जाता है)! इस अन्य मानसिक दुर्ब॑ङुता हो तो उसे आद्ेप हो जाया करते है।
समय तक वह केवर दूध या अन्य तरर मोजन हो छे रहा पामा ( {०९५५४ )- इस समय वच्चो को पामा तथा
होता हे ! अव वच्चे को धीरे २ ठोस भोजन (8०4 ) देना खुजली भो हो जाया करती है । साथ ही प्रायः शीत पित्त के
प्रारंभ किया जाता है । इस समय वच्चे के मसूडे बहुत नरम दाग { प्ा16व्121 7951163 ) मीहोजाया करते ह ।

होते है, कठोर भोजन को चवाने से उसके दातोमे ददं होता पूवंरूप- मुंह से रखालखाखाव होना, मसृडो का सूजना
हे इसदिये वह उसं भोजन को आधा चवाया ह्वा ही निगर तथा वेदना युक्त होना, तथा वस्तु्जो को काटने की इच्छा
जाता हे वह विना चवाय हुवा भोजन उसे पचता नहीं ओर करना ये दन्तोद्धेद के पूवं रूप होतेहें । |
परिणाम सरूप उसे वमन हो जाता है जिसमे कि कठोर उपक्रम--दन्तोद्धेद के उपद्रवं यदि विशेष भ्रबरू रूप
भोजन काञदा ही भुख्यरूप से निकलता है । यह धरण न करटं तो विरोषं उपक्रम की आवश्यकता नहीं होती
दन्तोदधेद के वाद्‌ स्वयं शान्त हो जाती दे। ॥
हे, दांतो के निकछने के बाद्‌ वे स्वयं शान्त हो जाते है । कहा
मी है--दन्तोद्धदेदु रोगपु न वाल्मतियन्त्रयेत्‌ । स्वयमेवोपशा-यन्ति
अतिसार - दन्तोदेदं के समय वच्चे को अतिसार
भी छग जते ह! इसने मरु पतला अवश्य होताहै जातदन्तस्य ये गदाः । परन्तु यदि उपद्रव अधिक गंभीर हो
परन्तु उसका रंग टीक होता है तथा उसमे विना पचा हुआ जांय तो उस २ उपद्रव का उपाय अवश्य साचधानी से
अं नहीं होता । भोजन में परिवतेन करने से भी मरु की करना चाहिये । साधारणतया वच्चे का भोजन दीक करने
संख्या मेंकोई विशेष अन्तर नदी होता तथा इस अतिसार का प्रयत्न करना चाहिये । बच्चे को ठीक अनुपात में विग-
से वच्चेके भारमे भी कोई कमी नदींहोतीदहै। $ कु मिन, शद्ध वादु, सूयं की धूप तथा उपर्युक्त भोजन मिलने
छोर्गो का विचार है कि दन्तोद्धेद के समय अतिसार एक की पूर्णंज्यवस्था रखनी चाहिये । दन्तोद्धेद के समय बच्चे
स्वाभाविक एवं राभप्रद्‌ प्रकिया है । परन्तु यह धारणा ठोक के मसुडो पर मधु मे मिलाकर सुहागे की खीर, उगरी में
नहीं है । "५ की पूर्वोक्त पुस्तक के ७८ पृष्ठ पर स्पष्ट छ्खिा ख्गाकर ग्लिसिरीन या नीम्बू का कडा रग्डना चाहिये, .
हे कि 18711068 18 पप्य 8 ००५ पपणटु, 1४ 18 शकुः8 इससे दंत सुखपूवंक निकरू आते ह । दन्तोद्धेद के समय
9. 1११ ऽ अर्थात्‌ अतिसार कभी भी अच्छा नहींदहै यह च्चे के भोजन की मात्रा घटाकर ‰ कर देना चाहिये तथा
सदा बुरा रक्षण है । सामान्य लोग घरों मे कहा करते है कि उस कस की इदे भोजन की मात्रा को शुद्ध जल द्वारा पूरा करना
दन्तोद्धेद के समय होने वारे अतिसार को नहीं रोकना चाहिये । प्रयत्न करना चाहिये करि बच्चे को कोष्टबद्धता
( (-00511003110 ) न रहे, एतदर्थं ड मेन सुग्धरस ८ 1, >
चाहिये । परिणाम यह होता है कि जव बच्चा दिन प्रति-
दिन दुर्वरु होता जाता है तब चिकित्सक को बुरते ह जो ए०ण्पटः ) दिनि मे दो वार देकर पेट साफ कर देना चाहिये ।
किं अतिसार को रोकने का प्रयत्न करता है परन्तु तव सुह मे चूसने के खये बच्चे को कोई कड़ी चीज देनी चाहिषे
तक वह रोगी असाध्यावस्था को पहुंच चुका होता है। अन्त जिससे उसके हनु (१०५ >)की बृद्धि (विकास) पूणं सूप
मे वह अभागा बच्चा आरतेप ( (पण्णा) के द्वारा सेहोसकेा | | ॥ि
अपनी इहरीखा को समाप्त कर देता है । परन्तु इसका दोष ०6०

मी रोग चिकित्सक को ही देतेहै ओरं कहते है कि दस्तौ को


रोकने से वह दिमाग में पटच गया है( 1४ ९५४ ५० 16. ‰)
ओर इसी स्यि बच्चा मर गया है । अपने इस अन्तान को # #

हरमे दूर करने का अवश्य प्रयत्न करना चाहिये! ` # क ४. # ॐ # & # @ # ७ के $ क# के # क च # कै क ० क क नैः नै # @ के क क € + # इ # # # ४ ऊ क

कास - वच्चे को इस समय खासी भमी हो जाती है। रोहिणी स्वयङ्कश्ामूलं द्रेहरिप्रे बृहतीफलरसैषताधवत्‌
परन्तु खासी का कारण प्रायः दन्तोद्धेदं न होकर दूसरा ही
# 8० ©~- बच्चो का एक रोग दै जिसमे विरमिन डी
> दे--०४५1त 09.1€507 की | 810 11660 ( पष्णण-) ) कौ कमी सेउनक्षी हद्धियां कमजोर हयेकरटडी
का पृष्ठ १५] -.. , | हो जातीहै। . | |
चूडाकरणीयाध्यायः २१ ] सूत्रस्थानम्‌ } १९
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पचेत्‌ ›पच्यमानेऽपामागे चावपेत्‌ । सिद्धेन कणपाली हितोऽहितोऽत्ययः कश्च तचाज्ञः कि प्रपद्स्यते


महन्यह्‌नि मरत्तये द्विमृद्रीयाच्च, आशु बधते पीना समा तस्माद्धिषक्‌ सुककुशलः कणं विध्येद्िचचणः |
च पाली भवति । मधूच्छिष्टसजेरसयववत्सकेरर्डान्य- शिशोहषध्रमत्तस्य धमकामाथंसिद्धये ॥
न्तधूमं दग्ध्वा तेन भस्मना म्र्नितां कणेपालीं विम इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः |
यात्‌ , आशु वतते पीना समा च पाली भवतीति । इति चूडाकरणीयोऽध्याय एकविंशतितमः ॥ २१ ॥
ॐ 9 # & # + ^ 5 तै ४ @9 क #@ ^ # 9 ७४ #@ + क $+ ॐ > 6 568594४ + 6 #ै 1 1
[+
+ १ 1/0)

कणपाङी की बृद्धि के उपाय-रोहिणी ( कुटकी ) कच कणवेधन कव, केसे, तथा कहां छरनां चाहिये १ किस
को जड़, हरिद्धा, दरहरिदरा तथा कटेरी के श्खछमे इनसे आपे प्रकार का वेध हित्तकर चथा अहितकर हे १ इसके उपद्रव क्या
परिमाण मे घृत डारुकर पकवे । पकती इई अवस्था हीं हं? इत्याद वातो कामृखं वेयको कुदं पता नहीं होता
दसम अपामागं का चूणं डर दे । हस सिद्ध धृत से कर्ण॑पारी इसदखिये अत्यन्त कुश एवं निपुण चिकित्छक को धर्म, काम
( खोर-1.०0० ) को प्रतिदिन रगड़े तथा मालिश करे। तथा अथं (धन) कीमप्राप्ति के खयि हषं से युक्त शिशु के
इससे कणंपाली शीघ्र बदृती है तथा मोदी अर समान ( स्प कणं का वेधनं कश्ना चाहे ¦ एेखा भगवान्‌ कश्यपे
मे समान--चकनी »)होती ह । उपयुक्त धृत से रिनिग् दुई कहा था ।
कर्णपाली पर सोम, रारु, जौ, इन्द्रजौ तथा एरण्ड के पत्तो को वक्तव्य ~ भारत में साधारणतया सव म्रदेशों मे उप्पत्ति
जन्तधूमम विधि से उलकर उस भस्म को उस पर ख्गावे के पश्चात्‌ बाख्को के कर्न के वेधन की प्रथा प्रचरित हे।
(६.12४५४ करे >)¦ इससे कर्णपाली शीघ्र वहती हे तथा मोटी कण्वेन से वह्ुतसरे रोग नहींदहो पाते है-रेसा प्राचीन
आर चिकनी भी हो जाती है) छवियों का विश्वास था ! हमारे चि कस्स ग्रन्थो एवं धर्मशाखेो
वक्तव्य-~कगपारी बढ़ने के खये सुश्रुत सू० अ० १६सें मे अनेक स्थानों पर इश्षका उनल्छेख मिरता हे । सुश्चत चै कर्ण.
निम्न योग दिये ह--१. च्रथास्याप्रदृष्टस्याभिवर्धतार्थमभ्यङ्गः । तवथा- वेधन की व'घ अत्यन्त विस्तारसेदी हईहं1 वहां उसकी
गोधाप्रतद विष्करानृपीदकवसामञ्जानौ पयः सविस्तरं गौरसर्ष॑पजं च वि*ध के साथ २ उसका प्रयोजन, उपद्रव, तथा चिकित्सा
यथालाभं संभृत्याकांलकैवलातिवलानन्तापामार्गाश्चगन्धाविदयसिमन्धा दका वणन मरुतादहं। सुश्रुत सू० अण० १६ कटा
क्षोरशयक्लाजलक्षमधु रवैषयरयाप्रतिवापं तैर वा पाचयित्वा स्वनुगुपं हँ-रक्चाभूषणनम्रित्त वालस्य कणो विध्येते। ता षष्ठे मास्त संप्तमे
वा दुःलप्ञे प्रशा^तेषु तिथिकरणं
निदध्यात्‌ । सेदितोन्मदितं कर्णं स्नेहेनैतेन योजयेत्‌ । श्रथानुपद्रव नक्ष कृतमङ्कलस्वस्तिवाचनं
सम्य्गर्वश्च विवर्धते ॥ स्वेद ओर माङ्शि कयि हए कान पर धाव्यङ्कं कु्रधराष्क वा कुमारमुपवद्य वाल्क्रीडनकैः प्रलोभ्याथिसा-
उपयुक्त ओषध्यो से सिद्ध किये इष तेर का प्रयोग कर्ने से न्त्वयन्‌ {पग वारहुस्तेनाषरय कणं दैवक्रते छिद्र शओदित्यकरावमा-
कर्णपाी बुद्धि फो प्राक्च होती है। २. यवा्गन्धायष्ट यह्विस्तिचेश्वोद- सिते शनेः रनद श्चणदस्तेनजं विध्येत्‌ , प्रतयुकर इच्या, बहमारया,
तैनं हितम्‌ । ३.रातावयेश्वगन्धाभ्यां पयस्येरण्डजीवनेः । तैकं विपकं पूवं दक्षिणंकुमारस्य, वामं कुर्याः, ततः पिचुवतिं प्रकृदयेत्‌ ॥
सक्तौरमसभ्यद्गात्‌ पारुवधनम्‌ ॥ ध््येतु कर्णान वर्षन्ते स्वैदस्नै. इससे प्रतीत होता दै कि कणवेधन का उद्देश्य वाछ्कोषङ्ी
होपपादिताः। तेषामपाद्वदेदे तु कुर्यात्‌. प्रच्छानमेव त॒ ॥ उपर्युक्त हबाधाओं से रक्ता करना तथा उनमें आभूषण पहनाना हे ।
स्नेहन, स्वेदन अभ्यङ्ग आदि के ह्वारा यदि कर्णपारी की बुद्धि कहा भी हं--कणेञ्यधे करते बलो न अहरमिभूयते । भूष्यते तु सुखं
न हयो तो अपाङ्गदेश् ( कणेपुत्रका के थोड़ा नीचे) चिद यस्मात्‌ कायैस्तत्‌ कृणंयोव्य॑धः ॥ कणेवेघन चटे या सातवे मास
करना चाहिय । म क्रिया जाताहे । उल्हणके असार कणवेधन केलिये
छटा या सातवां महीना जन्मसेन खेकर भाद्रपद सेखेना
तत्र श्लोकाः । चाहिये । तदनुसार माघ या फाल्गुन मास्त आता है। यह
नाभिषग्राजयपुत्राणामन्येषां वा महात्मनाम्‌ ¦ शिर ऋतु है । इस ऋत्‌ में कणवेधन का-सुख्य कारण यह
कर्णान्‌ विध्येत्‌ सुखप्रेप्सुरिह लोके परत्र च ॥ प्रतीत होता है कि उस समय चण मे पाक ( इणणृप्थप०० )
` आआमच्छदेऽत्ययो ह्यत्र दुवेधाद्रोपजायते काडर बहुत कमहोताहतथाव्रणका रोएणमी ज्ञीघहोता
अभिषक तत्र मन्दात्मा किं करिष्यत्यशाद्धित्‌ | ह । इसीखियि धमश्ाखो मे जो कणवेधन का विधान दिया है
वह छठे या सातवें मास सं नहीं दिया है जपितु तीसरे या
ह रोक तथा परलोकं मं सुख को चाहने वाठे अन्तानी पांचवें वर्षं में दिया
हे । कात्यायन गृह्यसूत्र १-र का वचन ह~ `
वेय को राजपुत्रो अथवा अन्य बडे रोर्गोके कानों का वेध
कणेवेधो वषं तृतीये पत्रमे वा” । कर्णपारी के वीचसें एक
नहीं करना चाहये । आामच्छेद्‌ ( कच्चे वेध ) अथवा कुवेध स्वाभाविक पतरखासा चिद्‌
( गर्त तरीके से वेध ) करने पर यदि कोई उपद्रव हो जायं चाहिये होताहि उसी में वेधकरना `
क्योकि उसं स्थान पर हिरा, धमनी. नाड़ी आदि
तो शाखो को न जानने वाखा, मन्दबुद्धि तथा अन्तानी `वैय
क्याकरेगा। ` नहीं होती हँ तथा इस भाग मे तरुणास्थि भी नहीं होती है!
यहां केवर 100४5 7३5८९ तथा थोडी वसा होती हे । इसी
कदा वेध्यं कथं. वेध्यं कचं देध्यं कथं व्यधेः | । स्थान को देवकृत चिद शब्द्‌ से कहा.गया है । वेधनं के
१६ काश्यपस्ता वा चृद्रजीवकीयत त्रम्‌ | [ सनेहाध्यायः २२
1

वह छिद्र चन्द्‌ नहो जाय)


क्न

उपद्रव- विपरीत कर्णवेधन से तीन प्रकार के उपद्रवो वरामवैरण्डमधूकसर्पैगः 1 कुखम्मविष्वाहकमूलकात्सी नि कोचका-


सकते हँ । (9) रक्तलाव-धमनी आदि कं विध जनेसे त्तोडकरक्तरियुकाः॥ स्नेहाश्च याः स्थावरस्ञेता तथा स्युजज्गमा
होता हे (२ > वेदना-यह नाडी (6, ) के विध जाने मत्स्यमृगाः सपक्िकाः । तेषां दधिक्षीरधतामिषं वसा नेदेषु मस्न
सेहोतीहे (३) वर इष्यादि-्रण मै सफाद आदिके न च तथोपदिद्यते ॥ दक्ष प्रकार तेरु साधारणतया स्थावरं
होने से जीवाणुभो के प्रवेश (11.170 ) से ज्वर आदि तथा धृत, वसा जर मउ्जा जंगम स्नेह माने गये हँ ! साधा-
रोग हो जाते दह । इसल्यि पदे से ही अच्छी प्रकार स्थान रणतया इसलिये कहा है कि तेल भमी मद्ुली आदि से
देखकर वेधन करे तथा चण से जीवाणुओो का प्रवेशनहो ग्राप्त किया जाता है । |
सके-इसका प्रयत्न करे । इस अध्याय का नाम चूडाकरणीय घृततेलबसामञ्जां पूवः पूर्वो बरोऽन्ये (न्स) भ्यः।
अध्याय हे ससा कि अध्याय के अन्तमें टिखि वाक्य “दत मुख्यं घृतेषु गव्यं संस्कारात्‌ सवसारम्याच्च ।। ४॥
चूडाकरणोयोऽध्याय प्व विदातितमः'' से स्पष्ट है । यह अध्याय
घृत, तेर, वसा तथा सन्ना इनमें से यथा पूर्वंअगले से
प्रारम्भ मे खण्डत है इसद्यि संभवतः इसके खण्डित अंश
रेष्ठ माना गया है अर्थात्‌ धरत तेरखुसे, वैल वसा से तथा
म चडाकर्म का प्रकरण दिया हो 1 चृडाकमं या चूडाकरण से वसा मजा से श्रेष्ठहै । घृतो मे भी संस्कार तथा सवके स्यि
अमिग्राय प्रथम वार वाल्कके सिर के बाख को कटवनिसे सास्य होने के कारण गोधृत मुख्य माना गया हे ।
हे लिखे केश्चच्छेदन या युण्डन संस्कार कहते दँ । यह्‌ बारुक वक्तव्य-संस्कार ते अभिप्राय संस्कार के अनुवर्तनसे है
के जन्म से ठेकर गत्य पय॑न्त ( निषेकादिरमद्यानान्तो नित्यं अर्थात्‌ यह अपने गुणों को ध्याये विना दही संस्कारार्थं डाली
य॒स्योदिततो विधिः) क्ये जाने वे वेदिक संस्कारो, म से गई अन्य ओषध्यो के गुणों को अपने अन्दर धारण करता
आवां स्कार हे । आश्वरायन्‌ गृद्यसुत्र ।१७।१ के अनुसार है । अन्य स्नर्दो मेये गुण नहीं दैँ। वे संस्कारार्थं डारी गई
यह संस्कार तृतीय वर्षं मे कियाजातादहै। कहाभीहै- अन्य ओषध्यो के संसर्गं से अपने गुरणा को व्य देतेहै|
^“तुतीये वपं चौरम्‌ ' । पारस्कर गुद्यसूत्र २।१।१ के अनुसार चरक मे भी धृत को सब स्नेहो से श्रेष्ठ साना है । परन्तु वहां
यह प्रथम वर्षं में किया जातादहे कहा है-सावत्सरिकण्य गोघृत का विदेष परिगणन नहीं क्या गया है अपति
चुडाकरणम्‌ ` । | सामान्य सूपसेदहीघरतके गुण र्खिहै । कहाहै-सपिस्तैल
इति चूडाकरणीयोऽध्याय एकर्विरातितमः-॥ २३१ ॥ वसा मल्ना सर्व॑स्नेद्यत्तमा मताः । एभ्यश्चैवोत्तमः सपिः संस्कार
0 0नक-०--“ ग्यातुवर्तेनात्‌ ॥ धृत की सर्वोत्तमता को दिखाते इए अष्टाङ्गः
संग्रह में कहा है--माधुर्यादविदाहित्वाजन्माचेव च रीरनात्‌ ।
द्राविरतितमोऽध्यायः अर्थात्‌ उसकी श्रेष्ठता के मयुर, अविर्दाहहि एवं जन्म से दही
्रथातः स्नेहाध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १॥ घृत का निरन्तर म्रथोग-ये तीन हेतु अधिक दिये हँ । जन्म
से जिस वस्तु का सेवन किया जाता है वह साष्म्यहो जाती है
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ।॥२॥ इसी लिये रकृत संहिता के उप्यक्त श्खोक मेँ "सर्वसास्याच्चः
अब हम स्तेहाध्याय का व्याख्यान करेगे ¦ एेसा भगवान्‌ विशेषण दिया गया हे ।
कश्यप ने कहा था ।
विनिहन्ति पिनत्तमनिलं पीतं सर्पिः कफं न च चिनोति।
स्नेहो दवियोनिरक्तशतुर्विकल्पश्चराचरसमुत्थः । जनयति बलाभिमेधाः शोधयति शुक्रं च योतिं च ।॥€।
` सर्पिमेञ्जवसाख्यं खगस्रगजलजभ्रभवमाहुः ।॥ ३ ॥
तलानि चोद्विदेभ्यस्तिलचूतसषपबिभीतवित्वेभ्यः |
` च [म दे € (~ घृत के सामान्य गुण-श्रृत सेवन किया जाने पर पित्त
तथा वायु का शमन करता है परन्तु कफ का संचय नही
एरण्डातसिशिग्रमधूकमूलककरज्ञेभ्यः ॥ ४॥ करता । यह बरु, अग्नि भौर बुद्धि को बढाताहैतथा शक्र
स्नेह की दो योनयां ( उत्ति स्थान या कारण ) कही जौर योनि का शोधन करता है! चरक निदान स्थान कै
गह हँ । तथां चर ओर अचरं उत्पत्ति वारे इसके चार विकल्प प्रथम अध्याय मै कहा है-स्नेहात्वातं रमयति रौत्यातिि्त
माने गये है । इनमें से धृत, मजा, तथा वसा तीनों पत्ती, निथच्छति । धतं तुल्ययुणं दोषं संस्कारान्तु जयेत्‌ कफम्‌ ॥ उपर्युक्त
पशु तथा जर के ( अर्थात्‌ सव प्रकार ॐ ) प्राणियों से उत्पन्न श्लोक द्वारा रत के अन्य गुण दिये गये हे । सुश्रत सु° अ°
होते हैँ । तथा चौथा स्नेह ( तैर ) तिरु, आम्र, सरसो, ४५९ में शृत के निम्न सामान्य गुण दिये गये ह-एतं तु मधुरं
बहढा, बिस्व, एरण्ड, अलसी, सुहांजना, महधा, मूली, तथा
सौम्यं मृद शीतवीर्य॑मद्पामिष्यन्दिस्नेहनयुदावतौन्मादापस्मारदरूल-
करज आदि उद्धिदं ( वनस्पतियों ) से पर्त होता है ! ज्वरानाहवातपित्तप्ररमनमग्निदीपन रखतिमतिमेधाकान्तिस्वरला-
वक्तन्य--चरक सूु०.अ० १३ मे कहा है--नेदानां दविधा
वण्यसोकुमार्योजस्तेजोल्करमायुष्यं वृष्यं मेध्यं वयःस्थापनं युस
सोम्य ! योनिः रथावरजंगमा 1 स्नेह के स्थावर जौर जंगम चकतुभ्यं दलेष्माभिवधैनं पाप्मारक्ष्मीप्रश्षमनं विष्रहर रक्षोध्नं च ॥
स्नहाध्यायः २२) सूत्रस्थानम्‌ ।
01

8^ च 9 1 १५ ५ (ज क > क +य हक का ज ~र (ग ५ [ ॥ हि 00 ल1

उष्णं कफानिलघ्नं सखरवणेकरं तनुस्थिरीकरणप्‌ । वषान्ते सपिरन्यौ त॒ माधवे । सर्वे सर्वेस्य च स्नेहं युन्ज्याद्‌
मभ्रच्युतखन्धानं धातुत्रणशोधनं तैलम्‌ ॥ ७॥ मास्वति निर्म॑रे ॥ ऋतौ साधारये "^" ` "|
अर्थात्‌ स्नेहपान साधारण ऋतु सें ही किया जाताहै।
तखा के सामान्य गुण - तैर उष्ण, कफ तथा वायु का अधिक्‌ सर्दी, गर्मी एवं वर्षा में स्नेहपान साधारणतया निषिद्ध
नाशक ( उष्ण एवं स्निग्ध होने से); स्वर तथा वणं को हे । आत्ययिक अथवा श्ञीघ्रकारी व्याधियो कै ख्यि चासौ में
निखारने वारा, शरीर को स्थिर-द्द करनेवारा, भरन इसके अपवाद्‌ भी दिये है ।
( एप. ) एवं च्युत ( सन्धि्नंदा--)18]008101 ) को
ठीक करनेवाला तथा धातु एवं चण का शोधक है। चरक ्रनुपानयुष्णञ्ुदक ध्रतस्यः तेलस्य यूषमिच्छन्ति ।
सूत्रस्थान के स्नेहाध्याये तेलो के निम्न गुण दिये ईै- मञ्जञवसयोस्तु मण्डं सर्वेषां कश्यपः पृवेम्‌ ।१९॥
मारुतध्नं न च रङरेष्मवरधैनं वल्वर्ध॑नम्‌ । त्वच्यमुष्णं स्थिरकरं तैं स्नेहा के अनुपान-शघरत का अनुपान उष्ण उदक हे (धृत
योनिविदलोधनम्‌ ॥ सुश्रत सूत्रस्थान सें भी तेलो के बहुत ते के पश्चात्‌ उष्ण जक पीना चाहिये ), कैर का यूष तथा मन्ना
गुण दिये हुए हँ । उन्है वहीं देखना चाहिये । जौर वसाका अनुपान मण्ड हे। अथवा भगवान्‌ कश्यप के मतम
पहला अथात्‌ उष्णजरु सव स्नेहो. का अनुपान दहो
मञ्जावसे विशेषाद्रात्ने व्रष्यसंमते चैव । सकताहं। चरक मं इसी अभिप्राय को निम्न ररोर्कोमे प्रकट
बलिनां तत्सास्म्यानां भरजाबलायुः स्थिरीकरणे ।।८॥ क्रिघा गया है--जल्युष्णं ष्रते पेयं, यूषस्तैरेऽनुरस्यते । वसामञ्नोस्तु
मजा तथा वसा के सामान्य गुण-- मजा तथा वसा विशेष. मण्डः स्यात्सवषूष्णमधान्डु वा ॥ स्नेहो के अनुपान के रूप सें
कर वातघ्न है,ये वृभ्य माने गये हँ तथा वख्वान्‌ एवं जिन्हे उष्णोदक के प्रयोग के विषय सें सुश्रुत सु० अ० ४६ में कहा
ये सास्य हौ-उन पुरषो सें सन्तानोत्पत्ति, वरु एवं आयु को हे- उष्णोदकानुपानन्तु स्नेहानामथ श्चस्यते । ऋते भव्लातकस्नेदा-
स्थिर करते है ! चरक सू० अ० ५३ मे इनके निम्न गुण तसतेहात्तोवरकान्तथा ॥ अर्थात्‌ उखने भिरूवे ओर तुरक ( ५
दिये है--विद्धमग्नाहतश्रष्टयो निकणंरिरो रुजि । पौरपोपचये स्नेहे प्रा 1009078 01) केतेरखमें अयुपान रूप मंउष्णोदक का निषेध
व्यायामे चेष्यते वसा ॥ बलश्युक्ररसदरेष्म मैदोमस्नविवर्धनः । म्ना किया हे । इनके वाद्‌ शीतक जरू का ही प्रयोग करना चादिये।
विशेषतोऽस्थ्नां च वलक्रत्स्नेहने हितः अर्थात्‌ इनका प्रयोग शूलकफानिलद्रष्णाहिक्कारोचकषिबन्धरगुल्मघ्नम्‌ 1
सख्य रूप से वरू एवं वीर्थवद्धि के स्यि होताहै। ्रणधातुगरदकरणं दीपनयुष्णोदकयुशन्ति ॥ १२॥
नित्यानिव्यास्मविधौ तिलतेलघृते बुधः प्रयुञ्चीत । उष्णजर के गुण--उष्णजरू-श्रू, कफ, वायु, तृष्णा,
एरस्डराङ्धिनीभ्यां चंसनमन्यद्रसायनं नास्ति \1६।॥। हिक्का, अचि, मख्बन्ध तथा गुल्म का नाशक है । यह्‌ तरण
जौर धातुजं को दु करता है तथा दीपन है
ज्ञानी मनुष्य को दैनिक व्यवहार मे प्रतिदिन तिलुकैल
तथा धृत का प्रयोग करना चाये । तथा एरण्ड ओर शङ्किनी पादावशेषसिद्धं वदोषध्नैः शतं जलं स॒ख्यम्‌ |
८ श्वेत अपराजिता ) के तेरु द्वारा होनेवाखे विरेचन से बद्‌ पेयं कबलग्राह्यं स्नेह हि तथा विलाययति । १३}
कर दूसरा कोद रसायन नहीं है । अर्थात्‌ दैनिक प्रयोग के उष्णोदक की अनुपानविधि-भिन्न २ दोर्षौ को नष्ट
लिये घृत अथवा तखा का तं ही काम मे रेना चाहिये।
करनेवारे द्वर््यो से श्रत बनाकर (८पकाकर ) चतुर्थाश्च शेष
जर्हा विरेचन देने का उदेश्य हो वर्ह एरण्ड तथा शङ्किनी रहने पर उस जर का पान करना चाहिये तथा कवल धारण
के तेरु का प्रयोग करना चाहिये । करना चाहिये ! इससे सेवन च्छि इए स्नेह का विख्य
मञ्जावसे वसन्ते, प्राव्रषि तेलं, पिवेचच्छरदि सर्पिः हो जाता!
सपिर्वां सर्वेषां सवस्मिञ्छ॑स्यते पातुम्‌ । १०॥ वक्तव्य - कवर से अभिप्राय मुह भें पानी रेकर कुरे
स्नेहो के सेवन काल-मजा तथा वसा का वसन्त ऋतु
( गरारे-७ शटा ) करने से है । कहा भी हे--ठखं संचार्यते
यातु सत्रासा क्वलय्रहा। अस॑चायां तर या माता गण्डूष
मै, तेरु का प्राब्ट्‌मेतथा घृत का शरद्‌ ऋतु मे सेवन करना स ग्रकोतितः॥ अर्थात्‌ यदि जरू केवर मुह से धारण किया
ाहिथे । अथवा घृत का सब व्यक्ति सव शछतुओं में सेवन
कर सकते है जाय तो उसे गण्डूष कहते है । यह दोनो मेँ अन्तर हे ।
वक्तव्य -वसन्त. प्रच्रुट्‌ तथा शरद्‌ खाधारण तुये पयसि दधनि मघुमये तूक्ते नोष्णोदकं भवेत्‌ पथ्यम्‌ ।`
कहाती है । इनमे न सदी अधिक पडती हे; न गरमी तथा पित्ते रक्तस्रावे गभेच्यवने च गमेदाहे च॒ ।। १४॥
न वर्षा। शोधन कीच्श्टिसे ही इनं तीनो ऋतु्ज का उष्णोदक अनुपान का निषेध-दृध, दही तथा मषु युक्त
प्ररिगणन किया गया है । वर्योकिं स्नेहन के वाद्‌ स्येदन तथा द्भ्य के सेवन के बाद्‌ तथा पित्तप्रकोप, रक्तखाव ( पश्टण-
फिर पञ्चकर्म वारा शोधन कराया जाता ह ! जष्टङ्गसंग्रह सू 0110822 ) गर्भ॑च्युति ( 4 00170 ) तथा गभदाह मे उष्णो
अ० २५ मेँ निम्न प्रकार से वणन किया गया है-तेलं प्रादृषि दक का अनुपान नष्ीं करना वाहिये ।
2 ऋ19
१८ काश्यवसहिता वा ब्रद्धजीदकीयं तःत्रम्‌ | [ स्ेहाध्यायः २२
॥; = ति त , न्न [ग व प
स 0

अओदनविलेपिकाभ्यां रसमांसीरदधियतरागूसिः 1 कफ अधिक हो उन आत्ययिक रोग से यदि स्तेहपान


काम्बलिकसपयूपेः पेयाशनमनयविकरतीभिः ॥ ६५ ॥ आवश्यकेहोतो दिनिकी गर्मी मै जव कि सूर्यं निर्मदो
सनेदप्रयोग इष्टः सोर्ध्वाधः कमभि: खला(ड)भ्यट्ः ।
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तथाशरीरल्धुहो तव करयं । चरक भी विर्कुर यही
९ ६ _ वणन मिरूता है--वात्तपित्ताधिकै रत्रादुष्णे चापि पिवन्नरः ।
चक्षुषेद नश्नोत्ररधार ण योगश्च सात्म्यन्नः | १६॥ रलेष्माधिक्े दिवा रीत पिवरच्चामलभास्वरे । अष्टङ्गसंग्रह में
स्नेहो की प्रविचारणार्प- १, ओदन २, विपी ३. मांस- निभ्न वर्णेन मिरुता है-सर्वं सर्वैस्य च स्तेहं युजाद्‌ सोस्वति
रख ४. मांस ५. कीर ( दूध ) 8, दही ७9, यवागू ८, काम्बलिक निरम॑रे । ऋतो साधारणे, दोषसाम्येऽनिल्कफे कफे ॥ दिवा,
९. सूप १०, यूष ११, पेया १२, अश्न तथा १३, भव्य की निरयनिके पित्ते संसग पित्तपत्यपि । त्वरमाणे तु सीतेऽपि दिवा
विङृतियाँ १७, उभ्वंकमे ( वमन › १५. अधःकमं ( विरेचन ) तैलं च योजयेत्‌ । उष्णेऽपि राघ्रौ सपिश्च दोषादीन्‌ वीक्ष्य चान्यथा ॥
१६. खरू या खड ५७, अभ्यङ्ग ( मालिश ) ८ जिन्हं सास्म्य
रहो वे चनु ( नेत्रतपंण >)१९. वदन ( गण्डूष ) तथा २० श्रोत्र
सुश्रत चि० अ०३१ से भी कहा दहै--शीतकारे दिवाप्नेहमु्ण-
काले पिवेन्निशि । वातपित्ताधिको रात्रौ बतष्टेष्माधिको दिवा ॥
( कर्णते ) द्वारा धारण कर के स्नेह का प्रयोग कर सक्ते हँ अर्थात्‌ उपर्युक्त साधारण कारो के अतिरिक्त यदि अवश्यकता
वक्तव्य-उपयुक्त विधिर्यो से स्नेह का प्रयोग कियाजा पडे तो इनसे भिन्न कारो मै भी अनुकर समय देखकर
सकता है । चरक मं इनरे लिये प्रविचारणा शब्द्‌ दिया गया स्तेहपान कराया जा सकता है 1
है । चरक मे इनका निम्न रूष मे वर्णन करिया गया है-
श्रोदनश्च दिलेपी च रसो मांसं पयो दधि । यवागूः पपद्याको च तृरमृच्छन्मादादीन्‌ पूर्वो लभते तरिपयेभेण पिबन्‌ ।
यूषः काम्बलिकः खडः ॥ शक्तवस्तिलपिष्टं च गवं लेहास्तथैव च ।
मक्षयमभ्यज्ञनं वस्तिस्तथा चोन्तरवस्तयः ॥ गण्डूषः कर्णतैलं च नस्यं
्ानाहारुचिपवंर्युच्छूलं च समृच्छते शेषः । १८॥।
इनमे पूवंअर्थात पित्त भौर वातप्रकृति वाङ पुरूष को
कर्णाक्षतप्णम्‌ । चतुविदतिसित्येताः स्नेहस्य प्रविचारणाः ॥ अर्थात्‌
चरकःमे इनकी संस्या र्दी है 1 इससे प्रतीत होताहे विपरीत कार मे अर्थात्‌ अधिक गमीं मे स्नेहपान करने से
कि काश्यपसंहिता की अपेक्षा चरक में विकसित प्रक्रिया तृष्णा, मूर्खा तथा उन्मादं हये जाता है । तथा शेष अर्थात्‌
मिरुती है 1 इनमे आये हुए ओदन विरेपी आदि की कफ प्रति वारे पुरूष को अधिक सदीं मे स्नेहपान करने से
परिभाषाएं निम्न है--अन्नं पञ्चगुणे साध्यं विकरेपी तु चतुर्थगे । आनाह, अर्चि
न्‌
तथा पर्वश्रूर
४५३
हो जाता हे ।
मण्डश्चतुदंरगुणे यवागूः षडगुणेऽम्भशसे ।॥ सिक्थकै रहितो रण्डः
पेया सिदथसम्रन्विता । यवागुहुसिव्था रयाद्िरेपी विरलद्रवा ॥ स्नेहाच्छपाने चिषिधा तु मात्रा
अर्थात्‌ ओदन सिद्ध करने के छ्य चावर्छो को पाच गुने जर हस्वाऽथ सध्या महती तृतीया |
मेँ पकाकर द्रव भाग निकारुदियाजातादहै ! विरेपी सें हृस्वा दिनार्घन, दिनेन मध्या, |
चावल की अपेक्ता चौगुना जरु डारकर पकाया जाता है । जीयेत्यहोरात्रवशात्‌ प्रधाना | १६ ॥
मण्ड बनाने के लिये १४ गुना तथा यवागू के ल्य & गुना
जरू मे चावला को पकाना चाहिये । सुप-द्रवद्प पकाई अच्छस्नेह की सात्रा-अच्छं ( केवल-शुद्ध ) स्नेहपान
इई दार को सूप कहते दँ । इसमें दारु की अपेता ४्या
की तीन प्रकार की मान्ना मानी गई है । -हस्व (ष्णणप्पणः)
१८ गुना
जर देकर पकाया जाता हे । चतुर्था जल शेष र-मध्यम ( ण.व्५ाण" ) ३-महान्‌ ( पभ्पणपण ) । हस्व `
रहने पर उतार छिया जाता है । यूष-इसके स्यि दारु को मात्राआधे दिन (षण्डे) मे, मध्यम मात्रा दिन भर
पोटली मे बौँधकर १८ गुने जर मै पकाया जाता है । जर (१२ षण्डे) मेँ, तथा प्रधान मात्रा जहोरान्र (२४ षष्टे)
आधा शेष रहने पर पोटी को निकार छुं । अवशिष्ट द्रवं मे जीण होती हे । चरक मे भी केवर शब्दो के भेद्‌ से यही
यूष कहराता है । खड, काम्बलिक आदि का लन्षण- अभिभ्राय निर्न रूप में प्रकट किया गया है--अहोरा्महः
पिशितेन रसस्तव युषो धान्यैः खडः फलैः ।मूरैश्च तिरकाल्काम्टप्रायः कत्ल मधांहं च प्रतीक्षते । प्रधाना रध्यमा हस्वा स्नेहमात्रां जरां
काम्बलिकः स्छृतः ॥ अर्थात्‌ एको से जो द्रव तैयार करिये जाते परति ॥ इति तिः समुद्दिष्टा मात्राः स्नेहस्य मानतः ॥ सुश्रुत ने ९
ह उन खड सथा मूलो से प्रायः तिरुकरक जौर अनारदाने प्रकार की स्नेह की मत्राएु बता है-या मत्रा परिजीयेत
आदि की खटाई देकर जो दव तेयारं किया जाता है उसे चठमागगतेऽहनि । सा मात्रा दीपयत्यभचेमल्पदोषे च पूजिता ॥.
काम्बलिकः कहते है । या मात्रा परिजीयत तथा्ैदिवसे गते । सा वृष्या हणी चैव
पित्तानिलप्कृतयः सेहं रा्ो पिबेथुरुष्य च मध्यदोषे च पूजिता ॥ या माता परिजीर्येत चतुभागाधशेषिते।
| स्नेहनीया च या मारो बहुदोषे च पूजिता ॥ या मत्रा
श्लेष्माधिको दिबोष्णे निमलसयै लघुत्वे च ॥ १७॥ परिजनैर्येत
तथा परिणतेऽहनि । ग्ानिमूर्वानदान्‌ हित्वा सा मात्रा पूजिता `
अपवाद्‌ तथा दोषभेद्‌ से स्नेहपान का काल-पित्त ओौर भवेत्‌ ॥ श्रहोरात्रादसदृष्टा या मात्रा परिजीर्यति । पसातुक्ष्ट-
वातप्रकृति वाँ को जस्ययिक रोगमें यदि गमींमेभी विषो-मादगहापस्मारनाशिनी ॥ अर्थात्‌ जो मात्रा क्रमश्चःएक, `
स्नेहपान करना पदे तो रत्रि भे करना चाहिये । तथा जिसमे दो, सीन, चार तथा जह प्रहर मे जीर्णं हो । "~ :
रनेहाध्यायः २३ 1 सूत्रस्थानम्‌ | १९

दीप्ारनयो बलिनः खेह्नित्या उयेष्ठाऽथ मध्या न बलं निहन्ति


उन्मादिनो धूृतिविरमूत्रसक्ताः । तन्योन्यथीः (१)
खेदयते सुखाश्च ॥ २३॥
गुल्मार्दिताश्चाहिदष्ा विरूक्ञ हस्या परीहरसुखाऽविकारा
वेपर्पिणः प्रवरां ते पिबेयुः ॥ २०॥ वृष्याऽथ बल्याऽप्यनुघतंनी च |
स्नेह की उत्तममात्रा किन देनी चाहिये - जिनकी जाट- दृशं वयःकालबलाग्निसात्म्या- |
राग्नि दीक्ष है, जो बलवान्‌है,जो प्रतिदिन स्नेह का प्रयोग न्यालदेयमात्रा मतिमान्‌ विदध्यात्‌ ॥ २४
करते है, जिन्हं उन्माद रोग हो, जिनकी त (धारण शक्ति ) उप्यक्त मात्राओं के गुण स्नेह की उत्तम मात्रा सम्पूरणं
कमजोर हो, जिन्हं मरू एवं मूत्र कठिनता से अताहो,जो रो्णो के मार्गो में जते इष्‌ दोषो कोक्षीणथ नष्ट
ा करती हे।
गुल्मरोग से पीडित हो, जो सपं द्वारा द हो, जिनकी प्रकृति यह यत्नपूवक सेवन करनी चाहिये ( अर्थात
्‌ प्रस्येक व्यक्ति
ङ्क्त हो तथा जिन्हं विसपं रोग हो-उन्हं स्नेह की उत्तम आसानी से इस मात्रा का सेवन नहीं कर सकता ) यह
मान्ना पीनी चाहिये। चरक सू° अ० १३ में कहा है- को वदानेवाक है । मध्य वक
ी म मात्रा~-प्रस्पर एक दूसरे ॐ बल
प्रभूतस्नेहनित्या ये छत्पिपासा सहा नराः । पाषकर्चोन्तमवलो ¦ को अधिक कस नहीं करती तथा सुख से स्नेहन कर देती
येषां ये चोन्तमा वहे ॥ गुखिनः सर्पदष्टाश्च . वीसर्पोपहताश्च ये । |है । हस्व मात्रा-यह परिहार अर्थात्‌ परेन में सुखकर हे
उन्मत्ताः कृच्छमूत्राश्च गाघवचंस एव च ॥ पिवे्ुरुत्तमां मात्रा, ( इस मात्रा का सेवन करते हुए परहेज स्वल्प मात्रा मे तथा
प्मेहङुष्ानिलशोणितारुचि- स्वस्प कार तक ही हे) यह्‌ विकार्यो उपद्रवो को उतपन्न नहीं
विचचिकास्फोटषिषेषु कर्डौ । करती तथा वृष्य ( वी्यो्पादक >)है, यह बरू को बदाती है
मृदो तथाऽग्नौ प्रवदन्ति मध्यां तथा शरीर में चिरफरोर तक रहती है जर्थात्‌ शीघ्र ही बाहर
बले च मध्या शने चयेस्युः॥२१॥ ` नहीं निकर जाती ह ।बुद्धिमान वेद्य को चाहिये कि वह देश
| (जांगक-आनूप जादि ), अवस्था (बार, बद्ध, युवा आदि),
स्नेह की मध्यम मात्रा किन्हं देनी चाहिये -ग्रमेह, कषठ, काल ( ग्रीष्म, इारद्‌, वर्षां जआदि ), अग्निर तथा सास्यको
वातरक्त, अरुचि, विचर्िका ८ ०८ ) फोडे, विष-
देखकर मात्रा का निर्धारण करे अर्थात्‌ उसे उत्तम, मध्यम ओर
विकार तथा कण्डू ( खुजरी ) के रोगिर्यो मे, जिनकी जाह-
रागि ख्दुहे, जो मध्यवरूवरे है तथा जो खाने म भी हस्व मे से कोन सी मात्रा देनी है--इसका निश्चय करे । इन
मात्रार्थो के गुण चरक मे निम्न प्रकार से दिये है--उत्तम
मध्यम हों अर्थात्‌ जो न बहत अधिक खति हों ओर न बहत
मात्रा--पिकारान्‌ चमय.येषा चौप्रं सभ्यक्‌ प्रयोजिता । दोषानुक-
कम --उन्हं स्तेह फी मध्यम मात्रा देनी चाहिये | चरक सू° पिणी मात्रा सवैमा्गानुत्तारेणी
। वलया पुननवकरौ शररेन्दरिय-
अ० १३ मे कदा है--मरप्कसफोरपिडकाकण्डूपामाभिर्दिताः । ।। चेतसाम्‌ ॥ मध्यममात्ना-मात्रेषा मन्दविभ्रंशा न
चात्िरुहा-
दुिनश्च प्रमीढाश्च वातशोणितिकाश्च ये ॥ नातिवद्धाशिनश्चैव शृदुको- ।रिणी । सुचेन च स्नेहयत्ति शोधनार्थं च युञ्यतते ॥ हस्वमान्ना- -
छास्तयैव च । पिनेयुमध्यमां मातां मध्यमश्चापि ये वले ॥ `| परिहारे खला चेषा मातरा स्नेहनच्रहणी । वृष्या बल्या मिरावाधा चिरं
बालेषु वृद्धेषु सुखोचितेषु `चाप्यनुवतंते ॥
जीणेऽतिसारे उरकासयोश्च ।
पित्तानिललात्माऽनिलपित्तरोगी |
येषां हि कोष्ठो न गुणाय रिक्तो
तमः शिशुवणेबलाथुरक्षः ( दी ) 1
मन्दाधिकाश्यं च कनीयस्ती स्यात्‌ ॥ २२॥ मेषेन्द्रियार्था विषशखदाहे-
स्नेह की हस्व मात्रा किन्हँ देनी चाहिये-बालक, बद्र राता: पिबेथुधरेतमेव काले | २५॥
तथा जो सुख के अभ्याफीहँ (अर्थात्‌जो किसी अकार कै अब यह वतखायाःजायगा कि उप्यक्त स्नेहो मे से कौन सा
परिश्रम के कायं को करने के अभ्यासी नहीं), जीर्ण
अतिसारञ्वर तथा कासरोग मे, कोष्टका खारी होना निनफे
रनेह किसके किय हितकर है। धरत का सेवन किमहं करना
चाहिये--जिनकी पित्त एवं -वातप्रकरति हो अथवा जिन
स्यि हितकर न हो अर्थात्‌ कोष्ठ के खाली होने पर जिन्हं कष पैत्तिक एवं वातिक रोग हो, जो कमजोर, जोशिश्चहो, जो
होता हो, जिनकी जाठराभि मन्द हो, तथा जो कश्च हो उन
वणं, बर्‌, आयु, मेधा ( धारण शक्ति) तथा इन्धिर्यो को
स्नेह की हस्व मात्रा देनी चाये । चरक सु० भ० १२ में चाहनेवारे तथा जो पिष, शख एवं दाह से पीडित हौ--वे
कहा है-ये तु वृद्धाश्च वालाश्च ङ्कमाशः इलोचिताः । रि्तको- उचित कारूमेशतकाहीपानकरं।! =
त्वमहितं येष मन्दा्रयश्च ये । उ्वरातिसारकासाश्च येषां चिरसभु-
ल्थिताः ।स्नेहमात्रां पिवेयुस्ते हस्वां ये चावरा बहे ॥ वक्तम्य - कारेः से अभिभ्राय धृत के स्वि निर्दिष्ट काक
अर्थात्‌ श्रद्‌ कार सेहै1 पूं कहा है -*पिवेच्छरदि सर्पिः" `
दोषालुकर्षि्यनुसारिणी च चरक में निम्न वणेन मिरुता है- वातपित्तशक्ृतयो बातपित्त-
यन्नोपचर्थां बलवधेनी च विकारिगः । चक्ष्कामाः क्षताः क्तीणावृद्धावालास्तथाञ्लाः ॥ माञयुः
। ॥
२५ काश्यपसंहिता वा व्द्धजीवकीयं त.त्रम्‌ । [ स्नेहाध्यायः २२
ए का क त - ५ प 0 9 + 9 ^ 00 00 + ^ 9 + ^ ^ ^ १1

प्रकर्षकामाश्च वल्वरस्वराथिनः । पुष्टिकामाः प्रजाकामाः सोकुमा्यां दीप्राग्नयो घस्मराः सेदनित्याः


थिनश्च ये) दप्त्योजः स्मृतिमेधाथिवुद्धच्द्रियवला्थिनः। पिवेयु कशन्तमाः ऋरकोषठानिलार्ताः ।
सपिरार्ताश्च दाहशखविषाभिमिः ॥ सुश्रत चि० अ० ३९ मेंघृत के मञ्जानमेतेषु भिषणिदध्यात्‌
निर्न गुण दिये है-रू्चक्षतपिषार्तानां वातपिन्तविकारिभाम्‌ ।
हानमेधास्मृतीनां च सपः पानं प्रशस्यते सेहो भवेस्सास्म्यतो यस्य यो वा । २८ ॥
मजा का किन्हें सेवन करना चाहिये-जिनकी अधि दीक्ष
प्रयुद्धमेदःकफमांसवाता हो, बहुत खानेवाखे हो, जो निस्य स्नेह का सेवन करते हो
नादीकृमिव्याध्यनिलातेदेहाः क्छेशो को सहनेवारे हो, जिनके कोष्ठ ऋर हो तथा जो
क्ररातुकोष्ठास्तनुवीयकामा- वातरोगी हा -उन्हं चिकित्सक को मजा का सेवन कराना
स्तेलं पिबेयुनं तु तीक्र्ु्ठे । २६ । चाहिये । अथवा जिनको जो भी स्नेह सात्म्य हो उसका सेवन
करना चाहिये । चरक सू० अ० १३ मे मी कहा है--दीपताञ्नयः
( इति ताडपत्नपुस्तके २७ तमं पत्रम्‌ ! ) वलेशसहा धस्मराः स्नेहसेवनः। वातार्ताः कऋरकोष्ठाश्च स्नेद्या
तैर का किन्हं सेवन करना चाहिये- जिनमें मेद, कफ, मञ्नानमाप्तुयुः ॥ इसी मकार सुश्रत चि० अ०३१ मेंभी कहा
मांस तथा वातत बडे हए हो, जो नाडीबण, उद्रङमि तथा है-कराश्याः वलेशसहा वातात दौप्तवहयः ! मञ्नानमाप्नुयुःसवे `
181387।। 9 $ 96 ॥
वातरोग से पीडित हो, जिनके कोष्ठ कूर हो, जो तनुता
( छशता-पतरापन ) तथा वीर्य को चाहनेवारे ह--उन व्यायाममदयचिन्तामेथ्ुननित्याः भमाध्यशशदेहा
व्यक्तियों को तक का पान करना चाहिये । परन्तु तीन कुष्ट मं सनेह्यास्तथाषिधाः स्युबेलकालवयोग्निसात्म्यज्ञेः || २६ ॥
तेर का पान न करं ! चरक सू० अ० १२ मे कहा है-श्ड- किनका स्नेहन करना चाहिये--बर, कार, अवस्था,
दलेष्मगेद स्काश्चटस्थूलगलोदसाः । वातव्याधिभियविष्॒बातप्रकरत-
जाठरा तथा साप्म्य को जाननेवाखो को चाहे कि निस्य
यश्च ये ।) वर तनुत्वं लघुतां दृढतां स्थिरगात्रत्राम्‌ । स्निग्धदरुक्षण-
व्यायाम करनेवाङे, नित्य मद्य पीनेवारे, नित्य चिन्ता में
तनुलक्तां ये च काडक्षन्ति देहिनः ॥ कृमिकोष्ठाः करूरकोष्टास्तथा
लगे रहनेवारे अथवा मस्तिष्क संबन्धी का्यंअ पिक करने-
नाडिभिररदताः । पिबेयुः शीतले काले तलं तेलोचिताश्च य॥
वारे, निय मेथुन ( भोगविरास ) मे खगे रहने वारे, श्रम
यद्यपि तेरुपान का कार परे प्रात्र ऋतु बतलाया है परन्तु तथा मागं चलने से कश्च देहवारे तथा अन्य भी इसी प्रकार
आत्ययिक विकारो मे शीतकारु मै भी तेर (स्नेह) पान
के पुरुषों को स्नेहन करायें । चरक में स्नेहन के योग्य निम्न
कराया जा सकता ह ! इसीख्यि अष्टाङ्गसंग्रह सू० अ० २५ मं
कहा है-निश्यन>े पित्त संसग पित्तवत्यपि । त्वरमाणे तु शतेऽपि श्यक्ति दिये है--सेवाः शोधयितव्याश्च रूक्षा वातविकारिणः|
व्यायाममबखीनित्याः स्नेह्याः स्युयँ च चिन्तकाः ॥ अर्थात्‌ यह
दिवा तैं च योजयेत्‌ ॥
स्वेदन एवं संशोधन ( वमन-विरेचन >) के योस्य पुरूषो को
( इति ताडपन्र पुस्तके २७ तमं पत्रम्‌ ) विरोषरूप से गिनाया है1स्वेदन एवं संशोधन से पूर्वं स्नेहन
संशुष्कमेदःकफरक्तशुक्रा का करना अत्यन्त आवश्यक है । कहा भी है-नेहमये प्रयु
चीत ततः स्वदमनन्तरम्‌ । स्नेहस्वेदौ पपन्नस्य संशोधनमनन्तरम्‌ ॥
घातातपाध्त्रश्रमरोदयनिस्याः ।
भ्रशाग्नयो बातनिपीडिताङ्खा | न स्तेहयेद्र्भिणीं न प्रसूतां
वसां पिबेयुधृ तिघातुकामाः !। २७ ॥ न चीरपं नेव दग्धातिवृद्धी |
न र्लेष्मपित्तोपहतान्तसयाग्नि
वसा का किहं सेवन करना चाहिये- जिनके मेद्‌, कफ,
रक्त तथा शुक ( वीयं › सख गयेहों (कीणदहो गये हो),
मूच्छारुचिग्लानिथशामवृद्सु । ३० ॥
जो नित्य वात, जातप ( धूप >)तथा मार्ग चलने के श्रम एवं बस्तौ न नस्तश्च षिधिक्रियायां |
रूकता को सहते ह, जिनकी अधि तीन हो, वायु से जिनके छ्य उरे विटभ्रकोपे कफे च |
अङ्क पीडित हो, तथा जो ति ( धारण शक्ति ) ओर धातुओं बरहन्तयजाञ्येषु गलामयेषु
की इद्धि चाहते हो उन्हँं वसा का पान करना चाहिये। चरक | नस्नेहयेत्‌ स्नेहमदात्ययेषु ॥ ३१॥
सु० अ० ५२ में कहा हेवातातपसहा येच रूक्षा भाराध्यक्‌-
शिताः सं्ुष्करेतोत्विरा निष्पीतकफमेदसः ॥ अस्थिसन्धिरिरा- तेषां स्तेदाच्छुपानान्ते (त्ते) बधन्ते व्याघयो श्रशम्‌ ।
असाध्यतां वा गच्छन्ति स्नेहपानाभिवधिताः ॥३२॥
स्नाघुमम॑कोष्ठमहारुजः । वल्वान्मास्तो येषां खानि चावृत्य तिति ॥
महव्चाभिव्ररु येषां वसासा म्याश्च ये नयः । तेषां स्नेहयितव्यानां किनका स्नेहन नही करना चाहिये-- गर्भिणी, प्रसूता,
वसापानं विधौयते ॥ इसी प्रकार सुश्चुत चि० अ० ३१मैमी दुध पीनेवारे बाखक, दग्ध ( जरे हुए ), जिनकी अतिब्रदधि
कहा है-व्यायामकरिताः शयुष्करेनोरक्ता महारुजः! मद्‌धिमारुत- हो ( जिनके शरीर की आवश्यकता से जधिक बृद्धि इई रहे )
प्राणा वस्रायोग्या नसः स्मरताः ॥ श्रेष्म एवं पित्त से निनी आन्तरग्नि चीण इई २ हे, मूर्छा,
स्ेहाध्याथः २२ 1] सूत्रस्थानम्‌ । २१
+ ^ # 0 मा प ज प प ला भ णा क क र भ0 स थ १ जत १, १,

अर्चि, ग्लानि, अस्यन्तं आमदोष तथा प्यास मै, बस्ति एवं गोरवजाड्योस्लेशाध्मानानि पुरीषमविपक्त |
नस्यकर्म जिस समय किये जा रहे हौ, छुदिं ( वमन ), उवर, अरुचिर्पि पाण्डुतनद्रे वदन्त्यतिरिनग्धलिङ्ानि ।२५॥
मरुरोग ( अतिसार) तथा कफ के प्रकोप भे, शरीरकी अतिल्जिग्ध के रक्लण-हारीर का भारीपन, जडता, शारीर
अत्यन्त जडता मेँगरे के रोगों मेँ तथा स्नेह के अधिक सेवन
या इन्द्रियो का अच्छी प्रकार कायं न करना, उक्क्छेश्च (जी
से जिह मदास्यय रोग हो जाता हो-उनका स्नेहन न करे ` मच्तखाना- ०८७०५ ), आध्मान (पेट का वायु के कारण
इनको केवर स्वच्छं स्नेह का पान करानेसेवे२ व्याधियाँं परूखना ), कच्चा मरू आना ( ५१९९०६१ {००९ >), अरुचि,
बढ़ जाती है तथा स्नेहपान से बदी हद व्याधिर्य असाध्य पाण्डुता तथा तन्द्रा--ये अतिक्लिग्ध के रक्षण है । चरक सू
हो जाती देँ) । अ० १३ मं इसके निश्च रक्षण दिवे है--पाण्डुता गौरवं जाडयं
वक्तभ्य- जो नित्य मद्य पीते है उनको स्नेहन करना पुरीषस्याविपकता । तन्द्रीररुचिरषरेशः स्यादतिलिग्धरक्तणम्‌ ॥
चाहिये परन्तु जिन्हँं अधिक मद्य के सेवन से मदात्यय रोग इसी प्रकार सुश्रुत चि० अ० ३१ मे भी कहा है-सक्तदेषो
हो गया हो उनका स्नेहन नहीं करना चाहिये, चरक से निश्च खखस्रावो य॒ददाहः म्रवाहिका । पुरीषातिमद्रत्तश्च खश लिग्धस्य
पुरुष स्नेहन के अयोग्य गिनाये ह--अभिष्यण्णानरयुद्षा नित्यं लक्षणम्‌ ॥ | ।
मन्दाप्मयश्च ये । तृष्णामृष्ठापरौत।श्च गभिण्यस्त।[लद्यो
षिणः ॥ अन्नद्धिष-
इदयन्तो जठरामगरादिताः 1दुर्बलाश्च प्रतान्ताश्च स्नेहम्ाना मदा- द्रभमितलघुष्णमन्नं काते साम्यं बलाग्निरुग्युक्तम्‌ |
व॒रा ॥ न स्नेद्या वतैमानेषु न नस्तोवस्तिकर्मु । स्तेहपानालमजायन्त स्वः खेहपानमिच्छन्‌ भुज्जीत शयीत गुप्श्च ॥ ३६॥
तेषां रोगाः सुदारुणाः ॥ सुश्रुत चि० २१ अ० मे भी कहा हे- स्नेहपान से पूवं क्या हितकर है--अपने लिये स्नेहपान
विवजयेत्‌ स्नेहपानमजीणीं चोदरी ञ्वरी । दुर्व॑रोऽरोचकी स्थुल की इच्छावारे व्यक्तिको चाहियेकि वह दव (पप),
मू्ीतों मदपीडितः। छदः पिपासतः श्रान्तः पानङ्वाचिततः ॥ मित ( मपा इुजा-मात्रामें ), घु, उष्ण, साल्म्य, बरु एवं
दन्तवस्तिविरिक्तश्च वान्तो यश्चायि मानवः । अकल दुर्दिने चैवन च अधि से युक्त अन्न को उपयुक्त कारू में (जो समय उपयुक्त
समन्ना जाये ) खाये तथा एकान्त में शयन करे ।
सेहं पिवेन्नरः ॥ अकाले च प्रसूता खी स्नेहपानं विवर्जयेत्‌ । स्तेहपा-
नाद्धवन्त्येषां नृणां नानाविधा गहाः ॥ गदा वा कच्छतां यान्ति न वक्तव्य - य्ह स्वः के स्थान पर श्वः पाठहोतातो
सिश्यन्त्यथवा पुनः ॥ गभांशये सशेषा स्यू रक्तञेदमलास्ततः । स्नेहं अधिक उपयुक्त था अर्थात्‌ जगे दिन जिसने सरेहपान करना
जद्यानिषेवेत पाचनं रूक्षमैव च ॥ हैउसे परे दिन उपर्युक्तं विधि का पारुन करना चाहिये ।
चरक सें कहा है-द्रवोष्णमनभिष्यन्दि मोज्यमन्नं प्रमाणतः ।
वायोरप्रगुणत्वं सेचय खरवाऽवृतिञ्चंलनदानिः | नातिल्िग्धमसंकीणं श्वः स्नेहं पातुमरच्छता ॥
शुष्कम्रथितपुरीषं लत्तणमस्िग्धगाच्रस्य || ३३ ॥
अल्निग्ध ग्यक्ति के रुक्ण--वायु का अपने गुर्णो से युक्त उष्णोदकोपचारी जितेन्द्रियः स्यान्निपातशयनस्थः |
न होना अर्थात्‌ अनुरोम न होना, रूक्षता, ककंडाता, अधैयं व्यायामवेगरोषत्यागी स्नेदाच्छपोऽस्वप्नः | ३७॥
( बेचेनी-००९४57०58 ), जाठरा्चि की दुर्बरुता, तथा पुरीष सनेहपान के पश्चात्‌ क्या हितकर तथा क्या अहितकर है-
( मर ) का सूखा ओर गरलिवाला हदोना--ये अस्लिग्ध व्यक्ति स्नेह को पीकर ( जीणे हो जाने पर ) तथा पान करते हष
के लक्तण हँ । चरक सू० अ० १३ सें अलिग्धके निश्न क्ण भी दोनों अवस्थां मं पुरुष को उष्ण जरु का सेवन
वतावे है--पुरीषं मथितं रूक्च, वायुरप्यणो, दुः । पक्ता, खरत्वं ( प्रयोग ) करना चाहिये । जितेन्द्रिय होकर (८बह्यचर्य.
रौक्ष्यं च गा्रस्यालिग्यलक्षणम्‌ ॥ इसी प्रकार सुश्चुतमे भीये ही पूर्वक ) रहना चाहिये । सोने तथा बैठने की जगह रेसी होनी
रक्तण दिये है--पुरीषं थथितं रूकं छच्छूादत्रं विपच्यते । उरो चाहिये जहो सीधी हवा न आती हो । तथा व्यायाम ८ परि-
विदहते वायुः कोषठादुपरि धावति ॥ दुवो दु्ैकश्वैव रूको भवति श्रम के कायं) वेग (मल सत्र अपानवायुजादिके वेग)
मानवः ॥ | क्रोध तथा दिवास्वप्न का स्याग कर देना चाहिये । चरक सू०
अ० १३ मे कहा है--स्नेहं पीत्वा नरः स्नेह प्रतिज्ञान प्व च।
धृतिभरदुपुरीषत्वं मेधापुष्टचग्नितेजसां बुद्धिः | उष्णोदकोपचारी स्यात्‌ ब्रङ्चारी क्चपारायः
॥ राक मूतानिरोद्यारा-
काले शरीरघरत्तिः स्निग्धस्य बदन्ति लिङ्गानि ॥ ३४ ॥ नदीणीश्च न धारयेत्‌ । व्यायामरुच्चैव॑चनं कोधसोकौ हिमातपौ ॥
सम्यक्‌ ल्जिग्ध के लक्षण--रोगी धेयं ( ९७७7८९8 `) वजेयदग्रवातं च सेत शयनासनम्‌ । स्नेहमिधथ्योपचाराद्धि जायन्ते
अनुभव करता है, मरु भदु ( नरम >) हो जाता है, मेधा, दारुणाः गदाः ॥ इस विधि का पालन स्नेहपान फे दिनों में
पोषण, जारटराभि तथा तेज की बृद्धि होती है ओर शरीर की तथा उसके बाद्‌ उतने ही दिन अर करना चाहिये । इस
सब धृत्तिया (कायं ) ठीक समय पर होती रहती है-ये विषय में चरक सिद्धिस्थान अध्याय ऽ में कहा है-कारस्त॒
सम्यक्‌ स्निग्ध के क्षण है । चरक सु० अ० १३ म सम्यक्‌ दस्त्यादिषु याति यावांस्ता न्‌ भवेदद्धिःपरहारकालः । अत्याक्षन-
लिग्ध के निन्न रक्षण दिये है वातानुलोम्य दीपोऽसि नैव स्थानवचांसि पानं स्वप्नं दिवा मेनवेगरोधान्‌ ॥ शीतोपचारातप-
लिग्धमसंहतम्‌ । मादेवं लिग्धत। चार्‌ लिग्धानासपजायते ॥ दयोकरोषांस्त्यजेदकाराहितभोजनं च ॥ इसी प्रकार अष्ङ्गसंग्रहं
२२ काड्यपसंहिता वा वुद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ | [ स्नेहाध्याय! २२
वः
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न त व श कका 0 कवि 0 त ५

मन्नघ्य यहुरात्‌ ग्रहण मता । नाभेरपरि सा


0 0 ।


मं मी कहा है-मोव्योन्लं साव्रया पास्यन्‌ शः पिवन्‌ पीतवानपि । ` कह्‌। है--अग्न्यधेठान
द्रमोपणलनभिष्यन्दि नातिज्लिग्धपसङ्कुरम्‌ ॥ उष्णोदकोपचारी स्यात्‌ दभि वलोपस्तम्भच्रंहिता ॥ अपक्षं धारयत्यन्नं पक्वंत्यजति चाप्यधः ॥
ब्रह्मचास शक्वपादयः 1 व्यायामवेगप्तसेषदोकहुषहिमातपान्‌ ॥ ठृएमूासुखशेषैः शब्दद्वेषाङ्गमदजम्भाभिः |
परवातयानपानाध्यसाष्यात्यद्यनसंस्थितीः । नीचात्युच्चो पधानाहुः स-
तन्द्रीवाण्डेदसादेः स्ते्ज्ञा(ज्ञोऽ)जीयंतीत्याह ।। ४१॥
प्तधू्रजांसि च ॥ यान्यहानि पिवे्तानि ता्न्त्यम्यान्यपिं त्यजेत्‌ ॥
संसिन्यति मृदुकोष्ठो नरख्िरात्रेणः सप्तरात्रेण | | स्नेह के जीण न होने के रुक्तग~- स्नेह के गुणो को जानने.
वाला व्यक्ति प्यास, मुदो, मुखशषोष, शब्दद्रेष, ( किकी प्रकार
सतेहच्छपानयोगाञ्जीवक ! यः करकोरस्त॒ ॥ ३८ ॥ का राढ अच्छान्‌ रुगना), अङ्गमदं, जमाई, तन्द्रा तथा
हेजीवक ! अष्ठु स्नेह के पान से ण्दु कोष्ठ वाला व्यक्ति वाणो जौर देह का अदाद्‌ ( खिन्न होना ) इन रक्षणो से
तीनदिनसें स्निग्ध हो जाता हे तश्रा कमेर कोष्ठं वारा स्नेह के अजीर्ण को जानता है । अर्थात्‌ उपर्युक्त रूकषर्णो को
व्यक्ति सात दिन में किण्व होताहे । चरकमेंकहाहे- देखकर यह जानाजा सकता है कि सेवन किया हुभा स्नेह
मृदकोखखिपात्रेग ल्िद्यत्वच्छोपप्ेवयां ! लिति क्ररकोषस्तु जीर्णं नहीं हुभा हे । `
सप्तरप्रैण मानवः ॥
द्राक्ञापीलत्रिफल्लागोरसतप्राम्बुतस्णमयानि | जीगांजीणेविशङ्खी केवलु्णोदकं पिवेत्‌ तद्धि |
उद्वारथ्य विशुद्धि जनयति भक्ताभित्ताषंच | ४२॥
भुक्छाऽथ पायसं यो मृदुकोष्ठःखंस्य(स)ते नान्यः।२६॥
गरुः कोष्ठ वारे व्यक्ति को द्रक्ता (अगर या सुनकके का स्नेहाजीणं की चिङ्कितसा-जिस भ्यक्तिं को सेवन किये
रस >) पीद्धरस, त्रिफका, गोमूत्र, उष्णजक, नवीन तयार की इए स्नेह के जीणहोने या न होनेकी हंकाहो वह केवल
इई मद्य, तथा दू फे सेवन करने से ही विरेचन हो जाता हे । उष्ण जर पीये । इश्नसे उद्वार्‌ (उकार) टीकहो जातीहै
परन्तु इनसे ऋ कोष्ठ व्यक्तिको विरेचन नहीं होता है। चरक तथा भोजन मँ मी रुचि उपपन्न होती हे ।
सू० अ० १३ मे कहा हं-गुःमिदरसं यस्तु क्षीरदुहटोडितं
तेलेऽधिको(के) विदाहः सर्पिषि मूर्च्छा, वससु हृल्लासः
द्धि । पायसं कृसरं सथः कादमर्यत्रिफलारसम्‌ ॥ द्राक्षारसं पीलुरसं
जलपुष्णमथापि वा । मचं वा तरुणं पीत्वा गृदुकोष्ठो विरिच्यते ॥ मञजनि मोरवमेषां दोषैरस्पा प्रवृत्तिस्तु || ४३ ॥
विरेचयन्ति नैतानि करकोष्ठं कदाचन । भवति कृर्कोष्स्य अहष्यत्यु- यदि स्नेहाजीण तेर के आधिक्यसे हो तो विदाह ( कोष्ठ
स गानिका ॥ सुश्रतमें तीन प्रकारके को्टोौका वणेनश्िया म जन ), घृत के जाधिक्यसेहो तो मूर्धा, वसा से हल्ला `
गया है--तत्र दुः ऋय मध्य इति त्रिविधः केष्टो भवति । (जी मचराना >)तथा मजा से शरीर का भारीपन होगा।
तत्र बहुपित्तो खदु । स दुग्धेनएपि विरिच्यते । वहुवातरश्े्मा दन व्यक्तियों को (प्रवृद्ध ) दोषों के कारण प्रवृत्ति (कार्यस
कूरः स दुविरेच्यः ! समदोषो मध्यमः; स साधारणः ॥ रुचि ) भी अस्प होती है ।
पित्तबहुलेतसल्पा प्रहणी मवति महुकोश्ठिनां तस्मात्‌ | स्नेदाजीणे तृष्णा शूलं परिकर्तिका च यस्य स्यात्‌ ।
सविरेच्या मृदुको्ठाः प्रायः पित्तं छधोमागि ॥। ४० ॥ समतीतजरणकाले तथ्य प्रच्छदेनं श्रेयः ॥४ ॥
खदु कोष्ठ वारे व्यक्तियों की ग्रहणी में पित्त का आधिक्य स्नेह के द्वारा अजीर्णं होने पर जिसे प्यास, शूर तथा
होता है तथा इतर दोष (वात ओर कफ ) अल्प मात्रां परिकर्तनवत्‌ पेदना हो उसे स्तेहके जीर्णहोने के कालङ़े
होते है इसलियि इन्हं धिरेचन सुगमता सेहो जाताहे। व्यतीत हो जाने परं चमन कराना श्रेयस्करहै । चरकमे भी
क्योकि पित्त इनके अधोभाग मे स्थित दोता है । चरक सू° कहा है-जोणं यदि तु स्नेहे वृष्णा स्याच्ृदये षक्‌ । शीतोदकं
ज० १३ मे कहा ह-उदीणेपिन्ताऽच्पकफा ग्रहणी मन्दमाऽता | पुनः पीत्वा युषत्वा रूक्षात्रसु्ठिखेत ॥ अर्थात्‌ यदि वमन करने पर
सदुकोष्ठस्य तस्मात्‌ स सविरेच्यो नरः स्मृतः ॥ भी अजीणे लक्षण शन्तन हो तो श्ीतरु जरु पीकर पुनः
वक्त्य--ग्रहणी से अभिप्राय जुद्रान््र का प्रारम्भिक माग वमन करे । सुश्रुत मे उस अवस्था मे उभ्ण जरसे वमन
हे । इसका परिमाण १२ अंगुख होता है । इसमे अर्ध॑पक्त अन्न कराने का विधान दिया हे-ग्वं चानुपराम्यन्तयां सेहघष्णम्धुना
को पकाने कं लिये पित्ताश्ञय (५५! 8!>44€८ >) से पाचक वमेत्‌ ॥ इन दोनो के विरोध के परिहार के ल्यि अष्टाङ्गसंमरह
पित्त ( 2:1९ ) तथा अग्न्याशय ( २५५९5 ) से उसका रस म छिखा है--भजंणेबस्वत्यां ठ शीतैदिद्ाच्छरो सुखम्‌ । चद॑येत्‌
पृथक्‌ २ खोर्तो द्वारा आकर एक सम्मित सुख ( ^+फषा" तदशान्तौ च पीत्या शीतोदकं पुनः ॥ रूक्षान्नमुष्टिवेत्‌ युक्त्वा ताष्र्यां
० एषः) के द्वारा ग्रहणी में पहता हे । उनके हारा त कफानिरे समदोषस्य निःरेषं सनेहदुष्णाग्ुनोद्धरेत्‌ ॥ अर्थात्‌
अपक्ष जन्न का पाक होकर जगे जाता है इसे पित्तधरा कला पित्त प्रकृति वा पुरुष मे ज्ञीतर जर तथा कफ वात प्रकृति
भी का गया है । सुश्रुत में कहा है-षटी पित्तधरा नाम या एवं समदोष पुरूष सें उष्ण जर का प्रयोग करे ।
कला परिकोतिता । पुक्रामारयमध्यस्था अ्रहणी परिकीतिता ॥ इसी उद्रारस्य धिशुद्धिः कान्ता स्थिरता लघुत्मधिषादः ।
प्रकार चरकमे भी इसे अग्नि का मधिष्ठान माना गयाहे।
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बलवयागिन्द्ियत्ंपञजीर्ण स्नेहे बक्ञसुखे च॒ ॥ ४५॥



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सनेह्भ्यायः २२ | सून्रस्थानस्‌ | ९३
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कणो्तिभ्राणवलं स्रतिकेरौजसां बृद्धिधृतिपु्र | स्नेदहापचारजस्ति रोगाः, स्वेदोपपादिताये ते) षु ।


शान्तिस्तव्याधीनां सुक्ल्वाऽनु स्नेहपीतस्य ॥ ४६॥। वमनविरेचनयोगा रूक्लाशनतक्रमूत्राद्याः ।५०॥
स्नेह कै जीर्णं हो जने फे कत्तण--उद्गार ८ उकार ) का स्नेह के विधिपूर्वकं सेवन न करने से उत्पन्न होनेवाखे
साफ आना, भोजन या अन्य कायो सें रुचि दोना, शारीर की रोगों से स्वेदन, वमन, विरेचन के योग ( ओषध ) सूक्त अन्न
स्थिरता, लघुता ८ हरुकापन `, अव्रिषाद्‌ (खिन्नता न होना), का भोजन तथा तक्र भौर मूत्र का सेवन करना चाहिये ! चरक
वर, वाणी तथा इन्द्रियो का सम्पत्‌ (श्रेष्ठ गुणो से युक्त मे खहा है--तताप्युलेखन यस्तं स्वेदः काठभ्रतीक्ष एम्‌ ¡ प्रति प्रति
होना 9 तथा बरु ओर सुख की प्राप्ति होती है । तथा स्नेह व्याधिवछं बुदध्वा घछंसनमैव च॥ तक्रारिष्टप्रयोगश्च रूक्षपानात-
पान के बाद कान, ओँख तथा प्राणङ्क्ति बरूवान होती सेवनम्‌ । मूत्राणां तरिफल याश्च स्नेहन्यापन्तिमेधजम्‌ ॥
रमरणश्शक्ति, केश, ओज की बृद्धि होती है, धारणशक्ति पुष्ट मात्राकालवियुक्तः स्नेहः सात्म्योपचारगुणदीनः
होती है तथा उनरे व्याधिर्यौ की शान्ति दहो जाती द) युक्तो व्यापदमृच्छति तस्मिन्‌ संशोधनं पथ्यम्‌ ।। ५१ ॥
अर्थात्‌ जिन २ ्याधि्यो के उदेश्य से स्नेह का सेवन किया
गया था, स्नेहपान केबाद वे व्याधियां ज्ञान्त हो जानी चाहिये उपद्रवो के कारण मात्रा तथाकारूसे रहित ( अर्थात्‌
। जिक्च मात्रां स्नेह का प्रयोग करना चाहिये उससे भिन्न
पित्तानिलामयष्नं बस्ूयूरुकटीदढीकरं वृष्यम्‌ मात्रा तथा जिन २ कारो में भिन्न रे स्नेहो के सेदन का पूर्व
ऊजेस्कर श्रमघ्नं विद्यात्‌ स्नेदाघपीडं तु || ४७ |} विधान बत्तखाया है उनसे अतिरिक्त का्छो मँ) तथा सात्म्य
स्नेह के अवपीडन के गुण-- स्नेह का अवपीडन (नासिका उपचार ( पशभ्यापभ्य >)से रहित स्नेह ( अर्थात्‌ स्नेह के बाद
सै स्नेह का डाना > पित्त तथा वायुकेरोर्गो को नष्ट करता पथ्यापथ्य कापाख्न न करनेसे) उपद्रवो को उत्पन्न कर
हैतथा यह बरिति, ऊरु एवं कण््रदश को द्द करता है जर देता है! इन उपद्रवो मे संशोधन अर्थाच वमन विरेचन
बृष्यं उर्जस्कर ८ वरु देनेवाखा >)तथा श्रम (कावर) को कराना चाहिये । इसी भाव को चरक सें निम्नस्प सें भ्रकट
दूर करनेवारा हे । किया गया हे--अक्ाङे चाहितश्चैव मात्रया न च योजितः । स्नेहो
वक्तव्य वपीडन से अभिप्राय निचोडकर रस निका भिथ्योपचाराच व्यापधतातिस्ेवितः ॥
कना है ! कहा है--अवपीड्य दीयते यस्मादवपीटस्ततः स्तः ॥
कल्कीकृतादतौषधाचः पीडितो निठतो रसः ॥ सोऽवपीडः समुद्दिष्ट
स्तेदट्ेषी कामो मृदुको्ठः स्नेदमव्यनिव्यश्च
अध्यप्रजागर्लीश्रान्ता नच्छं पिबेयुस्ते
तीश्छद्रव्यसयुद्धवः ॥ गल्रोगे सत्निपाते निद्रायां विषमञ्वरे । मनो- || ५२॥
विकारे कृमिषु युज्यते चावपीडनम्‌ ॥ अर्थात्‌ किसी आौष्धि का तेषामन्नेविं विधेः स्नेहस्य विचारणा सास्म्यम्‌ |
रस निकारकर नाक मे बद २ टपकाने को अवपीडन कहते ह । निर्द्र मासादयः कालाग्निवयःप्रकषांचच || ४३ ॥
सज्िपात आदि योगों में यह प्रयुक्त होता हे गुरुपानमोभ्यमांसंगुडदधित्िलशाकदुग्धनियृहैः |
बर्णस्वरमेधौजःशुक्रायुष्ेतिबलाग्निसंबुद्धिः | न स्तेहयेत्‌ प्रमेहे न ऊ्कफशोषरोगार्तान्‌ ॥ ५४ ॥।.
विस्मूत्रानिलबृत्तिः सुखेन संभोजनस्नेहात्‌ ॥ ४८ ॥ अच्छ ( केवर ) स्नेह का किः सेवन नहीं करना चाहिये-
स्नेह के सम्यक्‌ प्रकारं सेवन करने से वणं; स्वर, मेधा, जो स्नेहं कोन चाहते हा, जो कमजीर तथा श्ृदुकोष्ठ ह
ओज, शुक्र, आयु, छति ( धारण इक्ति ) बर तथा जाठराभि जो नित्य स्नेह एवं मयका सेवन फरतेहो, मार्गके चरख्ने
क्री बृद्धि होतीहै तथा मरू, मूत्र एवं वायु सुखपूषेक जागरण तथा खीगमन के कारण जो थक गये हो उस्रं अच्छं
सर जाते है स्नेह-का पान नहीं करना चाहिये । उनको मास (ऋतु )
स्परपार्डुकुछठशोथास्तृण्मूर्ढाच्छयेरोचकोकक्हेदाः । आदि का निर्दैश्च करके कार, जाटराभि तथा अवस्था के अनु
सार गुर पान, गुर भोजन, गुर मांस तथा गुड, दधि, तिर,
ग्रहणीन्द्रियोपघातस्तेमित्यानाहश्यूलाया ॥ ४६ ॥। शाक, दुग्ध तथा निपूंह आदि विविध अन्रपार्नोमेसेजो
स्नेह के अपचार अर्थात्‌ बिधिपूवेक सेवन न करने से सासम्य हौ-उसके साथ स्तेहकी विचारणा बनाकर देनी
उवर, पाण्डु, कुष्ट, रोथ, प्यास, मूर्छ, दिं ( वमन >), अरुचि चाहिये । परन्तु इनके दवारा प्रमेह, कुष्ठ, कफ तथा शोषरोग से
उस्क्रेद्‌ ( जी मचराना ), ग्रहणीरोग अथात्‌ संग्रहणी पीडित व्यक्तिर्यो कास्नेहन नहीं करना चाहिये । चरकमे कहाहै-
( अथवा ग्रहणी रोग ओर इन्द्रियोपघात अर्थात्‌ इन्दि्यो स्नेहद्विषः स्नेहनित्या स्रदुकोष्टाश्च ये नराः । क्लेासदहा मयनित्या
का स्वस्थ न होना ), स्तेमिव्य (जडता), आनाह ( अफारा ) स्तेषामिष्टा विचारणा ॥ अर्थात्‌ इँ केवर ( अच्छ ) स्नेह न
तथा श्रूरु आदि रोगौ जातेर्है1 चरक सु० अ०्ष्देमं देकर उपर्युक्त विचारणां के रूपसें प्रयोग करना चाहिये ।
कहा है--तन्द्रा सोक्टेद्च आनाहो ज्वरः स्तम्भो विसक्गता । कुष्ठानि सी भावको सुश्रत चि०ज० ३१मेंनिञ्नरूपमेंदियाहै-
कण्डूः पाण्डत्वं शोफारौस्यर चिस्द्षा ॥ जठरं अरहणीदौषः स्तंमित्य छुदुमार करं टृ रिश स्नेहदिषं तथा । तृष्णातंसुष्णकाङे च सद-
वाक्यनिगरहः । शूलमामप्रदोषाश्च जायन्ते -स्तेहुविभ्रमात्‌ ॥ मत्तेन दापयेत्‌ ॥ य्ह भक्त अर्थात्‌ भात ( जदन ) शब्द्‌
कादथपस्ंहिता वा वरद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ | [ स्वेदाध्यायः २३
भि क्न
२४

केवर उपरक्तण मात्र है । इससे अन्य विचारणां का भी । दिया-हे चरद्धजीवक !तुस्वेदन की. सम्पूर्णं विधि को अच्छी
प्रकार सुन । किस प्रकार बालक स उसका प्रयोग करना

ग्रहण करना चाद्ये ।


तरोष्नन्येः सेदः सिदधेभया्वमधिकारेः | चाहिये जिससे प्रयुक्त करिया हभ वहस्वेदन हितकारी हो सके ।
स्नेदयास्तथाभ्िधाः स्युखिफलासन्योपलवणायैः ॥ ५४ ॥ स्तमित्यशूलकारिन्यविवन्धानाहवा भदै |
उपर्युक्त प्रमेह आदि केरोणि्यो का रोगानुसार तत्तदोषहर- दृल्लासाशर्च्यलसकशीतासदनवेपनेः |६॥
त्रिष, त्रिकटु तथा छ्वण जादि र्यो से सिद्ध कयि इए ( इति ताडपत्रपुस्तके ३८ तमं पत्रम्‌ । )
अविकारी अर्थात्‌ विकार नं करनेवारे-स्ने्हो से स्नेहन करे । वातर्लेष्मोद्धवं टश्य प्रथग्बा स्वेद इष्यते |
चकर सें कहा हे- स्नेदै्यथास्वं तान्‌ सिद्धैः स्नेहयेदविकारिभिः। । वाते रिनग्धः कफे रूकलो द्रयोः साधारणो मतः ॥ ७ ॥
पिष्पलीमिर्हैसतक्या सिद्धेखिफल्याऽपि का । इसी प्रकार अष्टाङ्ग
संम्रह से भी कहा है-गडानृपामिवक्षोरततिलमाषसुरा दधि । कुषठ- स्तेमिस्य, ८ जडता ), शूल, कठोरता, मरुबन्ध, आनाह,
रोफग्रमेहेपु स्नेहायै न प्रकल्पयेत्‌ ।॥ त्रिफला पिप्पली पथ्या गुग्यु- वाणी का निग्रह ( बोर न सक्ना-गृरापन ), ह्लास (जी
स्ाद्विविपाचितान्‌ । स्नेहान्यथास्वमेतेषां योजयेद्विकारिणः ॥ मचराना ), अरुचि, अलसक, शीतं को न सहन कर संकना
तथा कम्पन-इत्यादि रत्तणो को देखकर वातरछेष्म अथवा
स्तेहितदेहस्यादो सेद मनन्तरमथ युज्ीत | पथक्‌ २ ( वातिक एवं शरेष्मिकृ ) स्वेदन करना चाद्ये ।
सम्यकिस्नग्धस्िन्नेर्विंशोधनमनन्तरं कायम्‌ ॥ ४६॥
[#ः [न न्ति$ ध *
वात की प्रधानता में स्निग्ध, कफ की ब्रधानतासें रक्त तथा
इति सखेहाध्यायो द्ार्िंश्तितमः ॥ २२॥ दोनो का संयोग होने पर साधारण अर्थात्‌ स्निश्ध एवं रुक्त
० ५५, 4, ~ ४१९
मिखा इभा स्वेदन देना चाहिये । चरक सु० अ० ४
कहा है--वातदरेष्पणि वाति वा कफे वा सेद इष्यते । रिनिग्धरूक-
जिस व्यक्तिका स्नेहन कर खया गया है उसे पहटे स्तथा स्निग्धौ रूश्चश्चा युपकद्पितः ॥ अर्थात्‌ केवर वात मेंस्निग्ध,
स्वेदन कराना चाहिये । पिर दीक भ्रकार से स्नेहन ओर श्केष्म मे रुक्त तथा वातकफ ( दन्न › मेँ स्निग्ध ओर खक्तः .
स्वेदन हो जाने पर संशोधन ( वमन, विरेचन आदि पञ्चकर्म दोनों प्रकार के रर्यो घे तैयार क्रिया हुआ सदन देना चाहिये।
की क्रियायें ) कराना चाहिये । चरक मे भी कहा है-स्नेहमये
प्रयु्ीत ततः स्वेदमनन्तरम्‌ 1 स्नेदस्वेदोपपन्नस्य संशोधनमयेतरत्‌॥ बालानां कृशमध्यानां स्वेद आवस्थिको हितः |
इति स्नेहाध्यायो दाविरतितमः ॥ २२॥
शीतव्याधिशरीराणां बालानां च विषरेषतः ॥८॥
० (2 -
ङश एवं मध्यबलं वारे वालको को आवस्थिक (रोग
एवं बर की अवस्था के अनुसार ) स्वेदं देना चाहिये । बारूको
चयोविरातितमोऽध्यायः | को स्वेद देते हुए विशेषकर शीत ( सदी ), व्याधि एवं शरीर
का ध्यान रखना चाहिये अर्थात्‌ सर्दी कम हेया अधिक तथा
अथातः स्वेदाध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १॥ दसी प्रकार व्याधिजौर शारीरिक बर को भी द्षटि में
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥ रखना चाहिये ।
अब हम स्वेदाध्याय का व्याख्यान करेगे । पेसा भगवान्‌ वक्तम्य--सदीं अधिक होतो स्वेद अधिक मात्रामे दिया
कश्यप ने कहा था ¦ | जा सकता है । इसी प्रकार यदि रोग बलवान हे तथा श्ञारी-
सम्यकिरिनग्धस्य भगवन्‌ कथं स्वेदं प्रयोजयेत्‌ | रिक बरु भी पर्या्ठहै तो स्वेद अधिक दिया जा सकता है,
अनत्ययं भिषण्बाले द्रव्यं स्वेदोपगं च क्रिम्‌ ॥३॥ परन्तु यदि रोग खदु एवंज्ञारीरिकिबरूमीकमहो तो स्वेद
मन्दातिसम्यचिस्दन्नःनां बालानां लक्तणंच किम्‌ । भी थोड़ा ही देना चाहिये)
कः सेद्यो न च कः स्वेदय इ्युक्तः प्राह कश्यपः ॥ ¢ ॥ वृषणो हृदयं चश्चुमेदु वास्वेदयेन्न वा |
श्रगु स्वेदविधिं कृतं बृद्धजीवक ! तच्वतः | शेपोवद्भणसन्धीसतु मध्यमं, ेषमिष्टतः ॥६॥
यथा बाले प्रयोक्तव्यः प्रयुक्तश्च यथा हितः ॥ ४॥ अण्डकोष, हृदय तथा न्धोकोभृदुहीस्वेद देना चाष्ठिये
बृद्धजीवक ने पूवा भगवन्‌ ! सम्यक्‌ स्निग्ध व्यक्तिको अथवा बिच्कुरु ही स्वेद न दें । शेप ( जननेन्दिय ) वड्न्नण `
किंस प्रकार स्वेदन करना चाहिये ? बार्क मे कौन से श्वेदो- (रान ) तथा सन्धि मँ मध्य स्वेद देना चाहिये । तथा
पग ( स्वेदन म सहायता देनेवाले ) न्य स्वास्य को देने- दारीर के शेष अवयर्वो पर॒ यथाप्रयोजन खदु, मध्य अथवा
वाछे हे १ मन्द्स्विन्न, अस्विन्न, अतिरिवन्न, तथा सम्यक्‌ सिविज्न महास्वेद्‌ देसकतेहँ। . _
बा्को के क्या २ रक्षण है ! स्वेदन के योग्य तथा अयोग्य वक्तम्य-यहां देशमेद से खेदं खदु, मध्य तथा महान्‌
कौन हैँअथात्‌ किनका स्वेदन करना चाहिये तथा किनका तीन प्रकार का स्वेद्‌ बताया हे । इनमे से अण्डकोष, हृदय
नहीं १हृ प्रकार प्रन किये जाने पर महिं कश्यप ने उत्तर तथा नेत्रो को साधारणतया स्वेद नही देना चाहिये जपितु
सखरदाध्यायः २३ सृच्रस्थानस्‌ | २य्द्‌

अन्य उपायो का ही अवरूम्बन करना चाहिये । परस्तु यदि विषादमृच्छांवरडदाहपित्तकोपारतिध्रमा ; |


इनमे स्वेद से ही अच्छे होनेवाङे रोगर्होतोग्ृदुः स्वेद देना सराहा निवंहल्यमतिखिन्नस्य लक्षणम्‌ ॥ १४ ॥
चाहिये । जननेच्िय, शनौ तथा सन्धिर्यो में मध्य स्वेद तथा अतिस्विन्न के छक्तण-- विषाद्‌, मृदौ, प्यास, दाह, पित्त
देष अङ्गो पर आवश्यकता के अनुसार मदु, मध्य प्रकोप, अरति ( श्छानि ›)म, स्वर जर अज्ञा की दुबेरुता
अथवा महस्वेद्‌ निर्भयता के साथ दिया जा सकतादहै। तथा विह्रता ( व्याकुरुत )--ये अतिस्विन्न पुरूष के लक्षण
चरक सु० अ० १४ मे भी कहा है--शृषणौ हदयं दृष्टी स्वेदयेन्द्‌ है । चरक सु° अ० १४ मेँ कहा है--पित्तप्रकोपो मृद्धं च रारी-
नेव वा । मध्यमं वडश्षणं रेषमङ्गावयवभिष्टतः ।॥ रसदनं वृषा । दाहस्वेदाङ्दौ्व॑स्यमतिस्वि्नस्य रक्षणम्‌ ॥ सुश्रुत चि°
कुमदोत्पलपद्यानां पत्रैराच्छाद्य लोचने | अ० ३२ मे कहा है--स्वितेऽप्यर्थं सन्विपीडाविदाहुः स्फोटोत्पत्तिः
बाससा वाऽथ ऋच्णेन बले स्वेदं प्रयोजयेत्‌ ॥ १०॥ पिन्तरक्तप्रकोपः । मूच्छ भ्रान्तिदाहवष्णे क्ल्मश्च ॥ इसीप्रकार अष्टा
"०

मुक्तावलीचन्द्रकान्तशीताम्बुकरभाजनैः । ङहदय मे भी कहा है--पित्ताखकोपत्‌ मूचांसराज्गसद नभ्रमाः ।


सन्धिपीडाञ्वरश्यावरक्तमण्डल्ददौनम्‌ ॥ स्वेदातियोगाछदश्व" * " ॥
स्रोदभीरणं हृदयं बालस्य सवेदकमेणि | ११॥
सम्पूणं शरीर का स्वेदन करते समय चच्लु तथा हृदय की
तचिकित्सां प्रयुञ्जीत यथा वेसर्पिणां तथा ।
रक्ता का उपाय-कुसुद, उत्परु ( नीरूकमरू ›)तथा कमर के रागब्रगणविसंज्ञाभिः
छृच्छसाध्यं तमादिशेत्‌ ॥ १५॥
पत्ता अथवा नरम कपडे से वाख्क के नेर्त्रोको अच्छी भ्रकार जतिस्विन्न की चिकित्सा--विसपं रोगके रोगी की तरह
ठककर स्वेद देना चाहिये । तथा स्वेद देते इए मोतियो की इसकी चिकित्सा करे ! तथा जब राग, बण तथा विसंज्ञा
मार्ज, चन्द्रकान्त मणि तथा शीतर जरु से भरे इए पात्रों ( मूर्छा >)हो जाय तब उसे कृच्छर साध्य जाने । ॑
से बारूक के हृदय का निरन्तर स्पशं करते रहना चाहिये । वक्तम्य--चरक चि० अ०२९ में विसपं रोग का निम्न
अर्थात्‌ जब वबारुक को स्वेद देना हो तब कमर जादि चिकित्सासूत्र दिया है--रद्धनोरेखने शस्ते तिक्तकानां च सेवनम्‌ ।
के कोमरू पर्त से बाखक की अखिं ठक द तथा हृदयप्रदेश कफस्थानगते सा मे रुश्वदितेैः प्रखेपनम्‌ ॥ इसीप्रकार अतिस्विन्न
को भी यथासंभव उपार्यो वारा शीतर रखने का प्रयत्न करं च्यक्ति से भी रद्कन, वमन, तिक्त जषधिर्यो का सेवन करना
जिससे उन प्रदेशे पर स्वेद्‌ न पर्हचे । चरक सु० अ० में चाहिये तथा रुक्त एवं शीत दरर्ग्यो का म्ररेप ख्गाना चाहिये ।
कहा हेपरुदेरुक्तकैः पिण्ड्या गोधूमानामथापि वा। पञ्चोत्र- अष्ाङ्गहृदय से भी यही विधान दिया है! बर्हीँ शीत
पकारौ स्वेयः संदृत्य चन्लुषी । सुक्तावलीभिः शीताभिः रीतरेमा- मररेप की व्याख्या करते हुए अत्यन्त शीतप्ररपो का निषेध
जनैरपि । ज रद्रैजैलजहस्तेः स्वि्यतो हदयं स्पृशेत्‌ ॥ सुश्चत चि० करे अलुष्णक्ञीत प्रङ्ेपों का प्रयोग च्लि डे। चरक सू
अ० ३२ में कहा है-सनेदाभ्यक्तशरीरस्य शीतेराच्छाय चद्व । अ० १४ मे अतिस्विन्न की चिकिस्सा मे स्ख है--उक्तस्तस्या-
दितीये यो यैप्मिकः सर्व॑शोविधिः ¦ सोऽतिस्विन्नस्य कतेव्यो मधुरः
सििचमानस्य च सुहृ्ैदयं शीतरेः स्पृशेत ॥ इसी प्रकार अष्टाङ्ग.
संग्रह सु° अ० २६ मे भी कहा है--्ोत्पलादिभिः सक्तुपिण्ड्या स्निग्ध्ीतलः ॥ अर्थात्‌ अतिस्विन्न व्यक्ति के लिये अ्रीष्मचर्योक्त
वाच्छाच चक्धषी । रीतेसुक्तावखी पश्ुमुदोतर्माजनेः ॥ यहुः मधुर स्निग्ध तथा शीतर विधियो का प्रयोग करना चाहिये ।
करैश्च तोयाद्रौः श्वियतो हदयं स्पृशेत्‌ ॥ | परन्तु भरीष्मचर्या मे दवियेडुष्‌ मद्यपान को टीकाकारो ने सर्वथा
कपूरचूणेमास्येन धारयेत्‌ स्यतः सुखम्‌ । वर्जित बताया हे । |
फलाम्लयुक्तं खण्डं वा मृद्रीकां वा सशकराम्‌ ॥ १२॥ वातस्याप्रगुणलवं च गुरुत्वं ॒स्तन्धगात्रता 1
सुखपू्ंक स्वेदन करने के स्थि मुख में कपूरचृणं को मन्दश्िन्ने न च ग्लानिष्टृष्णादीनां च विधमः ।\९६॥
धारण करे अथवा खाण्डयुक्त अम्स्वेतसं या अम्लरस वाङ तच्र स्वेदं ्रयुञ्चीत भिषग्भूयो विचारयन्‌ ।
फरो या शकरा से युक्त मृद्रीका ( मुनक्घा) धारण करे।
अथात्‌ स्वेदन करते समय मुंह मेँ कषर, खाण्ड से युक्त अम्ल-
बलकालवयोदोषान्‌ पथ्यचेष्ठाशनस्थितीः ॥ ९७ ॥
फर्‌ जथवा मुनक्का धारण करने से सुखपूर्वक स्वेदन होजाताहै । मन्दस्िन्न के रुक्षण~- स्वेदन माच्रा से थोड़ा होने पर वायु
अनुरोम नहीं होती, शरीर भारी तथा स्तन्ध ( जकड़ा इजा )
शीतगौरवविष्टम्भशलादीनां निवतेने
येयभावे वेदं
। होताहे तथा गछानि जौर तृष्णा शान्त नहीं होती । इस
तदिप च स्वेदं प्राज्ञो निवतेयेत्‌ ॥ १३॥

अवस्था मे अर्थात्‌ सम्यक्‌ स्वेदन न होने पर चिकित्सक


स्वेद्‌ देना कब बन्द करना चाहिये-शीत, गौरव (श्षरीर को चाहिये किं रोरी के बर, काक (ऋत ), अवस्थाः दोष,
का भारीपन „)विष्टम्भ तथा शूर ( वेदना ) आदिर्यो के शन्त चेष्टा तथा भोजन ( आहार-विहार ) के पथ्य का विचार करते
हो जाने पर तथा इनसे विपरीत भाव उत्पन्न हो जने पर हुए पुनः स्वेदन करावे । [र
बुद्धिमान्‌ भ्यक्ति स्वेद को वन्द्‌ कर दे! अर्थात्‌ जब शरीर मं
उष्णता तथा हलकापन आ जाय ओौर विष्टम्भ शूर आदि स्वेदाभिनन्दिता सौख्यं मृदुता रोगदेहयोः ।
शान्त हो जायं तब स्वेद्‌ बन्द्‌ कर देना चाहिये । काले विस॒ष्टिःक्षुत्तष्णा सम्यक्‌ स्विन्नस्य लक्षणम्‌।१८॥
19
कारयपसंहिता वा ब्ृद्धजीवकीयं तन्न्रस्‌ ) [ स्वेदाध्यायः २३
त क थ क ५ ५“ ५ १ हि [का श व न ज क. ज [क ^ ता

सम्यक्‌ स्विन्न के रुकण--स्वेद्‌ से सन्नता एवं सुख की गखग्रह ( गे का पकड़ा जाना) शिररोग, मन्या (गीवा
ग्रति हो, रोग खदु (कम उख्वाख } हो जाय, देह सी खु शिरा ) शूक, कर्णश्रूकू वथा शिरःश्रूर, गौरव ( अङ्खा का भारी
हो जाय, मरू, मूत्रे जदिकावेग यथास्सय हौ तथा अख पन ) श्वास एवं कासरोग, ङुरियरह, पार्थग्रह, कयिग्रह, पृषठमरह,
जओौर प्यास कगे-ये सम्यक्‌ स्विन्न के कक्तण है । अर्थात्‌ इन तथा विडञ्ह ( मल्बन्ध ), मूत्ररोग, यच्मारोग, शकाधात
रुक्तो को देखकर जाना जा सकता है कि स्वेदन दीक हो गय। ( शक्रोध अथवा वीयं का वाहर हरण न होना ), पन्ताघात,
डे तथा जब स्वेदन वन्द्‌ कर देन! चाहिये । सुश्रत चि. अ. ३२ कोष्ठ का जनाह्‌ ( जाध्मान ), विचन्ध { सरु तथा मूत्रके
म कहा है-खेदाल्लावौ व्याधिहानिङँवुलं शीताथित्वं मादव स्क जाने पर ), विनाम ( वातप्रकोप से शरीर के नमन होने
चातुरसय । सम्यकुस्विन्ने लश्चं ग्रहुरेतन्मिथ्यास्विन्ने व्यत्यय वारे लक्षणो से युक्त अपतानक, धनुस्तस्म, दाद्यायाम तथा
नेतदेव ॥ अर्थात्‌ सम्यक्‌ स्विन्न में स्वेदालाव, व्याधि का शमनः, जाभ्वन्तरायाम आदि रोग ) अदित ( एवन 79998 ),
करीर की रघुता, रसीतपदा्थो की इच्छा तथा शरीर की जम्भारोग ( जंभाईं ) हदुयह, मन्याग्रह, चलिरोग्रह, अङ्गमर्द,
ग्रदुता आदि लक्षण होते है! तथा असम्यक्‌ स्विन्न मे इससे महस्व ( अण्डबद्धि-त+१ः०८८९ आदि ), वेपथु ( कम्पन )
विपरीत खक्ण होते हं अर्थात्‌ स्वेद नहीं जता, तथा व्याधि वातकरण्टक (परौ में वातिक वेदना ), शीत ( सर्दी ख्गना)
की वृद्धि, शरीर का भारीपन, उष्ण पदार्थो की इच्छा तथा सोथ, आमदोप ( विसूचिका-भट्सक आदि ), खल्ली ८ खल्ली
हारीर की कठेरता आदि छन्तण होते हैँ । इसी प्रकार अष्टाङ्ग तु पादजं घोर्करमूखावमोरनी-हाथ परं आदि मं सखिचावट के
संग्रह मे कहा है-शीतशरूलकये रिवन्नो जातोऽङ्गानां च भाषे । साथ ददं होना); हाथ, पैर त्था अन्यञ््ञ मे वायुका
पित्तास्मा पित्तसोगी च गभिमी मघुमेहिनः | प्रकोप, आयाम ( अङ्खो का फेरना ), आहेप (०ारप्ा००३)
ुच्तष्णाशोषरोषातांः कासल्थुदरि विक्तदाः ।! १९ ॥ तथा श्रू मे मनुष्यो को स्वेद करना अत्यन्त हितकर माना
गया हे) चरक सू० अ० १४ स्वेदन कै टि निम्न रोगो
काश्येमद्यविषातौश्च भ्शायितिभिरशताः। का परिगणन किया गया है-प्रनिदयाये च कासे च हिक्घाश्वासे
भरष्टभग्रविदग्धाड्य न स्वेद्यास्ते कथंन । २० | प्वलाधवं । कर्णैमन्यारिरःशुके स्वरभेदे गर्ग्रहे ॥। अदितेकाङ्गसर्वाज्ग
किन्है स्वेदन नहीं कराना चाहिये-पित्तश्रकृति अथवा पत्तावातते विनाम्के।! कौषहानाहुविवन्पैषु शुकराधाति विजम्मिके॥
पित्त के रोगी; गभिणी, मधुमेही, भूख, प्यास, शोष तथा रोष पाश्पृष्टकरीक्रुक्षिसंयरहे गृध्रसीषु च । मूतल्रच्छ महत्वे च सुष्कयोरङ्ग-
से पीडित, कामरा तथा उद्ररोग के रोगी, विक्तत ( जिन्हे ते ।॥ पादोर्नादनजद्रा!तसंयहेश्वयथात्रपि । ख्टीष्वामेषु सीते च
घावख्गा हो) कह, मद्य एवं विष के विकारो से पीडित, वेपथौ वातकण्टके ॥ सङ्कोचःयामन्ूटेवु स्तम्नगौटषुक्नियु ! सर्वेष्वेव
जिनकी जठराग्नि अत्यन्त तीच हो, तिनिरसेग से पीडित विकारेषु स्वेदनं हितमच्यते ॥
तथा अतिसार रोगी अष्ट ( जिनकी अत अथवा गुदा-कांच
निकी हई हो, जिनकी अस्थि भरन हो तथा जिनके अंग
जन्मप्रभति बालानां स्देदमष्टविधं सिषक्‌ |
जके हुए ह-उन्हं कभी स्वेदन न करावें । चरक मे कहा है- प्रयुञ्जीत यथाकालं रोगदैहव्यपेच्ेया ॥ २५॥
कषायमरयनित्यानां गभण्या रक्तपित्तिनाम्‌ । पित्तिनां सातिसाराणां जन्म से खेकर चिकित्सक वाको मँ यथाक्ार रोग तथा
रूक्षाणां मधुमेहिनाम्‌ ॥ विदर्धश्रटवध्नानां विषमयविकारिणाम्‌ | शरीर (शारीरिक बरु) के अनुसार जाट प्रकारका सेद्न
अन्तानां नष्टसंज्ञानां स्थूलानां पित्तमेहिनाम्‌ ॥ तृष्यतां द्ुधितानां ग्रयुक्त करं । |
च क्रुद्धानां शोचतामपिं ¦ कामस्युदरिणां च हतानामादयसरोगिणाम्‌ ॥ दस्तस्वेदः
दुब॑लतिविष्ुष्काणायुपक्षीणोजसां तथा । भिषक तैमिरिष्मणां चन प्रदेद्च नाडीप्रस्तरसंकराः।
स्वेदमवतारयेत्‌ ॥ इसी मकार सुश्रुत मे भी कहा है-पणण्डुमेही उपनाहोऽवगादश्च परिपिकस्तथा्टमः | २६॥
रक्तपित्ती क्षयातं क्षामोऽनीणीं चोदरार्तोँ गरातः। तृर्द्भर्यतों गभिणी
जठ प्रकार ढे स्वेद्-(१) हस्तस्वेद्‌ (र) प्रदेह (३) नाडी
पीतमचो नते स्वेचा यश्च मर््याऽत्तिसारी ॥ स्वेद्‌ (४) प्रस्तरस्वेद्‌ (५) सङ्करस्वेद (६) उपनाह (७) अवगाह
तथा ८) परिषेक । |
स्वरभेदप्रतिश्यायगलप्रहशियोरुजि ।
मन्याकणेशिरःशूलञे गौरवे शासकासयोः !-२१॥ चक्तन्य--चरकमे स्वेदं की संख्या इससे अधिक दी हे ।
वहं सख्य रूप से अस्वेद एवं अनधिश्वेद्‌ ८ जिनमें अञि का
क्तिपाश्चकदीपुष्ठविडग्रहे मूत्रयच्मणि सम्पकनहो,) दो मेदं देकर अभिस्वेदो के पुनः ५३ सेद्‌ दिये
श॒क्राघाते पत्तदधे कोष्ठानाहविबन्धयोः |} २२॥ गये है--एङ्करः प्रस्तरो नाडी परिषेवोऽवगाहनम्‌ । जेन्ताकोऽरमधन
` षिनामार्दितजम्भासु हलुमन्याशिरोगहे । कषु: बुटीमूङुम्मिकैव च ॥ कूपो होलाक इश्यते स्वेदयन्ति चयोदश्च ॥
अङ्गमदं महत्वे च वेपथौ वातकशण्टके | २३॥ सुश्च॒त भं केवर चार प्रकार का स्वेदं गिनायः है--१. तापस्वेद्‌
शीतशोधामखल्व
(ज्ी)§
ी पाणिपादाङ्मारते । २. ऊष्मस्वेदं ३. उपनाहस्वेद्‌ ४, द्रवस्वेद्‌ । चरक मे इनके
` अआरायामात्तेपशूलादौ खेदः पभ्यतमो नृणाम्‌ ॥ २४ ॥ अतिरिक्त दुरे प्रकार के स्वेदन वे दिये हं जो अभि के गुणे
विना ही स्वेदन.करते हे अर्थाव्‌ इनमे अभि का सम्पकं नहीं
स्वेदन कहां २ करना चाहिये--स्वरभेव, ग्रतिश्याय,
| | होता है । ये १० गिनाये गये है--त्यायाम उष्णसदनं युश्प्रावरणं
सखेदाभ्यायः २३ ।
4

सूश्चस्थानस्‌ ¦ ९७
7, पि भ का क न क श 9, ५५ ५ 4 त +

मान चिकित्सक को चहिये कि इने निषेक ८ उप्पत्ति ) तथा


शि १ ।

दधा । बहुपानं सयक्रोधादुपनाह्यहुवातपाः ॥ स्वेदयन्ति दरौतानि


नप्मश्चिगुणषृते । इनमें साक्तात्‌ बाह्य अयि का सम्पकं नहीं देश्च ( स्थान ) के स्म्य को जाने.। अर्थात्‌ चिक्िततक बालकः
होता है) ये अपने उष्ण स्वभावे कारण ह स्वेदन करते ईै। के घराने ( कुर ) का ज्ञान प्राक्च के तथा यहं भी जनेकी
इसी प्रकार अनश्निस्पेदो के विषय सें सुश्रतसें कहा है-कणफ- उसका पारुन-पोषन चिस प्रकार ङी स्थिति ( धनी मथवा
मेदोऽन्विते वाथो निवातातपयुरूमावरगनियुद्धाध्वव्यायामभार- निधन ) नें इजा हे । जिससे वह भत्येक वारक की षक्‌ २
हरणामषेः स्वेदमुस्पादयेत्‌ ॥ परन्तु यह केवर आठ सेदो का परिस्थिति के अनुसार चिकित्सा का विधान कर सफ 1
वर्णन क्रियाहे। यहांवेही स्मरेद्‌ दिर गये जो वारुकोको अविशेषेण बाधन्ते सर्वे सर्बान्नसान्‌ गदाः|
सुविधा पूर्वक द्विये जा सकते हें । क्योकि इत संहिता सें
विशेष रूप से वारको का ही विषय द्विया गया है । विशेषस्तु महान्‌ दृष्टे दक्षिणाहारमेषने । ३१॥
सव प्रकार के रोग सव प्रकार ॐ भनुर्व्यो को बिना येद्‌-
जातस्य चतुरो मासान्‌ हस्तस्वेदं प्रयोजयेत्‌ । भाव के कष्ट प्रहुंचाते हँ । अर्थात्‌ रोग धनी एवं निर्धन ॐ मेद
अभरमादी निवातस्थो विधूमागन्यूष्मणा शनैः | २७॥ के विनाही सब लोगो को समान रूप से आक्रान्त करते ड ।
हस्तस्वेद का विधन --उष्पक्न हुए वाल्क को चार माञ्च अन्तर ( मेद्‌ >)केवर दहिणा ( धनं ) आहार तथा ओषधि में
तक प्रमाद्रहित होकर निवातस्थान ( जहां सीधी एवं तेज होताहै। धनी एवं निर्धन ग्यक्तिमे अन्तर फेवर आर्थिक
हवा न आतीहो)में वैखकर धुषं से रहित असि की उग्माके परिस्थिति काहोहोताहै। रोग की इष्टि से कोई अन्तर नहीं
दासय धीरे २ हस्तस्वेद्‌ का प्रयोग करे | हे अर्थात्‌ रोगो से धनी भ्यक्ति भी नहीं बच पाते है ! केवर
वक्तव्य--हस्तस्वेद्‌ का तात्पर्यं अथिके द्वारां अपने हार्थो धन होने के कारण वे अच्छी ते अच्छी ओषवि एवं पथ्यका
को गरम करफे उससे वाल्क के शरीर को स्पशं करना है। सेवन कर सकते हँ जथकि निर्धन व्यक्ति को धन के जभावमें
छोटे वारक को विशेषकर शीतछतु मे गरम रखने फी आव- अधिक कष्टों को क्चेखना पडता है ।
श्यकता होती है परन्तु उस अवस्था मे बालक बहुत अधिक देशकालवयोमात्रासवंरगुदलाघषैः । -
नाजुक ( 3९०७४१६ ) होते हँ । वे जरा भी अधिक उष्णता सवेदोऽतिरिक्तो दीनो वा हन्याद्रालं यथा धिषम्‌ ।॥३२॥
को सहने मे असमर्थ होतेह) हार्थोकेद्धारा खेदन करने का
उदेश्य यह है कि वाख्क को कहीं अधिक सखेदन नदे द्विया देश, कार, अवस्था, मात्रा तथा सव प्रकार के रोगों की
गुरुता जथवा छश्ुता की दि से अतिसखेद्‌ तथा हीनस्तेद विष
जाय । अपने हार्थो को गरम करने से व्यक्ति को पहर अथि
का अपने शरीर पर अनुभवहो जाताहै इससे बालक को के समान बारूक को मार देतेई । अर्थात्‌ बालक को स्वेद्‌ देते
समय यह ध्यान सर्खना चाहिये कि किसी भी ब््टि सेस्वेद का
अधिक उष्णता रुगने की सम्भावना बिरुकुरु कम रहती है ।
इस प्रकार बारूक को नि्भयतपूर्वक स्वेदन दिया जा खकता अतियो तथा अश्मन हे)
हे । परन्तु स्वेदन करते हए यह ध्यान रखना चाहिये रि रेसे तस्माद्‌वेदय देशादीन्‌ काटिन्यं सुजुमारताम्‌ |
स्थानपरन वेडाजाय जहां सीधी एवं तेज हवा आती हो । शिशोः सेदं प्रयुज्ञीत यशोधन्या(मा)थसिद्धये ।३३॥
तथा अधि भी धूम्र रहित होनी चाहिये अन्यथा वालक ॐ
नेत्रं तथा श्रास्मागमें कष्ट होगा । इस किये यज्ञ, धन्यवाद ( अथवा धम ) तथा धन की
मराति फे लिये चिक्षिपसक को चाहिये कि वह देश, कार,
निवतमाने बालस्य समर्यं यथाक्रमम्‌ । अवस्था आदि तथा कटोरता एवं सुङ्कमारता को दष्ट मेँ रखते
प्रबतमाने कारिन्ये तेषां स्वेदं प्रचधेयेत्‌ ॥ २८ ॥ हुए बारूक को स्वेदन का प्रयोग करव । [र
धीरे र बारुक की सुकुमारता ( 0601००९ ) हटकर शरीर
मं कठिनता (कठोरता) आने पर उनका सेदन बढाना चाहिये। गलकणशशिरोमन्याकर्णाक्षिचिद्ुकोरसि । |
अभिष्यन्दात्‌ समुच्छते प्रदेहस्वेद इष्यते । ३४॥
सन्ति चाप्यपरे बालाः सुक्ुमायः सदासुखाः । परदेहस्वेद्‌ कहां देना चाहिये--गखकर्णं, शिर, मन्या, कर्ण,
घृतक्तीराशिनः कल्या ईश्वराणां महात्मनाम्‌ ॥ २६॥ । खो, चिद्चक ( ठोडी-0० ) तथा द्ातीमें जौर अभिष्यन्द
कुं बाख्क रेश्वर्थश्चारी महापुर्षो के पुत्र होतेह) वे रोग के कारण शरीर में शोथ होने पर प्रदेह स्वेद करना
` सुकुमार तथा सदा सुखी होते है, उन्हे खाने पीने को पर्यास चाहिये
घृत तथा दूध मिता है तथा वे स्वस्थ होते है । वक्तव्य--परदेह स्वेद से अभिप्राय प्रलेप (खेप करने) सेहै।
मध्यमा मध्यमानां च दखिद्राणां च दुःखिनाम्‌ । एरण्डवरषशिघणां त्व्पत्रेः कल्कसाथितेः । `
निषेकदे शसात्म्ये च ताम्‌ धिद्यात्‌ परिडतो भिषक्‌ ३० समूत्रवुच्छ(किर)लवणेः प्रदेहः स्यात्‌ सुखोष्मभिः ३५

दूसरे बाखंक मध्यम कहरते है जो मध्यम श्रेणी वार ॐ शीतीभूतं तु निशैव्य ेपयेदपरापरम्‌। `
तथा दरिद्र एवं दुखी भ्यक्ति्योके पुत्र हेते है । इसस्ि बुद्धि. अनेकशस्तु विज्ञाय सव्ं सवेदं निवतयेत्‌ ।। ३६ ॥ ॥ि
|क
कार्थपसंहिता वां ब्ृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ स्वेदाध्यांयः २३
ता न ५ (तो तो ण जा त १ ५. १ # च क ^, |

्रनयेरबातकफन्ैश्च भेदः शिघ्रवद्धितः। धान्य ) अथवा तुष, पायस ( खीर ) अथवा शरा ( सिच.
अन्यैरपि करीपेश्च गोखराश्वाधिवस्तजेः ॥ ३५ ॥ डी) को विष्धाकर ( फेराकर ) उस पर श्वेत एरण्ड, रार
एरण्ड तथा आक के परतो पर स्नेह रुगाकर उन्हं गरम करके
श्रदेहस्वेद की विधि--पएरण्ड, वाला तथा सुहांजने की
विद्धा द्‌उन पर अच्छी प्रकार अभ्यक्त किए हुए (स्नेही
त्वचा { छार ) तथा पत्त का कल्क ( लुगदी ) बनाकर उसमें
मालि श्य हुए ) बाख्क को वों से ठककर सखपूर्वंक
गोमूत्र इुक्क-( अग्रमांस-हदय का मांस ) अथवा किण्व
ङ्टि दं । इसे प्रस्तरस्वेद कहते ह । इसे निरन्तर बदरूते रहना
( सुराबीज - ०५०४) तथा सैन्धव डारकर उस कल्क की हस्की चाहिये । चरक सु० अ० १४ म कहा है-
गर्मी के हारा प्रदेहस्वेद्‌ किया जाताहै। टण्डादहो जाने पर
पूवं रेप को उतारकर दृसराखेप करदेना चाहिये। इस दूकशमीधान्यपुककानां वेरवारयायसकृररोत्कारिकादीनां वा
प्रकार अनेक तरह से ८ पर्या ) स्विन्न ( पसीना जया हुभा ) प्रस्तरे कौरोयाविको ्तरपच्छंदे पञ्चायुलोरुव्‌काकैपत्रभच्छदे वा स्वभ्य-
जानकर उस स्वेद (प्रदेह ) को हया दे । इसीप्रकार अन्य वात ्सवगात्रस्य शयानस्योपरि स्वेदनं प्रस्तरस्वेद इति विवात्‌ । सश्चत
एवं कफनाह्ञक दर्ग्यो-तथा गौ, गदहे, घोडे मेड तथा बकरी चि० ज० दरे मे कहा है-कोरधान्यानि वा सम्यरुपस्वेास्ती्यं
के पुरीष ८ गोबर-उपरछो ) के द्वारा करिया गया प्रदेह (प्रेष) किलिज्ऽन्यस्मिन्‌ वा तत्प्रतिरूपके सरेयानं प्रावृत्य स्वेदयेत्‌ 1 एवं
भी सुहांजने की तरह ही हितकारी होता हे । पांशुगोशङ्ृतुषवुसपलालोष्भिः स्वेदयेत्‌ । इसी ङि जष्टङ्गसं ग्रह
मे भी का है--यथा्हैस्वेदद्रन्याणि पिदहितशुखायासुखायां सम्ययुप-
वक्तन्य--पहरे रेपके टण्डाहो जाने पर दुसरा रेप करदे
स्वेय निवातशरणद्यनस्ये किलिजे प्रस्ती्याविककोरेयवातहरपत्रान्य-
तथा उसके भी रण्डा हो जाने पर तीसरा नथा छेषप कर देना
चाहिये इस प्रकार ठेर्पो के द्वारा जब पसीना आजाय तव ठप तमोत्तरपरच्दे रौरवाजिनघ्रावारादिभिः खवच्छन्नं स्वेदयेदिति
संस्तरस्वेदः ॥
के वारा स्वेदन वन्द्‌ कर देना चाहिये । |
वंशयुञ्जनलायेश्च यथायोगं यथासुखम्‌ | पायसैः करशरेमासेरोदनेखिकटोरकैः ।
उष्णः सलवणुस्तेहैरम्बरास्तरितेः सुखेः ॥ ४१ ॥
प स (~ ध

