Professional Documents
Culture Documents
पुरुषार्थ, अध्याय 3
पुरुषार्थ, अध्याय 3
आधार पाया। पहला आधार क्षणिक, आस्थिर एवं असत्य। यह सुख शारीरिक, भौतिक
प्रकार का सुख संकीर्णता एवं विध्नता, स्वार्थ और‘लिप्सा तथा कामना और वासना से
जीवन को आबद्ध करने वाला है जो हमारा आदर्शमय जीवन नही हो सकता। मनुष्य
का कर्तव्यनिष्ठ एवं संयमित आधार तथा आध्यात्मिक विचार ही उचित निर्णय प्रदान
कर सकने में समर्थ होता है । अतः मानव जीवन का उद्देश्य भौतिक सुख न होकर
आध्यात्मिक सख
ु होना चाहिए तथा उसके कर्म विलासपरक न होकर धर्मपरक होने
प्राप्ति के लिए सदा कर्म को ही प्राथमिकता दी गई है । श्री कृष्ण ने स्वयं गीता में
कहा है कि “कर्म करना मात्र ही मानव का अधिकार है । उसको फल में आसक्ति नही
1.गीता, 2/47
इस प्रकार भारतीय जीवन दर्शन इन दोनो रुपो क्रमशः भौतिक एवम ्
एवं उद्देश्यो को चार भागो में विभाजित कर दिया गया-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। भौतिक
एवं लौकिक सुख के अन्तर्गत अर्थ एवं काम तथा आध्यात्मिक एवं पारलौकिक सुख के
ईश्वर के प्रति समर्पित होकर मोक्ष को प्राप्त करता है क्योकि हिन्द ू धर्म के अनुसार
जीवन एवं मत्ृ यु से छुटकार पाना, संसार में आवागमन से मुक्ति पाना और ईश्वर के
सकता है । इन “जीवन मूल्यो” की कल्पना विभिन्न कालो में अलग-अलग थी। पूर्व
प्रति क्रमागत अनास्था पुरुषार्थ के बिना असम्भव है । अतः धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से
समन्वित परु
ु षार्थ व्यक्ति के जीवन को गरिमामण्डित बनाता है और उसके
कर्तव्यमल
ू क व्यक्तित्व का निर्माण करता है ।
पुरुषार्थ का अर्थ
पुरुषार्थ शब्द पुरुष और अर्थ शब्द जोड़कर बनाया गया है इसका तात्पर्य है -पुरुष
अर्थात व्यक्ति का, अर्थ यानी प्रयोजन लक्ष्य।1 पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है ‘उ|ks ग’।
अतएव पुरुषार्थ से अभिप्राय निर्दिष्ट दिशा में किये जाने वाले उन उ|ks गो से है
जिसकी व्यवस्था से मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके। 2 जबकि
साधारण शब्दो में पुरुषार्थ की व्याख्या है ‘पुरुषैरर्थ्यते पुरुषार्थः’ अर्थात पुरुष की इष्ट
वस्तु ही पुरुषार्थ है । हमारा इष्ट अथवा लक्ष्य क्या है ? ऊपर उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट
है कि मानव का अन्तिम लक्ष्य वही मोक्ष है । परन्तु इसका ज्ञान मनष्ु य को बहुत
पीछे होता है । शुरु में व्यक्ति का सामान्य इष्ट अर्थ एवं काम ही होता है पर जब
धीरे -धीरे मोक्ष की भावना बलवती होती है तो अर्थ एवं काम का भी वही लक्ष्य हो
वही हमारा गंतव्य तथा लक्ष्य है । यही कराण है कि इन्हे त्रिवर्ग कहा गया है ।1
भगवान दास ने कहा है , त्रिवर्ग(धर्म, अर्थ और काम) की प्राप्ति से मोक्ष स्वतः प्राप्त हो
गया और तीनो के सहअस्तिव के महत्व में किसी भी प्रकार की शंका करना अनुचित
है । त्रिवर्ग की सिद्धि को अभ्युदय एवं मोक्ष की सिद्धि को निः श्रेयस कहा गया है ।
है । इसी तरह जिससे बढ़कर कोई भी श्रेयान (् श्रेष्ठम) फल न हो, उसकी प्राप्ति को
अनुष्ठान इतनी अधिक मात्रा मे नही होना चाहिए कि इन तीनो में परस्पर बाधा
पहुँचने लगे। इसलिए कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है -‘एको हि अत्यासेवितो ãs षाम ्
आत्मनमितरौ च पी·यति।’ अतः काम का सेवन ऐसे करना चाहिए जिससे धर्म और
अर्थ में बाधा न आये और विषय सुख का नितान्त परित्याग करके बिल्कुल सुखरहित
