You are on page 1of 5

International Journal of Academic Research and Development

International Journal of Academic Research and Development


ISSN: 2455-4197, Impact Factor: RJIF 5.22
www.academicsjournal.com
Volume 2; Issue 2; March 2017; Page No. 132-136

वेद व्याख्यान परम्परा


रे खा कु मारी

संस्कृ त ववभाग, ददल्ली ववश्वववद्यालय, नई ददल्ली, भारत ।

प्रस्तावना इन्िोंने मन्त्रों की यज्ञपरक व्याख्या की िै। इन्िोंने प्रत्येक सूक्त के प्रारम्भ
वेदभाष्य-परम्परा में सूक्त के ऋवि तथा देवता आदद का उल्लेख दकया िै। इनका भाष्य
सातवीं सदी ईसा पूवव में यास्काचायव का वेदव्याख्या के क्षेत्र में एक नया सरल भािा में िै तथा व्याकरण सम्बन्िी उल्लेख भी संवक्षप्त रुप में
उदय माना जाना चाविए वजन्िोंने व्याख्या की सुदढ़ृ नींव वनरुक्त के दशवनीय िै।
माध्यम से स्थावपत की थी। यद्यवप उन्िोंने दकसी वेद का या वेद के
दकसी एक खण्ड का भी आनुपूवी से भाष्य निीं दकया िै तथावप वेदाथव
2. नारायण (6ठी शताब्दी) –
प्रदिया पर अविक सांगोपांग और सटीक अध्ययन उन्िोंने प्रस्तुत दकया
िै। यास्क के पूवव के भी अनेक मिर्षियों ने इस क्षेत्र में योगदान ददया िै इनका समय 6ठी शताब्दी के पश्चात् का माना जाता िै। ऋर्गवेद-भाष्य
जैसे- आग्रायण, औपमन्यव, औदुम्बरायण, औणवभाव, कात्थक्य, के अष्टम अष्टक के चतुथव अध्याय की भूवमका में वेंकटमािव ने वलखा िै
िौष्टु दक, गार्गयव और गालवादद तथा इन आचायों के मतों को यास्काचायव दक-
ने वनरुक्त में उद्िृत दकया िै। यास्क के परवती काल में देश में कई “स्कन्दस्वामीनारायण उद्गीथ इवत ते िमात् ।
उथल-पुथल हुई तथा इसका प्रभाव वेदाध्ययन पर भी पड़ा । यिी चिु ुः सिैकमृर्गभाष्यं पदवाक्याथवगोचरम्” ॥ 3
कारण हुआ िोगा दक 1300 विों तक व्याख्या की भूवमका बंजर पड़ी उक्त श्लोक के आिार पर नारायण को स्कन्दस्वामी का समकावलक
हुई थी। माना जाता िै। िमात् से ज्ञात िोता िै दक चतुथव अष्टक के बाद के अंशों
समग्र रूप से वेदभाष्य की परम्परा मध्य-काल में प्रारम्भ हुई वजसमें पर इन्िोंने भाष्य दकया िोगा। नारायण ने स्वतंत्र रूप से दकसी भी
सायण से पूवववर्त्ती वेदभाष्यकारों में स्कन्दस्वामी, उद्गीथ, नारायण, प्रकार का भाष्य निी वलखा िै तथा इनके नाम से कोई भाष्य प्रकावशत
मािवभट्ट, वेंकटमािव, उवट और आनन्दतीथव आदद िै। पाश्चात्त्य भी निी हुआ िै।
ववद्वानों में ववल्सन, मैक्समूलर, रॉथ, लुडववग, वग्रदिथ, मैक्डोनल
आदद का प्रयास भी स्मरणीय िै। आिुवनक भारतीय ववद्वानों में मिर्षि 3. उद्गीथ (6ठी शताब्दी) –
दयानन्द, योवगराज अरववन्द, मिुसूदन ओझा, सातवलेकर और कपाली ऋर्गभाष्य में उद्गीथ को स्कन्दस्वामी का सिायक किा गया िै। इन्िें
शास्त्री आदद नाम वेद भाष्यकारों के रूप में वलए जाते िै। इस प्रकार कनावटक के वनवासी प्रदेश का वनवासी माना जाता िै। इनकी भाष्य
वैददक भाष्यकारों ने अपनी क्षमता, योर्गयता एवं रूवच के अनुसार वेद शैली स्कन्दस्वामी के समान यज्ञपरक िै। इन्िोंने ऋर्गवेद के अवन्तम भाग
भाष्य करना प्रारम्भ दकया वजसके िलस्वरूप भाष्य परम्परा ववकवसत पर भाष्य वलखा िै अथावत् इनका भाष्य दशम मण्डल के पञ्चम से
िोती चली गई और उसका िवमक ववकास वनम्न प्रकार से िै-
चौंतीसवें (34) सूक्त तक भ्रष्ट रूप में उपलब्ि िै तथा स्कन्दस्वामी के
भाष्यों में भी इनका योगदान रिा िै।
1. स्कन्दस्वामी (638 ई.) – सायण और आत्मानन्द ने अपने भाष्य में उद्गीथ का नामोल्लेख दकया
वैददक भाष्यकारों की गणना में स्कन्दस्वामी को सबसे प्राचीन माना िै। यदद सायण और उद्गीथ के भाष्य की तुलना की जाये तो ज्ञात िोगा
जाता िै क्योंदक इनके परवती ग्रन्थों में इनका नाम अवत आदरपू ववक दक सायण ने उद्गीथ के भाष्य का सदुपयोग दकया िै। उद्गीथ ने भाष्य
वलया गया िै। इनके वपता का नाम भतृवध्रुव था। ये गुजरात के वलभी प्रारम्भ करते समय ऋवि और देवता का वववरण ददया िै। उद्गीथ
नगर के वनवासी थे। इनका भाष्य ऋर्गवेद के अिवभाग (चतुथव अष्टक) भाष्य में ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपवनिद प्रमाण रूप में उद्िृत दकये
तक िी वमलता िै। यास्क द्वारा प्रणीत वनरुक्त पर भी इनकी टीका गये िै। इनके भाष्य में वनरुक्त का प्रयोग भी िै और साथ िी
उपलब्ि िोती िै। व्याकरणपरक वववेचन भी दकया गया िै। अतुः किा जा सकता िै दक
शतपथ ब्राह्मण के सुप्रवसद्ध भाष्यकार िररस्वामी ने अपने भाष्य के वेद भाष्य कायव में इनके द्वारा दकया गया कायव अत्यविक मित्त्वपूणव िै।
प्रारम्भ में ‘श्रीस्कन्दस्वाम्यवस्त मे गुरु:’ वलखते हुए अपने गुरु के रूप में
स्कन्दस्वामी का उल्लेख दकया िै। 1 िररस्वामी के शतपथ ब्राह्मण पर 4. मािवभट्ट (6ठी शताब्दी) –
भाष्य का रचना काल 638 ई. माना जाता िै अतएव इनका भाष्य इनका ऋर्गवेद के प्रथम अष्टक पर भाष्य मद्रास ववश्वववद्यालय से प्राप्त
रचनाकाल 7वीं शताब्दी का प्रथम चरण माना जाता िै। अपने भाष्य िोता िै। इन्िोंने ऋर्गवेद के वविय में 11 अनुिमवणयााँ भी वलखी िैं जो
की भूवमका में स्कन्दस्वामी वलखते िैं दक मन्त्रों का अथवबोि कराना िी दक शब्दकोश के रुप में थी। इनके भाष्य में ब्राह्मण ग्रन्थ और वनरुक्त के
भाष्य करने का प्रयोजन िै- वाक्य प्रमाण रूप में दृवष्टगत िोते िैं। इनकी भाष्य शैली इनके उच्चकोरट
“मन्त्राणामवबोद्धव्यो यतोऽथोड़्गत्ववसद्धये । के अथवज्ञान को प्रदर्षशत करती िै।
ऋर्गवेदस्याथवबोिाथवमतो भाष्यं कररष्यते” ॥ 2
132
International Journal of Academic Research and Development

