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BOOSTER NOTES - RAS Mains Indian Art and Culture

प्राचीन भारत के प्रमुख धार्मिक आंदोलन

हड़प्पा सभ्यता का धार्मिक जीवन


हड़प्पा पुरास्थलों से मिले अवशेषों के आधार पर ऐसा लगता है कि
हड़प्पा सभ्यता के लोग मातृदेवी, पुरूष देवता ( पशुपतिनाथ ) लिंग-
योनि, वृक्ष जल आदि की पूजा करते थे।
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हड़प्पा सभ्यता में मातृदेवी


हडप्पा सभ्यता से पक्की मिट्टी की स्त्री-मूर्तियों भारी संख्या में मिली
है।
स्त्री के गर्भ से निकलते हुए पौधे वाली मृणमूर्ति (मार्शल ने इसे
पृथ्वी माता कहा है।) मिली है। लोथल की समुद्री देवी का नाम
सिकोतरी माता था
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हडप्पा सभ्यता में पुरूष देवता


मोहनजोदडों से प्राप्त एक मुहर पर तीन मुख
वाला एक पुरूष ध्यान की मुद्रा में बैठा है।
इसके सिर पर तीन सीगं है इस मुहर पर 5
प्रकार के कु ल 6 पशु है।
इसके बांयी ओर एक गैंडा और एक भैंसा
तथा दायी ओर एक हाथी व चीता (व्याघ्र)
तथा सामने दो हिरण है, यह पशुपति शिव का
रूप माना है, मार्शल ने इसे आद्यशिव (Proto
shiva) कहा जाता है।
हडप्पा सभ्यता में लिंग पूजा का प्रचलन था,
जो कालान्तर में शिव की पूजा से जोडा जाने
लगा ।
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हडप्पा सभ्यता में वृक्षों एवं पशुओं की पूजा


हडप्पा सभ्यता के लोग पीपल को सबसे पवित्र वृक्ष तथा बत्तख (फारव्ता) को
पवित्र पक्षी मानते थे, हाज्जा (मोर) का भी महत्व था।
हडप्पाई मुहरों पर पशुओं की आकृ तियां अंकित है। इनमें सबसे महत्वपूर्ण बिना
कू बड का बैल / यूनिफॉर्न (एक श्रृंगी पशु) था
अन्य धार्मिक अवशेष
हडप्पा सभ्यता से मिले स्वास्तिक एवं चक्र सूर्यपूजा के प्रतीक है।
नाग पूजा, जल पूजा, एवं योग क्रिया का भी प्रचलन था ।
कालीबंगा व मोहनजोदडों से प्राप्त कु छ मुहरों पर पशु बलि के प्रमाण मिलते है।
कालीबंगा व लोथल से अग्निकु ण्ड के साक्ष्य मिले है। जो सम्भवतः यज्ञ की वेदी
थे।
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प्रश्‍न - आद्य शिवा(Proto-shiva) पर टिप्पणी (15 शब्द, 2, अंक)


प्रश्न - हड़प्पा सभ्यता के धार्मिक जीवन पर प्रकाश डालिए
(100 शब्द, 10 अंक)
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वैदिक धर्म:-
वैदिक धर्म की विशेषताएं:-
वैदिक धर्म उपयोगितावादी था, क्योंकि आर्य निरंतर देवताओं को प्रसन्न करके उनसे अपने
लिए सुख सुविधा, शक्ति, आयु, सम्पति आदि की मांग करते थे।
देवताओं में पुरूष देवताओं की प्रधानता थी तथा मूर्तिपूजा का अभाव था।
कर्म सिद्धांत और जीव के आवागमन का सिद्धांत अभी तक पूर्ण रूप से माननीय नहीं थे।
धर्म पुरोहितों का समाज में महत्वपूर्ण प्रभाव नहीं था बल्कि ग्रहपति ही समस्त धार्मिक कार्यों
की पूर्ति कर लेता था, विशेष अवसरों पर ही पुरोहितों की आवश्यकता थी
R. C. मजूमदार ने ऋग्वेद के महत्व के बारे में लिखा है कि हिन्दू सभ्यता के क्रमिक विकास
का अध्ययन करने और समझने के लिए स्त्रोत ग्रन्थ के रूप में ऋग्वेद की श्रेष्ठता को स्वीकार
करना न्यायपूर्ण है। यही कारण है कि आज करोड़ों हिन्दूओं के लिए यह एक पवित्र धर्मशास्त्र
के रूप में अपना स्थान बनाए हुए है।
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ऋग्वैदिक काल धर्म ( 1500 BC.- 1000 B.C.)


ऋग्वैदिक देवता प्रकृ ति के प्रतिनिधि माने जाते थें तथा लोग उनकी पूजा प्रकृ ति के प्रकोप
को कम करने के लिए करते थे।
ऋग्वैदिक आर्य एक सार्वभौम सत्ता में विश्वास करते हुए भी बहुदेववादी हो गये, आर्यों ने
सर्वप्रथम घौस व पृथ्वी की उपसना शुरू की।
यास्क ने आर्यों के देवताओं को तीन श्रेणियों में बांटा-
1. आकाश के देवता:- सूर्य, द्यौस, वरुण, मित्र, पूषन, अदिति, उषा
2. अन्तरिक्ष के देवता:- इन्द्र, रूद्र, वायु, मरूत
3. पृथ्वी के देवता:- अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति
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प्रमुख ऋग्वैदिक देवता


इन्द्र :-
ऋग्वेद में इन्द्र की स्तुति 250 बार
ऋग्वेद का सर्वश्रेष्ठ देवता
वर्षा का देवता
इन्द्र को पुरून्दर कहा गया।
इन्द्र की पत्नी शची (इन्द्राणी है।)
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अग्नि :-
ऋग्वेद में 200 बार स्तुति
देवताओं व मनुष्यों के मध्य मध्यस्थ का देवता
देवताओं का मुख
अग्नि के माध्यम से देवताओं को आहूतियां
वरूण :-
ऋग्वेद में 30 बार स्तुति
नदियों, जल व समुद्र का देवता
वरुण को ऋतस्य गोपा / असूर भी कहा जाता है।
वरूण को नैतिक व्यवस्था का नियामक भी कहा जाता है।
पूषण :-
ऋग्वैदिक काल में पशुओं का देवता, जो उत्तर वैदिक काल में शुद्रों का देवता हो
गया।
पूषण भटके हुए पशुओं को मार्ग दिखाता है।
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उत्तर वैदिक कालीन धार्मिक स्थिति (1000 B. C. - 600 B.C.)


