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HINDU DHARM VIDYA हिन्दु धर्म विद्या

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SCRIPTURES शास्त्र :: आगम और निगम 
आगम और निगम 

CONCEPTS & EXTRACTS IN HINDUISM By :: Pt. Santosh Bhardwaj

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तन्त्र :: तन्त्र का सामान्य अर्थ है विधि या उपाय। 

तंत्र का सर्वप्रथम अर्थ ऋग्-वेद से प्राप्त होता हैं, जिसके अनुसार यह एक ऐसा करघा है, जो ज्ञान को बढ़ाता है। इसके अंतर्गत, भिन्न-भिन्न प्रकार से
ज्ञान प्राप्त कर, बुद्धि तथा शक्ति दोनों को बढ़ाया जाता हैं। तंत्र के सिद्धांत आध्यात्मिक साधनाओं, रीति-रिवाजों के पालन, भैषज्य विज्ञान, अलौकिक तथा
पारलौकिक शक्तिओं की प्राप्ति हेतु, काल जादू-इंद्र जाल, अपने विभिन्न कामनाओं के पूर्ति हेतु, योग द्वारा निरोग रहने, ब्रह्मत्व या मोक्ष प्राप्ति हेतु,
वनस्पति विज्ञान, सौर्य-मण्डल, ग्रह-नक्षत्र, ज्योतिष विज्ञान, शारीरिक संरचना विज्ञान इत्यादि से सम्बद्ध हैं।हिन्दु धर्म में हजारों तंत्र ग्रन्थ हैं, परन्तु काल
के दुष्प्रभाव के परिणामस्वरूप कु छ ग्रन्थ लुप्त हो गए हैं। तंत्र का एक अंधकार युक्त भाग भी हैं, जिसके अनुसार हानि से संबंधित क्रियाओं का प्रतिपादन
होता हैं। परन्तु यह संपूर्ण रूप से साधक के ऊपर ही निर्भर है कि वह तंत्र पद्धति से प्राप्त ज्ञान का किस प्रकार से उपयोग करता है।

तंत्र शब्द दो शब्दों के मेल से बना हैं पहला तन तथा दूसरा त्र। तन शब्द बड़े पैमाने पर प्रचुर मात्रा में गहरे ज्ञान से है तथा त्र शब्द का अर्थ सत्य से
है। [कामिका तंत्र] 

प्रचुर मात्र में वह ज्ञान जिसका सम्बन्ध सत्य से है, वही तंत्र है।

तंत्र संप्रदाय अनुसार वर्गीकृ त हैं, भगवान विष्णु के अनुयायी, जो वैष्णव कहलाते हैं, का सम्बन्ध संहिताओं से है। 

शैव तथा शक्ति के अनुयायी, जिन्हें शैव या शक्ति संप्रदाय के नाम से जाना जाता हैं, का सम्बन्ध क्रमशः आगम तथा तंत्र से हैं। आगम तथा तंत्र शास्त्र,
भगवान शिव तथा पार्वती के परस्पर वार्तालाप से अस्तित्व में आये हैं तथा इनके गणों द्वारा लिपि-बद्ध किये गए हैं। 

ब्रह्मा जी से सम्बंधित तंत्रों को वैखानख कहा जाता हैं।

वैष्णव संहिता की दो विचार धारायें हैं :– वैखानस संहिता तथा पंचरात्र संहिता।

वैखानस संहिता :– यह वैष्णव परम्परा के वैखानस विचारधारा है। वैखानस परम्परा प्राथमिक तौर पर तपस् एवं साधन परक परम्परा रही है।

पंचरात्र संहिता :– पंचरात्र से अभिप्राय है, पंचनिशाओं का तन्त्र। पंचरात्र परम्परा प्रचीन तौर पर विश्व के उद्भव, सृष्टि रचना आदि के विवेचन को समाहित
करती है। इसमें साँख्य तथा योग दर्शनों की मान्यताओं का समावेश दिखायी देता है। वैखानस परम्परा की अपेक्षा पंचरात्र परम्परा अधिक लोक प्रचलन में रही
है। इसके 108 ग्रन्थों हैं। वैष्णव परम्परा में भक्ति वादी विचारधारा के अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त भी समाहित है।

तंत्र के प्रमुख विचार तथा विभाजन :- तंत्र के अंतर्गत चार प्रकार के विचारों या उपयोगों को सम्मिलित किया गया हैं।

(1). ज्ञान, तंत्र ज्ञान के अपार भंडार हैं। 

(2). योग, अपने स्थूल शारीरिक संरचना को स्वस्थ रखने हेतु।

(3). क्रिया, भिन्न-भिन्न स्वरूप तथा गुणों वाले देवी-देवताओं से सम्बंधित पूजा विधान।

(4). चर्या, व्रत तथा उत्सवों में किये जाने वाले कृ त्यों का वर्णन।
दार्शनिक दृष्टि से तंत्र तीन भागों में विभाजित है :- (1). द्वैत,  (2). अद्वैत तथा (3). द्वैता-द्वैत।