रहना भी उचित नही। इस प्रकार चार पुरुषार्थो का सम्पादन करना ही मनुष्य जीवन
इसके साधन धर्म और अर्थ है । इस तरह से साध्य और साधन के रुप में इन तीनो
पुरुषार्थो(धर्म, अर्थ, काम) का सामूहिक नाम त्रिवर्ग है इसमें मोक्ष नामक पुरुषार्थो को
मिला दे ने से चतव
ु र्ग बन जाता है । अमरकोश में त्रिवर्ग एवं चतव
ु र्ग(परु
ु षार्थ चतष्ु टय)
कुछ काम सुख को और कुछ अन्य इन दोनो के मूल धर्म को चाहता है तो कुछ त्रिवर्ग
त्रिवर्ग में समाहित विभिन्न पुरुषार्थो के क्रम उनके महत्व एवं दोष के विषय मे
अर्थ का धन संचय करके रखना और काम का, विषयो में अत्यधिक आसक्त रहना है ।
अर्थ और काम में अत्यधिक आसक्ति रखने वाले जो व्यक्ति धर्म का परित्याग कर
इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है , जो प्रारम्भ में धर्म का पालन करता है
और तदप
ु रान्त धर्मपर्व
ू क धनोपार्जन के बाद विवाह और यज्ञादि करता है ।1 धर्म को
नियामक माना गया है । इसका पालन करते हुये अर्थ और काम का सम्पादन करना
चाहिए। भीम के मत में सर्वप्रथम धर्म, तत्पश्चात धन और सबसे बाद में काम का
अभ्यास करना चाहिए। प्राचीन साहित्य में कही धर्म को सर्वप्रमुख माना गया है , कही
करने से पहले हम सामान्य रुप से धर्मशास्त्र, परु ाण एवं इतिहास ग्रन्थों के अन्तर्गत
धर्मशास्त्र की दृष्टि
और काम उत्पन्न होते है , अतः इसी का सेवन विशेषतः करना चाहिए। इसी प्रकार
धर्मशास्त्रो (मनस्
ु मति
ृ ) में बताया गया है - वेद, स्मति
ृ , सदाचार और वैकाल्पिक स्थिति में
अनत्ु तम सख
ु को प्राप्त करता है ।
महाभारत, रामायण, बह
ृ स्पति सत्र
ू में धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । धर्म की
महत्ता जान, तदनुसार कार्य करने वाला सूर्य के समान तेजस्वी होता है और जो
धर्महीन होता है वह पापबुद्धि होने के कारण राज्य प्राप्त करने के बाद भी नष्ट हो
जाता है । अर्थ और काम में जो व्यक्ति आसक्त नही है , उसी को धर्म का ज्ञान कराया
k दान प्रसंग मे बताया है कि ब्राã महु ु र्त में उठकर गहृ स्थ को धर्म और अर्थ की
चिन्ता करनी चाहिए। इसके साथ ही धर्म से रहित अर्थ एवं काम का भी त्याग कर
मनुस्मति
ृ (6.91-94) में सामान्यतः सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पालनीय दस
लक्षण(धति
ृ , क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, वि|k, सत्य और अक्रोध) वाले धर्म
का निरुपण किया गया है । जिसे नैतिकता के रुप में आधुनिक काल में भी मान्यता
अनस
ु रण करे एवं सन्यास ग्रहण कर वेदान्तशास्त्र का अनस
ु रण करे तो उसके लिए
मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । अतः धर्मशास्त्रो की दृष्टि से चारो पुरुषार्थो में धर्म
चाहिए।2
पुराणो सी दृष्टि
भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृतिके मूल आधार है । महान मनीषियो ने चार पुरुषार्थो
को मानव जीवन के आस्तित्व को चार लक्ष्य बताये। इनमें इन्होने सर्वोत्तम लक्ष्य
मोक्ष को माना। भिन्न-भिन्न परु ाणो में मोक्ष के नाम एवं स्वरुप में भिन्नता है । फिर
भी सामान्य रुप से सभी प्रकार के सांसरिक बन्धनो से मुक्ति को मोक्ष माना गया है ।
युक्ति कैवल्य, निःश्रेयस, अपवर्ग, अमत्ृ तव, निर्वाण इत्यादि शब्द मोक्ष के पर्याय है , मोक्ष-
प्राप्ति के उपाय के रुप में परु ाणो में कर्म, योग, ज्ञान और भक्ति का वर्णन मिलता है ।
