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अनु मिणका

शीषक प ृ

सवािधकार और अनुमितयाँ

बालकांड

अयो याकांड

अर यकांड

िकि कंधाकांड

सुंदरकांड

लंकाकांड

उ रकांड

लेखक प रचय
बालकांड
वणानामथसंघानां रसानां छं दसामिप।
मंगलानां च क ारौ वंद े वाणीिवनायकौ॥ 1॥

अ र , अथ समहू , रस , छं द और मंगल क क सर वती और गणेश क म वंदना करता हँ॥


1॥

भवानीशंकरौ वंद े ािव ास िपणौ।


या यां िवना न प यंित िस ाः वांत: थमी रम्॥ 2॥

ा और िव ास के व प पावती और शंकर क म वंदना करता हँ, िजनके िबना िस जन


अपने अंत:करण म ि थत ई र को नह देख सकते॥ 2॥

वंद े बोधमयं िन यं गु ं शंकर िपणम्।


यमाि तो िह व ोऽिप चं : सव वं ते॥ 3॥

ानमय, िन य, शंकर पी गु क म वंदना करता हँ, िजनके आि त होने से ही टेढ़ा चं मा भी


सव होता है॥ 3॥

सीतारामगण ु ामपु यार यिवहा रणौ।


वंद े िवशु िव ानौ कवी रकपी रौ॥ 4॥

सीताराम के गुणसमहू पी पिव वन म िवहार करनेवाले, िवशु िव ान संप न कवी र


वा मीिक और कपी र हनुमान क म वंदना करता हँ॥ 4॥

उ वि थितसंहारका रण लेशहा रणीम्।


सव ये कर सीतां नतोऽहं रामव लभाम्॥ 5॥

उ पि , ि थित (पालन) और संहार करनेवाली, लेश को हरनेवाली तथा संपण


ू क याण को
करनेवाली राम क ि यतमा सीता को म नम कार करता हँ॥ 5॥

य मायावशवि िव मिखलं ािददेवासरु ा


य स वादमष ै भाित सकलं र जौ यथाहे मः।
ृ व
य पाद लवमेकमेव िह भवांभोधेि ततीषावतां
वंदऽे हं तमशेषकारणपरं रामा यमीशं ह रम्॥ 6॥
िजनक माया के वशीभत ू संपण
ू िव , ािद देवता और असुर ह, िजनक स ा से र सी म सप
के म क भाँित यह सारा य जगत स य ही तीत होता है और िजनके केवल चरण ही
भवसागर से तरने क इ छा वाल के िलए एकमा नौका ह, उन सम त कारण से परे राम
कहानेवाले भगवान ह र क म वंदना करता हँ॥ 6॥

नानापरु ाणिनगमागमस मतं यद्


रामायणे िनगिदतं विचद यतोऽिप।
वांत:सखु ाय तल
ु सी रघन
ु ाथगाथा
भाषािनबंधमितमंजुलमातनोित॥ 7॥

अनेक पुराण, वेद और शा से स मत तथा जो रामायण म विणत है और कुछ अ य से भी


उपल ध रघुनाथ क कथा को तुलसीदास अपने अंत:करण के सुख के िलए अ यंत मनोहर भाषा
रचना म िनब करता है॥ 7॥

सो० - जो सिु मरत िसिध होइ गन नायक क रबर बदन।


करउ अनु ह सोइ बिु रािस सभ ु गन
ु सदन॥ 1॥

िज ह मरण करने से सब काय िस होते ह, जो गण के वामी और सुंदर हाथी के मुखवाले ह,


वे ही बुि के रािश और शुभ गुण के धाम (गणेश) मुझ पर कृपा कर॥ 1॥

मूक होइ बाचाल पंगु चढ़इ िग रबर गहन।


जासु कृपाँ सो दयाल वउ सकल किलमल दहन॥ 2॥

िजनक कृपा से गँग ू ा बहत सुंदर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लल


ू ा दुगम पहाड़ पर चढ़
जाता है, वे किलयुग के सब पाप को जला डालनेवाले दयालु (भगवान) मुझ पर िवत ह ॥ 2॥

नील सरो ह याम त न अ न बा रज नयन।


करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥ 3॥

जो नीलकमल के समान यामवण ह, िजनके पण ू िखले हए लाल कमल के समान ने ह और


जो सदा ीरसागर पर शयन करते ह, वे (नारायण) मेरे दय म िनवास कर॥ 3॥

कंु द इं दु सम देह उमा रमन क ना अयन।


जािह दीन पर नेह करउ कृपा मदन मयन॥ 4॥

िजनका कुंद के पु प और चं मा के समान (गौर) शरीर है, जो पावती के ि यतम और दया के


धाम ह और िजनका दीन पर नेह है, वे कामदेव का मदन करनेवाले (शंकर) मुझ पर कृपा
कर॥ 4॥
बंदउँ गु पद कंज कृपा िसंधु नर प ह र।
महामोह तम पंजु जासु बचन रिब कर िनकर॥ 5॥

म उन गु के चरणकमल क वंदना करता हँ, जो कृपा के समु और नर प म ह र ही ह और


िजनके वचन महामोह पी घने अंधकार का नाश करने के िलए सय
ू िकरण के समहू ह॥ 5॥

बंदऊँ गु पद पदम
ु परागा। सु िच सब
ु ास सरस अनरु ागा॥
अिमअ मू रमय चूरन चा । समन सकल भव ज प रवा ॥

म गु के चरण कमल क रज क वंदना करता हँ, जो सु िच, सुगंध तथा अनुराग पी रस से


पण
ू है। वह अमर मल
ू (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चण ू भव रोग के प रवार को नाश
ू है, जो संपण
करनेवाला है।

सक
ु ृ ित संभु तन िबमल िबभूती। मंजुल मंगल मोद सूती॥
जन मन मंजु मक ु ु र मल हरनी। िकएँ ितलक गन
ु गन बस करनी॥

वह रज सुकृित (पु यवान पु ष) पी िशव के शरीर पर सुशोिभत िनमल िवभिू त है और सुंदर


क याण और आनंद क जननी है, भ के मन पी संुदर दपण के मैल को दूर करनेवाली और
ितलक करने से गुण के समहू को वश म करनेवाली है।

ीगरु पद नख मिन गन जोती। सिु मरत िद य ि िहयँ होती॥


दलन मोह तम सो स कासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥

ी गु के चरण-नख क योित मिणय के काश के समान है, िजसके मरण करते ही दय


म िद य ि उ प न हो जाती है। वह काश अ ान पी अंधकार का नाश करनेवाला है, वह
िजसके दय म आ जाता है, उसके बड़े भा य ह।

उघरिहं िबमल िबलोचन ही के। िमटिहं दोष दख


ु भव रजनी के॥
सूझिहं राम च रत मिन मािनक। गपु त
ु गट जहँ जो जेिह खािनक॥

उसके दय म आते ही दय के िनमल ने खुल जाते ह और संसार पी राि के दोष-दुःख िमट


जाते ह एवं रामच र पी मिण और मािण य, गु और कट जहाँ जो िजस खान म है, सब
िदखाई पड़ने लगते ह।

दो० - जथा सअ
ु ंजन अंिज ग साधक िस सज ु ान।
कौतकु देखत सैल बन भूतल भू र िनधान॥ 1॥

जैसे सु-अंजन को ने म लगाकर साधक, िस और सुजान पवत , वन और प ृ वी के अंदर


कौतुक से ही बहत-सी खान देखते ह॥ 1॥
गु पद रज मदृ ु मंजुल अंजन। नयन अिमअ ग दोष िबभंजन॥
तेिहं क र िबमल िबबेक िबलोचन। बरनउँ राम च रत भव मोचन॥

गु के चरण क रज कोमल और सुंदर नयनामत ृ अंजन है, जो ने के दोष का नाश


करनेवाला है। उस अंजन से िववेक पी ने को िनमल करके म संसार पी बंधन से छुड़ानेवाले
राम के च र का वणन करता हँ।

बंदउँ थम महीसरु चरना। मोह जिनत संसय सब हरना॥


सजु न समाज सकल गन ु खानी। करउँ नाम स म े सबु ानी॥

पहले प ृ वी के देवता ा ण के चरण क वंदना करता हँ, जो अ ान से उ प न सब संदेह को


हरनेवाले ह। िफर सब गुण क खान संत समाज को ेम सिहत संुदर वाणी से णाम करता हँ।

साधु च रत सभ
ु च रत कपासू। िनरस िबसद गन ु मय फल जासू॥
जो सिह दख
ु परिछ दरु ावा। बंदनीय जेिहं जग जस पावा॥

संत का च र कपास के च र के समान शुभ है, िजसका फल नीरस, िवशद और गुणमय होता
है। संत वयं दुःख सहकर दूसर के िछ को ढँ कता है, िजसके कारण उसने जगत म वंदनीय
यश ा िकया है।

मदु मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू॥


राम भि जहँ सरु स र धारा। सरसइ िबचार चारा॥

संत का समाज आनंद और क याणमय है, जो जगत म चलता-िफरता तीथराज है, जहाँ राम
भि पी गंगा क धारा ह और िवचार का चार सर वती ह।

िबिध िनषेधमय किलमल हरनी। करम कथा रिबनंदिन बरनी॥


ह र हर कथा िबराजित बेनी। सन
ु त सकल मदु मंगल देनी॥

िविध और िनषेध (यह करो और यह न करो) पी कम क कथा किलयुग के पाप को हरनेवाली


सयू तनया यमुना ह और भगवान िव णु और शंकर क कथाएँ ि वेणी प से सुशोिभत ह, जो
सुनते ही सब आनंद और क याण को देनेवाली ह।

बटु िब वास अचल िनज धरमा। तीरथराज समाज सक ु रमा॥


सबिह सल ु भ सब िदन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥

अपने धम म जो अटल िव ास है, वह अ यवट है और शुभ कम ही उस तीथराज का समाज है।


वह सब देश म, सब समय सभी को सहज ही म ा हो सकता है और आदरपवू क सेवन करने
से लेश को न करनेवाला है।

अकथ अलौिकक तीरथराऊ। देह स फल गट भाऊ॥

वह तीथराज अलौिकक और अकथनीय है एवं त काल फल देनेवाला है, उसका भाव य है।

दो० - सिु न समझ


ु िहं जन मिु दत मन म जिहं अित अनरु ाग।
लहिहं चा र फल अछत तनु साधु समाज याग॥ 2॥

जो मनु य इस संत समाज पी तीथराज का भाव स न मन से सुनते और समझते ह और िफर


अ यंत ेमपवू क इसम गोते लगाते ह, वे इस शरीर के रहते ही धम, अथ, काम, मो - चार फल
पा जाते ह॥ 2॥

म जन फल पेिखअ ततकाला। काक होिहं िपक बकउ मराला॥


सिु न आचरज करै जिन कोई। सतसंगित मिहमा निहं गोई॥

इस तीथराज म नान का फल त काल ऐसा देखने म आता है िक कौए कोयल बन जाते ह और


बगुले हंस। यह सुनकर कोई आ य न करे , य िक स संग क मिहमा िछपी नह है।

बालमीक नारद घटजोनी। िनज िनज मख


ु िन कही िनज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना॥

वा मीिक, नारद और अग य ने अपने-अपने मुख से अपनी होनी (जीवन का व ृ ांत) कही है।
जल म रहनेवाले, जमीन पर चलनेवाले और आकाश म िवचरनेवाले नाना कार के जड़-चेतन
िजतने जीव इस जगत म ह -

मित क रित गित भूित भलाई। जब जेिहं जतन जहाँ जेिहं पाई॥
सो जानब सतसंग भाऊ। लोकहँ बेद न आन उपाऊ॥

उनम से िजसने िजस समय जहाँ कह भी िजस िकसी य न से बुि , क ित, स ित, िवभिू त और
भलाई पाई है, सो सब स संग का ही भाव समझना चािहए। वेद म और लोक म इनक ाि का
दूसरा कोई उपाय नह है।

िबनु सतसंग िबबेक न होई। राम कृपा िबनु सल


ु भ न सोई॥
सतसंगत मदु मंगल मूला। सोई फल िसिध सब साधन फूला॥

स संग के िबना िववेक नह होता और राम क कृपा के िबना वह स संग सहज म िमलता नह ।
स संगित आनंद और क याण क जड़ है। स संग क िसि ही फल है और सब साधन तो फूल
है।
सठ सधु रिहं सतसंगित पाई। पारस परस कुधात सहु ाई॥
िबिध बस सज ु न कुसंगत परह । फिन मिन सम िनज गन ु अनस
ु रह ॥

दु भी स संगित पाकर सुधर जाते ह, जैसे पारस के पश से लोहा सुहावना हो जाता है, िकंतु
दैवयोग से यिद कभी स जन कुसंगित म पड़ जाते ह, तो वे वहाँ भी साँप क मिण के समान
अपने गुण का ही अनुसरण करते ह।

िबिध ह र हर किब कोिबद बानी। कहत साधु मिहमा सकुचानी॥


सो मो सन किह जात न कैस। साक बिनक मिन गन ु गन जैस॥

ा, िव णु, िशव, किव और पंिडत क वाणी भी संत-मिहमा का वणन करने म सकुचाती है, वह
मुझसे िकस कार नह कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मिणय के गुणसमहू नह
कहे जा सकते।

दो० - बंदउँ संत समान िचत िहत अनिहत निहं कोइ।


अंजिल गत सभ ु सम
ु न िजिम सम सग
ु ंध कर दोइ॥ 3 (क)॥

म संत को णाम करता हँ, िजनके िच म समता है, िजनका न कोई िम है और न श ु! जैसे
अंजिल म रखे हए सुंदर फूल (िजस हाथ ने फूल को तोड़ा और िजसने उनको रखा उन) दोन ही
हाथ को समान प से सुगंिधत करते ह (वैसे ही संत श ु और िम दोन का ही समान प से
क याण करते ह।)॥ 3 (क)॥

संत सरल िचत जगत िहत जािन सभ ु ाउ सनेह।


बालिबनय सिु न क र कृपा राम चरन रित देह॥ 3 (ख)॥

संत सरल दय और जगत के िहतकारी होते ह, उनके ऐसे वभाव और नेह को जानकर म
िवनय करता हँ, मेरी इस बाल-िवनय को सुनकर कृपा करके राम के चरण म मुझे ीित द॥ 3
(ख)॥

बह र बंिद खल गन सितभाएँ । जे िबनु काज दािहनेह बाएँ ॥


पर िहत हािन लाभ िज ह केर। उजर हरष िबषाद बसेर॥

अब म स चे भाव से दु को णाम करता हँ, जो िबना ही योजन, अपना िहत करनेवाले के भी


ितकूल आचरण करते ह। दूसर के िहत क हािन ही िजनक ि म लाभ है, िजनको दूसर के
उजड़ने म हष और बसने म िवषाद होता है।

ह र हर जस राकेस राह से। पर अकाज भट सहसबाह से॥


जे पर दोष लखिहं सहसाखी। पर िहत घतृ िज ह के मन माखी॥
जो ह र और हर के यश पी पिू णमा के चं मा के िलए राह के समान ह (अथात जहाँ कह
भगवान िव णु या शंकर के यश का वणन होता है, उसी म वे बाधा देते ह) और दूसर क बुराई
करने म सह बाह के समान वीर ह। जो दूसर के दोष को हजार आँख से देखते ह और दूसर
के िहत पी घी के िलए िजनका मन म खी के समान है (अथात िजस कार म खी घी म
िगरकर उसे खराब कर देती है और वयं भी मर जाती है, उसी कार दु लोग दूसर के बने-
बनाए काम को अपनी हािन करके भी िबगाड़ देते ह),

तेज कृसानु रोष मिहषेसा। अघ अवगन


ु धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम िहत सबही के। कंु भकरन सम सोवत नीके॥

जो तेज (दूसर को जलानेवाले ताप) म अि न और ोध म यमराज के समान ह, पाप और


अवगुण पी धन म कुबेर के समान धनी ह, िजनक बढ़ती सभी के िहत का नाश करने के िलए
केतु (पु छल तारे ) के समान है, और िजनके कुंभकण क तरह सोते रहने म ही भलाई है,

पर अकाजु लिग तनु प रहरह । िजिम िहम उपल कृषी दिल गरह ॥
बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥

जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते ह, वैसे ही वे दूसर का काम िबगाड़ने के िलए
अपना शरीर तक छोड़ देते ह। म दु को (हजार मुखवाले) शेष के समान समझकर णाम
करता हँ, जो पराए दोष का हजार मुख से बड़े रोष के साथ वणन करते ह।

पिु न नवउँ पथ
ृ रु ाज समाना। पर अघ सन
ु इ सहस दस काना॥
बह र स सम िबनवउँ तेही। संतत सरु ानीक िहत जेही॥

पुनः उनको राजा पथ ृ ु (िज ह ने भगवान का यश सुनने के िलए दस हजार कान माँगे थे) के
समान जानकर णाम करता हँ, जो दस हजार कान से दूसर के पाप को सुनते ह। िफर इं के
समान मानकर उनक िवनय करता हँ, िजनको सुरा (मिदरा) अ छी और िहतकारी मालम ू देती
है (इं के िलए भी सुरानीक अथात देवताओं क सेना िहतकारी है)।

बचन ब जेिह सदा िपआरा। सहस नयन पर दोष िनहारा॥

िजनको कठोर वचन पी व सदा यारा लगता है और जो हजार आँख से दूसर के दोष को
देखते ह।

दो० - उदासीन अ र मीत िहत सन


ु त जरिहं खल रीित।
जािन पािन जुग जो र जन िबनती करइ स ीित॥ 4॥

दु क यह रीित है िक वे उदासीन, श ु अथवा िम , िकसी का भी िहत सुनकर जलते ह। यह


जानकर दोन हाथ जोड़कर यह जन ेमपवू क उनसे िवनय करता है॥ 4॥

म अपनी िदिस क ह िनहोरा। ित ह िनज ओर न लाउब भोरा॥


बायस पिलअिहं अित अनरु ागा। होिहं िनरािमष कबहँ िक कागा॥

ू गे। कौओं को बड़े ेम से


मने अपनी ओर से िवनती क है, परं तु वे अपनी ओर से कभी नह चक
पािलए, परं तु वे या कभी मांस के यागी हो सकते ह?

बंदउँ संत अस जन चरना। दःु ख द उभय बीच कछु बरना॥


िबछुरत एक ान ह र लेह । िमलत एक दखु दा न देह ॥

अब म संत और असंत दोन के चरण क वंदना करता हँ, दोन ही दुःख देनेवाले ह, परं तु उनम
कुछ अंतर कहा गया है। वह अंतर यह है िक एक (संत) तो िबछुड़ते समय ाण हर लेते ह और
दूसरे (असंत) िमलते ह, तब दा ण दुःख देते ह।

उपजिहं एक संग जग माह । जलज ज क िजिम गनु िबलगाह ॥


सध
ु ा सरु ा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलिध अगाधू॥

दोन (संत और असंत) जगत म एक साथ पैदा होते ह, पर साधु अमतृ के समान (म ृ यु पी
संसार से उबारनेवाला) और असाधु मिदरा के समान (मोह, माद और जड़ता उ प न
करनेवाला) है, दोन को उ प न करनेवाला जगत पी अगाध समु एक ही है। (शा म
समु मंथन से ही अमत ृ और मिदरा दोन क उ पि बताई गई है।)

भल अनभल िनज िनज करतत ू ी। लहत सज


ु स अपलोक िबभूती॥
सधु ा सध
ु ाकर सरु स र साधू। गरल अनल किलमल स र याधू॥
गन
ु अवगन ु जानत सब कोई। जो जेिह भाव नीक तेिह सोई॥

भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुंदर यश और अपयश क संपि पाते ह। अमत ृ ,
चं मा, गंगा और साधु एवं िवष, अि न, किलयुग के पाप क नदी अथात कमनाशा और िहंसा
करनेवाला याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते ह, िकंतु िजसे जो भाता है, उसे वही अ छा
लगता है।

दो० - भलो भलाइिह पै लहइ लहइ िनचाइिह नीच।ु


सधु ा सरािहअ अमरताँ गरल सरािहअ मीच॥ु 5॥

भला भलाई ही हण करता है और नीच नीचता को ही हण िकए रहता है। अमत


ृ क सराहना
अमर करने म होती है और िवष क मारने म॥ 5॥

खल अघ अगन
ु साधु गन
ु गाहा। उभय अपार उदिध अवगाहा॥
तेिह त कछु गन
ु दोष बखाने। सं ह याग न िबनु पिहचाने॥

दु के पाप और अवगुण क और साधुओ ं के गुण क कथाएँ - दोन ही अपार और अथाह


समु ह। इसी से कुछ गुण और दोष का वणन िकया गया है, य िक िबना पहचाने उनका हण
या याग नह हो सकता।

भलेउ पोच सब िबिध उपजाए। गिन गन ु दोष बेद िबलगाए॥


कहिहं बेद इितहास परु ाना। िबिध पंचु गन
ु अवगन ु साना॥

भले-बुरे सभी ा के पैदा िकए हए ह, पर गुण और दोष को िवचार कर वेद ने उनको अलग-
अलग कर िदया है। वेद, इितहास और पुराण कहते ह िक ा क यह सिृ गुण-अवगुण से
सनी हई है।

दख
ु सखु पाप पु य िदन राती। साधु असाधु सज
ु ाित कुजाती॥
दानव देव ऊँच अ नीचू। अिमअ सजु ीवनु माह मीचू॥
माया जीव जगदीसा। लि छ अलि छ रं क अवनीसा॥
कासी मग सरु स र मनासा। म मारव मिहदेव गवासा॥
सरग नरक अनरु ाग िबरागा। िनगमागम गन ु दोष िबभागा॥

दुःख-सुख, पाप-पु य, िदन-रात, साधु-असाधु, सुजाित-कुजाित, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमतृ -


िवष, सुजीवन (सुंदर जीवन) - म ृ यु, माया- , जीव-ई र, संपि -द र ता, रं क-राजा, काशी-
मगध, गंगा-कमनाशा, मारवाड़-मालवा, ा ण-कसाई, वग-नरक, अनुराग-वैरा य (ये सभी
पदाथ ा क सिृ म ह।) वेद-शा ने उनके गुण-दोष का िवभाग कर िदया है।

दो० - जड़ चेतन गन
ु दोषमय िब व क ह करतार।
संत हंस गन
ु गहिहं पय प रह र बा र िबकार॥ 6॥

िवधाता ने इस जड़-चेतन िव को गुण-दोषमय रचा है, िकंतु संत पी हंस दोष पी जल को


छोड़कर गुण पी दूध को ही हण करते ह॥ 6॥

अस िबबेक जब देइ िबधाता। तब तिज दोष गन


ु िहं मनु राता॥
काल सभु ाउ करम ब रआई ं। भलेउ कृित बस चकु इ भलाई ं॥

िवधाता जब इस कार का (हंस का-सा) िववेक देते ह, तब दोष को छोड़कर मन गुण म


अनुर होता है। काल वभाव और कम क बलता से भले लोग भी माया के वश म होकर
कभी-कभी भलाई से चक
ू जाते ह।

सो सध
ु ा र ह रजन िजिम लेह । दिल दख
ु दोष िबमल जसु देह ॥
खलउ करिहं भल पाइ सस
ु ंगू। िमटइ न मिलन सभ
ु ाउ अभंगू॥

भगवान के भ जैसे उस चक ू को सुधार लेते ह और दुःख-दोष को िमटाकर िनमल यश देते ह,


वैसे ही दु भी कभी-कभी उ म संग पाकर भलाई करते ह, परं तु उनका कभी भंग न होनेवाला
मिलन वभाव नह िमटता।

लिख सब े जग बंचक जेऊ। बेष ताप पूिजअिहं तेऊ॥


ु ष
उघरिहं अंत न होइ िनबाह। कालनेिम िजिम रावन राह॥

जो (वेषधारी) ठग ह, उ ह भी अ छा वेष बनाए देखकर वेष के ताप से जगत पज


ू ता है, परं तु
एक न एक िदन वे चौड़े आ ही जाते ह, अंत तक उनका कपट नह िनभता, जैसे कालनेिम, रावण
और राह का हाल हआ।

िकएहँ कुबेषु साधु सनमानू। िजिम जग जामवंत हनम ु ानू॥


हािन कुसंग सस ु ंगित लाह। लोकहँ बेद िबिदत सब काह॥

बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का स मान ही होता है, जैसे जगत म जा बवान और हनुमान का
हआ। बुरे संग से हािन और अ छे संग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद म है और सभी
लोग इसको जानते ह।

गगन चढ़इ रज पवन संगा। क चिहं िमलइ नीच जल संगा॥


साधु असाधु सदन सक
ु सार । सिु मरिहं राम देिहं गिन गार ॥

पवन के संग से धलू आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचे क ओर बहनेवाले) जल के


संग से क चड़ म िमल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुिमरते ह और असाधु के घर
के तोता-मैना िगन-िगनकर गािलयाँ देते ह।

धूम कुसंगित का रख होई। िलिखअ परु ान मंजु मिस सोई॥


सोइ जल अनल अिनल संघाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥

कुसंग के कारण धुआँ कािलख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुंदर याही होकर पुराण
िलखने के काम म आता है और वही धुआँ जल, अि न और पवन के संग से बादल होकर जगत
को जीवन देनेवाला बन जाता है।

दो० - ह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सज ु ोग।


होिहं कुब तु सब
ु तु जग लखिहं सल
ु छन लोग॥ 7(क)॥

ह, औषिध, जल, वायु और व - ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसार म बुरे और भले


पदाथ हो जाते ह। चतुर एवं िवचारशील पु ष ही इस बात को जान पाते ह॥ 7(क)॥
सम कास तम पाख दहु ँ नाम भेद िबिध क ह।
सिस सोषक पोषक समिु झ जग जस अपजस दी ह॥ 7(ख)॥

महीने के दोन पखवाड़ म उिजयाला और अँधेरा समान ही रहता है, परं तु िवधाता ने इनके नाम
म भेद कर िदया है (एक का नाम शु ल और दूसरे का नाम कृ ण रख िदया)। एक को चं मा का
बढ़ानेवाला और दूसरे को उसका घटानेवाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को
अपयश दे िदया॥ 7(ख)॥

जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जािन।


बंदउँ सब के पद कमल सदा जो र जुग पािन॥ 7(ग)॥

जगत म िजतने जड़ और चेतन जीव ह, सबको राममय जानकर म उन सबके चरणकमल क


सदा दोन हाथ जोड़कर वंदना करता हँ॥ 7(ग)॥

देव दनज ु नर नाग खग त े िपतर गंधब।


बंदउँ िकंनर रजिनचर कृपा करह अब सब॥ 7(घ)॥

देवता, दै य, मनु य, नाग, प ी, ेत, िपतर, गंधव, िक नर और िनशाचर सबको म णाम


करता हँ। अब सब मुझ पर कृपा क िजए॥ 7(घ)॥

आकर चा र लाख चौरासी। जाित जीव जल थल नभ बासी॥


सीय राममय सब जग जानी। करउँ नाम जो र जुग पानी॥

चौरासी लाख योिनय म चार कार के ( वेदज, अंडज, उि ज, जरायुज) जीव जल, प ृ वी और
आकाश म रहते ह, उन सबसे भरे हए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर म दोन हाथ
जोड़कर णाम करता हँ।

जािन कृपाकर िकंकर मोह। सब िमिल करह छािड़ छल छोह॥


िनज बिु ध बल भरोस मोिह नाह । तात िबनय करउँ सब पाह ॥

मुझको अपना दास जानकर कृपा क खान आप सब लोग िमलकर छल छोड़कर कृपा क िजए।
मुझे अपने बुि -बल का भरोसा नह है, इसीिलए म सबसे िवनती करता हँ।

करन चहउँ रघप


ु ित गन
ु गाहा। लघु मित मो र च रत अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मित रं क मनोरथ राउ॥

म रघुनाथ के गुण का वणन करना चाहता हँ, परं तु मेरी बुि छोटी है और राम का च र अथाह
है। इसके िलए मुझे उपाय का एक भी अंग अथात कुछ (लेशमा ) भी उपाय नह सझ ू ता। मेरे मन
और बुि कंगाल ह, िकंतु मनोरथ राजा है।

मित अित नीच ऊँिच िच आछी। चिहअ अिमअ जग जुरइ न छाछी॥


छिमहिहं स जन मो र िढठाई। सिु नहिहं बालबचन मन लाई॥

मेरी बुि तो अ यंत नीची है और चाह बड़ी ऊँची है, चाह तो अमत
ृ पाने क है, पर जगत म जुड़ती
छाछ भी नह । स जन मेरी िढठाई को मा करगे और मेरे बाल वचन को मन लगाकर
( ेमपवू क) सुनगे।

ज बालक कह तोत र बाता। सन ु िहं मिु दत मन िपतु अ माता॥


हँिसहिहं कूर कुिटल कुिबचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥

जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-िपता उ ह स न मन से सुनते ह, िकंतु
ू र, कुिटल और बुरे िवचारवाले लोग जो दूसर के दोष को ही भषू ण प से धारण िकए रहते ह
(अथात िज ह पराए दोष ही यारे लगते ह), हँसगे।

िनज किब केिह लाग न नीका। सरस होउ अथवा अित फ का॥
जे पर भिनित सन
ु त हरषाह । ते बर पु ष बहत जग नाह ॥

रसीली हो या अ यंत फ क , अपनी किवता िकसे अ छी नह लगती? िकंतु जो दूसरे क रचना


को सुनकर हिषत होते ह, ऐसे उ म पु ष जगत म बहत नह ह।

जग बह नर सर स र सम भाई। जे िनज बािढ़ बढ़िहं जल पाई॥


स जन सकृत िसंधु सम कोई। देिख पूर िबधु बाढ़इ जोई॥

हे भाई! जगत म तालाब और निदय के समान मनु य ही अिधक ह, जो जल पाकर अपनी ही


बाढ़ से बढ़ते ह (अथात अपनी ही उ नित से स न होते ह)। समु -सा तो कोई एक िवरला ही
स जन होता है, जो चं मा को पण
ू देखकर (दूसर का उ कष देखकर) उमड़ पड़ता है।

दो० - भाग छोट अिभलाषु बड़ करउँ एक िब वास।


पैहिहं सख
ु सिु न सज
ु न सब खल क रहिहं उपहास॥ 8॥

मेरा भा य छोटा है और इ छा बहत बड़ी है, परं तु मुझे एक िव ास है िक इसे सुनकर स जन


सभी सुख पायगे और दु हँसी उड़ायगे॥ 8॥

खल प रहास होइ िहत मोरा। काक कहिहं कलकंठ कठोरा॥


हंसिहं बक दादरु चातकही। हँसिहं मिलन खल िबमल बतकही॥

िकंतु दु के हँसने से मेरा िहत ही होगा। मधुर कंठवाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा
करते ह। जैसे बगुले हंस को और मेढक पपीहे को हँसते ह, वैसे ही मिलन मनवाले दु िनमल
वाणी को हँसते ह।

किबत रिसक न राम पद नेह। ित ह कहँ सख ु द हास रस एह॥


भाषा भिनित भो र मित मोरी। हँिसबे जो हँस निहं खोरी॥

जो न तो किवता के रिसक ह और न िजनका राम के चरण म ेम है, उनके िलए भी यह किवता


सुखद हा यरस का काम देगी। थम तो यह भाषा क रचना है, दूसरे मेरी बुि भोली है, इससे
यह हँसने के यो य ही है, हँसने म उ ह कोई दोष नह ।

भु पद ीित न सामिु झ नीक । ित हिह कथा सिु न लािगिह फ क ॥


ह र हर पद रित मित न कुतरक । ित ह कहं मधरु कथा रघबु रक॥

िज ह न तो भु के चरण म ेम है और न अ छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने म फ क


लगेगी। िजनक ह र (भगवान िव णु) और हर (भगवान िशव) के चरण म ीित है और िजनक
बुि कुतक करनेवाली नह है (जो ह र-हर म भेद क या ऊँच-नीच क क पना नह करते),
उ ह रघुनाथ क यह कथा मीठी लगेगी।

राम भगित भूिषत िजयँ जानी। सिु नहिहं सज


ु न सरािह सब
ु ानी॥
किब न होउँ निहं बचन बीनू। सकल कला सब िब ा हीनू॥

स जनगण इस कथा को अपने जी म राम क भि से भिू षत जानकर सुंदर वाणी से सराहना


करते हए सुनगे। म न तो किव हँ, न वा य रचना म ही कुशल हँ, म तो सब कलाओं तथा सब
िव ाओं से रिहत हँ।

आखर अरथ अलंकृित नाना। छं द बंध अनेक िबधाना॥


भाव भेद रस भेद अपारा। किबत दोष गन
ु िबिबध कारा॥

नाना कार के अ र, अथ और अलंकार, अनेक कार क छं द रचना, भाव और रस के अपार


भेद और किवता के भाँित-भाँित के गुण-दोष होते ह।

किबत िबबेक एक निहं मोर। स य कहउँ िलिख कागद कोर॥

इनम से का य संबंधी एक भी बात का ान मुझम नह है, यह म कोरे कागज पर िलखकर


(शपथपवू क) स य-स य कहता हँ।

दो० - भिनित मो र सब गन ु रिहत िब व िबिदत गन


ु एक।
सो िबचा र सिु नहिहं सम
ु ित िज ह क िबमल िबबेक॥ 9॥
मेरी रचना सब गुण से रिहत है, इसम बस, जग िस एक गुण है। उसे िवचार कर अ छी
बुि वाले पु ष, िजनके िनमल ान है, इसको सुनगे॥9॥

एिह महँ रघप


ु ित नाम उदारा। अित पावन परु ान ुित सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सिहत जेिह जपत परु ारी॥

इसम रघुनाथ का उदार नाम है, जो अ यंत पिव है, वेद-पुराण का सार है, क याण का भवन है
और अमंगल को हरनेवाला है, िजसे पावती सिहत भगवान िशव सदा जपा करते ह।

भिनित िबिच सकु िब कृत जोऊ। राम नाम िबनु सोह न सोउ॥
िबधब
ु दनी सब भाँित सँवारी। सोह न बसन िबना बर नारी॥

जो अ छे किव के ारा रची हई बड़ी अनठू ी किवता है, वह भी राम नाम के िबना शोभा नह पाती।
जैसे चं मा के समान मुखवाली सुंदर ी सब कार से सुसि जत होने पर भी व के िबना
शोभा नह देती।

सब गनु रिहत कुकिब कृत बानी। राम नाम जस अंिकत जानी॥


सादर कहिहं सन
ु िहं बध
ु ताही। मधक
ु र स रस संत गन
ु ाही॥

इसके िवपरीत, कुकिव क रची हई सब गुण से रिहत किवता को भी, राम के नाम एवं यश से
अंिकत जानकर, बुि मान लोग आदरपवू क कहते और सुनते ह, य िक संतजन भ रे क भाँित
गुण ही को हण करनेवाले होते ह।

जदिप किबत रस एकउ नाह । राम ताप गट एिह माह ॥


सोइ भरोस मोर मन आवा। केिहं न सस
ु ंग बड़ पनु पावा॥

य िप मेरी इस रचना म किवता का एक भी रस नह है, तथािप इसम राम का ताप कट है। मेरे
मन म यही एक भरोसा है। भले संग से भला, िकसने बड़ पन नह पाया?

धूमउ तजइ सहज क आई। अग संग सग ु ंध बसाई॥


भिनित भदेस ब तु भिल बरनी। राम कथा जग मंगल करनी॥

धुआँ भी अगर के संग से सुगंिधत होकर अपने वाभािवक कड़वेपन को छोड़ देता है। मेरी किवता
अव य भ ी है, परं तु इसम जगत का क याण करनेवाली रामकथा पी उ म व तु का वणन
िकया गया है। (इससे यह भी अ छी ही समझी जाएगी।)

छं ० - मंगल करिन किलमल हरिन तल ु सी कथा रघन


ु ाथ क ।
गित कूर किबता स रत क य स रत पावन पाथ क ॥
भु सज ु स संगित भिनित भिल होइिह सजु न मन भावनी।
भव अंग भूित मसान क सिु मरत सहु ाविन पावनी॥

तुलसीदास कहते ह िक रघुनाथ क कथा क याण करनेवाली और किलयुग के पाप को


हरनेवाली है। मेरी इस भ ी किवता पी नदी क चाल पिव जलवाली नदी (गंगा) क चाल क
भाँित टेढ़ी है। भु रघुनाथ के सुंदर यश के संग से यह किवता सुंदर तथा स जन के मन को
भानेवाली हो जाएगी। मशान क अपिव राख भी महादेव के अंग के संग से सुहावनी लगती है
और मरण करते ही पिव करनेवाली होती है।

दो० - ि य लािगिह अित सबिह मम भिनित राम जस संग।


दा िबचा िक करइ कोउ बंिदअ मलय संग॥ 10(क)॥

राम के यश के संग से मेरी किवता सभी को अ यंत ि य लगेगी। जैसे मलय पवत के संग से
का मा (चंदन बनकर) वंदनीय हो जाता है, िफर या कोई काठ (क तु छता) का िवचार
करता है?॥ 10(क)॥

याम सरु िभ पय िबसद अित गन


ु द करिहं सब पान।
िगरा ा य िसय राम जस गाविहं सनु िहं सज
ु ान॥ 10(ख)॥

यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उ वल और बहत गुणकारी होता है। यही समझकर सब
लोग उसे पीते ह। इसी तरह गँवा भाषा म होने पर भी सीताराम के यश को बुि मान लोग बड़े
चाव से गाते और सुनते ह॥ 10(ख)॥

मिन मािनक मक
ु ु ता छिब जैसी। अिह िग र गज िसर सोह न तैसी॥
नप
ृ िकरीट त नी तनु पाई। लहिहं सकल सोभा अिधकाई॥

मिण, मािणक और मोती क जैसी सुंदर छिव है, वह साँप, पवत और हाथी के म तक पर वैसी
शोभा नह पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती ी के शरीर को पाकर ही ये सब अिधक शोभा
को ा होते ह।

तैसिे हं सक
ु िब किबत बध
ु कहह । उपजिहं अनत अनत छिब लहह ॥
भगित हेतु िबिध भवन िबहाई। सिु मरत सारद आवित धाई॥

इसी तरह, बुि मान लोग कहते ह िक सुकिव क किवता भी उ प न और कह होती है और


शोभा अ य कह पाती है (अथात किव क वाणी से उ प न हई किवता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ
उसका िवचार, चार तथा उसम किथत आदश का हण और अनुसरण होता है)। किव के मरण
करते ही उसक भि के कारण सर वती लोक को छोड़कर दौड़ी आती ह।

राम च रत सर िबनु अ हवाएँ । सो म जाइ न कोिट उपाएँ ॥


किब कोिबद अस दयँ िबचारी। गाविहं ह र जस किल मल हारी॥

सर वती क दौड़ी आने क वह थकावट रामच रत पी सरोवर म उ ह नहलाए िबना दूसरे


करोड़ उपाय से भी दूर नह होती। किव और पंिडत अपने दय म ऐसा िवचार कर किलयुग के
पाप को हरनेवाले ह र के यश का ही गान करते ह।

क ह ाकृत जन गन ु गाना। िसर धिु न िगरा लगत पिछताना॥


दय िसंधु मित सीप समाना। वाित सारदा कहिहं सजु ाना॥

संसारी मनु य का गुणगान करने से सर वती िसर धुनकर पछताने लगती ह (िक म य इसके
बुलाने पर आई)। बुि मान लोग दय को समु , बुि को सीप और सर वती को वाित न के
समान कहते ह।

ज बरषइ बर बा र िबचा । होिहं किबत मक


ु ु तामिन चा ॥

इसम यिद े िवचार पी जल बरसता है तो मु ामिण के समान सुंदर किवता होती है।

दो० - जुगिु त बेिध पिु न पोिहअिहं रामच रत बर ताग।


पिहरिहं स जन िबमल उर सोभा अित अनरु ाग॥ 11॥

उन किवता पी मु ामिणय को युि से बेधकर िफर रामच र पी सुंदर तागे म िपरोकर


स जन लोग अपने िनमल दय म धारण करते ह, िजससे अ यंत अनुराग पी शोभा होती है (वे
आ यंितक ेम को ा होते ह)॥ 1 ॥

जे जनमे किलकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥


चलत कुपंथ बेद मग छाँड़।े कपट कलेवर किल मल भाँड़॥े

जो कराल किलयुग म ज मे ह, िजनक करनी कौए के समान है और वेष हंस का-सा है, जो
वेदमाग को छोड़कर कुमाग पर चलते ह, जो कपट क मिू त और किलयुग के पाप के भाँड़ ह।

बंचक भगत कहाइ राम के। िकंकर कंचन कोह काम के॥
ित ह महँ थम रे ख जग मोरी। ध ग धरम वज धंधक धोरी॥

जो राम के भ कहलाकर लोग को ठगते ह, जो धन (लोभ), ोध और काम के गुलाम ह और


जो ध गाध गी करनेवाले, धम व (धम क झठ ू ी वजा फहरानेवाले दंभी) और कपट के धंध का
बोझ ढोनेवाले ह, संसार के ऐसे लोग म सबसे पहले मेरी िगनती है।

ज अपने अवगन ु सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार निहं लहऊँ॥


ताते म अित अलप बखाने। थोरे महँ जािनहिहं सयाने॥
यिद म अपने सब अवगुण को कहने लगँ ू तो कथा बहत बढ़ जाएगी और म पार नह पाऊँगा।
इससे मने बहत कम अवगुण का वणन िकया है। बुि मान लोग थोड़े ही म समझ लगे।

समिु झ िबिबिध िबिध िबनती मोरी। कोउ न कथा सिु न देइिह खोरी॥
एतेह पर क रहिहं जे असंका। मोिह ते अिधक ते जड़ मित रं का॥

मेरी अनेक कार क िवनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नह देगा। इतने
ू और बुि के कंगाल ह।
पर भी जो शंका करगे, वे तो मुझसे भी अिधक मख

किब न होउँ निहं चतरु कहावउँ । मित अनु प राम गन


ु गावउँ ॥
ु ित के च रत अपारा। कहँ मित मो र िनरत संसारा॥
कहँ रघप

म न तो किव हँ, न चतुर कहलाता हँ, अपनी बुि के अनुसार राम के गुण गाता हँ। कहाँ तो
रघुनाथ के अपार च र , कहाँ संसार म आस मेरी बुि !

ू केिह लेखे माह ॥


जेिहं मा त िग र मे उड़ाह । कहह तल
समझ ु त अिमत राम भत ु ाई। करत कथा मन अित कदराई॥

िजस हवा से सुमे जैसे पहाड़ उड़ जाते ह, किहए तो, उसके सामने ई िकस िगनती म है। राम
क असीम भुता को समझकर कथा रचने म मेरा मन बहत िहचकता है।

दो० - सारद सेस महेस िबिध आगम िनगम परु ान।


नेित नेित किह जासु गन
ु करिहं िनरं तर गान॥ 12॥

सर वती, शेष, िशव, ा, शा , वेद और पुराण - ये सब 'नेित-नेित' कहकर (पार नह पाकर


'ऐसा नह ', ‘ऐसा नह ’ कहते हए) सदा िजनका गुणगान िकया करते ह॥ 12॥

सब जानत भु भत ु ा सोई। तदिप कह िबनु रहा न कोई॥


तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन भाउ भाँित बह भाषा॥

य िप भु राम क भुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते ह, तथािप कहे िबना कोई नह


रहा। इसम वेद ने ऐसा कारण बताया है िक भजन का भाव बहत तरह से कहा गया है।

एक अनीह अ प अनामा। अज सि चदानंद पर धामा॥


यापक िब व प भगवाना। तेिहं ध र देह च रत कृत नाना॥

जो परमे र एक है, िजनके कोई इ छा नह है, िजनका कोई प और नाम नह है, जो अज मा,
सि चदानंद और परमधाम है और जो सबम यापक एवं िव प है, उसी भगवान ने िद य शरीर
धारण करके नाना कार क लीला क है।
सो केवल भगतन िहत लागी। परम कृपाल नत अनरु ागी॥
जेिह जन पर ममता अित छोह। जेिहं क ना क र क ह न कोह॥

वह लीला केवल भ के िहत के िलए ही है, य िक भगवान परम कृपालु ह और शरणागत के


बड़े ेमी ह। िजनक भ पर बड़ी ममता और कृपा है, िज ह ने एक बार िजस पर कृपा कर दी,
उस पर िफर कभी ोध नह िकया।

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल सािहब रघरु ाजू॥


बध
ु बरनिहं ह र जस अस जानी। करिहं पन
ु ीत सफु ल िनज बानी॥

वे भु रघुनाथ गई हई व तु को िफर ा करानेवाले, गरीबनवाज, सरल वभाव, सवशि मान


और सबके वामी ह। यही समझकर बुि मान लोग उन ह र का यश वणन करके अपनी वाणी
को पिव और उ म फल देनेवाली बनाते ह।

तेिहं बल म रघप
ु ित गन
ु गाथा। किहहउँ नाइ राम पद माथा॥
मिु न ह थम ह र क रित गाई। तेिहं मग चलत सग ु म मोिह भाई॥

उसी बल से म राम के चरण म िसर नवाकर रघुनाथ के गुण क कथा कहँगा। इसी िवचार से
मुिनय ने पहले ह र क क ित गाई है। भाई! उसी माग पर चलना मेरे िलए सुगम होगा।

दो० - अित अपार जे स रत बर ज नप


ृ सेतु करािहं।
चिढ़ िपपीिलकउ परम लघु िबनु म पारिह जािहं॥ 13॥

जो अ यंत बड़ी े निदयाँ ह, यिद राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अ यंत छोटी च िटयाँ भी
उन पर चढ़कर िबना ही प र म के पार चली जाती ह। (इसी कार मुिनय के वणन के सहारे म
भी रामच र का वणन सहज ही कर सकँ ू गा)॥ 13॥

एिह कार बल मनिह देखाई। क रहउँ रघपु ित कथा सहु ाई॥


यास आिद किब पंग
ु व नाना। िज ह सादर ह र सज
ु स बखाना॥

इस कार मन को बल िदखलाकर म रघुनाथ क सुहावनी कथा क रचना क ँ गा। यास आिद


जो अनेक े किव हो गए ह, िज ह ने बड़े आदर से ह र का सुयश वणन िकया है।

चरन कमल बंदउँ ित ह केरे । परु वहँ सकल मनोरथ मेरे॥


किल के किब ह करउँ परनामा। िज ह बरने रघप ु ित गनु ामा॥

म उन सब ( े किवय ) के चरणकमल म णाम करता हँ, वे मेरे सब मनोरथ को परू ा कर।


किलयुग के भी उन किवय को म णाम करता हँ, िज ह ने रघुनाथ के गुणसमहू का वणन
िकया है।
जे ाकृत किब परम सयाने। भाषाँ िज ह ह र च रत बखाने॥
भए जे अहिहं जे होइहिहं आग। नवउँ सबिह कपट सब याग॥

जो बड़े बुि मान ाकृत किव ह, िज ह ने भाषा म ह र च र का वणन िकया है, जो ऐसे किव
पहले हो चुके ह, जो इस समय वतमान ह और जो आगे ह गे, उन सबको म सारा कपट यागकर
णाम करता हँ।

होह स न देह बरदानू। साधु समाज भिनित सनमानू॥


जो बंध बध
ु निहं आदरह । सो म बािद बाल किब करह ॥

आप सब स न होकर यह वरदान दीिजए िक साधु समाज म मेरी किवता का स मान हो,


य िक बुि मान लोग िजस किवता का आदर नह करते, बाल किव ही उसक रचना का यथ
प र म करते ह।

क रित भिनित भूित भिल सोई। सरु स र सम सब कहँ िहत होई॥


राम सक
ु रित भिनित भदेसा। असमंजस अस मोिह अँदस े ा॥

क ित, किवता और संपि वही उ म है, जो गंगा क तरह सबका िहत करनेवाली हो। राम क
क ित तो बड़ी संुदर है, परं तु मेरी किवता भ ी है। मुझे यह असामंज य होने का अंदेशा है।

तु हरी कृपाँ सल
ु भ सोउ मोरे । िसअिन सहु ाविन टाट पटोरे ॥

परं तु हे किवयो! आपक कृपा से यह बात भी मेरे िलए सुलभ है। रे शम क िसलाई टाट पर भी
सुहावनी लगती है।

दो० - सरल किबत क रित िबमल सोइ आदरिहं सज ु ान।


सहज बयर िबसराइ रपु जो सिु न करिहं बखान॥ 14(क)॥

चतुर पु ष उसी किवता का आदर करते ह, जो सरल हो और िजसम िनमल च र का वणन हो


तथा िजसे सुनकर श ु भी वाभािवक बैर को भल
ू कर सराहना करने लग॥ 14(क)॥

सो न होई िबनु िबमल मित मोिह मित बल अित थोर।


करह कृपा ह र जस कहउँ पिु न पिु न करउँ िनहोर॥ 14(ख)॥

ऐसी किवता िबना िनमल बुि के होती नह और मेरी बुि का बल बहत ही थोड़ा है, इसिलए
बार-बार िनहोरा करता हँ िक हे किवयो! आप कृपा कर िजससे म ह रयश का वणन कर सकँ ू ॥
14(ख)॥
किब कोिबद रघबु र च रत मानस मंजु मराल।
बालिबनय सिु न सु िच लिख मो पर होह कृपाल॥ 14(ग)॥

किव और पंिडतगण! आप जो रामच र र पी मानसरोवर के सुंदर हंस ह, मुझ बालक क िवनती


सुनकर और सुंदर िच देखकर मुझपर कृपा कर॥ 14(ग)॥

सो० - बंदउँ मिु न पद कंजु रामायन जेिहं िनरमयउ।


सखर सक ु ोमल मंजु दोष रिहत दूषन सिहत॥ 14(घ)॥

म उन वा मीिक मुिन के चरण कमल क वंदना करता हँ, िज ह ने रामायण क रचना क है,
जो खर सिहत होने पर भी खर से िवपरीत बड़ी कोमल और सुंदर है तथा जो दूषणसिहत होने पर
भी दूषण अथात दोष से रिहत है॥ 14(घ)॥

बंदउँ चा रउ बेद भव बा रिध बोिहत स रस।


िज हिह न सपनेहँ खेद बरनत रघब ु र िबसद जस॥ु 14(ङ)॥

म चार वेद क वंदना करता हँ, जो संसार समु के पार होने के िलए जहाज के समान ह तथा
िज ह रघुनाथ का िनमल यश वणन करते व न म भी खेद (थकावट) नह होता॥ 14(ङ)॥

बंदउँ िबिध पद रे नु भव सागर जेिहं क ह जहँ।


संत सध ु ा सिस धेनु गटे खल िबष बा नी॥ 14(च)॥

म ा के चरण रज क वंदना करता हँ, िज ह ने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर संत पी


अमतृ , चं मा और कामधेनु िनकले और दूसरी ओर दु मनु य पी िवष और मिदरा उ प न हए॥
14(च)॥

दो० - िबबध
ु िब बध
ु ह चरन बंिद कहउँ कर जो र।
होइ स न परु वह सकल मंजु मनोरथ मो र॥ 14(छ)॥

देवता, ा ण, पंिडत, ह - इन सबके चरण क वंदना करके हाथ जोड़कर कहता हँ िक आप


स न होकर मेरे सारे संुदर मनोरथ को परू ा कर॥ 14(छ)॥

पिु न बंदउँ सारद सरु स रता। जुगल पनु ीत मनोहर च रता॥


म जन पान पाप हर एका। कहत सन ु त एक हर अिबबेका॥

िफर म सर वती और देवनदी गंगा क वंदना करता हँ। दोन पिव और मनोहर च र वाली ह।
एक (गंगा) नान करने और जल पीने से पाप को हरती है और दूसरी (सर वती) गुण और यश
कहने और सुनने से अ ान का नाश कर देती है।
गरु िपतु मातु महेस भवानी। नवउँ दीनबंधु िदन दानी॥
सेवक वािम सखा िसय पी के। िहत िन पिध सब िबिध तल ु सी के॥

महे श और पावती को म णाम करता हँ, जो मेरे गु और माता-िपता ह, जो दीनबंधु और िन य


दान करनेवाले ह, जो सीतापित राम के सेवक, वामी और सखा ह तथा मुझ तुलसी का सब
कार से कपटरिहत (स चा) िहत करनेवाले ह।

किल िबलोिक जग िहत हर िग रजा। साबर मं जाल िज ह िस रजा॥


अनिमल आखर अरथ न जापू। गट भाउ महेस तापू॥

िजन िशव-पावती ने किलयुग को देखकर, जगत के िहत के िलए, शाबर मं समहू क रचना
क , िजन मं के अ र बेमेल ह, िजनका न कोई ठीक अथ होता है और न जप ही होता है,
तथािप िशव के ताप से िजनका भाव य है।

