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कोरे कागज के उऩर जो अंकीत होता है , उससे ही कागज का मूल्य बनता है । यदद वेद
या भागवत के मंत्र अंकीत होते तो, कागज शिरोधायय बन जाता है , अन्यथा दकसी दकराना
दक दसकान में ऩस्तीके रूऩमें उऩयसक्त होता है ।
मेरे ववचारों में, व्यवहार में जो संस्कार एवं ज्ञान षसंचन हस आ है , वह के वऱ माता-वऩता-
गसरूजनो की कृ ऩा मात्र ही है , यथा इस नवम ऩसस्तकऩसष्ऩ को इनके करकमऱों में श्रद्धाससमन
के रूऩ में समवऩयत करता हसं ।
इस प्रयास को ऩसस्तक रूऩ में आऩ तक ऩहोंचाने के शऱए अथय सहयोग गांधीधाम के श्रेष्ठी
श्रीयसत् रामावतारजी गोयऱ एवं श्रीयसत् मधससदू न भट्ट ने दकया है , यथा उनका ऋण स्वीकार
करता हसं ।
ऩसस्तक ऱेखन का ववचार साउदी अरेवबया में तीन मास के शनवास दरम्यान, ददनांक
१८.१२.२०१७ में हस आ और प्रारम्भ दद. ३०.१२.२०१७ में हस आ, मेरे ऱेखनकायय की सहभाशगनी
मेरी धमयऩत्नी ऩं. ज्योवतकादेवी का भी मैं धन्यवाद करता हूं ।
जगद्गुरुश्रीिवद्यािभनवश्रीकृ ष्णानन्दतीथहस्वािमिभः
ऄस्मदन्तेवसतां परन्तप प्रेमशङ्कर पिडित आपरयेषां िवषये
श्रीदेवताराधनसमयो कालत्रयिवरिचताः शुभंयुतरा अशीःपरम्पराःसमुल्लसन्तुतराम् ।।
मन्त्रशिक्त एवं ईपासनरहस्य नामकः कश्चन मन्त्रशास्त्रीयग्रन्थः भविद्भः िहन्दीभाषायां व्यरित आित िवज्ञाय महान् संतोष
समजिन । मननापरत्रायततेित मन्त्र आित व्युपरपित्तमनुसपरृ य मननात् नाम िनरन्तरानुिचन्तनाद्यः साधकजनान्त्रायते नाम
संसारदुःखोद्भवबन्धनाच्च संरक्षित स एव मन्त्र आित कथ्यते । ब्रह्मणो मुखािििनयाहतपरवात् प्रणवो नाम ॎकार एव महामन्त्र आित
पररगडयते । ऄयं प्रणवः परब्रह्मणः वाचको भवित । प्रणवानुसन्धानमेव जप आपरयुछयते । ऄत एव योगसूत्रेषु तस्य वाचकः प्रणवः
तज्जपस्तदथहभावनम् आित िनगद्यते । तुररयाश्रिमण एव प्रणवचपानुष्टानं िवधातुं प्रभविन्त । ऄन्येषां साधकानामुपकाराय
नैकेवैददकाः पौरािणकास्तान्त्रकाश्च मन्त्राः परमकारुिणकै ः ऋिषमुिनिभर्तनरूिपताः सिन्त । श्रीमज्जगद्गुरू
श्रीशङ्करभगवपरपादाचायहवयैिवरिचते प्रपञ्चसारनामके ग्रन्थे एतेषां समेषां मन्त्राणां समावेशः सन्दृश्यते ।
एतदितररछय ऄमन्त्रमक्षरं नािस्त आित वचनानुसारं वणहमालायां िवद्यमानाः सवेऽिप वणाहः मन्त्रा एव भविन्त। ऄक्षराणां
संयोजनेन िनष्पन्ाः िविशष्चफलप्रदाः िविवधाः मन्त्राः मन्त्रमहोदिध-मन्त्रमहाणहव-शारदाितलक-मेरूतन्त्र-
शाक्तप्रमोदाददमन्त्रशास्त्रीय ग्रन्थेषु वैपुल्येन समुपलभभ्यन्ते । एवमेव योिगनीहृदय-तन्त्रमन्त्र-कामधेनुतन्त्र-वामके वर रतन्त्र-
रूद्रयामलाददतन्त्रग्रन्थेषु मन्त्रजपहोमाचहनतपहणमाजहनाददिन िविवधािन ईपासनािवधानािन सिवस्तरं िनरूिपतािन सिन्त । एतेषां
समेषां ग्रन्थानां समालोिनेन तत्रपरयान् िवषयान् संग्रह्य ग्रन्थोऽयं संग्रिथतः आपरयवगपरय िनतान्तं सन्तुष्यपरयस्मदन्तरग्ङम् ।
ग्रन्थेऽिस्मन् मन्त्रोपरपित्तप्रकारः मन्त्रदेवतास्वरूपन्यासमुद्राचहनादयः मन्त्रोपासनोपकारकाः बहवो िवषयाः समािवष्ाः सिन्त ।
ग्रन्थरचनाकमहिण िविहतः भवदीयः पररश्रमो भूररप्रशंसनीय आपरयत्र न काऽिप संशीितः । भवदीय लेखनकौशल्यं आतोऽिप
संवधहतािमपरयशास्महे । श्रीमठाधीयोपास्यदवतायाः श्रीिवद्मािम्बकाश्रीमातुः श्रीराजराजेवर यहम्बायाः कृ पापाङ्गतरािङ्गतेन तथा
श्रीमदाद्यजगद्गुरुशङ्करभगवपरपादाचायहवयाहणां िनरवग्रहानुग्रहेण भवदीयायुराराग्यभाग्यवृिधिररभूयोददित संप्राथ्यह
श्रीिवद्याकु ङ्कु माभतप्राद आतः प्रहीयते ।
दो शधद.....
दैवाधीनं जगपरसवहिमदं स्थावरजंगमम् ।। यथाप्रेररतमेतन
े तथैव कु रुतें ििज ।। ना.पु.४१-७ ।।
प्रायः देखा गया है दक, जो ब्राह्मण बिे बिे सम्राटों के िलए, देवताओं के िलए वंदनीय
था, अज वह ऄपनी ऄिस्मता - गौरव - गररमा खो चूका है । मात्र आतना ही नहीं, वह
ईपेक्षापात्र बनता जा रहा है, तब सदुःख अपरमावलोकन करने की अवश्यकता हुइ है ।
मेरा व्यिक्तगत ऄवलोकन यह है दक, ब्राह्मण मन्त्रों की शिक्त खो चूका है, ईनकी पठाधन-
पाठाधन की प्रदिया का लोप हो चूका है, यथा जो ब्राह्मणों की शिक्त एवं सामथ्यह मन्त्रो के
कारण था, और जो समग्र ब्रह्माडि के िलए िशरोमान्य था, वह सन्मान ऄब क्षीण हो
चूका है । ऄयुक्त मन्त्रोच्चारण से सवहथा हानी हो सकती है । मन्त्र की महाशिक्त को ध्यान
में रखकर, ईसे गुरूगम्य बताया और ददक्षोपरान्त ही ईसका ईपयोग की बात कहकर,
गुरूपसदन की प्रधानावश्यकता बताइ है ।
अज, मन्त्र कै सेट में बनते है, गाए जाते है, िशखे जाते हैं । ईसमें स्वर एवं मात्रा का कहीं
भी मेल नहीं होता, मात्र संगीत प्रधान हो जाता हैं । संगीत ऄवश्य एक ईत्तम िवद्या है,
यद्यिप ईसका ईपयोग िववेक से दकया जाना चािहए । संगीत की ईपरपित्त भी वेद से
मानी गइ है । वैसे तो छास (ति) की ईपरपित्त दुध से होती है, छास भी अरोग्यवधहक है,
दुध भी अरोग्यवधहक है, तथािप दुध का छास के साथ सेवन अयुवद े के मतसे हानीप्रद
होता है । दुध ऄपने स्थानपर महपरव रखता है, छास ऄपने स्थानपर । आसी प्रकार
संगीतमय गायत्रीमन्त्र, महामृपरयुञ्जय मन्त्र, गणपित महामन्त्रादद की कै सेट का ईपयोग
यथेछछ नहीं है - यहां वेदमंत्र गौण एवं संगीत प्रधान बन जाता है ।
मंत्रो के ईच्चारण को लेकर ऋिषयों ने ऄथक यत्न दकए है । मन्त्रहीनः स्वरतो वणहतो वा
िमथ्याप्रयुक्तो स्वरतोवणहतो न तमथहमाह । सवाग्वज्रोयजमानं िहनिस्त
तथेन्द्रशत्रुःस्वरतोऽपराधात् ।। पा.िश.५२ । आन्द्र के पराभव के िलए वृत्त ने यज्ञ दकया,
दकन्तु, िमथ्योच्चारण के प्रभाव से ऄथह हानी हुए - स्वयं का पराभव हुअ । वेद-तंत्रादद के
मन्त्रो का परम्परागत ईच्चारण ऄिनवायहता है । वेद या तन्त्र के मन्त्र मात्र गद्यपद्य या
संस्कृ त के ऄक्षर ही नहीं है, वे ऄनन्त शिक्त का स्रोत है । स्वर, मात्रा, लय को ध्यानमें
रखकर वेद के मन्त्रों के पठाधन मे ईदात्तानुदात्तस्वररत की मात्रा िनयत होती है और आसके
िलए शुक्लयजुवेद प्राितशाख्य, कापरयायान प्रितज्ञासूत्र, प्रवरसूत्र, लघुमाध्यिन्दनी,
के शवीय पद्यािपरमका िशक्षा आपरयादद ग्रंथो की रचना हुइ है (आस ग्रंथ के ऄन्त में पररिशष्ट
में आसका ईल्लेख िमलेगा) ।
शधद-नाद ब्रह्म है । परवं चपरवारर वाक्पदािन वाणी के वैखरीरूप में प्राकट्य पयहन्त, चार
ऄवस्था होती है - परा, पश्यन्ती, मध्यमा, वैखरी । परा वाक् का मूल रूप है, िजसमें ऄथह
एवं शिक्त रूपमें भगवान् िशव-शिक्त सिहत िस्थत है । िजस प्रकार बादलमें घन-ऋण
िवजभार होता है, िजसमें प्रकाश एवं ध्विन की शिक्त होती है ऄिपतु ददखती नहीं है वह
पराशिक्त है । बादलों के टकराव पर िबजली होती है और प्रकाश ददखता है वह पश्यन्ती
है, कु छ समयोपरान्त ध्विन सुनाइ पिता है वह वैखरी है । ध्विन एवं प्रकाश के मध्य की
जो िस्थित है वह मध्यमा है । मन्त्रोमें ऄनन्त शिक्त है, यदद आसे सुिनयिन्त्रत करे तो ।
आसकी िवस्तृत चचाह वाक्यपदीय, कामधेनुतत्र ं , वणोधिरारतन्त्र, शारदाितलकादद में है ।
स्वयं भगवान वेद नारायण ने भी यह संकेत देते हुए कहा है दक, िबभेपरयल्पश्रुतािेदो
मामयं प्रितररष्यित महा.१.१.२७३ - मानव मेरे ऄथह एवं शिक्त को ऄघरटत ईपयोग
एवं ऄथह करे गा, और आस पर दूरदृिष्ट रखते हुए, हमारे महामिनषीयोंने, ऋिषयोने
मन्त्रोच्चारण िवज्ञान का िनमाहण दकया । पूवहकाल में वैददक मन्त्रो को पयाहि समझाने के
िलए मंत्र को जटामालादडिरे खा, रथध्वजिशखाघनाः । िममािश्रपरय िनवृत्र ह ा
िवकाराऽष्टिवश्रुताः ।। जटा-माला-दडि-रे खा, रथ,ध्वज,िशखा,घन ऐसे अठाध प्रकार से वेद
पठाधन की पररपाटी बताइ । आसके ईपरान्त ऄनेक तंत्रागमो सिहत, मन्त्रमहोदिध,
मन्त्रमहाणहव, म.म.मञ्जरर, वणोच्चारण िशक्षा जैसे महाग्रंथों का िनमाहण हुअ ।
दुगाह पाठाध एवं रूद्राष्टाध्यायी के साथ, थोिे पूजन के मन्त्र िशखनेपर, अज िवप्र अचायह
बनकर यज्ञ कराते हैं, ढोलक, हारमोिनयम, वाजजत्र लेकर संगीतमय यज्ञ का प्रादुभाहव हो
चूका हैं । पता नहीं चलता दक यज्ञ कराने जा रहे है या नाटक । यह यजमान को तो हानी
करता ही है, स्वयं का भी िवनाश होता है, यथा ब्राह्मण अज िनस्तेज एवं गौरवहीन
होता जा रहा है । मन्त्र-िविधयों का स्थान संगीत एवं भजन ने ले िलया है । स्वयं
विशष्टजी ने कहा है िविधहीनस्य यज्ञस्य सद्यः कताह प्रणश्यित । कमहश्रधिरािवहीना ये
पाषंिा वेदजनदकाः ।। ऄधमहिनरता नैव नरकाहाह हररस्मृतःे ।। वेदमागहबिहष्टानां जनानां
पापकमहणाम् ।। ना.पु. ४१-५.६ ।। आसी परम्परा को, हम पाखडि (पापस्य खडिाः) कह
सकते है । ब्राह्मणों का परम कतहव्य है दक शिक्ततः सवहकमाहिण वेदोक्तािन िवधाय च ।।
समपहयेन्महािवष्णौ नारायणपरायणः ।। ना.पु.४१-८ ।। िविधयुक्त कमहकाडि करें । गीता
मे भी आसका समथहन करते हुए िलखा है - तस्माछछास्त्रं प्रमाणं ते कायाहकायहव्यविस्थतौ।
ज्ञापरवा शास्त्रिवधानोक्तं कमह कतुिह महाहहिस ।।१६.२४।। िविधप्राधान्य होना चािहए ।
आन सभी बातों पर िवचार करके , मैन,े मित एवं सामथ्याहनुसार, आस ग्रंथ का प्रारम्भ
दकया है । िववर ास है दक, िविज्जन मेरे आस प्रयत्न का ऄवश्य प्रितसाद देंगे । पुस्तक के
िनमाहण को िविज्जनों को ध्यान में रखकर ही दकया है ।
पुस्तक िारा िविानों की सेवा करनेका मेरा ईद्देश्य है, ऄिपतु, ऄथहव्यय भी एक मयाहदा
थी, आसका मूल्य नहीं रखा है, यथा प्रतें भी मयाहददत छपी है । कहींपर, कु छ अवश्यक
िवषयपर संिक्षि िववरण करनेका समाधान भी करना पिा है । आन सब बातों को ध्यान
मे रखते हुए, पूरे ग्रंथ का टाइपींग कायह, मैने स्वतः दकया है, एवं आसका प्रुफररिींग भी,
मेरी धमहपत्नी श्रीमित ज्योितकाबेन पिडित ने दकया है । ह्रस्व-दीघह, व्याकरण की क्षितयां
होना पूणहतः सम्भिवत है, यथा आसके िलए मै क्षमायाचना करता हुं । िजस महानुभावोंने
मेरे आस प्रयत्न को प्रोपरसािहत दकया है, ईन सबका मैं ऋण स्वीकार करता हुं ।
आस पुस्तक का मूल्य एवं साफल्य आसमें है दक, यह िविज्जन के करकमलों मे, ऄनुग्रहीत
रहे और यह मेरे िलए प्रेरणास्रोत बनें ।
।। ॎ शं भवतु ।।
िविज्जनचरणानुरागी... पिडित परन्तप प्रेमशंकर (िसधिरपुर), िी.सी.५, प्लोट नं. १०८,
अददपुर - ३७०२०५, कछछ ।
इसी ग्रंथसे.........
दर्शनर्ास्त्र कहता है कक, येन यद्दृश्यतेतत्तु तेनतत्सृज्यतेजगत् । दृष्टस्यभ्राितत
रूपस्त्वात्दर्शनं सृिष्टरूच्यते । हमें जो भी कदखता है, वह हमारी िस्थित का पररणाम
मात्र हैं । एक बडी अधशनारीश्वर की मूर्तत को कु छ लोग वाम भाग से देखते है, उनको
मूर्तत में माताजी कदखते है, जो दििण भाग से देखते है, उसे उसमें िर्वजी लगते है,
ककसीको पीठ कदखती है, ककसीको मुखारिवतद कदखता है तो, ककसीको चरणकमल,
यह दृष्टा की स्वयं की िस्थित का ही पररणाम है । परमात्मा के पूणश दर्शन के िलए तो
मूर्तत की चारों तरफ पररक्रमा करनी पडेगी । वैसे ही र्ास्त्रकारों ने परमात्मदर्शन के
िभन्न-िभन्न दृिष्टकोण - अिभगम बताए, जो र्ास्त्र बन गए । ऋिचनां वैिचत्र्यात् - इस
वसुतधरा पर अनेक िवचारधारावाले लोग है, उनके प्रश्न एवं िवचारर्ैली भी िभन्न-
िभन्न है, सबका समाधान करने हेतु, अनेक िवचारधाराओं का िनमाशण हुआ है.......
ब्राह्ममूहुतश में स्नान िवषये - आजकल प्रायीः देखा है कक, बडे र्हरों में कदन के समय में
वाहनव्यवहार की व्यस्तताको ध्यानमें रखते हुए, रात्री के समय सफाई कायश होता है
। प्रातीः काल गाबेजवान आकर, एकित्रत ककया हुआ कू डा उठा ले जाती हैं । यह
एकित्रत ककए हुए कू डे में बैठकर कोई चाय - पानी - नास्ता नहीं करता । ठीक
परमात्माने हमारे र्रीर में भी ऐसी ही व्यवस्था की है । कदवस दरम्यान इितद्रय
व्यापार एवं ऐिहक प्रवृित्तया इतनी होती हैं कक, र्रीर के आततररक मलों की िनवृित्त
नहीं हो सकती । यथा रात्री के सुषुििकाल में, जब सभी इितद्रया अपने कायशकलाप
को त्यागकर िवश्राम करती है, तब हमारा उत्सजशनतंत्र मलोपहार का कायश प्रारम्भ
कर देता है ...स्नान से पूवश ही नास्ता करने या सूयोदय के बाद जगनेवाले को कै से
िर्िित मान सकते है .... िवज्ञान भी कहता है, की र्रीर के जहर-मल (टोिीन)
को बहार नीकालकर ही खाना चािहए...
व्यािध में यकद वैद्य, औषध की जो मात्रा देते है, उसे पयाशि रूप में लेना ही पडता हैं,
वैद्य के बताए प याप य का भी अनुसरण करना पडता है, अतयथा व्यािध नहीं
जाएगी...
।। श्री िवद्या पातु मां सदा ।।
िसहपुर के भगवत्युपासक श्री परततप प्रेमर्ंकर पिण्डतजी िवरिचत मतत्रर्िि एवं उपासना
रहस्य नािि पुस्तक (प्रुफ कोपी) प्राि हुई । ग्रतथ में मतत्रसास्त्र के िवषय में बहुत जानकारी
िमलती है, जो साधकों के िलए अत्यततोपकारक िसह होगा, इसमे संदह
े नहीं ।
मतत्रर्ास्त्र अितगहन िवषय है, एवं इसकी सवोपकारक र्ास्त्र में पररगणना की गयी है - अतयािन
र्ास्त्रािण िवनोदमात्रं, प्रािेषु वा तेषु न तैश्च ककिित् । िचककित्सत ज्योितषमतत्रवादाीः पदे पदे
प्रयत्ययमावहितत । अथाशत् अतय र्ास्त्र की अपेिा आयुवेद, ज्योितष एवं मतत्रर्ास्त्र सवशजनिहताथश
है । ये र्ास्त्र अपने अिस्तत्व का प्रत्यय पग-पग पर कदया करते है ।
मतत्रो में ही अनततर्िि का आिवभाशव होता है । र्ब्द दो प्रकार के होते है, एक ध्वतयात्मक,
दूसरा वणाशत्मक । सवेवणाशत्मका मतत्रास्ते च र्क्त्यात्मकाीःिप्रये । र्ििस्तु मातृका ज्ञेयो साच
ज्ञेया िर्वाित्मका – कामधेनुतंत्र । इत्यानुसारे ण वणशमाला के प्रत्येक वणश मतत्र है, ये सभी
मतत्रवणश देवता वाचक है । मतत्र एवं देवता में द्वैत नहीं है - वे अभेद है ।
मतत्र पुरश्चरण की परं परा पूरे भारतवषश में प्राचीनकाल से प्रचिलत है । मतत्रर्ास्त्र एक िवज्ञान है,
यथा उनकी तथा उनके उपयोग की पूरी जानकारी होने से ही लाभ हो सकता है, उपसना प्रणाली
ऋिष-देवता-च्छतदाकद एवं उपसना की िविध का भी इस ग्रंथ के िवभाग दो में, सिवस्तर िनरूपण
ककया है । इसके उपरातत मतत्रों की जाित, प्रकार, तयासाकद की भी सप्रमाण प्रस्तुित की है, जो
साधकों को उपसाना ऐवं सुिर्िियों को जागृत करने में सहायक रहेगी । मतत्रानुष्ठान के पूवश
दीिा - दीिाप्रकार, गुरू - गुरूके प्रकार, गुरूपसदनाकद के िवषयपर भी अित व्यवहाररक एवं
सुतदर दृष्टाततों के साथ वणशन िमलता है ।
समग्र ग्रतथ में प्रचुर संख्यामें प्रणाण, सहजोदाहरण, पौरािणक कथानकों के साथ वेदोपिनषद,
पुराण, तंत्रागमों के रहस्यों को समझाने का सुतदर प्रयास दृिष्टगोचर हो रहा है । यह ग्रंथ
उपासको को अवश्य लाभाितवत होगा ऐसा मुझे िवश्वास है ।
सांस्कृ त्युत्थानाथश श्री पिण्डतजी ऐसे ओर ग्रंथो का, उन की सरल र्ैली में रचना करें , ऐसी
अभ्यथशना करता हं । मा पराम्बा इनके समस्त पुरूषाथों को िसह करे , ऐसी प्राथशना के साथ मेरी
िलखनी को िवराम देता हुं ।
िवभाग १
मन्त्त्रशिि
1
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
2
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
गुरूंगणपततदुगाांबटु कं िशवमच्युतम्। ब्रह्माणं िगररजांलक्ष्मीं वाणीं वन्त्देिवभूतये।।
प्ररोचना - मन्त्त्रशास्त्र अित गहन िवषय हैं । मंत्राथांदवे तारूपं िचन्त्तनं परमेश्वरर ।
वाच्यवाचकभावेन अभेदोमन्त्त्रदेवयोाः - शािानंद तरं िगणी ।। मन्त्त्र स्वयं ही
परमात्माका स्वरूप है । शृणद ु ेिव प्रवक्ष्यािम बीजानांदेवरूपताम् । मन्त्त्रोच्चारणमात्रेण
देवरूपंप्रजायते - बृहद्गं धवयतंत्र ।। प्रत्येक वणय मन्त्त्र है, परमात्म स्वरूप है, ब्रह्मरूप है,
सब कु छ उसमें है । परमात्मा तो अनादद अनंत है, हररअनंत हररकथा अनंता इस
अखण्डानन्त्त परमात्मा के पूणयरूपका आलेखन करना दकसीके सामर्थयय की बात नहीं है ।
दकन्त्तु इसका अथय यह तो नहीं दक इसका वणयन त्याग दे, उनकी स्तुित न करें ।
मन्त्त्रशास्त्र के िवषय में वेदप, पुराणप, स्मृितग्रंथप, आगमप में बहूत कु छ कहा है । भगवान्
दिक्षणामूर्तत, भगवान् परशुराम, अगत्स्य, नारद, विशष्ठ, िवश्वािमत्र, वेदव्यास,
शंकराचाययजी से लेकर श्रीभस्करराय, आचायय तुलसी पययन्त्त सबने मन्त्त्र मिहमा गाई है ।
मन्त्त्र, तन्त्त्र, यन्त्त्र उपासना के ित्रभूज है । उदाहरणाथय मोटरकार का स्थूल स्वरूप, धातु
से बनी body बॉडी, यन्त्त्र है । उसमें समािवट-िनयुि टेक्नोलोजी, उपयोग प्रणाली तन्त्त्र है
और कार में बैठकर ध्येय िसद्ध करनेवाला स्वयं मन्त्त्ररूप है, यथा मन्त्त्र स्वयं देवताका
रूप है । मंत्र को देवताओं की आत्मा कहा गया है, तो यंत्र को उनका शरीर - यंत्रं देवानां
गृहम् तथा यंत्र मंत्रमंयप्रोिं मंत्रात्मा देवतविह । देहात्मनोययथा भेदो यंत्र देवयोस्तथा।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
तन्त्त्र है - शरीर के अन्त्तगयत चलनेवाले तंत्र, जैसे शरीर का श्वसनतंत्र, पचनतंत्र,
रूिधरािभसरण तंत्र । यंत्र यानी भौितकढांचा, तन्त्त्र प्रणाली, मन्त्त्र स्वयं देवस्वरूपहै ।
इस लेखमें के वल मन्त्त्र िवषय पर िह चचाय करेंगे ।
संिक्षप्त सारांश, मन्त्त्रो में अिचन्त्त्य शिि है, वैिश्वक ऊजायका दूसरा नाम मन्त्त्र है । मन्त्त्र
देवता का स्वरूपहै, वणायवतार है । समग्र ब्रह्माण्ड की उत्पित्त का स्रोत भी प्रणव, नाद
(मन्त्त्र) को माना है । मन्त्त्रप में सबकु छ है, मंत्र स्वयं देवता का रूप है ।
के वल भारतीय ऋिषयप ने िह नहीं, दकन्त्तु िवश्व की प्रायाः सभी संस्कृ ितयां एवं संप्रदायप
ने मन्त्त्र की अपररिमत शिि का स्वीकार दकया है । सनातन वैददक स्यता या आगमप
के उपरान्त्त बौध, जैन, िशख, इस्लाम, इसाई आदद सबने इसमन्त्त्रो की महाशििका
िस्वकार दकया है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
एक नवजात िशशु का जीवन प्रारम्भ श्वास से होता हैं । श्वासोश्वास िनयिमत रूपसे
चलने पर सोऽहं का ध्विन स्वररत होता हैं । परमात्माने मन्त्त्र से ही जीवनका प्रारम्भ
दकया है एवं इनकी समािप्त पर जीवन पूणय होता है । बहोत सारी दियाओं के िलए हम
यत्न नहीं करते, दकन्त्तु यह स्वयं संचािलत हैं, िजस प्रकार श्वास का चलना, खाये हुए
अिका पचन होना, अपाच्यि का मल बनना, मलप का प्रश्वेद, मूत्र, मलरूपेण बहार
नीकलना, अि से रि, मज्जा, हड्डीयां, त्वचादद की वृिद्ध होना (श्वसन, रूिधरािभश्रण,
उत्सजयनादद) इत्यादद । हमारी जाग्रत, स्वप्न या सुषुिप्त अवस्था में भी, यह कायय पंचप्राण
िनयिमतरूप से करते है । यह प्राण इस सोऽहं मन्त्त्र के साथ चलता है - यही है, मन्त्त्रमय
जीवन का आरम्भ । जब परमात्माने मंत्रमय जीवन ददया है, तो हम िवशेष जानकर
क्तयप न सम्पि बने ।
दकसी वस्तु-िवद्या की यदद स्वताः प्रािप्त है तो, इस िवषयमें ज्यादा जानकर लाभािन्त्वत
होना, अच्छा ही है । जैसे एक व्यायामवीर प्राताः व्यायाम को ध्यान में रखकर चलता है,
एक पोस्टमेन चलता है, एक चौकीदार चलता है, चलनेकी दिया तो सब करते है, दकन्त्तु
चलनेके फलमें अवश्य अंतर होता है । कोई चलना स्फु र्तत या शििप्रद है, तो कोई
चलनेकी दिया थकान या कटप्रद है । एक बङ्रा कम्प्युटर या मोबाईल से खेलता है और
एक आई।टी एक्तस्पटय इसका श्रेष्ठतम उपयोग करता है, एक ही साधनका ज्ञानभेद के
कारण उपयोग में िभिता रहती है । ऐसे ही, मन्त्त्रप के िवषय में, ज्ञान से अपररिमत
शिि की अनुभूित होती है। मन्त्त्रो में अिचन्त्त्य शिि है । मन्त्त्रो का वैखरी रूप, वाणी है,
5
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वाणी में शब्द है, शब्दप मे वणय है, जो के वल हमारे पास ही है । शब्द िबना श्रुित आंधरी
कहो कहां लौं जाय, द्वार न पावे शब्द का, दफर दफर भटका जाय - कबीर । शब्द के
िबना िचन्त्तन अधूरा रहता है । शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशन्त्ू यो िवकल्पाः शब्द को समझना
अत्यावश्यक है और शब्द के वल मनुष्य को ही प्राप्त है ।
नादब्रह्म - हमारे यहां शब्द को, नाद को ब्रह्म कहा है । अनाहतस्य शब्दस्य ध्विनयय
उपल्यते। ध्वनेरन्त्तगयतं ज्ञेयं ज्ञेयस्यान्त्तगयतं मनाः ॥ मनस्तत्र लयं याित तिद्वष्णोाः
परमंपदम् - हठयोग प्रदीिपक ४.१०० । अनाहत ध्विन सुनाई पड़ती है, उस ध्विन के
भीतर स्वप्रकाश चैतन्त्य रहता है और उस ज्ञेय के भीतर मन रहता है और मन िजस
स्थान में लय को प्राप्त होता है, उसी को िवष्णु का परमधाम कहते है - िवश्व-िवकल्प की
पूवयकोरट में उल्लिसत नाद ही मन्त्त्र है । बीजभावेिस्थतं िवश्वं स्फु टीकतुां यदोन्त्मख ु ी
(यो.हृ.तंत्र), ध्विनरूपा यदास्फोटस्त्वदृटािच्छविवग्रहात् । प्रसरत्यितवेगन े
ध्विननापूरयन् जगत् (ने.तंत्र , िवज्ञान भैरव) । ब्रह्माण्ड की उत्पित्त का मूल स्रोत ध्विन
है । अवायचीन िवज्ञान भी अब मानने लगा है । Everything in Life is Vibration – Albert
Einstein.Earth is cause of high vibrations. वैज्ञािनकप की सवयमान्त्य पररकल्पना (Hypothesis )
है दक, छोटे से कण से ब्रह्माण्डोत्पित्त है । वैज्ञािनक God Particle कह रहे हैं । इस अत्यन्त्त
सूक्ष्म कण में महािवस्फोट (Big-bang) के कारण सुिवस्तृत ब्रह्माण्ड की उत्पित्त हुई, जो
लगातार फै लता जा रहा है । आज वैज्ञािनक मानते हैं दक ब्रह्माण्ड में िजतना दृश्य
सामान्त्य पदाथय (Visible Ordinary Matter) है,उसमें इलेक्तरोन्त्स, प्रोटोन्त्स, आयन्त्स, गैस, द्रव,
ठोस और प्लाज़्मा शािमल है । ध्विन इन्त्रा एवं सुपरसोिनक साउण्ड से अब िचदकत्सा,
शल्य, कीट और कीटाणुओं का संहार जैसे छोटे-मोटे काम ही नहीं धातुओं को क्षण भर में
काट डालना, गला देना, एक दूसरे में जोड़ देना इत्यादद काम होने लगे हैं, िजसके िलए
बड़ी-बड़ी मशीनें भी काफी समय लगा देती है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िवद्युत तरंगप में उभारा जाय तो हर ध्विन की फोटो अलग बनेगी, आज इस आधार पर
पुिलस को अपरािधयप को पकड़ने में ९७ प्रितशत सफलता िमली है, न्त्यूयाकय के
वैज्ञािनक लारे न्त्स के स्टाय ने यह खोज की थी और यह पाया दक मनुष्य चाहे दकतना ही
बदल कर, छु पकर या आवाज को हल्का और भारी करके बोले ध्विन तरंगें हर बार एक
सी हपगी । वैसे हर व्यिि की तरंगप के फोटो अलग-अलग होगे। वैज्ञािनक इन ध्विन-
तरं गप के आधार पर व्यिि के गुणप का भी पता लगाने के प्रयास में हैं, यह सफल हो
गया तो दकसी की आवाज द्वारा ही उसके अच्छे -बुरे चररत्र का पता लगा िलया जाया
करेगा । िवज्ञान का यह आिवष्कार कु छ वषो के यत्नप का फल है । हमारे यहा संगीत
िचदकत्सा के रूप में भी संदभय िमलता है । सत्यता ज्ञात नहीं, यद्यिप सूना है नासा भी
ॎकार ध्विन एवं नाद के िवषय में अनुसध ं ान कर रही है । आध्यात्म िवज्ञान ई.पू.
६००० वषो से यथा उपिनषद एवं महाभारत के पूवय से बहूत कु छ जान चूका है, क्तयपदक
महर्तष वेदव्यास के वाङ्मय में भी नादब्रह्म के िवस्तृत वणयन िमलते है ।
नाद ब्रह्म के िवषय में वेदप में, उपिनषदप में, पुराणप में, योग एवं तंत्रागमो में बहोत
चचाय िमलती है (प्रश्नोपिनषद्, माण्डू क्तयोपिनषद्, ऐतेरेयोपिनषद्, श्वेताश्वरोपिनषद्,
श्रीमद्भागवत इत्यादद) । इसके इितररि बौध, जैन, नाथ संप्रदाय, सूफी सािहत्य, िशख
संप्रदाययप में भी बहोत चचाय िमलती है । कबीर सािहत्य में भी अित महत्वपूणय
िवचारणा उपलब्ध है ।
नाद में अनन्त्त शिि होती है । जब हवामें आर.डी.एक्ष या बडे पटाकप के िवस्फोट होते
है, तब उनके आवाज से मकान की मजबुत ददवालप में भी कं पन होता है । नाद की ऊजाय
को सुिनिश्चत रूप में सुिनयोिजत करने का आिवष्कार ही मंत्रिवज्ञान है । उसी नाद से
प्रबल ऊजाय का आह्वाहन अ्यास से करते है । नादाः संजायते तस्य िमेणा्यासतश्च
साः (िशव संिहता) अताः अ्यास करनेसे नाद सूना जा सकता है ।
बाजे बीन िसतार बांसरु ी झंकार मृद ु बानी है... कहें कबीर भेद की बातें िबरला कोई
पिहचानी हो । अनहद सबद होत जनकार, िजिह पौड़े प्रभु श्रीगोपाल । पंचशब्द धुनकर
धुन तहाँ बाजै शब्द िनसान । तार घोर बाजन्त्तरा तहााँ सांच तख्त सुल्तान । सुखमन के
घर राग सुन, सुि मंडल लौ लाय । शब्द खोज यह घर लहै नानकता का दास । गुरू
नानक । सुतय के कानप से दफल तू शब्द सुन । शब्द कहो चाहे कहो अन्त्तर वचन - ७१
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
मौलाना रूम । आसमााँ से आती है हर दम आवाज़, क्तयप पडा है । दुिनयााँ में नहीं सुनता
उसे - ख्वाजा मुइनुद्दीन िचश्ती ।
अब इस बात को थोडा िवस्तृत रूप से देखे । िनाः अक्षर अक्षर रचा, अक्षर रिचया
स्वांस । तीनप सत्ता मेलकर देही दकया िवकास ।। हमारा जो शरीर है यह पूरे
ब्रह्माण्ड की ही प्रितकृ ित है । िजतना प्रितशत जल पृर्थवीपर है, उतने ही हमारे शरीर में
रिपीत्तकफादद रस रूप में िवद्यमान हैं । ब्रह्माण्ड की मूलाकृ ित गोल है, यथा सभी ग्रह
गोल है, पृर्थवी, चन्त्द्र, सूयायदद ग्रह गोल है, नक्षत्र गोल है, सभी वनस्पित के बीज गोल है,
पक्षी के अण्डे गोल है । शुिाणु के बीज गोल है । गभय में िशशुकी िस्थित भी गोल है ।
ब्रह्माण्ड के वायु ही शरीर में भी प्रवेश करते है, पृर्थवी के औषिध, अि, जल, वायु आदद
हमे पुट करते है और चेतना से भर देते है । उपरोि ददव्यनाद ऊजायवान है वह हमारे
शरीर के भीतर भी िनरं तर चलता है । सप्तमुखा मुद्रा से प्राप्त करने की प्रणाली है । नादाः
संजायते तस्य िमेणा्यासतश्च साः - िशव संिहता इस नाद को अ्यास से प्राप्त करके
शाश्वती परमान्त्द की अनुभूित की जा सकती है । अनहद नाद प्रारम्भ में सुनने का उपाय
- एकांत में ध्विनरिहत, अंधकारयुि, स्थान पर बैठकर करें । तजयनी अंगुली से दोनप
कानप को बंद करें , आाँखें बंद रखें । कु छ ही ददनप के अ्यास से अिि प्रेररत शब्द सुनाई
देगा, इसे शब्द-ब्रह्म कहते हैं, यह शब्द या ध्विन या अनाहत नाद हैं, इसको सुनने का
अ्यास करना है । यह नौ प्रकार की होती है ।
२. कांस्य नाद - यह नाद जडत्व भाव नट करके चेतन भाव की तरफ साधक को ले
जाता हैं ।
४. घंट नाद - इसका उङ्रारण साक्षात िशव करते हैं, यह साधक को वैराग्य भाव की
तरफ लेजाती हैं।
६. वंशी नाद - इसके ध्यान से सम्पूणय तत्व के ज्ञान का अनुभव होता हैं।
७. दुन्त्दभ
ु ी नाद - इसके ध्यान से साधक जरा व मृत्यु के कट से छू ट जाता है।
८. शंख नाद - इसके ध्यान व अ्यास से स्वम् का िनराकार भाव प्राप्त होता हैं।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
९. मेघनाद - जब ये सुनाई दे तब मन के पार की अवस्था का अनुभव होता हैं, जहा
शुन्त्य भाव प्राप्त होता हैं ।
इन सबको छोड़कर जो अन्त्य शब्द सुनाई देता है वह तुंकार कहलाता है, तुंकार का
ध्यान करने से
साक्षात् िशवत्व की प्रािप्त होती है। िशवोहम िशवोहम िशवोहम िशवोहम िशवोहम
िशवोहम िशवोहम । मुसलमान फ़कीर इसे अनहद कहते है, अथायत् एक कभी न खत्म
होने वाला कलाम(ध्विन) जो फ़ना(नश्वर) होने वाली नहीं है ।
सद्गुरूओं ने कहा है दक, अनहद शब्द के अन्त्दर प्रकाश है और उससे ध्विन उत्पि होती
है । यह ध्विन िनत्य होती रहती है, प्रत्येक के अन्त्दर यह ध्विन िनरन्त्तर हो रही है अपने
िचत्त को नौ द्वारो से हटाकर दसवे द्वार पर लगाया जाय तो यह नाद सुनायी देता है ।
सहस्रारमध्य में िस्थत चंद्राकार तबदु से स्रिवत होनेवाले अमृत नामक द्रव को सूयायकार
स्थान तक आते आते सूखने से बचाकर उसका रसास्वादन करने से अमरत्व का लाभ
होता है। सूयय एवं चंद्र अथवा नाद एवं तबदु के िमलन से अनाहत तुरही बजने लगाती है
(गोरखबानी, सबदी ५४ तथा कबीर ग्रंथ)। यह िमलन ही िशवशिि का िमलन है, जो
परमिस्थित का सूचक है ।
शब्द-ध्विन की अनंत शिि को डोप्लर दिश्चयन जैसे महान् िवज्ञानीने आिवष्कृ त दकया,
िजसे डोप्लर िसद्धान्त्त से जानते है । आईन्त्स्टाइन ने भी इस की पुिट की और िवकास
हुआ, अल्रासाउन्त्ड तकनीदक का । तरं गलंबाई (वेललेन्त्ग्थ), आवृित्त (दरक्वन्त्सी), अनुपव
ू ी,
मात्रा, वेग आदद के उपयोग से रचनात्मक कायय हो सकते हैं । िभि-िभि रे िडयो स्टेशन
के काययिमप को एक ही उपकरण - रे िडयो से सुनना संभव हो गया है । वैसे तो आकाश
में कई ध्विन तरं गो का अिस्तत्व होगा । तरं गलम्बाई एवं दरकवन्त्सी (नाद-ब्रह्म-कला)
के प्रितिष्ठत सम्बन्त्ध मे िवज्ञान है । ताली बजाकर घरके लाईट-पंखे चालू होना । या
आवाज सूनकर िखलौने के तोते का बोलना इसी िसिद्ध का आिवष्कार है ।
हमने देखा हैं, ध्विन की सुिनश्चत असर प्राणी मात्र पर होती हैं । रोटी लेकर गाय गाय
पुकारने पर गाय आती है, तू तू करनेपर कु त्ता आता हैं । हमने टीवी में देखा था, एक
युवान कौएकी आवाज िनकालता था और सेंकडो कौए आ जाते थे, अन्त्य पक्षी भी सूनते
ही हपगे । हमारी दादी मां ने गायका नाम गौरी रक्तखा था, गौरी बोलते ही वह उनकी
ओर देखती थी । मेरे एक िमत्र के घर पालतु कु त्ता था, टफी नाम था उसका, टफी
आवाज करता था तो, घर के लोग बोलते थे - टफी स्टोप, टफी कम िहअर, टफी
सीटडाउन इत्यादद । टफी वही करता थो, जो उसे आदेश िमलता था । ऐसा कई जगह
पर देखा होगा । क्तया टफी अंग्रेजी पढा होगा या, गाय अपना गौरी नाम जानती होगी ?
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ये तो है वाणी के संस्कार या ध्विन का असर । ब्रह्माण्ड में ऐसा ही ध्विन का असर देखने
िमलता हैं ।
ब्रह्माण्ड में कणायतीत ददव्य ध्विन अिवरत चलता है, जो तीव्र एवं अित ऊजायवान है ।
ब्रह्माण्ड की उत्पित्त में जो नाद कारणभूत है - उसे ॎकार कहते हैं । माण्डू क्तय,
नादतबदू, तेजोिबन्त्द,ु हंसोपिनषद्, हठयोग, संगीतशास्त्रादद में नाद की िवशद चचाय
िमलती है ।
इस लेख के माध्यम से ब्रह्मिवद्या, वाणी, ध्विन, वणय, अक्षर, शब्द, मन्त्त्रो की उत्पित्त,
देवता, मन्त्त्रो के स्वरूप, प्रकार, जाित, छन्त्द, ऋिष,उपासना िम, िविध व अवरोध,
गुरू, ददक्षा इत्यादद िवषय पर यथा मित िवचारप को साकृ त करनेकी चेटा करतेहै ।
कामधेनु तंत्र, योिगनी हृदय, नेत्रतंत्र, रूद्रयामल, कु छ तंत्र एवं यामल, पुराण,
ब्राह्मणग्रंथ, मंत्र एवं मातृकाए, इन्त्टनेट-िवज्ञान के सहयोग से इस लेखको सुरूप करने
का प्रयत्न दकया है । प्रधान उद्देश्य मन्त्त्रशास्त्र के रहस्यप को अवगत करना-कराना है,
यह संपूणय नहीं है तथािप उपासना मागय को प्रकािशत करने के िलए प्रयाण का प्रथम
चरण है । िवद्वानप का मागयदशयन इसे सुंदर बना सकता है ।
आषय ग्रंथ, वैिश्वक ग्रंथ है और ये बात अब शनैाः शनैाः पूरा िवश्व स्वीकारने लगा है, हमारे
ऋिषयप की िवचारधारा पूणयतया वैज्ञािनक तर्थयो पर आधाररत है । उन्त्होनें ज्ञान-
िवज्ञान को जन सामान्त्य तक प्रचिलत करने हेतु, धमय एवं आचार के स्वरूप में, कु छ
िनयम, िविध-िवधान बताए । यहीं िविध-िवधान -िवज्ञान, रूदढयां एवं परं परा का रूप
धारण कर गई - उद्देश यह था दक, िजनकी प्रज्ञा-बौिद्धक क्षमता, इस ज्ञान िवज्ञान को
समझने को समथय नहीं है, वे लोग भी धमायनुसरणी बनकर इससे लाभािन्त्वत हो,
वैज्ञािनक तर्थयप से लाभािन्त्वत हो । िनत्य स्नान, शौच-शुिद्ध, दन्त्त धावन, गंडूष में धमय
ददखाया । ऋिषयप ने पयायवरण की पिवत्रता को ध्यान में रखते हुए, पवयत, नदीया,
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आकाश, वृक्ष, पृर्थवी में देवता बताए । नदीमें स्नानादद करने से नदी का जल प्रदूिषत
होता है, उनकी खिनज सम्पित्त क्षीण (Miniral Property Loss) होती है, यथा उनकी शुिद्ध व
Regain of Miniral Property जलज तत्त्वप को शुद्ध करने के िलए, उसमें तांब,े चांदी, सोने के
िसक्के प्रवािहत करने की िविध बताई । इस परं परा को धार्तमक िविध का रूप दे ददया ।
सुश्पट है दक प्रत्येक आषय परं परा में ज्ञान-िवज्ञान िनिहत है, उनका उद्देश्य इस वसुन्त्धरा
को आनन्त्द एवं पिवत्रता सभर रखना था - वहीं धमय है । समग्र िवश्व के सभी जीवप में
आत्मभाव एवं करूणा ददखाई - वसुधैव कु टु म्बकम् की ही उदात्त भावना से भरा है
हमारा आध्यात्म । इसी श्रृख ं ला में यह छोटा सा प्रयास है, मन्त्त्रो को यथाथय जाननेका ।
इस प्रयास के प्रारम्भ में ही, दकसीने हमें सूिचत दकया था, दक इतना पररश्रम क्तयप करते
हो, के वल रामनाम में सब कु छ िनिहत है । बात िबलकु ल सत्य है, भगवान िशवजीने
कहा - राम रामेित रामेित रमेरामे मनोरमे, दफर इतने आगम क्तयप कहे ? भगवान् स्वयं
वेदरूप में इतने मंत्रो को स्वरूप में क्तयप प्रगट हुए ? राष्ट्रमें सबको नैितक बनना है,
इतनी बात ही पयायप्त है, इतने कानून क्तयप है ? धनाढ्यप के पास पयायप्त सम्पित्त है, क्तयप
नए नए आयाम शरू कर रहे है ? भगवान् आदद शंकराचायय, रामानुजाचायय,
िनम्बाकायचाययजी, वल्लभाचाययजी आदद का प्रयास भी क्तया व्यथय है ? संत िशरोमणी
तुलसी दासजी ने रामनाम से राम को प्राप्त कर िलया था, रामचररत मानस की रचना
करनेकी क्तया आवश्यकता थी ? क्तया ऋिषयपके प्रयास को व्यथय माना जा सकता है ?
