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भीष्मिपतामह, महाभारत का एक उदार चररत पात्र हैं, तथािप द्रौपदी के चीरहरण पर मौन
रहने के कारण, उनकी श्वेत एवं िनममल प्रितभा पर एक कलंक भारतीय इितहास में आज भी
अंकीत हैं । आज कई बहुश्रुत वक्ता हमारी सभ्यता एवं सांस्कृ ित को िवकृ त एवं कलंदकत करने
का दुुःसाहस कर रहे है । हमारी परम्परायें पूणमतया िवज्ञान सम्पन्न है, िजसका आज िवश्व के
महावैज्ञािनक अनुसंधान कर रहे है, तब ऐसे धृणास्पद कायम के िलए, िवद्वानों की िनिष्ियता,
ऐसे वक्ताओं की स्वच्छन्दता को खुल्ला दौर देती हैं । हमारी संस्कृ ितका चीरहरण होनेपर,
हमारा मौन या पलायनवाद, भी भीष्मिपतामह के मौन जैसा ही माना जाएगा ।
व्यासपीठ की एक मयामदा होती है, व्यासपीठ धममशास्त्र के संरक्षण, संवधमन एवं समथमन के
िलए हैं । परमात्माने जनसामान्य के कल्याण के िलए जो शब्दावतार िलया है, वही शास्त्र हैं
। अवतीणो जगन्नाथुः शास्त्ररूपेण वै प्रभुुः (शािडडल्य स्मृ ४.११३), श्रुितस्मृती ममेवाज्ञ.
शास्त्र भगवान की आज्ञा है । पद्मपुराण - वेदननदां प्रकु वमिन्त ब्रह्मचारस्यकु त्सनम् ।
महापातकमेवािप ज्ञातव्यज्ञानपिडडतैुः।। श्रुितस्मृत्युक्तमाचारं यो न सेवते वैष्णव । स च
पाखडडमापन्नो रौरवे नरके वसेत् ।। वेदबाह्यव्रताचाराुः श्रौतस्ममार्त्मबिहष्कृ ताुः। पाखिडडन
इित ख्याता न सम्भाष्यिद्वजाितिभुः - नलगपुराण पूवामद्धम । श्रुितस्मितभ्यां िविहतो धम्मो
वणमभ्रमात्मकुः - नलगपुराण, श्रुित-स्मृित-पुराण िविहत कमम (धमम), सभी वणोमें भ्रम पैदा
करता है और पतनगामी है । शास्त्र िवरूद्धाचार या िविधहीन कमम करनेवाले वक्ताओं के िलए
पुराणों में पाखडडी शब्दप्रयोग आता है, ऐसे सेंकडो प्रमाण पुराण-स्मृत्यादद में उपलब्ध है ।
ऐसे िविधिवधान या शास्त्र की उपेक्षा करनवाले, स्वच्छन्दी वक्ताओं को धममद्रोही या धममद्वषे ी
कहे तो सवमथा उिचत ही है, वे सदैव त्याज्य एवं अधुःपितत माने जाते है । ब्राह्मणोंका िवरोध,
कममकाडडका िवरोध, स्वच्छन्दतापूणम शास्त्रों का अथमघटन इत्यादद बहुश्रुत वक्ताओं के िलए,
एक गौरव एवं एक सस्ती प्रितष्ठा का मागम बन गया है ।
परमाथामय शास्त्रीतम् सवम प्रथम तो इन दोनों महापुरूषों को प्राथमना करना चाहता हुं, जो
श्रुित भी कहती हैं शास्त्रज्ञोsिप स्वातंत्रण
े ब्रह्मज्ञानान्वेषणं न कु यामत् (मु.उप) वाक्सामर्थयम होने
का अथम ये नहीं है, आप कु छ भी बोले, कु छ भी आचरण करे और शास्त्र एवं बहुऋिष मत,
िविध-िवधानों का उपहास करे । शास्त्रं तु अन्त्य प्रमाणम् शास्त्र अंितम प्रमाण है । शास्त्र स्वयं
भगवान की आज्ञा है, श्रुितस्मृित ममैवाज्ञे, शास्त्रपूवक म े प्रयोगे अभ्युदयुः यथा शास्त्रोक्त िवधान
से ही परम श्रेयस् - कल्याण होता है । चलो पहले नक्की करे शास्त्र दकसे कहते हैं ।
कममकाडड - सवमप्रथम कममकाडड के पक्ष में िलखते है । कममकाडड पूणमतया वेदसंमत है । यजुष
शब्द का अथम है- यज्ञ । यजुव म द
े को मूलतुः कममकाडड का आधार ग्रन्थ माना है । कममकाडड -
भगवान् वेदनारायण के करकमल है । कल्पो वेदिविहतानां कममणमानुपव्य ू णे कल्पना
शास्त्रम् (ऋग्वेदप्राितशाख्य की वगमद्वयवृिर्त्) । वेद प्रणीिहतोपसना का िवध-िवधानका दशमन
कल्प में है । गौतमधममसूत्रेण स्पष्टं िलिखतम् - वेदो धमममल ू म्, तिद्वदां च स्मृितशीले ।
आपस्तम्बानुसारमिप धममस्य रक्षणेन मानवस्य भौितकं पारलौदककं च जीवनं रिक्षतं भवित ।
धममिवहीनं ततस्तं...आचारहीनस्य तु ब्राह्मणस्य वेदाुःषडङ्गास्त्विखलाुः सयज्ञा । मत्स्यपुराण
- कममयोगं िवनाज्ञानं कस्यिचन्नेह दृश्यते । श्रुितस्मृत्युददतं धमममप ु ितष्ठेत्प्रयत्नतुः ।। ऐसे
कममकाडड के अनेक प्रमाण वेद, वेतान्त, स्मृित-पुराणादद मे हैं । इनका वैज्ञािनक एवं ताकीक
अिभगम गृह्यसूत्रोमें िविधरूपेण (कममकाडड) अंदकत है । इनके रचनाकार भी वैददककाल में
ऋिषगण थे । मनुस्मृित िवक्द्धा या सा स्मृितनम प्रशस्यते ।। वेदाथोपिनबद्धत्त्वात् प्राधान्यं िह
मनोुः स्मृतुःे ।। तथािह यद् वै दकञ्चद् मनुरवदत् तद् भेषजम् - तैिर्त्रीय सं०२.२.१०.२।
वािल्मकी रामायण, बालकाडड में महाराज दशरथजी बोलते है िविधहीनस्य यज्ञस्य कताम सद्य
िवनश्यित िविध-िवधान की उपेक्षा या त्यागकर, स्वच्छन्दतापूणम दकए गए कायम िवनाशक
होते है, इसिलए ही हमारे ऋिष परंपरा मे शास्त्रोक्त िविध-िवधान की रचना हुई है । न
बुिद्धभेदं जनयेदज्ञानां कममसिं गनाम् । जोषयेत्सवम कमामिण िवद्वान्युक्तुः समाचरन् ।। गीता
