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प्रकृ ति और पुरुष का वर्णन

भारतीय दर्शन के छः प्रकारों में से स ांख्य भी एक है जो प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रप्रय तथा प्रथथत हुआ था।
यह अद्वैत वेदान्त से सवशथा प्रवपरीत मान्यताएँ रखने वाला दर्शन है । इसकी स्थापना करने वाले मल

व्यक्तत कप्रपल कहे जाते हैं। 'सांख्य' का र्ाक्ददक अथश है - 'संख्या सम्बंधी' या प्रवश्लेषण। इसकी सबसे प्रमुख धारणा
सक्ृ टि के प्रकृतत-पुरुष से बनी होने की है , यहाँ प्रकृतत (यातन पंचमहाभत
ू ों से बनी) जड़ है और पुरुष (यातन जीवात्मा)
चेतन। योग र्ास्रों के ऊजाश स्रोत (ईडा-प्रपंगला), र्ाततों के शर्व-र्क्तत के शसद्ांत इसके समानान्तर दीखते हैं।

भारतीय संस्कृतत में ककसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। दे र् के उदात्त मक्स्तटक सांख्य की प्रवचार
पद्तत से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कक ज्ञ नां च लोके यदिह स्ति ककां चचि ् स ांख्य गिां िच्च
महन्मह त्मन ् (र्ांतत पवश 301.109)। वस्तत
ु : महाभारत में दार्शतनक प्रवचारों की जो पटृ ठभशू म है , उसमें सांख्यर्ास्र का
महत्वपूणश स्थान है । र्ाक्न्त पवश के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के प्रवचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढं ग से उल्लेख
ककया गया है । सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रततपाददत दार्शतनक पटृ ठभूशम पर पयाशप्त रूप से प्रवद्यमान है ।

इसकी लोकप्रप्रयता का कारण एक यह अवश्य रहा है कक इस दर्शन ने जीवन में ददखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान
त्ररगुणात्मक प्रकृतत की सवशकारण रूप में प्रततटठा करके बड़े सुंदर ढं ग से ककया। सांख्याचायों के इस प्रकृतत-कारण-वाद
का महान गुण यह है कक पथ
ृ क् -पथ
ृ क् धमश वाले सत ्, रजस ् तथा तमस ् तत्वों के आधार पर जगत ् की प्रवषमता का ककया
गया समाधान बड़ा बप्रु द्गम्य प्रतीत होता है । ककसी लौककक समस्या को ईश्वर का तनयम न मानकर इन प्रकृततयों के
तालमेल त्रबगड़ने और जीवों के पुरुषाथश न करने को कारण बताया गया है । यातन, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता
यह है कक इसमें सक्ृ टि की उत्पक्त्त भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बक्ल्क इसे एक प्रवकासात्मक प्रकिया के रूप में
समझा गया है और माना गया है कक सक्ृ टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वतशमान
स्वरूप को प्राप्त हुई है । कप्रपलाचायश को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्याथशप्रकार् जैसे ग्रंथों में इस
धारणा का तनषेध ककया गया है ।

स ांख्य के प्रमुख ससद् ांत:

 सांख्य दृश्यमान प्रवश्व को प्रकृतत-पुरुष मूलक मानता है । उसकी दृक्टि से केवल चेतन या केवल अचेतन पदाथश के
आधार पर इस थचदप्रवदात्मक जगत ् की संतोषप्रद व्याख्या नहीं की जा सकती। इसीशलए लौकायततक आदद
जड़वादी दर्शनों की भाँतत सांख्य न केवल जड़ पदाथश ही मानता है और न अनेक वेदांत संप्रदायों की भाँतत वह केवल
थचन्मार ब्रह्म या आत्मा को ही जगत ् का मूल मानता है । अप्रपतु जीवन या जगत ् में प्राप्त होने वाले जड़ एवं चेतन,
दोनों ही रूपों के मल
ू रूप से जड़ प्रकृतत, एवं थचन्मार परु
ु ष इन दो तत्वों की सत्ता मानता है ।

 जड़ प्रकृतत सत्व, रजस एवं िमस ् - इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है । ये गुण "बल च
गुणवत्ृ तम ्" न्याय के अनुसार प्रतत क्षण पररगामी हैं। इस प्रकार सांख्य के अनुसार सारा प्रवश्व त्ररगुणात्मक प्रकृतत
का वास्तप्रवक पररणाम है । र्ंकराचायश के वेदांत की भाँतत भगवन्माय: का प्रववतश, अथाशत ् असत ् कायश अथवा शमथ्या
प्रवलास नहीं है । इस प्रकार प्रकृतत को परु
ु ष की ही भाँतत अज और तनत्य मानने तथा प्रवश्व को प्रकृतत का वास्तप्रवक
पररणाम सत ् कायश मानने के कारण सांख्य सच्चे अथों में बाह्यथाथशवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं। ककं तु जड़
बाह्यथाथशवाद भोग्य होने के कारण ककसी चेतन भोतता के अभाव में अपाथशक या अथशर्ून्य अथवा तनटप्रयोजन है ,
अत: उसकी साथशकता के शलए सांख्य चेतन पुरुष या आत्मा को भी मानने के कारण अध्यात्मवादी दर्शन है ।

 मूलत: दो तत्व मानने पर भी सांख्य पररणाशमनी प्रकृतत के पररणामस्वरूप तेईस अवांतर तत्व भी मानता है । तत्व
का अथश है 'सत्य ज्ञान'। इसके अनस
ु ार प्रकृतत से महत ् या बप्रु द्, उससे अहं कार, तामस, अहंकार से पंच-तन्मार
(र्दद, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं साक्त्वक अहं कार से ग्यारह इंदिय (पंच ज्ञानेंदिय, पंच कमेंदिय तथा
उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मारों से िमर्: आकार्, वाय,ु तेजस ्, जल तथा पथ्
ृ वी नामक पंच महाभूत,
इस प्रकार तेईस तत्व िमर्: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से सांख्य दर्शन 25 तत्व मानता है । जैसा
पहले संकेत कर चुके हैं, प्राचीनतम सांख्य ईश्वर को 26वाँ तत्व मानता रहा होगा। इसके साक्ष्य महाभारत, भागवत
इत्यादद प्राचीन सादहत्य में प्राप्त होते हैं। यदद यह अनम
ु ान यथाथश हो तो सांख्य को मल
ू त: ईश्वरवादी दर्शन मानना
होगा। परं तु परवती सांख्य ईश्वर को कोई स्थान नहीं दे ता। इसी से परवती सादहत्य में वह तनरीश्वरवादी दर्शन के
रूप में ही उक्ल्लखखत शमलता है ।

 स ांख्य िर्शन के २५ ित्व


आत्म (पुरुष)
अांिःकरण (3) : मन, बप्रु द्, अहं कार
ज्ञ नेस्न्िय ाँ (5) : नाशसका, क्जह्वा, नेर, त्वचा, कणश
कमेस्न्िय ाँ (5) : पाद, हस्त, उपस्थ, पाय,ु वाक्
िन्म त्र यें (5) : गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, र्दद
मह भूि (5) : पथ्
ृ वी, जल, अक्ग्न, वाय,ु आकार्

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