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!!!! ---: वे दों की शाखाएँ :--- !!!!

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वे द का ज्ञान अनन्त है ः-- "अनन्ता वै वे दाः।" वै दिक-वाङ् मय ज्ञान का भण्डार है । वै दिक सं स्कृत ज्ञान का सागर है । वे द के विद्वानों, ऋषियों ने
वै दिक ज्ञान को सु रक्षित रखने के अनन्त उपाय किए। एक उपाय वे द की शाखा से सम्बन्धित है ।
जै से वृ क्षों में अनन्त शाखाएँ होती हैं और वे वृ क्ष को सु रक्षा प्रदान करते हैं , बदले में वे भी वृ क्ष से अपना जीवन जीते हैं , वै से ही वे दों की भी
शाखाएँ होती हैं । यहाँ शाखा से अभिप्राय है , वे द की विभिन्न धाराएँ ।
प्राचीन काल में वे दों की शिक्षा प्रमु खता से दी जाती थी। वं श दो प्रकार से माना जाता है ः---रक्त-सम्बन्ध से और विद्या-सम्बन्ध से । जै से
परिवार में वं श वृ क्ष चलता है , वै से विद्या के क्षे तर् में भी कुल होता है । जिन गु रुओं व आचार्यों ने अपने -अपने शिष्यों को वे द-विद्या का
अध्ययन कराया, वे सारे शिष्य-प्रशिष्य उनके ही कुल के कहलाए। ऐसे अने क विद्या-कुल प्राचीन-काल में विद्यमान थे । आचार्य जो वे द-
विद्या अपने शिष्यों को अध्ययन कराते थे , उनमें शै ली,पद्धति-भे द से अन्तर आ जाता था। यही शै ली-भे द अन्य आचार्यों से भिन्न हो जाता
था। इस प्रकार एक आचार्य की शै ली भिन्न होती थी, तो दस ू रे आचार्यों की शै ली भिन्न। इस शै ली-भिन्नता के कारण अने क रचनाएँ होती
गईं। यही रचनाएँ आगे चलकर वे द की शाखा के रूप में प्रचलित हुईं। जिस आचार्य की जितनी शाखाएँ होती थीं उसके उतने ही ब्राह्मण,
उपनिषद्, आरण्यक श्रौत-सूतर् , धर्म-सूतर् ादि भी भिन्न-भिन्न होते थे । सम शाखा के अध्ये तृगण अपने सब वै दिक-ग्रन्थ पृ थक् -पृ थक् रखते
थे और अपना श्रौत-कार्य अपने विशिष्ट श्रौतसूतर् ों से सम्पादन किया करते थे । इस प्रकार प्रत्ये क शाखा में सं हिता,, ब्राह्मण, आरण्यक,
उपनिषद्, श्रौत और गृ ह्य-सूतर् अपने विषिष्ट होते थे । इस प्रकार से महामु नि पतञ्जलि के अनु सार प्राचीन-काल में वे दों की 1131 शाखाएँ
थीं। कई कारणों से ये शाखाएँ नष्ट हो गईं और आज तो उन सभी शाखाओं के नामों का भी पता नहीं। एक सर्वेक्षण के अनु सार सम्प्रति 11
शाखाएँ ही उपलब्ध हैं ।
वे द और उनकी शाखाएँ ---
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(1.) ऋग्वे दः-----
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आचार्य पतञ्जलि के अनु सार ऋग्वे द की 21 शाखाएँ थीं---- "एकविं शतिधा बाह्वच्ृ यम्।" (महाभाष्यः---पस्पशाह्निक)। इन 21 शाखाओं में
से 5 शाखाओं का नाम मिलता है ः-----शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डू कायन। ये पाँच मु ख्य शाखाएँ मानी जाती हैं । किन्तु
सम्प्रति शाकल-शाखा ही पूर्णरूपे ण उपलब्ध हैं । आज जो ऋग्वे द उपलब्ध है वह शाकल-सं हिता ही है । इस शाखा के पदपाठकर्ता व
विभाजनकर्ता शकल ऋषि थे , अतः उनके नाम से इस शाखा का नाम शाकल-शाखा हो गया।
इस शाखा के मन्त्रों का विभाजन दो प्रकार किया गया है ः------(क) अष्टक-क् रम और (ख) मण्डल-क् रम।
(क) अष्टक-क् रमः---इसके अनु सार ऋग्वे द में आठ अष्टक हैं । प्रत्ये क अष्टक में आठ-आठ अध्याय हैं । इस प्रकार कुल 64 अध्याय हैं । इन
अध्यायों में वर्ग होते हैं जो कुल 2006 हैं । इन वर्गों में मन्त्र होते हैं , ये कुल मन्त्र 10585 हैं ।
(ख)मण्डल-क् रमः-----यह विभाजन अधिक वै ज्ञानिक माना जाता है । व्यवहार-क्षे तर् में इसी क् रम का प्रयोग होता है । इसके अनु सार ऋग्वे द
में कुल 10 मण्डल हैं । प्रत्ये क मण्डल में अनु वाक हैं , जिसकी सं ख्या 85 है । अनु वाकों में सूक्त होते हैं , जिसकी कुल सं ख्या 1017 (यदि इसमें
बालखिल्य सूक्त-11 मिला ले तो 1028 होते हैं )। ऋग्वे द में कुल शब्द 153826 और अक्षर है ---432000
ऋषि व्यास ने इस वे द का अध्ययन अपने शिष्य पै ल को कराया था।
(2.) यजु र्वेदः----पतञ्जलि ऋषि के अनु सार यजु र्वेद की 101 शाखाएँ थी----"एकशतमध्वर्युशाखाः।"
इस वे द के दो सम्प्रदाय हैं -----(क) ब्रह्म-सम्प्रदाय (ख) आदित्य-सम्प्रदाय।
(क) आदित्य-सम्प्रदायः--- इसमें मन्त्र शु द्ध रूप में है , अर्थात् मन्त्रों के साथ ब्राह्मणादि मिश्रित नहीं है , अतः इसे शु क्ल-यजु र्वेद कहा
जाता है ।
माध्यन्दिन-शाखाः---- शतपथ-ब्राह्मण के अनु सार आदित्य यजु र्वेद का ही नाम शु क्ल-यजु र्वेद है यह याज्ञवल्क्य ऋषि के द्वारा आख्यात है ।
इसकी दो शाखाएँ सम्प्रति उपलब्ध है ः---माध्यन्दिन शाखा, (जिसे वाजसने यि शाखा भी कहते हैं ) और काण्व-शाखा। इस समय उत्तर भारत में
माध्यन्दिन शाखा का ही प्रचलन है । इसमें कुल 40 अध्याय और 1975 मन्त्र हैं । इसका अन्तिम अध्याय ही ईशोपनिषद् है ।
काण्व-शाखाः-----इसका प्रचलन इस समय सर्वाधिक महाराष्ट् र प्रान्त में हैं । इसमें भी 40 अध्याय ही है , किन्तु मन्त्र 111 अधिक हैं । इस
प्रकार कुल मन्त्र 2086 हैं ।
(ख) ब्रह्म-सम्प्रदायः----इसमें मन्त्रों के साथ-साथ तन्नियोजक ब्राह्मण भी मिश्रित है , अतः इसे (मिश्रण के कारण) कृष्ण-यजु र्वेद कहा
जाता है । इसकी कुल 85 शाखाएँ थीं, किन्तु आज केवल 4 शाखाएँ प्राप्त हैं ---तै त्तिरीय, मै तर् ायणी, कठ और कपिष्ठल।
तै त्तिरीय-शाखाः---इसका प्रचलन मु ख्य रूप से महाराष्ट् र, आन्ध्र और द्रविड दे शों में है । इसकी संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्,
श्रौतसूतर् तथा गृ ह्यसूतर् सभी उपलब्ध हैं , अतः यह शाखा सम्पूर्ण है । इस सं हिता में 7 काण्ड, 44 प्रपाठक 631 अनु वाक हैं ।
मै तर् ायणी-शाखाः----इसमें 4 काण्ड हैं । मन्त्र 2144 हैं , जिनमें ऋग्वे द की 1701 ऋचाएँ अनु गृहीत हैं । इसमें किुल 54 प्रपाठक 654
अनु वाक हैं ।
कठ-सं हिताः---महाभाष्य (4.3.101) के अनु सार इस शाखा का प्रचलन प्रत्ये क ग्राम में था। इसका मु ख्य रूप से प्रचलन मध्य-दे श में था।
इसमें कुल पाँच खण्ड, अनु वाक 843, मन्त्र 3091 हैं ।
कपिष्ठल-शाखाः---इसका प्रचलन कुरुक्षे तर् में सरस्वती नदी के आसपास था। इसका पूर्ण विवरण उपलब्ध नहीं है ।
वे द व्यास ने यजु र्वेद का अध्ययन अपने शिष्य वै शम्पायन को कराया था।
(3.) सामवे दः-----ऋषि पतञ्जलि के अनु सार सामवे द की 1000 शाखाएँ थीं--- "सहस्रवर्त्मा सामवे दः।" महाभारत के शान्तिपर्व (342.98)
में इसका उल्ले ख है ः---"सहस्रशाखं यत्साम"। इसका महत्त्व इस बात से बढ जाता है कि श्रीकृष्ण ने अपने आपको सामवे द बतलाया
है ः----"वे दानां सामवे दोS स्मि।" इसकी तीन शाखाएँ आज उपलब्ध हैं -----
(क) कौथम-शाखा-----यह संहिता सर्वाधिक लोकप्रिय है । छान्दोग्य उपनिषद् इसी से सम्बन्धित है । इसकी अवान्तर शाखा ताण्ड्य है ।
(ख) राणायणीय-शाखाः--- इसकी अवान्तर शाखा सात्यमु ग्रि है ।
(ग) जै मिनीय-शाखाः---इसकी सं हिता, ब्राह्मण, श्रौत तथा गृ ह्यसूतर् उपलब्ध है । ऋषि व्यास ने सामवे द का अध्ययन जै मिनि को ही कराया
था।
(4.) अथर्ववे दः----पतञ्जलि के अनु सार इसकी 9 शाखाएँ थीं---- "नवधाथर्वणो वे दः"। ये है ----पिप्लाद, स्तौद, (तौद), मौद, शौनकीय,
जाजल, जलद, ब्रह्मवद, दे वदर्श तथा चारण वै द्य।
इनमें से शौनक शाखा ही आजकल उपलब्ध है और इसी का प्रचलन है । इसमें 20 काण्ड,34 प्रपाठक, 111 अनु वाक, 731 सूक्त और मन्त्र
5987 हैं ।
कई दिनों से कई पाठकों की माँ ग पर इतना बडा ले ख यहाँ उपलब्ध कराया जा रहा है । इसके लिखने में बहुत अधिक परिश्रम और समय
व्यतीत हुआ है ।
वै दिक सं स्कृत

ऋग्वे द के विषय में कुछ प्रमुख बातें  निम्नलिखित है -


सनातन धर्म का सबसे आरम्भिक स्रोत है । इसमें  10 मण्डल,[2] 1028 सूक्त और वर्तमान में 10,462 मन्त्र हैं , मन्त्र सं ख्या के विषय में
विद्वानों में कुछ मतभे द है । मन्त्रों में  दे वताओं की स्तु ति की गयी है । इसमें दे वताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये  मन्त्र हैं । यही
सर्वप्रथम वे द है । ऋग्वे द को इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवारकी अभी तक उपलब्ध पहली रचनाओं में एक मानते हैं । यह सं सार के
उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है । यह सनातन धर्म का प्रमु ख ग्रन्थ है ।
ऋग्वे द की रचनाओं को पढ़ने वाले ऋषि को होत्र कहा जाता है ।
ऋग्वे द सबसे पु राना ज्ञात वै दिक सं स्कृत पु स्तक है ।[3] इसकी प्रारम्भिक परतें किसी भी इं डो-यूरोपीय भाषा में सबसे पु राने मौजूदा ग्रन्थों में से
एक हैं ।[4][note 2] ऋग्वे दकी ध्वनियों और ग्रन्थों को दस ू री सहस्राब्दी ईसा पूर्व से मौखिक रूप से प्रसारित किया गया है ।[6][7][8] दार्शनिक और
भाषाई साक्ष्य इं गित करते हैं कि ऋग्वे द सं हिता के थोक की रचना भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षे तर् में हुई थी, जो कि सबसे
अधिक सं भावना है - 1500 और 1000 ईसा पूर्व, [9] 1700-1000 BCE भी दिया गया है ।
ऋक् सं हिता में  10 मण्डल तथा बालखिल्य सहित [[१०२८|1028] सूक्त हैं । वे द मन्त्रों के समूह को सूक्त कहा जाता है , जिसमें एकदै वत्व तथा
एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है । ऋग्वे द में ही मृ त्यु निवारक त्र्यम्बक-मं तर् या मृ त्यु ं जय मन्त्र (7/59/12) वर्णित है , ऋग्विधान के अनु सार
इस मन्त्र के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ आयु प्राप्त होती है तथा मृ त्यु दरू हो कर सब प्रकार का सु ख प्राप्त होता
है । विश्व-विख्यात गायत्री मन्त्र (ऋ० 3/62/10) भी इसी में वर्णित है । ऋग्वे द में अने क प्रकार के लोकोपयोगी-सूक्त, तत्त्वज्ञान-सूक्त,
सं स्कार-सु क्त उदाहरणतः रोग निवारक-सूक्त (ऋ॰ 10/137/1-7), श्री सूक्त या लक्ष्मी सूक्त (ऋग्वे द के परिशिष्ट सूक्त के खिलसूक्त में ),
तत्त्वज्ञान के नासदीय-सूक्त (ऋ॰ 10/129/1-7) तथा हिरण्यगर्भ सूक्त (ऋ॰ 1/121/1-10) और विवाह आदि के सूक्त (ऋ॰ 10/85/1-47)
वर्णित हैं , जिनमें ज्ञान विज्ञान का चरमोत्कर्ष दिखलाई दे ता है ।
इस ग्रन्थ को इतिहास की दृष्टि से भी एक महत्वपूर्ण रचना माना गया है । ईरानी अवे स्ता की गाथाओं का ऋग्वे द के श्लोकों के जै से स्वरों में
होना, जिसमें कुछ विविध भारतीय दे वताओं जै से अग्नि, वायु , जल, सोम आदि का वर्णन है ।

 ॠग्वे द में कुल दस मण्डल हैं जिनमें १०२८ सूक्त हैं और कुल १०,५८० ऋचाएँ  हैं । इन मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ बड़े हैं ।

 ऋग्वे द विश्व का सबसे प्राचीन ग्रंथ है जो वर्तमान समय में उपलब्ध है ।

 ॠग्वे द के कई सूक्तों में विभिन्न वै दिक दे वताओं की स्तु ति करने वाले मं तर् हैं । यद्यपि ॠग्वे द में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं , परन्तु
दे वताओं की स्तु ति करने वाले स्तोत्रों की प्रधानता है ।

 ऋग्वे द में ३३ दे वी-दे वताओं का उल्ले ख है । इस वे द में सूर्या, उषा तथा अदिति जै सी दे वियों का वर्णन किया है । इसमें  अग्नि को आशीर्षा,
अपाद, घृ तमु ख, घृ त पृ ष्ठ, घृ त-लोम, अर्चिलोम तथा वभ्रलोम कहा गया है । इसमें  इन्द्र को सर्वमान्य तथा सबसे अधिक शक्तिशाली
दे वता माना गया है । इन्द्र की स्तु ति में ऋग्वे द में २५० ऋचाएँ  हैं । ऋग्वे द के एक मण्डल में केवल एक ही दे वता की स्तु ति में श्लोक हैं ,
वह सोम दे वता है ।

 इस वे द में  बहुदे ववाद, एकेश्वरवाद, एकात्मवाद का उल्ले ख है ।


 ऋग्वे द के नासदीय सूक्त में  निर्गुण ब्रह्म का वर्णन है ।

 इस वे द में  आर्यों के निवास स्थल के लिए सर्वत्र 'सप्त सिन्धवः' शब्द का प्रयोग हुआ है ।

 इस में कुछ अनार्यों जै से - पिसाकास, सीमियां आदि के नामों का उल्ले ख हुआ है । इसमें अनार्यों के लिए 'अव्रत' (व्रतों का पालन न
करने वाला), 'मृ द्धवाच' (अस्पष्ट वाणी बोलने वाला), 'अनास' (चपटी नाक वाले ) कहा गया है ।

 इस वे द लगभग २५ नदियों का उल्ले ख किया गया है जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण नदी सिन्धु  का वर्णन अधिक है ।सर्वाधिक पवित्र
नदी सरस्वती को माना गया है तथा सरस्वती का उल्ले ख भी कई बार हुआ है । इसमें  गं गा का प्रयोग एक बार तथा यमु ना का प्रयोग तीन
बार हुआ है ।

 ऋग्वे द में  राजा का पद वं शानु गत होता था। ऋग्वे द में सूत, रथकार तथा कर्मार नामों का उल्ले ख हुआ है , जो राज्याभिषे क के समय पर
उपस्थित रहते थे । इन सभी की सं ख्या राजा को मिलाकर १२ थी।

 ऋग्वे द में 'वाय' शब्द का प्रयोग जु लाहा तथा 'ततर' शब्द का प्रयोग करघा के अर्थ में हुआ है ।

 ऋग्वे द के ९वें मण्डल में  सोम रस की प्रशं सा की गई है ।

 ऋग्वे द के १०वे मं डल मे पु रुषसु क्त का वर्णन है ।

 "असतो मा सद्गमय" वाक्य ऋग्वे द से लिया गया है । सूर्य (सवितृ  को सम्बोधित "गायत्री मं तर् " ऋग्वे द में उल्ले खित है ।

 इस वे द में  गाय के लिए 'अहन्या' शब्द का प्रयोग किया गया है ।

 ऋग्वे द में ऐसी कन्याओं के उदाहरण मिलते हैं जो दीर्घकाल तक या आजीवन अविवाहित रहती थीं। इन कन्याओं को 'अमाजू' कहा
जाता था।

 इस वे द में हिरण्यपिण्ड का वर्णन किया गया है । इस वे द में 'तक्षन्' अथवा 'त्वष्ट् रा' का वर्णन किया गया है । आश्विन का वर्णन भी ऋग्वे द
में कई बार हुआ है । आश्विन को नासत्य (अश्विनी कुमार) भी कहा गया है ।

 इस वे द के ७वें मण्डल में  सु दास तथा दस राजाओं के मध्य हुए यु द्ध का वर्णन किया गया है , जो कि पु रुष्णी (रावी) नदी के तट पर लड़ा
गया। इस यु द्ध में सु दास की जीत हुई ।

 ऋग्वे द में कई ग्रामों के समूह को 'विश' कहा गया है और अने क विशों के समूह को 'जन'। ऋग्वे द में 'जन' का उल्ले ख २७५ बार तथा
'विश' का १७० बार किया गया है । एक बड़े प्रशासनिक क्षे तर् के रूप में 'जनपद' का उल्ले ख ऋग्वे द में केवल एक बार हुआ है । जनों के
प्रधान को 'राजन्' या राजा कहा जाता था। आर्यों के पाँच कबीले होने के कारण उन्हें ऋग्वे द में 'पञ्चजनाः' कहा गया – ये थे - पु रु, यदु,
अनु , तु र्वशु तथा द्रहयु ।

 'विदथ' सबसे प्राचीन सं स्था थी। इसका ऋग्वे द में १२२ बार उल्ले ख आया है । 'समिति' का ९ बार तथा 'सभा' का ८ बार उल्ले ख आया है ।

 ऋग्वे द में  कृषि का उल्ले ख २४ बार हुआ है ।

 ऋग्वे द में में कपड़े के लिए वस्त्र, वास तथा वसन शब्दों का उल्ले ख किया गया है । इस वे द में 'भिषक् ' को दे वताओं का चिकित्सक कहा
गया है ।

 इस वे द में केवल हिमालय पर्वत तथा इसकी एक चोटी मु ञ्जवन्त का उल्ले ख हुआ है ।

यजु र्वेद
यजुर्वेद हिन्द ू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण श्रुति धर्मग्रन्थ और चार वेदों में से एक है । इसमें  यज्ञ की असल प्रक्रिया के
लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं। ये हिन्द ू धर्म के चार पवित्रतम प्रमुख ग्रन्थों में से एक है और अक्सर ऋग्वेद के
बाद दस
ू रा वेद माना जाता है - इसमें ऋग्वेद के ६६३ मंत्र पाए जाते हैं। फिर भी इसे ऋग्वेद से अलग माना जाता
है क्योंकि यजुर्वेद मुख्य रूप से एक गद्यात्मक ग्रन्थ है । यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘'यजुस’'
कहा जाता है । यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है ।[1] इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र
बहुत कम हैं। यजुर्वेद में दो शाखा हैं : दक्षिण भारत में प्रचलित कृष्ण यजुर्वेद और उत्तर भारत में प्रचलित शुक्ल
यजुर्वेद शाखा।

जहां ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी वहीं यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदे श में हुई।[2] कुछ लोगों के
मतानसु ार इसका रचनाकाल १४०० से १००० ई.प.ू का माना जाता है ।

नाम और विषय
यजुष ् के नाम पर ही वेद का नाम यजुष ्+वेद(=यजुर्वेद) शब्दों की संधि से बना है । यज ् का अर्थ समर्पण से होता
है । पदार्थ (जैसे ईंधन, घी, आदि), कर्म (सेवा, तर्पण ), श्राद्ध, योग, इंद्रिय निग्रह [3] इत्यादि के हवन
को यजन यानि समर्पण की क्रिया कहा गया है ।

इस वेद में अधिकांशतः यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं, अतःयह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है । यजुर्वेद की
संहिताएं लगभग अंतिम रची गई संहिताएं थीं, जो ईसा पूर्व द्वितीय सहस्राब्दि से प्रथम सहस्राब्दी के आरं भिक
सदियों में लिखी गईं थी।[1] इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है । उनके समय
की वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है । यजर्वे
ु द संहिता में वैदिक काल के धर्म के कर्मकाण्ड
आयोजन हे तु यज्ञ करने के लिये मंत्रों का संग्रह है । इनमे कर्मकाण्ड के कई यज्ञों का विवरण है ः

 अग्निहोत्र
 अश्वमेध
 वाजपेय
 सोमयज्ञ
 राजसूय
 अग्निचयन

ऋग्वेद के लगभग ६६३ मंत्र यथावत ् यजुर्वेद में मिलते हैं। यजुर्वेद वेद का एक ऐसा प्रभाग है , जो आज भी जन-
जीवन में अपना स्थान किसी न किसी रूप में बनाये हुऐ है ।[4] संस्कारों एवं यज्ञीय कर्मकाण्डों के अधिकांश मन्त्र
यजुर्वेद के ही हैं।[5]

सं पर् दाय, शाखाएं और सं हिताएं


संपर् दाय
यजु र्वे दाध्यायी परम्परा में दो सम्प्रदाय- ब्रह्म सम्प्रदाय अथवा कृष्ण यजु र्वे द और आदित्य सम्प्रदाय अथवा शु क्ल
यजु र्वे द ही प्रमु ख हैं ।
संहिताएं
वर्तमान में  कृष्ण यजु र्वे द की शाखा में ४ सं हिताएँ -तै त्तिरीय, मै तर् ायणी, कठ और कपिष्ठल कठ ही उपलब्ध हैं । कृष्ण यजु र्वे द
में मं तर् ों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है । वास्तव में मं तर् तथा ब्राह्मण का एकत्र मिश्रण ही
'कृष्ण यजु ः' के कृष्णत्व का कारण है तथा मं तर् ों का विशु द्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शु क्ल यजु ष'् के शु क्लत्व का कारण है ।
तै त्तरीय सं हिता (कृष्ण यजु र्वे द की शाखा) को 'आपस्तम्ब सं हिता' भी कहते हैं । महर्षि पं तजलि द्वारा उल्लिखित यजु र्वे द की
101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसने य, तै त्तिरीय, कठ, कपिष्ठल और मै तर् ायणी ही उपलब्ध हैं । यजु र्वे द से
उत्तरवै दिक यु ग की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती है । इन दोनों शाखाओं में अं तर यह है कि
शु क्ल यजु र्वे द पद्य (सं हिताओं) को विवे चनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता है , जबकि कृष्ण यजु र्वे द में दोनों ही
उपस्थित हैं । यजु र्वे द में वै दिक अनु ष्ठान की प्रकृति पर विस्तृ त चिं तन है और इसमें यज्ञ सं पन्न कराने वाले प्राथमिक
ब्राह्मण व आहुति दे ने के दौरान प्रयु क्त मं तर् ों पर गीति पु स्तिका भी शामिल है । इस प्रकार यजु र्वे द यज्ञों के आधारभूत
तत्त्वों से सर्वाधिक निकटता रखने वाला वे द है । यजु र्वे द सं हिताएँ सं भवतः अं तिम रचित सं हिताएँ थीं, जो ई. पू. दस ू री
सहस्त्राब्दी के अं त से ले कर पहली सहस्त्राब्दी की आरं भिक शताब्दियों के बीच की हैं ।
शु क्ल यजु र्वे द की शाखाओं में दो प्रधान सं हिताएँ - १. मध्यदिन सं हिता और २. काण्व सं हिता ही वर्तमान में उपलब्ध हैं ।
आजकल प्रायः उपलब्ध होने वाला यजु र्वे द मध्यदिन सं हिता ही है । इसमें ४० अध्याय, १९७५ कण्डिकाएँ (एक कण्डिका कई
भागों में यागादि अनु ष्ठान कर्मों में प्रयु क्त होनें से कई मन्त्रों वाली होती है ।) तथा ३९८८ मन्त्र हैं ।
विश्वविख्यात गायत्री मं तर्  (३६.३) तथा महामृ त्युं जय मन्त्र (३.६०) इसमें भी है ।
शाखाएं
यजु र्वे द कर्मकाण्ड से जु डा हुआ है । इसमें विभिन्न यज्ञों (जै से अश्वमे ध) का वर्णन है । यजु र्वे द पाठ अध्वु र्य द्वारा किया जाता
है । यजु र्वे द ५ शाखाओ मे विभक्त् है -