धर्मविहिन हो। लोकविरूद्ध धर्म का आचरण भी नही करना चाहिए। धर्म से अर्थ और
काम की सिद्धि होती है । मोक्ष के लिए धर्म जरुरी है , अतः धर्म का आश्रय अवश्य
ग्रहण करना चाहिए। निःसन्दे ह कर्म एवं ज्ञान के द्वारा धर्म की प्राप्ति होती है , अतः
इतिहास की दृष्टि
(104-105) ड़ॉ0 पी0 वी0 काणे ने धर्मशास्त्र से सम्बन्ध अपनी पुस्तक में चार पुरुषार्थ
का संछिप्त रुप से परिचय दे ते हुये कहते है कि इनमें अन्तिम परम लक्ष्य मोक्ष है
आपस्तब्ब में कहा है कि धर्म के विरोध मे न जाने वाले सभी काम -सुखो का भोग
विष्णध
ु र्मसत्र
ू (71.84) एवं भागवत(1.2.9) ने धर्म को ही प्रधानता दी है । मनु ने अरस्तू के
समान ही सभी क्रियायों के पीछे कोई अनुमानित शुभ या कल्याणप्रद तत्व मान लिया
अर्थशास्त्र की दृष्टि
चर्चा की गई है । बिना आनन्द का जीवन बिताना उचित नही है , ऐसा मान कर वहाँ
2.वही 1.7.6-7
आगे दो सत्र
ू ों में त्रिवर्ग के सेवन के बारे में कहा गया है कि इसमें किसी एक का
अधिक सेवन करने से वह स्वयं अपने को ही नही बल्कि दोनो वर्गो की भी पीड़ा
पहुँचाता है । अर्थ की प्रधानता बताते हुये कौटिल्य ने क्रमशः धर्म और काम को अर्थ
वद्धि
ृ हो, उसको अर्जित करना सबसे बड़ी सफलता है ।2 भारतीय साहित्य में कौटिल्य
चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध है । इनका समय ईसा-पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी माना जाता
कामशास्त्र की दृष्टि से
प्रतिपत्ति शीर्षक में धर्म, अर्थ, काम नामक त्रिवर्ग का अच्छा विश्लेषण किया गया है ,
इसमे परु
ु ष की आयु सौ वर्ष मानकर इस आयु को तीन भागो में विभक्त कर त्रिवर्ग
न हो। बचपन में वि|k ध ्यन आदि के रुप में अर्थ की चिन्ता करे , युवावस्था में काम
की और वद्ध
ृ ावस्था में धर्म और मोक्ष की। जबकि शास्त्रकारों के अनुसार आयु का कोई
कहकर आयु को तीन भागो में विभिक्त किया है । अतः जिस प्रकार धर्मशास्त्र के
ग्रन्थो में धर्म की एवं अर्थशास्त्र के ग्रन्थों में अर्थ की ही तरह यहाँ काम की विस्तार
इसी तरह धर्म, अर्थ और काम की विशेषता बताते हुये कहा गया है कि
सामूहिक रुप से विचार करने पर काम की अपेक्षा अर्थ की और अर्थ की अपेक्षा धर्म
की वरीयता मान्य है । धर्म, अर्थ और काम के लक्षण कामशास्त्रों में क्रमशः इस प्रकार
लोक में दे खने को नही मिलता। अतः धर्माशास्त्रों द्वारा इनमें प्रवत्ति
ृ कराई जाती है
इसी तरह असत्य, हिंसा जैसे लौकिक विषयो का फल दिखाई पड़ता है जिसमें
लिए शास्त्रो की महत्वपूर्ण भूमिका होता है । इस तरह से सही कार्य में प्रवत्ति
ृ और
गह
ृ स्थी की सामग्री के साथ हितकारी मित्रो का अर्जन एव अर्जित वि|k संरक्षण का
काम के सम्बन्ध में उल्लेख है कि जिस प्रकार धर्म एवं अर्थ ये दोनो
परु
ु षार्थ लोक-स्थिति के मख्
ु य साधन से परम उपयोगी है , उसी तरह काम भी प्राणियो
की लोकयात्रा में उपयोगी सुख सामग्री का मुख्य साधन होने से अत्यन्त उपादे य है ।
सामान्य रुप से काम कहलाता है । उसी तरह हस्त, वाद, पाक् वायु और उपस्थ नामक
प्राप्ति होती है , तो उसे काम की विशेष अवस्था कहा जाता है । वात्सायन का कहना है
काम प्रवत्ति
ृ को तत
ृ ीय परु
ु षार्थ के रुप में मान्यता दे कर इसकी विशेषताओ पर परू े
धर्म
हिन्द ू जीवन दर्शन और सामाजिक व्यवस्था में धर्म की स्थिति अत्यन्त
को व्यवस्थित, संयमित एवं नियन्त्रित करती है तथा उसके लिए उज्ज्वल स्वरुप जीवन
मानव को स्थायित्व मिले तथा अधर्म वह है जिससे मानव विनष्ट हो जाये। इस तरह
