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प्रथम अध्याय

शोध प्रविधि एवं शोध सामाग्री

प्राचीन काल से ही निरं न्तर मानव के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में

अनस
ु ंधान की महती भमि
ू का रही है । प्रत्येक यग
ु में प्रकृति ने मानव के समक्ष

विभिन्न चुनौतियॉ प्रस्तुत की परन्तु मानव में नवीनता खोजने तथा अज्ञात को

तलाशने की स्वभाविक प्रवत्ति


ृ के कारण वह उन चुनौतियों पर विजय प्राप्त करने

में सक्षम रहा। मानव की इसी स्वभाविक प्रवत्ति


ृ से विज्ञान, चिकित्सा एवं

तकनीकी क्षेत्र मे उन्नति के फलस्वरुप सामाजिक क्षेत्र में क्रान्तिकारी परिवर्तन के

साथ-साथ आर्थिक क्षेत्र में भी महत्वपर्ण


ू प्रगति हुई परन्तु ये नवीन तत्थ,

क्रान्तिकारी परिवर्तन एवं तकनीकी विकास एवं उन्नति मनमाने ढ़ं ग से नही खोजे

गये बल्कि निरीक्षण, परीक्षण एवं प्रयोग पर आधारित वैज्ञानिक पद्धति द्वारा ही ये

आस्तित्व में आये। इस तरह ज्ञान में वद्धि


ृ , अस्पष्ट ज्ञान का स्पष्टीकरण एवं

मौजूदा ज्ञान का सत्यापन ही अनुसध


ं ान अथवा शोध है ।

कुछ प्रमख
ु विद्वानो द्वारा शोध को निम्नप्रकार से परिभाषित किया है जिनकी

परिभाषाये निम्नवत है ः

रे डमान एवं मोरी के अनुसार “शोध नवीन ज्ञान अर्जित करने का व्यवस्थित

प्रयत्न है ।”1

1. शोध कार्य प्रणली-डा0 तनश्र


ु ीराय, डा0 रमेन्द ु राय, प0ृ -2
The New Century Dictionary के अनुसार “अनुसंधान का अर्थ किसी वस्तु

अथवा व्यक्ति के विषय में सावधानी से खोज करना, तथ्यो अथवा सिद्धान्तो का

अन्वेषण करने के लिए विषय सामग्री की निरन्तर सावधानीपर्व


ू क पछ
ू ताछ अथवा

पड़ताल करना है ।”1

लुण्डवर्ग के अनुसार “अनुसंधान वह है , जो अवलोकित तथ्यो के संभावित,

वर्गीकरण, सामान्यीकरण और सत्यापन करते हुये पर्याप्त रुप में वस्तु विषयक

और व्यवस्थित हो।”2

उक्त परिभाषाओ से स्पष्ट है कि अनुसंधान एक व्यवस्थित एवं सुनियोजित

प्रक्रिया है जो नवीन तथ्यो एवं सिद्धान्तो की खोज के लिए संचालित की जाती है

जो मानवीय ज्ञान में वद्धि


ृ तो करते ही है साथ ही साथ भविष्य में होने वाले

अनस
ु ंधान के मार्गदर्शक भी होते है ।

आधनि
ु क काल के वैज्ञानिक परक यग
ु में विभिन्न समस्या मल
ू क तथ्यों का

परीक्षण वैज्ञानिक ढ़ग से की जाती है । सामाजिक अनुसंधान के अन्तर्गत वैज्ञानिक

परीक्षण का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है , क्योकि इनके तथ्य बड़े ही जटिल,

विचित्र एवं परिवर्तनशील होते है । अगर इसमे जरा सी भी असावधानी बरती गई

तो इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है । इस तरह शोध एक एसी

प्रक्रिया है जिसमें शोधकर्ता को विभिन्न चरणो से होकर गज


ु रना पड़ता है ।

1. रिसर्च मैथ्योलॉजी, डॉ0 आर 0 एन 0 त्रिवेदी, डा0 डी0 पी0 शुक्ला प0ृ -22
2. रिसर्च मैथ्योलॉजी, डा0 बी0 एम 0 जैन, प0ृ -3
प्रस्तुत शोध ग्रन्थ शीर्षक प्राचीन संस्कार, पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्थाः एक