1. काठक
2. कपिष्ठल
3. मै त्रियाणी
4. तै तीरीय
5. वाजसने यी
कहा जाता है कि वे द व्यास के शिष्य वै शंपायन के २७ शिष्य थे , इनमें सबसे प्रतिभाशाली थे  याज्ञवल्क्य। इन्होंने एक बार
यज्ञ में अपने साथियो की अज्ञानता से क्षु ब्ध हो गए। इस विवाद के दे खकर वै शंपायन ने याज्ञवल्क्य से अपनी सिखाई हुई
विद्या वापस मां गी। इस पर क् रुद्ध याज्ञवल्क्य ने यजु र्वे द का वमन कर दिया - ज्ञान के कण कृष्ण वर्ण के रक्त से सने हुए थे ।
इससे  कृष्ण यजु र्वे द का जन्म हुआ। यह दे खकर दस ू रे शिष्यों ने तीतर बनकर उन दानों को चु ग लिया और इससे  तै त्तरीय
सं हिता का जन्म हुआ।
यजु र्वे द के भाष्यकारों में  उवट (१०४० ईस्वी) और महीधर (१५८८) के भाष्य उल्ले खनीय हैं । इनके भाष्य यज्ञीय कर्मों से सं बंध
दर्शाते हैं । शृं गेरी के शं कराचार्यों में भी यजु र्वे द भाष्यों की विद्वत्ता की परं परा रही है ।

सामवे द सं हिता
सामवेद गीत-संगीत प्रधान है । प्राचीन आर्यों द्वारा साम-गान किया जाता था। सामवेद चारों वेदों में आकार की
दृष्टि से सबसे छोटा है और इसके १८७५ मन्त्रों मे से ९९ को छोड़ कर सभी ऋगवेद के हैं।
केवल १७ मन्त्र अथर्ववेद और यजुर्वेद के पाये जाते हैं। फ़िर भी इसकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक है , जिसका एक
कारण गीता में  कृष्ण द्वारा वेदानां सामवेदोऽस्मि कहना भी है ।

सामवेद यद्यपि छोटा है परन्तु एक तरह से यह सभी वेदों का सार रूप है और सभी वेदों के चुने हुए अंश इसमें
शामिल किये गये है । सामवेद संहिता में जो १८७५ मन्त्र हैं, उनमें से १५०४ मन्त्र ऋग्वेद के ही हैं। सामवेद संहिता
के दो भाग हैं, आर्चिक और गान। पुराणों में जो विवरण मिलता है उससे सामवेद की एक सहस्त्र शाखाओं के होने
की जानकारी मिलती है । वर्तमान में प्रपंच ह्रदय, दिव्यावदान, चरणव्युह तथा जैमिनि गह
ृ सूत्र को दे खने पर १३
शाखाओं का पता चलता है । इन तेरह में से तीन आचार्यों की शाखाएँ मिलती हैं- (१) कौमुथीरयी, (२) राणायनीय
और (३) जैमिनीय। इसका अध्य्यन करने बाले पंडित पंचविश या उद्गाता कहलाते है ।

सामवेद का महत्व इसी से पता चलता है कि गीता में कहा गया है कि -वेदानां सामवेदोऽस्मि। [1]। महाभारत में
गीता के अतिरिक्त अनश
ु ासन पर्व में भी सामवेेद की महत्ता को दर्शाया गया है - सामवेदश्च वेदानां यजष
ु ां
शतरुद्रीयम। 
् [2]।अग्नि परु ाण के अनस
ु ार सामवेद के विभिन्न मंत्रों के विधिवत जप आदि से रोग व्याधियों से मक्
ु त
हुआ जा सकता है एवं बचा जा सकता है , तथा कामनाओं की सिद्धि हो सकती है । सामवेद ज्ञानयोग, कर्मयोग और
भक्तियोग की त्रिवेणी है । ऋषियों ने विशिष्ट मंत्रों का संकलन करके गायन की पद्धति विकसित की। अधुनिक
विद्वान ् भी इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि समस्त स्वर, ताल, लय, छं द, गति, मन्त्र, स्वर-चिकित्सा, राग
नत्ृ य मुद्रा, भाव आदि सामवेद से ही निकले हैं।

नामाकरण[संपादित करें ]
सामवेद को उदगीथों का रस कहा गया है , छान्दोग्य उपनिषद में । अथर्ववेद के चौदहवें कांड, ऐतरे य ब्राह्मण (८-२७)
और बहृ दारण्यक उपनिषद (जो शुक्ल यजुर्वेद का उपनिषद् है , ६.४.२७), में सामवेद और ऋग्वेद को पति-पत्नी के
जोड़े के रूप में दिखाया गया है -

अमो अहम अस्मि सात्वम ् सामहमस्मि ऋक त्वम ् , द्यौरहं पथ्


ृ वीत्वं, ताविह संभवाह प्रजयामावहै ।

अर्थात (अमो अहम अस्मि सात्वम ् ) मैं -पति - अम हूं, सा तुम हो, (द्यौरहं पथ्
ृ वीत्वं) मैं द्यौ (द्युलोक) हूं तुम पथ्
ृ वी
हो। (ताविह संभवाह प्रजयामावहै ) हम साथ बढ़े और प्रजावाले हों। ।

जिस प्रकार से ऋग्वेद के मंत्रों को ऋचा कहते हैं और यजुर्वेद के मंत्रों को यजँषि


ू  कहते हैं उसी प्रकार सामवेद के
मंत्रों को सामानि कहते हैं। ऋगवेद में साम या सामानि का वर्णन २१ स्थलों पर आता है (जैसे ५.४४.१४, १.६२.२,
२.२३.१७, ९.९७.२२)।

विषय[संपादित करें ]

सामवेद में ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिनसे यह प्रमाणित होता है कि वैदिक ऋषियों को एसे वैज्ञानिक सत्यों का ज्ञान
था जिनकी जानकारी आधनि
ु क वैज्ञानिकों को सहस्त्राब्दियों बाद प्राप्त हो सकी है । उदाहरणतः- इन्द्र ने पथ्
ृ वी को
घम ु ाते हुए रखा है ।[3] चन्द्र के मंडल में सर्य
ू की किरणे विलीन हो कर उसे प्रकाशित करती हैं।[4]। साम मन्त्र
क्रमांक २७ का भाषार्थ है - यह अग्नि द्यल ू ोक से पथ्
ृ वी तक संव्याप्त जीवों तक का पालन कर्ता है । यह जल को
रूप एवं गति दे ने में समर्थ है ।

सामवेद के विषय में कुछ प्रमख


ु तथ्य निम्नलिखित है -

 सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रन्थ जिसके मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय हों।
 यज्ञ, अनष्ु ठान और हवन के समय ये मन्त्र गाये जाते हैं। इसमें यज्ञानष्ु ठान के उद्गातव
ृ र्ग के उपयोगी
मन्त्रों का संकलन है ।
 इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं।
 इसके अधिकांश मन्त्र ॠग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं। सामवेद में मूल रूप से 99
मन्त्र हैं और शेष ॠग्वेद से लिये गये हैं।
 वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सामग (साम गान करने वाले) कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में
केवल तीन स्वरों के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनद
ु ात्त तथा स्वरित कहलाते हैं।
 सामगान व्यावहारिक संगीत था। उसका विस्तत
ृ विवरण उपलब्ध नहीं हैं।
 वैदिक काल में बहुविध वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें से

1. तंतु वाद्यों में कन्नड़ वीणा, कर्क री और वीणा,


2. घन वाद्य यंत्र के अंतर्गत दं द
ु भि
ु , आडंबर,
3. वनस्पति तथा सषि
ु र यंत्र के अंतर्गतः तुरभ, नादी तथा
4. बंकुरा आदि यंत्र विशेष उल्लेखनीय हैं।

अथर्ववे द सं हिता
अथर्ववेद संहिता हिन्द ू धर्म के पवित्रतम वेदों में से चौथे वेद अथर्ववेद की संहिता अर्थात मन्त्र भाग है । इस वेद को
ब्रह्मवेद भी कहते हैं। इसमें दे वताओं की स्तुति के साथ, चिकित्सा, विज्ञान और दर्शन के भी मन्त्र हैं। अथर्ववेद
संहिता के बारे में कहा गया है कि जिस राजा के राज्य में अथर्ववेद जानने वाला विद्वान ् शान्तिस्थापन के कर्म
में निरत रहता है , वह राष्ट्र उपद्रवरहित होकर निरन्तर उन्नति करता जाता है ः

अथर्ववेद का ज्ञान भगवान ने सबसे पहले महर्षि अंगिरा को दिया था, फिर महर्षि अंगिरा ने वह ज्ञान ब्रह्मा को
दिया |

यस्य राज्ञो जनपदे अथर्वा शान्तिपारगः।


निवसत्यपि तद्राराष्ट्रं वर्धतेनिरुपद्रवम ्।। (अथर्व०-१/३२/३)।

परिचय[संपादित करें ]

भग
ू ोल, खगोल, वनस्पति विद्या, असंख्य जड़ी-बटि
ू याँ, आयर्वे
ु द, गंभीर से गंभीर रोगों का निदान और उनकी
चिकित्सा, अर्थशास्त्र के मौलिक सिद्धान्त, राजनीति के गह्
ु य तत्त्व, राष्ट्रभमि
ू तथा राष्ट्रभाषा की
महिमा, शल्यचिकित्सा, कृमियों से उत्पन्न होने वाले रोगों का विवेचन, मत्ृ यु को दरू करने के उपाय, मोक्ष,
प्रजनन-विज्ञान अदि सैकड़ों लोकोपकारक विषयों का निरूपण अथर्ववेद में है । आयर्वे
ु द की दृष्टि से अथर्ववेद
का महत्व अत्यन्त सराहनीय है । अथर्ववेद में शान्ति-पष्टि
ु तथा अभिचारिक दोनों तरह के अनष्ु ठन वर्णित
हैं।

चरणव्यूह ग्रंथ के अनुसार अथर्वसंहिता की नौ शाखाएँ हैं-

१. पैपल, २. दान्त, ३. प्रदान्त, ४. स्नात, ५. सौल, ६. ब्रह्मदाबल, ७. शौनक, ८. दे वदर्शत और ९. चरणविद्या

वर्तमान में केवल दो शाखा की जानकारी मिलता है - १.जिसका पहला मन्त्र- शन्नो दे वीरभिष्टय आपो
भवन्तु..... इत्यादि है वह पिप्पलाद संहिताशाखा तथा २.ये त्रिशप्ता परियन्ति विश्वारुपाणि
विभ्रत....इत्यादि पहला मन्त्रवाला शौनक संहिता शाखा |जिसमें सेशौनक संहिता ही उपलब्ध हो पाती है ।
वैदिकविद्वानों के अनस
ु ार ७५९ सक्
ू त ही प्राप्त होते हैं। सामान्यतः अथर्ववेद में ६००० मन्त्र होने का
मिलता है परन्तु किसी-किसी में ५९८७ या ५९७७ मन्त्र ही मिलते हैं।

अथर्ववेद के विषय में कुछ मुख्य तथ्य निम्नलिखित है -

 अथर्ववेद की भाषा और स्वरूप के आधार पर ऐसा माना जाता है कि इस वेद की रचना सबसे बाद में
हुई ।
 वैदिक धर्म की दृष्टि से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों का बड़ा ही महत्व है ।
 अथर्ववेद से आयुर्वेद में विश्वास किया जाने लगा था। अनेक प्रकार की चिकित्सा पद्धतियों का वर्णन
अथर्ववेद में है ।
 अथर्ववेद गह
ृ स्थाश्रम के अंदर पति-पत्नी के कर्त्तव्यों तथा विवाह के नियमों, मान-मर्यादाओं का उत्तम
विवेचन करता है ।
 अथर्ववेद में ब्रह्म की उपासना संबन्धी बहुत से मन्त्र हैं।

वै दिक शाखाएँ
मूलवस्तु से निकले हुए विभाग अथवा अंग को शाखा कहते हैं - जैसे वक्ष ृ की शाखा। वैदिक साहित्य के संदर्भ
में  वैदिक शाखा शब्द से उन विशेष परं पराओं का बोध होता है जो गुरु-शिष्य-प्रणाली, दे शविभाग, उच्चारण की
भिन्नता, काल एवं विशेष परिस्थितिजन्य कारणों से चार वेदों के भिन्न-भिन्न पाटों के रूप में विकसित हुई।
शाखाओं को कभी कभी 'चरण' भी कहा जाता है । इन शाखाओं का विवरण शौनक के चरणव्यूह और पुराणों में विशद
रूप से मिलता है ।

वैदिक शाखाओं की संख्याएँ सब जगह एक रूप में दी गई हों, ऐसा नहीं। फिर, विभिन्न स्थलों में वर्णित सभी
वैदिक शाखाएँ आजकल उपलब्ध भी नहीं है । पतंजलि ने ऋग्वेद की 21, यजर्वे
ु द की 100, सामवेद की 1000
तथा अथर्ववेद की 9 शाखाएँ बताई हैं। किंत ु चरणव्यह
ू  में उल्लिखित संख्याएँ इनसे भिन्न हैं। चरणव्यह
ू से ऋग्वेद की
पाँच शाखाएँ ज्ञात होती हैं - शाकलायन, बाष्कलायन, आश्वलायन, शांखायन और मांडूकायन। परु ाणों से उसकी केवल
तीन ही शाखाएँ ज्ञात होती हैं - शाकलायन, बाष्कलायन और मांडूकायन। यजर्वे
ु द की दो शाखायें ज्ञात होती है -
शक्
ु ल यजर्वे
ु द और कृष्ण यजर्वे ु द की 85 शाखाओं की चर्चा मिलती है , किंतु आज उनमें से केवल ये
ु द। कृष्ण यजर्वे
चार ही उपलब्ध हैं- तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ और कपिष्ठकल-कठ शाखा। किंतु कपिष्ठलशाखा कठ की ही एक
उपशाखा है । कठशाखा पंजाब में तथा तैत्तिरीय और मैत्रायणी शाखाएँ क्रमश: नर्मदा नदी के निचले प्रदे शों एवं
दक्षिण भारत में प्रचलित हुईं। वहाँ उनकी और भी उपशाखाएँ हो गईं। सामवेद की शाखासंख्या पुराणों में १०००
बताई गई है । पतंजलि ने भी सामवेद को 'सहस्रवर्त्मा' कहा है । भागवत, विष्णु और वायुपुराणों के अनस
ु ार वेदव्यास के
शिष्य जैमिनी हुए। उन्हीं के वंश में सुकर्मा हुए, जिनके दो शिष्य थे - एक हिरण्यनाभ कौसल्य, जो कोसल के राजा
थे और दस ू रे पौष्पंजि। कोसल की स्थिति पूर्वी (वास्तव में उत्तर पूर्वी) भारत में थी और इस कारण हिरण्यनाभ से
चलनेवाली 500 शाखाएँ 'प्राच्य' कहलाई। पौष्यंजि से चलनेवाली 500 शाखाएँ 'उदीच्य' कहलाई। अथर्ववेद की नौ
शाखाएँ मिलती हैं। उनमें नाम हैं - पिप्पलाद, स्तौद, मौद, शौनक, जाजल, जलद, ब्रह्मवद, दे वदर्श तथा चारणवैद्य।
इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध शाखाएँ हैं पिप्पलाद और शौनक।

ऋग्वेद[संपादित करें ]
शौनक के चरणव्यूह में  ऋग्वेद की पाँच शाखाओं की तालिका है । ये शाखायें ये हैं- शाकल, बाष्कल, अश्वलायन,
शांखायन और माण्डूकायन। वर्तमान समय में इनमें से शाकल और बाष्कल - दो शाखायें प्रचलित हैं।

ऋग्वेद की बाष्कल शाखा में  खिलानि हैं, जो शाकल शाखा में नहीं हैं। फिर भी वर्तमान में  पुणे में सुरक्षित शाकल
शाखा की एक कश्मीरी पाण्डुलिपि में खिलानि पाया गया है ।

शाकल शाखा में  ऐतरे य ब्राह्मण एवं बाष्कल शाखा में  कौषीतकी ब्राह्मण बचा हुआ है ।

अश्वलायन शाखा का सत्र


ू साहित्य मिला है जिसमें श्रौत सत्र
ू , गह्
ृ य सत्र
ू तथा इनकी गर्ग्य नारायण द्वारा रचित
वत्ति
ृ है । गर्ग्य नारायण की वत्ति
ृ ११वीं शताब्दी में दे वस्वामी द्वारा रचित एक विषद भाष्य पर आधारित है । [1]
यजर्वे
ु द[संपादित करें ]

 शुक्ल यजुर्वेद: वाजसनेयी संहिता माध्यंदिन, वाजसनेयी संहिता काण्व: शतपथ ब्राह्मण।


 कृष्ण यजुर्वेद: तैत्तिरीय संहिता (तैत्तिरीय ब्राह्मण नामक एक अतिरिक्त ब्राह्मण के साथ), मैत्रायणी संहिता,
चरक-कठ संहिता, कपिष्ठल-कठ संहिता।
शुक्ल यजुर्वेद[संपादित करें ]

शाखा संहिता ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद्‌

माध्यंदिन माध्यं दिन शतपथ शतपथ १४.१-८ बृ हदारण्यक उपनिषद्‌ = शु क्ल यजु र्वेदीय
वर्तमान समय में उत्तर भारत
वाजसने यि शाखा (शु क्ल यजु र्वेदीय में रक्षित वाजसने यी माध्यं दिन १४.३-८,
के सभी ब्राह्मण और दे शस्थ
(वाजसनेयी संहिता वाजसने यी (स्वरचिह्नों के (उच्चारणभं ग सह), ईशावास्योपनिषद =
ब्राह्मणों द्वारा पठित
माध्यंदिन) माध्यं दिन) साथ)। वाजसने यी सं हिता माध्यं दिन ४०

बर्तमान समय में  उत्कल


काण्व शतपथ
काण्व ब्राह्मण, कन्नड़ शु क्ल यजु र्वेदीय बृ हदारण्यक उपनिषद्‌ = शु क्ल यजु र्वेदीय
(शु क्ल यजु र्वेदीय
ब्राह्मण, कऱ्हाडे वाजसने यी काण्व वाजसने यी काण्व (स्वरचिह्नों के
वाजसने यी काण्व)
(वाजसनेयी संहिता ब्राह्मण और के १६ अध्याय में साथ), ईशावास्य उपनिषद्‌ = शु क्ल
(माध्यं दिन से
काण्व) कुछ ऐयर ब्राह्मणों द्बारा रक्षित यजु र्वेदीय वाजसने यी काण्व ४०
पृ थक)
पठित।
कात्यायन - -

ु द[संपादित करें ]
कृष्ण यजर्वे

शाखा संहिता ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद्‌

तै त्तिरीय ब्राह्मण और
तै त्तिरीय सं हिता, समग्र दक्षिण भारत बधूला ब्राह्मण (बधूला तै त्तिरीय
तै त्तिरीय तै त्तिरीय आरण्यक
और् कोंकण में प्रचलित श्रौत्रशास्त्र के उपनिषद्‌
अन्तर्गत)

मै तर् े यान मै तर् े यानी संहिता, नासिक के कुछ ब्राह्मण मै तर् े यानीय


व्यवहारतः उपनिषद्‌के समान
ी पाठ करते हैं उपनिषद्‌

कठ आरण्यक (प्रायः सम्पूर्ण कठक उपनिषद्‌,


चरक-कठ ग्रन्थ एकमात्र पाण्डु लिपि के रूप कठ-शिक्षा
में मिलता है ) उपनिषद्[2]

कपिष्ठल-कठ सं हिता (खण्डित पाण्डु लिपि,


केवल प्रथम भाग स्वरचिह्नों
कपिष्ठल - -
सहित), रघु वीर द्वारा सम्पादित (बिना
स्वरचिह्नों के)

सामवेद[संपादित करें ]

शाखा संहिता ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद्‌


एक भी नहीं। सं हिता में छान्दोग्य
कौठु म पूरे उत्तर तथा दक्षिण भारत में पठित ८ ब्राह्मण (स्वरचिह्न रहित)
ही एक आरण्यक है । उपनिषद्‌

संहिता की पाण्डु लिपियाँ उपलब्ध ;


कौठु म शाखा के समान। कुछ- एक भी नहीं। सं हिता में कौठु म शाखा के
रणयनीय गोकर्ण और दे शस्थ ब्राह्मणों द्वारा
कुछ अन्तर है । ही एक आरण्यक है । समान।
पठित

प्रकाशित ब्राह्मण (स्वरचिह्न


जै मिनीय/तलबकार रहित) – जै मिनीय ब्राह्मण, केन उपनिषद्‌
आर्षेय ब्राह्मण

शात्यायन - -

अथर्ववेद[संपादित करें ]

शाखा संहिता ब्राह्मण आरण्यक उपनिषद्‌

गोपथ ब्राह्मण के
मु ण्डक
अथर्ववे द संहिता, समग्र उत्तर और दक्षिण भारत में सम्पादित तथा असम्पूर्ण अं श
शौनक - उपनिषद्‌(?)
पठित। (प्रकाशित, स्वरचिह्न
प्रकाशित
रहित)

पै प्पलाद अथर्ववे द। उत्कल ब्राह्मणों द्वारा केवल सं हिता पाठ।


विलु प्त, गोपथ ब्राह्मण के
पै प्पलाद अन्यत्र दो पाण्डु लिपियाँ मिली हैं : कश्मीरी (अधिकां शतः - प्रश्न उपनिषद्‌
समान
सम्पादित) तथा ओड़िया (आं शिक सम्पादित, स्वरचिह्न रहित)

हिंद ू परंपरा के अनुसार कुछ प्रमुख तीर्थों-धामोंकी श्रे णियाँएवं सूची

वे द

वे द 'वे द' शब्द सं स्कृत भाषा के विद् शब्द से बना है , जिसका अर्थ 'ज्ञान' है । वे द विश्व के सर्वाधिक
प्राचीन लिखित धार्मिक दार्शनिक ग्रंथ हैं । 
इनकी सं ख्या 4 है -

ऋग्वे द 
यजु र्वे द 
सामवे द 
अथर्ववे द

वे दों को त्रयी भी कहा जाता है . यह विभाजन गद्य-पद्य और गायन के आधार पर किया गया है -
वे द का पद्य भाग -  ऋग्वे द 
वे द का गद्य भाग -  यजु र्वे द 
वे द का गायन भाग -  सामवे द

'चतु र्वेद' के मं तर् ों व प्रतिपाद्य विषयों का विवरण इस प्रकार है -

क् र सं वे द मंतर् संख्या शैली विवरण

1 ऋग्वे द १० हजार मन्त्रपरक सबसे प्राचीन वे द


मं तर्
2 यजु र्वेद ३७५० मं तर् गद्यात्मक कर्मकांडपरक, शु क्ल एवं कृष्ण भाग में
विभाजित
3 सामवे द १९७५ मं तर् गे यात्मक सं गीतमय, अधिकां श मं तर् ऋग्वे द से
ही
4 अथर्ववे द- ७२६० मं तर् प्रौद्योगिकी, सबसे नवीन वे द
आरोग्य एवं
तं तर् परक

वै दिक वाङ्मय का मु ख्यतः 4 रूपों में विभाजन किया जाता है । ये चार भाग निम्नानु सार हैं -

संहिता (मन्त्र) भाग -  यज्ञानु ष्ठान मे प्रयु क्त व विनियु क्त भाग.


ब्राह्मण -ग्रन्थ  -   वे द के यज्ञानु ष्ठान के कर्मकाण्ड की विवे चना.
आरण्यक – यज्ञानु ष्ठान के कर्मकाण्ड के पीछे आध्यात्मपरक उद्दे श्य की विवे चना.
उपनिषद -   वे द के अं तर्गत परम तत्व (ब्रह्म माया, अविद्या, जीवात्मा और जगत् के स्वभाव और
सम्बन्ध) का दार्शनिक और ज्ञानपूर्वक वर्णनवाला भाग. 

