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अध्याय-3

पुरुषार्थ का अर्थ, प्रकार एवम ् महत्व

मानव जीवन की आध्यात्मिक, भौतिक, और नैतिक उन्नति के निमित्त दार्शनिक

विचारको ने पुरुषार्थो का प्रतिपादन किया। इन विचारको ने जीवन के सुख का दो

आधार पाया। पहला आधार क्षणिक, आस्थिर एवं असत्य। यह सुख शारीरिक, भौतिक

आवश्यकता, इच्छा परक प्रवत्ति


ृ या की पूर्ति के लिए इहलौकिक सुख है , किन्तु इस

प्रकार का सुख संकीर्णता एवं विध्नता, स्वार्थ और‘लिप्सा तथा कामना और वासना से

जीवन को आबद्ध करने वाला है जो हमारा आदर्शमय जीवन नही हो सकता। मनुष्य

का कर्तव्यनिष्ठ एवं संयमित आधार तथा आध्यात्मिक विचार ही उचित निर्णय प्रदान

कर सकने में समर्थ होता है । अतः मानव जीवन का उद्देश्य भौतिक सुख न होकर

आध्यात्मिक सख
ु होना चाहिए तथा उसके कर्म विलासपरक न होकर धर्मपरक होने

चाहिए। हमारा आध्यात्मवाद कोरा भावात्मक नही, क्रियात्मक है । अतः इस उद्देश्य की

प्राप्ति के लिए सदा कर्म को ही प्राथमिकता दी गई है । श्री कृष्ण ने स्वयं गीता में

कहा है कि “कर्म करना मात्र ही मानव का अधिकार है । उसको फल में आसक्ति नही

रखनी चाहिए।”1 अतः आध्यात्मिक प्रवत्ति


ृ या मनष्ु य को सात्विक और निःस्वार्थ जीवन

जीने के लिए प्रेरित करती है और ऐसे जीवन-दर्शन का वास्तविक अर्थ समझाती है

जिसमें सांसारिकता के साथ-साथ आध्यात्मिक भी है ।

1.गीता, 2/47
इस प्रकार भारतीय जीवन दर्शन इन दोनो रुपो क्रमशः भौतिक एवम ्

ृ यो का संतुलित, सम्मिलित एवं समन्वित स्वरुप है , जिसे ‘पुरुषार्थ’


आध्यात्मिक प्रवत्ति

कहते है । पुरुषार्थ सिद्धान्त के अन्तर्गत मानव जीवन को सभी आवश्यकतओ, इच्छाओ

एवं उद्देश्यो को चार भागो में विभाजित कर दिया गया-धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। भौतिक

एवं लौकिक सुख के अन्तर्गत अर्थ एवं काम तथा आध्यात्मिक एवं पारलौकिक सुख के

अन्तर्गत धर्म एवं मोक्ष। अतयेव परु


ु षार्थ में भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनो तत्व

निहित है । इसके अन्तर्गत मानव भौतिक उपयोग के साथ धर्म का अनस


ु रण करते हुये

ईश्वर के प्रति समर्पित होकर मोक्ष को प्राप्त करता है क्योकि हिन्द ू धर्म के अनुसार

जीवन एवं मत्ृ यु से छुटकार पाना, संसार में आवागमन से मुक्ति पाना और ईश्वर के

ू रे शब्दो में , पुरुषार्थ का तात्पर्य जीवन के “मल्


समीप पहुँचना ही मोक्ष है । दस ू यो” से है ।

इन्ही की सहायता से किसी के जीवन को अच्छा या बुरा , सफल या असफल कहा जा

सकता है । इन “जीवन मूल्यो” की कल्पना विभिन्न कालो में अलग-अलग थी। पूर्व

वैदिक कालीन भारतीय सुखी ऐहिक जीवन को जीवन का अंत समझते थे और

उपनिषदो में इसका स्थान मोक्ष ने ले लिया।1 दस


ू री बात, पुरुषार्थ के अन्तर्गत मनुष्य

के दिर्घायु होने की भी आकांक्षा है । यदि इस दिर्घायु होने की आकांक्षा में आश्रम-

व्यवस्था के अन्तर्गत निष्ठापूर्वक इन चारो पुरुषार्थो को प्राप्त करने की चेष्ठा करे ।2

1. दे वराज, भारतीय संस्कृति, प0


ृ 29
2. डा0 दीपक कुमार, भारतीय संस्कृति, प0
ृ , 79
इस प्रकार मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन का उत्कर्ष और उसकी भौतिक जीवन के

प्रति क्रमागत अनास्था पुरुषार्थ के बिना असम्भव है । अतः धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष से

समन्वित परु
ु षार्थ व्यक्ति के जीवन को गरिमामण्डित बनाता है और उसके

कर्तव्यमल
ू क व्यक्तित्व का निर्माण करता है ।

पुरुषार्थ का अर्थ

पुरुषार्थ शब्द पुरुष और अर्थ शब्द जोड़कर बनाया गया है इसका तात्पर्य है -पुरुष

अर्थात व्यक्ति का, अर्थ यानी प्रयोजन लक्ष्य।1 पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है ‘उ|ks ग’।

अतएव पुरुषार्थ से अभिप्राय निर्दिष्ट दिशा में किये जाने वाले उन उ|ks गो से है

जिसकी व्यवस्था से मनुष्य अपने जीवन के लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर सके। 2 जबकि

साधारण शब्दो में पुरुषार्थ की व्याख्या है ‘पुरुषैरर्थ्यते पुरुषार्थः’ अर्थात पुरुष की इष्ट

वस्तु ही पुरुषार्थ है । हमारा इष्ट अथवा लक्ष्य क्या है ? ऊपर उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट

है कि मानव का अन्तिम लक्ष्य वही मोक्ष है । परन्तु इसका ज्ञान मनष्ु य को बहुत

पीछे होता है । शुरु में व्यक्ति का सामान्य इष्ट अर्थ एवं काम ही होता है पर जब

धीरे -धीरे मोक्ष की भावना बलवती होती है तो अर्थ एवं काम का भी वही लक्ष्य हो

जाता है । इस भावना को उत्पन्न करने में मुख्य भूमिका‘धर्म’की होती है । इस प्रकार

साधारणतया अज्ञानतावश हम अर्थ और काम की ओर झुकते है तथा धर्म और मोक्ष

की ओर विवेकशीलता से। इस तरह पुरुषार्थो की संख्या चार हुई। पर वास्तव में ये

तीन ही है क्योकि मोक्ष तो हमारे जीवन का उद्देश्य है ।


1. भारतीय संस्कृति के मूल तत्व श्री ब्रज वल्लभ द्रिवेदी, पष्ृ ठ-73
2. हिन्द ू समाज और राज्य, डा0 शिवरुवरुप सहाय प0
ृ -95

वही हमारा गंतव्य तथा लक्ष्य है । यही कराण है कि इन्हे त्रिवर्ग कहा गया है ।1

धर्म, अर्थ काम ये त्रिवर्ग सभी के लिए अभिलासित है और इनके सम्यक

अनष्ु ठान से चतर्थ


ु परु
ु षार्थ-मोक्ष की अनायास ही प्राप्ति हो जाती है । जैसा कि डा0

भगवान दास ने कहा है , त्रिवर्ग(धर्म, अर्थ और काम) की प्राप्ति से मोक्ष स्वतः प्राप्त हो

सकता है ।2 रामायण मे भी तीनो की आवश्यकता धर्मफल की प्राप्ति के लिए बताया

गया और तीनो के सहअस्तिव के महत्व में किसी भी प्रकार की शंका करना अनुचित

है । त्रिवर्ग की सिद्धि को अभ्युदय एवं मोक्ष की सिद्धि को निः श्रेयस कहा गया है ।

अर्थगत संसार में मनष्ु य का सब तरह से उन्नति को प्राप्त करना अभ्यद


ु य कहलाता

है । इसी तरह जिससे बढ़कर कोई भी श्रेयान (् श्रेष्ठम) फल न हो, उसकी प्राप्ति को

निःश्रेयस अर्थात मोक्ष कहते है ।

त्रिवर्ग के सम्पादन में यह बात भी ध्यान दे ने योग्य है कि किसी एक का

अनुष्ठान इतनी अधिक मात्रा मे नही होना चाहिए कि इन तीनो में परस्पर बाधा

पहुँचने लगे। इसलिए कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में कहा है -‘एको हि अत्यासेवितो ãs षाम ्

आत्मनमितरौ च पी·यति।’ अतः काम का सेवन ऐसे करना चाहिए जिससे धर्म और

अर्थ में बाधा न आये और विषय सुख का नितान्त परित्याग करके बिल्कुल सुखरहित

रहना भी उचित नही। इस प्रकार चार पुरुषार्थो का सम्पादन करना ही मनुष्य जीवन

का प्रधान लक्ष्य है - ‘धर्मार्थकाममोक्षाख्यं य इच्छे च्छे य आत्मनः।’4 श्रीभद् भाग,48.30

1.महा0 सभा0 20113


2.भगवान दास,
3.रामायण, अयोध्या, 29,57
4.भारतीय संस्कृति, दिपक कुमार, प0ृ 83
त्रिवर्ग में वैषयिक सुखभोग को काम कहते है और ये काम सुख साध्य है और

इसके साधन धर्म और अर्थ है । इस तरह से साध्य और साधन के रुप में इन तीनो

पुरुषार्थो(धर्म, अर्थ, काम) का सामूहिक नाम त्रिवर्ग है इसमें मोक्ष नामक पुरुषार्थो को

मिला दे ने से चतव
ु र्ग बन जाता है । अमरकोश में त्रिवर्ग एवं चतव
ु र्ग(परु
ु षार्थ चतष्ु टय)

