Professional Documents
Culture Documents
2.10 प्रस्तत
ु अध्याय में विनय पत्रिका के 51-100 पद में से कुछ पदों की सप्रसंग व्याख्या
प्रस्तुत की गई हैं ये व्याख्याएँ उदाहरणार्थ हैं
प्रसंग :-
प्रस्तत
ु पदयांश प्रससदध राम भक्त कवि गोस्िामी तल
ु सीदास दिारा सलखित ग्रंर् विनय
पत्रिका से सलया गया हैं विनय पत्रिका में तुलसीदास कसलकाल से मुक्क्त पाने के सलए विनय
भरे पदों में अपने आराध्य श्रीराम को पत्रिका सलि कर अपनी दीनता दिारा मुक्क्त की कामना
की हैं। प्रस्तुत पदयांश में विनयभाि दशाथतें हुए राम भक्क्त की याचना की गई हैं।
व्याख्या :-
तुलसीदास जी श्रीराम के रूप िणथन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं की श्री जानकी
िल्लभजी रघुनार् जी रागदिेषरूपी अंधकार का नाश करने िाले तरुण सुयथ के तेज के धाम
हैं। िह सक्चचआनंदकंद अर्ाथत आनंद के मूल की िानन और संसार को शांनत प्रदान करने
िाले परम ् सुंदर हैं उनका शरीर नील मेघ के समान शोभा प्रदान करने िाला हैं। उन्होंने सुंदर
रे शमी पीताम्बर धारण ककया हुआ हैं और मस्तक पर रत्नों से जड़ा सुंदर मुकुट सैकड़ों सूयथ
के समान प्रकासशत हो रहा हैं। श्रीराम कानों में कुण्डल पहने, मार्े पर केसर का नतलक लगाए,
लाल कमल के समान नेि िाले तर्ा नतरछी चचतिन से दे िते हुये, तीनों लोकों का दुःु ि दरू
करने िाले हैं, और सशिजी के हृदयरूपी मानसरोिर में विहार करने िाले हंसरूप हैं। तुलसी
श्रीराम के रूप सौन्दयथ का िणथन करते हुए आगे कहते हैं कक राम की नाससका सन्
ु दर हैं, कपोल
मुस्कान मधुर हैं, कंठ शंि के समान हैं ठोढी तर्ा िाणी सुन्दर तर्ा गंभीर हैं ।
भगिान राम के हृदय पर विसभन्न रं ग के फूलों और तुलसी के निीन पिों की
कोमलमाला सुशोसभत हो रहीं हैं क्जसकी सुगंध से मतिाले भौरों का समूह मधुर गुंजार करता
हुआ इधर उधर भटक रहा हैं। श्रीराम क्जनके हृदय पर श्रीित्स का चचह्न हैं, बाहुओं पर बाजब
ू ंद
हार्ों में कंकण और हृदय पर हार शोभा दे रहा हैं। श्रीराम के कमर पर करघनी का ननराला ही
शब्द शोभा दे रहा हैं। श्री राम जी के िाम भाग में जानकी जी ससहांसन पर विराजमान हैं ऐसा
तक लम्बी हैं उनकें बायीं हार् में धनुष और दायें हार् में बाण सजे हुए हैं। सम्पूणथ मुननमंडल,
दे ि ससदध, श्रेष्ठ गंधिथ, मनुष्य, नाग और अनेक राजे महाराजे क्जनको प्रणाम करते हैं।
तुलसीदास जी श्रीराम के सौंदयथ के िणथन की व्याख्या करते हुए कहते हैं कक राम
हैं। ऐसे भक्तों के दुःु ि दरू करने िाले तर्ा ननपुण कला में कुशल लक्ष्मण सहहत श्रीरामचंद्र
श्री राम जी के दोनों चरणकमल आनंद के धाम हैं और कमला अर्ाथत लक्ष्मी के ननिास
स्र्ान हैं (अर्ाथत क्जन चरणों की लक्ष्मी सदा ही सेिा करती हैं) िज्र आहद 48 चचह्नों ने राम
अनुपम शोभा को प्राप्त हो रहे हैं और क्जन्होने भक्तिर हनुमान के ननमथल हृदय में अपना
उत्तम मंहदर बना रिा हैं अर्ाथत जो सदा हनुमान जी के हृदय में बसते हैं। ऐसे शोकहताथ
विशेष :-
