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भारत दे श की इस पवित्र भूमि पर कई महान ज्ञानी ज्योतिषाचार्यों ने जन्म लिया है , जिनकी विलक्षण बु दधि ् मता और


ज्ञान के रहस्यों ने दनियाभर में बहुत नाम कमाया है | इन्हीं महान ज्योतिषियों के कारण दे श ने कई भविष्कालीन सं कटों
का पूर्वानु मान लगाकर उनका निदान पाया है | ऐसे ही 10 महान सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषियों के बारे में इस आर्टिकल में
आपको बताया गया है |
भारत के 10 सर्वश्रेष्ठ ज्योतिषाचार्य
 
1. आर्यभट्ट (प्रथम)

 
प्रथम गणितज्ञ और ज्योतिष विद्या के ज्ञाता महान आर्यभट् ट ने अपने आविष्कारों में सूर्य और चं दर् ग्रहण, दिन व
रात, पृ थ्वी का घूमना, सूर्य व तारों का स्थिर रहना और कई गणितीय तथ्यों का अविष्कार ज्योतिष विद्या के माध्यम
से किया है | इनके सबसे प्राचीन ग्रंथ आर्यभटीय-तं तर् में दशगीतिका, गणित, कालक्रिया तथा गोल नाम वाले चार
पाद है |
 
2. वराहमिहिर

 
ज्योतिष शास्त्र को सिद्धांत, सं हिता और होरा के रूप में प्रकट करने वाले सर्वप्रथम आचार्य वराहमिहिर ने तीन
स्कन्धों के निरूपण के लिए तीन ग्रंथों की रचना की- पं चसिद्धां तिका, बृ हत्सं हिता, बृ हज्जातक| इन्होने फलित शास्त्र
के सर्वाधिक प्रौढ़ तथा प्रामाणिक ग्रंथ बृ हज्जातक को विज्ञानं की विलक्षणता प्रदान की है | इसके अतिरिक्त
इन्होने अन्य 13 प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की है |
 
3. पृ थुयश
प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य वराहमिहिर के पु त्र पृ थुयश ने ज्योतिष के सात अध्याय वाले प्रसिद्ध ग्रन्थ “षट् पंचाशिका”
की रचना की|
 
4. कल्याण वर्मा
होराशास्त्र के अत्यं त प्रमाणिक और प्रमु ख ग्रंथ “सारावली” के रचियता कल्याण वर्मा गु जरात के रहने वाले है |
इस ग्रंथ में कुल 42 अध्याय है |
 
5. ल्लाचार्यल
् तं त्र” के रचियता तथा रत्नकोष (सं हिता ज्योतिष) और
सिद्धांत स्कंध के प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथ “शिष्यधीवृ दधि
जातकसार (होरास्कंध) आदि ग्रंथों के प्रणयता लल्लाचार्य गणित, जातक और सं हिता के ज्ञाता थे |
शिष्यधीवृ दधि् तं तर् में दो प्रकरण गणिताध्याय और गोलाध्याय प्रधान रूप से विध्यमानहै | इनके गणिताध्याय में
अने क अधिकार (प्रकरण) है |
 
6. भास्कराचार्य (प्रथम)

 
भास्कराचार्य, महाभास्करीय तथा लघु भास्करीय जै से प्रसिद्ध ग्रंथों के रचियता ज्योतिषाचार्य रहे है | इन्होने
“आर्यभटीय” की भी व्याख्या की है |
 
7. ब्रह्मगु प्त
ब्रह्मसिद्धांत के विस्तारक गणितज्ञ ब्रह्मगु प्त ने ब्राह्मस्फुटसिद्धांत तथा खं डखाद्य नामक ग्रंथों की रचना की| इनके
तीन आचार्य आर्यभट् ट, वराहमिहिर और ब्रह्मगु प्त के नाम पर इन्होने तीन गणितीय सिद्धांत आर्य, सौर और ब्रह्म
दिए|
 
8. श्रीधराचार्य
प्रसिद्द ज्योतिर्विद श्रीधराचार्य ने त्रिशतिका (पाटी गणित), बीजगणित, जातक पद्धति तथा रत्नमाला आदि अने क
ग्रंथों की रचना की|
 
9. वित्ते श्वर (वटे श्वर)
ज्योतिषाचार्यवित्ते श्वर ने आर्यभट् ट के सिद्धांतों को आधार मानकर प्रसिद्ध “करणसार” नामक ग्रंथ की रचना की|
 
10. मुज
ं ाल

 
आदरणीय मुं जाल का रोचक और सु गम शै ली का लघु मानस करण ग्रंथ आठ प्रकरणों मध्याधिकार, स्पष्टाधिकार
आदि में विभाजित है | ज्योतिष जगत के ज्ञाता भारद्वाजगोत्रीय मुं जाल गणित विषय से सम्बन्ध रखते थे |
 
इन्हीं प्रसिद्ध गणितज्ञ और भविष्यवक्ता ज्योतिषाचार्यों के अनन्य आविष्कारों के कारण ही हमारा दे श अन्य दे शों की
अपे क्षा उच्चतम शिखर पर है | इनका भारत दे श में जन्म ले ना हमारे लिए सौभाग्य और गर्व की बात है | इनके द्वारा
रचित ग्रंथों को आधार मानकर ही आज हमारा दे श प्रगति के पथ पर अग्रसर हुआ है |

ज्योतिष अं धविश्वास नहीं है , सदियों का विश्वास है , प्रामाणिक विज्ञान और सशक्त शास्त्र है । भारत
की महानतम भूमि ने ऐसे दिव्य रत्न प्रदान किए हैं जिनकी मनीषा और विलक्षणता ने समस्त सं सार को
चौंका दिया है । आज भी उनकी बु द्धिमत्ता और ज्ञान रहस्य का विषय हैं । ज्योतिष भारत की समृ द्ध और
यशस्वी परं परा है । समूची ज्योतिष विद्या पर प्रश्न चिन्ह भारतीय सं स्कृति पर प्रश्नचिन्ह है । नारद,
आर्यभट् ट, वराहमिहिर, पराशर, गर्गाचार्य, लोमश ऋषि, निबं काचार्य, पृ थुयश, कल्याण वर्मा, लल्लाचार्य,
भास्कराचार्य (प्रथम), ब्रह्मगु प्त, श्रीधराचार्य, मुं जाल यह सिर्फ नाम नहीं है ज्योतिष शास्त्र में इनका
अपना गौरवमयी यशस्वी योगदान रहा है । 

आर्यभट (प्रथम)

आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे । इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना
की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अने क सिद्धांतों का प्रतिपादन है । इसी ग्रंथ में इन्होंने अपना जन्मस्थान
कुसु मपु र और जन्मकाल शक सं वत् 398 लिखा है । उनका जन्म 476 ईस्वी में बिहार में हुआ था। उन्होंने
नालं दा विश्वविद्यालय से पढाई की। उनके मु ख्य कार्यो में से एक “आर्यभटीय” 499 ईसवी मं ा लिखा
गया था। इसमें बहुत सारे विषयों जै से खगोल विज्ञान, गोलीय त्रिकोणमिति, अं कगणित, बीजगणित
और सरल त्रिकोणमिति का वर्णन है । उन्होंने गणित और खगोलविज्ञान के अपने सारे अविष्कारों को
श्लोकों के रूप में लिखा। इस किताब का अनु वाद लै टिन में 13 वीं शताब्दी में किया गया।

आर्यभट के समय से ही ज्योतिष का क् रमबद्ध इतिहास मिलता है । इनका गणित ज्योतिष से सं बद्ध
आर्यभटीय-तं तर् प्राप्त है , यह उपलब्ध ज्योतिष ग्रंथों में सबसे प्राचीन है । इसमें दशगीतिका, गणित,
कालक्रिया तथा गोल नाम वाले चार पाद हैं । इसमें सूर्य और तारों के स्थिर होने तथा पृ थ्वी के घूमने के
कारण दिन और रात होने का वर्णन है । इनके निवास स्थान के विषय में विद्वानों में मतै क्य नहीं है , कुछ
लोग दक्षिण दे श के 'कुसु मपु र' को इनका स्थान बताते हैं तथा कुछ लोग 'अश्मकपु र बताते हैं । इनका
समय 397 शकाब्द बताया गया है । गणित ज्योतिष के विषय में आर्यभट के सिद्धांत अत्यं त मान्य हैं ।
इन्होंने सूर्य और चं दर् ग्रहण के वै ज्ञानिक कारणों की व्याख्या की है और वर्ग, वर्गमूल, घन, घनमूल
आदि गणितीय विधियों का महत्वपूर्ण विवे चन किया है   

वराहमिहिर 

भगवान सूर्य के कृपापात्र वराहमिहिर ही पहले आचार्य हैं जिन्होंने ज्योतिष शास्त्र को सि‍द्धांत, सं हिता
तथा होरा में स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया है । वराहमिहिर ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय
गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे । वाराहमिहिर ने ही अपने पं चसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनां श
का मान 50.32 से केण्ड के बराबर है । वराहमिहिर विक् रमाद्वित्य के नौ रत्नों में से ये एक रत्न थें । उसी
समय के ज्योतिषी आर्यभट् ट के साथ मिलकर भी इन्होंने ज्योतिष के फलित नियमों का प्रतिपादन
किया। आर्यभट् ट इनके गु रु थे और ज्योतिष की अने क नियम इन्होंने आर्यभट् ट से सीखें । 

कापित्थक (उज्जै न) में उनके द्वारा विकसित गणितीय विज्ञान का गु रुकुल सात सौ वर्षों तक अद्वितीय
रहा। वरःमिहिर बचपन से ही अत्यन्त मे धावी और ते जस्वी थे । अपने पिता आदित्यदास से परम्परागत
गणित एवं ज्योतिष सीखकर इन क्षे तर् ों में व्यापक शोध कार्य किया। समय मापक घट यन्त्र, इन्द्रप्रस्थ
में लौहस्तम्भ के निर्माण और ईरान के शहं शाह नौशे रवाँ के आमन्त्रण पर जु न्दीशापु र नामक स्थान पर
वे धशाला की स्थापना - उनके कार्यों की एक झलक दे ते हैं । वरःमिहिर का मु ख्य उद्दे श्य गणित एवं विज्ञान
को जनहित से जोड़ना था। वस्तु तः ऋग्वे द काल से ही भारत की यह परम्परा रही है । वरःमिहिर ने
पूर्णतः इसका परिपालन किया है । वराहमिहिर के प्रयासों ने ही ज्योतिष को एक विज्ञान का रुप दिया।
ज्योतिष के क्षे तर् में इनके योगदान की सराहना जितनी की जाएं , वह कम है । ज्योतिष की प्राचीन
प्रसिद्ध नगरी उज्जै नी में रहकर इन्होंने अने क ज्योतिष ग्रन्थों की रचना की। इनके पिता भी अपने
समय के प्रसिद्ध ज्योतिषी थे । ज्योतिष की प्रथम शिक्षा इन्होनें अपने पिता से ही प्राप्त की। 

इन्होंने तीनों स्कंधों के निरूपण के लिए तीनों स्कंधों से सं बद्ध अलग-अलग ग्रंथों की रचना की है । ये
उज्जै न के रहने वाले थे इसीलिए ये अवन्तिकाचार्य भी कहलाते हैं । ये भारतीय ज्योतिष शास्त्र के
मार्तण्ड कहे जाते हैं । वराहमिहिर ने चार प्रकार के माहों का उल्ले ख किया।

सौर माह, चन्द्र माह, वर्षीय माह और पाक्षिक माह थे ।

इनकी कृतियों की सूची

• पं चसिद्धान्तिका
• बृ हज्जातकम्
• लघु जातक
• बृ हत्सं हिता
• टिकनिकयात्रा
• बृ हद्यात्रा या महायात्रा
• योगयात्रा या स्वल्पयात्रा
• वृ हत् विवाहपटल
• लघु विवाहपटल
• कुतूहलमं जरी
• दै वज्ञवल्लभ
• लग्नवाराहि

कल्याण वर्मा

कल्याण वर्मा 10 वीं सदी के प्रसिद्ध ले खक थे । वह वियागढ़ा नामक एक जगह के राजा थे । ये जगह
मध्य प्रदे श में मानी जाती थी। इनके काम के छं दों से यह स्पष्ट होता है कि इन्होने अपने सामने
परशु रा, वरहमिहिरा और यवन आदि के कामों का अध्ययन किया है । इन्होंने सिद्धांतों को विस्तृ त तौर पर
उल्ले ख किया है । सारावली ऋषि कल्याण वर्मा द्वारा लिखित एक प्राचीन और प्रामाणिक वै दिक
ज्योतिष शास्त्र है । सारावली होराशास्त्र का प्रमु ख ग्रंथ है । सारावली को पढ़ने से वै दिक ज्योतिष की
अवधारणाओं और वास्तविक जीवन में उनके आवे दन को समझने में बहुत मदद मिलती है । ऋषि
कल्याण वर्मा ने सरवाली में वै दिक ज्योतिष राशि के दो ग्रहों के सं घ के परिणाम समझाएं हैं । ज्योतिष
के गं भीर विद्यार्थियों के लिए सारावली का अध्ययन आवश्यक है । इनका समय शकाब्द 500 के लगभग
है । सारावली फलादे श अत्यं त प्रामाणिक माना जाता है । इसमें 42 अध्याय हैं । कहा जाता है कि इन्हें
सरस्वती का वरदान प्राप्त था। भट् टोत्पल ने बृ हज्जातक की टीका में सारावली के कई श्लोक उद्धत ृ
किए हैं । 

पृ थुयश

पृ थुयश आचार्य वराहमिहिर के पु त्र हैं । इनके द्वारा विरचित 'षट् पंचाशिका' फलित ज्योतिष का प्रसिद्ध
ग्रंथ है । इसमें सात अध्याय हैं । 'सतपं चस्यिका, प्रतायास पृ थुयश द्वारा पृ थुयश प्रसिद्ध ग्रंथ है जो
पूना कॉले ज सं गर् ह में रखी गई है ।
ऋषि अत्रि

ज्योतिष के इतिहास से जु डे 18 ऋषियों में से एक थे ऋषि अत्रि। एक मान्यता के अनु सार, ऋषि अत्रि
का जन्म ब्रह्मा जी के द्वारा हुआ था। भगवान श्री कृ्ष्ण ऋषि अत्रि के वं शज माने जाते है । कई पीढि‍
यों के बाद ऋषि अत्रि के कुल में ही भगवान श्री कृ्ष्ण का जन्म हुआ था। यह भी कहा जाता है कि
ब्रह्मा जी के सात मानस पु त्र उत्पन्न हुए थे , उसमें ऋषि पु लस्त्य, ऋषि पु लह, ऋषि वशिष्ठ, ऋषि
कौशिक, ऋषि मारिचि, ऋषि क् रतु , ऋषि नारद है । इन महाऋषियों के ज्योतिष के प्राद्रुभाव में
महत्वपूर्ण योगदान रहा है ।

ब्रह्मा जी के यही सात पु त्र आकाश में सप्तर्षि के रुप में विद्यमान है । इस सं बन्ध में एक पौराणिक कथा
प्रचलित है । तारामं डल का प्रयोग दिन, तिथि, कुण्डली निर्माण, त्यौहार और मु हर्त ू आदि कार्यों के लिए
किया जाता है व इन सभी का उपयोग भारत की कृ्षि के क्षे तर् में प्राचीन काल से होता रहा है ।
ज्योतिष के इतिहास के ऋषि अत्रि का नाम जु ड़ा होने के साथ-साथ, दे वी अनु सय ू ा और रायायण से भी
ऋषि अत्रि जु डे हुए हैं । आयु र्वे द और प्राचीन चिकित्सा क्षे तर् सदै व ऋषि का आभारी रहे गा। इन्हें
आयु र्वे द में अने क योगों का निर्माण किया। पु राणों के अनु सार, ऋषि अत्रि का जन्म ब्रह्मा जी के ने तर् ों
से हुआ माना जाता है । ऋषि अत्रि ने ज्योतिष में चिकित्सा ज्योतिष पर कार्य किया, इनके द्वारा लिखे
गये । सिद्दान्त आज चिकित्सा ज्योतिष में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है ।

लल्लाचार्य

लल्लाचार्य भारत के ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे । वे शाम्ब के पौत्र तथा भट् टत्रिविक् रम के पु त्र थे ।
उन्होने 'शिष्यधीवृ दधि् दतन्त्रम्'= शिष्य की बु दधि
् बढ़ाने वाला तन्त्र नामक एक ग्रन्थ की रचना की।
इस ग्रन्थ की रचना का कारण बताते हुए लल्लाचार्य ने स्वयं को आर्यभट का शिष्य बताया है । इसी
ग्रन्थ में उन्होंने 'अमरगति' (परपिचु अल मोशन) की सबसे पहली लिखित व्याख्या की है । इसमें 22
अध्याय हैं । प्रथम 13  अध्याय 'गणिताध्याय' के अन्तर्गत आते हैं तथा शे ष 9 अध्याय मिलाकर
'गोलाध्याय' कहलाते हैं । लल्लाचार्य की यह एकमात्र खगोलशास्त्रीय कृति है जो जीवित बची है ।

