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Booster Notes - Ras Mains
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वैदिक धर्म:-
वैदिक धर्म की विशेषताएं:-
वैदिक धर्म उपयोगितावादी था, क्योंकि आर्य निरंतर देवताओं को प्रसन्न करके उनसे अपने
लिए सुख सुविधा, शक्ति, आयु, सम्पति आदि की मांग करते थे।
देवताओं में पुरूष देवताओं की प्रधानता थी तथा मूर्तिपूजा का अभाव था।
कर्म सिद्धांत और जीव के आवागमन का सिद्धांत अभी तक पूर्ण रूप से माननीय नहीं थे।
धर्म पुरोहितों का समाज में महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं था बल्कि ग्रहपति ही समस्त धार्मिक कार्यों
की पूर्ति कर लेता था, विशेष अवसरों पर ही पुरोहितों की आवश्यकता थी
R. C. मजूमदार ने ऋग्वेद के महत्व के बारे में लिखा है कि हिन्दू सभ्यता के क्रमिक विकास
का अध्ययन करने और समझने के लिए स्त्रोत ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद की श्रेष्ठता को स्वीकार
करना न्यायपूर्ण है। यही कारण है कि आज करोड़ों हिन्दूओं के लिए यह एक पवित्र धर्मशास्त्र
के रूप में अपना स्थान बनाए हुए है।
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अग्नि :-
ऋग्वेद में 200 बार स्तुति
देवताओं व मनुष्यों के मध्य मध्यस्थ का देवता
देवताओं का मुख
अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहूतियां
वरूण :-
ऋग्वेद में 30 बार स्तुति
नदियों, जल व समुद्र का देवता
वरुण को ऋतस्य गोपा / असूर भी कहा जाता है।
वरूण को नैतिक व्यवस्था का नियामक भी कहा जाता है।
पूषण :-
ऋग्वैदिक काल में पशुओं का देवता, जो उत्तर वैदिक काल में शुद्रों का देवता हो
गया।
पूषण भटके हुए पशुओं को मार्ग दिखाता है।
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प्रमुख शब्दावली
हीनोथीज्म :- ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की,
उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का आरोपण कर दिया,
मैक्समूलर ने इसे हीनोथीज्म कहा ।
एके श्वरवाद:- एके श्वरवाद / एकास्तिक्य वह धारणा है। जहां ईश्वर के एकल
स्वरूप की मान्यता अथवा एक ईश्वर के विचार को सर्वप्रथम मान्यता मिलती
है। अर्थात एके श्वरवादी एक ही ईश्वर में विश्वास रखता है और के वल उसी की
पूजा-अर्चना उपासना करता है इसके साथ वह किसी भी ऐसी आलौकिक
शक्ति या देवता को नहीं मानता जो उस ईश्वर के समकक्ष हो अथवा उसका
स्थान ले सके ।
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बहुदेववाद :-
एक से अधिक देवताओं की पूजा करना या एक से
अधिक देवताओं के अस्तित्व को मानना बहुदेववाद
कहलाता है।
बहुदेववाद में विश्वास रखने वाले अधिकांश धर्मों में भिन्न-
भिन्न देवता, प्रकृ ति की विभिन्न शक्तियों को निरूपित करते
है।
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आजीवक सम्प्रदाय
प्रवर्तक - मक्खलि पुत्र गोशाल -
आजीवकों की मान्यता है कि समस्त प्राणी नियति / भाग्य
के अधीन है, मनुष्य के जीवन पर कर्मों का कोई प्रभाव नही
पडता । वे पुनर्जन्म प्रक्रिया को मण्डल मोक्ष कहते थे।
गोशाल के मत में जन्ममरण, सुख-दुख, संसार एवं मोक्ष
सब अतीत कर्म के उपर निर्भर है।
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नित्यवादी
प्रवर्तक पुकु छ कच्चायन
नित्यावादी सम्प्रदाय ने संसार में सात तत्वों पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, सुख, दुख, एवं आत्मा को नित्य - माना है।
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उच्छेदवादी
प्रवर्तक - अजित के स कम्बलिन
इनके अनुसार कर्मों या पाप पुण्य के रूप में कोई संचित फल नहीं
होता, मृत्यु के बाद सब कु छ नष्ट हो जाता है।
वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते थे एवं इनका दर्शन चार्वाक दर्शन
से मिलता-जुलता था।
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घोर अक्रियावादी
प्रवर्तक- पूरन कस्सप
घोर अक्रियावादियों के अनुसार कर्मों का व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
सन्देहवादी
प्रवर्तक- संजय वेलुपुत्त
इनके अनुसार परलोक, औपपातिक जीव, कर्म मुक्ति के बाद की अवस्था इन
सब विषयों का निश्चित ज्ञान असंभव है। अतः इनकों अस्ति, नास्ति कोटियों में
नहीं रखा जा सकता।
इन्होंने न तो किसी मत को स्वीकार किया और न किसी का खण्डन किया।
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बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण -
बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं
मानता है। इस बात को हम भारत के
धर्मों के इतिहास में क्रांति कह सकते हैं।
बौद्ध धर्म में प्रारम्भिक समय में दार्शनिक
वाद-विवाद नगण्य था इसलिए यह धर्म
सामान्य लोगों के लिए स्वीकार्य हो गया।
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गौतम बुद्ध
563 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन नेपाल में कपिलवस्तु के पास लुबिनी
में एक शाक्य क्षत्रिय परिवार में सिद्धार्थ के रूप में जन्म हुआ ।
शाक्यमुनि के नाम से भी जाने जाते है।
पिता का नाम शुद्धोधन (शाक्य वंश का मुखिया) -
माता का नाम — महामाया, (कोशल वंश की राजकु मारी)
यशोधरा से विवाह किया और उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल हुआ
था।
4 दृ श्य 1. एक बूढा आदमी 2. एक बीमार आदमी 3. एक मरता हुआ आदमी
4. एक तपस्वी जीवन के सत्य और अर्थ की तलाश में
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ब्रह्मविहार
बौद्ध धर्म की एक अवधारणा।
ब्रह्म- दिव्य और विहार- निवास / स्थान
चार बौद्ध गुणों की एक श्रृखंला
चत्वारि के नाम से भी जाना जाता है।
4 ब्रह्म - विहार जो हीनयान और महायान दोनों परंपराओं द्वारा स्वीकार
किए जाते है।
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ब्रह्म विहार
बौद्ध संघ
प्रार्थना डॉल
कोई जाति प्रतिबंध नही
महिलाओं को संघ में शामिल होने की अनुमति थी। (शुरू में, उन्हें अनुमति नही थी,
हालांकि अपने मुख्य शिष्य आनंद की सलाह पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में
शामिल होने की अनुमति दी। प्रजापति गौतमी, संघ में शामिल होने वाल पहली
महिला थी ।)
दास सैनिक, देनदार, और दायित्व के तहत अन्य व्यक्ति अपने वरिष्ठ की पूर्व
अनुमति से शामिल हो सकते है।
अपराधियों और संक्रामक रोग से प्रभावित लोगों को शामिल होने की अनुमति
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बोधिसत्व
एक व्यक्ति जो निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग पर है, लेकिन मनुष्य के कष्टों के लिए
करूणा के कारण देरी करता है।
महायान बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं।
वे निर्वाण प्राप्त करने के रास्ते पर लोगों की मदद करते है।
अर्हत
थेरवाद बौद्ध धर्म में अर्हत (जो योग्य है) अर्थात पूर्ण मनुष्य को कहते है। जिसने
अस्तित्व की यथार्थ प्रकृ ति का अन्तर्ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, और जिसे निर्वाण
की प्राप्ति हो चुकी हो।
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बौद्ध दर्शन
चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के दर्शन के आधार है, ये मूलतः चार हैं-
दुःख संसार में चारों और दुख है जो जीवन की वास्तविकता है।
दुःख समुदाय दुःख का कारण तृष्णा है अर्थात् सांसारिक वस्तुओं के प्राप्ति आकर्षण व
उन्हें प्राप्त करने