सो उमेस मोिह पर अनक ु ू ला। क रिहं कथा मदु मंगल मूला॥


सिु म र िसवा िसव पाइ पसाऊ। बरनउँ रामच रत िचत चाऊ॥

वे उमापित िशव मुझ पर स न होकर (राम क ) इस कथा को आनंद और मंगल का मल



बनाएँ गे। इस कार पावती और िशव दोन का मरण करके और उनका साद पाकर म चाव भरे
िच से राम च र का वणन करता हँ।

भिनित मो र िसव कृपाँ िबभाती। सिस समाज िमिल मनहँ सरु ाती॥
जे एिह कथिह सनेह समेता। किहहिहं सिु नहिहं समिु झ सचेता॥
होइहिहं राम चरन अनरु ागी। किल मल रिहत सम ु ंगल भागी॥

मेरी किवता िशव क कृपा से ऐसी सुशोिभत होगी, जैसी तारागण के सिहत चं मा के साथ राि
शोिभत होती है। जो इस कथा को ेम सिहत एवं सावधानी के साथ समझ-बझ ू कर कह-सुनगे, वे
किलयुग के पाप से रिहत और संुदर क याण के भागी होकर राम के चरण के ेमी बन जाएँ गे।

दो० - सपनेहँ साचेहँ मोिह पर ज हर गौ र पसाउ।


तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भिनित भाउ॥ 15॥

यिद म् ुझ पर िशव और पावती क व न म भी सचमुच स नता हो, तो मने इस भाषा किवता


का जो भाव कहा है, वह सब सच हो॥ 15॥

बंदउँ अवध परु ी अित पाविन। सरजू स र किल कलष ु नसाविन॥


नवउँ परु नर ना र बहोरी। ममता िज ह पर भिु ह न थोरी॥

म अित पिव अयो यापुरी और किलयुग के पाप का नाश करनेवाली सरयू नदी क वंदना
करता हँ। िफर अवधपुरी के उन नर-ना रय को णाम करता हँ, िजन पर भु राम क ममता
थोड़ी नह है (अथात बहत है)।

िसय िनंदक अघ ओघ नसाए। लोक िबसोक बनाइ बसाए॥


बंदउँ कौस या िदिस ाची। क रित जासु सकल जग माची॥

उ ह ने (अपनी पुरी म रहनेवाले) सीता क िनंदा करनेवाले (धोबी और उसके समथक पुर-नर-
ना रय ) के पाप समहू को नाश कर उनको शोकरिहत बनाकर अपने लोक (धाम) म बसा िदया।
म कौश या पी पवू िदशा क वंदना करता हँ, िजसक क ित सम त संसार म फै ल रही है।

गटेउ जहँ रघप


ु ित सिस चा । िब व सख ु द खल कमल तस ु ा ॥
दसरथ राउ सिहत सब रानी। सक ु ृ त सम
ु ंगल मूरित मानी॥
करउँ नाम करम मन बानी। करह कृपा सत ु सेवक जानी॥
िज हिह िबरिच बड़ भयउ िबधाता। मिहमा अविध राम िपतु माता॥

जहाँ (कौश या पी पवू िदशा) से िव को सुख देनेवाले और दु पी कमल के िलए पाले के


समान राम पी सुंदर चं मा कट हए। सब रािनय सिहत राजा दशरथ को पु य और सुंदर
क याण क मिू त मानकर म मन, वचन और कम से णाम करता हँ। अपने पु का सेवक
जानकर वे मुझ पर कृपा कर, िजनको रचकर ा ने भी बड़ाई पाई तथा जो राम के माता और
िपता होने के कारण मिहमा क सीमा ह।

सो० - बंदउँ अवध भआ


ु लस य म े जेिह राम पद।
िबछुरत दीनदयाल ि य तनु तन
ृ इव प रहरे उ॥ 16॥

म अवध के राजा दशरथ क वंदना करता हँ, िजनका राम के चरण म स चा ेम था, िज ह ने
दीनदयालु भु के िबछुड़ते ही अपने यारे शरीर को मामल
ू ी ितनके क तरह याग िदया॥ 16॥

नवउँ प रजन सिहत िबदेह। जािह राम पद गूढ़ सनेह॥


जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम िबलोकत गटेउ सोई॥

म प रवार सिहत राजा जनक को णाम करता हँ, िजनका राम के चरण म गढ़ ू ेम था, िजसको
उ ह ने योग और भोग म िछपा रखा था, परं तु राम को देखते ही वह कट हो गया।

नवउँ थम भरत के चरना। जासु नेम त जाइ न बरना॥


राम चरन पंकज मन जासू। लब
ु ध
ु मधपु इव तजइ न पासू॥

सबसे पहले म भरत के चरण को णाम करता हँ, िजनका िनयम और त विणत नह िकया जा
सकता तथा िजनका मन राम के चरणकमल म भ रे क तरह लुभाया हआ है, कभी उनका पास
नह छोड़ता।

बंदउँ लिछमन पद जल जाता। सीतल सभ ु ग भगत सख


ु दाता॥
रघपु ित क रित िबमल पताका। दंड समान भयउ जस जाका॥

म ल मण के चरण कमल को णाम करता हँ, जो शीतल, सुंदर और भ को सुख देनेवाले ह।


रघुनाथ क क ित पी िवमल पताका म िजनका यश (पताका को ऊँचा करके फहरानेवाले) दंड
के समान हआ।

सेष सह सीस जग कारन। जो अवतरे उ भूिम भय टारन॥


सदा सो सानक
ु ू ल रह मो पर। कृपािसंधु सौिमि गन
ु ाकर॥

जो हजार िसरवाले और जगत के कारण (हजार िसर पर जगत को धारण कर रखनेवाले) शेष ह,
िज ह ने प ृ वी का भय दूर करने के िलए अवतार िलया, वे गुण क खान कृपािसंधु सुिम ानंदन
ल मण मुझ पर सदा स न रह।

रपसु ूदन पद कमल नमामी। सूर सस ु ील भरत अनग


ु ामी॥
महाबीर िबनवउँ हनम
ु ाना। राम जासु जस आप बखाना॥

म श ु न के चरणकमल को णाम करता हँ, जो बड़े वीर, सुशील और भरत के पीछे चलनेवाले
ह। म महावीर हनुमान क िवनती करता हँ, िजनके यश का राम ने वयं वणन िकया है॥

सो० - नवउँ पवनकुमार खल बन पावक यान घन।


जासु दय आगार बसिहं राम सर चाप धर॥ 17॥

म पवनकुमार हनुमान को णाम करता हँ, जो दु पी वन को भ म करने के िलए अि न प


ह, जो ान क घनमिू त ह और िजनके दय पी भवन म धनुष-बाण धारण िकए राम िनवास
करते ह॥ 17॥

किपपित रीछ िनसाचर राजा। अंगदािद जे क स समाजा॥


बंदउँ सब के चरन सहु ाए। अधम सरीर राम िज ह पाए॥

वानर के राजा सु ीव, रीछ के राजा जा बवान, रा स के राजा िवभीषण और अंगद आिद
िजतना वानर का समाज है, सबके सुंदर चरण क म वदना करता हँ, िज ह ने अधम शरीर म
भी राम को ा कर िलया।

रघपु ित चरन उपासक जेत।े खग मग ृ सरु नर असरु समेत॥े


बंदउँ पद सरोज सब केरे । जे िबनु काम राम के चेरे॥
पशु, प ी, देवता, मनु य, असुर समेत िजतने राम के चरण के उपासक ह, म उन सबके
चरणकमल क वंदना करता हँ, जो राम के िन काम सेवक ह।

सक
ु सनकािद भगत मिु न नारद। जे मिु नबर िब यान िबसारद॥
नवउँ सबिह धरिन ध र सीसा। करह कृपा जन जािन मन ु ीसा॥

शुकदेव, सनकािद, नारद मुिन आिद िजतने भ और परम ानी े मुिन ह, म धरती पर िसर
टेककर उन सबको णाम करता हँ, हे मुनी रो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा
क िजए।

जनकसत ु ा जग जनिन जानक । अितसय ि य क नािनधान क ॥


ताके जुग पद कमल मनावउँ । जासु कृपाँ िनरमल मित पावउँ ॥

राजा जनक क पु ी, जगत क माता और क णािनधान राम क ि यतमा जानक के दोन


चरण कमल को म मनाता हँ, िजनक कृपा से िनमल बुि पाऊँ।

पिु न मन बचन कम रघन


ु ायक। चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजीवनयन धर धनु सायक। भगत िबपित भंजन सख ु दायक॥

िफर म मन, वचन और कम से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भ क िवपि का नाश करने


और उ ह सुख देनेवाले भगवान रघुनाथ के सव समथ चरण कमल क वंदना करता हँ।

दो० - िगरा अरथ जल बीिच सम किहअत िभ न न िभ न।


बंदउँ सीता राम पद िज हिह परम ि य िख न॥ 18॥

जो वाणी और उसके अथ तथा जल और जल क लहर के समान कहने म अलग-अलग ह, परं तु


वा तव म अिभ न ह, उन सीताराम के चरण क म वंदना करता हँ, िज ह दीन-दुःखी बहत ही
ि य ह॥ 18॥

बंदउँ नाम राम रघब


ु र को। हेतु कृसानु भानु िहमकर को॥
िबिध ह र हरमय बेद ान सो। अगन ु अनूपम गन ु िनधान सो॥

म रघुनाथ के नाम 'राम' क वंदना करता हँ, जो कृशानु (अि न), भानु (सयू ) और िहमकर
(चं मा) का हे तु अथात 'र' 'आ' और 'म' प से बीज है। वह 'राम' नाम ा, िव णु और िशव प
है। वह वेद का ाण है, िनगुण, उपमा रिहत और गुण का भंडार है।

महामं जोइ जपत महेसू। कास मक


ु ु ित हेतु उपदेसू॥
मिहमा जासु जान गनराऊ। थम पूिजअत नाम भाऊ॥
जो महामं है, िजसे महे र िशव जपते ह और उनके ारा िजसका उपदेश काशी म मुि का
कारण है तथा िजसक मिहमा को गणेश जानते ह, जो इस 'राम' नाम के भाव से ही सबसे पहले
ू े जाते ह।
पज

जान आिदकिब नाम तापू। भयउ सु क र उलटा जापू॥


सहस नाम सम सिु न िसव बानी। जिप जेई ं िपय संग भवानी॥

आिदकिव वा मीिक राम नाम के ताप को जानते ह, जो उलटा नाम ('मरा', 'मरा') जपकर पिव
हो गए। िशव के इस वचन को सुनकर िक एक राम-नाम सह नाम के समान है, पावती सदा
अपने पित (िशव) के साथ राम-नाम का जप करती रहती ह।

हरषे हेतु हे र हर ही को। िकय भूषन ितय भूषन ती को॥


नाम भाउ जान िसव नीको। कालकूट फलु दी ह अमी को॥

नाम के ित पावती के दय क ऐसी ीित देखकर िशव हिषत हो गए और उ ह ने ि य म


भषू ण प पावती को अपना भषू ण बना िलया। (अथात उ ह अपने अंग म धारण करके अधािगनी
बना िलया)। नाम के भाव को िशव भली-भाँित जानते ह, िजस ( भाव) के कारण कालकूट
जहर ने उनको अमत ृ का फल िदया।

दो० - बरषा रतु रघप


ु ित भगित तल
ु सी सािल सदु ास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥ 19॥

रघुनाथ क भि वषा ऋतु है, तुलसीदास कहते ह िक उ म सेवकगण धान ह और 'राम' नाम के
दो सुंदर अ र सावन-भादो के महीने ह॥ 19॥

आखर मधरु मनोहर दोऊ। बरन िबलोचन जन िजय जोऊ॥


ससिु मरत सल
ु भ सख
ु द सब काह। लोक लाह परलोक िनबाह॥

दोन अ र मधुर और मनोहर ह, जो वणमाला पी शरीर के ने ह, भ के जीवन ह तथा


मरण करने म सबके िलए सुलभ और सुख देनेवाले ह और जो इस लोक म लाभ और परलोक म
िनवाह करते ह।

कहत सनु त सिु मरत सिु ठ नीके। राम लखन सम ि य तलु सी के॥
बरनत बरन ीित िबलगाती। जीव सम सहज सँघाती॥

ये कहने, सुनने और मरण करने म बहत ही अ छे ह, तुलसीदास को तो राम-ल मण के समान


यारे ह। इनका ('र' और 'म' का) अलग-अलग वणन करने म ीित िबलगाती है (अथात बीज मं
क ि से इनके उ चारण, अथ और फल म िभ नता िदख पड़ती है), परं तु ह ये जीव और
के समान वभाव से ही साथ रहनेवाले।

नर नारायन स रस सु ाता। जग पालक िबसेिष जन ाता॥


भगित सिु तय कल करन िबभूषन। जग िहत हेतु िबमल िबधु पूषन॥

ये दोन अ र नर-नारायण के समान सुंदर भाई ह, ये जगत का पालन और िवशेष प से भ


क र ा करनेवाले ह। ये भि िपणी सुंदर ी के कान के सुंदर आभषू ण (कणफूल) ह और
जगत के िहत के िलए िनमल चं मा और सय ू ह।

वाद तोष सम सग ु ा के। कमठ सेष सम धर बसध


ु ित सध ु ा के॥
जन मन मंजु कंज मधकु र से। जीह जसोमित ह र हलधर से॥

ृ के वाद और तिृ के समान ह, क छप और शेष के समान प ृ वी


ये संुदर गित (मो ) पी अमत
के धारण करनेवाले ह, भ के मन पी सुंदर कमल म िवहार करनेवाले भ रे के समान ह और
जीभ पी यशोदा के िलए कृ ण और बलराम के समान ह।

दो० - एकु छ ु एकु मक ु ु टमिन सब बरनिन पर जोउ।


तल
ु सी रघब ु र नाम के बरन िबराजत दोउ॥ 20॥

तुलसीदास कहते ह - रघुनाथ के नाम के दोन अ र बड़ी शोभा देते ह, िजनम से एक (रकार)
छ प (रे फ) से और दूसरा (मकार) मुकुटमिण (अनु वार -) प से सब अ र के ऊपर ह॥ 20॥

समझु त स रस नाम अ नामी। ीित परसपर भु अनग ु ामी॥


नाम प दइु ईस उपाधी। अकथ अनािद सस
ु ामिु झ साधी॥

समझने म नाम और नामी दोन एक-से ह, िकंतु दोन म पर पर वामी और सेवक के समान
ीित है (अथात नाम और नामी म पण ू एकता होने पर भी जैसे वामी के पीछे सेवक चलता है,
उसी कार नाम के पीछे नामी चलते ह। भु राम अपने 'राम' नाम का ही अनुगमन करते ह
(नाम लेते ही वहाँ आ जाते ह)। नाम और प दोन ई र क उपािध ह; ये (भगवान के नाम और
प) दोन अिनवचनीय ह, अनािद ह और संुदर बुि से ही इनका व प जानने म आता है।

को बड़ छोट कहत अपराधू। सिु न गन


ु भेदु समिु झहिहं साधू॥
देिखअिहं प नाम आधीना। प यान निहं नाम िबहीना॥

इन (नाम और प) म कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुण का
तारत य (कमी- यादा) सुनकर साधु पु ष वयं ही समझ लगे। प नाम के अधीन देखे जाते ह,
नाम के िबना प का ान नह हो सकता।

प िबसेष नाम िबनु जान। करतल गत न परिहं पिहचान॥


सिु म रअ नाम प िबनु देख। आवत दयँ सनेह िबसेष॥

कोई-सा िवशेष प िबना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हआ भी पहचाना नह जा सकता और
प के िबना देखे भी नाम का मरण िकया जाए तो िवशेष ेम के साथ वह प दय म आ जाता
है।

नाम प गित अकथ कहानी। समझ ु त सख


ु द न परित बखानी॥
अगनु सगन
ु िबच नाम सस
ु ाखी। उभय बोधक चतरु दभ ु ाषी॥

नाम और प क गित क कहानी (िवशेषता क कथा) अकथनीय है। वह समझने म सुखदायक


है, परं तु उसका वणन नह िकया जा सकता। िनगुण और सगुण के बीच म नाम सुंदर सा ी है
और दोन का यथाथ ान करानेवाला चतुर दुभािषया है।

दो० - राम नाम मिनदीप ध जीह देहर ार।


तल
ु सी भीतर बाहेरहँ ज चाहिस उिजआर॥ 21॥

तुलसीदास कहते ह, यिद तू भीतर और बाहर दोन ओर उजाला चाहता है, तो मुख पी ार क
जीभ पी देहली पर रामनाम पी मिण-दीपक को रख॥ 21॥

नाम जीहँ जिप जागिहं जोगी। िबरित िबरं िच पंच िबयोगी॥


सख
ु िह अनभ ु विहं अनूपा। अकथ अनामय नाम न पा॥

ा के बनाए हए इस पंच ( य जगत) से भली-भाँित छूटे हए वैरा यवान मु योगी पु ष इस


नाम को ही जीभ से जपते हए जागते ह और नाम तथा प से रिहत अनुपम, अिनवचनीय,
अनामय सुख का अनुभव करते ह।

जाना चहिहं गूढ़ गित जेऊ। नाम जीहँ जिप जानिहं तेऊ॥
साधक नाम जपिहं लय लाएँ । होिहं िस अिनमािदक पाएँ ॥

जो परमा मा के गढ़
ू रह य को (यथाथ मिहमा को) जानना चाहते ह, वे (िज ासु) भी नाम को
जीभ से जपकर उसे जान लेते ह। (लौिकक िसि य के चाहनेवाले अथाथ ) साधक लौ लगाकर
नाम का जप करते ह और अिणमािद (आठ ) िसि य को पाकर िस हो जाते ह।

जपिहं नामु जन आरत भारी। िमटिहं कुसंकट होिहं सख


ु ारी॥
राम भगत जग चा र कारा। सक ु ृ ती चा रउ अनघ उदारा॥

(संकट से घबराए हए) आत भ नाम जप करते ह, तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट िमट जाते
ह और वे सुखी हो जाते ह। जगत म चार कार के (1-अथाथ - धनािद क चाह से भजनेवाले, 2-
आत - संकट क िनविृ के िलए भजनेवाले, 3-िज ासु - भगवान को जानने क इ छा से
भजनेवाले, 4- ानी - भगवान को त व से जानकर वाभािवक ही ेम से भजनेवाले) रामभ ह
और चार ही पु या मा, पापरिहत और उदार ह।

चह चतरु कहँ नाम अधारा। यानी भिु ह िबसेिष िपआरा॥


चहँ जुग चहँ ुित नाम भाऊ। किल िबसेिष निहं आन उपाऊ॥

चार ही चतुर भ को नाम का ही आधार है, इनम ानी भ भु को िवशेष प से ि य ह। य


तो चार युग म और चार ही वेद म नाम का भाव है, परं तु किलयुग म िवशेष प से है। इसम
तो (नाम को छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नह है।

दो० - सकल कामना हीन जे राम भगित रस लीन।


े िपयूष द ित हहँ िकए मन मीन॥ 22॥
नाम सु म

जो सब कार क कामनाओं से रिहत और रामभि के रस म लीन ह, उ ह ने भी नाम के सुंदर


ेम पी अमतृ के सरोवर म अपने मन को मछली बना रखा है (अथात वे नाम पी सुधा का
िनरं तर आ वादन करते रहते ह, ण भर भी उससे अलग होना नह चाहते)॥ 22॥

अगनु सगनु दइु स पा। अकथ अगाध अनािद अनूपा॥


मोर मत बड़ नामु दहु त। िकए जेिहं जुग िनज बस िनज बूत॥

िनगुण और सगुण के दो व प ह। ये दोन ही अकथनीय, अथाह, अनािद और अनुपम ह।


मेरी स मित म नाम इन दोन से बड़ा है, िजसने अपने बल से दोन को अपने वश म कर रखा है।

ौिढ़ सजु न जिन जानिहं जन क । कहउँ तीित ीित िच मन क ॥


एकु दा गत देिखअ एकू। पावक सम जग ु िबबेकू॥
उभय अगम जुग सग ु म नाम त। कहेउँ नामु बड़ राम त॥
यापकु एकु अिबनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥

स जनगण इस बात को मुझ दास क िढठाई या केवल का योि न समझ। म अपने मन के


िव ास, ेम और िच क बात कहता हँ। (िनगुण और सगुण) दोन कार के का ान
अि न के समान है। िनगुण उस अ कट अि न के समान है, जो काठ के अंदर है, परं तु िदखती
नह ; और सगुण उस कट अि न के समान है, जो य िदखती है।

अस भु दयँ अछत अिबकारी। सकल जीव जग दीन दख


ु ारी॥
नाम िन पन नाम जतन त। सोउ गटत िजिम मोल रतन त॥

ऐसे िवकार रिहत भु के दय म रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी ह। नाम का


िन पण करके (नाम के यथाथ व प, मिहमा, रह य और भाव को जानकर) नाम का जतन
करने से ( ापवू क नाम जप पी साधन करने से) वही ऐसे कट हो जाता है जैसे र न के
जानने से उसका मू य।

दो० - िनरगनु त एिह भाँित बड़ नाम भाउ अपार।


कहउँ नामु बड़ राम त िनज िबचार अनसु ार॥ 23॥

इस कार िनगुण से नाम का भाव अ यंत बड़ा है। अब अपने िवचार के अनुसार कहता हँ, िक
नाम राम से भी बड़ा है॥ 23॥

राम भगत िहत नर तनु धारी। सिह संकट िकए साधु सख


ु ारी॥
े जपत अनयासा। भगत होिहं मदु मंगल बासा॥
नामु स म

राम ने भ के िहत के िलए मनु य शरीर धारण करके वयं क सहकर साधुओ ं को सुखी
िकया, परं तु भ गण ेम के साथ नाम का जप करते हए सहज ही म आनंद और क याण के घर
हो जाते ह।

राम एक तापस ितय तारी। नाम कोिट खल कुमित सध ु ारी॥


रिष िहत राम सकु े तस
ु त
ु ा क । सिहत सेन सत
ु क ि ह िबबाक ॥
सिहत दोष दख ु दास दरु ासा। दलइ नामु िजिम रिब िनिस नासा॥
भंजउे राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम तापू॥

राम ने एक तप वी क ी (अिह या) को ही तारा, परं तु नाम ने करोड़ दु क िबगड़ी बुि


को सुधार िदया। राम ने ऋिष िव ािम के िहत के िलए एक सुकेतु य क क या ताड़का क
सेना और पु (सुबाह) सिहत समाि क ; परं तु नाम अपने भ के दोष, दुःख और दुराशाओं का
इस तरह नाश कर देता है जैसे सयू राि का। राम ने तो वयं िशव के धनुष को तोड़ा, परं तु नाम
का ताप ही संसार के सब भय का नाश करनेवाला है।

दंडक बन भु क ह सहु ावन। जन मन अिमत नाम िकए पावन॥


िनिसचर िनकर दले रघन
ु ंदन। नामु सकल किल कलष
ु िनकंदन॥

भु राम ने दंडक वन को सुहावना बनाया, परं तु नाम ने असं य मनु य के मन को पिव कर


िदया। रघुनाथ ने रा स के समहू को मारा, परं तु नाम तो किलयुग के सारे पाप क जड़
उखाड़नेवाला है।

दो० - सबरी गीध सस े किन सग


ु व ु ित दीि ह रघन
ु ाथ।
नाम उधारे अिमत खल बेद िबिदत गनु गाथ॥ 24॥

रघुनाथ ने तो शबरी, जटायु आिद उ म सेवक को ही मुि दी; परं तु नाम ने अगिनत दु का
उ ार िकया। नाम के गुण क कथा वेद म िस है॥ 24॥

राम सक
ु ं ठ िबभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर िब रद िबराजे॥

राम ने सु ीव और िवभीषण दोन को ही अपनी शरण म रखा, यह सब कोई जानते ह, परं तु नाम
ने अनेक गरीब पर कृपा क है। नाम का यह सुंदर िवरद लोक और वेद म िवशेष प से
कािशत है।

राम भालु किप कटकु बटोरा। सेतु हेतु मु क ह न थोरा॥


नामु लेत भविसंधु सख
ु ाह । करह िबचा सज ु न मन माह ॥

राम ने तो भालू और बंदर क सेना बटोरी और समु पर पुल बाँधने के िलए थोड़ा प र म नह
िकया; परं तु नाम लेते ही संसार समु सख
ू जाता है। स जनगण! मन म िवचार क िजए (िक
दोन म कौन बड़ा है)।

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सिहत िनज परु पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गन ु सरु मिु न बर बानी॥
सेवक सिु मरत नामु स ीती। िबनु म बल मोह दलु जीती॥
िफरत सनेहँ मगन सख ु अपन। नाम साद सोच निहं सपन॥

राम ने कुटुंब सिहत रावण को यु म मारा, तब सीता सिहत उ ह ने अपने नगर (अयो या) म
वेश िकया। राम राजा हए, अवध उनक राजधानी हई, देवता और मुिन संुदर वाणी से िजनके
गुण गाते ह। परं तु सेवक ेमपवू क नाम के मरण मा से िबना प र म मोह क बल सेना को
जीतकर ेम म म न हए अपने ही सुख म िवचरते ह, नाम के साद से उ ह सपने म भी कोई
िचंता नह सताती।

दो० - राम त नामु बड़ बर दायक बर दािन।


रामच रत सत कोिट महँ िलय महेस िजयँ जािन॥ 25॥

इस कार नाम और राम दोन से बड़ा है। यह वरदान देने वाल को भी वर देनेवाला है। िशव
ने अपने दय म यह जानकर ही सौ करोड़ राम च र म से इस 'राम' नाम को हण िकया है॥
25॥
नाम साद संभु अिबनासी। साजु अमंगल मंगल रासी॥
सक
ु सनकािद िस मिु न जोगी। नाम साद सख
ु भोगी॥

नाम ही के साद से िशव अिवनाशी ह और अमंगल वेषवाले होने पर भी मंगल क रािश ह।


शुकदेव और सनकािद िस , मुिन, योगी गण नाम के ही साद से ानंद को भोगते ह।
नारद जानेउ नाम तापू। जग ि य ह र ह र हर ि य आपू॥
नामु जपत भु क ह सादू। भगत िसरोमिन भे हलादू॥

नारद ने नाम के ताप को जाना है। ह र सारे संसार को यारे ह, (ह र को हर यारे ह) और आप


(नारद) ह र और हर दोन को ि य ह। नाम के जपने से भु ने कृपा क , िजससे ाद भ
िशरोमिण हो गए।


ु ँ सगलािन जपेउ ह र नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सिु म र पवनसत
ु पावन नामू। अपने बस क र राखे रामू॥

ुव ने लािन से ह र नाम को जपा और उसके ताप से अचल अनुपम थान ा िकया। हनुमान
ने पिव नाम का मरण करके राम को अपने वश म कर रखा है।

अपतु अजािमलु गजु गिनकाऊ। भए मकु ु त ह र नाम भाऊ॥


कह कहाँ लिग नाम बड़ाई। रामु न सकिहं नाम गन ु गाई॥

नीच अजािमल, गज और गिणका भी ह र के नाम के भाव से मु हो गए। म नाम क बड़ाई


कहाँ तक कहँ, राम भी नाम के गुण को नह गा सकते।

दो० - नामु राम को कलपत किल क यान िनवास।ु


जो सिु मरत भयो भाँग त तल
ु सी तल
ु सीदास॥ु 26॥

किलयुग म राम का नाम क पत और क याण का िनवास है, िजसको मरण करने से भाँग-
सा (िनकृ ) तुलसीदास तुलसी के समान (पिव ) हो गया॥ 26॥

चहँ जुग तीिन काल ितहँ लोका। भए नाम जिप जीव िबसोका॥
बेद परु ान संत मत एह। सकल सकु ृ त फल राम सनेह॥

(केवल किलयुग क ही बात नह है,) चार युग म, तीन काल म और तीन लोक म नाम को
जपकर जीव शोकरिहत हए ह। वेद, पुराण और संत का मत यही है िक सम त पु य का फल
राम म (या राम नाम म) ेम होना है।

यानु थम जुग मख िबिध दूज। ापर प रतोषत भु पूज॥


किल केवल मल मूल मलीना। पाप पयोिनिध जन मन मीना॥

पहले (स य) युग म यान से, दूसरे ( ेता) युग म य से और ापर म पज


ू न से भगवान स न
होते ह, परं तु किलयुग केवल पाप क जड़ और मिलन है, इसम मनु य का मन पाप पी समु म
मछली बना हआ है
नाम कामत काल कराला। सिु मरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम किल अिभमत दाता। िहत परलोक लोक िपतु माता॥

ऐसे कराल (किलयुग के) काल म तो नाम ही क पव ृ है, जो मरण करते ही संसार के सब
जंजाल को नाश कर देनेवाला है। किलयुग म यह राम नाम मनोवांिछत फल देनेवाला है,
परलोक का परम िहतैषी और इस लोक का माता-िपता है

निहं किल करम न भगित िबबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥


कालनेिम किल कपट िनधानू। नाम सम ु ित समरथ हनम
ु ानू॥

किलयुग म न कम है, न भि है और न ान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट क खान


किलयुग पी कालनेिम के िलए राम नाम ही बुि मान और समथ हनुमान ह।

दो० - राम नाम नरकेसरी कनककिसपु किलकाल।


जापक जन हलाद िजिम पािलिह दिल सरु साल॥ 27॥

राम नाम निृ संह भगवान है, किलयुग िहर यकिशपु है और जप करनेवाले जन ाद के समान
ह, यह राम नाम देवताओं के श ु को मारकर जप करने वाल क र ा करे गा॥ 27॥

भायँ कुभायँ अनख आलस हँ। नाम जपत मंगल िदिस दसहँ॥
सिु म र सो नाम राम गन
ु गाथा। करउँ नाइ रघन
ु ाथिह माथा॥

अ छे भाव ( ेम) से, बुरे भाव (बैर) से, ोध से या आल य से, िकसी तरह से भी नाम जपने से
दस िदशाओं म क याण होता है। उसी राम नाम का मरण करके और रघुनाथ को म तक
नवाकर म राम के गुण का वणन करता हँ।

मो र सधु ा रिह सो सब भाँती। जासु कृपा निहं कृपाँ अघाती॥


राम सु वािम कुसेवकु मोसो। िनज िदिस देिख दयािनिध पोसो॥

वे मेरा सब तरह से सुधार लगे, िजनक कृपा कृपा करने से नह अघाती। राम से उ म वामी
और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयािनिध ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन िकया
है।

लोकहँ बेद सस
ु ािहब रीती। िबनय सन
ु त पिहचानत ीती॥
गनी गरीब ाम नर नागर। पंिडत मूढ़ मलीन उजागर॥

लोक और वेद म भी अ छे वामी क यही रीित िस है िक वह िवनय सुनते ही ेम को पहचान


लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर िनवासी, पंिडत-मख
ू , बदनाम-यश वी...
सक
ु िब कुकिब िनज मित अनहु ारी। नप
ृ िह सराहत सब नर नारी॥
साधु सज
ु ान सस
ु ील नप
ृ ाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥

सुकिव-कुकिव, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुि के अनुसार राजा क सराहना करते ह और


साधु, बुि मान, सुशील, ई र के अंश से उ प न कृपालु राजा - ।

सिु न सनमानिहं सबिह सबु ानी। भिनित भगित नित गित पिहचानी॥
यह ाकृत मिहपाल सभ ु ाऊ। जान िसरोमिन कोसलराऊ॥

सबक सुनकर और उनक वाणी, भि , िवनय और चाल को पहचानकर सुंदर वाणी से सबका
यथायो य स मान करते ह। यह वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ राम तो
चतुरिशरोमिण ह।

रीझत राम सनेह िनसोत। को जग मंद मिलनमित मोत॥

राम तो िवशु ेम से ही रीझते ह, पर जगत म मुझसे बढ़कर मख


ू और मिलन बुि और कौन
होगा?

दो० - सठ सेवक क ीित िच रिखहिहं राम कृपाल।ु


उपल िकए जलजान जेिहं सिचव सम
ु ित किप भाल॥ु 28(क)॥

तथािप कृपालु राम मुझ दु सेवक क ीित और िच को अव य रखगे, िज ह ने प थर को


जहाज और बंदर-भालुओ ं को बुि मान मं ी बना िलया॥ 28(क)॥

ह ह कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।


सािहब सीतानाथ सो सेवक तल
ु सीदास॥ 28(ख)॥

सब लोग मुझे राम का सेवक कहते ह और म भी कहलाता हँ (कहने वाल का िवरोध नह


करता), कृपालु राम इस िनंदा को सहते ह िक सीतानाथ - जैसे वामी का तुलसीदास-सा सेवक
है॥ 28(ख)॥

अित बिड़ मो र िढठाई खोरी। सिु न अघ नरकहँ नाक सकोरी॥


समिु झ सहम मोिह अपडर अपन। सो सिु ध राम क ि ह निहं सपन॥

यह मेरी बहत बड़ी िढठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक िसकोड़ ली है
(अथात नरक म भी मेरे िलए ठौर नह है)। यह समझकर मुझे अपने ही कि पत डर से डर हो रहा
है, िकंतु भगवान राम ने तो व न म भी इस पर (मेरी इस िढठाई और दोष पर) यान नह िदया।

सिु न अवलोिक सिु चत चख चाही। भगित मो र मित वािम सराही॥


कहत नसाइ होइ िहयँ नीक । रीझत राम जािन जन जी क ॥

वरन मेरे भु राम ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुिच पी च ु से िनरी ण


कर मेरी भि और बुि क सराहना क । य िक कहने म चाहे िबगड़ जाए (अथात म चाहे अपने
को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहँ), परं तु दय म अ छापन होना चािहए। राम भी दास
के दय क ि थित जानकर रीझ जाते ह।

रहित न भु िचत चूक िकए क । करत सरु ित सय बार िहए क ॥


जेिहं अघ बधेउ याध िजिम बाली। िफ र सक
ु ं ठ सोइ क ि ह कुचाली॥

भु के िच म अपने भ क हई भल ू याद नह रहती और उनके दय को सौ-सौ बार याद


ू -चक
करते रहते ह। िजस पाप के कारण उ ह ने बािल को याध क तरह मारा था, वैसी ही कुचाल
िफर सु ीव ने चली।

सोइ करतिू त िबभीषन केरी। सपनेहँ सो न राम िहयँ हेरी॥


ते भरतिह भटत सनमाने। राजसभाँ रघब ु ीर बखाने॥

वही करनी िवभीषण क थी, परं तु राम ने व न म भी उसका मन म िवचार नह िकया। उलटे
भरत से िमलने के समय रघुनाथ ने उनका स मान िकया और राजसभा म भी उनके गुण का
बखान िकया।

दो० - भु त तर किप डार पर ते िकए आपु समान।


तल
ु सी कहँ न राम से सािहब सील िनधान॥ 29(क)॥

भु तो व ृ के नीचे और बंदर डाली पर परं तु ऐसे बंदर को भी उ ह ने अपने समान बना िलया।
तुलसीदास कहते ह िक राम-सरीखे शीलिनधान वामी कह भी नह ह॥ 29(क)॥

राम िनकाई ं रावरी है सबही को नीक।


ज यह साँची है सदा तौ नीको तल ु सीक॥ 29(ख)॥

हे राम! आपक अ छाई से सभी का भला है। यिद यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा
क याण ही होगा॥ 29(ख)॥

एिह िबिध िनज गनु दोष किह सबिह बह र िस नाइ।


बरनउँ रघब
ु र िबसद जसु सिु न किल कलष
ु नसाइ॥ 29(ग)॥

इस कार अपने गुण-दोष को कहकर और सबको िफर िसर नवाकर म रघुनाथ का िनमल यश
वणन करता हँ, िजसके सुनने से किलयुग के पाप न हो जाते ह॥ 29(ग)॥
जागबिलक जो कथा सहु ाई। भर ाज मिु नबरिह सन
ु ाई॥
किहहउँ सोइ संबाद बखानी। सन
ु हँ सकल स जन सख ु ु मानी॥

मुिन या व यजी ने जो सुहावनी कथा मुिन े भर ाज को सुनाई थी, उसी संवाद को म


बखानकर कहँगा; सब स जन सुख का अनुभव करते हए उसे सुन।

संभु क ह यह च रत सहु ावा। बह र कृपा क र उमिह सनु ावा॥


सोइ िसव कागभसु ंिु डिह दी हा। राम भगत अिधकारी ची हा॥

िशव ने पहले इस सुहावने च र को रचा, िफर कृपा करके पावती को सुनाया। वही च र िशव ने
काकभुशुंिड को रामभ और अिधकारी पहचानकर िदया।

तेिह सन जागबिलक पिु न पावा। ित ह पिु न भर ाज ित गावा॥


ते ोता बकता समसीला। सवँदरसी जानिहं ह रलीला॥

उन काकभुशुंिड से िफर या व य ने पाया और उ ह ने िफर उसे भर ाज को गाकर सुनाया। वे


दोन व ा और ोता (या व य और भर ाज) समान शीलवाले और समदश ह और ह र क
लीला को जानते ह।

जानिहं तीिन काल िनज याना। करतल गत आमलक समाना॥


औरउ जे ह रभगत सज ु ाना। कहिहं सन
ु िहं समझ
ु िहं िबिध नाना॥

वे अपने ान से तीन काल क बात को हथेली पर रखे हए आँवले के समान ( य ) जानते


ह। और भी जो सुजान ह र भ ह, वे इस च र को नाना कार से कहते, सुनते और समझते ह।

दो० - म पिु न िनज गरु सन सन


ु ी कथा सो सूकरखेत।
समझु ी निहं तिस बालपन तब अित रहेउँ अचेत॥ 30(क)॥

िफर वही कथा मने वाराह े म अपने गु से सुनी, परं तु उस समय म लड़कपन के कारण
बहत बेसमझ था, इससे उसको समझा नह ॥ 30(क)॥

ोता बकता यानिनिध कथा राम कै गूढ़।


िकिम समझ
ु म जीव जड़ किल मल िसत िबमूढ़॥ 30(ख)॥

ू कथा के व ा और ोता ान के खजाने होते ह। म किलयुग के पाप से सा


ी राम क गढ़
हआ महामढ़ू जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥ 30(ख)॥

तदिप कही गरु बारिहं बारा। समिु झ परी कछु मित अनस
ु ारा॥
भाषाब करिब म सोई। मोर मन बोध जेिहं होई॥
तो भी गु ने जब बार-बार कथा कही, तब बुि के अनुसार कुछ समझ म आई। वही अब मेरे
ारा भाषा म रची जाएगी, िजससे मेरे मन को संतोष हो।

जस कछु बिु ध िबबेक बल मेर। तस किहहउँ िहयँ ह र के रे ॥


िनज संदहे मोह म हरनी। करउँ कथा भव स रता तरनी॥

जैसा कुछ मुझम बुि और िववेक का बल है, म दय म ह र क ेरणा से उसी के अनुसार


कहँगा। म अपने संदेह, अ ान और म को हरनेवाली कथा रचता हँ, जो संसार पी नदी के पार
करने के िलए नाव है।

बधु िब ाम सकल जन रं जिन। रामकथा किल कलष ु िबभंजिन॥


रामकथा किल पंनग भरनी। पिु न िबबेक पावक कहँ अरनी॥

रामकथा पंिडत को िव ाम देनेवाली, सब मनु य को स न करनेवाली और किलयुग के पाप


का नाश करनेवाली है। रामकथा किलयुग पी साँप के िलए मोरनी है और िववेक पी अि न के
कट करने के िलए अरिण (मंथन क जानेवाली लकड़ी) है।

रामकथा किल कामद गाई। सज ु न सजीविन मू र सहु ाई॥


सोइ बसध
ु ातल सध
ु ा तरं िगिन। भय भंजिन म भेक भअ ु ंिगिन॥

रामकथा किलयुग म सब मनोरथ को पण ू करनेवाली कामधेनु गौ है और स जन के िलए सुंदर


संजीवनी जड़ी है। प ृ वी पर यही अमत
ृ क नदी है, ज म-मरण पी भय का नाश करनेवाली और
म पी मेढ़क को खाने के िलए सिपणी है।

असरु सेन सम नरक िनकंिदिन। साधु िबबधु कुल िहत िग रनंिदिन॥


संत समाज पयोिध रमा सी। िब व भार भर अचल छमा सी॥

यह रामकथा असुर क सेना के समान नरक का नाश करनेवाली और साधु- प देवताओं के


कुल का िहत करनेवाली पावत है। यह संत-समाज पी ीर समु के िलए ल मी के समान है
ू िव का भार उठाने म अचल प ृ वी के समान है।
और संपण

जम गन महु ँ मिस जग जमनु ा सी। जीवन मक


ु ु ित हेतु जनु कासी॥
रामिह ि य पाविन तल
ु सी सी। तल
ु िसदास िहत िहयँ हलसी सी॥

यमदूत के मुख पर कािलख लगाने के िलए यह जगत म यमुना के समान है और जीव को


मुि देने के िलए मानो काशी ही है। यह राम को पिव तुलसी के समान ि य है और तुलसीदास
के िलए हलसी (तुलसीदास क माता) के समान दय से िहत करनेवाली है।

िसवि य मेकल सैल सत


ु ा सी। सकल िसि सख
ु संपित रासी॥
सदगन
ु सरु गन अंब अिदित सी। रघब े परिमित सी॥
ु र भगित म

यह रामकथा िशव को नमदा के समान यारी है, यह सब िसि य क तथा सुख-संपि क रािश
है। स ुण पी देवताओं के उ प न और पालन-पोषण करने के िलए माता अिदित के समान है।
रघुनाथ क भि और ेम क परम सीमा-सी है।

दो० - रामकथा मंदािकनी िच कूट िचत चा ।


तल
ु सी सभ ु ग सनेह बन िसय रघब
ु ीर िबहा ॥ 31॥

तुलसीदास कहते ह िक रामकथा मंदािकनी नदी है, सुंदर (िनमल) िच िच कूट है, और सुंदर
नेह ही वन है, िजसम सीताराम िवहार करते ह॥ 31॥

रामच रत िचंतामिन चा । संत समु ित ितय सभ ु ग िसंगा ॥


जग मंगल गन ु ाम राम के। दािन मकु ु ित धन धरम धाम के॥

राम का च र सुंदर िचंतामिण है और संत क सुबुि पी ी का सुंदर ंगार है। राम के गुण-
समहू जगत का क याण करनेवाले और मुि , धन, धम और परमधाम के देनेवाले ह।

सदगरु यान िबराग जोग के। िबबध


ु बैद भव भीम रोग के॥
जनिन जनक िसय राम म े के। बीज सकल त धरम नेम के॥

ान, वैरा य और योग के िलए स ु ह और संसार पी भयंकर रोग का नाश करने के िलए
देवताओं के वै (अि नीकुमार) के समान ह। ये सीताराम के ेम के उ प न करने के िलए
माता-िपता ह और संपणू त, धम और िनयम के बीज ह।

समन पाप संताप सोक के। ि य पालक परलोक लोक के॥


ु ट भूपित िबचार के। कंु भज लोभ उदिध अपार के॥
सिचव सभ

पाप, संताप और शोक का नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोक के ि य पालन करनेवाले
ह। िवचार पी राजा के शरू वीर मं ी और लोभ पी अपार समु के सोखने के िलए अग य मुिन
ह।

काम कोह किलमल क रगन के। केह र सावक जन मन बन के॥


अितिथ पू य ि यतम परु ा र के। कामद घन दा रद दवा र के॥

भ के मन पी वन म बसनेवाले काम, ोध और किलयुग के पाप पी हािथय को मारने के


िलए िसंह के ब चे ह। िशव के पू य और ि यतम अितिथ ह और द र ता पी दावानल के बुझाने
के िलए कामना पण ू करनेवाले मेघ ह।
मं महामिन िबषय याल के। मेटत किठन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम िदनकर कर से। सेवक सािल पाल जलधर से॥

िवषय पी साँप का जहर उतारने के िलए मं और महामिण ह। ये ललाट पर िलखे हए किठनता


से िमटनेवाले बुरे लेख (मंद ार ध) को िमटा देनेवाले ह। अ ान पी अंधकार को हरण करने के
िलए सयू िकरण के समान और सेवक पी धान के पालन करने म मेघ के समान ह।

अिभमत दािन देवत बर से। सेवत सल


ु भ सख
ु द ह र हर से॥
सक
ु िब सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥

मनोवांिछत व तु देने म े क पव ृ के समान ह और सेवा करने म ह र-हर के समान सुलभ


और सुख देनेवाले ह। सुकिव पी शरद् ऋतु के मन पी आकाश को सुशोिभत करने के िलए
तारागण के समान और राम के भ के तो जीवन धन ही ह।

सकल सकु ृ त फल भू र भोग से। जग िहत िन पिध साधु लोग से॥


सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरं ग माल से॥

संपणू पु य के फल महान भोग के समान ह। जगत का छलरिहत िहत करने म साधु-संत के


समान ह। सेवक के मन पी मानसरोवर के िलए हंस के समान और पिव करने म गंगा क
तरं गमालाओं के समान ह।

दो० - कुपथ कुतरक कुचािल किल कपट दंभ पाषंड।


दहन राम गनु ाम िजिम इं धन अनल चंड॥ 32(क)॥

राम के गुण के समहू कुमाग, कुतक, कुचाल और किलयुग के कपट, दंभ और पाखंड को
जलाने के िलए वैसे ही ह, जैसे ई ंधन के िलए चंड अि न॥ 32(क)॥

रामच रत राकेस कर स रस सख
ु द सब काह।
स जन कुमदु चकोर िचत िहत िबसेिष बड़ लाह॥ 32(ख)॥

रामच र पिू णमा के चं मा क िकरण के समान सभी को सुख देनेवाले ह, परं तु स जन पी


कुमुिदनी और चकोर के िच के िलए तो िवशेष िहतकारी और महान लाभदायक ह॥ 32(ख)॥

क ि ह न जेिह भाँित भवानी। जेिह िबिध संकर कहा बखानी॥


सो सब हेतु कहब म गाई। कथा बंध िबिच बनाई॥

िजस कार पावती ने िशव से िकया और िजस कार से िशव ने िव तार से उसका उ र
कहा, वह सब कारण म िविच कथा क रचना करके गाकर कहँगा।
जेिहं यह कथा सनु ी निहं होई। जिन आचरजु करै सिु न सोई॥
कथा अलौिकक सन ु िहं जे यानी। निहं आचरजु करिहं अस जानी॥
रामकथा कै िमित जग नाह । अिस तीित ित ह के मन माह ॥
नाना भाँित राम अवतारा। रामायन सत कोिट अपारा॥

िजसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आ य न करे । जो ानी इस िविच कथा को
सुनते ह, वे यह जानकर आ य नह करते िक संसार म रामकथा क कोई सीमा नह है। उनके
मन म ऐसा िव ास रहता है। नाना कार से राम के अवतार हए ह और सौ करोड़ तथा अपार
रामायण ह।

कलपभेद ह रच रत सहु ाए। भाँित अनेक मन


ु ीस ह गाए॥
क रअ न संसय अस उर आनी। सिु नअ कथा सादर रित मानी॥

क पभेद के अनुसार ह र के सुंदर च र को मुनी र ने अनेक कार से गाया है। दय म ऐसा


िवचार कर संदेह न क िजए और आदर सिहत ेम से इस कथा को सुिनए।

दो० - राम अनंत अनंत गन


ु अिमत कथा िब तार।
सिु न आचरजु न मािनहिहं िज ह क िबमल िबचार॥ 33॥

ी राम अनंत ह, उनके गुण भी अनंत ह और उनक कथाओं का िव तार भी असीम है। अतएव
िजनके िवचार िनमल ह, वे इस कथा को सुनकर आ य नह मानगे॥ 33॥

एिह िबिध सब संसय क र दूरी। िसर ध र गरु पद पंकज धूरी॥


पिु न सबही िबनवउँ कर जोरी। करत कथा जेिहं लाग न खोरी॥

इस कार सब संदेह को दूर करके और गु के चरणकमल क रज को िसर पर धारण करके म


पुनः हाथ जोड़कर सबक िवनती करता हँ, िजससे कथा क रचना म कोई दोष पश न करने
पावे।

सादर िसविह नाइ अब माथा। बरनउँ िबसद राम गन


ु गाथा॥
संबत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा ह र पद ध र सीसा॥

अब म आदरपवू क िशव को िसर नवाकर राम के गुण क िनमल कथा कहता हँ। ह र के चरण
पर िसर रखकर संवत 1631 म इस कथा का आरं भ करता हँ।

नौमी भौम बार मधमु ासा। अवधपरु यह च रत कासा॥


जेिह िदन राम जनम ुित गाविहं। तीरथ सकल जहाँ चिल आविहं॥

चै मास क नवमी ितिथ मंगलवार को अयो या म यह च र कािशत हआ। िजस िदन राम का
ज म होता है, वेद कहते ह िक उस िदन सारे तीथ वहाँ (अयो या म) चले आते ह।

असरु नाग खग नर मिु न देवा। आइ करिहं रघन


ु ायक सेवा॥
ज म महो सव रचिहं सजु ाना। करिहं राम कल क रित गाना॥

असुर-नाग, प ी, मनु य, मुिन और देवता सब अयो या म आकर रघुनाथ क सेवा करते ह।


बुि मान लोग ज म का महो सव मनाते ह और राम क सुंदर क ित का गान करते ह।

दो० - म जिहं स जन बंदृ बह पावन सरजू नीर।


जपिहं राम ध र यान उर संदु र याम सरीर॥ 34॥

स जन के बहत-से समहू उस िदन सरयू के पिव जल म नान करते ह और दय म सुंदर


याम शरीर रघुनाथ का यान करके उनके नाम का जप करते ह॥ 34॥

दरस परस म जन अ पाना। हरइ पाप कह बेद परु ाना॥


नदी पन
ु ीत अिमत मिहमा अित। किह न सकइ सारदा िबमल मित॥

वेद-पुराण कहते ह िक सरयू का दशन, पश, नान और जलपान पाप को हरता है। यह नदी
बड़ी ही पिव है, इसक मिहमा अनंत है, िजसे िवमल बुि वाली सर वती भी नह कह सकत ।

राम धामदा परु ी सहु ाविन। लोक सम त िबिदत अित पाविन॥


चा र खािन जग जीव अपारा। अवध तज तनु निहं संसारा॥

यह शोभायमान अयो यापुरी राम के परमधाम क देनेवाली है, सब लोक म िस है और अ यंत


पिव है। जगत म चार कार के अनंत जीव ह, इनम से जो कोई भी अयो या म शरीर छोड़ते ह, वे
िफर संसार म नह आते।

सब िबिध परु ी मनोहर जानी। सकल िसि द मंगल खानी॥


िबमल कथा कर क ह अरं भा। सन ु त नसािहं काम मद दंभा॥

इस अयो यापुरी को सब कार से मनोहर, सब िसि य क देनेवाली और क याण क खान


समझकर मने इस िनमल कथा का आरं भ िकया, िजसके सुनने से काम, मद और दंभ न हो
जाते ह।

रामच रतमानस एिह नामा। सन


ु त वन पाइअ िब ामा॥
मन क र िबषय अनल बन जरई। होई सख
ु ी ज एिहं सर परई॥

इसका नाम रामच रतमानस है, िजसके सुनते ही कान को शांित िमलती है। मन पी हाथी
िवषय पी दावानल म जल रहा है, वह यिद इस रामच रतमानस पी सरोवर म आ पड़े तो सुखी
हो जाए।

रामच रतमानस मिु न भावन। िबरचेउ संभु सहु ावन पावन॥


ि िबध दोष दख
ु दा रद दावन। किल कुचािल कुिल कलष ु नसावन॥

यह रामच रतमानस मुिनय का ि य है, इस सुहावने और पिव मानस क िशव ने रचना क ।


यह तीन कार के दोष , दुःख और द र ता को तथा किलयुग क कुचाल और सब पाप का
नाश करनेवाला है।

रिच महेस िनज मानस राखा। पाइ ससु मउ िसवा सन भाषा॥


तात रामच रतमानस बर। धरे उ नाम िहयँ हे र हरिष हर॥

महादेव ने इसको रचकर अपने मन म रखा था और सुअवसर पाकर पावती से कहा। इसी से िशव
ने इसको अपने दय म देखकर और स न होकर इसका सुंदर 'रामच रतमानस' नाम रखा।

कहउँ कथा सोइ सख


ु द सहु ाई। सादर सन
ु ह सज
ु न मन लाई॥

म उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथा को कहता हँ, हे स जनो! आदरपवू क मन लगाकर इसे
सुिनए।

दो० - जस मानस जेिह िबिध भयउ जग चार जेिह हेत।ु


ृ केत॥ु 35॥
अब सोइ कहउँ संग सब सिु म र उमा बष

यह रामच रतमानस जैसा है, िजस कार बना है और िजस हे तु से जगत म इसका चार हआ,
अब वही सब कथा म उमा-महे र का मरण करके कहता हँ॥ 35॥

