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जवाहर नवोदय विद्यालय , मानपुर {इंदौर}

सत्र :- 2021-22

प्रस्तुतकर्ता :- गौरव वर्मा मार्गदर्शक :- श्री आर. के . प्रजापती


[पी.जी.टी. हिन्दी ]
कक्षा :- १२वी ‘अ’
अनुक्रमांक :- १९६४०२१
इ स प रि य ो ज न ा क ो स फ ल त ा प ू र्व क
प ू र ा क र न े म ें , ब ह ु त स े ल ो ग ों न े म े र ी
म द द क ी ह ै । म ैं उ न स भ ी ल ो ग ों क ो
ध न् य व ा द द े न ा च ा ह ू ं ग ा ज ो इ स
प रि य ो ज न ा स े स ं ब ं धि त ह ैं ।
म ु ख् य रू प स े , म ैं इ स प रि य ो ज न ा क ो
स फ ल त ा के स ा थ प ू र ा क र न े म ें स क्ष म
ह ो न े के लि ए भ ग व ा न क ो ध न् य व ा द
द ू ं ग ा । फि र म ैं अ प न े प्र ा च ा र्य म ह ो द य
श्र ी ओ . प ी . श र्मा स र औ र वि ष य
अ ध् य ा प क व म ा र्ग द र्श क
आ र . के . प्र ज ा प ति स र क ो ध न् य व ा द
द ू ं ग ा , जि न के म ा र्ग द र्श न म ें म ैं न े
इ स   प रि य ो ज न ा के ब ा रे म ें ब ह ु त कु छ
स ी ख ा । उ न के स ु झ ा व औ र नि र्दे श ों न े
इ स प रि य ो ज न ा के प ू र ा ह ो न े म ें ब ह ु त
मौलिकता प्रमाण पत्र
यह प्रमाणित किया जाता हे जयशंकर प्रशाद नामक परियोजना का कार्य गौरव वर्मा द्वारा प्रस्तुत किया गया हे ।
जो की कें द्रीय मध्यमिक शिक्षा बोर्ड [ हिन्दी कें द्रिक ] की परीक्षा 2022 का अंश है|
यह इनका मौलिक कार्य है ।

दिनाँक :- आंतरिक परिक्षक हस्ता॰

छात्र हस्ताक्षर उप॰ प्राचार्या हस्ता प्राचार्य हस्ता॰


विषय सूची
 परिचय
 प्रमख
ु जानकारी
 जीवनी

 लेखन कार्य

• कविता
• कहानी
• उपन्यास
• नाटक
 रं गमंचयी अध्ययन
 प्रकाशित क्रातिया

 रचना समग्र

 सम्मान

 मत्ृ य ु
जयशंकर प्रशाद
हिमगिरि के उत्त ुंग शिखर पर बैठ शिला की
शीतल छां ह
एक पुरु , भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय
प्रवाह।

इस करुणा कलित ह्रदय में एक विकल रागिनी


बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में वेदना असीम गरजती।
जन्म 30 जनवरी 1890
वाराणसी (उत्तर प्रदेश), भारत

मत्ृ यु नवम्बर 15, 1937 (उम्र 47)


