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आचायर्व रामचंद्रि शुक्ल का जीवन एवं हन्दी सा हत्य का इ तहास कताब की वकास यात्रिा

● उत्तर प्रदे श के बस्ती िज़ले में ‘अगौना’ नामक एक गाँव है , जहाँ 1884 ई. में रामचन्द्रि शुक्ल का जन्म
हु आ था।
● पता चन्द्रिबली शुक्ल मज़ार्वपुर में क़ानूनगो थे, इस लए वहीं के जुबली स्कूल में प्रारिम्भक शक्षा पाई।
1901 में स्कूल की फ़ाइनल परीक्षा पास की। आगे की पढ़ाई इलाहाबाद की कायस्थ पाठशाला में हु ई,
ले कन ग णत में कमज़ोर होने के कारण एफ़.ए. की परीक्षा पास नहीं कर सके।
● नौकरी पहले–पहल एक अंग्रेज़ी ऑ फ़स में की, फर मशन स्कूल में ड्राइंग–मास्टर हु ए।
● हन्दी सा हत्य के प्र त अनुराग प्रारम्भ से था। मत्रि–मंडली भी अच्छी मली, िजसकी प्रेरणा से लेखन–
क्रम चल नकला।
● 1910 ई. तक लेखक के रूप में अच्छी–ख़ासी ख्या त प्राप्त कर ली थी।
● इसी वषर्व उनकी नयुिक्त ‘ हन्दी शब्दसागर’ में काम करने के लए ‘नागरी प्रचा रणी सभा’, काशी में हु ई

● यह कायर्व समाप्त होते–न–होते वे काशी हन्दू वश्व वद्यालय में हन्दी प्राध्यापक नयुक्त हु ए।
● वहाँ 1937 ई. में बाबू श्यामसुन्दर दास की मृत्यु के बाद हन्दी वभागाध्यक्ष–पद को सुशो भत कया।
● कोश– नमार्वता, इ तहासकार एवं श्रेष्ठ नबन्धकार के रूप में सम्मा नत हु ए; क वता–कहानी और
अनुवाद के क्षेत्रि में भी दलचस्पी दखाई।
● उनकी प्रमुख रचनाएँ हैं—‘ हन्दी सा हत्य का इ तहास’, ‘जायसी ग्रन्थमाला’, ‘तुलसीदास’, ‘सूरदास’,
‘ चन्ताम ण’ (भाग : 1–3), ‘रस मीमां सा’ आ द।
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● 2 फरवरी, 1941 को आचायर्व शुक्ल का दे हावसान हु आ।
आचायर्व रामचंद्रि शुक्ल का जीवन एवं हन्दी सा हत्य का इ तहास कताब की वकास यात्रिा

● हन्दी सा हत्य के अब तक लखे गए इ तहासों में आचायर्व रामचन्द्रि शुक्ल द्वारा लखे गए
हन्दी सा हत्य का इ तहास को सबसे प्रामा णक तथा व्यविस्थत इ तहास माना जाता है ।
● आचायर्व शुक्ल जी ने इसे हन्दी शब्दसागर भू मका के रूप में लखा था िजसे बाद में स्वतंत्रि
पुस्तक के रूप में 1929 ई० में प्रका शत आंत रत कराया गया। आचायर्व शुक्ल ने गहन शोध और
चन्तन के बाद हन्दी सा हत्य के पूरे इ तहास पर वहं गम दृिष्ट डाली है ।
● भू मका के रूप में ' हन्दी भाषा का वकास' और ' हन्दी सा हत्य का वकास' दया जाएगा।
● हन्दी सा हत्य का इ तहास' का संशो धत और प्रव धर्वत संस्करण सन ् 1940 में नकला। यह
संस्करण प्रथम संस्करण से भन्न था। इस संस्करण में अन्य चीजों के अलावा 1940 ई. तक
के सा हत्य का आलोचनात्मक ववरण भी दे दया गया था।
● पूवर्व सा हत्ये हतासनुमा कुछ पुस्तकें प्रका शत हो चुकी थीं। गासार्व द तासी, शव संह सेंगर,
ग्रयसर्वन आ द इस क्षेत्रि में कुछ प्रयास कर चुके थे।
● मश्रबन्धुओं ने ' मश्रबंधु- वनोद' तैयार कया था।
● शुक्ल जी ने मश्र बन्धु वनोद का भरपूर उपयोग कया था।
● ऑनलाइन संपादन प्रमुख लेखक तथा भाषा शक्षक डॉ. सुरेश कुमार मश्रा, रं गारे ड्डी आंध्र प्रदे श
के नेतत्ृ व दल में संपन्न हु आ।
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आचायर्व रामचंद्रि शुक्ल के द्वारा हन्दी सा हत्य का काल वभाजन एवं नामकरण

