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प्राचीन भारत मे आश्रम व्यवस्था
प्राचीन भारत मे आश्रम व्यवस्था
प्राचीन हिन्द ू समाज में आश्रम व्यवस्था का अपना एक विशेष महत्व रहा है । मानव के
सम्पूर्ण जीवन को व्यवस्थित करने के लिए प्राचीन मनीषियो ने उसे आश्रमों के अन्तर्गत
विभाजित किया है । पुरुषार्थो की प्राप्ति, जीवन की समग्रता, जीवन का सुव्यवास्थित रुप एवं
आध्यात्मिक उत्कर्ष की स्थापना आश्रम-व्यवस्था के बिना बहुत कठिन था। इसलिए वैदिक
आधार को तैयार करने के लिए हुयी। इस व्यवस्था के अन्तर्गत तपस्वी जीवन के परम ् उद्देश्य
मोक्ष को प्राप्त करना था। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नामक विभिन्न पुरुषार्थो की प्राप्ति ब्र ã चर्य,
गह
ृ स्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रमो में विभाजित जीवन रुपी शैली के द्वारा सम्भव मानी
गई।
ज्ञान एवं विज्ञान, लौकिक एवं पारलौकिक, कर्म एवं धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भत
ु
समन्वय है । इसमें जीवन की वास्तविकता को ध्यान मे रखते हुये मनष्ु य की सामान्य आयु
सौ वर्ष स्वीकर करते हुये धर्मानुरुप चारो पुरुषार्थो के समन्वय उपयोग हे तु जीवन को 25-25
1. कामसत्र
ू 1.2.1-6
आश्रम शब्द ’आ‘ उपसर्ग पर्व
ू क संस्कृत की श्रम धातु से बना हुआ है , जिसका अर्थ है
प्रयास अथवा परिश्रम करना। शाब्दिक रुप में आश्रम का अर्थ विश्राम का स्थान।1 इस तरह
आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति अपनी जीवन रुपी यात्रा में रुकता चलता है और
द्वारा किये जाने वाले श्रम को निम्न चार भागो में विभाजित किया जा सकता है -अध्यनात्मक,
सर्जनात्मक, तपस्यात्मक, योगात्मक। ब्र ã चर्य आश्रम के अन्तर्गत मनुष्य अध्यनात्मक श्रम
करता है , गह
ृ स्थाश्रम में मनुष्य सर्जन के लिए श्रम करता है , वानप्रस्थ में तप और सन्यास
आश्रम में योग की साधना के रुप में श्रम करता है । महाभारत में वेदव्यास का कथन है कि
चार आश्रम जीवन के विकास की सीढ़ियो के चार डंडे है । जिस पर चढ़कर व्यक्ति ब्र ã के पास
वैदिक काल में आश्रम व्यवस्था का उद्भव एवं विकास का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त
उत्तरवैदिक काल के ग्रन्थो में हमें स्पष्ट रुप से आश्रम व्यवस्था का उल्लेख प्राप्त होता है ।
सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारो आश्रमो का उल्लेख मिलता है । याज्ञवल्क्य ने जनक को चारो
आश्रमो की व्यवस्था के बारे में बताया। कुछ आधुनिक वि}k नो के मत के अनुसार चारो
मुनियो के प्रभाव से तपस्या का महत्व बढ़ने लगा सन्यास आश्रम का विधान किया गया।
महाभारत और परु ाण आश्रम व्यवस्था का उद्भव ब्र ãk से मानकर उसकी दै वी व्याख्या करते है ,
एवं पालन न करना नरक लोक की प्राप्ति मानी गई है । आश्रम व्यवस्था हिन्द ू समाज में
मूल में पुरुषार्थ की धारणा, ऋण की धारणा, यज्ञ, संस्कार आदि प्रमुखतः महत्वपूर्ण रहे है ।
आश्रम व्यवस्था का जो आधार था वो पुरुषार्थ की धारणा में निहित था। कपाडिया के अनुसार
”परुु षार्थ का सिद्धान्त हिन्द ू आश्रम व्यवस्था में प्रत्यक्ष रुप से अभिव्यक्ति होता है । ” चारो
व्यक्ति के व्यक्तित्व के इस बहुमुखी विकास के लिए आश्रम व्यवस्था को जन्म दिया गया।
इस आधार पर ब्र ã चर्य आश्रम मे व्यक्ति सैद्धान्तिक तथा व्यवहारिक रुप से धर्म के अर्थ को
गह
