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अर्थशास्त्र

यह पष्ृ ठ अर्थशास्त्र (इकनॉमिक्स) विषय से सम्बन्धित है । कौटिल्य द्वारा रचित

अर्थशास्त्र ग्रन्थ के लिये यहाँ दे खें।

विश्व के विभिन्न दे शों की वास्तविक सकल घरे लू उत्पाद की वद्धि


ृ दर (सन २०१४)

अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है , जिसके अन्तर्गत वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन, वितरण, विनिमय
और उपभोग का अध्ययन किया जाता है । 'अर्थशास्त्र' शब्द

संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र की संधि से बना है , जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। किसी विषय
के संबंध में मनुष्यों के कार्यो के क्रमबद्ध ज्ञान को उस विषय का शास्त्र कहते हैं, इसलिए अर्थशास्त्र में मनुष्यों के
अर्थसंबंधी कायों का क्रमबद्ध ज्ञान होना आवश्यक है ।

अर्थशास्त्र का प्रयोग यह समझने के लिये भी किया जाता है कि अर्थव्यवस्था किस तरह से कार्य करती है और समाज
में विभिन्न वर्गों का आर्थिक सम्बन्ध कैसा है । अर्थशास्त्रीय विवेचना का प्रयोग समाज से सम्बन्धित विभिन्न क्षेत्रों
में किया जाता है , जैसे:- अपराध, शिक्षा, परिवार, स्वास्थ्य, कानन
ू , राजनीति, धर्म, सामाजिक संस्थान और यद्ध

इत्यदि। [1]

प्रो. सैम्यल
ू सन के अनस
ु ार,

अर्थशास्त्र कला समह


ू में प्राचीनतम तथा विज्ञान समह
ू में नवीनतम वस्तत
ु ः सभी सामाजिक विज्ञानों की रानी है ।

किसी अर्थव्यवस ्g था में धन (मनी) के चक्रण का मैक्रोएकनॉमिक मॉडल

परिचय

ब्रिटिश अर्थशास्त्री अल्फ्रेड मार्शल ने इस विषय को परिभाषित करते हुए इसे ‘मनुष्य जाति के रोजमर्रा के जीवन का
अध्ययन’ बताया है । मार्शल ने पाया था कि समाज में जो कुछ भी घट रहा है , उसके पीछे आर्थिक शक्तियां हुआ
करती हैं। इसीलिए समाज को समझने और इसे बेहतर बनाने के लिए हमें इसके अर्थिक आधार को समझने की
जरूरत है ।

लियोनेल रोबिंसन के अनस


ु ार आधनि
ु क अर्थशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार है -

वह विज्ञान जो मानव स्वभाव का वैकल्पिक उपयोगों वाले सीमित साधनों और उनके प्रयोग के मध्य अन्तर्सम्बन्धों
का अध्ययन करता है ।
दर्ल
ु भता (scarcity) का अर्थ है कि उपलब्ध संसाधन सभी मांगों और जरुरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं। दर्ल
ु भता
और संसाधनों के वैकल्पिक उपयोगों के कारण ही अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता है । अतएव यह विषय प्रेरकों और
संसाधनों के प्रभाव में विकल्प का अध्ययन करता है ।

अर्थशास्त्र में अर्थसंबंधी बातों की प्रधानता होना स्वाभाविक है । परं तु हमको यह न भल


ू जाना चाहिए कि ज्ञान का
उद्देश्य अर्थ प्राप्त करना ही नहीं है , सत्य की खोज द्वारा विश्व के लिए कल्याण, सुख और शांति प्राप्त करना भी है ।
अर्थशास्त्र यह भी बतलाता है कि मनष्ु यों के आर्थिक प्रयत्नों द्वारा विश्व में सुख और शांति कैसे प्राप्त हो सकती है ।
सब शास्त्रों के समान अर्थशास्त्र का उद्देश्य भी विश्वकल्याण है । अर्थशास्त्र का दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है , यद्यपि
उसमें व्यक्तिगत और राष्ट्रीय हितों का भी विवेचन रहता है । यह संभव है कि इस शास्त्र का अध्ययन कर कुछ
व्यक्ति या राष्ट्र धनवान हो जाएँ और अधिक धनवान होने की चिंता में दस
ू रे व्यक्ति या राष्ट्रों का शोषण करने लगें ,
जिससे विश्व की शांति भंग हो जाए। परं तु उनके शोषण संबंधी ये सब कार्य अर्थशास्त्र के अनुरूप या उचित नहीं कहे
जा सकते, क्योंकि अर्थशास्त्र तो उन्हीं कार्यों का समर्थन कर सकता है , जिसके द्वारा विश्वकल्याण की वद्धि
ृ हो। इस
विवेचन से स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र की सरल परिभाषा इस प्रकार होनी चाहिए-अर्थशास्त्र में मुनष्यों के अर्थसंबंधी सब
कार्यो का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है । उसका ध्येय विश्वकल्याण है और उसका दृष्टिकोण अंतर्राष्ट्रीय है ।

परिभाषा

अर्थशास्त्र एक विज्ञान है , जो मानव व्यवहार का अध्ययन उसकी आवश्यकताओं(इच्छाओं) एवं उपलब्ध संसाधनों के
वैकल्पिक प्रयोग के मध्य संबंध का अध्ययन करता है । अर्थशास्त्र की विषय-सामग्री का संकेत इसकी परिभाषा से
मिलता है । अर्थशास्त्र सामाजिक विज्ञान की वह शाखा है , जिसके अन्तर्गत वस्तओ
ु ं और सेवाओं के उत्पादन,
वितरण, विनिमय और उपभोग का अध्ययन किया जाता है । 'अर्थशास्त्र' शब्द संस्कृत शब्दों अर्थ (धन) और शास्त्र
की संधि से बना है , जिसका शाब्दिक अर्थ है - 'धन का अध्ययन'। अर्थशास्त्र का शाब्दिक अर्थ है धन का शास्त्र अर्थात
धन के अध्ययन के शास्त्र को अर्थशास्त्र कहते हैं।