िवद्युत की चुंबकीय ऊजाय का ज्ञान होने के साथ ही, इलेक्तरीक मोटर से लेकर अनेक
उपकरणप का आिवष्कार हुआ । इलेक्तरोिनक्तस-इलेक्तरीकल्स क्षेत्र में अनेक िसिद्धयां प्राप्त
हुई, अनेक शाखाओं का िवकास हुआ, टेक्नोलोजी की अनेक पुस्तकें छपी । बस इसी
प्रकार अनन्त्त चेतना का ददव्य साक्षात्कार होनेके साथ ही, उस महाशिि की असीम
शिि-कला का दशयन ऋिषयप ने दकया, जो अनेक शास्त्रग्रंथो के रूप में, आज हमारे
मागयदशयक बने है । अनेक शास्त्रप में से, िजस पर हमारी श्रद्धा दृढ हो उस मागय पर
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
चलना चािहए । गीता में अटादश योगप का उपदेश के उपरान्त्त अजूयन को कहा दक
बुिद्धयोगं ददाम्यहं - सवयस्य बुिद्धरूपेण - मेरी प्रदत्त तेरी बुिद्ध द्वारा जो ठीक लगे इसे तु
अंगीकार कर ।
एक सामान्त्य उदाहरण देते है - आपकी कार आपका ड्राईवर चलाता हैं । वह अपने
िहसाब से ही ड्राईतवग सीट आगे-पीछे करता है, लेफ्ट-राईट िमरर को अपने िहसाब से
सेट करता हैं, अन्त्दर का काच भी पीछे का वाहन ददखे, ऐसे सेट करता है । यदद अब
आप कार चलाएंग,े तो यह सब अपने िहसाब से पुनाः सेट करें गे या नहीं, क्तयपदक अब
आपको देखना हैं, आपकी उं चाई-चौडाई के िहसाब से सीट भी आगे-पीछे करें गे ।
आपको जो शास्त्र का जो मागय ज्यादा उिचत लगे, आप प्रशस्त होकर उपासना करें ।
हमारी िववशता ये है दक, ४०० से अिधकवषय पययन्त्त िवधमीयप से, हम शािशत रहे और
इसके फलस्वरूप हमारी िवचारधारा, तर्थयप को आत्मसात् करनेकी अपनी प्रणाली,
परं परा, पररभाषा, पररमाण सबकु छ क्षीण हो गया । हम स्वतंत्र तो हो गए, दकन्त्तु
हमारा मानस आज भी पाश्चात्य िवचारधारा का अनुसरण करता रहता है । हमें
सान्त्ताक्तलॉज या वेलन्त्टाईन डे मनाने का कोई तार्ककक कारण भले ही न िमले, तब भी
हम पूणय रसमय होकर मनाते है, दकन्त्तु, हमारे महान पूवयज स्थािपत तर्थयप को,
अताकीक मानते है । इसमें श्रद्धा नहीं है, उसकी उपेक्षा करते है ।
हमारा उद्देश्य दकसी स्यता या संस्कृ ित का िवरोध करना नहीं है । क्तयपदक इस समस्त
सचराचर ब्रह्माण्ड परमात्मा में िनिहत है - िसया राममय सब जग जानी । करउं प्रणाम
जोरर जुग पानी । तभी तो वह पूणय परमेश्वर है । हमारे यहां तो राक्षसप का भी सत्कार
करते है, क्तयपदक उसके बीना भी परमात्मा तो पूणय नहीं होगा, हमारे अद्वैतमें ब्रह्म के
िसवा कु छ है ही नहीं । मात्र राजा की मुद्रा वाला िसक्का ही सही मानेंग,े तो पीछे दी हुई
नम्बर की मुद्रा भी सही है, अन्त्यथा रूपया पूरा नहीं होगा ।
प्रायाः िवश्व के सभी सम्प्रदाय मृत्योपरान्त्त स्वगय, हेवन, जित प्रािप्त की बात करते है ।
दकन्त्तु हमे गवय है दक इहैव फलमश्नुत,े इहचेत् अवेदीाः अथ सत्यमिस्त,यदेवह े तदमुत्र
द्वारा, अमारा वेदान्त्त, तन्त्त्र एवं योग इसी जन्त्म में मुिि की अनुभूित कराता है । तप
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
द्वारा सब कु छ प्राप्य है, क्तयपदक, हमारे यहां ब्रह्मा द्वारा सृिट की उत्त्पित्त तप से बताई है
और तपसा चीयते ब्रह्म सृिट में ओतप्रोत परब्रह्म की अनुभूित भी तप से होती है ।
एक सुन्त्दर उदाहरण देते हैं, िजस प्रकार इलेिक्तरक मोटर में िवद्युत सप्लाय देने से, उसमें
गित आती है, इस से िवपररत इसी मोटर का आमेचर बनाके गित देने से पुनाः िवद्युत
उत्त्पि होती है । तप माध्यम है - परमात्मा से सृिट एवं सृिट में पुनाः ब्रह्मानुभूित का ।
सत्य तो यह है दक, िजस क्षेत्रका ज्ञान अवगत करना है, उसी क्षेत्र की पररभाषा,
परम्परा व प्रणाली का आश्रय लेना होता है । जैसे दक, रसायण िवज्ञान को िमके िनक
ईिन्त्जनीयरीं के रूप में नहीं समजा जा सके गा । दकसी किव के काव्यरस को गिणत की
भाषामें नहीं समझ सकते । िसिवल ईिन्त्जनीयरींग की बाते उसी की (Methods and
Terminology) पररभाषा एवं पररमाणप से जान पाएंगे । भावसभर किवता की तरह
इलेिक्तरकल ईिन्त्जनीयरींग नहीं समझा जाएगा । पररमाण एवं पररभाषाए िवद्या के
क्षेत्राधीन होती है । वेदोपिनषद एवं आध्यात्म (वेदान्त्त) की भी अपनी, पररभाषा एवं
पररमाण है । उष्णता एवं गित, दूध एवं अनाज को नापने का मान और साधन एक नहीं
हो सकता । हर वस्तु को हम हमारे पास प्राप्य पररमाण से नहीं माप सकते, पररमाण
बदलने पडते है । जो हम नहीं समझ पाते, उसे उपेक्षा करके छोड देते है । पं. मेक्तसमूलर
जैसे िजज्ञासु बहोत कम होते है ।
प्रेरणा एवं प्रयोजन - िहन्त्दी में िलखनेका मेरा अ्यास अित कम है, यथा इसमें कई
क्षितया ददखने का पूणय सम्भव हैं, अताः प्रारम्भ में ही मैं वाचकवगय से इसके िलए
क्षमायाचना करता हुं । मैं कोई िसद्धहस्त लेखक नहीं हुं, यद्यिप लेखन की रूिच मेरा
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वंशीय संस्कार है । मेरे िपताजी, वैद्यशास्त्री पिण्डत प्रेमवल्लभ शमायजी एक िसद्धहस्त
लेखक थे, डॉ.वाकणकरजी, कोटा के बडे देवताजी, डॉ.अमृतवसंत पण्याजी, श्री
लननप्रसाद व्यास, श्री दयानन्त्द शास्त्रीजी जैसे अनेक महानुभाव उनकी लेखनशैली से
प्रभािवत थे । उनका लेखनक्षेत्र इितहास, पुरातत्त्व एवं आयुवद े रहा । मैं तो के वल
िवद्वज्जन चरणरे णु हुं । यद्यिप, इस रे णु को कु छ िसद्धप का, संतो का, िवद्वानप का,
गुरूजनप का पुिनत चरणश्पशय हुआ है, फलताः इस रे णुमें संस्कार, िवचार एवं
ददव्यचेतना संचाररत हुई है । इसे गुरू कृ पा कहुं या इटबल कहुं । इसे वंशीय िवरासत
कहुं, उपासना से संप्राप्त आत्मचेतना कहुं । इस रे णुमें, अगम्य ग्रंथोमें से, कु छ पानेकी
क्षमता प्राप्त हुई । इससे पूवय गुजरय एवं िहन्त्दी भाषामें कु छ लेख प्रकािशत हुए है, िजसको
प.पू. जगद्गुरू श्रीस्वरूपानन्त्दजी द्वारकापीठ, प.पू.जगद्गुरू श्रीजयेन्त्द्र सरस्वतीजी,
कांचीपीठ, ब्रह्मलीन पू.श्री कृ ष्णशंकर शास्त्रीजी, ब्रह्मलीन प.पू.श्री प्रमुखस्वािम
महाराज जैसे महानुभावप द्वारा प्रशिस्त प्राप्त हुई है, इसे मेरा सद्भाग्य एवं प्रेरणास्रोत
मानता हुं ।
धमयशास्त्र में िजनका कोई अ्यास नहीं, वे लोग उपदेशक बनेंगे तो क्तया होगा ? दफल्म
अिभनेता यदद िबना कोई अ्यास, अथयशास्त्र, संरक्षण या िवदेशनीित में अपना िनणयय
बताए, यह सवयथा अनुिचत ही होगा । कोई राजनेता पंिडत बनके पुराणप की िशक्षा
देगा तो क्तया होगा, जो दकसी श्लोक का अन्त्वयपूवक य सामान्त्य अथय करनेमें भी असमथय
हो, इससे अनुकरणशील मनीषावाले व्यिि मागय भ्रिमत होते है । उपासक एवं
िजझासुओं के िलए, ददग्दशयनाथय यह लेख प्रकािशत करते है, क्तयपदक - अिवज्ञाते
परे तत्त्वे शास्त्राधीितस्तुिनष्फला । िवज्ञातेऽिप परे तत्त्वे शास्त्राधीितस्तुिनष्फला - ५९॥
साथ साथ यह भी है दक - शब्दजालं महारण्यं िचत्तभ्रमण कारणम् । अताःप्रयत्नाज्ज्ञातव्यं
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
तत्त्वज्ञैस्तत्त्वमात्मनाः - िववेक चूडामिण ६०। जैसे दकसी व्यिि को मुंबई जाना हो, तो
अनेक बाते जाननी आवश्यक होती है । कै से जाए, कहां जाए, कहां रूके , रेन का
समयपत्रक, पहुंचने का समय, दशयनीय स्थल इत्यादद । दकन्त्तु जो मुंबई के बारे अच्छे से
जानता है, इसे कोई मागयदशयन की आवश्यकता नहीं है, कोई गाईड की आवश्यकता नहीं
और िजसे मुंबई जाना ही नहीं है, उसे भी यह जानकारी िनरथयक है । दूसरी बात,
पुस्तकपमें, मागयदशयको के पास, बहूत सारी जानकारी उपलब्ध हो जाती है, तब भी प्रश्न
उठता है, कोन-सा िवकल्प उिचत रहेगा, कौन-सा नहीं । यहीं बात उपासना िम में भी
आती है । िजनको आध्याित्मक उत्कषय या उपासना में कोई रस ही नहीं, उनके िलए ऐसे
लेख से कोई मतलब नहीं है और जो िवद्वान है, िजन्त्हपने शास्त्रा्यास दकया है,
गुरूपसदन दकया है, उनके िलए, मन समािहत करना सहज है ।
अब देखे तो, शास्त्रोमें बहूत बाते है, सभी को पढ़ पाना, पूणयतया संभव नहीं है, उससे
तो मन बहूधा संकल्प-िवकल्पात्मक बन जाता है, भ्रिमत हो जाता है । ऋिषयप ने इतना
संशोधन दकया है दक, प्रायाः सभी दृिटकोण से सत्य को आत्मसात् करना अितसरल बन
जाए । प्रत्येक तर्थय को अितसूक्ष्मता से प्रकािशत करके , पूरे िवश्वको हमारे
महामिनषीओ नें उपकृ त दकया है । इस अवस्था में यह एक छोटा सा प्रयास, िजसमें
वेदोपिनषद, पुराण, स्मृित व तंत्रागम ग्रंथो का समन्त्वयात्मक अ्यास है ।
जैसे, अमावास्या की रात्री में कहीं तीन-चार दकलोमीटर दूर गंतव्य पर जाना है, मागय
ददखता नहीं, क्तया करें ? हां, हमारे पास एक टोचय है, दकन्त्तु इसका प्रकाश तो नौ-दश
मीटर से ज्यादा दूर नहीं जा सकता, कोई बात नहीं चलना प्रारम्भ तो करे , क्तयपदक,
प्रत्येक नौ मीटर से आगे के नौ मीटर दृिटगोचर हपगे । गन्त्तव्य आ जाएगा । स्वल्पोिप
दीप किणका बहुलं नाशयेत्तमाः एक छोटे से ददपक से बहोत सारा अन्त्धकार दूर होता है,
प्राप्य पदाथय ददखने लगता है - ऐसा ही यह एक छोटा सा प्रयास है, िजसमें कु छ
पौरािणक कथानक है, कु छ आगम-िनगमका, तंत्र-योग का आश्रय है, तो कहीं कहीं
िवद्वानप के मत भी है । इसी के साथ अब मूल िवषय पर प्रशस्त होते है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वेद - वाक् का प्रागट्ड - अब ब्रह्मिवद्या, वाणी, वेद, वणय, अक्षर, मन्त्त्र आदद के
प्रागट्ड के िवषय में चचाय,एक कथा प्रसंग से प्रारम्भ करें गे ।
एक कालमें, ब्रह्मलोक में, ब्रह्माजी अपनी सभा में बैठे थे । देवी ब्रह्मिवद्या ने आकर
ब्रह्माजी को प्रणाम दकया और िनवेदन दकया दक, उन्त्हें मृत्युलोकमें जानेका संकल्प हुआ
है । ब्रह्माजी प्रसि होकर बोले - देवी, आपका संकल्प अित शुभ संकेत देता है । अब
अनेक प्रश्न हुए, जैसे दक कहां अवतरण होगा, कै से होगा, कौनसा स्वरूप होगा इत्यादद ।
इस चचाय के दरम्यान ब्रह्माजीने सूचक दृिट से भगवित सरस्वित के प्रित संकेत दकया,
और अचानक ही भगवित की तजयनी का वीणा को श्पशय हुआ । वीणा से झंकार ध्विनत
हुआ और समस्या का समाधान भी िमल गया । भगवित वाणी स्वरूप में प्रगट होगी ।
अब स्थान एवं कु ल कौनसा होगा ? इसका भी समाधान हो गया । सुदीघय काल से पृर्थवी
पर ऋिष - मुिन व्रत-तप-अनुष्ठान कर रहे है । इनका तन-मन सब पिवत्र एवं िनमयल बन
चुका है । इनके अन्त्ताःकरण से ज्यादा पिवत्र स्थान कहां हो सकता है । समािधस्थ
अवस्था में जब महर्तषगण, पूणयतया परमात्माको समर्तपत हो, तब वाणी के साहचयय से,
ऋचा के रूपमें प्रकट होना अित शुभ संकेत है । इस प्रकार ब्रह्मिवद्या-वाक् का ऋचाओं
के रूपमें प्रागट्ड हुआ ।
िवदुषी वाक् महर्तष अम्भृण की पुत्री थी । स्वयं तपिस्वनी एवं पिवत्र व्यवहारवाली थी ।
प्रश्नाथय मुद्रा से उसने िपता की तरफ देखा । िपताजी समझ गए । उसे ब्रह्मज्ञान का
आस्वादन कराया एवं तपमागय के प्रित प्रशस्त दकया । तपसे सुपक्व प्रज्ञा में, ब्रह्माण्ड के
प्रत्येक कण में, अणु में िवलिसत िचिद्वलास का दशयन हुया । वाक् ने उग्र तपस्या से ददव्य
ऊजाय को आत्मसात् दकया और स्वयं तप से अििरूपा बनकर पूरे ब्रह्माण्ड में व्याप्त हो
गई । आज भी वह ददव्य तेजरूपा वाक् प्रितिष्ठत है । ऋग्वेद में इसकी संगित इस प्रकार
है - परोददवापर एना पृिथव्यैतावती मिहना सं बभूव (ऋग्. वागाम्भृणी) ।
इस दोनप कथानकप के पुिटकर कु छ प्रमाण वेद एवं ब्राह्मण ग्रंथो में िनम्नानुसार है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
त्वामिेपुष्करादध्यथवाय िनरमन्त्थत । मूर्ध्नो िवश्वस्य वाघताः - सामवेद । मन्त्त्र
ब्राह्मणयोवेदनाम धेयम् । वाग्वै देवान् मनुष्यान्त्प्रिवशन्त्तयैत्तस्या यदत्यररच्यत
तद्वनस्पतीन् प्रािवशत् सैषा वनस्पितषु वाग्वदितया दुन्त्दभ ु ौ या नायां या तूणवे यद्दण्डो
भवित वाच एवाितररिमवरुन्त्द्धे तंमैत्रावरुणाय प्रयच्छित वाचमेवास्मै तत् प्रयच्छित -
काठ.सं. २३.४ । वाक् च प्राणश्चैन्त्द्रवायवाः ...। वाक् च वा एष प्राणश्च ग्रहो यदैन्त्द्रवायवाः
.. । वागायुर्तवश्वायुर्तवश्वमायुररत्याह प्राणो वा आयुाः प्राणो रे तो वाग्योिनाः योतन
तदुपसंधाय रे ताः िसञ्चित - ऐ.ब्रा.२.३८ वाग्वै ब्रह्म - ऐ.ब्रा.६.३, जै.ब्रा.१.१०२।
अििवायग्भूत्वा मुखं प्रािवशद्वायुाः प्राणो भूत्वा नािसके प्रािवशत्आददत्यश्चक्षुभूयत्वाऽिक्षणी
प्रािवशदद्दशाः श्रोत्रं भूत्वा कणौप्रािवशन् …..। चन्त्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्रािवशत् -
ऐतरे य ब्राह्मण २.४.२ ।
सारांश - वाक् ब्रह्म है । अिि ने वाक् बनकर मुख में प्रवेश दकया । नाक में वायु होकर
देवता-प्रिवट हुए । सूयय ने नेत्रप में िनवास दकया।ददग्पाल कानप में प्रवेश कर गये।
चन्त्द्रमा मन बनकर हृदय में समाया, वाक् ही ग्रह-प्राण-नक्षत्रप का रूप है । यदद हम
देव, वेद मन्त्त्र, वाक् , जप, स्वर के ताित्वक स्वरूप को समझ सके , तो िनस्सन्त्दह
े मन्त्त्र
शिि के अद्भुत चमत्कार, मूर्ततमान होकर सामने आसकते है । मन्त्त्र दशयन के समय
ऋिष अपने व्यिित्व से स्वतन्त्त्र थे, ऋचाओं के रूप में, कोई दैवी शिि द्वारा ही उनका
प्रादुभायव हुआ हैं ।
सभी प्रमाणप का सारांश इस प्रकार है की, भगवित वाक् का ऋचा रूपेण (वेदप के रूप
में) स्वताः प्रागट्ड हुआ है । उस वाक् स्वरूपा कामधेनु के चार स्तन हैं - स्वाहा, स्वधा,
हन्त्त, वौषट् िजसमें से स्वाहा-वषट् दो स्तन देवप को पुट करते हैं, स्वधा से िपतृओं ऐवं
हन्त्त से मनुष्यप को पुिट िमलती हैं, प्राण उनका स्वािम हैं, मन वत्स हैं । प्राक्तसंिवत्प्राणे
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पररणता - प्राण का संिवत् दो प्रकार का हैं, जो स्पन्त्दन का आधार हैं - स्पन्त्दात्मक या
स्वाभािवक - प्रयत्नजन्त्य या दियात्मक । यह स्पन्त्दात्मक शिि से सामान्त्य भाषा का
व्यवहार होता हैं, जबदक, प्रयत्नजन्त्य दकसी िवशेष िसिद्ध हेतु प्रयोिजत दकया जाता है,
उदाहरणाथय शंखनाद, घण्टारव, वेदघोष का प्रयोजन पयायवरणिस्थत प्रदूषणप को दूर
करके , उसे मंगलमय, ऊजायवान बनाने का, सकारत्मकता का उिद्वपन करनेका हैं ।
यज्ञादद एवं िववाहादद मंगल कायो मे इसी प्रयोजन से मृदंग, वीणा, भेरी, झालर,
शहनाई जैसे मंगलवाद्यो का उपयोग प्रचिलत है, मन्त्त्र रूप में पूरे ब्रह्माण्ड का िवज्ञान
घोिषत होता है ।
इस ब्रह्माण्ड में सवयत्र संव्याप्त ब्रह्मघोष को, योगवेत्ता स्वर के रूप में पररणत करते है ।
वाक्तशिि को अिि भी कहा गया है । यह अिि सवयत्र तेजिस्वता,ऊजाय,प्रखरता एवं
आभा उत्पि करती है । इसिलए वाक् अिि भी है । बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत्प्रैरत
नामधेयं दधानााः । यदेषां श्रेष्ठय ं दररप्रमासीत्प्रेणा तदेषां िनिहतं गुहािवाः -
ऋग्.१०.७१.१।। यज्ञेन वाच: पदवीयमायन् तामन्त्विवन्त्दन् ऋिषषु प्रिवटाम् - ऋग्वेद
१०.७.१३ ।। त्वामिे पुष्करादध्यथवाय िनरमन्त्थत । मूर्ध्नो िवश्वस्य बाधताः ।
ऋग्.६-१६-१३, यजु. १५-२२।। अताःसृिट के आरम्भमें िविभि पदाथो के
नामकरण की इच्छावाले ऋिषयप ने जो वचन उङ्राररत दकए वह वाणी का आदद स्वरूप
(वेद) था । परमात्मा की प्रेरणा से ही इनकी हृदयगुहा में ज्ञान प्रकट हुआ । वाणी की
खोज यज्ञ से की गई है । उसे ऋिषयोाँ में प्रिवट पाया गया । इस प्रकार ब्रह्मिवद्या की
उत्पित्त हुई है ।
श्रुित एवं वेदप के िवषय में िलखा है - वेदो नारायणाः साक्षात् स्वयंभूाः इित शुश्रुम -
भाग. । अस्य महतो भूतस्यिनश्विसततमतद्यतृग्वेदो यजुवेदाः सामवेदोथवायिगगरसाः
बृह.२.४.१०, यो वै वेदांश्च प्रिहणोित तस्मै - श्वेता.६.४ । मनुस्मृित कहती है - श्रुितस्तु
वेदो िवज्ञेय:- ६, आददसृिटमार्याद्यपययन्त्तं ब्रह्माददिभ: सवाय: सत्यिवद्या: श्रूयन्त्ते सा
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
श्रुित: । वेद कालीन महातपा सत्पुरुषप ने समािध में जो महाज्ञान प्राप्त दकया और िजसे
जगत के आध्याित्मक अ्युदय के िलये प्रकट भी दकया, उस महाज्ञान को श्रुित कहते है।
वेद परमात्मा के िनश्वास से प्रकट हुए है और वेद स्वयं नारायण स्वरूप ही है । वेद चार
है ऋग्वेद, यजुवेद, सामवेद एवं अथवयवेद ।
वेदप का अपौरूषेयत्व - वेद स्वयंभू है, िजसे प्रथम ऋिषयपने सुना - यथा उसे श्रुित
भी कहते है । श्रुितश्च िद्विवधा वैददकी तािन्त्त्रकी च । तन्त्त्र-वेद का अनुपम सम्बन्त्ध है ।
मुख्य तन्त्त्र तीन माने गये है - महािनवायण तन्त्त्र, नारदपाञ्चरात्र तन्त्त्र, कु लाणयव तन्त्त्र ।
वेद के भी दो िवभाग है - मन्त्त्र िवभाग और ब्राह्मण िवभाग - वेदो िह मन्त्त्रब्राह्मणभेदेन
िद्विवध: । वेद के मन्त्त्र िवभाग को संिहता भी कहते है । संिहतापरक िववेचन को
आरण्यक एवं संिहतापरक भाष्य को ब्राह्मण ग्रन्त्थ कहते है । वेदप के ब्राह्मण िवभाग में
आरण्यक और उपिनषदका भी समावेश है।
आगे ददए गए प्रमाणप से स्पट होता है दक वेद की ऋचाओं का प्रागट्ड स्वताः हुआ है,
िजस प्रकार मेघगजयना का रचनाकार कोई नहीं है, वे प्राकृ ितक ही है, जैसे प्राकृ ितक
वायु संचार, समुद्र का गूघ ं राव, वृक्षोमें से आवाज का कारण महाप्रकृ ित होती है, उनका
सजयन (प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूप में भी) मानव िनर्तमत नहीं हैं । ऋचो अक्षरे परमे
व्योमन् यिस्मन्त्देवा अिध िवश्वे िनषेदाःु । सवेवेदााः, सवे देवाश्च परस्मादेव आत्मनाः जातााः
सन्त्ताः परमात्मन्त्येव प्रितिष्ठतााः सिन्त्त । परं ब्रह्मैव समस्तस्यािपिवश्वस्य आस्पदभूतं
कू टस्थं तत्त्वम् । सवायिण वेद वेदान्त्त शास्त्र पुराणािन तमेवपरमात्मानं प्रितपादयिन्त्त ।
परब्रह्मणाः िवज्ञानमेव परमं लक्ष्यम् - यथा ब्रह्मिवद्या एवं वेदप का प्रागट्ड स्वयं ही हुआ
है । वेद अपौरूषेय है ।
अन्त्य िवचार से, वाणी के चार दोष है - भ्रम, प्रमाद, िवप्रिलप्सा, कणायपाटव । भ्रम
कहते है - दकसी वस्तु को न पहचान करके दूसरा रूप समझना, जैसे शुिि में रजत या
रज्जू में सपय देखना । मन की असावधानी, आलस्य - दकसी बात तो िवलिम्बत को प्रमाद
कहते है । बड़े-बड़े बुिद्धमानप में भी उपरोि दोष होता है । तो मन की असावधानी, ये
प्रमाद है । िवप्रिलप्सा कहते है, अपने दोष को छु पाना । हर चीज में दखल देने को
अहंकार कहतेहै । स्वयं के दोष छु पाना िवप्रिलप्सा कहते है । अनुभवहीन होने पर भी
अपने को अनुभवी िसद्ध करना यह कणायपाटव है । कु छ इिन्त्द्रयजन्त्य दोष है, नेत्र ने जो
देखा या कान ने जो सूना वही सत्य मानना - नेत्र गलत भी देखती हैं, जैसे सूयय को
छोटा, प्रवास में वृक्षो व पवयतो को दौडते देखना भ्रम है , यह है करणापाटव । इसका
यदद कोई रचनाकार होता तो उसमें उपरोि करणापाट - िवप्रिलप्सादद वाणी के दोष
आ ही जाते, दकन्त्तु वेदप में ऐसा नहीं पाया जाता ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आथवयणायािश्वनादधीचेश्व्यंिशराः प्रत्यैरतम् । (ऋग्वेद १.११७.२२) । बृहदारण्यकोपिनषद
से संकिलत यह कथा है । संक्षेप में - दध्यंग ऋिषने, अश्वनी कु मारपको घोडे के मुख से
ब्रह्मिवद्या का उपदेश दकया । यदद ब्रह्मिवद्या - वेदप को दकसी मानव के िवचारप की
प्रस्तुित मानेंगे, तो िबना मानवशीषय उपदेश करना संभव नहीं था, अश्व के मुख द्वारा ही
हृदयस्थ ब्रह्मिवद्या को स्वररत दकया । परमात्मा ज्ञान स्वरूप है, ज्ञान का स्थान सवयत्र
है, बुिद्ध व िवचारप का स्थान मिस्तष्क है, यथा वेदप को बुिद्ध की उपज मानेंगे तो िबना
मानव मिस्तष्क कहना असंभव होता । हमारे िवचार, संकल्पादद की प्रस्तुित हमारी
वाणी के द्वारा होती है, जब हमारा मिष्तष्क ही न हो तो, प्रस्तुित में हमारे िवचार या
बुिद्ध का अंश कै से आ सकता हैं । ऋिषने ब्रह्मिवद्या को अश्वमुख से कहे है, यथा वेदप की
अपौरूषेयता स्वयंिसद्ध है ।
सारांश यही है दक ऋचाओं के रूपमें वेदप का प्रागट्ड हुआ है एवं आषयदट ृ ा ऋिषयपने
उस ददव्यज्ञान को तप द्वारा आत्मसात् दकया । वे तो मात्र मंत्रो के अथय एवं शिि को
आत्मसात् करके मंत्रो के दृटा बन गए ।
कोई मानव भारत में हो या अमररका में, चीन में या श्रीलंकामें, आदरका में हो या
ओस्रेिलया में, सब को दो आंख,े दो हाथ इत्यादद समान अंग होते है, सबका पचनतंत्र,
श्वसनतंत्र, उत्सजयनतंत्र, रूिधराभसरण एवं यकृ त एक जैसे ही काम करता है । पक्षी -
वृक्ष का सामान्त्य स्वरूप एक जैसा ही है । कौए िाउ-िाउ करते है व काले होते है,
गाय दूध देती है, वृक्षप के पांव नही होते, भेंस भारत में होया आदरका में दो तशग ही
होते है । जीव मात्र में एक जैसी क्षुधा-तृषा-काम-भय-िनद्रा की ऊर्तमयां होती है, जो
धमय - संप्रदाय - जाित िनरपेक्ष होती है । सूयय - चन्त्द्र - वषाय - ऋतुए भी कभी नाम,
देश, जाित पूछकर अपनी शिि प्रभािवत नहीं करते । यथा इस समस्त ब्रह्माण्ड का
सजयनहार एक ही है, हम दकसीका नाम नहीं देते ।
यही बात आषयग्रंथो में पूणयरूपमें िस्वकृ त करी है । इस सत्यको हमारे महान ऋिषयोनें
वेदकाल में आत्मसात दकया था और िसद्ध दकया था दक, समग्र ब्रह्माण्ड का रचनाकार
ऐक हीं है - एकोसिद्वप्रा बहुधा वदिन्त्त, इस नाते समग्र ब्रह्माण्ड एक पररवार है - कु छ
इस प्रकार - वसुधव ै कु टु म्बकम् का प्रथम िवचार यहां उददत हुआ । गीता में भी कहीं
कृ ष्ण नहीं बोलते - जो गीता में ज्ञान हैं, वो उपिनषदप का, वेदान्त्त का दोहन हैं और
भगवान ने अपनी अवतारलीला से उपर की अवस्था में दकया है, इसिलए वह वैिश्वक
भी है । गीतामें कोई बात ऐसी नहीं जो वैिश्वकस्तर पर अिस्वकायय हो, चाहे बुद्ध हो,
जैन हो, ईसाई हो, इस्लाम हो या यहूदी, गीता की बातप का प्रभाव सभी स्यता एवं
सम्पदायप में कोई न कोई रूप में दृट है । भगवान की व्याख्या भी उसी मे है -
भूिमरापोनलो वायु: खं मनो बुिद्धरेव च । अहंकार इतीयम्मे िभिाप्रकृ ितरटधा ७.४।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अपरे यिमतस्त्वन्त्यां प्रकृ ततिविद्ध मे पराम् । जीवभूतांमहाबाहो ययेदध
ं ाययते जगत्- ४.५,
ममैवांशो जीवलोके जीव भूतसनातन ।। सवयस्यचाहं हृदद सिििवटो ।। उत्पतत्त
प्रलयंचव
ै भूतानामा गततगितम् ।। वेित्तिवद्यामिवद्यांच सवाच्योभगवािनित ।। भूिम,
जल, अिि,वायु, आकाश, मन, बुिद्ध व अहंकार(िवशुद्ध) ये सब मेरी (कोई नाम नही-
परमात्मा की) प्रकृ ित है, इसी प्रकृ ित से पूरे संसार की रचना करके स्वयं इन सबमें
ओपप्रोत है । कहीं उसे राम, दुगाय, शीव, हनुमान, तो कहीं अल्लाह, िजसस कहते है, हम
तो भागवत में, उसे सत्य कहते है सत्यं परं धीमिह - कोई नाम नहीं । िजसे भी हम इस
- सृटा, नाम देना चाहे वो, िजसके कारण ऋतुए होती है, समग्र ब्रह्माण्ड ऊजायवान् है,
हमने तो उसे परम सत्य ही कहा है ।
शास्त्रीय ग्रंथो में स्मृित-पुराणप को अितप्राचीन माना जाता हैं, उनकी मान्त्यता भी
वेदतुल्य ही है, पञ्चमवेद ही मानते है । आत्मपुराणंवेदानां पृथगगगािनतािन षट् ।
यङ्रदृटिं हवेदषे ु तद्दृटस्मृितिभाः दकल ।। उभा्यां यत्तुटिं ह तत्पुराणेषु गीयते । पुराणं
सवयशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणाः स्मृतम् ।।
सारांश - यथा वेदरूपी अंकूर का बीज तंत्रमें है । वेदो की उत्पित्त भगवान िशव के
मुखसे हुई है,परमिशव की अनंत शिियां है, ककतु मुख्यत: पााँच शिियां है - िचत्,
आनंद, इच्छा, ज्ञान, दिया । िचत् का स्वभाव आत्मप्रकाशन है- ज्ञान । वस्तुत: िचत्
और आनंद परमिशव के स्वरूप ही है काश्मीर का शैव मत यही प्रितपाददत करता है ।
अपने को सवयथा स्वतंत्र और इच्छा संपि मानना इच्छाशिि है । इसी से सृिट का
संकल्प होता है । वेद्य की ओर उन्त्मुखता को ज्ञानशिि कहते है । इसका दूसरा नाम
आमशय है । सब आकार धारण करने की योग्यता को दिया शिि कहते है । िशवजी के
पञ्चवक्र्त्त्र से चारो वेद एवं सभी वेदान्त्तादद िवद्याओं का प्रागट्ड हुआ है।
प्रथम िनगम से आगम, आगम से यामल एवं यामल से वेद, वेदप से पुराणप का प्रागट्ड
हुआ है । इसिलए वेद को िपता एवं तंत्र को माता भी मानते है । सवेवेदााः सवे देवाश्च
परस्मादेवआत्मनाः जातााः सन्त्ताः परमात्मन्त्येव प्रितिष्ठतााः सिन्त्त । परं ब्रह्मैव
समस्तस्यािपिवश्वस्य आस्पदभूतं कू टस्थं तत्त्वम् । सवायिण वेदवेदान्त्तशास्त्रपुराणािन
तमेवपरमात्मानं प्रितपादयिन्त्त । परब्रह्मणाः िवज्ञानमेव परमं लक्ष्यिम्नत्यया वाचा -
अथायत् (िनत्यारूप) वेदवाणी को आद्यवाणी कहा है - अथायत् वैददक संस्कृ त यह सब
वाणीयप(भाषाओ) में अग्र और प्रथम है - बृहस्पते प्रथमं वाचो अिं - ऋग्वेद १०.७.१ ।
मनसा वा इिषता वाग् वदित - ऐ.ब्रा.६.५।।
सजयन का प्रथम चरण ज्ञान है, दूसरा इच्छा है, तीसरा चरण दिया हैं । जैसे हमे कोई
यन्त्त्र या मकान बनाना है तो सवय प्रथम इसे बनाने का ज्ञान होना चािहए, दफर कै सा
बनाना है उसका पूरा िचत्र मानस पर िनिश्चत होना चािहए और अन्त्त में उसे हम
दियािन्त्वत करते है, जैसे मकान बनाने के िलए इन्त्जीनीयर को मकान बनाने का ज्ञान
होना आवश्य है, दफर वो मकान का िचत्रण मन में करता हैं, इसके बाद कागज पर
नक्तशा बनाता है और अन्त्त में मकान िनमायण का प्रारम्भ करता है । हम जो कु छ बोलते
है, पहले उसका िचत्र हमारे मन में बनता है। वाणी का आद्यरूप परा शिि के रूपमें
हमारे भीतर है ही । जब वो साकृ त होने की चेटा करता है तो, इस कारण दूसरा चरण
पश्यन्त्ती कहते है । इसके आगे मन व शरीर की ऊजाय को प्रेररत कर न सुनाई देनेवाला
ध्विन का बुद्बुद ् उत्पि करता है । वह बुद्बुद ् ऊपर उठता है तथा छाती से िन:श्वास की
सहायता से कण्ठ तक आता है । वाणी के इस रूप को मध्यमा कहा जाता है । ये तीनप
रूप सुनाई नहीं देते है । इसके आगे यह बुद्बुद ् कं ठ के ऊपर पांच स्पशय स्थानप की
सहायता से सवयस्वर, व्यंजन, युग्माक्षर और मात्रा द्वारा िभि-िभि रूप में वाणी की
अिभव्यि होता है। यही सुनाई देने वाली वाणी वैखरी कहलाती है और इस वाणी से
ही सम्पूणय ज्ञान, िवज्ञान, जीवन व्यवहार तथा बोलचाल की अिभव्यिि संभव है।
अनादद िनधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । िववतयतेथयभावेन प्रदिया जगतो यताः।। ब्रह्म
अनादद अनंत है, उसका क्षरण नही होता । बीजभाविस्थतं िवश्वं स्फु टीकतुां यदोन्त्मुखी।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वामा िवश्वस्य वमनादगकु शाकारतां गता । इच्छाशििस्तदा सेयं पश्यन्त्ती वपुषा िस्थता
- योिगनीहृदय । ब्रह्मकृ ता मारूतेना गणेन- ऋग्.३.३३.२। देवीं वाचमजनयन्त्त देवााः
ऋग्. ८.१००.११ । वाक् मंत्र करनेवाले मरूतगण के साथ, देवी को, देवपने उत्पि दकया ।
ज्ञान का वाणी के रूप में प्रागट्ड स्वताः मानते है, तंत्र शास्त्र कहता है दक शब्द के उद्गम
या अिभव्यिि होने का िम तबदु-नाद-बीज है । भगवान िशव, अथय के प्रितक है और वे
स्व-स्वरूप में अविस्थत होने से िनष्कल है । जब वे प्रगट होना चाहते है, तब स्वशिि के
आश्रय से िवक्षोभ उत्पि करते है । परशििमयाः साक्षात् ित्रधासौ िभद्यते पुनाः।
िबन्त्दन
ु ायदबीजिमित तस्य भेदााः समीरतााः ।। सोन्त्तरात्मातदादेिव नादात्मा, नदतेस्वयं ।।
यथा संस्थानभेदेन भूयोऽसौवणयतां गताः। वायुना प्रेयम य ाणोऽसौ िपण्डाद्व्यिि प्रयास्यित ।।
जो नाद ध्विन - स्फोट या वैखरी रूपेण, वायु के सहारे , प्रकािशत होते है । उपांशु जप
में आंतस्फोट होता है । भतृह य रर कहते है - आत्मा बुद्ध्या समेताथायन्त्मनोयुिं े िवयक्षया ।
मनाःकामायाििमहिन्त्त सप्रेररयितमारूतम् ।। मारूतस्तूरिसचरन्त्मन्त्द्रं जनयित स्वरम् ।।
अताः बोलने के िलए सबसे पूवय आत्मा(िशव) अथयरूप मे है । दफर बोलने की इच्छाशिि
से बुिद्ध एवं मन से युित करता है । मन काययशिि द्वारा आघात करता है और अिि के
माध्यम से वायु िवस्ताररत होता है, वायु हृदय प्रदेश में प्रवेश करके िवचरण करने
लगता है और स्वर स्वररत होते है । ध्विनरूपा यदास्फोटस्त्वदृटािच्छविवग्रहात् ।
प्रसरत्यितवेगन े ध्विननापूरयन् जगत् । सनादो देवदेवश े प्रािश्चैवसदािशवाः - नेत्रतंत्र
२१.६२-६३, िवज्ञानभैरवेिप । मन्त्त्रो देवािधिष्ठतोऽसावक्षर रचनािवशेषाः - देवता से
अिधिष्ठत यह एक अक्षर रचना िवशेष है । वणो की जो आकृ ितयां है वह वणो के यंत्र है,
िवग्रह है, शरीर है - जो शिि का िनवास भी है ।
इसकी िवस्तृत व्याख्या करते हुए पािणनी कहते है, वाणी के चार पाद या रूप है ।
चत्वारर श्रृग
ं ास्त्रयो अस्य पादा: द्वे शीषे सप्त हस्तासो अस्य। ित्रधा बद्धो वृषभो रोरवीित
महोदेवो मत्याां आिववेश- यजुवेद ।। भगवान् पतंजिल ने इसकी जो व्याख्या की है,
उसके अनुसार एक वृषभ है, िजसके चार श्रृंग-चार, पद-समूह (नाम, आख्यात, उपसगय
और िनपात) है।तीन पैर है-तीन काल (भूत, वत्तयमान और भिवष्यत्) इन तीन कालप के
बोधक है लट् आददप्रत्यय, स्वयं काल नहीं, क्तयपदक काल की पादत्व-कल्पना अयुि है,
(वे अखण्ड काल से हैं, उनका प्रारम्भ या अन्त्त दकसी को ज्ञात नहीं है) । कारण दक काल
वणयरूप नहींहै, इसिलए उसमें शब्द के अवयव पाद की कल्पनानहीं हो सकती । द्वे
शीषे=दो िशर है यानी दो प्रकारके शब्दात्मा-िनत्य और कायय, जो नश्वर है । वैखरीरूप
ध्विन कायय और अिनत्य है तथा आन्त्तर प्रणवरूप स्फोट या शब्दब्रह्म िनत्य है । सप्त
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
हस्तासोअस्य=इसके सात हाथ है सात िवभिियााँ।ित्रधा बद्ध:= यह तीन स्थानप में बद्ध
है । उरिस, कण्ठे , िशरिस च-हृदय, कण्ठ और िशर में।वृषभ इित=वृषभ के रूप में यहााँ
शब्दब्रह्म कािनरूपण है । वषयणाद् वृषभ: - वषयण करने से यहवृषभ है । वषयण से तात्पयय
है, ज्ञानपूवयक अनुष्ठान से फल प्रदान करना । रोरवीित यानी शब्दं करोित, शब्द करता
है । शब्द्यते ब्रह्मस्वरूपे स्फोटात्मके शब्दे भासते िववत्तयते इित शब्द: - ब्रह्मस्वरूप
स्फोटात्मक शब्द में जो िववत्तयन रूपभािसत हो, वह शब्द है । अन्त्यत्र श्रुित एवं शास्त्र
प्रमाणप से भी व्यि एवं परोक्षतया वणोत्पित्त - नाद - शब्द की उत्पित्त ऐसे ही बताई
गई है । श्रोत्रोपलिब्धबुयिद्धिनग्राय्ाःप्रयोगेणािभज्विलताः आकाशादेवदेशाः शब्द -
महाभाष्य अ.१.पा.१.सू.२.आ.२।
इसी पराशिि को अथवाांिगरस कहा गया है, क्तयपदक, जैसा ऊपर कहा गया है, परावाक्
सभी अंगप की शिियप का सार होने के कारण आंिगरस, उनके प्रागट्ड के स्थान िभि-
िभि अंग है । मनोमय आदद नीचे के कोशप में जाना आरम्भ करने के कारण अथवाय
कहलाती है । इसका एक नाम श्रद्धा भीहै, कदािचत् प्रारम्भ में स्रद्ध्(नीचे की ओर जाने
वाली), शृद्ध (िनष्कािसता) आदद शब्दप की भांित इसी प्रकार का अथय रखता था -
वैददकदशयन, पृष्ठ ४३ । यही वाक् - ऋजु िवमर्तशणी के शब्दप में परमिशवस्वरूपा वाक्
(मातृकां परा वागात्मावहृत भट्टारक, परमिशवस्वरूपां षतट्त्रशत्तत्त्वप्रसरण हेतुभूतां
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
संिवदािमत्यथयाः) कह सकते है, जो िवष्णु पुराण में अिि तथा उससे प्रकाश के समान
ब्रह्म से अिभि बतलाई गई है – एकदेशिस्थतस्याग्रे ज्योत्स्ना िवस्ताररणीं यथा । परस्य
ब्रह्मणाः शििस्तथैतदिखलं जगत् - वैददकदशयन पृ. ६१।
संक्षेपमें वाक् के िवषय में िनम्निलिखत बातें इस सूि से ज्ञात होती है–
(२) वह सारे वसुओं को एकत्र करने वाली ‘राष्ट्री’ है; ‘यज्ञीयप’ की प्रथम जानने
वाली है, िजसको देवप ने अनेक स्थानप पर िविवध रूपप में रख छोडा है – जो अनेक
स्थानप में रहने वाली और अनेक में व्याप्त है। अताः देखना सुनना तक िबना इसके नहीं
हो सकता।
(४) वाक् ने ही इसके िपता को (भुवन) उत्पि दकया, जो स्वयं वाक् की योिन है,
और जो समुद्र आपाः में है। तब इसने ‘िवश्वभुवन’ को बनाया (िवतटे)। वही वात के
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
समान सारे भुवनप में बहती है, आकाश और पृिथवी से भी परे वह शिि के द्वारा
(मिहना) फै ल गई है।
वाक् के इस वणयन में ऐसी कोई बात नहीं है, जो वरुण के िलए न कही जा सके । वरुण
के ऋत से ही तो सारे देवप का जन्त्म हुआ है और सभी देव उसके ‘ऋत’ का ही पालन
करते हुए काम कर रहे है। वह सवयव्यापक है। सारा िवश्व उसमें है। द्यौ में भी वह नहीं
समा सकता । उससे बचकर कोई द्यौ से परे भाग जाने पर भी नहीं बच सकता । िवश्व
में कोई काम भी उसके िबना नहीं हो सकता, यहां तक दक कोई जीव उसके िबना पलक
नहीं मार सकता, अताः वरुण मनुष्यप के िनमेषोन्त्मेष तक को भी िगन लेता है । वह
आकाश में िचिडयप के तथा सागर में जहाजप के मागय को पहचानता – वै.द.पृ. ९०-९२ ।
मूल कू टत्रय कलेवरा - िजनका शरीर मन्त्त्र के तीन भाग है ऐसी मााँ । यह मााँ का नाम
पहले तीन नामप का सारांश है ।ऊपर ददए गए तीन नामप में ज्ञान, इच्छा और दिया की
परस्पर िीड़ा है ।सृजन की इच्छा, ज्ञान और शिि की िीड़ा से सृिट का सृजन होता है
और दफर सृिट िविक्तसत होती है ।ये तीनप शिियााँ मााँ का शरीर है ।यह नाम श्री
लिलतािम्बका देवी का आलेख है ।
मान्त्यवर डॉ. श्री िशवशंकर अवस्थी की पुस्तक - मन्त्त्र और मातृकाओं का रहस्य में
शारदाितलक, योिगिनहृदय, मंत्रमहोदिध आदद ग्रंथो के माध्यम से इस िवज्ञान को
सुस्पट दकया है । डॉ.श्री फतेहतसहजी का सािहत्य भी मननीय है ।
परा, पश्यन्त्ती इत्यादद वाक् से संदभय में, शब्दकल्पद्रुमकोश में, िनम्निलिखत उद्धरण प्राप्त
होते है, जो उपरोि तर्थय की पुिट करते है– मूलाधारात् प्रथममुददतो यस्तु ताराः
पराख्याः । पश्चात्पश्यन्त्त्यथहृदयगोबुिद्धयुङ्मध्यमाख्याः अलगकारकौस्तु भवैखरीशिि
िनष्पित्तमयध्यमाश्रुितगोचरा । द्योितताथाय तु पश्यन्त्तीसूक्ष्मावागनपाियनी – मिल्लनाथ
धृतवाक्तयम् । श्री भतृह
य रर का वाक्तयपदीय भी इस ददशा में अच्छा ददग्दशयन कराता है ।
िशव से ईशान उत्पि हुए है, ईशान से तत्पुरुष का प्रादुभायव हुआ है । तत्पुरुष से अघोर
का, अघोर से वामदेव का और वामदेव से सद्योजात का प्राकट्ड हुआ है। इस आदद
अक्षर प्रणव से ही मूलभूत पांच स्वर और तैंतीस व्यजंन के रूप में अड़तीस अक्षरप का
प्रादुभायव हुआ है, िजसे भूतिलिप भी कहते है । उत्पित्त िम में ईशान से शांत्यतीताकला
उत्पि हुई है। ईशान से िचत् शिि द्वारा िमथुनपंचक की उत्पित्त होती है ।
अनुग्रह, ितरोभाव, संहार, िस्थित और सृिट इन पांच कृ त्यप का हेतु होने के कारण उसे
पंचक कहते है । यह बात तत्वदशी ज्ञानी मुिनयप ने कहीं है । वाच्य वाचक के संबंध से
उनमें िमथुनत्व की प्रािप्त हुई है । कला वणयस्वरूप इस पंचक में भूतपंचक की गणना है ।
आकाशादद के िम से इन पांचप िमथुनप की उत्पित्त हुई है। इनमें पहला िमथुन है
आकाश, दूसरा वायु, तीसरा अिि, चौथा जल और पांचवां िमथुन पृर्थवी है ।
इनमें आकाश से लेकर पृर्थवी तक के भूतप का जैसा स्वरूप बताया गया है, वह इस
प्रकार है - आकाश में एकमात्र शब्द ही गुण है, वायु में शब्द और स्पशय दो गुण है, अिि
में शब्द, स्पशय और रूप इन तीन गुणप की प्रधानता है, जल में शब्द, स्पशय, रूप और रस
ये चार गुण माने गए है तथा पृर्थवी शब्द, स्पशय, रूप , रस और गंध इन पांच गुणप से
संपि है । यही भूतप का व्यापकत्व कहा गया है अथायत् शब्दादद गुणप द्वारा आकाशदद
भूत वायु आदद परवती भूतप में दकस प्रकार व्यापक है, यह ददखाया गया है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
इसके िवपरीत गंधादद गुणप के िम से वे भूत पूववय ती भूतप से व्याप्य है अथायत् गंध
गुणवाली पृर्थवी जल का और रसगुणवाला जल अिि का व्याप्य है, इत्यादद रूप से
इनकी व्याप्यता को समझना चािहए । पांच भूतप (महत् तत्व) का यह िवस्तार ही प्रपंच
कहलाता है ।
अपनी इच्छा से संसार की सृिट के िलए उद्यत हुए महेश्वर का जो प्रथम पररस्पंद है, उसे
िशवतत्व कहते है। यही इच्छाशिि तत्व है, क्तयपदक संपूणय कृ त्यप में इसी का अनुवतयन
होता है। ज्ञान और दिया, इन दो शिियप में जब ज्ञान का आिधक्तय हो, तब उसे
सदािशवतत्व समझना चािहए, जब दियाशिि का उद्रेक हो तब उसे महेश्वर तत्व
जानना चािहए तथा जब ज्ञान और दिया दोनप शिियां समान हप तब वहां शुद्ध
िवद्यात्मक तत्व समझना चाहए ।
जब िशव अपने रूप को माया से िनग्रहीत करके संपूणय पदाथों को ग्रहण करने लगता है,
तब उसका नाम पुरुष होता है।िशव की जो परा शिि है, वही अिभव्यि होकर, अनेक
रूपमें प्रकट होती है, वही भगवित श्रुित है । वेद को भी वाक् का पयाययवाची समझा
जाता है। अताः सभी वाक् वेद में भी अनुप्रिवट बताई जाती है(सवाय वाचो वेदमनु
प्रिवटााः); वेद के द्वारा ब्रह्म जब व्यि होता है, तो पहले छन्त्दस्य पुरुष होता है, दफर
ऋङ्मय, यजुमयय और साममय रूप में ित्रवृत हो जाता है - वै.दशयन पृ.२९ ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
बुद्ध्य पादानात्िमाद्वणायनुयाियनी । अन्त्ताः संकल्परूपा तु न श्रोत्रमुपसपयित -
वै.द.पृ.३७।
So let me bring it on home for you. Sound has no mass, that means its No-
Thing, its Nothing! Yet sound ''pushes'' all matter. ''Push'' is the only force in
the universe by the way! This ''Master Force'' sound,... pushes all, it directs
all, all things move exactly where and when and why that sound wants it!
(see Cymatics). Hold on now there is more, this '' Master Force'',. sound is
coming from Black-holes, they are black and void because the sound has
pushed out all of the matter. ''Wait there's more, and its Moist'' And get
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
this, the universe is like 3/4th water! Just like it also says in all of the ancient
creation stories! the pulsatiing heart beat sounds coming from black-holes
shape the great waters that are in close proximity to them to a
paradigmatical spherical form and therby igniting them thru Cavitation and
Sonarluminescence! so sound on water creates fusion = light, heat =
matter(air earth) its all one thing! and also Gravity is sound! and gravity can
be turned off by sound cancellation techniques.
