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ये वही पांच तत्व है जिससे मानव का शरीर बना है, इसी को पांच तत्व कहा गया है,
( 1.पृथ्वी, 2.जल, 3. अग्नि, 4.वायु, 5. आकाश, )
इन्ही पांचो तत्व के अलग से 5-5 विकृ ति है, जिन्हें मिलकर 25 विकृ ति होते है।
#तेरी_पाँच_तत्व_की_काया_जिसमे_ब्रह्म_ज्ञान_समाया
🌺हमारा शरीर तथा ब्रह्माण्ड का निर्माण एक जैसा ही हुआ है और सारा ब्रह्माण्ड हमारे
अपने ही अंदर मौजूद है नादान
🍃सभी तत्व हमारे शरीर में अपने अपने स्थान पर रहते हैं और ये सब अपनी अपनी
प्रकृ ति के साथ हमारे शरीर ही वास करते है। जैसे:-
5🍃नाखून
👉🏻इसी के साथ साथ हमारे शारीर में 👉🏻पाँच काम इंद्रियाँ ,
जो इस प्रकार है 👇🏻
1🌿पैर 🍃आंख
2🌿गुदा 🍃नाक
3🌿लिंग 🍃कान
4🌿मुंह 🍃मुंह
5🌿हाथ 🍃त्वचा
इन सबके साथ साथ इनका भी निवास हमारी काया में होता है इनको को भी जान
लीजिये जो इस प्रकार है
👇🏻
🥀इन सबका सही ज्ञान ही हमे हमको सही दिशा दिखा सकता है नादान
🥀अलख आदेश
ऐसा कहा जाता है कि प्रकृ ति के पांच तत्व हैं जिनमें सब कु छ शामिल है: आकाश
(अंतरिक्ष), अग्नि (अग्नि), जल (जल), पृथ्वी (पृथ्वी)।
हमें जीवन में समस्याओं को समझने के लिए इन पांच तत्वों को समझने की जरूरत है
– चाहे वह हमारे रिश्ते या वित्तीय मुद्दों या शारीरिक मुद्दों या मानसिक मुद्दों या यहां
तक कि हमारे आध्यात्मिक जीवन के बारे में हो।
अधिक उन्नत योग अभ्यास के लिए पांच तत्वों का ज्ञान एक आवश्यक पूर्व-आवश्यकता
है क्योंकि तत्व उस दुनिया का निर्माण करते हैं जिसमें हम रहते हैं और हमारे शरीर-
मन की संरचना होती है।
सभी योग अभ्यास पांच तत्वों पर काम करते हैं, चाहे हम इसे जानते हों या नहीं।
तत्वों (तत्वों) का ज्ञान भी योग चिकित्सा और आयुर्वेद, पारंपरिक भारतीय चिकित्सा का
आधार है।
तत्वों के साथ सचेत रूप से काम करके , हम सीखते हैं कि स्वास्थ्य कै से प्राप्त किया
जाए और कै से बनाए रखा जाए और उच्च जागरूकता के आधार पर सचेत रूप से एक
लंबे और पूर्ण जीवन का आनंद कै से लिया जाए
आज के इस लेख में आप जानेगे कि किस तरह से आप इन पांच तत्वों को आसानी के
साथ संतुलित कर सकते है,
1)आकाश (अंतरिक्ष)
उदाहरण के लिए, यदि हमारे जोड़ों के बीच किसी प्रकार की जगह कम हो जाती है, तो
हमें जोड़ों में दर्द महसूस होता है। इसी तरह अगर विचारों के बीच में किसी तरह की
जगह कम हो जाए तो यह हमारे मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकता है। रिश्ते
में एक निश्चित स्तर की जगह होनी चाहिए।
2.)वायु (हवा)
हवा अस्थिर गति, ठं डी और शुष्क का प्रतीक है। स्थिरता के लिए किसी भी तत्व को
जीवन में पूरी तरह से प्रवाहित होना चाहिए। यदि हवा तेजी से बहती है, तो यह
शारीरिक रूप से मांसपेशियों की परेशानियों, अस्थिर रिश्ते, मानसिक रूप से चंचल मन
का कारण बन सकती है। और हवा की मात्रा कम होने की स्थिति में, विचारों की कमी,
निम्न रक्तचाप, आलस्य, रिश्ते में प्यार की कमी हो सकती है।
3)अग्नि
4. जल (पानी)
पानी शीतलता का प्रतिनिधित्व करता है। यह किसी भी चीज़ को एक नयी दिशा देने में
मदद करता है और इसमें एकजुट गुण होते हैं। पानी बहुत लचीला होता है और किसी
भी गिलास में डालने पर यह कोई भी रूप ले सकता है।
हालाँकि, पानी की अधिकता शरीर में सूजन पैदा कर सकती है। पानी अनुकू लन क्षमता
और लचीलेपन का भी प्रतिनिधित्व करता है, जो एक रिश्ते के महत्वपूर्ण हिस्से हैं
क्योंकि एक रिश्ते को समायोजन और सहजता की आवश्यकता होती है।
5. पृथ्वी
पृथ्वी दृढ़ता का प्रतिनिधित्व करती है। पृथ्वी कठोर, भारी और स्थिर है। यह कु छ पकड़
सकता है और कु छ रोक सकता है। जब पृथ्वी की कमी होती है, तो आपके बाल झड़
सकते हैं, दांत कमजोर हो सकते हैं, हड्डियां भंगुर हो सकती हैं, खून बहना बंद नहीं हो
सकता है, रिश्ते अस्थिर हो सकते हैं।
इसकी अधिकता होने पर पाचन में कठिनाई हो सकती है, शरीर में ट्यूमर बन सकते
हैं। एक स्वस्थ शारीरिक, मानसिक और संबंध जीवन के लिए एक सही संतुलन होना
आवश्यक है।
इन तत्वों के बीच में कु छ इस तरह से संबंध होता है जो कि इनकी प्रकृ ति के बारे में
बताता है तो अब जानते है तत्वों के बीच संबंध-
पांच तत्वों में से प्रत्येक का प्रकृ ति के आधार पर अन्य तत्वों के साथ एक निश्चित
संबंध है। ये संबंध प्रकृ ति के नियमों का निर्माण करते हैं। कु छ तत्व शत्रु हैं, इसमें
प्रत्येक दूसरे की अभिव्यक्ति को अवरुद्ध करता है।
ऐसा करने के सर्वोत्तम तरीकों में से एक है शरीर में तत्वों के प्राकृ तिक क्रम को
सीखना। आधार पर पृथ्वी और जल हैं, नाभि के नीचे, धड़ के बीच में आग होती है।
जब हम आसन, प्राणायाम और ध्यान का अभ्यास करते हैं तो इसके बारे में जागरूकता
बनाए रखने से तत्वों में ऊर्जा का उचित वितरण होता है। जैसे-जैसे प्राण शरीर में नीचे
और ऊपर की तरफ जाता रहता है वैसे वैसे ये हमारे शरीर से सभी हिस्सों को जगाता
रहता है और धीरे धीरे हमारे तत्व संतुलन में आते है
मानव शरीर के अंदर अग्नि और वायु दोनों का ही स्थान होता है और इनके असंतुलन
से शरीर में अनेक तरह के रोग उत्पन्न होने लग जाते हैं और हमारा शरीर बीमारियों
से घिर जाता है। इसलिए आप को संतुलित जीवन जीने के लिए इन सभी तत्व को
संतुलन में रखना जरूरी होता है क्योंकि पंचतत्व ऊर्जा का भंडार होते हैं और इनके
अंदर से ही ऊर्जा निकलती है और हम सभी उस उर्जा के माध्यम से ही अपने जीवन
को बेहतर तरीके से जीते हैं। इसलिए जीवन को संतुलित रखने के लिए पांच तत्वों का
संतुलन में होना बहुत जरूरी होता है .
निष्कर्ष(Conclusion)
आज के इस लेख के अंदर हमने पांच तत्वों के महत्व के बारे में जानने की कोशिश की
है और हमने साथ ही साथ यह जानने की कोशिश की है कि किस तरह से पांच तत्व
हमारे जीवन को संतुलित करते हैं और हमको प्रगतिशील रहने में हमारी मदद करते हैं।
अगर हमारे जीवन में इन पांच तत्वों में से किसी भी एक तत्व की कमी हो जाती है
तो हमारा जीवन जीना असंभव होता है क्योंकि हमारे जीवन की नींव पूरी तरह से इन
पांच तत्वों के ऊपर ही निर्भर करती है और अगर किसी भी तत्वों के बीच में संतुलन
होता है तो उसका असर मनुष्य के जीवन पर बुरी तरह से पड़ता है। इन सभी तत्वों के
बैलेंस से ही हम खुद को अच्छा रख सकते है इसलिए ऊपर दिए हुये पॉइंट्स को अच्छे
से समझे और उनको फॉलो करे,
पञ्चभूत
पञ्चभूत (पंचतत्व या पंचमहाभूत) भारतीय दर्शन में सभी पदार्थों के मूल माने गए हैं।
आकाश (Space) , वायु (Quark), अग्नि (Energy), जल (Force) तथा पृथ्वी
(Matter) - ये पंचमहाभूत माने गए हैं जिनसे सृष्टि का प्रत्येक पदार्थ बना है। लेकिन
इनसे बने पदार्थ जड़ (यानि निर्जीव) होते हैं, सजीव बनने के लिए इनको आत्मा
चाहिए। आत्मा को वैदिक साहित्य में पुरुष कहा जाता है। सांख्य शास्त्र में प्रकृ ति इन्ही
पंचभूतों से बनी मानी गई है।
योगशास्त्र में अन्नमय शरीर भी इन्हीं से बना है। प्राचीन ग्रीक में भी इनमें से चार
तत्वों का उल्लेख मिलता है - आकाश (ईथर) को छोड़कर।
यूनान के अरस्तू और फ़ारस के रसज्ञ जाबिर इब्न हय्यान इसके प्रमुख पंथी माने जाते
हैं। हिंदू विचारधारा के समान यूनानी, जापानी तथा बौद्ध मतों में भी पंचतत्व को
महत्वपूर्ण एवं गूढ अर्थोंवाला माना गया है।
पृथ्वी एक मात्र देवी का स्वरूप है और सूर्य एकमात्र देव इनको आप आदि शक्ति माँ
सरस्वती (बुध), माँ महालक्ष्मी (शुक्र), माँ अन्नपूर्णा (पृथ्वी) अब आगे माँ वैष्णवी
(मंगल) तथा सूर्य के रूप में महादेव इन चार पिण्डो यानि धरतीयों में नारायण
(जीवात्मा) को पोषित करते हैं।
तत्व प्राण ऊर्जा (योग में प्राण का एक विशिष्ट अर्थ होता है) के विशिष्ट रूप बताते हैं।
प्राण इन्ही पाँच तत्वों से मिलकर बना है - ठीक उसी प्रकार जैसे हमारा शरीर और
अन्य कई चीज़। माण्डु क्योपनिषद, प्रश्नोपनिषद तथा शिव स्वरोदय मानते हैं कि
पंचतत्वों का विकास मन से, मन का प्राण से और प्राण का समाधि (यानि पराचेतना)
से हुआ है।
वज़न, द्रवता,
गुण गरम, प्रसार गति फै लाव
एकजुटता संकु चन
मंत्र लं वं रं यं हं
शरीर में
जाँघे पैर कं धे नाभि मस्तक
स्थिति
मानसिक मनस,
अहंकार बुद्धि चित्त प्रज्ञा
दशा विवेक
जैसा कि उपर कहा गया है, साधक योगी तत्व का पता लगाकर अपने भविष्य का पता
लगा लेते हैं। इससे वे अपनी मनोदशा औक क्रियाकलापों को नियंत्रित कर जीवन को
बेहतर बना सकते हैं। इसकी कई विधियाँ योगी बताते हैं, कु छ चरण इस प्रकार हैं -
शिव स्वरोदय ग्रंथ मानता है कि श्वास का ग्रहों, सूर्य और चंद्र की गतियों से संबंध
होता है। ग्रंथ स्वर-विहीन (यानि तत्वों के यौगिक महत्व) ज्योतिष विद्या को भी बेकार
मानता है ।
[2]
मन राजा
बहुत पहले मेरे मन में एक प्रश्न आया कि 1 मन = 40 किलो ही क्यों माना गया ?
बाद में इसका उत्तर मिला । दरअसल भारतीयों ने सभी जीवन व्यवहारिक शब्द, वास्तु,
श्रंगार, मानक आदि आदि
इस आधार पर रखे हैं कि
उनसे हमें आत्मा, प्रकृ ति,
सृष्टि, जीव और जीवन के 4
पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम,
मोक्ष के बारे में बारबार
स्मृति होती रहे ।
अतः उत्तर मिला -
पाँच तत्व प्रकृ ति पच्चीसा । दस इन्द्री मन भौ चालीसा ।
महर्षि कपिल के सांख्य दर्शन के अनुसार मूल आत्मा सहित कु ल 25 तत्व मुख्य हैं ।
यद्यपि बाद में अन्य संवेगों को मिलाकर 70 से ऊपर तक तत्व खोज लिये गये । पर
उनका प्रकरण भिन्न है । लेकिन जब बात मुख्य और सामान्य रूप से और प्रकट
व्यवहार में आने वाले तत्वों की हो । तो सिर्फ़ 1 आत्मा सहित ये कु ल 24 बनते हैं ।
आत्मा (पुरुष)
4 अंत:करण - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार ।
5 ज्ञानेन्द्रियाँ - नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण ।
5 कर्मेन्द्रियाँ - पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक ।
( पाद - पैर, हस्त - हाथ, उपस्थ - शिश्न, पायु - गुदा, वाक - मुख )
5 तन्मात्रायें - गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द ।
5 महाभूत - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश ।
शाश्वत ( है ) परमात्मा में हुये ‘प्रथम बोध’ और उसके तुरन्त बाद हुये स्वतः स्फ़ू र्त
संकु चन “हुं” से उठी मूलमाया से उत्पन्न इन पाँच महाभूतों में ही समस्त सृष्टि और
समस्त जीव शरीरों की रचना हुयी । इन 5 महाभूतों की 5-5 = 25 प्रकृ तियां भी इनके
साथ ही उत्पन्न हो गयीं ।
आकाश की - काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय ।
वायु की - चलन, बलन, धावन, प्रसारण, संकु चन ।
अग्नि की - क्षुधा, तृषा, आलस्य, निद्रा, मैथुन ।
जल की - लार, रक्त, पसीना, मूत्र, वीर्य ।
पृथ्वी - अस्थि, चर्म, मांस, नाङी, रोम ।
( इनमें आकाश तत्व की प्रकृ तियों को लेकर मतभेद सा हो जाता है । क्योंकि शब्द,
कु शब्द, गुण, व्यापन, आविर्भाव आदि कु छ प्रकृ तियां ऐसी हो सकती हैं । जो आकाश से
संभव है । फ़िर भी सभी मन की मनोवृतियां ही हैं । और विचार करने पर - काम,
क्रोध, लोभ, मोह, भय..ही इनमें मुख्य हैं । )
वायु तत्व से 10 प्रकार की वायु - प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कर्म,
कू करत देवदत्त तथा धनंजय की उत्पत्ति हुयी । जिनमें प्रथम 5 - प्राण, अपान,
समान, उदान, व्यान मुख्य हैं ।
तत्वों के बाद “हं” स्वर से अंतःकरण ( सोऽहं ) उत्पन्न हुआ । तथा तीन गुण - सत,
रज, तम बने ।
इसके बाद बहत्तर नाङियों के साथ फ़िर 5 ज्ञानेन्द्रियाँ अपनी तन्मात्राओं के साथ प्रकट
हुयीं । इसके बाद 5 कर्मेन्द्रियाँ भी उत्पन्न हुयीं ।
इसके बाद सात सूत ( सप्त धातुयें ) - रस, रक्त, माँस, वसा, मज्जा, अस्थि और
शुक्र..भी बने ।
पांच तत्व
22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस है, इसलिए हमने सोचा कि प्रकृ ति के पाँच तत्वों के बारे में
बात करना स्वाभाविक होगा। जब हम प्रकृ ति को देखते हैं, तो पाँच तत्व हैं जो संपूर्ण
भौतिक संसार को आधार प्रदान करते हैं - अंतरिक्ष, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी।
आयुर्वेद इन तत्वों को सभी भौतिक अस्तित्व के निर्माण खंड के रूप में पहचानता है।
हम पृथ्वी से आने वाले खाद्य पदार्थों से अपना पोषण करते हैं, और अंततः
हमारा शरीर उस सांसारिक पदार्थ में लौट आता है जहाँ से वह आया है।
अग्नि शरीर को ऊष्मा और दीप्तिमान ऊर्जा प्रदान करती है, यह सभी चयापचय
और रासायनिक क्रियाओं में भी मौजूद होती है।
पानी हमारा जीवन कायम रखने वाला तरल पदार्थ है, जो हमारे कु ल शरीर
द्रव्यमान का 70 प्रतिशत से अधिक बनाता है।
पांच तत्व बताते हैं कि प्राकृ तिक दुनिया के पदार्थ मानव शरीर के साथ सामंजस्यपूर्ण
क्यों हैं। आयुर्वेद में, हम पौधों, जड़ी-बूटियों, खनिजों और पानी का उपयोग करते हैं
क्योंकि ये पदार्थ संरचना और चरित्र में हमारे अंतर्निहित मेकअप के समान होते हैं।
शारीरिक रूप से, पांच तत्व तीन जैव-गतिशील शक्तियों के रूप में कार्य करते हैं,
जिन्हें वात, पित्त और कफ कहा जाता है। अपना दोष निर्धारित करने के तरीके के
