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शीषक प ृ
सवािधकार और अनुमितयाँ
बालकांड
अयो याकांड
अर यकांड
िकि कंधाकांड
सुंदरकांड
लंकाकांड
उ रकांड
लेखक प रचय
बालकांड
वणानामथसंघानां रसानां छं दसामिप।
मंगलानां च क ारौ वंद े वाणीिवनायकौ॥ 1॥
बंदऊँ गु पद पदम
ु परागा। सु िच सब
ु ास सरस अनरु ागा॥
अिमअ मू रमय चूरन चा । समन सकल भव ज प रवा ॥
सक
ु ृ ित संभु तन िबमल िबभूती। मंजुल मंगल मोद सूती॥
जन मन मंजु मक ु ु र मल हरनी। िकएँ ितलक गन
ु गन बस करनी॥
दो० - जथा सअ
ु ंजन अंिज ग साधक िस सज ु ान।
कौतकु देखत सैल बन भूतल भू र िनधान॥ 1॥
साधु च रत सभ
ु च रत कपासू। िनरस िबसद गन ु मय फल जासू॥
जो सिह दख
ु परिछ दरु ावा। बंदनीय जेिहं जग जस पावा॥
संत का च र कपास के च र के समान शुभ है, िजसका फल नीरस, िवशद और गुणमय होता
है। संत वयं दुःख सहकर दूसर के िछ को ढँ कता है, िजसके कारण उसने जगत म वंदनीय
यश ा िकया है।
संत का समाज आनंद और क याणमय है, जो जगत म चलता-िफरता तीथराज है, जहाँ राम
भि पी गंगा क धारा ह और िवचार का चार सर वती ह।
वह तीथराज अलौिकक और अकथनीय है एवं त काल फल देनेवाला है, उसका भाव य है।
वा मीिक, नारद और अग य ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी (जीवन का व ृ ांत) कही है।
जल म रहनेवाले, जमीन पर चलनेवाले और आकाश म िवचरनेवाले नाना कार के जड़-चेतन
िजतने जीव इस जगत म ह -
मित क रित गित भूित भलाई। जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई॥
सो जानब सतसंग भाऊ। लोकहँ बेद न आन उपाऊ॥
उनम से िजसने िजस समय जहाँ कह भी िजस िकसी य न से बुि , क ित, स ित, िवभिू त और
भलाई पाई है, सो सब स संग का ही भाव समझना चािहए। वेद म और लोक म इनक ाि का
दूसरा कोई उपाय नह है।
स संग के िबना िववेक नह होता और राम क कृपा के िबना वह स संग सहज म िमलता नह ।
स संगित आनंद और क याण क जड़ है। स संग क िसि ही फल है और सब साधन तो फूल
है।
सठ सधु रिहं सतसंगित पाई। पारस परस कुधात सहु ाई॥
िबिध बस सज ु न कुसंगत परह । फिन मिन सम िनज गन ु अनस
ु रह ॥
दु भी स संगित पाकर सुधर जाते ह, जैसे पारस के पश से लोहा सुहावना हो जाता है, िकंतु
दैवयोग से यिद कभी स जन कुसंगित म पड़ जाते ह, तो वे वहाँ भी साँप क मिण के समान
अपने गुण का ही अनुसरण करते ह।
ा, िव णु, िशव, किव और पंिडत क वाणी भी संत-मिहमा का वणन करने म सकुचाती है, वह
मुझसे िकस कार नह कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मिणय के गुणसमहू नह
कहे जा सकते।
म संत को णाम करता हँ, िजनके िच म समता है, िजनका न कोई िम है और न श ु! जैसे
अंजिल म रखे हए सुंदर फूल (िजस हाथ ने फूल को तोड़ा और िजसने उनको रखा उन) दोन ही
हाथ को समान प से सुगंिधत करते ह (वैसे ही संत श ु और िम दोन का ही समान प से
क याण करते ह।)॥ 3 (क)॥
संत सरल दय और जगत के िहतकारी होते ह, उनके ऐसे वभाव और नेह को जानकर म
िवनय करता हँ, मेरी इस बाल-िवनय को सुनकर कृपा करके राम के चरण म मुझे ीित द॥ 3
(ख)॥
पर अकाजु लिग तनु प रहरह । िजिम िहम उपल कृषी दिल गरह ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥
जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते ह, वैसे ही वे दूसर का काम िबगाड़ने के िलए
अपना शरीर तक छोड़ देते ह। म दु को (हजार मुखवाले) शेष के समान समझकर णाम
करता हँ, जो पराए दोष का हजार मुख से बड़े रोष के साथ वणन करते ह।
पिु न नवउँ पथ
ृ रु ाज समाना। पर अघ सन
ु इ सहस दस काना॥
बह र स सम िबनवउँ तेही। संतत सरु ानीक िहत जेही॥
पुनः उनको राजा पथ ृ ु (िज ह ने भगवान का यश सुनने के िलए दस हजार कान माँगे थे) के
समान जानकर णाम करता हँ, जो दस हजार कान से दूसर के पाप को सुनते ह। िफर इं के
समान मानकर उनक िवनय करता हँ, िजनको सुरा (मिदरा) अ छी और िहतकारी मालम ू देती
है (इं के िलए भी सुरानीक अथात देवताओं क सेना िहतकारी है)।
िजनको कठोर वचन पी व सदा यारा लगता है और जो हजार आँख से दूसर के दोष को
देखते ह।
अब म संत और असंत दोन के चरण क वंदना करता हँ, दोन ही दुःख देनेवाले ह, परं तु उनम
कुछ अंतर कहा गया है। वह अंतर यह है िक एक (संत) तो िबछुड़ते समय ाण हर लेते ह और
दूसरे (असंत) िमलते ह, तब दा ण दुःख देते ह।
दोन (संत और असंत) जगत म एक साथ पैदा होते ह, पर साधु अमतृ के समान (म ृ यु पी
संसार से उबारनेवाला) और असाधु मिदरा के समान (मोह, माद और जड़ता उ प न
करनेवाला) है, दोन को उ प न करनेवाला जगत पी अगाध समु एक ही है। (शा म
समु मंथन से ही अमत ृ और मिदरा दोन क उ पि बताई गई है।)
भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश क संपि पाते ह। अमत ृ ,
चं मा, गंगा और साधु एवं िवष, अि न, किलयुग के पाप क नदी अथात कमनाशा और िहंसा
करनेवाला याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते ह, िकंतु िजसे जो भाता है, उसे वही अ छा
लगता है।
खल अघ अगन
ु साधु गन
ु गाहा। उभय अपार उदिध अवगाहा॥
तेिह त कछु गन
ु दोष बखाने। सं ह याग न िबनु पिहचाने॥
भले-बुरे सभी ा के पैदा िकए हए ह, पर गुण और दोष को िवचार कर वेद ने उनको अलग-
अलग कर िदया है। वेद, इितहास और पुराण कहते ह िक ा क यह सिृ गुण-अवगुण से
सनी हई है।
दख
ु सखु पाप पु य िदन राती। साधु असाधु सज
ु ाित कुजाती॥
दानव देव ऊँच अ नीचू। अिमअ सजु ीवनु माह मीचू॥
माया जीव जगदीसा। लि छ अलि छ रं क अवनीसा॥
कासी मग सरु स र मनासा। म मारव मिहदेव गवासा॥
सरग नरक अनरु ाग िबरागा। िनगमागम गन ु दोष िबभागा॥
दो० - जड़ चेतन गन
ु दोषमय िब व क ह करतार।
संत हंस गन
ु गहिहं पय प रह र बा र िबकार॥ 6॥
सो सध
ु ा र ह रजन िजिम लेह । दिल दख
ु दोष िबमल जसु देह ॥
खलउ करिहं भल पाइ सस
ु ंगू। िमटइ न मिलन सभ
ु ाउ अभंगू॥
बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का स मान ही होता है, जैसे जगत म जा बवान और हनुमान का
हआ। बुरे संग से हािन और अ छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद म है और सभी
लोग इसको जानते ह।
कुसंग के कारण धुआँ कािलख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर याही होकर पुराण
िलखने के काम म आता है और वही धुआँ जल, अि न और पवन के संग से बादल होकर जगत
को जीवन देनेवाला बन जाता है।
महीने के दोन पखवाड़ म उिजयाला और अँधेरा समान ही रहता है, परं तु िवधाता ने इनके नाम
म भेद कर िदया है (एक का नाम शु ल और दूसरे का नाम कृ ण रख िदया)। एक को चं मा का
बढ़ानेवाला और दूसरे को उसका घटानेवाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को
अपयश दे िदया॥ 7(ख)॥
चौरासी लाख योिनय म चार कार के ( वेदज, अंडज, उि ज, जरायुज) जीव जल, प ृ वी और
आकाश म रहते ह, उन सबसे भरे हए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर म दोन हाथ
जोड़कर णाम करता हँ।
मुझको अपना दास जानकर कृपा क खान आप सब लोग िमलकर छल छोड़कर कृपा क िजए।
मुझे अपने बुि -बल का भरोसा नह है, इसीिलए म सबसे िवनती करता हँ।
म रघुनाथ के गुण का वणन करना चाहता हँ, परं तु मेरी बुि छोटी है और राम का च र अथाह
है। इसके िलए मुझे उपाय का एक भी अंग अथात कुछ (लेशमा ) भी उपाय नह सझ ू ता। मेरे मन
और बुि कंगाल ह, िकंतु मनोरथ राजा है।
मेरी बुि तो अ यंत नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमत
ृ पाने क है, पर जगत म जुड़ती
छाछ भी नह । स जन मेरी िढठाई को मा करगे और मेरे बाल वचन को मन लगाकर
( ेमपवू क) सुनगे।
जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-िपता उ ह स न मन से सुनते ह, िकंतु
ू र, कुिटल और बुरे िवचारवाले लोग जो दूसर के दोष को ही भषू ण प से धारण िकए रहते ह
(अथात िज ह पराए दोष ही यारे लगते ह), हँसगे।
िनज किब केिह लाग न नीका। सरस होउ अथवा अित फ का॥
जे पर भिनित सन
ु त हरषाह । ते बर पु ष बहत जग नाह ॥
िकंतु दु के हँसने से मेरा िहत ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा
करते ह। जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हँसते ह, वैसे ही मिलन मनवाले दु िनमल
वाणी को हँसते ह।
इसम रघुनाथ का उदार नाम है, जो अ यंत पिव है, वेद-पुराण का सार है, क याण का भवन है
और अमंगल को हरनेवाला है, िजसे पावती सिहत भगवान िशव सदा जपा करते ह।
भिनित िबिच सकु िब कृत जोऊ। राम नाम िबनु सोह न सोउ॥
िबधब
ु दनी सब भाँित सँवारी। सोह न बसन िबना बर नारी॥
जो अ छे किव के ारा रची हई बड़ी अनठू ी किवता है, वह भी राम नाम के िबना शोभा नह पाती।
जैसे चं मा के समान मुखवाली सुंदर ी सब कार से सुसि जत होने पर भी व के िबना
शोभा नह देती।
इसके िवपरीत, कुकिव क रची हई सब गुण से रिहत किवता को भी, राम के नाम एवं यश से
अंिकत जानकर, बुि मान लोग आदरपवू क कहते और सुनते ह, य िक संतजन भ रे क भाँित
गुण ही को हण करनेवाले होते ह।
य िप मेरी इस रचना म किवता का एक भी रस नह है, तथािप इसम राम का ताप कट है। मेरे
मन म यही एक भरोसा है। भले संग से भला, िकसने बड़ पन नह पाया?
धुआँ भी अगर के संग से सुगंिधत होकर अपने वाभािवक कड़वेपन को छोड़ देता है। मेरी किवता
अव य भ ी है, परं तु इसम जगत का क याण करनेवाली रामकथा पी उ म व तु का वणन
िकया गया है। (इससे यह भी अ छी ही समझी जाएगी।)
राम के यश के संग से मेरी किवता सभी को अ यंत ि य लगेगी। जैसे मलय पवत के संग से
का मा (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, िफर या कोई काठ (क तु छता) का िवचार
करता है?॥ 10(क)॥
यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उ वल और बहत गुणकारी होता है। यही समझकर सब
लोग उसे पीते ह। इसी तरह गँवा भाषा म होने पर भी सीताराम के यश को बुि मान लोग बड़े
चाव से गाते और सुनते ह॥ 10(ख)॥
मिन मािनक मक
ु ु ता छिब जैसी। अिह िग र गज िसर सोह न तैसी॥
नप
ृ िकरीट त नी तनु पाई। लहिहं सकल सोभा अिधकाई॥
मिण, मािणक और मोती क जैसी सुंदर छिव है, वह साँप, पवत और हाथी के म तक पर वैसी
शोभा नह पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती ी के शरीर को पाकर ही ये सब अिधक शोभा
को ा होते ह।
तैसिे हं सक
ु िब किबत बध
ु कहह । उपजिहं अनत अनत छिब लहह ॥
भगित हेतु िबिध भवन िबहाई। सिु मरत सारद आवित धाई॥
संसारी मनु य का गुणगान करने से सर वती िसर धुनकर पछताने लगती ह (िक म य इसके
बुलाने पर आई)। बुि मान लोग दय को समु , बुि को सीप और सर वती को वाित न के
समान कहते ह।
इसम यिद े िवचार पी जल बरसता है तो मु ामिण के समान सुंदर किवता होती है।
जो कराल किलयुग म ज मे ह, िजनक करनी कौए के समान है और वेष हंस का-सा है, जो
वेदमाग को छोड़कर कुमाग पर चलते ह, जो कपट क मिू त और किलयुग के पाप के भाँड़ ह।
बंचक भगत कहाइ राम के। िकंकर कंचन कोह काम के॥
ित ह महँ थम रे ख जग मोरी। ध ग धरम वज धंधक धोरी॥
समिु झ िबिबिध िबिध िबनती मोरी। कोउ न कथा सिु न देइिह खोरी॥
एतेह पर क रहिहं जे असंका। मोिह ते अिधक ते जड़ मित रं का॥
मेरी अनेक कार क िवनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नह देगा। इतने
ू और बुि के कंगाल ह।
पर भी जो शंका करगे, वे तो मुझसे भी अिधक मख
म न तो किव हँ, न चतुर कहलाता हँ, अपनी बुि के अनुसार राम के गुण गाता हँ। कहाँ तो
रघुनाथ के अपार च र , कहाँ संसार म आस मेरी बुि !
िजस हवा से सुमे जैसे पहाड़ उड़ जाते ह, किहए तो, उसके सामने ई िकस िगनती म है। राम
क असीम भुता को समझकर कथा रचने म मेरा मन बहत िहचकता है।
जो परमे र एक है, िजनके कोई इ छा नह है, िजनका कोई प और नाम नह है, जो अज मा,
सि चदानंद और परमधाम है और जो सबम यापक एवं िव प है, उसी भगवान ने िद य शरीर
धारण करके नाना कार क लीला क है।
सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल नत अनरु ागी॥
जेिह जन पर ममता अित छोह। जेिहं क ना क र क ह न कोह॥
तेिहं बल म रघप
ु ित गन
ु गाथा। किहहउँ नाइ राम पद माथा॥
मिु न ह थम ह र क रित गाई। तेिहं मग चलत सग ु म मोिह भाई॥
उसी बल से म राम के चरण म िसर नवाकर रघुनाथ के गुण क कथा कहँगा। इसी िवचार से
मुिनय ने पहले ह र क क ित गाई है। भाई! उसी माग पर चलना मेरे िलए सुगम होगा।
जो अ यंत बड़ी े निदयाँ ह, यिद राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अ यंत छोटी च िटयाँ भी
उन पर चढ़कर िबना ही प र म के पार चली जाती ह। (इसी कार मुिनय के वणन के सहारे म
भी रामच र का वणन सहज ही कर सकँ ू गा)॥ 13॥
जो बड़े बुि मान ाकृत किव ह, िज ह ने भाषा म ह र च र का वणन िकया है, जो ऐसे किव
पहले हो चुके ह, जो इस समय वतमान ह और जो आगे ह गे, उन सबको म सारा कपट यागकर
णाम करता हँ।
क ित, किवता और संपि वही उ म है, जो गंगा क तरह सबका िहत करनेवाली हो। राम क
क ित तो बड़ी संुदर है, परं तु मेरी किवता भ ी है। मुझे यह असामंज य होने का अंदेशा है।
तु हरी कृपाँ सल
ु भ सोउ मोरे । िसअिन सहु ाविन टाट पटोरे ॥
परं तु हे किवयो! आपक कृपा से यह बात भी मेरे िलए सुलभ है। रे शम क िसलाई टाट पर भी
सुहावनी लगती है।
ऐसी किवता िबना िनमल बुि के होती नह और मेरी बुि का बल बहत ही थोड़ा है, इसिलए
बार-बार िनहोरा करता हँ िक हे किवयो! आप कृपा कर िजससे म ह रयश का वणन कर सकँ ू ॥
14(ख)॥
किब कोिबद रघबु र च रत मानस मंजु मराल।
बालिबनय सिु न सु िच लिख मो पर होह कृपाल॥ 14(ग)॥
म उन वा मीिक मुिन के चरण कमल क वंदना करता हँ, िज ह ने रामायण क रचना क है,
जो खर सिहत होने पर भी खर से िवपरीत बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषणसिहत होने पर
भी दूषण अथात दोष से रिहत है॥ 14(घ)॥
म चार वेद क वंदना करता हँ, जो संसार समु के पार होने के िलए जहाज के समान ह तथा
िज ह रघुनाथ का िनमल यश वणन करते व न म भी खेद (थकावट) नह होता॥ 14(ङ)॥
दो० - िबबध
ु िब बध
ु ह चरन बंिद कहउँ कर जो र।
होइ स न परु वह सकल मंजु मनोरथ मो र॥ 14(छ)॥
िफर म सर वती और देवनदी गंगा क वंदना करता हँ। दोन पिव और मनोहर च र वाली ह।
एक (गंगा) नान करने और जल पीने से पाप को हरती है और दूसरी (सर वती) गुण और यश
कहने और सुनने से अ ान का नाश कर देती है।
गरु िपतु मातु महेस भवानी। नवउँ दीनबंधु िदन दानी॥
सेवक वािम सखा िसय पी के। िहत िन पिध सब िबिध तल ु सी के॥
िजन िशव-पावती ने किलयुग को देखकर, जगत के िहत के िलए, शाबर मं समहू क रचना
क , िजन मं के अ र बेमेल ह, िजनका न कोई ठीक अथ होता है और न जप ही होता है,
तथािप िशव के ताप से िजनका भाव य है।
भिनित मो र िसव कृपाँ िबभाती। सिस समाज िमिल मनहँ सरु ाती॥
जे एिह कथिह सनेह समेता। किहहिहं सिु नहिहं समिु झ सचेता॥
होइहिहं राम चरन अनरु ागी। किल मल रिहत सम ु ंगल भागी॥
मेरी किवता िशव क कृपा से ऐसी सुशोिभत होगी, जैसी तारागण के सिहत चं मा के साथ राि
शोिभत होती है। जो इस कथा को ेम सिहत एवं सावधानी के साथ समझ-बझ ू कर कह-सुनगे, वे
किलयुग के पाप से रिहत और संुदर क याण के भागी होकर राम के चरण के ेमी बन जाएँ गे।
म अित पिव अयो यापुरी और किलयुग के पाप का नाश करनेवाली सरयू नदी क वंदना
करता हँ। िफर अवधपुरी के उन नर-ना रय को णाम करता हँ, िजन पर भु राम क ममता
थोड़ी नह है (अथात बहत है)।
उ ह ने (अपनी पुरी म रहनेवाले) सीता क िनंदा करनेवाले (धोबी और उसके समथक पुर-नर-
ना रय ) के पाप समहू को नाश कर उनको शोकरिहत बनाकर अपने लोक (धाम) म बसा िदया।
म कौश या पी पवू िदशा क वंदना करता हँ, िजसक क ित सम त संसार म फै ल रही है।
म अवध के राजा दशरथ क वंदना करता हँ, िजनका राम के चरण म स चा ेम था, िज ह ने
दीनदयालु भु के िबछुड़ते ही अपने यारे शरीर को मामल
ू ी ितनके क तरह याग िदया॥ 16॥
म प रवार सिहत राजा जनक को णाम करता हँ, िजनका राम के चरण म गढ़ ू ेम था, िजसको
उ ह ने योग और भोग म िछपा रखा था, परं तु राम को देखते ही वह कट हो गया।
सबसे पहले म भरत के चरण को णाम करता हँ, िजनका िनयम और त विणत नह िकया जा
सकता तथा िजनका मन राम के चरणकमल म भ रे क तरह लुभाया हआ है, कभी उनका पास
नह छोड़ता।
जो हजार िसरवाले और जगत के कारण (हजार िसर पर जगत को धारण कर रखनेवाले) शेष ह,
िज ह ने प ृ वी का भय दूर करने के िलए अवतार िलया, वे गुण क खान कृपािसंधु सुिम ानंदन
ल मण मुझ पर सदा स न रह।
म श ु न के चरणकमल को णाम करता हँ, जो बड़े वीर, सुशील और भरत के पीछे चलनेवाले
ह। म महावीर हनुमान क िवनती करता हँ, िजनके यश का राम ने वयं वणन िकया है॥
वानर के राजा सु ीव, रीछ के राजा जा बवान, रा स के राजा िवभीषण और अंगद आिद
िजतना वानर का समाज है, सबके सुंदर चरण क म वदना करता हँ, िज ह ने अधम शरीर म
भी राम को ा कर िलया।
सक
ु सनकािद भगत मिु न नारद। जे मिु नबर िब यान िबसारद॥
नवउँ सबिह धरिन ध र सीसा। करह कृपा जन जािन मन ु ीसा॥
शुकदेव, सनकािद, नारद मुिन आिद िजतने भ और परम ानी े मुिन ह, म धरती पर िसर
टेककर उन सबको णाम करता हँ, हे मुनी रो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा
क िजए।
म रघुनाथ के नाम 'राम' क वंदना करता हँ, जो कृशानु (अि न), भानु (सयू ) और िहमकर
(चं मा) का हे तु अथात 'र' 'आ' और 'म' प से बीज है। वह 'राम' नाम ा, िव णु और िशव प
है। वह वेद का ाण है, िनगुण, उपमा रिहत और गुण का भंडार है।
आिदकिव वा मीिक राम नाम के ताप को जानते ह, जो उलटा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पिव
हो गए। िशव के इस वचन को सुनकर िक एक राम-नाम सह नाम के समान है, पावती सदा
अपने पित (िशव) के साथ राम-नाम का जप करती रहती ह।
रघुनाथ क भि वषा ऋतु है, तुलसीदास कहते ह िक उ म सेवकगण धान ह और 'राम' नाम के
दो सुंदर अ र सावन-भादो के महीने ह॥ 19॥
कहत सनु त सिु मरत सिु ठ नीके। राम लखन सम ि य तलु सी के॥
बरनत बरन ीित िबलगाती। जीव सम सहज सँघाती॥
तुलसीदास कहते ह - रघुनाथ के नाम के दोन अ र बड़ी शोभा देते ह, िजनम से एक (रकार)
छ प (रे फ) से और दूसरा (मकार) मुकुटमिण (अनु वार -) प से सब अ र के ऊपर ह॥ 20॥
समझने म नाम और नामी दोन एक-से ह, िकंतु दोन म पर पर वामी और सेवक के समान
ीित है (अथात नाम और नामी म पण ू एकता होने पर भी जैसे वामी के पीछे सेवक चलता है,
उसी कार नाम के पीछे नामी चलते ह। भु राम अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते ह
(नाम लेते ही वहाँ आ जाते ह)। नाम और प दोन ई र क उपािध ह; ये (भगवान के नाम और
प) दोन अिनवचनीय ह, अनािद ह और संुदर बुि से ही इनका व प जानने म आता है।
इन (नाम और प) म कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुण का
तारत य (कमी- यादा) सुनकर साधु पु ष वयं ही समझ लगे। प नाम के अधीन देखे जाते ह,
नाम के िबना प का ान नह हो सकता।
कोई-सा िवशेष प िबना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हआ भी पहचाना नह जा सकता और
प के िबना देखे भी नाम का मरण िकया जाए तो िवशेष ेम के साथ वह प दय म आ जाता
है।
तुलसीदास कहते ह, यिद तू भीतर और बाहर दोन ओर उजाला चाहता है, तो मुख पी ार क
जीभ पी देहली पर रामनाम पी मिण-दीपक को रख॥ 21॥
जाना चहिहं गूढ़ गित जेऊ। नाम जीहँ जिप जानिहं तेऊ॥
साधक नाम जपिहं लय लाएँ । होिहं िस अिनमािदक पाएँ ॥
जो परमा मा के गढ़
ू रह य को (यथाथ मिहमा को) जानना चाहते ह, वे (िज ासु) भी नाम को
जीभ से जपकर उसे जान लेते ह। (लौिकक िसि य के चाहनेवाले अथाथ ) साधक लौ लगाकर
नाम का जप करते ह और अिणमािद (आठ ) िसि य को पाकर िस हो जाते ह।
(संकट से घबराए हए) आत भ नाम जप करते ह, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट िमट जाते
ह और वे सुखी हो जाते ह। जगत म चार कार के (1-अथाथ - धनािद क चाह से भजनेवाले, 2-
आत - संकट क िनविृ के िलए भजनेवाले, 3-िज ासु - भगवान को जानने क इ छा से
भजनेवाले, 4- ानी - भगवान को त व से जानकर वाभािवक ही ेम से भजनेवाले) रामभ ह
और चार ही पु या मा, पापरिहत और उदार ह।
इस कार िनगुण से नाम का भाव अ यंत बड़ा है। अब अपने िवचार के अनुसार कहता हँ, िक
नाम राम से भी बड़ा है॥ 23॥
राम ने भ के िहत के िलए मनु य शरीर धारण करके वयं क सहकर साधुओ ं को सुखी
िकया, परं तु भ गण ेम के साथ नाम का जप करते हए सहज ही म आनंद और क याण के घर
हो जाते ह।
रघुनाथ ने तो शबरी, जटायु आिद उ म सेवक को ही मुि दी; परं तु नाम ने अगिनत दु का
उ ार िकया। नाम के गुण क कथा वेद म िस है॥ 24॥
राम सक
ु ं ठ िबभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर िब रद िबराजे॥
राम ने सु ीव और िवभीषण दोन को ही अपनी शरण म रखा, यह सब कोई जानते ह, परं तु नाम
ने अनेक गरीब पर कृपा क है। नाम का यह सुंदर िवरद लोक और वेद म िवशेष प से
कािशत है।
राम ने तो भालू और बंदर क सेना बटोरी और समु पर पुल बाँधने के िलए थोड़ा प र म नह
िकया; परं तु नाम लेते ही संसार समु सख
ू जाता है। स जनगण! मन म िवचार क िजए (िक
दोन म कौन बड़ा है)।
राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सिहत िनज परु पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गन ु सरु मिु न बर बानी॥
सेवक सिु मरत नामु स ीती। िबनु म बल मोह दलु जीती॥
िफरत सनेहँ मगन सख ु अपन। नाम साद सोच निहं सपन॥
राम ने कुटुंब सिहत रावण को यु म मारा, तब सीता सिहत उ ह ने अपने नगर (अयो या) म
वेश िकया। राम राजा हए, अवध उनक राजधानी हई, देवता और मुिन संुदर वाणी से िजनके
गुण गाते ह। परं तु सेवक ेमपवू क नाम के मरण मा से िबना प र म मोह क बल सेना को
जीतकर ेम म म न हए अपने ही सुख म िवचरते ह, नाम के साद से उ ह सपने म भी कोई
िचंता नह सताती।
इस कार नाम और राम दोन से बड़ा है। यह वरदान देने वाल को भी वर देनेवाला है। िशव
ने अपने दय म यह जानकर ही सौ करोड़ राम च र म से इस 'राम' नाम को हण िकया है॥
25॥
नाम साद संभु अिबनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सक
ु सनकािद िस मिु न जोगी। नाम साद सख
ु भोगी॥
व
ु ँ सगलािन जपेउ ह र नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सिु म र पवनसत
ु पावन नामू। अपने बस क र राखे रामू॥
ुव ने लािन से ह र नाम को जपा और उसके ताप से अचल अनुपम थान ा िकया। हनुमान
ने पिव नाम का मरण करके राम को अपने वश म कर रखा है।
किलयुग म राम का नाम क पत और क याण का िनवास है, िजसको मरण करने से भाँग-
सा (िनकृ ) तुलसीदास तुलसी के समान (पिव ) हो गया॥ 26॥
चहँ जुग तीिन काल ितहँ लोका। भए नाम जिप जीव िबसोका॥
बेद परु ान संत मत एह। सकल सकु ृ त फल राम सनेह॥
(केवल किलयुग क ही बात नह है,) चार युग म, तीन काल म और तीन लोक म नाम को
जपकर जीव शोकरिहत हए ह। वेद, पुराण और संत का मत यही है िक सम त पु य का फल
राम म (या राम नाम म) ेम होना है।
ऐसे कराल (किलयुग के) काल म तो नाम ही क पव ृ है, जो मरण करते ही संसार के सब
जंजाल को नाश कर देनेवाला है। किलयुग म यह राम नाम मनोवांिछत फल देनेवाला है,
परलोक का परम िहतैषी और इस लोक का माता-िपता है
राम नाम निृ संह भगवान है, किलयुग िहर यकिशपु है और जप करनेवाले जन ाद के समान
ह, यह राम नाम देवताओं के श ु को मारकर जप करने वाल क र ा करे गा॥ 27॥
भायँ कुभायँ अनख आलस हँ। नाम जपत मंगल िदिस दसहँ॥
सिु म र सो नाम राम गन
ु गाथा। करउँ नाइ रघन
ु ाथिह माथा॥
अ छे भाव ( ेम) से, बुरे भाव (बैर) से, ोध से या आल य से, िकसी तरह से भी नाम जपने से
दस िदशाओं म क याण होता है। उसी राम नाम का मरण करके और रघुनाथ को म तक
नवाकर म राम के गुण का वणन करता हँ।
वे मेरा सब तरह से सुधार लगे, िजनक कृपा कृपा करने से नह अघाती। राम से उ म वामी
और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयािनिध ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन िकया
है।
लोकहँ बेद सस
ु ािहब रीती। िबनय सन
ु त पिहचानत ीती॥
गनी गरीब ाम नर नागर। पंिडत मूढ़ मलीन उजागर॥
सिु न सनमानिहं सबिह सबु ानी। भिनित भगित नित गित पिहचानी॥
यह ाकृत मिहपाल सभ ु ाऊ। जान िसरोमिन कोसलराऊ॥
सबक सुनकर और उनक वाणी, भि , िवनय और चाल को पहचानकर सुंदर वाणी से सबका
यथायो य स मान करते ह। यह वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ राम तो
चतुरिशरोमिण ह।
यह मेरी बहत बड़ी िढठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक िसकोड़ ली है
(अथात नरक म भी मेरे िलए ठौर नह है)। यह समझकर मुझे अपने ही कि पत डर से डर हो रहा
है, िकंतु भगवान राम ने तो व न म भी इस पर (मेरी इस िढठाई और दोष पर) यान नह िदया।
वही करनी िवभीषण क थी, परं तु राम ने व न म भी उसका मन म िवचार नह िकया। उलटे
भरत से िमलने के समय रघुनाथ ने उनका स मान िकया और राजसभा म भी उनके गुण का
बखान िकया।
भु तो व ृ के नीचे और बंदर डाली पर परं तु ऐसे बंदर को भी उ ह ने अपने समान बना िलया।
तुलसीदास कहते ह िक राम-सरीखे शीलिनधान वामी कह भी नह ह॥ 29(क)॥
हे राम! आपक अ छाई से सभी का भला है। यिद यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा
क याण ही होगा॥ 29(ख)॥
इस कार अपने गुण-दोष को कहकर और सबको िफर िसर नवाकर म रघुनाथ का िनमल यश
वणन करता हँ, िजसके सुनने से किलयुग के पाप न हो जाते ह॥ 29(ग)॥
जागबिलक जो कथा सहु ाई। भर ाज मिु नबरिह सन
ु ाई॥
किहहउँ सोइ संबाद बखानी। सन
ु हँ सकल स जन सख ु ु मानी॥
िशव ने पहले इस सुहावने च र को रचा, िफर कृपा करके पावती को सुनाया। वही च र िशव ने
काकभुशुंिड को रामभ और अिधकारी पहचानकर िदया।
िफर वही कथा मने वाराह े म अपने गु से सुनी, परं तु उस समय म लड़कपन के कारण
बहत बेसमझ था, इससे उसको समझा नह ॥ 30(क)॥
तदिप कही गरु बारिहं बारा। समिु झ परी कछु मित अनस
ु ारा॥
भाषाब करिब म सोई। मोर मन बोध जेिहं होई॥
तो भी गु ने जब बार-बार कथा कही, तब बुि के अनुसार कुछ समझ म आई। वही अब मेरे
ारा भाषा म रची जाएगी, िजससे मेरे मन को संतोष हो।
यह रामकथा िशव को नमदा के समान यारी है, यह सब िसि य क तथा सुख-संपि क रािश
है। स ुण पी देवताओं के उ प न और पालन-पोषण करने के िलए माता अिदित के समान है।
रघुनाथ क भि और ेम क परम सीमा-सी है।
तुलसीदास कहते ह िक रामकथा मंदािकनी नदी है, सुंदर (िनमल) िच िच कूट है, और सुंदर
नेह ही वन है, िजसम सीताराम िवहार करते ह॥ 31॥
राम का च र सुंदर िचंतामिण है और संत क सुबुि पी ी का सुंदर ंगार है। राम के गुण-
समहू जगत का क याण करनेवाले और मुि , धन, धम और परमधाम के देनेवाले ह।
ान, वैरा य और योग के िलए स ु ह और संसार पी भयंकर रोग का नाश करने के िलए
देवताओं के वै (अि नीकुमार) के समान ह। ये सीताराम के ेम के उ प न करने के िलए
माता-िपता ह और संपणू त, धम और िनयम के बीज ह।
पाप, संताप और शोक का नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोक के ि य पालन करनेवाले
ह। िवचार पी राजा के शरू वीर मं ी और लोभ पी अपार समु के सोखने के िलए अग य मुिन
ह।
राम के गुण के समहू कुमाग, कुतक, कुचाल और किलयुग के कपट, दंभ और पाखंड को
जलाने के िलए वैसे ही ह, जैसे ई ंधन के िलए चंड अि न॥ 32(क)॥
रामच रत राकेस कर स रस सख
ु द सब काह।
स जन कुमदु चकोर िचत िहत िबसेिष बड़ लाह॥ 32(ख)॥
िजस कार पावती ने िशव से िकया और िजस कार से िशव ने िव तार से उसका उ र
कहा, वह सब कारण म िविच कथा क रचना करके गाकर कहँगा।
जेिहं यह कथा सनु ी निहं होई। जिन आचरजु करै सिु न सोई॥
कथा अलौिकक सन ु िहं जे यानी। निहं आचरजु करिहं अस जानी॥
रामकथा कै िमित जग नाह । अिस तीित ित ह के मन माह ॥
नाना भाँित राम अवतारा। रामायन सत कोिट अपारा॥
िजसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आ य न करे । जो ानी इस िविच कथा को
सुनते ह, वे यह जानकर आ य नह करते िक संसार म रामकथा क कोई सीमा नह है। उनके
मन म ऐसा िव ास रहता है। नाना कार से राम के अवतार हए ह और सौ करोड़ तथा अपार
रामायण ह।
ी राम अनंत ह, उनके गुण भी अनंत ह और उनक कथाओं का िव तार भी असीम है। अतएव
िजनके िवचार िनमल ह, वे इस कथा को सुनकर आ य नह मानगे॥ 33॥
अब म आदरपवू क िशव को िसर नवाकर राम के गुण क िनमल कथा कहता हँ। ह र के चरण
पर िसर रखकर संवत 1631 म इस कथा का आरं भ करता हँ।
चै मास क नवमी ितिथ मंगलवार को अयो या म यह च र कािशत हआ। िजस िदन राम का
ज म होता है, वेद कहते ह िक उस िदन सारे तीथ वहाँ (अयो या म) चले आते ह।
वेद-पुराण कहते ह िक सरयू का दशन, पश, नान और जलपान पाप को हरता है। यह नदी
बड़ी ही पिव है, इसक मिहमा अनंत है, िजसे िवमल बुि वाली सर वती भी नह कह सकत ।
इसका नाम रामच रतमानस है, िजसके सुनते ही कान को शांित िमलती है। मन पी हाथी
िवषय पी दावानल म जल रहा है, वह यिद इस रामच रतमानस पी सरोवर म आ पड़े तो सुखी
हो जाए।
महादेव ने इसको रचकर अपने मन म रखा था और सुअवसर पाकर पावती से कहा। इसी से िशव
ने इसको अपने दय म देखकर और स न होकर इसका सुंदर 'रामच रतमानस' नाम रखा।
म उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथा को कहता हँ, हे स जनो! आदरपवू क मन लगाकर इसे
सुिनए।
यह रामच रतमानस जैसा है, िजस कार बना है और िजस हे तु से जगत म इसका चार हआ,
अब वही सब कथा म उमा-महे र का मरण करके कहता हँ॥ 35॥
संभु साद सम
ु ित िहयँ हलसी। रामच रतमानस किब तल ु सी॥
करइ मनोहर मित अनहु ारी। सज
ु न सिु चत सिु न लेह सध
ु ारी॥
सम
ु ित भूिम थल दय अगाधू। बेद परु ान उदिध घन साधू॥
बरषिहं राम सज
ु स बर बारी। मधरु मनोहर मंगलकारी॥
संुदर बुि भिू म है, दय ही उसम गहरा थान है, वेद-पुराण समु ह और साधु-संत मेघ ह। वे
(साधु पी मेघ) राम के सुयश पी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल क वषा करते ह।
लीला सगन
ु जो कहिहं बखानी। सोइ व छता करइ मल हानी॥
े भगित जो बरिन न जाई। सोइ मधरु ता सस
म ु ीतलताई॥
जो सुंदर छं द, सोरठे और दोहे ह, वही इसम बहरं गे कमल के समहू सुशोिभत ह। अनुपम अथ,
ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग (पु परज), मकरं द (पु परस) और सुगंध ह।
सक ु ृ त पंज
ु मंजुल अिल माला। यान िबराग िबचार मराला॥
धिु न अवरे ब किबत गन ु जाती। मीन मनोहर ते बहभाँती॥
स कम (पु य ) के पुंज भ र क सुंदर पंि याँ ह, ान, वैरा य और िवचार हंस ह। किवता क
विन व ोि , गुण और जाित ही अनेक कार क मनोहर मछिलयाँ ह।
अथ, धम, काम, मो - ये चार , ान-िव ान का िवचार के कहना, का य के नौ रस, जप, तप,
योग और वैरा य के संग - ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर जीव ह।
दो० - पल
ु क बािटका बाग बन सखु सिु बहंग िबहा ।
माली सम ु न सनेह जल स चत लोचन चा ॥ 37॥
कथा म जो रोमांच होता है, वही वािटका, बाग और वन ह और जो सुख होता है, वही सुंदर पि य
का िवहार है। िनमल मन ही माली है, जो ेम पी जल से सुंदर ने ारा उनको स चता है॥ 37॥
इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले पी िवषयी लोग यहाँ आते हए दय म हार मान जाते ह।
य िक इस सरोवर तक आने म किठनाइयाँ बहत ह। राम क कृपा िबना यहाँ नह आया जाता।
घोर कुसंग ही भयानक बुरा रा ता है; उन कुसंिगय के वचन ही बाघ, िसंह और साँप ह। घर के
कामकाज और गहृ थी के भाँित-भाँित के जंजाल ही अ यंत दुगम बड़े -बड़े पहाड़ ह।
यिद कोई मनु य क उठाकर वहाँ तक पहँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे न द पी जड़
ू ीआ
जाती है। दय म मख
ू ता पी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, िजससे वहाँ जाकर भी वह अभागा
नान नह कर पाता।
उससे उस सरोवर म नान और उसका जलपान तो िकया नह जाता, वह अिभमान सिहत लौट
आता है। िफर यिद कोई उससे (वहाँ का हाल) पछ
ू ने आता है, तो वह (अपने अभा य क बात न
कहकर) सरोवर क िनंदा करके उसे समझाता है।
ये सारे िव न उसको नह यापते (बाधा नह देते) िजसे राम सुंदर कृपा क ि से देखते ह। वही
आदरपवू क इस सरोवर म नान करता है और महान भयानक ि ताप से (आ याि मक,
आिधदैिवक, आिधभौितक ताप से) नह जलता।
उससे वह सुंदर किवता पी नदी बह िनकली, िजसम राम का िनमल यश पी जल भरा है। इस
(किवता िपणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपण
ू सुंदर मंगल क जड़ है। लोकमत और वेदमत
इसके दो सुंदर िकनारे ह।
नदी पन
ु ीत सम
ु ानस नंिदिन। किलमल तन
ृ त मूल िनकंिदिन॥
तीन कार के ोताओं का समाज ही इस नदी के दोन िकनार पर बसे हए पुरवे, गाँव और
नगर ह और संत क सभा ही सब सुंदर मंगल क जड़ अनुपम अयो या है॥ 39॥
संुदर क ित पी सुहावनी सरयू रामभि पी गंगा म जा िमल । छोटे भाई ल मण सिहत राम के
यु का पिव यश पी सुहावना महानद सोन उसम आ िमला।
जगु िबच भगित देवधिु न धारा। सोहित सिहत सिु बरित िबचारा॥
ि िबध ताप ासक ितमहु ानी। राम स प िसंधु समहु ानी॥
दोन के बीच म भि पी गंगा क धारा ान और वैरा य के सिहत शोिभत हो रही है। ऐसी तीन
ताप को डरानेवाली यह ितमुहानी नदी राम व प पी समु क ओर जा रही है।
पावती और िशव के िववाह के बाराती इस नदी म बहत कार के असं य जलचर जीव ह। रघुनाथ
के ज म क आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरं ग क मनोहरता है।
सीता के वयंवर क जो सुंदर कथा है, वह इस नदी म सुहावनी छिव छा रही है। अनेक सुंदर
िवचारपणू ही इस नदी क नाव ह और उनके िववेकयु उ र ही चतुर केवट ह।
सिु न अनक
ु थन पर पर होई। पिथक समाज सोह स र सोई॥
घोर धार भगृ न
ु ाथ रसानी। घाट सब
ु राम बर बानी॥
इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस म चचा होती है, वही इस नदी के सहारे -सहारे चलनेवाले
याि य का समाज शोभा पा रहा है। परशुराम का ोध इस नदी क भयानक धारा है और राम के
े वचन ही सुंदर बँधे हए घाट ह।
सानज
ु राम िबबाह उछाह। सो सभ ु उमग सख ु द सब काह॥
कहत सनु त हरषिहं पल
ु काह । ते सक
ु ृ ती मन मिु दत नहाह ॥
भाइय सिहत राम के िववाह का उ साह ही इस कथा नदी क क याणका रणी बाढ़ है, जो सभी
को सुख देनेवाली है। इसके कहने-सुनने म जो हिषत और पुलिकत होते ह, वे ही पु या मा पु ष
ह, जो स न मन से इस नदी म नहाते ह।
राम ितलक िहत मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमित केकई केरी। परी जासु फल िबपित घनेरी॥
राम के राजितलक के िलए जो मंगल-साज सजाया गया, वही मानो पव के समय इस नदी पर
याि य के समहू इक े हए ह। कैकेयी क कुबुि ही इस नदी म काई है, िजसके फल व प बड़ी
भारी िवपि आ पड़ी।
संपण
ू अनिगनत उ पात को शांत करनेवाला भरत का च र नदी-तट पर िकया जानेवाला
जपय है। किलयुग के पाप और दु के अवगुण के जो वणन ह, वे ही इस नदी के जल का
क चड़ और बगुले-कौए ह॥ 41॥
राम के िववाह समाज का वणन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। राम का वनगमन दुःसह
ी म ऋतु है और माग क कथा ही कड़ी धपू और लू है।
रा स के साथ घोर यु ही वषा ऋतु है, जो देवकुल पी धान के िलए सुंदर क याण करनेवाली
है। राम के रा यकाल का जो सुख, िवन ता और बड़ाई है, वही िनमल सुख देनेवाली सुहावनी
शरद् ऋतु है।
सती-िशरोमिण सीता के गुण क जो कथा है, वही इस जल का िनमल और अनुपम गुण है। भरत
का वभाव इस नदी क सुंदर शीतलता है, जो सदा एक-सी रहती है और िजसका वणन नह
िकया जा सकता।
अपनी बुि के अनुसार इस सुंदर जल के गुण को िवचार कर, उसम अपने मन को नान
कराकर और भवानी-शंकर को मरण करके किव (तुलसीदास) संुदर कथा कहता है॥ 43(क)॥
भर ाज मुिन याग म बसते ह, उनका राम के चरण म अ यंत ेम है। वे तप वी, िनगहृ ीत िच ,
िजति य, दया के िनधान और परमाथ के माग म बड़े ही चतुर ह।
वेणीमाधव के चरणकमल को पज
ू ते ह और अ यवट का पश कर उनके शरीर पुलिकत होते ह।
भर ाज का आ म बहत ही पिव , परम रमणीय और े मुिनय के मन को भानेवाला है।
इसी कार माघ के महीनेभर नान करते ह और िफर सब अपने-अपने आ म को चले जाते ह।
हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर म नान करके मुिनगण चले जाते ह।
एक बार परू े मकर भर नान करके सब मुनी र अपने-अपने आ म को लौट गए। परम ानी
या व य मुिन को चरण पकड़कर भर ाज ने रख िलया।
हे भो! संत लोग ऐसी नीित कहते ह और वेद, पुराण तथा मुिनजन भी यही बतलाते ह िक गु
के साथ िछपाव करने से दय म िनमल ान नह होता॥ 45॥
हे मुिनराज! वह भी राम (नाम) क ही मिहमा है, य िक िशव दया करके (काशी म मरनेवाले
जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते ह। हे भो! म आपसे पछू ता हँ िक वे राम कौन ह? हे
कृपािनधान! मुझे समझाकर किहए।
एक राम तो अवध नरे श दशरथ के कुमार ह, उनका च र सारा संसार जानता है। उ ह ने ी के
िवरह म अपार दुःख उठाया और ोध आने पर यु म रावण को मार डाला।॥4॥
हे नाथ! िजस कार से मेरा यह भारी म िमट जाए, आप वही कथा िव तारपवू क किहए। इस पर
या व य मुसकराकर बोले, रघुनाथ क भुता को तुम जानते हो।
तुम मन, वचन और कम से राम के भ हो। तु हारी चतुराई को म जान गया। तुम राम के
रह यमय गुण को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा िकया है मानो बड़े ही मढ़
ू हो।
हे तात! तुम आदरपवू क मन लगाकर सुनो; म राम क सुंदर कथा कहता हँ। बड़ा भारी अ ान
िवशाल मिहषासुर है और राम क कथा (उसे न कर देनेवाली) भयंकर काली ह।
राम क कथा चं मा क िकरण के समान है, िजसे संत पी चकोर सदा पान करते ह। ऐसा ही
संदेह पावती ने िकया था, तब महादेव ने िव तार से उसका उ र िदया था।
अब म अपनी बुि के अनुसार वही उमा और िशव का संवाद कहता हँ। वह िजस समय और िजस
हे तु से हआ, उसे हे मुिन! तुम सुनो, तु हारा िवषाद िमट जाएगा॥ 47॥
एक बार ेता युग म िशव अग य ऋिष के पास गए। उनके साथ जग जननी भवानी सती भी
ू जगत के ई र जानकर उनका पज
थ । ऋिष ने संपण ू न िकया।
रामकथा मिु नबज बखानी। सन ु ी महेस परम सख
ु ु मानी॥
रिष पूछी ह रभगित सहु ाई। कही संभु अिधकारी पाई॥
मुिनवर अग य ने रामकथा िव तार से कही, िजसको महे र ने परम सुख मानकर सुना। िफर
ऋिष ने िशव से सुंदर ह रभि पछ
ू ी और िशव ने उनको अिधकारी पाकर (रह य सिहत) भि
का िन पण िकया।
कहत सन ु त रघप
ु ित गन
ु गाथा। कछु िदन तहाँ रहे िग रनाथा॥
मिु न सन िबदा मािग ि परु ारी। चले भवन सँग द छकुमारी॥
रघुनाथ के गुण क कथाएँ कहते-सुनते कुछ िदन तक िशव वहाँ रहे । िफर मुिन से िवदा
माँगकर िशव द कुमारी सती के साथ घर (कैलास) को चले।
इस कार महादेव िचंता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ िलया
और वह (मारीच) तुरंत कपट मग
ृ बन गया।
ू (रावण) ने छल करके सीता को हर िलया। उसे राम के वा तिवक भाव का कुछ भी पता न
मख
था। मग
ृ को मारकर भाई ल मण सिहत ह र आ म म आए और उसे खाली देखकर (अथात वहाँ
सीता को न पाकर) उनके ने म आँसू भर आए।
रघुनाथ मनु य क भाँित िवरह से याकुल ह और दोन भाई वन म सीता को खोजते हए िफर रहे
ह। िजनके कभी कोई संयोग-िवयोग नह है, उनम य िवरह का दुःख देखा गया।
संभु समय तेिह रामिह देखा। उपजा िहयँ अित हरषु िबसेषा॥
भ र लोचन छिबिसंधु िनहारी। कुसमय जािन न क ि ह िच हारी॥
िशव ने उसी अवसर पर राम को देखा और उनके दय म बहत भारी आनंद उ प न हआ। शोभा
के उस समु को िशव ने ने भरकर देखा, परं तु अवसर ठीक न जानकर प रचय नह िकया।
सती ने शंकर क वह दशा देखी तो उनके मन म बड़ा संदेह उ प न हो गया। (वे मन-ही-मन
कहने लग िक) शंकर क सारा जगत वंदना करता है, वे जगत के ई र ह; देवता, मनु य, मुिन
सब उनके ित िसर नवाते ह।
ित ह नप
ृ सत
ु िह क ह परनामा। किह सि चदानंद परधामा॥
भए मगन छिब तासु िबलोक । अजहँ ीित उर रहित न रोक ॥
य िप भवानी ने कट कुछ नह कहा, पर अंतयामी िशव सब जान गए। वे बोले - हे सती! सुनो,
तु हारा ी वभाव है। ऐसा संदेह मन म कभी न रखना चािहए।
जासु कथा कंु भज रिष गाई। भगित जासु म मिु निह सन ु ाई॥
सोइ मम इ देव रघब ु ीरा। सेवत जािह सदा मिु न धीरा॥
िजनक कथा का अग य ऋिष ने गान िकया और िजनक भि मने मुिन को सुनाई, ये वही
मेरे इ देव रघुवीर ह, िजनक सेवा ानी मुिन सदा िकया करते ह।
ानी मुिन, योगी और िस िनरं तर िनमल िच से िजनका यान करते ह तथा वेद, पुराण और
शा 'नेित-नेित' कहकर िजनक क ित गाते ह, उ ह सव यापक, सम त ांड के वामी,
मायापित, िन य परम वतं , प भगवान राम ने अपने भ के िहत के िलए रघुकुल के
मिण प म अवतार िलया है।
य िप िशव ने बहत बार समझाया, िफर भी सती के दय म उनका उपदेश नह बैठा। तब महादेव
मन म भगवान क माया का बल जानकर मु कुराते हए बोले - ॥ 51॥
जो तु हारे मन म बहत संदेह है तो तुम जाकर परी ा य नह लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट
आओगी तब तक म इसी बड़ क छाँह म बैठा हँ।
िजस कार तु हारा यह अ ानजिनत भारी म दूर हो, िववेक के ारा सोच-समझकर तुम वही
करना। िशव क आ ा पाकर सती चल और मन म सोचने लग िक भाई! या क ँ ?
जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तक करके कौन शाखा (िव तार) बढ़ावे। (मन म) ऐसा
कहकर िशव भगवान ह र का नाम जपने लगे और सती वहाँ गई ं जहाँ सुख के धाम भु राम थे।
ी वभाव का असर तो देखो िक वहाँ भी सती िछपाव करना चाहती ह। अपनी माया के बल को
दय म बखानकर, राम हँसकर कोमल वाणी से बोले।
पहले भु ने हाथ जोड़कर सती को णाम िकया और िपता सिहत अपना नाम बताया। िफर कहा
िक वषृ केतु िशव कहाँ ह? आप यहाँ वन म अकेली िकसिलए िफर रही ह?
राम ने जान िलया िक सती को दुःख हआ, तब उ ह ने अपना कुछ भाव कट करके उ ह
िदखलाया। सती ने माग म जाते हए यह कौतुक देखा िक राम सीता और ल मण सिहत आगे
चले जा रहे ह।
उ ह ने पीछे क ओर िफरकर देखा, तो वहाँ भी भाई ल मण और सीता के साथ राम संुदर वेष म
िदखाई िदए। वे िजधर देखती ह, उधर ही भु राम िवराजमान ह और सुचतुर िस मुनी र उनक
सेवा कर रहे ह।
सती ने अनेक िशव, ा और िव णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम भाववाले थे। भाँित-
भाँित के वेष धारण िकए सभी देवता राम क चरणवंदना और सेवा कर रहे ह।
सती ने जहाँ-जहाँ िजतने रघुनाथ देखे, शि य सिहत वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा।
संसार म जो चराचर जीव ह, वे भी अनेक कार के सब देखे।
अनेक वेष धारण करके देवता भु राम क पज ू ा कर रहे ह, परं तु राम का दूसरा प कह नह
देखा। सीता सिहत रघुनाथ बहत-से देखे, परं तु उनके वेष अनेक नह थे।
सोइ रघब
ु र सोइ लिछमनु सीता। देिख सती अित भई ं सभीता॥
दय कंप तन सिु ध कछु नाह । नयन मूिद बैठ मग माह ॥
वही रघुनाथ, वही ल मण और वही सीता - सती ऐसा देखकर बहत ही डर गई ं। उनका दय
काँपने लगा और देह क सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मँदू कर माग म बैठ गई ं।
िफर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ द कुमारी को कुछ भी न िदख पड़ा। तब वे बार-बार राम के
चरण म िसर नवाकर वहाँ चल , जहाँ िशव थे।
जब पास पहँच , तब िशव ने हँसकर कुशल करके कहा िक तुमने राम क िकस कार
परी ा ली, सारी बात सच-सच कहो॥ 55॥
सत समिु झ रघब
ु ीर भाऊ। भय बस िसव सन क ह दरु ाऊ॥
कछु न परीछा लीि ह गोसाई ं। क ह नामु तु हा रिह नाई ं॥
सती ने रघुनाथ के भाव को समझकर डर के मारे िशव से िछपाव िकया और कहा - हे वािमन्!
मने कुछ भी परी ा नह ली, (वहाँ जाकर) आपक ही तरह णाम िकया।
जो तु ह कहा सो मष
ृ ा न होई। मोर मन तीित अित सोई॥
तब संकर देखउे ध र याना। सत जो क ह च रत सबु जाना॥
िफर राम क माया को िसर नवाया, िजसने ेरणा करके सती के मँुह से भी झठ
ू कहला िदया।
सुजान िशव ने मन म िवचार िकया िक ह र क इ छा पी भावी बल है।
सती ने सीता का वेष धारण िकया, यह जानकर िशव के दय म बड़ा िवषाद हआ। उ ह ने सोचा
िक यिद म अब सती से ीित करता हँ तो भि माग लु हो जाता है और बड़ा अ याय होता है।
सती परम पिव ह, इसिलए इ ह छोड़ते भी नह बनता और ेम करने म बड़ा पाप है। कट
करके महादेव कुछ भी नह कहते, परं तु उनके दय म बड़ा संताप है॥ 56॥
तब िशव ने भु राम के चरण कमल म िसर नवाया और राम का मरण करते ही उनके मन म
यह आया िक सती के इस शरीर से मेरी भट नह हो सकती और िशव ने अपने मन म यह संक प
कर िलया।
ि थर-बुि शंकर ऐसा िवचार कर रघुनाथ का मरण करते हए अपने घर (कैलास) को चले।
चलते समय सुंदर आकाशवाणी हई िक हे महे श! आपक जय हो। आपने भि क अ छी ढ़ता
क।
सती ने दय म अनुमान िकया िक सव िशव सब जान गए। मने िशव से कपट िकया। ी
वभाव से ही मख
ू और बेसमझ होती है॥ 57(क)॥
ीित क संुदर रीित देिखए िक जल भी (दूध के साथ िमलकर) दूध के समान भाव िबकता है,
परं तु िफर कपट पी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और वाद ( ेम)
जाता रहता है॥ 57(ख)॥
दयँ सोचु समझु त िनज करनी। िचंता अिमत जाइ निहं बरनी॥
कृपािसंधु िसव परम अगाधा। गट न कहेउ मोर अपराधा॥
अपनी करनी को याद करके सती के दय म इतना सोच है और इतनी अपार िचंता है िक
िजसका वणन नह िकया जा सकता। िशव कृपा के परम अथाह सागर ह। इससे कट म उ ह ने
मेरा अपराध नह कहा।
वषृ केतु िशव ने सती को िचंतायु जानकर उ ह सुख देने के िलए सुंदर कथाएँ कह । इस कार
माग म िविवध कार के इितहास को कहते हए िव नाथ कैलास जा पहँचे।
वहाँ िफर िशव अपनी ित ा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे प ासन लगाकर बैठ गए। िशव
ने अपना वाभािवक प संभाला। उनक अखंड और अपार समािध लग गई।
उसका फल िवधाता ने मुझको िदया, जो उिचत था वही िकया; परं तु हे िवधाता! अब तुझे यह
उिचत नह है, जो शंकर से िवमुख होने पर भी मुझे िजला रहा है।
सती के दय क लािन कुछ कही नह जाती। बुि मती सती ने मन म राम का मरण िकया
और कहा - हे भो! यिद आप दीनदयालु कहलाते ह और वेद ने आपका यह यश गाया है िक
आप दुःख को हरनेवाले ह,
तो म हाथ जोड़कर िवनती करती हँ िक मेरी यह देह ज दी छूट जाए। यिद मेरा िशव के चरण म
ेम है और मेरा यह त मन, वचन और कम से स य है,
द सुता सती इस कार बहत दुःिखत थ , उनको इतना दा ण दुःख था िक िजसका वणन नह
िकया जा सकता। स ासी हजार वष बीत जाने पर अिवनाशी िशव ने समािध खोली।
िशव रामनाम का मरण करने लगे, तब सती ने जाना िक अब जगत के वामी (िशव) जागे।
उ ह ने जाकर िशव के चरण म णाम िकया। िशव ने उनको बैठने के िलए सामने आसन िदया।
िशव भगवान ह र क रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय द जापित हए। ा ने सब
कार से यो य देख-समझकर द को जापितय का नायक बना िदया।
जब द ने इतना बड़ा अिधकार पाया, तब उनके दय म अ यंत अिभमान आ गया। जगत म ऐसा
कोई नह पैदा हआ िजसको भुता पाकर मद न हो।
सती ने देखा, अनेक कार के सुंदर िवमान आकाश म चले जा रहे ह, देव-सुंद रयाँ मधुर गान
कर रही ह, िज ह सुनकर मुिनय का यान छूट जाता है।
य िक उनके दय म पित ारा यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध
समझकर वे कुछ कहती न थ । आिखर सती भय, संकोच और ेमरस म सनी हई मनोहर वाणी
से बोल - ।
हे भो! मेरे िपता के घर बहत बड़ा उ सव है। यिद आपक आ ा हो तो हे कृपाधाम! म आदर
सिहत उसे देखने जाऊँ॥ 61॥
सभाँ हम सन दख
ु ु माना। तेिह त अजहँ करिहं अपमाना॥
ज िबनु बोल जाह भवानी। रहइ न सीलु सनेह न कानी॥
िशव ने बहत कार से समझाया, पर होनहारवश सती के दय म बोध नह हआ। िफर िशव ने
कहा िक यिद िबना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ म अ छी बात न होगी।
िशव ने बहत कार से कहकर देख िलया, िकंतु जब सती िकसी कार भी नह क , तब
ि पुरा र महादेव ने अपने मु य गण को साथ देकर उनको िबदा कर िदया॥ 62॥
द ने तो उनक कुछ कुशल तक नह पछ ू ी, सती को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे ।
तब सती ने जाकर य देखा तो वहाँ कह िशव का भाग िदखाई नह िदया।
तब िशव ने जो कहा था, वह उनक समझ म आया। वामी का अपमान समझकर सती का दय
जल उठा। िपछला (पित प र याग का) दुःख उनके दय म उतना नह यापा था, िजतना महान
दुःख इस समय (पित अपमान के कारण) हआ।
परं तु उनसे िशव का अपमान सहा नह गया, इससे उनके दय म कुछ भी बोध नह हआ। तब वे
सारी सभा को हठपवू क डाँटकर ोधभरे वचन बोल - ॥ 63॥
सन
ु ह सभासद सकल मिु नंदा। कही सन ु ी िज ह संकर िनंदा॥
सो फलु तरु त लहब सब काहँ। भली भाँित पिछताब िपताहँ॥
हे सभासदो और सब मुनी रो! सुनो। िजन लोग ने यहाँ िशव क िनंदा क या सुनी है, उन
सबको उसका फल तुरंत ही िमलेगा और मेरे िपता द भी भली भाँित पछताएँ गे।
संत संभप
ु ित अपबादा। सिु नअ जहाँ तहँ अिस मरजादा॥
कािटअ तासु जीभ जो बसाई। वन मूिद न त चिलअ पराई॥
जहाँ संत, िशव और ल मीपित िव णु भगवान क िनंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मयादा है िक यिद
अपना वश चले तो उस (िनंदा करनेवाले) क जीभ काट ले और नह तो कान मँदू कर वहाँ से
भाग जाए।
ृ केत॥
तिजहउँ तरु त देह तेिह हेत।ू उर ध र चं मौिल बष ू
अस किह जोग अिगिन तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥
ु कै होई॥
भै जगिबिदत द छ गित सोई। जिस कछु संभु िबमख
यह इितहास सकल जग जानी। ताते म संछेप बखानी॥
द क जग िस वही गित हई, जो िशव ोही क हआ करती है। यह इितहास सारा संसार
जानता है, इसिलए मने सं ेप म वणन िकया।
जब से उमा िहमाचल के घर जनम , तब से वहाँ सारी िसि याँ और संपि याँ छा गई ं। मुिनय ने
जहाँ-तहाँ सुंदर आ म बना िलए और िहमाचल ने उनको उिचत थान िदए।
स रता सब पन
ु ीत जलु बहह । खग मग
ृ मधप
ु सख
ु ी सब रहह ॥
सहज बय सब जीव ह यागा। िग र पर सकल करिहं अनरु ागा॥
सारी निदय म पिव जल बहता है और प ी, पशु, मर सभी सुखी रहते ह। सब जीव ने अपना
वाभािवक बैर छोड़ िदया है और पवत पर सभी पर पर ेम करते ह।
सोह सैल िग रजा गहृ आएँ । िजिम जनु रामभगित के पाएँ ॥
िनत नूतन मंगल गहृ तासू। ािदक गाविहं जसु जासू॥
िफर अपनी ी सिहत मुिन के चरण म िसर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर म
िछड़काया। िहमाचल ने अपने सौभा य का बहत बखान िकया और पु ी को बुलाकर मुिन के
चरण पर डाल िदया।
नारद मुिन ने हँसकर रह ययु कोमल वाणी से कहा - तु हारी क या सब गुण क खान है।
यह वभाव से ही सुंदर, सुशील और समझदार है। उमा, अंिबका और भवानी इसके नाम ह।
क या सब सुल ण से संप न है, यह अपने पित को सदा यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल
रहे गा और इससे इसके माता-िपता यश पाएँ गे।
यह सारे जगत म पू य होगी और इसक सेवा करने से कुछ भी दुलभ न होगा। संसार म ि याँ
इसका नाम मरण करके पित ता पी तलवार क धार पर चढ़ जाएँ गी।
सैल सल
ु छन सतु ा तु हारी। सन
ु ह जे अब अवगन
ु दइु चारी॥
अगनु अमान मातु िपतु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥
हे पवतराज! तु हारी क या सुल छनी है। अब इसम जो दो-चार अवगुण ह, उ ह भी सुन लो।
गुणहीन, मानहीन, माता-िपता-िवहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)।
योगी, जटाधारी, िन काम दय, नंगा और अमंगल वेषवाला, ऐसा पित इसको िमलेगा। इसके
हाथ म ऐसी ही रे खा पड़ी है॥ 67॥
सारी सिखयाँ, पावती, पवतराज िहमवान और मैना सभी के शरीर पुलिकत थे और सभी के ने
म जल भरा था। देविष के वचन अस य नह हो सकते, (यह िवचारकर) पावती ने उन वचन को
दय म धारण कर िलया।
देविष क वाणी झठ
ू ी न होगी, यह िवचार कर िहमवान, मैना और सारी चतुर सिखयाँ िचंता करने
लग । िफर दय म धीरज धरकर पवतराज ने कहा - हे नाथ! किहए, अब या उपाय िकया जाए?
दो० - कह मन
ु ीस िहमवंत सनु ु जो िबिध िलखा िललार।
देव दनज
ु नर नाग मिु न कोउ न मेटिनहार॥ 68॥
मुनी र ने कहा - हे िहमवान! सुनो, िवधाता ने ललाट पर जो कुछ िलख िदया है, उसे देवता,
दानव, मनु य, नाग और मुिन कोई भी नह िमटा सकते॥ 68॥
परं तु मने वर के जो-जो दोष बतलाए ह, मेरे अनुमान से वे सभी िशव म ह। यिद िशव के साथ
िववाह हो जाए तो दोष को भी सब लोग गुण के समान ही कहगे।
सभ
ु अ असभ ु सिलल सब बहई। सरु स र कोउ अपन ु ीत न कहई॥
समरथ कहँ निहं दोषु गोसाई ं। रिब पावक सरु स र क नाई ं॥
गंगा जल से भी बनाई हई मिदरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नह करते। पर वही
गंगा म िमल जाने पर जैसे पिव हो जाती है, ई र और जीव म भी वैसा ही भेद है।
िशव सहज ही समथ ह, य िक वे भगवान ह, इसिलए इस िववाह म सब कार क याण है, परं तु
महादेव क आराधना बड़ी किठन है, िफर भी लेश (तप) करने से वे बहत ज द संतु हो जाते
ह।
ऐसा कहकर भगवान का मरण करके नारद ने पावती को आशीवाद िदया। (और कहा -) हे
पवतराज! तुम संदेह का याग कर दो, अब यह क याण ही होगा॥ 70॥
य कहकर नारद मुिन लोक को चले गए। अब आगे जो च र हआ उसे सुनो। पित को एकांत
म पाकर मैना ने कहा - हे नाथ! मने मुिन के वचन का अथ नह समझा।
हे ि ये! सब सोच छोड़कर भगवान का मरण करो, िज ह ने पावती को रचा है, वे ही क याण
करगे॥ 71॥
पित के वचन सुन मन म स न होकर मैना उठकर तुरंत पावती के पास गई ं। पावती को
देखकर उनक आँख म आँसू भर आए। उसे नेह के साथ गोद म बैठा िलया।
िफर बार-बार उसे दय से लगाने लग । ेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नह जाता।
जग जननी भवानी तो सव ठहर । (माता के मन क दशा को जानकर) वे माता को सुख
देनेवाली कोमल वाणी से बोल -।
माँ! सुन, म तुझे सुनाती हँ; मने ऐसा व न देखा है िक मुझे एक सुंदर गौरवण े ा ण ने
ऐसा उपदेश िदया है - ॥ 72॥
हे पावती! नारद ने जो कहा है, उसे स य समझकर तू जाकर तप कर। िफर यह बात तेरे माता-
िपता को भी अ छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोष का नाश करनेवाला है।
हे भवानी! सारी सिृ तप के ही आधार पर है। ऐसा जी म जानकर तू जाकर तप कर। यह बात
सुनकर माता को बड़ा अचरज हआ और उसने िहमवान को बुलाकर वह व न सुनाया।
माता-िपता को बहत तरह से समझाकर बड़े हष के साथ पावती तप करने के िलए चल । यारे
कुटुंबी, िपता और माता सब याकुल हो गए। िकसी के मँुह से बात नह िनकलती।
तब वेदिशरा मुिन ने आकर सबको समझाकर कहा। पावती क मिहमा सुनकर सबको समाधान
हो गया॥ 73॥
िनत नव चरन उपज अनरु ागा। िबसरी देह तपिहं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥
कुछ िदन जल और वायु का भोजन िकया और िफर कुछ िदन कठोर उपवास िकया - जो बेल प
सखू कर प ृ वी पर िगरते थे, तीन हजार वष तक उ ह को खाया।
पिु न प रहरे सख
ु ानेउ परना। उमिह नामु तब भयउ अपरना॥
देिख उमिह तप खीन सरीरा। िगरा भै गगन गभीरा॥
सन
ु त िगरा िबिध गगन बखानी। पल ु क गात िग रजा हरषानी॥
उमा च रत संदु र म गावा। सन
ु ह संभु कर च रत सहु ावा॥
जब से सती ने जाकर शरीर याग िकया, तब से िशव के मन म वैरा य हो गया। वे सदा रघुनाथ
का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ राम के गुण क कथाएँ सुनने लगे।
दो० - िचदानंद सख
ु धाम िसव िबगत मोह मद काम।
िबचरिहं मिह ध र दयँ ह र सकल लोक अिभराम॥ 75॥
इस कार बहत समय बीत गया। राम के चरण म िनत नई ीित हो रही है। िशव के (कठोर)
िनयम, (अन य) ेम और उनके दय म भि क अटल टेक को (जब राम ने) देखा।
तब कृत (उपकार माननेवाले), कृपालु, प और शील के भंडार, महान तेजपुंज भगवान राम
कट हए। उ ह ने बहत तरह से िशव क सराहना क और कहा िक आप के िबना ऐसा (किठन)
त कौन िनबाह सकता है।
दो० - अब िबनती मम सन
ु ह िसव ज मो पर िनज नेह।
जाइ िबबाहह सैलजिह यह मोिह माग देह॥ 76॥
(िफर उ ह ने िशव से कहा -) हे िशव! यिद मुझ पर आपका नेह है, तो अब आप मेरी िवनती
सुिनए। मुझे यह माँगने दीिजए िक आप जाकर पावती के साथ िववाह कर ल॥ 76॥
िशव ने कहा - य िप ऐसा उिचत नह है, परं तु वामी क बात भी मेटी नह जा सकती। हे नाथ!
मेरा यही परम धम है िक म आपक आ ा को िसर पर रखकर उसका पालन क ँ ।
माता, िपता, गु और वामी क बात को िबना िवचारे ही शुभ समझकर करना (मानना) चािहए।
िफर आप तो सब कार से मेरे परम िहतकारी ह। हे नाथ! आपक आ ा मेरे िसर-माथे है।
इस कार कहकर राम अंतधान हो गए। िशव ने उनक वह मिू त अपने दय म रख ली। उसी
समय स िष िशव के पास आए। भु महादेव ने उनसे अ यंत सुहावने वचन कहे - ।
े प र छा लेह।
दो० - पारबती पिहं जाइ तु ह म
िग रिह े र पठएह भवन दू र करे ह संदहे ॥ 77॥
ऋिषय ने (वहाँ जाकर) पावती को कैसी देखा, मानो मिू तमान तप या ही हो। मुिन बोले - हे
शैलकुमारी! सुनो, तुम िकसिलए इतना कठोर तप कर रही हो?
तुम िकसक आराधना करती हो और या चाहती हो? हमसे अपना स चा भेद य नह कहत ?
(पावती ने कहा -) बात कहते मन बहत सकुचाता है। आप लोग मेरी मख
ू ता सुनकर हँसगे।
मनु हठ परा न सन
ु इ िसखावा। चहत बा र पर भीित उठावा॥
नारद कहा स य सोइ जाना। िबनु पंख ह हम चहिहं उड़ाना॥
मन ने हठ पकड़ िलया है, वह उपदेश नह सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारद ने
जो कह िदया उसे स य जानकर म िबना पंख के ही उड़ना चाहती हँ।
दो० - सन
ु त बचन िबहसे रषय िग रसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सिु न कहह बसेउ िकसु गेह॥ 78॥
पावती क बात सुनते ही ऋिष लोग हँस पड़े और बोले - तु हारा शरीर पवत से ही तो उ प न हआ
है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक िकसका घर बसा है?॥ 78॥
नारद िसख जे सन
ु िहं नर नारी। अविस होिहं तिज भवनु िभखारी॥
मन कपटी तन स जन ची हा। आपु स रस सबही चह क हा॥
उनके वचन पर िव ास मानकर तुम ऐसा पित चाहती हो जो वभाव से ही उदासीन, गुणहीन,
िनल ज, बुरे वेषवाला, नर-कपाल क माला पहननेवाला, कुलहीन, िबना घर-बार का, नंगा
और शरीर पर साँप को लपेटे रखनेवाला है।
ऐसे वर के िमलने से कहो, तु ह या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे म आकर खबू
ू । पहले पंच के कहने से िशव ने सती से िववाह िकया, परं तु िफर उसे यागकर मरवा डाला।
भल
दो० - अब सख
ु सोवत सोचु निहं भीख मािग भव खािहं।
सहज एकािक ह के भवन कबहँ िक ना र खटािहं॥ 79॥
अब िशव को कोई िचंता नह रही, भीख माँगकर खा लेते ह और सुख से सोते ह। ऐसे वभाव से
ही अकेले रहने वाल के घर भी भला या कभी ि याँ िटक सकती ह?॥ 79॥
अतः म नारद के वचन को नह छोड़ँ गी, चाहे घर बसे या उजड़े , इससे म नह डरती। िजसको
गु के वचन म िव ास नह है, उसको सुख और िसि व न म भी सुगम नह होती।
हे मुनी रे ! यिद आप पहले िमलते, तो म आपका उपदेश िसर-माथे रखकर सुनती, परं तु अब तो
म अपना ज म िशव के िलए हार चुक ! िफर गुण-दोष का िवचार कौन करे ?
यिद आपके दय म बहत ही हठ है और िववाह क बातचीत (बरे खी) िकए िबना आपसे रहा ही
नह जाता, तो संसार म वर-क या बहत ह। िखलवाड़ करने वाल को आल य तो होता नह
(और कह जाकर क िजए)।
जग जननी पावती ने िफर कहा िक म आपके पैर पड़ती हँ। आप अपने घर जाइए, बहत देर हो
गई। (िशव म पावती का ऐसा) ेम देखकर ानी मुिन बोले - हे जग जननी! हे भवानी! आपक
जय हो! जय हो!!
मुिनय ने जाकर िहमवान को पावती के पास भेजा और वे िवनती करके उनको घर ले आए, िफर
स िषय ने िशव के पास जाकर उनको पावती क सारी कथा सुनाई।
उसी समय तारक नाम का असुर हआ, िजसक भुजाओं का बल, ताप और तेज बहत बड़ा था।
उसने सब लोक और लोकपाल को जीत िलया, सब देवता सुख और संपि से रिहत हो गए।
अजर अमर सो जीित न जाई। हारे सरु क र िबिबध लराई॥
ु ारे । देखे िबिध सब देव दख
तब िबरं िच सन जाइ पक ु ारे ॥
वह अजर-अमर था, इसिलए िकसी से जीता नह जाता था। देवता उसके साथ बहत तरह क
लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उ ह ने ा के पास जाकर गुहार क । ा ने सब देवताओं को
दुःखी देखा।
मेरी बात सुनकर उपाय करो। ई र सहायता करगे और काम हो जाएगा। सती ने जो द के य
म देह का याग िकया था, उ ह ने अब िहमाचल के घर जाकर ज म िलया है।
तेिहं तपु क ह संभु पित लागी। िसव समािध बैठे सबु यागी॥
जदिप अहइ असमंजस भारी। तदिप बात एक सन ु ह हमारी॥
उ ह ने िशव को पित बनाने के िलए तप िकया है, इधर िशव सब छोड़-छाड़कर समािध लगा बैठे
ह। य िप है तो बड़े असमंजस क बात, तथािप मेरी एक बात सुनो।
तुम जाकर कामदेव को िशव के पास भेजो, वह िशव के मन म ोभ उ प न करे (उनक समािध
भंग करे )। तब हम जाकर िशव के चरण म िसर रख दगे और जबरद ती (उ ह राजी करके)
िववाह करा दगे।
एिह िबिध भलेिहं देविहत होई। मत अित नीक कहइ सबु कोई॥
अ तिु त सरु ह क ि ह अित हेत।ू गटेउ िबषमबान झषकेत॥ू
इस कार से भले ही देवताओं का िहत हो (और तो कोई उपाय नह है) सबने कहा - यह स मित
बहत अ छी है। िफर देवताओं ने बड़े ेम से तुित क । तब िवषम (पाँच) बाण धारण करनेवाला
और मछली के िच यु वजावाला कामदेव कट हआ।
दो० - सरु ह कही िनज िबपित सब सिु न मन क ह िबचार।
संभु िबरोध न कुसल मोिह िबहिस कहेउ अस मार॥ 83॥
देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी िवपि कही। सुनकर कामदेव ने मन म िवचार िकया और
हँसकर देवताओं से य कहा िक िशव के साथ िवरोध करने म मेरी कुशल नह है॥ 83॥
तथािप म तु हारा काम तो क ँ गा, य िक वेद दूसरे के उपकार को परम धम कहते ह। जो दूसरे
के िहत के िलए अपना शरीर याग देता है, संत सदा उसक बड़ाई करते ह।
चय, िनयम, नाना कार के संयम, धीरज, धम, ान, िव ान, सदाचार, जप, योग, वैरा य
आिद िववेक क सारी सेना डरकर भाग गई।
िववेक अपने सहायक सिहत भाग गया, उसके यो ा रणभिू म से पीठ िदखा गए। उस समय वे
सब सद् ंथ पी पवत क कंदराओं म जा िछपे (अथात ान, वैरा य, संयम, िनयम, सदाचारािद
ंथ म ही िलखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत म खलबली मच गई (और सब
कहने लगे -) हे िवधाता! अब या होनेवाला है? हमारी र ा कौन करे गा? ऐसा दो िसरवाला
कौन है, िजसके िलए रित के पित कामदेव ने कोप करके हाथ म धनुष-बाण उठाया है?
जगत म ी-पु ष सं ावाले िजतने चर-अचर ाणी थे, वे सब अपनी-अपनी मयादा छोड़कर
काम के वश म हो गए॥ 84॥
जब जड़ (व ृ , नदी आिद) क यह दशा कही गई, तब चेतन जीव क करनी कौन कह सकता
है? आकाश, जल और प ृ वी पर िवचरनेवाले सारे पशु-प ी (अपने संयोग का) समय भुलाकर
काम के वश म हो गए।
सब लोक कामांध होकर याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-िदन नह देखते। देव, दै य, मनु य,
िक नर, सप, ेत, िपशाच, भत
ू , बेताल - ।
दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हआ, जब तक कामदेव िशव के पास पहँच गया। िशव को देखकर
कामदेव डर गया, तब सारा संसार िफर जैसा-का- तैसा ि थर हो गया।
भए तरु त सब जीव सख
ु ारे । िजिम मद उत र गएँ मतवारे ॥
िह देिख मदन भय माना। दरु ाधरष दगु म भगवाना॥
तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा िपए हए) लोग मद (नशा) उतर जाने
पर सुखी होते ह। दुधष (िजनको परािजत करना अ यंत ही किठन है) और दुगम (िजनका पार
पाना किठन है) भगवान (संपण ू ऐ य, धम, यश,, ान और वैरा य प छह ई रीय गुण से
यु ) (महाभयंकर) िशव को देखकर कामदेव भयभीत हो गया।
कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ कार क सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया, पर िशव क
अचल समािध न िडगी। तब कामदेव ोिधत हो उठा॥ 86॥
ै ोका॥
सौरभ प लव मदनु िबलोका। भयउ कोपु कंपेउ ल
तब िसवँ तीसर नयन उघारा। िचतवन कामु भयउ ज र छारा॥
योगी िन कंटक हो गए, कामदेव क ी रित अपने पित क यह दशा सुनते ही मिू छत हो गई।
रोती-िच लाती और भाँित-भाँित से क णा करती हई वह िशव के पास गई। अ यंत ेम के साथ
अनेक कार से िवनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शी स न होनेवाले कृपालु
िशव अबला (असहाय ी) को देखकर सुंदर (उसको सां वना देनेवाले) वचन बोले -
हे रित! अब से तेरे वामी का नाम अनंग होगा। वह िबना शरीर के ही सबको यापेगा। अब तू
अपने पित से िमलने क बात सुन॥ 87॥
जब प ृ वी के बड़े भारी भार को उतारने के िलए यदुवंश म कृ ण का अवतार होगा, तब तेरा पित
उनके पु ( ु न) के प म उ प न होगा। मेरा यह वचन अ यथा नह होगा।
िशव के वचन सुनकर रित चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर कहता हँ। ािद देवताओं ने ये
सब समाचार सुने तो वे बैकंु ठ को चले।
िफर वहाँ से िव णु और ा सिहत सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम िशव थे। उन सबने
िशव क अलग-अलग तुित क , तब शिशभषू ण िशव स न हो गए।
हे नाथ! े वािमय का यह सहज वभाव ही है िक वे पहले दंड देकर िफर कृपा िकया करते
ह। पावती ने अपार तप िकया है, अब उ ह अंगीकार क िजए।
सिु न िबिध िबनय समिु झ भु बानी। ऐसेइ होउ कहा सखु ु मानी॥
तब देव ह ददुं भ
ु बजाई ं। बरिष सम
ु न जय जय सरु साई ं॥
सिु न बोल मस
ु क
ु ाइ भवानी। उिचत कहेह मिु नबर िब यानी॥
तु हर जान कामु अब जारा। अब लिग संभु रहे सिबकारा॥
यह सुनकर पावती मुसकराकर बोल - हे िव ानी मुिनवरो! आपने उिचत ही कहा। आपक समझ
म िशव ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे िवकारयु (कामी) ही रहे !
तात अनल कर सहज सभ ु ाऊ। िहम तेिह िनकट जाइ निहं काऊ॥
गएँ समीप सो अविस नसाई। अिस म मथ महेस क नाई॥
दयँ िबचा र संभु भतु ाई। सादर मिु नबर िलए बोलाई।
सिु दनु सन
ु खतु सघ
ु री सोचाई। बेिग बेदिबिध लगन धराई॥
ा ने ल न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुिन और देवताओं का सारा समाज हिषत
हो गया। आकाश से फूल क वषा होने लगी, बाजे बजने लगे और दस िदशाओं म मंगल-कलश
सजा िदए गए।
सब देवता अपने भाँित-भाँित के वाहन और िवमान सजाने लगे, क याण द मंगल शकुन होने
लगे और अ सराएँ गाने लग ॥ 91॥
िशव के गण िशव का ंग ृ ार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँप का मौर सजाया
गया। िशव ने साँप के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर िवभिू त रमाई और व क जगह
बाघंबर लपेट िलया।
एक हाथ म ि शलू और दूसरे म डम सुशोिभत है। िशव बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे ह।
िशव को देखकर देवांगनाएँ मु कुरा रही ह (और कहती ह िक) इस वर के यो य दुलिहन संसार
म नह िमलेगी।
कोउ मख
ु हीन िबपल
ु मख
ु काह। िबनु पद कर कोउ बह पद बाह॥
िबपल
ु नयन कोउ नयन िबहीना। र पु कोउ अित तनखीना॥
कोई िबना मुख का है, िकसी के बहत-से मुख ह, कोई िबना हाथ-पैर का है तो िकसी के कई
हाथ-पैर ह। िकसी के बहत आँख ह तो िकसी के एक भी आँख नह है। कोई बहत मोटा-ताजा है,
तो कोई बहत ही दुबला-पतला है।
कोई बहत दुबला, कोई बहत मोटा, कोई पिव और कोई अपिव वेष धारण िकए हए है। भयंकर
गहने पहने हाथ म कपाल िलए ह और सब के सब शरीर म ताजा खनू लपेटे हए ह। गधे, कु े,
सअू र और िसयार के-से उनके मुख ह। गण के अनिगनत वेष को कौन िगने? बहत कार के
ेत, िपशाच और योिगिनय क जमाते ह। उनका वणन करते नह बनता।
ू - ेत नाचते और गाते ह, वे सब बड़े मौजी ह। देखने म बहत ही बेढंगे जान पड़ते ह और बड़े
भत
ही िविच ढं ग से बोलते ह॥ 93॥
जैसा दू हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। माग म चलते हए भाँित-भाँित के कौतुक होते जाते
ह। इधर िहमाचल ने ऐसा िविच मंडप बनाया िक िजसका वणन नह हो सकता।
सैल सकल जहँ लिग जग माह । लघु िबसाल निहं बरिन िसराह ॥
बन सागर सब नदी तलावा। िहमिग र सब कहँ नेवत पठावा॥
जगत म िजतने छोटे-बड़े पवत थे, िजनका वणन करके पार नह िमलता तथा िजतने वन, समु ,
निदयाँ और तालाब थे, िहमाचल ने सबको नेवता भेजा।
िहमाचल ने पहले ही से बहत-से घर सजवा रखे थे। यथायो य उन-उन थान म सब लोग उतर
गए। नगर क सुंदर शोभा देखकर ा क रचना चातुरी भी तु छ लगती थी।
नगर क शोभा देखकर ा क िनपुणता सचमुच तु छ लगती है। वन, बाग, कुएँ , तालाब,
निदयाँ सभी संुदर ह, उनका वणन कौन कर सकता है? घर-घर बहत-से मंगलसच ू क तोरण और
वजा-पताकाएँ सुशोिभत हो रही ह। वहाँ के सुंदर और चतुर ी-पु ष क छिव देखकर मुिनय
के भी मन मोिहत हो जाते ह।
िजस नगर म वयं जगदंबा ने अवतार िलया, या उसका वणन हो सकता है? वहाँ ऋि , िसि ,
संपि और सुख िनत-नए बढ़ते जाते ह॥ 94॥
बारात को नगर के िनकट आई सुनकर नगर म चहल-पहल मच गई, िजससे उसक शोभा बढ़
ृ ार करके तथा नाना कार क सवा रय को सजाकर
गई। अगवानी करनेवाले लोग बनाव- ंग
आदर सिहत बारात को लेने चले।
कुछ बड़ी उ के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे । लड़के तो सब अपने ाण लेकर भागे।
घर पहँचने पर जब माता-िपता पछ
ू ते ह, तब वे भय से काँपते हए शरीर से ऐसा वचन कहते ह -
या कह, कोई बात कही नह जाती। यह बारात है या यमराज क सेना? दू हा पागल है और बैल
पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने ह।
दू हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने ह, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है।
उसके साथ भयानक मुखवाले भत ू , ेत, िपशाच, योिगिनयाँ और रा स ह, जो बारात को देखकर
जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पु य ह और वही पावती का िववाह देखेगा। लड़क ने घर-घर
यही बात कही।
अगवान लोग बारात को िलवा लाए, उ ह ने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को िदए। मैना (पावती
क माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ क ि याँ उ म मंगलगीत गाने लग ।
बहत ही डर के मारे भागकर वे घर म घुस गई ं और िशव जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के
दय म बड़ा दुःख हआ, उ ह ने पावती को अपने पास बुला िलया।
और अ यंत नेह से गोद म बैठाकर अपने नीलकमल के समान ने म आँसू भरकर कहा -
ू ने तु हारे दू हे को बावला कैसे बनाया?
िजस िवधाता ने तुमको ऐसा सुंदर प िदया, उस मख
िजस िवधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तु हारे िलए वर बावला कैसे बनाया? जो फल क पव ृ
म लगना चािहए, वह जबरद ती बबल ू म लग रहा है। म तु ह लेकर पहाड़ से िगर पड़ँ गी, आग म
जल जाऊँगी या समु म कूद पड़ँ गी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर म अपक ित फै ल जाए,
पर जीते जी म इस बावले वर से तु हारा िववाह न क ँ गी।
माता को िवकल देखकर पावती िववेकयु कोमल वाणी बोल - हे माता! जो िवधाता रच देते ह,
वह टलता नह ; ऐसा िवचार कर तुम सोच मत करो!
जो मेरे भा य म बावला ही पित िलखा है, तो िकसी को य दोष लगाया जाए? हे माता! या
िवधाता के अंक तुमसे िमट सकते ह? वथृ ा कलंक का टीका मत लो।
हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर िवषाद करने का नह है। मेरे भा य म जो दुःख-
सुख िलखा है, उसे म जहाँ जाऊँगी, वह पाऊँगी! पावती के ऐसे िवनय भरे कोमल वचन सुनकर
सारी ि याँ सोच करने लग और भाँित-भाँित से िवधाता को दोष देकर आँख से आँसू बहाने
लग ।
इस समाचार को सुनते ही िहमाचल उसी समय नारद और स ऋिषय को साथ लेकर अपने घर
गए॥ 97॥
तब नारद ने पवू ज म क कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) िक हे मैना! तुम मेरी
स ची बात सुनो, तु हारी यह लड़क सा ात जग जनी भवानी है।
अजा अनािद सि अिबनािसिन। सदा संभु अरधंग िनवािसिन॥
जग संभव पालन लय का रिन। िनज इ छा लीला बपु धा रिन॥
पहले ये द के घर जाकर ज मी थ , तब इनका सती नाम था, बहत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ
भी सती शंकर से ही याही गई थ । यह कथा सारे जगत म िस है।
सती ने जो सीता का वेष धारण िकया, उसी अपराध के कारण शंकर ने उनको याग िदया। िफर
िशव के िवयोग म ये अपने िपता के य म जाकर वह योगाि न से भ म हो गई ं। अब इ ह ने
तु हारे घर ज म लेकर अपने पित के िलए किठन तप िकया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो,
पावती तो सदा ही िशव क ि या ह।
तब नारद के वचन सुनकर सबका िवषाद िमट गया और णभर म यह समाचार सारे नगर म
घर-घर फै ल गया॥ 98॥
नगर म मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँित-भाँित के सुवण के कलश सजाए। पाक-
शा म जैसी रीित है, उसके अनुसार अनेक भाँित क योनार हई (रसोई बनी)।
िजस घर म वयं माता भवानी रहती ह , वहाँ क योनार (भोजन साम ी) का वणन कैसे िकया
जा सकता है? िहमाचल ने आदरपवू क सब बाराितय , िव णु, ा और सब जाित के देवताओं को
बुलवाया।
भोजन (करनेवाल ) क बहत-सी पंगत बैठ । चतुर रसोइए परोसने लगे। ि य क मंडिलयाँ
देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गािलयाँ देने लग ।
िफर मुिनय ने लौटकर िहमवान को लगन (ल न पि का) सुनाई और िववाह का समय देखकर
देवताओं को बुला भेजा॥ 99॥
बह र मन
ु ीस ह उमा बोलाई ं। क र िसंगा सख लै आई ं॥
देखत पु सकल सरु मोहे। बरनै छिब अस जग किब को है॥
जग जननी पावती क महान शोभा का वणन करोड़ मुख से भी करते नह बनता। वेद, शेष
और सर वती तक उसे कहते हए सकुचा जाते ह, तब मंदबुि तुलसी िकस िगनती म है? सुंदरता
और शोभा क खान माता भवानी मंडप के बीच म, जहाँ िशव थे, वहाँ गई ं। वे संकोच के मारे पित
(िशव) के चरणकमल को देख नह सकत , परं तु उनका मन पी भ रा तो वह (रस-पान कर
रहा) था।
वेद म िववाह क जैसी रीित कही गई है, महामुिनय ने वह सभी रीित करवाई। पवतराज
िहमाचल ने हाथ म कुश लेकर तथा क या का हाथ पकड़कर उ ह भवानी (िशवप नी) जानकर
िशव को समपण िकया।
जब महे र (िशव) ने पावती का पािण हण िकया, तब (इं ािद) सब देवता दय म बड़े ही हिषत
हए। े मुिनगण वेदमं का उ चारण करने लगे और देवगण िशव का जय-जयकार करने
लगे।
अनेक कार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना कार के फूल क वषा हई। िशव-पावती का
िववाह हो गया। सारे ांड म आनंद भर गया।
दासी, दास, रथ, घोड़े , हाथी, गाय, व और मिण आिद अनेक कार क चीज, अ न तथा सोने
के बतन गािड़य म लदवाकर दहे ज म िदए, िजनका वणन नह हो सकता।
बहत कार का दहे ज देकर, िफर हाथ जोड़कर िहमाचल ने कहा - हे शंकर! आप पण
ू काम ह, म
आपको या दे सकता हँ? (इतना कहकर) वे िशव के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के
सागर िशव ने अपने ससुर का सभी कार से समाधान िकया। िफर ेम से प रपण
ू दय मैना ने
िशव के चरण कमल पकड़े (और कहा -)
हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे ाण के समान ( यारी) है। आप इसे अपने घर क टहलनी बनाइएगा
और इसके सब अपराध को मा करते रिहएगा। अब स न होकर मुझे यही वर दीिजए॥ 101॥
िशव ने बहत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे िशव के चरण म िसर नवाकर घर गई ं।
िफर माता ने पावती को बुला िलया और गोद म िबठाकर यह सुंदर सीख दी -
(िफर बोल िक) िवधाता ने जगत म ी जाित को य पैदा िकया? पराधीन को सपने म भी
सुख नह िमलता। य कहती हई माता ेम म अ यंत िवकल हो गई ं, परं तु कुसमय जानकर
(दुःख करने का अवसर न जानकर) उ ह ने धीरज धरा।
मैना बार-बार िमलती ह और (पावती के) चरण को पकड़कर िगर पड़ती ह। बड़ा ही ेम है, कुछ
वणन नह िकया जाता। भवानी सब ि य से िमल-भटकर िफर अपनी माता के दय से जा
िलपट ।
तब िहमवान अ यंत ेम से िशव को पहँचाने के िलए साथ चले। वषृ केतु (िशव) ने बहत तरह से
उ ह संतोष कराकर िवदा िकया॥ 102॥
जब िशव कैलास पवत पर पहँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोक को चले गए। (तुलसीदास
कहते ह िक) पावती और िशव जगत के माता-िपता ह, इसिलए म उनके ंग
ृ ार का वणन नह
करता।
िशव-पावती िविवध कार के भोग-िवलास करते हए अपने गण सिहत कैलास पर रहने लगे। वे
िन य नए िवहार करते थे। इस कार बहत समय बीत गया।
िग रजापित महादेव का च र समु के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नह पाते। तब
अ यंत मंदबुि और गँवार तुलसीदास उसका वणन कैसे कर सकता है!॥ 103॥
िशव के रसीले और सुहावने च र को सुनकर मुिन भर ाज ने बहत ही सुख पाया। कथा सुनने
क उनक लालसा बहत बढ़ गई। ने म जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई।
े िबबस मख
म ु आव न बानी। दसा देिख हरषे मिु न यानी॥
अहो ध य तब ज मु मन
ु ीसा। तु हिह ान सम ि य गौरीसा॥
वे ेम म मु ध हो गए, मुख से वाणी नह िनकल रही थी। उनक यह दशा देखकर ानी मुिन
या व य बहत स न हए (और बोले -) हे मुनीश! अहा! तु हारा ज म ध य है, तुमको
गौरीपित िशव ाण के समान ि य ह।
मने पहले ही िशव का च र कहकर तु हारा भेद समझ िलया। तुम राम के पिव सेवक हो और
सम त दोष से रिहत हो॥ 104॥
मने तु हारा गुण और शील जान िलया। अब म रघुनाथ क लीला कहता हँ, सुनो। हे मुिन! सुनो,
आज तु हारे िमलने से मेरे मन म जो आनंद हआ है, वह कहा नह जा सकता।
हे मुनी र! रामच र अ यंत अपार है। सौ करोड़ शेष भी उसे नह कह सकते। तथािप जैसा मने
सुना है, वैसा वाणी के वामी ( ेरक) और हाथ म धनुष िलए हए भु राम का मरण करके
कहता हँ।
वहाँ तीन कार क (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसक छाया बड़ी ठं डी
रहती है। वह िशव के िव ाम करने का व ृ है, िजसे वेद ने गाया है। एक बार भु िशव उस व ृ
के नीचे गए और उसे देखकर उनके दय म बहत आनंद हआ।
अपने हाथ से बाघंबर िबछाकर कृपालु िशव वभाव से ही (िबना िकसी खास योजन के) वहाँ
बैठ गए। कुंद के पु प, चं मा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थ और
वे मुिनय के-से (व कल) व धारण िकए हए थे।
उनके चरण नए (पणू प से िखले हए) लाल कमल के समान थे, नख क योित भ के
दय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भ म ही उनके भषू ण थे और उन ि पुरासुर के श ु
िशव का मुख शरद (पिू णमा) के चं मा क शोभा को भी हरनेवाला (फ क करनेवाला) था।
दो० - जटा मक
ु ु ट सरु स रत िसर लोचन निलन िबसाल।
नीलकंठ लाव यिनिध सोह बालिबधु भाल॥ 106॥
उनके िसर पर जटाओं का मुकुट और गंगा (शोभायमान) थ । कमल के समान बड़े -बड़े ने थे।
उनका नील कंठ था और वे संुदरता के भंडार थे। उनके म तक पर ि तीया का चं मा शोिभत
था॥ 106॥
कामदेव के श ु िशव वहाँ बैठे हए ऐसे शोिभत हो रहे थे, मानो शांत रस ही शरीर धारण िकए बैठा
हो। अ छा मौका जानकर िशवप नी माता पावती उनके पास गई ं।
अपनी यारी प नी जानकार िशव ने उनका बहत आदर-स कार िकया और अपनी बाई ं ओर बैठने
के िलए आसन िदया। पावती स न होकर िशव के पास बैठ गई ं। उ ह िपछले ज म क कथा
मरण हो आई।
वामी के दय म (अपने ऊपर पहले क अपे ा) अिधक ेम समझकर पावती हँसकर ि य वचन
बोल । (या व य कहते ह िक) जो कथा सब लोग का िहत करनेवाली है, उसे ही पावती पछ
ू ना
चाहती ह।
हे सुख क रािश ! यिद आप मुझ पर स न ह और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी स ची
दासी) जानते ह, तो हे भो! आप रघुनाथ क नाना कार क कथा कहकर मेरा अ ान दूर
क िजए।
यिद वे राजपु ह तो कैसे? (और यिद ह तो) ी के िवरह म उनक मित बावली कैसे
हो गई? इधर उनके ऐसे च र देखकर और उधर उनक मिहमा सुनकर मेरी बुि अ यंत चकरा
रही है॥ 108॥
यिद इ छारिहत, यापक, समथ कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर किहए। मुझे
नादान समझकर मन म ोध न लाइए। िजस तरह मेरा मोह दूर हो, वही क िजए।
म बन दीिख राम भत
ु ाई। अित भय िबकल न तु हिह सन ु ाई॥
तदिप मिलन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँित हम पावा॥
मने (िपछले ज म म) वन म राम क भुता देखी थी, परं तु अ यंत भयभीत होने के कारण मने
वह बात आपको सुनाई नह । तो भी मेरे मिलन मन को बोध न हआ। उसका फल भी मने अ छी
तरह पा िलया।
अब भी मेरे मन म कुछ संदेह है। आप कृपा क िजए, म हाथ जोड़कर िवनती करती हँ। हे भो!
आपने उस समय मुझे बहत तरह से समझाया था (िफर भी मेरा संदेह नह गया), हे नाथ! यह
सोचकर मुझ पर ोध न क िजए।
तब कर अस िबमोह अब नाह । रामकथा पर िच मन माह ॥
कहह पन
ु ीत राम गन
ु गाथा। भज
ु गराज भूषन सरु नाथा॥
मुझे अब पहले जैसा मोह नह है, अब तो मेरे मन म रामकथा सुनने क िच है। हे शेषनाग को
अलंकार प म धारण करनेवाले देवताओं के नाथ! आप राम के गुण क पिव कथा किहए।
म प ृ वी पर िसर टेककर आपके चरण क वंदना करती हँ और हाथ जोड़कर िवनती करती हँ।
आप वेद के िस ांत को िनचोड़कर रघुनाथ का िनमल यश वणन क िजए॥ 109॥
य िप ी होने के कारण म उसे सुनने क अिधका रणी नह हँ, तथािप म मन, वचन और कम
से आपक दासी हँ। संत लोग जहाँ आत अिधकारी पाते ह, वहाँ गढ़
ू त व भी उससे नह िछपाते।
िफर हे भु! राम के अवतार (ज म) क कथा किहए तथा उनका उदार बाल च र किहए। िफर
िजस कार उ ह ने जानक से िववाह िकया, वह कथा किहए और िफर यह बतलाइए िक उ ह ने
जो रा य छोड़ा सो िकस दोष से।
हे नाथ! िफर उ ह ने वन म रहकर जो अपार च र िकए तथा िजस तरह रावण को मारा, वह
किहए। हे सुख व प शंकर! िफर आप उन सारी लीलाओं को किहए जो उ ह ने रा य (िसंहासन)
पर बैठकर क थ ।
दो० - बह र कहह क नायतन क ह जो अचरज राम।
जा सिहत रघबु ंसमिन िकिम गवने िनज धाम॥ 110॥
तु ह ि भव
ु न गरु बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
न उमा कै सहज सहु ाई। छल िबहीन सिु न िसव मन भाई॥
वेद ने आपको तीन लोक का गु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रह य को या जान! पावती
के सहज सुंदर और छलरिहत (सरल) सुनकर िशव के मन को बहत अ छे लगे।
े पल
हर िहयँ रामच रत सब आए। म ु क लोचन जल छाए॥
ीरघनु ाथ प उर आवा। परमानंद अिमत सख
ु पावा॥
िजसके िबना जाने झठू भी स य मालमू होता है, जैसे िबना पहचाने र सी म साँप का म हो
जाता है; और िजसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर व न
का म जाता रहता है।
म उ ह राम के बाल प क वंदना करता हँ, िजनका नाम जपने से सब िसि याँ सहज ही ा
हो जाती ह। मंगल के धाम, अमंगल के हरनेवाले और दशरथ के आँगन म खेलनेवाले (बाल प)
राम मुझ पर कृपा कर।
ि पुरासुर का वध करनेवाले िशव राम को णाम करके आनंद म भरकर अमत ृ के समान वाणी
बोले - हे िग रराजकुमारी पावती! तुम ध य हो! ध य हो!! तु हारे समान कोई उपकारी नह है।
जो तुमने रघुनाथ क कथा का संग पछ ू ा है, जो कथा सम त लोक के िलए जगत को पिव
करनेवाली गंगा के समान है। तुमने जगत के क याण के िलए ही पछू े ह। तुम रघुनाथ के
चरण म ेम रखनेवाली हो।
राम क कथा हाथ क सुंदर ताली है, जो संदेह पी पि य को उड़ा देती है। िफर रामकथा
किलयुग पी व ृ को काटने के िलए कु हाड़ी है। हे िग रराजकुमारी! तुम इसे आदरपवू क सुनो।
राम नाम गन
ु च रत सहु ाए। जनम करम अगिनत ुित गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा क रित गन
ु नाना॥
वेद ने राम के सुंदर नाम, गुण, च र , ज म और कम सभी अनिगनत कहे ह। िजस कार
भगवान राम अनंत ह, उसी तरह उनक कथा, क ित और गुण भी अनंत ह।
तदिप जथा ुत जिस मित मोरी। किहहउँ देिख ीित अित तोरी॥
उमा न तव सहज सहु ाई। सख
ु द संतसंमत मोिह भाई॥
तो भी तु हारी अ यंत ीित देखकर, जैसा कुछ मने सुना है और जैसी मेरी बुि है, उसी के
अनुसार म कहँगा। हे पावती! तु हारा वाभािवक ही सुंदर, सुखदायक और संतस मत है
और मुझे तो बहत ही अ छा लगा है।
परं तु हे पावती! एक बात मुझे अ छी नह लगी, य िप वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है।
तुमने जो यह कहा िक वे राम कोई और ह, िज ह वेद गाते और मुिनजन िजनका यान धरते ह -
।
िज ह क अगनु न सगन
ु िबबेका। ज पिहं कि पत बचन अनेका॥
ह रमाया बस जगत माह । ित हिह कहत कछु अघिटत नाह ॥
िजनको िनगुण-सगुण का कुछ भी िववेक नह है, जो अनेक मनगढ़ं त बात बका करते ह, जो
ह र क माया के वश म होकर जगत म (ज म-म ृ यु के च म) मते िफरते ह, उनके िलए कुछ
भी कह डालना असंभव नह है।
बातल
ु भूत िबबस मतवारे । ते निहं बोलिहं बचन िबचारे ॥
िज ह कृत महामोह मद पाना। ित ह कर कहा क रअ निहं काना॥
ू के वश हो गए ह और जो नशे
िज ह वायु का रोग (सि नपात, उ माद आिद) हो गया हो, जो भत
म चरू ह, ऐसे लोग िवचारकर वचन नह बोलते। िज ह ने महामोह पी मिदरा पी रखी है, उनके
कहने पर कान नह देना चािहए।
सगनु िह अगन
ु िह निहं कछु भेदा। गाविहं मिु न परु ान बध
ु बेदा॥
अगन
ु अ प अलख अज जोई। भगत म े बस सगन ु सो होई॥
सगुण और िनगुण म कुछ भी भेद नह है - मुिन, पुराण, पंिडत और वेद सभी ऐसा कहते ह। जो
िनगुण, अ प (िनराकार), अलख (अ य ) और अज मा है, वही भ के ेमवश सगुण हो
जाता है।
जो िनगुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले म भेद नह । (दोन जल ही ह, ऐसे ही िनगुण
और सगुण एक ही ह।) िजसका नाम म पी अंधकार के िमटाने के िलए सय ू है, उसके िलए मोह
का संग भी कैसे कहा जा सकता है?
राम सि चदानंद व प सयू ह। वहाँ मोह पी राि का लवलेश भी नह है। वे वभाव से ही काश
प और (षडै ययु ) भगवान है, वहाँ तो िव ान पी ातःकाल भी नह होता (अ ान पी
राि हो तब तो िव ान पी ातःकाल हो; भगवान तो िन य ान व प ह)।
इसी तरह यह संसार भगवान के आि त रहता है। य िप यह अस य है, तो भी दुःख तो देता ही है,
िजस तरह व न म कोई िसर काट ले तो िबना जागे वह दुःख दूर नह होता।
हे पावती! िजनक कृपा से इस कार का म िमट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ ह। िजनका आिद
और अंत िकसी ने नह (जान) पाया। वेद ने अपनी बुि से अनुमान करके इस कार (नीचे
िलखे अनुसार) गाया है -
िबनु पद चलइ सन
ु इ िबनु काना। कर िबनु करम करइ िबिध नाना॥
आनन रिहत सकल रस भोगी। िबनु बानी बकता बड़ जोगी॥
वह ( ) िबना ही पैर के चलता है, िबना ही कान के सुनता है, िबना ही हाथ के नाना कार के
काम करता है, िबना मँुह (िज ा) के ही सारे (छह ) रस का आनंद लेता है और िबना वाणी के
बहत यो य व ा है।
वह िबना शरीर ( वचा) के ही पश करता है, आँख के िबना ही देखता है और िबना नाक के
सब गंध को हण करता है (सँघ ू ता है)। उस क करनी सभी कार से ऐसी अलौिकक है िक
िजसक मिहमा कही नह जा सकती।
िजसका वेद और पंिडत इस कार वणन करते ह और मुिन िजसका यान धरते ह, वही
दशरथनंदन, भ के िहतकारी, अयो या के वामी भगवान राम ह॥ 118॥
िववश होकर (िबना इ छा के) भी िजनका नाम लेने से मनु य के अनेक ज म म िकए हए पाप
जल जाते ह। िफर जो मनु य आदरपवू क उनका मरण करते ह, वे तो संसार पी (दु तर) समु
को गाय के खुर से बने हए गड्ढे के समान (अथात िबना िकसी प र म के) पार कर जाते ह।
हे पावती! वही परमा मा राम ह। उनम म (देखने म आता) है, तु हारा ऐसा कहना अ यंत ही
अनुिचत है। इस कार का संदेह मन म लाते ही मनु य के ान, वैरा य आिद सारे स ुण न हो
जाते ह।
िशव के मनाशक वचन को सुनकर पावती के सब कुतक क रचना िमट गई। रघुनाथ के
चरण म उनका ेम और िव ास हो गया और किठन असंभावना (िजसका होना स भव नह ,
ऐसी िम या क पना) जाती रही!
बार- बार वामी (िशव) के चरणकमल को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथ को
जोड़कर पावती मानो ेमरस म सानकर संुदर वचन बोल ॥ 119॥
हे नाथ! आपक कृपा से अब मेरा िवषाद जाता रहा और आपके चरण के अनु ह से म सुखी हो
गई। य िप म ी होने के कारण वभाव से ही मख ू और ानहीन हँ, तो भी अब आप मुझे अपनी
दासी जानकर -
िफर हे नाथ! उ ह ने मनु य का शरीर िकस कारण से धारण िकया? हे धम क वजा धारण
करनेवाले भो! यह मुझे समझाकर किहए। पावती के अ यंत न वचन सुनकर और राम क
कथा म उनका िवशु ेम देखकर -
हे पावती! िनमल रामच रतमानस क वह मंगलमयी कथा सुनो िजसे काकभुशुंिड ने िव तार से
कहा और पि य के राजा ग ड़ ने सुना था॥ 120(ख)॥
वह े संवाद िजस कार हआ, वह म आगे कहँगा। अभी तुम राम के अवतार का परम सुंदर
और पिव (पापनाशक) च र सुनो॥ 120(ग)॥
ह र गन
ु नाम अपार कथा प अगिनत अिमत।
म िनज मित अनस
ु ार कहउँ उमा सादर सन
ु ह॥ 120(घ)॥
तस म सम
ु िु ख सन
ु ावउँ तोही। समिु झ परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़िहं असरु अधम अिभमानी॥
और जैसा कुछ मेरी समझ म आता है, हे सुमुिख! वही कारण म तुमको सुनाता हँ। जब-जब धम
का ास होता है और नीच अिभमानी रा स बढ़ जाते ह।
हे सुंदर बुि वाली भवानी! म उनके दो-एक ज म का िव तार से वणन करता हँ, तुम सावधान
होकर सुनो। ह र के जय और िवजय दो यारे ारपाल ह, िजनको सब कोई जानते ह।
वे यु म िवजय पानेवाले िव यात वीर थे। इनम से एक (िहर या ) को भगवान ने वराह (सअ
ू र)
का शरीर धारण करके मारा, िफर दूसरे (िहर यकिशपु) का नरिसंह प धारण करके वध िकया
और अपने भ ाद का संुदर यश फै लाया।
वे ही (दोन ) जाकर देवताओं को जीतनेवाले तथा बड़े यो ा, रावण और कुंभकण नामक बड़े
बलवान और महावीर रा स हए, िज ह सारा जगत जानता है॥ 122॥
मक
ु ु त न भए हते भगवाना। तीिन जनम ि ज बचन वाना॥
एक बार ित ह के िहत लागी। धरे उ सरीर भगत अनरु ागी॥
परम सती असरु ािधप नारी। तेिहं बल तािह न िजतिहं परु ारी॥
उस दै यराज क ी परम सती (बड़ी ही पित ता) थी। उसी के ताप से ि पुरासुर (जैसे अजेय
श ु) का िवनाश करनेवाले िशव भी उस दै य को नह जीत सके।
एक ज म का कारण यह था, िजससे राम ने मनु य देह धारण िकया। हे भर ाज मुिन! सुनो, भु
के येक अवतार क कथा का किवय ने नाना कार से वणन िकया है।
एक बार नारद ने शाप िदया, अतः एक क प म उसके िलए अवतार हआ। यह बात सुनकर पावती
बड़ी चिकत हई ं (और बोल िक) नारद तो िव णु भ और ानी ह।
कारन कवन ाप मिु न दी हा। का अपराध रमापित क हा॥
यह संग मोिह कहह परु ारी। मिु न मन मोह आचरज भारी॥
मुिन ने भगवान को शाप िकस कारण से िदया। ल मीपित भगवान ने उनका या अपराध िकया
था? हे पुरा र (शंकर)! यह कथा मुझसे किहए। मुिन नारद के मन म मोह होना बड़े आ य क
बात है।
(या व य कहते ह -) हे भर ाज! म राम के गुण क कथा कहता हँ, तुम आदर से सुनो।
तुलसीदास कहते ह - मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करनेवाले रघुनाथ को
भजो॥ 124(ख)॥
िहमालय पवत म एक बड़ी पिव गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगा बहती थ । वह परम पिव
संुदर आ म देखने पर नारद के मन को बहत ही सुहावना लगा।
नारद मुिन क (यह तपोमयी) ि थित देखकर देवराज इं डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर
उसका आदर-स कार िकया (और कहा िक) मेरे (िहत के) िलए तुम अपने सहायक सिहत
(नारद क समािध भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीन वज कामदेव मन म स न होकर
चला।
सनु ासीर मन महँ अिस ासा। चहत देव रिष मम परु बासा॥
जे कामी लोलपु जग माह । कुिटल काक इव सबिह डेराह ॥
जैसे मख
ू कु ा िसंह को देखकर सख ू ी हड्डी लेकर भागे और वह मख
ू यह समझे िक कह उस
हड्डी को िसंह छीन न ले, वैसे ही इं को (नारद मेरा रा य छीन लगे, ऐसा सोचते) लाज नह
आई॥ 125॥
कामाि न को भड़कानेवाली तीन कार क (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी।
रं भा आिद नवयुवती देवांगनाएँ , जो सब क सब कामकला म िनपुण थ ,
बहत कार क तान क तरं ग के साथ गाने लग और हाथ म गद लेकर नाना कार के खेल
खेलने लग । कामदेव अपने इन सहायक को देखकर बहत स न हआ और िफर उसने नाना
कार के मायाजाल िकए।
काम कला कछु मिु निह न यापी। िनज भयँ डरे उ मनोभव पापी॥
सीम िक चाँिप सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापित जासू॥
परं तु कामदेव क कोई भी कला मुिन पर असर न कर सक । तब तो पापी कामदेव अपने ही
(नाश के) भय से डर गया। ल मीपित भगवान िजसके बड़े र क ह , भला, उसक सीमा
(मयादा) को कोई दबा सकता है?
तब अपने सहायक समेत कामदेव ने बहत डरकर और अपने मन म हार मानकर बहत ही आत
(दीन) वचन कहते हए मुिन के चरण को जा पकड़ा॥ 126॥
मिु न सस
ु ीलता आपिन करनी। सरु पित सभाँ जाइ सब बरनी॥
सिु न सब क मन अचरजु आवा। मिु निह संिस ह रिह िस नावा॥
तब नारद िशव के पास गए। उनके मन म इस बात का अहंकार हो गया िक हमने कामदेव को
जीत िलया। उ ह ने कामदेव के च र िशव को सुनाए और महादेव ने उन (नारद) को अ यंत
ि य जानकर (इस कार) िश ा दी -
बार बार िबनवउँ मिु न तोही। िजिम यह कथा सनु ायह मोही॥
ितिम जिन ह रिह सन ु ावह कबहँ। चलेहँ संग दरु ाएह तबहँ॥
हे मुिन! म तुमसे बार-बार िवनती करता हँ िक िजस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस
तरह भगवान ह र को कभी मत सुनाना। चचा चले तब भी इसको िछपा जाना।
राम जो करना चाहते ह, वही होता है, ऐसा कोई नह जो उसके िव कर सके। िशव के वचन
नारद के मन को अ छे नह लगे, तब वे वहाँ से लोक को चल िदए।
एक बार गानिव ा म िनपुण मुिननाथ नारद हाथ म संुदर वीणा िलए, ह रगुण गाते हए ीरसागर
को गए, जहाँ वेद के म तक व प (मिू तमान वेदांत व) ल मी िनवास भगवान नारायण रहते
ह।
रमािनवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे िमले और ऋिष (नारद) के साथ आसन पर बैठ
गए। चराचर के वामी भगवान हँसकर बोले - हे मुिन! आज आपने बहत िदन पर दया क ।
भगवान खा मँुह करके कोमल वचन बोले - हे मुिनराज! आपका मरण करने से दूसर के
मोह, काम, मद और अिभमान िमट जाते ह (िफर आपके िलए तो कहना ही या है?)॥ 128॥
सन
ु ु मिु न मोह होइ मन ताक। यान िबराग दय निहं जाक॥
चरज त रत मितधीरा। तु हिह िक करइ मनोभव पीरा॥
नारद ने अिभमान के साथ कहा - भगवन! यह सब आपक कृपा है। क णािनधान भगवान ने
मन म िवचारकर देखा िक इनके मन म गव के भारी व ृ का अंकुर पैदा हो गया है।
म उसे तुरंत ही उखाड़ फकँ ू गा, य िक सेवक का िहत करना हमारा ण है। म अव य ही वह
उपाय क ँ गा, िजससे मुिन का क याण और मेरा खेल हो।
उस नगर म ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहत-से कामदेव और (उसक ी) रित ही
मनु य शरीर धारण िकए हए ह । उस नगर म शीलिनिध नाम का राजा रहता था, िजसके यहाँ
असं य घोड़े , हाथी और सेना के समहू (टुकिड़याँ) थे।
वह सब गुण क खान भगवान क माया ही थी। उसक शोभा का वणन कैसे िकया जा सकता
है। वह राजकुमारी वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगिणत राजा आए हए थे।
मिु न कौतक
ु नगर तेिह गयऊ। परु बािस ह सब पूछत भयऊ॥
सिु न सब च रत भूपगहृ ँ आए। क र पूजा नप
ृ मिु न बैठाए॥
(ल ण को सोचकर वे मन म कहने लगे िक) जो इसे याहे गा, वह अमर हो जाएगा और रणभिू म
म कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलिनिध क क या िजसको वरे गी, सब चर-अचर जीव उसक
सेवा करगे।
इस समय तो बड़ी भारी शोभा और िवशाल (सुंदर) प चािहए, िजसे देखकर राजकुमारी मुझ पर
रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले म) डाल दे॥ 131॥
(एक काम क ँ िक) भगवान से सुंदरता माँगँ;ू पर भाई! उनके पास जाने म तो बहत देर हो
जाएगी। िकंतु ह र के समान मेरा िहतू भी कोई नह है, इसिलए इस समय वे ही मेरे सहायक ह ।
अित आरित किह कथा सनु ाई। करह कृपा क र होह सहाई॥
आपन प देह भु मोह । आन भाँित निहं पाव ओही॥
नारद ने बहत आत (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और ाथना क िक) कृपा क िजए और
कृपा करके मेरे सहायक बिनए। हे भो! आप अपना प मुझको दीिजए, अ य िकसी कार से म
उस (राजक या) को नह पा सकता।
जेिह िबिध नाथ होइ िहत मोरा। करह सो बेिग दास म तोरा॥
िनज माया बल देिख िबसाला। िहयँ हँिस बोले दीनदयाला॥
हे नाथ! िजस तरह मेरा िहत हो, आप वही शी क िजए। म आपका दास हँ। अपनी माया का
िवशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले -
हे नारद! सुनो, िजस कार आपका परम िहत होगा, हम वही करगे, दूसरा कुछ नह । हमारा
वचन अस य नह होता॥ 132॥
हे योगी मुिन! सुिनए, रोग से याकुल रोगी कुप य माँगे तो वै उसे नह देता। इसी कार मने
भी तु हारा िहत करने क ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अंतधान हो गए।
राजा लोग खबू सज-धजकर समाज सिहत अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुिन (नारद) मन-ही-
मन स न हो रहे थे िक मेरा प बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ क या भल
ू कर भी दूसरे को न वरे गी।
कृपािनधान भगवान ने मुिन के क याण के िलए उ ह ऐसा कु प बना िदया िक िजसका वणन
नह हो सकता, पर यह च रत कोई भी न जान सका। सबने उ ह नारद ही जानकर णाम िकया।
वहाँ िशव के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ा ण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-
िफरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 133॥
नारद अपने दय म प का बड़ा अिभमान लेकर िजस समाज (पंि ) म जाकर बैठे थे, ये िशव
के दोन गण भी वह बैठ गए। ा ण के वेष म होने के कारण उनक इस चाल को कोई न जान
सका।
मिु निह मोह मन हाथ पराएँ । हँसिहं संभु गन अित सचु पाएँ ॥
जदिप सन ु िहं मिु न अटपिट बानी। समिु झ न परइ बिु म सानी॥
नारद मुिन को मोह हो रहा था, य िक उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) म था। िशव के
गण बहत स न होकर हँस रहे थे। य िप मुिन उनक अटपटी बात सुन रहे थे, पर बुि म म
सनी हई होने के कारण वे बात उनक समझ म नह आती थ (उनक बात को वे अपनी शंसा
समझ रहे थे)।
तब राजकुमारी सिखय को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंिसनी चल रही है। वह अपने
कमल जैसे हाथ म जयमाला िलए सब राजाओं को देखती हई घम
ू ने लगी॥ 134॥
मिु न अित िबकल मोहँ मित नाठी। मिन िग र गई छूिट जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मसु क
ु ाई। िनज मखु मकु ु र िबलोकह जाई॥
मोह के कारण मुिन क बुि न हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहत ही िवकल
हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मिण िगर गई हो। तब िशव के गण ने मुसकराकर कहा - जाकर
दपण म अपना मँुह तो देिखए!
ऐसा कहकर वे दोन बहत भयभीत होकर भागे। मुिन ने जल म झाँककर अपना मँुह देखा। अपना
प देखकर उनका ोध बहत बढ़ गया। उ ह ने िशव के उन गण को अ यंत कठोर शाप िदया -
तुम दोन कपटी और पापी जाकर रा स हो जाओ। तुमने हमारी हँसी क , उसका फल चखो। अब
िफर िकसी मुिन क हँसी करना॥ 135॥
(मन म सोचते जाते थे -) जाकर या तो शाप दँूगा या ाण दे दँूगा। उ ह ने जगत म मेरी हँसी
कराई। दै य के श ु भगवान ह र उ ह बीच रा ते म ही िमल गए। साथ म ल मी और वही
राजकुमारी थ ।
बोले मधरु बचन सरु साई ं। मिु न कहँ चले िबकल क नाई ं॥
सनु त बचन उपजा अित ोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
देवताओं के वामी भगवान ने मीठी वाणी म कहा - हे मुिन! याकुल क तरह कहाँ चले? ये
श द सुनते ही नारद को बड़ा ोध आया, माया के वशीभत ू होने के कारण मन म चेत नह रहा।
(मुिन ने कहा -) तुम दूसर क संपदा नह देख सकते, तुमम ई या और कपट बहत है। समु
मथते समय तुमने िशव को बावला बना िदया और देवताओं को े रत करके उ ह िवषपान
कराया।
असुर को मिदरा और िशव को िवष देकर तुमने वयं ल मी और संुदर (कौ तुभ) मिण ले ली।
तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का यवहार करते हो॥ 136॥
तुम परम वतं हो, िसर पर तो कोई है नह , इससे जब जो मन को भाता है, ( व छं दता से) वही
करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। दय म हष-िवषाद कुछ भी नह लाते।
अबक तुमने अ छे घर बैना िदया है (मेरे जैसे जबरद त आदमी से छे ड़खानी क है)। अतः अपने
िकए का फल अव य पाओगे। िजस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर
धारण करो, यह मेरा शाप है।
मष
ृ ा होउ मम ाप कृपाला। मम इ छा कह दीनदयाला॥
म दबु चन कहे बहतेरे। कह मिु न पाप िमिटिहं िकिम मेरे॥
(भगवान ने कहा -) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे दय म तुरंत शांित होगी।
िशव के समान मुझे कोई ि य नह है, इस िव ास को भल
ू कर भी न छोड़ना।
तुम दोन जाकर रा स होओ; तु ह महान ऐ य, तेज और बल क ाि हो। तुम अपनी भुजाओं
के बल से जब सारे िव को जीत लोगे, तब भगवान िव णु मनु य का शरीर धारण करगे।
तब-तब मुनी र ने परम पिव का य रचना करके उनक कथाओं का गान िकया है और
भाँित-भाँित के अनुपम संग का वणन िकया है, िजनको सुनकर समझदार (िववेक ) लोग
आ य नह करते।
ह र अनंत ह (उनका कोई पार नह पा सकता) और उनक कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे
बहत कार से कहते-सुनते ह। रामचं के सुंदर च र करोड़ क प म भी गाए नह जा सकते।
(िशव कहते ह िक) हे पावती! मने यह बताने के िलए इस संग को कहा िक ानी मुिन भी
भगवान क माया से मोिहत हो जाते ह। भु कौतुक (लीलामय) ह और शरणागत का िहत
करनेवाले ह। वे सेवा करने म बहत सुलभ और सब दुःख के हरनेवाले ह।
देवता, मनु य और मुिनय म ऐसा कोई नह है, िजसे भगवान क महान बलवती माया मोिहत न
कर दे। मन म ऐसा िवचारकर उस महामाया के वामी ( ेरक) भगवान का भजन करना चािहए॥
140॥
अपर हेतु सन
ु ु सैलकुमारी। कहउँ िबिच कथा िब तारी॥
जेिह कारन अज अगन ु अ पा। भयउ कोसलपरु भूपा॥
िजन भु राम को तुमने भाई ल मण के साथ मुिनय का-सा वेष धारण िकए वन म िफरते देखा
था और हे भवानी! िजनके च र देखकर सती के शरीर म तुम ऐसी बावली हो गई थ िक -
अजहँ न छाया िमटित तु हारी। तासु च रत सन
ु ु म ज हारी॥
लीला क ि ह जो तेिहं अवतारा। सो सब किहहउँ मित अनस
ु ारा॥
- सो म तु ह सन कहउँ सबु सन
ु ु मन
ु ीस मन लाइ।
रामकथा किल मल हरिन मंगल करिन सहु ाइ॥ 141॥
हे मुनी र भर ाज! म वह सब तुमसे कहता हँ, मन लगाकर सुनो। राम क कथा किलयुग के
पाप को हरनेवाली, क याण करनेवाली और बड़ी संुदर है॥ 141॥
वायंभुव मनु और (उनक प नी) शत पा, िजनसे मनु य क यह अनुपम सिृ हई, इन दोन
पित-प नी के धम और आचरण बहत अ छे थे। आज भी वेद िजनक मयादा का गान करते ह।
नप
ृ उ ानपाद सतु तासू। व
ु ह रभगत भयउ सत ु जासू॥
लघु सत
ु नाम ि य त ताही। बेद परु ान संसिहं जाही॥
पुनः देवहित उनक क या थी, जो कदम मुिन क यारी प नी हई और िज ह ने आिद देव, दीन
पर दया करनेवाले समथ एवं कृपालु भगवान किपल को गभ म धारण िकया।
सां य सा िज ह गट बखाना। त व िबचार िनपन ु भगवाना॥
तेिहं मनु राज क ह बह काला। भु आयसु सब िबिध ितपाला॥
घर म रहते बुढ़ापा आ गया, परं तु िवषय से वैरा य नह होता (इस बात को सोचकर) उनके मन
म बड़ा दुःख हआ िक ह र क भि िबना ज म य ही चला गया॥ 142॥
बसिहं तहाँ मिु न िस समाजा। तहँ िहयँ हरिष चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहिहं मितधीरा। यान भगित जनु धर सरीरा॥
वहाँ मुिनय और िस के समहू बसते ह। राजा मनु दय म हिषत होकर वह चले। वे धीर
बुि वाले राजा-रानी माग म जाते हए ऐसे सुशोिभत हो रहे थे मान ान और भि ही शरीर
धारण िकए जा रहे ह ।
जहँ जहँ तीरथ रहे सहु ाए। मिु न ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मिु नपट प रधाना। सत समाज िनत सन ु िहं परु ाना॥
जहाँ-जहाँ सुंदर तीथ थे, मुिनय ने आदरपवू क सभी तीथ उनको करा िदए। उनका शरीर दुबल हो
गया था। वे मुिनय के-से (व कल) व धारण करते थे और संत के समाज म िन य पुराण
सुनते थे।
- ादस अ छर मं पिु न जपिहं सिहत अनरु ाग।
े पद पंक ह दंपित मन अित लाग॥ 143॥
बासदु व
और ादशा र मं (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का ेम सिहत जप करते थे। भगवान वासुदेव के
चरणकमल म उन राजा-रानी का मन बहत ही लग गया॥ 143॥
इस कार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वष बीत गए। िफर सात हजार वष वे वायु
के आधार पर रहे ॥ 144॥
दस हजार वष तक उ ह ने वायु का आधार भी छोड़ िदया। दोन एक पैर से खड़े रहे । उनका अपार
तप देखकर ा, िव णु और िशव कई बार मनु के पास आए।
मत
ृ क िजआविन िगरा सहु ाई। वन रं होइ उर जब आई॥
पु तन भए सहु ाए। मानहँ अबिहं भवन ते आए॥
- वन सध ु ा सम बचन सिु न पल
ु क फुि लत गात।
े न दयँ समात॥ 145॥
बोले मनु क र दंडवत म
कान म अमत ृ के समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलिकत और फुि लत हो
गया। तब मनु दंडवत करके बोले, ेम दय म समाता न था - ॥ 145॥
सन
ु ु सेवक सरु त सरु धेनू। िबिध ह र हर बंिदत पद रे नू॥
सेवत सल ु भ सकल सख ु दायक। नतपाल सचराचर नायक॥
जो भस
ु ंिु ड मन मानस हंसा। सगन
ु अगन
ु जेिह िनगम संसा॥
देखिहं हम सो प भ र लोचन। कृपा करह नतारित मोचन॥
जो काकभुशुंिड के मन पी मान सरोवर म िवहार करनेवाला हंस है, सगुण और िनगुण कहकर
वेद िजसक शंसा करते ह, हे शरणागत के दुःख िमटानेवाले भो! ऐसी कृपा क िजए िक हम
उसी प को ने भरकर देख।
भगवान के नीले कमल, नीलमिण और नीले (जलयु ) मेघ के समान (कोमल, काशमय और
सरस) यामवण शरीर क शोभा देखकर करोड़ कामदेव भी लजा जाते ह॥ 146॥
उनका मुख शरद (पिू णमा) के चं मा के समान छिव क सीमा व प था। गाल और ठोड़ी बहत
सुंदर थे, गला शंख के समान (ि रे खायु , चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक
अ यंत संुदर थे। हँसी चं मा क िकरणावली को नीचा िदखानेवाली थी।
ने क छिव नए (िखले हए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर िचतवन जी को बहत
यारी लगती थी। टेढ़ी भ ह कामदेव के धनुष क शोभा को हरनेवाली थ । ललाट पटल पर
काशमय ितलक था।
कान म मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और िसर पर मुकुट सुशोिभत था। टेढ़े
(घँुघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भ र के झुंड ह । दय परव स, सुंदर वनमाला,
र नजिड़त हार और मिणय के आभषू ण सुशोिभत थे।
ू के
िसंह क -सी गदन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं म जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी क सँड़
समान (उतार-चढ़ाववाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर म तरकस और हाथ म बाण और धनुष (शोभा
पा रहे ) थे।
( वण-वण का काशमय) पीतांबर िबजली को लजानेवाला था। पेट पर सुंदर तीन रे खाएँ
(ि वली) थ । नािभ ऐसी मनोहर थी, मानो यमुना के भँवर क छिव को छीने लेती हो॥ 147॥
िजनके अंश से गुण क खान अगिणत ल मी, पावती और ाणी (ि देव क शि याँ) उ प न
होती ह तथा िजनक भ ह के इशारे से ही जगत क रचना हो जाती है, वही (भगवान क व पा-
शि ) सीता राम क बाई ं ओर ि थत ह।
आनंद के अिधक वश म हो जाने के कारण उ ह अपने देह क सुिध भल ू गई। वे हाथ से भगवान
के चरण पकड़कर दंड क तरह (सीधे) भिू म पर िगर पड़े । कृपा क रािश भु ने अपने करकमल
से उनके म तक का पश िकया और उ ह तुरंत ही उठा िलया।
िफर कृपािनधान भगवान बोले - मुझे अ यंत स न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो
मन को भाए वही वर माँग लो॥ 148॥
सिु न भु बचन जो र जग
ु पानी। ध र धीरजु बोली मदृ ु बानी॥
नाथ देिख पद कमल तु हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥
भु के वचन सुनकर, दोन हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही - हे
नाथ! आपके चरणकमल को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ परू ी हो गई ं।
िफर भी मन म एक बड़ी लालसा है। उसका परू ा होना सहज भी है और अ यंत किठन भी, इसी से
उसे कहते नह बनता। हे वामी! आपके िलए तो उसका परू ा करना बहत सहज है, पर मुझे
अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अ यंत किठन मालम ू होता है।
जथा द र िबबध
ु त पाई। बह संपित मागत सकुचाई॥
तासु भाउ जान निहं सोई। तथा दयँ मम संसय होई॥
हे वामी! आप अंतयामी ह, इसिलए उसे जानते ही ह। मेरा वह मनोरथ परू ा क िजए। (भगवान ने
कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तु ह न दे सकँ ू ऐसा मेरे पास कुछ भी नह है।
- दािन िसरोमिन कृपािनिध नाथ कहउँ सितभाउ।
चाहउँ तु हिह समान सतु भु सन कवन दरु ाउ॥ 149॥
राजा क ीित देखकर और उनके अमू य वचन सुनकर क णािनधान भगवान बोले - ऐसा ही
हो। हे राजन! म अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजँ!ू अतः वयं ही आकर तु हारा पु
बनँगू ा।
शत पा को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा - हे देवी! तु हारी जो इ छा हो, सो वर माँग लो।
(शत पा ने कहा -) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहत ही ि य लगा।
परं तु हे भु! बहत िढठाई हो रही है, य िप हे भ का िहत करनेवाले! वह िढठाई भी आपको
अ छी ही लगती है। आप ा आिद के भी िपता (उ प न करनेवाले), जगत के वामी और सबके
दय के भीतर क जाननेवाले ह।
ऐसा समझने पर मन म संदेह होता है, िफर भी भु ने जो कहा वही माण (स य) है। (म तो यह
माँगती हँ िक) हे नाथ! आपके जो िनज जन ह, वे जो (अलौिकक, अखंड) सुख पाते ह और िजस
परम गित को ा होते ह।
- सोइ सख
ु सोइ गित सोइ भगित सोइ िनज चरन सनेह।
सोइ िबबेक सोइ रहिन भु हमिह कृपा क र देह॥ 150॥
हे भो! वही सुख, वही गित, वही भि , वही अपने चरण म ेम, वही ान और वही रहन-सहन
कृपा करके हम दीिजए॥ 150॥
सिु न मदृ ु गूढ़ िचर बर रचना। कृपािसंधु बोले मदृ ु बचना॥
जो कछु िच तु हरे मन माह । म सो दी ह सब संसय नाह ॥
हे माता! मेरी कृपा से तु हारा अलौिकक ान कभी न न होगा। तब मनु ने भगवान के चरण
क वंदना करके िफर कहा - हे भु! मेरी एक िवनती और है -
सत
ु िबषइक तव पद रित होऊ। मोिह बड़ मूढ़ कहै िकन कोऊ॥
मिन िबनु फिन िजिम जल िबनु मीना। मम जीवन ितिम तु हिह अधीना॥
आपके चरण म मेरी वैसी ही ीित हो जैसी पु के िलए िपता क होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा
भारी मख ू ही य न कहे । जैसे मिण के िबना साँप और जल के िबना मछली (नह रह सकती),
वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके िबना न रह सके)।
ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के िनधान भगवान ने कहा -
ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आ ा मानकर देवराज इं क राजधानी (अमरावती) म जाकर वास
करो।
हे तात! वहाँ ( वग के) बहत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे।
तब म तु हारा पु होऊँगा॥ 151॥
इ छािनिमत मनु य प सजकर म तु हारे घर कट होऊँगा। हे तात! म अपने अंश सिहत देह
धारण करके भ को सुख देनेवाले च र क ँ गा।
जे सिु न सादर नर बड़भागी। भव त रहिहं ममता मद यागी॥
आिदसि जेिहं जग उपजाया। सोउ अवत रिह मो र यह माया॥
इस कार म तु हारी अिभलाषा परू ी क ँ गा। मेरा ण स य है, स य है, स य है। कृपािनधान
भगवान बार-बार ऐसा कहकर अंतधान हो गए।
- यह इितहास पन ृ केत।ु
ु ीत अित उमिह कही बष
भर ाज सन ु ु अपर पिु न राम जनम कर हेत॥ु 152॥
(या व य कहते ह -) हे भर ाज! इस अ यंत पिव इितहास को िशव ने पावती से कहा था।
अब राम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥ 152॥
हे मुिन! वह पिव और ाचीन कथा सुनो, जो िशव ने पावती से कही थी। संसार म िस एक
कैकय देश है। वहाँ स यकेतु नाम का राजा रहता (रा य करता) था।
वह धम क धुरी को धारण करनेवाला, नीित क खान, तेज वी, तापी, सुशील और बलवान था,
उसके दो वीर पु हए, जो सब गुण के भंडार और बड़े ही रणधीर थे।
रा य का उ रािधकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम तापभानु था। दूसरे पु का नाम
अ रमदन था, िजसक भुजाओं म अपार बल था और जो यु म (पवत के समान) अटल रहता था।
भाई-भाई म बड़ा मेल और सब कार के दोष और छल से रिहत (स ची) ीित थी। राजा ने जेठ
पु को रा य दे िदया और आप भगवान (के भजन) के िलए वन को चल िदया।
जब तापभानु राजा हआ, देश म उसक दुहाई िफर गई। वह वेद म बताई हई िविध के अनुसार
उ म रीित से जा का पालन करने लगा। उसके रा य म पाप का कह लेश भी नह रह गया॥
153॥
नप
ृ िहतकारक सिचव सयाना। नाम धरम िच सु समाना॥
सिचव सयान बंधु बलबीरा। आपु तापपंज
ु रनधीरा॥
राजा का िहत करनेवाला और शु ाचाय के समान बुि मान धम िच नामक उसका मं ी था। इस
कार बुि मान मं ी और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही वयं राजा भी बड़ा तापी और
रणधीर था।
िदि वजय के िलए सेना सजाकर वह राजा शुभ िदन (मुहत) साधकर और डं का बजाकर चला।
जहाँ-तहाँ बहत-सी लड़ाइयाँ हई ं। उसने सब राजाओं को बलपवू क जीत िलया।
स दीप भज
ु बल बस क हे। लै लै दंड छािड़ नप
ृ दी हे॥
सकल अविन मंडल तेिह काला। एक तापभानु मिहपाला॥
अपनी भुजाओं के बल से उसने सात ीप (भिू मखंड ) को वश म कर िलया और राजाओं से दंड
(कर) ले-लेकर उ ह छोड़ िदया। संपण
ू प ृ वी मंडल का उस समय तापभानु ही एकमा
(च वत ) राजा था।
संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश म करके राजा ने अपने नगर म वेश िकया। राजा
अथ, धम और काम आिद के सुख का समयानुसार सेवन करता था॥ 154॥
राजा तापभानु का बल पाकर भिू म सुंदर कामधेनु (मनचाही व तु देनेवाली) हो गई। (उनके
रा य म) जा सब ( कार के) दुःख से रिहत और सुखी थी और सभी ी-पु ष सुंदर और
धमा मा थे।
(राजा के) दय म िकसी फल क टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुि मान और ानी था। वह
ानी राजा कम, मन और वाणी से जो कुछ भी धम करता था, सब भगवान वासुदेव को अिपत
करते रहता था।
एक बार वह राजा एक अ छे घोड़े पर सवार होकर, िशकार का सब सामान सजाकर िवं याचल
के घने जंगल म गया और वहाँ उसने बहत-से उ म-उ म िहरन मारे ।
यह तो सअ ू र के भयानक दाँत क शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहत िवशाल और
मोटा था। घोड़े क आहट पाकर वह घुरघुराता हआ कान उठाए चौक ना होकर देख रहा था।
सअू र बहत दूर ऐसे घने जंगल म चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का िनबाह (गमन) नह था। राजा
िबलकुल अकेला था और वन म लेश भी बहत था, िफर भी राजा ने उस पशु का पीछा नह छोड़ा।
वन म िफरते-िफरते उसने एक आ म देखा, वहाँ कपट से मुिन का वेष बनाए एक राजा रहता
था, िजसका देश राजा तापभानु ने छीन िलया था और जो सेना को छोड़कर यु से भाग गया
था।
तापभानु का समय (अ छे िदन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे िदन) अनुमान कर उसके
मन म बड़ी लािन हई। इससे वह न तो घर गया और न अिभमानी होने के कारण राजा
तापभानु से ही िमला (मेल िकया)।
राजा यासा होने के कारण ( याकुलता म) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे
महामुिन समझा और घोड़े से उतरकर उसे णाम िकया, परं तु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने
उसे अपना नाम नह बताया।
राजा को यासा देखकर उसने सरोवर िदखला िदया। हिषत होकर राजा ने घोड़े सिहत उसम
नान और जलपान िकया॥ 158॥
गै म सकल सखु ी नप
ृ भयऊ। िनज आ म तापस लै गयऊ॥
आसन दी ह अ त रिब जानी। पिु न तापस बोलेउ मदृ ु बानी॥
सारी थकावट िमट गई, राजा सुखी हो गया। तब तप वी उसे अपने आ म म ले गया और सय
ू ा त
का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के िलए) आसन िदया। िफर वह तप वी कोमल वाणी से
बोला -
तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन क परवाह न करके वन म अकेले य िफर रहे हो?