गोलाध्याय के सातवें अध्याय ('मिथ्याज्ञान' नामक बीसवाँ अध्याय) में लल्ल ने पु राणों में कही गईं
अने कों ज्योतिषीय विचारों की आलोचना की है (जै से धरती के चपटी होने का विचार, सूर्य का चन्द्रमा के
अधिक निकट होना, राहु के कारण ग्रहण का होना आदि)। लल्लाचार्य ज्योतिष के सिद्धांत स्कंध से
् तं तर् ' ग्रंथ अत्यं त प्रसिद्ध है । इनके समय के विषय में मतभे द हैं , किंतु कुछ
सं बद्ध 'शिष्यधीवृ दधि
आचार्यों का कहना है कि ये 500 शकाब्द के आसपास विद्यमान थे । इन्हें दाक्षिणात्य बताया गया है ।
इन्होंने रत्नकोष (सं हिता ज्योतिष) तथा जातकसार (होरास्कंध) नामक ग्रंथों का भी प्रणयन किया।
लल्लाचार्य गणित, जातक और सं हिता इन तीनों स्कंधों में पूर्ण प्रवीण थे । शिष्यधीवृ दधि ् तं तर् में
प्रधान रूप से गणिताध्याय में अने क अधिकार (प्रकरण) हैं । भास्कराचार्यजी इनके ज्ञान से विशे ष
प्रभावित थे ।  

भास्कराचार्य

भास्कराचार्य या भाष्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी
थे । इनके द्वारा रचित मु ख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा
गोलाध्याय नामक चार भाग हैं । ये चार भाग क् रमशः अं कगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से
सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं । आधु निक यु ग में धरती की गु रुत्वाकर्षण शक्ति (पदार्थों को
अपनी ओर खींचने की शक्ति) की खोज का श्रेय न्यूटन को दिया जाता है । किंतु बहुत कम लोग जानते
हैं कि गु रुत्वाकर्षण का रहस्य न्यूटन से भी कई सदियों पहले भास्कराचार्य ने उजागर कर दिया था।
भास्कराचार्य ने अपने ‘सिद्धांतशिरोमणि’ ग्रंथ में पृ थ्वी के गु रुत्वाकर्षण के बारे में लिखा है कि ‘पृ थ्वी
आकाशीय पदार्थों को विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है । इस कारण आकाशीय पिण्ड पृ थ्वी पर
गिरते हैं ’। उन्होंने करणकौतूहल नामक एक दस ू रे ग्रन्थ की भी रचना की थी। ये अपने समय के
सु पर् सिद्ध गणितज्ञ थे । कथित रूप से यह उज्जै न की वे धशाला के अध्यक्ष भी थे । उन्हें मध्यकालीन
भारत का सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ माना जाता है ।

इनका जन्म 1114 ई 0 में , विज्जडविड नामक गाँ व में हुआ था जो सहयाद्रि पहाड़ियों में स्थित हैं ।
उन्होंने गणित का ज्ञान अपने सन्त पिता से प्राप्त किया। बाद में ब्रह्मगु प्त की पु स्तकों से ऐसी प्रेरणा
मिली कि सारा जीवन उन्होंने गणित के लिए समर्पित कर दिया। सन् 1150 ई० में इन्होंने सिद्धान्त
शिरोमणि नामक पु स्तक, सं स्कृत श्लोकों में , चार भागों में लिखी है , जो क् रम से इस प्रकार है :

• पाटीगणिताध्याय या लीलावती,
• बीजगणिताध्याय,
• ग्रहगणिताध्याय, तथा
• गोलाध्याय

ब्रह्मगु प्त 

ब्रह्मगु प्त प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे । प्रसिद्ध ज्योतिषी भास्कराचार्य ने ब्रह्मगु प्त को ‘गणचक् र-
चूड़ामणि’ का शीर्षक प्रदान किया और साथ ही उनके मूलांकों को ही अपने ‘सिद्धांत शिरोमणि’ का
आधार बनाया। वे तत्कालीन गु र्जर प्रदे श (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जै न
(वर्तमान मध्य प्रदे श) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमु ख थे और इस दौरान उन्होने दो विशे ष ग्रन्थ
लिखे : ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त 628 में और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति 665 ई. में लिखा। ये अच्छे
वे धकर्ता थे और इन्होंने वे धों के अनु कूल भगणों की कल्पना की है । प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी,
भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशं सा की है ।
मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगु प्त का उल्ले ख किया है । महान गणितज्ञ आचार्य ब्रह्मगु प्त
ब्राह्मसि‍द्धांत का विस्तार करने वाले हैं । ये विष्णु के पु त्र हैं । प्रसिद्ध भास्कराचार्य ने इन्हें “गणकचक् र-
चूड़ामणि” कहा है । 

'ब्रह्मस्फुट सिद्धांत' सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक विभिन्न अं क के रूप में
उल्ले ख किया गया है । यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अं कों और शून्य पर गणित करने के
सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है । ब्रह्मगु प्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये : 0/0 =
0। उन्होंने शक सं वत् 550 (685 विक् रमी) में 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना की। इन्होंने स्थान-स्थान
पर लिखा है कि आर्यभट् ट, श्रीषे ण, विष्णु चन्द्र आदि की गणना से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शु द्ध नहीं
आता है , इसलिए वे त्याज्य हैं और 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' में दृग्गणितै क्य होता है , इसलिए यही
मानना चाहिए। इससे सिद्ध होता है कि ब्रह्मगु प्त ने 'ब्रह्मस्फुटिक सिद्धान्त' की रचना ग्रहों का
प्रत्यक्ष वे द करके की थी और वे इस बात की आवश्यकता समझते थे कि जब कभी गणना और वे ध में
अन्तर पड़ने लगे तो वे ध के द्वारा गणना शु द्ध कर ले नी चाहिए। ये पहले आचार्य थे जिन्होंने गणित
ज्योतिष की रचना विशे ष क् रम से की और ज्योतिष और गणित के विषयों को अलग-अलग अध्यायों में
बाँटा।

श्रीधराचार्य

श्रीधराचार्य जन्म 750 ई. में हुआ था। ये प्राचीन भारत के एक महान गणितज्ञ थे । इन्होंने शून्य की
व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूतर् का प्रतिपादन किया। उनके बारे में
हमारी जानकारी बहुत ही अल्प है । उनके समय और स्थान के बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा
जा सकता है । किन्तु ऐसा अनु मान है कि उनका जीवनकाल 870 ई. से 930 ई. के बीच था। वे वर्तमान
हुगली जिले में उत्पन्न हुए थे । उनके पिताजी का नाम बलदे वाचार्य औरा माताजी का नाम अच्चोका था।
बीजगणित के ज्योतिर्विदों में श्रीधराचार्य का स्थान अन्यतम है । इनके त्रिशतिका, बीजगणित, जातक
पद्धति तथा रत्नमाला आदि प्रसिद्ध ग्रंथ हैं । परवर्ती भास्कराचार्य आदि इनके सिद्धांतों से बहुत उपकृत
हैं । 

इन्होंने 750 ई. के लगभग दो प्रसिद्ध पु स्तकें त्रिशतिका (इसे 'पाटीगणितसार' भी कहते हैं ), पाटीगणित
और गणितसार, लिखीं। इन्होंने बीजगणित के अने क महत्वपूर्ण आविष्कार किए। वर्गात्मक समीकरण को
पूर्ण वर्ग बनाकर हल करने का इनके द्वारा आविष्कृत नियम आज भी 'श्रीधर नियम' अथवा 'हिं द ू नियम'
के नाम से प्रचलित है । 'पाटीगणित, पाटीगणित सार और त्रिशतिका उनकी उपलब्ध रचनाएँ हैं जो
मूलतः अं कगणित और क्षे तर् -व्यवहार से सं बंधित हैं ।

मुं जाल

इनका रचनाकाल शक सं वत् 854 है । मुं जाल का ज्योतिष-जगत् में महान आदर है । ये भारद्वाजगोत्रीय
थे । मध्याधिकार, स्पष्टाधिकार आदि आठ प्रकरणों में विभक्त 'लघु मानस' करण ग्रंथ के रचयिता
मुं जाल का ज्योतिष-जगत् में महान आदर है । इनका उपलब्ध ग्रंथ भी लघु मानसकरण है ।
अयनां शनिरूपण में इनका विशिष्ट योगदान रहा है । प्रतिपाद्य विषय गणित होने पर भी इस ग्रंथ की
शै ली बड़ी रोचक तथा सु गम है । इन्होंने अयनगति 1 कला मानी है । अयनगति के प्रसं ग में भास्कराचार्य
ने इनका नाम लिया है । मु नीश्वर ने मरीचि में अयनगति विषयक इनके कुछ श्लोक उद्धत ृ किए हैं , जो
लघु मानस के नहीं हैं । इससे पता चलता है कि मुं जाल का एक और मानस नामक ग्रंथ था, जो उपलब्ध
नहीं है ।

आर्यभट महान गणितज्ञ


गु णाकर मु ळे

करीब एक हजार साल तक गु मनाम रहे आर्यभट भारत में । वहीं जहां बाद में उन्हें अपने समय का एक महान गणितज्ञ
स्वीकारा गया। क्यो हुआ ऐसा?
ऐसे सवाल हमें उस समय के सामाजिक और राजनै तिक माहौल में फिर से वापस ले जाते हैं कि क्या मान्यताएं मौजूद थीं
उस दौर में । उदाहरण दे खें तो गै लीलियो और ब्रूनो भी याद आएं गे, जिन्हें अपने समय की मान्यताओं के चलते सत्ता का
कोपभाजन बनना पड़ा था।

कभी-कभी सही वै ज्ञानिक सिद्धांत भी सदियों तक स्वीकार नहीं किए जाते । उन्हें प्रस्तु त करने वाले वै ज्ञानिक लं बे समय तक
गु मनाम रहते हैं , उपे क्षित रहते हैं । विज्ञान के इतिहास में इस तरह के अने क उदाहरण मिलते हैं । ऐसा ही एक उदाहरण है
आर्यभट, और गणित-ज्योतिष* से सं बंधित उनका क् रां तिकारी कृतित्व। आज हम यकीन के साथ कह सकते हैं कि आर्यभट

*आज की भाषा में खगोल शास्त्र। प्राचीन भारत में ज्योतिष की दो शाखाएं थीं। गणित ज्योतिष जिस में विचार होता था
कि यह नक्षत्र आदि पिं ड कितनी दरू ी पर हैं , कितने दिनों में किन मार्गों से चक्कर लगाते हैं , आदि। दस
ू री शाखा, फलित
ज्योतिष में ग्रह, नक्षत्रों आदि के मनु ष्य जाति पर पड़ने वाले शु भ-अशु भ फलों पर विचार होता था।

प्राचीन भारत के एक सर्वश्रेष्ठ गणितज्ञ ज्योतिषी थे । अब पाश्चात्य विद्वान भी स्वीकार करते हैं कि आर्यभट अपने समय
(ईसा की पांचवी-छठी सदी) के सं सार के एक महान वै ज्ञानिक थे । मगर उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल तक भारतवासी उन्हें
लगभग भूल ही गए थे । उनके ग्रंथ आर्यभटीय की हस्तलिपियां पिछली कई सदियों से भारत के अधिकां श प्रदे शों से
लु प्त रही हैं । उनका एक अन्य ग्रंथ आर्यभट सिद्धांत आज भी अप्राप्य है । 

भूमिका 
ऐसी बात नहीं है कि आर्यभट और उनका कृतित्व आरं भ से ही उपे क्षित रहा। स्पष्ट जानकारी मिलती है कि आर्यभट का
जन्म 476 ई. में हुआ था और उन्होंने अपना आर्यभटीय ग्रंथ 499 ई. में या उसके कुछ साल बाद लिखा। उनके इस ग्रंथ
में नवीनता थी. उनकी कई परिकल्पनाएं क् रां तिकारी थीं, ग्रंथ सूतर् -शै ली में लिखा गया था, इसलिए उन्हें और उनकी कृति
को बहुत जल्दी ख्याति मिल गई।

आर्यभटीय की आज जो करीब एक दर्जन टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें सबसे प्राचीन और सबसे उत्तम है , भास्कर प्रथम का
आर्यभटीय-भाष्य, जो उन्होंने वलभी (सौराष्ट् र, गु जरात) में 629 ई. में लिखा था। भास्कर अपने दो अन्य ग्रंथों में
आर्यभट के लिए 'श्रीमद्भट' और 'प्रभु ' जै से शब्दों का प्रयोग करते हैं और आर्यभटीय को ‘तपोभिराप्तम्' अर्थात ‘तप से
प्राप्त किया हुआ' बताते हैं । आर्यभट की स्तु ति में रचे गए उनके दो श्लोकों का आशय है : “उन आर्यभट की जय हो जिनका
ज्योतिषशास्त्र बहुत काल तक सु दरू दे शों में स्फुट फल दे ता है और जिनका यश सागर के पार तक पहुंच गया है । आर्यभट
के अतिरिक्त अन्य कोई ग्रहों की गति जानने में समर्थ नहीं है । अन्य लोग गहन अं धकार के समु दर् में घूम रहे हैं ।''

यह भी पता चलता है कि 800 ई. के आसपास 'आर्यभटीय' का जीज अलु अर्जबहर के नाम से अरबी में अनु वाद हुआ था,
परन्तु आज वह उपलब्ध नहीं है । स्वदे श में भी आर्यभट के ग्रंथ का इतना अधिक प्रभाव रहा कि हमारे दे श में ग्रहगणित
के सौर और ब्रह्म पक्षों के साथ-साथ एक स्वतं तर् आर्य पक्ष भी अस्तित्व में आ गया था* आर्यभटीय के आधार पर कई
स्वतं तर् ज्योतिष-ग्रंथ भी लिखे गए।

*गणित-ज्योतिष में ग्रहों व नक्षत्रों से सं बंधित गणनाएं तीन सिद्धांतों के आधार पर की जाती थीं---सूर्य-सिद्धांत, ब्रह्म-
सिद्धांत और आर्य-सिद्धांत। इनमें जो तरीके या ‘सिस्टम' अपनाए गए हैं । उन्हें सौर पक्ष, बस पक्ष और आर्य पक्ष कहा जाता
है ।

दरअसल, आरं भ में कुछ सदियों तक गणित-ज्योतिष जगत में आर्यभट का खूब सम्मान रहा। परं परा से प्रचलित एक
काफी पु राने श्लोक के अनु सार, पं चसिद्धांतों (पै तामह, वासिष्ठ, पौलिश, रोमक और सौर) की पद्धतियों से गणित करने पर
ग्रहों के गमन और ग्रहण आदि के बारे में जो दृष्टिवै षम्य (यानी गणना और अवलोकन में अं तर) प्रकट होती था उसे दरू
करने के लिए कलियु ग में स्वयं सूर्य भगवान कुसु मपु र में आर्यभट के नाम से भूगोलविद् और कुलपति होकर अवतरित हुए।''

आर्यभट को कृतित्व 
प्राचीन भारत में आर्यभट और उनके कृतित्व की इस तरह की ख्याति का प्रमु ख कारण था उनके द्वारा प्रतिपादित नए
सिद्धांत। आगे बढ़ने के पहले आर्यभट की कुछ विशिष्ट उपलब्धियों पर एक नज़र डाल ले ना उपयोगी होगाः
1. आर्यभट की सबसे बड़ी विशे षता यह है कि भूभर् मण ( अर्थात पृ थ्वी अपनी धु री पर घूमती है ) का सिद्धांत प्रस्तु त करने
वाले वे पहले भारतीय वै ज्ञानिक हैं । 
2. आर्यभट ने सूर्य-ग्रहण और चं दर् -ग्रहण के सही कारण बताए।
3. प्राचीन भारत के अधिकां श विचारकों ने पं चमहाभूत का प्रतिपादन किया, किन्तु आर्यभट ने केवल चार महाभूतों --
मिट् टी, जल, अग्नि और वायु को ही स्वीकार किया।*
4. आर्यभट ने महायु ग को चार समान भागों में विभाजित किया, न कि मनु स्मृ ति की तरह 4 : 3 : 2 : 1 के अनु पात में ।
5. आर्यभट ने वृ त्त की परिधि और उसके व्यास के अनु पात (पाई) का मान 3.1416 दिया है , और इसे भी उन्होंने आसन्न
यानी सन्निकट मान कहा है ।
6. आर्यभट ने 345' के अं तर पर अर्धज्याओं** के जो मान दिए हैं । उनमें और आधु निक त्रिकोणमिति द्वारा प्राप्त मानों में
बहुत कम फर्क है ।