संभु साद सम
ु ित िहयँ हलसी। रामच रतमानस किब तल ु सी॥
करइ मनोहर मित अनहु ारी। सज
ु न सिु चत सिु न लेह सध
ु ारी॥

िशव क कृपा से उसके दय म सुंदर बुि का िवकास हआ, िजससे यह तुलसीदास


रामच रतमानस का किव हआ। अपनी बुि के अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, िकंतु
िफर भी हे स जनो! सुंदर िच से सुनकर इसे आप सुधार लीिजए।

सम
ु ित भूिम थल दय अगाधू। बेद परु ान उदिध घन साधू॥
बरषिहं राम सज
ु स बर बारी। मधरु मनोहर मंगलकारी॥

संुदर बुि भिू म है, दय ही उसम गहरा थान है, वेद-पुराण समु ह और साधु-संत मेघ ह। वे
(साधु पी मेघ) राम के सुयश पी सुंदर, मधुर, मनोहर और मंगलकारी जल क वषा करते ह।
लीला सगन
ु जो कहिहं बखानी। सोइ व छता करइ मल हानी॥
े भगित जो बरिन न जाई। सोइ मधरु ता सस
म ु ीतलताई॥

सगुण लीला का जो िव तार से वणन करते ह, वही राम-सुयश पी जल क िनमलता है, जो मल


का नाश करती है और िजस ेमाभि का वणन नह िकया जा सकता, वही इस जल क मधुरता
और सुंदर शीतलता है।

सो जल सक ु ृ त सािल िहत होई। राम भगत जन जीवन सोई॥


मेधा मिह गत सो जल पावन। सिकिल वन मग चलेउ सहु ावन॥
भरे उ सम
ु ानस सथ ु ल िथराना। सखु द सीत िच चा िचराना॥

वह (राम-सुयश पी) जल स कम पी धान के िलए िहतकर है और राम के भ का तो जीवन


ही है। वह पिव जल बुि पी प ृ वी पर िगरा और िसमटकर सुहावने कान पी माग से चला और
मानस पी े थान म भरकर वह ि थर हो गया। वही पुराना होकर सुंदर, िचकर, शीतल
और सुखदायी हो गया।

दो० - सिु ठ संदु र संबाद बर िबरचे बिु िबचा र।


तेइ एिह पावन सभ ु ग सर घाट मनोहर चा र॥ 36॥

इस कथा म बुि से िवचारकर जो चार अ यंत सुंदर और उ म संवाद (भुशुंिड-ग ड़, िशव-


पावती, या व य-भर ाज और तुलसीदास और संत) रचे ह, वही इस पिव और सुंदर सरोवर
के चार मनोहर घाट ह॥ 36॥

स बंध सभ ु ग सोपाना। यान नयन िनरखत मन माना॥


रघप
ु ित मिहमा अगन
ु अबाधा। बरनब सोइ बर बा र अगाधा॥

सात कांड ही इस मानस सरोवर क सुंदर सात सीिढ़याँ ह, िजनको ान पी ने से देखते ही


मन स न हो जाता है। रघुनाथ क िनगुण और िनबाध मिहमा का जो वणन िकया जाएगा, वही
इस सुंदर जल क अथाह गहराई है।

राम सीय जस सिलल सध ु ासम। उपमा बीिच िबलास मनोरम॥


परु इिन सघन चा चौपाई। जुगिु त मंजु मिन सीप सहु ाई॥

राम और सीता का यश अमत ृ के समान जल है। इसम जो उपमाएँ दी गई ह, वही तरं ग का


मनोहर िवलास है। संुदर चौपाइयाँ ही इसम घनी फै ली हई पुरइन (कमिलनी) ह और किवता क
युि याँ सुंदर मिण उ प न करनेवाली सुहावनी सीिपयाँ ह।

छं द सोरठा संदु र दोहा। सोइ बहरं ग कमल कुल सोहा॥


अरथ अनूप सभ
ु ाव सभ
ु ासा। सोइ पराग मकरं द सब
ु ासा॥

जो सुंदर छं द, सोरठे और दोहे ह, वही इसम बहरं गे कमल के समहू सुशोिभत ह। अनुपम अथ,
ऊँचे भाव और सुंदर भाषा ही पराग (पु परज), मकरं द (पु परस) और सुगंध ह।

सक ु ृ त पंज
ु मंजुल अिल माला। यान िबराग िबचार मराला॥
धिु न अवरे ब किबत गन ु जाती। मीन मनोहर ते बहभाँती॥

स कम (पु य ) के पुंज भ र क सुंदर पंि याँ ह, ान, वैरा य और िवचार हंस ह। किवता क
विन व ोि , गुण और जाित ही अनेक कार क मनोहर मछिलयाँ ह।

अरथ धरम कामािदक चारी। कहब यान िब यान िबचारी॥


नव रस जप तप जोग िबरागा। ते सब जलचर चा तड़ागा॥

अथ, धम, काम, मो - ये चार , ान-िव ान का िवचार के कहना, का य के नौ रस, जप, तप,
योग और वैरा य के संग - ये सब इस सरोवर के सुंदर जलचर जीव ह।

सकु ृ ती साधु नाम गन


ु गाना। ते िबिच जलिबहग समाना॥
संतसभा चहँ िदिस अवँराई। ा रतु बसंत सम गाई॥

सुकृती जन के, साधुओ ं के और रामनाम के गुण का गान ही िविच जल पि य के समान है।


संत क सभा ही इस सरोवर के चार ओर क अमराई ह और ा वसंत ऋतु के समान कही गई
है।

भगित िन पन िबिबध िबधाना। छमा दया दम लता िबताना॥


सम जम िनयम फूल फल याना। ह र पद रित रस बेद बखाना॥

नाना कार से भि का िन पण और मा, दया तथा दम (इंि य िन ह) लताओं के मंडप ह।


मन का िन ह, यम (अिहंसा, स य, अ तेय, चय और अप र ह), िनयम (शौच, संतोष, तप,
वा याय और ई र िणधान) ही उनके फूल ह, ान फल है और ह र के चरण म ेम ही इस
ान पी फल का रस है। ऐसा वेद ने कहा है।

औरउ कथा अनेक संगा। तेइ सक


ु िपक बहबरन िबहंगा॥

इस (रामच रतमानस) म और भी जो अनेक संग क कथाएँ ह, वे ही इसम तोते, कोयल आिद


रं ग-िबरं गे प ी ह।

दो० - पल
ु क बािटका बाग बन सखु सिु बहंग िबहा ।
माली सम ु न सनेह जल स चत लोचन चा ॥ 37॥
कथा म जो रोमांच होता है, वही वािटका, बाग और वन ह और जो सुख होता है, वही सुंदर पि य
का िवहार है। िनमल मन ही माली है, जो ेम पी जल से सुंदर ने ारा उनको स चता है॥ 37॥

जे गाविहं यह च रत सँभारे । तेइ एिह ताल चतरु रखवारे ॥


सदा सनु िहं सादर नर नारी। तेइ सरु बर मानस अिधकारी॥

जो लोग इस च र को सावधानी से गाते ह, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले ह और जो ी-


पु ष सदा आदरपवू क इसे सुनते ह, वे ही इस सुंदर मानस के अिधकारी उ म देवता ह।

अित खल जे िबषई बग कागा। एिह सर िनकट न जािहं अभागा॥


संबक
ु भेक सेवार समाना। इहाँ न िबषय कथा रस नाना॥

जो अित दु और िवषयी ह, वे अभागे बगुले और कौए ह, जो इस सरोवर के समीप नह जाते,


य िक यहाँ (इस मानस सरोवर म) घ घे, मढ़क और सेवार के समान िवषय-रस क नाना
कथाएँ नह ह।

तेिह कारन आवत िहयँ हारे । कामी काक बलाक िबचारे ॥


आवत ऐिहं सर अित किठनाई। राम कृपा िबनु आइ न जाई॥

इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले पी िवषयी लोग यहाँ आते हए दय म हार मान जाते ह।
य िक इस सरोवर तक आने म किठनाइयाँ बहत ह। राम क कृपा िबना यहाँ नह आया जाता।

किठन कुसंग कुपंथ कराला। ित ह के बचन बाघ ह र याला॥


गहृ कारज नाना जंजाला। ते अित दग
ु म सैल िबसाला॥

घोर कुसंग ही भयानक बुरा रा ता है; उन कुसंिगय के वचन ही बाघ, िसंह और साँप ह। घर के
कामकाज और गहृ थी के भाँित-भाँित के जंजाल ही अ यंत दुगम बड़े -बड़े पहाड़ ह।

बन बह िबषम मोह मद माना। नद कुतक भयंकर नाना॥

मोह, मद और मान ही बहत-से बीहड़ वन ह और नाना कार के कुतक ही भयानक निदयाँ ह।

दो० - जे ा संबल रिहत निहं संत ह कर साथ।


ित ह कहँ मानस अगम अित िज हिह न ि य रघन ु ाथ॥ 38॥

िजनके पास ा पी राह खच नह है और संत का साथ नह है और िजनको रघुनाथ ि य नह


ह, उनके िलए यह मानस अ यंत ही अगम है। 38॥

ज करक जाइ पिु न कोई। जातिहं नीद जड़


ु ाई होई॥
जड़ता जाड़ िबषम उर लागा। गएहँ न म जन पाव अभागा॥

यिद कोई मनु य क उठाकर वहाँ तक पहँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे न द पी जड़
ू ीआ
जाती है। दय म मख
ू ता पी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, िजससे वहाँ जाकर भी वह अभागा
नान नह कर पाता।

क र न जाइ सर म जन पाना। िफ र आवइ समेत अिभमाना।


ज बहो र कोउ पूछन आवा। सर िनंदा क र तािह बझ
ु ावा॥

उससे उस सरोवर म नान और उसका जलपान तो िकया नह जाता, वह अिभमान सिहत लौट
आता है। िफर यिद कोई उससे (वहाँ का हाल) पछ
ू ने आता है, तो वह (अपने अभा य क बात न
कहकर) सरोवर क िनंदा करके उसे समझाता है।

सकल िब न यापिहं निहं तेही। राम सक


ु ृ पाँ िबलोकिहं जेही॥
सोइ सादर सर म जनु करई। महा घोर यताप न जरई॥

ये सारे िव न उसको नह यापते (बाधा नह देते) िजसे राम सुंदर कृपा क ि से देखते ह। वही
आदरपवू क इस सरोवर म नान करता है और महान भयानक ि ताप से (आ याि मक,
आिधदैिवक, आिधभौितक ताप से) नह जलता।

ते नर यह सर तजिहं न काऊ। िज ह क राम चरन भल भाऊ॥


जो नहाइ चह एिहं सर भाई। सो सतसंग करउ मन लाई॥

िजनके मन म राम के चरण म सुंदर ेम है, वे इस सरोवर को कभी नह छोड़ते। हे भाई! जो इस


सरोवर म नान करना चाहे , वह मन लगाकर स संग करे ।

अस मानस मानस चख चाही। भइ किब बिु िबमल अवगाही॥


े मोद बाह॥
भयउ दयँ आनंद उछाह। उमगेउ म

ऐसे मानस-सरोवर को दय के ने से देखकर और उसम गोता लगाकर किव क बुि िनमल


हो गई, दय म आनंद और उ साह भर गया और ेम तथा आनंद का वाह उमड़ आया।

चली सभु ग किबता स रता सो। राम िबमल जस जल भ रता सो॥


सरजू नाम समु ंगल मूला। लोक बेद मत मंजुल कूला॥

उससे वह सुंदर किवता पी नदी बह िनकली, िजसम राम का िनमल यश पी जल भरा है। इस
(किवता िपणी नदी) का नाम सरयू है, जो संपण
ू सुंदर मंगल क जड़ है। लोकमत और वेदमत
इसके दो सुंदर िकनारे ह।
नदी पन
ु ीत सम
ु ानस नंिदिन। किलमल तन
ृ त मूल िनकंिदिन॥

यह सुंदर-मानस सरोवर क क या सरयू नदी बड़ी पिव है और किलयुग के पाप पी ितनक


और व ृ को जड़ से उखाड़ फकनेवाली है।

दो० - ोता ि िबध समाज परु ाम नगर दहु ँ कूल।


संतसभा अनप ु म अवध सकल समु ंगल मूल॥ 39॥

तीन कार के ोताओं का समाज ही इस नदी के दोन िकनार पर बसे हए पुरवे, गाँव और
नगर ह और संत क सभा ही सब सुंदर मंगल क जड़ अनुपम अयो या है॥ 39॥

रामभगित सरु स रतिह जाई। िमली सक


ु रित सरजु सहु ाई॥
सानजु राम समर जसु पावन। िमलेउ महानदु सोन सहु ावन॥

संुदर क ित पी सुहावनी सरयू रामभि पी गंगा म जा िमल । छोटे भाई ल मण सिहत राम के
यु का पिव यश पी सुहावना महानद सोन उसम आ िमला।

जगु िबच भगित देवधिु न धारा। सोहित सिहत सिु बरित िबचारा॥
ि िबध ताप ासक ितमहु ानी। राम स प िसंधु समहु ानी॥

दोन के बीच म भि पी गंगा क धारा ान और वैरा य के सिहत शोिभत हो रही है। ऐसी तीन
ताप को डरानेवाली यह ितमुहानी नदी राम व प पी समु क ओर जा रही है।

मानस मूल िमली सरु स रही। सन


ु त सज
ु न मन पावन क रही॥
िबच िबच कथा िबिच िबभागा। जनु स र तीर तीर बन बागा॥

इसका मलू मानस है और यह गंगा म िमली है, इसिलए यह सुननेवाले स जन के मन को पिव


कर देगी। इसके बीच-बीच म जो िभ न-िभ न कार क िविच कथाएँ ह, वे ही मानो नदी तट
के आस-पास के वन और बाग ह।

उमा महेस िबबाह बराती। ते जलचर अगिनत बहभाँती॥


रघब
ु र जनम अनंद बधाई। भवँर तरं ग मनोहरताई॥

पावती और िशव के िववाह के बाराती इस नदी म बहत कार के असं य जलचर जीव ह। रघुनाथ
के ज म क आनंद-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरं ग क मनोहरता है।

दो० - बालच रत चह बंधु के बनज िबपल ु बहरं ग।


नपृ रानी प रजन सक
ु ृ त मधकु र बा र िबहंग॥ 40॥
चार भाइय के जो बालच रत ह, वे ही इसम िखले हए रं ग-िबरं गे बहत-से कमल ह। महाराज
दशरथ तथा उनक रािनय और कुटुंिबय के स कम ही मर और जल-प ी ह॥ 40॥

सीय वयंबर कथा सहु ाई। स रत सहु ाविन सो छिब छाई॥


नदी नाव पटु न अनेका। केवट कुसल उतर सिबबेका॥

सीता के वयंवर क जो सुंदर कथा है, वह इस नदी म सुहावनी छिव छा रही है। अनेक सुंदर
िवचारपणू ही इस नदी क नाव ह और उनके िववेकयु उ र ही चतुर केवट ह।

सिु न अनक
ु थन पर पर होई। पिथक समाज सोह स र सोई॥
घोर धार भगृ न
ु ाथ रसानी। घाट सब
ु राम बर बानी॥

इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस म चचा होती है, वही इस नदी के सहारे -सहारे चलनेवाले
याि य का समाज शोभा पा रहा है। परशुराम का ोध इस नदी क भयानक धारा है और राम के
े वचन ही सुंदर बँधे हए घाट ह।

सानज
ु राम िबबाह उछाह। सो सभ ु उमग सख ु द सब काह॥
कहत सनु त हरषिहं पल
ु काह । ते सक
ु ृ ती मन मिु दत नहाह ॥

भाइय सिहत राम के िववाह का उ साह ही इस कथा नदी क क याणका रणी बाढ़ है, जो सभी
को सुख देनेवाली है। इसके कहने-सुनने म जो हिषत और पुलिकत होते ह, वे ही पु या मा पु ष
ह, जो स न मन से इस नदी म नहाते ह।

राम ितलक िहत मंगल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमित केकई केरी। परी जासु फल िबपित घनेरी॥

राम के राजितलक के िलए जो मंगल-साज सजाया गया, वही मानो पव के समय इस नदी पर
याि य के समहू इक े हए ह। कैकेयी क कुबुि ही इस नदी म काई है, िजसके फल व प बड़ी
भारी िवपि आ पड़ी।

दो० - समन अिमत उतपात सब भरत च रत जपजाग।


किल अघ खल अवगन ु कथन ते जलमल बग काग॥ 41॥

संपण
ू अनिगनत उ पात को शांत करनेवाला भरत का च र नदी-तट पर िकया जानेवाला
जपय है। किलयुग के पाप और दु के अवगुण के जो वणन ह, वे ही इस नदी के जल का
क चड़ और बगुले-कौए ह॥ 41॥

क रित स रत छहँ रतु री। समय सहु ाविन पाविन भूरी॥


िहम िहमसैलसत
ु ा िसव याह। िसिसर सखु द भु जनम उछाह॥
यह क ित िपणी नदी छह ऋतुओ ं म सुंदर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अ यंत पिव है।
इसम िशव-पावती का िववाह हे मंत ऋतु है। राम के ज म का उ सव सुखदायी िशिशर ऋतु है।

बरनब राम िबबाह समाजू। सो मदु मंगलमय रतरु ाजू॥


ीषम दस
ु ह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू॥

राम के िववाह समाज का वणन ही आनंद-मंगलमय ऋतुराज वसंत है। राम का वनगमन दुःसह
ी म ऋतु है और माग क कथा ही कड़ी धपू और लू है।

बरषा घोर िनसाचर रारी। सरु कुल सािल समु ंगलकारी॥


राम राज सखु िबनय बड़ाई। िबसद सख ु द सोइ सरद सहु ाई॥

रा स के साथ घोर यु ही वषा ऋतु है, जो देवकुल पी धान के िलए सुंदर क याण करनेवाली
है। राम के रा यकाल का जो सुख, िवन ता और बड़ाई है, वही िनमल सुख देनेवाली सुहावनी
शरद् ऋतु है।

सती िसरोमिन िसय गनु गाथा। सोइ गन


ु अमल अनूपम पाथा॥
भरत सभु ाउ सस
ु ीतलताई। सदा एकरस बरिन न जाई॥

सती-िशरोमिण सीता के गुण क जो कथा है, वही इस जल का िनमल और अनुपम गुण है। भरत
का वभाव इस नदी क सुंदर शीतलता है, जो सदा एक-सी रहती है और िजसका वणन नह
िकया जा सकता।

दो० - अवलोकिन बोलिन िमलिन ीित परसपर हास।


भायप भिल चह बंधु क जल माधरु ी सब
ु ास॥ 42॥

चार भाइय का पर पर देखना, बोलना, िमलना, एक-दूसरे से ेम करना, हँसना और सुंदर


भाईपना इस जल क मधुरता और सुगंध है॥ 42॥

आरित िबनय दीनता मोरी। लघत


ु ा लिलत सब
ु ा र न थोरी॥
अदभत
ु सिलल सन ु त गन
ु कारी। आस िपआस मनोमल हारी॥

मेरा आतभाव, िवनय और दीनता इस सुंदर और िनमल जल का कम हलकापन नह है। यह जल


बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशा पी यास को और मन के मैल को
दूर कर देता है।

े िह पोषत पानी। हरत सकल किल कलष


राम सु म ु गलानी॥
भव म सोषक तोषक तोषा। समन दु रत दख ु दा रद दोषा॥
यह जल राम के सुंदर ेम को पु करता है, किलयुग के सम त पाप और उनसे होनेवाली
लािन को हर लेता है। संसार क म को सोख लेता है, संतोष को भी संतु करता है और पाप,
ताप, द र ता और दोष को न कर देता है।

काम कोह मद मोह नसावन। िबमल िबबेक िबराग बढ़ावन॥


सादर म जन पान िकए त। िमटिहं पाप प रताप िहए त॥

यह जल काम, ोध, मद और मोह का नाश करनेवाला और िनमल ान और वैरा य को


बढ़ानेवाला है। इसम आदरपवू क नान करने से और इसे पीने से दय म रहनेवाले सब पाप-ताप
िमट जाते ह।

िज ह एिहं बा र न मानस धोए। ते कायर किलकाल िबगोए॥


तिृ षत िनरिख रिब कर भव बारी। िफ रहिहं मग
ृ िजिम जीव दख
ु ारी॥

िज ह ने इस जल से अपने दय को नह धोया, वे कायर किलकाल के ारा ठगे गए। जैसे यासा


िहरन सयू क िकरण के रे त पर पड़ने से उ प न हए जल के म को वा तिवक जल समझकर
पीने को दौड़ता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे जीव भी दुःखी ह गे।

दो० - मित अनहु ा र सब


ु ा र गन
ु गन गिन मन अ हवाइ।
सिु म र भवानी संकरिह कह किब कथा सहु ाइ॥ 43(क)॥

अपनी बुि के अनुसार इस सुंदर जल के गुण को िवचार कर, उसम अपने मन को नान
कराकर और भवानी-शंकर को मरण करके किव (तुलसीदास) संुदर कथा कहता है॥ 43(क)॥

अब रघपु ित पद पंक ह िहयँ ध र पाइ साद।


कहउँ जुगल मिु नबय कर िमलन सभ ु ग संबाद॥ 43(ख)॥

म अब रघुनाथ के चरण कमल को दय म धारण कर और उनका साद पाकर दोन े


मुिनय के िमलन का सुंदर संवाद वणन करता हँ॥ 43(ख)॥

भर ाज मिु न बसिहं यागा। ित हिह राम पद अित अनरु ागा॥


तापस सम दम दया िनधाना। परमारथ पथ परम सज ु ाना॥

भर ाज मुिन याग म बसते ह, उनका राम के चरण म अ यंत ेम है। वे तप वी, िनगहृ ीत िच ,
िजति य, दया के िनधान और परमाथ के माग म बड़े ही चतुर ह।

माघ मकरगत रिब जब होई। तीरथपितिहं आव सब कोई॥


देव दनज े । सादर म जिहं सकल ि बेन ॥
ु िकंनर नर न
माघ म जब सय
ू मकर रािश पर जाते ह तब सब लोग तीथराज याग को आते ह। देवता, दै य,
िक नर और मनु य के समहू सब आदरपवू क ि वेणी म नान करते ह।

पूजिहं माधव पद जलजाता। परिस अखय बटु हरषिहं गाता॥


भर ाज आ म अित पावन। परम र य मिु नबर मन भावन॥

वेणीमाधव के चरणकमल को पज
ू ते ह और अ यवट का पश कर उनके शरीर पुलिकत होते ह।
भर ाज का आ म बहत ही पिव , परम रमणीय और े मुिनय के मन को भानेवाला है।

तहाँ होइ मिु न रषय समाजा। जािहं जे म जन तीरथराजा॥


म जिहं ात समेत उछाहा। कहिहं परसपर ह र गन ु गाहा॥

तीथराज याग म जो नान करने जाते ह, उन ऋिष-मुिनय का समाज वहाँ (भर ाज के आ म


म) जुटता है। ातःकाल सब उ साहपवू क नान करते ह और िफर पर पर भगवान के गुण क
कथाएँ कहते ह।

दो० - िन पन धरम िबिध बरनिहं त व िबभाग।


कहिहं भगित भगवंत कै संजत
ु यान िबराग॥ 44॥

का िन पण, धम का िवधान और त व के िवभाग का वणन करते ह तथा ान-वैरा य से


यु भगवान क भि का कथन करते ह॥ 44॥

एिह कार भ र माघ नहाह । पिु न सब िनज िनज आ म जाह ॥


ित संबत अित होइ अनंदा। मकर मि ज गवनिहं मिु नबंदृ ा॥

इसी कार माघ के महीनेभर नान करते ह और िफर सब अपने-अपने आ म को चले जाते ह।
हर साल वहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर म नान करके मुिनगण चले जाते ह।

एक बार भ र मकर नहाए। सब मन ु ीस आ म ह िसधाए॥


जागबिलक मिु न परम िबबेक । भर ाज राखे पद टेक ॥

एक बार परू े मकर भर नान करके सब मुनी र अपने-अपने आ म को लौट गए। परम ानी
या व य मुिन को चरण पकड़कर भर ाज ने रख िलया।

सादर चरन सरोज पखारे । अित पन ु ीत आसन बैठारे ॥


क र पूजा मिु न सज
ु सु बखानी। बोले अित पन
ु ीत मदृ ु बानी॥

आदरपवू क उनके चरण कमल धोए और बड़े ही पिव आसन पर उ ह बैठाया। पज


ू ा करके मुिन
या व य के सुयश का वणन िकया और िफर अ यंत पिव और कोमल वाणी से बोले -
नाथ एक संसउ बड़ मोर। करगत बेदत व सबु तोर॥
कहत सो मोिह लागत भय लाजा। ज न कहउँ बड़ होइ अकाजा॥

हे नाथ! मेरे मन म एक बड़ा संदेह है; वेद का त व सब आपक मु ी म है पर उस संदेह को कहते


मुझे भय और लाज आती है और यिद नह कहता तो बड़ी हािन होती है।

दो० - संत कहिहं अिस नीित भु ुित परु ान मिु न गाव।


होइ न िबमल िबबेक उर गरु सन िकएँ दरु ाव॥ 45॥

हे भो! संत लोग ऐसी नीित कहते ह और वेद, पुराण तथा मुिनजन भी यही बतलाते ह िक गु
के साथ िछपाव करने से दय म िनमल ान नह होता॥ 45॥

अस िबचा र गटउँ िनज मोह। हरह नाथ क र जन पर छोह॥


राम नाम कर अिमत भावा। संत परु ान उपिनषद गावा॥

यही सोचकर म अपना अ ान कट करता हँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अ ान का


नाश क िजए। संत , पुराण और उपिनषद ने राम नाम के असीम भाव का गान िकया है।

संतत जपत संभु अिबनासी। िसव भगवान यान गन


ु रासी॥
आकर चा र जीव जग अहह । कास मरत परम पद लहह ॥

क याण- व प, ान और गुण क रािश, अिवनाशी भगवान शंभु िनरं तर राम नाम का जप


करते रहते ह। संसार म चार जाित के जीव ह, काशी म मरने से सभी परम पद को ा करते ह।

सोिप राम मिहमा मिु नराया। िसव उपदेसु करत क र दाया॥


रामु कवन भु पूछउँ तोही। किहअ बझ ु ाइ कृपािनिध मोही॥

हे मुिनराज! वह भी राम (नाम) क ही मिहमा है, य िक िशव दया करके (काशी म मरनेवाले
जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते ह। हे भो! म आपसे पछू ता हँ िक वे राम कौन ह? हे
कृपािनधान! मुझे समझाकर किहए।

एक राम अवधेस कुमारा। ित ह कर च रत िबिदत संसारा॥


ना र िबरहँ दख
ु ु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा॥

एक राम तो अवध नरे श दशरथ के कुमार ह, उनका च र सारा संसार जानता है। उ ह ने ी के
िवरह म अपार दुःख उठाया और ोध आने पर यु म रावण को मार डाला।॥4॥

दो० - भु सोइ राम िक अपर कोउ जािह जपत ि परु ा र।


स यधाम सब य तु ह कहह िबबेकु िबचा र॥ 46॥
हे भो! वही राम ह या और कोई दूसरे ह, िजनको िशव जपते ह? आप स य के धाम ह और सब
कुछ जानते ह, ान िवचार कर किहए॥ 46॥

जैस िमटै मोर म भारी। कहह सो कथा नाथ िब तारी॥


जागबिलक बोले मसु क
ु ाई। तु हिह िबिदत रघप
ु ित भत
ु ाई॥

हे नाथ! िजस कार से मेरा यह भारी म िमट जाए, आप वही कथा िव तारपवू क किहए। इस पर
या व य मुसकराकर बोले, रघुनाथ क भुता को तुम जानते हो।

रामभगत तु ह मन म बानी। चतरु ाई तु हा र म जानी॥


ु ै राम गन
चाहह सन ु गूढ़ा। क ि हह न मनहँ अित मूढ़ा॥

तुम मन, वचन और कम से राम के भ हो। तु हारी चतुराई को म जान गया। तुम राम के
रह यमय गुण को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा िकया है मानो बड़े ही मढ़
ू हो।

ु ह सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सहु ाई॥


तात सन
महामोह मिहषेसु िबसाला। रामकथा कािलका कराला॥

हे तात! तुम आदरपवू क मन लगाकर सुनो; म राम क सुंदर कथा कहता हँ। बड़ा भारी अ ान
िवशाल मिहषासुर है और राम क कथा (उसे न कर देनेवाली) भयंकर काली ह।

रामकथा सिस िकरन समाना। संत चकोर करिहं जेिह पाना॥


ऐसेइ संसय क ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥

राम क कथा चं मा क िकरण के समान है, िजसे संत पी चकोर सदा पान करते ह। ऐसा ही
संदेह पावती ने िकया था, तब महादेव ने िव तार से उसका उ र िदया था।

दो० - कहउँ सो मित अनहु ा र अब उमा संभु संबाद।


भयउ समय जेिह हेतु जेिह सनु ु मिु न िमिटिह िबषाद॥ 47॥

अब म अपनी बुि के अनुसार वही उमा और िशव का संवाद कहता हँ। वह िजस समय और िजस
हे तु से हआ, उसे हे मुिन! तुम सुनो, तु हारा िवषाद िमट जाएगा॥ 47॥

एक बार ते ा जुग माह । संभु गए कंु भज रिष पाह ॥


संग सती जगजनिन भवानी। पूजे रिष अिखले वर जानी॥

एक बार ेता युग म िशव अग य ऋिष के पास गए। उनके साथ जग जननी भवानी सती भी
ू जगत के ई र जानकर उनका पज
थ । ऋिष ने संपण ू न िकया।
रामकथा मिु नबज बखानी। सन ु ी महेस परम सख
ु ु मानी॥
रिष पूछी ह रभगित सहु ाई। कही संभु अिधकारी पाई॥

मुिनवर अग य ने रामकथा िव तार से कही, िजसको महे र ने परम सुख मानकर सुना। िफर
ऋिष ने िशव से सुंदर ह रभि पछ
ू ी और िशव ने उनको अिधकारी पाकर (रह य सिहत) भि
का िन पण िकया।

कहत सन ु त रघप
ु ित गन
ु गाथा। कछु िदन तहाँ रहे िग रनाथा॥
मिु न सन िबदा मािग ि परु ारी। चले भवन सँग द छकुमारी॥

रघुनाथ के गुण क कथाएँ कहते-सुनते कुछ िदन तक िशव वहाँ रहे । िफर मुिन से िवदा
माँगकर िशव द कुमारी सती के साथ घर (कैलास) को चले।

तेिह अवसर भंजन मिहभारा। ह र रघब


ु ंस ली ह अवतारा॥
िपता बचन तिज राजु उदासी। दंडक बन िबचरत अिबनासी॥

उ ह िदन प ृ वी का भार उतारने के िलए ह र ने रघुवंश म अवतार िलया था। वे अिवनाशी


भगवान उस समय िपता के वचन से रा य का याग करके तप वी या साधु वेश म दंडकवन म
िवचर रहे थे।

दो० - दयँ िबचारत जात हर केिह िबिध दरसनु होइ।


गु प अवतरे उ भु गएँ जान सबु कोइ॥ 48(क)॥

िशव दय म िवचारते जा रहे थे िक भगवान के दशन मुझे िकस कार ह । भु ने गु प से


अवतार िलया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँ गे॥ 48(क)॥

सो० - संकर उर अित छोभु सती न जानिहं मरमु सोइ।


तल
ु सी दरसन लोभु मन ड लोचन लालची॥ 48(ख)॥

शंकर के दय म इस बात को लेकर बड़ी खलबली उ प न हो गई, परं तु सती इस भेद को नह


जानती थ । तुलसीदास कहते ह िक िशव के मन म डर था, परं तु दशन के लोभ से उनके ने
ललचा रहे थे॥ 48(ख)॥

रावन मरन मनज ु कर जाचा। भु िबिध बचनु क ह चह साचा॥


ज निहं जाउँ रहइ पिछतावा। करत िबचा न बनत बनावा॥

रावण ने ( ा से) अपनी म ृ यु मनु य के हाथ से माँगी थी। ा के वचन को भु स य करना


चाहते ह। म जो पास नह जाता हँ तो बड़ा पछतावा रह जाएगा। इस कार िशव िवचार करते थे,
परं तु कोई भी युि ठीक नह बैठती थी।
ऐिह िबिध भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
ली ह नीच मारीचिह संगा। भयउ तरु उ सोइ कपट कुरं गा॥

इस कार महादेव िचंता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ िलया
और वह (मारीच) तुरंत कपट मग
ृ बन गया।

क र छलु मूढ़ हरी बैदहे ी। भु भाउ तस िबिदत न तेही॥


मग
ृ बिध बंधु सिहत ह र आए। आ मु देिख नयन जल छाए॥

ू (रावण) ने छल करके सीता को हर िलया। उसे राम के वा तिवक भाव का कुछ भी पता न
मख
था। मग
ृ को मारकर भाई ल मण सिहत ह र आ म म आए और उसे खाली देखकर (अथात वहाँ
सीता को न पाकर) उनके ने म आँसू भर आए।

िबरह िबकल नर इव रघरु ाई। खोजत िबिपन िफरत दोउ भाई॥


कबहँ जोग िबयोग न जाक। देखा गट िबरह दख ु ु ताक॥

रघुनाथ मनु य क भाँित िवरह से याकुल ह और दोन भाई वन म सीता को खोजते हए िफर रहे
ह। िजनके कभी कोई संयोग-िवयोग नह है, उनम य िवरह का दुःख देखा गया।

दो० - अित िबिच रघपु ित च रत जानिहं परम सज


ु ान।
जे मितमंद िबमोह बस दयँ धरिहं कछु आन॥ 49॥

रघुनाथ का च र बड़ा ही िविच है, उसको पहँचे हए ानीजन ही जानते ह। जो मंदबुि ह, वे तो


िवशेष प से मोह के वश होकर दय म कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते ह॥ 49॥

संभु समय तेिह रामिह देखा। उपजा िहयँ अित हरषु िबसेषा॥
भ र लोचन छिबिसंधु िनहारी। कुसमय जािन न क ि ह िच हारी॥

िशव ने उसी अवसर पर राम को देखा और उनके दय म बहत भारी आनंद उ प न हआ। शोभा
के उस समु को िशव ने ने भरकर देखा, परं तु अवसर ठीक न जानकर प रचय नह िकया।

जय सि चदानंद जग पावन। अस किह चलेउ मनोज नसावन॥


ु कत कृपािनकेता॥
चले जात िसव सती समेता। पिु न पिु न पल

जगत को पिव करनेवाले सि चदानंद क जय हो, इस कार कहकर कामदेव का नाश


करनेवाले िशव चल पड़े । कृपािनधान िशव बार-बार आनंद से पुलिकत होते हए सती के साथ चले
जा रहे थे।
सत सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदहे िबसेषी॥
संक जगतबं जगदीसा। सरु नर मिु न सब नावत सीसा॥

सती ने शंकर क वह दशा देखी तो उनके मन म बड़ा संदेह उ प न हो गया। (वे मन-ही-मन
कहने लग िक) शंकर क सारा जगत वंदना करता है, वे जगत के ई र ह; देवता, मनु य, मुिन
सब उनके ित िसर नवाते ह।

ित ह नप
ृ सत
ु िह क ह परनामा। किह सि चदानंद परधामा॥
भए मगन छिब तासु िबलोक । अजहँ ीित उर रहित न रोक ॥

उ ह ने एक राजपु को सि चदानंद परधाम कहकर णाम िकया और उसक शोभा देखकर वे


इतने ेमम न हो गए िक अब तक उनके दय म ीित रोकने से भी नह कती।

दो० - जो यापक िबरज अज अकल अनीह अभेद।


सो िक देह ध र होइ नर जािह न जानत बेद॥ 50॥

जो सव यापक, मायारिहत, अज मा, अगोचर, इ छारिहत और भेदरिहत है और िजसे वेद भी


नह जानते, या वह देह धारण करके मनु य हो सकता है?॥ 50॥

िब नु जो सरु िहत नरतनु धारी। सोउ सब य जथा ि परु ारी॥


खोजइ सो िक अ य इव नारी। यानधामपित असरु ारी॥

देवताओं के िहत के िलए मनु य शरीर धारण करनेवाले जो िव णु भगवान ह, वे भी िशव क ही


भाँित सव ह। वे ान के भंडार, ल मीपित और असुर के श ु भगवान िव णु या अ ानी क
तरह ी को खोजगे?

संभिु गरा पिु न मष


ृ ा न होई। िसव सब य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न दयँ बोध चारा॥

िफर िशव के वचन भी झठ


ू े नह हो सकते। सब कोई जानते ह िक िशव सव ह। सती के मन म
इस कार का अपार संदेह उठ खड़ा हआ, िकसी तरह भी उनके दय म ान का ादुभाव नह
होता था।

ज िप गट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥


सन
ु िह सती तव ना र सभ
ु ाऊ। संसय अस न ध रअ उर काऊ॥

य िप भवानी ने कट कुछ नह कहा, पर अंतयामी िशव सब जान गए। वे बोले - हे सती! सुनो,
तु हारा ी वभाव है। ऐसा संदेह मन म कभी न रखना चािहए।
जासु कथा कंु भज रिष गाई। भगित जासु म मिु निह सन ु ाई॥
सोइ मम इ देव रघब ु ीरा। सेवत जािह सदा मिु न धीरा॥

िजनक कथा का अग य ऋिष ने गान िकया और िजनक भि मने मुिन को सुनाई, ये वही
मेरे इ देव रघुवीर ह, िजनक सेवा ानी मुिन सदा िकया करते ह।

छं ० - मिु न धीर जोगी िस संतत िबमल मन जेिह यावह ।


किह नेित िनगम परु ान आगम जासु क रित गावह ॥
सोइ रामु यापक भव
ु न िनकाय पित माया धनी।
अवतरे उ अपने भगत िहत िनजतं िनत रघक ु ु लमनी॥

ानी मुिन, योगी और िस िनरं तर िनमल िच से िजनका यान करते ह तथा वेद, पुराण और
शा 'नेित-नेित' कहकर िजनक क ित गाते ह, उ ह सव यापक, सम त ांड के वामी,
मायापित, िन य परम वतं , प भगवान राम ने अपने भ के िहत के िलए रघुकुल के
मिण प म अवतार िलया है।

सो० - लाग न उर उपदेसु जदिप कहेउ िसवँ बार बह।


बोले िबहिस महेसु ह रमाया बलु जािन िजयँ॥ 51॥

य िप िशव ने बहत बार समझाया, िफर भी सती के दय म उनका उपदेश नह बैठा। तब महादेव
मन म भगवान क माया का बल जानकर मु कुराते हए बोले - ॥ 51॥

ज तु हर मन अित संदहे । तौ िकन जाइ परीछा लेह॥


तब लिग बैठ अहउँ बटछाह । जब लिग तु ह ऐहह मोिह पाह ॥

जो तु हारे मन म बहत संदेह है तो तुम जाकर परी ा य नह लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट
आओगी तब तक म इसी बड़ क छाँह म बैठा हँ।

जैस जाइ मोह म भारी। करे ह सो जतनु िबबेक िबचारी॥


चल सती िसव आयसु पाई। करिहं िबचा कर का भाई॥

िजस कार तु हारा यह अ ानजिनत भारी म दूर हो, िववेक के ारा सोच-समझकर तुम वही
करना। िशव क आ ा पाकर सती चल और मन म सोचने लग िक भाई! या क ँ ?

इहाँ संभु अस मन अनम


ु ाना। द छसत ु ा कहँ निहं क याना॥
मोरे ह कह न संसय जाह । िबिध िबपरीत भलाई नाह ॥

इधर िशव ने मन म ऐसा अनुमान िकया िक द क या सती का क याण नह है। जब मेरे


समझाने से भी संदेह दूर नह होता तब िवधाता ही उलटे ह, अब सती का कुशल नह है।
होइिह सोइ जो राम रिच राखा। को क र तक बढ़ावै साखा॥
अस किह लगे जपन ह रनामा। गई ं सती जहँ भु सख ु धामा॥

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तक करके कौन शाखा (िव तार) बढ़ावे। (मन म) ऐसा
कहकर िशव भगवान ह र का नाम जपने लगे और सती वहाँ गई ं जहाँ सुख के धाम भु राम थे।

दो० - पिु न पिु न दयँ िबचा क र ध र सीता कर प।


आग होइ चिल पंथ तेिहं जेिहं आवत नरभूप॥ 52॥

सती बार-बार मन म िवचार कर सीता का प धारण करके उस माग क ओर आगे होकर चल ,


िजससे मनु य के राजा राम आ रहे थे॥ 52॥

लिछमन दीख उमाकृत बेषा। चिकत भए म दयँ िबसेषा॥


किह न सकत कछु अित गंभीरा। भु भाउ जानत मितधीरा॥

सती के बनावटी वेष को देखकर ल मण चिकत हो गए और उनके दय म बड़ा म हो गया। वे


बहत गंभीर हो गए, कुछ कह नह सके। धीर- बुि ल मण भु रघुनाथ के भाव को जानते थे।

सती कपटु जानेउ सरु वामी। सबदरसी सब अंतरजामी॥


सिु मरत जािह िमटइ अ याना। सोइ सरब य रामु भगवाना॥

सब कुछ देखनेवाले और सबके दय क जाननेवाले देवताओं के वामी राम सती के कपट को


जान गए, िजनके मरण मा से अ ान का नाश हो जाता है, वही सव भगवान राम ह।

सती क ह चह तहँहँ दरु ाऊ। देखह ना र सभ


ु ाव भाऊ॥
िनज माया बलु दयँ बखानी। बोले िबहिस रामु मदृ ु बानी॥

ी वभाव का असर तो देखो िक वहाँ भी सती िछपाव करना चाहती ह। अपनी माया के बल को
दय म बखानकर, राम हँसकर कोमल वाणी से बोले।

जो र पािन भु क ह नामू। िपता समेत ली ह िनज नामू॥


ृ केत।ू िबिपन अकेिल िफरह केिह हेत॥
कहेउ बहो र कहाँ बष ू

पहले भु ने हाथ जोड़कर सती को णाम िकया और िपता सिहत अपना नाम बताया। िफर कहा
िक वषृ केतु िशव कहाँ ह? आप यहाँ वन म अकेली िकसिलए िफर रही ह?

दो० - राम बचन मदृ ु गूढ़ सिु न उपजा अित संकोच।ु


सती सभीत महेस पिहं चल दयँ बड़ सोच॥ु 53॥
राम के कोमल और रह य भरे वचन सुनकर सती को बड़ा संकोच हआ। वे डरती हई िशव के
पास चल , उनके दय म बड़ी िचंता हो गई॥ 53॥

म संकर कर कहा न माना। िनज अ यानु राम पर आना॥


जाइ उत अब देहउँ काहा। उर उपजा अित दा न दाहा॥

िक मने शंकर का कहना न माना और अपने अ ान का राम पर आरोप िकया। अब जाकर म


िशव को या उ र दँूगी? (य सोचते-सोचते) सती के दय म अ यंत भयानक जलन पैदा हो गई।

जाना राम सत दख ु ु पावा। िनज भाउ कछु गिट जनावा॥


सत दीख कौतक ु ु मग जाता। आग रामु सिहत ाता॥

राम ने जान िलया िक सती को दुःख हआ, तब उ ह ने अपना कुछ भाव कट करके उ ह
िदखलाया। सती ने माग म जाते हए यह कौतुक देखा िक राम सीता और ल मण सिहत आगे
चले जा रहे ह।

िफ र िचतवा पाछ भु देखा। सिहत बंधु िसय संदु र बेषा॥


जहँ िचतविहं तहँ भु आसीना। सेविहं िस मनु ीस बीना॥

उ ह ने पीछे क ओर िफरकर देखा, तो वहाँ भी भाई ल मण और सीता के साथ राम संुदर वेष म
िदखाई िदए। वे िजधर देखती ह, उधर ही भु राम िवराजमान ह और सुचतुर िस मुनी र उनक
सेवा कर रहे ह।

देखे िसव िबिध िब नु अनेका। अिमत भाउ एक त एका॥


बंदत चरन करत भु सेवा। िबिबध बेष देखे सब देवा॥

सती ने अनेक िशव, ा और िव णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम भाववाले थे। भाँित-
भाँित के वेष धारण िकए सभी देवता राम क चरणवंदना और सेवा कर रहे ह।

दो० - सती िबधा ी इं िदरा देख अिमत अनूप।


जेिहं जेिहं बेष अजािद सरु तेिह तेिह तन अनु प॥ 54॥

उ ह ने अनिगनत अनुपम सती, ाणी और ल मी देख । िजस-िजस प म ा आिद देवता


थे, उसी के अनुकूल प म ये सब भी थ ॥ 54॥

देखे जहँ जहँ रघप


ु ित जेत।े सि ह सिहत सकल सरु तेत॥े
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक कारा॥

सती ने जहाँ-जहाँ िजतने रघुनाथ देखे, शि य सिहत वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा।
संसार म जो चराचर जीव ह, वे भी अनेक कार के सब देखे।

पूजिहं भिु ह देव बह बेषा। राम प दूसर निहं देखा॥


अवलोके रघप ु ित बहतेरे। सीता सिहत न बेष घनेरे॥

अनेक वेष धारण करके देवता भु राम क पज ू ा कर रहे ह, परं तु राम का दूसरा प कह नह
देखा। सीता सिहत रघुनाथ बहत-से देखे, परं तु उनके वेष अनेक नह थे।

सोइ रघब
ु र सोइ लिछमनु सीता। देिख सती अित भई ं सभीता॥
दय कंप तन सिु ध कछु नाह । नयन मूिद बैठ मग माह ॥

वही रघुनाथ, वही ल मण और वही सीता - सती ऐसा देखकर बहत ही डर गई ं। उनका दय
काँपने लगा और देह क सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मँदू कर माग म बैठ गई ं।

बह र िबलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ द छकुमारी॥


पिु न पिु न नाइ राम पद सीसा। चल तहाँ जहँ रहे िगरीसा॥

िफर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ द कुमारी को कुछ भी न िदख पड़ा। तब वे बार-बार राम के
चरण म िसर नवाकर वहाँ चल , जहाँ िशव थे।

दो० - गई ं समीप महेस तब हँिस पूछी कुसलात।


लीि ह परीछा कवन िबिध कहह स य सब बात॥ 55॥

जब पास पहँच , तब िशव ने हँसकर कुशल करके कहा िक तुमने राम क िकस कार
परी ा ली, सारी बात सच-सच कहो॥ 55॥

सत समिु झ रघब
ु ीर भाऊ। भय बस िसव सन क ह दरु ाऊ॥
कछु न परीछा लीि ह गोसाई ं। क ह नामु तु हा रिह नाई ं॥

सती ने रघुनाथ के भाव को समझकर डर के मारे िशव से िछपाव िकया और कहा - हे वािमन्!
मने कुछ भी परी ा नह ली, (वहाँ जाकर) आपक ही तरह णाम िकया।

जो तु ह कहा सो मष
ृ ा न होई। मोर मन तीित अित सोई॥
तब संकर देखउे ध र याना। सत जो क ह च रत सबु जाना॥

आपने जो कहा वह झठ ू नह हो सकता, मेरे मन म यह बड़ा िव ास है। तब िशव ने यान करके


देखा और सती ने जो च र िकया था, सब जान िलया।

बह र राममायिह िस नावा। े र सितिह जेिहं झँूठ कहावा॥


ह र इ छा भावी बलवाना। दयँ िबचारत संभु सज
ु ाना॥

िफर राम क माया को िसर नवाया, िजसने ेरणा करके सती के मँुह से भी झठ
ू कहला िदया।
सुजान िशव ने मन म िवचार िकया िक ह र क इ छा पी भावी बल है।

सत क ह सीता कर बेषा। िसव उर भयउ िबषाद िबसेषा॥


ज अब करउँ सती सन ीती। िमटइ भगित पथु होइ अनीती॥

सती ने सीता का वेष धारण िकया, यह जानकर िशव के दय म बड़ा िवषाद हआ। उ ह ने सोचा
िक यिद म अब सती से ीित करता हँ तो भि माग लु हो जाता है और बड़ा अ याय होता है।

दो० - परम पन े बड़ पाप।ु


ु ीत न जाइ तिज िकएँ म
गिट न कहत महेसु कछु दयँ अिधक संताप॥ु 56॥

सती परम पिव ह, इसिलए इ ह छोड़ते भी नह बनता और ेम करने म बड़ा पाप है। कट
करके महादेव कुछ भी नह कहते, परं तु उनके दय म बड़ा संताप है॥ 56॥

तब संकर भु पद िस नावा। सिु मरत रामु दयँ अस आवा॥


एिहं तन सितिह भट मोिह नाह । िसव संक पु क ह मन माह ॥

तब िशव ने भु राम के चरण कमल म िसर नवाया और राम का मरण करते ही उनके मन म
यह आया िक सती के इस शरीर से मेरी भट नह हो सकती और िशव ने अपने मन म यह संक प
कर िलया।

अस िबचा र संक मितधीरा। चले भवन सिु मरत रघब


ु ीरा॥
चलत गगन भै िगरा सहु ाई। जय महेस भिल भगित ढ़ाई॥

ि थर-बुि शंकर ऐसा िवचार कर रघुनाथ का मरण करते हए अपने घर (कैलास) को चले।
चलते समय सुंदर आकाशवाणी हई िक हे महे श! आपक जय हो। आपने भि क अ छी ढ़ता
क।

अस पन तु ह िबनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥


सिु न नभिगरा सती उर सोचा। पूछा िसविह समेत सकोचा॥

आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी ित ा कर सकता है। आप राम के भ ह, समथ ह और


भगवान ह। इस आकाशवाणी को सुनकर सती के मन म िचंता हई और उ ह ने सकुचाते हए िशव
से पछ
ू ा-।

क ह कवन पन कहह कृपाला। स यधाम भु दीनदयाला॥


जदिप सत पूछा बह भाँती। तदिप न कहेउ ि परु आराती॥

हे कृपालु! किहए, आपने कौन-सी ित ा क है? हे भो! आप स य के धाम और दीनदयालु ह।


य िप सती ने बहत कार से पछ ू ा, परं तु ि पुरा र िशव ने कुछ न कहा।

दो० - सत दयँ अनमु ान िकय सबु जानेउ सब य।


क ह कपटु म संभु सन ना र सहज जड़ अ य॥ 57(क)॥

सती ने दय म अनुमान िकया िक सव िशव सब जान गए। मने िशव से कपट िकया। ी
वभाव से ही मख
ू और बेसमझ होती है॥ 57(क)॥

सो० - जलु पय स रस िबकाइ देखह ीित िक रीित भिल।


िबलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पिु न॥ 57(ख)॥

ीित क संुदर रीित देिखए िक जल भी (दूध के साथ िमलकर) दूध के समान भाव िबकता है,
परं तु िफर कपट पी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और वाद ( ेम)
जाता रहता है॥ 57(ख)॥

दयँ सोचु समझु त िनज करनी। िचंता अिमत जाइ निहं बरनी॥
कृपािसंधु िसव परम अगाधा। गट न कहेउ मोर अपराधा॥

अपनी करनी को याद करके सती के दय म इतना सोच है और इतनी अपार िचंता है िक
िजसका वणन नह िकया जा सकता। िशव कृपा के परम अथाह सागर ह। इससे कट म उ ह ने
मेरा अपराध नह कहा।

संकर ख अवलोिक भवानी। भु मोिह तजेउ दयँ अकुलानी॥


िनज अघ समिु झ न कछु किह जाई। तपइ अवाँ इव उर अिधकाई॥

िशव का ख देखकर सती ने जान िलया िक वामी ने मेरा याग कर िदया और वे दय म


याकुल हो उठ । अपना पाप समझकर कुछ कहते नह बनता, परं तु दय कु हार के आँवे के
समान अ यंत तपे रहा है।

सितिह ससोच जािन बषृ केत।ू कह कथा संदु र सख


ु हेत॥

बरनत पंथ िबिबध इितहासा। िब वनाथ पहँचे कैलासा॥

वषृ केतु िशव ने सती को िचंतायु जानकर उ ह सुख देने के िलए सुंदर कथाएँ कह । इस कार
माग म िविवध कार के इितहास को कहते हए िव नाथ कैलास जा पहँचे।

तहँ पिु न संभु समिु झ पन आपन। बैठे बट तर क र कमलासन॥


संकर सहज स पु स हारा। लािग समािध अखंड अपारा॥

वहाँ िफर िशव अपनी ित ा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे प ासन लगाकर बैठ गए। िशव
ने अपना वाभािवक प संभाला। उनक अखंड और अपार समािध लग गई।