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 3
३.२६ । जनसामान्य की बुिद्ध को भ्रष्ट करके , शास्त्र िवरूद्धाचरण में उन्हे प्रवृर्त् नहीं करना
चािहए । आप इसके पीछे के वैज्ञािनक ममम को न समझे तो, स्वबुिद्ध से अयुक्ताथम नही करना
चािहए । जनसामान्य को शास्त्र मयामदा से धममकायम में प्रवृर्त् करना चािहए । कममकाडड की
िविधयोंका िवरोध करनेवाले पूणमतया अधूरे एवं पाखडडी है, यह िवश्वासपूवक म हम िसद्ध कर
सकते है, आप दकसी भी िविध की बात कोई शास्त्रवेर्त्ा से जान सकते है ।
ब्राह्मणों की उपेक्षा ब्राह्मणत्वस्य िह रक्षणेन रिक्षतुः स्याद् वैदकको धममुः श्रीमद् भागवतादद
अनेक पुराण एवं स्मृितयों में ब्राह्मणद्वेष को अित िनष्कृ ष्ट माना है । भगवान रामजी ने कहा है
- िवप्रप्रसादाद्धरणीधरोहं, रामचररत मानस में भगवान राम भी कहते हैं-िवप्र वंश करर यह
प्रभुताई , ते नर प्रान समान मम, िजनके िद्वज पद प्रेम, पुडय एक जगमें नहीं दूजा, मन-िम-
वचन िवप्रपद पूजा,रामचररत के कताम श्रीतुलसीदासजी िवद्वान ब्राह्मण थे और धममशास्त्र के
ज्ञाता थे और इसिलए कोई शास्त्ररिहत बात ही नहीं िलखी । श्रीकृ ष्ण भागवत के दशमस्कं ध
में कहते है, नन्वस्य ब्राह्मणा राजन्...कृ ष्णस्यजगदात्मज.. । प्रमाण तो श्रुित से प्रारम्भ करके
स्मृित पुराणो पयमन्त सहस्रों िमलेंगे । बंदउाँ प्रथम महीसुर चरना रामचररतमानस । ब्राह्मण
ग्रंथो को देिखए.. यहां कु छ श्रुित प्रमाण देते है - अहमेव स्वयिमदं वदािम जुष्टं देविे भक्त
मानुषिे भुः । यं कामये तंतमुग्रं कृ णोिम तं ब्राह्मणं तमृनष तं सुमध े ाम् - ऋग्वेद ४.३०.४,
गायत्र्या ब्राह्मणं िनरवतमयत् ित्रष्टु भा राजन्यं जगत्या वैश्यम् - अथवमवद े - ७.४३.९ ।
योिनमन्ये प्रपद्यन्ते शरीरत्वाय देिहनाम् । स्थाणुमन्येनुसय ं िन्त यथाकमम यथाश्रुतम् -
कठ.२.२.७ । कमामनुसारे ण जन्म प्रपद्यन्ते जीवाुः - पुडयकममिभुः उर्त्मं पापकममिभुः नीचं
जन्म, पुडयपापिमश्रणात् मनुष्यजन्म च प्राप्यते । तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशोह यते
रमणीयां योिनमापद्योरन्ब्राह्मण योनन वा क्षित्रय योनन वा वैश्ययोनन वाथ ... छांदो.उपिनषद
५.१०.७ । ये सब श्रुित प्रमाण समझने का सामर्थयम, बहुश्रुत कथाकार या िशिबरोंवाले योगीके
पास नहीं है । हमारा जन्म कौनसे कु ल में होगा, कौन-सी योिन प्राि होगी, यह हमारे
पूवमजन्मकृ त कमो के आधार पर ही िननिरणत होता है, अगला जन्म इस जन्म के कमामधीन है ।
जीवुः स्वकृ त पुडयेन ब्रह्मवंश समुद्भवुः - गौडस्मृित । गीता में भगवान ने कहा है शूचीनां
श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोिभजायते । अनेक शुभकमम के संयोग से योगभ्रष्ट, उर्त्म योिनमें जन्म
लेता है । महाभारत में भी कहा है - ब्राह्मडयांब्राह्मणाज्जातो ब्राह्मणस्यान्न संशयुः ब्राह्मण एवं
ब्राह्मणी के द्वारा उत्पन्न संतान ब्राह्मण ही है, उसमें कोई संशय नहीं । योग भी कहता है सित
मूले जात्यायुभोगाुः अनन्त जन्मोंके पुडयाजमन से ब्राह्मणकु ल में जन्म िमलता है । तपुः
श्रुतञ्च योिनश्चेत्येतद् ब्राह्मणकारणम् -महाभाष्य २/२/६ ।। यहां महाभाष्य एवं योग दोनों ने
ही योिन-कु लको प्राधान्य ददया है । यथा ब्राह्मणोंकी उपेक्षा, वेद, स्मृित, पुराण एवं
ऋिषवचनों की प्रत्यक्ष उपेक्षा ही है । वेदभाष्यों में इसका बहोत िववरण िमलता है । वणामश्रम
में कु लकी महर्त्ा पर, प.पू. जगद्गुरू श्री िनश्चलानंदजी, पुरी मठाधीश के अनेक िविडयो एवं
कु छ लोग वणामश्रम की व्याख्या करते है - चातुवडम यं मया सृष्टं गुणकमम िवभागशुः मे के वल, कमम
के आधार पर ही वणम नक्की होता है, दकतने मूखम है ये वक्ता । भगवान ने गुण शब्द प्रथम
लगाया है । एक व्यिक्त ददवसमें चार प्रकार के कमम करता है, प्रातुः संध्यावंदन, देवताचमन,
स्वाध्यायादद करता है तो प्रातुःकाल में ब्राह्मण, अपने पररवार की सुरक्षा के िलए कमम करता
है, तब क्षित्रय, जब नोकरी, सेवा या व्यापार करता है, तब वैश्य, एवं अपनी पित्न को, या
माता को गृहकायम में मदद करता है, तब शूद्र - ये तो वणमशक ं रत्व है । स्त्रीयां, जो घर में बरतन
साि करती है, झाडू लगाती है, वे क्या शूद्र ही रहेगी, बहुधा स्त्रीयोंको, अपने गृहस्थ कायों के
कारण एक ही वणममें रखोगे ? भगवानने गुण शब्द वैसे ही नहीं लगाया, दक छन्द बैठ जाए ।
आगे १८ अध्याय में दिर से कहा है - कमामिण प्रिवभक्तािन, अब कमो का िवभाजन दकस
आधार से भगवान करते है - गुण के । तब गुण क्या है ? स्वभाव क्या है ? संस्कार क्या है ?
