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आदि पुरी अयोध्या

भारतवासियों की मान्यता है कि सृष्टि एक ही तत्त्व से सृजित है, वही प्राणी मात्र में विद्यमान है। ऋचाओं और परवर्ती साहित्य में यही प्रस्फु टित भी हुआ है। ‘‘एकं सद्विप्रा बहुधा
वदन्ति। अग्नि यमं मातिरिश्वान माहुः।’’ अर्थात् सत्य एक है विद्वान उसे कभी अग्नि, यम और कभी अन्य नामों से कहते हैं। ‘‘इन्द्रः वर्धन्तो असुरः कृ ण्वन्तो विश्वमार्यम्’’
आओ! अर्थात् विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनायें।

वस्तुतः चेतन शक्ति पुरूष ही सब कु छ है। इतिहास (पूर्ववृत्त) साक्षी है कि जब तक हमारे पूर्वजों का संकल्प- ‘सम्भूय समुत्थान’, ‘वसुधैव कु टम्बकम’, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’
अर्थात् सभी प्राणियों को समान मानना, ‘अद्वैष्टा सर्वभूतानां’ अर्थात् प्राणियों से ईष्या नहीं करना, वैदिक प्रार्थना- ‘संगच्छध्वं, संवद्ध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागम
यथा पूर्वे संजानाम उपासते।। समानी व आकू तिः समाना हृदयानि वः। समानास्तु वो मनो, यथा वः सुसहासति एवं ¬ सह नावतु, सह नौ भुनक्त, सह वीर्यं करवावहै
तेजस्विनाव- धीतमस्तु मा विद्विषावहे’, ¬ शान्तिः शान्तिः, ‘एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले कौन मन्दे’? आदि संकल्प क्रियाशील रहा, भरत की संतति और भारतीय
संस्कृ ति अजर-अमर और विकासशील रही। आर्य कु टुम्ब में पिता, माता और पुत्र क्रमशः भिषक् , जाँता चलाने वाली एवं कवि के वर्ण धर्म में उसी प्रकार क्रियाशील रहे जैसे-
बछड़ा (वत्स) गाय के पीछे लगा रहता है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः’ उद्घोष। सभी को संघटित विकास हेतु प्रेरित करता रहा।

मध्यकाल के आगमन के पहले ही आक्रान्ताओं की संस्कृ ति ने सुनियोजित षड्यंत्र के द्वारा भारतीयता को आघात पहुँचाया, रही सही कमी आंग्ल सम्प्रभुआंे और उनकी
चाटुकार सन्ततियों ने पूरी कर दी, क्रान्तिकारियों और महापुरूषों को आलेखों से अलग कर दिया गया। मर्यादा पुरूषोत्तम श्रीराम की सेना, वासुदेव कृ ष्ण का सारथि धर्म,
ऐतरेय ब्राह्मण के रचयिता महीदास, छान्दोग्य उपनिषद् के रचयिता जाबालि, रामायण के रचयिता वाल्मीकि, वशिष्ठ, विश्वामित्रा, गुरूनानक, सन्तकबीर, रैदास, नामदेव,
तुकाराम, मीराबाई, दादू, मणिराम दास, बनादास तथा सिक्ख गुरूओं गुरूनानक, तेगबहादुर एवं गुरूगोविन्द सिंह आदि ने सामाजिक समरसता पुनः स्थापित की।

इसी उद्देश्य को लक्ष्य मानकर उत्तर प्रदेश शासन ने प्रयागराज में प्रस्तावित कु म्भ के अतिरिक्त 5 वैचारिक कु म्भों पर्यावरण, नारी-शक्ति, समरसता, युवा एवं सांस्कृ तिक के
आयोजन का क्रमशः वाराणसी, वृन्दावन, अयोध्या, लखनऊ का दायित्व निर्धारित किया गया है। यह सौभाग्य का विषय है कि श्री अयोध्या स्थित डाॅ. राममनोहर लोहिया
अवध विश्वविद्यालय (फै जाबाद) अयोध्या को ‘समरसता कु म्भ’ के आयोजन का दायित्व उ.प्र. शासन ने प्रदान किया है। समरसता की मूल भावना समाज को संघटित और
पारस्परिक विद्वेष को समाप्त करना है। वस्तुतः समरसता एक सामाजिक आन्दोलन है, जो सम्भूय समुत्थान की भावना पर आधारित है। अनेक विचारों, भाषाओं, धर्मों और
वर्गों के होते हुए भी एकत्त्व हम भारतवासियों की पहचान है। समरसता के शलाका पुरूष पुरूषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली पर समरसता कु म्भ का आयोजन श्री अयोध्या के
भौगोलिक और सांस्कृ तिक अभिज्ञान के अनुरूप है।

अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।

पुरीद्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका।।

मोक्षदायक सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर प्रतिष्ठित देवपुरी अयोध्या प्राचीनकाल से सास्ंकृ तिक समन्वय स्थली है। यह वैदिक, जैन, बौद्ध, मुस्लिम तथा सिक्ख पंथानुयायियों
की कर्मस्थली रही है। अथर्ववेद एवं तैत्तिरीय आरण्यक में संदर्भित है -

अष्टचक्रा नव द्वारा देवानां पूः अयोध्या।

तस्यां हिरण्यमय कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृताः।।

आठ चक्रों नव द्वारों और हिरण्यमय कोश से अलंकृ त अयोध्या स्वर्ग की आभा से सुसज्जित है। बी. बी. लाल ने आठ चक्र नौ द्वारों और स्वर्ग की आभा का क्रमशः आठ
धमनियों, नौ इन्द्रियों (दो आँख, दो नासिका द्वार, दो कर्ण, मुख, गुदा और शिश्न) तथा ज्ञान से समीकरण किया है। देवपुरी अयोध्या को मन्दिरों की नगरी, सूकर क्षेत्रा,
विनीता, अयुज्झया, हिरण्या, चिन्मया, विशाखा, पद्मपुरी, अपराजिता, नन्दिनी, पुण्य लक्षणा अयुधा, रघुपुरी, अजपुरी, साके त (दिव्यावदान/किसी के साथ स्वयं आना),
इक्खाक भूमि (प्राकृ त), सोके ड (तिब्बती), श-कि/श-कि त (चीनी) तथा अवध नाम से लोक प्रसिद्ध रही है। साहित्यिक संदर्भो में अयोध्या के दिव्य और पार्थिव रूपों का
विवेचन हुआ है। वशिष्ठ संहिता में वशिष्ठ जी ने भारद्वाज जी से कहा है-

अयोध्या नगरी नित्या सच्चिदानन्द रूपिणी,

यस्यांशेन बैकु ण्ठो गोलोकादिप्रतिष्ठतः।

यत्रा श्री सरयूर्नित्या प्रेमवारि प्रवाहिणीः,

यस्यांशेन सम्भूता विरजादिसरिद्वराः।।

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इस प्रकार स्पष्ट है कि पुरातन साहित्य में अयोध्या के दिव्य रूप का वर्णन हुआ है। शिव संहिता में अयोध्या के दिव्य एवं पार्थिव रूप के अन्तर का स्पष्ट विवेचन हुआ है-

भोग स्थानं परायोध्या, लीला स्थानंत्वियं भुविः।

भोगलीला पतीरामो निरंकु श विभूतकः।।

अर्थात् गोलोक स्थित अयोध्या पुरुषोत्तम राम की दिव्य भोग भूमि है तथा भू-लोक स्थित अयोध्या उनकी लीला भूमि है। आदिकवि वाल्मीकि के काल से कोशल महाजनपद
के रूप में अयोध्या का उल्लेख प्राप्त होता है-

कोसलो नाम मुदितः स्फीतो जनपदो महान।

निर्विष्टः सरयू तीरे प्रभूत धन धान्यवान।।

अयोध्या नाम नगरी तत्रासील्लोक विश्रुता।

मनुना मानवेन्द्रेण या पुरी निर्मिता स्वयं।।

कोसल महाजनपद सरयू नदी के किनारे अवस्थित धन-धान्य से परिपूर्ण है। अयोध्या नाम से लोक प्रसिद्ध यह नगर वैवस्त मनु द्वारा आवासित है। मनुष्यों में इन्द्र, महर्षि कृ ष्ण
द्वैपायन ‘व्यास’, कौटिल्य, मत्स्य पुराण, कामन्दक एवं मानसोल्लास द्वारा मनु के शासक बनने का समर्थन किया गया है। स्कं द पुराण के अनुसार अयोध्या इच्छवाकु वंशी
प्रजावत्सल अवतार रामचन्द्र के धनुष के अग्रभाग पर स्थित अर्थात सुरक्षित है। ‘श्रीराम धनुषाग्रस्था अयोध्या सा महापुरी’।