(1) प्रस्तुत पदयांश में भगिान राम के रूप सौन्दयथ, दीन-दयालुता, भक्तित्सलता रूप का
हैं।
प्रसंग :- पूिोक्त
व्याख्या :- तुलसीदास जी भगिान श्री राम से विनती करते हैं की िह उनके समस्त दुःु िों का
नाश करके अपने चरणों में स्र्ान दे । तुलसीदास जी रामभक्क्त की याचना करते हुए कहते हैं
कक है लक्ष्मीनारयण मझ
ु संसार सागर डूबते हुए को अपने करकमल का सहारा दीक्जए आप
तो समस्त दि
ु ों को हरने िाले बड़े -बड़े संतापों का नाश करने िाले हो, हें दष
ू णासुर के शिु
आप अविदया-रूपी चन्द्रमा को ग्रसने के सलए साक्षात राह तर्ा अहंकार और काम रूपी मतिाले
हाचर्यों का मदथन करने िाले ससदध हैं। शरीर रूपी ब्रह्मांण्ड में जो प्रिनृ त है िहीॉँ लंका का
ककला हैं। इस मनरूपी मायािी भय दै त्य ने ननमाथण ककया है। इसमे जो अनेक कोश हैं -
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय इसके सुंदर महल हैं और सत्ि आहद
तीनो गुण िहां के प्रचंड सेनापनत हैं। दे हासभमान ही महाभयंकर अर्ाह, आपार और दस्
ु तर समुद्र
हैं, जहाँ राग-दिेष रूपी घड़ड़याल भरे हुये हैं और सारी कामनाएं तर्ा विषयासक्क्त के संकल्प
-विकल्प की लहरे हैं ऐसी भीषण समुद्र तट पर बसी लंका में मोहरूपी रािण, अहंकाररूपी
कंु भकणथ के सार् अटल राज्य करता हैं। यहाँ पर लाभरूपी अनतकाय मत्स्यरूपी दष्ु ट महोदर
दिेषमि
ु ी दम
ु ि
ुथ , दम्भरुपी, िट, कपटरुपी अकम्पन, दपथरूपी मनज
ु ाद
और मदरूपी शूलपाखण नमक दै त्यों का समूह बड़ा पराकमी और कहठनता से जीतने योग्य हैं
के मारे इन दष्ु टों से दरू ककसी तरह िन में अपना जीिन काट रहा हैं। यम-ननयम रूपी दसों
तुलसीदास जी कहते हैं की है नार् जैसे आपने कौशलेस महाराज दशरर् के यहाँ
दशरर् के यहां शुभ भक्क्तरूपी कौशल्या के गभथ से, मोह माया आहद का नाश करने केसलए
अितार धारण कीक्जए, हे जानकी िल्लभ ! क्जस प्रकार आप भक्तों का कष्ट दे िकर, तर्ा
वपता की आज्ञा से िन चले गए र्े, उसी प्रकार जीि की भिबाधा हरने के सलए मेरे हृदय रूपी
िन में पधाररये।
मोक्ष के क्जतने कुछ साधन हैं उन्हें रीछ और बंदर बनाकर वििेक रूपी सग्र
ु ीि को
सार् लेकर संसार रूपी समुद्र का पुल बनाकर वििेकरूपी सुग्रीि को सार् लेकर संसार रूपी
समद्र
ु का पल
ु बाँध दीक्जए, उत्कट िैराग्य रूपी पिन कुमार हनम
ु ान विषय िासना रूपी िन
और महलों को अक्ग्न के सदृश्य भस्म करने िाले हैं। हे अिंड ज्ञानस्िरूप श्रीराम ! इस अपने
हृदय कमल में भ्राता लक्ष्मण और श्री जानकी सहहत सदा ननिास कीक्जए।
विशेष :-
प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी ने श्रीराम जी दिारा अपने भक्तों का उदधार करने के सलए
(2) भाषा संस्कृतननष्ठ हैं तर्ा तत्सम शब्दािली का प्रयोग हुआ हैं।
(3) प्रस्तत
ु पद में उपमा, रूपक आहद अलंकारों का प्रयोग हुआ हैं।
3. िे दह सतसंग ननजअंग श्री रं ग--------------------------------------मनतमललन कह िास तुलसी।
प्रसंग :- पूिोक्त
व्याख्या :- प्रससदध रामभक्त कवि गोस्िामी तुलसीदास रामभक्क्त की याचना करते हुये