गुण को प्रकट होने के िलए आश्रय की जरूरत पडती है, जैसे सुगंध को प्रकट होने के िलए
पुष्प, चन्दनादद होना आवश्यक है । गुण कै से आश्रय पाते है, यह सब स्पष्टरूप से जाने िबना
दकया अथम अधूरा है । िनिश्चतरूप से धममशास्त्र की उपेक्षा करनेवाले यह नहीं समझ पाएंगे ।
मनुस्मृित में भी िद्वजातीयों में उपनयन काल िभन्न-िभन्न है, इसका अथम वणम जन्म से ही पूवम
िनिश्चत होना चािहए, क्योंदक जन्म के पूवम जातक कोई कमम इस संसार में करता ही नहीं ।
इसका वणम कौन होगा? वेदव्यासजी भी जाित प्राधान्य की बात करते हुए, अनुलाम-
िवलोमादद की बात श्रीमद्भागवत में करते है, िजसमें माता-िपता की कु ल-जाित ही प्रधान
होती है । दोषैरेतुःै कु लघ्नानां वणमसङ्करकारकै ुः। उत्साद्यन्ते जाितधमामुः कु लधमामश्च शाश्वताुः
गीता १.४३ । इस श्लोकमें भगवानने जाितप्राधान्य एवं वणमशक ं रत्व की बात कहीं है, प्रायुः
यह रामदेवबाबा की समझ के बहार होगा । ये महानुभाव को बहोत सस्ती प्रितष्ठा,
राजनैितकबल से प्राि हो गई है, वे धममशास्त्र में कु छ नहीं जानते , ऐसा प्रतीत होता है । आगे
देिखए, मनु महाराज कहते है दुुःशीलोिप िद्वजुः पुज्यो, न तु शूद्रो िजतेिन्द्रय । यही बात
रा.मा. में भी है पूिजय िवप्र सील गुन हीना । सूद्र न गुनगन (सकल) ग्यान प्रवीना ।।
वाचकवगम, कृ पया इन प्रमाणों के आधार पर ही सही वक्ताओ के ज्ञान की सीमाका मूल्यांकर
करें ।
बाबा रामदेव द्वारा ज्योितष, ब्राह्मण आदद का िवरोध करना भी अत्याधम कायम है । एकदम
जूठ पर आधाररत उनकी टीवी िसररयल तो तत्काल बंद करनी पडी । उनकी तो भाषा भी
िशष्ट नहीं है, बोलते है दक, ब्राह्मणको मर्थथा मारना, नलबु-मीरची बांधना, शनी पर तेल नहीं
चडानना (इसके पीछे का तकम -िवज्ञान आप समथम की शरणागित से पा सकते है), इटली में
अनिधकृ त मंत्रदीक्षा - हर दकसीको व्यासपीठ से त्र्यम्बकम्, यातेरूद्र, गायत्री मंत्रादद नहीं रटा
सकते । हररनाम का संकीतमन अवश्य करे । दियाकरणहीनत्वात्कथं तेषां िह कतृत म ा जो मंत्र
रटाते हो, उसके िवषय में सुस्पष्ट होना आवश्यक हैं, पुरूश्चरणहीनोिप तथा मन्त्रो न िसिद्धदुः
उसका पुरूश्चरण स्वयं को पहले करना पडता है । नानुष्ठानंिवनावेद वेदनं पयमस्यित ब्रह्म
धीस्तवतैवस्यात्िलदेित परामाता अनु.प्रकाश, श्रीिवद्यारडयस्वािम ने इसपर िवशेष बात कही
हैं, जो वेदमंत्र की आप दीक्षा देते हो, उसके िलए स्वयं दीिक्षत हो और उसका अनुष्ठान करों ।
व्रतेनदीक्षा..यजुवेद । अदीिक्षता ये कु वमिन्त जपयज्ञ िमयाददका, न्यूनं िनष्पलां यािन्त.. बीना
दीक्षाके मंत्र िविल होते है, व्यथम पररश्रम है । मंत्र गुरूद्वारा प्राि होना आवश्यक है,
विशष्ठजी कहते है गुरूम्बीना वृथोमंत्रुः। मंत्र के िलए, ददक्षा, गुरू, पुरश्चरण िविध, माला,
जपसंख्या, िविनयोगाददका िवचार प्राथिमक है । िबना मंत्र के ददक्षा का उपदेश व्यथम है,
क्योंदक अथ शास्त्रीयं िवधानं च िशक्षणीयम् । जपो देवाचमन-िविधुः, कायो दीक्षािन्वतैनरम ैुः
मन्त्र मुक्तावली, अतुः सभी कायम दीक्षा के उपरान्त ही उिचत है । दीक्षा कौन दे सकता है -
श्रोित्रयं ब्रह्मिनष्ठम् (मु.उप) के वल सद्गुरू और शिक्तपात भी शिक्तपातानुसारे ण िशष्योनुग्रह
महमित (िश.पु) योग्यताके आधारपर ही गुरू द्वारा होता है । अनुग्रह प्रकारस्य
िमोयमिववक्षतुः िश.पु.वा.सं.३.४। आषमच्छन्दश्चदैवत्यं िविनयोगस्तथैव च । वेददतव्युः प्रयत्नेन
ब्राह्मणेन िवशेषतुः - व्यास. । अिवददत्वा ऋिषच्छन्दो देवतं योगमेव च । योध्यापयेद्याजयेद्वा
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 6
पापीयान् जायते तु सुः - याज्ञ. इदं प्रधानं शेषोऽयं िविनयोगिमस्त्वयम् - वाक्यपदीय ।
ऋिषच्छन्दो देवतं योगमेव च । योध्यापयेद्याजयेद्वा पापीयान् जायते तु सुः - याज्ञ. । त्वमेव
परमेशािन अस्यािधष्ठातृदेवता ।चतुवग म म िलावाप्त्यै िविनयोगुःप्रकीनिरततुः - ५.१४८ । करणेषु तु
संस्कारमारभन्ते पुनुः पुनुः । िविनयोग िवशेषांश्च प्रधानस्य प्रिसद्धये ३,७.९२ ॥ इदं प्रधानं
शेषोऽयं िविनयोगिमस्त्वयम् - वाक्यपदीय । ऋिषच्छन्दो देवतानां िवन्यासेन िवना,जप्यते
सािधतोऽयेष तुच्छ िलं भवेत् ।। न्यासंिवनाजपं प्राहुरासुरं िविलंबध ु ाुः । न्यासार्त्दात्मको
भूत्वा, देवोभूत्वा तु तंयजेत् ।। अकृ त्वा िविधवन्न्यासान्नाचायाममिधकारवान् । चैतन्यं
सवमभत ू ानां शब्दब्रह्मेित मे मितुः ।। ऋिषच्छन्दो देवतानां िवन्यासेन िवनाजप्यते सािधतोऽयेष
तुच्छ िलं भवेत् ।। जप संख्या तु कतमव्या ना संख्यातं जपेत्सुधीुः। न संख्याकारकस्यास्य
सवंभवित िनष्िलम् ॥ अथामत,् अंिगरा ऋिष के अनुसार, असंख्या तु यज्ज्प्िं तत्सवं िनष्िलं
भवेत् - तंत्र । अथामत् मंत्र के ऋिष, माला-जपसंख्या, िविनयोग, अनुष्ठान िविध, ऋिष, छन्द,
देवता, उच्चारण प्रणाली इत्यादद, जो मंत्र देता है या रटाता है, उसको मालूम होना
अत्यावश्यक होता है । मंत्र रटानेवालोने, क्या उक्त मंत्रानुष्ठान दकया है, दीक्षा का अिधकारी