5. मािव (7वीं शताब्दी) – संस्कृ त-पररिद् से यि प्रकावशत िै। मन्त्र व्याख्या में वैददक ग्रन्थों के
सामवेद का प्रथम भाष्यकार मािव को माना जाता िै। इस भाष्य का उद्धरण भी पररलवक्षत िोते िै तथा व्याकरण ववियक चचाव भी यत्र-तत्र
नाम ‘वववरण’ िै। इन्िोंने पूवावर्षचक और उर्त्तरार्षचक पर भाष्य वलखा िै। प्राप्य िै। सायण द्वारा रवचत सामवेद-भाष्य का आिार गुणववष्णु का
आचायव बलदेव उपाध्याय ने अनुमान दकया िै दक ये मािव बाणभट्ट के सामभाष्य माना जाता िै।
पूववज तथा गुरु थे क्योंदक कादम्बरी का मंगलश्लोक ‘रजोजुिे जन्मवन
सत्त्ववृर्त्तये’ इत्यादद इनके भाष्य के मंगलश्लोक के रूप में भी िै। 4 11. आनन्दतीथव (13वीं शताब्दी) –
इनका वनवास स्थान दवक्षण भारत का उडु पी नगर िै। इनका दूसरा
नाम मध्वाचायव िै। इनकी माता का नाम वेदवती था। इन्िोंने सम्पूणव
6. वेंकटमािव (1050-1150 ई.) –
वेदववद्या अपने गुरु मिात्मा अच्युततीथव से प्राप्त की। इन्िें वैष्णव
प्राचीन भाष्यकारों में वेंकटमािव का नाम अवत प्रवसद्ध िै। इनके वपता
का नाम वेंकट तथा माता का नाम सुन्दरी था। वेंकटमािव चोलराज्य सम्प्रदाय का प्रवतवक माना जाता िै। इन्िोंने ऋर्गवेद के कु छ 40 सूक्तों
के वनवासी थे। इन्िोंने सम्पूणव ऋर्गवेद पर संवक्षप्त भाष्य वलखा िै। का पद्यात्मक भाष्य दकया िै। इनका ब्रह्मसूत्र पर उपलब्ि भाष्य अवत
इन्िोंने पदों का अथव के वल मात्र अन्वय पर ध्यान रखते हुए दकया िै प्रवसद्ध िै। इनके भाष्य में जयतीथव की टीका तथा नरससि की वववृवर्त्त
तथा स्वयं वलखा भी िै दक- ‘वजवयन् शब्दववस्तारं शब्दैुः कवतपयैररवत’ आदद भी प्रवसद्ध िै।
।5 अतएव अथव में कोई ववशेि दुराग्रि निीं िै। इन्िोंने भाष्य भूवमका में
देवता परक ववचारों का उल्लेख करते हुए देवता का ववभाजन तथा 12. भरतस्वामी (13वीं शताब्दी) –
उनके नामों का भी उल्लेख दकया िै। भरतस्वामी दवक्षण के वनवासी थे। इनके वपता का नाम नारायण और
डॉ. लक्ष्मण स्वरूप ने इस भाष्य का समीक्षात्मक संस्करण तैयार दकया माता यज्ञदा थी। इन्िोंने सामवेद और सामवेदीय ब्राह्मणों पर भी भाष्य
िै जो मोतीलाल बनारसीदास, ददल्ली से प्रकावशत हुआ। प्रथम अध्याय वलखा था। इनकी भाष्य रचना िोयसल के राजा रामनाथ के
के अन्त में अपना पूरा पररचय देते हुए इन्िोंने माता सुन्दरी, वपता शासनकाल (1272-1310 ई.) में हुई थी। भरतस्वामी का सामवेद भाष्य
वेंकटाचायव और गोत्र कौवशक आदद का वणवन दकया िै। संवक्षप्त िै तथा इस भाष्य को तीन पवों में ववभक्त दकया िै यथा-
आग्नेयपवव, ऐन्द्रपवव तथा पवमानपवव। वैददक पदों को अनेक प्रकार से
7. उवट (11वीं शताब्दी) – स्पष्ट दकया गया िै तथा पुवष्ट के वलये पावणवन को भी उद्िृत दकया
उवट मूलतुः कश्मीरी थे दकन्तु वजववकावश अवन्ती क्षेत्र में जाकर बसे गया िै। वेद भाष्य परम्परा में भरतस्वामी ने यावज्ञक व्याख्या पद्धवत
थे। शुक्लयजुवेद की माध्यवन्दन संविता पर इनका भाष्य उपलब्ि िोता का प्रयोग करते हुए आध्यावत्मक व्याख्या को भी प्रस्तुत दकया िै।
िै जो दक वनणवयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकावशत िै। उवट आनन्दपुर के
वनवासी वज्रट के पुत्र थे। अवन्ती में वनवास करते हुए भोज के 13. सायण (14वीं शताब्दी) –
