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पूर्व मध्यकाल (भक्ति काल) सं॰1375 से 1700 तक
•
हिंदी साहित्य का भक्तिकाल 1375 वि0 से 1700 वि0 तक माना जाता है। यह युग
भक्तिकाल के नाम से प्रख्यात है। यह हिंदी साहित्य का श्रेष्ठ युग है। समस्त हिंदी साहित्य
के श्रेष्ठ कवि और उत्तम रचनाएं इस युग में प्राप्त होती हैं।
•रामानुजाचार्य की परंपरा में रामानंद हुए। आपका व्यक्तित्व असाधारण था। वे उस समय के
सबसे बड़े आचार्य थे। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ऊं च-नीच का भेद तोड़ दिया। सभी जातियों
के अधिकारी व्यक्तियों को आपने शिष्य बनाया। उस समय का सूत्र हो गयाः जाति-
पांतिपूछेनहिंकोई। हरि को भजै सो हरि का होई।।
•इसके उपरांत माध्व तथा निंबार्क संप्रदायों का भी जन-समाज पर प्रभाव पड़ा है। साधना-
क्षेत्र में दो अन्य संप्रदाय भी उस समय विद्यमान थे। नाथों के योग-मार्ग से प्रभावित संत
संप्रदाय चला जिसमें प्रमुख व्यक्तित्व संत कबीरदास का है। मुसलमान कवियों का
सूफीवाद हिंदुओं के विशिष्टाद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है।
• कु छ भावुक मुसलमान कवियों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्तम
रचनाएं लिखी गईं। संक्षेप में भक्ति-युग की चार प्रमुख काव्य-धाराएं
मिलती हैं : ज्ञानाश्रयी शाखा, [प्रेमाश्रयी शाखा], रामाश्रयी शाखा
और कृ ष्णाश्रयी शाखा प्रथम दोनों धाराएं निर्गुण मत के अंतर्गत आती
हैं, शेष दोनों सगुण मत के ।
संत कवि
निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख संत कवियों का
परिचय कबीर, कमाल, रैदास या रविदास, धर्मदास, गुरू
नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, रज्जब, मलूकदास, अक्षर
अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी, हरिदास निरंजनी ।
भक्तिकाल की परिस्थितियाँ
राजनैतिक परिस्थितियाँ) से संवत् 1700 (सन 1643) तक माना गया है । यह दौर युद्ध, संघर्ष और
अशांति का समय है । मुहम्मद बिन तुगलक से लेकर शाहजहाँ तक का शासन काल इस सीमा में आता
है ।
इस अवधि में तीन प्रमुख मुस्लिम वंशों-पठान, लोदी
भक्ति काल का समय संवत् 1400 (सन 1343और मुगल का साम्राज्य रहा । छोटे-छोटे राज्यों को
हड़पने और साम्राज्य विस्तार की अभिलाषा ने युद्धों को जन्म दिया । इस राज्य संघर्ष परम्परा का
आरम्भ सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक से शुरु हुआ। तुगलक के बाद सुलतान मुहम्मद शाह गद्दी पर बैठा
। सन 1412 में उसकी मृत्यु के साथ तुगलक वंश समाप्त हुआ । इसके बाद लोदी वंश के बादशाहों ने
साम्राज्यवाद को बढ़ावा दिया । अंतिम बादशाह इब्राहिम लोदी था, जिसका अंत सन् 1526 में हुआ ।
इसके बाद मुगल वंश का शासन आरंभ हुआ । जिसमें क्रमश: बाबर,हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर तथा
शाहजहाँ ने राज्य किया मुगलवंशीय बादशाह यद्यपि काव्य और कला प्रेमी थे, किं तु निरंतर युद्धों,
अव्यवस्थित शासन-व्यवस्था और पारिवारिक कलहों से देश में अशांति ही रही । मुगलवंशीय शासकों में