दुःख निरोध तृष्णा की समाप्ति से दुःख निरोध संभव है।
दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा यह मार्ग जिसके अनुसरण से दुःखों से मुक्ति संभव है अर्थात्
अष्टांगिक मार्ग
'अष्टांगिक मार्ग : महात्मा बुद्ध ने दुःखों से मुक्ति हेतु आठ मार्ग सुझाए, जिनके अनुसरण से
दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता
है। यह अष्टांगिक मार्ग निम्न हैं:
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(1) सम्यक् दृ ष्टि: सभी प्रकार के अच्छे तथा बुरे कर्मों का ज्ञान।
(2) सम्यक् वाक् : _झूठ कटुभाषा तथा निरर्थक वार्तालाप से बचते हुए सत्य भाषण तथा मधुर
वाणी का प्रयोग करना
(3) सम्यक् कर्म:- हिसा, चोरी तथा व्याभिचार को त्यागकर सही कर्म करना।
(4) सम्यक् संकल्प:- ब्रह्म हिंसा तथा प्रतिहिंसा का त्याग करना।
(5) सम्यक् आजीविका:- आजीविका के उन साधनों का परित्याग करना जो बुरे तथा हिंसा
प्रदान हो ।
(6) सम्यक् व्यायाम- सही उद्यम जिसमें इन्द्रियों पर बुरे कर्मों का प्रभाव न पड़े।
(7) सम्यक् स्मृति: सही विचारों का स्मरण ।
(8) सम्यक् समाधि:- चिंता की एकाग्रता ।
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प्रतीत्य समुत्पाद:-
प्रतीत्य समुत्पाद को कारणता का सिद्धांत तथा आश्रित उत्पत्ति का सिद्धांत भी कहते है।
प्रतीत्यसमुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है किसी वस्तु के होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति ।
प्रतीत्य समुत्पाद दूसरे व चौथे आर्य सत्य में निहित है। इसमें दुख के करण व दुख के निरोष
की चर्चा की गयी है।
प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध की सभी शिक्षाओं का आधार स्तम्भ है।
बौद्ध त्रिरत्न:-
1). बुद्ध (प्रबुद्ध)
2). धम्म (सिद्धान्त)
3) संघ (आदेश)
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क्षणिकवाद / अनित्यवाद:-
यह बौद्ध दर्शन का तत्व मीमांसा सिद्धान्त है।
क्षणिकवाद के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व क्षणमात्र के
लिए ही रहता है, जिस प्रकार नदी की एक बूंद एक क्षण के लिए सामने
आती है। व दूसरें क्षण वह विलिन हो जाती है। उसी प्रकार जगत की
समस्त वस्तुएं क्षणमात्र के लिए ही अपना अस्तित्व कायम रखती है।
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वैभाषिक मतः-
प्रमुख आचार्य - वसुमित्र, बुद्धदेव, धर्मत्रात
इस मत के अनुसार वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोडकर अन्य किसी से नही हो
सकता अर्थात बाह्रय वस्तुओं का कभी प्रत्यक्ष न हुआ हो तो के वल
मानसिकापरिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व सिद्ध करना असंभव है।
इस मत के अनुसार विज्ञानवाद को स्वीकार करना होगा कि बाहृय वस्तुओं का
प्रत्यक्ष ज्ञान ही संभव है। यह मत बाह्रय प्रत्यक्ष या "वैभाषिक मत" कहलाता है।
वैभाषिक मत पर वसुबन्धु ने "अधिधम्मकोष लिखी। वसुबन्धु ने अपने जीवन के
अन्तिम चरण में वैभाषिक मत को छोडकर योगचार मत (विज्ञानवाद) अपना लिया
व महायान का वज्रच्छेदिका ग्रन्थ लिखा ।
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सौत्रान्तिक मत :-
प्रवर्तक - कु मारलब्ध
सौत्रान्तिक मत का मुख्य आधार सुत पितक है।
यह मत चित्त एवं बाह्रय जगत दोनों की सत्ता में विश्वास करता है।
इस मत के अनुसार चैतसिक (मानसिक कारक ) के वल चित्त (मन)
के तरीके है, और अलग-अलग मौलिक धर्म नही है। जो "संघ"
(संप्रयोग) एक साथ आते है।
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विज्ञानवाद:-
आचार्य - मैत्रेयनाथ
इस मत के अनुसार चित्त ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञान के प्रवाह को ही चित्त कहते है ।