शासनकाल में इन्िोंने यजुवेद पर भाष्य दकया था। भोज का राज्यकाल 14वीं शताब्दी में व्याख्या के क्षेत्र में आचायव सायण का आववभावव
1018-1060 ई. तक िै। अतुः उवट का समय 11वीं शताब्दी माना गया वैददक अध्ययन-अध्यापन की सीमा के ववस्तार में एक बहुत बड़ी
िै। उपलवब्ि मानी जा सकती िै। सायणाचायव तुंगभद्रा नदी के दवक्षण तट
पर वस्थत ववजयनगर के वनवासी थे। काञ्ची के वशलालेख में इनका
8. भट्टभास्कर (11वीं शताब्दी) – ब्राह्मण िोना तथा भारद्वाज गोत्र का पररचय वमलता िै। 6 इनके वपता
इनका भाष्य कृ ष्ण यजुवेद की तैवर्त्तरीय संविता पर उच्चकोरट का भाष्य मायण तथा माता का नाम श्रीमती था।
प्राप्त िोता िै। भट्टभास्कर कौवशक गोत्रीय शैव थे इनका पूरा नाम डॉ. ऑफ्रेख्ट के अनुसार सायण की मृत्यु 72 विव की आयु में सन् 1387
भट्टभास्कर वमश्र था। इनके भाष्य का नाम ‘ज्ञानयज्ञ’ था। इनके भाष्य
में हुई ।7 अत: सायणाचायव का जन्म अनुमानत: सन् 1315 में हुआ
में अनेक वैददक ग्रन्थों और ववववि आचायों के उद्धरण िै। इनका वनदेश
िोगा। सायणाचायव ने अपने जीवन काल में कई राज्यों के मन्त्री का
वनघण्टु के भाष्यकार देवराज यज्वा ने तथा सायणाचायव ने भी दकया िै।
भार स्वीकार दकया िै वजसके अनुसार िम सायणाचायव के समय को
वनवश्चत कर सकते िैं।
9. िलायुि (12वीं शताब्दी) – सायण ने लगभग तीस विव की अवस्था से लेकर अपने जीवन के अवन्तम
सायणाचायव के पूवववती वैददक ववद्वानों में िलायुि का वववशष्ट स्थान िै। विव तक लगातार अटू ट पररश्रम तथा अदम्य उत्साि से ग्रन्थों की रचना
िलायुि बंगाल नरे श लक्ष्मणसेन के दरबार में िमावविकारी थे। िलायुि की थी। वेदों के गूढ़ पररचय से लेकर पुराणों के व्यापक पावण्डत्य तक,
ने शुक्ल यजुवेद की काण्वसंविता पर ‘ब्राह्मणसववस्व’ नामक भाष्य अलंकार सरवण के वववेचन से लेकर पावणवन व्याकरण की आदरणीय
वलखा िै तथा अपने भाष्य के प्रारम्भ में अपने जीवन के वविय में अवभज्ञता तक, यज्ञ तन्त्र से लेकर वैददक शास्त्र के व्यविाररक ज्ञान तक
पररचय ददया िै। लक्ष्मणसेन 1170 ई. में राज्यससिासन पर आरुढ़ हुये
सववत्र सायण का प्रकृ ष्ट पावण्डत्य स्मरणीय िै। सायण द्वारा रवचत 25
थे तथा तीस विव तक राज्य करते हुए 1200 ई. में इनका शासन समाप्त
ग्रन्थों में से तैवर्त्तरीय संविता, ऋर्गवेद संविता, सामवेद संविता, काण्व
हुआ था। िलायुि लक्ष्मणसेन के समकावलक थे अतुः इनका समय 12वीं
शताब्दी का उर्त्तराद्धव किा जा सकता िै। भाष्य के अवतररक्त िमवशास्त्र संविता, अथवववेद संविता पर भाष्य उपलब्ि िै।
सम्बवन्ित अनेक ग्रन्थों की भी रचना की िै।
14. आत्मानन्द (14वीं शताब्दी) –
10. गुणववष्णु (12वीं शताब्दी) – इनका भाष्य अध्यात्म-परक िै। इन्िोंने ऋर्गवेद के ‘अस्य वामीय’ सूक्त
इन्िोंने सामवेद की कौथुमशाखा पर ‘छान्दोर्गय मन्त्रभाष्य’ वलखा था पर अपना भाष्य वलखा िै। इन्िोंने अपने भाष्य में अनेक ग्रन्थों (वनरुक्त,
वजसका प्रचार बंगाल और वमवथला में बहुत अविक िै। कलकर्त्ता के बृिद्देवतादद) और भाष्यकारों (उद्गीथ तथा के शवाचायव) का नामोल्लेख
133
International Journal of Academic Research and Development