तु हारे च वत राजा के से ल ण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।
(राजा ने कहा -) हे मुनी र! सुिनए, तापभानु नाम का एक राजा है, म उसका मं ी हँ। िशकार
के िलए िफरते हए राह भल ू गया हँ। बड़े भा य से यहाँ आकर मने आपके चरण के दशन पाए ह।
हम कहँ दलु भ दरस तु हारा। जानत ह कछु भल होिनहारा॥
कह मिु न तात भयउ अँिधआरा। जोजन स र नग तु हारा॥
हम आपका दशन दुलभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुिन ने कहा - हे तात!
अँधेरा हो गया। तु हारा नगर यहाँ से स र योजन पर है।
हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रा ता नह है, ऐसा समझकर तुम आज यह
ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥ 159(क)॥
तल
ु सी जिस भवत यता तैसी िमलइ सहाइ।
आपनु ु आवइ तािह पिहं तािह तहाँ लै जाइ॥ 159(ख)॥
तुलसीदास कहते ह - जैसी भिवत यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता िमल जाती है। या तो
वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥ 159(ख)॥
हे नाथ! बहत अ छा, ऐसा कहकर और उसक आ ा िसर चढ़ाकर, घोड़े को व ृ से बाँधकर राजा
बैठ गया। राजा ने उसक बहत कार से शंसा क और उसके चरण क वंदना करके अपने
भा य क सराहना क ।
पिु न बोलेउ मदृ ु िगरा सहु ाई। जािन िपता भु करउँ िढठाई॥
मोिह मन ु ीस सत ु सेवक जानी। नाथ नाम िनज कहह बखानी॥
िफर सुंदर कोमल वाणी से कहा - हे भो! आपको िपता जानकर म िढठाई करता हँ। हे मुनी र!
मुझे अपना पु और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) िव तार से बतलाइए।
समिु झ राजसख
ु दिु खत अराती। अवाँ अनल इव सल
ु गइ छाती॥
ृ के सिु न काना। बयर सँभा र दयँ हरषाना॥
ससरल बचन नप
वह श ु अपने रा य सुख को समझ करके ( मरण करके) दुःखी था। उसक छाती (कु हार के)
आँवे क आग क तरह (भीतर-ही-भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर,
अपने वैर को यादकर वह दय म हिषत हआ।
वह कपट म डुबोकर बड़ी युि के साथ कोमल वाणी बोला - अब हमारा नाम िभखारी है, य िक
हम िनधन और अिनकेत (घर- ारहीन) ह॥ 160॥
इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते ह िक परम अिकंचन (सवथा अहंकार, ममता और
मानरिहत) ही भगवान को ि य होते ह। आप सरीखे िनधन, िभखारी और गहृ हीन को देखकर
ा और िशव को भी संदेह हो जाता है (िक वे वा तिवक संत ह या िभखारी)।
सब कार से राजा को अपने वश म करके, अिधक नेह िदखाता हआ वह (कपट-तप वी) बोला
- हे राजन! सुनो, म तुमसे स य कहता हँ, मुझे यहाँ रहते बहत समय बीत गया।
- अब लिग मोिह न िमलेउ कोउ म न जनावउँ काह।
लोकमा यता अनल सम कर तप कानन दाह॥ 161(क)॥
तात गपु त
ु रहउँ जग माह । ह र तिज िकमिप योजन नाह ॥
भु जानत सब िबनिहं जनाए। कहह कविन िसिध लोक रझाएँ ॥
(कपट-तप वी ने कहा -) इसी से म जगत म िछपकर रहता हँ। ह र को छोड़कर िकसी से कुछ
भी योजन नह रखता। भु तो िबना जनाए ही सब जानते ह। िफर कहो संसार को रझाने से
या िसि िमलेगी।
तु ह सिु च सम
ु ित परम ि य मोर। ीित तीित मोिह पर तोर॥
अब ज तात दरु ावउँ तोही। दा न दोष घटइ अित मोही॥
तुम पिव और सुंदर बुि वाले हो, इससे मुझे बहत ही यारे हो और तु हारी भी मुझ पर ीित और
िव ास है। हे तात! अब यिद म तुमसे कुछ िछपाता हँ, तो मुझे बहत ही भयानक दोष लगेगा।
हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने िफर िसर नवाकर कहा - मुझे अपना अ यंत
(अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अथ समझाकर किहए।
- आिदसिृ उपजी जबिहं तब उतपित भै मो र।
नाम एकतनु हेतु तेिह देह न धरी बहो र॥ 162॥
(कपटी मुिन ने कहा -) जब सबसे पहले सिृ उ प न हई थी, तभी मेरी उ पि हई थी। तबसे
मने िफर दूसरी देह नह धारण क , इसी से मेरा नाम एकतनु है॥ 162॥
हे राजन! सुनो, ऐसी नीित है िक राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नह कहते। तु हारी वही
चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा ेम हो गया है॥ 163॥
हे तात! तु हारा वाभािवक सीधापन (सरलता), ेम, िव ास और नीित म िनपुणता देखकर मेरे
मन म तु हारे ऊपर बड़ी ममता उ प न हो गई है, इसीिलए म तु हारे पछ
ू ने पर अपनी कथा
कहता हँ।
अब म स न हँ, इसम संदेह न करना। हे राजन! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर (ि य)
वचन सुनकर राजा हिषत हो गया और (मुिन के) पैर पकड़कर उसने बहत कार से िवनती क ।
हे दयासागर मुिन! आपके दशन से ही चार पदाथ (अथ, धम, काम और मो ) मेरी मु ी म आ
गए। तो भी वामी को स न देखकर म यह दुलभ वर माँगकर ( य न) शोकरिहत हो जाऊँ।
- जरा मरन दख
ु रिहत तनु समर िजतै जिन कोउ।
एकछ रपहु ीन मिह राज कलप सत होउ॥ 164॥
मेरा शरीर व ृ ाव था, म ृ यु और दुःख से रिहत हो जाए, मुझे यु म कोई जीत न सके और प ृ वी
पर मेरा सौ क प तक एकछ अकंटक रा य हो॥ 164॥
कह तापस नप
ृ ऐसेइ होऊ। कारन एक किठन सन ु ु सोऊ॥
कालउ तअ
ु पद नाइिह सीसा। एक िब कुल छािड़ महीसा॥
तप वी ने कहा - हे राजन! ऐसा ही हो, पर एक बात किठन है, उसे भी सुन लो। हे प ृ वी के
वामी! केवल ा ण कुल को छोड़ काल भी तु हारे चरण पर िसर नवाएगा।
राजा उसके वचन सुनकर बड़ा स न हआ और कहने लगा - हे वामी! मेरा नाश अब नह
होगा। हे कृपािनधान भु! आपक कृपा से मेरा सब समय क याण होगा।
'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुिटल कपटी मुिन िफर बोला - (िकंतु) तुम मेरे िमलने तथा
अपने राह भलू जाने क बात िकसी से (कहना नह , यिद) कह दोगे, तो हमारा दोष नह ॥ 165॥
हे राजन! म तुमको इसिलए मना करता हँ िक इस संग को कहने से तु हारी बड़ी हािन होगी।
छठे कान म यह बात पड़ते ही तु हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन स य जानना।
यिद म आपके कथन के अनुसार नह चलँग ू ा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसक िचंता
नह है। मेरा मन तो हे भो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है िक ा ण का शाप बड़ा भयानक
होता है।
सन
ु ु नप
ृ िबिबध जतन जग माह । क सा य पिु न होिहं िक नाह ॥
अहइ एक अित सग ु म उपाई। तहाँ परं तु एक किठनाई॥
मम आधीन जुगिु त नप
ृ सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लग अ जब त भयऊँ। काह के गहृ ाम न गयऊँ॥2॥
हे राजन! वह युि तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तु हारे नगर म हो नह सकता। जब से पैदा
हआ हँ, तब से आज तक म िकसी के घर अथवा गाँव नह गया।
परं तु यिद नह जाता हँ, तो तु हारा काम िबगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह
सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेद म ऐसी नीित कही है िक -
ऐसा कहकर राजा ने मुिन के चरण पकड़ िलए। (और कहा -) हे वामी! कृपा क िजए। आप संत
ह। दीनदयालु ह। (अतः) हे भो! मेरे िलए इतना क (अव य) सिहए॥ 167॥
जािन नप
ृ िह आपन आधीना। बोला तापस कपट बीना॥
स य कहउँ भूपित सन
ु ु तोही। जग नािहन दल
ु भ कछु मोही॥
राजा को अपने अधीन जानकर कपट म वीण तप वी बोला - हे राजन! सुनो, म तुमसे स य
कहता हँ, जगत म मुझे कुछ भी दुलभ नह है।
म तु हारा काम अव य क ँ गा, ( य िक) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीन ) से मेरे भ हो। पर
योग, युि , तप और मं का भाव तभी फलीभत ू होता है जब वे िछपाकर िकए जाते ह।
हे नरपित! म यिद रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पाए, तो उस अ न
को जो-जो खाएगा, सो-सो तु हारा आ ाकारी बन जाएगा।
यही नह , उन (भोजन करने वाल ) के घर भी जो कोई भोजन करे गा, हे राजन! सुनो, वह भी
तु हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन! जाकर यही उपाय करो और वष भर (भोजन कराने) का
संक प कर लेना।
हे राजन! रात बहत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे िदन मुझसे तु हारी भट होगी। तप के
बल से म घोड़े सिहत तुमको सोते ही म घर पहँचा दँूगा।
म वही (पुरोिहत का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत म तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब
तुम मुझे पहचान लेना॥ 169॥
राजा ने आ ा मानकर शयन िकया और वह कपट- ानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था,
(उसे) खबू (गहरी) न द आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहत िचंता हो रही थी।
तेज वी श ु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नह समझना चािहए। िजसका िसर मा बचा था, वह
राह आज तक सय ू -चं मा को दुःख देता है॥ 170॥
तापस नपृ िनज सखिह िनहारी। हरिष िमलेउ उिठ भयउ सखु ारी॥
िम िह किह सब कथा सनु ाई। जातध
ु ान बोला सखु पाई॥
अब साधेउँ रपु सन
ु ह नरे सा। ज तु ह क ह मोर उपदेसा॥
प रह र सोच रहह तु ह सोई। िबनु औषध िबआिध िबिध खोई॥
हे राजन! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर िलया, तो अब मने श ु को
काबू म कर ही िलया (समझो)। तुम अब िचंता याग सो रहो। िवधाता ने िबना ही दवा के रोग दूर
कर िदया।
कुल सिहत श ु को जड़-मलू से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे िदन म तुमसे आ िमलँग
ू ा। (इस
कार) तप वी राजा को खबू िदलासा देकर वह महामायावी और अ यंत ोधी रा स चला।
उसने तापभानु राजा को घोड़े सिहत णभर म घर पहँचा िदया। राजा को रानी के पास सुलाकर
घोड़े को अ छी तरह से घुड़साल म बाँध िदया।
िफर वह राजा के पुरोिहत को उठा ले गया और माया से उसक बुि को म म डालकर उसे
उसने पहाड़ क खोह म ला रखा॥ 171॥
वह आप पुरोिहत का प बनाकर उसक संुदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही
जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आ य माना।
मन म मुिन क मिहमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, िजसम रानी न जान पाए। िफर उसी
घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के िकसी भी ी-पु ष को पता नह चला।
दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उ सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने
पुरोिहत को देखा, तब वह (अपने) उसी काय का मरण कर उसे आ य से देखने लगा।
जग
ु सम नप
ृ िह गए िदन तीनी। कपटी मिु न पद रह मित लीनी॥
समय जान उपरोिहत आवा। नपृ िह मते सब किह समझ ु ावा॥
राजा को तीन िदन युग के समान बीते। उसक बुि कपटी मुिन के चरण म लगी रही। िनि त
समय जानकर पुरोिहत (बना हआ रा स) आया और राजा के साथ क हई गु सलाह के
अनुसार (उसने अपने) सब िवचार उसे समझाकर कह िदए।
पुरोिहत ने छह रस और चार कार के भोजन, जैसा िक वेद म वणन है, बनाए। उसने मायामयी
रसोई तैयार क और इतने यंजन बनाए, िज ह कोई िगन नह सकता।
िबिबध मग
ृ ह कर आिमष राँधा। तेिह महँ िब माँसु खल साँधा॥
भोजन कहँ सब िब बोलाए। पद पखा र सादर बैठाए॥
एक वष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल म कोई पानी देनेवाला तक न रहे गा। शाप सुनकर
राजा भय के मारे अ यंत याकुल हो गया। िफर सुंदर आकाशवाणी हई -
हे ा णो! तुमने िवचार कर शाप नह िदया। राजा ने कुछ भी अपराध नह िकया। आकाशवाणी
सुनकर सब ा ण चिकत हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।
(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ा ण ही था। तब राजा मन म अपार िचंता करता हआ
लौटा। उसने ा ण को सब व ृ ांत सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और याकुल होकर वह प ृ वी
पर िगर पड़ा।
ऐसा कहकर सब ा ण चले गए। नगरवािसय ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे िचंता करने
और िवधाता को दोष देने लगे, िजसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर िदया (ऐसे पु या मा राजा को
देवता बनाना चािहए था, पर रा स बना िदया)।
स यकेतु के कुल म कोई नह बचा। ा ण का शाप झठू ा कैसे हो सकता था। श ु को जीतकर,
नगर को (िफर से) बसाकर सब राजा िवजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए।
(या व य कहते ह -) हे भर ाज! सुनो, िवधाता जब िजसके िवपरीत होते ह, तब उसके िलए
ू सुमे पवत के समान (भारी और कुचल डालनेवाली), िपता यम के समान (काल प) और
धल
र सी साँप के समान (काट खानेवाली) हो जाती है॥ 175॥
हे मुिन! सुनो, समय पाकर वही राजा प रवार सिहत रावण नामक रा स हआ। उसके दस िसर
और बीस भुजाएँ थ और वह बड़ा ही चंड शरू वीर था।
भूप अनज
ु अ रमदन नामा। भयउ सो कंु भकरन बलधामा॥
सिचव जो रहा धरम िच जासू। भयउ िबमा बंधु लघु तासू॥
अ रमदन नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुंभकण हआ। उसका जो मं ी था,
िजसका नाम धम िच था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हआ।
उसका िवभीषण नाम था, िजसे सारा जगत जानता है। वह िव णुभ और ान-िव ान का भंडार
था और जो राजा के पु और सेवक थे, वे सभी बड़े भयानक रा स हए।
- उपजे जदिप पल
ु यकुल पावन अमल अनूप।
तदिप महीसरु ाप बस भए सकल अघ प॥ 176॥
रावण ने िवनय करके और चरण पकड़कर कहा - हे जगदी र! सुिनए, वानर और मनु य - इन
दो जाितय को छोड़कर हम और िकसी के मारे न मर। (यह वर दीिजए)।
(िशव कहते ह िक -) मने और ा ने िमलकर उसे वर िदया िक ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप
िकया है। िफर ा कुंभकण के पास गए। उसे देखकर उनके मन म बड़ा आ य हआ।
उनको वर देकर ा चले गए और वे (तीन भाई) हिषत हे कर अपने घर लौट आए। मय दानव
क मंदोदरी नाम क क या परम सुंदरी और ि य म िशरोमिण थी।
समु के बीच म ि कूट नामक पवत पर ा का बनाया हआ एक बड़ा भारी िकला था। (महान
मायावी और िनपुण कारीगर) मय दानव ने उसको िफर से सजा िदया। उसम मिणय से जड़े हए
सोने के अनिगनत महल थे।
उसे चार ओर से समु क अ यंत गहरी खाई घेरे हए है। उस (दुग) के मिणय से जड़ा हआ सोने
का मजबत ू परकोटा है, िजसक कारीगरी का वणन नह िकया जा सकता॥ 178(क)॥
भगवान क ेरणा से िजस क प म जो रा स का राजा (रावण) होता है, वही शरू , तापी,
अतुिलत बलवान अपनी सेना सिहत उस पुरी म बसता है॥ 178(ख)॥
रहे तहाँ िनिसचर भट भारे । ते सब सरु ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहिहं स के रे े । र छक कोिट ज छपित केरे ॥
(पहले) वहाँ बड़े -बड़े यो ा रा स रहते थे। देवताओं ने उन सबको यु म मार डाला। अब इं क
ेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ र क (य लोग) रहते ह।
रावण को कह ऐसी खबर िमली, तब उसने सेना सजाकर िकले को जा घेरा। उस बड़े िवकट
यो ा और उसक बड़ी सेना को देखकर य अपने ाण लेकर भाग गए।
तब रावण ने घम ू -िफरकर सारा नगर देखा। उसक ( थान संबंधी) िचंता िमट गई और उसे बहत
ही सुख हआ। उस पुरी को वाभािवक ही सुंदर और (बाहरवाल के िलए) दुगम अनुमान करके
रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम क ।
िफर उसने जाकर (एक बार) िखलवाड़ ही म कैलास पवत को उठा िलया और मानो अपनी
भुजाओं का बल तौलकर, बहत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥ 179॥
सखु संपित सत
ु सेन सहाई। जय ताप बल बिु बड़ाई॥
िनत नूतन सब बाढ़त जाई। िजिम ितलाभ लोभ अिधकाई॥
सुख, संपि , पु , सेना, सहायक, जय, ताप, बल, बुि और बड़ाई - ये सब उसके िन य नए
(वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।
मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, िजसका जगत के यो ाओं म पहला नंबर था। रण म कोई भी
उसका सामना नह कर सकता था। वग म तो (उसके भय से) िन य भगदड़ मची रहती थी।
(इनके अित र ) दुमुख, अक पन, व दंत, धम ू केतु और अितकाय आिद ऐसे अनेक यो ा थे,
जो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥ 180॥
सभी रा स मनमाना प बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धम व न म
भी नह था। एक बार सभा म बैठे हए रावण ने अपने अगिणत प रवार को देखा -
सत
ु समूह जन प रजन नाती। गनै को पार िनसाचर जाती॥
सेन िबलोिक सहज अिभमानी। बोला बचन ोध मद सानी॥
उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, म समझाकर कहता हँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को
बढ़ानेवाले) ा ण भोजन, य , हवन और ा - इन सबम जाकर तुम बाधा डालो।
भख
ू से दुबल और बलहीन होकर देवता सहज ही म आ िमलगे। तब उनको म मार डालँग
ू ा अथवा
भली-भाँित अपने अधीन करके (सवथा पराधीन करके) छोड़ दँूगा॥ 181॥
उ ह यु म जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर िपता क आ ा को िशरोधाय िकया। इसी तरह
उसने सबको आ ा दी और आप भी हाथ म गदा लेकर चल िदया।
- भज
ु बल िब व ब य क र राखेिस कोउ न सत
ु ं ।
मंडलीक मिन रावन राज करइ िनज मं ॥ 182(क)॥
मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अथात
रावण के कहने भर क देर थी, उसने आ ापालन म तिनक भी देर नह क ।) िजनको (रावण ने
मेघनाद से) पहले ही आ ा दे रखी थी, उ ह ने जो करततू क उ ह सुनो।
देखत भीम प सब पापी। िनिसचर िनकर देव प रतापी॥
करिहं उप व असरु िनकाया। नाना प धरिहं क र माया॥
सब रा स के समहू देखने म बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुर के
समहू उप व करते थे और माया से अनेक कार के प धरते थे।
िजस कार धम क जड़ कटे, वे वही सब वेदिव काम करते थे। िजस-िजस थान म वे गो
और ा ण को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे म आग लगा देते थे।
सभ
ु आचरन कतहँ निहं होई। देव िब गु मान न कोई॥
निहं ह रभगित ज य तप याना। सपनेह सिु नअ न बेद परु ाना॥
जप, योग, वैरा य, तप तथा य म (देवताओं के) भाग पाने क बात रावण कह कान से सुन
पाता, तो (उसी समय) वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नह पाता, वह सबको पकड़कर िव वंस
कर डालता था। संसार म ऐसा आचरण फै ल गया िक धम तो कान म सुनने म नह आता
था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहत तरह से ास देता और देश से िनकाल देता था।
रा स लोग जो घोर अ याचार करते थे, उसका वणन नह िकया जा सकता। िहंसा पर ही
िजनक ीित है, उनके पाप का या िठकाना॥ 183॥
(वह सोचने लगी िक) पवत , निदय और समु का बोझ मुझे इतना भारी नह जान पड़ता,
िजतना भारी मुझे एक पर ोही (दूसर का अिन करनेवाला) लगता है। प ृ वी सारे धम को
िवपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हई वह कुछ बोल नह सकती।
सब देवता बैठकर िवचार करने लगे िक भु को कहाँ पाएँ तािक उनके सामने पुकार (फ रयाद)
कर। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था िक वही भु ीरसमु म िनवास
करते ह।
िजसके दय म जैसी भि और ीित होती है, भु वहाँ (उसके िलए) सदा उसी रीित से कट
होते ह। हे पावती! उस समाज म म भी था। अवसर पाकर मने एक बात कही -
िज ह ने िबना िकसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या वयं अपने को ि गुण प -
ा, िव णु, िशव प - बनाकर अथवा िबना िकसी उपादान-कारण के अथात वयं ही सिृ का
अिभ निनिम ोपादान कारण बनकर) तीन कार क सिृ उ प न क , वे पाप का नाश
करनेवाले भगवान हमारी सुिध ल। हम न भि जानते ह, न पज ू ा, जो संसार के (ज म-म ृ यु के)
भय का नाश करनेवाले, मुिनय के मन को आनंद देनेवाले और िवपि य के समहू को न
करनेवाली ह। हम सब देवताओं के समहू , मन, वचन और कम से चतुराई करने क बान छोड़कर
उन (भगवान) क शरण (आए) ह।
क यप और अिदित ने बड़ा भारी तप िकया था। म पहले ही उनको वर दे चुका हँ। वे ही दशरथ
और कौस या के प म मनु य के राजा होकर अयो यापुरी म कट हए ह।
म प ृ वी का सब भार हर लँग
ू ा। हे देववंदृ ! तुम िनभय हो जाओ। आकाश म (भगवान) क
वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका दय शीतल हो गया।
तब ाँ धरिनिह समझ
ु ावा। अभय भई भरोस िजयँ आवा॥
प ृ वी पर उ ह ने वानरदेह धारण क । उनम अपार बल और ताप था। सभी शरू वीर थे, पवत, व ृ
और नख ही उनके श थे। वे धीर बुि वाले (वानर प देवता) भगवान के आने क राह देखने
लगे।
िग र कानन जहँ तहँ भ र पूरी। रहे िनज िनज अनीक रिच री॥
यह सब िचर च रत म भाषा। अब सो सन ु ह जो बीचिहं राखा॥
वे (वानर) पवत और जंगल म जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपरू छा गए। यह
सब सुंदर च र मने कहा। अब वह च र सुनो िजसे बीच ही म छोड़ िदया था।
अवधपुरी म रघुकुल िशरोमिण दशरथ नाम के राजा हए, िजनका नाम वेद म िव यात है। वे
धमधुरंधर, गुण के भंडार और ानी थे। उनके दय म शागधनुष धारण करनेवाले भगवान क
भि थी, और उनक बुि भी उ ह म लगी रहती थी।
उनक कौस या आिद ि य रािनयाँ सभी पिव आचरणवाली थ । वे (बड़ी) िवनीत और पित के
अनुकूल (चलनेवाली) थ और ह र के चरणकमल म उनका ढ़ ेम था॥ 188॥
िनज दख
ु सख ु सब गरु िह सन ु ायउ। किह बिस बहिबिध समझ ु ायउ॥
धरह धीर होइहिहं सत
ु चारी। ि भवु न िबिदत भगत भय हारी॥
संग
ृ ी रिषिह बिस बोलावा। पु काम सभु ज य करावा॥
भगित सिहत मिु न आहित दी ह। गटे अिगिन च कर ली ह॥
तदनंतर अि नदेव सारी सभा को समझाकर अंतधान हो गए। राजा परमानंद म म न हो गए,
उनके दय म हष समाता न था॥ 189॥
उसी समय राजा ने अपनी यारी पि नय को बुलाया। कौस या आिद सब (रािनयाँ) वहाँ चली
आई ं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौस या को िदया, (और शेष) आधे के दो भाग िकए।
कैकेई कहँ नप
ृ सो दयऊ। र ो सो उभय भाग पिु न भयऊ॥
कौस या कैकेई हाथ ध र। दी ह सिु म िह मन स न क र॥
वह (उनम से एक भाग) राजा ने कैकेयी को िदया। शेष जो बच रहा उसके िफर दो भाग हए और
राजा ने उनको कौस या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अथात उनक अनुमित लेकर) और
इस कार उनका मन स न करके सुिम ा को िदया।
इस कार सब ि याँ गभवती हई ं। वे दय म बहत हिषत हई ं। उ ह बड़ा सुख िमला। िजस िदन से
ह र (लीला से ही) गभ म आए, सब लोक म सुख और संपि छा गई।
शोभा, शील और तेज क खान (बनी हई) सब रािनयाँ महल म सुशोिभत हई ं। इस कार कुछ
समय सुखपवू क बीता और वह अवसर आ गया, िजसम भु को कट होना था।
पिव चै का महीना था, नवमी ितिथ थी। शु ल प और भगवान का ि य अिभिजत मुहत था।
दोपहर का समय था। न बहत सद थी, न धपू (गरमी) थी। वह पिव समय सब लोक को शांित
देनेवाला था।
शीतल, मंद और सुगंिधत पवन बह रहा था। देवता हिषत थे और संत के मन म (बड़ा) चाव था।
वन फूले हए थे, पवत के समहू मिणय से जगमगा रहे थे और सारी निदयाँ अमत
ृ क धारा बहा
रही थ ।
सो अवसर िबरं िच जब जाना। चले सकल सरु सािज िबमाना॥
गगन िबमल संकुल सरु जूथा। गाविहं गन
ु गंधब ब था॥
जब ा ने वह (भगवान के कट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता िवमान
सजा-सजाकर चले। िनमल आकाश देवताओं के समहू से भर गया। गंधव के दल गुण का गान
करने लगे।
और सुंदर अंजिलय म सजा-सजाकर पु प बरसाने लगे। आकाश म घमाघम नगाड़े बजने लगे।
नाग, मुिन और देवता तुित करने लगे और बहत कार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भट
करने लगे।
देवताओं के समहू िवनती करके अपने-अपने लोक म जा पहँचे। सम त लोक को शांित देनेवाले,
जगदाधार भु कट हए॥ 191॥
दोन हाथ जोड़कर माता कहने लगी - हे अनंत! म िकस कार तु हारी तुित क ँ । वेद और
पुराण तुम को माया, गुण और ान से परे और प रमाण रिहत बतलाते ह। ुितयाँ और संतजन
दया और सुख का समु , सब गुण का धाम कहकर िजनका गान करते ह, वही भ पर ेम
करनेवाले ल मीपित भगवान मेरे क याण के िलए कट हए ह।
वेद कहते ह िक तु हारे येक रोम म माया के रचे हए अनेक ांड के समहू (भरे ) ह। वे तुम
मेरे गभ म रहे - इस हँसी क बात के सुनने पर धीर (िववेक ) पु ष क बुि भी ि थर नह
रहती (िवचिलत हो जाती है)। जब माता को ान उ प न हआ, तब भु मुसकराए। वे बहत कार
के च र करना चाहते ह। अतः उ ह ने (पवू ज म क ) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया,
िजससे उ ह पु का (वा स य) ेम ा हो।
ब चे के रोने क बहत ही यारी विन सुनकर सब रािनयाँ उतावली होकर दौड़ी चली आई ं।
दािसयाँ हिषत होकर जहाँ-तहाँ दौड़ । सारे पुरवासी आनंद म म न हो गए।
दसरथ पु ज म सिु न काना। मानह ानंद समाना॥
परम मे मन पल
ु क सरीरा। चाहत उठन करत मित धीरा॥
राजा दशरथ पु का ज म कान से सुनकर मानो ानंद म समा गए। मन म अितशय ेम है,
शरीर पुलिकत हो गया। (आनंद म अधीर हई) बुि को धीरज देकर (और ेम म िशिथल हए
शरीर को सँभालकर) वे उठना चाहते ह।
जाकर नाम सन ु त सभ
ु होई। मोर गहृ आवा भु सोई॥
परमानंद पू र मन राजा। कहा बोलाइ बजावह बाजा॥
िजनका नाम सुनने से ही क याण होता है, वही भु मेरे घर आए ह। (यह सोचकर) राजा का मन
परम आनंद से पण
ू हो गया। उ ह ने बाजेवाल को बुलाकर कहा िक बाजा बजाओ।
- नंदीमख
ु सराध क र जातकरम सब क ह।
हाटक धेनु बसन मिन नप
ृ िब ह कहँ दी ह॥ 193॥
िफर राजा ने नांदीमुख ा करके सब जातकम-सं कार आिद िकए और ा ण को सोना, गो,
व और मिणय का दान िदया॥ 193॥
वजा, पताका और तोरण से नगर छा गया। िजस कार से वह सजाया गया, उसका तो वणन ही
नह हो सकता। आकाश से फूल क वषा हो रही है, सब लोग ानंद म म न ह।
राजा ने सब िकसी को भरपरू दान िदया। िजसने पाया उसने भी नह रखा (लुटा िदया)। (नगर
क ) सभी गिलय के बीच-बीच म क तरू ी, चंदन और केसर क क च मच गई।
अगर क धपू का बहत-सा धुआँ मानो (सं या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह
उसक ललाई है। महल म जो मिणय के समहू ह, वे मानो तारागण ह। राज महल का जो कलश
है, वही मानो े चं मा है।
राज भवन म जो अित कोमल वाणी से वेद विन हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल)
सनी हई पि य क चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सय ू भी (अपनी चाल) भल
ू गए। एक
महीना उ ह ने जाता हआ न जाना (अथात उ ह एक महीना वह बीत गया)।
यह रह य िकसी ने नह जाना। सयू देव (भगवान राम का) गुणगान करते हए चले। यह महो सव
देखकर देवता, मुिन और नाग अपने भा य क सराहना करते हए अपने-अपने घर चले।
हे पावती! तु हारी बुि (राम के चरण म) बहत ढ़ है, इसिलए म और भी अपनी एक चोरी
(िछपाव) क बात कहता हँ, सुनो। काकभुशंुिड और म दोन वहाँ साथ-साथ थे, परं तु मनु य प
म होने के कारण हम कोई जान न सका।
े सख
परमानंद म ु फूले। बीिथ ह िफरिहं मगन मन भूल॥े
ु च रत जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
यह सभ
उस अवसर पर जो िजस कार आया और िजसके मन को जो अ छा लगा, राजा ने उसे वही िदया।
हाथी, रथ, घोड़े , सोना, गाय, हीरे और भाँित-भाँित के व राजा ने िदए।
राजा ने सबके मन को संतु िकया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीवाद दे रहे थे िक
तुलसीदास के वामी सब पु (चार राजकुमार) िचरजीवी (दीघायु) ह ॥ 196॥
कछुक िदवस बीते एिह भाँती। जात न जािनअ िदन अ राती॥
नामकरन कर अवस जानी। भूप बोिल पठए मिु न यानी॥
इस कार कुछ िदन बीत गए। िदन और रात जाते हए जान नह पड़ते। तब नामकरण सं कार
का समय जानकर राजा ने ानी मुिन विश को बुला भेजा।
मुिन क पज ू ा करके राजा ने कहा - हे मुिन! आपने मन म जो िवचार रखे ह , वे नाम रिखए।
(मुिन ने कहा -) हे राजन! इनके अनुपम नाम ह, िफर भी म अपनी बुि के अनुसार कहँगा।
जो आनंद िसंधु सख ै ोक सप
ु रासी। सीकर त ल ु ासी॥
सो सख
ु धाम राम अस नामा। अिखल लोक दायक िब ामा॥
जो संसार का भरण-पोषण करते ह, उन (आपके दूसरे पु ) का नाम 'भरत' होगा। िजनके मरण
मा से श ु का नाश होता है, उनका वेद म िस 'श ु न' नाम है।
बारे िह ते िनज िहत पित जानी। लिछमन राम चरन रित मानी॥
भरत स हु न दूनउ भाई। भु सेवक जिस ीित बड़ाई॥
बचपन से ही राम को अपना परम िहतैषी वामी जानकर ल मण ने उनके चरण म ीित जोड़
ली। भरत और श ु न दोन भाइय म वामी और सेवक क िजस ीित क शंसा है, वैसी ीित
हो गई॥
याम गौर संदु र दोउ जोरी। िनरखिहं छिब जनन तनृ तोरी॥
चा रउ सील प गन ु धामा। तदिप अिधक सख ु सागर रामा॥
उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हए) मेघ के समान याम शरीर म करोड़ कामदेव क
शोभा है। लाल-लाल चरण कमल के नख क (शु ) योित ऐसी मालम ू होती है जैसे (लाल)
कमल के प पर मोती ि थर हो गए ह ।
कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाववाला, तीन रे खाओं से सुशोिभत) है और ठोड़ी बहत ही सुंदर है।
मुख पर असं य कामदेव क छटा छा रही है। दो-दो संुदर दँतुिलयाँ ह, लाल-लाल ओठ ह।
नािसका और ितलक (के स दय) का तो वणन ही कौन कर सकता है।
संदु र वन सच
ु ा कपोला। अित ि य मधरु तोतरे बोला॥
िच कन कच कंु िचत गभआ
ु रे । बह कार रिच मातु सँवारे ॥
संुदर कान और बहत ही सुंदर गाल ह। मधुर तोतले श द बहत ही यारे लगते ह। ज म के समय
से रखे हए िचकने और घँुघराले बाल ह, िजनको माता ने बहत कार से बनाकर सँवार िदया है।
शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हई है। उनका घुटन और हाथ के बल चलना मुझे बहत ही यारा
लगता है। उनके प का वणन वेद और शेष भी नह कर सकते। उसे वही जानता है, िजसने कभी
व न म भी देखा हो।
जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ान, वाणी और इंि य से अतीत ह, वे भगवान दशरथ-
कौस या के अ यंत ेम के वश होकर पिव बाललीला करते ह॥ 199॥
रघप
ु ित िबमख
ु जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया भु स भय भाखे॥
रघुनाथ से िवमुख रहकर मनु य चाहे करोड़ उपाय करे , परं तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा
सकता है। िजसने सब चराचर जीव को अपने वश म कर रखा है, वह माया भी भु से भय खाती
है।
भक
ृ ु िट िबलास नचावइ ताही। अस भु छािड़ भिजअ कह काही॥
मन म बचन छािड़ चतरु ाई। भजत कृपा क रहिहं रघरु ाई॥
एक बार माता ने राम को नान कराया और ंग ृ ार करके पालने पर पौढ़ा िदया। िफर अपने कुल
के इ देव भगवान क पज ू ा के िलए नान िकया।
ू ा करके नैवे चढ़ाया और वयं वहाँ गई ं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। िफर माता वह (पज
पज ू ा के
थान म) लौट आई और वहाँ आने पर पु को (इ देव भगवान के िलए चढ़ाए हए नैवे का)
भोजन करते देखा।
गै जननी िससु पिहं भयभीता। देखा बाल तहाँ पिु न सूता॥
बह र आइ देखा सतु सोई। दयँ कंप मन धीर न होई॥
माता भयभीत होकर (पालने म सोया था, यहाँ िकसने लाकर बैठा िदया, इस बात से डरकर) पु
के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हआ देखा। िफर (पज
ू ा थान म लौटकर) देखा िक वही पु
वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके दय म कंप होने लगा और मन को धीरज नह होता।
(वह सोचने लगी िक) यहाँ और वहाँ मने दो बालक देखे। यह मेरी बुि का म है या और कोई
िवशेष कारण है? भु राम माता को घबड़ाई हई देखकर मधुर मु कान से हँस िदए।
अगिणत सय
ू , चं मा, िशव, ा, बहत-से पवत, निदयाँ, समु , प ृ वी, वन, काल, कम, गुण,
ान और वभाव देखे और वे पदाथ भी देखे जो कभी सुने भी न थे।
सब कार से बलवती माया को देखा िक वह (भगवान के सामने) अ यंत भयभीत हाथ जोड़े
खड़ी है। जीव को देखा, िजसे वह माया नचाती है और (िफर) भि को देखा, जो उस जीव को
(माया से) छुड़ा देती है।
तन पल
ु िकत मखु बचन न आवा। नयन मूिद चरनिन िस नावा॥
िबसमयवंत देिख महतारी। भए बह र िससु प खरारी॥
(माता का) शरीर पुलिकत हो गया, मुख से वचन नह िनकलता। तब आँख मँदू कर उसने राम
के चरण म िसर नवाया। माता को आ यचिकत देखकर खर के श ु राम िफर बाल प हो गए।
कौस या बार-बार हाथ जोड़कर िवनय करती ह िक हे भो! मुझे आपक माया अब कभी न
यापे॥ 202॥
भगवान ने बहत कार से बाललीलाएँ क और अपने सेवक को अ यंत आनंद िदया। कुछ समय
बीतने पर चार भाई बड़े होकर कुटुंिबय को सुख देनेवाले हए।
जो मन, वचन और कम से अगोचर ह, वही भु दशरथ के आँगन म िवचर रहे ह। भोजन करने के
समय जब राजा बुलाते ह, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नह आते।
कौस या जब बुलाने जाती ह, तब भु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते ह। िजनका वेद 'नेित' (इतना ही
नह ) कहकर िन पण करते ह और िशव ने िजनका अंत नह पाया, माता उ ह हठपवू क पकड़ने
के िलए दौड़ती ह।
भोजन करते ह, पर िच चंचल है। अवसर पाकर मँुह म दही-भात लपटाए िकलकारी मारते हए
इधर-उधर भाग चले॥ 203॥
बालच रत अित सरल सहु ाए। सारद सेष संभु ुित गाए॥
िज ह कर मन इ ह सन निहं राता। ते जन बंिचत िकए िबधाता॥
राम क बहत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सर वती, शेष, िशव और
वेद ने गान िकया है। िजनका मन इन लीलाओं म अनुर नह हआ, िवधाता ने उन मनु य को
वंिचत कर िदया (िनतांत भा यहीन बनाया)।
चार वेद िजनके वाभािवक ास ह, वे भगवान पढ़, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चार भाई
िव ा, िवनय, गुण और शील म (बड़े ) िनपुण ह और सब राजाओं क लीलाओं के ही खेल खेलते
ह।
हाथ म बाण और धनुष बहत ही शोभा देते ह। प देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोिहत हो जाते
ह। वे सब भाई िजन गिलय म खेलते (हए िनकलते) ह, उन गिलय के सभी ी-पु ष उनको
देखकर नेह से िशिथल हो जाते ह अथवा िठठककर रह जाते ह।
ृ राम के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। राम अपने छोटे
जो मग
भाइय और सखाओं के साथ भोजन करते ह और माता-िपता क आ ा का पालन करते ह।
िजस कार नगर के लोग सुखी ह , कृपािनधान राम वही संयोग (लीला) करते ह। वे मन
लगाकर वेद-पुराण सुनते ह और िफर वयं छोटे भाइय को समझाकर कहते ह।
जहाँ वे मुिन जप, य और योग करते थे, परं तु मारीच और सुबाह से बहत डरते थे। य देखते ही
रा स दौड़ पड़ते थे और उप व मचाते थे, िजससे मुिन (बहत) दुःख पाते थे।
इसी बहाने जाकर म उनके चरण का दशन क ँ और िवनती करके दोन भाइय को ले आऊँ।
(अहा!) जो ान, वैरा य और सब गुण के धाम ह, उन भु को म ने भरकर देखँग
ू ा।
बहत कार से मनोरथ करते हए जाने म देर नह लगी। सरयू के जल म नान करके वे राजा के
दरवाजे पर पहँचे॥ 206॥
चरण को धोकर बहत पजू ा क और कहा - मेरे समान ध य आज दूसरा कोई नह है। िफर अनेक
कार के भोजन करवाए, िजससे े मुिन ने अपने दय म बहत ही हष ा िकया।
तब राजा ने मन म हिषत होकर ये वचन कहे - हे मुिन! इस कार कृपा तो आपने कभी नह
क । आज िकस कारण से आपका शुभागमन हआ? किहए, म उसे परू ा करने म देर नह
लगाऊँगा।
(मुिन ने कहा -) हे राजन! रा स के समहू मुझे बहत सताते ह, इसीिलए म तुमसे कुछ माँगने
आया हँ। छोटे भाई सिहत रघुनाथ को मुझे दो। रा स के मारे जाने पर म सनाथ (सुरि त) हो
जाऊँगा।
ेम-रस म सनी हई राजा क वाणी सुनकर ानी मुिन िव ािम ने दय म बड़ा हष माना। तब
विश ने राजा को बहत कार से समझाया, िजससे राजा का संदेह नाश को ा हआ।
- स पे भूप रिषिह सत
ु बहिबिध देइ असीस।
जननी भवन गए भु चले नाइ पद सीस॥ 208(क)॥
राजा ने बहत कार से आशीवाद देकर पु को ऋिष के हवाले कर िदया। िफर भु माता के
महल म गए और उनके चरण म िसर नवाकर चले॥ 208(क)॥
पु ष म िसंह प दोन भाई (राम-ल मण) मुिन का भय हरने के िलए स न होकर चले। वे
कृपा के समु , धीर बुि और संपण
ू िव के कारण के भी कारण ह॥ 208(ख)॥
माग म चले जाते हए मुिन ने ताड़का को िदखलाया। श द सुनते ही वह ोध करके दौड़ी। राम
ने एक ही बाण से उसके ाण हर िलए और दीन जानकर उसको िनजपद (अपना िद य व प)
िदया।
सबेरे रघुनाथ ने मुिन से कहा - आप जाकर िनडर होकर य क िजए। यह सुनकर सब मुिन
हवन करने लगे। आप (राम) य क रखवाली पर रहे ।
यह समाचार सुनकर मुिनय का श ु ोधी रा स मारीच अपने सहायक को लेकर दौड़ा। राम
ने िबना फलवाला बाण उसको मारा, िजससे वह सौ योजन के िव तारवाले समु के पार जा
िगरा।
गौतम मुिन क ी अह या शापवश प थर क देह धारण िकए बड़े धीरज से आपके चरणकमल
क धिू ल चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा क िजए॥ 210॥
मुिन ने जो मुझे शाप िदया, सो बहत ही अ छा िकया। म उसे अ यंत अनु ह (करके) मानती हँ
िक िजसके कारण मने संसार से छुड़ानेवाले ह र (आप) को ने भरकर देखा। इसी (आपके
दशन) को शंकर सबसे बड़ा लाभ समझते ह। हे भो! म बुि क बड़ी भोली हँ, मेरी एक िवनती
है। हे नाथ ! म और कोई वर नह माँगती, केवल यही चाहती हँ िक मेरा मन पी भ रा आपके
चरण-कमल क रज के ेम पी रस का सदा पान करता रहे ।
िजन चरण से परमपिव देवनदी गंगा कट हई ं, िज ह िशव ने िसर पर धारण िकया और िजन
चरणकमल को ू ते ह, कृपालु ह र (आप) ने उ ह को मेरे िसर पर रखा। इस कार
ा पज
( तुित करती हई) बार-बार भगवान के चरण म िगरकर, जो मन को बहत ही अ छा लगा, उस
वर को पाकर गौतम क ी अह या आनंद म भरी हई पित लोक को चली गई।
भु राम ऐसे दीनबंधु और िबना ही कारण दया करनेवाले ह। तुलसीदास कहते ह, हे शठ (मन)!
तू कपट-जंजाल छोड़कर उ ह का भजन कर॥ 211॥
चले राम लिछमन मिु न संगा। गए जहाँ जग पाविन गंगा॥
गािधसूनु सब कथा सन ु ाई। जेिह कार सरु स र मिह आई॥
राम और ल मण मुिन के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पिव करनेवाली गंगा थ । गािध
के पु िव ािम ने वह सब कथा कह सुनाई िजस कार देवनदी गंगा प ृ वी पर आई थ ।
राम ने जब जनकपुर क शोभा देखी, तब वे छोटे भाई ल मण सिहत अ यंत हिषत हए। वहाँ
अनेक बाविलयाँ, कुएँ , नदी और तालाब ह, िजनम अमतृ के समान जल है और मिणय क
सीिढ़याँ (बनी हई) ह।
गंज
ु त मंजु म रस भंग
ृ ा। कूजत कल बहबरन िबहंगा॥
बरन बरन िबकसे बनजाता। ि िबध समीर सदा सख ु दाता॥
मकरं द-रस से मतवाले होकर भ रे सुंदर गुंजार कर रहे ह। रं ग-िबरं गे (बहत- से) प ी मधुर श द
कर रहे ह। रं ग-रं ग के कमल िखले ह। सदा (सब ऋतुओ ं म) सुख देनेवाला शीतल, मंद, सुगंध
पवन बह रहा है।
- सम
ु न बािटका बाग बन िबपल
ु िबहंग िनवास।
फूलत फलत सप ु लवत सोहत परु चहँ पास॥ 212।
नगर क सुंदरता का वणन करते नह बनता। मन जहाँ जाता है, वह लुभा जाता (रम जाता) है।
सुंदर बाजार है, मिणय से बने हए िविच छ जे ह, मानो ा ने उ ह अपने हाथ से बनाया है।
कुबेर के समान े धनी यापारी सब कार क अनेक व तुएँ लेकर (दुकान म) बैठे ह। सुंदर
चौराहे और सुहावनी गिलयाँ सदा सुगंध से िसंची रहती ह।
जहाँ जनक का अ यंत अनुपम (सुंदर) िनवास थान (महल) है, वहाँ के िवलास (ऐ य) को
देखकर देवता भी चिकत ( तंिभत) हो जाते ह (मनु य क तो बात ही या!)। कोट (राजमहल
के परकोटे) को देखकर िच चिकत हो जाता है, (ऐसा मालम
ू होता है) मानो उसने सम त
लोक क शोभा को रोक (घेर) रखा है।
उ वल महल म अनेक कार के सुंदर रीित से बने हए मिण जिटत सोने क जरी के परदे लगे
ह। सीता के रहने के संुदर महल क शोभा का वणन िकया ही कैसे जा सकता है॥ 213॥
सभ
ु ग ार सब कुिलस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी िबसाल बािज गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥
राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर ह, िजनम व के (मजबत ू अथवा हीर के चमकते हए)
िकवाड़ लगे ह। वहाँ (मातहत) राजाओं, नट , मागध और भाट क भीड़ लगी रहती है। घोड़ और
हािथय के िलए बहत बड़ी-बड़ी घुड़साल और गजशालाएँ (फ लखाने) बनी हई ह; जो सब समय
घोड़े , हाथी और रथ से भरी रहती ह।
कृपा के धाम राम 'बहत अ छा वािमन्!' कहकर वह मुिनय के समहू के साथ ठहर गए।
िमिथलापित जनक ने जब यह समाचार पाया िक महामुिन िव ािम आए ह,
बार-बार कुशल करके िव ािम ने राजा को बैठाया। उसी समय दोन भाई आ पहँचे, जो
फुलवाड़ी देखने गए थे।
दोन भाइय को देखकर सभी सुखी हए। सबके ने म जल भर आया और शरीर रोमांिचत हो
उठे । राम क मधुर मनोहर मिू त को देखकर िवदेह (जनक) िवशेष प से िवदेह (देह क सुध-बुध
से रिहत) हो गए।
हे नाथ! किहए, ये दोन सुंदर बालक मुिनकुल के आभषू ण ह या िकसी राजवंश के पालक?
अथवा िजसका वेद ने 'नेित' कहकर गान िकया है कह वह तो युगल प धरकर नह
आया है?
मेरा मन जो वभाव से ही वैरा य प (बना हआ) है, (इ ह देखकर) इस तरह मु ध हो रहा है,
जैसे चं मा को देखकर चकोर। हे भो! इसिलए म आपसे स य (िन छल) भाव से पछ ू ता हँ। हे
नाथ! बताइए, िछपाव न क िजए।
इनको देखते ही अ यंत ेम के वश होकर मेरे मन ने जबरद ती सुख को याग िदया है।
मुिन ने हँसकर कहा - हे राजन! आपने ठीक (यथाथ ही) कहा। आपका वचन िम या नह हो
सकता।
जगत म जहाँ तक (िजतने भी) ाणी ह, ये सभी को ि य ह। मुिन क (रह य भरी) वाणी सुनकर
राम मन-ही-मन मुसकराते ह। (तब मुिन ने कहा -) ये रघुकुल मिण महाराज दशरथ के पु ह।
मेरे िहत के िलए राजा ने इ ह मेरे साथ भेजा है।
ये राम और ल मण दोन े भाई प, शील और बल के धाम ह। सारा जगत (इस बात का)
सा ी है िक इ ह ने यु म असुर को जीतकर मेरे य क र ा क है॥ 216॥
इनक आपस क ीित बड़ी पिव और सुहावनी है, वह मन को बहत भाती है, पर (वाणी से)
कही नह जा सकती। िवदेह (जनक) आनंिदत होकर कहते ह - हे नाथ! सुिनए, और जीव
क तरह इनम वाभािवक ेम है।
संदु र सदनु सख
ु द सब काला। तहाँ बासु लै दी ह भआ
ु ला॥
क र पूजा सब िबिध सेवकाई। गयउ राउ गहृ िबदा कराई॥
एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओ ं म) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उ ह ले जाकर
ू ा और सेवा करके राजा िवदा माँगकर अपने घर गए।
ठहराया। तदनंतर सब कार से पज
रघुकुल के िशरोमिण भु राम ऋिषय के साथ भोजन और िव ाम करके भाई ल मण समेत बैठे।
उस समय पहरभर िदन रह गया था॥ 217॥
लखन दयँ लालसा िबसेषी। जाइ जनकपरु आइअ देखी॥
भु भय बह र मिु निह सकुचाह । गट न कहिहं मनिहं मस
ु क
ु ाह ॥
राम अनज
ु मन क गित जानी। भगत बछलता िहयँ हलसानी॥
परम िबनीत सकुिच मस
ु क
ु ाई। बोले गरु अनस
ु ासन पाई॥
(अंतयामी) राम ने छोटे भाई के मन क दशा जान ली, (तब) उनके दय म भ व सलता उमड़
आई। वे गु क आ ा पाकर बहत ही िवनय के साथ सकुचाते हए मुसकराकर बोले।
सिु न मन
ु ीसु कह बचन स ीती। कस न राम तु ह राखह नीती॥
धरम सेतु पालक तु ह ताता। मे िबबस सेवक सख ु दाता॥
यह सुनकर मुनी र िव ािम ने ेम सिहत वचन कहे - हे राम! तुम नीित क र ा कैसे न
करोगे, हे तात! तुम धम क मयादा का पालन करनेवाले और ेम के वशीभत
ू होकर सेवक को
सुख देनेवाले हो।
सुख के िनधान दोन भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख िदखलाकर सब (नगर
िनवािसय ) के ने को सफल करो॥ 218॥
सब लोक के ने को सुख देनेवाले दोन भाई मुिन के चरणकमल क वंदना करके चले।
बालक के झुंड इन (के स दय) क अ यंत शोभा देखकर साथ लग गए। उनके ने और मन
(इनक माधुरी पर) लुभा गए।
(दोन भाइय के) पीले रं ग के व ह, कमर के (पीले) दुप म तरकस बँधे ह। हाथ म सुंदर
धनुष-बाण सुशोिभत ह। ( याम और गौर वण के) शरीर के अनुकूल (अथात िजस पर िजस रं ग
का चंदन अिधक फबे उस पर उसी रं ग के) सुंदर चंदन क खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रं ग)
क मनोहर जोड़ी है।
िसंह के समान (पु ) गदन (गले का िपछला भाग) है, िवशाल भुजाएँ ह। (चौड़ी) छाती पर अ यंत
सुंदर गजमु ा क माला है। सुंदर लाल कमल के समान ने ह। तीन ताप से छुड़ानेवाला चं मा
के समान मुख है।
कान म सोने के कणफूल (अ यंत) शोभा दे रहे ह और देखते ही (देखनेवाले के) िच को मानो
चुरा लेते ह। उनक िचतवन ( ि ) बड़ी मनोहर है और भ ह ितरछी एवं सुंदर ह। (माथे पर)
ितलक क रे खाएँ ऐसी सुंदर ह, मानो (मिू तमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है।
िसर पर संुदर चौकोनी टोिपयाँ (िदए) ह, काले और घँुघराले बाल ह। दोन भाई नख से लेकर
िशखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर ह और सारी शोभा जहाँ जैसी चािहए वैसी ही है॥ 219॥
वभाव ही से सुंदर दोन भाइय को देखकर वे लोग ने का फल पाकर सुखी हो रहे ह। युवती
ि याँ घर के झरोख से लगी हई ेम सिहत राम के प को देख रही ह।
कहिहं परसपर बचन स ीती। सिख इ ह कोिट काम छिब जीती॥
सरु नर असरु नाग मिु न माह । सोभा अिस कहँ सिु नअित नाह ॥
िब नु चा र भज
ु िबिध मख
ु चारी। िबकट बेष मख
ु पंच परु ारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छिब सखी पटत रअ जाही॥
इनक िकशोर अव था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रं ग के तथा सुख के धाम ह। इनके
अंग-अंग पर करोड़ -अरब कामदेव को िनछावर कर देना चािहए॥ 220॥
हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस प को देखकर मोिहत न हो जाए
(अथात यह प जड़-चेतन सबको मोिहत करनेवाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी ेम सिहत
कोमल वाणी से बोली - हे सयानी! मने जो सुना है उसे सुनो -
ये दोन (राजकुमार) महाराज दशरथ के पु ह! बाल राजहंस का-सा सुंदर जोड़ा है। ये मुिन
िव ािम के य क र ा करनेवाले ह, इ ह ने यु के मैदान म रा स को मारा है।
राम क छिव देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी - यह वर जानक के यो य है। हे
सखी! यिद कह राजा इ ह देख ले, तो ित ा छोड़कर हठपवू क इ ह से िववाह कर देगा।
िकसी ने कहा - राजा ने इ ह पहचान िलया है और मुिन के सिहत इनका आदरपवू क स मान
िकया है, परं तु हे सखी! राजा अपना ण नह छोड़ता। वह होनहार के वशीभत
ू होकर हठपवू क
अिववेक का ही आ य िलए हए ह ( ण पर अड़े रहने क मख ू ता नह छोड़ता)।
कोई कहती है - यिद िवधाता भले ह और सुना जाता है िक वे सबको उिचत फल देते ह, तो
जानक को यही वर िमलेगा। हे सखी! इसम संदेह नह है।
जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृताथ हो जाएँ । हे सखी! मेरे तो इसी से
इतनी अिधक आतुरता हो रही है िक इसी नाते कभी ये यहाँ आएँ गे।
- नािहं त हम कहँ सन
ु ह सिख इ ह कर दरसनु दू र।
यह संघटु तब होइ जब पु य परु ाकृत भू र॥ 222॥
नह तो (िववाह न हआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दशन दुलभ ह। यह संयोग तभी हो
सकता है, जब हमारे पवू ज म के बहत पु य ह ॥ 222॥
बोली अपर कहेह सिख नीका। एिहं िबआह अित िहत सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए यामल मदृ ु गात िकसोरा॥
दूसरी ने कहा - हे सखी! तुमने बहत अ छा कहा। इस िववाह से सभी का परम िहत है। िकसी ने
कहा - शंकर का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक ह।
हे सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी - हे सखी!
इनके संबंध म कोई-कोई ऐसा कहते ह िक ये देखने म तो छोटे ह, पर इनका भाव बहत बड़ा है।
िजनके चरणकमल क धिू ल का पश पाकर अह या तर गई, िजसने बड़ा भारी पाप िकया था, वे
या िशव का धनुष िबना तोड़े रहगे? इस िव ास को भल
ू कर भी नह छोड़ना चािहए।
िजस ा ने सीता को सँवारकर रचा है, उसी ने िवचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये
वचन सुनकर सब हिषत हई ं और कोमल वाणी से कहने लग - ऐसा ही हो।
संुदर मुख और सुंदर ने वाली ि याँ समहू क समहू दय म हिषत होकर फूल बरसा रही ह।
जहाँ-जहाँ दोन भाई जाते ह, वहाँ-वहाँ परम आनंद छा जाता है॥ 223॥
दोन भाई नगर के परू ब ओर गए, जहाँ धनुष य के िलए (रं ग) भिू म बनाई गई थी। बहत लंबा-
चौड़ा सुंदर ढाला हआ प का आँगन था, िजस पर सुंदर और िनमल वेदी सजाई गई थी।
चार ओर सोने के बड़े -बड़े मंच बने थे, िजन पर राजा लोग बैठगे। उनके पीछे समीप ही चार ओर
दूसरे मचान का मंडलाकार घेरा सुशोिभत था।
कछुक ऊँिच सब भाँित सहु ाई। बैठिहं नगर लोग जहँ जाई॥
ित ह के िनकट िबसाल सहु ाए। धवल धाम बहबरन बनाए॥
वह कुछ ऊँचा था और सब कार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठगे। उ ह के पास
िवशाल एवं संुदर सफेद मकान अनेक रं ग के बनाए गए ह,
जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब ि याँ यथायो य (िजसको जहाँ बैठना उिचत है) बैठकर
देखगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपवू क भु राम को (य शाला क )
रचना िदखला रहे ह।
सब बालक इसी बहाने ेम के वश म होकर राम के मनोहर अंग को छूकर शरीर से पुलिकत हो
रहे ह और दोन भाइय को देख-देखकर उनके दय म अ यंत हष हो रहा है॥ 224॥
कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर राम अपने छोटे भाई ल मण को (य भिू म क ) रचना
िदखलाते ह। िजनक आ ा पाकर माया लव िनमेष (पलक िगरने के चौथाई समय) म ांड के
समहू रच डालती है,
वही दीन पर दया करनेवाले राम भि के कारण धनुष य शाला को चिकत होकर (आ य के
साथ) देख रहे ह। इस कार सब कौतुक देखकर वे गु के पास चले। देर हई जानकर उनके
मन म डर है।
िजनके भय से डर को भी डर लगता है, वही भु भजन का भाव (िजसके कारण ऐसे महान भु
भी भय का नाट्य करते ह) िदखला रहे ह। उ ह ने कोमल, मधुर और सुंदर बात कहकर बालक
को जबरद ती िवदा िकया।
िफर भय, ेम, िवनय और बड़े संकोच के साथ दोन भाई गु के चरण कमल म िसर नवाकर
आ ा पाकर बैठे॥ 225॥
राि का वेश होते ही (सं या के समय) मुिन ने आ ा दी, तब सबने सं यावंदन िकया। िफर
ाचीन कथाएँ तथा इितहास कहते-कहते सुंदर राि दो पहर बीत गई।
तब े मुिन ने जाकर शयन िकया। दोन भाई उनके चरण दबाने लगे, िजनके चरण कमल के
(दशन एवं पश के) िलए वैरा यवान पु ष भी भाँित-भाँित के जप और योग करते ह।
वे ही दोन भाई मानो ेम से जीते हए ेमपवू क गु जी के चरण कमल को दबा रहे ह। मुिन ने
बार-बार आ ा दी, तब रघुनाथ ने जाकर शयन िकया।
रात बीतने पर, मुग का श द कान से सुनकर ल मण उठे । जगत के वामी सुजान राम भी गु
से पहले ही जाग गए॥ 226॥
सब शौचि या करके वे जाकर नहाए। िफर (सं या-अि नहो ािद) िन यकम समा करके
उ ह ने मुिन को म तक नवाया। (पज
ू ा का) समय जानकर, गु क आ ा पाकर दोन भाई फूल
लेने चले।
उ ह ने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभानेवाले
अनेक व ृ लगे ह। रं ग-िबरं गी उ म लताओं के मंडप छाए हए ह।
नव प लव फल सम
ु न सहु ाए। िनज संपित सरु ख लजाए॥
चातक कोिकल क र चकोरा। कूजत िबहग नटत कल मोरा॥
बाग के बीच बीच सुहावना सरोवर सुशोिभत है, िजसम मिणय क सीिढ़याँ िविच ढं ग से बनी ह।
उसका जल िनमल है, िजसम अनेक रं ग के कमल िखले हए ह, जल के प ी कलरव कर रहे ह
और मर गुंजार कर रहे ह।
बाग और सरोवर को देखकर भु राम भाई ल मण सिहत हिषत हए। यह बाग (वा तव म) परम
रमणीय है, जो (जगत को सुख देनेवाले) राम को सुख दे रहा है॥ 227॥
चहँ िदिस िचतइ पूँिछ मालीगन। लगे लेन दल फूल मिु दत मन॥
तेिह अवसर सीता तहँ आई। िग रजा पूजन जनिन पठाई॥
साथ म सब सुंदरी और सयानी सिखयाँ ह, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही ह। सरोवर के पास
िग रजा का मंिदर सुशोिभत है, िजसका वणन नह िकया जा सकता, देखकर मन मोिहत हो
जाता है।
एक सखी सीता का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोन भाइय को
देखा और ेम म िव ल होकर वह सीता के पास आई।
सिखय ने उसक दशा देखी िक उसका शरीर पुलिकत है और ने म जल भरा है। सब कोमल
वाणी से पछ
ू ने लग िक अपनी स नता का कारण बता॥ 228॥
देखन बागु कुअँर दइु आए। बय िकसोर सब भाँित सहु ाए॥
याम गौर िकिम कह बखानी। िगरा अनयन नयन िबनु बानी॥
उसके वचन सीता को अ यंत ही ि य लगे और दशन के िलए उनके ने अकुला उठे । उसी यारी
सखी को आगे करके सीता चल । पुरानी ीित को कोई लख नह पाता।
नारद के वचन का मरण करके सीता के मन म पिव ीित उ प न हई। वे चिकत होकर सब
ओर इस तरह देख रही ह, मानो डरी हई मग
ृ छौनी इधर-उधर देख रही हो॥ 229॥
कंकन िकंिकिन नूपरु धिु न सिु न। कहत लखन सन रामु दयँ गिु न॥
मानहँ मदन ददुं भ
ु ी दी ही। मनसा िब व िबजय कहँ क ही॥
ऐसा कहकर राम ने िफर कर उस ओर देखा। सीता के मुख पी चं मा (को िनहारने) के िलए
उनके ने चकोर बन गए। सुंदर ने ि थर हो गए (टकटक लग गई)। मानो िनिम (जनक के
पवू ज) ने (िजनका सबक पलक म िनवास माना गया है, लड़क -दामाद के िमलन- संग को
देखना उिचत नह , इस भाव से) सकुचाकर पलक छोड़ द , (पलक म रहना छोड़ िदया, िजससे
पलक का िगरना क गया)।
सीता क शोभा देखकर राम ने बड़ा सुख पाया। दय म वे उसक सराहना करते ह, िकंतु मुख
से वचन नह िनकलते। मानो ा ने अपनी सारी िनपुणता को मिू तमान कर संसार को कट
करके िदखा िदया हो।
(इस कार) दय म सीता क शोभा का वणन करके और अपनी दशा को िवचारकर भु राम
पिव मन से अपने छोटे भाई ल मण से समयानुकूल वचन बोले - ॥ 230॥
हे तात! यह वही जनक क क या है, िजसके िलए धनुषय हो रहा है। सिखयाँ इसे गौरी पज
ू न
के िलए ले आई ह। यह फुलवारी म काश करती हई िफर रही है।
िजसक अलौिकक सुंदरता देखकर वभाव से ही पिव मेरा मन ु ध हो गया है। वह सब कारण
(अथवा उसका सब कारण) तो िवधाता जान। िकंतु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दािहने) अंग
फड़क रहे ह।
रघब
ु ंिस ह कर सहज सभ
ु ाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोिह अितसय तीित मन केरी। जेिहं सपनेहँ परना र न हेरी॥
रण म श ु िजनक पीठ नह देख पाते (अथात जो लड़ाई के मैदान से भागते नह ), पराई ि याँ
िजनके मन और ि को नह ख च पात और िभखारी िजनके यहाँ से 'नाह ' नह पाते (खाली
हाथ नह लौटते), ऐसे े पु ष संसार म थोड़े ह।
य राम छोटे भाई से बात कर रहे ह, पर मन सीता के प म लुभाया हआ उनके मुख पी कमल
के छिव प मकरं द रस को भ रे क तरह पी रहा है॥ 231॥
िचतवित चिकत चहँ िदिस सीता। कहँ गए नपृ िकसोर मनु िचंता॥
जहँ िबलोक मग
ृ सावक नैनी। जनु तहँ ब रस कमल िसत न े ी॥
सीता चिकत होकर चार ओर देख रही ह। मन इस बात क िचंता कर रहा है िक राजकुमार कहाँ
चले गए। बालमग ृ के छौने क -सी आँखवाली) सीता जहाँ ि डालती ह, वहाँ मानो
ृ -नयनी (मग
ेत कमल क कतार बरस जाती है।
रघुनाथ क छिव देखकर ने चिकत (िन ल) हो गए। पलक ने भी िगरना छोड़ िदया। अिधक
नेह के कारण शरीर िव ल (बेकाब)ू हो गया। मानो शरद ऋतु के चं मा को चकोरी (बेसुध हई)
देख रही हो।
उसी समय दोन भाई लता मंडप (कंु ज) म से कट हए। मानो दो िनमल चं मा बादल के परदे
को हटाकर िनकले ह ॥ 232॥
सोभा सीवँ सभ
ु ग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख िसर सोहत नीके। गु छ बीच िबच कुसम
ु कली के॥
दोन सुंदर भाई शोभा क सीमा ह। उनके शरीर क आभा नीले और पीले कमल क -सी है। िसर
पर संुदर मोरपंख सुशोिभत ह। उनके बीच-बीच म फूल क किलय के गु छे लगे ह।
माथे पर ितलक और पसीने क बँदू शोभायमान ह। कान म सुंदर भषू ण क छिव छाई है। टेढ़ी
भ ह और घँुघराले बाल ह। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) ने ह।
ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुंदर ह, और हँसी क शोभा मन को मोल िलए लेती है। मुख क छिव
तो मुझसे कही ही नह जाती, िजसे देखकर बहत- से कामदेव लजा जाते ह।
िसंह क -सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीतांबर धारण िकए हए, शोभा और शील के भंडार,
सयू कुल के भषू ण राम को देखकर सिखयाँ अपने आपको भलू गई ं॥ 233॥
एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीता से बोली - िग रजा का यान िफर कर लेना,
इस समय राजकुमार को य नह देख लेत ।
तब सीता ने सकुचाकर ने खोले और रघुकुल के दोन िसंह को अपने सामने (खड़े ) देखा।
नख से िशखा तक राम क शोभा देखकर और िफर िपता का ण याद करके उनका मन बहत
ु ध हो गया।
िशव के धनुष को कठोर जानकर वे िबसरू ती (मन म िवलाप करती) हई दय म राम क साँवली
मिू त को रखकर चल । (िशव के धनुष क कठोरता का मरण आने से उ ह िचंता होती थी िक ये
सुकुमार रघुनाथ उसे कैसे तोड़गे, िपता के ण क मिृ त से उनके दय म ोभ था ही, इसिलए
मन म िवलाप करने लग । ेमवश ऐ य क िव मिृ त हो जाने से ही ऐसा हआ, िफर भगवान के
बल का मरण आते ही वे हिषत हो गई ं और साँवली छिव को दय म धारण करके चल ।) भु
राम ने जब सुख, नेह, शोभा और गुण क खान जानक को जाती हई जाना,
आपका न आिद है, न म य है और न अंत है। आपके असीम भाव को वेद भी नह जानते। आप
संसार को उ प न, पालन और नाश करनेवाली ह। िव को मोिहत करनेवाली और वतं प
से िवहार करनेवाली ह।
- पितदेवता सत
ु ीय महँ मातु थम तव रे ख।
मिहमा अिमत न सकिहं किह सहस सारदा सेष॥ 235॥
सन
ु ु िसय स य असीस हमारी। पूिजिह मन कामना तु हारी॥
नारद बचन सदा सिु च साचा। सो ब िमिलिह जािहं मनु राचा॥
हे सीता! हमारी स ची आसीस सुनो, तु हारी मनःकामना परू ी होगी। नारद का वचन सदा पिव
(संशय, म आिद दोष से रिहत) और स य है। िजसम तु हारा मन अनुर हो गया है, वही वर
तुमको िमलेगा।
सम
ु न पाइ मिु न पूजा क ही। पिु न असीस दहु भाइ ह दी ही॥
सफु ल मनोरथ होहँ तु हारे । रामु लखनु सिु न भय सख
ु ारे ॥
क र भोजनु मिु नबर िब यानी। लगे कहन कछु कथा परु ानी॥
िबगत िदवसु गु आयसु पाई। सं या करन चले दोउ भाई॥
े िव ानी मुिन िव ािम भोजन करके कुछ ाचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने म) िदन बीत
गया और गु क आ ा पाकर दोन भाई सं या करने चले।
(उधर) पवू िदशा म सुंदर चं मा उदय हआ। राम ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख
पाया। िफर मन म िवचार िकया िक यह चं मा सीता के मुख के समान नह है।
खारे समु म तो इसका ज म, िफर (उसी समु से उ प न होने के कारण) िवष इसका भाई;
िदन म यह मिलन (शोभाहीन, िन तेज) रहता है, और कलंक (काले दाग से यु ) है। बेचारा
गरीब चं मा सीता के मुख क बराबरी कैसे पा सकता है?॥ 237॥
िफर यह घटता-बढ़ता है और िवरिहणी ि य को दुःख देनेवाला है; राह अपनी संिध म पाकर इसे
स लेता है। चकवे को (चकवी के िवयोग का) शोक देनेवाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा
देनेवाला) है। हे चं मा! तुझम बहत-से अवगुण ह (जो सीता म नह ह)।
अतः जानक के मुख क तुझे उपमा देने म बड़ा अनुिचत कम करने का दोष लगेगा। इस कार
चं मा के बहाने सीता के मुख क छिव का वणन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गु के पास
चले।
मुिन के चरण कमल म णाम करके, आ ा पाकर उ ह ने िव ाम िकया, रात बीतने पर रघुनाथ
जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे -
नप
ृ सब नखत करिहं उिजआरी। टा र न सकिहं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधक
ु र खग नाना। हरषे सकल िनसा अवसाना॥
सब राजा पी तारे उजाला (मंद काश) करते ह, पर वे धनुष पी महान अंधकार को हटा नह
सकते। राि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भ रे और नाना कार के प ी हिषत हो रहे ह।
भाई के वचन सुनकर भु मुसकराए। िफर वभाव से ही पिव राम ने शौच से िनव ृ होकर
नान िकया और िन यकम करके वे गु के पास आए। आकर उ ह ने गु के संुदर चरण
कमल म िसर नवाया।
शतानंद के चरण क वंदना करके भु राम गु के पास जा बैठे। तब मुिन ने कहा - हे तात!
चलो, जनक ने बुला भेजा है॥ 239॥
चलकर सीता के वयंवर को देखना चािहए। देख ई र िकसको बड़ाई देते ह। ल मण ने कहा -
हे नाथ! िजस पर आपक कृपा होगी, वही बड़ाई का पा होगा (धनुष तोड़ने का ेय उसी को
ा होगा)।
इस े वाणी को सुनकर सब मुिन स न हए। सभी ने सुख मानकर आशीवाद िदया। िफर
मुिनय के समहू सिहत कृपालु राम धनुष य शाला देखने चले।
दोन भाई रं गभिू म म आए ह, ऐसी खबर जब सब नगर िनवािसय ने पाई, तब बालक, जवान,
ू े , ी, पु ष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल िदए।
बढ़
उन सेवक ने कोमल और न वचन कहकर उ म, म यम, नीच और लघु (सभी ेणी के) ी-
पु ष को अपने-अपने यो य थान पर बैठाया॥ 240॥
उसी समय राजकुमार (राम और ल मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर ह) मानो सा ात मनोहरता ही
उनके शरीर पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुण के समु , चतुर और
उ म वीर ह।
महान रणधीर (राजा लोग) राम के प को ऐसा देख रहे ह, मानो वयं वीर रस शरीर धारण
िकए हए ह । कुिटल राजा भु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मिू त हो।
िबदष
ु ह भु िबराटमय दीसा। बह मख
ु कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाित अवलोकिहं कैस। सजन सगे ि य लागिहं जैस॥
जनक समेत रािनयाँ उ ह अपने ब चे के समान देख रही ह, उनक ीित का वणन नह िकया
जा सकता। योिगय को वे शांत, शु , सम और वतः काश परम त व के प म िदखे।
ह र भ ने दोन भाइय को सब सुख के देनेवाले इ देव के समान देखा। सीता िजस भाव से
राम को देख रही ह, वह नेह और सुख तो कहने म ही नह आता।
हँसी, चं मा क िकरण का ितर कार करनेवाली है। भ ह टेढ़ी और नािसका मनोहर है। (ऊँचे)
चौड़े ललाट पर ितलक झलक रहे ह (दीि मान हो रहे ह)। (काले घँुघराले) बाल को देखकर भ र
क पंि याँ भी लजा जाती ह।
पीली चौकोनी टोिपयाँ िसर पर सुशोिभत ह, िजनके बीच-बीच म फूल क किलयाँ बनाई (काढ़ी)
हई ह। शंख के समान सुंदर (गोल) गले म मनोहर तीन रे खाएँ ह, जो मानो तीन लोक क
सुंदरता क सीमा (को बता रही) ह।
दय पर गजमु ाओं के सुंदर कंठे और तुलसी क मालाएँ सुशोिभत ह। उनके कंधे बैल के कंधे
क तरह (ऊँचे तथा पु ) ह, ऐंड़ (खड़े होने क शान) िसंह क -सी है और भुजाएँ िवशाल एवं बल
क भंडार ह॥ 243॥
किट तन
ू ीर पीत पट बाँध। कर सर धनष
ु बाम बर काँध॥
पीत ज य उपबीत सहु ाए। नख िसख मंजु महाछिब छाए॥
कमर म तरकस और पीतांबर बाँधे ह। (दािहने) हाथ म बाण और बाएँ सुंदर कंध पर धनुष तथा
पीले य ोपवीत (जनेऊ) सुशोिभत ह। नख से लेकर िशखा तक सब अंग सुंदर ह, उन पर महान
शोभा छाई हई है।
िवनती करके अपनी कथा सुनाई और मुिन को सारी रं गभिू म (य शाला) िदखलाई। (मुिन के
साथ) दोन े राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते ह, वहाँ-वहाँ सब कोई आ यचिकत हो देखने लगते
ह।
िनज िनज ख रामिह सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु िबसेषा॥
भिल रचना मिु न नप
ृ सन कहेऊ। राजाँ मिु दत महासख
ु लहेऊ॥
सबने राम को अपनी-अपनी ओर ही मुख िकए हए देखा, परं तु इसका कुछ भी िवशेष रह य कोई
नह जान सका। मुिन ने राजा से कहा - रं गभिू म क रचना बड़ी सुंदर है (िव ािम - जैसे
िनः पहृ , िवर और ानी मुिन से रचना क शंसा सुनकर) राजा स न हए और उ ह बड़ा
सुख िमला।
सब मंच से एक मंच अिधक सुंदर, उ वल और िवशाल था। ( वयं) राजा ने मुिन सिहत दोन
भाइय को उस पर बैठाया॥ 244॥
दूसरे राजा, जो अिववेक से अंधे हो रहे थे और अिभमानी थे, यह बात सुनकर बहत हँसे। (उ ह ने
कहा -) धनुष तोड़ने पर भी िववाह होना किठन है (अथात सहज ही म हम जानक को हाथ से
जाने नह दगे), िफर िबना तोड़े तो राजकुमारी को याह ही कौन सकता है।
काल ही य न हो, एक बार तो सीता के िलए उसे भी हम यु म जीत लगे। यह घमंड क बात
सुनकर दूसरे राजा, जो धमा मा, ह रभ और सयाने थे, मुसकराए।
(उ ह ने कहा -) राजाओं के गव दूर करके (जो धनुष िकसी से नह टूट सकेगा उसे तोड़कर)
राम सीता को याहगे। (रही यु क बात, सो) महाराज दशरथ के रण म बाँके पु को यु म तो
जीत ही कौन सकता है॥ 245॥
और रघुनाथ को जगत का िपता (परमे र) िवचारकर, ने भरकर उनक छिव देख लो (ऐसा
अवसर बार-बार नह िमलेगा)। सुंदर, सुख देनेवाले और सम त गुण क रािश ये दोन भाई िशव
के दय म बसनेवाले ह ( वयं िशव भी िज ह सदा दय म िछपाए रखते ह, वे तु हारे ने के
सामने आ गए ह)।
सध
ु ा समु समीप िबहाई। मग
ृ जलु िनरिख मरह कत धाई॥
करह जाइ जा कहँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥
ऐसा कहकर अ छे राजा ेम म न होकर राम का अनुपम प देखने लगे। (मनु य क तो बात
ही या) देवता लोग भी आकाश से िवमान पर चढ़े हए दशन कर रहे ह और सुंदर गान करते
हए फूल बरसा रहे ह।
- जािन सअ
ु वस सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतरु सख संदु र सकल सादर चल लवाइ॥ 246॥
तब सुअवसर जानकर जनक ने सीता को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सिखयाँ आरदपवू क
उ ह िलवा चल ॥ 246॥
सीता के वणन म उ ह उपमाओं को देकर कौन कुकिव कहलाए और अपयश का भागी बने
(अथात सीता के िलए उन उपमाओं का योग करना सुकिव के पद से युत होना और अपक ित
मोल लेना है, कोई भी सुकिव ऐसी नादानी एवं अनुिचत काय नह करे गा।) यिद िकसी ी के
साथ सीता क तुलना क जाए तो जगत म ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ (िजसक उपमा उ ह दी
जाए)।
िगरा मख
ु र तन अरध भवानी। रित अित दिु खत अतनु पित जानी॥
िबष बा नी बंधु ि य जेही। किहअ रमासम िकिम बैदहे ी॥
(िजन ल मी क बात ऊपर कही गई है, वे िनकली थ खारे समु से, िजसको मथने के िलए
भगवान ने अित ककश पीठवाले क छप का प धारण िकया, र सी बनाई गई महान िवषधर
वासुिक नाग क , मथानी का काय िकया अितशय कठोर मंदराचल पवत ने और उसे मथा सारे
देवताओं और दै य ने िमलकर। िजन ल मी को अितशय शोभा क खान और अनुपम सुंदरी
कहते ह, उनको कट करने म हे तु बने ये सब असुंदर एवं वाभािवक ही कठोर उपकरण। ऐसे
उपकरण से कट हई ल मी जानक क समता को कैसे पा सकती ह। हाँ, इसके िवपरीत) यिद
छिव पी अमतृ का समु हो, परम पमय क छप हो, शोभा प र सी हो, ंग ृ ार (रस) पवत हो
और (उस छिव के समु को) वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे,
सयानी सिखयाँ सीता को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हई चल । सीता के नवल शरीर
पर सुंदर साड़ी सुशोिभत है। जग जननी क महान छिव अतुलनीय है।
भूषन सकल सदु स े सहु ाए। अंग अंग रिच सिख ह बनाए॥
रं गभूिम जब िसय पगु धारी। देिख प मोहे नर नारी॥
सीता चिकत िच से राम को देखने लग , तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीता ने मुिन
के पास (बैठे हए) दोन भाइय को देखा तो उनके ने अपना खजाना पाकर ललचाकर वह
(राम म) जा लगे (ि थर हो गए)।
परं तु गु जन क लाज से तथा बहत बड़े समाज को देखकर सीता सकुचा गई ं। वे राम को दय
म लाकर सिखय क ओर देखने लग ॥ 248॥
राम का प और सीता क छिव देखकर ी-पु ष ने पलक झपकाना छोड़ िदया (सब एकटक
उ ह को देखने लगे)। सभी अपने मन म सोचते ह, पर कहते सकुचाते ह। मन-ही-मन वे िवधाता
से िवनय करते ह-
ह िबिध बेिग जनक जड़ताई। मित हमा र अिस देिह सहु ाई॥
िबनु िबचार पनु तिज नरनाह। सीय राम कर करै िबबाह॥
संसार उ ह भला कहे गा, य िक यह बात सब िकसी को अ छी लगती है। हठ करने से अंत म भी
दय जलेगा। सब लोग इसी लालसा म म न हो रहे ह िक जानक के यो य वर तो यह साँवला ही
है।
तब राजा जनक ने वंदीजन (भाट ) को बुलाया। वे िव दावली (वंश क क ित) गाते हए चले
आए। राजा ने कहा - जाकर मेरा ण सबसे कहो। भाट चले, उनके दय म कम आनंद न था।
राजाओं क भुजाओं का बल चं मा है, िशव का धनुष राह है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको
िविदत है। बड़े भारी यो ा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर ग से (चुपके से) चलते
बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक क िह मत न हई)।
उसी िशव के कठोर धनुष को आज इस राज समाज म जो भी तोड़े गा, तीन लोक क िवजय के
साथ ही उसको जानक िबना िकसी िवचार के हठपवू क वरण करगी।
ण सुनकर सब राजा ललचा उठे । जो वीरता के अिभमानी थे, वे मन म बहत ही तमतमाए। कमर
कसकर अकुलाकर उठे और अपने इ देव को िसर नवाकर चले।
तमिक तािक तिक िसवधनु धरह । उठइ न कोिट भाँित बलु करह ॥
िज ह के कछु िबचा मन माह । चाप समीप महीप न जाह ॥
वे तमककर (बड़े ताव से) िशव के धनुष क ओर देखते ह और िफर िनगाह जमाकर उसे पकड़ते
ह, करोड़ भाँित से जोर लगाते ह, पर वह उठता ही नह । िजन राजाओं के मन म कुछ िववेक है,
वे तो धनुष के पास ही नह जाते।
वे मख
ू राजा तमककर (िकटिकटाकर) धनुष को पकड़ते ह, परं तु जब नह उठता तो लजाकर
चले जाते ह, मानो वीर क भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अिधक-अिधक भारी होता जाता है॥
250॥
तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नह टलता। िशव का
वह धनुष कैसे नह िडगता था, जैसे कामी पु ष के वचन से सती का मन (कभी) चलायमान
नह होता।
सब राजा उपहास के यो य हो गए, जैसे वैरा य के िबना सं यासी उपहास के यो य हो जाता है।
क ित, िवजय, बड़ी वीरता - इन सबको वे धनुष के हाथ बरबस हारकर चले गए।
मने जो ण ठाना था, उसे सुनकर ीप- ीप के अनेक राजा आए। देवता और दै य भी मनु य
का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहत-से रणधीर वीर आए।
परं तु धनुष को तोड़कर मनोहर क या, बड़ी िवजय और अ यंत सुंदर क ित को पानेवाला मानो
ा ने िकसी को रचा ही नह ॥ 251॥
किहए, यह लाभ िकसको अ छा नह लगता, परं तु िकसी ने भी शंकर का धनुष नह चढ़ाया। अरे
भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई ितल भर भिू म भी छुड़ा न सका।
अब कोई वीरता का अिभमानी नाराज न हो। मने जान िलया, प ृ वी वीर से खाली हो गई है। अब
आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ा ने सीता का िववाह िलखा ही नह ।
सक
ु ृ तु जाइ ज पनु प रहरऊँ। कुअँ र कुआ र रहउ का करऊँ॥
ज जनतेउँ िबनु भट भिु ब भाई। तौ पनु क र होतेउँ न हँसाई॥
यिद ण छोड़ता हँ, तो पु य जाता है, इसिलए या क ँ , क या कँु आरी ही रहे । यिद म जानता
िक प ृ वी वीर से शू य है, तो ण करके उपहास का पा न बनता।
जनक के वचन सुनकर सभी ी-पु ष जानक क ओर देखकर दुःखी हए, परं तु ल मण
तमतमा उठे , उनक भ ह टेढ़ी हो गई ं, ओठ फड़कने लगे और ने ोध से लाल हो गए।
रघब
ु ंिस ह महँ जहँ कोउ होई। तेिहं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जिस अनिु चत बानी। िब मान रघक ु ु लमिन जानी॥
रघुवंिशय म कोई भी जहाँ होता है, उस समाज म ऐसे वचन कोई नह कहता, जैसे अनुिचत वचन
रघुकुल िशरोमिण राम को उपि थत जानते हए भी जनक ने कहे ह।
सन
ु ह भानकु ु ल पंकज भानू। कहउँ सभ
ु ाउ न कछु अिभमानू॥
ज तु हा र अनस ु ासन पाव । कंदक
ु इव ांड उठाव ॥
ू कुल पी कमल के सय
हे सय ू ! सुिनए, म वभाव ही से कहता हँ, कुछ अिभमान करके नह ,
यिद आपक आ ा पाऊँ, तो म ांड को गद क तरह उठा लँ।ू
हे नाथ! आपके ताप के बल से धनुष को कुकुरमु े (बरसाती छ े) क तरह तोड़ दँू। यिद ऐसा
न क ँ तो भु के चरण क शपथ है, िफर म धनुष और तरकस को कभी हाथ म भी न लँग ू ा॥
253॥
गरु रघप
ु ित सब मिु न मन माह । मिु दत भए पिु न पिु न पल
ु काह ॥
सयनिहं रघप े समेत िनकट बैठारे ॥
ु ित लखनु नेवारे । म
िव ािम शुभ समय जानकर अ यंत ेमभरी वाणी बोले - हे राम! उठो, िशव का धनुष तोड़ो और
हे तात! जनक का संताप िमटाओ।
राजाओं क आशा पी राि न हो गई। उनके वचन पी तार के समहू का चमकना बंद हो
गया। (वे मौन हो गए)। अिभमानी राजा पी कुमुद संकुिचत हो गए और कपटी राजा पी उ लू
िछप गए।
मुिन और देवता पी चकवे शोकरिहत हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा कट कर रहे ह। ेम
सिहत गु के चरण क वंदना करके राम ने मुिनय से आ ा माँगी।
सम त जगत के वामी राम सुंदर मतवाले े हाथी क -सी चाल से वाभािवक ही चले। राम के
चलते ही नगर भर के सब ी-पु ष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए।
रावण और बाणासुर ने िजस धनुष को छुआ तक नह और सब राजा घमंड करके हार गए, वही
धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ म दे रहे ह। हंस के ब चे भी कह मंदराचल पहाड़ उठा
सकते ह?
भूप सयानप सकल िसरानी। सिख िबिध गित कछु जाित न जानी॥
बोली चतरु सखी मदृ ु बानी। तेजवंत लघु गिनअ न रानी॥
(और तो कोई समझाकर कहे या नह , राजा तो बड़े समझदार और ानी ह, उ ह तो गु को
समझाने क चे ा करनी चािहए थी, परं तु मालमू होता है) राजा का भी सारा सयानापन समा
हो गया। हे सखी! िवधाता क गित कुछ जानने म नह आती (य कहकर रानी चुप हो रह )। तब
एक चतुर (राम के मह व को जाननेवाली) सखी कोमल वाणी से बोली - हे रानी! तेजवान को
(देखने म छोटा होने पर भी) छोटा नह िगनना चािहए।
कहाँ घड़े से उ प न होनेवाले (छोटे-से) मुिन अग य और कहाँ समु ? िकंतु उ ह ने उसे सोख
िलया, िजसका सुयश सारे संसार म छाया हआ है। सय ू मंडल देखने म छोटा लगता है, पर उसके
उदय होते ही तीन लोक का अंधकार भाग जाता है।
िजसके वश म ा, िव णु, िशव और सभी देवता ह, वह मं अ यंत छोटा होता है। महान मतवाले
गजराज को छोटा-सा अंकुश वश म कर लेता है॥ 256॥
सखी के वचन सुनकर रानी को (राम के साम य के संबंध म) िव ास हो गया। उनक उदासी
िमट गई और राम के ित उनका ेम अ यंत बढ़ गया। उस समय राम को देखकर सीता भयभीत
दय से िजस-ितस (देवता) से िवनती कर रही ह।
वे याकुल होकर मन-ही-मन मना रही ह - हे महे श-भवानी! मुझ पर स न होइए, मने आपक
जो सेवा क है, उसे सुफल क िजए और मुझ पर नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीिजए।
गननायक बर दायक देवा। आजु लग क ि हउँ तअ ु सेवा॥
बार बार िबनती सिु न मोरी। करह चाप गु ता अित थोरी॥
हे गण के नायक, वर देनेवाले देवता गणेश! मने आज ही के िलए तु हारी सेवा क थी। बार-बार
मेरी िवनती सुनकर धनुष का भारीपन बहत ही कम कर दीिजए।
अ छी तरह ने भरकर राम क शोभा देखकर, िफर िपता के ण का मरण करके सीता का
मन ु ध हो उठा। (वे मन-ही-मन कहने लग -) अहो! िपता ने बड़ा ही किठन हठ ठाना है, वे
लाभ-हािन कुछ भी नह समझ रहे ह।
तुम अपनी जड़ता लोग पर डालकर, रघुनाथ (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) ह के
हो जाओ। इस कार सीता के मन म बड़ा ही संताप हो रहा है। िनमेष का एक लव (अंश) भी सौ
युग के समान बीत रहा है।
- भिु ह िचतइ पिु न िचतव मिह राजत लोचन लोल।
खेलत मनिसज मीन जुग जनु िबधु मंडल डोल॥ 258॥
िगरा अिलिन मख
ु पंकज रोक । गट न लाज िनसा अवलोक ॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैस परम कृपन कर सोना॥
सीता क वाणी पी मरी को उनके मुख पी कमल ने रोक रखा है। लाज पी राि को देखकर
वह कट नह हो रही है। ने का जल ने के कोने (कोये) म ही रह जाता है। जैसे बड़े भारी
कंजस
ू का सोना कोने म ही गड़ा रह जाता है।
तो सबके दय म िनवास करनेवाले भगवान मुझे रघु े राम क दासी अव य बनाएँ गे। िजसका
िजस पर स चा नेह होता है, वह उसे िमलता ही है, इसम कुछ भी संदेह नह है।
हे िद गजो! हे क छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर प ृ वी को थामे रहो, िजससे यह िहलने न
पाए। राम िशव के धनुष को तोड़ना चाहते ह। मेरी आ ा सुनकर सब सावधान हो जाओ।
संभच
ु ाप बड़ बोिहतु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहबल िसंधु अपा । चहत पा निहं कोउ कड़हा ॥
उ ह ने जानक को बहत ही िवकल देखा। उनका एक-एक ण क प के समान बीत रहा था।
यिद यासा आदमी पानी के िबना शरीर छोड़ दे , तो उसके मर जाने पर अमत
ृ का तालाब भी या
करे गा?
का बरषा सब कृषी सख
ु ान। समय चकु पिु न का पिछतान॥
ु के लिख ीित िबसेषी॥
अस िजयँ जािन जानक देखी। भु पल
सारी खेती के सख
ू जाने पर वषा िकस काम क ? समय बीत जाने पर िफर पछताने से या
लाभ? जी म ऐसा समझकर राम ने जानक क ओर देखा और उनका िवशेष ेम लखकर वे
पुलिकत हो गए।
मन-ही-मन उ ह ने गु को णाम िकया और बड़ी फुत से धनुष को उठा िलया। जब उसे (हाथ
म) िलया, तब वह धनुष िबजली क तरह चमका और िफर आकाश म मंडल-जैसा (मंडलाकार)
हो गया।
लेते, चढ़ाते और जोर से ख चते हए िकसी ने नह लखा (अथात ये तीन काम इतनी फुत से हए
िक धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब ख चा, इसका िकसी को पता नह लगा); सबने
राम को (धनुष ख चे) खड़े देखा। उसी ण राम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर
विन से (सब) लोक भर गए।
छं ० - भरे भव
ु न घोर कठोर रव रिब बािज तिज मारगु चले।
िच करिहं िद गज डोल मिह अिह कोल कू म कलमले॥
सरु असरु मिु न कर कान दी ह सकल िबकल िबचारह ।
कोदंड खंडउे राम तल ु सी जयित बचन उचारह ॥
घोर, कठोर श द से (सब) लोक भर गए, सय ू के घोड़े माग छोड़कर चलने लगे। िद गज
िच घाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और क छप कलमला उठे । देवता, रा स और
मुिन कान पर हाथ रखकर सब याकुल होकर िवचारने लगे। तुलसीदास कहते ह; (जब सब को
िन य हो गया िक) राम ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब 'राम क जय' बोलने लगे।
िशव का धनुष जहाज है और राम क भुजाओं का बल समु है। (धनुष टूटने से) वह सारा समाज
डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था। (िजसका वणन ऊपर आया है)॥ 261॥
राम पी पण
ू चं को देखकर पुलकावली पी भारी लहर बढ़ने लग । आकाश म बड़े जोर से
नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएँ गान करके नाचने लग ।
सारे ांड म जय-जयकार क विन छा गई, िजसम धनुष टूटने क विन जान ही नह पड़ती।
जहाँ-तहाँ ी-पु ष स न होकर कह रहे ह िक राम ने िशव के भारी धनुष को तोड़ डाला।
झाँिझ मदृ ग
ं संख सहनाई। भे र ढोल ददुं भ
ु ी सहु ाई॥
बाजिहं बह बाजने सहु ाए। जहँ तहँ जुबित ह मंगल गाए॥
झाँझ, मदृ ंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आिद बहत कार के सुंदर बाजे बज
रहे ह। जहाँ-तहाँ युवितयाँ मंगल गीत गा रही ह।
सिख ह सिहत हरषी अित रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सख
ु ु सोचु िबहाई। पैरत थक थाह जनु पाई॥
धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसेहीन (िन तेज) हो गए, जैसे िदन म दीपक क शोभा जाती
रहती है। सीता का सुख िकस कार वणन िकया जाए, जैसे चातक वाती का जल पा गई हो।
राम को ल मण िकस कार देख रहे ह, जैसे चं मा को चकोर का ब चा देख रहा हो। तब
शतानंद ने आ ा दी और सीता ने राम के पास गमन िकया।
साथ म सुंदर चतुर सिखयाँ मंगलाचार के गीत गा रही ह, सीता बालहंिसनी क चाल से चल ।
उनके अंग म अपार शोभा है॥ 263॥
सिखय के बीच म सीता कैसी शोिभत हो रही ह, जैसे बहत-सी छिवय के बीच म महाछिव हो।
करकमल म सुंदर जयमाला है, िजसम िव िवजय क शोभा छाई हई है।
सीता के शरीर म संकोच है, पर मन म परम उ साह है। उनका यह गु ेम िकसी को जान नह
पड़ रहा है। समीप जाकर, राम क शोभा देखकर राजकुमारी सीता जैसे िच म िलखी-सी रह
गई ं।
चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा - सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर
सीता ने दोन हाथ से माला उठाई, पर ेम म िववश होने से पहनाई नह जाती।
सो० - रघब
ु र उर जयमाल देिख देव ब रसिहं सम
ु न।
सकुचे सकल भआ ु ल जनु िबलोिक रिब कुमदु गन॥ 264॥
मिहं पाताल नाक जसु यापा। राम बरी िसय भंजउे चापा॥
करिहं आरती परु नर नारी। देिहं िनछाव र िब िबसारी॥
प ृ वी, पाताल और वग तीन लोक म यश फै ल गया िक राम ने धनुष तोड़ िदया और सीता का
वरण कर िलया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे ह और अपनी पँजू ी (हैिसयत) को भुलाकर
(साम य से बहत अिधक) िनछावर कर रहे ह।
कोई कहते ह, सीता को छीन लो और दोन राजकुमार को पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़ने से ही
चाह नह सरे गी (परू ी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन याह सकता है?
यिद जनक कुछ सहायता कर, तो यु म दोन भाइय सिहत उसे भी जीत लो। ये वचन
सन
ु कर साधु राजा बोले - इस (िनल ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई।
अरे ! तु हारा बल, ताप, वीरता, बड़ाई और नाक ( ित ा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही
वीरता थी िक अब कह से िमली है? ऐसी दु बुि है, तभी तो िवधाता ने तु हारे मुख पर
कािलख लगा दी।
जैसे ग ड़ का भाग कौआ चाहे , िसंह का भाग खरगोश चाहे , िबना कारण ही ोध करनेवाला
अपनी कुशल चाहे , िशव से िवरोध करनेवाला सब कार क संपि चाहे ,
लोभी लोलपु कल क रित चहई। अकलंकता िक कामी लहई॥
ह र पद िबमखु परम गित चाहा। तस तु हार लालचु नरनाहा॥
लोभी-लालची सुंदर क ित चाहे , कामी मनु य िन कलंकता (चाहे तो) या पा सकता है? और
जैसे ह र के चरण से िवमुख मनु य परमगित (मो ) चाहे , हे राजाओ! सीता के िलए तु हारा
लालच भी वैसा ही यथ है।
रािनय सिहत सीता (दु राजाओं के दुवचन सुनकर) सोच के वश ह िक न जाने िवधाता अब
या करनेवाले ह। राजाओं के वचन सुनकर ल मण इधर-उधर ताकते ह, िकंतु राम के डर से
कुछ बोल नह सकते।
- अ न नयन भक
ृ ु टी कुिटल िचतवत नप
ृ ह सकोप।
मनहँ म गजगन िनरिख िसंघिकसोरिह चोप॥ 267॥
इ ह देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (िछप) गए ह । गोरे
शरीर पर िवभिू त (भ म) बड़ी फब रही है और िवशाल ललाट पर ि पुंड िवशेष शोभा दे रहा है।
सीस जटा सिसबदनु सहु ावा। रस बस कछुक अ न होइ आवा॥
भक
ृ ु टी कुिटल नयन रस राते। सहजहँ िचतवत मनहँ रसाते॥
िसर पर जटा है, सुंदर मुखचं ोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भ ह टेढ़ी और आँख ोध
से लाल ह। सहज ही देखते ह, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो ोध कर रहे ह।
बष
ृ भ कंध उर बाह िबसाला। चा जनेउ माल मग ृ छाला॥
किट मिु नबसन तनू दइु बाँध। धनु सर कर कुठा कल काँध॥
बैल के समान (ऊँचे और पु ) कंधे ह; छाती और भुजाएँ िवशाल ह। सुंदर य ोपवीत धारण िकए,
माला पहने और मगृ चम िलए ह। कमर म मुिनय का व (व कल) और दो तरकस बाँधे ह। हाथ
म धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण िकए ह।
शांत वेष है, परं तु करनी बहत कठोर ह; व प का वणन नह िकया जा सकता। मानो वीर रस
ही मुिन का शरीर धारण करके, जहाँ सब राजा लोग ह, वहाँ आ गया हो॥ 268॥
देखत भगृ प
ु ित बेषु कराला। उठे सकल भय िबकल भआ
ु ला॥
िपतु समेत किह किह िनज नामा। लगे करन सब दंड नामा॥
जेिह सभ
ु ायँ िचतविहं िहतु जानी। सो जानइ जनु आइ खटु ानी॥
जनक बहो र आइ िस नावा। सीय बोलाइ नामु करावा॥
परशुराम िहत समझकर भी सहज ही िजसक ओर देख लेते ह, वह समझता है मानो मेरी आयु
परू ी हो गई। िफर जनक ने आकर िसर नवाया और सीता को बुलाकर णाम कराया।
परशुराम ने सीता को आशीवाद िदया। सिखयाँ हिषत हई ं और (वहाँ अब अिधक देर ठहरना ठीक
न समझकर) वे सयानी सिखयाँ उनको अपनी मंडली म ले गई ं। िफर िव ािम आकर िमले और
उ ह ने दोन भाइय को उनके चरण कमल पर िगराया।
(िव ािम ने कहा -) ये राम और ल मण राजा दशरथ के पु ह। उनक सुंदर जोड़ी देखकर
परशुराम ने आशीवाद िदया। कामदेव के भी मद को छुड़ानेवाले राम के अपार प को देखकर
उनके ने चिकत ( तंिभत) हो रहे ।
िजस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन
सुनकर परशुराम ने िफरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े प ृ वी पर पड़े हए िदखाई िदए।
अ यंत ोध म भरकर वे कठोर वचन बोले - रे मख ू जनक! बता, धनुष िकसने तोड़ा? उसे शी
िदखा, नह तो अरे मढ़
ू ! आज म जहाँ तक तेरा रा य है, वहाँ तक क प ृ वी उलट दँूगा।
राजा को अ यंत डर लगा, िजसके कारण वे उ र नह देते। यह देखकर कुिटल राजा मन म बड़े
स न हए। देवता, मुिन, नाग और नगर के ी-पु ष सभी सोच करने लगे, सबके दय म बड़ा
भय है।
सीता क माता मन म पछता रही ह िक हाय! िवधाता ने अब बनी-बनाई बात िबगाड़ दी। परशुराम
का वभाव सुनकर सीता को आधा ण भी क प के समान बीतने लगा।
हे नाथ! िशव के धनुष को तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा। या आ ा है, मुझसे य
नह कहते? यह सुनकर ोधी मुिन रसाकर बोले -
सेवक वह है जो सेवा का काम करे । श ु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चािहए। हे राम!
सुनो, िजसने िशव के धनुष को तोड़ा है, वह सह बाह के समान मेरा श ु है।
वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नह तो सभी राजा मारे जाएँ गे। मुिन के वचन सुनकर
ल मण मुसकराए और परशुराम का अपमान करते हए बोले -
हे गोसाई!ं लड़कपन म हमने बहत-सी धनुिहयाँ तोड़ डाल । िकंतु आपने ऐसा ोध कभी नह
िकया। इसी धनुष पर इतनी ममता िकस कारण से है? यह सुनकर भग ृ ुवंश क वजा व प
परशुराम कुिपत होकर कहने लगे।
- रे नप
ृ बालक काल बस बोलत तोिह न सँभार।
धनहु ी सम ितपरु ा र धनु िबिदत सकल संसार॥ 271॥
अरे राजपु ! काल के वश होने से तुझे बोलने म कुछ भी होश नह है। सारे संसार म िव यात
िशव का यह धनुष या धनुही के समान है?॥ 271॥
ल मण ने हँसकर कहा - हे देव! सुिनए, हमारे जान म तो सभी धनुष एक-से ही ह। पुराने धनुष
के तोड़ने म या हािन-लाभ! राम ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था।
छुअत टूट रघप
ु ितह न दोसू। मिु न िबनु काज क रअ कत रोसू॥
बोले िचतइ परसु क ओरा। रे सठ सन ु िे ह सभ
ु ाउ न मोरा॥
िफर यह तो छूते ही टूट गया, इसम रघुनाथ का भी कोई दोष नह है। मुिन! आप िबना ही कारण
िकसिलए ोध करते ह? परशुराम अपने फरसे क ओर देखकर बोले - अरे दु ! तन ू े मेरा
वभाव नह सुना।
भज
ु बल भूिम भूप िबनु क ही। िबपलु बार मिहदेव ह दी ही॥
सहसबाह भज ु छेदिनहारा। परसु िबलोकु महीपकुमारा॥
अरे राजा के बालक! तू अपने माता-िपता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है,
यह गभ के ब च का भी नाश करनेवाला है॥ 272॥
िबहिस लखनु बोले मदृ ु बानी। अहो मनु ीसु महा भटमानी॥
पिु न पिु न मोिह देखाव कुठा । चहत उड़ावन फूँिक पहा ॥
ल मण हँसकर कोमल वाणी से बोले - अहो, मुनी र तो अपने को बड़ा भारी यो ा समझते ह।
बार-बार मुझे कु हाड़ी िदखाते ह। फँ ू क से पहाड़ उड़ाना चाहते ह।
यहाँ कोई कु हड़े क बितया (छोटा क चा फल) नह है, जो तजनी (सबसे आगे क ) अंगुली को
देखते ही मर जाती ह। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मने कुछ अिभमान सिहत कहा था।
भग
ृ सु त
ु समिु झ जनेउ िबलोक । जो कछु कहह सहउँ रस रोक ॥
सरु मिहसरु ह रजन अ गाई। हमर कुल इ ह पर न सरु ाई॥
भग
ृ ुवंशी समझकर और य ोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते ह, उसे म ोध को रोककर
सह लेता हँ। देवता, ा ण, भगवान के भ और गौ - इन पर हमारे कुल म वीरता नह िदखाई
जाती।
य िक इ ह मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपक ित होती है, इसिलए आप मार
तो भी आपके पैर ही पड़ना चािहए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ व के समान है। धनुष-
बाण और कुठार तो आप यथ ही धारण करते ह।
इ ह (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मने कुछ अनुिचत कहा हो, तो उसे हे धीर महामुिन!
मा क िजए। यह सुनकर भगृ ुवंशमिण परशुराम ोध के साथ गंभीर वाणी बोले - ॥ 273॥
हे िव ािम ! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुि और कुिटल है, काल के वश होकर यह अपने कुल
का घातक बन रहा है। यह सयू वंश पी पणू चं का कलंक है। यह िब कुल उ ं ड, मख
ू और िनडर
है।
अभी ण भर म यह काल का ास हो जाएगा। म पुकारकर कहे देता हँ, िफर मुझे दोष नह है।
यिद तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा ताप, बल और ोध बतलाकर इसे मना कर दो।
ल मण ने कहा - हे मुिन! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वणन कर सकता है? आपने
अपने ही मँुह से अपनी करनी अनेक बार बहत कार से वणन क है।
शरू वीर तो यु म करनी (शरू वीरता का काय) करते ह, कहकर अपने को नह जनाते। श ु को
यु म उपि थत पाकर कायर ही अपने ताप क ड ग मारा करते ह॥ 274॥
आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे िलए बुलाते ह। ल मण के कठोर वचन
सुनते ही परशुराम ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ म ले िलया।
(और बोले -) अब लोग मुझे दोष न द। यह कड़वा बोलनेवाला बालक मारे जाने के ही यो य है।
इसे बालक देखकर मने बहत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।
िव ािम ने कहा - अपराध मा क िजए। बालक के दोष और गुण को साधु लोग नह िगनते।
(परशुराम बोले -) तीखी धार का कुठार, म दयारिहत और ोधी, और यह गु ोही और अपराधी
मेरे सामने।
उ र दे रहा है। इतने पर भी म इसे िबना मारे छोड़ रहा हँ, सो हे िव ािम ! केवल तु हारे शील
( ेम) से। नह तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही प र म से गु से उऋण हो जाता।
वह मानो हमारे ही म थे काढ़ा था। बहत िदन बीत गए, इससे याज भी बहत बढ़ गया होगा। अब
िकसी िहसाब करनेवाले को बुला लाइए, तो म तुरंत थैली खोलकर दे दँू।
सिु न कटु बचन कुठार सध ु ारा। हाय हाय सब सभा पकु ारा॥
भग
ृ ब ु र परसु देखावह मोही। िब िबचा र बचउँ नप
ृ दोही॥
ल मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने कुठार स हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार
ृ ु े ! आप मुझे फरसा िदखा रहे ह? पर हे राजाओं के श ु! म
उठी। (ल मण ने कहा -) हे भग
ा ण समझकर बचा रहा हँ (तरह दे रहा हँ)।
बालक यिद कुछ चपलता भी करते ह, तो गु , िपता और माता मन म आनंद से भर जाते ह। अतः
इसे छोटा ब चा और सेवक जानकर कृपा क िजए। आप तो समदश , सुशील, धीर और ानी मुिन
ह।
राम के वचन सुनकर वे कुछ ठं डे पड़े । इतने म ल मण कुछ कहकर िफर मुसकरा िदए। उनको
हँसते देखकर परशुराम के नख से िशखा तक (सारे शरीर म) ोध छा गया। उ ह ने कहा - हे
राम! तेरा भाई बड़ा पापी है।
यह शरीर से गोरा, पर दय का बड़ा काला है। यह िवषमुख है, दुधमँुहा नह । वभाव ही टेढ़ा है,
तेरा अनुसरण नह करता (तेरे-जैसा शीलवान नह है)। यह नीच मुझे काल के समान नह
देखता।
हे मुिनराज! म आपका दास हँ। अब ोध यागकर दया क िजए। टूटा हआ धनुष ोध करने से
जुड़ नह जाएगा। खड़े -खड़े पैर दुःखने लगे ह गे, बैठ जाइए।
जनकपुर के ी-पु ष थर-थर काँप रहे ह (और मन-ही-मन कह रहे ह िक) छोटा कुमार बड़ा ही
खोटा है। ल मण क िनभय वाणी सुन-सुनकर परशुराम का शरीर ोध से जला जा रहा है और
उनके बल क हािन हो रही है (उनका बल घट रहा है)।
तब राम पर एहसान जनाकर परशुराम बोले - तेरा छोटा भाई समझकर म इसे बचा रहा हँ। यह
मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे िवष के रस से भरा हआ सोने का घड़ा!
राम दोन हाथ जोड़कर अ यंत िवनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले - हे नाथ! सुिनए,
आप तो वभाव से ही सुजान ह। आप बालक के वचन पर कान न क िजए (उसे सुना-अनसुना
कर दीिजए)।
बर और बालक का एक वभाव है। संतजन इ ह कभी दोष नह लगाते। िफर उसने (ल मण ने)
तो कुछ काम भी नह िबगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो म हँ।
मुिन ने कहा - हे राम! ोध कैसे जाए; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसक गदन
पर मने कुठार न चलाया, तो ोध करके िकया ही या?
मेरे िजस कुठार क घोर करनी सुनकर राजाओं क ि य के गभ िगर पड़ते ह, उसी फरसे के
रहते म इस श ु राजपु को जीिवत देख रहा हँ॥ 279॥
हाथ चलता नह , ोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी कंु िठत
हो गया। िवधाता िवपरीत हो गया, इससे मेरा वभाव बदल गया, नह तो भला, मेरे दय म िकसी
समय भी कृपा कैसी?
आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर ल मण ने मुसकराकर िसर नवाया (और
कहा -) आपक कृपा पी वायु भी आपक मिू त के अनुकूल ही है, वचन बोलते ह, मानो फूल झड़
रहे ह।
हे मुिन! यिद कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो ोध होने पर तो शरीर क र ा
ू बालक हठ करके यमपुरी म घर
िवधाता ही करगे। (परशुराम ने कहा -) हे जनक! देख, यह मख
(िनवास) करना चाहता है।
तब परशुराम दय म अ यंत ोध भरकर राम से बोले - अरे शठ! तू िशव का धनुष तोड़कर
उलटा हम को ान िसखाता है॥ 280॥
तेरा यह भाई तेरी ही स मित से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर िवनय करता है।
या तो यु म मेरा संतोष कर, नह तो राम कहलाना छोड़ दे।
अरे िशव ोही! छल यागकर मुझसे यु कर। नह तो भाई सिहत तुझे मार डालँगू ा। इस कार
परशुराम कुठार उठाए बक रहे ह और राम िसर झुकाए मन-ही-मन मुसकरा रहे ह।
राम ने ( कट) कहा - हे मुनी र! ोध छोिड़ए। आपके हाथ म कुठार है और मेरा यह िसर आगे
है, िजस कार आपका ोध जाए, हे वामी! वही क िजए। मुझे अपना अनुचर (दास) जािनए।
आपको कुठार, बाण और धनुष धारण िकए देखकर और वीर समझकर बालक को ोध आ गया।
वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नह । अपने वंश (रघुवंश) के वभाव
के अनुसार उसने उ र िदया।
यिद आप मुिन क तरह आते, तो हे वामी! बालक आपके चरण क धिू ल िसर पर रखता।
अनजाने क भल ू को मा कर दीिजए। ा ण के दय म बहत अिधक दया होनी चािहए।
हे नाथ! हमारी और आपक बराबरी कैसी? किहए न, कहाँ चरण और कहाँ म तक! कहाँ मेरा
राम मा छोटा-सा नाम और कहाँ आपका परशुसिहत बड़ा नाम।
देव एकु गन
ु ु धनष
ु हमार। नव गन
ु परम पन
ु ीत तु हार॥
सब कार हम तु ह सन हारे । छमह िब अपराध हमारे ॥
हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पिव (शम, दम, तप, शौच, मा,
सरलता, ान, िव ान और आि तकता - ये) नौ गुण ह। हम तो सब कार से आपसे हारे ह। हे
िव ! हमारे अपराध को मा क िजए।
तू मुझे िनरा ा ण ही समझता है? म जैसा िव हँ, तुझे सुनाता हँ। धनुष को ुवा, बाण को
आहित और मेरे ोध को अ यंत भयंकर अि न जान।
सिमिध सेन चतरु ं ग सहु ाई। महा महीप भए पसु आई॥
म एिहं परसु कािट बिल दी हे। समर ज य जप कोिट ह क हे॥
चतुरंिगणी सेना सुंदर सिमधाएँ (य म जलाई जानेवाली लकिड़याँ) ह। बड़े -बड़े राजा उसम
आकर बिल के पशु हए ह, िजनको मने इसी फरसे से काटकर बिल िदया है। ऐसे करोड़ जपयु
रणय मने िकए ह (अथात जैसे मं ो चारण पवू क ' वाहा' श द के साथ आहित दी जाती है, उसी
कार मने पुकार-पुकार कर राजाओं क बिल दी है)।
राम कहा मिु न कहह िबचारी। रस अित बिड़ लघु चूक हमारी॥
छुअतिहं टूट िपनाक परु ाना। म केिह हेतु कर अिभमाना॥
- ज हम िनदरिहं िब बिद स य सन ु ह भग
ृ न
ु ाथ।
तौ अस को जग सभ ु टु जेिह भय बस नाविहं माथ॥ 283॥
हे भग
ृ ुनाथ! यिद हम सचमुच ा ण कहकर िनरादर करते ह, तो यह स य सुिनए, िफर संसार म
ऐसा कौन यो ा है, िजसे हम डर के मारे म तक नवाएँ ?॥ 283॥
देव दनज
ु भूपित भट नाना। समबल अिधक होउ बलवाना॥
ज रन हमिह पचारै कोऊ। लरिहं सख े कालु िकन होऊ॥
ु न
िब बंस कै अिस भत
ु ाई। अभय होइ जो तु हिह डेराई॥
ु ित के। उघरे पटल परसध
सिु न मदृ ु गूढ़ बचन रघप ु र मित के॥
ा णवंश क ऐसी ही भुता (मिहमा) है िक जो आपसे डरता है, वह सबसे िनभय हो जाता है
(अथवा जो भयरिहत होता है, वह भी आपसे डरता है) रघुनाथ के कोमल और रह यपण
ू वचन
सुनकर परशुराम क बुि के परदे खुल गए।
तब उ ह ने राम का भाव जाना, (िजसके कारण) उनका शरीर पुलिकत और फुि लत हो गया।
वे हाथ जोड़कर वचन बोले - ेम उनके दय म समाता न था - ॥ 284॥
हे रघुकुल पी कमल वन के सय
ू ! हे रा स के कुल पी घने जंगल को जलानेवाले अि न!
आपक जय हो! हे देवता, ा ण और गौ का िहत करनेवाले! आपक जय हो। हे मद, मोह, ोध
और म के हरनेवाले! आपक जय हो।
हे िवनय, शील, कृपा आिद गुण के समु और वचन क रचना म अ यंत चतुर! आपक जय हो।
हे सेवक को सुख देनेवाले, सब अंग से सुंदर और शरीर म करोड़ कामदेव क छिव धारण
करनेवाले! आपक जय हो।
हे रघुकुल के पताका व प राम! आपक जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के
िलए वन को चले गए। (यह देखकर) दु राजा लोग िबना ही कारण के (मनःकि पत) डर से
(राम से तो परशुराम भी हार गए, हमने इनका अपमान िकया था, अब कह ये उसका बदला न
ल, इस यथ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए।
- देव ह दी ह ददुं भ
ु भु पर बरषिहं फूल।
हरषे परु नर ना र सब िमटी मोहमय सूल॥ 285॥
देवताओं ने नगाड़े बजाए, वे भु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के ी-पु ष सब हिषत हो
गए। उनका मोहमय (अ ान से उ प न) शल ू िमट गया॥ 285॥
खबू जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल-साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर ने वाली
तथा कोयल के समान मधुर बोलनेवाली ि याँ झंुड-क -झंुड िमलकर संुदर गान करने लग ।
जनक ने िव ािम को णाम िकया (और कहा -) भु ही क कृपा से राम ने धनुष तोड़ा है।
दोन भाइय ने मुझे कृताथ कर िदया। हे वामी! अब जो उिचत हो सो किहए।
कह मिु न सन
ु ु नरनाथ बीना। रहा िबबाह चाप आधीना॥
टूटतह धनु भयउ िबबाह। सरु नर नाग िबिदत सब काह॥
मुिन ने कहा - हे चतुर नरे श! सुनो य तो िववाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही िववाह हो
गया। देवता, मनु य और नाग सब िकसी को यह मालम ू है।
- तदिप जाइ तु ह करह अब जथा बंस यवहा ।
बूिझ िब कुलब ृ गरु बेद िबिदत आचा ॥ 286॥
जाकर अयो या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लाएँ । राजा ने स न होकर कहा - हे
कृपालु! बहत अ छा! और उसी समय दूत को बुलाकर भेज िदया।
िफर सब महाजन को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपवू क िसर नवाया। (राजा ने कहा
-) बाजार, रा ते, घर, देवालय और सारे नगर को चार ओर से सजाओ।
हरिष चले िनज िनज गहृ आए। पिु न प रचारक बोिल पठाए॥
रचह िबिच िबतान बनाई। िसर ध र बचन चले सचु पाई॥
महाजन स न होकर चले और अपने-अपने घर आए। िफर राजा ने नौकर को बुला भेजा (और
उ ह आ ा दी िक) िविच मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन िसर पर
धरकर और सुख पाकर चले।
हरी-हरी मिणय (प ने) के प े और फल बनाए तथा प राग मिणय (मािणक) के फूल बनाए।
मंडप क अ यंत िविच रचना देखकर ा का मन भी भल
ू गया॥ 287॥
उसी नागबेली के रचकर और प चीकारी करके बंधन (बाँधने क र सी) बनाए। बीच-बीच म
मोितय क सुंदर झालर ह। मािणक, प ने, हीरे और िफरोजे, इन र न को चीरकर, कोरकर और
प चीकारी करके, इनके (लाल, हरे , सफेद और फ रोजी रं ग के) कमल बनाए।
िकए भंग
ृ बहरं ग िबहंगा। गंज
ु िहं कूजिहं पवन संगा॥
सरु ितमा खंभन गिढ़ काढ़ । मंगल य िलएँ सब ठाढ़ ॥
नील मिण को कोरकर अ यंत सुंदर आम के प े बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रे शम
क डोरी से बँधे हए प ने के बने फल के गु छे सुशोिभत ह॥ 288॥
ऐसे सुंदर और उ म बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए ह । अनेक मंगल-कलश और
सुंदर वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए।
िजस मंडप म प और गुण के समु राम दू हे ह गे, वह मंडप तीन लोक म िस होना ही
चािहए। जनक के महल क जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के येक घर क िदखाई देती है।
उस समय िजसने ितरहत को देखा, उसे चौदह भुवन तु छ जान पड़े । जनकपुर म नीच के घर भी
उस समय जो संपदा सुशोिभत थी, उसे देखकर इं भी मोिहत हो जाता था।
पहँचे दूत राम परु पावन। हरषे नगर िबलोिक सहु ावन॥
भूप ार ित ह खब र जनाई। दसरथ नप ृ सिु न िलए बोलाई॥
जनक के दूत राम क पिव पुरी अयो या म पहँचे। सुंदर नगर देखकर वे हिषत हए। राज ार पर
जाकर उ ह ने खबर भेजी, राजा दशरथ ने सुनकर उ ह बुला िलया।
दूत ने णाम करके िच ी दी। स न होकर राजा ने वयं उठकर उसे िलया। िच ी बाँचते समय
उनके ने म जल ( ेम और आनंद के आँस)ू छा गया, शरीर पुलिकत हो गया और छाती भर
आई।
दय म राम और ल मण ह, हाथ म सुंदर िच ी है, राजा उसे हाथ म िलए ही रह गए, ख ी-मीठी
कुछ भी कह न सके। िफर धीरज धरकर उ ह ने पि का पढ़ी। सारी सभा स ची बात सुनकर
हिषत हो गई।
भरत अपने िम और भाई श ु न के साथ जहाँ खेलते थे, वह समाचार पाकर वे आ गए। बहत
ेम से सकुचाते हए पछ
ू ते ह - िपताजी! िच ी कहाँ से आई है?
हमारे ाण से यारे दोन भाई, किहए सकुशल तो ह और वे िकस देश म ह? नेह से सने ये
वचन सुनकर राजा ने िफर से िच ी पढ़ी॥ 290॥
िच ी सुनकर दोन भाई पुलिकत हो गए। नेह इतना अिधक हो गया िक वह शरीर म समाता
नह । भरत का पिव ेम देखकर सारी सभा ने िवशेष सुख पाया।
तब राजा दूत को पास बैठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बाले - भैया! कहो, दोन ब चे
कुशल से तो ह? तुमने अपनी आँख से उ ह अ छी तरह देखा है न?