अकबर का राज्य सभी दृष्टियों से सर्वोपरि और व्यवस्थित रहा । इसका प्रभाव उसके उत्तराधिकारी
शासकों पर भी रहा ।
•सामाजिक परिस्थितियाँ
•इस काल में हिंदु समाज की स्थिति अत्यंत शोचनीय थी । यह असहाय, दरिद्रता और
अत्याचार की भट्टी में झुलस रहा था । स्वार्थवश या बलात्कार के कारण हिंदू मुस्लिम धर्म
स्वीकार कर रहे थे । हिंदू कन्याओं का यवनों से बलात विवाह का क्रम चल रहा था । दास प्रथा
भी प्रचलित थी । संपन्न मुसलमान हिंदू कन्याओं को क्रय कर रहे थे । कु लीन नारियों का
अपहरण कराके अमीर लोग अपना मनोरंजन किया करते थे । परिणाम स्वरूप हिंदू जनता ने
इस सामाजिक आक्रमण से बचने के लिए अनेक उपाय किए । बाल विवाह और परदा-प्रथा इस
आक्रमण से बचने का ही उपाय था । वर्णाश्रम (जाति-प्रथा) सुदृढ़ हो गई थी । रोजी -रोटी के
साधन छिन जाने से वह गरीब होता गया और जीविकोपार्जन के लिए मुसलमानों के सम्मुख
आत्मसपर्पण
•करता रहा । कालान्तर में मुस्लिम शासकों में सद्-भाव और सहिष्णुता के भाव जागे । इस
प्रवृत्ति को सूफी साधकों का प्रश्रय प्राप्त था । इस्लाम प्रचार की यह विशेषता बन गई कि
तलवार द्वारा आतंक उत्पन्न करने के बाद प्रेम की मरहम पट्टी बाँध दी जाए ।
•इस प्रकार भक्तिकाल राजनीतिक दृष्टि से युद्ध, संघर्ष और अशांति का काल था । हिंदू-समाज
पर होने वाले सामाजिक और आर्थिक अत्याचारों का समय था ।
प्रस्तुत कर्ता :- डॉ शिवहर बिरादार
भाषाई विभाग हिन्दी ,
अरोरा डिग्री एवं पी.जी कॉलेज
भक्ति काल विभाजन एवं नामकरण
• जायसी
• तन चितउर, मन राजा कीन्हा।हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेइ पंथ देखावा।बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा?॥
नागमती यह दुनिया-धंधा । बाँचा सोइ न एहि चित बंधा ॥
राघव दूत सोई सैतानू।माया अलाउदीं सुलतानू ॥
प्रेम-कथा एहि भाँति बिचारहु।बूझि लेहु जौ बूझै पारहु॥
जायसी का जीवन परिचय
• जायसी का जन्म सन 1500 के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के
रहनेवाले थे। उनके नाम में जायसी शब्द का प्रयोग, उनके उपनाम की भांति, किया जाता है। यह भी इस
बात को सूचित करता है कि वे जायस नगर के निवासी थे। इस संबंध में उनका स्वयं भी कहना
है, जायस नगर मोर अस्थानू।
• नगरक नांव आदि उदयानू।
• तहां देवस दस पहुने आएऊं ।
• भा वैराग बहुत सुख पाएऊं ।। (आखिरी कलाम 10)।
• इससे यह पता चलता है कि उस नगर का प्राचीन नाम उदयान था, वहां वे एक पहुने जैसे दस दिनों के
लिए आए थे, अर्थात उन्होंने अपना नश्वर जीवन प्रारंभ किया था अथवा जन्म लिया था और फिर
वैराग्य हो जाने पर वहां उन्हें बहुत सुख मिला था। जायस नाम का एक नगर उत्तर प्रदेश के रायबरेली
जिले में आज भी वर्तमान है, जिसका एक पुराना नाम उद्याननगर 'उद्यानगर या उज्जालिक नगर'
बतलाया जाता है तथा उसके कं चाना खुर्द नामक मुहल्ले में मलिक मुहम्मद जायसी का जन्म-स्थान होना
भी कहा जाता है। कु छ लोगों की धारणा कि जायसी की किसी उपलब्ध रचना के अंतर्गत उसकी निश्चित
जन्म-तिथि अथवा जन्म-संवत का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं पाया जाता। एक स्थल पर वे कहते हैं,