संहिता भाग

सं हिता भाग को ही मूल वे द कहा जाता है । वे दों की भी ऋषियों की परं परा के अनु सार अने क शाखाएं
हैं , जो मूलतः उनकी सं हिताओं से जु ड़ी हैं । यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शै ली,
मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है । इस विविधता के कारण भी वे दों की शाखाओं का
विस्तार हुआ है । यथा-ऋग्वे द की २१ शाखा, यजु र्वेद की १०१ शाखा, सामवे द की १००० शाखा और
अथर्ववे द की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं । इस सं ख्या का उल्ले ख महर्षि पतञ्जलि ने
अपने महाभाष्य में भी किया है । उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल
ग्रन्थों में उपलब्ध है ः-

ऋग्वे द की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं - शाकल-शाखा और शांखायन
शाखा ।
यजु र्वे द में कृष्णयजु र्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है - तै त्तिरीय-
शाखा, मै तर् ायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा

शु क्लयजु र्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है - माध्यन्दिनीय-शाखा


और काण्व-शाखा ।

सामवे द की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है - कौथु म-शाखा और
जै मिनीय-शाखा।

अथर्ववे द की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं - शौनक-शाखा और पै प्पलाद-
शाखा।

उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शै ली प्राप्त है - शाकल, तै त्तरीय,


माध्यन्दिनी, काण्व, कौथु म तथा शौनक शाखा । यह कहना भी अनु पयु क्त नहीं होगा कि अन्य
शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं , किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं
बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं ।

ब्राह्मण ग्रन्थ -

ब्राह्मण ग्रन्थ  वे दों का गद्यपरक व्याख्या और मु ख्यतः यज्ञ व कर्मकांडप्रधान खण्ड है ।  ब्राह्मण
ू रा हिस्सा है जिसमें गद्य रूप में दे वताओं की तथा
ग्रन्थ वै दिक वां ग्मय का वरीयताके क् रम मे दस
यज्ञ की रहस्यमय व्याख्या की गयी है और मन्त्रों पर भाष्य भी दिया गया है । इनकी भाषा
वै दिक सं स्कृत है । हर वे द का एक या एक से अधिक  ब्राह्मण ग्रन्थ है  (हर वेद की अपनी अलग
अलग शाखा है )। आज विभिन्न वे द सम्बद्ध ये ही ब्राह्मण उपलब्ध हैं  :-

ऋग्वे द :

ऐतरे य ब्राह्मण -(शैशिरीय शाकल शाखा ) 


कौषीतकि -(या शांखायन)  ब्राह्मण (बाष्कल शाखा)

सामवे द :

प्रौढ (या पंचविंश)  ब्राह्मण 
षडविं श ब्राह्मण 
आर्षेय ब्राह्मण 
मन्त्र (या छांदोग्य )  ब्राह्मण 
जै मिनीय (या तवलकार )  ब्राह्मण

यजु र्वे द
शु क्ल यजु र्वे द :

शतपथ ब्राह्मण -(माध्यन्दिनीय वाजसनेयि शाखा) 


शतपथ ब्राह्मण -(काण्व वाजसनेयि शाखा)

कृष्ण यजु र्वे द :

तै त्तिरीय ब्राह्मण 
मै तर् ायणी ब्राह्मण 
कठ ब्राह्मण 
कपिष्ठल ब्राह्मण

अथर्ववे द :

गोपथ ब्राह्मण (पिप्पलाद शाखा)

आरण्यक

आरण्यकों की स्थिति ब्राह्मण एवं उपनिषदों के बीच की होने के कारण इनके भीतर कर्मकांड और
दर्शन दोनों का मिश्रण है . हर वे द का एक या अधिक आरण्यक होता है । अथर्ववे द का कोई आरण्यक
उपलब्ध नहीं है । आरण्यकों का वे दानु सार परिचय इस प्रकार है  -

ऋग्वे द

ऐतरे य आरण्यक 
कौषीतकि आरण्यक या शांखायन आरण्यक

सामवे द 
तवलकार (या जैमिनीयोपनिषद्) आरण्यक 
छान्दोग्य आरण्यक

यजु र्वे द

शु क्ल

वृ हदारण्यक

कृष्ण

तै त्तिरीय आरण्यक 
मै तर् ायणी आरण्यक

अथर्ववे द
( कोई उपलब्ध नहीं )

यद्यपि अथर्ववे द का पृ थक् से कोई आरण्यक प्राप्त नहीं होता है , तथापि उसके गोपथ  ब्राह्मण में
आरण्यकों के अनु रूप बहुत सी सामग्री मिलती है ।

उपनिषद्

उपनिषद् वे दों के दार्शनिक विवे चन करने वाले ग्रंथ है  . वे दों का अं तिम भाग होने कारण में वे दांत भी
कहा जाता है ।

मु क्तिकोपनिषद में उल्लिखित सूची को मानते हुए सामान्य परं परा के अनु सार इनकी सं ख्या 108 मानी
जाती है , किंतु कालांतर में अन्यान्य उपनिषद् भी बनते और जु ड़ते गए । अब तक ज्ञात उपनिषदो की
सं ख्या 220 है ः-

१०८ उपनिषद् एवं उनका वर्गीकरण

१०८ उपनिषदों को निम्नलिखित श्रेणियों में विभाजित किया जाता है  -

 (१) ऋग्वे दीय -- १० उपनिषद्


 (२) शु क्ल यजु र्वेदीय -- १९ उपनिषद्
 (३) कृष्ण यजु र्वेदीय -- ३२ उपनिषद्
 (४) सामवे दीय -- १६ उपनिषद्
 (५) अथर्ववे दीय -- ३१ उपनिषद्

कुल -- १०८ उपनिषद्

मु ख्य उपनिषद्

प्रतिपाद्य विषय तथा महत्ता की दृष्टि से

विषय की गम्भीरता तथा विवे चन की विशदता के कारण १३ उपनिषद् विशे ष मान्य तथा प्राचीन माने
जाते हैं । 
जगद्गुरु आदि शं कराचार्य ने १० पर अपना भाष्य दिया है -

(१) ईश, (२) ऐतरे य (३) कठ (४) केन (५) छांदोग्य (६) प्रश्न (७) तै त्तिरीय (८) बृ हदारण्यक (९) मांडूक्य
और (१०) मुं डक।

उन्होने निम्न तीन को प्रमाण कोटि में रखा है -

(१) श्वे ताश्वतर (२) कौषीतकि तथा (३) मै तर् ायणी।

अन्य उपनिषद् तत्तद् दे वता विषयक होने के कारण 'तां त्रिक' माने जाते हैं । ऐसे उपनिषदों में शै व,
शाक्त, वै ष्णव तथा योग विषयक उपनिषदों की प्रधान गणना है ।
वे दों के अनु सार 13 उपनिषदों को निम्नलिखित रूपों में विभाजित किया जाता है -

वे द सम्बन्धित उपनिषद

1- ऋग्वे द ऐतरे योपनिषद


2- यजु र्वेद बृ हदारण्यकोपनिषद
3- शु क्ल यजु र्वेद ईशावास्योपनिषद
4- कृष्ण यजु र्वेद तै त्तिरीयोपनिषद, कठोपनिषद, श्वे ताश्वतरोपनिषद, मै तर् ायणी उपनिषद
5- सामवे द वाष्कल उपनिषद, छान्दोग्य उपनिषद, केनोपनिषद
6- अथर्ववे द माण्डूक्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मु ण्डकोपनिषद

लेखन विधा की दृष्टि से

विचारकों (डॉ॰ डासन, डॉ॰ बे ल्वे कर तथा रानडे ) ने उपनिषदों का विभाजन ले खन विधा की दृष्टि से
इस प्रकार किया है  :

१. गद्यात्मक उपनिषद्

१. ऐतरे य, २. केन, ३. छांदोग्य, ४. तै त्तिरीय, ५. बृ हदारण्यक तथा ६. कौषीतकि;


इनका गद्य ब्राह्मणों के गद्य के समान सरल, लघु काय तथा प्राचीन है ।

२.पद्यात्मक उपनिषद्

१.ईश, २.कठ, ३. श्वे ताश्वतर तथा नारायण


इनका पद्य वै दिक मं तर् ों के अनु रूप सरल, प्राचीन तथा सु बोध है ।

३. अवांतर गद्योपनिषद्

१.प्रश्न, २.मै तर् ी (मै तर् ायणी) तथा ३.मांडूक्य ४ .आथर्वण (अर्थात ् कर्मकाण्डी) उपनिषद् 
अन्य अवांतरकालीन उपनिषदों की गणना इस श्रेणी में की जाती है ।

भाषा तथा उपनिषदों के विकास क् रम के आधार पर

भाषा तथा उपनिषदों के विकास क् रम की दृष्टि से डॉ॰ डासन ने उनका विभाजन चार स्तर में किया
है  :

प्राचीनतम 
१. ईश, २. ऐतरे य, ३. छांदोग्य, ४. प्रश्न, ५. तै त्तिरीय, ६. बृ हदारण्यक, ७. मांडूक्य और ८. मुं डक

प्राचीन 
१. कठ, २. केन
अवांतरकालीन

(१) कौषीतकि, २. मै तर् ी (मै तर् ाणयी) तथा ३. श्वे ताश्वतर

नवीन

अन्य सभी

वे दांग 

वे दां ग वे दों के अध्ययन में सहायक विषयों और उनसे सं बंधित ग्रंथों को कहा जाता है  
परं परागत रुप से शिक्षा, कल्प, व्याकरण, ज्योतिष, छन्द और निरूक्त - ये छ: वेदांग है ।

शिक्षा - इसमें वे द मन्त्रों के उच्चारण करने की विधि बताई गई है ।

कल्प - वे दों के किस मन्त्र का प्रयोग किस कर्म में करना चाहिये , इसका कथन किया गया है । इसकी
तीन शाखायें हैं  -  श्रौतसूतर् , गृ ह्यसूतर्  और धर्मसूतर् ।

व्याकरण - इससे प्रकृति और प्रत्यय आदि के योग से शब्दों की सिद्धि और उदात्त, अनु दात्त तथा
स्वरित स्वरों की स्थिति का बोध होता है ।

निरुक्त - वे दों में जिन शब्दों का प्रयोग जिन -जिन अर्थों में किया गया है  , उनके उन -उन अर्थों
का निश्चयात्मक रूप से उल्लेख निरूक्त में  किया गया है ।

ज्योतिष - इससे वै दिक यज्ञों और अनु ष्ठानों का समय ज्ञात होता है । यहाँ ज्योतिष से मतलब `वे दां ग
ज्योतिष´ से है ।

छन्द - वे दों में प्रयु क्त छन्दों की रचना का ज्ञान छन्दशास्त्र से होता है ।

वे दों के उपवे द-

परं परा अनु सार वे दों से निकली हुयी शाखाओं रूपी वे द ज्ञान को उपवे द कहते हैं । ये मूलतः ज्ञान और
कौशल की वे तत्कालीन विधाएँ हैं , जो उस समय आवश्यक या लोकप्रिय थीं । सं स्कृति उन्हें वे द
प्रसूत ही मानती है । ये चार वे द (ऋग्वे द, सामवे द, यजु र्वेद तथा अथर्ववे द) अनु सार अलग-अलग हैं -

ऋग्वे द का धनु र्वे द 


सामवे द का गंधर्ववे द
अथर्ववे द का आयु र्वे द
यजु र्वे द का शिल्पवे द या स्थापत्यवे द
ऋग्वे द
प्रकृति और महत्वः
ऋग्वे द मानव ज्ञान का सबसे प्राचीन सं कलन है । यह सं हिता (सं गर् ह) अपनी प्रकृति में अद्वितीय है । वास्तव में , यह एक
पु स्तक नहीं है , अपितु अने क पु स्तकों से बना एक सं कलन है , जिसे व्यक्तिगत रूप से एक-दस ू रे से पृ थक् किया जा सकता है ।
इस सं हिता का वर्तमान स्वरूप स्पष्ट रूप से इं गित करता है कि सं गर् ह एक कार्य नहीं है , परन्तु पु राने और बाद के तत्व भी
शामिल हैं जो इसकी भाषा, शै ली और विचारों के विभिन्न रूप इस बात को प्रमाणित करते हैं । इस सं हिता के विभिन्न
मं तर् ों की रचना उन्हें व्यवस्थित रूप में किए जाने से बहुत समय पहले हुआ था।
ऋग्वे द भारत की सबसे प्राचीनतम पवित्र पु स्तक का प्रतिनिधित्व करता है । यह चारों वे दों में सबसे प्राचीन और सबसे
बड़ा है । इस वे द में ही वै दिक सं स्कृति एवं काव्य की सभी विशे षताओं का ज्ञान हैं । इसमें हमें भारत के धार्मिक और दार्शनिक
विकास के बीज मिलते हैं । इस प्रकार कविता, धार्मिक और दार्शनिक महत्व दोनों के लिए, ऋग्वे द का अध्ययन उस व्यक्ति
द्वारा किया जाना चाहिए जो भारतीय साहित्य और आध्यात्मिक सं स्कृति को समझना चाहता है । ऋग्वे द का मूल्य आज
भारत तक ही सीमित नहीं है , इसकी उत्तम सं रक्षित भाषा और पौराणिक कथाओं के कारण समस्त विश्व की भाषाओं,
साहित्य और सं स्कृतियों को भलीभाँ ति समझने में सहायता करता है ।
2. रचना और विभागः
सं पर्ण
ू ऋग्वे द-सं हिता श्लोक के रूप में है , जिसे ऋक् के रूप में जाना जाता है , जिसका मूलभाव “प्रशं सा” करना है । ‘ऋक् ’
उन मं तर् ों को दिया गया नाम है जो दे वताओं की प्रशं सा के लिए प्रयोग किया जाता हैं । इस प्रकार ऋक् का सं गर् ह
(सं हिता) ऋग्वे द-सं हिता के रूप में जाना जाता है । ऋग्वे द की केवल एक शाखा सामान्य रूप से उपलब्ध है । और वह है
शाकल सं हिता। ऋग्वे द सं हिता में 10552 मं तर् हैं , जिन्हें मण्डल नामक दस पु स्तकों में वर्गीकृत किया गया है । प्रत्ये क
मण्डल को कई वर्गों में विभाजित किया जाता है जिन्हें अनु वाक कहा जाता है । प्रत्ये क अनु वाक में सूक्त नामक कई मं तर्
होते हैं और प्रत्ये क सूक्त कई पदों से बना होता है जिसे ऋक् कहते हैं । ऋग्वे द का यह मं डल सबसे लोकप्रिय और
व्यवस्थित है , यह अष्टक पद्धति भी है , जो ऋग्वे द की विषय वस्तु को विभाजित करती है ,परन्तु आज यह वे द के छात्रों में
असामान्य है ।
सूक्त मं तर् ों का समूह है । किसी सूक्त में मं तर् ों की सं ख्या निश्चित नहीं है । अमु क सूक्तों में मं तर् ों की सं ख्या कम है एवं
अन्य अमु क में बड़ी सं ख्या में मं तर् हैं । यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रत्ये क ऋग्वे द सं हिता का एक दृष्टा (ऋषि) एक
दे वता औरएक छं द होता है । प्रायः यह पूरे सूक्त के लिए सामान्य है । ऋग्वे द की सं हिता में 10 मं डल, 85 अनु वाक, 1028
सूक्त और 10552 मं तर् हैं । अधिकां शतः पर ऋग्वे द के मं तर् ों के सं दर्भ में अनु वाक का उल्ले ख नहीं है । उदाहरण के लिए
ऋग्वे द, 3.16.7 का अर्थ ऋग्वे द के तीसरे मं डल के सोलहवें सूक्त के सातवें मं तर् से है ।
इस तालिका के द्वारा हम मं डल के विभाजन, प्रत्ये क मं डल में सूक्तों की सं ख्या और मं तर् मं डलों के ऋषियों के नाम जान
सकते हैं ।
मंडल सूक्त मंत्र ऋषियो के नाम

01 191 2006 मधुच्छन्द मेधातिथि गौतम

02 43 429 गत्ृ समद और उनके परिजन

03 62 617 विश्वामित्र और उनके परिजन

04 58 589 वामदे व और उनके परिजन

05 87 727 अत्रि और उनके परिजन

06 75 765 भारद्वाज और उनके परिजन

07 104 841 वशिष्ठ और उनके परिजन

08 103 1716 कण्व, अंगीर और उनके परिजन

09 114 1108 सोम दे वता किन्तु विभिन्न ऋषि


10 191 1754 विमदा, इन्द्र शची और मान्यो

3. कुछ महत्वपूर्ण सूक्त


ऋग्वे द शाकल सं हिता के 1082 सूक्तों में से निम्न सूक्त प्रसिद्ध है ः-
1. पु रुष सूक्त
2. हिरण्य-गर्भ सूक्त
3. धन-अन्न-दान सूक्त
4. अक्ष सूक्त
5. नासदीय सूक्त
6. दुःश्वप्न-नाशन सूक्त
7. यम-यमीसं वाद सूक्त
इसके अतिरिक्त, विभिन्न दे वताओं, जै से इन्द्र, मरुत, वरुण, उषा, सूर्य, भूमि, सोम, अग्नि आदि को अर्पित किए गए सूक्त
हैं । इस प्रकार हम ऋग्वे द की विषयवस्तु के बारे में सं क्षेप में कह सकते हैं कि इसमें विभिन्न विषय हैं , जो वै दिक दृष्टाओं
द्वारा काव्यात्मक, दार्शनिक या धार्मिक रूप से प्रस्तु त किये गए हैं ।

यजुर्वेद – संहिता

1. प्रकृति और महत्व
यजु र्वे द अपने विषयवस्तु के अनु सार ऋग्वे द और सामवे द से विशे ष रूप से भिन्न है । यह मु ख्यतः गद्य रूप में है । यजु र्वे द में
‘यजु ः’ शब्द को विभिन्न रूप से समझाया गया है । परन्तु इसकी एक परिभाषा कहती है -
गद्यात्मको यजु ः
‘यजु ः’ वह है जो गद्य रूप में है , एक अन्य परिभाषा के अनु सार ‘यजुर्यजते ः’ इस के यज्ञ के साथ सं बंध को व्यक्त करता है
क्योंकि दोनों शब्द मूल ‘यज्’ से व्यु त्पन्न हैं ।
यजु र्वे द स्पष्ट रूप से एक अनु ष्ठान वे द अध्वर्यु के लिए एक अनिवार्य मार्गदर्शक है , जिस से यज्ञ में व्यावहारिक रूप से सभी
कर्मकाण्डों को करने में सक्षम होता है । जिन के कार्य यज्ञ के लिए एकवे दी (भूखंड के चयन) से ले कर पवित्र अग्नि को
आहुति प्रदान करने तक जिस प्रकार सामवे द-सं हिता में उद्गाता-पु जारी की गीत-पु स्तक है , उसी प्रकार यजु र्वे द-सं हिता
अधवर्यु  के लिए प्रार्थना-पु स्तक हैं । यह पूरी तरह से यज्ञ के अनु ष्ठानों के उद्दे श्यों के लिए है ।
यजु र्वे द भी दार्शनिक सिद्धांतों की प्रस्तु ति के लिए महत्वपूर्ण है । यह प्राण और मन की अवधारणा का प्रचार करता है । यह
वे द वै दिक लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन को रे खां कित करता है साथ ही यह भौगोलिक तथ्य दे ने में भी प्रयु क्त
किया जाता है ।
2. विभाग और संहिता
यजु र्वे द में दो विभाग हैं :
1. शु क्ल यजु र्वे द
2. कृष्ण यजु र्वे द
कृष्ण यजु र्वे द में मं तर् और ब्राह्मण के मिश्रण की विशे षता है जबकि शु क्ल यजु र्वे द दोनों के स्पष्ट भिन्नता को बनाए रखता
है । शु क्ल यजु र्वे द आदित्य- सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्ण यजु र्वे द ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है ।
 शु क्ल-यजु र्वे द सं हिता पर अपनी टिप्पणी की प्रारम्भ में , एक कहानी महिधर द्वारा यजु र्वे द के दो-विभाजित खण्डों के बारे में
दी गई है । ऋषि वै शम्पायन ने ऋषि याज्ञवल्क्य और अन्य विद्यार्थियों को यजु र्वे द पढ़ाया। एक बार वै शम्पायन याज्ञवल्क्य
से क् रोधित होकर ऋषियाज्ञवल्क्यको तब तक पढाया हुआ यजु र्वे दज्ञान को त्यागने का आदे श दिया। तत्पश्चात याज्ञवल्क्य
ने सूर्य दे व से प्रार्थना की, जो अश्व के रूप में उनके समक्ष आए (अर्थात वाजी) और उन्हें पु नःवे द का उपदे श दिया। इसलिए
इस यजु र्वे द को वाजसने यी नाम भी दिया गया।
वर्त्तमान में यजु र्वे द की निम्न सं हिताएं उपलब्ध है ः-
शु क्ल यजु र्वे द
1.   माध्यन्दिन सं हिता
2.   कण्व सं हिता
कृष्ण यजु र्वे द
1.   तै त्तरीयसं हिता
2.   मै तर् ायणी सं हिता
3.   कठक सं हिता
4.   कपिस्थल सं हिता
3. विषयवस्तु
हमें यजु र्वे द की सं हिता में यज्ञों का विस्तृ त वर्णन मिलता है । वाजसने यी-सं हिता में कई महत्वपूर्ण यज्ञों का बृ हद वर्णन
मिलता है , जै से दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, सोमयाग, चातु र्मास्य, अग्निहोत्र, वाजपे य, अश्वमे ध, सर्वमे ध, ब्रह्म-यज्ञ,
पितृ मेध, सौत्रामणी, आदि। सामान्य विचार के लिए विषय वस्तु को तीन खं डों में विभाजित किया जा सकता है । प्रथम
खण्ड में दर्शपूर्णमास, द्वितीय खं ड में सोमयाग और तृ तीय खं ड में अग्निचयन शामिल हैं । वाजसने यी-सं हिता के अं तिम
खण्ड में प्रसिद्ध ईशावास्य-उपनिषद हैं । यह जानना आवश्यक है कि वाजसने यी- सं हिता के प्रथम अठारह मन्त्र पूर्ण रूप
से शु क्ल यजु र्वे द के शतपथ ब्राह्मण में अर्थानिहित है । इस बिन्दु के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि इस सं हिता के
अं तिम खण्ड पश्चात् काल खण्ड का हैं ।
सामवे द – संहिता
1. प्रकृति और महत्व
सामवे द चारों वे दों में सबसे छोटा है । यह ऋग्वे द से निकटता से जु ड़ा हुआ है । यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सामवे द की
सं हिता एक स्वतं तर् सं गर् ह (सं हिता) नहीं है , अपितु ऋग्वे द की सं हिता से लिया गया है । ये छन्द मु ख्य रूप से ऋग्वे द के
आठवें और नौवें मण्डल से लिए गए हैं । सामवे द को अनु ष्ठान के लिए विशे ष रूप से सं कलित किया गया है , इसके सभी
छन्द सोम-यज्ञ के अनु ष्ठान और उससे प्राप्त प्रक्रियाओं के विषय है । इसलिए, सामवे द उद्गात्र पु रोहित के लिए विशे ष
रूप से अभिप्रेत है । गान नामक गीत पु स्तिका में मन्त्र अथवा सामन् पूर्ण रूप से सं गीत रूप धारण कर ले ते है । जै मिनी
सूतर् के अनु सार-गीतकको सामन् कहा जाता है । परम्परा अनु सार वे दों को ‘त्रयी’ कहा जाता है , मं तर् ों के तीन भाग होते है -
ऋक् = पद, यजु ः = गद्य, सामन् = गान।
चारों वे दों में सामवे द को सबसे अग्रणी माना जाता है । भगवद्गीता में , जहां भगवान कृष्ण ने “वे दों में मैं सामवे द हं ”ू का
उल्ले ख किया है । -वे दानां सामवे दोस्मि (गीता, 10.22) यहाँ इन्द्र, अग्नि और सोम दे वताओं का मु ख्य रूप से आह्वान एवं
प्रशं सा की जाती है , परन्तु मूल रुपसे यह  सारी प्रार्थनाएँ परमब्रह्म के आवाह्न के लिए ही है । आध्यात्मिक अर्थो में , सोम
सर्वव्यापी, प्रतापी दे वता  और ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करता है , जो केवल भक्ति और सं गीतमय मन्त्र के माध्यम से प्राप्य
है । इस प्रकार सामवे द का प्रमु ख विषय आराधना और भक्ति (उपासना) माना जा सकता है ।
2. रचना और विभाजन
सामन् शब्द का अर्थ है ‘जप’ या ‘गीतक’और इसके छन्द बद्ध मन्त्र  सं गीत मे परिवर्तित हुए हैं , जो सम्पूर्ण सामवे द सं हिता
को दर्शाता है । जै मिनी सूतर् के अनु सार-गीतक को सामन् कहा जाता है ।
गितिषु सामाख्या
सामवे द ऋक् पर आधारित गीतों और मं तर् ों का वे द है । माधु र्य का तत्व ही सामवे द की प्रमु ख विशे षता है । यास्क ने शब्द
सामन्’ की व्यु त्पत्ति सम + म दी है , जिसका अर्थ है कि ऋक् का सामं जस्यपूर्ण उन्मित करना। प्राचीन परं परा के अनु सार,
पतं जलि द्वारा कहा गया था, सामवे द में 1000 शाखाएँ थी। ले किन वर्तमान में केवल तीन शाखाएँ हैं । ये हैं –

1. कौथु मा
2.  जै मिनीय
3. राणायनीय।

वर्तमान काल में कौथु मीय शाखा ही प्रचलित है । सामवे द- कौथु म शाखा में   सामवे द सं हिता दो भागों में शामिल हैं –
पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक। प्रथम भाग में चार भाग हैं :
1. आग्ने य – अग्नि के 114 छन्द
2. ऐन्द्र – इं दर् के 352 छन्द
3. पवमान – पवमान के 119 छन्द
4. आरण्य- इन्द्र, अग्नि, सोमा आदि के लिए 55 छन्द
(महानाम्नी मं तर् -10) इस भाग में 650 छन्दहैं ।
सामवे द-सं हिता के दस ू रे भाग उत्तरार्चिक में कुल 1225 छं द हैं । अतः सामवे द-सं हिता में कुल छं दों की सं ख्या 1875 है । इनमें
से 1771 छन्द ऋग्वे द से हैं , इस सं हिता के केवल 99 छन्द ऋग्वे द-सं हिता में नहीं पाए जाते हैं और इसे सामान्यतः सामवे द
के ही माने जाते हैं ।