दकया िै। इन्िोंने स्वयं किा िै दक स्कन्दस्वामी आदद का भाष्य यज्ञपरक काठक संविता, दैवत संविता आदद के ववशुद्ध संस्करण वनकाले िैं और
िै तथा वनरुक्त अविदैवतपरक िै दकन्तु मेरा यि भाष्य अध्यात्म चारों वेदों का विन्दी में ‘सुबोि भाष्य’ भी प्रकावशत दकया िै। इन्िोंने
ववियक िै और इस भाष्य का मूल ववष्णुिमोर्त्तर िै। 8 इनके भाष्य का दयानन्द स्वामी का समथवन दकया िै तथा साथ िी सायणाचायव की
उल्लेख सववप्रथम मैक्समूलर द्वारा रवचत ‘संस्कृ त सावित्य का इवतिास’ ववचारिाराओं का भी अनुसरण दकया िै। इनके ग्रन्थों की संख्या 100 से
नामक ग्रन्थ में वमलता िै। अविक िै जो दक विन्दी, मराठी और गुजराती भािाओं से प्रभाववत िै।

15. मुद्गल (14वीं शताब्दी) – भाष्येतर परम्परा


ऋर्गवेदभाष्य परम्परा में मुद्गल का स्थान सायण के अनुसरणकर्त्ताव के वैददक संविताओं का भाष्य करने वाले ववद्वानों में कई ववद्वान्
रूप में िै। ऋर्गवेद पर इनका आंवशक भाष्य िी िै और इसके अवतररक्त के वलमात्र अनुवादक और सम्पादक िै। इनके द्वारा दकया गया अनुवाद
अन्य कोई लेखनकायव निीं िै। इन्िोंने व्याकरण, स्वरवववेचन और एवं सम्पादन कायव प्रशंसा के योर्गय िै।
वनववचनादद कायों को छोडकर सरल व्याख्या की िै। भाष्य के प्रारम्भ में
मुद्गल ने स्वयं के गोत्र का पररचय ददया िै वजसके अनुसार मुद्गल 1. फ्रीविश-रोजेन (Friedrich Rosen 12) (1805-37 ई.) -
मौद्गल्य गोत्र से िै। 9 रोजेन (Rosen) प्रवसद्ध भािावैज्ञावनक फ्रान्त्सबॉप के वशष्य और
पाश्चात्त्य जगत् के प्रथम वैददक ववद्वान् थे। इन्िोंने ऋर्गवेदीय प्रथम
मण्डल के 121 सूक्तों का लैरटन में अनुवाद दकया था। 13
16. िानुष्क यज्वा (1500 ई. के लगभग) –
इनकी प्रवसद्धी वेदत्रयी के भाष्यकार के रूप में िै। इन्िें वत्रवेदी
भाष्यकार किा गया िै। दकन तीन वेदों पर इनका भाष्य िै यि अज्ञात 2. यूजन
े बनूि
व (Eugene burnouf) (19वीं शताब्दी) –
फ्रांस में संस्कृ त के प्राध्यापक युजेन बनूवि ने यूरोप में वेदाध्ययन की
िै। सम्प्रवत इनका भाष्य उपलब्ि निीं िै। 10
आिारवशला रखी थी। इनका व्याख्यान मुख्यतुः ऋर्गवेद पर रिा िै।
रुडाल्ि रॉथ और मैक्समूलर इनके वशष्यों में से िैं। इन्िोंने सववप्रथम
17. मिीिर (16वीं शताब्दी) – फ्रेंच भािा में वेद का अनुवाद करने का प्रयत्न दकया था। इन्िोंने सन्
मिीिर काशी के वनवासी थे। इनका समय 16वीं शताब्दी िै क्योंदक 1826 ई. में लैसन के साथ ‘पावल पर वनबन्ि’ तथा ‘भारतीय बौद्ध-िमव
इनकी रचना ‘मन्त्र-मिोदवि’ का समय 1588 ई. िै। इनके भाष्य का के इवतिास का पररचय’ नामक दो ग्रन्थों का प्रणयन दकया िै।
नाम ‘वेददीप’ िै। इन्िोंने अपने भाष्य में मन्त्र तथा उवट भाष्य दोनों
का िी स्पष्टीकरण दकया िै। उवट भाष्य को समझने के वलए इनका
3. मैक्समूलर (Maxmuller) (1823-1900 ई.) –
भाष्य सिायक िै। इनका वैददक भाष्य के साथ तन्त्र शास्त्र में भी