(https://www.sikhnet.com/news/sound-process-creation-universe)According to Sri
Guru Granth Sahib, the One and the only One God has created the entire
universe. [2]
Situation before Creation
Before creation of the universe there was nothing around; whatever is observable
in the universe did not exist earlier. [3] There was utter darkness all-around. [4]He
had remained in darkness in deep meditation [5] for thirty six yugas. [6] He
emerged from this darkness shoonya Himself and gave Himself a Name. [7]
Emergence of God with spread of Light
With His emergence spread the Light around. [8] The Light of the Lord spread
everywhere. [9] When in light, the Lord probably felt lonely and thought of
creating the universe as a play for Himself. [10]
Start of Creation with Sound on the base of Light.God created the universe with
one sound andfrom the sound millions of rivers (of atoms) flowed[11]. All the
segments and continents in the universe were created from one sound of His
order alone. [12] Due to wave-particle duality of the Light and it its spread all over,
the sound spread through particles all over. A research team led by Fabrizio
Carbone at EPFL has now carried out an experiment with a clever twist: using
electrons to image light. The researchers have captured, for the first time ever, a
single snapshot of light behaving simultaneously as both a wave and a stream of
particles.
In the experiment; A pulse of laser light is fired at a tiny metallic nanowire. The
laser adds energy to the charged particles in the nanowire, causing them to
vibrate. Light travels along this tiny wire in two possible directions, like cars on a
highway. When waves traveling in opposite directions meet each other they form
a new wave that looks like it is standing in place. Here, this standing wave becomes
the source of light for the experiment, radiating around the nanowire. The
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
scientists shot a stream of electrons close to the nanowire, using them to image
the standing wave of light. As the electrons interacted with the confined light on
the nanowire, they either sped up or slowed down. Using the ultrafast microscope
to image the position where this change in speed occurred, Carbone's team could
now visualize the standing wave, which acts as a fingerprint of the wave-nature of
light. While this phenomenon shows the wave-like nature of light, it
simultaneously demonstrated its particle aspect as well. As the electrons pass close
to the standing wave of light, they "hit" the light's particles, the photons. As
mentioned above, this affects their speed, making them move faster or slower.
This change in speed appears as an exchange of energy "packets" (quanta)
between electrons and photons. The very occurrence of these energy packets
shows that the light on the nanowire behaves as a particle. [१३]. बाईबल मे भी
इसकी संगित िमलती है ।
मन्त्त्रा वणायत्मका सवे, सवे वणाय िशवात्मकााः । सभी वणय िशवात्मक है । आगच्छित
बुिद्धमारोहित यस्माद्युदिनाः श्रेयसोपायाः स आगमाः । आत्मा से कल्याण हेतुं शब्द-वणय
प्रकट होकर बुिद्ध के पास ज्ञानरूप आते है, बुिद्ध इसका िवश्लेषण करती है एवं अंतताः
वैखरीरूप में प्रकट होता है, यही आगम है - आत्मा से उठी ऋचाओं के ददव्यज्ञान को,
ऋिषयप ने (बुिद्ध द्वारा) तप के द्वारा आत्मसात् दकया और वे दृटा बने । भगवान आदद
शंकरने भी इसिलए ही मानसपूजा में कहा है दक - आत्मात्वं िगररजामित सहचराप्राणा
शरीरं गृहम् । आत्मा से प्रकरटत ज्ञान को, आत्मा ही बुिद्धशिि के सहारे (अथयरूपमें)
आत्मासात् करताहै ।…ऋषयस्तपसा वेदानध्यैषन्त्त ददवािनशम् । अनाददिनधना िवद्या
वागुत्सृटा स्वयम्भुवा ।। वेद शब्दे्य एवादौ िनर्तममीते स ईश्वराः (म.भा.शां.प
२४३.२४-२६) यथा ऋिषयप ने तप से ही श्रुित का श्रवण दकया है । वेद अपौरूषेय है ।
सती के शव के िविभि अंगप से एकावन शििपीठप का िनमायण हुआ था। इसके पीछे यह
अंतकय थाहै दक, दक्षप्रजापित ने कनखल, हररद्वारमें बृहस्पित सवयनामक यज्ञ रचाया। उस
यज्ञ में ब्रह्मा-िवष्णु-इं द्र और अन्त्य देवी, देवताओं को आमंित्रत दकया गया,लेदकन जान,
बूझकर अपने जमाता भगवान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की
पुत्री सती िपता द्वारा न बुलाए जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने
गईं। यज्ञस्थल पर सती ने अपने िपता दक्ष से शंकर जी को आमंित्रत न करने का कारण
पूछा और िपता से उग्र िवरोध प्रकट दकया । इस पर दक्ष प्रजापित ने भगवान शंकर को
अपशब्द कहे । इस अपमान से पीिड़त हुई सती ने यज्ञ,अिि कुं ड में कू दकर अपनी
प्राणाहुित दे दी। भगवान शंकर को जब इस दुघयटना का पता चला तो िोध से उनका
तीसरा नेत्र खुल गया। भगवान शंकर के आदेश पर उनके गणप के उग्र कोप से भयभीत
सारे देवता ऋिषगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगवान शंकर ने यज्ञकुं ड से सती के पार्तथव
शरीर को िनकाल कं धे पर उठा िलया और दुाःखी हुए इधर,उधर घूमने लगे। तदनंतर
सम्पूणय िवश्व को प्रलय से बचाने के िलए जगत के पालनकत्ताय भगवान िवष्णु ने चि से
सती के शरीर को काट ददया। तदनंतर उनके शरीर व अंग आभूषण के , वे टुकड़े ५१
जगहप पर िगरे , जहां शििपीठ बनी । माना जाता है दक वहीं ५१ वणो की अिधष्ठात्री
शिियां है । कथा में िनम्नोिियां सुष्पटरूपेण ददखती है । सवेवणायत्मका मन्त्त्रास्ते च
शक्तत्यात्मकााः िप्रये । शििस्तुमातृका ज्ञेयो साच ज्ञोया िशवाित्मका - कामधेनत ु ंत्र ।।
ककाराददक्षकारान्त्ता वणायस्तुिशवरूिपणाः। व्यञ्जनत्वात्सदानन्त्देनोचाचार सिहता यताः ।।
अकाराः प्रथमोदेवी भकारोिन्त्तम इष्यते । अक्षमालेित िवख्याता मातृकावणयरूिपणी ।।
पंचाशत्युवती सवायशब्दब्रह्म स्वरूिपणी। भजेहं मातृकादेवी वेदमाता सनातनीम् -
कामधेनुतंत्र ।। अकारादद क्षकारान्त्ता मातृकावणय रूिपणाः । सतीके शरीर सेअंग या
आभूषण,जो श्री िवष्णु द्वारा सुदशयन चि से काटे जाने पर, पृर्थवी के िविभि स्थानप पर
िगरे ,आज वह स्थान शििपीठ कहलाते है ।
एक युििगत दशयन करें । जैसे हवा तो अदृश्य है, उस में कौन कौन से तत्त्व या वायु है
उनकी क्तया शिि है, उनमें िवपररत शिियां होते भी हवा में एकरस होने पर अपनी
शिियां गुप्तावकाश में होती है । यह जानने के िलए हवा में िजतने वायु है उनके उपर
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पृथक पृथक प्रयोग दकया, सभी का गुणधमय जाना और कु ल िमलाकर हवा में उनका
दकतना अंश है वह जाना । ऑक्तसीजन क्तया है, ज्वलनशील है, प्राणधमाय है, हाईड्रोजन
क्तया है - स्फोटक है, काबयन क्तया है, कौन से वायु अम्लीय है, कौनसे एिसडीक है इत्यादद
इत्यादद और उनकी संयुि एवं पृथक पृथक शिि एवं उपयोगीता और गुणधमय क्तया है ।
सभी वायु हवामें तो है ही । ठीक उसी तरह परमाथयरूप िशवकी वाक् शिि के ५१
अक्षरो एवं उनकी कलाओं में क्तया शिि है, हवामें िजस प्रकार सभी सभी वायु है, िशव
में सभी शिियां है तथािप प्रत्येक शिि का पृर्थथकरण सुदशयन से ही हो सकता है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
मानस, कै लाश पवयत, मानसरोवर, ितब्ब्त के िनकट
९ दायां हाथ दाक्षायनी अमर
एक पाषाण िशला
१० िबराज, उत्कल, उड़ीसा नािभ िवमला जगिाथ
गंडकी नदी के तट पर, पोखरा, नेपाल में मुििनाथ
११ मस्तक गंडकी चंडी चिपािण
मंददर
बाहुल, अजेय नदी तट, के तुग्राम, कटु आ, वधयमान
१२ बायां हाथ देवी बाहुला भीरुक
िजला, पिश्चम बंगाल से ८ दक॰मी॰
उज्जिन, गुस्कु र स्टेशन से वधयमान िजला, पिश्चम
१३ दायीं कलाई मंगल चंदद्रका किपलांबर
बंगाल १६ दक॰मी॰
माताबाढ़ी पवयत िशखर, िनकट राधादकशोरपुर
१४ दायां पैर ित्रपुर सुंदरी ित्रपुरेश
गााँव, उदरपुर, ित्रपुरा
छत्राल, चंद्रनाथ पवयत िशखर, िनकट सीताकु ण्ड
१५ दांयी भुजा भवानी चंद्रशेखर
स्टेशन, िचट्टागौंग िजला, बांग्लादेश
ित्रस्रोत, सालबाढ़ी गााँव, बोडा मंडल, जलपाइगुड़ी
१६ बायां पैर भ्रामरी अंबर
िजला, पिश्चम बंगाल
कामिगरर, कामाख्या, नीलांचल
१७ योिन कामाख्या उमानंद
पवयत, गुवाहाटी, असम
दायें पैर का
१८ जुगाड़्या, खीरग्राम, वधयमान िजला , पिश्चम बंगाल जुगाया क्षीर खंडक
बड़ा अंगूठा
दायें पैर का
१९ कालीपीठ, कालीघाट, कोलकाता कािलका नकु लीश
अंगूठा
हाथ की
२० प्रयाग, संगम, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश लिलता भव
अंगुली
जयंती, कालाजोर भोरभोग गांव, खासी पवयत,
२१ बायीं जंघा जयंती िमादीश्वर
जयंितया परगना, िसल्हैट िजला, बांग्लादेश
दकरीट, दकरीटकोण ग्राम, लालबाग कोटय रोड
२२ स्टेशन, मुशीदाबाद िजला, पिश्चम बंगाल से ३ मुकुट िवमला सांवतय
दक॰मी॰ दूर
िवशालाक्षी
२३ मिणकर्तणका घाट, काशी, वाराणसी, उत्तर प्रदेश मिणकर्तणका काल भैरव
एवं मिणकणी
कन्त्याश्रम, भद्रकाली मंददर, कु मारी मंददर, तिमल
२४ पीठ श्रवणी िनिमष
नाडु
२५ कु रुक्षेत्र, हररयाणा एड़ी सािवत्री स्थनु
२६ मिणबंध, गायत्री पवयत, दो पहुंिचयां गायत्री सवायनंद
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िनकट पुष्कर, अजमेर, राजस्थान
श्री शैल, जैनपुर गााँव, ३ दक॰मी॰ उत्तर-पूवय िसल्हैट
२७ गला महालक्ष्मी शंभरानंद
टाउन, बांग्लादेश
कांची, कोपई नदी तट पर, ४ दक॰मी॰ उत्तर-पूवय
२८ अिस्थ देवगभय रुरु
बोलापुर स्टेशन, बीरभुम िजला , पिश्चम बंगाल
कमलाधव, शोन नदी तट पर एक गुफा
२९ बायां िनतंब काली अिसतांग
में, अमरकं टक, मध्य प्रदेश
शोन्त्दश
े , अमरकं टक, नमयदा के उद्गम पर, मध्य
३० दायां िनतंब नमयदा भद्रसेन
प्रदेश
रामिगरर, िचत्रकू ट, झांसी-मािणकपुर रे लवे लाइन
३१ दायां वक्ष िशवानी चंदा
पर, उत्तर प्रदेश
वृंदावन, भूतेश्वर महादेव मंददर, के श गुच्छ/
३२ उमा भूतेश
िनकट मथुरा, उत्तर प्रदेश चूड़ामिण
शुिच, शुिचतीथयम िशव मंददर, ११
३३ दक॰मी॰ कन्त्याकु मारी-ितरुवनंतपुरम मागय, तिमल ऊपरी दाड़ नारायणी संहार
नाडु
३४ पंचसागर, अज्ञात िनचला दाड़ वाराही महारुद्र
करतोयतत, भवानीपुर गांव, २८ दक॰मी॰ शेरपुर
३५ बायां पायल अपयण वामन
से, बागुरा स्टेशन, बांग्लादेश
श्री पवयत, लद्दाख, कश्मीर, अन्त्य
३६ दायां पायल श्री सुंदरी सुंदरानंद
मान्त्यता: श्रीशैलम, कु नूयल िजला आंध्र प्रदेश
िवभाष, तामलुक, पूवय मेददनीपुर िजला, पिश्चम कपािलनी
३७ बायीं एड़ी शवायनंद
बंगाल (भीमरूप)
प्रभास, ४ दक॰मी॰ वेरावल स्टेशन, िनकट सोमनाथ
३८ आमाशय चंद्रभागा वितुंड
मंददर, जूनागढ़ िजला, गुजरात
भैरवपवयत, भैरव पवयत, िक्षप्रा
३९ ऊपरी ओष्ठ अवंित लंबकणय
नदी तट, उज्जियनी, मध्य प्रदेश
४० जनस्थान, गोदावरी नदी घाटी, नािसक, महाराष्ट्र ठोड़ी भ्रामरी िवकृ ताक्ष
सवयशैल/गोदावरीतीर, कोरटतलगेश्वर रादकनी/ वत्सनाभ/
४१ गाल
मंददर, गोदावरी नदी तीरे , राजमहेंद्री, आंध्र प्रदेश िवश्वेश्वरी दंडपािण
बायें पैर की
४२ िबरात, िनकट भरतपुर, राजस्थान अंिबका अमृतेश्वर
अंगुली
रत्नावली, रत्नाकर नदी तीरे , खानाकु ल-
४३ दायां स्कं ध कु मारी िशवा
कृ ष्णानगर, हुगली िजला पिश्चम बंगाल
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िमिथला, जनकपुर रे लवे स्टेशन के िनकट, भारत-
४४ बायां स्कं ध उमा महोदर
नेपाल सीमा पर
नलहाटी, नलहारट स्टेशन के िनकट, बीरभूम
४५ पैर की हड्डी किलका देवी योगेश
िजला, पिश्चम बंगाल
४६ कनायट, अज्ञात दोनप कान जयदुगाय अिभरु
विे श्वर, पापहर नदी तीरे , ७ दक॰मी॰ दुबराजपुर
४७ भ्रूमध्य मिहषमर्कदनी विनाथ
स्टेशन, बीरभूम िजला, पिश्चम बंगाल
४८ यशोर, ईश्वरीपुर, खुलना िजला , बांग्लादेश हाथ एवं पैर यशोरे श्वरी चंदा
अट्टहास, २ दक॰मी॰ लाभपुर स्टेशन , बीरभूम
४९ ओष्ठ फु ल्लरा िवश्वेश
िजला, पिश्चम बंगाल
नंदीपुर, चारदीवारी में बरगद वृक्ष, सैंिथया रे लवे
५० गले का हार नंददनी नंददके श्वर
स्टेशन, बीरभूम िजला, पिश्चम बंगाल
लंका, स्थान अज्ञात, (एक मतानुसार,
मंददर ट्ररकोमाली में है, पर पुतयगली बमबारी में
५१ पायल इं द्रक्षी राक्षसेश्व
ध्वस्त हो चुका है। एक स्तंभ शेष है। यह प्रिसद्ध
ित्रकोणेश्वर मंददर के िनकट है)
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
कामधेनु तन्त्त्र में कहा है–अकारा्य हकारान्त्तौ सवे वणाय समािश्रतााः । अहंकारे िस्थतं
सवां ब्रह्माण्डे सचराचरम् ।।अकाराःिशवरूपस्याद् हकारशििमेव च । तयोाः सिम्मलने
चैव अहंकारोपजायते ।। पंचाशत्युवती सवायशब्दब्रह्म स्वरूिपणी । भजेहं मातृकादेवी
वेदमातां सनातनीम् ।। सवेवणायत्मकामन्त्त्रास्ते च शक्तत्यात्मकााः िप्रये । शििस्तु मातृका
ज्ञेयो सा चज्ञोया िशवाित्मका ।।
अब िम देखो तो, वणो से बनते है, शब्द, िजसमें अथय िनिहत होता है और उनका आदद
स्वरूप है परा-वाक् - परावाक् में अथय िनिहत है - यह जो वाक् है वह ब्रह्म की शिि है -
यथा ब्रह्म मेंही समग्र ब्रह्माण्ड िनिहत हैं। इसका श्रेष्ठ उदाहरण है पक्षी-प्राणी, िजसके
पास भाषा न होते हुए भी, अपना व्यवहार इस परावाक् से करते है । भय-हषय-प्रेम-
मैथुनादद की अिभव्यिि इस गूढस्थ परावाक् से करतें है । एकोऽिस्म बहुस्याम् -
सृिटिम भी यही है, ब्रह्मणाः प्रकृ ितप्रयकृतेमयहत् महतोहंकाराः अहंकारादाकाशाः
आकाशाद्वायोाः वायोरििरिेरापाः अद्भ्याःपृिथवी पृिथव्यामौषधयाः औषिध्यो अिम्,
अिाद्रेताःरे तसाःपुरूषाः इित सृिटिमाः। िशवशिि अिभि हैं - ऐक ही हैं । जब बहुत्व का
िवचार आता हैं तब, द्वैत की आवश्यकता बन जाती हैं और ब्रह्म से ब्रह्म की शिि अलग
होने लगती हैं - परमात्मा िवराट पुरूष हैं, समग्र ब्रह्ममाण्ड उसमें समािहत हैं ।
परमात्मा - ब्रह्म से प्रकृ ित, प्रकृ ित से महत्तत्व, महत् से अहंकार, अहंकार से आकाश-
अवकाश एनेक होने के िलए स्थान, आकाश का घन स्वरूप से वायु, वायु के वेग व
घनत्व से अिि, अिि से जल, जल का घनत्वरूप पृर्थवी, पृर्थवी से अिौषिध, अि से
वीयय-रि रसादद, उसी से आगे वंश परम्पराए चलती हैं । एक ही तत्त्व से पूरा ब्रह्माण्ड
का िवस्तरण, सजयन हुआ है, वो ही इस जगत का आद्य स्वरूप है । एक ही तत्त्व
अनेकत्व धारण करता हैं, सूक्ष्मतर रूपमें ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अहंकारे िस्थतं सवां ब्रह्माण्डे सचराचरम् - (काम.तंत्र.) । अकार:सवयवणायग्र्य:प्रकाश:
परमेश्वर:। आद्यमन्त्त्येन संयोगात् अहिमत्येव जायते।। प्रकृ ित व पुरूष या िशव व
भगवित परावाक् के द्वारा ही समग्र ब्रह्माणड का अिस्तत्व एवं िस्थित है । आधुिनक
िवज्ञान िवद्युद ् अणुओं (Electrons) को सृिटका कारण माने तो उनके कै न्त्द्रीय अणुओंको
(Protons) दकसी जडशिियप का (Cosmic Energy) पररणाम मानना पडेगा, और उस
सृजनशिि(Granulation) को परमात्मा की आदद शिि या इच्छाशिि (Cosmic Energy)
का पररणाम मानना पडेगा । नाद-िबन्त्द-ु ब्रह्म बीजादद की सहायता से सृजनिम
समझना सरल है, यद्यिप संस्कृ त एवं प्राचीन परं परागत प्रणाली, पररभाषा एवं
पररमाणसे अनिभज्ञप को यह कठीन लग सकता है ।
सारांश यही है दक, इस ५१ पीठप में, १६ स्वर (शिि) एवं ३६ व्यंजन (तत्त्व), समेत
भगवित पराशिि िवद्यमान है । उपरोि देवीभागवत कथा के संदभय में, समस्त अंग व
आभूषण जो भूमण्डल पर िगरे , वे देवी के है । यथा जैसे मेरा हाथ, मेरा पग, मेरा मुख,
मेरा वस्त्र, मेरा अलंकार, मेरी कं गन, मेरी पायल, सबमें, मैं रूपेण मै हुं, ऐसे ही भगवित
परावाक् , जो िशव की ही शिि है, वह सभी पीठ व पीठस्थ वणो में दैददप्यमान है ।
यथा देवी के ददव्य पीठ आज भी ऊजायवान् है ।
िनबीजमक्षरं नािस्त - प्रत्येक अक्षर मंत्र है-बीज है, नाक्षरं मंत्रहीनम् । ऐसा कोई भी
अक्षर नहीं है िजसका मंत्र के िलए प्रयोग न दकया जा सके । के वल एक-एक वणय का जप
भी मन्त्त्रजप ही है । इस में से ही तो समस्त मन्त्त्रो-स्तोत्र-स्तुत्यादद का उद्गम हुआ है,
िवश्व का पूरा वाङ्मय इसी वणो में ही िनिहत है - वणो से ही बना है । एक छोटी सी
कथा उपरोि को समझाने के िलए पयायप्त है ।
एक बार दकसी क्षेत्रमें अकाल पडा । सभी लोग त्रस्त होकर फाधर(पादरी) के पास गए ।
फाधरने कहा कल रिववार है आप सब चचयमें आजाना, हम प्रभु से वृष्ट्डथय प्राथयना
करेंगे । सब लोग आए और प्राथयना की । एक छोटी सी बािलका छाता लेकर आई और
एवीसीडी बोलने लगी । अंत मे फाधर उसके पास आए और एवीसीडी बोलने का कारण
पूछने लगे । तब बािलका ने बताया दक मुझे प्राथयना नहीं आती लेदकन, उसमें एवीसीडी
के आल्फाबेट ही तो है, सवय समथय प्रभु अपने िहसाब से प्राथयना बना लेगा ।
सवेवणायत्मकामन्त्त्रास्ते च शक्तत्यात्मकााःिप्रये । शििस्तुमातृकाज्ञेयो साचज्ञेया
िशवाित्मका - कामधेनुतंत्र । मंत्राथां देवतारूपं िचन्त्तनं परमेश्वरर । वाच्यवाचकभावेन
अभेदोमन्त्त्रदेवयोाः - शािानंदतरं िगणी। िशवात्मकााः शििरूपाज्ञेया मन्त्त्रास्तथाणयवााः ।
तत्वत्रयिवभागेनवतयन्त्ते ्िमतौजसाः - नेत्रतंत्र । मननात्त्वरूपस्य देवस्यािमत तेजसाः।
त्रायते सवयभयतस्मान्त्मन्त्त्रइतीररत । वरर.प्रकाश. । सवेवणायत्मका मंत्रााः ते च
शक्तत्यात्मका िप्रये ।शििस्तुमातृकाज्ञेया सा च ज्ञेया िशवात्मका - श्रीतन्त्त्रम् । सभी वणय
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
मन्त्त्र है- मन्त्त्रप में पमरात्मा, अनन्त्त चैतन्त्य-ऊजाय के रूपमें अविस्थत है । मन्त्त्र परमात्मा
का शब्दावतार भी कह सकते है । वायु के योग से स्पन्त्दात्मक स्वर स्वररत होते है ।
वणय के देवता, छन्त्द, ऋिष, स्वरूप, स्थान, ध्यान - शारदाितलक एवं
कामधेनु तंत्रमें इसे जपने की िविध भी बताई है । प्रत्येक वणय के देवता, छन्त्द, ऋिष,
स्वरूप, शिि, ध्यानादद इस प्रकार है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
१७ क मौद्गायन पिगि िोधीश महाकाली चिी जया
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अटादश शििपीठ -लगकायाम् शांकरीदेवी कामाक्षी कािञ्चकापुरे ।प्रद्युम्ने शृगखला
देवीचामुण्दा िौञ्चपट्टणे ॥अलम्पुरे जोगुलाम्ब श्रीशैले भ्रमरािम्बक ।कोल्हापुरमहलक्ष्मी
माहुययमेकवीररका ॥ उज्जियन्त्याम् महाकाळी पीरठकायाम् पुरुहुितका ।ओड्ढ्यायाम्
िगररजादेवी मािणक्तया दक्षवारटके ॥ हररक्षेत्रे कामरूपी प्रयागे माधवेश्वरी ।ज्वालायाम्
वैष्णवीदेवी गयामागगल्यगौररके ॥ वारणास्याम् िवशालाक्षी काश्मीरे तु सरस्वती ।
अष्ठादशैवपीठािन योिननामप दुलभ य ािनच ॥ सायंकालं पठे िित्यम् सवयरोगिनवारणम् ।
सवयपापहरं ददव्यं सवयसम्पत्करं शुभम् ॥
िलिप की उत्पित्त के िवषयमें - िलिप की उत्पित्त गणपित द्वारा हुई है, यजुवदे
का गणानांत्वा मन्त्त्र उसका समथयक है - गणानां त्वा गणपतत हवामहे कतव
कवीनामुपमश्रवस्तम् । ज्येष्ठराजं ब्रह्मणा ब्रह्मणस्पत आ नाः शृण्विृितिभाः सीद सादनम्
॥१॥ त्वं चत्वारर वाक्तपदािन (गणपत्यथवय) । िवश्वे्यो िहत्वा भुवने्यस्परर
त्वटाजनत्साम्नाः किवाः । स ऋणया (-) िचद्-ॠणया (िवन्त्द ु िचह्नेन) ब्रह्मणस्पितद्रुह य ो
हन्त्तमह ऋतस्य - (Right, writing, सत्य का िवस्तार ऋत) धतयरर. १७॥
(ऋक् .२.२३.१,१७) अथायत्, ब्रह्मा ने सवय-प्रथम गणपित को किवयप में श्रेष्ठ किव के रूप
में अिधकृ त दकया अताः उनको ज्येष्ठराज तथा ब्रह्मणस्पित कहा। उन्त्हपने श्रव्य वाक् को
ऋत (िवन्त्दरू
ु प सत्य का िवस्तार) के रूप में स्थािपत दकया। श्रव्य वाक्तय लुप्त होता है ,
िलखा हुआ बना रहता है (सदन = घर, सीद = बैठना, सीद-सादनम् = घर में बैठाना)।
पूरे िवश्व का िनरीक्षण कर (िहत्वा) त्वटा ने साम (गान, मिहमा = वाक् का भाव) के
किव को जन्त्म ददया। उन्त्हपने ऋण िचह्न (-) तथा उसके िचद्-भाग िवन्त्द ु द्वारा पूणय
वाक् को (िजसे िहत्वा = अध्ययन कर साम बना था) ऋत (लेख न ) के रूप में धारण
(स्थायी) दकया । अक्षर की जो आकृ ितयां है, वह वणो के िवग्रह-यंत्र है । आज भी चीन
की ई-तचग िलिप में रे खा तथा िवन्त्द ु द्वारा ही अक्षर िलखे जाते हैं। इनके ३ जोड़प से ६४
अक्षर (२६ = ६४) बनते हैं जो ब्राह्मी िलिप के वणों की संख्या है। टेलीग्राम के मोसय
कोड में भी ऐसे ही िचह्न होते थे । देवलक्ष्मं वै त्र्यािलिखता तामुत्तर लक्ष्माण देवा
उपादधत (तैित्तरीय संिहता,५.२.८.३) ब्रह्मा द्वारा इस प्रकार लेखन का आरम्भ हुआ-
नाकररष्यद् यदद ब्रह्मा िलिखतम् चक्षुरुत्तमम् । तत्रेयमस्य लोकस्य नाभिवष्यत्शुभा
गिताः-नारदस्मृित । षण्मािसके तु समये भ्रािन्त्ताः सञ्जायते यताः। धात्राक्षरािण सृटािन
पत्रारूढ़ान् यताः परां - (बृहस्पित-आिह्नक तत्त्व) ब्रह्मा द्वारा अिधकृ त बृहस्पित ने
प्रितपद के िलये अलग िचह्न बनाये थे ।
यदेषां श्रेष्ठय
ं दरर प्रमासीत्तदेषां िनिहतं गुहािवाः॥ (ऋग्.१०.७१.१)पहले सभी वस्तुओं के
के वल नाम ही ददये गये। गुहा के भीतर वाक् के जो ३ पद थे, उनको ज्यप का त्यप वैखरी
वाक् (उङ्रररत और िलिखत) में व्यि दकया। अव्यि वाणी को व्यि रूप में यथा-तर्थय
उपसगय-प्रत्यय, कारक, िवराम िचह्नप (पाप-िवद्ध) आदद द्वारा वाक्तय में प्रकट करने से
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वह शाश्वत होती है - स पययगात् शुिं अकायं अव्रणं अस्नािवरं शुद्धं अपापिवद्धं किवाः
मनीषी पररभूाः स्वयम्भूाः याथातर्थयतो अथायन् व्यदधात् शाश्वती्याः समा्याः
(ईशावास्योपिनषद्)। वाल्मीदक ने भी रामकथा के माध्यम से तात्कािलक घटना को
सनातन वेदाथय रूप में प्रकट दकया अताः शाश्वती समा = आददकाव्य बना । सवेषां तु
सनामािन कमायिण च पृथक्तपृथक् । वेदशब्दे्येवादौ पृथक्तसंस्थाश्च िनमयमे–मनु. १/२१।
वणो का ध्यान- वणोद्धार तंत्र में सभी वणो का ध्यान, आयुधादद का वणयन िमलता
है, अम्बाजी के ५१ शििपीठ मंददर में इसी ५१ वणों के देवी िवग्रह है । शारदाितलक
एवं अन्त्य तंत्रागम ग्रंथो में इसका वणयन िमलता है, यद्यिप यहां कामधेनु तन्त्त्रानुसारेण
(मूलम् - इनका अथय िवद्वानप के िलए अित सरल है, यथा लेखन िवस्तृित करण की
आवश्यकता नहीं हैं) -
(आ)- आकारं परमाश्चयां शगखज्योितमययं िप्रये । ब्रह्मिवष्णुमयं वणां तथा रुद्रमयं िप्रये ।।
पञ्चप्राणमयं वणां स्वयं परमकु ण्डली ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
(इ)- ईकारं परमेशािन स्वयं परमकु ण्डली । ब्रह्मिवष्णुमयं वणां तथा रुद्रमयं सदा ।।
पञ्चदेवमयं वणां पीतिवद्युल्लताकृ ितम् । चतुज्ञायनमयं वणां पञ्चप्राणमयं सदा ।।
(ऊ)- शगखकु न्त्दसमाकारं ऊकारं परमकु ण्डली । पञ्चप्राणमयं वणां पञ्चदेवमयं सदा ।।
धमायथयकाममोक्षं च सदासुखप्रदायकम् ।।
(लृ)- लृकारं चञ्चलापािगग कु ण्डली परदेवता । अत्र ब्रह्मादयाः सवे ितष्ठिन्त्त ससतं िप्रये
।। पञ्चदेवमयं वणां चतुज्ञायनमयं सदा । पञ्चप्राणयुतं वणय तथा गुणत्रयात्मकम् ।।
िवन्त्दत्र
ु यात्मकं वणां पीतिवद्युल्लता तथा ।
(औ)- रििवद्युल्लताकारं औकारं कु ण्डली स्वयम् । अत्र ब्रह्मादयाः सवे ितष्ठिन्त्त सततं
िप्रये ।। पञ्चप्राणमयं वणां तथा िशवमयं सदा ।।
(ग)- गकारं परमेशािन पञ्चदेवात्मकं सदा । िनगुयणं ित्रगुणोपेतं िनरीहं िनमयलं सदा ।।
पञ्चप्राणमयं वणां गकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(ङ)- ङकारं परमेशािन स्वयं परमकु ण्डली । सवयदेवमयं वणां ित्रगुणं लोललोचने ।।
पञ्चप्राणमयं वणां ङकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(च)-चवणां श्रृणु सुश्रोिण चतुवयगप्रय दायकम् । कु ण्डलीसिहतं देिव स्वयं परमकु ण्डली ।।
रि िवद्युतल्लताकारं सदा ित्रगुणसंयुतम् । पञ्चदेवमयं वणां पञ्चप्राणमयं सदा ।। ित्रशिि
सिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा ।
(छ)- छकारं परमाश्चयां स्वयं परमकु ण्डली । सततं कु ण्डलीयुिं पञ्चदेवमयं सदा ।।
पञ्चप्राणमयं वणां ित्रशििसिहतं सदा । ित्रिवन्त्दस
ु िहतं वणां सदा ईश्वरसंयुतम् ।।
पीतिवद्युल्लताकारं छकारं प्रणमाम्यहम् ।
(ञ)- सदा ईश्वरसंयुिं ञकारं श्रृणु पावयित । रििवद्युल्लताकारं स्वयं परमकु ण्डली ।।
पञ्चदेवमयं वणां पञ्चप्राणात्मकमं सदा । ित्रशििसिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा ।।
(ट)- टकारं चञ्चलापािगग स्वयं परमकु ण्डली । पञ्चदेवमयं वणां पञ्च प्राणात्मकमं सदा ।।
ित्रशििसिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा ।।
(त)- तकारं चञ्चलापािगग स्वयं परमकु ण्डली । पञ्चदेवात्मकं वणां पञ्चप्राणमयं तथा ।।
ित्रशिि सिहतं वणयमात्माददतत्त्वसंयुतम् । ित्रिवन्त्दस
ु िहतं वणां पीतिवद्युत्समप्रभम् ।।
(थ)- थकारं चञ्चलापािगग कु ण्डली मोक्षरुिपणी। ित्रशििसिहतं वणां ित्रिवन्त्दस ु िहतं सदा
।। पञ्चदेवमयंवणां पञ्चप्राणात्मकं िप्रये । तरुणाददत्यसगकाशं थकारं प्रणमाम्यहम् ।।
(द)- दकारं श्रृणु चावयिगग चतुवग य यप्रदायकम् । पञ्चदेवमयं वणां ित्रशििसिहतं सदा ।।
सदा ईश्वरसंयि ु ं ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा । आत्माददतत्त्वसंयुिं स्वयं परमकु ण्डली।।
रििवद्युल्लताकारं दकारं हृदद भावय ।।
(न)- नकारं श्रृणु चावयिगग रििवद्युल्लताकृ ितम् । पञ्चदेवमयं वणां स्वयं परमकु ण्डली ।।
पञ्चप्राणात्मकं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा । ित्रशििसिहतंवणयमात्माददतत्त्वसंयुतम् ।
चतुवयगप्र
य दं वणां हृदद भावय पावयित ।।
(प)- अताः परं प्रवक्ष्यािम पकारं मोक्षमव्ययम् । चतुवग य यप्रदं वणां शरङ्रन्त्द्रसमप्रभम् ।।
पञ्चदेवमयं वणां स्वयं परमकु ण्डली । पञ्चप्राणमयं वणां ित्रशििसिहतं सदा ।।
ित्रिवन्त्दस
ु िहतं वणांमात्माददतत्त्वसंयुतम् । महामोक्षप्रदं वणां हृदद भावय पावयित ।।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
(भ)- भकारं चञ्चलापािगग स्वयं परमकु ण्डली । महामोक्षप्रदं वणां पञ्चदेवमयं सदा ।।
ित्रशिि सिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं िप्रये ।
(म)- मकारं श्रृणु चावयिगग स्वयं परमकु ण्डली । महामोक्षप्रदं वणां पञ्चदेवमयं सदा ।।
तरुणाददत्यसगकाशं चतुवयगप्र य दायकम् । ित्रशििसिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं सदा ।।
आत्माददतत्त्वसंयुिं हृददस्थं प्रणमाम्यहम् ।।
(य)- यकारं श्रृणु चावयिगग चतुष्कोमयं सदा । पलालधूमसगकाशं स्वयं परमकु ण्डली ।।
पञ्चदेवमयं वणां पञ्चप्राणात्मकं सदा । ित्रशििसिहतं वणां ित्रिवन्त्दस
ु िहतं तथा ।।
प्रणमािम सदा वणां मूर्ततमान् मोक्षमव्ययम् ।।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
(क्ष)- क्षकारं श्रृणु चावयिगग कु ण्डलीत्रयसंयुतम् । चतुवयगयमयं वणां पञ्चदेवमयं सदा ।।
पञ्चप्राणात्मकं वणां ित्रशििसिहतं सदा। ित्रिवन्त्दस ु िहतं वणाांत्माददतत्त्वसंयुतम् ।
रिचन्त्द्रप्रतीकाशं हृदद भावय पावयित ।।
वणोङ्रारण तन्त्त्र, शारदाितलक में भी वणो की शिि, ध्यान एवं सिवस्तार चचाय
िमलती है । वणो के आयुध, आकारादद का भी वणयन तन्त्त्रागमो में एवं वणोचारण िशक्षा
में प्राप्त हैं ।
उपिनषद में वणय - वैसे तो वेदप में, ब्राह्मण ग्रंथोमें वाक् (वणय) शिि का बहुत स्थान
पर वणयन है, यद्यिप अक्षमािलकोपिनषद तो के वल वणय - अक्षरज्ञान की ही बात करता
है ।आगे कई स्थानपर श्रुित प्रमाण हैं, यथा पुनरूिि की आवश्यकता नहीं है । यह
मालािभमंत्रण में भी उपयुि है -
अक्षमािलक उपिनषद -
ओमगकार मृत्युञ्जय सवयव्यापक प्रथमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमागकाराकषयणात्मकसवयगत िद्वतीयेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओिमगकारपुिटदाक्षोभकर तृतीयेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमीगकार वाक्तप्रसादकर िनमयल चतुथेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमुगकार सवयबलप्रद सारतर पञ्चमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमूगकारोङ्राटन दुाःसह षष्ठेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ओमृगकाकार संक्षोभकर चञ्चल सप्तमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमॄगकार संमोहनकरोजवलाटमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओम्लृगकारिवद्वेषणकर मोहक नवमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओम्लॄगकार मोहकर दशमेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमेगकार सवयवश्यकर शुद्धसत्त्वैकादशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमैगकार शुद्धसाित्त्वक पुरुषवश्यकर द्वादशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमोगकारािखलवाङ्मय िनत्यशुद्ध त्रयोदशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमौगकार सवयवाङ्मय वश्यकर चतुदश य ेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमगकार गजाददवश्यकर मोहन पञ्चदशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ओमाःकार मृत्युनाशनकर रौद्र षोडशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ कगकार सवयिवषहर कल्याणद सप्तदशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ खगकार सवयक्षोभकर व्यापकाटादशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ गगकार सवयिवघ्नशमन महत्तरै कोनतवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ घगकार सौभाग्यद स्तम्भनकर तवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ ङकार सवयिवषनाशकरोग्रैकतवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ चगकारािभचारघ्न िू र द्वातवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ छगकार भूतनाशकर भीषण त्रयोतवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ जगकार कृ त्याददनाशकर दुधष य य चतुर्ववशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ झगकार भूतनाशकर पञ्चतवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ ञकार मृत्युप्रमथन षतड्वशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ टगकार सवयव्यािधहर सुभग सप्ततवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ ठगकार चन्त्द्ररूपाटातवशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ डगकार गरुडात्मक िवषघ्न शोभनैकोनतत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ ढगकार सवयसंपत्प्रद सुभग तत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ णगकार सवयिसिद्धप्रद मोहकरै कतत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ तगकार धनधान्त्याददसंपत्प्रद प्रसि द्वातत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ थगकार धमयप्रािप्तकर िनमयल त्रयतस्त्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ दगकार पुिटवृिद्धकर िप्रयदशयन चतुतस्त्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ धगकार िवषज्वरिनघ्न िवपुल पञ्चतत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ नगकार भुििमुििप्रद शान्त्त षतट्त्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ पगकार िवषिवघ्ननाशन भव्य सप्ततत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ फगकारािणमाददिसिद्धप्रद ज्योतीरूपाटतत्रशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ बगकार सवयदोषहर शोभनैकोनचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ भगकार भूतप्रशािन्त्तकर भयानक चत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ मगकार िवद्वेिषमोहनकरैकचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
51
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ॎ यगकार सवयव्यापक पावन िद्वचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ रगकार दाहकर िवकृ त ित्रचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ लगकार िवश्वंभर भासुर चतुश्चत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ वगकार सवायप्यायनकर िनमयल पञ्चचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ शगकार सवयफलप्रद पिवत्र षट्चत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ षगकार धमायथक य ामद धवल सप्तचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ सगकार सवयकारण सावयवर्तणकाटचत्वाट्ररशेऽक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ हगकार सवयवाङ्मय िनमयलैकोनपञ्चाशदक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ ळगकार सवयशििप्रद प्रधान पञ्चाशदक्षे प्रितितष्ठ ।
ॎ क्षगकार परापरतत्त्वज्ञापक परंज्योतीरूप िशखामणौ प्रितितष्ठ ।
ज्योितष मे वणय - अब वणो के ग्रह, रािशयां एवं नक्षत्र का क्तया तादात्म्य है, वह
बताते है । कु छ अनिभज्ञ - मूखय भले ही ज्योितष को नहीं मानना चािहए या पाखण्ड
कहने की धूतयता करें । यह छाः शास्त्रप मे से एक है और िवराट् पुरूष के नेत्र है, भगवान
नारायण नेत्रहीन नहीं है, ऐसा बोलनेवालप को प्रज्ञारूपी नेत्र न िमली हो, वह उनका
दुभायग्य है । हमने तो वसुधैव कु टु म्बकम् की उदात्त भावना का दशयन दकया है, धरती को
माता, सूरज को दादा, चन्त्द्र को मामा इत्यादद नाम से पुकारते है । प्रत्यक्षं ज्योितषं
शास्त्रं चन्त्द्राकौ यत्रसािक्षणौ - िशक्षा । ब्रह्माऽचायो विशटोऽित्रमयनाःु पौलस्त्यलोमशौ,
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
महीिचरिगगरा व्यासो नारदाः शौनको भृगाःु । च्यवनोयवनो गगय कश्यपश्च पराशराः,
अटादशैते गम्भीरा ज्योिताःशास्त्रप्रवतयकााः।। ये सभी ज्योितषशास्त्र के आचायय बताए गए
है, सभी गलत तो नहीं हपगे, ये सभी ग्रन्त्थकताय भी है । विा को तो प्रायाः ये भी मालूम
नहीं होगा दक िवज्ञान के इतने िवकास के शतकप पूवय से , हमारा ज्योितष-गणीत
आकाशीय पररवतयनो की, गितिविधयप की वास्तिवकता सफलतापूवक य बताती थी ।
ग्रहण, ग्रहपका उदयास्त, उनकी गित, िवपरीत गित, अितचाररत्व, प्रकाशवषय में उनकी
दूरी, मान इत्यादद, कु छ अल्पज्ञ विा तो, िवश्वकमाय के भौवनिनमायण व वास्तु का भी
िवरोध करते है, वे स्वयं की दृिट ही ठीक कर ले तो अच्छा होगा - के वल धन
बटोरनेवाले-िशष्यिवत्तोपहारक: । यस्यागमाः के वलजीिवकायै तं ज्ञानपण्यं विणजं
वदिन्त्त । ये सन्त्यासी या योगी नहीं, मात्र व्यापारी है । छोिडए, ऐसे अनिभज्ञप के
िवषयमें चचाय करना स्वयं की शिि का क्षय ही हैं । गीतामें कहा है - गुणा गुणीषु वतयन्त्ते
- उनकी ऐसी चेटा ही उनका मूलस्वरूप का दशयन कराती है । न तो वे शास्त्र जानते है,
न िह उपासक है, के वल योग की दुकान लगाकर बैठे है । कु छ शास्त्रप में शून्त्य हो ऐसे
विा, ज्योितष, वास्तु आदद का िवरोध करते हैं । वे भागवतादद पुराण, रामायण,
महाभारत को तो मानते ही हपगे, क्तयपदक गीतादद के श्लोको का संदभय अपने प्रवचनपमें
जो देते है । हम इन्त्हें परामषय देते हैं दक, आपने पुराणप को न पढा हो तो पढ िलिजए या
तो अपनी िनिज मान्त्यता को आप तक िसमीत रिखए, श्रोताओ को बताने दक जरूरत
नहीं है, यदद चचाय ही करनी हो तो िवद्वानप को आवािहत करें । मात्र वास्तु एवं
ज्योितष के िलए, िह स्वतंत्र अध्याय अििपुराण, मत्स्यपुराण, स्कन्त्दपुराण,
महाभारतादद में है और वे ऋिषयप के संवादरूपेण है, यदद आप वािल्मकी या वेदव्यास
से भी ज्यादा िवद्वान है तो दूसरी बात है । मैं िस्वकारता हुं दक, मैने भी सभी पुराण
पूणयरूपेण नहीं पढे है, यद्यिप कोई भी पुराण से इनको िसद्ध करने दक क्षमता
भगवद्कृ पा से है । वास्तु की उत्पित्त ब्रह्मा से है, यज्ञ करने से पहले या मंददर िनमायण से
पहले, ज्योितष व वास्तु का िवचार शास्त्रोिचत है । पूरा पंचाग गिणत एवं ग्रहपकी
गितिविधया, ग्रह एवं नक्षत्रो के उदयास्तादद, हमारे ऋिषगण सहस्रो वषो से करते
आए है, िवज्ञान के दूबीन के िवकास के पूवय भी ग्रहण एवं ग्रहोका उदयास्त बतानेवाला
शास्त्र ज्योितष है, जो वेदप के िहसाब से भगवान के नेत्र हैं, हम अन्त्धे भगवानकी पूजा
नहीं करते, हमारा सम्बन्त्ध पूरे ब्रह्माण्ड से है, हम बचपन से ही धरतीमता बोलते है,
सूरजदादा बोलते है, चांदामामा बोलते है और इस सम्बन्त्धो का वैज्ञिनक रूप
बतानेवाले शास्त्रको ज्योितष कहते है । इसका िवस्तार कथन यहां अप्रासंिगक भी है ।
अब आगे ज्योितष का वणो से संबंध पर िवचार करते है । तदा स्वरे शाः सूयोऽयं
कवगेशस्तु लोिहताः । चवगयप्रभवाः काव्यटवगायद ् बुधसम्भवाः ।। तवगोत्थाः सुरगुरुाः
पवगोत्थाः शनैश्चराः । यवगयजोऽयं शीतांशुररित सप्तगुणा ित्वयम् ।। यथा स्वरे ्यो नान्त्ये
स्युवयणायाःषड्वगयभेददता । तथा सिवत्रनुस्यूतं ग्रहटकं न संशयाः ।। तथा च -
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आद्यैमेषाह्वयो रािशरीकारान्त्तैाः प्रजायते । ऋकारान्त्तैरुकाराद्यैवृयषो युग्मं ततिस्त्रिभाः ।।
एदैतोाः ककय टो रािशरोदौतोाः तसहसम्भवाः । अमाः शवगयले्यश्च सञ्जाता कन्त्यका मता ।।
षड््याः कचटते्यश्च पया्यां च प्रजिजरे । बिणगाद्याश्च मीनान्त्ता राशयाः
शििजृम्भणात् ।। चतुर्तभमायददिभाः साद्धय स्यात् क्षकारस्तु मीनगाः ।। तथा च-
सूयय - अआदद षोडश स्वर, मंगल - कवगय, शुि - चवगय, बुध - टवगय, बृहस्पित - तवगय,
शनी -पवगय, चन्त्द्र - यवगय ।
मेष -अ,आ,इ,ई, वृषभ - उ,ऊ,ऋ, िमथुन -ॠ,लृ,ॡ, ककय - ए,ऐ, तसह - ओ,औ, कन्त्या -
अं,अाः,श,ष,स,ह,ळ, तुला - क,ख,ग,घ,ङ, वृश्चक - च,छ,ज,झ,ञ, धन - ट,ठ,ड,ढ,ण,
मकर - त,थ,द,ध,न, कुं भ - प,फ,ब,भ,म, मीन - य,र,ल,व ।
अथायत् इन सभी वणों के देवता,ऋिष और छन्त्द भी स्पट है। दिया ज्ञान और इच्छा
आदद इन वणों की शिियां कही गयी है । िवररिञ्च, िवष्णु, रुद्र, अिश्वनी, प्रजापित तथा