साँवले और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण िकए रहते ह, िकशोर अव था है,
िव ािम मुिन के साथ ह। तुम उनको पहचानते हो तो उनका वभाव बताओ। राजा ेम के
िवशेष वश होने से बार-बार इस कार कह (पछू ) रहे ह।
(भैया!) िजस िदन से मुिन उ ह िलवा ले गए, तब से आज ही हमने स ची खबर पाई है। कहो तो
महाराज जनक ने उ ह कैसे पहचाना? ये ि य ( ेम भरे ) वचन सुनकर दूत मुसकराए।
- सन
ु ह महीपित मक
ु ु ट मिन तु ह सम ध य न कोउ।
रामु लखनु िज ह के तनय िब व िबभूषन दोउ॥ 291॥
(दूत ने कहा -) हे राजाओं के मुकुटमिण! सुिनए, आपके समान ध य और कोई नह है, िजनके
राम-ल मण जैसे पु ह, जो दोन िव के िवभषू ण ह॥ 291॥
परं तु िशव के धनुष को कोई भी नह हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीन लोक म जो
वीरता के अिभमानी थे, िशव के धनुष ने सबक शि तोड़ दी।
बाणासुर भी, जो सुमे को भी उठा सकता था, भी दय म हारकर प र मा करके चला गया और
िजसने खेल से ही कैलास को उठा िलया था, वह रावण भी उस सभा म पराजय को ा हआ।
हे महाराज! सुिनए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे यो ा हार मान गए) रघुवंशमिण राम ने िबना ही यास
िशव के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल क डं डी को तोड़ डालता है!॥ 292॥
सिु न सरोष भग
ृ न
ु ायकु आए। बहत भाँित ित ह आँिख देखाए॥
देिख राम बलु िनज धनु दी हा। क र बह िबनय गवनु बन क हा॥
हे राजन! जैसे राम अतुलनीय बली ह, वैसे ही तेज िनधान िफर ल मण भी ह, िजनके देखने मा
से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी िसंह के ब चे के ताकने से काँप उठते ह।
हे देव! आपके दोन बालक को देखने के बाद अब आँख के नीचे कोई आता ही नह (हमारी
ि पर कोई चढ़ता ही नह )। ेम, ताप और वीर-रस म पगी हई दूत क वचन रचना सबको
बहत ि य लगी।
वैसे ही सुख और संपि िबना ही बुलाए वाभािवक ही धमा मा पु ष के पास जाती है। तुम जैसे
गु , ा ण, गाय और देवता क सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पिव कौस यादेवी भी ह।
सक
ु ृ ती तु ह समान जग माह । भयउ न है कोउ होनेउ नाह ॥
तु ह ते अिधक पु य बड़ काक। राजन राम स रस सत
ु जाक॥
और िजसके चार बालक वीर, िवन , धम का त धारण करनेवाले और गुण के सुंदर समु ह।
तु हारे िलए सभी काल म क याण है। अतएव डं का बजवाकर बारात सजाओ।
और ज दी चलो। गु जी के ऐसे वचन सुनकर, ‘हे नाथ! बहत अ छा’ कहकर और िसर नवाकर
तथा दूत को डे रा िदलवाकर राजा महल म गए॥ 294॥
ेम म फुि लत हई रािनयाँ ऐसी सुशोिभत हो रही ह, जैसे मोरनी बादल क गरज सुनकर
फुि लत होती ह। बड़ी-बढ़
ू ी (अथवा गु ओं क ) ि याँ स न होकर आशीवाद दे रही ह। माताएँ
अ यंत आनंद म म न ह।
य कहते हए वे अनेक कार के संुदर व पहन-पहनकर चले। आनंिदत होकर नगाड़े वाल ने
बड़े जोर से नगाड़ पर चोट लगाई। सब लोग ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने
लगे।
भव
ु न चा रदस भरा उछाह। जनकसत ु ा रघब
ु ीर िबआह॥
सिु न सभ
ु कथा लोग अनरु ागे। मग गहृ गल सँवारन लागे॥
चौदह लोक म उ साह भर गया िक जानक और रघुनाथ का िववाह होगा। यह शुभ समाचार
पाकर लोग ेमम न हो गए और रा ते, घर तथा गिलयाँ सजाने लगे।
य िप अयो या सदा सुहावनी है, य िक वह राम क मंगलमयी पिव पुरी है, तथािप ीित-पर-
ीित होने से वह सुंदर मंगल रचना से सजाई गई।
जहँ तहँ जूथ जूथ िमिल भािमिन। सिज नव स सकल दिु त दािमिन॥
िबधबु दन मग ृ सावक लोचिन। िनज स प रित मानु िबमोचिन॥
मनोहर वाणी से मंगल गीत गा रही ह, िजनके संुदर वर को सुनकर कोयल भी लजा जाती ह।
राजमहल का वणन कैसे िकया जाए, जहाँ िव को िवमोिहत करनेवाला मंडप बनाया गया है।
अनेक कार के मनोहर मांगिलक पदाथ शोिभत हो रहे ह और बहत-से नगाड़े बज रहे ह। कह
भाट िव दावली (कुलक ित) का उ चारण कर रहे ह और कह ा ण वेद विन कर रहे ह।
संुदरी ि याँ राम और सीता का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही ह। उ साह बहत है और महल
अ यंत ही छोटा है। इससे (उसम न समाकर) मानो वह उ साह (आनंद) चार ओर उमड़ चला है।
दशरथ के महल क शोभा का वणन कौन किव कर सकता है, जहाँ सम त देवताओं के
िशरोमिण राम ने अवतार िलया है॥ 297॥
िफर राजा ने भरत को बुला िलया और कहा िक जाकर घोड़े , हाथी और रथ सजाओ, ज दी राम
क बारात म चलो। यह सुनते ही दोन भाई (भरत और श ु न) आनंदवश पुलक से भर गए।
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दी ह मिु दत उिठ धाए॥
रिच िच जीन तरु ग ित ह साजे। बरन बरन बर बािज िबराजे॥
सभ
ु ग सकल सिु ठ चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाित न जािहं बखाने। िनद र पवनु जनु चहत उड़ाने॥
सब घोड़े बड़े ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के ह। वे धरती पर ऐसे पैर रखते ह जैसे जलते
हए लोहे पर रखते ह । अनेक जाित के घोड़े ह, िजनका वणन नह हो सकता। (ऐसी तेज चाल के
ह) मानो हवा का िनरादर करके उड़ना चाहते ह।
उन सब घोड़ पर भरत के समान अव थावाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हए। वे सभी संुदर
ह और सब आभषू ण धारण िकए हए ह। उनके हाथ म बाण और धनुष ह तथा कमर म भारी
तरकस बँधे ह।
सभी चुने हए छबीले छैल, शरू वीर, चतुर और नवयुवक ह। येक सवार के साथ दो पैदल िसपाही
ह, जो तलवार चलाने क कला म बड़े िनपुण ह॥ 298॥
शरू ता का बाना धारण िकए हए रणधीर वीर सब िनकलकर नगर के बाहर आ खड़े हए। वे चतुर
अपने घोड़ को तरह-तरह क चाल से फेर रहे ह और भेरी तथा नगाड़े क आवाज सुन-सुनकर
स न हो रहे ह।
सारिथय ने वजा, पताका, मिण और आभषू ण को लगाकर रथ को बहत िवल ण बना िदया है।
ू के रथ
उनम सुंदर चँवर लगे ह और घंिटयाँ सुंदर श द कर रही ह। वे रथ इतने सुंदर ह, मानो सय
क शोभा को छीने लेते ह।
अगिणत यामवण घोड़े थे। उनको सारिथय ने उन रथ म जोत िदया है, जो सभी देखने म सुंदर
और गहन से सजाए हए सुशोिभत ह और िज ह देखकर मुिनय के मन भी मोिहत हो जाते ह।
रथ पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो िजस काम के िलए जाता है, सभी को
सुंदर शकुन होते ह॥ 299॥
े हािथय पर सुंदर अंबा रयाँ पड़ी ह। वे िजस कार सजाई गई थ , सो कहा नह जा सकता।
मतवाले हाथी घंट से सुशोिभत होकर (घंटे बजाते हए) चले, मानो सावन के सुंदर बादल के
समहू (गरजते हए) जा रहे ह ।
संुदर पालिकयाँ, सुख से बैठने यो य तामजान (जो कुस नुमा होते ह) और रथ आिद और भी
अनेक कार क सवा रयाँ ह। उन पर े ा ण के समहू चढ़कर चले, मानो सब वेद के छं द
ही शरीर धारण िकए हए ह ।
मागध सूत बंिद गनु गायक। चले जान चिढ़ जो जेिह लायक॥
बेसर ऊँट बष
ृ भ बह जाती। चले ब तु भ र अगिनत भाँती॥
मागध, सत
ू , भाट और गुण गानेवाले सब, जो िजस यो य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहत
जाितय के ख चर, ऊँट और बैल असं य कार क व तुएँ लाद-लादकर चले।
कोिट ह काँव र चले कहारा। िबिबध ब तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समदु ाई। िनज िनज साजु समाजु बनाई॥
कहार करोड़ काँवर लेकर चले। उनम अनेक कार क इतनी व तुएँ थ िक िजनका वणन
कौन कर सकता है। सब सेवक के समहू अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले।
- सब क उर िनभर हरषु पू रत पल
ु क सरीर।
कबिहं देिखबे नयन भ र रामु लखनु दोउ बीर॥ 300॥
हाथी गरज रहे ह, उनके घंट क भीषण विन हो रही है। चार ओर रथ क घरघराहट और घोड़
क िहनिहनाहट हो रही है। बादल का िनरादर करते हए नगाड़े घोर श द कर रहे ह। िकसी को
अपनी-पराई कोई बात कान से सुनाई नह देती।
राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है िक वहाँ प थर फका जाए तो वह भी
िपसकर धलू हो जाए। अटा रय पर चढ़ी ि याँ मंगल-थाल म आरती िलए देख रही ह।
और नाना कार के मनोहर गीत गा रही ह। उनके अ यंत आनंद का बखान नह हो सकता। तब
ू के घोड़ को भी मात करनेवाले घोड़े जोते।
सुमं ने दो रथ सजाकर उनम सय
दोउ रथ िचर भूप पिहं आने। निहं सारद पिहं जािहं बखाने॥
राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पंज
ु अित ाजा॥
दोन सुंदर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, िजनक सुंदरता का वणन सर वती से भी नह
हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुंज और अ यंत ही
शोभायमान था,
उस सुंदर रथ पर राजा विश को हषपवू क चढ़ाकर िफर वयं िशव, गु , गौरी (पावती) और
गणेश का मरण करके (दूसरे ) रथ पर चढ़े ॥ 301॥
विश के साथ (जाते हए) राजा दशरथ कैसे शोिभत हो रहे ह, जैसे देव गु बहृ पित के साथ
इं ह । वेद क िविध से और कुल क रीित के अनुसार सब काय करके तथा सबको सब कार से
सजे देखकर,
राम का मरण करके, गु क आ ा पाकर प ृ वी पित दशरथ शंख बजाकर चले। बारात
देखकर देवता हिषत हए और सुंदर मंगलदायक फूल क वषा करने लगे।
बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश म और बारात म (दोन जगह) बाजे
बजने लगे। देवांगनाएँ और मनु य क ि याँ सुंदर मंगलगान करने लग और रसीले राग से
शहनाइयाँ बजने लग ।
बारात ऐसी बनी है िक उसका वणन करते नह बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे ह।
नीलकंठ प ी बाई ं ओर चारा ले रहा है, मानो संपण
ू मंगल क सच
ू ना दे रहा हो।
दािहनी ओर कौआ सुंदर खेत म शोभा पा रहा है। नेवले का दशन भी सब िकसी ने पाया। तीन
कार क (शीतल, मंद, सुगंिधत) हवा अनुकूल िदशा म चल रही है। े (सुहािगनी) ि याँ भरे
हए घड़े और गोद म बालक िलए आ रही ह।
लोमड़ी िफर-िफरकर (बार-बार) िदखाई दे जाती है। गाएँ सामने खड़ी बछड़ को दूध िपलाती ह।
ह रन क टोली (बाई ं ओर से) घम
ू कर दािहनी ओर को आई, मानो सभी मंगल का समहू िदखाई
िदया।
ेमकरी (सफेद िसरवाली चील) िवशेष प से ेम (क याण) कह रही है। यामा बाई ं ओर सुंदर
पेड़ पर िदखाई पड़ी। दही, मछली और दो िव ान ा ण हाथ म पु तक िलए हए सामने आए।
मंगल सगनु सग
ु म सब ताक। सगन ु संदु र सत
ु जाक॥
राम स रस ब दलु िहिन सीता। समधी दसरथु जनकु पन ु ीता॥
वयं सगुण िजसके सुंदर पु ह, उसके िलए सब मंगल शकुन सुलभ ह। जहाँ राम-सरीखे
दू हा और सीता-जैसी दुलिहन ह तथा दशरथ और जनक-जैसे पिव समधी ह,
ऐसा याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे -) अब ा ने हमको स चा कर
िदया। इस तरह बारात ने थान िकया। घोड़े , हाथी गरज रहे ह और नगाड़ पर चोट लग रही है।
सय ू वंश के पताका व प दशरथ को आते हए जानकर जनक ने निदय पर पुल बँधवा िदए।
बीच-बीच म ठहरने के िलए सुंदर घर (पड़ाव) बनवा िदए, िजनम देवलोक के समान संपदा छाई
है,
बड़े जोर से बजते हए नगाड़ क आवाज सुनकर े बारात को आती हई जानकर अगवानी
करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥ 304॥
(दूध, शबत, ठं ढाई, जल आिद से) भरकर सोने के कलश तथा िजनका वणन नह हो सकता ऐसे
अमत ृ के समान भाँित-भाँित के सब पकवान से भरे हए परात, थाल आिद अनेक कार के सुंदर
बतन,
उ म फल तथा और भी अनेक सुंदर व तुएँ राजा ने हिषत होकर भट के िलए भेज । गहने,
कपड़े , नाना कार क मू यवान मिणयाँ (र न), प ी, पशु, घोड़े , हाथी और बहत तरह क
सवा रयाँ,
मंगल सगन ु सगु ंध सहु ाए। बहत भाँित मिहपाल पठाए॥
दिध िचउरा उपहार अपारा। भ र भ र काँव र चले कहारा॥
तथा बहत कार के सुगंिधत एवं सुहावने मंगल- य और शगुन के पदाथ राजा ने भेजे। दही,
िचउड़ा और अगिणत उपहार क चीज काँवर म भर-भरकर कहार चले।
अगवानी करने वाल को जब बारात िदखाई दी, तब उनके दय म आनंद छा गया और शरीर
रोमांच से भर गया। अगवान को सज-धज के साथ देखकर बाराितय ने स न होकर नगाड़े
बजाए।
(बाराती तथा अगवान म से) कुछ लोग पर पर िमलने के िलए हष के मारे बाग छोड़कर
(सरपट) दौड़ चले, और ऐसे िमले मानो आनंद के दो समु मयादा छोड़कर िमलते ह ॥ 305॥
बरिष सम
ु न सरु संदु र गाविहं। मिु दत देव ददुं भ
ु बजाविहं॥
ब तु सकल राख नप ृ आग। िबनय क ि ह ित ह अित अनरु ाग॥
देवसुंद रयाँ फूल बरसाकर गीत गा रही ह, और देवता आनंिदत होकर नगाड़े बजा रहे ह।
(अगवानी म आए हए) उन लोग ने सब चीज दशरथ के आगे रख द और अ यंत ेम से िवनती
क।
सीता क आ ा सुनकर सब िसि याँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी संपदा, सुख और इं पुरी के
भोग-िवलास को िलए हए गई ं॥ 306॥
प ृ वीपित दशरथ ने मुिन क चरणधिू ल को बारं बार िसर पर चढ़ाकर उनको दंडवत- णाम िकया।
िव ािम ने राजा को उठाकर दय से लगा िलया और आशीवाद देकर कुशल पछ ू ी।
िफर दोन भाइय को दंडवत- णाम करते देखकर राजा के दय म सुख समाया नह । पु को
(उठाकर) दय से लगाकर उ ह ने अपने (िवयोगजिनत) दुःसह दुःख को िमटाया। मानो मत
ृ क
शरीर को ाण िमल गए ह ।
भरत सहानज
ु क ह नामा। िलए उठाइ लाइ उर रामा॥
े प रपू रत गाता॥
हरषे लखन देिख दोउ ाता। िमले म
भरत ने छोटे भाई श ु न सिहत राम को णाम िकया। राम ने उ ह उठाकर दय से लगा िलया।
ल मण दोन भाइय को देखकर हिषत हए और ेम से प रपण ू हए शरीर से उनसे िमले।
तदनंतर परम कृपालु और िवनयी राम अयो यावािसय , कुटुंिबय , जाित के लोग , याचक ,
मंि य और िम - सभी से यथायो य िमले॥ 308॥
सत
ु ह समेत दसरथिह देखी। मिु दत नगर नर ना र िबसेषी॥
समु न ब रिस सरु हनिहं िनसाना। नाकनट नाचिहं क र गाना॥
बारात ल न के िदन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर म अिधक आनंद छा रहा है। सब लोग
ानंद ा कर रहे ह और िवधाता से मनाकर कहते ह िक िदन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ )।
जनक के सुकृत (पु य) क मिू त जानक ह और दशरथ के सुकृत देह धारण िकए हए राम ह।
इन (दोन राजाओं) के समान िकसी ने िशव क आराधना नह क ; और न इनके समान िकसी
ने फल ही पाए।
और िज ह ने जानक और राम क छिव देखी है। हमारे -सरीखा िवशेष पु या मा कौन होगा! और
अब हम रघुनाथ का िववाह देखगे और भली-भाँित ने का लाभ लगे।
कोयल के समान मधुर बोलनेवाली ि याँ आपस म कहती ह िक हे सुंदर ने वाली! इस िववाह
म बड़ा लाभ है। बड़े भा य से िवधाता ने सब बात बना दी है, ये दोन भाई हमारे ने के अितिथ
हआ करगे।
जनक नेहवश बार-बार सीता को बुलावगे और करोड़ कामदेव के समान सुंदर दोन भाई
सीता को लेने (िवदा कराने) आया करगे॥ 310॥
तब उनक अनेक कार से पहनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल िकसे यारी न होगी! तब-तब
हम सब नगर िनवासी राम-ल मण को देख-देखकर सुखी ह गे।
एक ने कहा - मने आज ही उ ह देखा है; इतने सुंदर ह, मानो ा ने उ ह अपने हाथ सँवारा है।
भरत तो राम क ही शकल-सरू त के ह। ी-पु ष उ ह सहसा पहचान नह सकते।
लखनु स स
ु ूदनु एक पा। नख िसख ते सब अंग अनूपा॥
मन भाविहं मख
ु बरिन न जाह । उपमा कहँ ि भव
ु न कोउ नाह ॥
दास तुलसी कहता है किव और कोिवद (िव ान) कहते ह, इनक उपमा कह कोई नह है। बल,
िवनय, िव ा, शील और शोभा के समु इनके समान ये ही ह। जनकपुर क सब ि याँ आँचल
फै लाकर िवधाता को यह वचन (िवनती) सुनाती ह िक चार भाइय का िववाह इसी नगर म हो
और हम सब सुंदर मंगल गाएँ ।
राम का िनमल और महान यश कहते हए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस कार कुछ िदन
बीत गए। जनकपुर िनवासी और बाराती सभी बड़े आनंिदत ह।
मंगल मूल लगन िदनु आवा। िहम रतु अगहनु मासु सहु ावा॥
ह ितिथ नखतु जोगु बर बा । लगन सोिध िबिध क ह िबचा ॥
मंगल का मल
ू ल न का िदन आ गया। हे मंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ह,
ितिथ, न , योग और वार े थे। ल न (मुहत) शोधकर ा ने उस पर िवचार िकया,
पठै दीि ह नारद सन सोई। गनी जनक के गनक ह जोई॥
सन
ु ी सकल लोग ह यह बाता। कहिहं जोितषी आिहं िबधाता॥
- धेनध
ु ू र बेला िबमल सकल सम
ु ंगल मूल।
िब ह कहेउ िबदेह सन जािन सगन ु अनकु ू ल॥ 312॥
शंख, नगाड़े , ढोल और बहत-से बाजे बजने लगे तथा मंगल-कलश और शुभ शकुन क व तुएँ
(दिध, दूवा आिद) सजाई गई ं। सुंदर सुहािगन ि याँ गीत गा रही ह और पिव ा ण वेद क
विन कर रहे ह।
सब लोग इस कार आदरपवू क बारात को लेने चले और जहाँ बाराितय का जनवासा था, वहाँ
गए। अवधपित दशरथ का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इं भी बहत ही तु छ लगने
लगे।
(उ ह ने जाकर िवनती क -) समय हो गया, अब पधा रए। यह सुनते ही नगाड़ पर चोट पड़ी।
गु विश से पछ ू कर और कुल क सब रीितय को करके राजा दशरथ मुिनय और साधुओ ं के
समाज को साथ लेकर चले।
सरु ह सम
ु ंगल अवस जाना। बरषिहं सम ु न बजाइ िनसाना॥
िसव ािदक िबबध
ु ब था। चढ़े िबमानि ह नाना जूथा॥
देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते ह। िशव, ा आिद
देववंदृ यथ
ू (टोिलयाँ) बना-बनाकर िवमान पर जा चढ़े ।
े पल
म ु क तन दयँ उछाह। चले िबलोकन राम िबआह॥
देिख जनकपु सरु अनरु ागे। िनज िनज लोक सबिहं लघु लागे॥
िविच मंडप को तथा नाना कार क सब अलौिकक रचनाओं को वे चिकत होकर देख रहे ह।
नगर के ी-पु ष प के भंडार, सुघड़, े धमा मा, सुशील और सुजान ह।
िजनका नाम लेते ही जगत म सारे अमंगल क जड़ कट जाती है और चार पदाथ (अथ, धम,
काम, मो ) मु ी म आ जाते ह, ये वही (जगत के माता-िपता) सीताराम ह, काम के श ु िशव ने
ऐसा कहा।
इस कार िशव ने देवताओं को समझाया और िफर अपने े बैल नंदी र को आगे बढ़ाया।
देवताओं ने देखा िक दशरथ मन म बड़े ही स न और शरीर से पुलिकत हए चले जा रहे ह।
उनके साथ (परम हषयु ) साधुओ ं और ा ण क मंडली ऐसी शोभा दे रही है, मानो सम त
सुख शरीर धारण करके उनक सेवा कर रहे ह । चार संुदर पु साथ म ऐसे सुशोिभत ह, मानो
संपण
ू मो (सालो य, सामी य, सा य, सायु य) शरीर धारण िकए हए ह ।
- राम पु नख िसख सभ
ु ग बारिहं बार िनहा र।
पलु क गात लोचन सजल उमा समेत परु ा र॥ 315॥
केिक कंठ दिु त यामल अंगा। तिड़त िबिनंदक बसन सरु ं गा॥
याह िबभूषन िबिबध बनाए। मंगल सब सब भाँित सहु ाए॥
राम का मोर के कंठ क -सी कांितवाला (ह रताभ) याम शरीर है। िबजली का अ यंत िनरादर
करनेवाले काशमय सुंदर (पीत) रं ग के व ह। सब मंगल प और सब कार के सुंदर भाँित-
भाँित के िववाह के आभषू ण शरीर पर सजाए हए ह।
सरद िबमल िबधु बदनु सहु ावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौिकक संदु रताई। किह न जाइ मनह मन भाई॥
उनका सुंदर मुख शर पिू णमा के िनमल चं मा के समान और (मनोहर) ने नवीन कमल को
लजानेवाले ह। सारी सुंदरता अलौिकक है। (माया क बनी नह है, िद य सि चदानंदमयी है) वह
कह नह जा सकती, मन-ही-मन बहत ि य लगती है।
साथ म मनोहर भाई शोिभत ह, जो चंचल घोड़ को नचाते हए चले जा रहे ह। राजकुमार े
घोड़ को (उनक चाल को) िदखला रहे ह और वंश क शंसा करनेवाले (मागध-भाट)
िव दावली सुना रहे ह।
िजस घोड़े पर राम िवराजमान ह, उसक (तेज) चाल देखकर ग ड़ भी लजा जाते ह, उसका
वणन नह हो सकता, वह सब कार से संुदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर
िलया हो।
मानो राम के िलए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अ यंत शोिभत हो रहा है। वह अपनी अव था,
बल, प, गुण और चाल से सम त लोक को मोिहत कर रहा है। सुंदर मोती, मिण और मािण य
लगी हई जड़ाऊ जीन योित से जगमगा रहा है। उसक संुदर घँुघ लगी लिलत लगाम को
देखकर देवता, मनु य और मुिन सभी ठगे जाते ह।
भु क इ छा म अपने मन को लीन िकए चलता हआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो
तारागण तथा िबजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥ 316॥
िजस े घोड़े पर राम सवार ह, उसका वणन सर वती भी नह कर सकत । शंकर राम के प
म ऐसे अनुर हए िक उ ह अपने पं ह ने इस समय बहत ही यारे लगने लगे।
िबधब
ु दन सब सब मग ृ लोचिन। सब िनज तन छिब रित मदु मोचिन॥
पिहर बरन बरन बर चीरा। सकल िबभूषन सज सरीरा॥
अनेक कार के बाजे बज रहे ह, आकाश और नगर दोन थान म सुंदर मंगलाचार हो रहे ह।
शची (इं ाणी), सर वती, ल मी, पावती और जो वभाव से ही पिव और सयानी देवांगनाएँ थ ,
राम का वर वेश देखकर सीता क माता सुनयना के मन म जो सुख हआ, उसे हजार सर वती
और शेष सौ क प म भी नह कह सकते (अथवा लाख सर वती और शेष लाख क प म भी
नह कह सकते)॥ 318॥
पंचश द (तं ी, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही - इन पाँच कार के बाज के श द), पंच विन
(वेद विन, वंिद विन, जय विन, शंख विन और हलू विन) और मंगलगान हो रहे ह। नाना कार
के व के पाँवड़े पड़ रहे ह। उ ह ने (रानी ने) आरती करके अ य िदया, तब राम ने मंडप म
गमन िकया।
दशरथ अपनी मंडली सिहत िवराजमान हए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए।
समय-समय पर देवता फूल बरसाते ह और भदू ेव ा ण समयानुकूल शांित-पाठ करते ह।
आकाश और नगर म शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नह सुनता। इस कार राम
मंडप म आए और अ य देकर आसन पर बैठाए गए।
आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर ि याँ सुख पा रही ह। वे ढे र के ढे र मिण,
व और गहने िनछावर करके मंगल गा रही ह। ा आिद े देवता ा ण का वेश बनाकर
कौतुक देख रहे ह। वे रघुकुल पी कमल को फुि लत करनेवाले सय
ू राम क छिव देखकर
अपना जीवन सफल जान रहे ह।
नाई, बारी, भाट और नट राम क िनछावर पाकर आनंिदत हो िसर नवाकर आशीष देते ह, उनके
दय म हष समाता नह है॥ 319॥
वैिदक और लौिकक सब रीितयाँ करके जनक और दशरथ बड़े ेम से िमले। दोन िमलते हए बड़े
ही शोिभत हए, किव उनके िलए उपमा खोज-खोजकर लजा गए।
देव िगरा सिु न संदु र साँची। ीित अलौिकक दहु िदिस माची॥
देत पाँवड़े अरघु सहु ाए। सादर जनकु मंडपिहं याए॥
देवताओं क सुंदर स यवाणी सुनकर दोन ओर अलौिकक ीित छा गई। सुंदर पाँवड़े और अ य
देते हए जनक दशरथ को आदरपवू क मंडप म ले आए।
राजा जनक ने दान, मान-स मान, िवनय और उ म वाणी से सारी बारात का स मान िकया।
ा, िव णु, िशव, िद पाल और सय
ू जो रघुनाथ का भाव जानते ह,
वे कपट से ा ण का सुंदर वेश बनाए बहत ही सुख पाते हए सब लीला देख रहे थे। जनक ने
उनको देवताओं के समान जानकर उनका पज ू न िकया और िबना पिहचाने भी उ ह सुंदर आसन
िदए।
कौन िकसको जाने-पिहचाने! सबको अपनी ही सुध भलू ी हई है। आनंदकंद दूलह को देखकर
दोन ओर आनंदमयी ि थित हो रही है। सुजान (सव ) राम ने देवताओं को पहचान िलया और
उनक मानिसक पज ू ा करके उ ह मानिसक आसन िदए। भु का शील- वभाव देखकर देवगण
मन म बहत आनंिदत हए।
- रामचं मख
ु चं छिब लोचन चा चकोर।
करत पान सादर सकल म े ु मोदु न थोर॥ 321॥
समय देखकर विश ने शतानंद को आदरपवू क बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। विश
ने कहा - अब जाकर राजकुमारी को शी ले आइए। मुिन क आ ा पाकर वे स न होकर चले।
संुदर मंगल का साज सजकर (रिनवास क ) ि याँ और सिखयाँ आदर सिहत सीता को िलवा
ृ ार िकए हए मतवाले हािथय क चाल से चलनेवाली ह। उनके
चल । सभी सुंद रयाँ सोलह ंग
मनोहर गान को सुनकर मुिन यान छोड़ देते ह और कामदेव क कोयल भी लजा जाती ह।
पायजेब, पजनी और सुंदर कंकण ताल क गित पर बड़े सुंदर बज रहे ह।
सहज ही सुंदरी सीता ि य के समहू म इस कार शोभा पा रही ह, मानो छिव पी ललनाओं के
समहू के बीच सा ात परम मनोहर शोभा पी ी सुशोिभत हो॥ 322॥
सीता क सुंदरता का वणन नह हो सकता, य िक बुि बहत छोटी है और मनोहरता बहत बड़ी
है। प क रािश और सब कार से पिव सीता को बाराितय ने आते देखा।
देवता णाम करके फूल बरसा रहे ह। मंगल क मलू मुिनय के आशीवाद क विन हो रही है।
गान और नगाड़ के श द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी ेम और आनंद म म न ह।
एिह िबिध सीय मंडपिहं आई। मिु दत सांित पढ़िहं मिु नराई॥
तेिह अवसर कर िबिध यवहा । दहु ँ कुलगरु सब क ह अचा ॥
इस कार सीता मंडप म आई।ं मुिनराज बहत ही आनंिदत होकर शांितपाठ पढ़ रहे ह। उस अवसर
क सब रीित, यवहार और कुलाचार दोन कुलगु ओं ने िकए।
कुल रीित ीित समेत रिब किह देत सबु सादर िकयो।
एिह भाँित देव पज
ु ाइ सीतिह सभ
ु ग िसंघासनु िदयो॥
िसय राम अवलोकिन परसपर म े ु काहँ न लिख परै ।
मन बिु बर बानी अगोचर गट किब कैस करै ॥
हवन के समय अि नदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहित हण करते ह और सारे वेद
ा ण वेष धरकर िववाह क िविधयाँ बताए देते ह॥ 323॥
जनक क जगि यात पटरानी और सीता क माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश,
सुकृत (पु य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर िवधाता ने उ ह सँवारकर तैयार िकया है।
पिव , सुगंिधत और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मिणय क सुंदर परात राजा और
रानी ने आनंिदत होकर अपने हाथ से लाकर राम के आगे रख ।
मुिन मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे ह। सुअवसर जानकर आकाश से फूल क झड़ी लग गई है। दू हे
को देखकर राजा-रानी ेमम न हो गए और उनके पिव चरण को पखारने लगे।
वे राम के चरण कमल को पखारने लगे, ेम से उनके शरीर म पुलकावली छा रही है। आकाश
और नगर म होनेवाली गान, नगाड़े और जय-जयकार क विन मानो चार िदशाओं म उमड़
चली, जो चरण कमल कामदेव के श ु िशव के दय पी सरोवर म सदा ही िवराजते ह, िजनका
एक बार भी मरण करने से मन म िनमलता आ जाती है और किलयुग के सारे पाप भाग जाते ह,
िजनका पश पाकर गौतम मुिन क ी अह या ने, जो पापमयी थी, परमगित पाई, िजन
चरणकमल का मकरं द रस (गंगा) िशव के म तक पर िवराजमान है, िजसको देवता पिव ता
क सीमा बताते ह; मुिन और योगीजन अपने मन को भ रा बनाकर िजन चरणकमल का सेवन
करके मनोवांिछत गित ा करते ह; उ ह चरण को भा य के पा (बड़भागी) जनक धो रहे ह;
यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे ह।
जय विन, वंिद विन, वेद विन, मंगलगान और नगाड़ क विन सुनकर चतुर देवगण हिषत
हो रहे ह और क पव ृ के फूल को बरसा रहे ह॥ 324॥
राम और सीता क संुदर परछाई ं मिणय के ख भ म जगमगा रही ह, मानो कामदेव और रित
बहत-से प धारण करके राम के अनुपम िववाह को देख रहे ह।
मुिनय ने आनंदपवू क भाँवर िफराई ं और नेग सिहत सब रीितय को परू ा िकया। राम सीता के
िसर म िसंदूर दे रहे ह; यह शोभा िकसी कार भी कही नह जाती।
मानो कमल को लाल पराग से अ छी तरह भरकर अमत ृ के लोभ से साँप चं मा को भिू षत कर
रहा है। (यहाँ राम के हाथ को कमल क , िसंदूर को पराग क , राम क याम भुजा को साँप क
और सीता के मुख को चं मा क उपमा दी गई है) िफर विश ने आ ा दी, तब दू हा और
दुलिहन एक आसन पर बैठे।
राम और जानक े आसन पर बैठे; उ ह देखकर दशरथ मन म बहत आनंिदत हए। अपने
सुकृत पी क प व ृ म नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलिकत हो रहा है।
चौदह भुवन म उ साह भर गया; सबने कहा िक राम का िववाह हो गया। जीभ एक है और यह
मंगल महान है; िफर भला, वह वणन करके िकस कार समा िकया जा सकता है।
सब पु को बहओं सिहत देखकर अवध नरे श दशरथ ऐसे आनंिदत ह, मानो वे राजाओं के
िशरोमिण ि याओं (य ि या, ाि या, योगि या और ानि या) सिहत चार फल (अथ,
धम, काम और मो ) पा गए ह ॥ 325॥
जिस रघब
ु ीर याह िबिध बरनी। सकल कुअँर याहे तेिहं करनी॥
किह न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मिन मंडपु पूरी॥
राम के िववाह क जैसी िविध वणन क गई, उसी रीित से सब राजकुमार िववाहे गए। दहे ज क
अिधकता कुछ कही नह जाती; सारा मंडप सोने और मिणय से भर गया।
(आिद) अनेक व तुएँ ह, िजनक िगनती कैसे क जाए। उनका वणन नह िकया जा सकता;
िज ह ने देखा है वही जानते ह। उ ह देखकर लोकपाल भी िसहा गए। अवधराज दशरथ ने सुख
मानकर स निच से सब कुछ हण िकया।
आदर, दान, िवनय और बड़ाई के ारा सारी बारात का स मान कर राजा जनक ने महान आनंद
के साथ ेमपवू क लड़ाकर (लाड़ करके) मुिनय के समहू क पज ू ा एवं वंदना क । िसर नवाकर,
देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे िक देवता और साधु तो भाव ही चाहते
ह (वे ेम से ही स न हो जाते ह, उन पण
ू काम महानुभाव को कोई कुछ देकर कैसे संतु कर
सकता है); या एक अंजिल जल देने से कह समु संतु हो सकता है।
िफर जनक भाई सिहत हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथ से नेह, शील और संुदर ेम म
सानकर मनोहर वचन बोले - हे राजन! आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सब कार से बड़े
हो गए। इस राज-पाट सिहत हम दोन को आप िबना दाम के िलए हए सेवक ही समिझएगा।
इन लड़िकय को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन क िजएगा। मने बड़ी िढठाई क
ू कुल के भषू ण दशरथ ने समधी
िक आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध मा क िजएगा। िफर सय
जनक को संपणू स मान का िनिध कर िदया (इतना स मान िकया िक वे स मान के भंडार ही
हो गए)। उनक पर पर क िवनय कही नह जाती, दोन के दय ेम से प रपण ू ह।
देवतागण फूल बरसा रहे ह; राजा जनवासे को चले। नगाड़े क विन, जय विन और वेद क
विन हो रही है, आकाश और नगर दोन म खबू कौतहू ल हो रहा है (आनंद छा रहा है), तब
मुनी र क आ ा पाकर सुंदरी सिखयाँ मंगलगान करती हई दुलिहन सिहत दू ह को िलवाकर
कोहबर को चल ।
राम का साँवला शरीर वभाव से ही सुंदर है। उसक शोभा करोड़ कामदेव को लजानेवाली है।
महावर से यु चरण कमल बड़े सुहावने लगते ह, िजन पर मुिनय के मन पी भ रे सदा छाए
रहते ह।
पीत पन
ु ीत मनोहर धोती। हरित बाल रिब दािमिन जोती॥
कल िकंिकिन किट सू मनोहर। बाह िबसाल िबभूषन संदु र॥
पिव और मनोहर पीली धोती ातःकाल के सय ू और िबजली क योित को हरे लेती है। कमर म
सुंदर िकंिकणी और किटसू ह। िवशाल भुजाओं म सुंदर आभषू ण सुशोिभत ह।
पीला दुप ा काँखासोती (जनेऊ क तरह) शोिभत है, िजसके दोन छोर पर मिण और मोती लगे
ह। कमल के समान सुंदर ने ह, कान म सुंदर कुंडल ह और मुख तो सारी सुंदरता का खजाना
ही है।
संदु र भक
ृ ु िट मनोहर नासा। भाल ितलकु िचरता िनवासा॥
सोहत मौ मनोहर माथे। मंगलमय मक ु ु ता मिन गाथे॥
संुदर भ ह और मनोहर नािसका है। ललाट पर ितलक तो सुंदरता का घर ही है। िजसम मंगलमय
मोती और मिण गँुथे हए ह, ऐसा मनोहर मौर माथे पर सोह रहा है।
संुदर मौर म बहमू य मिणयाँ गँुथी हई ह, सभी अंग िच को चुराए लेते ह। सब नगर क ि याँ
और देवसंुद रयाँ दूलह को देखकर ितनका तोड़ रही ह (उनक बलैयाँ ले रही ह) और मिण, व
तथा आभषू ण िनछावर करके आरती उतार रही और मंगलगान कर रही ह। देवता फूल बरसा रहे
ह और सत ू , मागध तथा भाट सुयश सुना रहे ह।
सुहािगनी ि याँ सुख पाकर कँु अर और कुमा रय को कोहबर (कुलदेवता के थान) म लाई ं और
अ यंत ेम से मंगल गीत गा-गाकर लौिकक रीित करने लग । पावती राम को लहकौर (वर-वधू
का पर पर ास देना) िसखाती ह और सर वती सीता को िसखाती ह। रिनवास हास-िवलास के
आनंद म म न है, (राम और सीता को देख-देखकर) सभी ज म का परम फल ा कर रही ह।
अपने हाथ क मिणय म सुंदर प के भंडार राम क परछाई ं िदख रही है। यह देखकर जानक
दशन म िवयोग होने के भय से बाह पी लता को और ि को िहलाती-डुलाती नह ह। उस
समय के हँसी-खेल और िवनोद का आनंद और ेम कहा नह जा सकता, उसे सिखयाँ ही
जानती ह। तदनंतर वर-क याओं को सब सुंदर सिखयाँ जनवासे को िलवा चल ।
उस समय नगर और आकाश म जहाँ सुिनए, वह आशीवाद क विन सुनाई दे रही है और महान
आनंद छाया है। सभी ने स न मन से कहा िक सुंदर चार जोिड़याँ िचरं जीवी ह । योगीराज,
िस , मुनी र और देवताओं ने भु राम को देखकर दुंदुभी बजाई और हिषत होकर फूल क
वषा करते हए तथा 'जय हो, जय हो, जय हो' कहते हए वे अपने-अपने लोक को चले।
िफर बहत कार क रसोई बनी। जनक ने बाराितय को बुला भेजा। राजा दशरथ ने पु सिहत
गमन िकया। अनुपम व के पाँवड़े पड़ते जाते ह।
आदर के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायो य पीढ़ पर बैठाया। तब जनक ने अवधपित
दशरथ के चरण धोए। उनका शील और नेह वणन नह िकया जा सकता।
राजा जनक ने सभी को उिचत आसन िदए और सब परसने वाल को बुला िलया। आदर के साथ
प ल पड़ने लग , जो मिणय के प से सोने क क ल लगाकर बनाई गई थ ।
सब लोग पंचकौर करके (अथात ' ाणाय वाहा, अपानाय वाहा, यानाय वाहा, उदानाय वाहा
और समानाय वाहा' इन मं का उ चारण करते हए पहले पाँच ास लेकर) भोजन करने लगे।
गाली का गाना सुनकर वे अ यंत ेमम न हो गए। अनेक तरह के अमत
ृ के समान ( वािद )
पकवान परसे गए, िजनका बखान नह हो सकता।
प सन लगे सआ ु र सज
ु ाना। िबंजन िबिबध नाम को जाना॥
चा र भाँित भोजन िबिध गाई। एक एक िबिध बरिन न जाई॥
चतुर रसोइए नाना कार के यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार कार के
(च य, चो य, ले , पेय अथात चबाकर, चस
ू कर, चाटकर और पीना-खाने यो य) भोजन क
िविध कही गई है, उनम से एक-एक िविध के इतने पदाथ बने थे िक िजनका वणन नह िकया जा
सकता।
समय क सुहावनी गाली शोिभत हो रही है। उसे सुनकर समाज सिहत राजा दशरथ हँस रहे ह।
इस रीित से सभी ने भोजन िकया और तब सबको आदर सिहत आचमन (हाथ-मँुह धोने के िलए
जल) िदया गया।
जनकपुर म िन य नए मंगल हो रहे ह। िदन और रात पल के समान बीत जाते ह। बड़े सबेरे
राजाओं के मुकुटमिण दशरथ जागे। याचक उनके गुणसमहू का गान करने लगे।
चार कुमार को सुंदर वधुओ ं सिहत देखकर उनके मन म िजतना आनंद है, वह िकस कार
कहा जा सकता है? वे ातः ि या करके गु विश के पास गए। उनके मन म महान आनंद
और ेम भरा है।
राजा णाम और पज ू न करके, िफर हाथ जोड़कर मानो अमत ृ म डुबोई हई वाणी बोले - हे
मुिनराज! सुिनए, आपक कृपा से आज म पण ू काम हो गया।
राजा ने सबको दंडवत- णाम िकया और ेम सिहत पज ू न करके उ ह उ म आसन िदए। चार
लाख उ म गाएँ मँगवाई ं, जो कामधेनु के समान अ छे वभाववाली और सुहावनी थ ।
( ा ण से) आशीवाद पाकर राजा आनंिदत हए। िफर याचक के समहू को बुलवा िलया और
सबको उनक िच पछ ू कर सोना, व , मिण, घोड़ा, हाथी और रथ (िजसने जो चाहा सो)
सयू कुल को आनंिदत करनेवाले दशरथ ने िदए।
बार-बार िव ािम के चरण म िसर नवाकर राजा कहते ह - हे मुिनराज! यह सब सुख आपके
ही कृपाकटा का साद है॥ 331॥
आदर िन य नया बढ़ता जाता है। ितिदन हजार कार से मेहमानी होती है। नगर म िन य नया
आनंद और उ साह रहता है, दशरथ का जाना िकसी को नह सुहाता।
बहत िदवस बीते एिह भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौिसक सतानंद तब जाई। कहा िबदेह नप ृ िह समझ ु ाई॥
इस कार बहत िदन बीत गए, मानो बाराती नेह क र सी से बँध गए ह। तब िव ािम और
शतानंद ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा -
(जनक ने कहा -) अयो यानाथ चलना चाहते ह, भीतर (रिनवास म) खबर कर दो। यह सुनकर
मं ी, ा ण, सभासद और राजा जनक भी ेम के वश हो गए॥ 332॥
आते समय जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहत कार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा
गया। अनेक कार के मेवे, पकवान और भोजन क साम ी जो बखानी नह जा सकती -
भ र भ र बसहँ अपार कहारा। पठई ं जनक अनेक सस
ु ारा॥
तरु ग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अ सीसा॥
अनिगनत बैल और कहार पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गई। साथ ही जनक ने अनेक
सुंदर श याएँ (पलंग) भेज । एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से िशखा तक (ऊपर
से नीचे तक) सजाए हए,
दस हजार सजे हए मतवाले हाथी, िज ह देखकर िदशाओं के हाथी भी लजा जाते ह, गािड़य म
भर-भरकर सोना, व और र न (जवाहरात) और भस, गाय तथा और भी नाना कार क चीज
द।
(इस कार) जनक ने िफर से अप रिमत दहे ज िदया, जो कहा नह जा सकता और िजसे देखकर
लोकपाल के लोक क संपदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥ 333॥
इस कार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयो यापुरी को भेज िदया। बारात चलेगी, यह
सुनते ही सब रािनयाँ ऐसी िवकल हो गई ं, मानो थोड़े जल म मछिलयाँ छटपटा रही ह ।
वे बार-बार सीता को गोद कर लेती ह और आशीवाद देकर िसखावन देती ह - तुम सदा अपने
पित क यारी होओ, तु हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशीष है।
चा रउ भाइ सभ
ु ायँ सहु ाए। नगर ना र नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हिहं आजू। क ह िबदेह िबदा कर साजू॥
वभाव से ही सुंदर चार भाइय को देखने के िलए नगर के ी-पु ष दौड़े । कोई कहता है -
आज ये जाना चाहते ह। िवदेह ने िवदाई का सब सामान तैयार कर िलया है।
राजा के चार पु , इन यारे मेहमान के (मनोहर) प को ने भरकर देख लो। हे सयानी! कौन
जाने, िकस पु य से िवधाता ने इ ह यहाँ लाकर हमारे ने का अितिथ िकया है।
राम क शोभा को िनरखकर दय म धर लो। अपने मन को साँप और इनक मिू त को मिण बना
लो। इस कार सबको ने का फल देते हए सब राजकुमार राजमहल म गए।
उ ह ने भाइय सिहत राम को उबटन करके नान कराया और बड़े ेम से ष स भोजन कराया।
सुअवसर जानकर राम शील, नेह और संकोचभरी वाणी बोले -
महाराज अयो यापुरी को चलना चाहते ह, उ ह ने हम िवदा होने के िलए यहाँ भेजा है। हे माता!
स न मन से आ ा दीिजए और हम अपने बालक जानकर सदा नेह बनाए रिखएगा।
सन
ु त बचन िबलखेउ रिनवासू। बोिल न सकिहं म े बस सासू॥
दयँ लगाई कुअँ र सब ली ही। पित ह स िप िबनती अित क ही॥
िवनती करके उ ह ने सीता को राम को समिपत िकया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा - हे
तात! हे सुजान! म बिल जाती हँ, तुमको सबक गित (हाल) मालम
ू है। प रवार को, पुरवािसय
को, मुझको और राजा को सीता ाण के समान ि य है, ऐसा जािनएगा। हे तुलसी के वामी!
इसके शील और नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मािनएगा।
ू काम हो, सुजान िशरोमिण हो और भावि य हो (तु ह ेम यारा है)। हे राम! तुम भ
तुम पण के
गुण को हण करनेवाले, दोष को नाश करनेवाले और दया के धाम हो॥ 336॥
अस किह रही चरन गिह रानी। म े पंक जनु िगरा समानी॥
सिु न सनेहसानी बर बानी। बहिबिध राम सासु सनमानी॥
ऐसा कहकर रानी चरण को पकड़कर (चुप) रह गई ं। मानो उनक वाणी ेम पी दलदल म समा
गई हो। नेह से सनी हई े वाणी सुनकर राम ने सास का बहत कार से स मान िकया।
तब राम ने हाथ जोड़कर िवदा माँगते हए बार-बार णाम िकया। आशीवाद पाकर और िफर िसर
नवाकर भाइय सिहत रघुनाथ चले।
राम क सुंदर मधुर मिू त को दय म लाकर सब रािनयाँ नेह से िशिथल हो गई ं। िफर धीरज
धारण करके कुमा रय को बुलाकर माताएँ बारं बार उ ह (गले लगाकर) भटने लग ।
पुि य को पहँचाती ह, िफर लौटकर िमलती ह। पर पर म कुछ थोड़ी ीित नह बढ़ी (अथात बहत
ीित बढ़ी)। बार-बार िमलती हई माताओं को सिखय ने अलग कर िदया। जैसे हाल क यायी हई
गाय को कोई उसके बालक बछड़े (या बिछया) से अलग कर दे ।
सब ी-पु ष और सिखय सिहत सारा रिनवास ेम के िवशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता है)
मानो जनकपुर म क णा और िवरह ने डे रा डाल िदया है॥ 337॥
जानक ने िजन तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा िकया था और सोने के िपंजड़ म रखकर
पढ़ाया था, वे याकुल होकर कह रहे ह - वैदेही कहाँ ह। उनके ऐसे वचन को सुनकर धीरज
िकसको नह याग देगा (अथात सबका धैय जाता रहा)।
भए िबकल खग मग ु दसा कैस किह जाती॥
ृ एिह भाँती। मनज
बंधु समेत जनकु तब आए। म े उमिग लोचन जल छाए॥
जब प ी और पशु तक इस तरह िवकल हो गए, तब मनु य क दशा कैसे कही जा सकती है!
तब भाई सिहत जनक वहाँ आए। ेम से उमड़कर उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया।
वे परम वैरा यवान कहलाते थे; पर सीता को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने
जानक को दय से लगा िलया। ( ेम के भाव से) ान क महान मयादा िमट गई ( ान का
बाँध टूट गया)।
सारा प रवार ेम म िववश है। राजा ने सुंदर मुहत जानकर िसि सिहत गणेश का मरण करके
क याओं को पालिकय पर चढ़ाया॥ 338॥
बहिबिध भूप सत
ु ा समझ ु ाई ं। ना रधरमु कुलरीित िसखाई ं॥
दास दास िदए बहतेरे। सिु च सेवक जे ि य िसय केरे ॥
सीता के चलते समय जनकपुरवासी याकुल हो गए। मंगल क रािश शुभ शकुन हो रहे ह।
ा ण और मंि य के समाज सिहत राजा जनक उ ह पहँचाने के िलए साथ चले।
उनके चरण कमल क धिू ल िसर पर धरकर और आशीष पाकर राजा आनंिदत हए और गणेश
का मरण करके उ ह ने थान िकया। मंगल के मल
ू अनेक शकुन हए।
देवता हिषत होकर फूल बरसा रहे ह और अ सराएँ गान कर रही ह। अवधपित दशरथ नगाड़े
बजाकर आनंदपवू क अयो यापुरी चले॥ 339॥
दशरथ ने िफर सुहावने वचन कहे - हे राजन! बहत दूर आ गए, अब लौिटए। िफर राजा दशरथ
रथ से उतरकर खड़े हो गए। उनके ने म ेम का वाह बढ़ आया ( ेमा ुओ ं क धारा बह चली)।
तब जनक हाथ जोड़कर मानो नेह पी अमत ृ म डुबोकर वचन बोले - म िकस तरह बनाकर
(िकन श द म) िवनती क ँ । हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है।
- कोसलपित समधी सजन सनमाने सब भाँित।
िमलिन परसपर िबनय अित ीित न दयँ समाित॥ 340॥
अयो यानाथ दशरथ ने अपने वजन समधी का सब कार से स मान िकया। उनके आपस के
िमलने म अ यंत िवनय थी और इतनी ीित थी जो दय म समाती न थी॥ 340॥
जनक ने मुिन मंडली को िसर नवाया और सभी से आशीवाद पाया। िफर आदर के साथ वे प,
शील और गुण के िनधान सब भाइय से, अपने दामाद से िमले,
करिहं जोग जोगी जेिह लागी। कोह मोह ममता मदु यागी॥
यापकु ु अलखु अिबनासी। िचदानंदु िनरगन
ु गन
ु रासी॥
योगी लोग िजनके िलए ोध, मोह, ममता और मद को यागकर योगसाधन करते ह, जो
सव यापक, , अ य , अिवनाशी, िचदानंद, िनगुण और गुण क रािश ह,
वे ही सम त सुख के मल
ू (आप) मेरे ने के िवषय हए। ई र के अनुकूल होने पर जगत म
जीव को सब लाभ-ही-लाभ है॥ 341॥
आपने मुझे सभी कार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना िलया। यिद दस हजार
सर वती और शेष ह और करोड़ क प तक गणना करते रह
मोर भा य राउर गन
ु गाथा। किह न िसरािहं सन
ु ह रघन
ु ाथा॥
म कछु कहउँ एक बल मोर। तु ह रीझह सनेह सिु ठ थोर॥
जनक क बार-बार िवनती और बड़ाई करके रघुनाथ सब भाइय के साथ चले। जनक ने जाकर
िव ािम के चरण पकड़ िलए और उनके चरण क रज को िसर और ने म लगाया।
सन
ु ु मन
ु ीस बर दरसन तोर। अगमु न कछु तीित मन मोर॥
जो सखु ु सज
ु सु लोकपित चहह । करत मनोरथ सकुचत अहह ॥
(उ ह ने कहा -) हे मुनी र! सुिनए, आपके सुंदर दशन से कुछ भी दुलभ नह है, मेरे मन म ऐसा
िव ास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते ह; परं तु (असंभव समझकर) िजसका मनोरथ
करते हए सकुचाते ह,
सो सख
ु ु सज
ु सु सलु भ मोिह वामी। सब िसिध तव दरसन अनग ु ामी॥
क ि ह िबनय पिु न पिु न िस नाई। िफरे महीसु आिसषा पाई॥
हे वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी िसि याँ आपके दशन क अनुगािमनी
अथात पीछे -पीछे चलनेवाली ह। इस कार बार-बार िवनती क और िसर नवाकर तथा उनसे
आशीवाद पाकर राजा जनक लौटे।
डं का बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय स न ह। (रा ते के) गाँव के ी-पु ष राम
को देखकर ने का फल पाकर सुखी होते ह।
बीच-बीच म सुंदर मुकाम करती हई तथा माग के लोग को सुख देती हई वह बारात पिव िदन
म अयो यापुरी के समीप आ पहँची॥ 343॥
नगाड़ पर चोट पड़ने लग ; सुंदर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख क बड़ी आवाज हो रही है;
हाथी-घोड़े गरज रहे ह। िवशेष श द करनेवाली झाँझ, सुहावनी डफिलयाँ तथा रसीले राग से
शहनाइयाँ बज रही ह।
बारात को आती हई सुनकर नगर िनवासी स न हो गए। सबके शरीर पर पुलकावली छा गई।
सबने अपने-अपने सुंदर घर , बाजार , गिलय , चौराह और नगर के ार को सजाया।
फल सिहत सुपारी, केला, आम, मौलिसरी, कदंब और तमाल के व ृ लगाए गए। वे लगे हए सुंदर
व ृ (फल के भार से) प ृ वी को छू रहे ह। उनके मिणय के थाले बड़ी सुंदर कारीगरी से बनाए
गए ह।
अनेक कार के मंगल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए ह। रघुनाथ क पुरी (अयो या) को
देखकर ा आिद सब देवता िसहाते ह॥ 344॥
भूप भवनु तेिह अवसर सोहा। रचना देिख मदन मनु मोहा॥
मंगल सगन ु मनोहरताई। रिध िसिध सख ु संपदा सहु ाई॥
उस समय राजमहल (अ यंत) शोिभत हो रहा था। उसक रचना देखकर कामदेव का भी मन
मोिहत हो जाता था। मंगल शकुन, मनोहरता, ऋि -िसि , सुख, सुहावनी संपि ।
जूथ जूथ िमिल चल सआु िसिन। िनज छिब िनदरिहं मदन िबलािसिन॥
सकल सम ु ंगल सज आरती। गाविहं जनु बह बेष भारती॥
राजमहल म (आनंद के मारे ) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वणन नह िकया जा
सकता। कौस या आिद राम क सब माताएँ ेम के िवशेष वश होने से शरीर क सुध भल
ू गई ं।
सुख और महान आनंद से िववश होने के कारण सब माताओं के शरीर िशिथल हो गए ह, उनके
चरण चलते नह ह। राम के दशन के िलए वे अ यंत अनुराग म भरकर परछन का सब सामान
सजाने लग ।
अनेक कार के बाजे बजते थे। सुिम ा ने आनंदपवू क मंगल साज सजाए। ह दी, दूब, दही, प े,
फूल, पान और सुपारी आिद मंगल क मल ू व तुएँ,
तथा अ त (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी क सुंदर मंज रयाँ सुशोिभत ह। नाना
रं ग से िचि त िकए हए सहज सुहावने सुवण के कलश ऐसे मालम
ू होते ह, मानो कामदेव के
पि य ने घ सले बनाए ह ।
सगनु सग
ु ंध न जािहं बखानी। मंगल सकल सजिहं सब रानी॥
रच आरत बहतु िबधाना। मिु दत करिहं कल मंगल गाना॥
सोने के थाल को मांगिलक व तुओ ं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथ म िलए हए
माताएँ आनंिदत होकर परछन करने चल । उनके शरीर पुलकावली से छा गए ह॥ 346॥
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
सरु त समु न माल सरु बरषिहं। मनहँ बलाक अविल मनु करषिहं॥
धपू के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए ह ।
देवता क पव ृ के फूल क मालाएँ बरसा रहे ह। वे ऐसी लगती ह, मानो बगुल क पाँित मन को
(अपनी ओर) ख च रही हो।
नगाड़ क विन मानो बादल क घोर गजना है। याचकगण पपीहे , मढक और मोर ह। देवता
पिव सुगंध पी जल बरसा रहे ह, िजससे खेती के समान नगर के सब ी-पु ष सुखी हो रहे
ह।
समउ जािन गरु आयसु दी हा। परु बेसु रघक ु ु लमिन क हा॥
सिु म र संभु िग रजा गनराजा। मिु दत महीपित सिहत समाजा॥
( वेश का) समय जानकर गु विश ने आ ा दी। तब रघुकुलमिण महाराज दशरथ ने िशव,
पावती और गणेश का मरण करके समाज सिहत आनंिदत होकर नगर म वेश िकया।
- होिहं सगन
ु बरषिहं सम ु न सरु ददुं भ बजाइ।
िबबधु बधू नाचिहं मिु दत मंजुल मंगल गाइ॥ 347॥
शकुन हो रहे ह, देवता दुंदुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे ह। देवताओं क ि याँ आनंिदत होकर
सुंदर मंगल गीत गा-गाकर नाच रही ह॥ 347॥
ू , भाट और चतुर नट तीन लोक के उजागर (सबको काश देनेवाले परम काश
मागध, सत
व प) राम का यश गा रहे ह। जय विन तथा वेद क िनमल े वाणी सुंदर मंगल से सनी हई
दस िदशाओं म सुनाई पड़ रही है।
िबपलु बाजने बाजन लागे। नभ सरु नगर लोग अनरु ागे॥
बने बराती बरिन न जाह । महा मिु दत मन सख
ु न समाह ॥
बहत-से बाजे बजने लगे। आकाश म देवता और नगर म लोग सब ेम म म न ह। बाराती ऐसे
बने-ठने ह िक उनका वणन नह हो सकता। परम आनंिदत ह, सुख उनके मन म समाता नह है।
नगर क ि याँ आनंिदत होकर आरती कर रही ह और सुंदर चार कुमार को देखकर हिषत हो
रही ह। पालिकय के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलिहन को देखकर सुखी होती ह।
इस कार सबको सुख देते हए राज ार पर आए। माताएँ आनंिदत होकर बहओं सिहत कुमार
का परछन कर रही ह॥ 348॥
वे बार-बार आरती कर रही ह। उस ेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेक कार
के आभषू ण, र न और व तथा अगिणत कार क अ य व तुएँ िनछावर कर रही ह।
चार मनोहर जोिड़य को देखकर सर वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला; पर कोई उपमा देते
नह बनी, य िक उ ह सभी िबलकुल तु छ जान पड़ । तब हारकर वे भी राम के प म अनुर
होकर एकटक देखती रह गई ं।
वेद क िविध और कुल क रीित करके अ य-पाँवड़े देती हई बहओं समेत सब पु को परछन
करके माताएँ महल म िलवा चल ॥ 349॥
वाभािवक ही संुदर चार िसंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर
माताओं ने राजकुमा रय और राजकुमार को बैठाया और आदर के साथ उनके पिव चरण धोए।
िफर वेद क िविध के अनुसार मंगल के िनधान दू ह क दुलिहन क धपू , दीप और नैवे आिद
के ारा पजू ा क । माताएँ बारं बार आरती कर रही ह और वर-वधुओ ं के िसर पर सुंदर पंखे तथा
चँवर ढल रहे ह।
अनेक व तुएँ िनछावर हो रही ह; सभी माताएँ आनंद से भरी हई ऐसी सुशोिभत हो रही ह मानो
योगी ने परम त व को ा कर िलया। सदा के रोगी ने मानो अमत ृ पा िलया,
- एिह सख
ु ते सत कोिट गन
ु पाविहं मातु अनंद।ु
भाइ ह सिहत िबआिह घर आए रघकु ु लचंद॥ु 350(क)॥
देवता िछपे हए (अंत र से) आशीवाद दे रहे ह और माताएँ आनंिदत हो आँचल भरकर ले रही ह।
तदनंतर राजा ने बाराितय को बुलवा िलया और उ ह सवा रयाँ, व , मिण (र न) और
आभषू णािद िदए।
याचक लोग जो-जो माँगते ह, िवशेष स न होकर राजा उ ह वही-वही देते ह। संपण
ू सेवक और
बाजे वाल को राजा ने नाना कार के दान और स मान से संतु िकया।
- देिहं असीस जोहा र सब गाविहं गन
ु गन गाथ।
तब गरु भूसरु सिहत गहृ ँ गवनु क ह नरनाथ॥ 351॥
विश ने जो आ ा दी, उसे लोक और वेद क िविध के अनुसार राजा ने आदरपवू क िकया।
ा ण क भीड़ देखकर अपना बड़ा भा य जानकर सब रािनयाँ आदर के साथ उठ ।
ू न करके उ ह भोजन
चरण धोकर उ ह ने सबको नान कराया और राजा ने भली-भाँित पज
कराया। आदर, दान और ेम से पु हए वे संतु मन से आशीवाद देते हए चले।
राजा ने गािध-पु िव ािम क बहत तरह से पजू ा क और कहा - हे नाथ! मेरे समान ध य
दूसरा कोई नह है। राजा ने उनक बहत शंसा क और रािनय सिहत उनक चरणधिू ल को
हण िकया।
बहओं सिहत सब राजकुमार और सब रािनय समेत राजा बार-बार गु के चरण क वंदना करते
ह और मुनी र आशीवाद देते ह॥ 352॥
िबनय क ि ह उर अित अनरु ाग। सतु संपदा रािख सब आग॥
नेगु मािग मिु ननायक ली हा। आिसरबादु बहत िबिध दी हा॥
िफर सीता सिहत राम को दय म रखकर गु विश हिषत होकर अपने थान को गए। राजा
ने सब ा ण क ि य को बुलवाया और उ ह संुदर व तथा आभषू ण पहनाए।
बह र बोलाइ सआ
ु िसिन ली ह । िच िबचा र पिहराविन दी ह ॥
नेगी नेग जोग जब लेह । िच अनु प भूपमिन देह ॥
िफर अब सुआिसिनय को (नगर भर क सौभा यवती बहन, बेटी, भानजी आिद को) बुलवा िलया
और उनक िच समझकर (उसी के अनुसार) उ ह पिहरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना
नेग-जोग लेते और राजाओं के िशरोमिण दशरथ उनक इ छा के अनुसार देते ह।
िजन मेहमान को ि य और पज ू नीय जाना, उनका राजा ने भली-भाँित स मान िकया। देवगण
रघुनाथ का िववाह देखकर, उ सव क शंसा करके फूल बरसाते हए -
राजा ने आनंद सिहत पु को गोद म ले िलया। उस समय राजा को िजतना सुख हआ उसे कौन
कह सकता है? िफर पु वधुओ ं को ेम सिहत गोदी म बैठाकर, बार-बार दय म हिषत होकर
उ ह ने उनका दुलार (लाड़-चाव) िकया।
राजा जनक के गुण, शील, मह व, ीित क रीित और सुहावनी संपि का वणन राजा ने भाट क
तरह बहत कार से िकया। जनक क करनी सुनकर सब रािनयाँ बहत स न हई ं।
- सत
ु ह समेत नहाइ नप
ृ बोिल िब गरु याित।
भोजन क ह अनेक िबिध घरी पंच गइ राित॥ 354॥
रामिह देिख रजायसु पाई। िनज िनज भवन चले िसर नाई॥
े मोदु िबनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥
म
सैकड़ सर वती, शेष, वेद, ा, महादेव और गणेश भी नह कह सकते। िफर भला म उसे िकस
कार से बखानकर कहँ? कह कचुआ भी धरती को िसर पर ले सकता है!
नप
ृ सब भाँित सबिह सनमानी। किह मदृ ु बचन बोलाई ं रानी॥
बधू ल रकन पर घर आई ं। राखेह नयन पलक क नाई ं॥
राजा ने सबका सब कार से स मान करके, कोमल वचन कहकर रािनय को बुलाया और कहा
- बहएँ अभी ब ची ह, पराए घर आई ह। इनको इस तरह से रखना जैसे ने को पलक रखती ह
(जैसे पलक ने क सब कार से र ा करती ह और उ ह सुख पहँचाती ह, वैसे ही इनको सुख
पहँचाना)।
लड़के थके हए न द के वश हो रहे ह, इ ह ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा राम के
चरण म मन लगाकर िव ाम भवन म चले गए॥ 355॥
भूप बचन सिु न सहज सहु ाए। ज रत कनक मिन पलँग डसाए॥
सभु ग सरु िभ पय फेन समाना। कोमल किलत सप े नाना॥
ु त
राजा के वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रािनय ने) मिणय से जड़े सुवण के पलँग िबछवाए।
(ग पर) गौ के दूध के फेन के समान संुदर एवं कोमल अनेक सफेद चादर िबछाई ं।
सुंदर तिकय का वणन नह िकया जा सकता। मिणय के मंिदर म फूल क मालाएँ और सुगंध
य सजे ह। सुंदर र न के दीपक और सुंदर चँदोवे क शोभा कहते नह बनती। िजसने उ ह
देखा हो, वही जान सकता है।
इस कार सुंदर श या सजाकर (माताओं ने) राम को उठाया और ेम सिहत पलँग पर पौढ़ाया।
राम ने बार-बार भाइय को आ ा दी। तब वे भी अपनी-अपनी श याओं पर सो गए।
े बचन सब माता॥
देिख याम मदृ ु मंजुल गाता। कहिहं स म
मारग जात भयाविन भारी। केिह िबिध तात ताड़का मारी॥
राम के साँवले सुंदर कोमल अँग को देखकर सब माताएँ ेम सिहत वचन कह रही ह - हे तात!
माग म जाते हए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का रा सी को िकस कार से मारा?
हे तात! म बलैया लेती हँ, मुिन क कृपा से ही ई र ने तु हारी बहत-सी बलाओं को टाल िदया।
दोन भाइय ने य क रखवाली करके गु के साद से सब िव ाएँ पाई।ं
हे तात! तु हारा चं मुख देखकर आज हमारा जगत म ज म लेना सफल हआ। तुमको िबना देखे
जो िदन बीते ह, उनको ा िगनती म न लाव (हमारी आयु म शािमल न कर)।
िवनय भरे उ म वचन कहकर राम ने सब माताओं को संतु िकया। िफर िशव, गु और ा ण
के चरण का मरण कर ने को न द के वश िकया। (अथात वे सो रहे )॥ 357॥
न द म भी उनका अ यंत सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो सं या के समय का लाल
कमल सोह रहा हो। ि याँ घर-घर जागरण कर रही ह और आपस म (एक-दूसरी को) मंगलमयी
गािलयाँ दे रही ह।
रािनयाँ कहती ह - हे सजनी! देखो, (आज) राि क कैसी शोभा है, िजससे अयो यापुरी िवशेष
शोिभत हो रही है! (य कहती हई) सासुएँ सुंदर बहओं को लेकर सो गई ं, मानो सप ने अपने िसर
क मिणय को दय म िछपा िलया है।
ात पन
ु ीत काल भु जागे। अ नचूड़ बर बोलन लागे॥
बंिद मागधि ह गन
ु गन गाए। परु जन ार जोहारन आए॥
ातःकाल पिव मुहत म भु जागे। मुग सुंदर बोलने लगे। भाट और मागध ने गुण का गान
िकया तथा नगर के लोग ार पर जोहार करने को आए।
वभाव से ही पिव चार भाइय ने सब शौचािद से िनव ृ होकर पिव सरयू नदी म नान िकया
और ातःि या (सं या-वंदनािद) करके वे िपता के पास आए॥ 358॥
िफर मुिन विश और िव ािम आए। राजा ने उनको सुंदर आसन पर बैठाया और पु समेत
उनक पज ू ा करके उनके चरण लगे। दोन गु राम को देखकर ेम म मु ध हो गए।
िन य ही मंगल, आनंद और उ सव होते ह; इस तरह आनंद म िदन बीतते जाते ह। अयो या आनंद
से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद क अिधकता अिधक-अिधक बढ़ती ही जा रही है॥ 359॥
अ छा िदन (शुभ मुहत) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और िवनोद कुछ कम
नह हए (अथात बहत हए)। इस कार िन य नए सुख को देखकर देवता िसहाते ह और अयो या
म ज म पाने के िलए ा से याचना करते ह।
अंत म जब िव ािम ने िवदा माँगी, तब राजा ेमम न हो गए और पु सिहत आगे खड़े हो गए।
(वे बोले -) हे नाथ! यह सारी संपदा आपक है। म तो ी-पु सिहत आपका सेवक हँ।
हे मुिन! लड़क पर सदा नेह करते रिहएगा और मुझे भी दशन देते रिहएगा। ऐसा कहकर पु
और रािनय सिहत राजा दशरथ िव ािम के चरण पर िगर पड़े , ( ेमिव ल हो जाने के कारण)
उनके मँुह से बात नह िनकलती।
वामदेव और रघुकुल के गु ानी विश ने िफर िव ािम क कथा बखानकर कही। मुिन का
सुंदर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पु य के भाव का बखान करने लगे।
जब से राम िववाह करके घर आए, तब से सब कार का आनंद अयो या म आकर बसने लगा।
भु के िववाह म जैसा आनंद-उ साह हआ, उसे सर वती और सप के राजा शेष भी नह कह
सकते।
अपनी वाणी को पिव करने के िलए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नह तो) रघुनाथ का च र
अपार समु है, िकस किव ने उसका पार पाया है? जो लोग य ोपवीत और िववाह के मंगलमय
उ सव का वणन आदर के साथ सुनकर गावगे, वे लोग जानक और राम क कृपा से सदा सुख
पावगे।
सीता और रघुनाथ के िववाह संग को जो लोग ेमपवू क गाएँ -सुनगे, उनके िलए सदा
उ साह(आनंद)-ही-उ साह है; य िक राम का यश मंगल का धाम है॥ 361॥
(बालकांड समा )
अयो याकांड
य यांके च िवभाित भूधरसत ु ा देवापगा म तके
भाले बालिवधगु ले च गरलं य योरिस यालराट्।
सोऽयं भूितिवभूषणः सरु वरः सवािधपः सवदा
शवः सवगतः िशवः शिशिनभः ी शंकरः पातु माम्॥ 1॥
नीला बज
ु यामलकोमलांग सीतासमारोिपतवामभागम्।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघव
ु ंशनाथम्॥ 3॥
नीले कमल के समान याम और कोमल िजनके अंग ह, सीता िजनके वाम-भाग म िवराजमान ह
और िजनके हाथ म ( मशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष है, उन रघुवंश के वामी राम को म
नम कार करता हँ॥ 3॥
रिध िसिध संपित नद सहु ाई। उमिग अवध अंबिु ध कहँ आई॥
मिनगन परु नर ना र सज
ु ाती। सिु च अमोल संदु र सब भाँती॥
नगर का ऐ य कुछ कहा नह जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ा क कारीगरी बस इतनी ही
है। सब नगर िनवासी रामचं के मुखचं को देखकर सब कार से सुखी ह।
सब माताएँ और सखी-सहे िलयाँ अपनी मनोरथ पी बेल को फली हई देखकर आनंिदत ह। राम
के प, गुण, शील और वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथ बहत ही आनंिदत होते ह।
एक समय रघुकुल के राजा दशरथ अपने सारे समाज सिहत राजसभा म िवराजमान थे। महाराज
सम त पु य क मिू त ह, उ ह राम का सुंदर यश सुनकर अ यंत आनंद हो रहा है।
नप
ृ सब रहिहं कृपा अिभलाष। लोकप करिहं ीित ख राख॥
वन तीिन काल जग माह । भू रभाग दसरथ सम नाह ॥
मंगल के मल
ू राम िजनके पु ह, उनके िलए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है। राजा ने
वाभािवक ही हाथ म दपण ले िलया और उसम अपना मँुह देखकर मुकुट को सीधा िकया।
(देखा िक) कान के पास बाल सफेद हो गए ह, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है िक हे
राजन! राम को युवराज पद देकर अपने जीवन और ज म का लाभ य नह लेते।
दय म यह िवचार लाकर (युवराज पद देने का िन य कर) राजा दशरथ ने शुभ िदन और सुंदर
समय पाकर, ेम से पुलिकत शरीर हो आनंदम न मन से उसे गु विश को जा सुनाया॥ 2॥
कहइ भआ
ु लु सिु नअ मिु ननायक। भए राम सब िबिध सब लायक॥
सेवक सिचव सकल परु बासी। जे हमार अ र िम उदासी॥
सभी को राम वैसे ही ि य ह, जैसे वे मुझको ह। (उनके प म) आपका आशीवाद ही मानो शरीर
धारण करके शोिभत हो रहा है। हे वामी! सारे ा ण, प रवार सिहत आपके ही समान उन पर
नेह करते ह।
(इस लालसा के पणू हो जाने पर) िफर सोच नह , शरीर रहे या चला जाए, िजससे मुझे पीछे
पछतावा न हो। दशरथ के मंगल और आनंद के मल ू सुंदर वचन सुनकर मुिन मन म बहत स न
हए।
सन
ु ु नप
ृ जासु िबमख
ु पिछताह । जासु भजन िबनु जरिन न जाह ॥
भयउ तु हार तनय सोइ वामी। रामु पन े अनग
ु ीत म ु ामी॥
(विश ने कहा -) हे राजन! सुिनए, िजनसे िवमुख होकर लोग पछताते ह और िजनके भजन
िबना जी क जलन नह जाती, वही वामी (सवलोक महे र) राम आपके पु हए ह, जो पिव
ेम के अनुगामी ह। (राम पिव ेम के पीछे -पीछे चलनेवाले ह, इसी से तो ेमवश आपके पु हए
ह।)
हे राजन! अब देर न क िजए; शी सब सामान सजाइए। शुभ िदन और सुंदर मंगल तभी है, जब
राम युवराज हो जाएँ (अथात उनके अिभषेक के िलए सभी िदन शुभ और मंगलमय ह)॥ 4॥
(और कहा -) यिद पंच को (आप सबको) यह मत अ छा लगे, तो दय म हिषत होकर आप लोग
राम का राजितलक क िजए।
मं ी मिु दत सन
ु त ि य बानी। अिभमत िबरवँ परे उ जनु पानी॥
िबनती सिचव करिहं कर जोरी। िजअह जगतपित ब रस करोरी॥
आपने जगतभर का मंगल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शी ता क िजए, देर न
लगाइए। मंि य क सुंदर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनंद हआ मानो बढ़ती हई बेल सुंदर
डाली का सहारा पा गई हो।
राजा ने कहा राम के रा यािभषेक के िलए मुिनराज विश क जो-जो आ ा हो, आप लोग वही
सब तुरंत कर॥ 5॥
हरिष मन
ु ीस कहेउ मदृ ु बानी। आनह सकल सत
ु ीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गिन मंगल नाना॥
ृ चम, बहत कार के व , असं य जाितय के ऊनी और रे शमी कपड़े , (नाना कार
चँवर, मग
क ) मिणयाँ (र न) तथा और भी बहत-सी मंगल व तुएँ, जो जगत म रा यािभषेक के यो य होती
ह (सबको मँगाने क उ ह ने आ ा दी)।
बेद िबिदत किह सकल िबधाना। कहेउ रचह परु िबिबध िबताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपह बीिथ ह परु चहँ फेरा॥
मुिन ने वेद म कहा हआ सब िवधान बताकर कहा - नगर म बहत-से मंडप (चँदोवे) सजाओ।
फल समेत आम, सुपारी और केले के व ृ नगर क गिलय म चार ओर रोप दो।
संुदर मिणय के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के िलए कह दो। गणेश, गु
और कुलदेवता क पज ू ा करो और भदू ेव ा ण क सब कार से सेवा करो।
वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े , रथ और हाथी सबको सजाओ। मुिन े विश के वचन
को िशरोधाय करके सब लोग अपने-अपने काम म लग गए॥ 6॥
जो मन
ु ीस जेिह आयसु दी हा। सो तेिहं काजु थम जनु क हा॥
िब साधु सरु पूजत राजा। करत राम िहत मंगल काजा॥
मुनी र ने िजसको िजस काम के िलए आ ा दी, उसने वह काम (इतनी शी ता से कर डाला
ू रहे ह और राम के
िक) मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ा ण, साधु और देवताओं को पज
िलए सब मंगल काय कर रहे ह।
सन
ु त राम अिभषेक सहु ावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगन
ु जनाए। फरकिहं मंगल अंग सहु ाए॥
राम के रा यािभषेक क सुहावनी खबर सुनते ही अवधभर म बड़ी धम ू से बधावे बजने लगे। राम
और सीता के शरीर म भी शुभ शकुन सिू चत हए। उनके सुंदर मंगल अंग फड़कने लगे।
पल
ु िक स मे परसपर कहह । भरत आगमनु सूचक अहह ॥
भए बहत िदन अित अवसेरी। सगन
ु तीित भट ि य केरी॥
और भरत के समान जगत म (हम) कौन यारा है! शकुन का बस, यही फल है, दूसरा नह । राम
को (अपने) भाई भरत का िदन-रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का दय अंड म रहता है।
इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रिनवास हिषत हो उठा। जैसे चं मा को बढ़ते
देखकर समु म लहर का िवलास (आनंद) सुशोिभत होता है॥ 7॥
सुिम ा ने मिणय (र न ) के बहत कार के अ यंत सुंदर और मनोहर चौक परू े । आनंद म म न
हई राम क माता कौस या ने ा ण को बुलाकर बहत दान िदए।
भत
ु ा तिज भु क ह सनेह। भयउ पन ु ीत आजु यह गेह॥
आयसु होइ सो कर गोसाई ं। सेवकु लइह वािम सेवकाई ं॥
परं तु भु (आप) ने भुता छोड़कर ( वयं यहाँ पधारकर) जो नेह िकया, इससे आज यह घर
पिव हो गया। हे गोसाई ं! (अब) जो आ ा हो, म वही क ँ । वामी क सेवा म ही सेवक का लाभ
है।
(राम के) ेम म सने हए वचन को सुनकर मुिन विश ने रघुनाथ क शंसा करते हए कहा
िक हे राम! भला, आप ऐसा य न कह। आप सय ू वंश के भषू ण जो ह॥ 9॥
राम के गुण, शील और वभाव का बखान कर, मुिनराज ेम से पुलिकत होकर बोले - (हे राम!)
राजा (दशरथ) ने रा यािभषेक क तैयारी क है। वे आपको युवराज-पद देना चाहते ह।
(इसिलए) हे राम! आज आप (उपवास, हवन आिद िविधपवू क) सब संयम क िजए, िजससे िवधाता
कुशलपवू क इस काम को िनबाह द (सफल कर द)। गु िश ा देकर राजा दशरथ के पास चले
गए। राम के दय म (यह सुनकर) इस बात का खेद हआ िक -
हम सब भाई एक ही साथ ज मे; खाना, सोना, लड़कपन के खेल-कूद, कनछे दन, य ोपवीत
और िववाह आिद उ सव सब साथ-साथ ही हए।
बहत कार के बाजे बज रहे ह। नगर के अितशय आनंद का वणन नह हो सकता। सब लोग
भरत का आगमन मना रहे ह और कह रहे ह िक वे भी शी आएँ और (रा यािभषेक का उ सव
देखकर) ने का फल ा कर।
जब सीता सिहत राम सुवण के िसंहासन पर िवराजगे और हमारा मनचीता होगा (मनःकामना
परू ी होगी)। इधर तो सब यह कह रहे ह िक कल कब होगा, उधर कुच देवता िव न मना रहे ह।
उ ह (देवताओं को) अवध के बधावे नह सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नह भाती। सर वती
को बुलाकर देवता िवनय कर रहे ह और बार-बार उनके पैर को पकड़कर उन पर िगरते ह।
(वे कहते ह -) हे माता! हमारी बड़ी िवपि को देखकर आज वही क िजए िजससे राम रा य
यागकर वन को चले जाएँ और देवताओं का सब काय िस हो॥ 11॥
देवताओं क िवनती सुनकर सर वती खड़ी-खड़ी पछता रही ह िक (हाय!) म कमलवन के िलए
हे मंत ऋतु क रात हई। उ ह इस कार पछताते देखकर देवता िवनय करके कहने लगे - हे
माता! इसम आपको जरा भी दोष न लगेगा।
िबसमय हरष रिहत रघरु ाऊ। तु ह जानह सब राम भाऊ॥
जीव करम बस सखु दखु भागी। जाइअ अवध देव िहत लागी॥
परं तु आगे के काम का िवचार करके (राम के वन जाने से रा स का वध होगा, िजससे सारा
जगत सुखी हो जाएगा) चतुर किव (राम के वनवास के च र का वणन करने के िलए) मेरी
चाह (कामना) करगे। ऐसा िवचार कर सर वती दय म हिषत होकर दशरथ क पुरी अयो या म
आई ं, मानो दुःसह दुःख देनेवाली कोई हदशा आई हो।
मंथरा नाम क कैकेयी क एक मंदबुि दासी थी, उसे अपयश क िपटारी बनाकर सर वती
उसक बुि को फेरकर चली गई ं॥ 12॥
मंथरा ने देखा िक नगर सजाया हआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे ह। उसने लोग से पछ
ू ा िक
कैसा उ सव है? (उनसे) राम के राजितलक क बात सुनते ही उसका दय जल उठा।
वह दुबुि , नीच जाितवाली दासी िवचार करने लगी िक िकस कार से यह काम रात-ही-रात म
िबगड़ जाए, जैसे कोई कुिटल भीलनी शहद का छ ा लगा देखकर घात लगाती है िक इसको
िकस तरह से उखाड़ लँ।ू
भरत मातु पिहं गइ िबलखानी। का अनमिन हिस कह हँिस रानी॥
ऊत देइ न लेइ उसासू। ना र च रत क र ढारइ आँसू॥
वह उदास होकर भरत क माता कैकेयी के पास गई। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा तू उदास य
है? मंथरा कुछ उ र नह देती, केवल लंबी साँस ले रही है और ि याच र करके आँसू ढरका रही
है।
रानी हँसकर कहने लगी िक तेरे बड़े गाल ह (तू बहत बढ़-बढ़कर बोलनेवाली है)। मेरा मन
कहता है िक ल मण ने तुझे कुछ सीख दी है (दंड िदया है)। तब भी वह महापािपनी दासी कुछ भी
नह बोलती। ऐसी लंबी साँस छोड़ रही है, मानो काली नािगन (फुफकार छोड़ रही) हो।
तब रानी ने डरकर कहा - अरी! कहती य नह ? राम, राजा, ल मण, भरत और श ु न कुशल
से तो ह? यह सुनकर कुबरी मंथरा के दय म बड़ी ही पीड़ा हई॥ 13॥
कत िसख देइ हमिह कोउ माई। गालु करब केिह कर बलु पाई॥
रामिह छािड़ कुसल केिह आजू। जेिह जनेसु देइ जुबराजू॥
(वह कहने लगी -) हे माई! हम कोई य सीख देगा और म िकसका बल पाकर गाल क ँ गी
(बढ़-बढ़कर बोलँगू ी)। राम को छोड़कर आज और िकसक कुशल है, िज ह राजा युवराज-पद दे
रहे ह।
मंथरा के ि य वचन सुनकर िकंतु उसको मन क मैली जानकर रानी झुककर (डाँटकर) बोली -
बस, अब चुप रह घरफोड़ी कह क ! जो िफर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर िनकलवा
लँग
ू ी।
(और िफर बोल -) हे ि य वचन कहनेवाली मंथरा! मने तुझको यह सीख दी है (िश ा के िलए
इतनी बात कही है)। मुझे तुझ पर व न म भी ोध नह है। सुंदर मंगलदायक शुभ िदन वही
होगा, िजस िदन तेरा कहना स य होगा (अथात राम का रा यितलक होगा)।
जेठ वािम सेवक लघु भाई। यह िदनकर कुल रीित सहु ाई॥
राम ितलकु ज साँचहे ँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥
बड़ा भाई वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सयू वंश क सुहावनी रीित ही है। यिद सचमुच
कल ही राम का ितलक है, तो हे सखी! तेरे मन को अ छी लगे वही व तु माँग ले, म दँूगी।
तुझे भरत क सौगंध है, छल-कपट छोड़कर सच-सच कह। तू हष के समय िवषाद कर रही है,
मुझे इसका कारण सुना॥ 15॥
(मंथरा ने कहा -) सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने म परू ी हो गई ं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर
कुछ कहँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़ने ही यो य है, जो अ छी बात कहने पर भी आपको
दुःख होता है।
जो झठ
ू ी-स ची बात बनाकर कहते ह, हे माई! वे ही तु ह ि य ह और म कड़वी लगती हँ! अब म
भी ठकुरसुहाती (मँुह देखी) कहा क ँ गी। नह तो िदन-रात चुप रहँगी।
िवधाता ने कु प बनाकर मुझे परवश कर िदया! (दूसरे को या दोष) जो बोया सो काटती हँ,
िदया सो पाती हँ। कोई भी राजा हो, हमारी या हािन है? दासी छोड़कर या अब म रानी होऊँगी!
(अथात रानी तो होने से रही)।
जारै जोगु सभ
ु ाउ हमारा। अनभल देिख न जाइ तु हारा॥
तात कछुक बात अनस ु ारी। छिमअ देिब बिड़ चूक हमारी॥
हमारा वभाव तो जलाने ही यो य है। य िक तु हारा अिहत मुझसे देखा नह जाता। इसिलए
कुछ बात चलाई थी। िकंतु हे देवी! हमारी बड़ी भल
ू हई, मा करो।
बार-बार रानी उससे आदर के साथ पछ ू रही ह, मानो भीलनी के गान से िहरनी मोिहत हो गई हो।
जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही बुि भी िफर गई। दासी अपना दाँव लगा जानकर हिषत हई।
तुम पछ
ू ती हो, िकंतु म कहते डरती हँ। य िक तुमने पहले ही मेरा नाम घरफोड़ी रख िदया है।
बहत तरह से गढ़-छोलकर, खबू िव ास जमाकर, तब वह अयो या क साढ़साती (शिन क
साढ़े सात वष क दशा पी मंथरा) बोली -
हे रानी! तुमने जो कहा िक मुझे सीताराम ि य ह और राम को तुम ि य हो, सो यह बात स ची है।
परं तु यह बात पहले थी, वे िदन अब बीत गए। समय िफर जाने पर िम भी श ु हो जाते ह।
तुमको अपने सुहाग के (झठ ू े ) बल पर कुछ भी सोच नह है; राजा को अपने वश म जानती हो।
िकंतु राजा मन के मैले और मँुह के मीठे ह! और आपका सीधा वभाव है (आप कपट-चतुराई
जानती ही नह )॥ 17॥
राम क माता (कौस या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसक थाह कोई नह पाता)। उसने मौका
पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को निनहाल भेज िदया, उसम आप बस राम क
माता क ही सलाह समिझए!
(कौस या समझती है िक) और सब सौत तो मेरी अ छी तरह सेवा करती ह, एक भरत क माँ
पित के बल पर गिवत रहती है! इसी से हे माई! कौस या को तुम बहत ही साल (खटक) रही हो।
िकंतु वह कपट करने म चतुर है; अतः उसके दय का भाव जानने म नह आता (वह उसे चतुरता
से िछपाए रखती है)।
राजा का तुम पर िवशेष ेम है। कौस या सौत के वभाव से उसे देख नह सकती। इसिलए उसने
जाल रचकर राजा को अपने वश म करके, (भरत क अनुपि थित म) राम के राजितलक के िलए
ल न िन य करा िलया।
यह कुल उिचत राम कहँ टीका। सबिह सोहाइ मोिह सिु ठ नीका॥
आिगिल बात समिु झ ड मोही। देउ दैउ िफ र सो फलु ओही॥
राम को ितलक हो, यह कुल (रघुकुल) के उिचत ही है और यह बात सभी को सुहाती है; और मुझे
तो बहत ही अ छी लगती है। परं तु मुझे तो आगे क बात िवचारकर डर लगता है। दैव उलटकर
इसका फल उसी (कौस या) को दे।
इस तरह करोड़ कुिटलपन क बात गढ़-छोलकर मंथरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा िदया
और सैकड़ सौत क कहािनयाँ इस कार (बना-बनाकर) कह िजस कार िवरोध बढ़े ॥ 18॥
परू ा पखवाड़ा बीत गया सामान सजते और तुमने खबर पाई है आज मुझसे! म तु हारे राज म
खाती-पहनती हँ, इसिलए सच कहने म मुझे कोई दोष नह है।
दो० - क ूँ िबनतिह दी ह दख
ु ु तु हिह कौिसलाँ देब।
भरतु बंिदगहृ सेइहिहं लखनु राम के नेब॥ 19॥
क ू ने िवनता को दुःख िदया था, तु ह कौस या देगी। भरत कारागार का सेवन करगे (जेल क
हवा खाएँ गे) और ल मण राम के नायब (सहकारी) ह गे॥ 19॥
कैकयसतु ा सन
ु त कटु बानी। किह न सकइ कछु सहिम सखु ानी॥
तन पसेउ कदली िजिम काँपी। कुबर दसन जीभ तब चाँपी॥
िफर कपट क करोड़ कहािनयाँ कह-कहकर उसने रानी को खबू समझाया िक धीरज रखो!
कैकेयी का भा य पलट गया, उसे कुचाल यारी लगी। वह बगुली को हंिसनी मानकर (वै रन को
िहत मानकर) उसक सराहना करने लगी।
सनु ु मंथरा बात फु र तोरी। दिहिन आँिख िनत फरकइ मोरी॥
िदन ित देखउँ राित कुसपने। कहउँ न तोिह मोह बस अपने॥
कैकेयी ने कहा - मंथरा! सुन, तेरी बात स य है। मेरी दािहनी आँख िन य फड़का करती है। म
ितिदन रात को बुरे व न देखती हँ; िकंतु अपने अ ानवश तुझसे कहती नह ।
अपनी चलते (जहाँ तक मेरा वश चला) मने आज तक कभी िकसी का बुरा नह िकया। िफर न
जाने िकस पाप से दैव ने मुझे एक ही साथ यह दुःसह दुःख िदया॥ 20॥
म भले ही नैहर जाकर वह जीवन िबता दँूगी; पर जीते-जी सौत क चाकरी नह क ँ गी। दैव
िजसको श ु के वश म रखकर िजलाता है, उसके िलए तो जीने क अपे ा मरना ही अ छा है।
रानी ने बहत कार के दीन वचन कहे । उ ह सुनकर कुबरी ने ि याच र फै लाया। (वह बोली -)
तुम मन म लािन मानकर ऐसा य कह रही हो, तु हारा सुख-सुहाग िदन-िदन दूना होगा।
िजसने तु हारी बुराई चाही है, वही प रणाम म यह (बुराई प) फल पाएगी। हे वािमिन! मने जब
से यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो िदन म कुछ भख ू लगती है और न रात म न द ही आती है।
(कैकेयी ने कहा -) म तेरे कहने से कुएँ म िगर सकती हँ, पु और पित को भी छोड़ सकती हँ।
जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो भला म अपने िहत के िलए उसे य न
क ँ गी?॥ 21॥
सन
ु त बात मदृ ु अंत कठोरी। देित मनहँ मधु माहर घोरी॥
कहइ चे र सिु ध अहइ िक नाह । वािमिन किहह कथा मोिह पाह ॥
तु हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर ह। आज उ ह राजा से माँगकर अपनी छाती ठं डी करो। पु
को रा य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनंद तुम ले लो।
जब राजा राम क सौगंध खा ल, तब वर माँगना, िजससे वचन न टलने पावे। आज क रात बीत
गई, तो काम िबगड़ जाएगा। मेरी बात को दय से ि य (या ाण से भी यारी) समझना।
कुबरी को रानी ने ाण के समान ि य समझकर बार-बार उसक बड़ी बुि का बखान िकया
और बोली - संसार म मेरा तेरे समान िहतकारी और कोई नह है। तू मुझ बही जाती हई के िलए
सहारा हई है।
यिद िवधाता कल मेरा मनोरथ परू ा कर द तो हे सखी! म तुझे आँख क पुतली बना लँ।ू इस
कार दासी को बहत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन म चली गई।
िवपि (कलह) बीज है, दासी वषा-ऋतु है, कैकेयी क कुबुि (उस बीज के बोने के िलए) जमीन
हो गई। उसम कपट पी जल पाकर अंकुर फूट िनकला। दोन वरदान उस अंकुर के दो प े ह और
अंत म इसके दुःख पी फल होगा।
कोप समाजु सािज सबु सोई। राजु करत िनज कुमित िबगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचािल कछु जान न कोई॥
बड़े ही आनंिदत होकर नगर के सब ी-पु ष शुभ मंगलाचार के साज सज रहे ह। कोई भीतर
जाता है, कोई बाहर िनकलता है; राज ार म बड़ी भीड़ हो रही है॥ 23॥
बाल सखा सिु न िहयँ हरषाह । िमिल दस पाँच राम पिहं जाह ॥
भु आदरिहं मे ु पिहचानी। पूँछिहं कुसल खेम मदृ ु बानी॥
राम के बाल सखा राजितलक का समाचार सुनकर दय म हिषत होते ह। वे दस-पाँच िमलकर
राम के पास जाते ह। ेम पहचानकर भु राम उनका आदर करते ह और कोमल वाणी से कुशल
ेम पछ
ू ते ह।
नगर म सबक ऐसी ही अिभलाषा है, परं तु कैकेयी के दय म बड़ी जलन हो रही है। कुसंगित
पाकर कौन न नह होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नह रह जाती।
सं या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल म गए। मानो सा ात नेह ही
शरीर धारण कर िन रता के पास गया हो!॥ 24॥
कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नह पड़ता। वयं
देवराज इं िजनक भुजाओं के बल पर (रा स से िनभय होकर) बसता है और संपण
ू राजा लोग
िजनका ख देखते रहते ह।
राजा डरते-डरते अपनी यारी कैकेयी के पास गए। उसक दशा देखकर उ ह बड़ा ही दुःख हआ।
कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हए है। शरीर के नाना आभषू ण को उतारकर
फक िदया है।
उस दुबुि कैकेयी को यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी िवधवापन क सच
ू ना
दे रही हो। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले - हे ाणि ये! िकसिलए रसाई ( ठी)
हो?
'हे रानी! िकसिलए ठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से पश करते ह तो वह उनके हाथ को
(झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो ोध म भरी हई नािगन ू र ि से देख रही
हो। दोन (वरदान क ) वासनाएँ उस नािगन क दो जीभ ह और दोन वरदान दाँत ह; वह काटने
के िलए मम थान देख रही है। तुलसीदास कहते ह िक राजा दशरथ होनहार के वश म होकर इसे
(इस कार हाथ झटकने और नािगन क भाँित देखने को) कामदेव क ड़ा ही समझ रहे ह।
अनिहत तोर ि या केइँ क हा। केिह दइु िसर केिह जमु चह ली हा॥
कह केिह रं किह कर नरे सू। कह केिह नप
ृ िह िनकास देसू॥
हे ि ये! िकसने तेरा अिन िकया? िकसके दो िसर ह? यमराज िकसको लेना (अपने लोक को
ले जाना) चाहते ह? कह, िकस कंगाल को राजा कर दँू या िकस राजा को देश से िनकाल दँू?
तेरा श ु अमर (देवता) भी हो, तो म उसे भी मार सकता हँ। बेचारे क ड़े -मकोड़े -सरीखे नर-नारी
तो चीज ही या ह। हे सुंदरी! तू तो मेरा वभाव जानती ही है िक मेरा मन सदा तेरे मुख पी
चं मा का चकोर है।
ि या ान सत
ु सरबसु मोर। प रजन जा सकल बस तोर॥
ज कछु कह कपटु क र तोही। भािमिन राम सपथ सत मोही॥
तू हँसकर ( स नतापवू क) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंग को आभषू ण से
सजा। मौका-बेमौका तो मन म िवचार कर देख। हे ि ये! ज दी इस बुरे वेष को याग दे।
े पल
पिु न कह राउ सु द िजयँ जानी। म ु िक मदृ ु मंजुल बानी॥
भािमिन भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥
ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हँसकर िछपा िलया, जैसे चोर क ी कट होकर नह रोती
(िजसम उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसक कपट-चतुराई को नह देख रहे ह, य िक वह
करोड़ कुिटल क िशरोमिण गु मंथरा क पढ़ाई हई है।
ज िप नीित िनपन
ु नरनाह। ना रच रत जलिनिध अवगाह॥
कपट सनेह बढ़ाई बहोरी। बोली िबहिस नयन महु मोरी॥
य िप राजा नीित म िनपुण ह; परं तु ि याच र अथाह समु है। िफर वह कपटयु ेम बढ़ाकर
(ऊपर से ेम िदखाकर) ने और मँुह मोड़कर हँसती हई बोली -
राजा ने हँसकर कहा िक अब म तु हारा मम (मतलब) समझा। मान करना तु ह परम ि य है।
तुमने उन वर को थाती (धरोहर) रखकर िफर कभी माँगा ही नह और मेरा भल
ू ने का वभाव
होने से मुझे भी वह संग याद नह रहा।
मुझे झठ ू दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल म सदा से यह रीित चली आई है
ू -मठ
िक ाण भले ही चले जाएँ , पर वचन नह जाता।
उस पर मेरे ारा राम क शपथ करने म आ गई (मँुह से िनकल पड़ी)। रघुनाथ मेरे सुकृत (पु य)
और नेह क सीमा ह। इस कार बात प क कराके दुबुि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने
कुमत (बुरे िवचार) पी दु प ी (बाज) (को छोड़ने के िलए उस) क कुलही (आँख पर क
टोपी) खोल दी।
राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पि य का समुदाय है। उस पर भीलनी क तरह
कैकेयी अपना वचन पी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥ 28॥
सन
ु ह ानि य भावत जी का। देह एक बर भरतिह टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। परु वह नाथ मनोरथ मोरी॥
गयउ सहिम निहं कछु किह आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
िबबरन भयउ िनपट नरपाल।ू दािमिन हनेउ मनहँ त ताल॥
ू
राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज वन म बटेर पर झपटा हो। राजा का रं ग
िबलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को िबजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर िबजली िगरने
से वह झुलसकर बदरं गा हो जाता है, वही हाल राजा का हआ)।
माथ हाथ मूिद दोउ लोचन। तनु ध र सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सरु त फूला। फरत क रिन िजिम हतेउ समूला॥
माथे पर हाथ रखकर, दोन ने बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो सा ात सोच ही
शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते ह - हाय!) मेरा मनोरथ पी क पव ृ फूल चुका
था, परं तु फलते समय कैकेयी ने हिथनी क तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर न कर डाला।
इस कार राजा मन-ही-मन झीख रहे ह। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुबुि कैकेयी मन म
बुरी तरह से ोिधत हई। (और बोली -) या भरत आपके पु नह ह? या मुझे आप दाम देकर
खरीद लाए ह? ( या म आपक िववािहता प नी नह हँ?)।
आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीिजए। स य को छोड़ दीिजए और जगत म अपयश
लीिजए। स य क बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था िक यह चबेना ही माँग
लेगी!
िसिब दधीिच बिल जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अित कटु बचन कहित कैकेई। मानहँ लोन जरे पर देई॥
राजा िशिव, दधीिच और बिल ने जो कुछ कहा, शरीर और धन यागकर भी उ ह ने अपने वचन
क ित ा को िनबाहा। कैकेयी बहत ही कड़वे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक िछड़क
रही हो।
धम क धुरी को धारण करनेवाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर ने खोले और िसर धुनकर तथा
लंबी साँस लेकर इस कार कहा िक इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी किठन प रि थित उ प न
कर दी, िजससे बच िनकलना किठन हो गया)॥ 30॥
चंड ोध से जलती हई कैकेयी सामने इस कार िदखाई पड़ी, मानो ोध पी तलवार नंगी
( यान से बाहर) खड़ी हो। कुबुि उस तलवार क मठ
ू है, िन रता धार है और वह कुबरी
(मंथरा) पी सान पर धरकर तेज क हई है।
हे ि ये! हे भी ! िव ास और ेम को न करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे
तो भरत और राम दो आँख (अथात एक-से) ह; यह म शंकर क सा ी देकर स य कहता हँ।
राम क सौ बार सौगंध खाकर म वभाव से ही कहता हँ िक राम क माता (कौस या) ने (इस
ू े यह सब िकया। इसी से मेरा
िवषय म) मुझसे कभी कुछ नह कहा। अव य ही मने तुमसे िबना पछ
मनोरथ खाली गया।
अब ोध छोड़ दे और मंगल साज सज। कुछ ही िदन बाद भरत युवराज हो जाएँ गे। एक ही बात
का मुझे दुःख लगा िक तन
ू े दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का माँगा।
तू वयं भी राम क सराहना करती और उन पर नेह िकया करती थी। अब यह सुनकर मुझे
संदेह हो गया है (िक तु हारी शंसा और नेह कह झठ
ू े तो न थे?) िजसका वभाव श ु को भी
अनक ू ल है, वह माता के ितकूल आचरण य कर करे गा?
हे चतुर ि ये! जी म समझ देख, मेरा जीवन राम के दशन के अधीन है। राजा के कोमल वचन
सुनकर दुबुि कैकेयी अ यंत जल रही है। मानो अि न म घी क आहितयाँ पड़ रही ह।
(कैकेयी कहती है -) आप करोड़ उपाय य न कर, यहाँ आपक माया (चालबाजी) नह लगेगी।
या तो मने जो माँगा है सो दीिजए, नह तो 'नाह ' करके अपयश लीिजए। मुझे बहत पंच (बखेड़े)
नह सुहाते।
राम साधु ह, आप सयाने साधु ह और राम क माता भी भली ह; मने सबको पहचान िलया है।
कौस या ने मेरा जैसा भला चाहा है, म भी साका करके (याद रखने यो य) उ ह वैसा ही फल
दँूगी।
(सबेरा होते ही मुिन का वेष धारण कर यिद राम वन को नह जाते, तो हे राजन! मन म (िन य)
समझ लीिजए िक मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥ 33॥
ऐसा कहकर कुिटल कैकेयी उठ खड़ी हई, मानो ोध क नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप पी पहाड़
से कट हई है और ोध पी जल से भरी है; (ऐसी भयानक है िक) देखी नह जाती!
राजा ने समझ िलया िक बात सचमुच (वा तव म) स ची है, ी के बहाने मेरी म ृ यु ही िसर पर
नाच रही है। (तदनंतर राजा ने कैकेयी के) चरण पकड़कर उसे िबठाकर िवनती क िक तू
सयू कुल ( पी व ृ ) के िलए कु हाड़ी मत बन।
मागु माथ अबह देउँ तोही। राम िबरहँ जिन मारिस मोही॥
राखु राम कहँ जेिह तेिह भाँती। नािहं त ज रिह जनम भ र छाती॥
तू मेरा म तक माँग ले, म तुझे अभी दे दँू। पर राम के िवरह म मुझे मत मार। िजस िकसी कार से
हो तू राम को रख ले। नह तो ज मभर तेरी छाती जलेगी।
राजा ने देखा िक रोग असा य है, तब वे अ यंत आतवाणी से 'हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!' कहते
हए िसर पीटकर जमीन पर िगर पड़े ॥ 34॥
राजा याकुल हो गए, उनका सारा शरीर िशिथल पड़ गया, मानो हिथनी ने क पव ृ को उखाड़
ू गया, मुख से बात नह िनकलती, मानो पानी के िबना पिहना नामक मछली
फका हो। कंठ सख
तड़प रही हो।
कैकेयी िफर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घाव म जहर भर रही हो। (कहती है -) जो अंत
म ऐसा ही करना था, तो आपने 'माँग, माँग' िकस बल पर कहा था?
कैकेयी के ममभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा िक तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नह है।
मेरा काल तुझे मानो िपशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥ 35॥
सब
ु स बिसिह िफ र अवध सहु ाई। सब गन
ु धाम राम भत ु ाई॥
क रहिहं भाइ सकल सेवकाई। होइिह ितहँ परु राम बड़ाई॥
(तेरी उजाड़ी हई) यह सुंदर अयो या िफर भली-भाँित बसेगी और सम त गुण के धाम राम क
भुता भी होगी। सब भाई उनक सेवा करगे और तीन लोक म राम क बड़ाई होगी।
केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नह िमटेगा, यह िकसी तरह नह जाएगा। अब
तुझे जो अ छा लगे वही कर। मँुह िछपाकर मेरी आँख क ओट जा बैठ (अथात मेरे सामने से हट
जा, मुझे मँुह न िदखा)।
राजा करोड़ कार से (बहत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) िक तू य सवनाश कर
रही है, प ृ वी पर िगर पड़े । पर कपट करने म चतुर कैकेयी कुछ बोलती नह , मानो (मौन होकर)
मसान जगा रही हो ( मशान म बैठकर ेतमं िस कर रही हो)॥ 36॥
राजा 'राम-राम' रट रहे ह और ऐसे याकुल ह, जैसे कोई प ी पंख के िबना बेहाल हो। वे अपने
दय म मनाते ह िक सबेरा न हो और कोई जाकर राम से यह बात न कहे ।
हे रघुकुल के गु (बड़े रे मल
ू पु ष) सय
ू भगवान! आप अपना उदय न कर। अयो या को (बेहाल)
देखकर आपके दय म बड़ी पीड़ा होगी। राजा क ीित और कैकेयी क िन रता दोन को ा
ने सीमा तक रचकर बनाया है (अथात राजा ेम क सीमा है और कैकेयी िन रता क )।
िवलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज ार पर वीणा, बाँसुरी और शंख क विन
होने लगी। भाट लोग िव दावली पढ़ रहे ह और गवैए गुण का गान कर रहे ह। सुनने पर राजा
को वे बाण-जैसे लगते ह।
राजा को ये सब मंगल-साज कैसे नह सुहा रहे ह, जैसे पित के साथ सती होनेवाली ी को
आभषू ण! राम के दशन क लालसा और उ साह के कारण उस राि म िकसी को भी न द नह
आई।
राजा िन य ही रात के िपछले पहर जाग जाया करते ह, िकंतु आज हम बड़ा आ य हो रहा है। हे
सुमं ! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनक आ ा पाकर हम सब काम कर।
तब सुमं रावले (राजमहल) म गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हए डर रहे ह। (ऐसा
लगता है) मानो दौड़कर काट खाएगा, उसक ओर देखा भी नह जाता। मानो िवपि और िवषाद
ने वहाँ डे रा डाल रखा हो।
ू ने पर कोई जवाब नह देता; वे उस महल म गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे। 'जय जीव'
पछ
कहकर िसर नवाकर (वंदना करके) बैठे और राजा क दशा देखकर तो वे सख ू ही गए।
(देखा िक -) राजा सोच से याकुल ह, चेहरे का रं ग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े ह, मानो
कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) (मुझाया) पड़ा हो। मं ी मारे डर के कुछ पछ ू नह सकते।
तब अशुभ से भरी हई और शुभ से िवहीन कैकेयी बोली -
सुमं सोच से याकुल ह, रा ते पर पैर नह पड़ता (आगे बढ़ा नह जाता), (सोचते ह -) राम को
बुलाकर राजा या कहगे? िकसी तरह दय म धीरज धरकर वे ार पर गए। सब लोग उनको
मन मारे (उदास) देखकर पछ
ू ने लगे।
सब लोग का समाधान करके (िकसी तरह समझा-बुझाकर) सुमं वहाँ गए, जहाँ सयू कुल के
ितलक राम थे। राम ने सुमं को आते देखा तो िपता के समान समझकर उनका आदर िकया।
राम के मुख को देखकर और राजा क आ ा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक राम को (अपने साथ)
िलवा चले। राम मं ी के साथ बुरी तरह से (िबना िकसी लवाजमे के) जा रहे ह, यह देखकर लोग
जहाँ-तहाँ िवषाद कर रहे ह।
रघुवंशमिण राम ने जाकर देखा िक राजा अ यंत ही बुरी हालत म पड़े ह, मानो िसंहनी को
देखकर कोई बढ़ ू ा गजराज सहमकर िगर पड़ा हो॥ 39॥
राजा के ओठ सख ू रहे ह और सारा शरीर जल रहा है, मानो मिण के िबना साँप दुःखी हो रहा हो।
पास ही ोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो (सा ात) म ृ यु ही बैठी (राजा के जीवन क अंितम)
घिड़याँ िगन रही हो।
हे माता! मुझे िपता के दुःख का कारण कहो तािक उसका िनवारण हो (दुःख दूर हो) वह य न
िकया जाए। (कैकेयी ने कहा -) हे राम! सुनो, सारा कारण यही है िक राजा का तुम पर बहत
नेह है।
इ ह ने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अ छा लगा, वही मने माँगा। उसे सुनकर
राजा के दय म सोच हो गया; य िक ये तु हारा संकोच नह छोड़ सकते।
दो० - सत
ु सनेह इत बचनु उत संकट परे उ नरे स।ु
सकह त आयसु धरह िसर मेटह किठन कलेस॥ु 40॥
इधर तो पु का नेह है और उधर वचन ( ित ा); राजा इसी धमसंकट म पड़ गए ह। यिद तुम
कर सकते हो, तो राजा क आ ा िशरोधाय करो और इनके किठन लेश को िमटाओ॥ 40॥
कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है िजसे सुनकर वयं कठोरता भी अ यंत
याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहत-से तीर ह और मानो राजा ही कोमल िनशाने के
समान ह।
(इस सारे साज-समान के साथ) मानो वयं कठोरपन े वीर का शरीर धारण करके धनुष
िव ा सीख रहा है। रघुनाथ को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो िन रता ही शरीर धारण
िकए हए हो।
मन मस ु क
ु ाइ भानक
ु ु ल भानू। रामु सहज आनंद िनधानू॥
बोले बचन िबगत सब दूषन। मदृ ु मंजुल जनु बाग िबभूषन॥
ू कुल के सय
सय ू , वाभािवक ही आनंदिनधान राम मन म मुसकराकर सब दूषण से रिहत ऐसे
कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भषू ण ही थे -
सन
ु ु जननी सोइ सतु ु बड़भागी। जो िपतु मातु बचन अनरु ागी॥
तनय मातु िपतु तोषिनहारा। दल
ु भ जनिन सकल संसारा॥
हे माता! सुनो, वही पु बड़भागी है, जो िपता-माता के वचन का अनुरागी (पालन करनेवाला)
है। (आ ा-पालन ारा) माता-िपता को संतु करनेवाला पु , हे जननी! सारे संसार म दुलभ है।
वन म िवशेष प से मुिनय का िमलाप होगा, िजसम मेरा सभी कार से क याण है। उसम भी,
िफर िपता क आ ा और हे जननी! तु हारी स मित है,॥ 41॥
और ाणि य भरत रा य पाएँ गे। (इन सभी बात को देखकर यह तीत होता है िक) आज िवधाता
सब कार से मुझे स मुख ह (मेरे अनुकूल ह)। यिद ऐसे काम के िलए भी म वन को न जाऊँ तो
मख
ू के समाज म सबसे पहले मेरी िगनती करनी चािहए।
हे माता! मुझे एक ही दुःख िवशेष प से हो रहा है, वह महाराज को अ यंत याकुल देखकर। इस
थोड़ी-सी बात के िलए ही िपता को इतना भारी दुःख हो, हे माता! मुझे इस बात पर िव ास नह
होता।
राउ धीर गन
ु उदिध अगाधू। भा मोिह त कछु बड़ अपराधू॥
जात मोिह न कहत कछु राऊ। मो र सपथ तोिह कह सितभाऊ॥
य िक महाराज तो बड़े ही धीर और गुण के अथाह समु ह। अव य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध
हो गया है, िजसके कारण महाराज मुझसे कुछ नह कहते। तु ह मेरी सौगंध है, माता! तुम सच-
सच कहो।
रघुकुल म े राम के वभाव से ही सीधे वचन को दुबुि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है;
जैसे य िप जल समान ही होता है, परं तु ज क उसम टेढ़ी चाल से ही चलती है॥ 42॥
रानी कैकेयी राम का ख पाकर हिषत हो गई और कपटपण ू नेह िदखाकर बोली - तु हारी
शपथ और भरत क सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण िविदत नह है।
िपतिह बझ
ु ाइ कहह बिल सोई। चौथपन जेिहं अजसु न होई॥
तु ह सम सअु न सक
ु ृ त जेिहं दी हे। उिचत न तासु िनराद क हे॥
म तु हारी बिलहारी जाती हँ, तुम िपता को समझाकर वही बात कहो, िजससे चौथेपन (बुढ़ापे) म
इनका अपयश न हो। िजस पु य ने इनको तुम जैसे पु िदए ह, उसका िनरादर करना उिचत
नह ।
कैकेयी के बुरे मुख म ये शुभ वचन कैसे लगते ह जैसे मगध देश म गया आिदक तीथ! राम को
माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अ छे लगे जैसे गंगा म जाकर (अ छे -बुरे सभी कार के) जल
शुभ, सुंदर हो जाते ह।
नेह से िवकल राजा ने राम को दय से लगा िलया। मानो साँप ने अपनी खोई हई मिण िफर से
पा ली हो। राजा दशरथ राम को देखते ही रह गए। उनके ने से आँसुओ ं क धारा बह चली।
िफर महादेव का मरण करके उनसे िनहोरा करते हए कहते ह - हे सदािशव! आप मेरी िवनती
सुिनए। आप आशुतोष (शी स न होनेवाले) और अवढरदानी (मँुहमाँगा दे डालनेवाले) ह। अतः
मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर क िजए।
जगत म चाहे अपयश हो और सुयश न हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) म नरक म िग ँ ,
अथवा वग चला जाए (पवू पु य के फल व प िमलनेवाला वग चाहे मुझे न िमले)। और भी
सब कार के दुःसह दुःख आप मुझसे सहन करा ल। पर राम मेरी आँख क ओट न ह ।
देश, काल और अवसर के अनुकूल िवचार कर िवनीत वचन कहे - हे तात! म कुछ कहता हँ, यह
िढठाई करता हँ। इस अनौिच य को मेरी बा याव था समझकर मा क िजएगा।
इस अ यंत तु छ बात के िलए आपने इतना दुःख पाया। मुझे िकसी ने पहले कहकर यह बात नह
जनाई। वामी (आप) को इस दशा म देखकर मने माता से पछ ू ा। उनसे सारा संग सुनकर मेरे
सब अंग शीतल हो गए (मुझे बड़ी स नता हई)।
हे िपता! इस मंगल के समय नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीिजए और दय म स न होकर
मुझे आ ा दीिजए। यह कहते हए भु राम सवाग पुलिकत हो गए॥ 45॥
ऐसा कहकर तब राम वहाँ से चल िदए। राजा ने शोकवश कोई उ र नह िदया। वह बहत ही
तीखी (अि य) बात नगर भर म इतनी ज दी फै ल गई मानो डं क मारते ही िब छू का िवष सारे
शरीर म चढ़ गया हो।
दो० - मख
ु सख
ु ािहं लोचन विहं सोकु न दयँ समाइ।
मनहँ क न रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥ 46॥
सबके मुख सख
ू े जाते ह, आँख से आँसू बहते ह, शोक दय म नह समाता। मानो क णा रस
क सेना अवध पर डं का बजाकर उतर आई हो॥ 46॥
िमलेिह माझ िबिध बात बेगारी। जहँ तहँ देिहं कैकइिह गारी॥
एिह पािपिनिह बूिझ का परे ऊ। छाइ भवन पर पावकु धरे ऊ॥
सब मेल िमल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने म ही िवधाता ने बात िबगाड़ दी! जहाँ-
तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रहे ह! इस पािपन को या सझ
ू पड़ा जो इसने छाये घर पर आग
रख दी।
यह अपने हाथ से अपनी आँख को िनकालकर (आँख के िबना ही) देखना चाहती है, और अमतृ
फककर िवष चखना चाहती है! यह कुिटल, कठोर, दुबुि और अभािगनी कैकेयी रघुवंश पी
बाँस के वन के िलए अि न हो गई!
प े पर बैठकर इसने पेड़ को काट डाला। सुख म शोक का ठाट ठटकर रख िदया! राम इसे सदा
ाण के समान ि य थे। िफर भी न जाने िकस कारण इसने यह कुिटलता ठानी।
स य कहिहं किब ना र सभ
ु ाऊ। सब िबिध अगह अगाध दरु ाऊ॥
िनज ितिबंबु ब कु गिह जाई। जािन न जाइ ना र गित भाई॥
का सन
ु ाइ िबिध काह सन
ु ावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहिहं भल भूप न क हा। ब िबचा र निहं कुमितिह दी हा॥
जो हठ करके (कैकेयी क बात को परू ा करने म अड़े रहकर) वयं सब दुःख के पा हो गए।
ी के िवशेष वश होने के कारण मानो उनका ान और गुण जाता रहा। एक (दूसरे ) जो धम क
मयादा को जानते ह और सयाने ह, वे राजा को दोष नह देते।
चं मा चाहे (शीतल िकरण क जगह) आग क िचनगा रयाँ बरसाने लगे और अमत ृ चाहे िवष के
समान हो जाए, परं तु भरत व न म भी कभी राम के िव कुछ नह करगे॥ 48॥
(वे कहती ह -) तुम तो सदा कहा करती थ िक राम के समान मुझको भरत भी यारे नह ह; इस
बात को सारा जगत जानता है। राम पर तो तुम वाभािवक ही नेह करती रही हो। आज िकस
अपराध से उ ह वन देती हो?
कबहँ न िकयह सवित आरे सू। ीित तीित जान सबु देसू॥
कौस याँ अब काह िबगारा। तु ह जेिह लािग ब परु पारा॥
या सीता अपने पित (राम) का साथ छोड़ दगी? या ल मण राम के िबना घर रह सकगे? या
भरत राम के िबना अयो यापुरी का रा य भोग सकगे? और या राजा राम के िबना जीिवत रह
सकगे? (अथात न सीता यहाँ रहगी, न ल मण रहगे, न भरत रा य करगे और न राजा ही
जीिवत रहगे; सब उजाड़ हो जाएगा।)॥ 49॥
राम रा य के भख
ू े नह ह। वे धम क धुरी को धारण करनेवाले और िवषय-रस से खे ह (अथात
उनम िवषयासि है ही नह )। इसिलए तुम यह शंका न करो िक राम वन न गए तो भरत के
रा य म िव न करगे; इतने पर भी मन न माने तो) तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो िक
राम घर छोड़कर गु के घर रह।
जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तु हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यिद तुमने कुछ हँसी क हो
तो उसे कट म कहकर जना दो (िक मने िद लगी क है)।
िजस तरह (नगर भर का) शोक और (तु हारा) कलंक िमटे, वही उपाय करके कुल क र ा कर।
वन जाते हए राम को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदास कहते ह - जैसे
सयू के िबना िदन, ाण के िबना शरीर और चं मा के िबना रात (िनज व तथा शोभाहीन हो जाती
है), वैसे ही राम के िबना अयो या हो जाएगी, हे भािमनी! तू अपने दय म इस बात को समझ
(िवचारकर देख) तो सही।
इस कार सिखय ने ऐसी सीख दी जो सुनने म मीठी और प रणाम म िहतकारी थी। पर कुिटला
कुबरी क िसखाई-पढ़ाई हई कैकेयी ने इस पर जरा भी कान नह िदया॥ 50॥
उत न देइ दस
ु ह रस खी। मिृ ग ह िचतव जनु बािघिन भूखी॥
यािध असािध जािन ित ह यागी। चल कहत मितमंद अभागी॥
कैकेयी कोई उ र नह देती, वह दुःसह ोध के मारे खी (बेमुर वत) हो रही है। ऐसे देखती है
मानो भखू ी बािघन ह रिनय को देख रही हो। तब सिखय ने रोग को असा य समझकर उसे छोड़
िदया। सब उसको मंदबुि , अभािगनी कहती हई चल द ।
रा य करते हए इस कैकेयी को दैव ने न कर िदया। इसने जैसा कुछ िकया, वैसा कोई भी न
करे गा! नगर के सब ी-पु ष इस कार िवलाप कर रहे ह और उस कुचाली कैकेयी को करोड़
गािलयाँ दे रहे ह।
लोग िवषम वर (भयानक दुःख क आग) से जल रहे ह। लंबी साँस लेते हए वे कहते ह िक राम
के िबना जीने क कौन आशा है। महान िवयोग (क आशंका) से जा ऐसी याकुल हो गई है
मानो पानी सखू ने के समय जलचर जीव का समुदाय याकुल हो!
सभी पु ष और ि याँ अ यंत िवषाद के वश हो रहे ह। वामी राम माता कौस या के पास गए।
उनका मुख स न है और िच म चौगुना चाव (उ साह) है। यह सोच िमट गया है िक राजा कह
रख न ल। (राम को राजितलक क बात सुनकर िवषाद हआ था िक सब भाइय को छोड़कर बड़े
भाई मुझको ही राजितलक य होता है। अब माता कैकेयी क आ ा और िपता क मौन स मित
पाकर वह सोच िमट गया।)
दो० - नव गयंदु रघब
ु ीर मनु राजु अलान समान।
छूट जािन बन गवनु सिु न उर अनंदु अिधकान॥ 51॥
रघुकुल ितलक राम ने दोन हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरण म िसर नवाया। माता ने
आशीवाद िदया, अपने दय से लगा िलया और उन पर गहने तथा कपड़े िनछावर िकए।
बार-बार मख
ु चंबु ित माता। नयन नेह जलु पल
ु िकत गाता॥
गोद रािख पिु न दयँ लगाए। वत म े रस पयद सहु ाए॥
उनका ेम और महान आनंद कुछ कहा नह जाता। मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा िलया हो।
बड़े आदर के साथ संुदर मुख देखकर माता मधुर वचन बोल -
हे तात! माता बिलहारी जाती है, कहो, वह आनंद-मंगलकारी ल न कब है, जो मेरे पु य, शील
और सुख क सुंदर सीमा है और ज म लेने के लाभ क पण ू तम अविध है;
तथा िजस (ल न) को सभी ी-पु ष अ यंत याकुलता से इस कार चाहते ह िजस कार
यास से चातक और चातक शरद ऋतु के वाित न क वषा को चाहते ह॥ 52॥
हे तात! म बलैया लेती हँ, तुम ज दी नहा लो और जो मन भाए, कुछ िमठाई खा लो। भैया! तब
िपता के पास जाना। बहत देर हो गई है, माता बिलहारी जाती है।
माता के अ यंत अनुकूल वचन सुनकर - जो मानो नेह पी क पव ृ के फूल थे, जो सुख पी
मकरं द (पु परस) से भरे थे और (राजल मी) के मल
ू थे - ऐसे वचन पी फूल को देखकर राम
का मन पी भ रा उन पर नह भल ू ा।
धरम धरु ीन धरम गित जानी। कहेउ मातु सन अित मदृ ु बानी॥
िपताँ दी ह मोिह कानन राजू। जहँ सब भाँित मोर बड़ काजू॥
धमधुरीण राम ने धम क गित को जानकर माता से अ यंत कोमल वाणी से कहा - हे माता! िपता
ने मुझको वन का रा य िदया है, जहाँ सब कार से मेरा बड़ा काम बननेवाला है।
चौदह वष वन म रहकर, िपता के वचन को मािणत (स य) कर, िफर लौटकर तेरे चरण का
दशन क ँ गा; तू मन को लान (दुःखी) न कर॥ 53॥
ध र धीरजु सत
ु बदनु िनहारी। गदगद बचन कहित महतारी॥
तात िपतिह तु ह ानिपआरे । देिख मिु दत िनत च रत तु हारे ॥
धीरज धरकर, पु का मुख देखकर माता गदगद वचन कहने लग - हे तात! तुम तो िपता को
ाण के समान ि य हो। तु हारे च र को देखकर वे िन य स न होते थे।
राजु देन कहँ सभु िदन साधा। कहेउ जान बन केिहं अपराधा॥
तात सन ु ावह मोिह िनदानू। को िदनकर कुल भयउ कृसानू॥
रा य देने के िलए उ ह ने ही शुभ िदन शोधवाया था। िफर अब िकस अपराध से वन जाने को
कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सय ू वंश ( पी वन) को जलाने के िलए अि न कौन
हो गया?
धम और नेह दोन ने कौस या क बुि को घेर िलया। उनक दशा साँप-छछूँदर क -सी हो गई।
वे सोचने लग िक यिद म अनुरोध (हठ) करके पु को रख लेती हँ तो धम जाता है और भाइय
म िवरोध होता है;
सरल वभाववाली राम क माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोल - हे तात! म बिलहारी जाती हँ,
तुमने अ छा िकया। िपता क आ ा का पालन करना ही सब धम का िशरोमिण धम है।
रा य देने को कहकर वन दे िदया, उसका मुझे लेशमा भी दुःख नह है। (दुःख तो इस बात का
है िक) तु हारे िबना भरत को, महाराज को और जा को बड़ा भारी लेश होगा॥ 55॥
हे तात! यिद केवल िपता क ही आ ा हो, तो माता को (िपता से) बड़ी जानकर वन को मत
जाओ। िकंतु यिद िपता-माता दोन ने वन जाने को कहा हो, तो वन तु हारे िलए सैकड़ अयो या
के समान है।
वन के देवता तु हारे िपता ह गे और वनदेिवयाँ माता ह गी। वहाँ के पशु-प ी तु हारे चरणकमल
के सेवक ह गे। राजा के िलए अंत म तो वनवास करना उिचत ही है। केवल तु हारी (सुकुमार)
अव था देखकर दय म दुःख होता है।
हे रघुवंश के ितलक! वन बड़ा भा यवान है और यह अवध अभागी है, िजसे तुमने याग िदया। हे
पु ! यिद म कहँ िक मुझे भी साथ ले चलो तो तु हारे दय म संदेह होगा (िक माता इसी बहाने
मुझे रोकना चाहती ह)।
यह सोचकर झठ ू ा नेह बढ़ाकर म हठ नह करती! बेटा! म बलैया लेती हँ, माता का नाता
मानकर मेरी सुध भल
ू न जाना॥ 56॥
हे गोसाई ं! सब देव और िपतर तु हारी वैसी ही र ा कर, जैसे पलक आँख क र ा करती ह।
तु हारे वनवास क अविध (चौदह वष) जल है, ि यजन और कुटुंबी मछली ह। तुम दया क खान
और धम क धुरी को धारण करनेवाले हो।
ऐसा िवचारकर वही उपाय करना िजसम सबके जीते-जी तुम आ िमलो। म बिलहारी जाती हँ, तुम
सेवक , प रवारवाल और नगर भर को अनाथ करके सुखपवू क वन को जाओ।
आज सबके पु य का फल परू ा हो गया। किठन काल हमारे िवपरीत हो गया। (इस कार) बहत
िवलाप करके और अपने को परम अभािगनी जानकर माता राम के चरण म िलपट गई ं।
सास ने कोमल वाणी से आशीवाद िदया। वे सीता को अ यंत सुकुमारी देखकर याकुल हो उठ ।
प क रािश और पित के साथ पिव ेम करनेवाली सीता नीचा मुख िकए बैठी सोच रही ह।
जीवननाथ ( ाणनाथ) वन को चलना चाहते ह। देख िकस पु यवान से उनका साथ होगा - शरीर
और ाण दोन साथ जाएँ गे या केवल ाण ही से इनका साथ होगा? िवधाता क करनी कुछ
जानी नह जाती।
सीता अपने संुदर चरण के नख से धरती कुरे द रही ह। ऐसा करते समय नपू ुर का जो मधुर
श द हो रहा है, किव उसका इस कार वणन करते ह िक मानो ेम के वश होकर नपू ुर यह
िवनती कर रहे ह िक सीता के चरण कभी हमारा याग न कर।
सीता सुंदर ने से जल बहा रही ह। उनक यह दशा देखकर राम क माता कौस या बोल - हे
तात! सुनो, सीता अ यंत ही सुकुमारी ह तथा सास, ससुर और कुटुंबी सभी को यारी ह।
िफर मने प क रािश, सुंदर गुण और शीलवाली यारी पु वधू पाई है। मने इन (जानक ) को
आँख क पुतली बनाकर इनसे ेम बढ़ाया है और अपने ाण इनम लगा रखे ह।
इ ह क पलता के समान मने बहत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ नेह पी जल से स चकर
पाला है। अब इस लता के फूलने-फलने के समय िवधाता वाम हो गए। कुछ जाना नह जाता िक
इसका या प रणाम होगा।
सीता ने पयकप ृ (पलंग के ऊपर), गोद और िहंडोले को छोड़कर कठोर प ृ वी पर कभी पैर नह
रखा। म सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनक रखवाली करती रही हँ! कभी
दीपक क ब ी हटाने को भी नह कहती।
वही सीता अब तु हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे या आ ा होती है? चं मा क
िकरण का रस (अमत ृ ) चाहनेवाली चकोरी सय
ू क ओर आँख िकस तरह िमला सकती है।
माता कहती ह - यिद सीता घर म रह तो मुझको बहत सहारा हो जाए। राम ने माता क ि य वाणी
सुनकर, जो मानो शील और नेह पी अमत ृ से सनी हई थी,
जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भािमनी! मेरी आ ा का
पालन होगा, सास क सेवा बन पड़े गी। घर रहने म सभी कार से भलाई है।
आदरपवू क सास-ससुर के चरण क पज ू ा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धम नह है। जब-
जब माता मुझे याद करगी और ेम से याकुल होने के कारण उनक बुि भोली हो जाएगी (वे
अपने-आपको भल ू जाएँ गी),
हे सुमुिख! हे सयानी! सुनो, म भी िपता के वचन को स य करके शी ही लौटूँगा। िदन जाते देर
नह लगेगी। हे सुंदरी! हमारी यह सीख सुनो!
ज हठ करह मे बस बामा। तौ तु ह दख
ु ु पाउब प रनामा॥
काननु किठन भयंक भारी। घोर घामु िहम बा र बयारी॥
हे वामा! यिद ेमवश हठ करोगी, तो तुम प रणाम म दुःख पाओगी। वन बड़ा किठन
( लेशदायक) और भयानक है। वहाँ क धपू , जाड़ा, वषा और हवा सभी बड़े भयानक ह।
मनु य को खानेवाले िनशाचर (रा स) िफरते रहते ह। वे करोड़ कार के कपट- प धारण कर
लेते ह। पहाड़ का पानी बहत ही लगता है। वन क िवपि बखानी नह जा सकती।
हे हंसगािमनी! तुम वन के यो य नह हो। तु हारे वन जाने क बात सुनकर लोग मुझे अपयश
दगे (बुरा कहगे)। मानसरोवर के अमत
ृ के समान जल से पाली हई हंिसनी कह खारे समु म जी
सकती है।
सिु न मदृ ु बचन मनोहर िपय के। लोचन लिलत भरे जल िसय के॥
सीतल िसख दाहक भइ कैस। चकइिह सरद चंद िनिस जैस॥
ि यतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीता के सुंदर ने जल से भर गए। राम क यह
शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हई, जैसे चकवी को शरद ऋतु क चाँदनी रात होती है।
सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लग - हे देिव! मेरी इस बड़ी भारी िढठाई को मा
क िजए। मुझे ाणपित ने वही िश ा दी है, िजससे मेरा परम िहत हो।
परं तु मने मन म समझकर देख िलया िक पित के िवयोग के समान जगत म कोई दुःख नह है।
माता, िपता, बहन, यारा भाई, यारा प रवार, िम का समुदाय, सास, ससुर, गु , वजन (बंधु-
बांधव), सहायक और सुंदर, सुशील और सुख देनेवाला पु - ।
जहँ लिग नाथ नेह अ नाते। िपय िबनु ितयिह तरिनह ते ताते॥
तनु धनु धामु धरिन परु राजू। पित िबहीन सबु सोक समाजू॥
भोग रोग के समान ह, गहने भार प ह और संसार यम-यातना (नरक क पीड़ा) के समान है।
हे ाणनाथ! आपके िबना जगत म मुझे कह कुछ भी सुखदायी नह है।
िजय िबनु देह नदी िबनु बारी। तैिसअ नाथ पु ष िबनु नारी॥
नाथ सकल सख ु साथ तु हार। सरद िबमल िबधु बदनु िनहार॥
जैसे िबना जीव के देह और िबना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! िबना पु ष के ी है। हे नाथ!
आपके साथ रहकर आपका शरद-(पिू णमा) के िनमल चं मा के समान मुख देखने से मुझे
सम त सुख ा ह गे।
हे नाथ! आपके साथ प ी और पशु ही मेरे कुटुंबी ह गे, वन ही नगर और व ृ क छाल ही िनमल
व ह गे और पणकुटी (प क बनी झोपड़ी) ही वग के समान सुख क मल ू होगी॥ 65॥
कंद, मलू और फल ही अमत ृ के समान आहार ह गे और (वन के) पहाड़ ही अयो या के सैकड़
राजमहल के समान ह गे। ण- ण म भु के चरण कमल को देख-देखकर म ऐसी आनंिदत
रहँगी जैसे िदन म चकवी रहती है।
हे नाथ! आपने वन के बहत-से दुःख और बहत-से भय, िवषाद और संताप कहे । परं तु हे
कृपािनधान! वे सब िमलकर भी भु (आप) के िवयोग (से होनेवाले दुःख) के लवलेश के समान
भी नह हो सकते।
अस िजयँ जािन सज
ु ान िसरोमिन। लेइअ संग मोिह छािड़अ जिन॥
िबनती बहत कर का वामी। क नामय उर अंतरजामी॥
ऐसा जी म जानकर, हे सुजान िशरोमिण! आप मुझे साथ ले लीिजए, यहाँ न छोिड़ए। हे वामी! म
अिधक या िवनती क ँ ? आप क णामय ह और सबके दय के अंदर क जाननेवाले ह।
हे दीनबंधु! हे सुंदर! हे सुख देनेवाले! हे शील और ेम के भंडार! यिद अविध (चौदह वष) तक
मुझे अयो या म रखते ह, तो जान लीिजए िक मेरे ाण नह रहगे॥ 66॥
ण- ण म आपके चरण कमल को देखते रहने से मुझे माग चलने म थकावट न होगी। हे
ि यतम! म सभी कार से आपक सेवा क ँ गी और माग चलने से होनेवाली सारी थकावट को
दूर कर दँूगी।
आपके पैर धोकर, पेड़ क छाया म बैठकर, मन म स न होकर हवा क ँ गी (पंखा झलँग
ू ी)।
पसीने क बँदू सिहत याम शरीर को देखकर - ाणपित के दशन करते हए दुःख के िलए मुझे
अवकाश ही कहाँ रहे गा।
समतल भिू म पर घास और पेड़ के प े िबछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार
आपक कोमल मिू त को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी।
भु के साथ (रहते) मेरी ओर (आँख उठाकर) देखनेवाला कौन है (अथात कोई नह देख
सकता)! जैसे िसंह क ी (िसंहनी) को खरगोश और िसयार नह देख सकते। म सुकुमारी हँ
और नाथ वन के यो य ह? आपको तो तप या उिचत है और मुझको िवषय-भोग?
दो० - ऐसेउ बचन कठोर सिु न ज न दउ िबलगान।
तौ भु िबषम िबयोग दख
ु सिहहिहं पावँर ान॥ 67॥
राम ने ि य वचन कहकर ि यतमा सीता को समझाया। िफर माता के पैर लगकर आशीवाद ा
िकया। (माता ने कहा -) बेटा! ज दी लौटकर जा के दुःख को िमटाना और यह िनठुर माता
तु ह भलू न जाए!
हे िवधाता! या मेरी दशा भी िफर पलटेगी? या अपने ने से म इस मनोहर जोड़ी को िफर देख
पाऊँगी? हे पु ! वह सुंदर िदन और शुभ घड़ी कब होगी जब तु हारी जननी जीते-जी तु हारा
चाँद-सा मुखड़ा िफर देखेगी!
हे तात! 'व स' कहकर, 'लाल' कहकर, 'रघुपित' कहकर, 'रघुवर' कहकर, म िफर कब तु ह
बुलाकर दय से लगाऊँगी और हिषत होकर तु हारे अंग को देखँग ू ी!॥ 68॥
लिख सनेह कात र महतारी। बचनु न आव िबकल भइ भारी॥
राम बोधु क ह िबिध नाना। समउ सनेह न जाइ बखाना॥
तब जानक सास के पाँव लग और बोल - हे माता! सुिनए, म बड़ी ही अभािगनी हँ। आपक सेवा
करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे िदया। मेरा मनोरथ सफल न िकया।
तजब छोभु जिन छािड़अ छोह। करमु किठन कछु दोसु न मोह॥
सिु निसय बचन सासु अकुलानी। दसा कविन िबिध कह बखानी॥
आप ोभ का याग कर द, परं तु कृपा न छोिड़एगा। कम क गित किठन है, मुझे भी कुछ दोष
नह है। सीता के वचन सुनकर सास याकुल हो गई ं। उनक दशा को म िकस कार बखान कर
कहँ!
जब ल मण ने समाचार पाए, तब वे याकुल होकर उदास-मँुह उठ दौड़े । शरीर काँप रहा है,
रोमांच हो रहा है, ने आँसुओ ं से भरे ह। ेम से अ यंत अधीर होकर उ ह ने राम के चरण पकड़
िलए।
किह न सकत कछु िचतवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल त काढ़े॥
सोचु दयँ िबिध का होिनहारा। सबु सख
ु ु सक
ु ृ तु िसरान हमारा॥
वे कुछ कह नह सकते, खड़े -खड़े देख रहे ह। (ऐसे दीन हो रहे ह) मानो जल से िनकाले जाने
पर मछली दीन हो रही हो। दय म यह सोच है िक हे िवधाता! या होनेवाला है? या हमारा सब
सुख और पु य परू ा हो गया?
मुझको रघुनाथ या कहगे? घर पर रखगे या साथ ले चलगे? राम ने भाई ल मण को हाथ जोड़े
और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हए खड़े देखा।
तब नीित म िनपुण और शील, नेह, सरलता और सुख के समु राम वचन बोले - हे तात!
प रणाम म होनेवाले आनंद को दय म समझकर तुम ेमवश अधीर मत होओ।
हे भाई! दय म ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-िपता के चरण क सेवा करो। भरत और
श ु न घर पर नह ह, महाराज व ृ ह और उनके मन म मेरा दुःख है।
हे तात! ऐसी नीित िवचारकर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही ल मण बहत ही याकुल हो गए!
इन शीतल वचन से वे कैसे सखू गए, जैसे पाले के पश से कमल सखू जाता है!
ेमवश ल मण से कुछ उ र देते नह बनता। उ ह ने याकुल होकर राम के चरण पकड़ िलए
और कहा - हे नाथ! म दास हँ और आप वामी ह; अतः आप मुझे छोड़ ही द तो मेरा या वश है?॥
71॥
हे वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अ छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे िलए अगम
(पहँच के बाहर) लगी। शा और नीित के तो वे ही े पु ष अिधकारी ह, जो धीर ह और धम
क धुरी को धारण करनेवाले ह।
जहँ लिग जगत सनेह सगाई। ीित तीित िनगम िनजु गाई॥
मोर सबइ एक तु ह वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥
जगत म जहाँ तक नेह का संबंध, ेम और िव ास है, िजनको वयं वेद ने गाया है - हे वामी!
हे दीनबंधु! हे सबके दय के अंदर क जाननेवाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही ह।
दया के समु राम ने भले भाई के कोमल और न तायु वचन सुनकर और उ ह नेह के
कारण डरे हए जानकर, दय से लगाकर समझाया॥ 72॥
वे हिषत दय से माता सुिम ा के पास आए, मानो अंधा िफर से ने पा गया हो। उ ह ने जाकर
माता के चरण म म तक नवाया, िकंतु उनका मन रघुकुल को आनंद देनेवाले राम और जानक
के साथ था।
ल मण ने देखा िक आज (अब) अनथ हआ। ये नेह वश काम िबगाड़ दगी! इसिलए वे िवदा
माँगते हए डर के मारे सकुचाते ह (और मन-ही-मन सोचते ह) िक हे िवधाता! माता साथ जाने
को कहगी या नह ।
परं तु कुसमय जानकर धैय धारण िकया और वभाव से ही िहत चाहनेवाली सुिम ा कोमल वाणी
से बोल - हे तात! जानक तु हारी माता ह और सब कार से नेह करनेवाले राम तु हारे िपता
ह!
अवध तहाँ जहँ राम िनवासू। तहँइँ िदवसु जहँ भानु कासू॥
ज पै सीय रामु बन जाह । अवध तु हार काजु कछु नाह ॥
गु , िपता, माता, भाई, देवता और वामी, इन सबक सेवा ाण के समान करनी चािहए। िफर
राम तो ाण के भी ि य ह, दय के भी जीवन ह और सभी के वाथरिहत सखा ह।
म बिलहारी जाती हँ, (हे पु !) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभा य के पा हए, जो तु हारे िच ने छल
छोड़कर राम के चरण म थान ा िकया है॥ 74॥
तु हरे िहं भाग रामु बन जाह । दूसर हेतु तात कछु नाह ॥
सकल सक ु ृ त कर बड़ फलु एह। राम सीय पद सहज सनेह॥
तुमको वन म सब कार से आराम है, िजसके साथ राम और सीता प िपता-माता ह। हे पु ! तुम
वही करना िजससे राम वन म लेश न पाएँ , मेरा यही उपदेश है।
हे तात! मेरा यही उपदेश है (अथात तुम वही करना) िजससे वन म तु हारे कारण राम और सीता
सुख पाव और िपता, माता, ि य प रवार तथा नगर के सुख क याद भल ू जाएँ । तुलसीदास कहते
ह िक सुिम ा ने इस कार हमारे भु (ल मण) को िश ा देकर (वन जाने क ) आ ा दी और
िफर यह आशीवाद िदया िक सीता और रघुवीर के चरण म तु हारा िनमल (िन काम और अन य)
एवं गाढ़ ेम िनत-िनत नया हो!