ृ स्थाश्रम में ब्र ã चर्य से प्राप्त हुआ ज्ञान एवं प्रशिक्षण को व्यावहारिक रुप मे प्रयोग
आश्रम के अन्तर्गत व्यक्ति जीवन के चरम ् लक्ष्य मोक्ष की साधना में लग जाता है ।
ऋण) था। प्रत्येक मनुष्य को अपना शरीर माता-पिता की कृपा से मिलता है इसलिए उसे माता-
पिता की सेवा करके, सन्तानोत्पत्ति करके पित ृ ऋण से उऋणि होना चाहिए। इसकी प्राप्ति के
लिए मनुष्य को गह
ृ स्थाश्रम में प्रवेश के बगैर प्राप्ति नही था इसी प्रकार ऋषि ऋण एवं दै व
आश्रम व्यवस्था का तीसरा आधार यज्ञ की भावना है । यज्ञ नामक शब्द का भाव कर्तव्य
है अर्थात करके किये जाने वाला कर्म यज्ञ कहा गया है । इस तरह प्रत्येक कर्म यज्ञ की श्रेणी
में आ जाता है । यज्ञो के अन्तर्गत पाँच महायज्ञ - पित-ृ यज्ञ, ऋषि यज्ञ, भत
ू -यज्ञ, नय
ृ ज्ञ, अतिथि
जाता है एवं इन्ही के माध्यम से वह अपने सर्वोच्य लक्ष्य की प्राप्ति करता है । इस प्रकार
आश्रम व्यवस्था यज्ञो की पूर्ति के लिए बनाई गई लगती से गुणात्मक आधार पर मानव -जीवन
को कई भागो में विभाजित करके आश्रमो की व्यवस्था की गई। आश्रमो की संख्या के सम्बन्ध
में कई धर्मसत्र
ू चार आश्रमो का वर्णन करते है । प्रारम्भ में आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत केवल
तरह शुरु में केवल तीन ही आश्रम थे। सन्यास आश्रम की अनिवार्यता नही थी। यह ऐन्छिक
था कोई ब्र ã चारी यदि गहृ स्थ एवं वानप्रस्थ का पालन किये बिने ही सीधे सन्यास आश्रम में
जाना चाहता था, तो उसकी छूट थी, क्योकि मन में भौतिक विषयो के प्रति विसक्ति-भाव आ
जाने पर वैराग्य हो जाया करता था अन्ततः ब्र ã चारी सन्यास ग्रहण कर लेता था। परन्तु
महाभारत में उल्लिखित है कि आश्रम-व्यवस्था चार पदो वाली सीढ़ी है जो परम ् ब्र ã की ओर
ले जाती है । जो क्रमशः इस सीढ़ी पर चढ़ने में समर्थ है वह ब्र ã लोक को प्राप्त करता है ।
ब्र ã णो के लिए चार आश्रम, क्षत्रियो के लिए सन्यास को छोड़ तीन आश्रम, वैश्यो के लिए
ब्र ã चर्य एवं गहृ स्थ एवं शूद्रो के एकमात्र गहृ स्थाश्रम की व्यवस्था थी।
चारो आश्रमो के सामान्य विवेचन के साथ अब हम इनके विशद स्वरुप एवं कर्तव्यो का
विवेचन प्रस्तत
ु करे गे।
ब्र ã चर्याश्रम(ब्र ã चर्य आश्रम)
प्रत्येक विभाग को आश्रम की संज्ञा दी गई है । इनमें सर्वप्रथम आश्रम ब्र ã चर्य है । ब्र ã चर्य दो
शब्दो ब्र ã+चर्य से बना है । ब्र ã का अर्थ महान एवं चर्य का अर्थ विचरण करना1। इस तरह
इसका शाब्दिक अर्थ महानता में विचरण है । जबकि इसका व्यावहारिक अर्थ है -उपस्थसंयम
अर्थात वीर्यरक्षा। संक्षिप्त रुप में ब्र ã चर्य का अर्थ इन्द्रिय संयम और वेदो का अध्ययन करने
बालक का उपनयन संस्कार समाप्त हो जाने के उपरान्त उसे वि|k ध्ययन कार्य में
लगाया जाता था। यही से ब्र ã चर्य आश्रम आरम्भ हो जाता था। ब्र ã चारी गुरुकुल में गुरु के
ब्र ã चर्य जीवन व्यतीत होता था। वहाँ उसकी दिनचर्या अत्यन्त कठोर एवं पवित्र होती थी।
बालक के भिक्षाटन, भोजन, शयन, सामिधादान, निवास आदि पर अनेक नियमो की व्यवस्था की
गई थी। ब्र ã चारी प्रतिदिन नियमपूर्वक प्रातःकाल सिर्फ पाँच घरो में भिक्षा माँगा करता था
और जो कुछ भी उसे मिलता था, वह गुरु को अर्पित कर दे ता था। ब्र ã चारी को भिक्षा दे ना
अनिवार्य था क्योकि भिक्षा न दे ने की स्थिति में ब्र ã चरियो द्वारा अनहोनी की संभावना रहती
थी
भिक्षाटन का ब्र ã चर्य आश्रम में अत्यन्त महत्व था। इसके द्वारा ब्र ã चारी के मन में