अथर्ववे द – संहिता
1. प्रकृति और महत्व
अथर्वन् का वे द अथर्ववे द कहा जाता है । अथर्ववे द में दुःखों और कठिनाइयों से मु क्ति पाने का निर्दे श के साथ-साथ
आध्यात्मिक चिन्तनों का वर्णन मिलता है । अथर्वन् का अर्थ आराधक है । इसप्रकार आराधक के रुप में ऋषि-अथर्व द्वारा
अथर्ववे द-सं हिता के मं तर् प्रकाश में लाये गए है ।
निरुक्त की व्यु त्पत्ति के अनु सार, अथर्व एक स्थिर दिमाग वाले व्यक्ति को दिया गया नाम है , जो अति दृढ़ है अर्थात योगी।
यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य रचनाओं में इस वे द को अथर्वाङ्गिरसःवे द से सम्बोधित किया गया है । यह अथर्व और
अङ्गिरसः का ‘वे द’ है । अङ्गिरसः भी एक भिन्न समूह के शाखाकार थे । पतं जलि के अनु सार, अथर्ववे द में नौ शाखाएँ थीं,
अपितु अथर्ववे द की सं हिता आज केवल दो शाखाओं में उपलब्ध है – शौनक और पिप्पलाद | जो प्राचीन और आधु निक
साहित्य में अथर्ववे द का उल्ले ख हुआ है वह वस्तु तः शौनक-सं हिता ही है । यह 730 स्तोत्रों का सं गर् ह है , जिसमें 5987
मं तर् हैं , जिन्हें 20 काण्डों में विभाजित किया गया है । 1200 छं द ऋग्वे द से लिए गए हैं । अथर्ववे द के पाठ का एक छठाभाग,
जिसमें दो पूरी किताबें (15 और 16) शामिल हैं , गद्य में , ब्राह्मणों की शै ली और भाषा के समान है , शे ष पाठ काव्यात्मक
छन्दों में है । परम्परा के अनु सार इस वे द का परिचय ब्रह्म ऋत्विक् से होना चाहिए, जो यज्ञों के पर्यवे क्षक थे । यज्ञ अनु ष्ठान
में यद्यपि वे तीनों वे दों को जानने वाले थे अपितु सामान्यतः वे अथर्ववे द का प्रतिनिधित्व करते थे । उनके सं ग के कारण ही
अथर्ववे द को ब्रह्मवे द भी कहा जाता है , जो ब्रह्म का वे द है ।
अथर्ववे द भारतीय चिकित्सा का सबसे प्राचीन साहित्यिक स्मारक है । इसे भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयु र्वे द) का मूल
स्रोत माना जाता है । विभिन्न शारीरिक और मानसिक रोगों को ठीक करने से सम्बन्धित मं तर् ों की एक श्रख ृं ला है । मं तर् ों
के एक अन्य वर्ग में सांपों के काटने या चोट लगने वाले कीड़ों से सु रक्षा के लिए प्रार्थना भी शामिल है । इसमें औषधी और
भै षज्य वनस्पति का उल्ले ख और उपयोग मिलता हैं । यह अथर्ववे द विशे षता को शे ष वे दों से भिन्न करती है ।
इस सं हिता के दार्शनिक खण्ड पराभौतिक विचारों के उच्चतम उन्नतिको दर्शाता हैं । इस सिद्धांत के उत्पन्न काल से ही
अने कों अने क अवधारणाओं, जै से उपनिषदों में पाये गये जगत के निर्माता और सं रक्षक (प्रजापति) से जु ड़े विचार, सर्वोच्च
दे वता के विचार, अवै यक्तिक सृ जनात्मक एवं कई दार्शानिक शब्द जै से ब्राह्मण, तपस, असत्, प्राण, मनस इत्यादि से
प्रारम्भ हुआ। अतः भारतीय दार्शानिक विचारों में हुए विकास को सटीक रूप से समझने के लिए अथर्वेद में उपलब्ध
दार्शनिक विचारों को जानना अनिवार्य है ।
सांसारिक सु ख और आध्यात्मिक ज्ञान दोनों से सं बंधित रखने वाला वे द एकमात्र अथर्वेद है । सांसारिक एवं सं सार से परे इन
दोनों पहलु ओं को एक सूतर् में पिरोने का सामर्थ्य इस वे द में होने के कारण वै दिक भाष्यकार सायन ने इसकी प्रशं सा की है ।
इस प्रकार, यह वै दिक साहित्य के एक सामान्य पाठकों के लिए एक मनोहर पाठ की भाँ ति प्रतीत होता है ।
2. विषयवस्तु
अथर्वे द को विविध ज्ञान के वे दों के रूप में दे खा जाता है । इसमें कई मं तर् शामिल हैं , जो उनके विषय-वस्तु के अनु सार,
मु ख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किए जाते हैं :
1. रोगों के उपचार और प्रतिकू ल शक्तियों के विनाश से सं बंधित।
2. शां ति, सु रक्षा, स्वास्थ्य, धन, मित्रता और दीर्घायु की स्थापना से सं बंधित।
3. परमार्थ की प्रकृति, समय, मृ त्यु और अमरता से सं बंधित है । 
ब्लूमफील्ड ने अथर्वे द के विषय को कई श्रेणियों में विभाजित किया है , जै से कि भै षज्य, पौस्टिक, प्रायश्चित्त, राजकर्मा,
स्त्रिकर्म, दर्शना, कुंताप आदि। यहाँ अथर्ववे द के अमु क महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध सूक्तों को सूचीबद्ध किया गया है ।

1. भूमि-सूक्त (12.1)
2. ब्रह्मचर्य-सूक्त (11.5)
3. काल-सूक्त (11.53, 54)
4. विवाह-सूक्त (14 वां कांडा)
5. मधु विद्या-सूक्त (9.1)
6. सांमनस्य-सूक्त (3.30)
7. रोहित-सूक्त (13.1-9)
8. स्कंभ-सूक्त (10.7)

अतःअथर्वे द कई विषयों का एक विश्वकोश है । यह वै दिक लोगों के जीवन को दर्शाता है । दार्शनिक, सामाजिक, शै क्षिक,
राजनीतिक, कृषि, वै ज्ञानिक और चिकित्सा विषयों से सं बंधित उनके विचार इस सं हिता में वर्णित हैं । अं ततः, हम कह सकते हैं
कि वे द सं हिता अपनी प्रकृति, रूप और विषयवस्तु के लिए उपयोगी माना जाता है । यह वै दिक साहित्य का मु ख्य भाग है
जिसमें पाँच प्रसिद्ध सं हितायें उपस्थित हैं ।

अथर्ववे द का अर्थ
‘अथर्व’ शब्द का अर्थ है अकुटिलता तथा अं हिसा वृ त्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यिक्ता। इस व्यु त्पत्ति की
पु ष्टि में योग के प्रतिपादक अने क प्रसं ग स्वयं इस वे द में मिलते है । होता वे द आदि नामों की तु लना पर ब्रह्मकर्म के
प्रतिपादक होने से अथर्ववे द ‘ब्रह्मवे द’ कहलाता है ब्रह्मवे द नाम का यही मु ख्य कारण है । 
अथर्ववे द का स्वरूप
अथर्ववे द के स्वरूप की मीमांसा करने से पता चलता है कि यह दो धाराओं के मिश्रण का परिणतफल है । इनमें से एक है
अथर्वधारा और दस ू री है अिष्रोधारा। अथर्व द्वारा दृष्ट मन्त्र शान्ति पु ष्टि कर्म से सम्बद्ध है । इसका सं केत भागवत 3/24/24
में भी उपलब्ध होता है ।

अथर्ववे द की शाखाएं
अथर्ववे दीय कौशिक सूतर् के दारिल भाष्य में इने त्रिविध सं हिताओं के नाम तथा स्वरूप का परिचय दिया गया हैं इन
सं हिताओं के नाम है  
1. आष्र् ाी सं हिता 
2. आचार्य सं हिता
3. विधि प्रयोग सं हिता। 
इन तीनों सं हिताओं में ऋषियों के द्वारा परम्परागत प्राप्त मन्त्रों के सं कलन होने से इस सं हिता कहा जाता है । अथर्ववे द
का आजकल जो विभाजन काण्ड, सूक्त तथा मन्त्र रूप में प्रकाशित हुआ है इसी शौनकीय सं हिता को ही ऋषि-सं हिता
ू री सं हिता का नाम आचार्य सं हिता है जिसका विवरण दारिलभाष्य में इस प्रकार पाया जाता है । 
कहते है । दस

अथर्व में विज्ञान


अथर्ववे द के भीतर आयु र्वे द के सिद्धान्त तथा व्यवहार की अने क महनीय जिज्ञास्या बातें भरी हुई हैं , जिनके अनु शीलन से
आयु र्वे द की प्राचीनता, प्रामाणिकता तथा व्यापकता का पूरा परिचय हमें मिलता है । रोग, शारीरिक प्रतीकार तथा औषध
के विषय में अने क उपयोगी एवं वै ज्ञानिक तथ्यों की उपलब्धि अथर्ववे द की आयु र्वे दिक विशिष्टता बतलाने के लिये पर्याप्त
मानी जा सकती है । 

अने क भौतिक विज्ञानों के तथ्य भी यहाँ यत्र-तत्र बिखरे मिलते हैं । उन्हें पहचानने तथा मूल्यांकन करने के लिए वे दज्ञ होने
के अतिरिक्त विज्ञानवे त्ता होना भी नितान्त आवश्यक है । एक दो पदों या मन्त्रों में निगूढ़ वै ज्ञानिक रहस्यों का उद्घाटन
किया गया है । जिसे वै ज्ञानिक की शिक्षित तथा अभ्यस्त दृष्टि ही दे ख सकती है । एक विशिष्ट उदाहरण ही इस विषय-सं केत
के लिए पर्याप्त होगा। अथर्ववे द के पच्चम काण्ड के पच्चम सूक्त में लाक्षा (लाख) का वर्णन है , जो वै ज्ञानिकों की दृष्टि में
नितान्त प्रामाणिक तथ्यपूर्ण तथा उपादे य है । आजकल राँची (बिहाार) में भारत सरकार की ओर से ‘लाख’ के उत्पादन तथा
व्यावहारिक उपयोग के विषय में एक अन्वे षण-सं स्था कार्य कर रही है । उसकी नवीन वै ज्ञानिक खोजों के साथ इस सूक्त में
उल्लिखित तथ्यों की तु लना करने पर किसी भी निष्पक्ष वै ज्ञानिक को आश्चर्य हुए बिना नहीं रह सकता। आधु निक विज्ञान के
द्वारा समर्पित और पु ष्ट की गई सूक्त-निर्दिष्ट बातें सं क्षेप में ये हैं -
1. लाह (लाख, लाक्षा) किसी वृ क्ष का निस्यन्द नहीं है , प्रत्यु त उसे उत्पन्न करने का श्रेय कीट-विशे ष को (मु ख्यतया
स्त्री-कीट को) हैं । वह कीट यहाँ ‘शिलाची’ नाम से व्यवहृत किया गया है । उसका पे ट लाल रष् का होता है और
इसी से वह स्त्री (कीट) सं खिया खाने वाली मानी गयी हैं यह कीट अश्र्वस्य, न्यग्रोध, घव, खदिर आदि वृ क्षों पर
विशे षत: रह कर लाक्षा को प्रस्तु त करता है 4/5/5। 
2. स्त्री कीट के बड़े होने पर अण्डा दे ने से पहिले उसका शरीर क्षीण हो जाता है और उसके कोष में पीलापन विशे षत:
आ जाता है । इसीलिए यह कीट यहाँ ‘हरिण्यवर्णा’ तथा ‘सूर्यवर्णा’ कही गई है (5/5/6)। इसके शरीर के ऊपर रोंये
अधिक होते है । इसीलिए यह ‘लोमश वक्षणा’ कही गई हैं लाह की उत्पत्ति विशे ष रूप से वर्षा काल की अँ धेरी रातों
में होती है और इसी लिए इस सूक्त में रात्रि माता तथा आकाश पिता बतलाया है (1/5/1)। 
3. कीड़े दो प्रकार के होते हैं -(क) सरा = रें गने वाले ; (ख) पतत्रिणी = पं खयु क्त, उड़ने वाले (पु रुष कीट)। शरा नामक
(स्त्री) कीड़े वृ क्षों तथा पौधों पर रें गते हं ै और इससे वे ‘स्परणी’ कहलाते हैं ।
सामवे द क्या है ? सामवे द की शाखाएं
अथर्ववे द के अने क स्थलों पर साम की विशिष्ट स्तु ति ही नहीं की गई है , प्रत्यु त परमात्मभूत ‘उच्छिष्ट’ (परब्रह्म) तथा ‘स्कम्भ’ से

ू रे
इसके आविर्भाव का भी उल्ले ख किया गया मिलता है । एक ऋषि पूछ रहा है जिस स्कम्भ के साम लोभ हैं वह स्कम्भ कौन सा है ? दस
मन्त्र में ऋक् साथ साम का भी आविर्भाव ‘उच्छिकष्ट’ से बतलाया गया है । एक तीसरे मन्त्र में कर्म के साधनभूत ऋक् और साम की

स्तु ति का विधान किया गया है । 

इस प्रशं सा के अतिरिक्त विशिष्ट सामों के अभिधान प्राचीन वै दिक साहित्य में उपलब्ध होते है  जिससे इन सामों की प्राचीनता

नि:सं दिग्ध रूप से सिद्ध होती है । 

ऋग्वे द में वै रूप, वृ हत्, रै वत, गायत्र भद्र आदि सामों के नाम मिलते हैं । यजु र्वे द में रथन्तर, वै राज, वै खानस, वामदे व्य, शाक्व, रै वत,

अभीवर्त तथा ऐतरे य ब्राह्मण में नौधस, रौरय यौधराजय, अग्निष्टोमीय आदि विशिष्ट सामों के नाम निर्दिष्ट किये गये मिलते हैं । 

इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि साम-गायन अर्वाचीन न होकर अत्यन्त प्राचीनकाल से चला आ रहा है । यहाँ तक कि ऋग्वे द के समय

में भी इन विशिष्ट गायनों का अस्तित्व स्पष्ट रूप से सिद्ध होता है ।


सामवे द का अर्थ

साम शब्द का प्रयोग दो अर्थो में किया गया मिलता है । ऋक् मन्त्रों के ऊपर गाये जाने वाले गाान ही वस्तु त: ‘साम’ शब्द के वाच्य हैं ,

परन्तु ऋक् मन्त्रों के लिए भी ‘सम’ शब्द का प्रयोग किया जाता है । साम-सं हिता का सं कलन उद्गाता नामक ऋत्विज के लिये किया

गया है , तथा यह उद्गाता दे वता के स्तु तिपरक मन्त्रों को ही आवश्यकतानु सार विविध स्वरों में गाता है । 

अत: साम का आधार ऋक् मन्त्र ही होता है यह निश्चित ही है - (ऋचि अध्यूढं साम-छाव्म्उ 01/6/1)। ऋक् और साम के इस पारस्परिक

गाढ़ सम्बन्ध को सूचित करने के लिये इन दोनों में दाम्पत्य-भाव की भी कल्पना की गई है । पति सं तानोत्पादन के लिये पत्नी को

आख्यान करते हुए कह रहा है कि मैं सामरूप पति हँ ,ू तु म ऋक् रूपा पत्नी हो; मैं आकाश हँ ू और तु म पृ थ्वी हो। अत: आवो, हम दोनों

मिलकर प्रजा का उत्पादन करें । 

गीतिषु सामाख्या’ इस जै मिनीय सूतर् के अनु सार गीति को ही ‘साम’ सं ज्ञा प्रदान की गई है । छान्दोग्य उपनिषद् में ‘स्वर’ साम का

स्वरूप बतलाया है । अत: निश्चित है कि ‘साम’ शब्द से हमें उन गानों को समझना चाहिये जो भिन्न-भिन्न स्वरों में ऋचाओं पर गाये

जाते है ।

‘साम’ शब्द की एक बड़ी सु न्दर निरुक्ति बृ हदारण्यक उपनिषद् में दी गई है -’’सा च अमश्चे ति तत्साम्न: सामत्वम्’’-वृ हव्म्उ 01/3/22।

‘सा’ शब्द का अर्थ है ऋक् और ‘अम’ शब्द का अर्थ है गान्धार आदि स्वर। अत: ‘सम’ शब्द का व्यु त्पत्तिलभ्य अर्थ हुआ ऋक् के साथ

सम्बद्ध स्वरप्रधान गायन-’’तया सह सम्बद्ध: अमो नाम स्वर: यत्र वर्तते तत्साम।’’ जिन ऋचाओं के ऊपर ये साम गाये जाते हैं उनको

वै दिक लोग ‘साम-योनि’ नाम से पु कराते है । 

यहाँ यह स्मरण रखना चाहिये कि जिस साम-सं हिता का वर्णन किया जा रहा है वह इन्हीं सामयोनि ऋचाओं का सं गर् हमात्र है , अर्थात्

साम-सं हिता मे कं केवल सामौपयोगी ऋचाओं का ही सं कलन है , उन गायनों का नहीं, जो साम के मु ख्य वाच्य हैं । ये साम ‘गान-सं हिता’

में सं कलित किये गये है ।

सामवे द का स्वरूप 
सामवे द के दो प्रधान भाग होते है -आर्चिक तथा गान। आर्चिक का शाब्दिक अर्थ है ऋक् -समूह जिसके दो भाग हैं -पूर्वाचिक तथा

उत्तरार्चिक। पूर्वाचिक में 6 प्रपाठक या अध्याय है । प्रत्ये क प्रपाठक में दो अर्ध या खण्ड है और प्रत्ये क में एक ‘दशति’ और हर एक

‘दशति’ में ऋचायें है । ‘दशति’ शब्द से प्रतीत होता है कि इनमें ऋचाओं की सं ख्या दश होनी चाहिए, परन्तु किसी खण्ड में यह दस से

कम है और कहीं दस से अधिक। दशतियों में ं मन्त्रों का सं कलन छन्द तथा दे वता की एकता पर निर्भर है । 

ऋग्वे द के भिन्न-भिनन मण्डलों के भिन्न-भिन्न ऋषियों के द्वारा दृष्ट भी ऋचायें एक दे वता-वाचक होने से यहाँ एकत्र सं कलित की गई

है । प्रथम प्रपाठक को आग्ने य काण्ड (या पर्व) कहते हैं , क्योंकि इसमें अग्नि-विषयक ऋग् मन्त्रों का समवाय उपस्थित किया गया है ।

द्वितीय से ले कर चतु र्थ अध्याय तक इन्द्र की स्तु ति होने से ‘ऐन्द्र-पर्व’ कहलाता है । पं च्चम अध्याय को ‘पवमान पर्व’ कहते हैं , क्योंकि

यहाँ सोम-विषयक ऋचायें सं गृहीत हैं , जो पूरी की पूरी ऋग्वे द के नवम् (पवमान) मण्डल से उद्धत
ृ की गई है । 

षष्ठ प्रगाठक को ‘आरण्यक पर्व’ की सं ज्ञा दी गई है ; क्योंकि दे वताओं तथा छन्दों की विभिन्नता होने पर भी इनमें गान-विषयक एकता

विद्यमान है । प्रथम से ले कर पं च्चमाध्याय तक की ऋचायें तो ‘ग्राम-गान’ कही जाती है , परन्तु षष्ठ अध्याय की ऋचायें अरण्य में ही

गाई जाती है ।

उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक है । पहले पाँच प्रपाठकों में दो-भाग है , जो ‘प्रपाठ-कार्घ कहे जाते हैं , परन्तु अन्तिम चार प्रपाठकों में तीन-

तीन अर्ध है । राणायनीय शाक्षा के अनु सार है । कौथु म शाक्षा में इन अर्ध को अध्याय तथा दशतियों को खण्ड कहने की चाल है ।

उत्तरार्चिक के समग्र मन्त्रों की सं ख्या बारह सौ पच्चाीस (1225) हैं अत: दोनों आर्चिकों की सम्मिलित मन्त्र-सं ख्या अठारह सौ

पचहत्तर (1875) है । ऊपर कहा गया है कि साम ऋचायें ऋग्वे द से सं कलित की गई है , परन्तु कुछ ऋचायें नितान्त भिन्न हैं , अर्थात्

उपलब्ध शाकल्य-सं हिता में ये ऋचायें बिलकुल नहीं मिलती। यह भी ध्यान दे ने की बात है कि पूर्वाचिक के 267 मन्त्र (लगभग

तृ तीयां श से कुछ ऊपर ऋचायें ) उत्तरार्चिक में पु नरुल्लिखित किये गये हैं । 

अत: ऋग्वे द की वस्तु त: पन्द्रह सौ चार (1504) ऋचायें ही सामवे द में उद्धत
ृ हैं । सामान्यरूपे ण 75 मन्त्र अधिक माने जाते हैं , परन्तु

वस्तु त: सं ख्या इससे अधिक है । 99 ऋचायें एकदम नवीन हैं , इनका सं कलन सम्भवत: ऋग्वे द की अन्य शाखाओं की सं हिताओं से किया

गया होगा। यह आधु निक विद्वानों की मान्यता है ।

ऋग्वे द की ऋचायें 1504 + पु नरुक्त 267 = 1771 

नवीन ‘‘ 99 + ‘‘ 5 = 1771 

सामसं हिता की सम्पूर्ण ऋ़चायें = 1675 (अठारह सौ पचहत्तर)

 ऋक् - साम के सम्बन्ध की मीमांसा 

ऋग्वे द तथा सामवे द के परस्पर सम्बन्ध की मीमांसा यहाँ अपे क्षित है । वै दिक विद्वानों की यह धारणा है कि सामवे द उपलब्ध ऋचायें

ऋग्वे द से ही गान के निमित्त गृ हीत की गई है , वे कोई स्वतन्त्र ऋचायें नहीं है । यह बद्धमूल धारणा नितान्त भ्रान्त है । इसके अने क

कारण है -

1. सामवे द की ऋचाओं में ऋग्वे द की ऋचाओं से अधिकतर आं शिक साम्य है । ऋग्वे द का ‘अग्ने युक्ष्वा हि ये तवाS श्र्वासो दे व साधव:।
अरं बहन्ति मन्यवे (6/16/43) सामवे द में ‘अग्ने यु क्ष्वा हि ये तवाश्र्वासों दे व साधव:। हरं वहन्त्याशव:’ रूप में पठित है । ऋग्वे द का

मन्त्रां श 

अपो महि व्ययति चक्षसे तमो ज्योतिष्कृणोति सूनरी’ (7/81/1) 

सामवे द में ‘अपो मही वृ णुते चक्षु षा तमो ज्योतिष् कृणोति सूनरी’ रूप धारण करता है । इस आं शिक साम्य के तथा मन्त्र में पादव्यत्यय

के अने क उदाहरण सामवे द में मिलते है । यदि ये ऋचायें ऋग्वे द से ही ली गई होती, तो वे उसी रूप में और उसी क् रम में गृ हीत होतीं,

परन्तु वस्तु स्थिति सभी नहीं है । 

2. यदि ये ऋचायें गायन के लिए ही सामवे द में सं गृहीत है , तो कवे ल उतने ही मन्त्रों का ऋग्वे द से सकलन करना चाहिए था, जितने

मन्त्र गाान या साम के लिए अपे क्षित होते । इसके विपरीत हम दे खते हैं कि सामसं हिता में लगभग 450 ऐसे मन्त्र है , जिन पर गान

नहीं है । ऐसे गानानपे क्षित मन्त्रों का सकलन सामसं हिता में क्यों किया गया है ?

3. सामसं हिता के मन्त्र ऋग्वे द से ही लिए गये होते , तो उनका रूप ही नहीं, प्रत्यु त उनका स्वरनिर्दे श भी, तद्वत् होता। ऋग्वे द के

मन्त्रों में उदात अनु दात्त तथा स्वरित स्वर पाये जाते हैं , जब सामवे द निर्देश 1, 2, तथा 3 अं कों के द्वारा किया गया है जो ‘नारदीशिक्षा’

के अनु सार क् रमश: मध्यम, गान्धार और ऋषभ स्वर हैं । ये स्वर अं गुष्ठ, तर्जनी तथा मध्यमा अं गुलियों के मध्यम पर्व पर अं गुष्ठ का

स्पर्श करते हुए दिखलायें जाते हैं । साममन्त्रों का उच्चारण ऋक्मन्त्रों के उच्चारण से नितान्त भिन्न होता है । 

4. यदि सामवे द ऋग्वे द के बाद की रचना होती, (जै सा आधु निक विद्वान् मानते है ), तो ऋग्वे द के अने क स्थलों पर साम का उल्ले ख कैसे

मिलता? अं गिरसा सामभि: स्तूयमाना: (ऋव्म् 1/107/2), उद्गाते व शकुने साम गायति (2/43/2), इन्द्राय साम गायत विप्राय बृ हते

वृ हत् (8/98/1)-आदि मन्त्रों में सामान्य साम का भी उल्ले ख नहीं है , प्रत्यु त ‘बृ हत्साम’ जै से विशिष्ट साम का भी उल्ले ख मिलता है । 

ऐतरे य ब्राह्मण (2/23) का तो स्पष्ट कथन है कि सृ ष्टि के आरम्भ में ऋक् और साम दोनों का अस्तित्व था (ऋक् च वा इदमग्रे साम

चास्ताम्)। इतना ही नहीं, यज्ञ की सम्पन्नता के लिए होता, अध्वर्यु तथा ब्रह्म नामक ऋत्विजों के साथ ‘उद्गाता’ की भी सत्ता सर्वथा

मान्य है । इन चारों ऋत्विजों के उपस्थित रहने पर ही यज्ञ की समाप्ति सिद्ध होती है और ‘उद्गाता’ का कार्य साम का गायन ही तो है ?