* भारतीय दर्शन के अनु सार आकाश, वायु , अग्नि, जल और पृ थ्वी - इन पांच मूल तत्वों से सृ ष्टि की रचना हुई है । आर्यभट
ने इनमे से आकाश को अलग कर दिया। 
ू रे सिरे तक गई हो। यानी वृ त्त की परिधि के किन्ही दो बिन्दुओं
** ज्या वह रे खा जो वृ त्त की किमी चाप के एक मिरे से दस
को मिलाने वाली रे खा।
7. अनिर्णीत समीकरण (in-determinate equation of the first order) का व्यापक हल प्रस्तु त करने वाले आर्यभट
पहले गणितज्ञ हैं ।
8. आर्यभट ने सं स्कृत वर्णमाला का उपयोग करके एक नई अक्षरांक पद्धति को जन्म दिया। आर्यभटीय में वर्णित एक श्लोक
से स्पष्ट है । कि वे नई स्थानमान-यु क्त अं क पद्धति से भी भलि भां ति परिचित थे ।
9. अक्षरांक पद्धति का उपयोग करके आर्यभट ने गणित व ज्योतिष को अपनी सिद्धांत-सूतर् शै ली में प्रस्तु त किया।
आर्यभट के सूतर् ों और सिद्धांतों से प्राप्त परिणाम अवलोकन के अनु रूप थे , इसलिए भी प्राचीन भारत में उनके कृतित्व को
बड़ी ख्याति मिली थी। 

आर्यभटीय - पु स्तक का लोप 


फिर क्या वजह है कि आर्यभट आधु निक काल में लगभग नामशे ष हो गए? अभी कुछ दशक पहले तक वराहमिहिर,
ब्रह्मगु प्त और भास्कराचार्य की तु लना आर्यभट की चर्चा बहुत कम होती थी। करीब चार दशक पहले आर्यभटीय की
प्रकाशित प्रतियां भी भारत में सहज उपलब्ध नहीं थीं।
वस्तु तः पिछले करीब एक हजार वर्षों की कालावधि में आर्यभट का आर्यभटीय ग्रंथ लु प्तप्राय रहा, विशे ष कर उत्तर भारत
में । अल्बे रूनी ( 973-1048 ई.) ने करीब 13 साल तक भारत में रहकर मूल सं स्कृत पु स्तकों से भारतीय गणित-ज्योतिष का
व्यापक परिचय प्राप्त किया था, परं तु वे खे द के साथ लिखते हैं : "आर्यभट की कोई भी पु स्तक मैं प्राप्त नहीं कर सका।
उनके बारे में मे री सारी जानकारी ब्रह्मगु प्त द्वारा प्रस्तु त उद्धरणों पर आधारित है ।''

आं ग्ल ( अं गर् े ज़ ) सं स्कृतज्ञ हे नरी टॉमस कोलबूक ने 1817 ई. में जब भारतीय बीजगणित की विशे षताओं का विवरण
प्रस्तु त किया, तब आर्यभट का ग्रंथ उन्हें उपलब्ध नहीं था। शं कर बालकृष्ण दीक्षित ने अपने भारतीय ज्योतिष में 1898
ई. में लिखा थाः आर्यसिद्धांत और आर्यपक्ष शब्द तो हमारे दे श में प्रसिद्ध हैं , पर प्रत्यक्ष आर्यसिद्धांत ग्रंथ विशे षतः किसी
को ज्ञात नहीं है । हम समझते हैं , महाराष्ट् र में किसी भी ज्योतिषी के पास इसकी प्रति नहीं होगी।'' तात्पर्य यह कि,
पिछली कई सदियों से समूचे उत्तर भारत में , और महाराष्ट् र में भी, आर्यभटीय की प्रतियां अप्राप्त रहीं। 

कैसे मिली ‘आर्यभटीय' 


परं तु सु दरू दक्षिण भारत में , मु ख्यत: मलयालम लिपि में , टीकाओं सहित आर्यभटीय की कई हस्तलिपियां उपलब्ध थीं।
उनमें से कुछ हस्तलिपियां यूरोप के सं गर् हालयों में भी पहुंच गई थीं, मगर उनका अध्ययन और प्रकाशन नहीं हो पाया
था, और न ही उनके आधार पर किसी यूरोपीय विद्वान ने आर्यभट पर प्रामाणिक परिचय प्रस्तु त किया था। सर्वप्रथम यह
काम किया डॉ. भाऊ दाजी लाड (1824-74 ई.) ने । उन्होंने 1865 ई. में केरल की यात्रा करके वहां मलयालम लिपि में
आर्यभटीय की तीन ताड़पत्र पोथियां खोजीं। उनका अध्ययन करके भाऊ दाजी ने आर्यभट और आर्यभटीय के बारे में एक
खोजपरक निबं ध तै यार किया, जो 1863 ई. में लं दन की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के जर्नल में प्रकाशित हुआ। तभी
विद्वज्जगत को आर्यभट के समय और उनके ग्रंथ के बारे में पहली बार प्रामाणिक जानकारी मिली। 

डा. भाऊ दाजी ने अपने निबं ध में सबसे पहले यह स्पष्ट किया कि शु द्ध नाम ‘आर्यभट' ही है , न कि ‘आर्यभट् ट'। उन्होंने
बताया कि आर्यभटीय के दो भाग हैं - दशगीतिका और आर्याष्टशत। फिर उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ‘आर्याष्टशत'
शब्द का अर्थ है - आर्या छं द में 108 श्लोक, न कि 800 श्लोक। डा. भाऊ दाजी आर्यभटीय को सं पादित करके प्रकाशित
कर दे ना चाहते थे , किन्तु सन् 1874 में असामयिक निधन के कारण वे इस कार्य को पूरा नहीं कर सके। 

आर्यभटीयः पु स्तक का प्रकाशन 


मगर अब यूरोप के विद्वानों को आर्यभट का महत्व काफी स्पष्ट हो गया था। यूरोप के जिन चं द सं स्कृतज्ञों को आर्यभट के
कृतित्व की थोड़ी बहुत जानकारी थी उनमें से एक थे है न्द्रिक केर्ण, जो अपने को ‘भट् टकर्ण' भी लिखते थे । उन्होंने यूरोप में
पहुंची आर्यभटीय की मलयाली हस्तलिपियों का उपयोग करके परमे श्वर (ईसा की 15 वीं सदी) की टीका सहित
श्रीमदार्यभटीयम् को सन् 1874 में लाइडे न ( नीदरलैं ड ) से प्रकाशित कर दिया। इस प्रकार पहली बार आर्यभटीय का
मु द्रित सं स्करण उपलब्ध हुआ।

फिर उदयनारायण सिं ह ने लाइडे न से आर्यभटीय की मु द्रित प्रति प्राप्त की और उसे हिन्दी अनु वाद सहित सन 1906 में
मधु रपु र (मु जफ्फरपु र) से प्रकाशित किया। आर्यभटीय का प्रबोधचं दर् से नगु प्त का अं गर् े जी अनु वाद सन् 1927 में
कलकत्ता से और वॉल्टे र यूजेन क्लार्क का अं गर् े जी अनु वाद सन् 1930 में शिकागो से प्रकाशित हुआ। पं . बलदे व मिश्र
का अयभटीय का हिन्दी व्याख्या सहित नया सं स्करण सन् 1966 में पटना से प्रकाशित हुआ। वे यह भी बताते हैं कि "मे रे
गु रुदे व म. म. पं . सु धाकर द्विवे दी जी ने इस पर इसलिए टीका नहीं लिखी कि उन्हें आर्यभटीय की कोई अच्छा पांडुलिपि
नहीं मिली।''

क्या कारण है कि समूचे उत्तर भारत से , आर्यभटीय की प्रतियां गायब हो गई और सु दरू दक्षिण भारत में , प्रमु खतः केरल में
ही हमारे समय तक जै से-तै से टिकी रहीं? भारत में अधिकां श हिस्सों से आर्यभटीय के लु प्त हो जाने के कारणों का विवे चन
हम आगे करें गे । पहले यह दे खेगे कि प्रमु खतः केरल में ही आर्यभटीय की प्रतियां क्यों उपलब्ध रहीं।

आर्यभटीय की जो ताड़पत्र पोथियो मिली हैं उनमें से अधिकां श केरल से प्राप्त हुई और वे मलयाली लिपि में हैं ।
आर्यभटीय पर जो करीब पं दर् ह टीकाएं उपलब्ध हैं उनमें बारह केरलीय पं डितों की हैं । पता चलता है कि आर्यभट के कुछ
समय बाद ही केरल में आर्यभटीय का प्रचार हो गया था। वहां के गणितज्ञ-ज्योतिषी अपने अवलोकनों के अनु सार इसमें
सं शोधन करते रहे । तमिल और मलयाली भाषी क्षे तर् ों में सौरमान का पं चां ग चलता है और वह आर्यपक्षीय है , अर्थात
उनका वर्षमान आर्यसिद्धांत के अनु सार है ।

आर्यभटीय- पु स्तक का प्रसार 


अब आर्यभट के अध्ययन के लिए काफी सामग्री उपलब्ध हो गई है । सन् 1976 में आर्यभट की 1500 वीं जयं ती मनाई गई
और उस अवसर पर भारतीय राष्ट् रीय विज्ञान अकादमी, नई दिल्ली, ने आर्यभटीय के तीन प्रामाणिक सं स्करण प्रकाशित
किए। उनमें से एक में विस्तृ त टिप्पणियों सहित अं गर् े जी अनु वाद भी दिया गया है । उसी अवसर पर अकादमी ने
आर्यभटीय का व्याख्या सहित एक अच्छा हिन्दी अनु वाद भी प्रकाशित किया। 
आर्यभटीय ग्रंथ दुरूह है , सूतर् शै ली में लिखा गया है , इसलिए उसके प्रकाश में आने के बाद भी आर्यभट की चर्चा
विद्विज्जगत तक ही सीमित रही। भारत में प्रथम कृत्रिम उपग्रह को ‘आर्यभट नाम दे कर 19 अप्रैल, 1975 को
अं तरिक्ष में छोड़ा गया, तभी जाकर

आर्यभट द्वितीय 
यहां यह बता दे ना उपयु क्त होगा कि इतिहास में आर्यभट नाम के एक और ज्योतिषी हुए हैं । उनका समय ईसा की दसवीं
सदी है और उनका महासिद्धांत नामक एक ग्रंथ मिलता है । दोनों में भे द करने के लिए 'आर्यभटीय' के रचनाकार को प्रायः
वृ द्ध आर्यभट या आर्यभट-प्रथम कहा जाता है । और महासिद्धांत के रचयिता को आर्यभट-द्वितीय। द्वितीय आर्यभट
अपने को प्रथम आर्यभट को अनु यायी बताते हैं , परं तु दोनों द्वारा प्रतिपादित कई मान्यताओं में काफी अं तर है । 

प्राचीन भारत के इस महान गणितज्ञ ज्योतिषी का नाम दे श के कोने -कोने मे फैला। फिर अगले साल आर्यभट की 1500 वीं
जयं ती का आयोजन हुआ और आर्यभटीय के तीन-चार बढ़िया सं स्करण उपलब्ध हुए, जिससे उनके बारे में विस्तृ त जानकारी
औरों तक पहुंची।

आर्यभट परं परावादी नहीं थे । उन्होंने पु रानी मान्यताओं का अं धानु करण नहीं किया। कई पु रानी मान्यताओं को - श्रुति-
स्मृ ति और पु राणों द्वारा समर्थित होने पर भी - उन्होंने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने गणित-ज्योतिष के वही सिद्धांत
प्रतिपादित किए जो उन्हें सही और उपयु क्त प्रतीत हुए। आर्यभटीय के एक अं तिम श्लोक में उन्होंने लिखा भी है ।
“यथार्थ और मिथ्या ज्ञान के समु दर् में से मैं ने यथार्थ ज्ञान के डू बे हुए रत्न को ब्रह्म के प्रसाद से , अपनी बु द्धि रूपी नावं
की सहायता से बाहर निकाला है ।''

आर्यभट के साथ भारतीय गणित ज्योतिष में एक नई परं परा शु रू होती है । आर्यभटीय को भारतीय गणित ज्योतिष का
प्रथम 'पौरुषे य' ग्रंथ माना जाता है । इसके पहले के ग्रंथों को ‘अपौरुषे य' माना गया है । अपौरुषे य का आशय यही है कि
वे ग्रंथ मनु ष्य द्वारा रचित नहीं हैं , दै वीय प्रेरणा से लिखे गए सं देश हैं । पौषे य ग्रंथ आचार्यों द्वारा लिखे गए। आर्यभटीय
भारतीय विज्ञान का पहला ग्रंथ है । जिसमें रचनाकार ने अपने नाम, स्थान और समय के बारे में स्पष्ट जानकारी दी है ।

2   जन्म, स्थान और काल 


प्राचीन भारत में अधिकां श ग्रंथों में उनके रचनाकारों के बारे में कोई पु ष्टि नहीं मिलती। विज्ञान से सं बंधित ग्रंथों और
उनके रचनाकारों का भी यही हाल है । वे दां ग- ज्योतिष, शु ल्बसूतर् , बक्षाली हस्तलिपि, चरक सं हिता, सु शरु ् त-सं हिता, सूर्य-
सिद्धांत आदि ग्रंथों के रचनाकाल के बारे में कोई स्पष्ट सूचना नहीं मिलती, न ही इनके रचयिताओं की जीवनियां मिलती
हैं । 

ऐसी स्थिति में यह बड़े सौभाग्य की बात है कि आर्यभट अपने ग्रंथ में अपने नाम का स्पष्ट उल्ले ख करते हैं और अपने
समय के बारे में भी सु स्पष्ट सूचना दे ते हैं । अपने जन्मकाल की जानकारी दे ने वाले आर्यभट प्राचीन भारत के सं भवत: पहले
वै ज्ञानिक हैं । इसका एक कारण भी है । ज्योतिष के ग्रंथों में गणनाएं एक सु निश्चित समय से शु रू करनी पड़ती हैं । इसी
सं दर्भ में ज्योतिषी अक्सर अपने समय की भी जानकारी प्रस्तु त कर दे ता है । आर्यभट ने इस प्रथा की नींव डाली। बाद में
कई ज्योतिषियों ने उनका अनु करण किया। इसलिए हमें आर्यभट के बाद के कई गणितज्ञ-ज्योतिषियों के बारे में यह
जानकारी मिल जाती है कि उन्होंने अपने ग्रंथ की रचना किस वर्ष में की थी।

आर्यभट अपने आर्यभटीय ग्रंथ में दो स्थानों पर अपने नाम का उल्ले ख करते हैं । जै सा कि पहले भी बताया गया है , उनका
सही नाम 'आर्यभट' ही है , न कि 'आर्यभट् ट'। भट को अर्थ है 'योद्धा'। बाद के ज्योतिषियों ने भी उन्हें आर्यभट नाम से ही
स्मरण किया है ।

आर्यभट का जन्म: 
आर्यभट-प्रथम अपने जन्मकाल के बारे में सु स्पष्ट जानकारी दे ते हैं । आर्यभटीय के एक श्लोक में वे बताते हैं : “साठ वर्षों
की साठ अवधियां और तीन यु गपाद जब बीत चु के थे , तब मे रे जन्म के बाद 23 वर्ष गु ज़र चु के थे ।'' अर्थात तीन यु गों (कृत,
त्रेता तथा द्वापर ) के बीत जाने के बाद कलियु ग के भी 60 x 60 = 3600 वर्ष बीत चु के थे , तब आर्यभट की आयु 23 साल
की थी।

भारतीय ज्योतिषियों के अनु सार, ‘कलि' यानी कलियु ग के 3179 वर्ष बीतने पर शककाल का आरं भ हुआ था। अतः
आर्यभट 3600 - 3179 = 421 शक में 23 वर्ष के थे । यानी उनका जन्म 398 शक अर्थवी 476 ई. में हुआ था, और 499 ई.
में वे 23 साल के रहे होंगे ।*

आर्यभट के समय में अभी शककाल का विशे ष प्रचार नहीं रहा होगा,

*शक सं वत और अं गर् े जी कैलें डर में 78 साल का अं तर होता है । अभी शक सं वत वर्ष 1920 चल रहा है ।

इसलिए अपने जन्मकाल की सूचना उन्होंने कलिवर्ष में दी है । गणित ज्योतिष के क्षे तर् में शककाल का सर्वप्रथम उल्ले ख
वराहमिहिर ( ईसा की छठी सदी ) की पं चसिद्धां तिका में दे खने को मिलता है । उनके बाद हुए आर्यभटीय के भाष्यकार
भास्कर-प्रथम ( 629 ई.) और ब्रह्मगु प्त ( 628 ई.), दोनों ही अपनी रचनाओं में शककाल का उल्ले ख करते हैं ।

मगर सवाल उठता है कि आर्यभट ने कलि के बाद 3600 ( 499 ई.) का उल्ले ख किस प्रयोजन से किया? क्या केवल यह
बताने के लिए कि उस समय उनकी आयु 23 साल थी? या कि यह भी कि उस वर्ष उन्होंने आर्यभटीय की रचना की?
आर्यभटीय के कुछ टीकाकारों का, और कुछ आधु निक विद्वानों का भी मत है कि आर्यभटीय की रचना का काल भी। यही है ।
परं तु अन्य कई विद्वान इस मत को स्वीकार नहीं करते । उनके अनु सार, इसका प्रयोजन सं भवतः यही स्पष्ट करना रहा है
कि कलि 3600 में विषु व-अयन शून्य था, इसलिए आर्यभट द्वारा दी। गई ग्रहों के चक्करों की गणनाओं से , ग्रहों की
स्थितियां जानने के लिए बीजगणितीय गणनाएं करके जोड़ घटाने की जरूरत नहीं है । इन विद्वानों का कहना है कि
आर्यभटीय एक प्रौढ़ अवस्था वाले आचार्य की रचना प्रतीत होती है ।