दो० - सती बसिहं कैलास तब अिधक सोचु मन मािहं।


मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम िदवस िसरािहं॥ 58॥

तब सती कैलास पर रहने लग । उनके मन म बड़ा दुःख था। इस रह य को कोई कुछ भी नह


जानता था। उनका एक-एक िदन युग के समान बीत रहा था॥ 58॥

िनत नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दख


ु सागर पारा॥
म जो क ह रघपु ित अपमाना। पिु न पितबचनु मष
ृ ा क र जाना॥

सती के दय म िन य नया और भारी सोच हो रहा था िक म इस दुःख-समु के पार कब


जाऊँगी। मने जो रघुनाथ का अपमान िकया और िफर पित के वचन को झठू जाना - ।

सो फलु मोिह िबधाताँ दी हा। जो कछु उिचत रहा सोइ क हा॥


अब िबिध अस बूिझअ निहं तोही। संकर िबमख ु िजआविस मोही॥

उसका फल िवधाता ने मुझको िदया, जो उिचत था वही िकया; परं तु हे िवधाता! अब तुझे यह
उिचत नह है, जो शंकर से िवमुख होने पर भी मुझे िजला रहा है।

किह न जाइ कछु दय गलानी। मन महँ रामिह सिु मर सयानी॥


ज भु दीनदयालु कहावा। आरित हरन बेद जसु गावा॥

सती के दय क लािन कुछ कही नह जाती। बुि मती सती ने मन म राम का मरण िकया
और कहा - हे भो! यिद आप दीनदयालु कहलाते ह और वेद ने आपका यह यश गाया है िक
आप दुःख को हरनेवाले ह,

तौ म िबनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेिग देह यह मोरी॥


ज मोर िसव चरन सनेह। मन म बचन स य तु एह॥

तो म हाथ जोड़कर िवनती करती हँ िक मेरी यह देह ज दी छूट जाए। यिद मेरा िशव के चरण म
ेम है और मेरा यह त मन, वचन और कम से स य है,

दो० - तौ सबदरसी सिु नअ भु करउ सो बेिग उपाइ।


होइ मरनु जेिहं िबनिहं म दस
ु ह िबपि िबहाइ॥ 59॥
तो हे सवदश भो! सुिनए और शी वह उपाय क िजए, िजससे मेरा मरण हो और िबना ही
प र म यह (पित-प र याग पी) अस िवपि दूर हो जाए॥ 59॥

एिह िबिध दिु खत जेसकुमारी। अकथनीय दा न दख


ु ु भारी॥
बीत संबत सहस सतासी। तजी समािध संभु अिबनासी॥

द सुता सती इस कार बहत दुःिखत थ , उनको इतना दा ण दुःख था िक िजसका वणन नह
िकया जा सकता। स ासी हजार वष बीत जाने पर अिवनाशी िशव ने समािध खोली।

राम नाम िसव सिु मरन लागे। जानेउ सत जगतपित जागे॥


जाइ संभु पद बंदनु क हा। सनमखु संकर आसनु दी हा॥

िशव रामनाम का मरण करने लगे, तब सती ने जाना िक अब जगत के वामी (िशव) जागे।
उ ह ने जाकर िशव के चरण म णाम िकया। िशव ने उनको बैठने के िलए सामने आसन िदया।

लगे कहन ह र कथा रसाला। द छ जेस भए तेिह काला॥


देखा िबिध िबचा र सब लायक। द छिह क ह जापित नायक॥

िशव भगवान ह र क रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय द जापित हए। ा ने सब
कार से यो य देख-समझकर द को जापितय का नायक बना िदया।

बड़ अिधकार द छ जब पावा। अित अिभनामु दयँ तब आवा॥


निहं कोउ अस जनमा जग माह । भतु ा पाइ जािह मद नाह ॥

जब द ने इतना बड़ा अिधकार पाया, तब उनके दय म अ यंत अिभमान आ गया। जगत म ऐसा
कोई नह पैदा हआ िजसको भुता पाकर मद न हो।

दो० - द छ िलए मिु न बोिल सब करन लगे बड़ जाग।


नेवते सादर सकल सरु जे पावत मख भाग॥ 60॥

द ने सब मुिनय को बुला िलया और वे बड़ा य करने लगे। जो देवता य का भाग पाते ह,


द ने उन सबको आदर सिहत िनमंि त िकया॥ 60॥

िकंनर नाग िस गंधबा। बधु ह समेत चले सरु सबा॥


िब नु िबरं िच महेसु िबहाई। चले सकल सरु जान बनाई॥

(द का िनमं ण पाकर) िक नर, नाग, िस , गंधव और सब देवता अपनी-अपनी ि य सिहत


चले। िव णु, ा और महादेव को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना िवमान सजाकर चले।
सत िबलोके योम िबमाना। जात चले संदु र िबिध नाना॥
सरु संदु री करिहं कल गाना। सन
ु त वन छूटिहं मिु न याना॥

सती ने देखा, अनेक कार के सुंदर िवमान आकाश म चले जा रहे ह, देव-सुंद रयाँ मधुर गान
कर रही ह, िज ह सुनकर मुिनय का यान छूट जाता है।

पूछेउ तब िसवँ कहेउ बखानी। िपता ज य सिु न कछु हरषानी॥


ज महेसु मोिह आयसु देह । कछु िदन जाइ रह िमस एह ॥

सती ने (िवमान म देवताओं के जाने का कारण) पछ


ू ा, तब िशव ने सब बात बतलाई ं। िपता के
य क बात सुनकर सती कुछ स न हई ं और सोचने लग िक यिद महादेव मुझे आ ा द, तो
इसी बहाने कुछ िदन िपता के घर जाकर रहँ।

पित प र याग दयँ दख


ु ु भारी। कहइ न िनज अपराध िबचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच म े रस सानी॥

य िक उनके दय म पित ारा यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध
समझकर वे कुछ कहती न थ । आिखर सती भय, संकोच और ेमरस म सनी हई मनोहर वाणी
से बोल - ।

दो० - िपता भवन उ सव परम ज भु आयसु होइ।


तौ म जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥ 61॥

हे भो! मेरे िपता के घर बहत बड़ा उ सव है। यिद आपक आ ा हो तो हे कृपाधाम! म आदर
सिहत उसे देखने जाऊँ॥ 61॥

कहेह नीक मोरे हँ मन भावा। यह अनिु चत निहं नेवत पठावा॥


द छ सकल िनज सत ु ा बोलाई ं। हमर बयर तु हउ िबसराई ं॥

िशव ने कहा - तुमने बात तो अ छी कही, यह मेरे मन को भी पसंद आई, पर उ ह ने योता नह


भेजा, यह अनुिचत है। द ने अपनी सब लड़िकय को बुलाया है; िकंतु हमारे बैर के कारण
उ ह ने तुमको भी भुला िदया।

सभाँ हम सन दख
ु ु माना। तेिह त अजहँ करिहं अपमाना॥
ज िबनु बोल जाह भवानी। रहइ न सीलु सनेह न कानी॥

एक बार ा क सभा म हमसे अ स न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते ह। हे


भवानी! जो तुम िबना बुलाए जाओगी तो न शील- नेह ही रहे गा और न मान-मयादा ही रहे गी।
जदिप िम भु िपतु गरु गेहा। जाइअ िबनु बोलेहँ न सँदहे ा॥
तदिप िबरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ क यानु न होई॥

य िप इसम संदेह नह िक िम , वामी, िपता और गु के घर िबना बुलाए भी जाना चािहए तो


भी जहाँ कोई िवरोध मानता हो, उसके घर जाने से क याण नह होता।

भाँित अनेक संभु समझ


ु ावा। भावी बस न यानु उर आवा॥
कह भु जाह जो िबनिहं बोलाएँ । निहं भिल बात हमारे भाएँ ॥

िशव ने बहत कार से समझाया, पर होनहारवश सती के दय म बोध नह हआ। िफर िशव ने
कहा िक यिद िबना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ म अ छी बात न होगी।

दो० - किह देखा हर जतन बह रहइ न द छकुमा र।


िदए मु य गन संग तब िबदा क ह ि परु ा र॥ 62॥

िशव ने बहत कार से कहकर देख िलया, िकंतु जब सती िकसी कार भी नह क , तब
ि पुरा र महादेव ने अपने मु य गण को साथ देकर उनको िबदा कर िदया॥ 62॥

िपता भवन जब गई ं भवानी। द छ ास काहँ न सनमानी॥


सादर भलेिहं िमली एक माता। भिगन िमल बहत मस
ु क
ु ाता॥

भवानी जब िपता (द ) के घर पहँची, तब द के डर के मारे िकसी ने उनक आवभगत नह


क , केवल एक माता भले ही आदर से िमली। बहन बहत मु कुराती हई िमल ।

द छ न कछु पूछी कुसलाता। सितिह िबलोक जरे सब गाता॥


सत जाइ देखउे तब जागा। कतहँ न दीख संभु कर भागा॥

द ने तो उनक कुछ कुशल तक नह पछ ू ी, सती को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे ।
तब सती ने जाकर य देखा तो वहाँ कह िशव का भाग िदखाई नह िदया।

तब िचत चढ़ेउ जो संकर कहेऊ। भु अपमानु समिु झ उर दहेऊ॥


पािछल दख
ु ु न दयँ अस यापा। जस यह भयउ महा प रतापा॥

तब िशव ने जो कहा था, वह उनक समझ म आया। वामी का अपमान समझकर सती का दय
जल उठा। िपछला (पित प र याग का) दुःख उनके दय म उतना नह यापा था, िजतना महान
दुःख इस समय (पित अपमान के कारण) हआ।

ज िप जग दा न दख ु नाना। सब त किठन जाित अवमाना॥


समिु झ सो सितिह भयउ अित ोधा। बह िबिध जनन क ह बोधा॥
य िप जगत म अनेक कार के दा ण दुःख ह, तथािप जाित-अपमान सबसे बढ़कर किठन है।
यह समझकर सती को बड़ा ोध हो आया। माता ने उ ह बहत कार से समझाया-बुझाया।

दो० - िसव अपमानु न जाइ सिह दयँ न होइ बोध।


सकल सभिह हिठ हटिक तब बोल बचन स ोध॥ 63॥

परं तु उनसे िशव का अपमान सहा नह गया, इससे उनके दय म कुछ भी बोध नह हआ। तब वे
सारी सभा को हठपवू क डाँटकर ोधभरे वचन बोल - ॥ 63॥

सन
ु ह सभासद सकल मिु नंदा। कही सन ु ी िज ह संकर िनंदा॥
सो फलु तरु त लहब सब काहँ। भली भाँित पिछताब िपताहँ॥

हे सभासदो और सब मुनी रो! सुनो। िजन लोग ने यहाँ िशव क िनंदा क या सुनी है, उन
सबको उसका फल तुरंत ही िमलेगा और मेरे िपता द भी भली भाँित पछताएँ गे।

संत संभप
ु ित अपबादा। सिु नअ जहाँ तहँ अिस मरजादा॥
कािटअ तासु जीभ जो बसाई। वन मूिद न त चिलअ पराई॥

जहाँ संत, िशव और ल मीपित िव णु भगवान क िनंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मयादा है िक यिद
अपना वश चले तो उस (िनंदा करनेवाले) क जीभ काट ले और नह तो कान मँदू कर वहाँ से
भाग जाए।

जगदातमा महेसु परु ारी। जगत जनक सब के िहतकारी॥


िपता मंदमित िनंदत तेही। द छ सु संभव यह देही॥

ू जगत के आ मा ह, वे जगि पता और सबका


ि पुर दै य को मारनेवाले भगवान महे र संपण
िहत करनेवाले ह। मेरा मंदबुि िपता उनक िनंदा करता है और मेरा यह शरीर द ही के वीय से
उ प न है।

ृ केत॥
तिजहउँ तरु त देह तेिह हेत।ू उर ध र चं मौिल बष ू
अस किह जोग अिगिन तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥

इसिलए चं मा को ललाट पर धारण करनेवाले वषृ केतु िशव को दय म धारण करके म इस


शरीर को तुरंत ही याग दँूगी। ऐसा कहकर सती ने योगाि न म अपना शरीर भ म कर डाला।
सारी य शाला म हाहाकार मच गया।

दो० - सती मरनु सिु न संभु गन लगे करन मख खीस।


ज य िबधंस िबलोिक भग ृ ु र छा क ि ह मन
ु ीस॥ 64॥
सती का मरण सुनकर िशव के गण य िव वंस करने लगे। य िव वंस होते देखकर मुनी र
भग
ृ ु ने उसक र ा क ॥ 64॥

समाचार सब संकर पाए। बीरभ ु क र कोप पठाए॥


ज य िबधंस जाइ ित ह क हा। सकल सरु ह िबिधवत फलु दी हा॥

ये सब समाचार िशव को िमले, तब उ ह ने ोध करके वीरभ को भेजा। उ ह ने वहाँ जाकर य


िव वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोिचत फल (दंड) िदया।

ु कै होई॥
भै जगिबिदत द छ गित सोई। जिस कछु संभु िबमख
यह इितहास सकल जग जानी। ताते म संछेप बखानी॥

द क जग िस वही गित हई, जो िशव ोही क हआ करती है। यह इितहास सारा संसार
जानता है, इसिलए मने सं ेप म वणन िकया।

सत मरत ह र सन ब मागा। जनम जनम िसव पद अनरु ागा॥


तेिह कारन िहमिग र गहृ जाई। जनम पारबती तनु पाई॥

सती ने मरते समय भगवान ह र से यह वर माँगा िक मेरा ज म-ज म म िशव के चरण म


अनुराग रहे । इसी कारण उ ह ने िहमाचल के घर जाकर पावती के शरीर से ज म िलया।

जब त उमा सैल गहृ जाई ं। सकल िसि संपित तहँ छाई ं॥


जहँ तहँ मिु न ह सआ
ु म क हे। उिचत बास िहम भूधर दी हे॥

जब से उमा िहमाचल के घर जनम , तब से वहाँ सारी िसि याँ और संपि याँ छा गई ं। मुिनय ने
जहाँ-तहाँ सुंदर आ म बना िलए और िहमाचल ने उनको उिचत थान िदए।

दो० - सदा समु न फल सिहत सब मु नव नाना जाित।


गट संदु र सैल पर मिन आकर बह भाँित॥ 65॥

उस सुंदर पवत पर बहत कार के सब नए-नए व ृ सदा पु प-फलयु हो गए और वहाँ बहत


तरह क मिणय क खान कट हो गई ं॥ 65॥

स रता सब पन
ु ीत जलु बहह । खग मग
ृ मधप
ु सख
ु ी सब रहह ॥
सहज बय सब जीव ह यागा। िग र पर सकल करिहं अनरु ागा॥

सारी निदय म पिव जल बहता है और प ी, पशु, मर सभी सुखी रहते ह। सब जीव ने अपना
वाभािवक बैर छोड़ िदया है और पवत पर सभी पर पर ेम करते ह।
सोह सैल िग रजा गहृ आएँ । िजिम जनु रामभगित के पाएँ ॥
िनत नूतन मंगल गहृ तासू। ािदक गाविहं जसु जासू॥

पावती के घर आ जाने से पवत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभि को पाकर भ


शोभायमान होता है। उस (पवतराज) के घर िन य नए-नए मंगलो सव होते ह, िजसका ािद
यश गाते ह।

नारद समाचार सब पाए। कौतक


ु ह िग र गेह िसधाए॥
सैलराज बड़ आदर क हा। पद पखा र बर आसनु दी हा॥

जब नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से िहमाचल के घर पधारे । पवतराज ने


उनका बड़ा आदर िकया और चरण धोकर उ ह उ म आसन िदया।

ना र सिहत मिु न पद िस नावा। चरन सिलल सबु भवनु िसंचावा॥


िनज सौभा य बहत िग र बरना। सत ु ा बोिल मेली मिु न चरना॥

िफर अपनी ी सिहत मुिन के चरण म िसर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर म
िछड़काया। िहमाचल ने अपने सौभा य का बहत बखान िकया और पु ी को बुलाकर मुिन के
चरण पर डाल िदया।

दो० - ि काल य सब य तु ह गित सब तु हा र।


कहह सत ु ा के दोष गन
ु मिु नबर दयँ िबचा र॥ 66॥

(और कहा -) हे मुिनवर! आप ि काल और सव ह, आपक सव पहँच है। अतः आप दय म


िवचार कर क या के दोष-गुण किहए॥ 66॥

कह मिु न िबहिस गूढ़ मदृ ु बानी। सत


ु ा तु हा र सकल गन
ु खानी॥
संदु र सहज सस
ु ील सयानी। नाम उमा अंिबका भवानी॥

नारद मुिन ने हँसकर रह ययु कोमल वाणी से कहा - तु हारी क या सब गुण क खान है।
यह वभाव से ही सुंदर, सुशील और समझदार है। उमा, अंिबका और भवानी इसके नाम ह।

सब ल छन संप न कुमारी। होइिह संतत िपयिह िपआरी॥


सदा अचल एिह कर अिहवाता। एिह त जसु पैहिहं िपतु माता॥

क या सब सुल ण से संप न है, यह अपने पित को सदा यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल
रहे गा और इससे इसके माता-िपता यश पाएँ गे।

होइिह पू य सकल जग माह । एिह सेवत कछु दल


ु भ नाह ॥
एिह कर नामु सिु म र संसारा। ि य चिढ़हिहं पित त अिसधारा॥

यह सारे जगत म पू य होगी और इसक सेवा करने से कुछ भी दुलभ न होगा। संसार म ि याँ
इसका नाम मरण करके पित ता पी तलवार क धार पर चढ़ जाएँ गी।

सैल सल
ु छन सतु ा तु हारी। सन
ु ह जे अब अवगन
ु दइु चारी॥
अगनु अमान मातु िपतु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥

हे पवतराज! तु हारी क या सुल छनी है। अब इसम जो दो-चार अवगुण ह, उ ह भी सुन लो।
गुणहीन, मानहीन, माता-िपता-िवहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)।

दो० - जोगी जिटल अकाम मन नगन अमंगल बेष।


अस वामी एिह कहँ िमिलिह परी ह त अिस रे ख॥ 67॥

योगी, जटाधारी, िन काम दय, नंगा और अमंगल वेषवाला, ऐसा पित इसको िमलेगा। इसके
हाथ म ऐसी ही रे खा पड़ी है॥ 67॥

सिु न मिु न िगरा स य िजयँ जानी। दख


ु दंपितिह उमा हरषानी॥
नारदहँ यह भेदु न जाना। दसा एक समझ ु ब िबलगाना॥

नारद मुिन क वाणी सुनकर और उसको दय म स य जानकर पित-प नी (िहमवान और मैना)


को दुःख हआ, िकंतु पावती स न हई ं। नारद ने भी इस रह य को नह जाना, य िक सबक
बाहरी दशा एक-सी होने पर भी भीतरी समझ िभ न-िभ न थी।

सकल सख िग रजा िग र मैना। पल ु क सरीर भरे जल नैना॥


होइ न मष
ृ ा देव रिष भाषा। उमा सो बचनु दयँ ध र राखा॥

सारी सिखयाँ, पावती, पवतराज िहमवान और मैना सभी के शरीर पुलिकत थे और सभी के ने
म जल भरा था। देविष के वचन अस य नह हो सकते, (यह िवचारकर) पावती ने उन वचन को
दय म धारण कर िलया।

उपजेउ िसव पद कमल सनेह। िमलन किठन मन भा संदहे ॥


जािन कुअवस ीित दरु ाई। सखी उछँ ग बैठी पिु न जाई॥

उ ह िशव के चरण कमल म नेह उ प न हो आया, परं तु मन म यह संदेह हआ िक उनका


िमलना किठन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने ेम को िछपा िलया और िफर वे सखी
क गोद म जाकर बैठ गई ं।

झूिठ न होइ देव रिष बानी। सोचिहं दंपित सख सयानी॥


उर ध र धीर कहइ िग रराऊ। कहह नाथ का क रअ उपाऊ॥

देविष क वाणी झठ
ू ी न होगी, यह िवचार कर िहमवान, मैना और सारी चतुर सिखयाँ िचंता करने
लग । िफर दय म धीरज धरकर पवतराज ने कहा - हे नाथ! किहए, अब या उपाय िकया जाए?

दो० - कह मन
ु ीस िहमवंत सनु ु जो िबिध िलखा िललार।
देव दनज
ु नर नाग मिु न कोउ न मेटिनहार॥ 68॥

मुनी र ने कहा - हे िहमवान! सुनो, िवधाता ने ललाट पर जो कुछ िलख िदया है, उसे देवता,
दानव, मनु य, नाग और मुिन कोई भी नह िमटा सकते॥ 68॥

तदिप एक म कहउँ उपाई। होइ करै ज दैउ सहाई॥


जस ब म बरनेउँ तु ह पाह । िमिलिह उमिह तस संसय नाह ॥

तो भी एक उपाय म बताता हँ। यिद दैव सहायता कर तो वह िस हो सकता है। उमा को वर तो


िनःसंदेह वैसा ही िमलेगा, जैसा मने तु हारे सामने वणन िकया है।

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब िसव पिहं म अनम


ु ाने॥
ज िबबाह संकर सन होई। दोषउ गन ु सम कह सबु कोई॥

परं तु मने वर के जो-जो दोष बतलाए ह, मेरे अनुमान से वे सभी िशव म ह। यिद िशव के साथ
िववाह हो जाए तो दोष को भी सब लोग गुण के समान ही कहगे।

ज अिह सेज सयन ह र करह । बध ु कछु ित ह कर दोषु न धरह ॥


भानु कृसानु सब रस खाह । ित ह कहँ मंद कहत कोउ नाह ॥

जैसे िव णु भगवान शेषनाग क श या पर सोते ह, तो भी पंिडत लोग उनको कोई दोष नह


लगाते। सयू और अि नदेव अ छे -बुरे सभी रस का भ ण करते ह, परं तु उनको कोई बुरा नह
कहता।

सभ
ु अ असभ ु सिलल सब बहई। सरु स र कोउ अपन ु ीत न कहई॥
समरथ कहँ निहं दोषु गोसाई ं। रिब पावक सरु स र क नाई ं॥

गंगा म शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उ ह अपिव नह कहता। सय


ू , अि न और
गंगा क भाँित समथ को कुछ दोष नह लगता।

दो० - ज अस िहिसषा करिहं नर जड़ िबबेक अिभमान।


परिहं कलप भ र नरक महँ जीव िक ईस समान॥ 69॥
यिद मखू मनु य ान के अिभमान से इस कार होड़ करते ह, तो वे क पभर के िलए नरक म
पड़ते ह। भला कह जीव भी ई र के समान (सवथा वतं ) हो सकता है?॥ 69॥

सरु स र जल कृत बा िन जाना। कबहँ न संत करिहं तेिह पाना॥


सरु स र िमल सो पावन जैस। ईस अनीसिह अंत तैस॥

गंगा जल से भी बनाई हई मिदरा को जानकर संत लोग कभी उसका पान नह करते। पर वही
गंगा म िमल जाने पर जैसे पिव हो जाती है, ई र और जीव म भी वैसा ही भेद है।

संभु सहज समरथ भगवाना। एिह िबबाहँ सब िबिध क याना॥


दरु ारा य पै अहिहं महेसू। आसत
ु ोष पिु न िकएँ कलेसू॥

िशव सहज ही समथ ह, य िक वे भगवान ह, इसिलए इस िववाह म सब कार क याण है, परं तु
महादेव क आराधना बड़ी किठन है, िफर भी लेश (तप) करने से वे बहत ज द संतु हो जाते
ह।

ज तपु करै कुमा र तु हारी। भािवउ मेिट सकिहं ि परु ारी॥


ज िप बर अनेक जग माह । एिह कहँ िसव तिज दूसर नाह ॥

यिद तु हारी क या तप करे , तो ि पुरा र महादेव होनहार को िमटा सकते ह। य िप संसार म वर


अनेक ह, पर इसके िलए िशव को छोड़कर दूसरा वर नह है।

बर दायक नतारित भंजन। कृपािसंधु सेवक मन रं जन॥


इि छत फल िबनु िसव अवराध। लिहअ न कोिट जोग जप साध॥

िशव वर देनेवाले, शरणागत के दुःख का नाश करनेवाले, कृपा के समु और सेवक के मन


को स न करनेवाले ह। िशव क आराधना िकए िबना करोड़ योग और जप करने पर भी वांिछत
फल नह िमलता।

दो० - अस किह नारद सिु म र ह र िग रजिह दीि ह असीस।


होइिह यह क यान अब संसय तजह िगरीस॥ 70॥

ऐसा कहकर भगवान का मरण करके नारद ने पावती को आशीवाद िदया। (और कहा -) हे
पवतराज! तुम संदेह का याग कर दो, अब यह क याण ही होगा॥ 70॥

किह अस भवन मिु न गयऊ। आिगल च रत सन ु ह जस भयऊ॥


ु े मिु न बैना॥
पितिह एकांत पाइ कह मैना। नाथ न म समझ

य कहकर नारद मुिन लोक को चले गए। अब आगे जो च र हआ उसे सुनो। पित को एकांत
म पाकर मैना ने कहा - हे नाथ! मने मुिन के वचन का अथ नह समझा।

ज घ ब कुलु होइ अनूपा। क रअ िबबाह सत


ु ा अनु पा॥
न त क या ब रहउ कुआरी। कंत उमा मम ानिपआरी॥

जो हमारी क या के अनुकूल घर, वर और कुल उ म हो तो िववाह क िजए। नह तो लड़क चाहे


कुमारी ही रहे (म अयो य वर के साथ उसका िववाह नह करना चाहती); य िक हे वािमन्!
पावती मुझको ाण के समान यारी है।

ज न िमिलिह ब िग रजिह जोगू। िग र जड़ सहज किहिह सबु लोगू॥


सोइ िबचा र पित करे ह िबबाह। जेिहं न बहो र होइ उर दाह॥

यिद पावती के यो य वर न िमला तो सब लोग कहगे िक पवत वभाव से ही जड़ (मखू ) होते ह।


हे वामी! इस बात को िवचारकर ही िववाह क िजएगा, िजसम िफर पीछे दय म संताप न हो।

अस किह परी चरन ध र सीसा। बोले सिहत सनेह िगरीसा॥


ब पावक गटै सिस माह । नारद बचनु अ यथा नाह ॥

इस कार कहकर मैना पित के चरण पर म तक रखकर िगर पड़ । तब िहमवान ने ेम से कहा


- चाहे चं मा म अि न कट हो जाए, पर नारद के वचन झठ
ू े नह हो सकते।

दो० - ि या सोचु प रहरह सबु सिु मरहभगवान।


पारबितिह िनरमयउ जेिहं सोइ क रिह क यान॥ 71॥

हे ि ये! सब सोच छोड़कर भगवान का मरण करो, िज ह ने पावती को रचा है, वे ही क याण
करगे॥ 71॥

अब ज तु हिह सत ु ा पर नेह। तौ अस जाइ िसखावनु देह॥


करै सो तपु जेिहं िमलिहं महेसू। आन उपायँ न िमिटिह कलेसू॥

अब यिद तु ह क या पर ेम है, तो जाकर उसे यह िश ा दो िक वह ऐसा तप करे , िजससे िशव


िमल जाएँ । दूसरे उपाय से यह लेश नह िमटेगा।

नारद बचन सगभ सहेत।ू संदु र सब गन


ु िनिध बषृ केत॥

अस िबचा र तु ह तजह असंका। सबिह भाँित संक अकलंका॥

नारद के वचन रह य से यु और सकारण ह और िशव सम त संुदर गुण के भंडार ह। यह


िवचारकर तुम संदेह का याग कर दो। िशव सभी तरह से िन कलंक ह।
सिु न पित बचन हरिष मन माह । गई तरु त उिठ िग रजा पाह ॥
उमिह िबलोिक नयन भरे बारी। सिहत सनेह गोद बैठारी॥

पित के वचन सुन मन म स न होकर मैना उठकर तुरंत पावती के पास गई ं। पावती को
देखकर उनक आँख म आँसू भर आए। उसे नेह के साथ गोद म बैठा िलया।

बारिहं बार लेित उर लाई। गदगद कंठ न कछु किह जाई॥


जगत मातु सब य भवानी। मातु सख ु द बोल मदृ ु बानी॥

िफर बार-बार उसे दय से लगाने लग । ेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नह जाता।
जग जननी भवानी तो सव ठहर । (माता के मन क दशा को जानकर) वे माता को सुख
देनेवाली कोमल वाणी से बोल -।

दो० - सन ु िह मातु म दीख अस सपन सन ु ावउँ तोिह।


संदु र गौर सिु ब बर अस उपदेसउे मोिह॥ 72॥

माँ! सुन, म तुझे सुनाती हँ; मने ऐसा व न देखा है िक मुझे एक सुंदर गौरवण े ा ण ने
ऐसा उपदेश िदया है - ॥ 72॥

करिह जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो स य िबचारी॥


मातु िपतिह पिु न यह मत भावा। तपु सख
ु द दख
ु दोष नसावा॥

हे पावती! नारद ने जो कहा है, उसे स य समझकर तू जाकर तप कर। िफर यह बात तेरे माता-
िपता को भी अ छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोष का नाश करनेवाला है।

तपबल रचइ पंचु िबधाता। तपबल िब नु सकल जग ाता॥


तपबल संभु करिहं संघारा। तपबल सेषु धरइ मिहभारा॥

तप के बल से ही ा संसार को रचते ह और तप के बल से ही िव णु सारे जगत का पालन


करते ह। तप के बल से ही शंभु ( प से) जगत का संहार करते ह और तप के बल से ही शेष
प ृ वी का भार धारण करते ह।

तप अधार सब सिृ भवानी। करिह जाइ तपु अस िजयँ जानी॥


सन
ु त बचन िबसिमत महतारी। सपन सनु ायउ िग रिह हँकारी॥

हे भवानी! सारी सिृ तप के ही आधार पर है। ऐसा जी म जानकर तू जाकर तप कर। यह बात
सुनकर माता को बड़ा अचरज हआ और उसने िहमवान को बुलाकर वह व न सुनाया।

मातु िपतिह बहिबिध समझ


ु ाई। चल उमा तप िहत हरषाई॥
ि य प रवार िपता अ माता। भए िबकल मख
ु आव न बाता॥

माता-िपता को बहत तरह से समझाकर बड़े हष के साथ पावती तप करने के िलए चल । यारे
कुटुंबी, िपता और माता सब याकुल हो गए। िकसी के मँुह से बात नह िनकलती।

दो० - बेदिसरा मिु न आइ तब सबिह कहा समझ ु ाइ।


पारबती मिहमा सन ु त रहे बोधिह पाइ॥ 73॥

तब वेदिशरा मुिन ने आकर सबको समझाकर कहा। पावती क मिहमा सुनकर सबको समाधान
हो गया॥ 73॥

उर ध र उमा ानपित चरना। जाइ िबिपन लाग तपु करना॥


अित सकु ु मार न तनु तप जोगू। पित पद सिु म र तजेउ सबु भोगू॥

ाणपित (िशव) के चरण को दय म धारण करके पावती वन म जाकर तप करने लग । पावती


का अ यंत सुकुमार शरीर तप के यो य नह था, तो भी पित के चरण का मरण करके उ ह ने
सब भोग को तज िदया।

िनत नव चरन उपज अनरु ागा। िबसरी देह तपिहं मनु लागा॥
संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥

वामी के चरण म िन य नया अनुराग उ प न होने लगा और तप म ऐसा मन लगा िक शरीर


क सारी सुध िबसर गई। एक हजार वष तक उ ह ने मलू और फल खाए, िफर सौ वष साग
खाकर िबताए।

कछु िदन भोजनु बा र बतासा। िकए किठन कछु िदन उपबासा॥


बेल पाती मिह परइ सख
ु ाई। तीिन सहस संबत सोइ खाई॥

कुछ िदन जल और वायु का भोजन िकया और िफर कुछ िदन कठोर उपवास िकया - जो बेल प
सखू कर प ृ वी पर िगरते थे, तीन हजार वष तक उ ह को खाया।

पिु न प रहरे सख
ु ानेउ परना। उमिह नामु तब भयउ अपरना॥
देिख उमिह तप खीन सरीरा। िगरा भै गगन गभीरा॥

ू े पण (प े) भी छोड़ िदए, तभी पावती का नाम 'अपणा' हआ। तप से उमा का शरीर ीण


िफर सख
देखकर आकाश से गंभीर वाणी हई - ।

दो० - भयउ मनोरथ सफु ल तव सन


ु ु िग रराजकुमा र।
प रह दस ु ह कलेस सब अब िमिलहिहं ि परु ा र॥ 74॥
हे पवतराज क कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हआ। तू अब सारे अस लेश को (किठन
तप को) याग दे। अब तुझे िशव िमलगे॥ 74॥

अस तपु काहँ न क ह भवानी। भए अनेक धीर मिु न यानी॥


अब उर धरह बर बानी। स य सदा संतत सिु च जानी॥

हे भवानी! धीर, मुिन और ानी बहत हए ह, पर ऐसा (कठोर) तप िकसी ने नह िकया। अब तू


इस े ा क वाणी को सदा स य और िनरं तर पिव जानकर अपने दय म धारण कर।

आवै िपता बोलावन जबह । हठ प रह र घर जाएह तबह ॥


िमलिहं तु हिह जब स रषीसा। जानेह तब मान बागीसा॥

जब तेरे िपता बुलाने आएँ , तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तु ह स िष िमल तब इस


वाणी को ठीक समझना।

सन
ु त िगरा िबिध गगन बखानी। पल ु क गात िग रजा हरषानी॥
उमा च रत संदु र म गावा। सन
ु ह संभु कर च रत सहु ावा॥

(इस कार) आकाश से कही हई ा क वाणी को सुनते ही पावती स न हो गई ं और (हष के


मारे ) उनका शरीर पुलिकत हो गया। (या व य भर ाज से बोले िक) मने पावती का संुदर
च र सुनाया, अब िशव का सुहावना च र सुनो।

जब त सत जाइ तनु यागा। तब त िसव मन भयउ िबरागा॥


जपिहं सदा रघन
ु ायक नामा। जहँ तहँ सन
ु िहं राम गन
ु ामा॥

जब से सती ने जाकर शरीर याग िकया, तब से िशव के मन म वैरा य हो गया। वे सदा रघुनाथ
का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ राम के गुण क कथाएँ सुनने लगे।

दो० - िचदानंद सख
ु धाम िसव िबगत मोह मद काम।
िबचरिहं मिह ध र दयँ ह र सकल लोक अिभराम॥ 75॥

िचदानंद, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रिहत िशव संपण


ू लोक को आनंद देनेवाले
भगवान ह र (राम) को दय म धारण कर प ृ वी पर िवचरने लगे॥ 75॥

कतहँ मिु न ह उपदेसिहं याना। कतहँ राम गनु करिहं बखाना॥


जदिप अकाम तदिप भगवाना। भगत िबरह दख ु दिु खत सजु ाना॥

वे कह मुिनय को ान का उपदेश करते और कह राम के गुण का वणन करते थे। य िप


सुजान िशव िन काम ह, तो भी वे भगवान अपने भ (सती) के िवयोग के दुःख से दुःखी ह।
एिह िबिध गयउ कालु बह बीती। िनत नै होइ राम पद ीती॥
नेमु मे ु संकर कर देखा। अिबचल दयँ भगित कै रे खा॥

इस कार बहत समय बीत गया। राम के चरण म िनत नई ीित हो रही है। िशव के (कठोर)
िनयम, (अन य) ेम और उनके दय म भि क अटल टेक को (जब राम ने) देखा।

गटे रामु कृत य कृपाला। प सील िनिध तेज िबसाला॥


बह कार संकरिह सराहा। तु ह िबनु अस तु को िनरबाहा॥

तब कृत (उपकार माननेवाले), कृपालु, प और शील के भंडार, महान तेजपुंज भगवान राम
कट हए। उ ह ने बहत तरह से िशव क सराहना क और कहा िक आप के िबना ऐसा (किठन)
त कौन िनबाह सकता है।

बहिबिध राम िसविह समझ ु ावा। पारबती कर ज मु सन


ु ावा॥
ु ीत िग रजा कै करनी। िब तर सिहत कृपािनिध बरनी॥
अित पन

राम ने बहत कार से िशव को समझाया और पावती का ज म सुनाया। कृपािनधान राम ने


िव तारपवू क पावती क अ यंत पिव करनी का वणन िकया।

दो० - अब िबनती मम सन
ु ह िसव ज मो पर िनज नेह।
जाइ िबबाहह सैलजिह यह मोिह माग देह॥ 76॥

(िफर उ ह ने िशव से कहा -) हे िशव! यिद मुझ पर आपका नेह है, तो अब आप मेरी िवनती
सुिनए। मुझे यह माँगने दीिजए िक आप जाकर पावती के साथ िववाह कर ल॥ 76॥

कह िसव जदिप उिचत अस नाह । नाथ बचन पिु न मेिट न जाह ॥


िसर ध र आयसु क रअ तु हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥

िशव ने कहा - य िप ऐसा उिचत नह है, परं तु वामी क बात भी मेटी नह जा सकती। हे नाथ!
मेरा यही परम धम है िक म आपक आ ा को िसर पर रखकर उसका पालन क ँ ।

मातु िपता गरु भु कै बानी। िबनिहं िबचार क रअ सभ


ु जानी॥
तु ह सब भाँित परम िहतकारी। अ या िसर पर नाथ तु हारी॥

माता, िपता, गु और वामी क बात को िबना िवचारे ही शुभ समझकर करना (मानना) चािहए।
िफर आप तो सब कार से मेरे परम िहतकारी ह। हे नाथ! आपक आ ा मेरे िसर-माथे है।

भु तोषेउ सिु न संकर बचना। भि िबबेक धम जुत रचना॥


कह भु हर तु हार पन रहेऊ। अब उर राखेह जो हम कहेऊ॥
िशव क भि , ान और धम से यु वचन रचना सुनकर भु राम संतु हो गए। भु ने कहा -
हे हर! आपक ित ा परू ी हो गई। अब हमने जो कहा है, उसे दय म रखना।

अंतरधान भए अस भाषी। संकर सोइ मूरित उर राखी॥


तबिहं स रिष िसव पिहं आए। बोले भु अित बचन सहु ाए॥

इस कार कहकर राम अंतधान हो गए। िशव ने उनक वह मिू त अपने दय म रख ली। उसी
समय स िष िशव के पास आए। भु महादेव ने उनसे अ यंत सुहावने वचन कहे - ।

े प र छा लेह।
दो० - पारबती पिहं जाइ तु ह म
िग रिह े र पठएह भवन दू र करे ह संदहे ॥ 77॥

आप लोग पावती के पास जाकर उनके ेम क परी ा लीिजए और िहमाचल को कहकर (उ ह


पावती को िलवा लाने के िलए भेिजए तथा) पावती को घर िभजवाइए और उनके संदेह को दूर
क िजए॥ 77॥

रिष ह गौ र देखी तहँ कैसी। मूरितमंत तप या जैसी॥


बोले मिु न सन
ु ु सैलकुमारी। करह कवन कारन तपु भारी॥

ऋिषय ने (वहाँ जाकर) पावती को कैसी देखा, मानो मिू तमान तप या ही हो। मुिन बोले - हे
शैलकुमारी! सुनो, तुम िकसिलए इतना कठोर तप कर रही हो?

केिह अवराधह का तु ह चहह। हम सन स य मरमु िकन कहह॥


कहत बचन मनु अित सकुचाई। हँिसहह सिु न हमा र जड़ताई॥

तुम िकसक आराधना करती हो और या चाहती हो? हमसे अपना स चा भेद य नह कहत ?
(पावती ने कहा -) बात कहते मन बहत सकुचाता है। आप लोग मेरी मख
ू ता सुनकर हँसगे।

मनु हठ परा न सन
ु इ िसखावा। चहत बा र पर भीित उठावा॥
नारद कहा स य सोइ जाना। िबनु पंख ह हम चहिहं उड़ाना॥

मन ने हठ पकड़ िलया है, वह उपदेश नह सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारद ने
जो कह िदया उसे स य जानकर म िबना पंख के ही उड़ना चाहती हँ।

देखह मिु न अिबबेकु हमारा। चािहअ सदा िसविह भरतारा॥

हे मुिनयो! आप मेरा अ ान तो देिखए िक म सदा िशव को ही पित बनाना चाहती हँ।

दो० - सन
ु त बचन िबहसे रषय िग रसंभव तव देह।
नारद कर उपदेसु सिु न कहह बसेउ िकसु गेह॥ 78॥

पावती क बात सुनते ही ऋिष लोग हँस पड़े और बोले - तु हारा शरीर पवत से ही तो उ प न हआ
है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक िकसका घर बसा है?॥ 78॥

द छसतु ह उपदेसिे ह जाई। ित ह िफ र भवनु न देखा आई॥


िच केतु कर घ उन घाला। कनककिसपु कर पिु न अस हाला॥

उ ह ने जाकर द के पु को उपदेश िदया था, िजससे उ ह ने िफर लौटकर घर का मँुह भी नह


देखा। िच केतु के घर को नारद ने ही चौपट िकया। िफर यही हाल िहर यकिशपु का हआ।

नारद िसख जे सन
ु िहं नर नारी। अविस होिहं तिज भवनु िभखारी॥
मन कपटी तन स जन ची हा। आपु स रस सबही चह क हा॥

जो ी-पु ष नारद क सीख सुनते ह, वे घर-बार छोड़कर अव य ही िभखारी हो जाते ह। उनका


मन तो कपटी है, शरीर पर स जन के िच ह। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते ह।

तेिह क बचन मािन िब वासा। तु ह चाहह पित सहज उदासा॥


िनगन ु िनलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह िदगंबर याली॥

उनके वचन पर िव ास मानकर तुम ऐसा पित चाहती हो जो वभाव से ही उदासीन, गुणहीन,
िनल ज, बुरे वेषवाला, नर-कपाल क माला पहननेवाला, कुलहीन, िबना घर-बार का, नंगा
और शरीर पर साँप को लपेटे रखनेवाला है।

कहह कवन सख ु ु अस ब पाएँ । भल भूिलह ठग के बौराएँ ॥


पंच कह िसवँ सती िबबाही। पिु न अवडे र मराएि ह ताही॥

ऐसे वर के िमलने से कहो, तु ह या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे म आकर खबू
ू । पहले पंच के कहने से िशव ने सती से िववाह िकया, परं तु िफर उसे यागकर मरवा डाला।
भल

दो० - अब सख
ु सोवत सोचु निहं भीख मािग भव खािहं।
सहज एकािक ह के भवन कबहँ िक ना र खटािहं॥ 79॥

अब िशव को कोई िचंता नह रही, भीख माँगकर खा लेते ह और सुख से सोते ह। ऐसे वभाव से
ही अकेले रहने वाल के घर भी भला या कभी ि याँ िटक सकती ह?॥ 79॥

अजहँ मानह कहा हमारा। हम तु ह कहँ ब नीक िबचारा॥


अित संदु र सिु च सख
ु द सस
ु ीला। गाविहं बेद जासु जस लीला॥
अब भी हमारा कहा मानो, हमने तु हारे िलए अ छा वर िवचारा है। वह बहत ही सुंदर, पिव ,
सुखदायक और सुशील है, िजसका यश और लीला वेद गाते ह।

दूषन रिहत सकल गन


ु रासी।पित परु बैकंु ठ िनवासी॥
अस ब तु हिह िमलाउब आनी। सनु त िबहिस कह बचन भवानी॥

वह दोष से रिहत, सारे सद्गुण क रािश, ल मी का वामी और बैकुंठपुरी का रहनेवाला है। हम


ऐसे वर को लाकर तुमसे िमला दगे। यह सुनते ही पावती हँसकर बोल - ।

स य कहेह िग रभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै ब देहा॥


कनकउ पिु न पषान त होई। जारे हँ सहजु न प रहर सोई॥

आपने यह स य ही कहा िक मेरा यह शरीर पवत से उ प न हआ है, इसिलए हठ नह छूटेगा,


शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी प थर से ही उ प न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने
वभाव (सुवण व) को नह छोड़ता।

नारद बचन न म प रहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ निहं डरउँ ॥


गरु क बचन तीित न जेही। सपनेहँ सग
ु म न सख
ु िसिध तेही॥

अतः म नारद के वचन को नह छोड़ँ गी, चाहे घर बसे या उजड़े , इससे म नह डरती। िजसको
गु के वचन म िव ास नह है, उसको सुख और िसि व न म भी सुगम नह होती।

दो० - महादेव अवगन


ु भवन िब नु सकल गन ु धाम।
जेिह कर मनु रम जािह सन तेिह तेही सन काम॥ 80॥

माना िक महादेव अवगुण के भवन ह और िव णु सम त सद्गुण के धाम ह, पर िजसका मन


िजसम रम गया, उसको तो उसी से काम है॥ 80॥

ज तु ह िमलतेह थम मन ु ीसा। सनु ितउँ िसख तु हा र ध र सीसा॥


अब म ज मु संभु िहत हारा। को गनु दूषन करै िबचारा॥

हे मुनी रे ! यिद आप पहले िमलते, तो म आपका उपदेश िसर-माथे रखकर सुनती, परं तु अब तो
म अपना ज म िशव के िलए हार चुक ! िफर गुण-दोष का िवचार कौन करे ?

ज तु हरे हठ दयँ िबसेषी। रिह न जाइ िबनु िकएँ बरे षी॥


तौ कौतिु कअ ह आलसु नाह । बर क या अनेक जग माह ॥

यिद आपके दय म बहत ही हठ है और िववाह क बातचीत (बरे खी) िकए िबना आपसे रहा ही
नह जाता, तो संसार म वर-क या बहत ह। िखलवाड़ करने वाल को आल य तो होता नह
(और कह जाकर क िजए)।

ज म कोिट लिग रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी॥


तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहिहं सत बार महेसू॥

मेरा तो करोड़ ज म तक यही हठ रहे गा िक या तो िशव को व ँ गी, नह तो कुमारी ही रहँगी।


वयं िशव सौ बार कह, तो भी नारद के उपदेश को न छोड़ँ गी।

म पा परउँ कहइ जगदंबा। तु ह गहृ गवनह भयउ िबलंबा॥


देिख मे ु बोले मिु न यानी। जय जय जगदंिबके भवानी॥

जग जननी पावती ने िफर कहा िक म आपके पैर पड़ती हँ। आप अपने घर जाइए, बहत देर हो
गई। (िशव म पावती का ऐसा) ेम देखकर ानी मुिन बोले - हे जग जननी! हे भवानी! आपक
जय हो! जय हो!!

दो० - तु ह माया भगवान िसव सकल गजत िपतु मात।ु


नाइ चरन िसर मिु न चले पिु न पिु न हरषत गात॥ु 81॥

आप माया ह और िशव भगवान ह। आप दोन सम त जगत के माता-िपता ह। (यह कहकर) मुिन


पावती के चरण म िसर नवाकर चल िदए। उनके शरीर बार-बार पुलिकत हो रहे थे॥ 81॥

जाइ मिु न ह िहमवंतु पठाए। क र िबनती िगरजिहं गहृ याए॥


बह र स रिष िसव पिहं जाई। कथा उमा कै सकल सन ु ाई॥

मुिनय ने जाकर िहमवान को पावती के पास भेजा और वे िवनती करके उनको घर ले आए, िफर
स िषय ने िशव के पास जाकर उनको पावती क सारी कथा सुनाई।

भए मगन िसव सन ु त सनेहा। हरिष स रिष गवने गेहा॥


मनु िथर क र तब संभु सज
ु ाना। लगे करन रघन
ु ायक याना॥

पावती का ेम सुनते ही िशव आनंदम न हो गए। स िष स न होकर अपने घर ( लोक) को


चले गए। तब सुजान िशव मन को ि थर करके रघुनाथ का यान करने लगे।

तारकु असरु भयउ तेिह काला। भज


ु ताप बल तेज िबसाला॥
तेिहं सब लोक लोकपित जीते। भए देव सख
ु संपित रीते॥

उसी समय तारक नाम का असुर हआ, िजसक भुजाओं का बल, ताप और तेज बहत बड़ा था।
उसने सब लोक और लोकपाल को जीत िलया, सब देवता सुख और संपि से रिहत हो गए।
अजर अमर सो जीित न जाई। हारे सरु क र िबिबध लराई॥
ु ारे । देखे िबिध सब देव दख
तब िबरं िच सन जाइ पक ु ारे ॥

वह अजर-अमर था, इसिलए िकसी से जीता नह जाता था। देवता उसके साथ बहत तरह क
लड़ाइयाँ लड़कर हार गए। तब उ ह ने ा के पास जाकर गुहार क । ा ने सब देवताओं को
दुःखी देखा।

दो० - सब सन कहा बझु ाइ िबिध दनज


ु िनधन तब होइ।
संभु सु संभूत सत
ु एिह जीतइ रन सोइ॥ 82॥

ा ने सबको समझाकर कहा - इस दै य क म ृ यु तब होगी जब िशव के वीय से पु उ प न


हो, इसको यु म वही जीतेगा॥ 82॥

मोर कहा सिु न करह उपाई। होइिह ई वर क रिह सहाई॥


सत जो तजी द छ मख देहा। जनमी जाइ िहमाचल गेहा॥

मेरी बात सुनकर उपाय करो। ई र सहायता करगे और काम हो जाएगा। सती ने जो द के य
म देह का याग िकया था, उ ह ने अब िहमाचल के घर जाकर ज म िलया है।

तेिहं तपु क ह संभु पित लागी। िसव समािध बैठे सबु यागी॥
जदिप अहइ असमंजस भारी। तदिप बात एक सन ु ह हमारी॥

उ ह ने िशव को पित बनाने के िलए तप िकया है, इधर िशव सब छोड़-छाड़कर समािध लगा बैठे
ह। य िप है तो बड़े असमंजस क बात, तथािप मेरी एक बात सुनो।

पठवह कामु जाइ िसव पाह । करै छोभु संकर मन माह ॥


तब हम जाइ िसविह िसर नाई। करवाउब िबबाह ब रआई॥

तुम जाकर कामदेव को िशव के पास भेजो, वह िशव के मन म ोभ उ प न करे (उनक समािध
भंग करे )। तब हम जाकर िशव के चरण म िसर रख दगे और जबरद ती (उ ह राजी करके)
िववाह करा दगे।

एिह िबिध भलेिहं देविहत होई। मत अित नीक कहइ सबु कोई॥
अ तिु त सरु ह क ि ह अित हेत।ू गटेउ िबषमबान झषकेत॥ू

इस कार से भले ही देवताओं का िहत हो (और तो कोई उपाय नह है) सबने कहा - यह स मित
बहत अ छी है। िफर देवताओं ने बड़े ेम से तुित क । तब िवषम (पाँच) बाण धारण करनेवाला
और मछली के िच यु वजावाला कामदेव कट हआ।
दो० - सरु ह कही िनज िबपित सब सिु न मन क ह िबचार।
संभु िबरोध न कुसल मोिह िबहिस कहेउ अस मार॥ 83॥

देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी िवपि कही। सुनकर कामदेव ने मन म िवचार िकया और
हँसकर देवताओं से य कहा िक िशव के साथ िवरोध करने म मेरी कुशल नह है॥ 83॥

तदिप करब म काजु तु हारा। ुित कह परम धरम उपकारा॥


पर िहत लािग तजइ जो देही। संतत संत संसिहं तेही॥

तथािप म तु हारा काम तो क ँ गा, य िक वेद दूसरे के उपकार को परम धम कहते ह। जो दूसरे
के िहत के िलए अपना शरीर याग देता है, संत सदा उसक बड़ाई करते ह।

अस किह चलेउ सबिह िस नाई। सम ु न धनषु कर सिहत सहाई॥


चलत मार अस दयँ िबचारा। िसव िबरोध बु मरनु हमारा॥

य कह और सबको िसर नवाकर कामदेव अपने पु प के धनुष को हाथ म लेकर (वसंतािद)


सहायक के साथ चला। चलते समय कामदेव ने दय म ऐसा िवचार िकया िक िशव के साथ
िवरोध करने से मेरा मरण िनि त है।

तब आपन भाउ िब तारा। िनज बस क ह सकल संसारा॥


कोपेउ जबिहं बा रचरकेत।ू छन महँ िमटे सकल ुित सेत॥

तब उसने अपना भाव फै लाया और सम त संसार को अपने वश म कर िलया। िजस समय उस


मछली के िच क वजावाले कामदेव ने कोप िकया, उस समय णभर म ही वेद क सारी
मयादा िमट गई।

चज त संजम नाना। धीरज धरम यान िब याना॥


सदाचार जप जोग िबरागा। सभय िबबेक कटकु सबु भागा॥

चय, िनयम, नाना कार के संयम, धीरज, धम, ान, िव ान, सदाचार, जप, योग, वैरा य
आिद िववेक क सारी सेना डरकर भाग गई।

ु ट संजुग मिह मरु े ।


छं ० - भागेउ िबबेकु सहाय सिहत सो सभ
सद ंथ पबत कंदरि ह महँ जाइ तेिह अवसर दरु े ॥
होिनहार का करतार को रखवार जग खरभ परा।
दइु माथ केिह रितनाथ जेिह कहँ कोिप कर धनु स धरा॥

िववेक अपने सहायक सिहत भाग गया, उसके यो ा रणभिू म से पीठ िदखा गए। उस समय वे
सब सद् ंथ पी पवत क कंदराओं म जा िछपे (अथात ान, वैरा य, संयम, िनयम, सदाचारािद
ंथ म ही िलखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत म खलबली मच गई (और सब
कहने लगे -) हे िवधाता! अब या होनेवाला है? हमारी र ा कौन करे गा? ऐसा दो िसरवाला
कौन है, िजसके िलए रित के पित कामदेव ने कोप करके हाथ म धनुष-बाण उठाया है?