तब साम की अर्वाचीनता क्यों नहीं विश्वसनीय है । 

मनु ने स्पष्ट ही लिखा है कि परमे श्वर ने यज्ञसिद्धि के लिए अग्नि, वायु तथा सूर्य से क् रमश: सनातन ऋक् यजु : तथा सामरूप वे दों का

दोहन किया (मनु स्मृ ति 1/23) ‘त्रयं ब्रह्म सनातनम्’ में वे दों के लिए प्रयु क्त ‘सनातन’ विशे षण वे दों की नित्यता तथा अनादिता

दिखला रहा है । ‘दोहन’ से भी इसी तथ्य की पु ष्टि होती है । 

5. साम का नामकरण विशिष्ट ऋषियों के नाम किया गया मिलता है , तो क्या वे ऋषि इन सामों के कर्ता नहीं है ? इसका उत्तर है कि जिस

साम से सर्वप्रथम जिस ऋक् को इष्ट प्राप्ति हुई, उस साम का वह ऋषि कहलाता है । ताण्डय ब्राह्मण में इस तथ्य के द्योतक स्पष्ट

प्रमाण उपलब्ध है । ‘‘वृ षा शोणों ‘अभिकनिक् रदत्’ (ऋव्म्9/97/13) ऋचा पर साम का नाम ‘वसिष्ठ’ होने का यही कारण है कि बीडु के

पु त्र वसिष्ठ ने इस साम से स्तु ति करके अनायास स्वर्ग प्राप्त कर लिया (वसिष्ठं भवति, वसिष्टों वा एते न वै डव: स्तु त्वाS ज्जसा स्वर्ग

लोकमपश्यत्-ताण्डय ब्राव्म् 11/8/13) ‘तं वो दस्ममृ तीषहं (9/88/1) मन्त्र पर ‘नौधस साम’ के नामकरण का ऐसा ही कारण अन्यत्र

कथित है (ताण्डत्त्ा 7/10/10)। फलत: इष्टसिद्धिनिमित्तक होने से ही सामों का ऋषिपरक नाम है , उनकी रचना के हे तु नहीं। 

इन प्रमाणों पर ध्यान दे ने से सिद्ध होता है कि सामसं हिता के मन्त्र ऋग्वे द से उधार लिये गये नहीं हैं , प्रत्यु त उससे स्वतन्त्र हैं और वे
उतने ही प्राचीन हैं जितने ऋग्वे द के मन्त्र। अत: सामसं हिता की स्वतन्त्र सत्ता है , वह ऋक् सं हिता पर आधृ त नहीं है ।

सामवे द की शाखाएं
भागवत, विष्णु पुराण तथा वायु पुराण के अनु सार वे दव्यासजी ने अपने शिष्य जै मिनि को साम की शिक्षा दी। कवि जै मिनि ही साम के

आद्य आचार्य के रूप में सर्वत्र प्रतिष्ठित है । जै मिनि ने अपने पु त्र सु मन्तु को, सु मन्तु ने अपने पु त्र सु न्वान को और सु न्वान ने स्वकीय

सूनु सु कर्मा को सामवे द की सं हिता का अध्ययन कराया। इस सं हिता के विपु ल विस्तार का श्रेय इन्हीं सामवे दाचार्य सु कर्मा को प्राप्त

है इनके दो पट् ट-शिष्य हुए-(1) हरिण्यनाभ कौशल्य तथा (2) पौष्यज्जि, जिनसे सामगायन की द्विविध धारा-प्राच्य तथा उदीच्य-का

आविर्भाव सम्पन्न हुआ। प्रश्न उपनिषद् (6/1) में हिरण्यनाभ कोशल-दे शीय राजपु तर् के रूप में निर्दिष्ट किये गये है । 

भागवत (12/6/78) ने सामगों की दो परम्पराओं का उल्ले ख किया है -प्राच्यसामगा: तथा उदीच्यसामगा:। ये दोनों भौगोलिक भिन्नता

के कारण नाम निर्देश हैं । इन भे दों का मूल सु कर्मा नामक सामाचार्य के शिष्यों के उद्योगों का फल है । भागवत ने सु कर्मा के दो शिक्ष्यों

का उल्ले ख किया है -(1) हिरण्यनाथ (या हिरण्यनाभी) कौशल्य, (2) पौष्यज्जि जो अवन्ति दे श के निवासी होने से ‘आवन्त्य’ कहे गये

है । इनमें से अन्तिम आचार्य के शिष्य ‘उदीच्य सामग’ कहलाते थे । हिरण्यनाभ कौशल्य की परम्परा वाले सामग ‘प्राच्य सामगा:’ के

नाम से विख्यात हुए। 

प्रश्नोपनिषद् (6/1) के अनु सार हिरण्यनाभ कोशल दे श के राजपु त्र थे । फलत: पूर्वी प्रान्त के निवासी होने के कारणउनके शिष्यों को

‘प्राच्यसामगा:’ नाम से विख्याति उचित ही है । हिरण्यनाभ का शिष्य पौरवं शीय सन्नतिमान् राजा का पु तर् कृत था, जिसने सामसं हिता

का चौबीस प्रकार से अपने शिष्यों द्वारा प्रवर्तन किया। 

इसका वर्णन मत्स्यपु राण (49 अ., 75-76 श्लो.) हरिवं श (20/41-44), विष्णु (4/19-50); वायु (41/44), ब्रह्मण्ड पु राण (35/49-50), तथा

भागवत (12/6/80) में समान शब्दों में किया गया हैं । वायु तथा ब्रह्मण्ड में कृत के चौबीस शिष्यों के नाम भी दिये गये हैं । कृत के

अनु यायी होने के कारण ये साम आचार्य ‘कार्त’ नाम से प्रख्यात थे -(मस्त्य पु राण 49/76)-

चतु र्विशतिधा ये न प्रोक्ता वै सामसं हिता:। 

स्मृ तास्ते प्राच्यसामान: कर्ता नामे ह सामगा:।।

इनके लौगक्षि, माष्लि, कुल्य, कुसीद तथा कुक्षि नामक पाँच शिष्यों के नाम श्रीमभागवत (12/6/69) में दिये गये हैं , जिन्होंने सौ-सौ

सामसं हिताओं का अध्यापन प्रचलित कराया। वायु तथा ब्राह्मण्ड के अनु सार इन शिष्यों के नाम तथा सं ख्या में पर्याप्त भिन्नता दीख

पड़ती है । इनका कहना है कि पोष्पिज्जि के चार शिष्य थे -इन पु राणों में , विशे ष रूप से दिया गया है । नाम धाम में जो कुछ भी भिन्नता

हो, इतना तो निश्चित सा प्रतीत होता है कि सामवे द के सहस्र शाखाओं से मण्डित होने में सु कर्मा के ही दोनों शिष्य-हिरण्यनाभ तथा

पौष्पिज्जि-प्रधानतया कारण थे । पु राणोपलब्ध सामप्रचार का यही सं क्षिपत वर्णन है ।

सामवे द की कितनी शाक्षायें थी? पु राणों के अनु सार पूरी एक हजार, जिसकी पु ष्टि पतज्जलि के ‘सहस्रवत्र्मा सामवे द:’ वाक्य से भली-

भॉति होती है । सामवे द गानप्रधान है । अत: सं गीत की विपु लता तथा सूक्ष्मता को ध्यान में रखकर विचारने से यह सं ख्या कल्पित सी

नहीं प्रतीत होती, परन्तु पु राणों में कहीं भी इन सम्पूर्ण शाखाओं का नामोल्ले ख उपलब्ध नहीं होता। इसलिये अने क आलोचकों की दृष्टि
में ‘चत्र्म’ शब्द शाखावाची न होकर केवल सामगायनों की विभिन्न पद्धतियों को सूचित करता है । जो कुछ भी हो, साम की विपु ल

बहुसं ख्यक शाखायें किसी समय अवश्य थीं, परन्तु दै वदुर्ग से उनमें से अधिकां श का लोप इस ढं ग से हो गया कि उनके नाम भी विस्मृ ति

के गर्त में विलीन हो गये ।

आजकल प्रपच्चहृदय, दिव्यावदान, चरणव्यूह तथा जै मिनि गूह्यसूतर् (1/14) के पर्यालोचन से 13 शाखाओं के नाम मिलते

है ।  सामतर्पण के अवसर पर इन आचार्यों के नाम तर्पण का विधान मिलता है - ‘राणायन -सातयमु गि ्र-व्यास -भागु रि -औलु ण्डि -

गौल्मु लवि-भानु -मानौपमन्यव-काराटि-मशक-गाग्र्य-वार्षगण्यकौथु मि-शालिहोत्र-जै मिनि -त्रयोदशै ते ये स्रामगाचार्या: स्वस्ति कुर्वन्तु

तर्पिता:’। इन ते रह आचार्यों में से आजकल केवल तीन ही आचार्यों की शाखायें मिलती हैं -(1) कौथु मीय (2)राणायनीय तथा (3)

जै मिनीय। 

एक बात ध्यान दे ने योग्य है कि पु राणों में उदीच्य तथा प्राच्य सामगों के वर्णन होने पर भी आजकल न उत्तर भारत में साम का प्रचार

है , न पूर्वी भारत में , प्रत्यु त दक्षिण तथा पश्चिम भारत में आज भी इन शाखाओं का यत्किन्चित प्रकार है । सं ख्या तथा प्रचार की दृष्टि

से कौथु म शाखा विशे ष महत्वपूर्ण हैं इसका प्रचलन गु जरात क ब्राह्मणों में , विशे षत: नागर ब्राह्मणों में है । 

राणायनीय शाखा महाराष्ट् र में ं तथा जै मिनीय कर्नाटक में तथा सु दरू दक्षिण के तिन्ने वेली और तज्ज्ाौर जिले में मिलती जरूर है ,

परन्तु इनके अनु यायियों की सं ख्या कौथु मों की अपे क्षा अल्पतर है ।

कौथु म शाखा

इसकी सं हिता सर्वाधिक लोकप्रिय है । इसी का विस्तृ त वर्णन पहले किया जा चु का है । इसी की ताण्ड Ó नामक शाक्षा भी मिलती है ,

जिसका किसी समय विशे ष प्रभाव तथा प्रसार था। शं कराचार्य ने वे दान्त-भाष्य के अने क स्थलों पर इसका नाम निर्दे शन किया है , जो

इसके गौरव तथा महत्त्व का सूचक है । पच्चीस काण्डात्मक विपु लकाय ताण्ड Ó -ब्राह्मण इसी शाक्षा का हैं सु पर् सिद्ध छान्दोग्य

उपनिषद् भी इसी शाखा से सम्बन्ध रखती है । इसका निर्दे श शं कराचार्य ने भाष्य में स्पष्टत: किया है ।

राणायनीय शाखा

इसकी सं हिता कौथु मों से कथमपि भिन्न नहीं है । दोनों मन्त्र-गणना की दृष्टि एक ही है । केवल उच्चारण में कहीं-कहीं पार्थक्य उपलब्ध

होता है । कौथु मीय लोग जहाँ ‘हाउ’ तथा ‘राइ’ कहते हैं , वहाँ राणयनीय गण ‘हाबु ’ तथा ‘रायी’ उच्चारण करते हैं । राणायनीयों की एक

अवान्तर शाखा सात्यमु ग्रि है जिसकी एक उच्चारणविशे षता भाषा-विज्ञान की दृष्टि से नितान्त आलोचनीय है । आपिशली शिक्षा तथा

महाभाष्य ने स्पष्टत: निर्दे श किया है कि सत्यमु ग्रि लोग एकार तथा ओंकार का स्वर उच्चारण किया करते थे । 

आधु निक भाषाओं के जानकारी को याद दिलाने की आवश्यकता नहीं है कि प्राकृत भाषा तथा आधु निक प्रान्तीय अने क भाषाओं में ‘ए’

तथा ‘ओ’ का उच्चारण ह्रस्व भी किया जाता है । इस विशे षता की इतनी प्राचीन और लम्बी परम्परा है ; भाषाविदों के लिए यह ध्यान

दे ने की वस्तु है ।

जै मिनीय शाखा
हर्ष का विषय है कि इस मु ख्य शाखा के समग्र अं श सं हिता, ब्राह्मण श्रोत तथा गृ हृसूतर् -आजकल उपलब्ध हो गये है । जै मिनीय

सं हिता नागराक्षर में भी लाहौर से प्रकाशित हुई हैं इसके मन्त्रों की सं ख्या 687 है , अर्थात् कौथु म शाक्षा से एक सौ बयासी (182)

मन्त्र कम हैं । दोनों में पाठभे द भी नाना प्रकार के हैं । उत्तरार्चिक में ऐसे अने क नवीन मन्त्र है जो कौथु मीय सं हिता में उपलबध नहीं

होते , परन्तु जै मिनीयों के सामगान कौथु मों से लगभग एक हजार अधिक है । कौथु मगान केवल 2722 है  परन्तु इनके सथान पर जै मिनीय

गान छत्तीस सौ इक्यासी (3681) है । 

इन गानों के प्रकाशन होने पर दोनों की तु लनात्मक आलोचना से भाषाशास्त्र के अने क सिद्धान्तों का परिचय मिले गा। तवलकर शाखा

इसकी अवान्तर शाखा है , जिससे लघु काय, परन्तु महत्वशाली, केनोपनिषद् सम्बद्ध है । ये तवलकार जै मिनि के शिष्य बतलायें जाते हैं ।

ब्राह्मण तथा पु राण के अध्ययन से पता चलता है कि साममन्त्रों, उनके पदों तथा सामगानों की सं ख्या अद्यावधि उपलब्ध अं शों से

कहीं बहुत अधिक थी। शतपथ में साममन्त्रों के पदों की गणना चार सहस्र बृ हती बतलाई गई है , अर्थात् 4 हजार × 36 = 1,44,000,

अर्थात् साममन्त्रों के पद एक लाख 44 हजार थे । पूरे साभों की सं ख्या थी आठ हजार तथा गायनों की सं ख्या थी चौदह हजार आठ सौ

बीस 1480 (चरण ब्यूह) अने क स्थलों पर बार-बार उल्ले ख से यह सं ख्या अप्रामाणिक नहीं प्रतीत होती। 

इस गणना में अन्य शाखाओं के सामों की सं ख्या अवश्य ही सम्मिलित की गई है । कौथु म शाखीय सामगान दो भागों में है -ग्रामगान

तथा आरण्यगान। यह औंधनगर से श्री ए. नारायण स्वामिदीक्षित के द्वारा सम्पादित होकर 1999 विक् रम सं 0 में प्रकाशित हुआ है ।

जै मिनीय साम-गान का प्रथम प्रकाशन सं स्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 2033 विक् रम सं 0 में हुआ है । यह सामगान पूर्वाचिक से

सम्बद्ध मन्त्रों पर ही है । इसके तीन भाग है -आग्ने य, ऐन्द्र तथा पावमान। इनमें आदिम तथा अन्तिम पर्व का विशे ष विभाग नहीं है ,

परन्तु ऐन्द्रपर्व के चार है । पूरे ग्रन्थ में गान सं ख्या 1224 है (एक सहस्र दो सौ चौबीस)। कौथु मीय सामसं हिता से जै मिनीय साम

सं हिता के पाठ में सर्वथा भे द नहीं है , परन्तु गान प्रकार सर्वथा भिन्न हैं अभी तक केवल प्रथम भाग ही प्रकाशित है । द्वितीय खण्ड

हस्तले ख में ही है ।

यजु र्वे द की शाखाएं एवं भे द

यजु र्वे द की शाखाएं

1. काण्यसं हिता

2. कृष्ण यजु र्वे द

3. तै त्तिरीय सं हिता 

4. मै तर् ात्रणी सं हिता 

काण्यसंहिता- 
शु क्ल यजु र्वे द की प्रधान शाखायें माध्यन्दिन तथा काण्व है । काण्व शाखा का प्रचार आज कल महाराष्ट् र प्रान् तमें ही है

और माध्यन्दिन शाखा का उतर भारत में , परन्तु प्राचीन काल में काण्य शाखा का अपना प्रदे श उत्तर भारत ही था, क्योंकि

एक मन्त्र में (11/11) कुरु तथा पच्चालदे शीय राजा का निर्दे श सं हिता में मिलता है (एष य: कुरवो राजा, एष पच्चालों

राजा)। महाभारत के आदिपर्व (63/18) के अनु सार शकुन्तला को पाष्यपु त्री बनाने वाले कण्व मु नि का आश्रम ‘मालिनी’

नदी के तीर पर था, जो आज भी उत्तर प्रदे श के बिजनौर जिले में ‘मालन’ के नाम से विख्यात एक एक छोटी सही नहीं है ।

अत: काण्वें का प्राचीन सम्बन्ध उत्तरे प्रदे श से होने में कोई विप्रतिपित्ति नहीं दृष्टिगत होती।

काण्वसं हिता का एक सु न्दर सं स्करण मद्रास के अन्तर्गत किसी ‘आनन्दवन’ नगर तथा औध से प्रकाशित हुआ है जिसमें

अध्यायों की सं ख्या 40, अनु वाकों की 328 तथा मन्त्रों को 2086 है , अर्थात् माध्यन्दिन-सं हिता के मन्त्रां (1975) से यहाँ 11

मन्त्र अधिक है । काण्व शाखा अधिक है । काण्व शाखा का सम्बन्ध पाच्चरात्र आगम के साथ विशे ष रूप से पाच्चरात्र

सं हिताओं में सर्वत्र माना गया है ।


कृष्ण यजु र्वे द- 
उपरि निर्दिष्ट विषय-विवे चन से कृष्ण-यजु र्वे द की सं हिताओं के भी विषय का पर्याप्त परिचय मिल सकता है , क्योंकि दोनों में

वर्णित अनु ष्ठान-विधियाँ प्राय: एक समाान ही है । शु ल्कयजु : में जहाँ केवल मन्त्रों का ही निर्दे श किया गया है , वहाँ

कृष्णयजु : में मन्त्रों के साथ तद्विधायक ब्राह्मण भी सं मिश्रित हैं ।

चरणब्यूह के अनु सार कृष्णयजु र्वे द की 85 शाखायें हैं जिनमें आज केवल 4 शाखायें तथा सत्यसबद्ध पु स्तके उपलब्ध होती है -

(1) तै त्तिरीय, (2) मै तर् ायिणी, (3) कठ, (4) कपिष्ठिक-कठ शाखा।
तै त्तिरीय संहिता - 
तै त्तिरीय सं हिता का प्रसारदे श दक्षिण भारत है । कुछ महाराष्ट् र प्रान्त समग्र आन्ध्र-द्रविण दे श इसी शाखा का

अनु यायी है । समग्र ग्रन्थों-सं हिता, ब्राह्मण, सूतर् आदि की उपलब्धि से इसका वै शिष्टय स्वीकार किया जा सकता है ,

अर्थात् इस शाक्षा ने अपनी सं हिता, ब्राह्मण आरण्यक, उपनिषद्, श्रौतसूतर् तथा गु हृसूतर् को बड़ी तत्रता से अक्षु ण्ण

बनाये रक्खा हैं तै त्तिरीय सं हिता का परिमाण कम नहीं हैं यह काण्ड, प्रापाठक तथा अनु वाकों में विभक्त है । पूरी सं हिता में

7 काण्ड, तदन्र्गत 44 प्रपाठक तथा 631 अनु वाक है । विषय वही शु क्ल-यजवर्ुेद में वर्णित विषयों के समान ही पौरोडाश,

याजमान, वाजपे य, रासूय आदि नाना यागानु ष्ठानों का विशद वर्णन है । 

आचार्य सायण की यही अपनी शाखा थी। इसलिए तथा यज्ञ के मु ख्य स्वरूप के निष्पादक होने के कारण उन्होंने इस सं हिता

का विद्वत्तापूर्ण भाष्य सर्व-प्रथम निबद्ध किया, परन्तु उनसे प्राचीन भाष्यकार भट् ट भास्कर मिश्र (11 वीं शताब्दी) है ,

जिनका ‘ज्ञान-यज्ञ’ नामक भाष्य प्रामाथिकता तथा विद्वत्त में किसी प्रकार न्यून नहीं है । अधियज्ञ अर्थ अतिरिक्त

प्रामाणिकता तथा विद्वत्ता में किसी प्रकार न्यून नहीं है । अधियज्ञ अर्थ के अतिरिक्त अध्यात्म तथा अधिदै व पक्षों में भी

मन्त्रों का अर्थ स्थान-स्थान पर किया गाया है ।


मै तर् ात्रणी संहिता 
कृष्ण यजु र्वे द की अन्तम शाक्षा मै तर् ायणी की यह सं हिता गद्यपद्यात्मक है , मूल ग्रन्थ काठकसं हिता के समान होने पर भी

उसकी स्वरांकन पद्धति ऋग्वे द से मिलती है । ऋग्वे द के समान ही यह अष्टक तथा अध्यायों में विभक्त है । इस प्रकार

कापिष्ठल कठसं हिता पर ऋग्वे द का ही सातिशपथ प्रभाव लक्षित होता है । ग्रन्थ अधूरा ही है । इसमें निम्नलिखित अष्टक

तथा तदन्तर्गत अध्याय उपलब्ध है -

1. प्रथम अष्टक-पूर्ण, आठों अध्याय के साथ। 

2. द्वितीय अष्टक- त्रुटित 9 से ले कर 24 अध्याय तक बिल्कुल त्रुटित। 

3. तृ तीय ‘‘ - त्रुटित 

4. चतु र्थ ‘‘ -32 वें अध्याय को छोड़कर समस्त (25-31 तक) अध्याय उपलब्ध है  जिसमें 27 वाँ अध्याय रुद्राध्याय है । 

5. पच्चम ‘‘ - आदिम अध्याय (33 अ 0) को छोड़कर अन्य सातों अध्याय उपलब्ध। 

6. शष्ठ ‘‘ - 43 वें अध्याय को छोड़कर अन्य अध्याय उपलब्ध। 48 अध्याय पर समाप्ति। 

उपलब्ध अध्याय भी समग्र रूप से नहीं मिलते , प्रत्यु त वे भी बीच में खण्डित तथा त्रुटित है । अन्य सं हिताओं के साथ

तु लना के निमित्त यह अधूरा भी। ग्रन्थ बड़ा ही उपादे य तथा उपयोगी है । विषय शै ली कठसं हिता के समान ही है ।
यजु र्वे द के भे द 
वे द के दो सम्प्रदाय है -

1. ब्रह्म सम्प्रदाय तथा 

2. आदित्य सम्प्रदाय। 

शतपथ-ब्राह्मण के अनु सार आदित्य-यजु : शु क्ल-यजु ष के नाम से प्रसिद्ध है , तथा याज्ञवल्क्य के द्वारा आख्यात हैं

(आदित्यानीमानि शु क्लानि यजूंषि वाजसने येन याज्ञवल्क्ये -नाख्यायन्ते -शतव्म्ब्राव्म् 14/9/5/33)। अत: आदित्य-सम्प्रदाय

का प्रतिनिधि शु क्ल यजु र्वे द है , तथा ब्रह्म-सम्प्रदाय का प्रतिनिधि कृष्ण यजु र्वे द है । यजु र्वे द के शु क्ल कृ “णत्व का भे द

उसके स्वरूप के ऊपर आश्रित है । 

शु क्ल यजु र्वे द में दर्शपौर्णमासादि अनु ष्ठानों के लिए आवश्यक केवल मन्त्रों का ही सं कलन है । उधर कृष्ण यजु र्वे द में मन्त्रों

के साथ ही साथ तन्नियोजक ब्राह्मणों का सं मिश्रण हैं मन्त्र तथा ब्राह्मण भाग का एकत्र मिश्रण ही कृष्णयजु : के

कृष्णत्व का कारण है , तथा मन्त्रों का विशु द्ध एवं अमिश्रित रूप से शु क्लयजु : के शु क्लत्व का मु ख्य हे तु है । कृष्णयजु : की

प्रधान शाखा ‘तै त्तिरीय’ नाम से प्रख्यात है , जिसके विषय में एक प्राचीन आख्यान अने कत्र निर्दिष्ट किया गया है । गु रु

वै शम्पायन के शाप से भीत योगी याज्ञवल्क्य ने स्वाधीत यजु र्षों का वमन कर दिया और गु रु के आदे श से अन्य शिष्यों ने

तित्तिर का रूप धारण कर उस वान्त यजु ष् का भषण किया। सूर्य को प्रसन्न कर उनके ही अनु गर् ह से याज्ञवल्क्य ने शु ल्क-

यजु ष् की उपलब्धि की।

पु राणों तथा वै दिक साहित्य के अध्ययन से ‘याज्ञवल्क्य’ वाजसने य’ एक अत्यन्त प्रौढ़ तत्त्वज्ञ प्रतीत होते हैं , जिनकी
अनु कूल सम्मति का उल्ले ख शतपथ-ब्राह्मण तथा बृ हदारण्यक उपनिषद् में किया गया है (अ 0 3 और 4)। ये मिथिला के

निवासी थे , तथा उस दे श के अधीश्वर महाराज जनक की सभा में इनका विशे ष आदर और सम्मान था। इनके पिता का नमा

दे वराज था, जो दीनों को अन्न दान दे ने के कारण ‘वाजसनि’ के अपरनाम से विख्यात थे ।

इन्होंने व्यासदे व के चारों शिष्यों से वे द चतु ष्टय का अध्ययन किया; अपने मातु ल वै शम्पायन ऋषि से इन्होंने यजु र्वे द का

अध्ययन सम्पन्न किया था। शतपथ के प्रामाण्य पर इन्होंने उद्दालक आरुणि नामक तत्कालीन प्रौढ़ दार्शनिक से वे दान्त

का परिशीलन किया था। आरूणि ने एक बार इनसे वे दान्त की प्रशं सा में कहा था कि यदि वे दान्त की शक्ति से

अभिमन्त्रित जल से स्थाणु (पे ड़ का केवल तथा) को सींचा जाय तो उसमें भी पत्तियाँ निकल आती है । पु राणों से प्रतीत

होता है कि योग्य शिष्य ने गु रु के पूर्वोक्त कथन को अक्षरश: सत्य सिद्ध कर दिखलाया। इनकी दो पत्नियाँ थीं-मै तर् ीयी तथा

कात्यायनी। मै तर् े यी बड़ी ही विदुषी तथा ब्रह्मवादिनी थी और घर छोड़ कर वन में जाते समय याज्ञवल्क्य ने मै तर् े यी को ही

ब्रह्मविद्या की शिक्षा दी। प्रगाढ़ पाण्डित्य, अपूर्व योगबल तथा गाढ़ दार्शनिकता के कारण ही योगी याज्ञवल्क्य कर्मयोगी