वाराणसी, भारत

व्यवसाय कवि, नाटककार, कहानीकार,
 उपन्यासकार
 परिचय
जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८९० - १५ नवंबर
१९३७), हिन्दी कवि, नाटककार, कहानीकार, उपन्यासकार तथा
निबन्ध-लेखक थे। वे हिन्दी के छायावादी यग ु  के चार प्रमख
ु स्तंभों में से
एक हैं। उन्होंने हिन्दी काव्य में एक तरह से छायावाद की स्थापना की
जिसके द्वारा खड़ीबोली के काव्य में न केवल कमनीय माधर्य ु की
रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई, बल्कि जीवन के सक्ष्ू म एवं व्यापक आयामों
के चित्रण की शक्ति भी संचित हुई और कामायनी तक पहुँचकर वह
काव्य प्र ेरक शक्तिकाव्य के रूप में भी प्रतिष्ठित हो गया। बाद के,
प्रगतिशील एवं नयी कविता दोनों धाराओ ंके, प्रमख ु आलोचकों ने
उसकी इस शक्तिमत्ता को स्वीकृति दी। इसका एक अतिरिक्त प्रभाव यह
भी हुआ कि 'खड़ीबोली' हिन्दी काव्य की निर्विवाद सिद्ध भाषा बन
गयी |
जीवनी
जयशंकर प्रसाद का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत्‌१९४६ वि॰ (तदनुसार ३० जनवरी
१८९० ई॰ दिन-गुरुवार) को काशी के गोवर्धनसराय में हु आ। इनके पितामह बाबू
शिवरतन साहू दान दे ने में प्रसिद्ध थे और इनके पिता बाबू देवीप्रसाद जी भी दान दे ने के
साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिये विख्यात थे। इनका काशी में बड़ा
सम्मान था और काशी की जनता काशीनरे श के बाद 'हर हर महादेव' से बाब ू दे वीप्रसाद
का ही स्वागत करती थी। जब उनकी लगभग ११ वर्ष की अवस्था थी तभी सन् १९००
ई॰ में कार्तिक शुक्ल अष्टमी को उनके पिता का देहावसान हो गया। १५ वर्ष की अवस्था
में , सन् १९०५ ई॰ में पौष कृष्ण सप्तमी को उनकी माता श्रीमती मुन्नी दे वी का देहावसान
हो गया तथा १७ वर्ष की अवस्था में, १९०७ ई॰ में भाद्रकृष्ण षष्ठी को उनके बड़े भाई
शंभुरत्न का देहावसान हो जाने के कारण किशोरवय में ही प्रसाद जी पर मानो
आपदाओं का पहाड़ टूट पड़ा था। कच्ची गहृ स्थी, घर में सहारे के रूप में केवल विधवा
भाभी, दूसरी ओर कुटुंबियों तथा परिवार से संबद्ध अन्य लोगों का संपत्ति हड़पने का
षड्यंत्र, इन सबका सामना उन्होंने धीरता और गंभीरता के साथ किया
लेखन-कार्य
कविता
प्रसाद ने कविता ब्रजभाषा में आरम्भ की थी। उपलब्ध स्रोतों के आधार पर प्रसाद जी
की पहली रचना १९०१ ई॰ में लिखा गया एक सवैया छं द है, लेकिन उनकी प्रथम
प्रकाशित कविता दूसरी है, जिसका प्रकाशन जुलाई १९०६ में 'भारतेन्दु' में हु आ था।
प्रसाद जी ने जब लिखना शुरू किया उस समय भारतेन्दुयुगीन और द्विवेदीयुगीन
काव्य-परं पराओं के अलावा श्रीधर पाठक की 'नयी चाल की कविताएँ भी थीं। उनके
द्वारा किये गये अनुवादों 'एकान्तवासी योगी' और 'ऊजड़ग्राम' का नवशिक्षितों और
पढ़े -लिखे प्रभु वर्ग में काफी मान था। प्रसाद के 'चित्राधार' में संकलित रचनाओं में
इसके प्रभाव खोजे भी गये हैं और प्रमाणित भी किये जा सकते हैं।
१९०९ ई॰ में 'इन्दु' में उनका कविता संग्रह 'प्रेम-पथिक' प्रकाशित हु आ था। 'प्रेम-पथिक'
पहले ब्रजभाषा में प्रकाशित हु आ था। बाद में इसका परिमार्जित और परिवर्धित
संस्करण खड़ी बोली में नवंबर १९१४ में 'प्रेम-पथ' नाम से और उसका अवशिष्ट अंश
दिसंबर १९१४ में 'चमेली' शीर्षक से प्रकाशित हु आ।  बाद में एकत्रित रूप से यह कविता
'प्रेम-पथिक' नाम से प्रसिद्ध हु ई|
कहानी
कथा के क्षेत्र में प्रसाद जी आधुनिक ढं ग की कहानियों के आरं भयिता माने जाते
हैं। सन्‌१९१२ ई. में 'इन्दु' में उनकी पहली कहानी 'ग्राम' प्रकाशित हु ई। उनके
पाँच कहानी-संग्रहों में कुल मिलाकर सत्तर कहानियाँ संकलित हैं। 'चित्राधार' से
संकलित 'उर्वशी' और 'बभ्रुवाहन' को मिलाकर उनकी कुल कहानियों की संख्या
७२ बतला दी जाती है। यह 'उर्वशी' 'उर्वशी चम्प'ू से भिन्न है, परन्तु ये दोनों
रचनाएँ भी गद्य-पद्य मिश्रित भिन्न श्रेणी की रचनाएँ ही हैं। 'चित्राधार' में तो कथा-
प्रबन्ध के रूप में पाँच और रचनाएँ भी संकलित हैं, जिनको मिलाकर कहानियों
की कुल संख्या ७७ हो जाएँ गी; परं तु कुछ अंशों में कथा-तत्त्व से युक्त होने के
बावजदू स्वयं जयशंकर प्रसाद की मान्यता के अनुसार ये रचनाएँ 'कहानी' विधा