प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडम स्मिथ ने 1776 में प्रकाशित अपनी पुस्तक (An enquiry into the Nature and the Causes
of the Wealth of Nations ) में अर्थशास्त्र को धन का विज्ञान माना है ।

डॉ॰ मार्शल ने 1890 में प्रकाशित अपनी पस्


ु तक अर्थशास्त्र के सिद्धान्त (Principles of Economics) में अर्थशास्त्र की
कल्याण सम्बन्धी परिभाषा दे कर इसको लोकप्रिय बना दिया।

ब्रिटे न के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री लार्ड राबिन्स ने 1932 में प्रकाशित अपनी पस्
ु तक, ‘‘An Essay on the Nature and
Significance of Economic Science’’ में अर्थशास्त्र को
दर्ल
ु भता का सिद्धान्त माना है । इस सम्बन्ध में उनका मत है कि मानवीय आवश्यकताएं असीमित है तथा उनको परू ा
करने के साधन सीमित है ।

आधुनिक अर्थशास्त्री सैम्यूल्सन (Samuelson) ने अर्थशास्त्र को विकास का शास्त्र (Science of Growth ) कहा है ।

आधुनिक अर्थशास्त्री कपिल आर्य (Kapil Arya) ने अपनी पुस्तक "अर्थमेधा" में अर्थशास्त्र को सुख के साधनों का
विज्ञान माना है |

अर्थशास्त्र का महत्व

अर्थशास्त्र का सैद्धान्तिक एवं व्यवहारिक महत्व है ।

सैद्धान्तिक महत्व

विधि ज्ञान हे तु

ज्ञान में वद्धि


सिद्धान्तों में वद्धि


ृ करें

तर्क शक्ति में वद्धि


ृ करें

विश्लेषण शक्ति में वद्धि


ृ करें

अन्य शास्त्रों से सम्बन्ध का ज्ञान

व्यावहारिक महत्व

उत्पादकों को लाभ,

श्रमिकों को लाभ,

उपभोक्ताओं को लाभ,

व्यापारियों को लाभ,

सरकार को लाभ,

समाजसुधारकों को लाभ,
राजनीतिज्ञों को लाभ,

प्रबन्धकों को लाभ ,

विद्यार्थियों को लाभ,

दे श के उत्थान में लाभ,

वैज्ञानिकों को लाभ।

इतिहास

भारत में अर्थशास्त्र

अर्थशास्त्र बहुत प्राचीन विद्या है । चार उपवेद अति प्राचीन काल में बनाए गए थे। इन चारों उपवेदों में अर्थवेद भी एक
उपवेद माना जाता है , परन्तु अब यह उपलब्ध नहीं है । विष्णुपुराण में भारत की प्राचीन तथा प्रधान 18 विद्याओं में
अर्थशास्त्र भी परिगणित है । इस समय

बार्हस्पत्य तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र उपलब्ध हैं। अर्थशास्त्र के सर्वप्रथम आचार्य बह


ृ स्पति थे। उनका अर्थशास्त्र सूत्रों
के रूप में प्राप्त है , परन्तु उसमें अर्थशास्त्र सम्बन्धी सब बातों का समावेश नहीं है । कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही एक
ऐसा ग्रंथ है जो अर्थशास्त्र के विषय पर उपलब्ध क्रमबद्ध ग्रंथ है , इसलिए इसका महत्व सबसे अधिक है । आचार्य
कौटिल्य, चाणक्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। ये चंद्रगुप्त मौर्य (321-297 ई.पू.) के महामंत्री थे। इनका ग्रंथ 'अर्थशास्त्र'
पंडितों की राय में प्राय: 2,300 वर्ष परु ाना है । आचार्य कौटिल्य के मतानस
ु ार अर्थशास्त्र का क्षेत्र पथ्
ृ वी को प्राप्त करने
और उसकी रक्षा करने के उपायों का विचार करना है । उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में ब्रह्मचर्य की दीक्षा से लेकर दे शों की
विजय करने की अनेक बातों का समावेश किया है । प्रो.अशोक कुमार ने घटमपुर प्त की रचना, न्यायालयों की
स्थापना, विवाह संबंधी नियम, दायभाग, शत्रओ
ु ं पर चढ़ाई के तरीके,

किलाबंदी , संधियों के भेद, व्यूहरचना इत्यादि बातों का विस्ताररूप से विचार आचार्य कौटिल्य अपने ग्रंथ में करते हैं।
प्रमाणत: इस ग्रंथ की कितनी ही बातें अर्थशास्त्र के आधनि
ु क काल में निर्दिष्ट क्षेत्र से बाहर की हैं। उसमें

राजनीति , दं डनीति , समाजशास्त्र ,

नीतिशास्त्र इत्यादि विषयों पर भी विचार हुआ है ।

भारतीय संस्कृति में चार पुरुषार्थों में अर्थ (धन-सम्पदा) भी सम्मिलित है । </nowiki> जैन धर्म में
अपरिग्रह (बहुत अधिक धन संग्रह न करना) का उपदे श किया गया है । अनेक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों में धन की प्रशंशा
या निन्दा की गयी है ।

भर्तृहरि ने कहा है , 'सर्वे गुणा कांचनम ् आश्रयन्ते' (सभी गुणों का आधार स्वर्ण ही है ।)।

चाणक्यसूत्र में कहा है -

सुखस्य मूलं धर्मः। धर्मस्य मूलं अर्थः। अर्थस्य मूलं राज्यं। राज्यस्य मूलं इन्द्रिय जयः। इन्द्रियजयस्य मूलं विनयः।
विनयस्य मूलं वद्ध
ृ ोपसेवा॥

(अर्थ : सुख का मूल है , धर्म। धर्म का मूल है , अर्थ । अर्थ का मूल है , राज्य। राज्य का मूल है , इन्द्रियों पर विजय।
इन्द्रियजय का मूल है , विनय। विनय का मूल है , वद्ध
ृ ों की सेवा। )