विवरण के लिए यहां क्लिक करें ।
#1 पाँच तत्व
#1.1 पानी
अब तो इस बात के काफी मात्रा में वैज्ञानिक सबूत उपलब्ध हैं कि पानी में जबर्दस्त
याददाश्त होती है। अगर आप पानी में देखते हुए कोई विचार बनायें तो पानी की
आण्विक संरचना बदल जाती है। पानी को छू ने से भी ये बदल जाती है। तो ये बहुत
महत्वपूर्ण है कि आप पानी से किस तरह संपर्क बनाते हैं।
#1.2 मिट्टी
#1.3 वायु
यौगिक परंपराओं में हम हवा को वायु कहते हैं जिसका मतलब है कि ये सिर्फ
नाइट्रोजन, ऑक्सिजन, कार्बन डाई ऑक्साइड और दूसरी गैसों का मिश्रण ही नहीं है
बल्कि ये संचरण (एक से दूसरी जगह जाना या गति) का एक आयाम है। पाँच तत्वों
में से वायु ही हमारी पहुँच में सबसे ज्यादा है। दूसरे तत्वों के मुकाबले, इस तत्व पर
आसानी से महारत पाई जा सकती है। इसीलिये, वायु को आधार बनाकर ही बहुत सारी
यौगिक प्रक्रियायें बनायी गयीं हैं।
#1.4 अग्नि
भारतीय संस्कृ ति में आग तत्व को अग्निदेव के रूप में दिखाया गया है, जो दो मुँह
वाले देवता हैं और हर तरफ फै लने वाली, उग्र रूप धारण करने वाली सवारी पर घूमते
हैं। ये दो मुँह प्रतीकात्मक हैं – वे अग्नि के जीवन देने वाले और जीवन लेने वाले दोनों
ही रूपों को दर्शाते हैं। जब तक हमारे अंदर अग्नि न जल रही हो, तब तक कोई जीवन
नहीं है, पर, अगर हम उसके बारे में सतर्क न रहें, तो अग्नि बहुत जल्दी बेकाबू हो कर
हर चीज़ को खत्म कर सकती है।
#1.5 आकाश
आकाश को बस खाली स्थान समझ लेना सही नहीं है। आकाश ईथर है। वैसे ईथर
कहना भी शत प्रतिशत सही नहीं है, पर ये सबसे नजदीकी अर्थ है। ईथर कोई खाली
स्थान नहीं होता, ये अस्तित्व का एक सूक्ष्म आयाम है। खाली स्थान या रिक्तता यानि
काल या अस्तित्वहीनता, जिसे शिव कहते हैं। शिव यानि "वह जो नहीं है"। लेकिन
आकाश यानि "वह जो है"।
इन पाँच तत्वों के सहयोग के बिना आप चाहे जितना संघर्ष कर लें, कु छ नहीं होगा।
सिर्फ उनके सहयोग से ही, एकदम मूल पहलुओं से लेकर सबसे ऊँ चे पहलू तक, आपका
जीवन एक संभावना बनता है। इन पाँच तत्वों या पंचतत्व पर हम पूरी तरह महारत पा
सकें , इसके लिये योग में जो मूल साधना है, उसे भूत शुद्धि कहते हैं। दरवाजा वही है।
आप दरवाजे की किस तरफ हैं, ये समय और स्थान के संदर्भ में आपके जीवन की हर
बात को तय करता है। मनुष्य का तंत्र एक दरवाजे की तरह है। हर दरवाजे के दो पहलू
होते हैं - अगर आपको हमेशा बंद दरवाजे मिलते हैं तो आपके लिये दरवाजे का मतलब
वो चीज़ है जो आपको रोकती है। अगर आपको दरवाजे खुले मिलते हैं तो दरवाजा
आपके लिये वह चीज़ है जहाँ से आपके लिये कहीं पहुँचने की संभावना बनती है। दोनों
ही स्थितियों में, दरवाजा वही है।
आप दरवाजे की किस तरफ हैं, ये समय और स्थान के संबंध में आपके जीवन की हर
बात को तय करता है। आप इस शरीर को एक बड़ी संभावना के रूप में देखते हैं या
एक बड़ी बाधा के रूप में, ये इस बात पर निर्भर करता है कि ये पाँच तत्व आपको
कितनी मात्रा में सहयोग दे रहे हैं। ईशा योग में हरेक साधना द्वारा किसी न किसी
तरह से इन पाँच तत्वों को इस तरह संगठित किया जाता है कि आपको व्यक्तिगत
जीव से और ब्रह्मांडीय प्रकृ ति से भी सबसे अच्छा नतीजा मिले क्योंकि ये दोनों इन
पाँच तत्वों के ही खेल हैं।
आपको ये समझाने की बात है कि मनुष्य होना ही अपने आपमें एक बहुत बड़ी बात है।
पर मनुष्य होना कोई बड़ी बात तब बनेगी जब आप अपनी मनुष्यता को और इस
मानव तंत्र को एक संभावना की तरह इस्तेमाल करना सीखेंगे, न कि इसे किसी बाधा
की तरह देखेंगे।
अगर आप रहस्यमयी, गूढ़ आयामों को हासिल करना नहीं चाहते तो आपको इन पाँच
तत्वों में से आकाश तत्व के बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं है। बाकी के 4 में से, पानी
आपके शरीर का 72% भाग है, मिट्टी 12% है, वायु 6% और अग्नि 4% है। वायु का
प्रबंधन (मैनेजमेंट) करना सबसे आसान है क्योंकि आपके पास साँस है जिसे आप एक
खास तरह से संभाल सकते हैं। अग्नि पर महारत पाने से आपको बहुत कु छ मिल
सके गा पर चूंकि आप गृहस्थ हैं तो आपको अग्नि पर महारत पाने की ज़रूरत नहीं है।
बाकी का 6% आकाश है, जिसकी आपको तब तक चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, जब
तक कि आप अस्तित्व के रहस्यमयी, गूढ़ आयामों को हासिल नहीं करना चाहते।
अच्छी तरह से जीने के लिये बाकी के 4 तत्व पर्याप्त हैं। पाँचवा तत्व, आकाश, उनके
लिये महत्वपूर्ण नहीं है जो बस अच्छी तरह जीना चाहते हैं।
#4 पंचभूत मंदिर
भारत वो भूमि है जहाँ प्रकृ ति के पाँच तत्वों के लिये पाँच मंदिर हैं जो भौगोलिक दृष्टि
से भारत के दक्षिणी पठार में स्थित हैं - चार तमिलनाडु में और एक आंध्रप्रदेश में। ये
मंदिर पूजापाठ के लिये नहीं बल्कि साधना के लिये बनाये गये थे। पाँचों तत्वों पर
साधना करने के लिये लोग एक से दूसरे मंदिर जाते थे।
एक मंदिर में वे मिट्टी पर साधना करते थे और फिर पानी पर साधना करने के लिये
दूसरे मंदिर जाते थे। इसी तरह अलग अलग मंदिरों में अलग अलग तत्वों की साधना
होती थी। दुर्भाग्य से अब ये सब नहीं रहा है क्योंकि साधना का वातावरण अब खत्म
हो गया है, ये समझ और ये महारत सामान्य रूप से अब नहीं रही है। पर, ये पाँचों
मंदिर अभी भी हैं और इनमें से कु छ ने अपनी गुणवत्ता को और अपनी जीवंतता को
कायम रखा है जब कि कु छ मंदिर अब इस मामले में कमज़ोर पड़ गये हैं।
#5 तत्वों के देवता
पाँच तत्वों के लिये प्राण प्रतिष्ठापन किया जा सकता है। मिसाल के तौर पर, मान
लीजिये, हम वायु के लिये देवता बनाना चाहते हैं। तो हम एक ऊर्जा आकर बनायेंगे,
जिसे कोई भी मनुष्य समझ सके , जिसके साथ अपना संबंध जोड़ सके । यौगिक प्रणाली
में हम सामान्य रूप से मानव आकृ ति नहीं बनाते। तो हम वायु के लिये सिर्फ एक
लंब-गोलाकार (एल्लिप्सोइड) आकृ ति बनायेंगे क्योंकि हम जानते हैं कि ये एक ऐसा
आकार है जो सबसे ज्यादा समय तक चलेगा और जिसके लिये ज्यादा रख रखाव की
ज़रूरत नहीं है।
15000 से भी ज्यादा वर्षों से पहले आदियोगी पाँच तत्वों या पंचतत्व के बारे में बोले।
उन्होंने अपने पहले 7 शिष्यों को बताया कि ये सारा ब्रह्मांड बस पाँच तत्वों का खेल है
और ये भी कि ये किस अनुपात में हमारे शरीर में काम करते हैं, और अगर आप उन
पर महारत पा लें तो कै से एक तरह से आपको सृष्टि पर भी महारत मिल जाती है!
अगर आपको सृष्टि पर थोड़ी सी भी महारत हासिल हो जाये तो सृष्टि के स्रोत तक
आपकी एकदम सीधी पहुँच बन जाती है। जब इस विज्ञान को बड़े विस्तार से और
अभिव्यक्ति के सभी रूपों में समझाया गया तो वहाँ बैठे शिष्यों के रूप में सप्तऋषि
और साथ ही ये सब देख, सुन रही आदियोगी की पत्नी पार्वती बहुत ही आश्चर्यचकित
हुए और विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे। उन्हें यकीन नहीं हुआ कि सारा अस्तित्व बस
पाँच चीजों के मेल से बना है और उनमें से एक चीज़ कु छ भी नहीं है, यानि सिर्फ चार
चीजों से ही!
वे सात पुरुष इस पर महारत पाने को उत्सुक थे लेकिन वहाँ जो स्त्री थी, पार्वती, उसने
तय किया कि वो खुद को इसके आगे पूर्ण समर्पित कर के उसका ही एक हिस्सा हो
जायेगी।
तो उन सातों को अलग अलग जगहों पर काम करने के लिये भेज दिया गया पर
पार्वती को वहीं रखा गया क्योंकि उन्होंने पूर्ण समर्पण करके उस चीज़ को अपना ही
एक हिस्सा बना लिया था। उन सातों को महर्षि कहा गया जब कि पार्वती देवी हो
गयीं। हम यहाँ इस बारे में बात कर रहे हैं कि कोई अपने आपको किस तरह आगे बढ़ा
सकता है! अगर आप किसी बात की बारीकियों में जायेंगे कि वो किस तरह अभिव्यक्त
हुई है, तो आप लाखों सालों तक जीवित रहें और उनका अध्ययन करते रहें तो भी ये
एक अंतहीन प्रक्रिया होगी। ये उत्साहित करने वाली ज़रूर है पर अंतहीन है। या फिर
आप इस अंतहीन प्रक्रिया को एक तरफ रख दें और उस आयाम का स्पर्श करें जो इन
सब का स्रोत है। अगर आप ये खेल खेलना चाहते हैं तो सृष्टिरचना के तत्वों के साथ
घुलमिल जाईये उनसे जुड़ जाईये।
अगर आप ये खेल खेलना नहीं चाहते आप सिर्फ मुकाबले का परिणाम जीत के रूप में
चाहते हैं - आपको खेल में रुचि नहीं है बस जीत कर आगे जाना चाहते हैं - तो आप
सिर्फ उसे स्पर्श कीजिये जो सृष्टि का स्रोत है। आपको तत्वों के चक्कर में खो जाने की
जरूरत नहीं है। आप खेल को खेलिये या फिर खेल आपके साथ खेलेगा पर अगर आप
खेल नहीं खेलते तो खेल आपको खेल सकता है। परसारे खेल को अलग रखना और बस
सृष्टि के स्रोत पर कें द्रित रहना सबसे आसान चीज़ लगती है। अगर आप खुद को कोई
महत्व नहीं देते आपको खुद से कोई लगाव नहीं है अपने शरीर मन विचारों और अपनी
भावनाओं और सभी चीजों से कोई लगाव नहीं है तो ये स्वाभाविक रूप से हो जायेगा
वरना ये सबसे कठिन बात है। आप जब अपने जीवन के नायक हैं तो क्या अपने
आपको अलग रख देना संभव है आप जब मुख्य भूमिका में हैं तो खुद को एक तरफ
कर देना उसे कोई महत्व न देना आसानी से नहीं होता। पर यही सबसे आसान और
महान तरीका हैनहीं तो आप एक बड़ा अंतहीन खेल खेलते ही रह जायेंगे। पर अगर
आप खेल खेलना ही चाहते हैं तो उसे कु शलता से खेलें। एक बेकार खिलाड़ी को कोई
पसंद नहीं करता।
जब आप खेल खेलना ही चुन लेते हैं तो इन तत्वों पर कु छ महारत पाना अहम है, नहीं
तो आप अपने जीवन में एक बेकार खिलाड़ी सिद्ध होंगे। अगर जीवन के किसी भी क्षेत्र
में कोई सफल हुआ है, तो इसका मतलब है कि जाने अनजाने उसने तत्वों पर किसी न
किसी ढंग से कु छ महारत पायी है, वरना किसी भी चीज़ में कोई सफलता नहीं मिल
सकती। हो सकता है कि उसने कहीं और इस पर काम किया हो या अभी और यहीं इस
पर काम कर रहा हो। किसी भी चीज़ पर कु छ महारत पाये बिना जीवन में कोई
सफलता नहीं मिलती।
अगर आप खुद को कोई महत्व नहीं देते, आपको खुद से कोई लगाव नहीं है, अपने
मन, शरीर, विचारों से, अपनी भावनाओं और सभी चीजों से कोई लगाव नहीं है तो ये
स्वाभाविक रूप से हो जायेगा।
अगर आपने कोई गतिविधि करना तय कर लिया है तो मनुष्य के जीवन में सफलता
ही सबसे ज्यादा अहम, सबसे मधुर बात है। कु छ लोग ऐसे हैं, जिन्हें दार्शनिक कहा
जाता है और जो इस तरह की फालतू बातें फै लाते हैं जब वे कहते हैं, "कोई फर्क नहीं
पड़ता कि आप जीतते हैं या हारते हैं - सब ठीक है"। पर जीवन में ऐसी फालतू बात
नहीं होती। जब आप कोई खेल खेलते हैं तो जीतना चाहते हैं। खेल पूरा हो जाने के
बाद, अगर आप हार जाते हैं तो ठीक है पर अगर खेल खेलने से पहले ही आप ऐसा
सोचते हैं कि हारना ठीक है तो आपको पता ही नहीं है कि खेल क्या है? जब आप एक
बार कोई खेल खेलना तय कर लेते हैं - चाहे वो बाज़ार हो या शादी या जीवन या
आध्यात्मिक प्रक्रिया - तो आपको जीतना ही चाहिये। और, कई बार ये खेल दो दलों के
बीच होता है। कभी-कभी आप भूल जाते हैं कि आप तभी जीत सकते हैं जब आपके
साथी भी जीत रहे हों। अगर आप शादीशुदा हैं और ये सोचते हैं कि सिर्फ आपको ही
खेल जीतना है तो आपका जीवनसाथी आपके जीवन को तकलीफों से भर देगा!
हम जब भी हठयोग के लिये निर्देश देते हैं तो कहते हैं, "अपने आपको उतना खींचिये
जितना आप खींच सकते हैं, और उससे भी थोड़ा ज्यादा"!
1970 के दशक में के नी रॉबर्ट्स ने विश्व मोटरसाइकिल विजेता ट्रॉफी लगातार तीन बार
जीती। ये कोई आसान चीज़ नहीं है क्योंकि इस दौड़ में दुनिया की सबसे बेहतरीन
मशीनें इस्तेमाल होती हैं और उनके चालक इस धरती के बहुत ही ऊँ चे दर्जे के होते हैं
जिससे कई बार जीत सेकं ड के सौंवे हिस्से से भी होती है! ये ट्रॉफी जीतने के लिये
आपको उसके पहले, सीज़न में 12 - 15 प्रतियोगितायें जीतनी होती हैं। तो, ऐसा
लगातार तीन बार करना लगभग असंभव है।
जब लोगों ने उससे पूछा, "आपने ये कै से किया"? तो उसने कहा, "मैं नियंत्रण रखते
हुए, नियंत्रण से बाहर चला जाता हूँ"! उसके पास नियंत्रण से बाहर जाने का साहस था
पर बहुत ज्यादा बाहर नहीं जाने की बुद्धिमानी भी थी। आपमें कु छ करने की हिम्मत
तभी होगी, जब आपमें कु छ काबिलियत होगी - वरना ये साहस एक बड़ी विपत्ति बन
सकता है। जब आप इसे सफलतापूर्वक कर लेते हैं, तो लोग आपको साहसी कहेंगे पर
अगर आप गिर जायें तो लोग आपको बेवकू फ ही कहेंगे। ये सीमारेखा बहुत ही पतली है
और उस सीमारेखा तक जाने की, उसे पार करने की आपकी काबिलियत बेहतर से
ज्यादा बेहतर होती चली जाती है, अगर आपको अपने अस्तित्व की मूल बातों पर
महारत हासिल हो तो।
जो लोग इसके लिये कोई साधना करना नहीं चाहते, उनके लिये हम ध्यानलिंग मंदिर
में पंचभूत क्रिया करवाते हैं जिससे कम से कम वे वहाँ होने का फायदा पा सकें । किसी
कर्म-कांड (संस्कार) का यही महत्व है। संस्कार मूल रूप से उन लोगों के लिये है जो
उस प्रक्रिया को खुद नहीं कर सकते। तो, ये एक सार्वजनिक साधना है। जब आप
साधना करते हैं तो वहाँ सिर्फ आप होते हैं पर संस्कार वहाँ मौजूद सभी लोगों के फायदे
के लिये होता है। निश्चित ही साधना की प्रकृ ति ज्यादा बड़ी है पर संस्कार ज्यादा लोगों
के फायदे के लिये होता है।
#10 अगर आप पाँच तत्वों या पंचतत्व पर महारत हासिल कर लेते हैं तो क्या होगा?