के अंतर्गत नहीं आती हैं। अतः उनकी कुल कहानियों की संख्या सत्तर है।
उपन्यास
प्रसाद जी ने तीन उपन्यास लिखे हैं : कंकाल, तितली और इरावती (अपर्ण ू )।
'कंकाल' के प्रकाशित होने पर प्रसाद जी के ऐतिहासिक नाटकों से नाराज
रहने वाले प्रेमचन्द ने अत्यंत प्रसन्नता व्यक्त की थी तथा इसकी समीक्षा
करते हु ए 'हंस' के नवंबर १९३० के अंक में लिखा था :
"यह 'प्रसाद' जी का पहला ही उपन्यास है, पर आज हिंदी में बहु त कम ऐसे
उपन्यास हैं, जो इसके सामने रक्खे जा सकें।"
'कंकाल' में धर्मपीठों में धर्म के नाम पर होने वाले अनाचारों को अंकित किया
गया है। उपन्यास में प्रसाद जी ने अपने को काशी तक ही सीमित न
रखकर प्रयाग, मथुरा, वन्ृ दावन, हरिद्वार आदि प्रसिद्ध तीर्थ स्थानों को भी
कथा के केंद्र में समेट लिया है। इतना ही नहीं उन्होंने हिन्दू धर्म के अतिरिक्त
मुस्लिम और ईसाई समाज में भी इस धार्मिक व्यभिचार की व्याप्ति को अंकित
किया है। मधुरेश की मान्यता है :
नाटक
जयशंकर प्रसाद ने 'उर्वशी' एवं 'बभ्रुवाहन' चम्पू तथा अपर्ण ू
'अग्निमित्र' को छोड़कर आठ ऐतिहासिक, तीन पौराणिक और दो
भावात्मक, कुल तेरह नाटकों की सर्जना की। 'कामना' और 'एक
घँटू ' को छोड़कर ये नाटक मल ू त: इतिहास पर आधतृ हैं।
इनमें महाभारत से लेकर हर्ष के समय तक के इतिहास से सामग्री
ली गयी है। उनके नाटकों में सांस्कृतिक और राष्ट्रीय चेतना
इतिहास की भित्ति पर संस्थित है। 'बभ्रुवाहन' चम्पू को 'जयशंकर
प्रसाद ग्रन्थावली ' में पर्वू में असंकलित रचना के रूप में संकलित
किया गया है परन्तु यह रचना पहले भी 'प्रसाद की सम्पर्ण ू
कहानियाँ एवं निबन्ध' संग्रह में 'चित्राधार' से संकलित 'विविध'
रचना के रूप में संकलित हो चुकी है
रं गमंचीय अध्ययन
प्रसाद जी के नाटकों पर अभिनेय न होने का आरोप भी लगता रहा है। आक्षेप किया जाता
रहा है कि वे रं गमंच के हिसाब से नहीं लिखे गये हैं, जिसका कारण यह बताया जाता है
कि इनमें काव्यतत्त्व की प्रधानता, स्वगत कथनों का विस्तार, गायन का बीच-बीच में
ू संयोजन है। किंतु उनके अनेक नाटक सफलतापर्वू क
प्रयोग तथा दृश्यों का त्रुटिपर्ण
अभिनीत हो चुके हैं। उनके नाटकों में प्राचीन वस्तुविन्यास और रसवादी भारतीय परं परा
तो है ही, साथ ही पारसी नाटक कंपनियों, बँगला तथा भारतेंदुयुगीन नाटकों एवं
शेक्सपियर की नाटकीय शिल्पविधि के योग से उन्होंने नवीन मार्ग ग्रहण किया है।
उनके नाटकों के आरं भ और अंत में उनका अपना मौलिक शिल्प है जो अत्यंत कलात्मक
है। इसके बावजदू  बाब ू श्यामसुंदर दास से लेकर बच्चन सिंह तक हिंदी आलोचना की
तीन पीढ़ियाँ एक प्रवाद के रूप में मानती रही है कि प्रसाद के नाटक अभिनेय नहीं हैं।
परं तु नयी पीढ़ी के वैसे आलोचक जो सीधे रं गमंच से जुड़े रहे हैं, बिल्कुल भिन्न विचार
प्रकट करते हैं। शांता गांधी ने 'नटरं ग' त्रैमासिक में लिखा था : "प्रसाद के नाटकों की
सभी समस्याओं को सुलझाकर उन्हें अत्यंत सफलतापर्वू क रं गमंच पर प्रस्तुत किया जा
सकता है और उनका अवश्य ही प्रदर्शन होना चाहिए।
प्रकाशित कृतियाँ
काव्य
1. प्रेम-पथिक - १९०९ ई॰ (प्रथम संस्करण ब्रजभाषा में; संशोधित-
परिवर्धित संस्करण खड़ी बोली में - १९१४)
2. करुणालय (काव्य–नाटक) - १९१३ ई॰ ('चित्राधार' के प्रथम
संस्करण में 'करुणालय' संकलित थी, परं तु १९२८ में इन दोनों का
स्वतंत्र प्रकाशन हु आ।)
3. महाराणा का महत्त्व - १९१४ ई॰ (यह भी 'चित्राधार' के प्रथम
संस्करण में करुणालय के साथ ही संकलित थी, परं तु १९२८ में
इसका भी स्वतंत्र प्रकाशन हु आ।)
4. चित्राधार - १९१८ ई॰ (संशोधित-परिमार्जित संस्करण - १९२८ ई॰)
5. कानन कुसम ु  - १९१३ ई॰ (ब्रजभाषा मिश्रित प्रथम संस्करण-१९१३
ई॰; परिवर्धित संस्करण-१९१८ ई॰; संशोधित-परिमार्जित, खड़ीबोली
संस्करण-१९२९ ई॰)
6. झरना - १९१८ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९२७ ई॰)
7. आँसू - १९२५ ई॰ (परिवर्धित संस्करण-१९३३ ई॰)
8. लहर- १९३५ ई॰
9. कामायनी - १९३६ ई॰
कहानी-संग्रह एवं उपन्यास
छाया - १९१२ ई॰
प्रतिध्वनि - १९२६ ई॰
आकाशदीप - १९२९ ई॰
आँधी - १९३१ ई॰
इन्द्रजाल - १९३६ ई॰
उपन्यास -