दो० - जे सजीव जग अचर चर ना र पु ष अस नाम।


ते िनज िनज मरजाद तिज भए सकल बस काम॥ 84॥

जगत म ी-पु ष सं ावाले िजतने चर-अचर ाणी थे, वे सब अपनी-अपनी मयादा छोड़कर
काम के वश म हो गए॥ 84॥

सब के दयँ मदन अिभलाषा। लता िनहा र नविहं त साखा॥


नद उमिग अंबिु ध कहँ धाई ं। संगम करिहं तलाव तलाई ं॥

सबके दय म काम क इ छा हो गई। लताओं (बेल ) को देखकर व ृ क डािलयाँ झुकने लग ।


निदयाँ उमड़-उमड़कर समु क ओर दौड़ और ताल-तलैयाँ भी आपस म संगम करने (िमलने-
जुलने) लग ।

जहँ अिस दसा जड़ ह कै बरनी। को किह सकइ सचेतन करनी॥


पसु प छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय िबसारी॥

जब जड़ (व ृ , नदी आिद) क यह दशा कही गई, तब चेतन जीव क करनी कौन कह सकता
है? आकाश, जल और प ृ वी पर िवचरनेवाले सारे पशु-प ी (अपने संयोग का) समय भुलाकर
काम के वश म हो गए।

मदन अंध याकुल सब लोका। िनिस िदनु निहं अवलोकिहं कोका॥


देव दनज े िपसाच भूत बेताला॥
ु नर िकंनर याला। त

सब लोक कामांध होकर याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-िदन नह देखते। देव, दै य, मनु य,
िक नर, सप, ेत, िपशाच, भत
ू , बेताल - ।

इ ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥


िस िबर महामिु न जोगी। तेिप कामबस भए िबयोगी॥

ये तो सदा ही काम के गुलाम ह, यह समझकर मने इनक दशा का वणन नह िकया। िस ,


िवर , महामुिन और महान योगी भी काम के वश होकर योगरिहत या ी के िवरही हो गए।

छं ० - भए कामबस जोगीस तापस पावँरि ह क को कहै।


देखिहं चराचर ना रमय जे मय देखत रहे॥
अबला िबलोकिहं पु षमय जगु पु ष सब अबलामयं।
दइु दंड भ र ांड भीतर कामकृत कौतक
ु अयं॥

जब योगी र और तप वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनु य क कौन कहे ? जो सम त


चराचर जगत को मय देखते थे, वे अब उसे ीमय देखने लगे। ि याँ सारे संसार को
पु षमय देखने लग और पु ष उसे ीमय देखने लगे। दो घड़ी तक सारे ांड के अंदर
कामदेव का रचा हआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।

सो० - धरी न काहँ धीर सब के मन मनिसज हरे ।


जे राखे रघब
ु ीर ते उबरे तेिह काल महँ॥ 85॥

िकसी ने भी दय म धैय नह धारण िकया, कामदेव ने सबके मन हर िलए। रघुनाथ ने िजनक


र ा क , केवल वे ही उस समय बचे रहे ॥ 85॥

उभय घरी अस कौतकु भयऊ। जौ लिग कामु संभु पिहं गयऊ॥


िसविह िबलोिक ससंकेउ मा । भयउ जथािथित सबु संसा ॥

दो घड़ी तक ऐसा तमाशा हआ, जब तक कामदेव िशव के पास पहँच गया। िशव को देखकर
कामदेव डर गया, तब सारा संसार िफर जैसा-का- तैसा ि थर हो गया।

भए तरु त सब जीव सख
ु ारे । िजिम मद उत र गएँ मतवारे ॥
िह देिख मदन भय माना। दरु ाधरष दगु म भगवाना॥

तुरंत ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा िपए हए) लोग मद (नशा) उतर जाने
पर सुखी होते ह। दुधष (िजनको परािजत करना अ यंत ही किठन है) और दुगम (िजनका पार
पाना किठन है) भगवान (संपण ू ऐ य, धम, यश,, ान और वैरा य प छह ई रीय गुण से
यु ) (महाभयंकर) िशव को देखकर कामदेव भयभीत हो गया।

िफरत लाज कछु क र निहं जाई। मरनु ठािन मन रचेिस उपाई॥


गटेिस तरु त िचर रतरु ाजा। कुसिु मत नव त रािज िबराजा॥

लौट जाने म ल जा मालम ू होती है और करते कुछ बनता नह । आिखर मन म मरने का िन य


करके उसने उपाय रचा। तुरंत ही सुंदर ऋतुराज वसंत को कट िकया। फूले हए नए-नए व ृ क
कतार सुशोिभत हो गई ं।

बन उपबन बािपका तड़ागा। परम सभ ु ग सब िदसा िबभागा॥


जहँ तहँ जनु उमगत अनरु ागा। देिख मएु हँ मन मनिसज जागा॥

वन-उपवन, बावली-तालाब और सब िदशाओं के िवभाग परम सुंदर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो ेम


उ ड़ रहा है, िजसे देखकर मरे मन म भी कामदेव जाग उठा।
छं ० - जागइ मनोभव मए ु हँ मन बन सभ ु गता न परै कही।
सीतल सग ु ंध सम
ु ंद मा त मदन अनल सखा सही॥
िबकसे सरि ह बह कंज गंज ु त पंज
ु मंजुल मधकु रा।
कलहंस िपक सक ु सरस रव क र गान नाचिहं अपछरा॥

मरे हए मन म भी कामदेव जागने लगा। वन क सुंदरता कही नह जा सकती। काम पी अि न


का स चा िम शीतल-मंद-सुगंिधत पवन चलने लगा। सरोवर म अनेक कमल िखल गए, िजन
पर सुंदर भ र के समहू गुंजार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे
और अ सराएँ गा-गाकर नाचने लग ॥

दो० - सकल कला क र कोिट िबिध हारे उ सेन समेत।


चली न अचल समािध िसव कोपेउ दयिनकेत॥ 86॥

कामदेव अपनी सेना समेत करोड़ कार क सब कलाएँ (उपाय) करके हार गया, पर िशव क
अचल समािध न िडगी। तब कामदेव ोिधत हो उठा॥ 86॥

देिख रसाल िबटप बर साखा। तेिह पर चढ़ेउ मदनु मन माखा॥


सम ु न चाप िनज सर संधाने। अित रस तािक वन लिग ताने॥

आम के व ृ क एक सुंदर डाली देखकर मन म ोध से भरा हआ कामदेव उस पर चढ़ गया।


उसने पु प-धनुष पर अपने (पाँच ) बाण चढ़ाए और अ यंत ोध से (ल य क ओर) ताककर
उ ह कान तक तान िलया।

छाड़े िबषम िबिसख उर लागे। छूिट समािध संभु तब जागे॥


भयउ ईस मन छोभु िबसेषी। नयन उघा र सकल िदिस देखी॥

कामदेव ने ती ण पाँच बाण छोड़े , जो िशव के दय म लगे। तब उनक समािध टूट गई और वे


जाग गए। ई र (िशव) के मन म बहत ोभ हआ। उ ह ने आँख खोलकर सब ओर देखा।

ै ोका॥
सौरभ प लव मदनु िबलोका। भयउ कोपु कंपेउ ल
तब िसवँ तीसर नयन उघारा। िचतवन कामु भयउ ज र छारा॥

जब आम के प म (िछपे हए) कामदेव को देखा तो उ ह बड़ा ोध हआ, िजससे तीन लोक


काँप उठे । तब िशव ने तीसरा ने खोला, उनके देखते ही कामदेव जलकर भ म हो गया।

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सरु भए असरु सख


ु ारी॥
समिु झ कामसख
ु सोचिहं भोगी। भए अकंटक साधक जोगी॥
जगत म बड़ा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दै य सुखी हए। भोगी लोग कामसुख को याद
करके िचंता करने लगे और साधक योगी िन कंटक हो गए।

छं ० - जोगी अकंटक भए पित गित सन ु त रित मु िछत भई।


रोदित बदित बह भाँित क ना करित संकर पिहं गई॥
अित म े क र िबनती िबिबध िबिध जो र कर स मख ु रही।
भु आसत ु ोष कृपाल िसव अबला िनरिख बोले सही॥

योगी िन कंटक हो गए, कामदेव क ी रित अपने पित क यह दशा सुनते ही मिू छत हो गई।
रोती-िच लाती और भाँित-भाँित से क णा करती हई वह िशव के पास गई। अ यंत ेम के साथ
अनेक कार से िवनती करके हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गई। शी स न होनेवाले कृपालु
िशव अबला (असहाय ी) को देखकर सुंदर (उसको सां वना देनेवाले) वचन बोले -

दो० - अब त रित तव नाथ कर होइिह नामु अनंग।ु


िबनु बपु यािपिह सबिह पिु न सन
ु ु िनज िमलन संग॥ु 87॥

हे रित! अब से तेरे वामी का नाम अनंग होगा। वह िबना शरीर के ही सबको यापेगा। अब तू
अपने पित से िमलने क बात सुन॥ 87॥

जब जदबु ंस कृ न अवतारा। होइिह हरन महा मिहभारा॥


कृ न तनय होइिह पित तोरा। बचनु अ यथा होइ न मोरा॥

जब प ृ वी के बड़े भारी भार को उतारने के िलए यदुवंश म कृ ण का अवतार होगा, तब तेरा पित
उनके पु ( ु न) के प म उ प न होगा। मेरा यह वचन अ यथा नह होगा।

रित गवनी सिु न संकर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥


देव ह समाचार सब पाए। ािदक बैकंु ठ िसधाए॥

िशव के वचन सुनकर रित चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर कहता हँ। ािद देवताओं ने ये
सब समाचार सुने तो वे बैकंु ठ को चले।

सब सरु िब नु िबरं िच समेता। गए जहाँ िसव कृपािनकेता॥


पथ
ृ क-पथृ क ित ह क ि ह संसा। भए स न चं अवतंसा॥

िफर वहाँ से िव णु और ा सिहत सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम िशव थे। उन सबने
िशव क अलग-अलग तुित क , तब शिशभषू ण िशव स न हो गए।

ृ केत।ू कहह अमर आए केिह हेत॥


बोले कृपािसंधु बष ू
कह िबिध तु ह भु अंतरजामी। तदिप भगित बस िबनवउँ वामी॥
कृपा के समु िशव बोले - हे देवताओ! किहए, आप िकसिलए आए ह? ा ने कहा - हे भो!
आप अंतयामी ह, तथािप हे वामी! भि वश म आपसे िवनती करता हँ।

दो० - सकल सरु ह के दयँ अस संकर परम उछाह।


िनज नयनि ह देखा चहिहं नाथ तु हार िबबाह॥ 88॥

हे शंकर! सब देवताओं के मन म ऐसा परम उ साह है िक हे नाथ! वे अपनी आँख से आपका


िववाह देखना चाहते ह॥ 88॥

यह उ सव देिखअ भ र लोचन। सोइ कछु करह मदन मद मोचन॥


कामु जा र रित कहँ ब दी हा। कृपािसंधु यह अित भल क हा॥

हे कामदेव के मद को चरू करनेवाले! आप ऐसा कुछ क िजए, िजससे सब लोग इस उ सव को


ने भरकर देख। हे कृपा के सागर! कामदेव को भ म करके आपने रित को जो वरदान िदया,
सो बहत ही अ छा िकया।

सासित क र पिु न करिहं पसाऊ। नाथ भु ह कर सहज सभ


ु ाऊ॥
पारबत तपु क ह अपारा। करह तासु अब अंगीकारा॥

हे नाथ! े वािमय का यह सहज वभाव ही है िक वे पहले दंड देकर िफर कृपा िकया करते
ह। पावती ने अपार तप िकया है, अब उ ह अंगीकार क िजए।

सिु न िबिध िबनय समिु झ भु बानी। ऐसेइ होउ कहा सखु ु मानी॥
तब देव ह ददुं भ
ु बजाई ं। बरिष सम
ु न जय जय सरु साई ं॥

ा क ाथना सुनकर और भु राम के वचन को याद कर िशव ने स नतापवू क कहा -


'ऐसा ही हो।' तब देवताओं ने नगाड़े बजाए और फूल क वषा करके 'जय हो! देवताओं के वामी
जय हो' ऐसा कहने लगे।

अवस जािन स रिष आए। तरु तिहं िबिध िग रभवन पठाए॥


थम गए जहँ रह भवानी। बोले मधरु बचन छल सानी॥

उिचत अवसर जानकर स िष आए और ा ने तुरंत ही उ ह िहमाचल के घर भेज िदया। वे पहले


वहाँ गए जहाँ पावती थ और उनसे छल से भरे मीठे (िवनोदयु , आनंद पहँचानेवाले) वचन बोले
-।

दो० - कहा हमार न सनु हे तब नारद क उपदेस॥


अब भा झूठ तु हार पन जारे उ कामु महेस॥ 89॥
नारद के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नह सुनी। अब तो तु हारा ण झठ
ू ा हो गया,
य िक महादेव ने काम को ही भ म कर डाला॥ 89॥

सिु न बोल मस
ु क
ु ाइ भवानी। उिचत कहेह मिु नबर िब यानी॥
तु हर जान कामु अब जारा। अब लिग संभु रहे सिबकारा॥

यह सुनकर पावती मुसकराकर बोल - हे िव ानी मुिनवरो! आपने उिचत ही कहा। आपक समझ
म िशव ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे िवकारयु (कामी) ही रहे !

हमर जान सदा िसव जोगी। अज अनव अकाम अभोगी॥


ज म िसव सेये अस जानी। ीित समेत कम मन बानी॥

िकंतु हमारी समझ से तो िशव सदा से ही योगी, अज मे , अिनं , कामरिहत और भोगहीन ह और


यिद मने िशव को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कम से ेम सिहत उनक सेवा क है।

तौ हमार पन सनु ह मन ु ीसा। क रहिहं स य कृपािनिध ईसा॥


तु ह जो कहा हर जारे उ मारा। सोइ अित बड़ अिबबेकु तु हारा॥

तो हे मुनी रो! सुिनए, वे कृपािनधान भगवान मेरी ित ा को स य करगे। आपने जो यह कहा


िक िशव ने कामदेव को भ म कर िदया, यही आपका बड़ा भारी अिववेक है।

तात अनल कर सहज सभ ु ाऊ। िहम तेिह िनकट जाइ निहं काऊ॥
गएँ समीप सो अविस नसाई। अिस म मथ महेस क नाई॥

हे तात! अि न का तो यह सहज वभाव ही है िक पाला उसके समीप कभी जा ही नह सकता


और जाने पर वह अव य न हो जाएगा। महादेव और कामदेव के संबंध म भी यही याय (बात)
समझना चािहए।

दो० - िहयँ हरषे मिु न बचन सिु न देिख ीित िब वास।


चले भवािनिह नाइ िसर गए िहमाचल पास॥ 90॥

पावती के वचन सुनकर और उनका ेम तथा िव ास देखकर मुिन दय म बड़े स न हए। वे


भवानी को िसर नवाकर चल िदए और िहमाचल के पास पहँचे॥ 90॥

सबु संगु िग रपितिह सन


ु ावा। मदन दहन सिु न अित दखु ु पावा॥
बह र कहेउ रित कर बरदाना। सिु न िहमवंत बहत सख
ु ु माना॥

उ ह ने पवतराज िहमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भ म होना सुनकर िहमाचल बहत


दुःखी हए। िफर मुिनय ने रित के वरदान क बात कही, उसे सुनकर िहमवान ने बहत सुख
माना।

दयँ िबचा र संभु भतु ाई। सादर मिु नबर िलए बोलाई।
सिु दनु सन
ु खतु सघ
ु री सोचाई। बेिग बेदिबिध लगन धराई॥

िशव के भाव को मन म िवचार कर िहमाचल ने े मुिनय को आदरपवू क बुला िलया और


उनसे शुभ िदन, शुभ न और शुभ घड़ी शोधवाकर वेद क िविध के अनुसार शी ही ल न
िन य कराकर िलखवा िलया।

प ी स रिष ह सोइ दी ही। गिह पद िबनय िहमाचल क ही॥


जाइ िबिधिह ित ह दीि ह सो पाती। बाचत ीित न दयँ समाती॥

िफर िहमाचल ने वह ल नपि का स िषय को दे दी और चरण पकड़कर उनक िवनती क ।


उ ह ने जाकर वह ल न पि का ा को दी। उसको पढ़ते समय उनके दय म ेम समाता न
था।

लगन बािच अज सबिह सन


ु ाई। हरषे मिु न सब सरु समदु ाई॥
सम
ु न बिृ नभ बाजन बाजे। मंगल कलस दसहँ िदिस साजे॥

ा ने ल न पढ़कर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुिन और देवताओं का सारा समाज हिषत
हो गया। आकाश से फूल क वषा होने लगी, बाजे बजने लगे और दस िदशाओं म मंगल-कलश
सजा िदए गए।

दो० - लगे सँवारन सकल सरु बाहन िबिबध िबमान।


होिहं सगन
ु मंगल सभ ु द करिहं अपछरा गान॥ 91॥

सब देवता अपने भाँित-भाँित के वाहन और िवमान सजाने लगे, क याण द मंगल शकुन होने
लगे और अ सराएँ गाने लग ॥ 91॥

िसविह संभु गन करिहं िसंगारा। जटा मक


ु ु ट अिह मौ सँवारा॥
कंु डल कंकन पिहरे याला। तन िबभूित पट केह र छाला॥

िशव के गण िशव का ंग ृ ार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँप का मौर सजाया
गया। िशव ने साँप के ही कुंडल और कंकण पहने, शरीर पर िवभिू त रमाई और व क जगह
बाघंबर लपेट िलया।

सिस ललाट संदु र िसर गंगा। नयन तीिन उपबीत भज


ु ंगा॥
गरल कंठ उर नर िसर माला। अिसव बेष िसवधाम कृपाला॥
िशव के सुंदर म तक पर चं मा, िसर पर गंगा, तीन ने , साँप का जनेऊ, गले म िवष और
छाती पर नरमुंड क माला थी। इस कार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे क याण के धाम और
कृपालु ह।

कर ि सूल अ डम िबराजा। चले बसहँ चिढ़ बाजिहं बाजा॥


देिख िसविह सरु ि य मस
ु क
ु ाह । बर लायक दल
ु िहिन जग नाह ॥

एक हाथ म ि शलू और दूसरे म डम सुशोिभत है। िशव बैल पर चढ़कर चले। बाजे बज रहे ह।
िशव को देखकर देवांगनाएँ मु कुरा रही ह (और कहती ह िक) इस वर के यो य दुलिहन संसार
म नह िमलेगी।

िब नु िबरं िच आिद सरु ाता। चिढ़ चिढ़ बाहन चले बराता॥


सरु समाज सब भाँित अनूपा। निहं बरात दूलह अनु पा॥

िव णु और ा आिद देवताओं के समहू अपने-अपने वाहन पर चढ़कर बारात म चले। देवताओं


का समाज सब कार से अनुपम (परम सुंदर) था, पर दू हे के यो य बारात न थी।

दो० - िब नु कहा अस िबहिस तब बोिल सकल िदिसराज।


िबलग िबलग होइ चलह सब िनज िनज सिहत समाज॥ 92॥

तब िव णु भगवान ने सब िद पाल को बुलाकर हँसते हए ऐसा कहा - सब लोग अपने-अपने दल


समेत अलग-अलग होकर चलो॥ 92॥

बर अनहु ा र बरात न भाई। हँसी करै हह पर परु जाई॥


िब नु बचन सिु न सरु मस
ु क
ु ाने। िनज िनज सेन सिहत िबलगाने॥

हे भाई! हम लोग क यह बारात वर के यो य नह है। या पराए नगर म जाकर हँसी कराओगे?


िव णु भगवान क बात सुनकर देवता मुसकराए और वे अपनी-अपनी सेना सिहत अलग हो गए।

मनह मन महेसु मस ु ाह । ह र के िबं य बचन निहं जाह ॥


ु क
अित ि य बचन सनु त ि य केरे । भंिृ गिह े र सकल गन टेरे॥

महादेव (यह देखकर) मन-ही-मन मु कुराते ह िक िव णु भगवान के यं य-वचन (िद लगी)


नह छूटते! अपने यारे (िव णु भगवान) के इन अित ि य वचन को सुनकर िशव ने भी भंग
ृ ी को
भेजकर अपने सब गण को बुलवा िलया।

िसव अनसु ासन सिु न सब आए। भु पद जलज सीस ित ह नाए॥


नाना बाहन नाना बेषा। िबहसे िसव समाज िनज देखा॥
िशव क आ ा सुनते ही सब चले आए और उ ह ने वामी के चरण कमल म िसर नवाया। तरह-
तरह क सवा रय और तरह-तरह के वेषवाले अपने समाज को देखकर िशव हँसे।

कोउ मख
ु हीन िबपल
ु मख
ु काह। िबनु पद कर कोउ बह पद बाह॥
िबपल
ु नयन कोउ नयन िबहीना। र पु कोउ अित तनखीना॥

कोई िबना मुख का है, िकसी के बहत-से मुख ह, कोई िबना हाथ-पैर का है तो िकसी के कई
हाथ-पैर ह। िकसी के बहत आँख ह तो िकसी के एक भी आँख नह है। कोई बहत मोटा-ताजा है,
तो कोई बहत ही दुबला-पतला है।

छं ० - तन क न कोउ अित पीन पावन कोउ अपावन गित धर।


भूषन कराल कपाल कर सब स सोिनत तन भर॥
खर वान सअ ु र सक
ृ ाल मख
ु गन बेष अगिनत को गनै।
बह िजनस त े िपसाच जोिग जमात बरनत निहं बनै॥

कोई बहत दुबला, कोई बहत मोटा, कोई पिव और कोई अपिव वेष धारण िकए हए है। भयंकर
गहने पहने हाथ म कपाल िलए ह और सब के सब शरीर म ताजा खनू लपेटे हए ह। गधे, कु े,
सअू र और िसयार के-से उनके मुख ह। गण के अनिगनत वेष को कौन िगने? बहत कार के
ेत, िपशाच और योिगिनय क जमाते ह। उनका वणन करते नह बनता।

सो० - नाचिहं गाविहं गीत परम तरं गी भूत सब।


देखत अित िबपरीत बोलिहं बचन िबिच िबिध॥ 93॥

ू - ेत नाचते और गाते ह, वे सब बड़े मौजी ह। देखने म बहत ही बेढंगे जान पड़ते ह और बड़े
भत
ही िविच ढं ग से बोलते ह॥ 93॥

जस दूलह तिस बनी बराता। कौतक ु िबिबध होिहं मग जाता॥


इहाँ िहमाचल रचेउ िबताना। अित िबिच निहं जाइ बखाना॥

जैसा दू हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। माग म चलते हए भाँित-भाँित के कौतुक होते जाते
ह। इधर िहमाचल ने ऐसा िविच मंडप बनाया िक िजसका वणन नह हो सकता।

सैल सकल जहँ लिग जग माह । लघु िबसाल निहं बरिन िसराह ॥
बन सागर सब नदी तलावा। िहमिग र सब कहँ नेवत पठावा॥

जगत म िजतने छोटे-बड़े पवत थे, िजनका वणन करके पार नह िमलता तथा िजतने वन, समु ,
निदयाँ और तालाब थे, िहमाचल ने सबको नेवता भेजा।

काम प संदु र तन धारी। सिहत समाज सिहत बर नारी॥


गए सकल तिु हमाचल गेहा। गाविहं मंगल सिहत सनेहा॥

वे सब अपनी इ छानुसार प धारण करनेवाले सुंदर शरीर धारण कर सुंदरी ि य और समाज


के साथ िहमाचल के घर गए। सभी नेह सिहत मंगल गीत गा रहे ह।

थमिहं िग र बह गहृ सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥


परु सोभा अवलोिक सहु ाई। लागइ लघु िबरं िच िनपनु ाई॥

िहमाचल ने पहले ही से बहत-से घर सजवा रखे थे। यथायो य उन-उन थान म सब लोग उतर
गए। नगर क सुंदर शोभा देखकर ा क रचना चातुरी भी तु छ लगती थी।

छं ० - लघु लाग िबिध क िनपन ु ता अवलोिक परु सोभा सही।


बन बाग कूप तड़ाग स रता सभ ु ग सब सक को कही॥
मंगल िबपल ु तोरन पताका केतु गहृ गहृ सोहह ।
बिनता पु ष संदु र चतरु छिब देिख मिु न मन मोहह ॥

नगर क शोभा देखकर ा क िनपुणता सचमुच तु छ लगती है। वन, बाग, कुएँ , तालाब,
निदयाँ सभी संुदर ह, उनका वणन कौन कर सकता है? घर-घर बहत-से मंगलसच ू क तोरण और
वजा-पताकाएँ सुशोिभत हो रही ह। वहाँ के सुंदर और चतुर ी-पु ष क छिव देखकर मुिनय
के भी मन मोिहत हो जाते ह।

दो० - जगदंबा जहँ अवतरी सो पु बरिन िक जाइ।


रि िसि संपि सख ु िनत नूतन अिधकाइ॥ 94॥

िजस नगर म वयं जगदंबा ने अवतार िलया, या उसका वणन हो सकता है? वहाँ ऋि , िसि ,
संपि और सुख िनत-नए बढ़ते जाते ह॥ 94॥

नगर िनकट बरात सिु न आई। परु खरभ सोभा अिधकाई॥


क र बनाव सिज बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥

बारात को नगर के िनकट आई सुनकर नगर म चहल-पहल मच गई, िजससे उसक शोभा बढ़
ृ ार करके तथा नाना कार क सवा रय को सजाकर
गई। अगवानी करनेवाले लोग बनाव- ंग
आदर सिहत बारात को लेने चले।

िहयँ हरषे सरु सेन िनहारी। ह रिह देिख अित भए सख


ु ारी॥
िसव समाज जब देखन लागे। िबड र चले बाहन सब भागे॥

देवताओं के समाज को देखकर सब मन म स न हए और िव णु भगवान को देखकर तो बहत


ही सुखी हए, िकंतु जब िशव के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवा रय के हाथी,
घोड़े , रथ के बैल आिद) डरकर भाग चले।

ध र धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥


गएँ भवन पूछिहं िपतु माता। कहिहं बचन भय कंिपत गाता॥

कुछ बड़ी उ के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे । लड़के तो सब अपने ाण लेकर भागे।
घर पहँचने पर जब माता-िपता पछ
ू ते ह, तब वे भय से काँपते हए शरीर से ऐसा वचन कहते ह -

किहअ काह किह जाइ न बाता। जम कर धार िकध ब रआता॥


ब बौराह बसहँ असवारा। याल कपाल िबभूषन छारा॥

या कह, कोई बात कही नह जाती। यह बारात है या यमराज क सेना? दू हा पागल है और बैल
पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने ह।

छं ० - तन छार याल कपाल भूषन नगन जिटल भयंकरा।


सँग भूत त े िपसाच जोिगिन िबकट मख ु रजनीचरा॥
जो िजअत रिहिह बरात देखत पु य बड़ तेिह कर सही।
देिखिह सो उमा िबबाह घर घर बात अिस ल रक ह कही॥

दू हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने ह, वह नंगा, जटाधारी और भयंकर है।
उसके साथ भयानक मुखवाले भत ू , ेत, िपशाच, योिगिनयाँ और रा स ह, जो बारात को देखकर
जीता बचेगा, सचमुच उसके बड़े ही पु य ह और वही पावती का िववाह देखेगा। लड़क ने घर-घर
यही बात कही।

दो० - समिु झ महेस समाज सब जनिन जनक मस ु क


ु ािहं।
बाल बझु ाए िबिबध िबिध िनडर होह ड नािहं॥ 95॥

महे र (िशव) का समाज समझकर सब लड़क के माता-िपता मु कुराते ह। उ ह ने बहत तरह


से लड़क को समझाया िक िनडर हो जाओ, डर क कोई बात नह है॥ 95॥

लै अगवान बरातिह आए। िदए सबिह जनवास सहु ाए॥


मैनाँ सभ
ु आरती सँवारी। संग सम
ु ंगल गाविहं नारी॥

अगवान लोग बारात को िलवा लाए, उ ह ने सबको सुंदर जनवासे ठहरने को िदए। मैना (पावती
क माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ क ि याँ उ म मंगलगीत गाने लग ।

कंचन थार सोह बर पानी। प रछन चली हरिह हरषानी॥


िबकट बेष िह जब देखा। अबल ह उर भय भयउ िबसेषा॥
संुदर हाथ म सोने का थाल शोिभत है, इस कार मैना हष के साथ िशव का परछन करने चल ।
जब महादेव को भयानक वेष म देखा तब तो ि य के मन म बड़ा भारी भय उ प न हो गया।

भािग भवन पैठ अित ासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥


मैना दयँ भयउ दख
ु ु भारी। ली ही बोली िगरीसकुमारी॥

बहत ही डर के मारे भागकर वे घर म घुस गई ं और िशव जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के
दय म बड़ा दुःख हआ, उ ह ने पावती को अपने पास बुला िलया।

अिधक सनेहँ गोद बैठारी। याम सरोज नयन भरे बारी॥


जेिहं िबिध तु हिह पु अस दी हा। तेिहं जड़ ब बाउर कस क हा॥

और अ यंत नेह से गोद म बैठाकर अपने नीलकमल के समान ने म आँसू भरकर कहा -
ू ने तु हारे दू हे को बावला कैसे बनाया?
िजस िवधाता ने तुमको ऐसा सुंदर प िदया, उस मख

छं ० - कस क ह ब बौराह िबिध जेिहं तु हिह संदु रता दई।


जो फलु चिहअ सरु त िहं सो बरबस बबूरिहं लागई॥
तु ह सिहत िग र त िगर पावक जर जलिनिध महँ पर ।
घ जाउ अपजसु होउ जग जीवत िबबाह न ह कर ॥

िजस िवधाता ने तुमको सुंदरता दी, उसने तु हारे िलए वर बावला कैसे बनाया? जो फल क पव ृ
म लगना चािहए, वह जबरद ती बबल ू म लग रहा है। म तु ह लेकर पहाड़ से िगर पड़ँ गी, आग म
जल जाऊँगी या समु म कूद पड़ँ गी। चाहे घर उजड़ जाए और संसार भर म अपक ित फै ल जाए,
पर जीते जी म इस बावले वर से तु हारा िववाह न क ँ गी।

दो० - भई ं िबकल अबला सकल दिु खत देिख िग रना र।


क र िबलापु रोदित बदित सत
ु ा सनेह सँभा र॥ 96॥

िहमाचल क ी (मैना) को दुःखी देखकर सारी ि याँ याकुल हो गई ं। मैना अपनी क या के


नेह को याद करके िवलाप करती, रोती और कहती थ - ॥ 96॥

नारद कर म काह िबगारा। भवनु मोर िज ह बसत उजारा॥


अस उपदेसु उमिह िज ह दी हा। बौरे बरिह लािग तपु क हा॥

मने नारद का या िबगाड़ा था, िज ह ने मेरा बसता हआ घर उजाड़ िदया और िज ह ने पावती


को ऐसा उपदेश िदया िक िजससे उसने बावले वर के िलए तप िकया।

साचेहँ उ ह क मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥


पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ िक जान सव कै पीरा॥
सचमुच उनके न िकसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न ी ही है, वे सबसे
उदासीन ह। इसी से वे दूसरे का घर उजाड़नेवाले ह। उ ह न िकसी क लाज है, न डर है। भला,
बाँझ ी सव क पीड़ा को या जाने।

जनिनिह िबकल िबलोिक भवानी। बोली जुत िबबेक मदृ ु बानी॥


अस िबचा र सोचिह मित माता। सो न टरइ जो रचइ िबधाता॥

माता को िवकल देखकर पावती िववेकयु कोमल वाणी बोल - हे माता! जो िवधाता रच देते ह,
वह टलता नह ; ऐसा िवचार कर तुम सोच मत करो!

करम िलखा ज बाउर नाह। तौ कत दोसु लगाइअ काह॥


तु ह सन िमटिहं िक िबिध के अंका। मातु यथ जिन लेह कलंका॥

जो मेरे भा य म बावला ही पित िलखा है, तो िकसी को य दोष लगाया जाए? हे माता! या
िवधाता के अंक तुमसे िमट सकते ह? वथृ ा कलंक का टीका मत लो।

छं ० - जिन लेह मातु कलंकु क ना प रहरह अवसर नह ।


दख
ु ु सखु ु जो िलखा िललार हमर जाब जहँ पाउब तह ॥
सिु न उमा बचन िबनीत कोमल सकल अबला सोचह ।
बह भाँित िबिधिह लगाइ दूषन नयन बा र िबमोचह ॥

हे माता! कलंक मत लो, रोना छोड़ो, यह अवसर िवषाद करने का नह है। मेरे भा य म जो दुःख-
सुख िलखा है, उसे म जहाँ जाऊँगी, वह पाऊँगी! पावती के ऐसे िवनय भरे कोमल वचन सुनकर
सारी ि याँ सोच करने लग और भाँित-भाँित से िवधाता को दोष देकर आँख से आँसू बहाने
लग ।

दो० - तेिह अवसर नारद सिहत अ रिष स समेत।


समाचार सिु न तिु हनिग र गवने तरु त िनकेत॥ 97॥

इस समाचार को सुनते ही िहमाचल उसी समय नारद और स ऋिषय को साथ लेकर अपने घर
गए॥ 97॥

तब नारद सबही समझु ावा। पू ब कथा संगु सनु ावा॥


मयना स य सनु ह मम बानी। जगदंबा तव सत
ु ा भवानी॥

तब नारद ने पवू ज म क कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) िक हे मैना! तुम मेरी
स ची बात सुनो, तु हारी यह लड़क सा ात जग जनी भवानी है।
अजा अनािद सि अिबनािसिन। सदा संभु अरधंग िनवािसिन॥
जग संभव पालन लय का रिन। िनज इ छा लीला बपु धा रिन॥

ये अज मा, अनािद और अिवनािशनी शि ह। सदा िशव के अ ाग म रहती ह। ये जगत क


उ पि , पालन और संहार करनेवाली ह; और अपनी इ छा से ही लीला शरीर धारण करती ह।

जनम थम द छ गहृ जाई। नामु सती संदु र तनु पाई॥


तहँहँ सती संकरिह िबबाह । कथा िस सकल जग माह ॥

पहले ये द के घर जाकर ज मी थ , तब इनका सती नाम था, बहत सुंदर शरीर पाया था। वहाँ
भी सती शंकर से ही याही गई थ । यह कथा सारे जगत म िस है।

एक बार आवत िसव संगा। देखउे रघक


ु ु ल कमल पतंगा॥
भयउ मोह िसव कहा न क हा। म बस बेषु सीय कर ली हा॥

एक बार इ ह ने िशव के साथ आते हए (राह म) रघुकुल पी कमल के सय


ू राम को देखा, तब
इ ह मोह हो गया और इ ह ने िशव का कहना न मानकर मवश सीता का वेष धारण कर िलया।

छं ० - िसय बेषु सत जो क ह तेिहं अपराध संकर प रहर ।


हर िबरहँ जाइ बहो र िपतु क ज य जोगानल जर ॥
अब जनिम तु हरे भवन िनज पित लािग दा न तपु िकया।
अस जािन संसय तजह िग रजा सबदा संकरि या॥

सती ने जो सीता का वेष धारण िकया, उसी अपराध के कारण शंकर ने उनको याग िदया। िफर
िशव के िवयोग म ये अपने िपता के य म जाकर वह योगाि न से भ म हो गई ं। अब इ ह ने
तु हारे घर ज म लेकर अपने पित के िलए किठन तप िकया है ऐसा जानकर संदेह छोड़ दो,
पावती तो सदा ही िशव क ि या ह।

दो० - सिु न नारद के बचन तब सब कर िमटा िबषाद।


छन महँ यापेउ सकल परु घर घर यह संबाद॥ 98॥

तब नारद के वचन सुनकर सबका िवषाद िमट गया और णभर म यह समाचार सारे नगर म
घर-घर फै ल गया॥ 98॥

तब मयना िहमवंतु अनंद।े पिु न पिु न पारबती पद बंद॥े


ना र पु ष िससु जुबा सयाने। नगर लोग सब अित हरषाने॥

तब मैना और िहमवान आनंद म म न हो गए और उ ह ने बार-बार पावती के चरण क वंदना


क । ी, पु ष, बालक, युवा और व ृ नगर के सभी लोग बहत स न हए।
लगे होन परु मंगल गाना। सजे सबिहं हाटक घट नाना॥
भाँित अनेक भई जेवनारा। सूपसा जस कछु यवहारा॥

नगर म मंगल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँित-भाँित के सुवण के कलश सजाए। पाक-
शा म जैसी रीित है, उसके अनुसार अनेक भाँित क योनार हई (रसोई बनी)।

सो जेवनार िक जाइ बखानी। बसिहं भवन जेिहं मातु भवानी॥


सादर बोले सकल बराती। िब नु िबरं िच देव सब जाती॥

िजस घर म वयं माता भवानी रहती ह , वहाँ क योनार (भोजन साम ी) का वणन कैसे िकया
जा सकता है? िहमाचल ने आदरपवू क सब बाराितय , िव णु, ा और सब जाित के देवताओं को
बुलवाया।

िबिबिध पाँित बैठी जेवनारा। लागे प सन िनपन ु सआु रा॥


ना रबंदृ सरु जेवँत जानी। लग देन गार मदृ ु बानी॥

भोजन (करनेवाल ) क बहत-सी पंगत बैठ । चतुर रसोइए परोसने लगे। ि य क मंडिलयाँ
देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गािलयाँ देने लग ।

छं ० - गार मधरु वर देिहं संदु र िबं य बचन सनु ावह ।


भोजनु करिहं सरु अित िबलंबु िबनोदु सिु न सचु पावह ॥
जेवँत जो बढ्यो अनंदु सो मखु कोिटहँ न परै क ो।
अचवाँइ दी ह पान गवने बास जहँ जाको र ो॥

सब सुंदरी ि याँ मीठे वर म गािलयाँ देने लग और यं य भरे वचन सुनाने लग । देवगण


िवनोद सुनकर बहत सुख अनुभव करते ह, इसिलए भोजन करने म बड़ी देर लगा रहे ह। भोजन
के समय जो आनंद बढ़ा वह करोड़ मँुह से भी नह कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर)
सबके हाथ-मँुह धुलवाकर पान िदए गए। िफर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

दो० - बह र मिु न ह िहमवंत कहँ लगन सन


ु ाई आइ।
समय िबलोिक िबबाह कर पठए देव बोलाइ॥ 99॥

िफर मुिनय ने लौटकर िहमवान को लगन (ल न पि का) सुनाई और िववाह का समय देखकर
देवताओं को बुला भेजा॥ 99॥

बोिल सकल सरु सादर ली हे। सबिह जथोिचत आसन दी हे॥


बेदी बेद िबधान सँवारी। सभ
ु ग सम
ु ंगल गाविहं नारी॥
सब देवताओं को आदर सिहत बुलवा िलया और सबको यथायो य आसन िदए। वेद क रीित से
वेदी सजाई गई और ि याँ सुंदर े मंगल गीत गाने लग ।

िसंघासनु अित िद य सहु ावा। जाइ न बरिन िबरं िच बनावा॥


बैठे िसव िब ह िस नाई। दयँ सिु म र िनज भु रघरु ाई॥

वेिदका पर एक अ यंत सुंदर िद य िसंहासन था, िजस (क सुंदरता) का वणन नह िकया जा


सकता, य िक वह वयं ा का बनाया हआ था। ा ण को िसर नवाकर और दय म अपने
वामी रघुनाथ का मरण करके िशव उस िसंहासन पर बैठ गए।

बह र मन
ु ीस ह उमा बोलाई ं। क र िसंगा सख लै आई ं॥
देखत पु सकल सरु मोहे। बरनै छिब अस जग किब को है॥

ृ ार करके उ ह ले आई ं। पावती के प को देखते


िफर मुनी र ने पावती को बुलाया। सिखयाँ ंग
ही सब देवता मोिहत हो गए। संसार म ऐसा किव कौन है, जो उस सुंदरता का वणन कर सके?

जगदंिबका जािन भव भामा। सरु ह मनिहं मन क ह नामा॥


संदु रता मरजाद भवानी। जाइ न कोिटहँ बदन बखानी॥

पावती को जगदंबा और िशव क प नी समझकर देवताओं ने मन-ही-मन णाम िकया। भवानी


सुंदरता क सीमा ह। करोड़ मुख से भी उनक शोभा नह कही जा सकती।

छं ० - कोिटहँ बदन निहं बनै बरनत जग जनिन सोभा महा।


सकुचिहं कहत ुित सेष सारद मंदमित तल ु सीकहा॥
छिबखािन मातु भवािन गवन म य मंडप िसव जहाँ।
अवलोिक सकिहं न सकुच पित पद कमल मनु मधक ु तहाँ॥

जग जननी पावती क महान शोभा का वणन करोड़ मुख से भी करते नह बनता। वेद, शेष
और सर वती तक उसे कहते हए सकुचा जाते ह, तब मंदबुि तुलसी िकस िगनती म है? सुंदरता
और शोभा क खान माता भवानी मंडप के बीच म, जहाँ िशव थे, वहाँ गई ं। वे संकोच के मारे पित
(िशव) के चरणकमल को देख नह सकत , परं तु उनका मन पी भ रा तो वह (रस-पान कर
रहा) था।

ु ासन गनपितिह पूजउे संभु भवािन।


दो० - मिु न अनस
कोउ सिु न संसय करै जिन सरु अनािद िजयँ जािन॥ 100॥

मुिनय क आ ा से िशव और पावती ने गणेश का पज


ू न िकया। मन म देवताओं को अनािद
समझकर कोई इस बात को सुनकर शंका न करे (िक गणेश तो िशव-पावती क संतान ह, अभी
िववाह से पवू ही वे कहाँ से आ गए?)॥ 100॥

जिस िबबाह कै िबिध ुित गाई। महामिु न ह सो सब करवाई॥


गिह िगरीस कुस क या पानी। भविह समरप जािन भवानी॥

वेद म िववाह क जैसी रीित कही गई है, महामुिनय ने वह सभी रीित करवाई। पवतराज
िहमाचल ने हाथ म कुश लेकर तथा क या का हाथ पकड़कर उ ह भवानी (िशवप नी) जानकर
िशव को समपण िकया।

पािन हन जब क ह महेसा। िहयँ हरषे तब सकल सरु े सा॥


बेदमं मिु नबर उ चरह । जय जय जय संकर सरु करह ॥

जब महे र (िशव) ने पावती का पािण हण िकया, तब (इं ािद) सब देवता दय म बड़े ही हिषत
हए। े मुिनगण वेदमं का उ चारण करने लगे और देवगण िशव का जय-जयकार करने
लगे।

बाजिहं बाजन िबिबध िबधाना। सम


ु नबिृ नभ भै िबिध नाना॥
हर िग रजा कर भयउ िबबाह। सकल भव ु न भ र रहा उछाह॥

अनेक कार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना कार के फूल क वषा हई। िशव-पावती का
िववाह हो गया। सारे ांड म आनंद भर गया।

दास दास तरु ग रथ नागा। धेनु बसन मिन ब तु िबभागा॥


अ न कनकभाजन भ र जाना। दाइज दी ह न जाइ बखाना॥

दासी, दास, रथ, घोड़े , हाथी, गाय, व और मिण आिद अनेक कार क चीज, अ न तथा सोने
के बतन गािड़य म लदवाकर दहे ज म िदए, िजनका वणन नह हो सकता।

छं ० - दाइज िदयो बह भाँित पिु न कर जो र िहमभूधर क ो।


का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गिह र ो॥
िसवँ कृपासागर ससरु कर संतोषु सब भाँितिहं िकयो।
पिु न गहे पद पाथोज मयनाँ म े प रपूरन िहयो॥

बहत कार का दहे ज देकर, िफर हाथ जोड़कर िहमाचल ने कहा - हे शंकर! आप पण
ू काम ह, म
आपको या दे सकता हँ? (इतना कहकर) वे िशव के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के
सागर िशव ने अपने ससुर का सभी कार से समाधान िकया। िफर ेम से प रपण
ू दय मैना ने
िशव के चरण कमल पकड़े (और कहा -)

दो० - नाथ उमा मम ान सम गहृ िकंकरी करे ह।


छमेह सकल अपराध अब होइ स न ब देह॥ 101॥

हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे ाण के समान ( यारी) है। आप इसे अपने घर क टहलनी बनाइएगा
और इसके सब अपराध को मा करते रिहएगा। अब स न होकर मुझे यही वर दीिजए॥ 101॥

बह िबिध संभु सासु समझ


ु ाई। गवनी भवन चरन िस नाई॥
जनन उमा बोिल तब ली ही। लै उछं ग संदु र िसख दी ही॥

िशव ने बहत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे िशव के चरण म िसर नवाकर घर गई ं।
िफर माता ने पावती को बुला िलया और गोद म िबठाकर यह सुंदर सीख दी -

करे ह सदा संकर पद पूजा। ना रधरमु पित देउ न दूजा॥


बचन कहत भरे लोचन बारी। बह र लाइ उर लीि ह कुमारी॥

हे पावती! तू सदािशव के चरण क पज ू ा करना, ना रय का यही धम है। उनके िलए पित ही


देवता है और कोई देवता नह है। इस कार क बात कहते-कहते उनक आँख म आँसू भर आए
और उ ह ने क या को छाती से िचपटा िलया।

कत िबिध सजृ ना र जग माह । पराधीन सपनेहँ सख


ु ु नाह ॥
े िबकल महतारी। धीरजु क ह कुसमय िबचारी॥
भै अित म

(िफर बोल िक) िवधाता ने जगत म ी जाित को य पैदा िकया? पराधीन को सपने म भी
सुख नह िमलता। य कहती हई माता ेम म अ यंत िवकल हो गई ं, परं तु कुसमय जानकर
(दुःख करने का अवसर न जानकर) उ ह ने धीरज धरा।

े ु कछु जाइ न बरना॥


पिु न पिु न िमलित परित गिह चरना। परम म
सब ना र ह िमिल भेिट भवानी। जाइ जनिन उर पिु न लपटानी॥

मैना बार-बार िमलती ह और (पावती के) चरण को पकड़कर िगर पड़ती ह। बड़ा ही ेम है, कुछ
वणन नह िकया जाता। भवानी सब ि य से िमल-भटकर िफर अपनी माता के दय से जा
िलपट ।

छं ० - जनिनिह बह र िमिल चली उिचत असीस सब काहँ दई ं।


िफ र िफ र िबलोकित मातु तन तब सख लै िसव पिहं गई ं॥
जाचक सकल संतोिष संक उमा सिहत भवन चले।
सब अमर हरषे सम ु न बरिष िनसान नभ बाजे भले॥

पावती माता से िफर िमलकर चल , सब िकसी ने उ ह यो य आशीवाद िदए। पावती िफर-िफरकर


माता क ओर देखती जाती थ । तब सिखयाँ उ ह िशव के पास ले गई ं। महादेव सब याचक को
संतु कर पावती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता स न होकर फूल क वषा करने
लगे और आकाश म सुंदर नगाड़े बजाने लगे।

दो० - चले संग िहमवंतु तब पहँचावन अित हेत।ु


िबिबध भाँित प रतोषु क र िबदा क ह बषृ केत॥ु 102॥

तब िहमवान अ यंत ेम से िशव को पहँचाने के िलए साथ चले। वषृ केतु (िशव) ने बहत तरह से
उ ह संतोष कराकर िवदा िकया॥ 102॥

तरु त भवन आए िग रराई। सकल सैल सर िलए बोलाई॥


आदर दान िबनय बहमाना। सब कर िबदा क ह िहमवाना॥

पवतराज िहमाचल तुरंत घर आए और उ ह ने सब पवत और सरोवर को बुलाया। िहमवान ने


आदर, दान, िवनय और बहत स मानपवू क सबक िवदाई क ।

जबिहं संभु कैलासिहं आए। सरु सब िनज िनज लोक िसधाए॥


जगत मातु िपतु संभु भवानी। तेिहं िसंगा न कहउँ बखानी॥

जब िशव कैलास पवत पर पहँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोक को चले गए। (तुलसीदास
कहते ह िक) पावती और िशव जगत के माता-िपता ह, इसिलए म उनके ंग
ृ ार का वणन नह
करता।

करिहं िबिबध िबिध भोग िबलासा। गन ह समेत बसिहं कैलासा॥


हर िग रजा िबहार िनत नयऊ। एिह िबिध िबपल
ु काल चिल गयऊ॥

िशव-पावती िविवध कार के भोग-िवलास करते हए अपने गण सिहत कैलास पर रहने लगे। वे
िन य नए िवहार करते थे। इस कार बहत समय बीत गया।

तब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असु समर जेिहं मारा॥


आगम िनगम िस परु ाना। ष मख ु ज मु सकल जग जाना॥

तब छह मुखवाले पु ( वािमकाितक) का ज म हआ, िज ह ने (बड़े होने पर) यु म तारकासुर


को मारा। वेद, शा और पुराण म वािमकाितक के ज म क कथा िस है और सारा जगत
उसे जानता है।

छं ० - जगु जान ष मख ु ज मु कमु तापु पु षारथु महा।


ृ केतु सत
तेिह हेतु म बष ु कर च रत संछेपिहं कहा॥
यह उमा संभु िबबाह जे नर ना र कहिहं जे गावह ।
क यान काज िबबाह मंगल सबदा सख ु ु पावह ॥
षडानन ( वािमकाितक) के ज म, कम, ताप और महान पु षाथ को सारा जगत जानता है।
इसिलए मने वषृ केतु (िशव) के पु का च र सं ेप म ही कहा है। िशव-पावती के िववाह क इस
कथा को जो ी-पु ष कहगे और गाएँ गे, वे क याण के काय और िववाहािद मंगल म सदा
सुख पाएँ गे।

दो० - च रत िसंधु िग रजा रमन बेद न पाविहं पा ।


बरनै तलु सीदासु िकिम अित मितमंद गवाँ ॥ 103॥

िग रजापित महादेव का च र समु के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नह पाते। तब
अ यंत मंदबुि और गँवार तुलसीदास उसका वणन कैसे कर सकता है!॥ 103॥

संभु च रत सिु न सरस सहु ावा। भर ाज मिु न अित सख


ु ु पावा॥
बह लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनि ह नी रोमाविल ठाढ़ी॥

िशव के रसीले और सुहावने च र को सुनकर मुिन भर ाज ने बहत ही सुख पाया। कथा सुनने
क उनक लालसा बहत बढ़ गई। ने म जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई।

े िबबस मख
म ु आव न बानी। दसा देिख हरषे मिु न यानी॥
अहो ध य तब ज मु मन
ु ीसा। तु हिह ान सम ि य गौरीसा॥

वे ेम म मु ध हो गए, मुख से वाणी नह िनकल रही थी। उनक यह दशा देखकर ानी मुिन
या व य बहत स न हए (और बोले -) हे मुनीश! अहा! तु हारा ज म ध य है, तुमको
गौरीपित िशव ाण के समान ि य ह।

िसव पद कमल िज हिह रित नाह । रामिह ते सपनेहँ न सोहाह ॥


िबनु छल िब वनाथ पद नेह। राम भगत कर ल छन एह॥

िशव के चरण कमल म िजनक ीित नह है, वे राम को व न म भी अ छे नह लगते। िव नाथ


िशव के चरण म िन कपट (िवशु ) ेम होना यही रामभ का ल ण है।

िसव सम को रघप ु ित तधारी। िबनु अघ तजी सती अिस नारी॥


पनु क र रघप
ु ित भगित देखाई। को िसव सम रामिह ि य भाई॥

िशव के समान रघुनाथ (क भि ) का त धारण करनेवाला कौन है? िज ह ने िबना ही पाप के


सती जैसी ी को याग िदया और ित ा करके रघुनाथ क भि को िदखा िदया। हे भाई! राम
को िशव के समान और कौन यारा है?