जिन्हें तत्वों पर महारत पानी है, वे खुद को तत्वों के सामने खुला छोड़ देते हैं। पुराने
आध्यात्मिक पंथ जैसे नागा, जैन, गोरखनाथी आदि के साधक साधना के मूल स्तर पर
अपने आपको तत्वों के सामने खुला छोड़ देते थे - क्योंकि वे सारा लेन देन बिना रोक
टोक के होने देना चाहते थे। आजकल दुनिया में निर्वस्त्र (बिना कपड़ों के ) घूमना संभव
नहीं है पर भारत में कु छ पंथों में ये अभी भी होता है। आप उन्हें हज़ारों की संख्या में
नग्नावस्था में चलते देखेंगे और वे सामाजिक नियमों की परवाह नहीं करते। पर आपके
लिये ये संभव नहीं है। प्रश्न : तत्वों के सामने खुद को खुला छोड़ देना क्या इस ढंग से
संभव है कि उनके बारे में ज्यादा जागरूक होने के लिये हम खुले स्थानों, जैसे खेतों,
मैदानों में या समुद्र तट पर बैठें और क्षितिज को, आकाश को, समुद्र को देखते रहें या
खाली स्थानों में कु छ समय गुज़ारें? सदगुरु : इससे मदद मिल सकती है पर लोग
सामान्य रूप से खुले स्थानों पर खुद को ढँक कर, सुरक्षित रखते हैं क्योंकि अलग
अलग जगहों पर लोगों को तापमान, हवाओं और मौसम में काफी फर्क मालूम पड़ता है।
फिर भी, हाँ, ये एक संभावना है पर ज़रूरी नहीं कि ये हो ही। जब आप बाहर बैठते हैं
तो इसका उपयोग कर सकते हैं।
आप एक आसान सा काम कर सकते हैं। पहनने के लिये ढीले कपड़े लें। उनमें आपका
फिगर शायद अच्छा न दिखे पर तत्वों के स्तर पर देखा जाए, तो आपका कोई आकार
ही नहीं है। तत्वों लगातार लेन-देन करते रहते हैं। इसे करने के लिये, इसके प्रति
जागरूक रहने के लिये ये अहम होगा कि आपके शरीर और कपड़ों के बीच थोड़ा खाली
स्थान हो यानी एकदम चिपके हुए, तंग कपड़े न पहनें। ये एक काम तो आप कर ही
सकते हैं।
अगर आप ध्यान दें तो देख सकें गे कि इस साँस के अलावा भी आपके शरीर में
लगातार बहुत सारे लेन देन चल रहे हैं। सभी तरह के लेन-देन पर पर्याप्त ध्यान देने
से आप धीरे धीरे अपने भीतर तत्वों की प्रकृ ति और उनकी संरचना को समझ सकें गे।
तब, एक आयाम को बढ़ाना, या उपयुक्त क्रियाओं के द्वारा अपने तंत्र में आकाश तत्व
को बढ़ाना संभव है। जब आपको बुद्धि से नहीं पर ध्यान देने से मालूम पड़ जाए कि
लेन देन चल रहा है, तो हम इस लेन देन को इस तरह से बदल सकें गे कि वो हमें
फायदा दे।
पहला काम तो ये है कि आप अपने सबसे ज्यादा स्पष्ट लेन देन की ओर ध्यान दें,
उन्हें संभालें। साँस लेना, खाना, पीना, शरीर का तापमान और बाहरी तापमान ये
एकदम स्पष्ट हैं। इनकी ओर थोड़ा ज्यादा ध्यान दें।
अगर आप अपने खाने, पीने, साँस लेने और हर चीज़ को छू ने की ओर पर्याप्त ध्यान दें
तो आप देखेंगे कि आपका जीवन का अनुभव एक अलग ही स्तर पर पहुँच जायेगा।
मुझे इस बात से हमेशा हैरानी होती है कि लोग कै से अपनी साँस को भी कभी जान
नहीं पाते, जो सबसे ज्यादा स्पष्ट लेन देन है और वो भी शांति से नहीं होता। ये सारे
शरीर को हिलाता है, गति में रखता है। अगर आपको साँस का ही पता न चलता हो तो
उससे ज्यादा सूक्ष्म लेन देन को आप कै से समझ पायेंगे? अगर आप अपने
खाने, पीने, साँस लेने, और हर चीज़ को छू ने की ओर ध्यान दें, तो आप देखेंगे कि
आपका जीवन का अनुभव एक अलग ही स्तर पर पहुँच जायेगा।
ये वैसा ही है जैसे गाड़ी चलाते समय भी आप दूसरे के साथ बातचीत कर सकते हैं।
एक ही समय पर ध्यान देने के दो स्तर बने रह सकते हैं। आप जो कु छ भी कर रहे
हैं, वो करते हुए भी साँस पर ध्यान दे सकते हैं। आप जो खाना खा रहे हैं या जो पानी
पी रहे हैं, उसकी ओर भी ध्यान दे सकते हैं। आप जो कु छ भी हैं, उसकी तत्वीय
संरचना में ही अस्तित्व की रहस्यमय, गूढ़ प्रकृ ति के अंदर उतरकर, उसके परे के
आयामों को जानने की संभावना गहराई में छु पी हुई है। इसमें बदलाव लाने से आपके
साथ अद्भुत चीजें हो सकती हैं।
प्रवचन दिनांक
15 मई 2000
जगह
वृंदावन
अवसर
प्रवचन संग्रह
ऑडियो
यर करना
अंतर्वस्तु
छोटे से छोटे में भी मौजूद है,
बड़े से बड़े में भी मौजूद है,
और, सर्वव्यापी साक्षी के रूप में चमकता हुआ,
अमर आत्मा है।
व्यक्ति में आत्मा के रूप में जाना जाता है,
और ब्रह्मांड में ब्रह्म के रूप में जाना जाता है,
आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आत्मा है।
1
प्रेम के प्रतीक!
जिन पांच तत्वों से संपूर्ण ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है, वे पांच तत्व मनुष्य में भी
मौजूद हैं। ये पांच तत्व, अर्थात् पृथ्वी (पृथ्वी), जल (जल), अग्नि (अग्नि), वायु (पवन),
और आकाश (ईथर) को हम शब्द (ध्वनि), स्पर्(स्पर् ), रूप की संवेदनाओं के माध्यम से
पहचानते हैं। (दृष्टि या रूप की धारणा), रस (स्वाद) और गंध (गंध)। कृष्ण ने अर्जुन को
पार्थ कहकर संबोधित किया क्योंकि अर्जुन धरती माता का पुत्र था। सचमुच, धरती माता का
पुत्र होने के कारण प्रत्येक मनुष्य को पार्थ कहा जा सकता है।
2
तत्वों की प्रकृति
पहला तत्व पृथ्वी , ध्वनि, स्पर्आदि सभी पांच संवेदनाओं से पहचाना जा सकता है। जिन
पांच तत्वों से प्रकृति बनी है, उनमें से प्रत्येक बहुत शक्तिशाली है। इस प्रकार, पृथ्वी
अंतरिक्ष में [सूर्य के चारों ओर] बहुत तेजी से घूमने और एक धुरी के चारों ओर तेजी
षता
से घूमने की क्षमता रखती है। इसमें विभिन्न गुण और वि षताएँशेएँहैं।
अपनी सतह पर, पृथ्वी कई वस्तुओं और संस्थाओं जैसे पहाड़ों, जंगलों, शहरों, गांवों,
महासागरों, नदियों आदि का समर्थन करती है।
अज्ञानी लोग आचर्य यश्चकरते हैं: "जब पृथ्वी घूमती है, तो ये वस्तुएं क्यों नहीं
र्
खिसकती और चलती हैं?" इस स्पष्ट विरोधाभास का उत्तर इस तथ्य में निहित है कि
पृथ्वी स्वतंत्र नहीं है बल्कि अपने भीतर छिपी दिव्य शक्ति के अधीन है। पहाड़, शहर,
जंगल और बाकी सभी चीजें उस अदृय श्य शक्ति द्वारा दृढ़ और सुरक्षित हैं और पृथ्वी के
तीव्र घूर्णन के बावजूद, उन्हें खिसकने नहीं दिया जाता है। रेलवे ट्रैक पर ट्रेनों
की रफ्तार. सोचिए अगर पटरियाँ भी ट्रेन की तरह तेज़ चलने लगें तो ट्रेन में
यात्रियों की किस्मत कैसी होगी! पटरियाँ हिलती नहीं हैं क्योंकि उन्हें सुरक्षित कर
दिया गया है।
पृथ्वी की सतह पर पहाड़ों से लेकर महासागरों तक सभी वस्तुएँ अदृय श्य गुरुत्वाकर्षण बल
द्वारा मजबूती से टिकी हुई हैं। यह गुरुत्वाकर्षण ईवर रश्वकी इच्छा का परिणाम है। इस
प्रकार पृथ्वी ईवर रश्वके मास्टर प्लान के सूक्ष्म पहलुओं का एक अच्छा उदाहरण प्रदान
करती है।
चूँकि पृथ्वी दैवीय शक्ति से परिपूर्ण है, यह भगवान के एक अंग के अलावा और कुछ नहीं
है। हमारे शरीर में कई अंग और अंग होते हैं जैसे हाथ, पैर, नाक, आंखें, कान
आदि।
इसी प्रकार, प्रत्येक व्यक्ति समाज या समुदाय का एक अंग है। विभिन्न समुदाय मानव
जाति के विभिन्न अंग हैं, जो प्रकृति या सृष्टि का एक अंग है, जो बदले में ईवर रश्वका
एक अंग है। इसीलिए अक्सर कहा जाता है कि ईवर रश्वसूक्ष्म रूप में संपूर्ण ब्रह्मांड में
व्याप्त है।
पृथ्वी बहुत बड़ी है लेकिन ईवर रश्वजो अनंत और सबसे सूक्ष्म है, अपनी दिव्य शक्ति से
पूरी पृथ्वी को व्याप्त करता है। चूँकि पृथ्वी में गुण हैं, इसलिए यह स्वतंत्र नहीं है।
जब तक गुण मौजूद हैं, कोई स्वतंत्रता की बात नहीं कर सकता। जैसे-जैसे गुण एक-एक
करके कम होते जाते हैं, संबंधित इकाई की सूक्ष्मता और उसकी वि लता लताशा
बढ़ती जाती
है। पृथ्वी में शब्द, स्पर्, रूप, रस और गंध सभी गुण मौजूद हैं। इसलिए यह सीमित है.
इसके अलावा, गुण मिलकर एक बाध्यकारी प्रभाव उत्पन्न करते हैं जो गति लता लता शीको
कठिन बना देता है (उदाहरण के लिए, कोई पहाड़ों को नहीं हिला सकता)।
पंचतत्वों में अगला स्थान जल का है। यह पृथ्वी पर हर जगह मौजूद है, हालाँकि इसकी
उपस्थिति (वि षशे
ष रूप से वाष्प या नमी के रूप में) हमे शदिखाई नहीं देती है या सीधे
तौर पर स्पष्ट नहीं होती है। पृथ्वी की तुलना में जल में गंध का अभाव है; इसलिए
इसमें एक गुण कम है, जो इसे हल्का और गति ललशी दोनों बनाता है - पानी आसानी से बह
सकता है।
तीसरा तत्व अग्नि है। इसमें पृथ्वी की तुलना में दो गुण कम हैं (स्वाद और गंध) और
इसलिए यह ऊर्ध्वाधर सहित सभी दि ओं ओंशामें फै लने में सक्षम है। अग्नि सूक्ष्म रूप में
मनुष्य और यहाँ तक कि जल में भी विद्यमान है। मनुष्यों में इसे जतराग्नि के नाम
से जाना जाता है - यह पाचन की 'अग्नि' का नाम है। पानी में इसे बड़बग्नि के नाम से
जाना जाता है। लकड़ी और पत्थरों में भी अग्नि गुप्त रहती है, यही कारण है कि जब
लकड़ी को लकड़ी से रगड़ा जाता है और पत्थर पर पत्थर मारा जाता है तो चिंगारी
उत्पन्न होती है।
वायु, चौथा तत्व , के केवल दो गुण हैं, ध्वनि और स्पर्।र्श
।वायु हर जगह मौजूद है और जीवन
के लिए सबसे आवयककश्य है।
तत्वों की सूची में अंतिम स्थान आका या ईथर है , जो वास्तव में सर्वव्यापी है; यह
पृथ्वी से बहुत दूर तक फैला हुआ है। इसमें हर जगह फैलने की क्षमता है क्योंकि
इसमें केवल एक ही गुण है, वह है ध्वनि। बहुत से लोग सोचते हैं कि आकाश का अर्थ
आकाश है; यह गलत है। आकाश का अर्थ है ईथर, और यह यहां भी मौजूद है (स्वामी
अपने सामने मेज थपथपाते हैं) और यहां भी (माइक दिखाते हैं)। ध्वनि आकाश की
षताहै, और जहां भी ध्वनि है वहां आकाश मौजूद है। यह कहा जाता है:
एकमात्र वि षताशे
आकाशम् गगनम् सूर्यम्।
इसका अर्थ है कि आकाश अंतरिक्ष की शून्यता है।
सर्वत्र विद्यमान होते हुए भी वह दिखाई नहीं देता।
3
सृष्टि उत्तम है
प्रेम के प्रतीक! तुम्हें सदैव प्रेम में रहना चाहिए। प्यार का कोई रूप नहीं होता.
इसकी कोई इच्छा नहीं है. यह न तो ब्याज मांगता है और न ही ब्याज देता है। यह खरीद-
बिक्री या किसी अन्य प्रकार के व्यापारिक लेनदेन में शामिल नहीं होता है। प्रेम
अपने आप में प्रेम के रूप में खड़ा है, और केवल प्रेम से ही इसे सुरक्षित किया
जा सकता है। इसलिए, आप जो प्रेम के स्वरूप हैं, आपको अन्य सभी को भी प्रेम के
स्वरूप के रूप में देखना चाहिए। मनुष्य पांच तत्वों से बना है, जिनमें से प्रत्येक
मूल रूप से दिव्य है। वे सभी पवित्र हैं और उनमें कुछ भी बुरा नहीं है। यदि आज वे
प्रदूषित हैं तो उस दूषित कृत्य के लिए मनुष्य ही जिम्मेदार है।
तीहै।
एक कहानी है जो इस बात को दर् तीर्शा
न के लिए गये। भगवान ने मुस्कुराते हुए पूछा, "नारद,
एक बार नारद भगवान विष्णु के दर्नर्श
तुम कहाँ से आ रहे हो?"
ऋषि ने उत्तर दिया, "स्वामी, मेरे पास न तो घर है और न ही परिवार। मैं हर समय
घूमता रहता हूं। मैं लगातार आपकी स्तुति गाते हुए तीनों लोकों में घूमता रहता हूं।"
विष्णु ने कहा, "क्या ऐसा है? बहुत अच्छा। अब बताओ; क्या तुम मेरी सृष्टि के रहस्य को
समझ गए हो?" नारद ने उत्तर दिया, "भगवान, क्या आप सुझाव दे रहे हैं कि मैं ऐसा
नहीं करता? बेशक मैं इसे समझ गया हूँ।"
विष्णु ने फिर आगे कहा, "तब तो आपने यह मान लिया होगा कि मेरी रचना में कुछ भी
बुरा नहीं है। क्या आपने कभी कुछ बुरा देखा है?"
नारद ने कुछ देर सोचा और उत्तर दिया, "भगवान, मुझे क्षमा करें लेकिन मैंने एक
चीज़ देखी है जो बुरी है।"
विष्णु ने कहा, "क्या! मेरी रचना में कुछ बुरा है? असंभव! सृष्टि में कुछ भी बुरा नहीं
है।" नारद ने झिझकते हुए कहा, "भगवान्, एक बात है जो ख़राब है।" विष्णु ने फिर पूछा,
"यह क्या है?"
नारद फुसफुसाए, "यह मल है। यह बिल्कुल गंदा है और कोई भी इसके पास नहीं जा सकता।
आपने ऐसी चीज़ क्यों बनाई?" विष्णु ने कहा, "नारद, तुम गलत हो। जाओ और उस मल से
पूछो कि इसे किसने बनाया?" नारद ने विरोध किया और प्रतिवाद किया कि वे उस गंदी
बात के पास नहीं जा सकते। लेकिन विष्णु दृढ़ थे और उन्होंने नारद को
नु
सारशा
निर्दे नुसार करने का आदेश दिया। भगवान की आज्ञा की अवहेलना नहीं की जा सकती,
और अनिच्छा से नारद अप ष्टष्
टशि
पदार्थ की ओर चले गए।
जब वह निकट आ रहा था, तब भी मल ने कहा, "रुको! मेरे पास मत आओ। दूर रहो।" नारद
यचकितश्चहो गए और क्रोधित होकर बोले, "क्या? मुझ जैसे पवित्र
र्
पूरी तरह से आचर्यचकित
व्यक्ति को दूर रहने के लिए कहने पर तुम्हें आपत्ति हो रही है?" मल ने उत्तर दिया,
"कल इस समय, मैं भी पवित्र था। मैं स्वादिष्ट व्यंजनों के रूप में अच्छा भोजन था जो
भगवान को अर्पित करने योग्य था। फिर मैं एक इंसान के संपर्क में आया और मेरे
साथ ऐसा हुआ!" एक बार बुरा बहुत हो गया, मुझे दोबारा तुम्हारा साथ नहीं चाहिए!” इस
प्रकार बुराई का जन्म बुरी संगति से होता है। इस बुनियादी तथ्य को आजकल ठीक से
समझा और सराहा नहीं जाता।
एक बार एक आदमी था जिसका इकलौता बेटा एक दिन बिच्छू द्वारा डंक मार दिया गया था।
लड़का दर्द से जोर-जोर से चिल्लाया और पीड़ित पिता मदद के लिए डॉक्टर के पास
भागा। उसने डॉक्टर से कहा, "सर, मेरे बेटे को बिच्छू ने काट लिया है और वह बुरी
तरह रो रहा है। कृपया कोई दर्द निवारक दवा दीजिए।" डॉक्टर ने एक मरहम देकर कहा,
“इसे उस स्थान पर लगाओ जहाँ बिच्छू ने काटा है।” वह आदमी घर वापस भागा और
अपने बेटे से पूछा, "बिच्छू ने तुम्हें कहाँ डंक मारा?" लड़के ने कमरे के एक
कोने की ओर इ रारा करते हुए कहा, "वहाँ पर।"
शा
मूर्ख पिता ने फिर कोने पर मरहम लगाया!