तन्त्र शब्द तन् धातु से बना है, जिसका अर्थ है विस्तार। शैव सिद्धान्त के कायिक आगम में यह वह शास्त्र है जिसके द्वारा ज्ञान का विस्तार किया जाता
है। 

तन्यते विस्तार्यते ज्ञानम् अनेन्, इति तन्त्रम्।

तन्त्र की निरुक्ति तन्-विस्तार करना और त्रै-रक्षा करना, इन दोनों धातुओं के योग से सिद्ध होती है।

अर्थात तन्त्र अपने समग्र अर्थ में ज्ञान का विस्तार करने के साथ उस पर आचरण करने वालों का त्राण भी करता है।

तनोति त्रायति तन्त्र 

अर्थात तनना, विस्तार, फै लाव इस प्रकार इससे त्राण होना तन्त्र है। किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को
भी तन्त्र कहते हैं।

मुख्य तन्त्र 64 हैं। ये परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। शैव सिद्धान्त के अन्तर्गत 28 आगम तथा 150 उपागमों को माना गया है। 28 शैवागम
सिद्धांत के रूप में विख्यात हैं। भैरव आगम में सभी 64 तंत्र मूलत: शैवागम हैं। इनमें द्वैत भाव से लेकर परम अद्वैत भाव तक की चर्चा है।

विश्वसृष्टि के अनंतर परमेश्वर ने सबसे पहले महाज्ञान का संचार करने के लिये दस शैवो का प्रकट करके उनमें से प्रत्येक को उनके अविभक्त महाज्ञान का
एक-एक अंश प्रदान किया। इस अविभक्त महाज्ञान को ही शैवागम कहा जाता है। वेद वास्तव में एक हैं और अखंड महाज्ञान स्वरूप हैं, परंतु विभक्त होकर
तीन अथवा चार रूपों में प्रकट हुए हैं। उसी प्रकार मूल शिवागम भी वस्तुत: एक होने पर भी विभक्त होकर 28 आगमों के रूप में प्रसिद्व हुआ है। इन
समस्त आगम धाराओं में प्रत्येक की परंपरा है।[किरणागम]

तन्त्र मुख्यतः शाक्त सम्प्रदाय से जुड़ा हुआ है, उसके बाद शैव सप्रदाय से और कु छ सीमा में वैष्णव परम्परा से भी। शैव परम्परा में तन्त्र ग्रन्थों के वक्ता
साधारणतयः भगवान् शिव हैं। 

वाराही तन्त्र में तन्त्र शास्त्र के सात लक्षण :- 

सृष्टि, प्रत्यय, देवार्चन, सर्वसाधन (सिद्धियां प्राप्त करने के उपाय), पुरश्चरण (मारण, मोहन, उच्चाटन आदि क्रियाएं), षट्कर्म (शान्ति, वशीकरण
स्तम्भन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण के साधन) तथा ध्यान (ईष्ट के स्वरूप का एकाग्र तल्लीन मन से चिन्तन)।

तन्त्रों की विषय वस्तु :-

ज्ञान या दर्शन, योग, कर्मकाण्ड, विशिष्ट-साधनायें, पद्धतियाँ तथा समाजिक आचार-विचार के नियम।

साँख्य तथा वेदान्त के अद्वैत विचार दोनों का प्रभाव तन्त्र ग्रन्थों में दिखलायी पड़ता है। तन्त्र में प्रकृ ति के साथ शिव अद्वैत दोनों की बात की गयी है।
परन्तु तन्त्र दर्शन में शक्ति (ईश्वर की शक्ति) पर विशेष बल दिया गया है।

शिव ही के वल चेतन तत्त्व हैं तथा प्रकृ ति जड़ तत्त्व है। शिव का मूलाधार शक्ति ही है। शक्ति के द्वारा ही बन्धन एवं मोक्ष प्राप्त होता है।[शैव सिद्धान्त]

शिव की प्रत्यभिज्ञा के द्वारा ही ज्ञान प्राप्ति को कहा गया है। जगत् शिव की अभिव्यक्ति है तथा शिव की ही शक्ति से उत्पन्न या संभव है। इस दर्शन को
त्रिक दर्शन भी कहा जाता है क्योंकि यह शिव, शक्ति तथा जीव (पशु) तीनों के अस्तित्व को स्वीकार करता है।[कश्मीरी शैव दर्शन]

तंत्र शास्त्र को दो भागों में विभक्त है :- (1). आगम और (2). निगम।

शास्त्रों के एक स्वरूप को निगम कहा जाता है, जिसमें वेद, पुराण, उपनिषद आदि आते हैं। इसमें ज्ञान, कर्म और उपासना आदि के विषय में बताया
गया है। वेद-शास्त्रों को निगम कहते हैं। उस स्वरूप को व्यवहार आचरण और व्यवहार में उतारने वाले उपायों का रूप जो शास्त्र बतलाता है, उसे आगम
कहते हैं। तन्त्र अथवा आगम में व्यवहार पक्ष ही मुख्य है। तन्त्र, क्रियाओं और अनुष्ठान पर बल देता है। 