उत्तर वैदिक काल में धार्मिक अनुष्ठानों एवं कर्मकाण्डों में वृद्धि हुई
उत्तर वैदिक काल में बहुदेववाद एवं कर्म काण्डों की प्रतिक्रिया के
फलस्वरूप उपनिषदों ने यज्ञों व कर्मकाण्डों की निंदा की।
ऋग्वैदिक देवता इन्द्र व अग्नि का महत्व कम हो गया तथा ब्रह्म को सृष्टि के
निर्माता के रूप में सर्वोच्च स्थान मिला व उपनिषदों में ब्रह्म को ही एकमात्र
परमात्मा के रूप में स्वीकार किया।
छान्दोग्य उपनिषद में धर्म के तीन स्कन्ध बताये है। (1). यज्ञ, अध्ययन, दान (2)
तप (3) ब्रह्मचारी
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प्रमुख शब्दावली
हीनोथीज्म :- ऋग्वैदिक ऋषियों ने जिस समय जिस देवता की प्रार्थना की,
उसे ही सर्वोच्च मानकर उसमें सम्पूर्ण गुणों का आरोपण कर दिया,
मैक्समूलर ने इसे हीनोथीज्म कहा ।
एके श्वरवाद:- एके श्वरवाद / एकास्तिक्य वह धारणा है। जहां ईश्वर के एकल
स्वरूप की मान्यता अथवा एक ईश्वर के विचार को सर्वप्रथम मान्यता मिलती
है। अर्थात एके श्वरवादी एक ही ईश्वर में विश्वास रखता है और के वल उसी की
पूजा-अर्चना उपासना करता है इसके साथ वह किसी भी ऐसी आलौकिक
शक्ति या देवता को नहीं मानता जो उस ईश्वर के समकक्ष हो अथवा उसका
स्थान ले सके ।
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बहुदेववाद :-
एक से अधिक देवताओं की पूजा करना या एक से
अधिक देवताओं के अस्तित्व को मानना बहुदेववाद
कहलाता है।
बहुदेववाद में विश्वास रखने वाले अधिकांश धर्मों में भिन्न-
भिन्न देवता, प्रकृ ति की विभिन्न शक्तियों को निरूपित करते
है।
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प्रश्न- निम्न लिखित पर टिप्पणी लिखिए (15 शब्द, 2 अंक)


1. इंद्र
2. वरुण
3. हीनोथीज्म
4. बहुदेववाद

प्रश्न - वैदिक धर्म की विशेषताओं का वर्णन करते हुए काल निर्धारण के


अनुसार वैदिक धर्म की स्थिति को स्पष्ट कीजिए (100 शब्द , 10 अंक )
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आजीवक सम्प्रदाय
प्रवर्तक - मक्खलि पुत्र गोशाल -
आजीवकों की मान्यता है कि समस्त प्राणी नियति / भाग्य
के अधीन है, मनुष्य के जीवन पर कर्मों का कोई प्रभाव नही
पडता । वे पुनर्जन्म प्रक्रिया को मण्डल मोक्ष कहते थे।
गोशाल के मत में जन्ममरण, सुख-दुख, संसार एवं मोक्ष
सब अतीत कर्म के उपर निर्भर है।
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नित्यवादी
प्रवर्तक पुकु छ कच्चायन
नित्यावादी सम्प्रदाय ने संसार में सात तत्वों पृथ्वी, जल,
अग्नि, वायु, सुख, दुख, एवं आत्मा को नित्य - माना है।
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उच्छेदवादी
प्रवर्तक - अजित के स कम्बलिन
इनके अनुसार कर्मों या पाप पुण्य के रूप में कोई संचित फल नहीं
होता, मृत्यु के बाद सब कु छ नष्ट हो जाता है।
वे पुनर्जन्म में विश्वास नहीं करते थे एवं इनका दर्शन चार्वाक दर्शन
से मिलता-जुलता था।
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घोर अक्रियावादी
प्रवर्तक- पूरन कस्सप
घोर अक्रियावादियों के अनुसार कर्मों का व्यक्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

सन्देहवादी
प्रवर्तक- संजय वेलुपुत्त
इनके अनुसार परलोक, औपपातिक जीव, कर्म मुक्ति के बाद की अवस्था इन
सब विषयों का निश्चित ज्ञान असंभव है। अतः इनकों अस्ति, नास्ति कोटियों में
नहीं रखा जा सकता।
इन्होंने न तो किसी मत को स्वीकार किया और न किसी का खण्डन किया।
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बौद्ध धर्म
बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण -
बौद्ध धर्म ईश्वर और आत्मा को नहीं
मानता है। इस बात को हम भारत के
धर्मों के इतिहास में क्रांति कह सकते हैं।
बौद्ध धर्म में प्रारम्भिक समय में दार्शनिक
वाद-विवाद नगण्य था इसलिए यह धर्म
सामान्य लोगों के लिए स्वीकार्य हो गया।
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निम्न वर्ण का समर्थन मिला क्योंकि इसमें वर्ण व्यवस्था


एवं जाति व्यवस्था, छु आछू त की निंदा की गई थी। साथ
ही साथ स्त्रियों को भी समानता का हक दिया। संघ में
प्रवेश का अधिकार स्त्रियों को दिया जिससे उन्हें पुरूषों
की बराबरी होती थी।
ब्राह्मण धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म अधिक उदार और
अधिक जनतांत्रिक था।
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लोहे के बढ़ते प्रयोग ने भी बौद्ध धर्म के प्रसार मे महत्व पूर्ण भूमिका


निभाई , लोहे के प्रयोग के कारण सैनिक साजो- सामान तथा अस्त्र- शस्त्र
में क्रांतिकारी परिवर्तन आया, लोहे द्वारा वनों की सफाई एवं कृ षि
उत्पादन को बढ़ावा मिला, जिससे शस्त्रधारी क्षत्रिय वर्ग पहले की अपेक्षा
अधिक शक्तिशाली हुआ व अपनी सामाजिक एवं राजनीतिक महत्ता के
प्रति सचेत हुआ ।
महात्मा बुद्ध के अनुसार "वैदिक धर्म हीन विद्या है, वैदिक मंत्र के वल जल
विहीन मरुस्थल एवं पथहीन जंगल है" ।
महात्मा बुद्ध ने कहा "शील एवं प्रज्ञा युक्त मनुष्य ही ब्राह्मण है" ।
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गौतम बुद्ध
563 ईसा पूर्व में वैशाख पूर्णिमा के दिन नेपाल में कपिलवस्तु के पास लुबिनी
में एक शाक्य क्षत्रिय परिवार में सिद्धार्थ के रूप में जन्म हुआ ।
शाक्यमुनि के नाम से भी जाने जाते है।
पिता का नाम शुद्धोधन (शाक्य वंश का मुखिया) -
माता का नाम — महामाया, (कोशल वंश की राजकु मारी)
यशोधरा से विवाह किया और उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल हुआ
था।
4 दृ श्य 1. एक बूढा आदमी 2. एक बीमार आदमी 3. एक मरता हुआ आदमी
4. एक तपस्वी जीवन के सत्य और अर्थ की तलाश में
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बौद्ध संघ की शब्दावलियाँ:-


नत्ति - बौद्ध संघ की सभा में प्रस्ताव को नत्ति कहा जाता है।
उपोसथ- किसी विशेष अवसर पर जब सभी भिक्षु उपस्थित होकर धर्मचर्चा करते थे,
तो वह उपोसथ (उपावस्था) कहलाता था। कालान्तर में उपोसथ का प्रमुख कार्य
अपराध स्वीकृ ति ही हो गया तथा उपोसथ (उपावस्था) के अन्तर्गत बौद्ध भिक्षु प्रत्येक
पखवाडें में पूर्ण चन्द्र एवं नवचन्द्र रात्रियों में एकत्र होकर अपने अपराधों को स्वीकार
करते थे।
प्रवारणा (पवारणा ):- वर्षावास के अन्त में संघ में सम्मिलित होकर अपने अपराध की
स्वीकृ ति करना आवश्यक था। इसको प्रवारणा कहा जाता था जिस प्रकार उपोसथ
पाक्षिक ( पखवाडे की) परिशुद्ध के लिए आवश्यक था, वैसे ही प्रवारणा एक प्रकार की
वार्षिक परिशुद्धि थी।
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पातिमोक्ख- समय-समय पर भिक्षुओं की सभा में किया जाने वाला