ऐतिहिसिक अध्ययन के अन्तर्गत सोलह संस्कार, चार पुरुषार्थ एवं चार आश्रम के

विस्तारपर्व
ू क, विवेचना, महत्व एवं प्रांसगिकता का गहन अध्ययन कर इसको

क्रमबद्ध ढ़ं ग से उद्घाटित करने के लिए मख्


ु यतः ऐतिहासिक अनस
ु ंधान विधि के

साथ-साथ साक्षात्कार विधि का सहारा लिया है । ऐतिहासिक पद्धति में भूतकाल में

घटित घटनाओ, विकास, क्रमो तथा अनुभवो का विशिष्ट अन्वेषण होता है । जिसमें

अतीत से सम्बन्धित सूचनाओ के साधनो का वैज्ञानिक पद्धति द्वारा परिक्षण कर

प्राप्त तथ्यो को वर्तमान में पस्तुत करने का प्रयास किया जाता है ।

ऐतिहासिक पद्धति को परिभाषित करते हुये रे डक्लिफ ब्राउन ने कहा

“ऐतिहासिक पद्धति वह विधि है जिसमें कि वर्तमान काल में घटित होने वाली

घटनाओ को भत
ू काल में घटित हुई घटनाओ के धारा प्रवाह व क्रमिक विकास को

एक कड़ी के रुप मे मानकर अध्ययन किया जाता है ।”1

जान डब्लू बेस्ट के अनुसार ऐतिहासिक अनुसंधान का सम्बन्ध “ऐतिहासिक

समस्याओ के वैज्ञानिक विश्लेषण से है । इसके विभिन्न पद भत


ू के सम्बन्ध मे

एक नई सझ
ू पैदा करते है जिसका सम्बन्ध वर्तमान तथा भविष्य से होता है ।”
2

संक्षिप्त रुप में अतीत की सहायता से वर्तमान को समझने की विधि को ही

ऐतिहासिक पद्धति कहते है ।

1. रिसर्च मैथ्योलॉजी, डा0 आर 0 एन 0 त्रिवेदी, डा0 डी0 पी0 शुक्ला, प—


ृ 124
2. रिसर्च मैथ्योलॉजी, डा0 आर 0 एन 0 त्रिवेदी, डा0 डी0 पी0 शुक्ला, प—
ृ 135
प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में मानव एवं समाज के प्रति वे दो उपनिषदो स्मति
ृ ग्रन्थो,

गã
ृ सुत्रो में वर्णित विचारो को सम्मिलित करने के साथ-साथ प्राचीन एवं आधनि
ु क

भारतीय धार्मिक एवं सामाजिक चिंतको के विचारो भी उल्लिखित करने का प्रयास

किया है । इन प्राचीन ग्रन्थो एवं धार्मिक एवं सामाजिक चिंतको ने मानव एवं

समाज की उन्नति के लिए कुछ विधि-विधान एवं सामाजिक व्यवस्थाओ का

निर्माण किया। इसके अन्तर्गत संस्कार, पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था प्रमुखतः थे।