आजकल अधिकांश आध्यात्मिक जिज्ञासु इसी मूर्खतापूर्ण आचरण का व्यवहार करते हैं।
आपको सावधानी से बुराई के स्रोत या उत्पत्ति की पहचान करनी होगी और फिर उचित
उपचारात्मक कार्रवाई करनी होगी। दूसरों को दोष मत दो. दोष आपमें है, आपकी भोलापन,
आपकी संवेदन लतालता शी
और बुरे रास्ते पर चलने की आपकी इच्छा और उत्सुकता में है।
इसलिए दूसरों पर आपको खराब करने का आरोप लगाने के बजाय अपनी भावनाओं,
विचारों और कार्यों को सही करने पर ध्यान केंद्रित करें। पाँच तत्वों और पाँच जीवन
सिद्धांतों (पंच प्राणों) के आध्यात्मिक आधार को समझें। इनकी उचित समझ ही आपको
सही मार्ग दिखाएगी और आपके दुखों को दूर करेगी। पांच तत्व सबसे कीमती और पवित्र
हैं, और इनका उपयोग करने के साथ-साथ श्रद्धापूर्वक अनुभव भी किया जाना चाहिए।
प्रेम के प्रतीक! सृष्टि में कुछ भी बुरा नहीं है. यदि कुछ बातें ऐसी प्रतीत होती हैं तो
यह पूर्णतः दोषपूर्ण दृष्टि के कारण है। भीतर छिपी हुई बुरी भावनाएँ यह धारणा पैदा
करती हैं कि कुछ चीज़ें बुरी हैं। इसलिए पवित्र और प्रेमपूर्ण भावनाओं का विकास
करना ज़रूरी है। सदैव भगवान के विचार में डूबे रहो और निरंतर उनके नाम का जाप
करो। सदैव ईवरीय रीयश्वअनुभूति से ओत-प्रोत रहें। यदि कर्तव्यनिष्ठा से पालन किया जाए,
तो ऐसी प्रथाओं का आपके भीतर के सभी संदूषण को दूर करने की गारंटी है। कभी भी बुरे
कार्यों में लिप्त न हों, कभी दूसरों की आलोचना न करें, दूसरों को दोष न दें, या दूसरों
पर आरोप न लगाएं।
बुरे विचार वायु को प्रदूषित करते हैं और दूसरों को भी संक्रमित करते हैं; इसी तरह
से बुरी तरंगें फैलती हैं। इसलिए ईमानदारी से बुरी संगति और बुरे व्यवहार से
बचें। बुरी नज़र न रखें; वे नुकसान पहुंचाएंगे.
कीचक ने कामुक दृष्टि से मनोरंजन किया और इसके लिए उसे बड़ी कीमत चुकानी पड़ी;
भीम ने उसे कुचल दिया था। बुरी सलाह पर कभी ध्यान न दें. कैका ने मंथरा के ऐसे वचन
सुने और बाद में उसका क्या हुआ?
कैका के बारे में कोई भी कभी भी सुखद तरीके से नहीं सोचता। उसने इतनी बदनामी
हासिल की कि किसी भी लड़की का नाम कैका नहीं रखा गया! बुरी सलाह ने दुर्योधन और
सनशा
दु सन को भी बर्बाद कर दिया। उन्होंने लगातार महान पांडवों के साथ दुर्व्यवहार किया
और अंत में उन्हें विनाश का सामना करना पड़ा। इसलिए कभी भी बुरी बातें नहीं सुननी
चाहिए.
11
त्रिगुण और पंचभूत
प्रवचन दिनांक
28 मई 1990
जगह
वृंदावन
अवसर
प्रवचन संग्रह
ऑडियो
शेय र करना
अंतर्वस्तु
विद्यार्थियों! दिव्य प्रेम के प्रतीक! ब्रह्मांड में सब कुछ ब्रह्म है. "दिव्यता सूर्य की
किरणों में चमकती है। यह दिव्यता ही है जो मनुष्य को उसकी आंखों के माध्यम से
लता
दुनिया की वि लता शा
और महिमा दिखाती है। चंद्रमा की सफेदी और शीतलता जो मनुष्यों को
शांति प्रदान करती है, वह परमात्मा से प्राप्त होती है। ब्रह्मांड , जो समय की त्रिगुण
प्रकृति पर आधारित है और जो त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु और महेवर रश्व) द्वारा कायम है,
तीन गुणों - सत्व, रजस, तमस के रूप में दिव्य द्वारा व्याप्त है।" (यह उस संस्कृत श्लोक
का अर्थ था जिसके साथ भगवान ने अपना प्रवचन शुरू किया था)। प्रकृति अद्भुत चित्र
प्रस्तुत करती है। इसे कोई भी पूरी तरह समझ नहीं सकता. चाहे आ र्वाद र्
वादशी
हो या शोक, खु श
हो या दुःख, लाभ हो या हानि, यह प्रकृति से आता है। प्रकृति सभी प्राणियों की नियति की
अध्यक्षता करती है। यह प्रकृति तीन गुणों से युक्त है। त्रिदेव तीन गुणों का
प्रतिनिधित्व करते हैं। तीन गुण सृजन, पालन और विघटन की प्रक्रियाओं के लिए भी
जिम्मेदार हैं - सृष्टि, स्थिति और लय। संसार के सभी विविध अनुभव तीन गुणों से
उत्पन्न होते हैं।
मनुष्य को दीर्घ (लंबे) जीवन की नहीं, बल्कि दिव्य (दिव्य) जीवन की आकांक्षा करनी
चाहिए। ब्रह्मांड में, जो ईवर रश्वसे व्याप्त है, मनुष्य को मुख्य रूप से अपने जीवन को
दिव्य बनाने का प्रयास करना चाहिए।
1
अन्तःकरण की भूमिका
जबकि प्रत्येक इंद्रिय अंग कार्यात्मक रूप से अपनी वि ष्ट ष्टशिभूमिका तक सीमित है,
अंतःकरण (आंतरिक यंत्र) सभी पांच अंगों के कार्यों को जोड़ता है। यह अकेले ही
पांच ज्ञानेंद्रियों (पांच इंद्रियों) की सभी धारणाओं का अनुभव करने की क्षमता
रखता है। क्या ये ज्ञानेन्द्रियाँ बाह्य रूप से कार्य कर रही हैं या आंतरिक रूप से?
इसका उत्तर यह है कि वे दोहरी भूमिका निभाते हैं (आंतरिक और बाह्य दोनों)। यदि
भौतिक अंग, कान, मौजूद है, लेकिन यदि सुनने की क्षमता अनुपस्थित है, तो कान कोई
नहीं रखता है। यदि सुनने की क्षमता (ज्ञानेंद्रिय) मौजूद है, लेकिन कान
उद्देय श्य
नहीं है (बाहरी दुनिया से ध्वनि प्राप्त करने के लिए), तो यह क्षमता किसी काम की नहीं
है। ज्ञानेंद्रिय (इंद्रियों की आंतरिक क्षमताओं से संबंधित इंद्रिय अंग) और
कर्मेंद्रिय (क्रिया के अंग) का संयुक्त संचालन मानव व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
यहां आपके पास लाउडस्पीकर है. बिना माइक के लाउडस्पीकर का कोई मतलब नहीं है.
लाउडस्पीकर के बिना माइक का कोई मतलब नहीं है। दोनों की मौजूदगी ही अंदर कही गई
बात को बाहर प्रसारित करने में सक्षम बनाती है।
इंद्रियों की पांच क्षमताएं (ध्वनि, स्पर्
, दृष्टि, स्वाद और गंध) पांच तत्वों की सात्विक
अभिव्यक्ति हैं। उनके रजो गुण में पांच तत्व प्राण (जीवन शक्ति) को जन्म देते हैं।
जबकि पांच तत्वों का उनके सात्विक गुण में संयुक्त संचालन अंतःकरण (मनुष्य में
आंतरिक उपकरण) में देखा जाता है, उनके राजस गुण में पांच तत्वों का सामूहिक
कामकाज खुद को प्राण (जीवन-शक्ति) के रूप में व्यक्त करता है। पांच तत्वों में से,
उनके राजसिक गुण की व्यक्तिगत अभिव्यक्ति में, आकाश (अंतरिक्ष) का प्रतिनिधित्व
वाक् (भाषण के संकाय) द्वारा किया जाता है। वायु की अभिव्यक्ति हाथ में होती है।
अग्नि अपने व्यक्तिगत रजोगुण में पैर के रूप में अभिव्यक्ति पाती है। चौथे और
पांचवें तत्व (जल और पृथ्वी) शरीर में मलमूत्र अंगों में राजसिक अभिव्यक्ति पाते
हैं। आपको तत्वों की इस स्थिति में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर अवय श्य ध्यान देना चाहिए।
अपने सात्विक पहलू में, आकाश (अंतरिक्ष) खुद को कान के रूप में व्यक्त करता है।
लेकिन वही आकाश, अपने राजसिक पहलू में, वाक् के रूप में प्रकट होता है। इससे
अंदाजा लगाया जा सकता है कि अकासा के दो बच्चे हैं; कान सत्व का प्रतिनिधित्व
करता है और वाक् रजस का प्रतिनिधित्व करता है। कान, जो अकासा का पहला बच्चा है,
बाहर से आने वाली आवाज़ों को ग्रहण करता है। दूसरा बच्चा वाक् अंदर से बोले गए
शब्द के माध्यम से प्रतिक्रिया देता है।
4
तत्वों का पंचीकरणम्
तमोगुण पांच तत्वों का मिरणणश्रलाता है। इस मिरणणश्रमें पांचों तत्व अपनी पूरी ताकत से
मौजूद नहीं होते हैं। पांचों को एक साथ इस तरह से जोड़ा गया है (पंचीकृतम्) जिसे
अत्यधिक जटिल प्रक्रिया को आसानी से समझने के लिए निम्नलिखित उदाहरण से
याजा सकता है। 'मान लीजिए कि पांच तत्व पांच व्यक्तियों के रूप में एक साथ
दर् यार्शा
आते हैं, जिनमें से प्रत्येक के पास एक रुपये का परिवर्तन होता है। अकासा आधा
रुपया अपने पास रखता है और अन्य चार तत्वों में से प्रत्येक को एक-एक रुपये का
आठवां हिस्सा वितरित करता है। दूसरा तत्व वायु भी इसी प्रकार अपने लिए आधा रुपया
रखता है, अग्नि (अग्नि), जल और पृथ्वी (पृथ्वी) भी यही प्रक्रिया अपनाते हैं। परिणाम
में, प्रत्येक के पास एक रुपया है, लेकिन इसकी संरचना उनके संबंधित प्रकृति के
हिस्सों के तत्वों के बीच आदान-प्रदान से प्रभावित होती है। मूलतः प्रत्येक तत्व
अपने आप में पूर्ण था। मिरणणश्रकी प्रक्रिया के परिणामस्वरूप प्रत्येक "रुपये" में
सभी पाँच तत्वों की उपस्थिति हो गई है। मनुष्य के संबंध में, पंचिकृत की प्रक्रिया
मनुष्य को पांच तत्वों का मिरणणश्रबनाती है और गुणों में विविधता पैदा करती है। इन्हें
आध्यात्मिक भाषा में षोडस कला (सोलह पहलुओं) के रूप में वर्णित किया गया है। ये
सोलह पहलू क्या हैं? वे पांच ज्ञानेंद्रियां (धारणा के अंग), पांच कर्मेंद्रियां
(क्रिया के अंग), पांच तत्व और मन हैं। प्रत्येक व्यक्ति में ये सोलह घटक होते
हैं, हालाँकि सोलह कलाओं का श्रेय केवल ईवर रश्वको दिया जाता है। मनुष्य को अपनी
दिव्यता का एहसास करना होगा।
6
पंचमहाभूतों का विश्लेषण
by Gurukripa
सम्पूर्ण जगत है क्षेत्र और उसको जानने वाला है क्षेत्रज्ञ
साख्य शास्त्र के अनुसार प्रकृ ति से तीन गुणों का विकास होता हैः सत्वगुण (ज्ञानशक्ति),
रजोगुण (क्रियाशक्ति) और तमोगुण (स्थायित्वशक्ति) । प्रकृ ति मूल कारण है, वह किसी का
कार्य नहीं है । उसमें त्रिगुण साम्यावस्था में रहते हैं । प्रकृ ति में क्षोभ होने पर उससे महत्-
तत्त्व (समष्टि बुद्धि) होता है, महत्-तत्तव से अहंकार और अहंकार से पंचभूत । इस प्रकार
महत्-तत्त्व और अहंकार कार्य भी है और कारण भी हैं । पंचभूत प्रकृ ति के अंतिम कार्य हैं
अतः वे किसी के कारण नहीं हैं । इन्द्रियाँ, शरीरादि पंचभूतों के कार्य नहीं हैं बल्कि विकार हैं ।
प्रकृ ति के हर कार्य-स्तर पर गुणों का विकास होता है । हर कार्य सत्त्वगुणी, रजोगुणी,
तमोगुणी – तीन-तीन विभागों में बँट जाता है । यह प्रक्रिया वेदांत में भी स्वीकार्य है ।
प्रकृ ति के अंतिम कार्य पंचमहाभूत हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । नाम-रूप
आकारयुक्त जितने भी पदार्थ या वस्तुएँ हैं वे सब इन्हीं के विकार हैं । वृक्ष, पशु, पक्षी, कीट-
पतंग, मनुष्य, नदी, पर्वत आदि सब वस्तुएँ इन्हीं पंचमहाभूतों से बनती हैं और उपादान
(उपादान यानि वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार होती है, जैसे घड़े का उपादान मिटटी है)
रूप से ये सब वस्तुओं में व्यापक है ।
पृथ्वी आदि वस्तुरूप जो हमारी इन्द्रियों से जानी जाती है और जो पृथ्वी आदि पंचभूत तत्त्व
है, उनमें अंतर है । वस्तुओं में ये पाँचों तत्त्व मिले रहते हैं । तकनीकी भाषा में बोलें तो
वस्तुओं में पंचमहाभूत पंचीकृ त (एक विशिष्ट प्रक्रिया से मिश्रित) हैं किं तु जो तत्त्व हैं वे
अपंचीकृ त रूप में हैं । उनको ‘तन्मात्र’ अर्थात् ‘सिर्फ वही’ भी कहते हैं । इनका अनुभव जिन
रूपों में किया जाता है उनको ‘पंचतन्मात्र’ कहते हैं । आकाश का तन्मात्र ‘शब्द’ है, वायु का
तन्मात्र ‘स्पर्श’ है, अग्नि का तन्मात्र ‘रूप’ है, जल का तन्मात्र ‘रस’ है और पृथ्वी का तन्मात्र
‘गंध’ है ।
ये पंचतन्मात्र तीन स्थानों में दिख पड़ते हैं – विषय में, इन्द्रियों में और मन में । विषय में
उनका जो रूप है वह ‘अधिभूत’ कहलाता है और इन्द्रिय एवं मन में जो रूप है वह ‘अध्यात्म’
कहलाता है । इसके अतिरिक्त एक रूप इनका और भी मानना पड़ता है और वह है अधिदैव ।
‘अधिदैव’ एक ओर तो अधिभूत और अध्यात्म के संयोग में हेतु बनता है और दूसरी ओर
अध्यात्म को अधिभूत में व्यवस्थित (दृढ़ता से स्थित) करता है । प्रत्येक तन्मात्र के ये तीन
रूप तीन गुणों के कारण हुए हैं- सत्त्वगुण से अध्यात्म, रजोगुण से अधिदैव और तमोगुण से
अधिभूत ।
(पिछले अंक में हमने तन्मात्र व उनके दिखने के तीनों स्थानों (विषय, इन्द्रिय और मन) के
बारे में एवं उनके अधिभूत, अध्यात्म एवं अधिदैव रूप के बारे में जाना । इस अंक में उसी
विषय को स्पष्टता को आगे उदाहरण के साथ समझेंगे-)
उदाहरणार्थः अग्नि या तेज के तन्मात्र ‘रूप’ को लें । इसका अधिभूत रूप है विषय-वस्तु का
रंग और आकार, इसका अध्यात्म रूप ‘चक्षु’ है और अधिदैव रूप ‘सूर्य’ है । इसी प्रकार प्रत्येक
तन्मात्र के तीन-तीन रूप हैं । अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत के इस तरह पाँच ‘त्रिक’ बनते
हैं । प्रत्येक त्रिक को त्रिपुटी कहते हैं । ज्ञानेन्द्रियों की इन त्रिपुटियों को सारणी में प्रदर्शित
किया गया है ।
ज्ञानेन्द्रियों की त्रिपुटी
पंचभू तन्मा
अधिभूत अध्यात्मअधिदैव
त त्र
आकाश शब्द शब्द विषय श्रोत्रेन्द्रिय दिशा
त् व गि न् द्
वायु स्पर्श स्पर्श विषय वायुदेव
रिय
च क्षु रि न्
अग्नि रूप रूप विषय सूर्यदेव
द्रिय
जल रस रस विषय रसनेन्द्रिय वरूणदेव
गंध घ्रा णे न् अविनीनी श्वि
पृथ्वी गंध
विषय द्रिय कु मार
वैज्ञानिक लोग पदार्थ की छानबीन करके तत्त्व का निश्चय करते हैं । यह आधिभौतिक
प्रणाली है । प्राचीन भारतीय प्रणाली यह है कि हम अपने अनुभव की छानबीन करके तत्त्व
का निश्चय करते हैं । यह आध्यात्मिक प्रणाली है ।
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रमाण हैं । श्रोत्र से के वल शब्द ही ज्ञात होता है और शब्द
किसी अन्य इन्द्रिय से ज्ञात नहीं हो सकता । अतः शब्द के विषय में के वल श्रोत्र ही प्रमाण है
। यह इसलिए है कि श्रोत्र के वल आकाश का तन्मात्र ही है । इसी प्रकार प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय में
एक-एक तत्त्व का तन्मात्र ही है । इसी बात को यों कहते हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ अपंचीकृ त
महाभूतों से बनी हैं ।
पंचीकरण क्या है ?