यह भाव भरना होता था कि वह यह अनुभव करे कि जब उसके पास कोई सहारा नही था तो
समाज के सहयोग से उसने ज्ञान को अर्जित किया। इससे ज्ञानी एवं धनी के बीच भेद
के केवल दो बार प्रातः एवं सायं ही भोजन करने की अनुमति थी, बीच में भोजन करना निषिद्ध
था। आश्रम के सम्पूर्ण कार्यो के सम्पादन एवं सम्पन्न करने का उत्तरदायित्व इन ब्र ã चारियो
का था जिसे वे आपस में बाँटकर इन कार्यो का निपटारा करते थे। प्रातः एवं सायं यज्ञो की
सुश्रुआ करना उसका कर्तव्य था।2 यह धारणा थी कि जो ब्र ã चारी आचार्य के कार्यो को अपना
समझकर निष्ठापूर्वक करते थे, उन्हे ब्र ã ज्ञान की प्राप्ति होती थी।
गया। ब्र ã चारियो के लिए नत्ृ य, गायन, वादन, इत्र, गन्ध, माला, जूता, छाता, अन्जन, á स- परिहास,
स्पर्श करना आदि निषिद्ध एवं सत्य बोलना, गर्वरहित होना और गुरु से पहले जागना आवश्यक
धर्म समन्वित करना ब्र ã चारी का श्रेष्ठ आचरण था। इन्द्रियसंयम से ही उसे सिद्धि प्राप्त होती
थी।4 इस प्रकार ब्र ã चारी जीवन कठोर साधना से परिपूर्ण था। जिसका उद्देश्य उसे आगे वाले
उन्हे ब्र ã चर्य व्रत धारण के साथ-साथ माता-पिता एवं बड़ो के प्रति आदर तथा आज्ञाकारिता
का भाव रखना होता था। इस व्यवस्था में ब्र ã चारी को केवल धर्म की साधना करनी होती थी
तथा नैतिक आदर्शो का पालन करना पड़ता था।
1. मनुस्मति
ृ , 2-48
2. मनुस्मति
ृ 2, 108,
3. बौधायन गहृ सत्र
ू , 1-2.21-22,25
4. मनुस्मति
ृ 2.88
ब्र ã चर्य स्वास्थ्य का प्रमुख अंग भी है । समस्त शारीरिक चेतनाश्रोत का मुख्यतः आधार
ब्र ã चर्य के पालन करने से प्राप्त होते हे । जिससे मनुष्य में दिव्य शक्ति का संचार होता है ।
ब्र ã चर्य से हीन व्यक्ति निर्बल, उत्साहहीन, निस्तेज हो जाता है । ऐसे मनष्ु यो से समाज अशक्त
एवम ् मत
ृ प्राय बन जाता है । ब्र ã चारी के साथ ही गरु
ु को भी शिष्य के प्रति कुछ निर्देश दिये
गये है कि वह उसे-1 आचार्यपुत्र, 2. ज्ञान प्रदान करने वाले, 3. धार्मिक, 4. पवित्र, 5. सेवा शुश्रूषा करने
धर्मानुसार पढ़ना चाहिए। इसी तरह से-1.कृतज्ञ, 2. मेधावी, 3. अद्रोही, 4. कल्याणकारी, 5. विश्वस्त, 6.
वह 25 वर्ष का हो जाता था। वैसे ब्र ã चारी 12, 24, 36, 48 वर्ष तक अध्ययनकर्ता के रुप में जीवन
जबिक मनु के अनुसार ब्र ã चारी गुरु के समीप 36 वर्ष तक वेदो के अध्ययन के लिए या 18 वर्ष
तक या चतर्था
ु श 9 वर्ष तक वेदो के ग्रहण करने की अवधि तक रहे ।1 ब्र ã चारी की भी दो
ग्रहन कर मोक्ष को प्राप्त करते थे जबकि उपकुर्णाक नियत समय तक अध्ययन करके गरु
ु को
मनुस्मति
ृ -3.1.11
ब्र ã चारी वि|k ध्ययन के लिए गुरु के समीप बैठकर संयमपूर्वक आचमन कर,
उत्तराभिमख
ु होकर गरु
ु के चरणों का वन्दन कर अध्ययन शरु
ु करता था। वह चारो वेदो के
अध्ययन कर नित्य गायत्री मंत्र का जाप करता था। ऋग्वेद का अध्ययन क्षीर की आहुति से ,
वाला मधु की आहुति से दे वताओ को तप्ृ त करता था। ब्र ã चारी को रात में कानो में तेज वायु
समावर्तन संस्कार के द्वारा ब्र ã चारी जीवन का अवसान हो जाता था। संस्कार के बाद
के तीन प्रकार वि|k स्नातक, व्रतस्नातक एवं वि|k व्रतस्नातक का वर्णन अश्वलायन गãृ सूत्र में
वर्णित है । जो सिर्फ वि|k को समाप्त कर ब्र ã चर्य को न समाप्त कर स्नान करता था वह वि|
k स्नातक कहलाता था। जो ब्र ã चर्यव्रत को समाप्त कर तथा वि|k को परू ा किये बिना ही
स्नान करता था उसे व्रतस्नातक कहा जाता था और जो वि|k एवं ब्र ã चर्य दोनो को समाप्त