इनकी गणना भारतीय संस्कृति के मूल तत्वो मे की जाती है । ये व्यक्ति को

आन्तरिक एवं बाह्य रुप से सुदृढ़ तो करते ही साथ ही साथ एक सुव्यवस्थित एवं

सस
ु ंगठित समाज की स्थापना भी करते। शोधार्थी द्वारा प्रस्तत
ु शोध अध्ययन हे तु

निम्न कार्यो को सम्मिलित करने का प्रयास किया है -

1. शोध कार्य के उद्देश्य का निर्धारण किया गया है

2. शोध योजना की सीमा का निर्धारण किया गया है

3. शोध कार्य में मुख्यतः एतिहासिक पद्धति का प्रयोग किया गया है ।

शोध उद्देश्यो के अन्तर्गत संस्कार, परु


ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था के प्रकार महत्व

एवं प्रासंगिकता को व्यख्यायित किया है ।

शोध सामाग्री

सामान्यतः शोध अपने अध्ययन से सम्बन्धित प्रश्नो के उत्तर प्राप्त करने

हे तु समंको को संग्रहित करता है । समंक का तात्पर्य तथ्यो तथा उन समस्त

प्राचीन से लेकर तत्कालीन एवं प्रासंगिक सामग्रियो से है जो अध्ययन एवं


विश्लेषण हे तु नीवं का कार्य करती है । ये समंक अथवा सूचनाये लिखित तथा

मौखिक दोनो ही रुप में हो सकती है । इन्हे संग्रहित करने की प्रक्रिया को ही

सामाग्री संकलन कहते है । इन शोध सामग्री का संकलन विभिन्न विधियो द्वारा

प्राथमिक एवं f}rh;d श्रोतो से प्राप्त होते है। निश्चित रुप से अनस
ु ंधान की

सफलता एवं असफलता इन श्रोतो पर ही नर्भर करती है क्योकि अनुसंधान कार्य

में सफलता तभी प्राप्त होगी जब सूचनाओ के श्रोत विश्वासनीय हो तथा

सूचनाणओ का संकलन यथार्थ रुप में किया गया हो।

प्राथमिक श्रोत मुख्यतः प्राथमिक आकड़ो को संग्रहित करने की विधि से

सम्बन्धित है । इसकी प्रकृति मुख्यतः मौलिक होती है । पी0 वी0 येग के अनुसार

प्राथमिक सामग्री का तात्पर्य उन सभी मौलिक सूचनाओ अथवा आकड़ो से है

जिन्हे स्वयं अनस


ु ंधानकर्ता प्राथमिक श्रोतो द्वारा प्राप्त करता है ।

प्रस्तुत शोध अध्ययन से सम्बन्धित शोध सामग्री के संकलन हे तु प्राथमिक

श्रोतो के रुप में प्राचीन भारत के धर्म, दर्शन एवं समाज से जुड़े मूल ग्रन्थो(वेद,

स्मति
ृ , उपनिषद, परु ाण, महाभारत, रामायण) में उल्लिखित विचारो को बहुत ही

सावधानी पर्व
ू क अध्ययन कर प्रस्तत
ु करने का प्रयत्न किया है ।

1. रिसर्च मैथ्योलॉजी, डा0 आर 0 एन 0 त्रिवेदी, डा0 डी0 पी0 शुक्ला, प—


ृ 209
f}rh;d श्रोत से तात्पर्य उस संमक अथवा सामग्री से है जिसका संकलन एवं

उपयोग अनुसंधानकर्ता के करने के पूर्व ही किसी अन्य व्यक्ति अथवा संगठन

द्वारा अपने उद्देश्यो की पर्ति


ू हे तु एकत्रित कर उपयोग किये जा चक
ु े हो।

एम 0 एम 0 प्लेयर के अनस
ु ार f}rh;d संमक वे है जो पहले से ही वि|मान है एवं

जिसे विचारधीन प्रश्न का उत्तर प्राप्त करने से भिन्न किसी अन्य उद्देश्य से एकत्र

किया गया है । मुख्यतः शोधपत्रो, पत्रिकाओ, जर्नल, समाचार पत्रो, इन्टरनेट, कार्यालय

रिकार्ड इत्यादि जो प्रकाशित एवं अप्रकासित दोनो रुप मे हो सकते है ।

शोध अध्ययन से सम्बन्धित f}rh; श्रोतो के माध्यम से शोध सामग्री

संग्रहित करने के लिए दै निक, मासिक, वार्षिक पत्र, पत्रिकाऐ (संगम, सज


ृ नवाणी,

प्रयागम ्, अतुल्य भारतम ्, वार्तावली) धार्मिक संस्थानो से प्रकासित पुस्तके एवं

पत्रिकाऐ (गायत्री परिवार, अखण्ड ज्योति संस्थान) ई-पत्रिकाऐ(संस्कृत सर्जना,

सम्प्रतिवार्ताः, सध
ु र्मा) इण्टरनेट (विकिपीडिया, वेब दनि
ु या, हिन्दी कुन्ज.कॉम) में