नाडीस्वेदं प्रयुञ्जीत निवाते वश्चसंवरृतम्‌ ॥ ३८॥


किणवातसीदधिच्चीरसंयुक्तेः पिश्डकेः कते; ।
नाडी स्वेद की विधि-्वांस, मूंज तथा नक आदि के द्वारा
आवश्यकता के अनुसार वर्खो से हककर निवातस्थान में बैठ- स्थानस्वेदनमिच्छन्ति सङ्करस्वेद उच्यते ।॥ ४२॥
कर सुखपूर्व॑क नाडीस्वेद्‌ का प्रयोग करे। चरक सु० अ० ऽ४ें सङ्करस्वेद की विधि--रुवण एवं स्नेह के सहित उष्ण
नाडीस्वेद की विधि निम्न प्रकार से दी हे- तथा सुखकारी खीर, कृशरा ( यवागू-खिचदी ), मांस जोदन
तथा तीन प्रकार की कटोर वस्तुओं (चरक के स्वेद प्रकरणं
स्वेदनद्रव्याणां पुनमूंरफल्पव्रजुङ्गादीनां खगद्षकुनिपि्चित्चिरः- मे, सिकता-बाद, पांश्-धूटि तथा पाषाण-पत्थर का उल्रेख
पदादौ नाभुष्णस्वभावानां वा यथाहमम्कस्वणस्तेहोपसं हितानां होने से य्ह भी त्निकठोर शब्द सेवे ही अभिप्रेत प्रतीत होते
मूत्रक्षीरादीनां वा कुम्भ्यां काष्पमनुद्रमन्त्यायु्वथितानां नाड्या
हैँ)-को वख पर फेखाकर तथा उन्हे किण्व ८ सुराबीज ),
शरेषीकारवंशद रुकर ज्ञाकेपवान्यतमङ्ृतया गजाग्रहस्तसंस्थानया व्या-
अरसी, दही तथा दूध के साथ भिरखाकर पिण्ड बनाकर इनके
मदीया व्यामा्ध॑दीवेया वा व्यामचतमागाष्टमागमूलागपरिणाद- हारा स्थाक्क्ि स्वेदन ( विशेष स्थान का स्वेदन) किया
सोतसा सवतो वातदरपव्रंडेतच्च्ट्िया द्िख्िवां विनाभितया वात- जाता है 1 इसे सङ्करस्वेद कहते हैँ । अर्थात थह स्वेद सम्पूर्ण
` इरसिद्धत्नेहाभ्यक्तगात्रौ वाष्यसपहरेत्‌ , वाप्पो ह्यन्‌ष्वगामी विहत- स्थानके लिये नहींहे अपितु किसी रिशेष अङ्ग के सिये
चण्डवेगस्त्वचमविदहन्‌ उखं स्वेदयतीति नाडीस्वेदः ॥ सुश्रुत चि° व्यवहृत होता हे । चरक सूु० अ० १४ मेँ सङ्करस्वेद की निम्न
अ० ३२ मेँ कहा है- | | विधि दी हे--तव्र वखान्त{रतैरवखान्तसितेा पिण्डेयंथोवतैरपस्वेदनं
पाखव॑च्छिद्रेण वा कुम्भेनाधोरुखैन तस्य सुखमभिसन्धाय तस्मि- सङ्करस्वेद इति विघात । वहीं पिण्ड द्र्ग्यो का भी उल्छेख किया
दिदे हस्तिदयुण्डाकारां नाडीं प्रणिधाय तं स्वेदयेत्‌ सुलोपविष्ं हे--तिलमाषङुरु्थाम्रष्ततैलामिषौदनैः । पायसैः 'कररारमौसैः पि-
` स्वभ्यक्तं गुरप्रावरणावृतम्‌। हस्िद्ुण्डिकया नाया सवेदयेद्रातसे-
मिणम्‌ ॥ सुखा स्ाज्गगा ह्येषा न च कलिरनाति मानवम्‌ । व्यामा-
ण्डस्वेदं प्रयोजयेत्‌ ॥ गोखयेष्ट्रवर।हाश्वचकृद्धिः सतुषेर्य॑वेः । सिक-
` भमात्रा त्िव॑क्रा हस्तिहस्तसमाकृतिः ॥ स्वेदने हिता नाडी तापांश्चुपाषाणकरीषायसपू टकः ॥ इरेष्मिकान्‌ स्वेदयेत्‌ पूववा तिकान्‌
समुपाचरेत्‌ ॥ सङ्करस्वेद का ही दूसरा नाम पिण्ड स्वेद भी हे ।
कलिज्ञी हस्तिुण्डिका ॥ दसी भकार अष्टा हृदय सै भी नाडी अष्टङ्गसंग्रह में यह षिधि निम्न प्रकार से दी है--तत मृत्कपाल-
स्वेद का विधान दिया गया है । पषाणलोष्ट्लोहपिण्डानग्निवणौन्‌ संदंशन गरहीत्वाऽम्भस्यम्छे वा
उष्णान्‌ पुलाकानास्तीयं पायसं कृसरादि बां | निमज्जेत्‌ तैराद्रौमिकवखेण वेष्टितः दटेभ्ममेदोमूयिष्ठं सरुनंमङ्ग
बाससान्तरिते(तं) बालमभ्यक्तं शाययेत्‌ सुखम्‌ | ३६॥ मन्थिमद्वा स्वेदयेत्‌ । परह्ुसिकतागवादिकरीषधान्यवुसपुखाकपल-
पच्चाङ्गलोरुवूकाकंपग्रेवां सेहितोष्ितैः । ठेवाऽम्डोतवथितैः पूर्ववद्रे्टितैः । गवादिशक्ृतार््रेण पिण्डीकृतेन वा
प्रस्तरस्वेद मित्याहुरभीक्णपरिवर्तिनः । ४० ॥
१. चरकीये स्वेदप्रकरणे सिकतापांज्युपाषगेव्युद्लेखद
शेनेन त्रापि
भस्तरस्वेद कौ विधि-गरम किये इए पुराक (क्षुद्र
तरिकटोरपदेन ताम्येवाभिप्रतानि स्युः ॥ [र
स्वेदाभ्याय : २३ 1 सृन्नस्थानम्‌ । २६
गक क क 90400 क + 9 0 0 + वाता ता क ^ शा क १ ^
क प न
क कक
षि ककत क ता ^ कक
#॥1101 00 मि

उपनाहद्रन्योत्कारिकाछरसर्माप्तपिण्डैर्गा वातसोगेष्वित्ि पिण्डस्वेदः कोष्ठकावगाहस्त॒ यथोक्त एव अवगाहः । अष्टाङ्ग संग्रह सू. अ. २६ मे


स एव सद्कराख्यः ॥ भी कहा है--तेरेवा
द्धः पूणं महति कटदहे कुण्डे द्रोण्यां वावगाह- |
येत्‌ । सुश्रत मे इसीका द्रवस्वेद्‌ के रूप मेंवर्णन मिरुता है-
किरातसीदधिन्तीरलवणे, साम्लचिक्षणेः । द्रवस्वेदस्तु वातहरदरम्यकाथपू्ण कोष्ठे कटे द्रोण्यां वावाय स्वेद-
कुष्ादिभिश्च सखेहैरुपनाहः प्रशस्यते ॥ ४३ ॥ येत्‌ । एव्र पयोमां स्रसयूषतेकधान्याम्डषतपसामूत्रेष्ववरगाहयेत्‌ ।
किण्व ( सुराबीज ), अरसी, दही, दूध, सैन्धव, अग्र इस उपर्युक्त विधिर्यो के द्वारा अवगाहनस्वेद किया जाता ह ।
( कज ), ष्ट आदि चिकने पदार्थो एवं स्नेह ८ तिल तैल ) अब हम ग्रन्थोक्त अन्तिम परिषेक (स्वेद) का भी अन्य प्रथो
इनसे तेयार किया हमा उपनाह प्रशस्त हे । के आधार पर वर्णन करते हँ । चरक सू° अ० १४ में इसका
वक्तम्य--उपनाह से अभिप्राय पुरुटिस से है ! चरफ सू० निश्च वर्णन मिक्ता है-वातिक्ोत्तप्वातिकानां पुनमूंादीनस-
अ० १४ मे इसका निम्न वर्गन मिलता है-गोधूमरशकलेश्े- त्कायैः सुखोष्णैः ऊम्भीवंषुिकाः प्रनाडीवा पूरयिता यथाहँसिद्धस्ने-
येवानामम्लसंयुतैः ) सस्नेहकिण्वल्वणेहपनाहः प्रास्यते ॥ गन्धैः हाभ्यक्ताात्रं वलाकवच्छलनं परिषेचयेदिति परिषेकः ॥ अर्थात्‌ परिषेक
सयाः किण्वेन जीवन्त्या शतपुष्पया । उमया कुष्ठतैलाभ्यां युक््या से अभिप्राय जल का सिंचन करने से है! सबसे पूर्वंरोगी के
चोपनाहयेत्‌ ॥ चर्मभिश्चोपनद्धन्यः सलोमभिरपूतिभिः । उष्णवीर्येर- शरीर पर यथायोग्य द्व से षिद्ध तैर भादि की मालिश करनी
लाभे त॒ कौदोयाविकशारकीः ॥ रामौ वदं दिवा सुचरेन्सुनेद्रायौ दिवा- चाहिये । उक्षके वाद्‌ देह को वल्ल से ढककर जवश्यकतनु-
कृतम्‌ । विदाहपरिहातर्थं, स्यात्रकषंस्तु खीरे ॥ अर्थात्‌ स्वे्य सार आओषधिर्यो के सुखोष्ण क्ार्थो से किसी घडे, फुजारे अथवा
स्थान परं उपनाह रखकर उपर से कसी वख की पटी अथवा 0००16 को भरकर उसके द्वारा परििचन किया जाता हे ।
अन्य चमड़े आदि से बांध देना चाहिये जिससे उसकी गर्मी इस प्रकार यह स्वेदाध्याय समाप्त होता है ।
स्थिर रह सके ! उपनाह में रगातार अधिक समय तक पटरी | ५१ १,११.५“--

रखने से उस स्थान पर विदाह होने का डर रहता है अतः


उसे आवश्यकता के अनुसार खोखुकर बदर देना चाहिये ।
खराजाषिबिडालेन(लोन्द्रोद्वीपिसिहतरक्चुजः
# # @ $ कै कै # र क + #
॥ ४४ ॥
# @ कछ कै = ॐ कैः # कह क 6 ॐ &@ + # # ¢ क #@ क ठ ष
# 9 क १ $ ७ 6 # ४ ऽ # न 9 ॐ कै $ # 8 > ९ = ४ ५ 9५ ® # € 9 १ > क ^ ॐ
||
क क @ + ऊ # 5 # क + # क # # क ॐ &@ क # ०
प्रोक्ते चिकित्सितम्‌ ।
( इति ताडपतनस्तके ३९ तमं पत्रम्‌ । )
वक्तन्य--यह उपकर्पनीय अध्याय है । चरक मे भी स्ने.
गदहे, मेड, बकरी, बिडारु ( वन माजर ) उन्द्रं ( दुल हन तथा स्वेदन के बाद उपकस्पनीय अध्याय दिया गया दै ।
चर परथुभेद्‌ ), चीता, सिह तथा तरश्चु-भाल्‌ के ( मांसरसों उसमे बतराया गया है छि वमन तथा विरेचन करनेके रयि
से सिद्ध द्रव आदिर्यो से अवगाह स्वेद करना चाहिये ) 1 तथा उनसे उस्पन्न होने वारे उपद्र्वोकी श्चान्तिके लिये
( इति ताडपत्रपुस्तके ३९ तमं पत्रप्र ) तस्काोपयोगी कौन २ से द्रभ्य तैयार रखने चाहिये । इस
ॐ भौ स्नेहाध्याय मे कहा है किं स्नेहन के वाद्‌ स्वेदन
वक्तम्य--यह श्छोक बीचमें ही खण्डित हो गया है।पूरा संहितातथा फिर सम्य स्निग्ध एवं खिन्न हो जाने पर संशो
श्रो न होने से निश्वयपूर्वक यह कहना कठिन हैकिं इसका करावे ! इस स्मि स्वेद सम्बन्धी वणेन के बाद
क्या अभिप्राय है । फिर भी यह स्वेद का प्रकरण चरू रहा है। धन करना चाहिथे
का प्रकरण ही होना चाहिये । संशोधन से जभि-
इसी अध्याय मे पूवं आट प्रकारके सेद्‌ गिनाये गये हे । अव संक्लोघन
उनम से यहां ६ का वर्णनक्ियाजाचुकाहै। दो का वणन भराय वमन
एवं विरेचन से हे । यह अध्याय प्रारम्भ मे खण्डित
का विषय उपरुग्य नहीं है । परन्तु प्रसङ्ग
शेष हे । इन दोनें मे खे भी अवगाहस्वेद का क्रम मन्थ में होने से इससे पूर्वं
पहङे दिया होने से यह संभवतः उसीका वणन है । अवगाहन तथा अन्य ग्रन्थो के विषयो
को देखते हुये कहा जां सकता हे
की विधिकादही
से अभिप्राय कोष्ठ ( 7४ ) आदि मे बैठकर अवगाह द्वारा कि इस खण्डित भाग मेगयाचमनहोगाएवं।विरेचन
पाठको के ज्ञानके चयि
वर्णन किया
स्वेदन करने से है । चरक सू० अ० १४ मे नाडीस्वेद देने के सम्भवतः
उपरान्त जवगाहस्वेद की निग्न विधि भिरूती है-त एव च सु० हम संकेप से पहरे वमन विधि का यहां वणेन करेगे । चरक
जलवोष्ठके । स्वेदनार्थं घरतक्षोरतेल्कोष्ठाश्च कार-
अ० १९ मे कहा है-प तसतं पुरषं स्नेहस्वेदोपपक्नमतुहतमन-
निहा: प्रयोज्या
येत ॥ अर्थात्‌ आम्य आनूप मांस आदि, वरुण आदिं तथा समभसमोकशषय खखोषितं सुप्रजीणेभत्तरिरःलातमयलिप्तगातर
देवताशचिद्विजगुसुकृदधवे्ासचितवन्तम्‌, इष्टे
भूतीक आदि दर्यो के कथो को तथा धृत दूध एवं तैकको खण्िणमनुपहतवचसंवीतंकारःयत्वा ब्राह्मणन्‌ स्वस्तिवाचनं प्रयुक्ताभि-
नक्षुघ्रतिथिकरणसुहृते
स्वेदनार्थं अवगाहन के स्यि टब मेँ भरकर प्रयोग करे । वहीं पहितां मदनफलकषाय- `
पर पुनः कहा है--पातहरोलवाथक्षोरतैरछतपिरितसोष्णसकिल राशौरभिरभिमन्तितां मधुमधुकसैन्धवफ।णितो
मात्रां पाययेत्‌ । भर्थाव्‌ स्नेहन ओर स्वेदन कराने के बाद संश
१. अंतः परं ४० तमं पत्रं ताडपत्रपुस्तकै अटितम्‌ ॥ ध्य पुरूष को शभ दिन एं सहूर्तं मे एवं रत्निकामोजन पच
२०
काश्यपसंहिता वा ब्रद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ ¦ [ उपकल्यनीयाध्याथः २४
न नन क ५. ०१८ 1

जाने पर प्रातः कार मधु, सुरही तथा सैन्धव से युक्त मदन शिरोललाटषटदुभरीवादरृषणे साक्ञशङ्कके ।
फर का कषाय पिते । इसमें मधरु एवं सेन्धव कफ को पतरा
करने के लि मिया जाताहे। यदि पूर्वरान्रिका भोजन सवेदश्वेत्‌ पीतमरुडर्य सम्यक्शुद्धं तमादिशेत्‌ ॥
जीणंन हुभादहो तो उसे संशोधन न करे क्योकि उ उद्र(रघातकमभ्यां विशुद्धाभ्यां दिने दिने।
जवस्था सं संशोधन भषधि पिराने से विपद्येत अ्रभाव होगा । निरुपद्रवपुष्िभ्यां सम्यकशुद्धं धिनिर्दिरेत्‌ ।
भोपधि पान के वादु थोड़ी देर तक्र प्रतीक्ता करें! यदि वमन सम्यक्‌ संशोधित पुर्प के रक्तण-मण्ड पीने के वाद्‌
नहो तो अप्रवृत्त दोषो को प्रवुत्त करने के स्यि गेम अङ्कुी जिस व्यक्ति को तिर, मस्तिष्क, हृदय, ग्रीवा, अण्डको, अक्ञ
डालकर वमन कर द्‌। वमन का अत्तियोग, हीनयोग अथवा एवं शङ्धपरदेश्च ( 76709 7८92 >) सें पसीना
आजाय
मिथ्यायोग नहीं होना चाहिये 1 तथा प्रतिदिन डकार एवं अन्य वातक्मो' से शद्ध हो जाय
इसी प्रकार रोगी को यथाविधि विरेचन भी करवा देना ( अर्थात्‌ अपानवायु, मर आदिमे वायुका अनुलोमन हो ))
चाहिये ।संशोधन का विषय चरक सु० अ० १९ में विस्तार से कोड उपद्रव न हो तथा क्ञरीर का पोषण दीक प्रकार से हो-
द्विया गया है। जिज्ञासु पाठको को उसे वहीं पर देखना चाहिये! उस व्यक्ति का अच्छी प्रकार संशोधन हज खमन्नना चाहिये ।
इस खण्डित अध्याय का प्रारम्भ संज्ञोधित रोगी के पथ्य सुखषितं जीणभक्त द्वितीयेऽहनि भेजयेत्‌ ।
से हेअर्थात्‌ संशोधन के वाद्‌ रोगी को क्या पथ्य ( भोजन )
देना चाहिये तथा किंस क्रम से पथ्य की मात्रा धीरे २ बढ़ाकर यवागू तु, तृतीयेऽ दद्ादेस्मै विलेपिकम्‌ ॥
साधारण भोजन दिया जाना चाहिये इत्यादि विषय का इस दीपनोदकसंसिद्धं रुक्तयुष्णं ससैन्धवाम्‌ ।
अध्यायमें वणेन क्रिया गयाहे। इस अध्यायके प्रारम्भे चतुथं युद्रमस्टः स्यादोदनश्च सुसाधितः ॥
खण्डित अंश मे सम्भवतः संशोधन का प्रकरण चङ रहा होगा पुराणरक्तशालीनां भृष्टानां वा कशात्मनः ।
जेसा कि पहटे भी कहा गया है । अन्त मेँ वमन शवं विरेचन निसतुषाणां च मुद्रानां मरुः र्यादटु(दयुक्तवेषणः(सनः)
के अतियोग आदिं से जो उपद्रव हो ज्ञाते है उनकी चिष्ित्सा ईषत्फलाम्लः कतेव्यो सुद्रमण्डोऽदहि पच्चमे ।
का वर्णन क्रिया गया है । वही भाव खण्डित अध्याय के भार.
म्भिक निश्न श्छोकांशच से प्रकट होता है (इस प्रकार वमन देषत्लेदः कृतः ष्ठे सप्रमे च विधीयते ॥
एवं विरेचन से होने वारे उपद्रवे की 9 चिक्षित्सा का वर्णन जाङ्गलानां रसं सिद्धं॑तलुकं मांसवजितम्‌ |
रिया गया हे । दिनेऽष्टमेऽथ नवभे दद्यात्‌ सेदाल्पसंस्छृतम्‌ ॥
अतः पञ्चजनात्‌ कच्ित्सम्यक्‌शुदधं प्रकाडिकतम्‌ । दशमैकादशे चाष्ट लवणसेहसंरतः ` ।
लघुं विशदसर्वाङ्ं प्रसनेन्द्रियमिच्छुकम्‌ ॥ फलाम्लसिद्धो युक्तोष्णः शस्यते रसकौदनः ॥
सुखाम्बुसिक्तसरवाङ्गमनुलिप्रं विमभूषितप्‌ । उष्णोदकानुपानौ तु स्यातां वातकफात्मक्ौ |
कृतपूजानमस्कारं मनोज्ञासनवेश्मगम्‌ ॥ तत॒ उत्तरकालं तु भोव्यसंसगं : इष्यते ॥
पुराणरक्तशालीनां मर्डपूव सुसाधिताभ्‌ । एषा(ष ) मण्डादिसं सर्गो सव॑व्याधिक्रियोपगः |
यवागूचरिःसुतासुष्णां दीपनीयोपसंस्छरताम्‌। एनं व्यभिचरन्मोहादारुणांज्लमते गदान्‌ ॥
भोजन का संसर्जन कम-सुखपूर्वक जिसने रात्रि में
भोजयेदयुक्तलवणा रचां युक्ताशितो भवेत्‌ रायन किया हैतथा पहरे दिन फा जिसका भोजन जीर्ण हो
भोजनेषु सुहयेषु युधौतेष्वपराहिके ॥ उका है उस व्यक्ते को दूसरे दिन केवल यवागू का भोजन
अव अच्छ प्रकार शुद्ध होने के बाद्‌, जिसे भोजन मे रुचि करावे । तीसरे दिन इसे दीपनीय जरो से सिद्धी इदं रुक,
हो, संशोधन से जिखका शरीर हख्का हो गया हो तथा सम्पूर्ण उष्ण तथा सेन्धवयुक्त विरेपी ( विरेपी विरर््रवा ) देनी
अङ्ग निर हो गये हो, जिसकी सम्पूण इन्दियां प्रसन्न हो, चादिये । चौथे दिन श शरीर वारे व्यक्तिको
मूग का मण्ड
सुखोष्ण जक से जिसने सर्वाङ्ग स्नान किया हो, क्षरीर पर तथा जच्छी प्रकार सिद्ध किये हए ओदन देवे । मण्ड पुराने
चन्दन आदि का रेप करके जिसने अपने शरीर को आभूषण खार चावरु तथा ने इष्‌, एवं चिक रहित मृगो का
आदि से जछकृत करिया हुजा हो, देवता, ब्राह्मण तथा बद्ध बनाया जाता हैजिस्म उचित मात्रा मै
पुरुषों की जिसने
वेतन आदि डा
पूजा तथा नमस्कार किया हो, जो सुन्दर इ हो । पांचवें दिन इसी मृद्गमण्ड मे थोड़ा सा फलाम्ल
आसन तथा घर्‌ में के हभ है-पेसे पञ्चजन ( मनुष्य ) को डाख्कर खा करके देना चाहिये । चे तथा
पुराने लार्‌ शारि चावर्छो द्वारा साधित ( वना इद ), तीन
सातवे दिन उख `
सुद्गमण्ड में थोड़ा स्नेह डार देना चाहिये । आँ दिन
चार खत की हु, दीपनीय दरभ्यों से संस्छृत, छ्वणयुक्त, रूक् जागरू पशुओं का मांस रहित केवर पतरा
एवं मण्डग्रधान ( सिक्थकः रहितो मण्डः ) यवागू मन को सिद्ध करके देना चाहिये! नवे दिन उसमे रघ (मास रस )
थोदा सा स्नेह भी
अच्छे कुगने वरे तथा अच्छी रकार धोये हण पारो मे अप- डारा जा सकता है । दसं तथा ग्यारह दिन रवण तथा
राह कार मे पिरवे । |
` ` स्नेह ( त ) से संसत तथा थोड़ी खटाई डालकर बनाया

उपकल्पनीयाध्यायः २४ ] सूत्रस्थानम्‌ । २१
10 ^ ता का ^स सा पा पा । =
[न + न ० ५.१५ णि ति ज
न ती 1 त ^, शा कक

इभा थोड़ा २ उष्ण सासरहि्त रस तथा ओदन देना चाहिये । को केवर स्नेहन अथवा वमन ही कराया गया है उदधे ७ दिन
वात तथा कृफ रोग वारो को साथ जँ उष्णोदक अनुपान के मे साधास्ण भोजन दिया जा सकता है परन्तु जिसका शिरा
ख्पमं देना चाहिये। इसके बाद सामान्य भोजन दिया वेधन अथवा अन्य विरेचन आदि ज्ञोधन करिये गये हो उसे
जाना चाहिये । यह उपयुक्त मण्ड आदिं का क्रम सव व्याधिर्यो एक मास तक रघु मोजन आदिं पर ही रहना चाहिये ! कहा
मे शिया जाना चाहिये । जो इस मण्ड आदि के संसर्जन क्म केरलं स्नेहपीतो वा वान्तो यश्चापि केवलम्‌ । स्र सप्तरात्र
का अम से उरकुवन करता है उसको भयंकर रोग ( उपद्रव ) मनुजो अज्ञत रघु भोजनम्‌ ॥ कृतः सिराव्यधौ यस्य कृतं य॒स्य च
हो जतेहै। दोधनम्‌ । स ना परिदरेन्मात्ं यावदा वलवान्‌ भेत्‌ ॥
वक्तम्य-यवागू-चावरु, संर, तिरु आदिं के द्वारा बनाई उवरापकामलापारङ्कणक्कलामयाः |
इई खिचड़ी को यवागू कहते ह । कहा है--यवागू षड्गुे तोये दिक्वातिसारधयुकासाया व्यभिचारजाः
सिद्धा स्यात्‌ कृसरा घना । तण्डुकमुंद्गमापेश्च तिकठेवां साता हि

सा ॥ यवागू्राहिणी बल्या तपणी वातनारिनी।॥ यवागू पुनः शलातिसरौ शुद्धस्य शीतपानान्नसेवनात्‌ ।
मण्ड, पेया एवं विपी सेद से तीन प्रकारकीहोतीहे। पङ
शोथोद्रञ्यरा अष्टुथशस्तेहदिवाशयात्‌ ॥
तण्डुर जादि के घन भागसेंसे उपरके केवर द्व भागको उपयुक्त संसज॑नकम तथा उसके वाद्‌ वथ्य आहार विहार
मण्ड कहते हँ ! १४ गुने जख सँ चावरू डारकर खूब पकार । का सेवन न करने से क्या उपद्रव हो जाते है-- _
विना छाने भत्तावयव सहित उस्र इवभागको पेया कहते गवर, जामदोष, कामला, पाण्डु, कर्णरोग, ङष्ट, गकरोग,
हैँ । तथा १४ गुने जल में चावर्खछो को खूब प्रकाया जाय, जब | हिकका,, अतिसार,
अतिः शोथ तथा कास आङि रोग सर्जन
कम ऊ
उसमें दवं कम होकर गादाहो जाय उत्त गदे पदार्थं को| उज्लंघन से हो जाते हँ । शु व्यक्ति फे शीतल
जल एवं अन्न
विरेपी कहते है । कहा भी है-स्िक्थयोः रहितो मण्डः पेया के सेवन से शूक तथा अतिसार हो जतेहै। खट्टे
दव्य, -
सिक्थसमन्विता । विकेपी बहुसिक्था स्यात्‌ यतरागू विरलद्रवा ॥ अधिक्‌ स्नेहः तथा दिवाश्चयन (क्विनि में सोने
2. से शोथ,
बेसन-दालयश्चणकाणःतु निष्ठषाः यन्ववेषिताः। तच्चूर्णं बेप्तनं उद्ररोगर तथा ज्वर हो जते है । सुश्रत चि० ज
३९ इन
उपद्र का विस्ता
चरक सू०अ० ५५ यह संसजन कम अत्यन्त विस्तार से दिया पिन्तं ङुय।त्तास्तातप र से वर्णन शिवा गथा हैत्यत; कुपितं
1 (नि वि त 8 ।

द्रवान्‌ । आयास्
है-अयैनं सायाहे परे वाऽह सुखोदकपरिषिक्तं पुराणानां लोदित- च्छति ॥ मैधुनोपगमादोचन्‌ व्याधीयतः शोचतो वा चित्त वि्रममू-
नाप्नोति दुमेतिः। आक्षेपकं पश्च
साङितण्डुकानां स्ववक्लन्नानां मण्डपूवौ एखोष्णां यवागू पाययेद ्चि- वातमह्गमप्रहमेव च ॥ युपदेश श्वयथुं कासश्वासतौ च दारणो ।
वरमसिसमीक्ष्य च, एवं द्वितीये तृतीये चान्नकाङे; चतुर्थं त्वच्नफ़ाजे राक्रव रुधिर
चचापि सरजस्कंप्रवतैते । कुमते च दिवाखप्नात्तास्तान्‌ व्याधीन
तथाविधानामैव .शाकितण्डुखानायुत्सिक्नां विलेपौदुष्णोदकदवितीयाम- । ककात्मकरान्‌ । प्डीहोदर्‌ प्रतिश् ्‌
स्नेहर्वणामदपस्नेहल्वणां यायं पातां श्यं उरम्‌ ॥ मोदं
वा भोजयेत्‌ । एवं पञ्चमे षष्ठे चान्नरकारे; | सदनमङ्ञनामविपाक
ं तथाऽरचिम्‌ । तमसा चाभिभूतस्तु सप्नमेवा-
सप्तमे व्वज्नकारे तथाविधानामेव शालीनां द्विपरखतं सुस्वि्नमोदनमु- भिनन्दति ॥ उच्यैः संभाषगाद्मयुः रिरस्मापादये `
ष्णोदकानुपानं तनना तचुस्नेहल्वमोपपन्देन सुद्गयूषेण मोजयेर्‌ ; जाज्यमजिध्रतवं बाधिर्यं मूकता दूनम्‌ । श्रान्ध्यं
तथा ॥ दनुमोक्षमधीमन्थमर्दितं च
एवमष्टमे नवमे चाकार; -दशमे त्वत्रकाले खावकपिजिलारीनामन्य- खदारुणम्‌ । नेच्स्नम्भं निमेषं वा
तृष्णां काप प्रजागरम्‌ ॥ लभते
तमस्य माँसरसेनौदकलावणिकेनापि सारवता सोजयेदुष्णोदक्रानुपानम्‌; दन्तचाछं च तस्तां्वान्यातुपद्रनान्‌ । यानयानेन
कमते छदिमू भ्र
एवमेकादशे दादे चान्नकाठे; अत उष्वेमनुय॒गान्‌ कमेणेपुज्ञानः मक्खन ॥ तथवाङ्गमहं वौरमिन्दियागां च
सप्तरात्रेण प्रकृत्तिमोजनमागच्छेत। विश्नमम ्‌ ¦ चिरासना-
इस प्रकार १२ भोजनकाल तथा स्थानाच्छेण्यां भवति वेदना ॥ अतिचच्छरमणादाुजख्वयोः
का संसर्जन क्रम बताया है। जिसके वाद्‌ कऋम्षः भोजन रते स्जः । सव्धिप्रशोषं सोफं वा पादह्मथापि
बढ़ाते इए सात दिन के बाद्‌ स्वाभाविक भोजन पर आजे । तोयानां सेवा .मार्ठवृद्धये । ततीऽङ्गमदैविष्टम्म वा ॥ रीतकमोप-
शचूलाष्मानपरवेपकाः ॥
सुश्रत चि० अ० ३९ मं भी यह विषय निम्न प्रकार से वातात्तपाभ्यां वेवरण्यं ज्वरं चापि समाप्नुयात्‌ । विर्द्धाध्यशनान्प यु-
दिया है-परस्थे परिचुते देया यवागू स्वव्पतण्डुला । द चैवार्धाढके व्याधि वा घौरनच्छति ॥ असःत्म्यभोजनं इन्यादुवलध गैमसंशयम्‌ ।
देये तिलश्वाप्याढके गते ॥ विलेपीसुचिताद्धक्ताचतुर्थीशक्रतां ततः । यजते येऽग्रमाणतः ॥ रागानीकस्य ते मूरुमजीणं
दच्ादुक्तेन विधिना किल्ससिक्थामपिच्छ्लाम्‌ ॥ अस्तिग्धल्वणं
स्वच्छपुद्गयुषयुतं ततः । अंशदधयभ्रमणेन दात्‌ सस्विन्नमोदनम्‌॥ कानता वुभुक्त वेशं लघुता स्थिरता सुखम्‌ । `
ततश्तु कृतसंशेन हयेनेन्दरियगोधिना । बीनंज्ान्‌ वितरेद्धेक्तमातुरा- स्वस्थड्त्तातुधतिश्च सम्यग्जीर्णान्नलक्ञणप्‌ ` ॥ `
यौदनं मृदुम्‌ ॥ ततो यथोचितं सक्तं मोक्तुमस्मै विचक्षणः! रवै. अन्न के सम्यक्‌ जीर्णं होने के लक्तण--भोजन कधी ;
णहरिणादीनां रसैद॑चात्‌ उस्तैः ॥ संसगैण विद्रवधेऽग्नौ दोषो होना, भूख छखगना, शरीर का विशद्‌ ( असन्न 2), हख्का इच्छा
पभयाद्जेत्‌ । प्राक्‌ स्वादुतिक्तषौ सिनिग्धाम्लल्वणान्‌ कटकं ततः। स्थिर तथा स्वस्थ होना जौर , `
स्वस्थ ब्यक्तिङ्के समान क्षरीर.
स्वाद्वम्लरवणान्‌ भूयः सादुतिक्तावतः परम्‌ ॥ रिनग्धरक्षान्‌ रसारैव की क्रियार्था कू होना-ये खाये
व्यत्यासात्‌ स्वस्थवन्ततः ॥ आगे सुश्रत मे कहा हे कि निस व्यक्ति |होने के रक्षण है । हुए जनन के सम्यक जीण `
९६१ काश्यपसंहिता वा ब्द्धजीवकीय तन्त्रम्‌ | [ उपकल्पनीयाध्यायः २४
[+
ण ज त न [व क ता का स का

विषादो गौरवं तन्द्री शेष्मसेकारतिश्रमाः । सव अजीर्णो के सामान्यं रक्षण---सवं प्रकार फे अजीर्णो


स्यस्थव्रत्तोपसोधश्च तदजीणेस्य लक्षणम्‌ ॥ मे थोडी मात्रा मेँ तन्द्रा, शू, अरति, ग्छानि, प्यास, विदाह,
अन्न के जीर्णं न होने के रुत्तण~-विषाद्‌, भारीपन, तन्द्रा, अर्चि, अम, अङ्गमर्द॑, उवर तथा आनाह भादि टन्तण होते
कक्‌ की बृद्धि, अरति ( ग्लानि), अम, तथा स्वस्थवृत्त का है । जव ये सब उपर्युक्त खण प्रबर रूप मे उपस्थित हों
पालन न कर सकना-ये खाये इए अन्न के अजीर्णं के रुक्तण है । तो रोग भसाध्यहो जाता है) दृसके विपरीत अर्प रक्षण
होने पर रोग क्रमकः याप्य अथवा साध्य होतेह इनमे से
आसं षिदग्धं सनेम रसशेषं तथेव च॒ । जो साध्यरोगहै उनकी तूसेरेते चिककिससा सुन)
चु््िधमजीणे तु तस्य वद्यामि लक्षणम्‌ ॥ यदुक्तं पथ्यमशनं तदेवेतेषु शस्यते |
उप्यक्त अजीणं के ४ मेद-१. जामाजीर्णं २ विद्र्धाजीर्ण दीघेकालौषधानां तु युद्गमरुडः सदाडिमः ॥
३ श्टेष्माज्ीणं तथा ४. रसशेषाजीर्णं । यह चार प्रकार का
अजीर्णं होता है ! उनके कक्तण मँ कहूंगा । सुश्रुत सू० अ° इनकी सामान्य चि्धिव्सा-मामाजीर्णं मे जम का उद्ध-
४६ मे भी अजी्णंके इन्हीं सेदो का उर्रेख करिया है-आमं रण करना चाहिये अर्थाच लङ्कन के द्वारा आम का पाचन कर
विदम्धं विष्टं कफपि्तानिरेख्िमिः । अजीर्णं केचिदिच्छन्ति चतुर्थ देना चाहिये । विद्ग्धाजीणं मे कपड़ा ओदृकर सोजाये
रसरेषतः ॥ श्रेष्माजीर्णं को ही यहां विष्टञ्धाजीर्णं कहा गया हे ( अष्टाङ्गसंग्रह मे कहा है-तन्नामुक्स्वा दिवा स्वप्यात्‌-अर्थात्‌
बिना कुदं खये दिन मे सोजाये ) । रश्टेष्माजीणं से स्वेदन
यथामुक्तं भवेदामे, धूमोद्रारौ विदाहिनि । देना चाहिये (कफ के विख्य के स्यि ) तथा रस की अधि.
सकछे्मणि ग॒रुखं तु, रसशेषे त॒ हद्द्रषः ॥ कता ( अर्थात्‌ रसशेषाजीर्णं ) में शोषण करना चाहिये
( ङ्न इत्यादि के द्रा ) । सुश्रुत सू० अ० ४६ मे इनका
इनके सामान्य रक्तण-जआमजीणं मे रोगी को रएेसा निम्न चिकित्सा सूत्र दिया ह-ततामे वनं काये विदर्पे वमनं
प्रतीत होता है मानों अभी २ भोजन किया गयाहै। विद्‌.
ग्धजीणं में संह से धुंभा{निकल्ता हे तथा डकार आती इे। हितम्‌ ।विष्टे स्वेदनं पथ्यं रसरषे शयौत च ॥ यहां चिकिसा में
थोडा अन्तर हे । सुश्रुत म विद्ग्धाजीर्णं मे वमन तथा रस.
श्ेष्माजीणं सें शरीर से भारीपन होता है तथा रसरेषाजीर्ण रेषाजीर्णं मे सोने का विधान है जव कि यहां पर ॒विद्श्धा-
म हृदय में भारीपन (भा ग पिल्भ्म॑) प्रतीत होताहे,
सुश्रुत सू० अ० ४६ में दनक निग्न रक्षण दिये ई-माधुय॑मननं जीर्णं में सोने तथा रसरोषाजीर्णं मँ परिशोषण का उर्रेख है।
गतमामसंडं विदग्धसंजं गतमम्भावम्‌ । किचिद्धिप कं मृरतोदशूलं इसका अभिप्राय यह हे कि इनमे आवश्यकतानुसार परिवर्तन
विष्टब्धमाब(न;दविसुदवातम्‌ ॥ उद्‌ 1रशयुद्धावपि मक्तकाक्षा न जायते
भी किये जा सकते हैँ। इसील्यि अष्टङ्गहदय मेँ कहा हे-
“यथावस्थं हितं भवेत्‌ । ` | `
हद्युरुता चं यस्य ।रसावरेषेण त॒ सप्रसेक चतुथैमेतत्‌ प्रबदन्त्यजी-
म्‌ ॥ अथात्‌ आमाजीरणं में सेवन किया हभ भोजन ( जाम सखेहलवणव्योषः पेयो मांसरसोऽपि श ।
रस के कारण ) मधुरता को प्राप्त होताहै। विदग्धाजी्णं मे बालमूलकयूषो वा हितः शाल्योदनस्तथा ॥ `
अम्लता को प्राप्त होता है । बिष्ञ्धाजीरणं में मोजन का आधा धिकिस्सितं पञ्चजनान्‌ (द्‌) राज्ञो राजोपमस्यवा।` `
परिपाक होकर पेट मे पीडा तथा शूल होती है तथा नीचे का धनिनां निर्धनानां वा यथाथेमुपकल्पयेत्‌ ` ॥ `
मागं बन्द हो जाने से वायुं उपर की ओर चदृती है। तथा
रसशेषाजी्णमे शुद्ध उकार जाने पर भी भोजन की इच्छा इन अजीणों मे पहर जिस पथ्य भोजन का निर्देशन करिया
नहीं होती, हदय पदेश्च पर भारीपन रहता है तथा मुंह से है वही इनमें देना चाहिये 1 दीर्घकार ( अर्थात्‌ उचित समय
लाराखराव होता रहता है ! दसी प्रकार अषटङ्गसंग्रह सू°अ० पर स्वयं भी अन्न जीर्णं हो जाता है), भौषध, दाडिम सहित
११ मे भी कहा हे- तत्रामे युरतोलरेदः शोथो गण्डाक्चिकूरयोः । मूंग का मण्ड, स्नेह ( अर्प धरत } रुवण तथा त्रिकट युक्त
उदगारश्च यथायु्तमविदग्ः प्रवतेते | विषटव्पे श्ुरमाध्मानं विविधा मांसरस, कच्ची मू का यूष तथा श्ाछिचावलों का भात-
वातवेदनाः । मल्वाताप्रवृत्तिश्च स्तम्भो मोहोऽङ्गपीडनम्‌ । विदग्पे हितकर है ।
` भ्रमतृण्मृच्छः पिन्ता्च विविधाः र्जाः। उद्गारश्च सथमाम्कःस्वेदो बलघ्नं दोषशमनं बलबणेखाबहम्‌ |
दाहश्च जायते ॥ रसशेषेऽन्नविदेषो हदयाशुदधिगौरवे ॥ | ` सम्यक्‌ संशोधनं कृत्वा दीघेमायुरवाप्तुते ॥
तन्द्रीश्यूलारतिग्तानिनृडिवदादारुचिध्रमाः | इति ह स्माह भगवान्‌ कस्यपः । ॥
अङ्खमदेञ्यरानाहाः सेष्वप्यल्पशो गदाः ॥ ` इष्युपकरपनीयोऽध्यायश्चतुविसतितमः ॥ २४ ॥ `
स्ैरसाध्यतोकृष्टेः क्रमशो याप्यसाध्यते । इस प्रकार राजा, राजासद्श (रईस आदि ), घनी तथा
साध्यानां साधनं यत्त तन्मे प्रवदतः श्रु ॥ निधनो का दीक २ संशोधन करे। अर्थात्‌ धनी एवं निर्धन
` श्रामस्योद्धरणं पथ्यं, विद्ण्वे प्रादृतः ख्पेत्‌ । व्यक्तिर्यो का परिस्थिति के अनुसार संशोधन करना चाहिये ।
सक्ेष्मणि भवेत्‌ स्वेदः, परिशोष्यो रसाधिके ॥ ` चरक सू०अ० १९ कहा है--अनेन विधिना राजा राजमाघ्रोऽथवा
वेदनाध्यायः २५] सच्नस्थानम्‌ । ३३
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रा का शा म क 00 + ++

पुनः! यस्य वा विपुलं द्र्य स संशोधनमहंति ॥ दरिद्रस्वापदं भृशं शिरः स्पन्दयति निमीलयति चक्ुषी ।
प्राष्य प्राप्तकालं चिरेचनम्‌ ! पिवेत्काममसंथ्त्य संभारानपि दुल- अवकूजत्यरतिमानस्ग्रश्च शिरोरुजि ॥ ६॥
भान्‌ ॥ न हि सर्वमनुष्याणां सन्ति सवपरिच्छदाः। नचरोगान शिरःशूल-शिर्शल मे बाख्क सिर को बहुत अधिक
बाधन्ते दरिद्रानपि दारुणाः ॥ यचच्छछयं मनुष्येण कतुमोषधमा- हिकाता है, आचि बन्द कर छेता हे, राश्नि को सोते २ चिङ्छाता
पदि । तन्त.सेव्यं यथाक्षक्ति वसनान्यशनानि च ॥ हे (राथ प्वण०5), उसे आहार में ग्नि हो जाती है तथा
बलू को नष्ट करने वारे ( संश्ोधनमें प्रारंभमं रोगीका उसे नींद नहीं जाती हे ।
वर कुद कम हो जाताहै ), दोषों का शमन करने वाख,
बल्वर्णं तथा सुख को देने वारे संज्ञोधन को सम्यक्‌ प्रकार से, कणौ सशि हस्ताभ्यां शिरो रमयते श्शम्‌ ।
यथाविधि करके मनुष्य दीं जायु को प्राक्त करता है अर्थात्‌ अरत्यरोचकास्वष्नेर्जानीयात्‌ कणेवेदनाम्‌ । ५॥
चिरायु होता हे। चरक मेँ कहा है- मलापहं रोगहरं वख्वणै- | कर्णवेदना-कार्नो की वेदना मे बारुक हाथोंसे दोर्नो
प्रसादनम्‌ । पीत्वा संशोधनं सम्यगायुषा युज्यते चिरम्‌ ॥ कानों का सपरं करता हे, सिर को बहुत हिखाता है, ग्छानि
अष्टज्गसंग्रह मे भी कहा है-उद्िप्रसादं वरभिन्द्रियाणां तथा अरुचि हो जाती है । ओर उसे नद्‌ नही आती हे!
धातुरिथरत्वं उ्वर्नस्य दीधिम्‌ । चिराच्च पाकं.वयसः करोति संशौ-
धनं छ्म्ययुपास्य मानम्‌ ॥ लाल्लाख्रवणमव्यथं स्तनट्धेषारतिव्यथाः ।
संशोधन कै द्वारा क्सन किये हुए दोष फिर प्रादुभूत नहीं पीतसुद्विरति कीरं नास्ाश्चासी सुखामये । ८ ॥
होते । चरक सू° अ० १६ मे कहा है-दोषाः कदाचित्कुप्यन्ति मुखयेग-सुखरोग में बारूक के सुख से त्यन्त राका-
जिताः ल्डधनपाचनेः । जिताः संशोधने तु न तेषां पुनरुद्भवः ॥ लाव होता है, दूध से द्वेष ( अर्चि ) हो जाती हे, उसे गानि
एेखा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था । एवं ्यथा ( पीडा >होती है, पीये इष दूध को उगर देता है
इस्युपकल्पनीयोऽध्यायश्चतुविशतितमः ॥ २४ ॥ तथा मासिका से श्वास ठेता है ।
पीतसुद्विरति स्तन्यं ॒विष्टम्मिष्टेष्मसेवनम्‌।
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0

पश्चाविरातितमोऽध्यायः। ईषरञ्वरोऽरचिग्लानिः करुठवेदनयाऽ्दिते ॥ & ॥


८ इति ताडपत्रपुस्तके ४१ तमं पत्रम्‌ )
अथातो वेदनाध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १॥
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥। कण्टवेद्ना--गले की वेदना मे बालक पीये हुए दूधको
अब हम वेदनाध्याय का व्याख्यान करगे ! एेसा भगवान्‌ उगरू देता हे, श्रेष्मवधंक पदार्थो के सेवन से उसे विष्टम्भ
कश्यपने कहा था। हो जाता है, हरका उवर, अर्चि तथा ग्टानि होजाती है ।
उपास्यमानमृषिभिः कश्यपं बृद्धजीवकः । लालाखाघोऽरविग्लानिः कपोले शचयथु्येथा ।
चोदितो दारुवाहेन वेदनार्थेऽभ्यचोदयत्‌। ३॥ मुखस्य षिवृतस्वं च जानी यादधिजिदहिकाम्‌ ।॥ १०॥
बालकानामवचसां विविधा देहवेदनाः । जधिनजिद्धिकारोग--इसमे खारालाव, अरुचि, गानि,
खखा रहता ह ।
कपोरू पर शोथ तथा पीडा होती हेओर मुख
्ाुभूताः कथं वैद्यो जानीयाह्लच्तणाथंतः ।। ४ ॥
ऋषियों हारा उपासना किये जते इए कश्यप को दार्वाह वक्तव्य--अधिनिदह्धिका के रुत्तण सुश्रत नि० अ० १8 मेँ
निस्न दिये है--जिहायरूपः इवयथुः कफात्तु जिह्वाप्रव न्धोपरि रक्त-
हारा प्रेरित बृद्धजीवक ने वेदना संबन्धी उपदेश देने के खयि भिभरात्‌ । ्ेयोऽधिजिहः खल रोग एषः" "^" " "^" "|
प्रेरित करिया ( प्रार्थना की ) 1 भगवन्‌ !सुख से न बोर सकने
वाङ चारक की उत्पन्न इई विविधटप्रकार की वेदनाओं को उवरारुचिभ्चखस्रावा निष्टने्च गलग्रहे 1.
वैद्य रन्त्णो से किस प्रकार जामे ८ पहचाने 9 अर्थात्‌ वे कौनसे क्डू(र्ठ)के अयुः कण्ठे ज्वरारुचिशिरोरुजः॥ ११।
छन्लण है जिने वैच बारुकों के भिन्न २ रोगो तथा बेदनार्ओं अहरोग--इसमे बारुक को उवर, अरचि, सुख से
काका.
को पहचान सकता है क्योकि इस अवस्था मेँ बार्क स्वयं ताव वथा श्वासस्नेमे कष्ट होतादै।!
अपने मुंह से किसी भी अपने कष्ट को. बताने मे असमथ
होता हे । | कण्डलोथ--कण्ड ( गरे >)मे शोथ, उवर, अरुचि, तथा
किरः होताहे1 ~ [र |
इति प्ष्टो महामागः कश्यपो लोकवृद्धपः ।
, प्रोवाच वेदनास्तस्मै कारणैर्बालदेहजाः ॥ ५॥ ` स॒हर्ममयतेऽङ्गानि जम्भते कासते सुहु: । त `
इस प्रकारं प्रश्न किये जाने पर महान्‌ रेश्वर्य्॑ञारी तथा धात्रीमालीयतेऽकस्मात्‌ स्तनं( न्यं ) नात्यमिनन्दति
्र्ञावोष्णल्वैवस्य ललाटस्यातितप्रता। `
अरुचिः पादयोः शैष्वं ज्वरे स्युः पूवेवेदनाः ॥ १३॥
आयु की दृष्टि से चद कश्यप ने भिन्न २ कारणो से उन्न होने
वारी बारूको की शारीरिक वेदनाओं का उसे उपदेश किया \
भका१
२४ काश्यपसंहिता वा ब्द्धजीवकीयं तन्धम्‌ । [ वेदनाध्यायः २५
नि नि म मि कु रा त न क ता त
नी ^ 0 त सा + + 0 त ^ ताता, ह+क सण

उवर ( एलः )--इसमें बाख्क वार २ अङ्गो को अकस्माद्ट्रृहसनमपस्माराय कल्पते | |


सुकोडता है, जंभाई छेता है, वार २ खांसता है, सहसरा धाच्नी प्रलापारतिवेचित््ेरन्मादं चोपलक्ञयेत्‌ ।। २०॥
से चिपक जाताहै, स्तन या दृध की विशेष इच्छा नहीं `
करता, मुख से राटालराव होता है, उसका शरीर उष्ण तथा अपस्मार--इसमें बारुक सहसा जोर से अदृहास करने
विवणे (सफेद या पीरा ) रहता ह, टका (माथा) क्गता हे! उन्माद-दखम प्राप ( घाप ), अरति
गरम रहता है, अरुचि होती है तथा उसके पैर रण्डे हो जाते तथा वैचिस्य ( चित्तभम-- ८05९! ८7०4 ) हो जाता है।
है-ये सब रक्षण वाल्क को ऽवर होने से पूर्वंहोते है । रोमहर्षोऽङ्गहष् मूत्रकाले च वेदना ।
देहवेस्यमरनि्थखम्लानिरनिद्रता ! मूत्रकृच्छ्रे दशत्योष्ठौ वसि स्परशति पाणिना ॥ २१॥
वानक्मनिवृत्तिश्वेवयतीसाराभ्रवेदनाः \॥ १४॥ मूत्रह्ृच्छर ( 25८63 )-इयभे बालक को रोमहर्षं
अतिसार ( "०6५ )-श्लरीर विवर्णं ( पीरा ( बार्छ का खडा होना), अङ्गहर्षं (ङो मे कपकपी
सफेद्‌ ) हो जाता हे, अरति तथा सुखग्कानि हो जातीहे, पप होना ) तथा भूतरत्याग के समय वेदना होती है ( एभय
प्धानपप्भा० ) वह जष्ठदंश्लन ( मोष को दांतों कै
निद्रा नहीं जाती, तथा वायु के कर्मों की निवृत्ति हो जाती
नीचे दवाना ) करता है तथा हाथ से बस्तिप्रदेश का
हे अथात्‌ वायु अपना अयुरोमन का कार्यं नहीं करती हे
स्पशं करता है ।
ये सच अतिसार के पूर्वंरक्षण है ।
गरव बद्धता जाङ्यमकस्मान्मूव्रनिगेमः।
कः = $ निर्ग

स्तनं व्युदस्यते रोति चोत्तानश्चावभस्यते ।


उदरस्तञ्धता शैत्यं सुखस्वेदश्च शुज्तिनः ॥ १५॥ प्रमेहे मक्तिकाका (का )न्तं मूत्रं शेतं घनं तथा ॥२२॥
प्रमेह--इसमे वाल्क का शरीर भारी होता हे तथा बंधा
उदृरश्रल ( 1118508} 60176 )-बाल्क स्तन पान
हुभा सा
करना छोड़ दता हे, वह रोता है, उत्तान ( सीधा-ऊपर को जाता ओर जड़ होता है । तथा अकस्मात्‌ उसका मूत्र निकरः
सुख कर के ) रेटता हैतथा उदर में स्तन्धता होती है, उसे हे, जिसपर मत्यां बहुत वैठती ह तथा मूत्र का रंग
श्वेत एवं घन होता है अर्थात्‌ उसका आपरि गुरुत्व अधिक
सदौ रुगती हे तथा सुख पर पसीना आजाता । होतादै। साधारण मूत्र का आवेक्तिकि गुरुत्व ( एनम
अनिमित्तमभीदणं च यस्योद्रारः प्रवसते । दप्ति ) १०१० से १०२० तक होता है । किन्तु प्रमेह
, . निद्राजुम्भापरोतस्य छदिस्तस्योपजायते ॥ १६ ॥ मे इसका गुरुत्व अधिक अर्थात्‌ लगभग १०४०-१०५० तक
छदिरोग ( वमन-पण्धण्ड )--बारुक फो बिना छिस्ती हो जाताहै। | ` ॥
कारण के बार २ डकार अते हो, तथा निदा ओर जंभाई बद्धपक्रपुरीषलं सरक्तं घा कृशात्मनः | `
आरही हो तो रेखा जानना चाहिये छि वारुक को वमन होगा । गुदनिष्पीडनं कष्टं तोदं चाशसि लक्षयेत्‌
॥ २३॥
निष्टन्युरसाऽव्युषणं शघासस्तस्योपजायते । अशंरोग ( ववासीर २1165 )इसे मर बंधा हज
` - अकस्मान्मारतोद्रारः छृरो दिका प्रघरतेते ॥ १७॥ तथा पक्त होगा, साथ में रक्त मी होगा तथा बार्क कमजोर
श्ासरोग--श्वासरोग मेँ बारेक के हाती से अयन्त गस्म होगा । उसकी गुदा मे वेदना, कण्डू तथा तोद होगा ।
सांस निकरते है । हिका- ङश व्यक्ति मे एक द्म वायु की सशकरातिमूत्रस्ं मूत्रकाले च वेदना ।
डकार अवि ता हिक्का होने की संभावना होती है । भ्रततं रोदिति क्तामस्तं ्रूयादश्मरीगदम्‌ ॥ २४ ॥
स्तनं पिबति चतत्यथं न च तृषि-(ष्य ) ति रोदिति । अश्मरी (3॥०्ण 70 र्वे )-यदि मूत्र शकरा
शष्कोताटस्तोयेप्सुटुबलस्वृष्णयाऽ्दितः ५ १८॥ (8० „)से युक्त हो तथा मात्रा मेँ अधिक
_ दृष्गा--जयधिक स्तनपान करने पर भी यदि वृक्तनदी स्याग क समय वेदना होती हो, बालक बहुतहोताअधिक हो, मूत्र
` होता तथा रोता रहता हो, जौर जोष्ठ तथा ताछ सूख गये ख्गातार रोता हो तथा बहुत दुर्वे हो तो अश्मरी ( पथरीभौर)
हो+यदि जरु का इच्छुक हो अर्थात्‌ जक चाहता हो तो जानना रोग समञ्चना चाहिये । |
चाहिये कि बाख्क को प्यास र्गी हे । | रक्तमरुडलकोत्पत्ति्टृष्णा दाहो उरोऽरतिः। ` `
विशालस्तन्धनयनः प्वभेदारतिक्लमी । स्वादुशीतोपशायितं विसपस्या्रवेदनाः ॥ २५॥ `
9 श ॥ भ ८

संरेद्मूत्रानिलविट्‌ शिशुरानाहवेदनी ॥ १६॥ विसप॑रोग ( एणलप्ड }--हस रोग मँ बारुक ॐ


_ आनाह-जिसको आलं फैरी हई हो तथा स्तब्ध हो, | शरीर पर रक्तमण्डल ( लार २ चकन्ते-०<०० ) बन जाते
जिसके जो मे ददं हो, जिसे अरति तथा क्छम ( थकावर
) है । उसे तृष्णा, दाह, ञवर, जरति, होती है तथा उसे मधुर
हो, जिसके मूत्र, वादु तथा मरू समी स्क गये हो, उस
बाख्क को आनाह ( जफारा ) समन्नना चाहिवि।
एव शीत वर्यो के-सेवन की इच्छा होतीहै। =
दहन्तेऽङ्गानि सूच्यन्ते भ्यन्ते निष्टनत्यति।
वेदनाध्यायः २५ | सूत्रस्थानम्‌ ! ३५
नी
भभ स कय ण
॥श ^ + + ^ 2, नि नि नि नि नि १
का, ^ शा श स शा ती नि१.५ ८,१५.१ मि ता
2 का
१ का ^ ५ मी 0
१1

शु, अश्र्जो का अधिक आना ((कलाप ावो0)


विघ्रचिकायां बालानां हृदि शुं च वधते ।! २६॥

सौर रालिमा
विसूचिका--बारूक के अङ्गो सें दाह होता है, सुधी सेद ( 0० ) होती हे । सोने पर दोन आंस ( पलक-
सदर पीडा होती दे, उसे सासकेने मे कष्ट होता है तथा । © 1950©
4 >) परस्परं ( 10250976 कै कारम ) विपक्‌
हृदय मे श्ल होता है-ये बालकों मे विसूचिका के जातीर्ह। |
र्ण होते हे । | घषेत्यज्गानि शयने रोदिसीच्छति सद॑नम्‌ ¦
शिरो५ ^न धारयति यो भिधते €जृम्भते८. अहुः | शुष्ककस्डबऽदितं विदयात्ततश्चाद्रौ भ्रतेते ।। ३०॥
~ © € „
श्तन्‌ ववत नात्यथ भराथत इद्ेयस्यापं || २७ || सुखायते सृ व्रमानं सयसानं च शूयते । |
षिषादाध्मानाडविभिर्वियादलसकं शिशोः | सूलं खघति सस्योढा(१) माद्रयां शुलदाहवत्‌ ॥ ३१॥।
विसूचिकालसकयेटुज्ञाने लक्तृणौषधे ।। २८ ।। शण्ककरण्ड्‌ ( ८""105 )-इख रेग में वाल्क ररि
अरुसक-- वाल्क थोड़ी देर भीिरं को दीक तरह से सोते समय अज्ञो का घषेग करता ह ( रगडता है ), वह रोता
धारण नहीं कर सकता हे, उसके शरीर का ओदन होता ह, है तथा शरीर का मर्द॑न करना चाहता हे ! आर््रकण्डू- शुष्क
के वाद्‌ आरद्र॑कण्ड्‌ प्रारंभ होती हे! इसमें रोगी रगड्ने पर
वह बार २ जंभाई ङेता हे, अधिक स्तनपान नहीं करता है, सुख ( आनन्द
मथित ( गां से युक्त ) वमन कर देता है, तथा विषाद्‌, ) का अनुभव करता है । रगड्ने पर वह बद्‌
ध्मान भौर अरुचि होती हे-इन रक्षणो से बाख्क को जाती हे तथा बढ़ने के बाद्‌ उसमे से खाव ( 7००६)
अलसक रोग जाने । षिसूचिका तथा अरूसक सेग के कक्तण आने कगता है । इस प्रकार वदी हुई इस आरुण्ड मे शूक
एवं ओषधि के मेद का ज्ञान कठिनता से होता है! अर्थात्‌ एवं दाह होती है । | |
इन दो्नोमे मेद्‌ करना कठिन होता है। विसृचिका तथा सतेभित्यमरुचिर्निद्रा गाच्रपारडुकताऽरतिः ।
अरूसक दोनो जामदोष है । इन दोनों ॐे मेद के छिये चरक रमणाशनशय्यादीन्‌ धात्रीं च द्वेष्टि निस्यशः । ३२॥
वि० अ० २ मेँ कहा है-तत्र विद्चिकामूर्ध्वं चाधश्च प्रवृत्ता असात ख्ातरूपश्च सतश्चा्ञततदशनः ।
मामदोषां यथोक्तरूपां वियात! अर्थात्‌ विसूचिका मं जाम अआमस्येतानि रूपाणि ्िदयद्धेयो भविष्यतः ।। ३३ ॥
दोष उपर ओर नीव दोनों मार्गौ से प्रवृत्त होते रहते है तथा
इसमें तीनों दोर्षो का प्रकोप होता है । अष्टाङ्गसंयह मे कहा आमदोष-इस रोग मे स्तिभितता ( शरीर का चिपचि-
है--विविषैवंदनो देदैवाखादिगश्चकोपतः । सखषवीभिरिव गात्राणि पापन ), अरुचि, निद्रा, हरीर का पाण्डु ( 4०6०१
विध्यतीति निचिरा ॥ इसी प्रकार सुश्चत मे कहा है- होना ओौर अरति होती है तथा वारक को खेर, भोजन तथा
सूचीभिरिव गात्राणि तुदन्‌ सन्तिष्ठतेऽनिकः। यस्याजोर्णेन सा कैचै- निद्रातथा धात्रीखे भौ निरन्तर द्वेष (जरचि याधृणा)
विसू्चीति निगचते । अर्थात्‌ इसमे वायु के प्रकोप से शरीर सं हो जाती है ।.यदि उसने स्नान नहीं किया हुआ है तो स्नान
विविध प्रकार की सु भने के समान वेदनाएुं होती &। क्ियि इए के समान प्रतीत द्योता है । ओर यदि स्नान श्या
अकसक के विषय में कहा है--इकैलस्यालाग्नेकंहुदरेष्मणो हआहैतो स्नानन क्रिये इष के समान प्रतीत होताहे।
वातमूव्रपुरीषत्ेगपिधारिणः स्थिरयुखवहुरुक्षशीतज्ु्कान्सेविनस्त-
यदि ये रुक्तण हों तो उन्हें देखकर वैद्य कह सकता है कि इस
दन्नपानमनल्प्रपीडितं हकेष्मणा च पिवद्धमार्ममत्तिमाचप्रटीनम छ. वारक को जआमदोष होने वारा है `
सत्वान्न वहिसुंखी भवति, ततरछयं तिसारवर्यान्यामप्रदोषरिङ्गानि नाभ्यां समन्ततः शोथः श्ेताकिनिखघक्रता ।
यथोक्तान्यभिददयेयत्यतिमाव्राणि; अतिमात्प्रदुश्श्च दोषाः प्रद्टाम- पाण्ड़्रोगेऽभ्रिसादश्च शयथुश्चाक्तिकूटयोः | ३४॥
बद्धमा्गास्तियंग्गच्चन्तः कदाचित्केवलमेषास्य शारीरं दण्डवत्स्तम्भ-
यन्ति, ततस्तमलुसकमसाघ्यं नुवते । अर्थात्‌ हेमे कफ द्वारा
पतचक्ुनेखगुखविर्मूत्रः कामलार्दितः।
मागो के बन्व्‌ होने से सेवन किया हभा अन्न पान अन्द्र ही उभयत्र निरुत्साहो न्टाभिरुधिरस्परहः ।। ३५ ॥
र्ककर आर्सी होने के कारण बाहर नहीं निकरता तथा पाण्डुरोग ( 4००९ )--इसमे नाभि के चार्यो ओर
इसमे वमन तथा अतिखार को छोडकर आमदोष के सव लोथ होता है । आंख, नाखून तथा मुंह सफेद हो जाता है!
रक्षण उपस्थित हो जाते हें । | उसे जग्निमांच हो जाता है तथा उसकी आंखों के चारों
अन्यत्र भी कहा है-परपातिनोध्वं न धस्तान्नादारेऽपि पिपष- ओर श्लोथ हो जाता है। कामखा (०५०८००८ ») रोग-
इसमे आंख, नाखून, मुख, मरु तथा मूत्र पीठे हो जते
श्यते । आमाशयेऽलसीमूतस्तेन सोऽलसकः स्परृतः ॥ यही इन
( छ ए््८५४ के कारण )। पाण्डु एवं कामला इन
दोनों मे अन्तर ह | दोनो रोगो म मनुष्य उस्साह शून्य होता है, उसकी जरि
दष्टिव्याक्कुलता तोदशोथराल्ाध्ररक्तताः । नष्ट हो जाती है तथा रुधिर के प्रति उसकी रष्हा ( आर्काचा
` सुप्रस्य चोपलिप्यन्ते चक्षुषी चक्षुरामये | २६ ॥ अथवा आवश्यकता >) होती है !
व्जागरच्छर्ददिधा
यैः ॥
त्रीदेषारतिथमेः
चद्धरोग-दसर्मे इष्की
टि व्यङुरुताचद्धभं मेतोद्‌, शोथ, मूप्र िषात्रीहषारतिभ्च
३६ कारथपसंहिता वा बृद्धजीवषटीयं तन्त्रम्‌ । [ वेदनाध्यायः २५
मि 0 ५.५५
0 ^ ~ ^“ ~ 0 त ॥ # ^ +
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विच्रासोद्रेगटष्णाभिर्धियाद्वाल्े मदात्ययम्‌ । ३६ ॥ रोदित्यकस्माल्रसति हायाशीलविपयेयः । ४६ ॥


मदाच्यय- मूर्छा, जागरण ( अनिद्रा ण्डणणणंर ) अल्पाशितोऽतिविरमूत्रसस्वविसूत्रो विपयेये ।
धात्री से देष ( अनिच्छा-अर्श्ि ), अरति, अम, वित्रास भविष्यतां निमित्तानि प्राणां वेदनाश्च ताः ॥ ४५७ ॥
( डर ), उद्वेग ( वेगो छी प्रवरूता ) तथा वृष्णा-इन रुक्र्णो न यः शिरो धारयति क्तिपन्त्यङ्गानि दुब॑लः ।
ते वाक मेँ सद्ययरोग का ज्ञान होता हे । श्रासाध्मानपरीताभ्यामन्तवच्वोपलद््यते । ४८ ॥
यटसेखेनोच्छरुसिति पीत्वा पीला स्तनं तु यः। ( इति ताडपत्रपुस्तके ४२ तमं पत्रम्‌ । )
खवतो नासिकं चास्य ललाटं चाभितप्यते ॥ ३७ ॥ विनोद्यमानो बहुधा विनोद्‌ नाभिनन्दति |
खोतास्यभीच्णं सपरशति पीनसे त्षोति कासते । तृटप्रमीलकनिद्रातेः करूजत्यपि कपोतवत्‌ ॥ ४९ ॥
उरोघाते तथेव स्याचिष्टनस्युरसाऽधिकम्‌ ।॥ ३८॥ ग्रहरोग--जब लान (प्रेमपूर्व॑क पान पोषण ) करने
पीनसरोग ( प्रतिश्याय )-जो बरक स्तनपान करता वारी, सुखी, तथा सव वस्तुजों का भोग करने वादी धान्नी
इभा वार.बार मुख से श्वास रेता है, जिसकी नासिका से साव रुगातार रे
स्वर््नो को देखे, उसके स्तर्नो से स्वयमेव दूध
होता रहता है, ललाट तक्ष ( गरम >) रहता है, खोतो का म्रृत्त होने रगे ।
बार २ सं करता है, चीकता हैतथा खांसता रहता हे उस को बाङुक का स्मरण न रहे ( अथवा
बारुक को अपस्मार रोग हो जाय ), बालक सहसा गोद मं
उसे पीनसरोग से आक्रान्त जानना चाहिये । उरोधात-इसनें
से गिर पड़ तथा दुष्ट पुरूषो के साथ संसर्गं एवं भोजन करता
पूर्वोक्त रुक्तणो के साथ २ बाल्क छाती से बड़ गरम २ खास
निकालता रहता हे । हो, जिनके पुत्रो की ्ष्यु हो जाती हो, जो अवकीर्णी हं तथा
जो दुसरो की वृद्धि ( बढ़ती-रेशव्यः ) को सहन न कर सक्ती
स्वस्थधृृत्तपरो बालो न शेते तु यदा निशि । ह देसी धात्रियां भयंकर अभङ्ग ( जश्ुभ लक्षणो ) को
रक्तबिन्दुचिताङ्गश्च विद्यात्तं जन्तुकादितम्‌ ॥ ३६ ॥ देखती है तथा उसी के अनुसार आचरण करती है एवं विष-
जन्तुदंश ( 1560४ १४८ )--स्वस्थ ( नीरोग ) बालक रीत भावो का सेवन करती हे तो उस वारुक की शसु होने
यदि रात्रिमेन सोये तथा उसके किसी अंग पर छारुर की संभावना होती है। बालक के सोये रहने प्र भयंकर
बिन्दु दिखाई दँ तो यह समन्नना चाहिये कि उसे किसी अङ्कति वारे पकती वहां धोसरे वना र्ते है विडाल
जन्तु ने काटा हे। ( माजार ) उसे छांघ जातादहे, पर धूम को सुंघता हे, वह
दूसरे ॐ तिर पर से उतार कर रखी हुई बरि को चाटता है
वक्तन्य-बारूको के रोगौ तथा वेदना के ज्ञान के तथा इसका
च्यि सुश्रुत शा० अ० १० भी ङु रक्षण संहेप से दिये दुगन्ध आती लङ्घन करता है । वारक के शरीर तथा सुख से
है, उसकी नासिका के अग्रभाग से मलोत्पत्ति
गये हँ--अङ्गमत्यज्गेयो त रुजा यत्रास्य जायते । जुहुसहुः खदति हो जाती
है तथा माता जौर पुत्र दोनो अशुभ एवं सवर्णक्ी
तं सए्दयमाने च रोदिति ॥ निमीखिताक्षो मूर्धस्थे शिरोरोगे न
मालर्जो को धारण करते हैँ । भस्म (राख >) अङ्गासे तथा
धारयेत्‌ । वस्तिस्थे मूत्रसङ्गातों रजा दृष्यति मृच्छति ॥ विपमूतरसङ्ग-
षके ठेर पर बेठता है, सहसा रोने रुगता है, उसे डर
वेवण्य॑च्छदाष्मानान्त्रक्रुननैः । कोषे दोषान्‌ विजानीयात्‌ सवेतरस्था- र्गता है, उसकी छाया (
श्च रोदनैः॥ शारीरिक कान्ति ) तथा स्वभाव
मे परिवर्तन हो जाता है! बालक कम खाताहै) उसे
यदा तु ललिता धात्री सुखिनी सवंभोगिनी | कभी मर्‌ एवं मूत्र अधिक आता है तथा कभी कम आने
पश्यत्यभीच्णं दुःखप्नं खयं चीरं प्रवतेते ॥ ४०॥ रगता है । बारुक अपने सिर को धारण नहीं कर सकता
बालो बि(ऽप)स्मरते चास्याः सदसाऽङ्कात्‌ पतत्यपि । अर्थात्‌ स्थिर नहीं रख सकता, अङ्गो को इधर उधर पकता
हे, दुरु हो जाता दै, उसे श्वास एवं आध्मानरोग से
असल्नेन संसगं याति संभोजनं तथा ॥ ४१॥ | होने रुगता हैफ जैसे जब वह बचेगा नहीं । बारुक प्रतीत
सृतापत्यावकीरणीभिः परवद चसहिष्एुभिः। से यदि
` विनोद्‌ किया जाय तो बह उसे पसन्द्‌ नहीं करता । वह
अमङ्गलानि घोराणि पश्यत्याचरतेऽपि च । ए२॥ प्यास, प्रमीङकरोग ( तन्द्रा ) तथा निद्रासे पीडित होता
- सेवेते विपरीतानि मत्युंचोदयते शिशोः। ` है तथा कन्रूतर की तरह शब्द्‌ करता है ये सब मरहरोगों ॐ
सुपे शिशो निलीयन्ते पक्तिणो दारुगोदयाः ॥ ४२॥ भरारम्भ होने के रक्तण है । अर्थात्‌ उपयुक्त लक्षणो को देखकर
बिडालो लङ्घयत्येनं परधूमं च जिघ्रति! ` जनुमान करिया जा सकता हे कि बारुक को संभवतः कोई
परावतारणबलिं प्रतते लङ्खयत्यपि ॥ ४४ ॥ ` मरहरोग होनेवाछा है ! अवकीर--्णी
बरह्मचयं चत का भङ्ग करने
दुगन्धदेहवक्रतवं नासिकाम्रे मलोद्धवः। ` वाला भ्यक्ति। इसका निभ्न रक्षण दिया दहै--कामतो रेतसः
सेकं वतस्थस्य द्विजन्मनः 1 अतिक्रमं वतस्याहुंमज्ञा ब्रह्मवादिनः ॥
अहयरक्तमाल्यानां मातापुत्रनिषेवणम्‌ ॥ ४५॥ अवकीणीं मबेद्गत्वा बह्यचारी तु योषितम्‌ । गदभ पञ्ुमारभ्य
भस्माङ्गारतुषादीनामधिरोहणसेवनम्‌ । नेतं स विश्चध्यति ॥ अर्थात्‌ जो जानवृक्च कर जहयच्यं बत
६७
चिकिस्सासंपदीयाध्यायः २६ } सून्नस्थानम्‌ ।
[न +
क का ५, का क + 7

भिषग्‌ द्रव्यञुपस्थाता रोगी पादचतुष्टयम्‌ । युणवतकारणं ज्ञेयं विकार



[सा का + ^
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का) 9

का सङ्ग करता हे उसे जवकीणीं कहते ई । अनिच्छापूवेक


क +^का+ 99१

नयुद्यान्तये ॥ इसीश्रकार सुश्रुत सू० अ० ३४मे भी कहा है--


चत भङ्गकरनेवारे को अवकीर्णी नहीं कहते
वयो व्याध्युपसष््य भेषजं परिवारकः। एते षादाश्िकित्सायाः
पीड्यमानस्य रूपाणि ्रच्छयेतिसारिषु। कर्मसाधनदेतवः ! ये चारौ पाद मिककर ही आरोश्यरूप कर्म.
वैचो दृ्वैव जानीयात्‌ कृच्छं सवं न सिध्यति ।५०॥ सिद्धि के हेतु३ ।
इस प्रकार वारक के उवर, छदि तथा अतिसार जदि तत्र भिषक सुतीर्थो स्यायेनाष्ञान्राप्रो विज्ञान
रोगो से पीडा देने वाके उपर्युक्त ठचो को वेध देलकर ही याननेकशो दष्टकं षिदितस्तिद्धयोगो दक्तो दक्तिणः
तुरत जान ख्वे । क्योकि सम्पूण लण छच्र होने पर सवेदा | शुचिस्नुद्धतवेषः सवभूतेषु बन्धुभूतः सिद्धिमान्‌ धर्मा.
सिद्ध नहीं होते) थेदशी सत्यदयादानाजेवनिरतो देधद्िजगुरुकिद्धानां
इत्येता विविधाः प्रोक्ता वेदना बालदेहजाः। पूजयिता चाभिगन्ता चोत्तरोत्तरपरतिपत्तिङशलो गुड-
परायोद्धवानां रोगाणां कश्यपे न महषिण ा ।} ५१ ॥। द्सेवी न्यायाभिनिवेशी व्यपगतभयलो भमोद्कोधा-
इस प्रकार महपिं कश्यप ने प्रायः होने वारे रोगों सं चरतोऽपेशुन्योऽमयलौल्यः सुमुखश्चा्यसनी चेति ।५४।।
वालको ॐ शरीरम होने वारी वेदना्ओ तथा रकर्णो को वेच या चिकित्सक के गुण-सुती्ं ( योस्य गुर्‌ वारा
कह दिया हे । अर्थात्‌ जिसने योग्य गुर्‌ से शिक्ता प्रहण की है ), न्यायपूर्वक
तेषां चिकित्सितं स्वं सखमधिरद्धं यथाक्रमम्‌ ! जिसने आर्ष्॑तान प्राप्त कियाहै, जो विज्ञानवान्‌ हो, जिने
दृशा चिकिस्ितस्थाने दोषतश्चाभ्यु(्योपक्रमेत्‌ ।॥५२॥ बहुत वार चिकित्सा क्म देखा हभ है, जिसे सिद्धयोगो का
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ त्तान है, जो चतुर, दक्तिण तथा पवित्र हे, जिसका वेश्च उद्धत
इति वेदनाध्याथः पड्छविंशतितमः ॥ २५॥ नहीं है अर्थात्‌ सभ्य वेश वाला है, सब प्राणिर्यो के भ्रति
जिसके मन सें बन्धु (प्रेम) भाव हे,जिषके हाथमे विद्धि हे,
उन २ रोगो की चिङित्खा परस्पर अविशद्र तश्रा यथाक्रम
जो धमार्थ रोगिर्यो को देखने वारा है अथवा धर्म॑ ओर अर्थं
चिङ्कित्वास्थान में देखकर अथवा स्वयं दोषो के अनुसार करे । ( धन >)के च्यि रोगियों को देखत हे, जो सत्य, दया, दान
रेखा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था । तथा सररुतायुक्त है, जो देव, बाह्यण, गुर तथा सिद्ध
इति वेदनाध्यायः पञ्चविंशतितमः ॥ २५ ॥ महाद्मार्भो की पूजा तथा सेवा करने वारा है, जो उत्तरोत्तर
रोग निनवरचिमें शरू हे, जो गुरु तथा वृद्ध पुरूषो की सेवा
[ककण १,११.० १॥. ४.
मीं

घड्धिरातितमोऽध्यायः करता हे, जो न्यायवान्‌ है, तथा भय, कोभ, मोह, कऋरोघ,
अथातञ्िकित्सासंपदीयसध्यायं व्याख्यास्यामः ।॥ १ ॥ असस्य, पिशुनता ( चुगल्खोरी >) से रहित दहे, जिसे मद्य की
आदत नहीं हे-जो सुमुख (दर्चनीय-युन्दर आकृति वारा )
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ।॥ २॥ तथा सब प्रकार के व्यसनं से रहित है-पेसला वेद्य शरेष्ठ
अव हम चिकित्सासंपदीय अध्याय का व्याख्यान करगे । होता हे । चरक सूु° अ० ९ वैद्यके ४ मुख्य गुर्णो का उज्ञेख
रसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था ॥ १-२ ॥ किया गयः है--श्रतेः पर्यवदातत्वं बहुशः दृष्टकर्मता । दाक्षं सौच-
चिकितसासंपद्यथोपपद्यते तमुपायमनुव्याख्यास्या- मिति ज्ञेयं वेच युणचतुष्टयम्‌ । 4. शाख का सम्यक्‌ ज्ञान २. अचु.
मः । चारः खद पादाशधिकिल्सितस्योपपयन्ते । ते व ३. चतुराईगुणो ( 3111 >)तथा ४ शृद्धता--ये गुण आवश्यक
मँ अन्य खब गुर्णो का समवे हो जाता
यदा गुणवन्त उपपथन्ते तदा साध्यो व्याधि्नातिव- हे! इसी प्रकार सुश्रुत सू० अ०३४ में कहा है-तताधिगतः
६ । इन चारे
तते । तद्यथा-भिषक्‌, भेषजम्‌; आतुरः, परिचा- टाखाथो दृष्टकमा स्वय कृतो । छ्युहस्तः शुचिः शरः समनो पस्कर-
रक्‌ इति 1} ३॥ मेषः ॥ प्रत्युत्पननेमतिर्धीमान्‌ व्ययस्तायी विारदः सस्यधमंपरो
अव हम उन उपायो की व्याख्या करेंगे जिनके हारा यश्च स भिषक्‌ पाद उच्यते ॥ ४॥
चिकित्सासंपव ८ चिकित्सा का उत्तम गुणो से युक्त होना )
उस्पन्न हो सके। चिकित्सा के चार पाद्‌ होते है अर्थात्‌ तत्र सेषजस्ंपत्‌--घुभूमो जातं, काले चोद्धृतं,
चिङ्ित्खा ॐ छथि चार वस्तुर्भो का होना आवश्यक हे । वे काल्ते चोत्पन्नम्‌ ; अविकारि, अभ्रितोयजन्तुषिर्मूत्र-
चारों पाद्‌ जब गुणयुक्त हो तब साभ्य व्याधि चिकित्सा का जरादिभिरलनुपहतं, तत्तद्रोगयोग्यं कमेण च विधिव-
व्यतिक्रम नहीं करती अर्थात्‌ ठीक हो जाती है (साध्य व्याधि दुपपादितमिति ॥ ५॥ ` [र
की ही चिकित्सा की जा सकती है असाध्य की नहीं । चरक
म कहा है--साधनं न त्वसाध्यानां व्याधीनाश्ुपदिद्यते ) । वे सौध के गुण--जो प्रशस्त भूमिम उसन्न इई हो, उचित
चास पाद येहै-- १. वैद्य २. ओषधि ३. रोगी ४. परिचारक । मय पर उखाड़ ङी गई हो, उचित समय में उपपन्न की गहे
चरकः सूत्रस्थान के खुड़ाकचसुष्पाद्‌ अभ्याय मे भी कहा हे- | हो, विकार रहित हो, जो चग्नि,
जरू, जन्तु, मर, सूनर `
३२८ काश्यपसंहिता वा चृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ चिकित्सासंपदीयाध्यायः २६
7 1 न १४ कि 0 7 रि 0 त क ता. 00००५१५

तथा अवस्था आदिसेन््टनकी गईहो, जो अमुक रेरोगके


(2

पेसा रोगी गुणयुक्त माना गया है । चरक सूु° अ०९ँ


योग्य हो तथा क्रमशः विधिपूर्क जिसका प्रयोग करिया इभ कहा है-स््तिनिदेल्कारित्वममीरुत्वमथापि च । ज्ञापकत्वं च
है-रेसी ओषधि गुणयुक्त होती है । चरक सूु० अ०९म रोगाणामातुरस्य युणाः स्मृताः ॥ रोगी मैँ- 5. अपने रोग के
षधि के निग्न ४ गुण दिये ह--हुता तत्र योग्यतवमनेकविध- प्रारंभ होने का स्मरण होना २. चिङिस्सक के निर्देशानुसार
विवद्पना । संपच्येति चतुष्कोऽयं द्रध्याणां युण उच्यते ॥ १. पर्याप्त कायं करना ३. निडरता तथा
४. रोग को अच्छी प्रकार बता
मात्रा मे होना २. व्याधि के उपयुक्त होना ३. एक ही ओषधि सकना -ये चार गुण होने चाहिये । इसी प्रकार सुश्रुत सू° अ०
से नाना प्रकार की कल्पनां का वन सकना ४ रस आदि से २९ मेँ भी कहा है-सायुष्मान्‌ सत्यवान्‌ साध्यो
द्रभ्यवानात्वा-
युक्त होना । सुश्रुत सू० अ०श्ण्मेभी कहा है-प्ररस्तद- नपि । आस्तिको वेधप्रास्यस्थो व्याधितः पाद उच्यते ॥
संभूतं प्र्स्तेऽहनि , चोद्धृतम्‌ । युक्तमाय्ं मनस्कान्तं गन्धवर्भरसा-
जितम्‌ ॥ दोषध्न मग्लानिकरमविकारि विपयये। समीक्ष्य दन्तं कालि तत्र परिचारकसंपत्‌- विपकरकषायता, आरोग्यं,
च सेषजं पाद्‌ उच्यते ॥ शक्तिः, भवभ्तिः, उपचारज्ञता, दाच्यं, शौचम्‌;
८ ॐ € € १५१
वक्तन्य--सुभूमो जातम्‌--जोपधि प्रश्स्तभूमि से उस्पन्च आशकारत्वं सवकम कांशलम्‌ , अघृणित्म्‌ ;
इदं होनी चाहिये । भौषध के योग्य भूमि का वर्णन करते दक्षुद्रपुत्रलम्‌; अद्धेविष्यं, दमो, जितक्रोधादिता;
इए सुश्रुत सू० अ० ३७ मे कषा हे- | सहिष्णुता चेति ॥ ५॥
श ्रशवारादमविपवस्मीकदमसानावातनदेवतायतनसिकताभिरनु- परिचारक ( सेवक ) के गुण--कषार्यो का पकाना अर्थात्‌
पहुतामनूषाममङ्मदूरोदकां रिनिग्धां प्रसेहवती मृदं स्थिरां समां जो ओषधि जदि को पकाने का कार्यं कर सकता है, आरोभ्य,
इष्णां गोरी लोहितां वा भूमिमौषधारथं परीदेत्‌ ॥ उपर्युक्त प्रकार क्ति, स्वामीभक्ति, उपचार को जानना अर्थात्‌ रोगी के भोजन
की भूमिम उत्पन्न दहोनेके वाद भी भौदयि स निभ्न के लिये यूष, रस्त, आदि बनाना, उसे सुराना तथारोगी की
होने चाहिये--तस्यां जातमपि दररहानदहमनो सेवा ( गणजंण ) का क्तान होना, निपुणता, पविन्रता, शीघ्र
संवाधमागेरनुपहतमेकरसं पुष्टं एथरवगाद्भूख्युदीच्यां चौषधमाददी- कायं करना, सव कार्यो में कुदारता, धृणा का न होना, ्युदर-
ेत्योषषभूमिपरक्षाविरेषः सामान्यः । वह ओषधि करुमि विष व्यक्ति का पुत्र न होना अर्थात्‌ करीन होना, जिसमें द्वैविध्य
आदि से अवित हो । काठे चोदुधतम्‌-प्रतयेक ओषधि योग्य ( दोगरापन्‌ ) न हो अर्थात्‌ इधर की बात उधर ओौर उधर
कारु में अर्थात रस, वीर्य, निपाक आदिकी इष्टि से पूरण की इधर न कहता हो, जिश्षने अपनी अपनी इन्दियो को व्च
परिपक्त हो जने पर ही तोडनो चाहिये! ओषयिो र के मे किया इभा हे, क्रोध आदि प्र विज्य पाई हई हैतथा
उखाडने के विषयमे सुश्रत सु०ज० ३७ मे कहा है- जिसमे सहनशक्ति दे-इन गुणोंसे युक्त परिचारक (सेवक)
सोभ्यान्यौषषानि सौग्यष्ृतुष्वाददीताग्नेयान्यामेयेयु, एवमन्यापन्च- रेष्ठ माना जाता है ! चरक सू० अ०९म कहा है--उपचा
गुणानि भवन्ति ' सौम्यान्यौषधानि सौग्यषटरतुषु गृहीतानि सोमराण-
रज्ना
दाक्ष्यमतुरागश्च भतेरे । शौचं चेति चतुष्कोऽयं युणः परिचरे जने ॥
भूयष्ायां भूमौ जता-यतिमधुरस्निश्धरीतानि जायन्ते । सोमगुण १ उपचार ( सेवा आदि )को जानना २ दक्तता २ सवामी.
कौ प्रधानता वारी जोषधि को सौम्य ऋतु मै तथा आग्नेय क्ति तथा ४ पविन्नता-ये ४गुण पस्विरकसें होने चाहिये।
गुण प्रधान ओषधि को आग्नेय तु मेँ उखाद्ना चाहिये ! सुश्रुत सू० अ० ३४ में भी कहा है-स्निग्धोऽजुयुष्छवंल्यान्‌ युक्तो
इससे वे पूरणं परिपक् हो जाती है ॥ ५॥ भ्याधितरक्षगे । वेचवाक्यक्रदभान्तः पादः पस्चिरः स्मृतः ॥ आज्ञ-
तत्रातुरसंपत्‌-साध्यरोगता, सतत्वबलबुद्धिशरी- कर परिचर्या के छ्यि पुरषो की अपेता स्त्रीपस्विारिकिाों
रन्द्रियध्रतितेजसां दार्यं, निदानपूवरूपातङ्कोपद्रवया- ( ५७९8 ) का प्रचरुन वढ़ रहा है क्योकि उनमें पुरषो की
` ्रोपशयानुपशयानां यथावदाख्यानं, धाया वा श्रहधा- अपेत्ता सेवा की भ्दति एवं सहानुभूति स्वाभाविक होती है
तथावे रोगीके कष्टको अधिक अनुभव कर सकती हे ।
नताः देवद्विजरारुभिष्ग्मेषजयुहृदामभिनन्दनम्‌ , चा. चरक में उपथुं्ठ
चिकित्सा के प्रत्येक
स्तिक्यं, बिनयप्रधानता, यथोक्तकारितवं बशिखं चेति। -गुर्णो का उर्रेख किया गया है । इस पाद्‌ के केवर चार
प्रकार चिकित्सा कै
रोगी के गुण-जिसका रोग साध्य हो, जिसका सत्व षोडञगुण माने गये हँ । इसल्यि चरक मे कहा है- कारणं
( मन ) बर, छदि, शरीर, इन्दिया, धारणशक्ति तथा तेज षोउस्चयुणं सिद्धो पादचतुष्टयम्‌ । |
दढ हो, जो निदान, पूर्वरुप, रोग, ` उपद्रव, शरीरयात्रा, इसी प्रकार अष्टाङ्हदय मेँ भी कहा है- चतुष्पादं षोडदा-
उपशय तथा अनुपश्य को यथावत्‌ बता सके, धात्री अथवा सकर भेषजमिति भिषजो भाषन्ते ॥७॥. | |
परिचारक में जिसे शरद्धा या विश्वास हो, देव, द्विज, गुर,
वेध, जषधि तथा मित्रं काजो अभिनन्दन ( सम्मान) तत्र शोकाः ।
करता हो, जो भासि्तिक्‌ हो अर्थात्‌ परमात्मा मे विश्वास रता अस्य्‌ पादचतुष्कस्य मन्यन्ते श्ेष्ठमतुरम्‌ ।
हो, जो विनयकशीरु ( नन्न ) हो, आक्ञाका पान करता हो तदथं गुणवन्तो हि त्रयः पादा इेप्सिताः ॥ ८॥
तथा जिसकी इन्दं अपने वश मँ हो अथात्‌ संयमी हो- | इन उपयुक्त चरो पादो मसे रौगीको श्रेष्ठ माना जाता
रोगाध्यायः २७ ] सूच्चस्थानम्‌ । २९
+५ पिक ^ 4+ ~
म, ~ ५ [व+ + 1 ^ ज, क त त शि व
=

वा व, क ^ +, + 9 + + + ~ ५७, ५, कि ^ त न ता ॥

है तथा उसी पाद्‌ (रोगी )के खयि अन्य तीनों गणी पादो | अव हम रोगाध्याय का व्याख्यान करगे! एसा भगवान्‌
( कैच, ओदधि तथा परिचारक ) की अपेक्ा होती दै ॥ ८ ॥ कश्यपने कहा था ¦ ॥ ऽ-२॥
नेति प्रजापतिः प्राहं भिषङमूलं चिकित्सितम्‌ । एको रोगो रुजाकरणसामान्यादिति मारवः प्रमतिः,
भिषम्बरो चरिवर्गो हि सिद्धिश्च भिषजि स्थिता । ६ ॥ ह्रौ सेगौ निजश्चागन्तुश्चेति वायोंविदः, चयो रोगाः
स युनक्ति प्रयुङ्के च शास्ति च ज्ञानचक्चुषा | साध्ययाप्यासाध्या इत्ति काङ्कायनः, चत्वारे सेगा चाग
तस्माञ्ज्ञाने सथिज्ञनि युक्तः शेषठतमो भिषक्‌ ।। १०|| नतुधातपित्तकफजा इति कष्मो भाद्वाजः पच्च रोगा
यदा चतुणौ पादानां संपद्धघति जीवक !| आगन्तुवातपित्तकफवत्रि दोपजा इति दासाय राजर्षिः
तदा धर्माथयशसां वेद्यो मवति भाजनम्‌ ॥ ११॥ पडोगाः षद्ूलत्वादन्नपानस्येत्यषिषद्ध.यः(१); सप्त रोगा
वैय की श्रेष्ठता का प्रतिपादन-ग्रजापति कश्यप ने कहा वाताचेकेकद्टित्रिदोषजा इति हिरण्याक्षः अष्टौ सेगा `
यह ठीक नहीं है । वस्तुतः चिकित्सा का मूल (प्रधान कारण ) वाताघचेकेकट्ठित्रदोषागन्तुनिमित्ता इति वेदेहो निमिः
वैय है 1 शेष तीनो पावे ङे दी आधीन हेते ह तथा तिद्ध अपरिसङ्कयेयाः समदीनाधिकदोषभेदादिति गद्जीवकः
( चिक््साकी सफक्ता) भी वेच पर दही निर्भरहे। वह एवमननस्थानसुपलम्याह भगवान्‌ कश्यपो-द्रावेव खलु
तेय ही ज्ञानचष्चुजो के द्वारा योजना (ओषधि आदिकी रोगौ निजश्चागन्तु, ताथनेकविस्तरावितति ।। ३॥
व्यवस्था ) करता है, उनका प्रयोग करता है, तथा श्चास्तन
परिचारक को निरदेश-( 716०४०० आदि >) करता है । इस सब प्रमति भागव ने कहा--रोग एक ही प्रकार का होता है
च्वि ज्ञान तथा चिक्ञान से युक्त वेच श्रेष्ठ माना जाता है । से। रोगो मेंपीडा (कष्ट ) के समानरूप मे विद्यमान होने
अर्थात्‌
हे जीवक ! जब चिकिर्षा के उपर्युक्त चारो पाद्‌ गुणयुक्त होते को सक्‌-वेदना के विद्यमान होने से ही प्रत्यक रोग
है तव वेच धर्म, अथं एवं यञ्च का भागी होता है । चरक सू० सामान्यरूप से रोग कहते हँ । वार्योविद ने कहा- रोग
निज ओर आगन्तु मेद से दो भकार ॐ हे । काङ्कापन ने कहा-
अ०९मभी वै की प्रधानता स्वीकार की गईं है--विजचाता रोग साध्य,
शासिता योक्ता प्रधानं भिषगत्र तु । पक्त हि कारणं पक्तर्था पत्रे- - असाध्य तथा याप्य मेद्‌ से तीन प्रकारे है!
न्धनानलाः ॥ विजेतुविजये भूमिश्चमूः प्रहरणानि च। ातुराया- ङष्णभारद ्वाज ने कहा-रोग आगन्तु तथा वात, पित्त ओर
कफ दोष के अनुसार चार प्रकारका है । राजिं दारुकह ने
स्तथा सिद्धौ पादाः कारणसंक्गिताः ॥ वेचस्यातधिकित्सायां प्रधानं
कारणं भिषक्‌ । सृदण्डचक्रगवाचाः कुम्भकारा्ते यथा ॥ न वहन्ति कहा -रोग आगन्तुक तथा वात, पित्त, कफ ओर त्रिदोष ॐ
मेदस पांच प्रकारका है (ऋषि षद्धय १) के भनुसार
गुणं वैचाद्टते पाच्रयं तथा ॥ चिक्रित्सासें प्रधान कारण व्ही
अन्नपान के षटूसयुक्त होने से रोग ६ प्रकार केह । हिरण्यात्त
ह हेष तीनों गौण हे कर्यो वैद्य के अभाव मेये ओषधि आदि ने कहा--रो ग सात प्रकार ऊँहै--वातादि दोषो से ए्थक्‌ तीन
सेगनिवारण म समर्थं नहीं होते । इसी भाव को सुश्रुत सु ( वातिक, पत्तिक,
अ०३४मे निम्न रूप श्रिया है-पेवहीनाखयः पादाः गुण- श्वेष्मिक ) द्विदोषज ८ वातपैत्तिक, वात-
वन्तोऽप्यपार्थकाः । उद्गावृहयो तृब्रह्माणो यथाऽध्वयुं विनाऽध्वरे ॥ श्टेम्मिक, पित्तश्ठेम्मिक ) तथा त्निदोषज । वैदेह निमिने
वैस्तु गुणवानेकस्तारयेदातुरान्‌ सद्या । प्लवं प्रतितं कृणंधार
कहा-रोग आर प्रकारके है । उपर्युक्त सात ॐ अतिस्ति
आठवां आगन्तु । ब्ृद्धनीवक ने कहा-दो्षों फे सम, हीन
इवाम्भसि ॥ उपर्युक्त गुणवान्‌ पादचतुष्टय की सहायता से रोगे
के प्रतिकार करने को चिकित्सा कहते है । चरक मे कहा है- भेदं तथा अधिक होने से रोग असंख्य हैँ वर्थोकि संसर्ग ते दोषो ॐ
अनेक हो जते हैँ । इस प्रकार अवस्था दोष ( गड़वड्‌ )
चतुणौ भिषगादीनां शानां धातुवैकृते । म्बृत्तिर्घासाम्यार्था
चिकित्सेत्यभिधीयते ॥ इसखिये इस अध्याय का नाम “चिकरि को देखकर भगवान्‌ कश्यप ने कहा-- वस्तुतः रोग निज ओर
आगन्तु मेदसेदोही प्रकारके । उनके ही अनेक प्रकार फे
त्सासंपदीयः है । ॥ ९-११९ ॥ ॥
विस्तारहदोजते्हे॥३॥ ` ` +
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥
इति चिकित्सासंपदीयोऽध्यायः षर्ड्रतितपः ॥ २६ ॥ हेतुप्रकरत्यधिष्ठानधिकल्पायतनार्थतः ।
एेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था । _
ज्ञेया रोगा असद्भःयेयाधिकित्सानां च विस्तरात्‌ ॥४।
अधिष्ठानद्रयं तेषां शरीरं मनणच।
. इति चिङ्किस्सासंपदीयोऽध्यायः षद्विश्शतितमः ॥ २६ ॥
मानसानां च रोगाणां कु्याच्छारीरषत्‌ क्रियाम्‌ ॥२॥।
रोगो क हेतु ( कारण >, भ्रङृति ( स्वभाव ) तथा अधि-
अ~ =. `

सप्रविरातितमोऽध्यायः। षान (आश्रय ) के भ्िकिल्प के कारण तथा चिकत्साङके


विस्तार के कारण रोग असंख्य माने जावे है अर्थात्‌ हदु, `
अथातो रोगाध्यायं व्याख्यास्यामः ॥ १॥ मरति आदि के मेद्‌ से ही रोगों के असंख्य भेद हो जाते ई । `
इति ह स्माह मगवान्‌ कश्यपः ॥२॥ . . .
शुं@ का्यपसंहिता का व्रृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ रोगध्यायः २७
वि त
५0१ का शा ~ त ५. ^ [का का, क +शा + का ^ व ^ ^ 0000

मानयिक सर्गो की भी शारीरिक रोगों की तरह ही चिकिसा ताभिचारामिशापासिषङ्गव्प्रधवन्यपोडनरञजुदहनमन्वासनिभूतो पस्-


करनी चाहिये । चरक सु० अ० २० मेँ भी कहा है--चतारो गादीनि, निजस्य तु युखं वातपित्तरषेष्मणां वैषम्यम्‌ ॥ ८ ॥
तेगा सवन्ति-आगन्तुवात पन्तरछेष्मनिमित्ताः। तेषां चतुणोमपि शापाभिचारादागन्तुर्निजा वातादिहेतवः।
रोगाणां सोग्लमरेकविधं सखसामान्यात्‌ । द्विविधा पुनः प्रकृतिरेषां वातपित्तकष्ठानां तु देहे स्थानानि मे शरण ॥ ६॥
आगन्तु नजविभागात्‌ । द्विविधं चेषामयिष्ठानं, मनःकरोरविधेषात्‌ !
८ इति ताडयत्रपुस्तके ४२ तमं पत्रम्‌ )
विकासः पुनरेषामपरिसंख्येयाः, प्रकृत्यथिष्ठानलिङ्गायतनविकस्प-
विशेषात्‌ . तेषामपरिसं व्येयत्वात। इसी प्रकार चरक सू० अ० १८ अब रतुमुक से इन वात, पित्त तथा कफ के देह में स्थानों
मे मी कहा है-त एवापरिसंख्येया भिचमाना भवन्ति हि। को सुन । अर्थात्‌ शरीर में वातादिकेकौनरसे स्थानद,
निदानवेदना ःभैस्थानसंस्थाननामभिः ॥ ४-५॥ इन दोर्षो के शरीर मे सर्वव्यापी होने पर मी इनके विशेष
स्थान तथा कर्म कहे जाते ई ॥ ९॥
धघतुस्थूणात्मवेषम्यं तदुदुःखं व्याधिसंज्ञकम्‌ ।
धातुस्थूणात्मसाम्यं तु तत्सुखं प्रकृतिश्च सा ॥ ६ ॥ स्वंगानामपि सतां प्रायः स्थानं च कमे च |
~ वात्‌, पित्त, कफ जादि तीन धातुरूपी त्रिस्थूर्णो की विष- अधोनाभ्यस्थिजनानौ दातस्थानं प्रचक्तते | १० ॥
मतासेही दुख होतेह! इसे ही ग्याधि (रोग) कहते है । पित्तस्यामाशयः स्वेदो रक्तं सह लक्षीकया ।
तथा धातुरूपी त्रिरथु्णो की साम्यावस्था ही सुख है तथा मेदः शिर उयो ग्रीवा सन्धि्बाहूुः कषाश्रयः । ११॥
यही वास्तव मेँ प्रकृति है ¦ अर्थात्‌ तीनो दोर्षो का समावस्था दारीर में वात के मुख्य स्थान--नाभि का निचला हिस्सा,
नेँहोनादही श्रकृतिया सुख है तथा इन्हीं की विषमावस्था अस्थि तथा मजना-वायु के स्थान कहे जति द । पित्तके
को रोग कहते हैँ । इसी संहिता के सूत्र स्थान के उपरब्ध स्थान--मामाश्षय, स्वेद, र्त, रुसीका ( 1"? ) ये पित्त
प्रथम रेहनध्याय म भी कहा है-अरोगास्तु समस्थुणा के स्थान हे । कफ के स्थान - मेद्‌, विर, छाती, म्रीवा, सन्धि,
वातिकायाः सदाऽऽत॒राः ॥ इसी प्रकार चरक सु० अ०्७्मेभी तथा बाहु-कफ के स्थान हैँ ॥ १०-११ ॥
कहा है--समपिन्तानिरकफाः केचिद्गर्भादिमानवाः। दशयने हृदयं त॒ विशेषेण शछेष्मणः स्थानमुच्यते ।
वाता केचित्‌ पित्तलाः ररेष्मलास्तथा ॥ तेषामनातुराः पूवे वात
लादयः सदाऽऽठुराः ॥ दोषों की समावस्था ही स्वस्थावस्था है । द्ामपक्राशयौ स्थानं विशेषात्‌ पित्तदातयोः ।। १२॥
हसी छिये चरक सू० अ० 9 मेँ कहा है-धातसाम्यक्रिया चोक्ता उपर्युक्त स्था्नो।के अतिरिकि हृदय कफ का विंरोष स्थान
तन्त्रस्यास्य प्रयोजनम्‌ ।॥ & ॥ माना गया है । तथा आमाज्ञय ओर पक्राशय कमश्चः पित्त
भौर वात के विशेष स्थान हैँ । चरक सू० अ० २० मं इनङ़
छअव्याहतशरीरायुरभिवधंत वा कथम्‌।
स्थानो का निश्च प्रकार से उज्ञेख किया गया है-तेषां तयाणामपि
इत्यर्थ भेषजं प्रोक्तं विकाराणां च शान्तये ॥ ७॥ दोषाणां इरौरे स्थानविमाग उपदेक्ष्यते, तयथा- बस्तिः पुरीषाधानं
चिकित्सा का प्रयोजन -शरीर तथा आयु की अभ्याहत कटिः सविथनी पादाप्रस्थीनि च वातस्थानानि, तत्रापि पकाशचयो-
रूपमे द्धि तथा पिका की शान्तिके लिये चिकङिस्सा कही विशेषेण वातस्थानं, स्वेदो रसो लकौका रुधिरमामाशयश्च पिन्तत्ा-
गई है । अर्थात्‌ चिकित्सा के दो प्रयोजन है- शारीरं तथा नानि, तत्राप्यामाशयो विषेण पित्तस्थानं, उरः शिरो यीवा पर्वा.
आयु की बृद्धि ( स्वस्थब्रत ) तथा २-उप्पन्न इए रोगों की ण्यामाञ्चयो मेदश्च दरेष्मणः स्थानानि, तत्राप्युरो विषेण इरेष्पणः
शान्ति करना । सुश्रत सू० अ० $ में कहा है-इद दखायुपेद- स्थानम्‌ । अष्टाङ्गहृद्थ सू० अ० ५२ मे भी कहा है-पक्रारायक-
प्रयोजनं-न्याध्युपसष्टनां व्याधिपरिमोक्षः, स्वस्थस्य रक्तणं च । टिसक्रिथश्रोत्रास्थस्यशनेन्दरियम्‌ । स्थानं वातस्य तत्रापि पक्राधानं
इसी प्रकार चरक सू० अ० ३० भी कहा है--प्रयोजनं चास्य विशेषतः ॥ नाभिणमाश्षयः स्वेदो लसीका सथिरं रसः । दृष्स्पसीनं
` स्वस्थस्य स्वास््यरक्चणमाठुरस्य विकारप्रशमनं चेति । आधुनिक नच पित्तस्य माभिर्रविशेषतः ॥ उरः कण्ठं शिरः कोम पर्वाण्यामा-
विज्ञान के अनुसार भी एष्छल्णरट तथा 0प्ण्मर्ट् दो प्रकार रयो रसः मैदो घराणं च जिह च कफस्य सुतयमुरः ॥ १२॥
की चिकित्सा मानी गड हे ॥ ७॥
निजागन्तुनिमित्ता च द्विविधा प्रकृती रुजाम्‌ ।
आगन्तुर्बाधते पूवंपश्चादोषान्‌ प्रपद्यते ।
नखदन्ताभ्निपानीयवधवन्धाधिदेवताः ( तः ) ॥ ८ ॥
निजस्तु चीयते पूवंपश्चादुषुद्धः भबाधते ॥ १३ ॥
आगन्तु तथा निज रोगो मेँ मेद्-आगन्तु रोग पहछे
रोगो की निज जीर आगन्तु ये दो प्रकृतिं (कारण ) दारीर को कष्ट पटहुचाता हैतथा उसके बाद वातादि दोर्बोको
होती है । इनमें आगन्तु रोगो के नख, दन्त, अभि, ब्षा, वध, उत्पन्न करता है । निज रोगो मे प्रथम दोषो का चयन होता `
बन्ध ( वाधना ), देवता, शाप तथा जभिचारकमे आदि है फिर उसके बाद शद्ध को प्राप्त होकर शरीर को कष्ट पटूचाते
कारण है । तथा निज रोगो के कारण वातादि दोष ह । अर्थात्‌ |ड । चरक सू० अ० २० मे कहा हैआगन्तु व्यथापूर्वसमुलन्नो
वातादि दोषों की विषमता से निज्ञ रोग होते ई । चरक सू जघन्यं वातपिम्तदकेष्मणां वषम्यमापादयति; निजे त॒ वातपित्त
अ० २० मे कटा है-सुखानि तु खस्वागन्तोन॑खदशनपतनाभिषा- दरेष्पाणः पूर्वंकेषम्यमापन्ते, जघन्यं व्यथामभिनि्वैत॑यन्ति ॥१२॥
सेगाध्याय्रः २७ 1 सृत्रस्थ {निस्‌ | 4
| १५. पिक ग ए. क क श व 0 ह)

तस्मादागन्तुरोगाणामिष्यते निजवत्‌ क्रिया । र



होती । मधुमेह आदि रो्गोमं इस्र अपर ओजा हयी चय
निलानं पूवंरूपाणि दृष्रा संशोधनं हितम्‌ ॥ १४॥ ` होता रहता है । आजकल के विक्तान के अजुसार कई विद्वान्‌
इसे जीचनीय दव्य, ८ एाध्ाण05 ) कदं 41017 तथा
इसख्ियि आगन्तु रोगो की निज रोगो के समान ही |कद्र इसे अण्डको आदि अन्थियोका खाव्‌ (1पष्लप्थ्‌
चिकित्सा करनी चाहिये तथा निजरोगो के पूर्वरूप को देखकर |1।। दित्लल््ठ ग ४6 +@्नज्‌€३, करभ्पंउ 920 7051906 >)आदि

संज्ञोधन करना चाहिये ¦ अर्थात्‌ यदि निज रोगेंके होने की मानते हँ । परन्तु आधुनिक विक्षान सें हसं अभीतक कोई भी
सेभावना हो तो रोर्गोके छकहर्णोके प्रकट होनेसेपूर्वही ेसा उपयुक्त शाब्द नहीं भिखा है जो ओज का ग्रतिनिधि हो
इनका दोष एवं कार के अटुसार संशोधन कर ठेना चाहिये ।
सकफे । श्री रामरक्त पाटकजी ने अपनी चरक की दीका
हृदि श्छेष्मानुपश्िष्टमाश्यावं रक्तपीतकम्‌ | इसके विषय में कई भिन्न २ प्रचकित विचार दिये है उर्होनि
तदोजो, वधेते जन्तुस्तदुघ्रद्धौ, दीयते क्षये | १५॥ सूत्र स्थानके ५७ वं अध्याय मै इसका विस्तृत विवेचन
ओज किसे कहते है-ररेष्माः से रहित, ङ रखाख्मि क्ियाडै । विशेष ज्ञान के स्यि जिक्षासु पार्क हसं विषय
तथा पीरापन चयि हुए जो श्वेत पदार्थं हृदय से रहता है उसे को वहां देखें ॥ १९ ५
ओज कहते है ! उस ओज की दृद्धि से प्राणी छी बृद्धि होती है मधुरख्िग्धशीतानि लघूनि च हितानि च । ,
तथा उसके कय होने पर प्राणीच्षीण हो जाता है। चरक सू ओजसो वधेनान्याहुस्तस्माद्रालास्तथाऽऽशयेत्‌ ।*१&॥ `
४२ %

अ० १७ मेँ ओज का निश्च वर्णन किया है--हदि तिष्ठति यच्छुद्धं ओज की रद्ध के साधन-मधुर, लिग्ध, शीत, लधु तथा
रक्तमीष सपीतकम्‌ । ओजः रररे संख्यात तन्नाशान्ना विनयति ॥
हितकारी पदार्थं ओज की बुद्धि करने वारे है । इसलिये
इसी प्रकार सुश्रुत सु० अ० ५५ मे भी कटा है--मोजः सोमा- वारको को इन पदार्था का सेवन करायें ॥ ऽ६ ॥
त्मकं स्निग्धं शुक्छं छीतं स्थिरं सरम्‌ । रिविक्तं म्रदु मृत्स्नं च
म्राणायत्तनखत्तमम्‌ ॥ देहः सावयवस्तेन व्याप्तो मवति देहिनाम्‌ । वृद्धिवणेबलौजोभिमेधायुःसुखकारणम्‌ ।
तदभावाच शीयेन्ते ्रीराणि चरीरिणाम्‌ ॥ यह जज प्राणायतन बातादिसाम्यं, वेषम्यं विकारायोपकल्पते ।। १७॥
( जीवन का कारण >)है । यह सम्पूर्ण देह मँ व्या होता ह । वाताहि दोर्षो की समानता से शरीर की बद्ध, वणे, वर,
इसके अभाव में प्राणियों के देह नष्ट हो जते है । करई विद्धान्‌ खोज, जाठराभि, मेधा, आयु तथा सुख की प्राचि होती है
इस आज को अष्टम धातु मानते हैँ । सुश्रुत सु० अ० १५ तथा इनकी विषमता से विकार ( रोग ) उन्न हो जते हँ ।
कडा है--““तन रसादीनां शुकरान्तानां धातूनां यत्पर तेजस्तत्‌ चरक मे कहा है-पिकारो धातवेषम्यं साम्यं भकृतिस्च्यते ।
टल्बोजस्तदेव ठकमित्युच्यते"' रख से छेकर शुक्र पर्यन्त धातुओं सुर्संज्ञकमारोग्यं विकारो दुःखमैव च ॥ १७ ॥
का जो परम तेज है उसे ही ओज कहा है ! इसी को बर भी
कहते हँ । वस्तुतः वर जौर ओज सें मेद्‌है । परन्तु सामान्य. तेषामपरिमेयानां विकाराणां खलक्तगैः ।
तया दोनो मे अभेद माना है क्योकि शरीर मे बर की उत्पत्ति । ्आविष्करुततमान्‌ व्याधीन्‌ यथास्थूलान्‌ प्रचद्दमहे | १८॥
का प्रधान कारण जोजदही है तथा जजकेक्षयसे वरुका उन असंख्य विक्रयो मसे अपते२ रुचर्णो सहित हम
सबसे अधिक हास होता ह । ओज फे विषय में पराचीन अरन्थों असिद्ध र तथा जो स्पष्ट है उन व्याधिर्यो का वर्णन करगे ॥९८१
म भिन्न र वर्णेन मिक्ता है । आधुनिक विद्वान्‌ भी ओज फे शन्तुपेत्तिकाः ।
विषय मं एक मत से अभीतक ऊद्‌ नहीं कह सके ह ।
अशीतिर्बातिका रोगाश्चत्वारि
चक्रपाणि ने चरक की टीका में दो प्रकार का भज माना हे- विंशतिः कफजाः प्रोक्ता बातरोगान्निबोध मे ॥ १६ ॥
““एतेन द्विविषमोजो दशयति परमपरं च । तताज्ञरिग्रमाणमपरम्‌ इनमे बात के ८० पित्त के ४० तथा कफ (र्रेष्मा) कै _
अल्पध्रमाणं तु परम्‌ । अ्धांजङ्पिरिभितस्यौनसो धमन्य एव हृदया- २० रोग है । चरक सु अ० रण्मेमी इतने हीरोर्गोका
रिताः स्थानम्‌, तथा प्रमेदैऽर्षाज्जल्पिरिमितमैनौजः क्षीयते, नाष्ट- परिगणन छया गया है-तचधा-जशीतिर्वातविकाराः, चत्वारि ङ-
विन्ड्कम्‌ ! अस्य हि किचित्तयेऽपि मरणं भवति, प्रमेह त॒ गजः त्पित्तविकाराः, विति वङेष्मविकाराः ॥ १९ ॥
क्षये जीवत्येव तावत्‌ । भोजः क्षयलक्चणमपि अर्धाजञल्योजः क्चय एव पादभ्रंशः पादशूलं नखभेदो विपादिका ।
बोद्धञ्यम्‌” । इसका पूणेरूप से निश्चय न होने पर भी यह्‌ तो पादसुपिर्वातखुडो वातगुल्फोऽनिलयहःसद ॥ २०॥
स्पष्ट है किं ओज शरीर मे एक अत्यन्त महत्व का पदार्थ हे । गृध्रसीपिर्डिकोद्रे्ठौ जाुविष्छेषमेदको ।
पर-भोज हृदयाश्रयी जीर अष्टविन्दु मात्रा वाखा है । इसकी
ही कमी होने से मनुष्य की खष्यु हो जाती है । अपर ओज उरुस्तम्भोरुसादौ च पाङ्गुल्यं बातकस्टकः । २१॥
गुदरभशो गदा्तिंश्च वृषणात्तेपकस्तथा । ।
धमन्याश्रयी है--उसकी कमी हो सकती ह, उससे स्यु नहीं
जेफःस्तम्भः श्रोणिभेदो ब॑क्तणानाहनिडगदौ (दग्रहय) ।॥
१. दरेष्मणाऽसम्पृक्तमित्य्थः एतदेव यन्थान्तरे विशुद्धपदेन उदावर्तौऽथ कुब्जत्वं वामनत्वं त्रिकमहः । =
दरितम्‌ ।
पृष्ठः पाशवश्ूलमुदरवेष्टहदूद्रवो ॥ २२॥
& काण०
७२ काश्यपस्ता वा दृद्धजीवकीय दन्त्रम्‌ । [ रोगाध्यायः २७
५ तन्न्‌द लर किष
-णाणतामनोत नाितत नन . गणयतः 1

पा कि १५ 9५. क ता 0

हृन्मोह वक्तसस्तोदो देद्रसपरोघके | |काश्चन न होना) ४७. रसान्नता ( जिह्ाको रस का्ञानन


) ४८. वधिरता ४९. उचैश्रवण (उचा सुनना)
्रीवारतम्भो बाहृशोषः कर्टोद्ध्वंसो हनुप्रहः ।। २४ ॥। होना
५०. कर्णशूर ५१. अ्ञव्दता ( शब्द्‌ का मालूम न पड्नां
दन्तचालौष्टमेदौ च बुकबं वा्रहस्तथा । ` अथवा शब्द्‌ न होते इए भी शब्दौ का सुनाई पड़ना)
कषायास्याप्यश्तोषौ च घ्राणनाशो रशाज्ञता ।। २५॥ ५२. वर्मसंकोच ( वरस्म-परर्को का सुकडना अथवा खो न
बाधियं एच्चेः श्रवर्णं कणश भरब्दता । सकना ) ९३. विष्टम्भ ५४. तिमिर ( नेन्रपटरु का रोग)
चत्मसंकोचविष्म्भौ तिमिरं शूलमच्निषु ॥।२६॥ ५५. अरिश्रूक ५६. अङ्ञिच्युदास (आंख का उपर चदा
व्युदासो भ्रन्टुदासश्च शद्खमेदः शिरोरुजा । रहना ५७. जब्यदास (मौज का उपर चटा रहना) ५८. शङ्ख"
स्फुटनं केश भृमेश्च दर्डकाते पकोऽर्दितम्‌ ॥ २७॥! मेद ८ शङ्खदेश-ए९7०८०। 2९2०2 से वेदना ) ५९. किरोरजा
एकाङ्गकः पतवधः ्रसश्रमविज॒म्भिकाः। ( क्लिर मे पीडा ) ६०. केश्चभूमिस्फुरन ( वार्खो की जडो का
पटना ) ६१, दण्डकारेप ६२. अर्दित ( ९९618} ४८९४1815 )
प्रलापो वेपथुग्लानी रौं निद्रापरिदयः।। २८ ॥ ६३. एकाङ्क ( एकाङ्गवध ) ६४. पत्तवध ( पक्ताघात
श्याघासणावमासस्यमनवस्थानमेव च । ६५. श्रम ( थकावट ) ६६. श्रम ( चक्कर आना 61061685
दिक्छाश्चासौ धिषादश्च चन्ध्याप्वं षार्ट यमेव च ॥२६॥ ६७. विज॒म्भिका ( जंमाईं ) ६८. प्राप ६९. वेपथु ( कम्पन )
„ भवतु मेरे से कवातसेगो को सुन-१. पादश्च ( जहां ७०, ग्छानि ७१ कता ७२` निद्धापरि्त्य ( निद्रानाश्च )
पैर को उटाकर रखना हो वहां न पड़कर अस्यत्र जा पड्ना ) ७२. श्यावारणावभासता ( ज्ञरीर अथवा अङ्गो का श्याव तथा
२. पाद्श्रूरु २. नखमेद्‌ ४. विपादिका ( विवाई फटना) अरुण वर्णं का होना ) ७४. अनवस्थान ( चित्त का स्थिरन
५. पादसुक्ि ( पैर का सोजाना-स्पर्च ज्ञान न दोना ) ६. वात होना ) ७५. दिक्छा ७६. श्वास ७७. विषाद्‌ ( अग्रसन्नता
छुड (खुड-पेर तथा जंधा की सन्धि से वात का प्रकोप होना ) ७८. वन्ध्या ( बांक्षपना ) ७९. षाण्व्व ( नपुंसकता » तथा
७. वातगु्फ ( गुरफ = गिद्धे-+”:)< मेँ वातप्रकोप >)८ अनि. ८० प्रतिश्याय-ये प्रधानरूप से वातिक रोग है । चरक सू
ख्य्रह (वायुके द्वारा शरीर शा पकड़ा जाना) ९. गृधी २० भी ख्गभग इन्हीं ८० वातसेगो का परिगणन किया
( रींग बाथ-ऽ००)०8 ) १० पिण्डकोद््ट ( पिण्ड्या म उद्भ. गाया है- तत्रादौ ,बातविकायनवुन्याख्यास्यामः, तयथा-नख-
टन ) ५१. जानुविश्रेष ( जानुसन्धि-६ ०९९ शण का दीखा देदश्च, विपादिका च, पादशूलं च, पादर्थरश्य, पादछहता च वाताः
होना >) ९२. जालुभेद्‌ ( घुरट्नो मं पीड़ा होना) १३. उर्स्तम्भ सुदता च, युरर्यहश्च पिण्डिकोद्व्टनं च, गश्रसी च, जानुभेदश्च,
१४. उरुसाद्‌ ( जघार्गों की शिथिलता >)१९. पांगुस्य (पंगुख- जानुपिरलेषश्च, उरस्तम्मश्च, उरसादश्च, पङ्कस्य च; गुदभलद्वः
ङैगड़ापन ) १६. वातकण्टक १७. गुदं ( ?101915€ ° गुदातिदस्च, दृषणोत्देपश्य.शेफःस्तम्मश्च, वडक्षणाचाहश्; भ्ोरिभेदश्च
4४५ ) १८. गुदातिं ( गुदा म पीडा ) १९. बृषणातेप ( अण्ड- विडभेददच, उदावैदव, जत्वं च, ( ङुग्जत्वं च, ) वामनत्वं च,
7९०६४०९ का नीचे न उतरना ) २०. द्ोफःस्तम्भ ( जननेन्दिय तरिकयहस्च, परषटग्रहदच, मीवावमदस्च, रदराष्टश्च, हम्मोहस्च,
की जडता ) २९. ्रोणिभेद्‌ (कटिं पीदा ) २२. वंक्तणानाह ोद ); बाइरो-
हृद्‌द्रवद्च, वत्त उद्धषस्च; वक्ष उपरोधदच ( वक्षस्तरच
( वंक््ण प्रदेश-9प्ण" म आनाह ) २२. विड्गद्‌ या विडग्रह षर्च, गरीवास्तम्भस्च, मरास्तम्भरच, कण्ठोद्ष्वसदच, इनुस्तम्भस्च,
( मरूरोग या मङ्बन्ध >)२४. उतावतं २५. कुञ्जता (ङुबडा- आओमेदरच ( क्षिभेददर्च ), दःतभेदर्च, न्तदे थस्यं च, मूकत्वं
पन्‌ >) २६. वामन ( दिगन। होना ) २७. त्रिकग्रह (त्रिकम्रदेश- च ( गद्गदत्वं च ); वाक्रसङ्गद्च, कषायास्यता चः. मुखरोषदचः
8००४८०५ का जकड़ा जाना ) २८. परषठग्रह (८पीठ का जकड़ा अरसज्ञता च ( अगन्धतता च, घ्र'णना्ञद्च ), कण शूं च, अखब्द-
जाना ) २९. पाश््व्॑रूर २०.उदरावेष्ट (पेट मै अवेष्टन-मरोड़ा अवण च, उच्ेःश्तिस्च, बाधियं च, वत्म॑स्तम्भर्च, वत्मेसंकोचद्च,
होना ) ३१. इृदूद्रव (हृदय का स्फुरण 9100110४ तिमिरं च, अक्षिशूलं च, अक्षिःयुदासस्च, भृग्युदारच, राङ्खमेद स्च,
८ €914 ) ३२ हृन्मोह ( प्रद 91106 ) १३ वेष्ततोद्‌ (दती लकाटभेदद्च, शिरोरुक्‌ च, केशमूमिस्फुरनं च, अरदतं च, एका-
या पुप्फुस मे सूचीवेधवत्‌ पीडा ) २४. वच्ोदधषं (छाती ङगरोगदच, सर्वा्गरोगश्च ( पक्षवधश्च ) अक्षिपकश्च, दण्डकश्च, अमश्च,
घषंणवत्‌ पीडा भथवा फुपफुस मे घषणवत्‌ शग्द्‌ 016]0118.410085 भ्रमश्च, वेपथु, जम्भा च, पिषादश्च ( दिक्षा च, भ्रतिप्रलपश्च,
का होना) ६५. च्ञ उपगेधक (दती का र्का इभा ग्लानिश्च, रोक्षयं च, पाश्ष्यं च, रयारास्णावभासता च, अस्वप्नश्च,
अनुभव होना ) ३६, म्रीवास्तम्भ ( गद॑न का अकड़ जाना- अनवस्थितत्वं चे-यशीतिर्वातविकासया वातविकाराणामपरिसंख्येयाना-
व0पण्णाऽ या पणन 0ष्लः ) ३७. बाहुश्लोष ( बाहुं का माविष्टततमा व्याल्याताः ॥ २०-२९ ॥
सृख जाना ) २८. कण्ठोध्वंस ( स्वरसेद्‌ अथवा शुष्क कास ) प्रतिश्यायः शरस्यश्च प्राघान्येनानिलात्मकाः ।
३९; हनुग्रह ४०. दन्तचारु ( दाता का हिर्ना ) ४१. आोष्ठ- तेष्यलुक्तेषु चान्येषु वायोः स्वं रूपमुच्यते ॥ ३०॥
मेद्‌५२४२. मूकता
मूक ( गंगापन >) ४३. " बाग्प्रह
वाग्म्रह (घाणी रका स्क
जाना-वोरु न सकना ) ४४. कषायास्यता ( मुख का स्वाद्‌ शोध्य रौद्यं लघुत्वं च गतिश्वेत्यथ कमं च |
कसा होना ) ४५. भास्यश्चोष ( युलशोष-मुख का सुख
4
विशदारुणपारुष्यसुधिसंकोचवैरसम्‌ . ३१॥
जाना ) ४६. प्राणना ( गन्धकशक्ति का नष्ट हो लाना-गन्ध कम्पनम्‌ ।
शूतोदकषायत्वशोषियेखर
सूच्रस्थानम्‌ । ४२
रोयाध्यायः २७ ]
न क न = = श नन ।श त त व + + +
1 1 1 ल = १ ज, ० पि ककि ^
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विधान दिया गया है ! आस्थापन तथा अनुवासन का वात