का उल्लेख कर इनकी समद्धि


ृ को चतर्भ
ु द्र नाम दिया गया है । “त्रिवर्गो

धर्मकामार्थैश्चतुर्वर्गः समोक्षकैः। (सबलैस्तैश्रतुर्भद्रम, 2.7.57-58)

ये चोरो मनष्ु य के सर्वोत्तम उद्देश्य है । इनमें से कुछ लोग अर्थ को चाहते है तो

कुछ काम सुख को और कुछ अन्य इन दोनो के मूल धर्म को चाहता है तो कुछ त्रिवर्ग

को समान रुप से विधिवत उपार्जन कर अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है

तब वह चतुर्भद्र से सम्पन्न हो जाता है ।

त्रिवर्ग में समाहित विभिन्न पुरुषार्थो के क्रम उनके महत्व एवं दोष के विषय मे

जानना लाभदायक है । शान्ति पर्व के अनस


ु ार धर्म का दोष (मल) फल प्राप्ति की इच्छा,

अर्थ का धन संचय करके रखना और काम का, विषयो में अत्यधिक आसक्त रहना है ।

अर्थ और काम में अत्यधिक आसक्ति रखने वाले जो व्यक्ति धर्म का परित्याग कर

दे ते है । वह दःु ख-सुख की भावनाओ से रहित मत


ृ व्यक्ति के समान हो जाता है ।2

1. महा0 शान्ति पर्व 0 123,10

2. माह 0 शान्ति पर्व 33, 22(गीता प्रेस)


इस प्रकार धर्म की क्षति अनुचित मानी गई है । वन पर्व के अनुसार वह व्यक्ति

इस लोक और परलोक में सुख प्राप्त करता है , जो प्रारम्भ में धर्म का पालन करता है

और तदप
ु रान्त धर्मपर्व
ू क धनोपार्जन के बाद विवाह और यज्ञादि करता है ।1 धर्म को

नियामक माना गया है । इसका पालन करते हुये अर्थ और काम का सम्पादन करना

चाहिए। भीम के मत में सर्वप्रथम धर्म, तत्पश्चात धन और सबसे बाद में काम का

अभ्यास करना चाहिए। प्राचीन साहित्य में कही धर्म को सर्वप्रमुख माना गया है , कही

अर्थ को और कही काम को। अतः चतर्थ


ु पुरुषार्थो की पथ
ृ क-पथ
ृ क विशेष विवेचना

करने से पहले हम सामान्य रुप से धर्मशास्त्र, परु ाण एवं इतिहास ग्रन्थों के अन्तर्गत

कौटिल्य के अर्थशास्त्र की और वात्स्यायन के कामशास्त्र की क्या दृष्टि है , इसको

क्रमशः बताना चाहते है ।

धर्मशास्त्र की दृष्टि

इस मत के अन्तर्गत धर्म को प्रधानता दी गई है । मनुस्मति


ृ के f}rh; अध्याय

के प्रारम्भ में ही बताया गया है कि राग और }s ष से रहित धार्मिक विद्धानो ने

जिसका सदा सेवन और ह्रदय से जिसका अनम


ु ोदन किया, वही धर्म है । वन पर्व में

त्रिवर्ग को धर्म पर आधारित बताया गया है ।‘त्रिवर्गो·यं धर्ममल


ू ं नरे न्द्र’ । इसी से अर्थ
2

और काम उत्पन्न होते है , अतः इसी का सेवन विशेषतः करना चाहिए। इसी प्रकार

धर्मशास्त्रो (मनस्
ु मति
ृ ) में बताया गया है - वेद, स्मति
ृ , सदाचार और वैकाल्पिक स्थिति में

अपनी रुचि- ये ही चार धर्म के साक्षात ् लक्षण है । श्रति


ु और स्मति
ृ के द्वारा उपदे शित
‘धर्म’ का अनुसरण करने वाला मनुष्य इस संसार में प्रसिद्धि की ओर परलोक में

अनत्ु तम सख
ु को प्राप्त करता है ।

1. महाभारत, वन प0ृ 188,91


वही 4.4

महाभारत, रामायण, बह
ृ स्पति सत्र
ू में धर्म को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है । धर्म की

महत्ता जान, तदनुसार कार्य करने वाला सूर्य के समान तेजस्वी होता है और जो

धर्महीन होता है वह पापबुद्धि होने के कारण राज्य प्राप्त करने के बाद भी नष्ट हो

जाता है । अर्थ और काम में जो व्यक्ति आसक्त नही है , उसी को धर्म का ज्ञान कराया

जाता है ।1 धर्म की जिज्ञासा करने वाले व्यक्ति के लिए श्रति


ु ही परम प्रमाण है । वि|

k दान प्रसंग मे बताया है कि ब्राã महु ु र्त में उठकर गहृ स्थ को धर्म और अर्थ की

चिन्ता करनी चाहिए। इसके साथ ही धर्म से रहित अर्थ एवं काम का भी त्याग कर

दे ना चाहिए। उस धर्म का भी त्याग कर दे ना चाहिए जो भविष्य के लिए सुखकारी

नही है और जो लोक में निन्दित है ।

मनुस्मति
ृ (6.91-94) में सामान्यतः सम्पूर्ण मानव जाति के लिए पालनीय दस

लक्षण(धति
ृ , क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, धी, वि|k, सत्य और अक्रोध) वाले धर्म

का निरुपण किया गया है । जिसे नैतिकता के रुप में आधुनिक काल में भी मान्यता

मिली हुई है । मनि


ु यो के अनस
ु ार इन दस लक्षण वाले धर्म का कर्तव्यनिष्ठा से

अनस
ु रण करे एवं सन्यास ग्रहण कर वेदान्तशास्त्र का अनस
ु रण करे तो उसके लिए

मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है । अतः धर्मशास्त्रो की दृष्टि से चारो पुरुषार्थो में धर्म

की अत्यधिक महत्व दी गई है महाभारत में कहा गया है कि जब कभी धर्म, अर्थ, और


काम के विषय में किसी प्रकार का संदेह हो तो सर्वप्रथम धर्म का अनुसरण करना

चाहिए।2

1. महा उ|ks ग, 7,7


2. वि|k दान, प्रसंग, 4.92, 176
3. महा0, आदि, 92, पष्ृ ठ 230(गीता प्रेस)

पुराणो सी दृष्टि

पुराणो के अनुसार चार वर्णो और चार आश्रमो के समान चार पुरुषार्थ भी

भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृतिके मूल आधार है । महान मनीषियो ने चार पुरुषार्थो

को मानव जीवन के आस्तित्व को चार लक्ष्य बताये। इनमें इन्होने सर्वोत्तम लक्ष्य

मोक्ष को माना। भिन्न-भिन्न परु ाणो में मोक्ष के नाम एवं स्वरुप में भिन्नता है । फिर

भी सामान्य रुप से सभी प्रकार के सांसरिक बन्धनो से मुक्ति को मोक्ष माना गया है ।

युक्ति कैवल्य, निःश्रेयस, अपवर्ग, अमत्ृ तव, निर्वाण इत्यादि शब्द मोक्ष के पर्याय है , मोक्ष-

प्राप्ति के उपाय के रुप में परु ाणो में कर्म, योग, ज्ञान और भक्ति का वर्णन मिलता है ।

कुछ पुराण में ज्ञान और कर्म के समुच्चय को वरीयता दी गई है ।

कूर्मपुराण(1.2.51-62) के अनुसार उस अर्थ और काम का परित्याग करना चाहिए, जो

धर्मविहिन हो। लोकविरूद्ध धर्म का आचरण भी नही करना चाहिए। धर्म से अर्थ और

काम की सिद्धि होती है । मोक्ष के लिए धर्म जरुरी है , अतः धर्म का आश्रय अवश्य

ग्रहण करना चाहिए। निःसन्दे ह कर्म एवं ज्ञान के द्वारा धर्म की प्राप्ति होती है , अतः

ज्ञान के साथ कर्मयोग का भी आचरण करना चाहिए।

इतिहास की दृष्टि
(104-105) ड़ॉ0 पी0 वी0 काणे ने धर्मशास्त्र से सम्बन्ध अपनी पुस्तक में चार पुरुषार्थ

का संछिप्त रुप से परिचय दे ते हुये कहते है कि इनमें अन्तिम परम लक्ष्य मोक्ष है

जिसकी प्राप्ति कुछ को ही हो पाती है , अधिकांश के लिए वह केवल आदर्शमात्र है ।

काम सबसे भिन्न श्रेणी का परु


ु षार्थ है , उसे केवल पथ
ृ कजन ही सर्वोत्तम मानते है ।

धर्मशास्त्रकारों ने काम की सर्वथा भर्त्सना नही की है किन्तु उसे अन्य पुरुषार्थो से

निम्न ठहराते है । गौतम एवं याज्ञवल्क्य ने धर्म को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया है ।

आपस्तब्ब में कहा है कि धर्म के विरोध मे न जाने वाले सभी काम -सुखो का भोग

करना चाहिए। इस प्रकार से दोनो लोक मिल जाते है । मनस्मति


ृ (2.224),

विष्णध
ु र्मसत्र
ू (71.84) एवं भागवत(1.2.9) ने धर्म को ही प्रधानता दी है । मनु ने अरस्तू के

समान ही सभी क्रियायों के पीछे कोई अनुमानित शुभ या कल्याणप्रद तत्व मान लिया

है । इनके अनुसार प्रत्येक जीव वासनाओ की ओर झुकता है , अतः उन पर बल दे ने के

स्थान पर उनके निग्रह पर बल दे ने चाहिए।1 इस प्रकार धर्मशास्त्रकारों ने सामान्य एवं