आर्यभट सु स्पष्ट जानकारी नहीं दे ते कि वे कहां के निवासी थे , मगर आर्यभटीय के द्वितीय भाग गणितपाद के मं गलाचरण
में कहते हैं : ब्रह्मा, पृ थ्वी, चं दर् मा, बु ध, शु क्र, सूर्य, मं गल, बृ हस्पति, शनि तथा नक्षत्रों को नमस्कार करके आर्यभट इस
कुसु मपु र में अतिशय पूजित ज्ञान का वर्णन करता है ।' 

यहां आर्यभट ने नहीं कहा है कि उनका जन्म कुसु मपु र में हुआ है । उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि कुसु मपु र में आदृत ज्ञान
(गणित-ज्योतिष) का वे वर्णन कर रहे हैं । पाटलिपु त्र ( आधु निक पटना ) को पु ष्पपु र और कुसु मपु र के नाम से भी जाना
जाता था। कई सं स्कृत रचनाकारों ने पाटलिपु त्र को कुसु मपु र कहा है । आर्यभटीय के सबसे पु राने भाष्यकार भास्कर-प्रथम
(629 ई.) ने भी मगध के पाटलिपु त्र को ही कुसु मपु र माना है । वे यह भी बताते हैं कि कुसु मपु र में स्वायं भुव या
ब्रह्मसिद्धांत का विशे ष आदर था। आर्यभटीय के मं गलाचरणों में और अं तिम श्लोक में स्वयं भ ू ब्रह्मा को शायद इसीलिए
सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है ।
अतः यह लगभग निर्विवाद तय हो जाता है कि आर्यभट ने कुसु मपु र ( पटना ) में रहकर अपने ग्रंथ की रचना की थी। मगर
उन्होंने यह नहीं कहा कि उनका जन्म भी कुसु मपु र में ही हुआ था। आर्यभट के जन्मस्थान की सूचना अन्य स्रोतों से
मिलती है ।

अश्मक आर्यभटः 
आर्यभटीय के भाष्यकार भास्कर-प्रथम ने आर्यभट को अश्मक, आर्यभटीय को आश्मकतं तर् तथा आश्मकीय और आर्यभट
के अनु यायियों को आश्मकीयाः कहा है । आर्यभट के टीकाकार नीलकंठ (पं दर् हवीं सदी) ने भी लिखा है कि आर्यभट का
जन्म अश्मक जनपद में हुआ था (अश्मकजनपदजात)। 
बु द्धकालीन सोलह महाजनपदों में एक जनपद अश्मक (अस्सक) भी था। यह दक्षिण में गोदावरी तट के आसपास था और
इसकी राजधानी पतिठ् ठान (महाराष्ट् र के औरं गाबाद के पास प्रतिष्ठान, पै ठण) में थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में जिस
अश्मक प्रदे श का उल्ले ख है वह भी महाराष्ट् र में था। दशकुमारचरित (दं डी) का अश्मक राज्य विदर्भ के अन्तर्गत था।

ईसा की पांचवीं सदी का अं तिम चरण गु प्त साम्राज्य के अवसान का काल था। मगर दक्षिणापथ के अश्मक प्रदे श पर उस
समय वाई की वत्सगु ल्म (आधु निक वाशीम, विदर्भ) शाखा के राजा हरिषे ण का शासन था। गु प्तों और वाकाटकों के सं बंध
अच्छे थे । अत: वाकाटकों के प्रभावक्षे तर् में पै दा हुए आर्यभट विशिष्ट अध्ययन या अध्यापन के लिए कुसु मपु र
(पाटलिपु त्र) चले आए हों, तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है । उस समय पाटलिपु त्र ज्योतिष के अध्ययन के लिए
प्रसिद्ध था। वहां एक वे धशाला भी थी। पटना के एक इलाके को आज भी खगौल (खगोल) के नाम से जाना जाता है ,
जिससे पता चलता है कि किसी समय वहां एक वे धशाला थी। नालं दा की प्रसिद्ध विद्यापीठ भी बहुत दरू नहीं थी।

भास्कर-प्रथम के ग्रंथों से पता चलता है कि आर्यभट अध्यापक थे , आचार्य थे । भास्कर यह भी सूचना दे ते हैं कि
पांडूरंगस्वामि, लाटदे व और नि:शं कु ने आर्यभट के चरणों में बै ठकर ज्योतिष विद्या अर्जित की थी। आर्यभट के इन शिष्यों
में लाटदे व का भारतीय गणित-ज्योतिष के इतिहास में विशे ष स्थान है ।
बस, आर्यभट के जीवन के बारे में इतनी ही प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध है । हम नहीं जानते कि उनके माता पिता के नाम
क्या थे , गोत्र क्या था, उन्होंने कहां और किससे शिक्षा प्राप्त की, उन्होंने कुल कितने ग्रंथों की रचना की और उनका
दे हांत किस साल में हुआ।

प्राचीन भारत की बहुत-सी विभू तियों के बारे में अने क दं तकथाएं प्रसिद्ध हैं । कालिदास और वराहमिहिर के बारे में बहुत-
से आख्यान सु नने -पढ़ने को मिलते हैं । परं तु आर्यभट के बारे में कोई आख्यान या दं तकथा प्रसिद्ध नहीं है । एक प्रकार से
यह अच्छा ही है । दं तकथाओं से सच्चाई को खोज निकालने में बड़ी कठिनाई होती है । जब दे खते हैं कि प्राचीन भारत के
अधिकतर महापु रुषों का समय निर्धारित कर पाना भी सं भव नहीं है , तो आर्यभट का जन्मवर्ष ठीक-ठीक ज्ञात होना ही एक
बहुत बड़ी उपलब्धि है ।
वस्तु तः सबसे बड़ी उपलब्धि है आर्यभटीय ग्रंथ, जिसका समु चित मूल्यांकन हमारे समय में ही सं भव हुआ है ।

3 आर्यभटीय
प्राचीन भारत में गणित और ज्योतिष का अध्ययन साथ-साथ होता था, इसलिए प्राय: एक ही पु स्तक में गणित और
ज्योतिष की जानकारी प्रस्तु त कर दी जाती थी। आर्यभटीय पु स्तक भी ऐसी ही है । 
गणित-ज्योतिष के ग्रंथ मु ख्यतः तीन प्रकार के थे - सिद्धांत, तं तर् और करण। जिस ग्रंथ में गणना कल्प*

* काल का एक बड़ा विभाग जो एक हजार महायु गों या 4 अरब 32 करोड़ ( 4,32,00,00,000 ) वर्ष को कहा गया है ।

से आरं भ की जाती थी उसे सिद्धांत', जिसमें कलियु ग से आरं भ की जाती थी उसे ‘तं तर् ' और जिसमें वर्तमान काल के किसी
निश्चित क्षण से गणना की जाती थी उसे 'करण' कहा जाता है । आर्यभटीय में महायु ग और कलियु ग के दिनों की सं ख्याएं दी
गई हैं , इसलिए यह तं तर् -ग्रंथ है । ब्रह्मगु प्त ने इसे तं तर् मानकर ही अपने सिद्धांत के तं तर् परीक्षाध्याय में इसकी
आलोचना की है । मगर आर्यभटीय में कल्पारं भ से भी दिनों की सं ख्याएं बताई गई हैं , इसलिए इसे सिद्धांत-ग्रंथ भी माना
जा सकता है ।
स्वयं आर्यभट ने ही पु स्तक को आर्यभटीय नाम दिया है । पु स्तक के अं तिम श्लोक में वे बताते हैं : “पहले स्वयं भ ू ब्रह्मा ने जो
ज्ञान कहा था तथा जो सत्य है , उसी ज्ञान को आर्यभटीय के नाम से प्रस्तु त किया गया है ।"

आर्यभटीय में कुल 121 श्लोक हैं , जिन्हें आज दस पृ ष्ठों की एक मु द्रित पु स्तिका में बड़े आराम से प्रस्तु त किया जा
सकता है । पु स्तक चार पादों (चरणों या भागों) में विभक्त है - गीतिकापाद, गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद।
गीतिकापाद में कुल 13 श्लोक हैं । इनमें दस श्लोक गीतिका छं द में हैं , इसलिए इस पाद को दशगीतिका-सूतर् भी कहते हैं ।
इस भाग के प्रथम श्लोक में ब्रह्मा की वं दना है और पु स्तक के आगे के तीन पादों के नाम-निर्दे श हैं । फिर, केवल एक ही
श्लोक में , आर्यभट अपनी नई अक्षरांक पद्धति के सारे नियम प्रस्तु त कर दे ते हैं । अं तिम 13 वें श्लोक में दशगीतिका सूतर्
की स्तु ति है । शे ष दस श्लोकों में आकाशीय पिं डों के चक्कर (भगण), कल्प तथा यु ग के परिमाण, 24 अर्धज्याओं के मान
आदि विषय सूतर् रूप में हैं ।
गणितपाद में गणित के विषय अत्यं त सं क्षिप्त रूप में कुल 33 श्लोकों में दिए हैं । इनमें पाई (t) का मान और प्रथम घात के
अनिर्णीत समीकरणों (कुट् टक गणित) का विवे चन विशे ष महत्व का है ।

कालक्रियापद में 25 श्लोक हैं , जिनमें काल-गणना के बारे में बहुत सी बातों की जानकारी दी गई है ।

चौथे और अं तिम पाद, गोलपाद में 50 श्लोक हैं , जिनमें खगोल के विभिन्न वृ त्तों को समझाकर पृ थ्वी, चं दर् तथा ग्रहों की
गतियों को स्पष्ट किया गया है । ग्रहणों के कारण भी बताए गए हैं । इसी गोलपाद में आर्यभट ने प्रतिपादित किया है कि
पृ थ्वी अपनी धु री पर चक्कर लगाती है और तारामं डल स्थिर है ।

आर्यभटीय में केवल एक ही दे वता ब्रह्मा की वं दना है । हमारे यहां परम्परागत प्राचीन ज्ञान को दे वताओं का प्रसाद माना
जाता रहा है । जै से, मान लिया गया कि ब्राह्मी लिपि दे वता ब्रह्मा की दे न है । उसी प्रकार, भारत के परम्परागत ज्योतिष-
ज्ञान को भी ब्रह्मोक्त मान लिया गया। ब्रह्म या पितामह या स्वायं भुव सिद्धांत सबसे प्राचीन था और कुसु मपु र में इसका
विशे ष आदर था, इसलिए आर्यभट की इसके प्रति अधिक आसक्ति थी।
वस्तु तः आर्यभटीय ब्रह्मपक्ष का ही ग्रंथ है । मगर आर्यभटीय में विषय का प्रतिपादन सूतर् -शै ली में था, सु स्पष्ट था,
इसमें नए विचार थे और इसके स्थिरांक भी बे हतर थे , इसलिए इस ग्रंथ को जल्दी ही ख्याति मिल गई।

उत्तर भारत में भी ईसा की दसवीं मदी तक आर्यभटीय का अध्ययन होता रहा। काश्मीरी पं डित भट् टोत्पल ( 966 ई.) ने
अपने टीका-ग्रंथों में आर्यभटीय के कई उदाहरण भी दिए हैं । मगर लगभग 1000 ई. से समूचे उत्तरापथ में आर्यभटीय के
पठन-पाठन के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। 

आर्यभटीय पर टीकाएं : 
आर्यभटीय ग्रंथ अत्यं त सं क्षिप्त है . सूतर् रूप में है , इसलिए टीका के बिना इसे समझ पाना सं भव नहीं है । पता चलता है
कि सबसे पहले आर्यभट के शिष्य प्रभाकर ने ही इस पर टीका लिखी थी, मगर अब वह उपलब्ध नहीं है । आर्यभटीय की
सबसे प्राचीन और सबसे उत्तम टीका जो उपलब्ध है वह है भास्कर-प्रथम का आर्यभटीय भाष्य, जो उन्होंने वलभी (
सौराष्ट् र, गु जरात ) में 629 ई. में लिखा था। भास्कर-प्रथम ने गणित-ज्योतिष पर दो स्वतं तर् ग्रंथ भी लिखे - महा
भास्करीय और लघु भास्करीया ये ग्रंथ आर्यभटीय में प्रतिपादित विषयों पर प्रचु र प्रकाश डालते हैं । दिलचस्प बात यह
है कि आर्यभटीय की तरह भास्कर प्रथम की कृतियां भी उत्तर भारत में लु प्त हो गई थीं। शं . बा. दीक्षित और सु धाकर
द्विवे दी को भास्कर-प्रथम की कोई जानकारी नहीं थी। सन् 1930 में डा. विभूतिभूषण दत्त ने केरल के ग्रंथालयों में
भास्कर-प्रथम की हस्तलिखित पु स्तकें खोज निकालीं, और उनका विवरण प्रकाशित किया, तभी विद्वज्जगत को प्राचीन
भारत के इस गणितज्ञ-ज्योतिषी के बारे में जानकारी मिली।

भास्कर-प्रथम के बाद आर्यभटीय की जो टीकाएं लिखी गई वे दक्षिण भारत के प्रमु खतः केरल के पं डितों की हैं । इनमें
सूर्यदे व यज्चा (जन्म 1191 ई.) और नीलकंठ सोमयाजी (जन्म 1444 ई.) के आर्यभटीय-भाष्य विशे ष महत्व के हैं ।
आर्यभट की कुछ टीकाएं ते लुगु और मलयालम में भी उपलब्ध पता चलता है कि आर्यभट ने कम से -कम एक और ग्रंथ
लिखा था, जिसका नाम आर्यभट-सिद्धांत था। आर्यभट-सिद्धांत आज उपलब्ध है , मगर बाद के कई उल्ले खों से पता चलता
है कि उसमें किस तरह की जानकारी रही होगी। जहां आर्यभटीय में दिन की गिनती एक सूर्योदय से दस ू रे सूर्योदय तक की

गई है । ( औदायिक पद्धति ), वहां आर्यभट सिद्धांत में यह एक मध्यरात्रि से दसरी मध्यरात्रि तक थी ( आर्द्धरात्रिक
पद्धति )। आर्यभट-सिद्धांत के जो 34 श्लोक उपलब्ध हुए हैं उनमें छाया, यष्टि, चक् र, घटिका, शं कु आदि ज्योतिष-यं तर् ों
यानी खगोल शास्त्र के यं तर् ों की जानकारी है ।
यहां तक हमने आर्यभट और उनके समय तथा कृतित्व का सामान्य परिचय प्राप्त किया। अगली बार हम उनके एकमात्र
उपलब्ध ग्रंथ आर्यभटीय के उन विषयों की चर्चा करें गे जिनका भारतीय गणित-ज्योतिष के इतिहास की दृष्टि से विशे ष
महत्व है ।

प्राचीन भारत के प्रसिद्ध ज्योतिषी कौन थे ?