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सादहषौं काश्य॑वटेउ्याससरंसनभेदनप्‌ ।। ६२॥। विकासे को ज्ान्त करने म विरेष स्थान है \। ३३ ॥


इन उपर्युक्त रोगो के अतिरिक्त अन्य जिनका नाम नौ द्रोषः पोषो भ्रमो दाहो वसधुरूमकाम्लकौ |
छया गया हे उन रोगो मे वायुकेजो ठक्तण होते है उनका च्न्तर्दालि असेऽस्यौषण्यमतिलेदोऽङ्गरादकः ।। ३४
वर्मन किया जाता है अर्थात्‌ उपर्युक्त नामों द्वारा परिगभित
सेगो क अतिस्किभी ज वायुके रोग होते उनमे निन. तग्दाहः शोणितङ्घेदो सांसक्तेदोऽद्कशीये (र )णम्‌ ।
रत्तो को देखकर कहा जा सकताहे कि यह वायुका मांसपाकश्वमेदलो रक्तविस्पःटमण्डलते \} ३५ ॥
ही रोगहे। वायुका अपना रूपया रुकण--सीतः रुकः रक्तपित्तं च कोठाश्च कया हदारिद्रनीलके ।
रघु, गति ( चरुना-एक स्थान से दृखरे स्थान पर जाना । कामला तिन्तप्रक्च्सवं रक्तगन्धास्यता तथा ।} ३६ ॥
वायु के म्म -इस प्रकार फे खूप वाली वायु के शरीर के भिन्न त्मतृश्चिः पूतिवक््रलं जीवादानं तस्ठृषा ।
सिन्ञ अवयवो स प्रविष्ट होने पर निम्न रुकषण होतेह | मेद्पायुगलष्दास्यपाकेः हारिद्रमूत्रविद्‌ ॥ ६७ ॥
विज्लदता, अरूणता, परषता ८ कणेरता ) सुति ( सुत् हो
ज्ञाना या स्पर्शक्तान का न होना), संकोच विरसता पित्त के ४० विकार-१- ओष ( सवांङ्गीण तीवदाह-
( संह का स्वाद विगङ़ जाना ), शल, तोद्‌ ( सुचीवेधव- जिसमें स्वेद एवं अरति हो ) २. प्ठोष { प्रादेशिक दाह-जेसे
स्पीडा ), कषायता ( मुंह का स्वाद केका होना ) शषिरता अग्नि हारा होताहे) ३. अम ४. दाह (तीन सन्ताप)
( चिद्रयुक्त होना ), खरता (शरीर की कक॑श्ता ), कम्पन ५. वमथु ( वमन >) & धूमक (शिर, गीवा, आदिमं धुंजा
सा उखना ) ७. अग्छूक ( अन्तदाह तथा हृद्यश्युखयुक्त
( शरीर का कपना >)साद्‌ ( किथिरूता ), हषं (स्थानभेद्‌ से
उकार ) ८. अन्तर्दाह ( शरीर के अन्द्र या कोष्टञादि मं
रोमहर्ष, दन्तहर्ष, ध्वजहषं आदि ), करदाता, वतं ( गोर
करना ), श्यास ( विस्तार या फैकना ), चसन ( अपने स्थान जकन ) ९. उवर 9०, अति उष्णता ( तार्पां्ञ का अधिक
होना ) ११ अतिस्वेद ( पसीना अधिक जाना ) ५२. अङ्गदाह
से थोड़ा हिना), मेद (अङ्कभेद), उद्वेष्टन (ठन), दंश, भङ्ग
८ अङ्खो मेँ जखन ) १३. सवग्दाह (स्वचा मेँ जकन) 5४. शोभि.
( हना ) तथा श्ञोष ( सूखना }-ये वायु के कम्‌ के हैँ । पतला होना )
चरक सू० अ० २० मेँ कहा है-सर्वष्यपि खरःतेएु वातवि- तक्छेद्‌ (रक्त का काला, दु्गन्धियुक्त तथा
कारेपूकतेष्वन्येषु चानुक्तेषु वायोरिद मामरूपमपरिणामि कर्मणश्च १५. मांसक्केद्‌ ( मांस का काला तथा दुर्गन्धियुक्तं होना-
स्वरक्षणे, यदुपलभ्य तदवयवं वा विसुक्तसतदेदा वातपिकार मेवाध्यव-
२०४०९००४ हो जाना ») १६. अङ्गक्षीरण ( अङ्गा का टूटना )
स्यन्ति कुशलाः; तथथा~-रौक्ष्यं लाधवं वेशं शेयं गतिरमूतितवं १७. मांसपाक १८. चर्भदर १९. रक्तविस्फोट ( खारु चकनत्ते-
चेति वायो पत्मरूपाणि, एवंविधत्वाच्च कमेणः स्वलक्षणमिदमस्य ?.3168 » २०. रक्तमण्डर २१ रक्तपित्त २२. कोठ ( रक्तंकोठ )
भवतति तं तं चरीरायवमापिरतः; तचथा-स्ंसभ्रंचव्यातामेद- २३. कन्ला ८बाहु, पाश्वं, अंस आदि में उत्पन्न इदं पीडायुक्त
काली २ फुन्सियां-^०५५९ 1९1110}19.06€01133 0१ {16 1६ 511 1
हरष॑त्षवत॑मद॑कम्पचाकतोदव्यथाचेष्ठादीन ; तथा खरपदषविदषषि- 2165 अथवा चरक ओर अष्टाङ्ग संग्रह के वणेन के अनुसार
रतारुणकषायविरसमुखश्चोषशुट सधिसंकुत्रनस्तम्भनखजतादौनि च
वायोः कर्माणि, तैरन्वितं वा्तधिकारमेताध्यवस्येत्‌ । ३०-२२ ॥ इसे पऽ ४०७० कह सकते दै ) २४. हारि ( हल्दी के
वर्णका होना) २५ नीलिका २६. कामला ( पीञ्यि-
उदिदं शभङ्गाश्च शोषश्चानिलकमं तत्‌ । (५००01०6 ) २७. तित्तवक्त्रस्व (सुखका कडवा स्वाद्‌ होना)
मधुराम्लोष्णलवणस्तत्रोपक्रम इष्यते ॥ ३३ ॥ २८. रक्तगन्धास्यता ८ मुख मे रक्त की गन्ध आना )
२९. अतृक्षि (भोजन में दृि न होना) २०. पृतिवक्त्रता ( सुख
वातविकारो की सामान्य दिङितव्सा-इन वाततविकारों का दुरगन्धियुक्त होना) २१.
जीवादान (जीवरक्त का निकरूना)
ङी दान्ति के स्यि मधुर, अम्र, उष्ण तथा रुवणरस युक्त ३२. तम ( आंखो के सामने
अंधेरा प्रतीत होना ) ३३. ठृषा
पदार्थो का उपयोग करना चाहिये । चरक सु० अ०२०मं ( अधिक
प्यास ) २७ मेदपाक (मूत्रन्दिय का पकना)
(गरेका
५. पायुपाक ( गुदा का पकना ) ३६. गरपाक
कहा है-तं मधुरम्नल्वणरिनग्योष्णेरपक्रमेरपक्रमेत स्नेहस्वेदास्था-
पनालुवासन नश्
नाभ्य्ोत ्तादतःक ोज
दि भिव तदरोमीतं
नपरिषेका्मभ पकना >)३७. अर्िपाकू ( नेत्रो का .पकना ) २८. आस्यपाक
) २९. हारिदरभूत्र (मूत्र काहरा होना)
काल च प्रमाणीकृत्य; आस्थापनानुवासनं ठु खड सरवोपक्रमैभ्यो ( मुख का पकना मल का हरा होना )-ये ख्य २ पित्तरोग
(
` वाति प्रधानतमं मन्यन्ते भिषजः, तद्धया'दत एव॒ पकारयमनु- ४०. हास्द्िविद्‌
सु० अ० २० मेँ पित्त के निम्न ४० रोग गिनाये
परविरय केवरं वैकारिक वातमूकं श्छिनक्ति, तत्रावजिते वातेऽपि कटे ह । चरक उध्वं व्याख्यास्यन्ते; त्था--भो षश्च
शतीरान्तम॑ता वातविकाणः म्रक्ान्तिमाषयन्ते, यथा वनस्पतेमूटे है--पित्तमिकाराश्चत्वारिशदत › अन्तः |
प्ठोषश्च, दाश्च, दवशुस्च, धूमकस्च, अम्ककर्चः विद।हुश्च
चने स्कन्धशाखावरोषुसुमफल्पटाश्चःदीनां नियतो विनारस्त- दहर्व ( अङ्गदाहश्च ) उष्माधिक्यं च, अतिस्दस्व, (अङ्गरइदश्च))
दत्‌ । उपर्युक्त मघुरादि पदार्थौ के सेवन के अतिरिक्त स्नेहन,
छज्गगन्धश्च, अङ्गावदरणं चः शोणितक्लेद र, मांसक्केदश्च, त्वम्दाहश्चः
स्वेदन, आस्थापन, अनुवासन, नस्य, भोजन, अभ्यङ्ग, उत्साः
चमा वदरणं च, रक्तकोडाश्च । रकि, `
दन, परिषिक आदि वात्र उपक्रमो इरा चिक्त्खि का | मांसदादृशच, त्वगवदरणं च,
ः काश्यपसंहिता वा वृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ रोगाध्यायः २७
7 गि 0 पौ त ^ 0000 0 का क नि कि कका का सा का क क सा का अ कि क + + ~ का ।

र्फोटाश्च ); रक्तपित्तं च, रक्तमण्डलानि च, हरित्वं च, हारिद्रत्वं च, स्तैमित्यं गुरताऽङ्गस्य निद्रा्न्द्रादिदप्रयः।


नीलिका च, कक्षा च, कामला च, तिक्तास्यता च, ( छोदहितगन्धा-
युखमाधुयसंखाघकफो
द्वारबलन्तयाः । ४१ ॥।
स्यता च ), पूतिता च, तृष्णाया च्राधिक्यं च, अत्पिश्च, आस्य-
हृल्लासोऽथ मलाधिक्षयं धघमनीकण्ठलेपकौ ॥ २ ।
पाकश्च; गर्पाकश्च, अश्चिपाकश्च, युःपाकश्च, मैद्पाकश्च, जीवादानं
च, तमः प्रवेदयश्व, हरिरदहारिद्रमूत्रनेत्रवचैस्त्वं चेति चत्वारिदासिपन्त- श्ामं च गलगण्डश्च बहिसाद उददकः |
विकासः पिन्तविकाराणमपरिस्तख्येयानामाशिष्छरेततमा भवन्ति २४-३४ श्ेतावभासताऽङ्गानां तथा मूत्रपुरीषयोः ॥ ४३ ॥
इति प्रधानाः पित्तात्येः, स्वं रूपं तस्य वनद्दयते । कफ़ क २० विकार--१- स्तिमितता ( गीरे वख से अङ्गो
कं आच्छिदित होने की तरह प्रतीत होना ) २--शरीरेका
लाघवं तेद्स्यमौष्एयं च वर्णाः शक्तारुणादते ॥ ३८ ॥ भारीपन ३- निद्रा (नींद की अधिकता
४-तन्द्रा
वैगन्ध्यं कटुकाम्ललमीषद्नेहश्च पित्तनाः | ( आस्य ) ५--अतितृ्ि (पेटका शीघ्रही बदुक्त भरा
दाहोष्णपाकम्रस्येदकर्ड्ूकोटस्चघादिभिः ।! ३६ ॥। मालूम पड़ना ) ६-सुखमाधुय ( सुख का स्वाद मीडा होना )
अव पित्त के अपने खूप ( कक्ण ) कहै जाते है ७-संसाव ( युखचाव-ुख से रारान्लाव होना ›)८--कषफो.
जिनं देखङर यह कहा जासके कि यह पित्तरोग ही है- पित्त दरार ( कफ का वाहर निकल्ना-कफ का थुकना ) ९--बलू-
के अपने रूप-रुघुता, तीच्ता, उष्णता, शुक्छ तथा अरूण कय ( बर्‌ का क्षीण होना ) $०--हल्ञास ( जी मचराना )
वणे को छोडकर अन्य वर्णो वारा होना, वैगन्ध्य (जामगन्ध), ११--मलाधिक्य ( मर फी अधिकता ) १२--धमनीरेपक
कटु, अग्क, ईषत्‌ सनेह ( अधिक रसिनिश्ध न - होना )-ये पित्त ( धमन्यो का श्टेष्मा से रिक्त रहना >) १६-कण्टङेपक
के ऊअपने रूप हैँ । पित्त के कर्म--इन रूपों वारे पित्त ऊ ( कण्ठ का श्रेष्मा से रिश्च रहना » १४--आम ८ जाम रस
शरीर के भिन्न २ अवयवो मे भरविष्ट होने पर निम्न रक्षण का उत्पन्न होना ) १५-- गरगण्ड ९६--वहिसाद (अभिसाद-
होते है--दाह ( जलन ), उष्णता ( गमप ), पाक जाटराि का मन्द्‌ होना) १७--उदर्दं १८--्वेतावभासतां
( पकना-ऽपएप्प 60 ), प्रस्वेद (८पसीना ), कण्डू, कोट ( अङ्गा का सफेद मालूम पड्ना ) १९- श्वेतमूत्र (सूत्र का
तथा खाव इत्यादि पत्तिक विकारो के क्म ईह । चरक रंग सफेद . होना--?10४63 0फए1< अथवा 410
सू अ० २० मे कहा है- सर्वेष्वपि खल्तेतेपु पिन्तविकारे- के कारण ) र०--श्वेतपुरीष ८ मर छा रंग सफेद होना-
ष्वन्येधु चानुक्तेषु पिन्तस्थेद मात्मरूपमपरिणामि कम॑णश्च खलक्षणं, आंव-् प्ण के कारण ) असंख्य कफ़रोगों मँ से इन २०
यदुपलभ्य तदवयवं वा विमुक्ततन्देहा पित्तविकारमेवाध्यवस्यन्ति प्रधान रोगो का उज्ेख किया गया हे । चरक सू० अ० २० सँ
कुशलाः, तचथा--ओौष्ण्यं तेक्ष्यं राघवमनतिस्नेहो वर्णश्च शुक्टा- मी कफ के ३० रोग गिनाये है--रछे"ममविकारंश्च वितिमत
रणवर्जो गन्धश्च विच रसौ च कटुकाम्लौ पिन्तस्याप्मरूपाणि। एर्व- | ऊध्वं व्याख्यास्यामः, तचथा-ठृप्िश्च, तन्द्रा न, निद्राधिक्यं च,
विधत्वाच्च कमणः स्वलक्षणमिदमस्य भवति तं तं शरीरावयवमा- ।स्त मित्यं च, युरुगाघता च, बालस्य च, ुखमाधुय च, सुखसावश्,
२१ ५ श्रा ॥ न्यः

विक्षतः, तयथा--दाहोष्ण्यपाकसेदव्ेदकोधावरागा यथास्वं च | रष्मोद्धिरणं च, मरस्याधिक्यं च, कण्ठोपकेपश्च, बलासश्च, हृदयो-


गन्धव्णैरसाभिनिवतंनंपित्तस्य कर्माणि, तैरन्वितं पित्तविकारमेवा- पलेपश्च, धमनीप्रतिचयश्व, गर्गण्डं च, अत्तस्थौख्यं च, रीताथिता
ध्यवस्येत्‌ । ३८-२९ ॥ | च उद्द्श्च, दवेतावमासता च, दवेतमूत्रनेववर्च॑त्वं चेति विंशतिः
विद्यात्‌ पिनत्तविक्रारातं कमेतत्‌? तदुपक्रमः | दटेष्मविकाराः इकेष्मव्रिकाराणामरपरिसंख्येयानामाविष्छृतमाव्या-
कषायतिक्तमधुरसखेहसरंसनशोषणाः ॥ ४० ॥ स्याताः ॥ ४१-४६ | |

इनकी सामान्य चिकि्सा--इन पित्तविकारो की शान्ति


कफजानामसंख्यानां प्रधना; परिकीर्तिताः|
के स्यि कषाय, तिक्त एवं मधुर दव्य तथा स्नेह, सखंसन सह श्यगुरुश्वेतमाधुय कफलत्तणम्‌ ।। ४४ ॥
(विरेचन) ओर शोषण आदि का उपयोग करे । चरक सू अ० श्छच्णता चामयोत्पत्तौ तस्य कर्माणि च्ते |
२० मं इनकी निग्न चिक्रित्सा दी हैतं मधुरतिक्तकषायश्चीते- स्रेदादि चिरकारित्वं बन्धोपचयमुप्रयः।॥ ४५ ॥
रुपक्रमेर्पक्रमेत्‌ स्ेहविरेचनप्रदेहपरिषेकाभ्यज्गावगाहादिभिः पिन्त-
दर मातां कालं च प्रमाणंक्ंत्य विरेचनं तु सर्वोपक्रमेभ्यः पित्त कफ के रक्षण या अपने रूप- स्निग्धता, शीतता, भारी-
पन, श्वेतता, मधुरता तथा श्ष्णता ( चिकनापन ›)ये कफ
प्रधानतमं मन्यन्ते भिषजः; तद्धयादितं एवामाश्चयमनुप्रविदय केवलं
वेकारिकं
के र्षण हैँ । कफ के कर्म--कफ फे रोग उस्पन्न होजाने पर
पित्तमूलं चापकष॑ति, तत्रावजिते पिन्तेऽपि शरीरान्तगैताः
स्नेह आदि ( शरीर में स्निग्धता होना ), रोम के रु्तर्णो का
पित्तविकाराः प्र्ान्तिमापयन्ते, यथाऽञ्नौ व्यपोहे केवरुम्िगृहं
चिरकारीन होजाना ( अथवा चिरकारित्व-प्रसयेक कायं धीरे २
शीतीमवति तद्वत । मधुर, तिक्त, कषाय जादि दध्यौ ॐ उपयोग
के अतिरिक्त विरेचन, अदेह, परिषेक, अभ्यङ्ग तथा अवगाहन करना ), बन्ध, उपचय ( उपचित-संचित होना ), संपि
आदि पित्तहर क्रियाभों का विदोष अयोग बताया गया हे । ( शरीर का स्प्चं ज्ञान रहित होना ) तथा विष्टम्मये कफ के
` पैत्तिकः रोगो भे विरेचन का विरेष कर्म ह । चरक सू० अ०२० में का है--सवेभ्वपि तु खख्वेतेषु
स्थान ह ॥ ४० ॥ | रलेष्मनिकारेष्वन्येषु चानुक्तेषु दलेऽमण इदमास्मरूपमपरिणामि कर्म
रोगाध्यायः २७ ¦ सूत्रस्थानस्‌ । ६५

परश्च स्वलक्षण, यदुपलभ्य तदवयवं वा विसुक्तसदेद्याः दलेष्मविकार- उदारतां अतीसारः, सवेसर्पा अथामयाः ।। ५४ ॥
मेवाध्यवस्यन्ति कदलः, तयथा-दवैत्यदत्यस्तेहगौरवमाधुयं. मेहिनां पिडकाः कुष्ठं सर सपोपलक्येत्‌ ।
मात्स्यानि र्टेष्मण आत्मकूपाणि, एवंविधत्वाच्च कर्मणः स्वटक्तण- । श्क्रदोषा; पयोदोषा भूत्राचातोदराणि च || ५५॥
मिदमत्य भवति तं तं रसरीरावयवमाविश्चतः, तचथा--स्पेत्ये-
क * =.

त्यकण्डुस्यैयगौरवस्नेहस् तम्भ
पदेहवन्धम स्िक
ादयं चिरकार ित्वानोि ¦ अष्टावष्ट दन्त्येतान्‌ महस्त दरा कीतितःः।
्लेद
४४-४५ ॥ |
योनिन्यापत्छृमिमेहान्‌ विंशतिं विंशति धिदुः ।५६।।
दटेष्मणः कर्माणि, तेरभ्वितं दटेष्मविकारमेवाध्यवस्येत्‌ ॥ यह रोगो का प्रकरण यहां खमाक् सही इजा है ।
भ (~ ।
विष्ठम्भश्चेति, तच ज्ञः कषायकदटुतिक्तकेः | अभीं उन रोगो का उपदेश्च कष्या जिनके ल्यि अगे
रक्तोष्णश्चाप्युपचरेन्मात्राकालौ विचारयन्‌ ॥ ४६ ॥! चिकित्सा स्थान कहा गथा दै अर्थात्‌ जिनका विष्ठिता

इनकी सासान्य चिकिव्ला- विद्वान्‌ चिकित्सक को चाहिये स्थान में वर्मन किया ग्या) वे रोग निर्न है-
किमान्ना ओर कालका विचार करते हुएकफके रोगोकी एक २ रोग महागद, सन्यास तथा उरहस्तम्भम ८ महा-
शान्ति के स्यि कषाय, कटु, तिक्त, रुक्त, तथा उष्ण दर्व्यो गद को चरक मे अतव्वाभिनिवेश कहा है अर्थाच निससें
तथा स्नेहन, स्वेदन ओर पञ्चकर्म का प्रयोग करे । चरक सु तस्व का यथावत्‌ त्न वहो )-येष्करेरेगोतेदहं। दोर
अ० २० म कहा है- तं कटक तिक्तकषायतीक्ष्णोष्णरूकतटपक्रमेर. रोग-उवर, बण, आमदोष, गृध्रसी, कामला, वातक्ञोणित
रमेत स्वेदनवमनदितेविरेचनन्यायामादिभिः दलेष्महरेमतां ( बातरक्त-(ण्णः ), अद्यं, आयाम ( अन्वरायाम तथा
कालं च परमाग्दक्रत्य, वमनं त॒ सर्वोपक्रमेभ्यः ररेष्प्रणि प्रधानतमं वाद्यायाम )-ये दो २ व्याधियां हँ 1 तीन २ रोग--वातास्क्‌
मन्यन्ते भिषजः, तद्धवादित एवामाक्ञयमनुप्रविदय केवकं वैकारिकं ( वातरक्त ), भित्र ( किरक्च-कुष्ठ रोग ,) तथा शोधय
रटेष्ममूरमथवषति, तत्रावजिते इरेष्णण्यपि शसीरान्तगताः ररेष्म- तीन र रोग है! चार र रोग--ग्रहणीरोग, अक्षिरोग, कर्णरोग,
विकासः ग्र्ान्तिमापचन्ते, यथा--भिन्ते केदारसेतौ सारियवषष्टि- सुखरोग, अपस्मार, प्रतिश्याय, शोषो के कारण ( साहस,
कादीन्यनभिष्वन्दमानान्यम्भसा प्रश्ौषमापयन्ते तद्वदिति । उप्त वेगरोध, क्य, विषमासन ), मद्‌, मूच्छ तथा क्छीवता-ये
कषाय तिक्त, आदि कर्यो के उवयोग के अतिरिक्त स्वेदन, चाररसेग है! पांच २ रोग~-तृष्णा, ददि, श्वास, कास,
वमन, शिरोविरेचन, व्यायाम आदि कणनाश्ञक क्रियां द्वारा गर्म, प्ठीहा, अरुचि, न्यथा, हिक्का, उन्माद, शिरोरोग,
कफः की शास्ति करे । कफरो्गो की शान्ति के लिये वमनका हृद्रोग तथा पाण्डुरोग-ये पाच २ प्रकार ङे होते) & प्रकार
प्रधान स्थान माना जाता हे ॥ ४६॥ क़ रेग--उतावतं तथा अतिसार ¦ सात २ रोग- विसर्प॑रोग,
मधुमेह की पिडका ( 09"0010163 ) तथा कुष्ठ ये सात २
खेहस्वेदोपचारो च तेषु कर्मांणि पच्च च | होते है! आट २ रोग--शुकदोष, कीरदोष, मूत्राघात तथा
वातच्रानां तु सर्वेषामनुवासनगुत्तमम्‌ ।। ४७ ॥ उद्ररोग-ये आठ होतेर्है। दस प्रकार के रोग-~-ग्रहरेग
( इति ताडपत्रपुस्तके ४४ तमं पत्रम्‌ । ) १० होते हैँ । २० प्रकार के रोग--योनिरोग, कमिरोग तथा
सव वातघ्नं पदार्थ एवं क्रियाओं मे अनुवासन, पित्तन्च भमेह-ये बीख्च २ होते हँ । इन सव रोगाधिकरर्णो का चिकरि
पदार्थौ एवं क्रियाओं सें विरेचन तथा रश्रेष्मघ्च पदार्थौ एवं त्सास्थान के हेतु से यहां संकेप से उक्छेख किया गया हे ।
क्रियाजें से वमन श्रेष्ठ माना गया है ॥ ४७ ॥ इस प्रकार यहां एक रे रोगके तीन वर्ग, दोर के आढ,
तीन रके तीन, चार्‌ २के जठ, पाच रके पन्द्रह, छुः२के
पित्तघ्ानां विरेकश्च वमनं श्लेष्मघातिनाय्‌ । दो, सातर् के तीन, जठर के चार, दस का एक तथा बीस र
येषां चिकित्सितस्थानमर्थे तु परिकीर्तितम्‌ ॥ ४८ ॥ के तीन वं दिये हे । चरक सु० अ० १९ (अष्टोद्रीय अध्याय)
तांस्तु रोगान्‌ प्रवद्यामि न छत्रेतत्त्‌ सम।प्यते । म इनका विस्तार के साथ वर्मन क्रिया गया है । विदोष ज्ञान
महागदोऽथ संन्यास उरुस्तम्भस्त एकशः ॥ ४६ ॥ के खिये जिज्ञासु पारक इसे वहीं देखं ॥ ४८५६ ॥
उर त्रणामगृध्रस्यः कामला वातशोणितम्‌
अशास्यपि तथाऽऽयामो द्विविधा व्याधयस्तु ते ।५०॥ ` एते समासतः प्रोक्ताश्चिकिः्सास्थानदेतवः !
वातासकचिव्रशोथ।स्तु त्रिविधाः परिकीर्तिताः | पूरवोद्धवनिमित्तेन योऽपरो जायते गदः ।¦ ५७॥
ग्रहर्यक्षिविकाराश्च कणरोगां सृखामयाः ।। ५१॥ उपद्रव का रक्तण--पूवं उत्पन्न व्याधि के साथ पीद्धे चे
दपस्माराः प्रतिश्यायः शोषाणां हेतवो सदाः । ` जो दूसरा रोग हो जाता हैउसे उपद्रव कहते ह जिस प्रकार . `
ञ्वर मं पी्े अतिसार हो जाताहे। सुश्चुतसूु० अ० श्म
चतुर्विधास्ते निर्दिष्टा मूर्च्छा कतेन्यानि चैव हि ॥ ५२॥ कहा हे-“तत्र, ओपसतमिवो यः पूर्वोत्पन्नं व्याधिं जवन्यकालजातो
तष्णच्छदिश्वासकासगुत्मद्ीदयरुचिन्यथाः | ग्याधिरूपस्नति स तन्मूलमूरक एवोपद्रवसंज्ञः” । जो परे उतन्न `
दिक्षोन्मादशिरोरोगा हृद्रोगाः पाण्ड्संज्ञकाः ।। ५३ ॥। इद व्याधि के उत्तरकारु ( बादमें ) उत्पश्र होता है तथा
एते पञ्चविधाः प्रोक्ताः, षडिवधानपि मे र । पहरे भ्याधि के मूरुमे ही जिसका मूर (कारण) हैउलै
४६ काश्यपसंहिता वा वृद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । [ रोगाध्यायः २७
प शा
क + छा+)छ +
कि क छ छ क, क + का 8 १ 90 (शि
ह अ

भी प्रकुपित हो जाता है । सुश्रुत सुऽ अ० २५ मै कहा भी है-


[का क चा क का का का क क प का क

उपद्रव कहते हे । चरक सें इसका निम्न रक्तण दिया दै-


उपद्रवस्तु खल रोगोन्तरकाल्जो रोगाश्रयो सग एव स्थूलोऽगुवा पिन्तत्रकोपणैरेव चाभीष्णं द्रवस्निग्धयुरमिराहारेदेवास्वप्नक्रोधान-
सेमातपश्वाजायत इति उपद्रवसंकञः। आजकल के विद्वान के लातपश्रमाभिधाताजौ्णैविर्द्धाध्यशनादिभिविरेषेरखय्‌ प्रकोपमा यते॥
३6०९ का
अनुसार ६6५०४ ्प्प ०01001०8 ५058 ६४५. वेव्यसंतापशिरोक्तिरोगदोवल्यदीगन्ध्यतमः प्रवेशाः ।
६ ९ ९ ~ {~ र नेषु

अन्तर्भाव उपद्रव, शव्द से होजाता है ॥ ५७ बेसपंघिद्रध्युपजिहगुल्मरक्तप्रमेदभरदरातिनिद्राः ।।६३॥


तञुपद्रवमित्याहुरतीसासो यथा ज्वरे । सन्दाभनिता सोतसां पूतिभावः
चिकित्सितं तथोसपत्ति तेषामेके प्रचक्घते ¦! ४८ ॥ स्वरक्तयः स्वेदमदानिलास्रक्‌ |
उपद्रवाणामिव्येके पूवंनेत्याह कश्यपः । तृष्णाऽरुचिः कुष्ठविचचिकाश्च
उभयत्रैव य्युक्तं पानमोजनमे षजम्‌ ।। ४६ ॥ कण्ड्वः सकोटाः पिडकाः सकर्डवः ॥६४।।
शान्तये तत्‌ प्रयुज्गीत न वर्धेते तथा द्युभो । रक्तजरोग- विवर्णं (रक्त की कमी से सारोरका रङ्ग
यं वा तीव्रतरं प्येद्व्याधिं विद्वान्‌ खलक्णेः ॥।६०॥ ` सफेद्‌ हो जाना ), सन्ताप, शिरोरोग, अक्िरोग, दुबरुता,
तमेबोपक्रमेतादौ सिद्धिकामो भिषग्वरः | दुर्गन्धि, तमःप्रवेश ( अन्धकार मेँ प्रवेश करने के समान
उपजिह्धः गुल्म, स्तम्रमेह
उपद्रवो की चिकिष्सा-कुच विद्धान्‌ कहते हँ क उद्पत्ति प्रतीत होना ) विसर्पं, विद्रधि, ), प्रद्र, अतिनिद्रा,
( मूत्र के साथ रक्त आना-पष्लणष्नः
क्रम क अनुसार ही रेर्गो की चिकित्सा करे अर्थात्‌ जो
सुख्य रोग पहले इजा है उसकी परे तथा_ उपद्रव (जो मन्दाग्नि, खतो मेँ दुर्गन्धि आना, स्वरक्तर ( 1" ४3 ),
सेद्‌, मक, वायु, वृष्णा, अरुचि, कुष्ट, विचच्चिकाः कण्डू, कोठ,
पीठे से अनुबन्ध खूप में हुजा है ) की पीठे चिकित्सा करे ।
पिडका तथा इन रोगो के अतिरिक्त अन्य भी बहुत से अयुक्त
तथा कधं आचार्यं कहते हँ कि इनसे से उपद्रवो की चिकित्सा रोग रक्त चिकार सेहो जते । सुश्ुत सू०अ०रेभ्मे निश्च
पहर करनी चाहिये । भगवान्‌ कश्यप कहते ह- यह दीक
र्छज रोम गिनाये है--ष्टविसपंपिडकामशकनीखिकातिल्काल-
नहीं है । उनके मत मे दोनो ( मूरष्याधि तथा उपद्रव ) दान्यच्छग्यङ्खन्द्रु्तष्टीहविद्रधिखस्मवातशोणितार्शोऽबुदाज्गमर्दाखग्दर-
करी ही शान्ति के लिय उचित अक्नपान तथा भेषज का इस रक्तपचध्थतयो रक्तदोपजाः गुदजुखमेदूपाकाश्च । इसी प्रकार
प्रकार से प्रयोग करे किदन शान्तो जायं तथा दोनो मं
चरक सु० अ० रपम भी निम्न रक्तज दोष दिये है--कुष्वी-
से कोई भी बढ़ने न पवे । अथवा सफलता को चाहने बे
्दरः । गुदमेद्स्यपाकश्च प्लीहा युर्मोऽथ
चिक्िस्यक को चाहिये कि जो व्याधि अपने तीव्र (उग्र सपंपिडका रक्तपित्तमसण
4०४४९ >)रूप सँ हो उसकी पहर चिकित्सा करे अथात्‌ जो विद्रधी ॥ नौलिका कामला व्यङ्गं पिप्ल्वस्तिलकालकाः । दहुश्वमंदलं
व्याच अधिक तीव्र रूप में हो उसकी चिरस्स पहरे करे । श्वित्रं पामाकोराघमण्डङम्‌ ॥ रक्तप्रदोषाञ्जायन्ते ॥६२-६५॥
उसके शान्त अथवा मन्दवेग होजने पर पीडेसे दृसरे रोग अन्ये च रोगा धिषिधा अनुक्ता
की चिकित्सा की जा सकती हे ॥ ५८-६० ॥ स्तेष्वादितः खंनमेव पथ्यम्‌ ।
यो हेतुः पित्तरोगाणां रक्तजानां स ए तु । ६१॥ बेसर्पवच्चात्र वदन्ति सिद्धं
शोणितं कुपितं जन्तुं छ्िश्नाति बहुभिरुखेः । ६२ ॥ रक्तायसेकं च विशोषणं च ॥ ६५
रक्तज रेगो के हेत तथा चिकित्सा--पेत्तिकरोगो के जो रक्तज दोषो की चिकित्सा--इनमें सवरथम विरेचन देना
कारण है, र्तरोर्गो के भीकारणवेही द! कुपित हुआ रक्त चाहिये । इसकी विसपं के समान चिकित्सा की जाती है
प्राणियों को अनेक ग्रकार से कष्ट देता हे । तथा इसमें रक्तमोक्तण ओर शारीर का शोषण किया जाता हे ।
वक्तव्य-जिन कारणो से पित्त प्रकुपित होता हे उन्हीं रक्तमोक्तण करते समय सश्चत सू० अ० १४ निम्नवार्तोका
से रक्त मी प्रकुपित होता है । हमारे प्राचीन शाश्च मे पित्त ध्यान रखने को कहा गया है-तस्मात् जीते नाप्यु्णे नास्विन्ने
कोरक्तका ही सर माना गयाहे। सुश्रुत--सू० अ० ४६. नातितापिते । यवागूं प्रतिपीतस्य शोणितं मोक्षयेद्धिषक्‌ ॥ रक्त
म कहा है--कफः पित्तं मलः ले सेदः स्या्नलरोम च । नेत्रविट्‌ मोक्षण व्यन्त दीं अथवा अत्यन्त गमी मेन करके चाधारण `
त्वह्लु च स्नेष्यो धातूनां कमशो मलाः ॥ कफ, पित्त आदि कऋमशः ऋतु मे करमा चाहिये ॥ ६५ ॥
रसरक्त आदि धातुओं फे मरू हँ । पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार न स्वेव बालस्य विशोषणं हितं
, भी पित्तकारक्तसेही निर्माणसमानागया हे । पभा 0१३
0055010४ मेकहा हि-1.16' ०९]]3 9.6 व्ल 0फ्थलपा98
नेवातिसंशोधनरक्तमोक्षणे ।
0) 10185108 80 €[€00172€ € 6005४ ० लिग्धैः सशीतेमधुरेरदाहिभिस्त-
€ 1]€- 8116 ए ्ण€ा४8 6 10764 दत एं&ण<१5 , | तरोपचारोऽशनल्ेपसेचनेः ।। ६६ ॥
परस्पर `
एण्य परण 01000 60195665, पित्त जर रक्तकासे ही इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः |
घनिष्ठ संबन्ध है । इसीरियि पित्तमरकोपक कारणो रक्त , दति रोगाध्यायः सक्तविशतितमः ॥ २७ ॥
रच्णाध्यपयः २८ | सृश्रस्थानम्‌ । ४७

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प्रजाहीनाः, चिपिटाः पारदारिकः । अङ्कलीनखपादेदौ-


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[कक वा+ व)
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[0 शा छ, छा, छ कि

वेर्वायुषो, हसवैहसायुपः । चअङ्कलीभिवेनाभिभाग्य-


बन्तो, गृढहपर्वाभिर्भोगिनः, स्थूल्प्वायिरचायः, लोम
शाभिरधनाः । खरपरषततुविषमरदटितमलिना
उपचार करना चादहिये। रेखा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था॥६६॥ प्रशस्ता । उतर्पादयुन्नतससिरमलोमक प्रशस्य
।¦ पाष्णिर
इति रोगाध्यायः स््विङ्षतिततमः ॥ २७ ॥
ते, विषमं विपयीत्तं च दस्कयणाम्‌ ! शुल्फो मूढावल्पा-
बलोमसिसै भ्रशस्येते, धननाशायोल्वणौ, खिषुलौ परि
अ्ाविरातितसमोऽध्यायः क्लेशाय ¦ प्रजङ्घा तन्वी प्रशस्यते, स्थूला पतिपुत्रद्रञ्य-

अथातो लन्तणाध्यायं व्याख्यास्यामः ।। १ ॥ सुख्तयकरी स्तेनाय च । जङ्धे चाुद्रू> असिरे अलो-


इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥ । निके परशप्येतते, शष्कस्थूलसिरालोमसे चिपरीते, वेध
व्र हम रुकणाध्याय का व्याख्यान करेगे । एला भगवान्‌ व्यकर्यौ तु नारीणाम्‌ । जाञचुनी च गृहे धन्ये । ऊरू
कश्यप ने कहा था ! अर्थात्‌ इक्र अध्याय मेँ वाको के शरीर मांसोपचितौ गूढसिरौ णौ प्रशस्येते । स्फिचौ
मे होनेवाङे भ तथा अद्युभ रचर्णोका वर्णन किया जायया ॥ निवरंतालम्बौ
भगवेज्लक्तणेर्बाला श्रायुष्मन्तो भवन्ति केः । ८ इति ताडपत्रपुस्तकरे ४ तमं पत्रम्‌ । )
सुखिनो दुःखिनः केः कंवद्यो दिदयादनायुषः । ३ ॥
। , षष अ न्दो

निर्रणावललोमशावविषमौ प्रशस्यते, शष्काबनपत्यानाः


कति सन्यानि मर्प्यानां सनानां लनणं च किम्‌ 1 लम्बनो प्रधाननाशाय, महान्तौ पौश्चल्याय, अल्पक
प्रशस्तं निन्दितं देहे यद्यत्तत्तदिहोच्यताम्‌ । ४ ॥ शीलबताम्‌ । कङ्कन्दरौ गम्भीरावलोमशौ प्रविभक्त
भगवन्‌ ! किन र्णो से.वारुक आयुष्मान्‌ होते ह अर्थात्‌ समो भ्रश्येत, लोमशौ प्रतरञ्याये, प्रदक्तिणावतें तु
किन लक्षणो को देखकर बालक के दीर्घायुष्य का ज्ञान हो षां, शिलष्टाषनायुषाम्‌ । जघनसु-
सकता ह १ बारखको के सुख, दुःख तथा अनायुष्य (कम जायु) धन्यौ, विपुलौ दीर्घायु
का ज्ञान कैसे हो सकता हे ? मचु्यो के कितने सस्व होते है ! रसा तुल्यं प्रशस्यत इत्येके । छुमाराणाञुरसतु विशाल-
सर्वो ॐ र्षण क्याह१तथा अन्यमभी शरीरम जोजो तर, जघनं तु कुमारीणां, न तु मध्याय कल्पते । वृषणौ
प्रशषस्त एवं निन्दित माव हो उन का आप उपदेज्न कीजिये॥ प्रलम्बौ ब्रहतौ गौरस्य, ष्णो क्रष्णस्य, गोरो रक्तस्य;
पच्ावदानवचनं श्रुखा प्रोषाच कश्यपः । श्यामौ श्यामस्य, रक्तौ लोमशौ मध्यौ स्मृतौ, पीनौ
करर ल्तणधिज्ञानं सत्वं निन्दितपूजितम्‌ ॥ ५ ॥ प्रशस्यते, विपरीतौ दौर्माग्यपुस्खम्रजाहयनिकरौः खल्पा-
इन उपर्युक्त पांच प्रशस्त वचर्नो (प्रश्नो ) को सुनकर वनायु, दुःखाय चैके, गोखरहयाजाधिकाछृती तु
महिं कश्यप ने सम्पूणं छन्तण -विन्ञान, सत्व तथा अन्य सुभगानामायुष्मतां च विज्ञेयौ । प्रजननं मृदु दीघु-
निन्दित एवं प्रहस्त भार्वो का उपदेश किया ॥ ५५ चितं ब्रहत्ताम्रनिवरेत्तमणि महाकोशं महास्रोतः भरश-
इह खदु कुमाराणां व्रद्धजीवक | स्निग्धतनुन्छदण- स्यते, तलु हसं लम्बि;त्रिकोशं चतश्या्विस्तं वामाघर-
तास्रा नखा अधिपत्याय भवन्ति; स्थूला खचार्यांणा, तमप्रशस्तम्‌ । मूत्रसनाजिद्धमतुकमनल्पमजुवेगं प्रश-
राजीमन्तश्च दीघांश्चायुष्मतां, निस्रशक्तितुषाकृतयो स्यते, तद्िपरीतमतिगन्धि सवेदनमत्युष्णं वि्णेमनि-
दरिद्राणां, रूक्ता दुःखभागिनां, पुष्पिता.दर्ठानां, चता मित्तकालमशब्दमप्रशस्तंः.कन्यकानां च स्फालितमूत्र-
मण्डला अनायुषां, स्फुटिता अस्वतन्त्राणां, विवणां त्यमुभयोर्वाऽनपत्यकरम्‌ । योनिः शकटाकृतिरपत्यला-
व्यसनिनां, समुन्नता निपिर्डान्ता अल्पाः सुखभागि- माय, पीना सौम्याय, लम्बाऽपत्यवधाय; मण्डला
नां, विपुलेनैखेमेध्यत्वमाह, स्थूलाः श्वेता . विषमाश्च ठ्यसिचरणाय, उच्तिक्वाऽनपत्यत्याय; सूचीमुखी दौर्मा-
प्रनाजयन्ति ! पादैः पीनैः सुप्रतिष्ठितैरूष्व॑जेखेरायुष्मन्तो ग्याय, श्रशविवृतसंघ्रतशष्का लम्बा विषमा विलिङ्गा
धनबन्तोऽधिपतयः, सस्तिकलाङ्गलकमलशङ्कचक्रहय- क्लेशलाभाय, मभ्यनिविडा कन्य्रनननायः उन्नता
गजरथप्रहरणमङ्गलाङ्किते राजानः, तामैः ल्लिग्धैः रमणीया मांसलाः पुत्रजन्मने, व्यज्ञनवती च धन्या,
सुभगाः, उत्ु(त्कोटकेमेध्यधनायुषः , श्ेतैरधनाः, अले- द्रतिलोमशा वैधव्यकरी, व्यञ्नहीना त्वयशसेः
खे: परकमेकराः बहु्ेखे रोगिणः, स॒चृत्तछदणपार्धिण- पिष्टमदढसाघती व्यमिचारभन्रञ्यायै । तथेव लोमराच्यु-
भिः सवंगुणोपपन्ना भवन्ति, दीनपाष्णिभिरनायुषः भयतो मभ्यमागता नातिचना प्रशस्यते, वेधन्यायाति-
४८ कार्यपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ छन्तणाध्यायः २८
^ + क क छ, काक
0 0 0 क क
क त, +

स्थूला, अतिस्थूलयनज्ञेसा पोँशचस्यायः अधोजाता खीणां चातिदीर्घाश्वातिहस्वाश्च निन्दिताः । केशभूमिः


लर्माम्याय, नाथिपतिवर्ता मध्यल्वाय । कदी समुन्नतो सिग्धा लोहिता निमेला निव्रेणां च प्रशस्यते ॥
प्रशस्येत, लोमशौ “प्रत्रज्याये, सिरालौ भोजनाय; मन्तगजवुषभसिहशादलहंखगतयोऽधिपतयः; स्ति-
लासिनः,
निघ्न दारिद्रयाय, समौ सध्यस्यायर; दक्निणोन्नतौ पुत्र मितगतयो धन्याः चपलगतयश्चपलसुखदुःख प्रश-
जन्मने, वामोच्नकतै दिपरीतौ । ईषटु्नतसदरमशिथिल- तियेगतयस्त्वधन्याः स्खलनाश्चाङ्गविर्फोटिनश्चा
मकटिनमश्रिपलं प्रशस्यते, दारि द्रचाय शुष्कम्‌ ; उन्नतं स्ताः । तथा, अतिगौरमरिकषणमतिदीधेमतिहस्वमति-
भोगाय, विशालतियसं विषमशीलभोगाय कल्पते; छृशमतिस्थूलमतिलोमशमलोमशसतिश्दरतिकटिनं च
भरशष्कसनपत्यं;- खियाश्चाधस्तादुपचितमसिरमतिवि- शरीरेष्व(रम)प्रशस्तमुच्यते । तथा बालानां रुषितस्‌-
पुलमवलिकसनायुषे?; मध्यं नाभेरुपरिष्टादनायुपे, एक- दितस्यप्नप्रजागरकोधदषयिसर्ग॑दानपङ्किस्थेयगाम्भीर्या-
वलिकं घन्यं, हिवलिकं बुद्धिलाभायः च्रित्रलिकं सोभा णि युक्तानि गुणाधिकानि प्रशस्यन्त इति । ६ ॥।
हे बृद्धजीवक बालकों के दीर्घायुष्य के निम्न कक्तण होते
ग्याय, चतुवैलिकं {परजायुषे, चहुवलिकमधन्यमनायुषे है-नख- स्निग्ध, तनु ( पते >)चिकने तथा ताग्न वणं के
मवत्युदरम्‌ । नाभिः गम्भीरा प्रदक्निणा वृत्तोत्सङ्गिनी हो तो बारूक अधिपति (राजा या स्वामी >) होता है । स्थुल
लोमसिसायतैवर्जिता प्रशस्यते, गर्ताकृतिरलन्नता सुखः नलो तो आचार्यं होता दहे! रेखायुक्त तथा दीघहोतो
दःखक यी, विषमे च्चताऽनायुष्या; स्ल्पाछृतिरनपत्याः आयुष्मान्‌ ( दीर्घायुष्य वारा ), नख नीचे छुके इए, शुक्ति
विदेशस्था भ्रत्राजयति, इती गम्भीरोन्नताऽऽधिप- ( सीप )तथा हषृति हो तो बालक दरदः सूकरो तो
व्याय 1 नाभ्या पायुर्व्याख्यातःः। पाव इत्ते मांसले स्नि- दुखी, एुमिपत ( पुष्पो की गन्धरूप अरिष्ट लक्षणो से युक्त
हौ तो दण्ड व्यक्ति, शवेतवणं के तथा मण्डराकारहो तो कम
ग्वे अलोमसिरे प्रशस्यते, लोसिरे प्रत्राजयेते ॥ पष्ठ आयु बारा, स्फुटिते इए हो तो पराधीन, विवहो तो
सममुपरिविशालससिरमलोमकमनावतेकं भ्रश्यते; स्यसनी, उन्नत (उ इष ), किनारे पर सुडे इए या गोल
मध्ये निश्नमायुष्मतां, निभुग्नं दुःखभागिनांः संक्ञिप्तम- तथा द्रे हौं तो बार्क सुखी होताहै। नख विपुरु्दोतो
नायुषां, लोमशममैतराणामल्पापत्यानां च । लोमस्कन्धो वह मध्य श्रेणी का होता है तथा स्थुरु श्वेत एवं विषम हो
वरिग्भारजीधी कितो रङ्गजीवी बाः शुष्कांसो दरिद्रः, तो बारख्क अमणक्चीरु होता है । पाद्‌ ( पैर-२००४ )- मोटे,
तावुभौ दीर्घायुषौ कदाचित्‌ प्रतरजेतामपि; स्निरधांसः अच्छी रकार प्रतिष्टित तथाउपरकीमोर रेखां बेह
कथकः, पीनांसधमाख्यः, कटिनांसः शूरः, शिथिलांसो- तो बारु्क आयुष्माच्‌, धनवान्‌ तथा अधिपति ( स्वामी )
होते ई! स्वस्तिक, लाङ्गर ( हर ›)कमर, शंख, चकर, घोड़ा,
ऽस(श)क्तः; उन्नतांसः पुमान्‌ प्रशस्यते, अष्टंसा कन्या;
हाथी, रथ आदि मङ्गक्कारी प्रहरणो से चिहित होतोवे
विपरीते तद्गणहानिः। कच्तावुत्नतौ प्रुलौ पीनो सुव्य- बाखुक राजा होते है । ताम्न वणं एवं चिकने हौ तो रेश्र्यश्ञारी
खनौ प्रशस्येते, विपरीतावधन्यौ, श्रृशलोमशौ च होते है । यदि पैरयुडे इए होतो मध्यम { खाधारण ) घन
नारीणाम्‌ । तथा बाहू च्ालुपूर्योपचितौ गृढारत्री दीर्घो एवं आयु होती ह । यदि उनके पैर श्वेत तोवे निर्धन,
जानुसपशौ प्रशस्येते, सिराततावायुष्मतां, पकम (त्‌). रेखाओं से रहित हो तोवे दस्यो का काम अर्थात्‌ नौकरी
वन्तौ प्रजावताम्‌ , असिरावप्रजानां, तियेकसिरौ ( दासत्व ) करने वारे, बहुत रेखायं हौ तो वह रोगी;
रच्छजी विनां, तिलवन्तौ्र्राजयतः, मशकलनतृणवन्तौ गोर तथा चिकनी एडी वार्ह तोवे सर्वगुणसम्पन् न; यदि
आयु वारे एवं सन्तान रहित
कलहाय । मणिबन्धने स्थूले पुंसः प्रशस्यते, तन्‌ छोरी एद वारे हो तोकम हो तोवे दृसरोकी चयो को
खिणः ! उभयोरेव तिस्रो यवपङ्कयोऽच्छिन्नाः भ्रशस्य- तथा यदि उनके पैर्वपटे
अथवा
भगाने वारे उनसे तरेम आदि करने वारे होतेह ।
न्ते, प्रथमा धन्या; द्वितीया सख्याः तृतीया प्रजायुषे, अङ्कछि्या, नाखून तथा पैर आदि यदि दीघं होतोवे दीर्घायु
सवश्चिदविच्छिन्नाः ल्लिग्धा व्यक्तगम्भीरलिखिता
हस्व हो तो अल्पायु होते दह । अंगुखियां-यदि बारूक
शतपुत्रस्यः सप्त कीतथाअंगुखियां
` आधिपत्याय) चतस्रो राजः, पञ्च षट्‌ मजवूत हौ तो वह भाग्यवान्‌, पवं ( अंगुि्यो
सुखा
देवनिकायानाम्‌ ;एकाऽपि चेद्षिच्छिन्ना व्यक्ता की सन्धियां ) यदि खूब गूढ हो तो भोगी तथा स्थुकर्होतो
आचार्यं, जौर यदि अंगुखियां रोमश्च ( बालो से युक्त) हा
वो बाछ्क निर्धन होता हे । पाष्ि ( एड़ी-प९० )-खुर-
9 ५०५९५००5 ७४०० ९०० नमन (७४५०४१०५

दरी, पर्ष ( कठोर ), तनु ( पती ), विषम, एटी इदं तथा


` मिन एडी अप्रहास्त मानी ग ह! उत्तरपाद्‌ ( पैर का उपर
का भाग-705प५ ० ००४ )-उन्नत ( उडा हुजा ),
छक्तणाध्यायः २८ | सूत्रस्थानम्‌ । ४६

५ च च+ +

खावं
चिराओं से रहित ( जिस प्र॒ क्िरायें-शथ०ऽ उभरी देन हुत छोटा, बहुत खम्बा, कोशषरहितः श्वेत तथा कारे होता
हो ) तथा रोम ८ बाल्यं ) से रहित प्रशस्त होता है । इससे वाला तथा वाम पारं से जाद्त्त वाला प्रजनन अग्रद्स्त
विपरीत तथा विषम हो तो वह बालक चोर होता है! गुल्फ है ! मूत्र-जो कष्ट से न ताहो, अत्यन्त पतरान हो,
( टखने-+ ९३ >)- मजवृूत, छोटे तथा लोम ( वाख ) ओर मात्रा में बहुत कम न हो तथा जिनका वेग सररूता पूर्वक
गन्ध
शिरा से रहित प्रशस्त माने गये है । इसे विपरीत यदि हो-वह प्रशस्त होता है । इससे विपरीत अस्यन्त
उष्ण,
वे वहत उभरे हुए हो तो धननाश्च तथा वहत व्चिरुर्होतो ( ०0०४ >) वाका, वेदनायुक्त ( 15४९४ ), अस्यन्तं
क्रे ( दुःख ) के कारण होते हें! प्रजङ्घा (10ग्धा भत्‌ 0 विवर्णं (शेतवर्भवाखा अथवा जस्वाभावि वणं वाला
इससे
४८ 1 )-यह पतटी प्रज्ञसत मानी गई हे 1 स्थूल प्रजङ्का- 0०० सूत्र का स्वामाधिक वर्णं माना जाता दे, समय
पति पुत्र धन तथा सुखका क्षय करने वाली एवं चोररोकी विपदे वर्णं वाला अस्वामाविक होता हे ), अनिश्चित
होती है । जका (1.4 ) - कसी हुई तथा शिरा ओर रोम पर आने वाका दथा शब्द्‌ से रहित अप्रशस्त
माना गया हे।
वारक दोर्नो के खयि
से रहित प्रशस्त मानी गड है! अतिश्ष्क ( सूखी इई- कन्या के स्मि अथवा कन्या एवं
उधर फेर जाना ) अनपत्य"
पतली ) अतिस्थुर तथा शिरा ओर कोम से युक्त अप्रशस्त स्फाङ्ितमून्रस्व { मूत्र का इधर वाखा ) होता डे। योनि
होती है! ये ८ अप्रशस्त जङ्कयें ) नार्थो के स्यि वेधन्य कर ८ सन्तानोस्पत्ति को न्ट करने
करने वारी होती है अर्थात्‌ जिन चर्यो की जङ्कायं ( प्रभ्डा )-स्चकटाकार योनि सन्तानोरपत्ति के चख्ियि
अपस्यवध ( सन्तान-
अप्रशस्त होती है वे भविष्य म विधवा दहो जाती है। होती हे स्थूल सौभाग्य के लिये, म्बी
व्यभिचार के ख्यि, उत्किप् ( उपर उदी
जानु ८ घुटने-५९९\ ०1०# )--मजवूत प्रजञस्त होते है । घात ) के स्थि, गो
न होने ) के लिये, सूचीञ्ुखाकार
ऊर ( जांघ- 1.14" )-मांस से युक्त, गहरी ( 7266? 96160 हुई ) अनपत्य ( सन्तान संचित,
इं भिल्ल
शिरार्ओ वाङी ) तथा दिकनी-म्रहस्त होती हँ । दोनो रिफिक्‌ दुर्भाग्य के छियि, वहत अधिक फटी
योनि क्ठेडा के लिय,
( नितम्ब-8५।४०.४ }--निच्त्त ( गोरु), जो स्म्बेन हो, शष्कः, म्बी, विषम तथा रिङ्गरहित हुई ओर न सिद
व्रण एवं लोमरहित तथा अविषम (जो विषम न हो अर्थात्‌ मध्यम रूपसे भिची इई (न अधिक फेरी
उन्नत ( उदी-उभरी
सम हो ) प्रशस्त होते है । शुष्क नितम्ब सन्तान रहित व्यक्ति हई ) योनि कन्या कौ उत्पत्ति के ल्य, केच्वि होती
के, छम्बे-प्रधानता नष्ट होने वारो के ( अर्थात्‌ जिनके नितम्ब हई ) रमणीय तथा मौसयुक्त योनि पुत्नोसपत्ति
वैधभ्य उत्पचच
म्बे होते है.उनकी प्रधानता-वङ्प्पन नष्ट हो जाती हे), ह । व्यञ्जनयुक्त योनि प्रशस्त, अस्यन्त रोमश
पिष्ठं (मांसाङ्कुर)
वड़े नितम्ब दुश्चरा के तथा छोटे श्ीरुवान्‌ वारको के होते करने वारी, म्यज्ञन रहित अप्रशस्त, तथा व्यभिचार के चयि
है । कुन्दर ( 1501118} (पला081४68 )- गंभीर ( गंहरे )
एवं वसावती ( वसा-मेद्‌ वाटी > योनि
होती हे 1 इसी प्रकार दोनो ओर बारछो की पत्तियों वारी;
लोमरहित, विभक्त इए तथा समान अकार वारे प्रशस्त मध्यम तथा जो अत्यन्त घनी न हो वह योनि प्रशस्त होती
होते है । रोभूयुक्त ङङन्द्र अमणल्ीर चरथो के होते ह । ह ! अत्यन्त स्थूर वेधम्य के कि होती है । अत्यन्त स्थूरु
दक्षिण की ओर जिसमे आवतं ( चक्छर ) हो वे प्रश्ञस्त माने एवे घने वारो वारी पुंश्चली ( कुल्टा ) के लिय, नीचे छकी
गये है, विपुरु ( बडे ) दीर्घायु वारे व्यक्तियों के तथा रिष्ट
हुई दुर्भाग्य के ख्यि तथा नाभि से भी ऊपर पहुंची इदं योनि
( आपस मे भिरे हुए ) अस्पायु के होते ई । जघन ( कृर्दे- मध्यम श्रेणी की होती है। कुक्षि ( कोख- ०४३ )-उक्नत (उदी
` एनणऽ 9--कुख रोग कहते हे कि करदे छाती के समान परि-
माण वारे प्रशस्त होते है । बारा की हाती विशार होती है
हई ) प्रशस्त होती हे । छोमयुक्त कोख अत्यन्त घूमने (मण
करने ) वारी के स्यि, शिराओं से युक्त डस्सित भोजनवरं
तथा बारिकार्ओं कै दरहे (२०।'०ःव्ध०४) विशार होते है । ये के किये, नीचे दबे हए दरिद्रो के, सम आकार वारे मध्यम
दोन छाती तथा करहेमध्यम आकारवाले प्रशस्त नदीं होतेह । बारको ॐ, तथा यद्‌ द्तिण ङुल्ति ( प्ण ण ) उभरी
चरृषण ( 7०5४०७5 )-गौरवणै वारे बारुक के ब्रषण रम्बे हुई हो तो सुत्रजन्म के सिये वाम कुति (1; प्ण ) उमरी
तथा बडे, कष्णवर्णवारे के कृष्ण, रक्तवर्णं वारे के गौर तथा इदं हो तो कन्या के जन्म के ल्यि होती ह । उदरं ( 4०49.
श्यामवर्णं वारे के श्याम होते है । रक्तवणं तथा रोमयुक्त 0९ }--ईषत्‌ उच्रत, अशिथिरु 6 जो श्षिथिलूढीरान हो);
वृषण मध्यम श्रेणी के माने गये ईह । मोटे दषण प्रशस्त होते कनोमङ तथा बहुत बड़ा न दोना प्रस्त होता है । शुष्क उद्र
ह । इससे विपरीत अर्थात्‌ पते बृषण दुर्भाग्य वारे तथा द्रं के लिये, वड़ा उद्र भोग के सिये, विश्चारु तथा विषम
पुव जौर सन्तान नाश्चक माने गये है 1 छोटे घरृषण अल्पा- उद्र विषम स्वभाव तथा भोग वारो के होते है, अत्यन्त
युजो के तथा दुःख के कारण होते द । गौ, गदहा, घोडा, सूखा हा उद्र अनपत्यकर होता है । च्िरयो का पेट नीते खे
बकरी तथा सेड्‌ की आक्रति वारे ब्ृषण सौभाग्यश्चारी तथा बहत अधिक्‌ उपचित ( वदा हुजा ), शिर्जों से रहित,
आयुष्मान्‌ बारुको के होते हँ । प्रजनन ( शेप--९०४१5 )-- रः, (निर्क
सममरः
ः' इयम ्णो
निस्करुष् मस्र
णो मांसा ङ्कुर |
ु, कालक काचःः पिष्छपि
कोम, दीर्घ, उच्छति ( उद्राय अथवा हषयुक्त ); बढी , (जलः
एड
नामान्तरम्‌.
ताश्रव्णं की तथा गोरु मणि ( 01.०5 ) युक्त, महान्‌ कोश इत्यष्टङ्संगरहन ्याख् यायाभ िन्दु ः; ` जतुमणिरिप्यस्य
) चेत्यथेः 1
तथा महान्‌ स्रोतो वाका प्रशस्त होताहै! तथा तनु (पतर); पिष्डुमती वसावदी ( मेदःस्विनी
७ वा
१५९ काश्यपसंहिता वा बद्धजी वकीय तन्त्रम्‌ । [ सक्तणाध्यायः २८
५५
पका शा का का, श 00 नि

व्यक्तिर्यो के, तिर्यक (८तिरी ) शिरये कृच्छनीविर्यो (जो `


अभ्यन्त बड़ा तथा वलयो ( लकीर >)से रहित अनायुष्यकर
होताहै! नाभि से उपर दवा हुभा होना अनायुष्यकर कडिनता से जीवित रहते हँ ) क, तिख्युक्छ वाहु अमणश्ञी
होताहै) पेट पर यदि एक वलि (ख्कीर) टो तो वह व्यक्तियों के तथा मञ्चक ८ मस्सो ) से युक्त बाहुं कर्ह करने
परशस्त होता ३, दो व्यो वाला बुद्धि के चयि, तीन वाल के होते ईह! सणिबन्धन ( करदप )-पुरुषो की
वर्थि्यो वारा सौभाग्य के स्यि, चारं वयो वारा मोटी वथा लियो की पतदी प्रशस्त होती दहै! पुदष तथा खी
सन्तान तथा आयु कै लिये तथा बहुत व्यो वाला दोनो की तीनो यवपंक्तियां यदि अविच्छिन्न दतो वे प्रशस्त
उद्र अनायु्यकर तथा अग्रस्तं होता दहै 1 नामि मानी गई है । प्रथम पंक्ति रेश्वयंयुक्त, दूसरी सख्य तथा
( एष्णणा०फ )-गहरी, दक्तिण की ओर धमी इई, तीसरी प्रजा एवं आयु के स्यि होती है । तीनो पंक्तियां यदि
गो, उठे हए किनारो वारी, रोम शिरा तथा आवर्तौ से अविचदधन्न ( विनाकटी इईै-पूरी ); स्निग्ध, स्पष्ट एवं
रहित प्रशस्त होती है । गर्ताकार तथा अनुन्नत (जो उन्नत गहरी विदित दिखाई दे तो वारक अधिपति होता है । चारों
नहो) नाभि सुख तथा दुःख को करने वारी है । विषम रूप पक्तियां अविच्छिन्न राजर्वियो की, पांच तथा छुः पंक्तियां यदि
से उभरी हई नाभि अनायुष्यकर होती है । स्वप आकृति अविच्छन्नो तो उसे १०० पुत्र होते दै । सात पंक्तियां
बारी नाभि अनपस्यकर होती है। अपने स्थान से ही इई अविच्छिन्न देवनिकायो की होती है तथा यदि एक भी पक्ति
नामि भ्रमणश्ीर व्यक्ति की होती हे तथा वड़ी, गम्भीर ओर अविचदधन्न एवं स्पष्टखूपमें दिखाई देती हो तो वह व्यक्ति
उक्त नाभि अधिपति (स्वामी) कीहोतीहै। नामि के सुखी होता ह | गथ १११०४१५५

दवारा ही वायु ( गुदा-+५८७) का भी व्याख्यान समन्षना ..,. क ®) 9 80 कने ध क ,..


॥। # १० 9 & 89 % € 6 99 ४ ,*,@
चाहिये । अर्थात्‌ नासि के समान ही गुदा के ठक्षण समश्चने लियो के (बार) बहुत अधिक बडे तथा बहुत छट
चाहिये । पारश्व-गोर, मांस, सनिभ्य तथा लोम ओर निन्दित माने गये दह । केशमूमि ( बार्खछो की जडं) स्निग्ध
शिराओं से रहित प्रशस्त होते है । कोम ओौर शिरार्ओं ( चिकनी ) रोहित, निर्म॑रु तथा ब्रणरहित भ्रज्षस्त मानी गई
ते युक्तं भरमणश्ीर व्यक्ति के होते है । पृषठदेश्च ( 58० )- डे । मस्त हाथी, तैल, सिह, चीते तथा हंस की गतियो वारे
सम, ऊपर से विक्षाक, शिरा खोम एवं आवर्तौ से अधिपति ( स्वामी ) होते है । मन्दगति वाछे प्रशस्त होते दै
रहित अशस्त होतादहै। बीच के भागे निम्न हो तो चञ्चरुगतिवाखे उक्ति चञ्चरुतापूर्वंक सुख तथा दुख
आयुष्यकर होता हे । का इभा इुलियो का होता ह । यदि को प्राप्त करते है । तिर्यक्‌ गति वारे अग्र्स्त माने गये ।
पृष्ठप्रदेश् बहुत होट हो तो व्यक्ति जह्पायु तथा रोमयुक्त स्खलन ८ रुडखड्ाना ) गत्ति वारे तथा जिनके अङ्ग फटे
हो तो मित्ररहित एवं अस्प सन्तान वाखा होता है । स्कन्ध इए ई वे व्यक्ति अग्रहस्त होते है! तथा अस्यन्त गौर,
( कन्घे-3\०५१<"ऽ )-कन्धों पर वार बनिर्यो, भार उठने अत्यन्त कष्ण, अतिदीघे, अतिहस्व, अतिदक्ष; अतिस्थूल,
वार, जजारियो तथ! रंगरेजो के होते है ! शस्क अंस (करन्धो) अतिरोमश ( बहुत अधिक बार्खो वारे ) अरोमश्च ( जिसके
वाले व्यक्तिद्शि्रिदहोतेरै। ये दोनो ( खोमयुक्त एवं शुष्क बिल्ुरू बारुन हो ) अतिग्ृहु तथा अतिकन्नि शरीर अप्र
स्कन्धो वारे ) कभीर दीर्घायु भी होतेह तथावे व्यक्ति शास्त माने गये है । बार के रषित ( पित होना ) रोना,
भ्रमणज्ीर होते है! रिनिग्ध अंस (कन्धा ) कर्षण करने सोना, जागरण, क्रोध, हषं, विसर्गं (मरु मूत्र जादिंका
वाा, पीन (८मेदे) कन्थे वाला गुणी होता है, कठिन त्याग ), आदान (अन्न जर आदि का रहण); पक्ति
( कठोर ) करन्धो वाखा शूरवीर, शिधिर कन्ध वारा भक्त ८ पाचन ), स्थिरता तथा गम्भीरता आदि र्ण युक्तियुक्त
(दुर्बर ) तथा उन्नत करन्घो वाखा व्यक्ति शस्त. माना एवं गुणवाछे प्रजञस्त माने गये है । ( इससे पूवं खण्डित अंशञ
जाता है । कन्या छक इए कन्धों वाली प्रज्ञस्त मानी जाती हे। मे संभवतः हस्तरेखार्जो आदि का वर्णन क्रिया गयाहे।
इनसे विपरीतमें गुर्णो की हानि होती है अर्थात्‌ वे अप्रशस्त पारा के ज्षान के छिये अध्याय के अन्तमं हम हस्तरेखा
होते ह । क्त ( बगर-4^-11 )--उन्नत, विशार, मोटे तथा आदि के विषय कोसंक्ेपसे देंगे) चरक चा. अ. ८
सुस्पष्ट प्रशस्त माने जाते है । इससे विपरीत अप्रञ्स्त । म आयुष्मान्‌ बालको के निम्न रण दिये ईैः~-ततरेमा- `
लियो के अधिक बालों वारे कत्त अप्रशस्त होते हैँ । बाहु न्यायुष्मतां कुमाराणां रक्षणानि भवन्ति, तयथा-एकेकजा सृदवोऽद्पाः
( ^.""05 )- बाहू वे प्रशस्त होतेह जो करमशः उपचित रहौ स्निग्धाः सुक्दमूढाः कृष्णाः कलाः प्रशस्यन्ते; स्थिरा बहला त्वक्‌ ,
अथात्‌उपर से मोदी तथा नीचे! कऋमरः पती हो, जिसमें ्रङ्ृत्याकृतिसुसंपन्नमीषल्ममाणतिदृ्तमनुरूपमातपत्रोपमं दरः)
अरक्ि (कोहनी ) च हो} जो दीं हों तथा धुन को व्यं दृढं समं सुरिरषटशाङ्खसम्धयष्वग्यज्ञनयुपचितं व लनमधचन्द्रा-
स्पशं करने वाङ हौ अथात्‌ इतने क्म्बे हो कि घुटनों तक कृतिका, बहुलो विपुरुसमपीमे समौ नीचेकदौ पृष्ठतोऽवनतो
ख्टकते हो । शिरां से युक्त बाह आयुष्मान्‌ वारक के, पत्ल-
युक्त सन्तान वाखा के, शिराभों से रहितं सन्तानशूल्य # ताडपत्र पुस्तक भ इससे आगे के दो पृष्ठ खण्डित हैँ जिसमे
हाथ की ( सामुद्रिक )रेखां तथा केदपयंन्त उ्व॑जघु फे अवयवो
२. निगृह्य मतयथै? 1.(भरि| सप्कोत लाखिकर ेऽपि
"“ `
का संभवतः विस्तारपूवक निरूपण किया गया होगा । शीणां चः
नव 1 कफोणावपिः इति मैदिनी
¡ ˆ . "
इत्यादि अगले वाक्य मे केशों काही वर्णेन दै ।
प्‌ 4
छकणाध्यायः २८ } सूत्रस्थानमै ।
0 ककि मेकहिण
हि + + [+ 0
[क व का + क ++
[वि गा का का का

खर्व ॐ भेद-सर्व तीन प्रकारके होतेह! ५. कल्याण


[क क, + + का+ क ++ + + + [व +का व

सदिलष्टकरणपुत्रकौ मदाच्चिद्नो कणो, देषलरलच्िन्याव


सङ्गते समे संहते
(2) मोह
महत्यौ श्रुवौ, समे समाहितदैने व्यक्तभागविभि वलवती तेज- । से उत्पन्न होने वाखा (२) क्रोध से उस्पन्न होने वाकातथा अधस
{
|
॥॥

। इन्दं ही करमशः रेष्ठ, मध्य


सोपपन्ते खङ्गापङ्गे चद्ठपी, ऋल्वी महोच्छवासा वंशसंपन्नेपदवनः । से उत्पन्न होने वाला


ताया नासिका, सददुजुउनि विष्टदन्तमास्यम्‌, आयामविस्तासेपपन्ना | कहते ह । अर्थात्‌ स्याण से उत्पन्न होने वाखा सच शरेष्ठ
| क्रोध से उत्पन्न होने वाखा मध्य तथा मोह से उस्पन्न होने
दलक्ष्णा तन्वी प्रकृतिवणयुक्ता जिह; रलद्णं युक्तौपचयमूप्मोपपन्नं
रक्तं ताल, महानदीनः स्निग्योऽनुनादौ गन्मीरसदुलो धीरः स्वरः,
वाला अधम होता ह! चरक क्षा. अ. ४ मं कहा है-तिनिषं
ल्लु सं शद्ध राजस तामसमिति । तत्र शुद्धमदोषमाख्यातं कल्यार्णा-
नातिसथूलौ नाति्लावासयप्रच्छादनौ रक्तावो्रे, महत्यौ हन्‌ ,
दात्वात्‌ , राजसं सदोषमाख्यातं रोषां्त्वात्‌ ›तथा तामस्षमपि सदोष-
वृत्ता नातिमहती ग्रीवा, व्युदसुपचितमुरः; गुदं जघ पृष्टवशश्च, विप्र माल्यातं मोहांशतलात ॥ उपयुक्त सर्वो को दी क्रमशः शुद्धं
कृषटान्तसौ स्तनौ, अंलतपातिनी सथिरे पाद्य, वृत्तपरिपूर्णायतो बाहर
च्रङ्खल्यश्च, महदुपवितं पाणिपाद, स्थिरदृन्ताः स्निग्धा
( सास्विक ), राजस तथा तामस भी कहते हे । इनमें से भथम
सविथनी
स्ता्ासङ्ाः कर्मकाराः करजाः, प्रदश्षिगवतां सोपसङ्गा च नाभिः, दोष रहित माना रथा है । शेष दोनों रोष एवं मोह का अंश
उरखिभागहीना समा सथुपचितमांसा करी, वृत्तौ स्थिरोपवितमासौ
होने से दोषयुक्त होते ह । रोष एवं मोह मन को दूषित करते
नाल्युन्नतौ नात्यवनतो स्फिवौ, अनुपूवदन्ताइपचयथुकतावृरू , नाल्यु- हे । इनके अभाव मे मन
शुद्ध होताहे ॥
परचिते नात्यपविते एणीपद, प्रगूढसिरास्थसन्धी जड्वे, नाल्युपचितो अष्ट स्र त्रिधा चैषां क्रमाद्धेदः प्रवद्यते ।
नात्यपचितौ युरफ. पूवोपदिषशटयणो पादो दरुमकार प्रकृतिदुक्तानि वात- सन्यानां, सन्विज्ञानं हितमोषधकस्पने ॥
मूत्रपुरीषाणि तथां स्वप्नजागरणायास्स्मितरदितस्तनयरहणानि यच्च इन सर्वो के कमः आठ, सात ओौर तीन भेद होते है
किचिदन्यदष्यनुक्तमस्ति तदपि सवं प्रकृतियुक्तमिष्ट, विपरीतं पुनरनि- अर्थात्‌ श्रेष्ठ ८ शुद्ध ) स्व के ८ मेद, मध्य ( राजस ) सरव के
टम्‌,इति दीधायुरुक्षणानि ॥ इसी प्रकार सुश्रुत सू. ज. रनमंभी ७ भरद तथा भधम ( तामस ›)सस्व के ३ भेद होते है । ओषध
वारको ॐ दीर्घायुष्य, मध्यमायुष्य तथा अस्पायुष्य के निभ्न कल्पना मे स्व का जानना हितकर होता है ५
रकण दिये है-गृढसन्पिसिरास्नादुः संहताङ्ञः स्थिरेन्दः 1उत्तः
रेन्तसस्चे्ो चः स॒ दीर्ायुरुच्यते ॥ गर्मालभृत्यरोगो यः शनेः तपःसस्यदयाशोचदानशीलसतं समम्‌ ।
समुपचीयते । दरोरक्नानिक्ञानः स॒ दौवो्ुः समासतः! मध्यम ज्ञानविज्ञानसंपन्नं ब्य वियाज्नितेन्द्रियम्‌ ॥
आयु-मध्यमस्वायुषो ज्ञानमत ऊध्वं निवोध मे । अपस्तादक्षयो- शद्ध सस्व के भेद--१. नाहमसर्व-व्राह्यसख सै युक्त व्यक्ति
य॑स्य ञेखाः स्युष्य्॑तमायताः ॥ दे वा तिघोऽधिका वाऽपि पादौ तप, सत्य, दया, पवित्रता, दान तथा सीर से युक्त, सम्‌ (सब
कर्णो च मांसलौ । नासामरमूष्वं च भवेदूध्वं ठेखाश्च पृष्टतः ॥ यस्य प्राणियों मे सम दृष्टि रखने वारा ), ज्ञान तथा विज्ञान से युक्त
स्युस्तस्य परममायुभ॑वति सप्ततिः ॥ अह्पायुः-जघन्यस्यायुषो ओर जितेन्द्रिय होता ह । चरक शा. अ. ४ मे कहा है-श्चि
्ञानमत ऊध्वं निवोध मै । हस्वानि यस्य पवांणि सुमहच्चापि बेह स.याभिसम्धं जितात्मानं संविभागिनं ज्ञानविज्ञानवचनप्रतिवचन-
नम्‌ ॥ तथोरस्यवरीढानि न च स्यादृषठमायतम्‌ । उर्व च श्रवणौ दक्तिसम्पन्नं रशृतिमन्तं कामक्रोधलोभभानमोदेष्याहषामषपितं समं
स्थानात्नास्ता चोच्चा शसरिणः ॥ दस्षतो अल्पतो वाऽपि दन्तरमासं स्भूतेषु बाह्यं विथात्‌ ॥ सुश्रुत. चा. अ. ४ मे भी कहा हे-
्रवृस्यते । प्रेक्षते यश्च विश्रान्तं स जौवेत्पद्चविरतिम्‌ ॥ ोचमास्तिक्यमभ्यासो वेदेषु गुस्पूजनम्‌ । प्रियातिथित्वमिञ्या च
त्र श्ोकाः- | नरह्यकायस्य रश्चणम्‌ ॥
यथा वक्त्रं तथा वृत्तं यथा चष्चुस्तथा मनः । प्रजावन्तं क्रियावन्तं धर्मशीलं जगसियम्‌ ।
यथा वरस्तथा सारो यथा रूपं तथा गुणाः ॥ छअनीष्येमशलं प्राज्ञः प्राजापत्यं बदेच्छुचिम्‌ ॥
जैसा व्यक्ति का सुह दोता हैवेखा ही वृत्त (भाव ) होता २ प्राजापत्य सत्व-प्राजापत्य सत्व वाखा व्यक्ति प्रजा
हैअर्थाव्‌ सुख भावो के अनुसार बदरुता रहता है । जेसी ( सन्तान >)युक, क्रियाओं ( यज्ञ जादिको ) को करने वारा,
चक्लुहोती ह वैसाही मन'होता हे अर्थात्‌ चहं के द्वारा हम धर्मशषीर ( धार्मिक ), जगस्मिय ( सम्पूण जगत्‌ जिसको भ्रिय
मन का अनुमन्‌ कर सकते है! जैसा स्वर होता हेवेसा हे जथवा जो सम्पूर्णं जगत्‌ को प्रिय हे ) ष्या रदित, शठ्ता
तथा जैवे रूप वैसे गुण । अर्थाद्‌ रूपे अलुसार गुण होते है 1
( दुष्टता >रहित तथा पवित्र होता ह ॥
तात्पर्यं यह है कि बाह्य आकृति आदि आन्तरिक भार्वो के
अनुसार होती है तथा बदरुती रहती है । कहा भी ह- शौचत्रतेउ्याध्ययनव्रह्यचयेदयापरम्‌ ।
'आकारेरिङ्गितैमस्या चेष्टया भाषणेन च । नेग्रवन्ूविकारे्च जितमानमदक्रोधं वक्तारं चाषमादिशेत्‌ ॥
छच्यतेऽन्तर्गतं मनः, ॥ अंगरेजी मे मी एक कहावत है- २५५९ ३.आर्षसर्-श्लौच,बरत, दञ्या ( यज्ञ ); अध्ययन, ब्रहम
13 € 1064 ० ८76. जो मब का भावं होता हे, चेहरे पर चर्यं तथा दथा से युक्ू, मान ( अहंकार ) मद, तथा क्रो को
स्पष्टरूप से उसकी प्रतिच्छुवि दिखाई देती हे ॥
है।
जिसने जीत लिया हैतथा जो वक्ताहै वह जां सर्व होतापर-
त्रिविधं सच्यमुद्िष्टं कल्याणक्रोधमोहनम्‌ । उरक श्ा० अ० ४ मे कहा है--श्याघ्ययनततहोमग्र्चय
्र्ठमभ्याधमत्वं च तेषां प्रोक्तं यथक्रमम्‌.॥ ` मतिथि्तरपदान्तमदमानसगदेषमोहरोमरोभं परतिभाक्तरनविक्ञ
~र काहयपसंहिता वा ब्रद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ छ्तणाध्यायः २८
+ स+क + ++ + ~ 8 का) त+ क + शा त 0) + +
+ 9 ^) |
तण क १ #
अण क क 0 च व ज स + ५, 0 १५. .१०५.०

नोपघारणज्ञक्तिसम्पल्नमापं विचयात्‌ । सुश्रत का. अ. ध्म भीकहा| श्-क!ख्याचचहासद्च गन्यमाल्यास्वरभ्रयन्‌ ।


है--जपव्रतव्ड चर्ये माध्ययनसेथिनम्‌ । ज्ञानविज्ञानसम्पत्रटषिसच्ं चत्तगीतोपहासज्ञ॒ गान्धवं सुभगं विदु
नर विदुः} | गान्धर्बसस-जो भ्यक्ति शोक, आख्यान (कथा )
च्रिवगेनित्यं चिद्रंसं शरमद्धिष्टकारिणप । तथा इतिहास का जाननेवाङा है, गन्ध (दत्र आदि)
| ्ाहुरेन्र ८! +, धिद्धातारमीोश्वरम्‌ |
पमु सि भो)च ल नया
माखा तथा वरखोकाप्रेमी हैः नव्य गीतं तथा उपहास का
४, देन्द्रसस्व-देन्दसर्व वाखा व्यक्ति त्रिवर्गं ( धर्म, अर्थं त्ताता एवं रेश्वर्यश्चाङी है-वह गान्धर्वसत्व कहखाता इहै।
तथा काम) र्गा ह, विद्वान्‌, शूरवीर निन्दित कमन चरक शा० अ०४ मं कहा ह-नियनव्यणा-वादिव्रोषठापकं चलो
करने वारा, महाभाग ( महात्मा ), अधिष्ठाता ( स्वामी ) का्यायिकेतिहासयुरणे3 कुरर ग धनःदव्यापुदेवनवसन्ः
तथा रेश्र्ययुक्त होता है । चरक का. अ. ४ मेँ कहा है-रेशवय- नित्यमनश्यकं गान्धर्वं विचात्‌ ॥ सुश्रत ्ा० अ०्४्में भी कहा
वन्तमद्वियमाक्य यज्वान श्रमो नस्विनः तेजप्तोपेतमकलिष्टकमांणं दीघं- है-गन्धमाव्यभिय.वं च नृत्यवादित्रणमिता। विहदारीख्ता चैव
दिनं धर्मथेक्रामामिरत्मेनद्र विवात्‌। सुश्रुत श्ञा. भ.ष्मेभी गान्धर्वं कायलक्षणम्‌ ॥
कहा है--मदात््यं रौयैमाशा च सतत शान्नवुद्धता। सत्यानां ये चान्येऽपि शुभा भावाः शुद्धस्ते चापि साल्वकाः
भरणं चापि माहेन्द्रं कायछक्षणम्‌ ॥ एतत्‌ कल्याणभयिष्ठ शुद्धं सन्त्वमिदाषटधा ॥
त्थक्तदम्भमयक्रोधं प्रप्रकारिणसमीश्वरम्‌ | इसके अतिरिक्त अन्यभीजो शभ एवं साच्िकं भाव
समं मित्रे च शत्रो च याम्यं विद्यात्‌ सुनिधितम्‌ ॥ होते है वे शुद्ध कहराते ईह । इस प्रकार यह कल्याण अं
५. याम्यसस्व-जिसने दम्भ ( अहंकार ), भय तथा कोघ की प्रधानता वारा शद्ध सत्व ८ प्रकार का कहा हे।
का त्याग कर दियाहे, जो आक्तकारी (युक्त कार्थं करने वारा ) वक्तभ्य--चरक तथा सुश्रत में सास्विकया शुद्ध सख के
रेश्वयंशारो, मित्र तथा शाघ्युमे समान व्यवहारं करने वारा ७ मेद्‌ दिये गये ह । उनमें व्राजापत्य सस्व का उल्छेख नहीं
तथा सुनिश्चित (८च्ठनिश्वयी ) व्यक्ति है- वह याम्यसस है । चरक० शा०अ०्४मे कहा है--इत्येवं शुद्धस्य सखस्य
वाखाहोताहै। चरकश्चा.अ ४ सें कहा है-ञेखास्थदृत्तं प्राप्त सप्तविधं मेदांशंविद्यात्‌ कव्या्णा्ञस्वात्‌ ,.संयोगान्त॒ब्राह्ममत्यन्त-
कारिणमसं्रदायमुःथानव तं स्म्रतिमन्तमेदव्यांरम्विनं व्यपगतरागद्रष- शुद्धं व्यवस्येत्‌ ॥ इन सातो साधिक सर्स्वो मे से भी बाद्यसच्व
मोदं याम्य व्रियात्‌ । सुश्रुतक्षाअ.ण्मेंमी कहा है-प्राक्कारी शुद्तम जानना चाहिये । सुश्रत श्ा० अ० ७भीकहा
दरदोत्थानो निमैयः स्प्रृतितान्‌ छ्ुचिः । रागमोहमददेषैवंजितो याम्य- हे--सपेते साखिकाः कायाः-- ॥ | |
स्ववान्‌ ॥ [र । आरोग्यं प्रशमो रूपं ज्ञानविज्ञानमायेता ।
अशुचिविशुचिः शारः शीघ्रकोधप्रसादवान्‌ | दीघेमायुः सुखाध्यक्तं सामान्यं शुद्धलक्षणत्‌ ॥
पुख्यशीलो महाभागो वारणो बरणप्रियः ॥ ` शद्ध स के सामान्य कक्तण -आरोग्य, शान्ति, सूप,
६. वारणस्ख -जो व्यक्ति अशुचि, विशुचि, शूर, शीघ्र ज्तान, विज्ञान, आर्यता ( स्वाभिष्व ), दीर्घायु, सुख की प्रापि
ही ऋद्ध एवं शीघ्र ही प्रसन्न होने वारा, पुण्यश्ञीरु, महाभाग ये शुद्ध सच्च के सामान्य रक्षण है ॥ |
(-महात्मा ) तथा वह्णप्रिय है -वह्‌ वारूगसच्व होता हे । ईश्वरोऽसूयकश्चरड आत्मपूजोपधिप्रियः ।
चरक शा. अ.स कहा हे--टूर षीर श्ुचिम्युचिद्रषिणं यञ्वा- सानुक्रोशमयो रोद्रो हन्ता शुरस्तथाऽऽसुरः ॥
नमम्भोविहाररतिमङ्किष्टकमांणं स्थानकोपप्रसादं वारणं पियात्‌
राजस सस्व के भेद्--९. आसुर स्व-रेश्वयंशारी,
सुश्रतशा.अ.ष्मं मी कहा हु शौतसेवा सदहिष्णुतवं पेद्स्यं परि- दस के गुर्णो मे दोषारोपण करने वारा; तीव क्रोघवार,
करता । भियवा दत्वभित्येतद्राह्ण कायछ्क्षणम्‌ ॥ आत्मपूजा ( अपनी प्रशंसा करने वाखा अथवा अपनी ही
. स्थानमानपरीचारधमंकामाथलोभिनप्‌ | आहार आदि के द्वारा पूजा करने वारा-स्वार्थी ) तथा उप.
क्रोधप्रसादफलद कौबेरं प्राहुरूजितम्‌ ॥ धिभ्रिय (८रागद्रेष अथवा इुरु-कपर का प्रेमी ), अनुकरोल्च
७, कोबेरसरव- जो व्यक्ति स्थान ( भुमि-मकान आदि », ( दथा >)तथा भय से युक्त, रौद्र ( मीषण या उभ्रस्वभाव ),
मान ( जादर ), परिचार (सेवा), धमं, काम तथा. अर्थं हस्या करने वाडा तथा शूरवीर व्यक्ति-आसुर सस्व होता
( धन ) का ोभी अर्थात्‌ स्थान, मान आदि का इच्छुक हो हे। चरक० शा० अ० ४ कहा है-सूर चण्डमखयकमेदवयैव-
जिखका क्रोध एवं प्रसाद्‌ ( प्रसन्नता ) फर्प्रद हो अर्थात्‌ न्तमौपधिकं सौद्रमनसुक्रोश्षमाप्मपूजकमासरं विधात इसी
क्रोध एवं प्रसाद्‌ निरर्थक न हो तथा बरूवाच्‌ हो-वह ौबेर- प्रकार सुश्रत श्ा० अ० ४ में कहा है-एेदवयवन्तं रौद्र च शर्‌
सस्व कहराता हे । चरक शा० अ० ४ मे कहा है--स्थानमानो चण्डमसूयकम्‌ । एकारिनं चौदरिकमा्र तवमा ददाम ॥
पभोगपरिवार सम्पन्नं छु <विहार धरममार्थकामनि.य शुचि व्यक्तकोप- क्ररच्दद्रप्रहारी च रोषेध्यामषेसन्ततः।
प्रतार कोर विधत्‌ ॥ सुश्रत हा०अ०४ मे भी कहा है- बैरमां साशनायासः# कलहार्थी च रात्तसः ॥
मध्यस्थता सहिष्णुत्वमथस्यागमसतं चयो । मह्यप्रसवराक्तित्वं कौबेरं
कायरक्षुणम्‌ । ® वैरे मांसाशने च आयासो यस्येत्यथंः।
टक्चषणाध्यायः २८ ] सूत्रस्थानम्‌ । ५५२३
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काचासे;चारमयूयकमसं विभागिनयतिसेलपमकमेरौषटं प्रतं विचा.


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२. राक्तस सख-जो व्यक्ति र, विदरप्रहारी ( भवकाशच


अथवा दुरवकता पाकर प्रहार करने वाखा ), क्रोधः ईैष्याः त्‌ सुश्रत शा०अ० ४मे कहा है--मसंविभागमलसं दुःखशीलम-
एवं अमरं ८ असदिष्णुता-रमा न करना ) से युक्त, वेर यकम्‌ । लोल्पं चाप्यदातारं प्रत्तं विदुनेरम्‌ ॥
करनेवाखा, सांस खाने वाखा तथा कर्हप्रिय ( क्षगड्ा.) अरमपिङ्ुस्सिताहारवाम्धूनं नित्यश्चङ्कितम्‌ ।
हे, वह राक्तससर्व होता हे । चरक शआ० ज० ४ मे कहा दै-- | चलं दुर्मघसं भीरं शाष्कुनं षिद्ध > नोकसम्‌ ॥।

-.----~-----------------------------

द्रम्धिगमनुवन्धकोपं छिद्रभरहारिणं क्रूरमाहारतिमात्र रचिनान्ित्रि- , ७. शाङनसच्व


असहिष्णु, ङस्सित ( निन्दित ) आहार
यतमं स्वप्नाय ासवहु रमु यक्षसं चयात्‌. । सुश्रत श्ा० अ०४ मै | तथा निन्दित दाणी मे र्मे इष्‌ ( अर्थात्‌ निन्दित आहार एवं
भी कहा हे-रकान्तप्रादिता सद्रमखला धर्मबाह्यता । भरामास्मस्त- ` निन्दित शर्ब्दो का प्रयोग करने वारे ) नित्य कंका ( खन्देह्‌ )
वश्चाप राक्षस कायलक्षखम्‌ ॥ । करने वारे, चर (अस्थिर मति), कुण्ठित अद्धि वारे तथा भीर्‌

शचिद्रिडशचिः ऋरूरोऽभी रुभीषयिताऽऽविलः ।


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एवं जिसके रहने का स्थान ठीक तरह से निशचितनहो पेषे
मद्यमांसभ्रियः शङ्खी पेशाचो बहुभोजनः ॥ व्यक्ति को हाढुन खर्व कहते है । चरक श्ा० अ०४ में कहां
हे--रनुषत्तकाममजघमाहारमिहारपरमनवस्थिततममरषिणमसंचयं चा-
३. पैशाचसस्व-जो भ्यक्ति पवित्रतासे देष करने वारा,
अपवित्र, ऋरूर,अभीद ( जो उरपोक न हो ), दूसरों को डराने कनं विचात्‌। सुश्रुत क्ञा० अ० ४ में भी कहा है-प्वृदढ्कामसेवौ

वाला, कलुषित, मद्य तथा मांस का प्रेमी, शङ्का ( सन्देह ) चाप्यजखादहार एव च्‌ । अमषेणं।ऽनवस्थाय चाकुनं कायलश्चणम्‌ ॥
करने वाका, तथा वहत भोजन करने वाखा है--वह पशाच इत्येतद्राजसं स्वं सप्रधा करोधकारितम्‌ ।
सस्व होता हे । चरक शा० अ० ४ में कहा है-महाल्सं खगं व्यामिश्रगुणदोषं च रज एवोपलक्षयेत्‌ ॥
ख्लीरहस्वाममद्युचि शुचिदेधिणं मीर भीषयितार विकृतविहाराहार- इस प्रकार क्रोध से उत्पन्न होने वाखा राजससच्व सात
रीर पैशाचं भिबात्‌ 1 सुश्रत शा० अ० ४ मे भी कहा है--उच्छि- प्रकार काहै। इनमें गुण एवंदोषोके मिरे होनेखे ईर
दारता तैश्छ्यं सादसग्रियता तथा । ङीटोटपतवं नेरुज्यं पेशाचं राजस ही समञ्चं । |
कायरक्चण्‌ ॥ | वक्तव्य--चरक तथा सुश्रुत मे राजससस्च के & भेद दिये
तीच्णमायासबहुलं निद्रालं बहुबेरिणम् ‌ है, उनमें याक्तसस्व नहीं दिया है । चरक मे कहा है- शयेतं
करद भीरंणं च साप नि्योठलेहिनम्‌ ॥ खलु राजस्तस्य सखस्य षड्विधं भेदांरं दिचात्‌ रोषांत्वात्‌ ।
9. सा्प॑सच्च-जो व्यक्ति तीचण, वहुत परि्रमी, बहुत सुश्चत म मी कहा हे--^“५डते राजसाः कायाः” ॥
सोने वाका, वहत समय तक वैर स्खने वारा, अक्रुद्धभीरः आआहारमेथुनपर स्वप्नशीलममेघसम्‌ ।
(जव तकक्रुद्धन हो तवतक इरपोक), खीके वशम अथेवं पाशवं विदयान्मृजाऽलङ्कारवर्ितम्‌ ॥
रहने वारा, सदा होरे को चाटने वारा अथवा सदा खाते „ तामस सस्व के सेद्‌ ५. पाश्चव सच्व-सद्‌ा आहार तथा
रहने वाला है- वह सार्प॑सच्व होता है! चरक शा० अ० में मेथुन मे ख्गे इए, अस्वधिक सोने वारे, निन्दित अथवा कम
कहा है-जरुद शूरमकरुदमीरं तीकषगमायासवहुलं संवस्तगोचरमादहा- बुद्धिवारे, शुद्धि तथा अरंकार ( जआभूषण या सजावट )
रविद्यारपर सरपं भिचात्‌। सुश्रत ज्ञा अ०४ मे कहा हे से रहित व्यक्तिको पाह्यवसस्व जानें। चरक शा०अ०्४्में
तीक्ष्णमायासिनं भीरं चण्डं मायान्वितं तथा । विहाराचारचपछं कहा है-निराकरिष्णुमवमषे्ं जुयम्सिताचाराहारं मेथुनपर स्व-
सर्पसच्वं विदुनेरम्‌ ॥ | प्नरीरं पाशवं वियत्‌ 1 सुश्रुत श्ा० अ० ४ म मी कहा है-
दानशय्यास्यलङ्कारपानमोजनमेथुनेः । दुगधस्त्वं मन्दता च स्वप्दमैश्ुननित्यता । निराकरि्णुता चैव
नित्योपेतं प्रमुदितं यक्तं वियात्‌ प्रभक्णम्‌ ॥ विज्ञेयाः पारवा युणाः ॥
५. या्तसस्-निव्य दान, रय्या (श्ञयन ), अतिजङंकार भीरमभ्रज्ञमादूनं कामक्रोधवशं गतम्‌ |
( आभूषण अथवा सजावट >), अतिपानः, अतिभोजन तथा हिखमात्मपरं विद्यान्मास्सयं सुप्रजसं शसम्‌ ॥
अतिमैथुन मे रुगा हआ, प्रसन्न तथा खूब खाने वाला व्यक्ति २. माप्स्य खर्व ~ भीर, मूख, आयनं ( बहुत खाने वाला
याचस्व कहराता हे 1 ॑
पेट ), कामी तथा क्रोधी (काम तथां क्रोधमेख्गा इजा )
. अहङ्छृता महाहारा वैरिणो विकृताननाः । ` हिंसक, आ्मपर (सदा अपने मे ही ख्गा रहने वारा-दूसरो
विरूपा विकृतात्मानो भूतसच्वा निशाभ्रियाः ॥ की परवाह न करने बाला ), अधिक सन्तान वाखा तथा
&. भूतसख-जो व्यक्ति अहंकारी, बहुत खानेवारे, देरी, धूर्तंयकि मास्स्यसस्व कहराता है । चरक शा० अण्््म
विदत मुख ( चेहरे ) वारे, चिङ्तसरूप वारे तथा विक्त कहा है--भमीरमवुधमाहार छब्धमनवस्थितमनुष्क्तकाभमक्रोधं सरण- `
आत्मा वारे है तथा जिन्हँ रात्रि भ्रिय है-वे भूतसस्व वाले शीरं तोयकामं मात्स्यं विचयात्‌ ।सुश्रुत क्ञा० अ० मै भीकहा
होते है । चरक तथा सुश्रुत मै इषे प्रैतसश्व नाम से कहा है- चनप्रस्थितता मौय भीरुत्वं सटिलाथिता ! परस्पराभिमदंश्च
रया है ! चरक शा० अ०७ मे कहा है-आहार्काममतिदुखशी- मत्स्यसच्वस्य लक्षणम्‌ ॥ ॥

१ यावन्नक्रध्यति ताव्रद्धीररित्यथः। १. आचुनः स्याद्यौदरिकः” इत्यमरः \


9 काश्यपसंहिकत्ता वा ब्ृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ रहणाध्यायः २८
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त्मगस्ठङ्मांसमेदोऽश्थिरजश्ठछशि धातवः|
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यधवन्धपरिक्ेशशीतवातातपक्तमम्‌ ।
बुद्ध बङ्गदीनमलसं वानस्पद्यं बदैद्ु म्‌॥ ओजः सन्तं च सवं च तत्सारं तु निबोध मे ॥
३. वानस्पत्य सख--उघ, वन्धनः दुःख, सदा, वायु तथा स्वचा, रक्त, मांस, मेदा, अस्थि, मजा, शक-ये सात
धातुर, ओज तथा सच~ये सब ९ शरीरम सार होते दै)
धूप को सहने वारे, बुद्धि तथा अगा से हीनः आलक्ी तथा
ऋजु ( सरल-सीये सादे ) व्यक्ति को वानस्पत्य स्व कहते उनके लन्तर्गोको तू सुश्च से सुन ।चरक में जिन २ लक्षणो हारा
ह । चरक शा० अ० ४ मे कहा हे -अरं केवमभिनिवि्टमादारे मनुष्य
आदिके
के वर की परीक्ता की जाती है; उनःम्रकृति-विति
साथसारकोभीदियाहे। अर्थात्‌ सारके द्वारा सेगो
सर्व॑या हीनं वानस्पत्यं भित्‌ । सुश्रत शा०ॐ० ४ मे भी
कहा हे--पवस्थानःतिनिः्यमाहरि केवर रतः। वानखत्यौ नरः के बरूकी परीत्ताकरनेका भी विधान चरकवि.अ ‹<में
सच्वध्मकायाथैवजितः ॥
कहा है - सासतश्चति-तारण्यष्टौ पुरुषाणां वमान तिरेषक्ञानाैमुप-
दिर्यन्ते। तचथा--वग्रक्तमांसमेदोऽस्थिमजश्ुक्रपच्वानि । बल के
इव्वेत्रिषिधं सन्खछं तामसं मोहसंमघम । प्रमाण को जानने के लि सारं द्वार रुक्तण कहे गये हे । सार
यच्चामेध्यमकल्याणं सवं तच्चापि तामसम्‌ ॥ के विषय मे चक्रपाणि ने कहा हे-'विदयुद्धतरो धतुरुव्यतेः अर्थात्‌
इस प्रकार मोह से उपपन्न यह तीन प्रकार का तामसक विश्यद्धतर घातु को “सारः कहते हैँ । जिघ्र गुण की विशेषता
कहा है । धौर जो कुच भी अपवित्र तथा अकर माणकारी होता होती है बारुक उसी सार वाखा कहराता हे 1 उदाहरणार्थ-
हे वह खद तामस कदराता है । चरक शा० अ०४ मं कहा जो वालक सस्वगुण विशिष्ट होता है उसे सत्वसार कहते ई
है-श्येवं वल तानसस्य सत्वस्य तरिविधं भेदाय मिथान्मोहार- यहां आटसर्योका वर्णन क्रिया गयाहे। रहत अन्थें९
तात्‌ ।सुश्रुत सा० अ०४्म कहा हे--दव्येते तरिविधाः कायाः
_ , सार गिनाये गये हैँयहां भोज को अधिक्‌ गिना गथा ह ॥
मोक्ता वे तामसास्तथा ॥ त्वभ्रोगरहितो मोगी प्रसन्नव्यज्ञनच्छविः।
सक्तं प्रकाशकं धिद्धिः रजश्चापि प्रवतंकम्‌ । सथ्यःकतप्रयोहश्च तक्सारः सुतनूरुदः॥
तमो नियामकं प्रोक्तमन्योन्यमिथुनभ्रियम्‌ ॥ त्वक्‌सार बारुक के रुक्तण--जो व्वचा के रोगों (ऽप
सख गुण प्रकाशक है ( अर्थात्‌ प्रस्येक वस्तु को प्रकारित 05695९5 १से रहित है, भोगी दहै, जिसके शरीरी
छवि
अर्थात्‌विश्चद करने वाङाहै), रजोगुण्वर्तक दे(अर्थात्‌ भ्रव्येक ( कान्ति ) नि्म॑रु तथा स्पष्टरूप से दिलाई देने वारीहे,
वस्तु को प्रवृत्त करने वाला--गति देने वाखा ह ) तथा तमो- जिस्फे घाव शीघ्र भर जाते है| तथा जिसके रोग प्रशस्त होते
गुण नियामक ८ नियन्त्रण करने वाका ) होताहे। ये तीर्न
है--वह बालक त्वकसार कहाता ह ॥
परस्पर एक दूसरे फो प्रिय होतेह अथात्‌ ये तीर्न परस्पर
संयोग से कामै करते है सांख्यकारिका मँ कहा है--पच्
ठधुभकादाकमिषटमुपष्टम्मकं चरं च रजः गुरूबरणकमेव तमः प्रदीप-
िय ।
व्चार्थतो वृत्तिः ॥ प्रीत्य्रीतिविशदास्मकाः प्रकादघरृत्तिनमाथः
# # @ & # के = ॐ ॐ # क # क # छ # # क क # = # # # # ॐ ¢ क #@ & > ॐ ¢ ‰ न चै

अन्योन्याभिमवाश्रयजननभिथुनदृत्तयश्च गुणाः ( इति ताडपत्रपुस्तङे ४९ तमं पत्रम्‌ । )


यदा यन्चाधिकं यस्य स देही तेन भाषितः। ( सूत्रस्थानस्येतावानेव भाग उपरन्धः! )
` शुभाश्यभान्याचरति फलं मुङके तथाविधम्‌ ॥ <^ 9429 + ।

जिस व्यक्ति मे जिस समय जिस सख की अधिकता र्तसार बाख्क--अर्ण आमा वाराः ** (होताहे)
( प्रधानता ) होती है बह उसी के जनुसार भ एवं अशभ
आचरण करता है ! तथा उसी क अनुसार (वेसा ही ) वह ( सूत्र स्थान का इतना ही भाग उपर्ञ्ध हभ है)
फल भोगता हे ॥ । | वक्तन्य--उपर्युंक्त श्लोक के बीचमें ही यह अध्याय
समानसन्सा बालानां तस्माद्धात्री प्रशस्यते । खण्डित हो गया है । अतः हम पाठको के ज्ञान के स्यि अन्य
उद्रेगविच्रासकरी विपरीता न शस्यते ॥ शाखीय मन्थो के आधार पर इन सारो के रन्तण कहते है-
हस्य बारूको के ल्य समान सखवारी धात्री प्रशस्त चरक वि.अ.८में इनके निन्न छक्तण दिये है-सकसार के
मानी गई है विपरीतं सस्ववारी धात्री उद्टेग तथा कष्ट लक्षण- तत्र ल्िग्धदख्दणम्रदुप्रसन्नखक्ष्नाद्पगम्भौरसुकुम।रलोमा
उत्पन्न करने वाटी होने से निषिद्ध मानी गईं हे । समप्रमेव च त्वक्‌ त्वक्साराणां, सा सारता सुलसोभाग्येश्योपभोगवु.
न जीवन्त्यथ जीवन्ति कृच्छा घात्रीविपयेये । द्विविचारोग्यप्रहषेणान्यायुश्चानित्वरमाच्ष्े । स्वकृसार युष की
समाना बालानां पुष्टिरयुबेलं सुखम्‌ ॥ त्वचा स्निग्ध, चिकनी, कोमरु, निमंर, पतली तथा थोड़े गहरे
१. इससे आगे इस ताडपत्रपुस्तक में ५० से ठेकर ७४ तकः
धात्री के विपरीत सच्च ( गुर्णो ) वारी होने से, नारक
जीवित नहीं रहते द । जौर यदि जीवित रहते भीतो के ८५ पृष्ठ लुप्त हए हैँ, जिस्म सम्भवतः स्रस्थान का अवरिष्ट
अत्यन्त कठिनता से। समान सस्व बाङी धात्रीत बाकी की अंश, सम्पूणं निदान स्थान तथा विमान स्थानकाभी पर्याप्त अंश
पुष्टि, भायु, बर एवं सुखको देने वारी होती है ॥ होना चाहिये । | `
छक्तणाभ्यायः २८ ) सूत्रस्थानम्‌ । ५५५५
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सुङ्कमार वारो वाली एवं प्रभायुक्त होती है । यह सारता सुख, |खि्थो को बहुत चाहने वके होते । वे उपभोग प्रिय एवं
90 (चि ५, ण
॥#) # + + 9

सौभाग्य, उपभोग, इद्धि, विचा, आरम्य, प्रसरता तथा दीर्घा. |वकवान्‌ होते हे तथा सुख, देश्वर्थ, आरोग्य, धन, सम्मान तथा
युष्य को प्रकट करती हे । रक्तसार केररण--पर्णाक्षिरलजिहा- सन्तान से युक्त होते है । सच्सार क रक्षण रएतिमन्तो-
नासौपाणिपादतल्नवल्लाथ्मेहनं चिनिग्धस्तं श्रौभद्‌ भ्राजिष्णु ।भक्तिमन्तः कतक्ञाः भ्रा्ञाः छुचयो महदोतसाहा दक्षा वीराः समरवि.
रक्तस्ाराणां, स्ता सारता इउखुदयरतां मेधां मनखित्वं सौकुमायैमन- | क्रान्तयोधिनर्त्वत्तविषादाः सघरदिथितगतिगंभीरडद्धिनेष्ठाः कलस्याणा-
वभुभ्णामदिष्णुत्वं चाचष्टे ` रक्तसार पुष के | भिन्िवेदचिनश्च स्वस्तायाः, तेषां स्वरक्षणरेव गुणा ग्याख्याताः ।
तिवलसक्छेदसद्िष्णु
कान, आंख, मुख, जिह्वा, नाकः, होट, हस्ततर, पादतल, सच्सार पुद्ष स्यति एवं शक्ति से सम्पन्न, भक्तियुक्तः इतन,
नाखून, मस्तक तथा सूत्रेन्िय आदि स्निग्ध, खाल, शोभायुक्त बुद्धिमान, पवित्र, अत्यन्त उस्साही, शर तथा धीर होते
तथा उज्ञवर होते है । यह सारता सुखः, करता, मेधा, तेज- हं । रण में विक्रमपू्वक डते हँ । उह विषाद्‌ विलकुर नहीं
स्विता, सुङ्कमारता, अधिक वरकान होन), क्रे को सहन। होता, उनकी गति स्थिर होती हे। उुद्धि तथा चेष्टायें
तथा गमी को न सहना इत्यादि वातो को वताती हे । मांसं गम्भीर होती दै । वे कल्याण मे तत्पर होते हं । तत सवैः सार-
सार क लक्तण-दङ्कलटार्करकाटिकाऽक्षिगण्डदहनुयीवास्वन्धो
दरकक्ष- सपेताः पुरुषा भवन्त्यत्िवलाः परमगौरथयुक्ताः क्छेदसहाः सवा-
वक्षःपाणिपादसन्धयो गुरस्थिरमांसोपचिता मांससाराणां) सा क्षारा रम्भेष्वात्मति जातप्रत्ययाः कव्याणाभिनितङिनः रिथ समाहितः
घमां धृतिमलोल्यं षित्त वियां छखमाजैवमासेग्यं वलमायुश्च दीधंमा- शरीराः छस्तमाहितगतयः सानुनादस्निग्धगम्मीरमदास्वरः सुखेदवय-
चष्टे । मांससार पुरूषो के शङ्क, खखाट, कारिका, आंख, गाल; विन्तोपभोगसम्भानभाजो मन्दजरसो मन्दिकाराः प्रायस्तुख्यगुणवि"
हनु, ओवा, कन्धे, पेट, कक्त, वक्त ( छाती ), हाथ, पेर एवं स्तीर्णापत्याश्चिरजीविनश्च भवन्ति। इनमे से सव सारो से युक्त
सन्धियां मारी स्थिर तथा मांस से भरी इदं होती हैँ। यह व्यक्ति अव्यन्त बलवान्‌ , गौरवयुक्त, क्लेद्य को सहने वारे,
सारता, कम, धैय, अोदुपता, धन, विद्या, सुख, सरता, आत्मविश्वासी आदि होते ह । वे स्निग्ध, गम्भीर एवं महान्‌
भारोग्य, बरु जौरं आयुका सुचक्‌ हे । मेदः सार के रतण- स्वर वारे होते है । वे सुख रेश्दर्य, घन उपभोग एवं सम्मान
वणंस्वरनेत्रकेशटोमनखदन्तोष्ठमूत्रपुरीषेषु विशेषतः स्नेहो मेदः- से युक्त होते है । ऊहे बृद्धावस्था तथा रोगदेर सेंदहोतेदै।
सारणा, सा सारता वित्तेशवयंसुवोपभोगप्रदानान्याजवं सकुमारोप- वे दीर्घायु होते है तथा इनकी सन्तान भी इन्दी राणां से
चारतां चाचष्टे, मेदः सार पुरषो ॐे वर्ण, स्वर, नेन्न, केरा, रोम; युक्त होती है । इन सारो के विषय म सुश्रत सू. अ. ३५ में
नख, दन्त, ओष्ठ, मूत्र तथा पुरीष सें स्नेह भौ विशेषतः होती निस्न वर्णन मिरुता है--रश्ृतिमक्तिपरजञारौयंशौचोपेतं कस्या
हे । यह सारता धन, रेश्वयं, सुख, उपभोग, दानः, सररुता णाभितित्रेदयं ससार विद्यात्‌ , स्निरषस्तहतदे तास्थिदन्तनखं बहुल.
तथा खु उपचार फे योग्य होना-दइस्यादि का सुचक हे । कामप्रजं शक्रोण, अक्ररामुन्तमवलं स्निग्यगम्भीरस्वरं सौभाग्यो पपन्नं
अस्थिदारं ॐ कच्ण-ाष्णिरुल ्फजानवरलिजदुच िवुकिरःपवं - महानेत्रं च मञ्जञा, महारिरःस्कन्धं दृचदन्तहन्वस्थिनखमस्थिभः,
स्थूलाः स्थूरास्थिनिखदन्ताश्वासिथसाराः, ते महोत्साहाः क्रियावन्तः स्निग्धमूत्रसवेदस्वरं बहच्छरीरमायासात्दिष्ु मेदसा, मच्छद्रगातर
व्ेदासहा; सारस्थिरशरीरा मवन्त्यायुष्मन्तश्च । अस्थिसार पुरषो गृढारिथसन्थि मांसोपनचितं च मांसेन, रिनिग्धतात्रनखनयनताडलि-
करी एदी, गुरफ, जानु, कोहनी, जत्रु, ठोडी, रिर, पव, ड़ः हय्ठपाणिपादतलं स्तेन, सुप्रसन्नमृदुत्वय्ोमणं त्वकुसारं विा-
नख तथा दात स्थुल होते दै \ वेबडे उत्साही, क्रियाशील, छेदा दिति। एषां पूर्वपूर्वं प्रधानमादुःसोभाग्ययोरिति।
को सहने वारे, ड एवं स्थिर शरीर वारे भर दीर्घायु होते ह
मञ्नासार क ङक्तण-तन्वङ्गा वल्वन्तः रिनग्धवणस्वराः स्थु- पाठको ॐ ज्ञान के स्यि हम संकेप से कररेखार्था तथा
दीरधवृत्तसन्धयश्च मज्जक्ताराः, ते दौधायुषो वख्वन्तः शरृतविक्ञानवि- उनके शभाश्युम फलो का वर्णन करते हँ । कर रेखा्भो केद्वारा
तापत्यसम्मानभाजश्च भवन्ति। मञ्जासार पुरषो के अङ्ग पतरे बालकों की आयु, भाग्य, पेश्वथं, विद्या, इद्धि, धन, सुख
होते है, वे बरुवान्‌ ¦स्निग्ध वणं एवं स्वरवारे, मोटी-रुर्ी तथा दुःख आदिका ज्ञान होता है) हाथ मे स्थित विशेष
एवं गोर सन्धियो वारे, दीर्घायु, बलवान्‌, श्रत (शाखक्तान); रेखाओं तथा वञ्, नक्तत्र, यव जदि चिद का विशेष प्रभव
` विज्ञान, धन, सन्तान एवं सम्मानयुक्त होते हँ । श॒क्रसार माना गया है! इसख्यि बालके के दीर्घापुष्य को जानने के
के लन्षण-सौम्याः सौम्यप्रेक्षिणश्च क्षीरपूखंलोचना इव प्रहषे- च्वि जन्य प्रशस्त एवं अप्रशस्त शारीरिक लच्णों के साथ २
शना
बहुलाः रिनि्धवृत्तसारसमंहतरिखरि द प्रसन्नसिनिरथवणेस्वरा इन हस्तरेखा का जानना भी आवश्यक है । विकिरसक
आजिष्णवो महास्फिचश्च शुक्रसाराः, ते खग्रियाः प्रियोपभोगा- को इन हस्तरेखा से विरोष सहायता मिरु सकती हे ।
बलवन्तः सुसैरवर्यासेग्यवित्तक्षम्मानापत्यभाजश्च सवन्ति । शुक्रसार हमारे पूवज सामुद्रिक शाखवेत्ता्भो ने हस्तरेखा्ओं के विषय
पुष सौम्य तथा सौम्यदशि होते है । उनकी भख दूध के मे जो विचार कवि दैवे संकतेपमे निग्नप्रकार (सेर्ह। हस्त
को हम सुख्यरूप से तीन श्रेणियो ०858९) म॑
समान तृक्च जथवा शुभ्र होती हैँ1 उनको ध्वजोद्ाय ( ८८ रेखा्भो
) सख्य रेखाप्‌, (२ ) अनुगरः
० )बहुत होता हे 1 उनके दात रिनग्ध, गो, इद्‌, सम, विभक्त कर सकते है ! (१
विरोष प्रकार कँ चिह्न । १~अथम
संगस्ति तथा तीच्ण अग्रभाग वाङ होते है! वणे भौर स्वर खार, ( ३ ) वन्न नक जादि ईै---पिव् रेखा-जो तजेनी `
नि्म॑क एवं स्निग्ध होते ह । वे कान्तियुक्त होते है । उनके प्रेमी की सख्य रेखा निम्न इं होती
नितम्ब बडे होते) वेखिर्यो केप्रिय होते अथवावे | अंगुखी ॐ मूर से मणिबन्ध के मध्यमाग तक केली
॥ 1६
काश्यपसंहिता क दृद्धजीदकीय तन्श्रम्‌ । [ विमानस्थानम्‌ `
0 ^ 00 श त ++ +) क व ^छ + ^ + ^ प0 ५^ वी^ धत #+ ह0 नि +0

है! 7~ मातृरेखा-जो इसी के कगभग समानान्तर हथेी के भी मातृज भावं माना जाताहै।. दसी दिये पाश्चाव्य विद्वान्‌
मध्य मँ रहती है। आ-आयुरेखा-जो कनिष्ठिका अंगुली के मातृरेला को शिरोरेखा (1.7९ ० ४००५ ) सानते है । आयु.
मूर से तर्जनी के मूरु तक जाती है । (-माग्यरेखा-यह रेखा-पहरे बताया जा चुका है फ जायुरेखा कनिष्ठिका के
मणिबन्ध के मध्य से लेकर मध्यमाङ्ुली तक जाती है! मूर से तर्जनी के मूर तक जाती हे । इस रेखा से प्रव्यक्त रूप
५--रव्रिरेखा या विचारेखा-जो अनामिका गुटी के से बाख्क की आयु का विचार छिया जाता हे । मनुष्य की पूरण
मूर से पित्रेखा तक जाती हे । ण--वाणिञ्य या स्वास्थ्य आयु १२० वषं की मानी गई है । कहा मी है-समाः षिद्ध
रेखा--जो पितृ रेखा से छेकर कनिष्ठिका तक जाती हे । ये मलुजक्ररिणां पञ्च चनिशा। हयानां द्विषि" ११११०५१००१००..
६ सुर्य रेखायं मानी जाती है । ये प्रथम श्रेणी कीहें। २. इयादि | ( वराहमिहिर ) यह आयु बुध स्थान से छेकर हु-
इनके अतिरि दूसरी श्रेणी की ङं गौण रेलायें होती ई स्पति स्थान तक क्रमश्चः 4०, २०, ४० एवं ९० ( = १२०)
जिम अनुग रेखायं कहते हँ! ; पितृरेखा की अनुगरेखा । गणना के अनुसार ४ मगो मे विभक्त हद पूणं जायु (१२०
‡ चाणिभ्यरेखा की अनुगरेखा-इसे प्रवृत्तिरेखा भी कहते दहे ¦ वर्षं ) को प्रकट करती है । माग्यरेखा-द् रेखा से अधिकतर
#). एक आयु रेखा की अनुग रेखा भी होती है । इसे शक्र- वालक के कार्य ( राजसेवा-नोकरो ) इस्यादि का विचार भ्या
बुध संयोजिनी रेखा कहते दै । ये द्वितीय श्रेणी की गौण जाता हे । रविरेखा--इस रेखा से बाटक फी विद्या एवं यश्च,
रेखायं ह । २. तृतीय श्रेणी की रेखाय-ये हाथ में भिन्न २ प्रभाव आदि का विचार होता हे। वागिञ्यरेखा--इस रेखा
स्थानों पर विशेष २ प्रकार के चिह होते ह जिनके द्वारा शुभ से स्वास्थ्य का विषय तथा व्यवसाय आदि का विचार क्रियां
एवं अशुभ भार्गो काक्तान होताहे। ये निम्न है- जाताहे इन तीनों रेखाओं (भाग्य, रवि तथा वाणिञ्य रेखार्भो )
1. वच्ररेखा † नच्त्र रेखा, 71 यव रेखा, 7 चतुष्कोण
को सम्मिलित खूप से भाग्यरेखा कहा जा सकता है क्योकि
दन तीनों रेखाओं के हारा बालक के मण्य का ज्ञान होताहे।
रेखा, » त्रिकोण रेखा, ये सव रेखायं हाथ सें करतर (1८)
के स्थानविशेष मेंविशेष फट देती है । इन मुख्य रेखा्भो के फला के अतिच्कति अनुग रेखारं अपनी ३
सुख्य रेखाओं को दौषरहित करके अधिक बर्षान बनाती है ।
इन उपु्त रेखाओं के अतिरिक्त करतलमें सप्र के भी तृतीय श्रेणी की रेखा्प--वञ्नरेखा-शभस्थान अर्थात्‌ ब्रहस्पति,
एथक्‌ २ स्थान होते है । आगे ये सब दिखाये गये ह । १. रवि शुक भौर सम उच्च चन्द्रमा तथा बुध के स्थानमे मी ग्रहे
स्थान--अनामिका के निचे कांश्च रविस्थान कहखतादहै । अपने २ स्वाभाविक भार्वो को वदति| यदि यह वच्नरेखा
२. चन्द्रस्थान-मणिबन्ध केबादरंतरफ का स्थान । ३. मंगर- ऋर ग्रहो के स्थानो मे ( विशेषकर मंगर ओर शनि ) हो तो
स्थान--करतर का मध्यस्थ । ४. बुधस्थाने-फनिष्ठिका उनकी स्वाभाविक अनिष्टकार्ति को बढ़ते है । नक्तत्ररेखा--
का निन्न स्थान । ५ बृहस्पतिस्थान-तर्जनी भंगुखी का इसके फर भी प्रायः दसी प्रकार के होते रै । परन्तु नक्तत्रचिहू
निन्न भाग । €. शश्रस्थान--अगुष्ठ का निन्न स्थान । वघ की अपेक्ता अधिक बलशाली होता है । यवचिहू--यहं
७. रानि स्थान-मध्यमा अङ्कुल का निश्च स्थान ! हाथ किसी रेखा या स्थान पर हो तो अनिष्टकारी माना जाताहे।
मे भिन्न २ प्रकार की रेखाओं, चि तथा प्रहे स्थानोको केवर अंगुष्ठ के मध्यमे यदि यह चिह्वहोतो शुम माना जाता
देने के वाद्‌ जब हम संरेप से उनके फरो का वर्णन करते है । है । उस अवस्था मे वारक विद्धान्‌, भवि अथवा धनवान
पितृरेवा-दस रेखा से शरीर फे सम्पूर्णं पितृज भावो का होता है । चतुष्कोण--इस रेखा के फल -ुध एवं बृहस्पति
परिचय होता है । शरीर फे अम्द्र जितने भी कठिन (कठोर स्थान में शम होते है । इनके अतिरिक्त स्थानों में इसका होना
भाव होते हँ वे सब पितृज भाव माने जाते हँ । इससे ज्ञात अनिष्टकारक होता हे । त्रिकोण--यह रेखा जि ग्रह के स्थाम
होता हैकि बालक सें कितनी ददता है । शरीर फे चठ होने सै मे होती है उसी अह कौ सवकता प्रकट करती है । यह चि
आयु का संबन्ध हे अर्थात्‌ इस रेखा को देखकर आयु का साधारणतया सभी स्थानो में प्रशस्त माना जाता हे । इन उप.
विचार किया जाता है । इसी छ्ि पाश्चात्य विहान्‌ पितृरेखा युक्त सभी हस्तरेखा एवं चि का विचार करके बाख्क की
को जायु रेखा (1०6 0 1 ) मानते है । मावृरेवा-इस आयु, भाग्य तथा कर्माजीव आदि का निर्णय क्रिया जाता हे ।
रेखा से शरीर ॐ सम्पूणं मातृज भावो का क्ञान होता हे!
विषयान्तर होने से हमने संरेपमें ही इस विषय को यहां दिया.
शरीर मे जितनी मी सिनग्ध एवं कोमरु वस्तु तथा भाव है हे । विशेष ज्ञान के लिये पाठको को यह विषय अन्यत्र देखना
वेसब मावृन कहकाते ई ¦ मस्त॒लुङ्ग (एग्"-मस्तिक ) चाहिये । `.
+ = © = + = ^+ = कज = +
गोमयेनाद्धि् गोचममात्रं स्थरिडरदुपङ्लिप्य; यथोक्तं
० & र ५ ७०० & + ० ® ० ५५५१०४५५ ०१५

तत्र लक्णोह्ेखनाश्चप्रसयनपरिसमूहनपयुक्णन्रह्यप्रणी-
+ = च» ५ ‰# @ ० क कै ० # @ > @ ७ ^ @ क ० + छ
७ 9 क क» # = + = 0 5 ७ क + क 8 5 # #

वक्तव्य --इस अध्याय की केवर अन्तिम दो पंक्तियां ही तास्तरणाउ्योत्दनाघाराञ्यभागाधिहोभाम्‌ कृता, पाला-


उपर्डध हुईहै । शेष सम्पूरणं अध्याय खण्डित हे । अध्यायका शीः समिधो घृताक्त जदेद्ि-रदये खादय, सोमाय
समाकषि-सुचक अन्तिम वाक्य ^ इति ) क्णायजयावष्टीवनं साहा, प्रजापतये स्वाहा, कश्यपाय स्वाहा, अच्िभ्यां
विमानम्‌ भी अत्यन्त अस्पष्ट है । इसे देखकर यह नहीं का साहः इन्द्राय स्वाहा, घन्धन्तरये स्वाहा, सरस्वत्ये
जा सकता कि इस अध्याय का कया विषय ह । अन्तिम पंक्ति
से थोडी सी ध्वनि अवश्य निकरुती हे। 'अवे्तितजान्‌ गदान्‌? स्वाहा, पूणेमगाय स्वाहा, अग्नये स्ििष्टकृते स्वाहा; इति
को देखकर यह कहा जा सकता हे कि सम्भवतः इसमे इटि हुता; ब्राह्मणं हधिष्यौदनेन दन्तिणावता तपेयिताः
दोष से उस्पन्न होने वाठ रोगो का वर्णन किया गया होगा । देवांश्च बलिभिः, गुरवे पूणङ्कम्मं दक्षिणा दत्तवा दधिः
न्त सें उन्हीं का देवता तथा नक्तत्र आदिक की पूजाके हारा कराग्णः इति प्राङ्मुखो दधि प्राश्य, उपसपृश्याद्धिः, परिः
प्रतीकार दिया हुआ है । इससे अधिक इसके विषय मं ऊच क्रम्य प्रदक्तिण, गुरोबाहुंसंसपरस्य बरूयात्‌-असावहं पत्र
कहना कठिन दै। इति, पादौ संसपश्य न्रूथात्‌--असावहं शिष्य इति ॥२॥
प्रथक्‌पूजा हिताशमम्‌ ।
सबसे प्रारम्भ में आचार्यं को चाहिये किं वह समीप भये
तिथिनक्तत्रदेवार्वां च्न्त्यवेक्षितजान्‌ गदान्‌ | हुए, विद्या के इच्छुक तथा भगे कहे गये शिष्य के गुर्णो से
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ।। युक्त शिष्य का उत्तरायण कारु मे अरज्ञस्त दिन तथा अधिनी,
( इति )कर्णायजयाबष्ठी
वनं (१) विमानम्‌ ॥ रोहिणी, उत्तरा या अन्य किसी नक्तत्र मे विधिपू्वंक उपनयन
करे । फिर पूर्वंया उत्तर की ओर पुण्यकारक स्थान मे गोवर
पृथक्‌ २ देवतार्ज की पूजा, हिताशन ( पथ्य आहार का तथा पानी ते गोच्मके प्रमाणकी एकचोकीया फशंको
सेवन ) तथा तिथि, नक्तत्र ओर देवतां की अर्चना से रीपकर तथा यथोक्त रुक्षणोर्छेखन ( ङण के अनुसार भूमि
दृष्टिदोष नष्ट होते ईँ ॥ |
खोदना जादि ), अभिप्रणयन ( जभ्नि का काना); परिसमूहन
एेसा भगवान्‌ कश्यपने कहा था । ( इधर उधर बिखरी इुदईं॑वस्तुर्ओो को एकत्र करना ), पयुंण
( इति ›)कर्णायजयावष्ठीवनं() विमानम्‌ ॥ ( जरः दिडकना ), ब्रह्मप्रणी त-आस्तरण ( यज्ञ के बह्मा के
निनित्त बनाया हआ आसन बिद्धाना ), आञ्योस्पवन ( चृत
"^ 06. 9

कतो पवित्र करना अथवा पिधाना >), आंघाराज्याहुति,


रिष्योवक्रमणीयविमानाध्यायः।
( १) उपनयन का अथ अध्ययन के ल्यिरिष्यको भचायं
अथातः शिष्योपक्रमणीयं विमानमभ्यायं व्याख्यास्यामः! के समीप काति से दै--अध्ययनाधैमाचा्य॑समीपं नीयतेऽनेनेद्युप-
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥ । नयनम्‌ ॥
. अव हम शिष्योपक्मणीय विमानाभ्याय का व्याख्यान ( २) गोच -२१०० हाथ रम्बे-चौढे स्थान को कहते है ।
करेंगे } एेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था ॥ १-२॥ कहा मी है- |
वक्तम्य-शिष्योपक्रमणीय का अभिप्राय शिष्य का सदस्तेन दण्डेन व्रिशदण्डेनिवतेनम्‌ 1
अध्ययन के निमित्त गुर्‌ के पास आना हे । गुर्‌ उसकी सम्यक्‌ दश तान्येव गोचमं दत्वा स्वगे महीयते ॥ अनुवादक ।
प्रकार से परीक्ठा करके उसे शाख का ज्ञान देता है । शिष्य
विद्या का अधिकारी हैया नही, यह जानने केख्थिही इस ( ३) य॒स्य होम कै आदि जर अन्तम जो आहति दी जाती
अध्याय का उपक्रम किया गयाहे ॥ १-२ ॥ ह उनमें से यज्ञ कुण्ड के उम्तर भाग म जो एक आहति श्नौर यज्ञ-
उसे आधारा-
कुण्ड के दक्षिण भाग मँ दूसरी आहति दी जाती दै
रथ खु गरः शिष्यमभिगतं विद्याथिनं शिष्य- ज्याहुत्तिः कहते है! जेसे-श्चो जग्नये स्वादा। इदमग्नये-द्दन्न ममः
गुणान्वितं विधिनोपनयेदुदगयने पुरुयाहे नक्त्रेऽधयुजि क द्वारारन्तर मागमे तथा श्रो सोमाय ख्वाहा। इं सोमाय-श्दत्रमम'
रोहिख्यासुत्तरास्वन्यस्मिन्‌ वा । पुण्ये प्रागुदक्भवणदेशे । के द्वारा दक्िण माग मे आहुतिं दी जाती हे।अनुवादक
८ काण |
"१८ काकयपसंहिता वा दद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । [ दिष्योपक्रमणीयाध्यायः !
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आज्यभागाहति तथा अन्य आहुत्नियां आदि तेयार करके घृतः दक्षिणतो बश्याखं स्थापयित्वाऽश्निमुपरसमाधाय खदिरपराशदेवदार-
युक्त पराश ८ ढाक ) की समिधानं से निन्न दैवतार्भो तथा बित्व(नां समिद्धिश्चतुणा' वा क्षीरिवृक्षाणां न्ययोधोडम्बराश्वत्थमधू-
ऋषियों के नाम से आहुति देवे-अश्नये स्वाहा, सोमाय स्वाहा, कानां दधिमधुषताक्ताभिर्दांवींहौभिकेन विधिना सधणवाभिमेहान्या-
प्रजापतये स्वाहा, कश्यपाय स्वाहा, जशिवभ्यां स्वाहा, इन्द्राय हतिभिः घरेणाञ्याहुतीज्जुहयात्‌ । प्रतिदेवतमरषीँश्च स्वाहाकारं जुहु-
स्वाहा, धन्वन्तरये स्वाहा, सरस्वप्ये स्वाहा, पूणंमगाय स्वाहा, यात्‌ । शिष्यमपि कायेत्‌ ॥ ३॥
अग्नये स्वदते स्वाहा । पिर दक्षिणा सहित हविष्य ओदन अथ शिष्यगुणाः-क्तानितिरदांदयं दाक्िण्यमानुकूल्यं-
क द्वारा जद्वर्णो तथा बङिके द्वारा देवताओं को तृक्त करके शौचं कुले जन्म धमंसत्याहिंसासामकल्याणज्ञानषिज्ञा-
५, # £ हिं ,

तथा गुह को घडा भरे धन आदि की दक्तिणा देकर "द्धि.


