You are on page 1of 5

Valmiki Ramayana(श्रीमद्वाल्मीक�य रामायण:)

Srimad Valmiki Ramayana is an epic poem of India. It is a very beautiful long poem in the
Sanskrit language by Valmiki and Valmik is celebrated as the harbinger-poet in Sanskrit
literature.
Here is collection of Some popular Slokas from the great poem Ramayana:

धमर्-धमार्दथर्ः प्रभव�त धमार्त्प्रभवते सख


ु म ् । धमर्ण लभते सव� धमर्प्रसार�मदं जगत ् ॥

भावाथर् :
धमर् से ह� धन, सुख तथा सब कुछ प्राप्त होता है । इस संसार म� धमर् ह� सार वस्तु है ।

सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धमर्ः सदा�श्रतः । सत्यमल


ू �न सवार्�ण सत्यान्नािस्त परं
पदम ् ॥

भावाथर् :
सत्य ह� संसार म� ईश्वर है ; धमर् भी सत्य के ह� आ�श्रत है ; सत्य ह� समस्त भव - �वभव
का मूल है ; सत्य से बढ़कर और कुछ नह�ं है ।
उत्साह-उत्साहो बलवानायर् नास्त्युत्साहात्परं बलम ् । सोत्साहस्य �ह लोकेषु न �कञ्चद�प
दल
ु भ
र् म ् ॥

भावाथर् :
उत्साह बड़ा बलवान होता है ; उत्साह से बढ़कर कोई बल नह�ं है । उत्साह� परु
ु ष के �लए
संसार म� कुछ भी दल
ु भ
र् नह�ं है ।

क्रोध - वाच्यावाच्यं प्रकु�पतो न �वजाना�त क�हर्�चत ् । नाकायर्मिस्त क्रुद्धस्य नवाच्यं


�वद्यते क्व�चत ् ॥

भावाथर् :
क्रोध क� दशा म� मनुष्य को कहने और न कहने योग्य बात� का �ववेक नह�ं रहता । क्रुद्ध
मनुष्य कुछ भी कह सकता है और कुछ भी बक सकता है । उसके �लए कुछ भी अकायर्
और अवाच्य नह�ं है ।

कमर्फल-यदाच�रत कल्या�ण ! शभ
ु ं वा य�द वाऽशभ
ु म ् । तदे व लभते भद्रे ! कत्तार्
कमर्जमात्मनः ॥

भावाथर् :
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कमर् करता है , उसे वैसा ह� फल �मलता है । कत्तार् को
अपने कमर् का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।

सद
ु ख
ु ं श�यतः पव
ू � प्राप्येदं सख
ु मुत्तमम ् । प्राप्तकालं न जानीते �वश्वा�मत्रो यथा म�ु नः ॥

भावाथर् :
�कसी को जब बहुत �दन� तक अत्य�धक दःु ख भोगने के बाद महान सुख �मलता है तो उसे
�वश्वा�मत्र मु�न क� भां�त समय का �ान नह�ं रहता - सुख का अ�धक समय भी थोड़ा ह�
जान पड़ता है ।

�नरुत्साहस्य द�नस्य शोकपयार्कुलात्मनः । सवार्थार् व्यवसीदिन्त व्यसनं चा�धगच्छ�त ॥

भावाथर् :
उत्साह ह�न, द�न और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम �बगड़ जाते ह� , वह घोर �वपित्त म�
फंस जाता है ।

अपना-पराया-गण
ु गान ् व परजनः स्वजनो �नगण
ुर् ोऽ�प वा । �नगर्णः स्वजनः श्रेयान ् यः
परः पर एव सः ॥

भावाथर् :
पराया मनष्ु य भले ह� गण
ु वान ् हो तथा स्वजन सवर्था गण
ु ह�न ह� क्य� न हो, ले�कन गण
ु ी
परजन से गण
ु ह�न स्वजन ह� भला होता है । अपना तो अपना है और पराया पराया ह�
रहता है ।

न सुहृद्यो �वपन्नाथार् �दनमभ्युपपद्यते । स बन्धुय�अपनीतेषु सहाय्यायोपकल्पते ॥

भावाथर् :
सह्र
ु द् वह� है जो �वपित्तग्रस्त द�न �मत्र का साथ दे और सच्चा बन्धु वह� है जो अपने
कुमागर्गामी बन्धु का भी सहायता करे ।

आढ् यतो वा�प द�रद्रो वा दःु �खत सु�खतोऽ�पवा । �नद�षश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा ग�तः

भावाथर् :
चाहे धनी हो या �नधर्न, दःु खी हो या सख
ु ी, �नद�ष हो या सदोष - �मत्र ह� मनष्ु य का सबसे
बड़ा सहारा होता है ।

वसेत्सह सपत्नेन क्रुद्धेनाशु�वषेण च । न तू �मत्रप्रवादे न संवसेच्छत्रु से�वना ॥

भावाथर् :
शत्रु और क्रुद्ध महा�वषधर सपर् के साथ भले ह� रह� , पर ऐसे मनष्ु य के साथ कभी न रहे जो
ऊपर से तो �मत्र कहलाता है , ले�कन भीतर-भीतर शत्रु का �हतसाधक हो ।

लोक-नी�त -न चा�तप्रणयः कायर्ः कत्तर्व्योप्रणयश्च ते । उभयं �ह महान ्


दोसस्तस्मादन्तरदृग्भव ॥
भावाथर् :
मत्ृ यु-पूवर् बा�ल ने अपने पुत्र अंगद को यह अिन्तम उपदे श �दया था - तुम �कसी से अ�धक
प्रेम या अ�धक वैर न करना, क्य��क दोन� ह� अत्यन्त अ�नष्टकारक होते ह�, सदा मध्यम
मागर् का ह� अवलम्बन करना ।

सवर्था सुकरं �मत्रं दष्ु करं प्र�तपालनम ् ॥

भावाथर् :
�मत्रता करना सहज है ले�कन उसको �नभाना क�ठन है ।

�मत्रता-उपकारफलं �मत्रमपकारोऽ�रल�णम ् ॥

भावाथर् :
उपकार करना �मत्रता का ल�ण है और अपकार करना शत्रत
ु ा का ।

ये शोकमनुवत्तर्न्ते न तेषां �वद्यते सुखम ् ॥

भावाथर् :
शोकग्रस्त मनुष्य को कभी सुख नह�ं �मलता ।

शोकः शौयर्पकषर्णः ॥

भावाथर् :
शोक मनुष्य के शौयर् को नष्ट कर दे ता है ।

सुख-दल
ु भ
र् ं �ह सदा सुखम ् ।

भावाथर् :
सुख सदा नह�ं बना रहता है ।

न सख
ु ाल्लभ्यते सख
ु म्॥

भावाथर् :
सुख से सुख क� व�ृ द्ध नह�ं होती ।
मद
ृ �ु हर् प�रभूयते ॥

भावाथर् :
मद
ृ ु परु
ु ष का अनादर होता है ।

सव� चण्डस्य �वभ्य�त ॥

भावाथर् :
क्रोधी परु
ु ष से सभी डरते ह� ।

स्वभावो दरु �तक्रमः ॥

भावाथर् :
स्वभाव का अ�तक्रमण क�ठन है ।

You might also like