है, मंत्र की अनुष्ठान प्रणाली, मंत्र के देवता, छन्द, ऋिष, कीलक, न्यास, िविनयोगादद का ज्ञान
है या नहीं ? उपरोक्त सभी शास्त्रप्रमाण संकेत देते है दक, यदी नहीं तो मंत्र का िल तो नही
िमलता दकन्तु हानी अवश्य हो सकती है । िविनयोग क्या है ? जैसे दवाकी बोटलपर, दवाका
नाम, बेच नं, एक्षपायरी डेट, डोझ, प्रयोग की पद्धित, कन्टेन्टादद िलखे रहते है, अब बीना
लेबल की दवा, कोई डॉक्टर दकसी दरदी को दे सकते है या एक ही दवा सभी ददीयों को दे
सकते हैं? मंत्र भी औषिध है जो, मन, आत्मा को पुष्ट करती है इसके बहोत प्रमाण आगम ग्रंथो
में उपलब्ध है या मंत्रशिक्त एवं उपासना रहस्य पुस्तकमे मैंन सिवस्तर िलखा है । मंत्र, असर
क्यों नही करते या िवपररत िल क्यो देते है, इसका अंदाजा इससे आयेगा । क्या, ये मंत्रौषधी
बीना पररक्षण हर दकसीको दे सकते है? दिर मंत्रौषिध क्यों? औषध से लाभ ही होगा, यह
जरूरी नहीं, अनिधकृ त या अनावश्यक औषध िवष समान होती है ।
कोई-कोई कथाकार को उपरोक्त बाते आवश्यक नहीं लगती और प्रमाण देते है - उल्टा नाम
जपे जग जाना । वाल्मीक भये ब्रह्म समाना ।। इसका अथम करते है दक, कोई भी मन्त्र, कै से
भी जपो अच्छा ही है, कोई समस्या नहीं, शास्त्रोक्त िविध िवधान की कोई आवश्यकता ही
नहीं । जब ऐसा ही था, तो ऋिषयों का इतना प्रयत्न व्यथम ही माना जाएगा । यह मन्त्रशास्त्र
का आिवष्कार िनरथमक ही हो गया क्या? प्रायुः यजन में उपयुक्त मन्त्रों, िजस देवता या
उपचार के िलए प्रयुक्त होता है, इसे ऋिषयों ने तकम युक्त संगत दकया है । मन्त्रोंकी शिक्तयोंको
ध्यानमें रखकर ऋिषयोंने, उसे िनयतस्थान पर, प्रयुक्त दकरनेका िनणमय दकया है - यज्ञादौ
कममडयनेन मन्त्रेणद
े ं कमम तत्त्कतमव्यिमत्येवं रूपेण यो मन्त्रान्करोित व्यवस्थापयित स मन्त्रकृ त् -
यज्ञादद कमो मे दकस मन्त्रसे, कौनसे कमम करना चािहए, ऐसी व्यवस्था आषमदष्ट ृ ा ऋिषयोंने
की है । इसकी संगित मुडडकोपिनषद में भी िमलती हैं - तदेतत्सत्यं मन्त्रेषु करमािण कवयो
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 7
यान्यपश्यंस्तािन त्रेतायां बहुधा सन्ततािन । तान्यचरथ िनयतं सत्यकामा एषुःवुःपन्थाुः
सुकृतस्य लोके ।। िान्तदशी ऋिषयोंने िजस कमोका, िजस मन्त्रोंमें साक्षात्कार दकया था, वही
सत्य है । यहां त्रेतायां का अथम उपरोक्त तीन प्रकारकी ऋचा-मंत्रो को कवयुः मन्त्रेषु यािन
कमामिण अपश्यन् अतुः मन्त्रोकी साथमकता जहां उिचत लगी वहां प्रयुक्त करनेका आदेश ददया ।
भिक्तकी बात नहीं है, भजन-संकीतमन, तो मात्र हररनाम या रामनामसे कर सकते है, वे
िसद्धमंत्र ही है, यद्यिप, गायत्रीमंत्र, जातेरूद्र, त्र्यंबकम् इत्यादद आप वैसे ही, बीना अिधकार
हर दकसीको, नहीं दकसी को दे सकते या पीठ-मंच से नही रटा सकते ।
उपासना या यजन में कौन से मन्त्र, कब और कै से प्रयुक्त करना है, इसका पूरा िविधिवधान
कममकाडडमें है, मन्त्रों का िवशेष प्रयोग, तो िशवपुराण, अिि पुराणादद में भी बताए है । दकस
देवताको कौनसे मन्त्रसे (नलगमन्त्र) अचमनादद होगा, जैसे दक, आकृ ष्णेनइमंदव े ा अििमूधाम
ददवुःककु त् । उद्बुध्यस्वेित च ऋचो यथासंख्यं प्रकीनिरतता । बृहस्पतेऽयितअदयमस्तथै
वान्नात्पररस्रुतुः, शन्नोदेवीस्तथा काडडात्के तुं कृ डविन्नमास्तथा ।। याज्ञ. १ । ३००-३०१ ।।
यज्ञादौ कममडयनेन मन्त्रेणद े ं कमम तत्त्कतमव्यिमत्येवं रूपेण यो मन्त्रान्करोित व्यवस्थापयित -
मन्त्रों की शिक्त के संदभम में, यज्ञादद कमोमें कौनसे मन्त्रसे कौनसा कमम को करना चािहए,
ऐसी जो व्यवस्था ऋिषयोने की है, यथा वे उन मन्त्रों के दृष्टा बने । कममके प्रकार-िविध-
िलादद कममकाडडान्तगमत है ।
इसका पूरा वैज्ञािनक अिभगम के िलए हाल ही में मैने एक पुस्तक प्रकािशत की है - मंत्रशिक्त
एवं उपासना रहस्य िजसमें प्रचुरमात्रा में प्रमाण उपलब्ध है और प.पू.जगद्गुक् शंकराचायम श्री
स्वरूपानन्दजी (बदरर-शारदा, उभयपीठािधश), पु. जगद्गुरू श्री श्रीवद्यािभनव श्री
कृ ष्णानन्दतीथमजी, श्री डह्याभाई शास्त्री(नडीयाद), श्री मधुसुदन शास्त्री(कणामटक), डॉ.
मनीषा गजरे इत्यादद िवद्वानों के अिभप्राय भी है । उसका युआरएल इस लेख के अंतमें ददया
है, जो आप पढ सकते है, पुस्तक भी मंगवा सकते है । इसके पूवम भी, एक धममशास्त्र पर
आिमण नामक लेखमें िविध, िनषेध, बिल इत्यादद िवषयों पर सतकम वैज्ञािनक अिभगम
प्रस्तुत दकए थे(अंदाजेसे २००४ में)। हमारे अन्य पुस्तकोंमें, पु.श्री कृ ष्णशंकर शास्त्रीजी
(शोलािवद्यापीठ), प.पू. जगद्गुरू शंकराचायम श्री जयेन्द्रतीथमजी महाराज(कांची) तथा अनेक
िवद्वज्जनों के मंतव्य-आिशष संलि दकया था ।
ज्योितष की उपेक्षा - अब बात करेंगे ज्योितष, वास्तु एवं श्राद्ध के प्रमाणों की । सवम प्रथम
हम ज्योितष की बात करें गे । श्री रामदेवजी एवं श्री मोराररबापु कहते है दक, हम ज्योितष,
वास्तु को नहीं मानते और यह हमारा अंगत मत है । यदद आपका अंगत मत है तो, कृ पया
आप तक ही उसे िसमीत रखें । क्या आप अपनी सभी अंगत बाते जनसामान्य को बताते है ?