कर स्नान करता था, वो वि|k व्रतस्नातक कहा जाता था। अब ये स्नातक अगले आश्रम में
निस्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ब्र ã चर्याश्रम से मानव जीवन में बौद्धिक, मानसिक,
आवश्यक था।
गह
ृ स्थ आश्रम
आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत ब्र ã चर्याश्रम के बाद दस
ू रा आश्रम गह
ृ स्थ आश्रम था।
इसकी अवधि 25 से लेकर 50 वर्ष के लगभग मानी गयी है । प्राचीन ग्रन्थों में गह
ृ स्थ आश्रम को
अन्य आश्रमो की तुलना में अत्यधिक महत्व दिया गया है । इसे सभी आश्रमो का श्रोत कहा
है ।1
गह
ृ स्थ शब्द का अर्थ है -पत्नी(पाणिग्रहीती) को प्राप्त करने वाला।2 इस तरह गह
ृ स्थ वो
आश्रम है जिसमें भार्या का ग्रहण किया जाता है । व्यक्ति विवाह संस्कार के माध्यम से
वाले गह
ृ स्थ अथवा गहृ पति कहलाते। गह
ृ स्थाश्रम का प्रारम्भ स्त्री के सहयोग से ही संम्भव
है । प्राचीन समय में समावर्तन संस्कार के पश्चात वैवाहिक जीवन की शुरुआत होती थी।
इस अवसर पर यज्ञादि धार्मिक संस्कार किये जाते थे। इस संस्कार में प्रयक्
ु त करने वाले
मंत्रो को गेहानप्र
ु वेशनीय कह जाता था।3 इस आश्रम में पति पत्नी परस्पर सहयोग करते हुये
धर्मानुसार व्यवहार करते थे।4 व्यास का कथन है कि गहृ ास्थाश्रम का पालन करने वाले
1.मनस्ु मति
ृ 3-77
2.कुल्लुक भट्ट मनु0, 3.2
3.महभारत, शान्ति पर्व, 243.13,14
4.गौतम धर्मसूत्र, 9-1
ऋग्वेदिक काल में आश्रमो की व्यवस्था नही थी। विवाह के उपरांत लोग गह
ृ स्थ जीवन व्यतीत
करते थे। फिर धिरे -धिरे अन्य आश्रमो का विकास हुआ। पुराणो में तो गहृ स्थाश्रम को अन्य
निःसत
ृ है ।2 महाभारत के शान्तिपर्व में गह
ृ स्थ के कर्तव्यो की विस्तत
ृ व्याख्या है ।
गह
ृ स्थाश्रम सामाजिक कर्तव्यो को पूरा करने का अवसर प्रदान करता है । यहाँ रहते हुये
मनुष्य व्यक्तिगत, सामाजिक एवम ् आर्थिक उन्नति के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के धार्मिक
एवं नैतिक कर्तव्यों को पूरा करता हुआ परिवार पालने के लिए धर्मानक
ु ू ल अर्थ का संग्रह करता
है । मनुस्मति
ृ के अनुसार गह
ृ स्थ को धति
ृ , क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय संयम, ज्ञान, वि|k, सत्य
एवं क्रोध त्याग इत्यादि दस प्रकार के धर्मो का सेवन करना चाहिए।3 इन धर्मो के सेवन के
1. प्राचीन भारतीय राज्य एवं समाज, अभिनव सत्यदे व, डा0 बाके बिहारी पाण्डेय प ृ
2. भारतीय संस्कृति, डा0 दीपक कुमार, प0ृ 64
3. मनुस्मति
ृ 6,91-92
जबकि महाभारत के अनुशासन पर्व में गह
ृ स्थ के पाँच प्रकार कर्म-
1. दस
ू री स्त्री के साथ सम्पर्क न करना।
2. अपनी पत्नी तथा घर की रक्षा।
3. न दी गई वस्तु न लेना।
4. मधु का सेवन न करना।
5. मास न ग्रहण करना, सुख प्रदान करने वाले बताये गये है ।2
अतिथि की सेवा भी गह
ृ स्थ का परम कर्तव्य माना गया। जिस गह
ृ स्थ के घर यशाशक्ति
करने के लिए कहा गया है कि वह प्रतिदिन यज्ञोपवीती, सत्यवादी, गायत्री जप में मग्न,
गह
ृ स्थ आश्रम में ही रहकर मनष्ु य तीन ऋणो से मक्ति
ु प्राप्त करता है । ये तीन ऋण है -
दे व ऋण, ऋषि ऋण, पित ृ ऋण। जिसका उल्लेख हिन्द ू धर्मग्रन्थो में हुआ है जिनको सम्पादन
कृपा रहती है जिससे कि दे वी-दे वताओ द्वारा दष्ु ट आत्माओ से उसकी आजीवन रक्षा होती
रहती है , अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि यथाशक्ति यज्ञो का अनुष्ठान कर दे वताओ के प्रति