पाश्चात्य अर्थशास्त्र

अर्थशास्त्र का वर्तमान रूप में विकास पाश्चात्य दे शों में (विशेषकर इंग्लैंड में ) हुआ। ऐडम स्मिथ वर्तमान अर्थशास्त्र के
जन्मदाता माने जाते हैं। [2] आपने 'राष्ट्रों की संपत्ति' (वेल्थ ऑफ नेशन्स ) नामक ग्रंथ लिखा। यह सन ् 1776 ई. में
प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने यह बतलाया है कि प्रत्येक दे श के अर्थशास्त्र का उद्देश्य उस दे श की संपत्ति और शक्ति
बढ़ाना है । उनके बाद माल्थस, रिकार्डो, मिल, जेवंस, काल मार्क्स, सिज़विक, मार्शल, वाकर, टासिग ओर राबिंस ने
अर्थशास्त्र संबंधी विषयों पर सुंदर रचनाएँ कीं। परं तु अर्थशास्त्र को एक निश्चित रूप दे ने का श्रेय प्रोफ़ेसर मार्शल को
प्राप्त है , यद्यपि प्रोफ़ेसर राबिंस का प्रोफ़ेसर मार्शल से अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में मतभेद है । पाश्चात्य
अर्थशास्त्रियों में अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में तीन दल निश्चित रूप से दिखाई पड़ते हैं। पहला दल प्रोफेसर राबिंस का
है जो अर्थशास्त्र को केवल विज्ञान मानकर यह स्वीकार नहीं करता कि अर्थशास्त्र में ऐसी बातों पर विचार किया जाए
जिनके द्वारा आर्थिक सुधारों के लिए मार्गदर्शन हो। दस
ू रा दल प्रोफ़ेसर मार्शल, प्रोफ़ेसर पीगू इत्यादि का है , जो
अर्थशास्त्र को विज्ञान मानते हुए भी यह स्वीकार करता है कि अर्थशास्त्र के अध्ययन का मुख्य विषय मनष्ु य है और
उसकी आर्थिक उन्नति के लिए जिन जिन बातों की आवश्यकता है , उन सबका विचार अर्थशास्त्र में किया जाना
आवश्यक है । परं तु इस दल के अर्थशास्त्री राजीनीति से अर्थशास्त्र को अलग रखना चाहते हैं। तीसरा दल कार्ल मार्क्स
के समान समाजवादियों का है , जो मनष्ु य के श्रम को ही उत्पति का साधन मानता है और पंज
ू ीपतियों तथा जमींदारों
का नाश करके मजदरू ों की उन्नति चाहता है । वह मजदरू ों का राज भी चाहता है । तीनों दलों में अर्थशास्त्र के क्षेत्र के
संबंध में बहुत मतभेद है । इसलिए इस प्रश्न पर विचार कर लेना आवश्यक है :

आधुनिक का आर्थिक इतिहास

द्वितीय विश्व यद्ध


ु के बाद अमरीका और
सोवियत संघ में शीत युद्ध छिड गया। यह कोई युद्ध नहीं था परन्तु इससे विश्व दो भागों में बँट गया।

शीत यद्ध
ु के दौरान अमरीका, इंग्लैंड, जर्मनी (पश्चिम), आस्ट्रे लिया, फ्रांस , कनाडा, स्पेन एक तरफ थे। ये सभी दे श
लोकतंत्रिक थे और यहाँ पर

खुली अर्थव्यवस्था की नीति को अपनाया गया। लोगों को व्यापार करने की खुली छूट थी। शेयर बाजार में पैसा लगाने
की छूट थी। इन दे शों में बहुत सारी बडी-बडी कम्पनियाँ बनीं। इन कम्पनियों में नये-नये अनुसंधान हुए।

विश्वविद्यालय , सूचना प्रौद्योगिकी,

इंजिनीयरी उद्योग , बैंक आदि सभी क्षेत्रोँ में जमकर तरक्की हुई। ये सभी दे श दस
ू रे दे शोँ से व्यापार को बढावा दे ने की
नीति को स्वीकारते थे। 1945 के बाद से इन सभी दे शोँ ने खब
ू तरक्की की।

दस
ू री तरफ रूस , चीन , म्यांमार , पूर्वी जर्मनी सहित कई और दे श थे जहाँ पर समाजवाद की अर्थ नीति अपनायी
गयी। यहाँ पर अधिकांश उद्योगों पर कड़ा सरकारी नियंत्रण होता था। उद्योगों से होने वाले लाभ पर सरकार का
अधिकार रहता था। सामान्यतः ये दे श दस
ू रे लोकतांत्रिक दे शों के साथ बहुत कम व्यापार करते थे। इस तरह की अर्थ
नीति के कारण यहां के उद्योगों में अधिक प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी। आम लोगों को भी लाभ कमाने के लिये कोई
प्रोत्साहन नहीं था। इन करणों से इन दे शों में आर्थिक विकास बहुत कम हुआ।

3 अक्टूबर-1990 को पूर्व जर्मनी और पश्चिम जर्मनी का विलय हुआ। संयुक्त जर्मनी ने प्रगतिशीलत पश्चिमी जर्मनी
की तरह खल
ु ी अर्थव्यवस्था और लोक्तंत्र को अपनाया। इसके बाद 1991 में सोवियत रूस का विखंडन हुआ और

रूस सहित 15 दे शों का जन्म हुआ। रूस ने भी समाजवाद को छोड़कर खुली अर्थ्व्यवस्था को अपनाया। चीन ने
समाजवाद को परू ी तरह तो नहीं छोड़ा पर 1970 के अंत से उदार नीतियों को अपनाया और अगले 3 वर्षों में बहुत
उन्नति की। चेकोस्लोवाकिआ भी समाजवादी दे श था। 1-जनवरी-1993 को इसका चेक रिपब्लिक और स्लोवाकिया
में विखंडन हुआ। इन दे शों ने भी समाजवाद छोड़ के लोकतंत्र और खुली अर्थव्यवस्था को अपनाया।