जहाँ धर्म उन्नति का साधन है वही अधर्म अवनति का। यही भारतीय दृष्टिकोण है
और इसकी आराधना सबसे पहले करनी चाहिए। रामायण में कहा गया है कि संसार
स धर्मः3’ धर्म की प्रकृति को पूरी तरह से समाहित करता है । यहाँ अभ्युदय(सभी तरह
1. रामायण 2/21/41
2. बह
ृ स्पति सूत्र 2/55
दोनो प्रकार की उन्नतियों से मानवता का विकास होता है । अतः धर्म सभी पुरुषार्थो की
शाब्दिक अर्थो में धर्म शब्द “ध”ृ धातु से बना है जिसका अर्थ है धारण
करना, बनाये रखना अथवा पुष्ट करना, सहारा दे ना है । महाभारत में धारण करने वाले
को धर्म कहा गया है । धर्म प्रजा को धारण करता है । इस प्रकार धर्म सभी जीवो की
रक्षा एवं पोषण करता है ।1 डा0 राधाकृष्णन के शब्दो में “धर्म की धारणा के अन्तर्गत
करते हुये उल्लेख किया है कि धर्म से उनका तात्पर्य किसी विशेष ईश्वरीय मत से
व्यक्ति के क्रियायों को नियमित रखती है एवं उसका उद्देश्य मानव का क्रमबद्ध विकास
धर्म के श्रोत
धर्म के श्रोतो को निश्चित करते समय ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न प्रकार
प्राचीन समय में धर्म के श्रोतो के रुप में विभिन्न प्रमाणो को स्वीकार किया
सम्यक संकल्प ये पाँचो ही धर्म के श्रोत है ।2 इसी तालिका में पुराणो को भी सम्मिलित
कहा कि स्मति
ृ यो, धर्मसत्र
ू ो, मीमांसा ग्रन्थो, निबन्धो तथा महापरु ाणो में जो कुछ भी कहा
गया है वह श्रति
ु की महती मान्यता को स्वीकार करके ही कहा गया है । इस मान्यता
काल तक अपने उसी रुप मे समाज में वि|मान है यथा, गांधर्व एवं आसरु विवाह, धन
का बटँ वारा बहनों में न होना, औरस पुत्र की महत्वा इत्यादि। वेदो के अतिरिक्त श्रति
ु
की ही परिधि में ब्राã ण ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषदो में वर्णित विषयो को स्थान
1. आपस्तम्भसूत्र 1/1/2-3
2. गौतमधर्मसत्र
ू 1/1/1-2
3. याज्ञवल्क्यस्मति
ृ 1/13
स्मति
ृ
रुढ़ि और परम्पराओं से जिसका उल्लेख वैदिक साहित्य में नही किया गया है , इसकी
में जीवित थी लिखित नहीं थी, अब लिखित रुप में सामने आई। इसलिए शिष्टो की
स्मति
ृ से संकलित इन परम्पराओ के पस्
ु तकीकृत स्वरुप का नाम स्मति
ृ रखा गया।
परिस्थितियो का इसमें ध्यान रखा गया था। अतः ये अधिक जनग्रहित एवं समाज के
अनक
ु ू ल बने रहे ।
1. मनुस्मति
ृ , 2/6
सदाचार
कुछ धर्मशास्त्रकारों ने धर्म के श्रोत के रुप में सदाचार को मान्यता दी है ।
सदाचार अथवा लोकाचार की दृष्टि से कोई कार्य धर्म अथवा अधर्म कहा जा सकता है ।
आचार परम्परा, जातिका सदाचार आचार परम्परा एवं दे श का सदाचार आचार परम्परा
धर्म का वर्गीकरण
धर्म शब्द अत्यन्त व्यापक है । इसमें विविध पक्ष सन्निहित है । अतः प्राचीन
विभक्त किया। उदाहरण स्वरुप श्रुतियो पर आधारित धर्म श्रौत धर्म कहा गया, स्मति
ृ यो
सामान्य धर्म-
सामान्य धर्म मनष्ु य के मानवता यक्
ु त नैतिक धर्म से संबंधित है ।
वि|k, सत्य, अक्रोध ये दस गुण सामान्य धर्म है । 2. यहाँ हम दसो गुणो की क्रमशः
1. मनस्
ु मति
ृ , 6.92
(1) धति
ृ -
धति
ृ का शाब्दिक अर्थ है -धैर्य, आत्मनिर्भरता, आत्मसन्तोष, दृढ़ता, स्वावलंबन।
धर्म का आचरण करने वाले मानव के अन्दर धैर्य एवं सन्तोष की भावना होनी चाहिए
(2) क्षमा
यह धर्म का महत्वपर्ण
ू अंग है । इसके अन्तर्गत किसी के अपकार करने पर
भी उसका बुरा न करना और उसे माफ कर दे ना। इसके आभाव में मनुष्य अपने
करीबी लोगो के साथ भी कलह करता हुआ अपने कर्तव्यो से विमुख हो जाता है ।