नगर के ी-पु ष आपस म कह रहे ह िक िवधाता ने खबू बनाकर बात िबगाड़ी! उनके शरीर
दुबले, मन दुःखी और मुख उदास हो रहे ह। वे ऐसे याकुल ह, जैसे शहद छीन िलए जाने पर
शहद क मि खयाँ याकुल ह ।
सब हाथ मल रहे ह और िसर धुनकर (पीटकर) पछता रहे ह। मानो िबना पंख के प ी याकुल हो
रहे ह । राज ार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार िवषाद का वणन नह िकया जा सकता।
'राम पधारे ह', ये ि य वचन कहकर मं ी ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सिहत दोन पु को
(वन के िलए तैयार) देखकर राजा बहत याकुल हए।
सीता सिहत दोन सुंदर पु को देख-देखकर राजा अकुलाते ह और नेह वश बारं बार उ ह दय
से लगा लेते ह॥ 76॥
यह सुनकर नेहवश राजा ने उठकर रघुनाथ क बाँह पकड़कर उ ह बैठा िलया और कहा - हे
तात! सुनो, तु हारे िलए मुिन लोग कहते ह िक राम चराचर के वामी ह।
सभ
ु अ असभ ु करम अनहु ारी। ईसु देइ फलु दयँ िबचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। िनगम नीित अिस कह सबु कोई॥
(िकंतु इस अवसर पर तो इसके िवपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल
का भोग कोई और ही पावे। भगवान क लीला बड़ी ही िविच है, उसे जानने यो य जगत म कौन
है?॥ 77॥
रायँ राम राखन िहत लागी। बहत उपाय िकए छलु यागी॥
लखी राम ख रहत न जाने। धरम धरु ं धर धीर सयाने॥
तब नपृ सीय लाइ उर ली ही। अित िहत बहत भाँित िसख दी ही॥
किह बन के दख
ु दसु ह सन
ु ाए। सासु ससरु िपतु सख
ु समझु ाए॥
िसय मनु राम चरन अनरु ागा। घ न सगु मु बनु िबषमु न लागा॥
औरउ सबिहं सीय समझु ाई। किह किह िबिपन िबपित अिधकाई॥
परं तु सीता का मन राम के चरण म अनुर था। इसिलए उ ह घर अ छा नह लगा और न वन
भयानक लगा। िफर और सब लोग ने भी वन म िवपि य क अिधकता बता-बताकर सीता को
समझाया।
सीता संकोचवश उ र नह देत । इन बात को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुिनय के
व , आभषू ण (माला, मेखला आिद) और बतन (कमंडलु आिद) लाकर राम के आगे रख िदए
और कोमल वाणी से कहा -
नप
ृ िह ानि य तु ह रघब ु ीरा। सील सनेह न छािड़िह भीरा॥
सकु ृ तु सज
ु सु परलोकु नसाऊ। तु हिह जान बन किहिह न काऊ॥
हे रघुवीर! राजा को तुम ाण के समान ि य हो। भी ( ेमवश दुबल दय के) राजा शील और
नेह नह छोड़गे! पु य, संुदर यश और परलोक चाहे न हो जाए, पर तु ह वन जाने को वे
कभी न कहगे।
ऐसा िवचारकर जो तु ह अ छा लगे वही करो। माता क सीख सुनकर राम ने (बड़ा) सुख पाया।
परं तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। (वे सोचने लगे) अब भी अभागे ाण ( य ) नह
िनकलते!
लोग िबकल मु िछत नरनाह। काह क रअ कछु सूझ न काह॥
रामु तरु त मिु न बेषु बनाई। चले जनक जनिनिह िस नाई॥
गु से कहकर उन सबको वषाशन (वषभर का भोजन) िदए और आदर, दान तथा िवनय से उ ह
वश म कर िलया। िफर याचक को दान और मान देकर संतु िकया तथा िम को पिव ेम से
स न िकया।
राम बार-बार दोन हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते ह िक मेरा सब कार से िहतकारी
िम वही होगा िजसक चे ा से महाराज सुखी रह।
दो० - मातु सकल मोरे िबरहँ जेिहं न होिहं दख
ु दीन।
सोइ उपाउ तु ह करे ह सब परु जन परम बीन॥ 80॥
हे परम चतुर पुरवासी स जनो! आप लोग सब वही उपाय क रएगा, िजससे मेरी सब माताएँ मेरे
िवरह के दुःख से दुःखी न ह ॥ 80॥
इस कार राम ने सबको समझाया और हिषत होकर गु के चरणकमल म िसर नवाया। िफर
गणेश, पावती और कैलासपित महादेव को मनाकर तथा आशीवाद पाकर रघुनाथ चले॥
राम चलत अित भयउ िबषादू। सिु न न जाइ परु आरत नादू॥
कुसगनु लंक अवध अित सोकू। हरष िबषाद िबबस सरु लोकू॥
राम के चलते ही बड़ा भारी िवषाद हो गया। नगर का आतनाद (हाहाकर) सुना नह जाता। लंका
म बुरे शकुन होने लगे, अयो या म अ यंत शोक छा गया और देवलोक म सब हष और िवषाद
दोन के वश म हो गए। (हष इस बात का था िक अब रा स का नाश होगा और िवषाद
अयो यावािसय के शोक के कारण था।)
मछू ा दूर हई, तब राजा जागे और सुमं को बुलाकर ऐसा कहने लगे - राम वन को चले गए, पर
मेरे ाण नह जा रहे ह। न जाने ये िकस सुख के िलए शरीर म िटक रहे ह।
इससे अिधक बलवती और कौन-सी यथा होगी िजस दुःख को पाकर ाण शरीर को छोड़गे। िफर
धीरज धरकर राजा ने कहा - हे सखा! तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ।
दो० - सिु ठ सक
ु ु मार कुमार दोउ जनकसत
ु ा सकु ु मा र।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु िफरे ह गएँ िदन चा र॥ 81॥
जब सीता वन को देखकर डर, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना िक तु हारे सास
और ससुर ने ऐसा संदेश कहा है िक हे पु ी! तुम लौट चलो, वन म बहत लेश ह।
कभी िपता के घर, कभी ससुराल, जहाँ तु हारी इ छा हो, वह रहना। इस कार तुम बहत-से
उपाय करना। यिद सीता लौट आई ं तो मेरे ाण को सहारा हो जाएगा।
नह तो अंत म मेरा मरण ही होगा। िवधाता के िवपरीत होने पर कुछ वश नह चलता। हा! राम,
ल मण और सीता को लाकर िदखाओ। ऐसा कहकर राजा मिू छत होकर प ृ वी पर िगर पड़े ।
सुमं राजा क आ ा पाकर, िसर नवाकर और बहत ज दी रथ जुड़वाकर वहाँ गए, जहाँ नगर
के बाहर सीता सिहत दोन भाई थे॥ 82॥
तब समु ं नप
ृ बचन सनु ाए। क र िबनती रथ रामु चढ़ाए॥
चिढ़ रथ सीय सिहत दोउ भाई। चले दयँ अवधिह िस नाई॥
तब (वहाँ पहँचकर) सुमं ने राजा के वचन राम को सुनाए और िवनती करके उनको रथ पर
चढ़ाया। सीता सिहत दोन भाई रथ पर चढ़कर दय म अयो या को िसर नवाकर चले।
अयो यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अंधकारमयी कालराि ही हो। नगर के नर-नारी
भयानक जंतुओ ं के समान एक-दूसरे को देखकर डर रहे ह।
करोड़ घोड़े , हाथी, खेलने के िलए पाले हए िहरन, नगर के (गाय, बैल, बकरी आिद) पशु, पपीहे ,
मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर - ॥ 83॥
राम के िवयोग म सभी याकुल हए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप ि थर होकर) खड़े ह, मानो तसवीर
म िलखकर बनाए हए ह। नगर मानो फल से प रपण ू बड़ा भारी सघन वन था। नगर िनवासी सब
ी-पु ष बहत-से पशु-प ी थे। (अथात अवधपुरी अथ, धम, काम, मो चार फल को देनेवाली
नगरी थी और सब ी-पु ष सुख से उन फल को ा करते थे।)
िवधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, िजसने दस िदशाओं म दुःसह दावाि न (भयानक आग)
लगा दी। राम के िवरह क इस अि न को लोग सह न सके। सब लोग याकुल होकर भाग चले।
रघप
ु ित जा मे बस देखी। सदय दयँ दख ु ु भयउ िबसेषी॥
क नामय रघनु ाथ गोसाँई। बेिग पाइअिहं पीर पराई॥
ेमयु कोमल और सुंदर वचन कहकर राम ने बहत कार से लोग को समझाया और बहतेरे
धम संबंधी उपदेश िदए; परं तु ेमवश लोग लौटाए लौटते नह ।
शील और नेह छोड़ा नह जाता। रघुनाथ असमंजस के अधीन हो गए (दुिवधा म पड़ गए)। शोक
और प र म (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ देवताओं क माया से भी उनक बुि
मोिहत हो गई।
जबिहं जाम जग
ु जािमिन बीती। राम सिचव सन कहेउ स ीती॥
खोज मा र रथु हाँकह ताता। आन उपायँ बिनिह निहं बाता॥
जब दो पहर बीत गई, तब राम ने ेमपवू क मं ी सुमं से कहा - हे तात! रथ के खोज मारकर
(अथात पिहय के िच से िदशा का पता न चले इस कार) रथ को हाँिकए। और िकसी उपाय से
बात नह बनेगी।
सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा िक रघुनाथ चले गए। कह रथ का खोज नह
पाते, सब 'हा राम! हा राम!' पुकारते हए चार ओर दौड़ रहे ह।
मानो समु म जहाज डूब गया हो, िजससे यापा रय का समुदाय बहत ही याकुल हो उठा हो। वे
एक-दूसरे को उपदेश देते ह िक राम ने, हम लोग को लेश होगा, यह जानकर छोड़ िदया है।
वे लोग अपनी िनंदा करते ह और मछिलय क सराहना करते ह। (कहते ह -) राम के िबना हमारे
जीने को िध कार है। िवधाता ने यिद यारे का िवयोग ही रचा, तो िफर उसने माँगने पर म ृ यु
य नह दी!
इस कार बहत-से लाप करते हए वे संताप से भरे हए अयो या म आए। उन लोग के िवषम
िवयोग क दशा का वणन नह िकया जा सकता। (चौदह साल क ) अविध क आशा से ही वे
ाण को रख रहे ह।
सीता और मं ी सिहत दोन भाई ंग ृ वेरपुर जा पहँचे। वहाँ गंगा को देखकर राम रथ से उतर पड़े
और बड़े हष के साथ उ ह ने दंडवत क ।
लखन सिचवँ िसयँ िकए नामा। सबिह सिहत सखु ु पायउ रामा॥
गंग सकल मदु मंगल मूला। सब सख
ु करिन हरिन सब सूला॥
ल मण, सुमं और सीता ने भी णाम िकया। सबके साथ राम ने सुख पाया। गंगा सम त
आनंद-मंगल क मलू ह। वे सब सुख को करनेवाली और सब पीड़ाओं को हरनेवाली ह।
किह किह कोिटक कथा संगा। रामु िबलोकिहं गंग तरं गा॥
सिचविह अनज
ु िह ि यिह सन
ु ाई। िबबध
ु नदी मिहमा अिधकाई॥
अनेक कथा संग कहते हए राम गंगा क तरं ग को देख रहे ह। उ ह ने मं ी को, छोटे भाई
ल मण को और ि या सीता को देवनदी गंगा क बड़ी मिहमा सुनाई।
इसके बाद सबने नान िकया, िजससे माग का सारा म (थकावट) दूर हो गया और पिव जल
पीते ही मन स न हो गया। िजनके मरण मा से (बार-बार ज मने और मरने का) महान म
िमट जाता है, उनको ' म' होना - यह केवल लौिकक यवहार (नरलीला) है।
जब िनषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंिदत होकर उसने अपने ि यजन और भाई-बंधुओ ं
को बुला िलया और भट देने के िलए फल, मल
ू (कंद) लेकर और उ ह भार (बहँिगय ) म भरकर
िमलने के िलए चला। उसके दय म हष का पार नह था।
लै रघन
ु ाथिहं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँित सहु ावा॥
परु जन क र जोहा घर आए। रघब ु र सं या करन िसधाए॥
गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल प क कोमल और संुदर साथरी सजाकर िबछा दी और
पिव , मीठे और कोमल देख-देखकर दोन म भर-भरकर फल-मलू और पानी रख िदया (अथवा
अपने हाथ से फल-मल ू दोन म भर-भरकर रख िदए)।
दो० - िसय सम
ु ं ाता सिहत कंद मूल फल खाइ।
सयन क ह रघब ु ंसमिन पाय पलोटत भाइ॥ 89॥
िफर भु राम को सोते जानकर ल मण उठे और कोमल वाणी से मं ी सुमं को सोने के िलए
कहकर वहाँ से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे।
े बस दयँ िबषादू॥
सोवत भिु ह िनहा र िनषादू। भयउ म
तनु पल
ु िकत जलु लोचन बहई। बचन स म े लखन सन कहई॥
भु को जमीन पर सोते देखकर ेमवश िनषादराज के दय म िवषाद हो आया। उसका शरीर
पुलिकत हो गया और ने से ( ेमा ुओ ं का) जल बहने लगा। वह ेम सिहत ल मण से वचन
कहने लगा -
भूपित भवन सभ
ु ायँ सहु ावा। सरु पित सदनु न पटतर पावा॥
मिनमय रिचत चा चौबारे । जनु रितपित िनज हाथ सँवारे ॥
वही सीता और राम आज घास-फूस क साथरी पर थके हए िबना व के ही सोए ह। ऐसी दशा म
वे देखे नह जाते। माता, िपता, कुटुंबी, पुरवासी ( जा), िम , अ छे शील- वभाव के दास और
दािसयाँ -
और पित राम ह, वही जानक आज जमीन पर सो रही ह। िवधाता िकसको ितकूल नह होता!
सीता और राम या वन के यो य ह? लोग सच कहते ह िक कम (भा य) ही धान है।
कैकयराज क लड़क नीच बुि कैकेयी ने बड़ी ही कुिटलता क , िजसने रघुनंदन राम और
जानक को सुख के समय दुःख िदया॥ 91॥
दरिन धामु धनु परु प रवा । सरगु नरकु जहँ लिग यवहा ॥
देिखअ सिु नअ गिु नअ मन माह । मोह मूल परमारथु नाह ॥
धरती, घर, धन, नगर, प रवार, वग और नरक आिद जहाँ तक यवहार ह, जो देखने, सुनने
और मन के अंदर िवचारने म आते ह, इन सबका मल
ू मोह (अ ान) ही है। परमाथतः ये नह ह।
इस जगत पी राि म योगी लोग जागते ह, जो परमाथ ह और पंच (माियक जगत) से छूटे हए
ह। जगत म जीव को जागा हआ तभी जानना चािहए, जब संपण
ू भोग-िवलास से वैरा य हो जाए।
िववेक होने पर मोह पी म भाग जाता है, तब (अ ान का नाश होने पर) रघुनाथ के चरण म
ेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कम से राम के चरण म ेम होना, यही सव े परमाथ
(पु षाथ) है।
वही कृपालु राम भ , भूिम, ा ण, गौ और देवताओ ं के िहत के िलए मनु य शरीर धारण
करके लीलाएँ करते ह, िजनके सन
ु ने से जगत के जंजाल िमट जाते ह॥ 93॥
सखा समिु झ अस प रह र मोह। िसय रघबु ीर चरन रत होह॥
कहत राम गनु भा िभनस
ु ारा। जागे जग मंगल सख ु दारा॥
हे सखा! ऐसा समझ, मोह को यागकर सीताराम के चरण म ेम करो। इस कार राम के गुण
कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले राम जागे।
सकल सौच क र राम नहावा। सिु च सज
ु ान बट छीर मगावा॥
अनज
ु सिहत िसर जटा बनाए। देिख सम ु ं नयन जल छाए॥
शौच के सब काय करके (िन य) पिव और सुजान राम ने नान िकया। िफर बड़ का दूध
मँगाया और छोटे भाई ल मण सिहत उस दूध से िसर पर जटाएँ बनाई ं। यह देखकर सुमं के ने
म जल छा गया।
उनका दय अ यंत जलने लगा, मँुह मिलन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर अ यंत दीन वचन
बोले - हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथ ने ऐसी आ ा दी थी िक तुम रथ लेकर राम के साथ
जाओ,
वन िदखाकर, गंगा नान कराकर दोन भाइय को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच
को दूर करके ल मण, राम, सीता को िफरा लाना।
दो० - नप
ृ अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ कर बिल सोइ।
क र िबनती पाय ह परे उ दी ह बाल िजिम रोइ॥ 94॥
महाराज ने ऐसा कहा था, अब भु जैसा कह, म वही क ँ ; म आपक बिलहारी हँ। इस कार से
िवनती करके वे राम के चरण म िगर पड़े और बालक क तरह रो िदया॥ 94॥
(और कहा -) हे तात! कृपा करके वही क िजए िजससे अयो या अनाथ न हो। राम ने मं ी को
उठाकर धैय बँधाते हए समझाया िक हे तात! आपने तो धम के सभी िस ांत को छान डाला है।
िसिब दधीच ह रचंद नरे सा। सहे धरम िहत कोिट कलेसा॥
रं ितदेव बिल भूप सज
ु ाना। धरमु धरे उ सिह संकट नाना॥
िशिब, दधीिच और राजा ह र ं ने धम के िलए करोड़ (अनेक ) क सहे थे। बुि मान राजा
रं ितदेव और बिल बहत-से संकट सहकर भी धम को पकड़े रहे (उ ह ने धम का प र याग नह
िकया)।
धरमु न दूसर स य समाना। आगम िनगम परु ान बखाना॥
म सोइ धरमु सलु भ क र पावा। तज ितहँ परु अपजसु छावा॥
आप जाकर िपता के चरण पकड़कर करोड़ नम कार के साथ ही हाथ जोड़कर िबनती क रएगा
िक हे तात! आप मेरी िकसी बात क िचंता न कर॥ 95॥
आप भी िपता के समान ही मेरे बड़े िहतैषी ह। हे तात! म हाथ जोड़कर आप से िवनती करता हँ
िक आपका भी सब कार से वही कत य है िजसम िपता हम लोग के सोच म दुःख न पाएँ ।
सिु न रघन
ु ाथ सिचव संबादू। भयउ सप रजन िबकल िनषादू॥
पिु न कछु लखन कही कटु बानी। भु बरजे बड़ अनिु चत जानी॥
रघुनाथ और सुमं का यह संवाद सुनकर िनषादराज कुटुंिबय सिहत याकुल हो गया। िफर
ल मण ने कुछ कड़वी बात कही। भु राम ने उसे बहत ही अनुिचत जानकर उनको मना िकया।
सकुिच राम िनज सपथ देवाई। लखन सँदस े ु किहअ जिन जाई॥
कह सम े ू। सिह न सिकिह िसय िबिपन कलेसू॥
ु ं ु पिु न भूप सँदस
राजा ने िजस तरह (िजस दीनता और ेम से) िवनती क है, वह दीनता और ेम कहा नह जा
सकता। कृपािनधान राम ने िपता का संदेश सुनकर सीता को करोड़ (अनेक ) कार से सीख
दी।
(उ ह ने कहा -) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गु , ि यजन एवं कुटुंबी सबक िचंता
िमट जाए। पित के वचन सुनकर जानक कहती ह - हे ाणपित! हे परम नेही! सुिनए।
हे भो! आप क णामय और परम ानी ह। (कृपा करके िवचार तो क िजए) शरीर को छोड़कर
छाया अलग कैसे रोक रह सकती है? सयू क भा सय
ू को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और
चाँदनी चं मा को यागकर कहाँ जा सकती है?
इस कार पित को ेममयी िवनती सुनाकर सीता मं ी से सुहावनी वाणी कहने लग - आप मेरे
िपता और ससुर के समान मेरा िहत करनेवाले ह। आपको म बदले म उ र देती हँ, यह बहत ही
अनुिचत है।
मने िपता के ऐ य क छटा देखी है, िजनके चरण रखने क चौक से सविशरोमिण राजाओं के
मुकुट िमलते ह (अथात बड़े -बड़े राजा िजनके चरण म णाम करते ह) ऐसे िपता का घर भी, जो
सब कार के सुख का भंडार है, पित के िबना मेरे मन को भल
ू कर भी नह भाता।
दुगम रा ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, िसंह, अथाह तालाब एवं निदयाँ; कोल, भील, िहरन और
प ी - ाणपित (रघुनाथ) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले ह गे।
अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से िवनती क िजएगा िक वे मेरा कुछ भी सोच न
कर; म वन म वभाव से ही सुखी हँ॥ 98॥
सिु न सम
ु ं ु िसय सीतिल बानी। भयउ िबकल जनु फिन मिन हानी॥
नयन सूझ निहं सन ु इ न काना। किह न सकइ कछु अित अकुलाना॥
सुमं सीता क शीतल वाणी सुनकर ऐसे याकुल हो गए जैसे साँप मिण खो जाने पर। ने से
कुछ सझ
ू ता नह , कान से सुनाई नह देता। वे बहत याकुल हो गए, कुछ कह नह सकते।
राम ने उनका बहत कार से समाधान िकया। तो भी उनक छाती ठं डी न हई। साथ चलने के
िलए मं ी ने अनेक य न िकए (युि याँ पेश क ), पर रघुनंदन राम (उन सब युि य का)
यथोिचत उ र देते गए।
मेिट जाइ निहं राम रजाई। किठन करम गित कछु न बसाई॥
राम लखन िसय पद िस नाई। िफरे उ बिनक िजिम मूर गवाँई॥
िजनके िवयोग म पशु इस कार याकुल ह, उनके िवयोग म जा, माता और िपता कैसे जीते
रहगे? राम ने जबरद ती सुमं को लौटाया। तब आप गंगा के तीर पर आए।
म तो इसी नाव से सारे प रवार का पालन-पोषण करता हँ। दूसरा कोई धंधा नह जानता। हे भु!
यिद तुम अव य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरण-कमल पखारने (धो लेने) के
िलए कह दो।
हे नाथ! म चरण कमल धोकर आप लोग को नाव पर चढ़ा लँग ू ा; म आपसे कुछ उतराई नह
चाहता। हे राम! मुझे आपक दुहाई और दशरथ क सौगंध है, म सब सच-सच कहता हँ। ल मण
भले ही मुझे तीर मार, पर जब तक म पैर को पखार न लँग
ू ा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे
कृपालु! म पार नह उता ँ गा।
कृपािसंधु बोले मस
ु क
ु ाई। सोइ क जेिहं तव नाव न जाई॥
बेिग आनु जल पाय पखा । होत िबलंबु उतारिह पा ॥
कृपा के समु राम केवट से मुसकराकर बोले - भाई! तू वही कर िजससे तेरी नाव न जाए। ज दी
पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे।
एक बार िजनका नाम मरण करते ही मनु य अपार भवसागर के पार उतर जाते ह और िज ह ने
(वामनावतार म) जगत को तीन पग से भी छोटा कर िदया था (दो ही पग म ि लोक को नाप
िलया था), वही कृपालु राम (गंगा से पार उतारने के िलए) केवट का िनहोरा कर रहे ह!
चरण को धोकर और सारे प रवार सिहत वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान
पु य के ारा) अपने िपतर को भवसागर से पार कर िफर आनंदपवू क भु राम को गंगा के पार
ले गया॥ 101॥
िनषादराज और ल मण सिहत सीता और राम (नाव से) उतरकर गंगा क रे त (बाल)ू म खड़े हो
गए। तब केवट ने उतरकर दंडवत क । (उसको दंडवत करते देखकर) भु को संकोच हआ िक
इसको कुछ िदया नह ।
पित के दय क जाननेवाली सीता ने आनंद भरे मन से अपनी र न जिड़त अँगठ ू ी (अंगुली से)
उतारी। कृपालु राम ने केवट से कहा, नाव क उतराई लो। केवट ने याकुल होकर चरण पकड़
िलए।
हे नाथ! हे दीनदयाल! आपक कृपा से अब मुझे कुछ नह चािहए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ
दगे, वह साद म िसर चढ़ाकर लँग
ू ा।
िफर रघुकुल के वामी राम ने नान करके पािथव पज ू ा क और िशव को िसर नवाया। सीता ने
हाथ जोड़कर गंगा से कहा - हे माता! मेरा मनोरथ परू ा क िजएगा।
हे रघुवीर क ि यतमा जानक ! सुनो, तु हारा भाव जगत म िकसे नह मालम ू है? तु हारे (कृपा
ि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते ह। सब िसि याँ हाथ जोड़े तु हारी सेवा करती ह।
तुमने जो मुझको बड़ी िवनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा क और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे
देवी! म अपनी वाणी सफल होने के िलए तु ह आशीवाद दँूगी।
तुम अपने ाणनाथ और देवर सिहत कुशलपवू क अयो या लौटोगी। तु हारी सारी मनःकामनाएँ
परू ी ह गी और तु हारा सुंदर यश जगत भर म छा जाएगा॥ 103॥
गंग बचन सिु न मंगल मूला। मिु दत सीय सरु स र अनक ु ू ला॥
तब भु गहु िह कहेउ घर जाह। सन ु त सूख मख ु ु भा उर दाह॥
गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला - हे रघुकुल िशरोमिण! मेरी िवनती सुिनए। म नाथ (आप) के
साथ रहकर, रा ता िदखाकर, चार (कुछ) िदन चरण क सेवा करके -
हे रघुराज! िजस वन म आप जाकर रहगे, वहाँ म सुंदर पणकुटी (प क कुिटया) बना दँूगा। तब
मुझे आप जैसी आ ा दगे, मुझे रघुवीर (आप) क दुहाई है, म वैसा ही क ँ गा।
(गंगा, यमुना और सर वती का) संगम ही उसका अ यंत सुशोिभत िसंहासन है। अ यवट छ है,
जो मुिनय के भी मन को मोिहत कर लेता है। यमुना और गंगा क तरं ग उसके ( याम और ेत)
चँवर ह, िजनको देखकर ही दुःख और द र ता न हो जाती है।
दो० - सेविहं सक
ु ृ ती साधु सिु च पाविहं सब मनकाम।
बंदी बेद परु ान गन कहिहं िबमल गन
ु ाम॥ 105॥
पु या मा, पिव साधु उसक सेवा करते ह और सब मनोरथ पाते ह। वेद और पुराण के समहू
भाट ह, जो उसके िनमल गुणगण का बखान करते ह॥ 105॥
पाप के समहू पी हाथी के मारने के िलए िसंह प यागराज का भावव (मह व-माहा य)
कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीथराज का दशन कर सुख के समु रघुकुल े राम ने भी
सुख पाया।
इस कार राम ने आकर ि वेणी का दशन िकया, जो मरण करने से ही सब सुंदर मंगल को
देनेवाली है। िफर आनंदपवू क (ि वेणी म) नान करके िशव क सेवा (पज
ू ा) क और िविधपवू क
तीथ देवताओं का पज ू न िकया।
सीता, ल मण और सेवक गुह सिहत राम ने उन सुंदर मल ू -फल को बड़ी िच के साथ खाया।
थकावट दूर होने से राम सुखी हो गए। तब भर ाज ने उनसे कोमल वचन कहे -
आजु सफ
ु ल तपु तीरथ यागू। आजु सफु ल जप जोग िबरागू॥
सफल सकल सभ ु साधन साजू। राम तु हिह अवलोकत आजू॥
हे राम! आपका दशन करते ही आज मेरा तप, तीथ सेवन और याग सफल हो गया। आज मेरा
जप, योग और वैरा य सफल हो गया और आज मेरे संपणू शुभ साधन का समुदाय भी सफल हो
गया।
लाभ क सीमा और सुख क सीमा ( भु के दशन को छोड़कर) दूसरी कुछ भी नह है। आपके
ू हो गई ं। अब कृपा करके यह वरदान दीिजए िक आपके चरण
दशन से मेरी सब आशाएँ पण
कमल म मेरा वाभािवक ेम हो।
मुिन के वचन सुनकर, उनक भाव-भि के कारण आनंद से त ृ हए भगवान राम (लीला क
ि से) सकुचा गए। तब (अपने ऐ य को िछपाते हए) राम ने भर ाज मुिन का सुंदर सुयश
करोड़ (अनेक ) कार से कहकर सबको सुनाया।
सो बड़ सो सब गन ु गन गेह। जेिह मन
ु ीस तु ह आदर देह॥
मिु न रघब
ु ीर परसपर नवह । बचन अगोचर सख ु ु अनभ
ु वह ॥
यह (राम, ल मण और सीता के आने क ) खबर पाकर याग िनवासी चारी, तप वी, मुिन,
िस और उदासी सब दशरथ के सुंदर पु को देखने के िलए भर ाज के आ म पर आए।
(चलते समय) बड़े ेम से राम ने मुिन से कहा - हे नाथ! बताइए हम िकस माग से जाएँ । मुिन
मन म हँसकर राम से कहते ह िक आपके िलए सभी माग सुगम ह।
िफर उनके साथ के िलए मुिन ने िश य को बुलाया। (साथ जाने क बात) सुनते ही िच म हिषत
हो कोई पचास िश य आ गए। सभी का राम पर अपार ेम है। सभी कहते ह िक माग हमारा देखा
हआ है।
जब वे िकसी गाँव के पास होकर िनकलते ह, तब ी-पु ष दौड़कर उनके प को देखने लगते
ह। ज म का फल पाकर वे (सदा के अनाथ) सनाथ हो जाते ह और मन को नाथ के साथ भेजकर
(शरीर से साथ न रहने के कारण) दुःखी होकर लौट आते ह।
सन
ु त तीरबासी नर नारी। धाए िनज िनज काज िबसारी॥
लखन राम िसय संदु रताई। देिख करिहं िनज भा य बड़ाई॥
यमुना के िकनारे पर रहनेवाले ी-पु ष (यह सुनकर िक िनषाद के साथ दो परम सुंदर
सुकुमार नवयुवक और एक परम संुदरी ी आ रही है) सब अपना-अपना काम भल ू कर दौड़े और
ल मण, राम और सीता का स दय देखकर अपने भा य क बड़ाई करने लगे।
उसी अवसर पर वहाँ एक तप वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अव था का और सुंदर था। उसक
गित किव नह जानते (अथवा वह किव था जो अपना प रचय नह देना चाहता)। वह वैरागी के
वेष म था और मन, वचन तथा कम से राम का ेमी था।
राम ने ेमपवू क पुलिकत होकर उसको दय से लगा िलया। (उसे इतना आनंद हआ) मानो कोई
महाद र ी मनु य पारस पा गया हो। सब कोई (देखनेवाले) कहने लगे िक मानो ेम और परमाथ
(परम त व) दोन शरीर धारण करके िमल रहे ह।
िफर वह ल मण के चरण लगा। उ ह ने ेम से उमंगकर उसको उठा िलया। िफर उसने सीता क
चरण धिू ल को अपने िसर पर धारण िकया। माता सीता ने भी उसको अपना ब चा जानकर
आशीवाद िदया।
िफर िनषादराज ने उसको दंडवत क । राम का ेमी जानकर वह उस (िनषाद) से आनंिदत होकर
िमला। वह तप वी अपने ने पी दोन से राम क स दय-सुधा का पान करने लगा और ऐसा
आनंिदत हआ जैसे कोई भखू ा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंिदत होता है।
(इधर गाँव क ि याँ कह रही ह -) हे सखी! कहो तो, वे माता-िपता कैसे ह, िज ह ने ऐसे (सुंदर
सुकुमार) बालक को वन म भेज िदया है। राम, ल मण और सीता के प को देखकर सब ी-
पु ष नेह से याकुल हो जाते ह।
दो० - तब रघब
ु ीर अनेक िबिध सखिह िसखावनु दी ह॥
राम रजायसु सीस ध र भवन गवनु तेइँ क ह॥ 111॥
तब राम ने सखा गुह को अनेक तरह से (घर लौट जाने के िलए) समझाया। राम क आ ा को
िसर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन िकया॥ 111॥
(ऐसे राजिच के होते हए भी) तुम लोग रा ते म पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ म
आता है िक योितष शा झठ ू ा ही है। भारी जंगल और बड़े -बड़े पहाड़ का दुगम रा ता है। ितस
पर तु हारे साथ सुकुमारी ी है।
जो गाँव और पुरवे रा ते म बसे ह, नाग और देवताओं के नगर उनको देखकर शंसा पवू क
ई या करते और ललचाते हए कहते ह िक िकस पु यवान ने िकस शुभ घड़ी म इनको बसाया था,
जो आज ये इतने ध य और पु यमय तथा परम सुंदर हो रहे ह।
जहाँ-जहाँ राम के चरण चले जाते ह, उनके समान इं क पुरी अमरावती भी नह है। रा ते के
समीप बसनेवाले भी बड़े पु या मा ह - वग म रहनेवाले देवता भी उनक सराहना करते ह -
कोई राम को देखकर ऐसे अनुराग म भर गए ह िक वे उ ह देखते हए उनके साथ लगे चले जा
रहे ह। कोई ने माग से उनक छिव को दय म लाकर शरीर, मन और े वाणी से िशिथल हो
जाते ह (अथात उनके शरीर, मन और वाणी का यवहार बंद हो जाता है)।
कोई बड़ क सुंदर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और प े िबछाकर कहते ह िक ण भर यहाँ
बैठकर थकावट िमटा लीिजए। िफर चाहे अभी चले जाइएगा, चाहे सबेरे॥ 114॥
कोई घड़ा भरकर पानी ले आते ह और कोमल वाणी से कहते ह - नाथ! आचमन तो कर लीिजए।
उनके यारे वचन सुनकर और उनका अ यंत ेम देखकर दयालु और परम सुशील राम ने -
दो० - जटा मक
ु ु ट सीसिन सभ
ु ग उर भज
ु नयन िबसाल।
सरद परब िबधु बदन बर लसत वेद कन जाल॥ 115॥
उनके िसर पर सुंदर जटाओं के मुकुट ह; व ः थल, भुजा और ने िवशाल ह और शरद पिू णमा
के चं मा के समान सुंदर मुख पर पसीने क बँदू का समहू शोिभत हो रहा है॥ 115॥
उस मनोहर जोड़ी का वणन नह िकया जा सकता, य िक शोभा बहत अिधक है और मेरी बुि
थोड़ी है। राम, ल मण और सीता क सुंदरता को सब लोग मन, िच और बुि तीन को
लगाकर देख रहे ह।
थके ना र नर म
े िपआसे। मनहँ मग
ृ ी मग
ृ देिख िदआ से॥
सीय समीप ामितय जाह । पूँछत अित सनेहँ सकुचाह ॥
ेम के यासे (वे गाँव के) ी-पु ष (इनके स दय-माधुय क छटा देखकर) ऐसे चिकत रह गए
जैसे दीपक को देखकर िहरनी और िहरन (िन त ध रह जाते ह)! गाँव क ि याँ सीता के पास
जाती ह, परं तु अ यंत नेह के कारण पछ
ू ते सकुचाती ह।
बार बार सब लागिहं पाएँ । कहिहं बचन मदृ ु सरल सभु ाएँ ॥
राजकुमा र िबनय हम करह । ितय सभ ु ायँ कछु पूँछत डरह ॥
बार-बार सब उनके पाँव लगत और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती ह - हे राजकुमारी!
हम िवनती करती (कुछ िनवेदन करना चाहती) ह, परं तु ी- वभाव के कारण कुछ पछ
ू ते हए
डरती ह।
हे वािमनी! हमारी िढठाई मा क िजएगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मािनएगा। ये दोन
राजकुमार वभाव से ही लाव यमय (परम सुंदर) ह। मरकतमिण (प ने) और सुवण ने कांित
इ ह से पाई है (अथात मरकतमिण म और वण म जो ह रत और वण वण क आभा है वह
इनक ह रताभनील और वण कांित के एक कण के बराबर भी नह है)।
याम और गौर वण है, संदु र िकशोर अव था है; दोन ही परम संदु र और शोभा के धाम ह।
शरद पूिणमा के चं मा के समान इनके मखु और शरद ऋतु के कमल के समान इनके ने
ह॥ 116॥
कोिट मनोज लजाविनहारे । समु िु ख कहह को आिहं तु हारे ॥
सिु न सनेहमय मंजुल बानी। सकुची िसय मन महँ मस ु क
ु ानी॥
हे सुमुिख! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ कामदेव को लजानेवाले ये तु हारे कौन ह? उनक
ऐसी ेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीता सकुचा गई ं और मन-ही-मन मुसकराई ं।
सहज सभ ु ाय सभ
ु ग तन गोरे । नामु लखनु लघु देवर मोरे ॥
बह र बदनु िबधु अंचल ढाँक । िपय तन िचतइ भ ह क र बाँक ॥
ये जो सहज वभाव, संुदर और गोरे शरीर के ह, उनका नाम ल मण है; ये मेरे छोटे देवर ह। िफर
सीता ने (ल जावश) अपने चं मुख को आँचल से ढँ ककर और ि यतम (राम) क ओर िनहारकर
भ ह टेढ़ी करके,
खंजन मंजु ितरीछे नयनिन। िनज पित कहेउ ित हिह िसयँ सयनिन॥
भई ं मिु दत सब ामबधूट । रं क ह राय रािस जनु लटू ॥
खंजन प ी के-से संुदर ने को ितरछा करके सीता ने इशारे से उ ह कहा िक ये (राम) मेरे पित
ह। यह जानकर गाँव क सब युवती ि याँ इस कार आनंिदत हई ं, मानो कंगाल ने धन क
रािशयाँ लटू ली ह ।
वे अ यंत ेम से सीता के पैर पड़कर बहत कार से आशीष देती ह (शुभ कामना करती ह) िक
जब तक शेष के िसर पर प ृ वी रहे , तब तक तुम सदा सुहािगनी बनी रहो,॥ 117॥
और पावती के समान अपने पित क यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)।
हम बार-बार हाथ जोड़कर िवनती करती ह िजसम आप िफर इसी रा ते लौट,
उनका आनंद िमट गया और मन ऐसे उदास हो गए मानो िवधाता दी हई संपि छीने लेता हो।
कम क गित समझकर उ ह ने धैय धारण िकया और अ छी तरह िनणय करके सुगम माग
बतला िदया।
लौटते हए वे ी-पु ष बहत ही पछताते ह और मन-ही-मन दैव को दोष देते ह। पर पर (बड़े ही)
िवषाद के साथ कहते ह िक िवधाता के सभी काम उलटे ह।
वह िवधाता िब कुल िनरं कुश ( वतं ), िनदय और िनडर है, िजसने चं मा को रोगी (घटने-
बढ़नेवाला) और कलंक बनाया, क पव ृ को पेड़ और समु को खारा बनाया। उसी ने इन
राजकुमार को वन म भेजा है।
जो ये सुंदर और अ यंत सुकुमार होकर मुिनय के (व कल) व पहनते और जटा धारण करते
ह, तो िफर करतार (िवधाता) ने भाँित-भाँित के गहने और कपड़े वथ
ृ ा ही बनाए॥ 119॥
जो ये कंद, मल
ू , फल खाते ह तो जगत म अमत
ृ आिद भोजन यथ ही ह। कोई एक कहते ह - ये
वभाव से ही सुंदर ह (इनका स दय-माधुय िन य और वाभािवक है)। ये अपने-आप कट हए ह,
ा के बनाए नह ह।
इ हिह देिख िबिध मनु अनरु ागा। पटतर जोग बनावै लागा॥
क ह बहत म ऐक न आए। तेिहं इ रषा बन आिन दरु ाए॥
कोई एक कहते ह - हम बहत नह जानते। हाँ, अपने को परम ध य अव य मानते ह (जो इनके
दशन कर रहे ह) और हमारी समझ म वे भी बड़े पु यवान ह िज ह ने इनको देखा है, जो देख रहे
ह और जो देखगे।
ि याँ नेहवश िवकल हो जाती ह। मानो सं या के समय चकवी (भावी िवयोग क पीड़ा से) सोह
रही हो (दुःखी हो रही हो)। इनके चरणकमल को कोमल तथा माग को कठोर जानकर वे
यिथत दय से उ म वाणी कहती ह -
परसत मदृ ल
ु चरन अ नारे । सकुचित मिह िजिम दय हमारे ॥
ज जगदीस इ हिह बनु दी हा। कस न सम
ु नमय मारगु क हा॥
इनके कोमल और लाल-लाल चरण (तलव ) को छूते ही प ृ वी वैसे ही सकुचा जाती है, जैसे हमारे
दय सकुचा रहे ह। जगदी र ने यिद इ ह वनवास ही िदया, तो सारे रा ते को पु पमय य नह
बना िदया?
यिद ा से माँगे िमले तो हे सखी! (हम तो उनसे माँगकर) इ ह अपनी आँख म ही रख! जो
ी-पु ष इस अवसर पर नह आए, वे सीताराम को नह देख सके।
(गभवती, सतू ा आिद) अबला ि याँ, ब चे और बढ़ ू े (दशन न पाने से) हाथ मलते और पछताते
ह। इस कार जहाँ-जहाँ राम जाते ह, वहाँ-वहाँ लोग ेम के वश म हो जाते ह॥ 121॥
ा ने उसी को रचकर सुख पाया है िजसके ये (राम) सब कार से नेही ह। पिथक प राम-
ल मण क सुंदर कथा सारे रा ते और जंगल म छा गई है।
आगे राम ह, पीछे ल मण सुशोिभत ह। तपि वय के वेष बनाए दोन बड़ी ही शोभा पा रहे ह। दोन
के बीच म सीता कैसी सुशोिभत हो रही ह, जैसे और जीव के बीच म माया!
िफर जैसी छिव मेरे मन म बस रही है, उसको कहता हँ - मानो वसंत ऋतु और कामदेव के बीच म
रित (कामेदव क ी) शोिभत हो। िफर अपने दय म खोजकर उपमा कहता हँ िक मानो बुध
(चं मा के पु ) और चं मा के बीच म रोिहणी (चं मा क ी) सोह रही हो।
भु राम के (जमीन पर अंिकत होनेवाले दोन ) चरण िच के बीच-बीच म पैर रखती हई सीता
(कह भगवान के चरण िच पर पैर न िटक जाए इस बात से) डरती हई ं माग म चल रही ह और
ल मण (मयादा क र ा के िलए) सीता और राम दोन के चरण िच को बचाते हए दािहने
रखकर रा ता चल रहे ह।
राम लखन िसय ीित सहु ाई। बचन अगोचर िकिम किह जाई॥
खग मग
ृ मगन देिख छिब होह । िलए चो र िचत राम बटोह ॥
राम, ल मण और सीता क सुंदर ीित वाणी का िवषय नह है (अथात अिनवचनीय है), अतः वह
कैसे कही जा सकती है? प ी और पशु भी उस छिव को देखकर ( ेमानंद म) म न हो जाते ह।
पिथक प राम ने उनके भी िच चुरा िलए ह।
यारे पिथक सीता सिहत दोन भाइय को िजन-िजन लोग ने देखा, उ ह ने भव का अगम माग
(ज म-म ृ यु पी संसार म भटकने का भयानक माग) िबना ही प र म आनंद के साथ तय कर
िलया (अथात वे आवागमन के च से सहज ही छूटकर मु हो गए)॥ 123॥
संुदर वन, तालाब और पवत देखते हए भु राम वा मीिक के आ म म आए। राम ने देखा िक
मुिन का िनवास थान बहत सुंदर है, जहाँ सुंदर पवत, वन और पिव जल है।
पिव और सुंदर आ म को देखकर कमल नयन राम हिषत हए। रघु े राम का आगमन
सुनकर मुिन वा मीिक उ ह लेने के िलए आगे आए॥ 124॥
राम ने मुिन को दंडवत िकया। िव े मुिन ने उ ह आशीवाद िदया। राम क छिव देखकर मुिन
के ने शीतल हो गए। स मानपवू क मुिन उ ह आ म म ले आए।
हे मुिननाथ! आप ि कालदश ह। संपण ू िव आपके िलए हथेली पर रखे हए बेर के समान है।
भु राम ने ऐसा कहकर िफर िजस-िजस कार से रानी कैकेयी ने वनवास िदया, वह सब कथा
िव तार से सुनाई।
(और कहा -) हे भो! िपता क आ ा (का पालन), माता का िहत और भरत-जैसे ( नेही एवं
धमा मा) भाई का राजा होना और िफर मुझे आपके दशन होना, यह सब मेरे पु य का भाव है॥
125॥
देिख पाय मिु नराय तु हारे । भए सक
ु ृ त सब सफ
ु ल हमारे ॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मिु न उदबेगु न पावै कोई॥
मिु न तापस िज ह त दख
ु ु लहह । ते नरे स िबनु पावक दहह ॥
मंगल मूल िब प रतोषू। दहइ कोिट कुल भूसरु रोषू॥
अस िजयँ जािन किहअ सोइ ठाऊँ। िसय सौिमि सिहत जहँ जाऊँ॥
तहँ रिच िचर परन तन
ृ साला। बासु कर कछु काल कृपाला॥
राम क सहज ही सरल वाणी सुनकर ानी मुिन वा मीिक बोले - ध य! ध य! हे रघुकुल के
वजा व प! आप ऐसा य न कहगे? आप सदैव वेद क मयादा का पालन (र ण) करते ह।
वही आपको जानता है, िजसे आप जना देते ह और जानते ही वह आपका ही व प बन जाता है।
हे रघुनंदन! हे भ के दय को शीतल करनेवाले चंदन! आपक ही कृपा से भ आपको जान
पाते ह।
आपने मुझसे पछ
ू ा िक म कहाँ रहँ? परं तु म यह पछ
ू ते सकुचाता हँ िक जहाँ आप न ह , वह थान
बता दीिजए। तब म आपके रहने के िलए थान िदखाऊँ॥ 127॥
े रस साने। सकुिच राम मन महँ मस
सिु न मिु न बचन म ु क
ु ाने॥
बालमीिक हँिस कहिहं बहोरी। बानी मधरु अिमअ रस बोरी॥
मुिन के ेमरस से सने हए वचन सुनकर राम (रह य खुल जाने के डर से) सकुचाकर मन म
मुसकराए। वा मीिक हँसकर िफर अमतृ -रस म डुबोई हई मीठी वाणी बोले -
िनरं तर भरते रहते ह, परं तु कभी परू े (त ृ ) नह होते, उनके दय आपके िलए सुंदर घर ह और
िज ह ने अपने ने को चातक बना रखा है, जो आपके दशन पी मेघ के िलए सदा लालाियत
रहते ह;
िजसक नािसका भु (आप) के पिव और सुगंिधत (पु पािद) सुंदर साद को िन य आदर के
साथ हण करती (सँघ ू ती) है, और जो आपको अपण करके भोजन करते ह और आपके साद
प ही व ाभषू ण धारण करते ह;
तथा िजनके चरण राम (आप) के तीथ म चलकर जाते ह; हे राम! आप उनके मन म िनवास
क िजए। जो िन य आपके (रामनाम प) मं राज को जपते ह और प रवार (प रकर) सिहत
आपक पज ू ा करते ह।
जो अनेक कार से तपण और हवन करते ह, तथा ा ण को भोजन कराकर बहत दान देते ह;
तथा जो गु को दय म आपसे भी अिधक (बड़ा) जानकर सवभाव से स मान करके उनक
सेवा करते ह;
िजनके न तो काम, ोध, मद, अिभमान और मोह ह; न लोभ है, न ोभ है; न राग है, न ेष है;
और न कपट, दंभ और माया ही है - हे रघुराज! आप उनके दय म िनवास क िजए।
सब के ि य सब के िहतकारी। दख
ु सख
ु स रस संसा गारी॥
कहिहं स य ि य बचन िबचारी। जागत सोवत सरन तु हारी॥
जो सबके ि य और सबका िहत करनेवाले ह; िज ह दुःख और सुख तथा शंसा (बड़ाई) और
गाली (िनंदा) समान ह, जो िवचारकर स य और ि य वचन बोलते ह तथा जो जागते-सोते
आपक ही शरण ह,
और आपको छोड़कर िजनके दूसरे कोई गित (आ य) नह है, हे राम! आप उनके मन म बिसए।
जो पराई ी को ज म देनेवाली माता के समान जानते ह और पराया धन िज ह िवष से भी भारी
िवष है,
जो दूसरे क संपि देखकर हिषत होते ह और दूसरे क िवपि देखकर िवशेष प से दुःखी होते
ह, और हे राम! िज ह आप ाण के समान यारे ह, उनके मन आपके रहने यो य शुभ भवन ह।
अवगनु तिज सब के गन
ु गहह । िब धेनु िहत संकट सहह ॥
नीित िनपन
ु िज ह कइ जग लीका। घर तु हार ित ह कर मनु नीका॥
जो गुण को आपका और दोष को अपना समझता है, िजसे सब कार से आपका ही भरोसा है,
और राम भ िजसे यारे लगते ह, उसके दय म आप सीता सिहत िनवास क िजए।
े राम मन भाए॥
एिह िबिध मिु नबर भवन देखाए। बचन स म
कह मिु न सन
ु ह भानकु ु लनायक। आ म कहउँ समय सखु दायक॥
आप िच कूट पवत पर िनवास क िजए, वहाँ आपके िलए सब कार क सुिवधा है। सुहावना पवत
है और सुंदर वन है। वह हाथी, िसंह, िहरन और पि य का िवहार थल है।
वहाँ पिव नदी है, िजसक पुराण ने शंसा क है, और िजसको अि ऋिष क प नी अनसय ू ा
अपने तपोबल से लाई थ । वह गंगा क धारा है, उसका मंदािकनी नाम है। वह सब पाप पी
बालक को खा डालने के िलए डािकनी (डायन) प है।
महामुिन वा मीिक ने िच कूट क अप रिमत मिहमा बखान कर कही। तब सीता सिहत दोन
भाइय ने आकर े नदी मंदािकनी म नान िकया॥ 132॥
रघब
ु र कहेउ लखन भल घाटू। करह कतहँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहँ िदिस िफरे उ धनष
ु िजिम नारा॥
नदी (मंदािकनी) उस धनुष क यंचा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण ह। किलयुग के
सम त पाप उसके अनेक िहंसक पशु ( प िनशाने) ह। िच कूट ही मानो अचल िशकारी है,
िजसका िनशाना कभी चक ू ता नह , और जो सामने से मारता है।
ऐसा कहकर ल मण ने थान िदखाया। थान को देखकर राम ने सुख पाया। जब देवताओं ने
जाना िक राम का मन यहाँ रम गया, तब वे देवताओं के धान थवई (मकान बनानेवाले)
िव कमा को साथ लेकर चले।
बरिष सम
ु न कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥
क र िबनती दख
ु दसु ह सन
ु ाए। हरिषत िनज िनज सदन िसधाए॥
फूल क वषा करके देव समाज ने कहा - हे नाथ! आज (आपका दशन पाकर) हम सनाथ हो
गए। िफर िवनती करके उ ह ने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःख के नाश का आ ासन
पाकर) हिषत होकर अपने-अपने थान को चले गए।
िच कूट रघन
ु ंदनु छाए। समाचार सिु न सिु न मिु न आए॥
आवत देिख मिु दत मिु नबंदृ ा। क ह दंडवत रघक
ु ु ल चंदा॥
मिु न रघब
ु रिह लाइ उर लेह । सफ
ु ल होन िहत आिसष देह ॥
िसय सौिमि राम छिब देखिहं। साधन सकल सफल क र लेखिहं॥
मुिनगण राम को दय से लगा लेते ह और सफल होने के िलए आशीवाद देते ह। वे सीता, ल मण
और राम क छिव देखते ह और अपने सारे साधन को सफल हआ समझते ह।
भु राम ने यथायो य स मान करके मुिन मंडली को िवदा िकया। (राम के आ जाने से) वे सब
अपने-अपने आ म म अब वतं ता के साथ योग, जप, य और तप करने लगे॥ 134॥
उनम से जो दोन भाइय को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रा ते म जाते हए पछ
ू ते ह।
इस कार राम क सुंदरता कहते-सुनते सब ने आकर रघुनाथ के दशन िकए।
हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे ह, वे प ृ वी, वन, माग और पहाड़ ध य ह, वे वन म
िवचरनेवाले प ी और पशु ध य ह, जो आपको देखकर सफल ज म हो गए।
हम लोग सब कार से हाथी, िसंह, सप और बाघ से बचाकर आपक सेवा करगे। हे भो! यहाँ के
बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर) सब पग-पग हमारे देखे हए ह।
हम वहाँ-वहाँ (उन-उन थान म) आपको िशकार िखलावगे और तालाब, झरने आिद जलाशय
को िदखाएँ गे। हम कुटुंब समेत आपके सेवक ह। हे नाथ! इसिलए हम आ ा देने म संकोच न
क िजएगा।
रामिह केवल म
े ु िपआरा। जािन लेउ जो जान िनहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। किह मदृ ु बचन म े प रपोषे॥
राम को केवल ेम यारा है; जो जाननेवाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब राम ने ेम
से प रपु हए ( ेमपण
ू ) कोमल वचन कहकर उन सब वन म िवचरण करनेवाले लोग को
संतु िकया।
िफर उनको िवदा िकया। वे िसर नवाकर चले और भु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस कार
देवता और मुिनय को सुख देनेवाले दोन भाई सीता समेत वन म िनवास करने लगे।
नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे , चकवे और चकोर आिद प ी कान को सुख देनेवाली और िच
को चुरानेवाली तरह-तरह क बोिलयाँ बोलते ह॥ 137॥
और िहमालय आिद िजतने पवत ह, सभी िच कूट का यश गाते ह। िवं याचल बड़ा आनंिदत है,
उसके मन म सुख समाता नह ; य िक उसने िबना प र म ही बहत बड़ी बड़ाई पा ली है।
नयनवंत रघब
ु रिह िबलोक । पाइ जनम फल होिहं िबसोक ॥
परिस चरन रज अचर सख ु ारी। भए परम पद के अिधकारी॥
आँख वाले जीव राम को देखकर ज म का फल पाकर शोकरिहत हो जाते ह, और अचर (पवत,
व ृ , भिू म, नदी आिद) भगवान क चरण-रज का पश पाकर सुखी होते ह। य सभी परम पद
(मो ) के अिधकारी हो गए।
सो बनु सैलु सभ
ु ायँ सहु ावन। मंगलमय अित पावन पावन॥
मिहमा किहअ कविन िबिध तासू। सख ु सागर जहँ क ह िनवासू॥
पय पयोिध तिज अवध िबहाई। जहँ िसय लखनु रामु रहे आई॥
किह न सकिहं सष
ु मा जिस कानन। ज सत सहस होिहं सहसानन॥
उसे भला, म िकस कार से वणन करके कह सकता हँ। कह पोखरे का ( ु ) कछुआ भी
मंदराचल उठा सकता है? ल मण मन, वचन और कम से राम क सेवा करते ह। उनके शील और
नेह का वणन नह िकया जा सकता।
राम संग िसय रहित सख ु ारी। परु प रजन गहृ सरु ित िबसारी॥
िछनु िछनु िपय िबधु बदनु िनहारी। मिु दत मनहँ चकोर कुमारी॥
नाह नेह िनत बढ़त िबलोक । हरिषत रहित िदवस िजिम कोक ॥
िसय मनु राम चरन अनरु ागा। अवध सहस सम बनु ि य लागा॥
वामी का ेम अपने ित िन य बढ़ता हआ देखकर सीता ऐसी हिषत रहती ह, जैसे िदन म
चकवी! सीता का मन राम के चरण म अनुर है इससे उनको वन हजार अवध के समान ि य
लगता है।
वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और प क सेज) सैकड़ कामदेव क सेज के समान सुख
देनेवाली है। िजनके (कृपापवू क) देखने मा से जीव लोकपाल हो जाते ह, उनको कह भोग-
िवलास मोिहत कर सकते ह!
िजन राम का मरण करने से ही भ जन तमाम भोग-िवलास को ितनके के समान याग देते
ह, उन राम क ि य प नी और जगत क माता सीता के िलए यह (भोग-िवलास का याग) कुछ
भी आ य नह है॥ 140॥
सीय लखन जेिह िबिध सख ु ु लहह । सोइ रघनु ाथ करिहं सोइ कहह ॥
कहिहं परु ातन कथा कहानी। सनु िहं लखनु िसय अित सख ु ु मानी॥
सीता और ल मण को िजस कार सुख िमले, रघुनाथ वही करते और वही कहते ह। भगवान
ाचीन कथाएँ और कहािनयाँ कहते ह और ल मण तथा सीता अ यंत सुख मानकर सुनते ह।
कृपािसंधु भु होिहं दख
ु ारी। धीरजु धरिहं कुसमउ िबचारी॥
लिख िसय लखनु िबकल होइ जाह । िजिम पु षिह अनस ु र प रछाह ॥
कृपा के समु भु राम दुःखी हो जाते ह, िकंतु िफर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते ह।
राम को दुःखी देखकर सीता और ल मण भी याकुल हो जाते ह, जैसे िकसी मनु य क परछाई ं
उस मनु य के समान ही चे ा करती है।
(िनषाद को अकेले आया देखकर) सुमं हा राम! हा राम! हा सीते! हा ल मण! पुकारते हए,
बहत याकुल होकर धरती पर िगर पड़े । (रथ के) घोड़े दि ण िदशा क ओर (िजधर राम गए थे)
देख-देखकर िहनिहनाते ह। मानो िबना पंख के प ी याकुल हो रहे ह ।
दो० - निहं तन
ृ चरिहं न िपअिहं जलु मोचिहं लोचन बा र।
याकुल भए िनषाद सब रघब ु र बािज िनहा र॥ 142॥
वे न तो घास चरते ह, न पानी पीते ह। केवल आँख से जल बहा रहे ह। राम के घोड़ को इस दशा
म देखकर सब िनषाद याकुल हो गए॥ 142॥
घोड़े तड़फड़ाते ह और (ठीक) रा ते पर नह चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ म जोत िदए गए
ह । वे राम के िवयोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर िगर पड़ते ह, कभी घम
ू कर पीछे क ओर देखने
लगते ह। वे ती ण दुःख से याकुल ह।
जो कोई राम, ल मण या जानक का नाम ले लेता है, घोड़े िहकर-िहकरकर उसक ओर यार से
देखने लगते ह। घोड़ क िवरह दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे याकुल ह, जैसे मिण के
िबना साँप याकुल होता है।
िनषादराज गुह सारथी (सुमं ) को पहँचाकर (िवदा करके) लौटा। उसके िवरह और दुःख का
वणन नह िकया जा सकता। वे चार िनषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमं और घोड़ को देख-
देखकर) वे भी ण- णभर िवषाद म डूबे जाते थे।
सोच सम ु ं िबकल दख
ु दीना। िधग जीवन रघब ु ीर िबहीना॥
रिहिह न अंतहँ अधम सरी । जसु न लहेउ िबछुरत रघबु ी ॥
याकुल और दुःख से दीन हए सुमं सोचते ह िक रघुवीर के िबना जीना िध कार है। आिखर यह
अधम शरीर रहे गा तो है ही नह । अभी राम के िबछुड़ते ही छूटकर इसने यश ( य ) नह ले िलया।
सुमं हाथ मल-मलकर और िसर पीट-पीटकर पछताते ह। मानो कोई कंजस ू धन का खजाना खो
बैठा हो। वे इस कार चले मानो कोई बड़ा यो ा वीर का बाना पहनकर और उ म शरू वीर
कहलाकर यु से भाग चला हो!
जैसे कोई िववेकशील, वेद का ाता, साधुस मत आचरण वाला और उ म जाित का (कुलीन)
ा ण धोखे से मिदरा पी ले और पीछे पछताए, उसी कार मं ी सुमं सोच कर रहे (पछता रहे )
ह॥ 144॥
ने म जल भरा है, ि मंद हो गई है। कान से सुनाई नह पड़ता, याकुल हई बुि बेिठकाने
ू रहे ह, मँुह म लाटी लग गई है। िकंतु (ये सब म ृ यु के ल ण हो जाने पर भी)
हो रही है। ओठ सख
ाण नह िनकलते; य िक दय म अविध पी िकवाड़ लगे ह (अथात चौदह वष बीत जाने पर
भगवान िफर िमलगे, यही आशा कावट डाल रही है)।
जब दीन-दुःखी सब माताएँ पछ
ू गी, तब हे िवधाता! म उ ह या कहँगा? जब ल मण क माता
ू गी, तब म उ ह कौन-सा सुखदायी सँदेसा कहँगा?
मुझसे पछ
राम क माता जब इस कार दौड़ी आवगी जैसे नई यायी हई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी
आती है, तब उनके पछ
ू ने पर म उ ह यह उ र दँूगा िक राम, ल मण, सीता वन को चले गए!
जो भी पछू े गा उसे यही उ र देना पड़े गा! हाय! अयो या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब
दुःख से दीन महाराज, िजनका जीवन रघुनाथ के (दशन के) ही अधीन है, मुझसे पछ ू गे,
एिह िबिध करत पंथ पिछतावा। तमसा तीर तरु त रथु आवा॥
िबदा िकए क र िबनय िनषादा। िफरे पायँ प र िबकल िबषादा॥
सुमं इस कार माग म पछतावा कर रहे थे, इतने म ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ
पहँचा। मं ी ने िवनय करके चार िनषाद को िवदा िकया। वे िवषाद से याकुल होते हए सुमं के
पैर पड़कर लौटे।
पैठत नगर सिचव सकुचाई। जनु मारे िस गरु बाँभन गाई॥
बैिठ िबटप तर िदवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवस पावा॥
रथु पिहचािन िबकल लिख घोरे । गरिहं गात िजिम आतप ओरे ॥
नगर ना र नर याकुल कैस। िनघटत नीर मीनगन जैस॥
रथ को पहचानकर और घोड़ को याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे ह ( ीण हो रहे
ह) जैसे घाम म ओले! नगर के ी-पु ष कैसे याकुल ह, जैसे जल के घटने पर मछिलयाँ
( याकुल होती ह)।
मं ी का (अकेले ही) आना सुनकर सारा रिनवास याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा
भयानक लगा मानो ेत का िनवास थान ( मशान) हो॥ 147॥
राजा ण- ण म सोच से छाती भर लेते ह। ऐसी िवकल दशा है मानो (गीधराज जटायु का भाई)
संपाती पंख के जल जाने पर िगर पड़ा हो। राजा (बार-बार) 'राम, राम' 'हा नेही ( यारे ) राम!'
कहते ह, िफर 'हा राम, हा ल मण, हा जानक ' ऐसा कहने लगते ह।
मं ी ने देखकर 'जय जीव' कहकर दंडवत- णाम िकया। सुनते ही राजा याकुल होकर उठे और
बोले - सुमं ! कहो, राम कहाँ ह?॥ 148॥
भूप सम
ु ं ु ली ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सिहत सनेह िनकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भ र बारी॥
राजा ने सुमं को दय से लगा िलया। मानो डूबते हए आदमी को कुछ सहारा िमल गया हो। मं ी
को नेह के साथ पास बैठाकर ने म जल भरकर राजा पछ ू ने लगे -
हे मेरे ेमी सखा! राम क कुशल कहो। बताओ, राम, ल मण और जानक कहाँ ह? उ ह लौटा
लाए हो िक वे वन को चले गए? यह सुनते ही मं ी के ने म जल भर आया।
सोक िबकल पिु न पूँछ नरे सू। कह िसय राम लखन संदस े ू॥
राम प गन
ु सील सभ ु ाऊ। सिु म र सिु म र उर सोचत राऊ॥
मं ी धीरज धरकर कोमल वाणी बोले - महाराज! आप पंिडत और ानी ह। हे देव! आप शरू वीर
तथा उ म धैयवान पु ष म े ह। आपने सदा साधुओ ं के समाज क सेवा क है।
जनम मरन सब दख
ु सख ु भोगा। हािन लाभु ि य िमलन िबयोगा॥
काल करम बस होिहं गोसाई ं। बरबस राित िदवस क नाई ं॥
सख
ु हरषिहं जड़ दख ु िबलखाह । दोउ सम धीर धरिहं मन माह ॥
धीरज धरह िबबेकु िबचारी। छािड़अ सोच सकल िहतकारी॥
मख
ू लोग सुख म हिषत होते और दुःख म रोते ह, पर धीर पु ष अपने मन म दोन को समान
समझते ह। हे सबके िहतकारी (र क)! आप िववेक िवचारकर धीरज ध रए और शोक का
प र याग क िजए।
राम का पहला िनवास (मुकाम) तमसा के तट पर हआ, दूसरा गंगा तीर पर। सीता सिहत दोन
भाई उस िदन नान करके जल पीकर ही रहे ॥ 150॥
तब राम के सखा िनषादराज ने नाव मँगवाई। पहले ि या सीता को उस पर चढ़ाकर िफर रघुनाथ
चढ़े । िफर ल मण ने धनुष-बाण सजाकर रखे और भु राम क आ ा पाकर वयं चढ़े ।
मुझे याकुल देखकर राम धीरज धरकर मधुर वचन बोले - हे तात! िपता से मेरा णाम कहना
और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना।
िफर पाँव पकड़कर िवनती करना िक हे िपता! आप मेरी िचंता न क िजए। आपक कृपा, अनु ह
और पु य से वन म और माग म हमारा कुशल-मंगल होगा।
हे तात! सब पुरवािसय और कुटुंिबय से िनहोरा (अनुरोध) करके मेरी िवनती सुनाना िक वही
मनु य मेरा सब कार से िहतकारी है िजसक चे ा से महाराज सुखी रह।
भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना िक राजा का पद पा जाने पर नीित न छोड़ देना;
कम, वचन और मन से जा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनक सेवा
करना।
और हे भाई! िपता, माता और वजन क सेवा करके भाईपन को अंत तक िनबाहना। हे तात!
राजा (िपता) को उसी कार से रखना िजससे वे कभी (िकसी तरह भी) मेरा सोच न कर।
लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरिज राम पिु न मोिह िनहोरा॥
बार बार िनज सपथ देवाई। कहिब न तात लखन ल रकाई॥
ल मण ने कुछ कठोर वचन कहे । िकंतु राम ने उ ह बरजकर िफर मुझसे अनुरोध िकया और
बार-बार अपनी सौगंध िदलाई (और कहा -) हे तात! ल मण का लड़कपन वहाँ न कहना।
णाम कर सीता भी कुछ कहने लगी थ , परं तु नेहवश वे िशिथल हो गई ं। उनक वाणी क गई,
ने म जल भर आया और शरीर रोमांच से या हो गया॥ 152॥
उसी समय राम का ख पाकर केवट ने पार जाने के िलए नाव चला दी। इस कार रघुवंश
ितलक राम चल िदए और म छाती पर व रखकर खड़ा-खड़ा देखता रहा।
े ू॥
म आपन िकिम कह कलेसू। िजअत िफरे उँ लेइ राम सँदस
अस किह सिचव बचन रिह गयऊ। हािन गलािन सोच बस भयऊ॥
म अपने लेश को कैसे कहँ, जो राम का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर
मं ी क वाणी क गई (वे चुप हो गए) और वे हािन क लािन और सोच के वश हो गए।
सूत बचन सन
ु तिहं नरनाह। परे उ धरिन उर दा न दाह॥
तलफत िबषम मोह मन मापा। माजा मनहँ मीन कहँ यापा॥
सारथी सुमं के वचन सुनते ही राजा प ृ वी पर िगर पड़े , उनके दय म भयानक जलन होने
लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से याकुल हो गया। मानो मछली को माँजा याप
गया हो (पहली वषा का जल लग गया हो)।
सब रािनयाँ िवलाप करके रो रही ह। उस महान िवपि का कैसे वणन िकया जाए? उस समय के
िवलाप को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया!
राजा के रावले (रिनवास) म (रोने का) शोर सुनकर अयो या भर म बड़ा भारी कुहराम मच गया!
(ऐसा जान पड़ता था) मानो पि य के िवशाल वन म रात के समय कठोर व िगरा हो॥ 153॥
ान कंठगत भयउ भआ
ु ल।ू मिन िबहीन जनु याकुल याल॥ ू
इं सकल िबकल भइँ भारी। जनु सर सरिसज बनु िबनु बारी॥
राजा के ाण कंठ म आ गए। मानो मिण के िबना साँप याकुल (मरणास न) हो गया हो। इंि याँ
सब बहत ही िवकल हो गई ं, मानो िबना जल के तालाब म कमल का वन मुरझा गया हो।
कौस याँ नपृ ु दीख मलाना। रिबकुल रिब अँथयउ िजयँ जाना॥
उर ध र धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनस ु ारी॥
आप धीरज ध रएगा, तो सब पार पहँच जाएँ गे। नह तो सारा प रवार डूब जाएगा। हे ि य वामी!
यिद मेरी िवनती दय म धारण क िजएगा तो राम, ल मण, सीता िफर आ िमलगे।
ि य प नी कौस या के कोमल वचन सुनते हए राजा ने आँख खोलकर देखा! मानो तड़पती हई
दीन मछली पर कोई शीतल जल िछड़क रहा हो॥ 154॥
धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले - सुमं ! कहो, कृपालु राम कहाँ ह? ल मण कहाँ ह? नेही
राम कहाँ ह? और मेरी यारी बह जानक कहाँ है?
राजा याकुल होकर बहत कार से िवलाप कर रहे ह। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती
ही नह । राजा को अंधे तप वी ( वणकुमार के िपता) के शाप क याद आ गई। उ ह ने सब कथा
कौस या को कह सुनाई।
उस इितहास का वणन करते-करते राजा याकुल हो गए और कहने लगे िक राम के िबना जीने
क आशा को िध कार है। म उस शरीर को रखकर या क ँ गा, िजसने मेरा ेम का ण नह
िनबाहा?
हा रघन
ु ंदन ान िपरीते। तु ह िबनु िजअत बहत िदन बीते॥
हा जानक लखन हा रघब ु र। हा िपतु िहत िचत चातक जलधर॥
हा रघुकुल को आनंद देनेवाले मेरे ाण यारे राम! तु हारे िबना जीते हए मुझे बहत िदन बीत गए।
हा जानक , ल मण! हा रघुवीर! हा िपता के िच पी चातक के िहत करनेवाले मेघ!
दो० - राम राम किह राम किह राम राम किह राम।
तनु प रह र रघबु र िबरहँ राउ गयउ सरु धाम॥ 155॥
राम-राम कहकर, िफर राम कहकर, िफर राम-राम कहकर और िफर राम कहकर राजा राम के
िवरह म शरीर याग कर सुरलोक को िसधार गए॥ 155॥
िजअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
िजअत राम िबधु बदनु िनहारा। राम िबरह क र मरनु सँवारा॥
दास-दासीगण याकुल होकर िवलाप कर रहे ह और नगर िनवासी घर-घर रो रहे ह। कहते ह िक
आज धम क सीमा, गुण और प के भंडार सय ू कुल के सय
ू अ त हो गए!
तब विश मुिन ने समय के अनुकूल अनेक इितहास कहकर अपने िव ान के काश से सबका
शोक दूर िकया॥ 156॥
तेल नावँ भ र नप
ृ तनु राखा। दूत बोलाइ बह र अस भाषा॥
धावह बेिग भरत पिहं जाह। नपृ सिु ध कतहँ कहह जिन काह॥
विश ने नाव म तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसम रखवा िदया। िफर दूत को बुलवाकर
उनसे ऐसा कहा - तुम लोग ज दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा क म ृ यु का समाचार कह
िकसी से न कहना।
जाकर भरत से इतना ही कहना िक दोन भाइय को गु ने बुलवा भेजा है। मुिन क आ ा
सुनकर धावन (दूत) दौड़े । वे अपने वेग से उ म घोड़ को भी लजाते हए चले।
जब से अयो या म अनथ ारं भ हआ, तभी से भरत को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर
व न देखते थे और जागने पर (उन व न के कारण) करोड़ (अनेक ) तरह क बुरी-बुरी
क पनाएँ िकया करते थे।
(अिन शांित के िलए) वे ितिदन ा ण को भोजन कराकर दान देते थे। अनेक िविधय से
ािभषेक करते थे। महादेव को दय म मनाकर उनसे माता-िपता, कुटुंबी और भाइय का
कुशल- ेम माँगते थे।
हवा के समान वेगवाले घोड़ को हाँकते हए वे िवकट नदी, पहाड़ तथा जंगल को लाँघते हए चले।
उनके दय म बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन म ऐसा सोचते थे िक उड़कर पहँच जाऊँ।
एक िनमेष बरष सम जाई। एिह िबिध भरत नगर िनअराई॥
असगनु होिहं नगर पैठारा। रटिहं कुभाँित कुखेत करारा॥
एक-एक िनमेष वष के समान बीत रहा था। इस कार भरत नगर के िनकट पहँचे। नगर म वेश
करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे ह।
गदहे और िसयार िवपरीत बोल रहे ह। यह सुन-सुनकर भरत के मन म बड़ी पीड़ा हो रही है।
तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे ह। नगर बहत ही भयानक लग रहा है।
राम के िवयोग पी बुरे रोग से सताए हए प ी-पशु, घोड़े -हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे ह िक) देखे
नह जाते। नगर के ी-पु ष अ यंत दुःखी हो रहे ह। मानो सब अपनी सारी संपि हार बैठे ह ।
नगर के लोग िमलते ह, पर कुछ कहते नह ; ग से (चुपके-से) जोहार (वंदना) करके चले जाते
ह। भरत भी िकसी से कुशल नह पछू सकते, य िक उनके मन म भय और िवषाद छा रहा है॥
158॥
हाट बाट निहं जाइ िनहारी। जनु परु दहँ िदिस लािग दवारी॥
आवत सत ु सिु न कैकयनंिदिन। हरषी रिबकुल जल ह चंिदिन॥
बाजार और रा ते देखे नह जाते। मानो नगर म दस िदशाओं म दावाि न लगी है! पु को आते
सुनकर सयू कुल पी कमल के िलए चाँदनी पी कैकेयी (बड़ी) हिषत हई।
सिज आरती मिु दत उिठ धाई। ारे िहं भिट भवन लेइ आई॥
भरत दिु खत प रवा िनहारा॥ मानहँ तिु हन बनज बनु मारा॥
एक कैकेयी ही इस तरह हिषत िदखती है मानो भीलनी जंगल म आग लगाकर आनंद म भर रही
हो। पु को सोच वश और मन मारे (बहत उदास) देखकर वह पछू ने लगी - हमारे नैहर म कुशल
तो है?
सकल कुसल किह भरत सन ु ाई। पूँछी िनज कुल कुसल भलाई॥
कह कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ िसय राम लखन ि य ाता॥
भरत ने सब कुशल कह सुनाई। िफर अपने कुल क कुशल- ेम पछ ू ी। (भरत ने कहा -) कहो,
िपता कहाँ ह? मेरी सब माताएँ कहाँ ह? सीता और मेरे यारे भाई राम-ल मण कहाँ ह?
दो० - सिु न सत
ु बचन सनेहमय कपट नीर भ र नैन।
भरत वन मन सूल सम पािपिन बोली बैन॥ 159॥
हे तात! मने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हई। पर िवधाता ने बीच म जरा-सा
काम िबगाड़ िदया। वह यह िक राजा देवलोक को पधार गए।
भरत यह सुनते ही िवषाद के मारे िववश (बेहाल) हो गए। मानो िसंह क गजना सुनकर हाथी
सहम गया हो। वे 'तात! तात! हा तात!' पुकारते हए अ यंत याकुल होकर जमीन पर िगर पड़े ।
(और िवलाप करने लगे िक) हे तात! म आपको ( वग के िलए) चलते समय देख भी न सका।
(हाय!) आप मुझे राम को स प भी नह गए! िफर धीरज धरकर वे स हलकर उठे और बोले -
माता! िपता के मरने का कारण तो बताओ।
राम का वन जाना सुनकर भरत को िपता का मरण भलू गया और दय म इस सारे अनथ का
कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर तंिभत रह गए (अथात उनक बोली बंद हो गई और
वे स न रह गए)॥ 160॥
पु को याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली -)
हे तात! राजा सोच करने यो य नह ह। उ ह ने पु य और यश कमाकर उसका पया भोग िकया।
राजकुमार भरत यह सुनकर बहत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उ ह ने
धीरज धरकर बड़ी लंबी साँस लेते हए कहा - पािपनी! तन
ू े सभी तरह से कुल का नाश कर िदया।
हाय! यिद तेरी ऐसी ही अ यंत बुरी िच (दु इ छा) थी, तो तनू े ज मते ही मुझे मार य नह
डाला? तनू े पेड़ को काटकर प े को स चा है और मछली के जीने के िलए पानी को उलीच डाला!
(अथात मेरा िहत करने जाकर उलटा तन ू े मेरा अिहत कर डाला।)
अरी कुमित! जब तन ू े दय म यह बुरा िवचार (िन य) ठाना, उसी समय तेरे दय के टुकड़े -
टुकड़े ( य ) न हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन म कुछ भी पीड़ा नह हई? तेरी जीभ गल
नह गई? तेरे मँुह म क ड़े नह पड़ गए?
राजा ने तेरा िव ास कैसे कर िलया? (जान पड़ता है,) िवधाता ने मरने के समय उनक बुि हर
ली थी। ि य के दय क गित (चाल) िवधाता भी नह जान सके। वह संपण ू कपट, पाप और
अवगुण क खान है।
सरल सस
ु ील धरम रत राऊ। सो िकिम जानै तीय सभु ाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माह । जेिह रघन
ु ाथ ानि य नाह ॥
िफर राजा तो सीधे, सुशील और धमपरायण थे। वे भला, ी वभाव को कैसे जानते? अरे , जगत
के जीव-जंतुओ ं म ऐसा कौन है, िजसे रघुनाथ ाण के समान यारे नह ह।
वे राम भी तुझे अिहत हो गए (वैरी लगे)! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मँुह
म याही पोतकर (मँुह काला करके) उठकर मेरी आँख क ओट म जा बैठ।
िवधाता ने मुझे राम से िवरोध करनेवाले (तेरे) दय से उ प न िकया (अथवा िवधाता ने मुझे दय
से राम का िवरोधी जािहर कर िदया)। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? म यथ ही तुझे कुछ कहता
हँ॥ 162॥
सिु न स घ
ु न
ु मातु कुिटलाई। जरिहं गात रस कछु न बसाई॥
तेिह अवसर कुबरी तहँ आई। बसन िबभूषन िबिबध बनाई॥
माता क कुिटलता सुनकर श ु न के सब अंग ोध से जल रहे ह, पर कुछ वश नह चलता।
उसी समय भाँित-भाँित के कपड़ और गहन से सजकर कुबरी (मंथरा) वहाँ आई।
उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गए और मँुह से खन
ू बहने लगा। (वह कराहती
हई बोली -) हाय दैव! मने या िबगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया।
कौस या मैले व पहने ह, चेहरे का रं ग बदला हआ है, याकुल हो रही ह, दुःख के बोझ से
शरीर सख
ू गया है। ऐसी िदख रही ह मानो सोने क सुंदर क पलता को वन म पाला मार गया
हो॥ 163॥
भरतिह देिख मातु उिठ धाई। मु िछत अविन परी झइँ आई॥
देखत भरतु िबकल भए भारी। परे चरन तन दसा िबसारी॥
मातु तात कहँ देिह देखाई। कहँ िसय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। ज जनिम त भइ काहे न बाँझा॥
(िफर बोले -) माता! िपता कहाँ ह? उ ह िदखा दे। सीता तथा मेरे दोन भाई राम-ल मण कहाँ ह?
(उ ह िदखा दे।) कैकेयी जगत म य जनमी! और यिद जनमी ही तो िफर बाँझ य न हई? -
भरत के कोमल वचन सुनकर माता कौस या िफर सँभलकर उठ । उ ह ने भरत को उठाकर
छाती से लगा िलया और ने से आँसू बहाने लग ॥ 164॥
सरल वभाववाली माता ने बड़े ेम से भरत को छाती से लगा िलया, मानो राम ही लौटकर आ
गए ह । िफर ल मण के छोटे भाई श ु न को दय से लगाया। शोक और नेह दय म समाता
नह है।
कौस या का वभाव देखकर सब कोई कह रहे ह - राम क माता का ऐसा वभाव य न हो।
माता ने भरत को गोद म बैठा िलया और उनके आँसू प छकर कोमल वचन बोल -
हे व स! म बलैया लेती हँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक याग दो। काल और
कम क गित अिमट जानकर दय म हािन और लािन मत मानो।
हे तात! िकसी को दोष मत दो। िवधाता मुझको सब कार से उलटा हो गया है, जो इतने दुःख पर
भी मुझे िजला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे या भा रहा है?
हे तात! िपता क आ ा से रघुवीर ने भषू ण-व याग िदए और व कल-व पहन िलए। उनके
दय म न कुछ िवषाद था, न हष!॥ 165॥
मख
ु स न मन रं ग न रोषू। सब कर सब िबिध क र प रतोषू॥
चले िबिपन सिु न िसय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनरु ागी॥
उनका मुख स न था; मन म न आसि थी, न रोष ( ेष)। सबका सब तरह से संतोष कराकर
वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गई ं।राम के चरण क अनुरािगणी वे िकसी
तरह न रह ।
सन
ु तिहं लखनु चले उिठ साथा। रहिहं न जतन िकए रघन
ु ाथा॥
तब रघप
ु ित सबही िस नाई। चले संग िसय अ लघु भाई॥
कौस या के वचन को सुनकर भरत सिहत सारा रिनवास याकुल होकर िवलाप करने लगा।
राजमहल मानो शोक का िनवास बन गया॥ 166॥
िबलपिहं िबकल भरत दोउ भाई। कौस याँ िलए दयँ लगाई॥
भाँित अनेक भरतु समझ
ु ाए। किह िबबेकमय बचन सनु ाए॥
भरत, श ु न दोन भाई िवकल होकर िवलाप करने लगे। तब कौस या ने उनको दय से लगा
िलया। अनेक कार से भरत को समझाया और बहत-सी िववेकभरी बात उ ह कहकर सुनाई ं।
भरत ने भी सब माताओं को पुराण और वेद क सुंदर कथाएँ कहकर समझाया। दोन हाथ
जोड़कर भरत छलरिहत, पिव और सीधी सुंदर वाणी बोले -
जे अघ मातु िपता सत
ु मार। गाइ गोठ मिहसरु परु जार॥
जे अघ ितय बालक बध क ह। मीत महीपित माहर दी ह॥
कम, वचन और मन से होनेवाले िजतने पातक एवं उपपातक (बड़े -छोटे पाप) ह, िजनको किव
लोग कहते ह, हे िवधाता! यिद इस काम म मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लग।
जे निहं साधस
ु ंग अनरु ागे। परमारथ पथ िबमख
ु अभागे॥
जे न भजिहं ह र नर तनु पाई। िज हिह न ह र हर सज
ु सु सोहाई॥
िजनका स संग म ेम नह है; जो अभागे परमाथ के माग से िवमुख ह; जो मनु य-शरीर पाकर
ह र का भजन नह करते; िजनको ह र-हर (भगवान िव णु और शंकर) का सुयश नह सुहाता;
जो वेद माग को छोड़कर वाम (वेद ितकूल) माग पर चलते ह; जो ठग ह और वेष बनाकर जगत
को छलते ह; हे माता! यिद म इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकर मुझे उन लोग क गित द।
और ान हो जाने पर भी चाहे मोह न िमटे; पर तुम राम के ितकूल कभी नह हो सकते। इसम
तु हारी स मित है, जगत म जो कोई ऐसा कहते ह वे व न म भी सुख और शुभ गित नह
पावगे।
ऐसा कहकर माता कौस या ने भरत को दय से लगा िलया। उनके तन से दूध बहने लगा और
ने म ( ेमा ुओ ं का) जल छा गया। इस कार बहत िवलाप करते हए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत
गई।
तब वामदेव और विश आए। उ ह ने सब मंि य तथा महाजन को बुलवाया। िफर मुिन विश
ने परमाथ के सुंदर समयानुकूल वचन कहकर बहत कार से भरत को उपदेश िदया।
(विश ने कहा -) हे तात! दय म धीरज धरो और आज िजस काय के करने का अवसर है, उसे
करो। गु के वचन सुनकर भरत उठे और उ ह ने सब तैयारी करने के िलए कहा॥ 169॥
नप
ृ तनु बेद िबिदत अ हवावा। परम िबिच िबमानु बनावा॥
गािह पद भरत मातु सब राखी। रह रािन दरसन अिभलाषी॥
वेद म बताई हई िविध से राजा क देह को नान कराया गया और परम िविच िवमान बनाया
गया। भरत ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अथात ाथना करके उनको सती होने से
रोक िलया)। वे रािनयाँ भी (राम के) दशन क अिभलाषा से रह गई ं।
चंदन और अगर के तथा और भी अनेक कार के अपार (कपरू , गु गुल, केसर आिद) सुगंध-
य के बहत-से बोझ आए। सरयू के तट पर सुंदर िचता रचकर बनाई गई, (जो ऐसी मालम
ू होती
थी) मानो वग क सुंदर सीढ़ी हो।
जहँ जस मिु नबर आयसु दी हा। तहँ तस सहस भाँित सबु क हा॥
भए िबसु िदए सब दाना। धेनु बािज गज बाहन नाना॥
मुिन े विश ने जहाँ जैसी आ ा दी, वहाँ भरत ने सब वैसा ही हजार कार से िकया। शु हो
जाने पर (िविधपवू क) सब दान िदए। गौएँ तथा घोड़े , हाथी आिद अनेक कार क सवा रयाँ,
िसंहासन, गहने, कपड़े , अ न, प ृ वी, धन और मकान भरत ने िदए; भदू ेव ा ण दान पाकर
प रपणू काम हो गए (अथात उनक सारी मनोकामनाएँ अ छी तरह से परू ी हो गई ं)॥ 170॥
िपता के िलए भरत ने जैसी करनी क वह लाख मुख से भी वणन नह क जा सकती। तब शुभ
िदन शोधकर े मुिन विश आए और उ ह ने मंि य तथा सब महाजन को बुलवाया।
सब लोग राजसभा म जाकर बैठ गए। तब मुिन ने भरत तथा श ु न दोन भाइय को बुलवा भेजा।
भरत को विश ने अपने पास बैठा िलया और नीित तथा धम से भरे हए वचन कहे ।
पहले तो कैकेयी ने जैसी कुिटल करनी क थी, े मुिन ने वह सारी कथा कही। िफर राजा के
धम त और स य क सराहना क , िज ह ने शरीर याग कर ेम को िनबाहा।
कहत राम गन
ु सील सभ
ु ाऊ। सजल नयन पलु केउ मिु नराऊ॥
बह र लखन िसय ीित बखानी। सोक सनेह मगन मिु न यानी॥
दो० - सन
ु ह भरत भावी बल िबलिख कहेउ मिु ननाथ।
हािन लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु िबिध हाथ॥ 171॥
मुिननाथ ने िबलखकर (दुःखी होकर) कहा - हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है।
हािन-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब िवधाता के हाथ ह॥ 171॥
ऐसा िवचार कर िकसे दोष िदया जाए? और यथ िकस पर ोध िकया जाए? हे तात! मन म
िवचार करो। राजा दशरथ सोच करने के यो य नह ह।
उस वै य का सोच करना चािहए जो धनवान होकर भी कंजसू है, और जो अितिथ स कार तथा
िशव क भि करने म कुशल नह है। उस शू का सोच करना चािहए जो ा ण का अपमान
करनेवाला, बहत बोलनेवाला, मान-बड़ाई चाहनेवाला और ान का घमंड रखनेवाला है।
उस गहृ थ का सोच करना चािहए जो मोहवश कम माग का याग कर देता है; उस सं यासी का
सोच करना चािहए जो दुिनया के पंच म फँसा हआ और ान-वैरा य से हीन है॥ 172॥
वान थ वही सोच करने यो य है िजसको तप या छोड़कर भोग अ छे लगते ह। सोच उसका
करना चािहए जो चुगलखोर है, िबना ही कारण ोध करनेवाला है तथा माता, िपता, गु एवं
भाई-बंधुओ ं के साथ िवरोध रखनेवाला है।
सब कार से उसका सोच करना चािहए जो दूसर का अिन करता है, अपने ही शरीर का
पोषण करता है और बड़ा भारी िनदयी है। और वह तो सभी कार से सोच करने यो य है जो छल
छोड़कर ह र का भ नह होता।
कोसलराज दशरथ सोच करने यो य नह ह, िजनका भाव चौदह लोक म कट है। हे भरत!
तु हारे िपता-जैसा राजा तो न हआ, न है और न अब होने का ही है।
हे तात! कहो, उनक बड़ाई कोई िकस कार करे गा िजनके राम, ल मण, तुम और श ु न-
सरीखे पिव पु ह?॥ 173॥
राजा सब कार से बड़भागी थे। उनके िलए िवषाद करना यथ है। यह सुन और समझकर सोच
याग दो और राजा क आ ा िसर चढ़ाकर तदनुसार करो।
राजा ने राज पद तुमको िदया है। िपता का वचन तु ह स य करना चािहए, िज ह ने वचन के िलए
ही राम को याग िदया और रामिवरह क अि न म अपने शरीर क आहित दे दी।
नप
ृ िह बचन ि य निहं ि य ाना। करह तात िपतु बचन वाना॥
करह सीस ध र भूप रजाई। हइ तु ह कहँ सब भाँित भलाई॥
जो अनुिचत और उिचत का िवचार छोड़कर िपता के वचन का पालन करते ह, वे (यहाँ) सुख
और सुयश के पा होकर अंत म इं पुरी ( वग) म िनवास करते ह॥ 174॥
बेद िबिदत संमत सबही का। जेिह िपतु देइ सो पावइ टीका॥
करह राजु प रहरह गलानी। मानह मोर बचन िहत जानी॥
जो तु हारे और राम के े संबंध को जान लेगा, वह सभी कार से तुमसे भला मानेगा। राम के
लौट आने पर रा य उ ह स प देना और सुंदर नेह से उनक सेवा करना।
बन रघप
ु ित सरु पित नरनाह। तु ह एिह भाँित तात कदराह॥
प रजन जा सिचव सब अंबा। तु हह सत ु सब कहँ अवलंबा॥
लिख िबिध बाम कालु किठनाई। धीरजु धरह मातु बिल जाई॥
िसर ध र गरु आयसु अनस
ु रह। जा पािल प रजन दख ु ु हरह॥
िवधाता को ितकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तु हारी बिलहारी जाती है।
गु क आ ा को िसर चढ़ाकर उसी के अनुसार काय करो और जा का पालन कर कुटुंिबय
का दुःख हरो।
सरलता के रस म सनी हई माता क वाणी सुनकर भरत याकुल हो गए। उनके ने -कमल जल
(आँस)ू बहाकर दय के िवरह पी नवीन अंकुर को स चने लगे। (ने के आँसुओ ं ने उनके
िवयोग-दुःख को बहत ही बढ़ाकर उ ह अ यंत याकुल कर िदया।) उनक वह दशा देखकर उस
समय सबको अपने शरीर क सुध भल ू गई। तुलसीदास कहते ह - वाभािवक ेम क सीमा भरत
क सब लोग आदरपवू क सराहना करने लगे।
धैय क धरु ी को धारण करनेवाले भरत धीरज धरकर, कमल के समान हाथ को जोड़कर,
वचन को मानो अमत ृ म डुबाकर सबको उिचत उ र देने लगे - ॥ 176॥
मोिह उपदेसु दी ह गु नीका। जा सिचव संमत सबही का॥
मातु उिचत ध र आयसु दी हा। अविस सीस ध र चाहउँ क हा॥
गु ने मुझे सुंदर उपदेश िदया। (िफर) जा, मं ी आिद सभी को यही स मत है। माता ने भी उिचत
समझकर ही आ ा दी है और म भी अव य उसको िसर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हँ।
गरु िपतु मातु वािम िहत बानी। सिु न मन मिु दत क रअ भिल जानी॥
उिचत िक अनिु चत िकएँ िबचा । धरमु जाइ िसर पातक भा ॥
आप तो मुझे वही सरल िश ा दे रहे ह, िजसके आचरण करने म मेरा भला हो। य िप म इस बात
को भली भाँित समझता हँ, तथािप मेरे दय को संतोष नह होता।
अब तु ह िबनय मो र सिु न लेह। मोिह अनहु रत िसखावनु देह॥
ऊत देउँ छमब अपराधू। दिु खत दोष गन ु गनिहं न साधू॥
अब आप लोग मेरी िवनती सुन लीिजए और मेरी यो यता के अनुसार मुझे िश ा दीिजए। म उ र
दे रहा हँ, यह अपराध मा क िजए। साधु पु ष दुःखी मनु य के दोष-गुण को नह िगनते।
दो० - िपतु सरु परु िसय रामु बन करन कहह मोिह राज।ु
एिह त जानह मोर िहत कै आपन बड़ काजु॥ 177॥
मेरा क याण तो सीतापित राम क चाकरी म है, सो उसे माता क कुिटलता ने छीन िलया। मने
अपने मन म अनुमान करके देख िलया है िक दूसरे िकसी उपाय से मेरा क याण नह है।
सोक समाजु राजु केिह लेख। लखन राम िसय िबनु पद देख॥
बािद बसन िबनु भूषन भा । बािद िबरित िबनु िबचा ॥
यह शोक का समुदाय रा य ल मण, राम और सीता के चरण को देखे िबना िकस िगनती म है
(इसका या मू य है)? जैसे कपड़ के िबना गहन का बोझ यथ है। वैरा य के िबना िवचार
यथ है।
जाउँ राम पिहं आयसु देह। एकािहं आँक मोर िहत एह॥
मोिह नपृ क र भल आपन चहह। सोउ सनेह जड़ता बस कहह॥
मुझे आ ा दीिजए, म राम के पास जाऊँ! एक ही आँक (िन यपवू क) मेरा िहत इसी म है। और
मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाहते ह, यह भी आप नेह क जड़ता (मोह) के वश होकर
ही कह रहे ह।
दो० - कैकेई सअ
ु कुिटलमित राम िबमख
ु गतलाज।
तु ह चाहत सख
ु ु मोहबस मोिह से अधम क राज॥ 178॥
मेरे समान पाप का घर कौन होगा, िजसके कारण सीता और राम का वनवास हआ? राजा ने
राम को वन िदया और उनके िबछुड़ते ही वयं वग को गमन िकया।
और म दु , जो सारे अनथ का कारण हँ, होश-हवास म बैठा सब बात सुन रहा हँ! रघुनाथ से
रिहत घर को देखकर और जगत का उपहास सहकर भी ये ाण बने हए ह।
कारण से काय किठन होता ही है, इसम मेरा दोष नह । हड्डी से व और प थर से लोहा
भयानक और कठोर होता है॥ 179॥
लखन राम िसय कहँ बनु दी हा। पठइ अमरपरु पित िहत क हा॥
ली ह िबधवपन अपजसु आपू। दी हेउ जिह सोकु संतापू॥
ल मण, राम और सीता को तो वन िदया; वग भेजकर पित का क याण िकया; वयं िवधवापन
और अपयश िलया; जा को शोक और संताप िदया;
और मुझे सुख, संुदर यश और उ म रा य िदया! कैकेयी ने सभी का काम बना िदया! इससे
अ छा अब मेरे िलए और या होगा? उस पर भी आप लोग मुझे राजितलक देने को कहते ह!
कैकेयी के पेट से जगत म ज म लेकर यह मेरे िलए कुछ भी अनुिचत नह है। मेरी सब बात तो
िवधाता ने ही बना दी है। (िफर) उसम जा और पंच (आप लोग) य सहायता कर रहे ह?
िजसे कु ह लगे ह (अथवा जो िपशाच त हो), िफर जो वायुरोग से पीिड़त हो और उसी को िफर
िब छू डं क मार दे, उसको यिद मिदरा िपलाई जाए, तो किहए यह कैसा इलाज है!॥ 180॥
कैकइ सअ
ु न जोगु जग जोई। चतरु िबरं िच दी ह मोिह सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीि ह मोिह िबिध बािद बड़ाई॥
कैकेयी के लड़के के िलए संसार म जो कुछ यो य था, चतुर िवधाता ने मुझे वही िदया। पर
'दशरथ का पु ' और 'राम का छोटा भाई' होने क बड़ाई मुझे िवधाता ने यथ ही दी।
आप सब लोग भी मुझे टीका कढ़ाने के िलए कह रहे ह! राजा क आ ा सभी के िलए अ छी है। म
िकस-िकस को िकस-िकस कार से उ र दँू? िजसक जैसी िच हो, आप लोग सुखपवू क वही
कह।
मोिह कुमातु समेत िबहाई। कहह किहिह के क ह भलाई॥
मो िबनु को सचराचर माह । जेिह िसय रामु ानि य नाह ॥
मेरी कुमाता कैकेयी समेत मुझे छोड़कर, किहए, और कौन कहे गा िक यह काम अ छा िकया
गया? जड़-चेतन जगत म मेरे िसवा और कौन है िजसको सीताराम ाण के समान यारे न ह ।
जो परम हािन है, उसी म सबको बड़ा लाभ िदख रहा है। मेरा बुरा िदन है िकसी का दोष नह ।
आप सब जो कुछ कहते ह सो सब उिचत ही है। य िक आप लोग संशय, शील और ेम के वश ह।
राम क माता बहत ही सरल दय ह और मुझ पर उनका िवशेष ेम है। इसिलए मेरी दीनता
देखकर वे वाभािवक नेहवश ही ऐसा कह रही ह॥ 181॥
गु ान के समु ह, इस बात को सारा जगत जानता है, िजसके िलए िव हथेली पर रखे हए
बेर के समान है, वे भी मेरे िलए राजितलक का साज सज रहे ह। स य है, िवधाता के िवपरीत होने
पर सब कोई िवपरीत हो जाते ह।
राम और सीता को छोड़कर जगत म कोई यह नह कहे गा िक इस अनथ म मेरी स मित नह है।
म उसे सुखपवू क सुनँग
ू ा और सहँगा। य िक जहाँ पानी होता है, वहाँ अंत म क चड़ होता ही है।
मुझे इसका डर नह है िक जगत मुझे बुरा कहे गा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे दय म
तो बस, एक ही दुःसह दावानल धधक रहा है िक मेरे कारण सीताराम दुःखी हए।
जीवन लाह लखन भल पावा। सबु तिज राम चरन मनु लावा॥
मोर जनम रघब
ु र बन लागी। झूठ काह पिछताउँ अभागी॥
जीवन का उ म लाभ तो ल मण ने पाया, िज ह ने सब कुछ तजकर राम के चरण म मन
लगाया। मेरा ज म तो राम के वनवास के िलए ही हआ था। म अभागा झठ
ू -मठ
ू या पछताता हँ?
सबको िसर झुकाकर म अपनी दा ण दीनता कहता हँ। रघुनाथ के चरण के दशन िकए िबना
मेरे जी क जलन न जाएगी॥ 182॥
य िप म बुरा हँ और अपराधी हँ, और मेरे ही कारण यह सब उप व हआ है, तथािप राम मुझे शरण
म स मुख आया हआ देखकर सब अपराध मा करके मुझ पर िवशेष कृपा करगे।
रघुनाथ शील, संकोच, अ यंत सरल वभाव, कृपा और नेह के घर ह। राम ने कभी श ु का भी
अिन नह िकया। म य िप टेढ़ा हँ पर हँ तो उनका ब चा और गुलाम ही।
आप पंच (सब) लोग भी इसी म मेरा क याण मानकर सुंदर वाणी से आ ा और आशीवाद दीिजए,
िजसम मेरी िवनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर राम राजधानी को लौट आव।
भरत के वचन सबको यारे लगे। मानो वे राम के ेम पी अमतृ म पगे हए थे। रामिवयोग पी
भीषण िवष से सब लोग जले हए थे। वे मानो बीज सिहत मं को सुनते ही जाग उठे ।
माता, मं ी, गु , नगर के ी-पु ष सभी नेह के कारण बहत ही याकुल हो गए। सब भरत
को सराह-सराहकर कहते ह िक आपका शरीर राम ेम क सा ात मिू त ही है।
हे भरत! वन को अव य चिलए, जहाँ राम ह; आपने बहत अ छी सलाह िवचारी। शोक समु म
डूबते हए सब लोग को आपने (बड़ा) सहारा दे िदया॥ 184॥
सबके मन म कम आनंद नह हआ (अथात बहत ही आनंद हआ)! मानो मेघ क गजना सुनकर
चातक और मोर आनंिदत हो रहे ह । (दूसरे िदन) ातःकाल चलने का सुंदर िनणय देखकर भरत
सभी को ाणि य हो गए।
मुिन विश क वंदना करके और भरत को िसर नवाकर, सब लोग िवदा लेकर अपने-अपने घर
को चले। जगत म भरत का जीवन ध य है, इस कार कहते हए वे उनके शील और नेह क
सराहना करते जाते ह।
आपस म कहते ह, बड़ा काम हआ। सभी चलने क तैयारी करने लगे। िजसको भी घर क
रखवाली के िलए रहो, ऐसा कहकर रखते ह, वही समझता है मानो मेरी गदन मारी गई।
कोई-कोई कहते ह - रहने के िलए िकसी को भी मत कहो, जगत म जीवन का लाभ कौन नह
चाहता?
वह संपि , घर, सुख, िम , माता, िपता, भाई जल जाए जो राम के चरण के स मुख होने म
हँसते हए ( स नतापवू क) सहायता न करे ॥ 185॥
घर-घर लोग अनेक कार क सवा रयाँ सजा रहे ह। दय म (बड़ा) हष है िक सबेरे चलना है।
भरत ने घर जाकर िवचार िकया िक नगर घोड़े , हाथी, महल-खजाना आिद -
सारी संपि रघुनाथ क है। यिद उसक (र ा क ) यव था िकए िबना उसे ऐसे ही छोड़कर चल
दँू, तो प रणाम म मेरी भलाई नह है, य िक वामी का ोह सब पाप म िशरोमिण ( े ) है।
करइ वािम िहत सेवकु सोई। दूषन कोिट देइ िकन कोई॥
अस िबचा र सिु च सेवक बोले। जे सपनेहँ िनज धरम न डोले॥
सेवक वही है जो वामी का िहत करे , चाहे कोई करोड़ दोष य न दे। भरत ने ऐसा िवचारकर
ऐसे िव ासपा सेवक को बुलाया जो कभी व न म भी अपने धम से नह िडगे थे।
भरत ने उनको सब भेद समझाकर िफर उ म धम बतलाया और जो िजस यो य था, उसे उसी
काम पर िनयु कर िदया। सब यव था करके, र क को रखकर भरत राम माता कौस या के
पास गए।
कहेउ लेह सबु ितलक समाजू। बनिहं देब मिु न रामिह राजू॥
बेिग चलह सिु न सिचव जोहारे । तरु त तरु ग रथ नाग सँवारे ॥
सबसे पहले मुिनराज विश अ ं धती और अि नहो क सब साम ी सिहत रथ पर सवार होकर
चले। िफर ा ण के समहू , जो सब-के-सब तप या और तेज के भंडार थे, अनेक सवा रय पर
चढ़कर चले।
राम के दशन के वश म हए (दशन क अन य लालसा से) सब नर-नारी ऐसे चले मानो यासे
हाथी-हिथनी जल को तककर (बड़ी तेजी से बावले-से हए) जा रहे ह । सीताराम (सब सुख को
छोड़कर) वन म ह, मन म ऐसा िवचार करके छोटे भाई श ु न सिहत भरत पैदल ही चले जा रहे
ह।
हे बेटा! माता बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। नह तो सारा प रवार दुःखी हो जाएगा।
तु हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलगे। शोक के मारे सब दुबले हो रहे ह, पैदल रा ते के
(पैदल चलने के) यो य नह ह।
माता क आ ा को िसर चढ़ाकर और उनके चरण म िसर नवाकर दोन भाई रथ पर चढ़कर
चलने लगे। पहले िदन तमसा पर वास (मुकाम) करके दूसरा मुकाम गोमती के तीर पर िकया।
कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते ह। भषू ण
और भोग-िवलास को छोड़कर सब लोग राम के िलए िनयम और त करते ह॥ 188॥
सई तीर बिस चले िबहाने। संग
ृ बेरपरु सब िनअराने॥
समाचार सब सनु े िनषादा। दयँ िबचार करइ सिबषादा॥
रात भर सई नदी के तीर पर िनवास करके सबेरे वहाँ से चल िदए और सब ंगृ वेरपुर के समीप
जा पहँचे। िनषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर दय म िवचार करने लगा -
जानिहं सानज
ु रामिह मारी। करउँ अकंटक राजु सख
ु ारी॥
भरत न राजनीित उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।
समझते ह िक छोटे भाई ल मण सिहत राम को मारकर सुख से िन कंटक रा य क ँ गा। भरत ने
दय म राजनीित को थान नह िदया (राजनीित का िवचार नह िकया)। तब (पहले) तो कलंक
ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़े गा।
संपण
ू देवता और दै य वीर जुट जाएँ , तो भी राम को रण म जीतनेवाला कोई नह है। भरत जो
ऐसा कर रहे ह, इसम आ य ही या है? िवष क बेल अमत ृ फल कभी नह फलत !
ऐसा िवचारकर गुह (िनषादराज) ने अपनी जाित वाल से कहा िक सब लोग सावधान हो जाओ।
नाव को हाथ म (क जे म) कर लो और िफर उ ह डुबा दो तथा सब घाट को रोक दो॥ 189॥
सुसि जत होकर घाट को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अथात भरत से यु म
लड़कर मरने के िलए तैयार हो जाओ)। म भरत से सामने (मैदान म) लोहा लँग
ू ा (मुठभेड़
क ँ गा) और जीते-जी उ ह गंगा पार न उतरने दँूगा।
समर मरनु पिु न सरु स र तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नप
ृ ु म जन नीचू। बड़ भाग अिस पाइअ मीचू॥
यु म मरण, िफर गंगा का तट, राम का काम और णभंगुर शरीर (जो चाहे जब नाश हो जाए);
भरत राम के भाई और राजा (उनके हाथ से मरना) और म नीच सेवक - बड़े भा य से ऐसी म ृ यु
िमलती है।
(इस कार राम के िलए ाण समपण का िन य करके) िनषादराज िवषाद से रिहत हो गया और
सबका उ साह बढ़ाकर तथा राम का मरण करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच
माँगा॥ 190॥
कवच पहनकर िसर पर लोहे का टोप रखते ह और फरसे, भाले तथा बरछ को सीधा कर रहे ह
(सुधार रहे ह)। कोई तलवार के वार रोकने म अ यंत ही कुशल है। वे ऐसे उमंग म भरे ह, मानो
धरती छोड़कर आकाश म कूद (उछल) रहे ह ।
(उसने कहा -) हे भाइयो! धोखा न लाना (अथात मरने से न घबड़ाना), आज मेरा बड़ा भारी काम
है। यह सुनकर सब यो ा बड़े जोश के साथ बोल उठे - हे वीर! अधीर मत हो॥ 191॥
हे नाथ! राम के ताप से और आपके बल से हम लोग भरत क सेना को िबना वीर और िबना
घोड़े क कर दगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालगे)। जीते-जी पीछे पाँव न रखगे।
प ृ वी को ं ड-मंुडमयी कर दगे (िसर और धड़ से छा दगे)।
िनषादराज ने वीर का बिढ़या दल देखकर कहा - जुझा (लड़ाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते
ही बाई ं ओर छ क हई। शकुन िवचारने वाल ने कहा िक खेत सुंदर ह (जीत होगी)।
अतएव हे वीरो! तुम लोग इक े होकर सब घाट को रोक लो, म जाकर भरत से िमलकर उनका
भेद लेता हँ। उनका भाव िम का है या श ु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा
(उसी के अनुसार) बंध क ँ गा॥ 192॥
लखब सनेह सभु ायँ सहु ाएँ । बै ीित निहं दरु इँ दरु ाएँ ॥
अस किह भट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मग ृ मागे॥
कहार लोग पुरानी और मोटी पिहना नामक मछिलय के भार भर-भरकर लाए। भट का सामान
सजाकर िमलने के िलए चले तो मंगलदायक शुभ-शकुन िमले।
िनषादराज ने मुिनराज विश को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर ही से दंडवत- णाम िकया।
मुनी र विश ने उसको राम का यारा जानकर आशीवाद िदया और भरत को समझाकर कहा
(िक यह राम का िम है)।
दंडवत करते देखकर भरत ने उठाकर उसको छाती से लगा िलया। दय म ेम समाता नह है,
मानो वयं ल मण से भट हो गई हो॥ 193॥
भरत गुह को अ यंत ेम से गले लगा रहे ह। ेम क रीित को सब लोग िसहा रहे ह (ई यापवू क
ू 'ध य-ध य' क विन करके देवता उसक सराहना करते हए
शंसा कर रहे ह); मंगल क मल
फूल बरसा रहे ह।
(वे कहते ह -) जो लोक और वेद दोन म सब कार से नीचा माना जाता है, िजसक छाया के छू
जाने से भी नान करना होता है, उसी िनषाद से अँकवार भरकर ( दय से िचपटाकर) राम के
छोटे भाई भरत (आनंद और ेमवश) शरीर म पुलकावली से प रपण ू हो िमल रहे ह।
कमनाशा नदी का जल गंगा म पड़ जाता है (िमल जाता है), तब किहए, उसे कौन िसर पर धारण
नह करता? जगत जानता है िक उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वा मीिक के समान हो
गए।
मख
ू और पामर चांडाल, शबर, खस, यवन, कोल और िकरात भी राम-नाम कहते ही परम पिव
और ि भुवन म िव यात हो जाते ह॥ 194॥
निहं अिच रजु जुग जुग चिल आई। केिह न दीि ह रघब
ु ीर बड़ाई॥
राम नाम मिहमा सरु कहह । सिु न सिु न अवध लोग सखु ु लहह ॥
इसम कोई आ य नह है, युग-युगांतर से यही रीित चली आ रही है। रघुनाथ ने िकसको बड़ाई
नह दी? इस कार देवता रामनाम क मिहमा कह रहे ह और उसे सुन-सुनकर अयो या के लोग
सुख पा रहे ह।
हे भो! कुशल के मल
ू आपके चरण कमल के दशन कर मने तीन काल म अपना कुशल जान
िलया। अब आपके परम अनु ह से करोड़ कुल (पीिढ़य ) सिहत मेरा मंगल (क याण) हो गया।
मेरी करतत
ू और कुल को समझकर और भु राम क मिहमा को मन म देख (िवचार) कर
(अथात कहाँ तो म नीच जाित और नीच कम करनेवाला जीव, और कहाँ अनंतकोिट ांड के
वामी भगवान राम! पर उ ह ने मुझ-जैसे नीच को भी अपनी अहैतुक कृपावश अपना िलया -
यह समझकर) जो रघुवीर राम के चरण का भजन नह करता, वह जगत म िवधाता के ारा
ठगा गया है॥ 195॥
कपटी कायर कुमित कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम क ह आपन जबही त। भयउँ भवु न भूषन तबही त॥
देिख ीित सिु न िबनय सहु ाई। िमलेउ बहो र भरत लघु भाई॥
किह िनषाद िनज नाम सब ु ान । सादर सकल जोहार रान ॥
िनषादराज क ीित को देखकर और सुंदर िवनय सुनकर िफर भरत के छोटे भाई श ु न उससे
िमले। िफर िनषाद ने अपना नाम ले-लेकर सुंदर (न और मधुर) वाणी से सब रािनय को
आदरपवू क जोहार क ।
रािनयाँ उसे ल मण के समान समझकर आशीवाद देती ह िक तुम सौ लाख वष तक सुख पवू क
िजओ। नगर के ी-पु ष िनषाद को देखकर ऐसे सुखी हए, मानो ल मण को देख रहे ह ।
सब कहते ह िक जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, िजसे क याण व प राम ने भुजाओं म
बाँधकर गले लगाया है। िनषाद अपने भा य क बड़ाई सुनकर मन म परम आनंिदत हो सबको
अपने साथ िलवा ले चला।
संग
ृ बेरपरु भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग िसिथल तब॥
सोहत िदएँ िनषादिह लागू। जनु तनु धर िबनय अनरु ागू॥
भरत ने जब ंगृ वेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग ेम के कारण िशिथल हो गए। वे िनषाद को
लाग िदए (अथात उसके कंधे पर हाथ रखे चलते हए) ऐसे शोभा दे रहे ह, मानो िवनय और ेम
शरीर धारण िकए हए ह ।
एिह िबिध भरत सेनु सबु संगा। दीिख जाइ जग पाविन गंगा॥
रामघाट कहँ क ह नामू। भा मनु मगनु िमले जनु रामू॥
इस कार भरत ने सब सेना को साथ म िलए हए जगत को पिव करनेवाली गंगा के दशन
िकए। रामघाट को (जहाँ राम ने नान- सं या क थी) णाम िकया। उनका मन इतना
आनंदम न हो गया, मानो उ ह वयं राम िमल गए ह ।
भरत ने कहा - हे गंगे! आपक रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवक के िलए तो कामधेनु ही है।
म हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हँ िक सीताराम के चरण म मेरा वाभािवक ेम हो।
लोग ने जहाँ-तहाँ डे रा डाल िदया। भरत ने सभी का पता लगाया (िक सब लोग आकर आराम से
िटक गए ह या नह )। िफर देव पज ू न करके आ ा पाकर दोन भाई राम क माता कौस या के
पास गए।
चरन चाँिप किह किह मदृ ु बानी। जनन सकल भरत सनमानी॥
भाइिह स िप मातु सेवकाई। आपु िनषादिह ली ह बोलाई॥
चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरत ने सब माताओं का स कार िकया। िफर भाई
श ु न को माताओं क सेवा स पकर आपने िनषाद को बुला िलया।
चले सखा कर स कर जोर। िसिथल सरी सनेह न थोर॥
पूँछत सखिह सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरिन जुड़ाऊ॥
सखा िनषादराज के हाथ-से-हाथ िमलाए हए भरत चले। ेम कुछ थोड़ा नह है (अथात बहत
अिधक ेम है), िजससे उनका शरीर िशिथल हो रहा है। भरत सखा से पछ
ू ते ह िक मुझे वह थान
िदखलाओ - और ने और मन क जलन कुछ ठं डी करो -
जहँ िसय रामु लखनु िनिस सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥
भरत बचन सिु न भयउ िबषादू। तरु त तहाँ लइ गयउ िनषादू॥
जहाँ सीता, राम और ल मण रात को सोए थे। ऐसा कहते ही उनके ने के कोय म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया। भरत के वचन सुनकर िनषाद को बड़ा िवषाद हआ। वह तुरंत ही उ ह वहाँ ले
गया -
जहाँ पिव अशोक के व ृ के नीचे राम ने िव ाम िकया था। भरत ने वहाँ अ यंत ेम से
आदरपवू क दंडवत- णाम िकया॥ 198॥
कुश क सुंदर साथरी देखकर उसक दि णा करके णाम िकया। राम के चरण िच क रज
आँख म लगाई। (उस समय के) ेम क अिधकता कहते नह बनती।
भरत ने दो-चार वणिवंदु (सोने के कण या तारे आिद जो सीता के गहने-कपड़ से िगर पड़े थे)
देखे तो उनको सीता के समान समझकर िसर पर रख िलया। उनके ने ( ेमा ु के) जल से भरे
ह और दय म लािन भरी है। वे सखा से सुंदर वाणी म ये वचन बोले -
सयू कुल के सयू राजा दशरथ िजनके ससुर ह, िजनको अमरावती के वामी इं भी िसहाते थे।
(ई यापवू क उनके-जैसा ऐ य और ताप पाना चाहते थे); और भु रघुनाथ िजनके ाणनाथ ह,
जो इतने बड़े ह िक जो कोई भी बड़ा होता है, वह राम क (दी हई) बड़ाई से ही होता है।
मेरे छोटे भाई ल मण बहत ही सुंदर और यार करने यो य ह। ऐसे भाई न तो िकसी के हए, न ह,
न होने के ही ह। जो ल मण अवध के लोग को यारे , माता-िपता के दुलारे और सीताराम के ाण
यारे ह;
मदृ ु मूरित सक
ु ु मार सभ
ु ाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥
ते बन सहिहं िबपित सब भाँती। िनदरे कोिट कुिलस एिहं छाती॥
िजनक कोमल मिू त और सुकुमार वभाव है, िजनके शरीर म कभी गरम हवा भी नह लगी, वे
वन म सब कार क िवपि याँ सह रहे ह। (हाय!) इस मेरी छाती ने (कठोरता म) करोड़ व
का भी िनरादर कर िदया (नह तो यह कभी क फट गई होती)।
राम ने ज म (अवतार) लेकर जगत को कािशत (परम सुशोिभत) कर िदया। वे प, शील, सुख
और सम त गुण के समु ह। पुरवासी, कुटुंबी, गु , िपता-माता सभी को राम का वभाव सुख
देनेवाला है।
दो० - सख
ु व प रघब ु ंसमिन मंगल मोद िनधान।
ते सोवत कुस डािस मिह िबिध गित अित बलवान॥ 200॥
राम सन
ु ा दख
ु ु कान न काऊ। जीवनत िजिम जोगवइ राउ॥
पलक नयन फिन मिन जेिह भाँती। जोगविहं जनिन सकल िदन राती॥
राम ने कान से भी कभी दुःख का नाम नह सुना। महाराज वयं जीवन-व ृ क तरह उनक
सार-सँभाल िकया करते थे। सब माताएँ भी रात-िदन उनक ऐसी सार-संभाल करती थ , जैसे
पलक ने और साँप अपनी मिण क करते ह।
वही राम अब जंगल म पैदल िफरते ह और कंद-मलू तथा फल-फूल का भोजन करते ह। अमंगल
क मल ू कैकेयी िध कार है, जो अपने ाणि यतम पित से भी ितकूल हो गई।
मुझ पाप के समु और अभागे को िध कार है, िध कार है, िजसके कारण ये सब उ पात हए।
िवधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा िकया और कुमाता ने मुझे वामी ोही बना िदया।
े कृपायतन।
सो० - अंतरजामी रामु सकुच स म
चिलअ क रअ िब ामु यह िबचा र ढ़ आिन मन॥ 201॥
सखा के वचन सुनकर, दय म धीरज धरकर राम का मरण करते हए भरत डे रे को चले। नगर
के सारे ी-पु ष यह (राम के ठहरने के थान का) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस थान
को देखने चले।
कोई भरत के नेह क सराहना करते ह और कोई कहते ह िक राजा ने अपना ेम खबू िनबाहा।
सब अपनी िनंदा करके िनषाद क शंसा करते ह। उस समय के िवमोह और िवषाद को कौन
कह सकता है?
ऐिह िबिध राित लोगु सबु जागा। भा िभनस ु ार गदु ारा लागा॥
गरु िह सन
ु ावँ चढ़ाइ सहु ाई ं। नई ं नाव सब मातु चढ़ाई ं॥
इस कार रातभर सब लोग जागते रहे । सबेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर गु को चढ़ाकर
िफर नई नाव पर सब माताओं को चढ़ाया।
दंड चा र महँ भा सबु पारा। उत र भरत तब सबिह सँभारा॥
चार घड़ी म सब गंगा के पार उतर गए। तब भरत ने उतरकर सबको सँभाला।
िनषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं क पालिकयाँ चलाई।ं छोटे भाई श ु न को बुलाकर
उनके साथ कर िदया। िफर ा ण सिहत गु ने गमन िकया।
आपु सरु स रिह क ह नामू। सिु मरे लखन सिहत िसय रामू॥
गवने भरत पयादेिहं पाए। कोतल संग जािहं डो रआए॥
उ म सेवक बार-बार कहते ह िक हे नाथ! आप घोड़े पर सवार हो लीिजए। (भरत जवाब देते ह
िक) राम तो पैदल ही गए और हमारे िलए रथ, हाथी और घोड़े बनाए गए ह।
मुझे उिचत तो ऐसा है िक म िसर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का धम सबसे किठन होता है।
भरत क दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण लािन के मारे गले जा रहे ह।
उनके चरण म छाले कैसे चमकते ह, जैसे कमल क कली पर ओस क बँदू चमकती ह । भरत
आज पैदल ही चलकर आए ह, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया।
याम और सफेद (यमुना और गंगा क ) लहर को देखकर भरत का शरीर पुलिकत हो उठा और
उ ह ने हाथ जोड़कर कहा - हे तीथराज! आप सम त कामनाओं को पण
ू करनेवाले ह। आपका
भाव वेद म िस और संसार म कट है।
वयं राम भी भले ही मुझे कुिटल समझ और लोग मुझे गु ोही तथा वामी ोही भले ही कह;
पर सीताराम के चरण म मेरा ेम आपक कृपा से िदन-िदन बढ़ता ही रहे ।
जलदु जनम भ र सरु ित िबसारउ। जाचत जलु पिब पाहन डारउ॥
चातकु रिटन घट घिट जाई। बढ़ म े ु सब भाँित भलाई॥
जैसे तपाने से सोने पर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही ि यतम के चरण म ेम का िनयम
िनबाहने से ेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरत के वचन सुनकर बीच ि वेणी म से सुंदर
मंगल देनेवाली कोमल वाणी हई।
हे तात भरत! तुम सब कार से साधु हो। राम के चरण म तु हारा अथाह ेम है। तुम यथ ही मन
म लािन कर रहे हो। राम को तु हारे समान ि य कोई नह है।
ि वेणी के अनुकूल वचन सुनकर भरत का शरीर पुलिकत हो गया, दय म हष छा गया। भरत
ध य ह, कहकर देवता हिषत होकर फूल बरसाने लगे॥ 205॥
तीथराज याग म रहनेवाले वान थ, चारी, गहृ थ और उदासीन (सं यासी) सब बहत ही
आनंिदत ह और दस-पाँच िमलकर आपस म कहते ह िक भरत का ेम और शील पिव और
स चा है।
सनु त राम गन
ु ाम सहु ाए। भर ाज मिु नबर पिहं आए॥
दंड नामु करत मिु न देख।े मूरितमंत भा य िनज लेख॥े
राम के सुंदर गुणसमहू को सुनते हए वे मुिन े भर ाज के पास आए। मुिन ने भरत को दंडवत
णाम करते देखा और उ ह अपना मिू तमान सौभा य समझा।
धाइ उठाइ लाइ उर ली हे। दीि ह असीस कृतारथ क हे॥
आसनु दी ह नाइ िस बैठे। चहत सकुच गहृ ँ जनु भिज पैठे॥
उ ह ने दौड़कर भरत को उठाकर दय से लगा िलया और आशीवाद देकर कृताथ िकया। मुिन ने
उ ह आसन िदया। वे िसर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर म घुस जाना चाहते
ह।
माता क करततू को समझकर (याद करके) तुम दय म लािन मत करो। हे तात! कैकेयी का
कोई दोष नह है, उसक बुि तो सर वती िबगाड़ गई थी॥ 206॥
यह कहते भी कोई भला न कहे गा, य िक लोक और वेद दोन ही िव ान को मा य है। िकंतु हे
तात! तु हारा िनमल यश गाकर तो लोक और वेद दोन बड़ाई पाएँ गे।
लोक बेद संमत सबु कहई। जेिह िपतु देइ राजु सो लहई॥
राउ स य त तु हिह बोलाई। देत राजु सख
ु ु धरमु बड़ाई॥
सारे अनथ क जड़ तो राम का वनगमन है, िजसे सुनकर सम त संसार को पीड़ा हई। वह राम
का वनगमन भी भावीवश हआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अंत म पछताई।
उसम भी तु हारा कोई तिनक-सा भी अपराध कहे , तो वह अधम, अ ानी और असाधु है। यिद तुम
रा य करते तो भी तु ह दोष न होता। सुनकर राम को भी संतोष ही होता।
हे भरत! अब तो तुमने बहत ही अ छा िकया; यही मत तु हारे िलए उिचत था। राम के चरण म
ेम होना ही संसार म सम त सुंदर मंगल का मल
ू है॥ 207॥
सो वह (राम के चरण का ेम) तो तु हारा धन, जीवन और ाण ही है; तु हारे समान बड़भागी
कौन है? हे तात! तु हारे िलए यह आ य क बात नह है। य िक तुम दशरथ के पु और राम के
यारे भाई हो।
सन
ु ह भरत रघब े पा ु तु ह सम कोउ नाह ॥
ु र मन माह । म
लखन राम सीतिह अित ीती। िनिस सब तु हिह सराहत बीती॥
हे भरत! सुनो, राम के मन म तु हारे समान ेमपा दूसरा कोई नह है। ल मण, राम और सीता
तीन क सारी रात उस िदन अ यंत ेम के साथ तु हारी सराहना करते ही बीती।
िजनके ेम और संकोच (शील) के वश म होकर वयं (सि चदानंदघन) भगवान राम आकर
कट हए, िज ह महादेव अपने दय के ने से कभी अघाकर नह देख पाए (अथात िजनका
व प दय म देखते-देखते िशव कभी त ृ नह हए)॥ 209॥
क रित िबधु तु ह क ह अनूपा। जहँ बस राम म े मग ृ पा॥
तात गलािन करह िजयँ जाएँ । डरह द र िह पारसु पाएँ ॥
सन
ु ह भरत हम झूठ न कहह । उदासीन तापस बन रहह ॥
सब साधन कर सफ ु ल सहु ावा। लखन राम िसय दरसनु पावा॥
हे भरत! सुनो, हम झठ
ू नह कहते। हम उदासीन ह (िकसी का प नह करते), तप वी ह
(िकसी क मँुह-देखी नह कहते) और वन म रहते ह (िकसी से कुछ योजन नह रखते)। सब
साधन का उ म फल हम ल मण, राम और सीता का दशन ा हआ।
भर ाज मुिन के वचन सुनकर सभासद हिषत हो गए। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हए
देवताओं ने फूल बरसाए। आकाश म और यागराज म 'ध य, ध य' क विन सुन-सुनकर भरत
ेम म म न हो रहे ह।
दो० - पल
ु क गात िहयँ रामु िसय सजल सरो ह नैन।
क र नामु मिु न मंडिलिह बोले गदगद बैन॥ 210॥
मुिनय का समाज है और िफर तीथराज है। यहाँ स ची सौगंध खाने से भी भरपरू हािन होती है।
इस थान म यिद कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी।
तु ह सब य कहउँ सितभाऊ। उर अंतरजामी रघरु ाऊ॥
मोिह न मातु करतब कर सोचू। निहं दख
ु ु िजयँ जगु जािनिह पोचू॥
न यही डर है िक मेरा परलोक िबगड़ जाएगा और न िपता के मरने का ही मुझे शोक है। य िक
उनका संुदर पु य और सुयश िव भर म सुशोिभत है। उ ह ने राम-ल मण-सरीखे पु पाए।
िफर िज ह ने राम के िवरह म अपने णभंगुर शरीर को याग िदया, ऐसे राजा के िलए सोच
करने का कौन संग है? (सोच इसी बात का है िक) राम, ल मण और सीता पैर म िबना जत ू ी
के मुिनय का वेष बनाए वन-वन म िफरते ह।
एिह दख
ु दाहँ दहइ िदन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥
एिह कुरोग कर औषधु नाह । सोधेउँ सकल िब व मन माह ॥
इसी दुःख क जलन से िनरं तर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न िदन म भख
ू लगती है, न रात
को न द आती है। मने मन-ही-मन सम त िव को खोज डाला, पर इस कुरोग क औषध कह
नह है।
मेरे िलए उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत को बारहबाट (िछ न-िभ न)
करके न कर डाला। यह कुयोग राम के लौट आने पर ही िमट सकता है और तभी अयो या बस
सकती है, दूसरे िकसी उपाय से नह ।
भरत के वचन सुनकर मुिन ने सुख पाया और सभी ने उनक बहत कार से बड़ाई क । (मुिन ने
कहा -) हे तात! अिधक सोच मत करो। राम के चरण का दशन करते ही सारा दुःख िमट
जाएगा।
सिु न मिु न बचन भरत िहयँ सोचू। भयउ कुअवसर किठन सँकोचू॥
जािन गु इ गरु िगरा बहोरी। चरन बंिद बोले कर जोरी॥
मुिन के वचन सुनकर भरत के दय म सोच हआ िक यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! िफर
गु जन क वाणी को मह वपण ू (आदरणीय) समझकर, चरण क वंदना करके हाथ जोड़कर
बोले -
हे नाथ! आपक आ ा को िसर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धम है। भरत के ये
वचन मुिन े के मन को अ छे लगे। उ ह ने िव ासपा सेवक और िश य को पास बुलाया।
मुिन को िचंता हई िक हमने बहत बड़े मेहमान को योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसक
पज
ू ा भी होनी चािहए। यह सुनकर ऋि याँ और अिणमािद िसि याँ आ गई ं (और बोल -) हे
गोसाई!ं जो आपक आ ा हो सो हम कर।
मुिनराज ने स न होकर कहा - छोटे भाई श ु न और समाज सिहत भरत राम के िवरह म
याकुल ह, इनक पहनाई (आित य-स कार) करके इनके म को दूर करो॥ 213॥
रिध िसिध िसर ध र मिु नबर बानी। बड़भािगिन आपिु ह अनमु ानी॥
कहिहं परसपर िसिध समदु ाई। अतिु लत अितिथ राम लघु भाई॥
अतः मुिन के चरण क वंदना करके आज वही करना चािहए िजससे सारा राज-समाज सुखी हो।
ऐसा कहकर उ ह ने बहत-से सुंदर घर बनाए, िज ह देखकर िवमान भी िवलखते ह (लजा जाते
ह)।
और िफर कुटुंब सिहत भरत को िदए, य िक ऋिष भर ाज ने ऐसी ही आ ा दे रखी थी। (भरत
चाहते थे िक उनके सब संिगय को आराम िमले, इसिलए उनके मन क बात जानकर मुिन ने
पहले उन लोग को थान देकर पीछे सप रवार भरत को थान देने के िलए आ ा दी थी।)
मुिन े ने तपोबल से ा को भी चिकत कर देनेवाला वैभव रच िदया॥ 214॥
जब भरत ने मुिन के भाव को देखा, तो उसके सामने उ ह (इं , व ण, यम, कुबेर आिद) सभी
लोकपाल के लोक तु छ जान पड़े । सुख क साम ी का वणन नह हो सकता, िजसे देखकर
ानी लोग भी वैरा य भल
ू जाते ह।
आसन, सेज, संुदर व , चँदोवे, वन, बगीचे, भाँित-भाँित के प ी और पशु, सुगंिधत फूल और
ृ के समान वािद फल, अनेक कार के (तालाब, कुएँ , बावली आिद) िनमल जलाशय,
अमत
असन पान सिु च अिमअ अमी से। देिख लोग सकुचात जमी से॥
सरु सरु भी सरु त सबही क। लिख अिभलाषु सरु े स सची क॥
वसंत ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन कार क हवा बह रही है। सभी को (धम, अथ, काम और
मो ) चार पदाथ सुलभ ह। माला, चंदन, ी आिद भोग को देखकर सब लोग हष और िवषाद
के वश हो रहे ह। (हष तो भोग-सामि य को और मुिन के तप: भाव को देखकर होता है और
िवषाद इस बात से होता है िक राम के िवयोग म िनयम- त से रहनेवाले हम लोग भोग-िवलास म
य आ फँसे; कह इनम आस होकर हमारा मन िनयम- त को न याग दे )।
( ातःकाल) भरत ने तीथराज म नान िकया और समाज सिहत मुिन को िसर नवाकर और ऋिष
क आ ा तथा आशीवाद को िसर चढ़ाकर दंडवत करके बहत िवनती क ।
बादल छाया िकए जा रहे ह, सुख देनेवाली सुंदर हवा बह रही है। भरत के जाते समय माग जैसा
सुखदायक हआ, वैसा राम को भी नह हआ था॥ 216॥
रा ते म असं य जड़-चेतन जीव थे। उनम से िजनको भु राम ने देखा, अथवा िज ह ने भु राम
को देखा वे सब (उसी समय) परमपद के अिधकारी हो गए। परं तु अब भरत के दशन ने तो उनका
भव (ज म-मरण) पी रोग िमटा ही िदया। (रामदशन से तो वे परमपद के अिधकारी ही हए थे,
परं तु भरत दशन से उ ह वह परमपद ा हो गया।)
भरत के िलए यह कोई बड़ी बात नह है, िज ह राम वयं अपने मन म मरण करते रहते ह।
जगत म जो भी मनु य एक बार 'राम' कह लेते ह, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते ह।
िफर भरत तो राम के यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे । तब भला उनके िलए माग मंगल (सुख) -
दायक कैसे न हो? िस , साधु और े मुिन ऐसा कह रहे ह और भरत को देखकर दय म
हष-लाभ करते ह।
देिख भाउ सरु े सिह सोचू। जगु भल भलेिह पोच कहँ पोचू॥
गरु सन कहेउ क रअ भु सोई। रामिह भरतिह भेट न होई॥
भरत के (इस ेम के) भाव को देखकर देवराज इं को सोच हो गया (िक कह इनके ेम-वश
राम लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम िबगड़ जाए)। संसार भले के िलए भला और बुरे के
िलए बुरा है (मनु य जैसा आप होता है जगत उसे वैसा ही िदखता है)। उसने गु बहृ पित से कहा
- हे भो! वही उपाय क िजए िजससे राम और भरत क भट ही न हो।
े बस भरत स म
दो० - रामु सँकोची म े पयोिध।
बनी बात बेगरन चहित क रअ जतनु छलु सोिध॥ 217॥
राम संकोची और ेम के वश ह और भरत ेम के समु ह। बनी-बनाई बात िबगड़ना चाहती है,
इसिलए कुछ छल ढूँढ़ कर इसका उपाय क िजए॥ 217॥
उस समय (िपछली बार) तो राम का ख जानकर कुछ िकया था। परं तु इस समय कुचाल करने
से हािन ही होगी। हे देवराज! रघुनाथ का वभाव सुनो, वे अपने ित िकए हए अपराध से कभी
नह होते।
पर जो कोई उनके भ का अपराध करता है, वह राम क ोधाि न म जल जाता है। लोक और
वेद दोन म इितहास (कथा) िस है। इस मिहमा को दुवासा जानते ह।
सारा जगत राम को जपता है, वे राम िजनको जपते ह, उन भरत के समान राम का ेमी कौन
होगा?