❖ शुक्लजी ने अपने हंदी सा हत्य के इ तहास में दोहरा नामकरण करते हु ए उसका
प्रारूप नम्न प्रकार से दया है -

1. आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

2. पूवर्व मध्यकाल (भिक्तकाल) (1375-1700 व.)

3. उत्तर मध्यकाल (री तकाल) (1700-1900 व.)

4. आधु नक काल (गद्य काल) (1900-1984 व.)

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प्रमुख रासो ग्रन्थ

● खुमान रासो- दलप त वजय


● बीसलदे व रासो - नरप त नाल्ह
● पृथ्वीराज रासो - चंदबरदाई
● जयचंदप्रकाश - भट्ट केदार
● परमाल रासो - जग नक
● रणमल्ल छं द - श्रीधर
● हम्मीर रासो - शा र्वधर
● फूटकल रचनाएँ
● खुसरो
● वद्याप त

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रासो सा हत्य की प्रमुख वशेषताएँ

● इन रचनाओं में क वयों द्वारा अपने आश्रयदाताओं के शौयर्व एवं ऐश्वयर्व का


अ तशयोिक्तपूणर्व वणर्वन कया गया है ।
● यह सा हत्य मुख्यतः चारण क वयों द्वारा रचा गया।
● इन रचनाओं में ऐ तहा सकता के साथ-साथ क वयों द्वारा अपनी कल्पना का
समावेश भी कया गया है ।
● इन रचनाओं में युद्धप्रेम का वणर्वन अ धक कया गया है ।
● इन रचनाओं में वीर रस व शृंगार रस की प्रधानता है ।
● इन रचनाओं में डंगल और पंगल शैली का प्रयोग हु आ है ।
● इनमें व वध प्रकार की भाषाओं एवं अनेक प्रकार के छं दों का प्रयोग कया गया है ।

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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

● प्राकृ त की अं तम अपभ्रंश अवस्था से ही हन्दी सा हत्य का आ वभार्वव माना जा सकता है ।


● महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदे व के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है ।
● वद्याप त ने अपभ्रंश से भन्न, प्रच लत बोलचाल की भाषा को 'दे शी भाषा' कहा है ।
● इस आ दकाल के संबंध में ध्यान दे ने की यह है क इस काल की जो सा हित्यक सामग्री
प्राप्त है , उसमें कुछ तो असं दग्ध हैं और कुछ सं दग्ध हैं। असं दग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त
है , उसकी भाषा अपभ्रंश अथार्वत ् प्राकृ ताभास (प्राकृ त की रू ढ़यों में बहु त कुछ बद्ध ) हन्दी
है ।
● भरत मु न ( वक्रम तीसरी शताब्दी) ने 'अपभ्रंश' नाम न दे कर लोकभाषा को 'दे शभाषा' ही
कहा है ।
● वररु च के 'प्राकृ तप्रकाश' में भी अपभ्रंश का उल्लेख नहीं है ।
● अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द् वतीय के शलालेख में मलता है ,
िजसमें उसने अपने पता गुहसेन ( व. संवत ् 650 के पहले) को संस्कृ त; प्राकृ त और
अपभ्रंश तीनों का क व कहा है । भामह ( वक्रम सातवीं शती) ने भी तीनों भाषाओं का
उल्लेख कया है ।
● नाथपंथ के इन जो गयों ने परं परागत@ सा
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study with की भाषा या काव्यभाषा से, िजसका ढाँचा
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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