प्राचीन भारत में ज्योतिष शास्त्र का प्रारं भ लगभग 10000 वर्ष ईशा पूर्व वै दिक यु ग से शु रू हुआ जिसमे वे द के छः
अं गों मे ज्योतिष एक मु ख्य अं ग माना गया , वे दों की रचना के समय से चारों वे दों में ग्रहों के परिभ्रमण, पथ नक्षत्र,
मौसम, आयन, यु ग ,दिन ,मास, अधिक एवं क्षय तिथि, ग्रहण, उल्का , धूमकेतु का उल्ले ख मिलता है ॠगवे द मे
ग्रहों और उनके कारकत्व का उल्ले ख है ,यजु र्वे द मे 27 नक्षत्रो का उल्ले ख किया गया है ।

● विधिवत ज्योतिष शास्त्र का प्रारं भ महान ज्योतिर्विद एवं खगोलशास्त्रियों ने 18 सिद्धातो की रचना की जिनके
नाम सूर्य, पितामह, व्यास ,वशिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीच ,मनु ,अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन,
यवन, भृ गु, शौनक थे इनमें से कुछ विद्वानों ने केवल सं हिता लिखीं कुछ ने सिद्धांत , तथा कुछ ने दोनों की रचना की ।

● महर्षि पराशर ज्योतिष शास्त्र के पु रोधा ॠषि माने जाते हैं इनकी महान कृति " बृ हत् पराशर होरा शास्त्र "
वर्तमान समय में भी ज्योतिष प्रेमियों की प्रेरणा स्रोत है ।

● महान ज्योतिर्विद वाराहमिहिर ने महत्वपूर्ण कृति पं चसिद्धान्तिका मे पांच सिद्धांतों पर विचार किया पितामह
सिद्धांत, वशिष्ठ सिद्धांत, रोमक सिद्धांत ,पौलिश सिद्धांत ,सूर्य सिद्धांत प्रमु ख है ।

उन्होंने बृ हत् जातक ग्रन्थ की रचना की जो कि वर्तमान यु ग में भी एक महान ज्योतिषीय ग्रन्थ माना जाता है साथ
ही सिद्धांत ,सं हिता, होरा के लिए उल्ले खनीय योगदान दिया।

● आर्यभट्ट प्रथम (476 ईशा पूर्व) ने अपनी प्रसिद्ध पु स्तक आर्यभट् टीय मे कहा था कि पृ थ्वी सूर्य के चोरों ओर
परिक् रमा करती है ।( जबकि अनु संधान का श्रेय 1543 ई॰ मे कोपरनिकस को मानते है जो कि पूर्ण सत्य नहीं है )

● आर्यभट्ट द्वितीय ने महाआर्यभट् टीय ग्रन्थ का प्रतिपादन किया जो कि ज्योतिष शास्त्र का श्रेष्ठ कृति है ।

● कल्यान वर्मा (578 ई ॰ ) ने ज्योतिष शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ सारावली की रचना की जो महर्षि पराशर के बृ हत्
पराशर होरा शास्त्र पर आधारित है ।

● ब्रह्म गु प्त( 598 ई ॰ ) महान अन्वे षक ज्योतिषी एवं खगोलशास्त्रि थे उन्होंने ब्रह्म गु प्त सिद्धांत ग्रन्थ का
प्रतिपादन किया।

● पृ थ्युशस वाराहमिहिर के यशस्वी पु त्र थे जिन्होंने अपनी महान कृति ' षटपं चासिका ' की रचना की जिसमें प्रश्न
शास्त्र के 56 श्लोकों का बहुत ही सु न्दर एवं सटीक वर्णन किया है ।

● भट्टोतपल( 888 ई ॰) प्रसिद्ध ज्योतिषी हुए जिन्होंने वाराहमिहिर एवं ब्रह्मगु प्त के द्वारा सं चित शास्त्रों पर
व्याख्याएं की जिसके कारण वाराहमिहिर को यथायोग्य लोकप्रियता मिली ।

● श्रीपति( 999 ई॰ ) एक महान खगोलशास्त्री गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे इनकी प्रसिद्ध कृति सिद्धांत शे खर है इन्होने
ज्योतिष की कृति श्रीपति पद्धति, रत्नासार , रत्नमाला ,रत्नावली के नाम से विख्यात है ।

● भास्कराचार्य (1114 ई ॰) इनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति सिद्धांत शिरोमणि, करन कौतूहल और सर्वतोभद्र है जो
ज्योतिष शास्त्र के अद्भुत ग्रन्थ है ।

● यवनाचार्य ताजिक शास्त्र के महारथियों मे से महान विद्धान माने जाते हैं इन्होने अरबी भाषा मे इत्थसाल , इशराफ
, इं दुवार इत्यादि ताजिक योगो को प्रचलित किया।
● ते जसिह(1300 ई॰ ) वर्षफल के आविष्कारक महान ज्योतिर्विद जिन्होने ताजिक शब्द का प्रचलन उनके नाम से
प्रारं भ हुआ।

● दु र्ग दे व ( 1089 ई ॰) जिन्होंने प्रश्न कुंडली पर कार्य किया तथा अर्धकांड और ॠषि सामु चय नामक ग्रंथो की
रचना की इनमे निमित्त एवं शकुन के बारे मे बताया गया है ।

● पद्मप्रभ सूरी( 1294 ई॰ ) जिन्होंने भु वनदीपक नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें 170 श्लोक हैं ।

● केशवचार्य ( 1498 ई ॰ )ज्योतिषीय ग्रन्थ मु हर्त


ू तत्व की रचना की जो मु हर्त
ू निर्धारण का उल्ले ख ग्रन्थ है ।

● नारायण (1491 ई॰ ) मु हर्त
ू ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रन्थ मु हर्त
ू मार्तण्ड की रचना की।

● विट्ठल दिक्षित ( 1627 ई॰ ) जिन्होने ज्योतिषीय ग्रन्थ मु हर्त


ू कल्पद्रुम की रचना की थी ।

● अनिल पट्टन ( 1175 ई ॰ ) जिन्होने नरपति जयचर्या नामक ग्रंथ की रचना की।

● केशव ( 1456 ई॰ ) महान ज्योतिर्विद थे जिन्होंने ज्योतिष से सम्बं धित खगोल शास्त्र की कई पु स्तकें लिखी जिनमें
ग्रह कौतु क, वर्ष ग्रह सिद्धि , जातक पद्धति, तिथि सिद्धि ,ताजिक पद्धति, गणित दीपिका आदि प्रमु ख हैं ।

● गनेश दै वज्ञ ( 1517 ई ॰ ) जिन्होने ग्रह लाघव, लघु तिथि चिन्तामणि, वृ हत तिथि चिन्तामणि, सिद्धांत शिरोमणि
आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थो की रचना की।

● धुन
ं डीराज ( 1541 ई॰ ) जिन्होने सिद्धांत सु न्दर एवं जातक वर्णन ग्रन्थ की रचना की जिसमें 2000 श्लोक हैं ।

● नीलकं ठ ( 1566 ई॰ ) जिन्होने प्रसिद्ध पु स्तक ताजिक नीलकंठी की रचना की जो कि अपने तीन भागों सं घतन्त्र
,वर्ष तन्त्र, प्रश्न तन्त्र से प्रसिद्ध है

● राम दै वज्ञ ( 1575 ई ॰ ) जिन्होने प्रसिद्ध पु स्तक मु हर्त ू पर उत्कृष्ट व्याख्या है


ू चिन्तामणि की रचना की जिसमें मु हर्त

● रं गनाथ ( 1575 ई ॰ ) जिन्होने सूर्य सिद्धांत के आधार पर ' गु रार्थ प्रकाशिका ' टीका की रचना की ।

● मुनीश्वर (1603 ई॰ ) जिन्होने " सिद्धांत सर्व भौम " की रचना की तथा भास्कराचार्य की सिद्धांत शिरोमणि और
लीलावती पर टीका लिखा।

● दिवाकर- (1606 ई ॰ ) जिन्होने 19 वर्ष की आयु में " जातक पद्धति " ज्योतिषीय ग्रन्थ की रचना की।

● कमलाकर भट्ट एक महान खगोलशास्त्री एवं गणितज्ञ थे जिन्होंने सिद्धांत तत्व विवे क नामक पु स्तक की रचना की
जो कि सूर्य सिद्धांत पर आधारित है ।

● महामहोपाध्याय पं बापूदेव शास्त्री - महान विद्धान प्रसिद्ध ज्योतिर्विद थे ज्योतिष शास्त्र की सं स्कृत एवं हिन्दी
दोनों ही भाषाओं ग्रन्थों की रचना की उनके प्रसिद्ध ग्रन्थ निम्नवत है -

सूर्य सिद्धान्त सोपपत्तिक ,फलितविचार, सायनवाद, मानमं दिरवर्णनम ,प्राचीन ज्योतिषाचार्याशयवर्णनम ,


तत्वविवे कपरीक्षा ,विचित्रप्रश्नसं गर् हः ,सोत्तर , नूतनपं चाग- निर्माणम ,पं चागोपपादनम ,चलगणितम ,खगोलसार
आदि प्रमु ख हैं

् दतन्त्र ग्रन्थ अत्यं त प्रसिद्ध है ।


● महत्वपूर्ण ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता लल्लाचार्य का शिष्यधीवृ दधि

● श्रीधराचार्य ज्योतिषविद् द्वारा जातक पद्धति, रत्नमाला, त्रिशतिका ग्रन्थों की रचना की।

● वित्ते श्वर (वटे श्वर ) ज्योतिषाचार्य ने करणसार नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की रचना की।

● मुज
ं ाल ने लघु मानस के रचनाकार के रूप में ज्योतिष- जगत मे महान आदर है ।
● श्रीधर ज्योतिष शास्त्र के मर्मज्ञ विद्धान थे जिन्होंने गणितसार एवं ज्योतिर्ज्ञाननिधि सं स्कृत में तथा कन्नड भाषा
मे जातकतिलक नामक ग्रंथ की रचना की।

● भोजराज (भोजदे व ) - ये धारानगरी के राजा थे जिन्होंने राजमृ गांक, राज मार्तण्ड, आदित्यप्रताप, विद्वज्जनवल्लभ
,रमलरत्न आदि अने क ग्रन्थों की रचना की।

● दशबल इनका करणकमल मार्तण्ड नामक ग्रंथ ज्योतिष शास्त्र की अनूठी कृति है ।

● ब्रह्मदे व जिन्होंने करणप्रकाश नामक ज्योतिषीय ग्रन्थ प्रसिद्ध है ।

● शतानन्द इन्होने भास्वतीकरण नामक ग्रंथ की रचनाकार प्रसिद्ध विद्धान थे ।

● सोमे श्वर इनका मानसोल्लास ( अभिलषितार्थ चिन्तामणि ) ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है ।

● बल्लालसे न ज्योतिषविद् की कृति अद्भुतसागर बहुत प्रसिद्ध है ये लक्ष्मणसे न के पु तर् थे ।

● नरपति दै वज्ञ द्वारा रचित नरपतिजयचर्या ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है यह सं हिता के अन्तर्गत मु ख्य रूप से शकुन शास्त्र
का ग्रंथ है ।

● कालिदास दै वज्ञ इनका ज्योतिर्विदाभरण नामक प्रसिद्ध मु हर्त


ू ग्रन्थ है ।

● केशवार्क  इनका विवाह वृ न्दावन नामक मु हर्त


ू ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है ।

● महादे व इन्होने ग्रहसिद्धि नामक प्रसिद्ध करण ग्रंथ है

● महे न्द्र सूरि जिन्होने यन्त्रराज नामक करण ग्रंथ की रचना की।

● दामोदर - पद्मनाभ के पु तर् थे भटतु ल्य नामक करण ग्रंथ की रचना की।

● वै द्यनाथ इनका जातकपारिजात नामक होरा शास्त्र का फलित ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है ।

● गंगाधर इन्होने सूर्य सिद्धांत के अनु सार चान्द्रमानाभिधानतन्त्र नामक ग्रंथ की रचना की इस ग्रन्थ मे चन्द्र
मास के अनु सार ग्रहों की गति दे खकर ग्रह स्पष्ट करने की रीति बतायी गयी है ।

● मकरन्द ने सूर्य सिद्धांत के आधार पर तिथि आदि के साधन तथा पं चां ग- साधन के लिए मकरन्द नामक प्रसिद्ध
ग्रन्थ की रचना की।

● ज्ञानराज इनके सिद्धांतसु न्दर नामक गणित ग्रन्थ तथा ज्ञानराजजातक नामक होरा शास्त्र ग्रन्थ बड़े ही प्रसिद्ध
है ।

● पीतांबर इनका विवाहपटल नामक ग्रंथ अति प्रसिद्ध है जिसमें विवाह सं मबन्धित सभी विषयों का वर्णन किया है ।

● हरि भट्ट जिन्होने ताजकसार नामक होरा शास्त्र के ग्रन्थ की रचना की।

● शिवदास इनका ज्योतिर्निबन्ध ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है यह ग्रन्थ धर्म शास्त्रीय विषयों का तथा सं स्कार आदि के
मु हर्त
ू का निरूपण करता है ।

● अनन्त दै वज्ञ महान ज्योतिर्विद नीलकंठ एवं रामदै वज्ञ के पिता जिन्होने जातक पद्धति, तथा कामधे नुगणितटीका
प्रसिद्ध ग्रन्थो की रचना की।

● नृ सिह
ं ाचार्य इन्होने मध्यमग्रहसिद्धि नामक ग्रंथ का प्रतिपादन किया।

● दिनकर कृति बृ हत्खे टक सिद्धि ,लघु खे टक सिद्धि

● विष्णु  कृति ग्रह चिन्तामणि की सु बोधनी


● महामहोपाध्याय पं श्री सु धाकर द्विवे दी सिद्धांतज्योतिष के ज्ञाता प्रसिद्ध ज्योतिषी थे उन्होने ज्योतिष शास्त्र के
लु प्त प्राय प्राचीन ग्रंथों को प्रकाश मे लाने तथा अपनी व्याख्या भाष्य के द्वारा सु बोध बनाने में महत्वपूर्ण योगदान
दिया।

उनके द्वारा रचित प्रमु ख दीघ्रवृ त्तलक्षणम ,भूभर् मरे खा निरूपणम ,ग्रहणे छादकनिर्णयः ,प्रतिभाबोधकः
,पिण्डप्रभाकरः आदि प्रमु ख हैं ।

मल्लारि, विश्वनाथ, रं गनाथ, बलभद्र, रत्नकं ठ, रघुनाथ, गोविन्द, गणपति, चिन्तामणि दीक्षित , जटाधर, माधव,
नारायण भट्ट, परमानंद, जगन्नाथ, जयसिंह, बबु आ ज्योतिषी, मणिराम, मथु रानाथ , राघव, यज्ञे श्वर , महिमोदया,
रामयत्न ओझा, मानसागर, नन्दलाल , बाल गंगाधर तिलक, रघुनाथ आचार्य प्रमु ख ज्योतिष विद्वानों का महत्वपूर्ण
योगदान रहा है ।

उपरोक्त प्राचीन ज्योतिष विद्धानो का उल्ले ख सं क्षिप्त रूप किया गया है ज्योतिष शास्त्र के लिए महान ॠषि
मु नियों , त्रिकालज्ञ महापु रुषों की प्रमु ख भूमिका रही है समय के परिवर्तन के साथ नवीन शोध ,अनु संधान कार्यो का
जु ड़ाव होता रहा है जो आगामी पीड़ी के लिए मार्गदर्शन का कार्य करता रहा है ।

आशा है आप की जिज्ञासा के अनुसार जानकारी प्राप्त हुई होगी ज्योतिष प्रेमियों एवं सम्मानित पाठकों के बहुमह
ू ल्य
सु झावों का टिप्पणी कालम मे स्वागत रहे गा जनोपयोगी महत्वपूर्ण प्रश्न करने के लिए आपका हद् य से आभार
आपका उत्साह वर्धन मेरे लिए प्रेरणा दायी रहे गा जी।

मूल स्रोत- खगोल एवं गणित ज्योतिष ले खक- श्रीमान- दीपक कपूर जी वरिष्ठ प्राध्यापक भारतीय विद्या भवन
दिल्ली

श्रीमान जी

ज्योतिष शिरोमणि वाराहमिहिर चन्द्रगु प्त विक् रमादित्य के शासन काल मे राज ज्योतिषी , नवरत्नो मे प्रमु ख
,सलाहकार ,प्रसिद्ध विद्वान, खगोल विद थे ।

एक बार की बात है मिहिराचार्य ने सम्राट के पु त्र की मृ त्यु की भविष्यवाणी कर दी , मृ त्यु का कारण वाराह बताया
गया , सम्राट ने बे टे की सु रक्षा के लिए महल को किले मे बदल दिया निर्धारित समय आने पर अचानक ते ज आं धी से
राज चिन्ह जिसकी आकृति वाराह की थी पु त्र के ऊपर आकर गिर गई जिससे सम्राट के पु तर् की मृ त्यु हो गई ।

इस घटना की सटीक भविष्यवाणी के लिए इन्हे ख्याति प्राप्त हुई तभी से इनका नाम मिहिराचार्य से राजज्योतिषी
वाराहमिहिर के नाम से विख्यात हुआ ।

ज्योतिष शास्त्र मे उनके अमूल्य योगदान के रूप मे उनके द्वारा लिखित ग्रन्थ पं चसिद्धां तिका मे पितामह सिद्धांत -
वशिष्ठ सिद्धांत -रोमक सिद्धांत -पौलिश सिद्धांत -सूर्य सिद्धांत की पु नः स्थापना की , तथा बृ हत् जातकम् जै से महान
ज्योतिषीय ग्रंथ की रचना की जिसके तीन भाग सिद्धांत, सं हिता, होरा वर्तमान यु ग मे भी प्रासं गिक है ।

तथा उनके यशस्वी पु तर् पृ थ्यु शस की महान कृति षटपं चासिका प्रश्न शास्त्र के 56 श्लोको का बहुत ही सुं दर सटीक
वर्णन विश्व विख्यात है ।

ज्योतिष शास्त्र मे उनके महान योगदान आज के ज्योतिषीयो के लिए प्रेरणादायी , मार्गदर्शक,एवं पथ प्रदर्शक
साबित हो रहा है ।

ज्योतिष के इतिहास में भास्कराचार्य का योगदान


ज्योतिष की इतिहास की पृ ष्ठभूमि में वराहमिहिर और ब्रह्मागु प्त के बाद भास्कराचार्य के समान प्रभावशाली,
ू रा ज्योतिषशास्त्री नहीं हुआ है . इन्होने ज्योतिष की प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता से घर में ही
सर्वगु णसम्पन्न दस
प्राप्त की. भास्कराचार्य भारत के महान विद्वानों की श्रेणी में आते हैं जिनके ज्ञान और योग्यता को उनके कार्यों द्वारा
जाना गया.
भारत की विभूतियों में भास्कराचार्य का योगदान अमूल्य निधि की भां ति ही है . भास्कराचार्य जी, गणित के विशे षज्ञ थे
और साथ ही ज्योतिष के जानकार भी थे . इनके द्वारा बनाए गए नियमों को गणित और ज्योतिषशात्र में समस्याओं के
हल करने के लिए उपयोग किया जाता है .