गह
ृ स्थाश्रम मे रहते हुये व्यक्ति को पाँच महायज्ञो का भी सम्पादन करने की व्यवस्था
अनेक जीवो की हत्या हो जाती है और गहृ स्थ को पता भी नही रहता इसके प्रायाश्चित स्वरुप
करना है । यज्ञ त्याग का प्रतीत है । पाँच महायज्ञो के अन्तर्गत दे वताओ , ऋषियो, पितरो, मनुष्यो
एवं अन्य प्राणियो के प्रति अपने सामर्थ के अनुसार कुछ अर्पित करना अनिवार्य माना गया है ।
इस यज्ञो का सम्पादन पति पत्नि के साथ विधान है और इस यज्ञ में भाग लेने के कारण ही
I. ब्र ã यज्ञ-यह यज्ञ उन प्राचीन ज्ञानी ऋषियो के प्रति श्रद्धा प्रकट करना था, जिन्होने अपने
ज्ञान द्वारा मानव उत्कर्ष की कामना की थी। इनके ज्ञान -चिंतक का अभ्यास एवं मनन
करना ही ब्र ã यज्ञ था। इस यज्ञ का सम्पादन वेदाभ्यास , स्वाध्याय एवं भौतिक स्मरण
ज्ञापित करता। श्राद्ध के अवसर पर पितरो को तर्पण, पिण्ड आदि प्रदान करना इस यज्ञ के
अन्तर्गत आता है । वंश की परम्परा जिसे हमारे पूर्वजो ने बनाये रखा उन्ही परम्परा को
भौतिक सख
ु दे वताओ की कृपा से प्राप्त होते है । जिससे वे दे वताओ के ऋणी है । अतः
मनुष्य का कर्तव्य हो जाता है कि अपने पास से कुछ वस्तुये दे वतो को अर्पित कर उन्हे
प्रशन्न करे । दे वताओ को जो कुछ भी दिया जाता बलि अथवा आहुति के माध्यम से दिया
जाता। ऐसी मान्यता है कि अग्नि में जो कुछ भी आहुति दी जाती उसे दे वाता स्वयः
IV. भत
ू यज्ञ- अनिष्टकारी एवं विघ्नकारी भत
ू प्रेतात्माओ की तष्टि
ु के लिए भत
ू यज्ञ का
आयोजन किया जाता है । इस यज्ञ में ‘बलि’ अग्नि मे न डालकर विभिन्न दिशाओ में
रख दिया जाता है ताकि प्रेतात्माये , जानवर, कीड़े-मकोड़े इत्यादि सभी भोजन को ग्रहण कर
V. नय
ृ ज्ञ-नय
ृ ज्ञ को अतिथि यज्ञ भी कहा जाता है । यह पारस्परिक सहयोग से किया जाने
वाला यज्ञ है । गहृ स्थ द्वारा अतिथियो का यथाशक्ति सेवा-सत्कार करना ही उसका कर्तव्य
कि यदि कोई गह
ृ स्थ किसी अतिथि का सत्कार किये बना लौटा दे ता है तो उसके समस्त
पुण्य समाप्त हो जाते है ।1 अतिथि को दे वता स्वरुप कहा गया है । सामाजिक, धार्मिक और
नैतिक दृष्टि से नय
ृ ज्ञ का अत्यधिक मह्त्व है ।
गह
ृ स्थाश्रम में ही रहकर मनुष्य त्रिवर्ग(धर्म, अर्थ, काम) की प्राप्ति करता है । ये साधना अन्य
सम्पादन गह
ृ स्थो पर निर्भर है , केवल समावर्तन संस्कार ही ब्र ã चर्याश्रम के अन्तर्गत आता था।
सौमनस्य, भौतिक सुखो की तुलना में आध्यात्मिक सुखो की श्रेष्ठता, व्यक्तिगत उत्थान,
का केन्द्र गहृ स्थाश्रम ही है । जहाँ वह अपनी पत्नी, सन्तान, परिवार के प्रति अपने कर्तव्यो को
पूर्ण करता, संस्कारो का सम्पादन, पुरूषार्थो की पूर्ति, तीन ऋणों से मुक्ति, पंचमहायज्ञों का
आयोजन करता हुआ मोक्ष की प्राप्ति करता है । इस तरह सभी आश्रमों में गहृ स्थाश्रम का
अत्यधिक महत्व है ।
‘वानप्रस्थाश्रम’
वानप्रस्थ था। यह जीवन यात्रा का तीसरा भाग है । जिसकी अवधि प्रायः 50 वर्ष से 75 वर्ष तक
लगे तथा उसके पौत्र हो जाये तब उसे(वानप्रस्थ होकर) अरण्य का आश्रय लेना चाहिए।1 उसे
ग्रम्याहार(गह
ृ स्थाश्रम में ग्राम सुलभ भोज्य पदार्थो), घर के सम्पूर्ण सामानो को त्यागकर अपनी
जिम्मेदारिया सम्भालने लायक हो) वन को जावे।2 इस तरह व्यक्ति अपने सभी व्यक्तिगत एवं
1. मनस्ु मति
ृ , 6.2,
2. मनस्ु मति
ृ , 6.3
वानप्रास्थियो के द्वारा वनो में निर्मित आश्रम को ही गुरुकुल कहा जाता था जहाँ पर