चारो ददगीश्वर इनके स्वामी कहे गये है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
परातत्रिशका के अनुसार वणय िह समस्त िवद्याओं के जनक है - अमूला तत्िमाज्ज्ञेया
क्षान्त्ता सृिटरुदाहृता । सवेषामेव मन्त्त्राणां िवद्यानां च यशिस्थिन ।। इयं योिनाः
समाख्याता सवय तन्त्त्रेषु सवयदा ।।
पुराण में वणय - वैसे तो पुराणप में अनेक स्थान पर वणय शिि का वणयन व संगित
िमलती है । यद्यिप अििपुराण के एकाक्षरािभधानानुसार वणो के देवता बताते है
(मूलम्) - एकाक्षरािभधानं ।अििरुवाच ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अन्त्य पुराण एवं आगम-यामलो में भी वणो के देवत्व के िवषय में चचाय है, यद्यिप यहां
इतना पयायप्त लगता है ।
व्याकरण में वणय - निन्त्दके श्वरकािशका २७ पदप से युि दशयन एवं व्याकरण का एक
ग्रन्त्थ है। इसके रचियता निन्त्द या निन्त्दके श्वर (२५० ईसापूवय) है। इस ग्रन्त्थ में शैव अद्वैत
दशयन का वणयन है, साथ ही यह माहेश्वर सूत्रप की व्याख्या के रूप में है । उपमन्त्यु ऋिष
ने इस पर 'तत्त्विवमर्तशणी' नामक टीका रची है। निन्त्दके श्वर को पािणिन, ितरुमूल,
पतञ्जिल, व्याघ्रपाद, तथा िशवयोगमुिन का गुरु माना जाता है । िशव जी के डमरू नाद
से, वणो की व्यवस्था - व्याकरण की रचना का वंदनीय कायय दकया है । श्री भतृह य रर का
वाक्तयपदीय भी वणय, अथायदद िवषये िवशेष प्रकाश डालता हैं ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आकाशलृ,ॡ,क्ष,ङ,ञ,ण,न,म,श,ह पञ्चमहाभूत का वणो से संबंध । आगे उपसना िवभाग
में इसे पुनाः सिवस्तर बताया जाएगा ।
योग में वणय - सांख्य के छत्तीस तत्त्वप को कचटचपयशादद व्यंजन कहे गए हैं । षट्
चि िनरूपण में कहा है : - मेरोबाय्प्रदेशे शिशिमिहरिशरे सव्यदक्षे िनषण्णे ।
मध्ये नाड़ी सुषुम्णा ित्रतयगुणमयी चंद्रसूयायििरूपा ।
धुस्तुर-स्मेर-पुष्प-ग्रिथततम-वपुाः कं दमध्याच्छीरस्था ।
वज्राख्या मेढ्रदेशाच्छीरिस पररगतामध्यमेस्या ज्वलन्त्ती ।।
मेरुदंड के बाहर वायें तथा दायें भाग मेंइडा तथा तपगला नामी दो नािडयांहैऔर िबच
में सुषुम्णा नाम्नी नाडी है जोकी सत्त्व, रज और तम आदद ित्रगुणमयीऔर चंद्र, सूयय एवं
अिि के समान देदीप्यमान है । प्रष्फु रटत धतूरा पुष्प के जेसे शरीर जैसी सुषुम्णा
नािड़यप के उत्पित्त स्थान कं द से लेकर मस्तकान्त्तगयतसहस्रार पययन्त्त गमन करती है ।
इसके अंदरतलगमूल स्थान से वज्रा नाम्नी अन्त्य एकनाड़ी गयी है मस्तक पययन्त्त ।तन्त्मध्ये
सा प्रणव िवलिसता योिगनाम्योगगम्या । लू तातंतुपमेया सकल सरिसजान्त्मेरुमध्यांतर
स्थान् । िभत्त्वा देदीप्यते तद्ग्रथनरचनयाशुद्धबोधस्वरूपातन्त्मध्ये ब्रह्मनाडी हरमुख
कु हरादादद देवांतसंस्था ।।
कौिलकतंत्र ताराकल्प में कहा गया - सप्तपद्मं मयैवोिं सुषुम्णा ग्रिथतं िप्रये ।
अधोवक्तत्राददमान्त्तश्च न आख्येयं यस्यकस्यिचत् ।।है देवी ! मेरे द्वारा कहे गए यह सात
पद्मसुषुम्ना द्वारा गुंथे हुए है और अधोमुखी होकर िस्थत है । इस सुषुम्णा के पथ पर
सात चि है िमेण - मूलाधार से लेकर िवशुद्ध तक पंचदेव कािनवास है ।मूलाधार में
अग्रपूज्य गणेश, स्वािधष्ठान में आददशिि दुगाय, मिणपुर में प्राणप के स्रोत सूय,य अनाहत
में सवयत्र पररव्याप्त भगवान् नारायण और िवशुद्ध में भगवान् िशवका अस्थान है ।
आज्ञाचि में इटदेव तथा सहस्रदल कमल में परमात्मा का वास है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
मेंपररकल्पना करना चािहए । इसका पूरा िववरण एवं उपासना िविध का इस लेख के
िद्वतीय भाग में िवस्तृत रूपेण िनरूपण दकया है ।
कमयकाण्ड मे वणय - आजकल कमयकाण्ड का िवरोध सामान्त्य हो गया है, इसका प्रधान
कारण यह हैं दक जो स्वयं शास्त्रप से अनिभज्ञ है, उनको एक अज्ञात भय है दक िवद्वान
एवं ब्राह्मण ही हमारी पाखण्डलीला को प्रकािशत कर सकते है, यथा उनको िह
जनसामान्त्य से िवमुख कर दे, तो हमारा (लूंट का) साम्राज्य बना रहेगा, आज के
तथाकिथत संतो-विाओं के िलए एक स्वतंत्र लेख प्रकािशत दकया है, यथा यहां उनके
िववरण को स्थान नहीं है । सभी िवद्वानप को मेरी नम्र प्राथयना है दक, शास्त्रिवरुद्ध
उिियप के िलए मौन न रहे, आपकी सुषिु प्त आपकी कतयव्यपलायनता ही है । स्वयं
भगवान ने बौद्धावतार में वेदप का िवरोध दकया था, तब वेद एवं शास्त्रप की रक्षा के
िलए भगवान शंकरने स्वयं शंकराचाययरूपेण अवतररत होकर, उनकी नािस्तक िवचार
धारा को, भारत से दूर भगाने का अथक प्रयास दकया था और अद्वैतमत का प्तितपादन
दकया था । आज िवद्वानप को पुनाः शास्त्र रक्षाके पथपर प्रशस्त होने का समय पक चूका
हैं । यदद ऐसे विा शास्त्रप के िलए गुरूपसदन न िस्वकारे , तो उनके वास्तिवक स्वरूप
को प्रकािशत करें । यही यथाथय रूप में जन सेवा है और भगवद्सेवा भी है, उपासना भी
है । जनसामान्त्य को शास्त्रमागय से पदभ्रट होने से बचाए यही आपका यज्ञ है ।
पुनाः सप्तघृत मातृकाओं का पूजन है, िजसे स्नेह मातृका या छन्त्दमातृका कहना भी उिचत
ही है । इस सात छन्त्दो में सप्तवगायद्य वणय का उल्लेख कर चूके है - अकचटतपशाद्यै ।
अन्त्यत्र ।। प्रत्येक वगय में शिि है । अवगे तु महालक्ष्मीाः कवगे कमलोद्भवा ॥१.३४॥
चवगे तु महेशानी टवगे तु कु माररका । नारायणी तवगे तु वाराही तु पवर्तगका ॥१.३५॥
ऐन्त्द्रीचैवयवगयस्था चामुण्डा तु शवर्तगका । एतााःसप्तमहामातृाः सप्तलोकव्य विस्थतााः ॥
स्व.तंत्र १.३६॥
जब पश्यन्त्ती रूपेण वाक् कण्ठमें आकर स्पन्त्दन द्वारा वैखरीरूप धारण करती है, तब वह
गायत्रीित्रटु पादद छन्त्द स्वरूप में बहार आती है । यही सप्त घृत मातृका या स्नेह
मातृकाओं का स्वरूप है, जो गायत्र्यादद छन्त्द रूपेण परावाक् को मन्त्त्र रूप में स्वररत
करती है । गणेश जो दक वणोके आदद योजक है, उनके साथ षोडश स्वर मातृका एवं
सप्त वसोधायराओं का पूजन करने की परं परा है । कमय में मंत्रो के साथ तारक, स्वाहा,
स्वधा, वषट्, वौषट् जो लगाते है, वह भी (तस्य चत्वारर स्तनााः) वाक् रूपी कामधेनु के
अमृतस्रवा चार स्तन है । यह एक सुंदर कल्पना है । अििवायक् भूत्वा - कहा है, यथा
अिि स्थापनोपरांत चत्वारर श्रृग ं ा - की जो प्राथयना करते है, वह भी वाक् िवस्तार का
वणयन ही है । चत्वारर श्रृग ं ास्त्रयो अस्य पादा:, द्वे शीषे सप्त हस्तासो अस्य।ित्रधा बद्धो
वृषभोरोरवीित महोदेवो मत्याां आिववेश ।। योग शास्त्र के प्रणेता भगवान् श्री पतंजिल
ने इसकी जो व्याख्या की है, उसके अनुसार वाक् वृषभ है, िजसके चार श्रृंग-चार पद-
समूह (नाम, आख्यात, उपसगय और िनपात) है । तीन पैर है-तीन काल ( भूत, वत्तयमान
और भिवष्यत्) इन तीन कालप के बोधक है लट् आददप्रत्यय, स्वयं काल नहीं, क्तयपदक
काल की पादत्व-कल्पना अयुि है। कारण दक काल वणयरूप नहीं है, इसिलए उसमें शब्द
के अवयव पाद की कल्पनानहीं हो सकती। द्वे शीषे=दो िशर है यानी दो प्रकारके
शब्दात्मा-िनत्य और कायय, जो नश्वर है। वैखरीरूप ध्विन कायय और अिनत्य है तथा
आन्त्तर प्रणवरूप स्फोट या शब्दब्रह्म िनत्य है। सप्त हस्तासोअस्य=इसके सात हाथ है
सात िवभिियााँ।ित्रधा बद्ध:= यह तीन स्थानप में बद्ध है, उरिस, कण्ठे , िशरिस चहृदय,
कण्ठ और िशर में।वृषभ इित=वृषभ के रूप में यहााँ शब्दब्रह्म कािनरूपण है। वषयणाद्
वृषभ:, वषयण करने से यहवृषभ है। वषयण से तात्पयय है, ज्ञानपूवक य अनुष्ठानसे फल प्रदान
करना । रोरवीित यानी शब्दं करोित, शब्द करता है । मातृकाशब्दरािशसंघट्टात्
शििमदैक्तयात्म लक्षणात् लवणारनालवत्परस्परमेलनात् - िभिा बीजैभेददता योनयो
व्यञ्जनािन यस्यााः सा तथािवधा सती (तन्त्त्रालोकिवमशय) तथा च- तंत्रलोकानुसारे ण -
शब्दरािशाः स एवोिोमातृका साच कीर्ततता । क्षो्य क्षोभकतावेशान्त्मािलनीं तां
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
प्रचक्ष्महे।। बीजयोिनसमापित्तर्तवसगोदय सुन्त्दरा । मािलनी िह पराशिििनणीता
िवश्वरुिपणी ।। यािन यही शिि सम्पूणय िवश्व को अपने रुप में धारण करती है,अथवा
कहें दक, समग्र को अपने में अन्त्तभूयत कर लेती है। यही कारण है वो मािलनी कहलाती
है। यथा मलते िवश्वं स्वरुपे धत्ते, मालयित अन्त्ताःकरोित कृ त्स्निमित च मािलनीित
व्यपददश्यते । वस्तुताः भैरवात्मक शब्द - रािश को मातृका और मािलनी इन दो रुपप में
स्मरण करते है । शब्द के आठ प्रकार बताए है - घोषो रावाः स्वनाः शब्दाः स्फोटाख्यो
ध्विनरेव च । झांकारोध्वगकृ ितश्चैव ्ष्चौ शब्दााः प्रकीर्तततााः - स्वच्छन्त्द ११.६.७।यह
तो के वल पररचय मात्र है, चतुाःषष्ठी योिगनी, भैरव (यामल), क्षेत्रपाल, अवकहडा चि,
वास्तु आदद सबका मूल आधार वणोमें िनिहत है । भूशुिद्ध, भूतशुिद्ध, पीठन्त्यास,
अतमायतृका, बिहमायतक ृ ा में तंत्र, योग एवं वेद का समन्त्वय ददखता है । वैददकस्तांित्रको
िमश्र त्रिवधो मख उच्यते - कमयकाण्ड का आधार वेद-तंत्र एवं दोनप के िमश्र स्वरूप है,
उस में योग एवं भििका भी समन्त्वय है, प्रत्येक कमय एवं नमम उङ्रारण कमयबध ं न एवं
कमयदोष से मुिि ददलाता है । कमयकाण्ड का प्रारम्भ एवं िवकास के वल तार्ककत नहीं,
दकन्त्तु पूणयरूप से वैज्ञािनक आधार पर है । सभी सम्प्रदायप व धमय में परम तत्त्व को
आत्मसात् करनेकी प्रणाली एवं परम्परा संप्रदाय प्रवतयकोने िनाःश्रेयसाथय, सवयजन िहताथय
ही बनाई है । इनका िवरोध, पाखण्ड, मूखयता व अज्ञान का प्रदशयन मात्र है ।
आजकल देखा गया हैं दक कु छ विा एवं कमयकाण्डी पंिडत वेदो की शाखाधीन पररपाटी
का त्याग करके संगीतमय वेदमंत्र पठते हैं । यज्ञ कराने जाते हैं तो कीबोडय, ढोलक,
हारमोिनयम साथ ले जाते है । यह अित गंभीर बात है, संगीत एक उपचार तक अच्छा
है, दकन्त्तु जहां मंत्रलोप-िवकृ ित होती है वहां हानीप्रद है । संगीतशास्त्र भी परमात्मा
प्रािप्त का, समािधका साधन है यह मैं भी मानता हुं । वह अपने स्थान पर श्रेष्ठ है, यद्यिप
जहां कमयकाण्ड या वेदमंत्रो की बात है वहां अवश्य िवचारणीय हैं । बीजमंत्रो, वेदमंत्रो
में अपार शिि हैं, यदद उसकी उङ्रारण पररपाटी एवं (िविनयोग-छन्त्द-देवता-
बीज,कीलकादद) िवधान को ज्ञान हो तो । तंत्र-वेदादद मंत्रो के उङ्रारण के िलए भी
बहोत ग्रंथ िलखे गए है, उङ्रारण स्वयं मे एक बडा िवज्ञान है । शुक्तलयजुवद े प्राितशाख्य,
कात्यायान प्रितज्ञासूत्र, प्रवरसूत्र, लघुमाध्यिन्त्दनी, के शवीय पद्याित्मका िशक्षा ये सब
वैददक मंत्रो का उङ्रारण िसखाती हैं - उदात्तानुदात्तस्वररत में भीजात्य, अिभिनिहत,
क्षैप, प्रिश्लट, तैरोव्यञ्जन, तैरोिवराम, ताथाभाव्य, पादवृित्त का िवचार करके
लघुदीधोङ्रारण होता है - शुक्तल यजुवेद में तो षकार का खकार, यकार का जकार एवं
अनुस्वार का गुक ं ार कहां करना है, यह ज्ञात होना चािहए, हर वेदकी अपनी पररपाटी
है - वेद एवं तंत्र गुरू गम्य है, इससे िखलवाड करने से हानी होती हैं । प्रलयकालेऽिप
सूक्ष्मरूपेण परमात्मिन वेदरािश: िस्थत: - अनन्त्ता वै वेदााः - वेद: िशव: िशवो वेद:
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
वेदाध्यायी सदािशव:। वेद अिवनाशी परमात्मा ही है, अनन्त्तबलशाली है इसे दकसी
संगीत या वाद्य की पुिट अपेिक्षत नहीं है । कहीं कहीं पर देखा गया है दक
अधीकारानधीकार का िवचार दकए बीना जोर जोर से मंत्रोङ्रारण कराया जाता है ।
वेश्या इव प्रकटा वेदाददिवद्यााः सवेषु दशयनष
े ु गुप्तय
े ं िवद्या । िवद्युत सब स्टेशन में क्तया
सबका प्रवेश है या मात्र अिधकृ त एिन्त्जनीयर का ही ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
तारक मन्त्त्र - प्रणव - जब मन्त्त्रो के िवषय में चचाय करते है तो, प्रणव के पररचय
िबना सब अपूणय माना जाएगा । प्रणव को तारक मंत्र कहते है । प्र यानी प्रपंच, न यानी
नहीं और व: उपासक के िलए। प्रणव शब्द का अथय है– प्रकषेणनूयते स्तूयते अनेन इित,
नौित स्तौित इित वा प्रणव:। गुरु नानक जी का शब्द एक ओंकार सतनाम बहुत
प्रचिलत तथा शत्प्रितशत सत्य है । तस्य वाचकाः प्रणवाः - ओिमत्येकाक्षरं ब्रह्म परमात्मा
का वाचक है, स्वयं ब्रह्मरूप है । प्रणव मंत्र सांसाररक जीवन में प्रपंच यानी कलह और
दु:ख दूरकर जीवन के चरम लक्ष्य यानी मोक्ष तक पहुंचा देता है।यही वजह है दक ॎ को
प्रणव नाम से जाना जाता है।दूसरे अथों में प्रनव को ‘प्र’ यानी यानी प्रकृ ित से बने
संसार रूपी सागर को पार कराने वाली ‘नव’ यानी नाव बताया गया है।इसी तरह
ऋिष-मुिनयप की दृिट से ‘प्र’ – प्रकषेण, ‘न’ – नयेत् और ‘व:’ युष्मान् मोक्षम् इित वा
प्रणव: बताया गया है। प्रणव का अपना महत्व है । हमारा पृर्थवी मंडल,गृह मंडल,
अंतररक्ष मंडल तथा सभी आकाश गंगाओं की गितशीलता से उत्पि महान शोर-ध्विन
या नाद ही ईश्वर की प्रथम पहचान प्रणवाक्षर ॎ है ।
मन्त्त्र के संस्कार - मंत्र जाप करने के भी कु छ िनयम होते है । मन्त्त्रो को शीघ्र िसद्ध
होने के िलए, मन्त्त्रो के कु ल्लुका, योिगन्त्यादद, माला प्रकार, ददशा, काल इत्याददका
िवचार करना भी आवश्यक होता है । यद्यिप वे प्रत्येक िवद्या के िलए पृथक-पृथक है
अताः गुरू गम्य है । मंत्र संस्कार के बारे में भी जानना चािहये । जातक को दीक्षा ग्रहण
करने के बाद, अपने इट देव के मंत्र की साधना िविध-िवधान से करें । दकसी भी मंत्र की
साधना करने से पूव,य उस मंत्र का संस्कार अवश्य करना चािहए । शास्त्रप में मंत्र
के १० संस्कार वर्तणत है ।
िजस अि को खेत से लानेके उपरान्त्त उसमें से तृण, िमरट्ट, कं करादद को िनकाल ते है,
इसे तेल या जंतुनाशक रटदकया के साथ भरते है, उपयोग में लेने से पूवय उसे धोते है,
पकाते हैं, मसाले डालकर िभििभि व्यञ्जन बनाते है, इसे कहते है संस्कार या िजस
प्रकार बीज के उपर रासायणीक प्रदिया करनेसे अच्छा कृ िषबीज (िबयारण) तैयार
होता है, िजससे अिधक अिोत्पादन होता है, वैसे ही मंत्र की प्रदिया को संस्कार कहते
है । मेरूतंत्र में इस प्रकार वर्तणत है -
जननंजीवनंपश्चात् ताडनंबोधनं तथा।अथािभषेकोिवमलीकरणाप्यायनं पुनाः।
तपयणं दीपनं गुिप्तदयशैतााःमंत्र संिस्ियााः। नािधकारोस्त्यताःकु यायदात्मानंमन्त्त्रसंस्कृ तम् ।।
मंत्र संस्कार शारदाितलकानुसार (१.२२६ से १.२३४) िनम्न प्रकार से है-
जननं जीवनं चेित ताडनं रोधनं तथा ।अथािभषेको िवमलीकरणाप्यायने पुनाः।
तपयणं दीपनं गुिप्तदयशत ै ा मन्त्त्रसंिस्ियााः॥मन्त्त्राणां मातृकामध्यादुद्धारो जननंस्मृतम् ।
प्रणवान्त्तररतान्त्कृत्वा मन्त्त्रवणायन् जपेत्सुधीाः ॥
एतज्जीवनिमत्याहुमयन्त्त्र तन्त्त्रिवशारदााः ।मनोवयणायन् समािलख्य ताडयेङ्रन्त्दनाम्भसा॥
प्रत्येकं वायुना मन्त्त्री ताडनं तदुदाहृतम् ।िविलख्य मन्त्त्रं तं मन्त्त्री प्रसूनाःै करवीरजैाः॥
तन्त्मन्त्त्राक्षरसगख्यातैहयन्त्याद्यत्तेन रोधनम्।स्वतन्त्त्रोििवधानेन मन्त्त्री मन्त्त्राणयसगख्यया॥
अश्वत्थपल्लवैमयन्त्त्रमिभिषञ्चेिद्वशुद्धये ।संिचन्त्त्य मनसा मन्त्त्रं योितमयन्त्त्रेण िनदयहेत् ॥
मन्त्त्रे मूलत्रयं मन्त्त्री िवमलीकरणं ित्वदम् ।तारव्योमाििमनुयुगदण्डी ज्योितमयनुमयताः ।
कु शोदके न जप्तेन प्रत्यणां प्रोक्षणं मनोाः ॥
तेन मन्त्त्रेण िविधवदेतदाप्यायनं स्मृतम् ।मन्त्त्रेणवाररणा यन्त्त्रे तपयणंतपयणंस्मृतम्॥
तारमायारमायोगो मनोदीपनमुच्यते ।जप्यमानस्यमन्त्त्रस्य गोपनंत्वप्रकाशनम् ॥
२.दीपन संस्कार:- ’हंस’ मंत्र से सम्पुरटत करके १ हजार बार मंत्र का जाप करना
चािहए।
३.बोधन संस्कार:- ’हूं’ बीज मंत्र से सम्पुरटत करके ५ हजार बार मंत्र जाप करना
चािहए।
४.ताड़न संस्कार:-’फट् ’ से सम्पुरटत करके १ हजार बार मंत्र जाप करना चािहए।
७.जीवन संस्कार:- मंत्र को ’स्वधा-वषट् ’ से सम्पुरटत करके १ हजार बार मंत्र जाप
करना चािहए।
८.तपयण संस्कार:- मूल मंत्र से दूध,जल और घी द्वारा सौ बार तपयण करना चािहए।
९.गोपन संस्कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ बीज से सम्पुरटत करके १ हजार बार मंत्र जाप करना
चािहए।
१०.आप्यायन संस्कार:- मंत्र को ’ह्रीं’ सम्पुरटत करके १ हजार बार मंत्र जाप करना
चािहए। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण कर चुके जातक को उपरोि िविध के अनुसार अपने इट
मंत्र का संस्कार करके , िनत्य जाप करना अत्युत्तम मानते है ।
ब्राह्ममण ग्रंथो व सूत्रग्रंथो में अथय प्रणाली िभि होती है । ब्राह्मणवाक्तय अनेक प्रकार के
होते है, जैसे, सूत्राथय, कमोत्पित्तवाक्तय, गुणवाक्तय, फलवाक्तय, फलाथय गुणवाक्तय, पुराणप
में भी स्कन्त्धाथय, अध्यायाथय, श्लोकाथय, अन्त्वयपूवयक शब्दाथय के साथ परमतभाषा, लोदकक
भाषा, समािध भाषा का िवचार दकया जाता है ।
कभी कभी एक ही मन्त्त्र के िभि-िभि िस्थितयप में पृथक पृथक अथय होते है । यहा एक
उपिनषद की कथा प्रस्तुत है । एक बार देव, मनुष्य और असुर तीनप भाई प्रजापित
ब्रह्माजी के पास धमोपदेश ग्रहण करने के िलये गये। िपतामह ने तीनप को सत्कारपूवक य
िबठाया। सब से पहले उन्त्हपने देवप को बुलाया तथा और कु छ ने कह कर के वल ‘द’ का
उपदेश ददया । दफर ब्रह्माजीने पूछा मेरे उपदेश का अथय समझे ? देवप ने कहा - हा, पूज्य
समझे, आपने सूत्र रूप से ‘द’ शब्द कह कर हमें दमन का-इिन्त्द्रय संयम का-उपदेश ददया
है । प्रजापित ने प्रसि होकर कहा - तुमने मेरे उपदेश का ठीक ही अथय समझा ।
अब मनुष्यप की बारी आई। उन्त्हें एकान्त्त में ले जाकर ब्रह्माजी ने ‘द’ का उपदेश ददया
और पूछा दक मेरे कथन का तात्पयय समझे । मनुष्यप ने कहा - आपने हमें ‘द’ का मन्त्त्र देते
हुए ‘दान’ का आदेश दकया है । प्रजापित ने हषयपूवक य कहा - ठीक है बेटा, तुम्हारे िलए
मेरे कथन का यही तात्पयय है।
अन्त्त में असुर बुलाये गये । इन्त्हें भी ब्रह्माजी ने ‘द’ का उपदेश ददया और पूछा दक इस
सूत्र का क्तया भावाथय समझे? असुरप ने उत्तर ददया भगवान् आप हमें दया का उपदेश कर
रहे है। िपतामह ने उनके अथय को भी ठीक बताया और उसी का पालन करने का िवशेष
रूप से आग्रह दकया।
वृहदारण्यक के उपिनषद् की उपरोि कथा का तात्पयय यह है दक, धमय तत्व ‘द’ शब्द में
समान एक ही है, पर अिधकारी भेद से उसके पालन में कु छ अन्त्तर होता है । िजस
व्यिि में जो त्रुरटयां हैं, वह उन्त्हें दूर करने के िलए उसी ददशा में प्रयत्न करे । प्रत्येक वणय
अनन्त्त शिियुि मन्त्त्र है - अनेक अथय व कामनाप्रद होते है ।
नेत्रतंत्र में िशवशिि संवाद - वैसे तो श्रुित, पुराण एवं तंत्र ग्रंथो में मन्त्त्र शिि का
अित िवस्तृत वणयन िमलता है, यद्यिप नेत्रतन्त्त्र में देवी और िशव का िनम्न संवाद
अत्युत्तम लगता है, िजसमें मन्त्त्रशिि का पूणय रहस्य बताया गया है -मन्त्त्रााः दकमत्मका
देव ककस्वरूपाश्च कीदृशााः । कक प्रभावााः कथं शिााः के न वा संप्रचोददतााः ।।
िशवात्मकास्तु चेद्दव
े व्यापकााः शून्त्यरूिपणाः। दियाकरणहीनत्वात् कथं तेषां िह कतृयता ।।
अभूतयत्वात् कथं तेषां कतृयत्वं चोपपद्यते । िवग्रहेण िवना कायां काः करोित वद प्रभो ।।
िशवजी का प्रत्युत्तर िनम्नानुसार है । इस संवाद का शब्दशाः अथय नहीं है, लेदकन सारांश
प्रस्तुत दकया है । इच्छा, दिया, ज्ञान के िबना जगत की कल्पना िनमूयल है । ब्रह्म (िशव)
िनर्तवकार-अव्यि है । जैसे मन्त्त्रप में अथय िनिहत है, मन्त्त्रप में शब्द है, शब्दप में वणय है, ये
वणय जो है, वे वैखरीरूप में व्यि होने से पूवय मध्यमा - पश्यन्त्ती और वाक् रूपमें थे ।
यहां भी अथय तो गर्तभत था ही । इस तर्थय को समझने के िलए एक उदाहरण का आश्रय
लेते है । जैसे नरमादा पक्षीयप का कामरित सम्बन्त्ध से गभायधान होता है । इन इच्छा-
दिया में पक्षी का स्वरूप व शिियां अदृश्य रहती है । गभायधान के बाद अण्ड प्रसव
होता है - इस अण्डे के आकार में शरीर अव्यि है । उनके नेत्र, उनके पंख, उनकी
उडनेकी क्षमता कु छ भी नहीं ददखता । जब वे पूणय व्यि हो जाता है तब उनकी शिि व
स्वरूप का दशयन होता है । वटबीज कणीकायाम् - बीज में वट है - क्तयप नहीं ददखता ?
जगत में दो ही तत्त्व है - शिि (माया - प्रकृ ित) एवं उनका आश्रय िशव (ब्रह्म - पुरूष) ।
शििश्च शििमाञ्चेित पदाथयद्वय उच्यते । शििरे तज्जगत्सवां शििमान्त्स्तु महेश्वराः ।
वस्तुताः मूल रूपमें िशव व शिि एक ही है - द्वैत नहीं है, िशव में ही शिि िनिहत है ।
स्वशििप्रचयोस्य िवश्वम् िशवसूत्र ३।३० एकोिस्म बहुस्याम् उनकी इच्छा - दिया -
ज्ञानादद शिि से ही बहुरूपत्व आता है । तस्मात्सवयगतं िवश्वं स एकाः परमेश्वराः । सवयज्ञो
िनत्यतृप्तश्च तस्य बोधो्नाददमान् ।। स्वतन्त्त्रोऽलुप्त शििश्चानान्त्तशििमयहेश्वराः। तस्य
चेच्छा महेशस्य न िवकल्प्या कथञ्चन ।। िजस प्रकार मकडी (Spider) अपनी (Net)
जाल फै लाकर स्वयं उसमें गुमती है । वैसे ही, सवयशििमान परमात्मा अपनी इच्छा -
दिया - ज्ञान शिि से पूरे ब्रह्माण्ड में, अपनी शिि सिहत व्याप्त है । गीता -
प्रकृ ततस्वामिधष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ४.६ स्वयं प्रकृ ित से युि िवश्व में व्याप्त है।
परावाक् रूप में जो, सजयनात्मकता है, उसके पूव,य िशवरूप में िनिहत होती है, मन्त्त्रप के
रूपमें उसकी अिभव्यिि होती है । इसी िलए आगे भी कहा है दक, बीजभाविस्थतं िवश्वं
स्फु टीकतुां यदोन्त्मख
ु ी । वामा िवश्वस्यवमनादगकु शाकारतांगता । इच्छाशििस्तदा सेयं
पश्यन्त्ती वपुषा िस्थता यो.हृ.॥ शृणद ु ेिवप्रवक्ष्यािम बीजानां देवरूपताम् ।
मन्त्त्रोच्चारणमात्रेण देवरूपं प्रजायते - बृ.गं.तंत्र।। सवेवणायत्मका मन्त्त्रास्ते च
शक्तत्यात्मकााः िप्रये। शििस्तु मातृका ज्ञेयो साच ज्ञोया िशवाित्मका - का.तंत्र ।।
अकारा्य हकारान्त्तौ सवे वणाय समािश्रतााः। अहंकारे िस्थतं सवां ब्रह्माण्डे सचराचरम् ।।
75
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ककाराददक्षकारान्त्ता वणायस्तु िशवरूिपणाः। आगे इसकी सिवस्तर चचाय कर दी है। िशव
की शिि ही व्यिरूपेण मन्त्त्रोमें िनिहत है । कायां तस्य परा शििययथा सूययस्य रश्मयाः ।
वन्त्हेरूष्मेव िवज्ञेयो ्िवनाभािवनीिस्थिता ।। सूयय की रिश्मयपमें, अिि की उष्मा में
उनकी शिि होती है, वैसे ही ब्रह्म की परावाक् में ब्रह्म िवलिसत है । वहीं वाक् रूप में
इच्छा-दिया-ज्ञानशिि सिहत स्फोटात्मक बनती है, जो सजयन-िवसजयन का काम करती
है । वणो का बा् स्फोट भी प्रभावयुि होता है, दुगाय सप्तशित में देवी हुंकारे ण ही तं
भस्म- हुंकार मात्रसे धूम्रलोचन असुर का िवनाश करती है । अस्त्राय फट् बोलकर
आत्मरक्षा-कवच भी करते है । िनर्तवकल्प अवस्थामें ब्रह्म स्वशिियप को, स्वयं में,
अन्त्तर्तहत करके शान्त्तस्वरूप है, वहीं मायोपािधक ईश्वर या िहरण्यगभय रूपमें सृटा बन
जाता है । अित सरल समझे तो व्यिि जब सुषुिप्त में होता है तब, उसकी इिन्त्द्रयां, हाथ-
पाव सब शान्त्त होते है । जाग्रत में इच्छा-दिया-ज्ञान शिि कायायिन्त्वत होती है और
अपने हाथ, पांव, इिन्त्द्रयप के सहारे काम करता है । सुषुिप्तकाले सकले
िवलीनेतमोऽिभभूत: सुखरूपमेित । सुषुिप्तमें सब शान्त्त है, सभी इिन्त्द्रया आत्मामें शान्त्त-
उपराम होती है । दूसरी बात जो स्वयं परतन्त्त्र होते है वे क्तया शिि देंगे, बैंक के मेनेजर
नौकरी करते है, दफरभी आपको लोन दे सकते है या नहीं । पुिलस कमी नौकरी करते है,
उनके पररवार की रक्षा उनको िमलनेवाले वेतन पर िनर्तभत है तथािप वे बैंक कै िशयर
की सुरक्षा करते है या नहीं । वे आपकी भी सुरक्षा करते है या नहीं । यहां तो अथयरूप
िशव एवं शििरूप परा वाक् एक ही हैं, िशव के िबना शिि या शिि के िबना िशव की
कल्पना ही अपूणय है ( न िशवेन िवना शिि) । तो मन्त्त्रप में परावाक् द्वारा अथयरूपेण
िशव स्वरूप िवलिसत है ही ।
श्रुित कहती है - तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेय । अपनी शिि में, प्रितिबिम्बत ब्रह्म में, शिि
का प्रितिबम्ब पडने से सवयप्रथम पूणायहंभाविवमशय उत्पि होता है । वही समस्त िवश्व
की सृिट का बीज है,िजसे श्रुित में नामरूपकी अव्याकृ त अवस्था कहा गया है। ब्रह्म और
उनकी शिि सदैव अिभि हैं । मन्त्त्र का वैखरी स्वरूप है - उसका सूक्ष्म स्वरूप परा
वाक् हैं, वही िशव की शिि हैं उसमें भी अथयरूपेण िशव है । वास्तव में तो द्वैत में भी,
शििमें ब्रह्म का सम्बन्त्ध अखण्ड हैं । िजस प्रकार प्रकाश या उष्णता अिि से अिभि
है,और उसके िबना नही ठहर सकती,उसी प्रकार ब्रह्म से उसकी शिि श्री भी अिभि
हैऔर उससे कभी अलग नही हो सकती। श्री के ही कारण ब्रह्म को अनन्त्त शिि अथवा
सृिट िस्थित और पालन करने वाला कहते है। श्रीशंकराचायय कहते है- िशव: शक्तत्या
युिो यददभवित शि:प्रभिवतुं । न चेदव े ं देवो न खलु कु शल:स्पिन्त्दतुमिप ॥ यह
महाशिि, िवश्रमण अवस्था(प्रलय) में प्रकाशमय ब्रह्मरूप होकर रहती है । इस अवस्था
में शिि का पृथक िववेक नहीं रहता । सुषुिप्तकाले सकले िवलीनेतमोऽिभभूत:
सुखरूपमेित । प्रलयकाल या िनर्तवकल्प अव्यिावस्था में ब्रह्म की यह शिि मनसिहत
आत्मामे उपराम होती हैं । ईच्छा-दिया-ज्ञान के कारण वह स्वरूिपत होती हैं, अनुभूत
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
होती हैं । मन्त्त्रप मे शिि का सामर्थयय एवं शिि भी ब्रह्म के कारण ही है । वस्तु, मकान,
गाडी एवं सृिट का दशयन प्रकाश शिि से ही होता हैं । ज्योित का स्वािम सूयय हैं, यथा
सूयय न ददखने पर भी उनकी ज्योित शिि से पदाथय दशयन होता हैं । प्रकाश का अिस्तत्व
उनके स्रोत के कारण हैं । यथा मन्त्त्रो में शिि इसी कारण है दक वे स्वयं िशव का स्वरूप
है, िशव शिि सदैव साथ ही रहते है न िशवेन िवना देवी न देव्या च िवना िशव:।
नान्त्योरन्त्तरं ककिचङ्रन्त्द्रचिन्त्द्रकयोररव, यथा मन्त्त्र में - शिि और ब्रह्म का साहचयय िनत्य
रहता है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ब्रह्माण्डे सचराचरम् ।।सवेवणायत्मकामन्त्त्रास्ते चशक्तत्यात्मकााःिप्रये। शििस्तुमातृकाज्ञेया
साचज्ञेया िशवाित्मका।। पंचासत्युवतीसवाय शब्दब्रह्मस्वरूिपणी । भजेहंमातृकादेवी
वेदमातांसनातनीम् – कामधेनु । शृणु देिव प्रवक्ष्यािम बीजानां देवरूपताम् ।
मन्त्त्रोच्चारणमात्रेण देवरूपं प्रजायते - बृहद्गं धवयतंत्र ।। मन्त्त्राणां मातृका देवी
शब्दानांग्यानरूिपणी ।ग्यानानांिचन्त्मयानन्त्दा शून्त्यानांशून्त्यसािक्षणी ।। जो एकावन वणय
हैं, उनका प्रारम्भ अ से होता हैं अन्त्त्याक्षर ह है - क्ष को मेरू मानते है । अकार िशवजी
का स्वरूप है - हकार शिि का रूप है दोनप का िमलन अनुस्वार स्वरूप है - िजसमे
सभी शास्त्र-वाङ्मय है - पूरा िवश्व की सभी भाषाए है - पूरा िवश्व ही है । सभी वणय
मन्त्त्रो के स्वरूप है, वे ही वणय एकावन वणायत्मक युवती - भगवती परा शब्दब्रह्म स्वरूप
में है - ये ही वेदमाता है । मंत्राथां देवतारूपं िचन्त्तनं परमेश्वरर । वाच्यवाचकभावेन
अभेदो मन्त्त्रदेवयोाः - शािानंद तरं िगणी । सवेवणायत्मका मन्त्त्रास्ते च शक्तत्यात्मकााः
िप्रये। शििस्तुमातृका ज्ञेयो साचज्ञेया िशवाित्मका - कामधेनु तंत्र । मन्त्त्राथय देवता का
स्वरूप है, िचन्त्तन भगवित पराम्बा है एवं वाच्यवाचक भेदरिहत दोनप ही एक है । वे
ही शिि िशवाित्मका है । अव्यिरूप में िशवमें अथयरूपेण - परारूपेण िनिहत है ।
वागथायिवव संपृिौ वागथयप्रितपत्तये । जगताः िपतरौ वन्त्दे पावयतीपरमेश्वरौ ॥ वाग्
भगवित उमा है और उसमें िनिहत अथय भगवान िशव है । वाग् िशवकी शिि है और
वही उसका पररचय भी ।
मान लप आपको एक कार की आवश्यकता हैं । आप सवय प्रथम अपनी आवश्यकता एवं
बजट तय करेंगे । दफर कार की ब्रान्त्ड एवं कम्पनी िनयत करें गे । तत्पश्चात् िनयत कार
के अिधकृ त िविे ता से संपकय करके जानकारी लेंगे । कार खरीदेंगे और उसका मेन्त्टेनन्त्स,
चलाने की िविध कोई जानकार से िसखेंगे । समय-समय पर सर्तवस कराते हैं । चलाने के
िनयम, आरटीओ के िनयम की जानकारी लेंगे एवं ड्राइतवग लायसन्त्स प्राप्त करें गे ।
अ्यास एवं चलाने की क्षमता पर दक्षतादृढ होने पर आप इिच्छत गंतव्य पर जाने को
उत्कट हपगे । गंतव्य के पूवय इसमें हवा-पानी-खोराक (हवा-पानी-फ्युअल-ऑईल) भरते
हैं । िनत्य एक बार सेल देकर चालु करते हैं, अन्त्यथा बैटरी उतर जाती हैं । उपरोि सब
यदद असंभव हो और गंतव्य पर जाना आवश्य हो तो, दकरायें की कार लेकर प्रयाण
करेंगे । इस ग्रंथ यही बात शास्त्रीय प्रणाली से अवगत करायी हैं । प्रथम आप अपना इट
मन्त्त्र एवं उपास्य देव में िनश्चय करते हैं (अपनी शिि व मयायदाओं के अनुसंधान करके ,
जैसे घर के लोक की चाबी न िमलने पर चाबीवाले को बुलाएंगे न दक गोदरे ज के
एम.डी को और बैंक के १००० लोकसय के िलए दकसी कं पनी के उङ्रािधकारर का संपकय
करेंगे - कामनानुसार) । दफर गुरूपसदन करते हैं, ददक्षा(लायसन्त्स) लेते है, मन्त्त्रानुष्ठान
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
की प्रणाली एवं परम्पराका ज्ञान प्राप्त करते है । अनुष्ठान के व्रत-िनयमप का पालन करके
मन्त्त्रोपासनाका अनुष्ठान - अ्यास करते हैं । िनष्ठापूवक य िविधिवधानोि दिया द्वारा
िनत्योपासन करते हैं । आवश्यकता पर काम्यानुष्ठान करते हैं ।यदद कार लेना असंभव
हो तो दकराए की कार लेते हैं, वैसे ही आकिस्मक काम्यिसद्ध के िलए िवद्वानप से
अनुष्ठान कराते हैं - अशिाः कारयेत् पूजा - यदद आप कानून के िनष्णात नहीं हो तो,
वकील आपकी तरफ से के स लडता हैं कु छ ऐसे ही ।
मन्त्त्रजप को वाक्तयोग कहते हैं - इयं िह मोक्षमाणानामिजह्माराजपद्धिताः (वाक्तयपदीय),
मंत्र का सीधा सम्बन्त्ध ध्विन से है । ध्विन प्रकाश, ताप, अणुशिि, िवधुतशिि की भांित
एक प्रत्यक्ष शिि है । मन्त्त्रप में िनयत अक्षरप का एक खास िम, लय और आवर्ततता से
उपयोग होता है । इसमें प्रयुि शब्द का िनिश्चतभार, रूप, आकार, शिि, गुण और रं ग
होता हैं । एक िनिश्चत उजाय-तेज-शिि, दरक्वेिन्त्स और वेवलेंथ होती हैं । पूरी प्रदिया का
िवज्ञान ही है ।
मन्त्त्र, गुरू, ददक्षा का अतूट सम्बन्त्ध है । मन्त्त्र का साफल्य भी गुरू के उपर िनभयर है, या
आगे गुरू-ददक्षा पर िवचार करेंगे । छोटा बङ्रा चलना िसखता हैं तब उसे पृर्थवी की
गुरूत्वाकषयण शिि का ज्ञान नहीं होता, अ्यास एवं माता के प्रयत्न से वह चलना िसख
जाता हैं, बार बार िगर जाता है, उठता है । तत्पश्चात् वह स्वयं ही कु शलता पूवक य चल
सकता हैं, दौडता हैं । ठीक उसी प्रकार गुरू प्रदर्तशत मागयपर दक्षता आनेके बाद
उपासना में बाधाए नहीं आती ।
एक दकस्सा आपको बताना चाहता हुं - हम िपतृगया के िलए गयाजी जा रहे थे । हमारे
साथ एक वकील साहब भी थे । बार-बार बोलते थे, ये श्राद्धादद बेकार की बाते है, क्तया
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ईसाई-मुिस्लम श्राद्ध नहीं करते तो उनका मोक्ष नहीं होता । हमसे जब रहा नहीं गया
तब हमने बताया, देखो भाई हम कोई सम्प्रदाय का खण्डन नहीं करना चाहते है, यद्यिप
ईस्लाम मानता है दक जो पांच समय की नमाज अदा नहीं करता, रमझान में रोजा नहीं
रखता उसे जित नसीब नहीं होती, अल्लाताला उसकी बंदगी नहीं सूनते । जैनप में भी
अट्ढई तप, वषी तप, मास क्षमण इत्यादद की बाते है । ईसाईयप में भी बेप्सीजम की बाते
है । हम लोग तो ये सब नहीं करते । अच्छा आप ये बताओ.. आप कौनसे देशमें रहते हो,
भारत का संिवधान अलग है, साउदी अरे िबया का अलग है, अमररका, इन्त्ग्लेंड का भी
अलग है । जब हम वहां जाते है तो उनका संिवधान मानना पडता है । कहीं न कहीं तो
हमारी उपिस्थित होगी ही होगी, और वहां के संिवधान को मानना ही पडेगा ।
हमारी सनातन स्यताने स्त्री को िजस सन्त्मान से देखा है, प्रायाः सृिट की कोई स्यताने
स्त्री शिि का पयायप्त पररचय नहीं दकया है, यह पूणय िनश्चय के साथ कह सकते है ।
प्रथम उत्त्पित्त से बात करे तो, हमने स्त्री को परमात्मा के हृदय से प्रकट दकया है । पुरूष
का अधाांग बताते है, वामा है । वामांग का महत्व आप समझ सकते है, हमारा हृदय वहां
है, हमारा जीवन वहां है, हमारी श्वास वहां है और स्री दक उत्पित्त िवराट के हृदय से
बताते है । बाईबल व कु रान में सन्त्मान तो अवश्य ददया है, यद्यिप दकसीने स्त्री को रीढ
की (मलद्वारके उपर की हड्डी) से उत्पित्त बताई है, तो दकसीने पुरूष के भोग-प्रमोद का
साधन माना है । धार्तमक सवोङ्र स्थान भी नहीं िमला । हमने स्त्री दक महान शििका
पररचय सवयप्रथम आत्मसात् दकया । पुरूष की अपेक्षा स्त्री दक शिि अत्यािधक है, जब
देवता भी आसुरी शिियप से परास्त होते है, के वल अके ली महाशिि ही दुगाय का रूप
लेकर दानवप को परास्त करती है । हमारे यहां स्त्री को कु माररका, कन्त्या, सुहािसनी,
जगदम्बा के नाम से पूजा जाता हैं, प्रायाः और कहीं भी नहीं । स्त्री की शिि देखे - एक
साधक पूरे जीवन पययन्त्त की साधना के उपरान्त्त जो िसिद्ध, श्रेष्ठता, शििपात की क्षमता
पाता है, वह परमात्मा ने स्त्री को सहज ददया है । स्री स्वयं श्वास लेकर दूसरे जीव को
श्विसत कर सकती है, स्वयं भोजन लेकर अन्त्य जीव को पुट कर सकती है । अपने ही
एक देह में दो देह, दो जीव को रखनेकी क्षमता मात्र स्त्री के पास ही है । स्वयं के
िवचारप को अन्त्य जीव पर संस्कार रूपेण स्थािपत कर सकती है, गभयस्थ िशशु -
अिभमन्त्यु की भांित । परमात्मा और स्त्री में एक महान साम्य यह है की, अद्भूत
सजयनोपरान्त्त भी कहीं अपना नाम नहीं रखते । कश्मीर की सुन्त्दर घाटीयो पर,वनोपवन
मे कहीं भगवान के नाम का बोडय नहीं देखा होगा । स्त्री भी अनेक कट सहकर संतित
देती है, दकन्त्तु कहीं अपना नाम नहीं देती, िपता का ही देती है । नाम की मयायदा से,
अपने महान त्याग को िसिमत नहीं करती ।
हमने दकसी माता को देवस्थान में जाकर िवग्रह को स्पशय न करने की प्राथयन की, तो
उनको बुरा लगा, वह बोली कौन से शास्त्रमें िलखा है, भगवान कहां ऐसा बोलते है, मैं ने
कहां पहले - कौनसे शास्त्रमें िलखा है वह तब बोला जाता है, जब स्वयं ने कु छ
शास्त्रा्यास दकया हो, बताइए, आपने कौनसा शास्त्र पढा है, प्रायाः हम उसेमेंसे कु छ
बता पाए, दुसरी बात आप ये भी बताए दक भगवान क्तया क्तया बोलते है, शास्त्रप में जो
िलखा है वह हमारे ऋिषयप ने परमात्मा से श्रवण करके ही िलखा है, उसे श्रुित कहते है
। पिवत्रता के दृिटकोण से, देवस्थानम् के गभयगृह में मयायददत प्रवेश होना चािहए, मात्र
पुजारर, वह भी िबना िसए हुए वस्त्र, मात्र धोती-उपवस्त्र धारण करके ही प्रवेश करें,
अन्त्य को चलिवग्रह की पूजा कराए । पूरेवोत्तर व मध्यभारत में लालच, राजकीय (भ्रट)
हस्तक्षेप से शास्त्रप की कई बाबतप पर अितिमण हुआ है, और यह के वल िहन्त्द ु मंददरप के
िलए ही हुआ है, जैन देरासरप मे आज भी िनयम यथावत् हैं । हमारे यहां एक पिण्डतजी
है, वो तो पायजामा पहनकर ही िविध कराते हैं, उनको बोले तो शास्त्राथय की बातें
करेंगे, खैर आगे उसके भी प्रमाण देंगे ।
माता पावयती ने भी पार्तथव तलग बनाकर, बालू के प्रत्येक कण में िशवजी का प्राकट्ड
दकया था । हमारे यहां कई ऐसी कथाए है, जहां स्त्री ने देवताओं को भी परास्त दकया है,
छोटे बालक बना ददया है । परमात्मा तो आप्तकाम है, यद्यिप मा का वात्सल्यामृत की
तृषा से अवतररत होता है, क्तयप दक देवताओं को भी स्वगय में सब सुख तो है, माता का
नहीं - माता की कु िक्ष में तो स्वगय भी है । िवषय थोडा विीभूत हो गया है, पुनाः इस
िवषय पर िलखनेकी अपेक्षा के साथ मूल िवषय पर पररवर्ततत होते है । कु छ कथाकार
िशव पुराण में वर्तणत पूजा का संदभय करते हैं, यद्यिप उनके अ्यास में कु छ श्लोकप का
अन्त्यय अवश्य छु ट जाता है, और वे पूजा व मंददर प्रवेश के िवषयमें स्वयं नहीं समझ
पाए हैं स्त्रीणामनुपनीतानां...श्पशयनेनाधीकोरोिस्त िवष्णोवाय शंकरस्य च । स्रीवािप
पिततोऽिप वा.. नारदीय ऐसे अनेक प्रमामोपदब्ध है, पूरी के पूमायम्नाय पीठाधीश्वर
प.पू.जगद्गुरू शंकराययजी महाराजश्री, इस िवषय को अित सुंदर दृटान्त्त से समझाते है ।
वैसे ही चातुवयणां मया प्रोिं गुणकमय िवभागशाः में प्राय लोग गुण को भूलकर मात्र कमय से
ही िवभाग मान लेते हैं । भगवान व्यास रिचत भागवत् या पुराणप के प्रत्येक अक्षरप को
मन्त्त्र इसिलए मानते हैं दक, एक एक शब्द की, अक्षर की िववेचना होती है । प्रायाः
इसिलए ही कहा है िवद्यावतां भागवते पररक्षा ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पितरे व गुरोस्त्रणाम् - नारी के िलए पित ही श्रेष्ठ गुरू की बात हमारे शास्त्र बताते है ।
स्त्री स्वयं अपने पितमें ही गुरू का ध्यान करके उपासना के मागय पर आगे जा सकती है।
भगवान आदद शंकरने भी, अपने सेवक िशष्यको ऐसी शिि प्रदान की थी दक, एक
सामान्त्य सेवक जैसे िशष्यने, एक अलौदकक वैदान्त्त के गूढ रहस्य सभर सुन्त्दर, स्तोत्र
रचना करते-करते, आश्रम में प्रवेश दकया, िजसे अन्त्य िशष्य मूखय समझते थे । यही है
सद्गुरू की शिि एवं भिि का रहस्य । गुरू कृ पा ही के वलम् ।
वैसा ही एक दूसरा प्रसंग भी है, महर्तष नारदजी को ज्ञात हो गया था दक, वािल्मकी को
कोई ऐसा ही मन्त्त्र दे, िजसे वह कै से भी जपे, उनका िहत हो । मन्त्त्रो के उङ्रारण से
उनके अथय एवं फल में अन्त्तर आ जाता है, जैसे कोई औषध िबना समझे ले ले तो, वह
अपना असर तो ददखाएगी ही, मन्त्त्र भी िवपररत फल दे सकते है । नारदजी ने (पुराणप
में) कईयप को दीक्षा-मन्त्त्र दीए है - सबको अिधकारानुसार । ध्रुव को द्वादशाक्षरी
नारायण मंत्र और वािल्मकी को राम मंत्र, क्तयपदक वे कै से भी जपे, राम बननेवाला ही
है, उनके अन्त्ताःकरण में अद्भूत किवत्व के नारदजी को दशयन हो गए थे - वे पक्षीयप की
िन्त्दनमें से, महाकाव्य का सजयन कर सकते है - उल्टा नाम जपे जग जाना । वाल्मीक
भये ब्रह्म समाना ।। इसका अथय आजके विा यही करते है दक, कोई भी मन्त्त्र, कै से भी
जपो अच्छा ही है, कोई समस्या नहीं, शास्त्रोि िविध िवधान की कोई आवश्यकता ही
नहीं । जब ऐसा ही था, तो ऋिषयप का इतना प्रयत्न व्यथय ही माना जाएगा । यह
मन्त्त्रशास्त्र का आिवष्कार िनरथयक ही हो गया क्तया ?