विधि-निषेधों का पाठ पातिमोक्ख (प्रतिमोक्ष) कहलाता था, अर्थात्
बौद्ध भिक्षुओं के निषेधात्मक नियम पातिमोक्ख थे। पातिमोक्ख का
प्रारम्भ निदान से होता था, जिसमें उपोसथ के लिए एकत्र भिक्षुओं को
सूचित किया जाता था, कि जिस भिक्षु से कोई पाप हुआ है, वह उसे
प्रकट करे।
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ब्रह्मविहार
बौद्ध धर्म की एक अवधारणा।
ब्रह्म- दिव्य और विहार- निवास / स्थान
चार बौद्ध गुणों की एक श्रृखंला
चत्वारि के नाम से भी जाना जाता है।
4 ब्रह्म - विहार जो हीनयान और महायान दोनों परंपराओं द्वारा स्वीकार
किए जाते है।
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ब्रह्म विहार

मैत्री करूणा मुदिता उपेक्षा


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बौद्ध संघ
प्रार्थना डॉल
कोई जाति प्रतिबंध नही
महिलाओं को संघ में शामिल होने की अनुमति थी। (शुरू में, उन्हें अनुमति नही थी,
हालांकि अपने मुख्य शिष्य आनंद की सलाह पर बुद्ध ने महिलाओं को संघ में
शामिल होने की अनुमति दी। प्रजापति गौतमी, संघ में शामिल होने वाल पहली
महिला थी ।)
दास सैनिक, देनदार, और दायित्व के तहत अन्य व्यक्ति अपने वरिष्ठ की पूर्व
अनुमति से शामिल हो सकते है।
अपराधियों और संक्रामक रोग से प्रभावित लोगों को शामिल होने की अनुमति
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बोधिसत्व
एक व्यक्ति जो निर्वाण प्राप्त करने के मार्ग पर है, लेकिन मनुष्य के कष्टों के लिए
करूणा के कारण देरी करता है।
महायान बौद्ध धर्म के अनुयायी मानते हैं।
वे निर्वाण प्राप्त करने के रास्ते पर लोगों की मदद करते है।
अर्हत
थेरवाद बौद्ध धर्म में अर्हत (जो योग्य है) अर्थात पूर्ण मनुष्य को कहते है। जिसने
अस्तित्व की यथार्थ प्रकृ ति का अन्तर्ज्ञान प्राप्त कर लिया हो, और जिसे निर्वाण
की प्राप्ति हो चुकी हो।
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बौद्ध दर्शन
चार आर्य सत्य बौद्ध धर्म के दर्शन के आधार है, ये मूलतः चार हैं-
दुःख संसार में चारों और दुख है जो जीवन की वास्तविकता है।
दुःख समुदाय दुःख का कारण तृष्णा है अर्थात् सांसारिक वस्तुओं के प्राप्ति आकर्षण व
उन्हें प्राप्त करने
दुःख निरोध तृष्णा की समाप्ति से दुःख निरोध संभव है।
दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा यह मार्ग जिसके अनुसरण से दुःखों से मुक्ति संभव है अर्थात्
अष्टांगिक मार्ग
'अष्टांगिक मार्ग : महात्मा बुद्ध ने दुःखों से मुक्ति हेतु आठ मार्ग सुझाए, जिनके अनुसरण से
दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता
है। यह अष्टांगिक मार्ग निम्न हैं:
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(1) सम्यक् दृ ष्टि: सभी प्रकार के अच्छे तथा बुरे कर्मों का ज्ञान।
(2) सम्यक् वाक् : _झूठ कटुभाषा तथा निरर्थक वार्तालाप से बचते हुए सत्य भाषण तथा मधुर
वाणी का प्रयोग करना
(3) सम्यक् कर्म:- हिसा, चोरी तथा व्याभिचार को त्यागकर सही कर्म करना।
(4) सम्यक् संकल्प:- ब्रह्म हिंसा तथा प्रतिहिंसा का त्याग करना।
(5) सम्यक् आजीविका:- आजीविका के उन साधनों का परित्याग करना जो बुरे तथा हिंसा
प्रदान हो ।
(6) सम्यक् व्यायाम- सही उद्यम जिसमें इन्द्रियों पर बुरे कर्मों का प्रभाव न पड़े।
(7) सम्यक् स्मृति: सही विचारों का स्मरण ।
(8) सम्यक् समाधि:- चिंता की एकाग्रता ।
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प्रतीत्य समुत्पाद:-
प्रतीत्य समुत्पाद को कारणता का सिद्धांत तथा आश्रित उत्पत्ति का सिद्धांत भी कहते है।
प्रतीत्यसमुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है किसी वस्तु के होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति ।
प्रतीत्य समुत्पाद दूसरे व चौथे आर्य सत्य में निहित है। इसमें दुख के करण व दुख के निरोष
की चर्चा की गयी है।
प्रतीत्य समुत्पाद बुद्ध की सभी शिक्षाओं का आधार स्तम्भ है।
बौद्ध त्रिरत्न:-
1). बुद्ध (प्रबुद्ध)
2). धम्म (सिद्धान्त)
3) संघ (आदेश)
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क्षणिकवाद / अनित्यवाद:-
यह बौद्ध दर्शन का तत्व मीमांसा सिद्धान्त है।
क्षणिकवाद के अनुसार विश्व की प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व क्षणमात्र के
लिए ही रहता है, जिस प्रकार नदी की एक बूंद एक क्षण के लिए सामने
आती है। व दूसरें क्षण वह विलिन हो जाती है। उसी प्रकार जगत की
समस्त वस्तुएं क्षणमात्र के लिए ही अपना अस्तित्व कायम रखती है।
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बौद्ध धर्म में हीनयान व महायान सम्प्रादय


हीनयान महायान
1. रूढिवादी व निम्नमार्गी सुधारवादी
2. बुद्ध को महापुरूष मानते थें बुद्ध को ईश्वर मानते थें
3. मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं मूर्तिपूजा करते थें
4. हीनयान का आदर्श अर्हत् महायान का आदर्श बोधिसत्व
5. यह व्यक्तिवादी धर्म था, इसमें व्यक्ति स्वयं के
निर्वाण हेतु प्रयासरत रहता है। महायान पर सेवा पर जोर दिया देता है।(मानवतावादी)
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6. भाषा पालि भाषा-संस्कृ त


7. देवी-देवताओं को नही मानते देवी-देवताओं को मानते है। Ex. प्रज्ञा की देवी
8. श्रीलंका, बर्मा, थाइलैण्ड, कम्बोडिया, - तारा नेपाल, चीन के रिया, जापान आदि
लाओस आदि में फै ला स्थानों में फै ला