(3) दम
प्रवत्ति
ृ या होती है उसमें मन को ही मख्
ु य कारण माना गया है । अतः मानव के
इसके आभाव में काम, क्रोध आदि दोषो के वश में होकर मनुष्य पथभ्रष्ट हो जाता है ।
(4) अस्तेय
आभाव में मनष्ु य किसी की भी वस्तु को अन्याय, छल, कपट. चोरी से प्राप्त कर
(5) शौच
शौच का शाब्दिक अर्थ पवित्रता से है । मानव के आन्तरिक एवं बाह्य के भेद
से शौच(पवित्रता) दो तरह के है । जल, मिट्टी इत्यादि से हाथ को शुद्ध करना बाह्य शौच
आन्तरिक शौच कहलाता है । अतः धर्मानष्ु ठान की सफलता के लिए मनष्ु य में इस
(निग्रह) में रखना इन्द्रिय निग्रह कहलाता है । इसके बिना चित्त के विषयो के प्रति
आर्क षित हो जाने से धर्मानष्ु ठान बाधित होने के साथ-साथ मानव का अधः पतन भी
(7) धी
वाली बुद्धि को ही ‘धी’ कहा गया। धार्मिक पुरुष में विवेकवती बुद्धि(धी) का होना भी
अनाचरण एवं शास्त्रो द्वारा निषिद्ध कर्मो के आचरण से मनुष्य अनर्थ को प्राप्त करता
है ।
(8) वि|k
सामान्य रुप में आत्मज्ञान को ही वि|k कहा जाता है जो कि धर्मानुष्ठान की
(9) सत्य
से यह क्रम बिगड़ जाता है । तब मन में कुछ और वचन से कुछ और एवं कर्म से कुछ
1. मनुस्मति
ृ , 8.83
(10) आक्रोध
क्रोध की स्थित उत्पन्न होने पर भी मन में क्रोध का आभाव होना क्रोध
है । अतः क्रोध से होने वाले अनर्थ परिणामो से बचने के लिए प्रत्येक मानव में अक्रोध
जिनका पालन करना प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के व्यक्तियो के लिए (विशेष काल या
परिस्थिति) अनिवार्य माना जाता रहा है । ऐसे धर्म को विशेष धर्म कहा गया है । प्राचीन
उचित माना। इसी कारण विशिष्ट उद्देश्य के लिए अथवा विभिन्न वर्गो के लिए एवम ्
विशेष परिस्थितियो के लिए विभिन्न प्रकार के धर्म का उल्लेख किया गया है । विशेष
1. वर्ण धर्म- सत्य, अहिंसा, आत्म संयम, अस्तेय इत्यादि धर्म के कुछ ऐसे आदर्श है
जिन्हे प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति पर लागु किया जा सकता है । परन्तु इसके विपरीत विभिन्न
वर्गो के लिए विशेष रुप से बताये गये कुछ निश्चित आदर्शो का निर्धारण किया गया है
जिन्हे वर्ण-धर्म कहा जाता है । जिनके आधार के रुप में गुण और कर्म की चर्चा मिलती है ।
किया गया था। जो कमशः ब्राã ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे। सत्वगुण प्रधान होने के
कारण ब्राã णो के स्वभाव में और रजोगुण प्रधान क्षत्रियो के स्वभाव में भिन्नता
अनिवार्य थी। उसी प्रकार वैश्यो में रज व तम तथा शूद्रो में तम गुण प्रधान थे।
गण
ु जनित स्वाभाविक विशेषता के अनरु
ु प उनके लिए पथ
ृ क-पथ
ृ क प्रकार के धर्म को
के शब्दो में क्षत्रियों का कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना, दान दे ना, यज्ञ तथा अध्ययन में
आसक्त और विभिन्न सांसारिक विषयो में अनासक्त रहना विहित बताया।2 इसी प्रकार
समाज में वैश्यो का स्थान ब्राã ण और क्षत्रिय से नीचे तथा शूद्र से ऊँचा था।3 मनु ने
पशप
ु ालन, दान दे ना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, ब्याज पर धन उधार दे ना
तथा खेती करना, इन कामो को वैश्यो के लिए ब्र ã के द्वारा निद्धिष्ट कर्तव्य के रुप में
उल्लिखित किया है ।1
1. मनुस्मति
ृ -1.88
2. मनस्
ु मति
ृ -189
3. गौतम, 21,6
विराट पुरुष(ब्र ã) से उत्पन्न बताने वाले सिद्धान्त के अनुसार शूद्रो को चरण से
उत्पन्न माना गया है । इस तरह समाज में उसका स्थान निम्नतम होने के साथ-साथ