गु रुत्वाकर्षण के सिद्धांत को उन्होंने अपने विचारों द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया है - पृ थ्वी आकाशीय पदार्थों को
विशिष्ट शक्ति से अपनी ओर खींचती है , इस कारण आकाशीय पिण्ड पृ थ्वी पर गिरते हैं ’. इस सिद्धांत से यह स्पष्ट
हुआ की पृ थ्वी में मौजूद चु म्बकिए शक्ति द्वारा ही घटित होना सं भव हो पाता है .

भास्कराचार्य के विषय में उनके द्वारा रचित ग्रंथों से ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है . भास्कराचार्य ब्राह्मण थे
और इनका गौत्र शां डिल्य बताया गया है . इनका जन्म सह्याद्रि क्षे तर् के विज्जलविड नामक स्थान पर बताया जाता
है . भास्कराचार्य से जु ड़े शिलाले खों के विषय में भी पता चलता है जिनमें इनके जीवन के बारे में जानकारी मिलती है .
इनमें से कुछ शिलाले खों द्वारा पता चलता है की भास्कराचार्य के पिता भी बहुत प्रकाण्ड पं डित और गणित के
जानकार थे . अपने पिता से ही इन्हें गणित और ज्योतिष की शिक्षा प्राप्त हुई. भास्कराचार्य जी को भारत के
मध्यकालीन समय का एक बहुत ही योग्य एवं श्रेष्ठ गणितज्ञ व ज्योतिषी कहा गया.

भास्काराचार्य रचित ज्योतिष ग्रन्थ


भास्काराचार्य जी ने ब्रह्मास्फू ट सिद्धान्त को आधार मानते हुए, एक शास्त्र की रचना की, जो सिद्धान्तशिरोमणि के
नाम से जाना जाता है . इनके द्वारा लिखे गए अन्य शास्त्र, लीलावती (Lilavati), बीजगणित, करणकुतूहल (Karana-
kutuhala) और सर्वोतोभद्र ग्रन्थ (Sarvatobhadra Granth) है .

इनके द्वारा लिखे गए शस्त्रों से उ़स समय के सभी शास्त्री सहमति रखते थें . प्राचीन शास्त्रियों के साथ गणित के
नियमों का सं शोधन और बीजसं स्कार नाम की पु स्तक की रचना की. भास्काराचार्य जी न केवल एक प्रसिद्ध ज्योतिषी
थें , बल्कि वे उत्तम श्रेणी के कवियों में से एक थे .

ज्योतिष् गणित में इन्होनें जिन मु ख्य विषयों का विश्ले षण किया, उसमें सूर्यग्रहण का गणित स्पष्ट, क् रान्ति,
चन्द्रकला साधन, मु हर्त ू चिन्तामणि (Muhurtha Chintamani) और पीयूषधारा (Piyushdhara) नाम के टीका शास्त्रों
में भी इनके द्वारा लिखे गये शास्त्रों का वर्णन मिलता है . यह माना जाता है , कि इन्होनें फलित पर एक पु स्तक की
रचना की थी. परन्तु आज वह पु स्तक उपलब्ध नहीं है .

भास्काराचार्य और लीलावती गणित की स्थापना


भास्कराचार्य द्वारा लिखा गगा सिद्धांतशिरोमणी ग्रंथ है जिसका एक भाग लीलावती भी है . कहा जाता है कि इस ग्रंथ
का नाम भास्कराचाय जी ने अपनी बे टी लीलावती के नाम पर रखा था. लीलावती गं थ में गणित के बहुत से नियमों
और ज्योतिष से सं बंधित अने कों जानकारियों का उल्ले ख मिलता है . ज्योतिष का एक महत्त्वपूर्ण भाग होता है गणित
अत: इस गणित द्वारा ज्योतिष की अने क बारीक गूढ़ रहस्यों को समझने में इस ग्रंथ ने बहुत सहायता प्रदान की है .
इस महत्वपूर्ण रचना सं स्कृत भाषा में मिलती है और काव्यात्मक शै ली में श्लोकबद्ध है . सिद्धांतशिरोमणि के चार भाग
हैं जिनमें लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय और ग्रहगणित आता है . लीलावती में अं कगणित का उल्ले ख मिलता
है .

लीलावती के विवाह के सं दर्भ की कथा भी मिलती है जिसमें भास्कराचार्य को ज्ञात होता है की पु तर् ी को विवाह सु ख
नहीं मिल पाएगा. ले किन वह अपने ज्ञान के आधार पर एक ऎसे मु हर्त
ू को प्राप्त करते हैं जिसमें विवाह किए जाने पर
विवाह का सु ख सदै व बना रहता है . किन्तु शायद भाग्य ने कुछ ओर ही निर्धारित कर रखा था अत: जब विवाह का
समय आता है तो शु भ समय का पता नही चल पाता है और शु भ समय निकल जाने के कारण विवाह का सु ख बाधित
हो जाता है . इस कारण पु तर् ी के दुख को दरू करने के लिए वह अपनी पु तर् ी को गणित का ज्ञान दे ते हैं ओर जिससे
प्रेरित हो कर लीलावती की रचना होती है .

भास्काराचार्य का योगदान
भास्कराचार्य ने बीजगणित को बहुत समृ द्ध किया. उन्होंने जो सं ख्याएं नहीं निकाली जा सकती हैं उनके बारे में बताया,
वर्ग एवं सारणियों का निर्माण किया. शून्य के विषय में विचार दिए, जिसमें शून्य की प्रकृति क्या होती है और शून्य का
गु ण क्या है इसके बारे में बताया. भास्कराचार्य ने कहा की जब कोई सं ख्या शून्य से विभक्त होती है तो अनं त हो जाती
है और किसी सं ख्या और अनं त का जोड़ भी अं नत ही होगा. भास्कराचार्य जी ने दशमलव प्रणाली की विस्तार रुप में
व्याख्या की.

गणिताध्याय नामक रचना में इन्होंने ग्रहों की गति को दर्शाया, इसके साथ ही काल गणना, दिशा का ज्ञान और स्थान
से सं बंधी कई रहस्यों को सु लझाने का प्रयास किया. इस में ग्रहों के उदय और अस्त होने की स्थिति, सूर्य ग्रहण और
चं दर् ग्रहण सं बंधित गणित का आधार प्रस्तु त किया. गोलाध्याय नामक रचना में ग्रहों की गति के सिधांत हैं और
खगोल से जु ड़े बातें हैं . इसके साथ ही ग्रहों के लिए उपयोग होने वाले यं तर् ों का भी उल्ले ख मिलता है .

कर्ण कौतु हल में ग्रहण के बारे में विचार मिलता है . चं दर् ग्रहण के बारे में कहते हैं कि चं दर् मा की छाया से सूर्य ग्रह
होता है और पृ थ्वी की छाया से चं दर् ग्रहण होता है . इसी प्रकार के अने कों ज्योतिषीय और गणितिय नियम और
सिद्धांतों को उन्होंने सिद्ध किया.

ज्योतिष ( Jyotish )

ज्योति + ईशः ( Jyoti + ish ) दो शब्दों से मिलकर बना है ।

जिसमे ज्योति ‘Jyoti‘ का मतलब ‘प्रकाश’ और ‘ish‘ का मतलब है  ‘ईश्वर’।

ज्योतिष ईश्वरीय संकेत हैं ।

जिस प्रकार ‘Sonography’ ‘X-Ray’ ‘CAT-Scan’ शरीर में होने वाली बीमारियों का पता लगाया जा सकता है । उसी
प्रकार ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से जीवन में आने वाली परे शानियों का पता लगाया जा सकता है । दे विया आराधना
जप तप मं तर् व रत्नो द्वारा आपकी परे शानियों को ठीक किया जा सकता है । अतः हमें एक अच्छे ज्योतिषाचार्य के मार्ग
दर्शन की आवश्यकता होती है । वो ही हमें लाभ दिला सकते है ।

भाग्य संचित कर्म से बनता है । मनु ष्य कुछ कर्मो का फल इस जीवन में तथा शे ष कर्मो का फल अगले जन्म में भोगता है ।
इसलिए मनु ष्य यदि भाग्य को समझ कर कर्म करे तो हर प्रकार से सफल जीवन व्यतीत कर सकता है ।

यदि चोट लगने से किसी की टां ग टू टने की सम्भावना है । तो ज्योतिष शास्त्र आपको पहले से बता सकता है कि आप
बहुत सावधानी और धीमी गति से चलें  तो आप को बहुत कम चोट लगे गी और आपका कम से कम नु कसान होगा। अतः
आपको इससे लाभ ही होगा

ज्योतिष विज्ञान का क्या महत्व है ?

ज्योतिष का महत्व इं सान को अपने जीवन का लक्ष्य बताने में सहायता करता, इं सान के क्या कर्म अधूरे है , कोनसे
कर्म और ऋण उतारने है वो बतलाता,इं सान को भविष्य की जानकारी दे ता तथा सही मार्गदर्शन कराता,इं सान भविष्य
में कठिन परिस्थितियों से कैसे लड़े कैसे आपने आप को सं भाले वो बतलाता, ज्योतिष से हम अपने जीवन को सही
मार्ग में ला सकते और अपने जीवन को बे हतर बना सकते ।

वराहमिहिर कौन थे ? – varahamihira kaun the

वाराहमिहिर (Varāhamihira) प्राचीन भारत के प्रसिद्ध ज्योतिष, गणितज्ञ एवं खगोलशास्त्री थे । वाराहमिहिर अपने
सटीक भविष्यवाणी के लिए जाने जाते हैं । उन्हें आर्यभट्ट का शिष्य माना जाता है ।

आर्यभट् ट की तरह वाराहमिहिर भी इस धरती को गोल मानते थे । वे ज्योतिष विज्ञान और गणित के परम ज्ञाता थे ।
इसके साथ ही उन्हें वे द के बारे में असधारण ज्ञान प्राप्त था।

ज्योतिष शास्त्र में अद्भुत पकड़, सटीक भविष्य वाणी, और गणित में प्रकांड विद्वान होने के कारण ही उन्हें मगध
साम्राज्य में उच्च पद दिया गया था।

वराहमिहिर जीवन परिचय – BIOGRAPHY OF VARAHAMIHIRA IN HINDI

उनके विद्वता के कारण ही राजा विक् रमादित्य द्वितीय ने अपने दरवार में नौ रत्नों में एक बनाया। वाराहमिहिर ने
अपने ज्ञान और अध्ययन को एक वृ हद ग्रंथ का रूप दिया। Panchasiddhantika की रचना वाराहमिहिर ने की।
आज भी उनके द्वारा लिखित ग्रंथ मानक ग्रंथ के रूप में जाना जाता है । उनके द्वारा विकसित उज्जै न का गु रुकुल कई
सौ वर्षों तक प्रसिद्ध रहा। 

वराहमिहिर का जन्म कब हुआ था

वाराहमिहिर का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के आसपास उज्जै न के पास माना जाता
है । उनके पिता उज्जै न में शिप्रा नदी के पास कपित्थ नामक जगह में रहते थे ।

वाराहमिहिर के पिता का नाम आदित्यदास था जो  भगवान भास्कर के परम भक्त थे । बचपन से वाराहमिहिर ते ज
दिमाग के थे । उन्होंने अपने पिता के सं रक्षण मे ज्योतिष का गहन अध्ययन किया।

बचपन की शिक्षा उज्जै न में ही अपने पिता से प्राप्त करने के बाद वे आर्यभट् ट से मिले । आर्यभट् ट से मिलकर वे बहुत
ही प्रभावित हुए। उन्होंने आर्यभट् ट से प्रेरित होकर ज्योतिष और गणित के अनु संधान में जु ट गये ।

इस प्रकार वे आगे चलकर ज्योतिषशास्त्र के प्रकांड विद्वान कहलाये । उन्होंने समय मापक घट यन्त्र, वे धशाला की
स्थापना और इन्द्रप्रस्थ में लौहस्तम्भ के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया।

कहते हैं की राजा विक् रमादित्य, वाराहमिहिर की सटीक भविष्यवाणी से बहुत ही खु श हुए। राजा विक् रमादित्य ने
मिहिर को मगध राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वाराह से अलं कृत किया। तभी से वे वाराहमिहिर के नाम से समूचे
दुनियाँ में प्रसिद्ध हो गए।

वराहमिहिर की भविष्यवाणी       

राजा विक् रमादित्य के नौरत्नों में एक वराहमिहिर की सटीक भविष्यवाणी ने उन्हें ज्योतिष जगत में प्रसिद्ध कर
दिया। कहते हैं की राजकुमारों के बारे में वाराह मिहिर की भविष्यवाणी सत्य हुई।

वराहमिहिर ने ग्रह, नक्षत्रों और गणना के आधार पर राजा विक् रमादित्य के पु तर् की मृ त्यु की भविष्यवाणी  की।
उन्होंने अपने भविष्यवाणी में बताया था की जब राजकुमार की उम्र 18 वर्ष की हो जाएगी तब उनकी मृ त्यु हो
जाएगी।

इसके लिए उन्होंने अपने गणना के आधार पर समय और दिवस भी बता दिये थे ।  

यह सु नकर राजा विक् रमादित्य बहुत ही दुखी हो गये । उन्होंने राजकुमार के दे ख रे ख की विशे ष व्यवस्था की। ताकि
राजकुमार कभी बीमार ने पड़े । ले किन हुआ वही जो होनी को मं जरू थी।

लाख सावधानी बरतने के बावजूद राजकुमार की मृ त्यु टल ना सकी। इस प्रकार 18 वर्ष के उम्र के बाद राजकुमार की
मृ त्यु उसी दिन हई जिस दिन और समय के बारें में वराहमिहिर नें पहले से भविष्यवाणी कर दी थी।

राजा विक् रमादित्य ने मिहिर को भरे दरबार में कहा की आपकी जीत हुई। मिहिर ने राज से बड़े ही वीनम्रता से जबाब
दिया। क्षमा चाहता हँ ू महाराज। यह मे री जीत नहीं है यह असल में ज्योतिष विज्ञान की जीत है ।

मैं तो गणना के आधार पर सिर्फ भविष्यवाणी की थी। राजा अपने पु त्र के निधन से बे हद आहात हुए। ले किन मिहिर के
सटीक भविष्यवाणी का भी उन्हें लोहा मानना पड़ा। उन्होंने मिहिर को मगध साम्राज्य का सबसे बड़ा सम्मान वराह
से पु रस्कृत किया।

तभी से मिहिर, वराहमिहिर के नाम से विख्यात हो गये । ज्योतिष और खगोल विद्या में उनके अहम योगदान के कारण
राजा विक् रमादित्य द्वितीय ने उन्हें अपने दरबार के नौ रत्नों में शामिल किया।

वराहमिहिर का गणित में योगदान – varahamihira contribution to mathematics

वाराहमिहिर को ज्योतिष, गणित और खगोल के क्षे तर् में महारत हासिल थी। उन्हें वे दों का भी अच्छा ज्ञान था। इसके
लिए उन्होंने कई पु स्तकों की भी रचना की। उनके द्वारा रचित ग्रंथ आज भी ज्योतिष शास्त्र में एक मानक ग्रंथ के
रूप में स्वीकार जाता है ।
उन्होंने सर्वप्रथम अपनी पु स्तक पं चसिद्धान्तिका में अयनां श का मान 50.32 से केण्ड बताया था। वाराहमिहिर ने
गणित एवं विज्ञान को जनहित से जोड़ने का काम किया। उन्होंने भी धरती को गोल माना ले किन उन्होंने पृ थ्वी को
गतिशील नहीं माना।

उनका तर्क था की अगर पृ थ्वी गतिशील होती तो पक्षी सु वह अपना घोंसला छोड़ने के बाद शाम को अपना घोंसला
तक नहीं पहुँच पाती। हालां कि बाद में उनका यह तर्क गलत साबित हुआ। भले ही गु रुत्वाकर्षण के सिद्धांत का श्रेय
महान वै ज्ञानिक न्यूटन का जाता है ।

ले किन आज से हजारों साल भारत के इस मनीषी वाराहमिहिर को इसका ज्ञान था। उनका मानना था की पृ थ्वी में कोई
शक्ति जरूर है । जिसके कारण चीजें धरती की तरफ आकर्षित होती है ।

पृ थ्वी के आकर्षण के इसी बल को बाद में गु रुत्वाकर्षण के नाम से जाना गया। वराहमिहिर एक प्रकांड गणितज्ञ भी थे ।
उन्हें ‘सं ख्या-सिद्धान्त’ नामक गणित के एक प्रसिद्ध पु स्तक का रचनाकार भी माना जाता है ।

वराहमिहिर ने पर्यावरण, जल और भू-विज्ञान के बारें में भी कई अहम जानकारी प्रस्तु त की।  उन्होंने गणित के एक
महत्वपूर्ण त्रिकोणमितीय सूतर् का भी प्रतिपादन किया।

वाराहमिहिर की प्रमुख कृतियाँ

अपने जीवन काल में वाराहमिहिर  ने वै से तो कई पु स्तकों की रचना की। ले किन वराहमिहिर रचित ग्रंथ में
बृ हज्जातक, वराहमिहिर बृ हत्संहिता और पंचसिद्धांतिका काफी प्रसिद्ध हुई।

बृ हज्जातक – वराहमिहिर को त्रिकोणमिति के बारें में वृ हद ज्ञान प्राप्त था। उन्होंने अपने इन पु स्तकों में
त्रिकोणमिति से सं बंधित कई महत्वपूर्ण सूतर् बताये हैं ।

पंचसिद्धांतिका (पं चसिद्धां तिका इन हिं दी )- इस ग्रंथ में उन्होंने पहले से प्रचलित पाँच सिद्धांतों का उल्ले ख किया है ।
ये पाँच सिद्धांत के नाम हैं : पोलिशसिद्धांत, रोमकसिद्धांत, वसिष्ठसिद्धांत, सूर्यसिद्धांत तथा पितामहसिद्धांत।

बृ हत्संहिता – वराहमिहिर नें बृ हत्सं हिता में वास्तु शास्त्र, भवन निर्माण-कला आदि से सं बंधित जानकारी प्रस्तु त की
है । इसके आलबा उनकी प्रमु ख कृतियों में शामिल हैं ।

लघुजातक, बृ हत्सं हिता, टिकनिकयात्रा, बृ हद्यात्रा या महायात्रा, योगयात्रा या स्वल्पयात्रा, वृ हत् विवाहपटल,
लघु विवाहपटल, कुतूहलमं जरी, दै वज्ञवल्लभ, लग्नवाराहि। वराहमिहिर रचित ज्योतिष ग्रंथ में यह प्रमु च रचना है ।

इस प्रकार वराहमिहिर ने अपने विशद ज्ञान के बल पर फलित ज्योतिष, गणित और खगोलशास्त्र में वही स्थान
हासिल किया। जो स्थान चाणक्य का राजनीति शास्त्र में और पाणिनी का व्याकरण में प्राप्त है ।

कहते हैं की ‘सूर्य सिद्धांत’ वराहमिहिर द्वारा रचित प्रथम ग्रंथ था ले किन उसके बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध
नहीं है । उनके अनु सार गणना के लिए चार प्रकार के माह हो सकते है । पहला सौर, दस ू रा चं दर् , तीसरा वर्षीय और
चौथा पाक्षिक।

वराहमिहिर की मृ त्यु

ज्योतिष विज्ञान और खगोल विज्ञान का अच्छा ज्ञान रखने वाले वराहमिहिर की मृ त्यु सन् 587 ईस्वी में मानी जाती
है ।वाराहमिहिर ने अपने जीवन काल कई सु दरू दे शों की यात्रा की। उन्होंने अपने यात्राक् रम में यूनान तक की
यात्रा की।

मिहिर क्या है ?