मूल अवधारणाएँ

मूल्य

मल्
ू य की अवधारणा अर्थशास्त्र में केन्द्रीय है । इसको मापने का एक तरीका वस्तु का बाजार भाव है । एडम स्मिथ ने
श्रम को मूल्य के मुख्य श्रोत के रूप में परिभाषित किया। "मूल्य के श्रम सिद्धान्त" को कार्ल मार्क्स सहित कई
अर्थशास्त्रियों ने प्रतिपादित किया है । इस सिद्धान्त के अनुसार किसी सेवा या वस्तु का मूल्य उसके उत्पादन में
प्रयुक्त श्रम के बराबर होता है । अधिकांश लोगों का मानना है कि इसका मूल्य वस्तु के दाम निर्धारित करता है । दाम
का यह श्रम सिद्धान्त "मूल्य के उत्पादन लागत सिद्धान्त" से निकटता से जुड़ा हुआ है ।

मांग और आपूर्ति

मुख्य लेख: माँग और आपूर्ति

अलग-अलग मूल्य पर माँग और आपूर्ति ; जिस मूल्य पर माँग और आपूर्ति समान होते हैं वह संतुलन बिन्द ु कहलाता
है ।

मांग आपूर्ति की सहायता से पूर्णतः प्रतिस्पर्धी बाजार में बेचे गये वस्तुओं कीमत और मात्रा की विवेचना, व्याख्या
और पुर्वानुमान लगाया जाता है । यह अर्थशास्त्र के सबसे मुलभूत प्रारुपों में से एक है । क्रमश: बड़े सिद्धान्तों और
प्रारूपों के विकास के लिए इसका विशद रूप से प्रयोग होता है ।

माँग , किसी नियत अवधि में किसी उत्पाद की वह मात्रा है , जिसे नियत दाम पर उपभोक्ता खरीदना चाहता है और
खरीदने में सक्षम है । माँग को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रूप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और
इच्छित मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है ।

आपूर्ति वस्तु की वह मात्रा है जिसे नियत समय में दिये गये दाम पर उत्पादक या विक्रेता बाजार में बेचने के लिए
तैयार है । आपूर्ति को सामान्यतः एक तालिका या ग्राफ़ के रूप में प्रदर्शित करते हैं जिसमें कीमत और आपूर्ति की
मात्रा का संबन्ध दिखाया जाता है ।

अर्थशास्त्र का क्षेत्र में किन किन क्रियाओं को शामिल किया जाता है ।

प्रो॰ राबिंस के अनुसार अर्थशास्त्र वह विज्ञान है जो मनुष्य के उन कार्यों का अध्ययन करता है जो इच्छित वस्तु और
उसके परिमित साधनों के रूप में उपस्थित होते हैं, जिनका उपयोग वैकल्पिक या कम से कम दो प्रकार से किया जाता
है । अर्थशास्त्र की इस परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-

(1) अर्थशास्त्र विज्ञान है ;

(2) अर्थशास्त्र में मनष्ु य के कार्यों के संबंध में विचार होता है ;

(3) अर्थशास्त्र में उन्हीं कार्यों के संबंध में विचार होता है जिनमें -

(अ) इच्छित वस्तु प्राप्त करने के साधन परिमित रहते हैं और

(ब) इन साधनों का उपयोग वैकल्पिक रूप से कम से कम दो प्रकार से किया जाता है ।


मनुष्य अपनी इच्छाओं की तप्ति
ृ से सुख का अनुभव करता है । इसलिए प्रत्येक मनष्ु य अपनी इच्छाओं को तप्ृ त
करना चाहता है । इच्छाओं की तप्ति
ृ के लिए उसके पास जो साधन, द्रव्य इत्यादि हैं वे परिमित हैं। व्यक्ति कितना भी
धनवान क्यों न हो, उसके धन की मात्रा अवश्य परिमित रहती है ; फिर वह इस परिमित साधन द्रव्य का उपयोग कई
तरह से कर सकता है । इसलिए उपयुक्त परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र में मनष्ु यों के उन सब कार्यो के संबंध में
विचार किया जाता है जो वह परिमित साधनों द्वारा अपनी इच्छाओं को तप्ृ त करने के लिए करता है । इस प्रकार
उसके उपभोग संबंधी सब कार्यो का विवेचन अर्थशास्त्र में किया जाना आवश्यक हो जाता है । इसी प्रकार मनष्ु य को
बाज़ार में अनेक वस्तुएँ किस प्रकार खरीदने का साधन द्रव्य परिमित रहता है । इस परिमित साधन द्वारा वह अपनी
आवश्यक वस्तुएँ किस प्रकार खरीदता है , वह कौन सी वस्तु किस दर से, किस परिमाण में , खरीदता या बेचता है ,
अर्थात ् वह विनियम किस प्रकार करता है , इन सब बातों का विचार अर्थशास्त्र में किया जाता है । मनष्ु य जब कोई
वस्तु तैयार करता है , इसके तैयार करने के साधन परिमित रहते हैं और उन साधनों का उपयोग वह कई तरह से कर
सकता है । इसलिए उत्पति संबंधी सब कार्यो का विवेचन अर्थशास्त्र में होना स्वाभाविक है ।

मनुष्य को अपने समय का उपयोग करने की अनेक इच्छाएँ होती हैं। परं तु समय हमेशा परिमित रहता है और उसका
उपयोग कई तरह से किया जा सकता है । मान लीजिए, कोई मनुष्य सो रहा है , पूजा कर रहा है या कोई खेल खेल रहा
है । प्रोफ़ेसर राबिंस की परिभाषा के अनस
ु ार इन कार्यों का विवेचन अर्थशास्त्र में होना चाहिए, क्योंकि जो समय सोने
में पूजा में या खेल में लगाया गया है , वह अन्य किसी कार्य में लगाया जा सकता था। मनष्ु य कोई भी काम करे , उसमें
समय की आवश्यकता अवश्य पड़ती है और इस परिमित साधन समय के उपयोग का विवेचन अर्थशास्त्र में अवश्य
होना चाहिए। प्रोफ़ेसर राबिंस की अर्थशास्त्र की परिभाषा इतनी व्यापक है कि इसके अनस
ु ार मनष्ु य के प्रत्येक कार्य
का विवेचन, चाहे वह धार्मिक, राजनीतिक या सामाजिक ही क्यों न हो, अर्थशास्त्र के अंदर आ जाता है । इस परिभाषा
को मान लेने से अर्थशास्त्र, राजनीति, धर्मशास्त्र और समाजशास्त्र की सीमाओं का स्पष्टीकरण बराबर नहीं हो पाता
है ।