आजकल तो िमिडया रोज एक गुरू पैदा करता हैं । िमिडया का भी धंधा चले - गुरू का
भी धंधा चले । दकसकी योग्यता परखनेकी नैितक जवाबदारी नहीं है । राजनेताओं का
स्वाथय, तो ऐसे बाबाओं से अपना राजकीय िहत साधनेका है, िवद्वान या तो लालची है,
या कतयव्यपालन में सुषुप्तहै । पीस रही है, आम जनता जो अनुकरणशील है । रोज-रोज,
बडे शहरप में िवज्ञापन लगे रहते हैं - योगिशिबर-सत्संगसमारोह, जैसे एिक्तसबीशन कम
सेल । स्वेच्छाचारी विाओं पर िलखकर, इस ग्रंथकी पिवत्रता को क्षित नहीं करनी हैं,
इनके िवषयमें अन्त्य स्थान पर यथोिचत वणयन दकया ही है । शास्त्रो का उपहास देखना
या उनके प्रित सुषुिप्त रखना भी िवद्वानप की कतयव्यपलायनता ही है । हम पाखण्डी
गुरूओकी चचाय से ग्रंथ को अपिवत्र नहीं करेंगे ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
कहीं पर प्रभु स्वयं नहीं आते, अपने ददव्य भिप ओर िसद्धो को गुरूके रूपमें भेजकर,
अनुग्रहीत करते है । क्तयपदक ५०० वॉल्टके बल्ब के िलए रान्त्सफोमयर चािहए । जैसे
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
शंकराचायय द्वारा चार िशष्यपको उपदेश, शुकदेवजी द्वारा पररिक्षतको उपदेश हुआ है ।
ये है िसद्धौग परं परा ।
गुरू एवं मन्त्त्र ददक्षा कै से प्राप्त करे - गुरू प्राप्त होना भी भगवान की कृ पा या पूवय
के पुण्योदय का ही फल है । यद्यिप िचन्त्तीत होने की जरूरत नहीं है । शुद्ध िनष्ठा एवं
श्रद्धा हो तो गुरू स्वयं चलकर सामने आएंगे । जैसे अजगर को िशकार ढू ढने नहीं जाना
पडता या तो िचपकली को ही देखो, उसका आहार उडते मच्छर, पतंगादद जीव है,
दकन्त्तु वो तो ददवाल से ही िचपक कर चलती है, यद्यिप उनका आहार स्वताः ही मुखमें
आ जाता है । ध्रुवजी को गुरू वैसे ही वनभ्रमणमें िमल गए और नारायण मन्त्त्र का
उपदेश भी हो गया । वैसे ही प्रह्लादजी को सही गुरू नहीं िमले थे, यद्यिप उनकी भिि
से उन्त्हे भी नारदजी जैसे, सद्गुरू प्राप्त हुए है । अब यहां एक गुरू िनर्कद्दट बात करते है
। स्वप्ने वािक्षसमक्षं वा आश्चययमितहषयदम् ।अकस्माद्यदद जायेत न ख्यातव्यं गुरोर्तवना..
बहुशाः स्मरे त् -यदद गुरू न िमले तो, जो भी इटमन्त्त्र में श्रद्धा हो, या कोई स्वप्नदृट मन्त्त्र
हो, अपने इट देवता या िशवजी की प्रितमा के सन्त्मुख उसका िनरन्त्तर जप करें । आगम
शास्त्रप मे बताया है - जपिसिद्ध का प्रथम लक्षण यह है दक गुरूकृ पा होना । िसद्धगुरू की
प्रािप्त िनष्ठायुि उपासना से होती है । िशवजी से प्राथयना करे दक, हमें सद्गुरू की प्रािप्त
हो - त्वत्पादाम्बुजमचययािम परमं त्वां िचन्त्तयाम्यन्त्वहम् । त्वामीशं शरणं व्रजािम वचसा
त्वामेव याये िवभो ।। दीक्षां मे ददश चाक्षुषीं सकरूणां ददव्यिश्चरं प्रार्तथताम् ।
शम्भोलोकगुरो मदीयमनसाः सौख्योपदेशक ं ु रू ।। गुरू अवश्य ही िमलेंगे, क्तयपदक गुरू को
भी योग्य िशष्य की आवश्यकता रहती है, जैसे रामकृ ष्ण परमहंस को नरे न्त्द्र की,
िववेकानन्त्द की आवश्यकता थी । दृढ इच्छा शिि हो तो सद्गुरू अवश्य ही िमलेंगे ।
गुरू की प्रािप्त के िलए व्रत करना पडता है - व्रत शब्द की उत्पित्त (वृत्त वरणे अथायत्
वरण करना या चुनना) से मानी गई है, । ऋग्वेद में वृत शब्द का प्रयोग इस प्रकार हुआ
है - संकल्प आदेश िविध िनर्कदट व्यवस्था, वशता, आज्ञाकाररता, सेवा, स्वािमत्व,
व्यवस्था, िनधायररत उत्तरािधकर वृित्त आचाररक कमय प्रवृित्त में संलिता रीित धार्तमक
कायय उपासना, कतयव्य अनुष्ठान, धार्तमक तपस्या उत्तम कायय आदद के अथय मे है। वृत से
ही व्रत की उत्पित्त मानी गई है। व्रतेन दीक्षामाप्नोित दीक्षयाप्नोित दिक्षणाम् । दिक्षणा
श्रद्धामाप्नोित श्रद्ध्या सत्यमाप्यते -यजुवेद १९.३०। शब्दाथय -व्रतेन..व्रत से, सत्यिनयम
के पालन से मनुष्य, दीक्षां..दीक्षा को, प्रवेश को, आप्नोित..प्राप्त करता है, दीक्षया...दीक्षा
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
से, दिक्षणां...दिक्षणा को, व्रृिद्ध को, बढ़ती को, आप्नोित...प्राप्त करता है ।
दिक्षणा...दिक्षणा से, श्रद्धां...श्रद्धा को, आप्नोित...प्राप्त करता है और सदा,
श्रद्ध्या...श्रद्धा द्वारासत्यं...सत्य कोआप्यते...प्राप्त दकया जाता है ।व्रत से दीक्षा िमलती
है, दीक्षा से दिक्षणा (दािक्षण्य), दिक्षणा से श्रद्धा और श्रद्धा से सत्य की प्रािप्त होती है।
दकसी ध्येय िसिद्ध के िलए संकल्प बद्ध होना, संिनष्ठ प्रयास करना, आहार, िवहार,
व्यवहारादद के िलए सुिनश्चत होने को व्रत कहते है । सरकस में या दकसी, संगीत
समारोह में जो सुन्त्दर प्रदशयन होता है, वह सुदीघय कालकी तपस्या, व्रत एवं प्रयत्नप का
ही फल है, वह उनके िनरन्त्तप अ्यास का फल है । दिके ट कोच पहले, प्रिशक्षणाथी को
पूरे मैदान का चक्कर लगवाते है, िनयत पोषाक पहनातें है, आहारादद के िनयम बताते
है, खेलने की पद्धित िसखाते है, शनैाः शनैाः प्रिशक्षणाथी में श्रद्धा का उदय होता है, यह
सब व्रत ही तो है । संगीत-नृत्याददमें भी आहार िवहार के िनयम होते है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
बोध हो, अज्ञान का िनमूयलन हो, उसे दीक्षा कहते है । ददक्षािि दग्धकमायसौ
यायािद्विच्छिबन्त्धनाः । गतस्तस्य कमयबन्त्धो िनरजीवश्च िशवोभवेत् – कु लाणयव । ददक्षा
के उपरान्त्त कमयबन्त्धनप का क्षय हो जाता है, ज्ञान के प्रादुभायव के साथ वे भस्मीभूत हो
जाते है । दीक्षा उपासना का अिनवायय अंग है ।
िशव पुराणके अनुसार यह दीक्षा शाम्भवी, शािि व मािन्त्त्र तीन प्रकारकी होती है ।
१. शाम्भवी दीक्षा : गुरु के दृिटपात मात्र से, स्पषय से तथा बातचीत से भी जीव को
पाश्बंधन को नट करने वाली बुिद्ध एवं ईश्वरके चरणपमें अनन्त्य प्रेम की प्रािप्त होती है ।
प्रकृ ित (सत, रज, तम गुण), बुिद्ध (महत्तत्त्व), ित्रगुणात्मक अहंकार एवं शब्द, रस, रूप,
गंध, स्पशय (पांच तन्त्मात्राएाँ), इन्त्हें आठ पाश कहा गया है । इन्त्हीं से शरीरादी संसार
उत्पि होता है। इन पाशप का समुदाय ही महाचि या संसारचि है और परमात्मा इन
प्रकृ ित आदद आठ पाशप से परे है । गुरु द्वारा दी गई योग दीक्षा से यह पाश क्षीण होकर
नट हो जाता है। इस दीक्षा के दो भेद है : तीव्रा और तीव्रतरा । पाशप के क्षीण होने में
जो मंदता या शीघ्रता होती है उसी के अनुसार यह दो भेद है । िजस दीक्षा से तत्काल
शांित िमलती है । उसे तीव्रतरा कहते है और जो धीरे -धीरे पाप की शुिद्ध करती है वह
दीक्षा तीव्रा कहलाती है । शाम्भवी दीक्षा का उदाहरण है, रामकृ ष्ण परमहंस द्वारा
स्वामी िववेकानंद को अंगठ ू े के स्पशय से परमात्मा का अनुभव हुआ था ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
२. शािी दीक्षा :- गुरु योगमागय से िशष्य के शारीर में प्रवेश करके उसके अंताःकरण में
ज्ञान उत्पि करके जो ज्ञानवती दीक्षा देते है, वह शािी दीक्षा कहलाती है ।
३. मान्त्त्री दीक्षा :- मान्त्त्री दीक्षा में पहले यज्ञमंडप और हवनकुं ड बनाया जाता है । दफर
गुरु बाहर से िशष्य का संस्कार (शुिद्ध) करते है । शििपात के अनुसार िशष्य को गुरु का
अनुग्रह प्राप्त होता है। िजस िशष्य में गुरु की शिि का पात नहीं हुआ, उसमें शुिद्ध नहीं
आती, उसमें न तो िवद्या, न मुिि और न िसिद्धयााँ ही आती है । इसिलए शििपात के
द्वारा िशष्य में उत्पि होने वाले लक्षणप को देखकर गुरु ज्ञान अथवा दिया द्वारा िशष्य
की शुिद्ध करते है । उत्कृ ट बोध और आनंद की प्रािप्त ही शििपात का लक्षण (प्रतीक) है
क्तयपदक वह परमशिि प्रबोधानन्त्दरूिपणी ही है ।दीक्षा की अनुभूित भी ददव्य होती है -
देहपातस्तथा कम्पाः परमानन्त्दहषयणे । स्वेदोरोमाञ्च इत्येच्छििपातस्य लक्षणम् ।।
शरीरमें ददव्य चेतनाका संचार, रोमरोम में आनन्त्द की अनुभूित और बोध का लक्षण है
अंताःकरण में साित्वक िवकार का उत्पि होना । जब अंताःकरण में साित्वक िवकार
उत्पि होता है या वह द्रिवत होता है तो बा् शारीर में कम्पन, रोमांच, स्वर-िवकार
(कं ठ से गदगद वाणी का प्रकट होना), नेत्र-िवकार (आाँखप से आंसू िनकलना) और अंगा-
िवकार (शारीर में जड़ता, पसीना आना आदद) प्रकट होते है ।
गुरू की दीक्षा देनक े ी रीत भी िनराली होती है । वे चाहे कै से अनुग्रह करे पता नहीं
चलता । दीक्षा के प्रकारप का वणयन योगवािशष्ठ, तन्त्त्रागमप, नाथ सािहत्य, िशवपुराण
एवं स्कन्त्दपुराण की सूत संिहतामें अच्छे से वर्तणत है । जो संक्षेप में िनम्नानुसार है -
दशयनात्स्पशयनाच्छब्दात्वेधदृष्ट्णा तथैव च । संकल्पेन च कारूण्या संिमणं िशष्यदेहके ।
िविद्धस्थूलसं क्ष्ू मं सूक्ष्मतरं सूक्ष्मतममिप िमताः । स्पशयन भाषण दशयन संकल्पेन
त्वतश्चतुधाय तत् ।। यथा पक्षी स्वपक्षाम्यां िशशून्त्सव ं धययच्े छनैाः । स्पशयदीक्षोपदेशस्तु
तादृशाः किथताः िप्रये ।। स्वापत्यािन यथा कू मी वीक्षणेनव ै पोषयेत् । दृग्दीशोक्तयोपदेशस्तु
तादृशाः किथताः िप्रये ।। यथा मत्स्यी स्वतनयान् ध्यानमात्रेण पोषयेत् । वेधदीक्षोपदेशस्तु
मनसाः स्यात्तथा िविध ।। स्थूलं ज्ञानं िद्विवधं गुरूसाम्यासाम्यतत्त्वभेदेन ।
दीपप्रस्तरयोररव संस्पशायिस्नग्धवत्यययसोाः।। तद्विद्विवधं सूक्ष्मं शब्दश्रवणेन
कोदकला्युदययोाः । तत्सुतमयूरयोररव तिद्वज्ञेयं यथासंख्यम् ।। सारांश - दीक्षा, दृिट से,
ध्यान से, स्पशय से, शब्द से, साििध्य से िमल सकती है । जैसे पक्षी अपने अण्डप को स्पशय
करके शििप्रदान करते है, रटटहरी एवं कोदकल शर्व्द से, कीट भ्रमर के गुज ं ारव से,
कमल सूयय के प्रकाश से, कू मी - काचबी दृिट से, मछली ध्यान से अपने बङ्रप को शिि
देते है, एक ददपक अपने साििध्य से अन्त्य ददपक को प्रकािशत करते है ।
सद्गुरू का साििध्य मात्र, स्वच्छ एवं िनमयल िवचारप के िलए कारणभूत बनताहै । जैसे
सुगिन्त्धत अत्तर एवं पुष्प बेचनेवाले की दुकान पर कु छ समय बैठनेसे अपने शरीर से
सुगन्त्ध आने लगती है, और मधुशाला-शराबी की दुकान पर बैठनेसे दुगयन्त्ध आती है,
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
कोयला बेचनेवाले की दुकान पर बैठनेसे अपने कपडप पर काला रं ग आ ही जाता है और
सूयय के िनकलनेसे ही कमल िखल जाते है ।
पृर्थवी के उत्तर से दिक्षण ध्रुव पययन्त्त चुम्बकीय शिि, अिवरत िवद्यमान रहती है ।
िबजली के तार में िवद्युत प्रवाह है, ददखता नहीं, उसे टेस्टर से देखा जा सकता है ।
अवकाश में टीवी, रे िडयो, मोबाईल के िसिल्स होते है, ददखते नहीं, देखने के िनयत
साधन एवं पद्धित होती है । कु छ प्रदियाओं का, िविधयप का कायय-कारण सम्बन्त्ध
भौितकरूप से नहीं ददखाया जा सकता, वे गुरूगम्य होती है, उसे स्वानुभूित से ही जान
सकते है ।
उपसंहार - ध्विन, उङ्रारण, ध्विन-ग्रहण, स्फोट आदद का िवस्तृत िववेचन तंत्रागमप में
िमलता है । एकाक्षरा वै वाक् - जै.ब्रा.२.२४२, मन्त्त्राथयदेवतारूपं िचन्त्तनंपरमेश्वरर ।
वाच्यवाचकभावेन अभेदो मन्त्त्रदेवयोाः।। मननात्तत्तवरूपस्य देवस्यािमततेजसाः। त्रायते
सवयभय तस्तस्मान्त्मन्त्त्र इतीररताः ।। देहमास्थाय भिानां वरदानाङ्रपावयती । ताप
त्रयाददशमनाद्देवता पररकीर्ततता ।। मन्त्त्र स्वयं देवता का ही स्वरूप है, भगवान का
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
शब्ददेह, और उनकी शिि ही पराम्बा वाक् है । मन्त्त्र की अलौदकक शिि का दशयन
कराने यह एक प्रयास है । पूरे लेख में कई जगह पर िवषयान्त्तर अवश्य हुआ है, यद्यिप
हमें जहां कु छ कहना उिचत लगा या संगितरूप था वहां ज्यादा िलख ददया है या
िद्वरूिि भी की है । मेरी अनुभूित है दक, वणो तथा शब्दप में अथय िनिहत होता है और
उपासना से स्वताः सत्य एवं अथो का स्फु रण होने लगता है । बहोत सारी बाते मुझे आज
भी आत्मसात् हो रही है । अनाददिनधनंब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । िववतयतथ े यभावेन
प्रदियाजगतो यताः।। यद्यिप के वलंशास्त्रमािश्रत्य न कतयव्योिविनणययाः । युििहीने िवचारे
तु धमयहािनाः प्रजायते ।। अताः िभि-िभि पुराणादद के तकय पर िवचार करके ही िनणयय
करना उिचत होता है ।
हरर अनंत हरर कथा अनंता । मन्त्त्ररूपी िशव का शब्दो में वणयन करना सवयथा असंभव
है । अिसतिगरीसमं स्यात, कज्जलं िसन्त्धु पात्रे,सुरतरुवर शाखा, लेखनी पत्रमूवी ।
िलखित यदद गृहीत्वा, शारदा सवय कालं,तदिप तव गुणानामीशपारं ना याित। पूरे समुद्र
की स्याही बनाकर, वृक्षप की कलमप से, युगो पययन्त्त स्वयं भगवती शारदा भी आपका
माहात्म्य वर्तणत करना चाहे, तब भी शेष रह जाएगा, तो मुझ मूढ की क्तया मित है, जो
मंत्ररूप देवता का वणयन कर पाउं , यद्यिप वेदोपिनषद, पुराण, व्याकरण, तन्त्त्रागमो,
स्मृितग्रंथादद जहां तक मेरी मित जा सकती है, उस सबका आश्रय करके इस लेख का
प्रयास दकया है । यहां आपको िजतना अनुपयुि हो, वो त्याग करें , क्तयपदक -
ग्रन्त्थान्यस्य मेघावी ज्ञानिवज्ञानतत्पर: । पलालिमव धान्त्याथी त्यजेत् सवयमशेषत: ।।
बुद्धीमान मनुष्य, जस ज्ञान को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा रखता है, वह ग्रन्त्थो में जो
महत्वपूणय िवषय है उसे पढकर उस ग्रन्त्थका सार जान लेता है तथा उस ग्रन्त्थ के
अनावष्यक बातप को छोड देता है, जैसे दकसान के वल धान्त्य उठाता है । ममत्वेतां वाणीं
मेरा प्रयास तो मात्र मेरी बुिद्ध व वाणी को पुिनत करनेका ही है । मेरे इस प्रयत्नको
िवद्वानप के करकमलो में समर्तपत करता हुं । बुधाग्रे न गुणान्त्ब्रय
ू ात् साधु वेित्त यत:स्वयम्
- िवद्वानप को ज्यादा बताने की आवश्यकता नहीं है । अक्षर ब्रह्महै, अनंत है, उसका
क्षरण नहीं होता, अक्षर स्वरूपा भगवित के समेत भगवान् श्रीमहाकाल के श्रीचरणोमें
कोटी कोटी वन्त्दन । आगे उपासना िवभाग में, उपासना के आवश्यक अंगो को स्पट
करनेका प्रयास करेंगे ।
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िवभाग २
उपासना रहस्य
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
हम हमारे देह स्वरूप को तो जानते ही है । कहां-कहां दकतने तील है, हमारा वणय कै सा
है, हमारे बाल कै से है, आंखे, होठ, कान, हाथ, पैर इत्यादद कै से है । तथािप हम हमारे
शरीर का घण्टप तक शृग ं ार करते है, क्तयप ? हम भौितक जगत को स्वयं को सुन्त्दर
दीखाने के यथा संभव यत्न करते है । हम इन्त्टनेट से पूरे ब्रह्माण्ड की जानकारी लेते है,
िमत्रो के साथ चचाय करते समय, ग्रहो नक्षत्रप की चचाय में स्वयं को, िवद्वान िसद्ध करनेके
पूरे प्रयास करते है । हम मंगल एवं सहस्रप प्रकाशवषय दूर चांद की पूणय मािहती रखते है,
पर हमें अपने अंदर िबराजमान अंगूटमात्र परमात्मा का ज्ञान है ? हमने उसे जानने का,
उससे तादात्म्य साधनेका, अंशमात्र भी प्रयास दकया है ? हम अध्यात्म एवं सहज
िवज्ञान को जाननेका यत्न नहीं करते । शरीरको सुन्त्दर ददखाने के िलए तो, फे श्यल करते
है, मेकअप करते है, शेम्पु एवं कन्त्डीश्नर लगाते है, िीम-िलप्स्टीक लगाते है, बोडी स्पे
एवं परफ्यूम लगाते है, अच्छे अच्छे वस्त्र पररधान, ककमती आभूषण एवं जूते पहनते है ।
संपूणय मेतचग का पूरा खयाल रखते है । हमने हमारे मन को सुन्त्दर बनाने का यत्न दकया
है ? आत्माको परमात्मा तादात्म्य का िवचार दकया है ? जीवब्रह्मात्मैक्तय का िवचार
दकया है ? वास्तव में तो वही है सत्यम्-िशवम्-सुन्त्दरम् । आध्यात्म के प्रित प्रयाण ही
शाश्वतानन्त्द का मागय मात्र एक मागय है । इस मागय का प्रारम्भ उपासना से होता है ।
पूवय िवभाग में मन्त्त्र, गुरू, ददक्षा इत्यादद का यथामित िवचार कर िलया, दकन्त्तु उद्देश्य
के वल रहस्योद्धाटन का नहीं था । मात्र जानकारी (िथयरी) से काम नहीं होगा ।
टेक्नोलोजीं, ईिन्त्जनीयरींग या िवज्ञान का सािहत्य पढने मात्र से सायिन्त्टस्ट या इजनेर
नहीं बन सकते । सजयरी की पुस्तके पढकर ऑपरेशन नहीं कर सकते । ज्ञान हो, तब भी
पयायप्त अनुभव भी होना चािहए, कायय करनेके िलए अिधकृ त होना चािहए । उपासना
का मागय श्रद्धाप्रधान है । सब शास्त्रोि बातप का प्रत्यक्ष प्रमाण िमलना दुष्कर है, तथािप
ये बाते पूणयतया वैज्ञािनक तर्थयो पर आधाररत होती है । के वल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही
िस्वकृ ित मानना तो पशुता है । पशु भी रोटी देखकर पास आता है, दण्ड देखकर भाग
जाता है । ज्ञानं िवशेषमिधकं नराणाम् - हमे तो उससे भी आगे जाना है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िवज्ञान के आिवष्कार पूवय भी, सेव नीचे िगरता था, पृर्थवी गोल थी एवं सूयय का
पररिमण करती थी । इस ज्ञान का यदद कोई उपयोग न हो, तो ज्ञान कोई कामका नहीं
है, हम इस जानकारी का उपयोग करके अनेक िसिद्धया एवं समुद्रीगमन, स्पेश शटल के
द्वारा, अनेक लाभ लेते है । गुग्गल मेप के द्वारा मागय खोजते है, अन्त्यथा गुग्गल मेप की
क्तया आवश्यकता थी । दकसी ज्ञान की प्रयोगात्मक उपयुिि न हो, तो वह ज्ञान मात्र
ज्ञान ही रहता है, िवज्ञान नहीं बनता ।
िवमान के आिवष्कार के पूवय, िवमान कल्पना में रहा होगा, जैसे आज हम बङ्रप को
पररयप की बाते करते है । मन में जो भी िवचार एवं कल्पना आती है, उस के उपर श्रद्धा
एवं िनष्ठा से काम करने पर ही नए-नए आिवष्कार होते है । आल्वा एिडशनने, बल्ब को
प्रकािशत करने से पहले, उनके िवचारप में, कल्पना में ही रहा होगा, सेंकडो प्रयत्नो के
बाद, आज पूरा िवश्व उसका प्रकाश देखता है । आिवष्कार के पूवय कोई वैज्ञािनक
पररमाण नहीं हपते और आिवष्कार सकारात्मक प्रयत्न एवं श्रद्धा से ही होते है । कोई
भी आिवष्कार का जो स्वरूप है, वह अपनी पूवायवस्था-पूवयभूिमका में, कल्पना ही होता
है, यद्यिप िजतने पद (शब्द) है, उतने पदाथय अवश्य है, क्तयपदक पद ऐसे नहीं बनते ।
सभी बाबतप को भौितक पररमाणप के द्वारा ददखाना संभव नहीं होता । यदद सबका,
प्रत्यक्ष प्रमाण िमलने लगेगा, तब प्रेम, िोध, राग-द्वेष, क्षुधा-तृषा को नापने के यन्त्त्र-
थमोमीटर भी िमलेंगे । आज (सत्यशोधक) लाई िडट्क्तटर है, हृदयकी गित एवं िवचारप
की गित नापने के उपकरण है । परमात्मा की ददव्यानुभूित के िलऐ भी हमारे ऋिषयप ने
आध्यात्म िवज्ञान का मागय ढू ंढ िनकाला है, हमे उपिनषद, योग एवं तन्त्त्र जैसे उत्तम
शास्त्र ददए है । गूढ रहस्यप को आत्मसात् करने के िलए ही भगवान शंकाराचाययजी ने
अपरोक्षानुभूित िलिख है । आध्यात्म िवज्ञान में भी श्रद्धा-िनष्ठा से सब कु छ आत्मसात्
कर सकते है ।
के वल औषिध के ज्ञान से व्यािधशमन नहीं होता उसका सेवन भी करना पडता है । यथा
के वल शास्त्रो का ज्ञान ही नहीं अिपतु, उपासना, व्रत, तपादद से ही ध्येय िसिद्ध हो
सकती है । ब्रह्मानुभूित या ब्रह्मसाक्षात्कार के िलए हमारे यहां तीन वाङ्मय प्रमाणभूत
माने गए है, ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता, उपिनषद् िजसे प्रस्थान त्रयी कहते हैं । तीनप में
उपासना तत्त्व की िवस्तृत चचाय िमलती है । इसके अितररि तन्त्त्रशास्त्र व स्मृितयप में
भी िवस्तृत चचाय है । पुराणप में भी मुििके तीन ही मागय बताए हैं। कमय,
भिि(उपासना) व योग-िमेण अध्यात्म.७.७.५९,देवी.७.३७.३,भाग.१०.२०.६-
मागायस्त्रयोमया प्रोिााःपुरामोक्षािप्तसाधकााः । कमययोगोज्ञानयोगो भिियोगश्चशाश्वताः ॥
मागयस्त्रयोमे िवख्याता मोक्षप्राप्तौनगािधप । कमययोगो ज्ञानयोगो भिितयोगश्च सत्तम ॥
योगस्त्रयो मयाप्रोिा नृणांश्रय
े ोिविधस्तथा । ज्ञानंकमां च भििश्च नोपान्त्यािस्तकु त्रिचत् ॥
ज्ञानयोग, कमययोग एवं भिि(उपासना) योग । तीनप योग हमें ब्रह्मशिि का प्रादुभायव
बताते है और शिि से पुनाः ब्रह्मानुभूित कराते हैं । वेदप से ददव्य ज्ञानका प्रादुभायव
ऋिषयप हुआ, यह ज्ञानयोग है । ऋिषयप ने परमात्मा की अनन्त्त अपररिमत शिि को
आत्मसात् दकया, इन शिियप का वणयन दकया एवं उनको आत्मसात् करने दक प्रणािल
और प्रदिया का िनयोजन दकया, परम प्रेमास्पद परमात्मा को पानेके िलए, योग-तंत्र-
उपसना एवं कमयकाण्ड की िविधयप का िनमायण दकया, यह भिियोग एवं इस मागयपर
उपासक प्रशस्त होकर तप-जप-पूजादद करे यहीं कमययोग ।
ज्ञान, उपासना एवं कमय या ज्ञान - योग - भिि के द्वारा ही, ब्रह्मसाक्षात्कार संभव
है । ये सभी के सभी परमात्मा प्रािप्त के साधन ही है । इन तीनप मागो के िवषय में,
संिक्षप्त पररचय िनम्नानुसार है ।
कमयकाण्डमें उपासना - प्रथम हम कमय की बात कहेंगे । प्रधानतया कमय पांच प्रकार
के है । कमय के प्रकार-िविध-फलादद कमयकाण्डान्त्तगयत है । िद्विवधाः कमयकांडाः स्याििषेध
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िविधपूवक य ाः। िनिषद्धकमयकरणे पापं भवित िनिश्चतम्। िविधना कमयकरणे पुण्यं भवित
िनिश्चतम् ।। ित्रिवधो िविधकू टाः स्यािित्यनैिमत्यकाम्यताः। िनत्येऽकृ ते दकिल्बषं
स्यात्काम्ये नैिमित्तके फलम् । कमय - िनत्य,नैिमित्तक और सकाम के भेद से तीन प्रकार के
होते हैं। िनत्यकमय अथायत देव-पूजन, संध्या आदद । इसके न करने से पाप होता है ।
सकाम कमयफल की इच्छा से दकया जाता है और नैिमित्तक कमय अथायत पवय काल में तीथय
आदद के पुण्यजलप में स्नान दान आदद है, िजसके करने से पुण्य अर्तजत होता है । िद्विवधं
तु फलं ज्ञेयं स्वगय नरकमेव च । दो प्रकार का फल माना जाता है - स्वगय और नरक ।
चौथा प्रायिश्त कमय अपने पापप को क्षय करनेके िलए होते है और पांचवा िनिषद्धकमय
जो कोई भी जीव समाज-राष्ट्र-िवश्व को अिहतकर होनेके कारण शास्त्र, उसे न करनेकी
आज्ञा देता हैं । सारांश, िद्वजो के िलए गायत्री जप, इटदेव का जप िनत्यकमय जैसा है ।
कभी पवय या ितिथ-ऋतु अनुसार िवशेष जप-तप होते है - जैसे दक उपाकमय के पूवय िवप्र
को गायत्री का अनुष्ठान करना होता हैं । नवरात्री में घटस्थापन पूवक य कु लाम्बा की
जपोपासना, श्रावण में िशवोपासना इत्यादद जो है, भाद्रपद में िपतृ तपयण, मांगिलक
प्रसंग में गणपितपूजन, पुण्याहवाचन, वृिद्धश्राद्धादद जो है वह नैिमत्तक कमय, एवं
अनुष्ठान के पूवय देह शुिद्ध के िलए दकया जाता है वह प्रायिश्चत कमय और तहसा, असत्य
भाषण, आस्तेय, तनदा िोधादद कमय जो शास्त्र करनेकी अनुमित नहीं देता वे सब िनिषद्ध
कमय माने जाते है ।
सामान्त्यरूप में हम अपने घर िनत्य में जो झाडू -पोछा-बरतन की सफाई करते हैं, वह
िनत्य कमय, ददपावली-होली आदद पवयपर कु छ िवशेष सफाई करते हैं, वो नैिमत्तक कमय
है, घरमें कोई मांगिलक प्रसंग हो या कोई व्यिि िवशेष का आगमन होनेवाला हो,
िजससे अपनी स्वच्छता का प्रदशयन होना हो, वह काम्यकमय, आशौच िनवृित्त या ग्रहण
के उपरान्त्त जो सफाई करते है, वह प्रायिश्चत कमय और पॉिलिथन बैग आदद को घरमें न
रखना, कू डा घरमें नहीं रखना चािहए - वह िनिषद्ध कमय है ।
पुराणमें उपासना - यहां भिि प्राधान्त्य है । ज्ञान जो है, वह िबना वैराग्य िस्थर
नहीं रहता, यथा श्रीमद्भागवतानुसार भिि को ज्ञान और वैराग्य की जननी मानी हैं ।
योग भी कहता है - ईश्वर प्रणीधानात् । गीता में तो, भगवानने पूरे भियोग की चचाय
करके भिि को योग बताया है । योग का सामान्त्य अथय होता है जोडना - जो जीव को
ईश्वर से जोडती है वह, भिि भी योग है । भिि भी नौ प्रकार की है, िजसके द्वारा मन-
वचन-कमय से परमात्मा को समर्तपत होने का भाव है । मन-वचन-कमय की शुिद्ध
आध्याित्मक मागय पर अिनवायय है, जो नवधा भिि से िसद्ध होती है - श्रवणं कीतयनं
िवष्णोाः स्मरणं (वाणी-वचन-भिि) पादसेवनम् । अचयनं वन्त्दनं(व्यवहार-कमय-भिि)
दास्यं सख्यमात्म िनवेदनम् (मन-मानिसक भिि) ॥ इन सभी प्रकार की भिि के आदशय
उदाहरण है - श्रवण (परीिक्षत), कीतयन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी),
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अचयन (पृथरु ाजा), वंदन (अिू र), दास्य (हनुमान), सख्य (अजुयन) और आत्मिनवेदन
(बिल राजा) - इन्त्हें नवधा भिि कहते हैं । भिि में द्वैतभाव रहता है, िजसे प्रेमसम्बन्त्ध
से अद्वैत की तरफ ले जाने की चेटा होती है ।
योग एवं ब्रह्मसूत्र में उपासना - महर्तष पातंजिल ने अंतरं ग व बिहरं ग साधन की
बात योगसूत्र में कही है, िजसमें यम, िनयम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार बिहरंग है
और धारणा, ध्यान समािध अन्त्तरंग है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
प्रितपेददरे - तत्त्ववैशारदीिवभूिषतव्यासभाष्योपेतम् – पातञ्जल योगसूत्रम् १/१४ ।
युगान्त्तेन्त्तर्तहतान् वेदािन्त्तहासानमहषययाः । लिभरे तपसापूवयमनुज्ञातााः स्वयंभव ू ा ।।
यज्ञेनवाचाः पदवीयमापन् तामिन्त्विवन्त्दन् ऋिषषु प्रिवटाम् - ऋग्वे १०.७१.३। स तु
दीघयकालनैरन्त्तययसत्कारासेिवतो दृढभूिमाः - व्यासभाष्यम् । दीघयकालाऽऽसेिवतो
िनरन्त्तराऽऽसेिवताः सत्कारासेिवताः तपसा ब्रह्मचयेण िवद्यया श्रद्धया च सम्पाददताः ।
प्रजावतां । ये वाप्याश्रमधमेण प्रस्थानेषु व्यविस्थतााः ।। ५६.६५ ।। अन्त्ते च नैव सीदिन्त्त
श्रद्धायुिेन कमयणा । ब्रह्मचयेण तपसा यज्ञेन प्रजया च वै ।। ५६.६६ ।। श्रद्धया िवद्यया
चैव प्रदानेन च सप्तधा । कमयस्वेतष े ु ये युिा भवन्त्त्या देवपातनात् ।। ५६.६७ - देवैस्तैाः
िपतृिभाः साद्धां सूक्ष्मकै ाः सोमपायकै ाः। स्वगयता ददिव मोदन्त्ते िपतृमन्त्तमुपासते ५६.६८॥
वायुपुराणम् । तपसा ब्रह्मचयेण श्रद्धया । संवत्सरं संवत्स्यथ । यथाकामं...। तपसा
चीयते ब्रह्म ततोऽिमिभजायते । अिात् प्राणो मनाःसत्यं । यज्ञ वै श्रेष्ठतमं कमय ।
िचत्तैकाग्र्यं परं तपाः । गीता में भी भगवान ने कहा है - यज्ञानांजपयज्ञोऽिस्म स्थावराणां
िहमालय: - श्रीमद्भगवत्गीता १०.२५ । तस्यै तपोदमाः कमेित प्रितष्ठा वेदााः सवाांगािन
सत्यमायतनम् - के नोपिनषद् ४.८।
सारांश - जपयज्ञो महेशािन मत्स्वरूपो न संशय: । िशवजी कहते है - देवी जपयज्ञ मेरा
स्वरूप ही है । हमने आगे देखा हैं दक, वेदो का प्रादुभायव ऋिषयप ने तप के द्वारा दकया हैं
- यज्ञ एवं तप अित मिहमावान् है । श्रुत्यन्त्तरभावी याः शब्दोऽनुरणनात्मकाः। स्वतो
रञ्जयते श्रोतुिश्चतं स स्वर उच्यते ।। यथा श्रुितयप को लगातार उत्पि कराने से स्वर की
उत्पित्त होती है - त्वंस्वाहा त्वंस्वधा ही वषट्काराःस्वराित्मका - स्वर जगदंबा का
स्वरूप है । तप में देवता प्रितिष्ठत है, जपयज्ञ भगवान का ही स्वरूप है । वह सवयदा
अत्याज्य हैं, सवयश्रष्ठ
े कमय है । िचत्त की एकाग्रता ही तप है । देव-िपतृ सब का मोदन तप
से होता है । श्रीमद्भागवत में आता है दक ब्रह्माजी ने पूरे ब्रह्माण्ड की उत्पित्त भी तप के
द्वारा की है । ब्रह्मानुभूित के िलए तप आवश्यक हैं, िचत्त की एकाग्रता भी तप के द्वारा
िसद्ध होती हैं । पूरे ब्रह्ममाण्ड का सजयन तप से हुआ है । वेदादद महाज्ञान का प्रागट्ड भी
तप से ही हुआ है, तप ही देवताओं का आयतन-आश्रय है । सब का आधार तप ही है ।
तप ही श्रेष्ठतम यज्ञ है । अिमनप्राणादद सब की उत्पित्त का मूल तप में ही है । सभी
पुराणप में, वैददक वाङ्मय में तप की मिहमा वर्तणत है । तप ही सबका मूळ है, तप का
सामान्त्याथय - कु छ पाने के िलए दकया हुआ हठात्मक कमय ।
जॉन असाराफ़ - हम िजस चीज को पाने का चुनाव करें , उसे पा सकते हैं । इसे कोई
फकय नहीं पडता है दक यह चीज दकतनी बडी है ।
इसी श्रुंखला में आगे बढते है - जपेनदेवता िनत्यं स्तूयमाना प्रसीदित । जपाित्सिद्ध
जपाित्सिद्ध जपाित्सिद्धनय संशयाः - शािानन्त्द तरं िगणी । जब तप की बात करेंगे, तो
मन्त्त्र की बात आ ही जाती है । ॎकार के नाद से ही ब्रह्ममाण्डो की रचना हुई है ।
ॎकार का प्रारम्भ अकार से होता है, गीता में स्वयं भगवानने कहा है अक्षराणां
अकारोऽिस्म । अकाराः सवयवणायग्रय - वणयमाला का प्रथम अक्षर है, एवं प्रत्येक अक्षर
स्वयं में मन्त्त्र है, िजसकी आगे हम चचाय कर चूके है । जब तप-उपासना के मागय पर
प्रशस्त होना हैं, इस िवषय में कु छ िवशेष बातें कर ले । आगे के िवभाग में मन्त्त्र के
िवषय में पयायप्त चचाय कर ली हैं, मन्त्त्र एवं देवता में कोई भेद नहीं है, मन्त्त्र ही देवता है,
िशव है, ब्रह्म है, ब्रह्माण्ड का आधार है, वह शिि भी है और शििमान भी वो ही है ।
मन्त्त्र का जप ही तप है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
भूतािभषंग क्तया है ? प्रायाः देखा गया हैं दक, एक ही पररवार के दो संतानप को कोई
वाईरल िबमारी लगती हैं । दोनप की िचदकत्सा एक ही डॉक्तटर के पास हो रही है ।
दोनप को एक ही जैसी ही सेवा िमल रही है, िनयिमत औषध सेवन भी कर रहे है,
यद्यिप उनमें से एक का स्वास्र्थय अितशीघ्र ही ठीक हो जाता हैं, दूसरे को अिधक समय
लगता हैं, क्तयप ? दकसीको सामान्त्य ज्वर िबना औषध भी ठीक हो जाता है, तो दकसीको
वही ज्वर महारोग या मृत्यु का कारण बन जाता है । दकतना भी िनष्णात उपचारक
क्तयप न हो, सामान्त्यव्यािध कभी कभी असाध्य बनती है । इस ददशा में आयुवेद का
िचन्त्तन अित महत्वका एवं पूणय तकय संगत लगता है ।
आयुवेद इसे भूतािभषंग या कमयजव्यािध का नाम देता है, पूवज य न्त्म कृ तं पापं व्यािधरूपेण
बाधते - िजनका भोग न हुआ हो, ऐसे अभोि कमय प्रारब्ध बनते है और अगले जन्त्ममें
फलदाता बनते है । गीतामें भी भगवान इसकी पुिट करते है - शुचीनां श्रीमतां गेहे
यागभ्रटोऽिभजायते । श्रुितमें भी इसका स्पट वणयन है - कृ िषकारो...क्षेत्रब े ीजं..।
कपूयचरणा कपूययोतन श्वायोतन, शूकरयोतन वा - छां.उप.प्र.प्रपाठक, तद्य इह
रमणीयचरणा अ्याशो ह यत्ते रमणीयां योिनमापद्येरन्त्ब्राह्मणयोतन वा क्षित्रययोतन वा
वैश्ययोतन वाथ य इह कपूयचरणा अ्याशो ह यत्ते कपूयां योिनमापद्येरतिश्वयोतन वा
सूकरयोतन वा चण्डालयोतन वा - बृहदारण्यक ५.१०.७ ।। योिनमन्त्यप्र े पद्यन्त्ते
शरीरत्वाय देिहनाः स्थाणुमन्त्यऽे नुसय
ं ाित यथाकमय यथाश्रुतं - कठो.२.७, सयथा कामो
भवित तत्ितुभव य ित ।। तत्कमय कु रूते ... पापाकारी पापोभयवित पुण्याःपुण्येन भवित ।।
पापाः पापेन - ब्रह्म.४.४.५ । सित मूले जात्यायुभोगाः - योग ।
श्रुित, पुराण, तंत्र में ऐसे कई प्रमाण उपलब्ध है । सारांश यह है दक अगले जन्त्म में दकए
हुए पापाचरण प्रारब्ध बनकर, व्यािध बनकर पीडा देते है, कमयका िसद्धान्त्त भी यही
िनदेशन देता है । इनका शमन जप-होमादद से होता है । इस प्रकार जपतप का
ब्रह्मानुभूित के उपरान्त्त शािन्त्तकमय या काम्यप्रयोग दकया जाता है ।
वैसे भी मन्त्त्रप में अिचन्त्त्य शिि होती है । एक छोटी सी दवा की गोली व्यािध शमन के
िलए पयायप्त है । एक छोटा-सा जेक, महाकाय रक को उठानेके िलए पयायप्त है, वैसे ही
मन्त्त्रप में बहोत शिि होती है । कामना से ही करे, उपासना व्यथय नहीं जाती, अन्त्य
शरणागित से तो ईश्वर शरणागित श्रेष्ठ ही है । भय से भागकर या फलेच्छा से भी, यदद
उपासना के मागय पर आते है तो कु छ गलत नहीं है । यहां सब कु छ प्राप्त करनेका सामर्थयय
है, मंत्रो के प्रभाव से ही कामनाओं का क्षय शनैाः शनैाः होता जाता हैं । वैसे भी जब
पवयतारोहण करते है, कु छ सामान साथ में सुिवधा के िलए रखते है, दकन्त्त,ु दकन्त्तु ज्यप
ज्यप उपर जाते है, यह सुख-सुिवधा का सामान का भी वजन लगता है और धीरे -धीरे
उसे हम छोड देते है । काम्य कमय, उपासना शनैाःशनैाः वासनाओं से उपर उठकर िनष्काम
की तरफ ही जाती हैं । मंत्रोपासना िविधवत् हो तो, कामनाओं का उपराम होता है ।
िमशाः िनष्कामोपासना में मात्र ईश्वर प्रीत्यथय ही भिि का प्रादुभायव होता है । िनष्काम
भिि में उपासक ईश्वर का िवशेष कृ पापात्र भी बनता है । उसकी प्रत्येक कामना का
िवचार स्वयं परमात्मा करता है, क्तयपदक भिाधीन भगवान कहते है । सुरदासजी की
लकडी स्वयं बालकृ ष्ण पकडते थे, भगवान चैतन्त्य महाप्रभु, नरतसह, मीरा, तुलसी और
कबीर जैसे भिो के पीछे-पीछे भागते है । कबीर मन मृतक भया, दुबल य भया सरीर।
पीछे -पीछे हरर दफरै , कहत कबीर कबीर । हाथ छु ड़ावत जात हो, िनबयल जान के मोहे
हृदय में से जाओ तो सबल मानु मैं तोहे । भिि की यह पराकाटा हैं, जहां साधना एवं
साध्य दोनप ही भगवान हैं, इस अवस्था में भि भगवान के िनकटतम होता है ।
एक सम्राट ने नगरजनो को एलान दकया दक, कल के ददन मेरे राजमहल में से िजसे जो
पसन्त्द आए, उसपर हाथ रखकर, ले जा सकते है । नगरजनप भीड लग गई, ईिच्छत
पदाथय पाने के िलए । एक छोटा सा बालक भी वहां आया था उसने राजा का हाथ पकड
िलया, स्वयं सम्राट को मांग िलया, सम्राट ने उसे राजकु मार बना ददया, वह समस्त
राज्य का मािलक बन गया ।
उपासना में अवरोध - प्रायाः सूना है दक, प्रयत्नप के उपरान्त्त भी उपासना में मन ही
नहीं लगता । िव मे कणाय पतयतो िव चक्षुवीदं ज्योितहृयदय आिहतं यत् । िव मे
मनश्चरित दूर आधीाःकक िस्वद्वक्ष्यािम दकमु नु मिनष्ये - ऋग्.६.९.६। जब उपासक
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
उपासना करने बैठता है तो, उनकी इिन्त्द्रया िवषयप में भागती है, कान शब्दप की ओर
आंख रूप की ओर भागती है । मन इट में रटकता नहीं, कै से भजन करें ।
१.व्यािध: शरीर में दकिसस प्रकार का रोग, इिन्त्द्रयप में कमजोरी आ जाना तथािचत्त में
भ्रम, उिद्विता आदद आ जाना व्यािध कहलाती है।
२. स्त्यान: कायय करने में असमथय होने, अकमयण्यता, कायय में अनुत्साह, अथवा सामर्थयय
की कमी को स्त्यान कहते हैं ।
३. संशय: योग िवद्या की वस्तुिस्थित पर िवश्वास ना होने तथा अपने प्रयत्न की
सफलता पर आशंका करना संशयकहलाता है ।
४. प्रमाद:सतकय ता के अभाव से साथ साधना करना, िनयिमत िम को अधुरा छोड़ देना
और वह िबगड़ भी जाये, तो भी उसकी तचता ना करना प्रमादकहलाता है।
५. आलस्य: तमोगुण के रहने पर शरीर का भरी रहना, कायय में मन ना लि, सुस्ती
बनी रहना, आलस्यकहलाता है ।
६. अिवरित : िवषयासिि होने से मन का िवषयप में ही लगे रहना तथा िचत्त में वैराग्य
का आभाव हो जाना अिवरितकहलाता है।
७. भ्रािन्त्त दशयन : दकसी कारणवश अध्यात्म के दशयन और साधन पथ का वास्तिवक
ज्ञान ना हो पाना अथवा यह साधन उपयुि नहीं है , ऐसा भ्रामक ज्ञान भ्रािन्त्त
दशयननमक िवघ्न कहलाता है ।
८. अलब्धभूिमकत्व : िनरं तरसाधना करनेपर भी साधक की िस्थितमें ना पहुाँच पाना
तथा मध्यमें ही मनके वेगका अवरुद्ध हो जाना,अलब्धभूिमकत्वकहते है ।
९. अनविस्थतत्व : िचत्त का एकाग्र अथवा िस्थर ना रह पाना , िजससे भूिमका तक ना
पहुाँच पाना और अिस्थरता के फलस्वरूप मनोभूिम का डााँवाडोल बने रहना
अनविस्थतत्वकहलाता है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
कभी गूम हुई वस्तु नहीं िमलती, दकन्त्तु साधना के दरम्यान उसकी स्मृित आ जाती है ।
अमेररका में बसी मौसी ऐसे याद नहीं आती, दकन्त्तु उपासना के दरम्यान उनसे बात
करनेका मन होता है, अनेक संकल्प-िवकल्प उठतें है । अनेक प्रकार के सुखप को भोगने
को मन उत्कट होता है । ऐसे कई प्रकार के िवघ्न होते हैं, िजसका वणयन महर्तष पतंजिल
ने योग दशयन के समािधपाद (३१) में दकया है ।
कभी कभी िसिद्धयां भी साधना में बाधक बन जाती है। जैसे दक दकसी दशयनीय स्थल
पर जाते है, जहां सूयायस्त के पूवय ही पहपचना होता है । मागय में अित सुन्त्दर वन-उपवन
आते है, अित मनभावन पुष्प-फल है, मन लालच करके उसमें उलझ जाता है तो, गंतव्य
तक नहीं पहपच पाता, यदद फल-फू ल का उपयोग भी करना हो, तब भी, गन्त्तव्य को
के न्त्द्रस्थ रखके ही करें , फल-फू ल के सेवन को प्राधान्त्य न दे । साध्य के प्रित सकारात्मक
िनरन्त्तर गित ही साध्यप्रािप्त का मागय सुगम बनाता है । कामनाओं में भटक जाने से
साध्य छू ट जाता है ।
जप - उपासना में िनष्ठा एवं िनरन्त्तरता स्वयं ही िवघ्न िनवारण करती है । एक पाक
फकीर पांच समय की नमाज अदा करता था, खुदा की बंदगी करता था । शैतन ने उसे
तकिलफ देना बंद कर ददया क्तयपदक अगर वह नादुरिस्त के कारण भी यदद नमाज नहीं
पढ पाता तो, खुदा को उसकी िचन्त्ता होती थी । आज बंदगी क्तयो नहीं सुनाई दी, और
शैतान को भय रहता था दक, स्वयं खुदा उसकी िचन्त्ता करता था । दकसी बलवान की
दोस्ती से दुसरे गुंडे परेशान नहीं करते, उन्त्हे उस पहलवान का डर रहता है । दुसरी बात
यह है दक िनरन्त्तर - िनयमबद्ध उपासना से आध्याित्मक बल की वृिद्ध होती है, उसमें
वेग (वेलोिसटी), लय (ररधम) एवं सकारात्मक ऊजाय(िमस्टीररयन फोसय) आती है ।
धारणा से साध्य स्वयं समीप आने लगता है, जैसे जंगल में वृक्षपर लटका अजगर
िनरन्त्तर िशकार का िचन्त्तन करता है, उसे कहीं भागने की जरूरत नहीं होती िशकार
स्वयं चलकर उसके पास आ जाता है ।
उपासना में िवघ्न तो आएंगे ही । हम प्राताः कालमें चलना (Morning Walk) प्रारम्भ
करते है, तब गली के कु त्ते भपकते हुए पीछे भागते है, लेदकन उनकी एक सीमा है, उससे
आगे नहीं आते । इसके उपरान्त्त भी यदद प्रयास नहीं छोडेंग,े तो एक समय ऐसा
आएगा, कु त्ते आपके पीछे भौंकना या भागना बन्त्द कर देंगे, आपकी िनष्ठा के आगे िवघ्न
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
परास्त हो जाएंगे और िवषय रूपी श्वान, जो आपकी साधना में अवरोधक बनते है, वे
आपको अवरोध करना बन्त्द कर देंगे । रेडमील पर चलने के व्यायाम का सीधा लाभ यह
है दक, आपके शरीर की चरबी (फे ट-कै लेरी) कम हो जाती है, दकडनी, न्त्यरू ो िसस्टम्स,
रूिधरािभसरण ठीक होता है, स्फू र्तत लगती है, वैसे ही मन का व्यायाम तप-उपासना है,
मन के िवकार-दोष, अहंकार स्वरूप चरबी जल जाती है, मानिसक स्वास्र्थय में वृिद्ध
होती है । कभी कभी ऐसा लगने लगता है दक, उपासना का फल नहीं िमल रहा है,
दकन्त्तु आप श्रद्धा रक्तखे, चलने पर गन्त्तव्य के समीप पहपचते ही है, चाहे मन से चले या
के वल श्रमसे, मागय कटता ही है और गंतव्य समीप आ ही जाता है ।
मानो दक हम, एक टंकी से दुसरी टंकी में पानी भर रहे है, तो दूसरी टंकी में तुरन्त्त पानी
नहीं आएगा । पहले पाईप में पानी भरेगा, यदद लाईन में कचरा हो तो प्रारम्भ में गंदा
पानी भी आ सकता है । लेदकन पानी का प्रवाह चालू ही रहेगा तो, शुद्ध पानी नई टंकी
में अवश्य आएगा । कहनेका तात्पयय स्पट है दक, पूवक य ृ त पापजन्त्य िवकारप के क्षय होते
ही उपासना का पररणाम ददखने लगेगा । यथाभ्रे फलाथां िनर्तमते छायागन्त्ध इत्नूपरद्यते
एवं धमां चययमाणं अथाय अनुत्पद्यते (आप.स्मृ.) - कु छ फल तो ऐसे भी िमलेंगे जो हमारी
उपासना के ध्येय नहीं होते, जैसे दक आम का फल खाने के िलए पेड लगाते है तो, फल
के साथ छाया, पक्षीयप का िनवास भी बन ही जाएगा । श्वे.उपिनषद के अनुसार -
लघुत्वमारोग्यमलोलुपत्वम्, वणयप्रसादम् स्वरसौष्ठवम् च । गन्त्धाः शुभो मूत्र-पुरीषमल्पम्,
योगप्रवृित्तम् प्रथमाम् वदिन्त्त । तप में प्रवृत्त होने वाले को आरम्भ में ही कु छ पररणाम
िमलते हैं, िजनमें शािमल हैं - शरीर की गंध का शुभ होना, तथा मल-मूत्र का अल्प
िनमायण । लघुता (शरीर का हल्का होना), आरोग्य (बीमाररयप से मुिि), अलोलुपत्व
(लोलुपता – लालच का न होना), वणयप्रसाद (शरीर में कािन्त्त का होना), तथा स्वर-
सौष्ठव (कण्ठ की मधुरता) – योगमागय में प्रवृत्त होने वालप को आरम्भ में ही यह लाभ
िमल जाते हैं । प्रयास में सातत्य एवं िनष्ठा होनी चािहए ।
पयायप्त प्रयत्न भी आवश्यक होते है, जैसे दक बडा बरतन गंदा हो तो थोडे पानी से साफ
नहीं होता, उसके उपर ड्रोपर से बुद ं -बुद
ं पानी गीराने से वह साफ नहीं होता । व्यािध
में यदद वैद्य, औषध की जो मात्रा देते है, उसे पयायप्त रूप में लेना ही पडता हैं, वैद्य के
बताए पर्थयापर्थय का भी अनुसरण करना पडता है, अन्त्यथा व्यािध नहीं जाएगी । ठीक
उसी प्रकार गुरू िनर्कदट या शास्त्रोि प्रमाण से ही उपासना के पथ पर प्रशस्त होकर ही
उिचत प्रािप्त होती है ।
प्रायिश्चत - प्रायिश्चत का तात्पयय है शुिद्ध । संसार में हम सबसे कोई ना कोई पापकमय
तो हो ही जाते है, चाहे दकतनी ही सावधानी क्तयो न बते । ये जो पापकमय है वे ही हमारे
उपासना मागय को अवरूद्ध करते है, जैसे िवकृ त आहार से स्वास्र्थय खराब होता है वैसे
ही िनिषद्ध व्यवहार से अन्त्तकरण क्तलुिषत होता है । अनुष्ठान के पूवय, पापपकी िनवृित्त
आवश्यक होती हैं, क्तयपदक वह इट तादात्म्य में बाधक बनती है ।
िजस प्रकार व्यापारर बनकर व्यापारर पररषद में बैठ सकते है, दकसान बनकर दकसान
संघठन में िहस्सेदार बनते है । राजनेता बनकर ही राजक्षेत्र में, कलाकार बनके कला के
क्षेत्रमें आगे बढ सकते है । ठीक इसी प्रकार भि बनकर ही भगवान का साििध्य प्राप्त
कर सकते है ।
सारांश, शुिद्ध होनी चािहए । उपासना के पूवय प्रायिश्च अिनवायय है, िजसमें िवष्ण
स्मरण-पूजन को प्राधान्त्य ददया जाता है, क्तयोदक िवष्णु को पापहा - पापो के नाश
करनेवाले कहे है । इसके िलए चान्त्द्रायणादद व्रत करना होता है । िपतृ, देव, अितिथ
आदद का अनादर जैसे असंख्य पापप से मन पर मलीनता के आवरण आते है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
शुिद्ध पुनाः दो प्रकार की है - १. बा्शुिद्ध (स्वच्छता), २. आन्त्तशुिय द्ध । के वल बा्
शुिद्ध से काम नहीं बनेगा । जैसे दक कोई पात्र बाहर से दकतना भी शुद्ध कर लो, दकन्त्तु
अन्त्दर से शुद्ध नहीं होगा तो, उसमें भरा पदाथय अशुद्ध ही रहेगा । िवपररत यदद अन्त्दर
से ही शुद्ध होगा तो भी काम नहीं चलेगा । जैसे लालटेन का काच मात्र अन्त्दर एवं
बाहर दोनप तरफ से साफ होगा तो स्वच्छ प्रकाश बहार नहीं आएगा, दोनप तरफ से
साफ होना चािहए ।
बा् शुिद्ध (देहशुिद्ध) होती है, दशिविध स्नान से । इसके अंतगयत दशिविध (१०प्रकार
के स्नान) िजसमें १. भस्म स्नान २. मृितका स्नान, ३. गोमय (गाय का गोबर) स्नान ४.