कहते हैं प्रभु मुझे संतों का संग दीक्जए कारण की आपको पाने का यह मुख्य साधन हैं, संतों
के संग से यह संसार के जन्म-मरण रूपी चक्र का नाश करने िाला और आपकी शरण में आए
हुए समस्त जीिों का दुःु ि हरने िाला हैं। जो सदा आपके चरण पल्ल्िों के भरोसे रहते हैं और
आप की ही भक्क्त में क्जनकी लौ ननरन्तर लगी रहती हैं। हें मुरारी उनके समस्त संदेह दरू हो
जाते हैं ।
दै त्य, दे ि, नाग, मनुष्य, यक्ष, गन्धिथ पक्षी, राक्षस, ससदध तर्ा और भी क्जतने सारे
जीि हैं, िे सभी संतो के संग के प्रभाि से अर्थ, धमथ और काम से परे उस परम पद को पा
जाते हैं, जो अन्य साधनों से प्राप्त नहीं हो सकता ,ककन्तु केिल आपके प्रसन्न होने पर ही
िि
ृ ासुर, बसल, बाणसुर, प्रह्लाद, मय, व्याध, गजेन्द्र, चगदध ब्राह्मणोचचत धमथ-कमथ छोड़
दे ने िाला अजासमल प्रिपच आहद संतों के चरणोदक से अपने समस्त पापों को धोकर मोक्ष-पद
शब्द ब्रह्म के ज्ञाताओं में मुख्य और ब्रह्मिता हैं, जो कुशल समदृष्टा, आत्मदशी और अपनी
पराई बद
ु चध से सिथर्ा विमक्
ु त हैं। और हें चक्रपाणी। जो आपके परम भक्त और संसार से
विरक्त हैं।
जगत के कल्याणार्थ क्जनका चचत सदा अधीर और व्याकुल रहता हैं, क्जन्होंने
अहंकार और क्रोध का नतलांजसल दे कर अनेक पुण्य अक्जथत ककये हैं, ऐसे संत महात्मा जहाँ
ननिास करते हैं, उनके पास ब्रह्मा और सशिका सार् लेकर क्षीर समुद्र िासी श्रीहरर दौङे हुए
पहुँचते हैं।
िेद क्षीरसमद्र
ु हैं, वििेक मदं राचल हैं, उसे मर्ने िाले समस्त मनु नयों का समह
ू । मर्ने पर
ननश्चयपि
ू क
थ अमत
ृ कहा हैं। सारांश यह हैं कक समस्त िेदों का सार सत्संग हैं, इसी के बल
साधुओं का सदप
ु योग शोक, संदेह, भय, हषथ, अविदया और िासनाओं के समूह को इस प्रकार
नछन्न-सभन्न कर दे ता हैं जैसे श्री रघुनार् जी के िाण राक्षसों की सेना को कौशल तर्ा अत्यंत
िेग से नष्ट के दे ते हैं। आगे तुलसी जी कहते हैं, हें श्रीराम! अनेक दुःु ि भोगता हुआ और
संसार की सारी योननयों में चक्र लगता हुआ, अपने कमथ के अधीन, जहाँ कहीं भी मेरा जन्म हो
सांसाररक त्रिविध अर्ाथत भौनतक, दै हहक और दै विक रोगों को दरू करने के सलए आपकी
भक्क्त ही एक माि औषचध हैं, और िैदय हैं, अदिैत द्रष्टा आपका परम भक्त मसलन बुदचध
िाले तल
ु सीदास का यहीं कहना हैं की संत और भगिान में रत्ती भर भी अंतर नहीं, दोनों एक
ही रूप हैं।
विशेष :-
प्रस्तुत पद में तुलसीदास जी ने राम भक्क्त का गुणगान करते हुए सत्संग की महहमा
पर बल हदया हैं।
(1) तुलसीदास जी यह कामना करते हैं की जहाँ कहीं भी मेरा जन्म हो िहां संतों का सार् हो
(2) भाषा संस्कृतननष्ठ हैं तर्ा तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ हैं ।
4 (पि) सकल सौभाग्य-प्रि -------------------------------------- त्रास - पयोधि इि कंु भजाता।
प्रसंग :- पूिोक्त
व्याख्या :-
तुलसीदास जी अपने आराध्य राम जी की महहमा का गुणगान करते हुए कहते हैं