ब्र ã चारी शिक्षा ग्रहण करते थे। मनु ने वानप्रस्थी के दै निक कर्तव्यो के बारे में वर्णन करते हुये
कहा है कि वानप्रस्थी वन्य कन्दमूल फल, शाक आदि का भोजन करता है , मांसभक्षण उसके
लिए निषिद्ध है । वो मग
ृ चर्म अथवा वक्ष
ृ की छाल पहनता है , भत
ू ल पर शयन करता है , ब्र ã चर्य
इत्यादि द्धदो को सहन करता है , सबसे मैत्रीभाव रखता है , यथासम्भव दान दे ता है परन्तु किसी
से दान ग्रहण नही करता एवं सभी प्राणियो पर दया करता है । इस तरह शास्त्र वानप्रस्थी को
का भी पालन करता रहे । इसी के साथ यह भी निर्देश दिया गया कि उसे जितेन्द्रिय, क्रोधरहित,
ध्यान परायण, तत्वज्ञान का विचारक, दानशील, अतिथि सत्कार, असत्य वचन, निद्रा एवं आलस्य
का त्याग, नित्य स्नान के उपरान्त दे वी दे वताओ के पूजन के साथ गायत्री मंत्र का जाप, सदा
रुद्धाध्याय और अथर्ववेद का जाप करे । उत्तरीय एवं शुक्ल यज्ञोपवीत धारण करे , मन की सिद्धि
के लिए वह उपनिषदो एवं विशेष ग्रन्थों का अध्ययन करे , अग्नि को अपनी आत्मा में आरोपित
कर ध्यान करे , गाँवो में प्रवेश न करे , ग्रीष्म वर्षा, सीत इत्यादि को सहन कर इतनी घोर तपस्या
करे कि माँस सूखने से शरीर में फैली नसो का जाल साफ-साफ दिखाई दे गे लगे। ऐसी धारणा
थी इस तरह का वानप्रस्थी पहले ऋषिलोक को जाता है फिर तपोरुप भगवान ् को प्राप्त करता
है ।
1. मनुस्मति
ृ -6.132(6.8)
इस तरह वानप्रस्थी का जीवन संयम, साधना एवं त्याग पूर्ण अत्यन्त कठोर तपस्वी का था।
शास्त्रो द्वारा निर्देशित नियमो का पालन करते हुये वानप्रस्थी अपने शरीर को शुद्ध करता तथा
विधा रुपी तपस्या का उत्कर्ष करके अपने मन को सांसारिक विषयो से हटाने का प्रयास करने
के साथ-साथ स्वार्थ से परमार्थ की ओर जाने का प्रयास करता। इसी आश्रम में वानप्रस्थी तन
स्त्रियों के लिए यह आश्रम अनिवार्य नही था फिर भी वह अपनी इच्छानुसार पति के साथ
इस आश्रम में प्रवेश कर सकती थी। वैदिक काल में अनेक ऐसी स्त्रिया थी जो अपना जीवन
प्रयास करती थी। अरुन्धती, माधवी, सुलभा, अत्रिभार्या इत्यादि का नाम धर्मशास्त्रो में उल्लिखित
अग्रसित हो सके।
सन्यास आश्रम
वानप्रस्थ के उपरान्त चौथा एवं अन्तिम आश्रम संन्यास आश्रम था। इसकी अवधि 75 की आयु
से लेकर मत्ृ यु तक था। सामान्यतः तीनो आश्रमो मे रहकर निर्देशित कर्तव्यों का पालन करके
ही व्यक्ति सन्यास का आधिकारी होता था। किन्तु विशेष स्थितियो में ब्र ã चर्याश्रम की
समाप्ति अथवा गह
ृ स्थाश्रम की समाप्ति होने पर संन्यास की दीक्षा मिला सकती थी। त्रिवर्ण
को ही संन्यास का अधिकार था फिर भी इस आश्रम में ब्राã ण अधिक प्रवेश करते थे। शद्र
ू ो के
लिए केवल गह
ृ स्थ आश्रम था।
सामान्य रुप से यह समझा जाता है कि घर परिवार छोड़कर चले जाना , भस्म, त्रिपुण्ड
नही है बल्कि संन्यासी वह है जो माया मोह की भावना को त्याग कर न किसी से स्नेह रखे
न ही द्धेष। महाभारत में उल्लिखित है कि संन्यासी की दृष्टि में पाषाण , काँच, शत्रु, मित्र, उदासीन
आदि सब समान होते है ।2 इस तरह संन्यास का लक्षण बाह्य नही आन्तरिक था। संन्यासी को
भिक्षु, पति, परिवार तथा परिव्राजक भी कहा जाता था। इनके तीन प्रकार होते थे-1 ज्ञान संन्यासी,
जो विजितेन्द्रिय, मोक्षार्थी एवं नित्य वेदाभ्यास करता उसे वेद संन्यासी और अग्नियो को
आत्मसात ् कर ब्र ã र्पण तत्पर महायज्ञ-परायण द्धिज को कर्म संन्यासी कहा जाता। इसमे ज्ञान
संन्यासी को श्रेष्ठ माना गया है क्योकि इनका न कोई कर्तव्य न ही पहचान होती।