अयोध्या नाम में अकार, यकार और धकार क्रमशः ब्रह्म विष्णु और रूद्र का वाचक है। अकारों ब्रह्म च प्रोवतं यकारो विष्णुरूच्यते। धकारों रूद्र रूपस्य अयोध्या नाम राजते। मेरी
मान्यता है कि देवत्रायी ब्रह्म, विष्णु एवं शिव की साधना भूमि अयोध्या धाम है। कतिपय वेत्ता ब्रह्मपुराण एवं हरिवंशपुराण के आधार पर प्रतिपादित करते हैं कि इक्ष्वाकु के पुत्रा
विकु क्षि के अन्य नाम ‘अयोध’ के नाम पर अयोध्या नामकरण किया गया है।

तेषां विकु क्षिज्र्येष्ठस्तु विकु क्षित्वाद् आयोधताम्।

प्राप्तः परधर्मज्ञः सोऽयोध्याधिपतिः प्रभुः।।

आदि राजन् मनु द्वारा आवासित, सप्त हरियों की संकल्पना भूमि (गुप्त हरि, विष्णु हरि, चक्र हरि, पुण्य हरि, चन्द्र हरि, धर्म हरि और बिल्व हरि) ऋषभ देव, अजितनाथ,
अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ और अनन्तनाथ की जन्म भूमि (जैन घाट एवं शाह जू रन का टीला) गौतम बुद्ध की वर्षावास स्थली (अंजयन, तीकं डवन, काला का राम) विश्व
का मस्तक अयोध्या सतयुग, त्रोता, द्वापर, कलियुग तथा अद्यावधि विकासशील है। अयोध्या के प्रमुख संतों में राम चरण दास, करूणासिन्धु जी, राम प्रसादाचार्य, युगलानन्द
शरण जी, स्वामी मणिराम जी, राघुनाथ दास जी, जानकीवल्लभाशरण जी, शिवराम तैलंग जी, गोविन्द साहब और दस शिष्यों गुरू गोविन्द सिंह जी, तेग बहादुर जी, बनादास
जी ने अपने प्राप्त ज्ञान से अयोध्या को समरास्ता से ओत-प्रोत किया। गोविन्द साहब के शिष्य पल्टू दास की शब्दावली सीतापुर निवासी रघुनाथ दास की विनयावली,
विश्वराम सागर, मानस दीपिका, प्रश्नावली तथा शंकावली, सनातन धर्मावलम्बी, श्री लाल उपाध्याय काशी वासी के विश्राम सागर, मिथिला वासी, प्रयागदास की रचनाओं,
उर्दू के शेक्सपियर होमर और वाल्मीकि के रूप में लोक प्रसिद्ध मीर बाबर अली अनीस की मरसिया, गज़ल और रूबाइयों की संकल्पना और रचना भूमि है। उस्ताद अली
मोहम्मद खां, मुख्तरी बेगम, बेगम अख्तर, हनुमन्त संगीत आश्रम के संस्थापक मृदंगाचार्य बाबा पागलदास, नृत्य राघव मिलन, दोहावली, कवितावली के रचियता निध्वाचार्य
तथा भुवनेश के रचियता त्रिलोकीनाथ भुवनेश की कर्मभूमि अयोध्या धाम ही है। लगभग 2000 वर्ष पूर्व कोरिया के कारक वंश के राजा सूरो और अयोध्या की राजकु मारी
सूरीरत्ना ‘हौ’ का वैवाहिक सम्बन्ध, अयोध्या के वैदेशिक सम्बन्ध की पुष्टि करता है। भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण विभाग के निर्देशन में किये गये उत्खनन् से विशिष्ट पात्रा
परम्परा प्रकाश में आयी है, जिसे पुरातत्त्ववेत्ता अयोध्या से होने वाले विदेशी व्यापार का सशक्त साक्ष्य मानते हैं। वर्तमान में अयोध्या की गौरवशाली मन्दिर-संगीत परम्परा के
वाहक के रूप में गवैया बाबा विजयरामदास जी (पखावज), मानसदास जी एवं सुमधुर शास्त्राी आदि अपने गायन द्वारा अयोध्या भूमि की सेवा अद्यावधि कर रहे हैं। मानव
अधिवास की दृष्टि से यह नगर प्रागैतिहास कालीन है। यहां की समन्वय भूमि ने द्रविड़ों, आर्यों, पारसीकों, यवनों, शकों, शुङगों, सामाज्य भोगी गुप्तों एवं हूणों को आकर्षित
किया। इतिहास वेत्ता और पुरातत्त्वविद् कोसल क्षेत्रा में निषाद, राजभर, पासी, थारू संस्कृ तियों की यथासम्भव पहचान कर चुके है। अयोध्या की भौगोलिक सीमा समय के
साथ बदलती रही। यथा- वाल्मीकि के काल खण्ड में इसका विस्तार 123, योजन अर्थात् 14436=5184 वर्ग किमी था। इसकी पुष्टि इसी से होती है कि मल्ल भूमि
(देवरिया) लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रके तु मल्ल द्वारा शासित और ककु नदी द्वारा दो भागों-पावा और कु शीनगर में विभाजित थी। ककु रामचन्द्र जी के पूर्वज थे। आचार्य ठाकु र प्रसाद
वर्मा के मतानुसार अयोध्या का चार बार संस्कार हुआ है- प्रथम आदि राजन मनु द्वारा, द्वितीय श्रीराम चन्द्र द्वारा परित्यक्त अयोध्या का उनके पुत्रा कु श द्वारा, तृतीय ऋषभदेव
द्वारा और चतुर्थ विक्रमादित्य द्वारा। इसी आधार पर यदि अयोध्या को विकास का नगर कहा जाए, अतिश्योक्ति नहीं होगी। कदाचित् पुरावृत्त और आस्था को भौतिक मापन
इकाई से नहीं आंकलित किया जा सकता है। प्राचीन अयोध्या और अधुनातन फै जाबाद मुख्यालय जुड़वा नगर हैं, जो पंचकोसी परिक्रमा मार्ग द्वारा अलग होते हैं। 1865 ई.
में जब पालिका की स्थापना की गयी, तब दोनों नगर एक ही नगर पालिका, फै जाबाद द्वारा प्रशासित होते थे, जिसे अयोध्या के विस्तार और जनता की मांग के आधार पर