9. वैभाषिक सौत्रांतिक शून्यवाद (माध्यमिका) विज्ञानवाद

आचार्य आचार्य आचार्य आचार्य


वसुमित्र, बुद्धदेव, धर्मत्रात कु मारलब्ध नागार्जुन मैत्रेयनाथ
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वैभाषिक मतः-
प्रमुख आचार्य - वसुमित्र, बुद्धदेव, धर्मत्रात
इस मत के अनुसार वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोडकर अन्य किसी से नही हो
सकता अर्थात बाह्रय वस्तुओं का कभी प्रत्यक्ष न हुआ हो तो के वल
मानसिकापरिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व सिद्ध करना असंभव है।
इस मत के अनुसार विज्ञानवाद को स्वीकार करना होगा कि बाहृय वस्तुओं का
प्रत्यक्ष ज्ञान ही संभव है। यह मत बाह्रय प्रत्यक्ष या "वैभाषिक मत" कहलाता है।
वैभाषिक मत पर वसुबन्धु ने "अधिधम्मकोष लिखी। वसुबन्धु ने अपने जीवन के
अन्तिम चरण में वैभाषिक मत को छोडकर योगचार मत (विज्ञानवाद) अपना लिया
व महायान का वज्रच्छेदिका ग्रन्थ लिखा ।
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सौत्रान्तिक मत :-
प्रवर्तक - कु मारलब्ध
सौत्रान्तिक मत का मुख्य आधार सुत पितक है।
यह मत चित्त एवं बाह्रय जगत दोनों की सत्ता में विश्वास करता है।
इस मत के अनुसार चैतसिक (मानसिक कारक ) के वल चित्त (मन)
के तरीके है, और अलग-अलग मौलिक धर्म नही है। जो "संघ"
(संप्रयोग) एक साथ आते है।
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शून्यवाद (माध्यमिक)/ सापेक्षवाद का सिद्धांत


प्रवर्तक नागार्जुन (बुद्ध धर्म के संत पोल / भारत का आइन्सटाईन /
प्राचीन भारत का लूथर)
नागार्जुन ने माध्यमिका कारिका ग्रन्थ लिखा।
इस मत के अनुसार प्रत्यक्ष जगत से परे पारमार्थिक सत्ता विद्यमान है,
किन्तु अवर्णनीय है और जिसके विषय में कु छ भी नहीं कहा जा
सकता कि तत्व मानसिक है या बाह्वय, लौकिक विचारों में वर्णनीय न
होने के कारण इस तत्व को " शून्य" माना जाता है।
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विज्ञानवाद:-
आचार्य - मैत्रेयनाथ
इस मत के अनुसार चित्त ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञान के प्रवाह को ही चित्त कहते है ।
हमारे शरीर तथा अन्यान्य पदार्थ, जो मन के बर्हिगत मालूम पडते है। वे सभी मन के
अन्तर्गत है। अर्थात जिस प्रकार स्वप्न या मतिश्रम की अवस्था में हम वस्तुओं को
बाह्रय समझते है, यद्यपि वे मन के अन्तर्गत ही होती है, उसी प्रकार साधारण
मानसिक अवस्थाओं में जो भी पदार्थ बाह्रय प्रतीत है। वे विज्ञानमात्र है।
किसी वस्तु में तथा तत्वसम्बन्धी ज्ञान सिद्ध नही किया जा सकता है। इसलिए बाह्रय
वस्तु का अस्तित्व असिद्ध है, धर्मकीर्ति के अनुसार नीले रंग तथा नीले रंग के ज्ञान में
कोई भेद नही है। क्योंकि दोनों का पृथक अस्तित्व सिद्ध नही है।
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अन्य सम्प्रदाय

सर्वास्तिवाद वज्रयान

हीनयान और महायान से भी पुराना "वृद्धो की शाब्दिक अर्थ "वजयान का वाहन उर्फ तांत्रिक बौद्ध
परंपरा" कहाजाता है। धर्म ।

हीनयान का एक उप-सम्प्रदाय वज्रयान का सर्वाधिक विकास 8वीं सदी में हुआ


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बौद्ध अर्हत् बनने और संसार के चक्र से मुक्ति मोक्ष प्राप्त करने के लिए जादुई शक्तियों में
पाने का प्रयासकरते है। विश्वास

सर्वास्तिवादियों के लिए, सब कु छ नश्वर है। महिला देवताओं "तारा" की पूजा की जाती है।

तिब्बत में विकसित हुआ और पूर्वी भारत, विशेष


श्रीलंका में विकसित और लाओस,
रूप से बंगाल और बिहार में लोकप्रिय हो गया।
कं बोडिया, म्यांमार और थाईलैंड जैसे अन्य
पालों ने बौद्ध धर्म के इस संप्रदाय का संरक्षण
देशों में फै ल गया।
किया।
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बौद्ध धर्म का योगदान


1. साहित्य क्षेत्र में:-
साहित्य के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की देन अविस्मरणीय है, बौद्ध धर्म के लोगों द्वारा पालि भाषा
में लिखित जातक साहित्य से भारत के विभिन्न पहलुओं के विषय में जानकारी मिलती
है। बौद्ध धर्म के लोगों ने ना के वल पाली भाषा बल्कि संस्कृ त भाषा में भी अनेक ग्रन्थों
की रचना की।
2. कला क्षेत्र में :-
मथुरा, अमरावती, गान्धार मूर्तिकला शैलियों में भगवान बुद्ध से सम्बन्धित कई मूर्तियां
बनी।
एलोरा, अजन्ता व बाघ आदि की गुफाओं से बौद्ध धर्म से सम्बन्धित चित्र मिलते है।
बौद्ध धर्म ने स्थापत्य कला में अविस्मरणीय योगदान दिया। चैत्य, विहार व स्तूप बौद्ध धर्म
की ही देन है।
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स्तूप :-
साधारणतया स्तूप कला का सम्बन्ध बौद्धमत से प्रकट होता है। इसलिए बौद्ध
साहित्य दीर्घ निकाय अगुत्तर निकाय, मज्झिम निकाय में थूप शब्द का
अधिक प्रयोग किया है, जातकों में थूप या थूपिया किसी टीले या स्मारक के
लिए प्रयुक्त होता है।
स्तूप का निर्माण मृतक की चिता के उपर अथवा मृतक की चुनी हुई
अस्थियों को रखने के लिए किया जाता था
स्तूप के निम्नलिखित भाग है- 1. अण्ड 2. मेधि / मेढ़ि 3 छत्र 4. तोरण 5. यष्टि
6. हर्मिका 7. वेदिका 8. प्रदक्षिणापथ
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स्तूप के प्रकार:-
1. शारीरिक स्तूपः- वे स्तूप जिसमें बुद्ध एवं उनके शिष्यों के शरीर धातु के श,
दंत आदि रखे जाते थे।
2. उद्देशिका स्तूप- बुद्ध के जीवन की महत्पपूर्ण घटनाओं से जुडे स्थानों पर
निर्मित स्तूप
3. पारिभोगिक स्तूपः- महात्मा बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई हुई वस्तुएं जैसे
भिक्षापात्र, चीवर, पादुका आदि को रखा जाता है।
4. पूजार्थक स्तूप- बुद्ध के प्रति श्रद्धा से वशीभूत व्यक्तियों द्वारा स्थानों पर
निर्मित स्तूप है। इन्हें मनौती स्तूप भी कहा जाता है।
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विहार:-
चैत्य गृहों के समीप भिक्षुओं के रहने के लिए आवास बनाये
जाते थे, जिन्हें विहार कहा जाता है।