पंचगव्य स्नान ५.गोरज स्नान ६.धान्त्य स्नान ७. फल स्नान ८. सवोषिध स्नान (हल्दी
इत्यादद) ९. कु शोदक स्नान (कु शा के जल से) १०. िहरण्य (स्वणय) ।आन्त्तरशुिद्ध
प्रायिश्चत के िलए चान्त्द्रायणादद व्रत करते है, हेमादद्र संकल्प करके गोदान भी करते है।
पापमुिि के िलए दो उपाय है - तपमुिि एवं सद्यमुिि । तप द्वारा मुिि के िलए
उपरोि व्रतादद करने से पाप भस्मीभूत हो जाते है । सद्यमुिि के िलए गोप्रदान वा
तििष्िय द्रव्य का दान करना होता है, तात्पयय यह है दक दान के िलए भी पररश्रम तो
दकया ही है । जैसे कोई अपराध के िलए िशक्षा सहन करे या दण्डक द्वारा िनयत दण्ड दे
के तुरन्त्त मुि हो जाए । िबना रटकट की यात्रा की सजा ६ मास कै द है या ५०० रूपये
या रेन के प्रारम्भ से अन्त्त गंतव्य तकका रटदकट मूल्य देना होता है ।
मानो, दकसी साधु को उपासना के िलए एकान्त्त स्थान चािहए । वह स्थान की शोध में
िनकल जाता है । वन में एक सुन्त्दर मिन्त्दर ददखता है और वह उसे उिचत स्थान मानकर
वह मंददरके समीप जाता है । समीप में एक जलाशय भी है, प्रांगण में कु छ फल-फू ल के
वृक्ष भी है । दकन्त्तु, समीप जानेपर पता चलता है दक, यह तो िनजयन है और वहां बहोत
कू डा पडा है । मिन्त्दर में भी िशवतलग है, दकन्त्तु वहां भी पक्षीयप के गपसले है, िशवतलग
पर भी पक्षीयपकी बीट पडी है । शीघ्र ही वह बहार का प्रांगण - मंददर की सफाई करता
है । दफर स्नानादद करके , जलाशय मे गीरे हुए पत्ते-फू ल को हटाके शुद्धजल लेकर, मिन्त्दर
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
को धोता है । फल-पुष्पादद शुद्ध करके लाता है । चन्त्दन काट को पत्थर पर गीसकर
चन्त्दन तैयार करता है । िशवतलग को साफ करता है । न्त्यासादद पूवयक मन्त्त्र से िविधवत्
पूजा करता है । यही पंचशुिद्ध भी है और पंचपूजा भी । मिन्त्दर एवं प्रांगण की सफाई
स्थानशुिद्ध है, स्नान, िनत्यकमय, प्राणायामादद (देह) आत्मशुिद्ध है, िशवतलग का क्षालन
करके शुद्ध करना देव शुिद्ध है, शुद्ध जल से फल-फू ल को धोकर शुद्ध करना द्रव्यशुिद्ध
एवं न्त्यास-िविनयोगादद, ऋष्यादद स्मरण पूवक य मन्त्त्रो से देवताओं का ध्यान, पूजा,
जपादद मन्त्त्रशुिद्ध है ।
समय एवं स्नान - आजकल प्रायाः देखा है दक, बडे शहरप में, ददन के समय में
वाहनव्यवहार की व्यस्तता को ध्यानमें रखते हुए, रात्री के समय सफाई कायय होता है ।
प्राताः काल गाबेज वान आकर एकित्रत दकया हुआ कू डा उठा ले जाती हैं । यह एकित्रत
दकए हुए कू डे में बैठकर कोई चाय - पानी - नास्ता नहीं करता ।
ठीक परमात्माने हमारे शरीर में भी ऐसी ही व्यवस्था की है । ददवस दरम्यान इिन्त्द्रय
व्यापार एवं ऐिहक प्रवृित्त या इतनी होती हैं दक, शरीर के आन्त्तररक मलप की िनवृित्त
ठीक से नहीं हो सकती । हमारे शरीर के आन्त्तररक भागो से, प्रयत्नो से भी, मल
िनकालना दुष्कर होता है । यथा रात्री के सुषुिप्तकाल में, जब सभी इिन्त्द्रया अपने
काययकलाप को त्यागकर िवश्राम करती है, तब हमारा उत्सजयनतंत्र मलोपहार का कायय
प्रारम्भ कर देता है । िनद्रा के दरम्यान सभी आन्त्तररक मल शरीर के अग्रभाग में आ
जाते है । आन्त्त्र (आन्त्तरडप) का मल मलद्वार पर आ के खडा हो जाता है । रिशुिद्ध व
रूिधरािभसरण का मल दकडनी द्वारा मूत्राशय में आ जाता है । श्वसन व अिनिलका का
मल मुख मे टोिक्षक के रूपमें आकर खडा हो जाता है । नेत्र-दशयन का मल जलरूप में
आंखो के कौनप पर आ जाता है, इसी प्रकार कणयनािसकादद में मल िनष्कास के िलए
तैयार हो जाता है । शरीर के प्रत्येक रोमिछद्रप पर दुगध ां युि वायु या प्रस्वेद के रूपमें
मल आ जाता है, िजसे शौच, दन्त्तधावन, स्नानाददक दिया द्वारा दूर दकया जाता है ।
दकन्त्तु आजका िशिक्षतवगय बेडटी या िबना स्नान ही नास्ता करता है । कू डे पर बैठकर
खानेवालप को आप िशिक्षत या सुधारावादी कै से मान सकते हो ? यथा िनद्रा का अित
महत्त्व है, िनद्रा शािन्त्तप्रदा है, उसे िनद्रारूपेण संिस्थता देवी का रूप माना है ।
उत्तम काल ब्राह्ममूहुरते माना जाता है । प्रात: ४ से ५.३० बजे का समय ब्रह्म मुहूतय
कहा गया है । ब्रह्ममुहूते या िनद्रा सा पुण्यक्षयकाररणी - ब्रह्ममुहूतय की िनद्रा पुण्य का
नाश करने वाली होती है।
वेदप में भी ब्रह्म मुहूतय में उठने का महत्व और उससे होने वाले लाभ का उल्लेख दकया
गया है। प्रातारत्नं प्रातररष्वा दधाित तं िचदकत्वा प्रितगृ्िनधत्तो। तेन प्रजां वधययमान
आयू रायस्पोषेण सचेत सुवीर:॥ - ऋग्वेद-१.१२५.१॥, यद्य सूर उददतोऽनागा
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िमत्रोऽययमा। सुवाित सिवता भग:॥ - सामवेद-३५, उद्यन्त्त्सूयां इव सुप्तानां िद्वषतां वचय
आददे ।। अथवयवेद- ७.१६.२, अथायत् - सुबह सूयय उदय होने से पहले उठने वाले व्यिि
का स्वास्र्थय अच्छा रहता है। इसीिलए बुिद्धमान लोग इस समय को व्यथय नहीं गंवाते।
सुबह जल्दी उठने वाला व्यिि स्वस्थ, सुखी, ताकतवाला और दीघाययु होता है। व्यिि
को सुबह सूयोदय से पहले शौच व स्नान कर लेना चािहए । इसके बाद भगवान की
पूजा-अचयना करना चािहए। इस समय की शुद्ध व िनमयल हवा से स्वास्र्थय और संपित्त
की वृिद्ध होती है । सूयोदय के उपरान्त्त भी जो नहीं जागते, वे िनस्तेज हो जाते है ।
देव स्नान - आज के समय में अिधकांश लोग सूयोदय के बाद ही स्नान करते हैं । जो लोग
ठीक सूयोदय के पूवय दकसी नदीं में स्नान करते हैं या घर पर ही िविभि नददयप के नामप
का जप करते, िविभि मंत्रप का जप करते हुए स्नान करते हैं तो उस स्नान को देव स्नान
कहा जाता है।
ब्रह्म स्नान - ब्रह्ममुहूतय में यानी सुबह लगभग ४-५ बजे जो स्नान भगवान का तचतन
करते हुए दकया जाता है, उसे ब्रह्म स्नान कहते हैं ऐसा स्नान करने वाले व्यिि को
इटदेव की िवशेष कृ पा प्राप्त होती है और जीवन के दुखप से मुिि िमलती है।
ऋिष स्नान - यदद कोई व्यिि सुबह-सुबह, जब आकाश में तारे ददखाई दे रहे हप और
उस समय स्नान करें तो उस स्नान को ऋिष स्नान कहा जाता है। सूयोदय से पूवय दकए
जाने वाले स्नान को मानव स्नान भी कहा जाता है। सूयोदय से पूवय दकये जाने वाले स्नान
ही श्रेष्ठ होते हैं ।
दानव स्नान - आज के समय में काफी लोग सूयोंदय के बाद और चाय-नाश्ता करने के
बाद स्नान करते हैं, ऐसे स्नान को दानव स्नान कहा जाता है। आजकल युवा वगय स्वयं को
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
भले ही सुिशिक्षत-सुधारावादद मानते है, दकन्त्तु उनका ज्ञान अधयघटवत् ही है, प्रायाः वे
दानव स्नान ही करते है ।
शास्त्रप के अनुसार हमें ब्रह्म स्नान, देव स्नान या ऋिष स्नान करना चािहए । यही सवयश्रेष्ठ
स्नान हैं । स्नान की िविध भी शास्त्रप वर्तणत है - तीथायदद का स्मरण करके , भगवान
वरूण की प्राथयना करके ही ब्राह्म मूहूतय में स्नान करना चािहए । पररिशट में उसका पूणय
िवधान है ।
स्थान, आसन एवं वस्त्र - यज्ञादद के पूवय भूिम शोधन एवं पूजन होता है । जहां
उपासना - जपयज्ञ होना है, वहां भी शोधन-शुिद्धकरण का िवचार करना होता है । वैसे
भी धरती को हम माता कहते हैं, माता का पूजन अग्रीम होना चािहए, यथा कमायरम्भे
भूशुद्ध्यादद करके आसन वंदन करते है । जहां हम यन्त्त्र या देवता का स्थापन करते है
वहां उत्तम आसन िबछाते है, तो हमारा मुलाधार चि जहां आसीन होना हो, वहां भी
आसन का िवचार तो करना ही होगा ।
स्थान - स्थान का अपना महत्व होता है । दकसी क्तलब या मंददर के िलए, िभि प्रकार
का िसमेन्त्ट, िमट्टी, ईंटे नहीं होती । एक ही प्रकार के िसमेन्त्ट - ईंटो से घर बनते है,
मंददर बनते है, क्तलब, होटल बनते है, यद्यिप सभी स्थानप में अपनी मनोिस्थित एक सी
नही होती । स्थान का अपना प्रभाव अवश्य होता है ।
उद्यानािन िविािन िवल्वमूलं तटं िगरे ाः। तुलसीकाननं गोष्ठं वृषशून्त्यं िशवालयम्॥
अश्वत्थामलकीमूलं गोशालाजलमध्यताः। देवतायतनं कू लं समुद्रय िनजं गृहम्॥
साधनेषु प्रशस्तािन स्थानान्त्येतािन मिन्त्त्रणाम्। अथवा िनवसेत्तत्र यत्र िचत्तं प्रसीदित॥
गृहे शतगुणं िवद्याद्गोष्ठे लक्षगुणं भवेत्। कोरटदेवालये पुण्यमनन्त्तं िशवसििधौ॥
म्लेच्छदुटमृगव्यालशगकातगकिववर्तजते। एकान्त्तपावने िनन्त्दारिहते भििसंयुते॥
सुदेशे धर्तमके देशे सुिभक्षे िनरुपद्रवे। रम्ये भिजनस्थाने िनवसेत् तापसाः िप्रये!॥
गुरूणां सििधाने च िचत्तैकाग्रस्थले तथा। एषामन्त्यतमस्थानमिश्रत्य जपमाचरे त्॥
संमोहन तंत्रे - आसनमन्त्त्रस्य मेरुपृष्ठऋिषाःसुतलं छन्त्दाः । कू मोदेवता
आसनािभमन्त्त्रेणिविनयोगाः - ५.२१॥ पृर्थवीत्वयादद मंत्र से आसन शुिद्ध करते हैं ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आसन - शुचौदेशे प्रितष्ठाप्य िस्थरमासनमात्मनाः - गीता ६.११। दकसी भी कायय में
सानुकूलता का आधार आसन होता है । दकसी भी कमय का साफल्य उनके आसन-आधार
पर ही होता है । एक पायलोट को िवमान उड्डयन के िलए खास प्रकार की सीट होती है,
हैवी अथयमव ु र के चालक-ड्राईवर की सीट अलग प्रकार की होती है । दकसी टेदक्निशयन
को कायय करनेकी बैठक व्यवस्था, दकसी मेनजर की बैठक, ररशेप्शनीस्ट की बैठक का
प्रकार िभि-िभि होता है । संगीतकार की, वाद्य-वादक की बैठक भी कु छ खास प्रकार
की होती है । यथा आसन का भी अपना महत्व है । आसन एवं पूजा वस्त्र िवषये
शास्त्रमत िनम्नानुसार है -
िजस आसन में बैठकर आप उपासना करते हैं, उसमें आपकी मानिसकता एवं शारीररक
ऊजाय तरं गप की िवशेष गित तथा िवशेष ददशा और िनर्कदट होती है । जबदक िजस पर
आप बैठे हैं, वह उन ऊजाय तरं गप को अपने लक्ष्य की प्रािप्त का एक ठोस आधार देता है ।
उस ऊजाय के दिया-प्रितदिया की संभािवत क्षित के प्रितशत में कमी लाता है और उसे
पूरी तरह से रोकता है । ब्रह्माण्ड पुराण के तंत्र सार में िविवध आसनप की फलश्रुित
बताई गई है। खुली जमीन पर कट एवं अडचने, लकडी का आसन दुभायग्यपूण,य बांस की
चटाई का आसन दररद्रतापूण,य पत्थर का आसन व्यािधयुि, घास-फू स के आसन से यश-
हािन, पल्लव (पत्तप) का आसन बुिद्धभ्रंश करनेवाला तथा एकहरे िझलिमल वस्त्र का
आसन जप-तप-ध्यान की हािन करनेवाला तथा एकहरे माध्यम से िवद्युत्संिमण शीघ्र
होता है लेदकन लकडी, चीनी िमट्टी या कु श आदद वस्तुओं में िवद्युत्संिमण नहीं होता।
पहले प्रकार के पदाथय संिामक तथा दूसरे प्रकार के पदाथय असंिामक होते हैं। िवद्युत
प्रवाह के संिामक और असंिामक तत्वप के आधार पर प्राचीन ऋिष-मुिनयप ने आसन
के िलए िविवध वस्तुओं की योजना बनाई है ।
गाय के गोबर से िलपी-पुती जमीन, कु शासन, मृगािजन, व्याघ्रािजन एवं ऊनी कपडा
आदद वस्तुएं असंिामक होती है। यदद ऎसे आसन पर बैठकर िनत्य कमय, संध्या या
साधना की जाए तो पृर्थवी के अंतगयत िवद्युत प्रवाह शरीर पर कोई अिनट प्रभाव नहीं
डालता । इसमें मृगािजन,व्याघ्रािजन एवं तसहािजन उत्तरोत्तर श्रेष्ठ माने जाते हैं। इस
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िवषय में यजुवेद कहता है - कृ ष्णािजनं वै सुकृतस्य योिन: । अथायत् काले मृग का चमय
सभी पुण्यप का जनक है । मृग चमय का एक चमत्कारी गुण यह भी है दक यह पार्तथव
िवद्युत प्रवाह से हमारी रक्षा करता है । साथ ही उसके अंगीकृ त िविशट ऊजाय प्रवाह के
कारण सत्व गुणप का िवकास होता है । शरीर में िस्थत तमोगुणी वृित्त का अपने आप
नाश हो जाता है । आयुवद े कहता है - मृगािजन पर बैठने वाले मनुष्य को बवासीर तथा
भगंदर आदद रोगप का कट नहीं होता। िजस तरह मृगािजन से साित्वक ऊजाय की प्राप्त
होती है, उसी तरह व्याघ्रािजन एवं तसहािजन से राजस ऊजाय प्राप्त होती है। इसके
अलावा बाघ और शेर के चमय के आसपास मच्छर, िबच्छू तथा सपय आदद जहरीले प्राणी
नहीं फटकते । परं तु ये आसन शरीर में अितररि उष्णता उत्पि करते हैं। इन सभी बातप
का िवचार करने के बाद ही अपने िलए आसन का चुनाव करें । यदद दीघय काल तक
साधना करनी हो तो उपयुयि में से कोई आसन लेना जरूरी है। उसके दोष िनवारण के
िलए ऊनी वस्त्र डाल लें । यहां यह जान लेना भी आवश्यक है दक चमायसन प्राप्त के िलए
हररण आदद का िशकार न करे । सहज मृत्यु के बाद प्राप्त चमय से बना आसन ही साधक
के िलए उपयोगी िसद्ध होता है । योगशास्त्र में भी आसन को अटांगयोग का एक अंग
माना है ।
यदद चमायसन उपलब्ध न हो तो दभायसन का उपयोग करें । आसन के िवषय में वैज्ञािनक
दृिटकोण तथा एक िवशेष मुद्दा भी ध्यान में रखें - साधना करते समय शरीर में उत्पि
होने वाली अितररि ऊजाय और उष्णता का बाहर िनकलना भी आवश्यक है । इसके
अितररि पृर्थवी की उष्णता एवं ऊजाय को, अपने शरीर में संििमत नहीं होने देना
चािहए । दोनप कायय सफल हप, इस दृिट से वैसा आसन उपयोग में लाना चािहए ।
आसन के तौर पर लकडी का उपयोग करना फायदेमंद नहीं है । लकडी मंद संिामक है ।
लकडी के आसन पर बैठकर पुरश्चरण करने वाले साधक को ग्लािन आती है - यह
अनुभव की बात है । ऊनी आसन पृर्थवी की आंतररक ऊष्णता एवं ऊजाय के िलए
अिहतकर न होकर शरीर की अितररि ऊजाय तथा ऊष्णता बाहर िनकालने में सहायक
होता है। आसन चुनते समय यह ध्यान रहे दक उस पर बैठने से हमारे शरीर को कट न
हो और जमीन के ठं डे स्पशय के कारण पैरप में सूजन न आए।
वस्त्र - वस्त्र मात्र लज्जा िनवृित्त के िलए ही नहीं है, उपासना में उसका महत्व है ।
िमिलयरी में, महािवद्यालयो में, महाकाय कम्पनी-ऑगेनाझेशन्त्स में, पोिलस में िपरधान
प्रणाली एवं वस्त्रो के रं ग - ड्रेसकोड का महत्व है । सभी धमो एवं सम्प्रदायप में वस्त्र
पररधान का अगल ही महत्व है । जैन, बौद्ध, मुिस्लम, ईसाई अपने अपने सम्प्रदायप में
बताए हुए वस्त्र पररधान करके ही उपासना करते है । मात्र सनातन धमीयप को छू ट
चािहए - वे पेन्त्ट शटय पहनकर, िसए हुए वस्त्र पहनकर मंददर में चले जाते है । दिक्षण
भारत मे वैददक संस्कार आज भी िवद्यमान है । प्रायाः उत्तर एवं मध्यभारत संस्कृ ित
िवहीन होता जा रहा है । शास्त्रमत से देखे - सदोपिवतानाभाव्य सदाबद्ध िशखेन च ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िनत्य उपनयन धारण करनी चािहए, िशखा बन्त्ध होनी चािहए । जप होमोपवासेषु
धौतवस्त्र धरो भवेत् । अलंकृताः शुिचमोनी श्रद्धावान् िविजतेिन्त्दर् याः । जप, होम और
उपवास में धुले हुए वस्त्र धारण करने चािहए । स्वच्छ, मौन, श्रद्धावान और इिन्त्द्रयप को
जीत कर रहना चािहए ।
वस्त्र फट गया हो, वस्त्र को सुई से जोड़ ददया गया हो, मूषक द्वारा कु त्रा गया हो, धोबी
के यहा से धूल कर आया गया हो, ये सभी वस्त्र देव वह िपतृ कायय दोनप में वर्तजत है ।
अधौतंकारुधौतं वा परे द्यध ु ौतमेव वा । काषायंमिलनंवस्त्रं कौपीनं च पररत्यजेत् ॥
धौताधौतं तथा दग्धं सिन्त्धतं रजकाहृतम् । शुिमूत्ररििलप्तं तथािप परमं शुिच ॥
काकिवष्ठासमं ह्युिमिवधौतं च यद्भवेत् । रजकादाहृतं यङ्र न तद्वस्त्रं भवेच्छु िच ॥
कीटस्पृटं तु यद्वस्त्रं पुरीषं येन काररतम् । मूत्रं वा मैथुनं वािप तद्वस्त्रं पररवजययेत् ॥
धारयेद्वाससी शुद्धे पररधानोत्तरीयके । अिच्छिसुदशे शुक्तले आचामेत्पीठसंिस्थताः ॥
जपहोमोपचारेषु धौतवस्त्रपरो भवेत् । अलंकृताःशुिचमौनी श्राद्धादौिविजतेिन्त्द्रयाः -
विशष्ठ । एकवस्त्रातु या नारी मुिके शाव्यविस्थता । नसािधकाररणीज्ञेया श्रौतेस्माते च
कमयिण - िव.पा.।। नजीणयमलवद्वासा भवेङ्रिवभवे सित - मनु । स्वयंधौतेनकतयव्या दिया
धमयम्यािवपिश्चता । नतुमेजकदैतेन नाहतेन न कु त्रिचत् - देवलाः। नस्यूतेन नदग्धेन
पारक्तयोण िवशेषताः । मूषकोत्कीणयजीणेन कमयकुयायिद्वचक्षणाः - महाभा.। ईषद्धौतंनवश्वेतं
सदशंयिधाररतं । अहतं तिद्वजानीयात्सवयकमयसु पावनं ।।
जो वस्त्र धोया गया हो, नवीन, सफे द, दशा युि हो तथा जो पहले न पहना गया हो,
उसे अहत जानना चािहये । वह कमो में पिवत्र है । इसके आलावा पूजा एवं दैिनक वस्त्र
धारण में अधो और उध्वय धारण दकये जाने वाले वस्त्रप को पहनना वर्तजत दकया है ।
िसली िसलाई धोती ,पायजामा,पेंट, नीकर,आदद पैरप से ऊपर चढ़ा कर पहने जाते हैं।
साथ ही ग्रंिथ युि वस्त्र भी नहीं होना चािहए । धोती के नाड़े में गठान रहेगी । कु ताय,
बिनयान, कमीज , टी शटय ,उध्वय धारण वस्त्र हैं । इसिलए ये भी पूजा आदद में नहीं पहने
जा सकते । बगल बंडी, बुशटय ,ओपनशटय, कोट, जाके ट,ये उध्वय धारण वस्त्र नहीं है अताः
पूजा में पहनें जा सकते हैं । टोपी से पगड़ी भी इसी कारण से श्रेष्ठ मानी गयी है।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
शाि दशयन में छत्तीस तत्व माने गए है जो तीन वगों में िवभि है - १.िशव तत्व
२.िवद्या तत्व३.आत्म तत्व । वेदान्त्त में, स्थुल-सूक्ष्म-कारण तीन शरीर की बात है ।
१.िशव तत्व :- िशव तत्व में दो तत्वप, िशव और शिि का समावेश है।
२.िवद्या तत्व :- िवद्या तत्व में सदािशव, ईश्वर और शुद्ध िवद्या सिम्मिलत है।
३.आत्म तत्व :- आत्म तत्व में इकत्तीस तत्वप का समाहार है, िजनकी गणना इस प्रकार
मानते है- माया, कला, िवद्या, राग, काल, िनयित, पुरुष, प्रकृ ित, बुिद्ध, अहंकार, मन,
पााँच ज्ञानेंदद्रयााँ, पााँच कमेिन्त्द्रयााँ, पााँच िवषय ( शब्द, स्पशय, रूप, रस, गंध ), और पााँच
महाभूत (आकाश, वायु, अिि, जल, पृर्थवी) ।
प्राणायाम का अथय मात्र स्वाशप को िनयंित्रत करना या कम करना नहीं है, मनोिनग्रह
भी है । हठयोगप्रदीिपका में कहा गया है - चलेवाते चलंिचत्तं िनश्चलेिनश्चलं भवेत् ।
योगी स्थाणुत्वमाप्नोित ततो वायुं िनरोधयेत् ॥२॥ अथायत् प्राणप के चलायमान होने पर
िचत्त भी चलायमान हो जाता है और प्राणप के िनश्चल होने पर मन भी स्वत: िनश्चल हो
जाता है और योगी स्थाणु हो जाता है । अताः योगी को श्वांसप का िनयंत्रण करना
चािहये।यह भी कहा गया है - यावद्वायुाः िस्थतो देहे तावज्जीवनमुच्यते । मरणं तस्य
िनष्िािन्त्ताः ततो वायुं िनरोधयेत् ॥ जब तक शरीर में वायु है, तब तक जीवन है । वायु
का िनष्िमण (िनकलना) ही मरण है । अताः वायु का िनरोध करना चािहए । मनोलये
सवय लयं याित - इिन्त्द्रयाणां मनोनाथो मनोनाथस्तु मारुत:। मारुतस्य लयो नाथ: स
लयो नादमािश्रत: - हठयोग प्रददिपका । मन में अगाध शिि है, मन के िनयंत्रण-नरोध
से अपररिमत शिि िमलती है, दकन्त्तु मन को िनयंित्रत करना अित दुष्कर है । योग
शास्त्र कहता है दक यत्र यत्र प्राणास्तत्र तत्र मनाः - मन व प्राण की गित
परस्परावलिम्बत है, यथा एक के िनयंत्रण से दुसरे का िनयंत्रण करना सुलभ हो जाता
है। जैस,े दकसीका एक पग बंधा हो तो दूसरा पांव स्वताः िनयंित्रत हो जाता है ।
प्राणस्य आयाम: इत प्राणायाम । सित श्वासप्रश्वासयो गितिवच्छेद: प्राणायाम -
यो.सू.२.४९ । अताः प्राण की स्वाभािवक गित - श्वास-प्रश्वास को िनयंित्रत करनेको
कहते है प्राणायाम । द्न्त्तध्े मायमानानां धातूनां च यथामलााः । तथेिन्त्द्रयाणां द्न्त्ते
दोषााःप्राणस्य िनग्रहात् - मनु.। जैसे अिि में तपाने से सुवणायदद धातुओं के मल नट
होकर शुद्ध होते हैं, वैसे प्राणायाम करनेपर, मन आदद इिन्त्द्रयप के दोष क्षीण होकर
िनमयल हो जाते हैं । प्रच्छदयन िवधारणा्यां वा प्राणस्य - योगसूत्र । जैसे अत्यन्त्त वेग से
वमन होकर अि-जल बाहर िनकल जाता है, वैसे देहस्थ दोषपको प्राणायाम बलात्
बहार फें क देता है ।
जीव को ब्रह्म से जोडने की दिया को योग कहते है । श्वास बनके अंदर गया वायु,
उच््वास बनकर बहार िनकलता हैं - यथा आंतरमन या अध्यात्म को बा् जगत
अिधभूत एवं अिधदैव का सेतु है । प्राणो वै बलम् प्राण ही बल है - प्राणस्येदं वशे सवां
पृिथवी - प्राण पर िनयंत्रण करके समस्त िवश्व पर िनयंत्रण कर सकते है, यहीं है प्राण
की शिि । मोक्षेण योजनादेव योगीहात्र िनरूच्यते - तंत्र । जैन - हररभद्रसूररजी -
मुक्तखेण जोयणाओ जोगो - जोडने को योग कहा है । बौद्ध एवं जैन धमय में भी प्राणायाम
के महत्त्व का वणयन है ।
प्राणायाम की िविध एवं िविनयोग इस प्रकार है - योग िवज्ञान है, इससे सदैव लाभ ही
होगा यह मानना िमर्थया हैं । िशिबर में आठ-दस हजार लोगप को, दो दो हजार रूपये
लेकर, िशिबर करनेवाले गुरूओं को भी योग की यह बात स्वीकारनी पडेगी । योगी के
आसन का आधार का चतुष्कोण है, िजसमें चाररत्र्य, िशक्षा, अपररग्रिहता एवं करूणा
का स्थान होता है । अनुिचत योग या प्राणायाम पतनकारक बनता है - प्राणायामेन
युिेन सवयरोगक्षयो भवेत् । अयुिा्यासयोगेन सवयरोगसमुद्भवाः ।। िहक्का श्वासश्च
कासश्च िशराः कणायिभवेदनााः। भविन्त्त िविवधा रोगााः प्राणायाम व्यितिमात् ।। अताः
शास्त्रोि मागेण प्राणायामं सम्यसेत् - मं.कौ.१५९-१६०-१६१।।
ॎकारस्य ब्रह्मऋिषदेवोऽििस्तस्य कर्थयते । गायत्री च भवेच्छन्त्दो िनयोगाःसवयकमयसु ।।
ित्रमात्रस्तु प्रयोिव्याः प्रारम्भे सवयकमयसु । व्याहृितनां च सवायसामृिषश्चैव प्रजापिताः ।।
गायत्र्युिष्णगनुटप्च बृहतीित्रटु बेवच । पिगिश्च जगती चैव छन्त्दांस्येतािन सप्तवै ।।
अििवाययुस्तथा सूयो बृहस्पितरपाम्पिताः । इन्त्द्रश्च िवश्वेदव े ाश्च देवतााः समुदाहृतााः ।।
प्रास्यायमने चैव िविनयोग उदाहृताः । िवश्वािमत्र ऋिषश्चन्त्दो गायत्रीसिवता तथा ।।
प्राणायाम िविध -
इडया कषययद्व े ायुं बा्ं षोडशमात्रया । धारयेत्पुररतं योगी चतुाःषष्ट्णा तु मात्रया ।।
सुषम्ु मामध्यगं सम्यक्तद्वातत्रशन्त्मात्रया शनैाः। नायािपगगलया चैनं रेचयेद्योगिवग्रहाः।।
इडया कषययद्व े ायुं बा्ं षोडशमात्रया । धारयेत्पुररतं योगी चतुाःषष्ट्णा तु मात्रया ।।
सुषम्ु मामध्यगं सम्यक्तद्वातत्रशन्त्मात्रया शनैाः। नायािपगगलया चैनं रेचयेद्योगिवग्रहाः।।
रे चकदृटन्त्यायेनात्राप तथात्वात् । िनमेषोन्त्मष े णं मात्राकालस्तु र्व्द्यक्षरस्तथा ।।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
श्वास अन्त्दर लेने को कहते है रे चक, रोकने को कहते है कु म्भक, िनश्वास को करते है
रे चक इनका प्रमाण २-८-४ है । इट मन्त्त्र को २ बार स्मरण पूवकय श्वास लेना है, ८ बार
स्मरण करते हुए रोकना है और ४ बार स्मरण करते हुए िनकालना है । जहां से श्वास
िलया है, उनसे िवपररत करनेसे (अनुलोम-िवलोम) एक प्राणायाम बनता है । ऐसे कम
से कम तीन प्राणायाम करना चािहए । प्राणायाम के समय िनम्नानुसार भावना हृदयमें
रखनी चािहए - तेजोिबन्त्द ु उपिनषद एवं अपरोक्षानुभूित के अनुसार(११६-१२०)
यथाथय अनुभूित -
पूरा ब्रह्माण्ड ददव्य चेतना से भरा है - सवयत्र सकारात्म ऊजाय व्याप्त है । काल के प्रत्येक
क्षण में एवं स्थल के प्रत्येक कण में ईश्वरीय चेतना है । जब हम श्वास लेते है तो ईश्वरीय
ऊजाय को अन्त्दर लेते है, दफर उस प्राप्त चेतना को रोककर, शीषय से पादान्त्त रोम-रोम में
प्रसाररत करते है और जब श्वास (उच््वास) बहार नीकालते है तो, देहान्त्तगयत समस्त
दोष, व्यािध, नकारात्मकता को बहार िनकालते है । ऐसी भावना से जो करते है वही
सही प्राणायाम है, अन्त्यथा मात्र नाक को पीडा देना ही है । प्राणायाम के उपरान्त्त
माता-िपता-गुरू को वन्त्दन करना चािहए । अन्त्यत्र ध्यानम् -
आजकल तो, बडे शहरप में, आयेददन, ित्रददवसीय िशिबर, राजयोग िशिबर, ज्ञानयज्ञादद
के पोस्टर लगे रहते है, ओर एिक्तजबीशन कम सेल मे लोग बेचारे ठगे जाते है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अवश्यंतािन्त्त्रकं कालमुल्ल्खेतन्त्यथािशवे । बिहमुयखंतुतत्कमयभवेद्भस्महुतंयथा- यामले ।।
भीषास्माद्वाताः पवते भीषोदेित सूयाःय । भीषास्मादििश्चेन्त्द्रश्च मृत्युधायवित पञ्चमाः (तै.