राजा जनक की विशे ष अभ्यर्थना तथा सत्कार के भाजन थे । यजु र्वे द में मु ख्यरूपे ण कर्मकाण्ड का प्रतिपादन है ।
वे द
Template:हिन्द ू धर्म सूचना मं जष ू ा वे द प्राचीन भारत केरऽ पवितत्रतम साहित्य छे कै । जे  हिन्द ू सब के प्राचीनतम आरू
आधारभूत धर्मग्रन्थ भी छे कै । भारतीय सं स्कृति में वे द सनातन वर्णाश्रमधर्म केरऽ मूल आरू सबसें प्राचीन ग्रन्थ छे कै जे
ईश्वर केरऽ वाणी छे कै । ये विश्व के उन प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथों में हैं जिनके पवित्र मन्त्र आज भी बड़ी आस्था और
श्रद्धा से पढ़े और सु ने जाते हैं ।
'वे द' शब्द सं स्कृत भाषा के विद् वे द शब्द बना है , इस तरह वे द का शाब्दिक अर्थ 'ज्ञान के ग्रंथ' है , इसी धातु से 'विदित' (जाना
हुआ), 'विद्या'(ज्ञान), 'विद्वान' (ज्ञानी) जै से शब्द आए हैं ।

आज 'चतु र्वे द' के रूप में ज्ञात इन ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है -

 ऋग्वे द - सबसे प्राचीन वे द - ज्ञान हे तु लगभग १० हजार मं तर् । इसमें दे वताओं के गु णों का वर्णन और प्रकाश के लिए
मन्त्र हैं - सभी कविता-छन्द रूप में ।

 सामवे द - उपासना में गाने के लिये सं गीतमय मन्त्र हैं - १९७५ मं तर् ।

 यजु र्वे द - इसमें कार्य (क्रिया), यज्ञ (समर्पण) की प्रक्रिया के लिये गद्यात्मक मन्त्र हैं - ३७५० मं तर् ।

 अथर्ववे द-इसमें गु ण, धर्म,आरोग्य,यज्ञ के लिये कवितामयी मन्त्र हैं - ७२६० मं तर् । इसमे जादु-टोना की, मारण, मोहन,
स्तम्भन आदि से सम्बद्ध मन्त्र भी है जो इससे पूर्व के वे दत्रयी मे नही हैं ।
वे दों को अपौरुषे य (जिसे कोई व्यक्ति न कर सकता हो, यानि ईश्वर कृत) माना जाता है । यह ज्ञान विराटपु रुष से
वा कारणब्रह्म से श्रुतिपरम्परा के माध्यम से सृ ष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने प्राप्त किया माना जाता है । इन्हें  श्रुति भी कहते हैं
जिसका अर्थ है 'सु ना हुआ ज्ञान'। अन्य हिन्द ू ग्रंथों को स्मृ ति कहते हैं यानि वे दज्ञ मनु ष्यों की वे दानु गतबु दधि
् या स्मृ ति पर
आधारित ग्रन्थ। वे दके समग्रभागको मन्त्रसं हिता,ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद के रुपमें भी जाना जाता है ।इनमे प्रयु क्त
भाषा वै दिक सं स्कृत कहलाती है जो लौकिक सं स्कृत से कुछ अलग है । ऐतिहासिक रूप से प्राचीन भारत और हिन्द-
आर्य जाति के बारे में वे दों को एक अच्छा सन्दर्भश्रोत माना जाता है । सं स्कृत भाषा के प्राचीन रूप को ले कर भी इनका
साहित्यिक महत्व बना हुआ है ।
वे दों को समझना प्राचीन काल में भारतीय और बाद में विश्व भर में एक वार्ता का विषय रहा है । इसको पढ़ाने के लिए छः
उपां गों की व्यवस्था थी। शिक्षा,कल्प,निरुक्त,व्याकरण,छन्द और ज्योतिष के अध्ययन के बाद ही प्राचीन काल में वे दाध्ययन
पूर्ण माना जाता था | प्राचीन कालके ब्रह्मा,वशिष्ठ ,शक्ति,पराशर, वे दव्यास , जै मिनी, याज्ञवल्क्य, कात्यायन इत्यादि
ऋषियों को वे दों का अच्छा ज्ञाता माना जाता है । मध्यकाल में रचित व्याख्याओं में  सायण का रचा चतु र्वेदभाष्य "माधवीय
वे दार्थदीपिका" बहुत मान्य है । यूरोप के विद्वानों का वे दों के बारे में मत हिन्द-आर्य जाति के इतिहास की जिज्ञासा से प्रेरित
रही है । अतः वे इसमें लोगं , जगहों, पहाड़ों, नदियों के नाम ढूँढते रहते हैं - ले किन ये भारतीय परं परा और गु रुओं की
शिक्षाओं से मे ल नहीं खाता । अठारहवीं सदी उपरांत यूरोपियनों के वे दों और उपनिषदों में रूचि आने के बाद भी इनके अर्थों
पर विद्वानों में असहमति बनी रही है ।

वे द का हिं दी भाष्य

कालक् रम[edit | edit source]


मु ख्य ले ख वै दिक सभ्यता
वे द सबसे प्राचीन पवित्र ग्रंथों में से हैं । सं हिता की तारीख लगभग 1700-1100 ईसा पूर्व, और "सर्क ल-वै दिक" ग्रंथों के
साथ-साथ सं हिताओं की प्रतिदे य, सी की तिथि।[1] 1000-500 ईसा पूर्व, जिसके परिणामस्वरूप एक वै दिक अवधि होती है ,
जो मध्य 2 से ले कर मध्य 1000 ई.पू. तक फैली हुई है , या दे र कां स्य यु ग और लोहे की आयु है । वे दिक काल, मं तर् ग्रंथों की
रचना के बाद ही अपने चरम पर पहुंचता है , पूरे उत्तरी भारत में विभिन्न शाखाओं की स्थापना के साथ, जो कि ब्राह्मण के
अर्थों के साथ मं तर् सं हिताओं को उनके अर्थ की चर्चा करता है , और बु द्ध और पाणिनी की उम्र में इसका अं त पहुंचता है
महाजनपदों का उदय (पु रातात्विक रूप से , उत्तरी काली पॉलिश वे यर)। माइकल विज़े ल सी का एक समय अवधि दे ता है
1500 से सी 500-400 ईसा पूर्व विट् ज़ेल ने 14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के निकट पूर्वी मिटनी सामग्री के लिए विशे ष सं दर्भ में
ऋग्वे द की अवधि के लिए इं डो-आर्यन समकालीन का एकमात्र शिलाले ख दिया था। उन्होंने 150 ईसा पूर्व (पतं जलि) को
सभी वै दिक सं स्कृत साहित्य के लिए एक टर्मिनस एं टी क्वीन के रूप में , और 1200 ईसा पूर्व (प्रारं भिक आयरन आयु )
अथर्ववे द के लिए टर्मिनस पोस्ट क्वीन के रूप में दिया।
वै दिक काल में ग्रंथों का सं चरण मौखिक परं परा द्वारा किया गया था, विस्तृ त नै मनिक तकनीकों की सहायता से परिशु द्धता से
सं रक्षित किया गया था। मौर्य काल में बौद्ध धर्म के उदय के बाद वै दिक समय के बाद साहित्यिक परं परा का पता लगाया जा
सकता है , शायद 1 शताब्दी ईसा पूर्व के यजु र्वे द के कन्वा पाठ में सबसे पहले ; हालां कि सं चरण की मौखिक परं परा सक्रिय
रहा। विज़े ल ने 1 सहस्त्राब्दी बीसीई के अं त में लिखित वै दिक ग्रंथों की सं भावना का सु झाव दिया। कुछ विद्वान जै से जै क
गूडी कहते हैं कि "वे द एक मौखिक समाज के उत्पाद नहीं हैं ", इस दृष्टिकोण को ग्रीक, सर्बिया और अन्य सं स्कृतियों जै से
विभिन्न मौखिक समाजों से साहित्य के सं चरित सं स्करणों में विसं गतियों की तु लना करके इस दृष्टिकोण का आधार रखते
हुए, उस पर ध्यान दे ते हुए वै दिक साहित्य बहुत सु संगत और विशाल है जिसे लिखी बिना, पीढ़ियों में मौखिक रूप से बना
दिया गया था। हालां कि, गौडी कहते हैं , वै दिक ग्रंथों की एक लिखित और मौखिक परं परा दोनों में शामिल होने की सं भावना
है , इसे "साक्षरता समाज के समानांतर उत्पादों" कहते हैं ।
पांडुलिपि सामग्री (बर्च की छाल या ताड़ के पत्तों) की तात्कालिक प्रकृति के कारण, जीवित पांडुलिपियां शायद ही कुछ
सौ वर्षों की उम्र को पार करती हैं । पूर्णानं द सं स्कृत विश्वविद्यालय का 14 वीं शताब्दी से  ऋग्वे द पांडुलिपि है ; हालां कि,
ने पाल में कई पु रानी वे द पांडुलिपियां हैं जो 11 वीं शताब्दी के बाद से हैं ।
प्राचीन विश्वविद्यालय[edit | edit source]
वे दों, वै दिक अनु ष्ठान और उसके सहायक विज्ञान वे दंगा नामक थे , प्राचीन विश्वविद्यालयों में पाठ्यक् रम का हिस्सा थे जै से
तक्षशिला, नालं दा और विक् रमशिला।

वे द-भाष्यकार[edit | edit source]
प्राचीन काल में माना जाता है कि अग्नि, वायु , आदित्य और अङ्गिरा ऋषियों को वे दों का ज्ञान मिला जिसके बाद सात
ऋषियों (सप्तर्षि) को ये ज्ञान मिला - इसका उल्ले ख गीता में हुआ है । ऐतिहासिक रूप से ब्रह्मा, उनके पु तर् बादरायण और
पौत्र व्यास और अन्य यथा जै मिनी, पतञ्जलि, मनु , वात्स्यायन, कपिल, कणाद आदि मु नियों को वे दों का अच्छा ज्ञान था।
व्यास ऋषि ने  गीता में कई बार वे दों (श्रुति ग्रंथों) का ज़िक् र किया है । अध्याय 2 में कृष्ण, अर्जुन से ये कहते हैं कि वे दों की
अलं कारमयी भाषा के बदले उनके वचन आसान लगें गे ।[2] प्राचीन काल में ही निरूक्त, निघण्टु  तथा मनु स्मृ ति को वे दों की
व्याख्या मानते हैं ।
मध्यकाल में  सायणाचार्य को वे दों का प्रसिद्ध भाष्यकार मानते हैं - ले किन साथ ही यह भी मानते हैं कि उन्होंने ही प्रथम बार
वे दों के भाष्य या अनु वाद में दे वी-दे वता, इतिहास और कथाओं का उल्ले ख किया जिसको आधार मानकार महीधर और अन्य
भाष्यकारों ने ऐसी व्याख्या की। महीधर और उव्वट इसी श्रेणी के भाष्यकार थे ।
आधु निक काल में  राजा राममोहन राय का ब्रह्म समाज और दयानन्द सरस्वती का आर्य समाज लगभग एक ही समय में
(1860) वे दों के सबसे बड़े प्रचारक बने । इनके अतिरिक्त शं कर पाण्डुरं ग ने सायण भाष्य के अलावे अथर्ववे द का चार जिल्दों
में प्रकाशन किया। लोकमान्य तिलक ने  ओरायन और द आर्क टिक होम इन वे दाज़ नामक दो ग्रंथ वै दिक साहित्य की
समीक्षा के रूप में लिखे । बालकृष्ण दीक्षित ने सन् १८७७ में कलकत्ते से सामवे द पर अपने ज्ञान का प्रकाशन
कराया। श्रीपाद दामोदर सातवले कर ने  सातारा में चारों वे दों की सं हिता का श्रमपूर्वक प्रकाशन कराया। तिलक
विद्यापीठ, पु णे से पाँच जिल्दों में प्रकाशित ऋग्वे द के सायण भाष्य के प्रकाशन को भी प्रामाणिक माना जाता है ।
वै दिक सं हिताओं के अनु वाद में  रमे शचं दर् दत्त बं गाल से , रामगोविन्द त्रिवे दी एवं  जयदे व वे दालं कार के हिन्दी में एवं  श्रीधर
पाठक का मराठी में कार्य भी लोगों को वे दों के बारे में जानकारी प्रदान करता रहा है । इसके बाद गायत्री तपोभूमि
के श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी वे दों के भाष्य प्रकाशित किये हैं - इनके भाष्य सायणाधारित हैं ।
विदे शी प्रयास[edit | edit source]
सत्रहवीं सदी में मु ग़ल बादशाह औरं गज़े ब के भाई दारा शूकोह ने कुछ उपनिषदों का फ़ारसी में अनु वाद किया (सिर्र ए
अकबर,‫ س ّر اکبر‬महान रहस्य) जो पहले फ् रां सिसी और बाद में अन्य भाषाओं में अनूदित हुईं। यूरोप में इसके बाद वै दिक और
सं स्कृत साहित्य की ओर ध्यान गया। मै क्स मूलर जै से यूरोपीय विद्वान ने भी सं स्कृत और वै दिक साहित्य पर बहुत अध्ययन
किया है । ले किन यूरोप के विद्वानों का ध्यान हिन्द आर्य भाषा परिवार के सिद्धांत को बनाने और उसको सिद्ध करने में ही लगी
हुई है । शब्दों की समानता को ले कर बने इस सिद्धांत में ऐतिहासिक तथ्य और काल निर्धारण को तोड़-मरोड़ करना ही पड़ता
है । इस कारण से वे दों की रचना का समय १८००-१००० इस्वी ईसा पूर्व माना जाता है जो सं स्कृत साहित्य और हिन्द ू सिद्धांतों
पर खरा नहीं उतरता। ले किन आर्य जातियों के प्रयाण के सिद्धांत के तहत और भाषागत दृष्टि से यही काल इन ग्रंथों की
रचना का मान लिया जाता है ।
वे दों का काल[edit | edit source]
वे दों का अवतरण काल वर्तमान सृ ष्टि के आरं भ के समय का माना जाता है । इसके हिसाब से वे द को अवतरित हुए
2017(चै तर् शु क्ल/तपाःशु क्ल 1) को 1,97,29,49,118 वर्ष होंगे । वे द अवतरण के पश्चात् श्रुति के रूप में रहे और काफी बाद
में वे दों को लिपिबद्ध किया गया और वे दौंको सं रक्षित करने अथवा अच्छि तरहसे समझने के लिये वे दौंसे ही वे दां गौंको
आविस्कार कीया गया। इसमें उपस्थित खगोलीय विवरणानु सार कई इतिहासकार इसे ५०००, ७००० साल पु राना मानते हैं
परं तु आत्मचिं तन से ज्ञात होता है कि जै से सात दिन बीत जाने पर पु नः रविवार आता है वै से ही ये खगोलीय घटनाएं बार
बार होतीं हैं अतः इनके आधार पर गणना श्रेयसकर नहीं।[3]

वे दों का महत्व[edit | edit source]


प्राचीन काल से भारत में वे दों के अध्ययन और व्याख्या की परम्परा रही है । वै दिक सनातन वर्णाश्रम(हिन्द)ू धर्म
अनु सार आर्षयु ग में  ब्रह्मा से ले करवे दव्यासतथा जै मिनि तक के ऋषि-मु नियों और दार्शनिकौं ने  शब्द,प्रमाण के रूप में इन्हीं
को माने हैं और इनके आधार पर अपने ग्रन्थों का निर्माण भी किये हैं । पराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्य, व्यास, पाणिनी आदि
को प्राचीन काल के वे दवे त्ता कहते हैं । वे दों के विदित होने यानि चार ऋषियों के ध्यान में आने के बाद इनकी व्याख्या करने
की परम्परा रही है  [4]।अतः फलस्वरूप एक ही वे दका स्वरुप भी मन्त्र,ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद् के रुपमें चार ही माना
गया है । इतिहास(महाभारत)पु राण आदि महान् ग्रन्थ वे दों का व्याख्यानके स्वरूपमें रचे गए। प्राचीन काल और मध्ययु ग में
शास्त्रार्थ इसी व्याख्या और अर्थांतर के कारण हुए हैं । मु ख्य विषय - दे व, अग्नि, रूद्र, विष्णु , मरुत, सरस्वती इत्यादि जै से
शब्दों को ले कर हुए। वे दवे त्ता महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार में ज्ञान, कर्म, उपासना और विज्ञान वे दों के विषय
हैं । जीव, ईश्वर, प्रकृति इन तीन अनादि नित्य सत्ताओं का निज स्वरूप का ज्ञान केवल वे द से ही उपलब्ध होता है ।
कणाद ने "तद्वचनादाम्नायस्य प्राणाण्यम्"[5] और "बु दधि ् पूर्वा वाक्यकृतिर्वेदे " कहकर वे द को दर्शन और विज्ञान का भी स्रोत
माना है । हिन्द ू धर्म अनु सार सबसे प्राचीन नियमविधाता महर्षिमनु  ने कहा वे दोऽखिलो धर्ममूलम् - खिलरहित वे द अर्थात्
समग्रसं हिता,ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदके रूपमें वे द ही धर्म वा धर्मशास्त्र का मूल आधार है । न केवल धार्मिक किन्तु
ऐतिहासिक दृष्टि से भी वे दों का असाधारण महत्त्व है । वै दिक यु ग के आर्यों की सं स्कृति और सभ्यताको जानने का एक ही
वे द तो साधन है । मानव-जाति और विशे षतः वै दिकौंने अपने शै शव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका
ज्ञान केवल वे दों से मिलता है । विश्व के वाङ्मय में इनको प्राचीनतम ग्रन्थ( पु स्तक )माना सलोगन ले खन जाता
है । [6]आर्यौं का-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वै दिक भाषा अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई है ।
यूनेस्को ने ७ नवम्बर २००३ को वे दपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया।
विवेचना[edit | edit source]
प्राचीन काल में , भारत में ही, इसकी विवे चना के अं तर के कारण कई मत बन गए थे । मध्ययु ग में भी इसके भाष्य (व्याख्या)
को ले कर कई शास्त्रार्थ हुए। वै दिक सनातन वर्णाश्रमी इसमें वर्णित चरित्रों दे व को पूज्य और मूर्ति रूपक आराध्य समझते
हैं जबकि दयानन्द सरस्वती सहित अन्य कईयों का मत है कि इनमें वर्णित चरित्र (जै से अग्नि, इं दर्  आदि) एकमात्र ईश्वर
के ही रूप और नाम हैं । इनके अनु सार दे वता शब्द का अर्थ है - (उपकार) दे ने वाली वस्तु एँ, विद्वान लोग और सूक्त मं तर् (और
नाम) ना कि मूर्ति-पूजनीय आराध्य रूप।

वै दिक विवाद[edit | edit source]


यद्यपि आज के यु ग में हम सम्पूर्ण सं सार में एकता-एकात्मता, प्रेम की भावना बना रहे हैं तथापि उस कालखण्ड में जब
ब्रिटे न भारत पर शासन करता था, कुछ अां ग्ल अनु वादको के द्वारा वे दों के अनु वाद से कई मिथक उत्पन्न हो गए। यह
कोई दोष नहीं बल्कि सोंची समझी साजिश थी। उनका मु ख्य कार्य भारत को खोखला करना और हिन्दुओ ं को ईसाई बनाना
था[7][8]। उन आं ग्ल अनु वादकों का कहना था, "आर्य विदे शी हैं । वो भारत आए और उन्होंने यहाँ रहने वाले लोगों को मारा,
ताड़ित किया तथा यहाँ शासन किया। भारतीय लोग शिश्न (पु रुष जननां ग) की पूजा किया करते थे , और दस्यु (अं गर् े जों के
अनु सार दास या नीच। परं तु दस्यु का अर्थ है वह जो नास्तिक हो तथा जो कुकर्म करता हो। वो भी आर्य ही थे परं तु उनको
उनके कर्मों से दस्यु या अनार्य की सं ज्ञा दी जाती थी[9][10]।) या दानव कहलाते थे ।" परं तु उसी कालखण्ड के इतिहासकारों ने
यह साबित कर दिया कि यह केवल मिथक ही है और इसमें रत्ती भर भी सच्चाई नहीं है और हडप्पा मोहनजो दड़ो के पूर्वज
भी आर्य (वै दिक) ही थे [11][12][13][14]। मोहनजो दड़ो के वे दिक होने का प्रमाण खनन में प्राप्त मु दर् ाओं से ज्ञात हुआ जिसमें से
एक का विवरण निम्न है । "Photostat Of Plate No. CXII Seal No. 387 excavations at Mohanjo-Daro.[15]" इस सील में
जो चित्र बना है वह ऋग्वे द की एक ऋचा से पूर्णतया मे ल खाता है । द्वा सु पर्णा सयुजा सखाया समानं वृ क्षं परि षस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।[16] कुछ दे शभक्त जै से बाल गं गाधर तिलक भी इन अं गर् े जों की
बातों में आ गए और उटपु टां ग ढं ग से लिखने लगे । उनसे जब पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वे तो जो कुछ लिखे ,
अं गर् े जों के वै दिक अनु वाद का अध्ययन करके ही लिखे [17]। भारत तो अब स्वतं तर् हो गया परं तु अं गर् े जों का बोया यह पौधा
आज भी फल और फू ल रहा है । ऐसी मूर्खता में भारतीय सरकार तथा लोग अब भी पड़े हैं इसका प्रमाण मु स्लिम इण्डिया का
एक सं स्करण है जो २७ मार्च सन् १९८५ में छपा। भारतीय विद्यालयों में यही बताया, पढ़ाया जाता रहा[18]; इसीसे भारत का
भविष्य ज्ञात हो जाता है । इस विक्षिप्त विचारधारा से भारत स्वतं तर् ता के पश्चात् भी सं क्रमित है इसका प्रत्यक्ष प्रमाण
तो श्रीमान् फ् रैं क एं न्थॉनी की नीची सोंच थी जिसे उन्होंने ४ सितं बर सन् १९७७ को सं सद के सामने रखा[19]।

वै दिक वाङ्ममय का वर्गीकरण[edit | edit source]


वै दिकौं का यह सर्वस्वग्रन्थ 'वे दत्रयी' के नाम से भी विदित है । पहले यह वे द ग्रन्थ एक ही था जिसका नाम यजु र्वे द
था- एकैवासीद् यजु र्वे द चतु र्धाः व्यभजत् पु नः वही यजु र्वे द पु नः ऋक् -यजु स-् सामः के रूप मे प्रसिद्ध हुआ जिससे वह 'त्रयी'
कहलाया | बाद में वे द को पढ़ना बहुत कठिन प्रतीत होने लगा, इसलिए उसी एक वे द के तीन या चार विभाग किए गए। तब
उनको ऋग्यजु सामके रुपमे  वे दत्रयी अथवा बहुत समय बाद ऋग्यजु सामाथर्व के रुप में  चतु र्वे द कहलाने लगे । मं तर् ों का
प्रकार और आशय यानि अर्थ के आधार पर वर्गीकरण किया गया। इसका आधार इस प्रकार है -
वे दत्रयी[edit | edit source]
वै दिक परम्परा दो प्रकार के है - ब्रह्म परम्परा और आदित्य परम्परा। दोनो परम्परा के वे दत्रयी परम्परा प्राचीन काल मे
प्रसिद्ध था। विश्व में शब्द-प्रयोग की तीन शै लियाँ होती है : पद्य (कविता), गद्य और गान। वे दों के मं तर् ों के
'पद्य, गद्य और गान' ऐसे तीन विभाग होते हैं -

1. वे द का पद्य भाग - ऋग्वे द


2. वे द का गद्य भाग - यजु र्वे द
3. वे द का गायन भाग - सामवे द
पद्य में अक्षर-सं ख्या तथा पाद एवं विराम का निश्चित नियम होता है । अतः निश्चित अक्षर-सं ख्या तथा पाद एवं विराम
वाले वे द-मन्त्रों की सं ज्ञा 'ऋक् ' है । जिन मन्त्रों में छन्द के नियमानु सार अक्षर-सं ख्या तथा पाद एवं विराम ऋषिदृष्ट नहीं
है , वे गद्यात्मक मन्त्र 'यजु ः' कहलाते हैं और जितने मन्त्र गानात्मक हैं , वे मन्त्र ‘'साम'’ कहलाते हैं । इन तीन प्रकार की
शब्द-प्रकाशन-शै लियों के आधार पर ही शास्त्र एवं लोक में वे द के लिये ‘त्रयी’ शब्द का भी व्यवहार किया जाता है ।
यजु र्वे द गद्यसं गर् ह है , अत: इस यजु र्वे द में जो ऋग्वे द के छं दोबद्ध मं तर् हैं , उनको भी यजु र्वे द पढ़ने के समय गद्य जै सा ही
पढ़ा जाता है ।
चतु र्वे द[edit | edit source]
द्वापरयु ग की समाप्ति के पूर्व वे दों के उक्त चार विभाग अलग-अलग नहीं थे । उस समय तो ऋक् , यजु ः और साम - इन तीन
शब्द-शै लियोंमे सं गर् हात्मक एक विशिष्ट अध्ययनीय शब्द-राशि ही वे द कहलाती थी। पीछे जाकर वे द के समकक्ष मे अथर्व
भी सलग्न हो गया, फिर 'त्रयी' के जगह 'चतु र्वेद' कहलाने लगे | गु रु के रुष्ट होने पर जिन्होने सभी वे दौं को आदित्य से
प्राप्त किया है उन याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृ ति मे वे दत्रयी के बाद और पु राणौं के आगे अथर्व को सम्मिलित कर
बोला वे दाs थर्वपुराणानि इति .
वर्तमान काल में वे द चार हैं - ले किन पहले ये एक ही थे । वर्तमान काल में वे द चार माने जाते हैं । परं तु इन चारों को मिलाकर
एक ही 'वे द ग्रंथ' समझा जाता था।
एकैवासीत्यजु र्वे दस्तं चतु र्धाःव्यवर्तयत् -गरुड पु राण
लक्षणतः त्रयी होते हुये भी वे द एक ही था , फिर उसको चारभागमे बाँटा गया ।
एक एव पुरा वे द: प्रणव: सर्ववाङ्मय - महाभारत
अन्य नाम[edit | edit source]
सु नने से फैलने और पीढ़ी-दर-पीढ़ी याद रखने के कारण वा सृ ष्टिकर्ता ब्रहमाजीने भी अपौरुषे य वाणीके रुपमे प्राप्त करने
के कारण श्रुति, स्वतः प्रमाण के कारण आम्नाय, पु रुष(जीव) भिन्न ईश्वरकृत होने से  अपौरुषे य इत्यादि नाम वे दों के हैं ।
वे द के पठन-पाठन के क् रम में गु रुमु ख से श्रवण एवं याद करने का वे द के सं रक्षण एवं सफलता की दृष्टि से अत्यन्त
महत्त्व है । इसी कारण वे द को ‘'श्रुति'’ भी कहते हैं । वे द परिश्रमपूर्वक अभ्यास द्वारा सं रक्षणीय है , इस कारण इसका
नाम ‘'आम्नाय’' भी है । वे दौं की रक्षार्थ महर्षियौं ने अष्ट विकृतियौंकी रचना की है -जटा माला शिखा रे खा ध्वजो दण्डो
रथो घनः | अष्टौ विकृतयः प्रोक्तो क् रमपूर्वा महर्षयः || जिसके फलस्वरुप प्राचीन कालके तरह आज भी ह्रस्व,
दीर्घ,प्लु त्त और उदात्त,अनु दात्त स्वरित आदिके अनु रुप मन्त्रोच्चारण होता है ।
साहित्यिक दृष्टि से [edit | edit source]
इसके अनु सार प्रत्ये क शाखा की वै दिक शब्द-राशि का वर्गीकरण- उपर वर्णित प्रत्ये क वे द के चार भाग होते हैं । पहले
भाग मन्त्रभाग (सं हिता) के अलावा अन्य तीन भागको वे द न मान्ने वाले भी है ले किन् ऐसा विचार तर्क पूर्ण सिद्ध होते
नहि दे खा गया हैं । अनादि वै दिक परम्परामें मन्त्र,ब्राह्मण,आरण्यक और उपनिषद एक ही वे दके चार अवयव है । कुल
मिलाकर वे दके भाग ये हैं  :-