चैत्यः-
बौद्ध धर्म के पूजा गृह चैत्य कहलाते है।
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3. सामाजिक क्षेत्र में:-


बौद्ध धर्म ने सामाजिक समानता स्थापित करने का प्रयास
किया। जाति प्रथा वर्ग का तिरस्कार किया तथा शूद्रों व
स्त्रियों के लिए बौद्ध संघ के दरवाजे खोल दिए, इसका प्रभाव
भारतीय संस्कृ ति पर पड़ा, जिससे हिन्दू धर्म में भी शुद्रों व
स्त्रियों की स्थिति पर प्रभाव पड़ा।
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4. प्रशासनिक क्षेत्र में:-


भारतीय शासकों में लोक सेवा की भावना को पुनः जाग्रत करने का श्रेय
बौद्ध धर्म को ही जाता है। या कहा जा सकता है। बौद्ध धर्म ने प्रशासन की
नीति को प्रभावित किया अर्थात
1. भगवान बुद्ध ने नैतिक नियमों पर बल दिया, उदाहरण:- सत्य, अंहिसा ।
2. भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया जो अत्यंत ही व्यवहारिक है।
3. बुद्ध ने पंचशील सिद्धान्त दिए :-
i) झूठ नहीं बोलना ii) चोरी नहीं करना (iii) हिंसा नहीं करना (iv) नशा नहीं
करना v) व्यभिचार नहीं करना
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बौद्ध धर्म के पतन के कारण:-


बौद्ध धर्म के पतन का मुख्य कारण बौद्ध संघों और मठों में भ्रष्टाचार का उत्पन्न होना
है। बौद्ध मठ व संघ भ्रष्टाचार व व्यभिचार के के न्द्र बन गए जिससे बौद्ध भिक्षुओं का
नैतिक पतन होना शुरू हो गया।
बौद्ध धर्म (संघ) बहुत सारी शाखाओं में विभाजित हो गया, जिससे इसमें फु ट पड़
गयी। कालान्तर में बौद्ध धर्म में कालचक्रयान व वज्रयान जैसी शाखाओं का उद्भव
हुआ, जो चरमपंथी थें ।
राजकीय संरक्षण के अभाव में बौद्ध धर्म धीरे-धीरे भारत से विलुप्त होने लगा ।
ब्राह्मणों ने अपने धर्म में सुधारवादी आन्दोलन प्रारम्भ किया, जिससे बडी संख्या में
लोग फिर से हिन्दू धर्म की ओर आकर्षित होने लगे।
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प्रारम्भ में बौद्ध धर्म ने जनसाधारण भाषा को अपनाया था, परन्तु बाद में
संस्कृ त भाषा से प्रचार किया जाने लगा, तत्कालीन समय में संस्कृ त
जनसाधारण के लिए एक जटिल भाषा थी, इस जटिलता की वजह से
लोगों का झुकाव धर्म के प्रति कम होने लगा ।
सामन्तों के उदय से बौद्ध धर्म का हास्य हुआ अर्थात सामन्त वीरता
प्रदर्शन / हिंसा व राज्य विस्तार को अपना कर्तव्य समझते थे।
विदेशी आक्रमण (हुण व मुसलमान) से भी बौद्ध धर्म का पतन हुआ, तुर्क
सेनापति कु तुबुद्दीन खिलजी ने नालन्दा व विक्रमशिला विश्वविद्यालयों
को जलाकर नष्ट कर दिया ।
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जैन धर्म :-
जिना' या जैना शब्द से बना है जिसका अर्थ
है "विजेता"।
कल्प सूत्र में वर्णित 24 तीर्थकर है।
तीर्थकर दो शब्दों से मिलकर बना है। तीर्थ
और संसार।
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संसार- सांसारिक जीवन


तीर्थकर वह है जिसने दुनिया को जीत लिया है और के वल ज्ञान प्राप्त किया
हो।
ऋषभदेव (अयोध्या में जन्म) - प्रथम तीर्थकर
पार्श्वनाथ (राजा अश्वसेन और वाराणसी की रानी वामा) 23 वें तीर्थंकर
पार्श्वनाथ ने सम्मेद पर्वत पर मोक्ष प्राप्त किया। पार्श्वनाथ की सबसे उची मूर्ति
कर्नाटक के नवग्रह जैन मंदिर में स्थित है।
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वर्धमान महावीर - 24वें और अंतिम तीर्थंकर


महावीर जैन धर्म के 24वें और अंतिम तीर्थंकर थे।
सत्य की खोज में तीस वर्ष की आयु में सांसारिक जीवन छोड
दिया।
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जैन धर्म की शिक्षाएं


जैन धर्म में सांसारिक तृष्णा एवं बंधन से मुक्ति को मोक्ष (निर्वाण) कहा जाता है। मोक्ष जीव
का अंतिम लक्ष्य है। कर्म ही पुनर्जन्म का कारण है, कर्मफल से विमुक्ति ही निर्वाण प्राप्ति का
साधन है
जैन धर्म के अनुसार कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है। ये त्रिरत्न है।
1. सम्यक दर्शन ( श्रद्धा / मनन / ध्यान )
2. सम्यक ज्ञान
3. सम्यक आचरण (चरित्र / कर्म)
सत् में विश्वास सम्यक् श्रद्धा है, सद्रू प का शंका-विहीन और वास्तविक ज्ञान सम्यक् ज्ञान है।
जीव का समस्त इन्द्रिय विषयों में अनासक्त
होना, उदासीन होना, ही सम्यक् आचरण है।
त्रिरत्नों में सर्वाधिक बल सम्यक् आचरण पर दिया गया है पंच महाव्रत इसी का अंग है।
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जैन धर्म के 5 वर्त है।