उसको ब्राã णो, क्षत्रियो और वैश्यो का सेवक बनाया गया। जहाँ एक ओर शद्र
ू ो का तीनो
अपने द्वारा इस्तेमाल की हुई पुरानी चीजें छाँता, पगड़ी, जूता, पंखा तथा फटे पुराने वस्त्र
आश्रम धर्म
मानव जीवन काल को शास्त्रो में चार भागों में बाँटा गया है । इसमें मानव के
सम्पूर्ण जीवन को अनुशासन, संयम और नियम के अन्तर्गत रखा गया है जिसे आश्रम ्
आश्रम धर्म है । आश्रम धर्म का पालन सभी f}ज वर्गो के लिए श्रेयस्कर माना गया है।
सन्यास आश्रम है ।
1. मनुस्मति
ृ -198
ब्र ã चर्य मानव जीवन के चार भागो में पहला आश्रम है । ब्र ã चर्य
शब्द का तात्पर्य इन्द्रिय-संयम अथवा वेदो का अध्ययन करने के लिए व्रत का पालन
पवित्रता के साथ-साथ संस्कार, व्रत व नियमो का पालन करते हुये गुरुकुल में वास
माँगना, गरु
ु की सेवा करना और गरु
ु की अनप
ु स्थिति में गरु
ु -पत्र
ु अथवा अपने से
गह
ृ स्थाश्रम का तात्पर्य जीवन के दस
ू रे पड़ाव से है । समावर्तन संस्कार के बाद
ब्र ã चारी स्नातक कहलाता और विवाह के योग्य समझा जाता। विवाह के द्वारा
करना, गह
ृ बनाना, गह
ृ अग्नि प्रज्वलित करना, ऋणो से उऋण होने के लिए पाँच
महायज्ञ करना। विवाहित होना भी यज्ञ सम्पन्न करने के लिए आवश्यक अंग था।
पाँच महायज्ञ के लिए बिना माता-पिता, दे वता, ऋषि, समाज तथा जीवधारियो के उपकारो
का बंधक समाप्त नही होता। अर्थशाशास्त्र के अनुसार उसे स्वधर्म से जीविका चलानी
चाहिए।
1. मनस्
ु मति
ृ 2,173
2. अर्थशास्त्र 1,3
3. अर्थशास्त्र 1,3
जहाँ उसमें त्याग की भावना होना चाहिए। इसके साथ गह
ृ स्थों को
पुरुषार्थो की साधना करनी चाहिए एवं आचार तथा शील के सिद्धान्तो का अनुसरण
करना चाहिए।1
प्रवेश करने की कोई निश्चित अवस्था नही थी। जिस प्रकार वि|k प्राप्ति के बाद
गह
ृ स्थाश्रम में प्रवेश लिया जाता था उसी प्रकार व्यक्ति अगर गहृ स्थ-धर्मो का समचि
ु त
रुप से पालन कर चुका हो तो वह वानप्रस्थी होने के योग्य समझा जाता था। यहाँ उसे
व्यक्त भोगी, इन्द्रिय संयमी, त्यागी2 तथा पंच महायज्ञो का करने वाला होना चाहिए।3
उसको शरीर से कष्ट उठाने की आदत होनी चाहिए।4 उसका सम्पूर्ण समय दे वता तथा
अतिथि के पज
ू न में बीतना चाहिए। उसे अल्पाहारी , फल-मल
ू आहारी, वक्ष
ृ मलि
ू क, जटाधारी
होना चाहिए।
रुप से त्याग, इसमें प्रत्येक वस्तु का त्याग करना चाहिए। यज्ञ करना तथा किसी भी
2. रामायण 2/37/2
3. अर्थशास्त्र-1/3
4. कामन्दक-2/28
इसमें त्याग की सीमा इतनी होती थी कि वह अपने लिए कुछ भी संचित
करता था। उसे नियतेन्द्रिय, धन का संग्रह न करने वाला तथा मन, वचन, कर्म एवं
शरीर से शद्ध
ु होना चाहिए। प्रेम, इन्द्रियनिग्रह, त्याग तथा जीवधारियो के प्रति अहिंसा
की वति
ृ के कारण सन्यासी अमरता प्राप्त करने के योग्य बन जाता था।
1. गौतम धर्मसत्र
ू , 3/11
गुण धर्म
अनुसार भिन्न हो, जैसे शासक के कर्तव्य। समान वर्ण होने पर भी राजा होने के कारण
उसके कर्तव्य अपने ही वर्ण के अन्य व्यक्तियो से भिन्न था। उदारण के लिए प्रजा
की रक्षा करना, आन्तरिक व्यवस्था बनाये रखना, बाहरी आक्रमण से राज्च की रक्षा
रहना, प्रजा का पोषण करना राजा का विशेष रुप से कर्तव्य था। पति-धर्म, पत्नी-धर्म
धर्म निर्भर करता था। उसका धार्मिक होना श्रेयस्कर था, क्योकि जैसा राजा कार्य करता
प्रत्येक यग
ु ो में पालन किया जाने वाला धर्म युग-धर्म कहा गया है । युग
इस प्रकार समय एवं परिस्थिति के अनुसार धर्म जो रुप धारण करता है उसे युग का