नस्थितिविनिवेशः पाटवं यथोन्तकारितवं ब्रह्मचयमनु-
रि ® + . ® „ १ स

काणः इत्यादि मन्त्र वोलुकर पूवं दिशा मेँसुख करके दधि का


स्सेको लोभेष्यांविघजंनमिति; अतोऽन्यथा दोषः स-
ठ न € _ (~ न ~ भ +
सेवन करके, जक का स्प करके तथा अध्चिको दक्षिणम
रखकर परिकिमा करे गुदं का हस्तस्पशं करके वह कहे-यह वव्यैः ।। ४॥ |
मै आपका पुत्र हूं तथा गुरु के पैरो को स्पशं करके कदे यह मेँ सिष्य के गुण-त्तमा, निपुणता, चतुराद, अनुकुखता,
आपका शिष्य ह्रं! चरक वि. अ. ८ म शिष्योपनयन-विधि ( आचाय के अनुकूरु होना ), पवित्रता, उत्तमङुर म जन्म
निञ्च प्रकार से दी है-एवें विधमध्ययनाथेसुपस्थितमारिरा- ( ङलोनता ), धर्म, सस्य, अहिंसा, साम (शान्ति ); कल्याणः
धयिषुमाचार्यश्चालुमपेत--मथोदगयने शुक्रपक्ते प्रशस्तेऽहनि ति- ज्ञान तथा विद्वान की स्थिति प्रवेश, पटुता, यथोक्तकारि्व
ष्यहस्तश्रवणाश्वयुजामन्यतमेन नक्षत्रेण योगणुपगते मगवति शशिनि
( आचाय की अक्ता के अनुषार कायं करना ), बरह्यचर्,
कल्याणे कस्याणि च करणे मैत्रे युदहूतं यण्डः स्नातः कृतीपवासः
उस्सेक ८ गर्व-अहंकार ) का अभाव जौर्‌ रोम तथा ईष्या
कृषायवदसंवीतः स मधोऽग्निमाञ्यमुपरेपनसुःकुर्म्माश्च गन्धहस्तो
मास्यदामप्रदीपदिरण्यहेमरजतमरिखत्तावि द्वुसक
मपरिषिकु श्च्षो
राज ˆ का स्याग-ये शिष्य केगुणहँ। इसके विपरीत दोषो से
सषपात्ततांश्च शुक्छश् सुमनसो यथिताय्रथितांश्च मे््यांश्च मद्यान्‌ युक्त शिष्य का व्याग कर देना चाहिये । अर्थात्‌
उपयुक्त गुणा `
गन्धांश्च धृष्टानादायोपतिषठस्वे्ति, अथ सोऽपि तथा कुर्यात्‌ । तमुप- से रहित क्लिष्य का. ग्रहण नहीं करना चाहिये । चरक बवि०
स्थितमाज्ञाय समे श्युचौ देशे प्राफ्‌प्रवणे उदक्प्रवणे वा चतुष्किष्कुमात्र अ०्८मे शिष्य के निम्न गुण दियेर्है--अध्यापने करतदद्धिय-
चतर खंस्थण्डिल गोमयोदकेनोपलिपे कुश्लास्तीणं खपरिदहितं परि- चार्यः दिष्यमेवादितः परीकेत तयथा -प्रशञान्तमायप्रकरृतिमन्ञद्र-
धिभिश्वतुदिशंयथोक्तचन्दनोदककुम्भक्तौमहैमदिरण्यरजतमणियुक्तावि-
कर्माणख्जुच्धसंबनासावंशं ततुरक्तविशदजिहमविकृतदन्तौष्ठममि-
्रमाल्कृतं मेध्यमश्षयगन्धञुह्पुष्पलाजसषपाक्षतोपशोभितं कत्वा, ण्मिणं धृतिमन्तमनहंकरतं मेधाविनं वितकैस्मरतिसम्पन्नसु दारसचं
` तत्र॒ पालाश्चीभिरिङ्गदौभिरौदुम्बरीभि्माधुकरीभिवी समिद्धिरस्नि- तद्वियक्रुलजमथवा तद्विचवृचं तच्वाभिनिवेरिनमनग्यङ्गमव्यापन्नेन्द्ियं
सुपसमाधय प्राद्युखः शचिरध्ययनवियिमनुषिषाय मधुसपिभ्या निशतमनुदतवेश्चमन्यस्नि नमथैतत्वभावकमकोपनं शौलशौचाचा
तरिखिजहयादग्निमाश्चीः `प्रयुक्तमेनतरेवेद्याणमर्नि धन्वन्तरिं प्रजा- रानुरागदाक्ष्यप्रादक्षिण्योपपन्नमध्ययनाभिकाममथैविज्ञने कमेद्श॑ने
पतिमशिनाचिन्द्रसृषीश्च सत्रकारानसिमन्त्रथमाणः पूवं स्वादिति । चानन्यकायंमलुन्धमनरक्षं॑सर्व॑भूतदितेषिणमाचायंसर्वानुरिष्टप्रतिप-
शिष्यश्चौनमन्वाकमेत, हुत्वा च प्रदक्षिणमग्निमनुपरिक्रामैत्‌ त्तिकरमनुरक्तमैवंयणस्षय॒दितमध्याप्यमेवःहुः । इसी प्रकार सुश्रत
ततोऽनुपरिक्रम्य ब्राह्मणान्स्वस्ति वाचयेत्‌, भिषजश्चािपूजयेत्‌ । सु० अ० २ मे कहा है- बाह्मणक्षत्रियवैशयानामन्यतममन्वयव-
इसीधकार सुश्रुत मे भी कहा है-उपनयनीयस्तु ब्राह्मणः यः. शीररो यंसौ चाचारविनयजशक्तिवलमेधाधृतिस्ृतिमतिप्रतिपन्तियुक्तं
प्रशस्तेषु तिथिकरणसह्ृनतेनक्षतरेषु भश्चस्तायां दिदि शुचो समे देये तनुजिहोष्ठदन्ता्रमृजुवत्काक्षिनासं प्रसन्नचिप्तवराकूष्टं॑क्लेशसहं
चतु्द॑स्तं चतुरं स्थण्डिलमुपलिप्य गोमयेन दर्भैः संस्तीयं रलपुष्पे- च॒ भिषक्‌ शिष्ययुपनपेत । अतौ विपरीतयुणं नोपनयेत्‌ ॥ ४ ॥
कँजभक्तर नरैश्चपूजयित्वा देवता विप्रान्‌ भिषजश्च तत्रोदिख्याभ्युक्षय
अथ रुरु:-धमज्ञानविज्ञानोदापोहभतिपत्तङकशलो-
८९१९) जोकुण्ड के मध्यमे आहुति दी जाती है उन्हें 'आज्य- गुणसंपन्नः सीम्यदशनः शुचिः शिष्यदहितदर्शी चोपदेष्ठा
भागाहुतिः कहते है । वे-“ओं प्रजापतये स्वाहा । इदं प्रजापतये-ददन्न च भिषकशासव्याख्यानङ्कशलस्तीर्थागतज्ञानविज्ञानः क-
ममः तथा ओरौ इन्द्राय स्वाह्‌। । इदथिनद्राय~इदन्न मम । इप्यादि ल्योऽनन्यकर्माऽव्यृत्तः शिष्यगुणान्वितश्च । *अतोऽ-
दो आहुततियां है । | | न्यथा दौषेवेऽयः॥ ५॥
(२) स्विष्टकृत हदोमाइति एक ही होती है जो किनिश्च मन्त गुर या आचायं के गुण-- धर्म, ज्ञान, विज्ञान, उहापोह
से धरत अथवा भात की दो जाती है-ओं यदस्य क्म॑णोऽव्यरीरिचं ( तकं वितकं ) तथा प्रतिपत्ति ८ प्रागर्भ्य, भरागुत्पन्नमतिव्व
यद्वा न्यूनमिहाकरम्‌ । अग्निष्टत्स्वष्टकृदिचात्‌ सवं सिवष्टं सडुतं करोतु जथवा युक्ति ) में कश, गुणसम्पन्न ८ गुणी ), जिसका
| मे। अग्नये स्विष्टकृते सुहुतहुते सर्वप्रायश्िन्ताहृतीनां कामानां सम- दशन या आकृति सौम्य हो, पवित्र, शिष्यो के हिरतो का
दयिते सवा्नः कामान्त्समद्धय स्वाहा । इदमग्नये स्विष्टक्ते-
इदन्नमम। . _ „ ` १. पूर्वोक्तैः शिष्ययुणैरपि यथासंभविभियुंक्त इत्यथैः ।
शिष्योपक्रमणीयाध्यायः $ ] विमानस्थानम्‌ तद ९

नि मि व.) ता ५५ "१, ५५ (व वा व का का) का +सा का ॥)


^ क ^

ध्यान रखनेवारा, उपदेशक, चिकित्सा शाख के व्याख्यान में प्रविचरता पू युर्वधोपान्वाहरये यथाशक्ति प्रयतितव्यं, क्मसिद्धिम-

ङुश्षर, कान तथा विज्ञान जिसे कण्टस्थ हो, कल्य ( सगल || धसिद्धि यरोलायं प्रत्य च स्वर्गमिच्छता त्वया गोनाह्यणमादौ क्रत्वा
1

कारी), जो ओर कोई कार्थं न करता हो ( अर्थात्‌ शिर्प्यो छो | सवंप्राणसृतां चमारासितव्यमहः दरून्तछता चोपविच्लता च स्वा-
अध्यापन के अतिरिक्त अन्य कोई आजी चिकाथं कायं न करता | त्मना चातुरणामासेग्ये प्रयतितव्यं जीवितहेनोरपि चातुरेभ्यो

हो ), जिसने अध्यापन कायं छकड़ा हज नहो ( जिसे ।| नाभिद्रोग्धन्यं, मनसोऽपि च परियो लाभिगसनीयास्तथा सवमेव

अध्यापन कार्यम सुचि हो ) तथाजो पूर्वोक्त शिष्य मेहने परत्वं, निभरतवेद्परिच्छदेन भवितन्यमङोण्डेनाप्पिनापापसदहायेन
{

वा गुर्णो से भी युक्त हो ) इनके विपरीत दोर्षो से युक्त गुर्‌ च इर््णश्चुदलयम्य॑ बन्यस यद्राम्यैदितमितवचसता देकाल्विचारिणा
( आचायं )का स्यागकर देना चाहिये) अर्थात्‌ उपर्युक्त स्यतियता ज्ञानोत्थानोपकरणक्तम्पत्सु नित्यं यत्नवता, न च कंदाचि-
गर्णो से रहित आचार्यं अध्यापन कायं के योग्य नहीं होता द्राजद्विष्टानां राजद्रषिणां वा महाजनद्वि्टानां महाजनद्रषिणां वाऽ-
है। चरक वि० अ० ८ में आचार्य को निम्न गुणों से युक्त प्यौषधमनुविधातव्यं तथा सवँषामत्यथे वक्रतदुष्टटःखद्ीकचासो-
बताया ह--ततोऽनन्तरमाचायं परीक्तेत। तद्धा--पयेवदातश्चुत पचागणामनपवादधरतीक्ाराणां सुमृषूणां च तथवासत्निहितेश्वसयणां
परिदृष्टकमांणं दक्तं दक्षिण शुचि जितहस्तमुपकरणवन्तं सवन्द्रियो- खीणामनध्यक्षाणां कवा, न च कदाचिव्छीदन्तमामिषमादातन्यमननु-
पपन्नं प्रकृतिज्ञं प्रतिपत्तिज्ञपुपस्कृतविचमनहडक्रतमनपूयकमकोपनं ज्ञातं मर्व्राऽथवाऽध्यक्षेण, आतुरङुहं चातुभ्रविद्यता त्वया विदितेना-
व्लेदक्षमं रिष्यवत्सलमध्यापकं ज्ञापनसमर्थं चेति, एवंगुणो द्या. नुमतप्र्रिना साधं पुरुषेण ससंक्रीतेनावाविद्रसा स्मृतिमता स्तिभि-
चार्यः सुक्षेघमात॑वो मेव इव सस्य॒णेः सरिष्यमाड्ु वेचगुणेः तेनादैदयावेश्षय मनसा सवम्राचःता बुदा सम्यगनुप्रवेषटन्यं, असुं
सम्पादयति । ५॥ प्रविदय च वाडमनोबुद्धीन्दरियाणि न कचित्‌ प्रणिधात्तव्यान्य॒त्रातुरा-
अथ शिष्यानुशासनं-मोः सौम्येनालक्रूतेन धामि दाठुरोपकाराथाहाऽऽतुरयतेष्वन्येषु वा मावेधु न चादुरङ्गलग्रबृ्तयो
केण जितेन््रियेणाहूतभ्यायिना च भवितव्यं, सवेनि वहिनिश्चारयितन्याः, इसितं चायुषः प्रमाणमातुस्स्य च वर्णयितव्य
जानताऽपि तत्र यत्रोच्यम!नमातुरस्यान्यस्य वाप्प्युपघाताय सप्ते,
वेदिना समानटदुःखेन देशकालज्ञेन धृतिमता च भवि- ज्ानवताऽपि च नात्यथंमात्मनो ज्ञाते पिकत्थितव्यं, आप्तादपि हि
तव्यं, लोभक्रोधमोहेरप्यप्रहासवेरमद्यमां
सद्ीभ्यो निव विकरथमानादत्यर्थमुद्विजन्त्यनेके । इसी प्रकार सुश्रत सू° अ०
तयि(न्ति)तव्यं, गुरशुश्रषाऽवरशेषेणाध्येतव्यं; न चानु २ मे कहा है-ततोऽनि तिः पशीयाग्निसाक्षिं शिष्यं नयात्‌
ज्ञातेन न चानभ्यच्य वा गुरुमसमाप्रविदयेन वा भ्रचरि कामक्षोधलोममोहमानाहङ्करेष्यांपारुष्यपश्चुन्यानृतार्स्यायशस्यानि
तव्यम्‌ । & ।। हित्वा, नीचनखरोम्णा श्चुचिना कषायवाससा सत्यत्रतनह्मचर्याभिं
शिष्य के प्रति उपदैश्--वत्सं ! तुक्चे सौम्य, अनुकर वादनतत्परेणा्वदयं भवितन्यं, मदलुमतस्थानगमनङ्षयनास्तनमोजं-
( आचायं के अनुदक ), धामिक, जितेन्द्रिय, अध्ययन के नाध्ययनपरेण भूत्वा, मस्ियदहितेषु वितव्यम्‌ , अतोऽन्यथा ते वतै.
य्य जिसे बुखाया जाय, सब ऊुढु मृश्च कह देनेवाला (अर्थात्‌ मानस्याधर्मो भवति, अफला च विया, न च प्राकादयं प्राप्नोति ॥६।
सुश्चसे कं न दिपाने वाखा ), समान दुःख वारे ( अर्थात्‌ अथाभ्ययनविधिः-गुसः शुचिरुद्धतहस्तः शुचो देशे
मेरे इख को अपना दुख समन्षने वारा ), देश्च तथा कारका तद्रच्छिष्यायावहितायाथशब्दमोङ्कारं वा पू प्रयुञ्य
ज्ञान रखने वाला ओौर तिमान्‌ होना चाहिये । रोभ+ कोघ
महान्याहतीरनूच्य साधिन्रीं च चिरभ्यस्याऽघीष्व भो
मोह, ईर्ष्या, प्रहास ( दुसरे की हंसी-मजाक उडाना ), वेर,
म्य, मांस तथासी से दूर रहना चाहिये! गुरुकी सेवा इप्युक्ते(क्त्वा) रूपमेकं निगदेत्‌› तं चानुपठेत्‌ ; तच्छं
करते इए अध्ययन करना चाहिये । गुर से आज्ञा लिये यो रूपहतं संस्थाहतं च कुर्यात्‌ ; ग्रहणशक्षत्यवेक्त
विना, उनकी अभ्यच्चना किये विना तथा विद्या को पूर्ण खरुडनसंदशनापूबग्रहणानि सों यथोक्तश्रवणं तस्या-
खूप से समक्षे किये विना चिङिस्सा कायं मे प्रबृत्त नहीं होना भ्यासो घन्यः; धारणाध्यापनेनाथेतच्छाधिगमनं तु
चाहिये । चरक वि० अ० ८ सें शिष्य के प्रति उपदेश्च का अत्य- मोक्ञाय । नानध्यायेष्वधीयीतः न गुरुन्यलीकेषुः
न्त विस्तारपूर्थक वर्णन किया गया है-अथैनमग्नि सकाशे ब्राह्मण- पवेसु, न सन्ध्यायां, न वषिद्यदुल्कानभरवषांऽसूथ-
सकाश्चे मिषकसकाशे चानुरिष्याप्-त्रह्मचारिणा रमश्रुषारिणा दशेनेषु ( ); न महोत्सवे न युक्तवान्‌ ; नाद्धतदशने,
सष्यवादिनाऽमासिदेन मेध्यसेविना निमत्सरेणारखधारिणा च
भवितव्यम्‌, न चते मद्वचनात्किचिदकार्यं स्यादन्यत्र राजद्धिष्टा- गोत्राह्यणगुरुपरात्मपीडाया, न पक्षिणीषुः नाप्यष्ट-
स्माणहराद्विपुलदधम्याद नर्थसम्प्रयुक्ताद्माऽ्प्यर्थात , मदप॑शेन मत्र कासु, नाद्यु्चनीचय्तद्ीबस्वरेः नासुखाद्‌ गुरोः, नाल-
धानेन मस्परियदहितानुवतिना च शश्वद्धवितव्यं पुत्रवदासवदधिवच्चोप- चलितं, न संदिग्धं; न च क्षुरिपिपासान्याधिवेमनस्यादि
चरताऽनुवस्तन्योऽहमनुत्सुत्केनावदहितेनानन्यमनसा विनौतेनावेक्ष्य- यक्तोऽभ्यसेत्‌ ॥ ७ ॥
कारिणाऽनखयकेन, न चानभ्यनुज्ञातेन प्रविचरितव्य, अलुज्ञातेन
१. गपुररेकेकविषयस्वरूपसुपदिशचेत्‌ , पुनरप्युपदेयं खबोषाया-
१. चिवित्सा्थं म्यवहुतन्यमित्यथैः । वर्तयेत्‌ , शिष्यस्तयुपदेशं शब्दस्वरूपादृ्या च दृढीकु्यादिति भावः ॥
६9
काश्यपसंहिता वा बृद्धजीव॑कीयं तन्श्रम्‌ । [ शिष्योपक्रमणीध्यायायः
+ 0 0.
0.9७. ^ + ^ ^ 0 त,

अध्ययन विधि-सबसे पूर्वंगुर पवित्र एवं उद्धत-हस्त नयात्‌ › न च ताभिः संश्यवह्यारमतिग्रणयं बा कुयात्‌ ,
होकर एतिच्र स्थान पर सावधान इए शिष्य के प्रति जथः
शाब्दं या ओङ्कार ज्न्दपूवैक महाव्याहतियों ८ ओं भुः स्वाहा, न च भतुर विदितं खीभ्यः किञ्चिदादद्यात्‌; न चावि
ओं भुवः स्वाहा, ओं स्वः स्वाहा, ओं भूर्थुवः सवः स्वाहा इति ) दितः प्रदि(वि)रेत्‌, न च रहसि लिया सह नयाद्‌ा-
का उच्चारण करके तथा सावित्री ( गायत्री मन्त्र) का तीन सीत वा; न चेनां षिवृतां प्रत्तेत विहसेद्याः प्रणयन्तीं
वार अभ्या करके, "वह पदो, यह कहकर पहर किसी एक चोपेच्देतः न च प्रकाशयेत्‌ । न चातुरकुलगुह्यं बहि
. रूप ( विषय ) का उपदेश करे तथा उसको एकवार पुनः प्रकाशयेत्‌ , नावुरछुलदोषान्‌ प्रथयेत्‌ । दष्टरिष्टमपि
पदाये ( अर्थात्‌ उसकी पुनः आघ्रुत्ति कराये ) । फिर उस
चातुर न तन्वं ब्रयात्‌; नित्यमाश्वास्येत्‌ । न सस्युप-
, उपदेश को शिष्य शब्द्‌ के स्वरूप तथा विषय ङी आच्ुत्ति
द्वारा च करे अर्थात्‌ शिष्य उस उपदेक्ष को अच्छी प्रकार रिगतशरीरमसाभ्यरोगमनुपकरणं चोपणच्छेत्‌ ; नौष-
याद्‌ करे । ग्रह्णश्चक्ति के अनुश्वार खण्डन तथा संदक्षनपूवंक घमक्रमेणोपदिशोत्‌ ; न पराधीनं कुर्यात्‌ । न सयं छरत-
ग्रहण किये हुए को संहना तथा यथोक्त भ्रवण क्रिये हए का कमोषधं प्रयुञ्जीत शरीरोषधत्याश्यवयसां चाघस्थान्त-
अभ्यास करन प्रशस्त होता हे । उसके वाद्‌ उसे धारण करने रज्ञः स्यात्‌ । निव्यसंग्रतधूपाञ्जनीषधः स्यात्‌ । न चान्य
तथा अध्यापन के द्वारा विषय के तस्वको जानने से मोक्तकी भिषग्मिर्विरोधं गच्छेत्‌ । संयुक्तश्च तेरोषधं प्रकल्पयेत्‌ ।
प्राति होती है । अनध्याय ( अवकाश्च) फे दिनम, यदि प्रगल्भो निःशङ्क उपस्थितपदे विस्पष्टं विचित्रं मुदूपन-
गुरू-आचायं को पीडा-रोग हो, पर्वं ( व्यौहर्रो ) मे, दोनों यद्‌ प्राहकमविरुद्धं घस्य सदा ब्रूयात्‌ । प्रजानां हि
सन्ध्याकाल मँ तथा बिजली गिरने, उल्कापात, अनभ्र-वर्षा,
स्वस्तिकामो भिषगिह चामुत्र च नन्दत इति ॥ ८ ॥
तथा सूयं के द्शंन न होने पर, महोप्सव में, खाने के बाद,
अदु्ुत वस्तु के दलन के वाद्‌, गौ-बाह्यण-~गुर्‌-अन्य व्यक्ति शिन्ता ग्रहण करने के बाद आचारं से अनुमति रेक,
या स्वयं ( अपने आप ) को पीडा (कष्ट) होने पर तथा शुभ्र वर्खो को धारण करके, बाख को ठीक करके, भअमरहित,
पक्षिणी ( अमावस्या तथा पूर्णमासी ) ओर अष्टका (अष्टमी ) युग ( चार हाथ ) मात्र दूरी तक देखने वाला ( अर्थात्‌ नीचे
जदि की उपस्थिति में नहीं पढना चाहिये । तथा पढ़ते समय मह किये हुए ), पहर वोखने वाला ( अर्थात्‌ परस्पर मिलने
न अत्यन्त ऊचे, न नीचे, न ट्यु तथा न क्टीब ( नपुंसक ) पर दूसरे के बोखने से पहरे सस्कारथुक्त वचनो को बोरूने
` स्वर से पटना चाहिये । गुस्युख से बिना पदे, अरुकलित ( जो वाला ), तथा उत्तम एवं सुन्दर बात बोरे वारा होकर
बताया महीं गया है ) तथा संदिग्ध स्थर को मी नहीं पढना चिकित्साकतेत्रसे प्रवेक करे। रोगीके घरमे बिना खये
चाहिये ( अर्थात्‌ उसका अभ्यास नहीं करना चाहिये ) तथा प्रवेश न करे । तथा प्रवेश करते हए निमित्तो को देखे।
भूख, प्यास, रोग तथा उदासीनता के समय भी नहीं पढ़ना रोगी के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का अवरोकन नकरे।
चाहिये । चरक वि० अ० ८ मे कहा हैतत्रायमध्ययनविविः- रोगी केषर मे चयो फे साथ उपहास न करे उनके
व्ःस्यः कृतक्षणः प्रात्तरुत्थायो पव्यूषं वा कृत्वाऽऽवदयकसुपस्पृदयौदकं ्ारादी इ पूजा (भेट) को स्वीकार न करे । उचित
देवगोव्राह्मणगुरबद्धसिद्धाचार्यम्यो नमस्कृत्य समे शुचौ देये सुखोप- ठंग से ही उनसे बातचीत करे। उने साथ अत्यन्त
विष्टो ।मनःपुरःसराभिवौग्मिः घल्रमनुपरिक्रामन्पुनः पुनरावतंयेद्‌ व्यवहारतथा प्रीति न करे) पतिके ज्ञानके बिना सखीसे
बुद्धया सम्यगनुप्रविदयाथतं स्वदोषपरिहारपरदोषप्रमाणार्थम्‌, एवं कोई वस्तु नरे) बिनाक्ञनकेषर मेंप्रवेश्च न करे अर्थात्‌
मध्यन्दिनेऽपरादेणे राघो च शदव दपरिहापयन्रध्ययनमन्यस्येदित्य- आगमन की सुचना दिये बिनारोगीकेधरमें प्रवेशन करे।
ध्ययनविधिः । इसी प्रकार चरक सू० अ० ८ मे भी कहा है- सियो के साथ एकान्तमें बातकच्चीतन करे तथा उनके
न विदयत्स्वनातेवीषु नाभ्युदिताघ्च दिक नागिनिकप्ल्येन भूमिकम्पे पास न पैडे। वसो से रहित अर्थात्‌ नञ्च जवस्थासें उन्ह न देखे,
न महोत्सवे नोच्कपाते न महाय्रहोपगमने न नष्टचन्द्रायां तिथौ न हंसे । यदि वहं प्रीति करे तो उसकी उपेक्ता करे तथा उसके
न सन्ध्ययोनामुखाद्‌ युरोर्नावपतितं नातिमात्रं न तान्तं न विस्वरं प्रति अपने भावों फो प्रकट न करे। आतुरछुरु की गुष्च
नानवस्थितपद नातिद्रुतं न विलभ्वितं नातिक्टीनं नात्युच्चंनाति- ( ए२४।€ › बातों को बाहर प्रकाशित न करे । जतुरकुरु के
नीचैः स्वरैरध्ययनमभ्यसेत्‌ ॥ ७॥ दोर्षोकोन बद्मये। रोगी मं अर्ष्िर्लणो कान्ञान हो जाने
पर भी रोगी से इस तस्व ( वास्तविकता ) का उज्ञेखे न करं ।
अधीत्यानुन्ञातः प्रचरेच्छुषासा संह(य)तकैशो उसे सदा आश्वासन देता रहे! मरणासन्न, असाध्य तथा
ऽनुद्धान्तो युगमाच्रावलोकी पूर्वाभिभाषी सुमुखः । न १. कृतकंछत्रिमम्‌ । |
चातुरङुलमनाहूतः प्रविशेत्‌ , प्रविशंश्च निमित्तभि २. आजकल कुद रोग इस सिद्धान्त को मानने ल्येर्हं कि
लक्तयेत्‌ । न च सवेतोऽबलोकयेदन्यत्रातुरात्‌ । न चातु रोगीको रोग की वास्तविकता का ज्ञान अवदय कसय देना चाहिये
रकुलेषु ख्लीभिः प्रेष्याभिरपि सदोपहासं गच्छेत्‌ ; जिससे वह अच्छीप्रकार परदेन तथा संयम से रह सके अन्यथा रोग
चासामयपूजापुरस्करतं नाम गृहीयात्‌ ; मान्य्थानेनेब तु | की गम्भीरता का ज्ञान न होने पर वह उसकी उपेक्षा कर सकता है\
ज्िप्योपन्छमगीयाध्यायः 4 ) विमानस्थानम्‌ । ६१
[त क ति वि (त ५७.००१ ०५११५ किन

उपकरण ( धन आदि अध्वा चिकित्सा के उपकरण) से श्चायुवदः; कावि चेषां सु (स्व)लत्तणानि तस्रङृतीर्नाः
रहित रोगी के पाद न जावे तथा ओषधक्रम ( व्यवस्था) का ` पतस्रणा च देदनानासतीववन्तमानानागतानां कतमा
उपदेश न करे । दुसरे के आधीन न रहे} स्वयं कृतिम ओषधि ` भिषक्‌ चिकित्सति; किं चास्यायु्वेद (स्य)साधनं, कि
का प्रयोग न करे! डरीर, ओषध, रोग तथा उघ्न आदि की
भिन्न २ अवस्था्ओौकाज्ञान प्राप्त करे। धूप, अञ्जन आदि
पुख्योऽपुरख्यः ? इति प्रषटो चा प्रतिवयात्‌-मोः तच्रायु-
ओषधियां पास मं सदा तैयार रहनी चाये । दूसरे | जवितमित्युच्यते
>.) _“ । "विदः
५ ज्ञाने धातुः; “वषिद्लुः

चिकिसको के साथ विरोध न करे अपितु उनके साथ मिलकर लाये च, श्माय॒रनन ज्ञातेन विद्ते ज्ञायते, विन्दते
ओषध व्यवस्था करे । अवक्षर उपस्थित होने पर सदा प्रगल्भ लभ्यते न॒ रिष्यतीव्यायुर्वेदः क्त्यङ्गश्चायुवंद इति
एवं निःशङ्क ( सन्देह रहित > होकर अव्यन्त स्पष्ट, विचित्र; अष्टाङ्गः; तस्य कमार प्यं कार्यचकछिस्सा शाल्याहवृकं
खदु, उपनयवत्‌ ( नीततियुक्त ); रहण करने वारी, अविर्द शालाद्स्यं विपषतन्त्रं भूततन््रमगदतन्त्रं रसायनतन्त्र-
(जो परस्पर विरद न हो ) तथा धमंयुक्त वचन वोर 1 रोगो सिति 1 अन्राहु- खङ्कान्येदानिः शरीरमस्य तमत्‌;
के कर्याण दी कामना करने वाखा वंद्य दृहरोक तथा परलोक
यदाश्रयन्त्यङ्निः अङ्गानि हि शरीराश्रयाणि भवन्तिः
में सुखी होता हे! चरक सूु० अ०म म अत्यन्त विस्तार के
साथ इन सब कत्तव्य कर्मा का निर्दड शिया गयादहै॥ ८ ॥ ्रत्राह तस्य शरीरं ध्मः, धर्माश्रयं द्यस्सिन्‌ कमं सिथ्य-
अथान्यो मिषगभिषदेत्तस्मं ज्षमेतः साग्ना चातुन-
तीति । कथं चोतपन्न इति; आह -अथववेद्‌)पनिषत्सु
येत्‌ । पुनः पुनः इत्सयन्तं तु बिगृद्यादितो भन्थेनाऽ- भरागुत्पन्नः; स्वय॑भूब्रह्या प्रजाः सिसष्चुः प्रजानां परिपा
वकिरेत्‌; न चास्य बाक्याघकाशं दात्‌ । ब्रृवतोऽपि लनाथंमाय॒वंद मेवारेऽखजत्‌ सववित्‌; ततो विन्वानि
प्रोक्तं च ्रयात्‌-नैतदेवमिति । परिहसेत्‌, अपश भूतानि । ततस्तं पुरयमायुवंदमनन्तमायुषो बघेनमाधा-
श्चास्य विगृह्णीयात्‌; चर्थे कृच्छं चेनमवतारयेत्‌; रमाप्यायनमम्रतमश्िभ्यां क: प्रददौ, ताचिन्द्रायः इन्द्र
चेनमवशः परुषयेत्‌ , स्तो्रगभंरेषेनं धषयेदिति ।६। ऋ पिभ्यश्चतुभ्येः कश्यपवशिष्ात्रिभ्गुभ्यः; ते पुत्रेभ्य
( इति ताडपन्नपुस्तके ७५ तमं पत्रम्‌ । ) शिष्येभ्यश्च प्रददुर्हिताथ धर्मांथेकामसमोन्ञशक्तिपरिपा
इसके वाद्‌ यदि कोई दूसरा वैच उसके साथ संभाषण लनाथ चेति; एवमुत्पन्नः।। कथं चाभ्येय इति, गुरोर
करे तो उसे सहन करे तथा शान्ति द्वारा उसे समन्नाये । परन्तु नुमतेनेति ॥ केन चाध्येय इति; व्राह्मणक्त्रियवेश्यशदर-
यदि वह्‌ बार २ ष्ठत वचन बोरे तो उसके साथ विगृह्य रायुेदोऽध्येयः ।।- तत्राथपरिज्ञानाथं पुख्याथं चात्मन
प्रजातुप्रहाथ व्राह्मणः) प्रजासंरदणाथं क्तत्रियेः; वृत््यथ
संभाषा का प्रयोग करे । तथा ग्रन्थो से भिन्न २ वाक्य उसके
सामने बोरे । ओर उसे बोलने का अवकाश्च (अवसर-मौका) श्यैः; शुश्रषाथेमित्तरेः घमाथ च सवः । सुखजीवित-
हीनदे) यदि व्हवोरूताभीहोतो उसे कटे--यह टीक्‌ दानं हि सर्वधसेध्याधिकं ब्रवते; ततश्च पुण्य एवमायुवदः।
नहीं है । उसकी हंसी करे, तथा उसके अशुद्ध शष्दो को पकड सुखजी वितदानतुष्टाश्च देहिनः कृतज्ञाय संविभजन्ति
के । तथा उसे कठिन विषय में खे जये) अपने वश अथवा
सीमा से बाहर होकर बहुत कठोर चचन न कहे । तथा स्तुति- पुरःस्तुवन्ति च; तदस्य घसांधकामनिवतेकं भवतीति
गभ वाक्यों केद्वारा ही उसे नीचा दिखाये। चरक वि० अ० किमथं चाध्येय इत्यत्रोक्तम्‌ ।। किचास्याद्यं तन्त्रमिति !
८ मेँ विवाद के विषयमे छ्खिा है--तद्विपेन च सह कथयता कौमारभरव्यस्टानां तन्त्राणामाद्यमुच्यते ।
आविद्धदीषंदुतरसंकुरेर्वाक्यदण्डकैः कथयितव्यं, अतिहष्टं सुसद. ्मायुर्वेदस्य महतो देवानामिव हव्यपः \|
हस्तता पर रूपयता च परिषदमाक्रारेवंवता चास्य वाक्यावकार्ो न
देयः; कष्टब्दं त्रु वता ध्रक्तव्यो (नोच्यतेः इति, अथवा पुनः हीना अनेन हि संवर्धितमितरे चिकित्सन्ति । बालस्य
ते प्रतिज्ञा" इति पुनश्वाहूयमानः प्रतिवक्तव्यः--परिसवत्सरो मवापि हृयमौषधमन्यत्‌ ; प्रमाण॒मन्य ( दन्य }) उपक्रमोऽन्ये
रिक्षस्व तावत्‌ प्यापतमेतावन्ते, सकृदपि हि परिक्तेपिकं निहतं निह- च विरोषाः ।। कं च वेदं श्रयति ? अथवेवेदमित्याह
तमाहुरिति नास्य योगः कतेव्यः कथंचिदप्येवं श्रेयसा सहं विगृह्य तच्र हि रत्ताबलिहोमशान्ति' ` ' ` ` `` ˆ ' प्रतिकमंविधान-
वक्तन्यभित्याहुरेके, न त्वेवं ज्यायसा सह विहं प्रशंस्तन्ति कुशकाः ॥९॥ मुष्टं विशेषेण, तददायुरवेदे, तस्माद थववेदं श्रयति
भो भिषक्‌ ! आयुः किं; किमायु्वैदस्यायुर्वदत्व, सर्वान्‌ वेदानिव्येके, पद्यगद्यकथ्यगेयविद्याश्रयादिति
किं चायुरिप्युच्यते, क्यङ्गश्यायर्वेदः, कथं चाध्येयः, न चेतदेषम्‌ ; च्यरवेदमेवाश्रयन्ते वेदाः । तद्यथा-द्‌-
किमथं चाध्येयः) किव्वास्याद्यं तन्त्रं, कश्चैषां धुयेः, क्लिणि पाणौ चतद्घणामङ्कलीनामङ्गघ आधिपव्यं छुरत;
कतमं च वेदं श्रयति; किं नित्योऽनित्यः, किमाश्रय- नच नाम ताभिः सहु समतां गच्छति; एकस्मिश्च
१. अध्यारन्छेदित्यथैः । १. श्राद्युकंदो धम्योऽधम्यां वेत्यथैः
६२ काश्यपसंहिता वा वृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ क्िष्योपक्रमणीयाध्यायः $
[का का
^ वत कि नि

पाणौ भवति, एवमेवायमृश्वेदयर्वैदसामवेदाथवेवेदे- पुण्यकारक हे जथवा अपुण्यकारक्‌ १ इव्यादि । यदिषे ही


भ्यः पञ्चमो भवत्यायुवेद इति । किं कारणं ? यथाहि प्रशन उससे पृषे जायं तो वह उत्तर देवे-हे वैद्य ! जीवन को
आयु कहते दँ । आयुर्वेदं आयु शब्द से "विद ज्ञाने अथव।
वेदेषु सततं ब्रहमज्ैखिवगंसंयुक्तं पुरुषनिश्रेयसं चिन्त्यते; “वि लाभे च' धातु से वना है । इसका अर्थं हे ङि जिस ज्ञान
एवमेवास्मिन्नपि वेदे निदानोसत्तिलिङ्धारिष्टविकि-
केद्ाराआयुकान्ञानप्राक्ठ हो अथवा आयुःकी प्राप्ति हो-
त्सतः सततमेव हितसुखकरं त्रिवगंसारभूतं पुरषनि- उसका नाशन हो उसे आयुर्वेद कहते हँ । आयुर्वेद के छते
परेयक्षं चिन्त्यते; तद्यथा च बिविधविज्ञानज्ञानोपपन्ना अङ्ग हैँ इस प्रशन का उत्तर-उसके जठ अङ्ग है । उदाहरणार्थ
भाष्यवचनविदोऽ्रङ्गया बुद्धयोपपन्ना लक्घनष्रवनस्था- कोमारण्टष्य, कायचिकित्सा, शदयहरण ८ शस्य चिकित्सा ),
नासनगमनागमनसमथां अपि च नाम मनुष्या अदेश- शालाक्य, विषतन्त्र, भूततन्त्र, यगदतन्त्र तथा रसायनतन्त्र
ज्ञानवन्तो नित्यमेव देशज्ञं देशिकमन्वयुरेवमेव खल यहां यह प्ररनहे किये अङ्गै तो इसका शरीर कौनता है
वेदनापु शिक्ञाकल्पपुत्रनिर्क्तव्तच्छन्दोयज्ञसंस्तरज्ञा- जिसका ये अङ्ग आश्रय रेते हैँक्योकि जङ्ग शरीर का आश्रय
खेकर स्थित होते है । उत्तर--ध्म उसका शरीरे! धम कै
नसमुचयविशेषन्ञा आायुरेदमेवानुधावन्ति, तस्मादुनरुमः- आश्चित होकर इसकी
तटृग्ेदयजुर्वेदसामवेदाथवेवेदेभ्यः पच्चमोऽयमायुर्वेदः । उत्पन्न हुआ ? इस प्रशनक्रियाप्‌ सिद्ध होती है । आयुवैद कैसे
का उत्तर देते है--वह पहरे अथर्व
यतश्च व्याधितस्यारोग्यमरोगस्य च शेषाः क्रिया वेदोपनिषत्‌ में उत्पन्न हुभा । सब कुद जानने वारे स्वयंभू
धर्माथकाममोच्तेषु निवेतेन्ते ।॥ कि नित्योऽनित्य इति, बरह्मा ने छोर्गो को उत्पन्न करने की इच्छसे उनकी रक्ता के
(नित्य इति ब्रूमः ) कृतः ? आषेवचनप्रामास्यादविना- च्वि पहरे आयुर्वेद की रचना की । उसके वाद सम्पूरणं
शित्वात््‌ सध्यासिद्धेदशकालसामान्यादिति ॥। किमा- प्राणियों की रचना की । तदनन्तर ब्रह्मा ने उस पुण्यकारक,
श्रय इति, बातपित्तकफाश्रयः। ते च दै द्वेदेवते भरिताः; अनन्त, जायु को बढ़ने वारे, जायु के जाधार्‌ तथा तृक्च करने
मारूतमाकाशं च दातः धितः; अभ्रिभादित्यं च पित्तं, वारे ओर अद्तरूप आयुवंद्‌ का अश्विनीकुमारो को उपदेश
दिया । अध्िनीककमारो ने इन्द को, इन्द्र ने कश्यप, वसिष्ठ,
सोमं वरुणंच कषः; तास्तेषां देवताः । घर्माथंकामानि- अन्रि तथा श्चगु नामक चार छषियो को, तथा उन्ोनि हित
स्येक्े, सन्वरजस्तमां सीव्येके, साध्ययाप्यासाध्यत्वमि- के लिये एवं घर्म, अर्थं, काम, मोत्त तथा शक्ति की रक्षाफे
त्येके ॥ कानि चेषां स्वलन्तणानि तस्मकृतीनामित्यत्रो- स्यि जपने युरो तथा शिर्यो को उपदेश छिया। इस प्रकार
च्यते । तत्र श्ेष्मा खिग्ध° यह आयुवेद उपपन्न इभ है । इसका अध्ययन कैसे करना
क क क्व > # ॐ + ॐ दो # च ॐ क के कै > क ॐ # @ च @ @ ठ र क क 6 @ छ $ # ॐ क के # + क १ र > ध चाहिये ? इसका उत्तर-गुर की अनुमति से ! किसको इसका
षै च के $ क क ¢ #@ छ > कै क # # छ # क्ति ने + छ क के क क + क ॐ # @ च कह @ क # च # > $ ७ > 9 क
अध्ययन करना चाहिये ! इसक। उत्तर~ब्राह्मण, त्रिय, वैश्य
तथा शद्धो को इसका अध्ययन करना चाहिये । बाह्य्णो द्वारा
( इति ताडपन्नपुस्तके ७६ तमं पत्रम्‌ । ) इसका अध्ययन, विषय के तान, पुण्य तथा अपने आओौर रोक
कै (.

( विमानस्थानस्येतावानेव भाग उपरन्धः ) कल्याण के लिय कृरना चाहिये । क्षत्रियो द्वारा रोकसंरक्तण
"~^ 3/2
के किये ।वेश्यो द्वारा त्ति (आजीविका ) के स्यि तथा शर्धो
द्वारा सेवा के स्थि अथवा सव वर्णो दवारा धर्मं े दिये इसका
विवाद प्रारंभ हो जाने पर दूसरे वेच से निम्न प्रशन करे- अध्ययन करना चाहिये । सुख ( स्वास्थ्य ) एवं जीवन का
हे वेच ! आयु क्या हे १ आयुवेद का मायुरवैद्व क्या है ! दान सब धर्मो" से श्रेष्ठ माना गया है इसल्यि
यह आयुर्वेद
जायु किसे कहते ईँ १ आयुर्वेद के कितने अङ्ग है १ इसका ण्य है । ( सुख स्वारथ्य ) तथ। जीवनदान से सन्तुष्ट
किख ग्रकार तथा किसर प्रयोजन के सिये अध्ययन करना
हृष
चाहिये ? इसका सबसे भ्रष्ठ तन्त्र ( मरन्थ ›) कौनसा है ! १. इन आठ अङ्गा मे वाजीकरण का उछेख नहीं किया गयां
इनमें धुरी ( अथ्रणी ) कोन हे १ यह आयुर्वेद किस वेद्‌ पर
दे । तथा भिष विक(न के छिये विषतन््
आश्रित है १ यह नित्य है या अनित्य आयुर्वैद का क्या का प्रयोग किया गया हे । ठेस संभवतःर तथा त्रगदतन्वर दौ शाब्दो
आश्रय है १ उनकी भङ्घतिर्यो के अपने क्तण क्या ड } अतीत, प्रकाशन के समय अमवा
वतमान तथा अनागत ( भावी >)वेदनाजों मेँ से वेच किसकी हो गया दै ।इसल्थि यहां अगदतन्व ्र या विषतन्तर दोनो मेँ से किसी
एक के स्थान पर वानीकरण शब्द का पाठ होना चाद्ये ।
चिकित्सा करता हे १ इस जायुरवेद्‌ का साधन क्या है १ यह
२. चरक क आयुवेद के अध्ययन मे द्रौ को एथक्‌ नामपूर्वै
१. साध्यसिद्धः इति पाठो युक्तः, फएरनिष्पत्तेरिति तदर्थः । का विधान नदीं दिया गया
है । सत्रस्थान अ० ३० मेँ कहा दै
साध्यासिद्धरिति त॒ वा्यभिमतस्यानित्यतरूपसाध्यस्यासिद्धेरित्य- स ॒चाध्येतन्यो ाह्मणराजन्यवेश्यैः । तवाक्यहार्थं प्राणिनां बाह्मणः,
थन संगमनीयम्‌ । | जरक्ता्थं राजन्यैः, वृत्यथं वैदयैः, सामान्यतो वा धर्माथकामप-
२, असाम प्र्द्यमन्थो लुपरस्ताडपत पुस्तके । रियदार्थं सवैः । ॑ वि
किष्योपकमणीयाध्यायः १ } विमानस्थानम्‌ । ६३
५.५ क ८५, त क, ए

छोग कुतज्ञ हो जाते ह तशा स्तुति करते हँ इस प्रकार इसके ॥


धर्म, अर्थं तथा काम की निर्वृत्ति होती दे । इसका आद्य (ग्रेष्ठ यह है जिस प्रकार वेदो मे ब्रह्यज्त छऋषिर्थो द्वारा तरिवगं
अथवा प्रारम्भिक ) तन्त्र कौनसा हे १ इसका उत्तर ३ते है | ( धम॑-अर्थ-काम >)युक्त पुरूष निभ्रेयस ८ मोक ) का विचार
जिस प्रकार सन देवताओं मे अग्नि को श्रेष्ठ माना गया है उसी किया गया है उसी प्रकार इस वेदं ( आयुर्वेद ) मे भी निदान,
प्रकार इस महान्‌ आयुरवैद्‌.के आठ तन्त्रो मे कोमारश्त्य श्रेष्ट रोगोप्पत्ति, छक्तण, अरिं तथा चिकशिःषा द्वारा हिवकारी,
माना गयाहै) इर कोमारश्वत्यके ह्वाराही वृद्धि को प्राप्त सुखकारक तथा त्रिवर्गं के सारभूत पुर्ष-निध्रेयस का ही
हए भन्य रोग भी चिकिसा करते ह । साधारण व्यक्ति विचार किया गया है । ओौर जि प्रकार विविध ज्ञान-विक्ञान
( 441४ ) की अपेन्ता वारक की ओषधि हृद्य ( हृदय को से युक्त, भाप्य वचन जादि के पण्डित, अष्टङ्ग बुद्धि से युक्त,
अच्छी गने वाटी-रोचक-7951"1 › होनी चाहिये । उसकी ्ङ्कन ( लंघना ), प्छ्वन ( तेरना ), स्थान, आस्न, गमन
जोषधि का प्रमाण (मात्रा) भी भिन्न होती है, उपक्रम (जाना ) तथा आगमन ( जाना) आरि क्रियाम समर्थं
( चिकिव्सा ) मी भिन्न होती है तथा अन्य भी बहुतसे होते हए भी मनुष्य देश ( स्थान )काक्तानन होने पर सदा
अन्तर होते है। यह किंस वेदे जशधरित है अर्थात्‌ आयुर्वेद उस स्थान के जानने वारे तथा वहां के निवापी ( 2८९)
का आधार कौनसा वेद है? इसका उत्तर देते है--अथर्ववेद । केही पस पहूंचते है उप्रीप्रकार शिरा, कल्प, सूत्र, निक,
अथर्ववेद मे विरोषरूप से रक्ता, वलि, होम, रान्ति“ " जादि वृत्त, छन्द, यन्नसंस्तर तथा ज्ञानराशि के तिशेषक्च भी वेदना
द्वारा चिकिस्सा-विधान का उद्रेख क्रिया गया है। उसी प्रकार ( कष्ट-रोग ) होने पर आयुर्वेद की ही शरण में जते! इस.
आयुर्वेद से भी रक्ता, वरि, होम, शान्ति भादि का उर्छेख है । स्यि कहते है ्किक्ग्‌, यज्ज, साम तथा अथर्ववेद से भिन्न
इसच्यि यह आयुर्वेद अथर्ववेद्‌ के आधित हे अर्थात्‌ आयुर्वेद यह आयुर्वेदं पञ्चमवेदं कहराता है । क्योकि रोगी मनुष्य का
का आधार अथर्ववेद है । ङ्‌ आचार्यं कहते ह कि आयुर्वेद आरोग्य ( स्वास्थ्य >) तथा स्वस्थ मनुष्य की रोष ( सम्पूर्णं )
म प , गद्य, कथा, गेय, विद्या जादि होने से आयुर्वेद के जआधार क्रियाएं घमं. अर्थं, काम तथा मोक्त मे निनृत्त हो जातीह
सब ( चारो ) वेद्‌दै । परन्तु यह ठीक नदीं ईँ । वेद्‌ आयुर्वेद अर्थात्‌ स्वस्थ एवं रोगौ प्रत्येक व््रक्तिके छिव धर्मार्थकाम
के ही आधित । उदाहरणार्थ- जिस प्रकार दक्तिण हाथ सें मोच्तरूप चतुर्विध पुरुषार्थं ही चरम ध्येय होता ह ! आयुरवेद्‌
चारो उंगियों मे अंगूठा अधिपति होता है तथा उन उंगखिो निव्य है या अनिव्य } इसका उत्तर देते है--आर्षं वचर्नो के
के समान नहीं होता अर्थात्‌ उंगलियों से उसक्छी प्रिरोषता प्रमार्णो से, अविनाश्ची होने से, साध्या-सिद्धि-कवादी के अभि.
रहती है उसीग्रकार यह आयुर्वेद मी खक्‌, यजु, साम तथा मत की अनित्यत्व रूप सिद्धिं ( साध्यसिद्धिः यह पार मेद्‌
होने पर "फलनिष्पत्ति' यह अथं होगा जो किं अधिक उपयुक्त
१. सम्पूं प्राचीन आयुकेदिफ अन्धो मे इते स्थान २ पर्‌ पुण्य हे) तथा देश ओर काकी समानता से यह आयुवेद नित्य
रान्द द्वारा ही कहा गया दै व्यकि दहसे द्वारा प्राणिय का इहलेक | डे! इष आधुरवेद का आश्रय ( आघार)क्या है? इसका
तथा परलोक दोनों मे हित होता दै। चस्क ख० अ० १ मे कहा दहै- उत्तर वात, पत्त तथा कफ इसङे आश्रयहैँ। वे वात, पित्त
तस्यायुषो पुण्यतमो वदो वेदविदां मरतः । वक्ष्यते य॒न्मनुष्याणां छो- तथा कष दो र देवताओं का आश्रय करके रहते ह । वात-
कयोरुभयोदहितम्‌ ॥ आयुवंद का उदेदय आयु अथवा स्वास्थ्य प्रदान मास्त ८ वायु ) तथा भकाङ्ञ देवता के, पित्त-अग्नि
करना हे । संसार मँ इससे बद्कर पुण्यजनक्र कायं ओर कोई नहीं तथा आदिय देवता के तथा कफ-सोम ओर वरण
हो सकता है । सुश्रुत मै कहा है- सनातनव्वादवेदानामक्षरत्वात्तथैव देवता के आश्रित होतादै। ये सव्र इनके देवतारहै। कदु
च । तथा वृष्टफरुत्वाच्च हितत्वादपि देहिनाम्‌ ॥ वाक्समूहाथेविस्ता- लोग इस उपर्युक्त म्रश्न का उत्तरदेते ह कि आयुवेद के
रात्‌ पूजित्तत्वाच् देहिभिः। वचिक्षित्सिताद्युण्यतमं न किञ्चिदपि श्रमः । आधार धर्म कथा काम है । कुदं कहते ईहै--ष, रज तथा
इसी प्रकार-यदिदं शाश्वतं पुण्यं स्वग्यं यश्चस्यमायुभ्य वृत्तिकरं तम इसके आधार हैँ तथा कुड कहते ईै- साध्य, याप्य तथा
चेति । अन्यत्र भी कहा ह~ श्क्षत्नियपिश्चयष्यान्‌ रोगार्तान्‌ परि असाध्य इसफे आधार है इन प्रृतिस्थ वात, पित्त तथा कफ
पाल्य च । यत्पुण्यं महदाप्नोति नः तत्सरवम॑हामखैः ॥ तस्माद्धोगा- ङ स्व ( अपने ) रक्षण क्या होते हैँ १ इसका उत्तर देते है
पवर्गा्थं रोगात्तं समुपाचरेत्‌ । इत्यादि । अर्थात्‌ यथाविधि आयुवेद इने से शरेष्मा स्निग्ध * “*“( होती है ) |
साख का अध्ययन कर उसके अनुपार चिकित्सा कायं के द्वारा वक्तभ्य--यह अभ्याय मध्यमेही खण्डितहो गयादे।
असीम व्यक्तियों को सवाथ्य प्रदान करने से व्यक्ति अनन्त पुण्यका
यहां पर “तत्र श्रेष्मा स्निग्धः इध्यादि वाक्यांश को देखते
मागी होता है | इसस्यि आयुवंद पुण्यकारक दही माना गया है। इए यह कषा जा सकता हे कि इसके आगे प्रकृतिस्थ श्लेष्मा,
२. सुश्रुत ० अ० १ मै मौ कहा है--इ्द खलत्वयुकंदो नाम पित्त तथा वात के रक्षण दिये गये होगे । तथा अध्याय के
हष यह अनुमान किया
यदुपाडगमथवंप्ेदस्यान॒ताचैव प्रजाः इरोकरातसदस्रमध्यायसद्चं च प्रारम्भ में किये गये प्रश्नो को देखते
करतवान्‌ स्वयंभूः । शपीप्रकार चरण म भी आयुवंदको अथववेद का जा सकता है कि इस प्रश्न के उत्तर के बाद्‌-(1) “^तिखणां
उपवेद माना हैपरन्तु करं आचाय इसे छऋरप्रेद का उपवेद भौ च वेदनानामतीतवतंमानानागतानां कतमां भिषक्‌ चिकित्सति"
मानते है । | | तथा (1) वि चास्यायुवद ८ स्य) साधनम्‌" इत्यादि प्रश्नों
६४ कारयपसंहिता वा ब्ृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ | [ ज्िष्योपक्रमणीयाध्यायः ¶
वि ^ र प
नि म

के उत्तर दिये गये होगि। इस भ्रम्थ के खण्डित होने ते स्थान के प्रथम अध्याय से अग्निवेद्न पुनर्वसु आत्रेय से प्रश्न
पाठको के त्तानके खिये हम इन प्रश्नों कै उत्तर अन्य करते ह--श्रथ चातंस्य भगव॑स्ति्धणां का चिकित्सति । अतीता
सुश्रत जदि आषरथो के आधार पर यथाशक्ति देते का वेदानां वेचो व्त॑मानां सविष्यतीम्‌ ॥ भविष्यन्त्या असम्पापिरती-
प्रयत्न करगे! सर्वप्रथम हम प्हतिस्थ वात, पित्त, कफ के ताया जनागमः | साम्परतिक्या अपि स्थानं नास्त्यतः संशयो दह्यतः ॥
स्तण कहते है । प्रति स्थ कष के लक्ण- चरक वि० अ० ८ वेद्य रोगी के भूत, वत॑मान अथवा भविष्यत्‌ ( भावी )
से कहा हे--रटेष्मा ह सन्निग्धरल्षमदुमधुरसाः सान्द्मन्द- तीन प्रकार के रोगो मंसे किस रोग की चिषित्सा करता हे।
स्तिमित युःयीतपिच्छिलाच्छः, तस्य स्वेदात्‌ रेष्मलाः सिनिग्धाङ्गाः, वास्तव में वह इनमें से किसी भीरोगकी चिकिसा नही
रलक्ष्णत्वाच्यलक्षणाङ्ाः मृदुत्वाद्‌ दष्टसुदसकुमासयवदातयात्राः, माधु- करता हे। भविष्यत्‌ को तो चिकिसा वह कर ही नहीं
यातप्रभूनशक्रव्यवायाप्त्याः, सारत्वात्‌ सारसंहतस्थिरशसराः, सकता क्योकि वह॒ तो अभी {उपस्थित ही नहीं हई हे ।
सानदरपाइःचितपरिप्णसवेगात्राः, मन्दःवान्मन्दचेष्टाहारविहाराः, अतीत रोग पुनः लौटकर वापिस नहीं जा सकता तथा वर्तमान
स्तैमित्यादश्चीघ्रारम्भाव्पक्षोमविकाराः, गुरुत्वात्साराधिष्ठितावस्थि- रोग भी ्रवृत्तिहेतुभागनां न निरोपेऽस्ति कारणम्‌” के अनुसार
तगतयः, रोत्यादर्पन््तृष्णासन्तापर्तेददोषाः, पिच्धिरुवात्सदिलष्ट- स्थिर नहीं रह सकता अर्थात्‌ सव भावो का स्वमाव नित्य
सारसन्विवन्धनाः, तथाञच्छत्वादरसन्नददेनाननाः प्रसनच्नवणैस्वराश्च, गमन करने वाला है । कारु भी नित्य गति करने वारा हे।
त एवं गुणयोगचच्छरेष्मला वर्वन्तो वसुमन्तो पियावन्त जओजस्िनः देस भकार रोगी के रोग की अवस्था तथा संवप्वरात्मक कार
यान्ता आयुष्मन्तश्च भवन्ति । कफ स्निग्ध, रख्च्ण, शरु, मघुर, दोनो के नित्यग होने से वतमान रोगकी भी चिकित्सा नही
सार (-प्रसादरूप ), सान्द्रः मन्द, स्तिमित, गुरू, शीतल, हो सकती अतः हमें यह सन्देह होता
है छि इस
पिच्छ तथा स्वच्छ होता है! श्ठेष्माधिक पुरूष उपर्युक्त वेच रोगी के किंस्रोगकी चिकिसा करता अस्था मं
गुणो के कारण वलवान्‌ , धनवान्‌ , विद्यावान्‌ , ओजस्वी, आत्रेय इस प्रशन का उत्तर देते है--चििःसति
है ? भगवान्‌
शान्त एवं दीर्घायु होते हँ । प्रकृतिस्थ पित्त के सत्तण--पिन्त काला वेदना इति । यया युक्तया वदन्येके सा भिषवस्वा्ि-
युष्णं तीकषणं द्रवं विलमम्लं कटकं च, तस्यौष्ण्यातिन्तलछा भवन्ति वेद्य युक्तिरुपधाय॑ताम्‌ ॥
रोगी के तीनो कारो के रोगों की दिक्ित्सा करता हे ।
उष्णासहाः) उष्णसुखाः, सुकुमारावदातगात्राः, प्रभूतपिप्लुव्यज्घति- इसमें निग्न युक्ति है--एुनस्तच्िरसः शूलं उरः स पुनरागतः ।
ल्कपिडकाः, छतििपासावन्तः, क्षिप्रवलीपलितखालित्यदोषाः, प्रायो- पुनः स कालो वल्वाररलदिः सा पुनरागता ॥ एभिः प्रसतिदधवचनै-
मृददपकपिरदमश्रलो केशाः, तेक्ण्यात्तीक्णपराक्रमाः, तीचणाग्नयः, रतीतागमनं मतम्‌ । कालाश्चयमतीतानामार्तीनां पुनरागतः
प्भूतारनपानाः, क्लेश्ासदहिष्णवो, दन्द शुकाः, द्रवत्वाच्छिथिरमृदु- +¡ लसुद्िदरेय भेषजं यस्मयुज्यते। अतीतानां ॥ तमति
प्रदामनं वेदनानां तदु-
सन्धिवन्धमांसाः, परभूतसुष्टस्वेदमूत्रपुरीषाश्च, विखत्वास्रभूतपूतिकक्षा. ` च्यते ॥ आपस्ताः
(६

=-

पुनराय॒मा याभिः शस्यं पुरा हतम्‌


स्य्िरःशरौरगन्धाः, कटवम्कत्वादल्पश्युक्रश्यवायापत्याः, त एवं सेत प्रतिकमं तथाऽश्र । यथा प्रक्रियते
ये ॥ अतीत वेदनार्भो की चिकित्सा मेँ
गुण्योगात्पित्तला मध्यवरा मध्यायुपो मध्यज्ञानविज्ञानविन्तोपकरण- युक्ति - अर्थात्‌
फिर वही लिर का द्द आगया, फिर वह उवर
वन्तश्च भवन्ति } पित्त-उष्ण, तीच्ण, दव, आमगन्ध, भगया, फिर वही खासी आगर, किर वही फ
अम्क ओर कटु होता हे । पित्ताधिक पुरुष इन गुणो ॐ कारण अगदं । इस प्रकार लोक मे कहा जाता
८ बमन >
मध्य बरवार, मध्यम आयु वारे तथा क्ञान-विक्ञान एवं से अतीत वेदनां का पुनः वापिस है । इन प्रसिद्ध वचन
आना माना जाता हे ।
उपकरण मं भी मध्यरम होते हँ ।प्रकृतिस्थ वात के लक्षण इन अतीत वेदनां के पीडाकारू को रुच्य
मे रखकर जो
वातस्तु रूक्षध्रचख्वहुङीघ्र शीतपरषविश्चदः, तस्य॒ रौद्य दातला- भौषघ भ्युक्त होती है वह अतीत वेदना्भो छो न्त करने
रुक्षापचितात्परारीराः, प्रततरुक्षक्षामभिन्नमरन्दसत्तजजरस्वराः, वाली कहाती है । खेती को नष्ट करने वाटी अतीत वर्षां का
जागरूक्राश्च, रुषुताच, ठड्ुचपरूगतिचेशहाराः, चलत्वादनवस्थित. ध्यान कर के जिस प्रकार बांध वांधा जाता है उली प्रकार
सन्भ्यस्थि्रुहन्वोऽजिहवारिरःस्कन्धपाणिपादाः, वहुत्वाद्वहुभ्रलप अतीत पीडाकाल को रुच्य. मे रखकर शरीर वा मनं
कण्डरासिराप्रतानाः, शौघ्रत्वाच्छघ्रसमारम्भक्षोमविकाराः, चौधो- चिकिसा की जाती है । यह अतीत अशमन चिकित ्सा
त्वाप्तरागविरागाः, श्रुतमादिणोऽसस्शृतयश्च, रौत्याच्छीतासदिष्णवः, ( छाशश्लपर्ट 7ल्व€ण ) कहलाती डे ॥
|
पततज्चौतकोद्वपकप्तम्भ(, पारष्यात्परुषकेशदमशरुरोमनखद शन- अनागत ( भावी ) वेदना की चिकित्सा सं युक्ति-पूव॑रूपं
वदनपाणिपादाङ्गाः, वेशवाससफुटिताङ्गावयवाः, सततसन्धिरब्दगा. विकाराणां दष्ट्वा
भिनश्च भषन्ति, त एवं युणयोगाद्वातलाः प्रायेणारपवलाश्वासपापत्या- हन्त्यनागताम्‌
प्रादु वेष्यताम्‌ । या क्रिया क्रियते सा च ठेदनां
॥ उत्पन्न होने वारी व्याधि्यो के पूर्वरूप को
श्ाल्पसाधनाश्चाधन्याश्च भवन्ति । वात रक, रघु, चरु, बहुत
देखकर जो चिकरिसा की जाती है वह भावी रोगको नष्ट
शीप्र, शीतर, पर्ष तथा विशद होता है। वातकू पुष इन करती हे । वतमान रोग की चिकित्सा का सिद्धान्त--पारमप्ा-
ुर्णो के कारण अर्पबर, जहपायु, अल्प सन्तान वारे, अलप सुबन्धस्तु दुःखानां विनिवतते । युखहेतुपचारेण सुखं चापि प्रवर्तते
साधन वारे तथा निर्धन होते हे । अव हम अतीत, वर्तमान न पमा यान्ति ॥
तथा भावी वेदनो ( रोगों ) में से चिकित्सक किंस वेदना नित्यं जायन वेषम्यं विषमाः समतां न च। हेतुभिः सषा
देहधातवः ॥ सुख या आरोग्य के हेतु के सेवन `
की चिकित्सा करता है ! इसका उत्तर देते है-चरक श्ारीर- से दुखा या रोगोका म्रवाहरूप से अुबन्ध निवृत्त हो जाताहै,
अध्यायः १ | लारीरस्थानम्‌ । ६५
सो व स क न ५. मि
ल,

तथा सुख व आरोग्य की प्रदृत्ति होती है । अर्थात्‌ विषम- हन्तीति न ११११1 111.11111777117111/111111.71/11/7111. * ||

हेठ्ओं के सेवन से उत्पन्न हई दुरो या रोगो की परम्परा अव हम आयुर्वेद के साधन स्याह! इस पभ्ररन का उत्तर
सुख हेठु का सेवन करने से दुर्खो के अभाव मेँ सब भावों के देते है । साधन कारण को कहते है । चरक मे धादुसास्यख्पी
रणभङ्कर होने से स्वयमेव नष्ट हो जाती है! इस भ्रकार कायं अथवा साध्य को निष्पन्न करने के लिये कारणभूत
सुखकारक्‌ या अरोग्यहेतुरओं के सेवन करने से शरीर मे सम. ६ पदार्थो का वर्णन किया गया हे । वे कारण भूत ई पदार्थंही
धातुओं की ही परम्परा चर पडती हे तथा शरीर स्वस्थ हो साधन माने जाते हैँ । वे साधन-खामान्य, विशेष, द्रव्य, गुण,
जाता ह । समधातुं स्वयमेव विषम नहीं हो सकती है तथा कमं तथा समवाय हैँ । इन दओ के द्वारा धातुखाम्यरूपी
विषम धाुएं अपने अप सखम नहीं हो सकती ह! देहकी कार्यं ( स्वास्थ्य ) सम्पादन होता है । चरक सु० अ० $
धातुं सद्‌ा हेतुर्ओो के सदश्च ही उत्पन्न होती ईह अर्थात्‌ यदि उपयुक्त छ्ओ साधनों ( कारणों ) का विस्तृत विवेचन करने
हेत विषम है तो देहधातएं विषम हो जायेगी शौर यदि हेतु के वाद्‌ भगवान्‌ आत्रेय उपसंहार करते हुए कते दैइत्युक्तं
(स्वस्थश्त्त आदि) समहे तो धातु सम उत्पन्न होगी । स्वस्थ. कारणं, कार्यं धातुसाम्यमिहोच्यते । धातुसाम्यक्रिया चोक्ता तन्त्रस्यास्य
बृत्त आदि खमहेतुभो के होने से समता का ही अनुबन्ध रहता प्रयोजनम्‌ आयुर्वेदं श्ञाल्च का अ्रयोजन धातुसाभ्य अथवा
हे इसख्ियि शरीर स्वस्थ रहता है 1 आरोग्य हे तथा उस धातुसाम्यरूपी प्रयोजन अथवा कार्यं
इन उपयुक्त युक्तयो के अनुसार चिकित्सक त्रिकाल. को सिद्ध करने के लिये उप्यक्त सामान्य आदि ६ कारण साघन-
वेदना की ही चिकित्सा करता है । इसचल्यि भगवान्‌ जत्रेय रूप भं माने जाते द । हस प्रकार ये आयुवेद शाख के साधन
अन्त में कहते ईै-युक्तिमेतां पुरस्कृत्य धिकालां वेदनां भिषक्‌ । बताये गये है ।

चतुथः जारीरस्यान ।
~

नन्त्यात्‌ परिमाणं नोच्यते । तच्रादियुगदेवयुगेऽचि-


® क @ # © @ # # # ॐ र क @ € # ® छै कै # # & # ई @ ॐ # क ॐ ॐ @ # # @ # # & ¢ @ & छ # क न
न्त्यप्र(परि)माणोद्धवे कमेभोजनपानगतिवीर्यायुषि
तस्मात्‌ पच्वैव खलु ऋतबोऽपि, सःतद्नुपपत्तर्नास्ति अनिर्दश्ये । कृतयुगे तु नारायणं नाम देहिनां संहननं
षटत्वमिति; अच्रोच्यते-रसाथमेषां षटत्वं शरीरसुत्पयते; तस्मात्तदाहुः- तस्य घनं निष्कपालं
रसविमाने प्रोक्तम्‌ ॥ शिरः; अस्थीनि च सच्ास्पदान्याङृतयो वज्रगरी-
यस्यः, हृदि चास्य महासिरा दशेव, स्वगस्य शिरश्चा-
* @ @ @ # @ & @ छ& ¢ # के @ ® क $ # क = # छ > र # 8 @ # र # क + # क क # # 9 # # > $
सेद्यमच्छघं, सवेतोऽस्य शुक्र, योजनं चास्योत्सेधः,
इसय्यि ऋतुये भी पाच ही होती ईहै। उसकी उपपत्ति सप्ररत्ं चास्य ग्भवासः, सयोजातस्य चास्य सर्व-
न होने से टी ऋतु नहीं होती । रस के प्रयोजन के किये कर्माणि शक्यानि भवन्ति, न चैनं श्चुत्पिपासाश्रमग्ला-
ऋतुए्‌ 8 होती है जिसका कि रसविमान ( खण्डित भाग ) निशोकभयेष्याऽघमेचिन्ताधिन्याधिजरा बाधन्ते, न
मे वर्णन रिया गया हे ॥ । च स्तन्यदरत्तिभेवति, धमेतपोज्ञानविज्ञानस्थितियुक्ति-
स क; कलासमूहं कालं द्िषिधमकल्पयत्‌-शुभं श्चाति भवति । तस्य पकललितोपमाधे(?मायुरुत्छष्टमाहू-
चाशुभं चः तौ वुल्यप्र(परि)माणौ मूतवतेमानानागत- रिति ।। अथ त्रेतायामधेनारायणं नाम देहिनां संहननं
विभागात्‌ । तत्र शुभ उत्सपिंणी अशुभोऽवसर्पिणी; ते शरीरमत्पद्यते । तस्येकास्थिप्रायं शरीरमाङ्च्नप्रसा-
पुनरुभे चरिविषे युगभेदेन-आदियुगं देषयुगं कृतयुग- रणवज्य, ग्॑वासोऽस्याष्टमासिकः, स्तन्यजीषिका च
मिद्युत्सर्पिणी, तरेताद्मपरकलियुगान्यवसर्पिंणी; तयोरा- द्रे शिरस्कपात्ते, पाश्ैयोरेकेकः सन्धिः उरसि चः
१. कःब्ह्या।२. जो स्वयं बृद्धिको प्राप्त होता है अथवा क्रमशः यस्थि प्रष्ठ, कोष्ठस्य सिरा विंशतिः, शक्रं च, पलितो-
श्रायु आदि मावँंको बदाता है उसे उत्सपिणी अथवा उन्नतिकाल पम८?चतुर्मागमायुरुत्छषं पूर्वाज्ाधेरुणावसपंणमिति ॥
कहते हे । जो स्वयं क्षीण होता हैअथवा क्रमः मायु आदि भावों को अथ द्वापरे केशिकसंहननं शरीरमुत्पद्यते केशमाघ्रा-
तीण करता हेउसे अवसर्पिणी या अवनत्तिकाठ कहते है । गणुखुषिरयस्थिः अतिक्षप्रसन्धि, महादस्तिबलः(लं); वि ।
९ काण
६8६ काहयपस्ंहिता वा वृद्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । { अध्यायः !
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सिरानुवेष्टितगाघ्रः(्); गात्रसन्धिषु चास्य शुक्रं, पलि विक्लान, स्थिति तथा युक्ति का आधिक्य होता है। इसकी
तोपमा(0षटमागमायुरु्छ्ं पूर्वाच्चाधेगुणावसपंगमिति।। उलछृष्ट आयु पङितोषमा्धं होती है । इस के वाद्‌ त्रेतां
मनुरष्यो का अधंनारायण नाम का क्षारीरिक संहनन होता
अथ कलियुगे प्रजञधरिपिशितं संहननं शरीर मुत्पद्यते । है! उसका शरीर प्रायः एक अस्थिवारा तथा जाङुञ्चन
तस्य षष्टिश्चत्रीणि चस्थिशतानि श्रृशसुषिराणि मज ( 0०४८०००० >)एवं प्रसारण ( 011290००) से रहित
पूर्णानि नलवदासन्नघधानि, चत्वारि सांसपेशीशतानिः होता है । आठ मास यह गर्भ॑ मे रहता है । स्तन्य ( दूध )
सप्र सिराशतानि हृदयमूलानि, नब सख्ायुशतानि पर यह जीवित रहता है। इसके धिरसेदौो कपा होते
मस्तुखङ्गमूलानि, दे धमनीशते तालुमूले; सपोत्तरं ह । पर्वों तथा हती म एक २ सन्धि होती है।
ममशतं, जीणि महामर्माणि; दश प्राणायतनानि, पच्च पीठ तीन अस्थि वी होतीदहै। ८ दो व्न्य
हृदयानि, जीणि सन्धिशतान्येकाशीता(त्यधिका)निः तथा एक (ण्न्णड ), कोष्ट मं बीस शिरे होती
चतुदश कण्डराः, कूच द्विचत्वारिंशत्‌; षट्‌ खचः, हचौथाई । क्र भी होता हे । इसकी. उच्छृष्ट आयु पलितोपम का
भाग होता है । पहर ( तयग ) की अप्त इसमे
सप्र धातवः स्रोतांसि द्विविधानिः जातस्य प्रथग्दन्त- आधे गुर्णोकाहासहो जाता हहे । इसके बाद्‌ द्वापर मं कैशिक
जन्म, दशमासं गर्भवासः संमत्सरादृध्वं प्रतितिष्ठति; संहनन वारा शरीर उप्पन्न होता हे । इसकी अस्थियां केश्च के
वाचं च विघ्छजति; तस्य षषेशतमयुरुच्कष्ट, सुखदुःखा- समान अणु तथा सुषिर होती ईह । सन्धियां अतिरिक्त
धिव्याधिजरामृत्युपरिगतः; ` सवेगाचः, श्चुस्पिपा्ा- होती है । हाथी केसमान वड़ा बर होता हे, सारा शरीर
गौरवश्रमशेथिल्यचित्तेष्यारोषानतलौल्यपरिकलेशमोह- शिरार्ओ से व्याप्त होताहे शरीर की सन्धिर्योसें शक्र (वरू)
वियोगप्रायः; संसारगोचरः; आबाधबहुल इति दे दे होता है अर्थात्‌ हरीर की सन्धियां अत्यन्त दद्‌ होती है|
युगे स्रजस्तमोन्धये बिद्धि । “इति पुरुषस्य इसकी उच्छृष्ट आयु पलितोपम का आाटवां हिस्सा होती हैतथा
पहर ( त्रेता ) की अपेक्ञा इसमे आधे गुणो का हास हो जाता
सष्टिकारणमुक्तप्‌ ॥ है। इस्फे बाद कलियुग मे प्रज्तति पिक्चित संहनन वारा
बरह्मा ने करज के समूहरूप कार को शुभ ओर अशुभ शरीर उव्पन्न होता हे । इसके शरीर में अत्यन्त सुषिर, मन्ना
दो रकार का बनाया। ये छम भौर अशुभ काल भूत, से युक्त तथा नरू की तरह भङ्धर तीन सौ साठ); भस्थियां
वतमान तथा भविष्यत्‌ के मेद से समान पर्मिण बारे होती है, ४०० मांसपेशियां होती ईह, ७०० लिराएं होती
होते हँ । इनमे शभ कारु को उस्सर्पिणी तथा अश्युभ है, जिनका मूर हृदय होता है, मस्तिष्क मूल ` वारे ९००
काट को अवसर्पिणी कहते ई । ये दोनों पुनः युगमेद्‌ स्नायु, तालुमूलवाङी २००. घमनि्यां, १०७ मर्म, ३ महाम,
से तीन प्रकार केह । उत्सर्पिणी के आदियुग, देवयुग तथा प्राणो के १० आयतन, ५ हृद्य, ३८१ सन्धियां, ४ कण्डरा,
कृतयुग ये तीन मेद्‌ है! इसी प्रकारं अवसर्पिणी फे चेता, ४२ कूच, ६ स्वचा तथा ७ धातु होती हैँ । खरोत दो प्रकार
हवापर एवं कङियुग-ये तीन मेद है, युर्गो के अनन्त होने से के होते है । उत्पन्न होने के बाद्‌ उसके दार्तो का जन्म होता
इनका परिमाण नदीं कहा गया है । जदियुग तथा देवयुग है वह दस मास तक गर्म॑सें रहता है । एक वषं के. वादं
का परिमाण अचिन्त्य होने से इनके कर्म, भोजन, पान, गति वह खड़ा होने खुगता है तथा बोलने लगता है। इसकी
वीयं तथा जायु का निदंस संमव नहीं हे । कृतयुग में मनुष्यों उच्छृष्ट जायु ५०० वषं होती है । वह सुख-दुःख, जाधि-व्याधि,
छा नारायण नाम का शारीरकि संहनन उतपन्न होताडहे। ब्रृदधावस्था तथा मृस्यु से युक्त होता है अर्थात्‌ वह इन सब से
इसलिये उसके रक्षण कते है-उसका सिर धन (ञे >) विरा रहता है 1“ " “ - 'हसका शरीर पूर्ण होता है! इसे
तथा कपार रहित होता है, अरिथियां सत्व से युक्त होती है, भायः भूख, प्यास, गौरव ( भारीपन ), श्रम ( थकावर)
आष्कृतियां वन्न के समान शरेष्ठ ( स्पष्ट ) होती है, हृदय में श्षिथिरूता, चित्त; द्या, रोष ( क्रोध ), जसस्य, रोट्ुपता,
इसके दश महाशिराएं होती है, इसकी स्वचा तथा सिर दुःख, मोह तथा वियोग होते हैँ । उसे संसारके सब कमं
अभे तथा अच्छेद्य होते है, इसके सारे शरीर मे थुक होताहे । करने पडते हैँ तथा वह कष्टौ से युक्त होताहे) ये दोरयुग
इसकी विज्ञालता एक योजन होती है! सात रात्रि सस्व, रज एवं तम से युक्तं जने । इस भ्रकार यह पुरुष ष्टी
( सात मास ) यह गभं में निवास करता ह । उस्पन्न होते ही उप्पत्ति का कारणकहाहै। . ॑
यह सब कमं कर सकता है । इसे भूख, प्यास, श्रम
( थकावट )\गानि, शोक, भय, ईर्ष्या, अधर्म, चिन्ता, आधि वक्तथ--१, करासमृहं कालमू-दछोदी रे करभो क
( मानिक रोग) तथा व्याधि (शारीरिक रोग) तथा | कहते है इसीख्यि "कराः शब्द्‌ के द्वारा
बरद्धावस्था नहीं सतातीद यह स्तन्यवरृत्ति नही होता अर्थात्‌ ही कालः शब्द्‌ बनताहे। सुश्रुत सू० अ०६में कहा है
आरंमसेही दूष नहीं पीता। इत मे धम, तप, षान; स खक्मामपि कलां न लीयते शति कालः । इसकी व्याख्या मं
इल्ञण ने कहा है--'सः कालः सक्ष्मामपि स्तोकामपि कलां मागं न
१.नलबद्धङरणीत्यथैः। ` |लीयते गतिमल्ात्‌ दिष्टो न भवत्तिः। इसलियि कद बिद्धान
अध्यायः १] शारीरस्थानम्‌ । ६७
00 ^ न 0 ^ का शा का

|पञ्च
#
+ + ण नि ^

कहते है-रलारब्दस्य ककााकृरौ कीधातोश्च टकारमादाय काल- महाभूतानि शरीरहेतुरच्यते । शब्दादयस्तेषां


राव्दनिष्पन्तिः ॥ २. इस अध्याय सँ बताया गया है करि प्रत्येक |। गुणाः| गुणवरदुभ्याऽवस्थितानि महाभूतानि दिगात्मा
#।

युग म पुरुष की आयु एवं अन्य गुर्णो का क्रमक्ञः।हास होता


जाता हे । चरक संहिता मे भी भ्तयेक युग से क्रमकः आयु के । मनः कालश्च द्रभ्याणि |द्रव्याश्रया गुणाः ! खस्याप्रति-
हस होने का निरदँश मिक्ता है । चरक वि० अ०्३मे कहा पेधो लिङ्ग, वायोश्चलनं, तेजस ओौष्ण्यम्‌ ; शभपां
है-यगे युगं धमपादः त्रेमेणानेन हीयते । युणपादश्च भूतानामेव द्रवत्वं, प्रथिठणाः स्थेयेत्‌ । सदःवद्ानासिन्द्रियाणं
लोकः प्रलीयते ॥ संवत्सरशते पूणं याति संवत्सरः क्चयम्‌ । देहिना त्रीणि नरीणि षिभरद्रष्टसनिकृष्वृत्तीनि । मनश्चक्षुः श्रोत्र
मायुषः काले यत्र यन्मानभिप्यते ॥ अस्येक युगमें कमनः धर्म ' मिति विप्रक्ृष्ुत्तीनि, घ्राणं रसनं त्वगिति सन्िक्षट-
का एक पाद्‌ ( चतुर्था ) कम हो जाता है । पञ्चमहाभूरतो ॐ वृत्तीनि । त त्‌ सवं स्पश्च॑नदद्ऽःय&-; तदयथा-पुरषः
गुणो कामी एकर पाद्‌ नष्ट होता जाताहे। भिन्न २ कालो सवेतोगवाकं परासादमभिरूढस्तांस्तानर्थान्‌ गवाक्ैरालो-
मं संवत्सर के १०० वें भागके पूर्णं हो जाने पर मबुष्योंकी
आयु में एक संवत्सर की कमी हो जाती है। जैसे उदाहरण ॐ चयत्येवमयमात्मा शरीरस्थ इन्द्ियेरनुपहतैमनःप० ॥
स्यि सतयुग का कारु ४८०० दिव्य वर्षं॑माना जाता हे * १ १५ 9००० ५०४०९०५५ ४० 5९५७5५० *५ ७५००५००० ०

४८०० के १०० वे भाग अर्थात्‌ ४८ दित्य वर्षो के भ्यतीत हो


जाने परं मनुष्य की आयु मे एक वषं की कमी आजयेगी | ( इति ताडपत्नपुस्तके ७९ तमं पत्रम्‌" । )
इस प्रकार ४८०० दिव्य वर्षो के व्यतीत होने पर त्रेतायुग फे जब हम समुद्यकारण ( खष्टि उत्पत्ति के कम ) को कहते
प्रारंभ मे १०० वषं की जायु कम हो जायेगी अर्थात्‌ सतयुग है--अन्यक्त ( मूलम्रकृति ) से महत्त्व
( बुद्धितस्व ) उत्यश्च
के प्रारंभममें यदि मनुभ्यकी आयु ४०० वर्ष थी तोत्रेताके होता है, महत्ततव से अहंकार ( अहं
भावना ), अहंकार से
परारम मं वह ३०० वषं रह जायगी ।द्वापर के प्रारंभ मे मनुष्य जका आदि पांच सुच्मभूत (पंचतन्मात्राए) उत्पन्न
होते है ।
की आयु २०० वषं तथा अन्तमं कछियुगके प्रारंभमें तो ये आठ भूतप्रहृतियां ई । चश्च, श्रोत्र, घ्राण ( नालिका ),
मय्य की आयु १०० वषं ही रह जाती है । इसी क्रम से यह रसना तथा त्वचा-ये पांच इन्द्रियां जिन्हे ञुद्धीन्द्ियां ( ज्ञाने.
आगे भी धीरे २ कम होती जायगी तथा अन्त में कलियुग के न्दरियां ) कहते है, हाथ, पैर जिह्वा, गुदा (4५०८
) तथा
१२०० दिभ्य वषं वीतने पर संसार नष्ट हो जायगा प्रख्य उपस्थ ( जननेन्द्िय- एल8 ) ये पांच कर्मेन्दियां, शब्द्‌
हो जायगा । ३. उत्सपिंणी तथा अवसपिंणी- इन शब्दों पर स्पशे रूप रस गन्ध आदि पांच इन्दिथो के पांच विषय
तथा नारायण, अर्धनारायण, कैश्चिक, तथां प्रज््िपिश्चित अतीन्द्रिय (जो इन्दर्योका विष्यन हो) मनये त्था
१६
आदि शारीरिक संहननो रे विषय में उपोद्धात मे विरोष विकार है । महदादि सम्पूर्णं अभ्यक्त को क्तेत्र
कहते ई तथा
विचार किया गया है । इन्हें वहीं देखना चाहिये ॥ शाश्वत एवं अचिन्त्य आस्मा को कतत्रज्त कते हं । इस
समुदयकारणं तु व्रूमः--अव्यक्ताम्‌ महान्‌ ; ( आत्मा ) के निम्न क्ण है-चेतना, अहंकार, प्राण, अपान्‌,
मदतोऽदङ्कारः अहङ्कारात्‌ खादीनि; ता अष्टौ भूत- उन्मेष, निमेष, सुख, दुःख इच्छु, द्वेष, स्ति, ति, उदधि
आदि । इन कर्णो के अमाव मे ज्यक्ति मृत होता हे! (लरीर,
प्रकृतयः । चक्षुः शत्रं घ्राणं रसनं सशंनमिति पञ्चे दन्दिय, जात्मा, तथा सत्व ( मन >के समुदाय को पुरूष
न्द्रियाणि, तान्येव बुद्धीन्द्रियाणि; हस्तौ पादौ जिहा कहते दै । कुद रोग आत्मा को पुरूष
मानते
गद उपस्थ इति पञ्च कर्मेन्द्रियाणि; शब्दरपशरसरूप- युगपत्‌ जभाव तथा भाव मन का रक्षण है ।दैउस। ज्ञान (
का
गन्धाः पञ्चेन्द्रियाथांः; अतीन्द्रियं तु मनः; इत्येते के एकत्व तथा अणुत्व दो गुण माने जाते ह । प्रयत मनतथा)
षोडश विकाराः महदादि सवं चेत्रमग्यक्तमाचक्षते, ज्तान के युगपत्‌ (साथर) न होनेसे मन एकहे, अनेक
चते्ज्ञं तु शाखतमचिन्त्यमात्मानम्‌ । अस्य लिङ्गानि नहीं । मन के सहित ही इन्दियां जर्थं ( विष्य ) के अहण
चेतनाहङ्कारप्राणापानोन्मेषनिमेषञ्चखदुः खेच्छाद्रेषस्म- करने मे समर्थं होती ह । अर्थात्‌ यदि किसी विषयमे मन
तिधृतिवुद्धयः; तदभावे मृताख्या । शरीरेन्द्रियात्मसन्छ- खगा इजा नहीं है तो इन्द्रियां उस विषय के ग्रहण करने मं
कदापि समथं नहीं हो सकती ! आकाश्च, वायु, अभ्भि, जक
समुदयं पुरषमाचत्तते, आत्मानमेके । ज्ञानस्याभाषो तथा एृथिवी-ये पञ्चमहाभूत शरीर की उत्पत्ति के कारण के
मावश्च मनसो लक्तणं, तस्येकलमगणुतवं च दौ गुणौ, जाते ह ! शब्द आदि ( शब्द्‌ स्पन्ञं रूप रस गन्ध ) पांच
्रय्ज्ञानायोगपथादेकं प्रथक्‌ (न) । समनस्कमिन्दरिय- महाभूतो के गुण हँ ।शब्द्‌ स्पशं आदि गुणों की कमनः दधि
मथग्रहणसमथं मवति । खं वायुस्तेज चापः परथिवीति द्वारा धिद्यमान पञ्चमहाभूत, दिश्षार्‌, आत्मा, मन तथा कड
१. अतन मनसोऽनेकत्ववादमाक्षिप्य एकल्ववादश्चरके इव व्यव- (ये नौ) करभ्य कहकरति है । गुण दभ्य के आश्रित रहते है ।
स्थापितः । अस्मिन्नेवं समनस्कमिल्युत्तरवाक्यं साधकत्वेन संग- आकाश का लिङ्ग ( गुण )- अप्रतिषेध (८अप्रतिघात छिसी
च्छते । अतोऽत्र न पृथक्‌ इति सनकारपाग्शवेत्‌
साधु। १. अस्याभे ८० तमं पत्र चटितं ताडपत्नपुस्ववै ।. |
&८ काश्यपसंहिता वा ब्द्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । [ अध्यायः!
ति पिप.

प्रकार की स्कावरकान होना), वायु का ङ्तण गति, अचि इसि दोनों का संयोग आवश्यक हे 1 भ्रकृति ओौर पुरुष का
का उष्णता, जलका वत्व (पप) तथा पथिवीका यह संयोग अन्धे एवं खंगड़ के परस्पर संयोग के समान होता
गुण स्थिरता होता है । मन सहित इन्दियो ( £इन्द्रियो ) है । अन्धे मे चरने की शक्ति हे परन्तु उसे मागं नहीं दिखाई
म से तीन विप्रकृष्ट ( दूर >)तथा तीन सन्निकृष्ट (समीप) कायं देता \इससे विपरीत रंगड़ा मागं देख सकता है परन्तु उसमें
के ल्य है। इनमे मन, चक्षु तथा श्रोत्र विग्रहृष्ट तथा चलने का सामथ्यं विर्कुर नहीं हे । परन्तु पारस्परिक संयोग
घ्राण, रखना ओर स्वचा सचरिङ्ष्ट कायं वाटी ह। इन से अर्थात्‌ रंगडे भ्यक्ति को यदि अन्ये के कन्धे पर बिठा दिया
सबको स्पर्शन रक्षण कहते हँ । उदाहरण के ल्यि जिस जाय तो कायं सभ्यक्‌ प्रकार से सम्पन्नहो जाता है। उसी
प्रकार कोई मनुष्य चर्यो ओरसे गवार्हो (श्चरोखो) प्रकार प्रङति एवं पुरूष का संयोग परस्पर खष्ि उत्पत्तिरूप
चारे महल मे वेा हभ क्षरो के द्वारा भिन्न २ विषयो का कार्यं को करने मे सफर होता है । पुरुष प्रति के संयोग का
हण करता है ८दैखता है) उसी प्रकार यह आद्मा शरीर में दृच्छुक सख्ये बना रहता है कि वह उससे विवेक क्ञान प्राप
स्थित इभा स्वस्थ इन्द्रियो के हारा मन के“ करके मोक्त की सिद्धि करता ह । भौर भ्रति पुरुष से इसखिये
(थोग से भिन्न २ विषयों को प्रहण करता है) अर्थात्‌ जिस मिना चाहती हे क्योकि पुरुष ( भोक्ता ) के अभाव सं
प्रकार मकान मेँ वेला हुा मनुष्य केवल द्रष्टा होता है उसी प्रकृति ( भोग्या >)की स्वरूप सिद्धि नहीं हो सकती । इस
भ्रकार आत्मा भी वस्तुतः केवर दष्टा है । वह आंख के वारा प्रकार दोना का परस्पर संयोग कार्य मे साधक होता हे ।
ङ्प को देखता है, कान कै हारा शब्द को सुनता हे, नासिका सास्य सम्मत सृष्िविकासक्छम निम्न प्रकार हे-
के द्वारा सूघता है, इत्यादि । मन अचेतन होता इभा भी पुरष +ग्रकृति
क्रिया वाखा है तथा आत्मा चेतनायुक्त है । जब मन आस्मा ( अभ्यक्त )
ॐ साथ संयुक्त होता हे तभी क्रिया होती है अत एव आत्मा [व मि र1

व्यपदेशा से ही कर्ता कहलाता है । आत्मा के जान की प्रवृत्ति महत्तत्व ( इडिति )


मन एवं ज्ञानेन्द्रिय आदि साधर्नोके योगसे ही होतीडहे।
यदि आत्मा का मन के साथ योग न हो अथवा इन्द्रिय आदि अहंकार
करण निर्मल्न होतो विषय काक्ञान नहीं हो सकता! इसी
ल्य चरक श्ञा० अ० १ मे कहा भी है-आता ज्ञः कररो्योगा- |
वेकारिक तेजस भूतादि
जज्ञानं त्वस्य प्रवर्तते । करणानामवेमल्यादयोगाद्वा न प्रवते ॥ (साष्विक) ( राजस ) ( तामस )
चक्तम्य-() ) इसमे सृष्टि उष्पत्ति का क्रम बताया गया
हे 1 अन्यत्र भी खृष्टि उत्पत्ति का यही कम मिरुता है । सुश्रत ए +
&&
द° अ० १ मे कहा हे--
&&
स्व॑भूतानां कारणमकार्णं सत्वरजस्तमो लक्षणमष्टरूपमखिलस्य
जगतः संभवेदेतुरव्यक्तं नाम । तदेकं वहूनां क्षे्ज्ञानामधिष्ठानं एकादश इन्द्रियां पांच तन्मात्रा
समुद्र श्वोदकानां भावानाम्‌ तस्मादभ्याक्तान्मह्‌ा यत्पचते तदि
(५ ज्ञनेन्दरियां + ५ कर्मन्द्ियां + १ मन) |
पञ्चमहाभूत
एव ! तलिङ्गाच महतस्तदिङ्क एवाहंकार उत्पतते! स चं त्रिविधो
वैकारिकसजसो भूतादिरिति । तत्र वैकारिकाददंदारात्‌ तैजससहा- (२ ) रेन्रक्ञ- रत्र का वास्तविक शब्दार्थं खेत हे।
य्यद्च तरक्षणान्येवेकादशेन्दरियण्युतयन्ते । तयथा--्रोतरतक्‌ चक्लि- दर्शन शाख में चतुविशति तत्व समुसाय ( ८ प्रकृति + १६
हाघ्राणवाग्वस्तोपस्थपायुपादमनांसीति। तत्र पूर्वाणि पञ्च॒ अद्धी- विकार) अर्थात्‌ शरीर को चेत्र कहते है तथा तेत्र
न्द्रियाणि, इतराणि पञ्च कर्म॑न्द्रियाणि, उभयात्मकं मनः, भूतादेरपि के ज्ञाता को सेत्र्त कहते है। गीता मे कहा है-
तैजससदाय्यात्तटक्षणान्येव पञ्चतन्मात्राण्युतचन्ते, तयथा राब्दतन्मां, इदं सरीर कौन्तेय कषे्रमित्यमिधीयते । एतद्‌ यो वेत्तितं प्राह क्षेत्र
स्पदचीतन्मात्र, रूपतन्मात्रं, रसतन्माघं, गन्धतन्मात्तमिति, तैषां विरोषाः ल्ञभिति तद्विदः ॥ महाभूतान्यहंकारो दद्धिरग्यक्तमैव च । इन्द्रियाणि
शाब्द स्पञ्रूप रसगन्धाः; तेभ्यो भूतानि व्योमानिखानल्ललोर्व्यः, दीक च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥ शचछा दषः खखं दुःखं सन्चातश्वेतना-
एवमेषा तत्वचतुविरतिन्याख्याता । प्रकृति ओौर पुरूष क संयोग धृतिः । एतरक्षेचरं समासेन सविकारयदाहृतम्‌ ॥ इसी प्रकार चरक
से ही विश्च कीसृष्टि होती है) सांस्यकार्कि मे इसका बङा ज्ञा० अ० १ सें कहा है--तदेव भावादयाह्यं नित्यत्वा कुतश्चन ।
सुन्दर एवं उस््े्ात्मक वर्णन किया गया है-पुरुषस्य दर्यानारधं | भावाञ्कैयं, तद्व्यक्तमचिन्त्यं व्यक्तमन्यथा ॥ अन्यक्तमात्मा कषत्रज्ञः
दौवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पड्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तकरतः स्म॑: ॥ साश्वतो विभुरव्ययः! तस्माघयदन्यन्तद््यक्तं वक्ष्यते चापर द्वयम्‌ ॥
ग्रकृतमंहांस्ततोऽहंकारस्तस्माद्‌ गणश्च षोडदयकः। तस्मादपि | व्यत्त चैैन्द्ियवं चैव गृद्यते तदिन्दरियैः । अतोऽन्यत्‌ पुनरव्यक्तं
कातपज्चभ्यः पंचभूतानि ॥ प्रकृति ओर पुरुष का संयोग ही सृष्टिक लिङ्गग्राह्ममतीन्द्रियम्‌ ॥ खादीनि वुद्धिरव्यक्तमहकारस्तथाष्टमः ।
उपादक हे क्योकि प्रकृति जड़ हैतथा पुरुष स्वभावतः निच्िय भूतथकृतिरदिष्टा विकाराश्चौव षोडशः ॥ बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैव पञ्च
दै अतम्ये थ्‌२ सषटि को उतपन्न करने मे समर्थं नहीं है |वमन्द्ियाणि च । समनस्काश्च पचचाथां विकारा इति संहिताः ॥
अ्मानगोत्रीयक्षारीराध्यायः १ 1 शारीरस्थानम्‌ । ६९

इति केवरं सयुद्षटं सर्वमव्यक्तवजितम्‌ । अव्यक्तमस्य क्षेत्रस्य रेतरक्ञ- पं द्व्य तथा उसका कक्तण--चरक सूु० अ० ३ मे कहा है-
मृषयो विदुः ॥ अभ्यक्त को छोडकर शेष मूलप्रकृति ओर विकार यद्राधिताः कमैयुणाः कारणं समवायि यत्‌। तद्‌ द्रव्यं," ।
का नामरेत्र है! तथा इस तेत्र के न्ञाता अभ्यक्त आत्मा को जिसमें कर्म जौर गुण आश्रित ह भौर जो द्भ्य, गुण, कमं का
सेत्रज्त कहते ह । गीता में अव्यक्त शब्द्‌ सत्व, रजः, तम इन समवायि कारण है उसे द्भ्य कहते ह! इसी प्रकार वेशेषिक
तीनो गुणो ॐ साम्यरूप मूर्परङृति के च्वि आया है तथा मे कहा है- क्रियावद्‌ युणवस्समवायि कारणं द्रव्यम्‌ । द्रन्यसंगरह-
चरक संहिता में अन्यक्त शाब्द जत्मसंयुक्त मूलप्रकृति के खादीन्यात्मा मनः कालो दिशश्च द्रव्यसंग्रहः । ये ९ द्रव्य कराते
है-सम-
लियिदहे। (1) आतमाके लिङ्ग चरक श्ा०अ०१¶ में निम्न हे । णा गुण का रत्तण--चरक सु° अ० ५ मेँ कहा
दिये है-पराणापानौ निमेषा जीवनं मनसो गतिः । इन्द्रियान्तर. वायीतु निश्वष्टः कारणं युणः। जो समवायी, निच्छिय तथा
संचारः प्रेरणं धारणं च यत्‌॥ देशान्तरगतिःस्वप्ने पश्चैत्वं यहणं कारण हो उसे गुण कहते हँ 1 समवायी जात्‌ जे द्रव्यगुण
है । इससे कात होता है छि गुण ष्य
तथा !दृष्टस्य दक्षिगेना्णा सन्येनावगमनस्तथा ॥ इच्छा दवेषः उखं रूप समवाय का जाधेय
दुःखं प्रयत्नश्चेतना धृतिः ।बुद्धिः स्टृतिरहंकारो लिङ्खानि परमात्मनः ॥ ॐ आश्रित रहते है । निश्चेष्ट से गुण अभिप्राय कर्म॑शून्य काहे
करण भी नहीं होते है ।
अर्थात्‌ गुण क्म नहीं करते तथा
वैशेषिक दर्शन मे भी कहा हे-प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनः
मनोगतीन्दरियान्तरविकाराः सखदुःखेच्छाद्रेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गा- गुणसंग्रह--
चरक सू० अ० ५ मे कहा है-सा्ाः युवांदयो
नि। ॐ मन का रक्षण चरक श्षा० ज०१ मकहाहै- ुद्धिः प्रयलान्ताः परादयः । युणाः प्रोक्ताः" “* “* ॥ शब्द्‌ आदिं
लक्षणं मनसौ ज्ञानस्य मावो भाव एव च । सति ह्यालेन्द्रियाथांनां ५ विषय, गुड आदि २० गुण, इद्धि, सुख, दुःख, इच्छो, देष,
हैँ। इनमें
सन्निक्े न वर्त॑ते ॥ वैवृत्यान्मनसो ज्ञानं सान्निध्यान्तच्च वतते ॥ प्रय्न तथा पर आदि १० गुण । ये ४१ गुण कहराते
जब आत्मा द्वारा विषय के रहण के स्यि प्रवृत्त किया गया दाब्दादि ५ गुण वैशेषिक गुण करते हैँ क्योकि ये
आकाज्ञ
मन उख २ विषयके ग्रहण धिये उस्र इन्िय की भोर आदि पच महाभूतो के विशेष गुण हैँ । गुर आदि २० गुण
जाता है तब वह मनोयुक्तं इन्द्रिय उस विषय को अहण सामान्य गुण कहके हैक्योकि ये पांचो महाभूतो मं सामान्य-
करता है । उसी समय दूसरी इन्दिर्यो के विष्यो को ग्रहण खूप से रहते है । बुद्धि, इच्छा, देष, सुख, दुःख तथा प्रयल--
करने मे मन प्रवृत्त नहीं होता, अत्व एक ही कार मष्क आत्मुण कहते है । परस्व जादि १० गुण भी सामान्य गुण
ही है! इनके अतिरिक्त को २ आचायं ५ इन्द्रियों के शब्द्‌
ज्ञान का होना तथा दूसरे कान होना यही मन का रुच्तषण
आदि ५ विष्यो के साथ टे मन के विषयचिन्त्य विचायं
हे। न्यायदर्चन मे भी कहा है-युगपञ्ज्ानात्पत्तिमनसो
किन्ञम्‌। एक कारम मनके द्वाराणएक ही विषय का ज्ञान आदि का भी समावेल् करते हँ इस प्रकार उनके मत में गुर्णो
की संख्या ४२ हो जाती है ।
हो सकता दहै। यदि ेलान हो तो जात्मा के विसु एवं स्वं
होने से सदा सब इन्दि्यो ॐ विष्यो का एकु साथ ही ज्ञान
होता रहेगा । इसी के साथ आत्मा, इन्द्रिय ओर विषर्यो का
संयोग होने पर भी मन का संबन्ध न होतो क्तान नहीं होता
जौर यदि उनके साथ मन काभी संबन्धहोतो ज्ञान होता
हे । इसी च्वि वेशेषिक मे मी कठा है-“जजेन्दियाथसन्नि
® # क @ # कै > क क *#

करै ज्ञानस्य भावश्वामावश्च मनसो लिङ्गम्‌” । » मन के गुण -


७ # > ® # #@ के + # क > # @ ५ क 9०
# # @ 6 # ७ # 5 ₹ क #

ए्कस्व तथा अणुस्व हे । चरक शछा० ज० १ मेँ मी कहा है- वक्तव्य--यह अध्याय प्रारम्भ मे खण्डित हे । अध्याय के
देखकर ही ध्याय के इख
अशुलमथ चैकत्वं दमौ यणो मनसः स्खतौ । प्रत्येक शरीर में मन अन्त मे समाधिसूचक वाक्य को
के नाम तथा प्रकरण को
एक होता है तथा अणु होता है । यदि मन अनेक तथा महः नाम का संकेत मिरूता है । अध्याय
सपरिमाण वाखा हो तो युगपत्‌ अनेक ज्ञान होने चाहिये परन्तु देखते हए यह कहा जा सकता है कि इसमें गभंसम्बन्धी
देखा नहीं हेता । इसीख्यि चरक सू० अ० ८ भी कहा चिवेचन किया गया होगा । गर्भाश्ञय में गर्भं की मासिक च्द्धि
) का विषय इस अध्याय रम
है--““न चानेकत्वं नाण्वेकं द्येककाल्मनेकेषु भवतंते” इत्यादि । ( प्कपलस१९ वर्लगृलणटणा
बुद्धि के विषय
इसी प्रकार वेशेषिक दर्शन मे कहा ह--श्रयत्नायोगपवाज्ज्ाना- दिया गया हे । तृततीय मास से ग्भ की ऋमिक
यौगपचाच्येकम्‌” प युणवृदधयाऽवस्थितानि-भाकाश्ञ जादि पांच
से ही यह खण्डित अध्याय प्रारम्भ होता है । इससे अनुमान
पूवं के खण्डित भागम गर्भ॑.
महाभूतो मे से प्रथम ( आकाञ्च ) मेँ केवर एक गुण ( शब्द्‌ ) च्या जा सकताहे किं इससे
धारण प्रक्रिया एवं गर्भधारण के बाद प्रथम तथा हितीय
होता है ! इसके पश्चात्‌ के भूर्तो मे एक र गुण बढता जाता
हे। जैसे-वायु मे शब्द ओौर स्पशं । अग्नि मे शब्द्‌ स्प मासे होने वाली ग्भकी बृद्धि का विषय इसमें दिया गया
होगा । पाठको के ज्ञान के च्य चरक तथा सुश्रुत आदि अन्य
क्नौर रूप। जर ने शब्द, स्पशं, रूप तथा रस । ओर
यहां देनेका
थ्वी मे शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध गुण रहते हे । षं अर्थो के आधार पर हम उस विषयको
दसीषख्यि चरक श्षा० अ० १ मे कहा है-तेषामिनयुणः ग्रयल्न करेगे ! सबसे पूर्वंअध्याय के नामसे यह स्पष्टदेकि
पूवो यणव्रदधिः परे परे।पूरवः पूवंयुणश्ेव क्रमशो युणिषु स्तः ॥ परस्पर विवाह एवं मेथुन भिन्न गोत्र वार्छोका
दही होना
७० कार्यपसंहिता वा ब्रद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ असमानगौत्रीयश्ारीराध्यायः }
॥स न प न 0. श नम ४.