राम सदा अपने सेवक (भ ) क िच रखते आए ह। वेद, पुराण, साधु और देवता इसके सा ी
ह। ऐसा दय म जानकर कुिटलता छोड़ दो और भरत के चरण म सुंदर ीित करो।
हे देवराज इं ! राम के भ सदा दूसर के िहत म लगे रहते ह, वे दूसर के दुःख से दुःखी और
दयालु होते ह। िफर भरत तो भ के िशरोमिण ह, उनसे िबलकुल न डरो॥ 219॥
इस कार भरत माग म चले जा रहे ह। उनक ( ेममयी) दशा देखकर मुिन और िस लोग भी
िसहाते ह। भरत जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते ह, तभी मानो चार ओर ेम उमड़ पड़ता है।
े ु न जाइ बखाना॥
विहं बचन सिु न कुिलस पषाना। परु जन म
बीच बास क र जमन ु िहं आए। िनरिख नी लोचन जल छाए॥
उनके ( ेम और दीनता से पण
ू ) वचन को सुनकर व और प थर भी िपघल जाते ह।
अयो यावािसय का ेम कहते नह बनता। बीच म िनवास (मुकाम) करके भरत यमुना के तट
पर आए। यमुना का जल देखकर उनके ने म जल भर आया।
दो० - रघब
ु र बरन िबलोिक बर बा र समेत समाज।
होत मगन बा रिध िबरह चढ़े िबबेक जहाज॥ 220॥
रघुनाथ के ( याम) रं ग का संुदर जल देखकर सारे समाज सिहत भरत ( ेम िव ल होकर) राम
के िवरह पी समु म डूबते-डूबते िववेक पी जहाज पर चढ़ गए (अथात यमुना का यामवण
जल देखकर सब लोग यामवण भगवान के ेम म िव ल हो गए और उ ह न पाकर िवरह यथा
से पीिड़त हो गए; तब भरत को यह यान आया िक ज दी चलकर उनके सा ात दशन करगे,
इस िववेक से वे िफर उ सािहत हो गए)॥ 220॥
उस िदन यमुना के िकनारे िनवास िकया। समयानुसार सबके िलए (खान-पान आिद क ) सुंदर
यव था हई। (िनषादराज का संकेत पाकर) रात- ही-रात म घाट-घाट क अगिणत नाव वहाँ आ
गई ं, िजनका वणन नह िकया जा सकता।
आगे अ छी-अ छी सवा रय पर े मुिन ह, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे
दोन भाई बहत सादे भषू ण-व और वेष से पैदल चल रहे ह।
परं तु सखी! इनका न तो वह वेष (व कलव धारी मुिनवेष) है, न सीता ही संग ह। और इनके
आगे चतुरंिगणी सेना चली जा रही है। िफर इनके मुख स न नह ह, इनके मन म खेद है। हे
सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता है।
राम के राजितलक का आनंद िजस कार से भंग हआ था वह सब कथा संग ेमपवू क कहकर
िफर वह भा यवती ी भरत के शील, नेह और वभाव क सराहना करने लगी।
(वह बोली -) देखो, ये भरत िपता के िदए हए रा य को यागकर पैदल चलते और फलाहार करते
हए राम को मनाने के िलए जा रहे ह। इनके समान आज कौन है?॥ 222॥
कोई कहती है - इसम रानी का भी दोष नह है। यह सब िवधाता ने ही िकया है, जो हमारे
अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोन क िविध (मयादा) से हीन, कुल और करतत ू दोन
से मिलन तु छ ि याँ,
जो बुरे देश (जंगली ांत) और बुरे गाँव म बसती ह और (ि य म भी) नीच ि याँ ह! और कहाँ
यह महान पु य का प रणाम व प इनका दशन! ऐसा ही आनंद और आ य गाँव-गाँव म हो रहा
है। मानो म भिू म म क पव ृ उग गया हो।
ु उे मग लोग ह कर भाग।ु
दो० - भरत दरसु देखत खल
जनु िसंघलबािस ह भयउ िबिध बस सल
ु भ याग॥ु 223॥
िनज गनु सिहत राम गन ु गाथा। सनु त जािहं सिु मरत रघन
ु ाथा॥
तीरथ मिु न आ म सरु धामा। िनरिख िनम जिहं करिहं नामा॥
(इस कार) अपने गुण सिहत राम के गुण क कथा सुनते और रघुनाथ को मरण करते हए
भरत चले जा रहे ह। वे तीथ देखकर नान और मुिनय के आ म तथा देवताओं के मंिदर
देखकर णाम करते ह,
जो लोग कहते ह िक हमने उनको कुशलपवू क देखा है, उनको ये राम-ल मण के समान ही
ू ते और राम के वनवास क कहानी सुनते जाते
यारे मानते ह। इस कार सबसे सुंदर वाणी से पछ
ह।
उस िदन वह ठहरकर दूसरे िदन ातःकाल ही रघुनाथ का मरण करके चले। साथ के सब
लोग को भी भरत के समान ही राम के दशन क लालसा (लगी हई) है॥ 224॥
िजसके जी म जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब नेही पी मिदरा से छके ( ेम म
मतवाले हए) चले जा रहे ह। अंग िशिथल ह, रा ते म पैर डगमगा रहे ह और ेमवश िव ल वचन
बोल रहे ह।
सब लोग उस पवत को देखकर 'जानक -जीवन राम क जय हो।' ऐसा कहकर दंडवत णाम
करते ह। राजसमाज ेम म ऐसा म न है मानो रघुनाथ अयो या को लौट चले ह ।
भरत का उस समय जैसा ेम था, वैसा शेष भी नह कह सकते। किव के िलए तो वह वैसा ही
अगम है जैसा अहंता और ममता से मिलन मनु य के िलए ानंद!॥ 225॥
सभी लोग मन म उदास, दीन और दुःखी ह। सासुओ ं को दूसरी ही सरू त म देखा। सीता का व न
सुनकर राम के ने म जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले भु वयं (लीला से)
सोच के वश हो गए।
(और बोले -) ल मण! यह व न अ छा नह है। कोई भीषण कुसमाचार (बहत ही बुरी खबर)
ू न करके
सुनाएगा। ऐसा कहकर उ ह ने भाई सिहत नान िकया और ि पुरारी महादेव का पज
साधुओ ं का स मान िकया।
सो० - सन
ु त सम
ु ंगल बैन मन मोद तन पल ु क भर।
सरद सरो ह नैन तलु सी भरे सनेह जल॥ 226॥
तुलसीदास कहते ह िक सुंदर मंगल वचन सुनते ही राम के मन म बड़ा आनंद हआ। शरीर म
पुलकावली छा गई, और शरद्-ऋतु के कमल के समान ने ेमा ुओ ं से भर गए॥ 226॥
सीतापित राम पुनः सोच के वश हो गए िक भरत के आने का या कारण है? िफर एक ने आकर
ऐसा कहा िक उनके साथ म बड़ी भारी चतुरंिगणी सेना भी है।
सो सिु न रामिह भा अित सोचू। इत िपतु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सभ ु ाउ समिु झ मन माह । भु िचत िहत िथित पावत नाह ॥
यह सुनकर राम को अ यंत सोच हआ। इधर तो िपता के वचन और उधर भाई भरत का संकोच!
भरत के वभाव को मन म समझकर तो भु राम िच को ठहराने के िलए कोई थान ही नह
पाते ह।
तब यह जानकर समाधान हो गया िक भरत साधु और सयाने ह तथा मेरे कहने म (आ ाकारी)
ह। ल मण ने देखा िक भु राम के दय म िचंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीितयु
िवचार कहने लगे -
हे वामी! आपके िबना ही पछू े म कुछ कहता हँ; सेवक समय पर िढठाई करने से ढीठ नह
समझा जाता (अथात आप पछ ू तब म कहँ, ऐसा अवसर नह है; इसिलए यह मेरा कहना िढठाई
नह होगा)। हे वामी! आप सव म िशरोमिण ह (सब जानते ही ह)। म सेवक तो अपनी समझ
क बात कहता हँ।
हे नाथ! आप परम सु द (िबना ही कारण परम िहत करनेवाले), सरल दय तथा शील और नेह
के भंडार ह, आपका सभी पर ेम और िव ास है, और अपने दय म सबको अपने ही समान
जानते ह॥ 227॥
अपने मन म बुरा िवचार करके, समाज जोड़कर रा य को िन कंटक करने के िलए यहाँ आए ह।
करोड़ (अनेक ) कार क कुिटलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोन भाई आए ह।
यिद इनके दय म कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हािथय क कतार (ऐसे समय)
िकसे सुहाती? परं तु भरत को ही यथ कौन दोष दे ? राजपद पा जाने पर सारा जगत ही पागल
(मतवाला) हो जाता है।
हाँ, भरत ने एक बात अ छी नह क , जो राम (आप) को असहाय जानकर उनका िनरादर िकया!
पर आज सं ाम म राम (आप) का ोधपण ू मुख देखकर यह बात भी उनक समझ म िवशेष प
से आ जाएगी (अथात इस िनरादर का फल भी वे अ छी तरह पा जाएँ गे)।
य कहकर ल मण ने उठकर, हाथ जोड़कर आ ा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो।
िसर पर जटा बाँधकर कमर म तरकस कस िलया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ म
लेकर कहा -
देववाणी सुनकर ल मण सकुचा गए। राम और सीता ने उनका आदर के साथ स मान िकया
(और कहा -) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीित कही। हे भाई! रा य का मद सबसे किठन मद है।
जो अचवँत नप
ृ मातिहं तेई। नािहन साधस
ु भा जेिहं सेई॥
सन
ु ह लखन भल भरत सरीसा। िबिध पंच महँ सन ु ा न दीसा॥
गिह गन
ु पय तिज अवगण ु बारी। िनज जस जगत क ि ह उिजआरी॥
कहत भरत गनु सीलु सभ
ु ाऊ। मे पयोिध मगन रघरु ाऊ॥
राम क वाणी सुनकर और भरत पर उनका ेम देखकर सम त देवता उनक सराहना करने
लगे (और कहने लगे) िक राम के समान कृपा के धाम भु और कौन ह?॥ 232॥
ज न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धरु धरिन धरत को॥
किब कुल अगम भरत गन
ु गाथा। को जानइ तु ह िबनु रघन
ु ाथा॥
ल मण, राम और सीता ने देवताओं क वाणी सुनकर अ यंत सुख पाया, जो वणन नह िकया जा
सकता। यहाँ भरत ने सारे समाज के साथ पिव मंदािकनी म नान िकया।
भरत अपनी माता कैकेयी क करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते ह और मन म करोड़
(अनेक ) कुतक करते ह (सोचते ह -) राम, ल मण और सीता मेरा नाम सुनकर थान छोड़कर
कह दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ ।
चाहे मिलन-मन जानकर मुझे याग द, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा स मान कर, (कुछ भी
कर); मेरे तो राम क जिू तयाँ ही शरण ह। राम तो अ छे वामी ह, दोष तो सब दास का ही है।
माता क हई बुराई मानो उ ह लौटाती है, पर धीरज क धुरी को धारण करनेवाले भरत भि के
बल से चले जाते ह। जब रघुनाथ के वभाव को समझते ( मरण करते) ह तब माग म उनके पैर
ज दी-ज दी पड़ने लगते ह।
उस समय भरत क दशा कैसी है? जैसी जल के वाह म जल के भ रे क गित होती है। भरत का
सोच और ेम देखकर उस समय िनषाद िवदेह हो गया (देह क सुध-बुध भल
ू गया)।
मंगल-शकुन होने लगे। उ ह सुनकर और िवचारकर िनषाद कहने लगा - सोच िमटेगा, हष
होगा, पर िफर अंत म दुःख होगा॥ 234॥
जैसे ईित के भय से दुःखी हई और तीन (आ याि मक, आिधदैिवक और आिधभौितक) ताप तथा
ू र ह और महामा रय से पीिड़त जा िकसी उ म देश और उ म रा य म जाकर सुखी हो
जाए, भरत क गित (दशा) ठीक उसी कार क हो रही है।
(अिधक जल बरसना, न बरसना, चहू का उ पात, िटड्िडयाँ, तोते और दूसरे राजा क चढ़ाई -
खेत म बाधा देनेवाले इन छह उप व को 'ईित' कहते ह)।
राम बास बन संपित ाजा। सख ु ी जा जनु पाइ सरु ाजा॥
सिचव िबरागु िबबेकु नरे सू। िबिपन सहु ावन पावन देसू॥
राम के िनवास से वन क संपि ऐसी सुशोिभत है मानो अ छे राजा को पाकर जा सुखी हो।
सुहावना वन ही पिव देश है। िववेक उसका राजा है और वैरा य मं ी है।
मोह पी राजा को सेना सिहत जीतकर िववेक पी राजा िन कंटक रा य कर रहा है। उसके नगर
म सुख, संपि और सुकाल वतमान है॥ 235॥
वन पी ांत म जो मुिनय के बहत-से िनवास थान ह वही मानो शहर , नगर , गाँव और
खेड़ का समहू है। बहत-से िविच प ी और अनेक पशु ही मानो जाओं का समाज है, िजसका
वणन नह िकया जा सकता।
तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरत से कहने लगा - हे नाथ! ये जो पाकर,
जामुन, आम और तमाल के िवशाल व ृ िदखाई देते ह,
तल
ु सी त बर िबिबध सहु ाए। कहँ कहँ िसयँ कहँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेिदका बनाई। िसयँ िनज पािन सरोज सहु ाई॥
वहाँ तुलसी के बहत-से सुंदर व ृ सुशोिभत ह, जो कह -कह सीता ने और कह ल मण ने
लगाए ह। इसी बड़ क छाया म सीता ने अपने करकमल से सुंदर वेदी बनाई है।
सखा के वचन सुनकर और व ृ को देखकर भरत के ने म जल उमड़ आया। दोन भाई णाम
करते हए चले। उनके ेम का वणन करने म सर वती भी सकुचाती ह।
राम के चरणिच देखकर दोन भाई ऐसे हिषत होते ह मानो द र पारस पा गया हो। वहाँ क रज
को म तक पर रखकर दय म और ने म लगाते ह और रघुनाथ के िमलने के समान सुख
पाते ह।
आ म म वेश करते ही भरत का दुःख और दाह (जलन) िमट गया, मानो योगी को परमाथ
(परमत व) क ाि हो गई हो। भरत ने देखा िक ल मण भु के आगे खड़े ह और पछू े हए वचन
ेमपवू क कह रहे ह (पछ
ू ी हई बात का ेमपवू क उ र दे रहे ह)।
िसर पर जटा है। कमर म मुिनय का (व कल) व बाँधे ह और उसी म तरकस कसे ह। हाथ म
बाण तथा कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुिन तथा साधुओ ं का समुदाय बैठा है और सीता सिहत
रघुनाथ िवराजमान ह।
बलकल बसन जिटल तनु यामा। जनु मिु नबेष क ह रित कामा॥
कर कमलिन धनु सायकु फेरत। िजय क जरिन हरत हँिस हेरत॥
राम के व कल व ह, जटा धारण िकए ह, याम शरीर है। (सीताराम ऐसे लगते ह) मानो रित
और कामदेव ने मुिन का वेष धारण िकया हो। राम अपने करकमल से धनुष-बाण फेर रहे ह, और
हँसकर देखते ही जी क जलन हर लेते ह (अथात िजसक ओर भी एक बार हँसकर देख लेते ह,
उसी को परम आनंद और शांित िमल जाती है)।
संुदर मुिन मंडली के बीच म सीता और रघुकुलचं राम ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो ान क
सभा म सा ात भि और सि चदानंद शरीर धारण करके िवराजमान ह॥ 239॥
सानज
ु सखा समेत मगन मन। िबसरे हरष सोक सख
ु दख
ु गन॥
पािह नाथ किह पािह गोसाई ं। भूतल परे लकुट क नाई ं॥
ेमभरे वचन से ल मण ने पहचान िलया और मन म जान िलया िक भरत णाम कर रहे ह। (वे
राम क ओर मँुह िकए खड़े थे, भरत पीठ- पीछे थे; इससे उ ह ने देखा नह ।) अब इस ओर तो
भाई भरत का सरस ेम और उधर वामी राम क सेवा क बल परवशता।
कृपािनधान राम ने उनको जबरद ती उठाकर दय से लगा िलया! भरत और राम के िमलने क
रीित को देखकर सबको अपनी सुध भलू गई॥ 240॥
िमलन क ीित कैसे बखानी जाए? वह तो किवकुल के िलए कम, मन, वाणी तीन से अगम है।
दोन भाई (भरत और राम) मन, बुि , िच और अहंकार को भुलाकर परम ेम से पण
ू हो रहे ह।
े गट को करई। केिह छाया किब मित अनस
कहह सु म ु रई॥
किबिह अरथ आखर बलु साँचा। अनहु र ताल गितिह नटु नाचा॥
किहए, उस े ेम को कौन कट करे ? किव क बुि िकसक छाया का अनुसरण करे ? किव
को तो अ र और अथ का ही स चा बल है। नट ताल क गित के अनुसार ही नाचता है!
अगम सनेह भरत रघबु र को। जहँ न जाइ मनु िबिध ह र हर को॥
सो म कुमित कह केिह भाँित। बाज सरु ाग िक गाँडर ताँती॥
(तालाब और झील म एक तरह क घास होती है, उसे गाँडर कहते ह।)
भरत और राम के िमलने का ढं ग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनक धुकधुक धड़कने लगी।
देव गु बहृ पित ने समझाया, तब कह वे मखू चेते और फूल बरसाकर शंसा करने लगे।
छोटे भाई श ु न सिहत भरत ेम म उमँगकर सीता के चरण कमल क रज िसर पर धारण कर
बार-बार णाम करने लगे। सीता ने उ ह उठाकर उनके िसर को अपने करकमल से पश कर
(िसर पर हाथ फेरकर) उन दोन को बैठाया।
कोउ िकछु कहई न कोउ िकछु पूँछा। म े भरा मन िनज गित छूँछा॥
तेिह अवसर केवटु धीरजु ध र। जो र पािन िबनवत नामु क र॥
ू ता है। मन ेम से प रपण
उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पछ ू है, वह अपनी गित
से खाली है (अथात संक प-िवक प और चांच य से शू य है)। उस अवसर पर केवट (िनषादराज)
धीरज धर और हाथ जोड़कर णाम करके िवनती करने लगा -
े पल
म ु िक केवट किह नामू। क ह दू र त दंड नामू॥
राम सखा रिष बरबस भटा। जनु मिह लठ ु त सनेह समेटा॥
िफर ेम से पुलिकत होकर केवट (िनषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही विश को दंडवत
णाम िकया। ऋिष विश ने रामसखा जानकर उसको जबरद ती दय से लगा िलया। मानो
जमीन पर लोटते हए ेम को समेट िलया हो।
रघप
ु ित भगित सम
ु ंगल मूला। नभ सरािह सरु ब रसिहं फूला॥
एिह सम िनपट नीच कोउ नाह । बड़ बिस सम को जग माह ॥
िजस (िनषाद) को देखकर मुिनराज विश ल मण से भी अिधक उससे आनंिदत होकर िमले।
यह सब सीतापित राम के भजन का य ताप और भाव है॥ 243॥
दया क खान, सुजान भगवान राम ने सब लोग को दुःखी (िमलने के िलए याकुल) जाना। तब
जो िजस भाव से िमलने का अिभलाषी था, उस-उस का उस-उस कार का ख रखते हए
(उसक िच के अनुसार)।
तब दोन भाई पैर पकड़कर सुिम ा क गोद म जा िचपटे। मानो िकसी अ यंत द र को संपि से
भट हो गई हो। िफर दोन भाई माता कौस या के चरण म िगर पड़े । ेम के मारे उनके सारे अंग
िशिथल ह।
सीता आकर मुिन े विश के चरण लग और उ ह ने मनमाँगी उिचत आशीष पाई। िफर
मुिनय क ि य सिहत गु प नी अ ं धती से िमल । उनका िजतना ेम था, वह कहा नह
जाता।
सीता और सब रािनयाँ नेह के मारे याकुल ह। तब ानी गु ने सबको बैठ जाने के िलए कहा।
िफर मुिननाथ विश ने जगत क गित को माियक कहकर (अथात जगत माया का है, इसम
कुछ भी िन य नह है, ऐसा कहकर) कुछ परमाथ क कथाएँ (बात) कह ।
नप
ृ कर सरु परु गवनु सनु ावा। सिु न रघन
ु ाथ दस
ु ह दख
ु ु पावा॥
मरन हेतु िनज नेह िबचारी। भे अित िबकल धीर धरु धारी॥
तदनंतर विश ने राजा दशरथ के वग गमन क बात सुनाई। िजसे सुनकर रघुनाथ ने दुःसह
दुःख पाया। और अपने ित उनके नेह को उनके मरने का कारण िवचारकर धीरधुरंधर राम
अ यंत याकुल हो गए।
कुिलस कठोर सन
ु त कटु बानी। िबलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक िबकल अित सकल समाजू। मानहँ राजु अकाजेउ आजू॥
व के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर ल मण, सीता और सब रािनयाँ िवलाप करने लग ।
सारा समाज शोक से अ यंत याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे ह ।
दूसरे िदन सबेरा होने पर मुिन विश ने रघुनाथ को जो-जो आ ा दी, वह सब काय भु राम ने
ा-भि सिहत आदर के साथ िकया॥ 247॥
वेद म जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार िपता क ि या करके, पाप पी अंधकार के न
करनेवाले सयू प राम शु हए! िजनका नाम पाप पी ई के (तुरंत जला डालने के) िलए
अि न है; और िजनका मरण मा सम त शुभ मंगल का मल ू है,
सु सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सस ु र जस॥
सु भएँ दइु बासर बीते। बोले गरु सन राम िपरीते॥
वे (िन य शु -बु ) भगवान राम शु हए! साधुओ ं क ऐसी स मित है िक उनका शु होना वैसे
ही है जैसा तीथ के आवाहन से गंगा शु होती ह! (गंगा तो वभाव से ही शु ह, उनम िजन
तीथ का आवाहन िकया जाता है उलटे वे ही गंगा के संपक म आने से शु हो जाते ह। इसी
कार राम तो िन य शु ह, उनके संसग से कम ही शु हो गए।) जब शु हए दो िदन बीत गए
तब राम ीित के साथ गु से बोले -
अतः सबके साथ आप अयो यापुरी को पधा रए (लौट जाइए)। आप यहाँ ह और राजा अमरावती
( वग) म ह (अयो या सन ू ी है)! मने बहत कह डाला, यह सब बड़ी िढठाई क है। हे गोसाई!ं जैसा
उिचत हो, वैसा ही क िजए।
(विश ने कहा -) हे राम! तुम धम के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा य न कहो?
लोग दुःखी ह। दो िदन तु हारा दशन कर शांित लाभ कर ल॥ 248॥
राम बचन सिु न सभय समाजू। जनु जलिनिध महँ िबकल जहाजू॥
सिु न गरु िगरा सम
ु ंगल मूला। भयउ मनहँ मा त अनक
ु ू ला॥
राम के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समु म जहाज डगमगा गया हो।
परं तु जब उ ह ने गु विश क े क याणमल ू क वाणी सुनी, तो उस जहाज के िलए मानो
हवा अनुकूल हो गई।
सब राम के पवत (कामदिग र) और वन को देखने जाते ह, जहाँ सभी सुख ह और सभी दुःख
ृ के समान जल झरते ह और तीन कार क (शीतल, मंद, सुगंध) हवा
का अभाव है। झरने अमत
तीन कार के (आ याि मक, आिधभौितक, आिधदैिवक) ताप को हर लेती है।
असं य जाित के व ृ , लताएँ और तण ृ ह तथा बहत तरह के फल, फूल और प े ह। सुंदर िशलाएँ
ह। व ृ क छाया सुख देनेवाली है। वन क शोभा िकससे वणन क जा सकती है?
कोल, िकरात और भील आिद वन के रहनेवाले लोग पिव , सुंदर एवं अमत ृ के समान वािद
मधु (शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनम भर-भरकर तथा कंद, मल ू , फल और अंकुर आिद
क जिू ड़य (अँिटय ) को।
सबको िवनय और णाम करके उन चीज के अलग-अलग वाद, भेद ( कार), गुण और नाम
बता-बताकर देते ह। लोग उनका बहत दाम देते ह, पर वे नह लेते और लौटा देने म राम क
दुहाई देते ह।
हम लोग को आपके दशन बड़े ही दुलभ ह, जैसे म भिू म के िलए गंगा क धारा दुलभ है!
(देिखए,) कृपालु राम ने िनषाद पर कैसी कृपा क है। जैसे राजा ह वैसा ही उनके प रवार और
जा को भी होना चािहए।
दय म ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा ेम देखकर कृपा क िजए और हमको कृताथ
करने के िलए ही फल, तण
ृ और अंकुर लीिजए॥ 250॥
हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है िक हम आपके कपड़े और बतन नह चुरा लेते। हम लोग जड़
जीव ह, जीव क िहंसा करनेवाले ह; कुिटल, कुचाली, कुबुि और कुजाित ह।
पाप करत िनिस बासर जाह । निहं पट किट निहं पेट अघाह ॥
सपनेहँ धरमबिु कस काऊ। यह रघन ु ंदन दरस भाऊ॥
हमारे िदन-रात पाप करते ही बीतते ह। तो भी न तो हमारी कमर म कपड़ा है और न पेट ही भरते
ह। हमम व न म भी कभी धमबुि कैसी? यह सब तो रघुनाथ के दशन का भाव है।
सब लोग िदन िदन परम आनंिदत होते हए वन म चार ओर िवचरते ह। जैसे पहली वषा के जल से
मेढ़क और मोर-मोटे हो जाते ह ( स न होकर नाचते-कूदते ह)॥ 251॥
लिख िसय सिहत सरल दोउ भाई। कुिटल रािन पिछतािन अघाई॥
अविन जमिह जाचित कैकेई। मिह न बीचु िबिध मीचु न देई॥
सीता समेत दोन भाइय (राम-ल मण) को सरल वभाव देखकर कुिटल रानी कैकेयी भरपेट
पछताई। वह प ृ वी तथा यमराज से याचना करती है, िकंतु धरती बीच (फटकर समा जाने के िलए
रा ता) नह देती और िवधाता मौत नह देता।
दो० - िनिस न नीद निहं भूख िदन भरतु िबकल सिु च सोच।
नीच क च िबच मगन जस मीनिह सिलल सँकोच॥ 252॥
भरत को न तो रात को न द आती है, न िदन म भख ू ही लगती है। वे पिव सोच म ऐसे िवकल
ह, जैसे नीचे (तल) के क चड़ म डूबी हई मछली को जल क कमी से याकुलता होती है॥ 252॥
(भरत सोचते ह िक) माता के िमस से काल ने कुचाल क है। जैसे धान के पकते समय ईित का
भय आ उपि थत हो। अब राम का रा यािभषेक िकस कार हो, मुझे तो एक भी उपाय नह सझ ू
पड़ता।
अविस िफरिहं गरु आयसु मानी। मिु न पिु न कहब राम िच जानी॥
मातु कहेहँ बहरिहं रघरु ाऊ। राम जनिन हठ करिब िक काऊ॥
मुझ सेवक क तो बात ही िकतनी है? उसम भी समय खराब है (मेरे िदन अ छे नह ह) और
िवधाता ितकूल है। यिद म हठ करता हँ तो यह घोर कुकम (अधम) होगा, य िक सेवक का धम
िशव के पवत कैलास से भी भारी (िनबाहने म किठन) है।
भरत गु के चरणकमल म णाम करके आ ा पाकर बैठ गए। उसी समय ा ण, महाजन,
मं ी आिद सभी सभासद आकर जुट गए॥ 253॥
नीित, ेम, परमाथ और वाथ को राम के समान यथाथ (त व से) कोई नह जानता। ा,
िव णु, महादेव, चं , सय
ू , िद पाल, माया, जीव, सभी कम और काल,
शेष और (प ृ वी एवं पाताल के अ या य) राजा आिद जहाँ तक भुता है, और योग क िसि याँ,
जो वेद और शा म गाई गई ह, दय म अ छी तरह िवचार कर देखो, (तो यह प िदखाई
देगा िक) राम क आ ा इन सभी के िसर पर है (अथात राम ही सबके एक मा महान महे र
ह)।
मुिन े विश क नीित, परमाथ और वाथ (लौिकक िहत) म सनी हई वाणी सबने
आदरपवू क सुनी। पर िकसी को कोई उ र नह आता, सब लोग भोले (िवचार शि से रिहत) हो
गए। तब भरत ने िसर नवाकर हाथ जोड़े ।
दिल दख
ु सजइ सकल क याना। अस असीस राउ र जगु जाना॥
सो गोसाइँ िबिध गित जेिहं छक । सकइ को टा र टेक जो टेक ॥
आपका आशीष ही एक ऐसा है, जो दुःख का दमन करके, सम त क याण को सज देते है; यह
जगत जानता है। हे वामी! आप वही ह, िज ह ने िवधाता क गित (िवधान) को भी रोक िदया।
आपने जो टेक टेक दी (जो िन य कर िदया) उसे कौन टाल सकता है?।
(वे बोले -) हे तात! बात स य है, पर है राम क कृपा से ही। राम िवमुख को तो व न म भी िसि
नह िमलती। हे तात! म एक बात कहने म सकुचाता हँ। बुि मान लोग सव व जाता देखकर
(आधे क र ा के िलए) आधा छोड़ िदया करते ह।
अतः तुम दोन भाई (भरत-श ु न) वन को जाओ और ल मण, सीता और राम को लौटा िदया
जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोन भाई हिषत हो गए। उनके सारे अंग परमानंद से प रपण
ू हो गए।
उनके मन स न हो गए। शरीर म तेज सुशोिभत हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे ह और राम
राजा हो गए ह ! अ य लोग को तो इसम लाभ अिधक और हािन कम तीत हई। परं तु रािनय
को दुःख-सुख समान ही थे (राम-ल मण वन म रह या भरत-श ु न, दो पु का िवयोग तो
रहे गा ही), यह समझकर वे सब रोने लग ।
भरत कहने लगे - मुिन ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीव को उनक इि छत व तु देने
का फल होगा। (चौदह वष क कोई अविध नह ,) म ज मभर वन म वास क ँ गा। मेरे िलए इससे
बढ़कर और कोई सुख नह है।
भरत के वचन सुनकर और उनका ेम देखकर सारी सभा सिहत मुिन विश िवदेह हो गए
(िकसी को अपने देह क सुिध न रही)। भरत क महान मिहमा समु है, मुिन क बुि उसके तट
पर अबला ी के समान खड़ी है।
भरतु मिु निह मन भीतर भाए। सिहत समाज राम पिहं आए॥
भु नामु क र दी ह सआ ु सन।ु बैठे सब सिु न मिु न अनस
ु ासन॥ु
मुिन विश क अंतरा मा को भरत बहत अ छे लगे और वे समाज सिहत राम के पास आए। भु
राम ने णाम कर उ म आसन िदया। सब लोग मुिन क आ ा सुनकर बैठ गए।
े मुिन देश, काल और अवसर के अनुसार िवचार करके वचन बोले - हे सव ! हे सुजान! हे
धम, नीित, गुण और ान के भंडार राम! सुिनए -
आप सबके दय के भीतर बसते ह और सबके भले-बुरे भाव को जानते ह। िजसम पुरवािसय का,
माताओं का और भरत का िहत हो, वही उपाय बतलाइए॥ 257॥
आत (दुःखी) लोग कभी िवचारकर नह कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सझ ू ता है। मुिन के
वचन सुनकर रघुनाथ कहने लगे - हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है।
इसीिलए म बार-बार कहता हँ, मेरी बुि भरत क भि के वश हो गई है। मेरी समझ म तो भरत
क िच रखकर जो कुछ िकया जाएगा, िशव सा ी ह, वह सब शुभ ही होगा।
पहले भरत क िवनती आदरपवू क सुन लीिजए, िफर उस पर िवचार क िजए। तब साधुमत,
लोकमत, राजनीित और वेद का िनचोड़ (सार) िनकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) क िजए॥
258॥
भरत पर गु का नेह देखकर राम के दय म िवशेष आनंद हआ। भरत को धमधुरंधर और तन,
मन, वचन से अपना सेवक जानकर -
जे गरु पद अंबज
ु अनरु ागी। ते लोकहँ बेदहँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनरु ागू। को किह सकइ भरत कर भागू॥
तब मुिन भरत से बोले - हे तात! सब संकोच यागकर कृपा के समु अपने यारे भाई से अपने
दय क बात कहो॥ 259॥
मुिन के वचन सुनकर और राम का ख पाकर गु तथा वामी को भरपेट अपने अनुकूल
जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरत कुछ कह नह सकते। वे िवचार करने लगे।
पल
ु िक सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मिु ननाथ िनबाहा। एिह त अिधक कह म काहा॥
शरीर से पुलिकत होकर वे सभा म खड़े हो गए। कमल के समान ने म ेमा ुओ ं क बाढ़ आ
गई। (वे बोले -) मेरा कहना तो मुिननाथ ने ही िनबाह िदया (जो कुछ म कह सकता था वह
उ ह ने ही कह िदया)। इससे अिधक म या कहँ?
िससप
ु न त प रहरे उँ न संग।ू कबहँ न क ह मोर मन भंगू॥
म भु कृपा रीित िजयँ जोही। हारे हँ खेल िजताविहं मोही॥
परं तु िवधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और वामी के बीच) अंतर
डाल िदया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नह देता। य िक अपनी समझ से कौन साधु और
पिव हआ है? (िजसको दूसरे साधु और पिव मान, वही साधु है।)
माता नीच है और म सदाचारी और साधु हँ, ऐसा दय म लाना ही करोड़ दुराचार के समान है।
या कोद क बाली उ म धान फल सकती है? या काली घ घी मोती उ प न कर सकती है?
व न म भी िकसी को दोष का लेश भी नह है। मेरा अभा य ही अथाह समु है। मने अपने पाप
का प रणाम समझे िबना ही माता को कटु वचन कहकर यथ ही जलाया।
साधुओ ं क सभा म गु और वामी के समीप इस पिव तीथ थान म म स य भाव से कहता हँ।
यह ेम है या पंच (छल-कपट)? झठ
ू है या सच? इसे (सव ) मुिन विश और (अंतयामी)
रघुनाथ जानते ह॥ 261॥
म ही इन सारे अनथ का मल
ू हँ, यह सुन और समझकर मने सब दुःख सहा है। रघुनाथ ल मण
और सीता के साथ मुिनय का-सा वेष धारणकर िबना जत ू े पहने पाँव- यादे (पैदल) ही वन को
चले गए, यह सुनकर, शंकर सा ी ह, इस घाव से भी म जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे ाण
नह िनकल गए)! िफर िनषादराज का ेम देखकर भी इस व से भी कठोर दय म छे द नह
हआ (यह फटा नह )।
अब यहाँ आकर सब आँख देख िलया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। िजनको
देखकर रा ते क साँिपनी और बीछी भी अपने भयानक िवष और ती ोध को याग देती ह -
अ यंत याकुल तथा दुःख, ेम, िवनय और नीित म सनी हई भरत क े वाणी सुनकर सब
लोग शोक म म न हो गए, सारी सभा म िवषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया
हो।
किह अनेक िबिध कथा परु ानी। भरत बोधु क ह मिु न यानी॥
ु ंदू। िदनकर कुल कैरव बन चंदू॥
बोले उिचत बचन रघन
तब ानी मुिन विश ने अनेक कार क पुरानी कथाएँ कहकर भरत का समाधान िकया। िफर
ू कुल पी कुमुदवन के फुि लत करनेवाले चं मा रघुनंदन उिचत वचन बोले -
सय
तात जायँ िजयँ करह गलानी। ईस अधीन जीव गित जानी॥
तीिन काल ितभअ ु न मत मोर। पु यिसलोक तात तर तोर॥
हे तात! तुम अपने दय म यथ ही लािन करते हो। जीव क गित को ई र के अधीन जानो। मेरे
मत म (भत ू , भिव य, वतमान) तीन काल और ( वग, प ृ वी और पाताल) तीन लोक के सब
पु या मा पु ष तुम से नीचे ह।
हे भरत! तु हारा नाम- मरण करते ही सब पाप, पंच (अ ान) और सम त अमंगल के समहू
िमट जाएँ गे तथा इस लोक म सुंदर यश और परलोक म सुख ा होगा॥ 263॥
कहउँ सभ
ु ाउ स य िसव साखी। भरत भूिम रह राउ र राखी॥
े निहं दरु इ दरु ाएँ ॥
तात कुतरक करह जिन जाएँ । बैर म
प ी और पशु मुिनय के पास (बेधड़क) चले जाते ह, पर िहंसा करनेवाले बिधक को देखते ही
भाग जाते ह। िम और श ु को पशु-प ी भी पहचानते ह। िफर मनु य शरीर तो गुण और ान
का भंडार ही है।
हे तात! म तु ह अ छी तरह जानता हँ। या क ँ ? जी म बड़ा असमंजस (दुिवधा) है। राजा ने मुझे
याग कर स य को रखा और ेम- ण के िलए शरीर छोड़ िदया।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेिह त अिधक तु हार सँकोचू॥
ता पर गरु मोिह आयसु दी हा। अविस जो कहह चहउँ सोइ क हा॥
उनके वचन को मेटते मन म सोच होता है। उससे भी बढ़कर तु हारा संकोच है। उस पर भी गु
ने मुझे आ ा दी है। इसिलए अब तुम जो कुछ कहो, अव य ही म वही करना चाहता हँ।
देवगण सिहत देवराज इं भयभीत होकर सोचने लगे िक अब बना-बनाया काम िबगड़ना ही
चाहता है। कुछ उपाय करते नह बनता। तब वे सब मन-ही-मन राम क शरण गए।
हे देवताओ! और कोई उपाय नह िदखाई देता। राम अपने े सेवक क सेवा को मानते ह
(अथात उनके भ क कोई सेवा करता है, तो उस पर बहत स न होते ह)। अतएव अपने गुण
और शील से राम को वश म करनेवाले भरत का ही सब लोग अपने-अपने दय म ेम सिहत
मरण करो।
दो० - सिु न सरु मत सरु गरु कहेउ भल तु हार बड़ भाग।ु
सकल सम ु ंगल मूल जग भरत चरन अनरु ाग॥ु 265॥
देवताओं का मत सुनकर देवगु बहृ पित ने कहा - अ छा िवचार िकया, तु हारे बड़े भा य ह।
भरत के चरण का ेम जगत म सम त शुभ मंगल का मल ू है॥ 265॥
सीतानाथ राम के सेवक क सेवा सैकड़ कामधेनुओ ं के समान सुंदर है। तु हारे मन म भरत क
भि आई है, तो अब सोच छोड़ दो। िवधाता ने बात बना दी।
देखु देवपित भरत भाऊ। सजह सभु ायँ िबबस रघरु ाऊ॥
मन िथर करह देव ड नाह । भरतिह जािन राम प रछाह ॥
देवगु बहृ पित और देवताओं क स मित (आपस का िवचार) और उनका सोच सुनकर
अंतयामी भु राम को संकोच हआ। भरत ने अपने मन म सब बोझा अपने ही िसर जाना और वे
दय म करोड़ (अनेक ) कार के अनुमान (िवचार) करने लगे।
जानक नाथ ने सब कार से मुझ पर अ यंत अपार अनु ह िकया। तदनंतर भरत दोन
करकमल को जोड़कर णाम करके बोले - ॥ 266॥
कह कहाव का अब वामी। कृपा अंबिु निध अंतरजामी॥
गरु स न सािहब अनक
ु ू ला। िमटी मिलन मन कलिपत सूला॥
इन सबने िमलकर पैर रोपकर ( ण करके) मुझे न कर िदया था। परं तु शरणागत के र क
आपने अपना (शरणागत क र ा का) ण िनबाहा (मुझे बचा िलया)। यह आपक कोई नई रीित
नह है। यह लोक और वेद म कट है, िछपी नह है।
सारा जगत बुरा (करनेवाला) हो; िकंतु हे वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) ह , तो िफर
किहए, िकसक भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका वभाव क पव ृ के समान है; वह
न कभी िकसी के स मुख (अनुकूल) है, न िवमुख ( ितकूल)।
जो सेवक वामी को संकोच म डालकर अपना भला चाहता है, उसक बुि नीच है। सेवक का
िहत तो इसी म है िक वह सम त सुख और लोभ को छोड़कर वामी क सेवा ही करे ।
वारथु नाथ िफर सबही का। िकएँ रजाइ कोिट िबिध नीका॥
यह वारथ परमारथ सा । सकल सक ु ृ त फल सगु ित िसंगा ॥
हे नाथ! आपके लौटने म सभी का वाथ है, और आपक आ ा पालन करने म करोड़ कार से
क याण है। यही वाथ और परमाथ का सार (िनचोड़) है, सम त पु य का फल और संपण
ू शुभ
गितय का ंग ृ ार है।
हे देव! आप मेरी एक िवनती सुनकर, िफर जैसा उिचत हो वैसा ही क िजए। राजितलक क सब
साम ी सजाकर लाई गई है, जो भु का मन माने तो उसे सफल क िजए (उसका उपयोग
क िजए)।
दो० - सानज
ु पठइअ मोिह बन क िजअ सबिह सनाथ।
नत फे रअिहं बंधु दोउ नाथ चल म साथ॥ 268॥
छोटे भाई श ु न समेत मुझे वन म भेज दीिजए और (अयो या लौटकर) सबको सनाथ क िजए।
नह तो िकसी तरह भी (यिद आप अयो या जाने को तैयार न ह ) हे नाथ! ल मण और श ु न
दोन भाइय को लौटा दीिजए और म आपके साथ चलँ॥ू 268॥
अथवा हम तीन भाई वन चले जाएँ और हे रघुनाथ! आप सीता सिहत (अयो या को) लौट जाइए।
हे दयासागर! िजस कार से भु का मन स न हो, वही क िजए।
हे देव! आपने सारा भार (िज मेवारी) मुझ पर रख िदया। पर मुझम न तो नीित का िवचार है, न
धम का। म तो अपने वाथ के िलए सब बात कह रहा हँ। आत (दुःखी) मनु य के िच म चेत
(िववेक) नह रहता।
वामी क आ ा सुनकर जो उ र दे, ऐसे सेवक को देखकर ल जा भी लजा जाती है। म अवगुण
का ऐसा अथाह समु हँ (िक भु को उ र दे रहा हँ)। िकंतु वामी (आप) नेह वश साधु कहकर
मुझे सराहते ह!
हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, िजससे वामी का मन संकोच न पावे। भु के चरण क
शपथ है, म स यभाव से कहता हँ, जगत के क याण के िलए एक यही उपाय है।
भरत के पिव वचन सुनकर देवता हिषत हए और 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हए
देवताओं ने फूल बरसाए। अयो या िनवासी असमंजस के वश हो गए (िक देख अब राम या कहते
ह) तप वी तथा वनवासी लोग (राम के वन म बने रहने क आशा से) मन म परम आनंिदत हए।
जनक दूत तेिह अवसर आए। मुिन बिस ँ सुिन बेिग बोलाए॥
िकंतु संकोची रघुनाथ चुप ही रह गए। भु क यह ि थित (मौन) देख सारी सभा सोच म पड़ गई।
उसी समय जनक के दूत आए, यह सुनकर मुिन विश ने उ ह तुरंत बुलवा िलया।
उ ह ने (आकर) णाम करके राम को देखा। उनका (मुिनय का-सा) वेष देखकर वे बहत ही
दुःखी हए। मुिन े विश ने दूत से बात पछ
ू ी िक राजा जनक का कुशल समाचार कहो।
नह तो हे नाथ! कुशल- ेम तो सब कोसलनाथ दशरथ के साथ ही चली गई। (उनके चले जाने
से) य तो सारा जगत ही अनाथ ( वामी के िबना असहाय) हो गया, िकंतु िमिथला और अवध तो
िवशेष प से अनाथ हो गये॥ 270॥
अयो यानाथ क गित (दशरथ का मरण) सुनकर जनकपुरवासीसभी लोग शोकवश बावले हो
गए (सुध-बुध भल
ू गए)। उस समय िज ह ने िवदेह को (शोकम न) देखा, उनम से िकसी को
ऐसा न लगा िक उनका िवदेह (देहािभमानरिहत) नाम स य है! ( य िक देहािभमान से शू य
पु ष को शोक कैसा?)
रानी क कुचाल सुनकर राजा जनक को कुछ सझ ू न पड़ा, जैसे मिण के िबना साँप को नह
सझ ू ता। िफर भरत को रा य और राम को वनवास सुनकर िमिथले र जनक के दय म बड़ा
दुःख हआ।
ृ बूझे बध
नप ु सिचव समाजू। कहह िबचा र उिचत का आजू॥
समिु झ अवध असमंजस दोऊ। चिलअ िक रिहअ न कह कछु कोऊ॥
नप
ृ िहं धीर ध र दयँ िबचारी। पठए अवध चतरु चर चारी॥
बूिझ भरत सित भाउ कुभाऊ। आएह बेिग न होइ लखाऊ॥
(जब िकसी ने कोई स मित नह दी) तब राजा ने धीरज धर दय म िवचारकर चार चतुर गु चर
(जाससू ) अयो या को भेजे (और उनसे कह िदया िक) तुम लोग (राम के ित) भरत के स ाव
(अ छे भाव, ेम) या दुभाव (बुरा भाव, िवरोध) का (यथाथ) पता लगाकर ज दी लौट आना,
िकसी को तु हारा पता न लगने पाए।
(गु ) दूत ने आकर राजा जनक क सभा म भरत क करनी का अपनी बुि के अनुसार वणन
िकया। उसे सुनकर गु , कुटुंबी, मं ी और राजा सभी सोच और नेह से अ यंत याकुल हो गए।
िफर जनक ने धीरज धरकर और भरत क बड़ाई करके अ छे यो ाओं और साहिनय को बुलाया।
घर, नगर और देश म र क को रखकर, घोड़े , हाथी, रथ आिद बहत-सी सवा रयाँ सजवाई।ं
दघ
ु री सािध चले ततकाला। िकए िब ामु न मग मिहपाला॥
भोरिहं आजु नहाइ यागा। चले जमनु उतरन सबु लागा॥
तब हे नाथ! हम खबर लेने को भेजा। उ ह ने (दूत ने) ऐसा कहकर प ृ वी पर िसर नवाया।
मुिन े विश ने कोई छः-सात भील को साथ देकर दूत को तुरंत िवदा कर िदया।
दो० - सन
ु त जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघन
ु ंदनिह सकोचु बड़ सोच िबबस सरु राज॥
ु 272॥
जनक का आगमन सुनकर अयो या का सारा समाज हिषत हो गया। राम को बड़ा संकोच हआ
और देवराज इं तो िवशेष प से सोच के वश म हो गए॥ 272॥
कुिटल कैकेयी मन-ही-मन लािन (प ा ाप) से गली जाती है। िकससे कहे और िकसको दोष
दे ? और सब नर-नारी मन म ऐसा िवचार कर स न हो रहे ह िक (अ छा हआ, जनक के आने
से) चार (कुछ) िदन और रहना हो गया।
इस तरह वह िदन भी बीत गया। दूसरे िदन ातःकाल सब कोई नान करने लगे। नान करके
सब नर-नारी गणेश, गौरी, महादेव और सयू भगवान क पज
ू ा करते ह।
िफर ल मीपित भगवान िव णु के चरण क वंदना करके, दोन हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर
िवनती करते ह िक राम राजा ह , जानक रानी ह तथा राजधानी अयो या आनंद क सीमा
होकर -
िफर समाज सिहत सुखपवू क बसे और राम भरत को युवराज बनाएँ । हे देव! इस सुख पी अमत
ृ
से स चकर सब िकसी को जगत म जीने का लाभ दीिजए।
अयो यावािसय क ेममयी वाणी सुनकर ानी मुिन भी अपने योग और वैरा य क िनंदा करते
ह। अवधवासी इस कार िन यकम करके राम को पुलिकत शरीर हो णाम करते ह।
ऊँच, नीच और म यम सभी ेिणय के ी-पु ष अपने-अपने भाव के अनुसार राम का दशन
ा करते ह। राम सावधानी के साथ सबका स मान करते ह और सभी कृपािनधान राम क
सराहना करते ह।
ल रकाइिह त रघब
ु र बानी। पालत नीित ीित पिहचानी॥
सील सकोच िसंधु रघरु ाऊ। सम
ु ख
ु सल
ु ोचन सरल सभ
ु ाऊ॥
जनक इस कार चले आ रहे ह। समाज सिहत उनक बुि ेम म मतवाली हो रही है। िनकट आए
देखकर सब ेम म भर गए और आदरपवू क आपस म िमलने लगे।
जनक (विश आिद अयो यावासी) मुिनय के चरण क वंदना करने लगे और राम ने (शतानंद
आिद जनकपुरवासी) ऋिषय को णाम िकया। िफर भाइय समेत राम राजा जनक से िमलकर
उ ह समाज सिहत अपने आ म को िलवा चले।
राम का आ म शांत रस पी पिव जल से प रपणू समु है। जनक क सेना (समाज) मानो
क णा (क ण रस) क नदी है, िजसे रघुनाथ (उस आ म पी शांत रस के समु म िमलाने के
िलए) िलए जा रहे ह॥ 275॥
यह क णा क नदी (इतनी बढ़ी हई है िक) ान-वैरा य पी िकनार को डुबाती जाती है। शोक
भरे वचन नद और नाले ह, जो इस नदी म िमलते ह; और सोच क लंबी साँस (आह) ही वायु के
झकोर से उठनेवाली तरं ग ह, जो धैय पी िकनारे के उ म व ृ को तोड़ रही ह।
भयानक िवषाद (शोक) ही उस नदी क तेज धारा है। भय और म (मोह) ही उसके असं य भँवर
और च ह। िव ान म लाह ह, िव ा ही बड़ी नाव है, परं तु वे उसे खे नह सकते ह, (उस िव ा
का उपयोग नह कर सकते ह), िकसी को उसक अटकल ही नह आती है।
दोन राज समाज शोक से याकुल हो गए। िकसी को न ान रहा, न धीरज और न लाज ही रही।
राजा दशरथ के प, गुण और शील क सराहना करते हए सब रो रहे ह और शोक समु म
डुबक लगा रहे ह।
शोक समु म डुबक लगाते हए सभी ी-पु ष महान याकुल होकर सोच (िचंता) कर रहे ह। वे
सब िवधाता को दोष देते हए ोधयु होकर कह रहे ह िक ितकूल िवधाता ने यह या िकया?
तुलसीदास कहते ह िक देवता, िस , तप वी, योगी और मुिनगण म कोई भी समथ नह है जो
उस समय िवदेह (जनकराज) क दशा देखकर ेम क नदी को पार कर सके ( ेम म म न हए
िबना रह सके)।
जहाँ-तहाँ े मुिनय ने लोग को अप रिमत उपदेश िदए और विश ने िवदेह (जनक) से कहा
- हे राजन! आप धैय धारण क िजए॥ 276॥
जासु यान रिब भव िनिस नासा। बचन िकरन मिु न कमल िबकासा॥
तेिह िक मोह ममता िनअराई। यह िसय राम सनेह बड़ाई॥
राम के ेम के िबना ान शोभा नह देता, जैसे कणधार के िबना जहाज। विश ने िवदेहराज
(जनक) को बहत कार से समझाया। तदनंतर सब लोग ने राम के घाट पर नान िकया।
िनिमराज जनक और रघुराज राम तथा दोन ओर के समाज ने दूसरे िदन सबेरे नान िकया और
सब बड़ के व ृ के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले ह॥ 277॥
वे सब धम, नीित वैरा य तथा िववेकयु अनेक उपदेश देने लगे। िव ािम ने पुरानी कथाएँ
(इितहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया।
िव ािम का ख देखकर ितरहत राज जनक ने कहा - यहाँ अ न खाना उिचत नह है। राजा
का सुंदर कथन सबके मन को अ छा लगा। सब आ ा पाकर नहाने चले।
राम के गु विश ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपवू क भेजे। तब वे िपतर-देवता, अितिथ
और गु क पज ू ा करके फलाहार करने लगे॥ 279॥
इस कार चार िदन बीत गए। राम को देखकर सभी नर-नारी सुखी ह। दोन समाज के मन म
ऐसी इ छा है िक सीताराम के िबना लौटना अ छा नह है।
सीताराम के साथ वन म रहना करोड़ देवलोक के (िनवास के) समान सुखदायक है। ल मण,
राम और जानक को छोड़कर िजसको घर अ छा लगे, िवधाता उसके िवपरीत ह।
जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी राम के पास वन म िनवास हो सकता है। मंदािकनी का तीन
समय नान और आनंद तथा मंगल क माला (समहू ) प राम का दशन,
दो० - एिह सख
ु जोग न लोग सब कहिहं कहाँ अस भाग।ु
सहज सभ
ु ायँ समाज दहु राम चरन अनरु ाग॥ु 280॥
इस कार सब मनोरथ कर रहे ह। उनके ेमयु वचन सुनते ही (सुनने वाल के) मन को हर
लेते ह। उसी समय सीता क माता सुनयना क भेजी हई दािसयाँ (कौस या आिद के िमलने का)
सुंदर अवसर देखकर आई ं।
सीलु सनेह सकल दहु ओरा। विहं देिख सिु न कुिलस कठोरा॥
पल
ु क िसिथल तन बा र िबलोचन। मिह नख िलखन लग सब सोचन॥
सभी सीताराम के ेम क मिू त-सी ह, मानो वयं क णा ही बहत-से वेष ( प) धारण करके
िवसरू रही हो (दुःख कर रही हो)। सीता क माता सुनयना ने कहा - िवधाता क बुि बड़ी टेढ़ी
है, जो दूध के फेन जैसी कोमल व तु को व क टाँक से फोड़ रहा है (अथात जो अ यंत कोमल
और िनद ष ह उन पर िवपि -पर-िवपि ढहा रहा है)।
दो० - सिु नअ सध
ु ा देिख अिहं गरल सब करतिू त कराल।
जहँ तहँ काक उलक ू बक मानस सकृत मराल॥ 281॥
अमतृ केवल सुनने म आता है और िवष जहाँ-तहाँ य देखे जाते ह। िवधाता क सभी करतत ू
भयंकर ह। जहाँ-तहाँ कौए, उ लू और बगुले ही (िदखाई देते) ह; हंस तो एक मानसरोवर म ही है॥
281॥
यह सुनकर देवी सुिम ा शोक के साथ कहने लग - िवधाता क चाल बड़ी ही िवपरीत और
िविच है, जो सिृ को उ प न करके पालता है और िफर न कर डालता है। िवधाता क बुि
बालक के खेल के समान भोली (िववेकशू य) है।
भूपित िजअब मरब उर आनी। सोिचअ सिख लिख िनज िहत हानी॥
सीय मातु कह स य सबु ानी। सक
ु ृ ती अविध अवधपित रानी॥
भरत सील गन
ु िबनय बड़ाई। भायप भगित भरोस भलाई॥
कहत सारदह कर मित हीचे। सागर सीप िक जािहं उलीचे॥
म भरत को सदा कुल का दीपक जानती हँ। महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना
कसौटी पर कसे जाने पर और र न पारखी (जौहरी) के िमलने पर ही पहचाना जाता है। वैसे ही
पु ष क परी ा समय पड़ने पर उसके वभाव से ही (उसका च र देखकर) हो जाती है।
िकंतु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुिचत है। शोक और नेह म सयानापन (िववेक) कम हो जाता
है (लोग कहगे िक म नेहवश भरत क बड़ाई कर रही हँ)। कौस या क गंगा के समान पिव
करनेवाली वाणी सुनकर सब रािनयाँ नेह के मारे िवकल हो उठ ।
कौस या ने िफर धीरज धरकर कहा - हे देवी िमिथले री! सुिनए, ान के भंडार जनक क
ि या आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥ 283॥
तो भली-भाँित खबू िवचारकर ऐसा य न कर। मुझे भरत का अ यिधक सोच है। भरत के मन म
ू ेम है। उनके घर रहने म मुझे भलाई नह जान पड़ती (यह डर लगता है िक उनके ाण को
गढ़
कोई भय न हो जाए)।
लिख सभ
ु ाउ सिु न सरल सब
ु ानी। सब भइ मगन क न रस रानी॥
नभ सून झ र ध य ध य धिु न। िसिथल सनेहँ िस जोगी मिु न॥
सारा रिनवास देखकर चिकत रह गया (िन त ध हो गया), तब सुिम ा ने धीरज करके कहा िक
हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है। यह सुनकर राम क माता कौस या ेमपवू क उठ -
आपका सहायक होने यो य जगत म कौन है? दीपक सय ू क सहायता करने जाकर कह शोभा
पा सकता है? राम वन म जाकर देवताओं का काय करके अवधपुरी म अचल रा य करगे।
ऐसा कहकर बड़े ेम से पैर पड़कर सीता (को साथ भेजने) के िलए िवनती करके और सुंदर
आ ा पाकर तब सीता समेत सीता क माता डे रे को चल ॥ 285॥
जानक अपने यारे कुटुंिबय से - जो िजस यो य था, उससे उसी कार िमल । जानक को
तपि वनी के वेष म देखकर सभी शोक से अ यंत याकुल हो गए।
जनक राम गरु आयसु पाई। चले थलिह िसय देखी आई॥
लीि ह लाइ उर जनक जानक । पाहिन पावन म े ान क ॥
उनके दय म (वा स य) ेम का समु उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो याग हो गया। उस समु
के अंदर उ ह ने (आिद शि ) सीता के (अलौिकक) नेह पी अ यवट को बढ़ते हए देखा। उस
(सीता के ेम पी वट) पर राम का ेम पी बालक (बाल प धारी भगवान) सुशोिभत हो रहा है।
जनक का ान पी िचरं जीवी (माक डे य) मुिन याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस राम
ेम पी बालक का सहारा पाकर बच गया। व तुतः ( ािनिशरोमिण) िवदेहराज क बुि मोह म
म न नह है। यह तो सीताराम के ेम क मिहमा है (िजसने उन जैसे महान ानी के ान को
भी िवकल कर िदया)।
सीता को तपि वनी वेष म देखकर जनक को िवशेष ेम और संतोष हआ। (उ ह ने कहा -) बेटी!
ू े दोन कुल पिव कर िदए। तेरे िनमल यश से सारा जगत उ वल हो रहा है, ऐसा सब कोई
तन
कहते ह।
तेरी क ित पी नदी देवनदी गंगा को भी जीतकर (जो एक ही ांड म बहती है) करोड़ ांड
म बह चली है। गंगा ने तो प ृ वी पर तीन ही थान (ह र ार, यागराज और गंगासागर) को बड़ा
(तीथ) बनाया है। पर तेरी इस क ित नदी ने तो अनेक संत समाज पी तीथ थान बना िदए ह।
िपता जनक ने तो नेह से स ची सुंदर वाणी कही। परं तु अपनी बड़ाई सुनकर सीता मानो संकोच
म समा गई ं। िपता-माता ने उ ह िफर दय से लगा िलया और िहतभरी सुंदर सीख और आशीष
दी।
सीता कुछ कहती नह ह, परं तु सकुचा रही ह िक रात म (सासुओ ं क सेवा छोड़कर) यहाँ रहना
अ छा नह है। रानी सुनयना ने जानक का ख देखकर (उनके मन क बात समझकर) राजा
जनक को जना िदया। तब दोन अपने दय म सीता के शील और वभाव क सराहना करने
लगे।
राजा-रानी ने बार-बार िमलकर और दय से लगाकर तथा स मान करके सीता को िवदा िकया।
चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी म भरत क दशा का वणन िकया॥ 287॥
सोने म सुगंध और (समु से िनकली हई) सुधा म चं मा के सार अमत ृ के समान भरत का
यवहार सुनकर राजा ने ( ेम िव ल होकर) अपने ( ेमा ुओ ं के) जल से भरे ने को मँदू िलया
(वे भरत के ेम म मानो यान थ हो गए)। वे शरीर से पुलिकत हो गए और मन म आनंिदत
होकर भरत के सुंदर यश क सराहना करने लगे।
सावधान सन
ु ु सम
ु िु ख सल
ु ोचिन। भरत कथा भव बंध िबमोचिन॥
धरम राजनय िबचा । इहाँ जथामित मोर चा ॥
(वे बोले -) हे सुमुिख! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरत क कथा संसार के बंधन से
छुड़ानेवाली है। धम, राजनीित और िवचार - इन तीन िवषय म अपनी बुि के अनुसार मेरी
(थोड़ी-बहत) गित है (अथात इनके संबंध म म कुछ जानता हँ)।
दो० - िनरविध गन
ु िन पम पु षु भरतु भरत सम जािन।
ु े िक सेर सम किबकुल मित सकुचािन॥ 288॥
किहअ सम
भरत असीम गुण संप न और उपमारिहत पु ष ह। भरत के समान बस, भरत ही ह, ऐसा जानो।
सुमे पवत को या सेर के बराबर कह सकते ह? इसिलए (उ ह िकसी पु ष के साथ उपमा देने
म) किव समाज क बुि भी सकुचा गई!॥ 288॥
हे े वणवाली! भरत क मिहमा का वणन करना सभी के िलए वैसे ही अगम है जैसे जलरिहत
प ृ वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरत क अप रिमत मिहमा को एक राम ही जानते ह,
िकंतु वे भी उसका वणन नह कर सकते।
परमारथ वारथ सख
ु सारे । भरत न सपनेहँ मनहँ िनहारे ॥
साधन िसि राम पग नेह। मोिह लिख परत भरत मत एह॥
राम और भरत के गुण क ेमपवू क गणना करते (कहते-सुनते) पित-प नी को रात पलक के
समान बीत गई। ातःकाल दोन राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं क पज ू ा करने
लगे।
रघुनाथ नान करके गु विश के पास गए और चरण क वंदना करके उनका ख पाकर
बोले - हे नाथ! भरत, अवधपुरवासी तथा माताएँ , सब शोक से याकुल और वनवास से दुःखी ह।
िमिथलापित राजा जनक को भी समाज सिहत लेश सहते बहत िदन हो गए। इसिलए हे नाथ!
जो उिचत हो वही क िजए। आप ही के हाथ सभी का िहत है।
ु के लिख सीलु सभ
अस किह अित सकुचे रघरु ाऊ। मिु न पल ु ाऊ॥
तु ह िबनु राम सकल सख
ु साजा। नरक स रस दहु राज समाजा॥
ऐसा कहकर रघुनाथ अ यंत ही सकुचा गए। उनका शील- वभाव देखकर ( ेम और आनंद से)
मुिन विश पुलिकत हो गए। (उ ह ने खुलकर कहा -) हे राम! तु हारे िबना (घर-बार आिद)
संपणू सुख के साज दोन राजसमाज को नरक के समान ह।
अतः आप आ म को पधा रए। इतना कह मुिनराज नेह से िशिथल हो गए। तब राम णाम करके
चले गए और ऋिष विश धीरज धरकर जनक के पास आए।
गु ने राम के शील और नेह से यु वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनक को सुनाए (और
कहा -) हे महाराज! अब वही क िजए िजसम सबका धम सिहत िहत हो।
हे राजन! तुम ान के भंडार, सुजान, पिव और धम म धीर हो। इस समय तु हारे िबना इस
दुिवधा को दूर करने म और कौन समथ है?॥ 291॥
सिु न मिु न बचन जनक अनरु ागे। लिख गित यानु िबरागु िबरागे॥
िसिथल सनेहँ गन ु त मन माह । आए इहाँ क ह भल नाह ॥
मुिन विश के वचन सुनकर जनक ेम म म न हो गए। उनक दशा देखकर ान और वैरा य
को भी वैरा य हो गया (अथात उनके ान-वैरा य छूट-से गए)। वे ेम से िशिथल हो गए और मन
म िवचार करने लगे िक हम यहाँ आए, यह अ छा नह िकया।
े वाना॥
रामिह रायँ कहेउ बन जाना। क ह आपु ि य म
हम अब बन त बनिह पठाई। मिु दत िफरब िबबेक बड़ाई॥
भरत ने आकर उ ह आगे होकर िलया (सामने आकर उनका वागत िकया) और समयानुकूल
अ छे आसन िदए। ितरहतराज जनक कहने लगे - हे तात भरत! तुमको राम का वभाव मालम
ू
ही है।
भरत यह सुनकर पुलिकत शरीर हो ने म जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले - हे भो!
आप हमारे िपता के समान ि य और पू य ह और कुल गु विश के समान िहतैषी तो माता-
िपता भी नह है।
भरत बचन सिु न देिख सभु ाऊ। सिहत समाज सराहत राऊ॥
सग
ु म अगम मदृ ु मंजु कठोरे । अरथु अिमत अित आखर थोरे ॥
भरत के वचन सुनकर और उनका वभाव देखकर समाज सिहत राजा जनक उनक सराहना
करने लगे। भरत के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर ह। उनम अ र थोड़े ह,
परं तु अथ अ यंत अपार भरा हआ है।
य मखु ु मक
ु ु र मक
ु ु िनज पानी। गिह न जाइ अस अदभत ु बानी॥
भूप भरतू मिु न सिहत समाजू। गे जहँ िबबध
ु कुमदु ि जराजू॥
जैसे मुख (का ितिबंब) दपण म िदखता है और दपण अपने हाथ म है, िफर भी वह (मुख का
ितिबंब) पकड़ा नह जाता, इसी कार भरत क यह अ ुत वाणी भी पकड़ म नह आती (श द
से उसका आशय समझ म नह आता)। (िकसी से कुछ उ र देते नह बना) तब राजा जनक,
भरत तथा मुिन विश समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता पी कुमुद को िखलानेवाले (सुख
देनेवाले) चं मा राम थे।
यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वषा के) जल के संयोग
से मछिलयाँ याकुल होती ह। देवताओं ने पहले कुलगु विश क ( ेमिव ल) दशा देखी, िफर
िवदेह के िवशेष नेह को देखा,
राम भगितमय भरतु िनहारे । सरु वारथी हह र िहयँ हारे ॥
े मय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥
सब कोउ राम म
िबबध
ु िबनय सिु न देिब सयानी। बोली सरु वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहह भरत मित फे । लोचन सहस न सूझ सम ु े ॥
भरत दयँ िसय राम िनवासू। तहँ िक ितिमर जहँ तरिन कासू॥
अस किह सारद गइ िबिध लोका। िबबध ु िबकल िनिस मानहँ कोका॥
मिलन मनवाले वाथ देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यं ) रचा। बल माया-जाल
रचकर भय, म, अ ीित और उ चाटन फै ला िदया॥ 295॥
कुचाल करके देवराज इं सोचने लगे िक काम का बनना-िबगड़ना सब भरत के हाथ है। इधर
राजा जनक (मुिन विश आिद के साथ) रघुनाथ के पास गए। सय
ू कुल के दीपक राम ने सबका
स मान िकया,
तब रघुकुल के पुरोिहत विश समय, समाज और धम के अिवरोधी (अथात अनुकूल) वचन बोले।
उ ह ने पहले जनक और भरत का संवाद सुनाया। िफर भरत क कही हई संुदर बात कह सुनाई ं।
(िफर बोले -) हे तात राम! मेरा मत तो यह है िक तुम जैसी आ ा दो, वैसा ही सब कर! यह
सुनकर दोन हाथ जोड़कर रघुनाथ स य, सरल और कोमल वाणी बोले -
आपके और िमिथले र जनक के िव मान रहते मेरा कुछ कहना सब कार से भ ा (अनुिचत)
है। आपक और महाराज क जो आ ा होगी, म आपक शपथ करके कहता हँ वह स य ही
सबको िशरोधाय होगी।
राम क शपथ सुनकर सभा समेत मुिन और जनक सकुचा गए ( तंिभत रह गए)। िकसी से उ र
देते नह बनता, सब लोग भरत का मँुह ताक रहे ह॥ 296॥
सभा सकुच बस भरत िनहारी। राम बंधु ध र धीरजु भारी॥
कुसमउ देिख सनेह सँभारा। बढ़त िबंिध िजिम घटज िनवारा॥
भरत ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरत) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय
देखकर अपने (उमड़ते हए) ेम को सँभाला, जैसे बढ़ते हए िवं याचल को अग य ने रोका था।
भरत ने णाम करके सबके ित हाथ जोड़े तथा राम, राजा जनक, गु विश और साधु-संत
सबसे िवनती क और कहा - आज मेरे इस अ यंत अनुिचत बताव को मा क िजएगा। म कोमल
(छोटे) मुख से कठोर (ध ृ तापण
ू ) वचन कह रहा हँ।
िववेक के ने से सारे समाज को ेम से िशिथल देख, सबको णाम कर, सीता और रघुनाथ का
मरण करके भरत बोले - ॥ 297॥
समथ, शरणागत का िहत करनेवाले, गुण का आदर करनेवाले और अवगुण तथा पाप को
हरनेवाले ह। हे गोसाई ं! आप-सरीखे वामी आप ही ह और वामी के साथ ोह करने म मेरे
समान म ही हँ।
हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला िकया, िजससे मेरे दूषण (दोष) भी भषू ण
(गुण) के समान हो गए और चार ओर मेरा संुदर यश छा गया॥ 298॥
राउ र रीित सब
ु ािन बड़ाई। जगत िबिदत िनगमागम गाई॥
कूर कुिटल खल कुमित कलंक । नीच िनसील िनरीस िनसंक ॥
हे नाथ! आपक रीित और सुंदर वभाव क बड़ाई जगत म िस है, और वेद-शा ने गाई है।
जो ू र, कुिटल, दु , कुबुि , कलंक , नीच, शीलरिहत, िनरी रवादी (नाि तक) और िनःशंक
(िनडर) ह।
उ ह भी आपने शरण म स मुख आया सुनकर एक बार णाम करने पर ही अपना िलया। उन
(शरणागत ) के दोष को देखकर भी आप कभी दय म नह लाए और उनके गुण को सुनकर
साधुओ ं के समाज म उनका बखान िकया।
को सािहब सेवकिह नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
िनज करतिू त न समिु झअ सपन। सेवक सकुच सोचु उर अपन॥
म भुजा उठाकर और ण रोपकर (बड़े जोर के साथ) कहता हँ, ऐसा वामी आपके िसवा दूसरा
कोई नह है। (बंदर आिद) पशु नाचते और तोते (सीखे हए) पाठ म वीण हो जाते ह। परं तु तोते
का (पाठ वीणता प) गुण और पशु के नाचने क गित ( मशः) पढ़ानेवाले और नचानेवाले के
अधीन है।
दो० - य सध
ु ा र सनमािन जन िकए साधु िसरमोर।
को कृपाल िबनु पािलहै िब रदाविल बरजोर॥ 299॥
इस कार अपने सेवक क (िबगड़ी) बात सुधारकर और स मान देकर आपने उ ह साधुओ ं का
िशरोमिण बना िदया। कृपालु (आप) के िसवा अपनी िवरदावली का और कौन जबरद ती
(हठपवू क) पालन करे गा?॥ 299॥
देखउे ँ पाय सम
ु ंगल मूला। जानेउँ वािम सहज अनक
ु ू ला।
बड़ समाज िबलोकेउँ भागू। बड़ चूक सािहब अनरु ागू॥
हे नाथ! मने वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अिवनय या िवनयभरी जैसी िच हई वैसी
ही वाणी कहकर सवथा िढठाई क है। हे देव! मेरे आतभाव (आतुरता) को जानकर आप मा
करगे।
दो० - सु द सज
ु ान सस
ु ािहबिह बहत कहब बिड़ खो र।
आयसु देइअ देव अब सबइ सध ु ारी मो र॥ 300॥
सु द (िबना ही हे तु के िहत करनेवाले), बुि मान और े मािलक से बहत कहना बड़ा अपराध
है, इसिलए हे देव! अब मुझे आ ा दीिजए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥ 300॥
भु पद पदम
ु पराग दोहाई। स य सक
ु ृ त सख
ु सीवँ सहु ाई॥
सो क र कहउँ िहए अपने क । िच जागत सोवत सपने क ॥
भरत ऐसा कहकर ेम के बहत ही िववश हो गए। शरीर पुलिकत हो उठा, ने म ( ेमा ुओ ं का)
जल भर आया। अकुलाकर ( याकुल होकर) उ ह ने भु राम के चरणकमल पकड़ िलए। उस
समय को और नेह को कहा नह जा सकता।
कृपािसंधु सनमािन सबु ानी। बैठाए समीप गिह पानी॥
भरत िबनय सिु नदेिख सभ ु ाऊ। िसिथल सनेहँ सभा रघरु ाऊ॥
कृपािसंधु राम ने सुंदर वाणी से भरत का स मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास िबठा
िलया। भरत क िवनती सुनकर और उनका वभाव देखकर सारी सभा और रघुनाथ नेह से
िशिथल हो गए।
रघुनाथ, साधुओ ं का समाज, मुिन विश और िमिथलापित जनक नेह से िशिथल हो गए। सब
मन-ही-मन भरत के भाईपन और उनक भि क अितशय मिहमा को सराहने लगे। देवता
मिलन से मन से भरत क शंसा करते हए उन पर फूल बरसाने लगे। तुलसीदास कहते ह - सब
लोग भरत का भाषण सुनकर याकुल हो गए और ऐसे सकुचा गए जैसे राि के आगमन से
कमल!
सो० - देिख दख
ु ारी दीन दहु समाज नर ना र सब।
मघवा महा मलीन मए ु मा र मंगल चहत॥ 301॥
दोन समाज के सभी नर-ना रय को दीन और दुःखी देखकर महामिलन- मन इं मरे हओं को
मारकर अपना मंगल चाहता है॥ 301॥
देवराज इं कपट और कुचाल क सीमा है। उसे पराई हािन और अपना लाभ ही ि य है। इं क
रीित कौए के समान है। वह छली और मिलन- मन है, उसका कह िकसी पर िव ास नह है।
पहले तो कुमत (बुरा िवचार) करके कपट को बटोरा (अनेक कार के कपट का साज सजा)।
िफर वह (कपटजिनत) उचाट सबके िसर पर डाल िदया। िफर देवमाया से सब लोग को िवशेष
प से मोिहत कर िदया। िकंतु राम के ेम से उनका अ यंत िबछोह नह हआ (अथात उनका राम
के ित ेम कुछ तो बना ही रहा)।
भय उचाट बस मन िथर नाह । छन बन िच छन सदन सोहाह ॥
दिु बध मनोगित जा दख
ु ारी। स रत िसंधु संगम जनु बारी॥
कृपािसंधु राम ने लोग को अपने नेह और देवराज इं के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा
जनक, गु , ा ण और मं ी आिद सभी क बुि को भरत क भि ने क ल िदया।
सब लोग िच िलखे-से राम क ओर देख रहे ह। सकुचाते हए िसखाए हए-से वचन बोलते ह।
भरत क ीित, न ता, िवनय और बड़ाई सुनने म सुख देनेवाली है, पर उसका वणन करने म
किठनता है।
परं तु वह बुि अपने को छोटी और भरत क मिहमा को बड़ी जानकर किव परं परा क मयादा को
मानकर सकुचा गई (उसका वणन करने का साहस नह कर सक )। उसक गुण म िच तो
बहत है; पर उ ह कह नह सकती। बुि क गित बालक के वचन क तरह हो गई (वह कुंिठत
हो गई)!
भरत सभ
ु ाउ न सग
ु म िनगमहँ। लघु मित चापलता किब छमहँ॥
कहत सनु त सित भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥
भरत के वभाव का वणन वेद के िलए भी सुगम नह है। (अतः) मेरी तु छ बुि क चंचलता को
किव लोग मा कर! भरत के स ाव को कहते-सुनते कौन मनु य सीताराम के चरण म
अनुर न हो जाएगा।
भरत का मरण करने से िजसको राम का ेम सुलभ न हआ, उसके समान वाम (अभागा) और
कौन होगा? दयालु और सुजान राम ने सभी क दशा देखकर और भ (भरत) के दय क
ि थित जानकर,
धमधुरंधर, धीर, नीित म चतुर, स य, नेह, शील और सुख के समु , नीित और ीित के पालन
करनेवाले रघुनाथ देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,
बोले बचन बािन सरबसु से। िहत प रनाम सनु त सिस रसु से॥
तात भरत तु ह धरम धरु ीना। लोक बेद िबद मे बीना॥
(तदनुसार) ऐसे वचन बोले जो मानो वाणी के सव व ही थे, प रणाम म िहतकारी थे और सुनने म
चं मा के रस (अमतृ )-सरीखे थे। (उ ह ने कहा -) हे तात भरत! तुम धम क धुरी को धारण
करनेवाले हो, लोक और वेद दोन के जाननेवाले और ेम म वीण हो।
हे तात! तुम सय
ू कुल क रीित को, स य ित िपता क क ित और ीित को, समय, समाज और
गु जन क ल जा (मयादा) को तथा उदासीन, िम और श ु सबके मन क बात को जानते हो।
तुमको सबके कम (कत य ) का और अपने तथा मेरे परम िहतकारी धम का पता है। य िप मुझे
तु हारा सब कार से भरोसा है, तथािप म समय के अनुसार कुछ कहता हँ।
तात तात िबनु बात हमारी। केवल गरु कुल कृपाँ सँभारी॥
नत जा प रजन प रवा । हमिह सिहत सबु होत खआ ु ॥
हे तात! िपता के िबना (उनक अनुपि थित म) हमारी बात केवल गु वंश क कृपा ने ही स हाल
रखी है, नह तो हमारे समेत जा, कुटुंब, प रवार सभी बबाद हो जाते।
इसे िवचारकर भारी संकट सहकर भी जा और प रवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी िवपि सभी
ने बाँट ली है, परं तु तुमको तो अविध (चौदह वष) तक बड़ी किठनाई है (सबसे अिधक दुःख है)।
तुमको कोमल जानकर भी म कठोर (िवयोग क बात) कह रहा हँ। हे तात! बुरे समय म मेरे िलए
यह कोई अनुिचत बात नह है। कुठौर (कुअवसर) म े भाई ही सहायक होते ह। व के आघात
भी हाथ से ही रोके जाते ह।
सेवक हाथ, पैर और ने के समान और वामी मुख के समान होना चािहए। तुलसीदास कहते ह
िक सेवक- वामी क ऐसी ीित क रीित सुनकर सुकिव उसक सराहना करते ह॥ 306॥
भरत को परम संतोष हआ। वामी के स मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोष ने मँुह
मोड़ िलया (वे उ ह छोड़कर भाग गए)। उनका मुख स न हो गया और मन का िवषाद िमट
ू े पर सर वती क कृपा हो गई हो।
गया। मानो गँग
उ ह ने िफर ेमपवू क णाम िकया और करकमल को जोड़कर वे बोले - हे नाथ! मुझे आपके
साथ जाने का सुख ा हो गया और मने जगत म ज म लेने का लाभ भी पा िलया।
हे कृपालु! अब जैसी आ ा हो, उसी को म िसर पर धरकर आदरपवू क क ँ ! परं तु देव! आप मुझे
वह अवलंबन (कोई सहारा) द, िजसक सेवा कर म अविध का पार पा जाऊँ (अविध को िबता दँू)।
सम त सुंदर मंगल का मल
ू भरत और राम का संवाद सुनकर वाथ देवता रघुकुल क सराहना
करके क पव ृ के फूल बरसाने लगे॥ 308॥
'भरत ध य ह, वामी राम क जय हो!' ऐसा कहते हए देवता बलपवू क (अ यिधक) हिषत होने
लगे। भरत के वचन सुनकर मुिन विश , िमिथलापित जनक और सभा म सब िकसी को बड़ा
उ साह (आनंद) हआ।
भरत राम गन
ु ाम सनेह। पलु िक संसत राउ िबदेह॥
सेवक वािम सभ े ु अित पावन पावन॥
ु ाउ सहु ावन। नेमु म
भरत और राम के गुणसमहू क तथा ेम क िवदेहराज जनक पुलिकत होकर शंसा कर रहे ह।
सेवक और वामी दोन का सुंदर वभाव है। इनके िनयम और ेम पिव को भी अ यंत पिव
करनेवाले ह।
राम मातु दख
ु ु सख ु ु सम जानी। किह गन
ु राम बोध रानी॥
एक कहिहं रघब ु ीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥
राम क माता कौस या ने दुःख और सुख को समान जानकर राम के गुण कहकर दूसरी
रािनय को धैय बँधाया। कोई राम क बड़ाई (बड़ पन) क चचा कर रहे ह, तो कोई भरत के
अ छे पन क सराहना करते ह।
े अि अस भाषा॥
पावन पाथ पु यथल राखा। मिु दत म
तात अनािद िस थल एह। लोपेउ काल िबिदत निहं केह॥
तब (भरत के) सेवक ने उस जलयु थान को देखा और उस सुंदर (तीथ के) जल के िलए
एक खास कुआँ बना िलया। दैवयोग से िव भर का उपकार हो गया। धम का िवचार जो अ यंत
अगम था, वह (इस कूप के भाव से) सुगम हो गया।
कूप क मिहमा कहते हए सब लोग वहाँ गए जहाँ रघुनाथ थे। रघुनाथ को अि ने उस तीथ का
पु य भाव सुनाया॥ 310॥
ेमपवू क धम के इितहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-श ु न दोन
भाई िन यि या परू ी करके, राम, अि और गु विश क आ ा पाकर,
समाज सिहत सब सादे साज से राम के वन म मण ( दि णा) करने के िलए पैदल ही चले।
कोमल चरण ह और िबना जतू े के चल रहे ह, यह देखकर प ृ वी मन-ही-मन सकुचाकर कोमल
हो गई।
कुश, काँटे, कंकड़ी, दरार आिद कड़वी, कठोर और बुरी व तुओ ं को िछपाकर प ृ वी ने सुंदर और
कोमल माग कर िदए। सुख को साथ िलए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी।
दो० - सल
ु भ िसि सब ाकृतह राम कहत जमहु ात।
राम ानि य भरत कहँ यह न होइ बिड़ बात॥ 311॥
जब एक साधारण मनु य को भी (आल य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब िसि याँ
सुलभ हो जाती ह, तब राम के ाण यारे भरत के िलए यह कोई बड़ी (आ य क ) बात नह है॥
311॥
इस कार भरत वन म िफर रहे ह। उनके िनयम और ेम को देखकर मुिन भी सकुचा जाते ह।
पिव जल के थान (नदी, बावली, कुंड आिद) प ृ वी के पथ
ृ क-पथ
ृ क भाग, प ी, पशु, व ृ , तण
ृ
(घास), पवत, वन और बगीचे -
भरत के वभाव, ेम और सुंदर सेवाभाव को देखकर वनदेवता आनंिदत होकर आशीवाद देते ह।
य घमू -िफरकर ढाई पहर िदन बीतने पर लौट पड़ते ह और आकर भु रघुनाथ के चरणकमल
का दशन करते ह।
भरत ने पाँच िदन म सब तीथ थान के दशन कर िलए। भगवान िव णु और महादेव का सुंदर
यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) िदन भी बीत गया, सं या हो गई॥ 312॥
गरु नप
ृ भरत सभा अवलोक । सकुिच राम िफ र अविन िबलोक ॥
सील सरािह सभा सब सोची। कहँ न राम सम वािम सँकोची॥
राम ने गु विश , राजा जनक, भरत और सारी सभा क ओर देखा, िकंतु िफर सकुचाकर ि
फेरकर वे प ृ वी क ओर ताकने लगे। सभा उनके शील क सराहना करके सोचती है िक राम के
समान संकोची वामी कह नह है।
सुजान भरत राम का ख देखकर ेमपवू क उठकर, िवशेष प से धीरज धारण कर दंडवत
करके हाथ जोड़कर कहने लगे - हे नाथ! आपने मेरी सभी िचयाँ रख ।
मेरे िलए सब लोग ने संताप सहा और आपने भी बहत कार से दुःख पाया। अब वामी मुझे
आ ा द। म जाकर अविधभर (चौदह वष तक) अवध का सेवन क ँ ।
हे दीनदयालु! िजस उपाय से यह दास िफर चरण का दशन करे - हे कोसलाधीश! हे कृपालु!
अविधभर के िलए मुझे वही िश ा दीिजए॥ 313॥
वािम सज
ु ानु जािन सब ही क । िच लालसा रहिन जन जी क ॥
नतपालु पािलिह सब काह। देउ दहु िदिस ओर िनबाह॥
हे वामी! आप सुजान ह, सभी के दय क और मुझ सेवक के मन क िच, लालसा
(अिभलाषा) और रहनी जानकर, हे णतपाल! आप सब िकसी का पालन करगे और हे देव! दोन
ओर अंत तक िनबाहगे।
मुझे सब कार से ऐसा बहत बड़ा भरोसा है। िवचार करने पर ितनके के बराबर (जरा-सा) भी
सोच नह रह जाता! मेरी दीनता और वामी का नेह दोन ने िमलकर मुझे जबरद ती ढीठ बना
िदया है।
हे वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच याग कर मुझ सेवक को िश ा दीिजए। दूध और
जल को अलग-अलग करने म हंिसनी क -सी गितवाली भरत क िवनती सुनकर उसक सभी ने
शंसा क ।
दीनबंधु और परम चतुर राम ने भाई भरत के दीन और छलरिहत वचन सुनकर देश, काल और
अवसर के अनुकूल वचन बोले - ॥ 314॥
मेरा और तु हारा तो परम पु षाथ, वाथ, सुयश, धम और परमाथ इसी म है िक हम दोन भाई
िपता क आ ा का पालन कर। राजा क भलाई (उनके त क र ा) से ही लोक और वेद दोन
म भला है।
गरु िपतु मातु वािम िसख पाल। चलेहँ कुमग पग परिहं न खाल॥
अस िबचा र सब सोच िबहाई। पालह अवध अविध भ र जाई॥
देश, खजाना, कुटुंब, प रवार आिद सबक िज मेदारी तो गु क चरण रज पर है। तुम तो मुिन
विश , माताओं और मंि य क िश ा मानकर तदनुसार प ृ वी, जा और राजधानी का पालन
(र ा) भर करते रहना।
दो० - मिु खआ मख
ु ु सो चािहऐ खान पान कहँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तल ु सी सिहत िबबेक॥ 315॥
तुलसीदास कहते ह - (राम ने कहा -) मुिखया मुख के समान होना चािहए, जो खाने-पीने को
तो एक (अकेला) है, परं तु िववेकपवू क सब अंग का पालन-पोषण करता है॥ 315॥
राजधम का सव व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ िछपा रहता है। रघुनाथ ने
भाई भरत को बहत कार से समझाया, परं तु कोई अवलंबन पाए िबना उनके मन म न संतोष
हआ, न शांित।
भरत सील गरु सिचव समाजू। सकुच सनेह िबबस रघरु ाजू॥
भु क र कृपा पाँवर दी ह । सादर भरत सीस ध र ली ह ॥
इधर तो भरत का शील ( ेम) और उधर गु जन , मंि य तथा समाज क उपि थित! यह देखकर
रघुनाथ संकोच तथा नेह के िवशेष वशीभत ू हो गए। (अथात भरत के ेमवश उ ह पाँवरी देना
चाहते ह, िकंतु साथ ही गु आिद का संकोच भी होता है।) आिखर (भरत के ेमवश) भु राम ने
कृपा कर खड़ाऊँ दे द और भरत ने उ ह आदरपवू क िसर पर धारण कर िलया।
भरत ने णाम करके िवदा माँगी, तब राम ने उ ह दय से लगा िलया। इधर कुिटल इं ने बुरा
मौका पाकर लोग का उ चाटन कर िदया॥ 316॥
वह कुचाल भी सबके िलए िहतकर हो गई। अविध क आशा के समान ही वह जीवन के िलए
संजीवनी हो गई। नह तो (उ चाटन न होता तो) ल मण, सीता और राम के िवयोग पी बुरे रोग
से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते।
रामकृपाँ अवरे ब सध
ु ारी। िबबध
ु धा र भइ गनु द गोहारी॥
भटत भजु भ र भाइ भरत सो। राम म े रसु न किह न परत सो॥
राम क कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं क सेना जो लटू ने आई थी, वही गुणदायक
(िहतकरी) और र क बन गई। राम भुजाओं म भरकर भाई भरत से िमल रहे ह। राम के ेम का
वह रस (आनंद) कहते नह बनता।
तन, मन और वचन तीन म ेम उमड़ पड़ा। धीरज क धुरी को धारण करनेवाले रघुनाथ ने भी
धीरज याग िदया। वे कमल स श ने से ( ेमा ुओ ं का) जल बहाने लगे। उनक यह दशा
देखकर देवताओं क सभा (समाज) दुःखी हो गई।
मिु नगन गरु धरु धीर जनक से। यान अनल मन कस कनक से॥
जे िबरं िच िनरलेप उपाए। पदम
ु प िजिम जग जल जाए॥
वे भी राम और भरत के उपमारिहत अपार ेम को देखकर वैरा य और िववेक सिहत तन, मन,
वचन से उस ेम म म न हो गए॥ 317॥
जहाँ जनक गु गित मित भोरी। ाकृत ीित कहत बिड़ खोरी॥
बरनत रघबु र भरत िबयोगू। सिु न कठोर किब जािनिह लोगू॥
जहाँ जनक और गु विश क बुि क गित कंु िठत हो, उस िद य ेम को ाकृत (लौिकक)
कहने म बड़ा दोष है। राम और भरत के िवयोग का वणन करते सुनकर लोग किव को कठोर
दय समझगे।
वह संकोच-रस अकथनीय है। अतएव किव क संुदर वाणी उस समय उसके ेम को मरण करके
सकुचा गई। भरत को भट कर रघुनाथ ने उनको समझाया। िफर हिषत होकर श ु न को दय से
लगा िलया।
िफर ल मण को मशः भटकर तथा णाम करके और सीता के चरण क धिू ल को िसर पर
धारण करके और सम त मंगल के मल
ू आशीवाद सुनकर वे ेमसिहत चले॥ 318॥
सानज ु राम नप
ृ िह िसर नाई। क ि ह बहत िबिध िबनय बड़ाई॥
देव दया बस बड़ दख ु ु पायउ। सिहत समाज काननिहं आयउ॥
छोटे भाई ल मण समेत राम ने राजा जनक को िसर नवाकर उनक बहत कार से िवनती और
बड़ाई क (और कहा -) हे देव! दयावश आपने बहत दुःख पाया। आप समाज सिहत वन म आए।
अब आशीवाद देकर नगर को पधा रए। यह सुन राजा जनक ने धीरज धरकर गमन िकया। िफर
राम ने मुिन, ा ण और साधुओ ं को िव णु और िशव के समान जानकर स मान करके उनको
िवदा िकया।
तब राम-ल मण दोन भाई सास (सुनयना) के पास गए और उनके चरण क वंदना करके
आशीवाद पाकर लौट आए। िफर िव ािम , वामदेव, जाबािल और शुभ आचरणवाले कुटुंबी, नगर
िनवासी और मं ी -
सबको छोटे भाई ल मण सिहत राम ने यथायो य िवनय एवं णाम करके िवदा िकया।
कृपािनधान राम ने छोटे, म यम (मझले) और बड़े सभी ेणी के ी-पु ष का स मान करके
उनको लौटाया।
भरत क माता कैकेयी के चरण क वंदना करके भु राम ने पिव (िन छल) ेम के साथ उनसे
िमल-भट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को िमटाकर पालक सजाकर उनको िवदा
िकया॥ 319॥
े पन
प रजन मातु िपतिह िमिल सीता। िफरी ानि य म ु ीता॥
क र नामु भट सब सासू। ीित कहत किब िहयँ न हलासू॥
ाणि य पित राम के साथ पिव ेम करनेवाली सीता नैहर के कुटुंिबय से तथा माता-िपता से
िमलकर लौट आई ं। िफर णाम करके सब सासुओ ं से गले लगकर िमल । उनके ेम का वणन
करने के िलए किव के दय म हलास (उ साह) नह होता।
सिु न िसख अिभमत आिसष पाई। रही सीय दहु ीित समाई॥
रघप ु ित पटु पालक मगाई ं। क र बोध सब मातु चढ़ाई ं॥
उनक िश ा सुनकर और मनचाहा आशीवाद पाकर सीता सासुओ ं तथा माता-िपता दोन ओर
क ीित म समाई (बहत देर तक िनम न) रह ! (तब) रघुनाथ ने सुंदर पालिकयाँ मँगवाई ं और
सब माताओं को आ ासन देकर उन पर चढ़ाया।
दोन भाइय ने माताओं से समान ेम से बार-बार िमल-जुलकर उनको पहँचाया। भरत और राजा
जनक के दल ने घोड़े , हाथी और अनेक तरह क सवा रयाँ सजाकर थान िकया।
सीता एवं ल मण सिहत राम को दय म रखकर सब लोग बेसुध हए चले जा रहे ह। बैल-घोड़े ,
हाथी आिद पशु दय म हारे (िशिथल) हए परवश मन मारे चले जा रहे ह।
िफर स मान करके िनषादराज को िवदा िकया। वह चला तो सही, िकंतु उसके दय म िवरह का
भारी िवषाद था। िफर राम ने कोल, िकरात, भील आिद वनवासी लोग को लौटाया। वे सब जोहार-
जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे।
रघुनाथ क दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर क दशा कही (दुखड़ा
सुनाया)। भु राम ने उ ह णाम कर आ ासन िदया। तब वे स न होकर चले, मन म जरा-सा
भी डर न रहा।
दो० - सानज
ु सीय समेत भु राजत परन कुटीर।
भगित यानु बैरा य जनु सोहत धर सरीर॥ 321॥
छोटे भाई ल मण और सीता समेत भु राम पणकुटी म ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो वैरा य, भि
और ान शरीर धारण करके शोिभत हो रहे ह ॥ 321॥
मुिन, ा ण, गु विश , भरत और राजा जनक - सारा समाज राम के िवरह म िव ल है। भु
के गुणसमहू का मन म मरण करते हए सब लोग माग म चुपचाप चले जा रहे ह।
(पहले िदन) सब लोग यमुना उतरकर पार हए। वह िदन िबना भोजन के ही बीत गया। दूसरा
मुकाम गंगा उतरकर (गंगापार ंग
ृ वेरपुर म) हआ। वहाँ राम सखा िनषादराज ने सब सु बंध कर
िदया।
तथा मं ी, गु तथा भरत को रा य स पकर, सारा साज-सामान ठीक करके ितरहत को चले।
नगर के ी-पु ष गु क िश ा मानकर राम क राजधानी अयो या म सुखपवू क रहने लगे।
सब लोग राम के दशन के िलए िनयम और उपवास करने लगे। वे भषू ण और भोग-सुख को
छोड़-छाड़कर अविध क आशा पर जी रहे ह॥ 322॥
भरत ने िफर प रवार के लोग को, नाग रक को तथा अ य जा को बुलाकर, उनका समाधान
करके उनको सुखपवू क बसाया। िफर छोटे भाई श ु न सिहत वे गु के घर गए और दंडवत
करके हाथ जोड़कर बोले -
दो० - सिु न िसख पाइ असीस बिड़ गनक बोिल िदनु सािध।
िसंघासन भु पादक ु ा बैठारे िन पािध॥ 323॥
जटाजूट िसर मिु नपट धारी। मिह खिन कुस साँथरी सँवारी॥
असन बसन बासन त नेमा। करत किठन रिषधरम स म े ा॥
तेिहं परु बसत भरत िबनु रागा। चंचरीक िजिम चंपक बागा॥
रमा िबलासु राम अनरु ागी। तजत बमन िजिम जन बड़भागी॥
उसी अयो यापुरी म भरत अनास होकर इस कार िनवास कर रहे ह, जैसे चंपा के बाग म
भ रा। राम के ेमी बड़भागी पु ष ल मी के िवलास (भोगै य) को वमन क भाँित याग देते ह
(िफर उसक ओर ताकते भी नह )।
भरत का शरीर िदन -िदन दुबला होता जाता है। तेज (अ न, घतृ आिद से उ प न होनेवाला मेद)
घट रहा है। बल और मुख छिव (मुख क कांित अथवा शोभा) वैसी ही बनी हई है। राम ेम का ण
िन य नया और पु होता है, धम का दल बढ़ता है और मन उदास नह है (अथात स न है)।
जैसे शरद ऋतु के काश (िवकास) से जल घटता है, िकंतु बत शोभा पाते ह और कमल िवकिसत
होते ह। शम, दम, संयम, िनयम और उपवास आिद भरत के दय पी िनमल आकाश के न
(तारागण) ह।
व
ु िब वासु अविध राका सी। वािम सरु ित सरु बीिथ िबकासी॥
राम म े िबधु अचल अदोषा। सिहत समाज सोह िनत चोखा॥
िव ास ही (उस आकाश म) ुव तारा है, चौदह वष क अविध (का यान) पिू णमा के समान है
और वामी राम क सुरित ( मिृ त) आकाशगंगा-सरीखी कािशत है। राम ेम ही अचल (सदा
रहनेवाला) और कलंकरिहत चं मा है। वह अपने समाज (न ) सिहत िन य सुंदर सुशोिभत है।
भरत क रहनी, समझ, करनी, भि , वैरा य, िनमल, गुण और ऐ य का वणन करने म सभी
सुकिव सकुचाते ह; य िक वहाँ (और क तो बात ही या) वयं शेष, गणेश और सर वती क
भी पहँच नह है।
शरीर पुलिकत है, दय म सीताराम ह। जीभ राम-नाम जप रही है, ने म ेम का जल भरा है।
ल मण, राम और सीता तो वन म बसते ह, परं तु भरत घर ही म रहकर तप के ारा शरीर को
कस रहे ह।
दोउ िदिस समिु झ कहत सबु लोगू। सब िबिध भरत सराहन जोगू॥
सिु न त नेम साधु सकुचाह । देिख दसा मिु नराज लजाह ॥
परम पन
ु ीत भरत आचरनू। मधरु मंजु मदु मंगल करनू॥
हरन किठन किल कलष ु कलेसू। महामोह िनिस दलन िदनेसू॥
भरत का परम पिव आचरण (च र ) मधुर, सुंदर और आनंद-मंगल का करनेवाला है। किलयुग
के किठन पाप और लेश को हरनेवाला है। महामोह पी राि को न करने के िलए सय ू के
समान है।
पाप पंज
ु कंु जर मग
ृ राजू। समन सकल संताप समाजू॥
जन रं जन भंजन भव भा । राम सनेह सधु ाकर सा ॥
पाप समहू पी हाथी के िलए िसंह है। सारे संताप के दल का नाश करनेवाला है। भ को आनंद
देनेवाला और भव के भार (संसार के दुःख) का भंजन करनेवाला तथा राम ेम पी चं मा का
सार (अमत ृ ) है।
किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करनेवाले ी रामच रतमानस का यह दूसरा सोपान समा
हआ॥
िजनका शरीर जलयु मेघ के समान सुंदर ( यामवण) एवं आनंदघन है, जो सुंदर (व कल का)
पीत व धारण िकए ह, िजनके हाथ म बाण और धनुष ह, कमर उ म तरकस के भार से
सुशोिभत है, कमल के समान िवशाल ने ह और म तक पर जटाजटू धारण िकए ह, उन अ यंत
शोभायमान सीता और ल मण सिहत माग म चलते हए आनंद देनेवाले राम को म भजता हँ॥ 2॥
पुरवािसय के और भरत के अनुपम और सुंदर ेम का मने अपनी बुि के अनुसार गान िकया।
अब देवता, मनु य और मुिनय के मन को भानेवाले भु राम के वे अ यंत पिव च र सुनो,
िज ह वे वन म कर रहे ह।
एक बार चिु न कुसम
ु सहु ाए। िनज कर भूषन राम बनाए॥
सीतिह पिहराए भु सादर। बैठे फिटक िसला पर संदु र॥
एक बार सुंदर फूल चुनकर राम ने अपने हाथ से भाँित-भाँित के गहने बनाए और सुंदर फिटक
िशला पर बैठे हए भु ने आदर के साथ वे गहने सीता को पहनाए।
सरु पित सत
ु ध र बायस बेषा। सठ चाहत रघप
ु ित बल देखा॥
िजिम िपपीिलका सागर थाहा। महा मंदमित पावन चाहा॥
ू , मंद बुि कारण से (भगवान के बल क परी ा करने के िलए) बना हआ कौआ सीता के
वह मढ़
चरण म च च मारकर भागा। जब र बह चला, तब रघुनाथ ने जाना और धनुष पर स क
(सरकंडे ) का बाण संधान िकया।
रघुनाथ, जो अ यंत ही कृपालु ह और िजनका दीन पर सदा ेम रहता है, उनसे भी उस अवगुण
के घर मखू जयंत ने आकर छल िकया॥ 1॥
मं से े रत होकर वह बाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली प
धरकर िपता इं के पास गया, पर राम का िवरोधी जानकर इं ने उसको नह रखा।
(पर रखना तो दूर रहा) िकसी ने उसे बैठने तक के िलए नह कहा। राम के ोही को कौन रख
सकता है? (काकभुशुंिड कहते ह -) है ग ड़! सुिनए, उसके िलए माता म ृ यु के समान, िपता
यमराज के समान और अमत ृ िवष के समान हो जाता है।
िम सैकड़ श ुओ ं क -सी करनी करने लगता है। देवनदी गंगा उसके िलए वैतरणी (यमपुरी क
नदी) हो जाती है। हे भाई! सुिनए, जो रघुनाथ के िवमुख होता है, सम त जगत उनके िलए अि न
से भी अिधक गरम (जलानेवाला) हो जाता है।
नारद ने जयंत को याकुल देखा तो उ ह दया आ गई; य िक संत का िच बड़ा कोमल होता
है। उ ह ने उसे (समझाकर) तुरंत राम के पास भेज िदया। उसने (जाकर) पुकारकर कहा – हे
शरणागत के िहतकारी! मेरी र ा क िजए।
आतुर और भयभीत जयंत ने जाकर राम के चरण पकड़ िलए (और कहा - ) हे दयालु रघुनाथ!
र ा क िजए। आपके अतुिलत बल और आपक अतुिलत भुता (साम य) को म मंद बुि जान
नह पाया था।
उसने मोहवश ोह िकया था, इसिलए य िप उसका वध ही उिचत था, पर भु ने कृपा करके उसे
छोड़ िदया। राम के समान कृपालु और कौन होगा?॥ 2॥
रघप
ु ित िच कूट बिस नाना। च रत िकए ुित सध ु ा समाना॥
बह र राम अस मन अनम ु ाना। होइिह भीड़ सबिहं मोिह जाना॥
(इसिलए) सब मुिनय से िवदा लेकर सीता सिहत दोन भाई चले! जब भु अि के आ म म गए,
तो उनका आगमन सुनते ही महामुिन हिषत हो गए।
पल
ु िकत गात अि उिठ धाए। देिख रामु आतरु चिल आए॥
े बा र ौ जन अ हवाए॥
करत दंडवत मिु न उर लाए। म
शरीर पुलिकत हो गया, अि उठकर दौड़े । उ ह दौड़े आते देखकर राम और भी शी ता से चले
आए। दंडवत करते हए ही राम को (उठाकर) मुिन ने दय से लगा िलया और ेमा ुओ ं के जल से
दोन जन को (दोन भाइय को) नहला िदया।
भु आसन पर िवराजमान ह। ने भरकर उनक शोभा देखकर परम वीण मुिन े हाथ
जोड़कर तुित करने लगे - ॥ 3॥
आप िनतांत सुंदर याम, संसार (आवागमन) पी समु को मथने के िलए मंदराचल प, फूले
हए कमल के समान ने वाले और मद आिद दोष से छुड़ानेवाले ह।
हे भो! आपक लंबी भुजाओं का परा म और आपका ऐ य अ मेय (बुि के परे अथवा असीम)
है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करनेवाले तीन लोक के वामी,
सयू वंश के भषू ण, महादेव के धनुष को तोड़नेवाले, मुिनराज और संत को आनंद देनेवाले तथा
देवताओं के श ु असुर के समहू का नाश करनेवाले ह।
जो मनु य म सर (डाह) रिहत होकर आपके चरण कमल का सेवन करते ह, वे तक-िवतक
(अनेक कार के संदेह) पी तरं ग से पण
ू संसार पी समु म नह िगरते (आवागमन के
च कर म नह पड़ते)।
हे अनुपम सुंदर! हे प ृ वीपित! हे जानक नाथ! म आपको णाम करता हँ। मुझ पर स न होइए,
म आपको नम कार करता हँ। मुझे अपने चरण कमल क भि दीिजए।
मुिन ने (इस कार) िवनती करके और िफर िसर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा - हे नाथ! मेरी
बुि आपके चरण कमल को कभी न छोड़े ॥ 4॥
हे राजकुमारी! सुिनए - माता, िपता, भाई सभी िहत करनेवाले ह, परं तु ये सब एक सीमा तक ही
(सुख) देनेवाले ह, परं तु हे जानक ! पित तो (मो प) असीम (सुख) देनेवाला है। वह ी
अधम है, जो ऐसे पित क सेवा नह करती।
ऐसे भी पित का अपमान करने से ी यमपुर म भाँित-भाँित के दुःख पाती है। शरीर, वचन और
मन से पित के चरण म ेम करना ी के िलए, बस, यह एक ही धम है, एक ही त है और एक
ही िनयम है।
जगत म चार कार क पित ताएँ ह। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते ह िक उ म ेणी क
पित ता के मन म ऐसा भाव बसा रहता है िक जगत म (मेरे पित को छोड़कर) दूसरा पु ष व न
म भी नह है।
और जो ी मौका न िमलने से या भयवश पित ता बनी रहती है, जगत म उसे अधम ी
जानना। पित को धोखा देनेवाली जो ी पराए पित से रित करती है, वह तो सौ क प तक रौरव
नरक म पड़ी रहती है।
िकंतु जो पित के ितकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर ज म लेती है, वह जवानी पाकर (भरी
जवानी म) िवधवा हो जाती है।
ी ज म से ही अपिव है, िकंतु पित क सेवा करके वह अनायास ही शुभ गित ा कर लेती है।
(पित त धम के कारण ही) आज भी 'तुलसी' भगवान को ि य ह और चार वेद उनका यश गाते
ह॥ 5(क)॥
सन
ु ु सीता तव नाम सिु म र ना र पित त करिहं।
तोिह ानि य राम किहउँ कथा संसार िहत॥ 5(ख)॥
हे सीता! सुनो, तु हारा तो नाम ही ले-लेकर ि याँ पित त धम का पालन करगी। तु ह तो राम
ाण के समान ि य ह, यह (पित त धम क ) कथा तो मने संसार के िहत के िलए कही है॥
5(ख)॥
सिु न जानक परम सखु ु पावा। सादर तासु चरन िस नावा॥
तब मिु न सन कह कृपािनधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥
जानक ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपवू क उनके चरण म िसर नवाया। तब कृपा क
खान राम ने मुिन से कहा - आ ा हो तो अब दूसरे वन म जाऊँ।
मुझ पर िनरं तर कृपा करते रिहएगा और अपना सेवक जानकर नेह न छोिड़एगा। धम धुरंधर
भु राम के वचन सुनकर ानी मुिन ेमपवू क बोले -
ा, िशव और सनकािद सभी परमाथवादी (त ववे ा) िजनक कृपा चाहते ह, हे राम! आप वही
िन काम पु ष के भी ि य और दीन के बंधु भगवान ह, जो इस कार कोमल वचन बोल रहे ह।
मुिन अ यंत ेम से पण
ू ह, उनका शरीर पुलिकत है और ने को राम के मुखकमल म लगाए
हए ह। (मन म िवचार रहे ह िक) मने ऐसे कौन-से जप-तप िकए थे, िजसके कारण मन, ान,
गुण और इंि य से परे भु के दशन पाए। जप, योग और धम-समहू से मनु य अनुपम भि को
पाता है। रघुवीर के पिव च र को तुलसीदास रात-िदन गाता है।
यह किठन किल काल पाप का खजाना है; इसम न धम है, न ान है और न योग तथा जप ही
है। इसम तो जो लोग सब भरोस को छोड़कर राम को ही भजते ह, वे ही चतुर ह॥ 6(ख)॥
मुिन के चरण कमल म िसर नवाकर देवता, मनु य और मुिनय के वामी राम वन को चले।
आगे राम ह और उनके पीछे छोटे भाई ल मण ह। दोन ही मुिनय का सुंदर वेष बनाए अ यंत
सुशोिभत ह।
दोन के बीच म ी जानक कैसी सुशोिभत ह, जैसे और जीव के बीच माया हो। नदी, वन,
पवत और दुगम घािटयाँ, सभी अपने वामी को पहचानकर सुंदर रा ता दे देते ह।
जहँ जहँ जािहं देव रघरु ाया। करिहं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
िमला असरु िबराध मग जाता। आवतह रघब ु ीर िनपाता॥
जहाँ-जहाँ देव रघुनाथ जाते ह, वहाँ-वहाँ बादल आकाश म छाया करते जाते ह। रा ते म जाते हए
िवराध रा स िमला। सामने आते ही रघुनाथ ने उसे मार डाला।
(राम के हाथ से मरते ही) उसने तुरंत संुदर (िद य) प ा कर िलया। दुःखी देखकर भु ने
उसे अपने परम धाम को भेज िदया। िफर वे सुंदर छोटे भाई ल मण और सीता के साथ वहाँ आए
जहाँ मुिन शरभंग थे।
दो० - देिख राम मख
ु पंकज मिु नबर लोचन भंग
ृ ।
सादर पान करत अित ध य ज म सरभंग॥ 7॥
कह मिु न सन ु ु रघब
ु ीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ िबरं िच के धामा। सन
ु उे ँ वन बन ऐहिहं रामा॥
तब से म िदन-रात आपक राह देखता रहा हँ। अब (आज) भु को देखकर मेरी छाती शीतल हो
गई। हे नाथ! म सब साधन से हीन हँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा क है।
हे देव! यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नह है। हे भ -मनचोर! ऐसा करके आपने अपने ण
क ही र ा क है। अब इस दीन के क याण के िलए तब तक यहाँ ठह रए, जब तक म शरीर
छोड़कर आपसे (आपके धाम म न) िमलँ।ू
योग, य , जप, तप जो कुछ त आिद भी मुिन ने िकया था, सब भु को समपण करके बदले म
भि का वरदान ले िलया। इस कार (दुलभ भि ा करके िफर) िचता रचकर मुिन शरभंग
दय से सब आसि छोड़कर उस पर जा बैठे।
हे नीले मेघ के समान याम शरीरवाले सगुण प ी राम! सीता और छोटे भाई ल मण सिहत
भु (आप) िनरं तर मेरे दय म िनवास क िजए॥ 8॥
ऐसा कहकर शरभंग ने योगाि न से अपने शरीर को जला डाला और राम क कृपा से वे बैकुंठ
को चले गए। मुिन भगवान म लीन इसिलए नह हए िक उ ह ने पहले ही भेद-भि का वर ले
िलया था।
ऋिष समहू मुिन े शरभंग क यह (दुलभ) गित देखकर अपने दय म िवशेष प से सुखी
हए। सम त मुिनवंदृ राम क तुित कर रहे ह (और कह रहे ह) शरणागत िहतकारी क णाकंद
(क णा के मल ू ) भु क जय हो!
पिु न रघन
ु ाथ चले बन आगे। मिु नबर बंदृ िबपल
ु सँग लागे॥
अि थ समूह देिख रघरु ाया। पूछी मिु न ह लािग अित दाया॥
िफर रघुनाथ आगे वन म चले। े मुिनय के बहत-से समहू उनके साथ हो िलए। हड्िडय का
ढे र देखकर रघुनाथ को बड़ी दया आई, उ ह ने मुिनय से पछ
ू ा।
मिु न अगि त कर िस य सज
ु ाना। नाम सत
ु ीछन रित भगवाना॥
मन म बचन राम पद सेवक। सपनेहँ आन भरोस न देवक॥
मुिन अग य के एक सुती ण नामक सुजान ( ानी) िश य थे, उनक भगवान म ीित थी। वे
मन, वचन और कम से राम के चरण के स&##2375;वक थे। उ ह व न म भी िकसी दूसरे
देवता का भरोसा नह था।
भु आगवनु वन सिु न पावा। करत मनोरथ आतरु धावा॥
हे िबिध दीनबंधु रघरु ाया। मो से सठ पर क रहिहं दाया॥
या वामी राम छोटे भाई ल मण सिहत मुझसे अपने सेवक क तरह िमलगे? मेरे दय म ढ़
िव ास नह होता; य िक मेरे मन म भि , वैरा य या ान कुछ भी नह है।
होइह सफ
ु ल आजु मम लोचन। देिख बदन पंकज भव मोचन॥
िनभर म े मगन मिु न यानी। किह न जाइ सो दसा भवानी॥
(भगवान क इस बान का मरण आते ही मुिन आनंदम न होकर मन-ही-मन कहने लगे -)
अहा! भव बंधन से छुड़ानेवाले भु के मुखारिवंद को देखकर आज मेरे ने सफल ह गे। (िशव
कहते ह - ) हे भवानी! ानी मुिन ेम म पणू प से िनम न ह। उनक वह दशा कही नह जाती।
उ ह िदशा-िविदशा (िदशाएँ और उनके कोण आिद) और रा ता, कुछ भी नह सझ ू रहा है। म कौन
हँ और कहाँ जा रहा हँ, यह भी नह जानते (इसका भी ान नह है)। वे कभी पीछे घम
ू कर िफर
आगे चलने लगते ह और कभी ( भु के) गुण गा-गाकर नाचने लगते ह।
( दय म भु के दशन पाकर) मुिन बीच रा ते म अचल (ि थर) होकर बैठ गए। उनका शरीर
रोमांच से कटहल के फल के समान (क टिकत) हो गया। तब रघुनाथ उनके पास चले आए और
अपने भ क ेम दशा देखकर मन म बहत स न हए।
तब (अपने ई व प के अंतधान होते ही) मुिन कैसे याकुल होकर उठे , जैसे े (मिणधर)
सप मिण के िबना याकुल हो जाता है। मुिन ने अपने सामने सीता और ल मण सिहत यामसुंदर
िव ह सुखधाम राम को देखा।
कृपालु राम मुिन से िमलते हए ऐसे शोिभत हो रहे ह, मानो सोने के व ृ से तमाल का व ृ गले
लगकर िमल रहा हो। मुिन (िन त ध) खड़े हए (टकटक लगाकर) राम का मुख देख रहे ह,
मानो िच म िलखकर बनाए गए ह ।
कह मिु न भु सन
ु ु िबनती मोरी। अ तिु त कर कवन िबिध तोरी॥
मिहमा अिमत मो र मित थोरी। रिब स मख ु ख ोत अँजोरी॥
मुिन कहने लगे - हे भो! मेरी िवनती सुिनए। म िकस कार से आपक तुित क ँ ? आपक
मिहमा अपार है और मेरी बुि अ प है। जैसे सय
ू के सामने जुगनू का उजाला!
िनगण
ु सगण
ु िवषम सम पं। ान िगरा गोतीतमनूपं॥
अमलमिखलमनव मपारं । नौिम राम भंजन मिह भारं ॥
अतिु लत भज
ु ताप बल धामः। किल मल िवपल ु िवभंजन नामः॥
धम वम नमद गणु ामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥
िजनक भुजाओं का ताप अतुलनीय है, जो बल के धाम ह, िजनका नाम किलयुग के बड़े भारी
पाप का नाश करनेवाला है, जो धम के कवच (र क) ह और िजनके गुणसमहू आनंद देनेवाले
ह, वे राम िनरं तर मेरे क याण का िव तार कर।
(और कहा - ) हे मुिन! मुझे परम स न जानो। जो वर माँगो, वही म तु ह दँू! मुिन सुती ण ने
कहा - मने तो वर कभी माँगा ही नह । मुझे समझ ही नह पड़ता िक या झठ ू है और या स य
है, ( या माँग,ू या नह )।
तु हिह नीक लागै रघरु ाई। सो मोिह देह दास सखु दाई॥
अिबरल भगित िबरित िब याना। होह सकल गन ु यान िनधाना॥
((अतः) हे रघुनाथ! हे दास को सुख देनेवाले! आपको जो अ छा लगे, मुझे वही दीिजए। (राम ने
कहा - हे मुने!) तुम गाढ़ भि , वैरा य, िव ान और सम त गुण तथा ान के िनधान हो
जाओ।
(तब मुिन बोले - ) भु ने जो वरदान िदया, वह तो मने पा िलया। अब मुझे जो अ छा लगता है,
वह दीिजए -
दो० - अनज
ु जानक सिहत भु चाप बान धर राम।
मन िहय गगन इं दु इव बसह सदा िनहकाम॥ 11॥
हे भो! हे राम! छोटे भाई ल मण और सीता सिहत धनुष-बाणधारी आप िन काम (ि थर) होकर
मेरे दय पी आकाश म चं मा क भाँित सदा िनवास क िजए॥ 11॥
'एवम तु' (ऐसा ही हो) ऐसा उ चारण कर ल मीिनवास राम हिषत होकर अग य ऋिष के पास
चले। (तब सुती ण बोले - ) गु अग य का दशन पाए और इस आ म म आए मुझे बहत िदन
हो गए।
अब म भी भु (आप) के साथ गु के पास चलता हँ। इसम हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान
नह है। मुिन क चतुरता देखकर कृपा के भंडार राम ने उनको साथ ले िलया और दोनो भाई
हँसने लगे।
हे नाथ! अयो या के राजा दशरथ के कुमार जगदाधार राम छोटे भाई ल मण और सीता सिहत
आपसे िमलने आए ह, िजनका हे देव! आप रात-िदन जप करते रहते ह।
ानी मुिन ने आदरपवू क कुशल पछ ू कर उनको लाकर े आसन पर बैठाया। िफर बहत कार
से भु क पज ू ा करके कहा - मेरे समान भा यवान आज दूसरा कोई नह है।
वहाँ जहाँ तक (िजतने भी) अ य मुिनगण थे, सभी आनंदकंद राम के दशन करके हिषत हो गए।
मुिनय के समहू म राम सबक ओर स मुख होकर बैठे ह (अथात येक मुिन को राम अपने ही
सामने मुख करके बैठे िदखाई देते ह और सब मुिन टकटक लगाए उनके मुख को देख रहे ह)।
ऐसा जान पड़ता है मानो चकोर का समुदाय शर पिू णमा के चं मा क ओर देख रहा हो॥ 12॥
तब राम ने मुिन से कहा - हे भो! आप से तो कुछ िछपाव है नह । म िजस कारण से आया हँ, वह
आप जानते ही ह। इसी से हे तात! मने आपसे समझाकर कुछ नह कहा।
हे भो! एक परम मनोहर और पिव थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे भो! आप दंडक-वन
को (जहाँ पंचवटी है) पिव क िजए और े मुिन गौतम के कठोर शाप को हर लीिजए।
वहाँ ग ृ राज जटायु से भट हई। उसके साथ बहत कार से ेम बढ़ाकर भु राम गोदावरी के
समीप पणकुटी छाकर रहने लगे॥ 13॥
जब से राम ने वहाँ िनवास िकया तब से मुिन सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पवत, वन,
नदी और तालाब शोभा से छा गए। वे िदन िदन अिधक सुहावने (मालम ू ) होने लगे।
प ी और पशुओ ं के समहू आनंिदत रहते ह और भ रे मधुर गुंजार करते हए शोभा पा रहे ह। जहाँ
य राम िवराजमान ह, उस वन का वणन सपराज शेष भी नह कर सकते।
मोिह समझ
ु ाइ कहह सोइ देवा। सब तिज कर चरन रज सेवा॥
कहह यान िबराग अ माया। कहह सो भगित करह जेिहं दाया॥
हे देव! मुझे समझाकर वही किहए, िजससे सब छोड़कर म आपक चरणरज क ही सेवा क ँ ।
ान, वैरा य और माया का वणन क िजए; और उस भि को किहए िजसके कारण आप दया
करते ह।
हे भो! ई र और जीव का भेद भी सब समझाकर किहए, िजससे आपके चरण म मेरी ीित हो
और शोक, मोह तथा म न हो जाएँ ॥ 14॥
(राम ने कहा -) हे तात! म थोड़े ही म सब समझाकर कहे देता हँ। तुम मन, िच और बुि
लगाकर सुनो! म और मेरा, तू और तेरा - यही माया है, िजसने सम त जीव को वश म कर रखा
है।
इंि य के िवषय को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी -
एक िव ा और दूसरी अिव ा - इन दोन भेद को तुम सुनो -
एक दु अितसय दख
ु पा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
ु बस जाक। भु े रत निहं िनज बल ताक॥
एक रचइ जग गन
सो सत
ु ं अवलंब न आना। तेिह आधीन यान िब याना॥
भगित तात अनपु म सख
ु मूला। िमलइ जो संत होइँ अनक
ु ू ला॥
वह भि वतं है, उसको ( ान-िव ान आिद िकसी) दूसरे साधन का सहारा (अपे ा) नह है।
ान और िव ान तो उसके अधीन ह। हे तात! भि अनुपम एवं सुख क मल ू है; और वह तभी
िमलती है, जब संत अनुकूल ( स न) होते ह।
अब म भि के साधन िव तार से कहता हँ - यह सुगम माग है, िजससे जीव मुझको सहज ही पा
जाते ह। पहले तो ा ण के चरण म अ यंत ीित हो और वेद क रीित के अनुसार अपने-अपने
(वणा म के) कम म लगा रहे ।
इसका फल, िफर िवषय से वैरा य होगा। तब (वैरा य होने पर) मेरे धम (भागवत धम) म ेम
उ प न होगा। तब वण आिद नौ कार क भि याँ ढ़ ह गी और मन म मेरी लीलाओं के ित
अ यंत ेम होगा।
संत चरन पंकज अित म े ा। मन म बचन भजन ढ़ नेमा॥
गु िपतु मातु बंधु पित देवा। सब मोिह कहँ जानै ढ़ सेवा॥
मम गन
ु गावत पल ु क सरीरा। गदगद िगरा नयन बह नीरा॥
काम आिद मद दंभ न जाक। तात िनरं तर बस म ताक॥
मेरा गुण गाते समय िजसका शरीर पुलिकत हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और ने से
( ेमा ुओ ं का) जल बहने लगे और काम, मद और दंभ आिद िजसम न ह , हे भाई! म सदा उसके
वश म रहता हँ।
िजनको कम, वचन और मन से मेरी ही गित है; और जो िन काम भाव से मेरा भजन करते ह,
उनके दय-कमल म म सदा िव ाम िकया करता हँ॥ 16॥
शपू णखा नामक रावण क एक बिहन थी, जो नािगन के समान भयानक और दु दय क थी।
वह एक बार पंचवटी म गई और दोन राजकुमार को देखकर िवकल (काम से पीिड़त) हो गई।
वह सुंदर प धरकर भु के पास जाकर और बहत मु कुराकर वचन बोली - न तो तु हारे समान
कोई पु ष है, न मेरे समान ी। िवधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहत िवचार कर रचा है।
मेरे यो य पु ष (वर) जगतभर म नह है, मने तीन लोक को खोज देखा। इसी से म अब तक
कुमारी (अिववािहत) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना (िच ठहरा) है।
सीता क ओर देखकर भु राम ने यह बात कही िक मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह ल मण के
पास गई। ल मण उसे श ु क बिहन समझकर और भु क ओर देखकर कोमल वाणी से बोले -
संदु र सन
ु ु म उ ह कर दासा। पराधीन निहं तोर सप
ु ासा॥
भु समथ कोसलपरु राजा। जो कछु करिहं उनिह सब छाजा॥
हे सुंदरी! सुन, म तो उनका दास हँ। म पराधीन हँ, अतः तु हे सुभीता (सुख) न होगा। भु समथ
ह, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ कर, उ ह सब फबता है।
सेवक सख
ु चह मान िभखारी। यसनी धन सभ ु गित िबिभचारी॥
लोभी जसु चह चार गम
ु ानी। नभ दिु ह दूध चहत ए ानी॥
सेवक सुख चाहे , िभखारी स मान चाहे , यसनी (िजसे जुए, शराब आिद का यसन हो) धन और
यिभचारी शुभ गित चाहे , लोभी यश चाहे और अिभमानी चार फल - अथ, धम, काम, मो चाहे ,
तो ये सब ाणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते ह (अथात असंभव बात को संभव करना
चाहते ह)।
वह लौटकर िफर राम के पास आई, भु ने उसे िफर ल मण के पास भेज िदया। ल मण ने कहा -
ृ तोड़कर (अथात ित ा करके) याग देगा (अथात जो िनपट
तु ह वही वरे गा, जो ल जा को तण
िनल ज होगा)।
ल मण ने बड़ी फुत से उसको िबना नाक-कान क कर िदया। मानो उसके हाथ रावण को
चुनौती दी हो!॥ 17॥
िबना नाक-कान के वह िवकराल हो गई। (उसके शरीर से र इस कार बहने लगा) मानो
(काले) पवत से गे क धारा बह रही हो। वह िवलाप करती हई खर-दूषण के पास गई (और
बोली - ) हे भाई! तु हारे पौ ष (वीरता) को िध कार है, तु हारे बल को िध कार है।
उ ह ने पछ
ू ा, तब शपू णखा ने सब समझाकर कहा। सब सुनकर रा स ने सेना तैयार क ।
रा स समहू झुंड-के-झुंड दौड़े । मानो पंखधारी काजल के पवत का झुंड हो।
कोई कहता है दोन भाइय को जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और ी को छीन लो।
आकाशमंडल धल ू से भर गया। तब राम ने ल मण को बुलाकर उनसे कहा -
रा स क भयानक सेना आ गई है। जानक को लेकर तुम पवत क कंदरा म चले जाओ।
सावधान रहना। भु ी राम के वचन सुनकर ल मण हाथ म धनुष-बाण िलए सीता सिहत चले।
श ुओ ं क सेना (समीप) चली आई है, यह देखकर राम ने हँसकर किठन धनुष को चढ़ाया।
किठन धनुष चढ़ाकर िसर पर जटा का जड़ाू ़ बाँधते हए भु कैसे शोिभत हो रहे ह, जैसे
मरकतमिण (प ने) के पवत पर करोड़ िबजिलय से दो साँप लड़ रहे ह । कमर म तरकस
कसकर, िवशाल भुजाओं म धनुष लेकर और बाण सुधारकर भु राम रा स क ओर देख रहे ह।
मानो मतवाले हािथय के समहू को (आता) देखकर िसंह (उनक ओर) ताक रहा हो।
िजतने भी नाग, असुर, देवता, मनु य और मुिन ह, उनम से हमने न जाने िकतने ही देखे, जीते
और मार डाले ह। पर हे सब भाइयो! सुनो, हमने ज मभर म ऐसी सुंदरता कह नह देखी।
मेरा यह कथन तुम लोग उसे सुनाओ और उसका वचन (उ र) सुनकर शी आओ। दूत ने
जाकर यह संदेश राम से कहा। उसे सुनते ही राम मु कुराकर बोले -
ज िप मनजु दनज
ु कुल घालक। मिु न पालक खल सालक बालक॥
ज न होइ बल घर िफ र जाह। समर िबमख
ु म हतउँ न काह॥
िफर वे श ु को बलवान जानकर सावधान होकर दौड़े और राम के ऊपर बहत कार के अ -
श बरसाने लगे॥ 19(क)॥
ित ह के आयध
ु ितल सम क र काटे रघब ु ीर।
तािन सरासन वन लिग पिु न छाँड़े िनज तीर॥ 19(ख)॥
रघुवीर ने उनके हिथयार को ितल के समान (टुकड़े -टुकड़े ) करके काट डाला। िफर धनुष को
कान तक तानकर अपने तीर छोड़े ॥ 19(ख)॥
तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फँु फकारते हए बहत-से सप जा रहे ह। राम सं ाम म ु हए
और अ यंत ती ण बाण चले।
अ यंत ती ण बाण को देखकर रा स वीर पीठ िदखाकर भाग चले। तब खर-दूषण और ि िशरा
तीन भाई ु होकर बोले - जो रण से भागकर जाएगा,
श ु को अ यंत कुिपत जानकर भु ने धनुष पर बाण चढ़ाकर बहत-से बाण छोड़े , िजनसे
भयानक रा स कटने लगे।
उर सीस भज
ु कर चरन। जहँ तहँ लगे मिह परन॥
िच करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥
उनक छाती, िसर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ प ृ वी पर िगरने लगे। बाण लगते ही वे हाथी क
तरह िचं घाड़ते ह। उनके पहाड़ के समान धड़ कट-कटकर िगर रहे ह।
यो ाओं के शरीर कटकर सैकड़ टुकड़े हो जाते ह। वे िफर माया करके उठ खड़े होते ह। आकाश
म बहत-सी भुजाएँ और िसर उड़ रहे ह तथा िबना िसर के धड़ दौड़ रहे ह।
खग कंक काक सग
ृ ाल। कटकटिहं किठन कराल॥
चील (या च), कौए आिद प ी और िसयार कठोर और भयंकर कट-कट श द कर रहे ह।
यो ा प ृ वी पर िगर पड़ते ह, िफर उठकर िभड़ते ह। मरते नह , बहत कार क अितशय माया
रचते ह। देवता यह देखकर डरते ह िक ेत (रा स) चौदह हजार ह और अयो यानाथ राम अकेले
ह। देवता और मुिनय को भयभीत देखकर माया के वामी भु ने एक बड़ा कौतुक िकया,
िजससे श ुओ ं क सेना एक-दूसरे को राम प देखने लगी और आपस म ही यु करके लड़
मरी।
सब ('यही राम है, इसे मारो' इस कार) राम-राम कहकर शरीर छोड़ते ह और िनवाण (मो ) पद
पाते ह। कृपािनधान राम ने यह उपाय करके ण भर म श ुओ ं को मार डाला॥ 20(क)॥
हरिषत बरषिहं सम
ु न सरु बाजिहं गगन िनसान।
अ तिु त क र क र सब चले सोिभत िबिबध िबमान॥ 20(ख)॥
देवता हिषत होकर फूल बरसाते ह, आकाश म नगाड़े बज रहे ह। िफर वे सब तुित कर-करके
अनेक िवमान पर सुशोिभत हए चले गए॥ 20(ख)॥
े लोचन न अघाता॥
सीता िचतव याम मदृ ु गाता। परम म
पंचबट बिस ीरघन
ु ायक। करत च रत सरु मिु न सख
ु दायक॥
सीता राम के याम और कोमल शरीर को परम ेम के साथ देख रही ह, ने अघाते नह ह। इस
कार पंचवटी म बसकर रघुनाथ देवताओं और मुिनय को सुख देनेवाले च र करने लगे।
खर-दूषण का िव वंस देखकर शपू णखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा ोध करके
ू े देश और खजाने क सुिध ही भुला दी।
वचन बोली - तन
शराब पी लेता है और िदन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नह है िक श ु तेरे िसर पर खड़ा
है? नीित के िबना रा य और धम के िबना धन ा करने से, भगवान को समपण िकए िबना
उ म कम करने से और िववेक उ प न िकए िबना िव ा पढ़ने से प रणाम म म ही हाथ लगता
है। िवषय के संग से सं यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ान, मिदरा पान से ल जा,
सन
ु त सभासद उठे अकुलाई। समझ
ु ाई गिह बाँह उठाई॥
कह लंकेस कहिस िनज बाता। केइँ तव नासा कान िनपाता॥
शपू णखा के वचन सुनते ही सभासद अकुला उठे । उ ह ने शपू णखा क बाँह पकड़कर उसे उठाया
और समझाया। लंकापित रावण ने कहा - अपनी बात तो बता, िकसने तेरे नाक-कान काट िलए?
िज ह कर भज
ु बल पाइ दसानन। अभय भए िबचरत मिु न कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर ध वी गन
ु नाना॥
िजनक भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख! मुिन लोग वन म िनभय होकर िवचरने लगे ह। वे
देखने म तो बालक ह, पर ह काल के समान। वे परम धीर, े धनुधर और अनेक गुण से यु
ह।
उसने शपू णखा को समझाकर बहत कार से अपने बल का बखान िकया, िकंतु (मन म) वह
अ यंत िचंतावश होकर अपने महल म गया, उसे रात भर न द नह पड़ी॥ 22॥
(वह मन-ही-मन िवचार करने लगा -) देवता, मनु य, असुर, नाग और पि य म कोई ऐसा नह ,
जो मेरे सेवक को भी पा सके। खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे। उ ह भगवान के िसवा
और कौन मार सकता है?
देवताओं को आनंद देनेवाले और प ृ वी का भार हरण करनेवाले भगवान ने ही यिद अवतार िलया
है, तो म जाकर उनसे हठपवू क वैर क ँ गा और भु के बाण (के आघात) से ाण छोड़कर
भवसागर से तर जाऊँगा।
हे ि ये! हे सुंदर पित त-धम का पालन करनेवाली सुशीले! सुनो! म अब कुछ मनोहर मनु य
लीला क ँ गा। इसिलए जब तक म रा स का नाश क ँ , तब तक तुम अि न म िनवास करो।
नीच का झुकना (न ता) भी अ यंत दुःखदायी होता है। जैसे अंकुश, धनुष, साँप और िब ली का
झुकना। हे भवानी! दु क मीठी वाणी भी (उसी कार) भय देनेवाली होती है, जैसे िबना ऋतु के
फूल!
भा यहीन रावण ने सारी कथा अिभमान सिहत उसके सामने कही (और िफर कहा - ) तुम छल
करनेवाले कपट-मग
ृ बनो, िजस उपाय से म उस राजवधू को हर लाऊँ।
भइ मम क ट भंग
ृ क नाई। जहँ तहँ म देखउँ दोउ भाई॥
ज नर तात तदिप अित सूरा। ित हिह िबरोिध न आइिह पूरा॥
िजसने ताड़का और सुबाह को मारकर िशव का धनुष तोड़ िदया और खर, दूषण और ि िशरा का
वध कर डाला, ऐसा चंड बली भी कह मनु य हो सकता है?॥ 25॥
अतः अपने कुल क कुशल िवचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और
ू ! तू गु क तरह मुझे ान
उसने बहत-सी गािलयाँ द (दुवचन कहे )। (कहा - ) अरे मख
िसखाता है? बता तो, संसार म मेरे समान यो ा कौन है?
जब मारीच ने दोन कार से अपना मरण देखा, तब उसने रघुनाथ क शरण तक (अथात
उनक शरण जाने म ही क याण समझा)। (सोचा िक) उ र देते ही (नाह करते ही) यह अभागा
मुझे मार डालेगा। िफर रघुनाथ के बाण लगने से ही य न म ँ ।
दय म ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। राम के चरण म उसका अखंड ेम है। उसके मन
म इस बात का अ यंत हष है िक आज म अपने परम नेही राम को देखँग
ू ा; िकंतु उसने यह हष
रावण को नह जनाया।
(वह मन-ही-मन सोचने लगा -) अपने परम ि यतम को देखकर ने को सफल करके सुख
पाऊँगा। जानक सिहत और छोटे भाई ल मण समेत कृपािनधान राम के चरण म मन लगाऊँगा।
िजनका ोध भी मो देनेवाला है और िजनक भि उन अवश (िकसी के वश म न होनेवाले
वतं भगवान) को भी वश म करनेवाली है, अहा! वे ही आनंद के समु ह र अपने हाथ से बाण
संधानकर मेरा वध करगे!
धनुष-बाण धारण िकए मेरे पीछे -पीछे प ृ वी पर (पकड़ने के िलए) दौड़ते हए भु को म िफर-
ू ा। मेरे समान ध य दूसरा कोई नह है॥ 26॥
िफरकर देखँग
सीता ने उस परम सुंदर िहरन को देखा, िजसके अंग-अंग क छटा अ यंत मनोहर थी। (वे कहने
लग - ) हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुिनए। इस मग
ृ क छाल बहत ही सुंदर है।
मग
ृ िबलोिक किट प रकर बाँधा। करतल चाप िचर सर साँधा॥
भु लिछमनिह कहा समझ
ु ाई। िफरत िबिपन िनिसचर बह भाई॥
िहरन को देखकर राम ने कमर म फटा बाँधा और हाथ म धनुष लेकर उस पर सुंदर (िद य) बाण
चढ़ाया। िफर भु ने ल मण को समझाकर कहा - हे भाई! वन म बहत-से रा स िफरते ह।
तुम बुि और िववेक के ारा बल और समय का िवचार करके सीता क रखवाली करना। भु
को देखकर मगृ भाग चला। राम भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े ।
पहले ल मण का नाम लेकर उसने पीछे मन म राम का मरण िकया। ाण याग करते समय
उसने अपना (रा सी) शरीर कट िकया और ेम सिहत राम का मरण िकया।
दो० - िबपल
ु सम
ु र सरु बरषिहं गाविहं भु गन
ु गाथ।
िनज पद दी ह असरु कहँ दीनबंधु रघनु ाथ॥ 27॥
देवता बहत-से फूल बरसा रहे ह और भु के गुण क गाथाएँ ( तुितयाँ) गा रहे ह (िक) रघुनाथ
ऐसे दीनबंधु ह िक उ ह ने असुर को भी अपना परम पद दे िदया॥ 27॥
दु मारीच को मारकर रघुवीर तुरंत लौट पड़े । हाथ म धनुष और कमर म तरकस शोभा दे रहा है।
इधर जब सीता ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच क 'हा ल मण' क आवाज) सुनी तो वे
बहत ही भयभीत होकर ल मण से कहने लग -
तुम शी जाओ, तु हारे भाई बड़े संकट म ह। ल मण ने हँसकर कहा - हे माता! सुनो, िजनके
ृ ु िटिवलास (भ के इशारे ) मा से सारी सिृ का लय ( लय) हो जाता है, वे राम या कभी
क
व न म भी संकट म पड़ सकते ह?
रावण सनू ा मौका देखकर यित (सं यासी) के वेष म सीता के समीप आया, िजसके डर से देवता
और दै य तक इतना डरते ह िक रात को न द नह आती और िदन म (भरपेट) अ न नह खाते -
जैसे िसंह क ी को तु छ खरगोश चाहे , वैसे ही अरे रा सराज! तू (मेरी चाह करके) काल के
वश हआ है। ये वचन सुनते ही रावण को ोध आ गया, परं तु मन म उसने सीता के चरण क
वंदना करके सुख माना।
(सीता िवलाप कर रही थ -) हा जगत के अि तीय वीर रघुनाथ! आपने िकस अपराध से मुझ पर
दया भुला दी। हे दुःख के हरनेवाले, हे शरणागत को सुख देनेवाले, हा रघुकुल पी कमल के
सयू !