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07.01.1978 को अयोध्या नगर पालिका के रूप में पृथक कर दिया गया। मई 2017 में पुनः अयोध्या नगर पालिका और फै जाबाद नगर पालिका का विलय अयोध्या
नगर निगम में कर दिया गया, यहां मैं कहना चाहता हूँ कि अयोध्या एक प्राचीनतम नगर है, जो अद्यावधि अयोध्या जनपद और अयोध्या मण्डल के रूप अपनी पहचान बनाये
हुये है।

इतिहास साक्षी है कि ब्रिटिश सम्प्रभुओं ने भारतीय भू-भागों को कमजोर करने हेतु धर्म ही नहीं, जाति और उप-जाति में विभाजित करने का अथक् प्रयास किया। इसका
सुखद परिणाम रहा कि मन्दिरों की नगरी अयोध्या में 62 से अधिक जाति और उप-जातियों के मन्दिर निर्मित हुये। इन मन्दिरों में एक तरफ पुरातन वैष्णव रामानन्दी परम्परा
का निर्वहन होता था, दूसरी तरफ रविदास/रैदास की परम्परा का निर्वहन होता था। वर्तमान अयोध्या में विद्यमान लगभग तीस मन्दिर कमोवेश अच्छी दशा में उपर्युक्त कथन
की पुष्टि करते हैं।

पौराणिक अयोध्या में रामकोट/श्रीराम दुर्ग सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्रा माना जाता है। इसी क्षेत्र में देवाधिदेव विष्णु के अवतार दाशरथि श्रीरामचन्द्र की जन्मभूमि पारिवारिक अन्य
भवन तथा भक्त हनुमान से सम्बन्धित महत्वपूर्ण देवालय हैं। पुरातनता के दृष्टि से वर्तमान अयोध्या में श्री नागेश्वर नाथ मन्दिर सर्वाधिक पुरातन और विद्यमान है। अयोध्या एक
धार्मिक नगर ही नहीं, अपितु ऐतिहासिक स्थान है, जहाँ शास्त्र और शस्त्र में सामन्जस्य स्थापित करने वाले शुङग वंशी शासक ने भारतीय संस्कृ ति को पुनर्जीवित किया था।

‘कोसलाधिपेन द्विरश्वमेध याजिनः सेनापतेः पुष्यमित्रास्य षष्ठेन कौशिकी पुत्रोण धन... धर्मराज्ञा’

आचार्य मनोज दीक्षित

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