परम लक्ष्यो और प्रेरणाओ की ओर संकेत किया है और अन्त में परम लक्ष्यो और

प्रेरणाओ को ही श्रेष्ठतम माना है ।

अर्थशास्त्र की दृष्टि

कौटिल्य के अर्थशास्त्र की प्रथम अधिकरण के सातवें अध्याय में पुरुषार्थ की

चर्चा की गई है । बिना आनन्द का जीवन बिताना उचित नही है , ऐसा मान कर वहाँ

काम के सेवन की इस रुप में अनुमति दी गई है कि वह धर्म और अर्थ का विरोधी

नही होना चाहिए।2


1.मनुस्मति
ृ , 5.56

2.वही 1.7.6-7

आगे दो सत्र
ू ों में त्रिवर्ग के सेवन के बारे में कहा गया है कि इसमें किसी एक का

अधिक सेवन करने से वह स्वयं अपने को ही नही बल्कि दोनो वर्गो की भी पीड़ा

पहुँचाता है । अर्थ की प्रधानता बताते हुये कौटिल्य ने क्रमशः धर्म और काम को अर्थ

पर आधारित माना है ।1 लेकिन साथ ही साथ यह भी कहा है कि जिस धन से धर्म की

वद्धि
ृ हो, उसको अर्जित करना सबसे बड़ी सफलता है ।2 भारतीय साहित्य में कौटिल्य

चाणक्य के नाम से प्रसिद्ध है । इनका समय ईसा-पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी माना जाता

है जो कि ये सम्राट चन्द्रगप्ु त मौर्य के महामात्य थे।

कामशास्त्र की दृष्टि से

वात्स्यायान मुनि के कामसूत्र नामक ग्रन्थ का आरम्भ ही धर्म, अर्थ और

काम के नमन से होता है -धर्मार्थकामभ्यो नमः। इसके प्रथम अधिकरण के त्रिवर्ग-

प्रतिपत्ति शीर्षक में धर्म, अर्थ, काम नामक त्रिवर्ग का अच्छा विश्लेषण किया गया है ,

इसमे परु
ु ष की आयु सौ वर्ष मानकर इस आयु को तीन भागो में विभक्त कर त्रिवर्ग

का सेवन इस प्रकार से करने को कहा है कि वे आपस में एक दस


ू रे से जड़
ु े हो विरोधी

न हो। बचपन में वि|k ध ्यन आदि के रुप में अर्थ की चिन्ता करे , युवावस्था में काम

की और वद्ध
ृ ावस्था में धर्म और मोक्ष की। जबकि शास्त्रकारों के अनुसार आयु का कोई

भरोसा नही अतः जब जैसी सवि


ु धा हो तब इसका सेवन करना चाहिए।
1. अर्थशास्त्र, कौटिल्य, 1,7,10-11

2. अर्थशास्त्र, कौटिल्य पष्ृ ठ 9, अध्याय, 7

इस ग्रन्थ की जयमंगला टीका के रचयिता यशोधर के अनुसार बाल्यावस्था

की आयु 16 वर्ष, मध्यावस्था की आयु 70 तथा इसके बाद के काल को स्थविरावस्था

कहकर आयु को तीन भागो में विभिक्त किया है । अतः जिस प्रकार धर्मशास्त्र के

ग्रन्थो में धर्म की एवं अर्थशास्त्र के ग्रन्थों में अर्थ की ही तरह यहाँ काम की विस्तार

से चर्चा मिलती है । काम को वरीयता यहाँ इस रुप में दी गई है कि इसके सेवन का

लम्बा काल यहाँ प्रदर्शित है । यह अस्वाभाविक भी नही है ।1

इसी तरह धर्म, अर्थ और काम की विशेषता बताते हुये कहा गया है कि

सामूहिक रुप से विचार करने पर काम की अपेक्षा अर्थ की और अर्थ की अपेक्षा धर्म

की वरीयता मान्य है । धर्म, अर्थ और काम के लक्षण कामशास्त्रों में क्रमशः इस प्रकार

बताये गये है कि यज्ञ-यज्ञादि में मानव की प्रवत्ति


ृ नही होती क्योकि इसका फल इस

लोक में दे खने को नही मिलता। अतः धर्माशास्त्रों द्वारा इनमें प्रवत्ति
ृ कराई जाती है

इसी तरह असत्य, हिंसा जैसे लौकिक विषयो का फल दिखाई पड़ता है जिसमें

स्वाभाविक रुप से मानव की प्रवत्ति


ृ होती है । मानव को ऐसे कार्यो में निवत्ृ त करने के

लिए शास्त्रो की महत्वपूर्ण भूमिका होता है । इस तरह से सही कार्य में प्रवत्ति
ृ और

गलत कार्य में निवत्ति


ृ का उपदे श ही धर्म के नाम से जाना जाता है । जो वेदो एवं

धर्मशास्त्र के ज्ञाता वि}k नो से प्राप्त होता है ।

1. भारतीय संस्कृतिके मूलतव व्रजबल्लभ द्रिवेदी प0ृ -85


जबकि अर्थ नामक पुरुषार्थ के अन्तर्गत भूमि, सुवर्ग, पशु, वि|k, धान्य, घर-

गह
ृ स्थी की सामग्री के साथ हितकारी मित्रो का अर्जन एव अर्जित वि|k संरक्षण का

उल्लेख किया गया है । अर्थ परु


ु षार्थ के अन्तर्गत आने वाले इन सभी प्रक्रिया को

अर्थशास्त्र एवं कृषि-पशप


ु ालन आदि में निपण
ु व्यक्तियो और व्यापारियो से सीखना

चाहिए कहा गया है ।

काम के सम्बन्ध में उल्लेख है कि जिस प्रकार धर्म एवं अर्थ ये दोनो

परु
ु षार्थ लोक-स्थिति के मख्
ु य साधन से परम उपयोगी है , उसी तरह काम भी प्राणियो

की लोकयात्रा में उपयोगी सुख सामग्री का मुख्य साधन होने से अत्यन्त उपादे य है ।

कामशास्त्र के अन्तर्गत आत्मा के साथ संयक्


ु त मन से अधिष्ठित आँख, कान, नासिका,

रसना और त्वचा नामक पाँच ज्ञानेन्द्रियो का अपने-अपने विषयो के प्रति आकर्षण ही

सामान्य रुप से काम कहलाता है । उसी तरह हस्त, वाद, पाक् वायु और उपस्थ नामक

पाँच काम इन्द्रियों के माध्यम से विशेष प्रकार के स्पर्श के साथ जब अनोखे सख


ु की

प्राप्ति होती है , तो उसे काम की विशेष अवस्था कहा जाता है । वात्सायन का कहना है

कि विशेष काम की स्थिति स्त्री और पुरुष के बाह्य और अभ्यान्तर संप्रयोग पर

निर्भर है । इसके लिए भी उपाय जरुरी है । इन उपायो का ज्ञान कामशास्त्र से तथा

विशिष्ट नागरिको के संम्पर्क से प्राप्त किया जा सकता है । सूत्रकार ने मानव की इस

काम प्रवत्ति
ृ को तत
ृ ीय परु
ु षार्थ के रुप में मान्यता दे कर इसकी विशेषताओ पर परू े

ग्रन्थ में प्रकाश डाला है ।

धर्म
हिन्द ू जीवन दर्शन और सामाजिक व्यवस्था में धर्म की स्थिति अत्यन्त

महत्वपूर्ण है । धर्म व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार की एक संहिता है , जो उसके कार्यो

को व्यवस्थित, संयमित एवं नियन्त्रित करती है तथा उसके लिए उज्ज्वल स्वरुप जीवन

का मार्ग प्रशस्त करती है । सामान्यतः धर्म से अभिप्राय उन सभी कार्यो से है जिनके

बिना किसी के अहित के स्व की उन्नति हो पर अहंकारपूर्वक स्व की भावना का त्याग

भी हो। अतएव धर्म की व्याख्या के अन्तर्गत हम कह सकते है कि धर्म वह है जिससे

मानव को स्थायित्व मिले तथा अधर्म वह है जिससे मानव विनष्ट हो जाये। इस तरह

जहाँ धर्म उन्नति का साधन है वही अधर्म अवनति का। यही भारतीय दृष्टिकोण है

जहाँ व्यक्ति का स्वलोक कल्याणकारी होता है । इसलिए धर्म की साधना सर्वोपरि है

और इसकी आराधना सबसे पहले करनी चाहिए। रामायण में कहा गया है कि संसार

में सबसे श्रेष्ठ स्थान धर्म का ही है । धर्मो ही परमो लोके। 1 बह


ृ स्पति ने स्पष्ट शब्दो मे

कहा है कि पुरुषार्थो में धर्म ही श्रेष्ठ है ।2

वैशेषिक सूत्र में उल्लिखित धर्म का यह लक्षण ‘यतो·भ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः

स धर्मः3’ धर्म की प्रकृति को पूरी तरह से समाहित करता है । यहाँ अभ्युदय(सभी तरह

से आगे बढ़ना उन्नति को प्राप्त करना।

1. रामायण 2/21/41

2. बह
ृ स्पति सूत्र 2/55

3. वैशेषिक सूत्र, 1.1.2


निःश्रेयसम ् (निश्चित फल) की सिद्धि में धर्म का प्रधान साधन माना है । धर्म द्वारा इन