हमारे शरीर तथा अन्यान्य पदार्थ, जो मन के बर्हिगत मालूम पडते है। वे सभी मन के
अन्तर्गत है। अर्थात जिस प्रकार स्वप्न या मतिश्रम की अवस्था में हम वस्तुओं को
बाह्रय समझते है, यद्यपि वे मन के अन्तर्गत ही होती है, उसी प्रकार साधारण
मानसिक अवस्थाओं में जो भी पदार्थ बाह्रय प्रतीत है। वे विज्ञानमात्र है।
किसी वस्तु में तथा तत्वसम्बन्धी ज्ञान सिद्ध नही किया जा सकता है। इसलिए बाह्रय
वस्तु का अस्तित्व असिद्ध है, धर्मकीर्ति के अनुसार नीले रंग तथा नीले रंग के ज्ञान में
कोई भेद नही है। क्योंकि दोनों का पृथक अस्तित्व सिद्ध नही है।
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अन्य सम्प्रदाय
सर्वास्तिवाद वज्रयान
हीनयान और महायान से भी पुराना "वृद्धो की शाब्दिक अर्थ "वजयान का वाहन उर्फ तांत्रिक बौद्ध
परंपरा" कहाजाता है। धर्म ।
बौद्ध अर्हत् बनने और संसार के चक्र से मुक्ति मोक्ष प्राप्त करने के लिए जादुई शक्तियों में
पाने का प्रयासकरते है। विश्वास
सर्वास्तिवादियों के लिए, सब कु छ नश्वर है। महिला देवताओं "तारा" की पूजा की जाती है।
स्तूप :-
साधारणतया स्तूप कला का सम्बन्ध बौद्धमत से प्रकट होता है। इसलिए बौद्ध
साहित्य दीर्घ निकाय अगुत्तर निकाय, मज्झिम निकाय में थूप शब्द का
अधिक प्रयोग किया है, जातकों में थूप या थूपिया किसी टीले या स्मारक के
लिए प्रयुक्त होता है।
स्तूप का निर्माण मृतक की चिता के उपर अथवा मृतक की चुनी हुई
अस्थियों को रखने के लिए किया जाता था
स्तूप के निम्नलिखित भाग है- 1. अण्ड 2. मेधि / मेढ़ि 3 छत्र 4. तोरण 5. यष्टि
6. हर्मिका 7. वेदिका 8. प्रदक्षिणापथ
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स्तूप के प्रकार:-
1. शारीरिक स्तूपः- वे स्तूप जिसमें बुद्ध एवं उनके शिष्यों के शरीर धातु के श,
दंत आदि रखे जाते थे।
2. उद्देशिका स्तूप- बुद्ध के जीवन की महत्पपूर्ण घटनाओं से जुडे स्थानों पर
निर्मित स्तूप
3. पारिभोगिक स्तूपः- महात्मा बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई हुई वस्तुएं जैसे
भिक्षापात्र, चीवर, पादुका आदि को रखा जाता है।
4. पूजार्थक स्तूप- बुद्ध के प्रति श्रद्धा से वशीभूत व्यक्तियों द्वारा स्थानों पर
निर्मित स्तूप है। इन्हें मनौती स्तूप भी कहा जाता है।
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विहार:-
चैत्य गृहों के समीप भिक्षुओं के रहने के लिए आवास बनाये
जाते थे, जिन्हें विहार कहा जाता है।
चैत्यः-
बौद्ध धर्म के पूजा गृह चैत्य कहलाते है।
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प्रारम्भ में बौद्ध धर्म ने जनसाधारण भाषा को अपनाया था, परन्तु बाद में
संस्कृ त भाषा से प्रचार किया जाने लगा, तत्कालीन समय में संस्कृ त
जनसाधारण के लिए एक जटिल भाषा थी, इस जटिलता की वजह से
लोगों का झुकाव धर्म के प्रति कम होने लगा ।
सामन्तों के उदय से बौद्ध धर्म का हास्य हुआ अर्थात सामन्त वीरता
प्रदर्शन / हिंसा व राज्य विस्तार को अपना कर्तव्य समझते थे।
विदेशी आक्रमण (हुण व मुसलमान) से भी बौद्ध धर्म का पतन हुआ, तुर्क
सेनापति कु तुबुद्दीन खिलजी ने नालन्दा व विक्रमशिला विश्वविद्यालयों
को जलाकर नष्ट कर दिया ।
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जैन धर्म :-
जिना' या जैना शब्द से बना है जिसका अर्थ
है "विजेता"।
कल्प सूत्र में वर्णित 24 तीर्थकर है।
तीर्थकर दो शब्दों से मिलकर बना है। तीर्थ
और संसार।
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पुदगल:-
जैन दार्शनिक जडतत्व को पुदगल मानते है, पुदगल का अथ है "जिसका संयोग
और विभाग हो सके " ।
जड़दृ व्यों का संयोग भी हो सकता है, और विभाग भी अर्थात उन्हें जोडकर बड़ा