एक गुलाब का फू ल । उसमें पाँचों तत्त्व उपस्थित हैं किं तु नेत्र के वल उसका रूप देखते हैं,
त्वचा उसकी कोमलता जानती है, रसना उसका स्वाद बताती है, नाक उसकी गंध बताती है
और कान उसका चट-चट शब्द बताते हैं । यद्यपि एक-एक भूत से बनी ज्ञानेन्द्रियाँ फू ल के
एक-एक गुण का ही प्रकाश करती हैं तथापि फू ल में पाँचों भूत हैं और उन सब ज्ञानों का
समन्वित रूप फू ल का ज्ञान है । यह ज्ञान का अंतःकरण से होता है । इसलिए फू ल में और
मन में दोनों में पंचभूत हैं । फू ल में पंचीकृ त रूप में हैं और मन में अपंचीकृ त रूप में ।
फू ल की तरह सारे पदार्थ पंचभूतों की रचना हैं । पाँचों भूतों के परस्पर मिलने की प्रक्रिया को
पंचीकरण कहते हैं । जिस पदार्थ में जिस भूत की प्रधानता रहती है उसमें उस तत्त्व का 50
% भाग रहता है । शेष 50 % में बचे हुए चार तत्त्वों का बराबर-बराबर संयोग रहता है ।
मिलने की यह प्रक्रिया ‘पंचीकरण’ कहलाती है । उदाहरणार्थ – मिट्टी में आधा भाग पृथ्वी का
है और शेष आधे भाग में जल, तेज, वायु और आकाश बराबर-बराबर भाग में मिले हुए हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 22, 25 अंक 326
मन चार प्रसिद्ध हैं- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार । इसी को अंतःकरण चतुष्टय कहते हैं ।
ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं– श्रोत्र (कान) त्वक् (त्वचा), चक्षु (नेत्र), रसना (जिह्वा) और घ्राण
(नासिका) ।
कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं– वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), उपस्थ (जननेन्द्रिय) और पायु (गुदा) ।
प्राण दस हैं- इनमें पाँच मुख्य प्राण हैं – प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । पाँच उपप्राण
हैं – नाग, कू र्म, कृ कल, देवदत्त और धनंजय ।
आकाश से राजस तन्मात्र से ‘वाक्’ कर्मेन्द्रिय बनती है, जिससे शब्द बोलते हैं और ‘व्यान’
नामक प्राण बनता है जो शरीर के सब अंगों में रहकर संधियों की क्रिया की व्यवस्था करता है
। वायु के राजस तन्मात्र से ‘पाणि (हाथ) इन्द्रिय बनती है, जिससे आदान-प्रदानरूप कर्म होता
है और समान नामक प्राण बनता है जिसका स्थान नाभि-प्रदेश है । इसी प्रकार तेज के राजस
तन्मात्र से ‘पाद’ (पैर) कर्मेन्द्रिय बनती है, जिससे गमनागमनरूप कर्म होता है तथा उदानवायु
का निर्माण होता है जो हृदय से ऊपर के भाग में विचरण करता है । जल के राजस तन्मात्र से
‘जननेन्द्रिय’ और प्राण की रचना होती है । जननेन्द्रिय से मूत्र-त्याग एवं सन्तानोत्पत्तिरूप
कर्म होता है और प्राण हृदय-प्रदेश में रहता है । पृथ्वी के राजस तन्मात्र से ‘गुदा’ कर्मेन्द्रिय
बनती है, जिससे मल-त्याग और वायु-निष्कासनरूप कर्म होता है तथा अपानवायु का निर्माण
होता है, जिसके कार्य का स्थान गुदा है । शरीर में इन सबके गुण धर्म प्रत्यक्ष हैं ।
परिचय
आयुर्वेद में जन्मजात गुणों को त्रिगुण नामक तीन अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृ त किया गया है। आयुर्वेद का
त्रिगुण सिद्धांत तत्वमीमांसा का विषय है। तीन जैविक हास्य अर्थात; वात, पित्त और कफ मानव शरीर के
अभिन्न अंग हैं। त्रिगुण (सत्व, रजस और तमस) मन के अभिन्न अंग हैं। सत्व, रजस और तमस को मनसा
दोष (मानसिक संविधान) के रूप में जाना जाता है। संक्षेप में, त्रिगुण को आयुर्वेदिक मन प्रकार के रूप में जाना
जाता है।
त्रिगुण सिद्धांत का दायरा के वल ऊर्जा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह भौतिकवाद पर भी लागू होता है। इसके
अलावा, स्वस्थ और रोगग्रस्त अवस्था में किसी व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक विशेषताएं किसी एक या
दूसरे त्रिगुण की प्रबलता से निर्धारित होती हैं।
त्रिगुण और जीवन की उत्पत्ति
आयुर्वेदिक आध्यात्मिक दृष्टिकोण के अनुसार, जीवन के निर्माण खंड सृष्टि की शुरुआत को उचित ठहराते हुए
सर्वव्यापी थे। जीवन की उत्पत्ति के वल कु छ अरब वर्ष पहले ही संभव हो पाई थी, इस तथ्य के बावजूद कि
बिल्डिंग ब्लॉक्स की उत्पत्ति अनादि काल से हुई थी।
यह प्रस्तावित किया गया है कि सत्व, रजस और तमस (त्रिगुण) आदिम पृथ्वी पर मौजूद थे जो आदिम पृथ्वी
पर प्रचलित भौतिक गुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। सत्त्व सृजन के लिए ऊर्जा आवश्यकताओं का प्रतिनिधित्व
करता है। रजस कण की गति को दर्शाता है और तमस एक अक्रिय पदार्थ है जो नए रूपों में परिवर्तित होने की
क्षमता रखता है। तमस सत्व और रजस के निरंतर प्रभाव में कार्य करता है।
पंच महाभूत तीन जैविक गुणों (त्रिदोष) के साथ-साथ त्रिगुण (सत्व, रजस और तम) के निर्माण खंड हैं। मनुष्य
में कोई न कोई दोष और गुण अके ले या संयुक्त रूप से प्रभावी होते हैं। पंच महाभूतों, त्रिदोषों और त्रिगुणों के
बिना इस ब्रह्मांड की कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि ये जीवन की स्थिरता के लिए आवश्यक पैरामीटर हैं।
त्रिगुण और त्रिदोष आंतरिक रूप से एक दूसरे से संबंधित हैं क्योंकि वे शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक
एकीकृ त व्यक्तित्व संरचना के लिए जिम्मेदार हैं।
पंच भूतों की संरचना का त्रिगुणात्मक वर्णन विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में गुणों की दार्शनिक अवधारणा का
व्यावहारिक पहलू है। सुश्रुत के अनुसार, महाभूतों का गठन त्रिगुणों से होता है। आकाश में सत्व, वायु में रजस,
अग्नि में सत्व-रज, जल में सत्व-तमस और पृथ्वी में तमस प्रधान है। चरक के अनुसार, वात आकाश और वायु
का, पित्त अग्नि और जल का, और कफ दोष जल और पृथ्वी का एक संयोजन है। इसके आधार पर कोई यह
अनुमान लगा सकता है कि उनमें से प्रत्येक में कौन से गुण प्रबल हैं।
1. वात सत्व और रजस गुणों का एक संयोजन है , लेकिन इसे मुख्य रूप से रजस कहा जाता है।
2. कहा जाता है कि पित्त प्रकृ ति में अधिक सत्व है , हालांकि इसमें रजस और तमस का तत्व होता है।
3. कहा जाता है कि कफ प्रकृ ति में अधिक रजस होता है , हालांकि इसमें सत्व का तत्व होता है।
इस प्रकार कोई भी व्यक्ति एक या दूसरे पंच महाभूतों के सापेक्ष प्रभुत्व के कारण उनके द्वारा प्रदर्शित गुणों के
संबंध में दोषों को समझ सकता है, जिनसे वे बने हैं।
त्रिगुण सिद्धांत व्यक्तित्व को मानव व्यवहार प्रयास के एक आयाम के रूप में समझने के लिए मंच प्रदान करता
है। ढु ल्ला ने अपने शोध लेख "भारतीय दर्शन और व्यक्तित्व के लिए एक नया दृष्टिकोण - एक अध्ययन"
शीर्षक से त्रिगुण की गतिशीलता की व्याख्या की है। ढु ल्ला के अनुसार, किसी व्यक्ति को विरासत में मिले गुण
शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभावों के कारण बदल सकते हैं और किसी व्यक्ति का व्यवहार उस
समय काम कर रहे व्यक्तित्व से निर्धारित होता है।
त्रिगुण के लक्षण
1. सत्त्वगुण सकारात्मक दृष्टिकोण, खुशी, हल्कापन, आध्यात्मिक संबंध और चेतना से स्पष्ट होता है। सात्विक
अवस्था को रोगमुक्त शरीर के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। सत्व इंद्रियों को उत्तेजित करता है और
बुद्धि और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करता है।
2. राजस गुण को त्रिगुणों के बीच सक्रिय माना जाता है और इसकी विशेषता उत्तेजना और गति है। जुनून और
उपलब्धि की इच्छा रजस गुण का परिणाम है।
3. तमस गुण के दो शक्तिशाली लक्षण हैं अर्थात प्रतिरोध और भारीपन। यह मन में नकारात्मक विचारों को
उत्तेजित करता है और सुस्ती, नींद और उदासीनता उत्पन्न करता है।
निष्कर्ष
त्रिगुण मन की आवश्यक ऊर्जाओं का प्रतिनिधित्व करता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व आनुवंशिक रूप से निर्धारित
होता है और त्रिगुण के डोमेन पर निर्भर होता है। आयुर्वेद में भोजन को सात्विक, राजस और तमसा बताया गया
है। निष्कर्षतः, गुण प्रत्येक व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक स्तर को प्रभावित करते हैं।
इस ब्र ह्मां ड में सब कु छ परिवर्तन के अधीन है । जैसा कि प्रसिद्ध कहावत हैकि कु छ भी स्थिर नहीं है । परिवर्तन की
इस स्थिति को डायनामिज्म या भौतिक के अनुसार गति की स्थिति के रूप में जाना जाता है । हमारेप्राचीन ऋषि इस
सिद्धांत को अच्छी तरह से जानते थे ।प्राचीन हिं दू दर्शन के अनुसार, संपूर्ण सृष्टि पुरुष औ र प्राकृ त की
अभिव्यक्ति है । पुरुषार्थ से रेलवे स्पष्ट, निर्मलता से है । पुरुषार्थ ए क अणु तत्व और वास्तविक सत्य है । यह
आत्मा या जीव का भी मूल रूप हैजो हर जीवित जीव के दिल में रहता है । प्राकृ त में मिथ्या ब्रह्माण्ड ऊर्जा या
माया हैजो हर पल बदल रही है । इस ब्रह्माण्ड में सब कु छ इस ब्रह्माण्ड की ऊर्जा के प्रभाव में है । इसका मुख्य
लक्ष्य पार करना और वास्तविक वास्तविकता को देखना है । प्राकृ त को 5 मुख्य तत्वों में विभाजित किया जा
सकता हैजो प्रत्येक सृष्टि के जीवित या निर्जीव का आधार बनते हैं । इन 5 तत्वों को पंचभूत (पृथ्वी, वायु,
अग्नि, जल और अंतरिक्ष) के रूप में जाना जाता है । पंचभूत को आगे तीन रहस्योद्घाटन के तहत स्थापित किया
जा सकता है । इन तीन मिश्रणों को गुण या त्रिगुण के रूप में जाना जाता है । ब्रह्मांड की हर चीज़ और प्राकृ त
या माया के प्रभाव में ये त्रि गुण या लक्षण अलग-अलग अनुपात में काम करते हैं । ये तीनों एक साथ काम
करते हैं और पूरी तरह से खुद से मौजूद नहीं होसकते। इन गोलियों की जागृति, स्वप्न और नींद की अवस्था
जैसे स्वयं की विभिन्न अवस्थाओं से तुलना की जा सकती है । प्रत्येक जीवित प्राणी, प्रत्येक वस्तु और भोजन
को एक साथ इन तीनों में शामिल किया जा सकता है । हिं दू ध र्म में इन त्रिमूर्तियों को हिं दू त्रिमूर्ति के रूप में
जाना जाता हैजिसमें तीन सबसे महत्वपूर्ण देवताओं को जोड़ा गया है । भागवत गीता में इन विधाओं का
बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है । आइए हम उन्हें विस्तार से समझते हैं
सत्त्व या सात्विक गुण - सत्त्व या सात्त्विक गुण को विधि के रूप में जाना जाता है । यह एक शांत और स्पष्ट
मस्तिष्क की स्थिति है
। यह शांति और सकारात्मकता की स्थिति भी है । इस सुविधा के तहत काम करने वाले लोगों
के जीवन पर बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण है । वे बहुत निस्वार्थ हैं और बदले में किसी भी पुरस्कार की
अपेक्षा के बिना कार्य करते हैं । वे प्रकृ ति से आध्यात्मिक और अहिंसा भी हैं । वे सत्य के साधक हैं और हर
चीज़ में अच्छे हैं । भगवान विष्णु इस गुण के साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि वे समुदाय के संरक्षक हैं
। जमीन के
ऊपर उगने वाला कोई भी शाकाहारी भोजन सात्विक श्रेणी में उपलब्ध है । अंतरिक्ष का तत्व सत्व से बना है ।
राजस या राजसिक गुलाल - राजस को जुनून या क्रिया के रूप में जाना जाता है । यह उसका लक्षण हैजो
लालची और लालची के व भूत भूतशी
होता है । इस विधा से अभिनय करने वाले लोग इच्छा-अभिलाषा करते हैं
और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए काम करते हैं । ये महत्वाकांक्षी लोग हैं
जो बहुत सारे भौतिक व्यवसाय पर कब्ज़ा
करना चाहते हैं । वे समाज में धन, संप्रदाय और स्थिति से प्रेरित हैं
और गलत व्यवसायों को अपनाकर अपने
लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। मानसिक रूप से वे भ्रम, आक्रामकता और कमज़ोरी की स्थिति में हैं। भगवान
ब्रह्मा इस गुण से जुड़े हुए हैं । बहुत सारे समूह या खाद्य पदार्थ राजसिक भोजन के अंतर्गत आते हैं । वायु
और अग्नि का तत्व रजस नष्ट होगया है ।
तामस या तामसिक - इसे अज्ञानता और गैर-गतिविधि या जड़ता के रूप में जाना जाता है । इस
अवस्था में शरीर में नींद और सुस्ती का प्रभाव होता है । इस राज्य के अंतर्गत काम करने वाले लोग स्वभाव से
बहुत चंचल और नकारात्मक होतेहैं । वे उन लोगों को अधिक पसंद करते हैं जो सिर्फ खाना, सोना और संभोग
करना चाहते हैं । बहुत पवित्र जीवन को प्राप्त करने और जीने के लिए उनका कोई लक्ष्य नहीं है । लंबे
समय तक इस दवा के तहत काम करना अवसाद में लाया जाता है , यह अंततः विनाश की ओ र ले जाता है ।
कु ल मिलाकर यह सभी नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत हैजिसे हम अपने अंदर ले जाते हैं । मांस, शराब या
प्रसंस्कृ त खाद्य पदार्थ इस श्रेणी में आते हैं , वे तामसिक
। भगवान शिव ब्रह्मांड के विनाश के साथ जुड़े हुए हैं
गुलाल के साथ भी जुड़े हुए हैं । पृथ्वी और जल का तत्व तमस से खो गया है ।
त्रिगुण हमेशसहअस्तित्व करते हैं और पूरी तरह से खुद से काम नहीं कर सकते। प्रत्येक व्यक्ति या वस्तु में, इन
गुनाहों पर एक कब्ज़ा हैऔर इसका प्रतिशत अधिक हैजबकि अन्य दो अधिक निष्क्रिय हैं और इनका
नियंत्रण सीमित है । इन त्रिमूर्ति का अनुपात अलग-अलग आंतरिक और लोचदार के अनुसार बदलता
रहता है। उदाहरण के लिए, सात्विक जीवन का अभ्यास करने वाला व्यक्ति सक्रिय होगा। वह सात्विक भोजन
ग्रहण और ध्यान और अन्य आध्यात्मिक अध्ययन का अभ्यास करता है । वह कर्मचारियों की मदद करना
चाहेगा और बिना किसी उल्टे मकसद के निस्वार्थ भाव से काम करना चाहेगा। हालाँ कि, अगर वही