यूरोपीय प्राच्यववद्याववदों में सवावविक व्यापक ववियों पर काम करने
मित्वपूणव योगदान िै।
वाले फ्रीडररख मैक्समूलर (Friedrich max muller) भारत में भी
पयावप्त लोकवप्रय हुए। इन्िोंने सायण भाष्य के साथ सम्पूणव ऋर्गवेद का
18. अनन्ताचायव (16वीं शताब्दी) – छ: खण्डों में प्रकाशन दकया था। पववत्र प्राच्य ग्रन्थमाला की भी रचना
काशी के वैददक ववद्वान् अनन्ताचायव ने काण्वसंविता के उर्त्तरािव (21- की िै। भारत के प्रवत इनकी श्रद्धा का पररचय इन्िीं की रचना ‘India-
40) पर ‘भावाथवदीवपका’ नामक टीका वलखी िै। इनके भाष्य पर
what it can teach us’ से ज्ञात िोती िै।
मिीिर भाष्य का स्पष्ट प्रभाव प्रतीत िोता िै। इसके अवतररक्त इन्िोंने
यजुवेद प्रावतशाख्य भाष्य, शतपथब्राह्मण भाष्य और भाविक सूत्रभाष्य 4. रुडाल्ि वॉन रॉथ (Rudolf Von Roth (1821-95 ई.) -
14)

भी वलखा िै। जमवन ववद्वान् रॉथ (Roth) मैक्समूलर (Maxmuller) के समान िी


यूजेन बनूवि (Eugene burnouf) के वशष्य थे। इन्िोंने वैददक अथव की
खोज मे आगमन-वववि तथा ऐवतिावसक-वववि का प्रवतवन दकया था।
19. स्वामी दयानन्द (1824-1883 ई.) –
इन्िोंने ‘वेद का सावित्य तथा इवतिास’ जमवन भािा में वलखकर वैददक
आयवसमाज के संस्थापक मिर्षि दयानन्द सरस्वती (1824-1883 ई.) अनुशीलन प्रारम्भ दकया था। इनकी सवावविक मित्त्वपूणव कृ वत ‘संस्कृ त
आिुवनक युग में वेदों के पुनरुद्धारक माने जाते िै। वेद ववियक व्याख्या
करने में इन्िोंने नैरुक्त-प्रदकया का आश्रय वलया िै। इन्िोंने सम्पूणव शुक्ल मिाकोश’ िै। रॉथ तथा वववटनी ने 1846 ई. में प्रकावशत दकया था। 15
यजुवेद की संस्कृ त और विन्दी में व्याख्या की िै। असामवयक वनिन के
कारण इनका वेद-व्याख्या का यि कायव पूणव न िो पाया तथा ऋर्गवेद के 5. िोरे स िेमन ववल्सन (Horace hayman Wilson 16) (1784-1860 ई.)-
सप्तम मण्डल के 80वें सूक्त तक िी इनके द्वारा की गयी व्याख्या उपलब्ि ववल्सन (Wilson) ने सववप्रथम सम्पूणव ऋर्गवेद का अनुवाद सायण भाष्य
िै। इन्िोंने वेद में चार मुख्य वविय माने िै- ज्ञान, ववज्ञान, कमव तथा के अनुसार अंग्रेजी गद्य में 1850 ई. में दकया। 17 अनुवाद में यत्र-तत्र
उपासना। इन्िोंने आध्यावत्मक, आविदैववक तथा आविभौवतक रुप से रटप्पवणयााँ भी दी गई िै। ववल्सन सायण के प्रबल समथवक थे।
वेद-व्याख्या की िै।
6. ग्रासमान (Grassmann) 18 (1809-77 ई.) –
20. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर (1867-1968 ई.) – जमवन देश के ववद्वान् िमवन ग्रासमान (Hermann Grassmann) संस्कृ त
वेदमूर्षत श्री पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर आिुवनक युग के सायण तथा भािाववज्ञान के ववद्वान् थे। इनके द्वारा ऋर्गवेद का जमवन
किे जाते िै। 11 इन्िोंने चारों वेदों, तैवर्त्तरीय संविता, मैत्रायणी संविता, पद्यानुवाद दो भागों में दकया गया िै। इन्िोंने ऋर्गवेद से सम्बवन्ित एक