दो० - थमिहं म किह िसव च रत बूझा मरमु तु हार।


सिु च सेवक तु ह राम के रिहत सम त िबकार॥ 104॥

मने पहले ही िशव का च र कहकर तु हारा भेद समझ िलया। तुम राम के पिव सेवक हो और
सम त दोष से रिहत हो॥ 104॥

म जाना तु हार गनु सीला। कहउँ सन


ु ह अब रघप
ु ित लीला॥
सन
ु ु मिु न आजु समागम तोर। किह न जाइ जस सख ु ु मन मोर॥

मने तु हारा गुण और शील जान िलया। अब म रघुनाथ क लीला कहता हँ, सुनो। हे मुिन! सुनो,
आज तु हारे िमलने से मेरे मन म जो आनंद हआ है, वह कहा नह जा सकता।

राम च रत अित अिमत मन


ु ीसा। किह न सकिहं सत कोिट अहीसा॥
तदिप जथा तु कहउँ बखानी। सिु म र िगरापित भु धनप
ु ानी॥

हे मुनी र! रामच र अ यंत अपार है। सौ करोड़ शेष भी उसे नह कह सकते। तथािप जैसा मने
सुना है, वैसा वाणी के वामी ( ेरक) और हाथ म धनुष िलए हए भु राम का मरण करके
कहता हँ।

सारद दा ना र सम वामी। रामु सू धर अंतरजामी॥


जेिह पर कृपा करिहं जनु जानी। किब उर अिजर नचाविहं बानी॥

सर वती कठपुतली के समान ह और अंतयामी वामी राम (सतू पकड़कर कठपुतली को


नचानेवाले) सू धार ह। अपना भ जानकर िजस किव पर वे कृपा करते ह, उसके दय पी
आँगन म सर वती को वे नचाया करते ह।

नवउँ सोइ कृपाल रघन


ु ाथा। बरनउँ िबसद तासु गन
ु गाथा॥
परम र य िग रब कैलासू। सदा जहाँ िसव उमा िनवासू॥

उ ह कृपालु रघुनाथ को म णाम करता हँ और उ ह के िनमल गुण क कथा कहता हँ।


कैलास पवत म े और बहत ही रमणीय है, जहाँ िशव-पावती सदा िनवास करते ह।

दो० - िस तपोधन जोिगजन सरु िकंनर मिु नबंदृ ।


बसिहं तहाँ सक
ु ृ ती सकल सेविहं िसव सख
ु कंद॥ 105॥

िस , तप वी, योगीगण, देवता, िक नर और मुिनय के समहू उस पवत पर रहते ह। वे सब बड़े


पु या मा ह और आनंदकंद महादेव क सेवा करते ह॥ 105॥

ह र हर िबमखु धम रित नाह । ते नर तहँ सपनेहँ निहं जाह ॥


तेिह िग र पर बट िबटप िबसाला। िनत नूतन संदु र सब काला॥
जो भगवान िव णु और महादेव से िवमुख ह और िजनक धम म ीित नह है, वे लोग व न म भी
वहाँ नह जा सकते। उस पवत पर एक िवशाल बरगद का पेड़ है, जो िन य नवीन और सब काल
(छह ऋतुओ)ं म सुंदर रहता है।

ि िबध समीर सस ु ीतिल छाया। िसव िब ाम िबटप ुित गाया॥


एक बार तेिह तर भु गयऊ। त िबलोिक उर अित सख ु ु भयऊ॥

वहाँ तीन कार क (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसक छाया बड़ी ठं डी
रहती है। वह िशव के िव ाम करने का व ृ है, िजसे वेद ने गाया है। एक बार भु िशव उस व ृ
के नीचे गए और उसे देखकर उनके दय म बहत आनंद हआ।

िनज कर डािस नाग रपु छाला। बैठे सहजिहं संभु कृपाला॥


कंु द इं दु दर गौर सरीरा। भज
ु लंब प रधन मिु नचीरा॥

अपने हाथ से बाघंबर िबछाकर कृपालु िशव वभाव से ही (िबना िकसी खास योजन के) वहाँ
बैठ गए। कुंद के पु प, चं मा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थ और
वे मुिनय के-से (व कल) व धारण िकए हए थे।

त न अ न अंबज ु सम चरना। नख दिु त भगत दय तम हरना॥


भज
ु ग भूित भूषन ि परु ारी। आननु सरद चंद छिब हारी॥

उनके चरण नए (पणू प से िखले हए) लाल कमल के समान थे, नख क योित भ के
दय का अंधकार हरनेवाली थी। साँप और भ म ही उनके भषू ण थे और उन ि पुरासुर के श ु
िशव का मुख शरद (पिू णमा) के चं मा क शोभा को भी हरनेवाला (फ क करनेवाला) था।

दो० - जटा मक
ु ु ट सरु स रत िसर लोचन निलन िबसाल।
नीलकंठ लाव यिनिध सोह बालिबधु भाल॥ 106॥

उनके िसर पर जटाओं का मुकुट और गंगा (शोभायमान) थ । कमल के समान बड़े -बड़े ने थे।
उनका नील कंठ था और वे संुदरता के भंडार थे। उनके म तक पर ि तीया का चं मा शोिभत
था॥ 106॥

बैठे सोह काम रपु कैस। धर सरी सांतरसु जैस॥


पारबती भल अवस जानी। गई ं संभु पिहं मातु भवानी॥

कामदेव के श ु िशव वहाँ बैठे हए ऐसे शोिभत हो रहे थे, मानो शांत रस ही शरीर धारण िकए बैठा
हो। अ छा मौका जानकर िशवप नी माता पावती उनके पास गई ं।

जािन ि या आद अित क हा। बाम भाग आसनु हर दी हा॥


बैठ िसव समीप हरषाई। पू ब ज म कथा िचत आई॥

अपनी यारी प नी जानकार िशव ने उनका बहत आदर-स कार िकया और अपनी बाई ं ओर बैठने
के िलए आसन िदया। पावती स न होकर िशव के पास बैठ गई ं। उ ह िपछले ज म क कथा
मरण हो आई।

पित िहयँ हेतु अिधक अनम


ु ानी। िबहिस उमा बोल ि य बानी॥
कथा जो सकल लोक िहतकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥

वामी के दय म (अपने ऊपर पहले क अपे ा) अिधक ेम समझकर पावती हँसकर ि य वचन
बोल । (या व य कहते ह िक) जो कथा सब लोग का िहत करनेवाली है, उसे ही पावती पछ
ू ना
चाहती ह।

िब वनाथ मम नाथ परु ारी। ि भव


ु न मिहमा िबिदत तु हारी॥
चर अ अचर नाग नर देवा। सकल करिहं पद पंकज सेवा॥

(पावती ने कहा -) हे संसार के वामी! हे मेरे नाथ! हे ि पुरासुर का वध करनेवाले! आपक


मिहमा तीन लोक म िव यात है। चर, अचर, नाग, मनु य और देवता सभी आपके चरण कमल
क सेवा करते ह।

दो० - भु समरथ सब य िसव सकल कला गन


ु धाम।
जोग यान बैरा य िनिध नत कलपत नाम॥ 107॥

हे भो! आप समथ, सव और क याण व प ह। सब कलाओं और गुण के िनधान ह और योग,


ान तथा वैरा य के भंडार ह। आपका नाम शरणागत के िलए क पव ृ है॥ 107॥

ज मो पर स न सख ु रासी। जािनअ स य मोिह िनज दासी॥


तौ भु हरह मोर अ याना। किह रघन
ु ाथ कथा िबिध नाना॥

हे सुख क रािश ! यिद आप मुझ पर स न ह और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी स ची
दासी) जानते ह, तो हे भो! आप रघुनाथ क नाना कार क कथा कहकर मेरा अ ान दूर
क िजए।

जासु भवनु सरु त तर होई। सिह िक द र जिनत दख


ु ु सोई॥
सिसभूषन अस दयँ िबचारी। हरह नाथ मम मित म भारी॥

िजसका घर क पव ृ के नीचे हो, वह भला द र ता से उ प न दुःख को य सहे गा? हे


शिशभषू ण! हे नाथ! दय म ऐसा िवचार कर मेरी बुि के भारी म को दूर क िजए।
भु जे मिु न परमारथबादी। कहिहं राम कहँ अनादी॥
सेस सारदा बेद परु ाना। सकल करिहं रघपु ित गन
ु गाना॥

हे भो! जो परमाथत व ( ) के ाता और व ा मुिन ह, वे राम को अनािद कहते ह और


शेष, सर वती, वेद और पुराण सभी रघुनाथ का गुण गाते ह।

तु ह पिु न राम राम िदन राती। सादर जपह अनँग आराती॥


रामु सो अवध नप ृ ित सत
ु सोई। क अज अगन ु अलखगित कोई॥

और हे कामदेव के श ु! आप भी िदन-रात आदरपवू क राम-राम जपा करते ह - ये राम वही


अयो या के राजा के पु ह? या अज मे , िनगुण और अगोचर कोई और राम ह?

दो० - ज नपृ तनय त िकिम ना र िबरहँ मित भो र।


देिख च रत मिहमा सन
ु त मित बिु अित मो र॥ 108॥

यिद वे राजपु ह तो कैसे? (और यिद ह तो) ी के िवरह म उनक मित बावली कैसे
हो गई? इधर उनके ऐसे च र देखकर और उधर उनक मिहमा सुनकर मेरी बुि अ यंत चकरा
रही है॥ 108॥

ज अनीह यापक िबभु कोऊ। कहह बझ ु ाइ नाथ मोिह सोऊ॥


अ य जािन रस उर जिन धरह। जेिह िबिध मोह िमटै सोइ करह॥

यिद इ छारिहत, यापक, समथ कोई और है, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर किहए। मुझे
नादान समझकर मन म ोध न लाइए। िजस तरह मेरा मोह दूर हो, वही क िजए।

म बन दीिख राम भत
ु ाई। अित भय िबकल न तु हिह सन ु ाई॥
तदिप मिलन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँित हम पावा॥

मने (िपछले ज म म) वन म राम क भुता देखी थी, परं तु अ यंत भयभीत होने के कारण मने
वह बात आपको सुनाई नह । तो भी मेरे मिलन मन को बोध न हआ। उसका फल भी मने अ छी
तरह पा िलया।

अजहँ कछु संसउ मन मोर। करह कृपा िबनवउँ कर जोर॥


भु तब मोिह बह भाँित बोधा। नाथ सो समिु झ करह जिन ोधा॥

अब भी मेरे मन म कुछ संदेह है। आप कृपा क िजए, म हाथ जोड़कर िवनती करती हँ। हे भो!
आपने उस समय मुझे बहत तरह से समझाया था (िफर भी मेरा संदेह नह गया), हे नाथ! यह
सोचकर मुझ पर ोध न क िजए।
तब कर अस िबमोह अब नाह । रामकथा पर िच मन माह ॥
कहह पन
ु ीत राम गन
ु गाथा। भज
ु गराज भूषन सरु नाथा॥

मुझे अब पहले जैसा मोह नह है, अब तो मेरे मन म रामकथा सुनने क िच है। हे शेषनाग को
अलंकार प म धारण करनेवाले देवताओं के नाथ! आप राम के गुण क पिव कथा किहए।

दो० - बंदउँ पद ध र धरिन िस िबनय करउँ कर जो र।


बरनह रघब ु र िबसद जसु ुित िस ांत िनचो र॥ 109॥

म प ृ वी पर िसर टेककर आपके चरण क वंदना करती हँ और हाथ जोड़कर िवनती करती हँ।
आप वेद के िस ांत को िनचोड़कर रघुनाथ का िनमल यश वणन क िजए॥ 109॥

जदिप जोिषता निहं अिधकारी। दासी मन म बचन तु हारी॥


गूढ़उ त व न साधु दरु ाविहं। आरत अिधकारी जहँ पाविहं॥

य िप ी होने के कारण म उसे सुनने क अिधका रणी नह हँ, तथािप म मन, वचन और कम
से आपक दासी हँ। संत लोग जहाँ आत अिधकारी पाते ह, वहाँ गढ़
ू त व भी उससे नह िछपाते।

अित आरित पूछउँ सरु राया। रघप


ु ित कथा कहह क र दाया॥
थम सो कारन कहह िबचारी। िनगन ु सगनु बपु धारी॥

हे देवताओं के वामी! म बहत ही आतभाव (दीनता) से पछ


ू ती हँ, आप मुझ पर दया करके
रघुनाथ क कथा किहए। पहले तो वह कारण िवचारकर बतलाइए, िजससे िनगुण सगुण प
धारण करता है॥

पिु न भु कहह राम अवतारा। बालच रत पिु न कहह उदारा॥


कहह जथा जानक िबबाह । राज तजा सो दूषन काह ॥

िफर हे भु! राम के अवतार (ज म) क कथा किहए तथा उनका उदार बाल च र किहए। िफर
िजस कार उ ह ने जानक से िववाह िकया, वह कथा किहए और िफर यह बतलाइए िक उ ह ने
जो रा य छोड़ा सो िकस दोष से।

बन बिस क हे च रत अपारा। कहह नाथ िजिम रावन मारा॥


राज बैिठ क ह बह लीला। सकल कहह संकर सख ु सीला॥

हे नाथ! िफर उ ह ने वन म रहकर जो अपार च र िकए तथा िजस तरह रावण को मारा, वह
किहए। हे सुख व प शंकर! िफर आप उन सारी लीलाओं को किहए जो उ ह ने रा य (िसंहासन)
पर बैठकर क थ ।
दो० - बह र कहह क नायतन क ह जो अचरज राम।
जा सिहत रघबु ंसमिन िकिम गवने िनज धाम॥ 110॥

हे कृपाधाम! िफर वह अ ुत च र किहए जो राम ने िकया - वे रघुकुल िशरोमिण जा सिहत


िकस कार अपने धाम को गए?॥ 110॥

पिु न भु कहह सो त व बखानी। जेिहं िब यान मगन मिु न यानी॥


भगित यान िब यान िबरागा। पिु न सब बरनह सिहत िबभागा॥

हे भु! िफर आप उस त व को समझाकर किहए, िजसक अनुभिू त म ानी मुिनगण सदा म न


रहते ह और िफर भि , ान, िव ान और वैरा य का िवभाग सिहत वणन क िजए।

औरउ राम रह य अनेका। कहह नाथ अित िबमल िबबेका॥


जो भु म पूछा निहं होई। सोउ दयाल राखह जिन गोई॥

(इसके िसवा) राम के और भी जो अनेक रह य (िछपे हए भाव अथवा च र ) ह, उनको किहए। हे


नाथ! आपका ान अ यंत िनमल है। हे भो! जो बात मने न भी पछू ी हो, हे दयालु! उसे भी आप
िछपा न रिखएगा।

तु ह ि भव
ु न गरु बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
न उमा कै सहज सहु ाई। छल िबहीन सिु न िसव मन भाई॥

वेद ने आपको तीन लोक का गु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रह य को या जान! पावती
के सहज सुंदर और छलरिहत (सरल) सुनकर िशव के मन को बहत अ छे लगे।

े पल
हर िहयँ रामच रत सब आए। म ु क लोचन जल छाए॥
ीरघनु ाथ प उर आवा। परमानंद अिमत सख
ु पावा॥

महादेव के दय म सारे रामच र आ गए। ेम के मारे उनका शरीर पुलिकत हो गया और ने म


जल भर आया। रघुनाथ का प उनके दय म आ गया, िजससे वयं परमानंद व प िशव ने भी
अपार सुख पाया।

- मगन यान रस दंड जुग पिु न मन बाहेर क ह।


रघपु ित च रत महेस तब हरिषत बरनै ली ह॥ 111॥

िशव दो घड़ी तक यान के रस (आनंद) म डूबे रहे , िफर उ ह ने मन को बाहर ख चा और तब वे


स न होकर रघुनाथ का च र वणन करने लगे॥ 111॥

झूठेउ स य जािह िबनु जान। िजिम भज


ु ंग िबनु रजु पिहचान॥
जेिह जान जग जाइ हेराई। जाग जथा सपन म जाई॥

िजसके िबना जाने झठू भी स य मालमू होता है, जैसे िबना पहचाने र सी म साँप का म हो
जाता है; और िजसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर व न
का म जाता रहता है।

बंदउँ बाल प सोइ रामू। सब िसिध सल


ु भ जपत िजसु नामू॥
मंगल भवन अमंगल हारी। वउ सो दसरथ अिजर िबहारी॥

म उ ह राम के बाल प क वंदना करता हँ, िजनका नाम जपने से सब िसि याँ सहज ही ा
हो जाती ह। मंगल के धाम, अमंगल के हरनेवाले और दशरथ के आँगन म खेलनेवाले (बाल प)
राम मुझ पर कृपा कर।

क र नाम रामिह ि परु ारी। हरिष सध


ु ा सम िगरा उचारी॥
ध य ध य िग रराजकुमारी। तु ह समान निहं कोउ उपकारी॥

ि पुरासुर का वध करनेवाले िशव राम को णाम करके आनंद म भरकर अमत ृ के समान वाणी
बोले - हे िग रराजकुमारी पावती! तुम ध य हो! ध य हो!! तु हारे समान कोई उपकारी नह है।

पँूछेह रघपु ित कथा संगा। सकल लोक जग पाविन गंगा॥


तु ह रघब ु ीर चरन अनरु ागी। क ि हह न जगत िहत लागी॥

जो तुमने रघुनाथ क कथा का संग पछ ू ा है, जो कथा सम त लोक के िलए जगत को पिव
करनेवाली गंगा के समान है। तुमने जगत के क याण के िलए ही पछू े ह। तुम रघुनाथ के
चरण म ेम रखनेवाली हो।

- राम कृपा त पारबित सपनेहँ तव मन मािहं।


सोक मोह संदहे म मम िबचार कछु नािहं॥ 112॥

हे पावती! मेरे िवचार म तो राम क कृपा से तु हारे मन म व न म भी शोक, मोह, संदेह और म


कुछ भी नह है॥ 112॥

तदिप असंका क ि हह सोई। कहत सनु त सब कर िहत होई॥


िज ह ह रकथा सन
ु ी निहं काना। वन रं अिहभवन समाना॥

िफर भी तुमने इसीिलए वही (पुरानी) शंका क है िक इस संग के कहने-सुनने से सबका


क याण होगा। िज ह ने अपने कान से भगवान क कथा नह सुनी, उनके कान के िछ साँप
के िबल के समान ह।
नयनि ह संत दरस निहं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥
ते िसर कटु तब
ंु र समतल
ू ा। जे न नमत ह र गरु पद मूला॥

िज ह ने अपने ने से संत के दशन नह िकए, उनके वे ने मोर के पंख पर िदखनेवाली


नकली आँख क िगनती म ह। वे िसर कड़वी तँबू ी के समान ह, जो ह र और गु के चरणतल
पर नह झुकते।

िज ह ह रभगित दयँ निहं आनी। जीवत सव समान तेइ ानी॥


जो निहं करइ राम गन
ु गाना। जीह सो दादरु जीह समाना॥

िज ह ने भगवान क भि को अपने दय म थान नह िदया, वे ाणी जीते हए ही मुद के


समान ह। जो जीभ राम के गुण का गान नह करती, वह मेढ़क क जीभ के समान है।

कुिलस कठोर िनठुर सोइ छाती। सिु न ह रच रत न जो हरषाती॥


ु ह राम कै लीला। सरु िहत दनज
िग रजा सन ु िबमोहनसीला॥

वह दय व के समान कड़ा और िन र है, जो भगवान के च र सुनकर हिषत नह होता। हे


पावती! राम क लीला सुनो, यह देवताओं का क याण करनेवाली और दै य को िवशेष प से
मोिहत करनेवाली है।

- रामकथा सरु धेनु सम सेवत सब सख ु दािन।


सतसमाज सरु लोक सब को न सन ु ै अस जािन॥ 113॥

राम क कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुख को देनेवाली है, और स पु ष के


समाज ही सब देवताओं के लोक ह, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥ 113॥

रामकथा संदु र कर तारी। संसय िबहग उड़ाविनहारी॥


रामकथा किल िबटप कुठारी। सादर सन ु ु िग रराजकुमारी॥

राम क कथा हाथ क सुंदर ताली है, जो संदेह पी पि य को उड़ा देती है। िफर रामकथा
किलयुग पी व ृ को काटने के िलए कु हाड़ी है। हे िग रराजकुमारी! तुम इसे आदरपवू क सुनो।

राम नाम गन
ु च रत सहु ाए। जनम करम अगिनत ुित गाए॥
जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा क रित गन
ु नाना॥

वेद ने राम के सुंदर नाम, गुण, च र , ज म और कम सभी अनिगनत कहे ह। िजस कार
भगवान राम अनंत ह, उसी तरह उनक कथा, क ित और गुण भी अनंत ह।

तदिप जथा ुत जिस मित मोरी। किहहउँ देिख ीित अित तोरी॥
उमा न तव सहज सहु ाई। सख
ु द संतसंमत मोिह भाई॥

तो भी तु हारी अ यंत ीित देखकर, जैसा कुछ मने सुना है और जैसी मेरी बुि है, उसी के
अनुसार म कहँगा। हे पावती! तु हारा वाभािवक ही सुंदर, सुखदायक और संतस मत है
और मुझे तो बहत ही अ छा लगा है।

एक बात निहं मोिह सोहानी। जदिप मोह बस कहेह भवानी॥


तु ह जो कहा राम कोउ आना। जेिह ुित गाव धरिहं मिु न याना॥

परं तु हे पावती! एक बात मुझे अ छी नह लगी, य िप वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है।
तुमने जो यह कहा िक वे राम कोई और ह, िज ह वेद गाते और मुिनजन िजनका यान धरते ह -

- कहिहं सनु िहं अस अधम नर से जे मोह िपसाच।


पाषंडी ह र पद िबमखु जानिहं झूठ न साच॥ 114॥

जो मोह पी िपशाच के ारा त ह, पाखंडी ह, भगवान के चरण से िवमुख ह और जो झठ


ू -सच
कुछ भी नह जानते, ऐसे अधम मनु य ही इस तरह कहते-सुनते ह॥ 114॥

अ य अकोिबद अंध अभागी। काई िबषय मक ु ु र मन लागी॥


लंपट कपटी कुिटल िबसेषी। सपनेहँ संतसभा निहं देखी॥

जो अ ानी, मखू , अंधे और भा यहीन ह और िजनके मन पी दपण पर िवषय पी काई जमी हई


है, जो यिभचारी, छली और बड़े कुिटल ह और िज ह ने कभी व न म भी संत समाज के दशन
नह िकए;

कहिहं ते बेद असंमत बानी। िज ह क सूझ लाभु निहं हानी॥


मक
ु ु र मिलन अ नयन िबहीना। राम प देखिहं िकिम दीना॥

और िज ह अपने लाभ-हािन नह सझ ू ती, वे ही ऐसी वेदिव बात कहा करते ह, िजनका


दय पी दपण मैला है और जो ने से हीन ह, वे बेचारे राम का प कैसे देख!

िज ह क अगनु न सगन
ु िबबेका। ज पिहं कि पत बचन अनेका॥
ह रमाया बस जगत माह । ित हिह कहत कछु अघिटत नाह ॥

िजनको िनगुण-सगुण का कुछ भी िववेक नह है, जो अनेक मनगढ़ं त बात बका करते ह, जो
ह र क माया के वश म होकर जगत म (ज म-म ृ यु के च म) मते िफरते ह, उनके िलए कुछ
भी कह डालना असंभव नह है।
बातल
ु भूत िबबस मतवारे । ते निहं बोलिहं बचन िबचारे ॥
िज ह कृत महामोह मद पाना। ित ह कर कहा क रअ निहं काना॥

ू के वश हो गए ह और जो नशे
िज ह वायु का रोग (सि नपात, उ माद आिद) हो गया हो, जो भत
म चरू ह, ऐसे लोग िवचारकर वचन नह बोलते। िज ह ने महामोह पी मिदरा पी रखी है, उनके
कहने पर कान नह देना चािहए।

सो० - अस िनज दयँ िबचा र तजु संसय भजु राम पद।


सन
ु ु िग रराज कुमा र म तम रिब कर बचन मम॥ 115॥

अपने दय म ऐसा िवचार कर संदेह छोड़ दो और राम के चरण को भजो। हे पावती! म पी


अंधकार के नाश करने के िलए सय
ू क िकरण के समान मेरे वचन को सुनो!॥ 115॥

सगनु िह अगन
ु िह निहं कछु भेदा। गाविहं मिु न परु ान बध
ु बेदा॥
अगन
ु अ प अलख अज जोई। भगत म े बस सगन ु सो होई॥

सगुण और िनगुण म कुछ भी भेद नह है - मुिन, पुराण, पंिडत और वेद सभी ऐसा कहते ह। जो
िनगुण, अ प (िनराकार), अलख (अ य ) और अज मा है, वही भ के ेमवश सगुण हो
जाता है।

जो गन ु सोइ कैस। जलु िहम उपल िबलग निहं जैस॥


ु रिहत सगन
जासु नाम म ितिमर पतंगा। तेिह िकिम किहअ िबमोह संगा॥

जो िनगुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले म भेद नह । (दोन जल ही ह, ऐसे ही िनगुण
और सगुण एक ही ह।) िजसका नाम म पी अंधकार के िमटाने के िलए सय ू है, उसके िलए मोह
का संग भी कैसे कहा जा सकता है?

राम सि चदानंद िदनेसा। निहं तहँ मोह िनसा लवलेसा॥


सहज कास प भगवाना। निहं तहँ पिु न िब यान िबहाना॥

राम सि चदानंद व प सयू ह। वहाँ मोह पी राि का लवलेश भी नह है। वे वभाव से ही काश
प और (षडै ययु ) भगवान है, वहाँ तो िव ान पी ातःकाल भी नह होता (अ ान पी
राि हो तब तो िव ान पी ातःकाल हो; भगवान तो िन य ान व प ह)।

हरष िबषाद यान अ याना। जीव धम अहिमित अिभमाना॥


राम यापक जग जाना। परमानंद परे स परु ाना॥

हष, शोक, ान, अ ान, अहंता और अिभमान - ये सब जीव के धम ह। राम तो यापक ,


परमानंद व प, परा पर भु और पुराण पु ष ह। इस बात को सारा जगत जानता है।
- पु ष िस कास िनिध गट परावर नाथ।
रघकु ु लमिन मम वािम सोइ किह िसवँ नायउ माथ॥ 116॥

जो (पुराण) पु ष िस ह, काश के भंडार ह, सब प म कट ह, जीव, माया और जगत


सबके वामी ह, वे ही रघुकुल मिण राम मेरे वामी ह - ऐसा कहकर िशव ने उनको म तक
नवाया॥ 116॥

िनज म निहं समझ


ु िहं अ यानी। भु पर मोह धरिहं जड़ ानी॥
जथा गगन घन पटल िनहारी। झाँपउे भानु कहिहं कुिबचारी॥

अ ानी मनु य अपने म को तो समझते नह और वे मखू भु राम पर उसका आरोप करते ह,


जैसे आकाश म बादल का परदा देखकर कुिवचारी (अ ानी) लोग कहते ह िक बादल ने सय

को ढँ क िलया।

िचतव जो लोचन अंगिु ल लाएँ । गट जुगल सिस तेिह के भाएँ ॥


उमा राम िबषइक अस मोहा। नभ तम धूम धू र िजिम सोहा॥

जो मनु य आँख म उँ गली लगाकर देखता है, उसके िलए तो दो चं मा कट ( य ) ह। हे


पावती! राम के िवषय म इस कार मोह क क पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश म अंधकार,
ू का सोहना (िदखना)। (आकाश जैसे िनमल और िनलप है, उसको कोई मिलन या
धुएँ और धल
पश नह कर सकता, इसी कार भगवान राम िन य िनमल और िनलप ह।)

िबषय करन सरु जीव समेता। सकल एक त एक सचेता॥


सब कर परम कासक जोई। राम अनािद अवधपित सोई॥

िवषय, इंि याँ, इंि य के देवता और जीवा मा - ये सब एक क सहायता से एक चेतन होते ह।


(अथात िवषय का काश इंि य से, इंि य का इंि य के देवताओं से और इंि य-देवताओं का
चेतन जीवा मा से काश होता है।) इन सबका जो परम काशक है (अथात िजससे इन सबका
काश होता है), वही अनािद अयो या नरे श राम ह।

जगत का य कासक रामू। मायाधीस यान गन ु धामू॥


जासु स यता त जड़ माया। भास स य इव मोह सहाया॥

यह जगत का य है और राम इसके काशक ह। वे माया के वामी और ान तथा गुण के धाम


ह। िजनक स ा से, मोह क सहायता पाकर जड़ माया भी स य-सी भािसत होती है।

- रजत सीप महँ भास िजिम जथा भानु कर बा र।


जदिप मषृ ा ितहँ काल सोइ म न सकइ कोउ टा र॥ 117॥
जैसे सीप म चाँदी क और सयू क िकरण म पानी क (िबना हए भी) तीित होती है। य िप यह
तीित तीन काल म झठ ू है, तथािप इस म को कोई हटा नह सकता॥ 117॥

एिह िबिध जग ह र आि त रहई। जदिप अस य देत दखु अहई॥


ज सपन िसर काटै कोई। िबनु जाग न दू र दख
ु होई॥

इसी तरह यह संसार भगवान के आि त रहता है। य िप यह अस य है, तो भी दुःख तो देता ही है,
िजस तरह व न म कोई िसर काट ले तो िबना जागे वह दुःख दूर नह होता।

जासु कृपाँ अस म िमिट जाई। िग रजा सोइ कृपाल रघरु ाई॥


आिद अंत कोउ जासु न पावा। मित अनमु ािन िनगम अस गावा॥

हे पावती! िजनक कृपा से इस कार का म िमट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ ह। िजनका आिद
और अंत िकसी ने नह (जान) पाया। वेद ने अपनी बुि से अनुमान करके इस कार (नीचे
िलखे अनुसार) गाया है -

िबनु पद चलइ सन
ु इ िबनु काना। कर िबनु करम करइ िबिध नाना॥
आनन रिहत सकल रस भोगी। िबनु बानी बकता बड़ जोगी॥

वह ( ) िबना ही पैर के चलता है, िबना ही कान के सुनता है, िबना ही हाथ के नाना कार के
काम करता है, िबना मँुह (िज ा) के ही सारे (छह ) रस का आनंद लेता है और िबना वाणी के
बहत यो य व ा है।

तन िबनु परस नयन िबनु देखा। हइ ान िबनु बास असेषा॥


अिस सब भाँित अलौिकक करनी। मिहमा जासु जाइ निहं बरनी॥

वह िबना शरीर ( वचा) के ही पश करता है, आँख के िबना ही देखता है और िबना नाक के
सब गंध को हण करता है (सँघ ू ता है)। उस क करनी सभी कार से ऐसी अलौिकक है िक
िजसक मिहमा कही नह जा सकती।

- जेिह इिम गाविहं बेद बध


ु जािह धरिहं मिु न यान।
सोइ दसरथ सत ु भगत िहत कोसलपित भगवान॥ 118॥

िजसका वेद और पंिडत इस कार वणन करते ह और मुिन िजसका यान धरते ह, वही
दशरथनंदन, भ के िहतकारी, अयो या के वामी भगवान राम ह॥ 118॥

कास मरत जंतु अवलोक । जासु नाम बल करउँ िबसोक ॥


सोइ भु मोर चराचर वामी। रघब
ु र सब उर अंतरजामी॥
(हे पावती!) िजनके नाम के बल से काशी म मरते हए ाणी को देखकर म उसे (राम मं देकर)
शोकरिहत कर देता हँ (मु कर देता हँ), वही मेरे भु रघु े राम जड़-चेतन के वामी और
सबके दय के भीतर क जाननेवाले ह।

िबबसहँ जासु नाम नर कहह । जनम अनेक रिचत अघ दहह ॥


सादर सिु मरन जे नर करह । भव बा रिध गोपद इव तरह ॥

िववश होकर (िबना इ छा के) भी िजनका नाम लेने से मनु य के अनेक ज म म िकए हए पाप
जल जाते ह। िफर जो मनु य आदरपवू क उनका मरण करते ह, वे तो संसार पी (दु तर) समु
को गाय के खुर से बने हए गड्ढे के समान (अथात िबना िकसी प र म के) पार कर जाते ह।

राम सो परमातमा भवानी। तहँ म अित अिबिहत तव बानी॥


अस संसय आनत उर माह । यान िबराग सकल गन ु जाह ॥

हे पावती! वही परमा मा राम ह। उनम म (देखने म आता) है, तु हारा ऐसा कहना अ यंत ही
अनुिचत है। इस कार का संदेह मन म लाते ही मनु य के ान, वैरा य आिद सारे स ुण न हो
जाते ह।

सिु न िसव के म भंजन बचना। िमिट गै सब कुतरक कै रचना॥


भइ रघप ु ित पद ीित तीती। दा न असंभावना बीती॥

िशव के मनाशक वचन को सुनकर पावती के सब कुतक क रचना िमट गई। रघुनाथ के
चरण म उनका ेम और िव ास हो गया और किठन असंभावना (िजसका होना स भव नह ,
ऐसी िम या क पना) जाती रही!

- पिु न पिु न भु पद कमल गिह जो र पंक ह पािन।


बोल िग रजा बचन बर मनहँ म े रस सािन॥ 119॥

बार- बार वामी (िशव) के चरणकमल को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथ को
जोड़कर पावती मानो ेमरस म सानकर संुदर वचन बोल ॥ 119॥

सिस कर सम सिु न िगरा तु हारी। िमटा मोह सरदातप भारी॥


तु ह कृपाल सबु संसउ हरे ऊ। राम व प जािन मोिह परे ऊ॥

आपक चं मा क िकरण के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अ ान पी शरद-ऋतु ( वार) क


धपू का भारी ताप िमट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब संदेह हर िलया, अब राम का यथाथ
व प मेरी समझ म आ गया।

नाथ कृपाँ अब गयउ िबषादा। सख


ु ी भयउँ भु चरन सादा॥
अब मोिह आपिन िकंक र जानी। जदिप सहज जड़ ना र अयानी॥

हे नाथ! आपक कृपा से अब मेरा िवषाद जाता रहा और आपके चरण के अनु ह से म सुखी हो
गई। य िप म ी होने के कारण वभाव से ही मख ू और ानहीन हँ, तो भी अब आप मुझे अपनी
दासी जानकर -

थम जो म पूछा सोइ कहह। ज मो पर स न भु अहह॥


राम िचनमय अिबनासी। सब रिहत सब उर परु बासी॥

हे भो! यिद आप मुझ पर स न ह, तो जो बात मने पहले आपसे पछ


ू ी थी, वही किहए। (यह
स य है िक) राम ह, िच मय ( ान व प) ह, अिवनाशी ह, सबसे रिहत और सबके
दय पी नगरी म िनवास करनेवाले ह।

नाथ धरे उ नरतनु केिह हेत।ू मोिह समझ ृ केत॥


ु ाइ कहह बष ू
उमा बचन सिु न परम िबनीता। रामकथा पर ीित पन ु ीता॥

िफर हे नाथ! उ ह ने मनु य का शरीर िकस कारण से धारण िकया? हे धम क वजा धारण
करनेवाले भो! यह मुझे समझाकर किहए। पावती के अ यंत न वचन सुनकर और राम क
कथा म उनका िवशु ेम देखकर -

- िहयँ हरषे कामा र तब संकर सहज सज ु ान।


बह िबिध उमिह संिस पिु न बोले कृपािनधान॥ 120(क)॥

तब कामदेव के श ु, वाभािवक ही सुजान, कृपा-िनधान िशव मन म बहत ही हिषत हए और


बहत कार से पावती क बड़ाई करके िफर बोले - ॥ 120(क)॥

सो० - सनु ु सभ ु कथा भवािन रामच रतमानस िबमल।


कहा भसु ंिु ड बखािन सन
ु ा िबहग नायक ग ड़॥ 120(ख)॥

हे पावती! िनमल रामच रतमानस क वह मंगलमयी कथा सुनो िजसे काकभुशुंिड ने िव तार से
कहा और पि य के राजा ग ड़ ने सुना था॥ 120(ख)॥

सो संबाद उदार जेिह िबिध भा आग कहब।


सन
ु ह राम अवतार चरित परम संदु र अनघ॥ 120(ग)॥

वह े संवाद िजस कार हआ, वह म आगे कहँगा। अभी तुम राम के अवतार का परम सुंदर
और पिव (पापनाशक) च र सुनो॥ 120(ग)॥

ह र गन
ु नाम अपार कथा प अगिनत अिमत।
म िनज मित अनस
ु ार कहउँ उमा सादर सन
ु ह॥ 120(घ)॥

ह र के गुण, मान, कथा और प सभी अपार, अगिणत और असीम ह। िफर भी हे पावती! म


अपनी बुि के अनुसार कहता हँ, तुम आदरपवू क सुनो॥ 120(घ)॥

सनु ु िग रजा ह रच रत सहु ाए। िबपल


ु िबसद िनगमागम गाए॥
ह र अवतार हेतु जेिह होई। इदिम थं किह जाइ न सोई॥

हे पावती! सुनो, वेद-शा ने ह र के सुंदर, िव ततृ और िनमल च र का गान िकया है। ह र


का अवतार िजस कारण से होता है, वह कारण 'बस यही है' ऐसा नह कहा जा सकता (अनेक
कारण हो सकते ह और ऐसे भी हो सकते ह, िज ह कोई जान ही नह सकता)।

राम अत य बिु मन बानी। मत हमार अस सन ु िह सयानी॥


तदिप संत मिु न बेद परु ाना। जस कछु कहिहं वमित अनम ु ाना॥

हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है िक बुि , मन और वाणी से राम क तकना नह क जा


सकती। तथािप संत, मुिन, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुि के अनुसार जैसा कुछ कहते ह।

तस म सम
ु िु ख सन
ु ावउँ तोही। समिु झ परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढ़िहं असरु अधम अिभमानी॥

और जैसा कुछ मेरी समझ म आता है, हे सुमुिख! वही कारण म तुमको सुनाता हँ। जब-जब धम
का ास होता है और नीच अिभमानी रा स बढ़ जाते ह।

करिहं अनीित जाइ निहं बरनी। सीदिहं िब धेनु सरु धरनी॥


तब तब भु ध र िबिबध सरीरा। हरिहं कृपािनिध स जन पीरा॥

और वे ऐसा अ याय करते ह िक िजसका वणन नह हो सकता तथा ा ण, गो, देवता और प ृ वी


क पाते ह, तब-तब वे कृपािनधान भु भाँित-भाँित के (िद य) शरीर धारण कर स जन क
पीड़ा हरते ह।

- असरु मा र थापिहं सरु ह राखिहं िनज ुित सेत।ु


जग िब तारिहं िबसद जस राम ज म कर हेत॥ु 121॥

वे असुर को मारकर देवताओं को थािपत करते ह, अपने ( ास प) वेद क मयादा क र ा


करते ह और जगत म अपना िनमल यश फै लाते ह। राम के अवतार का यह कारण है॥ 121॥

सोइ जस गाइ भगत भव तरह । कृपािसंधु जन िहत तनु धरह ॥


राम जनम के हेतु अनेका। परम िबिच एक त एका॥
उसी यश को गा-गाकर भ जन भवसागर से तर जाते ह। कृपासागर भगवान भ के िहत के
िलए शरीर धारण करते ह। राम के ज म लेने के अनेक कारण ह, जो एक-से-एक बढ़कर िविच
ह।

जनम एक दइु कहउँ बखानी। सावधान सनु ु सम


ु ित भवानी॥
ारपाल ह र के ि य दोऊ। जय अ िबजय जान सब कोऊ॥

हे सुंदर बुि वाली भवानी! म उनके दो-एक ज म का िव तार से वणन करता हँ, तुम सावधान
होकर सुनो। ह र के जय और िवजय दो यारे ारपाल ह, िजनको सब कोई जानते ह।

िब ाप त दूनउ भाई। तामस असरु देह ित ह पाई॥


कनककिसपु अ हाटकलोचन। जगत िबिदत सरु पित मद मोचन॥

उन दोन भाइय ने ा ण (सनकािद) के शाप से असुर का तामसी शरीर पाया। एक का नाम


था िहर यकिशपु और दूसरे का िहर या । ये देवराज इं के गव को छुड़ानेवाले सारे जगत म
िस हए।

िबजई समर बीर िब याता। ध र बराह बपु एक िनपाता॥


होइ नरह र दूसर पिु न मारा। जन हलाद सज
ु स िब तारा॥

वे यु म िवजय पानेवाले िव यात वीर थे। इनम से एक (िहर या ) को भगवान ने वराह (सअ
ू र)
का शरीर धारण करके मारा, िफर दूसरे (िहर यकिशपु) का नरिसंह प धारण करके वध िकया
और अपने भ ाद का संुदर यश फै लाया।

- भए िनसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।


कंु भकरन रावन सभ
ु ट सरु िबजई जग जान॥ 122॥

वे ही (दोन ) जाकर देवताओं को जीतनेवाले तथा बड़े यो ा, रावण और कुंभकण नामक बड़े
बलवान और महावीर रा स हए, िज ह सारा जगत जानता है॥ 122॥

मक
ु ु त न भए हते भगवाना। तीिन जनम ि ज बचन वाना॥
एक बार ित ह के िहत लागी। धरे उ सरीर भगत अनरु ागी॥

भगवान के ारा मारे जाने पर भी वे (िहर या और िहर यकिशपु) इसीिलए मु नह हए िक


ा ण के वचन (शाप) का माण तीन ज म के िलए था। अतः एक बार उनके क याण के िलए
भ ेमी भगवान ने िफर अवतार िलया।

क यप अिदित तहाँ िपतु माता। दसरथ कौस या िब याता॥


एक कलप एिह िबिध अवतारा। च रत पिव िकए संसारा॥
वहाँ (उस अवतार म) क यप और अिदित उनके माता-िपता हए, जो दशरथ और कौस या के
नाम से िस थे। एक क प म इस कार अवतार लेकर उ ह ने संसार म पिव लीलाएँ क ।

एक कलप सरु देिख दख


ु ारे । समर जलंधर सन सब हारे ॥
संभु क ह सं ाम अपारा। दनज ु महाबल मरइ न मारा॥

एक क प म सब देवताओं को जलंधर दै य से यु म हार जाने के कारण दुःखी देखकर िशव ने


उसके साथ बड़ा घोर यु िकया, पर वह महाबली दै य मारे नह मरता था।

परम सती असरु ािधप नारी। तेिहं बल तािह न िजतिहं परु ारी॥

उस दै यराज क ी परम सती (बड़ी ही पित ता) थी। उसी के ताप से ि पुरासुर (जैसे अजेय
श ु) का िवनाश करनेवाले िशव भी उस दै य को नह जीत सके।

- छल क र टारे उ तासु त भु सरु कारज क ह।


जब तेिहं जानेउ मरम तब ाप कोप क र दी ह॥ 123॥

भु ने छल से उस ी का त भंग कर देवताओं का काम िकया। जब उस ी ने यह भेद जाना,


तब उसने ोध करके भगवान को शाप िदया॥ 123॥

तासु ाप ह र दी ह माना। कौतकु िनिध कृपाल भगवाना॥


तहाँ जलंधर रावन भयऊ। रन हित राम परम पद दयऊ॥

लीलाओं के भंडार कृपालु ह र ने उस ी के शाप को ामा य िदया ( वीकार िकया)। वही


जलंधर उस क प म रावण हआ, िजसे राम ने यु म मारकर परमपद िदया।

एक जनम कर कारन एहा। जेिह लिग राम धरी नरदेहा॥


ित अवतार कथा भु केरी। सन
ु ु मिु न बरनी किब ह घनेरी॥

एक ज म का कारण यह था, िजससे राम ने मनु य देह धारण िकया। हे भर ाज मुिन! सुनो, भु
के येक अवतार क कथा का किवय ने नाना कार से वणन िकया है।

नारद ाप दी ह एक बारा। कलप एक तेिह लिग अवतारा॥


िग रजा चिकत भई ं सिु न बानी। नारद िब नभ
ु गत पिु न यानी॥

एक बार नारद ने शाप िदया, अतः एक क प म उसके िलए अवतार हआ। यह बात सुनकर पावती
बड़ी चिकत हई ं (और बोल िक) नारद तो िव णु भ और ानी ह।
कारन कवन ाप मिु न दी हा। का अपराध रमापित क हा॥
यह संग मोिह कहह परु ारी। मिु न मन मोह आचरज भारी॥

मुिन ने भगवान को शाप िकस कारण से िदया। ल मीपित भगवान ने उनका या अपराध िकया
था? हे पुरा र (शंकर)! यह कथा मुझसे किहए। मुिन नारद के मन म मोह होना बड़े आ य क
बात है।

- बोले िबहिस महेस तब यानी मूढ़ न कोइ।


जेिह जस रघप ु ित करिहं जब सो तस तेिह छन होइ॥ 124(क)॥

तब महादेव ने हँसकर कहा - न कोई ानी है न मख


ू । रघुनाथ जब िजसको जैसा करते ह, वह
उसी ण वैसा ही हो जाता है॥ 124(क)॥

सो० - कहउँ राम गनु गाथ भर ाज सादर सन ु ह।


भव भंजन रघन ु ाथ भजु तल
ु सी तिज मान मद॥ 124(ख)॥

(या व य कहते ह -) हे भर ाज! म राम के गुण क कथा कहता हँ, तुम आदर से सुनो।
तुलसीदास कहते ह - मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करनेवाले रघुनाथ को
भजो॥ 124(ख)॥

िहमिग र गहु ा एक अित पाविन। बह समीप सरु सरी सहु ाविन॥


आ म परम पन ु ीत सहु ावा। देिख देव रिष मन अित भावा॥

िहमालय पवत म एक बड़ी पिव गुफा थी। उसके समीप ही सुंदर गंगा बहती थ । वह परम पिव
संुदर आ म देखने पर नारद के मन को बहत ही सुहावना लगा।

िनरिख सैल स र िबिपन िबभागा। भयउ रमापित पद अनरु ागा॥


सिु मरत ह रिह ाप गित बाधी। सहज िबमल मन लािग समाधी॥

पवत, नदी और वन के (सुंदर) िवभाग को देखकर नादर का ल मीकांत भगवान के चरण म


ेम हो गया। भगवान का मरण करते ही उन (नारद मुिन) के शाप क (जो शाप उ ह द
जापित ने िदया था और िजसके कारण वे एक थान पर नह ठहर सकते थे) गित क गई और
मन के वाभािवक ही िनमल होने से उनक समािध लग गई।

मिु न गित देिख सरु े स डेराना। कामिह बोिल क ह सनमाना॥


सिहत सहाय जाह मम हेत।ू चलेउ हरिष िहयँ जलचरकेत॥ ू

नारद मुिन क (यह तपोमयी) ि थित देखकर देवराज इं डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर
उसका आदर-स कार िकया (और कहा िक) मेरे (िहत के) िलए तुम अपने सहायक सिहत
(नारद क समािध भंग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीन वज कामदेव मन म स न होकर
चला।

सनु ासीर मन महँ अिस ासा। चहत देव रिष मम परु बासा॥
जे कामी लोलपु जग माह । कुिटल काक इव सबिह डेराह ॥

इं के मन म यह डर हआ िक देविष नारद मेरी पुरी (अमरावती) का िनवास (रा य) चाहते ह।


जगत म जो कामी और लोभी होते ह, वे कुिटल कौए क तरह सबसे डरते ह।

- सूख हाड़ लै भाग सठ वान िनरिख मग ृ राज।


छीिन लेइ जिन जान जड़ ितिम सरु पितिह न लाज॥ 125॥

जैसे मख
ू कु ा िसंह को देखकर सख ू ी हड्डी लेकर भागे और वह मख
ू यह समझे िक कह उस
हड्डी को िसंह छीन न ले, वैसे ही इं को (नारद मेरा रा य छीन लगे, ऐसा सोचते) लाज नह
आई॥ 125॥

तेिह आ मिहं मदन जब गयऊ। िनज मायाँ बसंत िनरमयऊ॥


कुसिु मत िबिबध िबटप बहरं गा। कूजिहं कोिकल गंज
ु िहं भंग
ृ ा॥

जब कामदेव उस आ म म गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसंत ऋतु को उ प न िकया।


तरह-तरह के व ृ पर रं ग-िबरं गे फूल िखल गए, उन पर कोयल कूकने लग और भ रे गुंजार
करने लगे।

चली सहु ाविन ि िबध बयारी। काम कृसानु बढ़ाविनहारी॥


रं भािदक सरु ना र नबीना। सकल असमसर कला बीना॥

कामाि न को भड़कानेवाली तीन कार क (शीतल, मंद और सुगंध) सुहावनी हवा चलने लगी।
रं भा आिद नवयुवती देवांगनाएँ , जो सब क सब कामकला म िनपुण थ ,

करिहं गान बह तान तरं गा। बहिबिध ड़िहं पािन पतंगा॥


देिख सहाय मदन हरषाना। क हेिस पिु न पंच िबिध नाना॥

बहत कार क तान क तरं ग के साथ गाने लग और हाथ म गद लेकर नाना कार के खेल
खेलने लग । कामदेव अपने इन सहायक को देखकर बहत स न हआ और िफर उसने नाना
कार के मायाजाल िकए।

काम कला कछु मिु निह न यापी। िनज भयँ डरे उ मनोभव पापी॥
सीम िक चाँिप सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापित जासू॥
परं तु कामदेव क कोई भी कला मुिन पर असर न कर सक । तब तो पापी कामदेव अपने ही
(नाश के) भय से डर गया। ल मीपित भगवान िजसके बड़े र क ह , भला, उसक सीमा
(मयादा) को कोई दबा सकता है?

- सिहत सहाय सभीत अित मािन हा र मन मैन।


गहेिस जाइ मिु न चरन तब किह सिु ठ आरत बैन॥ 126॥

तब अपने सहायक समेत कामदेव ने बहत डरकर और अपने मन म हार मानकर बहत ही आत
(दीन) वचन कहते हए मुिन के चरण को जा पकड़ा॥ 126॥

भयउ न नारद मन कछु रोषा। किह ि य बचन काम प रतोषा॥


नाइ चरन िस आयसु पाई। गयउ मदन तब सिहत सहाई॥

नारद के मन म कुछ भी ोध न आया। उ ह ने ि य वचन कहकर कामदेव का समाधान िकया।


तब मुिन के चरण म िसर नवाकर और उनक आ ा पाकर कामदेव अपने सहायक सिहत लौट
गया।

मिु न सस
ु ीलता आपिन करनी। सरु पित सभाँ जाइ सब बरनी॥
सिु न सब क मन अचरजु आवा। मिु निह संिस ह रिह िस नावा॥

देवराज इं क सभा म जाकर उसने मुिन क सुशीलता और अपनी करतत


ू सब कही, िजसे
सुनकर सबके मन म आ य हआ और उ ह ने मुिन क बड़ाई करके ह र को िसर नवाया।

तब नारद गवने िसव पाह । िजता काम अहिमित मन माह ॥


मार चरित संकरिह सन
ु ाए। अिति य जािन महेस िसखाए॥

तब नारद िशव के पास गए। उनके मन म इस बात का अहंकार हो गया िक हमने कामदेव को
जीत िलया। उ ह ने कामदेव के च र िशव को सुनाए और महादेव ने उन (नारद) को अ यंत
ि य जानकर (इस कार) िश ा दी -

बार बार िबनवउँ मिु न तोही। िजिम यह कथा सनु ायह मोही॥
ितिम जिन ह रिह सन ु ावह कबहँ। चलेहँ संग दरु ाएह तबहँ॥

हे मुिन! म तुमसे बार-बार िवनती करता हँ िक िजस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस
तरह भगवान ह र को कभी मत सुनाना। चचा चले तब भी इसको िछपा जाना।

- संभु दी ह उपदेस िहत निहं नारदिह सोहान।


भर ाज कौतक ु सनु ह ह र इ छा बलवान॥ 127॥
य िप िशव ने यह िहत क िश ा दी, पर नारद को वह अ छी न लगी। हे भर ाज! अब कौतुक
(तमाशा) सुनो। ह र क इ छा बड़ी बलवान है॥ 127॥

राम क ह चाहिहं सोइ होई। करै अ यथा अस निहं कोई॥


संभु बचन मिु न मन निहं भाए। तब िबरं िच के लोक िसधाए॥

राम जो करना चाहते ह, वही होता है, ऐसा कोई नह जो उसके िव कर सके। िशव के वचन
नारद के मन को अ छे नह लगे, तब वे वहाँ से लोक को चल िदए।

एक बार करतल बर बीना। गावत ह र गन ु गान बीना॥


छीरिसंधु गवने मिु ननाथा। जहँ बसिनवास ुितमाथा॥

एक बार गानिव ा म िनपुण मुिननाथ नारद हाथ म संुदर वीणा िलए, ह रगुण गाते हए ीरसागर
को गए, जहाँ वेद के म तक व प (मिू तमान वेदांत व) ल मी िनवास भगवान नारायण रहते
ह।

हरिष िमले उिठ रमािनकेता। बैठे आसन रिषिह समेता॥


बोले िबहिस चराचर राया। बहते िदनन क ि ह मिु न दाया॥

रमािनवास भगवान उठकर बड़े आनंद से उनसे िमले और ऋिष (नारद) के साथ आसन पर बैठ
गए। चराचर के वामी भगवान हँसकर बोले - हे मुिन! आज आपने बहत िदन पर दया क ।

काम च रत नारद सब भाषे। ज िप थम बरिज िसवँ राखे॥


ु ित कै माया। जेिह न मोह अस को जग जाया॥
अित चंड रघप

य िप िशव ने उ ह पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारद ने कामदेव का सारा च र भगवान


को कह सुनाया। रघुनाथ क माया बड़ी ही बल है। जगत म ऐसा कौन ज मा है, िजसे वे मोिहत
न कर द।

- ख बदन क र बचन मदृ ु बोलेभगवान।


तु हरे सिु मरन त िमटिहं मोह मार मद मान॥ 128॥

भगवान खा मँुह करके कोमल वचन बोले - हे मुिनराज! आपका मरण करने से दूसर के
मोह, काम, मद और अिभमान िमट जाते ह (िफर आपके िलए तो कहना ही या है?)॥ 128॥

सन
ु ु मिु न मोह होइ मन ताक। यान िबराग दय निहं जाक॥
चरज त रत मितधीरा। तु हिह िक करइ मनोभव पीरा॥

हे मुिन! सुिनए, मोह तो उसके मन म होता है, िजसके दय म ान-वैरा य नह है। आप तो


चय त म त पर और बड़े धीर बुि ह। भला, कह आपको भी कामदेव सता सकता है?