आकार तथा तोडकर सूक्ष्म आकार दिया जा सकता है।
पुगदल के सूक्ष्म भाग को जिसका विभाजन न किया जा सके उसे "अणु" कहते
है। दो या अधिक अणुओं से बनने वाला पदार्थ संघात / स्कं ध कहलाता है,
हमारे शरीर एवं अन्य जडदृ व्य अणुओं के संयोग से बने संघात है।
जैन दार्शनिक चार्वाक की तरह पुगदल के गुण बतलाते है। अर्थात् स्पर्श, दर्शन,
रस, श्रवण, और गंध ये गुण अणुओं एवं संघातों में भी पाये जाते है।
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स्यादवाद-
जैन दर्शन के अनुसार "अनन्तधर्मिक वस्तु' अर्थात वस्तु के अनन्त धर्म होते है, के वल ज्ञान से ही
वस्तुओं के अनन्त धर्मों का अपरोक्ष ज्ञान हो पाता है।
साधारण मनुष्य एक समय में वस्तु के एक ही धर्म को जान सकता है, वस्तुओं का यह आंशिक
ज्ञान "नय" कहलाता है, जैन दार्शनिक कहते है कि प्रत्येक नय के आरम्भ में "स्यात" शब्द का
प्रयोग आवश्यक है।
" स्यात" शब्द इस बात को इंगित करता है, कि उसके प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंग विशेष पर
निर्भर है, जैनों का यह मत "स्याद्वाद" कहलाता है।
"स्यादवाद" का सार अर्थ है कि साधारण बुद्धिवाला मनुष्य किसी विषय में जो भी परामर्श
करता है। वह एकदेशीय होता है। अर्थात उस परार्मश की सत्यता प्रसंग के अनुसार होती है,
जिसके साथ कल्पना की जाती है, स्यात के सात प्रयोग अर्थात (1) स्यात् अस्ति (2) स्यात्
नास्ति (3) स्यात् अस्ति च नास्ति च (4) स्यात् अत्यक्तम (5) स्यात् अस्ति च अत्यक्तम च (6)
स्यात् नास्ति च अत्यक्तम च (7) स्यात् अस्ति च आस्ति च अत्यकत्म च
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इस प्रकार इसमें कोई संदेह नही है कि जैन धर्म और बौद्ध धर्म दो अलग
और स्वतंत्र धार्मिक संप्रदाय थे और अब भी है।, वी.ए. स्मिथ लिखते हैं, दो
प्रणालियों चाहे दर्शन या धर्म के रूप में मानी जाती है। अनिवार्य रूप में
भिन्न हैं। यहाँ तक अपने संस्थापकों के जीवनकाल में और उसके बाद भी
एक दूसरे के प्रतिद्वंदी साबित हुए। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में जैन धर्म के
कु छ पहलुओं की निंदा की थी।
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आस्तिक पंथ :_
व्यक्तिगत ईश्वर की धारणा जिससे भक्त द्वारा सबसे अधिक अंतरंग
संबंध स्थापित किए जा सकते है, आस्तिक धर्म चेतना का के न्द्र है।
विष्णु और शिव मुख्य देवता है जबकि ब्रह्म गौण देवता है।
हिन्दू धर्म का उद्भव रामायण और महाभारत दो महाकाव्यों में पाया
जाता है। राम और कृ ष्ण दोनों को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में
माना जाता है। वह दया के भगवान नही है, बल्कि सौंदर्य के भी भगवान
है।
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इस धर्म के नए पहलू प्रेम और अनुग्रह है। इसलिए भक्ति, ज्ञान की तुलना में
उद्धार का एक आसान मार्ग है, जिसने भक्ति और साहित्य के अनूकू ल
धर्मशास्त्र भी विकसित किया है।
तमिल शैववाद तीन श्रेणियों भगवान, आत्माओं और पदार्थ की
वास्तविकता को सिखाता है। मोक्ष में आत्मा एकजुट है लेकिन देवता के
साथ नही।
विष्णु और शिव की आस्तिक अवधारणा में भक्ति का सामान्य तत्व है।
दोनों ही अद्वैत से अधिक द्वैत है।
भगवद् गीता में दार्शनिक और धार्मिक विचारों की धाराओं का अद्भुत
संगम दिखाई देता है। गीता स्पष्ट रूप से दिखाती है। कि एक व्यक्ति ईश्वर की
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लोक पंथ :-
यक्ष, नागों और अन्य लोक देवताओं की पूजा आदिम धार्मिक मान्यताओं का सबसे
महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें भक्ति की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी।