134
International Journal of Academic Research and Development

‘वैददक कोि’ (1873-75) तैयार दकया वजसमें ऋर्गवेदीय स्थलों का अथवववेद सम्बवन्ित िै। 1902 ई. में आपस्तम्बश्रौतसूत्र का सम्पादन व
वनदेश करते हुए शब्दों के अथव वलखें िैं। 19 प्रकाशन करके ‘वबवब्लयोवथका इवण्डका’ (Bibliothica Indica) नामक
ग्रन्थ वलखा । इनका ‘अथवववेद एण्ड गोपाथब्राह्मण’ नामक गवेिणा
परक ग्रन्थ िै। इनके अवतररक्त इन्िोंने वैददक कॉनकाडेन्स (Vedic
7. लुड़ववग (Ludwig) (1837-1912 ई.) –
concordance) और ऋर्गवैददक रे पेटीशनस् (Rgvedic repetitions)
अल्फ्रेड़ लुड़ववग (Alfred ludwig) ने छि खण्डों में ऋर्गवेद का जमवन जैसे ग्रन्थ भी वलखे थे।
अनुवाद तथा टीका प्रस्तुत की िै। 20 प्रथम दो खण्डों में ऋर्गवेद का
जमवन गद्यानुवाद िै, तृतीय खण्ड में इस अनुवाद की भूवमका िै, चतुथव -
14. ए. बी. कीथ (Arthur Berriedale Keith 27) (1879-1944 ई.) –
पंचम खण्डों में अनुवाद-भाग और मूल ऋचाओं पर टीका िै। िष्ठ खण्ड
में अनुिमवणकादद वविय िै। लुडववग ने ऋत, सत्य, ब्रह्म और माया डॉ. कीथ का जन्म वब्रटेन में सन् 1879 ई. में हुआ था। इन्िोंने
आक्सिोडव ववश्वववद्यालय से वशक्षा प्राप्त की। संस्कृ तज्ञ और आंर्गल भािा
इत्यादद वैददक शब्दों पर प्रकाश डाला िै। 21
के ववद्वान् कीथ (keith) ने अनेको ग्रन्थों की रचना की िै। इन्िोंने
कृ ष्णयजुवेदीय तैवर्त्तरीय संविता का आंर्गल अनुवाद दकया िै। इन्िोंने
8. राल्ि टी. एच. वग्रदिथ (Ralph T. H. Griffith 22) (1826-1906 ई.)- ऐतरे य ब्राह्मण, कौिीतदकब्राह्मण, शांखायन आरण्यक, तैवर्त्तरीय और
वग्रदिथ (Griffith) काशी के संस्कृ त कालेज मे प्राचायव थे। इन्िोंने ऐतरे य आरण्यक का भी अंग्रेजी अनुवाद दकया िै। इनके द्वारा प्रणीत
सायण भाष्य के पूरे उपयोग के साथ, उपयोगी सूवचयों तथा रटप्पवणयों ‘विस्री ऑि संस्कृ त वलटरे चर’ (History of Sanskrit Literature)
का प्रयोग करते हुए ऋर्गवेद का अंग्रेजी में पद्यानुवाद दकया जो दक नामक ग्रन्थ सुप्रवसद्ध िै। इनके द्वारा िमव और दशवन पर “ररलीजन एण्ड
काशी से सन् 1889-92 ई. में प्रकावशत कराया गया। अतुः इनका चारों दिलासिी आि द वेदाज एण्ड उपवनिद्स” नामक ग्रन्थ दो भागों में
वेदों पर अंग्रेजी पद्यानुवाद प्राप्त िोता िै तथा वाल्मीकीय रामायण पर वलखा िै जो िाववडव से प्रकावशत िै।

भी पद्यानुवाद इनके द्वारा दकया गया िै। 23 इनका कायव रॉथ और


सायण से प्रभाववत िै। 15. योवगराज अरववन्द (1872-1950 ई.) –
अरववन्द अपने युग के अनुपम सािक, ववद्वान् तथा ऋवि थे। इनकी
दृवष्ट रिस्यवादी िै। ये वेदों में अध्यात्मववद्या के गूढ़ रिस्यों की
9. िमवन ओल्डनबगव (Hermann Oldenberg 24) (1854-1920 ई.) –
उपवस्थवत मानते िै। वेदों पर इनकी पुस्तक ‘वेद-रिस्य’ बहुचर्षचत िै
जमवन ववद्वान् ओल्डनबगव ने ऋर्गवेद की अवत मित्त्वपूणव वववेचनायुक्त
व्याख्या दो भागों में वलखी िै जो सन् 1809-12 ई. में बर्षलन से जो दक “On The Vedas” का विन्दी अनुवाद िै।
प्रकावशत हुई िै। इन्िोंने ‘ऋर्गवेद का पाठालोचन तथा रटप्पणी’ नामक
ग्रन्थ जमवन में वलखा िै वजसमें ऋर्गवेद के शब्द, व्याकरण और उच्चारण 16. कपाली शास्त्री (1886-1953 ई.) –
पर ववस्तृत आलोचना िै। इन्िोंने िी मैक्समूलर द्वारा सम्पाददत पववत्र शास्त्री जी योवगराज अरववन्द के वशष्य थे। इन्िोंने ऋर्गवेदभाष्य के
प्राच्य ग्रन्थमाला के कई भागों का रटप्प्णी सवित अनुवाद दकया िै। अवतररक्त आंर्गल भािा में भी कई ग्रन्थ वलखे िै।

