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संस्कार, परु
ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था प्रमख
ु तः थे। इन तीनो को भारतीय संस्कृति
बौद्धिक, नैतिक एवं धार्मिक रुप से सुदृढ़ कर उसके आन्तरिक एवं बाह्य तत्वो का
विकास करता उसके उच्च व्यक्ति का निर्माण कराता। इन्ही मूल तत्वो के द्वारा
करते हुये चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करता। एक सव्ु यवास्थित एवं सस
ु ंगठित
होती है ।
तक किसी न किसी रुप में जुड़े रहे । मनुष्य के वैयक्तिक संस्कार का इतना
निकट सम्बन्ध था कि उसके जीवन परिवर्तन एवं उथल पुथल में भी वे उनसे
चिपके रहे । संस्कार ही मानव जीवन को परिष्कृत एवं शद्धि
ु करने में सहायक होते,
व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करते। मानव शरीर को पवित्रता एवं महत्व प्रदान
करते।
रुप में विकसित ही नही हुआ था, संस्कार ही इन विषयो में शिक्षा के माध्यम का
कार्य करते थे इसी प्रकार शिक्षा की दृष्टि से वि|k रम्भ, उपनयन एवं समावर्तन
आदि संस्कार अत्यन्त महत्व के है । शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से योग्य बालक
को कठोर अनश
ु ासन में रखकर पठन पाठन कराया जाता ताकि उसके उच्च
बौद्धिक एवं नैतिक कर्तव्यो का विकास हो सके। जबकि विवाह संस्कार के विधि-
विधान एंव उसके निश्चित नियम सामाजिक समुदायो एवं पारिवारिक जीवन को
स्थायित्व प्रदान करने तथा सुखी बनाने में सहायक होते। इसी तरह अन्तिम
अन्त्येष्टि संस्कार मत
ृ क तथा जीवित के प्रति गह
ृ स्थ के कर्तव्यो में सामजस्य
का कार्य करते थे। मानव जीवन के आरम्भिक काल में ज्यादा संस्कारो का विधान
परिस्थितियो के अनरु
ु प अनभ
ु वो का प्रभाव पड़ता है , केवल विचारो का नही।
गया।
परन्तु धिरे -धिरे नवीन सामाजिक व धार्मिक शक्तिया समाज में क्रियाशील
होने से जो कि पर्व
ू तः प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओ के अनरु
ु प नही थी,
संस्कारो का पतन हुआ। जहाँ बौद्ध एवं जैन धर्म के अलावा अनेक भक्तिमार्गो ने
कारण बनी। क्योकि संस्कृत भारत की जनसाधारण भाषा नही थी। वह केवल
अन्तर्गत अत्याधिक खर्चीले कर्मकाण्ड एवं अधिकांश संस्कार मात्र f}जो के लिए
चक
ु ी है । आधुनिक अविष्कारो द्वारा प्रकृति पर मानव के नियन्त्रण में वद्धि
ृ होने
के कारण प्राचीन काल में जिन प्राकृतिक शक्तियो से मानव डरता अथवा आदर
करता था वो आज दे खने को नही मिलती, जिस कारण समाज ने अधिकांश
चड़
ू ाकरण, उपनयन, विवाह तथा अन्त्येष्टि जैसे संस्कार अपने महत्व अक्षुण्ण बनाये
हुये है ।
पुरुषार्थो के उपयक्
ु त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन के
व्याख्या करते हुये उन्हे नियमित, नियन्त्रित एवं न्याय संगत बनाते हुये उनके
बीच समन्वय स्थापित करना है । अर्थ एवं काम जहाँ मनुष्यो को भौतिक सुखो की
अनुभूति कराते वही धर्म एवं मोक्ष द्वारा वे आध्यात्मिक सुखो की अनुभूति करते।
संतलि
ु त आधार प्रदान करते।
काम एवं अर्थ यहाँ साधन जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरुप है । मनुष्य का
प्राप्ति का मख्
ु य साधन है । वस्तत
ु ः मानव एवं समाज के उन्नति के लिए प्राचीन
धार्मिक चिंतको द्वारा जिन आदर्शो का विधान किया गया उन्हे ‘परु
ु षार्थ’ की
संज्ञा दी गई।
अपितु सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुये परम लक्ष्य मोक्ष की भी प्राप्ति करता।
इस व्यवस्था की उत्पत्ति के मूल में संस्कार, पुरुषार्थ, तीन ऋण एवं पंच महायज्ञ
प्रमख
ु तः रहे । समस्त सोलह संस्कार ब्र ã चर्य गह
ृ स्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम
द्वारा ही संभव है । ब्र ã चर्य आश्रम में व्यक्ति व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक रुप से
प्राप्त ज्ञान एवं प्राशिक्षण को व्यवहारिक रुप मे प्रयोग करते हुये धर्म, अर्थ एवं
काम नामक पुरुषार्थ को प्राप्त करते हुये ऋणो से मुक्ति एवं पंचमहायज्ञो का
में जानता तथा व्यावहारिक जीवन में उसी के अनुसार आचरण करता। जिसके