इस तरह संन्यासी का न कोई अपना होता न पराया। संन्यासी के सगे सम्बन्धी उसकी
अन्त्योष्टि उसके जीवित कर दे ते जिससे उसका शरीर रहने पर भी संसार से उसका कोई
सम्बन्ध नही रहता। इसके साथ ही वह अपने गोत्र, परिवार, वर्ण, वंश से मक्
ु त होकर मानवता
शिखा धारण करता है । संन्यासी के तीन प्रमुख गुण उपरिग्रही, अनिकेत एवं एकचर है । उसके
लिए निन्दा सुनना एवं निन्दक को दे खना भी वर्जित था। ब्र ã ज्ञानी संन्यासी सम्मान प्राप्त
होने पर प्रशन्न एवं अपमानित होने पर कुपित नही होते थे। वे सत्यज्ञान का प्रवचन कर
विश्वगरु
ु की उपाधि ग्रहण करते। इन्ही संन्यासियो को अग्रजन्मा कहा जाता है ।
अर्थात जो निरं तर घुमता है , कभी जीर्ण क्षीण नही होता जो लोगो की आयु को क्षीण
करता है , छह ऋतुये जिसकी नाभि है , बारह महीने जिसके अर है , दशपौर्णमास आदि जिसके
सुन्दर पर्व है , यह सम्पूर्ण विश्व जिसके मुख मे भक्ष्य पदार्थ के समान जाता है , वह कालचक्र
बुद्धिरुपी गुहा में स्थित है । इसी तरह वर्णित है कि ‘संन्यासी’ को अहिंसा, सत्य, अस्तेय,
ब्र ã चर्य, संतोष, पवित्रता, उपरिग्रह, तप, स्वाध्याय, ईश्वर ध्यान आदि में लीन रहना चाहिए। उसे
होना चाहिए। जितेन्द्रिय होना भी आवश्यक था, क्योकि इन्द्रियो को वश में करके ही व्यक्ति
विशुद्ध एवं सात्विक आचरण कर सकता है । उसे अपनी पत्नी का जो वानप्रस्थ तक साथ रहती
थी उसका भी पूर्णतः त्याग का निर्देश था। वह निरन्तर वेदान्त -प्रतिपादित अधियज्ञ के साथ
आधिदै विक और आध्यात्मिक ब्र ã-मंत्रो का जाप करता जिससे कि वह परम ् गति को प्राप्त
कर ले। हाथ में कुसा(दण्ड), काषाय वस्त्र तथा शरीर पर भस्म लगाना संन्यासी का धर्म था।
सामान्यतः दण्ड का दस
ू रा अर्थ उसकी वाणी का मौन, शरीर का चेष्टहीन स्थिति तथा मन का
प्राणायाम बताया गया है । जिस संन्यासी के पास ये तीन दण्ड नही है वह पूर्णताः को प्राप्त
नही कर सकता।
जिस आयव
ु र्ग में व्यक्ति संन्यास ग्रहण करता उसके लिए भरपेट भोजन स्वास्थ के लिए
हानिकारण था अतः उसे भिक्षा द्वारा उतना भोजन ग्रहण करने का निर्देश था जितने से
उसकी प्राण शक्ति बनी रहे । सात घरो से भिक्षा माँगकर नित्य नये पात्र में भोजन “प्राणाय
स्वाहा” आदि मंत्रो से पंच प्राणहुति दे ने पश्चात भोजन कर ब्र ã दे व का ध्यान करना संन्यसी
का धर्म था। रात्रि के प्रथम और अन्तिम में , मध्य रात्रि एवं संध्या में संन्यासी को विशेष रुप
से नित्य ईश्वर का चिन्तन करने के लिए कहा गया। ईश्वरी चिंतन के अतिरिक्त भ्रमणशीलता
को भी संन्यासी का प्रधान गुण माना गया। वो ग्राम में एक रात और नगर में पाँच रात से
पर स्थायी रुप से वास करने से व्यक्ति में पुनः सांसारिक मायाजाल के प्रति आकर्षित होने
का अंदेशा था। सत्य भिक्षु वही कहा गया है जो गहृ विहीन हो तथा शारीरिक कष्ट होने पर भी
अनेक स्थानो का भ्रमण करता रहे ।2 वह (प्रणिहिंसा न हो इसलिए) पथ्ृ वी पर दे खकर चलता था,
प्रातः सभी हिन्द ू धर्मशास्त्री स्त्रीयो के संन्यास ग्रहण करने के पक्ष मे नही थे जिसके
कारण वे इनका कोई उल्लेख नही किया, क्योकि यह व्यवस्था सिर्फ परु
ु षो के लिए ही थी।
उसके प्रव्रजित होने पर अनेक सामाजिक, धार्मिक एवं नैतिक समस्याओ की सम्भावना बनी
रहती थी क्योकि वे अपनी सुरक्षा करने में असमर्थ समझी जाती थी। बौद्ध काल में ही आकर
रक्षा करना और प्राणिमात्र के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना उसके उद्देश्य में से था। दया,