दोनो प्रकार की उन्नतियों से मानवता का विकास होता है । अतः धर्म सभी पुरुषार्थो की

कुन्जी है । ये मानव के व्यवहार की एक ऐसी संहिता है जो सबके कर्मो को किसी भी

दे श काल एवं परिस्थिति के अनस


ु ार नियन्त्रित कर उसे प्रकाशमय जीवन जीने के

लिए ज्ञान के मार्ग को प्रकाशित करता है ।

शाब्दिक अर्थो में धर्म शब्द “ध”ृ धातु से बना है जिसका अर्थ है धारण

करना, बनाये रखना अथवा पुष्ट करना, सहारा दे ना है । महाभारत में धारण करने वाले

को धर्म कहा गया है । धर्म प्रजा को धारण करता है । इस प्रकार धर्म सभी जीवो की

रक्षा एवं पोषण करता है ।1 डा0 राधाकृष्णन के शब्दो में “धर्म की धारणा के अन्तर्गत

हिन्द ू उन सब अनुष्ठानो और गतिविधियो को ले आता है जो मानव जीवन को गढ़ती

और बनाये रखती है । पी0 वी0 काणे ने धर्मशास्त्र रचयिताओं के विचारो का उल्लेख

करते हुये उल्लेख किया है कि धर्म से उनका तात्पर्य किसी विशेष ईश्वरीय मत से

नही है बल्कि जीवन के आचरणो की एक संहिता से है जो स्वयं व्यक्ति के रुप में

व्यक्ति के क्रियायों को नियमित रखती है एवं उसका उद्देश्य मानव का क्रमबद्ध विकास

करके उसे योग्य बनाना है ।

1. महाभारत कर्ण 109/58

धर्म के श्रोत
धर्म के श्रोतो को निश्चित करते समय ज्ञात होता है कि भिन्न-भिन्न प्रकार

से इसका विवेचना हुआ है । अतःजैसे-जैसे समय बीतता गया और लोगो का विवेक

विकसित होता गया वैसे-वैसे श्रोतो में भी वद्धि


ृ होती गई और नई-नई रचनाये समाज

को प्रभावित करती रही।

प्राचीन समय में धर्म के श्रोतो के रुप में विभिन्न प्रमाणो को स्वीकार किया

गया था। अपस्तम्भ धर्म-सत्र


ू में वर्णित धर्म के श्रोतो में वेद को ही सर्वाधिक महत्ता

दी गई है ‘धर्मज्ञसमयः प्रमाणं वेदाश्च’1। गौतम के अनस


ु ार वेद(श्रति
ु ) धर्म के आधार

है और इसके साथ स्मति


ृ एवं शील को भी धर्म का श्रोत बताया। याज्ञवल्क्य ने धर्म

के श्रोत को और विस्तारित करते हुये कहा कि श्रुति, स्मति


ृ , सदाचार, आत्मन प्रिय और

सम्यक संकल्प ये पाँचो ही धर्म के श्रोत है ।2 इसी तालिका में पुराणो को भी सम्मिलित

किया।3 मनु ने भी धर्म के चार श्रोत-श्रति


ु )(वेद) स्मति
ृ (धर्मशास्त्र), सदाचार और जो आत्मा

को प्रिय लगे माना है ।

श्रुति-धर्मशास्त्रकारों ने श्रुति को धर्म का सबसे महत्वपूर्ण श्रोत बताते हुये

कहा कि स्मति
ृ यो, धर्मसत्र
ू ो, मीमांसा ग्रन्थो, निबन्धो तथा महापरु ाणो में जो कुछ भी कहा

गया है वह श्रति
ु की महती मान्यता को स्वीकार करके ही कहा गया है । इस मान्यता

के पिछे कारण यह है कि ‘श्रुति ब्र ã द्वारा निर्मित है ’ कि मान्यता आम लोगो में

प्रचलित थी इसलिए वेद(श्रति


ु ) में वर्णित बहुत सी परम्परायें प्राचीनकाल से वर्तमान

काल तक अपने उसी रुप मे समाज में वि|मान है यथा, गांधर्व एवं आसरु विवाह, धन

का बटँ वारा बहनों में न होना, औरस पुत्र की महत्वा इत्यादि। वेदो के अतिरिक्त श्रति

की ही परिधि में ब्राã ण ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषदो में वर्णित विषयो को स्थान

दे कर श्रुति का क्षेत्र जो केवल संहिताओ तक सीमित था वह विस्तत


ृ हो गई।

1. आपस्तम्भसूत्र 1/1/2-3
2. गौतमधर्मसत्र
ू 1/1/1-2
3. याज्ञवल्क्यस्मति
ृ 1/13

स्मति

मनु ने श्रुति तथा स्मति


ृ की महत्ता को समान माना है ‘वेदो·खिलो धर्ममूल

ृ शीले च तद्धिदाम‘् स्मति


स्मति ृ से अभिप्राय है वेदविदों की स्मरण शक्ति में पड़ी उन
1

रुढ़ि और परम्पराओं से जिसका उल्लेख वैदिक साहित्य में नही किया गया है , इसकी

मान्यता सामान्य जन में इसलिए स्वीकार की गई कि जो बाते केवल परम्परा के रुप

में जीवित थी लिखित नहीं थी, अब लिखित रुप में सामने आई। इसलिए शिष्टो की

स्मति
ृ से संकलित इन परम्पराओ के पस्
ु तकीकृत स्वरुप का नाम स्मति
ृ रखा गया।

आगे चलकर स्मति


ृ के अन्तर्गत विभिन्न धार्मिक ग्रन्थ-गीता, महाभारत, विष्णस
ु हस्रनाम

की गणना की जाने लगी जिससे इसका क्षेत्र व्यापक हुआ। स्मति


ृ की भाषा सरल एवं

लौकिक संस्कृति में लिखी गई थी जो नियम एवम ् समायानुसार थे तथा नवीन

परिस्थितियो का इसमें ध्यान रखा गया था। अतः ये अधिक जनग्रहित एवं समाज के

अनक
ु ू ल बने रहे ।

1. मनुस्मति
ृ , 2/6

सदाचार
कुछ धर्मशास्त्रकारों ने धर्म के श्रोत के रुप में सदाचार को मान्यता दी है ।

याज्ञवल्क ने इसे वेद तथा स्मति


ृ के बाद धर्म का श्रोत मानकर मान्यता दी

आपस्तम्भ ने तो यहा तक कहा कि श्रति


ु की अपेक्षा इसे प्राथमिकता दे नी चाहिए-

‘धर्मज्ञसमयः प्रमाण वेदाश्च’। यह प्रमाण को वेद के पर्व


ू करने के सम्बन्ध में कहा

कि न समय और न पुरुष ही किसी कार्य को धर्म अथवा अधर्म कह सकते है परन्तु

सदाचार अथवा लोकाचार की दृष्टि से कोई कार्य धर्म अथवा अधर्म कहा जा सकता है ।

कुछ मनिषियों ने सदाचार की व्याख्या के सन्दर्भ मे कहा कि स्व रहित

पवित्र वेदविज्ञो के आचार को ही सदाचार की संज्ञा दी। परन्तु सदाचार दो दृष्टियो

समय एवम ् दे श के अनुसार सदै व परिर्वतित होता रहती है । जो परम्परायें दे श या

समय के किसी एक भाग में प्रचलित होती है , यह आवश्यक नही कि वह दस


ू रे भाग

एवं समय में प्रचलित हो। सदाचार के मख्


ु यतः तीन सहयोग तत्वः कुल का सदाचार

आचार परम्परा, जातिका सदाचार आचार परम्परा एवं दे श का सदाचार आचार परम्परा

जिसका पालन एक समकालीन समय में हुआ हो के पारस्परिक सहयोग से सदाचार

का वास्तविक स्वरुप निर्मित होता है ।

धर्म का वर्गीकरण

धर्म शब्द अत्यन्त व्यापक है । इसमें विविध पक्ष सन्निहित है । अतः प्राचीन

भारतीय विचारको ने धर्म की विभिन्नता पर विश्वास कर इसको अनेक विभागो में

विभक्त किया। उदाहरण स्वरुप श्रुतियो पर आधारित धर्म श्रौत धर्म कहा गया, स्मति
ृ यो

पर आधारित धर्म को स्मति


ृ धर्म एवं जो धर्म सदाचार पर आधारित हो उसे सदाचीर्ण
धर्म की संज्ञा दी गई। दे श धर्म, जाति धर्म और कुल-धर्म का उल्लेख यह स्पष्ट करता

है कि यहाँ धर्म की विभिन्नता दे श, जाति और कुल पर आधारित है ।1 विभिन्न

धर्मशास्त्रकारों ने धर्म को मख्


ु यतः तीन प्रकार के वर्गो में विभक्त किया है । (1)

सामान्य धर्म (2) विशिष्ट धर्म (3) आपद् धर्म

सामान्य धर्म-
सामान्य धर्म मनष्ु य के मानवता यक्
ु त नैतिक धर्म से संबंधित है ।

इसके अन्तर्गत मानव मल्


ू यो का नियोजन किया गया है जिसका पालन करना सभी

लोगो के लिए सामान्य रुप से आसान हो और जो दे श काल तथा पात्र के अनुरुप

परिर्वतित न हो। मनुस्मति


ृ के अनुसार धति
ृ , क्षम, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी,

वि|k, सत्य, अक्रोध ये दस गुण सामान्य धर्म है । 2. यहाँ हम दसो गुणो की क्रमशः

संक्षिप्त व्याखा प्रस्तुत करते है ।

महाभारत, भीष्म 3,35

1. मनस्
ु मति
ृ , 6.92
(1) धति
ृ -
धति
ृ का शाब्दिक अर्थ है -धैर्य, आत्मनिर्भरता, आत्मसन्तोष, दृढ़ता, स्वावलंबन।