उपलब्ध शोध प्रबन्धो शोध पत्रिकाओ एवं पुस्तको का गहन किया है । इसके

अतिरिक्त अध्ययन से सम्बन्धित अन्य पत्र-पत्रिकाओ एवं पुस्तको का भी गहन

अध्ययन कर सामग्री एकत्रित की गई है । इस सभी श्रोतो से प्राप्त सामग्री का

विश्लेषण करन के पश्चात उचित निष्कर्षो के आधार पर प्रतिवेदन तैयार किया

गया है ।

1. शोध कार्यप्रणाली, तनुश्री, रमेन्द ु राय, प0ृ -149, 150


शोध के उद्देश्य

प्रत्येक शोध के कुछ निश्चित उद्देश्य होते है जिनको ध्यान में रखकर

शोधकर्ता शोध कार्य प्रारम्भ करता है । सैद्धान्तिक दृष्टिकोण के अन्तर्गत प्राचीन

तथ्यो का निरीक्षण एवं परिक्षण कर प्राप्त नवीन तथ्यो को उजागिर कर ज्ञान के

क्षेत्र में वद्धि


ृ करना तथा मानव और समाज की समस्याओ एवं अव्यवस्थित कार्य

प्रणालियो को निश्चित सिद्धान्तो के माध्यम से समाधान करना शोध के प्रमख


उद्देश्य है , जबकि शोध का व्यावहारिक दृष्टिकोण शोधार्थी के माध्यम से प्राप्त

नवीन ज्ञान एवं विचार को मानव और समाज के लिए उयोग बनाना प्रमुख उद्देश्य

है । इस प्रकार शोध प्रबन्ध का उद्देश्य एक ओर जहाँ सैद्धान्तिक वही दस


ू री ओर

व्यावहारिक है ।

शोधार्थी शोध अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न घटनाओ तथ्यो तथा

समस्याओ के बारे में वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर सके मुख्यतः इसीलिए ही शोध

कार्य करता है । इस दौरान शोधार्थी के समक्ष मुख्यतः तीन लक्ष्य होते है ।

1. विभिन्न विधियो द्वारा अज्ञात तथ्यो के बारे में वास्तविक जानकारी प्राप्त
करना।
2. शोध अध्ययन के दौरान प्राप्त तथ्यो के विभिन्न पक्षो का सूक्ष्मता से
अवलोकन करना।
3. अलग-अलग प्राप्त तथ्यो के बीच सम्बन्ध स्थापित कर उसको व्यवस्थित
रुप से व्याख्यायित करना।
इस तरह शौध का उद्देश्य न केवल नवीन सिद्धान्तो का प्रतिपादन करना

बल्कि पुराने सिद्धान्तो का वर्तमान स्थितियो में सत्यापन एवं प्रासंगिक करना भी

होता है ।

प्रस्तुत शोध अध्ययन में प्राचीन भारतीय धर्म ग्रन्थो में मानव के लौकिक

एवं पारलौकिक जगत को सफल बनाने के साथ-साथ एक सुव्यवस्थित समाज के

निर्माण के लिए कुछ धार्मिक विचार विधि-विधान एवं सामाजिक व्यवस्थाओ का

प्रतिपादन किया। इनमें मख्


ु यतः संस्कार, परु
ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था थे। जिनका

गणना भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्वो के अन्तर्गत की जाती है , शोधार्थी का

उद्देश्य इन तीनो मूलभूत तत्वो का प्रमुखतः ऐतिहासिक विधि के साथ ही वैज्ञानिक

विधि द्वारा गहन अध्ययन कर इसके स्वरुप, प्रकार, महत्व एवं प्रासंगिकता पर

प्रकाश डालना है ।

प्राचीन भारतीय संस्कार को शोध अध्ययन में शामिल करने के पिछे

शोधार्थी का उद्देश्य प्रमुखतः प्रचलित सोलह संस्कारो के श्रोत, स्वरुप एवं प्रकार का

गहन रुप से अध्ययन कर यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि मानव जीवन

एवं समाज में इसका कितना महत्व था। ये मनष्ु य के लिए कितने उपयोगी थे

और वर्तमान में ये कितने प्रासंगिक है । इसके अन्तर्गत शोधार्थी ने यह बताने का

प्रयत्न किया कि प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक चिंतको ने किस तरह संस्कारो के

माध्यम से मनुष्य को जन्म के पूर्व से लेकर मत्ृ योपरान्त तक बाधे रखा। इन्ही के

माध्यम से मनष्ु य को समय-समय पर पवित्र अथवा शद्ध


ु किया जाता ताकि उसका
शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, नैतिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक विकास हो सके, जिससे

कि वह श्रेष्ठ नागरिक बनकर सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित समाज की स्थापना कर