• भा अवतार मोर नौ सदी।
• तीस बरिख ऊपर कवि बदी (आखिरी कलाम 4)।
• जिसके आधार पर के वल इतना ही अनुमान किया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः 800
हि एवं 900 हि. के मध्य, अर्थात सन 1397 ई और 1494 ई के बीच किसी समय हुआ होगा
तथा तीस वर्ष की अवस्था पा चुकने पर उन्होंने काव्य-रचना का प्रारंभ किया होगा। पद्मावत का
रचनाकाल उन्होंने 947 हि (सन नौ से सैंतालीस अहै- पद्मावत 24)। अर्थात 1540 ई
बतलाया है। पद्मावत के अंतिम अंश(653) के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि उसे
लिखते समय तक वे वृद्ध हो चुके थे।
• उनके पिता का नाम मलिक राजे अशरफ़ बताया जाता है और कहा जाता है कि वे मामूली
ज़मींदार थे और खेती करते थे। स्वयं जायसी का भी खेती करके जीविका-निर्वाह करना प्रसिद्ध
है। जायसी ने अपनी कु छ रचनाओं में अपनी गुरु-परंपरा का भी उल्लेख किया है। उनका कहना
है, सैयद अशरफ़, जो एक प्रिय संत थे मेरे लिए उज्ज्वल पंथ के प्रदर्शक बने और उन्होंने प्रेम का
दीपक जलाकर मेरा हृदय निर्मल कर दिया।
• इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं कि अमेठी नरेश इनके संरक्षक थे।
• सूफी मत - शब्द की उत्पत्ति एवं परिचय
• जिस प्रकार मध्यकालीन भारत में हिन्दुओं में भक्ति-आन्दोलन प्रारम्भ हुआ, उसी प्रकार
मुसलमानों में प्रेम-भक्ति के आधार पर सूफीवाद का उदय हुआ। सूफी शब्द की उत्पत्ति कहाँ से
हुई, इस विषय पर विद्वानों में विभिन्न मत है। कु छ विद्वानों का विचार है कि इस शब्द की
उत्पत्ति सफा शब्द से हुई। सफा का अर्थ पवित्र है। मुसलमानों में जो सन्त पवित्रता और त्याग का
जीवन बिताते थे, वे सूफी कहलाये। एक विचार यह भी है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफा से
हुई, जिसका अर्थ है ऊन। मुहम्मद साहब के पश्चात् जो सन्त ऊनी कपड़े पहनकर अपने मत का
प्रचार करते थे, वे सूफी कहलाये। कु छ विद्वानों का विचार है कि सूफी शब्द की उत्पत्ति ग्रीक
भाषा के शब्द सोफिया से हुई, जिसका अर्थ ज्ञान है।
• इस काल के प्रसिद्ध सूफी सन्तों में ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा कु तुबुद्दीन, सन्त फरीद और
निजामुद्दीन औलिया प्रमुख थे। ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती मुहम्मद गोरी के साथ भारत आये और
अजमेर को उन्होंने अपना निवास-स्थान बनाया। हिन्दू और मुसलमान, दोनों पर इनके सिद्धान्तों
का गहरा प्रभाव पड़ा। आज भी अजमेर में इनकी समाधि पर हजारों श्रद्धालु भक्त देश के विभिन्न
भागों से आते हैं।
• ख्वाजा कु तुबुद्दीन इल्तुतमिश के शासन-काल में दिल्ली आए। सुल्तान इल्तुतमिश इनसे बड़ा प्रभावित था।
यह बड़ी सादगी और पवित्रता का जीवन बिताते थे। इनके प्रसिद्ध शिष्य सन्त फरीद हुए। सन्त फरीद का
वास्तविक नाम ख्वाजा मसूदा बिन कमालुद्दीन था। इन्होंने प्रेम एवं पवित्रता का उपदेश दिया।
• शेख निजामुद्दीन औलिया प्रसिद्ध सूफी सन्त हुए हैं। यह ग्यासुद्दीन तुगलक और मुहम्मद तुगलक के समकालीन