प्रोफेसर राबिंस के अनुयायियों का मत है कि परिमित साधनों के अनुसार मनुष्य के प्रत्येक कार्य का आर्थिक पहलू
रहता है और इसी पहलू पर अर्थशास्त्र में विचार किया जाता है । वे कहते हैं, यदि किसी कार्य का संबंध राज्य से हो तो
उसका उस पहलू से विचार राजनीतिशास्त्र में किया जाए और यदि उस कार्य का संबंध धर्म से भी हो तो उस पहलू से
उनका विचार धर्मशास्त्र में किया जाए।

मान लें, एक मनष्ु य चोरबाज़ार में एक वस्तु को बहुत अधिक मूल्य में बेच रहा है । साधन परिमित होने के कारण वह
जो कार्य कर रहा है और उसका प्रभाव वस्तु की उत्पति या पूर्ति पर क्या पड़ रहा है , इसका विचार तो अर्थशास्त्र में
होगा; चोरबाजारी करनेवाले के संबंध में राज्य का क्या कर्तव्य है , इसका विचार राजनीतिशास्त्र या दं डनीति में होगा।
यह कार्य अच्छा है या बरु ा, इसका विचार समाजशास्त्र, आचारशास्त्र या धर्मशास्त्र में होगा। और, यह कैसे रोका जा
सकता है , इसका विचार शायद किसी भी शास्त्र में न हो। किसी भी कार्य का केवल एक ही पहलू से विचार करना उसके
उचित अध्ययन के लिए कहाँ तक उचित है , यह विचारणीय है ।

प्रोफ़ेसर राबिंस की अर्थशास्त्र की परिभाषा की दस


ू री ध्यान दे ने योग्य बात यह है कि वह अर्थशास्त्र को केवल विज्ञान
ही मानता है । उसमें केवल ऐसे नियमों का विवेचन रहता है जो किसी समय में कार्य कारण का संबंध बतलाते हैं।
परिस्थितियों में किस प्रकार के परिवर्तन होने चाहिए और परिस्थितियों के बदलने के क्या तरीके हैं, इन गंभीर प्रश्नों
पर उसमें विचार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये सब कार्य विज्ञान के बाहर हैं। माने लें, किसी समय किसी दे श में
शराब पीनेवाले व्यक्तियों की सँख्या बढ़ रही है । प्रोफेसर राबिंस की परिभाषा के अनस
ु ार अर्थशास्त्र में केवल यही
विचार किया जाएगा कि शराब पीनेवालों की संख्या बढ़ने से शराब की कीमत, शराब पैदा करनेवालों और स्वयं
शराबियों पर क्या असर पड़ेगा। परं तु उनके अर्थशास्त्र में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए गुंजाइश नहीं है कि शराब
पीना अच्छा है या बुरा और शराब पीने की आदत सरकार द्वारा कैसे बंद की जा सकती है । उनके अर्थशास्त्र में
मार्गदर्शन का अभाव है । प्रत्येक शास्त्र में मार्गदर्शन उसका एक महत्वपूर्ण भाग माना जाता है और इसी भाग का
प्रोफेसर राबिंस के अर्थशास्त्र की परिभाषा में अभाव है । इस कमी के कारण अर्थशास्त्र का अध्ययन जनता के लिए
लाभकारी नहीं हो सकता।

समाजवादी चाहते हैं कि पँज


ू ीपतियों और जमींदारों का अस्तित्व न रहने पाए, सरकार मजदरू ों की हो और दे श की
आर्थिक दशा पर सरकार का पर्ण
ू नियंत्रण हो। वे अपनी अर्थशास्त्र संबंधी पस्
ु तकों में इन प्रश्नों पर भी विचार करते हैं
कि मजदरू सरकार किस प्रकार स्थापित होनी चाहिए। जमींदारों और पँज
ू ीपतियों का अस्तित्व कैसे मिटाया जाए।
मजदरू सरकार का सगठन किस प्रकार का हो और उनका संगठन संसारव्यापी किस प्रकार किया जा सकता है । इस
प्रकार समाजवादी लेखक अर्थशास्त्र का क्षेत्र इतना व्यापक बना दे ते हैं कि उसमें राजनीतिशास्त्र की बहुत सी बातें आ
जाती हैं। हमको अर्थशास्त्र का क्षेत्र इस प्रकार निर्धारित करना चाहिए जिससे उसमें राजनीतिशास्त्र या अन्य किसी
शास्त्र की बातों का समावेश न होने पाए।

अर्थशास्त्र के क्षेत्र के संबंध में प्रोफेसर मार्शल की अर्थशास्त्र की परिभाषा पर भी विचार कर लेना आवश्यक है ।
प्रोफेसर मार्शल के मतानुसार अर्थशास्त्र मनुष्य के जीवन संबंधी साधारण कार्यों का अध्ययन करता है । वह मनुष्यों
के ऐसे व्यक्तिगत और सामजिक कार्यों की जाँच करता है जिनका घनिष्ठ संबंध उनके कल्याण के निमित भौतिक
साधन प्राप्त करने और उनका उपयोग करने से रहता है ।