नारद कहेउ सिहत अिभमाना। कृपा तु हा र सकल भगवाना॥


क नािनिध मन दीख िबचारी। उर अंकुरे उ गरब त भारी॥

नारद ने अिभमान के साथ कहा - भगवन! यह सब आपक कृपा है। क णािनधान भगवान ने
मन म िवचारकर देखा िक इनके मन म गव के भारी व ृ का अंकुर पैदा हो गया है।

बेिग सो म डा रहउँ उखारी। पन हमार सेवक िहतकारी॥


मिु न कर िहत मम कौतक ु होई। अविस उपाय करिब म सोई॥

म उसे तुरंत ही उखाड़ फकँ ू गा, य िक सेवक का िहत करना हमारा ण है। म अव य ही वह
उपाय क ँ गा, िजससे मुिन का क याण और मेरा खेल हो।

तब नारद ह र पद िसर नाई। चले दयँ अहिमित अिधकाई॥


ीपित िनज माया तब रे ी। सन
ु ह किठन करनी तेिह केरी॥

तब नारद भगवान के चरण म िसर नवाकर चले। उनके दय म अिभमान और भी बढ़ गया। तब


ल मीपित भगवान ने अपनी माया को े रत िकया। अब उसक किठन करनी सुनो।

- िबरचेउ मग महँ नगर तेिहं सत जोजन िब तार।


ीिनवासपरु त अिधक रचना िबिबध कार॥ 129॥

उस (ह रमाया) ने रा ते म सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगर क भाँित-


भाँित क रचनाएँ ल मीिनवास भगवान िव णु के नगर (बैकुंठ) से भी अिधक सुंदर थ ॥ 129॥

बसिहं नगर संदु र नर नारी। जनु बह मनिसज रित तनध


ु ारी॥
तेिहं परु बसइ सीलिनिध राजा। अगिनत हय गय सेन समाजा॥

उस नगर म ऐसे सुंदर नर-नारी बसते थे, मानो बहत-से कामदेव और (उसक ी) रित ही
मनु य शरीर धारण िकए हए ह । उस नगर म शीलिनिध नाम का राजा रहता था, िजसके यहाँ
असं य घोड़े , हाथी और सेना के समहू (टुकिड़याँ) थे।

सत सरु े स सम िबभव िबलासा। प तेज बल नीित िनवासा॥


िब वमोहनी तासु कुमारी। िबमोह िजसु पु िनहारी॥

उसका वैभव और िवलास सौ इं के समान था। वह प, तेज, बल और नीित का घर था। उसके


िव मोिहनी नाम क एक (ऐसी पवती) क या थी, िजसके प को देखकर ल मी भी मोिहत
हो जाएँ ।
सोइ ह रमाया सब गन ु खानी। सोभा तासु िक जाइ बखानी॥
करइ वयंबर सो नप ृ बाला। आए तहँ अगिनत मिहपाला॥

वह सब गुण क खान भगवान क माया ही थी। उसक शोभा का वणन कैसे िकया जा सकता
है। वह राजकुमारी वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगिणत राजा आए हए थे।

मिु न कौतक
ु नगर तेिह गयऊ। परु बािस ह सब पूछत भयऊ॥
सिु न सब च रत भूपगहृ ँ आए। क र पूजा नप
ृ मिु न बैठाए॥

िखलवाड़ी मुिन नारद उस नगर म गए और नगरवािसय से उ ह ने सब हाल पछ ू ा। सब समाचार


सुनकर वे राजा के महल म आए। राजा ने पज
ू ा करके मुिन को (आसन पर) बैठाया।

- आिन देखाई नारदिह भूपित राजकुमा र।


कहह नाथ गन ु दोष सब एिह के दयँ िबचा र॥ 130॥

(िफर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारद को िदखलाया (और पछ


ू ा िक -) हे नाथ! आप अपने
दय म िवचार कर इसके सब गुण-दोष किहए॥ 130॥

देिख प मिु न िबरित िबसारी। बड़ी बार लिग रहे िनहारी॥


ल छन तासु िबलोिक भल ु ाने। दयँ हरष निहं गट बखाने॥

उसके प को देखकर मुिन वैरा य भल


ू गए और बड़ी देर तक उसक ओर देखते ही रह गए।
उसके ल ण देखकर मुिन अपने आपको भी भलू गए और दय म हिषत हए, पर कट प म
उन ल ण को नह कहा।

जो एिह बरइ अमर सोइ होई। समरभूिम तेिह जीत न कोई॥


सेविहं सकल चराचर ताही। बरइ सीलिनिध क या जाही॥

(ल ण को सोचकर वे मन म कहने लगे िक) जो इसे याहे गा, वह अमर हो जाएगा और रणभिू म
म कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलिनिध क क या िजसको वरे गी, सब चर-अचर जीव उसक
सेवा करगे।

ल छन सब िबचा र उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥


सत
ु ा सल
ु छन किह नपृ पाह । नारद चले सोच मन माह ॥

सब ल ण को िवचारकर मुिन ने अपने दय म रख िलया और राजा से कुछ अपनी ओर से


बनाकर कह िदए। राजा से लड़क के सुल ण कहकर नारद चल िदए। पर उनके मन म यह
िचंता थी िक -
कर जाइ सोइ जतन िबचारी। जेिह कार मोिह बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेिह काला। हे िबिध िमलइ कवन िबिध बाला॥

म जाकर सोच-िवचारकर अब वही उपाय क ँ , िजससे यह क या मुझे ही वरे । इस समय जप-तप


से तो कुछ हो नह सकता। हे िवधाता! मुझे यह क या िकस तरह िमलेगी?

- एिह अवसर चािहअ परम सोभा प िबसाल।


जो िबलोिक रीझै कुअँ र तब मेल ै जयमाल॥ 131॥

इस समय तो बड़ी भारी शोभा और िवशाल (सुंदर) प चािहए, िजसे देखकर राजकुमारी मुझ पर
रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले म) डाल दे॥ 131॥

ह र सन माग संदु रताई। होइिह जात गह अित भाई॥


मोर िहत ह र सम निहं कोऊ। एिह अवसर सहाय सोइ होऊ॥

(एक काम क ँ िक) भगवान से सुंदरता माँगँ;ू पर भाई! उनके पास जाने म तो बहत देर हो
जाएगी। िकंतु ह र के समान मेरा िहतू भी कोई नह है, इसिलए इस समय वे ही मेरे सहायक ह ।

बहिबिध िबनय क ि ह तेिह काला। गटेउ भु कौतक ु कृपाला॥


भु िबलोिक मिु न नयन जड़
ु ाने। होइिह काजु िहएँ हरषाने॥

उस समय नारद ने भगवान क बहत कार से िवनती क । तब लीलामय कृपालु भु (वह ) कट


हो गए। वामी को देखकर नारद के ने शीतल हो गए और वे मन म बड़े ही हिषत हए िक अब
तो काम बन ही जाएगा।

अित आरित किह कथा सनु ाई। करह कृपा क र होह सहाई॥
आपन प देह भु मोह । आन भाँित निहं पाव ओही॥

नारद ने बहत आत (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और ाथना क िक) कृपा क िजए और
कृपा करके मेरे सहायक बिनए। हे भो! आप अपना प मुझको दीिजए, अ य िकसी कार से म
उस (राजक या) को नह पा सकता।

जेिह िबिध नाथ होइ िहत मोरा। करह सो बेिग दास म तोरा॥
िनज माया बल देिख िबसाला। िहयँ हँिस बोले दीनदयाला॥

हे नाथ! िजस तरह मेरा िहत हो, आप वही शी क िजए। म आपका दास हँ। अपनी माया का
िवशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन-ही-मन हँसकर बोले -

- जेिह िबिध होइिह परम िहत नारद सन


ु ह तु हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मष
ृ ा हमार॥ 132॥

हे नारद! सुनो, िजस कार आपका परम िहत होगा, हम वही करगे, दूसरा कुछ नह । हमारा
वचन अस य नह होता॥ 132॥

कुपथ माग ज याकुल रोगी। बैद न देइ सन ु ह मिु न जोगी॥


एिह िबिध िहत तु हार म ठयऊ। किह अस अंतरिहत भु भयऊ॥

हे योगी मुिन! सुिनए, रोग से याकुल रोगी कुप य माँगे तो वै उसे नह देता। इसी कार मने
भी तु हारा िहत करने क ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अंतधान हो गए।

माया िबबस भए मिु न मूढ़ा। समझ ु ी निहं ह र िगरा िनगूढ़ा॥


गवने तरु त तहाँ रिषराई। जहाँ वयंबर भूिम बनाई॥

(भगवान क ) माया के वशीभत


ू हए मुिन ऐसे मढ़
ू हो गए िक वे भगवान क अगढ़ ू ( प ) वाणी
को भी न समझ सके। ऋिषराज नारद तुरंत वहाँ गए जहाँ वयंवर क भिू म बनाई गई थी।

िनज िनज आसन बैठे राजा। बह बनाव क र सिहत समाजा॥


मिु न मन हरष प अित मोर। मोिह तिज आनिह ब रिह न भोर॥

राजा लोग खबू सज-धजकर समाज सिहत अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुिन (नारद) मन-ही-
मन स न हो रहे थे िक मेरा प बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ क या भल
ू कर भी दूसरे को न वरे गी।

मिु न िहत कारन कृपािनधाना। दी ह कु प न जाइ बखाना॥


सो च र लिख काहँ न पावा। नारद जािन सबिहं िसर नावा॥

कृपािनधान भगवान ने मुिन के क याण के िलए उ ह ऐसा कु प बना िदया िक िजसका वणन
नह हो सकता, पर यह च रत कोई भी न जान सका। सबने उ ह नारद ही जानकर णाम िकया।

- रहे तहाँ दइु गन ते जानिहं सब भेउ।


िब बेष देखत िफरिहं परम कौतक ु तेउ॥ 133॥

वहाँ िशव के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ा ण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-
िफरते थे। वे भी बड़े मौजी थे॥ 133॥

जेिहं समाज बैठे मिु न जाई। दयँ प अहिमित अिधकाई॥


तहँ बैठे महेस गन दोऊ। िब बेष गित लखइ न कोऊ॥

नारद अपने दय म प का बड़ा अिभमान लेकर िजस समाज (पंि ) म जाकर बैठे थे, ये िशव
के दोन गण भी वह बैठ गए। ा ण के वेष म होने के कारण उनक इस चाल को कोई न जान
सका।

करिहं कूिट नारदिह सनु ाई। नीिक दीि ह ह र संदु रताई॥


रीिझिह राजकुअँ र छिब देखी। इ हिह ब रिह ह र जािन िबसेषी॥

वे नारद को सुना-सुनाकर, यं य वचन कहते थे - भगवान ने इनको अ छी 'सुंदरता' दी है।


इनक शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और 'ह र' (वानर) जानकर इ ह को खास तौर
से वरे गी।

मिु निह मोह मन हाथ पराएँ । हँसिहं संभु गन अित सचु पाएँ ॥
जदिप सन ु िहं मिु न अटपिट बानी। समिु झ न परइ बिु म सानी॥

नारद मुिन को मोह हो रहा था, य िक उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) म था। िशव के
गण बहत स न होकर हँस रहे थे। य िप मुिन उनक अटपटी बात सुन रहे थे, पर बुि म म
सनी हई होने के कारण वे बात उनक समझ म नह आती थ (उनक बात को वे अपनी शंसा
समझ रहे थे)।

काहँ न लखा सो च रत िबसेषा। सो स प नप


ृ क याँ देखा॥
मकट बदन भयंकर देही। देखत दयँ ोध भा तेही॥

इस िवशेष च रत को और िकसी ने नह जाना, केवल राजक या ने (नारद का) वह प देखा।


उनका बंदर का-सा मँुह और भयंकर शरीर देखते ही क या के दय म ोध उ प न हो गया।

- सख संग लै कुअँ र तब चिल जनु राजमराल।


देखत िफरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥ 134॥

तब राजकुमारी सिखय को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंिसनी चल रही है। वह अपने
कमल जैसे हाथ म जयमाला िलए सब राजाओं को देखती हई घम
ू ने लगी॥ 134॥

जेिह िदिस बैठे नारद फूली। सो िदिस तेिहं न िबलोक भूली॥


पिु न-पिु न मिु न उकसिहं अकुलाह । देिख दसा हर गन मसु क
ु ाह ॥

िजस ओर नारद ( प के गव म) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भल


ू कर भी नह ताका। नारद मुिन
बार-बार उचकते और छटपटाते ह। उनक दशा देखकर िशव के गण मुसकराते ह।

ध र नपृ तनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँ र हरिष मेलउे जयमाला॥


दल
ु िहिन लै गे लि छिनवासा। नपृ समाज सब भयउ िनरासा॥
कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहँचे। राजकुमारी ने हिषत होकर उनके
गले म जयमाला डाल दी। ल मीिनवास भगवान दुलिहन को ले गए। सारी राजमंडली िनराश हो
गई।

मिु न अित िबकल मोहँ मित नाठी। मिन िग र गई छूिट जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मसु क
ु ाई। िनज मखु मकु ु र िबलोकह जाई॥

मोह के कारण मुिन क बुि न हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहत ही िवकल
हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मिण िगर गई हो। तब िशव के गण ने मुसकराकर कहा - जाकर
दपण म अपना मँुह तो देिखए!

अस किह दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मिु न बा र िनहारी॥


बेषु िबलोिक ोध अित बाढ़ा। ित हिह सराप दी ह अित गाढ़ा॥

ऐसा कहकर वे दोन बहत भयभीत होकर भागे। मुिन ने जल म झाँककर अपना मँुह देखा। अपना
प देखकर उनका ोध बहत बढ़ गया। उ ह ने िशव के उन गण को अ यंत कठोर शाप िदया -

- होह िनसाचर जाइ तु ह कपटी पापी दोउ।


हँसहे हमिह सो लेह फल बह र हँसहे मिु न कोउ॥ 135॥

तुम दोन कपटी और पापी जाकर रा स हो जाओ। तुमने हमारी हँसी क , उसका फल चखो। अब
िफर िकसी मुिन क हँसी करना॥ 135॥

पिु न जल दीख प िनज पावा। तदिप दयँ संतोष न आवा॥


फरकत अधर कोप मन माह । सपिद चले कमलापित पाह ॥

मुिन ने िफर जल म देखा, तो उ ह अपना (असली) प ा हो गया, तब भी उ ह संतोष नह


हआ। उनके होठ फड़क रहे थे और मन म ोध (भरा) था। तुरंत ही वे भगवान कमलापित के पास
चले।

देहउँ ाप िक म रहउँ जाई। जगत मो र उपहास कराई॥


बीचिहं पंथ िमले दनज
ु ारी। संग रमा सोइ राजकुमारी॥

(मन म सोचते जाते थे -) जाकर या तो शाप दँूगा या ाण दे दँूगा। उ ह ने जगत म मेरी हँसी
कराई। दै य के श ु भगवान ह र उ ह बीच रा ते म ही िमल गए। साथ म ल मी और वही
राजकुमारी थ ।

बोले मधरु बचन सरु साई ं। मिु न कहँ चले िबकल क नाई ं॥
सनु त बचन उपजा अित ोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥
देवताओं के वामी भगवान ने मीठी वाणी म कहा - हे मुिन! याकुल क तरह कहाँ चले? ये
श द सुनते ही नारद को बड़ा ोध आया, माया के वशीभत ू होने के कारण मन म चेत नह रहा।

पर संपदा सकह निहं देखी। तु हर इ रषा कपट िबसेषी॥


मथत िसंधु िह बौरायह। सरु ह े र िबष पान करायह॥

(मुिन ने कहा -) तुम दूसर क संपदा नह देख सकते, तुमम ई या और कपट बहत है। समु
मथते समय तुमने िशव को बावला बना िदया और देवताओं को े रत करके उ ह िवषपान
कराया।

- असरु सरु ा िबष संकरिह आपु रमा मिन चा ।


वारथ साधक कुिटल तु ह सदा कपट यवहा ॥ 136॥

असुर को मिदरा और िशव को िवष देकर तुमने वयं ल मी और संुदर (कौ तुभ) मिण ले ली।
तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का यवहार करते हो॥ 136॥

परम वतं न िसर पर कोई। भावइ मनिह करह तु ह सोई॥


भलेिह मंद मंदिे ह भल करह। िबसमय हरष न िहयँ कछु धरह॥

तुम परम वतं हो, िसर पर तो कोई है नह , इससे जब जो मन को भाता है, ( व छं दता से) वही
करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। दय म हष-िवषाद कुछ भी नह लाते।

डहिक डहिक प रचेह सब काह। अित असंक मन सदा उछाह॥


करम सभु ासभ
ु तु हिह न बाधा। अब लिग तु हिह न काहँ साधा॥

सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अ यंत िनडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम म) मन म


सदा उ साह रहता है। शुभ-अशुभ कम तु ह बाधा नह देते। अब तक तु ह िकसी ने ठीक नह
िकया था।

भले भवन अब बायन दी हा। पावहगे फल आपन क हा॥


बंचहे मोिह जविन ध र देहा। सोइ तनु धरह ाप मम एहा॥

अबक तुमने अ छे घर बैना िदया है (मेरे जैसे जबरद त आदमी से छे ड़खानी क है)। अतः अपने
िकए का फल अव य पाओगे। िजस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर
धारण करो, यह मेरा शाप है।

किप आकृित तु ह क ि ह हमारी। क रहिहं क स सहाय तु हारी॥


मम अपकार क ह तु ह भारी। ना र िबरहँ तु ह होब दख
ु ारी॥
तुमने हमारा प बंदर का-सा बना िदया था, इससे बंदर ही तु हारी सहायता करगे। (म िजस ी
को चाहता था, उससे मेरा िवयोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अिहत िकया है, इससे तुम भी ी के
िवयोग म दुःखी होगे।

- ाप सीस ध र हरिष िहयँ भु बह िबनती क ि ह॥


िनज माया कै बलता करिष कृपािनिध लीि ह॥ 137॥

शाप को िसर पर चढ़ाकर, दय म हिषत होते हए भु ने नारद से बहत िवनती क और


कृपािनधान भगवान ने अपनी माया क बलता ख च ली॥ 137॥

जब ह र माया दू र िनवारी। निहं तहँ रमा न राजकुमारी॥


तब मिु न अित सभीत ह र चरना। गहे पािह नतारित हरना॥

जब भगवान ने अपनी माया को हटा िलया, तब वहाँ न ल मी ही रह गई ं, न राजकुमारी ही। तब


मुिन ने अ यंत भयभीत होकर ह र के चरण पकड़ िलए और कहा - हे शरणागत के दुःख को
हरनेवाले! मेरी र ा क िजए।

मष
ृ ा होउ मम ाप कृपाला। मम इ छा कह दीनदयाला॥
म दबु चन कहे बहतेरे। कह मिु न पाप िमिटिहं िकिम मेरे॥

हे कृपालु! मेरा शाप िम या हो जाए। तब दीन पर दया करनेवाले भगवान ने कहा िक यह सब


मेरी ही इ छा (से हआ) है। मुिन ने कहा - मने आप को अनेक खोटे वचन कहे ह। मेरे पाप कैसे
िमटगे?

जपह जाइ संकर सत नामा। होइिह दयँ तरु त िब ामा॥


कोउ निहं िसव समान ि य मोर। अिस परतीित तजह जिन भोर॥

(भगवान ने कहा -) जाकर शंकर के शतनाम का जप करो, इससे दय म तुरंत शांित होगी।
िशव के समान मुझे कोई ि य नह है, इस िव ास को भल
ू कर भी न छोड़ना।

जेिह पर कृपा न करिहं परु ारी। सो न पाव मिु न भगित हमारी॥


अस उर ध र मिह िबचरह जाई। अब न तु हिह माया िनअराई॥

हे मुिन ! पुरा र (िशव) िजस पर कृपा नह करते, वह मेरी भि नह पाता। दय म ऐसा िन य


करके जाकर प ृ वी पर िवचरो। अब मेरी माया तु हारे िनकट नह आएगी।

- बहिबिध मिु निह बोिध भु तब भए अंतरधान।


स यलोक नारद चले करत राम गन ु गान॥ 138॥
बहत कार से मुिन को समझा-बुझाकर (ढाढ़स देकर) तब भु अंतधान हो गए और नारद राम
के गुण का गान करते हए स य लोक ( लोक) को चले॥ 138॥

हर गन मिु निह जात पथ देखी। िबगत मोह मन हरष िबसेषी॥


अित सभीत नारद पिहं आए। गिह पद आरत बचन सन ु ाए॥

िशव के गण ने जब मुिन को मोहरिहत और मन म बहत स न होकर माग म जाते हए देखा


तब वे अ यंत भयभीत होकर नारद के पास आए और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले -

हर गन हम न िब मिु नराया। बड़ अपराध क ह फल पाया॥


ाप अनु ह करह कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥

हे मुिनराज! हम ा ण नह ह, िशव के गण ह। हमने बड़ा अपराध िकया, िजसका फल हमने पा


िलया। हे कृपालु! अब शाप दूर करने क कृपा क िजए। दीन पर दया करनेवाले नारद ने कहा -

िनिसचर जाइ होह तु ह दोऊ। बैभव िबपल


ु तेज बल होऊ॥
भजु बल िब व िजतब तु ह जिहआ। ध रहिहं िब नु मनज
ु तनु तिहआ॥

तुम दोन जाकर रा स होओ; तु ह महान ऐ य, तेज और बल क ाि हो। तुम अपनी भुजाओं
के बल से जब सारे िव को जीत लोगे, तब भगवान िव णु मनु य का शरीर धारण करगे।

समर मरन ह र हाथ तु हारा। होइहह मक


ु ु त न पिु न संसारा॥
चले जुगल मिु न पद िसर नाई। भए िनसाचर कालिह पाई॥

यु म ह र के हाथ से तु हारी म ृ यु होगी, िजससे तुम मु हो जाओगे और िफर संसार म ज म


नह लोगे। वे दोन मुिन के चरण म िसर नवाकर चले और समय पाकर रा स हए।

- एक कलप एिह हेतु भु ली ह मनजु अवतार।


सरु रं जन स जन सख
ु द ह र भंजन भिु ब भार॥ 139॥

देवताओं को स न करनेवाले, स जन को सुख देनेवाले और प ृ वी का भार हरण करनेवाले


भगवान ने एक क प म इसी कारण मनु य का अवतार िलया था॥ 139॥

एिह िबिध जनम करम ह र केरे । संदु र सख


ु द िबिच घनेरे॥
कलप कलप ित भु अवतरह । चा च रत नानािबिध करह ॥

इस कार भगवान के अनेक संुदर, सुखदायक और अलौिकक ज म और कम ह। येक क प


म जब-जब भगवान अवतार लेते ह और नाना कार क सुंदर लीलाएँ करते ह,
तब-तब कथा मन
ु ीस ह गाई। परम पनु ीत बंध बनाई॥
िबिबध संग अनूप बखाने। करिहं न सिु न आचरजु सयाने॥

तब-तब मुनी र ने परम पिव का य रचना करके उनक कथाओं का गान िकया है और
भाँित-भाँित के अनुपम संग का वणन िकया है, िजनको सुनकर समझदार (िववेक ) लोग
आ य नह करते।

ह र अनंत ह र कथा अनंता। कहिहं सन


ु िहं बहिबिध सब संता॥
रामचं के च रत सहु ाए। कलप कोिट लिग जािहं न गाए॥

ह र अनंत ह (उनका कोई पार नह पा सकता) और उनक कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे
बहत कार से कहते-सुनते ह। रामचं के सुंदर च र करोड़ क प म भी गाए नह जा सकते।

यह संग म कहा भवानी। ह रमायाँ मोहिहं मिु न यानी॥


भु कौतक
ु नत िहतकारी। सेवत सल ु भ सकल दख ु हारी॥

(िशव कहते ह िक) हे पावती! मने यह बताने के िलए इस संग को कहा िक ानी मुिन भी
भगवान क माया से मोिहत हो जाते ह। भु कौतुक (लीलामय) ह और शरणागत का िहत
करनेवाले ह। वे सेवा करने म बहत सुलभ और सब दुःख के हरनेवाले ह।

सो० - सरु नर मिु न कोउ नािहं जेिह न मोह माया बल।


अस िबचा र मन मािहं भिजअ महामाया पितिह॥ 140॥

देवता, मनु य और मुिनय म ऐसा कोई नह है, िजसे भगवान क महान बलवती माया मोिहत न
कर दे। मन म ऐसा िवचारकर उस महामाया के वामी ( ेरक) भगवान का भजन करना चािहए॥
140॥

अपर हेतु सन
ु ु सैलकुमारी। कहउँ िबिच कथा िब तारी॥
जेिह कारन अज अगन ु अ पा। भयउ कोसलपरु भूपा॥

हे िग रराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो - म उसक िविच कथा


िव तार करके कहता हँ - िजस कारण से ज मरिहत, िनगुण और परिहत अयो यापुरी के
राजा हए।

जो भु िबिपन िफरत तु ह देखा। बंधु समेत धर मिु नबेषा॥


जासु च रत अवलोिक भवानी। सती सरीर रिहह बौरानी॥

िजन भु राम को तुमने भाई ल मण के साथ मुिनय का-सा वेष धारण िकए वन म िफरते देखा
था और हे भवानी! िजनके च र देखकर सती के शरीर म तुम ऐसी बावली हो गई थ िक -
अजहँ न छाया िमटित तु हारी। तासु च रत सन
ु ु म ज हारी॥
लीला क ि ह जो तेिहं अवतारा। सो सब किहहउँ मित अनस
ु ारा॥

अब भी तु हारे उस बावलेपन क छाया नह िमटती, उ ह के म पी रोग के हरण करनेवाले


च र सुनो। उस अवतार म भगवान ने जो-जो लीला क , वह सब म अपनी बुि के अनुसार तु ह
कहँगा।

भर ाज सिु न संकर बानी। सकुिच स म े उमा मसु कु ानी॥


ृ केत।ू सो अवतार भयउ जेिह हेत॥
लगे बह र बरनै बष ू

(या व य ने कहा -) हे भर ाज! शंकर के वचन सुनकर पावती सकुचाकर ेमसिहत


मुसकराई ं। िफर वषृ केतु िशव िजस कारण से भगवान का वह अवतार हआ था, उसका वणन
करने लगे।

- सो म तु ह सन कहउँ सबु सन
ु ु मन
ु ीस मन लाइ।
रामकथा किल मल हरिन मंगल करिन सहु ाइ॥ 141॥

हे मुनी र भर ाज! म वह सब तुमसे कहता हँ, मन लगाकर सुनो। राम क कथा किलयुग के
पाप को हरनेवाली, क याण करनेवाली और बड़ी संुदर है॥ 141॥

वायंभू मनु अ सत पा। िज ह त भै नरसिृ अनूपा॥


दंपित धरम आचरन नीका। अजहँ गाव ुित िज ह कै लीका॥

वायंभुव मनु और (उनक प नी) शत पा, िजनसे मनु य क यह अनुपम सिृ हई, इन दोन
पित-प नी के धम और आचरण बहत अ छे थे। आज भी वेद िजनक मयादा का गान करते ह।

नप
ृ उ ानपाद सतु तासू। व
ु ह रभगत भयउ सत ु जासू॥
लघु सत
ु नाम ि य त ताही। बेद परु ान संसिहं जाही॥

राजा उ ानपाद उनके पु थे, िजनके पु ( िस ) ह रभ ुव हए। उन (मनु) के छोटे लड़के


का नाम ि य त था, िजनक शंसा वेद और पुराण करते ह।

देवहित पिु न तासु कुमारी। जो मिु न कदम कै ि य नारी॥


आिद देव भु दीनदयाला। जठर धरे उ जेिहं किपल कृपाला॥

पुनः देवहित उनक क या थी, जो कदम मुिन क यारी प नी हई और िज ह ने आिद देव, दीन
पर दया करनेवाले समथ एवं कृपालु भगवान किपल को गभ म धारण िकया।
सां य सा िज ह गट बखाना। त व िबचार िनपन ु भगवाना॥
तेिहं मनु राज क ह बह काला। भु आयसु सब िबिध ितपाला॥

त व का िवचार करने म अ यंत िनपुण िजन (किपल) भगवान ने सां य शा का कट प म


वणन िकया, उन ( वायंभुव) मनु ने बहत समय तक रा य िकया और सब कार से भगवान क
आ ा का पालन िकया।

सो० - होइ न िबषय िबराग भवन बसत भा चौथपन॥


दयँ बहत दखु लाग जनम गयउ ह रभगित िबन॥ु 142॥

घर म रहते बुढ़ापा आ गया, परं तु िवषय से वैरा य नह होता (इस बात को सोचकर) उनके मन
म बड़ा दुःख हआ िक ह र क भि िबना ज म य ही चला गया॥ 142॥

बरबस राज सत ु िह तब दी हा। ना र समेत गवन बन क हा॥


तीरथ बर नैिमष िब याता। अित पन ु ीत साधक िसिध दाता॥

तब मनु ने अपने पु को जबरद ती रा य देकर वयं ी सिहत वन को गमन िकया। अ यंत


पिव और साधक को िसि देनेवाला तीथ म े नैिमषार य िस है।

बसिहं तहाँ मिु न िस समाजा। तहँ िहयँ हरिष चलेउ मनु राजा॥
पंथ जात सोहिहं मितधीरा। यान भगित जनु धर सरीरा॥

वहाँ मुिनय और िस के समहू बसते ह। राजा मनु दय म हिषत होकर वह चले। वे धीर
बुि वाले राजा-रानी माग म जाते हए ऐसे सुशोिभत हो रहे थे मान ान और भि ही शरीर
धारण िकए जा रहे ह ।

पहँचे जाइ धेनम


ु ित तीरा। हरिष नहाने िनरमल नीरा॥
आए िमलन िस मिु न यानी। धरम धरु ं धर नप ृ रिष जानी॥

(चलते-चलते) वे गोमती के िकनारे जा पहँचे। हिषत होकर उ ह ने िनमल जल म नान िकया।


उनको धमधुरंधर राजिष जानकर िस और ानी मुिन उनसे िमलने आए।

जहँ जहँ तीरथ रहे सहु ाए। मिु न ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मिु नपट प रधाना। सत समाज िनत सन ु िहं परु ाना॥

जहाँ-जहाँ सुंदर तीथ थे, मुिनय ने आदरपवू क सभी तीथ उनको करा िदए। उनका शरीर दुबल हो
गया था। वे मुिनय के-से (व कल) व धारण करते थे और संत के समाज म िन य पुराण
सुनते थे।
- ादस अ छर मं पिु न जपिहं सिहत अनरु ाग।
े पद पंक ह दंपित मन अित लाग॥ 143॥
बासदु व

और ादशा र मं (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का ेम सिहत जप करते थे। भगवान वासुदेव के
चरणकमल म उन राजा-रानी का मन बहत ही लग गया॥ 143॥

करिहं अहार साक फल कंदा। सिु मरिहं सि चदानंदा॥


पिु न ह र हेतु करन तप लागे। बा र अधार मूल फल यागे॥

वे साग, फल और कंद का आहार करते थे और सि चदानंद का मरण करते थे। िफर वे ह र


के िलए तप करने लगे और मल
ू -फल को यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे।

उर अिभलाष िनरं तर होई। देिखअ नयन परम भु सोई॥


अगनु अखंड अनंत अनादी। जेिह िचंतिहं परमारथबादी॥

दय म िनरं तर यही अिभलाषा हआ करती िक हम (कैसे) उन परम भु को आँख से देख, जो


िनगुण, अखंड, अनंत और अनािद ह और परमाथवादी ( ानी, त ववे ा) लोग िजनका िचंतन
िकया करते ह।

नेित नेित जेिह बेद िन पा। िनजानंद िन पािध अनूपा॥


संभु िबरं िच िब नु भगवाना। उपजिहं जासु अंस त नाना॥

िज ह वेद 'नेित-नेित' (यह भी नह , यह भी नह ) कहकर िन पण करते ह। जो आनंद व प,


उपािधरिहत और अनुपम ह एवं िजनके अंश से अनेक िशव, ा और िव णु भगवान कट होते
ह।

ऐसेउ भु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥


ज यह बचन स य ुित भाषा। तौ हमार पूिजिह अिभलाषा॥

ऐसे (महान) भु भी सेवक के वश म ह और भ के िलए (िद य) लीला िव ह धारण करते ह।


यिद वेद म यह वचन स य कहा है, तो हमारी अिभलाषा भी अव य परू ी होगी।

- एिह िबिध बीते बरष षट सहस बा र आहार।


संबत स सह पिु न रहे समीर अधार॥ 144॥

इस कार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वष बीत गए। िफर सात हजार वष वे वायु
के आधार पर रहे ॥ 144॥

बरष सहस दस यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एक पद दोऊ ॥


िबिध ह र हर तप देिख अपारा। मनु समीप आए बह बारा॥

दस हजार वष तक उ ह ने वायु का आधार भी छोड़ िदया। दोन एक पैर से खड़े रहे । उनका अपार
तप देखकर ा, िव णु और िशव कई बार मनु के पास आए।

मागह बर बह भाँित लोभाए। परम धीर निहं चलिहं चलाए॥


अि थमा होइ रहे सरीरा। तदिप मनाग मनिहं निहं पीरा॥

उ ह ने इ ह अनेक कार से ललचाया और कहा िक कुछ वर माँगो। पर ये परम धैयवान (राजा-


रानी अपने तप से िकसी के) िडगाए नह िडगे। य िप उनका शरीर हड्िडय का ढाँचा मा रह
गया था, िफर भी उनके मन म जरा भी पीड़ा नह थी।

भु सब य दास िनज जानी। गित अन य तापस नप ृ रानी॥


मागु मागु ब भै नभ बानी। परम गभीर कृपामत
ृ सानी॥

सव भु ने अन य गित (आ य)वाले तप वी राजा-रानी को 'िनज दास' जाना। तब परम गंभीर


और कृपा पी अमत
ृ से सनी हई यह आकाशवाणी हई िक 'वर माँगो'।

मत
ृ क िजआविन िगरा सहु ाई। वन रं होइ उर जब आई॥
पु तन भए सहु ाए। मानहँ अबिहं भवन ते आए॥

मुद को भी िजला देनेवाली यह सुंदर वाणी कान के छे द से होकर जब दय म आई, तब राजा-


रानी के शरीर ऐसे सुंदर और -पु हो गए, मानो अभी घर से आए ह।

- वन सध ु ा सम बचन सिु न पल
ु क फुि लत गात।
े न दयँ समात॥ 145॥
बोले मनु क र दंडवत म

कान म अमत ृ के समान लगनेवाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलिकत और फुि लत हो
गया। तब मनु दंडवत करके बोले, ेम दय म समाता न था - ॥ 145॥

सन
ु ु सेवक सरु त सरु धेनू। िबिध ह र हर बंिदत पद रे नू॥
सेवत सल ु भ सकल सख ु दायक। नतपाल सचराचर नायक॥

हे भो! सुिनए, आप सेवक के िलए क पव ृ और कामधेनु ह। आपके चरण रज क ा, िव णु


और िशव भी वंदना करते ह। आप सेवा करने म सुलभ ह तथा सब सुख के देनेवाले ह। आप
शरणागत के र क और जड़-चेतन के वामी ह।

ज अनाथ िहत हम पर नेह। तौ स न होई यह बर देह॥


जोस प बस िसव मन माह । जेिहं कारन मिु न जतन कराह ॥
हे अनाथ का क याण करनेवाले! यिद हम लोग पर आपका नेह है, तो स न होकर यह वर
दीिजए िक आपका जो व प िशव के मन म बसता है और िजस (क ाि ) के िलए मुिन लोग
य न करते ह।

जो भस
ु ंिु ड मन मानस हंसा। सगन
ु अगन
ु जेिह िनगम संसा॥
देखिहं हम सो प भ र लोचन। कृपा करह नतारित मोचन॥

जो काकभुशुंिड के मन पी मान सरोवर म िवहार करनेवाला हंस है, सगुण और िनगुण कहकर
वेद िजसक शंसा करते ह, हे शरणागत के दुःख िमटानेवाले भो! ऐसी कृपा क िजए िक हम
उसी प को ने भरकर देख।

दंपित बचन परम ि य लागे। मदृ ल े रस पागे॥


ु िबनीत म
भगत बछल भु कृपािनधाना। िब वबास गटे भगवाना॥

राजा-रानी के कोमल, िवनययु और ेमरस म पगे हए वचन भगवान को बहत ही ि य लगे।


भ व सल, कृपािनधान, संपणू िव के िनवास थान (या सम त िव म यापक), सवसमथ
भगवान कट हो गए।

- नील सरो ह नील मिन नील नीरधर याम।


लाजिहं तन सोभा िनरिख कोिट कोिट सत काम॥ 146॥

भगवान के नीले कमल, नीलमिण और नीले (जलयु ) मेघ के समान (कोमल, काशमय और
सरस) यामवण शरीर क शोभा देखकर करोड़ कामदेव भी लजा जाते ह॥ 146॥

सरद मयंक बदन छिब स वा। चा कपोल िचबक ु दर ीवा॥


अधर अ न रद संदु र नासा। िबधु कर िनकर िबिनंदक हासा॥

उनका मुख शरद (पिू णमा) के चं मा के समान छिव क सीमा व प था। गाल और ठोड़ी बहत
सुंदर थे, गला शंख के समान (ि रे खायु , चढ़ाव-उतारवाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक
अ यंत संुदर थे। हँसी चं मा क िकरणावली को नीचा िदखानेवाली थी।

नव अंबज ु अंबक छिब नीक । िचतविन लिलत भावँतीजी क ॥


भक
ृ ु िट मनोज चाप छिब हारी। ितलक ललाट पटल दिु तकारी॥

ने क छिव नए (िखले हए) कमल के समान बड़ी सुंदर थी। मनोहर िचतवन जी को बहत
यारी लगती थी। टेढ़ी भ ह कामदेव के धनुष क शोभा को हरनेवाली थ । ललाट पटल पर
काशमय ितलक था।

ु ु ट िसर ाजा। कुिटल केस जनु मधप


कंु डल मकर मक ु समाजा॥
उरब स िचर बनमाला। पिदक हार भूषन मिनजाला॥

कान म मकराकृत (मछली के आकार के) कुंडल और िसर पर मुकुट सुशोिभत था। टेढ़े
(घँुघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भ र के झुंड ह । दय परव स, सुंदर वनमाला,
र नजिड़त हार और मिणय के आभषू ण सुशोिभत थे।

केह र कंधर चा जनेऊ। बाह िबभूषन संदु र तेऊ॥


मक र कर स रस सभु ग भजु दंडा। किट िनषंग कर सर कोदंडा॥

ू के
िसंह क -सी गदन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं म जो गहने थे, वे भी सुंदर थे। हाथी क सँड़
समान (उतार-चढ़ाववाले) सुंदर भुजदंड थे। कमर म तरकस और हाथ म बाण और धनुष (शोभा
पा रहे ) थे।

- तिड़त िबिनंदक पीत पट उदर रे ख बर तीिन।


नािभ मनोहर लेित जनु जमनु भँवर छिब छीिन॥ 147॥

( वण-वण का काशमय) पीतांबर िबजली को लजानेवाला था। पेट पर सुंदर तीन रे खाएँ
(ि वली) थ । नािभ ऐसी मनोहर थी, मानो यमुना के भँवर क छिव को छीने लेती हो॥ 147॥

पद राजीव बरिन निहं जाह । मिु न मन मधप


ु बसिहं जे ह माह ॥
बाम भाग सोभित अनक ु ू ला। आिदसि छिबिनिध जगमूला॥

िजनम मुिनय के मन पी भ रे बसते ह, भगवान के उन चरणकमल का तो वणन ही नह िकया


जा सकता। भगवान के बाएँ भाग म सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा क रािश जगत क
मलू कारण पा आिद शि जानक सुशोिभत ह।

जासु अंस उपजिहं गन ु खानी। अगिनत लि छ उमा ानी॥


भक
ृ ु िट िबलास जासु जग होई। राम बाम िदिस सीता सोई॥

िजनके अंश से गुण क खान अगिणत ल मी, पावती और ाणी (ि देव क शि याँ) उ प न
होती ह तथा िजनक भ ह के इशारे से ही जगत क रचना हो जाती है, वही (भगवान क व पा-
शि ) सीता राम क बाई ं ओर ि थत ह।

छिबसमु ह र प िबलोक । एकटक रहे नयन पट रोक ॥


िचतविहं सादर प अनूपा। तिृ न मानिहं मनु सत पा॥

शोभा के समु ह र के प को देखकर मनु-शत पा ने के पट (पलक) रोके हए एकटक


( त ध) रह गए। उस अनुपम प को वे आदर सिहत देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न
थे।
हरष िबबस तन दसा भलु ानी। परे दंड इव गिह पद पानी॥
िसर परसे भु िनज कर कंजा। तरु त उठाए क नापंज ु ा॥

आनंद के अिधक वश म हो जाने के कारण उ ह अपने देह क सुिध भल ू गई। वे हाथ से भगवान
के चरण पकड़कर दंड क तरह (सीधे) भिू म पर िगर पड़े । कृपा क रािश भु ने अपने करकमल
से उनके म तक का पश िकया और उ ह तुरंत ही उठा िलया।

- बोले कृपािनधान पिु न अित स न मोिह जािन।


मागह बर जोइ भाव मन महादािन अनम ु ािन॥ 148॥

िफर कृपािनधान भगवान बोले - मुझे अ यंत स न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो
मन को भाए वही वर माँग लो॥ 148॥

सिु न भु बचन जो र जग
ु पानी। ध र धीरजु बोली मदृ ु बानी॥
नाथ देिख पद कमल तु हारे । अब पूरे सब काम हमारे ॥

भु के वचन सुनकर, दोन हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही - हे
नाथ! आपके चरणकमल को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ परू ी हो गई ं।

एक लालसा बिड़ उर माह । सगु म अगम किह जाित सो नाह ॥


तु हिह देत अित सग
ु म गोसाई ं। अगम लाग मोिह िनज कृपनाई ं॥

िफर भी मन म एक बड़ी लालसा है। उसका परू ा होना सहज भी है और अ यंत किठन भी, इसी से
उसे कहते नह बनता। हे वामी! आपके िलए तो उसका परू ा करना बहत सहज है, पर मुझे
अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अ यंत किठन मालम ू होता है।

जथा द र िबबध
ु त पाई। बह संपित मागत सकुचाई॥
तासु भाउ जान निहं सोई। तथा दयँ मम संसय होई॥

जैसे कोई द र क पव ृ को पाकर भी अिधक य माँगने म संकोच करता है, य िक वह


उसके भाव को नह जानता, वैसे ही मेरे दय म संशय हो रहा है।

सो तु ह जानह अंतरजामी। परु वह मोर मनोरथ वामी॥


सकुच िबहाइ मागु नप
ृ मोही। मोर निहं अदेय कछु तोही॥

हे वामी! आप अंतयामी ह, इसिलए उसे जानते ही ह। मेरा वह मनोरथ परू ा क िजए। (भगवान ने
कहा -) हे राजन! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तु ह न दे सकँ ू ऐसा मेरे पास कुछ भी नह है।
- दािन िसरोमिन कृपािनिध नाथ कहउँ सितभाउ।
चाहउँ तु हिह समान सतु भु सन कवन दरु ाउ॥ 149॥

(राजा ने कहा -) हे दािनय के िशरोमिण! हे कृपािनधान! हे नाथ! म अपने मन का स चा भाव


कहता हँ िक म आपके समान पु चाहता हँ। भु से भला या िछपाना!॥ 149॥

देिख ीित सिु न बचन अमोले। एवम तु क नािनिध बोले॥


आपु स रस खोज कहँ जाई। नप ृ तव तनय होब म आई॥

राजा क ीित देखकर और उनके अमू य वचन सुनकर क णािनधान भगवान बोले - ऐसा ही
हो। हे राजन! म अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजँ!ू अतः वयं ही आकर तु हारा पु
बनँगू ा।

सत पिह िबलोिक कर जोर। देिब मागु ब जो िच तोर॥


जो ब नाथ चतरु नप
ृ मागा। सोइ कृपाल मोिह अित ि य लागा॥

शत पा को हाथ जोड़े देखकर भगवान ने कहा - हे देवी! तु हारी जो इ छा हो, सो वर माँग लो।
(शत पा ने कहा -) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहत ही ि य लगा।

भु परं तु सिु ठ होित िढठाई। जदिप भगत िहत तु हिह सोहाई॥


तु ह ािद जनक जग वामी। सकल उर अंतरजामी॥

परं तु हे भु! बहत िढठाई हो रही है, य िप हे भ का िहत करनेवाले! वह िढठाई भी आपको
अ छी ही लगती है। आप ा आिद के भी िपता (उ प न करनेवाले), जगत के वामी और सबके
दय के भीतर क जाननेवाले ह।

अस समझ ु त मन संसय होई। कहा जो भु वान पिु न सोई॥


जे िनज भगत नाथ तव अहह । जो सखु पाविहं जो गित लहह ॥

ऐसा समझने पर मन म संदेह होता है, िफर भी भु ने जो कहा वही माण (स य) है। (म तो यह
माँगती हँ िक) हे नाथ! आपके जो िनज जन ह, वे जो (अलौिकक, अखंड) सुख पाते ह और िजस
परम गित को ा होते ह।

- सोइ सख
ु सोइ गित सोइ भगित सोइ िनज चरन सनेह।
सोइ िबबेक सोइ रहिन भु हमिह कृपा क र देह॥ 150॥

हे भो! वही सुख, वही गित, वही भि , वही अपने चरण म ेम, वही ान और वही रहन-सहन
कृपा करके हम दीिजए॥ 150॥
सिु न मदृ ु गूढ़ िचर बर रचना। कृपािसंधु बोले मदृ ु बचना॥
जो कछु िच तु हरे मन माह । म सो दी ह सब संसय नाह ॥

(रानी क ) कोमल, गढ़ ू और मनोहर े वा य रचना सुनकर कृपा के समु भगवान कोमल


वचन बोले - तु हारे मन म जो कुछ इ छा है, वह सब मने तुमको िदया, इसम कोई संदेह न
समझना।

मातु िबबेक अलौिकक तोर। कबहँ न िमिटिह अनु ह मोर॥


बंिद चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक िबनती भु मोरी॥

हे माता! मेरी कृपा से तु हारा अलौिकक ान कभी न न होगा। तब मनु ने भगवान के चरण
क वंदना करके िफर कहा - हे भु! मेरी एक िवनती और है -

सत
ु िबषइक तव पद रित होऊ। मोिह बड़ मूढ़ कहै िकन कोऊ॥
मिन िबनु फिन िजिम जल िबनु मीना। मम जीवन ितिम तु हिह अधीना॥

आपके चरण म मेरी वैसी ही ीित हो जैसी पु के िलए िपता क होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा
भारी मख ू ही य न कहे । जैसे मिण के िबना साँप और जल के िबना मछली (नह रह सकती),
वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके िबना न रह सके)।

अस ब मािग चरन गिह रहेऊ। एवम तु क नािनिध कहेऊ॥


अब तु ह मम अनस
ु ासन मानी। बसह जाइ सरु पित रजधानी॥

ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकड़े रह गए। तब दया के िनधान भगवान ने कहा -
ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आ ा मानकर देवराज इं क राजधानी (अमरावती) म जाकर वास
करो।

- तहँ क र भोग िबसाल तात गएँ कछु काल पिु न।


होइहह अवध भआ ु ल तब म होब तु हार सत
ु ॥ 151॥

हे तात! वहाँ ( वग के) बहत-से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे।
तब म तु हारा पु होऊँगा॥ 151॥

इ छामय नरबेष सँवार। होइहउँ गट िनकेत तु हार॥


अंस ह सिहत देह ध र ताता। क रहउँ च रत भगत सख
ु दाता॥

इ छािनिमत मनु य प सजकर म तु हारे घर कट होऊँगा। हे तात! म अपने अंश सिहत देह
धारण करके भ को सुख देनेवाले च र क ँ गा।
जे सिु न सादर नर बड़भागी। भव त रहिहं ममता मद यागी॥
आिदसि जेिहं जग उपजाया। सोउ अवत रिह मो र यह माया॥

िजन (च र ) को बड़े भा यशाली मनु य आदरसिहत सुनकर, ममता और मद यागकर,


भवसागर से तर जाएँ गे। आिदशि यह मेरी ( व पभत
ू ा) माया भी, िजसने जगत को उ प न
िकया है, अवतार लेगी।

परु उब म अिभलाष तु हारा। स य स य पन स य हमारा॥


पिु न पिु न अस किह कृपािनधाना। अंतरधान भए भगवाना॥

इस कार म तु हारी अिभलाषा परू ी क ँ गा। मेरा ण स य है, स य है, स य है। कृपािनधान
भगवान बार-बार ऐसा कहकर अंतधान हो गए।

दंपित उर ध र भगत कृपाला। तेिहं आ म िनवसे कछु काला॥


समय पाइ तनु तिज अनयासा। जाइ क ह अमरावित बासा॥

वे ी-पु ष (राजा-रानी) भ पर कृपा करनेवाले भगवान को दय म धारण करके कुछ काल


तक उस आ म म रहे । िफर उ ह ने समय पाकर, सहज ही (िबना िकसी क के) शरीर छोड़कर,
अमरावती (इं क पुरी) म जाकर वास िकया।

- यह इितहास पन ृ केत।ु
ु ीत अित उमिह कही बष
भर ाज सन ु ु अपर पिु न राम जनम कर हेत॥ु 152॥

(या व य कहते ह -) हे भर ाज! इस अ यंत पिव इितहास को िशव ने पावती से कहा था।
अब राम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥ 152॥

सनु ु मिु न कथा पन


ु ीत परु ानी। जो िग रजा ित संभु बखानी॥
िब व िबिदत एक कैकय देसू। स यकेतु तहँ बसइ नरे सू॥

हे मुिन! वह पिव और ाचीन कथा सुनो, जो िशव ने पावती से कही थी। संसार म िस एक
कैकय देश है। वहाँ स यकेतु नाम का राजा रहता (रा य करता) था।

धरम धरु ं धर नीित िनधाना। तेज ताप सील बलवाना॥


तेिह क भए जुगल सत ु बीरा। सब गन
ु धाम महा रनधीरा॥

वह धम क धुरी को धारण करनेवाला, नीित क खान, तेज वी, तापी, सुशील और बलवान था,
उसके दो वीर पु हए, जो सब गुण के भंडार और बड़े ही रणधीर थे।

राज धनी जो जेठ सत


ु आही। नाम तापभानु अस ताही॥
अपर सत
ु िह अ रमदन नामा। भज
ु बल अतल
ु अचल सं ामा॥

रा य का उ रािधकारी जो बड़ा लड़का था, उसका नाम तापभानु था। दूसरे पु का नाम
अ रमदन था, िजसक भुजाओं म अपार बल था और जो यु म (पवत के समान) अटल रहता था।

भाइिह भाइिह परम समीती। सकल दोष छल बरिजत ीती॥


जेठे सत
ु िह राज नप
ृ दी हा। ह र िहत आपु गवन बन क हा॥

भाई-भाई म बड़ा मेल और सब कार के दोष और छल से रिहत (स ची) ीित थी। राजा ने जेठ
पु को रा य दे िदया और आप भगवान (के भजन) के िलए वन को चल िदया।

- जब तापरिब भयउ नप ृ िफरी दोहाई देस।


जा पाल अित बेदिबिध कतहँ नह अघ लेस॥ 153॥

जब तापभानु राजा हआ, देश म उसक दुहाई िफर गई। वह वेद म बताई हई िविध के अनुसार
उ म रीित से जा का पालन करने लगा। उसके रा य म पाप का कह लेश भी नह रह गया॥
153॥