थे। दिल्ली इनके कार्यकलापों का प्रमुख के न्द्र थी। मुहम्मद तुगलक इनका प्रिय शिष्य था। सुल्तान ग्यासुद्दीन
इनसे अप्रसन्न रहता था। उसकी अप्रसन्नता का कारण यह था कि खुसरो ने जो धन औलिया को दान दिया
था, वह ग्यासुद्दीन तुगलक ने सुल्तान बनते ही उनसे वापस माँगा, परन्तु औलिया ने वह धन दीन-दुखियों में
बाँट दिया था। निजामुद्दीन औलिया का जनसाधारण पर बड़ा प्रभाव था और इस कारण सुल्तान भी उनका
कु छ न बिगाड़ सका। जब सुल्तान बंगाल-विजय से लौट रहा था, उसने शेख को धमकी भरा सन्देश भेजा कि
वह दिल्ली पहुँचने पर उसे समझ लेगा। औलिया ने इसके उत्तर में कहा- हनोज दिल्ली दूर अस्त– अर्थात् दिल्ली
अभी दूर है। ग्यासुद्दीन तुगलक दिल्ली न पहुँच सका और लकड़ी का महल गिरने से रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो
गई। औलिया की समाधि निजामुद्दीन (दिल्ली) में है, जहाँ हजारों श्रद्धालु अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने आते हैं।
• सूफी मत के चार सिद्धांत है ।
1. तरिकत
2. शरीकट
3. हक़ीक़त
4. फ़ना
पद्मावत महाकाव्य कथा
- जायसी
• सिंहलद्वीप पद्मिनी रानी।
• रतनसेन चितउर गढ़ आनी।।
• अलाउद्दीन देहली सुल्तानू।
• राघव चेतन कीन्ह बखानू।।
• सुना साहि गढ़ छेंकन आई।
• हिंदू तुरकन्ह भई लराई।।
पदमावती
• हीरामन की कथा सिंहल द्वीप (श्रीलंका) का राजा गंधर्वसेन था, जिसकी कन्या पदमावती थी, जो पद्मिनी थी।
उसने एक तोता पाल रखा था, जिसका नाम हीरामन था। एक दिन पदमावती की उपपस्थिति में तोता उनके
कक्ष में जाता है । और पदमावती के सुंदरता की तारीफ करता है और उसके योग्य वर की खोज में जनेकी बात
पदमावती से कहता है। उसके बाद तोता वहा से वर की खोज में निकला और एक बहिलिए के द्वारा फँ सा लिया
गया। उस बहेलिए से उसे एक ब्राह्मण ने मोल ले लिया, जिसने चित्तौड़ आकर उसे वहाँ के राजा रतनसिंह
राजपूत के हाथ बेच दिया। इसी तोते से राजा ने पद्मिनी (पदमावती) के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुना, तो उसे
प्राप्त करने के लिये योगी बनकर निकल पड़ा।अनेक वनों और समुद्रों को पार करके वह सिंहल पहुँचा। उसके
साथ में वह तोता भी था।तोता के द्वारा उसने पदमावती के पास अपना प्रेमसंदेश भेजा। पदमावती जब उससे
मिलने के लिये एक शिव मंदिर में आई, उसको देखकर वह मूर्छित हो गया और पदमावती उसको अचेत
छोड़कर चली गई। चेत में आने पर रतनसेन बहुत दु:खी हुआ। जाते समय पदमावती ने उसके हृदय पर चंदन
से यह लिख दिया था कि उसे वह तब पा सके गा जब वह सात आकाशों (जैसे ऊँ चे) सिंहलगढ़ पर चढ़कर
आएगा।
• अत: उसने तोता के बताए हुए गुप्त मार्ग से सिंहलगढ़ के भीतर प्रवेश किया। राजा को जब यह सूचना
मिली तो उसने रतनसेन को सूली देने का आदेश दिया किं तु जब हीरामन से रतनसिंह राजपूत के बारे
में उसे यथार्थ तथ्य ज्ञात हुआ, उसने पदमावती का विवाह उसके साथ कर दिया।
• रतनसिंह राजपूत पहले से ही विवाहित था और उसकी उस विवाहिता रानी का नाम नागमती था।
रतनसेन के विरह में उसने बारह महीने कष्ट झेल कर किसी प्रकार एक पक्षी के द्वारा अपनी विरहगाथा