हा ल मण! तु हारा दोष नह है। मने ोध िकया, उसका फल पाया। जानक बहत कार से
िवलाप कर रही ह - (हाय!) भु क कृपा तो बहत है, परं तु वे नेही भु बहत दूर रह गए ह।
भु को मेरी यह िवपि कौन सुनावे? य के अ न को गदहा खाना चाहता है। सीता का भारी
िवलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए।
ग ृ राज जटायु ने सीता क दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान िलया िक ये रघुकुल ितलक राम क
प नी ह। (उसने देखा िक) नीच रा स इनको (बुरी तरह) िलए जा रहा है, जैसे किपला गाय
ले छ के पाले पड़ गई हो।
सन
ु त गीध ोधातरु धावा। कह सनु ु रावन मोर िसखावा॥
तिज जानिकिह कुसल गहृ जाह। नािहं त अस होइिह बहबाह॥
यह सुनते ही गीध ोध म भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला - रावण! मेरी िसखावन सुन।
जानक को छोड़कर कुशलपवू क अपने घर चला जा। नह तो हे बहत भुजाओंवाले! ऐसा होगा िक
-
राम रोष पावक अित घोरा। होइिह सकल सलभ कुल तोरा॥
उत न देत दसानन जोधा। तबिहं गीध धावा क र ोधा॥
उसने (रावण के) बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार िलया, रावण प ृ वी पर िगर पड़ा। गीध
सीता को एक ओर बैठाकर िफर लौटा और च च से मार-मारकर रावण के शरीर को िवदीण कर
डाला। इससे उसे एक घड़ी के िलए मू छा हो गई।
तब िखिसयाए हए रावण ने ोधयु होकर अ यंत भयानक कटार िनकाली और उससे जटायु
के पंख काट डाले। प ी (जटायु) राम क अ ुत लीला का मरण करके प ृ वी पर िगर पड़ा।
पवत पर बैठे हए बंदर को देखकर सीता ने ह रनाम लेकर व डाल िदया। इस कार वह सीता
को ले गया और उ ह अशोक वन म जा रखा।
िजस कार कपटमग ृ के साथ राम दौड़ चले थे, उसी छिव को दय म रखकर वे ह रनाम
(रामनाम) रटती रहती ह॥ 29(ख)॥
रघप
ु ित अनज ु िह आवत देखी। बािहज िचंता क ि ह िबसेषी॥
जनकसत ु ा प रह रह अकेली। आयह तात बचन मम पेली॥
(इधर) रघुनाथ ने छोटे भाई ल मण को आते देखकर बा प म बहत िचंता क (और कहा -) हे
भाई! तुमने जानक को अकेली छोड़ िदया और मेरी आ ा का उ लंघन कर यहाँ चले आए!
अनज
ु समेत गए भु तहवाँ। गोदाव र तट आ म जहवाँ॥
आ म देिख जानक हीना। भए िबकल जस ाकृत दीना॥
हा गन
ु खािन जानक सीता। प सील त नेम पन ु ीता॥
लिछमन समझ ु ाए बह भाँित। पूछत चले लता त पाँती॥
(वे िवलाप करने लगे -) हा गुण क खान जानक ! हा प, शील, त और िनयम म पिव
सीते! ल मण ने बहत कार से समझाया। तब राम लताओं और व ृ क पंि य से पछ
ू ते हए
चले।
हे खग मगृ हे मधक
ु र ने ी। तु ह देखी सीता मग
ृ नैनी॥
खंजन सकु कपोत मग ृ मीना। मधप ु िनकर कोिकला बीना॥
बेल, सुवण और केला हिषत हो रहे ह। इनके मन म जरा भी शंका और संकोच नह है। हे
जानक ! सुनो, तु हारे िबना ये सब आज ऐसे हिषत ह, मानो राज पा गए ह । (अथात तु हारे अंग
के सामने ये सब तु छ, अपमािनत और लि जत थे। आज तु ह न देखकर ये अपनी शोभा के
अिभमान म फूल रहे ह)।
तुमसे यह अनख ( पधा) कैसे सही जाती है? हे ि ये! तुम शी ही कट य नह होती? इस
कार (अनंत ांड के अथवा महामिहमामयी व पाशि सीता के) वामी राम सीता को
खोजते हए (इस कार) िवलाप करते ह, मानो कोई महािवरही और अ यंत कामी पु ष हो।
पूरनकाम राम सख
ु रासी। मनज ु च रत कर अज अिबनासी॥
आग परा गीधपित देखा। सिु मरत राम चरन िज ह रे खा॥
ू काम, आनंद क रािश, अज मा और अिवनाशी राम मनु य के-से च र कर रहे ह। आगे
पण
(जाने पर) उ ह ने ग ृ पित जटायु को पड़ा देखा। वह राम के चरण का मरण कर रहा था,
िजनम ( वजा, कुिलश आिद क ) रे खाएँ (िच ) ह।
कृपा सागर रघुवीर ने अपने करकमल से उसके िसर का पश िकया (उसके िसर पर कर-कमल
फेर िदया)। शोभाधाम राम का (परम सुंदर) मुख देखकर उसक सब पीड़ा जाती रही॥ 30॥
तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा - हे भव (ज म-म ृ यु) के भय का नाश करनेवाले राम!
सुिनए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा क है। उसी दु ने जानक को हर िलया है।
हे गोसाई ं! वह उ ह लेकर दि ण िदशा को गया है। सीता कुररी (कुज) क तरह अ यंत िवलाप
कर रही थ । हे भो! आपके दशन के िलए ही ाण रोक रखे थे। हे कृपािनधान! अब ये चलना ही
चाहते ह।
राम ने कहा - हे तात! शारीर को बनाए रिखए। तब उसने मुसकराते हए मँुह से यह बात कही -
मरते समय िजनका नाम मुख म आ जाने से अधम (महान पापी) भी मु हो जाता है, ऐसा वेद
गाते ह -
वही (आप) मेरे ने के िवषय होकर सामने खड़े ह। हे नाथ! अब म िकस कमी (क पिू त) के
िलए देह को रखँ?ू ने म जल भरकर रघुनाथ कहने लगे - हे तात! आपने अपने े कम से
(दुलभ) गित पाई है।
हे तात! सीता हरण क बात आप जाकर िपता से न किहएगा। यिद म राम हँ तो दशमुख रावण
कुटुंब सिहत वहाँ आकर वयं ही कहे गा॥ 31॥
जटायु ने गीध क देह यागकर ह र का प धारण िकया और बहत-से अनुपम (िद य) आभषू ण
और (िद य) पीतांबर पहन िलए। याम शरीर है, िवशाल चार भुजाएँ ह और ने म ( ेम तथा
आनंद के आँसुओ ं का) जल भरकर वह तुित कर रहा है -
िजनको ुितयाँ िनरं जन (माया से परे ), , यापक, िनिवकार और ज मरिहत कहकर गान
करती ह। मुिन िज ह यान, ान, वैरा य और योग आिद अनेक साधन करके पाते ह। वे ही
क णाकंद, शोभा के समहू ( वयं भगवान) कट होकर जड़-चेतन सम त जगत को मोिहत
कर रहे ह। मेरे दय-कमल के मर प उनके अंग-अंग म बहत-से कामदेव क छिव शोभा पा
रही है।
जो अगम सग ु म सभ
ु ाव िनमल असम सम सीतल सदा।
प यंित जं जोगी जतन क र करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा िनवास संतत दास बस ि भवु न धनी।
मम उर बसउ सो समन संसिृ त जासु क रित पावनी॥
रघुनाथ अ यंत कोमल िच वाले, दीनदयालु और िबना ही कारण कृपालु ह। गीध (पि य म भी)
अधम प ी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुलभ गित दी, िजसे योगीजन माँगते रहते ह।
वह सघन वन लताओं और व ृ से भरा है। उसम बहत-से प ी, मग ृ , हाथी और िसंह रहते ह। राम
ने रा ते म आते हए कबंध रा स को मार डाला। उसने अपने शाप क सारी बात कही।
(वह बोला - ) दुवासा ने मुझे शाप िदया था। अब भु के चरण को देखने से वह पाप िमट गया।
(राम ने कहा - ) हे गंधव! सुनो, म तु ह कहता हँ, ा णकुल से ोह करनेवाला मुझे नह
सुहाता।
मन, वचन और कम से कपट छोड़कर जो भदू ेव ा ण क सेवा करता है, मुझ समेत ा, िशव
आिद सब देवता उसके वश म हो जाते ह॥ 33॥
शाप देता हआ, मारता हआ और कठोर वचन कहता हआ भी ा ण पज ू नीय है, ऐसा संत कहते
ह। शील और गुण से हीन भी ा ण पज
ू नीय है। और गुण गण से यु और ान म िनपुण भी
शू पजू नीय नह है।
राम ने अपना धम (भागवत-धम) कहकर उसे समझाया। अपने चरण म ेम देखकर वह उनके
मन को भाया। तदनंतर रघुनाथ के चरणकमल म िसर नवाकर वह अपनी गित (गंधव का
व प) पाकर आकाश म चला गया।
े मगन मख
म ु बचन न आवा। पिु न पिु न पद सरोज िसर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे । पिु न संदु र आसन बैठारे ॥
जाित, पाँित, कुल, धम, बड़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भि
से रिहत मनु य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) िदखाई पड़ता है।
नवधा भगित कहउँ तोिह पाह । सावधान सनु ु ध मन माह ॥
थम भगित संत ह कर संगा। दूस र रित मम कथा संगा॥
म तुझसे अब अपनी नवधा भि कहता हँ। तू सावधान होकर सुन और मन म धारण कर। पहली
भि है संत का स संग। दूसरी भि है मेरे कथा- संग म ेम।
हे भािमिन! मुझे वही अ यंत ि य है। िफर तुझ म तो सभी कार क भि ढ़ है। अतएव जो गित
योिगय को भी दुलभ है, वही आज तेरे िलए सुलभ हो गई है।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव िनज सहज स पा॥
जनकसत ु ा कइ सिु ध भािमनी। जानिह कह क रबरगािमनी॥
सब कथा कहकर भगवान के मुख के दशन कर, उनके चरणकमल को धारण कर िलया और
योगाि न से देह को याग कर (जलाकर) वह उस दुलभ ह रपद म लीन हो गई, जहाँ से लौटना
नह होता। तुलसीदास कहते ह िक अनेक कार के कम, अधम और बहत-से मत - ये सब
शोक द ह; हे मनु य ! इनका याग कर दो और िव ास करके राम के चरण म ेम करो।
राम ने उस वन को भी छोड़ िदया और वे आगे चले। दोन भाई अतुलनीय बलवान और मनु य म
िसंह के समान ह। भु िवरही क तरह िवषाद करते हए अनेक कथाएँ और संवाद कहते ह -
लिछमन देखु िबिपन कइ सोभा। देखत केिह कर मन निहं छोभा॥
ना र सिहत सब खग मगृ बंदृ ा। मानहँ मो र करत हिहं िनंदा॥
हमिह देिख मग
ृ िनकर पराह । मग
ृ कहिहं तु ह कहँ भय नाह ॥
तु ह आनंद करह मग
ृ जाए। कंचन मग
ृ खोजन ए आए॥
हम देखकर (जब डर के मारे ) िहरन के झुंड भागने लगते ह, तब िहरिनयाँ उनसे कहती ह -
तुमको भय नह है। तुम तो साधारण िहरन से पैदा हए हो, अतः तुम आनंद करो। ये तो सोने का
िहरन खोजने आए ह।
हाथी हिथिनय को साथ लगा लेते ह। वे मानो मुझे िश ा देते ह (िक ी को कभी अकेली नह
छोड़ना चािहए)। भली-भाँित िचंतन िकए हए शा को भी बार-बार देखते रहना चािहए। अ छी
तरह सेवा िकए हए भी राजा को वश म नह समझना चािहए।
परं तु जब उसका दूत यह देख गया िक म भाई के साथ हँ (अकेला नह हँ), तब उसक बात
सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डे रा डाल िदया है॥ 37(ख)॥
िबटप िबसाल लता अ झानी। िबिबध िबतान िदए जनु तानी॥
कदिल ताल बर धज
ु ा पताका। देिख न मोह धीर मन जाका॥
अनेक व ृ नाना कार से फूले हए ह। मानो अलग-अलग बाना (वद ) धारण िकए हए बहत-से
तीरं दाज ह । कह -कह सुंदर व ृ शोभा दे रहे ह। मानो यो ा लोग अलग-अलग होकर छावनी
डाले ह ।
कोयल कूज रही ह, वही मानो मतवाले हाथी (िच घाड़ रहे ) ह। ढे क और महोख प ी मानो ऊँट
और ख चर ह। मोर, चकोर, तोते, कबत
ू र और हंस मानो सब सुंदर ताजी (अरबी) घोड़े ह।
तीतर और बटेर पैदल िसपािहय के झुंड ह। कामदेव क सेना का वणन नह हो सकता। पवत
क िशलाएँ रथ और जल के झरने नगाड़े ह। पपीहे भाट ह, जो गुणसमहू (िव दावली) का वणन
करते ह।
भ र क गुंजार भेरी और शहनाई है। शीतल, मंद और सुगंिधत हवा मानो दूत का काम लेकर आई
है। इस कार चतुरंिगणी सेना साथ िलए कामदेव मानो सबको चुनौती देता हआ िवचर रहा है।
गन
ु ातीत सचराचर वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥
कािम ह कै दीनता देखाई। धीर ह क मन िबरित ढ़ाई॥
(िशव कहते ह - ) हे पावती! राम गुणातीत (तीन गुण से परे ), चराचर जगत के वामी और
सबके अंतर क जाननेवाले ह। (उपयु बात कहकर) उ ह ने कामी लोग क दीनता (बेबसी)
िदखलाई है और धीर (िववेक ) पु ष के मन म वैरा य को ढ़ िकया है।
ोध, काम, लोभ, मद और माया - ये सभी राम क दया से छूट जाते ह। वह नट (नटराज
भगवान) िजस पर स न होता है, वह मनु य इं जाल (माया) म नह भल ू ता।
उसका जल संत के दय-जैसा िनमल है। मन को हरनेवाले सुंदर चार घाट बँधे हए ह। भाँित-
भाँित के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे ह। मानो उदार दानी पु ष के घर याचक क भीड़ लगी हो!
सख
ु ी मीन सब एकरस अित अगाध जल मािहं।
जथा धमसील ह के िदन सख
ु संजुत जािहं॥ 39(ख)॥
उस सरोवर के अ यंत अथाह जल म सब मछिलयाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती ह। जैसे
धमशील पु ष के सब िदन सुखपवू क बीतते ह॥ 39(ख)॥
च वाक, बगुले आिद पि य का समुदाय देखते ही बनता है, उनका वणन नह िकया जा
सकता। सुंदर पि य क बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो (रा ते म) जाते हए पिथक को
बुलाए लेती हो।
ताल समीप मिु न ह गहृ छाए। चह िदिस कानन िबटप सहु ाए॥
चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥
उस झील (पंपा सरोवर) के समीप मुिनय ने आ म बना रखे ह। उसके चार ओर वन के सुंदर
व ृ ह। चंपा, मौलिसरी, कदंब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आिद -
कुह कुह कोिकल धुिन करह । सुिन रव सरस यान मुिन टरह ॥
कोयल 'कुह' 'कुह' का श द कर रही ह। उनक रसीली बोली सुनकर मुिनय का भी यान टूट
जाता है।
राम ने अ यंत संुदर तालाब देखकर नान िकया और परम सुख पाया। एक संुदर उ म व ृ क
छाया देखकर रघुनाथ छोटे भाई ल मण सिहत बैठ गए।
तहँ पिु न सकल देव मिु न आए। अ तिु त क र िनज धाम िसधाए॥
बैठे परम स न कृपाला। कहत अनज ु सन कथा रसाला॥
िफर वहाँ सब देवता और मुिन आए और तुित करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु राम
परम स न बैठे हए छोटे भाई ल मण से रसीली कथाएँ कह रहे ह।
ऐसे (भ व सल) भु को जाकर देखँ।ू िफर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह िवचार कर नारद
हाथ म वीणा िलए हए वहाँ गए, जहाँ भु सुखपवू क बैठे हए थे।
(राम ने कहा - ) हे मुिन! तुम मेरा वभाव जानते ही हो। या म अपने भ से कभी कुछ िछपाव
करता हँ? मुझे ऐसी कौन-सी व तु ि य लगती है, िजसे हे मुिन े ! तुम नह माँग सकते?
कृपा सागर रघुनाथ ने मुिन से 'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहा। तब नारद ने मन म अ यंत हिषत
होकर भु के चरण म म तक नवाया॥ 42(ख)॥
रघुनाथ को अ यंत स न जानकर नारद िफर कोमल वाणी बोले - हे राम! हे रघुनाथ! सुिनए,
जब आपने अपनी माया को े रत करके मुझे मोिहत िकया था,
तब म िववाह करना चाहता था। हे भु! आपने मुझे िकस कारण िववाह नह करने िदया? ( भु
बोले - ) हे मुिन! सुनो, म तु ह हष के साथ कहता हँ िक जो सम त आशा-भरोसा छोड़कर केवल
मुझको ही भजते ह,
म सदा उनक वैसे ही रखवाली करता हँ जैसे माता बालक क र ा करती है। छोटा ब चा जब
दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथ ) अलग करके बचा
लेती है।
ौढ़ भएँ तेिह सत
ु पर माता। ीित करइ निहं पािछिल बाता॥
मोर ौढ़ तनय सम यानी। बालक सत ु सम दास अमानी॥
सयाना हो जाने पर उस पु पर माता ेम तो करती है, परं तु िपछली बात नह रहती (अथात
मातपृ रायण िशशु क तरह िफर उसको बचाने क िचंता नह करती, य िक वह माता पर िनभर
न कर अपनी र ा आप करने लगता है)। ानी मेरे ौढ़ (सयाने) पु के समान है और (तु हारे
जैसा) अपने बल का मान न करनेवाला सेवक मेरे िशशु पु के समान है।
काम, ोध, लोभ और मद आिद मोह (अ ान) क बल सेना है। इनम माया िपणी (माया क
सा ात मिू त) ी तो अ यंत दा ण दुःख देनेवाली है॥ 43॥
सन
ु ु मिु न कह परु ान ुित संता। मोह िबिपन कहँ ना र बसंता॥
जप तप नेम जला य झारी। होइ ीषम सोषइ सब नारी॥
हे मुिन! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते ह िक मोह पी वन (को िवकिसत करने) #2325;◌े
िलए ी वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, िनयम पी संपण ू जल के थान को ी ी म प
होकर सवथा सोख लेती है।
काम, ोध, मद और म सर (डाह) आिद मेढ़क ह। इनको वषा ऋतु होकर हष दान करनेवाली
एकमा यही ( ी) है। बुरी वासनाएँ कुमुद के समहू ह। उनको सदैव सुख देनेवाली यह शरद
ऋतु है।
पाप पी उ लुओ ं के समहू के िलए यह ी सुख देनेवाली घोर अंधकारमयी राि है। बुि , बल,
शील और स य - ये सब मछिलयाँ ह और उन (को फँसाकर न करने) के िलए ी बंसी के
समान है, चतुर पु ष ऐसा कहते ह।
दो० - अवगन
ु मूल सूल द मदा सब दख ु खािन।
ताते क ह िनवारन मिु न म यह िजयँ जािन॥ 44॥
युवती ी अवगुण क मल ू , पीड़ा देनेवाली और सब दुःख क खान है। इसिलए हे मुिन! मने जी
म ऐसा जानकर तुमको िववाह करने से रोका था॥ 44॥
रघुनाथ के सुंदर वचन सुनकर मुिन का शरीर पुलिकत हो गया और ने ( ेमा ुओ ं के जल से)
भर आए। (वे मन-ही-मन कहने लगे - ) कहो तो िकस भु क ऐसी रीती है, िजसका सेवक पर
इतना मम व और ेम हो।
हे रघुवीर! हे भव-भय (ज म-मरण के भय) का नाश करनेवाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संत के
ल ण किहए। (राम ने कहा - ) हे मुिन! सुनो, म संत के गुण को कहता हँ, िजनके कारण म
उनके वश म रहता हँ।
वे संत (काम, ोध, लोभ, मोह, मद और म सर - इन) छह िवकार (दोष ) को जीते हए,
पापरिहत, कामनारिहत, िन ल (ि थरबुि ), अिकंचन (सव यागी), बाहर-भीतर से पिव , सुख
के धाम, असीम ानवान, इ छारिहत, िमताहारी, स यिन , किव, िव ान, योगी,
गुण के घर, संसार के दुःख से रिहत और संदेह से सवथा छूटे हए होते ह। मेरे चरण कमल को
छोड़कर उनको न देह ही ि य होती है, न घर ही॥ 45॥
िनज गन
ु वन सनु त सकुचाह । पर गनु सन ु त अिधक हरषाह ॥
सम सीतल निहं यागिहं नीती। सरल सभु ाउ सबिह सन ीित॥
कान से अपने गुण सुनने म सकुचाते ह, दूसर के गुण सुनने से िवशेष हिषत होते ह। सम और
शीतल ह, याय का कभी याग नह करते। सरल वभाव होते ह और सभी से ेम रखते ह।
सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते ह और िबना ही कारण दूसर के िहत म लगे रहनेवाले होते ह।
हे मुिन! सुनो, संत के िजतने गुण ह, उनको सर वती और वेद भी नह कह सकते।
युवती ि य का शरीर दीपक क लौ के समान है, हे मन! तू उसका पितंगा न बन। काम और
मद को छोड़कर राम का भजन कर और सदा स संग कर॥ 46(ख)॥
किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करने वाले रामच रतमानस का यह तीसरा सोपान समा
हआ।
कंु दपु प और नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं यामवण, अ यंत बलवान, िव ान के धाम,
शोभा संप न, े धनुधर, वेद के ारा वंिदत, गौ एवं ा ण के समहू के ि य (अथवा ेमी),
माया से मनु य प धारण िकए हए, े धम के िलए कवच व प, सबके िहतकारी, सीता क
खोज म लगे हए, पिथक प रघुकुल के े राम और ल मण दोन भाई िन य ही हम भि द
ह ॥ 1॥
िजस भीषण हलाहल िवष से सब देवतागण जल रहे थे उसको िज ह ने वयं पान कर िलया, रे
मंद मन! तू उन शंकर को य नह भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?
रघुनाथ िफर आगे चले। ऋ यमकू पवत िनकट आ गया। वहाँ (ऋ यमक
ू पवत पर) मंि य सिहत
सु ीव रहते थे। अतुलनीय बल क सीमा राम और ल मण को आते देखकर -
यिद वे मन के मिलन बािल के भेजे हए ह तो म तुरंत ही इस पवत को छोड़कर भाग जाऊँ। (यह
सुनकर) हनुमान ा ण का प धरकर वहाँ गए और म तक नवाकर इस कार पछ ू ने लगे -
मदृ ल
ु मनोहर संदु र गाता। सहत दस
ु ह बन आतप बाता ॥
क तु ह तीिन देव महँ कोऊ। नर नारायन क तु ह दोऊ॥
िफर धीरज धर कर तुित क । अपने नाथ को पहचान लेने से दय म हष हो रहा है। (िफर
हनुमान ने कहा -) हे वामी! मने जो पछ
ू ा वह मेरा पछ
ू ना तो याय था, परं तु आप मनु य क
तरह कैसे पछ
ू रहे ह?
म तो आपक माया के वश भल
ू ा िफरता हँ; इसी से मने अपने वामी (आप) को नह पहचाना।
हे नाथ! य िप मुझ म बहत-से अवगुण ह, तथािप सेवक वामी क िव मिृ त म न पड़े (आप उसे
न भल
ू जाएँ )। हे नाथ! जीव आपक माया से मोिहत है। वह आप ही क कृपा से िन तार पा
सकता है।
ता पर म रघब
ु ीर दोहाई। जानउँ निहं कछु भजन उपाई॥
सेवक सतु पित मातु भरोस। रहइ असोच बनइ भु पोस॥
ऐसा कहकर हनुमान अकुलाकर भु के चरण पर िगर पड़े , उ ह ने अपना असली शरीर कट
कर िदया। उनके दय म ेम छा गया। तब रघुनाथ ने उ ह उठाकर दय से लगा िलया और
अपने ने के जल से स चकर शीतल िकया।
सन
ु ु किप िजयँ मानिस जिन ऊना। त मम ि य लिछमन ते दूना॥
समदरसी मोिह कह सब कोऊ। सेवक ि य अन य गित सोऊ॥
(िफर कहा -) हे किप! सुनो, मन म लािन मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे ल मण
से भी दूने ि य हो। सब कोई मुझे समदश कहते ह (मेरे िलए न कोई ि य है न अि य) पर मुझको
सेवक ि य है, य िक वह अन यगित होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नह
होता)।
हे नाथ! उससे िम ता क िजए और उसे दीन जानकर िनभय कर दीिजए। वह सीता क खोज
करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ वानर को भेजेगा।
इस कार सब बात समझाकर हनुमान ने (राम-ल मण) दोन जन को पीठ पर चढ़ा िलया। जब
सु ीव ने राम को देखा तो अपने ज म को अ यंत ध य समझा।
सु ीव चरण म म तक नवाकर आदर सिहत िमले। रघुनाथ भी छोटे भाई सिहत उनसे गले
लगकर िमले। सु ीव मन म इस कार सोच रहे ह िक हे िवधाता! या ये मुझसे ीित करगे?
दो० - तब हनम
ु ंत उभय िदिस क सब कथा सन
ु ाइ।
पावक साखी देइ क र जोरी ीित ढ़ाइ॥ 4॥
म एक बार यहाँ मंि य के साथ बैठा हआ कुछ िवचार कर रहा था। तब मने पराए के वश म पड़ी
बहत िवलाप करती हई सीता को आकाश माग से जाते देखा था।
हम देखकर उ ह ने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर व िगरा िदया था। राम ने उसे माँगा, तब
सु ीव ने तुरंत ही दे िदया। व को दय से लगाकर राम ने बहत ही सोच िकया।
कह सु ीव सन
ु ह रघब
ु ीरा। तजह सोच मन आनह धीरा॥
सब कार क रहउँ सेवकाई। जेिह िबिध िमिलिह जानक आई॥
कृपा के समु और बल क सीमा राम सखा सु ीव के वचन सुनकर हिषत हए। (और बोले -) हे
सु ीव! मुझे बताओ, तुम वन म िकस कारण रहते हो?॥ 5॥
उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर पुकारा (ललकारा)। बािल श ु के बल (ललकार)
को सह नह सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। म भी भाई के संग लगा चला गया।
वह मायावी एक पवत क गुफा म जा घुसा। तब बािल ने मुझे समझाकर कहा - तुम एक पखवाड़े
(पंदरह िदन) तक मेरी बाट देखना। यिद म उतने िदन म न आऊँ तो जान लेना िक म मारा
गया।
मास िदवस तहँ रहेउँ खरारी। िनसरी िधर धार तहँ भारी॥
बािल हतेिस मोिह मा रिह आई। िसला देइ तहँ चलेउँ पराई॥
हे खरा र! म वहाँ महीने भर तक रहा। वहाँ (उस गुफा म से) र क बड़ी भारी धारा िनकली। तब
(मने समझा िक) उसने बािल को मार डाला, अब आकर मुझे मारे गा। इसिलए म वहाँ (गुफा के
ार पर) एक िशला लगाकर भाग आया।
मंि य ने नगर को िबना वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबद ती रा य दे िदया। बािल उसे
मारकर घर आ गया। मुझे (राजिसंहासन पर) देखकर उसने जी म भेद बढ़ाया (बहत ही िवरोध
माना)। (उसने समझा िक यह रा य के लोभ से ही गुफा के ार पर िशला दे आया था, िजससे म
बाहर न िनकल सकँ ू और यहाँ आकर राजा बन बैठा)।
उसने मुझे श ु के समान बहत अिधक मारा और मेरा सव व तथा मेरी ी को भी छीन िलया। हे
कृपालु रघुवीर! म उसके भय से सम त लोक म बेहाल होकर िफरता रहा।
वह शाप के कारण यहाँ नह आता, तो भी म मन म भयभीत रहता हँ। सेवक का दुःख सुनकर
दीन पर दया करनेवाले रघुनाथ क दोन िवशाल भुजाएँ फड़क उठ ।
दो० - सन
ु ु सु ीव मा रहउँ बािलिह एकिहं बान।
सरनागत गएँ न उब रिहं ान॥ 6॥
जे न िम दखु होिहं दख
ु ारी। ित हिह िबलोकत पातक भारी॥
िनज दखु िग र सम रज क र जाना। िम क दख ु रज मे समाना॥
जो लोग िम के दुःख से दुःखी नह होते, उ ह देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पवत के
ू के समान और िम के धल
समान दुःख को धल ू के समान दुःख को सुमे (बड़े भारी पवत) के
समान जाने।
देने-लेने म मन म शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा िहत ही करता रहे । िवपि के समय
तो सदा सौगुना नेह करे । वेद कहते ह िक संत ( े ) िम के गुण (ल ण) ये ह।
सेवक सठ नप
ृ कृपन कुनारी। कपटी िम सूल सम चारी॥
सखा सोच यागह बल मोर। सब िबिध घटब काज म तोर॥
मखू सेवक, कंजस ू राजा, कुलटा ी और कपटी िम - ये चार शल ू के समान पीड़ा देनेवाले ह।
हे सखा! मेरे बल पर अब तुम िचंता छोड़ दो। म सब कार से तु हारे काम आऊँगा (तु हारी
सहायता क ँ गा)।
कह सु ीव सन ु ह रघब
ु ीरा। बािल महाबल अित रनधीरा॥
ददुं िु भ अि थ ताल देखराए। िबनु यास रघन ु ाथ ढहाए॥
सु ीव ने कहा - हे रघुवीर! सुिनए, बािल महान बलवान और अ यंत रणधीर है। िफर सु ीव ने
राम को दुंदुिभ रा स क हड्िडयाँ व ताल के व ृ िदखलाए। रघुनाथ ने उ ह िबना ही प र म के
(आसानी से) ढहा िदया।
हे राम! बािल तो मेरा परम िहतकारी है, िजसक कृपा से शोक का नाश करनेवाले आप मुझे िमले
और िजसके साथ अब व न म भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन म संकोच होगा
(िक व न म भी म उससे य लड़ा)।
तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी स य है; परं तु हे सखा! मेरा वचन िम या नह होता (अथात
बािल मारा जाएगा और तु ह रा य िमलेगा)। (काकभुशुंिड कहते ह िक -) हे पि य के राजा
ग ड़! नट (मदारी) के बंदर क तरह राम सबको नचाते ह, वेद ऐसा कहते ह।
लै सु ीव संग रघन
ु ाथा। चले चाप सायक गिह हाथा॥
तब रघपु ित सु ीव पठावा। गजिस जाइ िनकट बल पावा॥
तदनंतर सु ीव को साथ लेकर और हाथ म धनुष-बाण धारण करके रघुनाथ चले। तब रघुनाथ
ने सु ीव को बािल के पास भेजा। वह राम का बल पाकर बािल के िनकट जाकर गरजा।
सन
ु त बािल ोधातरु धावा। गिह कर चरन ना र समझ
ु ावा॥
सन
ु ु पित िज हिह िमलेउ सु ीवा। ते ौ बंधु तेज बल स वा॥
बािल सुनते ही ोध म भरकर वेग से दौड़ा। उसक ी तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया
िक हे नाथ! सुिनए, सु ीव िजनसे िमले ह वे दोन भाई तेज और बल क सीमा ह।
दो० - कह बाली सन
ु ु भी ि य समदरसी रघन ु ाथ।
ज कदािच मोिह मारिहं तौ पिु न होउँ सनाथ॥ 7॥
बािल ने कहा - हे भी ! (डरपोक) ि ये! सुनो, रघुनाथ समदश ह। जो कदािचत वे मुझे मारगे ही
तो म सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥ 7॥
ऐसा कहकर वह महान अिभमानी बािल सु ीव को ितनके के समान जानकर चला। दोन िभड़
गए। बािल ने सु ीव को बहत धमकाया और घँस
ू ा मारकर बड़े जोर से गरजा।
तब सु ीव याकुल होकर भागा। घँस ू े क चोट उसे व के समान लगी। (सु ीव ने आकर कहा -)
हे कृपालु रघुवीर! मने आपसे पहले ही कहा था िक बािल मेरा भाई नह है, काल है।
(राम ने कहा -) तुम दोन भाइय का एक-सा ही प है। इसी म से मने उसको नह मारा। िफर
राम ने सु ीव के शरीर को हाथ से पश िकया, िजससे उसका शरीर व के समान हो गया और
सारी पीड़ा जाती रही।
तब राम ने सु ीव के गले म फूल क माला डाल दी और िफर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा।
दोन म पुनः अनेक कार से यु हआ। रघुनाथ व ृ क आड़ से देख रहे थे।
दो० - बह छल बल सु ीव कर िहयँ हारा भय मािन।
मारा बािल राम तब दय माझ सर तािन॥ 8॥
बाण के लगते ही बािल याकुल होकर प ृ वी पर िगर पड़ा। िकंतु भु राम को आगे देखकर वह
िफर उठ बैठा। भगवान का याम शरीर है, िसर पर जटा बनाए ह, लाल ने ह, बाण िलए ह और
धनुष चढ़ाए ह।
हे गोसाई ं! आपने धम क र ा के िलए अवतार िलया है और मुझे याध क तरह (िछपकर) मारा?
म बैरी और सु ीव यारा? हे नाथ! िकस दोष से आपने मुझे मारा?
(राम ने कहा -) हे मख
ू ! सुन, छोटे भाई क ी, बिहन, पु क ी और क या - ये चार समान
ह। इनको जो कोई बुरी ि से देखता है, उसे मारने म कुछ भी पाप नह होता।
दो० - सन
ु ह राम वामी सन चल न चातरु ी मो र।
भु अजहँ म पापी अंतकाल गित तो र॥ 9॥
(बािल ने कहा -) हे राम! सुिनए, वामी (आप) से मेरी चतुराई नह चल सकती। हे भो!
अंतकाल म आपक गित (शरण) पाकर म अब भी पापी ही रहा?॥ 9॥
सन
ु त राम अित कोमल बानी। बािल सीस परसेउ िनज पानी॥
अचल कर तनु राखह ाना। बािल कहा सन ु ु कृपािनधाना॥
बािल क अ यंत कोमल वाणी सुनकर राम ने उसके िसर को अपने हाथ से पश िकया (और
कहा -) म तु हारे शरीर को अचल कर दँू, तुम ाण को रखो। बािल ने कहा - हे कृपािनधान!
सुिनए -
मुिनगण ज म-ज म म ( येक ज म म) (अनेक कार का) साधन करते रहते ह। िफर भी
अंतकाल म उ ह 'राम' नह कह आता (उनके मुख से राम नाम नह िनकलता)। िजनके नाम के
बल से शंकर काशी म सबको समान प से अिवनािशनी गित (मुि ) देते ह।
वह राम वयं मेरे ने के सामने आ गए ह। हे भो! ऐसा संयोग या िफर कभी बन पड़े गा?
राम के चरण म ढ़ ीित करके बािल ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) याग िदया जैसे हाथी
अपने गले से फूल क माला का िगरना न जाने॥ 10॥
राम ने बािल को अपने परम धाम भेज िदया। नगर के सब लोग याकुल होकर दौड़े । बािल क
ी तारा अनेक कार से िवलाप करने लगी। उसके बाल िबखरे हए ह और देह क सँभाल नह
है।
तारा को याकुल देखकर रघुनाथ ने उसे ान िदया और उसक माया (अ ान) हर ली। (उ ह ने
कहा -) प ृ वी, जल, अि न, आकाश और वायु - इन पाँच त व से यह अ यंत अधम शरीर रचा
गया है।
वह शरीर तो य तु हारे सामने सोया हआ है, और जीव िन य है। िफर तुम िकसके िलए रो
रही हो? जब ान उ प न हो गया, तब वह भगवान के चरण लगी और उसने परम भि का वर
माँग िलया।
(िशव कहते ह -) हे उमा! वामी राम सबको कठपुतली क तरह नचाते ह। तदनंतर राम ने
सु ीव को आ ा दी और सु ीव ने िविधपवू क बािल का सब मत
ृ क कम िकया।
राम कहा अनज ु िह समझ
ु ाई। राज देह सु ीविह जाई॥
रघपु ित चरन नाइ क र माथा। चले सकल े रत रघन ु ाथा॥
हे पावती! जगत म राम के समान िहत करनेवाला गु , िपता, माता, बंधु और वामी कोई नह
है। देवता, मनु य और मुिन सबक यह रीित है िक वाथ के िलए ही सब ीित करते ह।
जो लोग जानते हए भी ऐसे भु को याग देते ह, वे य न िवपि के जाल म फँस? िफर राम ने
सु ीव को बुला िलया और बहत कार से उ ह राजनीित क िश ा दी।
कह भु सन
ु ु सु ीव हरीसा। परु न जाउँ दस चा र बरीसा॥
गत ीषम बरषा रतु आई। रिहहउँ िनकट सैल पर छाई॥
तुम अंगद सिहत रा य करो। मेरे काम का दय म सदा यान रखना। तदनंतर जब सु ीव घर
लौट आए, तब राम वषण पवत पर जा िटके।
देवताओं ने पहले से ही उस पवत क एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था। उ ह ने सोच रखा
था िक कृपा क खान राम कुछ िदन यहाँ आकर िनवास करगे॥ 12॥
संुदर वन फूला हआ अ यंत सुशोिभत है। मधु के लोभ से भ र के समहू गंुजार कर रहे ह। जब से
भु आए, तब से वन म सुंदर कंद, मल
ू , फल और प क बहतायत हो गई।
मनोहर और अनुपम पवत को देखकर देवताओं के स ाट राम छोटे भाई सिहत वहाँ रह गए।
देवता, िस और मुिन भ र , पि य और पशुओ ं के शरीर धारण करके भु क सेवा करने लगे।
जब से रमापित राम ने वहाँ िनवास िकया तब से वन मंगल व प हो गया। सुंदर फिटक मिण
क एक अ यंत उ वल िशला है, उस पर दोन भाई सुखपवू क िवराजमान ह।
(राम कहने लगे -) हे ल मण! देखो, मोर के झंुड बादल को देखकर नाच रहे ह, जैसे वैरा य म
अनुर गहृ थ िकसी िव णुभ को देखकर हिषत होते ह॥ 13॥
आकाश म बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गजना कर रहे ह, ि या (सीता) के िबना मेरा मन डर रहा
है। िबजली क चमक बादल म ठहरती नह , जैसे दु क ीित ि थर नह रहती।
बादल प ृ वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे ह, जैसे िव ा पाकर िव ान् न हो जाते
ह। बँदू क चोट पवत कैसे सहते ह, जैसे दु के वचन संत सहते ह।
छोटी निदयाँ भरकर (िकनार को) तुड़ाती हई चल , जैसे थोड़े धन से भी दु इतरा जाते ह
(मयादा का याग कर देते ह)। प ृ वी पर पड़ते ही पानी गँदला हो गया है, जैसे शु जीव के माया
िलपट गई हो।
दो० - ह रत भूिम तन
ृ संकुल समिु झ परिहं निहं पंथ।
िजिम पाखंड बाद त गु होिहं सद ंथ॥ 14॥
दादरु धिु न चह िदसा सहु ाई। बेद पढ़िहं जनु बटु समदु ाई॥
नव प लव भए िबटप अनेका। साधक मन जस िमल िबबेका॥
चार िदशाओं म मेढक क विन ऐसी सुहावनी लगती है, मानो िव ािथय के समुदाय वेद पढ़
रहे ह । अनेक व ृ म नए प े आ गए ह, िजससे वे ऐसे हरे -भरे एवं सुशोिभत हो गए ह जैसे
साधक का मन िववेक ( ान) ा होने पर हो जाता है।
भारी वषा से खेत क या रयाँ फूट चली ह, जैसे वतं होने से ि याँ िबगड़ जाती ह। चतुर
िकसान खेत को िनरा रहे ह (उनम से घास आिद को िनकालकर फक रहे ह)। जैसे िव ान लोग
मोह, मद और मान का याग कर देते ह।
च वाक प ी िदखाई नह दे रहे ह; जैसे किलयुग को पाकर धम भाग जाते ह। ऊसर म वषा
होती है, पर वहाँ घास तक नह उगती, जैसे ह रभ के दय म काम नह उ प न होता।
िबिबध जंतु संकुल मिह ाजा। जा बाढ़ िजिम पाइ सरु ाजा॥
जहँ तहँ रहे पिथक थिक नाना। िजिम इं ि य गन उपज याना॥
प ृ वी अनेक तरह के जीव से भरी हई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुरा य पाकर जा क विृ
होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पिथक थककर ठहरे हए ह, जैसे ान उ प न होने पर इंि याँ (िशिथल
होकर िवषय क ओर जाना छोड़ देती ह)।
बरषा िबगत सरद रतु आई। लछमन देखह परम सहु ाई॥
फूल कास सकल मिह छाई। जनु बरषाँ कृत गट बढ़ु ाई॥
हे ल मण! देखो, वषा बीत गई और परम संुदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हए कास से सारी प ृ वी छा
गई। मानो वषा ऋतु ने (कास पी सफेद बाल के प म) अपना बुढ़ापा कट िकया है।
अग य के तारे ने उदय होकर माग के जल को सोख िलया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है।
निदय और तालाब का िनमल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रिहत संत का
दय!
न क चड़ है न धलू ; इससे धरती (िनमल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीितिनपुण राजा क
करनी! जल के कम हो जाने से मछिलयाँ याकुल हो रही ह, जैसे मखू (िववेकशू य) कुटुंबी
(गहृ थ) धन के िबना याकुल होता है।
(शरद ऋतु पाकर) राजा, तप वी, यापारी और िभखारी ( मशः िवजय, तप, यापार और िभ ा
के िलए) हिषत होकर नगर छोड़कर चले। जैसे ह र क भि पाकर चार आ मवाले (नाना
कार के साधन पी) म को याग देते ह॥ 16॥
गंज
ु त मधक
ु र मखु र अनूपा। संदु र खग रव नाना पा॥
च बाक मन दख ु िनिस पेखी। िजिम दज ु न पर संपित देखी॥
पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी यास है, जैसे शंकर का ोही सुख नह पाता (सुख के िलए
झीखता रहता है), शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चं मा हर लेता है, जैसे संत के दशन से
पाप दूर हो जाते ह।
वषा बीत गई, िनमल शरद्ऋतु आ गई। परं तु हे तात! सीता क कोई खबर नह िमली। एक बार
कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर म जानक को ले आऊँ।
इहाँ पवनसत
ु दयँ िबचारा। राम काजु सु ीवँ िबसारा॥
िनकट जाइ चरनि ह िस नावा। चा रह िबिध तेिह किह समझ
ु ावा॥
यहाँ (िकि कंधा नगरी म) पवनकुमार हनुमान ने िवचार िकया िक सु ीव ने राम के काय को
भुला िदया। उ ह ने सु ीव के पास जाकर चरण म िसर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चार
कार क नीित कहकर उ ह समझाया।
सबको भय, ीित और नीित िदखलाई। सब बंदर चरण म िसर नवाकर चले। इसी समय ल मण
नगर म आए। उनका ोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे।
दो० - धनष
ु चढ़ाइ कहा तब जा र करउँ परु छार।
याकुल नगर देिख तब आयउ बािलकुमार॥ 19॥
तदनंतर ल मण ने धनुष चढ़ाकर कहा िक नगर को जलाकर अभी राख कर दँूगा। तब नगरभर
को याकुल देखकर बािलपु अंगद उनके पास आए॥ 19॥
सन
ु ु हनम
ु ंत संग लै तारा। क र िबनती समझ ु ाउ कुमारा॥
तारा सिहत जाइ हनम ु ाना। चरन बंिद भु सज ु स बखाना॥
हे हनुमान! सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर िवनती करके राजकुमार को समझाओ (समझा-
बुझाकर शांत करो)। हनुमान ने तारा सिहत जाकर ल मण के चरण क वंदना क और भु के
सुंदर यश का बखान िकया।
तब अंगद आिद वानर को साथ लेकर और राम के छोटे भाई ल मण को आगे करके (अथात
उनके पीछे -पीछे ) सु ीव हिषत होकर चले और जहाँ रघुनाथ थे वहाँ आए॥ 20॥
रघुनाथ के चरण म िसर नवाकर हाथ जोड़कर सु ीव ने कहा - हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नह
है। हे देव! आपक माया अ यंत ही बल है। आप जब दया करते ह, हे राम! तभी यह छूटती है।
हे वामी! देवता, मनु य और मुिन सभी िवषय के वश म ह। िफर म तो पामर पशु और पशुओ ं म
भी अ यंत कामी बंदर हँ। ी का नयन-बाण िजसको नह लगा, जो भयंकर ोध पी अँधेरी रात
म भी जागता रहता है ( ोधांध नह होता)।
लोभ पाँस जेिहं गर न बँधाया। सो नर तु ह समान रघरु ाया॥
यह गन
ु साधन त निहं होई। तु हरी कृपा पाव कोइ कोई॥
तब रघप
ु ित बोले मस
ु क
ु ाई। तु ह ि य मोिह भरत िजिम भाई॥
अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेिह िबिध सीता कै सिु ध पाई॥
तब रघुनाथ मुसकराकर बोले - हे भाई! तुम मुझे भरत के समान यारे हो। अब मन लगाकर वही
उपाय करो िजस उपाय से सीता क खबर िमले।
(िशव कहते ह -) हे उमा! वानर क वह सेना मने देखी थी। उसक जो िगनती करना चाहे वह
महान मखू है। सब वानर आ-आकर राम के चरण म म तक नवाते ह और (स दय-माधुयिनिध)
मुख के दशन करके कृताथ होते ह।
सन
ु ह नील अंगद हनम ु ाना। जामवंत मितधीर सज ु ाना॥
सकल सभ ु ट िमिल दि छन जाह। सीता सिु ध पूँछेह सब काह॥
मन, वचन तथा कम से उसी का (सीता का पता लगाने का) उपाय सोचना। ी रामचं का काय
संप न (सफल) करना। सय ू को पीठ से और अि न को दय से (सामने से) सेवन करना चािहए।
परं तु वामी क सेवा तो छल छोड़कर सवभाव से (मन, वचन, कम से) करनी चािहए।
सोइ गन
ु य सोई बड़भागी। जो रघब
ु ीर चरन अनरु ागी॥
आयसु मािग चरन िस नाई। चले हरिष सिु मरत रघरु ाई॥
(और कहा -) बहत कार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा िवरह ( ेम) कहकर तुम
शी लौट आना। हनुमान ने अपना ज म सफल समझा और कृपािनधान भु को दय म धारण
करके वे चले।
सब वानर वन, नदी, तालाब, पवत और पवत क कंदराओं म खोजते हए चले जा रहे ह। मन
राम के काय म लवलीन है। शरीर तक का ेम (मम व) भल
ू गया है॥ 23॥
इतने म ही सबको अ यंत यास लगी, िजससे सब अ यंत ही याकुल हो गए। िकंतु जल कह
नह िमला। घने जंगल म सब भुला गए। हनुमान ने मन म अनुमान िकया िक जल िपए िबना सब
लोग मरना ही चाहते ह।
पवन कुमार हनुमान पवत से उतर आए और सबको ले जाकर उ ह ने वह गुफा िदखलाई। सबने
हनुमान को आगे कर िलया और वे गुफा म घुस गए, देर नह क ।
अंदर जाकर उ ह ने एक उ म उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, िजसम बहत-से कमल िखले
हए ह। वह एक सुंदर मंिदर है, िजसम एक तपोमिू त ी बैठी है॥ 24॥
(आ ा पाकर) सबने नान िकया, मीठे फल खाए और िफर सब उसके पास चले आए। तब उसने
अपनी सब कथा कह सुनाई (और कहा -) म अब वहाँ जाऊँगी जहाँ रघुनाथ ह।
तुम लोग आँख मँदू लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीता को पा जाओगे, पछताओ
नह (िनराश न होओ)। आँख मँदू कर िफर जब आँख खोल तो सब वीर या देखते ह िक सब
समु के तीर पर खड़े ह।
और वह वयं वहाँ गई जहाँ रघुनाथ थे। उसने जाकर भु के चरण कमल म म तक नवाया और
बहत कार से िवनती क । भु ने उसे अपनी अनपाियनी (अचल) भि दी।
यहाँ वानरगण मन म िवचार कर रहे ह िक अविध तो बीत गई, पर काम कुछ न हआ। सब
िमलकर आपस म बात करने लगे िक हे भाई! अब तो सीता क खबर िलए िबना लौटकर भी या
करगे!
अंगद ने ने म जल भरकर कहा िक दोन ही कार से हमारी म ृ यु हई। यहाँ तो सीता क सुध
नह िमली और वहाँ जाने पर वानरराज सु ीव मार डालगे।
अंगद बचन सन
ु किप बीरा। बोिल न सकिहं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पिु न अस बचन कहत सब भए॥4॥
वानर वीर अंगद के वचन सुनते ह, िकंतु कुछ बोल नह सकते। उनके ने से जल बह रहा है।
एक ण के िलए सब सोच म म न हो रहे । िफर सब ऐसा वचन कहने लगे-
हे सुयो य युवराज! हम लोग सीता क खोज िलए िबना नह लौटगे। ऐसा कहकर लवणसागर के
तट पर जाकर सब वानर कुश िबछाकर बैठ गए।
जामवंत अंगद दख
ु देखी। कह कथा उपदेस िबसेषी॥
तात राम कहँ नर जिन मानह। िनगन
ु अिजत अज जानह॥
जा बवान ने अंगद का दुःख देखकर िवशेष उपदेश क कथाएँ कह । (वे बोले -) हे तात! राम को
मनु य न मानो, उ ह िनगुण , अजेय और अज मा समझो।
इस कार जा बवान बहत कार से कथाएँ कह रहे ह। इनक बात पवत क कंदरा म स पाती ने
सुन । बाहर िनकलकर उसने बहत-से वानर देखे। (तब वह बोला -) जगदी र ने मुझको घर बैठे
बहत-सा आहार भेज िदया!
आज इन सबको खा जाऊँगा। बहत िदन बीत गए, भोजन के िबना मर रहा था। पेटभर भोजन
कभी नह िमलता। आज िवधाता ने एक ही बार म बहत-सा भोजन दे िदया।
भाई जटायु क करनी सुनकर स पाती ने बहत कार से रघुनाथ क मिहमा वणन क ।
(उसने कहा -) मुझे समु के िकनारे ले चलो, म जटायु को ितलांजिल दे दँू। इस सेवा के बदले म
तु हारी वचन से सहायता क ँ गा (अथात सीता कहाँ ह सो बतला दँूगा), िजसे तुम खोज रहे हो
उसे पा जाओगे॥ 27॥
अनज
ु ि या क र सागर तीरा। किह िनज कथा सन
ु ह किप बीरा॥
हम ौ बंधु थम त नाई। गगन गए रिब िनकट उड़ाई॥
समु के तीर पर छोटे भाई जटायु क ि या ( ा आिद) करके स पाती अपनी कथा कहने
ू के
लगा- हे वीर वानर ! सुनो, हम दोन भाई उठती जवानी म एक बार आकाश म उड़कर सय
िनकट चले गए।
वह (जटायु) तेज नह सह सका, इससे लौट आया। (िकंतु) म अिभमानी था इसिलए सय ू के पास
चला गया। अ यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए। म बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर िगर
पड़ा।
वहाँ चं मा नाम के एक मुिन थे। मुझे देखकर उ ह बड़ी दया लगी। उ ह ने बहत कार से मुझे
ान सुनाया और मेरे देहजिनत (देह संबंधी) अिभमान को छुड़ा िदया।
े ाँ
त मनजु तनु ध रही। तासु ना र िनिसचर पित ह रही॥
तासु खोज पठइिह भु दूता। ित हिह िमल त होब पन
ु ीता॥
े ु त सìीता॥
जिमहिहं पंख करिस जिन िचंता। ित हिह देखाइ देहस
मिु न कइ िगरा स य भइ आजू। सिु न मम बचन करह भु काजू॥
और तेरे पंख उग आएँ गे, िचंता न कर। उ ह तू सीता को िदखा देना। मुिन क वह वाणी आज
स य हई। अब मेरे वचन सुनकर तुम भु का काय करो।
ि कूट पवत पर लंका बसी हई है। वहाँ वभाव से ही िनडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का
उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीता रहती ह। (इस समय भी) वे सोच म म न बैठी ह।
म उ ह देख रहा हँ, तुम नह देख सकते, य िक गीध क ि अपार होती है (बहत दूर तक
जाती है)। या क ँ ? म बढ़ू ा हो गया, नह तो तु हारी कुछ तो सहायता अव य करता॥ 28॥
जो सौ योजन (चार सौ कोस) समु लाँघ सकेगा और बुि िनधान होगा, वही राम का काय कर
सकेगा। मुझे देखकर मन म धीरज धरो। देखो, राम क कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया (िबना
पंख का बेहाल था, पंख उगने से सुंदर हो गया)!
पापी भी िजनका नाम मरण करके अ यंत अपार भवसागर से तर जाते ह। तुम उनके दूत हो,
अतः कायरता छोड़कर राम को दय म धारण करके उपाय करो।
अस किह ग ड़ गीध जब गयऊ। ित ह क मन अित िबसमय भयऊ॥
िनज िनज बल सब काहँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥
ऋ राज जा बवान कहने लगे - म बढ़ू ा हो गया। शरीर म पहले वाले बल का लेश भी नह रहा।
जब खरा र (खर के श ु राम) वामन बने थे, तब म जवान था और मुझम बड़ा बल था।
बिल के बाँधते समय भु इतने बढ़े िक उस शरीर का वणन नह हो सकता, िकंतु मने दो ही घड़ी
म दौड़कर (उस शरीर क ) सात दि णाएँ कर ल ॥ 29॥
अंगद ने कहा - म पार तो चला जाऊँगा, परं तु लौटते समय के िलए दय म कुछ संदेह है।
जा बवान ने कहा - तुम सब कार से यो य हो, परं तु तुम सबके नेता हो, तु हे कैसे भेजा जाए?
कहइ रीछपित सन
ु ु हनम
ु ाना। का चप
ु सािध रहेह बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बिु ध िबबेक िब यान िनधाना॥
ऋ राज जा बवान ने हनुमान से कहा - हे हनुमान! हे बलवान! सुनो, तुमने यह या चुप साध
रखी है? तुम पवन के पु हो और बल म पवन के समान हो। तुम बुि -िववेक और िव ान क
खान हो।
जगत म कौन-सा ऐसा किठन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के काय के िलए ही तो
तु हारा अवतार हआ है। यह सुनते ही हनुमान पवत के आकार के (अ यंत िवशालकाय) हो गए।
उनका सोने का-सा रं ग है, शरीर पर तेज सुशोिभत है, मानो पवत का दूसरा राजा सुमे हो।
हनुमान ने बार-बार िसंहनाद करके कहा - म इस खारे समु को खेल म ही लाँघ सकता हँ।
और सहायक सिहत रावण को मारकर ि कूट पवत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हँ। हे
ू ता हँ, तुम मुझे उिचत सीख देना (िक मुझे या करना चािहए)।
जा बवान! म तुमसे पछ
(जा बवान ने कहा -) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो िक सीता को देखकर लौट आओ और
उनक खबर कह दो। िफर कमलनयन राम अपने बाहबल से (ही रा स का संहार कर सीता को
ले आएँ गे, केवल) खेल के िलए ही वे वानर क सेना साथ लगे।
वानर क सेना साथ लेकर रा स का संहार करके राम सीता को ले आएँ गे। तब देवता और
नारदािद मुिन भगवान के तीन लोक को पिव करने वाले संुदर यश का बखान करगे, िजसे
सुनने, गाने, कहने और समझने से मनु य परमपद पाते ह और िजसे रघुवीर के चरण कमल का
मधुकर ( मर) तुलसीदास गाता है।
िजनका नीले कमल के समान याम शरीर है, िजनक शोभा करोड़ कामदेव से भी अिधक है
और िजनका नाम पाप पी पि य को मारने के िलए बिधक ( याध) के समान है, उन राम के
गुण के समहू (लीला) को अव य सुनना चािहए॥ 30(ख)॥
किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करने वाले ी रामच रतमानस का यह चौथा सोपान समा
हआ।
जा बवान के सुंदर वचन हनुमान के दय को बहत ही भाए। (वे बोले -) हे भाई! तुम लोग दुःख
सहकर, कंद-मलू -फल खाकर तब तक मेरी राह देखना -
जब लिग आव सीतिह देखी। होइिह काजु मोिह हरष िबसेषी॥
यह किह नाइ सबि ह कहँ माथा । चलेउ हरिष िहयँ ध र रघन
ु ाथा॥
समु के तीर पर एक सुंदर पवत था। हनुमान खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा
चढ़े और बार-बार रघुवीर का मरण करके अ यंत बलवान हनुमान उस पर से बड़े वेग से उछले।
िजस पवत पर हनुमान पैर रखकर चले (िजस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल म धँस गया।
जैसे रघुनाथ का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान चले।
समु ने उ ह रघुनाथ का दूत समझकर मैनाक पवत से कहा िक हे मैनाक! तू इनक थकावट
दूर करनेवाला है (अथात अपने ऊपर इ ह िव ाम दे)।
हनुमान ने उसे हाथ से छू िदया, िफर णाम करके कहा - भाई! राम का काम िकए िबना मुझे
िव ाम कहाँ?॥ 1॥
देवताओं ने पवनपु हनुमान को जाते हए देखा। उनक िवशेष बल-बुि को जानने के िलए
उ ह ने सुरसा नामक सप क माता को भेजा, उसने आकर हनुमान से यह बात कही -
तब म आकर तु हारे मँुह म घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! म स य कहता हँ, अभी
मुझे जाने दे। जब िकसी भी उपाय से उसने जाने नह िदया, तब हनुमान ने कहा - तो िफर मुझे
खा न ले।
उसने योजनभर (चार कोस म) मँुह फै लाया। तब हनुमान ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा
िलया। उसने सोलह योजन का मुख िकया। हनुमान तुरंत ही ब ीस योजन के हो गए।
जैसे-जैसे सुरसा मुख का िव तार बढ़ाती थी, हनुमान उसका दूना प िदखलाते थे। उसने सौ
योजन (चार सौ कोस का) मुख िकया। तब हनुमान ने बहत ही छोटा प धारण कर िलया।
और उसके मुख म घुसकर (तुरंत) िफर बाहर िनकल आए और उसे िसर नवाकर िवदा माँगने
लगे। (उसने कहा -) मने तु हारे बुि -बल का भेद पा िलया, िजसके िलए देवताओं ने मुझे भेजा
था।
तुम राम का सब काय करोगे, य िक तुम बल-बुि के भंडार हो। यह आशीवाद देकर वह चली
गई, तब हनुमान हिषत होकर चले॥ 2॥
समु म एक रा सी रहती थी। वह माया करके आकाश म उड़ते हए पि य को पकड़ लेती थी।
आकाश म जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल म उनक परछाई ं देखकर,
उस परछाई ं को पकड़ लेती थी, िजससे वे उड़ नह सकते थे (और जल म िगर पड़ते थे) इस कार
वह सदा आकाश म उड़नेवाले जीव को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान से भी िकया।
हनुमान ने तुरंत ही उसका कपट पहचान िलया।
पवनपु धीरबुि वीर हनुमान उसको मारकर समु के पार गए। वहाँ जाकर उ ह ने वन क
शोभा देखी। मधु (पु प रस) के लोभ से भ रे गुंजार कर रहे थे।
(िशव कहते ह -) हे उमा! इसम वानर हनुमान क कुछ बड़ाई नह है। यह भु का ताप है, जो
काल को भी खा जाता है। पवत पर चढ़कर उ ह ने लंका देखी। बहत ही बड़ा िकला है, कुछ कहा
नह जाता।
वह अ यंत ऊँचा है, उसके चार ओर समु है। सोने के परकोटे (चारदीवारी) का परम काश हो
रहा है।
वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बाविलयाँ सुशोिभत ह। मनु य, नाग,
देवताओं और गंधव क क याएँ अपने स दय से मुिनय के भी मन को मोहे लेती ह। कह पवत
के समान िवशाल शरीरवाले बड़े ही बलवान म ल (पहलवान) गरज रहे ह। वे अनेक अखाड़ म
बहत कार से िभड़ते और एक-दूसरे को ललकारते ह।
भयंकर शरीरवाले करोड़ यो ा य न करके (बड़ी सावधानी से) नगर क चार िदशाओं म (सब
ओर से) रखवाली करते ह। कह दु रा स भस , मनु य , गाय , गदह और बकर को खा रहे
ह। तुलसीदास ने इनक कथा इसीिलए कुछ थोड़ी-सी कही है िक ये िन य ही राम के बाण पी
तीथ म शरीर को यागकर परमगित पाएँ गे।
वह लंिकनी िफर अपने को सँभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर िवनती करने लगी।
(वह बोली -) रावण को जब ा ने वर िदया था, तब चलते समय उ ह ने मुझे रा स के िवनाश
क यह पहचान बता दी थी िक -
अयो यापुरी के राजा रघुनाथ को दय म रखे हए नगर म वेश करके सब काम क िजए। उसके
िलए िवष अमत ृ हो जाता है, श ु िम ता करने लगते ह, समु गाय के खुर के बराबर हो जाता है,
अि न म शीतलता आ जाती है।
और हे ग ड़! सुमे पवत उसके िलए रज के समान हो जाता है, िजसे राम ने एक बार कृपा
करके देख िलया। तब हनुमान ने बहत ही छोटा प धारण िकया और भगवान का मरण करके
नगर म वेश िकया।
मंिदर मंिदर ित क र सोधा। देखे जहँ तहँ अगिनत जोधा॥
गयउ दसानन मंिदर माह । अित िबिच किह जात सो नाह ॥
दो० - रामायध
ु अंिकत गहृ सोभा बरिन न जाइ।
नव तल ु िसका बंदृ तहँ देिख हरष किपराई॥ 5॥
राम राम तेिहं सिु मरन क हा। दयँ हरष किप स जन ची हा॥
एिह सन सिठ क रहउँ पिहचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥
िब प ध र बचन सन ु ाए। सन
ु त िबभीषन उिठ तहँ आए॥
क र नाम पूँछी कुसलाई। िब कहह िनज कथा बझ ु ाई॥
दो० - तब हनम
ु ंत कही सब राम कथा िनज नाम।
सनु त जुगल तन पल ु क मन मगन सिु म र गन
ु ाम॥ 6॥
तब हनुमान ने राम क सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोन के शरीर पुलिकत
हो गए और राम के गुणसमहू का मरण करके दोन के मन ( ेम और आनंद म) म न हो गए॥
6॥
सन
ु ह पवनसत ु रहिन हमारी। िजिम दसनि ह महँ जीभ िबचारी॥
तात कबहँ मोिह जािन अनाथा। क रहिहं कृपा भानक
ु ु ल नाथा॥
(िवभीषण ने कहा -) हे पवनपु ! मेरी रहनी सुनो। म यहाँ वैसे ही रहता हँ जैसे दाँत के बीच म
बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सय ू कुल के नाथ राम या कभी मुझ पर कृपा करगे?
मेरा तामसी (रा स) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नह और न मन म राम के चरणकमल
म ेम ही है। परं तु हे हनुमान! अब मुझे िव ास हो गया िक राम क मुझ पर कृपा है; य िक ह र
क कृपा के िबना संत नह िमलते।
जब रघुवीर ने कृपा क है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दशन िदए ह। (हनुमान
ने कहा -) हे िवभीषण! सुिनए, भु क यही रीित है िक वे सेवक पर सदा ही ेम िकया करते ह।
भला किहए, म ही कौन बड़ा कुलीन हँ? (जाित का) चंचल वानर हँ और सब कार से नीच हँ।
ातःकाल जो हम लोग (बंदर ) का नाम ले ले तो उस िदन उसे भोजन न िमले।
हे सखा! सुिनए, म ऐसा अधम हँ; पर राम ने तो मुझ पर भी कृपा ही क है। भगवान के गुण का
मरण करके हनुमान के दोन ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया॥ 7॥
जो जानते हए भी ऐसे वामी (रघुनाथ) को भुलाकर (िवषय के पीछे ) भटकते िफरते ह, वे दुःखी
य न ह ? इस कार राम के गुणसमहू को कहते हए उ ह ने अिनवचनीय (परम) शांित ा
क।
िफर िवभीषण ने, जानक िजस कार वहाँ (लंका म) रहती थ , वह सब कथा कही। तब हनुमान
ने कहा - हे भाई! सुनो, म जानक माता को देखता चाहता हँ।
जग
ु िु त िबभीषन सकल सन
ु ाई। चलेउ पवनसत
ु िबदा कराई॥
क र सोइ प गयउ पिु न तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥
िवभीषण ने (माता के दशन क ) सब युि याँ (उपाय) कह सुनाई ं। तब हनुमान िवदा लेकर चले।
िफर वही (पहले का मसक-सरीखा) प धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन म (वन के िजस भाग
म) सीता रहती थ ।
त प लव महँ रहा लक
ु ाई। करइ िबचार कर का भाई॥
तेिह अवसर रावनु तहँ आवा। संग ना र बह िकएँ बनावा॥
हनुमान व ृ के प म िछपे रहे और िवचार करने लगे िक हे भाई! या क ँ (इनका दुःख कैसे
दूर क ँ )? उसी समय बहत-सी ि य को साथ िलए सज-धजकर रावण वहाँ आया।
म तु हारी दासी बना दँूगा, यह मेरा ण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम
नेही कोसलाधीश राम का मरण करके जानक ितनके क आड़ (परदा) करके कहने लग -
सन
ु ु दसमख
ु ख ोत कासा। कबहँ िक निलनी करइ िबकासा॥
अस मन समझ ु ु कहित जानक । खल सिु ध निहं रघब
ु ीर बान क ॥
हे दशमुख! सुन, जुगनू के काश से कभी कमिलनी िखल सकती है? जानक िफर कहती ह -
तू (अपने िलए भी) ऐसा ही मन म समझ ले। रे दु ! तुझे रघुवीर के बाण क खबर नह है।
रे पापी! तू मुझे सन
ू े म हर लाया है। रे अधम! िनल ज! तुझे ल जा नह आती?
ू े मेरा अपमान िकया है। म तेरा िसर इस कठोर कृपाण से काट डालँग
सीता! तन ू ा। नह तो (अब
भी) ज दी मेरी बात मान ले। हे सुमुिख! नह तो जीवन से हाथ धोना पड़े गा।
याम सरोज दाम सम संदु र। भु भजु क र कर सम दसकंधर॥
सो भज
ु कंठ िक तव अिस घोरा। सन ु ु सठ अस वान पन मोरा॥
(सीता ने कहा -) हे दश ीव! भु क भुजा जो याम कमल क माला के समान सुंदर और हाथी
क सँड़ू के समान (पु तथा िवशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ म पड़े गी या तेरी भयानक
तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा स चा ण है।
सन
ु त बचन पिु न मारन धावा। मयतनयाँ किह नीित बझ
ु ावा॥
कहेिस सकल िनिसच र ह बोलाई। सीतिह बह िबिध ासह जाई॥
सीता के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव क पु ी मंदोदरी ने नीित कहकर उसे
समझाया। तब रावण ने सब दािसय को बुलाकर कहा िक जाकर सीता को बहत कार से भय
िदखलाओ।
(य कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ रा िसय के समहू बहत-से बुरे प धरकर सीता को भय
िदखलाने लगे॥ 10॥
उनम एक ि जटा नाम क रा सी थी। उसक राम के चरण म ीित थी और वह िववेक ( ान) म
िनपुण थी। उसने सब को बुलाकर अपना व न सुनाया और कहा - सीता क सेवा करके अपना
क याण कर लो।
व न म (मने देखा िक) एक बंदर ने लंका जला दी। रा स क सारी सेना मार डाली गई। रावण
नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके िसर मँुड़े हए ह, बीस भुजाएँ कटी हई ह।
म पुकारकर (िन य के साथ) कहती हँ िक यह व न चार (कुछ ही) िदन बाद स य होकर
रहे गा। उसके वचन सुनकर वे सब रा िसयाँ डर गई ं और जानक के चरण पर िगर पड़ ।
सीता हाथ जोड़कर ि जटा से बोल - हे माता! तू मेरी िवपि क संिगनी है। ज दी कोई ऐसा
उपाय कर िजससे म शरीर छोड़ सकँ ू । िवरह अस हो चला है, अब यह सहा नह जाता।
आिन काठ रचु िचता बनाई। मातु अनल पिु न देिह लगाई॥
स य करिह मम ीित सयानी। सन ु ै को वन सूल सम बानी॥
काठ लाकर िचता बनाकर सजा दे। हे माता! िफर उसम आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी ीित को
ू के समान दुःख देनेवाली वाणी कान से कौन सुने?
स य कर दे। रावण क शल
जीित को सकइ अजय रघरु ाई। माया त अिस रिच निहं जाई॥
सीता मन िबचार कर नाना। मधरु बचन बोलेउ हनमु ाना॥
(वे सोचने लग -) रघुनाथ तो सवथा अजेय ह, उ ह कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी
(माया के उपादान से सवथा रिहत िद य, िच मय) अँगठ
ू ी बनाई नह जा सकती। सीता मन म
अनेक कार के िवचार कर रही थ । इसी समय हनुमान मधुर वचन बोले -
वे रामचं के गुण का वणन करने लगे, (िजनके) सुनते ही सीता का दुःख भाग गया। वे कान
और मन लगाकर उ ह सुनने लग । हनुमान ने आिद से लेकर अब तक क सारी कथा कह
सुनाई।
(सीता बोल -) िजसने कान के िलए अमतृ प यह संुदर कथा कही, वह हे भाई! कट य
नह होता? तब हनुमान पास चले गए। उ ह देखकर सीता िफरकर (मुख फेरकर) बैठ गई ं;
उनके मन म आ य हआ।
(हनुमान ने कहा -) हे माता जानक म राम का दूत हँ। क णािनधान क स ची शपथ करता हँ।
ू ी म ही लाया हँ। राम ने मुझे आपके िलए यह सिहदानी (िनशानी या पहचान)
हे माता! यह अँगठ
दी है।
सेवक को सुख देना उनक वाभािवक बान है। वे रघुनाथ या कभी मेरी भी याद करते ह? हे
तात! या कभी उनके कोमल साँवले अंग को देखकर मेरे ने शीतल ह गे?
(मँुह से) वचन नह िनकलता, ने म (िवरह के आँसुओ ं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे
बोल -) हा नाथ! आपने मुझे िबलकुल ही भुला िदया! सीता को िवरह से परम याकुल देखकर
हनुमान कोमल और िवनीत वचन बोले -
हे माता! सुंदर कृपा के धाम भु भाई ल मण सिहत (शरीर से) कुशल ह, परं तु आपके दुःख से
दुःखी ह। हे माता! मन म लािन न मािनए (मन छोटा करके दुःख न क िजए)। राम के दय म
आपसे दूना ेम है।
दो० - रघप े ु अब सन
ु ित कर संदस ु ु जननी ध र धीर।
अस किह किप गदगद भयउ भरे िबलोचन नीर॥ 14॥
हे माता! अब धीरज धरकर रघुनाथ का संदेश सुिनए। ऐसा कहकर हनुमान ेम से ग द हो गए।
उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया॥ 14॥
(हनुमान बोले -) राम ने कहा है िक हे सीते! तु हारे िवयोग म मेरे िलए सभी पदाथ ितकूल हो
गए ह। व ृ के नए-नए कोमल प े मानो अि न के समान, राि कालराि के समान, चं मा
ू के समान।
सय
कहेह त कछु दख
ु घिट होई। कािह कह यह जान न कोई॥
तव म े कर मम अ तोरा। जानत ि या एकु मनु मोरा॥
मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहँ िकससे? यह दुःख कोई जानता नह ।
हे ि ये! मेरे और तेरे ेम का त व (रह य) एक मेरा मन ही जानता है।
सो मनु सदा रहत तोिह पाह । जानु ीित रसु एतनेिह माह ॥
े ु सन
भु संदस ु त बैदहे ी। मगन म
े तन सिु ध निहं तेही॥
और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे ेम का सार इतने म ही समझ ले। भु का संदेश
सुनते ही जानक ेम म म न हो गई ं। उ ह शरीर क सुध न रही।
हनुमान ने कहा - हे माता! दय म धैय धारण करो और सेवक को सुख देनेवाले राम का मरण
करो। रघुनाथ क भुता को दय म लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो।
ू के उदय होने पर
राम ने यिद खबर पाई होती तो वे िवलंब न करते। हे जानक ! रामबाण पी सय
रा स क सेना पी अंधकार कहाँ रह सकता है?
अबिहं मातु म जाउँ लवाई। भु आयस
ु निहं राम दोहाई॥
कछुक िदवस जननी ध धीरा। किप ह सिहत अइहिहं रघब ु ीरा॥
हे माता! म आपको अभी यहाँ से िलवा जाऊँ; पर राम क शपथ है, मुझे भु (उन) क आ ा नह
है। (अतः) हे माता! कुछ िदन और धीरज धरो। राम वानर सिहत यहाँ आएँ गे
और रा स को मारकर आपको ले जाएँ गे। नारद आिद (ऋिष-मुिन) तीन लोक म उनका यश
गाएँ गे। (सीता ने कहा -) हे पु ! सब वानर तु हारे ही समान (न हे -न हे -से) ह गे, रा स तो बड़े
बलवान, यो ा ह।
अतः मेरे दय म बड़ा भारी संदेह होता है (िक तुम-जैसे बंदर रा स को कैसे जीतगे)! यह
सुनकर हनुमान ने अपना शरीर कट िकया। सोने के पवत (सुमे ) के आकार का (अ यंत
िवशाल) शरीर था, जो यु म श ुओ ं के दय म भय उ प न करनेवाला, अ यंत बलवान और
वीर था।
दो० - सन
ु ु माता साखामग
ृ निहं बल बिु िबसाल।
भु ताप त ग ड़िह खाइ परम लघु याल॥ 16॥
हे माता! सुनो, वानर म बहत बल-बुि नह होती। परं तु भु के ताप से बहत छोटा सप भी
ग ड़ को खा सकता है (अ यंत िनबल भी महान बलवान को मार सकता है)॥ 16॥
मन संतोष सन
ु त किप बानी। भगित ताप तेज बल सानी॥
आिसष दीि ह रामि य जाना। होह तात बल सील िनधाना॥
अजर अमर गन
ु िनिध सत
ु होह। करहँ बहत रघन
ु ायक छोह॥
े मगन हनम
करहँ कृपा भु अस सिु न काना। िनभर म ु ाना॥
हे पु ! तुम अजर (बुढ़ापे से रिहत), अमर और गुण के खजाने होओ। रघुनाथ तुम पर बहत कृपा
कर। ' भु कृपा कर' ऐसा कान से सुनते ही हनुमान पण ू ेम म म न हो गए।
हनुमान ने बार-बार सीता के चरण म िसर नवाया और िफर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब म
कृताथ हो गया। आपका आशीवाद अमोघ (अचक ू ) है, यह बात िस है।
सन
ु ह मातु मोिह अितसय भूखा। लािग देिख संदु र फल खा॥
सनु ु सत
ु करिहं िबिपन रखवारी। परम सभु ट रजनीचर भारी॥
हनुमान को बुि और बल म िनपुण देखकर जानक ने कहा - जाओ। हे तात! रघुनाथ के चरण
को दय म धारण करके मीठे फल खाओ॥ 17॥
वे सीता को िसर नवाकर चले और बाग म घुस गए। फल खाए और व ृ को तोड़ने लगे। वहाँ
बहत-से यो ा रखवाले थे। उनम से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार क -
(और कहा -) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोक वािटका उजाड़ डाली। फल
खाए, व ृ को उखाड़ डाला और रखवाल को मसल-मसलकर जमीन पर डाल िदया।
िफर रावण ने अ य कुमार को भेजा। वह असं य े यो ाओं को साथ लेकर चला। उसे आते
देखकर हनुमान ने एक व ृ (हाथ म) लेकर ललकारा और उसे मारकर महा विन (बड़े जोर) से
गजना क ।
पु का वध सुनकर रावण ोिधत हो उठा और उसने (अपने जेठे पु ) बलवान मेघनाद को भेजा।
(उससे कहा िक -) हे पु ! मारना नह ; उसे बाँध लाना। उस बंदर को देखा जाए िक कहाँ का है।
इं को जीतनेवाला अतुलनीय यो ा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे ोध हो आया।
हनुमान ने देखा िक अबक भयानक यो ा आया है। तब वे कटकटाकर गरजे और दौड़े ।
उ ह ने एक बहत बड़ा व ृ उखाड़ िलया और (उसके हार से) लंके र रावण के पु मेघनाद को
िबना रथ का कर िदया (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक िदया)। उसके साथ जो बड़े -बड़े यो ा थे,
उनको पकड़-पकड़कर हनुमान अपने शरीर से मसलने लगे।
ित हिह िनपाित तािह सन बाजा। िभरे जुगल मानहँ गजराजा॥
मिु ठका मा र चढ़ा त जाई। तािह एक छन मु छा आई॥
िफर उठकर उसने बहत माया रची; परं तु पवन के पु उससे जीते नह जाते।
उसने हनुमान को बाण मारा, (िजसके लगते ही वे व ृ से नीचे िगर पड़े ) परं तु िगरते समय
भी उ ह ने बहत-सी सेना मार डाली। जब उसने देखा िक हनुमान मिू छत हो गए ह, तब वह
उनको नागपाश से बाँधकर ले गया।
(िशव कहते ह -) हे भवानी! सुनो, िजनका नाम जपकर ानी (िववेक ) मनु य संसार (ज म-
मरण) के बंधन को काट डालते ह, उनका दूत कह बंधन म आ सकता है? िकंतु भु के काय के
िलए हनुमान ने वयं अपने को बँधवा िलया।
बंदर का बाँधा जाना सुनकर रा स दौड़े और कौतुक के िलए (तमाशा देखने के िलए) सब सभा
म आए। हनुमान ने जाकर रावण क सभा देखी। उसक अ यंत भुता (ऐ य) कुछ कही नह
जाती।
देवता और िद पाल हाथ जोड़े बड़ी न ता के साथ भयभीत हए सब रावण क भ ताक रहे ह।
(उसका ख देख रहे ह।) उसका ऐसा ताप देखकर भी हनुमान के मन म जरा भी डर नह
हआ। वे ऐसे िनःशंक खड़े रहे , जैसे सप के समहू म ग ड़ िनःशंक िनभय) रहते ह।
हनुमान को देखकर रावण दुवचन कहता हआ खबू हँसा। िफर पु -वध का मरण िकया तो
उसके दय म िवषाद उ प न हो गया॥ 20॥
जो देवताओं क र ा के िलए नाना कार क देह धारण करते ह और जो तु हारे -जैसे मखू को
िश ा देनेवाले ह; िज ह ने िशव के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के
समहू का गव चण ू कर िदया।
खर दूषन ि िसरा अ बाली। बधे सकल अतुिलत बलसाली॥
िज ह ने खर, दूषण, ि िशरा और बािल को मार डाला, जो सब-के-सब अतुलनीय बलवान थे;
जानउँ म तु हा र भत
ु ाई। सहसबाह सन परी लराई॥
समर बािल सन क र जसु पावा। सिु न किप बचन िबहिस िबहरावा॥
म तु हारी भुता को खबू जानता हँ, सह बाह से तु हारी लड़ाई हई थी और बािल से यु करके
तुमने यश ा िकया था। हनुमान के (मािमक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी।
हे (रा स के) वामी! मुझे भख ू लगी थी, (इसिलए) मने फल खाए और वानर वभाव के कारण
व ृ तोड़े । हे (िनशाचर के) मािलक! देह सबको परम ि य है। कुमाग पर चलनेवाले (दु ) रा स
जब मुझे मारने लगे।
तब िज ह ने मुझे मारा, उनको मने भी मारा। उस पर तु हारे पु ने मुझको बाँध िलया। (िकंतु),
मुझे अपने बाँधे जाने क कुछ भी ल जा नह है। म तो अपने भु का काय करना चाहता हँ।
हे रावण! म हाथ जोड़कर तुमसे िवनती करता हँ, तुम अिभमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम
अपने पिव कुल का िवचार करके देखो और म को छोड़कर भ भयहारी भगवान को भजो।
तुम राम के चरण कमल को दय म धारण करो और लंका का अचल रा य करो। ऋिष पुल य
का यश िनमल चं मा के समान है। उस चं मा म तुम कलंक न बनो।
राम नाम के िबना वाणी शोभा नह पाती, मद-मोह को छोड़, िवचारकर देखो। हे देवताओं के श ु!
सब गहन से सजी हई संुदरी ी भी कपड़ के िबना (नंगी) शोभा नह पाती।
राम िबमख
ु संपित भतु ाई। जाइ रही पाई िबनु पाई॥
सजल मूल िज ह स रत ह नाह । बरिष गएँ पिु न तबिहं सख
ु ाह ॥
मोह ही िजनका मलू है ऐसे (अ ानजिनत), बहत पीड़ा देनेवाले, तम प अिभमान का याग कर
दो और रघुकुल के वामी, कृपा के समु भगवान राम का भजन करो॥ 23॥
जदिप कही किप अित िहत बानी। भगित िबबेक िबरित नय सानी॥
बोला िबहिस महा अिभमानी। िमला हमिह किप गरु बड़ यानी॥
रे दु ! तेरी म ृ यु िनकट आ गई है। अधम! मुझे िश ा देने चला है। हनुमान ने कहा - इससे उलटा
ही होगा (अथात म ृ यु तेरी िनकट आई है, मेरी नह )। यह तेरा मित म (बुि का फेर) है, मने
य जान िलया है।
उ ह ने िसर नवाकर और बहत िवनय करके रावण से कहा िक दूत को मारना नह चािहए, यह
नीित के िव है। हे गोसाई ं! कोई दूसरा दंड िदया जाए। सबने कहा - भाई! यह सलाह उ म है।
यह सुनते ही रावण हँसकर बोला - अ छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) िदया जाए।
म सबको समझाकर कहता हँ िक बंदर क ममता पँछू पर होती है। अतः तेल म कपड़ा डुबोकर
उसे इसक पँछ
ू म बाँधकर िफर आग लगा दो॥ 24॥
बचन सन ु त किप मन मस ु क
ु ाना। भइ सहाय सारद म जाना॥
जातध
ु ान सिु न रावन बचना। लागे रच मूढ़ सोइ रचना॥
यह वचन सुनते ही हनुमान मन म मुसकराए (और मन-ही-मन बोले िक) म जान गया, सर वती
(इसे ऐसी बुि देने म) सहायक हई ह। रावण के वचन सुनकर मख
ू रा स वही (पँछ
ू म आग
लगाने क ) तैयारी करने लगे।
ढोल बजते ह, सब लोग तािलयाँ पीटते ह। हनुमान को नगर म िफराकर, िफर पँछ
ू म आग लगा
दी। अि न को जलते हए देखकर हनुमान तुरंत ही बहत छोटे प म हो गए।
उस समय भगवान क ेरणा से उनचास पवन चलने लगे। हनुमान अ हास करके गरजे और
बढ़कर आकाश से जा लगे॥ 25॥
देह बड़ी िवशाल, परं तु बहत ही ह क (फुत ली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़
जाते ह। नगर जल रहा है, लोग बेहाल हो गए ह। आग क करोड़ भयंकर लपट झपट रही ह।
तात मातु हा सिु नअ पक
ु ारा। एिहं अवसर को हमिह उबारा॥
हम जो कहा यह किप निहं होई। बानर प धर सरु कोई॥
हाय ब पा! हाय मैया! इस अवसर पर हम कौन बचाएगा? (चार ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही
है। हमने तो पहले ही कहा था िक यह वानर नह है, वानर का प धरे कोई देवता है!
ू बुझाकर, थकावट दूर करके और िफर छोटा-सा प धारण कर हनुमान जानक के सामने
पँछ
हाथ जोड़कर जा खड़े हए॥ 26॥
(हनुमान ने कहा -) हे माता! मुझे कोई िच (पहचान) दीिजए, जैसे रघुनाथ ने मुझे िदया था। तब
सीता ने चड़
ू ामिण उतारकर दी। हनुमान ने उसको हषपवू क ले िलया।
(जानक ने कहा -) हे तात! मेरा णाम िनवेदन करना और इस कार कहना - हे भु! य िप
आप सब कार से पण ू काम ह (आपको िकसी कार क कामना नह है), तथािप दीन
(दुःिखय ) पर दया करना आपका िवरद है (और म दीन हँ) अतः उस िवरद को याद करके, हे
नाथ! मेरे भारी संकट को दूर क िजए।
तात स सतु कथा सनाएह। बान ताप भिु ह समझ ु ाएह॥
मास िदवस महँ नाथु न आवा। तौ पिु न मोिह िजअत निहं पावा॥
हे हनुमान! कहो, म िकस कार ाण रखँ!ू हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको
देखकर छाती ठं डी हई थी। िफर मुझे वही िदन और वही रात!
दो० - जनकसत
ु िह समझ
ु ाइ क र बह िबिध धीरजु दी ह।
चरन कमल िस नाइ किप गवनु राम पिहं क ह॥ 27॥
हनुमान ने जानक को समझाकर बहत कार से धीरज िदया और उनके चरणकमल म िसर
नवाकर राम के पास गमन िकया॥ 27॥
सब हनुमान से िमले और बहत ही सुखी हए, जैसे तड़पती हई मछली को जल िमल गया हो। सब
ू ते- कहते हए रघुनाथ के पास चले।
हिषत होकर नए-नए इितहास (व ृ ांत) पछ
तब मधब
ु न भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मिु हार हनत सब भागे॥
तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद क स मित से सबने मधुर फल (या मधु और फल)
खाए। जब रखवाले बरजने लगे, तब घँस
ू क मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे।
ु न के फल सकिहं िक खाई॥
ज न होित सीता सिु ध पाई। मधब
एिह िबिध मन िबचार कर राजा। आइ गए किप सिहत समाजा॥
यिद सीता क खबर न पाई होती तो या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस कार राजा
सु ीव मन म िवचार कर ही रहे थे िक समाज-सिहत वानर आ गए।
(सबने आकर सु ीव के चरण म िसर नवाया। किपराज सु ीव सभी से बड़े ेम के साथ िमले।
उ ह ने कुशल पछू ी, (तब वानर ने उ र िदया -) आपके चरण के दशन से सब कुशल है। राम
क कृपा से िवशेष काय हआ (काय म िवशेष सफलता हई है)।
राम ने जब वानर को काय िकए हए आते देखा तब उनके मन म िवशेष हष हआ। दोन भाई
फिटक िशला पर बैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरण पर िगर पड़े ।
जा बवान ने कहा - हे रघुनाथ! सुिनए। हे नाथ! िजस पर आप दया करते ह, उसे सदा क याण
और िनरं तर कुशल है। देवता, मनु य और मुिन सभी उस पर स न रहते ह।
वही िवजयी है, वही िवनयी है और वही गुण का समु बन जाता है। उसी का संुदर यश तीन
लोक म कािशत होता है। भु क कृपा से सब काय हआ। आज हमारा ज म सफल हो गया।
नाथ पवनसत
ु क ि ह जो करनी। सहसहँ मख ु न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के च रत सहु ाए। जामवंत रघप
ु ितिह सन
ु ाए॥
सन
ु त कृपािनिध मन अित भाए। पिु न हनम
ु ान हरिष िहयँ लाए॥
कहह तात केिह भाँित जानक । रहित करित र छा व ान क ॥
(हनुमान ने कहा -) आपका नाम रात-िदन पहरा देनेवाला है, आपका यान ही िकवाड़ है। ने
को अपने चरण म लगाए रहती ह, यही ताला लगा है; िफर ाण जाएँ तो िकस माग से?॥ 30॥
चलते समय उ ह ने मुझे चड़ू ामिण (उतारकर) दी। रघुनाथ ने उसे लेकर दय से लगा िलया।
(हनुमान ने िफर कहा -) हे नाथ! दोन ने म जल भरकर जानक ने मुझसे कुछ वचन कहे -
अनज
ु समेत गहेह भु चरना। दीन बंधु नतारित हरना॥
मन म बचन चरन अनरु ागी। केिहं अपराध नाथ ह यागी॥
छोटे भाई समेत भु के चरण पकड़ना (और कहना िक) आप दीनबंधु ह, शरणागत के दुःख को
हरनेवाले ह और म मन, वचन और कम से आपके चरण क अनुरािगणी हँ। िफर वामी (आप) ने
मुझे िकस अपराध से याग िदया?
(हाँ) एक दोष म अपना (अव य) मानती हँ िक आपका िवयोग होते ही मेरे ाण नह चले गए।
िकंतु हे नाथ! यह तो ने का अपराध है जो ाण के िनकलने म हठपवू क बाधा देते ह।
िवरह अि न है, शरीर ई है और ास पवन है; इस कार (अि न और पवन का संयोग होने से)
यह शरीर णमा म जल सकता है। परं तु ने अपने िहत के िलए भु का व प देखकर (सुखी
होने के िलए) जल (आँस)ू बरसाते ह, िजससे िवरह क आग से भी देह जलने नह पाती।
सीता क िवपि बहत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह िबना कही ही अ छी है (कहने से आपको बड़ा
लेश होगा)।
हे क णािनधान! उनका एक-एक पल क प के समान बीतता है। अतः हे भु! तुरंत चिलए और
अपनी भुजाओं के बल से दु के दल को जीतकर सीता को ले आइए॥ 31॥
सिु न सीता दख
ु भु सख
ु अयना। भ र आए जल रािजव नयना॥
बचन कायँ मन मम गित जाही। सपनेहँ बूिझअ िबपित िक ताही॥
सीता का दुःख सुनकर सुख के धाम भु के कमल ने म जल भर आया (और वे बोले -) मन,
वचन और शरीर से िजसे मेरी ही गित (मेरा ही आ य) है, उसे या व न म भी िवपि हो सकती
है?
कह हनम
ु ंत िबपित भु सोई। जब तव सिु मरन भजन न होई॥
केितक बात भु जातध
ु ान क । रपिु ह जीित आिनबी जानक ॥
हनुमान ने कहा - हे भो! िवपि तो वही (तभी) है जब आपका भजन- मरण न हो। हे भो!
रा स क बात ही िकतनी है? आप श ु को जीतकर जानक को ले आएँ गे।
सन
ु ु किप तोिह समान उपकारी। निहं कोउ सरु नर मिु न तनध
ु ारी॥
ित उपकार कर का तोरा। सनमख ु होइ न सकत मन मोरा॥
(भगवान कहने लगे -) हे हनुमान! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनु य अथवा मुिन कोई
भी शरीरधारी नह है। म तेरा युपकार (बदले म उपकार) तो या क ँ , मेरा मन भी तेरे सामने
नह हो सकता।
हे पु ! सुन, मने मन म (खबू ) िवचार करके देख िलया िक म तुझसे उऋण नह हो सकता।
देवताओं के र क भु बार-बार हनुमान को देख रहे ह। ने म ेमा ुओ ं का जल भरा है और
शरीर अ यंत पुलिकत है।
भु के वचन सुनकर और उनके ( स न) मुख तथा (पुलिकत) अंग को देखकर हनुमान हिषत
हो गए और ेम म िवकल होकर 'हे भगवन्! मेरी र ा करो, र ा करो' कहते हए राम के चरण
म िगर पड़े ॥ 32॥
भु उनको बार-बार उठाना चाहते ह, परं तु ेम म डूबे हए हनुमान को चरण से उठना सुहाता
नह । भु का करकमल हनुमान के िसर पर है। उस ि थित का मरण करके िशव ेमम न हो
गए।
िफर मन को सावधान करके शंकर अ यंत सुंदर कथा कहने लगे - हनुमान को उठाकर भु ने
दय से लगाया और हाथ पकड़कर अ यंत िनकट बैठा िलया।
कह किप रावन पािलत लंका। केिह िबिध दहेउ दग
ु अित बंका॥
भु स न जाना हनमु ाना। बोला बचन िबगत अिभमाना॥
हे हनुमान! बताओ तो, रावण के ारा सुरि त लंका और उसके बड़े बाँके िकले को तुमने िकस
तरह जलाया? हनुमान ने भु को स न जाना और वे अिभमानरिहत वचन बोले -
बंदर का बस, यही बड़ा पु षाथ है िक वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मने जो
समु लाँघकर सोने का नगर जलाया और रा सगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला,
यह सब तो हे रघुनाथ! आप ही का ताप है। हे नाथ! इसम मेरी भुता (बड़ाई) कुछ भी नह है।
हे भु! िजस पर आप स न ह , उसके िलए कुछ भी किठन नह है। आपके भाव से ई (जो
वयं बहत ज दी जल जानेवाली व तु है) बड़वानल को िन य ही जला सकती है (अथात
असंभव भी संभव हो सकता है)॥ 33॥
हे नाथ! मुझे अ यंत सुख देनेवाली अपनी िन ल भि कृपा करके दीिजए। हनुमान क अ यंत
सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब भु राम ने 'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहा।
उमा राम सभ
ु ाउ जेिहं जाना। तािह भजनु तिज भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघप ु ित चरन भगित सोइ पावा॥
हे उमा! िजसने राम का वभाव जान िलया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नह सुहाती। यह
वामी-सेवक का संवाद िजसके दय म आ गया, वही रघुनाथ के चरण क भि पा गया।
भु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे - कृपालु आनंदकंद राम क जय हो जय हो, जय हो!
तब रघुनाथ ने किपराज सु ीव को बुलाया और कहा - चलने क तैयारी करो।
अब िवलंब िकस कारण िकया जाए? वानर को तुरंत आ ा दो। (भगवान क ) यह लीला
(रावणवध क तैयारी) देखकर, बहत-से फूल बरसाकर और हिषत होकर देवता आकाश से
अपने-अपने लोक को चले।
वे भु के चरण कमल म िसर नवाते ह। महान बलवान रीछ और वानर गरज रहे ह। राम ने
वानर क सारी सेना देखी। तब कमल ने से कृपापवू क उनक ओर ि डाली।
राम कृपा का बल पाकर े वानर मानो पंखवाले बड़े पवत हो गए। तब राम ने हिषत होकर
थान (कूच) िकया। अनेक सुंदर और शुभ शकुन हए।
िजनक क ित सब मंगल से पण ू है, उनके थान के समय शकुन होना, यह नीित है (लीला
क मयादा है)। भु का थान जानक ने भी जान िलया। उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर
मानो कहे देते थे (िक राम आ रहे ह)।
जानक को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के िलए अपशकुन हए। सेना चली, उसका
वणन कौन कर सकता है? असं य वानर और भालू गजना कर रहे ह।
नख आयध ु िग र पादपधारी। चले गगन मिह इ छाचारी॥
केह रनाद भालु किप करह । डगमगािहं िद गज िच करह ॥
िदशाओं के हाथी िचं घाड़ने लगे, प ृ वी डोलने लगी, पवत चंचल हो गए (काँपने लगे) और समु
खलबला उठे । गंधव, देवता, मुिन, नाग, िक नर सब के सब मन म हिषत हए िक (अब) हमारे
दुःख टल गए। अनेक करोड़ भयानक वानर यो ा कटकटा रहे ह और करोड़ ही दौड़ रहे ह।
' बल ताप कोसलनाथ राम क जय हो' ऐसा पुकारते हए वे उनके गुणसमहू को गा रहे ह।
उदार (परम े एवं महान) सपराज शेष भी सेना का बोझ नह सह सकते, वे बार-बार मोिहत
हो जाते (घबड़ा जाते) ह और पुनः-पुनः क छप क कठोर पीठ को दाँत से पकड़ते ह। ऐसा करते
(अथात बार-बार दाँत को गड़ाकर क छप क पीठ पर लक र-सी ख चते हए) वे कैसे शोभा दे
रहे ह मानो राम क सुंदर थान या ा को परम सुहावनी जानकर उसक अचल पिव कथा को
सपराज शेष क छप क पीठ पर िलख रहे ह ।
इस कार कृपािनधान राम समु तट पर जा उतरे । अनेक रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने
लगे॥ 35॥
िजसके दूत का बल वणन नह िकया जा सकता, उसके वयं नगर म आने पर कौन भलाई है
(हम लोग क बड़ी बुरी दशा होगी)? दूितय से नगरवािसय के वचन सुनकर मंदोदरी बहत ही
याकुल हो गई।
वह एकांत म हाथ जोड़कर पित (रावण) के चरण लगी और नीितरस म पगी हई वाणी बोली - हे
ि यतम! ह र से िवरोध छोड़ दीिजए। मेरे कहने को अ यंत ही िहतकर जानकर दय म धारण
क िजए।
िजनके दूत क करनी का िवचार करते ही ( मरण आते ही) रा स क ि य के गभ िगर जाते
ह, हे यारे वामी! यिद भला चाहते ह, तो अपने मं ी को बुलाकर उसके (दूत के) साथ उनक
ी को भेज दीिजए।
सीता आपके कुल पी कमल के वन को दुःख देनेवाली जाड़े क राि के समान आई है। हे
नाथ! सुिनए, सीता को िदए (लौटाए) िबना शंभु और ा के िकए भी आपका भला नह हो
सकता।
वन सन
ु ी सठ ता क र बानी। िबहसा जगत िबिदत अिभमानी॥
सभय सभु ाउ ना र कर साचा। मंगल महँ भय मन अित काचा॥
मखू और जगत िस अिभमानी रावण कान से उसक वाणी सुनकर खबू हँसा (और बोला -)
ि य का वभाव सचमुच ही बहत डरपोक होता है। मंगल म भी भय करती हो! तु हारा मन
( दय) बहत ही क चा (कमजोर) है।
यिद वानर क सेना आएगी तो बेचारे रा स उसे खाकर अपना जीवन िनवाह करगे। लोकपाल
भी िजसके डर से काँपते ह, उसक ी डरती हो, यह बड़ी हँसी क बात है।
रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे दय से लगा िलया और ममता बढ़ाकर (अिधक नेह
दशाकर) वह सभा म चला गया। मंदोदरी दय म िचंता करने लगी िक पित पर िवधाता ितकूल
हो गए।
य ही वह सभा म जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई िक श ु क सारी सेना समु के उस पार
आ गई है। उसने मंि य से पछू ा िक उिचत सलाह किहए (अब या करना चािहए?)। तब वे सब
हँसे और बोले िक चुप िकए रिहए (इसम सलाह क कौन-सी बात है?)।
पिु न िस नाइ बैठ िनज आसन। बोला बचन पाइ अनस ु ासन॥
जौ कृपाल पूँिछह मोिह बाता। मित अनु प कहउँ िहत ताता॥
िफर से िसर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आ ा पाकर ये वचन बोले - हे कृपाल! जब
ू ी ही है, तो हे तात! म अपनी बुि के अनुसार आपके िहत क बात
आपने मुझसे बात (राय) पछ
कहता हँ -
जो मनु य अपना क याण, सुंदर यश, सुबुि , शुभ गित और नाना कार के सुख चाहता हो, वह
हे वामी! पर ी के ललाट को चौथ के चं मा क तरह याग दे (अथात जैसे लोग चौथ के
चं मा को नह देखते, उसी कार पर ी का मुख ही न देखे)।
चौदह भव
ु न एक पित होई। भूत ोह ित इ निहं सोई॥
गन
ु सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥
चौदह भुवन का एक ही वामी हो, वह भी जीव से वैर करके ठहर नह सकता (न हो जाता
है)। जो मनु य गुण का समु और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ य न हो, तो भी कोई भला
नह कहता।
िजसे संपण
ू जगत से ोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर भु उसका भी याग नह करते।
िजनका नाम तीन ताप का नाश करनेवाला है, वे ही भु (भगवान) मनु य प म कट हए ह।
हे रावण! दय म यह समझ लीिजए।
मिु न पल
ु ि त िनज िस य सन किह पठई यह बात।
तरु त सो म भु सन कही पाइ सअ
ु वस तात॥ 39(ख)॥
मुिन पुल य ने अपने िश य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुंदर अवसर पाकर मने
तुरंत ही वह बात भु (आप) से कह दी॥ 39(ख)॥
मा यवान नाम का एक बहत ही बुि मान मं ी था। उसने उन (िवभीषण) के वचन सुनकर बहत
सुख माना (और कहा -) हे तात! आपके छोटे भाई नीित-िवभषू ण (नीित को भषू ण प म धारण
करनेवाले अथात नीितमान) ह। िवभीषण जो कुछ कह रहे ह उसे दय म धारण कर लीिजए।
सम
ु ित कुमित सब क उर रहह । नाथ परु ान िनगम अस कहह ॥
जहाँ सम
ु ित तहँ संपित नाना। जहाँ कुमित तहँ िबपित िनदाना॥
हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते ह िक सुबुि (अ छी बुि ) और कुबुि (खोटी बुि ) सबके
दय म रहती है, जहाँ सुबुि है, वहाँ नाना कार क संपदाएँ (सुख क ि थित) रहती ह और
जहाँ कुबुि है वहाँ प रणाम म िवपि (दुःख) रहती है।
आपके दय म उलटी बुि आ बसी है। इसी से आप िहत को अिहत और श ु को िम मान रहे ह।
जो रा स कुल के िलए कालराि (के समान) ह, उन सीता पर आपक बड़ी ीित है।
हे तात! म चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हँ (िवनती करता हँ) िक आप मेरा दुलार रिखए
(मुझ बालक के आ ह को नेहपवू क वीकार क िजए)। राम को सीता दे दीिजए, िजसम आपका
अिहत न हो॥ 40॥
बध
ु परु ान ुित संमत बानी। कही िबभीषन नीित बखानी॥
सनु त दसानन उठा रसाई। खल तोिह िनकट म ृ यु अब आई॥
िवभीषण ने पंिडत , पुराण और वेद ारा स मत (अनुमोिदत) वाणी से नीित बखानकर कही।
पर उसे सुनते ही रावण ोिधत होकर उठा और बोला िक रे दु ! अब म ृ यु तेरे िनकट आ गई है!
(िशव कहते ह -) हे उमा! संत क यही बड़ाई (मिहमा) है िक वे बुराई करने पर भी (बुराई
करनेवाले क ) भलाई ही करते ह। (िवभीषण ने कहा -) आप मेरे िपता के समान ह, मुझे मारा सो
तो अ छा ही िकया; परं तु हे नाथ! आपका भला राम को भजने म ही है।
(इतना कहकर) िवभीषण अपने मंि य को साथ लेकर आकाश माग म गए और सबको सुनाकर
वे ऐसा कहने लगे -
राम स य संक प एवं (सवसमथ) भु ह और (हे रावण!) तु हारी सभा काल के वश है। अतः म
अब रघुवीर क शरण जाता हँ, मुझे दोष न देना॥ 41॥
(वे सोचते जाते थे -) म जाकर भगवान के कोमल और लाल वण के सुंदर चरण कमल के दशन
क ँ गा, जो सेवक को सुख देनेवाले ह, िजन चरण का पश पाकर ऋिष प नी अह या तर गई ं
और जो दंडकवन को पिव करनेवाले ह।
िजन चरण क पादुकाओं म भरत ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज म उ ह चरण को
अभी जाकर इन ने से देखँग
ू ा॥ 42॥
इस कार ेमसिहत िवचार करते हए वे शी ही समु के इस पार (िजधर राम क सेना थी) आ
गए। वानर ने िवभीषण को आते देखा तो उ ह ने जाना िक श ु का कोई खास दूत है।
भु राम ने कहा - हे िम ! तुम या समझते हो (तु हारी या राय है)? वानरराज सु ीव ने कहा
- हे महाराज! सुिनए, रा स क माया जानी नह जाती। यह इ छानुसार प बदलनेवाला (छली)
न जाने िकस कारण आया है।
ू हमारा भेद लेने आया है, इसिलए मुझे तो यही अ छा लगता है िक इसे
(जान पड़ता है) यह मख
बाँध रखा जाए। (राम ने कहा -) हे िम ! तुमने नीित तो अ छी िवचारी! परं तु मेरा ण तो है
शरणागत के भय को हर लेना!
भु के वचन सुनकर हनुमान हिषत हए (और मन-ही-मन कहने लगे िक) भगवान कैसे
शरणागतव सल (शरण म आए हए पर िपता क भाँित ेम करनेवाले) ह।
(राम िफर बोले -) जो मनु य अपने अिहत का अनुमान करके शरण म आए हए का याग कर
देते ह, वे पामर ( ु ) ह, पापमय ह, उ ह देखने म भी हािन है (पाप लगता है)॥ 43॥
पापी का यह सहज वभाव होता है िक मेरा भजन उसे कभी नह सुहाता। यिद वह (रावण का
भाई) िन य ही दु दय का होता तो या वह मेरे स मुख आ सकता था?
जो मनु य िनमल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-िछ नह सुहाते। यिद
उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सु ीव! अपने को कुछ भी भय या हािन नह है।
कृपा के धाम राम ने हँसकर कहा - दोन ही ि थितय म उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान
सिहत सु ीव 'कपालु राम क जय हो' कहते हए चले॥ 44॥
िवभीषण को आदर सिहत आगे करके वानर िफर वहाँ चले, जहाँ क णा क खान रघुनाथ थे।
ने को आनंद का दान देनेवाले (अ यंत सुखद) दोन भाइय को िवभीषण ने दूर ही से देखा।
िफर शोभा के धाम राम को देखकर वे पलक (मारना) रोककर िठठककर ( त ध होकर)
एकटक देखते ही रह गए। भगवान क िवशाल भुजाएँ ह, लाल कमल के समान ने ह और
शरणागत के भय का नाश करनेवाला साँवला शरीर है।
िसंह के-से कंधे ह, िवशाल व ः थल (चौड़ी छाती) अ यंत शोभा दे रहा है। असं य कामदेव के
मन को मोिहत करनेवाला मुख है। भगवान के व प को देखकर िवभीषण के ने म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया और शरीर अ यंत पुलिकत हो गया। िफर मन म धीरज धरकर उ ह ने कोमल
वचन कहे ।
हे नाथ! म दशमुख रावण का भाई हँ। हे देवताओं के र क! मेरा ज म रा स कुल म हआ है। मेरा
तामसी शरीर है, वभाव से ही मुझे पाप ि य ह, जैसे उ लू को अंधकार पर सहज नेह होता है।
भु ने उ ह ऐसा कहकर दंडवत करते देखा तो वे अ यंत हिषत होकर तुरंत उठे । िवभीषण के
दीन वचन सुनने पर भु के मन को बहत ही भाए। उ ह ने अपनी िवशाल भुजाओं से पकड़कर
उनको दय से लगा िलया।
अनज
ु सिहत िमिल िढग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी॥
कह लंकेस सिहत प रवारा। कुसल कुठाहर बास तु हारा॥
छोटे भाई ल मण सिहत गले िमलकर उनको अपने पास बैठाकर राम भ के भय को हरनेवाले
वचन बोले - हे लंकेश! प रवार सिहत अपनी कुशल कहो। तु हारा िनवास बुरी जगह पर है।
िदन-रात दु क मंडली म बसते हो। (ऐसी दशा म) हे सखे! तु हारा धम िकस कार िनभता
है? म तु हारी सब रीित (आचार- यवहार) जानता हँ। तुम अ यंत नीितिनपुण हो, तु ह अनीित
नह सुहाती।
हे तात! नरक म रहना वरन अ छा है, परं तु िवधाता दु का संग (कभी) न दे। (िवभीषण ने कहा
-) हे रघुनाथ! अब आपके चरण का दशन कर कुशल से हँ, जो आपने अपना सेवक जानकर
मुझ पर दया क है।
ू अँधेरी रात है, जो राग- ेष पी उ लुओ ं को सुख देनेवाली है। वह (ममता पी राि )
ममता पण
तभी तक जीव के मन म बसती है, जब तक भु (आप) का ताप पी सय ू उदय नह होता।
हे राम! आपके चरणारिवंद के दशन कर अब म कुशल से हँ, मेरे भारी भय िमट गए। हे कृपालु!
आप िजस पर अनुकूल होते ह, उसे तीन कार के भवशलू (आ याि मक, आिधदैिवक और
आिधभौितक ताप) नह यापते।
म अ यंत नीच वभाव का रा स हँ। मने कभी शुभ आचरण नह िकया। िजनका प मुिनय के
भी यान म नह आता, उन भु ने वयं हिषत होकर मुझे दय से लगा िलया।
हे कृपा और सुख के पुंज राम! मेरा अ यंत असीम सौभा य है, जो मने ा और िशव के ारा
सेिवत युगल चरण कमल को अपने ने से देखा॥ 47॥
सन
ु ह सखा िनज कहउँ सभु ाऊ। जान भस
ु ंिु ड संभु िग रजाऊ॥
ज नर होइ चराचर ोही। आवै सभय सरन तिक मोही॥
(राम ने कहा -) हे सखा! सुनो, म तु ह अपना वभाव कहता हँ, िजसे काकभुशुंिड, िशव और
पावती भी जानती ह। कोई मनु य (संपण ू ) जड़-चेतन जगत का ोही हो, यिद वह भी भयभीत
होकर मेरी शरण तककर आ जाए,
और मद, मोह तथा नाना कार के छल-कपट याग दे तो म उसे बहत शी साधु के समान कर
देता हँ। माता, िपता, भाई, पु , ी, शरीर, धन, घर, िम और प रवार -
ऐसा स जन मेरे दय म कैसे बसता है, जैसे लोभी के दय म धन बसा करता है। तुम-सरीखे
संत ही मुझे ि य ह। म और िकसी के िनहोरे से (कृत तावश) देह धारण नह करता।
दो० - सगन
ु उपासक परिहत िनरत नीित ढ़ नेम।
ते नर ान समान मम िज ह क ि ज पद मे ॥ 48॥
जो सगुण (साकार) भगवान के उपासक ह, दूसरे के िहत म लगे रहते ह, नीित और िनयम म
ढ़ ह और िज ह ा ण के चरण म ेम है, वे मनु य मेरे ाण के समान ह॥ 48॥
हे लंकापित! सुनो, तु हारे अंदर उपयु सब गुण ह। इससे तुम मुझे अ यंत ही ि य हो। राम के
वचन सुनकर सब वानर के समहू कहने लगे - कृपा के समहू राम क जय हो!
(और कहा -) हे सखा! य िप तु हारी इ छा नह है, पर जगत म मेरा दशन अमोघ है (वह
िन फल नह जाता)। ऐसा कहकर राम ने उनको राजितलक कर िदया। आकाश से पु प क
अपार विृ हई।
िशव ने जो संपि रावण को दस िसर क बिल देने पर दी थी, वही संपि रघुनाथ ने िवभीषण
को बहत सकुचते हए दी॥ 49(ख)॥
ू के पशु ह।
ऐसे परम कृपालु भु को छोड़कर जो मनु य दूसरे को भजते ह, वे िबना स ग-पँछ
अपना सेवक जानकर िवभीषण को राम ने अपना िलया। भु का वभाव वानरकुल के मन को
(बहत) भाया।
कह लंकेस सन
ु ह रघन
ु ायक। कोिट िसंधु सोषक तव सायक॥
ज िप तदिप नीित अिस गाई। िबनय क रअ सागर सन जाई॥
हे भु! समु आपके कुल म बड़े (पवू ज) ह, वे िवचारकर उपाय बतला दगे। तब रीछ और वानर
क सारी सेना िबना ही प र म के समु के पार उतर जाएगी॥ 50॥
(राम ने कहा -) हे सखा! तुमने अ छा उपाय बताया। यही िकया जाए, यिद दैव सहायक ह । यह
सलाह ल मण के मन को अ छी नह लगी। राम के वचन सुनकर तो उ ह ने बहत ही दुःख
पाया।
सन
ु त िबहिस बोले रघब
ु ीरा। ऐसेिहं करब धरह मन धीरा॥
अस किह भु अनज ु िह समझ ु ाई। िसंधु समीप गए रघरु ाई॥
यह सुनकर रघुवीर हँसकर बोले - ऐसे ही करगे, मन म धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को
समझाकर भु रघुनाथ समु के समीप गए।
वानर उ ह बहत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, िफर भी वानर ने उ ह नह छोड़ा।
(तब दूत ने पुकारकर कहा -) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश राम क सौगंध है।
दो० - कहेह मख
ु ागर मूढ़ सन मम संदसे ु उदार।
सीता देइ िमलह न त आवा कालु तु हार॥ 52॥
िफर उस मखू से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हआ) संदेश कहना िक सीता को देकर
उनसे (राम से) िमलो, नह तो तु हारा काल आ गया (समझो)॥ 52॥
दो० - क भइ भट िक िफ र गए वन सज
ु सु सिु न मोर।
कहिस न रपु दल तेज बल बहत चिकत िचत तोर॥ 53॥
उनसे तेरी भट हई या वे कान से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? श ु सेना का तेज और बल
बताता य नह ? तेरा िच बहत ही चिकत (भ च का-सा) हो रहा है॥ 53॥
ि िवद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, िवकटा य, दिधमुख, केसरी, िनशठ, शठ और जा बवान -
ये सभी बल क रािश ह॥ 54॥
अस म सन
ु ा वन दसकंधर। पदम ु अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो किप नाह । जो न तु हिह जीतै रन माह ॥
हे दश ीव! मने कान से ऐसा सुना है िक अठारह प तो अकेले वानर के सेनापित ह। हे नाथ!
उस सेना म ऐसा कोई वानर नह है, जो आपको रण म न जीत सके।
और रावण को मसलकर धलू म िमला दगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे ह। सब सहज ही
िनडर ह; इस कार गरजते और डपटते ह मानो लंका को िनगल ही जाना चाहते ह।
सब वानर-भालू सहज ही शरू वीर ह िफर उनके िसर पर भु (सव र) राम ह। हे रावण! वे सं ाम
म करोड़ काल को जीत सकते ह॥ 55॥
उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (राम) समु से राह माँग रहे ह, उनके मन म कृपा भरी
है (इसिलए वे उसे सोखते नह )। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खबू हँसा (और बोला -) जब
ऐसी बुि है, तभी तो वानर को सहायक बनाया है!
रामानज
ु दी ह यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावह छाती॥
िबहिस बाम कर ली ह रावन। सिचव बोिल सठ लाग बचावन॥
(और कहा -) राम के छोटे भाई ल मण ने यह पि का दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठं डी
क िजए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से िलया और मं ी को बुलवाकर वह मखू उसे बँचाने
लगा।
जनकसत ु ा रघन
ु ाथिह दीजे। एतना कहा मोर भु क जे॥
जब तेिहं कहा देन बैदहे ी। चरन हार क ह सठ तेही॥
जानक रघुनाथ को दे दीिजए। हे भु! इतना कहना मेरा क िजए। जब उस (दूत) ने जानक को
देने के िलए कहा, तब दु रावण ने उसको लात मारी।
वह भी (िवभीषण क भाँित) चरण म िसर नवाकर वह चला, जहाँ कृपासागर रघुनाथ थे। णाम
करके उसने अपनी कथा सुनाई और राम क कृपा से अपनी गित (मुिन का व प) पाई।
(िशव कहते ह -) हे भवानी! वह ानी मुिन था, अग य ऋिष के शाप से रा स हो गया था। बार-
बार राम के चरण क वंदना करके वह मुिन अपने आ म को चला गया।
इधर तीन िदन बीत गए, िकंतु जड़ समु िवनय नह मानता। तब राम ोध सिहत बोले - िबना
भय के ीित नह होती!॥ 57॥
मगर, साँप तथा मछिलय के समहू याकुल हो गए। जब समु ने जीव को जलते जाना, तब
सोने के थाल म अनेक मिणय (र न ) को भरकर अिभमान छोड़कर वह ा ण के प म आया।
(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! सुिनए, चाहे कोई करोड़ उपाय करके स चे, पर केला तो
काटने पर ही फलता है। नीच िवनय से नह मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रा ते पर आता
है)॥ 58॥
समु ने भयभीत होकर भु के चरण पकड़कर कहा - हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) मा
क िजए। हे नाथ! आकाश, वायु, अि न, जल और प ृ वी - इन सबक करनी वभाव से ही जड़ है।
आपक ेरणा से माया ने इ ह सिृ के िलए उ प न िकया है, सब ंथ ने यही गाया है। िजसके
िलए वामी क जैसी आ ा है, वह उसी कार से रहने म सुख पाता है।
भु ने अ छा िकया जो मुझे िश ा (दंड) दी; िकंतु मयादा (जीव का वभाव) भी आपक ही बनाई
हई है। ढोल, गँवार, शू , पशु और ी - ये सब ताड़ना के अिधकारी ह।
भु के ताप से म सख ू जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसम मेरी बड़ाई नह है (मेरी मयादा
नह रहे गी)। तथािप भु क आ ा अपेल है (अथात आपक आ ा का उ लंघन नह हो सकता)
ऐसा वेद गाते ह। अब आपको जो अ छा लगे, म तुरंत वही क ँ ।
समु के अ यंत िवनीत वचन सुनकर कृपालु राम ने मुसकराकर कहा - हे तात! िजस कार
वानर क सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥ 59॥
म पिु न उर ध र भु भत
ु ाई। क रहउँ बल अनम ु ान सहाई॥
एिह िबिध नाथ पयोिध बँधाइअ। जेिहं यह सज
ु सु लोक ितहँ गाइअ॥
राम का भारी बल और पौ ष देखकर समु हिषत होकर सुखी हो गया। उसने उन दु का सारा
च र भु को कह सुनाया। िफर चरण क वंदना करके समु चला गया।
(सुंदरकांड समा )
लंकाकांड
रामं कामा रसे यं भवभयहरणं कालम भ े िसंहं
योगी ं ानग यं गण ु िनिधमिजतं िनगणं ु िनिवकारम्।
मायातीतं सरु े शं खलवधिनरतं वृ दैकदेवं
वंद े कंदावदातं सरिसजनयनं देवमव
ु श पम्॥ 1॥
लव, िनमेष, परमाणु, वष, युग और क प िजनके चंड बाण ह और काल िजनका धनुष है, हे
मन! तू उन राम को य नह भजता?
समु के वचन सुनकर भु राम ने मंि य को बुलाकर ऐसा कहा - अब िवलंब िकसिलए हो रहा
है? सेतु (पुल) तैयार करो, िजससे सेना उतरे ।
िफर यह छोटा-सा समु पार करने म िकतनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर िफर पवनकुमार हनुमान
ने कहा - भु का ताप भारी बड़वानल (समु क आग) के समान है। इसने पहले समु के जल
को सोख िलया था,
जा बवान ने नल-नील दोन भाइय को बुलाकर उ ह सारी कथा कह सुनाई (और कहा -) मन
म राम के ताप को मरण करके सेतु तैयार करो, (राम ताप से) कुछ भी प र म नह होगा।
बोिल िलए किप िनकर बहोरी। सकल सनु ह िबनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरह। कौतकु एक भालु किप करह॥
िफर वानर के समहू को बुला िलया (और कहा -) आप सब लोग मेरी कुछ िवनती सुिनए। अपने
दय म राम के चरण-कमल को धारण कर लीिजए और सब भालू और वानर एक खेल क िजए।
िवकट वानर के समहू (आप) दौड़ जाइए और व ृ तथा पवत के समहू को उखाड़ लाइए। यह
सुनकर वानर और भालू हह (हँकार) करके और रघुनाथ के तापसमहू क (अथवा ताप के पुंज
राम क ) जय पुकारते हए चले।
वानर बड़े -बड़े पहाड़ ला-लाकर देते ह और नल-नील उ ह गद क तरह ले लेते ह। सेतु क
अ यंत सुंदर रचना देखकर कृपािसंधु राम हँसकर वचन बोले -
यह (यहाँ क ) भिू म परम रमणीय और उ म है। इसक असीम मिहमा वणन नह क जा सकती।
म यहाँ िशव क थापना क ँ गा। मेरे दय म यह महान संक प है।
िजनको शंकर ि य ह, परं तु जो मेरे ोही ह एवं जो िशव के ोही ह और मेरे दास (बनना चाहते)
ह, वे मनु य क पभर घोर नरक म िनवास करते ह॥ 2॥
जो मनु य (मेरे थािपत िकए हए इन) रामे र का दशन करगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को
जाएँ गे। और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनु य सायु य मुि पावेगा (अथात मेरे
साथ एक हो जाएगा)।
सेतब
ु ंध िढग चिढ़ रघरु ाई। िचतव कृपाल िसंधु बहताई॥
देखन कहँ भु क ना कंदा। गट भए सब जलचर बंदृ ा॥
बहत तरह के मगर, नाक (घिड़याल), म छ और सप थे, िजनके सौ-सौ योजन के बहत बड़े
िवशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जंतु थे, जो उनको भी खा जाएँ । िकसी-िकसी के डर से तो वे भी डर
रहे थे।
सेतुबंध पर बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश माग से उड़ने लगे और दूसरे (िकतने ही)
जलचर जीव पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे ह॥ 4॥
कृपालु रघुनाथ (तथा ल मण) दोन भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हए चले। रघुवीर सेना सिहत
समु के पार हो गए। वानर और उनके सेनापितय क भीड़ कही नह जा सकती।
राम के िहत (सेवा) के िलए सब व ृ ऋतु-कुऋतु - समय क गित को छोड़कर फल उठे । वानर-
भालू मीठे फल खा रहे ह, व ृ को िहला रहे ह और पवत के िशखर को लंका क ओर फक रहे
ह।
घम
ू ते-घमू ते जहाँ कह िकसी रा स को पा जाते ह तो सब उसे घेरकर खबू नाच नचाते ह और
दाँत से उसके नाक-कान काटकर, भु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते
ह।
िजन रा स के नाक और कान काट डाले गए, उ ह ने रावण से सब समाचार कहा। समु (पर
सेतु) का बाँधा जाना कान से सुनते ही रावण घबड़ाकर दस मुख से बोल उठा -
वनिनिध, नीरिनिध, जलिध, िसंधु, वारीश, तोयिनिध, कंपित, उदिध, पयोिध, नदीश को या
सचमुच ही बाँध िलया?॥ 5॥
िनज िबकलता िबचा र बहोरी॥ िबहँिस गयउ गहृ क र भय भोरी॥
मंदोदर सु यो भु आयो। कौतक
ु ह पाथोिध बँधायो॥
िफर अपनी याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हआ, भय को भुलाकर, रावण महल को
गया। (जब) मंदोदरी ने सुना िक भु राम आ गए ह और उ ह ने खेल म ही समु को बँधवा िलया
है,
(तब) वह हाथ पकड़कर, पित को अपने महल म लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरण म िसर
नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा - हे ि यतम! ोध याग कर मेरा वचन सुिनए।
हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चािहए, िजससे बुि और बल के ारा जीत सके। आप म और
रघुनाथ म िन य ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सय
ू म!
िज ह ने (िव णु प से) अ यंत बलवान मधु और कैटभ (दै य) मारे और (वराह और निृ संह प
से) महान शरू वीर िदित के पु (िहर या और िहर यकिशपु) का संहार िकया; िज ह ने (वामन
प से) बिल को बाँधा और (परशुराम प से) सह बाह को मारा, वे ही (भगवान) प ृ वी का भार
हरण करने के िलए (राम प म) अवतीण ( कट) हए ह!
(राम) के चरण कमल म िसर नवाकर (उनक शरण म जाकर) उनको जानक स प दीिजए और
आप पु को रा य देकर वन म जाकर रघुनाथ का भजन क िजए॥ 6॥
हे दशमुख! संतजन ऐसी नीित कहते ह िक चौथेपन (बुढ़ापे) म राजा को वन म चला जाना
चािहए। हे वामी! वहाँ (वन म) आप उनका भजन क िजए जो सिृ के रचनेवाले, पालनेवाले
और संहार करनेवाले ह।
वही कोसलाधीश रघुनाथ आप पर दया करने आए ह। हे ि यतम! यिद आप मेरी सीख मान लगे,
तो आपका अ यंत पिव और संुदर यश तीन लोक म फै ल जाएगा।
ू े
तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दु उससे अपनी भुता कहने लगा - हे ि ये! सुन, तन
यथ ही भय मान रखा है। बता तो जगत म मेरे समान यो ा है कौन?
मंदोदरी ने उसे बहत तरह से समझाकर कहा (िकंतु रावण ने उसक एक भी बात न सुनी) और
वह िफर सभा म जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने दय म ऐसा जान िलया िक काल के वश होने से
पित को अिभमान हो गया है।
किहए तो (ऐसा) कौन-सा बड़ा भय है, िजसका िवचार िकया जाए? (भय क बात ही या है?)
मनु य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (क साम ी) ह।
कान से सबके वचन सुनकर (रावण का पु ) ह त हाथ जोड़कर कहने लगा - हे भु! नीित
के िव कुछ भी नह करना चािहए, मंि य म बहत ही थोड़ी बुि है॥ 8॥
ये सभी मख
ू (खुशामदी) ठकुरसुहाती (मँुहदेखी) कह रहे ह। हे नाथ! इस कार क बात से परू ा
नह पड़े गा। एक ही बंदर समु लाँघकर आया था। उसका च र सब लोग अब भी मन-ही-मन
गाया करते ह ( मरण िकया करते ह)।
िजसने खेल-ही-खेल म समु बँधा िलया और जो सेना सिहत सुबेल पवत पर आ उतरा है। हे भाई!
कहो वह मनु य है, िजसे कहते हो िक हम खा लगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागल क तरह)
वचन कह रहे ह!
हे तात! मेरे वचन को बहत आदर से (बड़े गौर से) सुिनए। मुझे मन म कायर न समझ
लीिजएगा। जगत म ऐसे मनु य झुंड-के-झुंड (बहत अिधक) ह, जो यारी (मँुह पर मीठी
लगनेवाली) बात ही सुनते और कहते ह।
हे भो! सुनने म कठोर परं तु (प रणाम म) परम िहतकारी वचन जो सुनते और कहते ह, वे
मनु य बहत ही थोड़े ह। नीित सुिनए, (उसके अनुसार) पहले दूत भेिजए, और (िफर) सीता को
देकर राम से ीित (मेल) कर लीिजए।
यिद वे ी पाकर लौट जाएँ , तब तो ( यथ) झगड़ा न बढ़ाइए। नह तो (यिद न िफर तो) हे तात!
स मुख यु भिू म म उनसे हठपवू क (डटकर) मार-काट क िजए॥ 9॥
हे भो! यिद आप मेरी यह स मित मानगे, तो जगत म दोन ही कार से आपका सुयश होगा।
ू ! तुझे ऐसी बुि िकसने िसखाई?
रावण ने गु से म भरकर पु से कहा - अरे मख
िहत क सलाह आपको कैसे नह लगती (आप पर कैसे असर नह करती), जैसे म ृ यु के वश हए
(रोगी) को दवा नह लगती। सं या का समय जानकर रावण अपनी बीस भुजाओं को देखता
हआ महल को चला।
लंका क चोटी पर एक अ यंत िविच महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण
उस महल म जाकर बैठ गया। िक नर उसके गुणसमहू को गाने लगे।
ताल (करताल), पखावज (मदृ ंग) और बीणा बज रहे ह। न ृ य म वीण अ सराएँ नाच रही ह।
दो० - सन
ु ासीर सत स रस सो संतत करइ िबलास।
परम बल रपु सीस पर त िप सोच न ास॥ 10॥
यहाँ रघुवीर सुबेल पवत पर सेना क बड़ी भीड़ (बड़े समहू ) के साथ उतरे । पवत का एक बहत
ऊँचा, परम रमणीय, समतल और िवशेष प से उ वल िशखर देखकर -
भु राम वानरराज सु ीव क गोद म अपना िसर रखे ह। उनक बाई ं ओर धनुष तथा दािहनी ओर
तरकस (रखा) है। वे अपने दोन करकमल से बाण सुधार रहे ह। िवभीषण कान से लगकर
सलाह कर रहे ह।
परम भा यशाली अंगद और हनुमान अनेक कार से भु के चरण कमल को दबा रहे ह।
ल मण कमर म तरकस कसे और हाथ म धनुष-बाण िलए वीरासन से भु के पीछे सुशोिभत ह।
िबथरु े नभ मक
ु ु ताहल तारा। िनिस संदु री केर िसंगारा॥
कह भु सिस महँ मेचकताई। कहह काह िनज िनज मित भाई॥
भु राम ने कहा - िवष चं मा का बहत यारा भाई है, इसी से उसने िवष को अपने दय म थान
दे रखा है। िवषयु अपने िकरण समहू को फै लाकर वह िवयोगी नर-ना रय को जलाता रहता है।
दो० - कह हनमु ंत सन
ु ह भु सिस तु हार ि य दास।
तव मूरित िबधु उर बसित सोइ यामता अभास॥ 12(क)॥
हनुमान ने कहा - हे भो! सुिनए, चं मा आपका ि य दास है। आपक सुंदर याम मिू त चं मा के
दय म बसती है, वही यामता क झलक चं मा म है॥ 12(क)॥
पवनपु हनुमान के वचन सुनकर सुजान राम हँसे। िफर दि ण क ओर देखकर कृपािनधान
भु बोले - ॥ 12(ख)॥
हे िवभीषण! दि ण िदशा क ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और िबजली चमक रही है।
भयानक बादल मीठे -मीठे (ह के-ह के) वर से गरज रहा है। कह कठोर ओल क वषा न हो!
रावण ने िसर पर मेघडं बर (बादल के डं बर-जैसा िवशाल और काला) छ धारण कर रखा है। वही
मानो बादल क काली घटा है। मंदोदरी के कान म जो कणफूल िहल रहे ह, हे भो! वही मानो
िबजली चमक रही है।
हे देवताओं के स ाट! सुिनए, अनुपम ताल और मदृ ंग बज रहे ह। वही मधुर (गजन) विन है।
रावण का अिभमान समझकर भु मुसकराए। उ ह ने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का संधान
िकया।
दो० - छ मक
ु ु ट तांटक तब हते एकह बान।
सब क देखत मिह परे मरमु न कोऊ जान॥ 13(क)॥
और एक ही बाण से (रावण के) छ -मुकुट और (मंदोदरी के) कणफूल काट िगराए। सबके
देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े , पर इसका भेद (कारण) िकसी ने नह जाना॥ 13(क)॥
ऐसा चम कार करके राम का बाण (वापस) आकर (िफर) तरकस म जा घुसा। यह महान रस-
भंग (रं ग म भंग) देखकर रावण क सारी सभा भयभीत हो गई॥ 13(ख)॥
न भकू ं प हआ, न बहत जोर क हवा (आँधी) चली। न कोई अ -श ही ने से देखे। (िफर ये
छ , मुकुट और कणफूल कैसे कटकर िगर पड़े ?) सभी अपने-अपने दय म सोच रहे ह िक यह
बड़ा भयंकर अपशकुन हआ!
सयन करह िनज िनज गहृ जाई। गवने भवन सकल िसर नाई॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते वनपूर मिह खसेऊ॥
अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने क कोई बात नह है) तब सब लोग िसर नवाकर घर गए।
जब से कणफूल प ृ वी पर िगरा, तब से मंदोदरी के दय म सोच बस गया।
ने म जल भरकर, दोन हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी - हे ाणनाथ! मेरी िवनती
सुिनए। हे ि यतम! राम से िवरोध छोड़ दीिजए। उ ह मनु य जानकर मन म हठ न पकड़े रिहए।
दो० - िब व प रघब
ु ंस मिन करह बचन िब वास।ु
लोक क पना बेद कर अंग अंग ित जास॥ु 14॥
पाताल (िजन िव प भगवान का) चरण है, लोक िसर है, अ य (बीच के सब) लोक का
िव ाम (ि थित) िजनके अ य िभ न-िभ न अंग पर है। भयंकर काल िजनका भक ृ ु िट संचालन
(भ ह का चलना) है। सयू ने है, बादल का समहू बाल है।
अि नी कुमार िजनक नािसका ह, रात और िदन िजनके अपार िनमेष (पलक मारना और
खोलना) ह। दस िदशाएँ कान ह, वेद ऐसा कहते ह। वायु ास है और वेद िजनक अपनी वाणी
है।
लोभ िजनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, िद पाल भुजाएँ ह। अि न
मुख है, व ण जीभ है। उ पि , पालन और लय िजनक चे ा (ि या) है।
अस िबचा र सन
ु ु ानपित भु सन बय िबहाइ।
ीित करह रघबु ीर पद मम अिहवात न जाइ॥ 15(ख)॥
हे ाणपित! सुिनए, ऐसा िवचार कर भु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरण म ेम क िजए, िजससे
मेरा सुहाग न जाए॥ 15(ख)॥
प नी के वचन कान से सुनकर रावण खबू हँसा (और बोला -) अहो! मोह (अ ान) क मिहमा
बड़ी बलवान है! ी का वभाव सब स य ही कहते ह िक उसके दय म आठ अवगुण सदा रहते
ह-
साहस अनत
ृ चपलता माया। भय अिबबेक असौच अदाया॥
रपु कर प सकल त गावा। अित िबसाल भय मोिह सन
ु ावा॥
हे ि ये! वह सब (यह चराचर िव तो) वभाव से ही मेरे वश म है। तेरी कृपा से मुझे यह अब
समझ पड़ा। हे ि ये! तेरी चतुराई म जान गया। तू इस कार (इसी बहाने) मेरी भुता का बखान
कर रही है।
हे मग
ृ नयनी! तेरी बात बड़ी गढ़ू (रह यभरी) ह, समझने पर सुख देनेवाली और सुनने से भय
छुड़ानेवाली ह। मंदोदरी ने मन म ऐसा िन य कर िलया िक पित को कालवश मित म हो गया
है।
य िप बादल अमत
ृ -सा जल बरसाते ह तो भी बेत फूलता-फलता नह । इसी कार चाहे ा के
समान भी ानी गु िमल, तो भी मखू के दय म चेत ( ान) नह होता॥ 16(ख)॥
यहाँ (सुबेल पवत पर) ातःकाल रघुनाथ जागे और उ ह ने सब मंि य को बुलाकर सलाह पछ
ू ी
िक शी बताइए, अब या उपाय करना चािहए? जा बवान ने राम के चरण म िसर नवाकर कहा
-
यह अ छी सलाह सबके मन म जँच गई। कृपा के िनधान राम ने अंगद से कहा - हे बल, बुि
और गुण के धाम बािलपु ! हे तात! तुम मेरे काम के िलए लंका जाओ।
तुमको बहत समझाकर या कहँ! म जानता हँ, तुम परम चतुर हो। श ु से वही बातचीत करना
िजससे हमारा काम हो और उसका क याण हो।
भु क आ ा िसर चढ़ाकर और उनके चरण क वंदना करके अंगद उठे (और बोले -) हे भगवान
राम! आप िजस पर कृपा कर, वही गुण का समु हो जाता है॥ 17(क)॥
वामी, सब काय अपने-आप िस ह; यह तो भु ने मुझ को आदर िदया है (जो मुझे अपने काय
पर भेज रहे ह)। ऐसा िवचार कर युवराज अंगद का दय हिषत और शरीर पुलिकत हो गया॥
17(ख)॥
बंिद चरन उर ध र भत
ु ाई। अंगद चलेउ सबिह िस नाई॥
भु ताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बािलसतु बंका॥
चरण क वंदना करके और भगवान क भुता दय म धरकर अंगद सबको िसर नवाकर चले।
भु के ताप को दय म धारण िकए हए रणबाँकुरे वीर बािलपु वाभािवक ही िनभय ह।
लंका म वेश करते ही रावण के पु से भट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बात -ही-बात म दोन
म झगड़ा बढ़ गया ( य िक) दोन ही अतुलनीय बलवान थे और िफर दोन क युवाव था थी।
उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार
िगराया)। रा स के समहू भारी यो ा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न
मचा सके।
एक एक सन मरमु न कहह । समिु झ तासु बध चप
ु क र रहह ॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा किप लंका जेिहं जारी॥
सब अ यंत भयभीत होकर िवचार करने लगे िक िवधाता अब न जाने या करे गा। वे िबना पछ ू े ही
अंगद को (रावण के दरबार क ) राह बता देते ह। िजसे ही वे देखते ह, वही डर के मारे सख
ू जाता
है।
राम के चरण कमल का मरण करके अंगद रावण क सभा के ार पर गए और वे धीर, वीर
और बल क रािश अंगद िसंह क -सी एड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥ 18॥
आ ा पाकर बहत-से दूत दौड़े और वानर म हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण
को ऐसे बैठे हए देखा, जैसे कोई ाणयु (सजीव) काजल का पहाड़ हो!