 सं हिता मन्त्रभाग- यज्ञानु ष्ठान मे प्रयु क्त वा विनियु क्त भाग)


 ब्राह्मण-ग्रन्थ - यज्ञानु ष्ठान मे प्रयोगपरक मन्त्र का व्याख्यायु क्त गद्यभाग में  कर्मकाण्ड की विवे चना)
 आरण्यक - यज्ञानु ष्ठानके आध्यात्मपरक विवे चनायु क्त भाग अर्थके पीछे के उद्दे श्य की विवे चना)
 उपनिषद - ब्रह्म माया वापरमे श्वर, अविद्या जीवात्मा और जगत् के स्वभाव और सम्बन्ध का बहुत ही दार्शनिक और
ज्ञानपूर्वक वर्णनवाला भाग | जै सा की कृष्णयजु र्वे दमे मन्त्रखण्डमे ही ब्राह्मण है । शु क्लयजु र्वेदे मन्त्रभागमे ही
ईसावास्योपनिषद है ।
उपर के चारौं खं ड वे द होने पर भी कुछलोग केवल 'सं हिता' को ही वे द मानते हैं ।
वर्गीकरण का इतिहास[edit | edit source]
द्वापरयु ग की समाप्ति के समय श्रीकृष्णद्वै पायन वे दव्यास जी ने  यज्ञानु ष्ठान के उपयोग को दृष्टिगत रखकर उस एक वे द के
चार विभाग कर दिये और इन चारों विभागों की शिक्षा चार शिष्यों को दी। ये ही चार विभाग ऋग्वे द, यजु र्वे द, सामवे द
और अथर्ववे द के नाम से प्रसिद्ध है । पै ल, वै शम्पायन, जै मिनि और सु मन्तु  नामक -चार शिष्यों को क् रमशः ऋग्वे द,
यजु र्वे द, सामवे द और अथर्ववे द की शिक्षा दी। इन चार शिष्यों ने शाकल आदि अपने भिन्न-भिन्न शिष्यों को पढ़ाया। इन
शिष्यों के द्वारा अपने -अपने अधीन वे दों के प्रचार व सं रक्षण के कारण वे  वै दिक
ग्रन्थ,चरण ,शाखा, प्रतिशाखा और अनु शाखा के माध्यम से बहुत रुपमे विस्तारित होगये | उन्हीं प्रचारक ऋषियौं के
नाम से प्रसिद्ध हैं ।
शाखा[edit | edit source]
पूर्वोक्त चार शिष्यौंने शु रुमे जितने शिष्यौंको अनु शर् वण कराया वे चरणसमु ह कहलाये | प्रत्ये क चरणसमु हमे बहुतसे
शाखा होते है । और इसी तरह प्रतिशाखा,अनु शाखा आदि बन गए । वे द की अने क शाखाएं यानि व्याख्यान का तरीका
बतायी गयी हैं । ऋषि पतञ्जलि के महाभाष्य के अनु सार ऋग्वे द की 21, यजु र्वे द की 101, सामवे द की 1001, अर्थववे द की
9 इस प्रकार 1131 शाखाएं हैं परन्तु आज 12 शाखाएं ही मूल ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । वे द की प्रत्ये क शाखा की वै दिक
शब्दराशि चार भागों में उपलब्ध है : 1. सं हिता 2. ब्राह्मण 3. आरण्यक 4. उपनिषद्। कुछ लोग इनमें संहिता को ही वे द
मानते हैं । शे ष तीन भाग को वे दों के व्याख्या ग्रन्थ मानते हैं । अलग शाखाओं में मूल सं हिता तो वही रहती हैं ले किन
आरण्यक और ब्राह्मण ग्रंथों में अन्तर आ जाता है । कइ मं तर् भाग में भी उपनिषद मिलता है जै सा कि शु क्लयजु र्वेद
मन्त्रभागमें इसावास्योपनिषद| पु राने समय में जितनी शाखाएं थी उतनी ही मन्त्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद होते
थे |इतनी शाखाओं के बाबजु द भी आजकल कुल ९ शाखाओं के ही ग्रंथ मिलते हैं । अन्य शाखाऔंमे किसीके
मन्त्र,किसीके ब्राह्मण,किसीके आरण्यक और किसीके उपनिषद ही पाया जाता है ।इतने ही नही अधिक शाखाऔंके तो
उपनिषद ही पाया जाता है ,तभी तो उपनिषद अधिक मिलते हैं ।

वे दों के विषय[edit | edit source]


वै दिक ऋषियौ ने वे दों को जनकल्याणमे प्रवृ त्त पाया । निस्सं देह जै सा कि -:यथे मां वाचं कल्याणिमावदानि जने भ्यः वै सा
ही वे दा हि यज्ञार्थमभिप्रवृ त्ता कालानु पर्व्या
ू भिहिताश्च यज्ञाः तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिषं वे द स वे द
यज्ञम्  वे दौं की प्रवृ त्तिः जनकल्यण के कार्य मे है । वे द शब्द विद् धातु में घञ् प्रत्यय लगने से बना है । सं स्कृत ग्रथों
में  विद् ज्ञाने  और विद्‌ लाभे जैसे विशे षणों से विद् धातु से ज्ञान और लाभ के अर्थ का बोध होता है ।
वे दों के विषय उनकी व्याख्या पर निर्भर करते हैं - अग्नि, यज्ञ, सूर्य, इं दर् (आत्मा तथा बिजली के अर्थ में ), सोम, ब्रह्म,
मन-आत्मा, जगत्-उत्पत्ति, पदार्थों के गु ण, धर्म (उचित-अनु चित), दाम्पत्य, ध्यान-योग, प्राण (श्वास की शक्ति) जै से
विषय इसमें बारं बार आते हैं । यज्ञ में  दे वता, द्रव्य, उद्दे श्य,और विधि आदि विनियु क्त होते हैं । ग्रंथों के हिसाब से इनका
विवरण इस प्रकार है -
ऋग्वे द[edit | edit source]
ऋग्वे द को चारों वे दों में सबसे प्राचीन माना जाता है । इसको दो प्रकार से बाँटा गया है । प्रथम प्रकार में इसे 10
मण्डलों में विभाजित किया गया है । मण्डलों को सूक्तों में , सूक्त में कुछ ऋचाएं होती हैं । कुल ऋचाएं 10520 हैं । दस ू रे
प्रकार से ऋग्वे द में 64 अध्याय हैं । आठ-आठ अध्यायों को मिलाकर एक अष्टक बनाया गया है । ऐसे कुल आठ अष्टक
हैं । फिर प्रत्ये क अध्याय को वर्गों में विभाजित किया गया है । वर्गों की सं ख्या भिन्न-भिन्न अध्यायों में भिन्न भिन्न ही
है । कुल वर्ग सं ख्या 2024 है । प्रत्ये क वर्ग में कुछ मं तर् होते हैं । सृ ष्टि के अने क रहस्यों का इनमें उद्घाटन किया गया है ।
पहले इसकी 21 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में इसकी शाकल शाखा का ही प्रचार है ।
यजु र्वे द[edit | edit source]
इसमें गद्य और पद्य दोनों ही हैं । इसमें यज्ञ कर्म की प्रधानता है । प्राचीन काल में इसकी 101 शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान
में केवल पांच शाखाएं हैं - काठक, कपिष्ठल, मै तर् ायणी, तै त्तिरीय, वाजसने यी। इस वे द के दो भे द हैं - कृष्ण यजु र्वे द और
ू रा नाम तै त्तिरीय सं हिता भी है । इसमें
शु क्ल यजु र्वे द। कृष्ण यजु र्वे द का सं कलन महर्षि वे द व्यास ने किया है । इसका दस
मं तर् और ब्राह्मण भाग मिश्रित हैं । शु क्ल यजु र्वे द - इसे सूर्य ने याज्ञवल्क्य को उपदे श के रूप में दिया था। इसमें 15
शाखाएं थीं परन्तु वर्तमान में माध्यन्दिन को जिसे वाजसने यी भी कहते हैं प्राप्त हैं । इसमें 40 अध्याय, 303 अनु वाक एवं
1975 मं तर् हैं । अन्तिम चालीसवां अध्याय ईशावास्योपनिषद है ।
सामवे द[edit | edit source]
यह गे य ग्रन्थ है । इसमें गान विद्या का भण्डार है , यह भारतीय सं गीत का मूल है । ऋचाओं के गायन को ही साम कहते
हैं । इसकी 1001 शाखाएं थीं। परन्तु आजकल तीन ही प्रचलित हैं - कोथु मीय, जै मिनीय और राणायनीय। इसको पूर्वार्चिक
और उत्तरार्चिक में बांटा गया है । पूर्वार्चिक में चार काण्ड हैं - आग्ने य काण्ड, ऐन्द्र काण्ड, पवमान काण्ड और आरण्य
काण्ड। चारों काण्डों में कुल 640 मं तर् हैं । फिर महानाम्न्यार्चिक के 10 मं तर् हैं । इस प्रकार पूर्वार्चिक में कुल 650 मं तर्
हैं । छः प्रपाठक हैं । उत्तरार्चिक को 21 अध्यायों में बांटा गया। नौ प्रपाठक हैं । इसमें कुल 1225 मं तर् हैं । इस प्रकार
सामवे द में कुल 1875 मं तर् हैं । इसमें अधिकतर मं तर् ऋग्वे द से लिए गए हैं । इसे उपासना का प्रवर्तक भी कहा जा
सकता है ।
अथर्ववे द[edit | edit source]
इसमें गणित, विज्ञान, आयु र्वे द, समाज शास्त्र, कृषि विज्ञान, आदि अने क विषय वर्णित हैं । कुछ लोग इसमें मं तर् -तं तर् भी
खोजते हैं । यह वे द जहां ब्रह्म ज्ञान का उपदे श करता है , वहीं मोक्ष का उपाय भी बताता है । इसे ब्रह्म वे द भी कहते हैं ।
इसमें मु ख्य रूप में अथर्वण और आं गिरस ऋषियों के मं तर् होने के कारण अथर्व आं गिरस भी कहते हैं । यह 20 काण्डों में
विभक्त है । प्रत्ये क काण्ड में कई-कई सूतर् हैं और सूतर् ों में मं तर् हैं । इस वे द में कुल 5977 मं तर् हैं । इसकी आजकल दो
शाखाएं शौणिक एवं पिप्पलाद ही उपलब्ध हैं । अथर्ववे द का विद्वान् चारों वे दों का ज्ञाता होता है । यज्ञ में ऋग्वे द का होता
दे वों का आह्नान करता है , सामवे द का उद्गाता सामगान करता है , यजु र्वे द का अध्वर्यु दे व:कोटीकर्म का वितान करता है
तथा अथर्ववे द का ब्रह्म पूरे यज्ञ कर्म पर नियं तर् ण रखता है ।
उपवे द[edit | edit source]
Template:मु ख्य आयु र्वे द, धनु र्वे द, गान्धर्ववे द तथा स्थापत्यवे द- ये क् रमशः चारों वे दों के उपवे द कात्यायन ने बतलाये हैं ।

1. स्थापत्यवे द - स्थापत्यकला के विषय, जिसे  वास्तु शास्त्र या वास्तु कला भी कहा जाता है , इसके अन्तर्गत आता है ।
2. धनु र्वे द - यु द्ध कला का विवरण। इसके ग्रंथ विलु प्त प्राय हैं ।
3. गन्धर्वे द - गायन कला।
4. आयु र्वे द - वै दिक ज्ञान पर आधारित स्वास्थ्य विज्ञान।

वे द के अं ग, उपां ग[edit | edit source]


Template:मु ख्य वे दों के सर्वां गीण अनु शीलन के लिये  शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष के ग्रन्थ हैं
जिन्हें  ६ अंग कहते हैं । प्रतिपदसूतर् , अनु पद, छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), धर्मशास्त्र, न्याय तथा वै शेषिक- ये ६ दर्शऩ
उपां ग ग्रन्थ भी उपलब्ध है । उपां गों के विषय इस प्रकार हैं -

1. शिक्षा - ध्वनियों का उच्चारण।


2. व्याकरण - सं धि, समास, उपमा, विभक्ति आदि का विवरण। वाक्य निर्माण को समझने के लिए आवश्यक।
3. ज्योतिष - आकाशीय पिं डों (सूर्य, पृ थ्वी, नक्षत्रों) की गति और स्थिति का ज्ञान। इसमें वे दां गज्योतिष नामक ग्रन्थ
प्रत्ये क वे दके अलग अलग थे | अब लगधमु नि प्रोक्त चारौं वे दौंके वे दां गज्योतिषौंमे दो ग्रन्थ ही पाया जाता है -एक
आर्च पाठ और दुसरा याजु स् पाठ | इस ग्रन्थमे सोमाकर नामक विद्वानके प्राचीन भाष्य मीलता है साथ ही
कौण्डिन्न्यायन सं स्कृत व्याख्या भी मीलता है ।
4. कल्प - यज्ञ के लिए विधिसूतर् । इसके अन्तर्गत श्रौतसूतर् , गृ ह्यसूतर् ,धर्मसूतर् और शु ल्बसूतर् |वे दोक्त कार्य सम्पन्न
करना और समर्पण करने मे इनका महत्व है ।
5. निरुक्त - शब्दों का मूल भाव। यह व्याकरण से अलग है - इस अर्थ में कि इनसे वस्तु ओं का ऐसा नाम किस लिये आया
इसका विवरण है । शब्द-मूल और शब्द-सं धि निरुक्त और व्याकरण के विषय हैं ।
6. छन्द - गायन या मं तर् ोच्चारण के लिए आघात और लय के लिए निर्दे श।

वै दिक स्वर प्रक्रिया[edit | edit source]


Template:मु ख्य

thumb|right|400px|वै दिक स्वर लिखने की कला - दे वनागरी लिपि में

वे द की सं हिताओं में मं तर् ाक्षरों में खड़ी तथा आड़ी रे खायें लगाकर उनके उच्च, मध्यम, या मन्द सं गीतमय स्वर उच्चारण
करने के सं केत किये गये हैं । इनको उदात्त, अनुदात्त ऒर स्वारित के नाम से अभिहित किया गया है । ये स्वर बहुत प्राचीन
समय से प्रचलित हैं और महामु नि पतं जलि ने अपने  महाभाष्य में इनके मु ख्य मु ख्य नियमों का समावे श किया है ।
स्वरों को अधिक या न्यून रूप से बोले जाने के कारण इनके भी दो-दो भे द हो जाते हैं । जै से उदात्त-उदात्ततर, अनु दात्त-
अनु दात्ततर, स्वरित-स्वरितोदात्त। इनके अलावे एक और स्वर माना गया है - श्रुति - इसमें तीनों स्वरों का मिलन हो
जाता है । इस प्रकार कुल स्वरों की सं ख्या ७ हो जाती है । इन सात स्वरों में भी आपस में मिलने से स्वरों में भे द हो जाता
है जिसके लिए स्वर चिह्नों में कुछ परिवर्तन हो जाता है । यद्यपि इन स्वरों के अं कण और टं कण में कई विधियाँ प्रयोग की
जाती हैं और प्रकाशक-भाष्यकारों में कोई एक विधा सामान्य नहीं है , अधिकां श स्थानों पर अनु दात्त के लिए अक्षर के
नीचे एक आड़ी लकीर तथा स्वरित के लिए अक्षर के ऊपर एक खड़ी रे खा बनाने का नियम है । उदात्त का अपना कोई चिह्न
नहीं है । इससे अं कण में समस्या आने से कई ले खक-प्रकाशक स्वर चिह्नों का प्रयोग ही नहीं करते ।

वै दिक छं द[edit | edit source]


Template:Main वै दिक मं तर् ों में प्रयु क्त छं द कई प्रकार के हैं जिनमें मु ख्य हैं  Template:Cn-

1. गायत्री - सबसे प्रसिद्ध छं द।आठ वर्णों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता में भी इसके सर्वोत्तम बताया गया है (ग्यारहवें
अध्याय में )। इसी में प्रसिद्ध गायत्री मं तर्  ढला है ।
2. त्रिष्टु प - ११ वर्णों के चार पाद - कुल ४४ वर्ण।
3. अनु ष्टु प - ८ वर्णों के चार पाद, कुल ३२ वर्ण। वाल्मीकि रामायण तथा गीता जै से ग्रंथों में भई इस्ते माल हुआ है । इसी
को श्लोक भी कहते हैं ।
4. जगती - ८ वर्णों के ६ पाद, कुल ४८ वर्ण।
5. बृ हती- ८ वर्णों के ४ पाद कुल ३२ वर्ण
6. पं क्ति- ४ या ५ पाद कुल ४० अक्षर २ पाद के बाद विराम होता है पादों में अक्षरों की सं ख्याभे द से इसके कई भे द हैं
7. उष्णिक- इसमें कुल २८ वर्ण होते हैं तथा कुल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वर्ण तथा तीसरे में १२ वर्ण होते हैं दो पद के
बाद विराम होता है बढे हुए अक्षरों के कारन इसके कई भे द होते हैं

वे द की शाखाएँ [edit | edit source]


Template:मु ख्य इसके अनु सार वे दोक्त यज्ञों का अनु ष्ठान ही वे द के शब्दों का मु ख्य उपयोग माना गया है । सृ ष्टि के
आरम्भ से ही यज्ञ करने में साधारणतया मन्त्रोच्चारण की शै ली, मन्त्राक्षर एवं कर्म-विधि में विविधता रही है । इस
विविधता के कारण ही वे दों की शाखाओं का विस्तार हुआ है । यथा-ऋग्वे द की २१ शाखा, यजु र्वे द की १०१
शाखा, सामवे द की १००० शाखा और अथर्ववे द की ९ शाखा- इस प्रकार कुल १,१३१ शाखाएँ हैं । इस सं ख्या का उल्ले ख
महर्षि पतञ्जलि ने अपने  महाभाष्य में भी किया है । उपर्युक्त १,१३१ शाखाओं में से वर्तमान में केवल १२ शाखाएँ ही मूल
ग्रन्थों में उपलब्ध है ः-

1. ऋग्वे द की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं - शाकल-शाखा और शांखायन शाखा।
2. यजु र्वे द में कृष्णयजु र्वे द की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है - तै त्तिरीय-शाखा, मै तर् ायणीय
शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा
3. शु क्लयजु र्वे द की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है - माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा।
4. सामवे द की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है - कौथु म-शाखा और जै मिनीय-शाखा।
5. अथर्ववे द की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं - शौनक-शाखा और पै प्पलाद-शाखा।
उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शै ली प्राप्त है -शाकल, तै त्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथु म
तथा शौनक शाखा। यह कहना भी अनु पयु क्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं , किन्तु
उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं ।

अन्य मतों की दृष्टि में वे द[edit | edit source]


जै सा कि उपर लिखा है , वे दों के कई शब्दों का समझना उतना सरल नहीं रहा है । वे दौंका वास्तविक अर्थ समझने के लिए
इनके भितरसे ही वे दां गौंका आविस्कार कीया गया | इसकी वजह इनमें वर्णित अर्थों को जाना नही जा सकता | सबसे
अधिक विवाद-वार्ता ईश्वर के स्वरूप, यानि एकमात्र या अने क दे वों के सदृश्य को ले कर हुआ है । वे दौंके वास्तविक अर्थ
वही कर सकता है जोवे दां ग- शिक्षा,कल्प, व्याकरण, निरुक्त,छन्द और ज्योतिषका ज्ञाता है । यूरोप के सं स्कृत विद्वानों की
व्याख्या भी हिन्द-आर्य जाति के सिद्धांत से प्रेरित रही है । प्राचीन काल में ही इनकी सत्ता को चु नौती दे कर कई ऐसे मत
प्रकट हुए जो आज भी धार्मिक मत कहलाते हैं ले किन कई रूपों में भिन्न हैं । इनका मु ख्य अन्तर नीचे स्पष्ट किया गया
है । उनमे से जिसका अपना अविच्छिन्न परम्परासे वे द,शाखा,और कल्पसूतर् ौं से निर्देशित होकर एक अद्वितीय
ब्रह्मतत्वको ईस्वर मानकर किसी एक दे ववादमे न उलझकर वे दवादमे रमण करते हैं वे वै दिक सनातन वर्णाश्रम धर्म
मनने वाले है वे ही वे दौंको सरवोपरी मानते है । इसके अलावा अलग अलग विचार रखने वाले और पृ थक् पृ थक् दे वता
मानने वाले कुछ सम्प्रदाय ये हैं -:

 जै न - इनको मूर्ति पूजा के प्रवर्तक माना जाता है । ये वे दों को श्रेष्ठ नहीं मानते पर अहिं सा के मार्ग पर ज़ोर दे ते हैं ।
 बौद्ध - इस मत में महात्मा बु द्ध के प्रवर्तित ध्यान और तृ ष्णा को दुःखों का कारण बताया है । वे दों में लिखे ध्यान के महत्व
को ये तो मानते हैं पर ईश्वर की सत्ता से नास्तिक हैं । ये भी वे द नही मानते |
 शै व - वे दों में वर्णित रूद्र के रूप शिव को सर्वोपरि समझने वाले । अपने को वै दिक धर्म के मानने वाले  शिव को एकमात्र
ईश्वर का कल्याणकारी रूप मानते हैं , ले किन शै व लोग शं कर दे व के रूप (जिसमें नं दी बै ल, जटा, बाघं बर इत्यादि हैं ) को
विश्व का कर्ता मानते हैं ।
 वै ष्णव - विष्णु और उनके अवतारों को ईश्वर मानने वाले । वै दिक ग्रन्थौं से अधिक अपना आगम मतको सर्वोपरीमानते है ।
विष्णु को ही एक ईश्वर बताते हैं और जिसके अनु सार सर्वत्र फैला हुआ ईश्वर विष्णु कहलाता है ।
 शाक्त अपने को वे दोक्त मानते तो है ले किन् पूर्वोक्त शै व,वै ष्णवसे श्रेष्ठ समझते है ,महाकाली,महालक्ष्मी और
महासरस्वतीके रुपमे नवकोटी दुर्गाको इष्टदे वता मानते है वे ही सृ ष्टिकारिणी है ऐसा मानते है ।
 सौर जगतसाक्षी सूर्यको और उनके विभिन्न अवतारौंको ईस्वर मानते है ।वे स्थावर और जं गमके आत्मा सूर्य ही है ऐसा
मानते है ।
 गाणपत्य गणे श को ईश्वर समझते है । साक्षात् शिवादि दे वौं ने भी उनकी उपासना करके सिद्धि प्राप्त किया है , ऐसा
मानते हैं ।
 सिख - इनका विश्वास एकमात्र ईश्वर में तो है , ले किन वे दों को ईश्वर की वाणी नहीं समझते हैं ।
 आर्य समाज - ये निराकार ईश्वर के उपासक हैं । ये वे द को ईश्वरीय ज्ञान तो मानते हैं ले किन वे दां गौं को और वे दौं के
व्याख्या के रूप मे प्राचीन वै दिकौं से स्वीकारा गया ईतिहास (रामायण-महाभारत) और पु राणौं के कटु आलोचक तथा
विरोधी भी है । ये अर्वाचीन वै दिक है ।
जिन विषयों पर विवाद रहा है उनका वर्णन नीचे दिया है ।
यज्ञ: यज्ञ के वर्तमान रूप के महत्व को ले कर कई विद्वानों, मतों और भाष्कारों में विरोधाभाष है । यज्ञ में आग के प्रयोग
को प्राचीन पारसी पूजन विधि के इतना समान होना और हवन की अत्यधिक महत्ता के प्रति विद्वानों में रूचि रही है ।
दे वता: दे व शब्द का ले कर ही कई विद्वानों में असहमति रही है । वे दोक्त निर्गुण- निराकार और सगु ण- साकार मे से अन्तिम
पक्षको मानने वाले कई मतों में (जै से- शै व, वै ष्णव और शाक्त सौर गाणपत,कौमार) इसे महामनु ष्य के रूप में विशिष्ट
शक्ति प्राप्त साकार चरित्र मसझते हैं और उनका मूर्ति रूप में पूजन करते हैं तो अन्य कई इन्हें ईश्वर (ब्रह्म, सत्य) के
ही नाम बताते हैं । परोपकार (भला) करने वाली वस्तु एँ (यथा नदी, सूर्य), विद्वान लोग और मार्गदर्शन करने वाले मं तर् ों को
दे व कहा गया है ।
उदाहरणार्थ अग्नि शब्द का अर्थ आग न समझकर सबसे आगे  यानि प्रथम यानि परमे श्वर समझते हैं । दे वता शव्द का
अर्थ दिव्य, यानि परमे श्वर (निराकार, ब्रह्म) की शक्ति से पूर्ण माना जाता है - जै से पृ थ्वी आदि। इसी मत में महादे व, दे वों
के अधिपति होने के कारण ईश्वर को कहते हैं । इसी तरह सर्वत्र व्यापक ईश्वर विष्णु  और सत्य होने के
कारण ब्रह्मा कहलाता है । इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महादे व किसी चरित्र के नाम नहीं बल्कि ईश्वर के ही नाम है ।
व्याकरण और निरुक्तके वलपर ही वै दिक और लौकिक शब्दौंके अर्थ निर्धारण कीया जाता है । इसके अभावमे अर्थके अनर्थ
कर बै ठते है । [20] इसी प्राकर गणे श (गणपति), प्रजापति, दे वी, बु द्ध, लक्ष्मी इत्यादि परमे श्वर के ही नाम हैं । वे दादि
शास्त्रौंमे आए विभन्न एक ही परमे श्वरके है । जै सा की उपनिषदौंमे कहा गया है - एको दे व सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी
सर्वभूतान्तरात्मा | कुछ लोग ईश्वरके सगु ण- निर्गुण स्वरुपमे झगडते रहते है । इनमे से कोई मूर्तिपूजा करते है और कोई
ऐसे लोग है जो मूर्तिपूजा के विरूद्ध हैं और ईश्वर को एकमात्र सत्य, सर्वोपरि समझते हैं ।
अश्वमे ध: अश्वमे ध से हिं सा और बलि का विचार आता है । यह कई हिन्दुओं को भी आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि कई
स्थानों पर शु द्धतावादी हिं सा (और मांस भक्षण) से परहे ज करते रहे हैं । कईयों का मानना है कि मे ध शब्द में  अध्वरं  का भी
प्रयोग हुआ है जिसका अर्थ है अहिं सा। अतः मे ध का भी अर्थ कुछ और रहा होगा। इसी प्रकार अश्व शब्द का अर्थ
घोड़ा न रहकर शक्ति रहा होगा। श्रीराम शर्मा आचार्य कृत भाषयों के अनु सार अश्व शब्द का अर्थ शक्ति, गौ शब्द का
अर्थ पोषण है । इससे अश्वमे ध का अर्थ घोड़े का बलि से इतर होती प्रतीत होती है ।
सोम: कुछ लोग इसे शराब (मद्य) मानते हैं ले किन कई अनु वादों के अनु सार इसे कू ट-पीसकर बनाया जाता था। अतः ये
शराब जै सा कोई पे य नहीं लगता। पर इसके असली रूप का निर्धारण नहीं हो पाया है ।