धर्म का आचरण करने वाले मानव के अन्दर धैर्य एवं सन्तोष की भावना होनी चाहिए

धैर्यवान होने से मनुष्य में दृढ़ता, स्वावलंबन और आत्मनिर्भरता की भावना जाग्रति

होती है । बिना धर्य के मनष्ु य की कोई भी क्रिया न सफल होती है और न ही उसमे

दृढ़ता आती है । धति


ृ मानव-जीवन की धरु ी है क्योकि यदि प्रयत्न के बाद भी कोई
कार्य सिद्ध नही होता है तो उस समय सन्तोष ही हमें बल दे ता है कि हम अपने कार्यो

के प्रति पूरी तरह से दृढ़ रहे ।

(2) क्षमा
यह धर्म का महत्वपर्ण
ू अंग है । इसके अन्तर्गत किसी के अपकार करने पर

भी उसका बुरा न करना और उसे माफ कर दे ना। इसके आभाव में मनुष्य अपने

करीबी लोगो के साथ भी कलह करता हुआ अपने कर्तव्यो से विमुख हो जाता है ।

क्षमा निर्बलो का महान बल एवं बलवानो का महान आभूषण है ।

(3) दम

मानव के मन के संयम को दम कहा गया है । बाहरी इन्द्रियो की जो

प्रवत्ति
ृ या होती है उसमें मन को ही मख्
ु य कारण माना गया है । अतः मानव के

आन्तरिक इन्द्रिय मन पर नियंनत्रण धर्म के पालन के लिए अति आवश्यक है क्योकि

इसके आभाव में काम, क्रोध आदि दोषो के वश में होकर मनुष्य पथभ्रष्ट हो जाता है ।

(4) अस्तेय

अस्तेय का सामान्यता अर्थ है कि किसी भी वस्तु को चोरी या छल कपट से

प्राप्त न करना। धर्माचरण करने वालो में इस गण


ु का होना भी जरुरी है , क्योकि इसके

आभाव में मनष्ु य किसी की भी वस्तु को अन्याय, छल, कपट. चोरी से प्राप्त कर

कुमार्गगामी होकर मनुष्य अपना जीवन कलंकित कर लेता है ।

(5) शौच
शौच का शाब्दिक अर्थ पवित्रता से है । मानव के आन्तरिक एवं बाह्य के भेद

से शौच(पवित्रता) दो तरह के है । जल, मिट्टी इत्यादि से हाथ को शुद्ध करना बाह्य शौच

एवं परोपकार, दया. अहिंसा इत्यादि गण


ु ो द्वारा मन एवं चित्त को शद्ध
ु करना

आन्तरिक शौच कहलाता है । अतः धर्मानष्ु ठान की सफलता के लिए मनष्ु य में इस

गुण का होना भी आवश्यक है क्योकि इस दो तरह की सुचिता के आभाव में अशुद्ध

मनुष्य धर्म का आचरण नही कर सकता।

(6) इन्द्रिय निग्रह

भौतिक विषयो की ओर आकर्षित होने वाली इन्द्रियो को अपने नियंन्त्रण

(निग्रह) में रखना इन्द्रिय निग्रह कहलाता है । इसके बिना चित्त के विषयो के प्रति

आर्क षित हो जाने से धर्मानष्ु ठान बाधित होने के साथ-साथ मानव का अधः पतन भी

हो सकता है । अतः धार्मिक मनुष्य में भी इस गुण का होना जरुरी है ।

(7) धी

धी का शाब्दिक अर्थ धर्मशास्त्रो में कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक करने

वाली बुद्धि को ही ‘धी’ कहा गया। धार्मिक पुरुष में विवेकवती बुद्धि(धी) का होना भी

आवश्यक बताया गया है । धी के आभाव में धर्मशात्रो द्वारा निर्देशित कर्मो के

अनाचरण एवं शास्त्रो द्वारा निषिद्ध कर्मो के आचरण से मनुष्य अनर्थ को प्राप्त करता

है ।

(8) वि|k
सामान्य रुप में आत्मज्ञान को ही वि|k कहा जाता है जो कि धर्मानुष्ठान की

आधार शिला है । इसके आभाव में मानव की प्रवत्ति


ृ धर्म में हो ही नही पाती। शरीर

से भिन्न आत्मा का ज्ञान ही मानव की पारलौकिक फल वाले सत्कर्मो में प्रवत्ृ त

कराता है जो धार्मिक व्यक्ति के लिए अपेक्षित है ।

(9) सत्य

सत्य से धर्म की अभिवद्धि


ृ होती है - “धर्मः सत्येन वर्धते”1 सच अथवा सही

बात को कहना ही सत्य है । झठ


ू बोलने से मानव का मन अशद्ध
ु हो जाता है । मन ,

वचन, कर्म जो एक क्रमिक रुप मे रहकर मानव में शद्ध


ु ता उत्पन्न करते है । झठ
ू बोलने

से यह क्रम बिगड़ जाता है । तब मन में कुछ और वचन से कुछ और एवं कर्म से कुछ

और होता है । सत्य के अभाव के कारण मनुष्य अविश्वासनीय भी हो जाता है अतः

धार्मिक पुरुष के लिए सच्चा होना अति आवश्यक है ।

1. मनुस्मति
ृ , 8.83
(10) आक्रोध
क्रोध की स्थित उत्पन्न होने पर भी मन में क्रोध का आभाव होना क्रोध

कहलाता है । क्रोध से मनुष्य स्वतः अपना ही विनाश कर बैठता है । क्रोध आने पर

मनष्ु य अपने कर्तव्यो और अकर्तव्यो, आदर और अनादर को भल


ू जाता है जिससे

व्यक्ति अपने माता-पिता, गरु


ु जन, बन्ध-ु बान्धव आदि के साथ भी दर्व्य
ु वहार कर बैठता

है । अतः क्रोध से होने वाले अनर्थ परिणामो से बचने के लिए प्रत्येक मानव में अक्रोध

की भावना सर्वधा अपेक्षित है ।


(11) विशेष धर्म
प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के लिए पथ
ृ क-पथ
ृ क धर्मो को निर्धारित किया गया है

जिनका पालन करना प्रत्येक वर्ण एवं आश्रम के व्यक्तियो के लिए (विशेष काल या

परिस्थिति) अनिवार्य माना जाता रहा है । ऐसे धर्म को विशेष धर्म कहा गया है । प्राचीन

धर्माशास्त्रीयो ने धर्म को व्यावहारिक बनाने के उद्देश्य से धार्मिक स्तरो में परिवर्तन

उचित माना। इसी कारण विशिष्ट उद्देश्य के लिए अथवा विभिन्न वर्गो के लिए एवम ्

विशेष परिस्थितियो के लिए विभिन्न प्रकार के धर्म का उल्लेख किया गया है । विशेष

धर्म के निम्न प्रकार इस तरह है -

1. वर्ण धर्म- सत्य, अहिंसा, आत्म संयम, अस्तेय इत्यादि धर्म के कुछ ऐसे आदर्श है

जिन्हे प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति पर लागु किया जा सकता है । परन्तु इसके विपरीत विभिन्न

वर्गो के लिए विशेष रुप से बताये गये कुछ निश्चित आदर्शो का निर्धारण किया गया है

जिन्हे वर्ण-धर्म कहा जाता है । जिनके आधार के रुप में गुण और कर्म की चर्चा मिलती है ।

वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत प्राचीन भारतीय समाज को चार भागों में विभक्त

किया गया था। जो कमशः ब्राã ण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे। सत्वगुण प्रधान होने के

कारण ब्राã णो के स्वभाव में और रजोगुण प्रधान क्षत्रियो के स्वभाव में भिन्नता

अनिवार्य थी। उसी प्रकार वैश्यो में रज व तम तथा शूद्रो में तम गुण प्रधान थे।

गण
ु जनित स्वाभाविक विशेषता के अनरु
ु प उनके लिए पथ
ृ क-पथ
ृ क प्रकार के धर्म को

उचित बताया गया था। मनस्


ु मति
ृ के अनस
ु ार ब्राã णो के लिए पढ़ना, यज्ञ करना (अपने

लिए), यज्ञ कराना(दस


ू रे के लिए) दान दे ना और दान ग्रहण करना विहित माने गये।1 मनु

के शब्दो में क्षत्रियों का कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना, दान दे ना, यज्ञ तथा अध्ययन में
आसक्त और विभिन्न सांसारिक विषयो में अनासक्त रहना विहित बताया।2 इसी प्रकार

समाज में वैश्यो का स्थान ब्राã ण और क्षत्रिय से नीचे तथा शूद्र से ऊँचा था।3 मनु ने

पशप
ु ालन, दान दे ना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, ब्याज पर धन उधार दे ना

तथा खेती करना, इन कामो को वैश्यो के लिए ब्र ã के द्वारा निद्धिष्ट कर्तव्य के रुप में

उल्लिखित किया है ।1

1. मनुस्मति
ृ -1.88
2. मनस्
ु मति
ृ -189
3. गौतम, 21,6
विराट पुरुष(ब्र ã) से उत्पन्न बताने वाले सिद्धान्त के अनुसार शूद्रो को चरण से

उत्पन्न माना गया है । इस तरह समाज में उसका स्थान निम्नतम होने के साथ-साथ

उसको ब्राã णो, क्षत्रियो और वैश्यो का सेवक बनाया गया। जहाँ एक ओर शद्र
ू ो का तीनो

वर्गो की सेवा करना प्रमख


ु धर्म बताया गया वही दस
ू री ओर f}जो से भी कहा गया

कि वे शूद्रो का उचित भरण-पोषण कराना अपना कर्तव्य समझे। उन्हे चाहिए कि वे

अपने द्वारा इस्तेमाल की हुई पुरानी चीजें छाँता, पगड़ी, जूता, पंखा तथा फटे पुराने वस्त्र