यदद आप दकसी ज्योितषी या वास्तुशास्त्री के बारे में बोलते तो, कोई आपिर्त् नहीं थी, क्योंदक
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 8
आपको दकसीका खराब अनुभव हो सकता है । आप पूरे शास्त्रकी उपेक्षा करते है, वह अक्षम्य
है । आप जो नहीं करते हैं या जो नही मानते वो िसद्धान्त नहीं या िसद्ध नहीं बन सकता, ये
तो आपका उस िवषयका अज्ञान है । आप तो रोजा भी नहीं रखते होंगे, नमाज भी नहीं पढते
होंगे, अठ्ठईतप भी नहीं करते होंगे, चचम में रिववारको जाकर प्रेयर भी नहीं करते होंगे,
इसका, कतई ये अथम नहीं होता दक, आप जो नहीं मानते वह असत्य है । अब हम आपको कु छ
शास्त्रमत बताते हैं, कृ पया ऐसा नहीं बोलना दक श्रुित, ब्राह्मणग्रंथ, गृह्यसूत्र, स्मृित, पुराण,
रामायण या महाभारत जैसे इितहास भी गलत हैं, क्योंदक यहीं शास्त्राधार है । ज्योितषामयनं
चक्षुनिरनक्क्तं श्रोत्रमुच्यते । ज्योितष भगवान वेदनारायण के नेत्र है - वेदांग है ।
वैसे तो अनिगनत प्रमाण है, यद्यिप, सवमप्रथम हम श्रुित से प्रारम्भ करके पुराणों पयमन्त के कु छ
प्रमाण आपको देंगे । वेदांगज्योितष कालिवज्ञापक शास्त्र है । माना जाता है दक, ठीक ितिथ
नक्षत्रपर दकये गये यज्ञादद कायम िल देते हैं । कहा गया है दक वेदा िह यज्ञाथममिभप्रवृर्त्ाुः
कालानुपव ू ाम िविहताश्च यज्ञाुः। तस्मादददं कालिवधानशास्त्रं यो ज्येितषं वेद स वेद यज्ञान् ॥
(आचमज्यौितषम् ३६, याजुषज्योितषम् ३)। चारो वेदों मे, पृथक् -पृथक् ज्योितषशास्त्र थे । (१)
ऋग्वेद का ज्यौितष शास्त्र - आचमज्योितषम् : इसमें ३६ पद्य हैं (२) यजुवद े का ज्यौितषशास्त्र,
याजुषज्योितषम् इसमें ४४ पद्य हैं (३) अथवमवेद ज्यौितषशास्त्र - आथवमणज्योितषम् इसमें
१६२ पद्य हैं। इनमें ऋक् और यजुुः ज्योितषोंके प्रणेता लगध नामक आचायम हैं, ग्रहलाघव
नामक ग्रंथ से ग्रहोकी गित-उदयास्त, ग्रहण-वेधादद का ज्ञान होता है, िजसका रचना काल
१५०० से २००० ई.स. पूवमका माना जाता हैं । अवामचीन भौितकिवज्ञान या दूरबीन का जन्म
नहीं हुआ था । यजुवद े के ज्योितष के चार संस्कृ त भाष्य तथा व्याख्या भी प्राि होते हैं ।
ज्योितषशास्त्र के तीन स्कन्ध माने गए- िसद्धान्त, संिहता और होरा । पञ्चाङ्गस्यिलं श्रुत्वा
गङ्गास्नान िलं लभेत् ।।ितिथवामरो तथा िवष्णु, नक्षत्रं िवष्णुमव े च । योगश्च करणञ्चैव सवं
िवष्णुमयं जगत् ।। ितिथवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च । यत्रैतत्पञ्चकं स्पष्टं पञ्चांङ्गं
तिन्नगद्यते।। जानाितकाले पञ्चाङ्गंतस्यपापं न िवद्यते । ितथेस्तुिश्रयमाप्नोित वारादायुष्य
वधमनम् ।। नक्षत्राद्धरते पापं योगाद्रोग िनवारणम् । करणात्कायमिसिद्ध: स्यात्पञ्चाङ्ग िल
मुच्यते ।। मासपक्षितथीनाञ्च िनिमर्त्ानांचसवमशुः । उल्लेखनमकु वामणो न तस्यिलभाग्भवेत् ।।
ितिथ, वार, करण, मास, योग सब परमात्मा के स्वरूप ही है और उनके श्रवणमात्र से
गंगास्नान का िल िमलता है । ये सब प्रमाण िसद्ध करते है दक वेदांग है, उसकी उत्पिर्त् वेद से
ही है । बहोत सारी ऋचाए वेदमें उपलब्ध प्राप्य है । हजारो वषो से, जब एस्रोनोिमका
इतना िवकास नहीं था, तबसे, हमारा ज्योितषाधाररत पञ्चांग हमें ग्रहो की गितिविधया,
उदयास्त, विाितचारादद प्रमािणक रूपसे बताते है ।
एक अित सरल बात करते है, आज से २००-३०० वषम पूवम, ग्रहो की गित, उदयास्त, मागी,
विी, अितचारी, वेधादद कै से जानते थे? यही तो िवश्वका सवम प्रथम िवज्ञान है, िजसका, िवश्व
के माने हुए िवज्ञानी ज्योितषके , वैज्ञािनक आधारों की सराहना करते है, इस आिवष्कार को
अनुसंधान का िवषय बताते है, तब हमारे यहां कु छ महामूख,म इसकी उपेक्षा करते हैं । अच्छे
वक्ता बननेका अथम यह कदािप नहीं होतादक, हम पूणम है । हर छोटी-छोटी दियाओं में िवज्ञान
है । मयामददत मेधाशिक्तमें, जो सत्य समझ में न आए, उसे अंधश्रद्धा है ऐसा कहने से पूवम,
समथम िवद्वानोकी शरणमें, गुरूपसदन करना चािहए । ज्योितषीकी उपेक्षा सहनीय है, दकन्तु
ज्योितषशास्त्र को हम नहीं मानते, ऐसा कहनेवाले पूणरूम प से अज्ञानी एवं पाखडडी है, ये भृगु,
पराशर, परशुराम, विशष्टका क् अनुपम प्रयास के प्रित अक्षम्य अपमान है ।
वास्तु की उपेक्षा - अब बात करें गे वास्तु की । वैसे वास्तुम,ें मेरा पूरा अभ्यास नहीं है, यद्यिप
उक्त बहुश्रुत वक्ताओं िजतना खाली भी नहीं हुं । वास्तु वेदकालीन है एवं उसकी उत्पिर्त् भी
वेदोंसे ही मानी गई है । वैददकग्रथोंमें ऋग्वेद ऐसा प्रथम ग्रंथ है, िजसमें धानिरमक व आवासीय
वास्तुकी रचना का वणमन िमलता है। यद्यिप पूवम वैददक काल में वास्तु का उपयोग िवशेष रूप
से यज्ञ वेददयों की रचना व यज्ञशाला के िनमामण आदद में होता रहा है, दकन्तु धीरे -धीरे इसका
उपयोग देव प्रितमाओं व देवालयोंके िनमामण व भवन िनमामण में होने लगा । अथवमवद े का
श्राद्ध एवं औध्वमदैिहक (अन्त्येष्ठादद) कमो की उपेक्षा - हम श्राद्ध नहीं करते, हमारे समाज में
अन्त्येष्टी नहीं होती । अन्त्येष्टी मात्र सन्यासीयों दक ही नहीं होती, उनकी समािध होती है ।
िजसने रामायण, महाभारत या पुराण पढे होंगे उनको तो पता ही होगा दक, महाराज दशरथ
ने श्राद्ध दकया है, भगवान परशुराम ने िसद्धपुर में मातृवध के दोष मुिक्त हेतु मातृश्राद्ध दकया
है । माता सीताजीने दशरथजीका श्राद्ध दकया है । वायुपरु ाण में भगवान श्रीकृ ष्ण का गरूडजी
के साथ इस िवषय में उर्त्म संवाद है । श्रीराम ने, बाली, जटायु एवं रावण आदद की अन्त्ये िष्ट
करवाई है । वािल्मकी रामायण में रामने वनवास दरम्यान श्राद्ध, होम, तपमणादद िनत्यकमम
दकये है । तुलसीदासजी के रामचररत मानस में, भरतजीने, िपता दशरथके दशगात्र िवधान
का उल्लेख िमलता है - भरत कीिन्ह दशगात्र िवधाना । इसको अवयव श्राद्ध बोलते है, जो
अन्त्येष्ठी के बाद, दश ददवस पयमन्त चलता है । इसके बाद ही नारायणबली (एकादशाह) और
सिपडडीकरण का अिधकार िमलता है । श्राद्ध के िलए वैददक मंत्र है, िपतृओं के , िवश्वेदेवाओं
के िलए, सनपडीकरणके िलए, गृह्यसूत्रों से लेकर पुराणों मे, तथा स्मृितयों से लेकर रामायण-
महाभारत जैसे इितहास में अनेक स्थान पर इसकी चचाम ही नहीं, इनके स्वतंत्र अध्याय है । ये
बहुश्रुतोंके अभ्यासमें प्रायुः आया नहीं होगा । क्या इन सभी, पुराण, मंत्र, गृह्यसूत्र, रामायण-
महाभारतमें गलत िलखा है ऐसा कहने का सामर्थयम है दकसीमें ?