प्रारंभिक साहित्य और पुरातत्व में लोगों के बीच इस तरह की पूजा की व्यापकता के बारे में
पर्याप्त सबूत है।
वासुदेव / कृ ष्ण पूजा- पाणिनी की अष्टाध्यायी में एक सूत्र वासुदेव / कृ ष्ण के उपासकों को
संदर्भित करता है।
छान्दोग्य उपनिषद ऋषि घोरा अंगिरसा के बारे में भी बात करते है जो एक पुजारी थे।
बड़ी संख्या में लोगों ने वासुदेव कृ ष्ण की विशेष रूप से उनके व्यक्तिगत भगवान के रूप में
पूजा की और उन्हें पहले भागवत के रूप में जाना जाता था।
वासुदेव भगवंत पंथ ने अपनी पकड़ अन्य वैदिक और ब्राह्मणवादी दिव्यताओं जैसे विष्णु
और नारायण (ब्रह्मांडीय भगवान) पर बनाई ।
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शैववाद
शिव भक्ति के विषय में प्रारंभिक जानकारी सिंधुघाटी से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में शिव से
साम्य रखने वाले देवता को रूद्र कहा गया है। महाभारत में शिव का उल्लेख एक श्रेष्ठ देवता
के रूप में हुआ है। मेगस्थनीज ने प्रथम शताब्दी ई. पूर्व में शैवमत का उल्लेख किया है।
दक्षिण भारत में धर्म का प्रचार नयनार या आडियार संतों द्वारा किया गया, ये संस्था में 63
थें, इनके श्लोकों के संग्रह को तिरूमुडे कहा जाता है। जिसका संकलन नम्बि- अण्डाल -
नम्बि ने किया।
इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ
पाशुपतसूत्र है।
शैव सम्प्रदायों का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में शिव भागवत नाम से हुआ।
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शैव धर्म (एक सम्प्रदाय के रूप में) का प्रारंभ शुंग- सातवाहन काल से हुआ, जो गुप्त
काल में चरमसीमा तक पहुँच गया था । अर्द्धनारीश्वर तथा त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश
शिव) की पूजा गुप्त काल में आरंभ हुई। समन्वय की यह उदार भावना गुप्त काल की
विशेषता है।
अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर तादात्म्य पर आधारित थी। ऐसी
पहली मूर्ति का निर्माण गुप्काल में हुआ।
लिंग पूजा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख मत्स्य पुराण में हुआ है। महाभारत के अनुशासन पर्व
में भी लिंगोपासना का उल्लेख है।
हरिहर के रूप में शिव की विष्णु के रूप में सर्वप्रथम मूतियाँ गुप्त काल में बनायी गई।
कौशितकी तथा शतपथ ब्राह्मण में शिव के 8 रूपों का उल्लेख है— चार संहारक के रूप
में तथा चार सौम्य रूप में।
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प्रश्न - “बौद्ध धर्म के अनुसार संसार दुःखमयी हैं” अवधारणा को स्पष्ट करते हुए
इसके निवारण के उपाय बताइये
प्रश्न - बौद्ध धर्म का विभिन्न क्षेत्रों में योगदान पर आलेख लिखिए
प्रश्न - जैन धर्म की शिक्षाओं पर प्रकाश डालते हुए दिगम्बर व शवेताम्बर मत में
अंतर स्पष्ट कीजिये
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दर्शन
वे दर्शन जो वेदों को नित्य एवं प्रामाणिक वे दर्शन जो वेदों को नित्य व प्रामाणिक नहीं
मानते है। मानते है।
4. वैशिषिक दर्शन
5. पूर्व मीमांसा
6. उत्तर भीमांसा
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सांख्य दर्शन:-
प्रतिपादक :- कपिलमुनि
आधार ग्रन्थ- सांख्य सूत्र
भारत का प्राचीनतम दर्शन
जगत का कम विकास प्रकृ ति के सहज स्वरूप के कारण होता है।
तीन गुणों (सत्, रज, तम्) का सिद्धांत अपनाया
यह द्वैतवादी दर्शन है।
यह विकासवादी, अनीश्वरवादी दर्शन है।
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योग दर्शन:-
प्रतिपादक- पंतजलि
आधारग्रन्थ - योगसूत्र
विश्व में सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ
आत्म नियंत्रण तथा आत्मा यातना को सर्वोपरी माना है।