व्यक्ति अब मांस खाना शुरू कर देता हैया शराब का सेवन करने लगता है , तो हमें
उसके दृष्टिकोण में भारी
बदलाव देखने को मिलेंगे। वह अब उग्र होगया और ऋणात्मक ऋणात्मक दिवालियापन में डू ब गया। यही
व्यक्ति अब तमस गुलाल के तहत काम कर रहा है । हमारेऋषियों और पवित्र शास्त्रों के अनुसार, मोक्ष या मुक्ति
की स्थिति एक ऐसी स्थिति हैजहां कोई भी तीन गुणों से परे होता है । यह कोटा आनंद की स्थिति हैऔर हमारा
अंतिम लक्ष्य है । यहां तक कि हमारेहिं दू देवी-देवता भी इन उद्देयोंश्योंसे जुड़े हुए हैं
। दैवी शक्तियाँ या आदि
, हालाँ
शक्तियाँ, इन त्रिगुणों से परे हैं कि, उनकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ त्रिगुणों से जुड़ी हुई हैं । नवरात्रि
के त्योहार के दौरान, पहले तीन दिन हम दुर्गा की पूजा करते हैं , जो हमेंहमारेतामसिक उत्सव में शामिल होनेमें मदद
करते हैं
। अगले तीन दिन लक्ष्मी को समर्पित होतेहैं जो हमारीराजसिक ऊर्जा को विकसित करने में मदद करते हैं
और पिछले तीन दिन सरस्वती को समर्पित होतेहैं जो हमारीसात्विक ऊर्जा को विकसित करने में मदद करते हैं ।
अंग्रेजी में इस ब्रह्मांड में सब कु छ परिवर्तन के अधीन है । जैसा कि प्रसिद्ध कहावत हैकि परिवर्तन ही
एकमात्र स्थिर चीज़ है । परिवर्तन की इस अवस्था को भौतिकी के अनुसार गति लता लता शी
या गति की अवस्था
के नाम से जाना जाता है । हमारेप्राचीन ऋषि-मुनि इस अवधारणा को भली-भांति जानते थे ।प्राचीन हिं दू दर्शन
के अनुसार संपूर्ण सृष्टि पुरुष और प्रकृ ति की अभिव्यक्ति है । पुरुष का तात्पर्य स्पष्ट चेतना और शांति से है ।
पुरुष एक अपरिवर्तनीय तत्व और वास्तविक सत्य है । यह आत्मा या जीव को भी संदर्भित करता हैजो प्रत्येक
जीवित प्राणी के हृदय में निवास करता है । प्रकृ ति का तात्पर्य झू ठी मायावी ऊर्जा या माया से हैजो हर पल बदल
रही है। इस ब्रह्मांड में सब कु छ इस मायावी ऊर्जा के प्रभाव में है । मुख्य लक्ष्य इससे परे जाना और
वास्तविक वास्तविकता से अवगत होनाहै । प्रकृ ति को 5 मुख्य तत्वों में विभाजित किया जा सकता हैजो प्रत्येक
सजीव या निर्जीव सृष्टि का आधार बनते हैं । इन 5 तत्वों को पंचभूत (पृथ्वी, वायु, अग्नि, जल और
अंतरिक्ष) के रूप में जाना जाता है । पंचभूत को आगे तीन लक्षणों के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता
है। इन तीन लक्षणों को गुण या त्रिगुण के नाम से जाना जाता है । इसलिए ब्रह्मांड में और प्रकृ ति या माया
के प्रभाव में मौजूद हर चीज में ये तीन गुण या लक्षण अलग-अलग अनुपात में काम करते हैं । ये तीनों एक
साथ काम करते हैं और अपने आप में पूरी तरह से अस्तित्व में नहीं रह सकते। इन लक्षणों की तुलना
चेतना की विभिन्न अवस्थाओं जैसे जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था से भी की जा सकती है । प्रत्येक
जीवित प्राणी, प्रत्येक गतिविधि और भोजन को भी इन तीन में वर्गीकृत किया जा सकता है । हिं दू धर्म में इन
तीन गुणों को तीन सबसे महत्वपूर्ण देवताओं से जोड़ा गया हैजिन्हें हिं दू त्रिमूर्ति के रूप में जाना जाता है ।
भागवत गीता में इन विधाओं का बहुत विस्तार से वर्णन किया गया है । आइये इन्हें विस्तार से समझते हैं
सत्व या सात्विक गुण - सत्व या सात्विक गुण को अच्छाई के गुण के रूप में जाना जाता है। यह शांत और स्पष्ट मन
की स्थिति है
। यह शांति और सकारात्मकता की स्थिति भी है षताके तहत काम करने वाले लोगों का
। इस वि षताशे
जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण होता है
। वे बहुत निस्वार्थ होतेहैं और बदले में किसी पुरस्कार की
आशा किए बिना कार्य करते हैं। वे स्वभाव से आध्यात्मिक और अहिंसक भी हैं । वे सत्य के खोजी हैं और हर
चीज़ में अच्छाई ढूं ढते हैं । भगवान विष्णु इस गुण से जुड़े हैं क्योंकि वे ब्रह्मांड के संरक्षक हैं
। जमीन
के ऊपर उगने वाला कोई भी शाकाहारी भोजन सात्विक श्रेणी में आता है । आकाश तत्व सत्व से जुड़ा है ।
राजस या राजसिक गुण - राजस को जुनून या क्रिया के तरीके के रूप में जाना जाता है । यह वह गुण हैजो
इच्छाओं और लालच के व भूत भूतशीहोकर कार्य करता है। इस विधा से कार्य करने वाले लोग इच्छा-प्रेरित होतेहैं
और पुरस्कार प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं
। ये महत्वाकांक्षी लोग हैं
जो हावीहोनाचाहते हैं और ढेर सारी
भौतिक संपत्ति हासिल करना चाहते हैं । वे धन, प्रसिद्धि और समाज में प्रतिष्ठा से प्रेरित होतेहैं
और गलत कार्यों को
अपनाकर अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं । मानसिक रूप से वे भ्रम, आक्रामकता और बेचैनी की स्थिति
में रहते हैं
। भगवान ब्रह्मा इस गुण से जुड़े हुए हैं । बहुत मसालेदार या नमकीन खाद्य पदार्थ राजसिक भोजन
के अंतर्गत आते हैं । वायु और अग्नि का तत्व रजस से जुड़ा है ।
तमस या तामसिक - इसे अज्ञान और अकर्मण्यता या जड़ता की अवस्था के रूप में जाना जाता है । इस
अवस्था में शरीर नींद और सुस्ती से प्रभावित होता है
। इस अवस्था के अंतर्गत कार्य करने वाले लोग स्वभाव से
बहुत आलसी और नकारात्मक होतेहैं । वे उन जानवरों की तरह हैं जो सिर्फ खाना, सोना और संभोग करना
चाहते हैं । उनके पास हासिल करने के लिए कोई लक्ष्य नहीं होता और वे बहुत स्वार्थी जीवन जीते हैं ।
चूंकि लंबे समय तक इस गुण के तहत काम करना अवसाद लाता है , अंततः विनाश की ओर ले जाता है ।
कु ल मिलाकर यह गुण हमारेभीतर मौजूद सभी नकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है । मांस, शराब या प्रसंस्कृ त जैसे
खाद्य पदार्थ इस श्रेणी में आते हैं , इसलिए वे तामसिक
। चूंकि भगवान शिव ब्रह्मांड के विनाश से जुड़े हैं
गुण से भी जुड़े हैं । पृथ्वी और जल का तत्व तमस से जुड़ा है ।
त्रिगुण हमेशसह-अस्तित्व में रहता हैऔर पूरी तरह से अपने आप काम नहीं कर सकता। प्रत्येक व्यक्ति या
वस्तु में, इनमें से एक गुण हावीहोता हैऔर उसका प्रतिशत अधिक होता हैजबकि अन्य दो अधिक निष्क्रिय
होतेहैंऔर उनका नियंत्रण सीमित होता है । इन तीनों का अनुपात विभिन्न आंतरिक एवं बाह्य पहलुओं के
अनुसार बदलता रहता है । उदाहरण के लिए, सात्विक जीवन जीने वाला व्यक्ति सक्रिय होगा। वह सात्विक
भोजन करते थे और ध्यान और अन्य आध्यात्मिक गतिविधियों का अभ्यास करते थे ।वह दूसरों की मदद
करेगा और बिना किसी गुप्त उद्देय श्य के निस्वार्थ भाव से कार्य करेगा। हालाँ
कि, यदि वही व्यक्ति अब मांस
खाना या शराब का सेवन करना शुरू कर दे तो हम उसके दृष्टिकोण में व्यापक बदलाव देखेंगे। वह अब अधिक
आलसी होगया हैऔर नकारात्मक गतिविधियों में लिप्त होगया है । यही व्यक्ति अब तमस गुण के अधीन
कार्य कर रहा है
। हमारेऋषियों और पवित्र ग्रंथों के अनुसार, मोक्ष या मुक्ति एक ऐसी अवस्था हैजहां
व्यक्ति इन तीन गुणों से परे चला जाता है । यह अनंत आनंद की स्थिति हैऔर हमाराअंतिम लक्ष्य है ।
यहां तक कि हमारेहिं दू देवी-देवता भी इन गुणों से जुड़े हुए हैं ,
। दिव्य स्त्री या आदि शक्ति इन तीन गुणों से परे है
हालाँ
कि, उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियाँ त्रिगुण से जुड़ी हुई हैं । नवरात्रि के त्योहार के दौरान, पहले तीन
दिन हम दुर्गा की पूजा करते हैंजो हमारेतामसिक गुणों को संतुलित करने में हमारीमदद करती हैं । अगले तीन दिन
लक्ष्मी को समर्पित हैं जो हमारीराजसिक ऊर्जा को संतुलित करने में मदद करती हैं और अंतिम तीन दिन सरस्वती
को समर्पित हैं जो हमारेअंदर सात्विक ऊर्जा को संतुलित करती हैं ।
"सृष्टि के तीन सूक्ष्म मूलभूत तत्त्व:" सत्व, रज एवम् तम !!!
सृष्टि की रचना मूल त्रिगुणों से हुई है , सत्त्व, रज एवं तम । ये तीनों घटक सजीव-निर्जीव, स्थूल-सूक्ष्म
वस्तुओं में विद्यमान होतेहैं । इससे प्रत्येक वस्तु का व्यवहार भी प्रभावित होता है। मनुष्य में इनका अनुपात
के वल साधना से हीपरिवर्तित किया जा सकता है।
आधुनिक विज्ञान के अनुसार, सृष्टि स्थूल कणों से बनी है– इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन, मेसन्स, ग्लुओन्स
एवं क्वार्क्स परंतु आध्यात्मिक स्तर पर, सृष्टि उनसे भी अधिक मूल तत्त्वों से बनी है। इन मूल तत्त्वों को सूक्ष्म
तत्त्व अर्थात त्रिगुण कहते हैं – सत्त्व, रज और तम । त्रिगुण शब्द में, त्रि अर्थात तीन, तथा गुण अर्थात
सूक्ष्म घटक ।
हम इन तत्त्वों को सूक्ष्म इसलिए कहते हैं क्योंकि ये अदृय श्य , स्थूल नहीं हैतथा किसी आधुनिक सूक्ष्मदर्शी यंत्र
हैं
से भी नहीं दिखाई देते । भविष्य में तकनीकी रूप से प्रगत यंत्र भी इन तत्त्वों को मापन नहीं कर पाएंगे ।
त्रिगुण के वल छ ठ वीं ज्ञानेंद्रिय क्षमता द्वारा हीअनुभव किए जा सकते हैं ।
'सत्त्व गुण' त्रिगुणों में, सबसे सूक्ष्म तथा अमूर्त है। सत्त्व गुण दैवी तत्त्व के सबसे निकट है। इसलिए सत्त्व
प्रधान व्यक्ति के लक्षण हैं – प्रसन्नता, संतुष्टि, धैर्य, क्षमा करने की क्षमता, अध्यात्म के प्रति झुकाव इत्यादि ।
'तम गुण' त्रिगुणों में सबसे कनिष्ठ है। तम प्रधान व्यक्ति, आलसी, लोभी, सांसारिक इच्छाओं से आसक्त रहता है
।
'रजो गुण' सत्त्व तथा तम को उर्जा प्रदान करता हैतथा कर्म करवाता है। व्यक्ति यदि सात्त्विक हो, तो सत्त्व प्रधान
कर्म को उर्जा प्रदान करता हैतथा यदि तामसिक होतो तम प्रधान कर्म को उर्जा प्रदान करता है।
"त्रिगुण और पंचमहाभूत:"
पंचमहाभूत भी त्रिगुणों से बने हैं । पंचमहाभूत – पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश है। पंचमहाभूत अदृय श्य हैं
तथा स्थूल रूप में हमें दृश्यमान होनेवालेघटकों से भी सूक्ष्म हैं । उदाहरण, जल का निर्माण सूक्ष्म आपतत्त्व से हुआ है,
जिससे नदी तथा समुद्र बनते हैं । संक्षिप्त में पंचमहाभूत ब्रह्मांड के निर्माण में आधारभूत घटक हैं
। परंतु वे
भी त्रिगुणों से बने हैं ।
मनुष्य अधिकांश पृथ्वीतत्त्व तथा जलतत्त्व से बना है। जब किसी व्यक्ति की अध्यात्मिक उन्नति होती है ,
वह उच्चतर स्तर पर कार्य करने लगता है , जैसे तेजतत्त्व । इस स्तर के आध्यात्मिक उन्नत व्यक्ति से
वि ष्ट ष्
टशिरूप का तेज प्रक्षेपित होता प्रतीत होता है। जब ऐसा होता है , उस जीव की मूलभूत इच्छाएं भी अल्प होती
जाती हैं , जैसे अन्न तथा नींद । इसके अतिरिक्त, बोधगम्यता तथा कार्य करने की क्षमता संख्यात्मक तथा
गुणात्मक रूप से प्रचंड मात्रा में बढ जाती है।
"त्रिगुण और प्राकृ तिक आपदाएं:"
यदि पृथ्वी पर रज-तम बढता है , तो इसका रूपांतर युद्ध, आतंकी गतिविधियों तथा प्राकृ तिक आपदाओं आदि की
वृद्धि में होता है। रज-तम की मात्रा बढने पर, पंचतत्त्व असंतुलित होजाते हैं , जिसका रूपांतर महाविपत्ति में तथा
प्राकृ तिक आपदाओं में होता है।
पंच महाभूत
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पंचमहाभूत शब्द तीन शब्दों से मिलकर बना है: 'पंच', 'मह' और 'भूत'। 'पंच' का अर्थ है पांच, 'महा' का अर्थ है
महान और 'भूत' का अर्थ है जो अस्तित्व में है। ब्रह्मांड में सभी जीवित और निर्जीव वस्तुएं पंचमहाभूत से बनी
हैं।[च.सा. सूत्र स्थान 26/10]। इसलिए, पंचमहाभूत मानव सहित ब्रह्मांड के निर्माण के लिए जिम्मेदार पांच
मूलभूत तत्व हैं। प्रत्येक व्यक्ति का एक अद्वितीय पंचभौतिक संविधान होता है। यह संविधान स्वास्थ्य में
संतुलन की स्थिति में रहता है और किसी भी असंतुलन के परिणामस्वरूप बीमारी होती है। स्वास्थ्य सेवा
प्रदाता के लिए पंचभौतिक असंतुलन की पहचान करना महत्वपूर्ण है और उसके पास संतुलन बहाल करने की
क्षमता होनी चाहिए।
योगदानकर्ताओं
carakasamhita@gmail.com
तिथि:
डीओआई 10.47468/CSNE.2020.e01.s09.006
अंतर्वस्तु
1 व्युत्पत्ति एवं व्युत्पत्ति
3 पंचमहाभूत का महत्व
5 वर्तमान शोध
6 थीसिस की सूची
7 अधिक जानकारी
8 संदर्भ
व्युत्पत्ति एवं व्युत्पत्ति
'भूत' शब्द "भू" धातु (संस्कृ त मूल) और "क्त" प्रत्यय (प्रत्यय) से बना है। इसका अर्थ है ब्रह्मांड में
अस्तित्व। [1] जो बाह्य ज्ञानेन्द्रियों से अनुभव किया जा सके उसे भूत कहते हैं। [2]
1. आकाश महाभूत
2. वायु महाभूत
3. अग्नि महाभूत
4. जल महाभूत
5. पृथ्वी महाभूत
पंचमहाभूत का महत्व
सृष्टि की रचना में पंचमहाभूत महत्वपूर्ण कारक हैं। वे तेजस (सत्व प्रधान) और भूतादि (तमस प्रधान)
अहंकार के मिलन से विकसित होते हैं। निम्नलिखित चित्र ब्रह्माण्ड के उद्भव और विकास को दर्शाता है।
छवि 1: विकास प्रक्रिया
पंचमहाभूत का विकास
इंसान से रिश्ता
पंचमहाभूत और चेतना के एकीकरण से पुरुष समग्र मानव का निर्माण होता है । [च.सा. शरीरा स्थान 1/16]
पंचमहाभूत के गुण
प्रत्येक महाभूत में इंद्रिय अंगों से संबंधित प्रमुख अंतर्निहित कार्य होते हैं। जैसा कि नीचे दिया गया है, अन्य
महाभूतों के सूक्ष्म तत्वों को जोड़ने के कारण महाभूत अन्य उन्नत इंद्रियों का अनुभव कर सकता है।
[च.सा. शरीरा स्थान 1/26-28]
आकाश ध्वनि(शब्द) -
पृथ्वी गंध (गन्ध) ध्वनि (शब्द), स्पर्श (स्पर्श), दृष्टि (रूप), स्वाद (रस)
महाभूत संबंधित इंद्रियों को उनके संवेदी कार्य करने के लिए निवास प्रदान करते हैं।[चा.सा. सूत्र स्थान .8/14].