अखिलेश्िर, सब को आनंद दे ने िाले, सशिजी के हृदयकमल का पराग पान करने िाला भ्रमर
रूप हैं। हे राजाओं के सशरोमखण आप के इस मनोरम राम रूप को मैं नमन करता हूँ। हे राम
आप सब प्रकार के सुिो के स्र्ान, गुणों के पुंज, शांनतदायक महान पविि और शाक्न्तप्रद हैं।
विनाशक तर्ा करुणा के धाम हैं। आप को कोई जीत नहीं सकता। आप उपाचध रहहत हैं। आप
अदवितीय हैं।
ब्रह्म होते हुए भी जगत के हहतार्थ प्राकृत (नर-शरीर) रूप धारण करने िाले।
धारण करने िाले , अनतशय सुन्दर लक्ष्मीकांत, कामदे ि का सौंदयथ जन्य अंधकार पूणथ करने
िाले अत्यंत मनोहारी हैं। आप बड़ी कहठनाईओं से प्राप्त होते हैं। अर्ाथत आप तक कोई पहुंच
छुड़ाने िाले हैं अर्ाथत मक्ु क्तप्रदान करने िाले हैं। आप भक्तों को अनायास प्राप्त हो जाते हो
एिं प्रेमपराभक्क्त के िश में सदा रहते है। आप सत्य के उत्पादक, सत्य में अनुरक्त, सत्यसन्ध
हदव्यसामथ्यथिान, स्ियं संतुष्ट तर्ा सिथकष्टों के हताथ हैं। धमथ आप का किच हैं। आप पर और
अपर विदया के ज्ञान में अदवितीय हैं। हे मुरारर आप ब्राह्मणों के आराध्य है तर्ा भक्तों के
िल्लभ हैं। हे हरर आप अविनाशी, मोह ममता से दरू सदामुक्त, मानातीत ज्ञान-विग्रह,
सक्चचदानंद और जगत के आहद कारण है। आप सब की रक्षा करने िाले हैं तर्ा सब का लय
करने िाले है। यम के भी स्िामी है। आप ननविथकार, अत्यंत तेजयुक्त और भक्तों पर सदा
हैं। आप ही मंि के जापक और जाप्य भी हैं। आप ही सक्ृ ष्ट हैं और आप ही सष्ृ टा हैं। आप
कारण करके भी कारण हैं। आप की नासभ से कमल की उत्पनत हुई हैं। आप का शरीर मेघ
दृष्टा भी आप ही हैं।
तुलसीजी आगे कहते है हे राम समस्त आकाश में आप ही रमें हुए है। रजोगुणाहद से
आप ननलेप हैं। ब्रह्म आहद िर दे ने िाले दे िताओं के भी आप स्िामी हैं। आप के नाम बैकंु ठ,
िामन और विशद
ु ध ब्रह्मचारी हैं। ससदध और दे िों के समह
ू सदा आप की िंदना करते हैं। आप
जन्य तीनो गण
ु ों का नाश करने िाला हैं। िाणी मन और कमथ से यह तल
ु सीदास आप की
शरण में आया हैं उसका भिरुपी समूह साि लेने के सलए आप साक्षात ् अगस्त्य ऋवष हैं।
विशेष :-
प्रस्तत
ु पद में तुलसीदास ने अपने आराध्य श्री राम के रूप सौंदयथ का िणथन ककया हैं।
(1) श्रीराम को समस्त जगत के स्िामी बताया गया हैं। उनकी कृपा से ही संसार के समस्त
(2) भाषा संस्कृतननष्ठ हैं तर्ा रूप िणथन में अनतश्योक्क्त अलंकार का िणथन हैं।
प्रसंग :- पूिोक्त।
व्याख्या :-
गोस्िामी तुलसीदास जी अपने आराध्य श्री राम की दीन दयालुता स्िभाि का िणथन
करते हुए कहते हैं कक श्री राम आप संतो के संताप हरने िाले विश्ि को विश्राम दे ने िाले
धन, संतों का आनंद बढ़ाने िाले और िर दानि के शिु हैं। हे प्रभु आप शील और समता के
स्र्ान, िैषम्य-बद
ु चध के नाशक, लक्ष्मी के पनत और रािण के शिु हैं। आप ने तलिार, ढाल,
िाण, धनुष और शक्क्त को धारण कर रिा हैं। किच धारण ककया हुआ हैं तर्ा कमर में
विज्ञान से पररपूणथ है। आप का नाम अत्यत घने अंधकार से पुराण संसाररूपी रात्रि का अंत