हाल ही में प्रभात खबर, मुजिरपुर दैिनक में, १८.६.२०१९ को पृष्ठ १८ पर एक मािहती
प्रिसद्ध हुई है, िजसमें जापान की एक मिहला मुिशगा तोमोगो ने ३१.मई २०१९ को
श्राद्धिवज्ञान पर टोक्यो युिनवनिरसटी से पीएचडी दकया है । इस मिहला ने ऋग्वेद, यजुवद े ,
महाभारत, रामायण, पद्मपुराण, गरूडपुराण, श्राद्धकौमुदी सिहत अनेक पुरातत्त्व ग्रंथो का
अध्ययन दकया, भारत के श्राद्ध तीथो में भ्रमण दकया और सािबत दकया दक भारतीय श्राद्ध
पद्धित पूणत म या वैज्ञािनक एवं तकम संगत है । इतना ही नहीं कई आन्तराष्ट्रीय मेगिे झनों मे उसके
शोधपत्र को सन्माननीय स्थान प्राि हुआ है । ऐसे कई पाश्चात्योंका औध्वमदैिहक िवज्ञान पर
संशोधन एवं मत मेरे पास संकिलत है, लेदकन दुुःख इस बातका है दक, रामदेव बाबा एवं
मोराररबापु जैसे स्वयं को धमामध्यक्ष माननेवाले ही उसकी उपेक्षा करते है, ऐसे गहन िवषयपर
िचन्तन न करते हुए, हल्की प्रितष्ठा के िलए वाक्व्यिभचार करते है । आपने के वल रामायण या
महाभारत ही ठीक से पढा होता तो, आप ये समझ पाते । हम इस जापानी िवदुषीके प्रयासको
वंदन करते है । यदद आपके पास, इस िवज्ञान को समझने की बुिद्धक्षमता न हो तो, िवद्वानोके
प्रित गुरूपसदन करते, तो अच्छा होता (िवद्वानों को गुरू मानने से आप छोटे नहीं होंगे) । ऐसे
शास्त्रिवरोधी िनवेदन करके आपकी अल्पज्ञता का प्रदशमन मत करों । प्रतीत होता है दक,
अंग्रेजोवाली गुलामी आज भी ऐसे लोगों के मानसपट पर जीिवत है ।
उपरोक्त प्रमाणोंसे ििलत होता है दक, मनुष्य जन्ममें सवमप्रथम कतमव्य श्राद्धा एवं िनत्यकमम का
है । िद्वतीय देवपूजा, दिर यज्ञादद और अंतमें कथा श्रवण । गृहस्थीके िलए - देवपूजा, यज्ञादद
या कथा श्रवण न करनेसे कोई पाप नहीं लगता, दकन्तु िनत्यकमम एवं श्राद्धाददक न
करनेसे दुररत, पाप-प्रत्यावाय लगता है, क्योंदक श्राद्ध एवं िनत्यकमम प्रथम कतमव्य है । िजस
साधु गोस्वािम ने सन्यास न िलया हो और पररवारमें रहते है, लौदकक व्यवहारादद करते है, वे
सभी गृहस्थकी कक्षामें आते है, यथा यदद वे श्राद्ध नहीं करते तो, पापाचारी होते है ।
हम जब गया श्राद्ध करने, गयाजी गए थे, तब हमारे साथ एक िवद्वान वकील थे । बस में
सबको बार-बार बोलते थे दक, ये श्राद्ध वैसे ही, अपने यहां गुसा ददया है, इसकी कोई
आवश्यकता नहीं । क्यां जैन, बौद्ध, ईसई, मुसलमान श्राद्ध नहीं करते, तो उनके पूवज म ो की
सद्गित नहीं होती । हमारे , सब साथी, मेरी तरि अथमसूचक देखने लगे और मुझ से भी रहा न
गया । मैने उन्हे शांित से पूछा, वकील साब, आप तो सुिशिक्षत है, आप दकसीके दबाव में
आकर श्राद्ध करने आए है या स्वेच्छा से । दिर मैंने उन्हे उनकी कानूनी भाषामें बात करना
चालू दकया । मैने कहा, आप भारत में रहते है तो, भारत का संिवधान या कानून समझ में
श्मशानका जो अिि है उसे कव्य कहते है, यह अिि मांसभक्षी, तामस है । सभी अििको एक
जैसा नहीं मान सकते । हमारे उदर में जठरािि - वैश्वार है और अंगारे भी अिि है, ति धातुमें
भी अिि है, तो क्या मंदािि होने पर तिधातु या अंगारो का पान कर सकते है? सीधा तेजाब
पीते है? अिि की तीन शिक्तयां है, १.दाहक, २ पाचक, ३ प्रकाशक और ये तीनों शिक्तयों की
प्राधान्यतापर अििके प्रकार पुराणों में वनिरणत है, इसका प्रमाण इस प्रकार है - लौदककुः
पावको अििुः, प्रथम पररकीनिरततुः । अििुः तु मारूतो नाम , गभामधाने िवधीयते ।। पुंसवने
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 13
चंद्रमसुः, शुंगा कममिण शोभनुः । सीमंते मंगलो नाम, प्रगल्भो जातकममिण ।। नािनुःपानिरथव
नामाििुः, प्राशने तु िशवुः तथा । सभ्यनामाथ चूडायां, व्रतादेशे समुद्भवुः ।। गोदानेसूयमनामा
तु, िववाहे योजकुः स्मृतुः। चतुर्थयां तु िशखीनाम, धृितुःअििुःतथाऽपरे ।। आवसर्थयेभवो ज्ञेयो,
वैश्वदेवे तु पावकुः ।। ब्रह्मा तु गाहमपत्येऽििुः, ईश्वरोदिक्षणे तथा । िवष्णुुः आहवनीये तु,
अििहोत्रे त्रयोऽियुः।। लक्ष होमे विनननामा,कोरटहोमे हुताशनुः। प्रायिश्चर्त्ेिवटुः चैव, पाकयज्ञे
तु साहसुः।। देवानां हव्यवाहुःतु, िपतृणां कव्यवाहनुः। पूणामहुत्यां मृडोनाम,
शािन्तके वरदुःतथा।। पौिष्टके बलदुः चैव, िोधोऽििुःतु अिभचाररके । वश्याथं कामदोनाम,