10. गेल्डनर (Geldner 25) (1852-1929 ई.) - कालव एि. गेल्डनर 17. स्वामी ववद्यानन्द (1899-1978 ई.) –
(Karl F. Geldner) ने ऋर्गवेद-संविता का जमवन अनुवाद दकया था जो वेद व्याख्याकार के रुप में प्रवसद्ध ववद्यानन्द जी वेदप्रचारक और
दक उनकी मृत्यु के पश्चात् िाववड़व ओररयन्टल सीरीज (Harvard प्रौढ़लेखक िै। इनकी व्याख्या पद्धवत अध्यात्म-परक थी। इन्िोंने वैददक
Oriental series) से प्रकावशत हुआ । ररचडव वपशल (Richard pischel) मन्त्रों की व्याख्या की िै। वेदालोक, जीवन संवविान, ववदेिवाणी और
के साथ वमलकर इन्िोंने ‘वैददक अध्ययन’ नामक ग्रन्थ तीन खण्डों में वैददक योगपद्धवत आदद ग्रन्थ वलखे िै।
वलखा था।
18. प. िररशरण वसद्धान्तालड़्कार (1901-1991 ई.) –
11. अल्ब्रेख्ट वेबर (Albrecht weber) (1825-1901 ई.) - जमवन देश के इनके द्वारा चारों वेदों का विन्दी भाष्य दकया गया िै। इन्िोंने अपने
ववद्वान् वेबर (Weber) के वशष्य लुड़ववग (Ludwig) रि चुके िै। इन्िोंने भाष्य में मिर्षि दयानन्द के भाष्य का अनुसरण दकया िै।
यजुवेद वविय पर शोिकायव करके पीएच.डी. (Ph.D.) की उपावि प्राप्त
की िै। इन्िोंने शुक्ल यजुवेद का लैरटन भािा में अनुवाद दकया िै। 26 19. लुई रे नु (Louis Renou 28) (1896-1966 ई.) –
प्रवसद्ध फ्रेंच ववद्वान् लुई रे नु (Louis Renou) ने वतवमान शताब्दी के
पूवाविव में वेद ववियक कई ग्रन्थों की रचना की िै। इनके कायव फ्रेंच
12. वववलयम ड़ी. वववटनी (William Dwight Whitney) (1827-94 ई.)
भािा में िै। इनका प्रथम मुख्य कायव ‘वेद-ववियक सावित्य सामग्री’ िै।
अमेररका देश के वनवासी वववटनी (Whitney) ने सम्पूणव अथवववेद का
अनुवाद दकया िै। रॉथ के साथ वमलकर इन्िोंने प्रथमतुः अथवववेदीय वेदभाष्य-परम्परा में और भी कई उत्कृ ष्ट ववद्वान् हुए िैं वजन्िोंने वेद
भाष्य परम्परा में अपना योगदान ददया िै। यथा- पं. वशवशंकर शमाव,
शौनकीय शाखा का प्रकाशन दकया था।
आयवमुवन, जयदेव ववद्यालंकार, क्षेमकरण दास, आचायव वैद्यनाथ शास्त्री,
रामनाथ वेदालंकार, कालनाथ, कु वण्डन, भवस्वामी, आचायवक्षुर,
13. मौररस ब्लूमिील्ड (Maurice Bloomfield) (1855-1928 ई.) – शत्रुघ्न, नीलकण्ठ, जयस्वामी, वद्वजराजभट्ट, स्वावम करपात्र आदद िै।
अमेररका देशवासी ब्लूमिील्ड (Bloomfield) ने बहुत से वैददक ग्रन्थों इसी प्रकार पाश्चात्त्य जगत् में भी बहुत दीघव -परम्परा चलती रिी
का प्रकाशन, सम्पादन और प्रणयन दकया था। इनके अविकतर कायव वजनमें से कु छ के के वलमात्र नाम और कायव िी ज्ञात िै। यथा- जी.
135
International Journal of Academic Research and Development

स्टीवेन्सन, ई. ए. रोएर, एस. ए. लांगलोइस, वथयोडोर आउफ्रेख्ट, 16. http://en.banglapedia.org/index.php?title=Wilson,_Horac