करने के सलए प्रचंड ककरणों िाला सूयथ हैं। आप का तेज बड़ा तीक्ष्ण हैं, संसार के ननत्य नूतन
तीव्र पापों के आप नाशकता है। राजा का शरीर धारण करते हुए भी आपका स्िरूप तपोमय हैं।
आप अविदया से परे तपशील है। मान, मद काम, मत्सर, कामना और मोहरूपी समद्र
ु मर्ने के
सलए आप दोनों मदराचल हैं। आप अत्यंत विचारशील हैं। आप िेदों में प्रससदध िर दे ने िाले,
दे िताओं के काम क्रोध, मोह, मद और मत्सर के नाशक, क्षमा करने िाले, शांनत स्िरूप तर्ा
आप परम पविि पाप पुंज रूपी मुँज के िन को पल भर में भस्म करने िाले अक्ग्नरूप
विश्ि का पालन पोषण करने िाले हैं। ऐसे दीन दयाल, जगत स्िामी को तुलसी प्रणाम करता
हैं तर्ा आपकी सदा जय हो। हे प्रभु आप ननविथकार, एकरस कला-रहहत, कला-सहहत, कसल के
ताप से तपे हुए जीिों की व्याकुलता हरने िाले और आनंदधन है। आप शेषनाग पर शयन
हैं। आप के चरणों की पवििता के सम्बन्ध में कहना ही क्या हैं, जहाँ से परम पािन गंगा
का आविभाथि हुआ हैं, क्जस गंगा के दशथन माि से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं।
विशेष :-
प्रस्तुत पद में तुलसी श्री राम के हदव्य गुणों की महहमा का गुणगान ककया हैं।
(1) इस पद में भगिान राम को माया रहहत, पापों का नाश करने िाला तर्ा षड्गण
ु संपन्न
(2) भाषा संस्कृतननष्ठ समचश्रत ब्रजभाषा हैं। तत्सम शब्दािली का अचधक प्रयोग हुआ हैं।
व्याख्या :-
तुलसीदास जी श्रीराम को अपना इष्टदे ि मानते हुए स्ियं को उनका दास मानते
हुए कहते हैं कक हें प्रभु मैं बुरा या भला, जो कुछ भी हूँ आप का ही हूँ। आप से झूठ क्यों
कहने चला ? आप तो घट घट की जानते हैं नछपा ही क्या हैं ? मैं कमथ, िचन और हृदय से
यह कहता हूँ की मैं आप का हूँ। यह आप की गुलामी का हट इतना पक्का हैं, जैसे पानी में
पड़े हुए सन की गाँठ। भाि यह हैं की जैसे पानी में पड़े हुए सन की गाँठ ककसी भी तरह
िुलती नहीं हैं। उसी प्रकार मैं आप की सेिा नहीं छोड़ सकता।
ककसी दस
ू रे दे िी दे िता का मझ
ु े भरोसा नहीं और न इंद्र ,ब्रह्मा अर्िा दे ि, मनष्ु य
एिं मुननयों की उपासना करने की ही इचछा ही हैं क्योंकक ये सब के सब मतलब के मीत हैं।
जब मैं जन्म भर हार्ी की जैसी भारी इनकी सेिा करूंगा, तब यह क़ुत्ते के जैसा तुचछ
फल दें गे। स्िी पुि और धन गले मढ़ दें गे। हैं मेरे आराध्य दे ि राम जी ! इन सबमें ककसी
की भी बेचारे , दीनो के सार् ऐसी सहानभूनत नहीं हैं जैसी आपकी हैं। जो मैं झूठ बोलता होऊँ
कक मैं राम का गुलाम हूँ तो हें दे ि आप तो सिथज्ञ हैं। मेरे इस शरीर को अपने आगे ऐसी
यातना दीक्जये, जैसे साँप की सभा में पािंडी सपेरे की (जो साँप को िश में करने का मंि नहीं
जानता हैं) दग
ु नथ त होती हैं, अर्ाथत उसे साँप काट िाता हैं, और िह मर जाता हैं। पािंड आखिर
कब तक चल सकता हैं ? और मैं यहद सचचा सात्रबत हो जाऊँ ( यह सच ् हैं कक मैं राम का
गुलाम हूँ ) िो मुझे पंचों के बीच में इस सचचाई का एक बीड़ा समल जाय। मुझ तुलसी रूपी
