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दर्शन उस विद्या का नाम है जो सत्य एवं ज्ञान की खोज करता है । व्यापक अर्थ में दर्शन,
तर्क पूर्ण, विधिपूर्वक एवं क्रमबद्ध विचार की कला है । इसका जन्म अनभ
ु व एवं परिस्थिति के
अनुसार होता है । यही कारण है कि संसार के भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने समय-समय पर अपने-
अपने अनुभवों एवं परिस्थितियों के अनस
ु ार भिन्न-भिन्न प्रकार के जीवन-दर्शन को अपनाया
भारतीय दर्शन का इतिहास अत्यन्त पुराना है यह पीढ़ी दर पीढ़ी अर्जित दर्शन है इसके जड़ तक
जाना असम्भव है किन्तु पश्चिमी फिलॉसफ़ी (Philosophy) के अर्थों में दर्शनशास्त्र पद का प्रयोग
सर्वप्रथम पाइथागोरस ने लिखित रूप से किया था। विशिष्ट अनुशासन और विज्ञान के रूप में दर्शन
को प्लेटो ने विकसित किया था। उसकी उत्पत्ति दास-स्वामी समाज में एक ऐसे विज्ञान के रूप
में हुई जिसने वस्तुगत जगत तथा स्वयं अपने विषय में मनुष्य के ज्ञान के सकल योग को
ऐक्यबद्ध किया था। यह मानव इतिहास के आरं भिक सोपानों में ज्ञान के विकास के निम्न स्तर
के कारण सर्वथा स्वाभाविक था। सामाजिक उत्पादन के विकास और वैज्ञानिक ज्ञान के संचय की
प्रक्रिया में भिन्न भिन्न विज्ञान दर्शनशास्त्र से पथ
ृ क होते गये और दर्शनशास्त्र एक स्वतंत्र
विज्ञान के रूप में विकसित होने लगा। जगत के विषय में सामान्य दृष्टिकोण का विस्तार करने
तथा सामान्य आधारों व नियमों का करने, यथार्थ के विषय में चिंतन की तर्क बद्धि
ु परक, तर्क तथा
संज्ञान के सिद्धांत विकसित करने की आवश्यकता से दर्शनशास्त्र का एक विशिष्ट अनश
ु ासन के
रूप में जन्म हुआ। पथ ृ क विज्ञान के रूप में दर्शन का आधारभत
ू प्रश्न स्वत्व के साथ चिंतन के,
भतू द्रव्य के साथ चेतना के संबंध की समस्या है ।[1]
दर्शन विभिन्न विषयों का विश्लेषण है । इसलिये भारतीय दर्शन में चेतना की मीमांसा अनिवार्य
है जो आधुनिक दर्शन में नहीं। मानव जीवन का चरम लक्ष्य दख
ु ों से छुटकारा प्राप्त करके चिर
आनंद की प्राप्ति है । भारतीय दर्शनों का भी एक ही लक्ष्य दख
ु ों के मूल कारण अज्ञान से मानव
को मुक्ति दिलाकर उसे मोक्ष की प्राप्ति करवाना है । यानी अज्ञान व परं परावादी और रूढ़िवादी
विचारों को नष्ट करके सत्य ज्ञान को प्राप्त करना ही जीवन का मुख्य उद्देश्य है । सनातन काल
से ही मानव में जिज्ञासा और अन्वेषण की प्रवत्ति
ृ रही है । प्रकृति के उद्भव तथा सूर्य, चंद्र और
ग्रहों की स्थिति के अलावा परमात्मा के बारे में भी जानने की जिज्ञासा मानव में रही है । इन
जिज्ञासाओं का शमन करने के लिए उसके अनवरत प्रयास का ही यह फल है कि हम लोग इतने
विकसित समाज में रह रहे हैं। परं तु प्राचीन ऋषि-मुनियों को इस भौतिक समद्धि
ृ से न तो संतोष
हुआ और न चिर आनंद की प्राप्ति ही हुई। अत: उन्होंने इसी सत्य और ज्ञान की प्राप्ति के क्रम
में सक्ष्
ू म से सक्ष्
ू म एवं गढ़
ू तम साधनों से ज्ञान की तलाश आरं भ की और इसमें उन्हें सफलता
भी प्राप्त हुई। उसी सत्य ज्ञान का नाम दर्शन है ।
दृश्यतेह्यनेनेति दर्शनम ् (दृष्यते हि अनेन इति दर्शनम ्)
अर्थात ् असत ् एवं सत ् पदार्थों का ज्ञान ही दर्शन है । पाश्चात्य फिलॉस्पी शब्द फिलॉस (प्रेम का)
+सोफिया (प्रज्ञा) से मिलकर बना है । इसलिए फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ है बुद्धि प्रेम। पाश्चात्य
दार्शनिक (फिलॉसफर) बुद्धिमान या प्रज्ञावान व्यक्ति बनना चाहता है । पाश्चात्य दर्शन के इतिहास
से यह बात झलक जाती है कि पाश्चात्य दार्शनिक ने विषय ज्ञान के आधार पर ही बद्धि
ु मान
होना चाहा है । इसके विपरीत कुछ उदाहरण अवश्य मिलेंगें जिसमें आचरण शद्धि