निगम :: शब्द, पद और शब्दों का मूल रूप या निरुक्ति। सामान्यतया निगम वेदों के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें वैदिक मतों का निरूपण, प्रतिपादन और
स्पष्टीकरण शामिल है। 

आगम :: 

सामान्यतया आगम तंत्र के लिए प्रयुक्त होता है। तन्त्र-शास्त्र का एक नाम-रूप आगम शास्त्र भी है। 

आगमात् शिववक्त्रात् गतं च गिरिजा मुखम्। सम्मतं वासुदेवेन आगमः इति कथ्यते ॥


जिससे अभ्युदय-लौकिक कल्याण और निःश्रेयस-मोक्ष के उपाय बुद्धि में आते हैं, वह आगम कहलाता है।[वाचस्पति मिश्र, योग भाष्य, तत्व वैशारदी
व्याख्या]

उपास्य देवता की भिन्नता के कारण आगम के तीन प्रकार हैं :- वैष्णव आगम (पंचरात्र तथा वैखानस आगम), शैव आगम (पाशुपत, शैवसिद्धांत, त्रिक
आदि) तथा शाक्त आगम। 

द्वैत, द्वैता द्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने जाते हैं। 

आगम वेदमूलक और सम्पूरक हैं। इनके वक्ता प्रायः भगवान् शिव हैं।

यह शास्त्र साधारणतया तंत्रशास्त्र के नाम से प्रसिद्ध है। निगमागम मूलक भारतीय संस्कृ ति का आधार जिस प्रकार निगम (वेद) है, उसी प्रकार आगम
(तंत्र) भी है। दोनों स्वतंत्र होते हुए भी एक दूसरे के पोषक हैं। निगम कर्म, ज्ञान तथा उपासना का स्वरूप बतलाता है तथा आगम इनके उपायभूत
साधनों का वर्णन करता है।

आगच्छंति बुद्धिमारोहंति अभ्युदयनि:श्रेयसोपाया यस्मात्‌, स आगम:। [वाचस्पति मिश्र -तत्ववैशारदी-योगभाष्य की व्याख्या] 

आगम का मुख्य लक्ष्य ‘क्रिया’ के ऊपर है, तथापि ज्ञान का भी विवरण यहाँ कम नहीं है। 

आगम इन सात लक्षणों से समवित होता है :- सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शांति, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन
तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। [वाराहीतंत्र]

कलियुग में प्राणी मेध्य (पवित्र) तथा अमेध्य (अपवित्र) के विचारों से बहुधा हीन होते हैं और इन्हीं के कल्याणार्थ भगवान् महादेव ने आगमों का उपदेश
माता पार्वती को स्वयं दिया। [महानिर्वाण तंत्र] 

कलियुग में आगम की पूजा-पद्धति विशेष उपयोगी तथा लाभदायक मानी जाती है।  

कलौ आगमसम्मत:।

ऐसा भी कहा जाता है कि आगम शास्त्र का ज्ञान सुन कर या गुरमुख के द्वारा ही पाया जा सकता है। भगवान् महादेव के द्वारा ये दिव्य ज्ञान लोमश ऋषि
को प्राप्त हुआ और फिर गुरुमुख द्वारा अन्य को। 

शिव की उक्ति :- यह दर्शन पारम्परिक तथा शिव को ही पूर्णतया समस्त कारक, संहारक, सर्जक मानता है। इसमें जातिगत भेदभाव को भी नहीं माना
गया है। इस दर्शन के अन्तर्गत गुरु परम्परा का विशेष महत्व है। आगम का मुख्य लक्ष्य क्रिया के ऊपर है तथापि ज्ञान का भी विवरण यहाँ कम नहीं है।
[वीरशैव दर्शन-वाचनम्]

आगम इन सात लक्षणों से समवित होता है :- सृष्टि, स्थिति , प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षट्कर्म, (शांति, वशीकरण, स्तंभन,
विद्वेषण, उच्चाटन तथा मारण) साधन तथा ध्यानयोग। [वाराहीतंत्र]  

कलियुग में प्राणी मेध्य (पवित्र) तथा अमेध्य (अपवित्र) के विचारों से बहुधा हीन होते हैं और इन्हीं के कल्याणार्थ भगवान महेश्वर ने आगमों का उपदेश
माता पार्वती को स्वयं दिया। शैव आगम (पाशुपत, वीरशैव सिद्धांत, त्रिक आदि) द्वैत, शक्ति विशिष्ट द्वैत तथा अद्वैत की दृष्टि से भी इनमें तीन भेद माने
जाते हैं। आगमिक पूजा विशुद्ध तथा पवित्र भारतीय है।[महानिर्वाण तंत्र]

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