भुजाएँ व ृ के और िसर पवत के िशखर के समान ह। रोमावली मानो बहत-सी लताएँ ह। मँुह,
नाक, ने और कान पवत क कंदराओं और खोह के बराबर ह।
अ यंत बलवान बाँके वीर बािलपु अंगद सभा म गए, वे मन म जरा भी नह िझझके। अंगद को
देखते ही सब सभासद उठ खड़े हए। यह देखकर रावण के दय म बड़ा ोध हआ।
जैसे मतवाले हािथय के झुंड म िसंह (िनःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही राम के ताप का
दय म मरण करके वे (िनभय) सभा म िसर नवाकर बैठ गए॥ 19॥
रावण ने कहा - अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा -) हे दश ीव! म रघुवीर का दूत हँ। मेरे
िपता से और तुमसे िम ता थी। इसिलए हे भाई! म तु हारी भलाई के िलए ही आया हँ।
तु हारा उ म कुल है, पुल य ऋिष के तुम पौ हो। िशव क और ा क तुमने बहत कार से
पज
ू ा क है। उनसे वर पाए ह और सब काम िस िकए ह। लोकपाल और सब राजाओं को तुमने
जीत िलया है।
नप
ृ अिभमान मोह बस िकंबा। ह र आिनह सीता जगदंबा॥
अब सभ
ु कहा सन
ु ह तु ह मोरा। सब अपराध छिमिह भु तोरा॥
राजमद से या मोहवश तुम जग जननी सीता को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी
िहतभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) भु राम तु हारे सब अपराध मा कर दगे।
दसन गहह तन
ृ कंठ कुठारी। प रजन सिहत संग िनज नारी॥
सादर जनकसतु ा क र आग। एिह िबिध चलह सकल भय याग॥
दाँत म ितनका दबाओ, गले म कु हाड़ी डालो और कुटुंिबय सिहत अपनी ि य को साथ
लेकर, आदरपवू क जानक को आगे करके, इस कार सब भय छोड़कर चलो -
(अंगद ने कहा -) मेरा नाम अंगद है, म बािल का पु हँ। उनसे कभी तु हारी भट हई थी? अंगद
का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला -) हाँ, म जान गया (मुझे याद आ गया),
बािल नाम का एक बंदर था।
अरे अंगद! तू ही बािल का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुल पी बाँस के िलए अि न
प ही पैदा हआ! गभ म ही य न न हो गया? तू यथ ही पैदा हआ जो अपने ही मँुह से
तपि वय का दूत कहलाया!
अब बािल क कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा - दस (कुछ)
िदन बीतने पर ( वयं ही) बािल के पास जाकर, अपने िम को दय से लगाकर, उसी से कुशल
पछू लेना।
राम से िवरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनाएँ गे। हे मख
ू ! सुन, भेद उसी
के मन म पड़ सकता है, (भेद नीित उसी पर अपना भाव डाल सकती है) िजसके दय म ी
रघुवीर न ह ।
िसव िबरं िच सरु मिु न समदु ाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइिसहँ मित उर िबहर न तोरा॥
िशव, ा (आिद) देवता और मुिनय के समुदाय िजनके चरण क सेवा (करना) चाहते ह,
उनका दूत होकर मने कुल को डुबा िदया? अरे ऐसी बुि होने पर भी तु हारा दय फट नह
जाता?
सिु न कठोर बानी किप केरी। कहत दसानन नयन तरे री॥
खल तव किठन बचन सब सहऊँ। नीित धम म जानत अहऊँ॥
वानर (अंगद) क कठोर वाणी सुनकर रावण आँख तरे रकर (ितरछी करके) बोला - अरे दु ! म
तेरे सब कठोर वचन इसीिलए सह रहा हँ िक म नीित और धम को जानता हँ (उ ह क र ा कर
रहा हँ)।
अंगद ने कहा - तु हारी धमशीलता मने भी सुनी है। (वह यह िक) तुमने पराई ी क चोरी क
है! और दूत क र ा क बात तो अपनी आँख से देख ली। ऐसे धम के त को धारण (पालन)
करनेवाले तुम डूबकर मर नह जाते!
अरे अंगद! सुन, तेरी सेना म बता, ऐसा कौन यो ा है, जो मुझसे िभड़ सकेगा। तेरा मािलक तो
ी के िवयोग म बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है।
तु ह सु ीव कूल म
ु दोऊ। अनज ु हमार भी अित सोऊ॥
जामवंत मं ी अित बूढ़ा। सो िक होइ अब समरा ढ़ा॥
तुम और सु ीव, दोन (नदी) तट के व ृ हो (रहा) मेरा छोटा भाई िवभीषण, (सो) वह भी बड़ा
डरपोक है। मं ी जा बवान बहत बढ़
ू ा है। वह अब लड़ाई म या चढ़ (उ त हो) सकता है?
नल-नील तो िश प-कम जानते ह (वे लड़ना या जान?)। हाँ, एक वानर ज र महान बलवान
है, जो पहले आया था और िजसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बािल पु अंगद ने कहा -
हे रा सराज! स ची बात कहो! या उस वानर ने सचमुच तु हारा नगर जला िदया? रावण (जैसे
जगि जयी यो ा) का नगर एक छोटे-से वानर ने जला िदया। ऐसे वचन सुनकर उ ह स य कौन
कहे गा?
हे रावण! तुम सब स य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी ोध नह है। सचमुच हमारी सेना म
कोई भी ऐसा नह है, जो तुमसे लड़ने म शोभा पाए॥ 23(ख)॥
ीित और वैर बराबरीवाले से ही करना चािहए, नीित ऐसी ही है। िसंह यिद मेढ़क को मारे , तो
या उसे कोई भला कहे गा?॥ 23(ग)॥
तब रावण हँसकर बोला - बंदर म यह एक बड़ा गुण है िक जो उसे पालता है, उसका वह अनेक
उपाय से भला करने क चे ा करता है॥ 23(च)॥
बंदर को ध य है, जो अपने मािलक के िलए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर,
लोग को रझाकर, मािलक का िहत करता है। यह उसक धम िनपुणता है।
हे अंगद! तेरी जाित वािमभ है (िफर भला) तू अपने मािलक के गुण इस कार कैसे न
बखानेगा? म गुण ाहक (गुण का आदर करनेवाला) और परम सुजान (समझदार) हँ, इसी से
तेरी जली-कटी बक-बक पर कान ( यान) नह देता।
अंगद ने कहा - तु हारी स ची गुण ाहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी। उसने अशोक वन म
िव वंस (तहस-नहस) करके, तु हारे पु को मारकर नगर को जला िदया था। तो भी (तुमने
अपनी गुण ाहकता के कारण यही समझा िक) उसने तु हारा कुछ भी अपकार नह िकया।
तु हारा वही सुंदर वभाव िवचार कर, हे दश ीव! मने कुछ ध ृ ता क है। हनुमान ने जो कुछ
कहा था, उसे आकर मने य देख िलया िक तु ह न ल जा है, न ोध है और न िचढ़ है।
(रावण बोला -) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन
कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा - िपता को खाकर िफर तुमको भी खा डालता। परं तु अभी
तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ म आ गई!
एक रावण तो बिल को जीतने पाताल म गया था, तब ब च ने उसे घुड़साल म बाँध रखा। बालक
खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बिल को दया लगी, तब उ ह ने उसे छुड़ा िदया।
एक बहो र सहसभज
ु देखा। धाइ धरा िजिम जंतु िबसेषा॥
कौतक
ु लािग भवन लै आवा। सो पलु ि त मिु न जाइ छोड़ावा॥
िफर एक रावण को सह बाह ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक िवशेष कार के (िविच )
जंतु क तरह (समझकर) पकड़ िलया। तमाशे के िलए वह उसे घर ले आया। तब पुल य मुिन ने
जाकर उसे छुड़ाया।
एक रावण क बात कहने म तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है - वह (बहत िदन तक) बािल क
काँख म रहा था। इनम से तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥ 24॥
सन
ु ु सठ सोइ रावन बलसीला। हरिग र जान जासु भज ु लीला॥
जान उमापित जासु सरु ाई। पूजउे ँ जेिह िसर सम
ु न चढ़ाई॥
िसर सरोज िनज करि ह उतारी। पूजउे ँ अिमत बार ि परु ारी॥
भजु िब म जानिहं िदगपाला। सठ अजहँ िज ह क उर साला॥
िसर पी कमल को अपने हाथ से उतार-उतारकर मने अगिणत बार ि पुरा र िशव क पज ू ाक
ू ! मेरी भुजाओं का परा म िद पाल जानते ह, िजनके दय म वह आज भी चुभ रहा है।
है। अरे मख
िद गज (िदशाओं के हाथी) मेरी छाती क कठोरता को जानते ह। िजनके भयानक दाँत, जब-जब
जाकर म उनसे जबरद ती िभड़ा, मेरी छाती म कभी नह फूटे (अपना िच भी नह बना सके),
बि क मेरी छाती से लगते ही वे मल
ू ी क तरह टूट गए।
िजसके चलते समय प ृ वी इस कार िहलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! म
वही जगत िस तापी रावण हँ। अरे झठ ू ी बकवास करनेवाले! या तन ू े मुझको कान से कभी
सुना?
दो० - तेिह रावन कहँ लघु कहिस नर कर करिस बखान।
रे किप बबर खब खल अब जाना तव यान॥ 25॥
रावण के ये वचन सुनकर अंगद ोध सिहत वचन बोले - अरे नीच अिभमानी! सँभालकर (सोच-
समझकर) बोल। िजनका फरसा सह बाह क भुजाओं पी अपार वन को जलाने के िलए अि न
के समान था,
िजनके फरसा पी समु क ती धारा म अनिगनत राजा अनेक बार डूब गए, उन परशुराम का
गव िज ह देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनु य य कर ह?
य रे मख
ू उ ड! राम मनु य ह? कामदेव भी या धनुधारी है? और गंगा या नदी ह?
कामधेनु या पशु है? और क पव ृ या पेड़ है? अ न भी या दान है? और अमत
ृ या रस है?
सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पु को
मारकर जो लौट गए (तू उनका कुछ भी न िबगाड़ सका), य रे दु ! वे हनुमान या वानर
ह?॥ 26॥
सन
ु ु रावन प रह र चतरु ाई। भजिस न कृपािसंधु रघरु ाई॥
ज खल भएिस राम कर ोही। सक रािख न तोही॥
अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समु रघुनाथ का तू भजन य नह करता?
अरे दु ! यिद तू राम का वैरी हआ तो तुझे ा और भी नह बचा सकगे।
मूढ़ बथ
ृ ा जिन मारिस गाला। राम बयर अस होइिह हाला॥
तव िसर िनकर किप ह के आग। प रहिहं धरिन राम सर लाग॥
ू ! यथ गाल न मार (ड ग न हाँक)। राम से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा िक तेरे िसर-
हे मढ़
समहू राम के बाण लगते ही वानर के आगे प ृ वी पर पड़गे,
ते तव िसर कंदक
ु सम नाना। खेिलहिहं भालु क स चौगाना॥
जबिहं समर कोिपिह रघन
ु ायक। छुिटहिहं अित कराल बह सायक॥
तब या तेरा गाल चलेगा? ऐसा िवचार कर उदार (कृपालु) राम को भज। अंगद के ये वचन
सुनकर रावण बहत अिधक जल उठा। मानो जलती हई चंड अि न म घी पड़ गया हो।
(वह बोला - अरे मखू !) कुंभकण-जैसा मेरा भाई है, इं का श ु सु िस मेघनाद मेरा पु है! और
मेरा परा म तो तनू े सुना ही नह िक मने संपण
ू जड़-चेतन जगत को जीत िलया है!॥ 27॥
रे दु ! वानर क सहायता जोड़कर राम ने समु बाँध िलया; बस, यही उसक भुता है। समु
को तो अनेक प ी भी लाँघ जाते ह। पर इसी से वे सभी शरू वीर नह हो जाते। अरे मख
ू बंदर! सुन
-
अरे दु ! मने िद पाल तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यिद
तेरा मािलक, िजसक गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, सं ाम म लड़नेवाला यो ा है -
तो (िफर) वह दूत िकसिलए भेजता है? श ु से ीित (संिध) करते उसे लाज नह आती? (पहले)
कैलास का मथन करनेवाली मेरी भुजाओं को देख। िफर अरे मख ू वानर! अपने मािलक क
सराहना करना।
रावण के समान शरू वीर कौन है? िजसने अपने हाथ से िसर काट-काटकर अ यंत हष के साथ
बहत बार उ ह अि न म होम िदया! वयं गौरीपित िशव इस बात के सा ी ह॥ 28॥
िसर काटने और कैलास उठाने क कथा िच म चढ़ी हई थी, इससे तन ू े उसे बीस बार कहा।
भुजाओं के उस बल को तन
ू े दय म ही टाल (िछपा) रखा है, िजससे तनू े सह बाह, बिल और
बािल को जीता था।
अरे मंदबुि ! सुन, अब बस कर। िसर काटने से भी या कोई शरू वीर हो जाता है? इं जाल
रचनेवाले को वीर नह कहा जाता, य िप वह अपने ही हाथ अपना सारा शरीर काट डालता है!
अरे मंदबुि ! समझकर देख। पतंगे मोहवश आग म जल मरते ह, गदह के झंुड बोझ लादकर
चलते ह; पर इस कारण वे शरू वीर नह कहलाते॥ 29॥
अरे दु ! अब बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अिभमान याग दे! हे दशमुख! म दूत क
तरह (संिध करने) नह आया हँ। रघुवीर ने ऐसा िवचार कर मुझे भेजा है -
कृपालु राम बार-बार ऐसा कहते ह िक िसयार के मारने से िसंह को यश नह िमलता। अरे मख
ू !
भु के (उन) वचन को मन म समझकर (याद करके) ही मने तेरे कठोर वचन सहे ह।
नािहं त क र मख
ु भंजन तोरा। ल जातेउँ सीतिह बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सरु ारी। सून ह र आिनिह परनारी॥
नह तो तेरे मँुह तोड़कर म सीता को जबरद ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के श ु! तेरा बल
तो मने तभी जान िलया जब तू सन ू े म पराई ी को हर (चुरा) लाया।
त िनिसचर पित गब बहता। म रघप ु ित सेवक कर दूता॥
ज न राम अपमानिहं डरऊँ। तोिह देखत अस कौतक ु करउँ ॥
तू रा स का राजा और बड़ा अिभमानी है। परं तु म तो रघुनाथ के सेवक (सु ीव) का दूत (सेवक
का भी सेवक) हँ। यिद म राम के अपमान से न ड ँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा क ँ िक -
तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (न - ) करके,
अरे मखू ! तेरी युवती ि य सिहत जानक को ले जाऊँ॥ 30॥
यिद ऐसा क ँ , तो भी इसम कोई बड़ाई नह है। मरे हए को मारने म कुछ भी पु ष व (बहादुरी)
नह है। वाममाग , कामी, कंजस
ू , अ यंत मढ़
ू , अित द र , बदनाम, बहत बढ़ू ा,
अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मँुह बड़ी बात कहता है। अरे मख
ू बंदर! तू
िजसके बल पर कड़ए वचन बक रहा है, उसम बल, ताप, बुि अथवा तेज कुछ भी नह है।
दो० - अगन
ु अमान जािन तेिह दी ह िपता बनबास।
सो दःु ख अ जुबती िबरह पिु न िनिस िदन मम ास॥ 31(क)॥
िजनके बल का तुझे गव है, ऐसे अनेक मनु य को तो रा स रात-िदन खाया करते ह। अरे मढ़
ू !
िज छोड़कर समझ (िवचार कर)॥ 31(ख)॥
जब उसने राम क िनंदा क , तब तो किप े अंगद अ यंत ोिधत हए, य िक (शा ऐसा
कहते ह िक) जो अपने कान से भगवान िव णु और िशव क िनंदा सुनता है, उसे गो वध के
समान पाप होता है।
वानर े अंगद बहत जोर से कटकटाए (श द िकया) और उ ह ने तमककर (जोर से) अपने
दोन भुजदंड को प ृ वी पर दे मारा। प ृ वी िहलने लगी, (िजससे बैठे हए) सभासद िगर पड़े और
भय पी पवन (भतू ) से त होकर भाग चले।
रावण िगरते-िगरते सँभलकर उठा। उसके अ यंत सुंदर मुकुट प ृ वी पर िगर पड़े । कुछ तो उसने
उठाकर अपने िसर पर सुधारकर रख िलए और कुछ अंगद ने उठाकर भु राम के पास फक
िदए।
मुकुट को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) िवधाता! या िदन म ही उ कापात होने लगा
(तारे टूटकर िगरने लगे)? अथवा या रावण ने ोध करके चार व चलाए ह, जो बड़े धाए के
साथ (वेग से) आ रहे ह?
कह भु हँिस जिन दयँ डेराह। लकू न असिन केतु निहं राह॥
ए िकरीट दसकंधर केरे । आवत बािलतनय के रे े ॥
पवन पु हनुमान ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ िलया और लाकर भु के पास रख िदया।
ू के समान था॥ 32(क)॥
रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका काश सय
वहाँ (सभा म) ोधयु रावण सबसे ोिधत होकर कहने लगा िक - बंदर को पकड़ लो और
पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ 32(ख)॥
(रावण िफर बोला -) इसे मारकर सब यो ा तुरंत दौड़ो और जहाँ कह रीछ-वानर को पाओ, वह
खा डालो। प ृ वी को बंदर से रिहत कर दो और जाकर दोन तप वी भाइय (राम-ल मण) को
जीते-जी पकड़ लो।
(रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद ोिधत होकर बोले - तुझे गाल बजाते
लाज नह आती! अरे िनल ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आ मह या करके) मर जा! मेरा
बल देखकर भी या तेरी छाती नह फटती!
अरे ी के चोर! अरे कुमाग पर चलनेवाले! अरे दु , पाप क रािश, मंद बुि और कामी! तू
सि नपात म या दुवचन बक रहा है? अरे दु रा स! तू काल के वश हो गया है!
इसका फल तू आगे वानर और भालुओ ं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनु य ह, ऐसा वचन
बोलते ही, अरे अिभमानी! तेरी जीभ नह िगर पड़त ?
इसम संदेह नह है िक तेरी जीभ (अकेले नह वरन) िसर के साथ रणभिू म म िगरगी।
रे दशकंध! िजसने एक ही बाण से बािल को मार डाला, वह मनु य कैसे है? अरे कुजाित, अरे
जड़! बीस आँख होने पर भी तू अंधा है। तेरे ज म को िध कार है॥ 33(क)॥
राम के बाण समहू तेरे र क यास से यासे ह। (वे यासे ही रह जाएँ गे) इस डर से, अरे कड़वी
बकवास करनेवाले नीच रा स! म तुझे छोड़ता हँ॥ 33(ख)॥
म तेरे दाँत तोड़ने म समथ हँ। पर या क ँ ? रघुनाथ ने मुझे आ ा नह दी। ऐसा ोध आता है
िक तेरे दस मँुह तोड़ डालँ ू और (तेरी) लंका को पकड़कर समु म डुबो दँू।
तेरी लंका गल ू र के फल के समान है। तुम सब क ड़े उसके भीतर (अ ानवश) िनडर होकर बस
रहे हो। म बंदर हँ, मुझे इस फल को खाते या देर थी? पर उदार (कृपालु) राम ने वैसी आ ा नह
दी।
जग
ु िु त सन
ु त रावन मस
ु क
ु ाई। मूढ़ िसिखिह कहँ बहत झठ
ु ाई॥
बािल न कबहँ गाल अस मारा। िमिल तपिस ह त भएिस लबारा॥
अंगद क युि सुनकर रावण मुसकराया (और बोला -) अरे मख ू ! बहत झठ ू े कहाँ से
ू बोलना तन
सीखा? बािल ने तो कभी ऐसा गाल नह मारा। जान पड़ता है तू तपि वय से िमलकर लबार हो
गया है।
साँचहे ँ म लबार भज
ु बीहा। ज न उपा रउँ तव दस जीहा॥
समिु झ राम ताप किप कोपा। सभा माझ पन क र पद रोपा॥
(अंगद ने कहा -) अरे बीस भुजावाले! यिद तेरी दस जीभ मने नह उखाड़ ल तो सचमुच म
लबार ही हँ। राम के ताप को समझकर ( मरण करके) अंगद ोिधत हो उठे और उ ह ने रावण
क सभा म ण करके ( ढ़ता के साथ) पैर रोप िदया।
(और कहा -) अरे मख ू ! यिद तू मेरा चरण हटा सके तो राम लौट जाएँ गे, म सीता को हार गया।
रावण ने कहा - हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को प ृ वी पर पछाड़ दो।
इं जीत (मेघनाद) आिद अनेक बलवान यो ा जहाँ-तहाँ से हिषत होकर उठे । वे परू े बल से बहत-
से उपाय करके झपटते ह। पर पैर टलता नह , तब िसर नीचा करके िफर अपने-अपने थान पर
जा बैठ जाते ह।
करोड़ वीर यो ा जो बल म मेघनाद के समान थे, हिषत होकर उठे । वे बार-बार झपटते ह, पर
वानर का चरण नह उठता, तब ल जा के मारे िसर नवाकर बैठ जाते ह॥ 34(क)॥
वह िसर नीचा करके िसंहासन पर जा बैठा। मानो सारी संपि गँवाकर बैठा हो। राम जगतभर के
आ मा और ाण के वामी ह। उनसे िवमुख रहनेवाला शांित कैसे पा सकता है?
पिु न किप कही नीित िबिध नाना। मान न तािह कालु िनअराना॥
रपु मद मिथ भु सज ु सु सन
ु ायो। यह किह च यो बािल नप
ृ जायो॥
िफर अंगद ने अनेक कार से नीित कही। पर रावण नह माना; य िक उसका काल िनकट आ
गया था। श ु के गव को चरू करके अंगद ने उसको भु राम का सुयश सुनाया और िफर वह
राजा बािल का पु यह कहकर चल िदया -
हे ि यतम! आप उ ह सं ाम म जीत पाएँ गे, िजनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समु
लाँघकर वह वानर म िसंह (हनुमान) आपक लंका म िनभय चला आया!
रखवाल को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अ यकुमार को
ू नगर को जलाकर राख कर िदया। उस समय आपके बल का गव कहाँ चला
मार डाला और संपण
गया था?
अब पित मषृ ा गाल जिन मारह। मोर कहा कछु दयँ िबचारह॥
पित रघप
ु ितिह नपृ ित जिन मानह। अग जग नाथ अतल ु बल जानह॥
राम के बाण का ताप तो नीच मारीच भी जानता था। परं तु आपने उसका कहना भी नह माना।
जनक क सभा म अगिणत राजागण थे। वहाँ िवशाल और अतुलनीय बलवाले आप भी थे।
शपू णखा क दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके दय म (उनसे लड़ने क बात सोचते)
िवशेष (कुछ भी) ल जा नह आती!
िज ह ने खेल से ही समु को बँधा िलया और जो भु सेना सिहत सुबेल पवत पर उतर पड़े , उन
सयू कुल के वजा व प (क ित को बढ़ानेवाले) क णामय भगवान ने आप ही के िहत के िलए
दूत भेजा।
सभा माझ जेिहं तव बल मथा। क र ब थ महँ मग ृ पित जथा॥
अंगद हनम
ु त अनच ु र जाके। रन बाँकुरे बीर अित बाँके॥
िजसने बीच सभा म आकर आपके बल को उसी कार मथ डाला जैसे हािथय के झुंड म आकर
िसंह (उसे िछ न-िभ न कर डालता है)। रण म बाँके अ यंत िवकट वीर अंगद और हनुमान
िजनके सेवक ह,
काल दंड (लाठी) लेकर िकसी को नह मारता। वह धम, बल, बुि और िवचार को हर लेता है। हे
वामी! िजसका काल (मरण-समय) िनकट आ जाता है, उसे आप ही क तरह म हो जाता है।
दो० - दइु सत
ु मरे दहेउ परु अजहँ पूर िपय देह।
कृपािसंधु रघनु ाथ भिज नाथ िबमल जसु लेह॥ 37॥
ी के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा म चला गया और सारा भय
भुलाकर अ यंत अिभमान म फूलकर िसंहासन पर जा बैठा।
यहाँ (सुबेल पवत पर) राम ने अंगद को बुलाया। उ ह ने आकर चरणकमल म िसर नवाया। बड़े
आदर से उ ह पास बैठाकर खर के श ु कृपालु राम हँसकर बोले -
बािलतनय कौतक ु अित मोही। तात स य कहँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातध
ु ान कुल टीका। भज
ु बल अतलु जासु जग लीका॥
तासु मक
ु ु ट तु ह चा र चलाए। कहह तात कवनी िबिध पाए॥
सन
ु ु सब य नत सख ु कारी। मक
ु ु ट न होिहं भूप गन
ु चारी॥
उसके चार मुकुट तुमने फके। हे तात! बताओ, तुमने उनको िकस कार से पाया! (अंगद ने कहा
-) हे सव ! हे शरणागत को सुख देनेवाले! सुिनए। वे मुकुट नह ह। वे तो राजा के चार गुण ह।
हे नाथ! वेद कहते ह िक साम, दान, दंड और भेद - ये चार राजा के दय म बसते ह। ये नीित-
धम के चार सुंदर चरण ह। (िकंतु रावण म धम का अभाव है) ऐसा जी म जानकर ये नाथ के पास
आ गए ह।
अंगद क परम चतुरता (पण ू उि ) कान से सुनकर उदार राम हँसने लगे। िफर बािल पु ने
िकले के (लंका के) सब समाचार कहे ॥ 38(ख)॥
और उनके िलए यथायो य (जैसे चािहए वैसे) सेनापित िनयु िकए। िफर सब यथ
ू पितय को बुला
िलया और भु का ताप कहकर सबको समझाया, िजसे सुनकर वानर, िसंह के समान गजना
करके दौड़े ।
वे हिषत होकर राम के चरण म िसर नवाते ह और पवत के िशखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते ह।
'कोसलराज रघुवीर क जय हो' पुकारते हए भालू और वानर गरजते और ललकारते ह।
लंका को अ यंत े (अजेय) िकला जानते हए भी वानर भु राम के ताप से िनडर होकर चले।
चार ओर से िघरी हई बादल क घटा क तरह लंका को चार िदशाओं से घेरकर वे मँुह से डं के
और भेरी बजाने लगे।
महान बल क सीमा वे वानर-भालू िसंह के समान ऊँचे वर से 'राम क जय', 'ल मण क जय',
'वानरराज सु ीव क जय' - ऐसी गजना करने लगे॥ 39॥
लंका म बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अ यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा -
वानर क िढठाई तो देखो! यह कहते हए हँसकर उसने रा स क सेना बुलाई।
सभ
ु ट सकल चा रहँ िदिस जाह। ध र ध र भालु क स सब खाह॥
उमा रावनिह अस अिभमाना। िजिम िट भ खग सूत उताना॥
(और बोला -) हे वीरो! सब लोग चार िदशाओं म जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर
खाओ। (िशव कहते ह -) हे उमा! रावण को ऐसा अिभमान था जैसा िटिटिहरी प ी पैर ऊपर क
ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)।
जैसे मख
ू मांसाहारी प ी लाल प थर का समहू देखकर उस पर टूट पड़ते ह, (प थर पर लगने
ू ता, वैसे ही ये बेसमझ रा स दौड़े ।
से) च च टूटने का दुःख उ ह नह सझ
दो० - नानायध
ु सर चाप धर जातधु ान बल बीर।
कोट कँगूरि ह चिढ़ गए कोिट कोिट रनधीर॥ 40॥
वे परकोटे के कँगरू पर कैसे शोिभत हो रहे ह, मानो सुमे के िशखर पर बादल बैठे ह । जुझाऊ
ढोल और डं के आिद बज रहे ह, (िजनक ) विन सुनकर यो ाओं के मन म (लड़ने का) चाव
होता है।
(देखा िक) वे रीछ-वानर दौड़ते ह, औघट (ऊँची-नीची, िवकट) घािटय को कुछ नह िगनते।
पकड़कर पहाड़ को फोड़कर रा ता बना लेते ह। करोड़ यो ा कटकटाते और गरजते ह। दाँत से
ओंठ काटते और खबू डपटते ह।
उधर रावण क और इधर राम क दुहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' क विन होते ही लड़ाई
िछड़ गई। रा स पहाड़ के ढे र के ढे र िशखर को फकते ह। वानर कूदकर उ ह पकड़ लेते ह और
वापस उ ह क ओर चलाते ह।
राम के ताप से बल वानर के झुंड रा स यो ाओं के समहू -के-समहू मसल रहे ह। वानर िफर
ू के समान रघुवीर क जय बोलने लगे।
जहाँ-तहाँ िकले पर चढ़ गए और ताप म सय
रा स के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर क हवा चलने पर बादल के समहू िततर-िबतर हो
जाते ह। लंका नगरी म बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, ि याँ और रोगी (असमथता के
कारण) रोने लगे।
सब िमलकर रावण को गािलयाँ देने लगे िक रा य करते हए इसने म ृ यु को बुला िलया। रावण ने
जब अपनी सेना का िवचिलत होना कान से सुना, तब (भागते हए) यो ाओं को लौटाकर वह
ोिधत होकर बोला -
जो रन िबमख
ु सनु ा म काना। सो म हतब कराल कृपाना॥
सबसु खाइ भोग क र नाना। समर भूिम भए ब लभ ाना॥
म िजसे रण से पीठ देकर भागा हआ अपने कान सुनँग ू ा, उसे वयं भयानक दुधारी तलवार से
मा ँ गा। मेरा सब कुछ खाया, भाँित-भाँित के भोग िकए और अब रणभिू म म ाण यारे हो गए!
दो० - बह आयध
ु धर सभु ट सब िभरिहं पचा र पचा र।
याकुल िकए भालु किप प रघ ि सूलि ह मा र॥ 42॥
(िशव कहते ह -) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, य िप हे उमा! आगे
चलकर (वे ही) जीतगे। कोई कहता है - अंगद-हनुमान कहाँ ह? बलवान नल, नील और ि िवद
कहाँ ह?
िनज दल िबकल सन ु ा हनम
ु ाना। पि छम ार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न ार परम किठनाई॥
तब पवनपु हनुमान के मन म बड़ा भारी ोध हआ। वे काल के समान यो ा बड़े जोर से गरजे
और कूदकर लंका के िकले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद क ओर दौड़े ।
रथ तोड़ डाला, सारथी को मार िगराया और मेघनाद क छाती म लात मारी। दूसरा सारथी
मेघनाद को याकुल जानकर, उसे रथ म डालकर, तुरंत घर ले आया।
उ ह ने कलश सिहत महल को पकड़कर ढहा िदया। यह देखकर रा सराज रावण डर गया। सब
ि याँ हाथ से छाती पीटने लग (और कहने लग -) अब क बार दो उ पाती वानर (एक साथ)
आ गए ह।
वे गरजकर श ु क सेना के बीच म कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मदन करने लगे।
िकसी क लात से और िकसी क थ पड़ से खबर लेते ह (और कहते ह िक) तुम राम को नह
भजते, उसका यह फल लो।
िजन बड़े -बड़े मुिखय ( धान सेनापितय ) को पकड़ पाते ह, उनके पैर पकड़कर उ ह भु के
पास फक देते ह। िवभीषण उनके नाम बतलाते ह और राम उ ह भी अपना धाम (परम पद) दे देते
ह।
ऐसा दय म जानकर वे उ ह परमगित (मो ) देते ह। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और)
कौन ह? भु का ऐसा वभाव सुनकर भी जो मनु य म याग कर उनका भजन नह करते, वे
अ यंत मंद बुि और परम भा यहीन ह।
अंगद अ हनम
ु ंत बेसा। क ह दग
ु अस कह अवधेसा॥
लंकाँ ौ किप सोहिहं कैस। मथिहं िसंधु दइु मंदर जैस॥
राम ने कहा िक अंगद और हनुमान िकले म घुस गए ह। दोन वानर लंका म (िव वंस करते)
कैसे शोभा देते ह, जैसे दो मंदराचल समु को मथ रहे ह ।
अंगद और हनुमान को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े । रा स ने दोष (सायं)
काल का बल पाकर रावण क दुहाई देते हए वानर पर धावा िकया।
रा स क सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे यो ा जहाँ-तहाँ कटकटाकर िभड़ गए।
दोन ही दल बड़े बलवान ह। यो ा ललकार-ललकारकर ड़ते ह, कोई हार नह मानते।
सभी रा स महान वीर और अ यंत काले ह और वानर िवशालकाय तथा अनेक रं ग के ह। दोन
ही दल बलवान ह और समान बलवाले यो ा ह। वे ोध करके लड़ते ह और खेल करते (वीरता
िदखलाते) ह।
िफर कृपालु राम ने हँसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अि नबाण चलाया, िजससे काश हो
गया, कह अँधेरा नह रह गया। जैसे ान के उदय होने पर (सब कार के) संदेह दूर हो जाते ह।
भालु बलीमख
ु पाई कासा। धाए हरष िबगत म ासा॥
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सन
ु त रजनीचर भाजे॥
भालू और वानर काश पाकर म और भय से रिहत तथा स न होकर दौड़े । हनुमान और अंगद
रण म गरज उठे । उनक हाँक सुनते ही रा स भाग छूटे।
कुछ मारे गए, कुछ घायल हए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से श ुदल को िवचिलत
करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे ह॥ 47॥
रात हई जानकर वानर क चार सेनाएँ (टुकिड़याँ) वहाँ आई ं जहाँ कोसलपित राम थे। राम ने
य ही सबको कृपा करके देखा य ही ये वानर मरिहत हो गए।
वहाँ (लंका म) रावण ने मंि य को बुलाया और जो यो ा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया।
(उसने कहा -) वानर ने आधी सेना का संहार कर िदया! अब शी बताओ, या िवचार (उपाय)
करना चािहए?
जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे ह िक उनका वणन नह िकया
जा सकता। वेद-पुराण ने िजनका यश गाया है, उन राम से िवमुख होकर िकसी ने सुख नह
पाया।
भाई िहर यकिशपु सिहत िहर या को बलवान मध-ु कैटभ को िज ह ने मारा था, वे ही
कृपा के समु भगवान (राम प से) अवत रत हए ह॥ 48(क)॥
काल प खल बन दहन गन ु ागार घनबोध।
िसव िबरं िच जेिह सेविहं तास कवन िबरोध॥ 48(ख)॥
(अतः) वैर छोड़कर उ ह जानक को दे दो और कृपािनधान परम नेही राम का भजन करो।
रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला -) अरे अभागे! मँुह काला करके (यहाँ से)
िनकल जा।
ू ा हो गया, नह तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँख को अपना मँुह न िदखला। रावण के
तू बढ़
ये वचन सुनकर उसने (मा यवान ने) अपने मन म ऐसा अनुमान िकया िक इसे कृपािनधान राम
अब मारना ही चाहते ह।
वह रावण को दुवचन कहता हआ उठकर चला गया। तब मेघनाद ोधपवू क बोला - सबेरे मेरी
करामात देखना। म बहत कुछ क ँ गा; थोड़ा या कहँ? (जो कुछ वणन क ँ गा थोड़ा ही होगा।)
सिु न सत
ु बचन भरोसा आवा। ीित समेत अंक बैठावा॥
करत िबचार भयउ िभनस ु ारा। लागे किप पिु न चहँ दआ
ु रा॥
पु के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने ेम के साथ उसे गोद म बैठा िलया। िवचार
करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर िफर चार दरवाज पर जा लगे।
वानर ने ोध करके दुगम िकले को घेर िलया। नगर म बहत ही कोलाहल (शोर) मच गया।
रा स बहत तरह के अ -श धारण करके दौड़े और उ ह ने िकले पर पहाड़ के िशखर ढहाए।
उ ह ने पवत के करोड़ िशखर ढहाए, अनेक कार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते ह
जैसे व पात हआ हो (िबजली िगरी हो) और यो ा ऐसे गरजते ह, मानो लयकाल के बादल ह ।
िवकट वानर यो ा िभड़ते ह, कट जाते ह (घायल हो जाते ह), उनके शरीर जजर (चलनी) हो
जाते ह, तब भी वे लटते नह (िह मत नह हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे िकले पर फकते ह।
रा स जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते ह, वह ) मारे जाते ह।
मेघनाद ने कान से ऐसा सुना िक वानर ने आकर िफर िकले को घेर िलया है। तब वह वीर िकले
से उतरा और डं का बजाकर उनके सामने चला॥ 49॥
वह बाण के समहू छोड़ने लगा। मानो बहत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे ह । जहाँ-तहाँ वानर
िगरते िदखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके।
िफर उसने सबको दस-दस बाण मारे , वानर वीर प ृ वी पर िगर पड़े । बलवान और धीर मेघनाद
िसंह के समान नाद करके गरजने लगा॥ 50॥
देिख पवनसत
ु कटक िबहाला। ोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तरु त उपारा। अित रस मेघनाद पर डारा॥
सारी सेना को बेहाल ( याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान ोध करके ऐसे दौड़े मानो वयं
काल दौड़ आता हो। उ ह ने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ िलया और बड़े ही ोध के साथ
उसे मेघनाद पर छोड़ा।
पहाड़ को अपनी ओर आते देखकर वह आकाश म उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब
न हो गए (चरू -चरू हो गए)। हनुमान उसे बार-बार ललकारते ह। पर वह िनकट नह आता,
य िक वह उनके बल का मम जानता था।
रघप
ु ित िनकट गयउ घननादा। नाना भाँित करे िस दब
ु ादा॥
अ स आयध ु सब डारे । कौतक
ु ह भु कािट िनवारे ॥
(तब) मेघनाद रघुनाथ के पास गया और उसने (उनके ित) अनेक कार के दुवचन का योग
िकया। (िफर) उसने उन पर अ -श तथा और सब हिथयार चलाए। भु ने खेल म ही सबको
काटकर अलग कर िदया।
माया देखकर वानर अकुला उठे । वे सोचने लगे िक इस िहसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका
मरण आ बना। यह कौतुक देखकर राम मुसकराए। उ ह ने जान िलया िक सब वानर भयभीत हो
गए ह।
पवत, नख और व ृ पी हिथयार धारण िकए हए वानर 'राम क जय' पुकारकर दौड़े । वानर और
रा स सब जोड़ी से जोड़ी िभड़ गए। इधर और उधर दोन ओर जय क इ छा कम न थी (अथात
बल थी)।
वानर उनको घँस ू और लात से मारते ह, दाँत से काटते ह। िवजयशील वानर उ ह मारकर िफर
डाँटते भी ह। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, िसर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर
उखाड़ लो'।
नव खंड म ऐसी आवाज भर रही है। चंड ं ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे ह। आकाश म देवतागण
यह कौतुक देख रहे ह। उ ह कभी खेद होता है और कभी आनंद।
घायल वीर कैसे शोिभत ह, जैसे फूले हए पलाश के पेड़। ल मण और मेघनाद दोन यो ा अ यंत
ोध करके एक-दूसरे से िभड़ते ह।
एक-दूसरे को (कोई िकसी को) जीत नह सकता। रा स छल-बल (माया) और अनीित (अधम)
करता है, तब भगवान अनंत (ल मण) ोिधत हए और उ ह ने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला
और सारथी को टुकड़े -टुकड़े कर िदए!
शेष (ल मण) उस पर अनेक कार से हार करने लगे। रा स के ाणमा शेष रह गए।
रावणपु मेघनाद ने मन म अनुमान िकया िक अब तो ाण संकट आ बना, ये मेरे ाण हर लगे।
मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगिणत) यो ा उ ह उठा रहे ह, परं तु जगत के आधार शेष
(ल मण) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥ 54॥
सन
ु ु िग रजा ोधानल जासू। जारइ भव ु न चा रदस आसू॥
सक सं ाम जीित को ताही। सेविहं सरु नर अग जग जाही॥
इस लीला को वही जान सकता है, िजस पर राम क कृपा हो। सं या होने पर दोन ओर क
सेनाएँ लौट पड़ , सेनापित अपनी-अपनी सेनाएँ सँभालने लगे।
यापक अिजत भव
ु ने वर। लिछमन कहाँ बूझ क नाकर॥
तब लिग लै आयउ हनमु ाना। अनज
ु देिख भु अित दःु ख माना॥
यापक, , अजेय, संपण
ू ांड के ई र और क णा क खान राम ने पछ ू ा - ल मण कहाँ
है? तब तक हनुमान उ ह ले आए। छोटे भाई को (इस दशा म) देखकर भु ने बहत ही दुःख
माना।
जा बवान ने कहा - लंका म सुषेण वै रहता है, उसे लाने के िलए िकसको भेजा
जा&##2319;? हनुमान छोटा प धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा
लाए।
सुषेण ने आकर राम के चरणारिवंद म िसर नवाया। उसने पवत और औषध का नाम बताया,
(और कहा िक) हे पवनपु ! औषिध लेने जाओ॥ 55॥
रावण ने उसको सारा मम (हाल) बतलाया। कालनेिम ने सुना और बार-बार िसर पीटा (खेद कट
िकया)। (उसने कहा -) तु हारे देखते-देखते िजसने नगर जला डाला, उसका माग कौन रोक
सकता है?
भिज रघप
ु ित क िहत आपना। छाँड़ह नाथ मष ृ ा ज पना॥
नील कंज तनु संदु र यामा। दयँ राखु लोचनािभरामा॥
रघुनाथ का भजन करके तुम अपना क याण करो! हे नाथ! झठू ी बकवास छोड़ दो। ने को
आनंद देनेवाले नीलकमल के समान सुंदर याम शरीर को अपने दय म रखो।
उसक ये बात सुनकर रावण बहत ही ोिधत हआ। तब कालनेिम ने मन म िवचार िकया िक
(इसके हाथ से मरने क अपे ा) राम के दूत के हाथ से ही म ँ तो अ छा है। यह दु तो पाप
समहू म रत है॥ 56॥
वह मन-ही-मन ऐसा कहकर चला और उसने माग म माया रची। तालाब, मंिदर और सुंदर बाग
बनाया। हनुमान ने सुंदर आ म देखकर सोचा िक मुिन से पछ
ू कर जल पी लँ,ू िजससे थकावट
दूर हो जाए।
(वह बोला -) रावण और राम म महान यु हो रहा है। राम जीतगे, इसम संदेह नह है। हे भाई! म
यहाँ रहता हआ ही सब देख रहा हँ। मुझे ान ि का बहत बड़ा बल है।
तालाब म वेश करते ही एक मादा मगर ने अकुलाकर उसी समय हनुमान का पैर पकड़ िलया।
हनुमान ने उसे मार डाला। तब वह िद य देह धारण करके िवमान पर चढ़कर आकाश को चली॥
57॥
(उसने कहा -) हे वानर! म तु हारे दशन से पापरिहत हो गई। हे तात! े मुिन का शाप िमट
गया। हे किप! यह मुिन नह है, घोर िनशाचर है। मेरा वचन स य मानो।
ऐसा कहकर य ही वह अ सरा गई, य ही हनुमान िनशाचर के पास गए। हनुमान ने कहा - हे
मुिन! पहले गु दि णा ले लीिजए। पीछे आप मुझे मं दीिजएगा।
बाण लगते ही हनुमान 'राम, राम, रघुपित' का उ चारण करते हए मिू छत होकर प ृ वी पर िगर
पड़े । ि य वचन (रामनाम) सुनकर भरत उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान के पास आए।
िजस िवधाता ने मुझे राम से िवमुख िकया, उसी ने िफर यह भयानक दुःख भी िदया। यिद मन,
वचन और शरीर से राम के चरणकमल म मेरा िन कपट ेम हो,
तात कुसल कह सख
ु िनधान क । सिहत अनज ु अ मातु जानक ॥
लकिप सब च रत समास बखाने। भए दख
ु ी मन महँ पिछताने॥
(भरत बोले -) हे तात! छोटे भाई ल मण तथा माता जानक सिहत सुखिनधान राम क कुशल
कहो। वानर (हनुमान) ने सं ेप म सब कथा कही। सुनकर भरत दुःखी हए और मन म पछताने
लगे।
अहह दैव म कत जग जायउँ । भु के एकह काज न आयउँ ॥
जािन कुअवस मन ध र धीरा। पिु न किप सन बोले बलबीरा॥
हे तात! तुमको जाने म देर होगी और सबेरा होते ही काम िबगड़ जाएगा। (अतः) तुम पवत सिहत
मेरे बाण पर चढ़ जाओ, म तुमको वहाँ भेज दँू जहाँ कृपा के धाम राम ह।
भरत क यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान के मन म अिभमान उ प न हआ िक मेरे बोझ
से बाण कैसे चलेगा? (िकंतु) िफर राम के भाव का िवचार करके वे भरत के चरण क वंदना
करके हाथ जोड़कर बोले -
हे नाथ! हे भो! म आपका ताप दय म रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आ ा पाकर
और भरत के चरण क वंदना करके हनुमान चले॥ 60(क)॥
वहाँ ल मण को देखकर राम साधारण मनु य के अनुसार (समान) वचन बोले - आधी रात बीत
चुक है, हनुमान नह आए। यह कहकर राम ने छोटे भाई ल मण को उठाकर दय से लगा
िलया।
(और बोले -) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नह देख सकते थे। तु हारा वभाव सदा से ही कोमल
था। मेरे िहत के िलए तुमने माता-िपता को भी छोड़ िदया और वन म जाड़ा, गरमी और हवा सब
सहन िकया।
हे भाई! वह ेम अब कहाँ है? मेरे याकुलतापवू क वचन सुनकर उठते य नह ? यिद म जानता
िक वन म भाई का िवछोह होगा तो म िपता का वचन (िजसका मानना मेरे िलए परम कत य था)
उसे भी न मानता।
सत
ु िबत ना र भवन प रवारा। होिहं जािहं जग बारिहं बारा॥
अस िबचा र िजयँ जागह ताता। िमलइ न जगत सहोदर ाता॥
जथा पंख िबनु खग अित दीना। मिन िबनु फिन क रबर कर हीना॥
अस मम िजवन बंधु िबनु तोही। ज जड़ दैव िजआवै मोही॥
ी के िलए यारे भाई को खोकर, म कौन-सा मँुह लेकर अवध जाऊँगा? म जगत म बदनामी
भले ही सह लेता (िक राम म कुछ भी वीरता नह है जो ी को खो बैठे)। ी क हािन से (इस
हािन को देखते) कोई िवशेष ित नह थी।
अब अपलोकु सोकु सत
ु तोरा। सिहिह िनठुर कठोर उर मोरा॥
िनज जननी के एक कुमारा। तात तासु तु ह ान अधारा॥
सोच से छुड़ानेवाले राम बहत कार से सोच कर रहे ह। उनके कमल क पंखुड़ी के समान ने
से (िवषाद के आँसुओ ं का) जल बह रहा है। (िशव कहते ह -) हे उमा! रघुनाथ एक (अि तीय)
और अखंड (िवयोगरिहत) ह। भ पर कृपा करनेवाले भगवान ने (लीला करके) मनु य क
दशा िदखलाई है।
भु के (लीला के िलए िकए गए) लाप को कान से सुनकर वानर के समहू याकुल हो गए।
(इतने म ही) हनुमान आ गए, जैसे क ण रस (के संग) म वीर रस (का संग) आ गया हो॥
61॥
राम हिषत होकर हनुमान से गले लगकर िमले। भु परम सुजान (चतुर) और अ यंत ही कृत
ह। तब वै (सुषेण) ने तुरंत उपाय िकया, (िजससे) ल मण हिषत होकर उठ बैठे।
भु भाई को दय से लगाकर िमले। भालू और वानर के समहू सब हिषत हो गए। िफर हनुमान ने
वै को उसी कार वहाँ पहँचा िदया, िजस कार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे।
यह ब ृ ांत दसानन सन
ु ऊे । अित िबषाद पिु न पिु न िसर धन े ॥
ु ऊ
याकुल कंु भकरन पिहं आवा। िबिबध जतन क र तािह जगावा॥
यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अ यंत िवषाद से बार-बार िसर पीटा। वह याकुल
होकर कुंभकण के पास गया और बहत-से उपाय करके उसने उसको जगाया।
कंु भकण जगा (उठ बैठा)। वह कैसा िदखाई देता है मानो वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा
हो। कुंभकण ने पछ
ू ा - हे भाई! कहो तो, तु हारे मुख सख
ू य रहे ह?
दम
ु ख
ु सरु रपु मनज
ु अहारी। भट अितकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आिदक बीरा। परे समर मिह सब रनधीरा॥
हे भाई! अब तो (अंितम बार) अँकवार भरकर मुझसे िमल ले। म जाकर अपने ने सफल क ँ ।
तीन ताप को छुड़ानेवाले याम शरीर, कमल ने राम के जाकर दशन क ँ ।
भसे खाकर और मिदरा पीकर वह व घात (िबजली िगरने) के समान गरजा। मद से चरू रण के
उ साह से पण
ू कंु भकण िकला छोड़कर चला। सेना भी साथ नह ली।
उसे देखकर िवभीषण आगे आए और उसके चरण पर िगरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को
उठाकर उसने दय से लगा िलया और रघुनाथ का भ जानकर वे उसके मन को ि य लगे।
(िवभीषण ने कहा -) हे तात! परम िहतकर सलाह एवं िवचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी।
उसी लािन के मारे म रघुनाथ के पास चला आया। दीन देखकर भु के मन को म (बहत) ि य
लगा।
सन
ु ु भयउ कालबस रावन। सो िक मान अब परम िसखावन॥
ध य ध य त ध य िबभीषन। भयह तात िनिसचर कुल भूषन॥
(कंु भकण ने कहा -) हे पु ! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके िसर पर म ृ यु नाच
रही है)। वह या अब उ म िश ा मान सकता है? हे िवभीषण! तू ध य है, ध य है। हे तात! तू
रा स कुल का भषू ण हो गया।
ू े अपने कुल को देदी यमान कर िदया, जो शोभा और सुख के समु राम को भजा।
हे भाई! तन
मन, वचन और कम से कपट छोड़कर रणधीर राम का भजन करना। हे भाई! म काल (म ृ यु) के
वश हो गया हँ, मुझे अपना-पराया नह सझ
ू ता; इसिलए अब तुम जाओ॥ 64॥
ै ोक िबभूषन॥
बंधु बचन सिु न चला िबभीषन। आयउ जहँ ल
नाथ भूधराकार सरीरा। कंु भकरन आवत रनधीरा॥
भाई के वचन सुनकर िवभीषण लौट गए और वहाँ आए जहाँ ि लोक के भषू ण राम थे। (िवभीषण
ने कहा -) हे नाथ! पवत के समान (िवशाल) देहवाला रणधीर कुंभकण आ रहा है।
वानर ने जब कान से इतना सुना, तब वे बलवान िकलिकलाकर (हष विन करके) दौड़े । व ृ
और पवत (उखाड़कर) उठा िलए और ( ोध से) दाँत कटकटाकर उ ह उसके ऊपर डालने लगे।
रीछ-वानर एक-एक बार म ही करोड़ पहाड़ के िशखर से उस पर हार करते ह, परं तु इससे न
तो उसका मन ही मुड़ा (िवचिलत हआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फल क मार से
हाथी पर कुछ भी असर नह होता!
पिु न नल नीलिह अविन पछारे िस। जहँ तहँ पटिक पटिक भट डारे िस॥
चली बलीमख ु सेन पराई। अित भय िसत न कोउ समहु ाई॥
िफर उसने नल-नील को प ृ वी पर पछाड़ िदया और दूसरे यो ाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर
डाल िदया। वानर सेना भाग चली। सब अ यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नह आता।
भगवान (इसके ारा) जगत को पिव करनेवाली वह क ित फै लाएँ गे िजसे गा-गाकर मनु य
भवसागर से तर जाएँ गे। मू छा जाती रही, तब मा ित हनुमान जागे और िफर वे सु ीव को
खोजने लगे।
गहेउ चरन गिह भूिम पछारा। अित लाघवँ उिठ पिु न तेिह मारा॥
पिु न आयउ भु पिहं बलवाना। जयित जयित जय कृपािनधाना॥
उसने सु ीव का पैर पकड़कर उनको प ृ वी पर पछाड़ िदया। िफर सु ीव ने बड़ी फुत से उठकर
उसको मारा और तब बलवान सु ीव भु के पास आए और बोले - कृपािनधान भु क जय हो,
जय हो, जय हो।
'रघुवंशमिण क जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हह करके दौड़े और सबने एक ही साथ
उस पर पहाड़ और व ृ के समहू छोड़े ॥ 66॥
कंु भकरन रन रं ग िब ा। स मख
ु चला काल जनु ु ा॥
कोिट कोिट किप ध र ध र खाई। जनु टीड़ी िग र गहु ाँ समाई॥
रण के उ साह म कंु भकण िव होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो ोिधत होकर काल ही
आ रहा हो। वह करोड़-करोड़ वानर को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मँुह म इस
तरह घुसने लगे) मानो पवत क गुफा म िटड्िडयाँ समा रही ह ।
करोड़ (वानर ) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला। करोड़ को हाथ से मलकर प ृ वी क
ू म िमला िदया। (पेट म गए हए) भालू और वानर के ठ -के-ठ उसके मुख, नाक और कान
धल
क राह से िनकल-िनकलकर भाग रहे ह।
कंु भकण ने वानर सेना को िततर-िबतर कर िदया। यह सुनकर रा स सेना भी दौड़ी। राम ने
देखा िक अपनी सेना याकुल है और श ु क नाना कार क सेना आ गई है।
दो० - सन
ु ु सु ीव िबभीषन अनज
ु सँभारे ह सैन।
म देखउँ खल बल दलिह बोले रािजवनैन॥ 67॥
तब कमलनयन राम बोले - हे सु ीव! हे िवभीषण! और हे ल मण! सुनो, तुम सेना को सँभालना।
म इस दु के बल और सेना को देखता हँ॥ 67॥
हाथ म शागधनुष और कमर म तरकस सजाकर रघुनाथ श ु सेना को दलन करने चले। भु ने
पहले तो धनुष का टंकार िकया, िजसक भयानक आवाज सुनते ही श ु दल बहरा हो गया।
िफर स य ित राम ने एक लाख बाण छोड़े । वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सप चले ह । जहाँ-
तहाँ बहत-से बाण चले, िजनसे भयंकर रा स यो ा कटने लगे।
उनके चरण, छाती, िसर और भुजदंड कट रहे ह। बहत-से वीर के सौ-सौ टुकड़े हो जाते ह। घायल
च कर खा-खाकर प ृ वी पर पड़ रहे ह। उ म यो ा िफर सँभलकर उठते और लड़ते ह।
बाण लगते ही वे मेघ क तरह गरजते ह। बहत-से तो किठन बाण को देखकर ही भाग जाते ह।
िबना मुंड (िसर) के चंड ं ड (धड़) दौड़ रहे ह और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का श द करते
हए गा (िच ला) रहे ह।
वह ोध करके पवत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर यो ा होते ह, वहाँ डाल देता है।
बड़े -बड़े पवत को आते देखकर भु ने उनको बाण से काटकर धल ू के समान (चरू -चरू ) कर
डाला।
िफर रघुनाथ ने ोध करके धनुष को तानकर बहत-से अ यंत भयानक बाण छोड़े । वे बाण
कुंभकण के शरीर म घुसकर (पीछे से इस कार) िनकल जाते ह (िक उनका पता नह चलता),
जैसे िबजिलयाँ बादल म समा जाती ह।
उसके काले शरीर से िधर बहता हआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पवत से गे के पनाले
बह रहे ह । उसे याकुल देखकर रीछ-वानर दौड़े । वे य ही िनकट आए, य ही वह हँसा,
और बड़ा घोर श द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानर को पकड़कर वह गजराज क तरह
उ ह प ृ वी पर पटकने लगा और रावण क दुहाई देने लगा॥ 69॥
यह देखकर रीछ-वानर के झुंड ऐसे भागे जैसे भेिड़ए को देखकर भेड़ के झुंड! (िशव कहते ह -)
हे भवानी! वानर-भालू याकुल होकर आतवाणी से पुकारते हए भाग चले।
(वे कहने लगे -) यह रा स दुिभ के समान है, जो अब वानर कुल पी देश म पड़ना चाहता है।
हे कृपा पी जल के धारण करनेवाले मेघ प राम! हे खर के श ु! हे शरणागत के दुःख
हरनेवाले! र ा क िजए, र ा क िजए!
क णा भरे वचन सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली राम ने सेना को
अपने पीछे कर िलया और वे (अकेले) ोधपवू क चले (आगे बढ़े )।
खिच धनष
ु सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रस भरा। कुधर डगमगत डोलित धरा॥
उ ह ने धनुष को ख चकर सौ बाण संधान िकए। बाण छूटे और उसके शरीर म समा गए। बाण के
लगते ही वह ोध म भरकर दौड़ा। उसके दौड़ने से पवत डगमगाने लगे और प ृ वी िहलने लगी।
उसने एक पवत उखाड़ िलया। रघुकुल ितलक राम ने उसक वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ
हाथ म पवत को लेकर दौड़ा। भु ने उसक वह भुजा भी काटकर प ृ वी पर िगरा दी।
भुजाओं के कट जाने पर वह दु कैसी शोभा पाने लगा, जैसे िबना पंख का मंदराचल पहाड़ हो।
उसने उ ि से भु को देखा। मानो तीन लोक को िनगल जाना चाहता हो।
वह बड़े जोर से िच घाड़ करके मँुह फै लाकर दौड़ा। आकाश म िस और देवता डरकर हा! हा!
हा! इस कार पुकारने लगे॥ 70॥
मुख म बाण भरे हए वह ( भु के) सामने दौड़ा। मानो काल पी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब
भु ने ोध करके ती ण बाण िलया और उसके िसर को धड़ से अलग कर िदया।
सो िसर परे उ दसानन आग। िबकल भयउ िजिम फिन मिन याग॥
धरिन धसइ धर धाव चंडा। तब भु कािट क ह दइु खंडा॥
वह िसर रावण के आगे जा िगरा। उसे देखकर रावण ऐसा याकुल हआ जैसे मिण के छूट जाने पर
सप। कुंभकण का चंड धड़ दौड़ा, िजससे प ृ वी धँसी जाती थी। तब भु ने काटकर उसके दो
टुकड़े कर िदए।
वानर-भालू और िनशाचर को अपने नीचे दबाते हए वे दोन टुकड़े प ृ वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश
से दो पहाड़ िगरे ह । उसका तेज भु राम के मुख म समा गया। (यह देखकर) देवता और मुिन
सभी ने आ य माना।
सरु ददुं भ
ु बजाविहं हरषिहं। अ तिु त करिहं सम
ु न बह बरषिहं॥
क र िबनती सरु सकल िसधाए। तेही समय देव रिष आए॥
देवता नगाड़े बजाते, हिषत होते और तुित करते हए बहत-से फूल बरसा रहे ह। िवनती करके
सब देवता चले गए। उसी समय देविष नारद आए।
गगनोप र ह र गन
ु गन गाए। िचर बीररस भु मन भाए॥
बेिग हतह खल किह मिु न गए। राम समर मिह सोभत भए॥
अतुलनीय बलवाले कोसलपित रघुनाथ रणभिू म म सुशोिभत ह। मुख पर पसीने क बँदू ह, कमल
समान ने कुछ लाल हो रहे ह। शरीर पर र के कण ह, दोन हाथ से धनुष-बाण िफरा रहे ह।
चार ओर रीछ-वानर सुशोिभत ह। तुलसीदास कहते ह िक भु क इस छिव का वणन शेष भी
नह कर सकते, िजनके बहत-से (हजार) मुख ह।
(िशव कहते ह -) हे िग रजे! कुंभकण, जो नीच रा स और पाप क खान था, उसे भी राम ने
अपना परमधाम दे िदया। अतः वे मनु य (िन य ही) मंदबुि ह, जो उन ी राम को नह भजते॥
71॥
िदन का अंत होने पर दोन सेनाएँ लौट पड़ । (आज के यु म) यो ाओं को बड़ी थकावट हई।
परं तु राम क कृपा से वानर सेना का बल उसी कार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अि न बहत बढ़
जाती है।
उधर रा स िदन-रात इस कार घटते जा रहे ह िजस कार अपने ही मुख से कहने पर पु य घट
जाते ह। रावण बहत िवलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कंु भकण) का िसर कलेजे से लगाता है।
ि याँ उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथ से छाती पीट-पीटकर रो रही ह। उसी
समय मेघनाद आया और उसने बहत-सी कथाएँ कहकर िपता को समझाया।
(और कहा -) कल मेरा पु षाथ देिखएगा। अभी बहत बड़ाई या क ँ ? हे तात! मने अपने
इ देव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नह िदखलाया था।
मेघनाद उसी (पवू ) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश म चला गया और अ हास करके गरजा,
िजससे वानर क सेना म भय छा गया॥ 72॥
आकाश म दस िदशाओं म बाण छा गए, मानो मघा न के बादल ने झड़ी लगा दी हो। 'पकड़ो,
पकड़ो, मारो' ये श द सुनाई पड़ते ह। पर जो मार रहा है, उसे कोई नह जान पाता।
पवत और व ृ को लेकर वानर आकाश म दौड़कर जाते ह। पर उसे देख नह पाते, इससे दुःखी
होकर लौट आते ह। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घािटय , रा त और पवत -कंदराओं को
बाण के िपंजरे बना िदए (बाण से छा िदया)।
जािहं कहाँ याकुल भए बंदर। सरु पित बंिद परे जनु मंदर॥
मा तसत ु अंगद नल नीला। क हेिस िबकल सकल बलसीला॥
अब कहाँ जाएँ , यह सोचकर (रा ता न पाकर) वानर याकुल हो गए। मानो पवत इं क कैद म
पड़े ह । मेघनाद ने मा ित हनुमान, अंगद, नल और नील आिद सभी बलवान को याकुल कर
िदया।
पिु न लिछमन सु ीव िबभीषन। सरि ह मा र क हेिस जजर तन॥
ु ित स जूझ ै लागा। सर छाँड़इ होइ लागिहं नागा॥
पिु न रघप
िफर उसने ल मण, सु ीव और िवभीषण को बाण से मारकर उनके शरीर को छलनी कर िदया।
िफर वह रघुनाथ से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते ह।
रण क शोभा के िलए भु ने अपने को नागपाश म बाँध िलया, िकंतु उससे देवताओं को बड़ा भय
हआ।
(िशव कहते ह -) हे िग रजे! िजनका नाम जपकर मुिन भव (ज म-म ृ यु) क फाँसी को काट
डालते ह, वे सव यापक और िव िनवास (िव के आधार) भु कह बंधन म आ सकते ह?॥
73॥
अरे मख ू ा जानकर तुझको छोड़ िदया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है?
ू ! मने बढ़
ऐसा कहकर उसने चमकता हआ ि शल ू चलाया। जा बवान उसी ि शल ू को हाथ से पकड़कर
दौड़ा।
(िकंतु) वरदान के ताप से वह मारे नह मरता। तब जा बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका
पर फक िदया। इधर देविष नारद ने ग ड़ को भेजा। वे तुरंत ही राम के पास आ पहँचे।
पवत, व ृ , प थर और नख धारण िकए वानर ोिधत होकर दौड़े । िनशाचर िवशेष याकुल
होकर भाग चले और भागकर िकले पर चढ़ गए॥ 74(ख)॥
मेघनाद क मू छा छूटी, (तब) िपता को देखकर उसे बड़ी शम लगी। म अजय (अजेय होने को)
य क ँ , ऐसा मन म िन य करके वह तुरंत े पवत क गुफा म चला गया।
हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुि के उपाय से मारना, िजससे िनशाचर का नाश हो। हे
जा बवान, सु ीव और िवभीषण! तुम तीन जने सेना समेत (इनके) साथ रहना।
जब रघब
ु ीर दीि ह अनस
ु ासन। किट िनषंग किस सािज सरासन॥
भु ताप उर ध र रनधीरा। बोले घन इव िगरा गँभीरा॥
यिद म आज उसे िबना मारे आऊँ, तो रघुनाथ का सेवक न कहलाऊँ। यिद सैकड़ शंकर भी
उसक सहायता कर तो भी रघुवीर क दुहाई है; आज म उसे मार ही डालँग
ू ा।
दो० - रघप
ु ित चरन नाइ िस चलेउ तरु ं त अनंत।
अंगद नील मयंद नल संग सभ ु ट हनम
ु ंत॥ 75॥
रघुनाथ के चरण म िसर नवाकर शेषावतार ल मण तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद,
नल और हनुमान आिद उ म यो ा थे॥ 75॥
जाइ किप ह सो देखा बैसा। आहित देत िधर अ भसा॥
क ह किप ह सब ज य िबधंसा। जब न उठइ तब करिहं संसा॥
वानर ने जाकर देखा िक वह बैठा हआ खनू और भसे क आहित दे रहा है। वानर ने सब य
िव वंस कर िदया। िफर भी जब वह नह उठा, तब वे उसक शंसा करने लगे।
श ु (मेघनाद) मारे नह मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर िच घाड़ करके दौड़ा। उसे
ु काल क तरह आता देखकर ल मण ने भयानक बाण छोड़े ।
राम के छोटे भाई ल मण कहाँ ह? राम कहाँ ह? ऐसा कहकर उसने ाण छोड़ िदए। अंगद और
हनुमान कहने लगे - तेरी माता ध य है, ध य है, (जो तू ल मण के हाथ मरा और मरते समय
राम-ल मण को मरण करके तन ू े उनके नाम का उ चारण िकया)॥ 76॥
हनुमान ने उसको िबना ही प र म के उठा िलया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए।
उसका मरना सुनकर देवता और गंधव आिद सब िवमान पर चढ़कर आकाश म आए।
बरिष सम
ु न ददुं भ
ु बजाविहं। ीरघन
ु ाथ िबमल जसु गाविहं॥
जय अनंत जय जगदाधारा। तु ह भु सब देवि ह िन तारा॥
देवता और िस तुित करके चले गए, तब ल मण कृपा के समु राम के पास आए। रावण ने
य ही पु वध का समाचार सुना, य ही वह मिू छत होकर प ृ वी पर िगर पड़ा।
रावण ने उनको ान का उपदेश िकया। वह वयं तो नीच है, पर उसक कथा (बात) शुभ और
पिव ह। दूसर को उपदेश देने म तो बहत लोग िनपुण होते ह। पर ऐसे लोग अिधक नह ह, जो
उपदेश के अनुसार आचरण भी करते ह।
िनसा िसरािन भयउ िभनसु ारा। लगे भालु किप चा रहँ ारा॥
सभु ट बोलाइ दसानन बोला। रन स मख ु जाकर मन डोला॥
रात बीत गई, सबेरा हआ। रीछ-वानर (िफर) चार दरवाज पर जा डटे। यो ाओं को बुलाकर
दशमुख रावण ने कहा - लड़ाई म श ु के स मुख िजसका मन डाँवाडोल हो,
अ छा है वह अभी भाग जाए। यु म जाकर िवमुख होने (भागने) म भलाई नह है। मने अपनी
भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो श ु चढ़ आया है, उसको म (अपने ही) उ र दे लँग
ू ा।
ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलनेवाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे
बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान वीर ऐसे चले मानो काजल क आँधी चली हो।
असगन
ु अिमत होिहं तेिह काला। गनइ न भज
ु बल गब िबसाला॥
उस समय असं य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गव होने से रावण
उ ह िगनता नह है।
छं ० - अित गब गनइ न सगन ु असगनु विहं आयध
ु हाथ ते।
भट िगरत रथ ते बािज गज िच करत भाजिहं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव वान बोलिहं अित घने।
जनु कालदूत उलक ू बोलिहं बचन परम भयावने॥
रा स क अपार सेना चली। चतुरंिगणी सेना क बहत-सी टुकिड़याँ ह। अनेक कार के वाहन,
रथ और सवा रयाँ ह तथा बहत-से रं ग क अनेक पताकाएँ और वजाएँ ह।
मतवाले हािथय के बहत-से झुंड चले। मानो पवन से े रत हए वषा ऋतु के बादल ह । रं ग-िबरं गे
बाना धारण करनेवाले वीर के समहू ह, जो यु म बड़े शरू वीर ह और बहत कार क माया
जानते ह।
अ यंत िविच फौज शोिभत है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से िदशाओं के
हाथी िडगने लगे, समु ुिभत हो गए और पवत डगमगाने लगे।
इतनी धल
ू उड़ी िक सय
ू िछप गए। (िफर सहसा) पवन क गया और प ृ वी अकुला उठी। ढोल और
नगाड़े भीषण विन से बज रहे ह; जैसे लयकाल के बादल गरज रहे ह ।
भेरी, नफ री (तुरही) और शहनाई म यो ाओं को सुख देनेवाला मा राग बज रहा है। सब वीर
िसंहनाद करते ह और अपने-अपने बल पौ ष का बखान कर रहे ह।
वे िवशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े । मानो पंखवाले पवत के समहू उड़ रहे ह ।
वे अनेक वण के ह। नख, दाँत, पवत और बड़े -बड़े व ृ ही उनके हिथयार ह। वे बड़े बलवान ह
और िकसी का भी डर नह मानते। रावण पी मतवाले हाथी के िलए िसंह प राम का जय-
जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते ह।
ई र का भजन ही (उस रथ को चलानेवाला) चतुर सारथी है। वैरा य ढाल है और संतोष तलवार
है। दान फरसा है, बुि चंड शि है, े िव ान किठन धनुष है।
हे धीरबुि वाले सखा! सुनो, िजसके पास ऐसा ढ़ रथ हो, वह वीर संसार (ज म-म ृ यु) पी
महान दुजय श ु को भी जीत सकता है (रावण क तो बात ही या है)॥ 80(क)॥
सिु न भु बचन िबभीषन हरिष गहे पद कंज।
एिह िमस मोिह उपदेसहे राम कृपा सख
ु पंज
ु ॥ 80(ख)॥
भु के वचन सुनकर िवभीषण ने हिषत होकर उनके चरण कमल पकड़ िलए (और कहा -) हे
कृपा और सुख के समहू राम! आपने इसी बहाने मुझे (महान) उपदेश िदया॥ 80(ख)॥
ा आिद देवता और अनेक िस तथा मुिन िवमान पर चढ़े हए आकाश से यु देख रहे ह।
(िशव कहते ह -) हे उमा! म भी उस समाज म था और राम के रण-रं ग (रणो साह) क लीला देख
रहा था।
सभ
ु ट समर रस दहु िदिस माते। किप जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन िभरिहं पचारिहं। एक ह एक मिद मिह पारिहं॥
वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते ह और िसर तोड़कर उ ह िसर से दूसर को मारते ह।
पेट फाड़ते ह, भुजाएँ उखाड़ते ह और यो ाओं को पैर पकड़कर प ृ वी पर पटक देते ह।
वे रा स के गाल पकड़कर फाड़ डालते ह, छाती चीर डालते ह और उनक अँतिड़याँ िनकालकर
गले म डाल लेते ह। वे वानर ऐसे िदख पड़ते ह मानो ाद के वामी निृ संह भगवान अनेक
शरीर धारण करके यु के मैदान म ड़ा कर रहे ह । पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आिद घोर
श द आकाश और प ृ वी म भर (छा) गए ह। राम क जय हो, जो सचमुच तण ृ से व और व से
तण ृ कर देते ह (िनबल को सबल और सबल को िनबल कर देते ह)।
अपनी सेना को िवचिलत होते हए देखा, तब बीस भुजाओं म दस धनुष लेकर रावण रथ पर
चढ़कर गव करके 'लौटो, लौटो' कहता हआ चला॥ 81॥
रावण अ यंत ोिधत होकर दौड़ा। वानर हँकार करते हए (लड़ने के िलए) उसके सामने चले।
उ ह ने हाथ म व ृ , प थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले।
पवत उसके व तु य शरीर म लगते ही तुरंत टुकड़े -टुकड़े होकर फूट जाते ह। अ यंत ोधी
रणो म रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने थान से) जरा भी नह िहला।
इत उत झपिट दपिट किप जोधा। मद लाग भयउ अित ोधा॥
चले पराइ भालु किप नाना। ािह ािह अंगद हनम
ु ाना॥
उसे बहत ही ोध हआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर यो ाओं को मसलने लगा।
अनेक वानर-भालू 'हे अंगद! हे हनुमान! र ा करो, र ा करो' (पुकारते हए) भाग चले।
उसने धनुष पर संधान करके बाण के समहू छोड़े । वे बाण सप क तरह उड़कर जा लगते थे।
प ृ वी-आकाश और िदशा-िविदशा सव बाण भर रहे ह। वानर भाग तो कहाँ? अ यंत कोलाहल
मच गया। वानर-भालओ ू ं क सेना याकुल होकर आ पुकार करने लगी - हे रघुवीर! हे
क णासागर! हे पीिड़त के बंधु! हे सेवक क र ा करके उनके दुःख हरनेवाले ह र!
अपनी सेना को याकुल देखकर कमर म तरकस कसकर और हाथ म धनुष लेकर रघुनाथ के
चरण पर म तक नवाकर ल मण ोिधत होकर चले॥ 82॥
(ल मण ने पास जाकर कहा -) अरे दु ! वानर भालओ ू ं को या मार रहा है? मुझे देख, म तेरा
काल हँ। (रावण ने कहा -) अरे मेरे पु के घातक! म तुझी को ढूँढ़ रहा था। आज तुझे मारकर
(अपनी) छाती ठं डी क ँ गा।
ऐसा कहकर उसने चंड बाण छोड़े । ल मण ने सबके सैकड़ टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़
अ -श चलाए। ल मण ने उनको ितल के बराबर करके काटकर हटा िदया।
िफर अपने बाण से (उस पर) हार िकया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला।
(रावण के) दस म तक म सौ-सौ बाण मारे । वे िसर म ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के िशखर म
सप वेश कर रहे ह ।
िफर सौ बाण उसक छाती म मारे । वह प ृ वी पर िगर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। िफर मू छा
छूटने पर वह बल रावण उठा और उसने वह शि चलाई जो ा ने उसे दी थी।
यह देखकर पवनपु हनुमान कठोर वचन बोलते हए दौड़े । हनुमान के आते ही रावण ने उन पर
ू े का हार िकया॥ 83॥
अ यंत भयंकर घँस
मू छा भंग होने पर िफर वह जागा और हनुमान के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान ने
कहा -) मेरे पौ ष को िध कार है, िध कार है और मुझे भी िध कार है, जो हे देव ोही! तू अब भी
जीता रह गया।
यहाँ िवभीषण ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर रघुनाथ को कह सुनाई िक हे नाथ! रावण एक
य कर रहा है। उसके िस होने पर वह अभागा सहज ही नह मरे गा।
हे नाथ! तुरंत वानर यो ाओं को भेिजए; जो य का िव वंस कर, िजससे रावण यु म आए।
ातःकाल होते ही भु ने वीर यो ाओं को भेजा। हनुमान और अंगद आिद सब ( धान वीर) दौड़े ।
वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और िनभय होकर रावण के महल म जा घुसे। य ही
उसको य करते देखा, य ही सब वानर को बहत ोध हआ।
(उ ह ने कहा -) अरे ओ िनल ज! रणभिू म से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का-सा यान
लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनक ओर देखा भी नह , उस दु
का मन वाथ म अनुर था।
जब उसने नह देखा, तब वानर ोध करके उसे दाँत से पकड़कर (काटने और) लात से मारने
लगे। ि य को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अ यंत ही दीन होकर पुकारने लग ।
तब रावण काल के समान ोिधत होकर उठा और वानर को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी
बीच म वानर ने य िव वंस कर डाला, यह देखकर वह मन म हारने लगा (िनराश होने लगा)।
य िव वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथ के पास आ गए। तब रावण जीने क आशा छोड़कर
ोिधत होकर चला॥ 85॥
िनशाचर क अपार सेना चली। उसम बहत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल ह। वे दु भु के
सामने कैसे दौड़े , जैसे पतंग के समहू अि न क ओर (जलने के िलए) दौड़ते ह।
इधर देवताओं ने तुित क िक हे राम! इसने हमको दा ण दुःख िदए ह। अब आप इसे (अिधक)
न खेलाइए। जानक बहत ही दुःखी हो रही ह।
देवताओं के वचन सुनकर भु मुसकराए। िफर रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे । म तक पर जटाओं
के जड़ू े को कसकर बाँधे हए ह, उसके बीच-बीच म पु प गँथ
ू े हए शोिभत हो रहे ह।
भु ने हाथ म शागधनुष लेकर कमर म बाण क खान (अ य) सुंदर तरकस कस िलया। उनके
भुजदंड पु ह और मनोहर चौड़ी छाती पर ा ण (भग ृ ु) के चरण का िच शोिभत है। तुलसीदास
कहते ह, य ही भु धनुष-बाण हाथ म लेकर िफराने लगे, य ही ांड, िदशाओं के हाथी,
क छप, शेष, प ृ वी, समु और पवत सभी डगमगा उठे ।
दो० - सोभा देिख हरिष सरु बरषिहं सम
ु न अपार।
जय जय जय क नािनिध छिब बल गन ु आगार॥ 86॥
(भगवान क ) शोभा देखकर देवता हिषत होकर फूल क अपार वषा करने लगे और शोभा,
शि और गुण के धाम क णािनधान भु क जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥
86॥
इसी बीच म िनशाचर क अ यंत घनी सेना कसमसाती हई (आपस म टकराती हई) आई। उसे
देखकर वानर यो ा इस कार (उसके) सामने चले जैसे लयकाल के बादल के समहू ह ।
बहत-से कृपाल और तलवार चमक रही ह। मानो दस िदशाओं म िबजिलयाँ चमक रही ह । हाथी,
रथ और घोड़ का कठोर िचं घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गजन कर रहे ह ।
वानर क बहत-सी पँछ ू आकाश म छाई हई ह। (वे ऐसी शोभा दे रही ह) मानो सुंदर इं धनुष उदय
हए ह । धल
ू ऐसी उठ रही है मानो जल क धारा हो। बाण पी बँदू क अपार विृ हई।
दोन ओर से यो ा पवत का हार करते ह। मानो बारं बार व पात हो रहा हो। रघुनाथ ने ोध
करके बाण क झड़ी लगा दी, (िजससे) रा स क सेना घायल हो गई।
लागत बान बीर िच करह । घिु म घिु म जहँ तहँ मिह परह ॥
विहं सैल जनु िनझर भारी। सोिनत स र कादर भयकारी॥
भत
ू , िपशाच और बेताल, बड़े -बड़े झ ट वाले महान भयंकर झोिटंग और मथ (िशवगण) उस नदी
म नान करते ह। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते ह और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते ह।
एक (कोई) कहते ह, अरे मखू ! ऐसी स ती (बहतायत) है, िफर भी तु हारी द र ता नह जाती?
घायल यो ा तट पर पड़े कराह रहे ह, मानो जहाँ-तहाँ अधजल (वे यि जो मरने के समय आधे
जल म रखे जाते ह) पड़े ह ।
गीध आँत ख च रहे ह, मानो मछली मार नदी तट पर से िच लगाए हए ( यान थ होकर) बंसी
खेल रहे ह (बंसी से मछली पकड़ रहे ह )। बहत-से यो ा बहे जा रहे ह और प ी उन पर चढ़े चले
जा रहे ह। मानो वे नदी म नाव र (नौका ड़ा) खेल रहे ह ।
जंबक
ु िनकर कट कट क िहं। खािहं हआिहं अघािहं दप िहं॥
कोिट ह ं ड मंड
ु िबनु डो लिहं। सीस परे मिह जय जय बो लिहं॥
गीदड़ के समहू कट-कट श द करते हए मुरद को काटते, खाते, हआँ-हआँ करते और पेट भर
जाने पर एक-दूसरे को डाँटते ह। करोड़ धड़ िबना िसर के घम
ू रहे ह और िसर प ृ वी पर पड़े जय-
जय बोल रहे ह।
मंुड (कटे िसर) जय-जय बोल बोलते ह और चंड ं ड (धड़) िबना िसर के दौड़ते ह। प ी
खोपिड़य म उलझ-उलझकर पर पर लड़े मरते ह; उ म यो ा दूसरे यो ाओं को ढहा रहे ह। राम
बल से दिपत हए वानर रा स के झुंड को मसले डालते ह। राम के बाण समहू से मरे हए यो ा
लड़ाई के मैदान म सो रहे ह।
तेज पंज
ु रथ िद य अनूपा। हरिष चढ़े कोसलपरु भूपा॥
चंचल तरु ग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गितकारी॥
उस िद य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा राम हिषत होकर चढ़े ।
उसम चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन क गित के समान शी चलनेवाले (देवलोक
के) घोड़े जुते थे।
रघुनाथ को रथ पर चढ़े देखकर वानर िवशेष बल पाकर दौड़े । वानर क मार सही नह जाती।
तब रावण ने माया फै लाई।
सो माया रघब
ु ीरिह बाँची। लिछमन किप ह सो मानी साँची॥
देखी किप ह िनसाचर अनी। अनज ु सिहत बह कोसलधनी॥
िफर राम सबक ओर देखकर गंभीर वचन बोले - हे वीरो! तुम सब बहत ही थक गए हो, इसिलए
अब (मेरा और रावण का) ं यु देखो॥ 89॥
अस किह रथ रघन
ु ाथ चलावा। िब चरन पंकज िस नावा॥
तब लंकेस ोध उर छावा। गजत तजत स मख ु धावा॥
तुमने खर, दूषण और िवराध को मारा! बेचारे बािल का याध क तरह वध िकया। बड़े -बड़े रा स
यो ाओं के समहू का संहार िकया और कुंभकण तथा मेघनाद को भी मारा।
अरे राजा! यिद तुम रण से भाग न गए तो आज म (वह) सारा वैर िनकाल लँग
ू ा। आज म तु ह
िन य ही काल के हवाले कर दँूगा। तुम किठन रावण के पाले पड़े हो।
सिु न दब
ु चन कालबस जाना। िबहँिस बचन कह कृपािनधाना॥
स य स य सब तव भत ु ाई। ज पिस जिन देखाउ मनसु ाई॥
रावण के दुवचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपािनधान राम ने हँसकर यह वचन कहा -
तु हारी सारी भुता, जैसा तुम कहते हो, िब कुल सच है। पर अब यथ बकवास न करो, अपना
पु षाथ िदखलाओ।
यथ बकवास करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। मा करना, तु ह नीित सुनाता हँ, सुनो!
संसार म तीन कार के पु ष होते ह - पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक
(पाटल) फूल देते ह, एक (आम) फूल और फल दोन देते ह एक (कटहल) म केवल फल ही लगते
ह। इसी कार (पु ष म) एक कहते ह (करते नह ), दूसरे कहते और करते भी ह और एक
(तीसरे ) केवल करते ह, पर वाणी से कहते नह ।
राम के वचन सुनकर वह खबू हँसा (और बोला -) मुझे ान िसखाते हो? उस समय वैर करते तो
नह डरे , अब ाण यारे लग रहे ह॥ 90॥
ु चन ु दसकंधर। कुिलस समान लाग छाँड़ ै सर॥
किह दब
नानाकार िसलीमख
ु धाए। िदिस अ िबिदिस गगन मिह छाए॥
दुवचन कहकर रावण ु होकर व के समान बाण छोड़ने लगा। अनेक आकार के बाण दौड़े
और िदशा, िविदशा तथा आकाश और प ृ वी म, सब जगह छा गए।
तब उसने राम के सारथी को सौ बाण मारे । वह राम क जय पुकारकर प ृ वी पर िगर पड़ा। राम ने
कृपा करके सारथी को उठाया। तब भु अ यंत ोध को ा हए।
छं ० - भए ु जु िब रघप
ु ित ोन सायक कसमसे।
कोदंड धिु न अित चंड सिु न मनजु ाद सब मा त से॥
मंदोदरी उर कंप कंपित कमठ भू भूधर से।
िच करिहं िद गज दसन गिह मिह देिख कौतक ु सरु हँस॥े
धनुष को कान तक तानकर राम ने भयानक बाण छोड़े । राम के बाण समहू ऐसे चले मानो सप
लहलहाते (लहराते) हए जा रहे ह ॥ 91॥
बाण ऐसे चले मानो पंखवाले सप उड़ रहे ह । उ ह ने पहले सारथी और घोड़ को मार डाला। िफर
रथ को चरू -चरू करके वजा और पताकाओं को िगरा िदया। तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर
भीतर से उसका बल थक गया था।
रावण के िसर पी कमल वन म िवचरण करनेवाले रघुवीर के बाण पी मर क पंि चली। राम
ने उसके दस िसर म दस-दस बाण मारे , जो आर-पार हो गए और िसर से र के पनाले बह
चले।
िधर बहते हए ही बलवान रावण दौड़ा। भु ने िफर धनुष पर बाण संधान िकया। रघुवीर ने तीस
बाण मारे और बीस भुजाओं समेत दस िसर काटकर प ृ वी पर िगरा िदए।
(िसर और हाथ) काटते ही िफर नए हो गए। राम ने िफर भुजाओं और िसर को काट िगराया। इस
तरह भु ने बहत बार भुजाएँ और िसर काटे, परं तु काटते ही वे तुरंत िफर नए हो गए।
पिु न पिु न भु काटत भज
ु सीसा। अित कौतक
ु कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ िसर अ बाह। मानहँ अिमत केतु अ राह॥
भु बार-बार उसक भुजा और िसर को काट रहे ह, य िक कोसलपित राम बड़े कौतुक ह।
आकाश म िसर और बाह ऐसे छा गए ह, मानो असं य केतु और राह ह ।
मानो अनेक राह और केतु िधर बहाते हए आकाश माग से दौड़ रहे ह । रघुवीर के चंड बाण
के (बार-बार) लगने से वे प ृ वी पर िगरने नह पाते। एक-एक बाण से समहू -के-समहू िसर िछदे
हए आकाश म उड़ते ऐसे शोभा दे रहे ह मानो सय ू क िकरण ोध करके जहाँ-तहाँ राहओं को
िपरो रही ह ।
जैसे-जैसे भु उसके िसर को काटते ह, वैसे-ही-वैसे वे अपार होते जाते ह। जैसे िवषय का सेवन
करने से काम (उ ह भोगने क इ छा) िदन- ितिदन नया-नया बढ़ता जाता है॥ 92॥
छं ० - कहँ रामु किह िसर िनकर धाए देिख मकट भिज चले।
संधािन धनु रघब ु ंसमिन हँिस सरि ह िसर बेधे भले॥
िसर मािलका कर कािलका गिह बंदृ बंदृ ि ह बह िमल ।
क र िधर स र म जनु मनहँ सं ाम बट पूजन चल ॥
'राम कहाँ ह?' यह कहकर िसर के समहू दौड़े , उ ह देखकर वानर भाग चले। तब धनुष संधान
करके रघुकुलमिण राम ने हँसकर बाण से उन िसर को भलीभाँित बेध डाला। हाथ म मुंड क
मालाएँ लेकर बहत-सी कािलकाएँ झुंड-क -झुंड िमलकर इक ी हई ं और वे िधर क नदी म
नान करके चल । मानो सं ाम पी वटव ृ क पज ू ा करने जा रही ह ।
िफर रावण ने ोिधत होकर चंड शि छोड़ी। वह िवभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल
(यमराज) का दंड हो॥ 93॥
उसी कारण से अरे दु ! तू अब तक बचा है, (िकंतु) अब काल तेरे िसर पर नाच रहा है। अरे मख
ू !
तू राम िवमुख होकर संपि (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर िवभीषण ने रावण क छाती के बीच -
बीच गदा मारी।
बीच छाती म कठोर गदा क घोर और किठन चोट लगते ही वह प ृ वी पर िगर पड़ा। उसके दस
मुख से िधर बहने लगा; वह अपने को िफर संभालकर ोध म भरा हआ दौड़ा। दोन अ यंत
बलवान यो ा िभड़ गए और म लयु म एक-दूसरे के िव होकर मारने लगे। रघुवीर के बल
से गिवत िवभीषण उसको (रावण-जैसे जगि जयी यो ा को) पासंग के बराबर भी नह समझते।
(िशव कहते ह -) हे उमा! िवभीषण या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था?
परं तु अब वही काल के समान उससे िभड़ रहा है। यह ी रघुवीर का ही भाव है॥ 94॥
िवभीषण को बहत ही थका हआ देखकर हनुमान पवत धारण िकए हए दौड़े । उ ह ने उस पवत से
रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।
रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अ यंत काँपने लगा। िवभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवक के र क
राम थे। िफर रावण ने ललकारकर हनुमान को मारा। वे पँछ
ू फै लाकर आकाश म चले गए।
रावण ने पँछ
ू पकड़ ली, हनुमान उसको साथ िलए ऊपर उड़े । िफर लौटकर महाबलवान हनुमान
उससे िभड़ गए। दोन समान यो ा आकाश म लड़ते हए एक-दूसरे को ोध करके मारने लगे।
दोन बहत-से छल-बल करते हए आकाश म ऐसे शोिभत हो रहे ह मानो क जलिग र और सुमे
पवत लड़ रहे ह । जब बुि और बल से रा स िगराए न िगरा तब मा ित हनुमान ने भु को
मरण िकया।
ी रघुवीर का मरण करके धीर हनुमान ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोन प ृ वी पर िगरते
और िफर उठकर लड़ते ह; देवताओं ने दोन क 'जय-जय' पुकारी। हनुमान पर संकट देखकर
वानर-भालू ोधातुर होकर दौड़े , िकंतु रण-मद-माते रावण ने सब यो ाओं को अपनी चंड
भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।
दो० - तब रघब
ु ीर पचारे धाए क स चंड।
किप बल बल देिख तेिहं क ह गट पाषंड॥ 95॥
वानर ने अप रिमत रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर
धीरज नह धरते। हे ल मण! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, य पुकारते हए वे भागे जा रहे ह।
दहँ िदिस धाविहं कोिट ह रावन। गजिहं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सरु चले पराई। जय कै आस तजह अब भाई॥
दस िदशाओं म करोड़ रावण दौड़ते ह और घोर, कठोर भयानक गजन कर रहे ह। सब देवता डर
गए और ऐसा कहते हए भाग चले िक हे भाई! अब जय क आशा छोड़ दो!
भज
ु उठाइ रघप ु ित किप फेरे । िफरे एक एक ह तब टेरे॥
भु बलु पाइ भालु किप धाए। तरल तमिक संजुग मिह आए॥
रघुनाथ ने भुजा उठाकर सब वानर को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट
आए। भु का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े । ज दी से कूदकर वे रणभिू म म आ गए।
देवताओं को राम क तुित करते देख कर रावण ने सोचा, म इनक समझ म एक हो गया।
(परं तु इ ह यह पता नह िक इनके िलए म एक ही बहत हँ) और कहा - अरे मख
ू ! तुम तो सदा
के ही मेरे मरै ल (मेरी मार खानेवाले) हो। ऐसा कहकर वह ोध करके आकाश पर (देवताओं क
ओर) दौड़ा।
देवता हाहाकार करते हए भागे। (रावण ने कहा -) दु ो! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं
को याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर (उ ह ने) उसको प ृ वी पर
िगरा िदया।
उसे पकड़कर प ृ वी पर िगराकर लात मारकर बािलपु अंगद भु के पास चले गए। रावण
सँभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर श द से गरजने लगा। वह दप करके दस धनुष चढ़ाकर
उन पर बहत-से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब यो ाओं को घायल और भय से
याकुल कर िदया और अपना बल देखकर वह हिषत होने लगा।
ु ित रावन के सीस भज
दो० - तब रघप ु ा सर चाप।
काटे बहत बढ़े पिु न िजिम तीरथ कर पाप॥ 97॥
तब रघुनाथ ने रावण के िसर, भुजाएँ , बाण और धनुष काट डाले। पर वे िफर बहत बढ़ गए, जैसे
तीथ म िकए हए पाप बढ़ जाते ह (कई गुना अिधक भयानक फल उ प न करते ह)!॥ 97॥
कोई एक वानर नख से श ु के शरीर को फाड़कर भाग जाते ह, तो कोई उसे लात से मारकर।
तब नल और नील रावण के िसर पर चढ़ गए और नख से उसके ललाट को फाड़ने लगे।
खनू देखकर उसे दय म बड़ा दुःख हआ। उसने उनको पकड़ने के िलए हाथ फै लाए, पर वे पकड़
म नह आते, हाथ के ऊपर-ऊपर ही िफरते ह मानो दो भ रे कमल के वन म िवचरण कर रहे ह ।
तब उसने ोध करके उछलकर दोन को पकड़ िलया। प ृ वी पर पटकते समय वे उसक भुजाओं
को मरोड़कर भाग छूटे। िफर उसने ोध करके हाथ म दस धनुष िलए और वानर को बाण से
मारकर घायल कर िदया।
हनुमान आिद सब वानर को मिू छत करके और सं या का समय पाकर रावण हिषत हआ।
सम त वानर-वीर को मिू छत देखकर रणधीर जा बवान दौड़े ।
छाती म लात का चंड आघात लगते ही रावण याकुल होकर रथ से प ृ वी पर िगर पड़ा। उसने
बीस हाथ म भालओ ू ं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो राि के समय भ रे कमल
म बसे हए ह । उसे मिू छत देखकर, िफर लात मारकर ऋ राज जा बवान भु के पास चले। राि
जानकर सारथी रावण को रथ म डालकर उसे होश म लाने का उपाय करने लगा।
उसी रात ि जटा ने सीता के पास जाकर उ ह सब कथा कह सुनाई। श ु के िसर और भुजाओं क
बढ़ती का संवाद सुनकर सीता के दय म बड़ा भय हआ।
(उनका) मुख उदास हो गया, मन म िचंता उ प न हो गई। तब सीता ि जटा से बोल - हे माता!
बताती य नह ? या होगा? संपण ू िव को दुःख देनेवाला यह िकस कार मरे गा?
रघप
ु ित सर िसर कटेहँ न मरई। िबिध िबपरीत च रत सब करई॥
मोर अभा य िजआवत ओही। जेिहं ह ह र पद कमल िबछोही॥
रघुनाथ के बाण से िसर कटने पर भी नह मरता। िवधाता सारे च र िवपरीत (उलटे) ही कर रहा
है। (सच बात तो यह है िक) मेरा दुभा य ही उसे िजला रहा है, िजसने मुझे भगवान के
चरणकमल से अलग कर िदया है।
िजसने कपट का झठ ू ा वण मग
ृ बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर ठा हआ है, िजस िवधाता
ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और ल मण को कड़वे वचन कहलाए,
रघप
ु ित िबरह सिबष सर भारी। तिक तिक मार बार बह मारी॥
ऐसेहँ दःु ख जो राख मम ाना। सोइ िबिध तािह िजआव न आना॥
जो रघुनाथ के िवरह पी बड़े िवषैले बाण से तक-तककर मुझे बहत बार मारकर, अब भी मार
रहा है; और ऐसे दुःख म भी जो मेरे ाण को रख रहा है, वही िवधाता उस (रावण) को िजला रहा
है, दूसरा कोई नह ।
कृपािनधान राम क याद कर-करके जानक बहत कार से िवलाप कर रही ह। ि जटा ने कहा -
हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का श ु रावण दय म बाण लगते ही मर जाएगा।
(वे यही सोचकर रह जाते ह िक) इसके दय म जानक का िनवास है, जानक के दय म मेरा
िनवास है और मेरे उदर म अनेक भुवन ह। अतः रावण के दय म बाण लगते ही सब भुवन का
नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीता के मन म अ यंत हष और िवषाद हआ देखकर ि जटा
ने िफर कहा - हे सुंदरी! महान संदेह का याग कर दो; अब सुनो, श ु इस कार मरे गा -
िसर के बार-बार काटे जाने से जब वह याकुल हो जाएगा और उसके दय से तु हारा यान छूट
जाएगा, तब सुजान (अंतयामी) राम रावण के दय म बाण मारगे॥ 99॥
अस किह बहत भाँित समझ ु ाई। पिु न ि जटा िनज भवन िसधाई॥
ु ाउ सिु म र बैदहे ी। उपजी िबरह िबथा अित तेही॥
राम सभ
ऐसा कहकर और सीता को बहत कार से समझाकर िफर ि जटा अपने घर चली गई। राम के
वभाव का मरण करके जानक को अ यंत िवरह यथा उ प न हई।
जब िवरह के मारे दय म दा ण दाह हो गया, तब उनका बायाँ ने और बाह फड़क उठे । शकुन
समझकर उ ह ने मन म धैय धारण िकया िक अब कृपालु रघुवीर अव य िमलगे।
यहाँ आधी रात को रावण (मू छा से) जगा और अपने सारथी पर होकर कहने लगा - अरे
मख ू े मुझे रणभिू म से अलग कर िदया। अरे अधम! अरे मंदबुि ! तुझे िध कार है, िध कार
ू ! तन
है!
सारथी ने चरण पकड़कर रावण को बहत कार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर
िफर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानर क सेना म बड़ी खलबली मच गई।
िवकट और िवकराल वानर-भालू हाथ म पवत िलए दौड़े । वे अ यंत ोध करके हार करते ह।
उनके मारने से रा स भाग चले। बलवान वानर ने श ु क सेना को िवचिलत करके िफर रावण
को घेर िलया। चार ओर से चपेटे मारकर और नख से शरीर िवदीण कर वानर ने उसको
याकुल कर िदया॥
वानर को बड़ा ही बल देखकर रावण ने िवचार िकया और अंतधान होकर णभर म उसने
माया फै लाई॥ 100॥
वे 'पक़ड़ो, मारो' आिद घोर श द बोल रही ह। चार ओर (सब िदशाओं म) यह विन भर गई। वे
मुख फै लाकर खाने दौड़ती ह। तब वानर भागने लगे।
वानर भागकर जहाँ भी जाते ह, वह आग जलती देखते ह। वानर-भालू याकुल हो गए। िफर
रावण बालू बरसाने लगा।
जहँ तहँ थिकत क र क स। गजउ बह र दससीस॥
लिछमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥
हा राम हा रघन
ु ाथ। किह सभ
ु ट मीजिहं हाथ॥
ऐिह िबिध सकल बल तो र। तेिहं क ह कपट बहो र॥
ू उठाकर कटकटाते हए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगरू (पँछ
वे पँछ ू ) दस
िदशाओं म शोभा दे रहे ह और उनके बीच म कोसलराज राम ह।
उनके बीच म कोसलराज का सुंदर याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल व ृ के
िलए अनेक इं धनुष क े बाड़ (घेरा) बनाई गई हो। भु को देखकर देवता हष और
िवषादयु दय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब रघुवीर ने ोध करके एक ही बाण म
िनमेषमा म रावण क सारी माया हर ली।
दो० - ताके गन
ु गन कछु कहे जड़मित तल
ु सीदास।
िजिम िनज बल अनु प ते माछी उड़इ अकास॥ 101(क)॥
उसी च र के कुछ गुणगण मंद बुि तुलसीदास ने कहे ह, जैसे म खी भी अपने पु षाथ के
अनुसार आकाश म उड़ती है॥ 101(क)॥
िसर और भुजाएँ बहत बार काटी गई ं। िफर भी वीर रावण मरता नह । भु तो खेल कर रहे ह; परं तु
मुिन, िस और देवता उस लेश को देखकर ( भु को लेश पाते समझकर) याकुल ह॥
101(ख)॥
काटते ही िसर का समहू बढ़ जाता है, जैसे येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। श ु मरता नह और
प र म बहत हआ। तब राम ने िवभीषण क ओर देखा।
(िशव कहते ह -) हे उमा! िजसक इ छा मा से काल भी मर जाता है, वही भु सेवक क ीित
क परी ा ले रहे ह। (िवभीषण ने कहा -) हे सव ! हे चराचर के वामी! हे शरणागत के पालन
करनेवाले! हे देवता और मुिनय को सुख देनेवाले! सुिनए -
इसके नािभकुंड म अमत ृ का िनवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। िवभीषण के
वचन सुनते ही कृपालु रघुनाथ ने हिषत होकर हाथ म िवकराल बाण िलए।
दस िदिस दाह होन अित लागा। भयउ परब िबनु रिब उपरागा॥
मंदोद र उर कंपित भारी। ितमा विहं नयन मग बारी॥
दस िदशाओं म अ यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी)। िबना ही पव (योग) के सय ू हण होने
लगा। मंदोदरी का दय बहत काँपने लगा। मिू तयाँ ने -माग से जल बहाने लग ।
मिू तयाँ रोने लग , आकाश से व पात होने लगे, अ यंत चंड वायु बहने लगी, प ृ वी िहलने लगी,
बादल र , बाल और धल ू क वषा करने लगे। इस कार इतने अिधक अमंगल होने लगे िक
उनको कौन कह सकता है? अप रिमत उ पात देखकर आकाश म देवता याकुल होकर जय-
जय पुकार उठे । देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु रघुनाथ धनुष पर बाण संधान करने लगे।
कान तक धनुष को ख चकर रघुनाथ ने इकतीस बाण छोड़े । वे राम के बाण ऐसे चले मानो
कालसप ह ॥ 102॥
एक बाण ने नािभ के अमतृ कुंड को सोख िलया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके िसर और
भुजाओं म लगे। बाण िसर और भुजाओं को लेकर चले। िसर और भुजाओं से रिहत ं ड (धड़)
प ृ वी पर नाचने लगा।
धड़ चंड वेग से दौड़ता है, िजससे धरती धँसने लगी। तब भु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े
कर िदए। मरते समय रावण बड़े घोर श द से गरजकर बोला - राम कहाँ ह? म ललकारकर
उनको यु म मा ँ !
रावण के िगरते ही प ृ वी िहल गई। समु , निदयाँ, िदशाओं के हाथी और पवत ु ध हो उठे । रावण
धड़ के दोन टुकड़ को फै लाकर भालू और वानर के समुदाय को दबाता हआ प ृ वी पर िगर पड़ा।
मंदोद र आग भज
ु सीसा। ध र सर चले जहाँ जगदीसा॥
िबसे सब िनषंग महँ जाई। देिख सरु ह ददुं भ
ु बजाई॥
रावण क भुजाओं और िसर को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदी र
राम थे। सब बाण जाकर तरकस म वेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।
रावण का तेज भु के मुख म समा गया। यह देखकर िशव और ा हिषत हए। ांड भर म
जय-जय क विन भर गई। बल भुजदंड वाले रघुवीर क जय हो।
देवता और मुिनय के समहू फूल बरसाते ह और कहते ह - कृपालु क जय हो, मुकुंद क जय हो,
जय हो!
िसर पर जटाओं का मुकुट है, िजसके बीच-बीच म अ यंत मनोहर पु प शोभा दे रहे ह। मानो नीले
पवत पर िबजली के समहू सिहत न सुशोिभत हो रहे ह। राम अपने भुजदंड से बाण और धनुष
िफरा रहे ह। शरीर पर िधर के कण अ यंत सुंदर लगते ह। मानो तमाल के व ृ पर बहत-सी
ललमुिनयाँ िचिड़याँ अपने महान सुख म म न हई िन ल बैठी ह ।
भु राम ने कृपा ि क वषा करके देव समहू को िनभय कर िदया। वानर-भालू सब हिषत हए
और सुखधाम मुकुंद क जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥ 103॥
पित के िसर देखते ही मंदोदरी याकुल और मिू छत होकर धरती पर िगर पड़ी। ि याँ रोती हई
उठ दौड़ और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आई ं।
पित क दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लग । उनके बाल खुल गए, देह क संभाल नह
रही। वे अनेक कार से छाती पीटती ह और रोती हई रावण के ताप का बखान करती ह।
हे नाथ! िवधाता क सारी सिृ तु हारे वश म थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको म तक
नवाते थे, िकंतु हाय! अब तु हारे िसर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे ह। राम िवमुख के िलए ऐसा
होना अनुिचत भी नह है (अथात उिचत ही है)।
हे पित! काल के पण
ू वश म होने से तुमने (िकसी का) कहना नह माना और चराचर के नाथ
परमा मा को मनु य करके जाना।
छं ० - जा यो मनज
ु क र दनज ु कानन दहन पावक ह र वयं।
जेिह नमत िसव ािद सरु िपय भजेह निहं क नामयं॥
आज म ते पर ोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तु हह िदयो िनज धाम राम नमािम िनरामयं॥
अहह! नाथ! रघुनाथ के समान कृपा का समु दूसरा कोई नह है, िजन भगवान ने तुमको वह
गित दी, जो योिगसमाज को भी दुलभ है॥ 104॥
मंदोदरी के वचन कान म सुनकर देवता, मुिन और िस सभी ने सुख माना। ा, महादेव,
नारद और सनकािद तथा और भी जो परमाथवादी (परमा मा के त व को जानने और कहनेवाले)
े मुिन थे।
उ ह ने भाई क दशा देखकर दुःख िकया। तब भु राम ने छोटे भाई को आ ा दी (िक जाकर
िवभीषण को धैय बँधाओ)। ल मण ने उ ह बहत कार से समझाया। तब िवभीषण भु के पास
लौट आए।
भु ने उनको कृपापण
ू ि से देखा (और कहा -) सब शोक यागकर रावण क अं येि ि या
करो। भु क आ ा मानकर और दय म देश और काल का िवचार करके िवभीषण ने िविधपवू क
सब ि या क ।
मंदोदरी आिद सब ि याँ उसे (रावण को) ितलांजिल देकर मन म रघुनाथ के गुणसमहू का
वणन करती हई महल को गई ं॥ 105॥
सब ि या-कम करने के बाद िवभीषण ने आकर पुनः िसर नवाया। तब कृपा के समु राम ने
छोटे भाई ल मण को बुलाया। रघुनाथ ने कहा िक तुम, वानरराज सु ीव, अंगद, नल, नील
जा बवान और मा ित सब नीितिनपुण लोग िमलकर िवभीषण के साथ जाओ और उ ह
राजितलक कर दो। िपता के वचन के कारण म नगर म नह आ सकता। पर अपने ही समान
वानर और छोटे भाई को भेजता हँ।
सभी ने हाथ जोड़कर उनको िसर नवाए। तदनंतर िवभीषण सिहत सब भु के पास आए। तब
रघुवीर ने वानर को बुला िलया और ि य वचन कहकर सबको सुखी िकया।
िफर भु ने हनुमान को बुला िलया। भगवान ने कहा – तुम लंका जाओ। जानक को सब
समाचार सुनाओ और उसका कुशल-समाचार लेकर तुम चले आओ।
तब हनम
ु ंत नगर महँ आए। सिु न िनिसचर िनसाचर धाए॥
बह कार ित ह पूजा क ही। जनकसत ु ा देखाइ पिु न दी ही॥
तब हनुमान नगर म आए। यह सुनकर रा स दौड़े । उ ह ने बहत कार से हनुमान क पज
ू ाक
और िफर जानक को िदखला िदया।
हनुमान ने ( सीता को ) दूर से ही णाम िकया। जानक ने पहचान िलया िक यह वही रघुनाथ
ू ा -) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे भु छोटे भाई और वानर क सेना सिहत
का दूत है (और पछ
कुशल से तो ह?
दो० - सन ु ु सत
ु सदगन
ु सकल तव दयँ बसहँ हनम
ु ंत।
सानकु ू ल कोसलपित रहहँ समेत अनंत॥ 107॥
हे तात! अब तुम वही उपाय करो, िजससे म इन ने से भु के कोमल याम शरीर के दशन
क ँ । तब राम के पास जाकर हनुमान ने जानक का कुशल समाचार सुनाया।
ू कुलभषू ण राम ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और िवभीषण को बुला िलया (और कहा -)
सय
पवनपु हनुमान के साथ जाओ और जानक को आदर के साथ ले आओ।
वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीता थ । सब-क -सब रा िसयाँ न तापवू क उनक सेवा कर रही
थ । िवभीषण ने शी ही उन लोग को समझा िदया। उ ह ने बहत कार से सीता को नान
कराया,
बहत कार के गहने पहनाए और िफर वे एक सुंदर पालक सजाकर ले आए। सीता स न
होकर सुख के धाम ि यतम राम का मरण करके उस पर हष के साथ चढ़ ।
चार ओर हाथ म छड़ी िलए र क चले। सबके मन म परम उ लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब
दशन करने के िलए आए, तब र क ोध करके उनको रोकने दौड़े ।
रघुवीर ने कहा – हे िम ! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, िजससे वानर उसको
माता क तरह देख। गोसाई ं राम ने हँसकर ऐसा कहा।
भु के वचन सुनकर रीछ-वानर हिषत हो गए। आकाश से देवताओं ने बहत-से फूल बरसाए।
सीता (के असली व प) को पहले अि न म रखा था। अब भीतर के सा ी भगवान उनको कट
करना चाहते ह।
दो० - तेिह कारन क नािनिध कहे कछुक दब ु ाद।
सनु त जातध ु ान सब लाग करै िबषाद॥ 108॥
इसी कारण क णा के भंडार राम ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे , िज हे सुनकर सब रा िसयाँ
िवषाद करने लग ॥ 108॥
भु के वचन को िसर चढ़ाकर मन, वचन और कम से पिव सीता बोल - हे ल मण! तुम मेरे
धम के नेगी (धमाचरण म सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो।
(सीता ने लीला से कहा -) यिद मन, वचन और कम से मेरे दय म रघुवीर को छोड़कर दूसरी
गित (अ य िकसी का आ य) नह है, तो अि नदेव जो सबके मन क गित जानते ह, (मेरे भी
मन क गित जानकर) मेरे िलए चंदन के समान शीतल हो जाएँ ।
भु राम का मरण करके और िजनके चरण महादेव के ारा वंिदत ह तथा िजनम सीता क
अ यंत िवशु ीित है, उन कोसलपित क जय बोलकर जानक ने चंदन के समान शीतल हई
अि न म वेश िकया। ितिबंब (सीता क छायामिू त) और उनका लौिकक कलंक चंद अि न म
जल गए। भु के इन च र को िकसी ने नह जाना। देवता, िस और मुिन सब आकाश म खड़े
देखते ह।
दो० - बरषिहं सम
ु न हरिष सरु बाजिहं गगन िनसान।
गाविहं िकंनर सरु बधू नाचिहं चढ़ िबमान॥ 109(क)॥
देवता हिषत होकर फूल बरसाने लगे। आकाश म डं के बजने लगे। िक नर गाने लगे। िवमान पर
चढ़ी अ सराएँ नाचने लग ॥ 109(क)॥
तब रघप
ु ित अनस
ु ासन पाई। मातिल चलेउ चरन िस नाई॥
आए देव सदा वारथी। बचन कहिहं जनु परमारथी॥
तब रघुनाथ क आ ा पाकर इं का सारथी मातिल चरण म िसर नवाकर (रथ लेकर) चला
गया। तदनंतर सदा के वाथ देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे ह मानो बड़े परमाथ ह ।
आपने ही म य, क छप, वराह, निृ संह, वामन और परशुराम के शरीर धारण िकए। हे नाथ! जब-
जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेक शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश
िकया।
िवनती करके देवता और िस सब जहाँ-के-तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे । तब अ यंत ेम से पुलिकत
शरीर होकर ा तुित करने लगे - ॥ 110॥
छं ० - जय राम सदा सख
ु धाम हरे । रघन
ु ायक सायक चाप धरे ॥
भव बारन दारन िसंह भो। गनु सागर नागर नाथ िबभो॥
आपके शरीर क अनेक कामदेव के समान, परं तु अनुपम छिव है। िस , मुनी र और किव
आपके गुण गाते रहते ह। आपका यश पिव है। आपने रावण पी महासप को ग ड़ क तरह
ोध करके पकड़ िलया।
गनु यान िनधान अमान अजं। िनत राम नमािम िबभंु िबरजं॥
भज
ु दंड चंड ताप बलं। खल बंदृ िनकंद महा कुसलं॥
िबनु कारन दीन दयाल िहतं। छिब धाम नमािम रमा सिहतं॥
भव तारन कारन काज परं । मन संभव दा न दोष हरं ॥
हे िबना ही कारण दीन पर दया तथा उनका िहत करनेवाले और शोभा के धाम! म जानक
सिहत आपको नम कार करता हँ। आप भवसागर से तारनेवाले ह, कारण पा कृित और
काय प जगत दोन से परे ह और मन से उ प न होनेवाले किठन दोष को हरनेवाले ह।
हे यापक भो! ये सब वानर कृताथ प ह, जो आदरपवू क ये आपका मुख देख रहे ह। (और) हे
हरे ! हमारे (अमर) जीवन और देव (िद य) शरीर को िध कार है, जो हम आपक भि से रिहत
हए संसार म (सांसा रक िवषय म) भल ू े पड़े ह।
े पल
दो० - िबनय क ह चतरु ानन म ु क अित गात।
सोभािसंधु िबलोकत लोचन नह अघात॥ 111॥
इस कार ा ने अ यंत ेम-पुलिकत शरीर से िवनती क । शोभा के समु राम के दशन करते-
करते उनके ने त ृ ही नह होते थे॥ 111॥
उसी समय दशरथ वहाँ आए। पु (राम) को देखकर उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल छा गया।
छोटे भाई ल मण सिहत भु ने उनक वंदना क और तब िपता ने उनको आशीवाद िदया।
(राम ने कहा -) हे तात! यह सब आपके पु य का भाव है, जो मने अजेय रा सराज को जीत
िलया। पु के वचन सुनकर उनक ीित अ यंत बढ़ गई। ने म जल छा गया और रोमावली
खड़ी हो गई।
रघप
ु ित थम म े अनम ु ाना। िचतइ िपतिह दी हेउ ढ़ याना॥
ताते उमा मो छ निहं पायो। दसरथ भेद भगित मन लायो॥
छोटे भाई ल मण और जानक सिहत परम कुशल भु कोसलाधीश क शोभा देखकर देवराज इं
मन म हिषत होकर तुित करने लगे - ॥ 112॥
शोभा के धाम, शरणागत को िव ाम देनेवाले, े तरकस, धनुष और बाण धारण िकए हए,
बल तापी भुजदंड वाले राम क जय हो!
लंकापित रावण को अपने बल का बहत घमंड था। उसने देवता और गंधव सभी को अपने वश म
कर िलया था और वह मुिन, िस , मनु य, प ी और नाग आिद सभी के हठपवू क (हाथ धोकर)
पीछे पड़ गया था।
मुझे अ यंत अिभमान था िक मेरे समान कोई नह है, पर अब भु (आप) के चरण कमल के
दशन करने से दुःख-समहू का देनेवाला मेरा वह अिभमान जाता रहा।
कोउ िनगन
ु याव। अ य जेिह ुित गाव॥
मोिह भाव कोसल भूप। ीराम सगन
ु स प॥
जानक और छोटे भाई ल मण सिहत मेरे दय म अपना घर बनाइए। हे रमािनवास! मुझे अपना
दास समिझए और अपनी भि दीिजए।
छं ० - दे भि रमािनवास ास हरन सरन सख ु दायकं।
सख ु धाम राम नमािम काम अनेक छिब रघन ु ायकं॥
सरु बंदृ रं जन दं भंजन मनज
ु तनु अतिु लतबलं।
ािद संकर से य राम नमािम क ना कोमलं॥
सन
ु सरु पित किप भालु हमारे । परे भूिम िनिसचरि ह जे मारे ॥
मम िहत लािग तजे इ ह ाना। सकल िजआउ सरु े स सज ु ाना॥
हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भाल,ू िज ह िनशाचर ने मार डाला है, प ृ वी पर पड़े ह। इ ह ने मेरे
िहत के िलए अपने ाण याग िदए। हे सुजान देवराज! इन सबको िजला दो।
सध
ु ा बरिष किप भालु िजयाए। हरिष उठे सब भु पिहं आए॥
सधु ाबिृ भै दहु दल ऊपर। िजए भालु किप निहं रजनीचर॥
फूल क वषा करके सब देवता सुंदर िवमान पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकर सुजान
िशव भु राम के पास आए - ॥ 114(क)॥
छं ० - मामिभर य रघक
ु ु ल नायक। धत
ृ बर चाप िचर कर सायक॥
मोह महा घन पटल भंजन। संसय िबिपन अनल सरु रं जन॥
हे रघुकुल के वामी! सुंदर हाथ म े धनुष और सुंदर बाण धारण िकए हए आप मेरी र ा
क िजए। आप महामोह पी मेघसमहू के (उड़ाने के) िलए चंड पवन ह, संशय पी वन के (भ म
करने के) िलए अि न ह और देवताओं को आनंद देनेवाले ह।
अगन
ु सगन
ु गनु मंिदर संदु र। म तम बल ताप िदवाकर॥
काम ोध मद गज पंचानन। बसह िनरं तर जन मन कानन॥
आप िनगुण, सगुण, िद य गुण के धाम और परम सुंदर ह। म पी अंधकार के (नाश के) िलए
बल तापी सयू ह। काम, ोध और मद पी हािथय के (वध के) िलए िसंह के समान आप इस
सेवक के मन पी वन म िनरं तर वास क िजए।
हे नाथ! जब अयो यापुरी म आपका राजितलक होगा, तब हे कृपासागर! म आपक उदार लीला
देखने आऊँगा॥ 115॥
जब िशव िवनती करके चले गए, तब िवभीषण भु के पास आए और चरण म िसर नवाकर
कोमल वाणी से बोले - हे शागधनुष के धारण करनेवाले भो! मेरी िवनती सुिनए -
आपने कुल और सेना सिहत रावण का वध िकया, ि भुवन म अपना पिव यश फै लाया और मुझ
दीन, पापी, बुि हीन और जाितहीन पर बहत कार से कृपा क ।
हे नाथ! मुझे सब कार से अपना लीिजए और िफर हे भो! मुझे साथ लेकर अयो यापुरी को
पधा रए। िवभीषण के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु भु के दोन िवशाल ने म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया।
(राम ने कहा -) हे भाई! सुनो, तु हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत
क दशा याद करके मुझे एक-एक पल क प के समान बीत रहा है॥ 116(क)॥
तप वी के वेष म कृश (दुबले) शरीर से िनरं तर मेरा नाम जप कर रहे ह। हे सखा! वही उपाय
करो िजससे म ज दी-से-ज दी उ ह देख सकँ ू । म तुमसे िनहोरा (अनुरोध) करता हँ॥ 116(ख)॥
यिद अविध बीत जाने पर जाता हँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरत क ीित का
मरण करके भु का शरीर बार-बार पुलिकत हो रहा है॥ 166(ग)॥
(राम ने िफर कहा -) हे िवभीषण! तुम क पभर रा य करना, मन म मेरा िनरं तर मरण करते
रहना। िफर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते ह॥ 116(घ)॥
राम के वचन सुनते ही िवभीषण ने हिषत होकर कृपा के धाम राम के चरण पकड़ िलए। सभी
वानर-भालू हिषत हो गए और भु के चरण पकड़कर उनके िनमल गुण का बखान करने लगे।
हे सखा िवभीषण! सुनो, िवमान पर चढ़कर, आकाश म जाकर व और गहन को बरसा दो।
तब (आ ा सुनते) ही िवभीषण ने आकाश म जाकर सब मिणय और व को बरसा िदया।
िजसके मन को जो अ छा लगता है, वह वही ले लेता है। मिणय को मँुह म लेकर वानर िफर उ ह
खाने क चीज न समझकर उगल देते ह। यह तमाशा देखकर परम िवनोदी और कृपा के धाम
राम, ी (सीता) और ल मण सिहत हँसने लगे।
िजनको मुिन यान म भी नह पाते, िज ह वेद नेित-नेित कहते ह, वे ही कृपा के समु राम
वानर के साथ अनेक कार के िवनोद कर रहे ह॥ 117(क)॥
(िशव कहते ह -) हे उमा! अनेक कार के योग, जप, दान, तप, य , त और िनयम करने पर
भी राम वैसी कृपा नह करते जैसी अन य ेम होने पर करते ह॥ 117(ख)॥
भालओू ं और वानर ने कपड़े -गहने पाए और उ ह पहन-पहनकर वे रघुनाथ के पास आए। अनेक
जाितय के वानर को देखकर कोसलपित राम बार-बार हँस रहे ह।
रघुनाथ ने कृपा ि से देखकर सब पर दया क । िफर वे कोमल वचन बोले - हे भाइयो! तु हारे
ही बल से मने रावण को मारा और िफर िवभीषण का राजितलक िकया।
िनज िनज गहृ अब तु ह सब जाह। सिु मरे ह मोिह डरपह जिन काह॥
सनु त बचन म े ाकुल बानर। जो र पािन बोले सब सादर॥
अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा मरण करते रहना और िकसी से डरना नह । ये वचन
सुनते ही सब वानर ेम म िव ल होकर हाथ जोड़कर आदरपवू क बोले -
भो! आप जो कुछ भी कह, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है।
हे रघुनाथ! आप तीन लोक के ई र ह। हम वानर को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृताथ)
िकया है।
वानरराज सु ीव, नील, ऋ राज जा बवान, अंगद, नल और हनुमान तथा िवभीषण सिहत और
जो बलवान वानर सेनापित ह,॥ 118(ख)॥
रघुनाथ ने उनका अितशय ेम देखकर सबको िवमान पर चढ़ा िलया। तदनंतर मन-ही-मन
िव चरण म िसर नवाकर उ र िदशा क ओर िवमान चलाया।
िवमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई रघुवीर क जय कह रहे ह। िवमान म एक
अ यंत ऊँचा मनोहर िसंहासन है। उस पर ी (सीता) सिहत भु राम िवराजमान हो गए।
प नी सिहत राम ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो सुमे के िशखर पर िबजली सिहत याम मेघ हो।
सुंदर िवमान बड़ी शी ता से चला। देवता हिषत हए और उ ह ने फूल क वषा क ।
अ यंत सुख देनेवाली तीन कार क (शीतल, मंद, सुगंिधत) वायु चलने लगी। समु , तालाब
और निदय का जल िनमल हो गया। चार ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन स न ह,
आकाश और िदशाएँ िनमल ह।
रघुवीर ने कहा - हे सीते! रणभिू म देखो। ल मण ने यहाँ इं को जीतनेवाले मेघनाद को मारा था।
हनुमान और अंगद के मारे हए ये भारी-भारी िनशाचर रणभिू म म पड़े ह।
कंु भकरन रावन ौ भाई। इहाँ हते सरु मिु न दःु खदाई॥
देवताओं और मुिनय को दुःख देनेवाले कुंभकण और रावण दोन भाई यहाँ मारे गए।
मने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम िशव क थापना क । तदनंतर कृपािनधान राम ने
सीता सिहत रामे र महादेव को णाम िकया॥ 119(क)॥
तरु त िबमान तहाँ चिल आवा। दंडक बन जहँ परम सहु ावा॥
कंु भजािद मिु ननायक नाना। गए रामु सब क अ थाना॥
िवमान शी ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दंडकवन था और अग य आिद बहत-से
मुिनराज रहते थे। राम इन सबके थान म गए।
संपण
ू ऋिषय से आशीवाद पाकर जगदी र राम िच कूट आए। वहाँ मुिनय को संतु िकया।
(िफर) िवमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला।
िफर राम ने जानक को किलयुग के पाप का हरण करनेवाली सुहावनी यमुना के दशन कराए।
िफर पिव गंगा के दशन िकए। राम ने कहा - हे सीते! इ ह णाम करो।
िफर तीथराज याग को देखो, िजसके दशन से ही करोड़ ज म के पाप भाग जाते ह। िफर परम
पिव ि वेणी के दशन करो, जो शोक को हरनेवाली और ह र के परम धाम (पहँचने) के िलए
सीढ़ी के समान है। िफर अ यंत पिव अयो यापुरी के दशन करो, जो तीन कार के ताप और
भव (आवागमन पी) रोग का नाश करनेवाली है।
य कहकर कृपालु राम ने सीता सिहत अवधपुरी को णाम िकया। सजल ने और पुलिकत शरीर
होकर राम बार-बार हिषत हो रहे ह॥ 120(क)॥
िफर ि वेणी म आकर भु ने हिषत होकर नान िकया और वानर सिहत ा ण को अनेक
कार के दान िदए॥ 120(ख)॥
भु हनम
ु ंतिह कहा बझ
ु ाई। ध र बटु प अवधपरु जाई॥
भरतिह कुसल हमा र सन ु ाएह। समाचार लै तु ह चिल आएह॥
तरु त पवनसत
ु गवनत भयऊ। तब भु भर ाज पिहं गयऊ॥
नाना िबिध मिु न पूजा क ही। अ तिु त क र पिु न आिसष दी ही॥
पवनपु हनुमान तुरंत ही चल िदए। तब भु भर ाज के पास गए। मुिन ने (इ बुि से) उनक
अनेक कार से पजू ा क और तुित क और िफर (लीला क ि से) आशीवाद िदया।
दोन हाथ जोड़कर तथा मुिन के चरण क वंदना करके भु िवमान पर चढ़कर िफर (आगे) चले।
यहाँ जब िनषादराज ने सुना िक भु आ गए, तब उसने 'नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?' पुकारते हए
लोग को बुलाया।
गंगा ने मन म हिषत होकर आशीवाद िदया - हे संुदरी! तु हारा सुहाग अखंड हो। भगवान के तट
पर उतरने क बात सुनते ही िनषादराज गुह ेम म िव ल होकर दौड़ा। परम सुख से प रपण ू
होकर वह भु के समीप आया,
भिु ह सिहत िबलोिक बैदहे ी। परे उ अविन तन सिु ध निहं तेही॥
ीित परम िबलोिक रघरु ाई। हरिष उठाइ िलयो उर लाई॥
जो सुजान लोग रघुवीर क समर िवजय संबंधी लीला को सुनते ह, उनको भगवान िन य िवजय,
िववेक और िवभिू त (ऐ य) देते ह॥ 121(क)॥
अरे मन! िवचार करके देख! यह किलकाल पाप का घर है। इसम ी रघुनाथ के नाम को
छोड़कर (पाप से बचने के िलए) दूसरा कोई आधार नह है॥ 121(ख)॥
(लंकाकांड समा )
उ रकांड
केक क ठाभनीलं सरु वरिवलसि पादा जिच ं
शोभाढ्यं पीतव ं सरिसजनयनं सवदा सु स नम्
पाणौ नाराचचापं किपिनकरयत ु ं ब धन
ु ा से यमानं
नौमीड्यं जानक शं रघव
ु रमिनशं पु पका ढरामम्॥ 1॥
कोसलपुरी के वामी राम के सुंदर और कोमल दोन चरणकमल ा और िशव ारा वंिदत ह,
जानक के करकमल से दुलराए हए ह और िचंतन करनेवाले के मन पी भ रे के िन य संगी ह
अथात िचंतन करने वाल का मन पी मर सदा उन चरणकमल म बसा रहता है॥ 2॥
कंु द के फूल, चं मा और शंख के समान सुंदर गौरवण, जग जननी पावती के पित, वांिछत फल
के देनेवाले, (दुिखय पर सदा), दया करनेवाले, सुंदर कमल के समान ने वाले, कामदेव से
छुड़ानेवाले (क याणकारी) शंकर को म नम कार करता हँ॥ 3॥
राम के लौटने क अविध का एक ही िदन बाक रह गया, नगर के लोग बहत आत ह। राम के
िवयोग म दुबले हए ी-पु ष जहाँ-तहाँ सोच (िवचार) कर रहे ह (िक या बात है राम य नह
आए)।
कौस या आिद सब माताओं के मन म ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है
िक सीता और ल मण सिहत भु राम आ गए।
भरत नयन भज
ु दि छन फरकत बारिहं बार।
जािन सगन
ु मन हरष अित लागे करन िबचार॥
भरत क दािहनी आँख और दािहनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके
मन म अ यंत हष हआ और वे िवचार करने लगे -
अहा हा! ल मण बड़े ध य एवं बड़भागी ह, जो राम के चरणारिवंद के ेमी ह (अथात उनसे अलग
नह हए)। मुझे तो भु ने कपटी और कुिटल पहचान िलया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नह िलया।
(बात भी ठीक ही है, य िक) यिद भु मेरी करनी पर यान द तो सौ करोड़ (असं य) क प
तक भी मेरा िन तार (छुटकारा) नह हो सकता। (परं तु आशा इतनी ही है िक) भु सेवक का
अवगुण कभी नह मानते। वे दीनबंधु ह और अ यंत ही कोमल वभाव के ह।
अतएव मेरे दय म ऐसा प का भरोसा है िक राम अव य िमलगे, ( य िक) मुझे शकुन बड़े शुभ
हो रहे ह। िकंतु अविध बीत जाने पर यिद मेरे ाण रह गए तो जगत म मेरे समान नीच कौन
होगा?
राम के िवरह समु म भरत का मन डूब रहा था, उसी समय पवनपु हनुमा#2366;न ा ण का
प धरकर इस कार आ गए, मानो (उ ह डूबने से बचाने के िलए) नाव आ गई हो॥ 1(क)॥
हनुमान ने दुबल शरीर भरत को जटाओं का मुकुट बनाए, राम! राम! रघुपित! जपते और कमल
के समान ने से ( ेमा ुओ)ं का जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा॥ 1(ख)॥
उ ह देखते ही हनुमान अ यंत हिषत हए। उनका शरीर पुलिकत हो गया, ने से ( ेमा ुओ ं का)
जल बरसने लगा। मन म बहत कार से सुख मानकर वे कान के िलए अमत ृ के समान वाणी
बोले -
िजनके िवरह म आप िदन-रात सोच करते (घुलते) रहते ह और िजनके गुणसमहू क पंि य को
आप िनरं तर रटते रहते ह, वे ही रघुकुल के ितलक, स जन को सुख देनेवाले और देवताओं तथा
मुिनय के र क राम सकुशल आ गए।
रपु रन जीित सज
ु स सरु गावत। सीता सिहत अनज ु भु आवत॥
सन
ु त बचन िबसरे सब दूखा। तष
ृ ावंत िजिम पाइ िपयूषा॥
दीनबंधु रघप
ु ित कर िकंकर। सन
ु त भरत भटेउ उिठ सादर॥
िमलत म े निहं दयँ समाता। नयन वतजल पल ु िकत गाता॥
म दीन के बंधु रघुनाथ का दास हँ। यह सुनते ही भरत उठकर आदरपवू क हनुमान से गले
लगकर िमले। िमलते समय ेम दय म नह समाता। ने से (आनंद और ेम के आँसुओ ं का)
जल बहने लगा और शरीर पुलिकत हो गया।
(भरत ने कहा -) हे हनुमान! तु हारे दशन से मेरे सम त दुःख समा हो गए (दुःख का अंत हो
गया)। (तु हारे प म) आज मुझे यारे राम ही िमल गए। भरत ने बार-बार कुशल पछ ू ी (और कहा
-) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवाद के बदले म) तु ह या दँू?
इस संदेश के समान (इसके बदले म देने लायक पदाथ) जगत म कुछ भी नह है, मने यह िवचार
कर देख िलया है। (इसिलए) हे तात! म तुमसे िकसी कार भी उऋण नह हो सकता। अब मुझे
भु का च र (हाल) सुनाओ।
तब हनम
ु ंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघप ु ित गनु गाथा॥
कह किप कबहँ कृपाल गोसाई ं। सिु मरिहं मोिह दास क नाई ं॥
रघुवंश के भषू ण राम या कभी अपने दास क भाँित मेरा मरण करते रहे ह? भरत के अ यंत
न वचन सुनकर हनुमान पुलिकत शरीर होकर उनके चरण पर िगर पड़े (और मन म िवचारने
लगे िक) जो चराचर के वामी ह, वे रघुवीर अपने मुख से िजनके गुणसमहू का वणन करते ह,
वे भरत ऐसे िवन , परम पिव और स ुण के समु य न ह ?
िफर भरत के चरण म िसर नवाकर हनुमान तुरंत ही राम के पास (लौट) गए और जाकर उ ह ने
सब कुशल कही। तब भु हिषत होकर िवमान पर चढ़कर चले॥ 2(ख)॥
सन
ु त सकल जनन उिठ धाई ं। किह भु कुसल भरत समझ ु ाई ं॥
समाचार परु बािस ह पाए। नर अ ना र हरिष सब धाए॥
खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ । भरत ने भु क कुशल कहकर सबको समझाया। नगर
िनवािसय ने यह समाचार पाया, तो ी-पु ष सभी हिषत होकर दौड़े ।
दिध दब
ु ा रोचन फल फूला। नव तलु सी दल मंगल मूला॥
भ र भ र हेम थार भािमनी। गावत चिलं िसंधरु गािमनी॥
जो जैसे ह (जहाँ िजस दशा म ह) वे वैसे ही (वह से उसी दशा म) उठ दौड़ते ह। (देर हो जाने के
डर से) बालक और बढ़ ू को कोई साथ नह लाते। एक-दूसरे से पछ ू ते ह - भाई! तुमने दयालु
रघुनाथ को देखा है?