चाहिये । इससे सगोत्र विवाह का निषेध किया गया हे एक खोखली जगह हो जाती है जिसमें रेसद्‌ार द्रव भर जाता
यद्यपि समान गोत्र वेदी पुरुषो के परस्परमेधुन से मी है इसीलियि प्रथम मास सेंइसका रूप कफके सदद्ञ बताया है।
गभ॑ स्थित हो जाता हे परन्तु उसमे नाना प्रकार के रोग होते इसी को प्रकट करने के स्यि सुश्रुत श्ा० अण्दमे भी.
देखे जते द) इसी ल्यि मनु महाराज ने भी सगोत्र कहा है--'ततर प्रथमे मासि ककं जायते ॥ दूसरे मास मेँगमाशय
विवाह को निषिद्ध ख्हराया है-अस्पिण्डाच या मातुर की श्ेभ्मिक कडा मोदी होने गती है तथा यह बीजरूप
सगोत्राच या पतुः! सा प्रस्ता द्विजातीनां दारकमणि गभं को चारो जरसे षेर रेतीहे।! इसके उपर दो आवरण
मेथुने ॥ दसी खयि चरक संहिता म मी शारीरस्थान का चन जाते है इसी समय गभं के चारं ओर ग्मोदक
द्वितीय अध्याय इसी ( अतुल्य गोद्नीय शारीर ) नाम से दिया ( [प्ण 4८०00) पुकनत्र हो जाता है । इसके दबाव से
गया है । अव हम गर्भधारण प्रक्रिया का वर्णन करेगे 1 जव गर्भावरण की दोनों क्षिद्धियां परस्पर मिरु जाती हँ । चरक
पूर्णंयुवा तथा अचिद्कत श्कराणु वाला पुरूष पूणं युवती तथा ला० अ०४मै कहा है--"दितीये मासि धनः सम्पयते-पिण्डः
मासिकलखाव सरे शद्ध इई छी ङे लाथमेशुन करताहै उस पेदयवुंदं घा, तत्र पिण्डः पुरुषः शी पेशी अवदं नपुंसकम्‌ +" यदि
समय हर्ष से प्रित इद शरीर की उक्ृ्ट धावु छक्र रूप में वह घनाकार गभं पिण्डरूप हो तो पुर्ष, यदि मांस पेशी की
्रदृत्त होती दै । शक्र मे स्थित श॒क्राणु बाहर निकर कर ची आङ्तिकाहीतोखी तथा अद्खंदाङ्कति ह्ये तो नपुंसक {गर्भ॑
के योनिमागं द्वारा गर्भाय मे प्च कर आतव ( 0र्प ) होत्ता हे ।
के साथ संयुक्त होता है तथा वहां गर्भं धारण कराता हे । यह अब हम मूर अन्थोक्त विषय पर आते वर्यो इस
मेथुन ऋतुकारुमे ही होना चाहिये। यह कारु च्िर्यो में अध्याय का प्रस्तुत विषय इख प्रकरणके वादही प्रारम्भ
सामान्यतया आर्तव प्रवृत्ति से ज्ञात होता हे । चर्यो मे आतव होताहै। * |
प्रवर्ति २८ दिन के वाद्‌ होती है! रजोदर्शन से रेकर पहखे प्राणस्तु बीजधातुं हि विभजत्यस्थिसंख्य(स्थ)य। |
तीन दिन तक खी को ब्रह्मचारिणी रहना' चाहिये । इन दिनों प्रविष्टमात्र बीजं हि रक्तेन परिवेष्यते ॥
म चिर्यो को स्नान, शगार तथा अ्यधिक शारीरिक एवं मान
शुक्रादस्थ्यस्थितो मांसमुभाभ्यां सायवः स्मरताः ।
तिक श्रम बिर्कुक नहीं करना चाहिये । इसके बाद्‌ चतुर्थ
दिनिसखीको स्नान इत्यादि क्र खेना चाहिये । स्नान करने | सर्वेन्द्रियाणि गभेस्य सर्वाङ्गाषयवास्तथा ।
के बाद्‌ वह शुद्ध कहराती हे । इस प्रकार रजोदश्शन के चौथ जीवात्मा के प्राण बीजधघातु ( श॒क्रधातु) को अस्थि
दिनि से रेकर १२ दिनि तक खी तथा पुरूष को सन्तानोपत्ति संस्थान के अनुसार विभक्त करता है । शरीर मे प्रविष्ट इभा
के निभित्त मेधुन करना चाहिये । अन्तिम १६ वादिनि भी बीज रक्त के द्वारा परिवेष्टित हो जाता है । अर्थात्‌ जव पुर्ण
योनिसंकोच के कारण मेथुन के स्यि व्याज्य है । चरक शारीर के शक्राणुखीके गर्भाशय से प्रविष्ट होते है तव उस शुकराणु
स्थान के द्वितीय जध्याय मे विस्तार पूर्वक यथाविधि गमा केचारौंभोरसखी काआत॑व फर जाता) शुक्र से ग्भ॑स्थ
धान का प्रकरण दिया हुभा है । विशेष ज्ञान के स्यि पाठको बारुक के अस्थि पुवं मांस बनते हँ तथा इन दोनों से अर्थात्‌
को. प्रकरण वहीं देखना चाहिये । इस गर्भं को पञ्चभूतो का अस्थि ओर मांस से स्नायु्भो का निर्माण होता हे। यह गर्भा.
विकार तथा चेतना ८ भावमा) का जाश्रय माना गयाहे। वस्था मं गभंस्थ बालक की प्रथम दौ मास की आन्तरिक
अर्थात्‌ जव तक उसमें चेतना या आत्माका संयोग न हो तब | बरद्धिका वर्णन किया गयाहे ॥
तक गर्भं की स्थापना नही होती । इसीलिये चरक मे कहा है- ठतीये मासि युगप्चिवतेन्ते यथाक्रमम्‌ ।
“श्ुकयोणितजीवसंयोगे त॒ खलु कुक्लिगते गभ॑संज्ञा भवतिः । इस | प्रस्पन्दते चेतयति वेदनाश्चावनुद्धथते ॥
गभं का धीरे २ गर्भाय में कमिक विकास होता जाता है। तृतीय मासं गर्म की सच इन्दि्यां तथा सब जवयवं
चरक शा० अ० ४ मे कहा है--त सव॑य॒णवान्‌ गर्म॑त्वमापन्नः प्रथमे यथाक्रम युगपत्‌ ( एकस्ताथ ) प्रकट हो जाते हँ । गर्भ स्पन्दन
मासि सम्भूतः सवेधाटुकलनीक्ृतः खेरमूतो भवत्यव्यक्तविग्रहः सद-
करने रुगता है । वेह चेतना तथा वेदना का भी अनुभव करने
सद्भूतङ्गावयवः । पञ्चमहाभूर्ता के गुणो से युक्त हुभा वह रुगता है । इस मास मे उसकी इन्द्रियां अव्यन्त सुतम होती
आस्मा गमभाव को प्राप्त होकर प्रथम मासमे सब धातुर्जो का है तथा मन में सुख दुःख का ज्ञान होने र्गता है । चरक शा०
उत्पादक होकर रूपमे कफ के सद्य होता है । इस समय अण०््मं भी कहा है--तृतीये मासि सर्वेन्द्रियाणि सर्वाङ्गावयवाश्च
उसका शरीर अस्पष्ट होता हैतथा उसके अवयव सत्‌ भी होते योगपचेनाभिनिवतेन्ते ।सुश्रुत ज्ञा० ज० इमे भी कहा है-तृतीये
ह भौर असत्‌ भी । अर्थात्‌ प्रारम्भ में जब शुक्राणु तथा डिम्ब हस्तपादशिरसां पञ्च पिण्डका निवेतन्तेऽङ्गप्रत्यद्धविभागश्च सचमो
( 0ण्प ) का संयोग होता है तब यह्‌ बीजरूप से गर्भाय
मवति ) इस मास से गर्भं के अङ्ग अस्यन्त सुच्म रूपमे होते है ।
की जभ्यन्तरिक ररुष्मिक करा मे चिपक जाते है! इस चरक में इसी मास में गर्भके हृद्य का विकसित होना सुचित
अवस्था में इसके भङ्ग आदि बीजरूप मे विद्यमान होने से किया गया है । वहां कहा है--“तस्य यत्कारमेवेन्दरियाणि सन्ति-
सत्‌ काते हे तथा रूप मँ अभ्यक्त होने से असत्‌ कहाते हे । छन्त, तत्कार्मैव स्य॒ चेतसि वेदना निबन्धं प्राप्नोति, तस्मात्तदा
अह वीज समयन्तर से बढता जाता हे तथा धीरे २ इसमें मरखत्ति गमैः -स्पन्दते प्रर्थयते.च, तद्‌ द्रैहदय्यमाचचते वृद्धाः
जसमानगोत्रीयशारीराध्यायः १ ] शारीरस्थानम्‌ । ७१

(मि मि

मातज चास्य हृदयं मातृहृदयेनासिप्म्बद् वति रसवाहिनीभिः हं इसलिये याता ( गर्भिणी ) को अधिक्‌ श्रम (थकावर
संवाहिनीभिः, तस्मात्तयोरताभिभं क्तिः सम्प्ते । तच्चैव कारणमदे- हो जाती हे । चरक रा० अ० ४ सें कहा है--पषठेमासि गर्भस्य
क्षमाणा न दहृदय्यस्य विमानितं गम॑मिच्छेन्ति कर, विमानने ह्यस्य मास्शोणित्रोपचयो मवत्यधिकमन्येभ्यो माक्तेभ्यः, तस्मात्तदा य्भिणी
टदयते विनादो विकृतिवा, समानयोगक्षेमा दहि माता तदा गर्भ॑ण रख्वणंहानिमाप्ते विरेषेण । इस मास सें गर्मफे बर, वर्णं
केषुचिदर्थषु, तस्मास्पियहिताभ्यां गिरणं विकेषेणो पचर न्ति कुद्रलाः।> एवं जोज की अधिक इद्धिहोनेसेगभिणी दुर्वरु हो जाती
इस मास मे गर्भ॑ स्पन्दन करने खगता है तथा उसी समथ सन है तथा वणं मी पीटा पड़ जाताहे। सुशुते इख मासमे
मे सुख दुःख आदि का छान होने रुगता है तथा वह पूर्वजन्म उदधि काआविभाव बताया है! ज्ा०अ०३ मे कहा है-
के अनुभूत विष्यो की इच्छा करने लगता हे । इत कारु में “वष्ट वृद्धिः ॥
गर्थिणी को जो भी इच्छा होती है उसे दौद्द ( दोहद्‌ >)कहते सवेघावङ्गसंपूणां वातपित्तकषान्वितः |
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हेंक्योकि यह इच्छा दो हृदयो से उस्पन्न होती हे । इस दौहदं सप्रमे मासि तस्माच तिव्यक्लान्ताऽच्र गर्भिणी ॥
को जवश्य पूरा करना चाहिये क्योकि वास्तव में इस समयं सातवें मास में गभं सव धातुजं तथा जङ्घा से पूर्णो
ग्भगत शिश की इच्छा के अनुदर ही माता की इच्छा हुभा जाता है तथा वात पित्त ओर कफ से मी युक्त होता है,
करती है। उसे यदि पूरा नहीं किया जाताहै तो गर्म में विकार दसल्यि इस मास से गर्भिणी सदा क्लान्ति ( थकादट )
उत्पन्न हो जते ह! सुश्चतने इस दौहृद को चतुर्थं मासमें अनुभव करती ह । चरक शा० अ० मे कहाहै- ततमे मासि
माना है । वास्तव सें गभ का स्पन्दन तीक्सरे मासमे प्रारम्भ गभः सवेभवेयप्दाय्यते, तस्मात्तदा गभिणी सर्वकारैः क्ान्ततमा
हो जाता हे परन्तु ग्भोंदक के क।रण उस समय उन स्पन्दर्नो मवति । परन्तु इस मास में सुश्रुत श्ा० अ०३ से कहाहे-
का कईं बार गर्भिणी को ज्ञान नहीं हो पाताहै। चतुर्थया सप्तमे सवाङ्गप्रत्यङ्विभागः प्रव्य॒क्ततरः ॥
पञ्चम मास में जाकर अधिक्‌ स्पष्ट हो जाने पर वह्‌ इन स्पन्दनों
को जनुभव करती हे ॥ | अष्टमे गभिणीगर्माबाददाते परस्परम्‌ ।

- सूदंमभ्रव्यक्तकरणस्तृतीये तु मनोऽधिकः । रोजो रसवहायुक्तेःभ. पूपूणेताच
९, {~
्छलयत्यपि॥
चतुर्थ स्थिरतां याति गभः कुत्तौ निरामयः ॥ तस्मात्तत्र सुहर्लाना स॒ह च गर्भिणी |
चतुथं मासमे गभं गर्भाशये स्थिर हो जाताहै तथा अत्ययं चाप्नुते तस्मान्न मासो गस्यतेऽष्टमः॥
उपद्रर्वो ते रहित होता है । इस मास में गभिणी का श्रीर्‌ भी आठ्वं मासमे गर्भकेपूर्णहोने से गर्भिणी तथा गभे,
अधिक भारी हो जाता है । चरक शा०अ० ४मेकहाहै-- चतु रसवहा नार्यो के योग से जोज का परस्पर आदान प्रदान
मासि स्थिरतामापद्यते गमेः, तस्मात्तदा गसिणी रुरुगाव्रत्वमधिकमा- करते हैँ तथा ओज के इधर उधर संचरण करने से गभं ऊ
पद्यते विशेषेण । इस मास सें गर्थिणी को अपनी देह विशेष भारी विषय सें खदा घोखा होता रहता है । अर्थात्‌ ओज के वार ₹
मालूम पड़ने रुगती हे क्योकि इस समय ग्म की विशेष ब्द्धि विनिमय से मन मे सदा सन्देह उपपन्न होता रहता है छि
प्रारम्भ हो जाती हे। सुश्रुतश्ला०अ०३में कहा है--चतुय गभ जीवित है या शृत हो चुका है । इसल्यि इस मास सें
सवाज्ञपरतयज्गविभागः प्रन्यक्तो मवति । गम॑हृदयप्रव्यक्तिमावाच्चे. गभिणी कभी प्रसन्न होती है तथा कभी ग्कानियुक्त हो जाती
तनाधातुरमिन्यक्तो भवतति, कस्मात्‌ तत्स्थानत्वात्‌ । तस्मादग्श्तुभे है तथा उसे अन्य उपद्रव भी होते रहते है! इसल्मि इसं
मास्यभिप्रायभिन्द्रिया्ेषु करोति ॥ आठवें मास को प्रसव के लिये उचित कार नहीं माना हे।
गुरुगात्रत्वमधिकं गभिर्यास्तत्र जायते । चरक ला० अ०४्मं कहा है--अष्टमे मासि गस॑श्च मातृतो गभ
मांसशोशितवरद्धिस्तु पच्चमे मासि जीवक ! ॥ तश्च माता रसवाहिनीभिः संवाहिनीभिसुँदृयंहृरोजः परस्परत माद-
दाते गमस्ासंपूणत्वात्‌; तस्मात्तदा गभिणी सुहहुसंदाघुक्ता
हे जीवक ! पांचवें मासमे रभ॑के मांस ओर रकन सवति सुहु इश्च ग्काना तथा गमः, तस्मात्तदा ग्म्य जन्म व्याप-
विरोष दद्धि होने ख्गती है । इसक्ियि इस समय गधिणी
अत्यन्त कृश ( दुर्ब॑ङ ) हो जाती है । अर्थात्‌ इस मासमे मांस त्तिमरद्धवत्योजप्तोऽनवस्थितत्वात्‌ ; तं चैवमभिस्तमीक्षयाष्टमं मासमय-
जौर रक्त की अधिकनष्ुद्धिके कारण गर्भंका स्पन्दन अधिक ण्यमित्याचक्षते कुशलाः । आयवे मास में गर्भ॑के अपूर्णं होने से
( गंगाधर के अनुसार पूर्णं होने से-यही पाठ अधिक उचित
बढ़ जाने से अधिक स्पष्ट सुनाई देने लगता है । चरक श्चा०
जअ० ४ में कहा है-पञ्चमे मासि गभ॑स्य मांसन्ोणितो प्रचयः भव्‌- प्रतीत होता हे ) माता से गर्भ तथा गभं से माता रसवाहि-
त्यधिकमन्येभ्यो मासेभ्यः, तस्मात्तदा गभिणी कारय मापद्यते विश्ेषेण।
नर्यो द्वारा परस्पर ओज का अ्रहण करते हे । अर्थात्‌ इस
परन्तु सुश्रुत मं इससे विपरीत इस मास मे मन्‌ का अधिक्‌ समय ओज के अस्थिर होने से गभ॑ का जन्म संकटमय
व्यक्त होना बताया है । वहां कहा है- प्रमे मनः प्रतिबुद्धतर समन्षा जाता है । सुश्रुत श्ा० अ०३ मे भी कहा है--अष्टमेऽ
भवति॥ . , | . . स्थिरीभवत्योजः, तत्र जातश्चेन्न नजीवेत्निरोजस्त्वान्नेचछेतमागत्वाच,
गर्भिणी पश्चमे मासि तस्मात्‌ काश्चन युष्यते । ` १. र्सवहानाडीयौयादित्यथः । गङ्गाधर प्रकाशितचरकपाऽसं-
बलबणोंजसां वृद्धिः षष्ठे मातुः ध्रमोऽधिकः।॥ ` वादादरथोचित्याच्च पूण॑त्वादिति पाठः ्ताधुरेव 1 गस्य पूर्णत्वमोजो=
. , छठे मासमे गर्भे बर, वणे तथा ओज की चृद्धि होती यदणे दुः संभवति, ओजस इतस्ततः संक्मणेन गभैरद्छल्यत्यपीतव्ैः
काश्यपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ ग्मावक्रान्तिज्ञारीराध्यायः !
७२
"काक्का का क, क क, क क क त क का कका काप का कक का वा कि त कि

यस्थमातप्रकृतिविकारसंमूचितं गभ॑ इत्युच्यते, तस्यावक्रान्तिरूप-


+ छ ^ च++ [का + + छ + छ + च ++
क ५१

ततो वि सांसौदनमस्यै दापयेत्‌ ॥ इस मास मं उत्पन्न इभा


गभनमघतरणमिति यावत्‌ गभावक्रान्तिः, साऽस्मित्तस्तीति ॥ १-२॥
गभयातोश्तही होता है अथवा उसके पारन करने मं बहत
सावधानो की आवश्यकता होती है ॥ जीवस्तु खलु भो स्बेगतस्वादीश्वरशुणसमन्वितः
नवमादिषु मासेषु जन्म चास्य यथाक्रमम्‌ | पू्वेशरीराचावक्रामति परशरीरं चोपक्रामति युगपत्‌ ›
पूर्वदेहकृतं कर्म गर्मावासञुलारखम्‌।! न कदाचिदपि बीजशोणितवाययाकाशादिमनोवुद्धि-
जातः स्मरति तावच्च याध्रन्नोपेति जीविका ! भिर्धियक्तपूरवः, सवेगतत्वाच्च न कप्यांचिद्योनौ नोप-
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ पद्यते स्वकमंफला्ुभवादिति ।॥ ३ ॥
( इति ) जञारीरेऽसमानगोत्रीयं नाम ( शारीरम्‌ ) ॥ हे वत्स ! जीव सर्वगत होने से ईश्वर के गुर्णो से युक्त
^© 0225 ~
हुभा युगपत्‌ पूवं शरीर से अवक्रमण ( छुटकारा ) तथा पर
( दृसरे-अगरे ) शरीर मे उपक्रमण < प्रवेश ) करता हे ।
नवम इत्यादि मास में यथाक्रम इसका जन्म होता हे । अर्थात्‌ जीव एक हारीर को छोडता है तथा उसके साथही
पूर्वजन्म मै क्रिये हुए कर्म, तथा गर्भावस्था के सुख ओर दूसरे शरीर मे भवे कर जाता हे । ये काथं युगपत्‌ ही होते
दुःख को उस्पनन हुभआा व्यक्ति तभीतक स्मरण रखता द जब है । बीजे ( शक्र ), शोणित ( भातेव ), वायु, आकाञ्च जादि
तक कि वह नवीन जीवन को प्राप्त नहीं करता । अर्थात्‌ पञ्चमहाभूत, मन तथा जुद्धि से कभी भी इसका वियोग नहीं
नवजीवन प्राप्त करते दी मनुष्य पूर्वजन्म की सब वार्तो को होता । अर्थात्‌ ग्भ मे इन सबका संयोग होना आवश्यक हे ।
भूकर अपने जीवन की बिलकुल नवीनत प्रारंभ करता है । यह जीव सर्वगत होने से जिस किसी योनिमे नहीं चराः
चक्छन्य--चरक क्ा० अण० भ्म प्रसवकार ५२ मस जाता अपितु अपने २ ( पूवंजन्मङ्कत ) कर्मो के फ्छोके
तक माना गया है। कहा है--तस्मिन्ेकदिवसमतिकरान्तेऽपि अनुसार ही भिन्न २ योनि को प्रा्ठ करता हे ॥ ३॥
नवमं मासञुपादाय प्रसवकालमित्याहुराद्रादशान्मास्चात्‌ , एतावा- गभेस्य पुनभेगवन्‌ ! के शरीरावयवा आकाशा-
न्कालः, वैकारिकमतः पर कुश्चाववस्थानं गभंस्य । सुश्रुतं क्चा० अ० निवतेन्ते, के वायोः के तेजसः, केऽद्धयः; के
३ मे भी कहा है--नवमदद्मैकादशद्यादश्ानामन्यतमस्मिन्‌
जायते, अतोऽन्यथा विकारी भवति । गर्भं के गभाशय से रहने का पुथिव्याः; के चास्य मातृतः संभवतः संभवन्ति, के
साधारणतया समय २८० दिन माना गया हे । इससे हम चास्य पितृतः; किमात्मनः, किंच सात्म्यतः, [किच रसतः,
गर्भ की आनुमानिक तिथि जान सकते दह । अथात्‌ अन्तिम किंच सुन्ततः, कुतर चेते सर्वभावा अन्वायत्ता भवन्ति,
ऋतुकार की प्रथम तिथि में २८० दिन जोड्कर प्रसव की कं चार्थमवेन्तन्ते; इति प्रष्टो मवान्‌ कश्यप उवाच-
तिथि निकाली जा सकती है । अथवा अन्तिम ऋतुखाव के गर्भस्य खलु भो शब्दश्च शरोत्रं च लाघवं च सौदतम्यं च
प्रथम दिन म ७ दिन जोद्नेसे जो तिथि भाये वही नवम विवेकश्च मुखं च कण्ठश्च कोष्ठं चाकाशात्मकानि
मास सें प्रसव की तिथि होगी । उदाहरण के खयि यदि किसी
खीको अन्तिम मासिक सखाव 3 दिसम्बरको इुभाहोतो भवन्ति, स्पशश्च रपशेनं च रौदयं च प्रेरणं च धातु-
इसमे ७ दिन जोदकर अगे ९ महीने गिनने से ७ सितम्बर व्यूहनं च प्राणञ्चापानश्च शरीरचेष्टा च वायवास्मकानि
आता हे जोकि प्रसव की संभावित तिथि होनी चाहिये ॥ भवन्ति, रूपं च चश्च प्रकाश पिन्तं च पक्तिश्ोष्मा
ठेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा हे । च शरीरण्दधिश्च तैजसानि भवन्ति, रसश्च रसनं च
( इति ) श्ारीरेऽसमानगोत्रीयं नाम ( शारीरम्‌ ) ॥ शैत्यं च मादेवं च द्रबश्च सेहश क्लेदश्च शेष्मा च
सेदश्च रक्तं च मांसं च शुक्रं चाप्यानि भवन्ति, गन्धश्च
घ्राणं+ च गौ
गौरवं* च स्थेय
4
च मूर्ति पार्थिवानि भवन्ति;
कमम मनमनननणणणन्ननषमिनोदिकन०५०५००८००१०१०००१०५५
कः क छा,
, भ 'च कत्‌ ^
णक |, 1

गमो वकान्तिरारीराध्यायः। तस्मात्‌ पुरुषो लोकसंभितः प्रोच्यते 1 लोहितं च


मांसं च नाभिश्च हृदयं च क्लोम च यकर प्लीहा च
अथातो गभांवक्रान्ति शारीर व्याख्यास्यामः ।॥ १॥
इति ह स्माह भगवान्‌ केश्यपः। २॥
यतौ च बस्तिश्च पुरीषधारणं चामाशयग्ोत्तरगुदश्च
्ुद्रानत्रं च स्थूलान्तरं चेति मादृजानि, केशाश्च रोमाणि
अब हम ग्भांक्रान्ति शारीर का व्याख्यान करगे । पेसां
भगवान्‌ कश्यप ने कहा हे। |
च श्मश्रूणि च नखाश्च दन्तश्चास्थीनि च सिराश्च
वरम्य--इस अध्याय सें यह्‌ वर्णन क्रिया जायगा कि सरायवश्च धमन्यश्च शक्रं चेति पितृजानि, अायुश्ात्म-
ग्भाज्ञय मे गभं केसे उप्पन्न होता हैअथवा गभ॑ मं जीव ज्ञानं च मनश्चेन्द्रियणि च प्राणापानौ च धारणं च
किस अकार अवक्रमण ( प्रवेश ) करताहे। सुश्रुत शा० अ० प्रेरणं च चाछरृतिश्च स्वरवर्णोपचयिोषाश्च सुखदुःखे `
३कीटीकामें इल्लन ने ङ्खा है-अत्र हि शुक्रशोणितं गर्भा इच्छाद्रेषो च स्यृतिश्चाहङ्कारश्च प्रयत्नश्चावस्थान्तर-
ग्माव्छान्तिक्ञारीसभ्यायः १] दारीरस्थानसर्‌ । ७३
1 त न कि 0 प ण कक क क कि क पिति.

गमनं च सच च नानूयोनिषूपपत्तिशवेत्यात्मजानिः |सन्तापो भ्ाजिष्णुता पक्तिरमरषस्तशट्यं शौर्यं च । भाप्यास्तु रसो रस-


आरोग्यं चोश्थानं च संतोषश्चेन्द्रियप्रसादश्च स्रवणे द्दियं सर्वद्वसमूहो गुर्ता चैत्यं सेहो रेतश्च । पाथिवास्तु-गन्धौ
गन्पेन्दरियं स्मूतं्मूहो गुख्ता चैति) इसलिये यह पुरूष लोक-
नीजसंपन्च मेधा च प्रहषेमृयिष्ठता चेति सात्म्यजानि, संमत ( जगत के तुर्य »)कहा जाता है । चरक ज्च!० अ० ९ में
शरीरामिनिषरेत्तिश्च शरीराभिवृद्धिश्च प्राणाश्च बन्धश्च भी कहा है-““पुरषोऽयं लोकसम्मित इत्युवाच भगवान्पुनवेरा-
वृत्तिश्च पुष्टिश्चोत्साह्चेति रसजानि । कल्याणरोषमो- त्रयः, यावन्तो हि लोके मतिमन्तो भावविरैषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः
हात्मकं तु सत्तं तिविधमुक्तममरे, तत्नौपपादि(दुोकं पुर्षे तावन्तौ लोके । षडधातवः क्षयुद्विता "लोक इति शब्दं भन्ते;
सत्वं मनश्च लय?) नित्यं शभाशुभमिश्रमावानां तचथा-ए्रथिव्यापस्तेनो वायुराकाशं ब्रह्म चान्यक्तमित्येत षव च
स्पशं इत्युच्यते । ते स्वभावाः स्वकमण्यायत्ताः कालं षडधातवः समुदिता पुरषः" इति शब्दं रभन्ते । पुष इस महाचरू
चविक्तन्ते । वायुर्हि कालसदहितः शरीरं विभजति संद- लोकभी
का ही एक छोटा प्रतिरूप (पः प५।८८९ ) है । जितने
मूर्विमाच्‌ भाव इस रोक मे है उतने ही पुरुषेहे
घाति चेति ४॥ उतने ही खोक में ईह ।
भगवन्‌ ! गभं के शरीर के कौन से अवयव आकाश से तथा जितने पुरुष मेद
उत्पन्न होते ह तथा कौन से वायु, अग्नि, जर, पृथिवी, माता उदाहरण के लिये पृथिवी, जरु, अग्नि, वायुः भका
के बीज, पिता के बीज, सात्म्य, रस तथा सत्व से उत्पन्न होते तथा अभ्यक्त ब्रह्म-ये डुः धातुर मिकुकर ही खोक कहाता है
है? तथा ये सव भाव परस्पर कहां भिर्ते ईह तथा इनके तथा इसीको घुरुष भी कहते ह । चरक मेँ आगे रोक एवं
परस्पर परिलने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता हे! इस प्रकार पुरुष की विभूतिर्यो की विस्तृत तुख्ना की गहै है-तस्य
प्रशन करने पर भगवान्‌ कश्यप नेउत्तर दिया-जाकाश्च तघ्वसे पुरुषस्य एथिवी मतिः, आपः केदः, तेजोऽभिसन्तापो, वायुः प्राणो,
उस्पन्न होने वारे भाव--वत्स ! गभं के शब्द्‌, श्रोत्र, ख्षुता, वियच्छरुषिराणि, ब्रह्मन्तरात्मा, यथा खल ब्राह्मी विभ्‌तिलोके तथा
सुदमता, विवेक, युख, कण्ठ तथा कष्ठ ये भाव आका से पुरपैऽप्यान्तरास्मिकी विभृतिः, बऋह्मणो विभूति्लोके प्रनापतिन्तरा*
उत्पन्न होते है । वायुतस्व से उत्पन्न होने वारे भाव--स्पदं, त्मनो विभूतिः पुर्षे स्तवं, यस्तवन्द्रो कौके स पुरषेऽदङ्कारः, आदि-
त्वचा, रूक्षता, प्रेरणा ( गति देना ), धातु्जो का परिवतंन, त्यास्त॒ आदानं, रुद्रो रोषः, सोमः प्रसादो, वसवः सुखं, अश्विनौ
प्राण, अपान तथा श्चरीर की चेष्टा ( गतियां }--ये वायु से कान्तिः, मस्दुत्साहो, विश्वेदेवा सर्वेन्द्रियाणि स्वन्द्ियार्थाश्च, तमो
उस्पन्न होने बारे भावर। अग्नितत्व से उत्पन्न होने वारे मोदो, ञ्ोतिर्ानं, यथा य॒था लोकस्य सगोदिस्तथा पुरुषस्य गभा
भाव~-रूपः, चज्ञ, प्रकाश; पित्त, पक्ति ( पाचन ), उष्मा धान, यथा कृतयुगमेवं बाल्यं, यथा त्रेता तथा योवनं, यथा द्वापस्तथा
(शरीर की गमी ) तथा शरीर की ब्ृद्धि-पे तेजस--अम्नि स्थाविर्थ, यथाकलिरिवभातुयै, यथायुगास्तथा मरणमिति; एवमनुमाने.
से उत्पन्न होने वारे भाव ह । जलतत्व ते उत्पन्न होने वारे नाटुक्तानामपि कोकपुरुषयोरवयवविशेषाणामग्निवेक्च ! सामान्यं
भाव--रस, रसना ( जिह्वा ) शैत्य ( श्ञीतर्ता ), शुत, वियात । मात्रज अर्थात्‌ माता.के बीज से उत्पन्न होने वारे
द्रव, स्नेह, क्रेद ८ गीापन ) श्रष्मा, मेद, रक्त, मांस तथा भाव-रक्त, मांस, नामि, हृद्य, क्लोम, यकृत्‌ ([कषः ),
शक्र-ये आप्य ( जठ से उत्पन्न होने वारे ) भाव है ।पृथिवी ष्टीहा ( 90166" ), बक्के ( 0 प्लु~गुदं ) बस्ति ( मूत्राशय~
तत्व से उत्पन्न होने वारे भाव--गन्ध, घ्राण ( नाधिका), ए1*006: ), पुरीषधारण ( पुरीष-मर का जहां धारण
गुरुता, स्थिरता, तथा मूर्तिं ( जाङ्ृति-ढांचा ) ये पार्थिव होता है--31&"1010 0010" ), भामाश्चय ( 90060 ), उत्तर
(परथिवी से उत्पन्न होने वारे )भाव हँ । चरक श्चा०अ०७में गुदा ( एल्णण ), अधरगुदा (^पणः ) दान्त ( 81081]
इन महाभूतो से उपपन्न होने वारे भावों का निग्न प्रकार से 1ण॑च्जण्ल~कछलोदी आते ), स्थखान्तरर ( 1भ्टल~पीश्जीप©
उद्वेख किया हे- तत्र यद्विरोषतः स्थूरं स्थिरं मूतिमदयुरुखरकरि- -ग०ण-बड़ी जते )--ये मावृज भाव ह । चरक शा०अ०२म-
नभङ्गं नखास्थिदन्तमासचम॑व्चः कैशदमशरुनखलोमकण्डरादि तत्पा- त्वचा, वपा (मेद्‌ ) तथा वपावहन ( 4971056 ७९ )
थिवं गन्धो घ्राणं च, यद्द्रवसरमन्दस्निगयगृदुपिच्छिरुं रसरुषिर-
अधिक दिये हँ । का है--यानि चास्य मातृतः सम्भवतः संम-
वसाकफपिन्तमूत्रस्वेदादि तदाप्यं रसौ रसनं च, यदिित्तमूष्मा यो या वन्ति, तान्यतुव्याख्यास्यामः । तचथा--त्वर्‌ च ोदितं च मसिं च
च भाः शरीरे तत्सवेमाग्नेयं रूपं दनं च, यद्च्छवासप्रशासोन्मेष-
निमेषाकुञ्चनप्रसारणगमनप्रेरणधारणादि तद्वायवीयं स्प: स्पर्च॑नं च,
मेदश्च नाभिश्च, हृदयं च, कोम च यकृच्च प्टीहु¡ च वृको च
यद्विविक्तसुच्यते महान्ति चाणनि सर्ति तदान्तरीक्तं शब्दः बस्तिश्च पुरीषाधानं चामारयश्च पकारायश्चोत्तरयदं चाधरयुदं च
श्रोत्रं च, .य॒त्पयोक्त तत्मधानं, बुद्धिमनश्वति । शरीरावयवसंख्या चुदरान््ं च स्थूलान्रं च वपा च वपावदनं चेति माठृजानि । सुश्रत
यथास्थूलमेदेनावयवानां निर्दिष्टा । इसी प्रकार-सुश्रत श्ा० अण शञा० अ०३ मे कहा है-मांसशोणितमेदोमन्न ह्नाभियङ्ृल्ी-
१ सं भी कहा है--त्रान्तरिक्षास्त-- शब्दः .शब्देन्दरियं सब॑च्छट्ि- दान्युदप्रमृतीनि मृदूनि मातृजानि । पित्ृज अथाव पिता के
समूहो विविक्तता च! वायन्य्‌स्तु-स्व्ैः, स्परशेन्दियं सव॑चेश- बीज से उत्पन्न होने वारे भाव--क्ञ, रोम, दाढी, मृध, नख,
समूहः सवेशरौरस्पन्दनं लधुता च वैजसास्तु-रूपं रूपेन्द्िये वणः दंत, अस्थिरा, शिरा, स्नायु धमनियां तथा शक्र-ये पिवृज्न
१. ्रात्मनः शरीरान्तरसंबन्धकारकमिष्यैः । २, स्पशे कति भवै! चरक शा० अ० ३ म मी इन्दींका परिगणन
करिया गया दै--यानि चास्य पिवृतः सम्भवतः संभवन्ति,
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वेदकमित्यथः ।
१० काभ
७४ काश्यपसंहिता वा ब्रद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ गमावक्रान्तिशारीराध्यायः !
ष क

तान्यनुन्याख्यास्यामः ! तयथा--केशदमश्रुनखलोमदन्तास्थिसिरा- कर्मो के आश्रित दहै तथा कार्की प्रतीक्ञा करतेदं। कारः
स्नायुधमन्यः शुक्रमिति पितृजानि । सश्चत श्ा० अ० दमं सहित वायु शरीर का व्रिभाजन करता है तथा इसे धारण
भी कहा है--“गमस्य केशदमश्रुलोमास्थिनखदन्तस्सिरास्नायुष- करता है ॥ ४॥
मनीरेतःपरमृतीनि स्थिराणि पिवजानि । आ्मिज ( आत्मा तत्र श्लोकाः-- . |
से उत्पन्न होने वारे ) भाव-भायु, -आर्म्तानः. सनः,
इन्द्रियां, प्राण, भपान, धारण- ( देह का धारण ), शोणितादुधृदयं तस्य जायते हद यायक्रत्‌ ॥ |
रणा ८ गति ), आरति, स्वर तथा वण का उपचय (ब्रद्धि) यकृतो जायते प्रीहा प्लीहः फुष्फुसमुच्यते। ५॥
सुख, दुःख, इच्छा, देष, स्मृति, अहंकार, प्रयत्न, अवस्थान्तर परस्परनिबन्धानि सर्बास्येतानि भागव 1 ॥
गमन ( अन्य अवस्थार्थो में जाना), प्षतव तथा नाना तेषामधस्ताद्धिपुलं खतः इण्डलसंस्थितम्‌ । ६ ॥
योनिरो में उस्पन्न होना--ये आत्मज भाव ईह! चरक शा० जरायुणा परिवीतं स गभांशय उच्यते ॥
अ० ३ मे भी कहा है--यानि तु खख्वस्य गभ॑स्यास्मजानि, यानि
नचास्यात्मतः संभवतः संभवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः; (तयथा- ्ामपक्राशयो तस्मिन्नन्नणनाश्रयौ गुदः ॥ ७ ॥
तासु तास योनिषूत्पन्तिरायु रात्मज्ञानं मन -श्न्द्रियाणिः प्राणापानौ तस्मात्‌ संजायते बस्तिः परिष्यन्दाच्च पूयते ।
प्ररणं धारणमाङृतिस्वरव्णविङेषाः खखदुःखे च्छादधेषौ चेतनाधूिवदधिः धमनीमुखसंस्थाने खोतसी चाप्यधः स्मरते ॥ ८ ॥
सपृतिरहइङ्कारः प्रयत्नश्वेत्यात्मजानि । सुश्रत श्चा० अ०३ मं विर्मूत्रकृमिपक्रासकफपित्ताशयाः प्रथक्‌ ॥ |
कहा है--इन्दरियाणि क्ानं विज्ञानमाथुः खदुःखादिकं चात्मजानि। न्त्येते देहिनां कोष्ठे छिया गर्भाशयोऽषटमः | ९॥
सास्मयज अर्थात्‌ साम्य के सेवनं खे उत्पन्न होनेवारे भाव- शुक्रमज्ास्थि पितो मातृतो मांसशोणितम्‌ ॥
आरोग्य, उत्थान ( उन्नति ), सन्तोष, इन्धिर्यो की प्रसन्नता, षट्कोशं प्रबद्न्त्येके देह्‌° ॥ १०॥
स्वर, वणं तथा बीज का उत्तम होना, मेधा (बुद्धि); हषं , ५५५१५१५१... ,..,.., |
(प्रसन्नता अथवा मेथुन में हष की अधिकता)-ये सास्म्यज भाव ७ ® ¢ + * # ० 9 “ 9 @ 9». ॥ न ४ „„ 99 @ # + ® ७४ $ # © # ७०क# $ |
ह! चरक शा० अ० ३ मेंकहाहै--यानि चास्य सासम्यतः संभवतः
संमवन्ति, तान्यनुव्याख्यास्यामः । तद्यथा-आरोग्यमयारस्यमलो- ( इति ताडपत्रपुस्तके ८१ तमं पत्रम्‌! >)
लपत्वमिन्दियप्रसषादः स्वरवण॑बीजसम्पदहषंभू यस्त्वं चेति सास्य गर्भ के शोणित (रक्त) से हृद्य बनता है, हृदयसे
जानि । सुश्च शा० ज० २ मै मी कहा है-ीयमारोग्यं बल्वणौ यञ्रत्‌ , यद्रत्‌ से प्टीहा, तथा प्टीहा से फुप्फुस ( 1.६8)
मेषा च सातम्यजानि ! रसज अर्थात्‌ रस.के . सेवन से उन्न बनते है । हे भार्गव (श्छगुङकर में उस्पन्न जीवक) !ये सब अङ्ग
होने वारे भाव - शरीर को उत्पन्न करना, शरीर की बद्धि,
परस्पर संबद्ध होते हे । इनके नीचे जरायु से युक्त तथा ङण्ड-
भ्राण, बन्ध ( बन्धन ) बृत्ति (शरीरी यत्रा), पुशटिततथा
उत्साह-ये रसज भाव है।चरक शा० ण्म कहादहै- ङ्िनी चक्र में स्थितं एक बड़ा खोत होता है जिसे गर्भाय.
कहते ह ।(खीणां तु बस्तिपाश्व॑गतो गभाशय इति सुश्रुतः) ।
यानि तु खल्वस्य गभ॑स्य रसजानि, यानि चास्य रसतः संभवतः इसमे आमाश्चय, पक्राशय तथा अन्न एवं पान का आश्रयं
संभवन्ति , तान्यनुव्यारुयास्यामः, 'तचथा--ररीरस्याभिनिवृत्तिर- गुदा स्थित होती हे। उससे बसि (श्रोणि गुहा-ए्लपःः
भिदद्धिः प्राणानुबन्धस्वक्तिः पुष्टिरुत्साहश्चेति रसजानि । सुश्रत ० ) बनती हे जो खाव से पूरित होती रहती दे । इसके
शा०अ०२ म मी-कहा है-शसीरोपचयो वरू वणं; स्थिति. नीचे धमनीमुख संसथान एवं खोतस्‌ होते दँ । मलुर्ष्यो के
निश्च रसजानि । कल्याण, रोष ( कोध ) तथा मोहाप्मक- कोठ मे मल, मूत्र, कमि, पक्व, जाम, कफ तथा पित्त के,
तीन श्रकारं का सत्व पहरे ( टक्षणाभ्यायसें ) -कहाः जा आशय ८ स्थान ) शथक्‌रहोते है । तथा स्त्रियोके कोष्ठर्मै
चुका ह इनमे आत्मा अथवा जीव का श्षरीरान्तर के साथ इनके अतिरिक्त आटवां गरभाश्य भी होता हे । पिता केअंशं
ते गर्भ में शक्र, मजा तथा जस्थियां बनती है ओर माताके
अंडा से मांस भौर शोणित बनते द । ऊं रोग देहमे ६ कोश
बताते है" " ^" ^" ॥ ५-१० ॥ |
भिसंबध्नाति, यसिमन्नपगमनपुरस्कृते शीरुमस्य व्यावत॑ते, भक्ति-
विपयंस्यते, सर्वेन्द्ियाण्डुपत्प्यन्ते, वलं दीयते, व्याधय आप्यायन्ते, यह अध्याय यदीं (मध्यमे ही) समाप्त हो गया
वक्तव्य
यस्माद्धीनः प्राणाजहाति, यदिन्ियाणामभिगादकं .-च मन इत्य- ह । इसय्यि विषय का पूणं ज्ञान होना
कठिन है । उपरज्ध
विषय सेही सन्तोष करना पडता हे ! |
भिधीयते) तति विधमाख्यायते--शयुद्धं राजसं . तामसं चेति । येनास्य
खलु मनो भूयिष्ठं तेन द्वितीयायामजातौ सश्प्रयोगो भवति, यदातु ------्न्ननण
0 ध १0 --
। . ।

` तेनेव शुद्धेन संयुज्यते तदा जातिरतिक्नान्ताया अपि स्मरति, स्मार्त


हि श्ञानमात्मनस्तस्येव मनसोऽनुबन्धादलुवतते, ्स्यानुगृत्ति पुररक्व्य
पुरषो जातिस्मर अत्युन्यते इति सत्वयुक्तम्‌ \ ये सव॒ भाव पने ` १ अस्यामे पत्र्यासको मन्थो ुप्तस्ताडपत्रपुस्तके । ` `
७५५
जरीरविचयशारीराध्यायः ? 1 श्षारीरस्थानम्‌ 1
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उख देश्च की नङूकास्थियां रे
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हारीरिचयरारीराध्यायः) जानु कपाटिका ( २५5 ) र


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अंलफरक र्‌
( दवत्रिशत्त मता दन्तास्तावन्त्यु)खलिकानि च । अक्लकारिथि ( 04600068 ) म
पाणिपादाङ्ुलास्थीनि षष्टिः ष्युर्धिश्तिनेखाः । बाहु की नटिकास्थियं २
पाणिपादशलाकास्तु विंशतिः परिकीतिताः। श्रोणि दी अस्थियां = र
पाशिपादशलाकानामरिानचतुष्टयम्‌ । ताद्धु की अस्थियां २
जयुदेश्य में 4
दे पाण्रर्योरस्थिनी कूर्चाश्चतवारः पादयोः स्ताः । भगासि 4
द्वावेव हस्तमणिकौ चलवा्याहुररन्निषु । ग्रीवा की अस्थियां १५
जान्वर्थिनी दे संख्याते चत्वायस्थीनि जङ्कयोः । पीट की अस्थियां ४५
दावूरुनलकौ द्वे च ख्याते जानुकपालिके । छाती में उरोस्थियां भध
दावं सावंसफलकावपि द्वावेव चाक्ञको । हन्वस्थि १
दे बाहुनलके द द्वेश्रोणितालूषके तथा । शिर की कपालास्थियां ४.
` एकं जघ्नु मगास्थ्येकं ग्रीवा पच्वदशास्थिकी। पाश्वास्थियां | ९४
मागेवाऽस्थीनि प्रष्टयानि चत्वारिंशच्च पच्च च । पार््वास्थियो के स्थालक (2465 ) गथ
चतुदशास्थीन्युरसि हन्वस्थ्येकं तु निर्दिशेत्‌ । अचुदाङ़ति स्थारूक
शङ्खदेश की जस्थियां
र्थ

शिरसस्तु कपालानि चत्वार्याहुमेनीषिणः । हुम को बाधने वारी जस्थियां २
चतुर्धिशतिः पार च तावन्ति स्थालकानि च। कलादास्थि ¶.
चतुर्विशतिरेवाहुः स्थालकाघुदकानि च । नासिका में १
टौ शङ्को परिसंख्यातो दवेहनुमूलबन्धने । गण्डास्थि | १.
ललाटनासिकागण्डक्रटास्थ्येकं विनिदिशेत्‌ । ` कूटास्थि त | १.
इत्यस्थिसंख्या सामान्याद्‌ ब्रद्धिद्ासौ निमित्तजौ । | कुरु- २६३
वक्तश्य-यह अध्याय प्रारंभ सँ खण्डित हे । इस अध्याय | वक्तम्य--यहां पर पूर्वंजस्थियो की संख्या ३६० बताई
मे शरीर के विहेष ज्ञान का वर्णैनं किया गया हे। (शरीरविचयः गई हे परन्तु प्रथक्‌ २ गिनने परे रे६२हो जाती है । चरक
शाब्द की व्याख्या करते हर्‌ चरक की टीकामे चक्रपाणिने ज्ा० अ०७ मे मी ३६० अस्थियो का उल्रेख करिया गया है
कहा हे--“शरीरस्य पिचयनं विचयः, शरीरस्य प्रविभागेन ज्ञान- परन्तु उन्हे मी प्रथक्‌ २ गिनने पर वे ६८ होती ह । जयदेव
भित्य्थः 1" श्ारीरस्थान के प्रथम अध्याय में पूवं ३६० विचयारुकार ने जपनी चरक की टीकामे हाथ पेरकी शका-
अस्थि्यो का उर्ठेख किया गया है । यहां सर्वप्रथम उन्दी का कास्थिरयो के ४ अधिष्ठान ( चसवार्यधिष्ठानान्यासरं ) तथा
प्रथक्‌ २ परिगणन करते है 1 यह परिगणन स्थूल खूपमें दिया हाथ मौर पैर के ४ षष्ट ( चस्वारि पाणिपादघृष्ठानि) को
गया हे । यह संख्या पूर्णरूप से ठीक नहीं मिलती है । यह नहीं गिना हे । इस प्रकार ३६० संख्या पूरी की हे । यहां मी
संख्या ३६३ होती है। ` । यदि हम शराकास्थियो के अधिष्ठान कोन गिन तो संख्या `
दात | २२ कद्ध अंज तक पूरी हो सकती हे 1 चरकोक्त भस्थियां निम्न
दांत के उदर ( गड्ढे ) २ प्रकार सेहै--्ीणि षष्ट यथिकानि इतान्यर्थनां सह दन्तोलुखल-
हाथ तथा पैर की अगुलि्यो की हडिडयां ६०
नख ` २० नसैः; तवथा--दार्बिशदन्ताः, दर्िखदन्तोलूखकानि, विंशतिनं खाः,
हाथ तथा पैर की शराकास्थियां ( ४ल॑श्व्भपञ & विरतिः पाणिपादशचलाकाः, चल्वायंधिष्ठानान्यासां, चत्वारि पाणिपाद
पालधवाऽपऽ 00065 } = # २० पृष्ठानि, एयङ्कल्यस्थीनि, दे पाण्योः, दे कूचाधः) चत्वारः पाण्यो-
उपर्युक्त शरखाकास्थर्यो के अधिष्ठान ` ४ मणिकाः चलवारः पदयोशुंराः, चत्वायैरल्ोरस्थीनि, .चत्वारि
पाष्णि देच की अस्थियां २ जङ्योः, दे जानुनोः, देकृपंत्योः, दवेऊर्वोः, बाह्यः मांसयोद्ध, दाव-
पेरो की कूचांस्थियां ` -४ चकौ, दे तानी, दवे ओोणिफल्के, पकं भगास्थि, पुंसां मेदास्थ,
हाथ की मणिबन्ध दैडाकी (मणकास्थि) . २ एव त्रिकसं पितम्‌ एकं गुद्ास्थि,पृष्टगतानि पच्चत्रिशतं, पश्रद लास्थीनि
अरत्नि ( प्रबाहू ) की अस्थियां , ग्रीवाया, द्वेजदुणि, एकं हन्वस्थि, द हनुमूलबन्धने, दवेकुकटे, दं
जानु की अस्थियां २ अक्ष्णोः, गण्डोर्दे, नासकायां त्रीणि घोणाख्यानिः दयोः पाडवयो-
जद्धार्भो की भस्थियां ४ शअतुविश्तिश्चतुविशतिः पक्षरास्थोनि च पादव॑कानि, ताबन्ति चेषा
७६ कार्यपसंहिता वा ब्द्धजीवकीयं तन्श्रम्‌ । [ शारीरविचयशारीराध्यायः !
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दशैवायतनान्याहुः प्राणानां तानि मे शु |


^

स्थालिकान्यहदाकाराणि तानि दिसपततिः, दौ शङ्खको, चारि


चिरःकपालानि, वश्चसि सप्तद, इति त्रीणि पष्टवधिकानि रता ूर्थाऽथ हदयं बस्तिः कण्टौजः शुक्रशोणितम्‌ ।
न्यस्थ्नामित्ति । इस प्रकार हमे प्रकृत अरन्थ तया चरक की शङ्खो गुदं ततश्चीणि महाममांणि चादितः।
अस्थि गणना मेँ निम्न अन्तर मिता है- प्राणो के दस भायतन कहे गये हँ । इन्हें तू सुन्षे से सुन ।
चरक काश्यपसंहिता १-मूर्धां २-हृद्य इ-बस्ति ४-कण्ठ ५-ओज ६-श्ुकर ७-शोणित
पाणिपादप्ृष्ठानि ४ >€ ८-९ दोनो दाङ्ख ग्रदेश्ष ( 7600791 1दद0ण5 ) १०-गुदा
कूर्चास्थियां “र ४
चरक सू० अ० २९ मे भी ये ही १० प्राणायतन गिन है-
हार्थो की मणकास्थि ¢ र दरौवायतनान्याहुः प्राणा येषु प्रतिष्ठिताः । शङ्खौ ममेत्रयं कण्ट
गुहफास्थि छ ५६ रक्तं शुक्रौजसी गुदम्‌ ॥ परन्तु चरक शा० अ० ७ मे शङ्कुप्रदेर्शो
कूर्परास्थि र > ढ़ स्थान पर नामि तथा मांस को गिना गया है--दश प्राणय-
अंसफरक ५९ २ तनानि तचथा-- मूर्धा कण्ठो हृदयं नाभिः गुदः बस्तिः ओजः श्युक्र
बाह र: र शोणितं मांसमिति । अष्टाङ्गसंग्रह शा० अ० ५ मे मांस के स्थान
मेदास्थि 4 > पर जिद्धाबन्धन पदा गथा है-दद्च प्राणायतनानि-मूरां जहा
विकास्थि 9 ४९. वन्धनं कुण्डो इयं नाभिवस्तिरुदः ्युक्रमोजो रक्तं च । तेषामाद्यानि
गुदास्थि १ २९ सप्त पुनर्महामम॑संक्ञानि । इनमे से प्रथम तीन महाम
पृष्ठास्थि ३५ ४५ कहरूति है अर्थात्‌ मूर्धा, हृदय भर बस्ति को महाममं कहते
जत्रु अस्थि २ १ हे । अष्टाङ्संग्रह मे महाम ७ गिनाये है-१-मूधां र२-जिहा-
कछलाशस्थि द १ बन्धन--कण्ड ४-हृदय ५-नाभि ह-बस्ति ७~गुदा । इनका
आंखो की अस्थियां र ५९ उपर प्राणायतर्नो मे निर्देश किया गया हे ॥
गण्डास्थि २. ० 4
नाविकास्थि ३ १ नाभिः प्लीहा यकृत्‌ छोम हदषृक्घो गुदवस्तयः ।
छाती में १७ १४ ुदरान्त्रमथ च स्थूलमामपकाशयौ वपा ।
जायुकपारस्थि > २ कोष्ठाङ्गानि बद्न्त ज्ञाः प्रत्यङ्गानि निबोध मे ।
टास्थि
,
-*
८२
4७६ कोष के अङ्ग-- ¶-नामि ( एष्णणान् ) र-ष्डीहा ( ए
€ ) रे-यज्कृत्‌ ( {जिगर€ ) ४-क्छोम ‰-हद्य
इनके अतिरिक्त भन्य सव अर्थियं परसपर मिरुती है । ( तल्पं ) &-दोर्नो क्त (गुद-६:9"€75) ७-गुदा ( 4४४5 )
सुश्रुत ३६० अस्थियां स्वीकार नहीं करता । वह केवर ३०० ८-बरस्ति ८ 2164467 ) ९-ज्ञदरान्त्र ( 9०५९1] 11651168 )
अस्थियां मानता है । वह दात के उलुखरू तथा नर्खोको १०-स्थुरान्त्र ( 1{.4126 10650068 ) १ १-जामाश्य ( 8अ070-
अस्थिर्यो मे नीं गिनता । आजकल के श्रीरशाख्च के ज्ञाता ०] ) १२-पक्वाश्चय १६-वपा ( हृदय के चारो ओरकी
करीर मे कुरु २०६ अस्थियां मानते हैँ । इस प्रकार काश्यप मेद 1185०88 ) चरक श्ा० अ० ७ सें कोष्ठके अंग
संहिता, चरक तथा सुश्रत सवमें ही अर्थ्यो की संख्या १५ दिये है--पञ्चेदश कोष्ठाङ्गानि, तद्यथा - नाभिश्च हदयं च, छोम
बहुत जधिक दी इद हँ तथा गिनने पर उनकी संख्या दीक च, यङ्ग, प्टीहा च, वृक्कौ च; वस्तिश्च, पुरौषाधारश्चः आमाश्च-
भी नही बेवती हे तथा बहूत से स्थानों पर उनम परस्पर यश्च, पकाडरयश्च, उत्तरगुदं च, अधरयुदं च, चद्रान्नं चः स्थूलान्तरं
समानता नहीं है । उन्होने भस्थि शब्द्‌ से संभवतः शरीर के च, वपावदनं चेति ! इनमें एक पुरीषाधार को अधिक गिना हे
सभी कठिन पदार्थौ का प्रहण कर लिया है तभी इतना तथा गुदा के दो भाग-उन्तरगुढा तथा अधरगुदा-करके
घधिक अन्तर हो गया प्रतीत होता है । आधुनिक विज्ञान एक पृथक्‌२गिने है-दसल्यि ये ५ होते दँ ॥ १२॥
पूण युवा मनुष्य मेँ निम्न अस्थियां मानता दै- 1 अद्लिणी नासिके कर्णौ स्तनाबोष्ठो कुकुन्दरौ ।
बाहर मे ३२०५२
सक्थ्यो मे ३०२९२
2.
= ६०
&०
हस्तौ पादौ श्रुवौदरुटौ बाहुजङ्खोरुपिर्डिकाः ।
-= ३8
सक्षणी कणेशष्छल्यौ कणेपुत्राक्तितारके ।
किर जीरं प्रीवा में
मध्यदेह = ५० वृषणौ दन्तवेष्टौ च शङ्खकावुपजिदहिके ।
| | २०६ दन्तलोहाधिमूलानि दे दे स्वांणि निर्दिशेत्‌।
. इसका विरोष विवरण हारीर-शाख ी किसी पुस्तक में स्तिबेस्तिशिरः गोफः पृष्ठं सचिघुकोद
यम्‌।
देखना चाहिये । यह साधारण रूप में अस्थिर्यो की संख्या ललाटमास्यं गोजिह्या शिसो हृदयमेकशः।
कही गईं हे । इसमे कारणवरा इद्धि अथवा हास भी हो
१ "स्फिचौ गण्डो वंक्षणौ चः इति पाश्श्रेत्‌ साधु ।
शारीरविचयश्ारीराध्यायः १ 1 शारीरस्थानम्‌ । ७

का का क श ^+ 9 + + ^ क ^ व +, ॥ लि + १ + ^ 09 #
9 + + 1 + + + ^

पाणिपादतलेष्वेव चलारि हृदयानि तु । | नौ होते है जिनमे दो नीचै ८ मूत्रेन्धिय अथंवा जननेन्वरिय


| ओर गुदा ) तथा सात उपरश्िरमे (२ आंखं+र नाक+
#

शाखाहदयसंज्ञानि पञ्चमं चेतनाश्रयम्‌ । । २ कान +-4 मुखविवर = ७ )-ये कुरू मिलाकर ९ होते ह।
अक्षिवन्धानि चत्वारि विद्याद्िशतिरङ्कलीः ।
|

चरक शाा०अ०७मे कहा है-नव महान्ति च्छिद्राणि सप्त शिरसि दे


अब तु मुक्षसे प्रस्यज्ञ को सुन--२ आंखे + २ नासिका~+ चाधः! नाभि तथा रोमक्प सुच्म खरोत समने जते है ॥
द कर्ण+-२ स्तन +२ ओष्ठ+२र कङ्कन्दरं ( जघनास्थिर्यौ के
बाहर की ओर का निम्न भाग-13०)121 ४०९०५४९३ >) + २ हृदयात्‌ संप्रतायन्ते सिराणां दश मातरः ।
हाथ+रेपैर+र२भरू ( भौं) +२ कट ( भरिक्रटक-जहां उध्वं चतस्रो द्वेतियेक्वतस्रोऽधोवहाः सिराः।
अक्तिगोखक रहते ) + २ बाह की पिण्डिका +२ जङ्का ठउ्याप्नुवन्ति शरीरं ता भिद्यमानाः पुनः पुनः।
ङी पिण्डिकारे+-२ उर देश की दिण्डिकादे +२ सक्िणी पर्णानौमिष सीवन्यः सरणाञ्च सिराः स्खृताः।
८ हो के किनारे) +२ कर्णशाष्कुलियां-( बाहर से दीखने
वाङे कान-ए००० ०६ €8 ) +र कर्णपुत्रक ( कणंडष्डुली हृदय प्रदेश से शिरार्भो की १० माता ( मुख्य या भूक
ॐ सामने का उभार-19ध०३ ) + २ अक्तितारक (आंख की रिररे- 1०० 1005 »)निकरूती हैँ जिनमें चार अपर की
पुतल्ियां-एपए!ऽ )+२ बरृषण ( अण्ड-{651018 ) +-२ दन्त ओर, दो तिर्यक्‌ ८ तिरी ) तथा चार अधोवहा शिरायं होती
वेष्ट ( मसुडे ) + २ शङ्धदेश ( 16078} गणपः ह । ये दसशशिरायंही पुनः२ विभक्त होती हृदं सारे शरीर
+ २ उपजिहिका ( 7005113 ) # २ स्फिक्‌ ( नितम्ब-चृतड- को व्याक कर ठेती ई । जिस प्रकार पत्तो मे सीवनियां होती
एप्ण००ऽ ) + २ गण्ड ( गाङ )+२ वंक्ञषण ( रानं-2"0प३ } उसी प्रकार सरे शरीरम सरण ( गति) करने के कारण
+ १ बसिति ( 51940€; ) + १ वस्तिरिर ( नाभि के नीचेका इन्दं "चिरा" कहते रै ।
प्रदेश ) +१ शेफ ८ मूत्रेन्द्िय ) + एष्ट+१ चिक वक्तव्य पूर्वं्ञारीर स्थान के प्रथम अध्याय मं शिराञओं
८ ेडी >) + 9 उदर ( पेट )+¶ रुखाट + $ जस्य ( सुख ‰ की संख्या ७०० बताई हैँ । यहां ये १० बताई हँ । इसका
+ १ गोजिह्वा ( निह्धाके नीचेकी छोटी जीभ) +¶ शिर अभिप्राय यह ह किमृलमें येशिरायें १०्ही होतीर्हजो
+-४ पाणितल तथा पादतल के हृद्य & ( इन्दे शाशाहृदय क्कि घीरे २ विभक्त होकर ७०० या इससे मी अधिक संख्या
भी कहते दह ) + 9 हृदय ( चेतनाश्चय ) + ४ अरिबन्धन मे होकर सारे शरीरम व्याप्तो जाती ह । सुश्रुत जञा
+ २० अंगुल्यां = ८७ प्र्यद्ग होते ह । चरक श्ा०स०्७्ैं अ० ७ मँ टी २ जरूहारिणियो ( नार्यो ) का उदाहरण
निग्न ५६ प्रत्यङ्ग गिनाये है- षटपन्ना श्तयज्गानि षटस्वङ्गेषुपनि- देकर बताया हे क्ति जिस प्रकारं द्धोरी २ पुवं कृत्रिम असंख्य
बद्धानि यानि यान्यपरिसंख्यातानि पूवेमङ्गष॒परिसंख्यायमानेषु नाखि हारा उद्यान मे पानी दिया जाता हे उसी प्रकार
तानि तान्यन्यैः पर्यायैरिह प्रकाइ्य व्याख्यातानि भवन्ति; तचथा-- इन शिरा से सारे शरीर का पोषण होता हे । कहा ै-
द्रेजद्वापिण्डिके, दवे ऊरपिण्डिके, दौ स्फिचौ, दौ वृषण, एकं शेफः,
सप्त सिराक्षतानि भवन्ति, याभिरिदं क्षरीरमारमम छ जर्दा-
दे ऽखे, द्रौ वङ्क्षणौ, दवौ कन्दरो, एक वसितिशीषम्‌ , एकसमुदर, द्रौ
केदार इव च कुल्याभिरुपसिनद्यतेऽनुगृ्यते चाङु्न-
स्तनौ, दौ रटेष्ममुवौ, दे गाइ पिण्डिके, चिवुकमेक द्वावौष्ठी, द रिणीभिः
प्रसारणादिभिविशेषैः, द्मपत्रसेवनीनासिव च तासां प्रतानः तासां
सुवकण्यौ, दरौ दन्तवेष्टकौ, एकं ताल, एका गरुश्युण्डिकाः द्वेउपजि हके; प्रसरन्द्य्वेमधस्तियेक्‌ च । तथा जगे फिर कहा
टका मोजिहिका, द्वौ गण्डौ, दे कणैश्ञष्ठुक्कि, दौ कणपुत्रकौ, दे नाभि, ततश्च
है-व्यःप्नुवन्त्यभितो देहं नाभितः प्रसुताः सिराः। प्रतानाः पञ्चिनी-
अक्षिक, चत्वारि अक्षिवत्मौनि, दवे अक्िकनीनिके, दे चुषौ, एको- कन्दाद्विसादीनां यथा जलम्‌ ॥
वधः, चतारि पाणिपादहृदयानि । सुश्रुत मं निम्न प्रत्यङ्ग
गिनाये है--मस्तकोद रपृ्ठनाभिरलाय्नासाचिवुकवस्तिमीवा इत्येता यथां काष्ठमयं रूपं तृणरञञ्बोपवेष्टितम । र

एकाः । कणंनत्रभरशङ्कं सगण्टकच्तस्तनवृषणपाशवस्फिग्ना नुवर भवेद्लिष्तं मृदा बाह्यं तथेदं देदसज्ञकम्‌।


प्रभृतयो दर दे, विशतिरज्चख्यः, खौतांसि वक्ष्यमाणानि; . एष अस्थीनि स्ञायुबद्धानि सायवो सांसलेषनाः ।
प्र्यङ्गविभाग उक्तः ॥ . | ॑ ` सियाभिः पुष्यते निस्यं तस्य सवं त्वचा ततम्‌ ।
स्रोतांसि हिविधान्याहुः सुच्माणि च महान्ति च । निश्च प्रकार एक रुकडी का बना हुआ मकान परे
महान्ति नव जानीयाद्‌ दवेचाधः सप्त चोपरि । तिनको तथा रज्जु ( रस्सर्थो ) से आधा जाता हे तथा किर
नाभिश्च सेसकरूपाश्च सूच्मखोतांसि निर्दिशेत्‌ । ऊपर से मिह हारा रीपा जाता है उसी भकार यह देह
ल्लोत दो प्रकार केहोते ह! 4-सुद्म र-महान्‌ । महाल्ोत ( शरीर >) रूपी मकान हे । इसमे सबसे पूवं भस्थि्या
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स्नायु्णो ( 1,भ्ण्णऽ ) द्वारो बंधी इई द । स्नायुमों क


उपर मांस (1०९० ) चढ़ा हुजा हे । रिरार्जोके इरा
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„_ ..-„ --------

# इन्हे सश्चत ने तलह्दय नामक मम॑क्हा है नौकि दोनों


वण सध्येपाद-
हाथो तथाचैसौकेतलेमे दते हं ८सध्यमाङ्कलीमनुपू इसका निरन्तर पोषण होता है । तथा इसके उपर तबा
तरस्य तलहदयं नाम-खश्वुत का० भ० ६-२४ ) ( अत.) कैरी इई हे ॥
करयपसंहिता वा ब्रृद्धजी रकीयं तन्त्रम्‌ । [ शरीरविच्यरारीरध्ययिः !
७.८
^ˆ ˆ~

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तरे लसीका पूं च पिच्छा चातः प्रवतेते |


न.

` तः" "तः (संततं) कणेमूलाम्यां धमनीनां शतं शतम्‌ । भवन्ति तस्मिन्‌ दुष्टेच दद्रकण्डूविचचिकाः ॥
तासु नित्योऽनिलसिषठन्न्रीषोभौ बिभव्यंधि ॥
इनमे त्वगामयाः किलासानि पामा केशवधस्तथा ।
` भ्रतयेक कर्णपूर से सौ-सौ घमनियां फली इद ई । हे।
नित्य बायु रहता इभा अभि तथा सोम को धारण करता तदम्निमारतोद्धिदधं (कू ) पकः स्वेद उच्यते ॥ `
वरक्तव्य--सुश्रुत श्चा०अ० ९ मे धमनी" शब्दं की इयुपत्ति
क्ेष्मणस्तु प्रमाणेन प्रमाणं तुस्यमोजसः ।
करते ह्‌ दीका मे उक्ञग ने किला हे--'शमानादनिल्पू.णादः शुक्रस्या्ाञ्जलिर्ददे मस्तिष्कस्य तथेष चं ॥
मन्यः उखने भी धमनिर्यो मे वायुका. होना स्वीकार किया एतत्‌ भमाणसरुदि्मुच्छृ्टं सबेमेव तु ।
हे! वहीं दीका मे उस्ने “शन्दरूपरसगन्धवहतवादिकं धमनीनाम्‌,' ्र्ञाप्रपिरितीयस्य ततौ मध्यं ततोऽघमम्‌ ॥
हारा धमनियों का कार्थ शब्द्‌ आदि का वहन क्या हे । मला, मेद, वसा, मूत्र, पित्त, श्ेष्मा तथा म्ये कमः
दै एक, दो, तीन, चार, पांच, छः तथा सात अञ्जलि होते है)
हस प्रकार ये धमनियां वातवाही नाडियां प्रतीत होती
जिन्हं आधुनिक विक्तान की भाषा में हम लाः कहु सकते दयोणित ( रक्त >)की आट अञ्जल्यां तथा पक्तिरसं ( आहार
ङ आजकर व्यवहार मेँ धमनी शब्द्‌ ^" ( रक्तवाहिनी ) ॐ परिणत होने-पकने पर जो सबसे पुवं धातु बनती हे तथा
के अथं मेप्रयुक्त होता है । वह यहां अभिप्रेत नही दे॥ जिसे “सः कहते है) की ९ अञ्नखियां होती है| स्वचा के आश्रित
उदक ( जल >)की ५० अञ्नखियां होती ह । इसी उदक (जक)
` साग्रे शतसदखे दवे बहिरन्तश्च करूपकाः | क द्वारा ही शसीर की रक्त आदि धातुजं का पोषण होता हे ।
। रोमकूपानि तावन्ति जातान्येकेकशो यदि ॥ यही अतिसार में पुरीष के रूपमे तथामूत्रके रूपम शरीर
बर्िद्ठासौ निषेकाच्च स्वभायाद्धिश्चकमेणः । से बाहर निकलता है 1 यह जर बण भें लसीका (शष्णफः }),
चतुर्मागधिदीनानि शीण विद्धि स्वभावतः ॥ पूय (२४७ ) तथा पिच्छा (ठेसदार दन्य) के खूप सें निकलता
रुपके कूपके चापि विद्यात्‌ सुदमं सिरामुखम्‌ । है। इस उदक ( जर ) के दूषित हो जाने पर ददु, कण्डू
. प्रखिद्यमानसतैः स्वेदं विभुञ्ति सिरायुखेः ॥ ( खुजी ), विचर्चिका, किरस € धिन्र-श्वेत कुष्ट ) तथा
, . . जातस्य बधेमानस्य यूनो वृद्धस्य देहिनः । पामा (५०९९ ) आदि त्वम्रोग तथा केशवध ( बाल का
क्ञड़ना >)आदि होते ह । यी उदक अभि एवं वायु के संयोग
` खेनाञ्जलिप्रमाणेन द्रवाणि प्रमिमीमहे ॥
अभ्यन् तरिक कूप (छिद्र) से जब रोमकर्पो के द्वारा बाहर निकरुताहै तब स्वेद्‌
`, इसङे आगे दो काल बा्य एवं (३०९०४) कहराता है 1श्ेष्मा ( कफ ) के प्रमाण के समान
होते है । रोमद्रुप भी इतने -ही होते ह । इनमे जन्मसे ही ही अर्थात्‌ ६ अञ्नछि ओज का प्रमाण हे । शरीरमें शक्र का
अथवा विश्वकर्मा के स्वभाव से वृद्धि एवं हास हो सकता हे ।
तो वह जन्मसे ः प्रमाण आधी अञ्जकि हे तथा मसितिष्कका भी इतना ही
हास हो
अर्थात्‌ इस संख्या में यदि दृषदि एवं ( आधी अज्ञछि )है । यह प्रजञपिपिशित ( पूवं निट )
एवं विश्च के बनाने वारे परमात्मा केस्वभाव से ही समक्षना नाम शारीरिक संहनन वारे ( छलिद्ुगी ) पुरूष के
चि । दियो से यह संख्या स्वभाव से चतुर्थाश्च कम होती सम्पूणं शरीर के द्रवो का उच्छृष्ट ( भ्पाण्णप्य ) प्रमाण कहा
ह! प्रत्येक रोमकूप में एक २ सूम शिरा होती हे! स्वेदं गया है 1 मध्य व्यक्तियों का मध्यम ( नपय ) तथा अधम
( पसीना ) अने पर उन ्षिरार्भो के वारा ही पसीना बाहर व्यक्तियों का अघम (पण) प्रमाण भी होता है)
निकरुता हे । शरीर से पसीना आने के विषय में आधुनिक चरक शा०अ०७मे भी शारीर्कि दर्यां का इसी प्रकार
विज्ञान भी इसी सिद्धान्त को मानता है! हेचिबर्ट॑न की अज्ञछि प्रमाण दिया गया ह--यखजरिसंख्येयं तदुपदेदयाम्‌ः,
फिञियोरोजी म कहा है-ऽ७ ९५10 10 8600701916 । तल्पर प्रमाणमभिरेयं, तच्च वृद्धिहासयोगि, तक्यंमेवः तवथा -ददो-
& 0719० न प्ल ए००्व-र९७इन्‌इ 0 पल प्रदाण, एषञा. द्कस्याज्ञलयः शारीरे स्वेनाज्ञलिप्रमाणेन यत्तत्‌ प्रच्यवम।नं पुरौषम-
0810] ४06 (68) ० †€ ए०तप्लां०ण० 0 116310110 नुबध्नास्यतियोगेन तथामूतरं रुमिएमन्यांश्च शरौरथातूम्‌ , यत्तत्‌ सवे.
77०९००४७. अब हम उन्न हए २ ( संधोजात ); बने वाङ, शरीरचरः बाह्या खग्विभति, यन्त॒ त्वगन्तरे बरणगतं रसीकाशब्दं
युवा तथा वृद्ध पुरुष के शारीरिक दरवो का अपनी र अज्ञल ि. रभते, यञ्चोष्मणाऽनुबडं लोभक्पेभ्यो निष्पतत् सेदि,
शब्द मवाप्नोत
क अनुसार प्रमाण वततेहे॥ ~ | तद्दकं दशाश्चकितम्ाणं, नवाज्लयः पूवंस्याहारप रिणामधातोरयं तं
। ॥ि | रस श्त्याचचते, ष्टौ शोणितस्य, सप्त पुरीषस्य, षर्‌ इकेष्मणः, पञ्च
| मल्मेदोवसामूत्रपित्तश्लेष्माणि विर्‌ तथा
` एकद्वित्रिचतुष्पन्चषटसपराज्ञलिकाः स्पृताः ॥ || पिन्तस्य, चत्वाते मूत्रस्य, थो वसायाः, दवौ मेदसः, एकः मञ्ञः,
| मस्तिष्कस्याधांजञकिः, शुक्रस्य तावदेव प्रमाणं, तावदेव दलेभणश्चौ-
. शोणिताञ्जलयोऽषटौ तुनव पक्तिरसस्य तु ।
| ज श््येतच्छरी रतवमुक्तम्‌ ॥
; दशैवाञ्जलयः परोक्ता उदकस्य तगा्रयाः ॥
. -तेनोदकेन पुष्यन्ति धातवो लोदितादयः। _ |
[| 'यच्ोभ्मणाऽचु + रोमदूपेभ्यी निष्परतत्‌ स्वददयब्दमवामोति ।

अतीसारे पुरुषं च ततो मूत्रं परबतेते ॥ । . इति चरकः (शा, भ.७)।


जातिसूत्रीयशारीरध्यायः १ ] शारीरस्थानम्‌ । ७९
#ि क शि न, १५८. # ०५५ ++ वि कि क
का ।व ^ वा ^ क + + 8 क चा ^ क ^ का
क + ^^ + +

शुक्रं तु षोडशे वर्ष संपूण संप्रवर्तते । प्रत्येक जाति सें श्वभावसे ही आकृति मेद .होता है ।
योन्यसंश्रयाण्याहुरन्योन्यरुणवन्ति च ॥ संयोग, विभाग तथाचेष्टाको करने वरे वायु के परमाणु
स्वभाव से ही इसके जआङुछन (तिङ्डना), प्रसारण (फेख्ना);
महाभृतानि दृश्यानि दावंभ्रितिलतेलतवत्‌ ।
कोष्ट के अङ्ग, प्रस्यङ्ग, धातु, चेतना तथा खोतीं का विभाजन
सोखहवें वर्षमे पुरषे शुक्र सम्पूणं ( पूणं परिपक््‌ ) करते ह । निस प्रकार साचोँमे. ठा हुभा पुरुष-पुरूष को
रूप से प्रबत्त होने लगता हे । जिस प्रकार रूकडी में अग्नि उस्पन्न करता है भौर गौ-गौ को तथा घोडा-घोडे को उत्पन्न
चतथा तिलो सेंतेरदहोतादहै उक्ती प्रक्रार ये पञ्चमहामूत भी करते है, उसी प्रकार मुय मे मी गर्भ की निर्ृत्ति होती हे ।
परस्पर एक दूसरे के आशित तथा एक दूसरे के गुर्णो पति ओर पनी दोनो क स्वभाव से अथवा अपने कमा क
वारे होतेह ॥ | परिणाम से यदि सन्तान उस्पन्न होतीहै तोषे ( पति तथा
शरीरसंख्या निर्दिष्टा यथास्थूलं प्रकारतः 1 पत्नी ) घन्य (प्रशस्त )है । यदि इसके विपरीत है अथात्‌
देहावयवसुदमं तु भेदानन्व्यं सुदुवचम्‌ ॥ क्रिखी कारण से सन्तान की उत्पत्ति नहीं होती है तो उनकी
इत ह्‌ स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ चिकित्सा करनी चाहिये 1 स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन;
इति ( श्ारीरस्थाने ) शरीरविचयं नाम शारीरम्‌ । ` आस्थापन तथा अनुवासन द्वारा करमन्ञः णद्ध करके दुध तथा
घृत से पुष्ट हए २ पुरूष को मधुर ओषधिर्यो से सिद्धं घत का
तथासखीको तंर ओौर मांस ( माष फर होने पर उडद भथ
अनम ््नयनमनदन्ग्नयोकननाणणण
नः र 7 = ~ हम ९ र
क } ^ ~.
~, | च

यह स्थुल ( मोटे) रूप से शरीर के अव्रयव इत्यादिकं होगा) का सेवन करायें-देसा ऊध रोग कहते ह परन्त॒
की संख्या का निर्देश फिया है । देह के सूचम अवयवो के सेद्‌ प्रजापति कश्यप के मतमेंजसेजो सस्म्यहो उषे उसी का
तो अनन्त द इसलिये उनका परिगणन करना दहो तो सेवन करयं । चरक श्चा० अ० ठम भी -कहा है--अथाप्येती
असथन्त कठिन है ॥ | | खीपरषौ स्नेदस्वेदास्यामुपपाच वमनविरेचनाभ्यां संशोध्य क्रमेण
रेसा भगवान्‌ कश्यपं ने कहा था । रकृतिमागादयेतत, संज्चुद्धौ चास्थापनादुवास्चनाभ्यागुपाचरेव, उपाचरे
` इति ( शारीरस्थाने ) शरीरविचयं नाम शारीरम्‌ । च मधुरौषधसंस्छतास्यां पुरुष, खियं तु तल्माषाभ्याम्‌ । अष्टङ्ग
संग्रह मे भी कदा हे--विरेषतस्त॒ एतक्तीरवद्धिमेधुरौषधसंस्कारः
पुरषं, तैकेन नारी पिन्तजेश्च मांसैः श एवं रज को शुद्ध करने
जातिसूच्रीयदरारीराध्यायः। तथा उनको पूर्णं करने ॐ खिये यह निधान दिया गया हे ५३॥
अथातो जातिसून्नीयं व्याख्यास्यामः ॥ १॥;
इति ह स्पाह भगवान्‌ कश्यपः । २॥ यथा च पुष्पमध्ये फलमनिव्र्ं सुसूद्मसस्ति न
अव हम जातिसूत्रीय ज्ञारीर का व्यार्यान _करंगे । एेसा ` चोपलभ्यते, यथा चा्रिदरिषु सवेगतः
भरयजल्लामावान्नो
भगवान्‌ कश्यप ने कहा था! अर्थात्‌ इस अध्याय मे जन्म पलभ्यते, तथा सरीपुंसयोः शोणितशुकर कालावेचे सखक-
शाख या उस्पत्तिलाख की व्याख्या की जायेगी ॥ १-२ ॥ वेत्ते च भवतः । षोडश्वषयोर्हिं शोणितशुक्रयोमध्ये
जातौ जातौ खलु खमाव एवाकृतिभेदनिवेतयिता प्रभवतः; अर्वागपि यदाहारविशेषादारोग्या च पूणे भवते
भवति । सखभावतो ह्यस्य वायुपरमाणवः संयोगविभाग- इति परिषत्‌॥ ४ ॥
चेष्टाधिकारा अङ्कुच्वनप्रसारणकोष्ठाङ्गभरव्यङ्गघातुचेतना- जिस प्रकार पुष्प मेँ फर सूच्म तथा अनुस्पन्न ( 1रध्टण॑ )
या अदृश्य अवस्थासें होने से उपर्य नहीं होता अथवां
सखोतांसि षिभजन्त । समत्यके धातुरिव निषिक्त जिस प्रकार रुकदिर्यो मे सब जगह अगि होने पर भी प्रयत्नं
पुरुषः पुरुषमभिनिबेतेयति; गोगांमश्चाञखमेवमादि । ङे विना प्राक्च नहीं होतीहै उसी प्रकारसखी एवं पुरषर्मे
चृणामपि तु मध्ये गभनिद्रत्तिः। तत्र द्रयोदम्पत्यो क्रमश्च: शोणित ( आर्तव >) तथा शक्र ( वीयं ) कारु तथां
सखभावात्‌ स्वकसंपरिणामाद्रा प्रजाभिव्ृद्धिभेवतिः तो अपने कर्मो छी अपेन्ञा रखते हँ अर्थात्‌ उचित समय प्र प्रकट
धन्यो; अतोऽन्यथा भिषजितव्यौ । सखेदस्वेदवमनविरे- होते है । खी एवं पुरूष के १६ वष के होने पर शोणित तथा
होते है । १६ वषं
चनास्थापनानुवासनेः क्रमश उपचरेन्मघुरोषधसिद्धा- श॒क्र कार्यं करने मे समर्थं होते है भथवा पूणं तथा जारोम्य के
की अवस्था ते पूरं मी आहार की -बिहोषता
भ्यां चीरघृतयुष्टं पुरुषं, खियं तु तेलमांसा ( माषा ).
कारण.सोगित ओर क्र पृणे हो सकते ह । अर्थाव्‌ साधारणे
भ्यामि्येके; सास्म्येरेवेति प्रजापतिः \। ३॥ तया. १६ वषं की!अवस्थामे शुक्र एनं शोणित पूर्णं परिप
( इति ताडपत्रपुस्तके ८४ तमं पत्रम्‌ । ) होता हैपस्न्तु यदि पौष्टिक आहार मिरे तथा स्वास्थ्य उत्तम
१ तद्था-कनकरजतःगज्रत्रपुसीसकान्यवसिच्यमानानि तेषु तेषु हो तो इससे पूवं भी शुक्र एवं शोणित पूणं हो सक्ते ` `
1. ^
सभूच््छिषटमिम्बेषु ( मधूच्छिषटवियदेषु )तानि यदा मलुष्यबिम्बमापचन्ते |
तदा मनुष्यविं्रहेए जायन्ते इति चरकः (श्चा. ०२ } “तोतणिशुकरे पूणे भवतः" इति प्रख्थेत्‌ साधु । `
८© काश्यपरसंहिता बा वृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ जातितून्रीयश्षारीरध्यायः !

वक्तन्य- सुश्रत मेँ पुरुष के २६ वषं तथा खी के १६ वषं दीर्थायु नहीं होता तथा हीन शङ्ख वारा उष्वन्न होता है

0 ५. वी
[क क व+
^

जा त क ५) न प

चरक० दा०अ०्८मेंभ ी रजोदर्शन के वाद्‌ की प्रथम तीन


का होने पर ही भेधुन का परिघान दिया गया है! शोणित
एवं शुक्र की उपस्थिति इससे पूव भी होती है परन्तु वे पूणं रात्रि मे खहवासर करना निषिद्ध है
। कहा है--ततः एुष्यास्य-
ायिनी पाणिभ्यामन्नमजजेर-
अवस्था मे नहीं होते है क्षारीर स्थानके दशवे अध्याय में अति विरात्रमासीत ब्ह्मचारिण्यधःज्
कहा हे--ऊनपोडश्वर्षायामप्रप्तः पञ्चविद्तिम्‌ । यद्याधन्ते पुमान्‌
पात्रे सुज्ञाना न च कांचिद्‌ ग्रजामापयेत । सुश्रुत ज्ञा० अ०्रमें
गर्भं कुक्षिस्थः स विपदे ॥ जातो वा न चिरजीवेल्नविद्या दुबंले- भी कहा है-ऋतौ प्रथमदिवपतात्‌ प्रभति बरहयचारिणौ दिवाखप्ना- ,
न्द्रियः ॥ इस अवस्था मे जो ग्भ की स्थिति होगी वह यातो जञनाश्रपातस्नानातुकेपनास्य्ञन खच्छेदनप्रथावनहसनकथनातिशन्द- `
गर्भाशये ही भृत हो जाता है अथवा उप्पन्न होने के बाद श्रवणावरेखनानिरयासान्‌ परिहरेत्‌ । कि कार्णं १ दिवा स्वपन्त्याः
श्त हो जायगा या अव्यन्त ही दुल सन्तान उत्पन्न होगी । स्वापरीकः, अन्ननादन्धः रोदनाद्विकृतदृष्टिः, स्नानानकेपनाद्‌. दुःख-
खी मे १६-२० वर्षं तक की अवस्थाने सन्तानोत्पत्ति की सीरः, तैरभ्यज्गात्‌ कुष्ठो, नखापकतं नात्‌ कुनदी, प्रधावनाच्च-
शक्ति सबसे अधिक होती है । उससे पूर्वं अपक्षावस्था होती चक, हसनाच्छ यावदन्तौष्ठताठजिहवः, प्रलापी चातिकथनात्‌ › भति
हैतथा उक्षफे बाद वह शक्ति छमल्ञः क्षीण होने लगती हे ।
श्चन्दश्रवणाद्वधिरः, अवलेखनात्‌ खलतिः, मरतायाससेवनादन्मन्तो-
इसी प्रकार पुरुष में २० वषं की अवस्था से ठेकर प्रायः गभो भव्रतीव्येवमेतान्‌ परिहरेत्‌ । इन तीन रात्रिरयो के बाद
३०-२५ वषं की अवस्था तक सन्ता नोध्परतिकी शक्ति सबसे ऋतुकार होता है जो कि ब्राह्मणी के लिये १२ दिन, क्षत्रिय
अधिक विद्यमान होतीदहै। उसके बाद वह दक्ति करमशः खी के सियि ११ दिन, पैश्य खी फे लिय १० दिन तथा अन्य
ह्लीण होने र्गती है । यह सामान्य नियम हे । इसके अपवादं शूद्र आदि खिर्यो के ल्यि ९ दिन होता दहे। सुश्रुत श्ा० अ०२
भी हो सकते है तथा वाज्ीकरण ओषधियो के द्वारा इस नँ भी कहा है--तत्र प्रथमे दिवसे ऋतुमत्यां मैश्नमनापुष्यं पुंसां
शक्ति को बहुत वदी अवस्था तक भी स्थिर रखा मवति, यश्च तत्राधीयते गमैः स श्रसवमानो विमुच्यते, द्वितीयेऽप्येवं
जा सकता है ॥ ४॥ | सुतिकागृहे वा, तृतीयेऽप्येवम 'पूर्णाज्ञोऽल्पायुर्बा मवति, चतु्थेतु

रजखलायाश्चेत्‌ प्रथमेऽहनि गमं आपद्येत तं वात- संपूणा्गो दी्ांयुश्च मवत्ति। न च प्रवतमाने रक्तं बीजं प्रविष्टं गुण-
कर भवति, यथा न्यां प्रतिस्रोतः प्टाविद्रव्यं प्रक्षिप्तं प्रतिनिवन्त॑ते
गभेमाचक्ते विफलं बातपुष्पमिषोद्धिदानां; द्वितीयेऽ- नोध्वं गच्छति तद्देव द्रष्टव्यम्‌ । तस्मान्नियमवतीं त्रिरत्र परिह-
हनि चेत्‌ संसते च्यवते वाः; तृतीयेऽहनि सूतिकासने रेत्‌ ¦ अतः पर मास्तादुपेयात्‌। चतुथं दिन से रेकर अगे रजो.
द्वियते, न वा दीर्घायुभेवति, हीनाङ्ग जायते; अत- दक्षन तक सखी-पुरूष परस्पर सहवास कर सक्ते ह । यदि
उर्ष्वमृतुर्दादशाहं जाह्यणीनाम्‌ , एकादशाहं ततन्नियाणां, रजोदर्शन नहो तो इसका अभिप्राय यह है फि गर्भी
दशाहं वैश्यानां, नवरात्रमितरासाम्‌ । ऋतु्वौजकालमः स्थिति हो चुकी हे । उस अवस्था मे पुनः मेथुन नहीं करना
उष्वेमकालजमाहुः चाहिये । छतु-बीज ( शुक्र ओर शोणित ›)तथा कारु की
व्घत इप्याहुमहष यं: । अत भी अपेन्ञा रखता हे-रेसा महर्षि ने कहा है । अर्थात्‌ केवल
अकालं दीनं दुबेलमध्थिरमदृढमपीनभङ्करं धान्य- छतु के यथोचित होने मात्र से ही गर्भोप्पत्ति नहीं होती है
मिव भवति ॥ ५॥ |
पितु उदके साथ खी-पुरुष का शोणित तथा शुक शुद्ध एवं
यदि रजस्वरा खी के रजोददोन के प्रथम दिन ही गभं पूर्णं होना चाहिये तथा कारु भी यथावत्‌ होना चाहिए तब
करी स्थिति हो जाय तो उसे षृर्लो के वातपुष्प की तरह गर्म की स्थिति होती हे।सुश्रत श्ा० अ०२ मेँ गभोँत्पत्ति की
गर्म" कहते है तथा वह एकशून्य होता है अर्थात्‌ उस गर्भ ङे अङ्करोर्पत्ति के साथ वदी सुन्द्र तुरना की गई है-्रवं चतुणौं
सन्तान की उत्पत्ति नहीं होती है । यदि (रजोदक्ञ॑न ॐे ) सान्निध्याद्‌ गभः स्याद्विधिपुवंकः। ऋतुक्ष्ाग्बु बीजानां सामययाद-
दूसरेदिन गमान्‌ क्रिया जाय तो गर्भपात ( चाव अथवा ङो यथा॥ जिस प्रकार अंकुर की उस्पत्ति ऋतु ( वषा भादि
पतन ) हो जाता हे । रजोदशंन के तीसरे दिन यदि गमा. कारु ), केन्र ( खेत-भूमि ), अम्बु (जरू ) तथा बीज पर
धान्‌ इ हो तो उत्पन्न बार्क की सूतिकागृह मे ही शृष्यु निभैरहे उसी प्रकार गर्भं की उत्पत्ति भी.ऋतु ( रजोकार )
हौजाती हे अथवा यदि नभीहो तो वह बालक सत्र ( गर्भाशय का शुद्ध होना ), अभ्बु ( आहार के परिणाम
से उष्पन्न होने वारी रसधातु) तथा बीज (शकर तथा आर्तव)
क सुष्ुत निदान अ० तम गभ॑पात तथा गर्भाव क निभ्न पर निर्भर है । भर्थात्‌ ये चारो जवस्थायें दीक हो तभी गभ॑की
भेद वियु है-आचतुर्थातततो मासात्‌ प्रसतवेदगभंबिद्रवः ! ततः स्थिति सम्यक्‌ प्रकार से हो सकती हे। इन उपर्युक्त १२ रात्रयो
स्थितर शरीरस्य पातः पञ्चमषष्ठयोः ॥ अथात्‌ गांधान.से चतुरध॑मास्न के अतिरिक्त समय "अकार कहराता है अर्थात्‌ इन मे मैथुन
तक्‌ गभघ्ाव होता हे अर्थात्‌ गै, घ्रावके रूप म गिरता दै नहीं करना चाहिये। इसीचिि सुश्रुत मे कहा है--्रयोदशौप्र
तथा उस्तके बाद पाच॒वं ओर छ्टे मास मँ स्थिर (धन ) गभं का | भूतयो निन्ब्राः हस भकार मे स्थित गर्भं अकार मे हेने वाके `
पात होता हे। माधुनिक्‌ भिज्ञान के नुप्र ग “लाव को 400- धान्य की तरह हीन गुर्णो बारा, दुर, अस्थिर, अदृढ ( कम
भणण तथा गभेपात्‌ को "४080१६६ कहते है। | ज्ञर्‌ ), पता तथा भङ्गुर होता हे ॥ ९॥
जातिसूत्रीयक्षारीराध्यायः ! शारीरस्थानम्‌ । ८१

था 9 ए
+ ++ ^
+ ता क ८ १. ५८ + क

युग्मेष्यहःसु पुत्रकामोऽन्यत्र कन्यार्थी हषितस्वरपरो- चाहिये । सुश्रुत श्ञा० अ० २ मे कहा है-पूर्व पद्येद्‌ ऋ स्नाता
ऽनुरुद्धः खियमुपेयादिति सिद्धम्‌ ।॥ & ।॥ याट नरमङ्गना । वादशं जनयेत्पु्र' भतार दशयेदतः ॥ ४ ॥
पुरुष यदि पुच्रोव्पत्ति का इच्छुक है तो हषंयुक्त ८ प्रसन्न तत ऋतिक पुत्रीयामिषटि निवपेत्‌ । सिद्धमांसो-
अथवा ध्वजहषं होने पर ), वृक्ष तथा अनुर्द ( किसी अन्य दना वातघ्नी ( ? ) बाऽऽज्यभागौ, यत्मयः पुरोडाशो-
खी कोन चाहता ) इभा युग्न दिनो मे अर्थात्‌ ऽष्टाकपालो, ब्रीहिमयश्चरुः, उभौ वागायुयंतौ प्रजयेते;
रजोदर्शन से चौथी, दी, अटवीं, दसवीं *तथा बारहवीं न खदेः"""" “` तते, "रात्रह्यनूत्राद्यणः इति यजमा-
रात्रिम सीसे सहवास करे । यदि बह कन्या की नभागमभिमन्छ्य शेषं दम्पती प्रा्ीयाताम्‌ । शेत ऋष-
उत्पत्ति का इच्छुक हे तो अयुग्म ( पांचवीं, सातवीं, नवमी, भोऽश्चो वा हिरस्यं बा भिषजे सैव दक्षिणा, सेवमना-
इम्यारहवीं, तेरहवीं ) रत्रियो में मधुन करना चाहिये । चरक हिताम्नेः, शालाप्नौ नित्यं होमं हुत्वा, तेनैव मन्त्रेण
का० अ०८ में कहा है--स्नानास्प्ति युगेष्वहःसु संवसेतां हतशेषं तौ घ्रा ( ओतः ) । शयनीये मदुस्वास्तीणोंपहि-
पुत्रकामौ, अयुग्मेषु दुदिठकामो । सुश्रत श्ा० अ०२मेंभी कहा तेऽस्य मर्ताः ˆ" "` ५०५००००० त्र ल्मणाम-
हे-नापीसुपेयाद्रात्रौ सामादिभिरभिविश्वास्य । विकरप्येवं चतुर्थ्या
षष्ठ यामष्टम्यां दकचम्यां दइादद्यां चोपेयादिति पुत्रकामः । एषृन्तरौन्तरं द्विरालोड्यः सोमः पवत इत्येतेन शतजप्रेन साविच्या
वि्ादायुरारोग्यमेव च । प्रजासौगणग्यमेशव्यं वलं च दिवसेषु वै ॥ ठयाहतिभिः पो देवीरुपस्लजः इति मन्त्रेण नस्यं
अतः पर पच्चम्यां सप्तम्यां नवम्यानेकाददयां च खीकामः, वरयोदशी- दला, वामदेभ्यं जपित्वा, दक्तिरोन पाश्वन खयं शाय-
प्रभृतयो निन्याः॥ ६ ॥ | यीत, वामपार््ैन पुमान्‌र्धवोत्तरेणोपशयीत । शनेः
अथ शुद्धस्नातां (ता) खियं( शी ) चतुर्थेऽहनि प्रजार्थं चाचरेत्‌ । बीजेऽवसिक्ते विधार्याबर्पेत्‌ ।
स्नानगृहे श्ेतेन एवाऽन्येन वाससाऽवगुण्ठ्यानवलोक- शीतोदकेन च शौचं छर्यात्‌ । तत उध्वंमभिकमप्रतापा-
८ ॥
यन्ती शचिर्दवगरहं प्षिश्योद्धटामि' प्रज्वलन्तं घृताते- यासव्यायामशोकादिवजेनमिति ८॥ पुत्रे्टि यज्ञ ) को करे ।
इसके बाद ऋत्विक्‌ पुत्रीय इष्टि
नाभ्यच्यं ब्राह्मणमीश्वरं विषु स्कन्दं च संप्रेदेयाभिवायः एतदर्थं जाज्याहूति के निमित्त वातनाशक एवं सिद्ध स्यि इषु
निष्कम्य सूर्याचन्द्रमसाविति, न तु प्रेतपिशाचरक्तांसि; मांस ओर ओदन, आट कपालो मे संस्छरृत होने वाला यवका
शुद्धस्लातमात्रा हि खरी यंवा पश्यति मनसा वाऽभिभ्या- बना इभा पुरोडाश्च ( पूडा-जपूप >) तथा ब्रीहि के बने इष
यति तादशाचारवयपुषं प्रायेण जनयत्ति; तस्मादेवगोना- चर ( हविविरेष ) इत्यादि पदार्थो को तेयार करे । इससे वे
ह्मणगुरब्रद्धाचार्यान्‌ सतः पश्येत्‌ ; कल्याणमनाश्च दोनो ८ पति तथा पत्नी ) वाणी जौर जायु से युक्त हो जाते
स्यात्‌ । न तु सन्ध्ययोः खानं मेथुनं बोपेयान्नान्यमना हं । फिर नो जाब्रह्मन्‌ बराह्मणः इत्यादि मन्त्र बोलकर उस
इति ॥ ७ ॥ | से यजमान के भाग को अभिमन्त्रित करके हेष भागको
( जिसने अग्निका
इसके वाद्‌ स्नान आदिके द्वारा शद्ध इदं स्री चौथे द्म्पती ( पति-पटनी >)खायं । अनाहिताग्नि
आधान नहीं क्रिया हे ) वद्य को सफेद बेर, घोडा अथवा
दिन स्नानगरह मेँ अन्य श्वेत ( शश्र ) वख से लपने; आपको
ककर इधर उधरन देखती इई पवित्र मनसे देवगृह धन की दक्चिणा देदे । तदनन्तर
श्ञाराग्नि ( गाहंपस्य भग्नि )
( मन्द्र ) म जाकर प्रजवित तथा हवन की इ भग्निकी म आहूति डारुकर उसी मन्त्र के हारा दोनो पति तथा पर्न
धृत तथा ञक्तत हारा जभ्यचचना ( पूजा ) करके, ब्राह्यण, यत्तरेष को खाये । इसके बाद्‌ पति खदु तथा आस्तीणं युक्त
ईश्वर, विष्णु तथा स्कन्द्‌ को देखकर तथा उनका जभिवादन बिद्ठौने. पर परनी को छिटाकर रुचमणा ( पुत्रदा-श्वेत कटेरी )
करके, सूयं एवं चन्द्रमा को नमस्कार करे। वह प्रेत, नामक ओषधि को जर में घोरुकर “सोमः पचत” इत्यादि
पिश्चाच तथा राक्तस आदिक को नमस्कार नकरे। स्नान मन्त्र को ५०० वार जपकर सावित्री ( गायत्री ) सन्त्र की
"भुवः स्वः महः, इत्यादि व्याहृति्यो के द्वारा अपो देवी.
द्वारा शद्ध हृ॑खी सव से प्रथम जिसे देखती हे अथवा
रुपसृज' इत्यादि मन्त्र से ( र्च्मणा;ओषधि का ) नस्य देवे ।
जिशका ध्यान करती है उसी प्रकार के आचार एवं हरीर
वारी सन्तान को उत्पन्न करती है । इसलिये सब से पहके तदनन्तर वामदेव ( सामगान >) को गाकर दाई' ओरखीको
लिराये तथा बाई" ओर पुरुष रटे! फिर उपर तथा नीचे की
वह सखी-देवता, गौ, बराह्मण, गुरु, छृद्ध पुरुष ( गुरुजन >)तथा स्थिति मे होकर ठेट जयं जर श्षानैः २ सन्तानोस्पत्ति के
आचाय का दक्षन करे एवं कख्याणयुक्त मन वारी रहे अर्थात्‌
सने षदा कल्याण की ही इच्छा करे । सन्ध्या कार्मेखीनिमित्त जाचरण करं अर्थात्‌ मेथुन करे । चरक मेँ भी पुत्रेटि
स्थान के आयं अध्याय
स्नान तथा मैथुन न करे । तथा उसे जन्यमना ( पति के का विधान दिया गया है । शारीर ऋत्विक्‌
अतिरि किसी दुसरे भ्यक्ति मे मन वारी) नहीं होना मे कदा हे- ततस्तस्या आश्चासानाया प्रजापतिमभिनिदिश्च `
योनौ तस्याः कामपरिपूरणा्थं काम्य।मिष्टं निव पेत 'विष्णुवोनि करप
१. “उद्वाहारिनि" इति पार्श्वेत्‌ साधु । यतु? इत्यनया चा । ततशचैवाज्येन स्थारोपाकमभिधायं त्रि
११९ का
८२९ काशयपसंहिता वा बृद्धजी वकीय तन्त्रम्‌ । [ जातितूत्रीयसारीराध्यायः !

यात्‌, यथाऽऽभ्नायं चोपमन्तितञुदकपातरं तस्यै दचात्सरवोदका्थान्‌ यात्‌; पुष्पाभरणबासांसि च शुक्छानि बिश्रयात्‌ ; सायं
कुरुष्वेति । ततः समाप्ते कमेणि पूरवे दक्षिणपादमभिदःरन्ती प्रदक्षि- प्रातश्च श्येतमश्चं बषभं वा पश्येत्‌; सोम्यहितप्रियकथा-
णमग्निमनपरि क्रामेत्‌ । ततो ब्राह्मणान्‌ स्वस्ति सह भधाऽऽज्यशेषं भिरासीत, अनुकरूलपरिवारा च स्यादिष्टमपत्यं जन-
परारनीयात्‌ ,पूवं पुमान्‌ पश्ात्ी, न चौच्छिष्टमवदोषयेत्‌ ; ततस्त यति । या तु श्यामं लोहिताक्तं व्यूढोरस्कं पुत्रमिच्छेत्‌
सह संवसेतामष्टराव्रं तथाविधपरिच्छदावेव च स्याता, तथे्टपुत्र
जनयेतास्‌ ) |.
कष्णे वा तत्रताद्ृशुपचारो भोजनवसनङ्कघुमालङ्काराणाः
वक्तभ्य-सन्तानो्पत्ति के स्यि मैथुन के समय पुरुष तादृग्देशानुचिन्तनं चेति । यत्रामू तु कन्याथिनीभ्यो-
को ऊपर तथा खी को नीचे खेटना चाहिये । केवर मेथुन के दयात्‌; क्ीरोदकतिलसिद्धास्तु वर्णाः । गौरश्यम-
आनन्द के टिए यद्यपि कामशाख के अनुसार अनेक प्रकार करष्णोभ्योऽन्ये वर्णां निन्दिताः ॥ ६ ॥
के आसनो का प्रयोग किया जाताहेतथापि उनका उदुदेश्य
-केवर आनन्द मात्र ही है । सन्तानोत्पत्ति नहीं । सन्तानोस्पन्ति यदि वह खी गौरवर्ण, ओजस्वी, पवित्र तथा दीर्घायु पुत्र
केलिये तो सचश्रष्ठ आसन पुरुष को उपर त्था खीको नीचे पुत्र को उत्पन्न करना चाहे तो उसे स्नानद्वारा शुद्ध होनेके
टेटनाहीहै। इस्ीटियि चर शा० अ०्८में कहाहै-नच पहर दिन से ही मथु तथा धरत (असमान मात्रा) सहित
न्युन्जां पार्वंगतां वा संसेवेत, न्युव्जाया वातो वल्वान्‌ स योनि सफेद जौ के सत्तु से बनाये हुए मन्थ मेँ श्वेत स्ग की तथा
पीडयति, पारश्वंगताया दक्षिणे पादवं ररेष्मा संच्युतोऽपिदधाति जीवित श्वेत रंग के बद्धे वारी गौ का दूध भिराकर चांदी `
अथवा कांसीके पात्र में सदा पिये। तथा यथाक्षमय
गर्भाय, वामे पिन्तं पारं तस्याः पीडितं विदहति रक्तशुक्रं, तस्मादु
ताना सती वीजं गृह्णीयात्‌; तम्या हिं यथास्थानमवतिष्ठते दोषाः।
शाक, सष्ठेड जौ, दध, दही तथा घो मिलाकर मात्रा जँ सेवन
-बीज ( शुक्र )के योनि में अवक्षिचनदहो जाने परसीको उसे क्रे । वह्‌ श्वेत पुष्प एवं चख को धारण करे, सायं तथा प्रातः
धारण करॐे अरूग सो जाना चाहिये । उ्तके बाद मेथुन के कारू श्वेत घडे तथा वेरकादछन करे। सौम्य, हितकारी तथा
समाप्त हो जाने पर रण्डे पानीसे द्धि करनी चाहिये। प्रिय कथां (बातचीत) से युक्त रहे अर्थात्‌ उससे सौम्य तथा
ठण्डे पानी से योनि की मांसपेश्चियां चिङुडंगी जिससे धारण प्रिय बातचीत दी करनी चाहिये तथा उसफेपासर उसे मनक
क्रिये इष्‌ वीयं की योनिम स्थिरता होकर गभोँत्पत्ति की अनुकर परिवारके ष्यक्ति ही रहने चाहिये। हस प्रकार वह अभिल-
संभावना अधिक होगी 1 इसील्ियि चरक मेँ कहा है- पर्याप्त षित पुत्रको उत्पन्न करती है । चरक शा० अण्८में भी कहा है-
चैनां शीतोदकेन परिषिचेत" इसकी व्याख्या में गङ्गाधर" ने स। चेदेवमाशासीत ्रहन्तमवदातं हयंक्षमोजस्विनं श्युचि सत्वर्ंपन्नं
`छिखा है-एनां कतरमणां खियं मैथ्नश्रमोष्मप्ररामाथं शौतोदकेनपुत्रभिच्छेय॑मिति शद्धस्नानाल्श्चतयस्ये मन्धमवदातयवानां मघु-
-सुखनयनादिषु योनिषु च परिपिद्धेत्‌" । सुख, नेत्र तथा योनि सपर्या संसज्य दवताया गौः सरूपवत्सायाः. पयस्ताऽऽर्लल्यि राजते
मं श्षीतर जरु के छीटे देने चाहिये । इसके साथ ही चरक कांस्ये वा पत्रे कले कले सप्ताहं पततं प्रयच्छेत्पानाय, प्राप्ततश्च
शा० अ० ८ से गभस्थापनकारक जषधियां दी हुई है, इनका सालियगान्नविकारान्‌ दथिमधुस्पिभिः पयोभि्वां संसज्य भुज्जीत,
सेवन किया जा सकता है । कहा हेत उर्वं गभैस्थापनानि तथा सायमवदातद्चरणश्चयनासनयानवसनभूषणा च स्यात्‌, सायं
व्याख्यास्यामः-रेनद्रबाह्मीरातवीर्यासहखवीयांऽमो
घाऽव्यथाशिवा व प्रातश्च रश्वच्छवेतं महान्तमूषममाजानेयं हुरिचन्दनाङ्गदं पदयेत्‌,
लाऽरिष्टावास्यपुष्पीविष्वक्सेनकान्ता च, ञस्तामोषधीनां डिरसादन्नि- सौम्याभिश्वैनां कथाभिर्मनोऽनुकूरु.भिरुपासीत, सौम्याटतिवचनो-
णेन पाणिना धारणम्‌ , एताभिस्वेव सिद्धस्य पयसः सपिषो वा पचारचेशंश्च खीपुरूषानितसरानपि चेन्द्ियार्थानवदातान्‌ पर्येत्‌ ;
पानं, एतामिरचेव पुष्ये पुष्ये स्नानं, सदा समालभेत च ताः, तथा सहचर्थश्रैनां भियहिताभ्यां सततसुपचरेयुः, तथा भर्ता, न च भिश्री-
सर्वासां जीवनीयोक्तानामोषधीनां सदोपयोगरतेस्तेरपयोगविधिभिः, मावयापवेयाताम्‌ । जो खी श्याम बण के, रारू आख वारे,.
इति गस॑स्थापनानि व्यास्यातानि भवन्ति । इसके बाद अञ्चिकरमं विस्तृत एवं उन्नत छाती वरे मथवा इष्ण वणं के पुत्र को
,(अग्नि के पास बेखकर कार्यं जदि का अधिक करना ), धूप, उस्पन्न करना चाहे तो उसके स्यि -भी भोजनः, वस, पुष्प
आयास ( परिश्रम ), ज्यायाम तथा श्लोक आदि का व्याग कर तथा जरकार भादिका उसी प्रकार का उपचार करना चाहिये
देना चाहिये अर्थात्‌ इना अधिक सेवन नहीं करना चाहिये । तथा उीग्रकार के देक्च (स्थान) का चिन्तन मी करना चाहिये ।
चरकला०्य० ८ मं भी कहा हे-तसमाददितानादारविहारान्‌ अर्थात्‌ जिस वर्ण केपुत्र को चाहे उसी वणं के वख, अलंकार
अ्रजास्सम्पदभिच्छन्ती छो पिक्ेषेण वजंयेत्‌ , साध्वाचारा चातानसुप- भोजन आदि होने चाहिये । चरक या० अ० ८ मे कटा है-
चरेदधिताभ्यामाहाःविहारभ्याम्‌ त ॥ | यातु खी द्यामं लोहितां व्यूटोरस्कं महाबाहुं च पुत्रमाशासीत, या
सा चेदिच्छेद्‌ गौरमोजस्विनं शचिमायुष्मन्वं पत्र वा कृष्णं करष्णमूदुदी्वकरेदं शुक्लकं, ज्युक्कदन्तं तेजसि मात्मवन्तस्‌
-जनयेयमितिः तस्था एवं शुद्धस्नानात्‌ भरति शुङ्यवस- एष एवानयोरपिह्योमविधिः,िन्तु परिवह वरज्यंस्यात्‌, पुता नुरूपस्तु
पुष्प, आसन,
तूनां मधुधृताभ्यां शेतायाः श्वेतपुंबत्साया गोः तीरेण यथाऽऽदतेः परिवदोऽन्यकार्यःस्यात्‌। परिबहं (भोजनः,
उसके स्यि भी
वस्तुओं ) को छोडकर
संखरस्य मन्थं राजते पात्रे कस्ये बा सदा पाययेत्‌, | बिद्धौना इत्यादि बाह्य पूर्वोक्त विधि ही दै! इसके आगे
शेष होम आदि की वही
शालिगोरयवकीरदधिषृतप्रायं च काज्ञे मात्रया श्न्नी- : ची जसे भी वणं कै पुत्रो खो चाहती हो उसके व्यि चरक में
पनन

जातिसुत्रीयशरीराध्यायः १ | शारीरस्थानम्‌ । ८३
ए + ^ ५५ ५, त दा कन
का शा का व

विधान दिया गयाहे-वाया च यथाविधं पुत्रमा्चास्तीत तस्या- तथा जन्य मी मधुरं सिनिग्ध एवं जीवनीय आटि अविदाही
र्यो का सेवन प्रस्त माना ज्ञाताहे । भूत्रके क्षयम दख
सत्यस्ता पुत्राद्चिषमनुनिशम्य तांसताज्‌ जनपदान्‌ मनस्ताऽनुपरि-
क्रामयेत्‌, ताननुपरिक्रम्य या या येषां जनपदानां मनुष्याणा- का रस, वाङूण, मण्ड, द्रव; सधुर;) अम्छ, रवण, तक्र, गुडः
मनुरूपं पृत्रमाश्चासीतसा सा तेषां तेषां जनपदानामाहारविहारो- त्रपुस आदि उपक्रेदी ( शरीर को गीखा रखने वाङ ) दव्य
पचारपरिच्छादाननुशरिधत्सेति वाच्या स्यात्‌; इ्येतत्सवं पुत्राह्धिषां हितकर होते)! पुरीषके चय सै यवान्न ( चवक्रतभक्त )
समदिकरं कमं व्याख्यातं भवति ¦ कन्या को चाहनेवारी खी को विङ्कति, इल्माष ८ इरूत्थ ), साप ( उडद ), षष्टिक ( सादी
यवागू देना चाहिये । सिद्ध किये इए ीरोदक तथा तिरः के चाव ), याचक ( यवागू), गोरसल ( गोदुग्ध जदि),
अम्छ, रवण तथा रिनग्ध चा्को का प्रयोग करना चाहिये ।
वण्य ८ वर्णं को बढ़ाने वारे ) होते ह । गोर, श्याम तथा छष्ण
वर्णो से भिन्न वर्णं ( रंग 9 निन्दित मने गये दै ॥ ९१५ वात के त्षथ सें कडु, तिक्त, कषायः, लघु, खक एवं शीत दव्य
तथा यवान्न का, पित्त के कयम कटु; रवण, अम्ल, तीकच्ण,
आहार श्वतुिघः, षड़साश्रयो, विंशतिषिकल्पो गुलः । उष्णततथाक्तार दर्ष्योका अर कफ के क्षय में स्निग्ध, मधुर
घुशीतोषगस्िग्धरूत्तमन्द तीच्मस्थिरसरस्दुकठिनषिशः गुर्‌ तथा सान्द्र जादि दर्यो का प्रयोग करना चाहिये ।
द्पिचिद्धलछदगखरसूद्रंमस्थूलसान्दरद्रवविकल्पात्‌ ; तेन
त्वगादयः शुक्रान्ता धातव आप्यायन्ते । तेषां समानं । शारीर धात्ओं तें बृद्धि होती है 1 चरक सू०अ०१ मै कहा हे-
व्तन्य--आहार विहार आदि की समानता होने पर
वधेनमविरशुद्धाशनम्‌। वातादीनां तु धातूनामन्ये घातव- सर्वदा सव॑भावानां सामान्यं इृ्धकारणम्‌। गुर धातु गुड
आप्यायिता ( रो ) भवन्ति; भुज्यमानं मांसं मांसस्य आहार-विहार से तथा ख्घु धां र्षु आहार-विहार के
शोणितं शोगितस्पेति; तदधर्मभयादनिष्ट, तद्राणेश्ु सेवन खे ब्रद्धिको प्राक्त होतीर्है। इसीखिये चरक शा०अ०
शुचिभिर्ारेः दीणधातूनाप्याययेत्‌ । शुक्रच्तये चीर- द मे कदा है--“*रवमेव सवेधादठुयणानां सामान्ययोगाद्‌ बृद्धिविप-
घृतोपयोगो मधुरखिग्धजीवनानां चान्येषासपि द्रव्या- यासाद्‌ शासतः, एतस्मान्मांसमाप्याय्यते मांसेन भूयस्तर मन्यैभ्यः
णामधिदाहिनां प्रशस्यते, मूत्रक्ञये पुनरि्चुरसवारुणी- टरारीरधातुभ्यस्तथा रोहितं लोहितेन, मेदौ मेदक्ता;, वसा वस्या,
अस्थि तरणास्थ्ना, मलना मस्नया, शुक्रं श्चुकेण गभंस्त्वामगरभेणःः ।
मर्ढद्रवमघुराम्ललवणतक्रगुडचपुसोपकलेदिनां, ऽरी-
मांस छे सेवन से अन्य धातुओं की अपेता मांस अधिक
षक्तये यवान्नषिकतिङ्कल्माषमाषषष्टिकयावकगोरसाम्लः बढता ह ! रक्त से रक्त, मेद से मेद, बसा से वसा, तरुणास्थि
लवणद्छिग्धशाको पयोगः, वातक्तये कटुतिक्तकषायलघु- । से अस्थि, मजा से मजा, शुक्र से शुक तथा कचे गभं से गभं
रूदशीतयवान्नोपयोगः,) यपित्तक्तये कटुलवणाम्लतीद्णो- कीच्ृद्धि होती दहै) परन्तु इस सामास्य नियम के अनुसार
यदि किसी धातु की च्द्धि के लिय तस्समान धातु न मिरु सके
क # पै # क छै # ॐ क 9 ॐ ह # क @ ¢ क कै ज ¢ # + क ॐ ® छ #@ ठ # छ # # $ 5 क # ॐ ¢ 5 १ ¢ त्र
अथवा सिख्ने पर भी धमा अथवा अन्य कर्णे से उसका
ॐ क च & त फ # क @ क # न ठे ॐ क ॐ # कै @ # प्र # @ क फ फ क्ते क # ऋ @ ॐ ठै क # ने
प्रयोग नक्ियालजा षछकेतो उस अवस्थामें उसके समान
( इति ताडपत्रषुस्तके ८५ पत्रम्‌" । ) ` गुण वारे अन्य द्रर्ग्योकाभी प्रयोग क्रिया जा सकताहे।
आहार चार प्रकार का ( पेय, छेद्य, मद्य तथा भोज्य ), उदाहरण के खयि शुक्रके क्षीण होने पर उपर्युक्त सिद्धान्त
होता है । यह सुर जदि & रसो के जाध्रितहोता है तथा के अद्ुसार उसकी सर्वश्रेष्ठ एवं जदञ्चं चिकित्सा तो शक्र का
गुर-खुघु, शीत-उष्ण, स्निग्ध-खत्त, मन्द्‌-ती चंग, स्थिर-सर, प्रयोग करनादही है इसीखिये नक्र के वीयं अथबा बकरे
खदु-कुटिन, विशद्‌-पिच्छिक, रङचण-खर, सूचम-स्थूल, के अण्डो (ल्म) का सेवन कराया जाता. दै।
सान्द-द्रव आदि विकरस्पो ( मेदौ) से २० प्रकार कौ होता परन्तु घृणा के कारण यदि कोद व्यक्ति इसका सेवन
हे।! उस आहार से स्वचा से ठेकर श॒क्र पर्यन्त सम्पूणं नकर सके तो उसको शुक के गर्गो के समान गुणवाद
धातुओं का पेषण होता है । समान गुण तथा समान गुण दूधषएवं घीका प्रयोग कराना चाहिये! चरक श्ा० जण
भूयिष्ठ द्भ्यो के सेवन से उनकी बृद्धि होती है परन्तु विर्ढा. ६ मे उसका विस्तारसेबडा सुन्दर वणन किया. गया है-
दन नहीं होना चाहिये । वातत जादि धातुर्जो को अन्य यज्तेवं छक्णेन सामान्येन सामान्यवतामाहारविकोरणामसांनि-
धातुर बढ़ाते वारी होती ह । मांस का सेवन करने पर मांस ध्यं स्यात्‌ संनिहितानां बाऽप्ययुक्तत्वान्पयोगो घूणित्वादन्यस्माद्वा
धातु कीष्द्धि होती ह, शोणित का सेवन करने पर शोणित कारणात्‌ , स च धातुरमिवधंयितम्यः स्यात तस्य ये समानयुणाः
स्युरादार विकारा ्रसेव्याश्च, तत्र समानयुणम्‌यिष्ानामन्यभ्रकृतीना-
कीषृद्धि होती है) परन्तु अधसैके कारण सका सेवन इष्ट
( हितकर ›)नही माना जाता है 1:इसय््यि उन्हीं धातुओं के मप्याहारविकाराणासुपयोगः स्यात्‌ , त्था -शुक्रक्षये क्षीरसपिषोरुप-
गुण वारे अन्य पवित्र आहारो के द्वारा कीण हद धातुर्ओो योगो मधुरस्निग्धस्रमाख्यातानां चापरेषामेव द्रव्याणां, मूत्रक्षये `
को बढ़ाना चाहिये । शकर के यमे रीर एवं घृत का उपयोग पुनरिद्धुरसवारुणीमण्डद्रनमधुराम्कल्वणोपक्केदिनां, पुरषक्चये कुल्मा-
षमाषङ्ष्कुण्डाजमध्ययवज्ञाकधान्याम्डानां, वातक्षये कडतिक्त-
१० अस्याये ताडपत्रपुस्के ८६ तमं पत्रं बुटितम्‌ 1 कषायर्क्तलधुशीतानां, पिततक्षयेऽम्लर्वणएकड्कक्चासोभ्णतीक्षणाना, `
८४ कादयपसंहिता वा ब्द्धजीवकीय तन्त्रम्‌ । [ जातिसूत्रीयश्चारीरध्यायः
-------------------------------~--- ४ 9५ ७१ ।

दलेष्मक्षये रिनग्धयुरमधुरसान्द्रपिच्छिलानां द्रव्याणां, कर्मापि च रौटाये तथा स्वयं शान्ति के निमित्त प्रञ्व्िति अग्नि मे दृत
यथदयस्य धातेोचदिकरं तत्तदासेभ्यं, एवमन्येषामपि शरीरधातूलां की आहूति देवे । गर्भिणी खी को जक से भरे हुए घडे, धृत,
सामान्यविपर्ययाभ्यां वृद्धिहासौ यथाकालं कार्यो, इति सवपातूना- मारा, तथा घृत एवं दही से भरा हुभा पात्र इत्यादि
मेदकरोऽतिदेशतश्च बृद्धिकराणि व्याख्यातानि वन्ति ॥ १० ॥ किसी चीज का प्रतिरोध नहीं करना चाहिये । तथा गर्भिणी
9 @ क + 6 ® ५ 5 + © €» ०० 6 &* क $ १०७०७०० >= 6 > षव = ०9 न * स्रीको धागे अथवा पती रस्सी आदि से स्तम्मन तथा
बन्धन आदि नहीं बांघना चाहिये तथा उसे अपने सभ्पूर्णं
बन्धनो को दीखा रखना चाहिये । अर्थात्‌ गर्भिणी खी को
यानि द्रव्याणि पुर्यानि मङ्गल्यानि शुचीनि च।
कोई भी वञ्च अथवा अन्य बन्धन जादि बहुत कस कर नही
नवान्यभम्रखर्डानि पुन्नामानि प्रियाणि च ॥ बांघना चाहिये ॥
गर्भिस्यै तान्युपहरेद्रसांस्याभरणानि च । अथ हीमानि रूपाणि गर्भिस्या उपलक्येत्‌ ।
न श्ीनपुंसकाख्यानि धारयेद्वा लमेत वा ॥ यानिदष्ा विजानीयाद्रालजन्मा(न्मोन्युपक्रमेत
(मम )।।
गाभणी का आचार व्यवहमर--पुण्यकारक; मङ्गल्मयः इसके बाद गर्भिणी के निम्न लच्र्णो को देखकर यह
पविन्न, नवीन, अभम तथा अखण्डित, पुरूष नाम॒ वारे जान ऊ करि अब वारक का जन्म होनेवाङा है अर्थात्‌ अव वह
( अथवा पुग >) एवं प्रिय दव्य तथा वच्च आभरणादि उपस्थित प्रसवा हे ॥
गर्भिणी को देवे । खी अथवा नपुंसक नाम अथवा लिङ्ग वारे मुखग्लानिः इमोऽङ्गानामक्लिबन्धनसुक्तता ।
द्रव्यो को गभिणी न धारण करे मौर न प्राक्च करे ॥ गोरम्‌ \।कुततेश्च स्यादवसंसस्त्घो मागस्य
धूपितार्चितसंगरषटं मशकाद्यपवजितम्‌ । परषठपाश्वकदीबस्तिवंच्णं चातितुदयति ।
ब्रह्मघोषैः सवादिचरर्वादितं वेश्म शस्यते ॥ योनिप्रखवणौदायभक्तद्वेषारतिमाः ॥
( प्रातरुत्थाय )शौचान्ते गुरुदेवाचने र्ता । उपस्थितप्रसवा के लक्षण--मुख की ग्लानि अथवा मुल
अर्चेदादित्यमु्यन्तं गन्धधूपाध्येवाजेैः ॥ का सुरक्नाना, अङ्गो का क्रम या श्लिथिरुता, अक्िबन्धन की
क्षीयमाणे च शशिनमस्तं यान्तं च भास्करम्‌ । शिथिरूता, कुक्षि का शिथिर होना ( उरोदेश से गभाशय के
न पश्येद्रभिणी निव्यं नाप्युभौ राहुदशेने ॥ नीचे खिसक जाने से ), अधोभाग ( शरीर के निचे हिस्से )
सोभाकौँ सग्रहौ श्रुत्वा गर्भिणी गभेवे्मनि । ` का भारी होना, पीठ, पाश्वं, कटि, बस्ति तथा वंक्षण (र्नो)
शान्तिहोमपराऽऽसीत मुक्तथोगं तु याचयेत्‌ से अस्यन्त पीडा होना, योनिखाव, उदारता, भक्तद्रेष ( भोजन
न दविष्यादतिथि भित्तं दथान्न प्रतिवारयेत्‌ | म अरुचि 9, जरति (अर्चि ) तथा थक्ावट-ये उपस्थितः
स्वयंप्रजलिते चाभ्नौ शान्त्यथं जुहुयाद्षृतम्‌ ॥ ` प्रसवा के लक्षण है । चरकं शा० अ० ८ मै कहा है--तस्यास्त
खख्विमानि लिङ्गानि प्रनननकारमभितो भवन्ति, तचधा--क्लमो
पूणे्कम्मं धृतं मास्यं पूणपाच्रं घृतं दधि । ग(तराणां, ग्लानिराननस्य, श्रश्णोः रोथिस्यं, ` विसुक्तवन्धनत्वभिव
न किचित्‌ प्रतिरध्नीयान्न च बध्नीत गर्भिणी ॥ वक्षसः, इक्षेरवलखंसनं, सधोगरुत्वं, वंश्षणएवसितकरिङ्ुक्षिपारवेषृठ-
सूत्रेण तनुना रञ्ञ्वा ।स्तम्भनं बन्धनानि च। निस्तोदो, योनेः प्रस्रवणं, अनन्नाभि कश्चेति, ततोऽनन्तरमावीनां
वजेयेदर्भिंणी नित्यं कामं बन्धानि मोक्षयेत्‌ ।। प्रादमोवः प्रसेकश्च गरभोदकस्य । इसी प्रकार सुश्चत श्चा० अ० 4०
गर्िणी जिस घर में रहती हो उसमे सदा धूप जनी र भी कहा है-जाते हि सिथिल कुक्षौ युक्ते हदयवन्धते। सञ्ूञे
चाहिये, पूजा होनी चाहिये, घर मच्छर आदि से रहित होना जधना नारी हेया सा तु प्रजायिनी ॥ तथा इसके अगे फिर कहा
चाहिये तथा गाजे बाजों सहित धर में सदा गाना-बजाना है-तत्रोपस्थितप्रसवायाः कटीगृष्ं प्रति समन्ताद्रेदना भवस्यमीक्ष्ं
होता रहना चाहिये । गर्भिणी को भरातः उख्कर शौच स्नान पुरीषप्रवृत्तिमृतरं प्रसिच्यते योनियुखाच्छरेष्मा च ॥
आदि नित्य कमं से निच्रत्त होकर गु तथा देवता की अर्चना एतानि रष्वा रूपाणि कृत्वा ब्राह्मणवाचनम्‌ ।
कर्मी चाहिये तथा गन्ध, धूप, अध्य ( नेवे्य >) तथा जप भ्रविगयुः ख्यो वृद्धाः कुशलाः शस्तधाषिताः' ॥
आदि केद्वारा उदय होते इए सूर्यकी पूजा करनी चाहिये
गर्भिणी को चाहिये कि वह क्षीण होते इषु ( इष्ण पक्त के ) इन उपर्युक्त कचर्णो को देखकर बर्यर्णो से स्वस्तिवाचन
करवाकर बद्ध, ऊशर, प्रशस्त तथा स्नान द्वारा शद्ध इई
चन्द्रमा तथा जस्त होते हुए (सायंकालीन ) सूयं को न देखे
ख्यां गर्भिणी के पास गर्भगृह में प्रवेश करं! चरक शा०.
तथा दोर्नो सहूुर्ओं (राहू तथाकेतु )कोभी न देखे । चन्द्र अ०८ मे मी कहा है-तां ताः समन्ततः परिवायं यथोक्तगुणः
अणः तथा सूर्य्रहण का ज्तान होनेपर गर्भिणी को सर्भ॑गरह में
लियः परयुपासीरन्नाश्वासयन्त्यो वाग्मियौहिणीयाभिः सान्तनी-
जाकर शान्ति होम आदि कार्या में र्गकर सुं तथा चन्द्रमा याभिः । इसी प्रकार सुश्रत श्चा० भ० ५० मँ भी कहा है--्रज-
की अह हारा ुक्ति की प्रार्थना करनी चाहिये । वह अतिथि
से देष न करे, उसे भिका देवे, अतिधिको कमी खालीन १. शस्ताः प्रशस्ताः, धाविताः शुद्धा्चेत्यथंः ।
जात्तिसूत्रीयसषारीराध्यायः १ ] शारीरस्थानम्‌ । ८५
वा क मी [क ^ + ता^का क ^ ^ 0 ^
शा का क क का क का त न ~ [+ + क मी