1. अहिंसा - हिंसा नही करना प्राणीमात्र के प्रति दया रखना।
2. सत्य / अमृषा- झूठ न बोलना, सत्य का पालन करना।
3. अस्तेय - चोरी न करना ।
4. अपरिग्रह- सम्पत्ति अर्जित नही करना चाहिए, आवश्यकता से अधिक
धन संचय नही करना चाहिए इससे गांधीजी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत
समानता रखता है।
5. बह्मचार्य - इंन्द्रियों पर नियन्त्रण स्थापित करना।
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पुदगल:-
जैन दार्शनिक जडतत्व को पुदगल मानते है, पुदगल का अथ है "जिसका संयोग
और विभाग हो सके " ।
जड़दृ व्यों का संयोग भी हो सकता है, और विभाग भी अर्थात उन्हें जोडकर बड़ा
आकार तथा तोडकर सूक्ष्म आकार दिया जा सकता है।
पुगदल के सूक्ष्म भाग को जिसका विभाजन न किया जा सके उसे "अणु" कहते
है। दो या अधिक अणुओं से बनने वाला पदार्थ संघात / स्कं ध कहलाता है,
हमारे शरीर एवं अन्य जडदृ व्य अणुओं के संयोग से बने संघात है।
जैन दार्शनिक चार्वाक की तरह पुगदल के गुण बतलाते है। अर्थात् स्पर्श, दर्शन,
रस, श्रवण, और गंध ये गुण अणुओं एवं संघातों में भी पाये जाते है।
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स्यादवाद-
जैन दर्शन के अनुसार "अनन्तधर्मिक वस्तु' अर्थात वस्तु के अनन्त धर्म होते है, के वल ज्ञान से ही
वस्तुओं के अनन्त धर्मों का अपरोक्ष ज्ञान हो पाता है।
साधारण मनुष्य एक समय में वस्तु के एक ही धर्म को जान सकता है, वस्तुओं का यह आंशिक
ज्ञान "नय" कहलाता है, जैन दार्शनिक कहते है कि प्रत्येक नय के आरम्भ में "स्यात" शब्द का
प्रयोग आवश्यक है।
" स्यात" शब्द इस बात को इंगित करता है, कि उसके प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंग विशेष पर
निर्भर है, जैनों का यह मत "स्याद्वाद" कहलाता है।
"स्यादवाद" का सार अर्थ है कि साधारण बुद्धिवाला मनुष्य किसी विषय में जो भी परामर्श
करता है। वह एकदेशीय होता है। अर्थात उस परार्मश की सत्यता प्रसंग के अनुसार होती है,
जिसके साथ कल्पना की जाती है, स्यात के सात प्रयोग अर्थात (1) स्यात् अस्ति (2) स्यात्
नास्ति (3) स्यात् अस्ति च नास्ति च (4) स्यात् अत्यक्तम (5) स्यात् अस्ति च अत्यक्तम च (6)
स्यात् नास्ति च अत्यक्तम च (7) स्यात् अस्ति च आस्ति च अत्यकत्म च
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# श्वेताम्बर और दिगम्बर में अंतर-


श्वेताम्बर दिगम्बर
श्वेत वस्त्र धारण थे निः वस्त्र (नग्न) रहते थे
ये मूर्तिपूजक थे प्रारम्भ में नहीं थे
स्त्री निर्वाण प्राप्त कर सकती है स्त्री को निर्वाण प्राप्ति का अधिकार
19 वीं तीर्थकर महिला थी नहीं
महावीर विवाहित एवं उनकी पुत्री पुरूष तीर्थंकर थे
प्रियदर्शना थी महावीर स्वामी अविवाहित थे।
लौकिक साहित्य
आगम साहित्य
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कला क्षेत्र में जैन धर्म का योगदान:-


जैन धर्म की सर्वाधिक महत्वर्ण कलात्मक, स्मारक, मूर्तियाँ, मठ गुफाओं
आदि के रूप में आज भी सुरक्षित है। उडीसा की उदयगिरी एवं खण्डगिरी
पर्वत में 35 जैन गुफाएं है। ऐलोरा में भी अनेक जैन गुफाएं है। जहां की
मूर्तियां बड़ी कलात्मक है। खजुराहों देलवाडा के मंदिर भारत की विरासत
हैं इन मंदिरों में मूर्तिकला, बेल बूटे, तोरणद्वार नक्काशी आदि का काम
अत्यंत कलात्मक है। काठियावाड़, गिरनार, पार्श्वनाथ, श्रवणबेलगोला में
जैन मंदिरों के संमुल है। श्रवण बेलगोला की गोमतेश्वर की प्रतिमा अद्भूत
है जो 55 फु ट ऊँ ची है।
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जैन व बौद्ध धर्म में समानताएं


ईश्वर में अविश्वास, जीवन दुखमय हैं, कर्म सिद्धान्त, जीव के आवागमन का सिद्धान्त
आदि ऐसे विचार है। जो सांख्य दर्शन से प्राप्त होते है। इस प्रकार जैन व बौद्ध धर्म के
विचारों का मूल स्त्रोत समान ।
दोनों धर्मों ने हिन्दू धर्म कर्मकाण्ड, जाति भेद, पशु बलि ब्राह्मणों की सामाजिक श्रेष्ठता
आदि का विरोध किया ।
दोनों धर्मों के प्रवर्तक क्षत्रिय राजकु मार थे।
दोनों धर्मों ने नैतिक आचरण पर बल दिया।
दोनों धर्मों ने ईश्वर तथा वेदों में अविश्वास प्रकट किया।
दोनों धर्मों ने कर्म सिद्धान्त को स्वीकार किया और विश्वास प्रकट किया कि मनुष्य को
अपने कर्मों के अनुसार फल की प्राप्ति होतीहै।
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जैन व बौद्ध धर्म में असमानताएं


जैन धर्म में कठोर तप और त्याग पर अधिक बल दिया। जबकि बौद्ध धर्म निर्वाण प्राप्ति के लिए
मध्यम मार्ग को स्वीकार करता है।
जैन धर्म में ग्रहस्थ पुरूष और स्त्रियां निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकती जबकि बौद्ध धर्म में यह संभव
है।
जातिभेद का विरोध जैन धर्म की तुलना में बौद्ध धर्म ने अधिक किया।
जैन धर्म में अंहिसा पर अत्यधिक बल दिया जबकि बौद्ध मतावलम्बी इसके सम्बन्ध में बहुत
उदार थे।
जैन धर्म भारत के बाहर नही फै ला जबकि बौद्ध धर्म विदेशों में भी फै ला।
जैन मतावलम्बी नित्य एवं अनित्वाद में विश्वास करते है। जबकि बौद्ध मतावलम्बी क्षणिकवाद
में।
जैन मतावलम्बी नित्य आत्मा में विश्वास करते है। जबकि बौद्ध मतावलम्बी विज्ञानों के प्रवाह
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इस प्रकार इसमें कोई संदेह नही है कि जैन धर्म और बौद्ध धर्म दो अलग
और स्वतंत्र धार्मिक संप्रदाय थे और अब भी है।, वी.ए. स्मिथ लिखते हैं, दो
प्रणालियों चाहे दर्शन या धर्म के रूप में मानी जाती है। अनिवार्य रूप में
भिन्न हैं। यहाँ तक अपने संस्थापकों के जीवनकाल में और उसके बाद भी
एक दूसरे के प्रतिद्वंदी साबित हुए। बुद्ध ने अपने जीवनकाल में जैन धर्म के
कु छ पहलुओं की निंदा की थी।
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प्राचीन भारत में धर्म :-


हिन्दू धर्म
यह प्राचीन भारत में प्रमुख धर्म है।
इसकी जडों का पता वैदिक काल से लगाया जा सकता है।
प्रमुख धर्मों में से सबसे पुराना और उत्तर भारत में उत्पन्न हुआ माना
जाता है।
प्रारंभिक आर्यन या वैदिक संस्कृ ति प्रारंभिक हिन्दू धर्म या जिसका
गैर-आर्य संस्कृ तियों के प्रभाव के कारण शास्त्रीय हिन्दू धर्म का
विकास हुआ।
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पवित्र हिन्दू ग्रंथ महाभारत और रामायण धीरे-धीरे साहित्यिक, कलात्मक


