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उपसंहार

प्राचीन भारतीय धार्मिक एवं सामाजिक चिंतको ने मानव जीवन के भौतिक

एवं आध्यात्मिक जगत में उन्नति के साथ-साथ एक सुव्यवस्थित समाज की

स्थापना के लिए कुछ धार्मिक विधि-विधान एवं सामाजिक व्यवस्थाओ का

प्रतिपादन किया। इन धार्मिक विधि-विधान एवं सामाजिक व्यवस्थाओ के अन्तर्गत

संस्कार, परु
ु षार्थ एवं आश्रम व्यवस्था प्रमख
ु तः थे। इन तीनो को भारतीय संस्कृति

का मूल तत्व भी कहा जाता है । ये मूल तत्व मनुष्य को शारीरिक, मानसिक,

बौद्धिक, नैतिक एवं धार्मिक रुप से सुदृढ़ कर उसके आन्तरिक एवं बाह्य तत्वो का

विकास करता उसके उच्च व्यक्ति का निर्माण कराता। इन्ही मूल तत्वो के द्वारा

व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र की ओर अग्रसर होकर मानव एवं जगत का कल्याण

करते हुये चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करता। एक सव्ु यवास्थित एवं सस
ु ंगठित

समाज के निर्माण की नींव इन्ही मल


ू तत्वो पर निर्भर थी।

भारतीय संस्कृति के मूल तत्वो के अन्तर्गत समस्त संस्कारो का गहन

अध्ययन करने के पश्चात यह ज्ञात होता है कि संस्कारो का अभिप्राय उन धार्मिक

क्रियाओ एवं कर्मकाण्डो से है जिनसे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक पवित्रता

होती है ।

समस्त संस्कारो की प्रक्रिया मनष्ु य के जन्म के पर्व


ू से लेकर मत्ृ यु के बाद

तक किसी न किसी रुप में जुड़े रहे । मनुष्य के वैयक्तिक संस्कार का इतना

निकट सम्बन्ध था कि उसके जीवन परिवर्तन एवं उथल पुथल में भी वे उनसे
चिपके रहे । संस्कार ही मानव जीवन को परिष्कृत एवं शद्धि
ु करने में सहायक होते,

व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करते। मानव शरीर को पवित्रता एवं महत्व प्रदान

करते, मनष्ु य को लौकिक एवं पारलौकिक जगत की ओर अग्रसर कर सांसारिक

समस्याओ का समाधान कर संसार से सरल तथा सानन्द मक्ति


ु का मार्ग प्रस्तत

करते।

संस्कार द्वारा अनेक सामाजिक समस्याओं का समाधान भी होता।

उदाहणार्थ गर्भाधान तथा कुछ जन्म के पर्व


ू संस्कार स्वास्थ्य विज्ञान तथा प्रजनन

शास्त्र से सम्बन्ध थे। जबकि उस समय इस प्रकार के विषय स्वतन्त्र शाखा के

रुप में विकसित ही नही हुआ था, संस्कार ही इन विषयो में शिक्षा के माध्यम का

कार्य करते थे इसी प्रकार शिक्षा की दृष्टि से वि|k रम्भ, उपनयन एवं समावर्तन

आदि संस्कार अत्यन्त महत्व के है । शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से योग्य बालक