सके।

इसी तरह पुरुषार्थ को शोध अध्ययन का विषय बनाने के पीछे शोधार्थी का

मूलतः उद्देश्य मानव जीवन में इसकी महत्वा को प्रकाशित करना है । शोधार्थी

प्राथमिक एवं f}rh;d सामग्री के आधार पर इसके स्वरुप, प्रकार एवं महत्व को

व्याख्यायित कर इसकी प्रासंगिकता सिद्ध करना है । परु


ु षार्थ के विवेचन से ज्ञात

होता है कि मानव जीवन के समस्त उद्देश्य की पूर्ति में पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम,

मोक्ष) ही सहायक होते है । पुरुषार्थ एक उद्देश्य जहॉ एक तरफ मानव जीवन के

भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखो के बीच समन्वय स्थापित करना है वही दस


ू री

तरफ मानव एवं समाज के बीच सम्बन्धो की व्याख्या भी करना है ।

अन्ततः शोध ग्रन्थ के अन्तर्गत आश्रम व्यवस्था का अध्ययन कर शोधार्थी

द्वारा यह बताने का प्रयत्न किया है कि प्राचीन मनिषियो द्वारा इस व्यवस्था की

स्थापना के पिछे क्या उद्देश्य था। इसके लिए शोधार्थी ने प्राचीन धार्मिक एवं

सामाजिक ग्रन्थो के साथ-साथ मनिषियो के विचारो का मख्


ु यतः एतिहासिक विधि

द्वारा गहन अध्ययन कर प्राप्त श्रोत सामग्री के आधार पर उसेक स्वरुप, प्रकार

एवं महत्व पर प्रकाश डालने का प्रयत्न किया और साथ ही उसकी प्रांसगिकता को

सिद्ध करने का प्रयास किया है ।


इसके अतिरिक्त शोधार्थी ने अपने शोध अध्ययन के अन्तर्गत कुछ और भी

उद्देश्य निर्धारित किये है ।

1. संस्कार, पुरुषार्थ एवं आश्रम व्यवस्था के बीच अर्न्तसम्बन्ध स्थापित करना।

2. मानव जीवन एवं समाज के प्रति इन तीनो की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता

को स्पष्ट करना।

3. वर्तमान में सोलह संस्कार के प्रचलित स्वरुप को उद्घाटित करना।

4. कुछ संस्कारो का आधनि


ु क चिकित्सा से तल
ु ना करना का प्रयत्न

करना(तीनो को सम्मिलित कर मानव के समक्ष प्रस्तुत करना)।

सम्बन्धित साहित्य का पन
ु रावलोकन

शोध कार्य को पूरा करने के लिए यह आवश्यक है कि शोध विषय से

सम्बन्धित सामाग्री एकत्रित कि जाय जिससे कि शोध अध्ययन को मौलिक एवं

स्पष्ट बनाया जा सके और साथ ही तथ्यो का विश्लेषण कर शोध ग्रन्थ से

सम्बन्धित उपलब्ध साहित्यों गहन अध्ययन कर सम्बन्धित तथ्यो को प्रस्तुत

किया जाय और इसके साथ ही पूर्व के शोध कार्यो के अन्तर्गत की गई त्रटि


ृ यो को

उजागर कर उसकी पुनरावत्ति


ृ को रोकने का प्रयास किया जाय। यही प्रक्रिया ही

सम्बाधित साहित्य का पुनरावलोकन कहलाता है ।

सम्बन्धित साहित्य एवं सूचनाओ के श्रोतो को दो भागो में विभाजित किया

गया है -1-प्रत्यक्षश्रोत, 2-अप्रत्यक्षश्रोत। प्रत्यक्षश्रोत मूल रुप में उपलब्ध होते है यथा
पुस्तके, शोध ग्रन्ध, पत्रिकाओ मे छपे लेख एवं सामग्री, विशिष्ट निबन्ध पुस्तिकाऐ,

बुलेटिन एवं वार्षिक प्रकाशन तथा सरकार द्वारा प्रकाशित प्रतिवेदन एवं नीतियॉ।

अप्रत्यक्ष श्रोत के अन्तर्गत वे सामग्री होते है जिनको अध्ययनकर्ता मौलिक

लेखो से एकत्रित कर उन्हे अपने ढं ग से प्रस्तुत करता है । शिक्षा क्षेत्र के अन्तर्गत

मुख्यतः अप्रत्यक्ष श्रोत है - शिक्षा सार(Abstracts), शिक्षा के विश्वज्ञानकोष

(Encyclopedias), सच
ू ीपत्र(Indexes), निर्देशिकाएँ एवं सन्दर्भ ग्रन्थ सच
ू ी (Directories
And Bibliographies).