दे श धर्म कहा जाता है । प्राचीन भारतीय विचारको ने चार युगो सत्य युग(कृत युग), त्रेता
यग
ु , }k पर यग
ु एवं कलियग
ु की कल्पना की। जिनके धर्म एवं आदर्श क्रमशः अलग-
नौमित्तिक धर्म
नैमित्तक धर्म कहे गये है । उदाहरणार्थ कोई निषिद्ध कर्म करने पर उसके निराकरण के
उद्देश्य से किये जाने वाले प्रायश्चित कर्म। महाभारत में ऐसे कर्मो की एक वह्ृ द सच
ू ी
आपद् धर्म
आपद् धर्म से है । सामान्य परिस्थितियो में विहित जो धर्म था , उससे यह भिन्न था।
धार्मिक कार्यो के लिए आवश्यक धन की रक्षा करने के लिए, या स्त्रियो की रक्षा करने
पाप का भागी भी नही बनता।1 चाहे सामान्य धर्म हो या विशेष धर्म, आपद् धर्म सभी
‘अर्थ’
परू
ु षार्थ के अन्तर्गत जीवन का दस ु य उद्देश्य ‘अर्थ’ है । जिसके
ू रा मख्
द्वारा मनुष्य के इस लोक और परलोक के समस्त प्रयोजन सिद्ध होते है । अर्थ मानव
प्रवत्ति
ृ होती है । मानव के जीवन में भौतिक इच्छायों की पर्ती
ू के लिए अर्थ की
चाहते है और इसके अर्थ नाम की सार्थकता भी है -अर्थ्यते सर्वौः इति अर्थः। अर्थात
प्राणियो की सुख-समद्धि
ृ का मूल धर्म है और इस धर्म का मूल है -अर्थ “सुखस्य मूंल
धर्मः धर्मस्य मूलमर्थः”। इसलिए कौटिल्य ने त्रिवर्ग में मुख्य रुप से अर्थ को प्रधान
सभी आवश्यकताओ का घोतक है । इसका प्रयोग मानव की शक्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त
का आधार है । प्रारम्भिक काल में कृषि ही आजीविका का प्रमुख साधन था। जिसके
कारण भूमि के लिए दे वता से लेकर राक्षस तक युद्ध करते थे। पाराशर मुनि के
अनुसार मानव यदि धर्म के अनुसार कृषि कार्य करता है , तो फिर कृषि से बड़कर न
कोई धर्म है और न ही कोई लाभ। इस तरह अर्थ में भूमि का विशेष महत्व है , क्योकि
धन धान्य, वस्त्र, गह
ृ , सम्पत्ति आदि समस्त जीवन के लिए उपयोगी पदार्थो की उत्पत्ति
भमि
ू से ही होती है । शक्र
ु निति (1.78.79) ने यहा तक कहा कि यह भमि
ू संम्पर्ण
ू मानव
जाति की सुखो की खान है । अतः भूमि के अतिरिक्त अन्य सब वस्तुये गौण अर्थ है ।
अर्थ की उपयोगिता बताते हुये श्रीमद् भागवत में कहा गया कि अर्थोपार्जन का प्रयोजन
सफल हो सकती, स्त्री के बिना गार्हस्थ नही हो सकता, वैसे ही अर्थ के बिना धर्म एवं
मोक्ष भी सिद्ध नही हो सकते।2 जागतिक व्यवहार में भी अर्थ का अत्यन्त महत्व है
सदा लगे रहना चाहिए। धर्माशास्त्रकारो का विचार है कि जिस तरह ऊचे -ऊचे पर्वतो से
नाना प्रकार के झरने और नदिया निकलती है , उसी तरह न्यायोपार्जित अर्थ को भलि-
भाँति वद्धि
ृ कर उसे उपयोग कर्मो में लगा दे ने से नाना प्रकार की धार्मिक प्रवत्ति
ृ या
‘अर्थबद्धि
ु रसयू त। 3
इसी तरह मनस्
ु मति
ृ में अर्थोपार्जन के दस साधन-(1) विधा (2) शिल्प
बताये गये है । चारो वर्गो को इनका उचित रुप से विनियोग करना चाहिए।
(2) शक्र
ु ानिति,1.84
पास अर्थ पहुँचता है । अर्थ को उघोग की मदद से अर्जित करना एंव अर्जित अर्थ रक्षा
सब उपाय अर्थानब
ु न्धी कहलाते है । इस तरह जो लोग उचित मार्ग से अर्थ का उपार्जन
है ।
दस
ू रो को कष्ट दे कर जो अर्थ अर्जित किया जाता है , वह अशद्ध
ु अर्थ कहलाता है । ऐसे
अशद्ध
ु अर्थ से मनष्ु य को न तो धर्म ही प्राप्त हो सकता है और न सख
ु ही। जबकि
पर अर्थ मानव जीवन में इतना महत्पूर्ण होने पर भी इसको धर्म के बाद
स्थान मिला है क्योकि धर्म के अनुशासन के अभाव में अर्थ अपना महत्व खो सकता