प्रोफेसर मार्शल ने मन
ु ष्य के कल्याण को अर्थशास्त्र की परिभाषा में स्थान दे कर अर्थशास्त्र के क्षेत्र को कुछ बढ़ा दिया
है । परं तु इस अर्थशास्त्री ने भी अर्थशास्त्र के ध्येय के संबंध में अपनी पुस्तक में कुछ विचार नहीं किया। वर्तमान काल
में पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों ने अर्थशास्त्र का क्षेत्र तो बढ़ा दिया है , परं तु आज भी वे अर्थशास्त्र के ध्येय के संबंध में
विचार करना अर्थशास्त्र के क्षेत्र के अदं र स्वीकार नहीं करते। अब तो अर्थशास्त्र को कला का रूप दिया जा रहा है ।
संसार में सर्वत्र आर्थिक योजनाओं की चर्चा है । आर्थिक योजना तैयार करना एक कला है । बिना ध्येय के कोई योजना
तैयार ही नहीं की जा सकती। अर्थशास्त्र को कोई भी सर्वसफल निश्चित ध्येय न होने के कारण इन योजना तैयार
करनेवालों का भी कोई एक ध्येय नहीं है । प्रत्येक योजना का एक अलग ही ध्येय मान लिया जाता है । अर्थशास्त्र में
अब दे शवासियों की दशा सुधारने के तरीकों पर भी विचार किया जाता है , परं तु इस दशा सुधारने का अंतिम लक्ष्य
अभी तक निश्चित नहीं हो पाया है । सर्वमान्य ध्येय के अभाव में अर्थशास्त्रियों में मतभिन्नता इतनी बढ़ गई है कि
किसी विषय पर दो अर्थशास्त्रियों का एक मत कठिनता से हो पाता है । इस मतभिन्नता के कारण अर्थशास्त्र के
अध्ययन में एक बड़ी बाधा उपस्थित हो गई है । इस बाधा को दरू करने के लिए पाश्चात्य अर्थशास्त्रियों को अपने ग्रंथों
में अर्थशास्त्र के ध्येय के संबंध में गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और जहाँ तक संभव हो, अर्थशास्त्र का एक
सर्वमान्य ध्येय शीघ्र निश्चित कर लेना चाहिए।

अर्थशास्त्र का ध्येय

संसार में प्रत्येक व्यक्ति अधिक से अधिक सुखी होना और द:ु ख से बचना चाहता है । वह जानता है कि अपनी इच्छा
जब तप्ृ त होती है तब सख
ु प्राप्त होता है और जब इच्छा की पर्ति
ू नहीं होती तब द:ु ख का अनभ
ु व होता है । धन द्वारा
इच्छित वस्तु प्राप्त करने में सहायता मिलती है । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति धन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । वह
समझता है कि संसार में धन द्वारा ही सुख की प्राप्ति होती है । अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के लिए वह अधिक
से अधिक धन प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । इस धन को प्राप्त करने की चिंता में वह प्राय: यह विचार नहीं करता
कि धन किस प्रकार से प्राप्त हो रहा है । इसका परिणाम यह होता है कि धन ऐसे साधनों द्वारा भी प्राप्त किया जाता है
जिनसे दस
ू रों का शोषण होता है , दस
ू रों को दख
ु पहुँचता है । इस प्रकार धन प्राप्त करने के अनेक उदाहरण दिए जा
सकते हैं। पँज
ू ीपति अधिक धन प्राप्त करने की चिंता में अपने मजदरू ों को उचित मजदरू ी नहीं दे ता। इससे मजदरू ों की
दशा बिगड़ने लगती है । दक
ू ानदार खाद्य पदार्थो में मिलावट करके अपने ग्राहकों के स्वास्थ्य को नष्ट करता है ।
चोरबाजारी द्वारा अनेक सरल व्यक्ति ठगे जाते हैं, महाजन कर्जदारों से अत्यधिक सूद लेकर और जमींदार किसानों
से अत्यधिक लगान लेकर असंख्य व्यक्त्याेिं के परिवारों को बरबाद कर दे ते हैं। प्रकृति का यह अटल नियम है कि जो
जैसा बोता है उसको वैसा ही काटना पड़ता है । दस
ू रों का शोषण कर या द:ु ख पहुँचाकर धन प्राप्त करनेवाले इस नियम
को शायद भूल जाते हैं। जो धन दस
ू रों को दख
ु पहुँचाकर प्राप्त होता है उससे अंत में द:ु ख ही मिलता है । उससे सुख की
आशा करना व्यर्थ है । यह सत्य है कि दस
ू रों को दख
ु पहुँचाकर जो धन प्राप्त किया जाता है उससे इच्छित वस्तुएँ
प्राप्त की जा सकती है और इन वस्तओ
ु ं को प्राप्त करने से सख
ु मिल सकता है । परं तु यह सख
ु अस्थायी है और अंत में
दख
ु का कारण हो जाता है । संसार में ऐसी कई वस्तुएँ हैं जिनका उपयोग करने से तत्काल तो सुख मिलता है , परं तु
दीर्घकाल में उनसे दख
ु की प्राप्ति होती है । उदाहरणार्थ मादक वस्तुओं के सेवन से तत्काल तो सुख मिलता है , परतु
जब उनकी आदत पड़ जाती है तब उनका सेवन अत्यधिक मात्रा में होने लगता है , जिसका स्वास्थ्य पर बरु ा प्रभाव
पड़ता है । इससे अंत में द:ु खी होना पड़ता है । दस
ू रों को हानि पहुँचाकर जो धन प्राप्त होता है वह निश्चित रूप से बरु ी
आदतों को बढ़ाता है और कुछ समय तक अस्थायी सुख दे कर वह द:ु ख बढ़ाने का साधन बन जाता है । दस
ू रों को दख