ु तथा मनस ् की
परिशुद्धता के आधार पर परमसत्ता के साथ साक्षात्कार करने का भी आदर्श पाया जाता है । परं तु
यह आदर्श प्राच्य है न कि पाश्चात्य। पाश्चात्य दार्शनिक अपने ज्ञान पर जोर दे ता है और अपने
ज्ञान के अनुरूप अपने चरित्र का संचालन करना अनिवार्य नहीं समझता। केवल पाश्चात्य
रहस्यवादी और समाधीवादी विचारक ही इसके अपवाद हैं।
दर्शनशास्त्र अनुभव की व्याख्या है । इस व्याख्या में जो कुछ अस्पष्ट होता है , उसे स्पष्ट करने
का यत्न किया जाता है । हमारी ज्ञानेंद्रियाँ बाहर की ओर खुलती हैं, हम प्राय: बाह्य जगत ् में
विलीन रहते हैं। कभी कभी हमारा ध्यान अंतर्मुख होता है और हम एक नए लोक का दर्शन
करते हैं। तथ्य तो दिखाई दे ते ही हैं, नैतिक भावना आदे श भी दे ती है । वास्तविकता और
संभावना का भेद आदर्श के प्रत्यय को व्यक्त करता है । इस प्रत्यय के प्रभाव में हम ऊपर की
ओर दे खते हैं। इस तरह दर्शन के प्रमुख विषय बाह्य जगत ्, चेतन आत्मा और परमात्मा बन
जाते हैं। इनपर विचार करते हुए हम स्वभावत: इनके संबंधो पर भी विचार करते हैं। प्राचीन काल
में रचना और रचयिता का संबंध प्रमख
ु विषय था, मध्यकाल में आत्मा और परमात्मा का संबंध
प्रमख
ु विषय बना और आधनि
ु क काल में परु
ु ष और प्रकृति, विषयी और विषय, का संबंध विवेन
का केंद्र बना। प्राचीन यन
ू ान में भौतिकी, तर्क और नीति, ये तीनों दर्शनशास्त्र के तीन भाग समझे
जाते थे। भौतिकी बाहर की ओर दे खती है , तर्क स्वयं चिंतन को चिंतन का विषय बनाता है , नीति
जानना चाहती है कि जीवन को व्यवस्थित करने के लिए कोई निरपेक्ष आदे श ज्ञात हो सकता है
या नहीं।
प्राचीन काल में नीति का प्रमुख लक्ष्य नि:श्रेयस के स्वरूप को समझना था। आधुनिक काल
में कांट ने कर्तव्य के प्रत्यय को मौलिक प्रत्यय का स्थान दिया। तप्ति
ृ या प्रसन्नता का
मूल्यांकन विवाद का विषय बना रहा है ।
ज्ञानमीमांसा में प्रमख
ु प्रश्न ये हैं-
1. ज्ञान क्या है ?
ज्ञानमीमांसा ने आधुनिक काल में विचारकों का ध्यान आकृष्ट किया। पहले दर्शन को प्राय:
तत्वज्ञान (मेटाफिजिक्स) के अर्थ में ही लिया जाता था। दार्शनिकों का लक्ष्य समग्र की व्यवस्था
का पता लगाना था। जब कभी प्रतीत हुआ कि इस अन्वेषण में मनुष्य की बुद्धि आगे जा नहीं
सकती, तो कुछ गौण सिद्धांत विवेचन के विषय बने। यूनान में , सुकरात, प्लेटो और अरस्तू के
बाद तथा जर्मनी में कांट और हे गल के बाद ऐसा हुआ। यथार्थवाद और संदेहवाद ऐसे ही सिद्धांत हैं।
इस तरह दार्शनिक विवेचन में जिन विषयों पर विशेष रूप से विचार होता रहा है , वे ये हैं-
(1) मुख्य विषय -
ज्ञानमीमांसा (Epistomology)
तत्वमीमांसा (Metaphysics)
नीतिमीमांसा (Ethics)
सौंदर्यशास्त्र (Aesthetics)
तर्क शास्त्र (Logic)
(2) गौण विषय -
यथार्थवाद
संदेहवाद
विस्तत
ृ विवरण के लिये भारतीय दर्शन दे खें।
वैसे तो समस्त दर्शन की उत्पत्ति वेदों से ही हुई है , फिर भी समस्त भारतीय दर्शन को आस्तिक
एवं नास्तिक दो भागों में विभक्त किया गया है । जो ईश्वर यानी शिव जी तथा वेदोक्त बातों
जैसे न्याय, वैशषि
े क, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत पर विश्वास करता है , उसे आस्तिक माना
जाता है ; जो नहीं करता वह नास्तिक है ।
आस्तिक या वैदिक दर्शनसंपादित करें
वैदिक परम्परा के ६ दर्शन हैं :
(1) मीमांसा (2) न्याय (3) वैशेषिक (4) सांख्य (5) योग (6) वेदान्त
यह दर्शन पराविद्या, जो शब्दों की पहुंच से परे है , का ज्ञान विभिन्न दृष्टिकोणों से समक्ष करते
हैं। प्रत्येक दर्शन में अन्य दर्शन हो सकते हैं, जैसे वेदान्त में कई मत हैं।
नास्तिक या अवैदिक दर्शनसंपादित करें
चार्वाक दर्शन
बौद्ध दर्शन
जैन दर्शन