ये ज्ञानेन्द्रियाँ ब्रह्माण्ड में पंचभौतिक पदार्थ को जानने के उपकरण हैं। [3]
पंचमहाभूत के लक्षण
पंचत
वि षताएँ
त्व
मुक्त प्रवाह/अप्रतिघटता
आकाश
(अप्रतिघटता)
वायु लता
गति लता (चलत्व)
शी
भ्रूणजनन के दौरान महाभूत बुनियादी कार्य करते हैं। भ्रूण (गर्भ) के निर्माण के बाद, वायु कोशिका
विभाजन/गुणन (विभजन) का कार्य करती है; अग्नि चयापचय (पचना) का कार्य करती है; जाला नमी या तरल
पदार्थ (क्लेडाना) का कार्य करता है; पृथ्वी सघनता या द्रव्यमान के निर्माण (संहनन) का कार्य करता है; और
आकाश आकार को बढ़ाने (विवर्धन) का कार्य करता है। यदि इन कार्यों को सामान्य अनुपात में किया जाए तो
शरीर की सामान्य संरचना (शरीरा) बनती है [सु.सा.शा.5/3]। गर्भावस्था के तीसरे महीने में शरीर के
निम्नलिखित घटकों का निर्माण होता है और महाभूत से संबंधित कार्य प्रारंभ हो जाते हैं।[च.सा. शरीरा
स्थान .04/12]
पंचत
रीर के घटक एवंकार्य
त्व
स्पर्शनीयता, स्पर्श की अनुभूति, खुरदरापन, आवेग, शरीर के ऊतकों की संरचना और शरीर और दोष की गतिविधियों
वायु
को बनाए रखना
पाचन और चयापचय की प्रक्रिया में, भोजन अग्नि की क्रिया के तीन स्तरों से होकर गुजरता है । स्थूल पाचन
के लिए सबसे पहले इस पर जठराग्नि का प्रभाव पड़ता है। तब उस पर भूताग्नि क्रिया होती है। इस स्तर
पर प्रत्येक महाभूत का अग्नि घटक भोजन के अपने संबंधित घटक की चयनात्मक पाचन प्रक्रिया को अंजाम
देता है। पार्थिव अग्नि ग्रहण किए गए भोजन के पृथ्वी घटक को पचाती और चयापचय करती है। इसके अलावा
शरीर के घटकों का निर्माण धातुग्नि की चयनात्मक प्रक्रिया द्वारा होता है । [च.सा. चिकित्सा स्थान 15/12-
14] शरीर पंचमहाभूत से बना है और भोजन भी। जब भोजन ग्रहण किया जाता है, तो संबंधित महाभूत और
शारीरिक घटक बढ़ जाते हैं [सु.सा.सु.46/526]।
दोष की मौलिक संरचना
दोषों का गठन विशिष्ट महाभूतों द्वारा किया जाता है [AS.Su.20/2] जैसा कि नीचे दिया गया है:
पंचमहाभूत
दोष
संविधान
पित्
अग्नि
त
कफ जाला , पृथ्वी
इस रचना के आधार पर, महाभूत मनुष्य के मूल संविधान ( प्रकृ ति ) को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाते हैं। [च.सा. विमान स्थान 8/95] यह सिद्धांत चिकित्सा विज्ञान में लागू होता है। शरीर में वात दोष कम
होने पर , वायु और आकाश महाभूत को बढ़ाने वाला आहार निर्धारित किया जाता है। तदनुसार, संबंधित दोष
को बढ़ाने वाले आहार निर्धारित किए जाते हैं।
शरीर में मर्म या महत्वपूर्ण बिंदुओं/अंगों को शरीर पर उनके हानिकारक प्रभाव के आधार पर पांच श्रेणियों में
वर्गीकृ त किया गया है । हानिकारक प्रभाव उनकी महाभूत की मौलिक संरचना [सु.सा.शा.] पर निर्भर करता है।
6/16] नीचे के अनुसार।
पंचमहाभूत
मर्म का प्रकार
संविधान
पंचमहाभूत संरचना किसी पदार्थ का विशिष्ट स्वाद निर्धारित करती है। तदनुसार रस या स्वाद प्रासंगिक
जैविक गतिविधियाँ और प्रभाव करते हैं [सु.सा.सु 42/03], [चा.सा. सूत्र स्थान 26/40]। इनका प्रयोग
चिकित्सीय प्रयोजन के लिए किया जाता है।
पृथ्वी , अग्
खट्टा (आंवला) वात की शांति
नि
नमकीन
जल , अग्नि वात की शांति
(लावना)
मसालेदार
वायु , अग्नि कफ की शांति
(काटू)
भूता
इलाज
प्रधानता
पृथ्वी और ज
विरेचन औषधि _
ला
शांति चिकित्सा में ( शमन चिकित्सा )
भूता
इलाज
प्रधानता
वायु और अग्
स्कार्फियिंग (लेखना) औषधि
नि
पृथ्वी और ज
पौष्टिक (बृह्मण) औषधि
ला
पंचत
निदान बिंदु
त्व
खोखली गुहाओं में शरीर के घटकों का मुक्त प्रवाह, शरीर के अंदर विभिन्न ध्वनियाँ
आकाश
उत्पन्न होना
महाभूत के अनुपात का आकलन करने के लिए शारीरिक कार्यों में असामान्यताओं को देखा जाता है।
रोग प्रबंधन में पंचमहाभूत का उपयोग
पंचमहाभूत सिद्धांत का प्रयोग रोगों के प्रबंधन में किया जाता है। रोग के मूल प्रेरक कारकों और रोगजनन की
पंचभौतिक संरचना देखी जाती है। फिर शरीर में संतुलन बहाल करने के लिए विपरीत पंचभौतिक संविधान
वाली दवाएं दी जाती हैं।
उदाहरण के लिए, ज्वरा में , अपाच्य भोजन ( अमा ) पोषक द्रव्य (रस धातु) को ख़राब कर देता है। पाचन और
चयापचय धीमा हो जाता है। इस प्रकार, पृथ्वी और जल महाभूत बढ़ जाते हैं और रोग की स्थिति पैदा करते हैं।
ज्वर के उपचार में लंघना, स्वेदन, पचना और कड़वे स्वाद (तिक्त) वाली दवाएं शामिल हैं। उपचार
में अग्नि , वायु और आकाश का प्रभुत्व है। एक ही महाभूत की प्रधानता वाली साइपरस रोटंडस (मुस्ता),
जिंजिबर ऑफिसिनेल (शुंथि) जैसी जड़ी-बूटियों को प्रबंधन में प्रशासित किया जाता है। इसे कई अन्य
बीमारियों में भी लगाया जा सकता है। [4] इस प्रकार रोगों के निदान एवं उपचार में पंचमहाभूत सिद्धांत महत्वपूर्ण
है।
वर्तमान ध
पंचमहाभूत की वर्तमान समझ को दो भागों में वर्गीकृ त किया जा सकता है:
आधुनिक भौतिक विज्ञानी, डॉ. जॉन हेगेलिन ने बताया कि क्वांटम भौतिकी सृष्टि में सब कु छ बुनियादी 'बल'
और पदार्थ क्षेत्रों से प्राप्त करती है। ये क्षेत्र पाँच मौलिक स्पिन प्रकारों में से एक हैं - कण भौतिकी में सबसे
बुनियादी अवधारणा। उन्होंने पंचमहाभूत को आधुनिक भौतिकी के पांच स्पिन प्रकारों के साथ सहसंबंधित
किया। आगे बढ़ते हुए, संबंधित सुपरफ़ील्ड के साथ दोष के संबंध की संभावना की पुष्टि नीचे दी गई तालिका में
दिखाई गई है:
वा गुरुत्वाकर्
वायु स्पिन 3/2 = ग्रेविटिनो
त षण
यह सादृश्य स्वास्थ्य की वर्तमान समझ में सहायक है। महाभूत शरीर के घटकों जैसे आकाश (शरीर में स्थान,
चैनल) में भी मौजूद हैं; वायु (शरीर में वायु, गैसीय आदान-प्रदान, ऑक्सीजन, कार्बन डाइऑक्साइड आदि,
श्वास); अग्नि (रासायनिक प्रतिक्रियाएं, एंजाइमेटिक गतिविधि, पाचन); जल (पानी, तरल पदार्थ, आयनिक
घटक); और पृथ्वी (पृथ्वी, ठोस संरचनाएँ)। [5] शरीर के घटक जैसे दोष, धातु, मल, अग्नि आदि पंचमहाभूत के
जैविक व्युत्पन्न के अलावा और कु छ नहीं हैं और इससे अलग कु छ भी नहीं है। [6] इसलिए पंचमहाभूत
अत्यधिक महत्वपूर्ण कारक हैं जो जैविक प्रक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।
जैसा कि ऊपर बताया गया है, क्वांटम यांत्रिकी में पांच स्पिनों के साथ सहसंबंध के अलावा, पंचमहाभूत ब्रह्मांड
के निर्माण में महत्वपूर्ण लिंक हैं। विज्ञान के अनुसार, ब्रह्मांड अव्यक्त (अव्यक्त) से ब्रह्मांडीय बुद्धि ( महत )
और अहंकार ( अहंकार ) के माध्यम से विकसित हुआ है। फिर रजस प्रधान तैजस और तमस प्रधान भूतादि
अहंकार से पंचतन्मात्रा (पंचमहाभूत के सूक्ष्म रूप) विकसित होते हैं। पंचतन्मात्राएँ ज्ञान की महत्वपूर्ण कड़ियाँ
हैं जो वैज्ञानिकों को इस बात की अधिक विस्तृत और मात्रात्मक समझ प्रदान करती हैं कि चेतना किस प्रकार
पदार्थ को जन्म देती है । [7] इस संबंध में, ब्रह्मांड में परिवर्तन प्रक्रिया ऊर्जा का प्रवाह बन जाती है।
थीसिस की सूची
आईपीजीटी एवं आर.ए. जामनगर:
1. राव टी. श्रीनिवास (1970)। पंचभूतिक गुण (गुरु और लघु के लिए एक अध्ययन)।
2. उपेन्द्र डी. दीक्षित (1995)। पंचमहाभूत की अवधारणा एवं चिकित्सा में इसकी उपयोगिता।
3. डॉ. बिष्णुप्रिया मोहंती (2004 पीएच.डी.) पंचमहाभूत का बायोट्रांसफॉर्मेशन और कोशिका क्षति के
संदर्भ में इसकी व्याख्या।
4. नलगेदिलीप एच (2004)। संस्कार का एक अध्ययन और द्रव्य की पंच-भूतिक संरचना के परिवर्तन में
इसकी भूमिका।
5. गौतम खांडेपारकर (2007)। संतर्पणोत्थाप्रमेह और इसके प्रबंधन के संबंध में "भूतेभ्योहि
परम्यस्मात्नास्तचिन्तचिकित्सिते" का आलोचनात्मक अध्ययन।
6. अनुरुचिजादौन (2012)। द्रव्यों के पंचभौतिक अरबधाता की अवधारणा (महाभूतों का संयोजन और
विन्यास) और समान और विचित्रप्रत्ययारब्धता का व्यावहारिक पहलू।
7. हर्षल एस साबले (2013)। पंचविधावत की अवधारणा को उनके पंचभौतिक संयोजन और विन्यास के
संबंध में लागू किया गया।
8. कमलामूंड (2018)। पृथ्वी महाभूत के मूल्यांकन के लिए वस्तुनिष्ठ पैरामीटर विकसित करने के लिए
पंचमहाभूत सिद्धांत पर एक अध्ययन
पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं, ये तीनों ही विषय विज्ञान और दर्शन में विभिन्न स्तरों पर
हैं, लेकिन इनके बीच गहरा संबंध हो सकता है।
1. पंचमहाभूत:
o पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) वेदांत और आयुर्वेद में महत्वपूर्ण रूप से उदाहृत होते
हैं
। इन्हें सृष्टि के आधार तत्व के रूप में देखा जाता हैऔर मानव शरीर के स्वास्थ्य में इनका
संतुलन महत्वपूर्ण माना जाता है
।
2. क्वांटम यांत्रिकी:
o क्वांटम यांत्रिकी एक विज्ञान शाखा है जो अणु, रासायनिक प्रक्रियाएं, और ऊर्जा स्तरों की
गणना करने के लिए इंजनियरिंग और गणित का उपयोग करती है । यह बताती हैकि अणु
और ऊर्जा स्तरों का संबंध कै से होता हैऔर क्वांटम यांत्रिकी में विभिन्न प्रक्रियाएं कै से कार्य करती
हैं
।
3. जैविक प्रक्रियाएं:
o जैविक प्रक्रियाएं जीवन के स्वाभाविक प्रवाह को समझने का क्षेत्र हैं
और बायोलॉजी और
जैवविज्ञान के अंतर्गत आती हैं । इसमें जन्म, विकास, मृत्यु, ऊर्जा प्रवाह, और ऊर्जा
संरचना जैसी प्रक्रियाएं शामिल हैं
जो जीवों के जीवन को संचालित करती हैं ।
संबंध:
सार्थक तौर पर, यह तीनों हीक्षेत्र अपने-अपने तरीके से विज्ञान और दर्शन के माध्यम से जीवन और सृष्टि
के असली स्वरूप को समझने की
प्रस्तावना:
प्राचीन समय से हीमानव ने आसपास की प्राकृ तिक रचनाओं और उनके कारगर प्रक्रियाओं का अध्ययन किया है ।
ब्रह्मांड की रचना और उसमें घटित होनेवाली घटनाओं को समझने का प्रयास विज्ञान और धार्मिक
दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण अंश रहा है
। इस दिशा में, पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं तीन प्रमुख
क्षेत्र हैं
जो हमें
ब्रह्मांडिक और जीवन की स्वरूप समझने में सहायक हैं ।
पंचमहाभूत:
क्वांटम यांत्रिकी:
क्वांटम यांत्रिकी विज्ञान ब्रह्मांड के सूक्ष्म स्तर की रचनाओं और ऊर्जा के संबंध में अद्वितीय और रहस्यमय
ज्ञान प्रदान करती है
। इसमें अद्वितीय तत्वों के साथ ऊर्जा के अद्भूत रूपों का अध्ययन हैजो हमारे
सामान्य भौतिक नियमों से बाहर हैं।
जैविक प्रक्रियाएं:
जैविक प्रक्रियाएं जीवों की स्वाभाविक और सामाजिक परिवर्तन प्रक्रियाओं को समझने में मदद करती हैं
। इन प्रक्रियाओं में
पंचमहाभूतों का सहयोग होता हैजिससे जीवन संजीवनी बना रहता है।
1. वाससवावा
-ग्रहण प्रक्रिया: वायु तत्व का सार्थक योगदान श्वास-ग्रहण प्रक्रिया में होता है
, जिससे हम प्राणी
होतेहैं।
2. जल-संलेषण प्रक्रिया: जल महत्वपूर्ण तत्व हैजो हर जीव के शरीर में विभिन्न प्रक्रियाओं का हिस्सा है ,
जैसे कि पाचन, रक्त परिसंचरण, और ऊर्जा उत्पन्न करना।
3. अग्नि- धन प्रक्रिया: अग्नि तत्व का उपयोग अन्न को प्रक्रियाशील रूप से खाद्य पदार्थ में बदलने
, जो जीवों के शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है
के लिए होता है ।
समाप्ति:
इस निबंध में हमनेपंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाओं के तीनों क्षेत्रों को समझाया हैऔर देखा है
कि इन सभी घटकों का एक गहरा संबंध हैजो ब्रह्मांड और जीवन को संजीवनी ऊर्जा से पूरित बनाए रखता
है
। यह सभी घटक एक-दूसरे के साथ संतुलन बनाए रखने के लिए मिलकर कार्य करते हैं और सृष्टि को सहज, समर्थ,
और सुरक्षित बनाए रखते हैं
।
Title: पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं: ब्रह्मांड की सृष्टि और विकास के तत्व
प्रस्तावना:
ब्रह्मांड का अद्वितीय रहस्य और उसके अनगिनत तत्वों के अध्ययन में हमें पंचमहाभूत, क्वांटम
यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाओं के महत्व का अनुभव होता है । यह तीनों प्रमुख तत्व हमारे ब्रह्मांड के सृष्टि,
संरचना, और संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं
। इस निबंध में, हम पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और
जैविक प्रक्रियाओं के बारे में विस्तृत अध्ययन करेंगे और उनका अद्भुत संयोग और एक दूसरे के साथ संबंध को
सम झें गे ।
पंचमहाभूत:
पंचमहाभूत, या पांच तत्व, हमारे ब्रह्मांड के मौलिक तत्व हैं जो हमारेवातावरण की संरचना और कार्यों के लिए
अत्यंत महत्वपूर्ण हैं
। ये प्रकृ ति के प्रमुख तत्व हैं
जो हमें
प्रत्येक वस्तु के रूप, गुण, और कार्यों को समझने में मदद
करते हैं
। इन पंचमहाभूतों का संयोग हमें धरती, जल, आग, वायु, और आकाश की सृष्टि को समझने में मदद करता है ।
1. पृथ्वी (भूमि):
o पृथ्वी या भूमि पंचमहाभूत का एक महत्वपूर्ण तत्व है जो हमारीआधारभूत जीवन समर्थन प्रदान करता
है । यह तत्व हमें अभिव्यक्ति, स्थिरता, और संबल प्रदान करता है ।
2. जल (पानी):
o जल, या पानी, जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । यह संरक्षण, ऊर्जा, और प्राण का स्रोत हैऔर
प्राकृ तिक प्रक्रियाओं के लिए अनिवार्य है ।
3. अग्नि (ज्योति):
o अग्नि, या ज्योति, ऊर्जा का प्रमुख स्रोत है और विभिन्न प्रकार की प्राकृ तिक प्रक्रियाओं को
संचालित करता है । यह तत्व प्रकार, उष्मा, और प्रकाश का स्रोत है ।
4. वायु (हवा):
o वायु, या हवा, जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है और प्राणीयों के लिए श्वास लेने का स्रोत है
।
यह तत्व गति, ऊर्जा, और प्रवाह को संचालित करता है ।
5. आकाश (अंतरिक्ष):
o आकाश या अंतरिक्ष हमारे ब्रह्मांड की अद्वितीयता का प्रतीक हैऔर इसमें सभी अन्य
पंचमहाभूतों का संयोग होता है । यह सभी वस्तुओं को समाहित करता हैऔर ब्रह्मांड की सम्पूर्णता
का प्रतीक है ।
क्वांटम यांत्रिकी:
1. क्वांटम सुपरपोजिन:
o क्वांटम यांत्रिकी के अनुसार, किसी तत्व की स्थिति का निर्धारण उसकी देख पर निर्भर करता
है। एक तत्व का समय-स्थान देख या नहीं देख कर सकता है , और एक हीसमय पर कई स्थानों पर
होसकता है ।
2. क्वांटम अंगुलीय संज्ञान:
o इसके अनुसार, किसी एक तत्व का स्थिति या गति का मापन करने पर दूसरे तत्व का स्थिति या
, भले हीवे दूर हों
गति प्रभावित होता है ।
3. क्वांटम इंटरफेरेन्स:
o क्वांटम इंटरफेरेन्स के अनुसार, एक हीसमय पर एक तत्व कई स्थानों पर होसकता है और
इसका एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की क्षमता होती है
।
जैविक प्रक्रियाएं:
जैविक प्रक्रियाएं जीवों में होनेवाली प्रक्रियाओं को आवश्यकतानुसार संचालित करती हैं और प्राकृ तिक प्रक्रियाओं का
संचालन करती हैं । ये प्रक्रियाएं पंचमहाभूतों के संयोग से उत्पन्न होती हैं
और जीवों के विकास, प्रजनन, और उनकी
संरचना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं ।
1. वसन
सन
ववप्रक्रिया:
व
, जिससे ऊर्जा उत्पन्न होती हैऔर शरीर
o जीवों की श्वसन प्रक्रिया वायु तत्व के संयोग से होती है
के कार्यों को संचालित करने में मदद करती है
।
2. जल संरचना:
o जल संरचना में पानी तत्व का संयोग होता है जो जीवों की रक्त संरचना, पाचन, और अन्य शारीरिक
प्रक्रियाओं में अहम भूमिका निभाता है ।
3. आग सेंसन:
o जीवों में आग सेंसन का अभ्यास आत्मा तत्व के संयोग से होता है , जिससे उन्हें अगर जोखा
जाए, तो उत्तेजना होती है ।
4. आकाश संबंध:
o , जो उन्हें जीवन,
जीवों की आत्मा तत्व का अंतर्निहित संबंध उनके आत्मा से होता है
सच्चाई, और सामंजस्य की भावना देता है
।
Title: The Interplay of the Five Elements, Quantum Mechanics, and Biological Processes
I. Introduction
A. Definition and Significance of the Five Elements: - The concept of "Panchmahabhoot" or the five
elements is deeply rooted in ancient Indian philosophy, particularly in Ayurveda and other Vedic
traditions. These elements—Prithvi (Earth), Jal (Water), Agni (Fire), Vayu (Air), and Akash (Ether or
Space)—are considered the building blocks of the material world.