वनदाहे अितदूषकुः।। इसका अथमघटन दकसी िवद्वानसे करा िलजीए । िववाहमें जो अिि होता
है उसे योजकािि का नाम ददया है ।
कबर के पास िनकाह या कब्रस्तान में लि की प्रथा तो ईसाईयों में भी नहीं होगी, दकसी भी
धमम या संप्रदाय में जहां अन्येष्टी - फ्युनरल होते हो, वहां लि नहीं होते होंगे, इतना िवश्वास
है । कव्यािि के िे रे कदािप नहीं ले सकते । सब नर किल्पत करनह अचारा । जाइ न बरिन
अनीित अपारा ।। सबदी साखी दोरहा, किह दकहनी उपहान । भगितिनरूपहीं भगत, कली
िनन्दनह वेद-पुरान ।। - रा.म, आचायम श्रीतुलसीने भी, अपनी मदोन्मर्त्-िवलासी
िवचारधारावाले, वेद-पुराणसे िवरूद्ध आचरणवाले वक्ताओं का उल्लेख िमलता है ।
अभी एक िविडयो क्लीप देखा, प्रायुः मुन्द्रा अनहसाधाम की कथाका ही है । रामायणमें आरती
माबाईलकी फ्लेश लाईट से करते है और अनुकरणशील मिनषावाले सेंकडो लोग भी, यही
पाखडडाचार में जुड जाते है । अब एक और अशास्त्रीय परंपरा चालू हो गई । घी के ददपक की
आवश्यकता ही नहीं बची । घी से प्रज्विलत ज्योत पर रिशया एवं जममन वैज्ञािनक, जब
अनुसंधान कर रहै है, तब हम उसे छोड रहे है । गायके घी से िनकलने वाली महत्वपूणम गैसों
में इथीलीन, आक्साईड, प्रोपलीन आक्साईड, पिाममल्डीहाईड गैसों का िनमामण होता है।
इथीलीन आक्साईड गैस जीवाणु रोधक होने पर आजकल आपरेशन िथयेटर से लेकर जीवन
रक्षक औषिधयों के िनमामण में प्रयोग मे लायी जा रही है। वही प्रोपलीन आक्साइड गैस का
प्रयोग कृ ित्रम वषाम कराने के िलए प्रयोग में लाया जा रहा है । अस्पतालों, प्रयोगशालाओं मे
इन्ही का प्रयोग दकया जा रहा है। ऋिष-मुिनयोंने, हमें पूणम िवज्ञान सम्मत जीना िसखाया था,
िजससे हम प्रकृ ित परख सन्तुलन बनाये रखते चलते थे । ओजोन छेदों को भरने की क्षमता
गाय के घी जलने से नीकलने वाली गेस में होती है, इसका अनुसंधान पाश्चात्य वैज्ञािनक कर
रहे है । हमें संशय होता है दक, ये बहुश्रुत वक्ताओ की ऐसी चेष्टाए, सनातन वैददक सभ्यता
को समाि करनेका, कोई षडयंत्र तो नहीं । आरतीमें घंटाका भी िवशेष महत्व है, जो मोबाईल
नहीं दे सकता । शंख या घंटा की गूंज की अविध आपके शरीर के , सभी सात हीनलग सेंटर को
एक्टीवेट करने के िलए कािी अच्छी होती है । ये आपके आसपास के वातावरणको शुद्ध
करती हैं । आपको एकाग्र करके ये आपके मन को शांित प्रदान करती हैं, अमंगल या सूक्ष्म
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 14
कीटाणुं (आयुवेदके जन्तु िवभाग में िजसे, अनाषम कहा है), जो ददखते नहीं, यद्यिप आपकी
बुिद्धको क्लुिषत करते है, इसे ऐसी ध्विन तरं ग,े दूर भगाती है - जैरे पानी में पडे पर्त्ों को,
पत्थर आदद िें कने पर, उठी तरंगे दूर भगाकर, जल िनममल करती है । िवज्ञान ने ऐसे यंत्रो का
भी आिवष्कार दकया है दक, िजसकी ध्विन (अल्रासाउन्ड-एंटी-रै ट-सोनार-Bug scare,
लॉसकी पीआर, मल्टी-यूज अल्रासोिनक कीट ररपेलर इलेक्रॉिनक कीट कं रोल ररपेल माउस
बेडबग्स मच, वीईयूप्लग) से चूहें, िचपकली, मच्छरादद दूर भागते है । सिशित (चडडीपाठ)
में भी है घडटास्वनेन तान्नादानिम्बका चोपबृह
ं यत्, धनुज्यामनसहघडटानां नादापूररतददङ्मुखा ।
घडटानाद से देवीने राक्षसों को पराश्त दकया है, तो क्या िवषैले जन्तु इससे पलायन नही हो
सकते ?
ददपकके वैददक भी मंत्र है, िविध में उसे (साज्यं च वनिरतसंयुक्तं) भोदीप देवरूपस्त्वं, देवरूप ही
माना है, यदद ददप साथमें संभव नही तो शास्त्रमतसे अनािमका-अंगूष्ठका (दीपमूद्रा) संयोजन
करके , स्वयंका आत्मतेज देवता को समनिरपत करनेका िवधान भी है । शास्त्रवेद्यमिनष्टसाधनं
िह पापम् (श्रुितमत) - मोबाईलसे इलेक्ट्िोमैिेरटक रे िडएशन नीकलते है, िजसके उपयोग से
इलेक्ट्िोमैिेरटक हाइपरसेंसेरटिवटी इएचएस का खतरा रहता है । मोबाईल आरती
पाखडडाचार है । यह मात्र धममिवरूद्ध ही नहीं, िवज्ञान सम्मत भी नहीं है, अितिवनाशक है ।
मोरारीबापू पीठसे, जल माजमन करके लघु यज्ञोपिवत संस्कार करते है, तो रामदेव बाबा
सेंकडो स्त्री-पुरूषों को मंच से यज्ञोपिवत संस्कार कराते है । यज्ञोपिवत जैसे पुिनत संस्कार का
ऐसा उपहास, वैददक संस्कृ ित दकतना घोर अपमान है । मैं पूछना चाहता हुं दक, क्या कोई
िवद्वान, हमारे प.पू.जगद्गुरू, वैष्णवाचायम इसे शास्त्रीय अनुमोदन दे सकते है ?