उप.२.८.१) इत्याददका । सकलेतर िनरपेक्षस्य भगवताः संकल्पात्सवेषां िस्थिताः प्रवृित्ताः
च उिााः तथा तत्संकल्पादेव सवेषामुत्पित्तप्रलयौ अिप । सगयाः संकल्पमात्रेण -
संकल्पमात्रिमदमुत्सृज । संकल्प मात्र कलनेन जगत्समग्रं, संकल्प मात्र कलने िह
जगिद्वलासाः । आकू तत देवीं सुभगां पुरो दधे िचत्तस्य माता सुहवा नो अस्तु ।
यामाशामेिम के वली सा मे अस्तु िवदेयमेनां मनिस प्रिवटाम् अथ.९.४.२ ।। दकसी कायय
िसिद्ध के िलए संकल्पशिि अग्रस्थान में है, इसके िबना कायय असम्भव है, वह िचत्त का
िनमायण करके , उसकी काययक्षमता, श्रद्धा बढाकर कामना िसिद्ध प्रदान करती हैं ।
ब्रह्मा जी ने सृिट रचने का दृढ़ संकल्प दकया और उनके मन से मरीिच, नेत्रप से अित्र,
मुख से अंिगरा, कान से, पुलस्त्य, नािभ से पुलह, हाथ से कृ तु, त्वचा से भृग,ु प्राण से
विशष्ठ, अाँगठ
ू े से दक्ष तथा गोद से नारद उत्पि हुये। इतनी रचना करने के बाद भी ब्रह्मा
जी ने यह िवचार करके दक मेरी सृिट में वृिद्ध नहीं हो रही है अपने शरीर को दो भागप
में बांट िलया िजनके नाम ‘का’ और ‘या’ (काया) हुये । उन्त्हीं दो भागप में से एक से
पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पित्त हुई । पुरुष का नाम स्वयम्भुव मनु और स्त्री का नाम
शतरूपा था । ऐसी पुराणप में संकल्प शिि की अनेक कथाए हैं । यह पूरा ब्रह्माण्ड,
परमात्मा का ही िचिद्वलास है, संकल्प मात्र से उत्पि हुआ है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
सवयव्रतेष्वयं धमयाः सामान्त्यो दशधा स्मृताः।। संकल्पपूवक
य दकए गए कमय को व्रत कहते हैं ।
आचारव्यवहार का शास्त्रानुसार िवधान (अिि पुराण-१७५.११)
संकल्प का प्रथम अंग है देश । संकल्प में सवय प्रथम हम बोलते है देश - अिस्मन्त्महित
ब्रह्माण्डे.. भारतवषे, जम्बुिद्वपे.. अरण्ये.. ग्रामे इत्यादद । क्तयपदक देश का महत्व है । देश
बदल जाने से काल भी बदल जाता है । देश बदलता रहता है । १९४० में लाहोर में या
करांची में दकया कायय भारत में दकया माना जाता था, दकन्त्तु आज वहीं दकया गया कायय
पादकस्तान का होगा । दोनप का आिधपत्य, धमायम्नाय भी िभि-िभि हैं ।
दुसरा अंग है काल, काल के िवषय में भी शास्त्रोिि है । भारत में यदद संकल्प प्राताः ९
बजे करते है तो, साउदी अरे िबया में प्राताः ६.३० बजे होते है । िब्रटन या अमेररका में
हो सकता है ददन, ताररख ऐवं ितिथ भी अलग हो । यदद काल का िवचार न करे तो,
कोई व्यिि गुना करके परदेश चला जाए तो, वह व्यिि वही दीन या वही कालमें
अन्त्यदेश में हो जाएगा - िनदोष छू ट जाएगा । इसिलए प्रत्येक देश का िनयत काल
स्टान्त्डडय टाईम िभि-िभि होता हैं ।
तृतीय अंग है साधक । साधक अपने व्यिित्व, कु ल, गौत्र से सभान होना चािहए ।
जबतक स्वयं की पूणय जानकारी नही होती या स्वयं िवषये िनिश्चत नहीं होता, उसका
अन्त्य प्राप्य या प्रािप्त का कोई अथय नहीं रहता । अपना गोत्र, वेद, शाखा, प्रवरादद के
िवषय में तो सवय प्रथम ज्ञान होना चािहए । अपने बङ्रे को भी हम सवय प्रथम अपना
नाम, माता िपता का नाम, िनवास का स्थल पहले िसखाते है । अन्त्यथा कु म्भ के मेले में
गया ता वापस िमलना असंभव । कताय को स्वयं का पता होना आवश्यक होता है ।
चौथा अंग है साध्य । हमारा लक्ष्य सुिनश्चत होना चािहए । शरसंधान से पूवय िनशाना
होना चािहए - ध्येय की पूविय नधायरणा आवश्यक होती है । मैं ने एक दशमी कक्षा के
िवद्याथी को पूछा - दकतने माक्य स(नंबर) लाओगे - क्तया बनना है । वह बोला, पता नहीं
ज्यादा से ज्यादा नंबर लाने है । मैने उसे सलाह ददया दक, घरसे िनकलो तो िनिश्चत
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
करना पडता है दक हम कहां और क्तयप जाते है । बंदक ू की गोली छोडने से पूवय िनशाना
होना चािहए । हमारी उपासना का उद्देश्य क्तया है, मात्र ईश्वरानुभूित भी हो सकता है,
या िनष्काम भी हो सकता है, यद्यिप संकल्प जरूरी है ।
पंचम अंग है साधन । हमारा साध्य िनश्चत है, दकन्त्तु हमारे पास उसकी प्रािप्त के साधन
क्तया है और वे पयायप्त है या नहीं । जेब में ५० रूपये लेकर, मोबाईल खरीदने िनकलो
तो, आपका साध्य प्रािप्त अयोग्य है । साध्य के संदभय में पयायप्त साधन का िवचार भी हम
संकल्प में करते है । वैसे तो लोग, नमाःिशवाय की एक माला फे र कर भगवान से मांगते
है, मेरे घर पुत्रपौत्रादद हो, सुख सम्पित्त हो, वाहन-मकानादद का सुख हो, और क्तया
क्तया मांग लेते है । भाई आप पाटय टाईम टाईपीस्ट की नौकरी करके ५ लाख की पगार
मांगो तो, मेरे िहसाब से मूखत य ा ही है । गंतव्य तक दकसमें जाएंगे यह साधन है ।
हमे यदद कहीं जाना हो तो, सवय प्रथम हम कहां है, उसका पता हमें होना चािहए । दफर
जहां जाना हो वह गन्त्तव्य का पता होना चािहए । दफर साधन-माध्यम, आप कै से जाना
चाहते है, कार से या रेन से, िवमान से या नौका से, वो भी नक्की करना पडता है ।
गंतव्य पर प्रािप्त के समय पर साधन का आधार होता है । आपको अहमदाबाद से तीन
घण्टे में ही मुब
ं ई जाना हो, तो िवमान ही चािहए, रेन नहीं चलेगी । काम्य प्रयोग में
इसका महत्व बनता है, नेतालोग इलेक्तशन के समय अनुष्ठान कराते है, पंद्रह ददनमें कायय
िसिद्ध करनी होती है, अनुष्ठान की जप संख्या यदद पंचलक्ष है तो, इसके िहसाब से
ब्राह्मणप को िनयुि करना पडेगा । आपको यदद नई ऑफस दो ददन में चालू करना हो,
तो इस िहसाब से कारीगरप को काम मे लगाना पडेगा ।
हम कोई अज्ञात िवस्तार में फं स गए है और अपने िमत्र को फोन करते है दक, वो आपको
लेने आए, तो वह पहले पूछेगा दक आप कहां खडे है । आपको अपना, आप कहां खडे है,
कहां जाना हैं, यह िनणयय करनेको संकल्प करते है ।
संकल्प में पंचाग का स्मरण करते है - पञ्चागगस्यफलं श्रुत्वा गगगास्नान फलं लभेत् ।।
ितिथवायरो तथा िवष्णु, नक्षत्रं िवष्णुमव े च । योगश्च करणञ्चैव सवां िवष्णुमयं जगत् ।।
ितिथवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च । यत्रैतत्पञ्चकं स्पटं पञ्चांगगं तििगद्यते।।
जानाितकाले पञ्चागगंतस्यपापं न िवद्यते । ितथेस्तुिश्रयमाप्नोित वारादायुष्यवधयनम्।।
नक्षत्राद्धरते पापं योगाद्रोगिनवारणम् । करणात्काययिसिद्ध:स्यात्पञ्चागगफलमुच्यते।।
मासपक्षितथीनाञ्च िनिमत्तानांचसवयशाः। उल्लेखनमकु वायणो न तस्यफलभाग्भवेत् ।।
देवल । पूवय संकल्प करनेसे काययमें आनेवाले आशौचादद दोष की िनवृित्त होती है ।
महर्तषअित्र - पूवस य क
ं िल्पताथयस्य न दोषश्चाित्ररब्रवीत् । किल्पतं िसद्धमिाद्यं
नाशौचंमत ृ सूतके ।। यज्ञेप्रवतयमाने तु जायेताथिम्रयेत वा । पूवस य क
ं िल्पते काये न
दोषस्तत्रिवद्यते ।। दक्षस्मृित ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
तैितरीय ब्राह्मण का यह वचन िवशेष उल्लेखनीय है दक अनृतख े सुवदै ियमाणे वरूणप
गृहयाित अप्सुवे वरण:, यदद संकल्प सत्य न हो तो उस कमय का फल वरूण हरण करता
है, अथायत् वह कमय व्यथय हो जाता है । संकल्प के िनिमत्त जो पानी छोडा जाता है, उसे
उदक कहते हैं । उदक के िबना दकया हुआ संकल्प सवयथव ै व्यथय होता है, ऐसा शास्त्र
संकेत है । कु छ अवसरप पर संकल्प आवश्यक होता है परं तु, यदद जल िमलना असंभव
हो तो नाररयल या सुपारी पर हाथ रखकर अथवा तुलसी िबल्वपत्र हाथ में लेकर
संकल्प दकया जा सकता है । यदद वह भी संभव न हो, तो के वल मानिसक संकल्प करके
बाद में यथावकाश िविधवत संकल्प करें । यदद िविधवत संकल्प नहीं कर सकते तो कमय
का स्वरूप, देवता एवं कालाविध आदद का उङ्रारण अपनी मातृभाषा में करके पानी
छोडना भी पयायप्त होता है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
आईटी क्षेत्र में मेरा ३० से भी ज्यादा वषों का अनुभव रहा है । संकल्प एवं िविनयोग
को समझने के िलए उदाहरण का उपयोग करते है - आईटी में, ग्लोबल स्टोरे ज या
क्तलाउड स्टोरे ज को, आज प्रायाः सब जानते हैं - प्रचिलत है । आप जानते है, उसमें कै से
डेटा स्टोर होता है और कै से रीराईव (नीकलता) होता है - उस मास स्टोरेज में ह्यूज
(बहोत) डेटा होता है, दफर भी उसमें से आपका ईिच्छच डेटा नीकलता है । प्रत्येक डेटा-
फाईल के आगे एक दफिजकल-लॉिजकल एड्रेस टेग, एमएसी, फाईल टाईप (डेटा दकसमें
खूलग े ा) इत्यादद होता है, िजससे डेटा की िबलपगींग-प्रोप्राईटरी-टाईप आदद िनश्चत
होता है, बस ऐसा ही होता है संकल्प एवं िविनयोग से - संकल्प से डेटा की प्रोप्राईटरी,
जैसे की दकसने, कहां से, दकस उद्देश्य से उपासना की है तथा िविनयोग से मंत्रकी जाित,
ऋिष, छन्त्द (फाईलटाईप) िनिश्चत होती हैं । पूरे ब्रह्माण्ड की प्रत्येक क्षण की, पूणय
ईमेज ब्रह्माण्ड में होती है । यह कायय िचत्रगुप्तादद करते है ।
छन्त्दांिस जिज्ञरे - वैददक छन्त्द के िवषयमें अित महत्व रखता है उङ्रारण । भगवान
पािणनी ने भी वेदप को नमस्कार दकया - आषयत्वात् साधु । यहां कहनेका तात्पयय यह है
दक, वेदमन्त्त्रप का पठन वेदशाखा के िहसाब से करना चािहए । आजकल गीत-संगीतमय
कै सेट िमलती है, उससे कोई लाभ नहीं होता, उसको मन्त्त्रजप मान ही नहीं सकते, आगे
(उङ्रारण में) उसकी चचाय हो चूकी है । िभि-िभि छन्त्दो के उपरान्त्त सामगान, यजुवद े
का वेदघोष, ऋग्वेद की ऋचा को बोलने की पद्धित गुरूगम्य है, उसे गुरूपसदन होकर
पढना पडता है । उनकी स्वर व्यवस्था एवं उङ्रारण िवधान पूणयतया िवज्ञानमय है ।
इसिलए कहा है छन्त्दिस बहुलाम् - इस बहुलम् शब्द की िवशेषता आचायों के शब्दप में
इस प्रकार है - क्विचत्प्रवृित्ताः क्विचत्भाषाक्विचदन्त्यमेव । िवधेर्तविवधानं बहुधासमीक्ष्य
चतुर्तवधंबाहुलकं वदिन्त्त । वैददक मंत्रप में प्रयुि छंद कई प्रकारके हैं, िजनमें मुख्य हैं -
गायत्री - सबसे प्रिसद्ध छंद । आठ वणों (मात्राओं) के तीन पाद। गीता(११) में भी इसके
सवोत्तम बताया गया है । ित्रटु प - ११ वणों के चार पाद - कु ल ४४ वणय । अनुटुप - ८
वणों के चार पाद, कु ल ३२ वणय । वाल्मीदक रामायण तथा गीता जैसे ग्रंथप में जो है ।
इसी को श्लोक हैं । जगती - ८ वणों के ६ पाद, कु ल ४८ वणय । बृहती- ८ वणों के ४ पाद
कु ल ३२ वणय । पंिि- ४ या ५ पाद कु ल ४० अक्षर २ पाद के बाद िवराम होता है पादप
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
में अक्षरप की संख्याभेद से इसके कई भेद हैं । उिष्णक- इसमें कु ल २८ वणय होते हैं तथा
कु ल ३ पाद होते हैं २ में आठ आठ वणय तथा तीसरे में १२ वणय होते हैं दो पद के बाद
िवराम होता है बढे हुए अक्षरप के कारन इसके कई भेद होते हैं । वणो के न्त्यूनािधक से
नीचृद-् बृहती बनते है । छन्त्द के िलए अििपुराण अ.३२९ िनम्नानुसार बताया है -
छन्त्द गायत्री उिष्णक अनुटुप् बृहती पिगि ित्रटु प् जगती
आषी २४ २८ ३२ ३६ ४० ४४ ४८
दैवी १ २ ३ ४ ५ ६ ७
आसुरी १५ १४ १३ १२ ११ १० ९
प्राजापत्या ८ १२ १६ २० २४ २८ ३२
याजुषी ६ ७ ८ ९ १० ११ १२
साम्नी १२ १४ १६ १८ २० २२ २४
आची १८ २१ २४ २७ ३० ३३ ३६
ब्राह्मी ३६ ४२ ४८ ५४ ६० ६६ ७२
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
एक अित महत्व की बात करते है - अििवायग् भूत्वा मुखं प्रािवशद्वायुाः प्राणो भूत्वा
नािसके प्रािवशत् आददत्यश्चक्षुभूयत्वाऽिक्षणी प्रािवशदद्दशाः श्रोत्रं भूत्वा कणौ प्रािवशन्...
चन्त्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्रािवशत् -ऐत. ब्रा.२.४.२। स ईभतेमे नु लोकालोकपािु सृजा
इित सोऽद्भ्य एव पुरुषं समुद्धृत्यामूछययत् । तम्यतपत्तस्यािभतप्तस्य मुखिं नरिभद्यत
यथाण्डं मुखाद्वाग्वाचोऽििनायिसके िनरिभद्येतां नािसका्यां प्राणाः प्राणाद्वायुरिक्षणी
इमिभद्येतामिक्ष्यां चक्षुश्चक्षुष आददत्याः कणौ िनरिभद्येतां कणाय्यां श्रोत्रं
श्रोत्रादद्दशस्त्विगनरिभद्यत त्वचो लोमािन लोम्य ओषिधवनस्पतयो हृदयं
िनरिभद्यतहृदयान्त्मनो मनसश्चन्त्द्रमा नािभर्तनरिभद्यत ना्या अपानोऽपानान्त्मत्ृ युाः िशश्नं
िनरिभद्यत िशश्नाद्रेतो रे तस आपाः - ऐते प्र.खं.१.१-४।। ता एता देवता सृटा
अिस्मन्त्महत्यणयवे प्रापतंस्तमशनायािपपासा्यामन्त्ववाजयत् ता एनमब्रुविायतनं नाः
प्राजानीिह यिस्मन्त्प्रितिष्ठता अिमदामेित - ऐते.िद्व.िद्व.शं १।। ब्राह्मण ग्रंथो में कहा है
दक, परमात्मा ने देवताओं को उत्पि दकया और उनके आश्रय के िलए शरीर बनाया,
िजसमें उन्त्हें उन इिन्त्द्रयप के अिभमानी देवता बनाकर िस्थर दकया । ता्याः
पुरूषमामयत्ता अब्रुवन्त्सक ु ृ तं वतेते पुरूषो वाव सुकृतम् । ता अब्रवीद्यथाऽयतनं प्रिवशतेते
- एत.१.२.३ परमात्माने देवताओं के िलए मानव शरीर उपिस्थत दकया और देवता
इसमें प्रिवट हो गए । अिि ने वाक् बनकर मुख में प्रवेश दकया । नाक में होकर वायु
देवता-प्रिवट हुए । सूयय ने नेत्रप में िनवास दकया । ददग्पाल कानप में प्रवेश कर गये ।
चन्त्द्रमा मन बनकर हृदय में समाया । यदद हम देव, वेद मन्त्त्र, वाक् , जप, स्वर के
ताित्वक स्वरूप को समझ सके तो िनस्सन्त्देह मन्त्त्रशिि के अद्भुत चमत्कार मूर्ततमान
होकर सामने खड़े हो सकते हैं । जब हमारे में देहासिि, भौितकता बढती है तो, आसुरी
शिियां िहतशत्रु बनकर संग्राम करनेको उद्यत होती हैं । मन में तामिसक व आसुरी
शिियप का उपद्रव बढता हैं, तब दैवीशिियप का ह्रास होता है, िनबयल होने लगती है,
क्तयपदक उनका आहार हव्य है, जो यज्ञ, उपासना से पुिट िमलती है, उनका बल कम
होता जाता है, देवताओं का बल क्षीण होता जाता है । जो पदाथय देवताओं के िलए
उपयुि होते है, उसे हव्य कहते है, िपतृओं के िलए उपयुि होते है, उसे कव्य कहते है ।
हव्य न िमलने से देवप का बल क्षीण होता है और वे असुरप से पराश्त होते है । इसीका
उल्लेख अन्त्य पुराणप एवं दुगाय सप्तशती में भी है । दुगायसप्तशती में कथा इस प्रकार है -
एतेषां ज्ञानेिन्त्द्रयादीनामिधपतयो ददगादयाः । ददग्वाताकय प्रचेतोऽिश्ववन्त्हींद्रोपेन्त्द्रिमत्रका ।
तथा चन्त्द्रश्चतुवयक्तत्रो रूद्राःक्षेत्रज्ञ ईश्वराः ।। िमेण देवतााः प्रोिााः श्रोत्रादीनां यथािमात् ।।
िजत्वा च सकलान्त्देवािनद्राऽभूमिहषासुराः । अन्त्यष े ां तािधकारान् स स्वयमेवािधितष्ठित ।
स्वगायििराकृ ता: सवे तेन देवगणा भुिव । िवचरिन्त्त यथा मत्याय मिहषेण दुरात्मना ॥७॥
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ततो हाहाकृ तं सवां दैत्यसैन्त्यं ननाश तत् । प्रहषां च परं जग्मुाः सकला देवतागणााः ॥ ४३॥
तुटुवस्ु तां सुरा देवीं सहददव्यैमहय र्तषिभाः । जगुगन्त्य धवयपतयो ननृतश्च
ु ाप्सरोगणााः ॥ अथायत्
आसुरी शिियपने देवताओं को पराश्त दकया, इन्त्द्रादद देवताओं के अिधकारप को स्वयं
भोगने लगा । परास्त देवता स्वगय से िनकाले गए, जो पृर्थवीपर बलहीन होकर िवचरण
करने लगे । हमारे इिन्त्द्रयप के देवता भी जब भोगासिि एवं देहासिि से परास्त होते है,
तब मन्त्त्ररूपी महाशिि से उन्त्हे शििमान करना होता है । न्त्यास के द्वारा देवताओं की
शिि पुनाःस्थािपत कर सकते है ।
न्त्यास िवषये आगे िवचार करते है । न्त्यास के कई प्रकार है, जैसे ऋष्यादद न्त्यास, करादद
न्त्यास, हृदयादद(षडंग) न्त्यास, गोलकन्त्यास, एकादश न्त्यास, षोढान्त्यास, मातृका न्त्यास,
पीठन्त्यास इत्यादद ।
ज्ञानाणयवतन्त्त्रम् में कहा गया है - हृदयं च िशरो दिव ! िशखां च कवचं तताः। नेत्रमस्त्रं
न्त्यसेत् ङे ऽन्त्त,ं नमाः स्वाहा िमेण तु ।। वषट् हुं वौषडन्त्तं च, फडन्त्तं योजयेत् िप्रये !
षडगगोऽयं मातृकायााः, सवयपाप हराः स्मृताः।। षडगगन्त्यास के करने में इट-मन्त्त्र-बीज को
ही छाः दीघयस्वरप से युि करके , तत्तद् अंगप में प्रितष्ठा करने की भावना की जाती है।
कु छ मन्त्त्रप के षडंगन्त्यास में उनसे सम्बिन्त्धत िविशट देवतात्मक पदप की योजना करने
की िविध भी िमलती है। हालांदक सबका उद्देश्य (लक्ष्य) मात्र एक ही है - देवमय होने
का प्रयास।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पञ्चभूतांगदेवानां न्त्यसनान्त्यास उच्यते - पृर्थवी, जल, अिि, वायु और आकाशादद
पंचमहाभूतासृत देवप की स्थापना करने से ही न्त्यास की दिया सम्पि होती है।चैतन्त्यं
सवयभूतानां शब्दब्रह्मेित मे मिताः । तत्प्राप्य कु ण्डीलीरुपं,प्रािणनां देह-मध्यगं ।
वणायत्मनाऽऽिवभयवित,गद्य-पद्यादद भेदताः।। सभी भूतप का चैतन्त्य रुप शब्दब्रह्म ही है।
वही कु ण्डिलनी रुप में समस्त प्रािणयप में िस्थत है, जो वणायत्मा द्वारा गद्य-पद्य
रुपात्मक व्यि होता है।
मुद्रा के िवषय में शास्त्र क्तया कहते है - भगवित लिलता को जो आनिन्त्दत कर दे वही
मुद्रा है । योिगनीहृदय में - श्रुणदु ेवी प्र्यािम मुद्रााःसवायथिय सिद्धदााः। यािभर्तवरतािभस्तु
सम्मुखा ित्रपुरा भवेत् ।। भगवित को प्रत्यक्ष करानेवाली बताया है । मोचयिन्त्त
प्रहादद्याः पापौघं द्रावयिन्त्त च । मोचनं द्रावणं यस्मान्त्मद्र ु ास्तााः शियोाः मतााः। उसे
पापो का मोचन करनेवाली शिि कहा है । मन्त्त्र वै ज्ञानशििश्च मुद्रा तैव दियाित्मका ।
स्वतंत्र तंत्र में कहा है परमात्मनोाः दियाशिि । मुद्रया तु तया देवी आत्ममा वै
मुदद्रतो यदा । तदा चौध्वां त िवसरेद्वाधानैनोध्वयताः िमात् - नेत्रतंत्र ७.३३।
स्वात्मस्वरूपािभव्यिि के तीन साधन है मन्त्त्र, ध्यान, मुद्रा । शैवशाि परम्परा में मुद्रा
का अथय है शिि । आनन्त्दोल्लास श्रीाःक्षुल्लदकताटमहािसिद्धसौभाग्या । दृश्यते यत्र
दशायां सैव दवस्य सवयमुद्रा - महेश्वरानन्त्द कृ त पररमल ।। योग प्रचिलत महािसिद्धयप
को भी छोडकर ऐश्वययरूिपणी, परमात्मा को उत्सािहत करनेवाली श्री – परमाह्राददनी
शिि जो स्वानुभूितरूपेण प्रकािशत होती है – वही परमात्मा की पूजा की मुद्रा है ।
मुदस्वरूपलाभाख्यं देहद्वारे णचात्मनाम् । रात्पययित यत्तेन मुद्रा शास्त्रेषु वर्तणता ।।
देवीयामल में उसे मात्र कमयकाण्डीय न मानकर उसके ताित्वक स्वरूप पर कहा है दक,
मुद्रा देह द्वारा स्वात्मस्वरूपोन्त्ममीलन – स्वरूपालाभ कराकर आनन्त्द प्रदान
करानेवाली दिया है । िचदात्मिभत्तौ िवश्वस्य प्रकाशामशयने यदा । करोित स्वेच्छापूणाय
िविचकीषायसमिन्त्वता ।। दियाशििस्तु िवश्वस्य मोदनाद्द्रावणात्तथा । मुद्राख्या सा यदा
संिवदिम्बका िवकलामयी - योिगनी हृदय । मुद्रा ईश्वर को प्रसि करनेवाली िवश्व की
दिया शिि है ।
इस्लाम धमय में, आपने नमाज़ी भाईयप को देखा होगा, नमाज़ के दरम्यान हाथ मुह ं पर
फे रते है, मुख ददशाओं में गुमाते हैं, ईसाई लोग भी अपने स्कं ध एवं हृदय पर िोस
बनाते है, यह प्रकारान्त्तरे ण मुद्रा ही है ।
137
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अन्त्य तकय ऐसे भी है - षट्शतािन ददवारात्रौ सहस्राण्येकं िवशांित। एतत् संख्यािन्त्ततं मंत्रं
जीवो जपित सवयदा।।माला के दानप की संख्या १०८ संपूणय ब्रह्मांड का प्रितिनिधत्व
करती है।माला में दानप की संख्या १०८ होती है। शास्त्रप में इस संख्या १०८ का
अत्यिधक महत्व होता है । माला में १०८ ही दाने क्तयप होते हैं, इसके पीछे कई धार्तमक,
ज्योतिषक और वैज्ञािनक मान्त्यताएं हैं । सूयय की एक-एक कला का प्रतीक होता है माला
का एक-एक दाना । एक मान्त्यता के अनुसार माला के १०८ दाने और सूयय की कलाओं
का गहरा संबंध है। एक वषय में सूयय २१६००० कलाएं बदलता है और वषय में दो बार
अपनी िस्थित भी बदलता है । छह माह उत्तरायण रहता है और छह माह दिक्षणायन ।
अत: सूयय छह माह की एक िस्थित में १०८००० बार कलाएं बदलता है। पृर्थवी भी २४
घण्टे मे २१६०० कला व्यितत करती है । इस अधय दीनमान १०८०० होता है । उसका
शतांश आत्मपुिट में उपयोग करने का अथय है १०८ संख्या जप । ज्योितष के अनुसार
ब्रह्मांड को १२ भागप में िवभािजत दकया गया है। इन १२ भागप के नाम मेष, वृष,
िमथुन, ककय , तसह, कन्त्या, तुला, वृिश्चक, धनु, मकर, कुं भ और मीन हैं। इन १२ रािशयप
में नौ ग्रह सूय,य चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुि, शिन, राहु और के तु िवचरण करते हैं। अत:
ग्रहप की संख्या ९ का गुणा दकया जाए रािशयप की संख्या १२ में तो संख्या १०८ प्राप्त
हो जाती है । एक अन्त्य मान्त्यता के अनुसार ऋिषयप ने में माला में १०८ दाने रखने के
पीछे ज्योितषी कारण बताया है। ज्योितष शास्त्र के अनुसार कु ल २७ नक्षत्र बताए गए
हैं । हर नक्षत्र के ४ चरण होते हैं और २७ नक्षत्रप के कु ल चरण १०८ ही होते हैं। माला
का एक-एक दाना नक्षत्र के एक-एक चरण का प्रितिनिधत्व करता है ।
जप संख्या - जाप संख्या िनिशत है, उसे तो करना ही पडेगा उसको करने के बाद ही
िसिद्ध िमलती हैउसका िवज्ञान यह है की हमारे शरीर में कु ल १०८ शिि कें द्र है ।
इसका रहस्य गुरुगम्य है । प्रत्येक के एक अिधस्थाता देव और देवी है । माला में जो
सुमेरू होता है, उसको छोडकर जप दकया जाता है । मेरुहीना च या माला मेरु-लगघा
च या भवेत् । अशुद्धप्रितकाशा च सामाला िनष्फला भवेत् - मुण्डमालातन्त्त्र ।
मेरूंत्यक्तत्वा हट्ररभजेत् । इसे िशवजी की जटा भी मानते है, यथा उसका उल्लंघन नहीं
दकया जाता ।
जैन मत से - बारह गुण अरहंता, िसद्ध अट्ठे व सूरर छत्तीसं । उज्झाया पणवीसं, साहु
सत्रवीस अट्ठसयं - अथायत् अहयत् के बारह गुण, िसद्धो के आठ गुण, आचायों के छत्तीस
गुण, उपाध्यायप के पङ्रीस गुण एवं साधुओं के सत्ताईस गुण सवय िमलाकर पंच परमेष्ठी
के १०८ गुण होते है, इसी प्रकार नवकरवाली (माला) के भी १०८ मनके दाने होती हैं ।
139
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
माला सर्व्वोत्कृ टा च सा मता । महाशगखमयी माला वाितिछताथयफलप्रदा।
उडु म्बरफलस्याथसूक्ष्मस्याथ कृ ता मता । योिगनीतन्त्त्रे पूवयखण्डेिद्वतीय पटले । ईश्वर
उवाच। वणयमाला शुभा प्रोिासवयमन्त्त्रप्रदीपनी। तस्यााः प्रितिनिधदेिव! महाशगख-मयी
शुभा। महाशगखाः करे यस्य तस्य िसिद्धरदूरताः। तदभावे वीरवन्त्द्य!े स्फारटकी
सवयिसिद्धदा । मिणभेदेनफल भेदमाह मुण्डमाला तन्त्त्रे तत्रशतैश्वय्ययफलदा पञ्च-तवशैस्तु
मोक्षदा। चतुद्दयशमयो मोक्षदाियनी भोगवर्तद्धनी । दशपञ्चाित्मका माला मारणोङ्राटने
िस्थता। स्तम्मने मोहनेवश्य रोधने अञ्जने तनोाः। पादुकािसिद्धसंघे च
शतसख्याप्रकीर्तत्तता । अटोत्तरशतं कु य्यायदथवा सवयकामदम् - योिगनी तन्त्त्रे । मिणसंख्या
महादेिव! मालायााः कथयािम ते । पञ्चतवशितिभम्मोक्षं पुष्ट्डै तु सप्ततबशिताः।
तत्रशिद्भधयन िसिद्धाः स्यात् पञ्चाशन्त्मन्त्त्रिसद्धये। अटोत्तरशतैाःसवयिसिद्धरे व महेश्वरर!।
एतत्साधारणं प्रोिं िवशेषंकािमनां वदे। िशवौवाच। दन्त्तमाला जपे काय्येगले धाय्याय
नृणा शुभा । दशनैययदद कत्तयव्यां संख्यादन्त्तस्यते िप्रये । सवयिसिद्धप्रदा माला राजदन्त्तन े
मेरुणा । अन्त्यत्रािप महेशािन! मेरुत्वेनैवमाददशेत् । िनत्यं जपकरे कु य्यायि
काम्यमवरोधनात् । काम्यमिप करे कु य्याय-न्त्मालाऽभावे िप्रयंवदे। अत्रागगुल्या जपं
कु य्यायत् अगगुष्ठागगुिलिभजयपेत् । अगगुष्ठन े िवना कमय कृ तं तििष्फलंभवेत् । उत्पित्ततन्त्त्रे
प्रथमपटले । िनत्यं नैिमित्तकं काम्यंकरे कु य्यायिद्वचक्षणाः । करमाला महादेिव!
सवयदोषिववर्तजता । िछििभिादददोषोऽिप करे नािस्त कदाचन । अक्षयस्तु करोदेिव!
माला भवित तादृशी । ग्रिन्त्थाः साकु ण्डलीशििाः पञ्चाशद्वणयरूिपणी । अतएव महेशािन!
करमाला महाफला - योिगनीतन्त्त्रे । यहां हम करमाला, वणयमाला (अक्षमाला) का
शास्त्रानुसार चचाय करें गे । आम्नाय एवं कामना के संदभय मे माला के प्रकारप का वणयन
तन्त्त्रागमप मे िवस्तृतरूप से िमलता है ।
करमाला - करमाला का िचत्र पररिशट में ददया है । योिगनीतन्त्त्र में इस प्रकार है -
िनत्यंनैिमित्तकं काम्यंकरे कुय्यायिद्वचक्षणाः । करमालामहादेिव सवयदोषिववर्तजता ।।
िछििभिादददोषोऽिप करे नािस्त कदाचन। अक्षयस्तुकरोदेिव मालाभविततादृशी।।
ग्रिन्त्थाः सा कु ण्डली शििाः पञ्चाशद्वणयरूिपणी । अत एव महेशािन करमाला महाफला।।
140
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
अक्षमाला तु देवेिश काम्यभेदादनेकधा। भवित शृणुतत् प्राज्ञे िवस्तरादुच्यते मया ।।
अनुलोमिवलोमेनकॢ प्तया वणयमालया। आददलान्त्तलाददआन्त्तिमेण परमेश्वरर ।।
क्षकारं मेरुरूपञ्च लगघयेि कदाचन।गुरूं प्रकाशयेिद्वद्वान् न तु मन्त्त्रं कदाचन ।।
अक्षमालाञ्च िवद्याञ्च न कदािचत्प्रकाशयेत् - मु.मा. ४४ ।। िमोत्िमगतैमायला मातृकाणथाः
क्षमेरुकै ाः । सिबन्त्दकु ै ाः साटवगथरन्त्तययजनकम्मयिण ॥ आदद कु चु टु तु पु यु शवोऽटौ वगायाः
प्रकीर्तत्ततााः । अकाराददवणायन् सिबन्त्दन ू ् प्रत्येकं कृ त्वा शतं संजप्य अकारादीनां कवगाय-
दीनाञ्च वणायणां अिन्त्तमवणां सानुस्वारं कृ त्वा पूब्बयमुङ्राय्यय मन्त्त्रजपाः काय्ययाः । अनेन
प्रकारे णाटोत्तरशतसंख्यो जपो भवित । अन्त्त- ययजनिमत्युपलक्षणम् । सिबन्त्दंु वणयमुङ्राय्यय
पश्चान्त्मन्त्त्रं जपेत् सुधीाः । अकाराददक्षकारान्त्तं िबन्त्दय ु ुिं िवभाव्य च ॥ वणयमाला
समाख्याता अनुलोमिवलोिमका । क्षकारं मेरुमेवात्र तत्रमन्त्त्रं जपेििह ॥इित
नारदीयवचनात् ॥ प्रकारान्त्तरं िवशुद्धश्व े रे । अनुलोमिवलोमेन वगायटकिवभेदताः ।
मन्त्त्रेणान्त्तररतान् वणायन् वणेनान्त्तररतान् मनून् ॥ कु य्यायद्वणयमयीं मालां
सर्व्वयतन्त्त्रप्रकािशनीम् । चरमाणां मेरुरूपं लगघनं नैव कारयेत् ॥ इित तन्त्त्रसाराः ॥ अिप
च । अनुलोमिवलोमेन कॢ प्तया वणयमालया । आददलान्त्तलादद आन्त्तिमेण परमेश्वरर ।
क्षकारं मेरुरूपञ्च लगघयेि कदाचन ॥ इित मुण्डमालातन्त्त्रम् ॥ िमोत्िमाच्छतावृत्त्या
पञ्चाशद्वणय मालया । योजपाः सतु िवज्ञेय उत्तमाः पररकीर्तत्तताः । अकारादद
क्षकारान्त्तावणयमाला प्रपीर्तत्तता - सनत्कु मारीये । अकारादद क्षकारान्त्तवणयरूपैक
पञ्चाशज्जपमाला । यथा, सनत्कु मारसंिहतायाम् । करमाला की आकृ ित अंितमपृट में दी
गई है, यथा यहां भाषान्त्तर नहीं करते है ।
अब माला को अपने मस्तक से लगा कर पूरे सम्मान सिहत स्थान दे ।इतने संस्कार करने
के बाद माला जप करने योग्य शुद्ध तथा िसिद्धदायक होती है - िनत्य जप करने से पूवय
माला का संिक्षप्त पूजन िनम्न मंत्र से करने के उपरान्त्त ही जप प्रारम्भ करे -
ॎ अक्षमालािधपतये सुिसतद्ध देिह देिह सवय मंत्राथय सािधनी साधय -साधय सवय िसतद्ध
पररकल्पय मे स्वाहा । ऐं ह्रीं अक्षमािलकायै नमाः । मालां प्राथययेत् - माले माले महामाले
सवयतत्तवस्वरूिपणी । चतुवग य यस्त्विय न्त्यस्तस्तस्मान्त्मे िसिद्धदा भव ।।
त्वंमाले सवयदेवानां सवयिसिद्धप्रदामता । तेन सत्येन मे िसतद्ध देिह मातनयमोस्तुते ।।
त्वंमाले सवय देवानां प्रीितदा शुभदा भव । िशवं कु रूष्व मे भद्रे यशोपीयां च सवयदा ।।
142
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
माला को तजयनी का स्पशय नहीं होना चािहए । माला ढकी हुई (गुप्त) रखनी चािहए ।
तजयन्त्यां न स्पृशद
े ेनां, गुरोरिप न दशययेत् । जपान्त्तेतु च मालांवै पूजियत्वा च पोषयेत् ।
जपकाले तु गोप्तव्या जपमाला तु सा शुभा - मुण्डमालातन्त्त्र ४१..४४।।
माला िनमायण - माला िवज्ञान है, िजस प्रकार यंत्र िनमायण की रीत होती है, वैसे ही
मालािनमायण की िविध भी है । शास्त्र में रूद्राक्षादद मालािनमायण का िवधान -
मुखेमुखन्त्तु संयोज्य पुच्छेपुच्छन्त्तुयोजयेत।् गोपुच्छसदृशीमाला यद्वासपायकृिताःशुभा।।
मुखपुच्छिनयमस्तु स्वच्छन्त्दमाहेश्वरे । रुद्राक्षस्योितंप्रोिं मुखंपुच्छञ्चिनम्नगम्।।
कमलाक्षस्य सूक्ष्मांशैसिवन्त्दिु द्वतयंमुखम्। सिवन्त्दक ु स्यस्थूलांशं दृढंश्लक्ष्णिमितिस्थतम्।।
एवंज्ञात्वा मुखंपच्ु छ रूद्राक्षाम्भोरुहाक्षयोाः। तत्सजातीयमेकाक्षं मेरुत्वनाग्रतोन्त्यसेत्।।
एकै कं मिणमादाय ब्रह्मग्रतन्त्थप्रकल्पयेत्। एकै कमातृकावणायन्त्ग्रथनादौ तु संजपेत्।।
ग्रिन्त्थिनयमस्तु स्वच्छन्त्दमाहेश्वरे । ित्रवृित्तग्रिन्त्थनैकेन तथाद्धेन िवधीयते ।।
अथवा नविभस्तन्त्तुिभश्चाथरज्वुं कृ त्वोपवीतवत्। साद्धयद्वयावत्तयनेन ग्रतन्त्थ कु य्यायद्यथा
दृढम् । नवतंतुयुि सूत्र में मुख (अग्रभाग), पृच्छ भाग को उपरोिानुसार ध्यानमें
रखकर ही माला िनमायण करना चािहए - िजससे ऋण-धन ऊजाय का संतल ु न हो और
सकारात्मोजाय प्रददप्त हो । इससे अन्त्ताःकरण में बुिद्ध की िनश्चयात्मकता बढती है । माला
के िवषय में िवपुल चचाय का अवकाश है, यद्यिप यहां इतना पयायप्त है ।
143
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
मंत्र अक्षरप से बनता है । अक्षर = अ+क्षरण अथायत् िजसका नाश नहीं होता वही अक्षर
है तथा मंत्र ही अक्षर ब्रह्म है । अक्षरप से बना मंत्र इसी कारण शब्दब्रह्मकहा जाता है ।
वेदपाठ एवं स्तोत्रादद का उङ्र स्वर से पाठ करते समय समीपवती वातावरण भी पिवत्र
हो जाता है तथा आनन्त्द की प्रािप्त कराता है । मनन दकये जाने के कारण, प्राणप का
उत्थान करने के कारण, परमात्मा का ज्ञान उत्पि करने के कारण, अनुष्ठान दकये जाने
के कारण मन्त्त्र मन्त्त्र बनते हैं। जप पापो का क्षय करनेवाला एवं बन्त्धन से मुिि
देनेवाला उत्तम साधन है ।
जप के प्रकार की चचाय करें गे । शास्त्रप में जप के िविभि स्वरूपप का वणयन करते हुए
उनकी पारस्पररक महत्ता का प्रितपादन दकया गया है :-
जप सदैव मानिसक होना ही उत्तम मानते है । उत्तमो मानसो देिव ! ित्रिवध: किथतो
जप: । न दोषो मानसे जाप्ये सवयदेशऽे िप सवयदा ॥ मानिसक जप में कोई दोष नहीं
लगता ।
सारांश यह है दक, वािचकजप से श्रेट उपांशु जप तथा उससे श्रेष्ठ मानिसक जप माना
गया है। जब तक सतत अ्यास द्वारा साधक की वृित्त अन्त्तमुखी नहीं हो जाती तब तक
जप का उद्देश्य सफल नहीं हो सकता है। जप की िसिद्ध का सम्बन्त्ध प्राणप (वायु) के
आयाम (रोकना) से भी होता है। जप िजतना अन्त्तमुखी होता जायेगा उस समय श्वास
की गित उतनी ही कम (मन्त्द गित) हो जायेगी तथा एक आनन्त्द की अनुभूित होगी ।
मन्त्त्रािधराज कल्प में जप के १३ प्रकार माने गए है, जो इस प्रकार है, िवस्तृत चचाय
नही करें गे - रेचकपूरककुं भागुणत्रयिस्थरकृ ितस्मृित हक्का । नादोध्यानंध्येयैिवं तत्त्वं च
जपभेदााः ।जपेनदेवतािनत्यं स्तूयमानाप्रसीदित।प्रसिा िवपुलान्त्कामान्त्दद्यान्त्मुििञ्च
शाश्वतीम् ॥ यह मात्र ज्ञातव्यथय ही देते हैं ।
145
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
िस्थित आ जाने पर अनाहत चि में कई तरह के नाद भी उत्पि होते हैं, िजन्त्हें जप कताय
सुन सकता है । प्राय: साधक को अपना मंत्र अन्त्दर से स्वयं ही सुनाई देता है ।
मध्यमा िस्थित के पश्चात् जप की तीसरी भूिमका पश्यन्त्ती पर साधक पदापयण करता है।
ऐसी िस्थित में साधक को अपना मंत्र आज्ञाचि (भ्रूमध्य) में प्रितिविम्बत होता ददखाई
देता है। आचाययपाद शंकराचायय जी ने पश्यन्त्ती जप का स्थान आज्ञाचि बताते हुए
िलखा है - तवाज्ञाचिस्थं तपनशिश कोरटद्युितधरं परंशम्भु वन्त्दे पररिमलत पाश्वां
पररिचता.... (सौन्त्दयय लहरी) । जप से उत्पि नाद की िस्थित के वल िवशुिद्ध चि
(कं ठस्थान) तक ही सीिमत रहती है। उसके बाद आज्ञा चि में स्वमंत्र प्रकाशमय अवस्था
में ददखाई देता है। अत: आज्ञाचि के ऊपर के चिप में स्वमंत्र का दशयन होना ही पश्चन्त्ती
जप का िसद्ध हो जाना माना जाता है।
जब स्वमंत्र के सभी स्वर-व्यंजन सकुं िचत होकर िबन्त्द ु में लय हो जाते हैं तो यह अवस्था
पराजप की अवस्था कही जाती है । इस िस्थित को प्राप्त साधक परमानन्त्द की अनुभूित
करने लगता है । मंत्र के अवयवप का शुद्ध उङ्रारण िजह्वा तथा हौठप के िविभि स्थानप
पर स्पशय के कारण होता है परन्त्तु मंत्र के अद्धमायत्रा में िस्थत िबन्त्द ु का उङ्रारण सही रूप
से तभी हो पाता है जब गुरूमुखात् प्राप्त हो । इसके सम्बन्त्ध में िनम्न प्रमाण है -
अमोधमव्यंजनमस्वंर च अंकढ ताल्वोट नािसकं च अरेफ जातोपयोष्ठ वर्तजतंयदक्षरो न
क्षरे त् कदािचत ।।
सहस्रार एवं उसके ऊपर के चि-स्थानप पर ब्रह्म संस्पशय ही जप की अनुभूित कराता है।
यहॉं पर समस्त बा् दियाऐं नट हो जाती हैं । इस िवषय पर आगम बचन है - प्रथमे
वैखरी भावो मध्यमा हृदये िस्थता भ्रूमध्ये पश्यन्त्ती भाव: पराभाव स्विद्वन्त्दन ु ी ।।
महािनवायण तन्त्त्र में इनका सम्बन्त्ध विहरचयन, ध्यानादद के साथ िनम्न प्रकार वर्तणत हैं -
उत्तमोब्रह्मसद्भावो यह परावाक् नाम अिन्त्तम िस्थित है । ध्यान भावस्तु मध्यम यह
पश्यन्त्ती िस्थित है । जप-पूजा अधमा प्रोिा यह मध्यमा जप की िस्थित है । बा्पूजा
अधमोधमा यह विहरवैरयवरी िस्थित है । इस प्रकार सतत जप से आत्म-साक्षात्कार रूपी
लक्ष्य की प्रािप्त हो जाती है।
146
मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
जपिविध (संिक्षप्त-अनुष्ठान-पुरश्चरण-िनयमााः) - आदौ सगकल्प्य उदद्दटाः पश्चात्तस्य
समपयणम् । अकु वयन्त्साधकाः कमयफलं प्राप्नोत्यिनिश्चतम् - महा.भा. दानपवय । प्रथमं
मन्त्त्रगुरोाः पूजा पश्चाङ्रैव ममाचयनम् । कु वयन् िसिद्धमवाप्नोित ्न्त्यथा िनष्फलं भवेत् ।६१
॥ ध्यानादौ श्रीगुरोमूयर्वत पूजादौ च गुरोाः पूजाम् । जपादौ च गुरोमय न्त्त्रं ्न्त्यथा िनष्फलं
भवेत् ।६२ ॥ उङ्ररे दथयमुदद्दश्य मानसाः स जपाः स्मृताः - मौनं मन्त्त्राथयिचन्त्तनम् ।
अक्षराक्षरसंयुिं जपेन्त्मौिलकहारवत् - भूतशुिद्ध शब्दब्रह्मस्वरूपेयं शब्दातीतं तु जप्यते -
देवीभागवत पुराण ११.१७ । जपादौ पूजयेन्त्मालां तोयैरयुक्ष्य यत्नताः। िनधाय
मण्डलस्यान्त्ताः सयहस्तगताञ्च वा ॥ माला बीजन्त्तु जप्तव्यं स्पृशि े िह परस्परम् । न
मानसं पठे त्स्तोत्रं वािचकं तु प्रशस्यते । कण्ठताः पाठाभावे तु पुस्तकोपरर वाचयेत् ।। न
स्वयं िलिखतं स्तोत्रं नाब्राह्मिलतप पठे त् । पूवयबीजं जपन् यसतु परबीजन्त्तु संस्पृशेत् ।
जपत्वा मालां िशरोदेशप्र े ांशस्ु थानेऽथवा न्त्यसेत् - कािलकापुराणे ५४ । औष्ठौसंपटु ौकृ त्वा
िस्थरिचत्त िस्थरे न्त्द्रयाः । ध्यायेङ्र मनसा वमायिन्त्जह्वौष्ठौ न चालयेत् ।। न
कम्पयेिच्छरोग्रीवांदन्त्तािैव प्रकाशयेत् । तदािसतद्धिवजानीत न िसिद्धश्चान्त्यथा भवेत् ।।
शािानन्त्द तरं िगणी । पुस्तके िलिखतान्त्मन्त्त्रानालोक्तय प्रजपिन्त्त ये । ब्रह्महत्यासमं तेषां
पातकं पररकीर्तततम् । मे.तंत्र ।। पूवयबीजं जपन्त्यस्तु परबीजन्त्तु संस्पृशेत् । जपत्वमालां
िशरोदेशे प्रांशुस्थानेऽथवा न्त्यसेत्॥ कािलकापुराणे ५४। ध्यायेत्तुमनसादेवीं
मन्त्त्रमुङ्रारयेच्छनैाः। न कम्पयेिच्छरो ग्रीवा दन्त्तािैव प्रकाशयेत् ॥ १५ ॥
िविधनाटोत्तरशतमटातवशितरे व वा । दशवारमशिो वा नातो न्त्यूनं कदाचन ॥ १६ ॥
कू मयपुराण.१८ । न कम्पयेिच्छरोग्रीवां दन्त्तािैव प्रकाशयेत् ।। १८.७९ ।। गु्का राक्षसा
िसद्धा हरिन्त्त प्रसभं यताः । एकान्त्ते सुशभ ु द
े ेशे तस्माज्जप्यं समाचरे त् ।।१८.८०।।
चण्डालाशौच पिततान् दृष्ट्वा चैव पुनजयपत े ् । तैरेव भाषणं कृ त्वा स्नात्वा चैव जपेत्पुनाः
।। १८.८१ ।। आचम्य प्रयतो िनत्यं जपेदशुिचदशयने । सौरान्त्मन्त्त्रान्त्शिितो वै पावमानीस्तु
कामताः ।। १८.८२ ।। यदद स्याित्क्तलिवासा वै वाररमध्यगतो जपेत् । अन्त्यथा तु शुचौ
भूम्यां दभेषु सुसमािहताः।। १८.८३।। सािवत्रीं वै जपेत् पश्चाज्जपयज्ञाः स वै स्मृताः
॥१८.७५॥ िविवधािन पिवत्रािण गु्िवद्यास्तथैव च । शतरुद्रीयमथवयिशराः सौरान्
मन्त्त्रांश्च सवयताः ॥१८.७६॥ प्राक्तकू लेषु समासीनाः कु शेषु प्रागमुखाः शुिचाः ।
ितष्ठंश्चेदीक्षमाणोऽकां जप्यं कु यायत् समािहताः ॥१८.७७॥ आचम्य प्रयतो िनत्यं
जपेदशुिचदशयने । सौरान्त्मन्त्त्रान्त्शिितो वै पावमानीस्तु कामताः ॥१८.८२॥ एकदा वा
भवेत्पूजा न जपेत्पूजनंिवना । जपान्त्ते वा भवेत्पूजा पूजान्त्तव े ाजपेन्त्मनुम् ।।
सदोपवीितनाभाव्यं सदा बद्ध िशखेन च । िविशखोव्युपवीतश्च यत्करोित न तत्कृ तम् ।
िवण्मूत्रोत्सगयशगकाददयुिाः कमय करोित यत्। जपाचयनाददकं सवयमपिवत्रं भवेित्प्रये ॥
मिलनाम्बरके शाददमुखदौगयन्त्ध्यसंयुताः। यो जपेत्तं दहत्याशु देवता गुिप्तसंिस्थता ॥ आलस्यं
जृम्भणं िनद्रां क्षुतं िनष्ठीवनं भयम्। नीचागगास्पशयनं कोपं जपकाले िववजययत े ् ॥
एवमुििवधानेन िवलम्बं त्वररतं िवना । उिसंख्यंजपं कु यायत्पुरश्चरणिसद्धये ॥
देवतागुरुमन्त्त्राणमैक्तयं सम्भावयन् िधया । जपेदेकमनााः प्राताःकालं मध्यिन्त्दनाविध ॥
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