को कठोर अनश
ु ासन में रखकर पठन पाठन कराया जाता ताकि उसके उच्च

बौद्धिक एवं नैतिक कर्तव्यो का विकास हो सके। जबकि विवाह संस्कार के विधि-

विधान एंव उसके निश्चित नियम सामाजिक समुदायो एवं पारिवारिक जीवन को

स्थायित्व प्रदान करने तथा सुखी बनाने में सहायक होते। इसी तरह अन्तिम

अन्त्येष्टि संस्कार मत
ृ क तथा जीवित के प्रति गह
ृ स्थ के कर्तव्यो में सामजस्य

स्थापित करता है । सामान्यतः संस्कार ही मानव के विकास की क्रमबद्ध योजना

का कार्य करते थे। मानव जीवन के आरम्भिक काल में ज्यादा संस्कारो का विधान

एवं परिपक्क अवस्था में दे र से संस्कारो का विधान प्राचीन मनिषियो की


मनोवैज्ञानिक सूझ-बूझ का परिचायक है क्योकि अल्पायु में मानव पर मनचाहे

प्रभाव डाले जा सकते है परन्तु ज्यो-ज्यो उसकी आयु बढ़ती है तो उस पर

परिस्थितियो के अनरु
ु प अनभ
ु वो का प्रभाव पड़ता है , केवल विचारो का नही।

अन्ततः संस्कारो का विधान वैयक्तिक एवं सामाजिक उत्कर्ष की दृष्टि से किया

गया।

परन्तु धिरे -धिरे नवीन सामाजिक व धार्मिक शक्तिया समाज में क्रियाशील

होने से जो कि पर्व
ू तः प्राचीन धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओ के अनरु
ु प नही थी,

तथा उसकी आन्तरिक दर्ब


ु लताओ एवं कुछ बाह्य विषय परिस्थितियो के कारण

संस्कारो का पतन हुआ। जहाँ बौद्ध एवं जैन धर्म के अलावा अनेक भक्तिमार्गो ने

जनसाधारण का ध्यान कर्मकाण्डो की जटिलता से हटाकर भक्ति के विभिन्न

प्रकारो की ओर आकार्षित किया। वही भाषागत कठिनता भी संस्कारो के पतन का

कारण बनी। क्योकि संस्कृत भारत की जनसाधारण भाषा नही थी। वह केवल

कतिपेय उच्च शिक्षित व्यक्तियो के लिए ही बोधगम्य थी। इसका स्वभाविक

परिणाम यह हुआ कि जनसाधारण संस्कारो के प्रति उदासीन हो गये। संस्कारो के

अन्तर्गत अत्याधिक खर्चीले कर्मकाण्ड एवं अधिकांश संस्कार मात्र f}जो के लिए

विहित होने के कारण संस्कारो का पतन हुआ।

आज के वैज्ञानिक युग में जीवन की धारणा ही मूलतः परिवर्तन हो

चक
ु ी है । आधुनिक अविष्कारो द्वारा प्रकृति पर मानव के नियन्त्रण में वद्धि
ृ होने

के कारण प्राचीन काल में जिन प्राकृतिक शक्तियो से मानव डरता अथवा आदर
करता था वो आज दे खने को नही मिलती, जिस कारण समाज ने अधिकांश

संस्कारो को अस्वीकार कर दिया। य}पि आज भी हिन्द ू समाज में नामकरण,

चड़
ू ाकरण, उपनयन, विवाह तथा अन्त्येष्टि जैसे संस्कार अपने महत्व अक्षुण्ण बनाये

हुये है ।

पुरुषार्थो के उपयक्
ु त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि मानव जीवन के