और संगीत रचनाओं के लिए भारत के मुख्य प्रेरक आधार बन गये।
अलग-अलग मतों और शिक्षाओं की सहिष्णुता के कारण भारतीय दार्शनिक
चिंतन में महाकाव्य काल एवं स्वर्णिम युग था ।
भारतीय चिकित्सा पद्धति का सबसे लोकप्रिय रूप आयुर्वेद वैदिक संतों द्वारा
विकसित किया गया था और हिन्दू ज्योतिष, आज भारत में ज्योतिष का
सबसे लोकप्रिय रूप है।
योग, ध्यान की एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध प्रणाली, हिन्दू दर्शन की छः
प्रणालियों में से एक है।
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आस्तिक पंथ :_
व्यक्तिगत ईश्वर की धारणा जिससे भक्त द्वारा सबसे अधिक अंतरंग
संबंध स्थापित किए जा सकते है, आस्तिक धर्म चेतना का के न्द्र है।
विष्णु और शिव मुख्य देवता है जबकि ब्रह्म गौण देवता है।
हिन्दू धर्म का उद्भव रामायण और महाभारत दो महाकाव्यों में पाया
जाता है। राम और कृ ष्ण दोनों को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में
माना जाता है। वह दया के भगवान नही है, बल्कि सौंदर्य के भी भगवान
है।
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इस धर्म के नए पहलू प्रेम और अनुग्रह है। इसलिए भक्ति, ज्ञान की तुलना में
उद्धार का एक आसान मार्ग है, जिसने भक्ति और साहित्य के अनूकू ल
धर्मशास्त्र भी विकसित किया है।
तमिल शैववाद तीन श्रेणियों भगवान, आत्माओं और पदार्थ की
वास्तविकता को सिखाता है। मोक्ष में आत्मा एकजुट है लेकिन देवता के
साथ नही।
विष्णु और शिव की आस्तिक अवधारणा में भक्ति का सामान्य तत्व है।
दोनों ही अद्वैत से अधिक द्वैत है।
भगवद् गीता में दार्शनिक और धार्मिक विचारों की धाराओं का अद्भुत
संगम दिखाई देता है। गीता स्पष्ट रूप से दिखाती है। कि एक व्यक्ति ईश्वर की
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लोक पंथ :-
यक्ष, नागों और अन्य लोक देवताओं की पूजा आदिम धार्मिक मान्यताओं का सबसे
महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें भक्ति की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका थी।
प्रारंभिक साहित्य और पुरातत्व में लोगों के बीच इस तरह की पूजा की व्यापकता के बारे में
पर्याप्त सबूत है।
वासुदेव / कृ ष्ण पूजा- पाणिनी की अष्टाध्यायी में एक सूत्र वासुदेव / कृ ष्ण के उपासकों को
संदर्भित करता है।
छान्दोग्य उपनिषद ऋषि घोरा अंगिरसा के बारे में भी बात करते है जो एक पुजारी थे।
बड़ी संख्या में लोगों ने वासुदेव कृ ष्ण की विशेष रूप से उनके व्यक्तिगत भगवान के रूप में
पूजा की और उन्हें पहले भागवत के रूप में जाना जाता था।
वासुदेव भगवंत पंथ ने अपनी पकड़ अन्य वैदिक और ब्राह्मणवादी दिव्यताओं जैसे विष्णु
और नारायण (ब्रह्मांडीय भगवान) पर बनाई ।
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दक्षिण में वैष्णव आंदोलन


उत्तरी परंपराओं में कृ ष्ण-परम्पराओं से संबंधित होने की प्रवृत्ति के बावजूद प्रारंभिक
"दक्षिणी कृ ष्णवाद" का एक प्रमाण है।
दक्षिण भारतीय ग्रंथ कृ ष्ण और उनके गोपी साथियों की संस्कृ त पंरपराओं के साथ
समानांतर रूप से दिखाई देते है, इसलिए उत्तर भारतीय ग्रन्थों और कल्पना में सर्वव्यापी
है।
द्रविडियन संस्कृ ति में प्रारंभिक लेखन जैसे कि मणिमेखलाई और शिल्पादिकारम्
कृ ष्ण, उनके भाई और पंसदीदा महिला साथियों को समान शब्दों में प्रस्तुत करते है।
दक्षिणी भारतीय मल ( तिरूमल) की भक्ति कृ ष्णवाद का एक प्रारंभिक रूप हो सकता
है।
अलवार, जिनके नाम का अनुवाद "संत" किया जा सकता है ये अवतारों की अवधारणा
के आधार पर कृ ष्ण और विष्णु के बीच अंतर नहीं करते है।
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शैववाद
शिव भक्ति के विषय में प्रारंभिक जानकारी सिंधुघाटी से प्राप्त होती है। ऋग्वेद में शिव से
साम्य रखने वाले देवता को रूद्र कहा गया है। महाभारत में शिव का उल्लेख एक श्रेष्ठ देवता
के रूप में हुआ है। मेगस्थनीज ने प्रथम शताब्दी ई. पूर्व में शैवमत का उल्लेख किया है।
दक्षिण भारत में धर्म का प्रचार नयनार या आडियार संतों द्वारा किया गया, ये संस्था में 63
थें, इनके श्लोकों के संग्रह को तिरूमुडे कहा जाता है। जिसका संकलन नम्बि- अण्डाल -
नम्बि ने किया।
इस सम्प्रदाय के अनुयायियों को पंचार्थिक कहा गया। इस मत का प्रमुख सैद्धांतिक ग्रंथ
पाशुपतसूत्र है।
शैव सम्प्रदायों का प्रथम उल्लेख पतंजलि के महाभाष्य में शिव भागवत नाम से हुआ।
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शैव धर्म (एक सम्प्रदाय के रूप में) का प्रारंभ शुंग- सातवाहन काल से हुआ, जो गुप्त
काल में चरमसीमा तक पहुँच गया था । अर्द्धनारीश्वर तथा त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश
शिव) की पूजा गुप्त काल में आरंभ हुई। समन्वय की यह उदार भावना गुप्त काल की
विशेषता है।
अर्द्धनारीश्वर की मूर्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर तादात्म्य पर आधारित थी। ऐसी
पहली मूर्ति का निर्माण गुप्काल में हुआ।
लिंग पूजा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख मत्स्य पुराण में हुआ है। महाभारत के अनुशासन पर्व
में भी लिंगोपासना का उल्लेख है।
हरिहर के रूप में शिव की विष्णु के रूप में सर्वप्रथम मूतियाँ गुप्त काल में बनायी गई।
कौशितकी तथा शतपथ ब्राह्मण में शिव के 8 रूपों का उल्लेख है— चार संहारक के रूप
में तथा चार सौम्य रूप में।
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टिप्पणी कीजिए (15 शब्द , 2 अंक)


1- आजीवक संप्रदाय
2- उपोसथ
3- पातिमोक्ख
4- प्रतीत्यसमुत्पाद
5- बोधिसत्व-
6- शून्यवाद / सापेक्षवाद का सिद्धान्त
7- अनित्यवाद/ क्षणिकवाद
8- जैन धर्म के पाँच महाव्रत
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लघुत्तरात्मक प्रश्न ( 50 शब्द, 5 अंक)