यत्सद्ध्या समारब्धं तत् कतयव्यं ददने ददने।यदद न्त्यूनािधकं कु यायत् व्रतभ्रटो भवेिराः ॥
मुण्डमालायाम् । व्यग्रताआलस्य िनष्ठीव िोधपादप्रसारणम् । पद्मासनं समारू्
समकायिशरोधराः । नाग्रदृिटरेकान्त्ते जपोदांकारमव्यचम् । यो.चू.उपिनषद् । अन्त्यभाषां
मृषां चैव जपकाले त्यजेत्सुधी । नाक्षतैाःहस्तपवथवाय न धान्त्यैनय च पुष्पकै ाः । न
चन्त्दनैमृयित्तकया जपसंख्या तु कारयेत् । कत्रांगानामनुिौतु दिक्षणांगं भवेत्सदा । यत्रददङ्
िनयमोनािस्त जपादद कथंचन । ितस्रस्तत्रददशाःप्रोिा ऐन्त्द्री सौम्यांऽपरािजता ।
आसीनाःप्रह्वऊध्र्वोवा िनयमोयत्रनेदश ृ ाः । तदासीने न कतयव्यं न प्रहवेण न ितष्ठता ।
यिस्मन्त्स्थानेजपं कु यायद्धरेच्छिो न तत्फलम् । तन्त्मद
ृ ालक्ष्म कु वीत ललाटेितलकाकृ ितम् ।।
यत्सद्ध्या समारब्धं तत् जप्तव्यं ददने ददने। न्त्यूनािधकं न कतयव्यमासप्तं सदा जपेत् ॥
प्रजपेदि ु सगख्यायाश्चतुगुयणजपं कलौ॥अन्त्यत्रािप।कृ ते जपस्तु कल्पोिस्त्रेतायां िद्वगुणो
मताः। द्वापरे ित्रगुणाः प्रोिश्चतुगुयणजपाः कलौ - कलाणयवेऽिप॥ न्त्यूनाितररिकमायिण न
फलिन्त्त कदाचन । यथािविधकृ तान्त्येव सत्कमायिण फलिन्त्त िह॥ भूशय्या ब्रह्मचाररत्वं
मौनमाचाययसेिवता । िनत्यपूजािनत्यदानं देवतास्तुितकीतयनम् ॥ िनत्यं ित्रसवनं स्नानं
क्षुद्रकमयिववजयनम्। नैिमत्तकाचयञ्चैव िवश्वासो गुरुदेवयोाः॥ जपिनष्ठा द्वादशैते धमायाः
स्युमयन्त्त्रिसिद्धदााः ॥ अन्त्यथानुिष्ठतं सवां भवत्येव िनरथयकम् ॥ स्त्रीशूद्रपितत
ब्रात्यनािस्तकोिच्छभाषणम् । असत्यभाषणं न भाषेत जपहोमाचयनाददषु । पुरश्चरणकाले
तु यदद स्यान्त्मृतसूतकम्। तथा च कृ तसगकल्पो व्रतं नैव पररत्यजेत् - योिगनीहृदये ।।
शयीतकु शशय्यायां शुिचवस्त्रधराः सदा । प्रत्यहं क्षालयेत् शय्यामेकाकी िनभययाः स्वपेत् ॥
असत्यभाषणं वाचं कु रटला पररवजययेत्। वज्जेयेद्गीत्वाद्याददश्रवणं कृ त्यदशयनम् ॥ अ्यगगं
गन्त्धलेपञ्च पुष्पधारणमेव च। त्यजेदष्ु णोदकस्नानमन्त्यदेवप्रपूजनम् ॥ तत्रैव - नैकवासा
जपेन्त्मन्त्त्रं बहुवासाकु लोऽिप वा - वैशम्पायनसंिहतायाम् । पिततानामन्त्त्यजानां
दशयनेजपमुत्सृजेत् ॥ िवपयायसं स कु यायङ्र कदािचदिप मोहताः। उपय्यधो बिहवयस्त्रो
पुरश्चरणकृ िराः ॥ तथा तस्य च तत्प्राप्तौ प्राणायामं षडगगकम्। कृ त्वा सम्यक्तजपेत्शेषं
यद्वा सूयायदददशयनम् ॥ आददशब्दािद्वतह्न ब्राह्मणञ्च ॥ तन्त्त्रान्त्तरे । मनाःसंहरणं शौचं मौनं
मन्त्त्राथयिचन्त्तनम् । अव्यग्रत्वमिनबेदो जपसम्पित्तहेतवाः॥ उष्णीशी कञ्चकी निो मुिके शो
गणावृताः । अपिवत्रकरोऽशुद्धाः प्रलपि जपेत्क्विचत् ॥ अनासनाः शयानो वा गच्छन्त्भुञ्जान
एव वा। अप्रावत्तौ करौ कृ त्वा िशरसा प्रावृतोऽिप वा ॥ िचन्त्ताव्याकु लिचत्तो वा क्षुब्धो
भ्रान्त्ताः क्षुणिन्त्वताः। रर्थयायामिशवस्थाने न जपेित्तिमरालये ॥ उपानद्गूढपादो वा
यानशय्यागतोऽिप वा । प्रासायय न जपेत् पादावुत्कटासन एव च । न यज्ञकाष्ठे पाषाणे न
भूमौ नासने िस्थताः॥ तथा - माज्जायरंकुक्तकु टं िौञ्चं श्वानंशूद्रक ं तपखरम् । द्ष्ट्वाचम्य
जपेत्शेषं स्पृष्ट्वा स्नानंिवधीयते ॥ सवयत्र जपे त्वयं िनयमाः॥ मानसे तु िनयमो नास्त्येव,
तथा च, अशुिचबाय शुिचबायिप गच्छंिसतष्ठन् स्वपििप । मन्त्त्रैकशरणो िवद्वान्त्मनसैव
सदा्यसेत् ॥ मनसा याः स्मरे त्स्तोत्रं वचसा वा मनुं जपेत् । उभयं िनष्फलं याित
िभिभण्डोदकं यथा - गौतमीये । जपकाले न भाषेत नान्त्यािन प्रेक्षयेद् बुधाः । न
कम्पयेिच्छरोग्रीवां दन्त्तािैव प्रकाशयेत् ॥ स्फारटके न्त्द्राक्षरुद्राक्षैाः पुत्रजीवसमुद्भवाः ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
कतयव्यात्वक्षमालास्यादुत्तरादुत्तमा स्मृता ॥ २.१८.७८ ॥ जपकाले न भाषेत नान्त्यािन
प्रेक्षयेद्बुधाः । न कम्पयेिच्छरोग्रीवां दन्त्तािैव प्रकाशयेत् ॥ २.१८.७९ ॥ चण्डालाशौच
पिततान् दृष्ट्वाचम्य पुनजयपेत् । तैरेव भाषणं कृ त्वा स्नात्वा चैव जपेत्पुनाः ॥ २.१८.८१ -
कू मय । िजह्वाजपाः स िवज्ञेयाः के वलं िजह्वया बुधैररित ॥ अितिवलम्बाितशीघ्रजपे
दोषमाह । अितह्रस्वो व्यािध हेतरु ित दीघो वसुक्षयाः । अक्षराक्षरसंयुिं
जपेन्त्मौििकारवत् । जपान्त्तेतु च मालां वै पूजियत्वा च पोषयेत् । जपकाले तु गोप्तव्या
जपमाला तु सा शुभा ।। मंत्रोद्धारिमेणव ै मंत्रं जपित साधकाः । तदािसतद्ध िवजानीत न
िसिद्धश्तात्यथा भवेत् ।। शािा.तरं . । जपाच्रान्त्त:पु नध्याययेद्ध्यानाच्रान्त्त: पुनजयपेत् ।
जपध्यानपररश्रान्त्त:आत्मानं च िवचारयेत् ।। तज्जपस्तदथयभावनम् - योग ।।
जपाच्रान्त्त:पुनध्याययद् े ध्यानाच्रान्त्त: पुनजयपेत् । जपध्यानपररश्रान्त्त: आत्मानं च
िवचारयेत् ।। मन्त्त्राथां मन्त्त्रचैतन्त्यं योिनमुद्रां न वेित्त याः । शतकोरटजपेनािप तस्य
िसिद्धनयजायते ॥शा.त.॥ न दोषोमानसेजाप्ये सवयदेशऽे िपसवयदा ॥ श्यामाददजपे तु
ततन्त्मत्रोिवशेषोविव्याः ॥ आहारशुद्धौ सत्वशुिद्धाः सत्वशुद्धौ ध्रुवास्मृिताः स्मृितलाभे
सवय ग्रन्त्थीनां िवप्रमोक्षाः।। सारांश मंत्र, आम्नाय एवं गुरूपरम्परा के अनुसार अनष्ठान एवं
पुरश्चरण के िनयमप में िभिता रहती है और यह िविध िवद्वान या गुरूपसदन होकर ही
ज्ञात करनी चािहए । प्रत्येक कायय में स्वयंिशस्त एवं शास्त्रानुशीलन आवश्यक होता है ।
जैसे दक, यािन्त्त्रकी काययशाला में, या िद्वचिी वाहन चलाते समय, हेलमेट, सेफ्टी शूज,
पहनना अिनवायय है । कायय के दरम्यान ध्यान कायय पर ही रखना पडता है, अन्त्यथा
हािन या अकस्मात हो सकता है । मोबाईल में या अन्त्य से बात नहीं करना चािहए ।
मशीन के मेन्त्यअ ु ल के िहसाब से िह उसे ऑपरे ट करना होता है । ये सब िनयम
काययिसिद्ध व सलामित के िलए आवश्यक होते है । उपासना िम में भी इसी प्रकार
परम्परागत प्रणाली से िभिता होती है, अनुष्ठान के िनयम मंत्र, आम्नाय, कामना के ही
उपलक्ष्य में बदलते रहते है, यथा गुरूगम्य है । जपािभमुख की ददशा, आसन, माला,
वस्त्र, पूजनादद का समय भी िभि-िभि होता है । मन्त्त्र तब ही पूणयरूपेण फलदायी
होता है, जब वह शास्त्रानुशीलन पूवक य दकया जाए, िजस प्रकार संगीत के रागप को गाने
का िवशेष समय एवं िनयत वाद्य होता है । तथािप श्रद्धा का िवशेष महत्व रहता है ।
डॉक्तटर जब ओपरेशन करता है, तब, िजस अंग का ऑपरेशन करता है, उनके अनुरूप
साधनप का उपयोग करता है । कान की सजयरी, आंख की सजयरी, हाटय सजयरी, नी
ररप्लेशमेन्त्ट के िलए िनश्चत प्रणाली व साधन होते है , िजसे ध्यान में रखना पडता है ।
पररक्षण की उिचत प्रदिया का भी अनुसरण करना पडता है । रे िडयोलॉिज, पेथोलोिज,
एन्त्ड्रोस्कोपी, सीटी स्के न, सोनोग्राफी की प्रिीया िभि-िभि होती है । ठीक ऐसे ही
उपासना के िवषय में भी है । पूवोि शास्त्रमतप का सारांश िनम्नानुसार है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
स्नान-संध्योपासनादद के पश्चात्, िशखाबद्ध, आचमन, प्राणायाम, गुरू-गणपित का
स्मरण करते हुए, जप का संकल्प करना चािहए । मंत्र के ऋष्यादद का िविनयोग न्त्यास
करके , देवता का ध्यान करना चािहए । योगसूत्रानुसार जप करते-करते जब थक जाएं,
तब ध्यान करें । ध्यान करते-करते थकें , तब दफर जप करें और जप तथा ध्यान से थकें ,
तब आत्मतत्व का िवचार करें ।पुस्तक में देखकर जप न करें । जप के समय अन्त्य भाषा में
या अन्त्य वातायलाप न करें । ब्राह्मण िलिप के ही मन्त्त्र या स्तोत्र पढे, आजकल वेदमन्त्त्र
प्रािन्त्तय भाषा में िमलने लगे है । अक्षर मन्त्त्रो के िवग्रह है, उनका स्वरूप िनिश्चत है,
आज तो प्रायाः देखा गया है दक गणेशचतुथी के पवय में, हाथमें दिके ट का बेट िलए हुए,
के प पहने हुए गणेशजी िमलते है, यह देवताओं के िवग्रह के साथ मज़ाक ही तो है ।
परमात्मा के ध्यानानुसार िवग्रह का स्वरूप होना चािहए ।
मन्त्त्रजप के समय मन्त्त्र के अथय, देवता का िनरन्त्तर ध्यान करना होता है । जप मानिसक
होना चािहए, िजह्वा, हपठ या दन्त्त का चालन नहीं होना चािहए । मन्त्त्रानुष्ठान के पूवय
मन्त्त्रददक्षा होनी चाहए, मन्त्त्र कण्ठस्थ होना चािहए । स्पशायस्पशायदद आशौच में स्नाय या
आचमन प्राणायम माजयन करना चािहए । मन्त्त्र के अक्षरो के अनुसार जप संख्या मे ही
जप करना चािहए, माला पूणय करनी चािहए । जप के पूवय माला का पूजन, ध्यानादद
पूवोिानुसार करना चािहए, जप संकल्प-िनवेदनादद करना चािहए । जप के बाद भी
ध्यान-पूजादद करना चािहए एवं जप के बाद आसन के नीचे की मृदा का ितलक करना
चािहए, आसन वंदन करना चािहए । कामनानुसार माला, काल, ददशाका अनुसरण
करना चािहए । जप िनर्तवघ्न हो ऐसे एकान्त्त में जप करना चािहए । प्रितदीन देवपूजा
जपपूवय आवश्यक हैं । अन्त्यथा जप िनिषद्द हो जाता हैं । आलस्य, जंभाई, िनद्रा, छींक,
थूक, भय,गुप्तांग-स्पशय, िोध,पांव फै लाना, वातायलाप, असत्यभाषण, जप मन्त्त्र मे अन्त्य
शब्दोका प्रयोग िनिषद्ध हैं ।जहां कत्ताय के हस्त आदद का नाम नहीं कहा गया हो दक
अमुक अगग से यह करे , वहााँ सवयत्र दािहना हाथ जानो । यहााँ जप होम आदद में जहााँ
ददशा का िनयम न िलखा हो, वहााँ सवयत्र पूव-य उत्तर और ईशान इनमें से दकसी ददशा में
मुख करके कमय करे । जहााँ यह नहीं कहा गया हो दक खड़ा होकर, बैठकर या झुककर
धमय करे , वहां सवयत्र बैठकर करना चािहये । िजस स्थानपर जप दकया जाता है, उस
स्थानकी मृित्तका जपके अनन्त्तर मस्तकपर लगाये अन्त्यथा उस जपका फल इन्त्द्र ले लेते
है । स्तोत्र को मन ही मन पढ़ना तथा जप को वाणी से उङ्रारण करना िनष्फल हो जाता
है । आहार शुिद्ध को अिग्रमता देते हैं, क्तयपदक अि के सूक्ष्मभाग से मन बनता है, यथा
शुद्ध आहार शुद्धमन, हम जैसा खाएंगे वैसी हमारी शारररीक संरचना एव िवचारप पर
असर होगी । िनयम तो कई है, यद्यिप िनष्ठा से िजतनी अिधकतर ध्यान रख सके अच्छा
ही हैं, क्तयपदक व्यािधशमन में मात्र औषिध ही नहीं, दकन्त्तु पर्थयापर्थय का अनुसरण का
भी महत्व रहता है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ब्रह्मैवास्मीित सद्वृत्त्या िनरालम्बतया िस्थिताः । ध्यानशब्देन िवख्याताः परमानन्त्द
दायकाः - तेजोिबन्त्द ु उपिनषद् ३६॥ ध्यान के िवषय में एक अित सुन्त्दर बात हमारे
गुरूजी ने बताई थी । हम अिभषेकात्मक महारूद्र करते थे । िशवजी के ध्यान, में
भगवान स्वयं ध्यान मुद्रा में िबराजमान है ऐसे ध्यान करना है । गुरूजी (पूज्य
पं.राधाकृ ष्ण शुक्तल) कहते थे दक, आप फोन करते हो, तब बोलनेवाले एवं सुननेवाले
दोनप को फोन उठाना पडता है, तभी तो कनेक्तशन होगा - बात हो पाएगी । भगवानने
तो भि के ध्यान में आंखे बंद करके रक्तखी है, अब आप भी करलो तभी, तो परमात्मा
की अनुभिू त होगी ।
जपहोमौ तपयणञ्चािभषेको िवप्रभोजनम् । पञ्चागगोपासनं लोके पुरश्चरणमुच्यते ॥
सामान्त्यतया मंत्राक्षरो के प्रितमंत्र एककोटी, एकलक्ष वा एक सहस्र संख्या के िहसाब से
अनुष्ठान-लघु अनुष्ठान होते है - जैसे दक नमाः िशवाय के पंचाक्षरी मंत्रानुष्ठान की संख्या
पंचकोटी या पंचलक्ष मानी जाएगी । जपं समपययेद्देव्या वामहस्ते िवचक्षणाः॥ जपान्त्ते
प्रत्यहं मन्त्त्री होमयेत्तद्वशांतशताः। तपयणञ्चािभधेषकञ्च तत्तद्दशांशतोमुन-े मुण्डमालायाम् ।
प्रत्यहं भोजयेिद्वप्रान् न्त्यूनािधकप्रशान्त्तये । ततो जपदशांशन े होमं कु यायदद्दने ददने -
पुरूश्चरण चंदद्रका । होमाद्दशांशताः कु यायत्तपयणं देवतामुखे । तपययेत्तद्दशाशेन
िवद्यानन्त्दकृ तागमे ।। योिगनीहृदये - होमकमयण्यशिानां िवप्राणां िद्वगुणोजपाः ।
होमाभावे जपाः कायप होमसंख्याचतुगुयणाः - मन्त्त्र महाणयव । िजतने जप का अनुष्ठान
होता है, उसके दशांश का होम, होम के दशांश का ब्रह्मभोजन, उसके दशांश का माजयन,
तपयणादद होता है । होमाशिे (बहुमान्त्य) होम संख्या का िद्वगुणी जप करना पडता है -
यथा एक लक्ष का दश सहस्र होम करना पडता है, यदद होम न करे तो होमाभावे बीस
सहस्र अिधक जप करें ।
दशांश होम - ब्रह्म भोजन - होम क्तयप करते है - आगे हमने बताया है दक अििवायग्
भूत्वा शरीरं प्रािवशत् यथा अिि वाक् बनकर शरीर में प्रवेश दकया है । हमने जो
जपादद दकया है, उससे उत्त्पि ऊजाय को आज्य का भोग देना आवश्यक बनता है । दूसरा
मुखादििरजायत भगवान के मुख से अिि की उत्त्पित्त श्रुित बताती है, यथा यज्ञ एवं
अिि में ददया हुआ हव्य, तत्तद मन्त्त्र के साथ परमात्मा को समर्तपत करना ही हवन का
उद्देश्य है । वैसे ही ब्राह्मणोस्य मुखमासीद् ब्राह्मण परमात्मा का मुखारिवन्त्द होता है,
वहीं अिि का उत्पित्त स्थान भी है । दकतने भी स्वाददट अि हो, मुख को दकतना ही
पसंद क्तयप न हो, वह अपने पास न रखकर उदरस्थ वैश्वानर को देता है । पेट का अिि
भी उसे पुरे देह के पुष्ट्डथय िविनयोग कर देता है - हाथ-पांव-त्वचा-मन-बुिद्ध का
िवकास इसी अि के द्वारा होता है । अिि यह कायय हव्य पदाथय एवं कामनानुसार फल
िसिद्ध हेतु करता है । जैसे दक शरीर की पुिट के िलए खाए हुए अि से देह की पुिट
करता है, यदद कोई रोग हो तो, पेट में गया हुआ औषध रोग िनवारण करता है ।
जठरस्थ अिि को ज्ञात है दक प्राप्त द्रव्य का क्तया करना है । पांव मे सूजन हो, िशरददय
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
हो, कब्ज हो, अितसार हो, अिनद्रा हो या अशिि, सब के िलए िलया हुआ औषध
उिचत स्थान पर जाकर, उिचत असर करता है । यह पेट तक अिि को जाने का मागय
मुख है, जो स्वयं कु छ भी न रखकर जठरािि के माध्यम से पूरे देहरूप ब्रह्माण्ड की रक्षा,
पुिट करता हैं । हमारे यहां आध्यात्म िवज्ञान में प्रत्येक िविध एवं संस्कारप में अिि एवं
ब्राह्मणप का महत्व है, चाहे जातकमय हो या उपनयन, िववाह हो या अन्त्त्येष्ठी, वास्तु हो
या ग्रहशािन्त्त । शास्त्रप में अनेक प्रमाण है - यावतोग्रसतेग्रासान्त्हव्यकव्येषु मन्त्त्रिवत् ।
तावतो ग्रसते िपण्डान्त्शरीरेब्रह्मणाः िपता - यम स्मृित । यद्योको ब्रह्मिवद् भुिे
जगत्तपययेखलम् । तस्माद्ब्रहमिवदे देयं यद्यिस्त वस्तुककचन ।। नाहं तथािद्म यजमान
हिवर्तवतानेश्च्योतद्घृतप्लुतमदन् हतभुगमुखेन । यद्ब्राह्मणस्य मुतश्चरतोनुघासं
तुटस्यमङ्रविहतैर्तनजकमयपाकै ाः - श्रीमद्भागवत् ३.१६.८ ।।
अन्त्यग्रंथे - अस्य श्री हंसगायत्री महामंत्रस्य अव्यि परब्रह्म ऋिषाः अव्यि गायत्रीच्छन्त्दाः
परमहंसो देवता हं सां बीजं – हं सीं शििाः – हं सूं कीलकम् परमहंस प्रसाद िसद्ध्यथे
जपे िविनयोगाः ।। हंसां अंगष्ठ ू ा्यां हृदयाय नमाः हंसी तजयनी्यां िशरसे स्वाहा हंसूं
मध्यमा्यां िशखायै वषट् हंसैं अनािमका्यां कवचाय हूम् हंसौं किनटका्यां
नेत्रत्रयाय वौषट् हंसाःकरतल - अस्त्राय फट् ओं भूभव ुय ाःसुवरोम् इित ददग्बंधाः ।। ध्यानम्
गमागमस्थं गमनाददशून्त्यं िचद्रूपदीपं ितिमरापहारम् । पश्यािम ते सवयजनान्त्तरस्थं
नमािम हंसं परमात्मरूपम् ।। मंत्र हंसो हंस परमहंसाः हंस सोहं सोहं हंसाः। ओं हंसहंसाय
िवद्महे परमहंसाय धीमिह । तिो हंसाः प्रयोदयात् ।। गणेशब्रह्मिवष्णु्यो हराय
परमेश्वरर ॥ जीवात्मने िमेणैव तथैव परमात्मने । षट्शतािन सहस्रािण सहस्रञ्च तदेव
िह । पुनाः सहस्रं गुरवे िमेण च िनवेदयेत् ॥
हमारे शरीर में मूलाधार से आज्ञाचि पययन्त्त षड्चि है, मूलाधार, स्वाधीष्ठान, मणीपुर,
अनाहत, िवशुिद्ध, आज्ञा, सहस्रसार-ब्रह्मरन्त्ध्र । सवोपरर ब्रह्मरन्त्ध्र में सहस्रार है, जहां
भगवान िशवजी का स्थान है । मूलाधार में पराम्बा कु ण्डली महाशिि िबराजमान है ,
यहां एक िशवतलग है - िजसमें तीन अधयवतुल य ाकार सर्तपणी जैसी महाशिि है ।
मूलाधार से सुषुम्णा महानाडी (प्रधान नाडी) नीकलकर ब्रह्मरन्त्ध्र में जाती है, उपरोि
सभी चिो में - कमल - पद्म अधोमुख है । साथ में अन्त्य दो नाडीयां ईडा, तपगला भी
नीकलती हैं, इन तीनप महानाडीयप से बहत्तर हजार नाडीयां पूणय शरीर में ऊजायवहन
करती हैं । उपरोि सभी पद्मप का िभि-िभि ध्यान है । मूलाधार में अिम्बका समेत
गणेशजी का स्थान है । उसके उपर स्वाधीष्ठान ब्रह्मासािवत्री, मणीपुर में
लक्ष्मीनारायण, अनाहत में िशवशिि, िवशुिद्ध में जीवत्मा प्राणशिि, आज्ञा में गुरू एवं
ज्ञानशिि, ब्रह्मरन्त्ध्र में परमिशव िबराजमान है ।
ध्यान-धारणा द्वारा मूलाधार से परम्बा, ब्रह्मरन्त्ध्र में िबराजमान िशव से िमलने जाती
है। जगदम्बा का स्वरूप अितसुन्त्दर दैददप्यमान षोडशवषीय महासुंदरी युवितरूपा है ।
जब वह महाशिि सुषुम्णा पथ से िशव को िमलने जाती है, तब सुषुम्णा मागयस्थ अन्त्य
पद्मप पर पदापयण करती हुई उपर जाती है । िजस प्रकार कोई महापुरूष या राष्ट्रपित
दकसी नगर में शोभायात्रा करते हैं, तब वह मागय शुद्ध दकया जाता है, उस मागय को
सुशोिभत एवं सुगिन्त्धयुि बनाया जाता है । बीच में आनेवाले चौक पर अन्त्य वीआईपी
लोग हाथ में पुष्पगुच्छ एवं पुष्पमाला से उनका सन्त्मान करते है । इसी प्रकार जब
महाशििरूपा जगदम्बा, अपने स्थान से इन िभि-िभि चिो पर पदार्तपत करती हुई
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
उत्थान करती है, तब पद्मस्थ देवता उनके दशयन से पुलदकत होते है । जगदम्बा िशवजी
के अगक में बैठकर आलंिगत होती है - परस्परािश्लट होकर, परमिशवामृत वषयण करती
है । आनन्त्दकी इस चरमसीमा को योगमैथुन कहते है । ददव्य योगी मूलाधार िस्थत
पराशिि कु न्त्डिलनी को सहस्रार में िस्थत िशव से िमलाकर ददव्य मैथुनानन्त्द की
अनुभूित करके जन्त्म-मरण के बन्त्धन से मुि हो जाते हैं। अन्त्य सभी व्यिि तो मात्र स्त्री
के सेवक हैं । सुषुम्ना को शिि तथा जीव को िशव कहते हैं। ददव्य योगी सुषुम्ना तथा
प्राणरूपी जीव का संगम कराके वास्तिवक सुरत का आनन्त्द भोगते हैं । हमारा
पृर्थवीतत्त्व जलतत्त्व में, जलतत्त्व अिितत्त्व में, अिितत्त्व वायुतत्त्व में, वायुतत्त्व
आकाशतत्त्व में, आकाशतत्त्व अहंकार में, अहंकार महत्तत्त्व में, महत् प्रकृ ित में प्रकृ ित
पुरूष - िवराट् में िवलीन होता जाता है ।
हमारे शरीर में वामकु क्षी में एक संकोचशरीरात्मक पापपुरूष की कल्पना करते है, जो
िवकराल, िू र, अधोमुख, अदशयनीय, दुमुयख एवं समस्त दुररतप व दुमयित का उद्गम स्थान
है । वैसे भी आपने देखा होगा दक जब हमे पक्षाघात होता है या महाव्यािध आती है,
तब हमारे शरीर का वामभाग ही ज्यादा दुष्प्रभावी बनता है ।
खिलल िजब्रान की एक सुन्त्दर उिि है - मैं ही आग हूं, मैं ही कू डा हूं, मेरी आग में, मेरे
कू डे को जलाकर, जीवन को सुन्त्दर बना सकता हूं । िजतने भी खराब िवचार, पाप,
दुररत कमो का उद्भव होता है वह शरीर के अन्त्दर से ही होता है और उनका शमन-
दमन भी अपने अन्त्दर ही होता है ।
अपने शरीर में पंचभूतप का आिधपत्य िभि-िभि भागप में है । सबसे नीचे पृर्थवी तत्त्व,
पीतवणय के चतुष्कोण यंत्र का बीज लं है, उसके उपर वरूण तत्त्व का स्थान है, श्वेतवणय,
धनुषाकार बीज वं है, उसके उपर ित्रकोण मण्डल में विन्त्ह तत्त्व का स्थान हैं, रिवणय
एवं रं बीज है, उसके उपर वतुलय ाकार धुम्रवणय वायु मण्डल बीज यं है, उसके उपर अवणय
नीराकार आकाशमण्डल बीज हं वणय है । भूतशुिद्ध से पञ्चभूतात्म देह की शुिद्ध होती है।
पुनाः पररशुद्ध िवराट ब्रह्म से सृिटिम से प्रकृ ित, महत्, अहंकार, आकाश, वायु, अिि,
जल एवं जलसे पृर्थव्यादद पंचभौितक देह की कल्पना करते है । दफर िवराट में िवलीन
िवशुद्ध िशवयुि जीव हृदय में प्रितिष्ठत करते है और कु ण्डिलनी को पुनाः सुषुम्णा मागय
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
को प्रकािशत करते हुए, मूलाधार के प्रित प्रयाण कल्पते है । शुद्ध जीवात्मा के उपर
गभायधानादद षोडश संस्कार की भावना करते है । अपने शरीर को इटदेवता का पीठ
मानकर उसके िविध अगगप पर पीठ देवताओं का इस प्रकार न्त्यास करना चािहये ।
समस्त पद्मोचिो के पंखडीयप में एकावन वणों का स्थान है, जैसे आगे बता चूके है ।
पूरी वणयमाला शरीरमें ददव्य कला - चेतना के रूपमें िस्थत है, उसका ही उपयोग करके
महाशििप्रदा वणयमाला-अक्षमाला का वणयन आगम ग्रंथप में िमलता है । यही मन्त्त्रप का
उद्गम एवं प्राण है । अन्त्तमायतृका-बिहमायतृका न्त्यास इसी वणो की अमोघ शििका
रसास्वादन कराती है ।
वैसे तो ये पूरी दिया भावात्मक एवं श्रद्धात्मक है । यहीं बात एक उदाहरण से समझते
है । एक व्यिि ऋिषके ष से गंगाजल एक कलश में ले आता है । घर में उसे एक जगह
पर स्थािपत करता है । दो-तीन पीढी के बाद यह बात िवस्मृत हो जाित है । अब घर
का निवनीकरण का काम चलता है, बङ्रप के हाथ में यह गंगा जलका कलश आता है,
उन्त्हें मालुम नहीं दक, उसमें क्तया है, सब को संशय होने लगता है । कलश में गंगा होने
का दकसीको भी याद नहीं है । क्तया होगा इस कलश में, दकसका जल होगा, कु छ
अिभमंित्रत करके रक्तखा होगा - ऐसे अनेक संशय मन में उठते है । घरका ज्येष्ठ पुत्र
समाधान देता है दक, जो भी होगा हमें मालुम नहीं, अच्छा यही है दक, इसे गंगा में
िवसर्तजत कर दे । कोई दोष भी नहीं लगेगा । ऐसा िवचार करके उस कलश जल को
गंगा में प्रवािहत कर देते है । दफर मनमें आता है दक यहां तक आए हैं तो, गंगाजल
लेकर ही जाए । कलश को पुनाः शुद्ध करते है । उसमें गंगा जल भरके घर ले आते है ।
गंगा पूजन करके उसे पुनाः देवस्थान में स्थािपत करते है । ज्ञान के द्वारा आत्मतत्त्व को
जानने की दिया कु छ ऐसी ही है ।
आपके शरीर के अंगो को भी िचदकत्सक बहार िनकालकर, सजयरर करके पुनाः शरीर में
प्रस्थािपत करते है - ओपन हाटय सजयरी करते है, वैसे ही शरीरस्थ अंगो का शोधन होता
है । जो जैसी कल्पना करता है, वही उसके समीप आता है । वह वैसा ही बन जाता है -
उसे कीटभ्रमर न्त्याय कहते है । भौरें की अवाज से कीडा भ्रमर बनता है । अिवरत श्रद्धा
एवं िवश्वास से, साध्य समीप आ जाता है । अज़गर ज्यादा चल नहीं सकता, तथािप
दौडते पशु स्वयं िशकार बनकर उसके मुह ं में आ जाते है । िचपकली ददवाल को
िचपककर चलती है, उसका आहार है, उडते जंतु । इसकी धारणा शिि उडते जन्त्तु को,
इसके मुह ं मे लाकर रख देती है । ध्यान एवं धारणा को अटांग योग के अंग माने है । मन
की एकाग्रता एवं श्रद्धा से सबकु छ सहज प्राप्य हो जाता है ।
देहो देवालयो प्रोि - हृदयरूपी गुहा में आसन बनाकर अन्त्ताःस्थ परामात्मा का पूजन
करने के िलए स्वयं के शरीर में देवपीठ बनाते है, इस प्रिीया पीठन्त्यास कहते है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पुनाः धमय अदद का तत्तस्थानप में इस प्रकार न्त्यास करना चािहए । यथा -
ॎ धमायय नमाः दिक्षणस्कन्त्धे, ॎ ज्ञानाय नमाः वामस्कन्त्धे, ॎ वैराग्याय नमाः वामोरी,
ॎ ऐश्वयायय नमाः दिक्षणोरीाः, ॎ अधमायय नमाः मुखे, ॎ अज्ञानाय नमाः वामपाश्वे, ॎ
अवैराग्याय नमाः नाभौ, ॎ अनैश्वयायय नमाः दिक्षणपाश्वे ।
तदनन्त्तर हृदय में अनन्त्त आदद देवताओम का िनम्निलिखत मन्त्त्रप से न्त्यास करना
चािहए । यथा - ॎ तल्पाकारायानन्त्ताय नमाः हृदद,
ॎ आनन्त्तकन्त्दाय नमाः हृदद ॎ संिविालाय नमाः हृदद,
ॎ सवयतत्त्वात्मकपद्माय नमाः हृदद ॎ प्रकृ तमयपत्रे्यो नमाः हृदद
ॎ िवकारमयके सरे ्यो नमाःहृदद ॎ पञ्चाशद्बीजाढ्यकर्तणकायै नम्ह हृदद
ॎ अं सूययमण्डलाय द्वादशकलात्मने नमाः
पुनाः हृत्पद्म पर - ॎ कं भं तिपन्त्यै नमाः ॎ खं बं तािपन्त्यै नमाः
ॎ गं फं धूम्रायै नमाः ॎ घं पं मरीच्यै नमाः ॎ ङं नं ज्वािलन्त्यै नमाः
ॎ चं धं रुच्यै नमाः ॎ छं दं सुषुम्णायै नमाः ॎ जं थं भोगदायै नमाः
ॎ झं तं िवश्वायै नमाः ॎ ञं णं बोिधन्त्यै नमाः ॎ टं ढं धाररण्यै नमाः
ॎ ठं डं क्षमयै नमाः ।
पुनस्तत्रैव - ॎ उं सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमाः
ॎ अं अमृतायै नमाः ॎ आं मानदायै नमाः ॎ इं पूषायै नमाः
ॎ ईं तुटयै नमाः ॎ उं पुटयै नमाः ॎ ऊं रत्यै नमाः
ॎ ऋं धृत्यै नमाः ॎ ऋं शिशन्त्यै नमाः ॎ लृं चिण्डकायै नमाः
ॎ ल्ुं कान्त्त्यै नमाः ॎ एं ज्योत्स्नायै नमाः ॎ ऐं िश्रयै नमाः
ॎ ओं प्रीत्यै नमाः ॎ औं अगगदायै नमाः ॎ अं पूणाययै नमाः
ॎ अाः पूणायमृतायै नमाः ।
पुनस्तत्रैव - ॎ रं विहनमण्डलाय दशकलात्मने नमाः
ॎ यं धूम्रार्तचषे नमाः ॎ रं ऊष्मायै नमाः ॎ लं ज्विलन्त्यै नमाः
ॎ वं ज्वािलन्त्यै नमाः ॎ शं िवस्फु िलिगगन्त्यै नमाः ॎ षं शुिश्रयै नमाः
ॎ सं स्वरुपायै नमाः ॎ हं किपलायै नमाः ॎ ळं हव्यवाहनायै नमाः
पुत्रस्तत्रैव - ॎ सं सत्त्वाय नमाः ॎ रं रजसे नमाः
ॎ तं तमसे नमाः ॎ आं आत्मने नमाः ॎ अं अन्त्तरात्मने नमाः
ॎ पं परमात्मने नमाः ॎ ह्रीं ज्ञानात्मने नमाः ॎ मां मायातत्त्वाय नमाः
ॎ कं कलातत्त्वाय नमाः ॎ तव िवद्यातत्त्वाय नमाः ॎ पं परतत्त्वाय नमाः ।
ध्यानम् - रिाभोिधस्थ पोतोल्लसदरूणसरोजािधरूढा रकाब्जैाः, पाशंकोदंडिमक्षु-
द्भवमथगुणमप्यंकुशं पंचबाणान् । िबभ्राणासृक्कपालं ित्रनयनलिसता पीनवक्षोरूहाढ्या
देवी बालाकय वणाय भवतु सुखकरी प्राणशििाः परानाः।। मानसोपचारै ाः संपूज्य. योन्त्या
प्रणमेत् । मंत्र - ॎ आंह्रींिौं यंरंलव ं ं शंषंसह
ं ंसाःसोहम् मम प्राणा इह प्राणााः । मंत्र मम
जीव इहिस्थताः । मंत्र मम सवेिन्त्द्रयािण वाङ्मनस्त्वक्तचक्षुाः श्रोत्र िजह्वा घ्राण पािण पाद
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पायूपस्थािन इहैवागत्य सुखंिचरं ितष्ठन्त्तु स्वाहा । पंचदशवारं ॎकारं जपेत् । ओं
गभायधानं संपादयािम. पुंसवनं संपादयािम. सीमन्त्तोियनं संपादयािम. जातकमय
संपादयािम. नामकरणं संपादयािम. िनष्िमणं संपादयािम. अिप्राशनं संपादयािम.
चूडाकरणं संपादयािम. िवद्यारम्भ संपादयािम. कणयवेधन संपादयािम. उपनयनं
संपादयािम. वेदारम्भ संपादयािम. के शांन्त्त संपादयािम. समावतयन संपादयािम. िववाह
संपादयािम ।। अनेन मम देहस्य गभायधानादद पंचदशसंस्कारााः संपद्यताम् ज्योितमययं
स्वशरीरं भावयेत् - प्राणायामं कु यायत् ।। आम्नायानुसारे ण गुरूं सम्पूज्य - ददव्यौघां चैव
िसद्धौघान्त्मावौघािनित िमात् । परप्रकाशानन्त्दनाथ. परमेशानन्त्दनाथ.
परिशवानन्त्दनाथ. कामेश्वययम्बानाथ. मोक्ष्यम्बानाथ. कामानंदनाथ. अमृतानन्त्दनाथ. एते
सप्तैव ददव्यौघााः । ईशानानन्त्दनाथ. तत्पुषानन्त्दनाथ. अघोरानन्त्दनाथ. वामदेवानन्त्दनाथ.
सद्योजातानन्त्दनाथ. एते पंच िसद्धौघााः. । अमुकानन्त्दनाथ गुरवे. परमगुरवे.
परात्परगुरवे. परमेिटगुरवे.. गुरवाःपूिजतााःसंतर्तपतााः संतु ।। आत्मने - परमात्मने -
जीवात्मने - योगात्मने - ज्ञानात्मने .मानवौघा.।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
प्रकरटतहृदये तालुमूले ललाटे द्वेपत्रे षोडशारे िद्वदशदश दले द्वादशाधे चतुष्के ।
वासान्त्तेबालमध्ये डफकठ सिहते कण्ठदेशेस्वराणां हाँ क्षाँ तत्वाथांयुिं सकलदलगतं
वणयरूपं नमािम । बन्त्धूकाभां ित्रनेत्रां पृथुजघनलसत्कु िक्षमुद्रिवस्त्रां ,
िपनोत्तुगगप्रवृद्धस्तन जघनभरां यौवना रम्भरूढां । सवायलक ं ारयुिां सरिसजवनां
इन्त्दस
ु ंिान्त्तमौतल, ्म्बा पाशांकुशेटाभयवरदकरां अंिबकां तां नमािम ।
वणाांगवणयमालांगगी, भारतीं भाललोचनाम् । रत्नतसहासनां देवीं वन्त्देहंिसद्धमातृकाम् ।।
कभी मंत्र के छन्त्द-ऋष्यादद न िमले तो, िनम्नोि न्त्यास करनेसे दोष नहीं रहता ।
छन्त्दाःपुरूषन्त्यासाः सवायिनिमसूत्रिविहतच्छन्त्दाःपुरूषन्त्यासाः ।।
ॎ ितययिग्बलाय चमसाय ऊध्वयबुर्ध्नाय छन्त्दाःपुरूषाय नमाःमुखे।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
ॎ गौतमभरद्वाजा्यां नमाः नेत्रयोाः।
ॎ िवश्वािमत्रजमदिि्यां नमाः श्रोत्रयोाः।
ॎ विसष्ठकश्यपा्यां नमाः नासपुटयोाः।
ॎ अत्रये नमाः वािच।
ॎ गायत्र्यािि्यो नमाः िशरिस ।
ॎ उष्णक्तसिवतृ्यां नमाः ग्रीवायाम् ।
ॎ बृहतीबृहस्पित्यां नमाः हनौ ।
ॎ बृहद्रथन्त्तरद्यावापृिथवी्यां नमाः बाह्वोाः।
ॎ ित्रटु िबद्रा्यां नमाः नाभौ ।
ॎ जगत्याददत्या्यां नमाः श्रोण्योाः।
ॎ अितच्छन्त्दाप्रजापित्यां नमाः तलगे ।
ॎ यज्ञायिज्ञयवैश्वानरा्यां नमाः गुदे ।
ॎ अनुटुिब्वश्वे्यो देवे्यो नमाः ऊवोाः।
ॎ पंििमरूद्भ्यो नमाः जान्त्वोाः।
ॎ द्वपदािवष्णु्यां नमाः पादयोाः।
ॎ िवछन्त्दावायु्यां नमाः नासपुचस्थप्राणेषु ।
ॎ न्त्यूनाक्षराछन्त्दो्यो नमाः सवाांगेषु ।
इससे आगे अपने इट मन्त्त्र का िविनयोग, न्त्यास, देवता का ध्यान, पूजा करके ही
िविधवत् जप करना चािहए (स्वकीयाम्नायानुरेण) ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
चार वेद - ऋग्वेद में स्तुित, यजुवेद में यज्ञ, सामवेद में संगीत तथा अथवयवद े में आयुवेद,
अथयशास्त्र, राष्ट्रीयप्रेम का िचन्त्तन िमलता है। िजसमें िनयताक्षर वाले मन्त्त्रप की ऋचाएं
हैं, वह ऋग्वेद कहलाता है। िजसमें स्वरप सिहत गाने में आने वाले मन्त्त्र हैं, वह ‘सामवेद’
कहलाता है। िजसमें अिनयताक्षर वाले मन्त्त्र हैं, वह यजुवेद कहलाता है। िजसमें अस्त्र-
शस्त्र, भवन-िनमायण आदद लौदकक िवद्याओं का वणयन करने वाले मन्त्त्र हैं, उसे अथवयवद े
कहते है।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
इन वेदप के चार उपवेद हैं – ऋग्वेद का उपवेद स्थापत्यवेद, यजुवेद का धनुवेद, सामवेद
का गान्त्धवयवद
े और अथवयवद े का उपवेद आयुवेद है। आयुवद े के कताय धन्त्वन्त्तरर, धनुवद
े
के कताय िवश्वािमत्र, गान्त्धवयवदे के कताय नारदमुिन और स्थापत्यवेद के कताय िवश्वकमाय हैं।
वेद गद्य, पद्य और गीित के रूप में िवद्यमान हैं। ऋग्वेद पद्य में, यजुवेद गद्य में और
सामवेद गीित (गान) रूप में है। वेदप में कमयकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड िवशेष
रूप से होने के कारण इनको ‘वेदत्रयी’ या ‘त्रयीिवद्या’ के नाम से भी जाना जाता है। वेद
में एक लाख मन्त्त्र हैं। अस्सी हजार मन्त्त्र के वल कमयकाण्ड का व सोलह हजार मन्त्त्र ज्ञान
का िनरुपण करते हैं। के वल चार हजार मन्त्त्र उपासनाकाण्ड के हैं। गभायधान से लेकर
मृत्युपययन्त्त सोलह प्रकार के संस्कारप का भी वेद िनरुपण करता है। आरम्भ में िशष्यगण
गुरुमुख से सुन-सुनकर वेदप का पाठ दकया करते थे, इसिलए वेदप का एक नाम ‘श्रुित’ भी
है। ‘श्रुित’ माने ‘सुना हुआ ज्ञान’। बड़े-बड़े ऋिष-मुिनयप ने समािध में जो महाज्ञान प्राप्त
दकया और िजसे जगत के कल्याण के िलए प्रकट दकया, उस महाज्ञान को श्रुित कहते हैं।
आज भी गुरुमुख से श्रवण दकए िबना के वल पुस्तक के आधार पर ही मन्त्त्रा्यास करना
िनष्फल माना जाता है।
वेदप की शाखाएं - कू मयपुराण में बताया गया है दक ऋग्वेद की इक्कीस शाखाएं, यजुवद े
की एक सौ एक शाखाएं, सामवेद की एक हजार एक शाखाएं और अथवयवद े की नौ
शाखाएं हैं। कु ल ११३१ शाखाओं में से के वल १२ शाखाएं ही मूलग्रन्त्थ में उपलब्ध हैं।
इन शाखाओं का अिधकांश भाग लुप्त है ।
इन शाखाओं की वैददक शब्दरािश चार भागप में प्राप्त है - १ संिहता–इसमें वेद के मन्त्त्र
हैं, २ ब्राह्मण–इसमें यज्ञ-अनुष्ठान की पद्धित और उनके फलप्रािप्त का वणयन है, ३
आरण्यक–वानप्रस्थ आश्रम में अरण्य (जंगल) में इसका अध्ययन कर मनुष्य को
आध्याित्मक बोध कराने की िविध का िनरुपण है इसिलए इसे ‘आरण्यक’ कहते हैं।
वास्तव में इनका आरण्यक नाम इसीिलए पड़ा दक ये ग्रन्त्थ अरण्य (वन) में ही पढ़ने
योग्य हैं; गांवप और नगरप के कोलाहलयुि स्थान में नहीं। गहन वन में ब्रह्मचयय-व्रत
धारणकर िजस ब्रह्मिवद्या का ऋिषगण पाठन करते थे, वही ग्रन्त्थ आरण्यक के नाम से
प्रिसद्ध हुए। ४ उपिनषद्–इसमें अध्यात्म िचन्त्तन की प्रधानता है।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
पुराण धमय संबंधी आख्यान ग्रंथ हैं। पुराण का शािब्दक अथय है, प्राचीन या पुराना ।
इितहास पुराणा्यां वेदाथय मुपबहययेत् अथायत् वेद का अथयिवस्तार पुराण के द्वारा करना
चािहये। इनसे यह स्पट है दक वैददक काल में पुराण तथा इितहास को समान माना है।
पुराण के पांच लक्षण है । सगयश्च प्रितसगयश्च वंशो मन्त्वंन्त्तरािण च । वंशानुचररतं चैव
पुराणं पंचलक्षणम् ॥१ सगय – पंचमहाभूत, इं दद्रयगण, बुिद्ध आदद तत्त्वप की उत्पित्त का
वणयन,२ प्रितसगय – ब्रह्माददस्थावरांत संपूणय चराचर जगत् के िनमायण का वणयन, ३ वंश –
सूययचंद्रादद वंशप का वणयन, ४ मन्त्वन्त्तर – मनु, मनुपुत्र, देव, सप्तर्तष, इं द्र और भगवान् के
अवतारप का वणयन,५ वंशानुचररत – प्रित वंश के प्रिसद्ध पुरुषप का वणयन । पुराण अठारह
हैं। मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुटयम् । अनापतलगकू स्कािन पुराणािन प्रचक्षते ॥
म-२, भ-२, ब्र-३, व-४ । अ-१,ना-१, प-१, तल-१, ग-१, कू -१, स्क-१ ॥
िवष्णु पुराण के अनुसार उनके नाम ये हैं - िवष्णु, पद्म, ब्रह्म, वायु(िशव), भागवत, नारद,
माकय ण्डेय, अिि, ब्रह्मवैवतय, तलग, वाराह, स्कं द, वामन, कू मय, मत्स्य, गरुड, ब्रह्मांड और
भिवष्य।
पुराणप मे ब्रह्मा,वुष्णु,िशव का प्रधान वणयन िनम्नानुसार है ।
िवष्णु पुराण ब्रह्मा पुराण िशव पुराण
भागवत पुराण ब्रह्माण्ड पुराण िलगग पुराण
नारद पुराण ब्रह्म वैवतय पुराण स्कन्त्द पुराण
गरुड़ पुराण माकय ण्डेय पुराण अिि पुराण
पद्म पुराण भिवष्य पुराण मत्स्य पुराण
वराह पुराण वामन पुराण कू मय पुराण
।। हरर ॎ तत्सत् ।।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
उत्तर, दिक्षण, पूवय एवं पिश्चम पूरे भारत वषय में सत्यनारायण की कथा एक ऐसा व्रत है
जो सवयत्र प्रचिलत है । व्रत की कथा स्कन्त्दपुराणान्त्तगयत रेवाखण्ड मे आती है ।
कथा में कई स्थान पर शंका होती है, जैसे दक भगवान को नारदजी को क्तयप पूछना पडा
दक दकमथयमागतोऽिस त्वं कक ते मनिस वतयते - यहां भगवान के अन्त्तयायिमत्व पर प्रश्न
उठता है, तो कहीं पर िलखा है भटप्रितज्ञामालोक्तय शापं तस्मै प्रदत्तवान् एवं मा रोदीाः
शृणु मद्वाक्तयं मम पूजा बिहमुख
य ाः भगवान क्तया हमारी पूजा के अपेिक्षत है, ऐसे तो,
उनके िनजकामत्व-आप्तकामत्व पर संदह े होता है । आगे भी शत पुत्रप का होना एवं शत
पूत्रप का नट होना, नांव का अदृश्य होना, कथा के अन्त्तगयत पात्रपने कौनसा चररत्र
सूना होगा ।
एक प्रिसद्ध विाने तो, अपनी सभामें कहां दक, मैने हमारे पिण्डतजी को पूछा दक क्तया
ये कथा सत्य है, साधु-विणक ने कौनसी कथा सुनी थी, चन्त्द्रचूड ने कौनसी कथा सूनी
थी और पिण्डतजी िनरूत्तर रहे । ऐसे बहुश्रुत विाओं को (िजस के पास शास्त्र-पुराण
समझने की प्रज्ञा का अभाव हो) योग्य प्रत्युत्तर िमलना चािहए ।
सत्यनारायण कथा इस से पूवय िहन्त्दी एवं गुजराती में प्रकािशत हुई है । उि पुस्तक में
प.पू. जगद्गुरू श्री जयेन्त्द्र सरस्वतीजी महाराज, कांची से दो पत्र, प.पू. प्रमुख
स्वािमजी महाराज का गुजराती एवं िहन्त्दी में पत्र, प.पू.श्री कृ ष्णशंकर शास्त्रीजी जैसे
अनेक महानुभावप के आिशवायद प्राप्त हुए है, जो मेरे िलए सद्भाग्य की बात है । यही
मेरा प्रेरणास्रोत भी है । अब संशोधन के साथ तृतीयावृित्त िहन्त्दी भाषा में प्रकाशनाथय
तैयार है । अथयव्यवस्था होते ही शीघ्र िवद्वज्जनप के करकमलप में समर्तपत करूंगा । मेरा
यह िनणयय है दक मैं, जो भी िलखुं - िवद्वानप के िलए िलखु, इसिलए सारी पुस्तकप की
प्रतें कम रहती है एवं िनाःशुल्क रहती है ।
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मंत्रशिि एवं उपासना रहस्य
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।। श्री शकटाषबफकामै नभः ।।
एक ससन्दय उदाहयण देते हैं , षजस प्रकाय इरेषतिक भोटय भें विद्यसत सप्राम देने से, उसभें
गवत आती है , इससे विऩरयत इसी भोटय का आभेचय फनाके गवत देने से ऩसनः विद्यसत उत्त्ऩन्न
होती है । तऩ भा्मभ है - ऩयभात्भा से सृषष्ट एिॊ सृषष्ट भें ऩसनः ब्रह्मानसबवू त का....
हपषजमोथेयोहपस्ट से ऩास जाते है औय उनके आदेशानससाय अॊगों को भोडते है , महह है
सभवऩमत होना । फस, िैसे ही बियोग शनिृत्मथम गसरू को बी सभवऩमत होना ऩडता है । शनष्ठा
एिॊ दृढ श्रद्धा से सफ प्राप्म है .....
आजकर प्रामः हकसी की फथमडे ऩाटी, भेयज े एशनिसमरय, रग्न, िास्तस, रयसेप्शन भें रयटनम
शगफ्ट देते हैं । ऩयभात्भाने एक हदनकी १४४० शभशनट का हभे आमसष्म हदमा, जफ कई रोगों
की भृत्मस हू ई होगी, तमा हभ बी हभे प्राप्त शभशनटों भें से कस छ रयटनम शगफ्ट ऩसनः ऩयभात्भा को
नहीॊ दे सकते ? शशिशतत्मात्भरूऩास्तस शनत्मानसग्रहशाशरनः - अतः भॊत्र शशिशषतत का
मसग्भस्िरूऩ है जो शनत्म कल्माणकायी होता है । शेष ऩसस्तक भें....