विशेष :-
(1) प्रस्तत
ु पद में तल
ु सीदास जी िद
ु को राम जी का गल
ु ाम स्िीकारते हैं।
(4) राम के रूप सौंदयथ तर्ा गुण सौंदयथ का िणथन प्रस्तुत पद में हुआ हैं।
प्रसंग :- पूिोक्त
व्याख्या :-
तुलसीदास जी अपने आराध्य श्री राम जी की महहमा का िणथन करते हुए कहते हैं ।
हें केशि ! कुछ कहाँ नहीं जाता ,क्या कहूँ ? यह अदभुत रचना दे िकर मन ही मन इसे आपकी
तल
ु सीदास जी सक्ृ ष्ट-िैचचत्र्य हदिाते हुऐं कहते हैं - ककसी ननराकर चचिकार ने शून्य
दीिार पर, त्रबना रं ग के ही ये चचि बनाए हैं। भाि यह हैं की आहदकताथ ननराकार परमात्मा ने
लेश माि भी नहीं हैं अर्ाथत, संकल्पमाि से शून्यधार पर असत के आश्रय पर , पांच भौनतक
रचना का प्रसार ककया हैं उस रचना में स्र्ूल, सूक्ष्म तर्ा कारण शरीर हैं। क्जसका कोई रं ग रूप
ननक्श्चत नहीं होता। अंतुः त्रबना रं ग के हैं चचिकार के िींचे चचि धोने पर भी नहीं समटते,
जाती हैं। जड़ चचिकारी को मरने का भय नहीं हुआ करता , पर इन चचिों का सदा मत्ृ यु भी
रहता हैं। एक और उलटी बात यह है कक इन चचिों की और दे िने से दुःु ि होता हैं, सुि नहीं।
इस सक्ृ ष्ट से मोह ममताजन्य भय सदा उपक्स्र्त रहता हैं ,पांचो विषयरूपी
भयानक मगर रहता हैं यदवप उस मगर के मुि नहीं पर जो भी जल पीने जाता हैं, चाहे िह
छटपटाकर मर जाते हैं। इस प्रकार अविदयाजन्य समथ्या संसार के विषयों में जो सुि िोजना
चाहते हैं, पुि-कलह से, धन-सम्पनत से अपनी सुि वपपासा बुझाना चाहते हैं, उन्हे समलता तो
कुछ नहीं पर उसी प्रिनृ त में फसे रहने के कारन, एक हदन त्रबना मुििाला मगर अर्ाथत
अत्यक्त काल उन्हे िा जाता हैं। चचिशाला पर मग्ु ध हो जाने का यहीं फल हैं।
सत्य और समथ्या दोनों का ससमश्रण हैं। अर्ाथत अदिैतिादी लोग इस जगत को समथ्या कहते
हैं ि ् ब्रह्मा की सत्ता स्िीकार करते हैं और दिैतिादी तर्ा विसशष्टादिैतिादी कमथ प्रधान जगत
के सत्य मानते हैं। एक पक्ष और हैं जो इस जगत की असत और सत दोनों मानते हैं। ककन्तु
सब कुछ श्री हरर की लीला ही मानता हैं, िहीं उस परमात्मा के िास्तविक स्िरूप को मानता
विशेष :-
(1) यह पद अत्यंत घड़
ु अर्थ िाला और जहटल हैं।
(3) प्रस्तत
ु पद में तल
ु सीदास जी भगिान श्री राम के ऎश्ियथपण
ू थ गण
ु ों के िणथन
करने के सार् -सार् उस परमात्मा के मानने तर्ा पहचानने िाले पक्षो पर प्रकाश डाला हैं।
उत्तर - विनय पत्रिका गोस्िामी तुलसीदास जी दिारा सलखित 279 पदों का संग्रह हैं। विनय
पत्रिका में तुलसीदास ने भगिान राम से विनय पदों में कसलयुग के िास से मुक्क्त पाने की
याचना की हैं। प्रांरभ के 63 पदों में गणेश, सूय,थ सशि, गंगा,सरस्िती, सीता, हनुमान, लक्ष्मण
आहद दे ि-दे िताओं की स्तुनत करते हैं। ताकक ये सभी दे िी-दे िता तुलसीदास जी दिारा भेजी
गई विनय पत्रिका को भगिान राम के चरणों में समवपथत करके तुलसी का कसलयुग के िास से
मक्
ु त करने में सहायक हुए हैं। विनयपत्रिका में 21 रागों का प्रयोग हुआ हैं। विनयपत्रिका का