आदि सेवा रत शूद्रो को दे डाले।2

आश्रम धर्म

मानव जीवन काल को शास्त्रो में चार भागों में बाँटा गया है । इसमें मानव के

सम्पूर्ण जीवन को अनुशासन, संयम और नियम के अन्तर्गत रखा गया है जिसे आश्रम ्

व्यवस्था कहते है । आश्रम व्यवस्था से सम्बन्धित नियमो का यथोचित पालन ही

आश्रम धर्म है । आश्रम धर्म का पालन सभी f}ज वर्गो के लिए श्रेयस्कर माना गया है।

शास्त्रो द्वारा आश्रम के चार भाग मुख्यतः ब्र ã चर्यआश्रम, गह


ृ स्थाश्रम, वानप्रस्थआश्रम,

सन्यास आश्रम है ।

1. मनुस्मति
ृ -198

2. महाभारत, शान्ति पर्व.60,28-35

ब्र ã चर्य मानव जीवन के चार भागो में पहला आश्रम है । ब्र ã चर्य

शब्द का तात्पर्य इन्द्रिय-संयम अथवा वेदो का अध्ययन करने के लिए व्रत का पालन

करने से है । इस आश्रम का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता था। 1 उपनयन संस्कार के


बिना मनुष्य शूद्रो के समान धार्मिक कार्यो को नही कर सकते थे। ब्र ã चारी को

पवित्रता के साथ-साथ संस्कार, व्रत व नियमो का पालन करते हुये गुरुकुल में वास

करना होता था। अर्थशास्त्र के अनस


ु ार वेदाध्ययन करना, अग्नि की पज
ू ा करना, भिक्षा

माँगना, गरु
ु की सेवा करना और गरु
ु की अनप
ु स्थिति में गरु
ु -पत्र
ु अथवा अपने से

ज्येष्ठ ब्र ã चारी की सश्र


ु ूषा, ये कर्तव्य ब्र ã चारियो के लिए उचित है ।2 यह आश्रम f}t

वर्ग(ब्र ã ण, क्षत्रिय, वैश्य) के लिए था, शूद्र के लिए नही।

गह
ृ स्थाश्रम का तात्पर्य जीवन के दस
ू रे पड़ाव से है । समावर्तन संस्कार के बाद

ब्र ã चारी स्नातक कहलाता और विवाह के योग्य समझा जाता। विवाह के द्वारा

व्यक्ति ब्र ã चर्य समाप्त कर गह


ृ स्थाश्रम में प्रवेश करता। यहाँ प्रमख
ु धर्म था विवाह

करना, गह
ृ बनाना, गह
ृ अग्नि प्रज्वलित करना, ऋणो से उऋण होने के लिए पाँच

महायज्ञ करना। विवाहित होना भी यज्ञ सम्पन्न करने के लिए आवश्यक अंग था।

पाँच महायज्ञ के लिए बिना माता-पिता, दे वता, ऋषि, समाज तथा जीवधारियो के उपकारो

का बंधक समाप्त नही होता। अर्थशाशास्त्र के अनुसार उसे स्वधर्म से जीविका चलानी

चाहिए।

1. मनस्
ु मति
ृ 2,173

2. अर्थशास्त्र 1,3

3. अर्थशास्त्र 1,3
जहाँ उसमें त्याग की भावना होना चाहिए। इसके साथ गह
ृ स्थों को

पुरुषार्थो की साधना करनी चाहिए एवं आचार तथा शील के सिद्धान्तो का अनुसरण

करना चाहिए।1

वानप्रस्थाश्रम को जीवन के तीसरे भाग की संज्ञा दी गई है । जिसमें वन को

प्रस्थान करने का विधान है । ब्र ã चर्य और गह


ृ स्थाश्रमो के समान वानप्रस्थ आश्रम में

प्रवेश करने की कोई निश्चित अवस्था नही थी। जिस प्रकार वि|k प्राप्ति के बाद

गह
ृ स्थाश्रम में प्रवेश लिया जाता था उसी प्रकार व्यक्ति अगर गहृ स्थ-धर्मो का समचि
ु त

रुप से पालन कर चुका हो तो वह वानप्रस्थी होने के योग्य समझा जाता था। यहाँ उसे

व्यक्त भोगी, इन्द्रिय संयमी, त्यागी2 तथा पंच महायज्ञो का करने वाला होना चाहिए।3

उसको शरीर से कष्ट उठाने की आदत होनी चाहिए।4 उसका सम्पूर्ण समय दे वता तथा

अतिथि के पज
ू न में बीतना चाहिए। उसे अल्पाहारी , फल-मल
ू आहारी, वक्ष
ृ मलि
ू क, जटाधारी

होना चाहिए।

जीवन का अन्तिम भाग सन्यासाश्रम है । सन्यास शब्द का अर्थ है सम्यक

रुप से त्याग, इसमें प्रत्येक वस्तु का त्याग करना चाहिए। यज्ञ करना तथा किसी भी

वस्तु की कामना से रहित होना चाहिए।

1. महाभारात शान्ति पर्व 61/10-2

2. रामायण 2/37/2

3. अर्थशास्त्र-1/3

4. कामन्दक-2/28
इसमें त्याग की सीमा इतनी होती थी कि वह अपने लिए कुछ भी संचित

नही करता था। वह दस


ू रे के सहयोग को भी त्याग दे ता था। वह पूर्व एकाकी विचरण

करता था। उसे नियतेन्द्रिय, धन का संग्रह न करने वाला तथा मन, वचन, कर्म एवं

शरीर से शद्ध
ु होना चाहिए। प्रेम, इन्द्रियनिग्रह, त्याग तथा जीवधारियो के प्रति अहिंसा

की वति
ृ के कारण सन्यासी अमरता प्राप्त करने के योग्य बन जाता था।

1. गौतम धर्मसत्र
ू , 3/11

गुण धर्म

गुण धर्म का तात्पर्य उस धर्म से है जो विशेष व्यक्तियो के पद के

अनुसार भिन्न हो, जैसे शासक के कर्तव्य। समान वर्ण होने पर भी राजा होने के कारण

उसके कर्तव्य अपने ही वर्ण के अन्य व्यक्तियो से भिन्न था। उदारण के लिए प्रजा

की रक्षा करना, आन्तरिक व्यवस्था बनाये रखना, बाहरी आक्रमण से राज्च की रक्षा

करना, दण्ड दे ने की शक्ति का उचित प्रयोग कर राज्य के विकास के लिए प्रयासरत

रहना, प्रजा का पोषण करना राजा का विशेष रुप से कर्तव्य था। पति-धर्म, पत्नी-धर्म

इत्यादि का उल्लेख गुणधर्म के उदाहरण के रुप में किया जा सकता है । राजा पर ही

धर्म निर्भर करता था। उसका धार्मिक होना श्रेयस्कर था, क्योकि जैसा राजा कार्य करता

था वैसे प्रजा भी करती थी1

1. महाभारत, शक्तिपर्व, 754


युग धर्म

प्रत्येक यग
ु ो में पालन किया जाने वाला धर्म युग-धर्म कहा गया है । युग

के अनुरुप धर्म की नियोजना थी क्योकि युग(काल) के अनुसार धर्म परिवर्तित होता है ।

इस प्रकार समय एवं परिस्थिति के अनुसार धर्म जो रुप धारण करता है उसे युग का

दे श धर्म कहा जाता है । प्राचीन भारतीय विचारको ने चार युगो सत्य युग(कृत युग), त्रेता

यग
ु , }k पर यग
ु एवं कलियग
ु की कल्पना की। जिनके धर्म एवं आदर्श क्रमशः अलग-

अलग थे।1 महाभारत में भीष्म ने यधि


ु ष्ठर को बताया कि चारो यग
ु ो में धर्म अलग -

अलग थे। स्पष्ट है कि प्रत्येक युग में अपने धर्म थे, जो दस


ू रे यग
ु से भिन्न थे।

नौमित्तिक धर्म

किसी विशेष निमित्त(प्रयोजन) के लिए किये जाने वाले कर्म

नैमित्तक धर्म कहे गये है । उदाहरणार्थ कोई निषिद्ध कर्म करने पर उसके निराकरण के

उद्देश्य से किये जाने वाले प्रायश्चित कर्म। महाभारत में ऐसे कर्मो की एक वह्ृ द सच
ू ी

एवं उन कर्मो के प्रायश्चित का सविस्तार वर्णन है ।

1. महाभारत, शान्तिपर्व, 260,8

आपद् धर्म

आपत्तिकाल में जिस धर्म का विधान किया गया हो , उसका तात्पर्य

आपद् धर्म से है । सामान्य परिस्थितियो में विहित जो धर्म था , उससे यह भिन्न था।

उदाहरण के लिए सत्य के सम्बन्ध में ऐसी व्यवस्था की गई कि विशेष परिस्थितियो


में असत्य को भी उचित माना गया। महाभारत के अनुसार प्राण संकट होने पर,

धार्मिक कार्यो के लिए आवश्यक धन की रक्षा करने के लिए, या स्त्रियो की रक्षा करने

के लिए, असत्य बोलना अनचि


ु त नही होता और इन कारणो से असत्य बोलने वाला

पाप का भागी भी नही बनता।1 चाहे सामान्य धर्म हो या विशेष धर्म, आपद् धर्म सभी

के लिए अनुमित माना गया है ।

1. महाभारत शान्तिपर्व, 165,32

‘अर्थ’