प्रश्न- 6 ठी शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध धर्म के प्रसार के कारणों पर प्रकाश डालिए।
प्रश्न - ब्रह्म विहार अवधारणा को समझाते हुए बौद्ध संघ मे प्रवेश के नियमों की विवेचना
कीजिए
प्रश्न - हीनयान व महायान बौद्ध संप्रदाय के अंतर पर प्रकाश डालिए
प्रश्न - जैन धर्म में स्यादवाद की अवधारणा को समझाईए
प्रश्न - जैन - बौद्ध धर्म का तुलनात्मक विवरण दीजिए
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दीर्घात्मक प्रश्न ( 100 शब्द, 10 अंक)

प्रश्न - “बौद्ध धर्म के अनुसार संसार दुःखमयी हैं” अवधारणा को स्पष्ट करते हुए
इसके निवारण के उपाय बताइये
प्रश्न - बौद्ध धर्म का विभिन्न क्षेत्रों में योगदान पर आलेख लिखिए
प्रश्न - जैन धर्म की शिक्षाओं पर प्रकाश डालते हुए दिगम्बर व शवेताम्बर मत में
अंतर स्पष्ट कीजिये
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प्राचीन भारत में दार्शनिक प्रवृत्तियां

दर्शन

आस्तिक दर्शन नास्तिक दर्शन

वे दर्शन जो वेदों को नित्य एवं प्रामाणिक वे दर्शन जो वेदों को नित्य व प्रामाणिक नहीं
मानते है। मानते है।

1. साख्य दर्शन 1. बौद्ध दर्शन

2. योग दर्शन 2. जैन दर्शन


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3. न्याय दर्शन 3. चार्वाक दर्शन

4. वैशिषिक दर्शन

5. पूर्व मीमांसा

6. उत्तर भीमांसा
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सांख्य दर्शन:-
प्रतिपादक :- कपिलमुनि
आधार ग्रन्थ- सांख्य सूत्र
भारत का प्राचीनतम दर्शन
जगत का कम विकास प्रकृ ति के सहज स्वरूप के कारण होता है।
तीन गुणों (सत्, रज, तम्) का सिद्धांत अपनाया
यह द्वैतवादी दर्शन है।
यह विकासवादी, अनीश्वरवादी दर्शन है।
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योग दर्शन:-
प्रतिपादक- पंतजलि
आधारग्रन्थ - योगसूत्र
विश्व में सर्वाधिक प्रचलित ग्रन्थ
आत्म नियंत्रण तथा आत्मा यातना को सर्वोपरी माना है।
ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों का निग्रह, योगमार्ग का आधार माना।
भारत के इस दर्शन की महत्ता ऐसी रही कि वर्तमान दौर में U.NO द्वारा 21
जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया गया।
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न्याय दर्शन:-
प्रतिपादक - अक्षपाद गौतम
आधारग्रन्थ- न्यायसूत्र
इसे भारतीय दर्शन का तर्क शास्त्र कहा जाता है।
ईश्वर को विश्व का सृष्टिकर्ता मानता है।
यह दर्शन अपनी ज्ञान मीमांसा के लिए प्रसिद्ध है, ज्ञान प्राप्ति के चार
साधन है।
1. प्रत्यक्ष 2. अनुमान
3. उपमान 4. शब्द
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वैशेषिक दर्शन:-
प्रतिपादक :- कणाद / उलूक
आधार ग्रन्थ - वैशेषिक सूत्र
विश्व का यथार्थवादी, विश्लेषणात्मक एवं वस्तुवादी दर्शन, इसे औलुक्य दर्शन
भी कहा जाता है।
विश्व के परमाणिक स्वरूप तथा आत्मा से उसके अंतर को पुर्णतः पहचान लेने
पर ही मोक्ष प्राप्ति होती है।
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पूर्व मीमांसा :-
प्रतिपादक- जैमिनि
आधारग्रन्थ- पूर्व मीमांसा सूत्र
वेदों के कर्मकाण्ड (संहिता) तथा ब्रह्मण ग्रन्थों से सम्बद्ध है।
यह दर्शन वेदों को अन्तिम प्रमाण मानता है।
यह पुरोहितवाद, ब्राहृय आडम्बर को अढावा देने वाला दर्शन है।
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उत्तर मीमांसा:-
प्रतिपादक :- बादरायण ( वेदव्यास)
आधारग्रन्थ :- ब्रह्म सूत्र
यह आरण्यक तथा उपनिषदों पर आधारित है।
इसमें रहस्यात्मक ज्ञान एवं दार्शनिक तत्वों पर बल दिया गया है।
के वल ब्रह्म को ही सत्य मानता है।
जीवात्मा के ब्रह्म में लीन होने पर ही मोक्ष प्राप्ति होगी।
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नास्तिक दर्शन :-
चार्वाक / लोकायत दर्शन
प्रतिपादक :- बृहस्पति
बृहस्पति ने दानवों को दिग्भ्रमित करने हेतु इस दर्शन का प्रतिपादन किया।
यह दर्शन ईश्वर को नहीं मानते।
कर्मफल सिद्धान्त व पुनर्जन्म को नहीं मानते।
यह आत्मा को नहीं मानते।
यह दो पुरूषार्थ 1. अर्थ, 2 काम को मानते है।
चार तत्वों (1. पृथ्वी, 2 जल, 3. अग्नि, 4. वायु)
यह ज्ञान प्राप्ति का साधन प्रत्यक्ष को मानते है।
यह भौतिकवादी एवं सुखवादी दर्शन है।
यह "खाओं, पिओं एवं विवाह करों में विश्वास करते है।
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जड़वादः -
विश्व के मूलतत्वों के सम्बन्ध में चार्वाक का मत उनके प्रमाण सम्बन्धी विचारों पर
अवलम्बित है। अर्थात प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। जिसके आधार पर हम वस्तुओं
का अस्तित्व स्वीकार करते है।
ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग, जीवन की नित्यता, आदि विषयों को हम नही मान सकते,
क्योंकि इनका प्रत्यक्ष नहीं होता।
के वल जडतत्वों का ही प्रत्यक्ष होता है। जिसे हम मान सकते है।
चार्वाक जडवाद के सिद्धांत में चार जडतत्वों की सत्ता स्वीकार करते है जिनसे
संसार की रचना हुई है अर्थात भूमि, जल, वायु व अग्नि के संयोग से
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स्वभाववाद:-
प्रतिपादक - चार्वाक
इस मत के अनुसार जडतत्वों का अपना-अपना स्वभाव है। तथा
अपने-अपने स्वभाव के कारण ही वे संयुक्त होते है। इनके स्वतः
सम्मिश्रण से ही संसार उत्पन्न होता है।
जडमूतों में निहित स्वभाव ही जगत की उत्पत्ति का कारण है
इसके लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है।
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टिप्पणी कीजिये ( 15 शब्द, 2 अंक)

1. योग दर्शन
2. न्याय दर्शन
3. वैशेषिक दर्शन
4. षड दर्शन अवधारणा

प्रश्न - लोकायत दर्शन को समझाते हुए चार्वाक की जड़वाद अवधारणा


की विवेचना कीजिये (50 शब्द , 5 अंक)

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