1. कंकाल  - १९२९ ई॰
2. इरावती - १९३८ ई
3. तितली - १९३४ ई॰
रचना-समग्र
जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (चार खण्डों में) [संपादन एवं भमि ू का- डॉ॰
सत्यप्रकाश मिश्र; लोकभारती प्रकाशन, प्रयागराज से प्रकाशित। चारों
खण्ड अलग-अलग प्रसाद का सम्पूर्ण काव्य, प्रसाद के सम्पूर्ण नाटक
एवं एकांकी, प्रसाद के सम्पूर्ण उपन्यास तथा प्रसाद की सम्पूर्ण
कहानियाँ एवं निबन्ध के नाम से भी सजिल्द एवं पेपरबैक में उपलब्ध।]
जयशंकर प्रसाद ग्रन्थावली (सात खण्डों में) - २०१४ ई॰ (सं॰ ओमप्रकाश
सिंह; प्रकाशन संस्थान, नयी दिल्ली से प्रकाशित। इसके द्वितीय खण्ड में
समुचित शोध से प्राप्त, दो अधरू ी कविताएँ सहित पर्वू में असंकलित कुल
पैंतीस कविताओं को पहली बार संकलित किया गया है। सभी खण्डों में
संकलित रचनाओं के प्रथम प्रकाशन का विवरण दिया गया है। सप्तम खण्ड
में 'आँस'ू का प्रथम संस्करण भी संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त ५
व्यक्तियों के नाम लिखे गये ४६ पत्र, कई चित्र एवं हस्तलेख तथा कुछ अन्य
सामग्री भी दी गयी हैं।)
सम्मान

मंगलप्रसाद पारितोषिक 'कामायनी’
के लिए

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