शोध शीर्षक ‘प्राचीन भारतीय संस्कार, परु


ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्थाः एक

ऐतिहासिक अध्ययन’ से सम्बन्धित उपलब्ध साहित्यो का शोधार्थी द्वारा अध्ययन

एवं परीक्षण कर सामग्री एकत्रित करने का प्रयास किया है । जहॉ तक शोधार्थी को

ज्ञात है कि इस शोध शीर्षक के नाम पर अभी तक न कोई शोध ग्रन्ध, लधु शोध

ग्रन्थ एवं प्रतिवेदन का पूर्व में प्रकाशन हुआ है । अतः शोधार्थी किसी विशेष

शोधग्रन्थ का अध्ययन एवं परीक्षण नही कर सका है , फिर भी शोध विषय से

सम्बन्धित समय समय पर प्रकाशित शोध पत्रो, शोध ग्रन्थो, पस्


ु तको, धार्मिक एवं

सामाजिक संस्थानो द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओ, विभिन्न शोध संगोष्ठियो में

प्रस्तुत शोध पत्रो एवं वि}k नो के विचार, शोध संकलनो, शोध संस्थानो द्वारा

प्रकाशित पत्रिकाओ एवं पुस्तको मे दै निक समाचार पत्रो में प्रकाशित लेखो,

इण्टरनेट मे उपलब्ध सामग्री अध्ययन किया है ।


पुस्तको मे मुख्यतः श्री राम शर्मा द्वारा लिखित हिन्दी भाषी पुस्तको-(चारो

वेद, उपनिषद, षोड्शसंस्कार विवेचन, भारतीय संस्कृत के आधारभूत तत्व, गह


ृ स्थ

योग, वैज्ञानिक आध्यात्मवाद) के अतिरिक्त, भारतीय संस्कृति-डा0 दीपक कुमार,

परु
ु षार्थ-भगवान दास, हिन्द ू संस्कार-डा0 राजबली पाण्डेय, भारतीय संस्कृति के

मूलतत्व-व्रज वल्लभ द्रिवेदी, शोधकार्य प्रणाली-तनश्र


ु ीराय एवं रमेन्द ु राय, रिसर्च

मैथ्योलॉजी-आर 0 एन 0 त्रिवेदी, डी0 पी0 शुक्ला के अध्ययन के साथ साथ मुख्य रुप

से अखण्ड ज्योति संस्थान, मथरु ा द्वारा प्रकाशित पुस्तको एवं पत्र पत्रिकाओ का

अध्ययन किया है ।

समंको का विश्लेषण एवं प्रस्तुतीकरण

शोध कार्य के दौरान शोध विषय से सम्बन्धित साहित्य के अध्ययन के

पश्चात संग्रहित समंको(Datas) का विश्लेषण कर उसका प्रस्तुतीकरण करना

शोधार्थी का प्रमुख उद्देश्य होता है । संग्रहित समंको को सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध

करके स्वीकृत विधि द्वारा उनसे तर्क पूर्ण अर्थ की प्राप्ति ही समंको का विश्लेषण

कहलाता है । समंको का विश्लेषण एवं उसकी व्याख्या शोधक्षेत्र की मल


ू भत

आवश्यकता है । यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है । इस क्रिया के बगैर शोधकर्ता अपने

प्रयोग की सार्थकता सिद्ध नही कर सकता है ।

शोधार्थी ने अपने शोधकार्य के अन्तर्गत तर्क पर्ण


ू अर्थ एवं निष्कर्ष प्राप्त

करने के लिए संग्रहित समंको का विश्लेषण कर उसको सुव्यवस्थित एवं क्रमबद्ध


ढ़ग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस दौरान शोधार्थी ने निम्न प्रक्रिया को

अपनाया है -

1. प्राप्त संकलित सामग्री को बड़ी सावधानीपूर्वक सूक्ष्म अध्ययन एवं निरीक्षण

करना।

2. निरीक्षण एवं परीक्षण द्वारा त्रटि


ृ यो एवं अपूर्णताओ को दरू करना एवं

उपयोगी समंको की पहचान करना।

3. महत्वपर्ण
ू एवं उपयोगी समंको को सव्ु यवस्थित एवं क्रमबद्ध रुप से प्रस्तत

करना।

अध्ययन की सीमाये एवं महत्व

प्रस्तुत शोध प्रबन्ध के अन्तर्गत शोधार्थी ने शोध के नियमों एवं सिद्धान्तो

के अनरु
ु प शोध कार्य को पर्ण
ू करने का प्रयत्न किया है , परन्तु इस शोध ग्रन्थ की