प्राचीन ऋग्वे द से जु ड़े दिलचस्प तथ्य


सनातन धर्म की शु रुआत वे दों से हुई है अर्थात वे दों को ही सनातन धर्म का आधार माना गया है . प्राचीन वे द हिं द ू धर्म के सबसे पवित्र धर्म
ग्रंथों में से एक हैं तथा यह शब्द सं स्कृत भाषा के 'विद' धातु से बना है .विद्वानों के अनु सार वे दों में लिखे गए मं तर् ों को भगवान ने प्राचीन
ऋषियों को सु नाया था और प्राचीन ऋषियों ने इन मं तर् ों को वे दों में उतारकर प्राचीन वे दों की रचना की. इसीलिए इन वे दों को भगवान की
कही श्रुति भी कहा जाता है .
आज हम आपके साथ इन वे दों में सबसे प्राचीन कहे जाने वाले ऋग्वे द से जु ड़े दिलचस्प तथ्यों की जानकारी साँझा कर रहें है . इसे पढ़कर आप
प्राचीन ऋग्वे द को बारीकी से समझ पाएं गे तथा यह दिलचस्प जानकारी आपकी आने वाली परीक्षाओं में भी महत्वपूर्ण साबित होगी.
1. ऋग्वे द की उत्पति प्राचीन वै दिक काल से जु डी है तथा ऋग्वे द ही प्राचीन 4 वे दों में सबसे पहले लिखा गया था.
2. ऋग्वे द को दुनिया के सभी इतिहासकार हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की सबसे पहली रचना मानते हैं .
3. ऋग्वे द को सं स्कृत में लिखा गया था तथा सं स्कृत को ही विश्व की प्राचीनतम भाषाशै ली का दर्जा प्राप्त है .

4. इसमें 10 मं डल, 8 अष्‍टक, 1028 सूक्त तथा 10462 मंं तर् हैं .


5. इसमें सबसे अधिक सूक्त  250 सर्वाधिक प्रतापी दे वता इं दर् को तथा 200 श्लोक अग्नि को समर्पित है .
6. ऋग्वे द में कुल 33 दे वी दे वताओं का वर्णन किया गया है .
7. इसमें लगभग 25 नदियों का वर्णन मिलता है जिसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण  नदी सिं धु को माना गया है तथा सर्वाधिक उल्ले ख सिं धु नदी का ही
मिलता है .
8. ऋग्वे द में सबसे प्राचीनतम नदी सरस्वती को माना गया है .
9. ऋगवे द के नदी सु क्त में उल्लिखित अं तिम नदी गौमल है .
10. इसमें गं गा एवं सरयू का एक बार तथा यमु ना का दो बार उल्लेे ख हुअा है .

11. यज्ञ के अवसर पर ऋग्वे द के मं तर् ाें को उच्चारण करने वाले ऋषिओं को होतृ कहा जाता था.
12. ऋग्वे द में ही प्राचीन गायत्री मं तर् का उल्ले ख मिलता है तथा यह सूर्य दे वता को समर्पित है .
13. ऋग्वे द के सातवें मं डल में वरुण दे वता तथा नवाँ मं डल में सोम दे वता का उल्ले ख मिलता है .
14. ऋग्वे द में गौ शब्द का प्रयोग 176 बार किया गया है .
15. प्राचीन महामृ त्यु ं जय मं तर् भी ऋग्वे द की ही दे न है . ऋग्वे द के अनु सार इस मं तर् के जप के साथ विधिवत व्रत तथा हवन करने से दीर्घ
आयु प्राप्त होती है .
16. ऋग्वे द सं सार के उन सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक है जिसकी किसी रूप में मान्यता आज तक समाज में बनी हुई है .
17. ऋग्वे द में औषधि सं बंधी ज्ञान भी मिलता है ऋग्वे द के अनु सार कुल 125 औषधियों की जानकारी मिलती है जो 107 स्थानों पर पाई जाती
थी.
18. ऋग्वे द में जल चिकित्सा, वायु चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, हवन द्वारा चिकित्सा आदि की भी जानकारी मिलती है .
19. ऋग्वे द में च्यवन ऋषि को पु नः यु वा करने की कथा भी मिलती है .
20. ऋग्वे द अर्थात् ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो.

ऋग्वेद सनातन धर्म अथवा हिन्द ू धर्म का स्रोत है । इसमें 1028 सक्


ू त हैं, जिनमें  दे वताओं की स्तति
ु की गयी है । इस
ग्रंथ में दे वताओं का यज्ञ में आह्वान करने के लिये मन्त्र हैं। यही सर्वप्रथम वेद है । ऋग्वेद को दनि
ु या के सभी
इतिहासकार हिन्द-यरू ोपीय भाषा-परिवार की सबसे पहली रचना मानते हैं। ये दनि
ु या के सर्वप्रथम ग्रन्थों में से एक
है । ऋक् संहिता में 10 मंडल, बालखिल्य सहित 1028 सक्
ू त हैं। वेद मंत्रों के समह
ू को 'सक्
ू त' कहा जाता है , जिसमें
एकदै वत्व तथा एकार्थ का ही प्रतिपादन रहता है । ऋग्वेद के सूक्त विविध दे वताओं की स्तुति करने वाले भाव भरे
गीत हैं। इनमें भक्तिभाव की प्रधानता है । यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त भी हैं, परन्तु दे वताओं की
स्तुति करने वाले स्रोतों की प्रधानता है ।

प्रमुख तथ्य

ऋग्वेद के विषय में कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित है -

 यह सबसे प्राचीनतम वेद माना जाता है ।


 ऋग्वेद के कई सूक्तों में विभिन्न वैदिक दे वताओं की स्तुति करने वाले मंत्र हैं, यद्यपि ऋग्वेद में अन्य प्रकार के सूक्त
भी हैं, परन्तु दे वताओं की स्तुति करने वाले स्त्रोतों की प्रधानता है ।
 ऋग्वेद में कुल दस मण्डल हैं और उनमें 1028 सूक्त हैं और कुल 10,580 ऋचाएँ हैं।
 इसके दस मण्डलों में कुछ मण्डल छोटे हैं और कुछ मण्डल बड़े हैं।
 प्रथम और अन्तिम मण्डल, दोनों ही समान रूप से बड़े हैं। उनमें सक्
ू तों की संख्या भी 191 है ।
 दस
ू रे मण्डल से सातवें मण्डल तक का अंश ऋग्वेद का श्रेष्ठ भाग है , उसका हृदय है ।
 आठवें मण्डल और प्रथम मण्डल के प्रारम्भिक पचास सक्
ू तों में समानता है ।

ऋक्ष शब्द ऋग्वेद में एक बार तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में कदाचित ही प्रयुक्त हुआ है । ऋग्वेद
में  यातुधानों को यज्ञों में बाधा डालने वाला तथा पवित्रात्माओं को कष्ट पहुँचाने वाला कहा गया है । नवाँ
मण्डल सोम से सम्बन्धित होने से पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है । यह नवाँ मण्डल आठ मण्डलों में सम्मिलित सोम
सम्बन्धी सूक्तों का संग्रह है , इसमें नवीन सूक्तों की रचना नहीं है । दसवें मण्डल में प्रथम मण्डल की सूक्त
संख्याओं को ही बनाये रखा गया है । पर इस मण्डल का विषय, कथा, भाषा आदि सभी परिवर्तीकरण की रचनाएँ
हैं। ऋग्वेद के मन्त्रों या ऋचाओं की रचना किसी एक ऋषि ने एक निश्चित अवधि में नहीं की, अपितु विभिन्न
काल में विभिन्न ऋषियों द्वारा ये रची और संकलित की गयीं। ऋग्वेद के मन्त्र स्तति
ु मन्त्र होने से ऋग्वेद का
धार्मिक और आध्यात्मिक महत्त्व अधिक है । चारों वेदों में सर्वाधिक प्राचीन वेद ऋग्वेद से आर्यों की राजनीतिक
प्रणाली एवं इतिहास के विषय में जानकारी प्राप्त होती है । ऋग्वेद अर्थात ् ऐसा ज्ञान, जो ऋचाओं में बद्ध हो।
विभाग

ऋग्वेद में दो प्रकार के विभाग मिलते हैं-

1. अष्टक क्रम - इसमें समस्त ग्रंथ आठ अष्टकों तथा प्रत्येक अष्टक आठ अध्यायों में विभाजित है । प्रत्येक अध्याय
वर्गो में विभक्त है । समस्त वर्गो की संख्या 2006 है ।
2. मण्डलक्रम - इस क्रम में समस्त ग्रन्थ 10 मण्डलों में विभाजित है । मण्डल अनुवाक, अनुवाक सूक्त तथा सूक्त मंत्र
या ॠचाओं में विभाजित है । दशों मण्डलों में 85 अनुवाक, 1028 सूक्त हैं। इनके अतिरिक्त 11 बालखिल्य सूक्त हैं।
ऋग्वेद के समस्य सक्
ू तों के ऋचाओं (मंत्रों) की संख्या 10600 है ।

सूक्तों के पुरुष रचयिताओं में  गत्ृ समद, विश्वामित्र, वामदे व, अत्रि, भारद्वाज और वसिष्ठ तथा स्त्री रचयिताओं


में  लोपामद्र
ु ा, घोषा, अपाला, विश्वरा, सिकता, शचीपौलोमी और कक्षावत्ति
ृ प्रमुख है । इनमें लोपामुद्रा प्रमुख थी। वह
क्षत्रीय वर्ण की थी किन्तु उनकी शादी अगस्त्य ऋषि से हुई थी। ऋग्वेद के दसू रे एवं सातवें मण्डल की ऋचायें
सर्वाधिक प्राचीन हैं, जबकि पहला एवं दसवां मण्डल अन्त में जोड़ा गया है । ऋग्वेद के आठवें मण्डल में मिली
हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को ‘खिल‘ कहा गया है ।

ऋग्वे द के मण्डल एवं उसके रचयिता


ऋग्वे द के मण्डल रचयिता
1- प्रथम मण्डल अने क ऋषि
2- द्वितीय मण्डल गृ त्समय
3- तृ तीय मण्डल विश्वासमित्र
4- चतु र्थ मण्डल वामदे व
5- पं चम मण्डल अत्रि
6- षष्ठम् मण्डल भारद्वाज
7- सप्तम मण्डल वसिष्ठ
8- अष्ठम मण्डल कण्व व अं गिरा
9- नवम् मण्डल (पावमान मण्डल) अने क ऋषि
10- दशम मण्डल अने क ऋषि

प्राचीन रचना

ऋग्वेद भारत की ही नहीं सम्पर्ण


ू विश्व की प्राचीनतम रचना है । इसकी तिथि 1500 से 1000 ई.प.ू मानी जाती है ।
सम्भवतः इसकी रचना सप्त-सैंधव प्रदे श में हुई थी। ऋग्वेद और ईरानी ग्रन्थ 'जेंद अवेस्ता' में समानता पाई जाती
है । ऋग्वेद के अधिकांश भाग में दे वताओं की स्तति
ु परक ऋचाएं हैं, यद्यपि उनमें ठोस ऐतिहासिक सामग्री बहुत
कम मिलती है , फिर भी इसके कुछ मन्त्र ठोस ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करते हैं। जैसे एक स्थान ‘दाशराज्ञ
युद्ध‘ जो भरत कबीले के राजा सुदास एवं पुरू कबीले के मध्य हुआ था, का वर्णन किया गया है । भरत जन के
नेता सुदास के मुख्य पुरोहित वसिष्ठ थे, जब कि इनके विरोधी दस जनों (आर्य और अनार्य) के संघ के
पुरोहित विश्वामित्र थे। दस जनों के संघ में - पांच जनो के अतिरिक्त- अलिन, पक्थ, भलनसु, शिव तथ विज्ञाषिन के
राजा सम्मिलित थे। भरत जन का राजवंश त्रित्सज
ु न मालूम पड़ता है , जिसके प्रतिनिधि दे वदास एवं सुदास थे।
भरत जन के नेता सुदास ने रावी (परुष्णी) नदी के तट पर उस राजाओं के संघ को पराजित कर
ऋग्वैदिक भारत के चक्रवर्ती शासक के पद पर अधिष्ठित हुए। ऋग्वेद में , यद,ु द्रह्ु यु, तुर्वश, पुरू और अनु पांच जनों
का वर्णन मिलता है ।

शाखाएँ

ऋग्वेद के मंत्रों का उच्चारण यज्ञों के अवसर पर 'होत ृ ऋषियों' द्वारा किया जाता था। ऋग्वेद की अनेक संहिताओं
में 'संप्रति संहिता' ही उपलब्ध है । संहिता का अर्थ संकलन होता है । ऋग्वेद की पांच शाखायें हैं-

1. शाकल,
2. वाष्कल,
3. आश्वलायन,
4. शांखायन
5. मांडूकायन

ऋग्वेद के कुल मंत्रों की संख्या लगभग 10600 है । बाद में जोड़ गये दशम मंडल, जिसे ‘परु
ु षसक्
ू त‘ के नाम से
जाना जाता है , में सर्वप्रथम शद्र
ू ों का उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त नासदीय सक्
ू त (सष्टि
ृ विषयक जानकारी,
निर्गुण ब्रह्म की जानकारी), विवाह सक्
ू त (ऋषि दीर्घमाह द्वारा रचित), नदि सक्
ू त (वर्णित सबसे अन्तिम नदी
गोमल), दे वी सक्
ू त आदि का वर्णन इसी मण्डल में है । इसी सक्
ू त में दर्शन की अद्वैत धारा के प्रस्फुटन का भी
आभास होता है । सोम का उल्लेख नवें मण्डल में है । 'मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं, माता अन्नी पीसनें वाली है ।
यह कथन इसी मण्डल में है । लोकप्रिय 'गायत्री मंत्र' (सावित्री) का उल्लेख भी ऋग्वेद के 7 वें मण्डल में किया गया
है । इस मण्डल के रचयिता वसिष्ठ थे। यह मण्डल वरुण दे वता को समर्पित है ।

त्रित दे वता की कथा

मुख्य लेख :  त्रित

 त्रित प्राचीन दे वताओं में से थे।


 त्रित सोम बनाया था तथा इंद्रादि अनेक दे वताओं की स्तुतियाँ समय-समय पर की थीं।
 त्रित ने बल के दर्ग
ु को नष्ट किया था। युद्ध के समय मरुतों ने त्रित की शक्ति की रक्षा की थी।

यजु र्वे द
'यजुष' शब्द का अर्थ है - 'यज्ञ'। यर्जुवेद मूलतः कर्मकाण्ड ग्रन्थ है । इसकी रचना कुरुक्षेत्र में मानी जाती है । यजुर्वेद
में आर्यो की धार्मिक एवं सामाजिक जीवन की झांकी मिलती है । इस ग्रन्थ से पता चलता है कि आर्य 'सप्त सैंधव'
से आगे बढ़ गए थे और वे प्राकृतिक पूजा के प्रति उदासीन होने लगे थे। यर्जुवेद के मंत्रों का उच्चारण 'अध्वुर्य'
नामक पुरोहित करता था। इस वेद में अनेक प्रकार के यज्ञों को सम्पन्न करने की विधियों का उल्लेख है । यह
गद्य तथा पद्य दोनों में लिखा गया है । गद्य को 'यजुष' कहा गया है । यजुर्वेद का अन्तिम अध्याय ईशावास्य
उपनिषयद है , जिसका सम्बन्ध आध्यात्मिक चिन्तन से है । उपनिषदों में यह लघु उपनिषद आदिम माना जाता है
क्योंकि इसे छोड़कर कोई भी अन्य उपनिषद संहिता का भाग नहीं है । यजुर्वेद के दो मुख्य भाग है -

1. शुक्ल यजुर्वेद
2. कृष्ण यजुर्वेद

शुक्ल यजुर्वेद

इसमें केवल 'दर्शपौर्मासादि' अनुष्ठानों के लिए आवश्यक मंत्रों का संकलन है । इसकी मुख्य शाखायें है -

1. माध्यन्दिन
2. काण्व

इसकी संहिताओं को 'वाजसनेय' भी कहा गया है क्योंकि 'वाजसनि' के पत्र


ु  याज्ञवल्क्य वाजसनेय इसके द्रष्टाथे।
इसमें कुल 40 अध्याय हैं।

कृष्ण यजुर्वेद

इसमें मंत्रों के साथ-साथ 'तन्त्रियोजक ब्राह्मणों' का भी सम्मिश्रण है । वास्तव में मंत्र तथा ब्राह्मण का एकत्र
मिश्रण ही 'कृष्ण यजुः' के कृष्णत्त्व का कारण है तथा मंत्रों का विशुद्ध एवं अमिश्रित रूप ही 'शुक्त यजुष ्' के
शुक्लत्व का कारण है । इसकी मुख्य शाखायें हैं-

1. तैत्तिरीय,
2. मैत्रायणी,
3. कठ और
4. कपिष्ठल

 तैत्तरीय संहिता (कृष्ण यजुर्वेद की शाखा) को 'आपस्तम्ब संहिता' भी कहते हैं।


 महर्षि पंतजलि द्वारा उल्लिखित यजुर्वेद की 101 शाखाओं में इस समय केवल उपरोक्त पाँच वाजसनेय, तैत्तिरीय, कठ,
कपिष्ठल और मैत्रायणी ही उपलब्ध हैं।
 यजुर्वेद से उत्तरवैदिक यग
ु की राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की जानकारी मिलती हैं।
 इन दोनों शाखाओं में अंतर यह है कि शुक्ल यजुर्वेद पद्य (संहिताओं) को विवेचनात्मक सामग्री (ब्राह्मण) से अलग करता
है , जबकि कृष्ण यजुर्वेद में दोनों ही उपस्थित हैं।
 यजुर्वेद में वैदिक अनष्ु ठान की प्रकृति पर विस्तत
ृ चिंतन है और इसमें यज्ञ संपन्न कराने वाले प्राथमिक ब्राह्मण व
आहुति दे ने के दौरान प्रयुक्त मंत्रों पर गीति पुस्तिका भी शामिल है । इस प्रकार यजुर्वेद यज्ञों के आधारभूत तत्त्वों से
सर्वाधिक निकटता रखने वाला वेद है ।
 यजुर्वेद संहिताएँ संभवतः अंतिम रचित संहिताएँ थीं, जो ई. पू. दस
ू री सहस्त्राब्दी के अंत से लेकर पहली सहस्त्राब्दी की
आरं भिक शताब्दियों के बीच की हैं।

यजुर्वेद की अन्य विशेषताएँ


 यजर्वे
ु द गद्यात्मक हैं।
 यज्ञ में कहे जाने वाले गद्यात्मक मन्त्रों को ‘यजुस’ कहा जाता है ।
 यजुर्वेद के पद्यात्मक मन्त्र ऋग्वेद या अथर्ववेद से लिये गये है ।
 इनमें स्वतन्त्र पद्यात्मक मन्त्र बहुत कम हैं।
 यजुर्वेद में  यज्ञों और हवनों के नियम और विधान हैं।
 यह ग्रन्थ कर्मकाण्ड प्रधान है ।
 यदि ऋग्वेद की रचना सप्त-सिन्धु क्षेत्र में हुई थी तो यजुर्वेद की रचना कुरुक्षेत्र के प्रदे श में हुई थी।
 इस ग्रन्थ से आर्यों के सामाजिक और धार्मिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है ।
 वर्ण-व्यवस्था तथा वर्णाश्रम की झाँकी भी इसमें है ।
 यजुर्वेद में यज्ञों और कर्मकाण्ड का प्रधान है ।

निम्नलिखित उपनिषद् भी यजुर्वेद से सम्बद्ध हैं:-

 श्वेताश्वतर
 बह
ृ दारण्यक
 ईश
 प्रश्न
 मुण्डक
 माण्डूक्य

सामवेद

‘साम‘ शब्द का अर्थ है ‘गान‘। सामवेद में संकलित मंत्रों को दे वताओं की स्तुति के समय गाया जाता था। सामवेद
में कुल 1875 ऋचायें हैं। जिनमें 75 से अतिरिक्त शेष ऋग्वेद से ली गयी हैं। इन ऋचाओं का गान सोमयज्ञ के
समय ‘उदगाता‘ करते थे। सामदे व की तीन महत्त्वपूर्ण शाखायें हैं-

1. कौथुमीय,
2. जैमिनीय एवं
3. राणायनीय।

दे वता विषयक विवेचन की दृष्ठि से सामवेद का प्रमुख दे वता ‘सविता‘ या ‘सूर्य‘ है , इसमें मुख्यतः सूर्य की स्तति

के मंत्र हैं किन्तु इंद्र सोम का भी इसमें पर्याप्त वर्णन है । भारतीय संगीत के इतिहास के क्षेत्र में सामवेद का
महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है । इसे भारतीय संगीत का मूल कहा जा सकता है । सामवेद का प्रथम द्रष्टा वेदव्यास के
शिष्य जैमिनि को माना जाता है ।

 सामवेद से तात्पर्य है कि वह ग्रन्थ जिसके मन्त्र गाये जा सकते हैं और जो संगीतमय हों।
 यज्ञ, अनष्ु ठान और हवन के समय ये मन्त्र गाये जाते हैं।
 सामवेद में मल
ू रूप से 99 मन्त्र हैं और शेष ऋग्वेद से लिये गये हैं।
 इसमें यज्ञानुष्ठान के उद्गातव
ृ र्ग के उपयोगी मन्त्रों का संकलन है ।
 इसका नाम सामवेद इसलिये पड़ा है कि इसमें गायन-पद्धति के निश्चित मन्त्र ही हैं।
 इसके अधिकांश मन्त्र ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं, कुछ मन्त्र स्वतन्त्र भी हैं।
 सामवेद में ऋग्वेद की कुछ ॠचाएं आकलित है ।
 वेद के उद्गाता, गायन करने वाले जो कि सामग (साम गान करने वाले) कहलाते थे। उन्होंने वेदगान में केवल तीन स्वरों
के प्रयोग का उल्लेख किया है जो उदात्त, अनुदात्त तथा स्वरित कहलाते हैं।
 सामगान व्यावहारिक संगीत था। उसका विस्तत
ृ विवरण उपलब्ध नहीं हैं।
 वैदिक काल में बहुविध वाद्य यंत्रों का उल्लेख मिलता है जिनमें से

1. तंतु वाद्यों में कन्नड़ वीणा, कर्क री और वीणा,


2. घन वाद्य यंत्र के अंतर्गत दं द
ु भि
ु , आडंबर,
3. वनस्पति तथा सुषिर यंत्र के अंतर्गतः तुरभ, नादी तथा
4. बंकुरा आदि यंत्र विशेष उल्लेखनीय हैं।

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