नयिष्यमाणां कृतमङ्गलसवस्तिवाचनां कुमारपरिवृतां पुन्नामफलहस्तां ्रसव वेदनार्भो के तीद्ण ( तीन-.+.०८ ) टो जाने पर


स्वभ्यक्तामुष्णोदकपरिषिक्तामयैनां सम्भरृतां यवागूमाकण्डात ्‌ पाय- गर्भिणी को श्ीघ्रही प्रसव हो जाता है! परन्तु यदि प्रसव
येत्‌ । ततः करतोपधाने शदुनि विस्तीणें शयने स्थितामासुग्नस्वथीसु- वेदनायं दीक समय परन होक्रदेर सेंहोतो गर्भिणीको
तानामशद्कनीयाश्चतचः खियः परिणतवयसः प्रजननकुशलाः कति- भव्यन्त वरदया होता है ॥ ।
तनखाः परिचरेयुरिति ॥ केचिदध्यामवस्थाया व्यायामं मुसलादिकम्‌ ।
गर्भिणीं सान्त्रयेयुप्ता हषेयेयुः प्रियंवदाः जम्भाचङ्क्रसणाधयं च भिषजो चुवते हितम्‌ ॥
्मश्वासयेथुधंर्माथौ चोदयन्तं भ्रजापतिम्‌ ॥\ क वे इस अवस्था में अर्थात्‌ प्रसव वेदनां के दैर
लोकान्‌ पुत्रतीनां च सुखानि धिविधानि च । होने पर कहते हैँ कि गभिणी को भूसरू आदि हारा व्यायाम,
जमाई तथा इधर उधर चलना फिरना हितकारी है । अर्थाव्‌
कीठेयेथुरपुत्राणां दुःखानि निरयादिषु ॥ दून क्रियाओं दारा ीघ्रही अरव दहो जाताहै। चरक ज्ञा०
मदिति कश्यपं देवमिन्द्रासीमिन्द्रमथिनो । अ०्८मेभी कहा है-सा चदावौभिः संविक्दयमान। न प्रनाये-
श्रायुष्मतां पुत्रवतां मङ्कल्यानां च फीतेनम्‌ ॥ ताथेनां नयात्‌ उत्तिष्ठ सुसलमन्यतरत्‌ गृहणीष्वाने नैतदुलूखलंषान्य-
त्रिय वचनो को बोख्ने वादी वे खियां घर्म ओर अर्थं के पूणं शरदुसुंहुरमिजहि, युयं इरवज॒म्भस्व, चङ्कमस्व चान्तयान्तरा,
निमित्त प्रजापति ज्या को भरेरित करती इई गर्भिणी को इत्येवसुपदि शन्त्येके ॥
सान्स्वना दे, उसे हर्षित ( प्रसन्न ) करे तथा उसे आश्वासन वजेनीयं तु तत्‌ सवं भगवानाह कश्यपः ।
द । उसके सामने पुत्रवती खिर्यो के विविध सुखो तथा जपु-
ज्रवती ८ पुत्र रहित > धिर्यो के दुरर्खो का वणेन करें । तथा नार्याः प्रसवकाले हि शरीरमुपम्रदयते ॥
उसङॐे सामने अदिति जर कश्यप देवत, इन्द्राणी, इन्द्र अधिनी चयो दोषाः प्रकुप्यन्ति विचाल्यन्ते च धातवः|
कुमार तथा अन्य आयुष्मान्‌ पुत्रवान्‌ तथा मङ्गलकारी देवताज गर्भिणी तदवस्था हि यल्लधार्या विशेषतः ॥
का कीर्तन करना चाहिए ॥ परन्तु भगवान्‌ कश्यप कहते हैँ कि मूसरु आदि दारा
तन्त्रीवर्णोऽल्पशंः खावः पिच्छिलः पुत्रजन्मनि । व्यायाम, जभार एवं चड्क्रमण आदि सब प्ियार्ज का स्याग
किंशकोदकघंकाशः पुधधिकाजन्म शंसति ॥ करना चाहिये । अर्थात्‌ प्रसव को शीघ्र करने के छिये उपयुक्त
क्रियाम का प्रयोग नहीं करना चाहिये । क्योकि प्रसवकाङ
पुत्र की उत्पत्ति मँखीकी योनि से गिरोय केरसके के समय खी का शरीर अव्यन्त गु होता है, वातपित्त कफ
समान थोड़ा २ तथा चिपचिपा खाव निकलता हे1 तथा कन्या
तीनों दोष कुपित होते ईद तथा उख समय शरीर शी
( पुच्री > की उत्ति मै किंशुकोदक ( पराशढाक के पूरक ) के सव धातुं अपने स्थान से विचलित इडं होती हे गर्भिणी
समान खावहोताहै॥
की वह अवस्था अच्यन्त यलनपूर्वक धारण करने योग्य
सूतेरूध्यं तु ये खावा निन्दिताञ्‌ शमयेत्त तान्‌ । होती है ॥
तस्या अस्यामवस्थायामुपयाचेत देताः ॥ अधिकं सौङ्कमायं हि गभिस्याः केयमेव च ।
प्रसवकेबादसरीकी योनिसे जो खाव (^णष्णःणम्‌ खावकाल्ञे विशेषेण षिषादभयसंश्रयः ॥
0)5त भाउ ) होते ई, वे निन्दित माने गये है अतः उनको एकपादो यमङ्कलै पाद एक इह स्थितः!
्ञान्त करे अर्थात्‌ उनकी चिकिंस्सा करे। इस अवस्था मे उसके ट्वा दुःखं खियस्तस्या इत्येवं बुवते मिथः ॥
खयि दैवता्जो से प्रार्थना करनी चाहिये ॥
उस खमय गर्भिणी अत्यन्त सुक्कमार होती है तथा उसमे
अञ्यावरते खिया गे विवृते चापगे । वरेद्‌ की वृद्धि इई होती है ! उप्यक्त क्रियाओं से जब रर्भं
ग्रादीषु वतमाना सा धिवर्तेत गर्भिणी ॥ ` कालाव दहोताहै उस समय विशेष विषाद्‌ तथा भय होता
है 1 उस समय अन्य खिर्या उसके दुःख (कष्ट ) को दैखकर
सुख के कैर जाने पर 7 1५ परस्पर कहती हे किं इसका एक पैर यमके घर में तथा एक
2५४8 9 क उपस्थित होने पर गर्भिणी को इसके लिये तेयार वैर इस रोक मेंहै अर्थात्‌ इसकी इस प्रसवावस्थामें कमी भी
हो जाना चाहिये ॥ म््यु हो सकती हे ॥ |
न तीर्भ मादिशेषु चिघ्रं नारी प्रजायते । तस्यास्त्वस्यामतरस्थायां व्यायामो न प्रशस्यते
विलम्बिताभिरावीभिगेभेः केशयते ख्यम्‌ ॥ व्यायामः सेव्यमानो हि गर्भिणीमाशु नाशये त्‌ ॥ `
पअतिचङ्कमणेनापि हन्या्रभमुपस्थितम्‌ ।
१, गुद्धची रस सद्र इत्यथैः 1 २. अप्रायुखे जरायुुखे इत्वर्थः
३. श््रावीषु" इति पाश्श्वेत्‌ साधु
अत्ययं प्रप्नुयाद्धोरं देहान्तकरणं महत्‌ ॥
४. “न तीक््ण इस्यत्र तीक्ष्णेषु" इति पारश्चत्‌. सा । इसलिये गर्भिणी की इस अवस्था भे व्याव हितकरं
८६ काल्यपसंहिता कवा व्रद्धजीवकीयं तन्त्र्‌ । [ जातिसूत्रीयसारीराध्यायः
तानि

नहीं है । व्यायाम करने से रर्भिणी की ष्ष्यु हो सकती हे । यद्‌ गर्भोदकं योनौ सलं संप्रवतेते ।
अतिचङ्क्रमणं ( अधिक्र इधर उधर घूमने ) से भी उपस्थित काज्ञेन चोदितो गर्भो विभ्रुच्य हृदयोदस्म्‌ ॥
गर्भ नष्टो जाताहै। उस्खीको दह का अन्त करनेवारे बस्तिशीषेमधोभागमवगृहाति जन्मनि ।
महान्‌ तथा भयंकर रेग हौ जाते है । उप्त मूसल आदि
के व्यवहार तथा चङ्क्रमण आदि क्रिया्भोका चरक मंभी
ग्लानिश्च जायतेऽस्यथं येन्युसपीडनभेदनम्‌ ॥
निषेध कियः गया है ! चरफ शा० अ०८ से कहा है--तन्नैत्याद इव्येतेः कारणेर्विद्याद्रभस्य परिवतनप्‌ ।
भगद्रानत्रेवः-दारयग्यायामवजैनं दि गमण्याः सततद्ठपदिदयते अथाध्याः प्रसयश्चेति ततः पयेङ्कमारुहेत्‌ ॥
भिश्चेषतश्च प्रजननकाले प्रचलितसव॑ातुदोषायाः समायां नायां | प्रावारमुपघानं वा. .... ,,,,...०.. |
५2 4 -~ © | 4 ६ वायुरल्तर र्ब्ध्रा प्राणान्‌ [दिस्यात्‌, इष ह # # © @ # ¢ छ © 6 # क 9. ® छ च 5 ¢ ह ८ के 5 $ इ & € + & ¢ 9 क # $ न ¢ * 6 + #

तीकार हि तस्मिन्‌ काटे पिदषेण भवति गभिणी, तस्मान्युस्तलगरहण स्‌


८ इति ताडपत्रपुस्तके ८७ तमं॒पत्रम्‌ । )
. प
परिहायेगृषयो मन्यन्ते, जम्भणं चङ्क्रमणं च पुनरनुष्टेयभिति ॥
( शारीरस्थानस्यैतावानेव भाग उपरुभ्धः )
उषविष्टाऽघङरत्तस्मादनिर्धिरगा(ञ)त्रपान्विता । १ १४

बुद्धश्चीद्रव्यसंपन्ना प्रजायेत प्रजाथिनी | जब शूक सहित गभभोँदक योनि मेँ आ जाये तथा
दस्य प्रसव की इच्छा वारी सी को चाये कि वह कार से प्रेरित हुभा गर्भं हृद्य प्रदेश को छोढद्कर
प्रसन्न मन वाली, खञ्जा से रहित वथा बुद्धिर्यो एवं धन से नीचे जा जाता है, बस्तिक्ञीषं तथा उसके अधोभाग को पकड
युक्त हृद वार २ वेदी इई प्रसव ( प्रजननकायं ) को करे ॥ रेता डे, ग्ानि अस्यधिक होती है, योनि मे उत्पीडन तथा
मेदन ( वेदना ) अनुभव हो-तव इन उपयुक्त लक्षणो से यह
वचा लाङ्गलिकी दरश चिरथिल्वेलचित्रकाः । जाना जाताहे कि गर्भा नीचे की ओर परिवतनहो गयाहें
चूतं युख(हु)राजिष्रेत्तथा शीघ्र प्रजायते ॥ तथा प्रसव होने वाराहे) इस अवस्था में उस उपस्थित
्राजिघ्र दजेधूपं वा नमेरोगुगुलोस्तथा । प्रसवा खी को प्रावार (चादर) तथा उपधान ( तकिया)
शअथ(घः) प्रपद्यते गयंस्तथा हप्र षिमुच्यते ॥ रगे हुए पलंग पर किटाकर-( प्रवाहण करना प्रारम्भ कराये )
पाश्वंसन्धिकटीप्रष्ठं तेलेनोष्णेन स्रितम्‌ । - वक्तव्य -ष्वरक शा. अ. ८ मे कहा है-स यदा जानीयाद्वि
मृरीयुरवकर्षेयुः शनेः प्रायः शियः सुखाः(खप्‌)॥ मुच्य हृदययुदरमस्यास्वाविज्घति, बस्तिशियोऽवगृह्यति, त्वरयन्त्य
| नामाव्रयः, परिवत॑ते अधो गमं इति, भस्यामवस्थायां पयं्मैनामा
` दिरप्रव की चिद्कित्सा अथवा उपाय--वचा, कठिहारी, सेप्य प्रव्राहितुयुपक्रामयेत । यह अध्याय यहीं पर मध्यमे ही
कुष्ट, चिरबिर्व ( करञ् ), छोटी इरायची तथा चिच्रक का खण्डित हौ गया है । प्रकरण को देखते इए कहा जा सकता है
सूच्म चूण बार २ सूंधनेके ल्यिदेनेसे शीघ्रही ग्रघवहो कि सम्भवतः इससे आगे इसमे प्रवाहण द्वारा गभ॑ की उश्पत्ति
जाता है। अथवा भोजपन्रके धुर्पैकोया सरल देवदार भौर ( एलाण्प ) अपरापातन तथा माता एवं शिश के जातकर्म
गूरु के धुं को संघनेसे गर्भशीघ्रही नीचेकी ओौरञा |का उल्रेख करिया गया होगा । पा्ठ्को के ज्ञान के ल्य हम इन
जाता हे तथा अपने स्थान से द्ट जाता है । तथा वीच २ मं विष्यो को अन्य भ्रन्थो के आधार पर संहेषये देते) उप.
निपुण चियां उसके पार, सन्धिरयां, कटी तथा पष्ट देशने स्थित प्रसवा खी के प्रवाहण के स्वि चरकशा.अ. ८मेकहा
धीरे २ सुखपूवंक उष्ण तेरु चुपडकर मारि करं तथा अव हे--ताशरैनां यथोक्तयुणाः जियोऽहरिष्युः-अनागतावीमां प्रवादिष्टाः,
कषण करे अर्थात्‌ गभंको नीचे राने का प्रय करें । चरक
या ह्यनागताकीः प्रवाहयते व्य्थ॑मैवस्यास्तत्कमे मवतिभप्रना चास्यावि-
दा. अ. ध्मेभीयेही विधियां दी है-अथास्ये दचाक्ुष्ेलाटा-
कृतिभापन्ना श्वासकाश्चोषष्लीदप्रस्तक्ता वा मवति, यथा हि क्षव्रथूदगार
क्लिकीवचा चित्रफचिःरिखचूरयुपाघावं, सा तन्पुहुसुंहुरुपजिपरेत्‌ ,
वातमूत्रपुरीषवेगाम्‌ प्रयतमानोऽष्यप्राप्रकालान्न लमते कच्छ ण वाप्य-
तथा -भूजैपत्रधूमं दिशपाधूमं वा, तस्याश्चान्तरान्तरा कटीपश्षषठ
वाप्नोति तथाऽनागतकालं गभौमपि प्रवाहमाणा, यथा चषामैव क्षव-
विधदेद्नानीषदुष्णेन तंरेनाभ्यज्यानुषुखमवम्रदनीयात्‌ ,इत्यनेन तु
थ्रादीनां सन्धारणयुपधातायोपपचते तथा प्राप्तकारस्य गम॑स्यप्रना-
कमेणा म्मोऽवाक्प्रतिप्यते ॥ | हणं, सा यथानिदें कुरुष्वेति वक्तव्या; तथा च कुवती शनः शनं
दुबला पाययेन्मद्यमिस्येके नेति कश्यपः पूर्व प्रवादेत ततोऽनम्तरं बलवत्तरं, तस्यां च प्रवाहमाणा्वां खिय
पूषेष्ष्टा तथेवास्या(ऽसौ)यवागू तृषिता पिवेत्‌ ॥ शब्दं कुयुः प्रजाता प्रजाता धन्यं घन्यं पुत्रम्‌? शति, तथाऽस्या इषणा-
उपयुक्त चिकित्साओों के अतिरिक्त कुठ रोग कहते है कि १. अस्मिश्च पे ताडपत्रीयपुस्तके आपात्ततो दशने २२ किल
दि वह्‌ दुब होतो उसे मद्य ( 21800 विलाये परन्तु पत्राह्काः प्रतिभान्ति, परमत्रपूर्वापस्यन्थसन्निकोचित्येन ८७ तमदु-
भगवान्‌ कश्यप कहते हँ कि यह ठीक नहींहे। छान्त एवं रितपत्रस्थानीयस्वेनेदं निदिषटम्‌
तृषित ( प्यासी ) होने पर उसे यवागू पीना चादिये ॥ २. अस्यमि च्छुष्पत्रास्मरौ मन्थः खण्डितस्तादपत्रपुस्तके ।
८ ७
जातिसूत्रीयशशारीराध्यायः ! ] हारीरस्थानम्‌ ।
पो थ क ल कमन
ग का,
ता श ^का ॥ का 00
व्क "का काका क क 0१

प्यायन्ते प्राणाः। जब उत प्रसृववेदनाएे हो री हो उस समय उसे से.रे इद्ध तथा ३ इच्च दूर-दो बन्धन ख्गाकर वीच में से
प्रवाहण करना चाहिये ! जव वेदनां नहो रही हौ उस समय नाभिनालको कार देना चाहिये) ये बन्धन रक्तखाव को
प्रवाहण का कोई खाम्‌ नहीं होता। इस प्रकार देदनाओं फे रोकने के ल्य ख्गाये जाते ह । दूसरा वन्धन गर्भसें कदी
साथ र धीरे र प्रदाहण को भी बढ़ा देना चाहिये । इससे गभं दूसरा शिच ( यमरू-ए० ) न हो-उसकी स्ता के लिय
विरेष कष्ट के बिना वाहर आ जातादहै। अपरापातन-गभंके सावधानी के रूप में ख्याया जातः हे ! नाभिना को काटने
बाहर आने के वाद्‌ पर्चिारिका्ओं का सवसे प्रथम कत्तव्य से पूर्वं उसे स्पन्दनं का बन्द हो जाना आवश्यक है
यह देखना हे छि अपरा ( ए०८०७ ) बाहर आईं हं य। नही उसके बाद नाभि पर ( 7णडणण्डु ए०रपलः) या कोद अन्य
प्रसव के ४० मिनिरके वाद्‌ तकमी चह यदि बाहर नहीं अवचूर्णन ओषध द्गाकर पटरी वांध देनी चाहिये । इसके
आई हे तो उसे निश्च विधि से गिराने का प्रयल करं । एक खी वाद्‌ उसकी आंखे की भोर अवश्य ध्यान देना चाहिये।
प्रसूता ङे पेटी दीवारमें से गभाज्ञय को इसग्रकार पकडे उन्हं अच्छी प्रकार 2071० 1०४०८ से साफ करके उसमे ३
कि उसका अंगृहा सामने तथा अंगुखियां गर्मा्नय के पीठे रहं! 0४७४)० की एक २ वृद डार देनी चाहिये क्योकि यदि माता
अब गर्भाय के आाङुब्वन ( ००४००४०० ) क समय सभाराय को कोड जौपसर्मिक रोग दहो तो उससे मुख्यस्प सेशिश्ुकरी
को सामने से पीद्धे तथा नीचे की ओर दवाय! आङल्चन के आंख से.विद्कति ( 0010918 60८0प्र ) होमेका डर
साथ दही यह्‌ छ्छिया करनी चाहिये । इस दिधिमं ग्माश्यको रहता है ! इन सव आवश्यक कार्यो को करणे अव वच्चेको
याश्चसे नहीं पकडना चाहिये । इससे अपरा बाहर आ जाती सुखा देना चाहिये क्योकि वह प्रसदेजन्य श्रम के कारण
है। इस विधि को ( €१९'§ ८९०१ ›कहते हैँ । योनि सें पर्याप्त थका हमा होता है। इनके अतिरिक्त शिश को
ते का अनुवासन तथा आस्थापन बस्ति द्वारा भी वायु के साधारण जीवन रंभ करने से एवं अन्य मी करई उपद्रव
अनुरोम हो जने से वात सूत्र एवं पुरीषके साथ दही जपरा होने काडर रहता है । इनकी जर परिचारिका को ध्यान
मी बाहर आ जाती हे। शिश्युपर्चिर्या-इस अपरापातन के देना आवश्यक है । नवजात शिश में कई दिन तक उष्णता
साथर दुसरी जोर .सद्योजात शिश्युका भी ध्यान रखना का नियन्त्रण ठीक तरह से नहीं होता है जिसके परिणाम
चाहिये । अपव्यमागं खे जति हए शिश्यु को बहुत क्टेश्च उठाने स्वरूप उनको सर्दी-जुकाम आदि ( ९8 {05९ 0 ५०1 )
पडते हैँअतः बाख्क कुद मूच्छित सा होता है तथा पूरा श्वास वहत जल्दी होते हैँतथा यदि सावधानी नरखी जाय तो
भी नहीं छेता रहता है । उत्पन्न होने के वाद्‌ शिशु स्वयं ये अस्यन्त धातक परिणाम तक उन्न करदेते हँ। इसी
रोताहै। यह रोना८( 0 ) उसके स्यि बहत अच्छा एवं प्रकार उष्णता का नियन्त्रणनदहोने सखे उनके तापमान सैं
आवश्यक होता हे क्योकि इस रोनेके द्वारा वह प्रथम वारं बृद्धि भी बहुत जल्दी हो जाती है ! शिश्यको दो चार दिनि
श्राष ङेता है तथा उसके फुष्फुसों (1."088) में हवा जाती तक तो यदि तापमान में थोडी ब्द्धि (१००? तक >)रहे ती
है। यदि बारुक स्वयं न रेये तथा होश्चमे न जये तो उसे उसे सामान्य अवस्था दी समश्चनी चाहिये परन्तु यदि बिना
होश्च मे खाने तथा उराकर सुकाने का प्रयज शिया जात! हे । किसी विशेष कारण के कगातार तापमान मे अधिक बृद्धि
इसके लिय चरक मे उसके कारन के पा पत्थर वजने तथा- ( १०३४ या इससे अधिक ) रहे तो शरीर में ढ्व की कमी
करेरगके जसे हवा करने को छ्खाडे। कहाहै- खमश्षनी चाहिये । शषिश्यु के इस उवर्‌ को 16्ऽवाभ्मः
जदमयोः संबट्नं कणंयोमुे, शीतोदकेनोष्णोदकेन वा सुले परिः {66 कहते हँ । इस अचस्था मं शिश को आधी शक्ति वारा
वेकः, तथा सक्लेशविदितान्‌ प्राणान्‌ पुनङँयेत, कृष्णकपाल्किाशुपंण ण्म 3806 उिनाप्प घीरे २ कं वार देना चाहिये
चैनमभिनिष्पुणीपु्वयचेः स्यात्‌ यावद्राणानां प्रत्यागमनम्‌ । सद्यो. जिससे यह ञवर की अवस्था ठीक हो जाती है। दूसरा सस्य
जात शिश रेसे स्थान से बाहर जाता है जहां कि वाह्य वायु. उपद्रव लिश को श्वासावरोध काहोतादहे। यदि श्िश्चु के गरे
मण्डल का किसी प्रकार का संगं नहीं होता । बाहर आकर | की श्रेऽमा (प्ट) अच्छी तरह साफ होने पर भी नातिका
( 1४58] 9.88०.९९8 ) सं बाधा
उसे श्राप रेने में हो तो
वह अपना स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करता है ! जीवन की दृष्ट
से उसका अब माता के साथ कोई मी सम्बन्ध नहीं रहता है। कठिना होती है । यद्यपि बह सुख से श्वाप्त छे सकताहै
उसे जीवन को प्रारम्भ करने के चयि ही उपरक्त विधिसे तथापि क्षिय को नासिका से श्वास रेनेष्ी एक स्वाभाविक
उसमे ( 005 ) उत्पन्न की जाती है । इसके साथ ही शिश रदृत्ति होती है इसख््यि उसका श्वःसावरोध होने रुगता ह
गरे शरेष्मा जादि फंसी हो तो उसे भी अंगु मेँ कपड़ा ०1.५४ प्रपत०5०४ ने अपनी पुस्तक 121563568 01 ०1108
लपेट कर उससे साफ़ कर देना चाहिये जिससे श्वास म्रश्वास म छिदा हे-- 16 ४6 एण एष 723 आनू) 1९०७९

ठीक तरह से हो सके । जव यह निश्चित रूपसे मालुम 109० पा४८ ८० एटा + € 1058 ( 10.
हो जाय किं शिशु जीवित है अर्थात्‌ स्वतन्त्र रूपसे वह 0901 0९८४प७€ 91695 16417 ०91 0 6 ५०८०० भगत |
श्वास प्रश्वास रेने र्गा है तब नाभिच्छेदन करना चाहिये । 11 ¢/€ 05 13 ८5९ ए एलडणणणद ) ध ॐ ऋ &०
नाभिच्छेदन-शिश की उष्पत्तिके उदु ही देर बाद नाभिः ०९ 170 € 1306, अ्नादटाल (फ़ 9 € 510] 0९8
नार ( एष्ण०९] ०० ) के स्पन्दन बन्व्‌ हो जने पर नाभि ध भध्णुलषलः ग्रपष्य छा गिद्भी त्वञ्‌ पगु ४९ `
णै
८८ कार्यपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ जातिषूत्रयीरारीराध्यायः
(1

[व मि + + ^
[ती + 9)

प्प इस मवस्था मे एक रवङ्‌ केथैदरं ( 00५ ) नाक दिया जासकलता हे 1 अधिक दूध से बाङ्क को अजीर्णं, वमन,
के इरा बालके गर्म डार्कर मागं को साफ करं देना अतिसार आदि उपद्रवहो जते अतःदूष देने का समयं
चाहिये । भोजन-साधारणतया प्रथम तीन दिनो तक माता निशित होना चाहिये । यदि माताकादुधनदहो तो यथोक्त.
ॐ स्तनो मे शद्ध दूध नहींहोताहे अपितु एक भारी तथा गुण वाला धात्री कादृूघयाङ्त्रिम दूघ भी जावश्यकता.
पीरा खा द्रव होता है जिसे खीख ( (नाण्ण॑प्प ) कहते हैँ। नुसार दिया जाक्षकता दहै। शिश को दूध कितना, कितने
यह भारी तथा विरेचक (1.6५भ),९ ) होता है । इसल्यि अन्तर से तथा कब देना चाहिये इ षके लिये निम्न ताल्किा है-
प्रारंभ मे यह दूध नदीं दिया जाता है । जायुवंद मे इस समय
मधु एवं धृत ( असमान मात्रां) चटने को स्वि है। आयु अन्तर रात्रि मत्रा
चरक छा० अ०८ मे कहा है--““ततोऽनन्तरं जातकमं कुमारस्य 9 मसक्चाह २ षष्टे २वार्‌ १-१ शख
कायम्‌, तद्यथा - मधुसपिषी मन्त्रौपमन्विते यथाम्नायं प्रथमं प्रारितु- २सेर सप्ताह ५ # १३-२ +;
मस्मै दात्‌ । स्तनमत उष्वेम्‌” । सुश्रुत शा० अ० ९० मँ उस ४ से “ सप्ताह 9» १ बार २३-२६ +;
समय सुवर्णं पराज्चन का परिघान दिया है--“जथ कुमारः शीता- ६ से १२ सप्ताह २३ घण्टे 33 २-४द +
भिरद्धिरम्धास्य जातकर्मणि कते मधुसर्पिरनन्ता ब्राह्मीरसेन सुवणै- २ से ५ मास २ ;; 9१ ४- “द 39
चूणैमज्गुस्याऽनाभिकया ठेदयेतः । परन्तु इसके विपरीतं कं ५से९ 39 29 29 प ५र-७ ),
चिक्िस्छक शि को उन दिनो भीमाता कादूध देना ही ९ से १२ 9) ३३ ;; 9) ७३-९ 3)
पसन्द्‌ करते है । उनकी राय मं वह खीष वाखा दूध भारी
होने पर भी विरेचक होने सेशिश्युकेपेर ॐोसाफ कर देता निन्द्रा-शिश्च अपना अधिक समय सोने में बिताता
हे । आंततोमेंजो सूखा इजा मरु जिसे प्प कहते है । प्रारंममें वह २१ वण्टे सोतादै तथा धीरे२ कम करते
है-एकत्नित होता हैवह निकल जाताहै। तथा स्तन को हये & मास के बाद्‌ यह १४-१६ घण्टे पर पहुंच जाता है।
मुंह मे देने से दूसरा खाभ यह होता है कि प्रत्यावर्तन क्रिया नींद के स्यि बालक को अफीम आदि का प्रयोग
( &68€: ०८६०४ ) द्रा माता का गर्माशय भी सिकता है कराना कभी अच्छा नहींहोताहे। शिशुके साथर माता
जिससे गर्भाय का सराव 005") निकरता रहता ह! इसके के स्वस्थद्त्त का पूरणं ध्यान रखना चाहिये । इस समय
बाद कद्ध कार तक शिशु के तापमान, श्वास प्रश्वाप्त गति, माता के शरीरम वायु की बृद्धि इई होती है ।
नाडीगति तथा मलमूत्र आदि का अवश्य ध्यान रखना सख्यि उसे भोजन मे रघु जाहार तथा सा्म्यानुसार धृत
चाहिये ।प्रारंभ से श्षिशयु का तापमान ऊचु अधिक ( 99.8९. आदि किसी स्नेह मेँ पञ्चको चु्णं मिराकर देना चाहिये
के रुगभग ) रहता हे परन्तु ङ्ध ही समय मँ घटकर यह अथवा ५-७ दिन तक ख्गातार दशमूर के क्राथ में घृत अथवा
98.8.०7. हो जाता है । यदि चार दिन तक शिशु का तापमान एरण्ड तेर की योग्य मात्रा मिराकर दोनो समय पीने को देनी
100. या इससे अधिक रहे तो ध्यान पूर्वक इसका कारण चाहिये । इससे प्रङृपित हुभा वायु शान्त हो जाता है तथा
माम करने का प्रयत्न करना चाहिये! शिश्च की श्वासगति विकार नहीं हो पाते) पिर क्रमशः पुष्टिकारक जहार देकर
२०--६० तक्र तथा नाडीगति १४०--१५० तक रहती है। उसके शरीर को पुष्ट कर दें। माता को २-४ दिन साधारण
शिच का भार ( तौर ) तथा उंचाहं जादि भी उसके स्वास्थ्य सा ज्वर हो जाना स्वाभाविक है जो उपर्युक्त उपचार से ठीक
करी निश्चित पहचान हे । उत्पत्ति के समयसि का भार हो जाता है.परन्तु यदि उ्वर भयिङ्‌ दिन तक जगातार बना
रखुगभग ६ से ८ पौण्ड होताहे। प्रारंभकेदो तीन दिनो रहे तो उसे प्रसूतिं वर ( ८6१० एतः ) समश्च कर प्रमाद्‌
रह भार थोडा सा घटता हैपरन्तु सप्ताह भर बाद यह्‌ फिर रहित होकर सावधानी से चिक्िस्वा करनी चाहिये । दक्ष दिन
बदृ जाता है तथा आगे नियमपूरव॑क बढता रहता है । शिश वाद्‌ वारक का नामकरण संसार किया जाता हे । चरक तथा
के भार मे यदि प्रतिसप्ताह बृद्धि नहो तो उसका कारण सुश्रतमें बार्कके दो नाम रखने को ङ्िलादहै। (१) नकतत्र
दूढना चादिये । प्रथम ३ मास तक रशिथुका भार ७ जौँ नाम-अर्थात्‌ जिस नक्षत्र मे बारुक उत्पन्न हु है उसके अनु.
प्रति सप्ताह बढ़ता है । जन्म क समय उसकी रूम्बाई र्गभग सार तथा (२) अभीष्ट नापर । सुश्रुतश्ा.ज. १० मं कहामी
१९३ इश्च होती हे । शि ॐ स्थि सबसे आवर्यक उसका है--“ततो दहामेऽहनि मातापितरौ कृतमक्गलकौतुको स्वस्तिवा-
भोजन ( माता का दृध) तथा निद्रा है! नियमित समय. चमं कृत्वा नाम कुर्यातां यदभिप्रवं न्त्र नामवा। इसके बाद
पर शिश को स्तनपान कराना चाहिये । शिशु जब रोये तव चरक तथा सुश्रत में शि्के व्र, जाभूषग, मणिधारण तया
ही संह में स्तन देदेने ङी प्रथा अच्छी नहीं हे) एतदर्थं इषे विरौने आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है यह सब पारक
चम्मच भर पानी जथवा भजवायन के अकं में मघु मिराङृर को वहीं से देखना चाहिये ॥ ` ।
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ओषध तथा मेषज का अन्तर-दीषन आदि दर्यो ऊ
संयोग से जो चिकित्सा की जाती है उसे ओषध कहते है तथा
ओषध मेषजेन्द्रियाध्यायः । होम, बतः तष, दान एवं शान्ति कर्म जआदिको सेषज कहते है
उभयं तद्यदा जन्तोः कृतं न कुरुते गुणम्‌ ।
( अथात अओषधभेषजीयसिन्द्रियं व्याख्यास्यामः।॥ ९) )
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः |! २॥
चीणायुरिति सं(ती)ज्ञाला न चिकित्सेद्धिचन्ञणः ।५॥
अव. हम ओषधमेषजीय इन्द्रिय अध्याय का व्याख्यान इन दोनो चिकिलसा्ओं इरा चिकित्सा कयि जने परभी
करंगे। रेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था) अर्थात्‌ इस यदिरोगीकोकाभनहोतो बुद्धिमान ब्यक्ति उसे क्षीणाचु
सभ्याय मे ओषध तथा मेषजरूप चिकित्सा संबन्धी इन्द्रियो ८ गतायु मरणासन्न ) जाने तथा उसरी चिकित्सा न करे।
( अरिष्ट ररर्णो >)का वर्णन फरिया जायगा । चिकित्सा हारा गतायुष रोगी को खा क्यो नहीं होता इसके
वक्तवप-हस इन्द्रिय स्थान का केवल यही ( अन्तिम )
ष्य सुश्रुत सू° अ०३१ में कहा है--पेता मूताः पिशाचाश्च
अध्याय ही उपलन्ध हुजा है । इससे पूवं के सव अध्याय रक्षसि विविधानि च मरणाभियुखं नित्युपसपेन्तिम [नवम्‌ ॥)
खण्डित है । इस स्थान का नाम इन्द्रिय स्थान इसर्ि रखा तानि भेषजवीयांणि प्रतिष्नन्ति जिघांसया । तस्मान्मोधाः क्तियाः
गया है कि इसे इन्द्र ( जीवात्मा ) के ज्ञापक लिङ्ग (खुकण) स्वां भवन्त्येव गतायुषाम्‌ ॥ ५॥
दिये गये है । इन्द्र जीवात्मा को कहते हैँ । जीवात्मा के अन्य यस्य गोमयवूर्णामं चूण मूर्धनि जायते ।
बहुतसे ज्ञापक लिङ्गो मे “खस्य होना सुख्य लिङ्ग हे। इस ससेदं ्रश्यते चैव मासान्तं तस्य जीवितम्‌ ॥ ६ ॥
स्थान में सत्यु के निद्षंकं चिह्न दिये गये ह अर्थात्‌ जिन्हे ` जिस मयुष्य के तिर पर गोबर के चृर्णंके सदश तथा
देखकर वैद्य यह जान सके कि रोग भसाध्यहै तथारोगी की स्निग्ध चूर्णं हो जाता ह ओर स्वयं विखीन हो जाता है,उसका
ख्ष्यु होने वाटी है--उन र रषर्णो, पूर्वरूपो, भावो तथा जीवन एरु मास जवशिष्ट समन्षना चाहिये । चरक इन्दिय
अवस्थाओं का इस स्थान मेँ समावेश किया गया है 1 इसी अ. १२ भी यह श्छोक बिलछुर इसी सूप मं दिया गया हे।
स्यि इस स्थान का नाम इन्द्िय स्थान है !खव्यु के निदर्शक इसी प्रकार सुश्चुत मं भी कहा है--गोमयनूरंप्रकारस्य वा
चि को रिष्ट या अरिष्ट मी कहते हँ । कषा भी है--पेगिणो रजसो दशे नयुष्तमाङ्गं विर्यनच्च ॥ & ॥ |
मरणं यस्मादवश्यं भावि रुच्यते । तदछछक्तषणमरिष्टं स्याद्विष्टं चापि ङुकतिः ातालुलिपस्य पूं यस्थ बिशुष्यति ।
तदुच्यते । चिक्षिप्सा से एवं इन अरिष्ट रक्षणो का जानना द्रेषु सवेगात्रषु मासाघं तस्य जीवितम्‌ ॥ ७ ।। `
भावश्यक है । रोगो की साभ्यासाध्यताका विचार करकेदी जि पुरूष के स्नान तथा अनुखेपन ८ चन्दन आदि का
चिङि्सा मे प्रवृत्त होना जाहिये कर्यो भरणासन्न, असाध्य खेप) के बाद्‌ अन्य
भर्गो के गीला रहते हुए सबसे पूर्वं ऊुक्चि
अथवा गतायुष रोगी की चिष्िसा से कोई काभ नहीं होता । (कोख ›)सुख जाती हे । वह १५ दिन तक जीवित रहता ३ ।
इसे विपरीत जपनी प्रतिष्टाकी ही हानि होतीहे। इसी. चरक इन्छिय स्थान १२ मे ऊुक्िके स्थान पर उर ( दाती)
व्यि सुश्वुत सू० अ० २९ मँ कहा है-भसिद्धिमाप्युयाछोे्रति- पदा गया है--यस्य स्नानानुङिपरस्य पूर्वं शंम्ययुतेयशम्‌। अदेषु
कुवन्‌ गतायुषः! अतोऽरिष्टानि यत्नेन लक्षयेत्‌ कुशलो भिषक्‌ ॥
संगतेषु सोऽपंमासं न जीवति ॥ इसीध्रकार सुश्रुत सु० ज
इसौ लिये चिकित्सा से पूवं इन्दियस्थान दिया गया हे । चरक
संहितामं भी इसी टि से चिकिस्खास्थान से पूवं इच्िय
३२ मँ कचि के स्थान पर हृद्य षदा ई ्रागविद्यष्यमाय-
हृदय अद्रंशसीरः” ॥ ७॥ |
स्थान दिया गया हे ॥ १-२
स्वभ्राधिपानगो नाशो अयोतिषां पतनानि च।
्रोषधं मेषजं परोक्तं द्वि्रकारं चिकित्सितम्‌ । @भ्िदाहोपशान्तिश्च पतनं गृहव्रष्तयोः ॥ ८॥
तयोर्विरोषं वद्यामि भेषजौषधयोद्ंयोः ॥ ३॥ गुहाटवीभ्रवेशश्च स्वप्नं स्वप्ने विगहितम्‌ ।
चिकिल्ादो प्रकार की कटौ हे (१) नोषध धिकिश्सा। छृष्णां द्ण्डधरां नमनं युण्डां लोहितलोचनाम्‌ ।। ६॥
८२) भेषज चिकिस्सा। अबर्म ओषध तथा सेषज दोनो के स्वप्ने दष्वेव जानीया्मदूताुपस्थितान्‌ ।
अन्तर-भेद्‌ को कहता हूं॥२॥ | | जो मनुष्य स्वप्न की अवस्था में नग ( पवेत ) का नाश्ष;
च्रोषधं द्रव्यसंयोगं ज्ुबते दीपनादिकम्‌ । | ञ्योतिबारे पदार्थो का गिरना, भभिदाह से शान्ति, गृह एवं
हृतत्रततपोदानं शान्तिकृमं च भेषजम्‌ ।। ४ ॥ इृक्ता का पतन, गुरा तथा जंगल मे प्रबेशच भोर नित्दिति स्वप्न
पोदानं न्तिकमं
£ ध्र

१२ कार
पा-क

९० कादयपसंहिता वा बृद्जीवङीयं तन्त्रम्‌ । [ ओषधमेषजेन्दरियाध्यायः !


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देखता है तथा जो स्वप्न मे कारे रंग वारी, दण्डको धारण समुद्रादिषु तोयेषु निमग्ने रेवतीमयम्‌ ।। १७ ॥
करने वादी, न्च मुण्डित ८ घिर जिसका खंड इधा है) तथा .-रेवती- स्वप्न म यदि बारक सुद्र आदि मं अथवा
लार आंखो वारी खी को दैखतादहै-वह यमके दूतो को अन्य जख मेंइबे-तो रेवती का भय समक्चना चाहिये ॥१७॥
उपस्थित जाने अर्थात्‌ शरस्य कः सजरिङष्ट समन्ते ॥ ८-९ ॥
शष्ककरूपनदीदशं निहन्याच्छुष्करेवती ।
दीधेकेशस्तननखीं विरागङ्घुसुमाम्बयम्‌ ।। ९० ॥ मांसादान्‌ परिणो दृष्टा शुन्या ब(वौध्यते शिश्युः॥१८॥
सप्ते दृषा लियं कृष्णां कालरात्रीं निवेदयेत्‌ । शष्कःरेवती--यदि स्वप्न यँ सूखे इए दए तथा नदी का
स्वप्न सें रभ्बे बार, रुम्बे स्तन तथा रम्ब नर्खो वारी
दर्शन दहो तो शिश्यु शुष्क रेवती से आक्रान्त इजा मर जाता
विराग ८ विङ्ृत रंग अथवा रार रंग के ) पुष्प एवं नकन है । शाङुनी -यदि स्वप्न मेँ -मांसखभरी परियो (गिद्ध-बाज
चारी, काली खी को देखकर उसे कालरात्नि समक्षे अर्थात्‌ आदि) को देखे तो. वह शङुनि द्वारा मार दिया ज्ञाता हे ॥१८॥
उस रात्रि-को काकरात्रि अथवा अन्तिम रात्रि संमन्ते ॥ १०॥
पवडीनाभिदष्टस्तु सद्यो मरणम्च्छति ।
गन्धान्‌ पुष्पाणि वांसि या रक्तानि निषेबते ॥ ११ हरितालादिमी रङ्केमेख्डितः पीतकाम्बरः ।। १६ ॥
यदा स्वप्ने शिशुर्बाऽपि तदा स्कन्दभ्रहाद्भयम्‌ ।
मांसललोऽलङ्क्ृतः स्वप्ने तं हन्ति युखमण्डिका ।
मयूरं कुकटं बस्तं मेषं बा योऽधिरोदति । ९२॥
मुखमण्डिका--यदि बारुक स्वप्न मेँ क्रिसी पकी के हारा
, रन्ताचितः सहेतेर्गा तत्रापि छन्दतो भयम्‌।
घण्टां पताकां यः स्वप्ने. विश्वस्तां सुषि पश्यति ॥१३॥ काटाजाता हेतो वह शीघ्र ख््यु को भाच हो जातादहै।
स्वप्न सें हरितारू आदि केरंगोसे यदि ञाकाञ्च को पीडा
. शयनं शोणिताक्तं बा तत्रापि स्कन्दतो भयप्‌। रंगा हा देखता है तथा मांस का सेवन {ओर जरुंकारो
अब ग्रहो ह्वारा जाक्रान्त चिश्च के कत्तण कहे -जाते दै- ( आभूषर्णो ) को धारण करता है--उसे सुखमण्डिका नामक
कन्दग्रह--जब माता या शिष्य सवप्नम गन्ध बारे पदाथ ग्रह मारदेताहे॥ १९॥
तथा राक रंग के पुष्प एवं वर्खो को धारण करते ह । अथवा
चारक स्वप्न में मोर, सुग, बकरे तथा मेढे पर सवार होता है नत्तत्रम्रहचन्द्राकंतारकाऽक्सिकनीनिकाः ।॥ २० ॥
तथा रक्तचन्दन हारा उक! शरीर अचित हो । अथवा बाखक हृशरा प्रपतिता स्वप्ने पूतनाभ्यो भयं मवेत्‌ | |
स्वप्न मै घण्टे तथा पताका को भूमि पर. विध्वस्त हुआ | पूतना- यदि स्वप्न मे नचत्र, यह, चन्द्र, सुय, तरे.
(फटा हा तथा नीचे गिरा इञा) देखे तथा रयन (विस्तरे) तथा आंखो की पुतखियां नीचे गिरी इ दिखा दं-तो पूतना
को रक्छ से गीखा देखे तो उस अवस्था में स्कन्दम्रह का भय का.मय समश्चना चाहिये ॥ २०॥ |
समश्चना चाहिये ॥ ११-१२ ॥ |
-सर्बारियेतानि रूपाणि नेगमेष्यां प्रपश्यति ॥ २१॥
रक्तपुष्पाम्बरधरा रक्तचन्दनरूषिता ॥ १४ ॥।
चरत्यते सह भू्तेर्वा स्कन्दापस्मारतो भयम्‌ । नेगमेष-ये ही पर्वोक्तं सब रच्ेण नेगमेष अहॐेहोते हे॥२१॥
यदि माता स्वप्नं में रारू पुष्प तथा वख को धारण | कीटव्िकसरपै्नां दष्टः स्याद्विषमूत्युःक ।
करके तथा शारीर पर रक्तचन्दन का रेप करके. भूतो ( पिशाच भिदुः खरेवांऽपि दक्षिणां याति मुर्डितः ॥२२॥
धादिर्थो ) के साथ नृत्य करे तो उस अवस्था में स्कन्दापस्मार ष्यते खदते तरमा रस्यान्तस्तदुच्यते । |
(स्कन्दसखा अथवा विश्षाख) का भय समक्ता चाहिये ॥१४॥ |
उवर.कं मारक रूप--यदि स्वप्न मं कीढदे, विच्छ्‌ अथवांः
रक्तपदमघनं प्राप्य धाञ्यारमानं यदाऽचंति ।।- ४५॥ सपं केद्वारा काग जाकरविषसरे. ध्यु हो जाय अथवा
जालं बा पद्ममालाभिस्तदा स्कन्द्पितुभयम्‌ । मुण्डित इजा कत्ते, दुष्टप्राणी अथवा . गदहा द्वारा दक्षिण
यदि धात्री रार कमर के वन मे पहुंच कर पद्मारा्भों दिश्ा.की भोरले जाया जाताहो तथा उन््टीके इइवारारोगी
ॐ हारा अपनी अथवा बारुक की भर्चना करे तो स्कन्द्‌ के रखीचा जाता हो तथा उसका सदन क्षिया जातादहो तो वहः
पिता अर्थात्‌ त्रिपुरारि महादेव का भयः समक्न चाहिये ॥ १५॥ रोगी उ्वर कै द्वारा समाप्त हो जाता है 1 अर्थात्‌ उवरके हारा
` ˆ ` `.
रक्तपुष्पबनं धात्री खप्नेऽभ्निं वा यद्‌ विशेत्‌ | १६ ॥ उसकी सव्युहो जातीहि॥ रर॥ ~
दह्यते वाऽभ्चिना बालः पौर्डरीकाद्धयं तदा| -` . श. यदा कौटादि का दङःविषके द्वारा ख्त्यु का सचक बताया
पुण्डरीक-यदि धान्नी स्वप्न मं.रारु पूरो बारे. जेनमें
गया है। इसके निपरीतसुश्रतमें-उस्मोवा जंलीको ना मरो
अथवा. श्चि प्रवेक् करे तथा उसका शिशु अधि में वाऽपि यं दशेत । आरोग्यं निदिशे्तस्य .धनलाभं .च बुद्धिमान्‌ ॥
जराया जता होतो उस अवस्था, में पुण्डरीक का भय इत्यादि शुम फल का खल्वकं दोक सुद्वित पुस्तक मे भिलन्ता है
समश्चना चाहिये ॥ १६ ॥ #॥
परन्तु खुश्ुत की ताडपत्र पुस्तक मेँ यह्‌ ररोक नदीं हे ।
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जौषधमेषनेन्दरियाध्यायः १ ] इन्द्रियस्थानम्‌ । ९१
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मी 9) 0 + +^ 0 0

्रार्थितं कल्पितं दृषटमनुभूतं श्रतं च यत्‌ । २३॥ अनुकर होने से निष्फर ही होता है । वहां कहा दैत्या
भाषितः पश्यति खप्ने हृस्वं दीघ दिवा च यत्‌ | चा निष्फलाः प्च यथा खपङतिदिवा चिस्फृतो दींहस्वोऽति" ॥
्रफलाः सवं एवते निदानोक्तास्तु दोषजाः) २४॥ यथा तु फलवान्‌ स्वप्नो बृद्धजीवक ! तच्छ ।
स्वप्नां के प्रकर--जो स्वप्न (4) प्रथित (र) कल्पित अदृष्टमश्रतानुक्तमकल्पितममाषितम्‌।। २५॥
(३) ट (४) अनुभूत (“) श्रत एवं (६) भाषित होते हँ तथा कायेमाचरं च यः स्वप्नो जीर्णन्ते फलवांस्तु सः।
(७) जो अत्यन्त छरौटे (८) जो अस्यन्तं छम्बे (९) जो स्वन्न एतांश्चान्यांश्च दुःखप्रान्‌ द्रा रोगी विनश्यति ।२६।। `
दिन मं देखे जाने वारे तथा (१०) जो निदान स्थानमें
दोषज ( वातादि दोषों से उव्पन्न होने वारे ) कहे गये दै- स्वस्थस्तु संशयं गत्वा धमेशीलो षिभुच्यते ।
ये सब स्वप्न निष्फल होते हँ! चरक इन्द्रिय अ० ५ मँ हेब्रद्धजीवक ! जिस भकारं के स्वप्न फर वारे ( फल-
प्रकार के स्वप्न कहे ह--षटं श्रतानुमूतं च प्राथितं कलयित । तथा प्रद्‌ ) होतेहैवेत्‌ मेरेसे सुन। १ अच््ट-जो कमी देखा न
भाविकं दोषलं चेत्र स्वप्नं सप्तमिधं विदुः ॥ तत्र पञ्चविधं पूवमफलं हो । २ अशध्रत-जो कभी सुनान हो। २ अनुक्त-जो कभी
भिषगादिशेत्‌ । दिवा खप्नमतिषहस्वमतिदीर्धं तथेव च ॥ अर्णदत्त कहा न गया हो । ® अकल्पित - जिषकी कभी कल्पना नं
ने इन सातं स्वप्नो का भपनी टीका मेंनिम्न विवरण दिया की गई हो तथा ५ अभाषित-- जिसका कमी भाषणन किया
हे--3. दृष्टं--यश्वद्षा जायदवस्थायां किंचिद्‌ वस्तुजातं दृष्टवा गया हो । तथा ६जो केवल कार्यमात्र हो अर्थात्‌ जिनका देखना `
तदानीसुप्रावस्थायां तादृशं वस्तुजातं संवित्तिरूपतयाऽनुभूयते स दृष्टः सुनना आदि कोई कारण विधमाननहो। समक्ष होने के
उच्यते ।इष्ट स्वप्न वह होता है जिसे हम कभी भी जागृत वाद्‌ ये उपर्युक्त स्वप्न फरवारे होते है । इन उप्त तथा
अवस्थामे देख चके हौ । २. श्रत-यश्च शब्दमात्रेण वस्तुजातं अन्य भी दु.स्व्नो ( बुरे स्वप्नो ) को देखने से रोगी .नष्
हो जाता हैअर्थाद्‌जो रोगी इन बुरे स्वप्नो को देखता है
शरोत्रेन्द्रियेण गृह्यते तदिदानीं सुप्रावस्थायां तादकसं वित्तिरूपतयाऽनु
भूयते स श्रत उच्यते । जिषे हम पहर कभी सुन चुके हो । उघकी मृष्यु हो जाती है तथा स्वस्थ व्यक्ति का जीवन संशय
३. अनुभूत--यस्तु जाग्रदवस्थायां यथायथभमिन्द्रिय॑रनुभूयते य॒प्ता मे पड़ जाता है! इससे केवरु धर्मपरायण `व्यक्ति ही वच
वस्थायां ताद्रगन्तः संवित्तिरूपतयाऽनुभूयते सोऽनुभूतः उच्यते । जो सकता है । चरक इन्दिय अ०५ में कहा है--इव्येते दारणाः
कभी हमारे अनुभव मं जाया हो! ४. प्रार्थित--यरसिमन्‌ दृष्टे सप्ता रोगी यंयांति पञ्चताम्‌ । अरोगः संचयं गवा कश्चिदेव विमु-
श्रतेऽनुमूते वा यत्पूर्वं जाग्रदवस्थायां वस्तुजातं मनसाऽभ्यथ्यंते तथेव च्यते ॥ इसी प्रकार सुश्रत सु० अध्याय २९ भी कदाहै-
च सुप्तावस्थायामन्तः संवित्तिरूपतयाऽनुभूयते स प्राथितः उच्यते । स्वस्थः स रभते व्यावि व्याधितो भ्रत्युम्च्छति ॥ २५-२६ ॥
जिसकी हमे जागत अवस्था मे माकांतता होती हे । ५. कलिपित- यदयदेष द्विजादीनां स्वप्ने शीतक्रशत्मनाम्‌ ॥ २७॥ .
यस्तु षडभिः प्रत्यक्षालमानादिभिनं दृष्टो नापि श्वतो नाप्यनुमतो मलिनाम्बरपुष्पाणां दशनं न प्रशस्यते | |
दृष्टश्रतानुमूतत्वाभावदेव न च प्राथितोऽपि तु केवलं मनसा यथेच्छं
मुस्परकष्य यत्किचनरूपाभिः कदयनाभिः कलितो जाप्रदवस्थायां
तेषामेव तु हृष्टानां शुद्धपुष्पाम्बरात्मनाम्‌ ।॥ २८ ॥
वस्तुजातान्तः संवित्ताबुपारूढस्तदानीं सुप्तावस्थायां तादगनुभूयते स दशनं शस्यते सप्ते तेश्च संभाषणं शुभम्‌ ।
““कलितः" । जिसकी पहर हम कभी कल्पना कर चुकेहे ! अव शुभ फर वारे स्वप्न कहे जायेगे-कश्ीत (दण्डे)
६. भाविक--यश्च दृष्टश तादिभ्यः सप्नेभ्योऽन्यो विरकषणः स्वप्नो एवं कश शरीर वारे जिन द्विज ८ बाह्मण ) आदिय का मेटे
यथा दृदयते सुप्तावस्थायासुत्तरकार तथेव स्वप्नद।शना नरेण तन्यु दख तथा मेरे रंग के पुष्प धारण किये हए दश्चेन प्रशस्त
खात्रगततदथैरपि प्रत्यक्षतो दृश्यते स “भाविकः । जो भावी शुभ नहीं माना गयाहे। वेही यदि स्वप्न में प्रसन्न तथा शुद्ध
या अशुभ फरो के सूचक होतेह । ७. दोषज--दोषजः स ( श्वेत ) पुष्प एवं वच धारण किये इए दिखाई दं तथा
स्वप्नो यो वातजः पित्तजः कफजो वा यथायथं दोषाणामनुरूपोऽन्तः उनसे बातचीतदहो तो शुभ माना जातां है ॥ २७-२८ ॥ ॥ि
संविन्तावनुभूयते स ्दोषज' उच्यते, अर्थात्‌ जो वातादि दोष प्ासादव्रत्तशेलांश्च हस्तिगोव्रषपृरुषान्‌ ॥ २६ ॥
से उश्पक्न होते हँ । इन उपर्युक्त ७ प्रकार के स्वप्नं म से
प्रथम पांच (अर्थात्‌ दृ, श्रत, बनुभूत, प्रार्थित तथा कल्पित)
छ्रधिरोहन्ति ये प्ते तेषां स्वस्त्ययनं कृतम्‌ ।
तथा अष्यन्त रम्ब, अव्यस्त छे तथा दिवास्वप्न निष्फल सवष्न मेँ जो प्रासाद ( महर ), वृक, पर्वत, हाथी, गो
माने गये है अर्थात्‌ इन स्वरत का कोई फर नहीं होता हे । दुष (बेर ) तथा पुरूष की सवारी करते ई उनका स्वस्त्ययन
शेष दोनो अर्थात्‌ भाविक ओौर दोषज फलप्रद होते है । चरक ( कर्याण ) होता हे ॥ २९॥ |
संहि्ाः मे दोषज स्वप्न को फलप्रद माना है परन्तु इस सूयसोमाभ्चिविप्राणां चणा पुण्यकृतां गवाम्‌ ॥ ३० ॥
संहिता मेँ उपयुक्त श्कोक मेँ दोषज स्वप्न को भी निष्क मस्स्यामिषस्य चाषस्य दशनं पुख्यमुच्यते ।
माना है) शष्टाङ्गहृद्य मे भी प्रकृति ॐ जनुदुर दोषज स्वप्न प्न मे सूय, चन्द्रमा, अग्नि, विप्र ( ब्राह्मण ), पुण्य.
को निष्फरुही माना है) यदि पित्त प्रकृति के मनुष्य को वारे मनुष्य, गौ, मडुी के मांस तथा चाष नामं की मह्गडी
पित्तानुर स्वप्न जाये तो बह दोषज होने प्र॒ भी प्रहृलि ॐ के दु्धन शुभ माने साते रई ॥ ३०॥
९२ कार्यपसंहिता वा ब्ृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ जौषधमेषनेन्दियाध्यायः
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शुद्धपुष्पादशंच्छन्ररहणं तोयलङ्गनम्‌ । ३१ ॥ मारोग्यं निदिरेत्तस्य धनकलामं च बुद्धिमान्‌ ॥ एवं रूपान्‌ श्युभान्‌


स्वरक्तदशेनं चेव सुरापानं च शस्यते । स्वप्नान्‌ यः पर्येदूःयाधितौ नरः । स दी्ायुरिति ज्ञेयस्तस्मे कमं
समचरत्‌ । ३४॥
स्वप्न मेँ श्वेत पुष्प, आदक्ञं ( द्पण-ल्लीरा ) तथा छत्र
(तिका धारण करना) एवं पानी (नदी आदि) को द्रा खप्रान्‌ दारुणान्वेतसान्‌ वा
. छांघना, अपने रक्त का दशन तथा सुरापान प्रशस्त माना पूतः खातः सषेपानभिवर्णान्‌ ।
जाताहे॥ ३१॥ हुत्वा साषिश्या सपिषाक्ता स्तिलाश्च
गवाश्वरथयानं च यानं पूर्वात्तरेण च । ३२॥ पृतः पपेमुच्यते व्याधिभिश्च | ३५॥
रोदनं पतितोत्थानं सिपूणां नियरहस्तथा । अशुभ स्वर्नो का परिहार-इन दारण अथवा इसी
पङ्ककूपगहाभ्यश्च समुत्तारोऽध्वनस्तथा ॥ ३३ ॥ प्रकार के अन्य स्वप्ना को देखने के वाद्‌ भ्यक्ति को स्नान
एवंविधानि चान्यानि सिद्धये मुनयोऽन्रवन्‌ । हारा पवित्र होकर अग्निके वणं वारे सर्षप (सरसो ) तथा
घी से मुक्त तिर्छो को सावित्री (गायत्री मन्त्र) केद्वारा अग्नि
गौ तथा छोडे ॐ रथ पर सवार होना, पूवं तथा उत्तर मे आहति देनी चाहिये । इससे वह पवित्र हो जाता है तथा
दिक्षा की जोर जाना, रोना, गिर कर पुनः उठना, शजं पाप एवं व्याधि से सुक्त हो जाताहे। सुश्रत सु० ० २९
का दमन, कीचड़, कुषं, गुहा तथा साग खे पार होना-दत्यादि मे भी अशभ स्व््नों का परिहार दिया गया हे--्वप्नानेवं
तथा इसी प्रकार के अन्य स्वप्नो को सुनियो ने सिद्धि (फर) विधान्‌ दृष्ट्वा प्रातरूत्थाय यत्नवान्‌। दवान्माषांस्तिलांल्छोहं विप्रेभ्य
वारा कहा हे ॥ ३२-३३ ॥ काञ्चनं तथा ॥ जपेच्चापि श्लुमान्‌ मन्त्रान्‌ गायत्रीं तिपदां तथा।
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अदारुणत्वं रोगाणां बेदयभेषञ्यसंमवम्‌ ॥ ३४ ॥ दृष्टवा तु प्रथमे यामै स्वप्याद्‌ ध्याता पुनः श्भम्‌ ॥ जयेद्वाऽन्यतमं
धृतिजेन्मानुकरूल्यं च सच्सवं धमेश्च मृतये ॥ देवं ब्रह्मचारी समाहितः । न चाचक्तीत कस्मै
चिद्‌दृष्टवा सप्नमश्चौ-
इस प्रकार के स्वर््नो से रोग भयंकर नहीं होते । वेय
भनम्‌ ॥ देवतायतने चैव वसेद्राित्रयं तथा। विप्रांश्च पूजथेश्नित्यं
दुःस्वप्नात्‌ प्रविमुच्यते ॥ ३५ ॥
तथा मेषस्य दवाय अच्छ हो जाते दै । धारण शक्ति बदृती हे
जन्म की अनुक्ता होती है अर्थात्‌ व्यक्ति. स्वस्थ होकर कौमारभृत्यमतिवधनमुक्तमेत-
जीवित रहता है तथा सरव, धर्मं एवं भूति ( कल्याण ) की उज्ञात्वा हि देहगतमिन्द्रियमादिरूपैः ।
धृद्धि होती हे। चरक इन्द्रिय अ० ५ शुभ फर्वारे निम्न श-श्िकिस्सितपरास्तु भिवजेयध्वं
स्वप्न-दिये है-दृषटः प्रथमरत्रे यः स्वप्नः सोऽखपफटो भवेत्‌ ! न शाखं च धमेमतयः परिपालयष्वम्‌ । ३६॥
स्वपे्यः पुनद सं सयः स्यान्महाफठः॥ श्रकस्याणमपि स्वप्नं दृषा
तत्रैव यः पुनः! पद्येत्सौम्यं श्चुभाकारं तस्य विवच्छुभं फलम्‌ ॥ गया यह कौमारण्स्य सब से अधिक विशिष्ट ( प्रशस्त ›)कहा
है । अपने प्रारंभिक रूपो ( रुक्णो )के हारा रोगी के
राति के पहरे प्रहर में देखा हुभां स्वष्न अलप फल्वाला देहगत इन्दो ( अरिष्ट ) को जानकर सब चिकित्सका
होता है । परन्तु स्वप्न देखने कै पश्चात्‌ यदि किर को
निद्रा न अये तो वह स्वप्न महाफर वाखा होता है।
चाहिये किवेरोगीको छोड दं अर्थात्‌ उसकी चिक्ित्सान
करं तथा धमंमनि ( धमं मे उदधि बाला) होकर श्ाखोका
हसी प्रकार अश्युम स्वप्न देखने के पश्चात्‌ यदि उसी समय पाटन करना चाहिये 1 अर्थात्‌ अरिष्ट छक्तण उत्पन्न हो जने
दुखरा शभ स्वप्न जा जाय तो उसका अशुभ फर नष्ट होकर पर चिकित्सा से कोद राभ नहीं होता है इसरियि इस अवस्था
शुभ फु ही होता हे । इसी प्रकार सुश्रुत सू० अ० २९ भी मे व्यथं सें चिकित्सा के पीठे न पड़्करं धम॑-क्म एवं श खों
शुभ स्वरण्नो का निर्देश किया गया है-मत उवं प्रवक्ष्यामि प्रशस्तं म मन रूगाना चाहिये । संभवतः इससे कं खाभ हो सके ।
स्वप्नदैनम्‌। देवान्‌ विदान्‌ गोदृषभान्‌ जीवितः सुदो चपाम्‌॥
समिद्धमग्नि साधूंश्च निर्म॑खनि जलानि च । पदयेत्‌ कल्याणलाभाय
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥
व्याधेरपगमाय च ॥ मासं मत्स्यान्‌ खजः शेता वाससि च फलानि एेसा भगवान्‌ कश्यपने कहा था ।
चं 1 कमन्ते धनंलाभाय व्याधेरपगमाय च ॥ महाप्रासादसफलवृक्ष- (इति) बृद्धजीवकीये कौमारश्वलये वास्स्यप्रतिसंस्छृते इन्द्ियस्थाने
कारणपंवेतान्‌। आरोहेद्‌ द्रव्यलाभाय व्याधेरपगमाय च ॥ नदीन. जौ षधमेषजीयं नामेन्द्रियम्‌ ॥
दसमुद्रंश्च चभितान्‌ कटुषोदकान्‌ । तरेत्‌ कस्याणलाभाय व्याधेर्‌ समाप्षानि चेच्ियाणि ॥
पगमाय च ॥ उरगो वा जकोकौवां श्रमो वाऽपि यं दशेत्‌! ( इन्द्रियस्थानस्यायमन्तिमोऽभ्याय एवोपरुन्धः )
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तेषां अराणां कतमो जातमात्रस्य जायते ।
पूवेरूपं च रूपं च किञ्च तस्य चिकिस्सितप्‌ ॥ ५॥
ञ्वराचिकित्सिताध्यायः। इतरेषां उ्राणां च पवेरूपं सलन्तणम्‌ |
अथातो उरचिकित्सितं व्याख्यास्यामः । १॥ चिकित्सितं च किं तेषामामजीणेस्चरेषु च ॥ .६ ॥
दीरपस्य च कि पथ्यं पथ्यं किचान्नमोज्ञिनः
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः{॥ २॥
अब हम उवर चिङिस्ा का भ्याख्यान करेगे । एेसा भग
दीरा्नभोजिनः किंच अरितस्य शिशोर्हितम्‌ ॥ ७ ॥
वान्‌ कश्यप ने कहा था ॥ १-२॥
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प्रजापति समासीनसषिभिः पुख्यकमेभिः।


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पम्रच्छं विनयाद्वद्रान्‌ कश्यपं वृद्धजीवकः ॥ ३ ॥


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पुण्यकर्मा ऋषियों केसाथ बैठे हुए प्रजापति कश्यप से (इति ताडपत्रपुस्तके ९२ तमं पत्रम्‌" । )
विद्वान्‌ बृद्धजी
वक ने विनयपूर्वक पृष्धा ॥ ३॥ ----
पदे पिज

सूत्रस्थाने भगवता निदिष्टो द्विषिधो वरः| नवजात शिशु को उन उपयुक्त दिविध तथा अष्टविध उवरों
पुनरष्टबिधः प्रोक्तो निदाने तन्छदशिना ॥ ४॥। म से कोनसा र होता हे।उस ऽर के पूर्वरूप, रूप (लचण)
तथा चिकिसा स्याह? अन्य उवरोंके भी पूर्वरूप, रूप
भगवन्‌ ! सत्र स्थान में पहरे तच्वदक्षी जपने दो प्रकार ( छक्तण ) तथा चिकिप्सा क्या हे१ आमञवर तथा जीर्णञ्वर
कै उर कानिर्देश क्रियाहै। तथा पुनः निदानस्थान मं मे सीरप (दुध पीने वारे अर्थात्‌ एक वषं तकके), अन्न
८ प्रकार के ञ्वर बतरये हे । भोजी ( अन्न खाने वारे अर्थाव्‌ दो वषं से बडे ) तथा चीराक्न-
वक्तम्य-यद्यपि इस संहिता के सूत्रस्थान के खण्डित भोजी ( दूध तथा अन्न दोर्नो का सेवन करने वारे अर्थात्‌ ए
होने से यह विषय यहां नहीं मिख्ता है तथापि उवरोकेदो सेदो वषे तकके) बाल्ोको वरम क्या पथ्यहै१ उस
प्रकारो का चरक में भी उर्रेख भिरुता है । चरक चि० अ०३ उवर की हृत्त (प्रवृत्ति) क्या है ॥ ५-७॥
म कहा है-द्विविधो विधिभेदेन ज्वरः शरीरमानसः । पुनश्वद्वि- वक्तव्य-पाटको के ज्ञान के छिये उपयुक्त प्रभो के उत्तर
विधो दृष्टः सौम्यश्चाग्नेय एव च ॥ अन्तववेगो वहिर्व॑गो द्विविधः पुन- हम अन्य म्रन्थो के आधार पर देने का प्रयत करेगे! शारीर
च्यते ।प्राकृतो वैकृतश्चैव साध्यश्चाप्ताध्य एव च ॥ अनेक भेदा से उवर-शारीर उवर वातादि के प्रकोप से पहर देह मे होता है
ज्वर के दो प्रकारो का वर्णन क्रिया गयाडै। सबसे सस्य | उसके बाद पीछे से मन भी आक्रान्त हो जाताहै तथा
शारीर एवं मानस भेद से ्वरदो प्रकार काहोतादहै1 जव इन्दरयो की चिङृति ही देहसन्तापका मुख्य रुक्षण है
केवरु हरीर मे अश्रित होताहे तब शारीर उवर कहरुता न्दरर्यो की विङृततिसे ही देह की विहृति का ग्रहण हो जाता
हे । जब शरीर के साथ २ मन भी आक्रान्त होता हे तब मान है । कहा भी है-रन्दरियाणां च वैकृत्यं देहसन्तापरक्षणम्‌ । मानस
स उवर कहुखाता है। सोम्य तथा आग्नेय मेद्‌ से भी उवर दो उवर-यह सर्वप्रथम मन में आश्रित होता है तथा तमोगुण एवं
प्रकार काहे वेग के अनुसार भी अन्तग तथा बहिवग सेद्‌ रजोगुण के कारण होता है । यह पी्ठेसे शरीर को भी
से उवर दो प्रकार काहै। इसी प्रकार प्राङृत-वे्ृत तथा आक्रान्त कर देता है । चरक चि० अ० १ में कहा है- पैचित्य
साध्य-जसाध्य भेद से भी उवर दो प्रकारका होताहै। वर मरतिग्ली निमैनघस्तापलक्षणम्‌” अर्थात्‌ चित्त का विरिक्त
के धा प्रकार चरक नि०अ० 3मे कहा हे--अथ खदखष्टभ्य होना, किसी कायम मनन रुगना तथा ग्ातिये मानस
कारणेभ्यो ञ्वरः संजायते मरेष्याणाम्‌ , तच्था-वातात्‌ , पित्तात्‌ , उवर के लक्षण होते ह । सौम्य तथा भाग्नेय उवर-चरक चि०
कफात्‌ ,वातपित्ताभ्यां) वातकफल्यां, पिन्तरलेष्माभ्या, वातपित्ते ० ३ से कहा है-बातपित्तत्मकः शीतयुष्णं वातकफातमकः । इच्छ.
ष्मभ्यः, आगन्तोरष्टमात्‌ कारणात्‌ । आट कारणो से ऽवर उत्पन्न द्युभयमेतन्त उवे व्याभिश्नलक्षणः॥ योगवाही पर वायुः संयोगोदु-
होता है। १-वात, २-पित्त, ३-कफ, ४-वातपित्त, ५-वातकफ, भयार्थज्ृत्‌ । दाहङृन्तेजसा युक्तः शीतङ्रसो मसंभ्रयाव्‌ ॥ निस भ्र
&-पित्तिकिफ, ७-बातपित्तकफ ( सान्निपातिक ), <-भागन्तु, मे वात के साथ पित्तका अनुबन्ध होगा वह आग्नेय तथां
इसी प्रकार च० चि० अ०द३में मी कहा गया है-भिन्नः कारण
भेदेन पुनरष्टविधो ज्वरः ॥ ४ ॥ , २१.अस्यामे अष्टपत्रात्मको ग्र-थः खण्डितस्ताडपत्रपस्तके 1 `
९४ काश्यपसंहिता वा बुद्धजी वकीय तत्त्रम्‌ । [ उवरचिकरिस्सिताध्यायः ॥ `

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जसम वात्‌ के साथ कफ का अनुबन्ध होगा बह सौम्य उर निदानोक्तानानुपद्ययो विपरीतोपदायश्वंति वातञ्वरङिङ्गानि।


कहकछाता है । आभ्नेय उर में रोगी शीत को तथा सौम्य वर २. पित्तउवश-- युगपदव केवरे राररे अ्वराभ्यागमनमभिवृद्धि्
से उष्णता को चाहता है । यदि भिरित लक्षणो तोवहं युक्तस्य रिदाहकाटे मध्यन्दिनेऽधंरात्रे शरदि वा विद्ेषेण, कट्का-
कीत एवं उष्ण दोनो को चाहता है । अन्तर्वेगञ्वरं चरक चि° स्यत, व्राणसुखकण्ठोतापाकः, तृष्णा, भमो मदो मृच्छ, पित्त-
अ०३ मे कहा है--अन्तदाहोऽधिकस्तष्णा प्रलापः श्वसनं जमः) च्छदनम्‌, अतीसारः, अरनद्धेषः, सदनं, स्वेदः, प्रलापो रक्तकोगभिनि-
सन्ध्यस्थिशुलमस्ेदो दोषवचौ विनियहः ॥ -अन्तवेगस्य लिङ्गानि छरत्तिः दासीर, हरितहरिद्रव्वं नलनयनवद नमूत्रपुरीषत्वचाम्‌, चरत्यथ.
उवरस्येतानि लक्षयेत । अन्तर्वेग उवर म शरीर के अन्दर अधिक मृष्मणस्तीत्रमावोऽतिमात्रं दाहः ` शीताभिप्रायता, निदोनोक्तानामनु
पशयो विपरितोपरायश्चेति. पिन्तज्वरलिङ्गानि मवन्ति-। ३, शरेष्म
दाहु, तृष्णा, प्रलाप, श्वास का अश्चिक वेग से चर्ना, भ्रम,
सन्धि्यो तथा अस्थिर्यो मँ शूर, पसीना न आना तथा दोष उवर--युगपदेव केवले शरीरे उवराभ्यागमनमभिवृद्धिवां भुक्तमात्रे
एवं पुरीष ( मक ) का अन्द्र स्क जाना-ये रक्षण होते है । पूवरात्रे वसन्तकार वा विक्ेषेण, युर्गात्रत्वं, अनन्नाभिलाषः, रठेष्म-
बहिर उवर--सन्तापोऽभ्यधिको बाद्यस्वष्णादीनां च `माद॑वम्‌ । प्रैको, सुखस्य च माधुर्य, इृह्छासो, हृदयो पकेपः, र्तिमितस्वं, छर्दि
बहि्वैगस्य लिङ्गानि सुखसाध्यत्वमेव च ॥ बद्ि्वेग ज्वर मं-बाद्य- मृद्रग्निता, निद्राधिक्यं, स्तम्भः, तन्द्रा, श्वाः, कासः; प्रतिश्यायः,
ताप ( श्ण ) बहुत -मधिक -होता-है तथा तृष्णा रत्य; दवेत्यं च नलनयनवदनमूत्रपुरी षत्वचामत्य्थं, सीतपिडकाश्च
आदि लक्षण शु होते हैँतथा यह सुखस्ताध्य होता हे। प्राक्त भृरमङ्गेभ्य उत्तिष्टन्ति, उष्णाभिप्रायता, निदानोक्तानामनुपशयौ
तथा वैकृत उवर चरक चि अ०३ मेँ कहा है-राकृतः रख. पिपरीतोपशयश्चे ति दठेष्मञ्वरलिङ्गानि भवम्ति। ४. वातपित्त जवर
साध्यस्तु वस्षन्तदारदुद्भवः। काट्भकृतिखदिरय प्रोच्यते प्राकृती रः चरक चि० अ० ३ मे कहा है-िसोरक्‌ पव॑णां मेदो दाहो रोम्णां
प्रयिणानिल्नो दुःखः काङेष्वन्येषु वैकृतः ॥ कारु की प्रकृति ( स्व- प्रहषंणम्‌ । कण्ठास्यद्योषो वमथुस्तष्णा मूच्छ भ्रमोऽरचः॥ स्वं्ना-
भाव) के अनुसार ही ज्वर प्राकृत कहा जाता है। वसन्त दरोऽतिवागजम्भा वातपिन्तञ्वराकृतिः ॥ ५. वातकष उवर-रीत-
जौर शरद्‌ छतु में होने वारा प्राङ्कत ञवर सुखसाध्य होता हे। फ गौरवं तन्द्रा स्तेमित्यं पव॑णां च. रुक्‌ । दिरोप्रहः मरतिश्याय
व्रसन्त कफ का प्रकोप-काल है इसिये वसन्त मै कफञ्वर कासः स्वेदाप्रवतनम्‌ ॥ सन्तापो मध्यवेगश्च वातटेष्रज्वराकृतिः ॥
प्राकृत होता है । शरद्‌ पित्त का प्रकोप-काल है इसल्यि शरद्‌ ६. कफपित्त उवर--पहदांहो यहुः शीतं स्वेदस्तम्भो मुहुः ।
ऋतु सै होने वाला पित्तञ्वर प्राकृत होता हे । .ये दीनौ उवर मोहः कासौऽरुचिस्तृष्णा दरेभ्मपिन्तप्रवन्तनम्‌ ॥ तिप्ततिक्तास्यता
सुखसाध्य होते हैँ । परन्तु वात के. ग्रकोप-कार्‌ (वर्षा) में द्रां र्लेषपिन्तञ्वर क्तिः ॥ ७, सन्निपात जवर-क्षणे दाहः क्षणे
उत्पन्न वातिक ऽवर प्राकृत होते हुए भी कष्ट साध्य हे । अन्य सीतमस्थिसन्धिरिरेरुजा। सातवे कटे रक्तं निर्मम्ने चापि दर्त॑ने॥
कालो से वे्ृतञ्वर कष्टसाध्य होते है । जेसे वसन्त मेँ पेत्तिक सस्वनौ सरुजौ करणो कण्ठः शुक्ैरिवावृतः । तन्द्रा मोहः प्रलापश्च
स्वर अथवा दरद्‌ मे कफञवर का होना वक्त उवर कहरूते है। कासः श्वास्तोऽरचिभ्रेमः ॥ परिदग्या खरस्पश्छं जिहा सरस्ताङ्गतां
ये कष्टसाध्य होते है । साभ्यञ्वर-वलवस्स्वस्पदोषेषु ज्वरः साध्योऽ- परम्‌ । छठीवनं रक्तपित्तस्य कफेनोन्मिभितस्य च ।॥ शिरसौ लोऽ्नं
तुपद्रवः ¦ बङ्वान्‌ तथा अल्प दोष वके पुरषो मे उपदर्घो से तृष्णा निद्रानारे हृदि व्यथा); स्वेदमूत्रपुरीषाणां चिरादश्च॑नमस्पद्चः॥
रहित जो उवर होता है उसे साध्य कहते है । भषाध्यञ्वर-- कृशत्वं नातिगात्राणां प्रततं कण्ठकूजनम्‌ । `कोठानां श्यावरक्तानां
दत भिबेहुमिजांतो बर्िभिबेहुलक्षणः । उ्वरः प्राणान्तक्र्यश्च सीघ्रमि- मण्डलानां च दश्चनम्‌ ॥ मूकत्वं घखरोतसां पाको गुरुत्वमुदरस्य .च ।
न््ियनाशनः ॥ जो उवर बहुत से भ्रबरु कारणो से उस्पन्न हुआ चिरात्पाकश्च दोषाणां सन्निपाठञ्यराकृतिः ॥ ८. आगन्तु उवरं
हो, जिसमें बहत से र्कणहो तथाजो शीघ्र इन्दियशक्ति चरक चि० अ० ३ मे कहा है--आगन्तुरष्टमो यस्तु स निरदिष्टश्चः
को नष्ट करने वाखा हो वह असाध्य होता हे। अष्टविध ऽवरोँ तु्िधः । अभिधाताभिषङ्गाभ्यामभिचाराभिश्चापतः॥ ते पूर्वं केवलाः
के लक्तण १. वातञ्वर~चरक. नि०अ०३ म कहा है- तस्येमानि पश्यान्निजेव्यांभिनश्ररक्षणाः । देत्वोषधविरिष्टाश्च भवन्त्यागन्तवों
टिङ्गानि भवन्ति, त्था-विषमारम्भविसगित्वम्‌ , उष्मणो वैषम्यं, ती्र- ` उवराः ॥ आगन्तु उवर पूवं स्वतन्त्र होते ह तथा पीड से
तनुमावानवस्थानानि ज्वरस्य, जरणान्ते दिवसान्ते निरान्ते घर्मान्ते इनमे वातादि दोष भी प्रकुपित हो जाते । भामञवर
वा. ज्वराभ्यगमनमभिवद्िघां ज्वरस्य, विङषेण परुषारुणवण॑तवं नख- के ठक्षण--मरुचिश्वाविपाकेश्च युरुत्वमुदरस्य च । `हदयस्याः
-नयनवदनमूत्रपुरीषत्वचामत्यथं क्छप्ीमावश्च, अननेकविधोपमाश्वला- विद्यद्धिश्च तन्द्रा चालस्यमैव च ॥ ` उ्वरोऽविसरगीं वलवान्‌
चराश्च वेदनास्तेषां तेषामङ्गावयवानां, `तचथा-प्रादेयोः सुप्तता, -दोषाणामप्रव्व॑नम्‌ः। टालप्रसेको हृच्छासो छन्ना विरसं सुखम्‌ ॥
-पिष्डिकयोरुेषटनं, जानुनो केवरानां च सन्धीनां विदलेषणं , ऊर्वो -स्तन्धसु्तगुरुत्वं च गात्राणां बहुमूत्रता । न विडजीणां न च ग्लानिं
-सा कटीपादवपृष्ठस्कन्धबाहंसोरसां च . -भश्ररूग्णमृदितमःथित ञवैर्स्यामस्य ल्दणम्‌ ॥. जमजञ्वर मेँ उपयुक्त अरुचि, अपण्चन
चरितमवपीडितावनुन्नत्वमिव, दन्वोश्याप्रसिद्धिः स्वनश्च कणैयोः, सङ्क- | आदिं रक्षण होते हँ ! उसकी चिकित्सा निम्न प्रकार सेकी
योनिस्तोदः, : कषायास्यताऽऽस्यवेरस्यं वा,- युखतह्वकण्टश्लोष |-ज्ाती हे । चिकित्सा-भामञ्वर मे दोर्षो को -पचाना ही मुख्यं
पिषिसा, हृदयग्रदः. शयुष्कच्छदः, शुष्ककासः, ` त्वथूदगारविनि- ` उदेश्य होता है इसील्ियि चरक मे कहा है -“ज्वंरे रञ्यनमे-
~ यहः, -अन्नरसखेदः प्रसेकारोचकानिपाकाः, विषादविजम्माबि- | वादौ । --लंद्कन कराने खे भामरस की उत्पत्ति नहीं होती-है
नामवेर्षयु्भमजनमप्रखापजागरणरोमदषदन्तषोस्तथोष्णाभिभरायता,नि- इललिये दोर्णो का पाचन भी शीघ्र हकरं ऽवर `से मुक्ति हो

गभिणीचिकित्सिताध्यायः १ ] चिकित्खिहद्थानसम्‌ ।

जाती है । इसील्यि अष्टङ्सं्रह मे कहा दै--तमारयस्थो-


हतवाऽग्निं सामो सार्गौन्‌ पिधापयत्‌ । विदधातिज्यरं दोषस्तस्मारः
डधनमाचरेत्‌ ॥ आमदोषो मे दोर्षो का पाचन षि भिना कमी
वमन नहीं कराना चाहिये । जीर्भञ्वर की विकिव्सा-जीणेच्व-
रणां सर्वषां पयः प्रदामनं परम्‌ । पेयं तदुष्णं शीतं वा यथास्वं
मेषयैः शतम्‌ ॥ तथा~-अ्रभ्यज्गांच प्रदेहाश्च सस्नेदान्‌ स वगाहनान्‌
विभज्य श्ीतोष्णतया कु्याज्जीर्भ उरे भिषक्‌ ॥ जीणैञ्वर में
रोगी को दुग्धपान कराना चाहिये तथा अवस्थानुसार जीत
एवं उष्ण अभ्यङ्ग आदि देने चाहिये । उ्वरकी वृत्ति { प्रवृत्ति
या उच्पत्ति ) चरक चि०ञ०१.मेकदा है-जकन्तिन्तु परिप.
हात्‌ । निदाने. पवमुदिग ख्रकोपाञ्च दारणा । ञ्वर . की उत्पत्ति
दो प्रकार सरे मानी गई हे १-परिग्रह रे-रुद्रकोप से! पररह
से अभिप्राय धन के एकत्र करने से है । चरक वि० ००२ में
परिग्रह द्वारा उवर की उव्पत्ति निम्न प्रकारसे दी है--प्रद्यति
तु कृतयुगे केषाचिदत्यादानान्सपननिकानां सरीरगोरबमारसीत्‌
सरीरगौरवात्‌ श्रमः, शअ्रम्रालस्वम्‌, आरस्यात्‌ संचयः, संचयात्‌
परि्रहः, परिहादरोभः प्रदुभूतः 1 ततस््रेतायां . ोमादभिद्रोहः,
अभिद्रोद।दनृतवचनम्‌, अनृतव चनात्‌ कामक्रोबमानद्ेषपारुष्याभिषा-
तमयतापश्चोकचिन्तोदवेगादयः प्रदत्ताः, ततस्त्ेतायां धमेपादोऽन्तथा- प्रथमः प्रवतो जन्ममरणेषु तमोमयतया महामोहः प्रार्जन्मनेः
नमगम॑त्‌ , तस्यान्तर्थानात्‌ ( युगवष॑भरमागस्य पादकाः ) प्रथित्या- विस्मारयितापचारान्तरेषुः चोष्मायमाणव्वात्सन्तापात्मा -दरयष्यपि
दीनां युणपादप्रणाशोऽभूव , तत्मणाशक्ृतश्च सस्यानां स्तेहवेमस्य रस- रगो मेति ¦इसीप्रकार सुश्रुत उत्तर अध्याय ३९ ममी .-कहा
वीयैविपाकप्रभावयुणपादभ्रंश्चः, ततस्तानि प्रजाश्चरीराणि हीनयुणपा- हे--हद्रकोपािसंभूतः सर्वमूतभतापनः । इसप्रकार दमने ।जध्याय
दैश्वाहारविहदरोरयथापूवैमुषष्टम्थमानान्यग्निमारूतपरीतानि `प्राण्न्या- ॐ खण्डित प्ररो का उत्तर देने का प्रयत्नक्षिय ाहे।
- - _ -
यिभिर्वैरादिभिरकरान्तानि । अध के कारण रोगो मेँ आङस्य । । ` ` ` ---न न

उस्पन्न हो गया तथा आकस्य सेसंचय तथा संचय से परि. गभिणीविर्त्सिताध्यायः। `


अह ( र्थांत्‌ अच्छे जुरे छव तरह के उपार्यो से घन रेने |
की इच्छा ) हो गया । भौर परिग्रह से लोभ, असत्य, काम, | # € > # क ॐ #@ @ क # क 9 क # 6 ॐ*

कोच, सहंकार, देष, भय, ताप, शोक भादि उत्पन्न हो गये 1 . वक्तन्य--दइस अध्यायं गर्भिणी खी केसिन्नररोर्गोकी
तथां ऋमश्चः पृथ्वी भादि के युर्णो में दास हो जनेसे मरुर््यो चिकित्सा दी ग है। बह अध्याय प्रारंभः मे खण्डित है।
केशरीर का पोषण कम हो गया जिष्तसे उवर आदिं न्याधियां खण्डित अश्च मे जन्य मी कईसोर्गो की चिज्कित्सा दी गदं होगी।
उत्पन्न हो गई" । (२) सद्रकोप से उवर की उत्पत्ति चरक संयोउ्य मघुना शीतं चीरं मघु-रसाधिक(तोम्‌। `
चि० अभ्रे निभ्न वर्णन भिता है-द्वितीये दि युगे सकव॑म- | मघु तैलं च यष्टीमधुकफाणितम्‌।॥ ` `
शकरा `
करोधनत्रतंमासिथतम्‌ । दिव्यं सदन्त व्षाणाम॒रा अभिदुदुदः ॥ तपोवि- |
स्नाशनाः कतुं तपोविघ्नं महात्मनाम्‌ । पदयन्‌ समथैशोपे्चां चकर एते हि लेहिता घ्रन्ति तथेव परिकर्तिकाप्‌। `
दक्षः प्रजापतिः । पुनमहिदवरं मागं धरुवंदक्षः प्रजापतिः । यक्षेन | परिकर्तिका रोम-मधुर दन्यो से. सिद्ध कयि दध को
कल्पयामास प्रोच्यमानः सुरैरपि ॥ ऋचः पश्युपतेरयाश्च शैन्यश्चाहुतः ज्लीतल करके -उसमे मधु मिरा्य तथा उसमे शकरा, मधु,
यश्च याः । यद्गसिद्धिप्रदास्ताभिर्दीनः चैव स इष्टवान्‌ ॥ अथौर्तणं- तिकतैक मुखहदी तथा फागित€ (राव या काकबी ) मिरा-
त्तो देवो बुद्ध्वा दक्षन्यतिक्रमम्‌। दद्र रौद्रं पुरस्य मावमात्म- कर दिये जाते ई । इनङे रेन करने (चागने) से. परिकतिका
नष्ट हो जाता हे, ति~ ~. ~ #॥

विदात्मनः ॥संवा ललटे चलँ दश्ध्वा तानघरान्‌ प्रथः । बाणं रोम वक्तव् य-( ; ) परिकर्त िका रोग में गुदा, नाभि तथा.
करोषाग्निसंततमखनत्सत्रनारनम्‌॥ ततो यश्च स॒ विध्वस्तो व्यथि बस्ति भादि सं परिकतनवत्‌ पीडा होती है) सुश्रत चि०-०ः
ताश्च दिवौकसः । दाहन्यथापरीताश्च आनता भूतगणा दिशः ॥-.अधे- ३४ मँ कहा है-ठत्र युदनाभिमेदगस्तिरिरःख सदाहं प्ररिक्ते-
शरं देवगणः संह सप्षिभिविञम्‌ । तम्ग्मिरस्तुवच्यावच्छरि भावे नमनिरुसङ्गो वायुविष्टम्भो. मक्तारचिश्च भवति ॥ ॥
सचिवः स्थितः ॥.शिवं शिवाय मूतःनां रथितं जाला . कृताज्जलिः ,
भिया मस्प्रदरणसखिरिया नव्रलोचनः ॥ . ज्यालामाराङ्गो ..सैदरो फाणित का लक्षण आधु मेँ निम्न दिया है-
ते.॥ |
हसवनङञोदरः क्रमात्‌। कौवागिनरततवान्‌ देवमहं[क करवाणिच लन्‌". इतो रसस्तु यः पकः किच्िद्गाढो बहदवः ॥ .
| , .स॒ एे्ुविकरषु. ख्यातः, फरितरसया॥ =
तवाचेषरः क्रोधं उपरो लोके भविभ्यति।जनाद्‌) निषने
काश्यपसंहिता वा च्रद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ गभिणीचिकित्सिताध्यायः
९६ (0

स्वचागत वायु रोग म सैन्धव नमक डारुकर स्निग्ध


फाणितं तिलकःकं च शकंरा मधुकं तथा ॥ मांसरस अथवा सादी के चावरु भस के दही के साथ मिला
तश्ड्लोदकसंथुक्तं सदो हन्ति भगहिकाम्‌ । कर देना पथ्यहे।
काश्सय्खकस्कं श्यामामूलं तथैव च ॥ भद्रदारहरीतक्यौ सेन्धवं कु8मेव च ।
यवागू द्धिमरुडन सिद्धामल्पधृतां पिबेत्‌ सफाणितं धृतं चैव लेह उर््वानिलापहः ।
किराततिक्तकं लोधं यष्ठौमधुकमेव च ॥ उ््वदात से भद्वदार ८ देवदार ), हरड, सेन्धव, ऊष
पातय मधुसंयुक्तं स्यो हन्ति प्रवाहिकाम्‌ । तथा फणित ( राव ) मे घी मिराकर अवर बनाकर देने खे
प्रवाहिका रेग-- पाणित , तिरुक श्क, शकरा तथा मुरुह टी
ो उध्व॑
वात रोग नष्ट होताहे॥
म तण्डुरोदक मिलाकर देने से प्रवाहिका श्रीघ्रही नष्टह
जाती है! तथा गम्मारी च्च की त्वचा का कल्क, त्रिशत्‌ पिप्पल्यो गैरिकं भार्गी दिङ्क ककंटकी तथा ।
८ नि्योत ) की जडं तथा यवागूको दही के मण्ड के साथ समाक्तिको भवेह्ञेदो दिक्षाश्वासनिबहेणः ।
विद्ध करे उसमे थोडा धी मिखाकर पिरय । चिरायता, हिक्का तथा श्वारोगमे--पिप्पङी, येर्‌, भार्गी, हीग तथा
ङोध तथा मुरही के चूणैको मधुके साथ देनेसेभी काकदाशङ्गी ॐ चण को मधु के साथ जवरेह बनाकर देने से
प्रवाहिका शीघ्र ही नष्ट हये जाती है । हिधा तथा श्वासरोग नष्ट होते है ॥
का रोग का र्षण सुश्रत चि० अ० द्मे
वक्त्य--प् रवाहि
सश्लं युर पिच्चिलं चतं पिप्पली पिप्पलीमूलं मुस्ता नागरमेव च ।
निग्न दिया है-तत्र सवातं सदां दीपनीयं पिबेदेतं पयसा शकेराऽन्वितम्‌ ॥
मक
कृष्णं सरक्तं वा थरं प्रबाहमाणः कफमुपविरति । अर्थात्‌
म शूलसदित बार २ रक्त पुवं पिच्छिल कफ़ भाता है तथा पिप्पली, पिप्पलीमूल, नागरमोथा तथा सट के चूणे को
दृह होती हे ॥ | | शर्करायुक्तं दूध के साथ पीने से अग्नि दीप्त होती हे ॥ १४॥
व्षामूमूलनिष्काथं योजयेदेवदारणा ॥ नित्यं खाता च हृष्टा च शुक्वखधरा शुचिः ॥
तत्‌ पिवेन्मधुसंयुन्तं सना खी मू्वेया सह । देवधिप्पया सौभ्या गर्भिणी पुत्रभागिनी ॥
` क्षोथरोग- शोथ वारी खी को पुननेवा की ज्‌ के छाथ | नेवोन्नता न प्रणता न गुरं धारयेच्धिरम्‌ ॥
मै देवदार चूण, मरोदफरी तथा मधु मिखाकरं सेवन उदजन तथा हास्यं संघातं चापि बजेयेत्‌॥
करना चाहिये ॥ गभिणी का आाचारण--पुत्र की इश्छा करने वारी गर्भिणी
पिषप्पल्यङ्कोटमूलानि बाजिलेण्डरसं तथा ॥ को चाहिये कि बह नित्य स्नान करे, प्रसन्न रहे, शभ्र वसं
माहिषेण पिबेदधा कामलायां चिकित्सितम्‌ । करो धारण करे, मन को पवित्र रखे, देवतार्जो तथा ब्राह्मणों
कामरारोग ( पीरिया-७००९).८ )-कामला रोग में का सम्मान करे,
सौम्य रहे भौर उसे बहुत ऊँचा उठना,
, देर तक भारी पदार्थो को उठाना,
पि्पली तथा बङ्खोढ की जद्‌ को धोड़े की रीद के रसम मिराः बहत छकना बहुत
कर सस की दहौ के साथ सेवन करना चाहिये ॥ | कांपना, अधिक हसना तथा संघात (चोट) कात्याग कर
देना चाहिये । अर्थात्‌ गर्भिणी को उपयुक्त क्रियां नहीं
मातुलङ्गरसः य सैन्धवेन सुयोजितः ॥ करनी चाहिये क्योकि इनसे ग्भ॑पात का भय रहता हे।
हृदि शूलस्य मेषञ्यं श्रेषठमित्याह्‌ कश्यपः । वक्तव्य - चरक ज्या. अ, ८ मे गभोँपघातकर भावो का वणन
पिप्पलीमूलकल्कसतु पत्रं गन्प्रियङ्गवः ॥ द्धिया गया हे-गभोपधातकरास्त्विमे भावा भवन्ति; तचथा~उत्कड्कः
मातुलङ्गरसश्चैव हदि शूलस्य भेषजम्‌ । विषमकरटिनासनसेविन्या बातमूतरपुरीषवेगानुपरन्धत्या दारुणानुचितः
्रियङ्गयोऽथ पिप्पल्यो भद्रुस्तं हरेणवः व्याया[मसेविन्यास्तीक्षोष्णातिमात्रसेविन्याश्च गभं धियतेऽन्तः कुक्ेर.
तद्र बदरचूणं च षडङ्ग हदयोषधम्‌ । कहते |
कारे वा खं्ते शोषी वा भवति, तथाऽभिधातप्रपीडनेः.खृदूपप्रपातो-
गवान्‌ कश्यप देशावरोक्ेर्वाऽभीक्षं मातः प्रपतत्यकाटे, तथाऽतिमावरसंकोभिभिया-
हृदयरोग ( 76974 015९०5६ )-भ
ह कि मातुलुङ्ग (बिजौरे) ॐ रस मेँ उचित परिमाण मँ सैन्धव सैरपरियातिभाव्र्रवगैर्वा, प्रततोन्तानक्चायिन्याः एुनगभंस्य नाभ्याश्रया
दाकर पिलाना इच्छक की श्रेष्ठ भोषधि है । पिप्पकीमूढ नाडी कण्ठमलुते्यति, विषृतश्चायिनी नक्तच्वारिणी चौन्मत्तं जनयतत,
` का कल्क, तेजपत्र तथा गन्धप्रियङ्क ( ए प्रियङ्गु ) को अपस्मारिणं पुनः कलिकिरुदशीला, व्यवायशीलादुवैपुष्पमहीकं खेणं
मातुलुङ्ग के रस के साथ ह्रल मेँ देना चाहिये तथा प्रियज्धः वा, श्ोकनित्या मीतमपचितमल्यादुषं वा, श्रभिष्यात्री परोपतापि-
पप्पी, भद्रसुस्ता, हरेण, मधु तथा बेर का चृणे ये ६ हदय नमीम्यु स्त्रैणं वा, स्तेनावायावसहरूमतिद्ोदिणमकरमरौलं वा,
रोग की ओषधियांहै॥ | अमप्तिणी चण्डमौपविकजदयवं वा, स्वष्ननित्या वन्द्राठमवुभमस्पाभनि
स्िग्धो मांसरसः पथ्यः सेन्धवेनावचूरितः। बा, मधनित्या पिपासालमस्पसयृत्तिमनवस्थ्तचित्तं वा, गोधा्मास-
माषे षष्टिका वाऽपि स्याद्म्ते त्वचि सक्ते । |प्रिया दाक॑रिणमदमरिणं शनेमंदिनं वा, वराहमसि्रिया रक्ता
९७
दण्रजाताचिकिःषिताध्यायः १]

चिक्िप्सास्थानम्‌ 1 ॥

== ० [वि त
१, ५"

५ ॥

सूतिच्ानां दिवासप्राव्जीरगाद्धयशनादपि ।॥ ने, डरने; `


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~ न. न न, च न ५
|

्तं
तथनभ्नननिपरूषसेमा्णं वा, मस्स्यमां नित्या चिरनिमिषं स्तव्धात
वा मधुरनित्या प्रमेहं मूकमतिस्थूं वा+ अम्लनित्या रक्तपित्तिनं . रोगो ॐ निदान--रत्रि को घर से बाहर निकर
को धारण
लगक्षिसेजिणं बा, ख्वणनित्या शौघ्रवलीपकितं खाख्त्यरोगिणं
वा,
सहसा गिरने, ईर्ष्या, जोक, मय, क्रोध, नाना वेगे शन आदिं
कटकनित्या दुकंलमव्पशुक्रमनपप्यं वा, तिक्तनि त्या स्ोषित मवर्म-
करने, दिवास्वप्न ( दिन में सोने ), अजीर्ण, अध्य
हो जतेहै।
पचितं बा, कषायनित्या इयावमानाहिनसुदार्वातनं वाः यचच्च य॒स्य तथा अन्य भी कारणो से प्रसूता चि को रोग
यस्य व्यापेनिदानशुव्तं तन्तदासेवमानाऽन्तवेली तद्विकारबहुलमप्यं व्तव ्य--अ्यशन-पहरे खाये हष आहार के पूणरूप से
जनयति, पितृनास्तु ुक्रदोषा मात्जैरपचारैनयुरुप्राताः, इति गर्भो न पचने पर यदि उस पर ओर भोजन कर छया जाय हेतो
११ कहा
पवतिकरा भावा व्याख्याताः ॥ चह अध्यन कदराता है । चरक चि० ज०
६५ ॥
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ मतम्‌" ॥
“सुत्तं पूर्वाज्नरेषे ठ पुनरध्यदानं
इति गर्धिणीचिङकित्सितम्‌ ॥ |
योनिप्रष्ठकरीभेदशाखावायुरख्दरः ।
वाताष्ठीला च गुल्म हदि शलं प्रवाहिका । ८ ॥
[का भस
। ^ ॥१) ) 10) ^ े

सा भगवान्‌ कश्यपने कहा था । पुरीषमूत्रसंरोध आध्मानं श॒लमेव च । ि


॥ इति गर्भिणी चिकिच्सिताध्यायः ॥ शयते दुष्यते योनिर्यानि्यूलं च दारुणम्‌ ॥ ६ ॥
क ० १।१,१, ११। १ `
वेपथुश्छदेनं मोहो मन्यास्तम्भो हनुग्रहः ।. `
उवरात्तिसासे वैसर्पो दद्वपास्धिचर्चिकाः ॥ १०॥ `
न च+ + > + प

दुष्प्रजात्चिकि्त्सिताध्यायः ।` `
फिटिभान्यथ विस्पतोटा गात्र चाधंशिरोरुजा ।
अथातो दुष्प्रजाताचिकिस्सितं ज्याख्यास्यामः॥। १ ॥ हद्रो गाश्चाक्षिरोगाश्च ्ीहा धयथुकामले ॥ ११॥
इति ह स्माह भगवान ्‌ कश्यप ः ।। २॥
चिङकत् सा का भ्याख्य ान करेगे । एते चान्येच बहवो दुष्प्रजाताशरीरजाः । `
उयाधयः संप्रकुप्यन्ति चिरित्सितमतः परम्‌ ॥ १ २॥
अव हम दुष्प्रज ाता की
ठेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था । अथात्‌ इस अध्याय मे पृरष्ठमेद्‌,
प्रसव के ठीक तरह न होने के कारण जो व्याधिं प्रसूताको रोगो के नाम--दुष्मजाता चर्यो को योनिमेद,
, हस्र,
हो जाती ह उनकी चिकिप्सा का वर्णन किया जायेगा ॥१-२॥ कटीमेद्‌, श्ाखावायु, रक्तप्रदरः वाताष्टीकाः युरम
), मूत्र रोघ (मूत्र
ये सीणां दुष्प्रजातानां व्याधयः संभवन्ति हि 1 ~ म्रवाहिका, पुरीषरोध ( मरू का सूक जाना योनिदोष,
का स्कं जाना), जाध्मानः शूल, यो निश्ष ोथ;,
नासतस्तान्‌ प्रवद्यामि तेषां चैव चिकित्सितम्‌ ॥३॥ भयंकर योनिश्ुल, वेपथु ( कंपकपी 0)» वमन,
मोह, मन्या.
दष्परजाता चिर्थो को जो रोग हो जाते हे उनका मेँ नामो- ्रार ( अथवा
स्तस्म ( ग७प००5 ), हनुरह, उवर्‌ ओर अतिष ा, किटि भ ( ङष्ट-
उवरातिसार ), विसपे, दहु, पामाः विचर ्चिक
);
आधासीसी ( जाधे सिर मे ददं
याः कृच्छेण प्रजायन्ते प्रसूताखामयन्ति याः. 1. . | भेदं ), शरीर मंविस्फोट,
अन्य बहत.
हृद्ोग, अक्तिरोग, प्टीहा, श्वयथु, कामला तथा
ज्ञेहस्वेदैस्वतस्तासां जतिप बायुः प्रशाम्यति ॥ ४ ॥ कदी -जायगी।
` चे रोग ह्योजाते हे 1 इसके वाद्‌ इनकी चिकित्सा
यवा दीपनीयां तु स्मृतिमान्‌ दातुमहंति।
भी हे तथा मूत्राघातः `
. चक्तम्य--वाताष्ठीका-यदह वातरोग र्त
यथां रेते सुखं नारी नीरजा शयने सुखे ॥ ५॥ ण दिये है-वाता,
जिन प्रसूता खिर्यो को कष्टपूवंक प्रसव होता हे तथाजो का मेद मीहे! सुश्रुत में इनके निन्न युन्नतम्‌ । वाता-
ह्ण हो जाती दै, स्नेहन तथा स्वेदनके हारा शीघ्र ही उनका टीका ( वातरोग ) -अशीटागद्न अन्थि॥ मूष्व८ ेमायत
सु° नि० ज० १).
नीयाद्वहिमवरिरोधिनीम्‌
वायु ( वायु का प्रकोप ) शान्त हो जाता हे । ( क्योकि प्रसव शालांरत विजा की टीका ते घागेकर जी ने इसे (५८८६ त €
प्न
के बाद्‌प्रायःवायुकाही प्रकोप होता है ) स्थतिमान्‌ व्यक्ति सुश् ात का मेद्‌ )~
१ 06 कषा हे । वाताष्ठीका (मूत्राघ
उन दीपनीय (जगनि को प्रदीप्त करने वाली ) यवागू द्‌ ००0 गस्य बस्तेश्च वायुरन्तरमाशितः। अष्टीसवद्धनं मन्थि करोत्य-
सकता हे ।इससे बह खी रोग रहित होकर सुखकारी शयन हाक्च
न्मा्

सोती है अर्थात् ‌ उसके रोर्मो की चंङय ुक्न तम्‌ ॥ भिप् मूत् रानिरसङ्गश् तत्राष्मानं च जायते । वेदना
( बिस्तर ) पर सखप् वक
चह आराम से सो सकती ॥४-१ परा बस्त ौ बाता ष्ठक ेति तां विड ः ॥ ( सु° उ० अ० ५८ ) विच
शान्ति हो जाती दै जिसे तिकण्डवतिस्नः
्पतना द्पि । ` . चिक ा सुश ्रत नि०ञअ०५ें कह दै--राज्योऽत
रात्रौ निगेमना्रा सात्‌ सहसोत हाथ पांव भादि.
वंति मतरषु मिचचिकायाम॥ इसमे े ईह । किटिभ
हूर्प्याशोकमयक्रोधान्नानावेगविधारणात्‌ ॥ ६ ॥ `
सरूपाः सवस् 8०065 कहत
59
स अस्यन्त खाज होती हैः इसे
एतैशान्येश्च नारीणां व्याधयः. संभवन्ति हि । ` लिग्वहृष्णं फिटिमं वदन्ति ॥ (खु०
यत छवितंपनघुभकणड! तद ? मेदहै जो सावद्य, गक
५)यह एक. ङु्ट का
“---कना न
|.

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,नि० अण०५
१ रुग्णा मवन्तीव्यर्थः। ` ध१

१२ कार
९८ काश्यपसंहिताः वा वृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ बारग्रहचिकिस्सितीध्यायः!

स, अत्यन्त खाजयुक्त, चिकना ओर कारा हो उसे किटिभ ¶ अस्थे, दूध ३ प्रस्थ, दही 4 प्रस्थ, जर १ प्रस्थ; मातुलुङ्ग
हते ह । इसे आधुनिक विज्ञान की माषा में एण्णकनऽ कह तथा आन्र की पे्ी का रक्च जधा प्रस्थ । इन सबको मिरूकर
प्रकते ई ॥ ८-१२ ॥ धीरे २ मृदु अधि पर पकाये तथा तिद्ध होने पर उतार रे।
दे पञ्चमूले भागी च मघुशिरुः शतावरी | यह योग जभ्यञ्जन ( नेत्रो लञ्ननाथं ), पान ( पीना ) तथा
उशीरं चन्दनं चैव शवदंषटरा मदयन्तिका ।। १३॥ वस्तिकमं म उत्तम हे। प्रसूता चिर्यो के वात से उत्पन्न जो भी
दे बते वसुकः पाठा पयस्या ह्यमृता तथा | उपद्रव होते हैँ उन सवो शान्त करने के ययि यह उत्तम
घरृषादनी सुगन्धा च तथा कायां पुननेवा । १४ ॥ तरतत योगहे॥ १२-२३ ॥
मूषा गुभ्रनखी यस्ता मोरटस्तिल्थकस्तथा । एतेषामेव स्वां कल्कं निष्काथ्य पाययेत्‌ । |
इत्येतासां तुमूलानि यथालाभं समानयेत्‌ ॥ १५॥ यः कथित्‌ सूतिकाव्याधिस्तं धिरात्रेण साधयेत्‌ ।(२४॥
यवकोलङ्कलत्थानां चयः प्रस्थाः समास्तत्तः | न्दी उपयुक्त भ्यो के कल्को का काथ बनाकर पिकनेसे
एतान्यष्टगुणे तोये पाचये द्षगत्तमः ॥ १६॥ परसूता की ग्याधियां तीन दिने टीक दहो जाती दँ
अष्टमागस्थितं तं तु परिपूतं निधापयेत्‌ । टे पच्नमूल्यौ भार्गी च राख दवेच पुननेवे।
तत्रावापमिदं ददान्मुष्टिकान्योषधःनि तु ॥ १७॥ शिवरहसपदी' ''"' `" “` ०१००१५०००००७०. 3

पिप्पली पिप्पलीमूलं चित्रकं हस्तिपिप्पली । # क क @ ¢ कै > ® @ # # ® ‰ # @ ‰ ॐ @ * ® ‰> > = ©^ 9 $> ¢ @ # कै 9 रुह

चव्यंदरेरजनी चेव शङकषेरं वचाऽभया ॥ १८॥


कुष्ठंरास्ञाऽजमोदश्च विडङ्गंमरिचानि च। ( इति वाडपत्रपुस्तके १०१ तमं पत्रम्‌ । )
भद्रदारुरथला च भार्गङ्कटजतशण्ड्लाः । १६॥ 01॥1॥1॥१.9१ 1) १)1)

एतेषां काषिक्छ भागा लवणानां पलं भवेत्‌ ।


तेलभ्रस्थं वसार निष्काथो द्विगुणो भवेत्‌ ॥ २०॥ दोनो पञ्चमूल, भारंगी, रास्ना, दोनो पुननवा (श्वेत तथा
दीरपरस्थो दधिप्रस्थो जलप्रस्थस्तथेव च । रक्तं ), सहिजना तथा हंसपदी" ' “ "८ दष्यादि ओषधिों
का सेवन कराने से भी सूतिका रोगो मं लाभ होता है ) ॥२५॥
मोतुलङ्गा्पेशीनां रसप्रसथाधेयोजितम्‌ ॥ २१ ॥ ` ( इति ताडपत्रपुस्तके १०१ तमं पन्नम्‌ ) पर अध्याय यहीं
शनेैश्ढमिनां सिद्धमथेनमवतारयेत्‌ | बीचमें ही खण्डित हो गया हे ।
अभ्यञ्नेषु पानेषु बस्तिकमेणि चोत्तमम्‌ ॥ २२॥
ये तु वातसमुस्थानाः सूतिकानामुपद्रवाः |
सर्वेषां शमनं शरेष्ठमेतसतरेवृतमुत्तमम्‌ ।॥ २३॥ बाटग्रहचिङकित्सिताध्वायः।
इनको विकरितसा--दोनों पञ्चमूल ( स्वर्प तथा घृहत्‌ ) # # % * @ € ठ # ह 9 # @ $ $ @ =» # @ $ र ®+ # 6 ® ५ @ >¢ ®> न ॥

भारंगी, मीठा सर्हिजना, शतावरी, खस, चन्दन, गोखरू,


मदयन्ति
> = “ ( ति सेदव ; दोन
त ( ॥ |# © * # # ® =
"११११११११.
छ # # @ + छै | कै # 9 # ® # र श्याभियाचनम्‌ ॥

दयता ^ननमासका-महद्‌ ~ "09 दान वला (वला |


ओर अतिबला या नागबला )\ चसुक्‌ ( बक्पुष्प ); पाटा,
ब्रह्मण्यभावात्‌
लण्यभावात्‌ 2,
करद्धाऽपि प्राहह सायप्रहं
सानु
वचः
चच
|
पयस्या ( ज्षीरकाकोरी जथवा जीवन्ती ), अशत ( गिरोय ) एषां ठ्यतिक्रमाणां तं फलमाप्नुहि रेवति !॥
बृषादनी ( इन्द्रवारुणी ), सुगन्धा ( काराजीरा ), पुनर्नवा, सवग्रहाणामेका सवं तुल्यवीयेबलदयुतिः ।
मरोड़्फरी, गृध्रनखी ( कण्टकपाङी अथवा बेर ), नागरमोथा, भविष्यसि दुराघषां देवानामपि पूज्ञिता ॥
मोरटं ( मूर्वामेद-कीरचूरीनि ), रोध-इनमे से जिन २ की वक्तव्य -यह अध्याय प्रारम्भ म खण्डित हे। इसमे
` भूर मिरु सके वह टेटे तथा यव, कोर ( बेर )ओौर कुरुत्थ बारूको के ग्रहो का तथा उनके द्वारा जाक्रान्त बालको डी
के सम्मिलित तीन प्रस्थ र्वे । इन्हं भाट गुने जक मे पकाय । चिङ्िर्खा का वणेन किया गया है! ये रह संख्या में ९ होते
खष्टमांशच देष रहने पर उसे उतार कर ह्वान कर रख छं।
इसमे निश्न ओषधिर्यो का सुष्टिक प्रमाण जे प्रेष डद १. मूरताडपन्नपुस्तके एतत्पत्रभान्तस्य कीरदष्टतयां रोतस्थानीय
पिष्यखी, पिप्पलीमूल, चित्रक, गजपीपल, चन्य, हरिद्रा, एकोऽङ्ो दृयते । छिपिरम्येतदीया पूर्वापरारोचने अत्रैव इटितभागे
दारुहरिद्रो, आक, वच, हरड़, छुट, राखा, अजमोद्‌, विडङ्ग, पूरणे संवदति । पश्चात्‌ खिकभागे अन्तवैत्नीचिविःत्सितस्योष्टेवेने
मरि, देवदारु, छोरीएइरायची, भारंगी, कुटज तथा तण्डुक-~ | तेन सह विपयसंगमनेऽपि ततर परुटेरभावेन ङ्पिविसंवदेन पू
प्यक १ कष, पांच रवण १ पलः, तिकतेक १ भरसथ, वसा क्तविषयस्य खिरभंगि पूना शूपान्तरेणं निरूपणस्यं दशनेन, अत्रं

` ‌.मो
` ` अवरान् खावरविशौर े (गरःराजनिसग ः)† ।.. प्य ा ग्रहपूतनाविषयात्‌ पूवं गभिणीदुष्परजाताचिकिंस्सितप्रदशंनस्यौचित्येन
च १०१ तमै विेतटतभिप्यत्र संनिवेदितम्‌। स्याथ पत्रह्यात्मकरो- -
दन्तिदृष्यो वधनः॥ षष्डु ` ` `। मन्थः खण्डितस्ताच्पत्रपुस्तके। =: `
बाख्प्रहचिकित्सिताध्यायः † ] चिकित्सास्थानम्‌ ।

+0, 00

ह! कहते है कि जिस घर मेदेवयोग तथा पित्रयोग आदिन नामक मातृका बारूक पर आक्रमण करती हे जिससे उपर्युक्त
हो, देवता, बाद्यण तथा अतिधिर्यो का सत्कार न हो, आचार ही ङुक्तेण होते है । चेतीय डिन, मास वा वर्षमे पूतना नामक
विचार आदिं का ध्यान न्‌ रहता हो, उस घरमं इन अरहो सें मावृका के आक्रमण करने से ञवर, चज्लु उन्मीटन, गात्रोद्धेजनः,
से कोई घुप्कर गुक्षखूप से बाख्क की हत्या कर डारूते हँ मियो का बन्द हो जाना, कन्दन, ऊध्वं निरीक्षण आदि
अथवा उसे र्गो से जक्रान्त कर देते हैँ । सुश्रुत उ० अ० २७ रत्तण होते हँ ! चतुर्थं दिन, मास व वर्प॑स सुखमण्डिका
मे कहा गया है-या्ीमात्रोः प्राक्भदि्पचारच्छौचभरष्ठन्म्गर- नामक्‌ माठृका के आक्रमण करने से उवर, चच्च उन्मीरुनःम्रीवा-
चारहीनान्‌ । त्रस्तान्‌ दृष्टंस्तजर्तास्ताडितान्‌ वा । पूजदितोर्हिस्यु- नमन, तथा रोदन भादि खक्तण होते है । बच्चे को नीदं नहीं
रेते कुमारान्‌ ॥ ग्रहो के नाम- १ -स्कन्द, २-स्कन्दापस्मारः आती तथा वह दूध नहीं पीता । पड्म दिन, मास व वषं
२-शङकुनी, ४-रेवती, ५-पूतना, &-अन्धपूतना या गन्धपूतना, कटपूतना नामक मावृक्ा बालक पर आक्रमण करती डेजिससे
७ शी तपूतना,८ -मुखमण्डिका, ९नेगमेष । इनमें से कुद यह खी उवर हो जाता हे \छटे दिन मास व वर्षम शङुनिका नामक
इारीर(वारे तथा ऊ पुरुष शरीर वारे होते है । इनकी उत्पत्ति मातृका बारूक पर आक्रमण करती है जिससे शरीर मे पीडा
के विषयमे कहा जाता हेकिये य्रह देवसेनानी कुमार कार्तिकेय तथा ऊर्ध्वं निरीक्षण आदि रुद्ण हो जते है । सातवें दिन,
की रक्ञा के लिये महादेव तथा पार्वती ्टारा उत्पन्न छिये गये मास व वर्षम शुष्करेवती आक्रमण करती है जिससे ज्वर,
थे ¦कार्तिकेय की रक्ता के स्यि उस्पन्न इष्‌ ये अह बाख्को को गाच्रोद्धेजन तथा मुषिबद्ता आदि रक्षण होते हँ 1 य्व दिन,
किस स्यि आक्रान्त करते है इसके च्थि सुश्चुत मे निम्न मास व वषं में अर्यंका मातृका, नवम मास्रदिनव वषं
वर्णन दिया है--ततो भगवति स्कन्दे सुरपेनापतौ छते । उपतस्थु- स्वस्तिकामातृका, दसवें दिन वर्धं व मास में निक्छैतामातृका,
गहाः सरवे दीप्क्तिथरं यदम्‌ ॥ ऊचुः प्राज्ञख्यश्चैनं वृत्ति नः संपि. ग्यारहवें दिन, माश्च व वषं मे काञुकामातृका बालक पर्‌
त्स्व वे । तेषामर्थं ततः स्कन्दः दिवं देवमचौदयत्‌ ॥ ततो यहांस्ता- आक्रमण करती हे । इन सबके आक्रमण से बार्क जस्वस्थ
नुवाच भगवान्‌ भगनेवहत्‌ । तिय॑ग्योनिं मालुषं च देवं च चरितयं हो जाते है 1 इनके प्रतीकार के छ्वि इनकी पूजा एवं चरि
जगत्‌ ॥ परस्पसोपकारेण वतते धायतेऽपि च। देवा मनुष्यान्‌ प्रीणन्ति रादि देनी चाहिये इसका विस्तृत विवेचन रावणक्ृत बार.
सैवेग्योनींस्तयैव च ॥ वतंमानेय॑थाकारं लीतवर्षौष्णमारतेः। शज्या. तन्त्र मे देखना चाहिये । भ्रस्येक ग्रह के अपने २ भिन्न २ र्क्तण
्रलिनमसकारजपहोमव्रतादिभिः ॥ नराः सभ्यक्‌ प्रयुक्तश्च प्रीणन्ति होते है । परन्तु कुद रक्षण सब अरहो के सामान्य होते है ।
वरिदिवेश्वरान्‌ ! भागधेयं विभक्तं च रोषं ्िचिन्न पिते ॥ तचुभ्माकं | योगरत्नाकर मे भ्रहो
के सामान्य क्ण निम्न दिये
शुमा वरत्तिवार्ष्वेव्‌ भविष्यति । कुलेषु येषु नेञ्यन्ते देवाः मिप्तर एव क्चणादद्विजते बाः
क्षणात्‌ चस्यति रोदिति! नयैदंन्तेद॑रयति
च ॥ ब्राह्यणाः साधवश्चैव गुरवोऽतिथयस्तथा । निवृ्ताचाररौैचेषु धात्रीमात्मानमैव च ॥ उध्वं निरीक्षते दन्तान्खादेत्वरूजति जृम्भति ।
परपाकोपजीविपु ॥ उत्तन्नवङिभिक्तेु भिन्नकास्योपभोजिषु । गरदषु भ्रुवौ क्रिपति दम्तोष्ठं फेनं
वमति चासछ्रत्‌ ॥ क्षामोऽतिनिश्चि
तेषु ये बालस्तान्‌ गृह्णीष्वभदङ्किताः ॥ तत्र वौ विपुला त्तिः पूजा जगति श्यूलाङ्गौ भिन्नविटस्वरः । मांसश्चोणितगन्धिश्च न चारनाति
वैव भविष्यति । एवं यहा: सषटुत्पन्ना बालान्‌ गृहन्ति चाप्यतः ॥ यथा पुरा ॥ दुवो मलिनाङ्गश्च नष्टसंजञोऽपि जायते । सामान्ययह्‌-
ग्रहोपसखष्टा बालस्तु दुश्चिकित्स्यतमा मताः॥ अन्यत्र इनका जटानां रक्षणं सस॒दाहतम्‌ ॥ अवर हम सूल अभ्यायोक्त विषय
प्रयोजन न होने से बार्छ्छो से ही इनका सम्बन्ध होता हे । प्र आते है--बह्मण्य भाव से च्ुदध इई मी उसने अनुग्रह को
इसीखियि ऊपर कहा है-- (तचुभ्माकं शुभा वृर्तिवारुष्वेव पूर्वक वचन कहा किं रेवति । तुइनके व्यतिक्रम के फल की
मविध्यत्ति" वास्तवमें ये भिन्नरे प्रकार के बारख्को के रोग प्रप्त कर ! वीर्यं एवं बर मँ समान होने से त्‌ सव ग्रहा
ही है जिन्हे अरहो का नाम दे दिया गया! अाचीनकारु में अपेक्ञा दुर्धर्ष होगी तथा देवता्भों द्वारा भी तू
पूजित होसी ॥
स्वस्थन्रत्त ( ८,४1९०८ ) की दि से सूतिकागार का संभवतः नामभिर्बहुभिश्चैव त्वां वद्यन्ति जना धि ।
उचित प्रबन्धं न होने से बालको को अनेक प्रकार के रोग वारणी रेवती ब्राह्मी कुमारी बहुपुत्रिका ॥
घेर र्ेतेथे उन्ही सम्भवतः अहरोगो का नामदिया गया शुष्का षष्ठी च यमिका धरणी युखमरिडिका ।
हे । राचणङ्कत बारुतन्त्र मेँ इन बालग्रहं का अत्यन्त विस्तार माता शीत्तवती कण्डूः पूतनाऽथ निरुख्िका ।।
से वर्णन किया गयाडहै। ये ग्रह बालकों को जन्मसे ठेकर
१२ वर्षं की भवस्था तक पीडित करते हँ । उससे उपर की
रोदनी मुतमाता च लोकमातामदीति च ।
अवस्था वाल को यहो की विकेष शंका नहीं रहती है ! वहां शर्या पुख्यकीर्तिश्च नामानि तव विंशतिः ॥
निम्न वर्णन मिख्ता है-प्रथम दिन, प्रथम मास चा प्रथम संसार में रोग तुशे अनेक नामो से जनेगे \ तेरेये निम्न `
वषं मं जव नन्दा नामक मातृका बालका पर भकमण करती २० नाम है-\ वारणी र रेवती ३ बाह्यी 9 कुमारी ५ बहु- '
है तब ज्वर हो जाता हे आंत बन्द हो जाती दहै, शरीर सदा | पुत्रिका & ष्का ७ षष्ठी ८यमिका ९ धरणी १० सुख.
दुःखी होता है .जिससे बालक शयन नहीं कर सकता । सदा मण्डिका ११ माता ५२ श्ीतवती १३ कण्डू $४ पूतनां
. `
रोता दही रहता हे उसे शब्द्‌ अच्छा नहीं रुगता तथा वह १५ निर्न्चिका १६ रोदनी १७ भूतमाता १८ रोकमातमह्यी
शब्द्‌ करता है! दवितीय दिनि, मास वा वर्षं मे सुनन्दा १९ शरण्या २० पुण्यकीर्ति तेरेये र₹०नामहोते्द॥ ..
काश्यपसंहिता वां बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ बालग्रहचिकिर्सिताध्यायः!
१००
॥°+ + +

तथा असुरो द्वारा भी नमस्कार की गद ( जहत)


कककककककक कन
कककल्कक्कलकक

ये च सवां पूजयिष्यन्ति दधाना जना सुवि ।


कक कककककककककककक

रेवती प्रविद्ध इई है ॥ - |
नैतेषां स्ेभूतेभ्यो भविष्यति भयं कचित्‌ । |
. संसारमेंजो लोग श्रद्ापूर्वक तेरी पूजा करेगे उन्दं किसी
. ` इत्येवं रेवती जज्ञे सुराुरनमस्छृता ।
भी भूत (प्राणी ) से कभी मय नहीं रहेगा ॥ : `. ,. बद्धजीवक ! कमांणि श्रगु तस्याः प्रधानतः ॥
. हे ब्ृद्जीवक ! अब मुख्यरूप से त्‌ उस (रेवती ) क
` साये प्रातश्च नामानि यो जपेन्तव विंशतिम्‌ 1 क्रमौ को सुन। अर्थात्‌ उसके द्वारा उस्पन्च होने वारे
शएचिनैरः प्रजास्तस्य वर्धिष्यन्ति विपाप्वनः । रोगो कोसुन॥: ` ~ . ~ :
ज्ञो मनुष्य शुद्ध एवं पवित्र होकर सायं प्रातः तेरे २० नामो : उवरातिसारो वैसपैः पीडनेन्द्रियदषणम्‌ ।
क्वा जप करेगा उसकी सन्तान रोग रहित होकर शद्ध को आनाहः शूलमरुविर्ि ` -नं धासकासच्ट्‌ ॥
्राप्त करेगी ॥ ,
निद्रानाश्तोऽतिनिद्रा च मुखपाको व्रणोद्धवः।
. तत उग्रेण तपसा स्कन्दमाराधयन्‌ पुनः । एकाङ्ककः पक्ञवधः स्षीयलसविसूचिकाः ॥
, तस्या मनीषितं ज्ञात्वा यखतीमव्रवीद्‌ गुहः ॥ दिका मृच्छ मदो मोहो रोदनं स्तन्धनेत्रता ।
- श्रातणां च चत॒ण ा वै| पञ्चमो> नन्दिकेरः।[> _
स्वरबर्णािमेदश्च पाण्डुत्वं कामलाऽरतिः ॥
श्राता खं भगिनी ष्ठी लोके स्याता भविष्यसि ॥
`. £ .