प्रमुि शांत रस हैं। विनयपत्रिका आध्याक्त्मक जीिन को पररलक्षक्षत करती हैं। विनय पत्रिका
का एक अन्य नाम राम गीतािली भी हैं। तर्ा यह ब्रजभाषा में रचचत हैं। विनय पत्रिका में
सभीं दे िी-दे िताओं का गुणगान करके उन से राम भक्क्त की याचना की गई हैं। विनय पत्रिका
तुलसीदास जी आध्याक्त्मक जीिन के एक बहुत बड़े भाग का पररचय दे ती हैं। विनय पत्रिका
में तुलसीदास जी ने दीनता भरे पदों में राम भक्क्त की याचना की हैं। विनय पत्रिका दिारा
अपने आराध्य भगिान राम को सिथशक्क्तमान ससदध ककया हैं। सभीं दे िताओं के अनुमोदन
करने पर राम तल
ु सीदास की विनय पत्रिका स्िीकार कर लेते हैं।
पत्रिका में पदों की संख्या 279 हैं। विनयपत्रिका में विनय भरे पदों में भगिान राम का गुणगान
करके उन्हें जगत स्िामी बताया हैं। विनय पत्रिका में तुलसीदास जी विनय पद रचकर भगिान
में उलझे हुए हैं और अनेक बंधनों में जकड़े हुए हैं। इससलए तुलसीदास जी ने कसलयुग के
सांसाररक बंधनों से छुटकारा पाने के सलए भगिान राम की शरण ली और विनय भरे पदों में
एक पत्रिका सलिकर। भगिान राम के दरबार में भेजी और उनकी याचना की, कक मुझे यह
कसलयग
ु िास दे रहा हैं। आप मझ
ु े अपने चरणों में स्र्ान दे कर इस िास से मक्ु क्त दीक्जये।
विनय पत्रिका की रचना का मुख्य उददे श्य भगिान राम तर्ा राम भक्क्त का सिथश्रेष्ठ ससदध
करना रहा हैं। भगिान राम इस जगत के स्िामी हैं तर्ा उनकी भक्क्त करके ही इस सांसाररक
उत्तर - विनय पत्रिका गोस्िामी तुलसीदास दिारा रचचत 279 पदों में रचचत एक प्रमाखणक ग्रन्र्
हैं। तल
ु सीदास राम भक्क्त काव्यधारा के प्रमि
ु कवि हैं। विनय पत्रिका में भक्क्त भािना का
मूल स्िर दास्यभाि की भक्क्त हैं। क्जसमें तुलसीदास स्ियं को भगिान राम का दास स्िीकारते
हैं और राम को जगत स्िामी तर्ा जगत वपता बताते हैं, विनयपत्रिका में तल
ु सीदास जी दास
बनकर विनय भरे पदों में एक पत्रिका भगिान राम के दरबार में भेजते हैं तांकक भगिान राम
उनकी पीड़ा दरू कर के कलयुग से मुक्क्त दे सके। विनय पत्रिका में दास भाि की प्रमुिता होने
के कारण , इसमें गुरु की महहमा, आत्मननिेदन, आराध्य के चरणों में सम्पूणथ समपथण, सत्संग
का महत्ि, भक्क्त की अनन्यता, सेिक, सत्य भाि तर्ा ननष्काम भािना इत्याहद सजीि चचि
हदिाई दे ते हैं। विनयपत्रिका में तुलसीदास की भक्क्त में श्रदधा और विश्िास गूढ़ समन्िय
समलता हैं। तुलसी की दृक्ष्ट में राम के बराबर महान और अपने बराबर लघु कोई नहीं हैं।
राम का दास मानते हैं। तुलसीदास स्पष्ट घोषणा करते हैं कक सेिक-सत्य भक्क्त के त्रबना
कोई भी इस संसार रूपी सागर से पार नहीं जा सकता। विनय पत्रिका में तल
ु सीदास जी विनय
भरे पदों में भगिान राम से विनती करते हैं कक आप महान हैं तर्ा दीन-हीन, लघु तर्ा पनतत
हूँ। आप मुझे अपनी शरण में ले तर्ा मेरी भेजी हुई विनय पत्रिका स्िीकार करे । इस प्रकार
प्रश्न 4. विनय पत्रत्रका के पिों की संख्या ककतनी है तथा िर्णन विषय क्या हैं ?