मिहिर का मतलब सूर्य होता है . वाराहमिहिर अपने सटीक भविष्यवाणी के लिए प्रसिद्ध थे ।

वराहमिहिर का जन्म कब और कहां हुआ?


वाराहमिहिर का जन्म ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के आसपास उज्जै न में हुआ था।

वराहमिहिर की मृ त्यु कब हुई?

वराहमिहिर की मृ त्यु 587 ईस्वी के आसपास मानी जाती है ।

प्रश्न – वराहमिहिर के ग्रंथ का नाम बताइए (varahmihir ke granth ka naam bataiye)

उत्तर – वाराहमिहिर प्राचीन भारत के प्रसिद्ध खगोलशास्त्री और ज्योतिषाचार्य थे । उनके तीन प्रमु ख ग्रंथ में
वृ हज्जातक, वृ हत्संहिता और पंचसिद्धांतिका का नाम आता है

ज्योतिष विज्ञान और खगोल विज्ञान का अच्छा ज्ञान रखने वाले वराहमिहिर की मृ त्यु सन् 587 ईस्वी में मानी जाती
है ।  आपको वराहमिहिर जीवन परिचय ( BIOGRAPHY OF VARAHAMIHIRA IN HINDI ) जरूर अच्छी लगी
होगी, अपने सु झाव से अवगत करायें ।

भारत के महान ज्योतिष आचार्य – वराह मिहिर


 1 वर्ष ago श्रीनिवास आर्य
महान् ज्योतिषाचार्य — वराहमिहिर
वराहमिहिर का जन्म पाँचवीं शताब्दी के अन्त में लगभग 556 विक् रमी सं वत् में तदनु सार 499 ई. सन् में हुआ
था। इनका स्थान उज्जै न (मध्य प्रदे श) से 20 किलोमीटर दरू कायथा (कायित्थका) नामक स्थान पर हुआ था।

इनके पिता का नाम आदित्य दास और माता का नाम सत्यवती था। इनके माता-पिता सूर्योपासक थे ।
वराहमिहिर ने कायित्थका में एक गु रुकुल की स्थापना भी की थी।
वराहमिहिर ने 6 ग्रन्थों की रचना की थीः—
(1.) पञ्चसिद्धान्तिका (सिद्धान्त-ग्रन्थ),
(2.) बृ हज्जातक (जन्मकुण्डली विषयक),
(3.) बृ हद्यात्रा,
(4.) योगयात्रा (राजाओं की यात्रा में शकुन) ,
(5.) विवाह पटल ( मु हर्त ू -विषयक),
(6.) बृ हत् सं हिता (सिद्धान्त तथा फलित)।
इनमें से पञ्चसिद्धान्तिका और बृ हद् सं हिता सर्वाधिक प्रसिद्ध है । बृ हत् सं हिता में 106 अध्याय हैं । इस कारण
यह विशाल ग्रन्थ है । इसमें सूर्य चन्द्र, तथा अन्य ग्रहों की गतियों एवं ग्रहण आदि का पृ थिवी तथा मानव पर
प्रभाव, वर्षफल (गोचर), ऋतु के लक्षण, कृषि-उत्पादन, वस्तु ओं के मूल्य, वास्तु विद्या में ज्योतिष् का महत्त्व
इत्यादि विविध विषय सं गृहीत है । सिद्धान्त ज्योतिष् और फलित ज्योतिष् का यह सं युक्त ग्रन्थ है । इसमें
भारतीय भूगोल का भी निरूपण किया गया है । इस ग्रन्थ पर भट् टोत्पल की टीका मिलती है । उसने इस पर 966
ई. में अपनी टीका लिखी थी।
पञ्चसिद्धान्तिका में उन्होंने पाँच सिद्धान्तकों का वर्णन किया है ः—-
(1.) पौलिश,
(2.) रोमक,
(3.) वशिष्ठ,
(4.) सौर,
(5.) पितामह।
वराहमिहिर एक महान् ज्योतिषाचार्य थे । वे एक खगोल विज्ञानी भी थे । पञ्चसिद्धान्तिका के प्रथम खण्ड में
उन्होंने खगोल विज्ञान पर विस्तार से चर्चा की है । चतु र्थ अध्याय में उन्हों त्रिकोणमिति से सम्बन्धित विषय पर
विस्तृ त चर्चा की है ।
वराहमिहिर ने 24 ज्या मान (R sin A value) वाली ज्या सारणी (sine Table) दी है ।
अपने बृ हत् सं हिता ग्रन्थ में सं चय ज्ञात करने के लिए उन्होंने एक पद्धति विकसित की है , जिसे “लोष्ठ-प्रस्तार”
कहा जाता है । यह सारणी पास्कल त्रिकोण से मिलती जु लती है ।
सु गन्धित द्रव्य तै यार करने के लिए वराहमिहिर ने 4 गु णा 4 पें डियागोनल जादुई वर्ग ( Pandiagonal Magic
Square) का उपयोग किया है ।
वराहमिहिर ने इसके अतिरिक्त नक्षत्र विद्या, वनस्पति विज्ञान, भूगोल शास्त्र, प्राणीशास्त्र और कृषि विज्ञान
पर भी चर्चा की है ।
इन ग्रन्थों में हमें प्राचीन भारतीय चिकित्सा पद्धति वै ज्ञानिक दृष्टिकोण एवं अनु सन्धान वृ त्ति का ज्ञान प्राप्त
होता है ।
वराहमिहिर की बहुमु खी प्रतिभा के कारण उनका स्थान विशिष्ट है ।
उनका निधन लगभग 644 विक् रमी सं वत् अर्थात् 587 ई. सन् में हुआ था।
— कोन है पु राना —
न्यूटन (1642-1726)
या
वराहमिहिर ( 57 BC ) रचित “पञ्चसिद्धान्तिका”
* वराहमिहिर के वै ज्ञानिक विचार तथा योगदान –
बराहमिहिर वे दों के ज्ञाता थे मगर वह अलौकिक में आं खे बं द करके विश्वास नहीं करते थे । उनकी भावना और
मनोवृ त्ति एक वै ज्ञानिक की थी। अपने पूर्ववर्ती वै ज्ञानिक आर्यभट् ट की तरह उन्होंने भी कहा कि पृ थ्वी गोल है ।
विज्ञान के इतिहास में वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने कहा कि कोई शक्ति ऐसी है जो चीजों को जमीन के साथ
चिपकाये रखती है । आज इसी शक्ति को गु रुत्वाकर्षण कहते है ।
वराहमिहिर ने पर्यावरण विज्ञान (इकालोजी), जल विज्ञान (हाइड्रोलोजी), भूविज्ञान (जिआलोजी) के सं बंध में
कुछ महत्वपूर्ण टिप्पणियां की। उनका कहना था कि पौधे और दीमक जमीन के नीचे के पानी को इं गित करते हैं ।
आज वै ज्ञानिक जगत द्वारा उस पर ध्यान दिया जा रहा है । उन्होंने लिखा भी बहुत था। अपने विशद ज्ञान और
सरस प्रस्तु ति के कारण उन्होंने खगोल जै से शु ष्क विषयों को भी रोचक बना दिया है जिससे उन्हें बहुत ख्याति
मिली। उनकी पु स्तक पं चसिद्धान्तिका (पांच सिद्धां त), बृ हत्सं हिता, बृ हज्जात्क (ज्योतिष) ने उन्हें फलित ज्योतिष
में वही स्थान दिलाया है जो राजनीति दर्शन में कौटिल्य का, व्याकरण में पाणिनि का और विधान में मनु का है ।
ब्रह्मगु प्त

   

ब्रह्मगु प्त
जन्म ५९८ CE

मृ त्यु c.६७० CE

क्षे तर् गणित,खगोल शास्त्र

प्रसिद्धि शून्य
आधु निक सं ख्या पद्धतियाँ
ब्रह्मगु प्त का प्रमे य
ब्रह्मगु प्त की पहचान
ब्रह्मगु प्त का सूतर्

ब्रह्मगुप्त का प्रमेय, इसके अनुसार AF = FD.


ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की
अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्राह्मस्फु टसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन्
६६५ ई में)।
ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकू ल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत
स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
जीवन परिचय
ब्रह्मगुप्त आबू पर्वत तथा लुणी नदी के बीच स्थित, भीनमाल नामक ग्राम के निवासी थे। इनके पिता का नाम जिष्णु था। इनका जन्म शक संवत् ५२० में हुआ था।
इन्होंने प्राचीन ब्रह्मपितामहसिद्धांत के आधार पर ब्राह्मस्फु टसिद्धान्त तथा खण्डखाद्यक नामक करण ग्रंथ लिखे, जिनका अनुवाद अरबी भाषा में, अनुमानत: खलीफा
मंसूर के समय, सिंदहिंद और अल अकरंद के नाम से हुआ। इनका एक अन्य ग्रंथ 'ध्यानग्रहोपदेश' नाम का भी है। इन ग्रंथों के कु छ परिणामों का विश्वगणित में अपूर्व
स्थान है।
आचार्य ब्रह्मगुप्त का जन्म राजस्थान राज्य के  भीनमाल शहर मे ईस्वी सन् ५९८ मे हुआ था। इसी कारण उन्हें ' भिल्लमालाआचार्य ' के नाम से भी कई जगह उल्लेखित
किया गया है। यह शहर तत्कालीन गुजरात प्रदेश की राजधानी तथा हर्षवर्धन साम्राज्य के राजा व्याघ्रमुख के समकालीन माना जाता है।

गणितीय कार्य
'ब्रह्मस्फु टसिद्धांत' उनका सबसे पहला ग्रन्थ माना जाता है जिसमें शून्य का एक अलग अंक के रूप में उल्लेख किया गया है। यही नहीं, बल्कि इस ग्रन्थ में ऋणात्मक
(negative) अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन भी किया गया है। ये नियम आज की समझ के बहुत करीब हैं। हाँ, एक अन्तर अवश्य है
कि ब्रह्मगुप्त शून्य से भाग करने का नियम सही नहीं दे पाये: ०/० = ०.
"ब्रह्मस्फु टसिद्धांत" के साढ़े चार अध्याय मूलभूत गणित को समर्पित हैं। १२वां अध्याय, गणित, अंकगणितीय शृंखलाओं तथा ज्यामिति के बारे में है। १८वें अध्याय,
कु ट्टक (बीजगणित) में आर्यभट्ट के रैखिक अनिर्धार्य समीकरण (linear indeterminate equation, equations of the form ax − by = c)
के हल की विधि की चर्चा है। (बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्धार्य समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम ‘कु ट्टक’ है। ब्रह्मगुप्त ने उक्त
प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् ६२८ ई. में ‘कु ट्टक गणित’ रखा।)[1] ब्रह्मगुप्त ने द्विघातीय अनिर्धार्य समीकरणों (Nx2 + 1 = y2) के हल की
विधि भी खोज निकाली। इनकी विधि का नाम चक्रवाल विधि है। गणित के सिद्धान्तों का ज्योतिष में प्रयोग करने वाला वह प्रथम व्यक्ति था।
उनके  ब्राह्मस्फु टसिद्धान्त के द्वारा ही अरबों को भारतीय ज्योतिष का पता लगा। अब्बासिद ख़लीफ़ा अल-मंसूर (७१२-७७५ ईस्वी) ने बग़दाद की स्थापना की और
इसे शिक्षा के के न्द्र के रूप में विकसित किया। उसने उज्जैन के  कं कः को आमंत्रित किया जिसने ब्राह्मस्फु टसिद्धान्त के सहारे भारतीय ज्योतिष की व्याख्या की।
अब्बासिद के आदेश पर अल-फ़ज़री ने इसका अरबी भाषा में अनुवाद किया।
ब्रह्मगुप्त ने किसी वृत्त के  क्षेत्रफल को उसके समान क्षेत्रफल वाले वर्ग से स्थानान्तरित करने का भी यत्न किया।
ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी की परिधि ज्ञात की थी, जो आधुनिक मान के निकट है।
ब्रह्मगुप्त पाई (pi) (३.१४१५९२६५) का मान १० के  वर्गमूल (३.१६२२७७६६) के बराबर माना।
ब्रह्मगुप्त अनावर्त वितत भिन्नों के सिद्धांत से परिचित थे। इन्होंने एक घातीय अनिर्धार्य समीकरण का पूर्णाकों में व्यापक हल दिया, जो आधुनिक पुस्तकों में इसी रूप
में पाया जाता है और अनिर्धार्य वर्ग समीकरण, K y2 + 1 = x2, को भी हल करने का प्रयत्न किया।
ब्रह्मगुप्त का सूत्र

सन्दर्भ के लिए चित्र


ब्रह्मगुप्त का सबसे महत्वपूर्ण योगदान चक्रीय चतुर्भुज पर है। उन्होने बताया कि चक्रीय चतुर्भुज के विकर्ण परस्पर लम्बवत होते हैं। ब्रह्मगुप्त ने चक्रीय
चतुर्भुज के  क्षेत्रफल निकालने का सन्निकट सूत्र (approximate formula) तथा यथातथ सूत्र (exact formula) भी दिया है।
चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का सन्निकट सूत्र:

चक्रीय चतुर्भुज के क्षेत्रफल का यथातथ सूत्र:


जहाँ t = चक्रीय चतुर्भुज का अर्धपरिमाप तथा p, q, r, s उसकी भुजाओं की नाप है। हेरोन का सूत्र, जो एक त्रिभुज के क्षेत्रफल निकालने का सूत्र है,
इसका एक विशिष्ट रूप है।
कल्याण वर्मा
कल्याण वर्मा भारत के एक ज्योतिषाचार्य थे जिन्होने 'सारावली' नामक प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की है। इसमें उन्होने अपना जन्मस्थान 'देवग्राम' बताया है।
किन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि यह ग्राम कहाँ था। उनके जीवनकाल के बारे में भी ठीक-ठीक पता नहीं है। किन्तु कु छ विश्लेषणों के अनुसार सारावली के रचयिता
कल्याण वर्मा रीवा जिला के बघेल खण्ड में बघेल राजपूत परिवार में जन्मे थे। उनका पूर्व नाम कर्ण देव था और इनका जन्म विक्रमी संवत १२४५ के आस पास का
माना जाता है।
ज्योतिष शास्त्र वेदाङ्गों में सर्वश्रेष्ठ शास्त्र है। इस शास्त्र के तीन भाग हैं-

 सिद्धान्त
 संहिता
 होरा
इन तीनों भागों को महॠषियों के द्वारा प्रणीत होने के कारण जीवन में होने वाली घटनाओं का सत्य कथन सम्भव है। श्री कल्याण वर्मा के द्वारा रचित
प्रमुख ज्योतिष ग्रंथ सारावली होरा शास्त्र के रूप में ही है।

सारावली के अनुसार सकल अरिष्ट भंग योग[संपादित करें]