उग्र चीरदूषणनाशो च शिरोरुग्दयद्रवः ।


` उसे बाद्‌ रेवती की मनोगत इच्छा को जानकर्‌ नासा्तिकणेरोगाश्च चासङ्ञ्चनरोदनम्‌ ॥
तपस्या दवारा स्कन्द की आराधना करते इए गुह (कार्तिकेय )
नेरेवती से पुनः कदा कि चार मादय के साथ पांचवां
माई ` ये चान्ये चैव विविधा ये रोगा नादुकीतिताः ।
नन्दिकेश्वर तथा चुदी त्‌. बहन के रूपमे प्रसिद्ध होगी ॥ रेवतीरोषसंभता भूयिष्ठं त उदाहृताः ॥
रेवती महके हारा होने वारे रोग-जउ्वर, अतिसार,
यथा मां पूजयिष्यन्ति तथा स्वां सवेदेहिनः।
- £ ।
$

विसर्प, पीडा, इच्छियो का दूषित होना, आनाह, शूल,


छस्मत्तुल्यप्रभावा सां च्रातृमभ्यगता सद्‌ ॥ अर्चि, श्वास, कास, वृषा ( प्यास ), निद्रानाश्च ( अनिद्रा
` जिख प्रकार सम्पूणं प्राणी मेरी पूजा करगे उसी प्रकार एण्णणणणः ), अतिनिद्रा, सुखपाक, चणोखत्ति, एकाङ्गवात,
तेरी भी पूज्ञा करगे । हमारे ही समान प्रभावं बाली त्‌.सदा पर्ञाघात, चीरालसक ( बारुरोग विज्ञेष ), विसूचिका, हिका,
भादर्यो केसाथ रहेगी ॥ . | ि मूच्छ, मद, मोह, रोदन ( रोना ), नेतरा का स्तन्ध -होना,
षरमुखी निप्यललिता बरदा कामरूपिणी । स्वरभेद, वर्णमेद्‌, अरिमेद, पण्डु, कामका, अरति, कीरदोष,
हीरनाश, शिरोसक्‌ ( शिरश ), हदयदव ( एन्य
षष्ठी च ते तिथिः पथ्या पुण्या लोके भविष्यति ॥ ० 9९97४ ), नासारोग, अरिरोग, कणंरोग, त्रास ( डरना );
' त्‌ ६ सुखो वारी, सदा प्रसन्न, वर देने वारी तथा कामः कुञ्चन ( 00०५1-3005 ) रोदन-ये तथा अन्य भी बहुत
रूपिणी ( इच्डानुखूप रूप धरने वारी ) होगी 1 तथा कोक से रोग जिनका वर्णन नहीं किया गया है-उन्ह रेवती के क्रोध
म पुण्यकारक षष्ठी तिथि को तेरी पूजना हुजा करेगी । अर्थात्‌ से ही उत्पन्न हुए समक्षना चाहिये । |
षष्ठी तिथि तेरी पूज्ाका दिन माना जायगा ॥ ।
वक्तव्य-त्तीरारसक एक बार्येग होता है । अष्टाङ्ग हृदय
इत्येवं भगिनी जज्ञे षष्ठी स्कन्दस्य धीमतः । उ० अ०२ मे इसके निदान एवं रक्षण निम्न प्रकार से दिये
तस्मात्‌ सा सततं पूया सा हि मूलं सुखायुषोः ॥ ह स्तन्ये तिदोषमक्नि दुगन्ध्यामं जरोपमम्‌ । पिवद्धमच्छं
पीतं सितं
इस प्रकर षष्टी (रली ) उुद्धिमान्‌ स्कन्द्‌ की बहन के विच्छिन्नं फेनिलं चोपवेदयते ॥ शच्न्नानान्यथावर्णं, मूर
खूप मे जाती हे । इसख्यि उसकी निस्य पूजा करनी चाहिये । घनम्‌ । ञ्वरारेचकत्रदिदयष्कोक्धर विजम्मिकाः ॥ अङ्गभङ्गोऽङ्ग
कूजनं वेषथुभ्रमः । ध्राणाक्षिसुखपा काचया जायन्तेऽन्यैऽपि तं
क्योकि वह सुख तथा भायु का मूर हे अर्थात्‌ वह सुख जौर विहेपः
आयु काकारणहे।॥ गदम्‌ ॥ क्षीरालसकमि्याहुरत्ययं चातिदारणम्‌ । तत्राशु धात्रीं वाङ्‌
च वमनेनोपपादयेत्‌ ॥ | |
तस्माच सूतिकाष्ठौं पत्तपषीं च पूजयेत्‌।
. इद्िश्य षण्युखीं षं तथा लोकेषु नन्दति ॥ तस्मात्‌ साधारणीं तस्याः क्रियां छ्याद्विचक्ञणः ॥
तश्च रेबतीमेके ग्रहमेके वदन्त्यपि ।
` इसलियि सूतिकाष्ठी ( भ्रसव के बाद्‌ चटी तिथि) तथा | इसष्यि इदिमान्‌ व्यक्ति इसकी साधारण चिकित्सा करे ।
पष्ठी ( प्रत्येक शङ्ख तथा कृष्ण परर की चटी तिथि)
को श्रण्सुखी (& सुखो वारी ) षष्टी (रेवती ) की पूजा करनी क रोग रेवती को ही सम्पू ग्रह मानतेह ।
चहिये । इससे चह संसार मे प्रसन्न रहती हे। इख प्रकार | श्रश्वगन्धाऽजभूङ्गी च सारिवे द्वेपुननेवे ॥ .
१०५
चिकित्वास्थानम्‌ । `
॥ ^ 9
कि क त क

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^

धानी को धारण करना चाहिये । तथा अपनी २ चिक्किस्सा


| १ + ^, [का क
+ ++ ।
[क

क्वद्रा सहा विदारी च्च कषायः परिपेचने । हारा उपद्रवो को शान्त करना चाहिये । इसके
अतिरिक्त
्गी 9, दोनो
चिङरिसला--अश्वग न्धा, अजशङ् गी ( मेषश्ङ
तथा रेवती नकतत्र मै इसके पुष्टिकर्म को करे! सुश्रुत ॐ० अ० २१ सं
रक्त ), दोना पुनर्न वा ( सफेद्‌
अनन्तमूर ८ कृष्ण तथा भी इसकी क्गभग रेसी ही चिकित्सा विस्तारसेदी हे,
लार) कुद्रा ( क्टेरी ), सहा ( माषपर ्णी या धृतकु मारी );
विदारीकन्द्‌-इनके कषाय का परिषेचन करना चाहिये ॥ अतघ्ोष् अवद्यामि पूतनायाच्निकि्सितम्‌ ॥
यदुक्तं पूघेभेषञ्यं तच्च सवं प्रचारयेत्‌ ।
पलङ्कषा सजेरसः ङं शिरिकद्म्बकः ॥ इसके बाद्‌ अव्र में पूतना नामक्‌ प्रह की चिकित
्सा
- देवदार समञ्जिष्ठं सुरा तेलं सुर्वचिका । कहूगा । जो पूं रेवतीभ्ह मेँ चिकिसा की है वह सव
नलदं तुम्बर त्वक्‌चसमभागानि कारयेत्‌ ॥ यहा करे ५३० ॥ | | |
एतेन गात्रमभ्यज्य ततः संपद्यते सुखी । अरो दुन्दुभिनांम खणसरभयङ्करः ॥
गगर, राक, कुष्ट, गिरिकिदम्ब ( महाकदभ्ब ), देवदार सकन्दमायोधयन्मोदहात्‌ करदध दृष्ट च षर्ुखम्‌ ।
मंजीट, सुरा, तिरते, सुवर्चिका ( इर्टुर ); नर्द्‌
( जटामांसी ), तम्बुरु ( तेजबर-नेपाी ` धनिया ), स्वरू
विवेश क्रौञ्चस्य गहं मातुलस्य महागिरेः ॥
(दाख्चीनी) इनके समभाग रेकर तेर पककर मादि करने

स्कन्दस्तं च महदोलं मातुलं.तंच दानवम्‌ ।
से व्यक्ति सुखी (स्वस्थ ) हो जाता दै ॥ शक्त्या जघान युगपत्तवो गुहवधाद्‌ गुहः ॥
- आअश्वकेस्य पुष्पाणि धातक्यास्तिन्दुकस्य च ॥ ्ासीद्रणैपरिभ्रष्टस्तं समेत्य खुरासुयः।
ककुभस्य च पुष्पाणि दाडिमस्य धवस्य च । दिशः समुद्राः सरितो महाभूतानि तोयदाः ॥
त्वक्त्लीरी मधुकं चेव स्ीरेण सह पाचयेत्‌ ॥ पूत्यथं घूपयामासुस्ततः पूतोऽभवेद्‌ गुहः ।
ततो मात्रां पिबेद्रालस्ततः संपद्यते सुखी । यस्मिन्‌ देशे तु भगवान्‌ पूतः स्कन्दो महाबलः ॥
अश्वकर्ण (गर्दभाण्ड ) के पुरु, धाय के एक, तिन्दुकः संजज्ञे पूतना तस्मात्‌ सवेलोकभयङ्क ।
कुम (अर्धन), अनार तथा धव के एरु, स्वकृत्ीरी ताभन्रवीद्‌ गुहः पुख्यां पूतनामग्रतः स्थिताम्‌ ॥
( वंशचकोचन ), सुरुहरी न्ह दूध के साथ पाक कूरे । इस याहि सं भिन्नमयादा(न्‌) चेव्युक्ताऽऽह तथाऽस्खिति।
ह्ीरपाक कीं यथोचित मात्रा पीने से बाख सुखी ( स्वस्थ ) मलजा पूतना कौञ्जी (कोच्छी) वैश्वदेवी च पावनी ॥
हो जाताहै॥ पच्चनामेति चाप्युक्ता श्ण तस्यान्निकित्सितम्‌ ।
एतेष्वेव घृतं पकमतीसारमरोचकम्‌ ॥ पूतना की उत्पत्ति-देवता तथा राक्तसो मे भयंकर
हन्ति तृष्णाऽरुचिच्छद्‌।ः शकरामधु संयुतम्‌ । अर्थात्‌ अत्यन्त शक्तिश्चारी दुन्दुभि नामक राक्तस॒ स्कन्द
~ € *

से
इन्दी उपर्युक्त अश्वकर्ण आदि ओषध्यो के साथ चृत को ( कार्तिकेय ) से युद्ध करता. इजा उसे करुद्ध देखकर अन्ञान
मँ स्थित )
पकाकर देने से अतिसार तथा अर्चि को नष्ट करता है । इस <पने मामा ऋज्र की विदा पव॑त ( हिमार्यकक्ति से युग
उपर्युक्त घृत मे शकरा तथा सघु मिरकर देने से वृष्णा गुहा ( गुफा ) मे घुख गया । स्कन्द ने जपनी मामा
अर्चि तथा र्द (वमन > नष्ट होते ह ॥ पत्‌ ८एक साथ >)उस दुन्दुभि नामक राकस, उसके
~ उलूकगृध्ररोमाणि कट्धलाचूस्तथाऽजटी ॥ ( क्रौञ्च ) तथा विकार पवेत तीर्नो का संहार कर दिया।
इसस्यि गुह ( गुफा ) का वघ करने के कारण चह गुह
` यत्रा: श्वेता घृतं ग्यं पेयोऽयं रेवतीलुदे । कहलाता है । इस युद्ध से कार्तिकेय का वणेनाक्च हो गया
उल तथागप्र के रोम ( बार ), कड़वी अराव ( लौकी इसलिये उसे पविन्र करने के ख्य सव देवता, असुर, दिशाय
अजरी ( भूभ्यामर्की ) तथा सफेद जौ को गोत मं मिराकर समुद्र, सरिताएं ( नदियां )› महाश्रूत तथा बादर ने उनके
पिाने से रेवती रोग नष्ट होते ईह ॥ पाल जाकर धूपन किया। इस प्रकार गुह (कार्तिकेय ) पवित्र
वरुणारिष्टको चोभौ पुत्रञ्जीगकचि(ज)को ॥ हो गया ! जिस प्रदेश (स्थान „)में महाबली भगवान्‌ स्कन्द्‌
कार्तिकेय ) पवित्र हुए वह देश सब रोर में भयंकर
एतेषां तुत्वचं बालो माता त्रीच धारयेत्‌ । | ( कमार
पूतना नामक ग्रह के रूप मे प्रसिद्ध इभा । तब ह ने अपने
उपद्र शमयेद्र सेः सश्चिकिर्सितेः ॥ सामने स्थित उख पुण्यकारक पूतना को कहा कि तु भिन्नम.
नत्र चाश्य रेवत्यां पुष्टिकर्माणि कारयेत्‌ । यादा ८ यज्ञः चलि, कर्म, पवित्रता जादि की मर्यादाका
ी पाड्न न करने वारे ) वाङ्गो के पास जाकर उनमें
बर्ण, दोनो भरिषटं ( निम्ब तथा महानिम्ब ), पुत्रज्ञवक
उत्तर दिया--एेखा ही होगा उसके मर्जा,
( जम्बीर क समान पर्तो बारा वृक्त-पितोंनिया ) तथा ्रवेश कर। उसने करी ), वैश्वदेवी तथा पावनी वे पांच नाम
।पूतना कौञजी (
चिन्रक--इनकी त्वचा ( छार ) को बारुक, माता तथा
१०२ कारयपसंहिता.चा वृद्धजीवकी्यं तन्त्रम्‌ । [ वारग्रहचिकिस्तिताध्यायः
+} "^^. --------------------
+ --------------------
-------------------~
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कहे गये हँ । जव तू उसकी चिरित्सा सुन ॥ ` |दी है--कपोतवद्काऽरलको वरुणः पारिभद्रकः। ्रास्फोता चैव
करञ्जशोमाञ्ञनकावास्फोटा ह्याररूषकः ॥ योञ्याः स्युवांखानां प्रिषेचने ॥ वचा वयःस्था गोलोमी हरितालं
सप्रपणेश्च निम्बश्च भागीं च परिषेचनम्‌ | मनःशिला । कुष्ठं सजैरसश्चैव तैला्थं वं इष्यते ॥ दितं प्रतं तुगा.
| क्षीयं सिद्धं मधुरकेषु च कुऽताटीद्चखदिरचन्यनस्यन्दने तथा ॥
पूतना की चिकित्सा-करञ्ञ, कड़वा तथा मीडा देवदार वचा हिङ्क कुष्ठं गिरिकदम्वकः । पला हरेणवश्वापि योज्या
सारिवा, वासा, सक्षपणं, नीम तथा भारंगी-दइन ओषधिर्यो उदधूपने सदा ॥ गन्धनकुलिङ्रिम्भीके मल्नानो बदरस्य च । कर्करा
से शारीर का परिपेचन करना चाहिये ॥
धि घृतं चापिं धूपनं सर्पैः सह ॥ काकादनी चित्रफ्लां निभ्बीं
सुरासौवीरकार्यांचहरितालं मनःशिलां ॥ गुजञां च धारयेत्‌ । मत्स्यौदनं च कुर्वीत कृशरां पललं तथा ॥ सयव.
कुष्ठं सजेरसं चेव तेलमभ्यञ्चनं पचेत्‌ । | संपुटे कृत्वा बर शन्यगृहे हरेत्‌ । उच्छिषटेनामिषेकेण शिरो; स्नपन
सुरा, कांजी, हरतार, मनःशिखा, ठ तथा रार्‌ इनसे मिष्यते ॥ पूज्या च पूतना देवी वरिभिः सोपदार्यैः। मलिनाम्बर.
संवीता मलिना रुक्षमूधंना ॥ श््यागाराश्चिता देवी द।रकं पातु
सिद्ध क्ये हए तेर का-अभ्यङ्ग (मालिश) करना चाहिये ॥
पूतना । दुदश्ञना सदु्ैन्धा करारा मैवक्राछिकिा॥ भिन्नागतश्रया
पिप्पली पिप्पलीमूलं बहती कर्टकारिका ॥ देषी दारकं पात पूतना ॥
शालपर्णी एिपर्णी मधूकं मधुकस्तथा । अक्तिरोगचिकिःसाभिः शमयेदन्धपूतनाप्‌ ॥
एतं संभरस्य संभारं चीरे सपिर्विपाचयेत्‌॥ शीतङ्कारचिकित्साभिः शमयेच्छीतपूतनाम्‌ ।
हर्दि हिकं च शमयेदेतत्‌ सपिर्निषेवतः।
अक्तिरोग की चिकित्सा से अन्धपूतनाकी श्चान्ति करे तथा
पिप्परी, पिप्पछीश्रूल, बहती, कटेरी, सालपर्णी, पुश्न- शीतकारक चिकित्सा द्वारा शीतपूततना की चिकिसा करे ॥
पर्णी, महूभा तथा भुलहदी इन सबको दूध मे डारूकर इनके
द्वारा धृत सिद्ध करे । इस धरत के सेवन. करने से ददि तथा पिप्पलीपिप्पलीमूलचञ्यचिघ्रकनागरैः
हिका शान्त होती है ॥ | पचेद्‌ घृतं पच्वमूस्या सैन्धवेन च पण्डितः ।
कटस्य पुरीषं च केशाश्चमं पुराणकम्‌ ॥ दीपनीयमिति प्रोक्तं सर्पिरेतन्महास्मना॥
जीणो च भिष्चुसक्कादी सपैनिर्मो चनंघृतम्‌ । सन्तोद्रशकरं लेद्यं शमयेच्छीतपूतनाम्‌ ।
धूपमेतं प्रयुञ्जीत सन्ध्याकाले सुखङ्करम्‌ ॥ ` शीतपूतना की चिकित्सा--पिप्परी, पिष्परीमूक, च्य,
चित्रक, सोट, रधु पञ्चमूक तथा सैन्धव से साधित धृत
डकडुट (सुर्यं ) की पुरानी पुरीष ( बीर), कश्च तथा दीपनीय का
चर्म, पुरानी भिह्ठसंघाटी (शाक्य तथा बौद्भिच्धभों का का सेवन करने गया
से
है । मधु तथा शकरा के साथ इस धृत
छीतपूतना का श्चमन होता है ॥
जीणैवख ), सांप की केचुखी तथा प्रत सायंकार मेँ इनका धूप
( एपा०7&8702 ) देना सुखकारी है ॥ ॥ि राला पुननेवा ष्ठं तगरं देवदार च ॥
अनन्तां छुक्छुटीं निम्बीमरिष्टामथ ककेदीम्‌ । पन्रारुरुहरेणवश्च गुडूची त्रिफला सिता ।
सूत्रेण प्रथिता एता घारयेत्‌ पाणिपादयोः ॥ , दशमूलं च तेःसर्पिः पचेत्‌ हीरे चतुर्गसे ॥
* ५२ <

(इति ताडपत्रपुस्तके १०४ तमं पत्रम्र । ) विशुद्धं लेदयेद्रालं शाम्यते कटपूतना ।


अनन्ता ( सारिवा ), कुक्छृदी (मुगीं के अण्डे ॐे समान रास्ना, पुननेवा, कुष्ठ, तगर, देवदारु, तेजपन्न, अगर,
न्द्‌ वारी एक बेल ); बिम्बी, अरिष्ट ( नीम ) तथा काक हरेणु, गिरय, त्रिफरा, खांड तथा दशमूल इनको चतुरयुण
डाश्रगी-इृ्है धागे मे पिरोकर हार्थो तथा पैरो मे धारण करे ॥ तीर (दूध) में पकाकर घृत सिद्ध करें । बालक को इसका
सेवन कराने से कट्पूतना ( क्ीतपूतना ) शान्त हो जाती हे ।
यो यथ्चाभिभवेदवयाधिस्तं च तं च निवतेयेत्‌ । ` सुश्वुत उ० अ० ३७ में इसकी निर्न चिकित्सा दी है-कपित्थं
तथा उष रोगी को जौर भी जोर व्याधि हो जाय उची खेवहां बिम्बी तथा बिल्वं प्रचीबरम्‌ । नन्दी महाक चापि परिषेके
चिकित्सा करे । सुश्रुत उ° अ० ३२ इसकी निम्न चिकित्सा प्रयोजयेत्‌ ॥ बस्तमूत्रं गां मूतर सुस्तं च सरदार च । ऊठ च सर्वग-
नाच तेला्मवचारयेत. ॥ रोदिणीप्तज॑ददिर्पलाशककुमखचः ।
९ मूरताडपत्रपुरते मनयोः १०४१०५ संख तया सखीक्तयोः निष्काथ्य तसमिन्निष्काये सक्षीर्‌ विपचेद्‌ एतम्‌ ॥ रूधोलूकपुरीषाणि
पत्रयोः प्रान्तस्य कीट्दयेन आदिमे रातस्थानीयः, द्वितीयोऽन्तिमः बस्तगन्धामहेसत्वचः ।निम्बपत्राणि मधुकं धूपनां प्रयोजयेत्‌ ॥ धार-
पञ्चाङ्गो दद्यते; हिपिरपि पूवांपराटोचने एतद्धाग एव संवदति, पश्चा येदपि रम्बा च गुं का्ादनीं तथा । नचां युदरक्रतैश्वाम्सैस्तरपये-
द्रेवतीप्रकरणसरेन तेन सहस्य मिषयसंगमनेऽपि तत्र पत्रहेदरभावेन च्छीतपूतनाम्‌ ॥ देव्येदयश्चोपहाये वारुणी रुधिर्‌ तथा । नलाङचया-
लिपिविस्ंवादेन च मतर ९२-१९४ योरन्तरा ज्ृटितभागे १०४५१०५ न्ते बालस्य स्नपनं चोपदिदयते ॥ युदगौदनाकश्ना दैवी सुरा्चोणित-
. |
संखूयत्वेन निधांयं समवे कृतः ॥ ` | . | पाविनी । जलाशयाल्या देवी पातु सां शौतपूतना ॥
वाटयहचिकिष्सिताध्यायः ] चिकिरसास्थारम्‌ । १०३.
च 0 9 ॥ 9 0

विल्बङ्कोटो कपित्थाकां कार्पांसमटरूषकम्‌ ॥ अपविद्धच क्षितौ सवं निखेथ्य मुखमण्डलम्‌ ॥


उरुवूकस्य पत्राणि वंशस्याश्मन्तकस्य च । ततः श्युन्धाखयो लोका नष्टज्ञाना विचेतसः |
प्रपोरडरीक्‌ मधुकं शतपुष्पा पुननेवा ॥ दम्पती चापि संवि्नो ददतुश्वाडरेद्धयम्‌ ॥
एतेस्तेलं घृतं वाऽथ पयसा योजितं पचेत्‌ | ततः प्रश्रत्ति सघ्रानां चन्दः शिरसि दश्यते ।
एतेन गात्रमभ्यञ्य सक्लारं पाययेदिदम्‌ ॥ सुद्रस्कन्दादिनन्दीनां रेषत्याश्च महात्मनः ॥
मृद्रीकां च पयस्यां च श्रीपर्णी सासिं तथा | अपविद्धं तु यत्‌ क्रोधात्‌ स्कन्देन सुखमरुडलम्‌ ।
मधूकं नागपुष्पं च शीतपाकःयुतं पिवेत्‌ ॥ ततो प्रहः सा बभूव दारणा सुखमरख्डिका ॥
शकेरामधुसंयुक्तं तदा संपदयते सखी निदे हिष्यन्निव कोधास्तस्ताम = >
दे क

अथास्य धूपनं ददात्‌ सायं प्रातरतन्द्रितः । अन्नं कुर्‌ महाभागे सङ्कीणाकारकमणाप्‌ ॥


गोल्लोमीसपेनिर्मोकं वचां सिद्धाथंशंस्तथा ॥ तथाऽस्तिति च सा प्राह स्कन्दस्य परिचारिका!
संसज्य सपिषा तेन धूपयेत्‌ सन्ध्ययोर्भिषक्‌ । एवं मुखाचि(का) जज्ञे श्रु तस्यास्विकिस्सितम्‌ |
इत्यन्धपूतना यस्तु बिल्वाङ्कोठादि भेषजम्‌ ॥ पहर फिलली समय उत्पन्न इषु दं युष्धो शख स्कन्दको
अन्धपूतना की चिकिव्सा--विह्व, अङ्खोठ, केथ, अक, पावती तथा महादेव के समीप गन्धवाली वस्तुर्ओ, अलंकार,
कपास, वासा, उस्वूक ( रक्त एरण्ड ), वांस तथा अश्मन्तक ( आभूषण ) तथा पुष्प आदि के दारा अरुत किया
के पत्र, पुण्डरीक ( कमर ), सुलहठी, सौर, पुननवा इनको ( सजाया गया ) था । उसके छ्रार तथा चन्लुरभो पर बाण
दृध के साथ मिलाकर तेर अथवा घृत मँ पकाये । इसके हारा का निश्चान तथा अन्य चित्र आदि बनाये गये! इसी प्रकार
दारीर का अभ्यङ्ग ( माटिश्च ) करके क्षार मिखाकर इसी को नाचिका, गाल, ठोडी तथा मुख परं मी विरोष प्रकार के चह
पिखादे । मुनक्छा, पयस्या ( कीरकाकोरी या जोवन्ती ), श्री वना दिये गये । तथा गन्धर्व, जप्सरये एवं सण रोग इसङे
पर्णी, सारिवा ( अनन्तमूल >),महज, नागपुष्प (नागकेसर), साथ क्रीडा करने रगे । उस समय भगवान्‌ गुह ॒बारूमाव
शीतपारी ( गुज्ञा ) तथा शकरा जीर मघु मिराकर सेवन ( बारुस्वभाव ) सेमांता से कहने ख्गे कि-महादेव जी
करने से व्यक्ति सुखी होता है ! इसके वाद उसे सायं-प्रात की जरार्भो मं यह जो आभूषण ( चन्द्रमारूपी अआभूषण )
श्वेत दुर्वा, साप की केंचुखी, वचा तथा श्वेत सरसों को धृत है बह सुन्ञे देदो 1परन्तु वारर मांगने पर भी जव कुमार
मेँ मिराकर धूप देवे । इस प्रकार अन्धपूतना की यह बिल्व का्तिंशेय को `वह नहीं भिरा तव सदा प्रसन्न रहने वा
अंङ्ञोेठ आदि मोषधियां है! सुश्रत उ० अ०३३ मं इसकी कातिकेय ने क्रुद्ध होकर उस अरुद्त लिये हुए मुखमण्डल को
निम्न चिष्िस्ा दी है--तिक्तकदुमपत्राणां कायः काथोऽवसेचते । विङ्ृत एवं मछिनि करके भूमि पर फक दिया। इससे तीनों
सुरा सौवीरकं कुष्ठं हरितारुं मनःिखा ¶ तथा सजैरसश्चेव तेलार खोकों में वि्ञोभम उत्पन्न हो गया। उनकाज्ञाननष्टहो गयाः
पदिश्यते। पिप्पल्यः पिप्परीमूर वगो मधुरको मधु ॥ शाल्पणीं तथा चित्त विश्चम दो गया। इससे पावती तथा महादेवजीः
बृहत्यौ च धतार्थुपदिदयते । सवंगन्धेः प्रदेहश्च गतरष्यश्णोश्च भी उदा हो गये तथा उन्होने उसे अशत से उर्पन्न हुभा
ङीतरेः ॥ पुरीषं कोव्छरुरं केशंश्वमं सपत्वचं तथा । जीण च भि्ठसं- चन्द्रमादे दिया। तवसे रेकर सदर ( महादेव), स्कन्द्‌
धाटी धूमनायोपकस्पयेत्‌ ॥ कुक्कुर मकं सिम्बीमनन्तां चापि धारः ( कुमार कातिकेय ), नन्दी तथा रेवती आदि ७ केषिर पर
येत्‌ । मांपतमामं तथा पक्वं शोणितं च चतुष्पथे ॥ निवेचमन्तश्च गृहे चन्द्रमा दीखता हे ।कुद होकर कार्तिेय ने जिस सुखमण्डकः
शिशो रक्तानिभित्ततः। शिसोश्च स्नपनं कुर्यात्‌ स्वैगन्धोदकैः शुभैः ॥ को विक्त कर दिया था वह मुखमम्डिका नम का दुर्ण
कराला पिङ्गर मुण्डा कषायाम्बरवासिनौ । देवी वालभिमं. प्रीता ( भयंकर >)्रह बन गया । तब क्रोध से मानो जति इए
सरक्षत्वन्धपूतना ॥ | | गुह ( कमार कार्तिकेय ) ने उससे कहा कि हे महाभागे
जातमाघ्रं पुरा सवन्दूयुमाशङ्करसन्निधो । ( महान्‌ रेशचयं वाली ) तू उन रोगो को अपना अन्न (भोजन)
गृन्धालङ्कारपुष्पादययमस्डयामास षर्मुखम्‌ ॥ वना जिनके जकारं एवं कमं ( बङि-हवन जदि ) संकीर्ण
इषुकं चित्रकं चास्य लल्षाटचक्षुषि ( व्यधात्‌ ) | | ड । तब स्कन्द्‌ की उस परिचारिका अर्थात्‌ -युखमण्डिकी
ने कहा-रेखा ही होगा 1 इस प्रकार सुखाचिका ( युखम-
नासिकागण्डविबुकवक्रे चित्रविरोषकान्‌ ॥ ण्डिका 9)उस्पन्न इदे ॥ | |
गन्घर्वाप्सरसश्चेनं रमयन्ति गणास्तथा ।
ततोऽनवीद्रालभावान्मातरं भगवान्‌ गुहः ॥ . कपित्थनिल्वतर्कारी विम्बीगन्धवेहस्तकाः ।
एतमेव महादेवजटाभारं विभूषणम्‌ । तेलमेतेस्तु संयुक्तं हितमभ्यज्जनं शिशोः ॥
देहीति न च लेभे तं पुनः पुनरपि ध्रवम्‌ अव इसकी चिकित्सा सुन-कपित्थ (केथ ), बिल्व,
गुहसत्वलभमानस्तं रुषितो ललितः सदा तर्करी ८ अश्िमन्थ-अरणिका ) बिम्बी (कुरी ) तथा.गन्घ्‌ चः
१० काश्यपसंहिता. वा `बरद्धजीवकीयं सन्श्रस्‌ । [ बालग्रह चिकिस्सिताध्यायः

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पितौ ती पी नि 0 0 ^. 5

वहस्तक ८ एरण्ड ) -दनसे सिद्ध किये हुए वेल कारशि्युकी करना `चाहिये ¦ इस काथ से परिषेचन्‌ करने के बाद निम्न
आंखो मँ अञ्जन करना चाहिये ॥ | तेरु का अभ्यञ्जन करना चाहिये । गोमूत्र, बकरे का मूत,
नागरमोथा, देवदार, कुष्ट तथा छोटी इरायची आदि स्वं
खुङ्खकं पञ्चमूलं च श्योनाकोऽथ मधूलिका । गन्ध की ओषध्यो से अभ्यञ्नन फे छिपे तैर पाक करे
मधूकानि.खचः चीरी पिप्पल्यस्तेशु तंपचेत्‌ ॥
गव्य चीरं गवां प्रक शकरामधु संयुतम्‌ । वक्तव्य-सर्वंगन्ध-सुश्च॒त सू. अ. ४६ मं कहा है--चाठु्जा
तककपर ककोल्ययुरुङङ्कमम्‌ । ल्वद्गसहितद्रेव सर्वगन्ं विनि.
पिवेत्‌ कोलमितं बालस्ततः संपद्यते सुखी ॥ दिशेत्‌ ॥
स्वहप पञ्चमूल, श्योनाक ( अरद् ), मधूलिका (मर्कट-
हष्तवृण~गुडतृण), महुभा, सीरी बलो ( दूध वारे इहो) शी खदिरं रोहिणीसारं पलाशं कङ्कुभलखचम्‌ ।
स्वचा तथा पिप्पली इनसे गोका घृत सिद्ध करे। इसमे गौ | एतं संभ्रव्य संभारं क्षीरे सपिर्विपाचयेत्‌ ॥
का दूध डारुकर पाक करे तथा शकरा एवं मधु मिराकर | तत्‌ सिद्धं ले्येत्‌ काले शकराह्ौद्रमात्रया । .
बाख्कको एक कोर (६ माश) मात्रामें देने से वह सुखी | शीतपूतनया प्रस्तो मुच्यते पथ्यभोजनः ।।
( स्वस्थ ) हो जाता ह ॥
खदिर, कटूफरू का सौर, पराश ( दाक >) तथा अर्जुन `
कुष्ठं सजेरसं चेव यवाः सपिश्च धूपनम्‌ । की छार इनका काथ बनाकर तीन भागम एक भागदुध
सपेवीरल्लचाषाणां जिहानं धारणं मणेः ॥ ` डार्कर षृतपाक करे! इस से तिद्ध इए घृत मे शकरा `तथाः
जीण मोजनमप्यस्य ततः शस्तं प्रदापयेत्‌ । मधु भिलाकर उचित कारुमें सेवनं करनेसे तथा षथ्यकाः
सेवन करने से बारुक रीतपूतना ग्रह से मुक्त हो जाता दै ॥ :
कुष्ट ८ कठ ), रार, जौ तथा धरत का धूपन देना चाहिये ।
संप, वीरल्न ( सुश्चतमें वीरज्नके स्थान पर शचिरह्ञि' दिया | गृ्रोलूकतरत्तणां पुरीषाणि समानयेत्‌ ।
हेजो किं चिज्ल के चयि याहे) तथा चाष (कर्णायस ) अभिको बस्तलोमानि पिचुमन्दश्च धूपनम्‌ ॥
की जिह्वा भौर भणि्यो का धारण करना चाहिये । तथा प्रहरे
भोजन के जीणे हो जने पर उसे दूरा भोजन देना चाहिये । शीतपूतनया रस्ते तच्चेदं च चिकित्सितम्‌|
सुश्रत उ. अ. २५ मँ इसङी निश्न चिकित्सा दी है-रपित्थवि- गुध (गीष), उज्ल तथा तंदूबाघ की पुरीष (मर), चित्रक.
दवतकांरीवांरीगन्धवहस्तकाः । कुबेराक्षी च योज्याः स्युबालानां बकरे के बार तथा पिचयुमन्द्‌ ( नीम ) की धूप देनी चादहिये।
परिषेचने ॥ स्वरसंभृज्गवृत्ताणां तथाऽजदहरिगन्धयोः । तेल वसां च इष प्रकार शीतपूतना म्रहसे आक्रान्त बारुक की पूर्वोक्त
संयोज्य पचेदभ्यज्ने शिशोः ॥ मधूकिकायां पयसि तुगाक्षीर्या गणे तथा यह चिच्धिता हे |
तथा । मधुरे पञ्चमूले च कनीयस्सि धतं पचेत्‌ ॥ वचा सजैरसः कुष ॥ वक्छष्य- पहर शोक मे भी श्षीत पूतना अह का प्रतिषेध
सपिन्योदधूपनं हितम्‌ । धाप्येदपि जिहाश्च चाषचीरषिसपंजाः ॥ दिया हा हे 1 अब भी. पुनः शीतपूतना ग्रहं की. ही चिकिसा
वंवा चणकं माल्यमज्ञनं पारदं तथा । मनःशिल्य चोषहरेद्‌ गोष्ठ- दी हे.। य्ह के श्खोक भी यदिपूर्वोक्त श्छोको के साथहो दिये
मध्ये बर तथा॥ पायसं सपुरोडाशं बस्यथंसुपसंहरेत्‌ । मन्त्पूताभि जाते तो अधिक विषयश्ुद्धि प्रतीत होती हे॥ -. :
रद्धिश्च तत्रैव स्नपनं हितम्‌॥ अलङ्कृता रूपवती सुमगा कामरूपिणी।
गोषठमध्याल्यरता पातु त्वां सुखमण्डिका ॥ __ . . अत उध्वं तु सर्वेषां णु सामान्यभेषजम्‌ ।॥ =,
अतश्चोध्व प्रवद्यामि शीतपूतनयाऽदिते ॥ ` ऋअभिमन्थः कुरबको वरुणः पारिभद्रकः |
नादेयी सुरसा बिम्बी कपित्थं जीवकस्तथा ।. तिशाऽनलः पोटगलः पूतिका रोहिषस्तथा ॥
नदीभल्लातकं श्यामां विल्वं शीतशिवं तथा ॥ एतेन परिषिक्त्य तेलमभ्यज्ञनं णु ।
एतं (भिः) कषायं निष्कराथय परिषिच्ेत्‌ सुखाम्बुना । प्रियज्गू रोचना चेव शतपुष्पा कुटन्नटम्‌ ॥
एतेन परिषिक्त्य तेलमभ्यञ्लनं णु ॥ तालीसपत्रं नलदं तथा चन्दनसारिवे !
गोमूत्रं बस्तमूत्रं च सुस्तकं देवदारु च | . मधूकाङ्ोठमञ्छिशठाप्थ्नीकाभूतिकानि च ॥
कुष्ठं च सवगन्धाश्च तेलमभ्यञ्जनं पचेत्‌ ॥ ए स्तेलं समं सिद्धं मुद्राम्लोदकसंयुतम्‌ ।
भवं श्ीतपूतना से पीडित बारुक की चिकिसा गा एतेन बालमभ्यक्तं मुच्छत्याश पिवप्रहः॥
नादेयी (नागरमोथा), सुरसा ( तुरुसी >, बिम्बी (कन्दूरी), | भिम्बीकाश्मयंमधुकं कुलव्था बदरा यवाः
केथ, जीवक, नदी भज्ञातक ( नदीपिप्यली-गण्डोपदी ), सुडाकपच्चमूलस्य निष्काथं चात्र दापयेत्‌ ॥ ::
` त्रिष्त्‌, बिरुव तथा शीतशिव ( सेन्धव या शेरेयदुष्प ›इनका खजर सुस्तकं चेव नारिकेलफलानि च.
काथः बनाकर. द्तके.क वोष्णः ८ ईषदुष्ण ) जरु से पृखिचनः नालिकाङ्करमृद्रीका मधुकं मधुकं तथा.॥ .
?]
प्लीहहदयीभूचिकिण्ठिताध्यायः च्चिकित्छास्थानम्‌ । ९०१५१

क) क ^क क +
7 +, # ति पभ ५


पा । + क न का (=ता
= क क)
^का) क,
१०५५५५० [० (नि

वारा वैच रोगीको आंवछेकेरसमें त्रिवृत्‌ चूर्णं मिराकरं


~ [+ व त नाता
शाक) क क 9

एतानि शुष्कचूणारि
युक्तिपूर्वक विरेचन कराये । तथा विरेष्वन हो जाने के वाद्‌ उसे
॥।

मधुर एवं अविदाही पदार्थो काही सद्‌ा सेवन कराना चाहिये ।


यदि रोगी दुर्वरु हो तो उसे सदा गुडहरीतकी का प्रयोग
८ इति ताडपन्नपुस्तके १०५ तमं पत्रम्‌ । ) कराये ॥
जब सव महो की सामान्य चिकित्सा सुनो- अञ्चिमन्थ रक्तपित्तौषधं यच्च तच्चाप्यत्र प्रशस्यते ।
(अरणी ), ऊरवक { रक्क्निण्टी-खार्कटसरेया ), वर्ण, धात्रीफलानां पक्रानां खरसस्याढकं भवेत्‌ ॥
पारिभद्र ( पर्व॑तनिम्ब ), हरिद्रा, चित्रकः, पोटगङ (नर ); पित्पल्यो मधुकं द्राक्ता चन्दनोशीरबालकप्‌।
पूतिका ( चिरविट्व ) तथा रोहिष ( कत्तुण-ध्यामक )-इनके
काथ से परिषेक करने के वाद्‌ निश्च तेर से अभ्यङ्ग (मारिश्ञ) घृतप्रस्थं पचेदेतैः पके दद्याच्च शकराम्‌ ॥
करनी चाहिये-प्रियङ्क, रोचना ( कग्पि्ञ जथवा कंक ) सौर, तक्खिहेन्मधुना प्रातः पथ्याशी नी सजो मवेत्‌ ।
कुटन्नट ( तगर ), तालीक्चपन्न, नरद्‌ (जटामांसी ) रक्तचन्दन, एतत्‌ पित्तोत्तरे कार्थ, शरुः बातोत्तरेऽपि तु ॥
सारिवा, महुभा, अद्धो, मंजिष्ठ, पृथ्वीका ( बडी इखायची >| तथा जो रक्तपित्त की चिकित्सा ( जवस्था के अयुसार
तथा भूतिक ८ सूनिस्व }-दनसे तेर सिद्ध करके इसमे मंग लष्कन एवं तर्पण ह्ंहण तथा पेया जादि का प्रयोग )है, वह
तथा कांजी डारुकर अभ्यङ्ग करने से पितृ्रह बाख्क को ज्ञीघ्र सी इसमे उपयोगी ह । पके हुए आवल के $ आदक (४ प्रस्थ)
ही छोड देते ह ¦ बिम्बी, गम्भारी, सुर्टदी, ऊुरुत्थ, बेर, जौ रसे १ प्रस्थ घृत तथा पिप्पली, मुरुहरी, द्वारा, चन्दन,
तथा रधु पञ्चमृर (श्ाङिपर्णी आदि >)का क्राथ देना चाहिये खस तथा नेन्रवारा जादि ओषधिर्यो का कर्क डारुकर घृत
तथा खजूर, नागरमोथा, नास्यिरू का एर, कमर्नार के पाङ करे !घृत तैयार होने पर उसमे शकरा तथा मघ मिखा
अङ्कर, सुनक्छा, महुभा तथा सुरही का शुष्क चूणं देने से कर रोगी भ्रातः कार चाटे तथा पथ्य का सेवन करे । इससे
भी ग्रह ङी बाधा दूर हो जाती है" "^ सेमी नीरोग हो जाताहै । यह पित्त की अधिकता में चिकिर्षा
( इति ताडपत्रपुस्तके १०५ तमं पत्रम्‌ ) कही गद हे ॥ ॥

कल्याणकः बलातैलं कौमारं वा प्रयोजयेत्‌ ।



0१४१

छ्ीददटीमकचिकिर्दि ताध्यायः | क(मलापार्डुशोथानां तुल्यं ङुयांच भेषजम्‌ ॥


०७ $ % @० ४ ७9 क # € # क क कन %% र
यथ्याशिना च सततं सेव्याऽगस्त्यहरीतकी ।
वातिक हलीमक की चिङिससा--दइसर्मे कल्याणकारक
क @ के ® @ @ $
दोऽग्निबिलसंच््यः ।
# क 9 # छ ¢ # @9 9 छे
बलेक, तथा कमारकल्याण धृत का प्रयोग करना चाहिये;
मृच्छ दृष्टा घरभस्तन्द्र विषादारुचिगौसयम्‌ ॥ इसक्छी कामरा, पाण्डु एवं कोथ रोग के खमान चिकित्सा
्यहरी तकी
रनी चाहिये वथा पथ्य का सेवन करते इए अगस्त
हलीमक के छन्तण--अभ्चि एवं बरु अथवा जाटराि का
क प्रयोगा करना चाहिये ।
हीण होना, मूच्छ, तष्णा, चम, तन्द्रा, विषाद्‌, अर्चि तथा
दररीर का भारीपन-ये हरीमक के रुकण होते है ॥ वक्छब्य--( 1 ) चरक चि. अ. १८ अमस्स्यहरीतकी का
शैं बलाम्‌ ।
निच्च योग दिया हे--दरमृलीं स्वयंगुप्तांशङ्खपुष्पीं
तस्य प्रतिश्छियां ्योद्ातपित्तदरीं बुधः । हस्तिपिप्यस्यपामागेपिप्यलीमूलचित्रकान्‌ ॥ भागौ पुष्कर मृरं च
गड्चीष्वरसे सिद्धं सकतीं माहिषं घृतम्‌ ॥ द्विपलं यवाठकम्‌ । इरीतकौ शतं भद्र जके पञ्चाठके पचेत्‌ ॥ यवै
उपसिग्धं ततस्तं तु खंसयेद्रलकालवित्‌ । ा ।पचेद्‌गुडतुला दा कुडवं च पृथक्‌
्चशतम्‌
सिन्नेकषायं तं पूतं तचमयः ! छिदयाद्‌ द
रसेनामलकानां त॒ अिवरद्युक्तेन युक्तितः ॥ पतात ॥ वैलास्छपिप्पटीचूणात्‌ सिद्धीति च माक्षिकाव
चाभये नित्यमतः खदिद्रसायनात्‌ ॥ तदलीपटितं्वरम्इन्ति वणायुवेरव-
मघुरास्यविदादीनि विरिक्तं नित्यमाशयेम्‌। ‌ ॥ हन्यात्तथा
बेलस्य प्रयोऽया तु नित्यं गुडहरीतकी ।
दु धनम्‌ । पद्धकासान्‌ क्षयं श्वासं दिका च विषमज

सोयह णी इद्रोगारुचिपौनसान्‌ अगर्त्यविहितं र्ट रप्तायनभिद
बुद्धिमान्‌ भ्यक्ति को इनकी वात तथा पित्तनाक्चक चिद्धि. हलीमक रोग की
छुभम्‌ ॥ (> ) चरक चि.अ. १ध्मेभी
स्सा करनी चाहिये अर्थात्‌ यदि रोग वातिक हेतो वातनाशक | निम्न प्रकार दी है-यद्धचौस्वरसक्षीरसाधितं मादिप
तथा पैत्तिक है तो पित्तनाक्चक चिकित्सा करनी चाहिये । चिकित्सा
। स पिबेत्‌ तरिदृतां स्निग्धो रसेनामल्कस्य तु॥ विरिक्
तो मधुर
वेत्तिक दरीभक की चिकिस्सा-गिखोय के स्वरसमें भेलके धतम्‌ मनेत्वतानिरापदम्‌ ॥ द्ाश्र्ं च पूर्वोक्तं सर्पीषि भराणि
चृत तथा दूध को यथाविधि सिद्ध करके रोगी को देवे । इस चमायं} या{पन्दीरवस्तीश्च चसीरयेत्सानुवासनान्‌ ॥ मृदीकारिष्टयोगांश्
धृत के सेवन से स्नेहन हो जाने पर बरु तथा कारु को जानने
१. कुमारकट्याणषतमित्यैः ।
~

१ अस्या अष्टपत्रात्मको मन्थः) खण्डितस्ताडपत्र पुस्तके ।


१४ काण |
१०६ कार्यपसंहिता चा दृद्जीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ उदावततंचिकिस्सिताध्यायः।
ह +7 क 0

पिबेवुवत्याऽभिकृद्धये। का्तिकं चाभयालेहं पिपली मधुकं वाम्‌ । | वतो वामबाहौ कूपैरास्य^तरतः शिरां विध्यद्धिमदं
येत्‌पणिना ष्टीदा-
पयता च प्रयुज्ञीत यथादोषं यथावलम्‌ ॥ नं रुषिरस्यन्द नाथम्‌" । दसी प्रकार इसमें षरपरु अथवा क्ीर्‌ष. `
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ` टपर. धृत, रोहितक धृत, शुडदहरीतकी, पिष्परीवधंमान, `
आदि काभी प्रयोग क्ियाजाताहै) तथा वात ओर कफकी
(इति) प्ठीहाहटीमकचिक्षित्सतम्‌ । प्रधानता में चरक मँ अग्निक का विधान भी दियाहेकहा
भी है-“'अग्निका्म च कुर्वीत सिषण्वातकफोस्वणे 1"
एेला भगवाच्‌ कश्यप ने कहा था । -
वक्तम्य--इत्त अध्यायं नाम फे अनुसार प्टीटारोग ( इति >)ष्डीहाहरीमकविक्िस्सिताध्यायः ।
( ष्छीहोदर-ष्ठीहाबद्धि ) तथा हरीमक रोग की चिकित्सा
होनी चाहिये । . परन्तु इख अध्याय के प्रारम्भिक भागके
खण्डित होने से उपरुन्ध अध्याय मै ष्लीहारोग का बिल्कुल उदावतंचिकित्सिताध्यायः। `
वर्णन कहीं है । इसमे केवर हटीमक रोग की चिक्ठित्सा ही अथात उदावतेचिकित्सितमध्यायं व्याख्यास्यामः ॥१॥।
हे। हटीमकरोग~पाण्डु, कामला तथा कम्भकामला का ही
श्रषृद्ध रूपदहै। चरक चि.अ. १६ हरीमकरोगका निम्न इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥ २॥ |
स्वरूप दिया है-यदा तु पाण्डवैः स्याद्धरितस्यावपीतकः । बरो- अब हम उदावत चिकित्सा का व्याख्यान करेगे । पसा
त्साहक्षयस्तन्द्रा मन्दा्िल्वं गरदुल्वरः ॥ खीष्वहषोऽङ्गपदश्चशासस. भगवान्‌ कश्यप ने कहा था ॥ १-२ ॥ |
'्णाऽरचिभ्रंमः। हलीमकं तदा तस्य विचादनिरपित्तनः ॥ सुश्रुत
कषायकटुतिक्तषक्तशीतपूतिश॒ष्कशाकबल्दयुरपि- ,
उ. अष्णं भी कहा है-तं वातपित्तादरिपीतनीलं हलीमकं
नाम वदन्ति तज्जञाः॥ अर्थात्‌ हरीमक रोग वातं तथा पित्त ण्याकञुनिषण्णकदु
ग्धिकाकोद्रवश्यामाकनीवारयवककः
सेहोताहै। इसीवियि प्रकृत अन्य सनै वातिक तथा पत्तिक (2) वेत्राप्रककंन्धूकपित्थबिल्वकरीरगाङ्गेरुकीलिङ्कचपाः
हीमक रोग छी पृथक्‌ चिकिर्षा दी है । अब हम ष्टीहारोग रावतभन्यकाञ्चिकशुक्तारनालतुषोदकमुद्रकलायातसी- `
का वर्णन करते ईह ष्टीहारोग से अभिप्राय प्ठीहा ( 9९९) प्रथृतिनिषेबण्कक्तारमनो व्तभूयिष्ठपर्तेवेगविषारणा-
की षृदधि ( एणःण्ट<ण०० )है 1 चरक चि. अ. १३ इस दनिलः प्रकुपितो देहमूध्व्॑ुदाुत्य वायुनोदानेन प्रस्या-
बृद्धि के निम्न कारण दिये है--अरशितस्यातिसंक्नोभाचानपापाति- हतो गदमासाध्याशयं कृखाऽधोवहानि स्रोतांसि दूषः
चेष्टितैः \ अतिन्यवायभाराथ्ववमनव्याधिकसैनैः. ॥ वामपारश्वभ्रितः
प्टीहा च्युतः स्थानास््व्धैते ! शोणितं वा रसादिभ्यो विवृद्धं तं विव-
यित्वा बिण्मूत्रकफपित्तानिज्ञणुक्रमागादुपरुणद्धिः तत
धयेत्‌ ॥ अर्थात्‌ भोजन के पश्चात्‌ सवारी आदि अत्यधिकं शारी. अआनाहुपजनयति प्राणहर तल्लकतणं वा । चीरुपसेः
रिक चेष्टार्भो के कारण प्टीहा की दद्धि हो जाती हे।ष्ठीहा- वमानस्य शिशोरचिरं वा कदटीधारणाद्रस्तिगुदसंरोध-
छृद्धि का स्वरूप--तस्य प्लीहा कषठिनोऽष्ीलेवादौ वर्ध॑मानः नादतिरोदनात्‌ प्रजागरादस्तेहास्दीरानुपसेवनादरेगषि-
कच्छपसंस्थान उपलभ्यते, स चोपेितःक्रमेण कुक्षि जठरम धारिण्या उपवास्प्रमिताशनविषमाशनभ्रजाग र
चित्रया
, गन्यथिष्ठानं च परिक्िपन्नुदरमभिनिवेतैयति । अर्थात्‌ ष्टीहा ्यायामनित्यायाः च्ीरमामोद्यते वायुना; तत्‌ पीयमानः
करिन होकर आकार म बद जाती हे तथा ककि जदिकोषेर मुदाघर्ताय संपद्यते । तत्र षडुदावर्ताः । बातविर्मूत्रशु-
रेती हे ! ष्छीहावृद्धि के कुषण--तस्य रूपाणि--दौकल्यारोचका-
विपाकवर्चमूत्रयहतमः प्ररेशपिपासाङ्गमद्नडं दिमृच्डयज्गसादकासश्वास कच्छर्दिक्तवथूनां संधारणादप्रत्तेशच षण्णां षड्च्यन्ते ।
खृद्ज्वरानाहाश्चिनारशकादर्यास्यवैरस्यपवंमेदाः कोष्ठे वातशलं चापि तदुदावतेसामान्यनत्त॒ तमेकमेवाहुरेके । तेषां नवेगा-
चौदश्मरुणवणं विवणं वा नीरुहरितदारिद्रराजिमद्धवति । सुश्रुत न्धारणीयेऽध्याये लक्षणान्यौषधानि चोक्तानि । तानी-
नि. अ. ७ मे हृक् रोग की सभ्प्राक्ति निम्न प्रकार से हापि तु दारुणसादस्य ठ्याधेयक्कश्चिदुपदेदयामः ।
दी है-विदाद्यभिष्यन्दिरतस्य जन्तोः प्रुष्टमत्य्थमसर्‌ कफश्च । दलमूच्छादाहानाहाध्मानानिः ्रवृ्तिद्रेषो; वेवण्य,
प्लीदामिदद्धि सततं करोति ष्टीहोदर ततप्रवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ वामे संज्ञानाशस्खल्तनपतनविलपनत्ष्णाहिक्ताश्वासप्रस्वेदाऽ-
च॒ पादं परिवृद्धिमैति विशेषतः सीदति चातुसेऽत्र । मन्दञ्व-
राभिः कफपित्तरिङगेटपहुतः क्चीणवलोऽत्तिपाण्डुः ॥ प्लीहा शुद्धि की ज्गारपरिकर्तिकाभिरभीद्णं बाध्यते, बस्तिगुदहद
यपाश्व
चिकित्सा च० चि० अ० १३ में कहा हे-चिवित्सां संपरकुर्वीत व॑क्तणोदरशलमूरसादो व्यथा चे्युदावतलक्
तणानि 1
यथादोषं यथाबलम्‌ । स्नेहं स्वैदं विरेकं च `निरूहमसुबास्षनम्‌ ॥ पश्चादौ पू्ेरूपाणि भवन्ति ॥ ३॥ `
समीच्य कारयेद्याहौ वामे वा व्यधयेत्‌ रिष्याम्‌ ॥ अर्थात्‌ -प्ठीहा- । आनाह का हेतु-कषाय, कटु, तिक्त, र्त, शीत, पूति
इद्धि मे स्नेहन, स्वेदन; विरेचन, अनुवासन कराना चाहिये ८दुर्गन्धयुक्छ ) दव्य, सुखे शाक, बल्छर ( सुला मासि )›
तथा चाम बाहू मं शिराषेध कराना चाहिये ॥ सुश्रुत चि० ज० पिण्याक ( खल ), सुनिषण्णक ( चौपतिया धक्प्नोनम-1 8.
|
१४ मे भी कहा है--“्ठीदोदरिणः ` स्निग्भसि्नस्यः 'दध्नाः ुत्त- व्माज9 दुग्धिका ( दुदुषी ), कोद्रव-( कोद 9,श्यामाकः,
उदावत्तविकित्सिताध्यायः १ ] चिकिव्सास्थानय । १०७

0 ॥
1 +
^ भ ५०७.
0 ८ ५५ का ^ सा + सा+
क ता

नीवार, जौ, ककड ¢), वेत्राञ्च ( वेत का अ्रभाग ) कन्ध, विवर्णता (वणं का विकृत होना), संज्ञानाश, स्वन
कैथ, विल्व, कसर (ठंड ), गागे्की (गंगोढ ) कहर, पारा- | ( पिसख्ना ), पतन ( गिरना ), विपन ( बिरखप करना »,
वत ( कवूतर अथवा एक प्रकार का फएरु-फार्सा ), मव्य तृष्णा, हिका, चाल स्वेदं ( अधिक पसीना अना), अङ्गाय
( एक प्रकार का फर ); काजी, िरका, आरनारु ( काजी की तरह जना, तथा परिकितिंका ८ युदा मे क्तंनवद्‌ पीडा
~=
-=
नम

का मेद ), तुषोदक, मूग, कराय ( मटर ) तथा अरसी | अथवा (०: 9 हारा रोगी निरन्तर कष्ट पाता है! वस्ति,
आदि क सेवन से रक्त तथा वातग्रकरृति वारे पुरूष के मलम्‌. गुदा, हृदय, पाश्च, वंक्तण (कटि ) तथा उद्र मे शक होती
त्रादि कै वेगो ङो धारण करने से प्रकुपित इभा वायु कश्षरीर | हे । उर्ताद्‌ ( बुनो मं वेदना) तथा व्यथा (पीडा)
के ऊपर की र स्का इभा उदानवायु हारा आहत होकर इत्यादि उदावरतं के रकण होते ह! इनमें सेप्रारंभ के
गुदा में पहुंच कर वहां अपना स्थान बनाकर अधोवाही खोर्ती पांच अर्थात्‌ शूक, मृद्धं, दाहः, जानाह एवं आध्मान-
को दूषित करके मर, मूत्र, कफ, पित्त, वायु तथा शुक्त के उदावतं के पू्व॑स्प होते है । चरक चि० अ. २९
मार्गौ को अन्द्‌ कर देता है जिसते प्राणनाश्चक आनाह अथवा मे उदावत के निम्न ककण दिये है--र्गरस्तिदक््युद-
उसे कक्तण उत्पन्न हो जाते ई । सुश्रत में जानाह का निम्न रेष्वभक्ष्ं सपृष्ठपाददेष्वतिदादणा स्यात्‌ । ब्राध्मानहृहासविकति-
स्वरूप दियाहै-- आसं यादा निचितं क्रमेण भूयो विबडं वियुणानि- काश्च तोदोऽविपाकश्च सवस्तिशोथः ॥ वचोँऽप्रव्तिजंठरे च गण्डान्यु-
लेन । प्रवतैमानं न यथास्वमैनं विकारमानाहयदाहरन्ति ॥ तस्मिन्‌ ष्व॑श्च वायुविहतो गुदे स्यात्‌ । छच्ेण शुक्रस्य चिरासृन्तिः स्याद्य
भवत्या स्पे ठ" अर्थात्‌ आनाह आमदोष ते उत्पन्न होता है। तनुः स्यात्वररूक्षद्यीता ॥ ड
दूध पीने वारे वालक को बहुत देर तक कटि पर धारण करने वक्तव्य- आनाह के छ्य माधजनिदान में कहा हे-रमं
से अर्थात्‌ गोद मे उठाये रखने से, बस्ति तथा गुदा केवेग दका निचितं कमेण भूष विबद्धं वियुणानिलेन । प्रवत्मानं न
अर्थात्‌ मरु तथा मूत्र रो रोकने से, अधिक रोने से, जागरण यथास्वमेनं विकारमानाहय॒दाहरन्ति ॥ आध्मान-के शये सुश्रत
से, स्नेह की कमी से, तथा दुध के सेवन न करने के कारण में कहा हे--सायोपमत्युयरजमाध्मातयुदर शम्‌ । माध्मानमिति
मलमूत्र आदि के वेगो को धारण करने वारी तथा निष्य जानीयाद्‌ घोरः वातनिरोधजम्‌ ॥ २ ॥ ॑
उपवास, प्रमिताश्चन ( मपा इ जाद्ार करना ) विषनाश्ञन पच्चजनमादावुष्णलवबणतेलाभ्यक्तं यथायोगं खिन्न-
( विषम भोजन ), जागरण, चित्त मे ईष्यां तथा व्यायाम शरीरं फलवतिभिरुपक्रमेत्‌ । धिसंसितं च संतमुष्ण-
करने वाटी दीका दूध वायुके द्वारा विद्तहो जाताहे। स्लिग्धमधुरलवणप्रायमशनं यवगोधूमषष्टिकशाकषृतभरा- .
उस दृध के पीनेसे दिशुको उदावतं हो जाताहे। चरक यसानूपौदकमांसप्रायं बाऽऽहारमनुपद्रवाय बलिने उप-
चि० अ०२६ मे उदावर्तकादहेतु तथा संप्राधि निरन प्रकार
कल्पयेत्‌ । कोशातकीकश्रलाबुबीजपिप्पलीसेन्धवहिङ्ख-
से दी है-कषायतिक्तोषणरुक्षमोष्येः संधारणोदीरणनेधुनेश्च ।
पक्ाद्चये कुप्यति चेदपानः सखौतास्यधोगानि वली स ॒रदश्वा ॥
वचाहरितालमनःशिलामाषचूणैर्गोमूत्रपिष्ठेः फलघस्ये
करोति विण्मारुतमूष्रस्ङ्ग क्रमादुदावत॑मतः सधोरम्‌ ॥ अर्थात्‌ उपवाता ( क्लुघरा ) घृताक्ते कटुतेलाक्ते बा शुदे शला-
कषाय तिक्त जादि भोजना तथा वेगसंधारण आदि से पका कया प्रणयेत्‌ । पूर्वदेव चोपचारः । म्रहणाच्छादनप-
दाय मे कुपित हआ अपान वायु अधोगामी खोर्तो में रिषेिकाशनानि तानि चास्य खिग्धोष्णानि विद्ध्यात्‌ ।
सकावर पैदारूर देता है जिससे पुरीष, मूत्र एवं वायु जादि सन्तुबास्यङ्कल्माषापूपवास्तुकयवशाकञुधापत्रत्रिच्च्छा-
की प्रवृत्ति बन्द हो जाती है । इसे ही उदावतं कहते कपच्राङ्गलश्रीवारिकाश्रीफलासुवचेलाकाकमाचीकलाय-
हे! इती प्रकार सुश्रत उ० अ० ५५ मेँ भी कहा दै। पालङ्कयादिभिश्च शाकैषेतसिद्धरभोजयेदवान्नम्‌ 1 त्र
उदावक्तं £ प्रकार के होते दै! वात, पुरीष, मूत्र, शकर, सीद्टुयवोत्काराम्‌ वा गोमूत्रेण पाययेत्‌ । तिबद्धरीतकी-
दिं (वमन › भौर वथु (छींक ) ५ हन ६ के रोकने तथा
अग्रन्रत्ति से £ प्रकार के उदाचतं होते ह । इन सब उदावतं श्यामापुधाः क्षीरेण युक्ता मू्रवाऽऽनाहमरदनम्‌
। त्रिफ
के सामान्य होने से कृषं रोग एक ही प्रकार का उदावतं लादन्तीश्यामाभरिवृत्कभ्पिह्लकपीलुसखण्तीरीवचासप्ला-
मानते है । चरक सू० अ० १९ मे भी दै प्रकारका ही उदावतं नीलिकाग्रह्नीचर्णनि सुधाक्तीरेण गुटिका आमलक-
दिया है-षड्दावर्ता इति-"व तमूत्रपुरीष श॒क्रच्छदिरवथुजाः। मात्रीः कृट्वा तत एकां भक्षयित्वोष्णोदकमूत्रातुपाना-
सुश्रत उ० अ० ५५ वात मरु मूत्र, जम्भा जादि के रोकने दानादैरयुच्यते । एतान्येव त्रिफलादीनि चीरमू्रवजि-
से 4३ प्रकार का उदावतं दिया है। “न वेगान्धारणीयः तानि पञ्चकटुकपञ्चलवणहिङ्खङ्ष्ठक्तारद्रयशतपुष्पापाटा-
अध्याय में उपर्युक्त ६ प्रकारके उदावता के रुरण तथा
चिष्िस्सा दी गई हे । इस व्याधि ® दारुण ( भयंकर ) होने ्रीफएलयुतानि चानि छतां विडालपदकं तीरमचो-
से उनसे से कुच कुचषण यहां भी फहे जते है--शू (पेर में ष्णवारिगोमूत्रान्यतमपीतमानाददयूलगल्मभगन्दराशेसां `
ददं >),मुद्ध, दाह, आनाह तथा भध्मान ( जफारा-एाध्ाप- निर्णाशनं चूण, नाराचकमित्युच्यते तत्‌ ॥। ४ ॥
1५9०6 >), म्रषत्तिष्टष ( किसी चीज मं प्रहत्ति-रुचि न होना ); सबसे पूर्वं उष्ण तथा लवणयुक्त तेर से अभ्यक्त ( माजि `
९०७८ काश्यपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ शजयदचमचिकिस्िताध्यायः 1 ॥॥

0. |
0

यदि उदावत रोग इन उप्यक्त उपक्र्मो-( चिकिसा


ग ५०७९ प ०

कयि इए ) उस पञ्चजन ( मचुष्य-रोगी ) को आवरयक-


तानुसार स्वेदन करके फरवत्तियो ( गुदवतियो-ऽपा?००४०४- सेटीकन दहो तो उषे उष्ण तथा उचित परिमाण में ख्वण
९ 9 छ्खारा चिकित्सा करे । विरेचन हो जाने के वादं यदि से युक्त निरूह तथा भास्थापन बस्ति देनी चाहिये“ “* 1
कोई उपद्रव न हो तथा रोगी बलवान हो तो उसे उष्ण, वक्तम्य- चरक चि० ०० २६ मे उदावतं का निश्न चिकि
स्निग्ध, मधुर एवं क्वण रस प्रधान, जौ, गहूं, षष्टिक, शाक स्वाक्रम दिया हैतं तैरशीनञ्वरनाशनाक्तं स्वेदेयेधोक्तः प्रवि.
तथा धृतयुक्त एवं आनूप तथा ओदक पशुओं के मांस वाला नदोषम्‌ । उपाचरेदतिनिरूदवसतस्नेदैविरेषेर रंलोमनाचः ॥ इससे
आहार देना चाहिये । तथा कोक्चातकी, कड़वी तुम्बी के बीज, भागे चरक सेक फठवर्तियो तथा प्रधमन चूर्णा का उपयोग
पिप्पली, सेन्धानमक, हींग, हरता, मनशश्ञिखा तथा उडद देते ॐ बाद लिखा है-तेषां विघाते तु भिषयिदध्यात्स्वभ्य-
के चूण को गोमूत्रे घोटकर बनाई इद फरुवतियां घी ्सुसविन्नतनोनिरूढम्‌ । उरध्वानरो मौषयमूत्रतेरक्षीराम्वातव्नयुतं
अथवा कडवा तेरु कगाकर गुदामे शराकाके द्वारा अन्दर सुतीक्ष्णम्‌ ॥ अर्थात्‌ यदि इन वर्तयो तथा प्रधमन चर्णो से
प्रविष्ट कर दे ! इनका उपचार पहरे के समान ही करना काभ नहो तो देह पर अभ्यङ्ग एवं स्वेदन करके वमन;
चाहिये ! इसके लियि म्र्तण ( मालिक ), जच्डादन ( वख ); विरेचन, जौषध, गोमूत्र, तैल, दूध तथा कांजी जादि से युक्त
परिषिक तथा भोजन आदि खव स्निग्ध तथा उष्ण होने अच्छी तीच्ण निरूहबसिति दे । इसके वाद्‌ दोषमेद्‌ से निर्ह `
चाहिये । सत्त, वाव्व ( यवमण्ड-जथवा जौ का दल्या ), वस्ति मे भिन्नरे द्भ्यो की योजना दी है--वातेऽधिकेऽम्ं
कुरमाष ( अर्ध॑स्विन्न मुद्‌ आदि घुधुनी-९०५6५ रथान, र्वणं सतर करेण पिन्तेतु कफे समूत्रम्‌। स मूत्रवचोँऽनिर्सङ्गमाशु
१219 1001160 1 सकय) एष्ट ४710 {11€0 22806 10
>), बुजा, गदं सिराश्च प्रगुणीकरोति ॥ अर्थात्‌ वात की जधिकता मं अम्र,
९8:68 25 02.1166 (1110 8.5118. ), अपूप ( माख्पूजा
लवण तथा तैर-युक्त, पित्त की अधिक्तामें दूध तथा कफ
यव, शाक, सेहुण्ड के.पतते, चिवत्‌ शाकः, पञ्चाङ्कल ( एरण्ड );
की जधिकता में गोमूत्र युक्त बस्ति दी जाती दै ॥ ५॥
भ्रीवारिका ( शितावर ज्ञाक ), श्रीफला ( बिद्व ), सुवचा
( इति ताडपत्रपुस्तके ११४ तमं पत्रम्‌ )
( हरु ), काकमाची ( मकोय ); कराय ( मटर ), पालद्भ्य
(पारक ) इत्यादि घी मे बनाये इषु शाकं के साथ यवान्न
---
५/9 १"

(जौका अन्न) रोगी को लिये । चिचत, पीलुः एवं


यवोस्कार गोमूत्र से पिरय ।त्रिवत्‌,हरीतकी, श्यामा, सुधा
राजयक्ष्मत्चिकित्सताभ्यायः।
( थूहर ) को दघ अथवा गोमूत्र के साथ देने से आनाह नष्ट
होता है । निषा, दन्ती ( जमाख्गोटा ), श्यामा ( काली $ > & 5० के * > क @ # न क क छै क # क + ०
७ क क 9 ऊ क 5 ७ = 9 * 9

निखोत ), रिषत्‌, कमीरा, कपील, स्व्णङीरी (सत्यानाशीर), 7 ५०००७१००१५०००००००, (रोगा) नीकविनाशनम्‌ |

वचा, सातला, नीलिका ८ नीली ), म्रहध्नी ( शेव सषंप ) के , पिप्पल्यो षिंशतिःश्रे्ठा उद्कारांढके शताः ॥
चूर्णो को सेहुण्ड ८ थुहर > के दृध म घोटकर जांवले के प्रमाण
की गुटिका बनाकर उभ्ण जट अथवा गोमूत्र के अनुपान्‌ से
चतुर्भागावशेषं तं छागक्षीरेण तावता ।
एक गोटी का प्रयोग करने से आनाह शान्त हो जाता हे । श्तं नियं पिवेच्छोषी तेनैवास्रीत नित्यदा ' ॥
हीर (दूध) तथा गोमूत्र से रहित इन्हीं उपयुक्तं त्रिरा विना वाऽन्नोदकं शक्तया तस्रधानो विुच्यते ।
आदि फो पञ्चकट ( पञ्चरेक-पिप्पी, पिप्पलीमूल, चभ्य, वक्तव्य--इस अध्याय मे राज्ञयच्मारोग की चिकिसा
चित्रक, सोट ), पञ्चरुवण ८ सेन्धानम्क, कारानमक, विड्‌ का वर्णन है । राजयचमा भय रोग को कहते हँ । क्योकि यह
रवण या नौसादर, सामुद्र तथा सांभरनमक ); हींग, कुष्ट, रोग सब से पूवं नत्ततरराज चन्द्रमा को हुआ था इसलिये
ततारदय ( सज्ीत्तार तथा यवक्तार ), सोफ, पाडा तथा श्रीफर इसका नाम राजयच्मा है । चरक चि० अ० ८ में कहाहे-
८ विर्व ) के सहित चूण करके इसको विडारु ( कषं ) यस्मात्स राज्ञः प्रागासीद्राजयक्ष्मा ततो मतः । सुश्रत उ० अण
मात्रा मे दूध, मचय, उष्णजर्‌, अथवा गोमूत्रे से किसी के ४१ मे भी इसी प्रकार कहा है! इस रोग को शोष भी कहते हे
अनुपान से पीने से भानाह, शूर, गुरुम, भगन्दर तथा अशं क्योकि इस रोग म करीर के रस काश्लोषण हो जाताहे।
का नाक्ञ करता है-दइसे "नाराचक' चूण कहते हँ ॥ ४ ॥ कहा भी है- संरोषणाद्रसादीनां शोष शत्यभिधीयते । क्रिया क्षयव-
तत्र श्लोकाः- रलाच क्षय इत्युच्यते पुनः ॥ यह अध्याय प्रारम मै खण्डित है । `
यदि व्यतिक्रमेदेतानुदावते उपक्रमान्‌ । इस खण्डित धंश मे राजयच्मा के हेतु, सम्प्रति, पूवंरूप
` युक्तोष्णलवणं तस्य निरूदमुपकल्पयेत्‌ ॥ ५॥ ` | तथा छक्तण इत्यादि होगे । राजयका रोग के मुख्य चार क
कारण माने जते है-( १ ) जपने बरुयाशक्तिसेअधि
। ^ 4
प्रस्थापन न्य्‌# #@ © @ #@ क ॐ # क क क क # # छ क क क क छ क # # क

कायं करना, (२) वेगो को रोकना, (३) धाडक्य,0


, ४५००५ ७०७७५० १००७५०५० ०००००७०५०००१००००.०.४
ष . „

(४ ) विषम भोजन । `
„ ® % @ क # ®= क # ७ 9 $ ड. ४ # #@ ४ # $ $ + ,# 9 @ ६१ # क 9 9 $> मड

(रि तादपनत्र
पुस्तके ११४ तमं प्रम्‌ )
^ पुस्तके ।
- १. अस्या पत्दवयात्मको यन्धस्बुरितस्ताडपत्र । २. सव॑दा इत्यभिसन्धिः |
राजय्मच्िकित्सितान्यायः
[कना कन्‌ 4
] चिकित्सास्थानम्‌ । १०९
#
+ च 1 +
[व + क 0 +

ञव हम अध्यायोच्छं विषय पर अते ईह-वीस उत्तम तततः पललं पलं निव्यं पाययेत्‌ पयसा शुचिः ॥
पिप्पल्यो को आधे जाढक-( २ प्रस्थ) जल म पकाया जीर्णे तस्मिन्‌ पिवेत्‌ कीरं मक्तोदकषिवजितः
जाय । जब चतुर्थाश्च जलः शेष रहे तव उतार कर फिर | मासात्‌ सोपद्रवं शोषं हन्ति नागवला नुण्म्‌ |
उसमे उतना ही बकरी का दूध डालकर पकाया जाय) प्रजामायुबेलं मेधां प्रयताय ददात्यपि |
सिद्ध होने पर उस दूध को शोष रोग के रोगी को नित्य पीना
चाहिये तथा अपनी श्षक्ति के अनुसार अन्न ओीरजल्का
परमासेन श्रुतधरः सवेरोगतिवजितः ॥
व्याग करे केवर उसी दुग्ध का जहार करना चाहिये । इससे अशीतिकोऽपि च युवा भदेत्‌ संबत्सरान्नरः।
वह रोग दूर हो जाता हे ॥ शरद्‌ ऋतु के प्रारंभ में नागवल्या की जडो को उखाड़कर
दरादशाब्दानतीतो वा स्िग्धखिन्नो वशोधितः ॥ सुखारे । उनका चर्म वनाक्रं एक नवीन वतंन मँ रखरे।
तब रोगी को जितेद्छिय होकर, ब्रह्मचयं पूर्वकं वन सें रहकर
पिवेत्‌ तीरेण पिप्पल्यः (लीः) पच्च पच्च च वधेयेत्‌। इस चूण का दूध के साथ सेवन करना चाहिये । तथा उन
शतं तथैव हसयेद्धोजनोदकवर्जितः ॥ दिनो खीएवंश्रूद का खहवास चीं करना चाहिये । पह
पिप्पलीवधेमानं तु सवेसोगपिना शनम्‌ । दिन चूर्णकी १ कष मात्रा होनी चाहिये । तथा उसे बहकर
यदि रोग १२वर्षकापुरानाद्योग्याहो तो रोगी स्नेहन, प्रतिदिन शुद्ध तथा पवित्र होकर दघ के खाथ नित्य 4 पर
स्वेदन तथा सोधन ८ पञ्चकं द्वारा) करके दृध के साथ मात्रा सेवन करनी चाहिये ! इसके जीणं हो जाने (पच जाने)
पिप्पल्यो का सेवन करें । प्रतिदिन पांच पांच पिप्पलियां परदूध का सेवन करना चादिये तथाञन्न एवं जल का
बदाकर १०० तक रे जाये तथा पिर उसी प्रकार करमशः त्याग कर देना चाहिये । नागबला का एक मास तक सेवन
घटाये । भोजन (अन्न) तथा जल का व्यागकर देना करने से मनुर्ण्यो का उपद्रव युक्त शोषरोग नष्ट हो जाता
वाहये । यह "पिप्पली वधंमान, योग सब रोगों को नष्ट तथा सन्तान, आयु, बल ओौर मेधा की बृद्धि होती है।
करने वाराहे! & मास के अन्दर रोगी सव रोगो से छुटकारा पाकर श्रुतधर
वक्तव्य--यचमा रोग के रोगी को वमन तथा विरेचन ( सुनी इई चीज को धारण करने वारा >हो जाता है तथा
यथासंभव नहीं कराने चाहिये भौर यदि करने हीप्डेतो उसी स्मरण एवं धारणाशशक्ति बद्‌ जाती है तथा एक वर्ष
बहुत संम करके कराने चाहिये । चरक म कहा हेयन्न तक इका सेवन करने से ८० वषं का बद्ध भी युवा (जवान्‌)
कषणमू' अथात्‌वमन विरेचन रेखे होने चाहिये जौ शरीर हो जाताहै॥ |
का कषंणन करें ॥ मर्ड्‌कपर्याः शर्छ्याश्च बराह्ययाश्च मधघुकप्य च ॥
पिप्पलीनां शतं बाऽपि श्तं तोयाटके सदा ॥ तद्गुणः सवेरोगन्नो विधिनांगबलासमः |
पादशिष्टं समच्ीरं श्रपयेत्‌ पुनरेव तत्‌। इसी प्रकार मण्डूकपणीं सेठ, ब्राह्मी तथा सुख्हदी का
कफाधिके तु सन्तौद्रः सघृतं पवनाधिके ॥ भी प्रयोग करना चाहिये! ये भीसबरोगों को नष्ट करने
पित्तोत्तरे शकेरया सेवमानः सखी भवेत्‌ । वाठे ह । इनकी प्रयोग विधि नागवङा के समान ही हे॥ ।
थवा १०० पिप्पल्यो को १ आढक जर में पकाकर उदर्तितस्त्वजलेण्डेरजामूत्राभिपेचितः॥ `
चतुर्थाश्च शेष रहने पर उतना ही दूध मिलाकर पुनः पकाया अजात्तीरं पिवेन्नान्यदजाभिश्च वसेत्‌ सह ।
ज्ञाय 1 कफ की अधिकता में इसमे मधु, वायु की अधिकता अधस्तादबटेऽजानां बसञ्दछोषी बिगुच्यते ॥
म घत तथा पित्त की अधिकता मेँ शर्करा ( खाण्ड ) भिराकर
सेवन करने से रोगी स्वस्थ हो जाता हे ॥
आजं रसायनं ह्येतत्‌ च्तयष्नं बलवधेनम्‌ |
पिप्पलीवधेमानं तु वातश्लेष्मोत्तरे हितम्‌ ॥ छ्य रोगके रोगी को वकरो की मेगनिर्यो ( पुरीष)
सर्वत्र पिप्पलीज्तीर हितं कालादिदशेनात्‌। के रस से उद्टर्तन कराना चाहिये, बकरी के मूत्र से परिषेचन
करना चाहिये । बकरी के दूध के अतिरिक्त दूसरे दूध का
वायु तथा कफ़ की अधिकता मे पिप्पली वधंमान योगः
सेवन नहीं करना चाहिये । बकर्ि्यो के साथ ही रहना
हितकर है तथा कारु आदि. के अनुसार "पिप्परी्तीरः दाहिये तथा जहां बकरियां बंधी जाती हैँ उस हप्पर आदि
( पिप्पल्यो के हारा श्त-पकाया हभ दृध ) सब जगह
क नीचे ही उसे सोना चाहिये । इससे चय रोग से छुटकारा
हितकर है ॥ | हो जाता है ! यह उपर्ं्त वकरिरथो का रसायन कय को नष्ट
शरन्धुखेनागवबलामूलान्युद्धूस्य शोषयेत्‌ ॥ करता है तथा वरू को बढाता है \ सुश्चुत सु ज० ४१ में
सन्निधाय नवे भाण्डे ब्रह्मचारी जितेन्द्रियः । कहा है--मजाश्रन्मूव्रपयोष्रतास॒ङ्मांसाकयानि प्रतिसेवमानः ।
खीशद्भवजौ विजने चूंसौरेण पाययेत्‌ ॥ स्नानादिनानाविधिना जहाति मासाददषं नियमेन सोषम्‌ । राञ्ज.
प्रथमे दिवसे कष ततश्चोध्वं विबधेयेत्‌। यदना मे बकरियो के महस्व के विषय में अन्यत्र मी कहा ङे
११० काश्यपसंहिता वा बुद्धजीदकीयं तन्त्रम्‌ । [ शजयक्ष्पचिकित्विताध्यायः 1
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श्धागं मासं पयरद्धागं च्यगं सपिःसरकंरम्‌। दागोपतसेवाश्चयनं पर उतार रे । इसमे जीवनीय ओषधियो फे सहित २ भाठक
मध्ये तु यक्ष्मनुत्‌ ॥ घी, पुक्‌ द्रोण बकरी का दूध तथा द्श्षम्‌ट का छाथ डालकर
हरीतकीनां श्रेष्ठानां द्वेशते जजेरीकृते ॥ पकाये । घृत तिद्ध होने पर उतार कर रुप्तस्थान ( धान्यरा्चि
आदि) में रखदं। एक मास बाद स्का सेवन करना
दशमूलसुधादन्तीकरञ्ञाधोगुडासनाः । चाहिये । हसा नाम इन्द्राणी धृतः है । यह्‌ राजयदमा को
मयूरकं देवदारु निचुलं इटजाटजी (% ॥ नष्ट करता हैतथा पथ्य का सेवन करने वारे वन्ध्या (बा्न), `
कटङ्कटेरी ब्रहती रखा श्योनाकचित्रको । नपुंसक तथा बद्ध पुरषो की कामशक्ति को बढाता है ॥
वरणं चेति संकुस्य पञ्चविंशतिकैः पलेः॥ लशुनं वाऽपि कल्पेन यथोक्तेनोपचारयेत्‌ ।
षडद्रोरोऽपां पवेदेतद्यावत्‌ पञ्चाटकं स्थितम्‌ ।
तस्मिन्‌ पूते गुडतुलां दस्ता भूयश्च साधयेत्‌ ॥
बुतस्यार्ांडके गन्ये जजर लशनाढकम्‌ ॥
घरृतभार्डे समावाप्य वषं धान्येषु गोपयेत्‌ |
परिवृत्तं समालद्य घृतभार्डे निधापयेत्‌ ।
षरमासमष्टमासं वा चतुर्मासमथो ततः ॥
मरिचानि विउङ्घानि मार्गीं शक्रयवांस्तथा ॥ पेयं नागवलावञ्च सवरोगेर्वभुच्यते
` ्मावपेत्‌ कुटबीजानि पिप्पलीप्रस्थमेव च ।
अथवा यथोक्त कल्पके द्वारा छ्श्न का उपचार करे।
मधुपस्थं च संस्व्य मासादूषव प्रयोजयेत्‌ ॥ आधे आढक (२ प्रस्थ) गोधृत में एक आढक
पथ्याशी मात्रया कले मुच्यते कफेगेदेः । (४ प्रस्थ)
यवड्कट करा हभ रुहसन डालकर उसे घी से स्पि इए बर्तन
महाभयारिष्ट इति कश्यपेन प्रकल्पितः ॥ मं डाख्दं । वषं भर तक उघे धान्यराशि मे पड़ा रहने द|
यवङकट की इदं ( कूटी हुईं ) २०० उत्तम हरड, दशमूरु, दसका जावश्यकतानुसार & मास < मास अथवा ४ मास
सुधा ( ूहर ), दन्ती ( जमाल्गो ), करज्, अधोगुड, तक नागबला क समान सेवन करने से सच रोग नष्ट हो
षन ( विजयसार ), अपामा, देवदार, निचुर ८ हिजल- | जाते ह ॥
समुद्रफर ); कुटज, अटजी (१); कटङ्कटेरी ८ दारहस्दी ), इनद्राणीषुतकल्पेन द्रा्ासुपिरिपाचयेत्‌ ॥
बृहती, रास्ना, श्योनाक ( अरट्ट ), चित्रक तथा वद्ग-इन्हं तथा पीटुघृतं चेव सव॑रोगोर्विमुच्यते ।
कूटकर सम्मिलित २५ पर रेकर & द्रोण जर में पकाये।
५ आढक ज शेष रहने पर उतारकर घन छे । उसमे १ तुला इन्द्राणी धृत, के समान ही (दाक्ता घृतः तथा "पीलु शृतः
का पाक करं। इनके सेवन से भी सब रोगों की शान्ति
गुड डारूकर पुनः पाक करं । पाक हो जाने पर उसे प्रहरे से
घीकारेप क्रिये हष ब्तन में डाख्दं । इसमे मर्चि, विढद्ग, हो जाती है ॥ | |
भारंगी, इन्द्रजो, ट ( गुवाक वीज ) तथा पिपरी का चूर्णं | इष्टयो रोहिणीनां तयोमङ्गलसेवनम्‌ ॥
१ प्रस्थ प्रहेपके स्पे डाख्दं। अव इसमे + प्रस्थमधरु. रुद्रपूजा धृतिः शौचं बह्मचयं च शान्तये ।
मिका । मात्रा एवं काल के भनुसार्‌ एक वषं तक पथ्य इस रोग की शान्ति के लिये इष्टियां ( यक्ञ ), रोहिणी
सेवन पूर्वक इसका प्रयोग करने से ररुभ्मिक रोग नष्टहोः नक्तत्र मे स्नान तथा उनका
जातेहै। यह कश्यप वारा प्रयुक्त महाभयारिष्ट'हे ॥ मंगल, रर की पूजा, पे,
पवित्रता तथा बरह्मचर्यं का पारन करना वाहि । चरक
्मपामार्गोऽश्गन्धा च नाकुली गौरसषपाः चिक्िस्सा अध्याय ८ में कहा है-यया प्रयुक्तया चेष्टया राजयक्ष्मा
तिला बिल्वं च कल्कः स्यात्‌ त्तयेपुष्रतेनं हितम्‌ | पराजितः । तां वेदविहितामिषटिमारोग्याथीं प्रयोजयेत्‌ ॥ भर्थात्‌
क ५, क ,

क्षयरोग में अपामा, अश्वगन्धा, गन्धनाकुखी, श्वेत इसमे वेदविहित इष्टि का विधान दिया गया हे ॥
सरसो, तिर तथा बिस्व के करक का उद्धर्तन हितकर होताहे ॥ षडकादश चोक्तानि यानि रूपाणि यद्मिणः ॥
` लशुनानां पलशतं निस्तुषं जजरीक्रतम्‌ । त एवोपद्रवास्तेषामशान्तौ स्वं चिकित्सितम्‌ |
जलद्रोणेषु दशु श्रपयेत्‌ पादशेषितम्‌ ॥ यच्मा रोगी के जो & तथा ११ रूप (लक्षण ) कहै हवे
धृताठकद्रयं तत्र विपचेल्जीवनेः सह । वि ¦
| ही इसे उपद्रव होते है । उन उपद्रवो के होने परउनरकी
चिकित्सा करनी चाहिये । |.
आजस्य पयसो द्रोणं काथं च दशम्‌ लिकम्‌ ॥
श्रावपेत्तदुषघृतं गोप्यं प्रयोऽयं मासतः परम्‌ । वक्तम्य--यह अध्याय प्रारंभ सं खण्डित है! उसञंगसें
इन्द्राणीचतमित्येतद्राजयद्मविनाशनम्‌ ॥ यकच्माकेये & तथा ११ रूप दिये गये होगे। चरक चि० अ०
८मंये.4१तथादेष्प निम्न दिये है-कासोऽसतपो भसय
बन्ध्याषर्ढकवृद्धानां कामद्‌ पथ्यभोजिनाम्‌। ज्वरः पाखंरिरोरुजा । शोणितदलेष्मणोरच्दिः
एक सो (१००) परु ठहसन के धिलके उतार कर ऽरुचिः ॥. रूपाण्येकादशेतानि यक्षिणः षडिमानइवासः कोषामयो-
ि वा। कासो `
यवङ्कट करके १० दोण पान से पककर चतुरथांस शेष रहने ज्वरः पाव॑शरु स्वरव गदोऽरचिः ॥ अर्थात्‌ १. कास २. अंसा.
रुल्मचिकिस्सिताध्यायः ? } चिकित्सास्थानम्‌ । १११
1 ५ ॥ न ^ रि # # ि ५.८) ५ ^ का^ + काश 0 ५.८ ५ ५.८८१५ # 0 + 1) ५.५. ^ + ^ + + +

कोष्टेप्रकोपं समुप्ति वायुः ॥ कफं च पिन्तं च स दूषयित्वा प्रद्धूष-


भिताप ३. स्वरभेद ४. उवर ५. पाश्वंश्रूल &. शिरःशू ७. रक्त
वमन ८. कफ का धुकना ९. श्वास १०. कोष्टामय (अतिसार ) मागा न्विनिवद्ध चताभ्याम्‌ । हृत्ासिपा्वदरवस्तिद्यूछं करोत्यधो
११. अरुचि-ये यच्मा रोगी के १३ सूप! तथा 4. काप याति न वमार्गः ॥ अर्थात्‌ पुरीष, कफ, पित्त आदि के अत्यधिक
२. ज्वर २ पाश्व॑श्रूरु ४. स्वरभेद्‌ ५. ममेद्‌ ६. अर्चि-ये ६ खाव अथवा अन्य उदीणं षु वेगो को रोकने इत्यादि कार्ण
रूप होते है । अर्थात्‌ यदि दोष अत्यन्त प्रवर होतो रोगकै से कोष्ठे वायुकाप्रकोपहो जातादहे। वह प्रकुपित वायु
उप्यक्त ११ रूप प्रकट होते हे अन्यथा & रूप होते है। कफ तथा पित्त को अपने स्थान से विचलित करके मार्गोको
सुश्रत उ० अ० ४१ म यच्मारोगके कऋमराः ११, ६ तथा रोक देता है जिसे इद्ध, नाभि, पाश्वं उद्र तथा बरस्तिर्मे
रूप दिये है--तवरभेदोऽनिल च्ल संलोचश्वांसपार्वयोः । ज्वरो श्रू उत्पन्नहो जातादहे तथामागंके स्केदहोने से वहं नीचे
दाहोऽत्तिसारश्च पित्ताद्रक्तस्य चागमः ॥ शिरसः परिपूणैत्वमभक्त की जर नहीं जाता॥४॥
च्छन्द एव च ¦ काषः कण्ठस्य चोद्च्पसो विज्ञेयः कफकोपतः ॥
एकाद शभिरेतेतरौ षडभिर्वापि समन्वितम्‌ ¦ कासातिसारपा््वाति वातज्ञेश्वन्नपानेषु वातलो यः प्रसजति ।
स्वरभेदारचिञ्वरैः ॥ त्रिभिर्वा पीडितं चिद्खेञ्वरकासाखगामयेः । धावति वतेऽधीते शशं गायति नृस्यति।
जद्याच्टोषाद्ितं जन्तुमिच्छन्‌ सुविपुलं यद्चः ॥ अर्थात्‌ यहां शीतवाताम्बुसेवी च शीतरूक्ञकटु्रियः |
यत्मारोग के ११ तथाह ख्पों के अत्तिरिक्त १. उवर २.कास व्याधिद्धिष्टः कृशो रू्तः सेवते तीदणमोषधम्‌ ।। ६ ॥
२. रक्तवमन--ये तीन सूप भी दिये ॥ उदीरयति च्छदिं च बलच्छदेयतेऽपि वा।
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः ॥। निरुणद्धि च वातादीन्‌ तृप्तः पिबति वा बहुं ॥ ७॥
( इति ) चिङिस्ितेषु ख्कयच्मचिकिस्वितम्‌ ॥ शीघ्रयानेन वा यति उ्यवायं वाऽतिसेवते।
(इति ताडपत्रपुस्तके ११७ तमं पत्रम्‌ । ) व्यायामाध्ययनखीषु बालो क्तश्च यो रतः ॥ ८॥ `
एेसा भगवान्‌ कश्यपने कहाथा} ` एतेश्चान्येन्च कुपितो मारुतो दोषसंचयम्‌ |
८ इति » चिकिस्सितेषु राज्यच्मविङित्सिताभ्यायः ॥ करोति यत्र तत्रास्य स्थाने गृल्मो निचीयते ।॥ ६ ॥
क 1 ॥ १8५१ 1# १/१ १ १, । ^

वातगुल्म का निदान-- जो वात प्रङ्ृति वारा भयुष्य वात


गुल्म चिकित्सिताध्यायः | प्रधान ,अन्नपार्नो का सेवन करता हे, अधिक दौढदता है
अथातो गुल्मिनां चिकिस्सितं व्याख्यास्यामः | १॥ तेरता हे, पदता है, गाता है, नाचता है, शो तरू वायु एवं जक
का सेवन करता हे, शी तरू सुक्त तथा कटु पदार्थं जिसे भिय
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः |} २॥
हो, जो व्याधि से जाक्छान्त हो, छश्च तथा ख्चदहो, जो तीण
. अव हम गुदम रोगिर्यो की चिकिस्सा का व्याख्यान करगे । जषधिर्यो का सेवन करताहो, जो वसमनके वेगको उदीर्णं
णेसा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था ॥ १-२॥ करता हो तथ। बरूपूवेक वमन करता हो, जो वातादिर्यो.के
- वातादिस्वैरक्तोत्थाः कुल्षिष्टस्पाश्धेबस्तिजाः | वेगो को रोक्ता हो तथा तृप्त होने के बाद्‌ भी बहुत अधिक
पच्च पच्चापदामम-या गुल्माः सूत्रे निदर्शिताः ।॥ ३॥ जरु पीतादहो, जो शीघ्र चलने वाली सवारी पर चख्ताहो,
वातादि दोषों से एथक्‌ ( वातिक, पैत्तिक, शटेन्मिङ्‌ ), अत्यन्त मैथुन करता हो, जो बालक एवं रक ्यक्छि व्यायाम,
सखभ्मिखित ( सान्निपातिक ) तथा रक्त से उत्पन्न होने वाङे अध्ययन तथा खीं रत रहता हो-इन कारणों से तथा अन्य
सव रोर्गो के अमरणी ५ गुर्ल्मोका सुत्रस्थान में निर्देश किया भी सार्णो से पित इ वायु जिस २ स्थानम दोर्षोको
गयाहिजो कि १ कुत्ति २ हृदय २-४ दोनो पाश्वं तथा ९ बस्ति संचित करता है उसके उन २ स्थार्नोमें गुल्मकर देतादहै।
मे पैदादहोतेै। चरकचि.ज.्मेमी गुर्मोषेये ही पांच चरक नि.-अ.-३ मं इसरी निदान तथा सभ्प्राक्ति जिन्न भकार
स्थान दिये है वस्तौ च नास्यां हदि पादव॑योश्च स्थानानि युल्मस्य | से दी है--यदा पुरुषो वातलो विद्ेपेण उवरवमनविरेचनातीसा-
भवन्ति पच्च ।॥ ३॥ | राणामन्यतमेन करनेन करितो वातरूमाहाप्माहःरति शीतं वा
विशेषेणातिमात्रमस्नेहपूवं वा वमनविरेचने पिवत्यनुदीर्णौ. वा
चेष्टान्नपानसामान्या दोषाः प्रकुपिता चणाम्‌ । छदमुदीरयति वातमूत्रपुरीषवेगानिरुणद्धयत्यरितो वां पिति
स्रामाशयमधिष्ठाय ततो गल्मान्‌ प्रकुवेते ।। ४ ॥ ` नवोदकमतिमात्रमतिमानसंक्षोभिणा वा यानेन यात्यतिन्यवायन्या-
चेष्टा तथा सामान्य अन्नपान से मनुभ्य के प्रकुपित इष्‌ याममचरुचिवांऽभिधातमृच्छति वा विषमाश्चनशयनासनस्थानच्रङ्‌
दोष आमाशय में पहूःचकर गुल्मो को उत्पन्न करते हँ । चरक क्रमणसेवी भवत्यन्यद्रा किचिद्रैवंविधं तरिषममतिमात्रं व्यायामजात-
चि. अ. ५ सें गुस्मरोगकी निदान तथा सम्प्राप्ति निन्नश्रकार मारते, तस्यापचाराद्वातः प्रकोपमापते स प्रकुपितो महालौतोऽ- `
से दी है-विरच्छेष्मपिन्तातिपरिखवादा तैरेव वदधैरतिपीडनाद्ा । नुप्रविद्य -रौक्षातकङिनीभू तमाप्छत्य पिण्डितोऽवस्थानं करोति हृदि
वेगरुदीण वहतेरधो वा बाद्याभिवातंरतिपीडनेवा ॥ रूक्षान्नपानेरति- धरस्तौ पार्वंयोनभ्यां वा, स रुलमुपजनयति मन्धीश्वानेकविषान्‌+
सेपितेवा लोकेन मिथ्याप्रतिकर्मणा वा !. विवचेष्ठितैवां विषमातिमातरै पिण्डितश्चाचतिषठते, सः पिण्डितत्वाद्‌. युरम-्द्युच्यते ॥ ५~९¶ -.- `
काश्यगसंहिता वा ब्ुद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [{ गुर्मवचिकिस्सिताध्यायः !
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अभ्रिन।शोऽरुचिः शलं च्छच द्रारान्त्रकूजनम्‌ ।


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` | यति भोजने च !स्वेदो विदाहो ब्रणवच्व गुस्मः स्प्शासदः पेत्तिक-


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गुस्मरूपम्‌ ॥ १२॥
पुरीषवतेनं काश्यं गुहमानं पूवलक्षणम्‌ ।। १८॥
गुल्म के पूर्वरूप-अभ्चिनाशः, अरुचि, शूर, लुदि, उद्गार
रोमहर्षो ज्वरश्छर्दिररुचिदटेदयग्रहः ।
( उकार ), आन्त्रकूजन ( आतो में गुडगुड शब्द्‌ होना ), मर
छं शैत्यं च कफगुलिमिनः ॥ १६॥
सूत्रा्षिनखविटशौ
का स्क जाना दथा छशता- ये गुम रोगो के पूर्वरूप होते है । कष गुम के ठन्तण--रोमहर्व, उवर, छदि, अरुचि, हद्‌-
चरक नि. अ. ३ म कहा है-्षां ठ खड पञ्चानां गुरमानां अरो-प्राग- यम्रहः ( हदय प्रदेश्च का जकड जाना )› मूत्र, आंखे, नाखून
मिनिर्तेरिमानि पूर्वरूपाणि वन्ति, तयथा-अनन्नाभिलष्णं, तथा मरु का सफेद्‌ होना तथा शीतलता-ये कफगुर्म के
चकाविपाकौ, अद्चियेषम्यं, विदाहो युक्तस्य पाककाले चायुक्ता लक्षण होते हँ । चरक नि० अ०३ में इसके निम्न रुण दिये
दवदगासो, वातसू्पुरीपवेगाणामप्रादुसावः प्रादुमूतानां
चप्रवृत्तिः
हैरलेष्मा त्वरय शीतञ्वरारोचकाविपावाङ्गमदंदषेहद्रो गच्छः
इय-निद्रालस्यस्तैभिव्यगौरवसिरोभितापातुपजनयत्ति, अपि च युद्मस्य
इषदागमनं वा, दादशरलयेपान्वनरूजनापरिदपेणातिष्त्तएरीपताः
वमिपि गुट्मपू वैरूपाण ि भवन्ति । समैर्यगौरवकारिन्यावगाद्यप्ततताः, तथा कासशवासप्रतिद्यायान्‌
६}, दौवंस्य, सौत्यस्य चासहः
सुश्रत उ.अ. धरम भी इसी प्रकार कहा है ॥ ९०॥ राजयक्ष्माणं चातिप्रवृद्धः, तत्य च व्वड्नखनयनवद नमूतरपुरीषेः
पूपजनयति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते, तद्विपरीतानि चोप्ठै-
शूलंमूच्छ स्वरस्तोदः काश्यं ठ्‌(छ)ष्णाऽरणारम(भ,ता। रत इति इटेष्मयुटमः। अर्थात्‌ अन्य रचर्णो के साथ २ जिन
पाश्वीसाक्तकशलं च वातगुल्मस्य लक्तणम्‌ ॥ ११॥ आहार विहार आसे श्टेष्मयुह्म उत्पन्न होता है वे असा.
वात गुदम के छक्तम - श्रू, मूर, ऽवर, तोद ( पीडा); छय तथा उनसे विपरीत खास्म्य हेते है । इसी प्रकार चरक
कृशता, प्यास ( अथवा काला >)बौर अरण आमा (रंग ) चि०्ज०्भमेमीकहाहै):4२॥
का होना, दार्यं अंस (कन्धे ) तथा अक्तक ( हंसटी › म शूर सर्वास्यितानि रूपाणि क्षद्यन्ते सान्निपातिके ।
होना-े वातु क लकचण ह । चरक नि. अ. ३ में सके
निम्न छन्तण दिये है-स इुहुराधमति, सहुरटपत्वमापवते, अनियत सान्निपातिक गुह्म के ल्तण-- सान्निपातिक गुल्म मेये
विपटाणुवेदनश्च भवति चलत्वाह्ायोः, पिपीलिकासद्वार इगाङ्गषु, द्वव लक्षण होते
है । चरक नि० अ० ३ म कहा है-त्रिदो षदेतु-
तोदस्छुरणायामसक्को चए्िदषेप्रल्योदयवहुरः, तदातुरश्च सच्येव लिज्ञसन्निषातस्तु
सान्निपातिके युस्ममुपदि शन्ति इुरलाः। स विध्र-
ति तिषिद्धोपक्रमलवादसाध्यो निचयशुदमः। दी प्रकार चरक चि०
दङ्कनेव चातिविदधमात्ानं मन्वतते,अपि च दिवसान्ते जीयंति द्युष्याः अ०्थम मी कहा है! ॥ १२३॥
रोमाणि वेदनाय
चास्यास्य, उच्छ वास्तवौपरष्यते, ह परन्ति चास्य
प्रादु, प्टीहाोपान्रदरुजनाविपाकोदावताङ्मदं मन्या चिरःरङ्ध- रक्तगुल्मः लिया योनौ जायते न चुणां कचित्‌।। १६॥
शूलत्रध्नरोगास्चैनषुपद्रन्ति, = हृष्णर्णपरषत्वद्नखनयनवदनः रक्तगुल्म-रच्छगुम केवर चियो की योनि (खीजाति) म॑
मूत्रपुरीषश्च मवति, निदानोक्तानि चास्य नोपरेरते, विपरीतानि ही होता । पुरूषो भे कभी नहीं होता ! चरक नि० अ० ३
चोपशेरत इति वात्थुसः। दसी प्रकार चरक नि.अ.भमेभी भी कहा है-शोणितयुत्मस्तु खड चखिया एव॒ मवति न
कहा हे ॥ ११॥ |
पुरुषस्य, गर्भ॑कोष्ठातंवागमनवैशेष्यात्‌ । अर्थाद्‌ दूवित आर्तव के
उषायणं स्वरो दाहस्वृष्णाविडमेदेषीतताः | कारण जो रक्तगुटम होता है वह केवर धिरो को ही होता दै।
` पित्तगुल्मे धिजानीयात्‌ पित्तलाननोष्णसेविनः॥ १२ ॥ अन्यत्र मी कहा है-लीणामातंवजो रुद्मो न पुंता्पनायते। =
अन्यस्त्वस्ग्भवो गुरमः कीणां पुंसा जायते ॥ अर्थात्‌ सामान्य
पित्त राम के रक्तण-पित्त प्रधान जन्न तथा उष्ण
रक्त की दुटि से पुरषो मे भी रक्तगुरम हो सशता है परन्तु
पदार्थौ का सेवन करने वे व्यक्ति के पेत्तिक शरम मे बहुत रू के दूष्य होने से इसका अन्तर्भाव पित्तगुस्मसे दीहो
उष्णता (जखन ), ऽ्वर, दाह, वृष्णा, विदमेद ( अतिदार )
तथाज्ञरीर का रग पीर होना--ये पेत्तिक गुदम क रक्षण जाताहै॥ १४॥
[र 1

होते ई । चरक नि० अ०३ मे दसङे निम्न लच्तण दिये है-- दुष्परजाता (ऽऽमोग्मां च गर्भखुबेहुमेथुना ।
पित्त तेनं विदहति कुक्षौ ह्यरसि कण्ठे च, स विदद्यमानः सथूम- यन्व॑ृगभेकामा च बहुशीतातेा च या ॥ १५॥
। ४,

` भिवोदगारुदगिरति अम्ान्वित, युर्मावकाशश्वास्य दह्यते इयते उदावतेनशीला च षातल्लार निषेदिणी ।


धूप्यते ऊष्मायते सयति चिलति, रिथिरु इव च स्पशचांसदोऽस्प- या सी तस्याः परहृपितो वातो योनिं प्रपद्यते ॥ १६॥
-सोमाद्नो भवति, ज्वरभ्रमदवशुपिपास्तागल्वदनताडशोषप्रमोदवि-
भेदाश्च
¦ नसुपद्रबन्ति, इरितहारिद्रतवडनखनयनवदनमूत्रपुरीषश्च |, ` निरुणद्धथातंवं तत्र मासिकं संचिनोति च ।
|
मवति, निदानोक्तानि चास्य नोपशेरते, विपरीतानि चोपशेरत इति | रक्ते च संस्थिते नारी गर्भिण्यस्मीति मन्यते ॥ १७ ॥ `
पिन्तय॒स्मः। इसमे निदानोक्त आहार-विहार भसास्म्य होते दै ` रक्तगुक्म का निदान शएवं सम््राप्ति-जो शखी| दुष्मजाता
तथा इससे विपरीत सारमय होतेह । इसी प्रकार चरक चि
०९ मी कहा < पिपासा कदनाङ्गरायः चरं मन्यः । ` ६. अन्वन्क्षमकुऽुपदम्‌ त्यमरः । अति्मिपि कवठ
चिकित्सास्थानम्‌ । . ११२.
गुल्मचिकित्तिताध्यायः ? ]
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५ १५ [का क क ++ 0 0 [कि ता का 0

( जिका प्रसव सभ्यक्‌ प्रकार न इञा ) हो, जिसका गर्भं | इत्यभिधीयते ॥ अथात्‌ सब गुमा का मूख कुपित वायु के होने ।
सभी कस्चा हो, जिसका गभखाव हो गया हो, जो बहुत | से, भूर ८ उत्पत्ति कारण ) के गृढ ( गुष्ठ-अनिश्चित ) होने खे,.
तथा गुम (वनस्पति संघात) केसमान विश्षाल होने चे इसे.
मेथुन करती हो, जो बहत शञी्रता से गभं को धारण करती ` गुरम कहते हँ ॥ ॥ २० ॥ ` ` `
हो, जिसका आर्तव बहत शीतक हो, जिसे प्रायः उदावतं
होता हो, जो वातकारक अन्नो ( आहारो ) का सेवन करती शुल्सिनं प्रथमं कैः सेदस्वेदोपपादितम्‌ ।
हो-उसका भ्रङुपित हआ वायु योनि भरँ पहुंचकर आतव को । यथाखदोषशमनैरौषधैः समुपक्रमेत्‌॥ २१॥
रोक देता हे जिससे मासिक खाव इकहाहो जाता हे । इस सर्वप्रथम वेच स्नेहन तथा स्वेदन किये हए गुम . रोगी
प्रकार वहां रक्त स्थिर होजाने से सखी भपने आपको | टी भिन्न २ दोषों की शामक जोषधिर्यो से चिक्िष्सा करे ।
गर्धिणी समक्षने ख्गती हे । चरक चि० अ०५रमं कहा हे- चरक चि० अण०्थरम कहा हे-मोजनाभ्यश्ञनेः पानैनिरूदैः साः
ऋतावनाहारतया मथेन विकूरौरदृगविनियदेश्च। संस्तम्भनोल्डेखन- गुरमशान्तये ॥ अन्यत्र
तुवासैः । स्निग्धस्य भिषजा स्वेदः कतंग्यो
योनिदो गुमः खियं रक्तमवोऽभ्युपेति ॥ अर्थात्‌ ऋतुकार मे भी कहा है- सर्वत्रगमे प्रथमं स्नेदस्वेदयोपपादिते ! या क्रिया
आहार न करने से, गर्भस्थिति के भयमान्र से रूप लाहा `
क्रियते सिद सा याति न विरुत्तिते॥२९॥
विहार आदिये, वेगो को रोकने से, रक्तस्तम्भक आहार
विष्ार अथवा ओौषध के प्रयोग से तथा वमन पुवं योनि रोगो छरंहणं चातिगुल्मेषु भ्रशं चातिविरत्तणम्‌ ।
ककारणष्धीको रक्तगुरमहो जाताहे। इसी प्रकार चरक अतिसंशोधनं चैव गुल्मिनां न प्रशस्यते । २२ ॥
नि० अ०३ मं जर सुश्रुत उ०अ० ४२ मी कहा है॥१५-१७॥ गुल्मरोगी मे अतिंहण, अतिरूकषण तथा अतिसंक्षोधन
स्तनमण्डलक्रष्णत्वं रोमराजिः सदोहदा । ( वमन-विरेष्चन ) हितकर नहीं होताहै। श्वरक चि० अ० ५
गर्भिणीरूपंमव्यक्तं भजते सवमेव तु ॥ १८॥। म भी कहा है-तस्मान्ना नातिसौहितयं कुरयान्नातिविरडघनम्‌ ॥२२॥
वि(्)पाकपार्डुकाशर्यानि मवन्त्यम्यधिकानि तु । दभा पिप्पली व्योषं यादशचुकतोऽथ चित्रकः ।
इत्येवं लक्षणं सीणां रक्तगुल्मं प्रचक्षते ।॥ १६॥ सौवचलं विडङ्गानि वचा चेत्यत्तसंमिताः ।। २३ ॥
रक्तगुल्म का र्षण -उस स्री के स्तनके मण्डल (अग्र
सम्यक्पक्तं घृतप्रस्थं तत्‌ पिवेश्च यथाबलम्‌ ।
भाग ) काछे हो जाते है, रोमराजि प्रकट हो जाती है, दोहद्‌ धृतं दशाङ्गमित्येतद्मातगुल्मनिवारणम्‌ ।। २४ ॥
( विशेष इच्छायं जो गर्भावस्था के समय गर्भिणी को इजा वातगुरम शटी चिकिष्सा--हरङ, पिप्पली, त्रिकटु ( सोर,
करती हे ) के रण भरकट होने र्गते ईँ तथा अव्यक्त (ज मरीच, पीपर ), यवक्तार, चित्रक, काला नमक; विडङ्ग तथा
स्पष्ट) स्पसे गर्भिणी के सभी लक्षण उसे अतीत होने वच ग्रस्येक १ कर्षं । १प्रस्थ-घेत । इसे अष्ट प्रकार पकाकर
गते § । उसे.जपचन, पाण्डु तथा कडाता विदोषरूप से हो अपनी शक्ति के अनुसार सेचम करं । यह दज्ञाङ्ग चृत कहङाता
जाती) इस प्रकारके रदणों वारा चर्यो मं रक्तगुर्म ह । यह बवातरुरम को नष्टः करता है ॥ २३-१४७ ॥ |
कहलाता हे । चरक नि० अ० ४ म कहा हे--तस्याः चूूका-
विपाकाज्ञ मद॑निद्रा रस्यस्तेम ित्यकपप्र सेकाः समु- सैन्धवं याबशुकश्च पिप्पली हस्तिपिप्पली 1
चरेचका
सातिसार श्ुर्टी चित्रक इत्येषां षड मागाः पलिका प्रथः ।।२५॥
पजायन्ते, स्तनयोश्च स्तन्यं, श्रोष्टयोः स्तनमण्डलयोश्च काष्ण्य,
ग्कानिश्वद्धषोः, मूर्छ, हट्लासो, दौहदः, श्वयथुः पादयोः, श्ष-
तस्यक्तीरं धृतंस्थं पक्क पदटपलसुच्यते (हि
च्वोद्गमो सेमराज्याः, योन्याश्चारारुत्वं, अपि च योन्या दौर्मन्भ्य- पट्पलं सवेगुल्मेषु वेद्याः शाहुयथाऽमतम्‌ ॥ २९ ॥
भाखावश्ौपजायते, केवरश्वास्याः गृश्मः पिण्डित एव स्पन्दते, ताम- सैन्धव, यवक्लार, पिष्पटी, गजपिप्परी, सोठ तथा चित्रक
गभ गर्भिणीमित्याहमूंढाः । चरक चि०अ०९ में भौर सुश्रत ० इनके ६ भाग पृथक्‌ एक २ परु ( अर्थात्‌ सब मिराकर & परं
जण्ध्रमे भी रेसाहीकहाहे॥ १८-१€॥ ठं ) दूध प्रस्थ !घृत-१ प्रस्थ । यथाविधि घृत पाक करे)
अनेकदोषसंघातो गुल्मवदु गुल्म उच्यते । यह ष्पर धृत कात हे । वेध सव रुदमो म॑ षद्पल चतं
को अमृत के समान मानते ई । चरक चि० अ० ५ मी कट्‌
` श्रिदोषजाहते गुल्माः सिद्धयन्ति न चिरोत्थिताः॥ २० है--षटपलं वा पिबेत्सपि यदुक्तंराजयक्ष्मणि ॥ २५-२६ ॥ `
गुल्म का स्वरूप--रह्म के समान अनेक दोषों का संघात
अमया पिप्पली द्रात गुधची सपुननेवा ।
होने से इसे गुम कहते ड । सव चिरोप्थित गुम भ्रिदोच के लवणक्तारगन्धवेभार्गीरास्नारसाञ्जनम्‌ ।। २७ ॥
बिना नीं हो सकते ह । सुश्रुत ॐ० अ० में मी कहा हे--
कुपितानिलमूरुत्वाद्‌ गुढमुलोदयादपि । युट्मबद्वा विच्चारुत्वाद्‌ गुल्म त॒ल्यत्तीरं पचेदेतेधतमक्तसमेमिषक्‌ ।
/ अत - एवंभाय ब॒ विषयश्चरके निदानस्थाने तृतीयाध्याये सुद्रित-
शशकं नाम तत्‌ सपिर्वातिशुल्मनिवारणम्‌ ॥ २८ ॥
| यां चिक्षित्सास्थानस्य पञ्चमाध्याये (युटमधिकित्सायां ) ` हरढ, पिप्पली, द्राक्षा, गिरोय, पुननंवा, सेन्धव नमक,

नव प्रपञ्चितः 1 | सजेषार, | | गन्धवं । ( श्वेत एरण्ड 2; भारंगी, ।रास्न
१८ सार
११४ क्ारयपसंहिता वा वृद्ध जीचक्ीयं तन्श्रम्‌ । [ गुरेमचिकिर्िवाध्यायः ।
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1

रसौत-्रत्येक 4 फषं । दुध तथा घृतं समान मान्ना मँ रेकर मदिरा सपिवातयुह्मभिष्जितम्‌ ॥ 'हितसुष्णं द्रवं स्निग्धं भोजनं
यथाविधि धृत पाङ करे । यह शेशक धृत ( शिशसपिं >)कः वातगुहिमिनाम्‌ । समण्डवारुणौपानं पकं वा घान्यकेज॑रुम्‌ ॥ ३६ ॥
खाता हे ।यंह घातगुरूम.को न्ट करता है ॥ २७-२८॥ यदि तु सिह्यमानस्य बातगाल्मो न शाम्यति ।
सिग्धस्िन्चसमाश्वस्तं गल्मिनं संसयेत्ततः। दितमास्थापनं तस्य तथेवाप्यनुघासनम्‌।
पिरेचनेन मृदुना वैकेनैररडजेन वा ॥ २६॥ ` चीरानुपानामभयां सगुडां संप्रयोजयेत्‌ ॥। ३७॥
` स्नेहन तथा स्वेदन क्रिये इए गुम रोगी को आश्वासन यदि स्नेहन करते हए भी रोगी का वातगुल्म श्ञान्त न
देकर छिसौ गढ विरेचन (11114. 16४०।१८ ) या देरण्ड तङ्‌ ठो तो उवे जास्थापन एवं अनुवासन बस्तियां देनी चाहिये
सेविरेखनकरये॥२९॥ ` _ | तथा दूध के अनुपानसे गुड ओर हरड को मिराकर प्रयोग
विरिक्तं च यथाकालं नातिषक्नाणि भोजयेत्‌ । करना चाहिये 1 श्वरक चि० अ० ५ म भी गुर्म ( वाविक)में
.युक्तामरलवणोष्णानि युक्तस्नेहरसानि च ।॥ ३०॥. बस्ति की श्रेष्ठता बताई है- वस्तिकर्म परं विद्याद्‌ गु्म्नं तद्धि-
मारुतम्‌! स्वे स्थाने प्रथमं जित्वा सयो गुरमंम परौहति ॥ ३७ ॥
भोजयेद्गुल्मिनं नित्यं निदानग्रुषजेक्‌।
न चातिभोजनं नित्यं शध्यते सबेगुलिमनाम्‌ । ३१॥
गुल्मिनां वद्धवर्चानां ०१००१०१११०००००. १००१० |

विरेचने होजने पर उचित कारु मे रोगी. को रेसे पदार्थं


@ क 9 9 # ® 5 # @ 9 @ # च» @ छ» 9 & > 9 ® ५# $ ९०७१

खिलछाभे जो अस्यन्त रूक्ञ न हो तथ! जिनमें योग्य परिमाण मं


खभ्ल तथा ख्वण. पदा हो, जो उष्ण हो तथा. अच्छी प्रकार ` ( इति ताडपत्रपुस्तके ११८ तमं पत्रय 1)
स्निश्च हों । रोगी को सदा निदान ८ वातिक गुर्म के कारण) 0 ॥ 0) 0115९ ` ~

तथा गर पदार्थो का त्याग कर देना चाहिये । सव प्रकार के


गुर्मरोगिरयो को अधिक भोजन करना हितकर नहीं ै॥२०-३ तथा जिन्हे मर्बन्ध रहता हो उन गुरम रोगियों कीः"
"""(स्नेहन के हारा चिकङस्सा करनी चाहिये )।
पिप्पलीं पिप्पलीमूलं चध्यं चिच्रकनागरम्‌।
बिल्वं कपित्थं बदरं बुषकं गणिकारिकाम्‌॥ ३२॥ . 9५6 # 69 4 56 ७ 4७९९०७5 ७७७७5 ०0९१) ९११ ४५० ०५९ त कै१० ०४१०१९४० ००९७ ७९०१७ ०००१।

. हिङ्कदाडिमजीवन्तीवृन्ञाम्लं साम्रवेतसम्‌।
पौष्करं शदिदन्त्यौ च लवणानि च सवंशः। ३३ । वक्छभ्य--यह अध्याय उपर्युक्त शोक के मध्यमी
| खण्डित हो गया है इसरिये उसी श्लोक के शाब्दो को बत.
ष त्ारावजमोदं च तुल्यं शाष्काणि चुणेयेत्‌ रानातो कठिन है परन्त॒फिरभी चरक चि.भ.ध्मकहा
वटका बदरोपमाः ।। ३४॥
` मातुलङ्गरसेनेते है--बडविण्मारुतं सनेहैरादितः समुपाचरेत ¦ इसीके अनुसार
कृताः सुखमुपेथामयेरम्तेन वा भिषक्‌!1 उपर्युक्त शछचोक केभावार्थं को पूणं किया गया हे। अथवा सुश्रुत
घातगुल्ममुदावत ीहशूलं च नाशयेत्‌ ३५॥ उअ. ४२ मै कहा है-द्वचोनिलानां त॒ ` सादरं क्षीरमिष्यते ।
` पिप्परी, पिष्पोमूर, चष्य, चित्रक, सो, विर्व, कथः अर्थात्‌ उन दूध में अद्रख डालकर देनी चाहिये । इससे आते
कुल, वेर, बांस, गणिकारिका ( इद्र अग्निमन्थ ), ` हींग, दस अध्याय मं अन्य गुमा की चिकित्सा दी जानी चाहिये,
अनारदाना, जीवन्ती, इृलाम्क ( विषांबिर ),अभ्रवेत, वुष्क-
परन्तु हस अध्याय के मध्य मेँही ` खण्डित. हो जाने सेवे उपः
रभू, शटि ( कपूरकचरी-या कचूर ), दन्ती ( जमाल्गोटा ) छड्ध नहीं ईँ । अतः हम्‌ पाठको क साधारण ज्ञानके लियि
पांचा नमक, दोनों हार ( सर्जक्तार `चेथा यवत्तार ) तथा भस्य आर्ष भरनो के आध्रार पर. शेष. गुर्मों की सामान्य
भजमोद -हन सब को समान मात्रा मे रेकर शुष्क चूणं करे । चिकित्सा लिखिये] पित्तगुद्म की चिकित्सा चरक चि. ज. ५ मे
` विजौरे ॐ रस मै भावना देकर दसी बेरं के समान गोलियां कहा है-लिग्धोष्णेनोदिते गरम वैन्ति संसनं हितम्‌ । रुकषो्णेन
नाये । हन वैद्य गरम पानी या.मध ' के-जनुपान से सेवन ठ संभूते सपि; प्रश्नमनं परम्‌ ॥ अर्थात्‌ पित्तगुलम्ं खंसन कराना
नष्टहो चाहिये १ तौन्र विरेचन नहीं देना चाहिये । सुश्रुत उ. अ, ४२
कराये । इससे वातगुरम; 'उदावतै, तथा प्ठीदाशरूल,
जाता है ॥ ३२-६५॥ ` ~ `
#॥

मे कहा है-पिन्तगल्मादितं लिग्धं काकोल्यादि ध्तेन तु 1 विरिक्तं


मथूरास्तित्तिरीन्‌ करौशान्‌ कपोतान्‌ बनङ्कटान्‌। ` मेधुरैयोगैनिरूदैः सानुवासनैः ॥ अर्थाद्‌ काकोद्यादि घृत अथवा
यवगोधूमशालीख वातगुल्मी सदाऽभ्नि(भी)यात्‌।। ३६॥ भन्य मधुरगण युक्त निरूहो से अदु विरेचन देना चाहिषे।
यदि गुदम के विदग्ध होने की सम्भावना शे तो विदाहं से पूवं
वातगुदम मे पथ्य--वातगुट्म का रोगौ सदा मयूर, ही रक्तावसेचन कराना चाहिये । इससे गुलम विदाह को प्राप्त
तीतर, कर्न, कवूतर ओर जंगी सुग का मांस तथा जौ, । रक्तावसेचन्‌ क. वाद्‌ जागर पषटपरियो केमांस
गेहं वथा कषा चावहं का सेब करे। चरक बि०अ० पमे नी होगा [काक

1

भी कहा है-ष्तुराश्च मेयूगश्च वित्तिरि्ौश्ववतंकाः । दाठ्यो १, अस्या पमेकं खण्डितं ताडपत्रपुस्तके ।


फु्च
[कष [क

# न्सिताध्यायः १1
>, क
चकव्सास्थानसम्‌ ।
`
- १३५

ही जाय तो उसमें शखकमं ही करना चाहिये । चरक मे कहा ।


हे-रक्तपित्तातिदृदधतवाच्कियामतुपर्भ्य च । यदि गुरो विदद्येत ` विरेचन देना चाहिये । चरक मे कहा है--सैधिरस्य तुय॒ट्मस्य
|| गर्म॑काटव्यत्तक्रमे । सिनिग्धस्वि््शययंः दचास्स्तेहुविरेचनम्‌ ॥

दस्रं तत्र भिषग्जितम्‌ । कफ गुल्म की चिकिष्या चरक चि. ज.