विनय पत्रिका में विनय भरे पदों में राम भक्क्त का गुणगान ककया गया हैं। विनय पत्रिका के
पत्रिका का िणथन विषय-राम भक्क्त हैं अर्ाथत तुलसीदास विनय भरे पदों में पत्रिका सलिकर
राम के दरबार में भेजते हैं, भगिान राम से अनुरोध करते हैं कक िो उन्हे कसलयुग रूपी
भिसागर से मुक्क्त दे दें । विनय पत्रिका में राम को अन्य दे िी दे िताओं से महान बताया
दरबारी हैं। विनय पत्रिका के आरम्भ में तुलसीदास इन दे िी- दे िताओं कक स्तुनत करते हैं,
स्िीकार करने के सलए राम से अनुरोध करते हैं भगिान राम की कृपा से ही भिसागर मुक्क्त
समल सकती हैं। तुलसीदास अपने आराध्य को महान तर्ा स्ियं को लघु बताते हैं। विनय
पत्रिका में हहन्द ू दे िी दे िताओं सम्बन्ध के स्रोत और पद आते हैं। सभी में उनका गुणगान
उत्तर- विनय पत्रिका राम भक्क्त शािा के प्रमुि कवि गोस्िामी तुलसीदास जी की रचना हैं।
279 विनय भरे पदों में इस ग्रन्र् की रचना हुई हैं। 64 पदों तक गणेश, सय
ू ,थ सशि, गंगा,
यमुना, सरस्िती, हनुमान, आहद दे िी दे िताओं की स्तुनतयां की गयी हैं। तर्ा 65 पद के बाद
राम नाम का गुणगान ककया गया हैं। विनय पत्रिका की भाषा ब्रजभाषा हैं। ब्रजभाषा के सार्-
सार् इस में अिधी, अरबी तर्ा फ़ारसी के शब्द भी प्रयोग हुए हैं। भाषा शैली और व्यंजना के
दृक्ष्टकोण से विनय पत्रिका के दो भाग ककए जा सकते हैं - पूिाथदथध और उत्तरादथध। पूिाथदथध के
िणथन हैं। इन स्तुनतयों में संस्कृत पदािली के प्रयोग का यत्न ककया गया हैं। विनय पत्रिका के
उत्तरादथध में यानन 65 िे पद से आगे राम नाम महहमा प्रारभ होतीं हैं।
प्रश्न 6. विनय पत्रत्रका में भाि पक्ष और कला पक्ष स्पष्ट करें ?
उत्तर - तल
ु सीदास जी दिारा रचचत विनय पत्रिका भक्क्त का अनठ
ू ा ग्रन्र् होते हुए भी काव्य
सौष्ठि की दृक्ष्ट से प्रौढ़ रचना हैं। विनय पत्रिका के काव्यत्ि की प्रमुि विशेषता ये हैं की उस
में काव्य भक्क्त तर्ा संगीत का अदभुत समन्िय हैं। काव्य सौंदयथ के दो प्रमुि तत्ि हैं - भाि
पक्ष तर्ा कला पक्ष। - भाि पक्ष तर्ा कला पक्ष की समद
ृ चध अर्िा सुगमता भाषा के अचधकार
पत्रिका में नन:संदेह पाया जाता हैं। परन्तु दृक्ष्ट तो उसमें प्रीनतपाहदत भक्क्त-भाि पर ही
प्रधान्यता पायी जाती हैं। उक्क्त िैचचत्त्र्य और अर्थ गौरि का जैसा जीता जागता िणथन इस
ग्रन्र् में समलता हैं िह दे िते ही बनता हैं। विनय पत्रिका में उपमा , उत्प्रेक्षा, रूपक आहद
अलंकारों का प्रयोग हुआ हैं। विनय पत्रिका में सभी प्रकार के भािों में से प्रमुितुः दास्य भाि
भािपक्ष का सीधा िणथन कवि हृदय से हैं। हृदयपक्ष से अनुभूनतयों का जन्म होता हैं
भािपक्ष के अंतगथत मूलतुः सहृदयता को महत्ि हदया जाता हैं। विनय पत्रिका के सारे पद
आत्मननिेदात्मक शैली में भक्क्त भाि से सलिे गए हैं। इन पदों में जहाँ-जहाँ कवि ने लौककक
जीिन तर्ा संसाररक वििश्ताओं का चचिण ककया हैं, िहाँ-िहाँ िैराग्य की प्रधानता हो गई हैं।
हुआ हैं। इसके सुंदर पदों की संगीतमयता ननविथिाद हैं। विनय पत्रिका के पद
आत्मासभव्यंजनात्मक हैं, उनमें , अिंड भाि की व्यंजना, िे संक्षक्षप्त तर्ा संगीतमय हैं।
उत्तर- विनय पत्रिका तुलसी की एक श्रेष्ठ, भाि-पूण,थ मुक्तक काव्य कृनत हैं। इस काव्य में
उन्होंने गेय पद शैली का प्रयोग ककया हैं। हहंदी साहहत्य में इस शैली का प्रयोग कई कवियों ने
ककया हैं, विनय पत्रिका मुक्तक काव्य होने के कारण इसमें विसभन्न राग- रागननयों में इसके
पदों की रचना हुई हैं। विनय पत्रिका में गीनतकाव्य के तत्िों का समायोजन हुआ हैं-
के समायोजन से विनय पत्रिका गीनत शैली का प्रमुि ग्रन्र् बन पड़ा हैं। ककसी भी गेय पदरचना