वथयोडोर बेनिे , जुवलयस एगसलग, एल. वी. श्रोडर, डब्लू. कै लेण्ड, ए. e_Hayman
सी. बनेल, एल. शेरमन और जे. वग्रल आदद िै। इस प्रकार वेदाध्ययन 17. https://en.wikipedia.org/wiki/Horace_Hayman_Wilson
18. https://en.wikipedia.org/wiki/Hermann_Grassmann
की परम्परा अनवरत रूप से अद्याववि चल रिी िै। प्रस्तुत पाश्चात्त्य
19. http://www-groups.dcs.st-
ववद्वानों में से कु छ ववद्वानों ने वेदों का भाष्य निीं दकया िै अवपतु दकसी and.ac.uk/history/Biographies/Grassmann.html
प्रवसद्ध वेद भाग का अनुवाद प्रस्तुत दकया िै। इन वेद भाग के भाष्यों से 20. http://crossasia-repository.ub.uni-
िमें वेदाथावनुशीलन में सिायता प्राप्त िोती िै तथा एक नया प्रेरणा heidelberg.de/3206/1/Berger_German%20Translators.pdf
स्रोत प्राप्त िै। अतुः इनका भी मित्व सववगणनीय िै। 21. https://en.wikipedia.org/wiki/Rigveda
22. https://en.wikipedia.org/wiki/Ralph_T._H._Griffith
23. http://www.sacred-texts.com/hin/rigveda/
वनष्किव 24. https://en.wikipedia.org/wiki/Hermann_Oldenberg
वनष्किवतुः किा जा सकता िै दक सम्पूणव ववश्व सावित्य में प्रवसद्ध 25. https://en.wikipedia.org/wiki/Karl_Friedrich_Geldner
प्राचीनतम ग्रन्थ ‘वेद’ के ज्ञान का प्रस्तुतीकरण करने में भारतीय 26. http://theosophy.wiki/w-
भाष्यकारों की अत्यंत िी मित्त्वपूणव भूवमका रिी िै। वेदाथव ज्ञान सम्पूणव en/index.php?title=Albrecht_Weber
27. https://en.wikipedia.org/wiki/Arthur_Berriedale_Keith
समाज के वलये कल्याणकारी िै। भाष्यकारों ने वेदाथव ज्ञान की सुरक्षा के
28. https://en.wikipedia.org/wiki/Louis_Renou
वलये जो भाष्य सम्बन्िी कायव दकये िै वि अत्यन्त उपयोगी िै। वैददक
ग्रन्थों के अथव तथा भावाथव को जानने के वलये के वल मात्र मूल ग्रन्थ िी
सिायक निी िो सकते थे तथा इन मूल ग्रन्थों के व्याख्या अथवा भाष्य
ग्रन्थ जनमानस की प्रबल इच्छा थी। भाष्यकारों ने अपने पररश्रम तथा
कौशल से इन मूल ग्रन्थों को समझाने के वलये भाष्य कायव प्रारम्भ
दकया।
भारतीय ववद्वानों के साथ पाश्चात्त्य जगत् के ववद्वानों ने भी सम्भवतुः
प्रयास दकया परन्तु उनका यि प्रयास अनुवाद कायव तक िी सीवमत
रिा। वेदाथव ज्ञान को समझने के वलये जो दृवष्ट भारतीय ववद्वानों की
रिी वि पाश्चात्त्य ववद्वानों के पास न थी। भाष्यकारों द्वारा दकये गये
इस सिल प्रयास से वतवमान समय में िम सभी वैददक कालीन सभ्यता
एवं संस्कृ वत से पररवचत िै। अंततुः किा जा सकता िै दक भाष्य परम्परा
के अन्तगवत ववद्वानों द्वारा दकया जाता हुआ यि कायव अत्यन्त प्रशंसनीय
िै।

संदभव सूची
1. संस्कृ त सावित्य का इवतिास, डॉ. उमाशंकर शमाव ‘ऋवि’, पृ. 111
2. ऋ. स्कन्द. भा. 1.1.1
3. ऋ. पर वेंकटमािवभाष्य के आरम्भ में ।
4. संस्कृ त सावित्य का इवतिास, डॉ. उमाशंकर शमाव ‘ऋवि’, पृ. 112
5. संस्कृ त सावित्य का इवतिास, डॉ. उमाशंकर शमाव ‘ऋवि’, पृ. 111
6. “भारद्वाजकु लेश सायण! गुणैस्त्वर्त्तस्त्वमेवाविकुः”।
वेदभाष्यभूवमकासंग्रि, आचायव बलदेव उपाध्याय, पृ. 21
7. Catalogus Catalogorum, P. 711.
8. वैददक सावित्य का इवतिास, डॉ. पारसनाथ वद्ववेदी, चौखम्बा
सुरभारती, वाराणसी, 1983
9. मौद्गल्यगोत्रेण च मुद्गलेन ह्यात्मानुभूतेन सुसंस्कृ तेन ।
यथाथवभूतेन सुसािके न समुद्िृतं सारवमदं वररष्ठम् ॥
10. वैददक सावित्य एवं संस्कृ वत, डॉ. कवपल देव वद्ववेदी, पृ. 23
11. वैददक सावित्य एवं संस्कृ वत, डॉ. कवपल देव वद्ववेदी, पृ. 19
12. https://en.wikipedia.org/wiki/Friedrich_August_Rosen
13. http://www.cs.mcgill.ca/~rwest/link-
suggestion/wpcd_2008-09_augmented/wp/r/Rigveda.htm
14. https://en.wikipedia.org/wiki/Rudolf_von_Roth
15. वेदव्याख्या पद्धतयुः, शवश वतवारी, पृ. 207

136

You might also like