९ कहाहै--शीतरयंरुभिः लिग्धैलमे वाते कषठात्सके ! श्रवम्य- ।| गुल्म को शिथिल करने के लिये पराल्ारयमक-( पाश्च
ल्यादकायामेः ऊर्यास्ल्धनमादितः॥ इसके बाद्‌ रोगी को उष्ण, क्षार साथ सममाग तिरुतेल तथा धृत का पाक करने से
कटु तथा तिक्त दर्यो का सेवन कराना चाहिये । यदिरोगी | वनता है ) का प्रयोग करना चाहिये । यदि इन प्रयोगो से भी
|

को आनाह तथा विबन्धदहो तो उसको युक्तिपुवंक स्वेदन गुल्मका भेदनन होतो रोगिणी को उत्तरवस्ति ( दलम
कराना चाहिये । इस श्रकार लङ्कन, वमन, एवं स्वेदन से अचि ¦ छाथ की ) तथा योनिविश्लोधन करना चाहिये । योनि से रक्त
ढे प्रदीक्च हो जानि पर क्षार तथाक्टु दर्व्योसे युक्तधीका , ढे प्रवृत्त होने पर उसे मांसरस अौर ओदन खाने को दे तथा
प्रयोग करे । यदि गुर्म बहुत हदी हो अर्थात्‌ ठीक न होताहो घी ओर तेर कटी मालिक्ञा करे तथा पीने के द्यि मद दे । जगे
ओर जड़ जमाटी हो तो उसमे देश, कारु तथा ऋतु के अनु- करत म्रन्थ ॐ विस्थान के रक्तगुर्मविनिश्वयाध्याय मेँ इस
सार कार प्रयोग, अर्ष्िपान तथा अधिकम कराना चाहिये । विषय छा विदद्‌ विवेचन स्वयं चायं ने क्रिया हे । वहा
चरक चि. ज. ५ म कहा है-ृतमूर महावातं कठिनं स्तिभितं ग से रक्तगुरम का सेद्‌, उसके रक्षणः एवं चिकित्सा आदि
` शुरम्‌। जयेक्फकृतं य॒मं क्षारारिष्टातचिकरममिः ॥ दोपप्रकृतियुदम- का विस्तारसे वर्णन च्ियाहे।! इस विषयको पारक वहां
तयोगं बुदध्वा कफोखणे । वर्दोषप्रमाणन्ञः क्षार युस प्रयोजयेत्‌ ॥ पर देखं 1. .
एकान्तर द्वथन्तर वा व्यहं विश्रम्य वा पुनः । सरोरबर्दोषाणां बृद्धि
क्षपणकोविदः .॥ हेष्माणं मधुरं स्निग्धं मांसक्षीरघ्रतारिन॑ः 1 कुःछचिकित्सिताऽध्यायः ।
भिलाभित्वाऽऽश्चयात्वारः कचरत्वास्षारयत्यधः ॥ मन्देऽग्नावर्चौ
& न> ¢» ८०९५०७3 क#रक# ञे ६४०००५०६
सात्म्ये सचे क्षस्नेहमदनताम्‌ ! प्रयोञ्या मागंज्ुदयथैमरिशः कफ. # § ५५५

गुस्मिनाम्‌ ॥ लङ्नोक्छेखनैः स्वेदैः सपिष्पानेविरेचनेः । वस्तिभिश- क @ @ # # #@ #

रिका चृणंक्षारारिष्टगणैरपि ॥ ररष्मिकः कतमूरुत्वा्स्य गुदो न स्वेदो बाऽत्तिखरस्वमङ्गानामतिश्छदणतां बा ववस्य


दाम्यति । तस्य दाहो हते रक्ते चररोहादिमिहितः ॥ ओषण्यात्त
सेच्यं लोमहषेः पिपासा गौरवं रागो दौबेल्यं वेपथुः
गौर | ` क भ © ` # ॥
कै द

क्ण्याच्च दमयेदभियंस्मे कफानिले । तयोः रामाच्च संघातो गुल्मस्य


विनिवर्तते । सान्निपातिक गुल्म की वचिकित्सा~उ्याभिश्रदोषै- पिडकारषां संभवश्चातिवेदना च सतविस्पेणमिति ॥
व्यामिश्र एष एव क्रियाक्रमः! अर्थात्‌ सात्निपातिक गुम मं वक्तभ्य-इस अध्यायमं ङष्ट रोगो की चिकिसा कही
दोर्षो के अनुसार उपयुं्छ मिश्चित चिकित्सा करनी चाहिये । गई हे । यह अध्याय प्रारंभ में खण्डित है । उस अंश में
रक्तगुस्म की चिकिरसा-रक्त गुरुम कौ चिकित्सा पित्तगुटम की । कष्ठ रोग के उत्पन्न होने के कारण तथा सम्प्रात्ति इत्यादिर्यो
तरह ही की जाती है । सुश्रत उ. अ. ४२ मेँ कहाहे-पित्तवद्र-
क्तगुल्मिन्या नार्याः कार्यः क्रियाविधिः र्रषमपरं चास्याः श्रुणु
रक्तविभेदेनम्‌ ॥ पल।ड्तारलोपेन सिद्धं सर्पिः प्रयोजयेत्‌ ॥ दचादु-
नतेरवस्ति च पिषप्यस्यादिष्तेन ठु । उण्णेवां भेदयेद्धिने विधिराखण्द-
ा या बिरुरः
पूर्वरूप-स्वेद्‌ (स्वेद का जधिक जानअथवा
कुष्ठो),केअङ्गा की खरता ( खुरदुरापन ) अत्यन्त
रोहितः ॥ अर्थात्‌ इसमे अधोगत रक्तपित्त की चिकिसा करनी न आना
चाहिये । रक्तगुक्म की चिङित्सा का विधान १० माघ व्यतीत चिकना ह्यना, वण का विङ्कत हो जाना, रदता, रोम (रोम)
हो जाने के वाद्‌ दिया गया हे । चरक चि. अ. ५ मे कहा है- हषं, प्यास, श्चरीर का भारीपन, उस स्थान का रार दोना,
ुर्बता, कंपकपी, पिढकार्जो तथा छोडी २ फुन्सियो कौ
स रौधिरः ख्लीभव एव रटमो । मासि व्यतीते दशमे चिकित्स्यः ॥
क्योकि उस समय ही यह सुख साध्य होता है। कहा मो है- उत्पत्ति, अत्यन्त
वेदना तथा चहतविसपं -ये कुष्ठो के पूर्वरूप
अ० ५ मे कुष्ट के निन्न पूर्वरूप दिये दै-
होते है । चरक नि०
(रक्तगुल्मे पुगणत्वं सुखसाध्यस्य रक्षणम्‌” । हसे देखकर कं
तेषाभिमानि खल पूर्वरूपाणि; तचधा-अस्वदन-प्रतिस्वैदन-पारष्य्‌-
रोग कहते है कि प्राचीन जाचार्यो' को रक्तगुल्म तथा गमं
मतिर्लक्षणता बैवण्यं कण्ड्ूनिस्तोदः सुता परिदाहः परिहर्ष लोम-
ङी मेदक पहचान न होने खे ही ५० वें मास ( गभंकाट) इषः खरत्वयुष्मायणं गौरवं श्वपथुविसपागनममीक्णं कायच्विद्रपदेद्‌-
क म्धतीत हो जाने पर चिकिसा करने का छिखा है । परन्तु पकदग्धदष्ट्षतोपस्खलितेष्वतिमात्रं वेदना स्वस्पानामपि च त्रभानां
उनका यह विचार टीक नहीं हे क्योकि चः स्पन्दते पिण्डित चि० अ०७ में
एव नागः, हारा उन्होने गुख्म का गमं से स्पष्ट मेद्‌ दिखाया दुटिरसंरोणं चेति ऊु्पूवंरूपाणि भवन्ति । चरक
ह । इसख्ि प्राचीन चायं इससे अनभिन्च नदीं थे अपितु मी कहा
है--्यशंकत्वमतिस्वेदो न वा वेवण्येु्रतिः । कोडानां ¦
१० चमा के बादजो चिकरि्साका विधान स्खि हे वह लोमहर्षश्च कण्डस्तोदः श्रमः छः ॥ बणानामधिकं शं श्ीप्रीतयन्तिः
॥ इसी प्रकार
उसके खुखसाध्य होने के कारण ही ङा हे। १० माल म्य- भ्िरस्थितिः 1 दाहः खुघताङ्गता चेति इष्टट्क्षणममलम्‌
१९६ कारयपसंहिता वा बृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ ! [ ऊषटचिकिरिसिंताष्यायः }
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खर; वद्धिमच्चभेदढं बेसरद्वं


सुश्रकष नि०अ०्५म मी कहा है--त्वकपारष्यमकस्माद्रौमद्ैः प नित्यविसर्पिं सव्व. `
कण्डुः स्वेदवाहस्यमस्वेदनं बाऽ्देशानां स्वापः चतविसपैणमसजः
द्नाक्रिभिमदेकङषं; पाणिषादाङ्गषठो्ठजङ्घाद रुडदेरोषु
कभ्एता चेति ॥ स्पुःटितस्राविवेदनावतीमविपाकिनीं विपादिकां धिद्यत्‌।
तत॒ उध्वमक्रियावतां ङुषानि जायन्ते । तत्रः सवेरोगाश्चैव मोहादुपेदयमाणा श्रसाध्यतां यान्ति,
श्यावारुणशूलकर्डूचिमिचिमखरत्वपारष्यसंस्तम्भाया- असाध्यासत्वाशु चृणां च्न्ति;ः तस्मादास्महितायशु
मेर्ातोत्तराणि बिदात्‌ ; दाहवेदनाञ्चरषिडमेदोषायन- प्रयतेत। _ |
` पाकस्चाघ्रकोटानिकर्णा($क्निमो्थानैः शीतमधुर कषायः इसङे बाद यज्ञ, याग, होम, बि, अतिथि-तेवा जदि
सर्पिरनुशयेश्च पित्तोत्तराणि विद्यात्‌ ; श्वेतपारडुघनो- क्रियाएु न करने बारे भ्यक्तिर्यो को कुष्ट उत्पन्न हो जाते है।
त्सेधग॒रप्तेमित्यस्तम्भमहापरिप्रहाग्निवादेः शीतादित- के चरक चि०अ०्७मेङुष्टोकानिदान देते हए अन्य कारणो
साथ
रानुशवेः कफोत्तणि विद्यात्‌ ; व्याविद्धरूपबहुस्पुटि- दिया दुभा“विप्रान्‌ गुरून्‌ धषेयतां पापं कमं च वताम्‌” भी
हे । वातिक ऊुष्ट के छकण--श्याव ( कारा ),
तपरिखावछमिदाहरुजोपेतशरीरावयत्रपातनमशुचिषि- अर्ण ( खार ), श्रू, कण्डू ( खुजली ), चिमचिमाहट,
गन्धिशोथकवहुलमनेकोपद्रवं सान्निपातिक रक्ततात्‌ खरता ( खुरद्रापन ), पाह्य ( कडोरता ), संस्तम्भ ( स्त.
काकणमित्युच्यते । द्विदोषजानीवराणि; तान्यनु- यता ), जायाम्‌ ( फेराव) इव्यादि रकण से वातिक
ठ्याख्यामः-ातोत्तरे कपालः पित्तोत्तरे सखौदु- कुष्ठ जने । सुश्रत नि०बण्थमे भी कया है-ष्दु्टषुतु
म्बरः कफोत्तरे मरडलङुष्टं, वातपेत्तिकम्रष्यजिह, त्वकूसंको चस्वापस्वद धोफमेद कौष्ण्यस्वरो पधाता वातेन" । चरक
चि० अ०७ म भी का हे--पश्ष्यं शोषस्तोदः शरं संकोचनं
पित्तश्लेष्मिकं पौर्डरीकं सिध्म च, इति समा- तथाऽभ्याप्तः। पारुष्यं खरभावो हषः इथावारणत्वं च ॥ इुष्ेषु
सलक्तणम्‌ । विस्तरतस्त्वष्टादश कुष्ठानि; तान्यनुष्या- वातरिङ्गं ॥ पेत्तिक कुष्ट के रुत्तण--दाह, वेदना, ज्वर, विड्भेद्‌
स्यास्यामः-सिभ्मं च विर्चाचका च पामा च ददर ( अति्तार ), उषायन्‌ ( जकन ), पाक ( पक्ना ), ज्ञाव्‌,
किटिभं च कपालं च स्थूलारूष्कं च मस्डलकुष्टं च कोष्ट, विकर्णा, ज्ञीघ्र उस्थान ( उस्पत्ति, बृद्धि ) तथा श्चीतक
विषजं चेति नव साध्यानि; पौरुडरीकं च धत्रं च मधुर कषाय द्भ्य एवे घृत से श्रान्त हो जाना-ये पत्तिक कुष
ऋष्यजिह्ं च शतारुष्कं चौदुम्बरं च काकणं च चर्म के रुक्तण ह 1 सुश्रुत नि० अ०ण मेंभी कहा है-^पाकावदर
दलं चेककुष्ठं च विपादिका चेति नवासाध्यानि । सव णाह्खुरिपतनकणं नाप्तामङ्गाक्चिरागसत्वोतत्तयः पित्तेन" ,। यहां
तु छुष्ठं खङ्मांसरधिरलसीकाश्रयं स्पशेध्नं चेति; वर्ध. 'सत्वोत्पत्तयः' से अभिप्राय कृमिथो की उप्पत्ति से है । चरक
मान च वेरप्यकरं भवति । तत्तत्र) रजोश्वस्तमलाु- गन्धः चि० अ०७मेमी कहा है--रादो रागः परिलवः पाकः । तरो
केदस्तथाऽङ्गपतनं च पिन्तङृतम्‌ ॥ श्छेभ्मिक़ कुष्ट के र्तण-
वारणपुष्पीपुष्पसदशं सिभ्मं; श्यामलोहितत्रणवेदना श्वेत, पाण्डु, घनः, उत्सेध (ऊंचाई ), गुर ( भारीपन ),
स्रावपाकवती -विचचिकः; कर्टूतोदपाकल्लघारुष्मती स्तिमितता, स्तम्भ, महापरिग्रह ( बड़े. मूल वारा होना),
पामा; रोदयकर्डूदाह खात्रवन्ति मण्डलानि बृद्धिमन्ति जग्निसाद्‌ ( अग्निमां्य); तथा शीत के विपरीत अर्थात्‌
` दद्रु; कृष्णश्यावारुणलरपरषलवबरद्धिमन्ति गुरूणि उष्णता से शान्ति होना ये ररुष्मिक कुष्ट के र्चण है।
प्रशान्तानि च पुनः पुनरुसखदयन्ते किटिभानि; कृष्ण सुश्रत नि० अ० ५ म कहा हे--ण्डुवणेभेदशोफालावगौरवागि
खरपरुषमलिनमनेकसंस्थानमरडलं मण्डूलमृतुसन्धि- ररेष्मणा । चरक चि° अ० ७ मे कहा है-वेतयं शत्यं कण्डूः स्यैव |
घुटणे चातिबाधते कपालाकृति कपालं; पिच्छास्रागवे- सोत्तेषगौरवस्नेहाः। दुष्टेषु त॒ कफरिङ्गं जन्तुभिपंमभक्णं क्टेदः॥
सान्निपातिक कुष्ट के कक्षण--रच्णो का मिश्रित होना, बहत
दनादाहकरडतोदञ्चरवेसपेमहात्रणपरिपहं सरदुखरनिभं स्फुटित (फट हभ ) होना, परिल्राव ( बहना ), मि तथा `
महार्ष्कं; मर्डलेबेन्धुजीवङुसुमोपभेदाहिकण्डूवेदना- दाह रोग से युक्त होना, शरीर के अवयवो का गिरना, अप.
खावधद्विमेण्डलक्ु्ठ; सताकीटपतङ्गसर्पदशनदष्टमुपे विन्न, दुर्गन्धि तथा शोथ की अधिकता, अनेक उपद्रवं से
कलितं व्यभिचारेण खरीभवति कृच्छं्ाध्यंविषजं; महा- युक्त होना-ये साश्निपातिक ङ के खचण दै । यह राढ होने
शयसमुत्सेधं जातं चिराद्भेदि पुरुडरीकपलाशणं पौ. के कारण काकणक कहलाता हे ( काकणक रत्ती को कहते दै
जिसका रंग काल होता है-इसील्यि रार होनेके कारण हसे
| कहतेहै)इसे अतिरिक्त दविदोषज (दो २ दोषो
के संसग से उलपन्न होने वारे भात्‌ वातपित्त, पित्तरङेष्म
तथा षातश्ठेभ्म ) होते ह । उनकी हम आगे व्याख्या करगे ।
बात की अपेक्ञाृत अधिकता होने पर कपारकुष्ट पित्त के
। अधिकता होने पर॒ ोुम्बर ङ,
कफ के अधिकता होने
कृष्टचिकित्सिताध्यायः १ 1 चिकित्सास्थानम्‌ । ११७
हि
#॥
0 + ^ + तोति न ११००

पर मण्डर कुष्ठ, वात. भौर पित्त की अधिकता होने समान हो-वह सिध्मङ्षट हे । चरक नि. अ. ९ में कहा है-
पर ऋष्य जिह, तथा पित्त ओर श्केऽमा की अधिका होने पर षा रणत्रि्ची णैवदिस्तनुन्यन्तःस्निग्धानि सुक्लरक्तवभासरानि
पौण्डरीक जर सिध्म ऊुष्ट होते दै-ये संकेप से रक्षण षके बहून्यदपवद नान्यव्यकण्दू दाहपूयलसीकानि ल्घु सयुत्थानान्यल्पभेद-
ह । वास्तवमें सभी कष्ट तीनो दोषो से उत्पन्न होने के कारण कनग्यलुयुष्पसद्का सानि सिष्मङ्षछानीति पिचाद्‌ । चरक चि.
त्रिदौषज ही है तथापि भिन्नर दोर्षो की प्रघानताढकेकारणदही अ.७से मी कदा है--रवेतं तारं तञ्च यद्रनो शष्ट यिुन्चति।
ेसा निर्देश किया गया है । चरक में पित्त जौर श्रेष्माकी |अलावुपुष्पवर्णं तत्‌ सिध्मं प्रायेण चोरसि । अर्थाव्‌ थह इतीमे
अधिकता मेँ पुण्डरीक तथा वात भौर कफकी अधिकतामे' होता हैइसे अंगरेजी स एप्ा०513 $ 6€5००० या ८119515
सिध्म ङष्ट-ये पथस्‌ २ दिये है । चरक चि, ज. ७ कहाडै- ग०४०, कहते है । सुश्वेतनि. अ. ५ मे भी कदाहे-
वातेऽधिकतरे इष्टं ऋाषाङं मण्डलं कफे । पितते सद्व निया कां कण्ड्वन्वितं खेतमपाति ध्न वियात्ततु प्रायश्च ्वेक्ाये। यहां
तु त्रिदोषजम्‌ । वातपित्ते इकऽमपिनत्त वतरडेप्मणि चाधिके । ऋप्य पिभ्मको साध्य करटो मं गिना हे। चरक में इसे महाङ्ष
जिह पुंडरीकं सिध्मकरुष्ठं च जायते ॥ जब हम विस्तार सरे जो तथा सुश्रुत मे दरङ् के रूपमे दिया है । इस विरोध के
१८ प्रकार के कुष्ठ हैँ उनकी ज्याख्या करंगे-\ सिध्म | निराकरण के लये चुश्चुव की टीका मेँ उ्दण ने डिखा हेकि-
र विचर्चिका पामाष्ददु ९ किटिमि & कपार ७ स्थूला. '"तिष्मकुष्टं द्विवव-सिष्मं पुभ्पिकास्िष्म च। पुष्पिकासिध्मस्य
रष्क ८ मण्डर ९ विषज-येनौ ९ साध्य कुष्ठ! तथा |उुदसाध्यत्वात्‌ सुश्ते द्रकष्ठषु पाठः) सतिष्मस्य दुःखसाध्य -
१ पौण्डरीक २ धित्र ३ छष्यजिह्न ४ रातारष्क, ५ ओदुग्बर खाचरके मह ङ पाठ इयदाषः। अर्थात्‌ सिष्मङष्ट के दो
& काकणक ७ चमेदरु ८ एकङ्ुष् ९ विपादिका ये नोर मेद्‌ दँ १ सिभ्म २ पुष्पिका िभ्म। पुष्पिका सिध्मकेसुख
जसाध्य कुष्ठ हे । चरक तथा सुश्रुत में श्चदरङष्ट तथा महाङष | साध्य होने से उसके भनुखार सुश्च॒त मे इसे श्॒द्रङुष्टो मे दिया
सेद्‌ दिये है । चद्ङ्कष्ठ ११ तथा महाक्ष ७ होते ह । चरक फे गया है तथा सिध्म के कष्टप्ताभ्य हाने के कारण चरक में इते
अनुखार--+ कपार्‌ २ जौदुम्बर २ मण्डल ४ ऋष्यजिहठ महाकु मे गिना गया हे । इस मन्थ मं भी पुम्िष्टासिध्म
५ पुण्डरीक ६ सिष्म तथा ७ काकणक-ये ७ महाङ्ष् ई । कोदष्टमरखतेहुए ही इसे साध्य ङो मे दिया गया
तथा १ एककुष्ठ २ चमं २ किटिभ ४ विपादिका ५ अलसक हे । विचर्दिका का रक्तण--इष्तमे इष्ण तथा रोहित
६ दुदु ७ चर्मदक ठ पामा ९ विस्फोटक १० हाता ११ विचः (काक) वर्णं के ब्रण होते दै जिसमें वेदना (पीडा)
चिका-ये ११ जुद्रृष् दिये है । प्रङ्कत अन्थोक्त १८ प्रकार के ज्ञाव तथा पाकषहोता है । चरक चि. अ.७ नें काहे
कुरो म से चरक में स्थूलारुष्क, विष तथा च्चित्र का उक्ल सकण्डुमिडका दयावा वहुलवि। विर्चाचका। सुश्च नि. अ.
नहीं हे । तथा चरक मे आये हुए चमाँख्य, अरुखक तथा ५ मँ भी कहा है -राञ्योऽत्िरण्डवतिरजः .सरूक्चा भवन्ति
विस्फोरक ऊुष्ट का इस मन्थ मे उल्केख नहीं हे! चरक में गत्रेषु विचचिक्रायाम्‌ । कण्डूमती दादृर्जोपपत्ना ॥ - दते
धित्र ( किकस) का वर्णन इनसे पथक्‌ दिया है। इस अंगरेजी से ( एलणफण्टपः ) कहते है । पामा का रुच्ण -
अन्थ के समान इसका इन १८ प्रकार के कुरो मे परिगणन ह्मे कण्डू, तोद, पाक, लाव तथा छोटी २ फुन्तियां होती
नहीं किया गया हे । इसी भकार सुश्रत क अनुसार--+ अरण है । चरक चि. अ. ७मे कहा है-पामा दंतारुणदयावाः पिडका
२ ओदुस्बर ३ ऋष्यजिह्ध ४ कपा ५ काकणक ६ पुण्डरीक कण्डुर खलम्‌ । इसी भ्रकार सुश्वत नि. ज. ५ मे कहा है-
७ ददु-ये ७ महाङुष्ट दै । तथा ५ स्थूढारुष्क २. महाङषट साघ्लावकण्ड्परिदादकाभिः पााञ्ुकाभिः डकाभिश्याः ॥ इसे
३ एकङुष्ठ ४ चर्मदर ५ विसं £ परिसपं ७ सिभ्म ८ विचचिका भाधुनिक विज्ञान के अनुसार ( 7०८९708 ) कहते ई । ददर
९ किकिमि (म) १० पामा तथा ११ रलका-ये ११ महाङु्ठ का रुचण--ये रूक्षता, कण्डू, दाह एवं ज्ञाववारे मण्डलाकार
हेते है! ये सब ङुष्ट स्वचा, मांस, रुधिर (रक्छ ) तथा तथा बद्ने बारे होते दहै। चरक चि.अ.७मे कहा है-
लसीका के आश्रित होतेहै गौर स्पशं ज्ञान को नष्ट करनेवाङे सकण्डरागपरिडक्‌ दट्ुम॑ण्डलसुद्तम्‌ । सुश्रुत बि. अ.४ममी
है तथा इद्धि को प्राक्च होने पर विरूपता कर देते हैँ । अर्थात्‌ कहा है--अतसीपुष्पवर्णानि ताघ्राणि वा विसरपौणि पिडकावन्तिच
दूषित वात, पित्त, कफ, त्वचा, रक्त, मांस एवं रुसीका को ददुकशानि । इसे ( एण्ड ०८ ) कहते है । ददु को चरक
दूषित कर देते ्दै। अर्थाव्‌ ये चारो दूषित धातुं कुष्ठ के मे दङ्क्े मे तथा सुश्रत मे महाङु्ो मे गिना गया हे ।
आश्रय है चरक चि. अ. ७ में कहा है--परातादयदयो इशस्व- सिध्म की तरह इसके भी सित तथा भसितदो भेदर्है।
यत्तं मांस्तमम्बु च । दूषयन्ति स दुष्टानां सप्तको द्रव्यसंमहः ॥ इसी असित ( ददु ) ङ के असाध्य होने से सुश्चतमे महङ्ष्
प्रकार चरक नि. ज. ९ सें मी कहा हे--दृष्याश्च सरीरथात- मे तथा सित के सुखसाभ्य होने से हखका चरक म श्चदङु
वस्त्वङ्मांस शोणितरसीकाश्चतुां दोषोपषातपिकृताः । ( विसपं मे म परिगणन क्रिया गया हे । सुश्रत नि.अ.५की रीका मं
येही तीनो दोष तथा त्वचा, रक्त, मांस एवं रुसीका डर्हण ने छिखा हे-“दद्रुकुषंद्विविधं सितमपितं च, सितस्य
खादि चारों दूष्य भागकेते ह! इन दोनों का भेद हमने महोपक्रमसाध्यत्वादसुबन्ितवध्रकर्षाच्च मह्‌ङुष्ठेदु मध्ये सुश्रुते पाठः)
वात्तयाऽत्य्थ-
खिटस्थान ॐ विसप॑विकित्साध्याय की ज्याख्या में दिया हे । सितदद्रकुष्टस्य छखसाध्यत्वादुत्ततोत्तप्षपाठतवनुपरवेद्ाभा
इत्यदोषः” ! किटिभ
इसे वहीं देखें > सिध्म कुष्ठ के रुदण-जिसपर धूरि रगी पीडारदितत्वाज्च चरके चुद्रकुषटेषु मघ्ये श्ुरवरे,
इई भ्रतीत हो, तथा जो धियाकदूदु एवं वारणपुष्पी के र के का ङुचण-ये हृप्ण, श्याव पुवं भङ्ण वणं चाके,
१९८ कारयपसंहिता वा व्ृद्धजीवकीयं त्नम्‌ । [ ङुष्टचिङ्किस्सिताध्यायः !
(|

त म त च तनि

कठोर, खावयुक्त जौर बदुने वारे होते है । बडे होते हे, तथा
एक बार क्षान्त होकर पुनः २ हो जते । चरक चि.अ.७में अ. ५ मैं भी कहा है--शटक्लरक्तावमासानि रक्तपय॑न्ताति रक्त
कहा है-द्यावं किणखरसङ्ञं पदषं किटिभं स्दरतम्‌ । अर्थात्‌ ये राजीसन्ततान्युत्तेधवन्ति वहुवहलरक्तपूयलसीकानि कण्डूकृमिदाह-
किण (8० ) के समान खुरद्रे तथा कठोर होते ह । सुश्रत पाकवन्त्याह्युगतिससुत्थःनमेदीनि पुण्डरीकपलाचसङ्काश्ानि पुण्डरी.
नि.-अ. धमे भी कहा है--यत्‌ चापि वृत्तं पनमुभकण्डु। तत्‌ काणीति विचत्‌ ।सुश्रुत नि. अ. ५ भी कहा है-पुण्डरीक-
सिनग्धक्ृभणंकिटिभं ( मं ) वदन्ति ॥ इसमें खजरी बहुत अधिक पत्रपरकाद्यानि पौण्डरीकाणि र्छेष्मणा । शिवन्रङ्ष्ट-श्वेत होने से
होती हे, इसे ( ८००93 ) कहते ह । कपार्ङुष्ट के रच्तण- इसे धित्र कहते हैँ । इसङे ५ प्रकारो का भागे वर्णन करगे ।
यह कृष्ण वर्णं का, सुरदा, कठोर तथा मेरा, अनेक स्थार्नो चरक में १८ प्रकार के ऊुष्ट से भिन्न शधित्रङ्कष्टका वर्णन किया
वारा तथा मण्डराकार होता है। इसमे खुज्ञखी होती ह । है । इते किकस भी कहा हे । सुश्रुत नि, अ. ५ कहा है-
दो ऋतुभों की सन्धियों ( जहांदो ऋतु्ओ का मेर होता '“किलापस्तमपि कुष्टविकल्प एव, ततिविधं वातिन; पित्तेन,
दे-एक ऋतु समाप्त होती है तथा दुसरी प्रारंभ होती है ) में दरेष्मणा चेति!” अर्थात्‌ इन दोनो में मेद यहदहे फिङकुष
ओर उष्णकार मे भव्यन्त कष्ट पहंचाता हे । तथा कपार तो स्वचा; रक्त तथा मांस में अधिष्ठितं होकर स्वचा मं प्रकर
( घडे के ठीकरे ) की आरति बारा होता है! चरक चि. ज. होत्रा है परन्तु इसके विपरीत किरा केवर स्वचामेही
७ कहा है-कृष्णारुणक्रपारासं यद्र्षं परषृं तलु । कपारं तोद- अधिष्ठित होता है । कदा है-“कुष्टकिलासयोरन्तर त्वग्णत-
बहुकं तत्कुष्ठं विषमं स्तम्‌ ॥ हसी प्रकार चरक नि. अ. ५ मं मेव भिलासमपरिखावि चः"। कधं खोग त्वचा मँ स्थित होने
भी कहा है-हक्षारणपरषाणि विषसविदतानि खरपयंन्तानि पर उपे किलास कहते है तथा उसी के धातुर्भो में प्रवेश करने
तनूम्युदइत्तवदिस्तनूनि य्तएप्ानि हषितलोमाचितानि निस्तोद- पर शिवित्न कहते दै । कहा भी है--वग्गतन्तु यदच्ाति किलासं
वहुलान्यलयकण्डूदादपूयलसीकान्याद्युगतिसतपुत्थानान्याद्यभेदीनि ज- तत्प्रकतितम्‌। यदा त्वचमतिक्रम्य तद्धातूनवगाहुते।॥। दहित्वा
न्तुमन्ति कष्णास्णकपाल्वणांनि कापाल्कर्ठानीति विचात्‌ । सुश्रत किलापसं्ञं च दिव्तज्ञां रमेत तत्‌ । चरके चि. अ. ७ मेशित्र
नि.अ.५सें भी कहा दै--“ङष्णकपारिकाप्रकाश्चानि कपाल के ६ मेद्‌ दिये दै--दारुणं चारणं शिरं किलासं नामभिखिभिः।
ङुष्टानि"” ।स्थुरारष्क या महार्ष्क कुष्ठ का रच्तेण-जो पिच्छा यदुच्यते तत्‌ तरिविधं त्रिदोषं प्रायश्चश्च तत ॥ अर्थात्‌ किलास
(चिपचिपापन), खाव, वेदना, दाह, कण्डू, तोद, ऽवर, विसपं ( शिवित्र ) के दारण, चारुणं ओर शन्न ये तीन भैद्‌है,
( छपशए८४७) तथा जो मूल मे बड़ २ ब्र्णो से युक्तहो तथा भाद्धकितन्त्रं मै भी धात्वाश्रय के मेदतसे किटासके तीर्न
मृदु एवं खुरद्रा हो उसे महारष्क कहते ह । सुश्रत नि. घ. सेद्‌ दिये ईै- वारणं तत्त॒ विज्ञेयंमासधातुस्माश्रयम्‌ । मेदः भितं
धमेभी कहा हेस्थूलानि सन्धिष्वतिदार्णानि । स्थूलारषि मवेच्छ वित्रंदारणं रक्तसं्रयम्‌ ! अर्थात्‌ जव किडास का आश्रय
स्युः कटिनान्यर्दषि ॥ अर्थात्‌ इसमे अस्यन्त दारण एवं बडे २ मांस होता है तब उसंका ` नाम वारुण ( चरक के अनुसार
व्रण होते है ।चरक म इसका परिगणन नहीं किया गया हे। चारुण >)होता है । मेद्‌ मे आश्रित होने पर शिवन्र तथा रक्त
मण्डलङुष्ठ-इसमे दुपहरिया के दलो के सदश ( रालरंग के) मे आधित होने पर दारुण कहतेहैँ। यह रोग जेषा कि पहरे
मण्डर हीते हैतथा दाह, कण्डू, वेदना ओर खराव होते द। कहा जा चुका हे, केवर स्वचागत ही होता है । यहां दी इं
चरक चि. अ. ७ मे कहा हे-रवेतं रतं स्थरं स्त्यानं स्नग्ध मांस मेद्‌ तथा रक्त धातुभों का यही अभिभ्रायहे हिदोष
य॒त्छन्नमण्डलम्‌ । कच्छृमन्योन्यसंपक्तं कुष्टं मण्डलमुच्यते ॥ रथात्‌ उन र२धातुजनो मेँजश्चित रहता इजा ही स्वचा मे करमशः ताच्र,
इसमे मण्डर-परस्पर एक दृसरे से जडे इए होतेहैँ। चरक श्वेत तथा रक्तवर्णो को उस्पन्न करता हे । अन्य कुरो की तरह
नि.अ. श्म भी कहा हे-स्निग्धानि युरूण्युत्सेधवन्ति दलष्ण- इसमे धातुसंबन्धी विश्षेष चिकार उपपन्न नहीं होते है।
स्थिरपीनपर॑न्तानि द्ुक्लर््तावभासानि शुक्टयो मरराजीसन्ततानि धित्रया किस को आधुनिकं विज्ञान के अनुसार 16८०९
वहुबहटुङपिच्छिलक्च(वीणि वहुक्केदकण्ड्करमीणि सक्तगतिसु- १८८५० कहा जा सकता हे । कश्यनिह्न-जो ऋष्य ( नीठे
त्थानभेदौनि परिमण्डलानि मण्डलकरष्ठानीति विद्यात्‌ । ८ बन्धुपुष्प अण्डकोष वे हरिण >)की जिह्वां के समान, कठोर, विवर्ण,
एक बृक् होता हे जिसका पूर मध्याह्न मे विकलित होता हे गौरवर्ण एवे क्छेद्‌ से युक्त होता है उसे ऋभ्यजिड कहते है ।
दस हुपहरिया ( 90186168 71106४०९8 ) कहते है । इसका चरक चि० अ० ७ में कहां दै-- करवीरं रक्तपयन्तमन्तःरयावं
फूर छार रंगकाहोताहे) रा. नि.मे कहा है--मस्य पुष्प वेदनम्‌ । यद्डरयजिहासंस्था
नम्य जिहनंतदुच्यते ॥ इसी प्रकार
मध्गराहे विकसति पराह च खर्योदये शुष्यति! विषज कुष के चरक नि० अ०५ नँ भी कहा हे-परषाण्यरुणवर्णानि बदिरन्तः-
रक्षण~-मकड़ी, कीडे, पतंगे, तथा सांप के दाता से कटे हष दयावान नीरपीतताभ्रावभाप्तान्याुगनिसयुत्थानान्यर्पकण्डुवरद-
की यदि उपेक्ता ङी जाय तो वह स्थानं खर (खुरदर) ह्ये जाता करमीणि दाहभेदनिस्तोदपाकबहुलानि शूको पहतोपमवेदनान्युत्सनम-
है-हसे विषज कुष्ट कहते है यह कृष्ट साध्य होता हे ! पौण्ड. ध्यानि तनुपर्यन्तानि ककरापिडकाचितानि दीर्घ॑परिमण्डलानि ऋष्य-
रीक ऊुष्ट के कच्ण-जो बड़ आहय वाला एवं उन्नत हो, जो जिहाङ्ृतीनि ऋभ्यजिह्वनीति पिबात्‌ । सुश्रुत नि० अ० ५ मेका
देर मे उत्पन्नो तथादेरमेदही षटे,जो पुण्डरीक (रक्त हे--छष्यजिहाप्रकाशचानि खराणि ऋष्यजिह्नि। कोई ऋष्य.
मक ) तथा पठाश के वणं कां हो उसे पौण्डरीकं कहते हे । जिह के स्थान पर ऋक्जिह पदते हँ उस अवस्था मेँ ऋत्त का
चरक चि, भ. ७ मं का दे-सवनेतं र््ेनतं इण्डयोकद- । अथं रदु करना होगा । शातारष्क ऊठ का रच्षण--खार्वो से
ङुष्टविकिस्सिताध्यायः १ ] चिकित्सास्थान ११९
निमी कि पा त ५५
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क्त, नीरे, कार, पीरे, कारे आदि अनेक वर्णो वरे कठोर मनुर््यो को मार देतेहै अर्थात्‌ वे धातक हो जाते ई । इसलिये
वणो से युक्त होता है 1 चरक चि० ज०७ मेँकहाहै--त्तं भपने हित को दष्ट मँ स्ते. इए शीघ ही भ्रयत्नश्चीरु.होना
यावं सदादाति शतारः स्याद्‌ बहुव्रणम्‌ । इसे एप कहते है । | चाहिये अर्थात्‌ यथा शीघ्र चिकिसा का प्रयत्न . करना
ओदुग्बर ऊष का रक्ण-जो पके हुए गूर के फरक |चाहिये ¦
समान, बिना खाव वाला तथा अनेकं जडो ( ८०018} काला | कुरेष्वादौ वातोत्तरेषु धृताच्छंप नसनेकशो मश्डा-
होता उसे ओदुम्बर ङ कहते है । चरक चि० अ०७ मे न्तरितं प्रशस्यते, तिक्सपिंष इतरोत्तरयोः, वमनिरे
कहा हे-रण्डविदादर्मागपरीतं लोमपिज्ञरन्‌ ! उदुम्बरफलाभासं यमनास्था ५१०१ ०५१५००००.
(पन) १११५५१११ ५०७१५०७

उषठमोदुस्दरं विदुः ॥ चरक नि० अ० ५ममी कहा है


तात्राणि तात्रखररोमराजीभिर्वनद्धानि बरहलानि वहुवहटरक्तपूयल
सीकानि कण्ड्क्लेदकोथदाहपाकवन्त्याश्चुगतिसमुत्थानभेदीनि खस
न्ताक्रमीणि पकोदुम्बरफल्वर्णाण्युदम्बरङुष्ठानीति षिचात्‌ । सुश्रत ( इति ताडपत्रपुस्ते १२० तमं पतम्‌ )
नि० अ० ५ मेँ मी कहा है--“धपित्तेन पकोदुम्बरफलाकृतिवर्णान्यौ-
वुम्बराणि" । काकण कुष्ट का छत्तण--यह हाथी के चमडे के वातिक कुष को चिकित्सा-वातिक कष्ट मे सवसे पूवं
समान सुरदा होता हे 1 चरक चि० अ०७ में कहाहे- मण्ड से रहित जच्छ ( स्वच्छु-केवरु ) धृत का पान कराना
यत्काकणन्तिकावरणेमपाकं तीव्रवेदनम्‌ । त्रिदो पलि तत्छुष्डं काकणं चाहिये । तथा पत्तिक एवं श्रंष्मिक में तिक्त धृत--पिलाना,
तैव ्तिष्यति ॥ अर्थात्‌ यह असाध्य माना गया है । चरक
नि०अ०्५म मी कहा है-काकणन्तिकावर्णान्यादौ पश्चात्सवकु. वमन, विरेचन; आस्थापन" "* “° “ " “" ( आदि का जावश्य-
षएटलिङ्गसमन्वितानि पापीयसां सर्वकुष्टलिङ्धसंभषेनानेकवर्गांनि काकण-
केतानुसार प्रयोग करना चाहिये )
कानीति निबात्‌, तान्यसाध्यानि । सुश्रतनि० अ०्५ेभी वक्तव्य--यह अध्याय बीच ही खण्डित हो गयाडहै।
कहा है--“काकणन्तिकाफलसदृशाण्यतीवरक्तकृष्णानि । अर्थात्‌ हसयिये अन्य अधं अन्थों के जाधार पर हम इन मुख्य २ ऊठ
रन्ती के समान चार्यो मोर से भत्यन्त रूर तथा बीचमं के सामान्य चिकित्सा ऋम का उर्डेख करते ईँ ।चरक चि०अ०
७ मे कहा है--बातोच्चरेु सपिवमनं र्लेष्मोत्तरेषु कुष्ठेषु ! पिन्तोत्त
काला होने के कारण ही इसका यह नाम है ! चर्मदरु--यह
दद्धि वाखा होता है--अर्थात्‌ यह निरन्तर बढ़ता चखा जाता रेषु मोक्षो रक्तस्य विरेचनं चाये ॥ अर्थात्‌ वातिक कुष्ट में धृत
है । चरक चि०अ०७म कहा है-रतं सकःइपस्फोटं सरुग्‌ पान, वैचतिक भ रक्तमोरण अथवा विरेचन तथा श्ठैम्मिक में
दलति चापि यत्‌। तच्चम॑दलमाख्यातं संस्पर्छासदयच्यते ॥ अर्थात्‌ वमन कराना चायं । अवश्यकतानुसार उपयु विधिर्यो
इसमे हाथ आदि के स्पर्शं से तीव्र वेदना होती है ! सुश्रुत से कोष्ठ के शुद्ध हो जाने पर उसे वातप्ररोपसे बचाने फ
नि० अ०५ में शहा है-स्ययंन वण्ड्ृन्यथनौषचोषास्तकेषु स्यि स्नेहपान कराना चाहिये । चरक चि० ज९ ७ मैं कहा है-
तच॑दलं वदन्ति । यह हार्थो तथा पैरो की तरिर्यो सें होता है । हस्य पानमिष्टं शुद्धे कोष्ठे प्रवाहिते रुधिरे । वायु शको
इसे आधुनिक विज्ञान के अनुसार 2०१67 कहेते दँ । कुष्िनमवलं विशति शीघ्रम्‌ ॥ इस सामान्य चिकित्सा ( ५९०९
एककुष्ठ-जो विसपं से उस्पन्न हभ हो, सदा विसपण करता 78] प्रवणा) के साथ ही स्थानिक चिकित्सा ( 1.०0!
हो ( फेकता हो >)तथा ज्लाव, वेदना एवं कमियों से युक्त हो । 01108510 ) भी करनी ` चाहिये । उस स्थान को बच्छ
चरक चि०अ०७मेकहा है--अस्वेदनं महावान्च यन्मत्स्यशच प्रकार स्वेदन कर के कूर्चंशख ( 507४0067 ) से अच्छी प्रकार
करोपमम्‌ | तदेककुष्ठं ५८०७९०० ०७०५०४ + ४०१००१४१ ° |] रेखन ( 8०906 ) करे जिस से रक्त का उष्वरेश्च कमहो
सुश्रत नि०अण्थरमे भी कहा है--ङृष्णारणं येन भवेच्छरीरं जाय । इस प्रकार शद्ध हो जने के बाद्‌ आवश्यकतानुसार
तदेककुष्ठं प्रवदन्ति कुष्ठम्‌ ॥ .विपादिका का रक्ण-जो हाथ, खेप र्गने चारय । -ख्ेप ख्गने सरे पूवं उपर्युक्त स्थानिक
पेर, अंगुष्ठ, ओष्ठ, तथा जङ्काओं मेँ फट जाता हो, जिसमें तथा आश्य संबन्धी द्धि करना आवश्यक है । ऊट रोग
साव तथा वेदना होती ह्यो तथा जिसका पाक न होताहो मे आभ्यन्तरिक एवं बाह्य सव प्रकार से विडङ्ग तथा खदिर
भर्थात्‌ पकता न हो उसे विपादिका कहते हँ ।. चरक चि० का प्रयोग श्रेष्ठ माना गया है! चरकं चि० अ०४७मैकहा
अ०७ मेँ कहा है-ैपादिकं पाणिपादस्फुरनं तीत्रवेदसम्‌ | है--पानादारविधाने प्रसेचने धूपने श्रदेहे च । कृभिनाश्चनं वि
परिदिष्यते कुहा खदिरः ॥ श्वित्र चििर्घा--चिन्र रोग में सब
सुश्रत नि० अ०५म भी कहा-है--विपादिका पादगतेयमेव।
से पहरे वमन विरेचना आदि इरा रोगी के आदाय का
ह्ण ने इसी टीका मँ छिखा है-इयमेव विचर्चिका पादगता कोधन करने के बाद्‌ सवर्णकरणख्पों का प्रयोग करना चाहिये ।
यद्‌ स्यात्तदा विच्चिकासंज्ञां विहाय विपादिकासं्ता प्रप्रो
तथा घन्य जो भी कुष्ठनाशक्छ प्रयोग हैँउन का व्यवहार करना `
तीष्यथंः । अर्थात्‌ जब विचर्चिका हीर्पेरो मे होतो उसे
चाहिये ।
विपादिका कहते हैँ । आधुनिक विज्ञान के अनुसार इसे
2929068 कहते है । सभी `रोग ज्ञान पूर्वक उपेक्षा श्रिये
जाने परं असाध्य हो जाते है तथा जो जसाध्य होतेव | ` ‡ १. भस्याये प््रचुष्टयाप्मको सन्थसस्तिस्ताडपत्रुस्तके। . `
१२७ काश्यपसंहिता वा ृद्धजीवकीयं तन्प्रम्‌ । [ सूत्र्कच्छ चिकित्सिवाध्यायः १
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[क च क क ^ व च ^ च+व + ^^ 09090

स्‌चकरच्छविकित्सिताध्यायः, अ०५९ मँ भी कहा है-स्निग्धं शुक्क्मनुष्णं च सुष्कमेहनवस्ति.


# $ ९५ १ ०९९५९५१४
भिः 1 संहृष्टरोमायुरुभिः ररेष्माघातेन मेहति ॥ |
दन्दजं न्द्ररूपेभ्यः सर्वेभ्यः सान्निपातिकम्‌ ॥
#ै दै $ 9 ।। [8 8., # # $ ® क + ९ ।|

रक्तजं पिन्तवज्ज्ञेयं सरक्तस्य च मूत्रणात्‌ ।


# ~- "¢ & ॐ $¶ १९ ९-१९ ९१९९० १ ९ >^ 49 ४9

कटीरकन्धात्तिधरणात्‌ पिन्तं रद्धं कफानिलौ । दोर्दोर्षोके मिरे हए रुक्ष्णो से मूत्रङच्छ्‌ को इन्ह्ज


अनुत्य यदा वस्ति दूषयन्ति तदृश्रयाः ॥ तथा सब दोषो के सम्मिलित र्चर्णो से उसे साश्निपातिक
मूतरक्ृच्छं तदा जन्तोदारृणं संप्रवततेते । जाने । चरक चि० अ० २६ मं कहा है-सर्वांणि रूपाणि त॒ सन्नि.
दक्तम्य--यह अध्याय प्रारंम मे खण्डितडे। इसमें मत्र पाताद्धवन्ति तत्छच्छरृतमं `तु कृच्छ्रम्‌ । सुश्चत उ० सअ० ५९ में
हृष्ट रेग की चिकित्सा कही जायगी । मूत्र ङच्छर से अभि कहा - है--दाहरीतरुजापिष्टो नानावर्णं सुदंइः 1 ताम्यभानस्तु
प्राय मूत्र के कष्ट पूर्वक अनेसेहे। कृच्छर ण सन्निपातेन मेहति ॥ रन्तज मूत्रकरच्छ का रुक्षण--रक्तजं
मूत्र छच्छ का निदान~-कटि तथा स्कन्ध पर अत्यन्त म्‌चङच्छ्‌ पेत्तिकमूत्रङकच्ट्‌ के समान रक्षणो वाला होता हे तथां
जधिक भार के धारण करने से कुपित हुजा पित्त कफ तथा हस मे मूत्र में रक्त आताडे। चरक चि०अ०२्६ में कहाहै-
वायु का अनुसरण करके जब बस्ति (5106 } को दूषित क्षताभिधाताकक्षतजं क्चयाद्वा प्रकोपितं वस्तिगतं विबद्धम्‌ \. तीत्राति
कर देता है तब उस प्राणीको भयंकर मूत्र च्छर्‌ रोगहो मूत्रेण सहास्पमल्पमायाति तस्मिन्नतिसच्िते च ॥ भाध्माततां विन्दति
जाता है । चरक चि० अ० र्मे दस का निदान निश्च प्रकार गौरवं च बस्तिष्ुस्वं च विनिःसतेऽसिमिन्‌ ॥
सरे दिया ह--ग्यायामतीदणो षधरूक्षमययप्रसङ् नत्यद्रतपृष्टयानात्‌ । विशेषाः सनिपातोत्थे मूच्छाश्रसषिलापकाः ॥
आनूपमत्स्याध्यद्चनादजीर्णत्ुमूतृच्छणि चणामिदहाष्टो ॥ सर्वेषु काश्येमरतिर रुचिः सानवस्थित्िः।
सफेनमल्पमरुणे कालं वा शुलसंततम्‌ ॥ तृष्णाश्चूलविषादातिस्त एव स्युरुपद्रवाः ॥
मूत्रमानद्धवचेस्वं बाताघातस्य लन्तणम्‌ । सज्िपातज मूत्रकृच्छ्र मे मृद्धं, भ्रम तथा प्रराप-विहशेष
वातिक मूत्रह्च्छू के छ्षण--दइसमं मूतर फेन ( च्चाग)
लक्षण होते हैँ सब प्रकार के मृत्रङ्च्छोमे इश्ता, अरति
वाटा तथा थोडा २ आता ठै, रंग अरण ( इंट जैसा खार ) ( ग्खानि ) अर्चि, मन की अस्थिरता, तृष्णा, शूर, विषाद्‌;
तथां कारा होता हे, मून स्याग के समय वेदना होती है, तथा अर्ति पीडा ) आदि उपद्रव ( रकण ) होते ई ।
मछ भी स्क जाता हे। चरक चि० अ० २६ मे.क्हाहे- वक्तव्य--इष प्रकार यहां 9 वातिक २ पत्तिक ३ श्रेष्मिक
तीवा हि र्ग्वक्षणवस्ति मेदे स्वसं सहुमूत्रयतीह वातात्‌ 1 ४ वातपैत्तिक ५ वातश्टेभ्मिक £ पितश्रेश्मिक ७ सान्निपातिक
सुश्रत ॐ० ० ५९ सनं कहा है- श्रस्पमल्यं ससुत्पीङ्य इुष्वमेदन- ८ रक्तज-पेआर भेद दियेईह । चरक म-१ वातिक २२ पत्तिक
बरिततिभिः ! फरद्धिरिव छच्छ ण वाततावात्तिन मेहति ॥ ३ श्टेष्मिक 9 सान्निपातिक ५ अश्मरीज & शकंराज ७ शुकज
८ रक्तज-ये आढ भेद दिये है ।सुश्चत भे--१ वातिक २ पैत्तिकं
. सदाहवेदनं पीतमयुष्णं चाष्पसंहितम्‌ ॥ _ ३ श्छेष्मिक ४ सान्निपातिक ५ अभिघातज ६ पुरीषज ७ जरम
खिद्यमानमुखो मूत्रं करुते पेत्तिके शिशुः । रीज तथा ८ शर्क॑राज--ये आ मेद्‌दिये दह । |
पेत्तिक भूत्ङ्च्छ्र के रुकहण--दस मे बारुक को मूत्र दाह. चिरात्‌ प्रमेहाः छुष्यन्ति सदयः कृच्छाणि देहिनाम्‌ ।
शवं वेदना से युक्त आताहै,रंग अस्यन्त पीरा होता हैँ( पित्त
के कारण ), अत्यन्त उष्ण तथा वाष्प से युक्त होताह े तथा | ` .. विशेषः कृच्छमेहानां कच्छे दाहोऽति चेन्द्रिये ॥
सूत्र स्याग के समय सुख पर पसीना आजाता है । चरक चि° च्छ्ाख्याशु निवतंन्ते प्रमेदास्तु प्रसङ्गिनः।
भ०्रष्म कहा है-पीवं सरक्तं सरजं सदाहं कच्छन्स॒हुमूत्र- पित्तप्रायाणि कृच्छाणि वातस्थानाशध्रयाणि च) `
यती पिन्तात्‌ ! सुश्रुत उ० ०५९ म भी कहा है-दारिद्रसु्णं प्रमेह तथा मूत्रकृच्ट्‌ मेँ मेद--प्राणियो मेंप्रमेहं रोग बहुत
रक्तं वा युष्कमेदनवस्तिमिः। अग्निना दद्यमानाभेः, पित्तायातेन दैर से प्रकुपित होतेहै जब कि मूत्रकृच्छ्र शीघ्रही कुपित हो
मेहति ॥ ` ¡` ~ ~ 1... जातेह 1 इसके अतिरिक्त मूत्रङ्च्छर तथा प्रमेह में यह मेद है
बहुलं करुते मूत्रमल्पबाधं सितं घनम्‌ ॥ ` कि मूत्रह्च्छ रोग मेँ मू्रन्दिय मेअवयन्त दाह होता है । मूत्र
बस्िगौरवशोथौ च मूत्राघाते कफात्मके । ` च्छ होग श्चीश्रही ठीक हो जाते हँ तथां प्रमेह धीरे र ठीक
शरेष्मिक मूत्रृच्ठ्‌ के लषषण--दसमें रोगी को मूत्र बहुत
होता हे । मूत्ङृच्छ मँ पित्त की प्रधानता हे तथा चायु के स्थान“|
इसके आघ्यहोतेर्है॥
-आता हेतथा मूनत्रत्याग-के समय कष्ट कम होता हे ।मून्रका
रंग शेत भौर घना (सान्द्र) होता है तथा बरित मं-भारीपन तस्मात्‌ सामान्ययोगेन चिकित्सा ह्यपदेदयते । `
० ज० २६ में कहा है-रस्तेःतेः
चकचि०
एवं श्लोथ हेहो जातीजाती है ।। चरक | इस स्थि दोनों की चिकिष्सा समानसूपले कही जा
लिङ्गस्य युरत्वाशोधो. मूत्रं सपिच्छं कफमूतन्र ।सुश्रत इ? । यगी ` `. ~ `
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न च च १ ह |
चिकित्सास्थानम्‌ । १२१
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शरमूलानि निष्काथ्य शीतं पूतं च तज्लम्‌ ।


भ # नित १ ` १. न ५, ४ ति स्‌ विक

को पक्छाकर उसे थोडेसे घृतसे सूद्धिंत करके पिरान से


शकरासघुसंयुत्तं पिवेत्‌ ऊच्छोपशान्तये रक्तज मुच्छ्च्छर शीषर ही नष्ट होतादे
अव्र मूत्रङ्च्छ की सामान्य चिद्धिस्पा कही जायगी-मूत्र- कनीयसीं पक्छमलीं कुलत्थं बदराणि च
कृच्छर की चिकित्सा मूत्रकृच्छ्र रोग की शान्तिके स्यिशर शकरामधुसयुक्तो सेहो मूत्रत्रह हितः ।
मुखा का क्वाथ बनाकर उषे शीतल कर के छान कर उमे
शकरा एवं मधु मिखाकर पिलाना चाहिये ५ स्वल्प पञ्चभर ८ शालिपर्णी, पररिनिपणीं, चहती, कण्टकारी
तथा गोर्‌ ), कुकत्थ तथा वैर-इन का शकरा एवं मधघु से
मघुकं शरमं च त्रिपल्ला सितवारिका ॥ जवरेह वनाकर मूत्रथह ८ मूत्रकृच्छ्र > सं देना चाहिये ॥
श्तं सशकरान्तौद्रं यच्रकरच्छुनिवारणम्‌ । सैन्धवो रसः कार्यो सूच्राघाते घृतायु(न्वि)तः॥।
मुरुहदी, शरम, त्रिफला , सित वारिका (किहर्‌ पिषप्णङी) सताणेपच्चध्लो वा रास्नागोष्ठुरदेण वा ।
हन ॐ स्वाथ में शक्रा एवं मधरु मिकाकर पीने से मूत्रङ्च्छ
दूरहोताहे पञ्चतृण मूल के रस मं नमक एवं घृत मिलाकर अथवा
रास्ना एवं गोशुर ॐ साथ मूत्रकृच्छ्र मे देना चाहिये ॥
ताणस्य पच्चश्रूलस्य स्स निष्काथ्य पायकतचत्‌
राकराद्दाद्रक = द्् ६३६ न्‌ ] दरौ करड्धौ निगभा(¢च का्पसो मघुशिग्रकः॥
पद्वतुग सूकके रस का क्वाथ करके उष्म ज्कंरा एवं शद्रा वसुको द्रौ च गृणालं चोत्पलानि च ।
मधु भिलाकर पिखाने से सव प्रकार के मू्ङ्च्छरौ की श्ाभ्ति पिप्पल्यः सैन्धवं चैव सुदमेला मरिचानि च ॥
होतीहे।॥ एतेः सिद्धां पिबेद्रालो यवागू ससुत्रचंलाम्‌ ।
शतावरी प्रथक्पण। कुलत्थबदराणि च ॥ दोनो करज ( करञ्ज तथा पूतिकरज्ञ ) निगां १ कपास,
शकरामधुसंय॒क्तो लेहो मूत्रम्रहापहः। मीठा सुहांजना. गोखर, दोनो कुटज (मीडा ओर कडवा )
शतावरी, पृथक्पर्णी ( वृरिनिपणीं ), कुरुत्थ तथा बेर इन
ग्रणारु ( कमलनार ), उस्पल ( नीर कमर ); पिप्पली
का दाकरा एवं मधु के साथ अवरे बनाकर देने से मूत्रम्रहं सेन्धा नमक, द्धोटी इलायची, मरिच, तथा सुवचा
( इर्डुर >)इन से सिद्ध की इद यवागू को बार्क पीये ॥
( सूतरहृच्छर ) नष्ट होते हं ॥ `
विपरीतं भरमेहेभ्यो मू्क्ृच्धेषु कल्पयेत्‌ ॥ एतेरेबोषधेलंहं शकरामधुसंयुतम्‌ ॥।
ओषधं पानमन्नं च सुचिग्धं मदु शोधयेत्‌ | प्रयुञ्जीत घृतं चेव पकं छच्छुनिवार
णम्‌ ।
मत्रकृच्छ में प्रमेह ॐ विपरीत ८ भिन्न ) ओषध, पान तथा इन्दी उपर्युक्त ओषधि्यो से इकरा एवं मधु के साथ
अन्न ( आहार ) का ग्यवहार करना चाहिये तथा अच्छी अवरुह्‌ बनाकर अथवा चरत पाक करके प्रयोग-करने से
प्रकार स्निश्व एवं गदु शोधन { वमन-षिरेचन ) करये ॥ मूत्रङ्च्छ रोग नष्ट होता दहे ॥
मधुराणीष्ठुविक्तीखपुसानि घृतं पयः ॥ कनीयसी पञ्चमूली पञ्चकोलयवेः सहं ।
सेवेत बजेयेन्निव्यं यत्‌ संम्राहि धिदाहि च । कुलत्थमधुशिम्रणि कायश्च सतिलो भवेत्‌ ॥
मूत्रकृच्छ्र मे पथ्यापथ्य - मघुर पदाथ, गन्ने के विकारं मन्दस्नेहो रसस्तेष सौवचंलयुतो भवेत्‌ ।
(गुड अदि), पुस (खीरा); घौ तथा दूधका सेवन मूत्राघाते प्रयोक्तव्यः शकंरासु विशेषतः ॥
करना चाहिये तथा संम्राही (49 ०६९०+ } एवं विदा ही खधु पञ्चमूर, पञ्चको ( पिप्पली; पिप्परीमुर, चज्य,
पदार्थो काव्याग करना चाहिये । चरक चि० अण०रे६्मे इस चित्रङ सट ), ञे, कुरस्य, मीठा सुहांजना, तथा तिख-इन के
का निम्न परहेज बताया है--यायामंवारणडयष्कमश्चपिष्टन्नवा- रख से थोडा स्नेह ( घृत्त) तथा सौवर्चल ( कारानमक >
ताकंकरबव्यवायान्‌। जुः शालूक पित्थजम्बूविसं कषायं न रसं भजेत ॥ मिराकर सून्राघात ८ मून्रहृच्छ्‌ ) तथा विशेषखूप से शकरा
( शकंराजन्य भूत्र्च्छ ) मे भयुक्त करना चाहिये ॥
उषकोऽथ ब्रहत्यौ दवे दष्ट बह्ुकाबुभौ ॥
-शङ्गवेरं यवाश्चैव दर्भो वृ्तादनी बला | एकतिदोषजेः च्छः शकरास्तुल्यलन्तरणाः ।
पिष्पलली तैः श्तं चीरं घृतमात्रादि(षि)मूच्छिवम्‌ । सुवणैचणेसदृशास्तथा सषेपसन्निभाः ॥।
सरक्ते पाययेत्‌ कच्छ किप्रमेतेन सिभ्यति । रोचनेव गवां पित्ते संभवन्त्यनिलात्मनाम्‌ ।
रक्तन म्‌
त्रह्ृच्छ्‌ की चिङित्सा-दुषक ( कल्कर नामक
वातेनोन्मथितं मूत्रं खजित्तं पापकर्मणाम्‌ ॥
चृष्य कन्द्‌ ), छोरी कटेरी, बदु, कटेरी, गोखुर, दोनो कुटज शकंराः स्युरबिवरद्धास्ता अश्मयेः संभवन्त्यथ ।
( मीा भौर कडवा ), आरद्र॑क, जौ, दर्भं (डाभ) बृरतादनी ज्ञिख प्रकार गौ के पित्त (55) मे ऋमश्ञः गोरोचना 6 ` |
( बन्दाक ), बरा ८ खरेदी ) तथा पिष्परी-इन के द्वारा दूध बन जाती ह उसी प्रकार वात की अधिकता बारे व्यिं `
६ छार
१९२ काश्यपदखंहिता का वृद्धजीवकीयं तन्त्र्‌ । [ सून्रह्च्छरचिकिस्सिताध्यायः१ ४

[त क ता पि स न त त 9 0

मे एक दोषज अथवा त्रिलोदज सृज्छ्च्छौ से पापकम वाले के मूत्र के साथ शर्करा (8५०१.) आतीहै। वह शल्यरूप
व्यक्तियों मँ वायुठे द्वारा मथा जावा इजा सूत्र ककरा के अश्मरी बस्ति (21406: ) मे दृद्धि को प्रष्ठ होती जाती
समान सक्तणवाली सुवणं के चुणं तथ सरसो के समान है ! वह अश्मरी यो २ रोगी रीण होता जाता हे-स्थौ २ क्षीण
शर्करा (६५१ ) उस्पन्न कर देताहै । त्था वे ही क्षकंरायें होती जातीहैतथारोगीकी पुष्टि के साथ २ अश्मरी भी
बटठरूर अश्मरियां ( 81065 ) चन जाती ईह ! चश्क चि.अ. २६ पष्ट होती जाती ह अर्थात्‌ बढती जाती ह । सुश्रुत नि. अ.
मे कहा है- “क्रमेण पित्तेष्विव रोचना गोः" सुश्रुत नि.अ. रेमे ३ मे अश्मरी होनेपर निम्न छत्तण दिये है--अथ जता नाभि.
अश्मरी किल प्रकार वती है इश्चका एक अन्यं उदाहरण वस्तिसेवनीमरैहनेष्वन्यतमस्मिन्‌ मेहतो वेदना मूत्रधारासङ्गः सरुधिर
दिया है---अष्छु स्वच्छा ( स्था ) सपि यथा निषिक्ता नवे घटे । मूत्रता मूत्रविकिरणं गोमेदशप्रकाद्चमत्याविरं ससिक्तं विसजति,
कालान्तरेण पङ्कः स्याददमरीसतमवस्तथा ॥ अर्थात्‌ घडे मे रखे इए धावनलब्भनप्टवमपृष्ठयानोष्णाष्वगमचैश्नास्य पेदना भवन्ति । अर्थात्‌
साफ पानी मी जिस प्रकार कुद समय के पश्चात्‌ कीच मूत्र व्याग के समय नाभि, बस्ति, शिश्न, सीवनी आदि मं
( एव्णएष्मार ) जमा हो जाता है उक्ती प्रकार बस्तिं वेदना, मूत्रका बीच रसेंर्क जाना, मूत्र मं रक्त आना, तथा
स्थित मूत्र मे अश्मरी बनती है। इस विषय मे आधुनिक दौड्ने चरने आदि से बस्ति में पीड़ाहोती हे) अष्रङ्गहृदय में
विष्वार्नो की भी यही राय है ।बृवकस्थ नाटियों द्वारा जब मून्न इसके निम्न कक्तण दिये ह-सःमान्यलिङगं रुडनामितसेवनीवस्ति-
| युरिक एसिड, 79163, ०२९1१1९, 10800868 आदि ङवण मूषंखु । विश्लीणेधारं मूत्रं स्यात्तयामगनिरोधने ॥ तव्यपायात्सुघं
मान्ना मै उखन्न होते है । मूत्रस्य जलीयांशं मे इनका विख्यन मेहेदच्छं गोमेदकोपमम्‌ । तत्सक्षोभात्‌ इते सास्रमायासाच्चाति-
होना जसंभवहो जाता है। भौर इनका कुद अंश सुच्म सुगभवेत्‌ ॥
0फञ+णाइ्के रूप मै बस्तिया गुद म जविष्ठ हो जाताहे
ओर उसके चारो ओर अन्य रूवण एकत्रित होने गते हैँतथा तस्मान्न नित्यं श्जति तस्योद्धस्णमिष्यते ।
धीरे 2 अश्मरी बनजाती है । कभी २ ये स्वण सूखी हुई अश्मयुद् रणं तीदेणसौषधं खरोत ईरणम्‌ ।
१ क मो 1

श्रेष्मा, सुखे रक्त या कमियो $ अण्डं पर भी एकत्रित हो साहसादतिबातेषु सवं नेच्छति कश्यपः ॥
जाते हँ! यदि मून की प्रतिक्रिया ( एवचन० ) अस्छीय
होगी तो ( एप १०५ ) ओर्‌ उसके रवण निरिष्ठ होगे तथा इसलिये रग्ण अवस्था मं अश्मरी (पथरी) को नहीं
प्रतिक्रिया स्तारीय होनेषर (2051515 ) निरघ् दहेगे। निकार्ना चाहिये । उस वस्था मे खोर्तो को प्रेरित करने
अश्मरी का केन्द्र ( ००९०5 ›परायः शुष्क श्छेष्मा होता है । वाली तीण ओषधिर्यो सरे मी अश्मरी का उद्धरण नहीं करना
इसीरिये सुश्रुत नि. अ. ३ मेँ कषा है-- चतलोऽदमयः मवन्ति चाहिये । तथा महि कश्यप के मत म अस्यन्त दटे बाख
दकेष्माधिष्ठानाः' ¦ आयुरवेद्‌ के मतानुसार जश्मरियां चार प्रकार म साहसपूर्वंक अश्मरी को बिरुङ्कर नहीं निकाटना चाहिये ।
की होती ह 8 वातज २ पित्तज ३ कफज ४ शुक्रज 1इनमे से सुश्रुत चि. ज. ७ मे अश्मरी का निम्न चिकिसा सूत्र दिया
है--मौषपैस्तरणः साध्यः प्रवृद्धर्छेद महति। तस्य पूरवेषु रूपेषु स्नेहाः
वारको को प्रथम तीन तथा बद्धो म भन्तिम अर्थात्‌ शुक्रन अश्मरी
होती हे पाश्चात्य वि्वानमे रास्तायनिकसंगठन ङेअनुसार अश्म दिक्रम इष्यते ॥ अर्थात्‌ यदि अश्मरी के जमी पूर्वरूपदहीदहैया
रियो के मेद्‌ किये ये है । शटेमिमक अश्मरी को हम रंग खूप अश्मरी अभी प्रारंभही इहै तो स्नेहन आदिके कमकेबाद्‌
आदि क भनुसारं 00810081 ०६1८प्राप्३ कह सकते | । यह भिन्न २ अश्मरीन्र (1000४६८ ) ओषधिर्यो के प्रयोग से वह
श्वेत एवं चिकनी होती है । पत्तिक अश्मरी को एप 9०६ बस्ति म स्वयं घुरुकर मूत्र के साथ शरकरारूप म बाहर निकल
०४।०प]प५ कहा जा सका है~. इसका रंग इ रार भूरा सा आती है । परन्तु यदि वह बहुत प्रबृद्धावस्था मे पहुंच चुकी
होता हे । वातिक अश्मरी को हम 05916 हो तो उसे शखकर्म हारा ही निकाल्ना पदता हे । सुश्रुत में
०४]८प्राप्ऽ कह
सकते है । इसका रंग ङु काला होता है । यह कलेर होती कहा है-घरतैः क्षारैः कषायैश्च क्षरः सोत्तरवस्तिभिः। यदि नोप
हे तथा खुरदरी होती डे । इसमे नोकीरे उभार बने होते ई । दमं गच्छेच्छेदस्तत्रौत्तरो।विधिः ॥
यह रोगी को अत्यन्त पीडा देती हे अश्मरियों के अनेक
कारण होने पर भी जायुर्वेद म इसके मुख्य कारण दो माने हति ह स्माह भगवान्‌ ( कश्यपः ) |
गये है । ९ शोधन का. अभाव तथा २ आहार विहार का
अपथ्य ॥.
॥)
(इति चिकिल्सास्थाने मूतरङ्टरचिकिस्सिताभ्यायः
तदेतल्लन्षणं तासां नित्यमेव तु वेदना ॥ ( इति ताडपत्रपुस्तके १२५ तमं पत्रम्‌ ।)
शकंरा सहम्‌त्रेण निर्धाषित्यपि कस्यचित्‌ । रेखा भगवान्‌ कश्यप ने कहा था ।
शल्यवत्यश्मरी बस्तौ वधंमानाऽवतिष्ठते ॥
त्षीयते त्षीयमाणस्य पुष्यमाणस्य पुष्यति 1 ( इति चिकित्सास्थाने मून्रहृच्टरचिकित्तिताध्यायः )
अरमरी तथा शकैरा केठदण-नित्य वेदना होती हैकिसीर 1
विक्छिःसास्थानम्‌ । १२३
द्वि गीयचिकिल्सिताध्यायः १]
क नि

[त + + + #

| षज ) तथा द्रन््ज होते ह ! तथा आगन्तु चण कषत भश्च


॥व + त ^

( अधर ह्ूचणी र चिष्छित्सितष्यायः !


| (ह्यना), विद्ध (धा जाना), पाटन :( मदन ), दुग्ध


अथातो द्विजगीयं नामाध्यायं उयाद्यास्यामः || १॥। । ( जरुना ), चिन्न, निष्पिष्ट ( पि जाना ), जभिदूल (कारा
इति ह स्माह भगवान्‌ कश्यपः । २॥ । जाना ) तथा इख, वृण, काष्ट, अथि, विष, दूत, नाखून,
अव हम द्विवगीय नामक अध्याय का व्याख्यान करेगे } | शप, मन्त्र, मूर ञादि छमा से उद्यन्न हःते है ¦ इन जागन्तु
रेता भगवान्‌ कश्यप ने कहा था । ।| जरगा ॐ लक्षण तथा आओचधि अयनी बुद्धि ॐ अद्ुखार निज
समान ही समञ्चं । सुश्रुत चि०अ० 9 नकटा हेदो तरणे
वक्तभ्य--दइसख अध्याय मे दो प्रकार के ( अथात्‌ दो प्रकार मवतः चास आगन्तुश्ति। तयोः शारीरः पवनपित्तद सशोणित
ॐ कार्णे-निज तथा आगन्तु-ते उस्पन्न इष्‌ ) चरणो तथा सञ्चिरातनिरिन्तः) प रः द्धिष्यःटसरौखपप् रपतन-
उनकी चि्धिस्खा का वर्मन किया गया हे । इसल्यि इसका | पीडनहाराधित्तरवरिषदीक्पयशचलदयाल्चकरेठु परद्युशक्ति-
1 == ग्भ ४ । ११०७४ कभ

यह नाम है । सुश्रत चिद्विस््ास्थान प्रथम अध्याय मे ङ्ख ¦ इसी प्रकार


कुन्ाचाघ्युधाभिवात्निभ्न्तः अष्टाङ्संरह मं
हे--त तुर्ये त्रणपतानान्ये द्विक्रारणो थानप्रयोजनसाःमराद्‌ | निज सागन्तुश्च । तत्र निजो दोष्‌
'द्विनणी यः इत्युच्यते । इसकी व्याख्या करते हुए उज्ञण ने ख्ख समुत्थः ¦ आगन्तुः शड्ादुशल्यो पल्छर्‌ढनखदरनविषाणविषार-
द्विका- |
हे-त्रणसाभान्यं त्रणजातिर्व॑णलत्वभित्यथैः, त्सिमिस्तुल्ये सत्यपि
व्कराद्वि निभि्तः । यहां शारीर से अभिप्राय निज रण सेहे)
रणोत्थानग्रयोजनतारर््याद्‌ द्ववरणीय इत्वुच्यतेः । दिकारणं ठकं
यदुत्थानसुतन्तिः तस्य प्रयीजनं दःतक्रियादि, तव्य सारथ्यं उक्तिः,
निजव्णको सुश्रुते वातादि दषा के अतिरिक्त र्नमी
तस्माद्‌ `दवि्रणीय' इत्युच्यते ;\ -२ ॥
माना हे । ञआागन्तुबर्णोक्ी भी ओषध तथा लक्षणम आदि
निन बण के समानदही होतेह क्योकि उनका भअत्यत्त हेतु
सूत्रस्थाने भगवता द्रौ रणो परिकीतिता।
ध भ (न र्विक
५,

भिज होने पर भी पीद्धे से इनमे वातादि दोषों का अनुबन्ध


तयेोर्विस्तरभिच्छामि श्रोतु लक्तणमेव च ॥ ३॥ हो जानेसेवेनिजवणहीहो जाते । चरक चि० अ० रप
च्नुग्रहाय बालानां चेष्टाहारोषधानि च । मे कहा हे- रणानां निजसेतूनामागन्तूनामञ्चाम्यताम्‌ । कर्यादोष-
इति प्ष्टः स शिष्येण संपूञ्याह प्रजापतिः । ४॥ बावेक्षौ निजानामौषधं यथा } इसी भकार अष्टाङ्गसंग्रह मं भी
भगवन्‌ सृत्र स्थानम आपने दो प्रकार के बर्गो का कहा हतोऽपि एुनवातादविभिरधि्ितो निजरां लभते । सुश्रव
उ्घेख किया था । वासको के अनुग्रह की दृष्टि से उनके लक्षण, चि० अ०१ सेमी कहा है--उत्तरव्यं ठु दोषोपप्ल्वविरेषाच्छा-
रीरवत्‌ प्रतीकारः ॥७॥
चेष्टा, आहार तथा ओषधि आदिय को भमै विस्तार-पुवंक
सुनना चाहता हूं । इस प्रकार पूजा करके ज्िष्य इरा पृ्धा स्तस्य काद न्यास्पद्धा दद्द कषायस्य
िष्क व च (|

ए प नक्त [क
गद

जाने पर प्रजापति-कश्यप ने कहा-) ३-४ ॥


स =
दह्त्याब-
[9
०4,

अद्‌
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वदाव ;
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६,पिकं (~, => वि शेः ।५

तरतन्त्रस्य सभ्यं प्रत्रुवन्न च विस्तरम्‌ |


श ९. 2, र~
दार द च थन्ध्यः पान्तक {दयात्‌ ; सवमत्यशत्यमाद्‌

न शतेमते सतां मध्ये हुब्धः काक इवाचितः ।। ५॥


अवश्यं भिषजा सेतञ्ज्ञ।ठन्यमनसूयया ।
तस्मात्‌ समयमात्रं मो शगु बाल्लदितेष्सया ॥ ६ ॥ चातिक चण ॐ रक्तण-~-स्तस्भ ( जकइना ), कठिनता,
परतन्त्र ( अन्य प्रस्थान ) के विषयमे संसेपसे ही कहना अस्पद्धाव, श्रु, तोद ८ सूचीब्यघनवत्‌ पीडा 9, स्फुरण, सुख
वातिक जाने ।
चाहिये । उसे विषय मै विस्तार पूवं कहने वाला भ्यक्ति ङा कददैरा स्वादं हयोना-इन छक्त्णो से बण को
पूजा क्ियि गये छोभी कौ की तरह सजनो के बीचमे शोभा चरक चि० अ० २५ मे कहा हे-स्तन्धः कठिनसंस्परो मन्दलावो-
नहीं देता । तथापि .जसुया ( दृस्सरे के गुणों दोषोको ऽतितीवरष्‌ । तुचे स्फुरति द्यावो व्रणौ मारसंभवः ॥ अष्टाङ्ग
दूढना ) न करते इष वेद्य को इस विषय में भी ज्ञान अवश्य संग्रह उ० अ० २९ मे कहा हे-तत्र दयावोऽरणः छष्णो भस्मा-
होना चाहिये 1 इसलिये बार्कोके हित की च््टिषे हस स्थिदपोतसलग्यतमवर्णो वा दधिस्ुक्षाए्बुमांसधावनपुराकौ-
विषय का संकेत मात्र मेरे से सुन ॥ ५-६॥ दकनिभाद्पन्लावो रूकश्चस्चयाय भान शीरोऽकस्माद्विविषचचलस्फुर-
णायामतोदमेदस्वाप्रहुलो निमासश्च वातात्‌ । सुश्चुत चि० अ० ५
_. अथ खलु दरौ रणौ निजश्चागन्तुश्च । निजो वाताः म्रभी कहा हे--तत्र इयावारुणाय्वनुः शीतः पिच्छिरोऽद्पलावी
देकेकस्वद्न्द्रजः । क्ञतभङ्क(गन) शिद्धपारितदग्धच्छिन्न- रूक्चश्चटचययमानशीलः स्फुरणायामतोदमेदवेदनावडको निमौप्त-
निष्पिष्टाभिरू ( लू.) नशखदणकाष्ठाग्निविषदन्तनख- इवेति वातान्‌ ! वैत्तिक चण के छ्तण-उवर, दाह, मोहः वृष्णा,
शापमन्त्रमूलकमांदिज आगन्तु. । तस्य निजवदेव लज्ञ- आश्युपाक ( चरण का हीघ्र पकना), लालिमा, अवदारण,
णमौषधे च सखतकेणाुधिद्भ्यात्‌ ।। ऽ ॥ ( बण का विदं होना ), अचि तथा इुगंन्इन धि रक्त्णो
निज ओरं आगन्धु मेद्‌ से ्रणदो प्रकारकेहोतेरै) से नण को पैिक जाने । चरक चि. अ. २९ में कदा है-च्णा-ः
्न्वै
इनमे से निज रण वातादि दोर्षो से पथक्‌ रः सवज ( त्रिदो- | मो दज्रवलेदद दृदुषटवव्दारैः । तरणं तकत पिबाद
१२४ काश्येपसंहिता वा बुद्धजीवकीथं तन्त्रम्‌ । [ द्विबणीयचिकित्सिताध्यायः !

[क क काक क क कक क कक क, ताक कि नि 0 0 0 रि + + ^

खर्रिश्च पूतिकौः ॥ अष्टाग संग्रह उ. अ. २९ मे कहा है-क्षिपरजः रोपण, सवर्णीकरण ८ स्वचा के समान वर्णं करना ) इत्यादि
पीतनीरुहुरितषरष्णकपिलपिङ्गलो गोमूत्रभस्मङ्ककिश्कोदकमा- वर्णो के उपक्रम होतेह । सुश्रतचि.अ.१मं बर्गो के ६०
दौकतैलामोप्णभूरिक्ेदो दाह्येषाज्यररागपाश्रावद्रणधूमायनान्वितः उपक्रम दिये है--तस्य वरणस्य षष्टिरपक्रमा भवन्ति! तचथा-
अपतपणमारेपः परिषेकोऽभ्यङ्गः स्वेदो विम्ापनमुपनाहः पाचनं- `
पित्तात्‌) सुश्रुत चि.
क्षारोक्षितक्चतोपमवेदनः परिटाजु्थ
मी कहाहै- क्षिप्रजः एीतनीलामः किशंकोदकामोष्ण- विस्नावणं स्नेहनो वमनं विरेचनं छेदनं भेदनं दारणं केखनमेषणएमा-
अ. १
सावी दाहपाकरागविकारी पीतपिडकाजुषटश्वेति पित्तात्‌ । हरणं व्यधनं विखावणं सीवनं सन्धानं पीडनं श्ोणितास्थापनं निवा
श्ेस्मिक चण के छन्तण-स्विमितता ( चिपचिपा होना), पणसुत्कारिका कषायो वतिः कल्कः सरपिस्तेरं रसक्रियाऽवचू्ैनं
व्रणधूपनसुत्सादनमवस्ादनं शरदुकमं दार्णकमं क्षाःकमाभ्चिकमे
शीतरता, मृदुता, मन्दवेदना, स्निग्धता, वणं से पाण्डु होना,
चिरकारिता ( देर मै पकना) तथा खावकी अधिकता दन करष्णकरमे पाण्ड़ुकमं प्रतिस्षारणं रोमक्षज्ञननं लोमापहरणं वस्तिकमो-
लनचर्णो से रण को श्रेष्मिक जाने । चरक चि. अ. २५ मै कहा तरवस्तिक्म॑वन्धः पत्रदानं मिष्नं बृंहणं विषष्नं शिरोविरेचनं
हे--वहुपिच्छो रुरः स्निग्धः स्तिमितो मन्दवेदनः। पाण्डुवर्णोऽ- नस्यकवल्धाएणं धूमो मधु सपियंन्वमहारो रक्तविधानमिति।
दखसक्केदध्िरकायी कफत्रणः।॥ अष्टाङ्गसंप्रह उ. अ. २९ मं चरक चि० अ० २५ मै अर्णो के ३६ उपक्रम दिये है--यथाक्रम-
कहा है- स्निग्धः स्थूलोष्ठः पान्टुधप्टकःटनवन तवता मज्जपिष्ट- मतश्वोर्ध्व श्रणु सर्वानुपक्रमान्‌ । ्चोफ्नं षड्विधं चेव रखकमावपी-
स्वापस्तम्भ- ठनम्‌ ॥ निर्वापणं सप्तन्धानं सेदः दामनमेषणम्‌ 1 शेधनारोपणीयौ
तिलनारिकेलाम्बुसदश्द्भेतशीतवहल्पिच्छलिक्लेदः
स्वैभित्यगौरवोपदैदयुक्तः सिरास्नायुजालावततो मन्दवेदनः कटि- च कषायौ सप्रेपनौ ॥ दे तके तद्गुरे पत्रच्यादनं द्वे च उन्धते।
नश्च कफात्‌ । सुश्रत चि.अ. $ मे कहा है-्रततचण्डवण्डू- भोज्यमुत्सादनं दाहे द्विविधः सादसरादनः॥ काटिन्यमादवकरे
बहुलः स्थूलोषठः स्तन्धसिरास्नादुजाखावततः कठिनः पाण्डववभासतो धूयते ऊेषने शुभे । त्रणावचूणंनं वर्ण्यं लेपनं रोमरोहणम्‌ ॥ इति
मन्दवेदनः रशुक्ररी तसनद्रपिच्चिलालावौी गुरुश्वेति कफात्‌ । इन पटत्रिरदुदिष्टा वरणानां सघुपक्रमाः ॥ वात्रण की चिङित्सा-
सब ( वात, पित्त तथा कफ) के सम्मिङ्ितिरूप होने पर इनमे से वात्रण की स्नेहपान, स्निग्धभोजनः, स्निग्ध उपनाह
रणको सान्निपातिक तथा दौ दोर्षो के रचर्णोसे संसष्ट ( पुरूटिस ), स्निग्धस्वेद, उष्णपरिषेक तथा मधुर, अम्र पुवं
८ द्िदोषज ) जाने । सुश्रुत चि.अ. ५१ मं इनके अतिरिक्त रुवणद्रभ्यो से चिकिर्सा करे 1 चरक चि०अ०२५ मे कहा है-
रक्छज चण भी दिया है जिसे कक्तण निम्न होते है-प्रवाल- पूर्वं कषायैः सपिभिजंयेददा मार्तेत्तयन्‌ 1 . तथा--संपूरणेः स्नेहः
दलनिचयप्रकाद्चः कृष्णस्फोटपिडकानालोपचितस्तुरङ्गस्थएनगन्धिः पानैः स्निग्धैः स्वेद्योपनाहनैः । प्रदेहैः परिषेकैश्च वातव्रणस्ुपाचरेत्‌ ॥
सवेदनो धूमायनशौलो रक्खलावी पिन्तरिङ्श्चेति रक्तात्‌ 1 ८ ॥ | पैत्तिक बण की चिकित्सा--क्ीतल्जरू, दूध का परिषिक,
शीतलरेप तथा मयुर कषाय एवं तिक्त द्रव्यो द्वारा प्रस्तुत
इत्यत्र श्छेक-- कल्क, घृतपान, मुंग, शारि चावरु, जागरू पश्पत्चियो के
सर्व्रणानां प्रकृतिनिर््ता दोषदशेनात्‌ । मांस रस से तथा उष्ण अर्क क्कु रवण, बन्धन, संपूरण
न हि दोषाननाभ्रित्य चरणः कथिच्छरीरिणः॥ ६॥। ( चहण ) आदि कै स्याग के द्वारा पत्तिक चण कौ चिकित्सा
दोषो ॐ अनुसार खव चरणो की प्रत्त कही गड हे करें । चरक चि० अ० २५ मं कहा है--रीतलेभ॑धुर स्तिक्तैः प्रदे-
क्योकि प्राणियों का कोई भी चण दोषों का आश्रय किये हपरिषेचनैः । सपिष्पाभेविरेकेश्च पैन्तिभरं मयद्‌ चरणम्‌ ॥ कफबण की
बिना नहीं होता ॥ € ॥ चिक्िव्खा--उष्ण, तीच्ण, तिक्त, कटु, कष।य, कतार, संशोधन,
उपनाह, स्वेदन, उष्णजर का परिषिक, रुङ्कन ( उपवास )
तेषामुपक्रमं धात्रीबालनियहौ; संशमनं, बन्धनम्‌ ; बन्धन तथा खावणकेद्कारा कष्ण को शान्त करे । चरक
उच्छिन्नध्रत्तालनं, कल्कग्रणिधानं, शोधनं, रोपणं, सवर्णौ चि० अ०२५मे कहा है--कषायकटरक्षोष्यैः प्रदेहपरिषैचनेः।
करणम्‌ ; इव्यतः सेहपानसंभोजनोपनादस्वेदोष्णपरिषे- कफं प्रदामयेन्तथा द्नपाचनेः ५ इसी युक्ति से अन्य चरणों
कमधुराम्ललवणेरवातत्रणेः शीतोदकटुग्धपरिषेकशीतप्र- की चिकिसा करे। खावण (0५1५०६6 ), पाटन ( मेदन-
पन्न), दहन ( जराना-(८क्णलप
० ), सीवन
घृतपानयुद्रशाल
ल्ेपनमधुरकषायतिक्तकःकन्धनसं िजाङ्गलोप-
ॐ पू < ॐ ( उप्णपण्टु-ऽ्नण्ड ), एषण
( शलाका हारा जन्वेषण-
चरेरष्णाम्लकटुलवणवन्धनसंपूरणवजनेश्च पेत्तिकव्र- एप्णण्ड-एःएण्पण्ड ) तथा साहस आदि का प्रयोग अत्यन्त
स्वेे-
सः ोधनोपनादग्व
| › उष्णप तीदगतिन्तकटु2कषायन्तारसंश
णम्‌ छोटे बारका मं नहीं करना चाहिये ॥ १०॥
दनोष्णवारिपरिषेकलङ्गनबन्धनस्ञावणेः कफव्रणं शम-
येत्‌ । अतो युक्त्येतरान्‌ 1खाबणपाटनदहनसीवनेषण- अचर शोकाः-
साहसरादीन्यतिबालेषु न छरयादिति ॥ १०॥ जीरः प्रदालितेवेखेस्तथा बद्धं निधापयेत्‌ |
. जरणा के उपक्रम-धाच्नी तथा बार्क की चिकधिरसः, यथौषधं न पतति बालकं च न पीडयेत्‌ ॥ ११॥
संशमन, बन्धन, उक्ििन्न मांस का परत्तारन, कल्कप्रणिधान
( जौषधि का कर्क-२५५८ बनाकर बांघना ), शोधन, | पुराने तथा धोषएु इष वरखोके द्वारा बगशपर इस द्गस
चिकित्सास्थानच्‌ ¦ ९२५
ह्विविणीयचिरकित्सिताव्यायः ! |)
सिने
क का का का >क + + व 0 क्‌ नातो मिक

पणं त्रेत ॥ यथोक्तः दीतचुष्रव्येः क्षोर-


7 क) काव
^ का का ष्क का क

वन्ध ( पष्ठी ) बांधकर रखे जिससे ओषधि नीचे न गिरे चाभिभूतार कार्यनि ( इ ) खान्‌ संक्ान्‌ उशीताश्चाग्रचारयेव्‌ ॥
४ ४, नन ऊ, ¢
1 च ट

तथा बालक को अत्यन्त पीड नहीं देनी चाहिये ॥ |पिष्टेषनप्लुनैः । दविद्यारश्द


इसके द्वारा सेक ओरसख्ेप दो प्रकार का निर्वापण कहा हे ।
बैस्पैः शयशुर् दाहि उ्वरस्त ृडतिबन् धनात्‌ । । निर्दापण के स्यि चरक चि०अण०्रेषमे भी कहा हे-तथिवा
शिथिल ादनवस ्थानं मध्यमस् तु प्रशस्य ते ।) १२॥। दततथौतेन पया सधुकाम्डना। निर्वापयेत्‌ सुतेन रक्तपित्तोत्तयन्‌
यदि पटरी बहुत जोर से बंधी जाय तो वित्सपे, श्रयधुः व्रणान्‌ । अर्थात्‌ रक्त नौर पित्त प्रधान चर्णो भें निर्वापण
दाह, उवर तथा तृषा हो जाती है । यदि पट्टी बडुतं दीडी दिया जाताहे॥ १६ ॥
वधी जायतो भौषधि जादि अपने स्थान पर ही नहीं ससङ्गाधःतकीपुष्पमग्रस्थामलक्णेत्वचम्‌ ।
वहरेगी ! इसल्यि यही मध्यम ( अर्थात्‌ न बहुत जोर से घृतं कृष्णास्तिला मांसी कट्कोऽयं त्रगयोपणः ।। १७ ॥
तथा न बहुत ढीली ) प्रशस्त मानी जाती हे ॥ ९२ ॥ मलिष्ठा, धाय के पुर, भग्रस्था, आंवलेकी दार, घी,
वाताकंतृरकाछठाम्बुसक्तिकादिभयादूत्रणम्‌ । कारे तिर तथा जश्मांसी का कल्क चण का रोपण करते है ।
बन्धो शक्ति शीघं च दह्यते न च खादति । १३॥ कषाय, रेप आद्िर्यो से शोधन हो जने प्र बण का रोपण
पटी-वायु, धुप, तृण, कष्ट, पानी तथा मक्खी आदि के करना चाहिये । सुश्रुत मेँ रपण का उदंश्य एवं विधान निम्न
अयसेज्रण की रक्ताकरतीहे। इससे वण का दहन नदीं प्रार्‌ से बताया है-पित्तप्तपिषागम्तून्‌ गम्भीरानयि च व्रणान्‌]
होता तथा यह कमि आद्विर्यो हरा खाया नहीं जाता) रोपयेद्रोपणीरेन क्ीररिद्धन सपथिषा ॥ कफवातासिभूतानां त्रणानां
सुश्वत ६चि० अ० §मे कहा है--यर्नच्छुधयति वन्येन वगो याति मतिमन्‌ भिषक्‌ । कारयद्रोपभं तैकं मैपजेलयधोरितेः \ १७॥
त्‌
च माद्रवम्‌ । रोहत्यपि च निःदाद्ुत्तस्माद्वन्थौ विधीयते ॥ ६२॥ एतैरेवौषयेः सर्वः सपिस्तेलमथो पचेत्‌ |
क क| ९ ~ ४

ञवरमैसपेदादातं र्तपित्तोल्वणं व्रणम्‌ । त्रगरोपगमिः्याहुः कट्फलं वाऽवचूर्णितत्‌ । ६८॥


न वश्रीयादद्ररहस्तु सवं प्रत्तालयेद्त्रणम्‌ ॥ १ ॥ ` इन्हीं मंजिष्ठ आदि उपर्युक्त ओोषधिर्योसे ही घौ तथा
वर, विसपं तथा दाह से युक्त एवं रक्तपित्त की अधि. तेल का पाक करे । ये चणरोपग कहकाते हँ । जथवा इन प्र
कट्फल चरणं का अवचूणन ( 7 प्ञण् ) करना चाहिये ॥१<
कता वारे बर्गो पर बन्ध (पष्ट) नहीं बांधनी चाहिये)
इस प्रकार के सव वर्णो का दिनम दौ बरार प्रहारुन उबर दाहपिपाला्यां पच्यमानं जगं वदेत्‌ ।
करना चाहिये ॥ 4 ॥ तेषां निवृत्तौ जानीयात्‌ पकं पीनेन्नताकृतिप्‌ ¦¦ १६॥
रे हस्प तिलाः सर्पिः सेन्धवं मधुकंचिचरत्‌ । पच्यमान जंग का क्ण -अ्वर, दाह, एवं पिपासा से
अरिष्रपत्रमित्येष कल्कः शोधनरोपणः । १५॥ युक्त होने पर वरण को पच्यमान ( पकने कौ स्थिति में
हरिद्रा, दास्हरिद्रा, तिक, घी, सैन्धव, सुल्हठी, त्रिवृ विद्यमान ) जाने । तथा इन उपयुक्त दाह आदि रकण के
तथा नीम क पत्ते- इनका करक बण का शोधन एवं रोपण निच्रत्त हो जने ( हट जाने ) पर मोटे
तथा उठी इई आङ्रति
वारे चण को पक्र ( पका हूजा ) समक्षे ॥ १९॥
करता हे ! सुश्रुत चि०अ०१ मे कस्कग्रणिधान का निम्न
ग्रयोजन कहा हदै--{ूतिनःसम्रतिच्छनान्‌ मदादोषदिच रसोधयेत्‌ । म्ेस्थशचेदुपेद्यः स्याद्रालं धात्री च पूरयेत्‌ । .
दुरकौक्रते यथालाभं "ˆ" ""*॥ गोदध्ना ्न्नितं चनं वश्रीयाज्लवणान्वितम्‌ ॥ २० ॥
शोधने रोपे चेव युक्त्या कद्ररसक्रिया यदि बण मर्मस्थान पर हो तथा यदि रोगी धात्री जौर
तच्र निर्वापे चोक्ता घृतेनोदकसक्तवः । १६ ॥ वाक होतो उसको उपेष्धा करनी चाहिये अथात्‌ उस
ीरन। नहीं चाहिये । अपितु व्रण को पहर थोड़ा रगड़ कर
तरण ॐ शोधन तथा रोपण में युक्तिपूर्वक कोद्र ( मघु ) उन परमौ की दही मे नमक मिखाकर बांध दे तथा इतके
तथा रघक्छिया ( ए०४७ ) का प्रयोग करना चहिये । तथा हारा चण का पूरण करे ॥ २०॥
निर्वापण ङे चि पानी मेँ तैयार क्यि हए सत्तर्थो का घी क ञ्रमर्थज पाट्येद्ा नेष्येके पूबेदशेनात्‌ ।
साथ प्रयो करना चाहिये । निर्वापण से अभिप्राय दाहको
र्छन्लयादल्पमाबाद्धन्याद्वालं कपरि्डितः ॥ २१॥
शान्त करने वारे रेपो सेहे । सुश्रुत चि०अ० रम चण
नं कोद्र ( मधु) का निम्न स्थानों पर विधान दिया है- यदि रग मर्म॑स्थान परनदो तो उसका पाटन (दारण
कषतोष्पणो निद्रार्थं सन्धानाथं तथैव च ¦ सरथौ त्रणेष्वायतेपु क्षौद्र
( 1०म ७०४) कर देना चाहिये ! कदं रोग कहते हँ रि पूवं
पहले इस्त कायं को
सपिविधीयते ॥ सुश्ुत मे रसक्रिया का निम्न प्रयोजन बताया द्धन ( अच्छी भ्रकार देखे बिना अथवाहो ) के बिना इस पाटन-

वै--तैडेनाश्चध्यमानानां शोधनःयां रस्रियाम्‌ । वरणानां स्थिर अच्छी प्रकार जब तक देखा दभा
मांसानां कुर्याद्‌ दर्यैर्दी रैः ॥ सश्चत मे निर्वापण का निम्न भेदन के कायं को न करे वर्योकि जो
अन्वानी वैद वह
होने से बाख्क को
प्रयोजन दिया है-दादपाकञ्व6्वतां रणानां पित्तकोपतः । रक्तेन |रक्छ्तय ( 21९04; ) तथा रक्त के कम
१२६ ष्टाश्यपसंहिता वा बुद्धजीदेकीयं तन्म्रस्‌ । [ द्विचणीषचिकित्सिताध्यायः १
ययक

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{ ^ ^ ^ कक + नि ॥क + 9 0 मी

मार देता है । अर्थात्‌ बालके पहरे ही स्क की कमी देती विद्रधिश्च ताः पित्ताधिकाः, विनता वाताधिका, सर्वदो-
[ज

डे उस्ष.जवध्थामे यदि रक्तञछलावं ( 816९0 ) अधिको घजा स्रुषिका । तासां लत्तणीनि-मध्ये निश्ना शरा.
जायतो बाल्ककी श्ष्युहो सकतीहं। बण का पाटन कविका, श्दणोन्नदा कच्छपिका सिरयाजालतनच्दद्रवती
( भेदनं ) करने के बाद" ( उसे स्नेहपान तथा स्निग्ध जालिनीःसषेपाभाऽल्पाऽध्णुपाकिनी बटुला वा सषपिका;
सेक आदि उपचार करना चाहिये )५२१॥ बहूपद्रवाऽऽशुपाकवैसपांऽलजी, नदा तूदरे पठे वाऽ-
पाटितंवा प्र... +. „, वगाढनीला शूडाघती; मांसपाकःतु पित्तप्रकोपो बा
ॐ @ © & @ ‰ @ र 90 & 5 क क $ @ ¢ छ द ® ० € # # क > #@@ 9 > @ क ज $ श * ० 9
उत्पद्यते, स एव सन्धिषु ममसु वा विद्रधिरिल्युच्यते,
विदद्चाश् अङ्गं धिदीयेत इति षिद्रधिः, सा बहिरन्तश्चो-
# 6 @ ® # © @ क ® %@ $ फ छ 9» +# * 0 9 9 क @ ७ @ न ® # # >
क #@ # क # ¢ $ % क #@ @

त्पद्दे; ते चोमे बालानां छृ्द्ुसाध्ये । च्रिदोषजा


त्वरंिका चतुर्विधा दोषभेदादेकेकाधिकसमदोषत्वात्‌ ;
@ # ® # ¢ # #@ ह न» © ® च € $ 95 @ # @ # के ¢ 6 ® छ क @ कष @ # क # न क # $ क $ ¢

क @ # # @ = @ $ ¢ @ क ०9 @ > ७ क@ #@ ७ 8 क र @ # 9 कष # @ क त # ॐ # + @ + १ @ # $

,,,,........ ( मञ्ज ) घाऽथ मनःशिला रालतौदाटोपरफुरणानाहपामा वातलिङ्गःनि, ज्वरतृष्णा-


प्रलेपः सघृतक्तोद्रः सवणेकरणः परम्‌ । दादमोहसवप्रलापाः पित्तलिङ्गानि, शत्यपेच्छिल्यबहु-
सवर्णं करण योग~- मंजिष्ठा, मनःक्लिका'" "" "हुस्यादि का
क्लेदास चस्तेमिव्यानि कफलिङ्गानि, स्वैः समदोष-
घी एवं मधु के साथ मिराकर रेप करना उत्तम सवर्णकरण
स्यम्‌ ; अन्यत्रापि च व्रणे पूर्वोक्तानि च लदणानि ॥
( व्वचा के वणं के समान वर्णं का करना >)योग है ॥ वारको को अपने शरीर के दोष सरे अथवा अपने ही दोष
त्रिफला जातिपुष्पणि कासीसं लोहपविक्ा | क कारण आठ पिडका हो जाती है। उनके निदान तथा
लेपः समोमयरसः सवगेकर्णः परम्‌ ॥ छन्तण पदे कटे जाच्ुके ह । अव हम उनके नाम,
स्वरूप, वथा चिकिस्सा कहग । इनमें शराविका, कनच्डुपिका,
त्रिफला, जातिपुष्प ( कग ), कासीस्र तथा छोहचूर्ण तथा जाल्नी--ये तीन कफ की जधिकता वारी, सर्षपिका,
इनका गोबर के रस ( पानी) क साथ मिलाकर रेप करना अलजी तथा विद्धधि-ये तीन पित्त की अधिकता वाली,
उत्तम सवर्णकरण माना गयाहै। चण का रोहण होने के विनता वात की अधिकता बाली तथा अरूषिका तरिदोषज
वाद्‌ त्वचा आजाने पर यदि उस नवीन स्वचा का वर्णं दह होती है । चरकसू.अ. १७ मे अरूबिका को छोडकर रोषं
की अन्य स्वचाके साथन भिरे तो उसका रंग उसके समान ७ पिडका दी ददै जो कि प्रमेह पिडकारं कहराती ह । ये
करने क! प्रय करना चाहिये इसे लवर्णकरण कहते है मधुमेह की उपेक्षासेहो जातीह। सुश्चुतनि. अ. ६ मं
सश्चत चि. ज. 9 में कहा है-दुरूटत्वा कृष्णानां पाण्डवम दितं १० पिडका का उल्रेख फिया गया है- ततर वसमेदोभ्याम-
भवेत्‌ । सप्तराघं स्थितं क्षीरे छागे रोदहिणीफलम्‌ ॥ तेरैव पिष भिपन्नश्षरीरस्य तरिभिद्यषैश्वान्ुगतधानोः प्रमेहिणो दल पिडकाः
सुररक्ष्णं सवणेकरणं हितम्‌ ॥ इसी प्रकार चरक चि.अ २५
जायन्ते । तचथा-शरावि्रा सषेपका कच्छपिका जालिनी विनता
भी सवणंकरण योग दियेर्ह। ` | पुत्रिणी मखरिका अलजी विदारिका विद्रधिका चेति। इन पिड.
चतुष्पदानां त्वमोमखुरश््क्गास्थिमस्मना। कां के रन्तण निर्न है । शराविका का रकण-बीच में
तेलाक्ता चूणिता भूमिमवेह्लोमसदा पुनः ॥ ` से दबी इई होती हे। चरकस्‌. भ. १७ मे इक्क निम्न
छोमोत्पादन--जहां रोम उपपन्न करने हं उस स्थान पर ट्तण {दथा है -अन्तौच्ता मध्यनिश्ना दयावाग्छेदरुजान्विता ।
तेर ुपड़कर गौ घोडे आदि चौपाये पभो की त्वचा, रोम दराराविक्ा स्पापिडका स1वक्ृतिसंस्थिता । अर्थात्‌ जिद पिडिका
(बार ), खुर (सींग) तथाञअस्थिकीभस्मका अवचूर्णन क किनारे ऊंचे उढे इए ह, बीचमें से दबी हुई हो, श्याम. `
करे इससे उस स्थान पर पुनः बा उग जते हे । सुश्रत वर्णष्ीहो तथा जिसमे क्रेद ओौर वेदना हो उपे श्राविका
चि.अ. ऽमेंभी यहर्छोकङ्सी स्प में दिया गया है। कहते हैँ । इसकी अति शराव ( प्षकोरे >) की तरह होती
इसी प्रकार चरक चि- अ. २५ मे भी यह श्छोक वि्ङ्कक हे 1हसी प्रकार सुश्रतनि.. मे भी कहा हे। कच्छपिका
इसी रूपमे दिया गयाहै। ` |
का टच्तण-- यह्‌ श्कचण एवं उन्नत होती दहे । चरक सू. अ.
| १७ मँ कहा है--प्वगाडातिनिस्तोदा महावास्तुपरियहा । इटक्ष्णा
अथ खलु बालानामष्टो पिडिकाः सरशसीरदोषात्‌ कच्छपपृष्ठाभा पिडकाकच्छपीमता ॥ अर्थात्‌ जिस पिडिका में
स्वदोषाच्ोत्पयन्ते । तासां निदानलन्तणे प्रोक्ते; नामरू- अरतिं ( पीडा ), तोद्‌ ( सुई चुभने के समान वेदना), हो
पचिकित्सां च नूमः-शाराधिका च कच्छपिका च जिसका आश्रय वहत बड़ा हो, जो चिकनी तथा कंद्युषु की
जालिनी च ताः कफप्रायाः, सर्षपिका चाऽलजी च पीठ के समान उभरी इ हो उसे कच्डुपी कते दै । सुश्रुत
नि.अ. ष्म भी कहा है--सदादाक्रूमसंस्थाना लेया कच्छपिका
. . १ अस्या १२७ तम पत्रं खण्डितं ताढपत्रपस्तके । बुः ॥ जालिनी के र्णयह शिरार्भो के जार से युक्त
द्िबगीयचिकित्सिताध्यायः 9 ] | निच्छास्थानम्‌ । १२७
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हीती हेहै तथा
तथा इस्तं छेदे २
२ छिद्रदधिद्र सेते
होतें) चररस. स्‌. ॐ.अ ¦हौ जाती है । इसमें तीव वेदना होतीहे अरूषिका का
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१७ सें कहा हे-सव्धाः भिगाजाल्यती खग्धादामहाक्षदा | रुण~-त्रिदोषज अरूपिका चार प्रकार की होती डे । दोष
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स्जानर्तो दवहुला यद्मच्छिट्राच जाङिनी : अर्थात्‌ चो स्तद्ध,


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नर न ४ च्छि प्न {= {५ १, ८२ ध भन

भेदसे एकर दोपकी अधिकतासे तीन तथा तीनो दोर्षोके


शिरा के जालस्े युक्त खिग्ध लाव युद, वड़े आश्य |समान होने सेचोधीहोतीहें। अर्थात्‌ त्रिदोषज होने पर भी
वाली हो, जिसे पीडा तथा तोदं ( सचीवेध दत्‌ पीडा) वात, पित्त दथा कफ की अधिकता होनेसे तोन तथा चौथी
हो, जिं सुच्म दधिद्र हो उसे जालिनी कहते ई ! सर्परिक ।जिं सनो दप समान मात्रा मेवद इर्‌रहौ-ये चार
का लक्तण--जो सरसों के आकारकीदोदीहेत्थाजो ददी होती हें) अङूपिकाके विषये सुश्रुत नि० अ० १३ कहा
शीघ्र पकने वाटी भौर संख्या मँ वहत क्ली होती ई 1 अर्थात्‌ है-- रूपि ददुदक्ाणि वदुक्छेदानि मूधेन 1 क्फासक्‌ कृमिकोपेन
सरसो ङे प्रमाग की दी २ वहत सी पिडकार्भो के एकत्र | ट्ण वि्यादररन्नान्‌ ॥ अर्थात्‌ कष रक्त ओर कृमिर्यो के प्रकोप
मिल्नेसेजो एक पिडका बन जातीहै। तथाजो वदत वड | दे मनुष्ये के शिर मे अनेक सुख वारे भौर खावयुक्त बण
नदो ओौरज्ञीघ्र पक जाती हो उसे सर्षपिका कषे ड । चरक |हो जाते उन्हुं अर्विक्ा कहते है । इसे ९८९०० ० ५१९
सू. अ. १७ में कहा है- पिदा नानिमदर क्षिपा 22५19 समदना चाहिये । वाति अरूषिका के रुङण-- शरू,
महास्जा ! सषंपी सष॑पामाभिः पडत य, >+ £;
मक्ता भरेत्‌ ; ठेदं ( सुचीग्यधवत्‌ पीडा), आटोप, स्फुरण ( फड़कना ),
इसी प्रकार सुश्रत नि. अ. ६ मे भी क्हाहै) अख्ज्ञी लानाह तथा पामा ये वातिक अरुंषिका क लण हैँ । पैत्तिकं
का लच्तण- जो अनेक उपद्रवो से युक्त हो, श्रीद पक अरूपिका ॐ लत्तषण-स्वरः, वृष्णा, दाह, मोह, मद्‌ तथा प्रखाप-
लाती हो तथा चार्यो ओर रैलती जाती हो उसे जलन्नी ये पैत्तिकं अरूषिका के र्तण है । शरेष्मिक अरूषिका के
कहते हं । चरक सू० अ० १७ मे कहा है--रहति त्वचमुत्थाने रुहण--शीत, पिच्छिरुता ( चिपचिपापन ), बहुत क्ेद्‌
तृष्णामोहञ्वरप्रदा । पिसपैत्यनिधं टुःखादहव्यभि रेवारी ॥ ( गीलापन ), अर्चि तथा स्तिमितता ये श्छष्मिक अद्.घका
अर्थात्‌ अर्जी नामक पिडका के उत्पन्न होने के समय त्वचा ढे लत्तण है । समदोपज अरूषिका के लक्तग-समदोषज
म दाह होती है! इसमे प्या, मोह तथा उ्वरमभीहो जाता अरूषिका मे उपर्युक्त सब रक्षण होते हैँ । अन्यत्र नर्णोकेजो
हे । यह चारो भोर फैर्ती जाती है तथा इसने अधि पहरे रुण कहे हैँ वे लक्षण भी इनमे होते है ॥
समान अत्यन्त द्रुण दाह होना है । सुश्रत नि० अ०६ में तच श्ोकाः-
कहा हे-रक्ता सिता स्प्नैखती दारणा चल्जः भरेत्‌ । विनता
का लत्तण--जो पेट ओर पीठ परहोत्तीहै, जो वर्णं गहरी
पूवंसराधिकायास्ु सुखिग्धस्य षिरेचनम्‌ ।
नीरी हो, तथा जिसमे पीडा होती हो उसे विनता कहते हे । शध्यते च भिषक्‌ ! तासु ्रगकमं यथोचितम्‌!
चरक सू० अ० १७ में कहा है-अवगाटरजाकलेद पृष्ठे वाप्य चिकित्ला-सवं प्रथम शराविका जादि पिडका सें
दरेऽपि वा। महती विनता नीला पिड्कापिर्दाम्ता ॥ व्रिद्रधि अच्छी प्रकार स्नेहन करके विरेचन देना चाहिये । तदुपरान्त
का टन्तण-इसमे जव संसिका पाक ह्ये जाय तथा पित्त उनम यथोचित गकम ( चगचिकित्सा ) करना चाहिये ।
का प्रकोपहो ओर यह सन्धि एवं मर्मसथान एर हो तव उसे सुश्रुत चि० अ० ५२ मे मी कहादहै-7् शखप्रणिधानयुक्तं
विद्रधि कहतेदै । यह शीघ्रही विदाहकोप्राक्ठहयो जाती है रण क्रयोपपेवा च । अर्थात्‌ शाख हारा आवश्यकतानुसार छेदन
तथा अङ्गो को विदीणं करती हे इसटिये इस का नाम विद्रधि भेदन आदि करके चणो कौ जो चिङ्षिसा है वह करनी
है 1 विद्रधि दो प्रकार उस्पन्न होती है ! १-कश्षरीर ॐ बाहरी चाहिये ॥ |
निवतं
भागम ( बाह्य विद्रधि) तथा र्-शरीरङे अन्तः मागें बतनमपक्रासु पिडकासु प्रयोजयेत्‌ ।
( अन्तविद्रधि ) । बालको मेये दोनो विद्रधियां च्छ्ताध्य चृत सतै.
परिषेकः प्रलेपेश्य धृतपानेर्हिताशनैः ॥
होतीर्हे । (विद्रधि को ५१००९९७ कहते है ) चरक सू० अ० अपक पिडकाओं मे परिषिक प्रेष, धृतपान तथा हितकर
१७ मे इन दोनो प्रकार की विद्रधिर्यो का स्वरूप द्विया है
अन्न द्वारा उनको श्ान्त करने का प्रयल्न करना चाहिये । सुश्रत
विद्रधि द्विषिथामाहवांह्यामाभ्यन्तरी तथा ¦! बाह्य विद्रधि ऊ
चि० अ० १२ म कहा है-“अपकानां पिडकानां शोफवत्‌ प्रती.
रक्तण--गाद्या त्वक्रनायुमंसोत्था कण्डराभा महाशना । अर्थात्‌ कारः” । सुश्त चि० भ०२९
यह शरीर में शोफ की सामान्य चिकित्सा
के बाहर त्वचाखराचु एवं मांस म होती दहे । का वर्णनहे॥
यह कण्डरासद्श तथा जतिवेदना युक्त होती है । आगे चरक
म अन्तर्विद्रधि के निम्न रक्षण दिये ईहै--भन्तः दरीरे मांसा- अरुषिकासु सततं शिरसो. मुण्डनं हितम्‌ ।
खगाविश्चन्ति यदा मलाः । तदा संजायते ग्रन्धिगैम्मीरस्थः सुदा सापनं म्रद्घणं चेव त्रणतेलेरनेकशः ॥
रणः ॥ हृदये छ्ोभ्नि यकृति द्वीहि डश्षौ च दृक्योः ॥ अर्थाव्‌ अरूषिका की चिकित्सा-अरूषिका ८ ए ० ४४८
भिन्नर्कारणों से कुपित इए दोष जव इारीर ॐ अन्द्र ऽ० ) मे सिरका मुण्डन करवाकर अच्छी प्रकार खन
मांस तथा रक्त में प्रविष्ट होते ह तब हृदय, छोम, यक्त कराये तथा जण तैरछो के द्वारा बार २ सिर कौ मादिश्वा करनी
मराद जवयर्वो मेँ गम्भीर एवं अत्यन्त कष्टकर प्रन्थि उत्पन्न चाहिये ॥
५२८ कारयपसं हिता वा ब्ृद्धजीवकीयं तन्त्रम्‌ । [ द्विवणीयचिकिस्सिताभ्यायः १
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द्रेहरिद्रे त्रिकटुकं सैन्धवं वा ( च ) मनःशिला । पूणं ( युक्त ) हो जने पर अरकीकिका उपपन्न हो जाती है।
सुवणेजो जपा जातिकचा कुष्ठं रसक्रिया ॥ प्रारंम ये टेर उभारसरे कीर दिखाई देते है तथा
धीरे २ बढ़कर ककन्धु ( ककरौदे ) र खनके के समान बडे
्रश्घ्रमूलोदक गदशमूलं फलत्रयम्‌ । हयो जाते हँ । अन्य र्थो में इना चर्मी के रूप तन वर्णन
एतेर्गोमूत्रसंयुक्तेः
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भरसुद्रीयादरुविकाम्‌
०८

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किया गया है । सुश्रुत नि० अ० २ मे कदा हे-व्यानततु
पतरेव पचेत्तैलं हन्ति तच्चाप्यरं

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