सोलह संस्कारोंमें िद्वजके िलए उपनयन प्रमुख संस्कार है । इसका पूरा िवधान संस्कार
भास्कर, धममनसधु, िनणमयनसधु नामक ग्रंथो में है और इसका आधार श्रुित-ब्राह्मणग्रंथ, पुराण,
स्मृत्यादद है । जो िजस गोत्रका है, उसे, उसीके वेद, गोत्र, प्रवर, शाखा, सूत्र से ही संस्कार
दकया जाता है । प्रायुः ऐसा करनेवालोंको स्ययं का गोत्र-प्रवर-शाखा-सूत्र भी ज्ञात नहीं होंगे,
क्योंदक ऐसा िमर्थयाचार, कोई पाखडडी ही कर सकता है, इनके यह कृ त्यों का कोई शास्त्राधार
नहीं हैं । संस्कारमन्त्रहोमादीन्करोत्याचायम एव तु । उपनेयाश्च िविधवदाचायमुः स्वसमीपतुः।।
आनीयाििसमीपं वा सािवत्रींस्पृश्य वा जपेत् । वन्द्यास्वीकरणादन्यत्सवं िवप्रेण कारयेत् ।। इन
ऋषीमतोंका सामान्य अथम ऐसे लोग नहीं समझेंगे और उनसे (िमर्थयाचारीयों से) ज्यादा
अपेक्षा भी नहीं रखी जा सकती । उपनयन मात्र सूती धागा नहीं है, प्रत्येक धागे एवं तंतुमें
देवों का आनवाहन होता है । मेरी उपनयन एवं षडकमम नामकी एक पुिस्तकामें उसका
वैज्ञािनक तकम , पञ्जीकरण के आधार से समझाने का यथामित प्रयास दकया है । उसमें देवत्व
कै से आते है, कौनसे देवता उपिनत का क्या श्रेय करते है, कै से करते है? हम पूछना चाहते है
वैदिक संस्कृदि का चीरहरण - परन्तप प्रेमशंकर पण्डिि पृष्ट संख्या... 15
दक, ऐसी गलत िविध दकस मूखम गुरूने उन्हें िसखाई है? उपनयनकी िविध पूणम शास्त्रसंमत करे
तो कम-से-कम ८ घंटे लगते है, मंच या पीठ पर से पानी िछटककर उपनयन, मात्र मदारी के
खेल या एक पाखडडाचार, आडंबर से ज्यादा कु छ नहीं है । ऐसे करनेवाले स्वयं िविधवत्
उपिनत होते तो, उनको िविध ज्ञात होनी ही चािहए, ये शोटमकट कै सा? जनसामान्य को
मितभ्रष्ट क्यों करते हो? आपका मद एवं अहंकारी आचरण से सनातन वैददक सभ्यता का
कृ पया उपहास या िवनाश न करें , ऐसी प्राथमना पुनुः एकबार करते है । यहां आपको
शास्त्रदपमण ददखानेका मन करता है दक वेदबाह्यव्रताचाराुः श्रौतस्मार्त्मबिहष्कृ ताुः ।
पाषिडडनेित ख्याता न सम्भाष्यािद्वजाितिभुः शास्त्र िवरूद्ध आचरणवालो के िलए शास्त्रमें
पाषडडी(पाखंडी) शब्द प्रयुक्त हुआ है, यह मेरा नहीं, शास्त्र का वचन है, सभी सनातन धमीयों
के िलए । एकबात और भी है, अिधकृ त को उपनयन संस्कार कु ल-पुरोिहत का है, मंत्र दीक्षा
भी िपता ऐवं पुरोिहत गुिरूप से ब्रह्मचारीके दिक्षण कणममें करते है । अन्यके पास यह संस्कार
करवाना हो तो, कु ल पुरोिहत की आज्ञा लेना आवश्यक है, अन्यथा वृिर्त्च्छेन का प्रायिश्चत
लगता है, ऐसे प्रत्यावायी से उपिनत होना पाप हैं ।
भागवतादद पुराणों में ऐसे पाखडडी धमामध्यक्षों की बात कही है, अथम स्वयं करा लेना -
िवर्त्मेव कलौ नॄणां जन्माचारगुणोदयुः । धममन्याय व्यवस्थायां कारणं बलमेव िह ॥
वेदबाह्यव्रताचाराुः श्रौतस्मार्त्मबिहष्कृ ताुः । पाषिडडनेित ख्याता न सम्भाष्यािद्वजाितिभुः।।
किलमल ग्रसे धमम सब लुि भए सदग्रंथ। दंिभन्ह िनज मित किल्प करर प्रगट दकए बहु पंथ॥
सबदी साखी दोरहा, किह दकहनी उपहान । भगितिनरूपहीं भगत, कली िनन्दनह वेद-पुरान ।।
सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी ॥
जो कह झूठ ाँ मसखरी जाना। किलजुग सोइ गुनवंत बखाना॥
िनराचार जो श्रुित पथ त्यागी। किलजुग सोइ ग्यानी सो िबरागी॥
मारग सोइ जा कहुाँ जोइ भावा। पंिडत सोइ जो गाल बजावा॥
िमर्थयारं भ दंभ रत जोई। ता कहुाँ संत कहइ सब कोई॥
सूद्र िद्वजन्ह उपदेसनह ग्याना। मेल जनेऊ लेनह कु दाना॥
सब नर काम लोभ रत िोधी। देव िबप्र श्रुित संत िबरोधी॥
कौड़ी लािग लोभ बस करनह िबप्र गुर घात ।।
वैददक सभ्यता का िवरोध यदद स्वयं परमात्मा जन्म लेकर करे , तो वह भी क्षम्य नही है ।
वेदननदद ननददत भयो प्रकट बुद्ध आवतार िवष्णुके नवमावतार बुद्ध ने वेदमागम के िवरूद्ध
इतना पचार-प्रस्तार दकया था दक उसका िवनास भगवान आदद शंकर ऐवं कु माररल भट्टने
दकया था और उन्हें परास्त करके , भारत से भगाया था । चाहे वक्ता दकतना ही समथम क्यों न
हो, वैददक सभ्यताओं का हनन करनेवाला राक्षस माना जाता है - साक्षरा िवपररताकश्च
राक्षसा ऐव के वलम् रावण भी तपस्वी था, िवद्वान था यद्यिप उसे राक्षस मानते हैं ।
िवद्याकाल में हमारे गुरूजी एक बात कई बार कहा करते थे । एक िशष्यने गुरू को पूछा,
कोऽअन्धुः मन्यते भगवन्, गुरूदेव अंधा दकसे कहते है, तब गुरूदे ने अच्छा प्रत्युर्त्र ददया श्रुित
स्मृित उभे नेत्रे पुराणंहृदयं स्मृतम् अथामत् श्रुित और स्मृित दो नेत्र हैं, और पुराण हृदय है।
नारदीय पुराण में िशव की स्पष्टोिक्त है दक मैं पुराणाथम को वेदाथम. से अिधक मानता हाँ। सभी
वेद पुराणों में सवमदा प्रितिष्ठत हैं । एके न िवकलुःकाणो द्वाभ्यामन्धुः इित स्मृतुः । श्रुित, वेद या
स्मृित-पुराण के बीना काना और िजसके पास दोनों नहीं है वह अन्धा है । आज ऐसे बहुश्रुत
वक्ताओं से यह सत्य प्रतीत होता है । इन दोनों की शास्त्रिवरूद्ध गितिविधयों के िलए और भी
सेंकडों प्रमाण है, लेदकन उनकी समझ में इतना भी आ जोए तो अच्छा ही है ।
इस लेखके माध्यमसे, भारतके सभी िवद्वज्जनों, संतो एवं धमामचायोको प्राथमना करता हुं दक,
आप इस पुिनत अिभयान में सिम्मिलत हो, सहयोगी बनें । यहीं शास्त्ररूपी भगवान की उर्त्म
सेवा है, शास्त्र परमात्मा की आज्ञा है, उसकी उपेक्षा या अपमान करनेवालों का रोकना हमारा
प्रथम कतमव्य है । अन्यथा, हमारी सुषुिि या पलायनवाद, ऐसे वक्ताओंका पाखडडाचार
बढाएगा । हम सभी िवद्वान संगरठत होकर जवाब मांगे ऐसी अपेक्षा है ।