समस्त विषय इन्ही चार परु


ु षार्थो के अन्तर्गत है एवं सम्पर्ण
ू समाज का हित इसी

में समाहित है । परु


ु षार्थ ही मानव तथा समाज के बीच क्या सम्बन्ध है उसकी

व्याख्या करते हुये उन्हे नियमित, नियन्त्रित एवं न्याय संगत बनाते हुये उनके

उचित सम्बन्धो पर प्रकाश डालने के साथ-साथ अनुचित सम्बन्धो को उजागर

करते है ताकि व्यक्ति उनसे बच सके।

चार पुरुषार्थ का मूलतः उद्देश्य मनुष्य के भौतिक एवं आध्यात्मिक सुखो के

बीच समन्वय स्थापित करना है । अर्थ एवं काम जहाँ मनुष्यो को भौतिक सुखो की

अनुभूति कराते वही धर्म एवं मोक्ष द्वारा वे आध्यात्मिक सुखो की अनुभूति करते।

भौतिकता एवं आध्यात्मिकता से समन्वित जीवन ही मनष्ु य को व्यवास्थित एवं

संतलि
ु त आधार प्रदान करते।

धार्मिक चिंतको ने पुरुषार्थ के माध्यम से जीवन के प्रति मोह और योग,

बन्धन एवं मक्ति


ु , आसक्ति एवं त्याग के बीच सन्
ु दर समन्वय स्थापित किया है ।

काम एवं अर्थ यहाँ साधन जबकि धर्म एवं मोक्ष साध्य स्वरुप है । मनुष्य का

कल्याण त्रिवर्ग(धर्म, अर्थ, काम) के समुचित समन्वय पर निर्भर है ।


इनमें सवोच्च स्थिति धर्म की है । धर्म के नियन्त्रण में ही अर्थ एवं काम के

उचित उपयोग का निर्देश है । अन्ततः निष्काम भाव से आचरित धर्म ही मोक्ष

प्राप्ति का मख्
ु य साधन है । वस्तत
ु ः मानव एवं समाज के उन्नति के लिए प्राचीन

धार्मिक चिंतको द्वारा जिन आदर्शो का विधान किया गया उन्हे ‘परु
ु षार्थ’ की

संज्ञा दी गई।

आश्रम व्यवस्था के विश्लेषण से ज्ञात होता है कि यह व्यवस्था मानव के

योजनाबद्ध जीवन जीने का एक प्रारुप था जिसका अनम


ु ोदन कर मनष्ु य न केवल

अपना जीवन सुव्यवस्थित करके उच्चतम योग्यता की ओर बढ़ने का प्रयत्न करता

अपितु सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुये परम लक्ष्य मोक्ष की भी प्राप्ति करता।

इस व्यवस्था की उत्पत्ति के मूल में संस्कार, पुरुषार्थ, तीन ऋण एवं पंच महायज्ञ

प्रमख
ु तः रहे । समस्त सोलह संस्कार ब्र ã चर्य गह
ृ स्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास आश्रम

के अन्तर्गत ही सम्पन्न होते। जबकि परु


ु षार्थ का पर्ण
ू रुप से क्रियान्वयन आश्रमो

द्वारा ही संभव है । ब्र ã चर्य आश्रम में व्यक्ति व्यावहारिक तथा सैद्धान्तिक रुप से

धर्म के अर्थ को समझने का प्रयास करता है । गह


ृ स्थाश्रम में ब्र ã चर्य आश्रम से

प्राप्त ज्ञान एवं प्राशिक्षण को व्यवहारिक रुप मे प्रयोग करते हुये धर्म, अर्थ एवं

काम नामक पुरुषार्थ को प्राप्त करते हुये ऋणो से मुक्ति एवं पंचमहायज्ञो का

सम्पादन करता है । ज्ञानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम के अन्तर्गत व्यक्ति मोक्ष की

प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है । इस प्रकार आश्रम व्यवस्था ज्ञानार्जन, भौतिक


सुखो की प्राप्ति, सांसारिक सम्बन्धो से मोहभंग और अंततः मोक्ष की प्राप्ति चार

क्रमागत स्तरीय व्यवस्था है ।

अन्ततः यह कहना उचित प्रतीत होता है कि आश्रम मानव जीवन की

पाठशालाये है । जहाँ मनुष्य अपने सामाजिक कर्तव्यो एवं उत्तरदायित्वो के विषय

में जानता तथा व्यावहारिक जीवन में उसी के अनुसार आचरण करता। जिसके

परिणामस्वरुप मानव का इहलौकिक एवं पारलौकिक दोनो जीवन सफल होता और

साथ ही साथ एक सव्ु यवस्थित एवं सस


ु ंगठित समाज की भी स्थापना होती।

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