परू
ु षार्थ के अन्तर्गत जीवन का दस ु य उद्देश्य ‘अर्थ’ है । जिसके
ू रा मख्

द्वारा मनुष्य के इस लोक और परलोक के समस्त प्रयोजन सिद्ध होते है । अर्थ मानव

जाति के भोग, आरोग्य और धर्म का मख्


ु य साधन है । जिससे अर्थ की ओर सभी की

प्रवत्ति
ृ होती है । मानव के जीवन में भौतिक इच्छायों की पर्ती
ू के लिए अर्थ की

आवश्यकता पड़ती है । अर्थ से अभिप्राय केवल धन से ही नही है । पुरुषार्थ के अन्तर्गत

‘अर्थ’ का शाब्दिक अर्थ-अभिलाषित वस्तु से है । इसलिए अर्थ को सभी प्राप्त करना

चाहते है और इसके अर्थ नाम की सार्थकता भी है -अर्थ्यते सर्वौः इति अर्थः। अर्थात

जिसे प्राप्त करने की इच्छा सभी करते है उसे अर्थ कहते है ।

चाणक्य ने अर्थ के महत्व को परिभाषित करते हुये कहा कि

प्राणियो की सुख-समद्धि
ृ का मूल धर्म है और इस धर्म का मूल है -अर्थ “सुखस्य मूंल
धर्मः धर्मस्य मूलमर्थः”। इसलिए कौटिल्य ने त्रिवर्ग में मुख्य रुप से अर्थ को प्रधान

माना और धर्म एवम ् काम को उसका मल


ू बताया। जिमर ने अर्थ को परिभाषित करते

हुये लिखा है कि अर्थ के अन्तर्गत वे सब भौतिक वस्तुये सम्मिलित है जिनको रखा

जा सकता है , जिनका आनन्द लिया के जा सकता है , जो खोई जा सकती है तथा

जिनकी दै निक जीवन में भरण-पोषण परिवार की समद्धि


ृ के लिए एवं धार्मिक

उत्तरदायित्वो के पालन के लिए अर्थात जीवन के विभिन्न उत्तरदायित्वो को समुचित

ढं ग से सम्पन करने के लिए आवश्यकता होती है । इस तरह अर्थ भौतिक सख


ु की

सभी आवश्यकताओ का घोतक है । इसका प्रयोग मानव की शक्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्त

करने की इच्छा करने के लिए हुआ है ।

अर्थ की शास्त्रीय परिभाषा है वत्ति


ृ मल ू मर्थः अर्थात अर्थ आजीविका

का आधार है । प्रारम्भिक काल में कृषि ही आजीविका का प्रमुख साधन था। जिसके

कारण भूमि के लिए दे वता से लेकर राक्षस तक युद्ध करते थे। पाराशर मुनि के

अनुसार मानव यदि धर्म के अनुसार कृषि कार्य करता है , तो फिर कृषि से बड़कर न

कोई धर्म है और न ही कोई लाभ। इस तरह अर्थ में भूमि का विशेष महत्व है , क्योकि

धन धान्य, वस्त्र, गह
ृ , सम्पत्ति आदि समस्त जीवन के लिए उपयोगी पदार्थो की उत्पत्ति

भमि
ू से ही होती है । शक्र
ु निति (1.78.79) ने यहा तक कहा कि यह भमि
ू संम्पर्ण
ू मानव

जाति की सुखो की खान है । अतः भूमि के अतिरिक्त अन्य सब वस्तुये गौण अर्थ है ।

अर्थ की उपयोगिता बताते हुये श्रीमद् भागवत में कहा गया कि अर्थोपार्जन का प्रयोजन

एकमात्र धर्म है , भोग-विलास इसका (मख्


ु य) फल नहीं माना जा सकता है ।1 वही ऋषि
शुक्राचार्य ने अर्थ की उपयोगिता बताते हुये कहा कि शस्त्रास्त्र के बिना शरू ता नही

सफल हो सकती, स्त्री के बिना गार्हस्थ नही हो सकता, वैसे ही अर्थ के बिना धर्म एवं

मोक्ष भी सिद्ध नही हो सकते।2 जागतिक व्यवहार में भी अर्थ का अत्यन्त महत्व है

क्योकि मनष्ु य की समस्त क्रियाओ अर्थ मल


ू क है , अतः इसके उपार्जन में मनष्ु य को

सदा लगे रहना चाहिए। धर्माशास्त्रकारो का विचार है कि जिस तरह ऊचे -ऊचे पर्वतो से

नाना प्रकार के झरने और नदिया निकलती है , उसी तरह न्यायोपार्जित अर्थ को भलि-

भाँति वद्धि
ृ कर उसे उपयोग कर्मो में लगा दे ने से नाना प्रकार की धार्मिक प्रवत्ति
ृ या

फलवती होती है । इसलिए अर्थ का अर्जन, संरक्षण, संवर्धन एवं सदप


ु योग नियमपूर्वक

करते रहना चाहिए।

श्रीमद् भागवत ् के अनुसार अर्थ की उत्पत्ति सद्बुद्धि से होती है -

‘अर्थबद्धि
ु रसयू त। 3
इसी तरह मनस्
ु मति
ृ में अर्थोपार्जन के दस साधन-(1) विधा (2) शिल्प

(3) नौकरी (4) सेवा (5) पशप


ु ालन (6) व्यापार (7) कृषि (8) सन्तोष (9) शिक्षा (10) ब्याज इत्यादि

बताये गये है । चारो वर्गो को इनका उचित रुप से विनियोग करना चाहिए।

(1) श्रीमद् भागवत,् 1.2.9

(2) शक्र
ु ानिति,1.84

(3) श्रीमद् भागवत-4.14.51


त्रिवर्ग की गणना में अर्थ को धर्म और काम के मध्य मे रखा

गया है । अर्थ का झुकाव धर्म और काम, इन दोनो पुरुषार्थो की ओर रहता है । बिना

अर्थ के न तो धर्म ही सिद्ध हो सकता है और न काम ही सफल हो सकता है । मगर


अर्थ ऐसा होना चाहिए, जो धर्मानुबन्दी (अर्थ से धर्म कार्य सम्पन्न होते रहे ) के साथ

अर्थानुबन्धी (अर्थ से अर्थ का उद्गम ् बराबर होते रहे ) भी हो। नीतिवाक्यामत


ृ में

उल्लिखित है कि जो मनष्ु य अर्थानब


ु न्धी तरीको से अर्थ को अर्जित करता है , उसी के

पास अर्थ पहुँचता है । अर्थ को उघोग की मदद से अर्जित करना एंव अर्जित अर्थ रक्षा

कर ब्याज के माध्यम से वद्धि


ृ कर अर्थ का तीर्थ एवं अच्छे कर्मो में उपयोग करना ये

सब उपाय अर्थानब
ु न्धी कहलाते है । इस तरह जो लोग उचित मार्ग से अर्थ का उपार्जन

करके, उचित रुप से उसका सदप


ु योग करना जानते हे उन्हे अर्थ मनुष्य के धर्म, अर्थ

और काम तीनो पुरुषार्थो को सिद्ध करता हुआ मानव जीवन को उज्ज्वलित कर दे ता

है ।

इसके विपरीत अनचि


ु त मार्ग जैसे छल कपट, धोखा, अन्याय, चोरी, हिंसा,

दस
ू रो को कष्ट दे कर जो अर्थ अर्जित किया जाता है , वह अशद्ध
ु अर्थ कहलाता है । ऐसे

अशद्ध
ु अर्थ से मनष्ु य को न तो धर्म ही प्राप्त हो सकता है और न सख
ु ही। जबकि

समाज में इस तरह .दरु ाचारो की वद्धि


ृ होने पर लोक स्थिति बिगड़ने लगती है ।

इसलिए मानव समाज के लिए यह आवश्यक है कि वह उचितमार्ग न्याय से जितना

अर्थ प्राप्त हो सके उसी में सन्तोष करे , अन्यथा वह अशद्ध


ु अर्थ उसके लिए नाना

प्रकार के दःु खो का ही कारण बनेगा।

पर अर्थ मानव जीवन में इतना महत्पूर्ण होने पर भी इसको धर्म के बाद

स्थान मिला है क्योकि धर्म के अनुशासन के अभाव में अर्थ अपना महत्व खो सकता

है । इसलिए धर्म के आधार पर ही अर्थ को अर्जित कर इसी की व्यवस्था में इसे व्यय
किया जाय। श्रीमद् भागवत ् में अर्थ के व्यय को पाँच भागो-(1-धर्म के लिए 2-यश के

लिए 3-धर्म की अभिवद्धि


ृ के लिए 4-कामोपभोग के लिए 5- अपने स्वजनो के लिए) में

बाँट कर रखने वाला व्यक्ति इस लोक में और परलोक में सख


ु पाता है ।1

अर्थ के अर्जन के साथ-साथ मनुष्य के मन में सन्तोष का होना जरूरी है ।

सन्तोष के माध्यम से ही व्यक्ति अर्थमद(अहंकार) से भी मुक्त हो सकता है और

मद(अंहकार) ही अर्थ का सबसे बड़ा दोष है । मनष्ु य द्वारा अर्जित अर्थ को शास्त्रो में

परिवार के व्यक्तियों के साथ ही दीन, अनाथ, दे वता, बन्ध-ु बान्धव, पश-ु पक्षी, कीट पतंग