आचार्य कल्याण वर्मा ने सारावली में अपने १२ वें अध्याय में सभी अरिष्टों के भंग होने के योग बताये है, जो निम्नप्रकार हैं-
सर्वातिशाय्यातिबल: स्फु रदंशुमाली लग्ने स्थित: प्रशमयेत् सुरराजमन्त्रा।
एको बहूनि दुरितानि सुदुस्तराणि भक्त्या प्रयुक्त् इव चक्रधरे प्रणाम:।।१।।
सौम्यग्रहैरतिबलैर्विबलैश्च पापै लग्नं च सौम्यभवने शुभदृष्टियुक्त्म् ।
सर्वापदाविरहितो भवति प्रसूतः पूजाकर: खलू यथा दुरितैर्ग्रहाणाम्।।२।।
आचार्य कल्‍याण वर्मा के मत से यदि सभी ग्रहों की अपेक्षा अधिक बलवान् अति चमकदार बृहस्पति अर्थात् उच्च का स्वग्रही, सूर्य से दूर याने
वक्री होनपर लग्न में स्थित हो, तो बहुत अरिष्टों का नाश करता है, जैसे विभक्ति से युक्त पुरूष विष्णु भगवान् को प्रणाम करने से सहस्त्रों पापों
से मुक्त होता है।
सभी शुभग्रह (चन्द्र, बुध, गुरू, शुक्र) अत्यन्त बलवान् तथा पापग्रह(मंगल, शनि, रवि, निर्बल चद्र) निर्बल हो और शुभग्रह का लग्न हो,
शुभग्रह से दृष्ट हो, तो इस योग में उत्पन्न बालक सभी आपदाओं से रहित होता है, जैसे कि ग्रहों के पूजा से ग्रहजनित दुरित नाश होता है।।
१-२।।
पापा यदि शुभवर्गे सौम्यैर्दृष्टा: शुभांशवर्गस्थै:।
निघ्नन्ति तदा रिष्टं पतिं विरक्ता यथा युवति:।।३।।
राहुस्त्रिषष्ठलाभे लग्नात् सौम्यैर्निरीक्षित: सद्य:।
नाशयति सर्वदुरितं मारूत इव तूलसंघातम्।।४।।
शुक्र अनुसार यदि पापग्रह शुभग्रह के वर्ग में स्थित शुभग्रह के नवांश और वर्ग में स्थित शुभग्रहों से दृष्ट हो, तो अरिष्ट का नाश करते हैं, जैसे
कि पति से विरक्त् स्त्री पति का नाश करती है।
यदि लग्न से ३।६।११ में से किसी स्थान में स्थित राहु शुभग्रहों से दृष्ट हो, तो अपने आप अरिष्ट् का नाश करता है, जैसे कि वायु का वेग रूई
के गल्ले (ढेर) का नाश करता है।।३-४।।
शीर्षोदयेषु राशिषु सर्वैर्गगनाधिवासिभि: सूतौ।
प्रकृ तिस्थैश्चारिष्टं विक्रियते घृतमिवाग्निष्ठम्।।५।।
तत्काले यदि विजयी शुभग्रह: शुभनिरीक्षितो वर्गे।
तर्जयति सर्वरिष्टं मारूत इव पादपान् प्रबल:।।६।।
परिविष्टो गगनचर: क्रु रैश्च विलोकितो हरति पापम्।
स्नानं सन्निहितानां कृ तं यथा भास्करग्रहणे।।७।।
सूत्र के अनुसार यदि जन्म समय सभी ग्रह शीर्षोदय राशि में स्थित हो, तो प्रकृ तिस्थ सभी अरिष्टों का नाश करता है। जैसे कि आग पर तपा
देने से घृत का विकार नष्ट हो जाता है।
यदि जन्माण्ड् में तत्काल शुभग्रह विजयी हो, शुभग्रह के वर्ग में शुभ दृष्ट हो, तो सभी अरिष्ट् प्रबल वायु के वेग से वृक्ष की भॉति नष्ट् हो जाते
है।
जन्म समय यदि कोई ग्रह परिवेष मण्डल के अन्तर्गत हो और पापग्रहों से दृष्ट हो, तो अरिष्ट का नाश करता है, जैसे कि भास्कर के ग्रहण
काल में स्नान करने से पाप दूर होता है।।५-७।।
स्रिग्धमृदुपवनभाजो जलदाश्च तथैव खेचरा: शस्ता:।
स्वस्था: क्षणाच्च रिष्टं शमय्‍न्ति रजो यथाम्बुधारौध:।।८।।
उदये चागस्त्यमुने: सप्तर्षीणां मरीचिपुत्राणाम्।
सर्वारिष्टं नश्यति तम इव सूर्योदये जगत:।।९।।
अजवृषकर्कि विलग्ने रक्षति राहु: समस्तपीडाभ्य:।
पृथ्वीपति: प्रसन्न: कृ तापराधं यथा पुरूषम्।।१०।।
स्निग्ध, मृदु तथा पवनप्रदायक और जलदयोग करने वाले तथा प्रशस्त ग्रह शीघ्र अरिष्ट का नाश करते है – जैसे कि वर्षा की धारा धूलि का
नाश करती है।
अगस्त मुनि तथा मरीच्यादि सप्तर्षियों का उदय सभी अरिष्टो का नाश करते है, जैसे कि सूर्योदय संसार के अंधकार को दूर करता है।
जन्म् समय में लग्न स्थान में मेष, वृष या कर्क राशि का राहू हो तभी सभी प्रकार के अरिष्टो से रक्षा करता है। जैसे कि प्रस्न्न राजा अपराधियो
कि रक्षा करता है।
र्यत्नेन भंगमपरे सरोजजन्मातिविस्मयं कु रूते।
तज्ज्ञ: कष्टमनिष्टं समतटदेशे यथा किरट:॥११॥
आचार्य के अनुसार और भी अन्य अरिष्ट् भंग योग से अरिष्ट से उत्पन्न् होने वाले दू:खो का तथा अनिष्टं से ब्रम्हा आश्चर्य करते है। (अर्थात्
सभी दु:खो का निर्माण होता है) जैसे कि समतट देश में गिरगिट आश्चर्य को करता है।
बहवो यदि शुभफलदा: खेटास्तत्रापि शीर्यते रिष्टम्।
सुर्यात् त्रिकोण इन्दौ यथैव यात्रा नरेन्द्रस्य्॥१२॥
गुरूशुकौ च के न्द्रस्थौ जीवेद्वर्षशतं नर:।
गृहनिष्टं हिनस्त्याशु चन्द्रानिष्टं तथैव च॥१३॥
इस सुत्र के अनुसार यदि अधिक ग्रह शुभफल करने वाले हों तथा सूर्य से त्रिकोण में अर्थात् पंचमनवम चन्द्रमा हो, तो राजा के यात्रा की
भॉति समस्त् कष्टो का निवारण होता है।
ब्रहस्पति तथा शुक्र कें न्द्र में हो, तो १०० सौ वर्ष की आयु होती है और सभी ग्रहो के अरिष्ट तथा चंद्र से उत्पन्न होनेवाले अरिष्टो का नाश
होता है ॥१२-१३॥
बन्ध्वास्पदोदयविलग्नगतौ कु लीरे
गीर्वाणनाथसचिव: सकलश्च चन्द्र:।
जूके रवीन्दूतनयावपरे च लाभे
दुश्चिक्यशत्रुभवनेष्वमितं तदायु:॥१४॥
यदि कर्क राशिस्थ्‍सम्पूर्ण चन्द्रमा अर्थात् पोर्णिमा का जन्म् हो ब्रहस्पति से युक्त् होकर चतुर्थ या दशम अथवा लग्न में हो और तूला राशि में
शनि, बुध तथा शेष ग्रह ३/६ या ११ स्थान में हो, तो अमितायुयोग अर्थात् १२० वर्ष से भी अधिक होता है॥१४॥

विश्व के महान् वै ज्ञानिक : भास्कराचार्य


दिसम्बर 25, 2014 पर पोस्ट किया गया
भास्कराचार्य का जन्म शक सं वत् 1036 तदनु सार विक् रम सं वत् 1171 अर्थात् 1114 ई. सन् में विज्जडवीड ग्राम में
हुआ था। इस गाँ व के विषय में भ्रान्तियाँ हैं । कुछ लोग इसे कर्णाटक के बीजापु र में मानते हैं तो कुछ लोग
महाराष्ट् र के जलगाँ व में ।

इनके पिता का नाम महे श्वर था। इनके पिता ही इनके गु रु थे । भास्कराचार्य उज्जै न के गु रुकुल में खगोलशास्त्री थे ।
गणित और खगोलशास्त्र पर इनके तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं ।

सिद्धान्त शिरोमणिः—यह खगोलशास्त्र का मानक ग्रन्थ है । इसके चार भाग हैं —


(1.) लीलावती, (2.) बीजगणितम्, (3.) ग्रहगणितम्, (4.) गोलाध्याय।

ये चार अलग-अलग पु स्तक भी है । इनका अनु वाद अधिकतर भाषाओं में हो चु का है ।

इनकी लोकप्रियता इस बात से प्रतिपादित है कि इन पर 4000 से अधिक टीकाएँ की जा चु की हैं । लीलावती और


बीजगणितम् को कई विश्वविद्यालों में पाठ्यक् रम के रूप में पढाया भी जाता है ।

लीलावतीः—इसमें कुल नौ अध्याय हैं और 261 श्लोक हैं । इन अध्यायों के नाम हैं —(1.) दशमान स्थान सं ज्ञा, (2.)
पूर्णांक और अपूर्णांक सं ख्या सम्बन्धी अष्टपरिकर्म, (3.) त्रैराशिक, (4.) पं चराशिक, सप्तराशिक इत्यादि, (5.) श्रेणी
व्यवहार, (6.) क्षे तर् मान, (7.) छाया व्यवहार, (8.) अं कपाश, (9.) कुट् टक व्यवहार।

बीजगणितः—इसमें 13 अध्याय और 213 श्लोक हैं । इन अध्यायों के नाम इस प्रकार हैं ः—(1.) मं गलाचरण, (2.) धन
एवं ऋण सं खायाओं पर बीजीय क्रियाएँ , (3.) शून्य सम्बन्धित क्रियाएँ , (4.) अने कषड्विधि, (5.) करणी, (6.)
कुट् टक, (7.) वर्गप्रकृति, (8.) चक् रवाल, (9.) एकवर्ग समीकरण, (10.) मध्यमाहरण, (11.) अने कवर्ग समीकरण, (12.)
अने कवर्ग मध्यमाहरण, (13.) भावित।

अन्य दो ग्रन्थों में गोले तथा गोलीय त्रिकोणमिति, ग्रहणगणित, पं चां गगणित आदि विषय समाहित है ।

योगदानः—
————–
(1.) दशगु णोत्तर सं ख्याएँ ः—-एक, दश, शत, सहस्र, अयु त, लक्ष, प्रयु त, कोटि, अर्बुद, अब्ज, खर्व, निखर्व, महापद्म,
शं कु, जलधि। परवर्ती गणितज्ञों ने इन नामों को यथावत् कायम रखा है ।

(2.) धनात्मक सं ख्या को शून्य से विभाजित करने पर प्राप्त होने वाली राशि का खहर नाम दिया है । ख से शून्य का
बोध होता है । अतः खहर का अर्थ हुआ जिसके हर में शून्य हो। इस प्रकार यह खहर नाम दे ने वाले वे प्रथम
गणितज्ञ थे ।

(3.) लीलावती का अं कपाश प्रकरण क् रमचय और सं चय से सम्बन्धित है । इस प्रकरण का अन्तिम प्रश्न


डीमाइवर (Demoivre–1730) के इसी प्रकार के प्रश्नों के समान है ।

(4.) बीजगणित–गणित के कुछ समीकरणों को हल करने के लिए फर्मा ने गणितज्ञों के सामने प्रस्तु त किया था। जिसे
75 वर्षों के बाद आयलर और लॉगराज्ज ने 1732 में खोज निकाला था। भारतवर्ष में भास्कराचार्य ने इस पर फर्मा से
लगभग 500 वर्ष पूर्व खोज कर ली थी।

(5.) ज्यामितः–यूक्लिज द्वारा दी गई पायथागोरस प्रमे य की उपपत्ति से भास्कराचार्य द्वारा दी गई उपपत्ति बहुत
सरल है ।

ध्यातव्य है कि वर्तमान में पायथागोरस के नाम से जाना जाने वाला प्रमे य वस्तु तः बौधायन का प्रमे य है , जो
लगभग 500 वर्ष पूर्व का है ।
इसके अतिरिक्त गणित की और भी कई खोजें भास्कराचार्य ने की है । चन्द्रमा स्वयं प्रकाशित नहीं है , अपितु वह
सूर्य के प्रकाश से चमकता है । यह बात सर्वप्रथम भास्कराचार्य ने ही बतलाई थी।

सिद्धान्त शिरोमणि में यन्त्राध्याय है , जिसमें आकाश से निरीक्षण करने हे तु 9 यन्त्रों का वर्णन है ः–(1.) गोल यन्त्र,
(2.) नाडी वलय (सूर्य घडी), (4.) शं कु, (5.) घटिका यन्त्र, (6.) चक् र, (7.) चाप, (8.) तूर्य, (9.) फलक यन्त्र।

गणित और खगोलशास्त्र पर इनका योगदान अतु लनीय है ।

इनका दे हावसान 1179 ई. में हुआ।

इनके नाम से भारत सरकार ने 7 जून 1979 को भास्कर-1, तथा 20 नवम्बर, 1981 को भास्कर-2 नाम से उपग्रह छोडे

लल्ल 
लल्लाचार्य (७२०-७९० ई) भारत के ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे । वे शाम्ब के पौत्र तथा भट् टत्रिविक् रम के
् दतन्त्रम्' (= शिष्य की बु द्धि बढ़ाने वाला तन्त्र) नामक एक ग्रन्थ की रचना
पु त्र थे । उन्होने 'शिष्यधीवृ दधि
की। इस ग्रन्थ की रचना का कारण बताते हुए लल्ल ने स्वयं को आर्यभट का शिष्य बताया है ।
इसी ग्रन्थ में उन्होने 'अमरगति' (परपिचु अल मोशन) की सबसे पहली लिखित व्याख्या की है । इसमें २२ अध्याय
हैं । प्रथम १३ अध्याय 'गणिताध्याय' के अन्तर्गत आते हैं तथा शे ष ९ अध्याय मिलाकर 'गोलाध्याय' कहलाते
हैं । लल्लाचार्य की यह एकमात्र खगोलशास्त्रीय कृति है जो जीवित बची है ।
गोलाध्याय के सातवें अध्याय ('मिथ्याज्ञान' नामक बीसवाँ अध्याय) में लल्ल ने  पु राणों में कही गईं अने कों
ज्योतिषीय विचारों की आलोचना की है (जै से धरती के चपटी होने का विचार, सूर्य का चन्द्रमा के अधिक निकट
होना, राहु के कारण ग्रहण का होना आदि)। आचार्य लल्ल का तर्क था कि "यदि पृ थ्वी सपाट है तो ताड़ के समान
ऊँचे पे ड़ दरू से नज़र क्यों नहीं आते ?"
समता यदि विद्यते भु वस्तरवस्तालनिभा बहुच्छायाः।
कथमे व न दृष्टिगोचरं नु रहो यान्ति सु दरू सं स्थिताः॥ (लल्ल सिद्धांत)
लल्ल महान खगोलविद थे । उन्होने अपने ग्रन्थ में १२ यन्त्रों का वर्णन किया है -
गोलो भगणश्चक् रं धनु घटी शं कुशकटकर्तर्यः।
पीप्टक पालशलाका द्वादशयन्त्राणिसह यष्टया ॥
अनु वाद : गोला, भणक (ring,), चक् र (dial), धनु (bow), घटी (time measuring water vessel) , शं कु
(Gnomon), शकट (divider), कर्तयः (scissor), पीप्टक , पाल और शलाका, छड़ी - ये १२ यन्त्र है ) [1]

कृतियाँ
 शिष्यधीवृ दधि ् दतन्त्रम्
 ज्योतिषरत्नकोश - यह ग्रन्थ ३०० वर्षों तक भारत का सबसे प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रन्थ रहा।
 ब्रह्मगु प्त की कृति 'खण्डखाद्यक' की टीका लिखी जो अप्राप्य है ।

शिष्यधीवृदधि
् दतन्त्र
इस ग्रन्थ में कुल २२ अध्याय हैं जो दो भागों में विभक्त हैं -

(क) गणिताध्याय
1. On the mean longitudes of the planets.
2. On the true longitudes of the planets.
3. On the three problems involving diurnal motion.
4. On lunar eclipses.
5. On solar eclipses.
6. On the syzygies.
7. On the heliacal settings and risings of the planets.
8. On the shadow of the moon.
9. On the lunar crescent.
10. On planetary conjunctions.
11. On conjunctions of the planets with the stars.
12. On the pātas of the sun and moon.
13. Conclusion.
(ख) गोलाध्याय
1. On graphical representations.
2. On the construction of the celestial sphere.
3. On the principles of mean motion.
4. On the terrestrial sphere.
5. On the motions and stations of the planets.
6. On geography.
7. On erroneous knowledge.
8. On instruments.
9. On certain (selected) problems

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