B. Overview of Quantum Mechanics: - Quantum mechanics is a branch of physics that studies the
behavior of particles at the atomic and subatomic levels. Key principles include wave-particle duality,
the uncertainty principle, and quantum entanglement.
C. Introduction to Biological Processes: - Biological processes encompass the activities that occur
within living organisms, such as cellular respiration, photosynthesis, and DNA replication. These
processes are fundamental to life and are intricately linked to energy transfer.
D. Importance of Understanding Their Interplay: - Exploring the interplay between the five
elements, quantum mechanics, and biological processes is essential for a comprehensive understanding
of the universe. This interdisciplinary approach can offer insights into the nature of reality,
consciousness, and the interconnectedness of various phenomena.
A. Explanation of Each Element: - Prithvi (Earth): Represents the solid state of matter and is
associated with stability and structure. - Jal (Water): Signifies the liquid state and embodies qualities
of adaptability and flow. - Agni (Fire): Represents energy and transformation, associated with heat
and change. - Vayu (Air): Symbolizes the gaseous state, representing movement and changeability. -
Akash (Ether or Space): Represents the void or space, providing the canvas for the other elements.
B. Traditional and Modern Perspectives: - While ancient traditions view these elements through a
holistic and spiritual lens, modern science interprets them in terms of atomic and molecular structures.
C. Role of the Five Elements in Ancient Philosophies and Cultures: - Various cultures and
philosophies, including Ayurveda, yoga, and Chinese philosophy, have integrated the concept of the
five elements into their understanding of health, spirituality, and the natural world.
C. Modern Applications in Technology and Science: - Quantum mechanics has led to technological
breakthroughs such as MRI machines, lasers, and transistors, revolutionizing various fields.
A. Introduction to Biological Systems and Processes: - Living organisms carry out various
processes to maintain life functions and perpetuate their species.
B. Key Biological Processes: - Cellular Respiration: The process by which cells produce energy
from glucose. - Photosynthesis: The process by which plants convert light energy into chemical
energy. - DNA Replication and Protein Synthesis: Fundamental processes for the transmission of
genetic information and protein production.
V. The Interplay of the Five Elements, Quantum Mechanics, and Biological Processes
A. Connections Between the Five Elements and Quantum Mechanics: - Atomic Structure and
Elemental Composition: The elements' characteristics are reflected in atomic structures and
compositions. - Energy Exchange and Quantum Phenomena: Quantum phenomena influence
energy exchange, potentially linking the ancient concept of energies in the elements to quantum
principles.
C. Conceptual Parallels Between Ancient Philosophies and Modern Scientific Theories: - The
interconnectedness, dynamic nature, and transformative properties attributed to the elements in ancient
philosophies find parallels in quantum principles and the adaptability and transformative capabilities
seen in biological processes.
B. Insights for Holistic Approaches in Science and Medicine: - Integrating knowledge from ancient
philosophies, quantum mechanics, and biological sciences can contribute to holistic approaches in
medicine and well-being.
VII. Conclusion
A. Recap of the Significance: - Summarize the key findings and connections between the five
elements, quantum mechanics, and biological processes.
B. Final Thoughts on Integration: - Emphasize the importance of integrating ancient wisdom with
modern scientific discoveries for a more comprehensive understanding of the universe.
C. Suggestions for Future Research and Exploration: - Encourage further research into the
interdisciplinary connections explored in the essay, suggesting potential avenues for future exploration
and collaboration.
VIII. References
Cite the sources used in the essay to provide credibility and enable further exploration by
interested readers.
I. परिचय
A. पंचमहाभूत की परिभाषा और महत्व: - "पंचमहाभूत" या पाँच तत्वों का अवधारणा भारतीय
दर्शनिक परंपराओं में गहराई से स्थापित है , वि षकरशे
षकर आयुर्वेद और अन्य वैदिक परंपराओं में। ये तत्व -
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश - सामग्री की रचना के घटक माने जाते हैं ।
B. क्वांटम यांत्रिकी का सारां: - क्वांटम यांत्रिकी एक भौतिकी शाखा हैजो परमाणु और
उपपरमाणु स्तर पर कणों के व्यवहार का अध्ययन करती है । मुख्य सिद्धांतों में तार-कण द्वैत,
अनिचितता तता श्चि
सिद्धांत, और क्वांटम संबंधन शामिल हैं
।
C. जैविक प्रक्रियाओं का परिचय: - जैविक प्रक्रियाएं जीवित प्राणियों में होनेवाली गतिविधियों को
समाहित करती हैं , जैसे कि कोशिका श्वसन, प्रकाश संश्लेषण, और डीएनए रिप्लिके शन। ये प्रक्रियाएं जीवन के
लिए महत्वपूर्ण हैं और विभिन्न क्रियाओं के साथ जड़े हुएहैं ।
D. उनके संबंधों को समझने का महत्व: - पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाओं
के बीच के संबंधों का अन्वेषण विव श्वके समग्र समझ के लिए आवश्यक है । इस अन्तर्विष्टा दृष्टिकोण से
हम वास्तविकता, चेतना की प्रकृ ति, और विभिन्न प्रभावों के बारे में अंतर्निहित प्रश्नों को सुलझा सकते
हैं।
II. पंचमहाभूत (पंचतत्वों)
A. प्रत्येक तत्व का विवरण: - पृथ्वी (Earth): पदार्थ की स्थिर स्थिति को प्रतिष्ठित करती हैऔर
संरचना और स्थिति से जुड़ी है । - जल (Water): द्रव स्थिति को प्रतिष्ठित करती हैऔर अनुकूलता और
प्रवाह की गुणधर्मिता के साथ सम्बद्ध है । - अग्नि (Fire): ऊर्जा और परिवर्तन को प्रतिष्ठित करती है , जो
उष्मा और परिवर्तन के साथ संबंधित है । - वायु (Air): गैसीय स्थिति को प्रतिष्ठित करती है , जो गति और
परिवर्तन की गुणधर्मिता को प्रतिष्ठित करती है । - आकाश (Ether या Space): शून्य या अंतरिक्ष को
प्रतिष्ठित करती है , अन्य तत्वों के लिए चित्र प्रदान करती है ।
B. पारंपरिक और आधुनिक परिप्रेक्ष्य: - हालां कि प्राचीन परंपराएं इन तत्वों को एक पूर्ण और
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखती हैं , आधुनिक विज्ञान उन्हें परमाणु और आणविक संरचनाओं की दृष्टि से
व्याख्या करता है ।
C. पंचतत्वों के भौतिक दर्न शन और सांगणिक परंपराओं में भूमिका: - विभिन्न सांस्कृ तिक
र्
और दार्शनिक परंपराएं, जैसे कि आयुर्वेद, योग, और चीनी दर्शन, ने इन तत्वों की सेहत, आध्यात्मिकता,
और प्राकृ तिक विव श्वके समझ में इन्गीत किया है ।
III. क्वांटम यांत्रिकी (क्वांटम मैकेनिक्स)
A. क्वांटम मैकेनिक्स सिद्धांतों का सारां: - तार-कण द्वैत: कण वैव-पार्टिकल द्वैत का प्रदर्शन
करते हैं । - अनिचितता तता
चि चि
सिद्धांत: कु छ गुणों के समय समय पर जाने की सीमा लगाता है । - क्वांटम
संबंधन: कणों का संबंधन होजाता है , और एक कण की स्थिति को दूसरे कण की स्थिति पर तत्परता से
प्रभावित करता है ।
B. क्वांटम मैकेनिक्स और इसके परिणाम: - क्वांटम मैके निक्स ने निचितता तताश्चि
के क्लासिकीय
अनुसार आगे बढ़कर, पर्यावरण और सामग्रियों के क्षेत्र में अग्रणी बदलावों के साथ निर्धारण की नींव
रखी है ।
C. तकनीकी और विज्ञान में आधुनिक अनुप्रयोग: - क्वांटम मैके निक्स ने एमआरआई मशीन,
लेजर, और ट्रां जि स् टर्स जैसी प्रौद्योगिकियों की खोज में आधुनिकता लाई है , जिससे विभिन्न क्षेत्रों
में क्रांति हुई है
।
IV. जैविक प्रक्रियाएं (जैविक प्रक्रियाएं)
A. जीविक प्रणालियों और प्रक्रियाओं का परिचय: - जीवित प्राणियों के भीतर होनेवाली
विभिन्न प्रक्रियाओं का अध्ययन करें, जैसे कि सेल्यूलर श्वसन, प्रकाश संश्लेषण, और डीएनए रिप्लिके शन।
B. मुख्य जैविक प्रक्रियाएं: - सेल्यूलर वसन सन वव
व : कोशिकाएँ ग्लूकोज से ऊर्जा उत्पन्न करती हैं ।
- प्रका संलेषण: पौधों ने प्रकाश को रासायनिक ऊर्जा में परिणामित करने की प्रक्रिया है । - डीएनए
रिप्लिकेन: जीवित प्राणियों में डीएनए की नकल होती है , जिससे नई कोशिकाएं बनती हैं ।
C. जैविक प्रक्रियाओं का और भी अध्ययन: - जैविक प्रक्रियाओं ने चिकित्सा, जैव
इंजीनियरिंग, और जैव विज्ञान में कई नई दिशाएँ खोली हैं , जो सामग्रियों के साथ जड़े हुएजीवों
की समझ में मदद करती हैं ।
V. पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाओं के संबंधों का अन्वेषण
A. आत्मा, चेतना, और ब्रह्म: - विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक परंपराएं चेतना, आत्मा, और ब्रह्म
के संबंधों को अपने सिद्धांतों में समाहित करती हैं, जिन्हें अद्वैत वेदांता में "एकत्व" के रूप में
व्याख्या किया गया है ।
B. संरचना और ऊर्जा के संबंध: - पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं वस्त्र
और ऊर्जा के विभिन्न रूपों के संबंधों को स्पष्ट करती हैं , जैसे कि बीजों से पौधों का विकास और
ऊर्जा स्तरों का परिचय।
C. समान्य सिद्धांत: - कई धार्मिक और दार्शनिक परंपराएं सामंजस्य और सामंजस्य के सिद्धांतों को
अपनाती हैं , जो सृष्टि, स्थिति, और प्रलय की चक्रवृद्धि के साथ संबंधित हैं ।
VI. संगति और आगे की अनुसंधान की दि एँ
A. तत्वों के और भी गहरे अध्ययन की आवश्यकता: - तत्वों के संबंधों, उनके व्यापक असरों,
और उनके संबंधों को और वि षज्ञताशे षज् ञताके साथ अध्ययन करने की आवश्यकता हैताकि हम सामग्रियों,
ऊर्जा, और जीवन की प्रक्रियाओं को और बेहतर से समझ सकें।
B. पर्यावरणीय प्रभावों का अध्ययन: - पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं
अपने पर्यावरण में कै से एक दूसरे के साथ संबंधित हैं , इसका अध्ययन हमें वि षशे ष रूप से प्रदूषण, ऊर्जा
संरक्षण, और प्राकृ तिक संसाधनों के प्रबंधन की दिशा में मदद करेगा।
C. धार्मिक और दार्निक शनि
र् क परंपराओं का अध्ययन: - विभिन्न सामाजिक सांस्कृ तिकों में तत्वों के
संबंधों की समीक्षा और अध्ययन से हम विभिन्न दृष्टिकोणों और सिद्धांतों को समझ सकते हैं , जो व्यक्ति
और समाज के सृष्टि और उसके उद्दीपन को विकसित कर सकते हैं ।
समापन
इस अनुसंधान के माध्यम से, हमनेदेखा हैकि पंचमहाभूत, क्वांटम यांत्रिकी, और जैविक प्रक्रियाएं एक-
दूसरे से कै से संबंधित हैंऔर इनके माध्यम से हम जगत के रहस्यमयी स्वरूप को समझ सकते हैं । यह
अनुसंधान न के वल विज्ञानिक रूप से महत्वपूर्ण है , बल्कि यह धार्मिक, दार्शनिक, और सांस्कृ तिक
सीधियों को भी जोड़ता है । इससे हम अपने स्वयं को, अपने पर्यावरण को, और ब्रह्मांड को बेहतर
से समझ सकते हैं और इस प्रकार एक समृद्धि और समर्थन की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं ।
The interplay between the five elements, quantum mechanics, and biological processes forms a
fascinating nexus in our understanding of the universe and life itself. Let's delve into each of these
components and explore how they intersect and influence each other:
1. The Five Elements (Panchamahabhutas): The concept of the five elements—earth, water,
fire, air, and ether—has ancient roots in various philosophical and spiritual traditions, including
Hinduism and Ayurveda. These elements are believed to form the foundation of all material
existence. Each element has its unique properties and qualities:
o Earth (Prithvi): Represents solidity, stability, and the material realm.
o Water (Jal): Signifies fluidity, adaptability, and the essence of life.
o Fire (Agni): Symbolizes transformation, energy, and illumination.
o Air (Vayu): Represents movement, freedom, and the breath of life.
o Ether (Akasha): Signifies space, expansiveness, and the substrate of all existence.
2. Quantum Mechanics: Quantum mechanics is a fundamental theory in physics that describes
the behavior of matter and energy at the smallest scales, such as atoms and subatomic particles.
It revolutionized our understanding of nature by introducing concepts like wave-particle
duality, uncertainty principle, and quantum entanglement. Some key aspects of quantum
mechanics include:
o Wave-Particle Duality: Particles such as electrons exhibit both particle-like and wave-
like properties.
o Superposition: Particles can exist in multiple states simultaneously until measured or
observed.
o Entanglement: Particles can become correlated in such a way that the state of one
particle instantaneously affects the state of another, even if they are separated by large
distances.
3. Biological Processes: Biological processes refer to the myriad of activities occurring within
living organisms, from cellular metabolism to complex behaviors. These processes are
governed by biochemical reactions, genetic information, and environmental factors. Some key
biological processes include:
o Cellular Respiration: The process by which cells generate energy from nutrients and
oxygen, producing carbon dioxide and water as byproducts.
o DNA Replication: The copying of DNA molecules during cell division, ensuring
genetic continuity and inheritance.
o Photosynthesis: The biochemical process in plants and some microorganisms that
converts light energy into chemical energy, producing oxygen and carbohydrates.
The Interconnection: The interplay between the five elements, quantum mechanics, and biological
processes is intricate and multifaceted. Here's how they intersect:
Subatomic Realm: At the quantum level, the behavior of particles and energy fields governs
the properties and interactions of matter, including the elements and molecules involved in
biological processes.
Energy Exchange: Quantum phenomena, such as energy transfer and molecular interactions,
underlie many biological processes, including enzyme reactions, cellular signaling, and
neurotransmission.
Consciousness and Awareness: Some philosophical and spiritual traditions posit a connection
between consciousness, the subtle elements, and quantum phenomena, suggesting that
consciousness plays a fundamental role in shaping reality.
Emergent Properties: Biological systems exhibit emergent properties arising from the
collective interactions of their molecular components, which may be influenced by quantum
effects and elemental dynamics.
Environmental Influence: The interplay between the elements, quantum phenomena, and
biological processes is further shaped by environmental factors such as temperature, pressure,
and electromagnetic fields.
Conclusion: In conclusion, the interplay of the five elements, quantum mechanics, and biological
processes offers a rich tapestry for exploration and understanding. While each domain has its unique
principles and dynamics, they are deeply interconnected, shaping the fabric of our universe and the
essence of life itself. Further research and interdisciplinary collaboration hold the key to unraveling the
mysteries of this profound interrelationship and its implications for science, philosophy, and human
experience.