भी कुछ सीमाये है जो निम्न है -

1. प्रस्तुत शोध ग्रन्थ में ‘प्राचीन भारत’ से आशय मौर्य कालीन भारत तक लिया

गया है । इसका तात्पर्य यह है कि संस्कार, परु


ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था से

सम्बन्धित साहित्यो का अध्ययन करने के लिए वैदिककाल से मौर्य काल तक

के ग्रन्थो का सहारा लिया गया है । यद्धपि यथास्थान बाद के कालो के पुस्तको

का भी अध्ययन है मगर सीमित रुप में ।


2. प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में शोधार्थी मुख्यतः प्राचीन संस्कृत ग्रन्थो का हिन्दी

अनुवादित पुस्तको का अध्ययन किया है ।

3. भारतीय संस्कृति के आधारभत


ू तत्वो क अन्तर्गत केवल तीन मल
ू तत्वो

संस्कार परु
ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था का वर्णन है ।

4. यह शोध मुख्यतः हिन्द ू धर्म से सम्बन्धित विधि-विधान, कर्तव्यो उत्तरदायित्यो

एवं सामाजिक व्यवस्थाओ की व्याख्या तक सीमित है , अन्य धर्मो से तुलना का

प्रयास नही।

5. संग्रहित शोध सामाग्री प्राप्ति मुख्यतः अखण्ड ज्योति संस्थान, मथरु ा एवं गीता

प्रेस गोरखपरु द्वारा प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओ एवं पस्


ु तको से है , जबकि अन्य

संस्थानो एवं प्रेस द्वारा पत्र पत्रिकाओ को चुना जाना था।

6. अखण्ड ज्योति संस्थान, गीता प्रेस एवं आर्य समाज द्वारा अनुवादित वैदिक

साहित्य एवं अन्य ग्रन्थ को प्रमाणिक मान लिया गया है ।

7. शोध प्रविधि मुख्यतः ऐतिहासिक विधि एवं साक्षात्कार विधि तक सीमित है ।

8. अन्त में शोधार्थी की व्यक्तिगत सीमाएँ भी शोध प्रबन्ध में सम्मिलित की जा

सकती है ।

महत्व

शोध प्राचीन काल से ही निरन्तर सम्पन्न होने वाली एक प्रक्रिया है ।

आधनि
ु क प्रतिस्पर्धी युग में मानव जीवन से सम्बन्धित समस्त क्षेत्रो में इसकी

अत्यन्त महत्वपर्ण
ू भमि
ू का रही है । शोध ही मानव ज्ञान को नवीन दिशा प्रदान
कर, अस्पष्ट ज्ञान को सुस्पष्टीकरण कर ज्ञान के क्षेत्र का विस्तार कर उसका

सत्यापन करता है । शोध एक प्रकार से औपचारिक प्रशिक्षण है , जिसके माध्यम से

अनेक नवीन कार्यप्रणाली एवं उत्पादो का विकास होता है । शोध ही मानव के

आन्तरिक चिंतन शक्ति, विश्लेषण शक्ति एवं सर्जनात्मक शक्ति को मजबत


ू ी प्रदान

करता है ।

शोधार्थी का पर्ण
ू विश्वास है कि यह शोध प्रबन्ध भारतीय संस्कृति के

आधारभत
ू तत्वो के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय संस्कार, परु
ु षार्थ एवं आश्रम के

नियमो, सिद्धान्तो, विधि-विधानो एवं आदर्शो को पुनर्जीवित करने में सक्षम होगा, और

साथ ही वर्तमान समय में मानव एवं समाज के आवश्यकतता के अनुरुप उसकी

प्रासंगिकता सिद्ध करने का प्रयास है । मानव के नैतिक उत्थान एवं सुव्यस्थित

समाज की स्थापना के लिए इस शोध प्रबन्ध में उल्लिखित नियम एवं सिद्धान्त

अत्यन्त सहायक होगे।

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