दे कर प्राप्त किया हुआ धन कभी भी स्थायी सुख और शांति का साधक नहीं हो सकता।

सुख दो प्रकार के हैं। कुछ सुख तो ऐसे हैं जो दस


ू रों को दख
ु पहुँचाकर प्राप्त होते हैं। इनके उदाहरण ऊपर दिए जा चुके
हैं। कुछ सख
ु ऐसे हैं जो दस
ू रों को सख
ु ी बनाकर प्रप्त होते हैं। वे मनष्ु य के मन में शांति उत्पन्न करते हैं। अपना
कर्तव्य पालन करने से जो सुख प्राप्त होता है वह भी शांति प्रद होता है कर्तव्यपालन करते समय जो श्रम करना पड़ता
है उससे कुछ कष्ट अवश्य मालूम होता है , परं तु कार्य पूरा होने पर वह द:ु ख सुख में परिणत हो जाता है और उससेन
मन में शांति उत्पन्न होती है । इस प्रकार का सख
ु भविष्य में द:ु ख का साधन नहीं होता ओर इस प्रकार के सख
ु को
आनंद कहते हैं। जब आनंद ही आनंद प्राप्त होता है तब द:ु ख का लेश मात्र भी नहीं रह जाता। ऐसी दशा को परमानंद
कहते हैं। परमानंद प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम ध्येय है । वही आत्मकल्याण की चरम सीमा है । प्रत्येक
मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह परमानंद प्राप्त करने का हमेशा प्रयत्न करता रहे । वह हमेशा ऐसा सुख प्राप्त
करता रहे जो भाविष्य में द:ु ख का कारण या साधन न बन जाए और वह शांति और संतोष का अनुभव करने लगे।

जब हम अपने प्रयत्नों द्वारा दस


ू रों को सख
ु पहुँचाते हैं और उनके कल्याण के साधन बन जाते हैं तब प्रकृति के अटल
नियम के अनुसार इन्हीं प्रयत्नों द्वारा हमारे कल्याण में भी वद्धि
ृ होने लगती है । आत्मकल्याण प्राप्त करने का सरल
उपाय दस
ू रों के कल्याण का साधन बनना है । इसी प्रकार अपने कार्यों द्वारा किसी को भी द:ु ख न पहुँचाना अपने दख

से बचने का सबसे सरल तरीका है । प्रत्येक व्यक्ति को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि उसका सच्चा
हितसाधन दस
ू रों के हितसाधन या परमार्थ द्वारा ही सिद्ध हो सकता है । इससे यह स्पष्ट है कि दस
ू रों का सुख अर्थात ्
विश्वकल्याण ही अपने स्थायी सुख और शांति अर्थात ् आत्मकल्याण का एकमात्र साधन है । जब प्रत्येक व्यक्ति
अपना कल्याण करने के लिए दस
ू रों के कल्याण का हमेशा प्रयत्न करने लगेगा तब किसी भी तरह से स्वार्थो का
विरोध न होगा, संसार में सब प्रकार का संघर्ष दरू हो जाएगा और सर्वत्र सुख और शांति स्थायी रूप से स्थापित हो
जाएगी।

आत्मकल्याण के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति दस


ू रों के स्वार्थों को उतना ही महत्व दे जितना वह अपने
स्वार्थ को दे ता है । जैसे वह अपने सुखों को बढ़ाने का प्रयत्न करता है , वैसे ही उसे दस
ू रों के सुखों को बढ़ाने का भी
प्रयत्न करना चाहिए। इसका पारिणाम यह होगा कि ऐसे कार्य बंद हो जाएँगे जिनके कारण दस
ू रों के द:ु खों की वद्धि

होती है । इससे विश्व के जीवों में सुख की निरं तर वद्धि
ृ होने लगेगी और विश्व का कल्याण बढ़ते बढ़ते चरम सीमा तक
पहुँच जाएगा। बिना विश्वकल्याण के किसी भी व्यक्ति का आत्मकल्याण नहीं हो सकता। सच्चा आत्मकल्याण
विश्व कल्याण द्वारा ही प्राप्त हो सकता है । आत्मकल्याण ही प्रत्येक व्यक्ति का सर्वोत्तम ध्येय है और जब
अर्थशास्त्र मनष्ु य के आर्थिक प्रयत्नों का अध्ययन करता है तब उसका ध्येय भी आत्मकल्याण ही होना चाहिए।
परं तु, जैसा ऊपर बतलाया जा चुका है , सच्चा आत्मकल्याण विश्व कल्याण द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है ।
इसलिए अर्थशास्त्र का ध्येय विश्वकल्याण ही होना चाहिए।
हम यह पहले ही बता चुके हैं कि जब किसी इच्छा की पूर्ति नहीं होती तब द:ु ख का अनुभव होता है । इसलिए यदि
किसी वस्तु की इच्छा ही न की जाए तो द:ु ख प्राप्त करने का अवसर ही न प्राप्त हो। कुछ सज्जनों का मत है कि संपूर्ण
इच्छाओं की निवति
ृ द्वारा द:ु ख का अभाव और स्थायी सुख तथा शांति प्राप्त हो सकती है । इसलिए इस दृष्टि से दे खा
जाए तब तो सब इच्छाओं का अभाव ही अर्थशास्त्र का ध्येय होना चाहिए। यह ठीक है कि अभ्यास द्वारा इच्छाओं का
नियंत्रण अवश्य किया जा सकता है , परं तु ऐसी दशा प्राप्त कर लेना जब किसी भी प्रकार की इच्छा उत्पन्न ही न होने
पाए, साधारण मनष्ु य में से एक के लिए भी व्यावहारिक नहीं है । अस्त,ु अर्थशास्त्र का ध्येय संपर्ण
ू इच्छाओं के अभाव
को मान लेने से थोड़े से व्यक्तियों का ही कल्याण हो सकेगा और जनता का उससे कुछ भी लाभ न होगा, इसलिए इस
ध्येय को मान लेना उचित न होगा।