है । इसलिए धर्म के आधार पर ही अर्थ को अर्जित कर इसी की व्यवस्था में इसे व्यय
किया जाय। श्रीमद् भागवत ् में अर्थ के व्यय को पाँच भागो-(1-धर्म के लिए 2-यश के
मद(अंहकार) ही अर्थ का सबसे बड़ा दोष है । मनष्ु य द्वारा अर्जित अर्थ को शास्त्रो में
परिवार के व्यक्तियों के साथ ही दीन, अनाथ, दे वता, बन्ध-ु बान्धव, पश-ु पक्षी, कीट पतंग
आदि पर व्यय करने के लिए कहा है । क्योकि अर्थ की जो तीन गतियाँ है उसमें दान
आर्थिक समस्या को परू ी तरह हल करने में असफल ही रहा है । जबकि प्राचीन मनि
ु
1. श्रीमद् भागवत-8.11.37
काम
पुरुषार्थ व्यवस्था में काम तीसरा पुरुषार्थ है । जिस तरह धर्म और अर्थ-पुरुषार्थ
लोक के कल्याण के मुख्य साधन होने से अत्यन्त उपयोगी है , ठीक उसी तरह काम भी
प्राणियो की जीवन यात्रा में उपयोगी सुख-सामग्री का प्रमुख साधन होने से अत्यधिक
उपयोगी है । बिना ‘काम’ के प्राणियो की उत्पत्ति, इन्द्रिय सुख की प्राप्ति एवं जीवन-
उत्पन्न होने वाला मानसिक आनन्द ही काम कहलाता है । सामान्यतः काम शब्द का
दो अर्थो में प्रयोग किया जाता है -संकुचित एवं वहृ त ्। संकुचित अर्थ में काम स्त्री-पुरुष
है । महाभारत के अनस
ु ार काम मन तथा ह्रदय का वह सख
ु है जो इन्द्रियो के विषयो
से सयक्
ु त होने पर निःस्रत होता है ।
इस प्रकार काम शब्द का एक(प्रधान भी) अर्थ है -क्रीडा, विनोद, प्रशन्नता की मनः
k तकर(नियामक) तत्व है। इस तरह ‘काम’ में कामना एवं वासना दोनो का स्थान है।
क्रमशः सौन्दर्यता, आकर्षण, प्रेम, अनरु ाग, स्नेह एवं वात्सल्य है । इसी के वशीभूत ही
एक दस
ु रे के प्रति आकर्षक रखता है ।
मानव में क्रोध, तनाव उत्पन्न होने लगता है । परन्तु विवाह के माध्यम से इच्छओ की
सन्तष्टि
ु से मानव का तनाव व क्रोध कम हो जाता है एवं पति पत्नी के सम्बन्ध
तथा प्रजनन के माध्यम से समाज में निरं तरता आती है जो ‘काम’ के सामाजिक
मनष्ु य आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसित होकर धार्मिक होते हुये ईश्वर मे अनरु क्त
हो जाता है ।
महाभारत, वनपर्व, प0
ृ 37-38
शास्त्रो में काम के उपभोग को सात्विक, राजसिक और तामसिक में व्यक्त किया
सुख तो नही मिलता पर भविष्य में इससे सुखद फल प्राप्त होते हे । यह शास्त्र सम्मत
सख
ु एवं विषय वासना से यक्
ु त होता है । इसके उपभोग में सख
ु तो मिलता है पर
इसके पश्चात इसका परिणाम दष्ु कर होता है । तामसिक काम आलस्य, निद्रा, तंद्रा से
इस तरह मानविय इच्छायें ही उसे सही मार्ग एवं गलत मार्ग पर ले जाती
किया जा सकता है । गीता में धर्म के अनुकूल काम को ईश्वर के समान मानते हुये
कृष्णा ने अर्जुन से कहा हे कि ’मै सब भूतो में धर्म के अनुकूल काम हूँ।’ इसलिए
काम की भी गणना पुरुषार्थो में होती है , क्योकि धर्म में सहायक होकर काम भी मानव
काम का दस
ू रा पक्ष यह है कि मनुष्य अपनी काम जनित इच्छाओ के
उसकी सज
ृ नात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का अवसर न दिया जाये तो उसके
काम का फल इन्द्रियो को तप्ृ त करना नही बल्कि उसका प्रयोजन केवल जीवन निर्वाह
लगाव हो जाता है । जिसके कारण मनुष्य में विवेक और वैराग्य का उदय नही हो
पाता। विवेक और वैराग्य के बिना तत्व चिंतन नही हो सकता जिससे पुरुष अपने
किन्तु धर्म के नियमो के आधार पर उसका असास्कृतिक रुप नही बन पाता। आगे
जिस तरह ‘मोक्ष’ का सहायक ‘अर्थ’ है उसी तरह अर्थ का सहायक ‘काम’ है । यदि
मनुष्य काम को मर्यादित न करे तो वह कभी अर्थ को मर्यादित नही कर सकता