रतनसिंह राजपूत के पास भिजवाई और इस विरहगाथा से द्रवित होकर रतनसिंह पदमावती को लेकर
चित्तौड़ लौट आया।
• यहाँ, उसकी सभा में राघव नाम का एक तांत्रिक था, जो असत्य भाषण के कारण रतनसिंह द्वारा
निष्कासित होकर तत्कालीन सुल्तान अलाउद्दीन की सेवा में जा पहुँचा और जिसने उससे पदमावती
के सौंदर्य की बड़ी प्रशंसा की। अलाउद्दीन पदमावती के अद्भुत सौंदर्य का वर्णन सुनकर उसको प्राप्त
करने के लिये लालायित हो उठा और उसने इसी उद्देश्य से चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।
•
• दीर्घ काल तक उसने चित्तौड़ पर घेरा डाल रखा, किं तु कोई सफलता होती उसे न दिखाई पड़ी,
इसलिये उसने धोखे से रतनसिंह राजपूत को बंदी करने का उपाय किया। उसने उसके पास संधि का
संदेश भेजा,और एक शर्त राखी कहा की रानी अपनी सुंदरता को आईने(अक्स,दर्पण) मे दिखा दे तो
हम चले जाएगे ,कहता है।उस के बाद सुंदरता देख कर युद्ध छेड़ देता है।
• चित्तौड़ में पदमावती अत्यंत दु:खी हुई और अपने पति को मुक्त कराने के लिये वह अपने सामंतों गोरा
तथा बादल के घर गई। गोरा बादल ने रतनसिह राजपूत को मुक्त कराने का बीड़ा लिया। उन्होंने
सोलह सौ डोलियाँ सजाईं जिनके भीतर राजपूत सैनिकों को रखा और दिल्ली की ओर चल पड़े। वहाँ
पहुँचकर उन्होंने यह कहलाया कि पद्मावती अपनी चेरियों के साथ सुल्तान की सेवा में आई है और
अंतिम बार अपने पति रतनसेन से मिलने के लिय आज्ञा चाहती है। सुल्तान ने आज्ञा दे दी। डोलियों
में बैठे हुए राजपूतों ने रतनसिंह राजपूत को बेड़ियों से मुक्त किया और वे उसे लेकर निकल भागे।
सुल्तानी सेना ने उनका पीछा किया, किं तु रतन सिंह राजपूत सुरक्षित रूप में चित्तौड़ पहुँच ही गया।
• जिस समय वह दिल्ली में बंदी था, कुं भलनेर के राजा देवपाल ने पदमावती के पास एक दूत भेजकर उससे
प्रेमप्रस्ताव किया था। रतन सिंह राजपूत से मिलने पर जब पदमावती ने उसे यह घटना सुनाई, वह
चित्तौड़ से निकल पड़ा और कुं भलनेर जा पहुँचा। वहाँ उसने देवपाल को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा। उस
युद्ध में वह देवपाल की सेल से बुरी तरह आहत हुआ और यद्यपि वह उसको मारकर चित्तौड़ लौटा किं तु
देवपाल की सेल के घाव से घर पहुँचते ही मृत्यु को प्राप्त हुआ। पदमावती और नागमती ने उसके शव के
साथ चितारोहण(जोहर)किया। अलाउद्दीन भी रतनसिंह राजपूत का पीछा करता हुआ चित्तौड़ पहुँचा,
किं तु उसे पदमावती न मिलकर उसकी चिता की राख ही मिली।
• इस कथा में जायसी ने इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण
किया है कि हिंदी साहित्य में दूसरी कथा इन गुणों में "पदमावत" की ऊँ चाई तक नहीं पहुँच सकी है।
प्रस्तुत कर्ता :- डॉ शिवहर बिरादार
भाषाई विभाग हिन्दी ,
अरोरा डिग्री एवं पी.जी कॉलेज
3.रामभक्ति
सगुण धारा
• ग्रंथ – रामचरित मानस
• कवि – तुलसीदास
• शैली – मसनवी
• भाषा – अवधि
• कु छ प्रमुख कृ तियाँ
• रामचरितमानस, कवितावली,
• विनय-पत्रिका, विनयावली,
• दोहावली, गीतावली,
• पार्वती-मंगल, रामलला नहछू ,
• बरवै रामायण,
तुलसी मीठे बचन ते सुख उपजत चहु ओर! बसीकरण एक मंत्र है परिहरु बचन
कठोर!!