आदि पर व्यय करने के लिए कहा है । क्योकि अर्थ की जो तीन गतियाँ है उसमें दान

का प्रथम स्थान है जबकि अर्थ का उपयोग इसकी दस


ू री गति एवं जिस अर्थ का दान

एवं उपयोग नही होता वह नष्ट हो जाता है जो उसकी तीसरी गति है ।

उपयुक्त विवेचन से स्पष्ट है कि विश्व के समस्त मानव की आर्थिक

आवश्यकतायें एक समान होने पर भी इसमें पर्याप्त असमानता है । जिसका सभी के

साथ सामन्जस्य करना अत्यन्त कठिन है । वर्तमान वैज्ञानिक युग भी विश्व की

आर्थिक समस्या को परू ी तरह हल करने में असफल ही रहा है । जबकि प्राचीन मनि

एवं ऋषियो मे अर्थोपार्जन के नीति एवं नियम बनाकरा अर्थशद्धि


ु द्वारा आर्थिक

सामन्जस्य बैठाने का प्रयास किया है ।

1. श्रीमद् भागवत-8.11.37
काम

पुरुषार्थ व्यवस्था में काम तीसरा पुरुषार्थ है । जिस तरह धर्म और अर्थ-पुरुषार्थ

लोक के कल्याण के मुख्य साधन होने से अत्यन्त उपयोगी है , ठीक उसी तरह काम भी

प्राणियो की जीवन यात्रा में उपयोगी सुख-सामग्री का प्रमुख साधन होने से अत्यधिक

उपयोगी है । बिना ‘काम’ के प्राणियो की उत्पत्ति, इन्द्रिय सुख की प्राप्ति एवं जीवन-

यापन लगभग असंभव है ।

काम की व्यत्ु पत्ति है - काम्यते इति कामः- इसके अनस


ु ार काम शब्द का

अर्थ है -कामना, आनन्दानुभूत की आकाक्षां। अर्थात विषयो एवं इन्द्रियो के सम्पर्क से

उत्पन्न होने वाला मानसिक आनन्द ही काम कहलाता है । सामान्यतः काम शब्द का

दो अर्थो में प्रयोग किया जाता है -संकुचित एवं वहृ त ्। संकुचित अर्थ में काम स्त्री-पुरुष

के बीच सम्भोग जनित सुख है । वह


ृ त ् अर्थ मे काम के अन्तर्गत मानव की समस्त

इच्छाये, वासनाजन्य प्रवत्ति


ृ या एवं सख
ु ो को शामिल किया जाता है । कपाड़िया के

अनुसार काम मानव के सहज स्वभाव और भावक


ु जीवन को व्यक्त करता है तथा

उसकी काम भावना और सौन्दर्य प्रियता की वत्ति


ृ को तुष्टि और निर्दिष्ट करता है ।

इस तरह कपाड़िया के अनुसार भारतीय संस्कृति में काम को केवल यौन तक ही

सीमित न रखकर इसे उद्देश्यपूर्ण एवम ् सौन्दर्यात्मक जीवन से भी सम्बन्धित किया

है । महाभारत के अनस
ु ार काम मन तथा ह्रदय का वह सख
ु है जो इन्द्रियो के विषयो

से सयक्
ु त होने पर निःस्रत होता है ।
इस प्रकार काम शब्द का एक(प्रधान भी) अर्थ है -क्रीडा, विनोद, प्रशन्नता की मनः

स्थिति बनाये रखना तथा उसके सहयोगी गतिविधियो को बढ़ावा दे ना। दस


ू रा अर्थ है

ु ता अर्थात अश्लील चिंतन, विषयासक्ति। प्रथम अर्थ में ‘काम’ सष्टि


इसका-कामक ृ का

धारक तत्व है जबकि दस


ू रे अर्थ में विषयाक्ति की दृष्टि से काम जीवन का वि|

k तकर(नियामक) तत्व है। इस तरह ‘काम’ में कामना एवं वासना दोनो का स्थान है।

दोनो ही मानव की प्रमुख प्रवत्ति


ृ या है , जो उसके मनोःदशा को प्रेरित करती है । जिनमे

क्रमशः सौन्दर्यता, आकर्षण, प्रेम, अनरु ाग, स्नेह एवं वात्सल्य है । इसी के वशीभूत ही

मानव अपने वंशो में वद्धि


ृ करता है , गह
ृ स्थ जीवन के तमाम आनन्दो को भोगता हुआ

एक दस
ु रे के प्रति आकर्षक रखता है ।

पुरुषार्थ की विचारधारा में काम का अत्यन्त उत्कृष्ट स्थान है । मानव की

अधिकतर आन्तरिक प्रवत्ति


ृ या काम के द्वारा ही संचालित होती है । इस दृष्टि से

‘काम’ के तीन आधार प्रतीत होते है -जैविकीय, सामाजिक और धार्मिक। मानव की

अनेको इच्छाओ की पूर्ति जैविकीय आधार पर करता है । इच्छाओ की पूर्ति होने पर

मानव में क्रोध, तनाव उत्पन्न होने लगता है । परन्तु विवाह के माध्यम से इच्छओ की

सन्तष्टि
ु से मानव का तनाव व क्रोध कम हो जाता है एवं पति पत्नी के सम्बन्ध

तथा प्रजनन के माध्यम से समाज में निरं तरता आती है जो ‘काम’ के सामाजिक

आधार उसकी इन्द्रिय-सन्तष्टि


ु और विशिष्ट इच्छाओ से अलग करता है । जिससे

मनष्ु य आत्मिक उत्थान की ओर अग्रसित होकर धार्मिक होते हुये ईश्वर मे अनरु क्त
हो जाता है ।
महाभारत, वनपर्व, प0
ृ 37-38

शास्त्रो में काम के उपभोग को सात्विक, राजसिक और तामसिक में व्यक्त किया

है । सात्विक काम धर्म के अनक


ु ू ल होता है । इसका उपभोग करते समय कोई शारीरिक

सुख तो नही मिलता पर भविष्य में इससे सुखद फल प्राप्त होते हे । यह शास्त्र सम्मत

भी है और इसमें ईश्वर अंश वि|मान होता है । राजसिक काम वह काम है जो इन्द्रिय

सख
ु एवं विषय वासना से यक्
ु त होता है । इसके उपभोग में सख
ु तो मिलता है पर

इसके पश्चात इसका परिणाम दष्ु कर होता है । तामसिक काम आलस्य, निद्रा, तंद्रा से

युक्त होता है । इसका न उपभोग सुखदायक होता है और न इसका परिणाम।

इस तरह मानविय इच्छायें ही उसे सही मार्ग एवं गलत मार्ग पर ले जाती

है । इसलिए काम को धर्म के द्वारा नियांत्रित कर मानव को सत्मार्ग की ओर अग्रसित

किया जा सकता है । गीता में धर्म के अनुकूल काम को ईश्वर के समान मानते हुये

कृष्णा ने अर्जुन से कहा हे कि ’मै सब भूतो में धर्म के अनुकूल काम हूँ।’ इसलिए

काम की भी गणना पुरुषार्थो में होती है , क्योकि धर्म में सहायक होकर काम भी मानव

के परम पुरुषार्थ(मोक्ष) का साधन बनता है ।

काम का दस
ू रा पक्ष यह है कि मनुष्य अपनी काम जनित इच्छाओ के

अनुसार उद्वेगात्मक एवं सर्जनात्मक कार्य भी प्रारम्भ करता है जिसके अन्तर्गत

अभिव्यक्तिकरण, सौन्दर्यबोध एवं आकर्षण है । यह पक्ष सुन्दर वस्तुओ के निर्माण के

रुप में व्यक्त होता है । इससे दस


ू रो से प्रशंसा प्राप्त होती है । जिससे कला का सज
ृ न
होता है । कला का सज
ृ न ही मनुष्य एवं पशु के बीच अन्तर की रे खा खिंचती है

क्योकि मनुष्य तो कला का सज


ृ न कर सकता है परन्तु पशु नही। यदि मानव को

उसकी सज
ृ नात्मक अभिव्यक्ति को व्यक्त करने का अवसर न दिया जाये तो उसके

व्यक्तित्व का सर्वोत्तम भाग कुण्ठित हो जायेगा। अतः इसके समन्वयात्मक विकास

के लिए मध्यम मार्ग की आवश्यकता है । जिसे पुरुषार्थ के सिद्धान्त के अन्तर्गत काम

के द्वारा ही प्रदर्शित किया जा सकता है ।

मानव जीवन का मख्


ु य फल तत्व ज्ञान है । जीवन को तत्वज्ञान के

ु ू ल बनाये रखाना ‘काम’ का मुख्य फल है एवं इन्द्रिय प्रीति उसका गौण फल है ।


अनक

काम का फल इन्द्रियो को तप्ृ त करना नही बल्कि उसका प्रयोजन केवल जीवन निर्वाह

से है । शरीर और इन्द्रियो की पष्टि


ु के लिए उचित मात्रा में काम का सेवन

अत्यावश्यक है । काम का अनुचित सेवन करने से चित्त का विषयो के प्रति अत्यन्त

लगाव हो जाता है । जिसके कारण मनुष्य में विवेक और वैराग्य का उदय नही हो

पाता। विवेक और वैराग्य के बिना तत्व चिंतन नही हो सकता जिससे पुरुष अपने

परम ् उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति नही कर सकता। इसलिए कामाशक्ति को बढ़ाने की

अपेक्षा, जहाँ तक हो उसे सीमित करना चाहिए।

अन्ततः निःसन्दे ह काम यौन-प्रधान सुख का निर्माण करता है ,

किन्तु धर्म के नियमो के आधार पर उसका असास्कृतिक रुप नही बन पाता। आगे

जिस तरह ‘मोक्ष’ का सहायक ‘अर्थ’ है उसी तरह अर्थ का सहायक ‘काम’ है । यदि
मनुष्य काम को मर्यादित न करे तो वह कभी अर्थ को मर्यादित नही कर सकता

अन्ततः वह मोक्ष लाभ से भी वंचित रह जायेगा।

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