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह, योगमार्ग का आधार माना।
भारत के इस दर्शन की महत्ता ऐसी रही कि वर्तमान दौर में U.NO द्वारा 21
जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया।
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न्याय दर्शन:-
प्रतिपादक - अक्षपाद गौतम
आधारग्रन्थ- न्यायसूत्र
इसे भारतीय दर्शन का तर्क शास्त्र कहा जाता है।
ईश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता मानता है।
यह दर्शन अपनी ज्ञान मीमांसा के लिए प्रसिद्ध है, ज्ञान प्राप्ति के चार
साधन है।
1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान
3. उपमान 4. शब्द
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वैशेषिक दर्शन:-
प्रतिपादक :- कणाद / उलूक
आधार ग्रन्थ - वैशेषिक सूत्र
विश्व का यथार्थवादी, विश्लेषणात्मक एवं वस्तुवादी दर्शन, इसे औलुक्य दर्शन
भी कहा जाता है।
विश्व के परमाणिक स्वरूप तथा आत्मा से उसके अंतर को पुर्णतः पहचान लेने
पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है।
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पूर्व मीमांसा :-
प्रतिपादक- जैमिनि
आधारग्रन्थ- पूर्व मीमांसा सूत्र
वेदों के कर्मकाण्ड (संहिता) तथा ब्रह्मण ग्रन्थों से सम्बद्ध है।
यह दर्शन वेदों को अन्तिम प्रमाण मानता है।
यह पुरोहितवाद, ब्राहृय आडम्बर को अढावा देने वाला दर्शन है।
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उत्तर मीमांसा:-
प्रतिपादक :- बादरायण ( वेदव्यास)
आधारग्रन्थ :- ब्रह्म सूत्र
यह आरण्यक तथा उपनिषदों पर आधारित है।
इसमें रहस्यात्मक ज्ञान एवं दार्शनिक तत्वों पर बल दिया गया है।
के वल ब्रह्म को ही सत्य मानता है।
जीवात्मा के ब्रह्म में लीन होने पर ही मोक्ष प्राप्ति होगी।
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नास्तिक दर्शन :-
चार्वाक / लोकायत दर्शन
प्रतिपादक :- बृहस्पति
बृहस्पति ने दानवों को दिग्भ्रमित करने हेतु इस दर्शन का प्रतिपादन किया।
यह दर्शन ईश्वर को नहीं मानते।
कर्मफल सिद्धान्त व पुनर्जन्म को नहीं मानते।
यह आत्मा को नहीं मानते।
यह दो पुरूषार्थ 1. अर्थ, 2 काम को मानते है।
चार तत्वों (1. पृथ्वी, 2 जल, 3. अग्नि, 4. वायु)
यह ज्ञान प्राप्ति का साधन प्रत्यक्ष को मानते है।
यह भौतिकवादी एवं सुखवादी दर्शन है।
यह "खाओं, पिओं एवं विवाह करों में विश्वास करते है।
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जड़वादः -
विश्व के मूलतत्वों के सम्बन्ध में चार्वाक का मत उनके प्रमाण सम्बन्धी विचारों पर
अवलम्बित है। अर्थात प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। जिसके आधार पर हम वस्तुओं
का अस्तित्व स्वीकार करते है।
ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, जीवन की नित्यता, आदि विषयों को हम नही मान सकते,
क्योंकि इनका प्रत्यक्ष नहीं होता।
के वल जडतत्वों का ही प्रत्यक्ष होता है। जिसे हम मान सकते है।
चार्वाक जडवाद के सिद्धांत में चार जडतत्वों की सत्ता स्वीकार करते है जिनसे
संसार की रचना हुई है अर्थात भूमि, जल, वायु व अग्नि के संयोग से
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स्वभाववाद:-
प्रतिपादक - चार्वाक
इस मत के अनुसार जडतत्वों का अपना-अपना स्वभाव है। तथा
अपने-अपने स्वभाव के कारण ही वे संयुक्त होते है। इनके स्वतः
सम्मिश्रण से ही संसार उत्पन्न होता है।
जडमूतों में निहित स्वभाव ही जगत की उत्पत्ति का कारण है
इसके लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।
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1. योग दर्शन
2. न्याय दर्शन
3. वैशेषिक दर्शन
4. षड दर्शन अवधारणा