सम., सर्वत्र परमात्मबुद्धि, शान्तभाव, परिभ्रमण आदि उसके ऐसे गुण थे जिनसे विश्व का उपकार
होता। इनसे समकालीन बड़े-बड़े राजा मंत्रणा लेते जिससे प्रजा का कल्याण होता था।
एवं आत्मज्ञान से लगातार समाज का मार्गदर्शन कराता रहता। इस प्रकार संन्यासी का कठोर
तपस्वी जीवन, इन्द्रियनिरोध, रागद्धेषत्याग, अहिंसा का पालन से उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते
महत्व
अद्धितीय व्यवस्था थी। चारो आश्रम वास्तव में जीवन काल के चार क्षेत्रो का संकेत करते थे।
यदि उनमें से किसी एक को छोड़ दिया जाय तो अगले में हमारा समुचित रुप से विकास नही
हो सकता। चार आश्रमो के अन्तर्गत ब्र ã चर्य आश्रम में जहाँ बालक अनुशासित कठोर जीवन
व्यतीत करते हुये भावी जीवन के लिए ज्ञान का अर्जन करता तथा शारीरिक, मानसिक एवं
सके, वही गह
ृ स्थ आश्रम में व्यक्ति अपने ज्ञान एवं प्राशिक्षण को व्यावहारिक रुप प्रदान करते
हुये धर्म, अर्थ, काम नामक तीनो पुरुषार्थो का प्राप्त करता हुआ तीन ऋणो से मुक्ति के साथ ही
पंचमहायज्ञो का सम्पादन करता है । आगे वानप्रस्थ आश्रम में व्यक्ति स्वतः को सांसारिकता से
दरू करने, स्वार्थ से परमार्थ की ओर जाने एवम ् लौकिक से आधात्मिकता की ओर अग्रसर होता
है । फिर अन्ततः संन्यास धारण कर जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति में लग जाता है ।
अन्ततः चरम लक्ष्य मोक्ष में प्राप्ति हे तु क्रमागत चार स्तरीय व्यवस्था है ।
विकास समचि
ु त तरीके से सम्भव नही है । फिर भी अगर तल
ु नात्मक रुप से दे खा जाय तो इस
चारो आश्रमो में गहृ स्थ आश्रम का विशिष्ट महत्व है क्योकि हम जानते है कि पुरुषार्थ, ऋण
और यज्ञ जो कि आश्रमो के आधार माने गये है इसकी पूर्ति इसी आश्रम में अधिकांशतः होती
थी। इसलिए मनु ने कहा है कि जिस प्रकार सभी नदी और नद सागर में आकर गिरते है उसी
लोक-कल्याण की भी व्यवस्था थी। इसके अन्तर्गत गहृ स्थ को मानव मात्र की सेवा के आदे श
के साथ-साथ पश-ु पक्षी एवं कीटो के भरण-पोषण का भी निर्देश दिया गया। उसे शेषभोजी भी
कहा जाता क्योकि दे वताओ, ऋषियो, अतिथियो, पितरो, पश-ु पक्षियो को भोजन कराने के पश्चात
जो शेष बचता गह
ृ स्थ को वही ग्रहण करने का निर्देश था। इसी तरह वानप्रस्थ जंगलो में बने
अपने आश्रमो में ब्र ã चारियो को निःशुक्ल शिक्षा प्रदान करते। जबकि संन्यासी समाज का
1. मनुस्मति
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से ही प्राप्त होती थी। इसके अन्तर्गत व्यक्ति में सत्य, अहिंसा, त्याग, अस्तेय, दया, क्षमाशीलता,
का विकास होता। इस तरह मनुष्य समाज के नियमो एवम ् व्यवस्थाओ का पालन करता रहता
था। डा0 राजबली पाण्डेय लिखते है “इन आश्रमो के द्वारा व्यक्ति के निजी और सामाजिक
जीवन की एक संतलि
ु त व्यवस्था प्रस्तत
ु होती थी। इन आश्रमों के बाह्य कर्मकाण्डीय
क्रियाकलापो के भीतर से वास्तविक धर्म एवं नीति की धारा प्रवाहित होती रहती थी। मनुष्य
को सच्चा आनन्द और शान्ति इसी धारा में आप्लावित होने से मिलती थी। कर्मकाण्ड के इसी
नैतिक मेरुदण्ड ने भारतीय धर्म को इतने दीर्घकाल तक जीवित रखा है । कर्मकाण्ड और नीति
में संन्तुलन धर्म की एक विशेषता थी। सभी आश्रम में सत्य, पवित्रता, पूर्वजो के प्रति आदर
और श्रद्धा, मानव प्रेम जीवो के प्रति दया और चौर्य(चोरी), हत्या, व्याभिचार को त्याग की अपेक्षा
भूमिका थी।