● कबीर की 'साखी', 'रमैनी' (गीत) की भाषा में पाते हैं। साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी
म श्रत सामान्य 'सधुक्कड़ी' भाषा है पर रमैनी के पदों की भाषा में काव्य की ब्रजभाषा और
कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है ।
● ध्यान दे ने पर यह बात भी ल क्षत होगी क ज्यों-ज्यों काव्यभाषा दे शभाषा की ओर अ धक
प्रवृत्त होती गई त्यों-त्यों तत्सम संस्कृ त शब्द रखने में संकोच भी घटता गया। शारं गधर के
पद्यों और की तर्वलता में इसका प्रमाण मलता है ।
● राजसभाओं में सुनाए जाने वाले नी त, श्रृंगार आ द वषय प्राय: दोहों में कहे जाते थे और
वीररस के पद्य छप्पय में ।
● राजा श्रत क व अपने राजाओं के शौयर्व, पराक्रम और प्रताप का वणर्वन अनूठी उिक्तयों के साथ
कया करते थे और अपनी वीरोल्लासभरी क वताओं से वीरों को उत्सा हत कया करते थे।इसी
र क्षत परं परा की सामग्री हमारे हन्दी सा हत्य के प्रारं भक काल में मलती है । इसी से यह
काल 'वीरगाथा काल' कहा गया।
● इस वीरगाथा को हम दोनों रूपों में पाते हैं मुक्तक के रूप में भी और प्रबंध के रूप में भी।
● सा हित्यक प्रबंध के रूप में जो सबसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है , वह है 'पृथ्वीराजरासो'।
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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

● वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदे वरासो' मलती है
● यहाँ पर वीरकाल के उन ग्रंथों का उल्लेख कया जाता है , िजसकी या तो प्र तयाँ मलती हैं या
कहीं उल्लेख मात्रि पाया जाता है । ये ग्रंथ 'रासो' कहलाते हैं। कुछ लोग इस शब्द का संबंध
'रहस्य' से बतलाते हैं। पर 'बीसलदे वरासो' में काव्य के अथर्व में 'रसायण' शब्द बार-बार आया है
। अत: हमारी समझ में इसी 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है ।
● खुमानरासो संवत ् 810 और 1000 के बीच में चत्तौड़ के रावल खुमान नाम के तीन राजा हु ए हैं
। कनर्वल टाड ने इनको एक मानकर इनके युध्दों का वस्तार से वणर्वन कया है ।
● खुम्माण ने 24 युद्ध कए और व. संवत ् 869 से 893 तक राज्य कया। यह समस्त वणर्वन
'दलपत वजय' नामक कसी क व के र चत खुमानरासो के आधार पर लखा गया जान पड़ता
है । अतएव 190 वषर्षों का औसत लगाने पर तीनों खुम्माणों का समय अनुमानत: इस प्रकार
ठहराया जा सकता है
○ खुम्माण (पहला)ए व. संवत ् 810-865
○ खुम्माण (दूसरा)ए व. संवत ् 870-900
○ खुम्माण (तीसरा)ए व. संवत ् 965-990
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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

● नरप त नाल्ह ने बीसलदे वरासो' नामक एक छोटा-सा (100 पृष्ठों का) ग्रंथ लखा है जो वीरगीत
के रूप में है
○ खंड 1 मालवा के भोज परमार की पुत्रिी राजमती से साँभर के बीसलदे व का ववाह होना।
○ खंड 2 बीसलदे व का राजमती से रूठकर उड़ीसा की ओर प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वषर्व
रहना।
○ खंड 3 राजमती का वरह वणर्वन तथा बीसलदे व का उड़ीसा से लौटना।
○ खंड 4 भोज का अपनी पुत्रिी को अपने घर लवा ले जाना तथा बीसलदे व का वहाँ जाकर
राजमती को फर चत्तौड़ लाना।
● सा हत्य की सामान्य भाषा ' हन्दी' ही थी जो पंगल भाषा कहलाती थी।
● प्रादे शक बो लयों के साथ-साथ ब्रज या मध्य दे श की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य
सा हित्यक भाषा भी स्वीकृ त हो चुकी थी, जो चारणों में पंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी

● अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो सा हित्यक रूप था वह ' डंगल' कहलाता था।
● बीसलदे वरासो में श्रृंगार रस की प्रधानता है l
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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

● चंदबरदाई (संवत ् 1225-1249) ये हन्दी के प्रथम महाक व माने जाते हैं और इनका
पृथ्वीराजरासो हन्दी का प्रथम महाकाव्य है ।
● चंद दल्ली के अं तम हंद ू सम्राट, महाराजा पृथ्वीराज के सामंत और राजक व प्र सद्ध हैं।
● पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहु त बड़ा ग्रंथ है िजसमें 69 समय (सगर्व या अध्याय) हैं।
● रासो के पछले भाग का भी चंद के पुत्रि जल्हण द्वारा पूणर्व कया जाना कहा जाता है ।
● पृथ्वीराज की राजसभा के कश्मीरी क व जयानक ने संस्कृ त में 'पृथ्वीराज वजय' नामक एक
काव्य लखा है जो पूरा नहीं मलता है ।
● भट्ट केदार, मधुकर क व (संवत ् 1224-1243),भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट जयचंद का
गुण गाया है ।
● भट्ट केदार ने 'जयचंदप्रकाश' नाम का एक महाकाव्य लखा था िजसमें महाराज जयचंद के
प्रताप और पराक्रम का वस्तृत वणर्वन था।
● जयमयंकजसचं द्रिका' नामक एक बड़ा ग्रंथ मधुकर क व ने भी लखा था।
● जग नक (संवत ् 1230) ऐसा प्र सद्ध है क का लंजर के राजा परमार के यहाँ जग नक नाम
के एक भाट थे, िजन्होंने महोबे के दो प्र सद्ध वीरों आल्हा और ऊदल (उदय संह) के
वीरच रत का वस्तृत वणर्वन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लखा था
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आ दकाल (वीरगाथाकाल) (1050-1375 व.)

बारह ब रस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै िजऐं सयार।


ब रस अठारह छत्रिी जीऐं, आगे जीवन के धक्कार।

● इन गीतों के समुच्चय को सवर्वसाधारण 'आल्हाखंड' कहते हैं िजससे अनुमान होता है क आल्हा
संबंधी ये वीरगीत जग नक के रचे उस बड़े काव्य के एक खंड के अंतगर्वत थे जो चंदेलों की वीरता के
वणर्वन में लखा गया होगा
● आल्हा और ऊदल परमाल के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्ष त्रिय थे।
● श्रीधर इन्होंने संवत ् 1454 में 'रणमल्ल छं द' नामक एक काव्य रचा िजसमें ईडर के राठौर राजा
रणमल्ल की उस वजय का वणर्वन है
● खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरं जन था। पर कबीर धमर्मोपदे शक थे
● वद्याप त को पदावली की रचना के कारण 'मै थलको कल' कहा गया है ।
● वद्याप त संवत ् 1460 में तरहु त के राजा शव संह के यहाँ वतर्वमान थे।
● मोटे हसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझना चा हए।
● हन्दी सा हत्य के इ तहास की एक वशेषता यह भी रही क एक व शष्ट काल में कसी रूप की जो
काव्यस रता वेग से प्रवा हत हु ई, वह यद्य प आगे चलकर मंद ग त से बहने लगी, पर 900 वषर्षों के
हन्दी सा हत्य के इ तहास में हम उसे कभी सवर्वथा सूखी हु ई नहीं पाते।
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