कुछ व्यक्ति मानवकल्याण ही अर्थशास्त्र का ध्येय मानते हैं। वे जीवजंतुओं तथा पशुपक्षियों के हितों का ध्यान
रखना आवश्यक नहीं समझते। वे शायद यह मानते हैं कि जीवजंतुओं और पशु पक्षियों को ईश्वर ने मनुष्य के सुख के
लिए ही उत्पन्न किया है । इसलिए उनको द:ु ख पहुँचाकर या वध करके यदि मनष्ु यों की इच्छाओं की पूर्ति हो सकती
हो तो उनको द:ु ख पहुँचाने में कुछ भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किं तु धर्मशास्त्र और महात्मा गांधी का तो यह मत
है कि प्रत्येक व्यक्ति को ऐसा ही कार्य करना चाहिए जिससे 'सार्वभौम हित' अर्थात सब जीवधारियों का हित हो,
किसी की भी हानि न होने पाए। जब मनष्ु य प्रत्येक जीवधारी के हित को अपने निजी हित के समान मानने लगता है
तभी उसको स्थायी सुख और शांति प्राप्त होती है । महात्मा गांधी ने इस मार्ग को 'सर्वोदय' नाम दिया है । इस सर्वोदय
मार्ग द्वारा ही संसार में प्रत्येक प्रकार का संघर्ष दरू हो सकता है , शोषण का अंत हो सकता है और विश्वशंति स्थापित
हो सकती है । सर्वोदय का मार्ग प्रत्येक व्यक्ति का कल्याण ओर विश्वकल्याण की वद्धि
ृ करने का उत्तम साधन है ।
इसलिए उनके अनुसार अर्थशास्त्र का ध्येय मानवकल्याण न मानकर विश्वकल्याण ही मानना चाहिए।

आर्थिक क्रियाएँ

अर्थशास्त्र की विषय सामग्री के सम्बन्ध में आर्थिक क्रियाओं का वर्णन भी जरूरी है । पर्व
ू में

उत्पादन , उपभोग , विनिमय तथा वितरण - अर्थशास्त्र के ये चार प्रधान अंग (या, आर्थिक क्रियायें) माने जाते थे।
आधनि
ु क अर्थशास्त्र में इन क्रियाओं को पांच भागों में बांटा जा सकता है ।

उत्पादन (Production) : उत्पादन वह आर्थिक क्रिया है जिसका संबंध वस्तओ


ु ं और सेवाओं की उपयोगिता अथवा
मूल्य में वद्धि
ृ करने से है ।

उपभोग (Consumption ) : व्यक्तिगत या सामहि


ू क आवश्यकता की संतष्टि
ु के लिए वस्तओ
ु ं और सेवाओ की
उपयोगिता का उपभोग किया जाना।
विनिमय (Exchange) : किसी वस्तु या उत्पादन के साधन का क्रय-विक्रय किया जाता है और यह क्रय-विक्रय
अधिकांशतः मुद्रा द्वारा किया जाता है ।

वितरण (Distribution) : वितरण से तात्पर्य उत्पादन के साधनों के वितरण से है , उत्पति के विभिन्न साधनों के
सामहि
ू क सहयोग से जो उत्पादन होता है उसका विभिन्न साधनों में बाँटना।

राजस्व (Public Finance) : राजस्व के अन्तर्गत लोक व्यय, लोक आय, लोक ऋण, वित्तीय प्रशासन आदि से
सबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है ।

आर्थिक क्रियाओं के उद्देश्य के आधार पर 1933 में सर्वप्रथम रे गनर फ्र्रिश (Ragnor Frisch) ने अर्थशास्त्र को दो भागों
में बांटा।

व्यष्टि अर्थशास्त्र (Micro Economics)

समष्टि अर्थशास्त्र (Macro Economics)

अंतरराष्ट्रीय व्यापार , विदे शी विनियम , बैंकिंग आदि समष्टि अर्थशास्त्र के रूप हैं। संक्षेप में , अध्ययन के दृष्टिकोण
से अर्थशास्त्र के विभिन्न अंगों को हम इस प्रकार रख सकते हैं:

व्यष्टि अर्थशास्त्र

मुख्य लेख: व्यष्टि अर्थशास्त्र

यह वैयक्तिक इकाइयों का अध्ययन करता है , जैसे व्यक्ति, परिवार, फर्म, उद्योग, विशेष वस्तु का मूल्य। बोल्डिग
केअनुसार, व्यष्टि अर्थशास्त्र विशेष फर्मो, विशेष परिवारों, वैयक्तिक कीमतों, मजदरि
ू यों, आयों, वैयक्तिक उद्योगों
तथा विशिष्ट वस्तओ
ु ं का अध्ययन है । यह सीमांत विश्लेषण को महत्व दे ता है ।

समष्टि अर्थशास्त्र

मुख्य लेख: समष्टि अर्थशास्त्र

जॉन मेनार्ड केन्स को मैक्रोइकॉनॉमिक्स का संस्थापक पिता माना जाता है ।

आधुनिक आर्थिक सिद्धान्त के बहुत से महत्वपूर्ण विषय जैसे अंतरराष्ट्रीय व्यापार , विदे शी विनिमय , राजस्व,
बैकिंग , व्यापार चक्र,

राष्ट्रीय आय तथा रोजगार के सिद्धान्त ,


आर्थिक नियोजन एवं आर्थिक विकास आदि का अध्ययन समष्टि अर्थशास्त्र (मैक्रो-इकनॉमिक्स) के अन्तर्गत होता
है । बोल्डिग के शब्दों में , समष्टि अर्थशास्त्र, अर्थशास्त्र का वह भाग है जो अर्थशास्त्र के बड़े समूहों और औसतों का
अध्ययन करता है , न कि उसकी विशेष मदों का। वह इन समूहों को उपयोगी ढँ ग से परिभाषित करने का प्रयत्न करता
है तथा इनके पारस्परिक संबंधों को जाँचता है ।

संक्षेप में ये ही अर्थशास्त्र के अंग है । केन्स के बाद के आधुनिक अर्थशास्त्री अब कुछ नए नामों से अर्थशास्त्र के
विभिन्न अंगों का विवेचन करते हैं, जैसे पूंजी का अर्थशास्त्र, पँज
ू ी निर्माण, श्रम अर्थशास्त्र, यातायात का अर्थशास्त्र,
मौद्रिक अर्थशास्त्र, केंसीय अर्थशास्त्र, अल्प विकसित दे शों का

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