गु विश , कुटुंबी, छोटे भाई श ु न तथा ा ण के समहू के साथ हिषत होकर भरत अ यंत
ेमपण
ू मन से कृपाधाम राम के सामने अथात उनक अगवानी के िलए चले॥ 3(क)॥
बहत-सी ि याँ अटा रय पर चढ़ आकाश म िवमान देख रही ह और उसे देखकर हिषत होकर
मीठे वर से सुंदर मंगल गीत गा रही ह॥ 3(ख)॥
इहाँ भानक
ु ु ल कमल िदवाकर। किप ह देखावत नगर मनोहर॥
सनु ु कपीस अंगद लंकेसा। पावन परु ी िचर यह देसा॥
यह सुहावनी पुरी मेरी ज मभिू म है। इसके उ र िदशा म जीव को पिव करनेवाली सरयू नदी
बहती है, िजसम नान करने से मनु य िबना प र म के ही मेरे समीप िनवास (सामी य मुि )
पा जाते ह।
यहाँ के िनवासी मुझे बहत ही ि य ह। यह पुरी सुख क रािश और मेरे परमधाम को देनेवाली है।
भु क वाणी सुनकर सब वानर हिषत हए (और कहने लगे िक) िजस अवध क वयं राम ने
बड़ाई क , वह (अव य ही) ध य है।
कृपा सागर भगवान राम ने सब लोग को आते देखा, तो भु ने िवमान को नगर के समीप
उतरने क ेरणा क । तब वह प ृ वी पर उतरा॥ 4(क)॥
िवमान से उतरकर भु ने पु पक िवमान से कहा िक तुम अब कुबेर के पास जाओ। राम क ेरणा
से वह चला; उसे (अपने वामी के पास जाने का) हष है और भु राम से अलग होने का अ यंत
दुःख भी॥ 4(ख)॥
भरत के साथ सब लोग आए। ी रघुवीर के िवयोग से सबके शरीर दुबले हो रहे ह। भु ने वामदेव,
विश आिद मुिन े को देखा, तो उ ह ने धनुष-बाण प ृ वी पर रखकर -
छोटे भाई ल मण सिहत दौड़कर गु के चरणकमल पकड़ िलए; उनके रोम-रोम अ यंत पुलिकत
हो रहे ह। मुिनराज विश ने (उठाकर) उ ह गले लगाकर कुशल पछ
ू ी। ( भु ने कहा -) आप ही
क दया म हमारी कुशल है।
सकल ि ज ह िमिल नायउ माथा। धम धरु ं धर रघकु ु लनाथा॥
गहे भरत पिु न भु पद पंकज। नमत िज हिह सरु मिु न संकर अज॥
कमल के समान ने से जल बह रहा है। सुंदर शरीर म पुलकावली (अ यंत) शोभा दे रही है।
ि लोक के वामी भु राम छोटे भाई भरत को अ यंत ेम से दय से लगाकर िमले। भाई से
िमलते समय भु जैसे शोिभत हो रहे ह, उसक उपमा मुझसे कही नह जाती। मानो ेम और
ृ ार शरीर धारण करके िमले और े शोभा को ा हए।
ंग
उसी समय कृपालु राम असं य प म कट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायो य िमले।
रघुवीर ने कृपा क ि से देखकर सब नर-ना रय को शोक से रिहत कर िदया।
कौस या आिद माताएँ ऐसे दौड़ मानो नई यायी हई गौएँ अपने बछड़ को देखकर दौड़ी ह ।
मानो नई यायी हई गौएँ अपने छोटे बछड़ को घर पर छोड़ परवश होकर वन म चरने गई ह और
िदन का अंत होने पर (बछड़ से िमलने के िलए) हंकार करके थन से दूध िगराती हई ं नगर क
ओर दौड़ी ह । भु ने अ यंत ेम से सब माताओं से िमलकर उनसे बहत कार के कोमल वचन
कहे । िवयोग से उ प न भयानक िवपि दूर हो गई और सबने (भगवान से िमलकर और उनके
वचन सुनकर) अगिणत सुख और हष ा िकए।
सुिम ा अपने पु ल मण क राम के चरण म ीित जानकर उनसे िमल । राम से िमलते समय
कैकेयी दय म बहत सकुचाई ं॥ 6(क)॥
जानक सब सासुओ ं से िमल और उनके चरण म लगकर उ ह अ यंत हष हआ। सासुएँ कुशल
पछ
ू कर आशीष दे रही ह िक तु हारा सुहाग अचल हो।
सब रघप
ु ित मख
ु कमल िबलोकिहं। मंगल जािन नयन जल रोकिहं॥
कनक थार आरती उतारिहं। बार बार भु गात िनहारिहं॥
सब माताएँ रघुनाथ का कमल-सा मुखड़ा देख रही ह। (ने से ेम के आँसू उमड़े आते ह, परं तु)
मंगल का समय जानकर वे आँसुओ ं के जल को ने म ही रोक रखती ह। सोने के थाल से
आरती उतारती ह और बार-बार भु के अंग क ओर देखती ह।
लंकापित िवभीषण, वानरराज सु ीव, नल, नील, जा बवान और अंगद तथा हनुमान आिद सभी
उ म वभाववाले वीर वानर ने मनु य के मनोहर शरीर धारण कर िलए।
पिु न रघप
ु ित सब सखा बोलाए। मिु न पद लागह सकल िसखाए॥
गरु बिस कुलपू य हमारे । इ ह क कृपाँ दनजु रन मारे ॥
(िफर गु से कहा -) हे मुिन! सुिनए। ये सब मेरे सखा ह। ये सं ाम पी समु म मेरे िलए बेड़े
(जहाज) के समान हए। मेरे िहत के िलए इ ह ने अपने ज म तक हार िदए (अपने ाण तक को
होम िदया)। ये मुझे भरत से भी अिधक ि य ह।
िफर उन लोग ने कौस या के चरण म म तक नवाए। कौस या ने हिषत होकर आशीष द (और
कहा -) तुम मुझे रघुनाथ के समान यारे हो॥ 8(क)॥
सम
ु न बिृ नभ संकुल भवन चले सख ु कंद।
चढ़ी अटा र ह देखिहं नगर ना र नर बंदृ ॥ 8(ख)॥
आनंदकंद राम अपने महल को चले, आकाश फूल क विृ से छा गया। नगर के ी-पु ष के
समहू अटा रय पर चढ़कर उनके दशन कर रहे ह॥ 8(ख)॥
कंचन कलस िबिच सँवारे । सबिहं धरे सिज िनज िनज ारे ॥
बंदनवार पताका केत।ू सबि ह बनाए मंगल हेत॥
ू
सोने के कलश को िविच रीित से (मिण-र नािद से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोग ने
अपने-अपने दरवाज पर रख िलया। सब लोग ने मंगल के िलए बंदनवार, वजा और पताकाएँ
लगाई ं।
सारी गिलयाँ सुगंिधत व से िसंचाई गई ं। गजमु ाओं से रचकर बहत-सी चौक पुराई गई ं।
अनेक कार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हषपवू क नगर म बहत-से डं के बजने लगे।
ि याँ जहाँ-तहाँ िनछावर कर रही ह, और दय म हिषत होकर आशीवाद देती ह। बहत-सी युवती
(सौभा यवती) ि याँ सोने के थाल म अनेक कार क आरती सजाकर मंगलगान कर रही ह।
होिहं सगन
ु सभ ु िबिबिध िबिध बाजिहं गगन िनसान।
परु नर ना र सनाथ क र भवन चले भगवान॥ 9(ख)॥
कृपा के समु राम जब अपने महल को गए, तब नगर के ी-पु ष सब सुखी हए। गु विश
ने ा ण को बुला िलया (और कहा -) आज शुभ घड़ी, सुंदर िदन आिद सभी शुभ योग ह।
तब मुिन ने सुमं से कहा, वे सुनते ही हिषत होकर चले। उ ह ने तुरंत ही जाकर अनेक रथ,
घोड़े और हाथी सजाए,॥ 10(क)॥
अवधपुरी बहत ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पु प क वषा क झड़ी लगा दी। राम ने सेवक
को बुलाकर कहा िक तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को नान कराओ।
िफर राम ने अपनी जटाएँ खोल और गु क आ ा माँगकर नान िकया। नान करके भु ने
आभषू ण धारण िकए। उनके (सुशोिभत) अंग को देखकर सैकड़ (असं य) कामदेव लजा गए।
दो० - सासु ह सादर जानिकिह म जन तरु त कराइ।
िद य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥ 11(क)॥
(इधर) सासुओ ं ने जानक को आदर के साथ तुरंत ही नान कराके उनके अंग-अंग म िद य
व और े आभषू ण भली-भाँित सजा िदए (पहना िदए)॥ 11(क)॥
सन
ु ु खगेस तेिह अवसर ा िसव मिु न बंदृ ।
चिढ़ िबमान आए सब सरु देखन सख ु कंद॥ 11(ग)॥
छं ० - नभ ददुं भ
ु बाजिहं िबपल
ु गंधब िकंनर गावह ।
नाचिहं अपछरा बंदृ परमानंद सरु मिु न पावह ॥
भरतािद अनज ु िबभीषनांगद हनमु दािद समेत ते।
गह छ चामर यजन धनु अिस चम सि िबराजते॥
सीता सिहत सय ू वंश के िवभषू ण राम के शरीर म अनेक कामदेव क छिव शोभा दे रही है। नवीन
जलयु मेघ के समान सुंदर याम शरीर पर पीतांबर देवताओं के मन को भी मोिहत कर रहा है।
मुकुट, बाजबू ंद आिद िविच आभषू ण अंग-अंग म सजे हए ह। कमल के समान ने ह, चौड़ी छाती
है और लंबी भुजाएँ ह; जो उनके दशन करते ह, वे मनु य ध य ह।
सब देवता अलग-अलग तुित करके अपने-अपने लोक को चले गए। तब भाट का प धारण
करके चार वेद वहाँ आए जहाँ ीराम थे॥ 12(ख)॥
छं ० - जय सगन
ु िनगनु प प अनूप भूप िसरोमने।
दसकंधरािद चंड िनिसचर बल खल भज ु बल हने॥
अवतार नर संसार भार िबभंिज दा न दख
ु दहे।
जय नतपाल दयाल भु संजु सि नमामहे॥
जे चरन िसव अज पू य रज सभ
ु परिस मिु नपितनी तरी।
नख िनगता मिु न बंिदता ल ै ोक पाविन सरु सरी॥
वज कुिलस अंकुस कंज जुत बन िफरत कंटक िकन लहे।
पद कंज दं मक
ु ंु द राम रमेस िन य भजामहे॥
वेद-शा ने कहा है िक िजसका मल ू अ य ( कृित) है; जो ( वाह प से) अनािद है, िजसके
चार वचाएँ , छह तने, पचीस शाखाएँ और अनेक प े और बहत-से फूल ह; िजसम कड़वे और
मीठे दो कार के फल लगे ह; िजस पर एक ही बेल है, जो उसी के आि त रहती है; िजसम िन य
नए प े और फूल िनकलते रहते ह; ऐसे संसार व ृ व प (िव प म कट) आपको हम
नम कार करते ह।
जे अजम त ै मनभ
ु वग य मनपर यावह ।
ते कहहँ जानहँ नाथ हम तव सगन ु जस िनत गावह ॥
क नायतन भु सदगन ु ाकर देव यह बर मागह ।
मन बचन कम िबकार तिज तव चरन हम अनरु ागह ॥
बैनतेय सन
ु ु संभु तब आए जहँ रघब
ु ीर।
िबनय करत गदगद िगरा पू रत पल
ु क सरीर॥ 13(ख)॥
कामदेव पी भील ने मनु य पी िहरन के दय म कुभोग पी बाण मारकर उ ह िगरा िदया है। हे
नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करनेवाले) हरे ! उसे मारकर िवषय पी वन म भल
ू पड़े हए इन
पामर अनाथ जीव क र ा क िजए।
उनम न राग (आसि ) है, न लोभ; न मान है, न मद। उनको संपि सुख और िवपि (दुःख)
समान है। इसी से मुिन लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के िलए याग देते ह और स नता
के साथ आपके सेवक बन जाते ह।
हे मुिनय के मन पी कमल के मर! हे महान रणधीर एवं अजेय रघुवीर! म आपको भजता हँ
(आपक शरण हण करता हँ) हे ह र! आपका नाम जपता हँ और आपको नम कार करता हँ।
आप ज म-मरण पी रोग क महान औषध और अिभमान के श ु ह।
गन
ु सील कृपा परमायतनं। नमािम िनरं तर ीरमनं॥
रघन
ु ंद िनकंदय ं घनं। मिहपाल िबलोकय दीनजनं॥
आप गुण, शील और कृपा के परम थान ह। आप ल मीपित ह, म आपको िनरं तर णाम करता
हँ। हे रघुनंदन! (आप ज म-मरण, सुख-दुःख, राग- ेषािद) ं समहू का नाश क िजए। हे प ृ वी
का पालन करनेवाले राजन। इस दीन जन क ओर भी ि डािलए।
राम के गुण का वणन करके उमापित महादेव हिषत होकर कैलास को चले गए। तब भु ने
वानर को सब कार से सुख देनेवाले डे रे िदलवाए॥ 14(ख)॥
सन
ु ु खगपित यह कथा पावनी। ि िबध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सभ
ु अिभषेका। सन
ु त लहिहं नर िबरित िबबेका॥
हे ग ड़! सुिनए, यह कथा (सबको) पिव करनेवाली है, (दैिहक, दैिवक, भौितक) तीन कार
के ताप का और ज म-म ृ यु के भय का नाश करनेवाली है। महाराज राम के क याणमय
रा यािभषेक का च र (िन कामभाव से) सुनकर मनु य वैरा य और ान ा करते ह।
जे सकाम नर सन
ु िहं जे गाविहं। सख
ु संपित नाना िबिध पाविहं॥
सरु दल
ु भ सख
ु क र जग माह । अंतकाल रघप ु ित परु जाह ॥
सन
ु िहं िबमु िबरत अ िबषई। लहिहं भगित गित संपित नई॥
खगपित राम कथा म बरनी। वमित िबलास ास दख ु हरनी॥
यह वैरा य, िववेक और भि को ढ़ करनेवाली है तथा मोह पी नदी (को पार करने) के िलए
सुंदर नाव है। अवधपुरी म िनत-नए मंगलो सव होते ह। सभी वग के लोग हिषत रहते ह।
बड़े ही ेम से राम ने उनको अपने पास बैठाया और भ को सुख देनेवाले कोमल वचन कहे -
तुम लोग ने मेरी बड़ी सेवा क है। मँुह पर िकस कार तु हारी बड़ाई क ँ ?
मेरे िहत के िलए तुम लोग ने घर को तथा सब कार के सुख को याग िदया। इससे तुम मुझे
अ यंत ही ि य लग रहे हो। छोटे भाई, रा य, संपि , जानक , अपना शरीर, घर, कुटुंब और िम -
हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ; वहाँ ढ़ िनयम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सव यापक
और सबका िहत करनेवाला जानकर अ यंत ेम करना॥ 16॥
तब भु ने अनेक रं ग के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मँगवाए। सबसे पहले भरत ने अपने हाथ
से सँवारकर सु ीव को व ाभषू ण पहनाए।
जा बवान और नील आिद सबको रघुनाथ ने वयं भषू ण-व पहनाए। वे सब अपने दय म राम
के प को धारण करके उनके चरण म म तक नवाकर चले॥ 17(क)॥
तब अंगद उठकर िसर नवाकर, ने म जल भरकर और हाथ जोड़कर अ यंत िवन तथा मानो
ेम के रस म डुबोए हए (मधुर) वचन बोले - ॥ 17(ख)॥
सन
ु ु सब य कृपा सखु िसंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥
मरती बेर नाथ मोिह बाली। गयउ तु हारे िह क छ घाली॥
अतः हे भ के िहतकारी! अपना अशरण-शरण िवरद (बाना) याद करके मुझे यािगए नह । मेरे
तो वामी, गु , िपता और माता सब कुछ आप ही ह। आपके चरणकमल को छोड़कर म कहाँ
जाऊँ?
भरत अनज
ु सौिमि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
े निहं थोरा। िफ र िफ र िचतव राम क ओरा॥
अंगद दयँ म
भ क करनी को याद करके भरत छोटे भाई श ु न और ल मण सिहत उनको पहँचाने चले।
अंगद के दय म थोड़ा ेम नह है (अथात बहत अिधक ेम है)। वे िफर-िफरकर राम क ओर
देखते ह।
और बार-बार दंडवत- णाम करते ह। मन म ऐसा आता है िक राम मुझे रहने को कह द। वे राम
के देखने क , बोलने क , चलने क तथा हँसकर िमलने क रीित को याद कर-करके सोचते ह
(दुःखी होते ह)।
पु य पंज
ु तु ह पवनकुमारा। सेवह जाइ कृपा आगारा॥
अस किह किप सब चले तरु ं ता। अंगद कहइ सनु ह हनम
ु ंता॥
(सु ीव ने कहा -) हे पवनकुमार! तुम पु य क रािश हो (जो भगवान ने तुमको अपनी सेवा म
रख िलया)। जाकर कृपाधाम राम क सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े । अंगद ने
कहा - हे हनुमान! सुनो -
म तुमसे हाथ जोड़कर कहता हँ, भु से मेरी दंडवत कहना और रघुनाथ को बार-बार मेरी याद
कराते रहना॥ 19(क)॥
ऐसा कहकर बािलपु अंगद चले, तब हनुमान लौट आए और आकर भु से उनका ेम वणन
िकया। उसे सुनकर भगवान ेमम न हो गए॥ 19(ख)॥
िफर कृपालु राम ने िनषादराज को बुला िलया और उसे भषू ण, व साद म िदए। (िफर कहा -)
अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा मरण करते रहना और मन, वचन तथा कम से धम के अनुसार
चलना।
तुम मेरे िम हो और भरत के समान भाई हो। अयो या म सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते
ही उसको भारी सुख उ प न हआ। ने म (आनंद और ेम के आँसुओ ं का) जल भरकर वह
चरण म िगर पड़ा।
राम के रा य पर िति त होने पर तीन लोक हिषत हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे । कोई
िकसी से वैर नह करता। राम के ताप से सबक िवषमता (आंत रक भेदभाव) िमट गई।
छोटी अव था म म ृ यु नह होती, न िकसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर संुदर और
नीरोग ह। न कोई द र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मखू है और न शुभ ल ण से
हीन ही है।
बेल और व ृ माँगने से ही मधु (मकरं द) टपका देते ह। गौएँ मनचाहा दूध देती ह। धरती सदा
खेती से भरी रहती है। ेता म स ययुग क करनी (ि थित) हो गई।
समु अपनी मयादा म रहते ह। वे लहर ारा िकनार पर र न डाल देते ह, िज ह मनु य पा जाते
ह। सब तालाब कमल से प रपणू ह। दस िदशाओं के िवभाग (अथात सभी देश) अ यंत स न
ह।
शोभा क खान, सुशील और िवन सीता सदा पित के अनुकूल रहती ह। वे कृपासागर राम क
भुता (मिहमा) को जानती ह और मन लगाकर उनके चरणकमल क सेवा करती ह।
कृपासागर राम िजस कार से सुख मानते ह, ी (सीता) वही करती ह; य िक वे सेवा क िविध
को जाननेवाली ह। घर म कौस या आिद सभी सासुओ ं क सीता सेवा करती ह, उ ह िकसी बात
का अिभमान और मद नह है।
(िशव कहते ह -) हे उमा! जग जननी रमा (सीता) ा आिद देवताओं से वंिदत और सदा
अिनंिदत (सवगुण संप न) ह।
सब भाई अनुकूल रहकर उनक सेवा करते ह। राम के चरण म उनक अ यंत अिधक ीित है। वे
सदा भु का मुखारिवंद ही देखते रहते ह िक कृपालु राम कभी हम कुछ सेवा करने को कह।
वे दोन ही िवजयी (िव यात यो ा), न और गुण के धाम ह और अ यंत सुंदर ह, मानो ह र के
ितिबंब ही ह । दो-दो पु सभी भाइय के हए, जो बड़े ही संुदर, गुणवान और सुशील थे।
जो (बौि क) ान, वाणी और इंि य से परे और अज मा है तथा माया, मन और गुण के परे है,
वही सि चदानंदघन भगवान े नरलीला करते ह॥ 25॥
अनज
ु ह संजुत भोजन करह । देिख सकल जनन सख ु भरह ॥
भरत स हु न दोनउ भाई। सिहत पवनसत
ु उपबन जाई॥
वे भाइय को साथ लेकर भोजन करते ह। उ ह देखकर सभी माताएँ आनंद से भर जाती ह। भरत
और श ु न दोन भाई हनुमान सिहत उपवन म जाकर,
बूझिहं बैिठ राम गनु गाहा। कह हनम
ु ान सम ु ित अवगाहा॥
सनु त िबमल गन ु अित सखु पाविहं। बह र बह र क र िबनय कहाविहं॥
सबके यहाँ घर-घर म पुराण और अनेक कार के पिव रामच र क कथा होती है। पु ष और
ी सभी राम का गुणगान करते ह और इस आनंद म िदन-रात का बीतना भी नह जान पाते।
जहाँ भगवान राम वयं राजा होकर िवराजमान ह, उस अवधपुरी के िनवािसय के सुख-संपि के
समुदाय का वणन हजार शेष भी नह कर सकते॥ 26॥
नारदािद सनकािद मन
ु ीसा। दरसन लािग कोसलाधीसा॥
िदन ित सकल अजो या आविहं। देिख नग िबरागु िबसराविहं॥
नारद आिद और सनक आिद मुनी र सब कोसलराज राम के दशन के िलए ितिदन अयो या
आते ह और उस (िद य) नगर को देखकर वैरा य भुला देते ह।
मानो नव ह ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर िलया हो। प ृ वी (सड़क ) पर
अनेक रं ग के (िद य) काँच (र न ) क गच बनाई (ढाली) गई है, िजसे देखकर े मुिनय
के भी मन नाच उठते ह।
धवल धाम ऊपर नभ चंब
ु त। कलस मनहँ रिब सिस दिु त िनंदत॥
बह मिन रिचत झरोखा ाजिहं। गहृ गहृ ित मिन दीप िबराजिहं॥
उ वल महल ऊपर आकाश को चम ू (छू) रहे ह। महल पर के कलश (अपने िद य काश से)
मानो सयू , चं मा के काश क भी िनंदा (ितर कार) करते ह। (महल म) बहत-सी मिणय से
रचे हए झरोखे सुशोिभत ह और घर-घर म मिणय के दीपक शोभा पा रहे ह।
घर-घर म सुंदर िच शालाएँ ह, िजनम राम के च र बड़ी सुंदरता के साथ सँवारकर अंिकत िकए
हए ह। िज ह मुिन देखते ह, तो वे उनके भी िच को चुरा लेते ह॥ 27॥
सम
ु न बािटका सबिहं लगाई ं। िबिबध भाँित क र जतन बनाई ं॥
लता लिलत बह जाित सहु ाई ं। फूलिहं सदा बसंत िक नाई ं॥
सभी लोग ने िभ न-िभ न कार क पु प क वािटकाएँ य न करके लगा रखी ह, िजनम बहत
जाितय क संुदर और लिलत लताएँ सदा वसंत क तरह फूलती रहती ह।
गंज
ु त मधक
ु र मख
ु र मनोहर। मा त ि िबिध सदा बह संदु र।
नाना खग बालकि ह िजआए। बोलत मधरु उड़ात सहु ाए॥
भ रे मनोहर वर से गुंजार करते ह। सदा तीन कार क सुंदर वायु बहती रहती है। बालक ने
बहत-से प ी पाल रखे ह, जो मधुर बोली बोलते ह और उड़ने म सुंदर लगते ह।
संुदर बाजार है, जो वणन करते नह बनता; वहाँ व तुएँ िबना ही मू य िमलती ह। जहाँ वयं
ल मीपित राजा ह , वहाँ क संपि का वणन कैसे िकया जाए? बजाज (कपड़े का यापार
करनेवाले), सराफ ( पए-पैसे का लेन-देन करनेवाले) आिद विणक ( यापारी) बैठे हए ऐसे जान
ड़ते ह मानो अनेक कुबेर ह । ी, पु ष ब चे और बढ़ ू े जो भी ह, सभी सुखी, सदाचारी और
सुंदर ह।
नगर के उ र िदशा म सरयू बह रही है, िजनका जल िनमल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हए
ह, िकनारे पर जरा भी क चड़ नह है॥ 28॥
अलग कुछ दूरी पर वह संुदर घाट है, जहाँ घोड़ और हािथय के ठ -के-ठ जल िपया करते ह।
पानी भरने के िलए बहत-से (जनाने) घाट ह, जो बड़े ही मनोहर ह। वहाँ पु ष नान नह करते।
नदी के िकनारे कह -कह िवर और ानपरायण मुिन और सं यासी िनवास करते ह। सरयू के
िकनारे -िकनारे संुदर तुलसी के झुंड-के-झुंड बहत-से पेड़ मुिनय ने लगा रखे ह।
नगर क शोभा तो कुछ कही नह जाती। नगर के बाहर भी परम सुंदरता है। अयो यापुरी के
दशन करते ही संपण
ू पाप भाग जाते ह। (वहाँ) वन, उपवन, बाविलयाँ और तालाब सुशोिभत ह।
अनुपम बाविलयाँ, तालाब और मनोहर तथा िवशाल कुएँ शोभा दे रहे ह, िजनक सुंदर (र न क )
सीिढ़याँ और िनमल जल देखकर देवता और मुिन तक मोिहत हो जाते ह। (तालाब म) अनेक
रं ग के कमल िखल रहे ह, अनेक प ी कूज रहे ह और भ रे गुंजार कर रहे ह। (परम) रमणीय
बगीचे कोयल आिद पि य क (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वाल को बुला रहे ह।
वयं ल मीपित भगवान जहाँ राजा ह , उस नगर का कह वणन िकया जा सकता है? अिणमा
आिद आठ िसि याँ और सम त सुख-संपि याँ अयो या म छा रही ह॥ 29॥
लोग जहाँ-तहाँ रघुनाथ के गुण गाते ह और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते ह िक शरणागत
का पालन करनेवाले राम को भजो; शोभा, शील, प और गुण के धाम रघुनाथ को भजो।
िबिबध कम गन
ु काल सभ ु ाउ। ए चकोर सख
ु लहिहं न काऊ॥
म सर मान मोह मद चोरा। इ ह कर हनर न कविनहँ ओरा॥
धम पी तालाब म ान, िव ान - ये अनेक कार के कमल िखल उठे । सुख, संतोष, वैरा य
और िववेक - ये अनेक चकवे शोकरिहत हो गए।
यह राम ताप पी सय ू िजसके दय म जब काश करता है, तब िजनका वणन पीछे से िकया
गया है, वे (धम, ान, िव ान, सुख, संतोष, वैरा य और िववेक) बढ़ जाते ह और िजनका वणन
पहले िकया गया है, वे (अिव ा, पाप, काम, ोध, कम, काल, गुण, वभाव आिद) नाश को ा
होते (न हो जाते) ह॥ 31॥
एक बार भाइय सिहत राम परम ि य हनुमान को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के
सब व ृ फूले हए और नए प से यु थे।
सुअवसर जानकर सनकािद मुिन आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से यु तथा सदा
ानंद म लवलीन रहते ह। देखने म तो वे बालक लगते ह, परं तु ह बहत समय के।
(िशव कहते ह -) हे भवानी! सनकािद मुिन वहाँ गए थे (वह से चले आ रहे थे) जहाँ ानी
मुिन े अग य रहते थे। े मुिन ने राम क बहत-सी कथाएँ वणन क थ , जो ान उ प न
करने म उसी कार समथ ह, जैसे अरिण लकड़ी से अि न उ प न होती है।
सनकािद मुिनय को आते देखकर राम ने हिषत होकर दंडवत िकया और वागत (कुशल)
ू कर भु ने (उनके) बैठने के िलए अपना पीतांबर िबछा िदया॥ 32॥
पछ
िफर हनुमान सिहत तीन भाइय ने दंडवत क , सबको बड़ा सुख हआ। मुिन रघुनाथ क
अतुलनीय छिव देखकर उसी म म न हो गए। वे मन को रोक न सके।
आजु ध य म सन ु ह मन
ु ीसा। तु हर दरस जािहं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। िबनिहं यास होिहं भव भंगा॥
हे मुनी रो! सुिनए, आज म ध य हँ। आपके दशन ही से (सारे ) पाप न हो जाते ह। बड़े ही
भा य से स संग क ाि होती है, िजससे िबना ही प र म ज म-म ृ यु का च न हो जाता है।
भु के वचन सुनकर चार मुिन हिषत होकर, पुलिकत शरीर से तुित करने लगे - हे भगवन!
आपक जय हो। आप अंतरिहत, िवकाररिहत, पापरिहत, अनेक (सब प म कट), एक
(अि तीय) और क णामय ह।
हे िनगुण! आपक जय हो। हे गुण के समु ! आपक जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अ यंत)
सुंदर और अित चतुर ह। हे ल मीपित! आपक जय हो। हे प ृ वी के धारण करनेवाले! आपक जय
हो। आप उपमारिहत, अज मे, अनािद और शोभा क खान ह।
आप ान के भंडार, ( वयं) मानरिहत और (दूसर को) मान देनेवाले ह। वेद और पुराण आपका
पावन सुंदर यश गाते ह। आप त व के जाननेवाले, क हई सेवा को माननेवाले और अ ान का
नाश करनेवाले ह। हे िनरं जन (मायारिहत)! आपके अनेक (अनंत) नाम ह और कोई नाम नह है
(अथात आप सब नाम के परे ह)।
ेम सिहत बार-बार तुित करके और िसर नवाकर तथा अपना अ यंत मनचाहा वर पाकर
सनकािद मुिन लोक को गए॥ 35॥
#2360;नकािद मुिन लोक को चले गए। तब भाइय ने राम के चरण म िसर नवाया। सब
भाई भु से पछ
ू ते सकुचाते ह। (इसिलए) सब हनुमान क ओर देख रहे ह।
वे भु केमुख क वाणी सुनना चाहते ह, िजसे सुनकर सारे म का नाश हो जाता है। अंतयामी
भु सब जान गए और पछ
ू ने लगे - कहो हनुमान! या बात है?
तब हनुमान हाथ जोड़कर बोले - हे दीनदयालु भगवान! सुिनए। हे नाथ! भरत कुछ पछ
ू ना चाहते
ह, पर करते मन म सकुचा रहे ह।
(भगवान ने कहा -) हनुमान! तुम तो मेरा वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच म कभी
भी कोई अंतर (भेद) है? भु के वचन सुनकर भरत ने उनके चरण पकड़ िलए (और कहा -) हे
नाथ! हे शरणागत के दुःख को हरनेवाले! सुिनए।
ीमख
ु तु ह पिु न क ि ह बड़ाई। ित ह पर भिु ह ीित अिधकाई॥
सन
ु ा चहउँ भु ित ह कर ल छन। कृपािसंधु गन ु यान िबच छन॥
हे शरणागत का पालन करनेवाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर
किहए। (राम ने कहा -) हे भाई! संत के ल ण (गुण) असं य ह, जो वेद और पुराण म िस ह।
संत और असंत क करनी ऐसी है जैसे कु हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो,
कु हाड़ी चंदन को काटती है ( य िक उसका वभाव या काम ही व ृ को काटना है); िकंतु
चंदन अपने वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटनेवाली कु हाड़ी को) सुगंध से सुवािसत कर
देता है।
संत िवषय म लंपट (िल ) नह होते, शील और स ुण क खान होते ह। उ ह पराया दुःख
देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबम, सव , सब समय) समता रखते ह,
उनके मन कोई उनका श ु नह है, वे मद से रिहत और वैरा यवान होते ह तथा लोभ, ोध, हष
और भय का याग िकए हए रहते ह।
उनका िच बड़ा कोमल होता है। वे दीन पर दया करते ह तथा मन, वचन और कम से मेरी
िन कपट (िवशु ) भि करते ह। सबको स मान देते ह, पर वयं मानरिहत होते ह। हे भरत! वे
ाणी (संतजन) मेरे ाण के समान ह।
उनको कोई कामना नह होती। वे मेरे नाम के परायण होते ह। शांित, वैरा य, िवनय और
स नता के घर होते ह। उनम शीलता, सरलता, सबके ित िम भाव और ा ण के चरण म
ीित होती है, जो धम को उ प न करनेवाली है।
िज ह िनंदा और तुित (बड़ाई) दोन समान ह और मेरे चरणकमल म िजनक ममता है, वे गुण
के धाम और सुख क रािश संतजन मुझे ाण के समान ि य ह॥ 38॥
अब असंत (दु ) का वभाव सुनो; कभी भल ू कर भी उनक संगित नह करनी चािहए। उनका
संग सदा दुःख देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाित क ) गाय किपला (सीधी और दुधार)
गाय को अपने संग से न कर डालती है।
दु के दय म बहत अिधक संताप रहता है। वे पराई संपि (सुख) देखकर सदा जलते रहते ह।
वे जहाँ कह दूसरे क िनंदा सुन पाते ह, वहाँ ऐसे हिषत होते ह मानो रा ते म पड़ी िनिध
(खजाना) पा ली हो।
काम ोध मद लोभ परायन। िनदय कपटी कुिटल मलायन॥
बय अकारन सब काह स । जो कर िहत अनिहत ताह स ॥
वे काम, ोध, मद और लोभ के परायण तथा िनदयी, कपटी, कुिटल और पाप के घर होते ह। वे
िबना ही कारण सब िकसी से वैर िकया करते ह। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते
ह।
लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही िबछौना होता है (अथात लोभ ही से वे सदा िघरे हए रहते ह)।
वे पशुओ ं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते ह, उ ह यमपुर का भय नह लगता।
यिद िकसी क बड़ाई सुन पाते ह, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते ह मान उ ह जड़
ू ी आ गई हो।
अवगन
ु िसंधु मंदमित कामी। बेद िबदूषक परधन वामी॥
िब ोह पर ोह िबसेषा। दंभ कपट िजयँ धर सब े ा॥
ु ष
वे अवगुण के समु , मंद बुि , कामी (रागयु ), वेद के िनंदक और जबद ती पराए धन के
वामी (लटू नेवाले) होते ह। वे दूसर से ोह तो करते ही ह; परं तु ा ण से िवशेष प से करते ह।
उनके दय म दंभ और कपट भरा रहता है, परं तु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण िकए रहते ह।
हे भाई! दूसर क भलाई के समान कोई धम नह है और दूसर को दुःख पहँचाने के समान कोई
नीचता (पाप) नह है। हे तात! सम त पुराण और वेद का यह िनणय (िनि त िस ांत) मने
तुमसे कहा है, इस बात को पंिडत लोग जानते ह।
मनु य का शरीर धारण करके जो लोग दूसर को दुःख पहँचाते ह, उनको ज म-म ृ यु के महान
संकट सहने पड़ते ह। मनु य मोहवश वाथपरायण होकर अनेक पाप करते ह, इसी से उनका
परलोक न हआ रहता है।
दो० - सन
ु ह तात माया कृत गनु अ दोष अनेक।
गनु यह उभय न देिखअिहं देिखअ सो अिबबेक॥ 41॥
हे तात! सुनो, माया से रचे हए ही अनेक (सब) गुण और दोष ह (इनक कोई वा तिवक स ा
नह है)। गुण (िववेक) इसी म है िक दोन ही न देखे जाएँ , इ ह देखना ही अिववेक है॥ 41॥
ीमख
ु बचन सन ु त सब भाई। हरषे म े न दयँ समाई॥
करिहं िबनय अित बारिहं बारा। हनूमान िहयँ हरष अपारा॥
पिु न रघप
ु ित िनज मंिदर गए। एिह िबिध च रत करत िनत नए॥
बार बार नारद मिु न आविहं। च रत पनु ीत राम के गाविहं॥
तदनंतर राम अपने महल को गए। इस कार वे िन य नई लीला करते ह। नारद मुिन अयो या म
बार-बार आते ह और आकर राम के पिव च र गाते ह।
सन
ु ह सकल परु जन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
निहं अनीित निहं कछु भत
ु ाई। सन
ु ह करह जो तु हिह सोहाई॥
वही मेरा सेवक है और वही ि यतम है, जो मेरी आ ा माने। हे भाई! यिद म कुछ अनीित क बात
कहँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना।
बड़ भाग मानष
ु तनु पावा। सरु दल
ु भ सब ंथि ह गावा॥
साधन धाम मो छ कर ारा। पाइ न जेिहं परलोक सँवारा॥
दो० - सो पर दख
ु पावइ िसर धिु न धिु न पिछताई।
कालिह कमिह ई वरिह िम या दोस लगाइ॥ 43॥
वह परलोक म दुःख पाता है, िसर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल
पर, कम पर और ई र पर िम या दोष लगाता है॥ 43॥
जो पारसमिण को खोकर बदले म घँुघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुि मान) नह
कहता। यह अिवनाशी जीव (अंडज, वेदज, जरायुज और उि ज) चार खान और चौरासी लाख
योिनय म च कर लगाता रहता है।
माया क ेरणा से काल, कम, वभाव और गुण से िघरा हआ (इनके वश म हआ) यह सदा
भटकता रहता है। िबना ही कारण नेह करनेवाले ई र कभी िवरले ही दया करके इसे मनु य
का शरीर देते ह।
यह मनु य का शरीर भवसागर (से तारने) के िलए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है।
स ु इस मजबत ू जहाज के कणधार (खेनेवाले) ह। इस कार दुलभ (किठनता से िमलनेवाले)
साधन सुलभ होकर (भगव कृपा से सहज ही) उसे ा हो गए ह,
ज परलोक इहाँ सख
ु चहह। सिु न मम बचन दयँ ढ़ गहह॥
सल
ु भ सख
ु द मारग यह भाई। भगित मो र परु ान ुित गाई॥
यिद परलोक म और यहाँ दोन जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उ ह दय म ढ़ता से
पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भि का माग सुलभ और सुखदायक है, पुराण और वेद ने इसे
गाया है।
ान अगम (दुगम) है, (और) उसक ाि म अनेक िव न ह। उसका साधन किठन है और उसम
मन के िलए कोई आधार नह है। बहत क करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी
भि रिहत होने से मुझको ि य नह होता।
भि वतं है और सब सुख क खान है। परं तु स संग (संत के संग) के िबना ाणी इसे नह
पा सकते। और पु यसमहू के िबना संत नह िमलते। स संगित ही संसिृ त (ज म-मरण के च )
का अंत करती है।
दो० - औरउ एक गप
ु त
ु मत सबिह कहउँ कर जो र।
संकर भजन िबना नर भगित न पावइ मो र॥ 45॥
और भी एक गु मत है, म उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हँ िक शंकर के भजन िबना मनु य
मेरी भि नह पाता॥ 45॥
कहो तो, भि माग म कौन-सा प र म है? इसम न योग क आव यकता है, न य , जप, तप
और उपवास क ! (यहाँ इतना ही आव यक है िक) सरल वभाव हो, मन म कुिटलता न हो और
जो कुछ िमले उसी म सदा संतोष रखे।
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहह कहा िब वासा॥
बहत कहउँ का कथा बढ़ाई। एिह आचरन ब य म भाई॥
मेरा दास कहलाकर यिद कोई मनु य क आशा करता है, तो तु ह कहो, उसका या िव ास
है? (अथात उसक मुझ पर आ था बहत ही िनबल है।) बहत बात बढ़ाकर या हँ? हे भाइयो! म
तो इसी आचरण के वश म हँ।
न िकसी से वैर करे , न लड़ाई-झगड़ा करे , न आशा रखे, न भय ही करे । उसके िलए सभी िदशाएँ
सदा सुखमयी ह। जो कोई भी आरं भ (फल क इ छा से कम) नह करता, िजसका कोई अपना
घर नह है (िजसक घर म ममता नह है), जो मानहीन, पापहीन और ोधहीन है, जो (भि
करने म) िनपुण और िव ानवान है।
दो० - मम गन
ु ाम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर ì#2360;◌ुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥ 46॥
जो मेरे गुणसमहू के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रिहत है, उसका
सुख वही जानता है, जो (परमा मा प) परमानंदरािश को ा है॥ 46॥
राम के अमत
ृ के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ िलए (और कहा -) हे
कृपािनधान! आप हमारे माता, िपता, गु , भाई सब कुछ ह और ाण से भी अिधक ि य ह।
और हे शरणागत के दुःख हरनेवाले राम! आप ही हमारे शरीर, धन, घर- ार और सभी कार से
िहत करनेवाले ह। ऐसी िश ा आपके अित र कोई नह दे सकता। माता-िपता (िहतैषी ह और
िश ा भी देते ह) परं तु वे भी वाथपरायण ह (इसिलए ऐसी परम िहतकारी िश ा नह देते)।
एक बार मुिन विश वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम राम थे। रघुनाथ ने उनका बहत ही
आदर-स कार िकया और उनके चरण धोकर चरणामत ृ िलया।
मुिन ने हाथ जोड़कर कहा - हे कृपासागर राम! मेरी कुछ िवनती सुिनए! आपके आचरण
(मनु योिचत च र ) को देख-देखकर मेरे दय म अपार मोह ( म) होता है।
हे भगवन! आपक मिहमा क सीमा नह है, उसे वेद भी नह जानते। िफर म िकस कार कह
सकता हँ? पुरोिहती का कम (पेशा) बहत ही नीचा है। वेद, पुराण और मिृ त सभी इसक िनंदा
करते ह।
तब मने दय म िवचार िकया िक िजसके िलए योग, य , त और दान िकए जाते ह उसे म इसी
कम से पा जाऊँगा; तब तो इसके समान दूसरा कोई धम ही नह है॥ 48॥
जप, तप, िनयम, योग, अपने-अपने (वणा म के) धम, ुितय से उ प न (वेदिविहत) बहत-से
शुभ कम, ान, दया, दम (इंि यिन ह), तीथ नान आिद जहाँ तक वेद और संतजन ने धम
कहे ह (उनके करने का) -
ु े कर फल भु एका॥
आगम िनगम परु ान अनेका। पढ़े सन
तव पद पंकज ीित िनरं तर। सब साधन कर यह फल संदु र॥
मैल से धोने से या मैल छूटता है? जल के मथने से या कोई घी पा सकता है? (उसी कार) हे
रघुनाथ! ेमभि पी (िनमल) जल के िबना अंतःकरण का मल कभी नह जाता।
वही सव है, वही त व और पंिडत है, वही गुण का घर और अखंड िव ानवान है; वही चतुर
और सब सुल ण से यु है, िजसका आपके चरण कमल म ेम है।
दो० - नाथ एक बर मागउँ राम कृपा क र देह।
ज म ज म भु पद कमल कबहँ घटै जिन नेह॥ 49॥
हे नाथ! हे राम! म आपसे एक वर माँगता हँ, कृपा करके दीिजए। भु (आप) के चरणकमल म
मेरा ेम ज म-ज मांतर म भी कभी न घटे॥ 49॥
ऐसा कहकर मुिन विश घर आए। वे कृपासागर राम के मन को बहत ही अ छे लगे। तदनंतर
सेवक को सुख देनेवाले राम ने हनुमान तथा भरत आिद भाइय को साथ िलया,
उस समय पवनपु हनुमान पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलिकत हो गया और ने म
( ेमा ुओ ं का) जल भर आया। (िशव कहने लगे -) हे िग रजे! हनुमान के समान न तो कोई
बड़भागी है और न कोई राम के चरण का ेमी ही है, िजनके ेम और सेवा क ( वयं) भु ने
अपनेमुख से बार-बार बड़ाई क है।
उसी अवसर पर नारदमुिन हाथ म वीणा िलए हए आए। वे राम क सुंदर और िन य नवीन
रहनेवाली क ित गाने लगे॥ 50॥
सज
ु स परु ान िबिदत िनगमागम। गावत सरु मिु न संत समागम॥
का नीक यलीक मद खंडन। सब िबिध कुसल कोसला मंडन॥
राम के गुणसमहू का ेमपवू क वणन करके मुिन नारद शोभा के समु भु को दय म धरकर
जहाँ लोक है वहाँ चले गए॥ 51॥
िग रजा सन
ु ह िबसद यह कथा। म सब कही मो र मित जथा॥
राम च रत सत कोिट अपारा। ुित सारदा न बरनै पारा॥
(िशव कहते ह -) हे िग रजे! सुनो, मने यह उ वल कथा, जैसी मेरी बुि थी, वैसी परू ी कह
डाली। राम के च र सौ करोड़ (अथवा) अपार ह। ुित और शारदा भी उनका वणन नह कर
सकते।
यह पिव कथा भगवान के परम पद को देनेवाली है। इसके सुनने से अिवचल भि ा होती है।
हे उमा! मने वह सब संुदर कथा कही जो काकभुशंुिड ने ग ड़ को सुनाई थी।
मने राम के कुछ थोड़े -से गुण बखान कर कहे ह। हे भवानी! सो कहो, अब और या कहँ? राम
क मंगलमयी कथा सुनकर पावती हिषत हई ं और अ यंत िवन तथा कोमल वाणी बोल -
राम च रत जे सन
ु त अघाह । रस िबसेष जाना ित ह नाह ॥
जीवनमु महामिु न जेऊ। ह र गन ु सन
ु िहं िनरं तर तेऊ॥
जो संसार पी सागर का पार पाना चाहता है, उसके िलए तो राम क कथा ढ़ नौका के समान
है। ह र के गुणसमहू तो िवषयी लोग के िलए भी कान को सुख देनेवाले और मन को आनंद
देनेवाले ह।
हे नाथ! आपने रामच र मानस का गान िकया, उसे सुनकर मने अपार सुख पाया। आपने जो
यह कहा िक यह सुंदर कथा काकभुशुंिड ने ग ड़ से कही थी -
नर सह महँ सन
ु ह परु ारी। कोउ एक होई धम तधारी॥
धमसील कोिटक महँ कोई। िबषय िबमख ु िबराग रत होई॥
हे ि पुरा र! सुिनए, हजार मनु य म कोई एक धम के त का धारण करनेवाला होता है और
करोड़ धमा माओं म कोई एक िवषय से िवमुख (िवषय का यागी) और वैरा य परायण होता है।
ित ह सह महँ सब सख
ु खानी। दल
ु भ लीन िब यानी॥
धमसील िबर अ यानी। जीवनमु पर ानी॥
सत ते सो दल
ु भ सरु राया। राम भगित रत गत मद माया॥
सो ह रभगित काग िकिम पाई। िब वनाथ मोिह कहह बझ ु ाई॥
हे नाथ! किहए, (ऐसे) रामपरायण, ानिनरत, गुणधाम और धीरबुि भुशुंिड ने कौए का शरीर
िकस कारण पाया?॥ 54॥
हे सती! तुम ध य हो; तु हारी बुि अ यंत पिव है। रघुनाथ के चरण म तु हारा कम ेम नह है
(अ यिधक ेम है)। अब वह परम पिव इितहास सुनो, िजसे सुनने से सारे लोक के म का नाश
हो जाता है।
म िजिम कथा सन
ु ी भव मोचिन। सो संग सनु ु सम
ु िु ख सल
ु ोचिन॥
थम द छ गहृ तव अवतारा। सती नाम तब रहा तु हारा॥
मने िजस कार वह भव (ज म-म ृ यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह
संग सुनो। पहले तु हारा अवतार द के घर हआ था। तब तु हारा नाम सती था।
द के य म तु हारा अपमान हआ। तब तुमने अ यंत ोध करके ाण याग िदए थे; और िफर
मेरे सेवक ने य िव वंस कर िदया था। वह सारा संग तुम जानती ही हो।
तब अित सोच भयउ मन मोर। दख ु ी भयउँ िबयोग ि य तोर॥
संदु र बन िग र स रत तड़ागा। कौतकु देखत िफरउँ बेरागा॥
तब मेरे मन म बड़ा सोच हआ और हे ि ये! म तु हारे िवयोग से दुःखी हो गया। म िवर भाव से
सुंदर वन, पवत, नदी और तालाब का कौतुक ( य) देखता िफरता था।
सुमे पवत क उ र िदशा म, और भी दूर, एक बहत ही सुंदर नील पवत है। उसके सुंदर वणमय
िशखर ह, (उनम से) चार सुंदर िशखर मेरे मन को बहत ही अ छे लगे।
उसका जल शीतल, िनमल और मीठा है; उसम रं ग-िबरं गे बहत-से कमल िखले हए ह, हंसगण
मधुर वर से बोल रहे ह और भ रे सुंदर गुंजार कर रहे ह॥ 56॥
उस सुंदर पवत पर वही प ी (काकभुशुंिड) बसता है। उसका नाश क प के अंत म भी नह होता।
मायारिचत अनेक गुण-दोष, मोह, काम आिद अिववेक,
जो सारे जगत म छा रहे ह, उस पवत के पास भी कभी नह फटकते। वहाँ बसकर िजस कार वह
काग ह र को भजता है, हे उमा! उसे ेम सिहत सुनो।
बरगद के नीचे वह ह र क कथाओं के संग कहता है। वहाँ अनेक प ी आते और कथा सुनते
ह। वह िविच रामच र को अनेक कार से ेम सिहत आदरपवू क गान करता है।
सन
ु िहं सकल मित िबमल मराला। बसिहं िनरं तर जे तेिहं ताला॥
जब म जाइ सो कौतकु देखा। उर उपजा आनंद िबसेषा॥
सब िनमल बुि वाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते ह, उसे सुनते ह। जब मने वहाँ जाकर यह
कौतुक ( य) देखा, तब मेरे दय म िवशेष आनंद उ प न हआ।
तब मने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ िनवास िकया और रघुनाथ के गुण को आदर
सिहत सुनकर िफर कैलास को लौट आया॥ 57॥
हे िग रजे! मने वह सब इितहास कहा िक िजस समय म काकभुशुंिड के पास गया था। अब वह
कथा सुनो िजस कारण से प ◌ी कुल क वजा ग ड़ उस काग के पास गए थे।
जब रघुनाथ ने ऐसी रणलीला क िजस लीला का मरण करने से मुझे ल जा होती है - मेघनाद
के हाथ अपने को बँधा िलया - तब नारद मुिन ने ग ड़ को भेजा।
याकुल होकर वे देविष नारद के पास गए और मन म जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर
नारद को अ यंत दया आई। (उ ह ने कहा -) हे ग ड़! सुिनए! राम क माया बड़ी ही बलवती है।
ऐसा कहकर परम सुजान देविष नारद राम का गुणगान करते हए और बारं बार ह र क माया का
बल वणन करते हए चले॥ 59॥
यह सारा चराचर जगत तो मेरा रचा हआ है। जब म ही मायावश नाचने लगता हँ, तब ग ड़ को
मोह होना कोई आ य (क बात) नह है। तदनंतर ा सुंदर वाणी बोले - राम क मिहमा को
महादेव जानते ह।
तब बड़ी आतुरता (उतावली) से प ीराज ग ड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय म कुबेर के घर
जा रहा था और तुम कैलास पर थ ॥ 60॥
हे ग ड़! तुम मुझे रा ते म िमले हो। राह चलते म तु हे िकस कार समझाऊँ? सब संदेह का तो
तभी नाश हो जब दीघ काल तक स संग िकया जाए।
और वहाँ (स संग म) संुदर ह रकथा सुनी जाए िजसे मुिनय ने अनेक कार से गाया है और
िजसके आिद, म य और अंत म भगवान राम ही ितपा भु ह।
हे भाई! जहाँ ितिदन ह रकथा होती है, तुमको म वह भेजता हँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते
ही तु हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तु ह राम के चरण म अ यंत ेम होगा।
स संग के िबना ह र क कथा सुनने को नह िमलती, उसके िबना मोह नह भागता और मोह के
गए िबना राम के चरण म ढ़ (अचल) ेम नह होता॥ 61॥
िबना ेम के केवल योग, तप, ान और वैरा यािद के करने से रघुनाथ नह िमलते। (अतएव तुम
स संग के िलए वहाँ जाओ जहाँ) उ र िदशा म एक सुंदर नील पवत है। वहाँ परम सुशील
काकभुशुंिड रहते ह।
वे रामभि के माग म परम वीण ह, ानी ह, गुण के धाम ह और बहत काल के ह। वे िनरं तर
राम क कथा कहते रहते ह, िजसे भाँित-भाँित के े प ी आदर सिहत सुनते ह।
जाइ सन
ु ह तहँ ह र गन
ु भूरी। होइिह मोह जिनत दख
ु दूरी॥
म जब तेिह सब कहा बझ ु ाई। चलेउ हरिष मम पद िस नाई॥
वहाँ जाकर ह र के गुणसमहू को सुनो। उनके सुनने से मोह से उ प न तु हारा दुःख दूर हो
जाएगा। मने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरण म िसर नवाकर हिषत होकर चला
गया।
हे उमा! मने उसको इसीिलए नह समझाया िक म रघुनाथ क कृपा से उसका मम (भेद) पा गया
था। उसने कभी अिभमान िकया होगा, िजसको कृपािनधान राम न करना चाहते ह।
ु इ खग खगही कै भाषा॥
कछु तेिह ते पिु न म निहं राखा। समझ
भु माया बलवंत भवानी। जािह न मोह कवन अस यानी॥
िफर कुछ इस कारण भी मने उसको अपने पास नह रखा िक प ी प ी क ही बोली समझते ह।
हे भवानी! भु क माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ानी है, िजसे वह न मोह ले?
यह माया जब िशव और ा को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा या चीज है? जी म ऐसा
जानकर ही मुिन लोग उस माया के वामी भगवान का भजन करते ह॥ 62(ख)॥
भुशुंिड कथा आरं भ करना ही चाहते थे िक उसी समय प ीराज ग ड़ वहाँ जा पहँचे। पि य के
राजा ग ड़ को आते देखकर काकभुशुंिड सिहत सारा प ी समाज हिषत हआ।
प ीराज ग ड़ ने कोमल वचन कहे - आप तो सदा ही कृताथ प ह, िजनक बड़ाई वयं महादेव
ने आदरपवू क अपने मुख से क है॥ 63(ख)॥
हे तात! सुिनए, म िजस कारण से आया था, वह सब काय तो यहाँ आते ही परू ा हो गया। िफर
आपके दशन भी ा हो गए। आपका परम पिव आ म देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक
कार के म सब जाते रहे ।
अब हे तात! आप मुझे ी राम क अ यंत पिव करनेवाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमहू
का नाश करनेवाली कथा सादरसिहत सुनाइए। हे भो! म बार-बार आप से यही िवनती करता हँ।
ु त ग ड़ कै िगरा िबनीता। सरल सु म
सन े सख ु द सप
ु न
ु ीता॥
भयउ तास मन परम उछाहा। लाग कहै रघप ु ित गन
ु गाहा॥
मन म परम उ साह भरकर अनेक कार क बाल लीलाएँ कहकर, िफर ऋिष िव ािम का
अयो या आना और ी रघुवीर का िववाह वणन िकया॥ 64॥
िफर राम के रा यािभषेक का संग िफर राजा दशरथ के वचन से राजरस (रा यािभषेक के
आनंद) म भंग पड़ना, िफर नगर िनवािसय का िवरह, िवषाद और राम-ल मण का संवाद
(बातचीत) कहा।
राम का वन गमन, केवट का ेम, गंगा से पार उतरकर याग म िनवास, वा मीिक और भु राम
का िमलन और जैसे भगवान िच कूट म बसे, वह सब कहा।
िफर मं ी सुमं का नगर म लौटना, राजा दशरथ का मरण, भरत का (निनहाल से)
अयोधî#2381;या म आना और उनके ेम का बहत वणन िकया। राजा क अं येि ि या करके
नगर िनवािसय को साथ लेकर भरत वहाँ गए जहाँ सुख क रािश भु राम थे।
पिु न रघप
ु ित बह िबिध समझ
ु ाए। लै पादक
ु ा अवधपरु आए॥
भरत रहिन सरु पित सत ु करनी। भु अ अि भट पिु न बरनी॥
िफर रघुनाथ ने उनको बहत कार से समझाया, िजससे वे खड़ाऊँ लेकर अयो यापुरी लौट आए,
यह सब कथा कही। भरत क नंदी ाम म रहने क रीित, इं पु जयंत क नीच करनी और िफर
भु राम और अि का िमलाप वणन िकया।
िजस कार िवराध का वध हआ और शरभंग ने शरीर याग िकया, वह संग कहकर, िफर
सुती ण का ेम वणन करके भु और अग य का स संग व ृ ांत कहा॥ 65॥
दंडक वन का पिव करना कहकर िफर भुशंुिड ने ग ृ राज के साथ िम ता का वणन िकया। िफर
िजस कार भु ने पंचवटी म िनवास िकया और सब मुिनय के भय का नाश िकया,
तथा िजस कार रावण और मारीच क बातचीत हई, वह सब उ ह ने कही। िफर माया सीता का
हरण और ी रघुवीर के िवरह का कुछ वणन िकया।
संपाती से सब कथा सुनकर पवनपु हनुमान िजस तरह अपार समु को लाँघ गए, िफर हनुमान
ने जैसे लंका म वेश िकया और िफर जैसे सीता को धीरज िदया, सो सब कहा।
िफर िजस कार सेना सिहत रघुवीर जाकर समु के तट पर उतरे और िजस कार िवभीषण
आकर उनसे िमले, वह सब और समु के बाँधने क कथा उसने सुनाई।
पुल बाँधकर िजस कार वानर क सेना समु के पार उतरी और िजस कार वीर े बािलपु
अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥ 67(क)॥
िफर सीता और रघुनाथ का िमलाप कहा। िजस कार देवताओं ने हाथ जोड़कर तुित क और
िफर जैसे वानर समेत पु पक िवमान पर चढ़कर कृपाधाम भु अवधपुरी को चले, वह कहा।
कथा सम त भस ु ंड
ु बखानी। जो म तु ह सन कही भवानी॥
सिु न सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥
भुशुंिड ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर ग ड़ मन म
बहत उ सािहत (आनंिदत) होकर वचन कहने लगे -
जो धपू से अ यंत याकुल होता है, वही व ृ क छाया का सुख जानता है। हे तात! यिद मुझे
अ यंत मोह न होता तो म आपसे िकस कार िमलता?
सनु तेउँ िकिम ह र कथा सहु ाई। अित िबिच बह िबिध तु ह गाई॥
िनगमागम परु ान मत एहा। कहिहं िस मिु न निहं संदहे ा॥
और कैसे अ यंत िविच यह सुंदर ह रकथा सुनता; जो आपने बहत कार से गाई है? वेद, शा
और पुराण का यही मत है; िस और मुिन भी यही कहते ह, इसम संदेह नह िक -
शु (स चे) संत उसी को िमलते ह, िजसे राम कृपा करके देखते ह। राम क कृपा से मुझे आपके
दशन हए और आपक कृपा से मेरा संदेह चला गया।
हे उमा! सुंदर बुि वाले सुशील, पिव कथा के ेमी और ह र के सेवक ोता को पाकर स जन
अ यंत गोपनीय (सबके सामने कट न करने यो य) रह य को भी कट कर देते ह॥ 69(ख)॥
बोलेउ काकभसु ंड
ु बहोरी। नभग नाथ पर ीित न थोरी॥
सब िबिध नाथ पू य तु ह मेरे। कृपापा रघन
ु ायक केरे ॥
आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया क है। हे
प ीराज! मोह के बहाने रघुनाथ ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है।
हे पि य के वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाई ं! यह कुछ आ य नह है। नारद, िशव,
ा और सनकािद जो आ मत व के मम और उसका उपदेश करनेवाले े मुिन ह।
उनम से भी िकस-िकस को मोह ने अंधा (िववेकशू य) नह िकया? जगत म ऐसा कौन है िजसे
काम ने न नचाया हो? त ृ णा ने िकसको मतवाला नह बनाया? ोध ने िकसका दय नह
जलाया?
इस संसार म ऐसा कौन ानी, तप वी, शरू वीर, किव, िव ान और गुण का धाम है, िजसक
लोभ ने िवडं बना (िम ी पलीद) न क हो॥ 70(क)॥
(रज, तम आिद) गुण का िकया हआ सि नपात िकसे नह हआ? ऐसा कोई नह है िजसे मान
और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के वर ने िकसे आपे से बाहर नह िकया? ममता ने िकस के
यश का नाश नह िकया?
मनोरथ ड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैयवान कौन है, िजसके शरीर म यह क ड़ा न लगा हो?
पु क , धन क और लोक ित ा क - इन तीन बल इ छाओं ने िकसक बुि को मिलन
नह कर िदया (िबगाड़ नह िदया)?
यह सब माया का बड़ा बलवान प रवार है। यह अपार है, इसका वणन कौन कर सकता है? िशव
और ा भी िजससे डरते ह, तब दूसरे जीव तो िकस िगनती म ह?
माया क चंड सेना संसार भर म छाई हई है। कामािद (काम, ोध और लोभ) उसके सेनापित ह
और दंभ, कपट और पाखंड यो ा ह॥ 71(क)॥
वह माया रघुवीर क दासी है। य िप समझ लेने पर वह िम या ही है, िकंतु वह राम क कृपा के
िबना छूटती नह । हे नाथ! यह म ित ा करके कहता हँ॥ 71(ख)॥
वे िनगुण (माया के गुण से रिहत), महान, वाणी और इंि य से परे , सब कुछ देखनेवाले, िनद ष,
अजेय, ममतारिहत, िनराकार, मोहरिहत, िन य, मायारिहत, सुख क रािश,
भगवान भु राम ने भ के िलए राजा का शरीर धारण िकया और साधारण मनु य के-से
अनेक परम पावन च र िकए॥ 72(क)॥
जैसे कोई नट (खेल करनेवाला) अनेक वेष धारण करके न ृ य करता है, और वही-वही (जैसा वेष
होता है, उसी के अनुकूल) भाव िदखलाता है, पर वयं वह उनम से कोई हो नह जाता,॥
72(ख)॥
िनगुण प अ यंत सुलभ (सहज ही समझ म आ जानेवाला) है, परं तु (गुणातीत िद य) सगुण प
को कोई नह जानता। इसिलए उन सगुण भगवान के अनेक कार के सुगम और अगम च र
को सुनकर मुिनय के भी मन को म हो जाता है॥ 73(ख)॥
हे तात! आप राम के कृपा पा ह। ह र के गुण म आपक ीित है, इसीिलए आप मुझे सुख
देनेवाले ह। इसी से म आप से कुछ भी नह िछपाता और अ यंत रह य क बात आपको गाकर
सुनाता हँ।
इसीिलए कृपािनिध उसे दूर कर देते ह; य िक सेवक पर उनक बहत ही अिधक ममता है। हे
गोसाई ं! जैसे ब चे के शरीर म फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हदय क भाँित िचरा डालती
है।
य िप ब चा पहले (फोड़ा िचराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग के
नाश के िलए माता ब चे क उस पीड़ा को कुछ भी नह िगनती (उसक परवाह नह करती और
फोड़े को िचरवा ही डालती है)॥ 74(क)॥
ितिम रघपु ित िनज दास कर हरिहं मान िहत लािग।
तलु िसदास ऐसे भिु ह कस न भजह म यािग॥ 74(ख)॥
उसी कार रघुनाथ अपने दास का अिभमान उसके िहत के िलए हर लेते ह। तुलसीदास कहते ह
िक ऐसे भु को म यागकर य नह भजते॥ 74(ख)॥
हे प ीराज ग ड़! राम क कृपा और अपनी जड़ता (मख ू ता) क बात कहता हँ, मन लगाकर
सुिनए। जब-जब राम मनु य शरीर धारण करते ह और भ के िलए बहत-सी लीलाएँ करते ह।
तब-तब म अयो यापुरी जाता हँ और उनक बाल लीला देखकर हिषत होता हँ। वहाँ जाकर म
ज म महो सव देखता हँ और (भगवान क िशशु लीला म) लुभाकर पाँच वष तक वह रहता हँ।
बालक प राम मेरे इ देव ह, िजनके शरीर म अरब कामदेव क शोभा है। हे ग ड़! अपने भु
का मुख देख-देखकर म ने को सफल करता हँ।
छोटे-से कौए का शरीर धरकर और भगवान के साथ-साथ िफरकर म उनके भाँित-भाँित के बाल
च र को देखा करता हँ।
भुशुंिड कहने लगे - हे प ीराज! सुिनए, राम का च र सेवक को सुख देनेवाला है। (अयो या
का) राजमहल सब कार से सुंदर है। सोने के महल म नाना कार के र न जड़े हए ह।
संुदर आँगन का वणन नह िकया जा सकता, जहाँ चार भाई िन य खेलते ह। माता को सुख
देनेवाले बालिवनोद करते हए रघुनाथ आँगन म िवचर रहे ह।
मरकत मदृ ल
ु कलेवर यामा। अंग अंग ित छिब बह कामा॥
नव राजीव अ न मदृ ु चरना। पदज िचर नख सिस दिु त हरना॥
मरकत मिण के समान ह रताभ याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग म बहत-से कामदेव क
शोभा छाई हई है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण ह। संुदर अँगुिलयाँ ह
और नख अपनी योित से चं मा क कांित को हरनेवाले ह।
उदर पर सुंदर तीन रे खाएँ (ि वली) ह, नािभ सुंदर और गहरी है। िवशाल व थल पर अनेक
कार के ब च के आभषू ण और व सुशोिभत ह॥ 76॥
कलबल (तोतले) वचन ह, लाल-लाल ओंठ ह। उ वल, सुंदर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे)
दो-दो दंतुिलयाँ ह। सुंदर गाल, मनोहर नािसका और सब सुख को देनेवाली चं मा क (अथवा
सुख देनेवाली सम त कलाओं से पण ू चं मा क ) िकरण के समान मधुर मुसकान है।
पीली और महीन झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनक िकलकारी और िचतवन मुझे बहत ही
ि य लगती है। राजा दशरथ के आँगन म िवहार करनेवाले प क रािश राम अपनी परछाह
देखकर नाचते ह,
मोिह सन करिहं िबिबिध िबिध ड़ा। बरनत मोिह होित अित ीड़ा॥
िकलकत मोिह धरन जब धाविहं। चलउँ भािग तब पूप देखाविहं॥
और मुझसे बहत कार के खेल करते ह, िजन च र का वणन करते मुझे ल जा आती है!
िकलकारी मारते हए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और म भाग चलता, तब मुझे पआ
ू िदखलाते थे।
मेरे िनकट आने पर भु हँसते ह और भाग जाने पर रोते ह और जब म उनका चरण पश करने
के िलए पास जाता हँ, तब वे पीछे िफर-िफरकर मेरी ओर देखते हए भाग जाते ह॥ 77(क)॥
हे प ीराज! मन म इतनी (शंका) लाते ही रघुनाथ के ारा े रत माया मुझ पर छा गई। परं तु वह
माया न तो मुझे दुःख देनेवाली हई और न दूसरे जीव क भाँित संसार म डालनेवाली हई।
हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान के वाहन ग ड़! उसे सावधान होकर सुिनए।
एक सीतापित राम ही अखंड ान व प ह और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश ह।
यिद जीव को एकरस (अखंड) ान रहे , तो किहए, िफर ई र और जीव म भेद ही कैसा?
अिभमानी जीव माया के वश है और वह (स व, रज, तम - इन) तीन गुण क खान माया ई र
के वश म है।
जीव परतं है, भगवान वतं ह; जीव अनेक ह, ीपित भगवान एक ह। य िप माया का िकया
हआ यह भेद असत् है तथािप वह भगवान के भजन िबना करोड़ उपाय करने पर भी नह जा
सकता।
रामचं के भजन िबना जो मो पद चाहता है, वह मनु य ानवान होने पर भी िबना पँछ
ू और
स ग का पशु है॥ 78(क)॥
सात आवरण को भेदकर जहाँ तक मेरी गित थी वहाँ तक म गया। पर वहाँ भी भु क भुजा को
(अपने पीछे ) देखकर म याकुल हो गया॥ 79(ख)॥111
मूदउे ँ नयन िसत जब भयउँ । पिु न िचतवत कोसलपरु गयऊँ॥
मोिह िबलोिक राम मस
ु क
ु ाह । िबहँसत तरु त गयउँ मख
ु माह ॥
जब म भयभीत हो गया, तब मने आँख मँदू ल । िफर आँख खोलकर देखते ही अवधपुरी म पहँच
गया। मुझे देखकर राम मुसकराने लगे। उनके हँसते ही म तुरंत उनके मुख म चला गया।
उदर माझ सन
ु ु अंडज राया। देखउँ बह ांड िनकाया॥
अित िबिच तहँ लोक अनेका। रचना अिधक एक ते एका॥
हे प ीराज! सुिनए, मने उनके पेट म बहत-से ांड के समहू देखे। वहाँ (उन ांड म)
अनेक िविच लोक थे, िजनक रचना एक-से-एक क बढ़कर थी।
असं य समु , नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना कार क सिृ का िव तार देखा।
देवता, मुिन, िस , नाग, मनु य, िक नर तथा चार कार के जड़ और चेतन जीव देखे।
देव दनज
ु गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनिह भाँती॥
मिह स र सागर सर िग र नाना। सब पंच तहँ आनइ आना॥
तथा नाना जाित के देवता एवं दै यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही कार के थे। अनेक प ृ वी,
नदी, समु , तालाब, पवत तथा सब सिृ वहाँ दूसरी-ही-दूसरी कार क थी।
येक ांड म मने अपना प देखा तथा अनेक अनुपम व तुएँ देख । येक भुवन म यारी
ही अवधपुरी, िभ न ही सरयू और िभ न कार के ही नर-नारी थे।
हे तात! सुिनए, दशरथ, कौस या और भरत आिद भाई भी िभ न-िभ न प के थे। म येक
ांड म रामावतार और उनक अपार बाल लीलाएँ देखता िफरता।
हे ह रवाहन! मने सभी कुछ िभ न-िभ न और अ यंत िविच देखा। म अनिगनत ांड म
िफरा, पर भु राम को मने दूसरी तरह का नह देखा॥ 81(क)॥
सव वही िशशुपन, वही शोभा और वही कृपालु रघुवीर! इस कार मोह पी पवन क ेरणा से म
भुवन-भुवन म देखता-िफरता था॥ 81(ख)॥
राम के पेट म मने बहत-से जगत देखे, जो देखते ही बनते थे, वणन नह िकए जा सकते। वहाँ
िफर मने सुजान माया के वामी कृपालु भगवान राम को देखा।
म बार-बार िवचार करता था। मेरी बुि मोह पी क चड़ से या थी। यह सब मने दो ही घड़ी म
देखा। मन म िवशेष मोह होने से म थक गया।
मुझे याकुल देखकर तब कृपालु रघुवीर हँस िदए। हे धीर-बुि ग ड़! सुिनए, उनके हँसते ही म
मँुह से बाहर आ गया॥ 82(क)॥
राम मेरे साथ िफर वही लड़कपन करने लगे। म करोड़ (असं य) कार से मन को समझाता
था, पर वह शांित नह पाता था॥ 82(ख)॥
सेवक को सुख देनेवाले, कृपा के समहू (कृपामय) राम ने मुझे मोह से सवथा रिहत कर िदया।
उनक पहलेवाली भुता को िवचार-िवचारकर (याद कर-करके) मेरे मन म बड़ा भारी हष हआ।
मेरी ेमयु वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमािनवास राम सुखदायक, गंभीर
और कोमल वचन बोले - ॥ 83(क)॥
हे काकभुशुंिड! तू मुझे अ यंत स न जानकर वर माँग। अिणमा आिद अ िसि याँ, दूसरी
ऋि याँ तथा संपण ू सुख क खान मो ,॥ 83(ख)॥
ान, िववेक, वैरा य, िव ान, (त व ान) और वे अनेक गुण जो जगत म मुिनय के िलए भी
दुलभ ह, ये सब म आज तुझे दँूगा, इसम संदेह नह । जो तेरे मन भाए, सो माँग ले।
भि से रिहत सब गुण और सब सुख वैसे ही (फ के) ह जैसे नमक के िबना बहत कार के
भोजन के पदाथ। भजन से रिहत सुख िकस काम के? हे प ीराज! ऐसा िवचार कर म बोला -
आपक िजस अिवरल ( गाढ़) एवं िवशु (अन य िन काम) भि को ुित और पुराण गाते ह,
िजसे योगी र मुिन खोजते ह और भु क कृपा से कोई िवरला ही िजसे पाता है॥ 84(क)॥
'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के वामी परम सुख देनेवाले वचन बोले - हे काक! सुन,
तू वभाव से ही बुि मान है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?
ू े सब सुख क खान भि माँग ली, जगत म तेरे समान बड़भागी कोई नह है। वे मुिन जो
तन
जप और योग क अि न से शरीर जलाते रहते ह, करोड़ य न करके भी िजसको (िजस भि
को) नह पाते।
भि , ान, िव ान, वैरा य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रह य तथा िवभाग - इन सबके भेद
को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का क नह होगा।
हे काक! सुन, मुझे भ िनरं तर ि य ह, ऐसा िवचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरण म
अटल ेम करना॥ 85(ख)॥
अब मेरी स य, सुगम, वेदािद के ारा विणत परम िनमल वाणी सुन। म तुझको यह 'िनज िस ांत'
सुनाता हँ। सुनकर मन म धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।
यह सारा संसार मेरी माया से उ प न है। (इसम) अनेक कार के चराचर जीव ह। वे सभी मुझे
ि य ह; य िक सभी मेरे उ प न िकए हए ह। (िकंतु) मनु य मुझको सबसे अिधक अ छे लगते ह।
िव ािनय से भी ि य मुझे अपना दास है, िजसे मेरी ही गित (आ य) है, कोई दूसरी आशा नह है।
म तुझसे बार-बार स य ('िनज िस ांत') कहता हँ िक मुझे अपने सेवक के समान ि य कोई भी
नह है।
दो० - सिु च सस
ु ील सेवक सम
ु ित ि य कह कािह न लाग।
ुित परु ान कह नीित अिस सावधान सनु ु काग॥ 86॥
पिव , सुशील और सुंदर बुि वाला सेवक, बता, िकसको यारा नह लगता? वेद और पुराण ऐसी
ही नीित कहते ह। हे काक! सावधान होकर सुन॥ 86॥
एक िपता के िबपल
ु कुमारा। होिहं पथ
ृ क गन
ु सील अचारा॥
कोउ पंिडत कोउ तापस याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥
एक िपता के बहत-से पु पथ
ृ क-पथृ क गुण, वभाव और आचरणवाले होते ह। कोई पंिडत होता
है, कोई तप वी, कोई ानी, कोई धनी, कोई शरू वीर, कोई दानी,
कोई सव और कोई धमपरायण होता है। िपता का ेम इन सभी पर समान होता है। परं तु इनम से
यिद कोई मन, वचन और कम से िपता का ही भ होता है, व न म भी दूसरा धम नह जानता,
(उनसे भरा हआ) यह संपण ू िव मेरा ही पैदा िकया हआ है। अतः सब पर मेरी बराबर दया है,
परं तु इनम से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है,
दो० - पु ष नपंस
ु क ना र वा जीव चराचर कोइ।
सब भाव भज कपट तिज मोिह परम ि य सोइ॥ 87(क)॥
वह पु ष हो, नपुंसक हो, ी हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी
सवभाव से मुझे भजता है वही मुझे परम ि य है॥ 87(क)॥
हे प ी! म तुझसे स य कहता हँ, पिव (अन य एवं िन काम) सेवक मुझे ाण के समान यारा
है। ऐसा िवचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज॥ 87(ख)॥
तुझे काल कभी नह यापेगा। िनरं तर मेरा मरण और भजन करते रहना। भे के वचनामत ृ
सुनकर म त ृ नह होता था। मेरा शरीर पुलिकत था और मन म म अ यंत ही हिषत हो रहा था।
मुझे बहत कार से भली-भाँित समझकर और सुख देकर भु िफर वही बालक के खेल करने
लगे। ने म जल भरकर और मुख को कुछ खा (-सा) बनाकर उ ह ने माता क ओर देखा -
(और मुखाकृित तथा िचतवन से माता को समझा िदया िक) बहत भख
ू लगी है।
देिख मातु आतरु उिठ धाई। किह मदृ ु बचन िलए उर लाई॥
गोद रािख कराव पय पाना। रघप ु ित च रत लिलत कर गाना॥
यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ और कोमल वचन कहकर उ ह ने राम को छाती से लगा िलया।
वे गोद म लेकर उ ह दूध िपलाने लग और रघुनाथ (उ ह ) क लिलत लीलाएँ गाने लग ।
सो० - जेिह सख
ु लाग परु ा र असभु बेष कृत िसव सख
ु द।
अवधपरु ी नर ना र तेिह सख
ु महँ संतत मगन॥ 88(क)॥
िजस सुख के िलए (सबको) सुख देनेवाले क याण प ि पुरा र िशव ने अशुभ वेष धारण िकया,
उस सुख म अवधपुरी के नर-नारी िनरं तर िनम न रहते ह॥ 88(क)॥
म और कुछ समय तक अवधपुरी म रहा और मने राम क रसीली बाल लीलाएँ देख । राम क
कृपा से मने भि का वरदान पाया। तदनंतर भु के चरण क वंदना करके म अपने आ म पर
लौट आया।
हे प ीराज ग ड़! अब म आपसे अपना िनजी अनुभव कहता हँ। (वह यह है िक) भगवान के
भजन िबना लेश दूर नह होते। हे प ीराज! सुिनए, राम क कृपा िबना राम क भुता नह
जानी जाती,
गु के िबना कह ान हो सकता है? अथवा वैरा य के िबना कह ान हो सकता है? इसी तरह
वेद और पुराण कहते ह िक ह र क भि के िबना या सुख िमल सकता है?॥ 89(क)॥
हे तात! वाभािवक संतोष के िबना या कोई शांित पा सकता है? (चाहे ) करोड़ उपाय करके
पच-पच मा रए; (िफर भी) या कभी जल के िबना नाव चल सकती है?॥ 89(ख)॥
िनज सख
ु िबनु मन होइ िक थीरा। परस िक होइ िबहीन समीरा॥
कविनउ िसि िक िबनु िब वासा। िबनु ह र भजन न भव भय नासा॥
हे प ीराज! हे नाथ! मने अपनी बुि के अनुसार भु के ताप और मिहमा का गान िकया। मने
इसम कोई बात युि से बढ़ाकर नह कही है। यह सब अपनी आँख देखी कही है।
रघुनाथ क मिहमा, नाम, प और गुण क कथा सभी अपार एवं अनंत ह तथा रघुनाथ वयं भी
अनंत ह। मुिनगण अपनी-अपनी बुि के अनुसार ह र के गुण गाते ह। वेद, शेष और िशव भी
उनका पार नह पाते।
आप से लेकर म छर पयत सभी छोटे-बड़े जीव आकाश म उड़ते ह, िकंतु आकाश का अंत कोई
नह पाता। इसी कार हे तात! रघुनाथ क मिहमा भी अथाह है। या कभी कोई उसक थाह पा
सकता है?
राम का अरब कामदेव के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोिट दुगाओं के समान श ुनाशक ह।
अरब इं के समान उनका िवलास (ऐ य) है। अरब आकाश के समान उनम अनंत अवकाश
( थान) है।
अरब पवन के समान उनम महान बल है और अरब सयू के समान काश है। अरब चं माओं के
समान वे शीतल और संसार के सम त भय का नाश करनेवाले ह॥ 91(क)॥
अरब पाताल के समान भु अथाह ह। अरब यमराज के समान भयानक ह। अनंतकोिट तीथ के
समान वे पिव करनेवाले ह। उनका नाम संपण
ू पापसमहू का नाश करनेवाला है।
रघुवीर करोड़़ िहमालय के समान अचल (ि थर) ह और अरब समु के समान गहरे ह।
भगवान अरब कामधेनुओ ं के समान सब कामनाओं (इि छत पदाथ ) के देनेवाले ह।
सारद कोिट अिमत चतरु ाई। िबिध सत कोिट सिृ िनपनु ाई॥
िब नु कोिट सम पालन कता। कोिट सत सम संहता॥
उनम अनंतकोिट सर वितय के समान चतुराई है। अरब ाओं के समान सिृ रचना क
िनपुणता है। वे करोड़ िव णुओ ं के समान पालन करनेवाले और अरब के समान संहार
करनेवाले ह।
वे अरब कुबेर के समान धनवान और करोड़ मायाओं के समान सिृ के खजाने ह। बोझ उठाने
म वे अरब शेष के समान ह। (अिधक या) जगदी र भु राम (सभी बात म) सीमारिहत और
उपमारिहत ह।
राम उपमारिहत ह, उनक कोई दूसरी उपमा है ही नह । राम के समान राम ही ह, ऐसा वेद कहते
ह। जैसे अरब जुगनुओ ं के समान कहने से सयू ( शंसा को नह वरन) अ यंत लघुता को ही ा
ू क िनंदा ही होती है)। इसी कार अपनी-अपनी बुि के िवकास के अनुसार
होता है (सय
मुनी र ह र का वणन करते ह, िकंतु भु भ के भावमा को हण करनेवाले और अ यंत
कपालु ह। वे उस वणन को ेमसिहत सुनकर सुख मानते ह।
राम अपार गुण के समु ह, या उनक कोई थाह पा सकता है? संत से मने जैसा कुछ सुना
था, वही आपको सुनाया॥ 92(क)॥
भुशुंिड के सुंदर वचन सुनकर प ीराज ने हिषत होकर अपने पंख फुला िलए। उनके ने म
( ेमानंद के आँसुओ ं का) जल आ गया और मन अ यंत हिषत हो गया। उ ह ने ी रघुनाथ का
ताप दय म धारण िकया।
वे अपने िपछले मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे िक मने अनािद को मनु य
करके माना। ग ड़ ने बार-बार काकभुशुंिड के चरण पर िसर नवाया और उ ह राम के ही समान
जानकर ेम बढ़ाया।
गरु िबनु भव िनध तरइ न कोई। ज िबरं िच संकर सम होई॥
संसय सप सेउ मोिह ताता। दखु द लह र कुतक बह ाता॥
तव स प गा िड़ रघन
ु ायक। मोिह िजआयउ जन सखु दायक॥
तव साद मम मोह नसाना। राम रह य अनूपम जाना॥
उनक (भुशंुिड क ) बहत कार से शंसा करके, िसर नवाकर और हाथ जोड़कर िफर ग ड़
ेमपवू क िवन और कोमल वचन बोले - ॥ 93(क)॥
तु ह सब य त य तम पारा। सम
ु ित ससु ील सरल आचारा॥
ु ायक के तु ह ि य दासा॥
यान िबरित िब यान िनवासा। रघन
आपने यह काक शरीर िकस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे किहए। हे वामी! हे
आकाशगामी! यह सुंदर रामच रत मानस आपने कहाँ पाया, सो किहए।
नाथ सन
ु ा म अस िसव पाह । महा लयहँ नास तव नाह ॥
मध
ु ा बचन निहं ई वर कहई। सोउ मोर मन संसय अहई॥
हे नाथ! मने िशव से ऐसा सुना है िक महा लय म भी आपका नाश नह होता और ई र (िशव)
कभी िम या वचन कहते नह । वह भी मेरे मन म संदेह है।
( य िक) हे नाथ! नाग, मनु य, देवता आिद चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत काल का
कलेवा है। असं य ांड का नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अिनवाय है।
(ऐसा वह) अ यंत भयंकर काल आपको नह यापता (आप पर भाव नह िदखलाता), इसका
या कारण है? हे कृपालु मुझे किहए, यह ान का भाव है या योग का बल है?॥ 94(क)॥
हे भो! आपके आ म म आते ही मेरा मोह और म भाग गया। इसका या कारण है? हे नाथ!
यह सब ेम सिहत किहए॥ 94(ख)॥
आपके ेमयु सुंदर सुनकर मुझे अपने बहत ज म क याद आ गई। म अपनी सब कथा
िव तार से कहता हँ। हे तात! आदर सिहत मन लगाकर सुिनए।
मने इसी शरीर से राम क भि ा क है। इसी से इस पर मेरी ममता अिधक है। िजससे अपना
कुछ वाथ होता है, उस पर सभी कोई ेम करते ह।
जीव के िलए स चा वाथ यही है िक मन, वचन और कम से राम के चरण म ेम हो। वही शरीर
पिव और सुंदर है िजस शरीर को पाकर रघुवीर का भजन िकया जाए।
राम िबमख
ु लिह िबिध सम देही। किब कोिबद न संसिहं तेही॥
राम भगित एिहं तन उर जामी। ताते मोिह परम ि य वामी॥
जो राम के िवमुख है वह यिद ा के समान शरीर पा जाए तो भी किव और पंिडत उसक शंसा
नह करते। इसी शरीर से मेरे दय म रामभि उ प न हई। इसी से हे वामी! यह मुझे परम ि य
है।
मेरा मरण अपनी इ छा पर है, परं तु िफर भी म यह शरीर नह छोड़ता; य िक वेद ने वणन िकया
है िक शरीर के िबना भजन नह होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुदशा क । राम के िवमुख होकर म
कभी सुख से नह सोया।
अनेक ज म म मने अनेक कार के योग, जप, तप, य और दान आिद कम िकए। हे ग ड़!
जगत म ऐसी कौन योिन है, िजसम मने (बार-बार) घम
ू -िफरकर ज म न िलया हो।
हे गुसाई ं! मने सब कम करके देख िलए, पर अब (इस ज म) क तरह म कभी सुखी नह हआ।
हे नाथ! मुझे बहत-से ज म क याद है। ( य िक) िशव क कृपा से मेरी बुि को मोह ने नह
घेरा।
म धन के मद से मतवाला, बहत ही बकवादी और उ बुि वाला था; मेरे दय म बड़ा भारी दंभ
था। य िप म रघुनाथ क राजधानी म रहता था, तथािप मने उस समय उसक मिहमा कुछ भी
नह जानी।
अब जाना म अवध भावा। िनगमागम परु ान अस गावा॥
कवनेहँ ज म अवध बस जोई। राम परायन सो प र होई॥
अवध का भाव जीव तभी जानता है, जब हाथ म धनुष धारण करनेवाले राम उसके दय म
िनवास करते ह। हे ग ड़! वह किलकाल बड़ा किठन था। उसम सभी नर-नारी पापपरायण (पाप
म िल ) थे।
किलयुग म न वणधम रहता है, न चार आ म रहते ह। सब पु ष- ी वेद के िवरोध म लगे रहते
ह। ा ण वेद के बेचनेवाले और राजा जा को खा डालनेवाले होते ह। वेद क आ ा कोई नह
मानता।
िजसको जो अ छा लग जाए, वही माग है। जो ड ग मारता है, वही पंिडत है। जो िम या आरं भ
करता (आडं बर रचता) है और जो दंभ म रत है, उसी को सब कोई संत कहते ह।
जो (िजस िकसी कार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुि मान है। जो दंभ करता है, वही
बड़ा आचारी है। जो झठ
ू बोलता है और हँसी-िद लगी करना जानता है, किलयुग म वही गुणवान
कहा जाता है।
जो आचारहीन है और वेदमाग को छोड़े हए है, किलयुग म वही ानी और वही वैरा यवान है।
िजसके बड़े -बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ ह, वही किलयुग म िस तप वी है।
जो गु िश य का धन हरण करता है, पर शोक नह हरण करता, वह घोर नरक म पड़ता है।
माता-िपता बालक को बुलाकर वही धम िसखलाते ह, िजससे पेट भरे ।
ी-पु ष ान के िसवा दूसरी बात नह करते, पर वे लोभवश कौिड़य (बहत थोड़े लाभ) के
िलए ा ण और गु क ह या कर डालते ह॥ 99(क)॥
तेली, कु हार, चांडाल, भील, कोल और कलवार आिद जो वण म नीचे ह, ी के मरने पर अथवा
घर क संपि न हो जाने पर िसर मँुड़ाकर सं यासी हो जाते ह।
ते िब ह सन आपु पज
ु ाविहं। उभय लोक िनज हाथ नसाविहं॥
िब िनर छर लोलप
ु कामी। िनराचार सठ बष ृ ली वामी॥
शू नाना कार के जप, तप और त करते ह तथा ऊँचे आसन ( यास ग ी) पर बैठकर पुराण
कहते ह। सब मनु य मनमाना आचरण करते ह। अपार अनीित का वणन नह िकया जा सकता।
िु त संमत ह र भि पथ संजत
ु िबरित िबबेक।
तेिहं न चलिहं नर मोह बस क पिहं पंथ अनेक॥ 100(ख)॥
सं यासी बहत धन लगाकर घर सजाते ह। उनम वैरा य नह रहा, उसे िवषय ने हर िलया।
तप वी धनवान हो गए और गहृ थ द र । हे तात! किलयुग क लीला कुछ कही नह जाती।
जब से ससुराल यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी श ु प हो गए। राजा लोग पापपरायण हो गए,
उनम धम नह रहा। वे जा को िन य ही (िबना अपराध) दंड देकर उसक िवडं बना (दुदशा)
िकया करते ह।
धनी लोग मिलन (नीच जाित के) होने पर भी कुलीन माने जाते ह। ि ज का िच जनेऊ मा रह
गया और नंगे बदन रहना तप वी का। जो वेद और पुराण को नह मानते, किलयुग म वे ही
ह रभ और स चे संत कहलाते ह।
किवय के तो झुंड हो गए, पर दुिनया म उदार (किवय का आ यदाता) सुनाई नह पड़ता। गुण
म दोष लगानेवाले बहत ह, पर गुणी कोई भी नह । किलयुग म बार-बार अकाल पड़ते ह। अ न के
िबना सब लोग दुःखी होकर मरते ह।
दो० - सन
ु ु खगेस किल कपट हठ दंभ ष े पाषंड।
मान मोह मारािद मद यािप रहे ंड॥ 101(क)॥
हे प ीराज ग ड़! सुिनए किलयुग म कपट, हठ (दुरा ह), दंभ, ेष, पाखंड, मान, मोह और
काम आिद (अथात काम, ोध और लोभ) और मद ांडभर म या हो गए (छा गए)॥
101(क)॥
मनु य जप, तप, य , त और दान आिद धम तामसी भाव से करने लगे। देवता (इं ) प ृ वी पर
जल नह बरसाते और बोया हआ अ न उगता नह ॥ 101(ख)॥
मनु य रोग से पीिड़त ह, भोग (सुख) कह नह है। िबना ही कारण अिभमान और िवरोध करते
ह। दस-पाँच वष का थोड़ा-सा जीवन है, परं तु घमंड ऐसा है मानो क पांत ( लय) होने पर भी
उनका नाश नह होगा।
इ रषा प षा छर लोलप
ु ता। भ र पू र रही समता िबगता॥
सब लोग िबयोग िबसोक हए। बरना म धम अचार गए॥
ई या (डाह), कड़वे वचन और लालच भरपरू हो रहे ह, समता चली गई। सब लोग िवयोग और
िवशेष शोक से मरे पड़े ह। वणा म धम के आचरण न हो गए।
दो० - सन
ु ु याला र काल किल मल अवगन
ु आगार।
गनु उ बहत किलजुग कर िबनु यास िन तार॥ 102(क)॥
स ययुग, ेता और ापर म जो गित पज ू ा, य और योग से ा होती है, वही गित किलयुग म
लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते ह॥ 102(ख)॥
ापर क र रघप
ु ित पद पूजा। नर भव तरिहं उपाय न दूजा॥
किलजुग केवल ह र गनु गाहा। गावत नर पाविहं भव थाहा॥
वही भवसागर से तर जाता है, इसम कुछ भी संदेह नह । नाम का ताप किलयुग म य है।
किलयुग का एक पिव ताप (मिहमा) है िक मानिसक पु य तो होते ह, पर (मानिसक) पाप
नह होते।
यिद मनु य िव ास करे , तो किलयुग के समान दूसरा युग नह है। ( य िक) इस युग म राम के
िनमल गुणसमहू को गा-गाकर मनु य िबना ही प र म संसार ( पी समु ) से तर जाता है॥
103(क)॥
गट चा र पद धम के किल महँ एक धान।
जेन केन िबिध दी ह दान करइ क यान॥ 103(ख)॥
स वगुण अिधक हो, कुछ रजोगुण हो, कम म ीित हो, सब कार से सुख हो, यह ेता का धम
है। रजोगुण बहत हो, स वगुण बहत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन म हष और भय हो, यह
ापर का धम है।
तमोगुण बहत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चार ओर वैर-िवरोध हो, यह किलयुग का भाव है। पंिडत
लोग युग के धम को मन म जान (पहचान) कर, अधम छोड़कर धम म ीित करते ह।
िजसका रघुनाथ के चरण म अ यंत ेम है, उसको कालधम (युगधम) नह यापते। हे प ीराज!
नट (बाजीगर) का िकया हआ कपट च र (इं जाल) देखने वाल के िलए बड़ा िवकट (दुगम)
होता है, पर नट के सेवक (जँभरू े ) को उसक माया नह यापती।
ह र क माया के ारा रचे हए दोष और गुण ह र के भजन िबना नह जाते। मन म ऐसा िवचार
कर, सब कामनाओं को छोड़कर (िन काम भाव से) राम का भजन करना चािहए॥ 104(क)॥
तेिहं किलकाल बरष बह बसेउँ अवध िबहगेस।
परे उ दक
ु ाल िबपित बस तब म गयउँ िबदेस॥ 104(ख)॥
गयउँ उजेनी सन
ु ु उरगारी। दीन मलीन द र दख ु ारी॥
गएँ काल कछु संपित पाई। तहँ पिु न करउँ संभु सेवकाई॥
एक ा ण वेदिविध से सदा िशव क पज ू ा करते, उ ह दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और
परमाथ के ाता थे, वे शंभु के उपासक थे, पर ह र क िनंदा करनेवाले न थे।
म कपटपवू क उनक सेवा करता। ा ण बड़े ही दयालु और नीित के घर थे। हे वामी! बाहर से
न देखकर ा ण मुझे पु क भाँित मानकर पढ़ाते थे।
हे तात! िशव और ा भी राम को भजते ह (िफर) नीच मनु य क तो बात ही िकतनी है? ा
और िशव िजनके चरण के ेमी ह, अरे अभागे! उनसे ोह करके तू सुख चाहता है?
नीच मनु य िजससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे
भाई! सुिनए, आग से उ प न हआ धुआँ मेघ क पदवी पाकर उसी अि न को बुझा देता है।
धल
ू रा ते म िनरादर से पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलने वाल ) क लात क मार सहती
है। पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और
िफर राजाओं के ने और िकरीट (मुकुट ) पर पड़ती है।
सन
ु ु खगपित अस समिु झ संगा। बध
ु निहं करिहं अधम कर संगा॥
किब कोिबद गाविहं अिस नीित। खल सन कलह न भल निहं ीित॥
हे प ीराज ग ड़! सुिनए, ऐसी बात समझकर बुि मान लोग अधम (नीच) का संग नह करते।
किव और पंिडत ऐसी नीित कहते ह िक दु से न कलह ही अ छा है, न ेम ही।
हे गोसाई ं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चािहए। दु को कु े क तरह दूर से ही याग देना
चािहए। म दु था, दय म कपट और कुिटलता भरी थी। (इसिलए य िप) गु िहत क बात
कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी।
एक िदन म िशव के मंिदर म िशवनाम जप रहा था। उसी समय गु वहाँ आए, पर अिभमान के
मारे मने उठकर उनको णाम नह िकया॥ 106(क)॥
गु दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उ ह ने कुछ नह कहा; उनके दय म लेशमा भी ोध
नह हआ। पर गु का अपमान बहत बड़ा पाप है; अतः महादेव उसे नह सह सके॥ 106(ख)॥
ू ! अिभमानी! य िप तेरे गु को
मंिदर म आकाशवाणी हई िक अरे हतभा य! मख ोध नह है, वे
अ यंत कृपालु िच के ह और उ ह (पण
ू तथा) यथाथ ान है,
जो मख
ू गु से ई या करते ह, वे करोड़ युग तक रौरव नरक म पड़े रहते ह। िफर (वहाँ से
िनकलकर) वे ितयक (पशु, प ी आिद) योिनय म शरीर धारण करते ह और दस हजार ज म
तक दुःख पाते रहते ह।
अरे पापी! तू गु के सामने अजगर क भाँित बैठा रहा। रे दु ! तेरी बुि पाप से ढँ क गई है,
(अतः) तू सप हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस अधोगित (सप क नीची योिन) को पाकर
िकसी बड़े भारी पेड़ के खोखले म जाकर रह।
िशव का भयानक शाप सुनकर गु ने हाहाकार िकया। मुझे काँपता हआ देखकर उनके दय म
बड़ा संताप उ प न हआ॥ 107(क)॥
े ि ज िसव स मख
क र दंडवत स म ु कर जो र।
िबनय करत गदगद वर समिु झ घोर गित मो र॥ 107(ख)॥
ेम सिहत दंडवत करके वे ा ण िशव के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गित (दंड) का
िवचार कर गदगद वाणी से िवनती करने लगे - ॥ 107(ख)॥
िनराकार, ओंकार के मल
ू , तुरीय (तीन गुण से अतीत), वाणी, ान और इंि य से परे ,
कैलासपित, िवकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुण के धाम, संसार से परे आप परमे र
को म नम कार करता हँ।
तष
ु ाराि संकाश गौरं गभीरं । मनोभूत कोिट भा ीशरीरं ॥
फुर मौिल क लोिलनी चा गंगा। लस ालबाले दु कंठे भज ु ंगा॥
जो िहमाचल के समान गौरवण तथा गंभीर ह, िजनके शरीर म करोड़ कामदेव क योित एवं
शोभा है, िजनके िसर पर सुंदर नदी गंगा िवराजमान ह, िजनके ललाट पर ि तीया का चं मा
और गले म सप सुशोिभत है।
िजनके कान म कंु डल िहल रहे ह, संुदर ुकुटी और िवशाल ने ह; जो स नमुख, नीलकंठ
और दयालु ह; िसंह चम का व धारण िकए और मुंडमाला पहने ह; उन सबके यारे और सबके
नाथ (क याण करनेवाले) शंकर को म भजता हँ।
चंड ( प), े , तेज वी, परमे र, अखंड, अज मे, करोड़ सय ू के समान काशवाले,
तीन कार के शल ू (दुःख ) को िनमल ू धारण िकए, भाव ( ेम) के
ू करनेवाले, हाथ म ि शल
ारा ा होनेवाले भवानी के पित शंकर को म भजता हँ।
न जानािम योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सवदा शंभु तु यं॥
जरा ज म दःु खो तात यमानं॥ भो पािह आप नमामीश शंभो॥
म न तो योग जानता हँ, न जप और न पज ू ा ही। हे शंभो! म तो सदा-सवदा आपको ही नम कार
करता हँ। हे भो! बुढ़ापा तथा ज म (म ृ यु) के दुःखसमहू से जलते हए मुझ दुःखी क दुःख से
र ा क िजए। हे ई र! हे शंभो! म आपको नम कार करता हँ।
ोक - ा किमदं ो ं िव ण े हरतोषये।
ये पठि त नरा भ या तेषां श भःु सीदित॥
हे कृपािनधान! अब वही क िजए, िजससे इसका परम क याण हो। दूसरे के िहत से सनी हई
ा ण क वाणी सुनकर िफर आकाशवाणी हई - 'एवम तु' (ऐसा ही हो)।
य िप इसने भयानक पाप िकया है और मने भी इसे ोध करके शाप िदया है, तो भी तु हारी
साधुता देखकर म इस पर िवशेष कृपा क ँ गा।
हे ि ज! जो माशील एवं परोपकारी होते ह, वे मुझे वैसे ही ि य ह जैसे खरा र राम। हे ि ज! मेरा
शाप यथ नह जाएगा। यह हजार ज म अव य पाएगा।
जनमत मरत दस ु ह दख
ु होई। एिह व पउ निहं यािपिह सोई॥
कवनेउँ ज म िमिटिह निहं याना। सन
ु िह सू मम बचन वाना॥
परं तु ज मने और मरने म जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न यापेगा और
िकसी भी ज म म इसका ान नह िमटेगा। हे शू ! मेरा ामािणक (स य) वचन सुन।
( थम तो) तेरा ज म रघुनाथ क पुरी म हआ। िफर तनू े मेरी सेवा म मन लगाया। पुरी के भाव
और मेरी कृपा से तेरे दय म रामभि उ प न होगी।
सन
ु ु मम बचन स य अब भाई। ह रतोषन त ि ज सेवकाई॥
अब जिन करिह िब अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥
इं के व , मेरे िवशाल ि शल
ू , काल के दंड और ह र के िवकराल च के मारे भी जो नह
मरता, वह भी िव ोह पी अि न से भ म हो जाता है।
ऐसा िववेक मन म रखना। िफर तु हारे िलए जगत म कुछ भी दुलभ न होगा। मेरा एक और भी
आशीवाद है िक तु हारी सव अबाध गित होगी (अथात तुम जहाँ जाना चाहोगे, वह िबना रोक-
टोक के जा सकोगे)।
(आकाशवाणी के ारा) िशव के वचन सुनकर गु हिषत होकर 'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे
बहत समझाकर और िशव के चरण को दय म रखकर अपने घर गए॥ 109(क)॥
काल क ेरणा से म िवं याचल म जाकर सप हआ। िफर कुछ काल बीतने पर िबना ही प र म
(क ) के मने वह शरीर याग िदया॥ 109(ख)॥
हे ह रवाहन! म जो भी शरीर धारण करता, उसे िबना ही प र म वैसे ही सुखपवू क याग देता था,
जैसे मनु य पुराना व याग देता है और नया पिहन लेता है॥ 109(ग)॥
ितयक योिन (पशु-प ी), देवता या मनु य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस
शरीर म) म राम का भजन जारी रखता। (इस कार म सुखी हो गया) परं तु एक शल ू मुझे बना
रहा। गु का कोमल, सुशील वभाव मुझे कभी नह भल ू ता (अथात मने ऐसे कोमल वभाव
दयालु गु का अपमान िकया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)।
मने अंितम शरीर ा ण का पाया, िजसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुलभ बताते ह। म वहाँ
( ा ण शरीर म) भी बालक म िमलकर खेलता तो रघुनाथ क ही सब लीलाएँ िकया करता।
सयाना होने पर िपता मुझे पढ़ाने लगे। म समझता, सुनता और िवचारता, पर मुझे पढ़ना अ छा
नह लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गई ं। केवल राम के चरण म लव लग गई।
हे ग ड़! किहए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी क सेवा करे गा? ेम म
म न रहने के कारण मुझे कुछ भी नह सुहाता। िपता पढ़ा-पढ़ाकर हार गए।
सुमे पवत के िशखर पर बड़ क छाया म लोमश मुिन बैठे थे। उ ह देखकर मने उनके चरण म
िसर नवाया और अ यंत दीन वचन कहे ॥ 110(ख)॥
हे प ीराज! मेरे अ यंत न और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुिन मुझसे आदर के साथ पछ
ू ने
लगे - हे ा ण! आप िकस काय से यहाँ आए ह?॥ 110(ग)॥
तब म कहा कृपािनिध तु ह सब य सज
ु ान।
सगनु अवराधन मोिह कहह भगवान॥ 110(घ)॥
तब मन
ु ीस रघप
ु ित गन ु गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
यान रत मिु न िब यानी। मोिह परम अिधकारी जानी॥
वह मन और इंि य से परे , िनमल, िवनाशरिहत, िनिवकार, सीमारिहत और सुख क रािश है। वेद
ऐसा गाते ह िक वही तू है, (त वमिस), जल और जल क लहर क भाँित उसम और तुझम कोई
भेद नह है।
मुिन ने मुझे अनेक कार से समझाया, पर िनगुण मत मेरे दय म नह बैठा। मने िफर मुिन के
चरण म िसर नवाकर कहा - हे मुनी र! मुझे सगुण क उपासना किहए।
मेरा मन रामभि पी जल म मछली हो रहा है (उसी म रम रहा है)। हे चतुर मुनी र! ऐसी दशा
म वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) किहए िजससे म
रघुनाथ को अपनी आँख से देख सकँ ू ।
तब म िनगन
ु मत कर दूरी। सगनु िन पउँ क र हठ भूरी॥
उ र ितउ र म क हा। मिु न तन भए ोध के ची हा॥
हे भो! सुिनए, बहत अपमान करने पर ानी के भी दय म ोध उ प न हो जाता है। यिद कोई
चंदन क लकड़ी को बहत अिधक रग़ड़े , तो उससे भी अि न कट हो जाएगी।
ोध िक तै बिु िबनु त
ै िक िबनु अ यान।
मायाबस प रिछ न जड़ जीव िक ईस समान॥ 111(ख)॥
सबका िहत चाहने से या कभी दुःख हो सकता है? िजसके पास पारसमिण है, उसके पास या
द र ता रह सकती है? दूसरे से ोह करनेवाले या िनभय हो सकते ह और कामी या
कलंकरिहत (बेदाग) रह सकते ह?
हे भाई! जगत म या इसके समान दूसरी भी कोई हािन है िक मनु य का शरीर पाकर भी राम
का भजन न िकया जाए? चुगलखोरी के समान या कोई दूसरा पाप है? और हे ग ड़! दया के
समान या कोई दूसरा धम है?
तब म तुरंत ही कौवा हो गया। िफर मुिन के चरण म िसर नवाकर और रघुकुल िशरोमिण राम का
मरण करके म हिषत होकर उड़ चला॥ 112(क)॥
(काकभुशुंिड ने कहा -) हे प ीराज ग ड़! सुिनए, इसम ऋिष का कुछ भी दोष नह था। रघुवंश
क#2375; िवभषू ण राम ही सबके दय म ेरणा करनेवाले ह। कृपा-सागर भु ने मुिन क बुि
को भोली करके (भुलावा देकर) मेरे ेम क परी ा ली।
मन, वचन और कम से जब भु ने मुझे अपना दास जान िलया, तब भगवान ने मुिन क बुि
िफर पलट दी। ऋिष ने मेरा महान पु ष का-सा वभाव (धैय, अ ोध, िवनय आिद) और राम के
चरण म िवशेष िव ास देखा,
तब मुिन ने बहत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपवू क बुला िलया। उ ह ने अनेक
कार से मेरा संतोष िकया और तब हिषत होकर मुझे राममं िदया।
कृपािनधान मुिन ने मुझे बालक प राम का यान ( यान क िविध) बतलाया। सुंदर और सुख
देनेवाला यह यान मुझे बहत ही अ छा लगा। वह यान म आपको पहले ही सुना चुका हँ।
मुिन ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उ ह ने रामच रतमानस सुनाया।
आदरपवू क मुझे यह कथा सुनाकर िफर मुिन मुझसे सुंदर वाणी बोले -
हे तात! यह सुंदर और गु रामच रतमानस मने िशव क कृपा से पाया था। तु ह राम का 'िनज
भ ' जाना, इसी से मने तुमसे सब च र िव तार के साथ कहा।
हे तात! िजनके दय म राम क भि नह है, उनके सामने इसे कभी भी नह कहना चािहए।
मुिन ने मुझे बहत कार से समझाया। तब मने ेम के साथ मुिन के चरण म िसर नवाया।
मुनी र ने अपने करकमल से मेरा िसर पश करके हिषत होकर आशीवाद िदया िक अब मेरी
कृपा से तेरे दय म सदा गाढ़ राम भि बसेगी।
तुम सदा राम को ि य होओ और क याण प गुण के धाम, मानरिहत, इ छानुसार प धारण
करने म समथ, इ छा म ृ यु (िजसक शरीर छोड़ने क इ छा करने पर ही म ृ यु हो, िबना इ छा के
म ृ यु न हो), एवं ान और वैरा य के भंडार होओ॥ 113(क)॥
काल कम गन ु दोष सभ
ु ाऊ। कछु दख
ु तु हिह न यािपिह काऊ॥
राम रह य लिलत िबिध नाना। गु गट इितहास परु ाना॥
काल, कम, गुण, दोष और वभाव से उ प न कुछ भी दुःख तुमको कभी नह यापेगा। अनेक
कार के सुंदर राम के रह य (गु मम के च र और गुण), जो इितहास और पुराण म गु और
कट ह (विणत और लि त ह)।
तुम उन सबको भी िबना ही प र म जान जाओगे। राम के चरण म तु हारा िन य नया ेम हो।
अपने मन म तुम जो कुछ इ छा करोगे, ह र क कृपा से उसक पिू त कुछ भी दुलभ नह होगी।
सिु न मिु न आिसष सन
ु ु मितधीरा। िगरा भइ गगन गँभीरा॥
एवम तु तव बच मिु न यानी। यह मम भगत कम मन बानी॥
आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हष हआ। म ेम म म न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा।
तदनंतर मुिन क िवनती करके, आ ा पाकर और उनके चरणकमल म बार-बार िसर नवाकर -
म यहाँ सदा रघुनाथ के गुण का गान िकया करता हँ और चतुर प ी उसे आदरपवू क सुनते ह।
अयो यापुरी म जब-जब रघुवीर भ के (िहत के) िलए मनु य शरीर धारण करते ह,
तब-तब म जाकर राम क नगरी म रहता हँ और भु क िशशुलीला देखकर सुख ा करता हँ।
िफर हे प ीराज! राम के िशशु प को दय म रखकर म अपने आ म म आ जाता हँ।
िजस कारण से मने कौवे क देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात! मने आपके सब
के उ र कहे । अहा! रामभि क बड़ी भारी मिहमा है।
म हठ करके भि प पर अड़ा रहा, िजससे महिष लोमश ने मुझे शाप िदया; परं तु उसका फल
यह हआ िक जो मुिनय को भी दुलभ है, वह वरदान मने पाया। भजन का ताप तो देिखए!॥
114(ख)॥
(िशव कहते ह -) हे भवानी! भुशुंिड के वचन सुनकर ग ड़ हिषत होकर कोमल वाणी से बोले -
हे भो! आपके साद से मेरे दय म अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नह रह गया।
ु उे ँ पन
सन ु ीत राम गन
ु ामा। तु हरी कृपाँ लहेउँ िब ामा॥
एक बात भु पूँछउँ तोही। कहह बझ ु ाइ कृपािनिध मोही॥
मने आपक कृपा से राम के पिव गुणसमहू को सुना और शांित ा क । हे भो! अब म आपसे
ू ता हँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर किहए।
एक बात और पछ
संत, मुिन, वेद और पुराण यह कहते ह िक ान के समान दुलभ कुछ भी नह है। हे गोसाई ं! वही
ान मुिन ने आपसे कहा, परं तु आपने भि के समान उसका आदर नह िकया।
वे ान के भंडार मुिन भी मग
ृ नयनी (युवती ी) के चं मुख को देखकर िववश (उसके अधीन)
हो जाते ह। हे ग ड़! सा ात भगवान िव णु क माया ही ी प से कट है॥ 115(ख)॥
यहाँ म कुछ प पात नह रखता। वेद, पुराण और संत का मत (िस ांत) ही कहता हँ। हे ग ड़!
यह अनुपम (िवल ण) रीित है िक एक ी के प पर दूसरी ी मोिहत नह होती।
माया भगित सन ु ह तु ह दोऊ। ना र बग जानइ सब कोऊ॥
पिु न रघब
ु ीरिह भगित िपआरी। माया खलु नतक िबचारी॥
रघुनाथ भि के िवशेष अनुकूल रहते ह। इसी से माया उससे अ यंत डरती रहती है। िजसके दय
म उपमारिहत और उपािधरिहत (िवशु ) रामभि सदा िबना िकसी बाधा (रोक-टोक) के बसती
है;
उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी भुता कुछ भी नह कर (चला) सकती।
ऐसा िवचार कर ही जो िव ानी मुिन ह, वे भी सब सुख क खािन भि क ही याचना करते ह।
हे तात! यह अकथनीय कहानी (वाता) सुिनए। यह समझते ही बनती है, कही नह जा सकती।
जीव ई र का अंश है। (अतएव) वह अिवनाशी, चेतन, िनमल और वभाव से ही सुख क रािश है।
जीव के दय म अ ान पी अंधकार िवशेष प से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नह पड़ती, छूटे
तो कैसे? जब कभी ई र ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपि थत कर देते ह तब भी
कदािचत ही वह ( ंिथ) छूट पाती है।
तेइ तन
ृ ह रत चरै जब गाई। भाव ब छ िससु पाइ पे हाई॥
नोइ िनबिृ पा िब वासा। िनमल मन अहीर िनज दासा॥
इस कार तेज क रािश िव ानमय दीपक को जलावे, िजसके समीप जाते ही मद आिद सब
पतंगे जल जाएँ ॥ 117(घ)॥
'सोऽहमि म' (वह म हँ) - यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटनेवाली) विृ है, वही (उस
ानदीपक क ) परम चंड दीपिशखा (लौ) है। (इस कार) जब आ मानुभव के सुख का सुंदर
काश फै लता है, तब संसार के मल
ू भेद पी म का नाश हो जाता है,
और महान बलवती अिव ा के प रवार मोह आिद का अपार अंधकार िमट जाता है। तब वही
(िव ान िपणी) बुि (आ मानुभव प) काश को पाकर दय पी घर म बैठकर उस जड़-चेतन
क गाँठ को खोलती है।
यिद वह (िव ान िपणी बुि ) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृताथ हो। परं तु हे
प ीराज ग ड़! गाँठ खोलते हए जानकर माया िफर अनेक िव न करती है।
यिद बुि बहत ही सयानी हई, तो वह उन (ऋि -िसि य ) को अिहतकर (हािनकर) समझकर
उनक ओर ताकती नह । इस कार यिद माया के िव न से बुि को बाधा न हई, तो िफर देवता
उपािध (िव न) करते ह।
इंि य के ार दय पी घर के अनेक झरोखे ह। वहाँ-वहाँ ( येक झरोखे पर) देवता थाना िकए
(अड्डा जमाकर) बैठे ह। य ही वे िवषय पी हवा को आते देखते ह, य ही हठपवू क िकवाड़
खोल देते ह।
(इस कार ान दीपक के बुझ जाने पर) तब िफर जीव अनेक कार से संसिृ त (ज म-मरणािद)
के लेश पाता है। हे प ीराज! ह र क माया अ यंत दु तर है, वह सहज ही म तरी नह जा
सकती॥ 118(क)॥
ान कहने (समझाने) म किठन, समझने म किठन और साधने म भी किठन है। यिद घुणा र
याय से (संयोगवश) कदािचत यह ान हो भी जाए, तो िफर (उसे बचाए रखने म) अनेक िव न
ह॥ 118(ख)॥
ान का माग कृपाण (दुधारी तलवार) क धार के समान है। हे प ीराज! इस माग से िगरते देर
नह लगती। जो इस माग को िनिव न िनबाह ले जाता है, वही कैव य (मो ) प परमपद को
ा करता है।
संत, पुराण, वेद और (तं आिद) शा (सब) यह कहते ह िक कैव य प परमपद अ यंत दुलभ
है; िकंतु हे गोसाई ं! वही (अ यंत दुलभ) मुि राम को भजने से िबना इ छा िकए भी जबरद ती
आ जाती है।
िजिम थल िबनु जल रिह न सकाई। कोिट भाँित कोउ करै उपाई॥
तथा मो छ सख
ु सन ु ु खगराई। रिह न सकइ ह र भगित िबहाई॥
जैसे थल के िबना जल नह रह सकता, चाहे कोई करोड़ कार के उपाय य न करे । वैसे ही,
हे प ीराज! सुिनए, मो सुख भी ह र क भि को छोड़कर नह रह सकता।
ऐसा िवचार कर बुि मान ह र भ भि पर लुभाए रहकर मुि का ितर कार कर देते ह। भि
करने से संसिृ त (ज म-म ृ यु प संसार) क जड़ अिव ा िबना ही यं और प र म के (अपने
आप) वैसे ही न हो जाती है,
जैसे भोजन िकया तो जाता है तिृ के िलए और उस भोजन को जठराि न अपने-आप (िबना
हमारी चे ा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देनेवाली ह र भि िजसे न सुहावे,
ऐसा मढ़ू कौन होगा?
वह िदन-रात (अपने-आप ही) परम काश प रहता है। उसको दीपक, घी और ब ी कुछ भी नह
चािहए। (इस कार मिण का एक तो वाभािवक काश रहता है) िफर मोह पी द र ता समीप
नह आती ( य िक मिण वयं धन प है); और (तीसरे ) लोभ पी हवा उस मिणमय दीप को बुझा
नह सकती ( य िक मिण वयं काश प है, वह िकसी दूसरे क सहायता से काश नह
करती)।
(उसके काश से) अिव ा का बल अंधकार िमट जाता है। मदािद पतंग का सारा समहू हार
जाता है। िजसके दय म भि बसती है, काम, ोध और लोभ आिद दु तो उसके पास भी नह
जाते।
उसके िलए िवष अमत ृ के समान और श ु िम हो जाता है। उस मिण के िबना कोई सुख नह
पाता। बड़े -बड़े मानस-रोग, िजनके वश होकर सब जीव दुःखी हो रहे ह, उसको नह यापते।
रामभि पी मिण िजसके दय म बसती है, उसे व न म भी लेशमा दुःख नह होता। जगत म
वे ही मनु य चतुर के िशरोमिण ह जो उस भि पी मिण के िलए भली-भाँित य न करते ह।
वेद-पुराण पिव पवत ह। राम क नाना कार क कथाएँ उन पवत म सुंदर खान ह। संत पु ष
(उनक इन खान के रह य को जाननेवाले) मम ह और संुदर बुि (खोदनेवाली) कुदाल है। हे
ग ड़! ान और वैरा य ये दो उनके ने ह।
जो ाणी उसे ेम के साथ खोजता है, वह सब सुख क खान इस भि पी मिण को पा जाता है।
हे भो! मेरे मन म तो ऐसा िव ास है िक राम के दास राम से भी बढ़कर ह।
ऐसा िवचार कर जो भी संत का संग करता है, हे ग ड़! उसके िलए राम क भि सुलभ हो
जाती है।
प ीराज ग ड़ िफर ेम सिहत बोले - हे कृपालु! यिद मुझ पर आपका ेम है, तो हे नाथ! मुझे
अपना सेवक जानकर मेरे सात के उ र बखान कर किहए।
हे नाथ! हे धीर-बुि ! पहले तो यह बताइए िक सबसे दुलभ कौन-सा शरीर है? िफर सबसे बड़ा
दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी िवचार कर सं ेप म ही किहए?
संत और असंत का मम (भेद) आप जानते ह, उनके सहज वभाव का वणन क िजए। िफर किहए
िक ुितय म िस सबसे महान पु य कौन-सा है और सबसे महान भयंकर पाप कौन है?
मनु य-शरीर के समान कोई शरीर नह है। चर-अचर सभी जीव उसक याचना करते ह। वह
मनु य-शरीर नरक, वग और मो क सीढ़ी है तथा क याणकारी ान, वैरा य और भि को
देनेवाला है।
निहं द र सम दख
ु जग माह । संत िमलन सम सख ु जग नाह ॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सभ ु ाउ खगराया॥
जगत म द र ता के समान दुःख नह है तथा संत के िमलने के समान जगत म सुख नह है।
और हे प ीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संत का सहज वभाव है।
संत सहिहं दख
ु पर िहत लागी। पर दख
ु हेतु असंत अभागी॥
भूज त सम संत कृपाला। पर िहत िनित सह िबपित िबसाला॥
संत दूसर क भलाई के िलए दुःख सहते ह और अभागे असंत दूसर को दुःख पहँचाने के िलए।
कृपालु संत भोज के व ृ के समान दूसर के िहत के िलए भारी िवपि सहते ह (अपनी खाल तक
उधड़वा लेते ह)।
वे पराई संपि का नाश करके वयं न हो जाते ह, जैसे खेती का नाश करके ओले न हो
जाते ह। दु का अ युदय (उ नित) िस अधम ह केतु के उदय क भाँित जगत के दुःख के
िलए ही होता है।
जो अिभमानी जीव देवताओं और वेद क िनंदा करते ह, वे रौरव नरक म पड़ते ह। संत क िनंदा
म लगे हए लोग उ लू होते ह, िज ह मोह पी राि ि य होती है और ान पी सय ू िजनके िलए
बीत गया (अ त हो गया) रहता है।
सब कै िनंदा जे जड़ करह । ते चमगादरु होइ अवतरह ॥
सन
ु ह तात अब मानस रोगा। िज ह ते दख ु पाविहं सब लोगा॥
ममता दाद है, ई या (डाह) खुजली है, हष-िवषाद गले के रोग क अिधकता है (गलगंड,
कंठमाला या घेघा आिद रोग ह), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही यी है। दु ता
और मन क कुिटलता ही कोढ़ है।
अहंकार अ यंत दुःख देनेवाला डम (गाँठ का) रोग है। दंभ, कपट, मद और मान नह आ (नस
का) रोग है। त ृ णा बड़ा भारी उदर विृ (जलोदर) रोग है। तीन कार (पु , धन और मान) क
बल इ छाएँ बल ितजारी ह।
िनयम, धम, आचार (उ म आचरण), तप, ान, य , जप, दान तथा और भी करोड़ औषिधयाँ ह,
परं तु हे ग ड़! उनसे ये रोग नह जाते॥ 121(ख)॥
इस कार जगत म सम त जीव रोगी ह, जो शोक, हष, भय, ीित और िवयोग के दुःख से और
भी दुःखी हो रहे ह। मने ये थोड़े़ -से मानस-रोग कहे ह। ये ह तो सबको, परं तु इ ह जान पाए ह
कोई िवरले ही।
ािणय को जलानेवाले ये पापी (रोग) जान िलए जाने से कुछ ीण अव य हो जाते ह, परं तु नाश
को नह ा होते। िवषय प कुप य पाकर ये मुिनय के दय म भी अंकु रत हो उठते ह, तब
बेचारे साधारण मनु य तो या चीज ह।
रघप
ु ित भगित सजीवन मूरी। अनूपान ा मित पूरी॥
एिह िबिध भलेिहं सो रोग नसाह । नािहं त जतन कोिट निहं जाह ॥
रघुनाथ क भि संजीवनी जड़ी है। ा से पण ू बुि ही अनुपान (दवा के साथ िलया जानेवाला
मधु आिद) है। इस कार का संयोग हो तो वे रोग भले ही न हो जाएँ , नह तो करोड़ य न से
भी नह जाते।
कछुए क पीठ पर भले ही बाल उग आएँ , बाँझ का पु भले ही िकसी को मार डाले, आकाश म
भले ही अनेक कार के फूल िखल उठ; परं तु ह र से िवमुख होकर जीव सुख नह ा कर
सकता।
तषृ ा जाइ ब मग
ृ जल पाना। ब जामिहं सस सीस िबषाना॥
अंधका ब रिबिह नसावै। राम िबमख
ु न जीव सख ु पावै॥
बफ से भले ही अि न कट हो जाए (ये सब अनहोनी बात चाहे हो जाएँ ), परं तु राम से िवमुख
होकर कोई भी सुख नह पा सकता।
दो० - बा र मथ घत
ृ होइ ब िसकता ते ब तेल।
िबनु ह र भजन न तव त रअ यह िस ांत अपेल॥ 122(क)॥
जल को मथने से भले ही घी उ प न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल िनकल आए;
परं तु ह र के भजन िबना संसार पी समु से नह तरा जा सकता, यह िस ांत अटल है॥
122(क)॥
म आपसे भली-भाँित िनि त िकया हआ िस ांत कहता हँ - मेरे वचन अ यथा (िम या) नह ह
िक जो मनु य ह र का भजन करते ह, वे अ यंत दु तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर
जाते ह॥ 122(ग)॥
हे नाथ! मने अपनी बुि के अनुसार कहा, कुछ भी िछपा नह रखा। (िफर भी) रघुवीर के च र
समु के समान ह, या उनक कोई थाह पा सकता है?॥ 123(ख)॥
सिु म र राम के गन
ु गन नाना। पिु न पिु न हरष भस
ु ंिु ड सजु ाना॥
मिहमा िनगम नेत क र गाई। अतिु लत बल ताप भत ु ाई॥
राम के बहत-से गुणसमहू का मरण कर-करके सुजान भुशुंिड बार-बार हिषत हो रहे ह।
िजनक मिहमा वेद ने 'नेित-नेित' कहकर गाई है, िजनका बल, ताप और भु व (साम य)
अतुलनीय है,
िजन रघुनाथ के चरण िशव और ा के ारा पू य ह, उनक मुझ पर कृपा होनी उनक परम
कोमलता है। िकसी का ऐसा वभाव कह न सुनता हँ, न देखता हँ। अतः हे प ीराज ग ड़! म
रघुनाथ के समान िकसे िगनँ ू (समझँ)ू ?
िजनका नाम ज म-मरण पी रोग क (अ यथ) औषध और तीन भयंकर पीड़ाओं (आिधदैिवक,
आिधभौितक और आ याि मक दुःख ) को हरनेवाला है, वे कृपालु राम मुझ पर और आप पर सदा
स न रह॥ 124(क)॥
ु ंिु ड के बचन सभ
सिु न भस ु देिख राम पद नेह।
बोलेउ म े सिहत िगरा ग ड़ िबगत संदहे ॥ 124(ख)॥
भुशुंिड के मंगलमय वचन सुनकर और राम के चरण म उनका अितशय ेम देखकर संदेह से
भली-भाँित छूटे हए ग ड़ ेमसिहत वचन बोले॥ 124(ख)॥
रघुवीर के भि -रस म सनी हई आपक वाणी सुनकर म कृतकृ य हो गया। राम के चरण म मेरी
नवीन ीित हो गई और माया से उ प न सारी िवपि चली गई।
मोह पी समु म डूबते हए मेरे िलए आप जहाज हए। हे नाथ! आपने मुझे बहत कार के सुख
िदए (परम सुखी कर िदया)। मुझसे इसका युपकार (उपकार के बदले म उपकार) नह हो
सकता। म तो आपके चरण क बार-बार वंदना ही करता हँ।
आप पणू काम ह और राम के ेमी ह। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नह है। संत, व ृ ,
नदी, पवत और प ृ वी - इन सबक ि या पराए िहत के िलए ही होती है।
मेरा जीवन और ज म सफल हो गया। आपक कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना दास
ही जािनएगा। (िशव कहते ह -) हे उमा! प ी े ग ड़ बार-बार ऐसा कह रहे ह।
कहेउँ परम पन
ु ीत इितहासा। सन ु त वन छूटिहं भव पासा॥
नत क पत क ना पंज ु ा। उपजइ ीित राम पद कंजा॥
मने यह परम पिव इितहास कहा, िजसे कान से सुनते ही भवपाश (संसार के बंधन) छूट जाते
ह और शरणागत को (उनके इ छानुसार फल देनेवाले) क पव ृ तथा दया के समहू राम के
चरणकमल म ेम उ प न होता है।
अनेक कार के कम, धम, त और दान, अनेक संयम, दम, जप, तप और य , ािणय पर
दया, ा ण और गु क सेवा; िव ा, िवनय और िववेक क बड़ाई (आिद) -
दो० - मिु न दल
ु भ ह र भगित नर पाविहं िबनिहं यास।
जे यह कथा िनरं तर सन ु िहं मािन िब वास॥ 126॥
सोइ सब य गन
ु ी सोइ याता। सोइ मिह मंिडत पंिडत दाता॥
धम परायन सोइ कुल ाता। राम चरन जा कर मन राता॥
िजसका मन राम के चरण म अनुर है, वही सव (सब कुछ जाननेवाला) है, वही गुणी है, वही
ानी है। वही प ृ वी का भषू ण, पंिडत और दानी है। वही धमपरायण है और वही कुल का र क है।
नीित िनपन
ु सोइ परम सयाना। ुित िस ांत नीक तेिहं जाना॥
सोइ किब कोिबद सोइ रनधीरा। जो छल छािड़ भजइ रघबु ीरा॥
जो छल छोड़कऱ रघुवीर का भजन करता है, वही नीित म िनपुण है, वही परम बुि मान है। उसी
ने वेद के िस ांत को भली-भाँित जाना है। वही किव, वही िव ान तथा वही रणधीर है।
वह देश ध य है, जहाँ गंगा ह, वह ी ध य है जो पाित त-धम का पालन करती है। वह राजा
ध य है जो याय करता है और वह ा ण ध य है जो अपने धम से नह िडगता है।
वह धन ध य है िजसक पहली गित होती है (जो दान देने म यय होता है)। वही बुि ध य और
प रप व है जो पु य म लगी हई है। वही घड़ी ध य है जब स संग हो और वही ज म ध य है
िजसम ा ण क अखंड भि हो।
(धन क तीन गितयाँ होती ह - दान, भोग और नाश। दान उ म है, भोग म यम है और नाश नीच
गित है। जो पु ष न देता है, न भोगता है, उसके धन क तीसरी गित होती है।)
हे उमा! सुनो वह कुल ध य है, संसारभर के िलए पू य है और परम पिव है, िजसम ी रघुवीर
परायण (अन य रामभ ) िवन पु ष उ प न हो॥ 127॥
मने अपनी बुि के अनुसार यह कथा कही, य िप पहले इसको िछपाकर रखा था। जब तु हारे
मन म ेम क अिधकता देखी तब मने रघुनाथ क यह कथा तुमको सुनाई।
ा ण के ोही को, यिद वह देवराज (इं ) के समान ऐ यवान राजा भी हो, तब भी यह कथा न
सुनानी चािहए। रामकथा के अिधकारी वे ही ह िजनको स संगित अ यंत ि य है।
जो कपट छोड़कर यह कथा गाते ह, वे मनु य अपनी मनःकामना क िसि पा लेते ह, जो इसे
कहते-सुनते और अनुमोदन ( शंसा) करते ह, वे संसार पी समु को गौ के खुर से बने हए
गड्ढे क भाँित पार कर जाते ह।
यह सभ
ु संभु उमा संबादा। सख
ु संपादन समन िबषादा॥
भव भंजन गंजन संदहे ा। जन रं जन स जन ि य एहा॥
पितत को पिव करना िजनका महान ( िस ) बाना है - ऐसा किव, वेद, संत और पुराण गाते
ह – रे मन! कुिटलता याग कर उ ह को भज। राम को भजने से िकसने परम गित नह पाई?
अरे मख
ू मन! सुन, पितत को भी पावन करनेवाले राम को भजकर िकसने परमगित नह पाई?
गिणका, अजािमल, याध, गीध, गज आिद बहत-से दु को उ ह ने तार िदया। आभीर, यवन,
िकरात, खस, पच (चांडाल) आिद जो अ यंत पाप प ही ह, वे भी केवल एक बार िजनका नाम
लेकर पिव हो जाते ह, उन राम को म नम कार करता हँ।
रघब
ु ंस भूषन च रत यह नर कहिहं सनु िहं जे गावह ।
किल मल मनोमल धोइ िबनु म राम धाम िसधावह ॥
सत पंच चौपाई ं मनोहर जािन जो नर उर धरै ।
दा न अिब ा पंच जिनत िबकार ी रघब ु र हरै ॥
संदु र सज
ु ान कृपा िनधान अनाथ पर कर ीित जो।
सो एक राम अकाम िहत िनबान द सम आन को॥
जाक कृपा लवलेस ते मितमंद तल ु सीदासहँ।
पायो परम िब ामु राम समान भु नाह कहँ॥
हे रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नह है और आपके समान कोई दीन का िहत करनेवाला नह है।
ऐसा िवचार कर हे रघुवंशमिण! मेरे ज म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीिजए॥
130(क)॥
जैसे कामी को ी ि य लगती है और लोभी को जैसे धन यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथ। हे
राम! आप िनरं तर मुझे ि य लिगए॥ 130(ख)॥
(उ रकांड समा )
ज म
उ र देश के िच कूट िजले से कुछ दूरी पर राजापुर नामक एक ाम है, वहाँ आ माराम दुबे
नाम के एक िति त सरयपू ारीण ा ण रहते थे। उनक धमप नी का नाम हलसी था। संवत्
१५५४ के ावण मास के शु लप क स मी ितिथ के िदन अभु मल ू न म इ ह भा यवान
द पित के यहाँ इस महान आ मा ने मनु य योिन म ज म िलया। चिलत जन ुित के अनुसार
िशशु परू े बारह महीने तक माँ के गभ म रहने के कारण अ यिधक पु था और उसके मुख
म दाँत िदखायी दे रहे थे। ज म लेने के बाद ाय: सभी िशशु रोया ही करते ह िक तु इस बालक
ने जो पहला श द बोला वह राम था। अतएव उनका घर का नाम ही रामबोला पड गया। माँ तो
ज म देने के बाद दूसरे ही िदन चल बसी बाप ने िकसी और अिन से बचने के िलये बालक को
चुिनयाँ नाम क एक दासी को स प िदया और वयं िवर हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वष
का हआ तो चुिनयाँ भी नह रही। वह गली-गली भटकता हआ अनाथ क तरह जीवन जीने को
िववश हो गया।
बचपन
भगवान शंकरजी क ेरणा से रामशैल पर रहनेवाले ी अन तान द जी के ि य िश य
ीनरहयान द जी (नरह र बाबा) ने इस रामबोला के नाम से बहचिचत हो चुके इस बालक को
ढूँढ िनकाला और िविधवत उसका नाम तल ु सीराम रखा। तदुपरा त वे उसे अयो या (उ र देश)
ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शु ला प चमी (शु वार) को उसका य ोपवीत-सं कार
स प न कराया। सं कार के समय भी िबना िसखाये ही बालक रामबोला ने गाय ी-म का
प उ चारण िकया, िजसे देखकर सब लोग चिकत हो गये। इसके बाद नरह र बाबा ने वै णव
के पाँच सं कार करके बालक को राम-म क दी ा दी और अयो या म ही रहकर उसे
िव ा ययन कराया। बालक रामबोला क बुि बड़ी खर थी। वह एक ही बार म गु -मुख से जो
सुन लेता, उसे वह कंठ थ हो जाता। वहाँ से कुछ काल के बाद गु -िश य दोन शक ू र े
(सोर ) पहँचे। वहाँ नरह र बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी िक तु वह उसे भली-भाँित समझ
न आयी।
ीराम से भट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ क जनता को राम-कथा
सुनाने लगे। कथा के दौरान उ ह एक िदन मनु य के वेष म एक ेत िमला, िजसने उ ह हनुमान
जी का पता बतलाया। हनुमान जी से िमलकर तुलसीदास ने उनसे ीरघुनाथजी का दशन कराने
क ाथना क । हनुमान्जी ने कहा- "तु ह िच कूट म रघुनाथजी दशन ह ग।" इस पर
तुलसीदास जी िच कूट क ओर चल पड़े ।
िच कूट पहँच कर उ ह ने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक िदन वे दि णा करने िनकले
ही थे िक यकायक माग म उ ह ीराम के दशन हए। उ ह ने देखा िक दो बड़े ही सु दर
राजकुमार घोड़ पर सवार होकर धनुष-बाण िलये जा रहे ह। तुलसीदास उ ह देखकर आकिषत
तो हए, पर तु उ ह पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान्जी ने आकर जब उ ह सारा भेद बताया
तो वे प ाताप करने लगे। इस पर हनुमान्जी ने उ ह सा वना दी और कहा ातःकाल िफर दशन
ह गे।
संवत् १६०७ क मौनी अमाव या को बुधवार के िदन उनके सामने भगवान ीराम पुनः कट
हए। उ ह ने बालक प म आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हम च दन चािहये या आप हम
च दन दे सकते ह?" हनुमान जी ने सोचा, कह वे इस बार भी धोखा न खा जाय, इसिलये
उ ह ने तोते का प धारण करके यह दोहा कहा:
तल
ु िसदास च दन िघस, ितलक देत रघबु ीर॥
सं कृत म प -रचना
संवत् १६२८ म वह हनुमान जी क आ ा लेकर अयो या क ओर चल पड़े । उन िदन याग म
माघ मेला लगा हआ था। वे वहाँ कुछ िदन के िलये ठहर गये। पव के छः िदन बाद एक वटव ृ के
नीचे उ ह भार ाज औरया व य मुिन के दशन हए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो
उ होने सकू र े म अपने गु से सुनी थी। माघ मेला समा होते ही तुलसीदास जी याग से
पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के ादघाट पर एक ा ण के घर िनवास िकया। वह रहते
हए उनके अ दर किव व-शि का फुरण हआ और वे सं कृत म प -रचना करने लगे। पर तु
िदन म वे िजतने प रचते, राि म वे सब लु हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठव िदन
तुलसीदास जी को व न हआ। भगवान शंकर ने उ ह आदेश िदया िक तुम अपनी भाषा म का य
रचना करो। तुलसीदास जी क न द उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवानिशव और
पावती उनके सामने कट हए। तुलसीदास जी ने उ ह सा ांग णाम िकया। इस पर स न
होकर िशव जी ने कहा- "तुम अयो या म जाकर रहो और िह दी म का य-रचना करो। मेरे
आशीवाद से तु हारी किवता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर
अ तधान हो गये। तुलसीदास जी उनक आ ा िशरोधाय कर काशी से सीधे अयो या चले गये।
इसके बाद भगवान क आ ा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उ ह ने भगवान् िव नाथ
और माता अ नपण ू ा को ीरामच रतमानस सुनाया। रात को पु तक िव नाथ-मि दर म रख दी
गयी। ात:काल जब मि दर के पट खोले गये तो पु तक पर िलखा हआ पाया गया-स यं िशवं
सु दरम् िजसके नीचे भगवान् शंकर क सही (पुि ) थी। उस समय वहाँ उपि थत लोग ने
"स यं िशवं सु दरम्" क आवाज भी कान से सुनी।
आन दकानने ाि म जङ्गम तल
ु सीत ः।
म ृ यु
तुलसीदास जी जब काशी के िव यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात किलयुग मत
ू प
धारण कर उनके पास आया और उ ह पीड़ा पहँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान
जी का यान िकया। हनुमान जी ने सा ात् कट होकर उ ह ाथना के पद रचने को कहा,
इसके प ात् उ ह ने अपनी अि तम कृित िवनय-पि का िलखी और उसे भगवान के चरण म
समिपत कर िदया। ीराम जी ने उस पर वयं अपने ह ता र कर िदये और तुलसीदास जी को
िनभय कर िदया।
संवत् १६८० म ावण कृ ण ततृ ीया शिनवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हए अपना
शरीर प र याग िकया।