तुलसीदास
तुलसी साथी विपत्ति के विद्या, विनय, विवेक! साहस सुकृ ति सुसत्याव्रत राम जन्म: 1532 निधन:
भरोसे एक!! 1623
तुलसीदास का परिचय :-
•तुलसीदास जी का जन्म 1511 ई. में हुआ था। इनके जन्म स्थान के बारे में काफी मतभेद है, परन्तु अधिकांश विद्वानों के अनुसार
इनका जन्म राजापुर, चित्रकू ट जिला, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके बचपन का नाम रामबोला था और इनके पिता जी का
नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसी दास के गुरु का नाम नर हरिदास था।
•अक्सर लोग अपनी मां की कोख में 9 महीने रहते हैं लेकिन तुलसी दास जी अपने मां के कोख में 12 महीने तक रहे और जब इनका
जन्म हुआ तो इनके दाँत निकल चुके थे और उन्होंने जन्म लेने के साथ ही राम नाम का उच्चारण किया जिससे इनका नाम बचपन में
ही रामबोला पड़ गया।
•जन्म के अगले दिन ही उनकी माता का निधन हो गया। इनके पिता ने किसी और दुर्घटनाओं से बचने के लिए इनको चुनिया नामक
एक दासी को सौंप दिया और स्वयं सन्यास धारण कर लिए। चुनिया रामबोला का पालन पोषण कर रही थी और जब रामबोला साढ़े
पाँच वर्ष का हुआ तो चुनिया भी चल बसी। अब रामबोला अनाथों की तरह जीवन जीने के लिए विवश हो गया।
•तुलसीदास के गुरु नर हरिदास को बहुचर्चित रामबोला मिला और उनका नाम रामबोला से बदलकर तुलसी राम रखा और उसे
अयोध्या उत्तर प्रदेश ले आए। तुलसी राम जी ने संस्कार के समय बिना कं ठस्थ किए गायत्री मंत्र का स्पष्ट उच्चारण किया। यह देख सभी
लोग आश्चर्यचकित रह गए। तुलसी राम जी काफी तेज बुद्धि वाले थे, वे जोभी एक बार सुन लेते थे तो उन्हें कं ठस्थ हो जाता था।
•29 वर्ष की अवस्था में राजापुर के निकट स्थित यमुना के उस पार तुलसीदास विवाह एक सुंदर कन्या रत्नावली के साथ हुआ। गौना
न होने की वजह से वह कु छ समय के लिए काशी चले गए।
•काशी में रहकर हुए वेद वेदांग के अध्ययन में जुट गए। अचानक उनको अपनी पत्नी रत्नावली की याद सतायी और वह व्याकु ल होने
लगे तभी उन्होंने अपने गुरु से आज्ञा लेकर राजापुर आ गए।
•उनका अभी गौना नहीं हुआ था तो उनकी पत्नी मायके में ही थी, अंधेरी रात में ही यमुना को तैरकर पार करते हुए अपनी पत्नी के
कक्ष पहुँचे गए। उनकी पत्नी ने उन्हें लोक-लज्जा के भय से वापस चले जाने के लिए आग्रह किया। उनकी पत्नी रत्नावली स्वरचित एक
दोहे के माध्यम से उनको शिक्षा दी। ये दोहा सुनने के बाद तुलसी राम से तुलसी दास बन गए।
•वह दोहा इस प्रकार है-
अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत।।
•ये दोहा सुनकर वे अपनी पत्नी का त्याग करके गांव चले गए और साधू बन गए, और वहीं पर रहकर भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
उसके बाद 1582 ई. में उन्होंने श्री रामचरितमानस लिखना प्रारंभ किया और 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन में यह ग्रंथ संपन्न हुआ।
•उन्होंने अपनी अंतिम कृ ति विनयपत्रिका को लिखा और 1623 ई. में श्रावण मास तृतीया को राम-राम कहते हुए अपने शरीर का
परित्याग कर दिया और परमात्मा में लीन हो गए।
प्रस्तुत कर्ता :- डॉ शिवहर बिरादार
भाषाई विभाग हिन्दी ,
अरोरा डिग्री एवं पी.जी कॉलेज
4. कृ ष्णभक्ति
सगुण धारा
"सूरसागर" सूरदास की सभी ज्ञात
रचनाओं का संकलन है जिसमें
इनकी लगभग 5000 रचनाएँ
संकलित हैं।