नप
ृ िहतकारक सिचव सयाना। नाम धरम िच सु समाना॥
सिचव सयान बंधु बलबीरा। आपु तापपंज
ु रनधीरा॥

राजा का िहत करनेवाला और शु ाचाय के समान बुि मान धम िच नामक उसका मं ी था। इस
कार बुि मान मं ी और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही वयं राजा भी बड़ा तापी और
रणधीर था।

सेन संग चतरु ं ग अपारा। अिमत सभ


ु ट सब समर जुझारा॥
सेन िबलोिक राउ हरषाना। अ बाजे गहगहे िनसाना॥

साथ म अपार चतुरंिगणी सेना थी, िजसम असं य यो ा थे, जो सब के सब रण म जझ


ू मरनेवाले
थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहत स न हआ और घमाघम नगाड़े बजने लगे।

िबजय हेतु कटकई बनाई। सिु दन सािध नप ृ चलेउ बजाई॥


जहँ तहँ पर अनेक लराई ं। जीते सकल भूप ब रआई ं॥

िदि वजय के िलए सेना सजाकर वह राजा शुभ िदन (मुहत) साधकर और डं का बजाकर चला।
जहाँ-तहाँ बहत-सी लड़ाइयाँ हई ं। उसने सब राजाओं को बलपवू क जीत िलया।

स दीप भज
ु बल बस क हे। लै लै दंड छािड़ नप
ृ दी हे॥
सकल अविन मंडल तेिह काला। एक तापभानु मिहपाला॥
अपनी भुजाओं के बल से उसने सात ीप (भिू मखंड ) को वश म कर िलया और राजाओं से दंड
(कर) ले-लेकर उ ह छोड़ िदया। संपण
ू प ृ वी मंडल का उस समय तापभानु ही एकमा
(च वत ) राजा था।

- वबस िब व क र बाहबल िनज परु क ह बेस।ु


अरथ धरम कामािद सख
ु सेवइ समयँ नरे स॥ु 154॥

संसार भर को अपनी भुजाओं के बल से वश म करके राजा ने अपने नगर म वेश िकया। राजा
अथ, धम और काम आिद के सुख का समयानुसार सेवन करता था॥ 154॥

भूप तापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूिम सहु ाई॥


सब दख
ु बरिजत जा सख ु ारी। धरमसील संदु र नर नारी॥

राजा तापभानु का बल पाकर भिू म सुंदर कामधेनु (मनचाही व तु देनेवाली) हो गई। (उनके
रा य म) जा सब ( कार के) दुःख से रिहत और सुखी थी और सभी ी-पु ष सुंदर और
धमा मा थे।

सिचव धरम िच ह र पद ीती। नप ृ िहत हेतु िसखव िनत नीती॥


गरु सरु संत िपतर मिहदेवा। करइ सदा नपृ सब कै सेवा॥

धम िच मं ी का ह र के चरण म ेम था। वह राजा के िहत के िलए सदा उसको नीित िसखाया


करता था। राजा गु , देवता, संत, िपतर और ा ण - इन सबक सदा सेवा करता रहता था।

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सख


ु माने॥
िदन ित देइ िबिबध िबिध दाना। सन
ु इ सा बर बेद परु ाना॥

वेद म राजाओं के जो धम बताए गए ह, राजा सदा आदरपवू क और सुख मानकर उन सबका


पालन करता था। ितिदन अनेक कार के दान देता और उ म शा , वेद और पुराण सुनता
था।

नाना बाप कूप तड़ागा। सम ु न बािटका संदु र बागा॥


िब भवन सरु भवन सहु ाए। सब तीरथ ह िबिच बनाए॥

उसने बहत-सी बाविलयाँ, कुएँ , तालाब, फुलवािड़याँ सुंदर बगीचे, ा ण के िलए घर और


देवताओं के सुंदर िविच मंिदर सब तीथ म बनवाए।

- जहँ लिज कहे परु ान ुित एक एक सब जाग।


बार सह सह नप ृ िकए सिहत अनरु ाग॥ 155॥
वेद और पुराण म िजतने कार के य कहे गए ह, राजा ने एक-एक करके उन सब य को
ेम सिहत हजार-हजार बार िकया॥ 155॥

दयँ न कछु फल अनस


ु ंधाना। भूप िबबेक परम सजु ाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासदु वे अिपत नप
ृ यानी॥

(राजा के) दय म िकसी फल क टोह (कामना) न थी। राजा बड़ा ही बुि मान और ानी था। वह
ानी राजा कम, मन और वाणी से जो कुछ भी धम करता था, सब भगवान वासुदेव को अिपत
करते रहता था।

चिढ़ बर बािज बार एक राजा। मगृ या कर सब सािज समाजा॥


िबं याचल गभीर बन गयऊ। मग ृ पनु ीत बह मारत भयऊ॥

एक बार वह राजा एक अ छे घोड़े पर सवार होकर, िशकार का सब सामान सजाकर िवं याचल
के घने जंगल म गया और वहाँ उसने बहत-से उ म-उ म िहरन मारे ।

िफरत िबिपन नप ृ दीख बराह। जनु बन दरु े उ सिसिह िस राह॥


बड़ िबधु निहं समात मख
ु माह । मनहँ ोध बस उिगलत नाह ॥

ू र को देखा। (दाँत के कारण वह ऐसा िदख पड़ता था) मानो


राजा ने वन म िफरते हए एक सअ
चं मा को सकर (मँुह म पकड़कर) राह वन म आ िछपा हो। चं मा बड़ा होने से उसके मँुह म
समाता नह है और मानो ोधवश वह भी उसे उगलता नह है।

कोल कराल दसन छिब गाई। तनु िबसाल पीवर अिधकाई॥


घु घरु ात हय आरौ पाएँ । चिकत िबलोकत कान उठाएँ ॥

यह तो सअ ू र के भयानक दाँत क शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहत िवशाल और
मोटा था। घोड़े क आहट पाकर वह घुरघुराता हआ कान उठाए चौक ना होकर देख रहा था।

- नील महीधर िसखर सम देिख िबसाल बराह।


चप र चलेउ हय सटु ुिक नप
ृ हाँिक न होइ िनबाह॥ 156॥

नील पवत के िशखर के समान िवशाल (शरीरवाले) उस सअ


ू र को देखकर राजा घोड़े को चाबुक
लगाकर तेजी से चला और उसने सअ
ू र को ललकारा िक अब तेरा बचाव नह हो सकता॥ 156॥

आवत देिख अिधक रव बाजी। चलेउ बराह म त गित भाजी॥


तरु त क ह नप
ृ सर संधाना। मिह िमिल गयउ िबलोकत बाना॥

अिधक श द करते हए घोड़े को (अपनी तरफ) आता देखकर सअ


ू र पवन वेग से भाग चला। राजा
ने तुरंत ही बाण को धनुष पर चढ़ाया। सअ
ू र बाण को देखते ही धरती म दुबक गया।

तिक तिक तीर महीस चलावा। क र छल सअ ु र सरीर बचावा॥


गटत दरु त जाइ मग
ृ भागा। रस बस भूप चलेउ सँग लागा॥

ू र छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु


राजा तक-तककर तीर चलाता है, परं तु सअ
कभी कट होता और कभी िछपता हआ भाग जाता था और राजा भी ोध के वश उसके साथ
(पीछे ) लगा चला जाता था।

गयउ दू र घन गहन बराह। जहँ नािहन गज बािज िनबाह॥


अित अकेल बन िबपलु कलेसू। तदिप न मगृ मग तजइ नरे सू॥

सअू र बहत दूर ऐसे घने जंगल म चला गया, जहाँ हाथी-घोड़े का िनबाह (गमन) नह था। राजा
िबलकुल अकेला था और वन म लेश भी बहत था, िफर भी राजा ने उस पशु का पीछा नह छोड़ा।

कोल िबलोिक भूप बड़ धीरा। भािग पैठ िग रगहु ाँ गभीरा॥


अगम देिख नप
ृ अित पिछताई। िफरे उ महाबन परे उ भल ु ाई॥

राजा को बड़ा धैयवान देखकर, सअ


ू र भागकर पहाड़ क एक गहरी गुफा म जा घुसा। उसम जाना
किठन देखकर राजा को बहत पछताकर लौटना पड़ा, पर उस घोर वन म वह रा ता भल ू गया।

- खेद िख न छुि त तिृ षत राजा बािज समेत।


खोजत याकुल स रत सर जल िबनु भयउ अचेत॥ 157॥

बहत प र म करने से थका हआ और घोड़े समेत भख ू - यास से याकुल राजा नदी-तालाब


खोजता-खोजता पानी िबना बेहाल हो गया॥ 157॥

िफरत िबिपन आ म एक देखा। तहँ बस नप ृ ित कपट मिु नबेषा॥


जासु देस नप
ृ ली ह छड़ाई। समर सेन तिज गयउ पराई॥

वन म िफरते-िफरते उसने एक आ म देखा, वहाँ कपट से मुिन का वेष बनाए एक राजा रहता
था, िजसका देश राजा तापभानु ने छीन िलया था और जो सेना को छोड़कर यु से भाग गया
था।

समय तापभानु कर जानी। आपन अित असमय अनम ु ानी॥


गयउ न गहृ मन बहत गलानी। िमला न राजिह नप
ृ अिभमानी॥

तापभानु का समय (अ छे िदन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे िदन) अनुमान कर उसके
मन म बड़ी लािन हई। इससे वह न तो घर गया और न अिभमानी होने के कारण राजा
तापभानु से ही िमला (मेल िकया)।

रस उर मा र रं क िजिम राजा। िबिपन बसइ तापस क साजा॥


तासु समीप गवन नप ृ क हा। यह तापरिब तेिहं तब ची हा॥

द र क भाँित मन ही म ोध को मारकर वह राजा तप वी के वेष म वन म रहता था। राजा


( तापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरंत पहचान िलया िक यह तापभानु है।

राउ तिृ षत निहं सो पिहचाना। देिख सब े महामिु न जाना॥


ु ष
उत र तरु ग त क ह नामा। परम चतरु न कहेउ िनज नामा॥

राजा यासा होने के कारण ( याकुलता म) उसे पहचान न सका। सुंदर वेष देखकर राजा ने उसे
महामुिन समझा और घोड़े से उतरकर उसे णाम िकया, परं तु बड़ा चतुर होने के कारण राजा ने
उसे अपना नाम नह बताया।

- भूपित तिृ षत िबलोिक तेिहं सरब दी ह देखाइ।


म जन पान समेत हय क ह नप ृ ित हरषाइ॥ 158॥

राजा को यासा देखकर उसने सरोवर िदखला िदया। हिषत होकर राजा ने घोड़े सिहत उसम
नान और जलपान िकया॥ 158॥

गै म सकल सखु ी नप
ृ भयऊ। िनज आ म तापस लै गयऊ॥
आसन दी ह अ त रिब जानी। पिु न तापस बोलेउ मदृ ु बानी॥

सारी थकावट िमट गई, राजा सुखी हो गया। तब तप वी उसे अपने आ म म ले गया और सय
ू ा त
का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के िलए) आसन िदया। िफर वह तप वी कोमल वाणी से
बोला -

को तु ह कस बन िफरह अकेल। संदु र जुबा जीव परहेल॥


च बित के ल छन तोर। देखत दया लािग अित मोर॥

तुम कौन हो? सुंदर युवक होकर, जीवन क परवाह न करके वन म अकेले य िफर रहे हो?
तु हारे च वत राजा के से ल ण देखकर मुझे बड़ी दया आती है।

नाम तापभानु अवनीसा। तासु सिचव म सन ु ह मन


ु ीसा॥
ु ाई। बड़ भाग देखउे ँ पद आई॥
िफरत अहेर परे उँ भल

(राजा ने कहा -) हे मुनी र! सुिनए, तापभानु नाम का एक राजा है, म उसका मं ी हँ। िशकार
के िलए िफरते हए राह भल ू गया हँ। बड़े भा य से यहाँ आकर मने आपके चरण के दशन पाए ह।
हम कहँ दलु भ दरस तु हारा। जानत ह कछु भल होिनहारा॥
कह मिु न तात भयउ अँिधआरा। जोजन स र नग तु हारा॥

हम आपका दशन दुलभ था, इससे जान पड़ता है कुछ भला होनेवाला है। मुिन ने कहा - हे तात!
अँधेरा हो गया। तु हारा नगर यहाँ से स र योजन पर है।

- िनसा घोर गंभीर बन पंथ न सन


ु ह सज
ु ान।
बसह आजु अस जािन तु ह जाएह होत िबहान॥ 15 (क)॥

हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जंगल है, रा ता नह है, ऐसा समझकर तुम आज यह
ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥ 159(क)॥

तल
ु सी जिस भवत यता तैसी िमलइ सहाइ।
आपनु ु आवइ तािह पिहं तािह तहाँ लै जाइ॥ 159(ख)॥

तुलसीदास कहते ह - जैसी भिवत यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता िमल जाती है। या तो
वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥ 159(ख)॥

भलेिहं नाथ आयसु ध र सीसा। बाँिध तरु ग त बैठ महीसा॥


ृ बह भाँित संसउे ताही। चरन बंिद िनज भा य सराही॥
नप

हे नाथ! बहत अ छा, ऐसा कहकर और उसक आ ा िसर चढ़ाकर, घोड़े को व ृ से बाँधकर राजा
बैठ गया। राजा ने उसक बहत कार से शंसा क और उसके चरण क वंदना करके अपने
भा य क सराहना क ।

पिु न बोलेउ मदृ ु िगरा सहु ाई। जािन िपता भु करउँ िढठाई॥
मोिह मन ु ीस सत ु सेवक जानी। नाथ नाम िनज कहह बखानी॥

िफर सुंदर कोमल वाणी से कहा - हे भो! आपको िपता जानकर म िढठाई करता हँ। हे मुनी र!
मुझे अपना पु और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) िव तार से बतलाइए।

तेिह न जान नप ृ नप ृ िह सो जाना। भूप सु द सो कपट सयाना॥


बैरी पिु न छ ी पिु न राजा। छल बल क ह चहइ िनज काजा॥

राजा ने उसको नह पहचाना था, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शु - दय था और


वह कपट करने म चतुर था। एक तो वैरी, िफर जाित का ि य, िफर राजा। वह छल-बल से
अपना काम बनाना चाहता था।

समिु झ राजसख
ु दिु खत अराती। अवाँ अनल इव सल
ु गइ छाती॥
ृ के सिु न काना। बयर सँभा र दयँ हरषाना॥
ससरल बचन नप

वह श ु अपने रा य सुख को समझ करके ( मरण करके) दुःखी था। उसक छाती (कु हार के)
आँवे क आग क तरह (भीतर-ही-भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर,
अपने वैर को यादकर वह दय म हिषत हआ।

- कपट बो र बानी मदृ ल बोलेउ जुगिु त समेत।


नाम हमार िभखा र अब िनधन रिहत िनकेत॥ 160॥

वह कपट म डुबोकर बड़ी युि के साथ कोमल वाणी बोला - अब हमारा नाम िभखारी है, य िक
हम िनधन और अिनकेत (घर- ारहीन) ह॥ 160॥

कह नपृ जे िब यान िनधाना। तु ह सा रखे गिलत अिभमाना॥


सदा रहिहं अपनपौ दरु ाएँ । सब िबिध कुसल कुबेष बनाएँ ॥

राजा ने कहा - जो आपके स श िव ान के िनधान और सवथा अिभमानरिहत होते ह, वे अपने


व प को सदा िछपाए रहते ह, य िक कुवेष बनाकर रहने म ही सब तरह का क याण है
( कट संत वेश म मान होने क संभावना है और मान से पतन क )।

तेिह त कहिहं संत िु त टेर। परम अिकंचन ि य ह र केर॥


तु ह सम अधन िभखा र अगेहा। होत िबरं िच िसविह संदहे ा॥

इसी से तो संत और वेद पुकारकर कहते ह िक परम अिकंचन (सवथा अहंकार, ममता और
मानरिहत) ही भगवान को ि य होते ह। आप सरीखे िनधन, िभखारी और गहृ हीन को देखकर
ा और िशव को भी संदेह हो जाता है (िक वे वा तिवक संत ह या िभखारी)।

जोिस सोिस तव चरन नमामी। मो पर कृपा क रअ अब वामी॥


सहज ीित भूपित कै देखी। आपु िबषय िब वास िबसेषी॥

आप जो ह सो ह (अथात जो कोई भी ह ), म आपके चरण म नम कार करता हँ। हे वामी! अब


मुझ पर कृपा क िजए। अपने ऊपर राजा क वाभािवक ीित और अपने िवषय म उसका अिधक
िव ास देखकर -

सब कार राजिह अपनाई। बोलेउ अिधक सनेह जनाई॥


सन
ु ु सितभाउ कहउँ मिहपाला। इहाँ बसत बीते बह काला॥

सब कार से राजा को अपने वश म करके, अिधक नेह िदखाता हआ वह (कपट-तप वी) बोला
- हे राजन! सुनो, म तुमसे स य कहता हँ, मुझे यहाँ रहते बहत समय बीत गया।
- अब लिग मोिह न िमलेउ कोउ म न जनावउँ काह।
लोकमा यता अनल सम कर तप कानन दाह॥ 161(क)॥

अब तक न तो कोई मुझसे िमला और न म अपने को िकसी पर कट करता हँ, य िक लोक म


ित ा अि न के समान है, जो तप पी वन को भ म कर डालती है॥ 161(क)॥

सो० - तल ु सी देिख सब े ु भूलिहं मूढ़ न चतरु नर।


ु ष
संदु र केिकिह पेखु बचन सध ु ा सम असन अिह॥ 161(ख)॥

तुलसीदास कहते ह - सुंदर वेष देखकर मढ़ू नह (मढ़ू तो मढ़


ू ही ह), चतुर मनु य भी धोखा खा
ृ के समान है और आहार साँप का है॥
जाते ह। सुंदर मोर को देखो, उसका वचन तो अमत
161(ख)॥

तात गपु त
ु रहउँ जग माह । ह र तिज िकमिप योजन नाह ॥
भु जानत सब िबनिहं जनाए। कहह कविन िसिध लोक रझाएँ ॥

(कपट-तप वी ने कहा -) इसी से म जगत म िछपकर रहता हँ। ह र को छोड़कर िकसी से कुछ
भी योजन नह रखता। भु तो िबना जनाए ही सब जानते ह। िफर कहो संसार को रझाने से
या िसि िमलेगी।

तु ह सिु च सम
ु ित परम ि य मोर। ीित तीित मोिह पर तोर॥
अब ज तात दरु ावउँ तोही। दा न दोष घटइ अित मोही॥

तुम पिव और सुंदर बुि वाले हो, इससे मुझे बहत ही यारे हो और तु हारी भी मुझ पर ीित और
िव ास है। हे तात! अब यिद म तुमसे कुछ िछपाता हँ, तो मुझे बहत ही भयानक दोष लगेगा।

िजिम िजिम तापसु कथइ उदासा। ितिम ितिम नप


ृ िह उपज िब वासा॥
देखा वबस कम मन बानी। तब बोला तापस बग यानी॥

य - य वह तप वी उदासीनता क बात कहता था, य ही य राजा को िव ास उ प न होता


जाता था। जब उस बगुले क तरह यान लगानेवाले (कपटी) मुिन ने राजा को कम, मन और
वचन से अपने वश म जाना, तब वह बोला -

नाम हमार एकतनु भाई। सिु न नप


ृ बोलेउ पिु न िस नाई॥
कहह नाम कर अरथ बखानी। मोिह सेवक अित आपन जानी॥

हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने िफर िसर नवाकर कहा - मुझे अपना अ यंत
(अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अथ समझाकर किहए।
- आिदसिृ उपजी जबिहं तब उतपित भै मो र।
नाम एकतनु हेतु तेिह देह न धरी बहो र॥ 162॥

(कपटी मुिन ने कहा -) जब सबसे पहले सिृ उ प न हई थी, तभी मेरी उ पि हई थी। तबसे
मने िफर दूसरी देह नह धारण क , इसी से मेरा नाम एकतनु है॥ 162॥

जिन आचरजु करह मन माह । सतु तप त दल


ु भ कछु नाह ॥
तप बल त जग सज
ृ इ िबधाता। तप बल िब नु भए प र ाता॥

हे पु ! मन म आ य मत करो, तप से कुछ भी दुलभ नह है, तप के बल से ा जगत को रचते


ह। तप के ही बल से िव णु संसार का पालन करनेवाले बने ह।

तपबल संभु करिहं संघारा। तप त अगम न कछु संसारा॥


भयउ नप
ृ िह सिु न अित अनरु ागा। कथा परु ातन कहै सो लागा॥

तप ही के बल से संहार करते ह। संसार म कोई ऐसी व तु नह जो तप से न िमल सके। यह


सुनकर राजा को बड़ा अनुराग हआ। तब वह (तप वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा।

करम धरम इितहास अनेका। करइ िन पन िबरित िबबेका॥


उदभव पालन लय कहानी। कहेिस अिमत आचरज बखानी॥

कम, धम और अनेक कार के इितहास कहकर वह वैरा य और ान का िन पण करने लगा।


सिृ क उ पि , पालन (ि थित) और संहार ( लय) क अपार आ यभरी कथाएँ उसने िव तार
से कह ।

सिु न महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥


कह तापस नप ृ जानउँ तोही। क हेह कपट लाग भल मोही॥

राजा सुनकर उस तप वी के वश म हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तप वी ने


कहा - राजन ! म तुमको जानता हँ। तुमने कपट िकया, वह मुझे अ छा लगा।

सो० - सनु ु महीस अिस नीित जहँ तहँ नाम न कहिहं नप


ृ ।
मोिह तोिह पर अित ीित सोइ चतरु ता िबचा र तव॥ 163॥

हे राजन! सुनो, ऐसी नीित है िक राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नह कहते। तु हारी वही
चतुराई समझकर तुम पर मेरा बड़ा ेम हो गया है॥ 163॥

नाम तु हार ताप िदनेसा। स यकेतु तव िपता नरे सा॥


गरु साद सब जािनअ राजा। किहअ न आपन जािन अकाजा॥
तु हारा नाम तापभानु है, स यकेतु तु हारे िपता थे। हे राजन! गु क कृपा से म सब जानता
हँ, पर अपनी हािन समझकर कहता नह ।

देिख तात तव सहज सध


ु ाई। ीित तीित नीित िनपन ु ाई॥
उपिज परी ममता मन मोर। कहउँ कथा िनज पूछे तोर॥

हे तात! तु हारा वाभािवक सीधापन (सरलता), ेम, िव ास और नीित म िनपुणता देखकर मेरे
मन म तु हारे ऊपर बड़ी ममता उ प न हो गई है, इसीिलए म तु हारे पछ
ू ने पर अपनी कथा
कहता हँ।

अब स न म संसय नाह । मागु जो भूप भाव मन माह ॥


सिु न सब
ु चन भूपित हरषाना। गिह पद िबनय क ि ह िबिध नाना॥

अब म स न हँ, इसम संदेह न करना। हे राजन! जो मन को भावे वही माँग लो। सुंदर (ि य)
वचन सुनकर राजा हिषत हो गया और (मुिन के) पैर पकड़कर उसने बहत कार से िवनती क ।

कृपािसंधु मिु न दरसन तोर। चा र पदारथ करतल मोर॥


भिु ह तथािप स न िबलोक । मािग अगम बर होउँ असोक ॥

हे दयासागर मुिन! आपके दशन से ही चार पदाथ (अथ, धम, काम और मो ) मेरी मु ी म आ
गए। तो भी वामी को स न देखकर म यह दुलभ वर माँगकर ( य न) शोकरिहत हो जाऊँ।

- जरा मरन दख
ु रिहत तनु समर िजतै जिन कोउ।
एकछ रपहु ीन मिह राज कलप सत होउ॥ 164॥

मेरा शरीर व ृ ाव था, म ृ यु और दुःख से रिहत हो जाए, मुझे यु म कोई जीत न सके और प ृ वी
पर मेरा सौ क प तक एकछ अकंटक रा य हो॥ 164॥

कह तापस नप
ृ ऐसेइ होऊ। कारन एक किठन सन ु ु सोऊ॥
कालउ तअ
ु पद नाइिह सीसा। एक िब कुल छािड़ महीसा॥

तप वी ने कहा - हे राजन! ऐसा ही हो, पर एक बात किठन है, उसे भी सुन लो। हे प ृ वी के
वामी! केवल ा ण कुल को छोड़ काल भी तु हारे चरण पर िसर नवाएगा।

तपबल िब सदा ब रआरा। ित ह के कोप न कोउ रखवारा॥


ज िब ह बस करह नरे सा। तौ तअ
ु बस िबिध िब नु महेसा॥

तप के बल से ा ण सदा बलवान रहते ह। उनके ोध से र ा करनेवाला कोई नह है। हे


नरपित! यिद तुम ा ण को वश म कर लो, तो ा, िव णु और महे श भी तु हारे अधीन हो
जाएँ गे।

चल न कुल सन ब रआई। स य कहउँ दोउ भज ु ा उठाई॥


िब ाप िबनु सन
ु ु मिहपाला। तोर नास निहं कवनेहँ काला॥

ा ण कुल से जोर-जबरद ती नह चल सकती, म दोन भुजा उठाकर स य कहता हँ। हे राजन!


सुनो, ा ण के शाप िबना तु हारा नाश िकसी काल म नह होगा।

हरषेउ राउ बचन सिु न तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥


तव साद भु कृपािनधाना। मो कहँ सबकाल क याना॥

राजा उसके वचन सुनकर बड़ा स न हआ और कहने लगा - हे वामी! मेरा नाश अब नह
होगा। हे कृपािनधान भु! आपक कृपा से मेरा सब समय क याण होगा।

- एवम तु किह कपट मिु न बोला कुिटल बहो र।


िमलब हमार भलु ाब िनज कहह त हमिह न खो र॥ 165॥

'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहकर वह कुिटल कपटी मुिन िफर बोला - (िकंतु) तुम मेरे िमलने तथा
अपने राह भलू जाने क बात िकसी से (कहना नह , यिद) कह दोगे, तो हमारा दोष नह ॥ 165॥

तात म तोिह बरजउँ राजा। कह कथा तव परम अकाजा॥


छठ वन यह परत कहानी। नास तु हार स य मम बानी॥

हे राजन! म तुमको इसिलए मना करता हँ िक इस संग को कहने से तु हारी बड़ी हािन होगी।
छठे कान म यह बात पड़ते ही तु हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन स य जानना।

यह गट अथवा ि ज ापा। नास तोर सन ु ु भानु तापा॥


आन उपायँ िनधन तव नाह । ज ह र हर कोपिहं मन माह ॥

हे तापभानु! सुनो, इस बात के कट करने से अथवा ा ण के शाप से तु हारा नाश होगा और


िकसी उपाय से, चाहे ा और शंकर भी मन म ोध कर, तु हारी म ृ यु नह होगी।

स य नाथ पद गिह नपृ भाषा। ि ज गरु कोप कहह को राखा॥


राखइ गरु ज कोप िबधाता। गरु िबरोध निहं कोउ जग ाता॥

राजा ने मुिन के चरण पकड़कर कहा - हे वामी! स य ही है। ा ण और गु के ोध से,


किहए, कौन र ा कर सकता है? यिद ा भी ोध कर, तो गु बचा लेते ह, पर गु से िवरोध
करने पर जगत म कोई भी बचानेवाला नह है।
ज न चलब हम कहे तु हार। होउ नास निहं सोच हमार॥
एकिहं डर डरपत मन मोरा। भु मिहदेव ाप अित घोरा॥

यिद म आपके कथन के अनुसार नह चलँग ू ा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसक िचंता
नह है। मेरा मन तो हे भो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है िक ा ण का शाप बड़ा भयानक
होता है।

- होिहं िब बस कवन िबिध कहह कृपा क र सोउ।


तु ह तिज दीनदयाल िनज िहतू न देखउँ कोउ॥ 166॥

वे ा ण िकस कार से वश म हो सकते ह, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको


छोड़कर और िकसी को म अपना िहतू नह देखता॥ 166॥

सन
ु ु नप
ृ िबिबध जतन जग माह । क सा य पिु न होिहं िक नाह ॥
अहइ एक अित सग ु म उपाई। तहाँ परं तु एक किठनाई॥

(तप वी ने कहा -) हे राजन! सुनो, संसार म उपाय तो बहत ह; पर वे क -सा य ह (बड़ी


किठनता से बनने म आते ह) और इस पर भी िस ह या न ह (उनक सफलता िनि त नह है)
हाँ, एक उपाय बहत सहज है; परं तु उसम भी एक किठनता है।

मम आधीन जुगिु त नप
ृ सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लग अ जब त भयऊँ। काह के गहृ ाम न गयऊँ॥2॥

हे राजन! वह युि तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तु हारे नगर म हो नह सकता। जब से पैदा
हआ हँ, तब से आज तक म िकसी के घर अथवा गाँव नह गया।

ज न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥


सिु न महीस बोलेउ मदृ ु बानी। नाथ िनगम अिस नीित बखानी॥

परं तु यिद नह जाता हँ, तो तु हारा काम िबगड़ता है। आज यह बड़ा असमंजस आ पड़ा है। यह
सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेद म ऐसी नीित कही है िक -

बड़े सनेह लघु ह पर करह । िग र िनज िसरिन सदा तन


ृ धरह ॥
जलिध अगाध मौिल बह फेनू। संतत धरिन धरत िसर रे नू॥

बड़े लोग छोट पर नेह करते ही ह। पवत अपने िसर पर सदा तण


ृ (घास) को धारण िकए रहते
ह। अगाध समु अपने म तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने िसर पर सदा धिू ल
को धारण िकए रहती है।
- अस किह गहे नरे स पद वामी होह कृपाल।
मोिह लािग दख
ु सिहअ भु स जन दीनदयाल॥ 167॥

ऐसा कहकर राजा ने मुिन के चरण पकड़ िलए। (और कहा -) हे वामी! कृपा क िजए। आप संत
ह। दीनदयालु ह। (अतः) हे भो! मेरे िलए इतना क (अव य) सिहए॥ 167॥

जािन नप
ृ िह आपन आधीना। बोला तापस कपट बीना॥
स य कहउँ भूपित सन
ु ु तोही। जग नािहन दल
ु भ कछु मोही॥

राजा को अपने अधीन जानकर कपट म वीण तप वी बोला - हे राजन! सुनो, म तुमसे स य
कहता हँ, जगत म मुझे कुछ भी दुलभ नह है।

अविस काज म क रहउँ तोरा। मन तन बचन भगत त मोरा॥


जोग जुगिु त तप मं भाऊ। फलइ तबिहं जब क रअ दरु ाऊ॥

म तु हारा काम अव य क ँ गा, ( य िक) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीन ) से मेरे भ हो। पर
योग, युि , तप और मं का भाव तभी फलीभत ू होता है जब वे िछपाकर िकए जाते ह।

ज नरे स म कर रसोई। तु ह प सह मोिह जान न कोई॥


अ न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनस ु रई॥

हे नरपित! म यिद रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पाए, तो उस अ न
को जो-जो खाएगा, सो-सो तु हारा आ ाकारी बन जाएगा।

पिु न ित ह के गहृ जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सन


ु ु सोऊ॥
जाइ उपाय रचह नप ृ एह। संबत भ र संकलप करे ह॥

यही नह , उन (भोजन करने वाल ) के घर भी जो कोई भोजन करे गा, हे राजन! सुनो, वह भी
तु हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन! जाकर यही उपाय करो और वष भर (भोजन कराने) का
संक प कर लेना।

- िनत नूतन ि ज सहस सत बरे ह सिहत प रवार।


म तु हरे संकलप लिग िदनिहं करिब जेवनार॥ 168॥

िन य नए एक लाख ा ण को कुटुंब सिहत िनमंि त करना। म तु हारे सकं प (के काल


अथात एक वष) तक ितिदन भोजन बना िदया क ँ गा॥ 168॥

एिह िबिध भूप क अित थोर। होइहिहं सकल िब बस तोर॥


क रहिहं िब होम मख सेवा। तेिहं संग सहजेिहं बस देवा॥
हे राजन! इस कार बहत ही थोड़े प र म से सब ा ण तु हारे वश म हो जाएँ गे। ा ण हवन,
य और सेवा-पजू ा करगे, तो उस संग (संबंध) से देवता भी सहज ही वश म हो जाएँ गे।

और एक तोिह कहउँ लखाऊ। म एिहं बेष न आउब काऊ॥


तु हरे उपरोिहत कहँ राया। ह र आनब म क र िनज माया॥

म एक और पहचान तुमको बताए देता हँ िक म इस प म कभी न आऊँगा। हे राजन! म अपनी


माया से तु हारे पुरोिहत को हर लाऊँगा।

तपबल तेिह क र आपु समाना। रिखहउँ इहाँ बरष परवाना॥


म ध र तासु बेषु सन
ु ु राजा। सब िबिध तोर सँवारब काजा॥

तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वष यहाँ रखँग


ू ा और हे राजन! सुनो, म उसका प
बनाकर सब कार से तु हारा काम िस क ँ गा।

गै िनिस बहत सयन अब क जे। मोिह तोिह भूप भट िदन तीजे॥


म तपबल तोिह तरु ग समेता। पहँचहै उँ सोवतिह िनकेता॥

हे राजन! रात बहत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे िदन मुझसे तु हारी भट होगी। तप के
बल से म घोड़े सिहत तुमको सोते ही म घर पहँचा दँूगा।

- म आउब सोइ बेषु ध र पिहचानेह तब मोिह।


जब एकांत बोलाइ सब कथा सन ु ाव तोिह॥ 169॥

म वही (पुरोिहत का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकांत म तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब
तुम मुझे पहचान लेना॥ 169॥

सयन क ह नप ृ आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छल यानी॥


िमत भूप िन ा अित आई। सो िकिम सोव सोच अिधकाई॥

राजा ने आ ा मानकर शयन िकया और वह कपट- ानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था,
(उसे) खबू (गहरी) न द आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहत िचंता हो रही थी।

कालकेतु िनिसचर तहँ आवा। जेिहं सूकर होइ नप


ृ िह भल
ु ावा॥
परम िम तापस नप ृ केरा। जानइ सो अित कपट घनेरा॥

(उसी समय) वहाँ कालकेतु रा स आया, िजसने सअ


ू र बनकर राजा को भटकाया था। वह तप वी
राजा का बड़ा िम था और खबू छल- पंच जानता था।
तेिह के सत सत
ु अ दस भाई। खल अित अजय देव दख ु दाई॥
थमिहं भूप समर सब मारे । िब संत सरु देिख दख
ु ारे ॥

उसके सौ पु और दस भाई थे, जो बड़े ही दु , िकसी से न जीते जानेवाले और देवताओं को


दुःख देनेवाले थे। ा ण , संत और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही यु
म मार डाला था।

तेिहं खल पािछल बय सँभारा। तापस नप ृ िमिल मं िबचारा॥


जेिहं रपु छय सोइ रचेि ह उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥

उस दु ने िपछला बैर याद करके तप वी राजा से िमलकर सलाह क और िजस कार श ु का


नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा ( तापभानु) कुछ भी न समझ सका।

- रपु तेजसी अकेल अिप लघु क र गिनअ न ताह।


अजहँ देत दख
ु रिब सिसिह िसर अवसेिषत राह॥ 170॥

तेज वी श ु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नह समझना चािहए। िजसका िसर मा बचा था, वह
राह आज तक सय ू -चं मा को दुःख देता है॥ 170॥

तापस नपृ िनज सखिह िनहारी। हरिष िमलेउ उिठ भयउ सखु ारी॥
िम िह किह सब कथा सनु ाई। जातध
ु ान बोला सखु पाई॥

तप वी राजा अपने िम को देख स न हो उठकर िमला और सुखी हआ। उसने िम को सब


कथा कह सुनाई, तब रा स आनंिदत होकर बोला।

अब साधेउँ रपु सन
ु ह नरे सा। ज तु ह क ह मोर उपदेसा॥
प रह र सोच रहह तु ह सोई। िबनु औषध िबआिध िबिध खोई॥

हे राजन! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर िलया, तो अब मने श ु को
काबू म कर ही िलया (समझो)। तुम अब िचंता याग सो रहो। िवधाता ने िबना ही दवा के रोग दूर
कर िदया।

कुल समेत रपु मूल बहाई। चौथ िदवस िमलब म आई॥


तापस नपृ िह बहत प रतोषी। चला महाकपटी अितरोषी॥

कुल सिहत श ु को जड़-मलू से उखाड़-बहाकर, (आज से) चौथे िदन म तुमसे आ िमलँग
ू ा। (इस
कार) तप वी राजा को खबू िदलासा देकर वह महामायावी और अ यंत ोधी रा स चला।

भानु तापिह बािज समेता। पहँचाएिस छन माझ िनकेता॥


ृ िह ना र पिहं सयन कराई। हयगहृ ँ बाँधिे स बािज बनाई॥
नप

उसने तापभानु राजा को घोड़े सिहत णभर म घर पहँचा िदया। राजा को रानी के पास सुलाकर
घोड़े को अ छी तरह से घुड़साल म बाँध िदया।

- राजा के उपरोिहतिह ह र लै गयउ बहो र।


लै राखेिस िग र खोह महँ मायाँ क र मित भो र॥ 171॥

िफर वह राजा के पुरोिहत को उठा ले गया और माया से उसक बुि को म म डालकर उसे
उसने पहाड़ क खोह म ला रखा॥ 171॥

आपु िबरिच उपरोिहत पा। परे उ जाइ तेिह सेज अनूपा॥


जागेउ नप
ृ अनभएँ िबहाना। देिख भवन अित अचरजु माना॥

वह आप पुरोिहत का प बनाकर उसक संुदर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही
जागा और अपना घर देखकर उसने बड़ा ही आ य माना।

मिु न मिहमा मन महँ अनम


ु ानी। उठेउ गवँिहं जेिहं जान न रानी॥
कानन गयउ बािज चिढ़ तेह । परु नर ना र न जानेउ केह ॥

मन म मुिन क मिहमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, िजसम रानी न जान पाए। िफर उसी
घोड़े पर चढ़कर वन को चला गया। नगर के िकसी भी ी-पु ष को पता नह चला।

गएँ जाम जुग भूपित आवा। घर घर उ सव बाज बधावा॥


उपरोिहतिह देख जब राजा। चिकत िबलोक सिु म र सोइ काजा॥

दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उ सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने
पुरोिहत को देखा, तब वह (अपने) उसी काय का मरण कर उसे आ य से देखने लगा।

जग
ु सम नप
ृ िह गए िदन तीनी। कपटी मिु न पद रह मित लीनी॥
समय जान उपरोिहत आवा। नपृ िह मते सब किह समझ ु ावा॥

राजा को तीन िदन युग के समान बीते। उसक बुि कपटी मुिन के चरण म लगी रही। िनि त
समय जानकर पुरोिहत (बना हआ रा स) आया और राजा के साथ क हई गु सलाह के
अनुसार (उसने अपने) सब िवचार उसे समझाकर कह िदए।

- नपृ हरषेउ पिहचािन गु म बस रहा न चेत।


बरे तरु त सत सहस बर िब कुटुब
ं समेत॥ 172॥
(संकेत के अनुसार) गु को (उस प म) पहचानकर राजा स न हआ। मवश उसे चेत न रहा
(िक यह तापस मुिन है या कालकेतु रा स)। उसने तुरंत एक लाख उ म ा ण को कुटुंब
सिहत िनमं ण दे िदया॥ 172॥

उपरोिहत जेवनार बनाई। छरस चा र िबिध जिस ुित गाई॥


मायामय तेिहं क ि ह रसोई। िबंजन बह गिन सकइ न कोई॥

पुरोिहत ने छह रस और चार कार के भोजन, जैसा िक वेद म वणन है, बनाए। उसने मायामयी
रसोई तैयार क और इतने यंजन बनाए, िज ह कोई िगन नह सकता।

िबिबध मग
ृ ह कर आिमष राँधा। तेिह महँ िब माँसु खल साँधा॥
भोजन कहँ सब िब बोलाए। पद पखा र सादर बैठाए॥

अनेक कार के पशुओ ं का मांस पकाया और उसम उस दु ने ा ण का मांस िमला िदया। सब


ा ण को भोजन के िलए बुलाया और चरण धोकर आदर सिहत बैठाया।

प सन जबिहं लाग मिहपाला। भै अकासबानी तेिह काला॥


िब बंदृ उिठ उिठ गहृ जाह। है बिड़ हािन अ न जिन खाह॥

य ही राजा परोसने लगा, उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हई - हे ा णो! उठ-उठकर


अपने घर जाओ, यह अ न मत खाओ। इस (के खाने) म बड़ी हािन है।

भयउ रसोई ं भूसरु माँसू। सब ि ज उठे मािन िब वासू॥


भूप िबकल मित मोहँ भल ु ानी। भावी बस न आव मख
ु बानी॥

रसोई म ा ण का मांस बना है। (आकाशवाणी का) िव ास मानकर सब ा ण उठ खड़े हए।


ू ी हई थी। होनहारवश उसके मँुह से (एक)
राजा याकुल हो गया (परं तु), उसक बुि मोह म भल
बात (भी) न िनकली।

- बोले िब सकोप तब निहं कछु क ह िबचार।


जाइ िनसाचर होह नप
ृ मूढ़ सिहत प रवार॥ 173॥

तब ा ण ोध सिहत बोल उठे - उ ह ने कुछ भी िवचार नह िकया - अरे मख


ू राजा! तू जाकर
प रवार सिहत रा स हो॥ 173॥

छ बंधु त िब बोलाई। घालै िलए सिहत समदु ाई॥


ई र राखा धरम हमारा। जैहिस त समेत प रवारा॥

ू े तो प रवार सिहत ा ण को बुलाकर उ ह न


रे नीच ि य! तन करना चाहा था, ई र ने
हमारे धम क र ा क । अब तू प रवार सिहत न होगा।

संबत म य नास तव होऊ। जलदाता न रिहिह कुल कोऊ॥


नप
ृ सिु न ाप िबकल अित ासा। भै बहो र बर िगरा अकासा॥

एक वष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल म कोई पानी देनेवाला तक न रहे गा। शाप सुनकर
राजा भय के मारे अ यंत याकुल हो गया। िफर सुंदर आकाशवाणी हई -

िब ह ाप िबचा र न दी हा। निहं अपराध भूप कछु क हा॥


चिकत िब सब सिु न नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥

हे ा णो! तुमने िवचार कर शाप नह िदया। राजा ने कुछ भी अपराध नह िकया। आकाशवाणी
सुनकर सब ा ण चिकत हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था।

तहँ न असन निहं िब सआु रा। िफरे उ राउ मन सोच अपारा॥


सब संग मिहसरु ह सनु ाई। िसत परे उ अवन अकुलाई॥

(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ा ण ही था। तब राजा मन म अपार िचंता करता हआ
लौटा। उसने ा ण को सब व ृ ांत सुनाया और (बड़ा ही) भयभीत और याकुल होकर वह प ृ वी
पर िगर पड़ा।

- भूपित भावी िमटइ निहं जदिप न दूषन तोर।


िकएँ अ यथा होइ निहं िब ाप अित घोर॥ 174॥

हे राजन! य िप तु हारा दोष नह है, तो भी होनहार नह िमटता। ा ण का शाप बहत ही


भयानक होता है, यह िकसी तरह भी टाले टल नह सकता॥ 174॥

अस किह सब मिहदेव िसधाए। समाचार परु लोग ह पाए॥


सोचिहं दूषन दैविह देह । िबरचत हंस काग िकय जेह ॥

ऐसा कहकर सब ा ण चले गए। नगरवािसय ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे िचंता करने
और िवधाता को दोष देने लगे, िजसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर िदया (ऐसे पु या मा राजा को
देवता बनाना चािहए था, पर रा स बना िदया)।

उपरोिहतिह भवन पहँचाई। असरु तापसिह खब र जनाई॥


तेिहं खल जहँ तहँ प पठाए। सिज सिज सेन भूप सब धाए॥

पुरोिहत को उसके घर पहँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तप वी को खबर दी। उस दु ने


जहाँ-तहाँ प भेजे, िजससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ़) दौड़े ।
घेरेि ह नगर िनसान बजाई। िबिबध भाँित िनत होइ लराई॥
जूझे सकल सभ ु ट क र करनी। बंधु समेत परे उ नप
ृ धरनी॥

और उ ह ने डं का बजाकर नगर को घेर िलया। िन य ित अनेक कार से लड़ाई होने लगी।


( तापभानु के) सब यो ा (शरू वीर क ) करनी करके रण म जझ
ू मरे । राजा भी भाई सिहत खेत
रहा।

स यकेतु कुल कोउ निहं बाँचा। िब ाप िकिम होइ असाँचा॥


रपु िजित सब नप
ृ नगर बसाई। िनज परु गवने जय जसु पाई॥

स यकेतु के कुल म कोई नह बचा। ा ण का शाप झठू ा कैसे हो सकता था। श ु को जीतकर,
नगर को (िफर से) बसाकर सब राजा िवजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए।

- भर ाज सनु ु जािह जब होई िबधाता बाम।


धू र मे सम जनक जम तािह यालसम दाम॥ 175॥

(या व य कहते ह -) हे भर ाज! सुनो, िवधाता जब िजसके िवपरीत होते ह, तब उसके िलए
ू सुमे पवत के समान (भारी और कुचल डालनेवाली), िपता यम के समान (काल प) और
धल
र सी साँप के समान (काट खानेवाली) हो जाती है॥ 175॥

काल पाइ मिु न सन


ु ु सोइ राजा। भयउ िनसाचर सिहत समाजा॥
दस िसर तािह बीस भज ु दंडा। रावन नाम बीर ब रबंडा॥

हे मुिन! सुनो, समय पाकर वही राजा प रवार सिहत रावण नामक रा स हआ। उसके दस िसर
और बीस भुजाएँ थ और वह बड़ा ही चंड शरू वीर था।

भूप अनज
ु अ रमदन नामा। भयउ सो कंु भकरन बलधामा॥
सिचव जो रहा धरम िच जासू। भयउ िबमा बंधु लघु तासू॥

अ रमदन नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुंभकण हआ। उसका जो मं ी था,
िजसका नाम धम िच था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हआ।

नाम िबभीषन जेिह जग जाना। िब नभ ु गत िब यान िनधाना॥


रहे जे सत ृ केरे । भए िनसाचर घोर घनेरे॥
ु सेवक नप

उसका िवभीषण नाम था, िजसे सारा जगत जानता है। वह िव णुभ और ान-िव ान का भंडार
था और जो राजा के पु और सेवक थे, वे सभी बड़े भयानक रा स हए।

काम प खल िजनस अनेका। कुिटल भयंकर िबगत िबबेका॥


कृपा रिहत िहंसक सब पापी। बरिन न जािहं िब व प रतापी॥

वे सब अनेक जाित के, मनमाना प धारण करनेवाले, दु , कुिटल, भयंकर, िववेकरिहत,


िनदयी, िहंसक, पापी और संसार भर को दुःख देनेवाले हए, उनका वणन नह हो सकता।

- उपजे जदिप पल
ु यकुल पावन अमल अनूप।
तदिप महीसरु ाप बस भए सकल अघ प॥ 176॥

य िप वे पुल य ऋिष के पिव , िनमल और अनुपम कुल म उ प न हए, तथािप ा ण के शाप


के कारण वे सब पाप प हए॥ 176॥

क ह िबिबध तप तीिनहँ भाई। परम उ निहं बरिन सो जाई॥


गयउ िनकट तप देिख िबधाता। मागह बर स न म ताता॥

तीन भाइय ने अनेक कार क बड़ी ही किठन तप या क , िजसका वणन नह हो सकता।


(उनका उ ) तप देखकर ा उनके पास गए और बोले - हे तात! म स न हँ, वर माँगो।

क र िबनती पद गिह दससीसा। बोलेउ बचन सन ु ह जगदीसा॥


हम काह के मरिहं न मार। बानर मनज
ु जाित दइु बार॥

रावण ने िवनय करके और चरण पकड़कर कहा - हे जगदी र! सुिनए, वानर और मनु य - इन
दो जाितय को छोड़कर हम और िकसी के मारे न मर। (यह वर दीिजए)।

एवम तु तु ह बड़ तप क हा। म ाँ िमिल तेिह बर दी हा॥


पिु न भु कंु भकरन पिहं गयऊ। तेिह िबलोिक मन िबसमय भयऊ॥

(िशव कहते ह िक -) मने और ा ने िमलकर उसे वर िदया िक ऐसा ही हो, तुमने बड़ा तप
िकया है। िफर ा कुंभकण के पास गए। उसे देखकर उनके मन म बड़ा आ य हआ।

ज एिहं खल िनत करब अहा । होइिह सब उजा र संसा ॥


सारद े र तासु मित फेरी। मागेिस नीद मास षट केरी॥

जो यह दु िन य आहार करे गा, तो सारा संसार ही उजाड़ हो जाएगा। (ऐसा िवचारकर) ा ने


सर वती को ेरणा करके उसक बुि फेर दी। (िजससे) उसने छह महीने क न द माँगी।

- गए िबभीषन पास पिु न कहेउ पु बर माग।ु


तेिहं मागेउ भगवंत पद कमल अमल अनरु ाग॥ु 177॥

िफर ा िवभीषण के पास गए और बोले - हे पु ! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमल म


िनमल (िन काम और अन य) ेम माँगा॥ 177॥

ित हिह देइ बर िसधाए। हरिषत ते अपने गहृ आए॥


मय तनज ु ा मंदोद र नामा। परम संदु री ना र ललामा॥

उनको वर देकर ा चले गए और वे (तीन भाई) हिषत हे कर अपने घर लौट आए। मय दानव
क मंदोदरी नाम क क या परम सुंदरी और ि य म िशरोमिण थी।

सोइ मयँ दीि ह रावनिह आनी। होइिह जातध ु ानपित जानी॥


हरिषत भयउ ना र भिल पाई। पिु न दोउ बंधु िबआहेिस जाई॥

मय ने उसे लाकर रावण को िदया। उसने जान िलया िक यह रा स का राजा होगा। अ छी ी


पाकर रावण स न हआ और िफर उसने जाकर दोन भाइय का िववाह कर िदया।

िग र ि कूट एक िसंधु मझारी। िबिध िनिमत दग


ु म अित भारी॥
सोइ मय दानवँ बह र सँवारा। कनक रिचत मिन भवन अपारा॥

समु के बीच म ि कूट नामक पवत पर ा का बनाया हआ एक बड़ा भारी िकला था। (महान
मायावी और िनपुण कारीगर) मय दानव ने उसको िफर से सजा िदया। उसम मिणय से जड़े हए
सोने के अनिगनत महल थे।

भोगावित जिस अिहकुल बासा। अमरावित जिस स िनवासा॥


ित ह त अिधक र य अित बंका। जग िब यात नाम तेिह लंका॥

जैसी नागकुल के रहने क (पाताल लोक म) भोगावती पुरी है और इं के रहने क ( वगलोक


म) अमरावती पुरी है, उनसे भी अिधक सुंदर और बाँका वह दुग था। जगत म उसका नाम लंका
िस हआ।

- खाई ं िसंधु गभीर अित चा रहँ िदिस िफ र आव।


कनक कोट मिन खिचत ढ़ बरिन न जाइ बनाव॥ 178(क)॥

उसे चार ओर से समु क अ यंत गहरी खाई घेरे हए है। उस (दुग) के मिणय से जड़ा हआ सोने
का मजबत ू परकोटा है, िजसक कारीगरी का वणन नह िकया जा सकता॥ 178(क)॥

ह र े रत जेिहं कलप जोइ जातधु ानपित होइ।


सूर तापी अतल ु बल दल समेत बस सोइ॥ 178(ख)॥

भगवान क ेरणा से िजस क प म जो रा स का राजा (रावण) होता है, वही शरू , तापी,
अतुिलत बलवान अपनी सेना सिहत उस पुरी म बसता है॥ 178(ख)॥
रहे तहाँ िनिसचर भट भारे । ते सब सरु ह समर संघारे ॥
अब तहँ रहिहं स के रे े । र छक कोिट ज छपित केरे ॥

(पहले) वहाँ बड़े -बड़े यो ा रा स रहते थे। देवताओं ने उन सबको यु म मार डाला। अब इं क
ेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड़ र क (य लोग) रहते ह।

दसमख ु कतहँ खब र अिस पाई। सेन सािज गढ़ घेरेिस जाई॥


देिख िबकट भट बिड़ कटकाई। ज छ जीव लै गए पराई॥

रावण को कह ऐसी खबर िमली, तब उसने सेना सजाकर िकले को जा घेरा। उस बड़े िवकट
यो ा और उसक बड़ी सेना को देखकर य अपने ाण लेकर भाग गए।

िफ र सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सख ु भयउ िबसेषा॥


संदु र सहज अगम अनम
ु ानी। क ि ह तहाँ रावन रजधानी॥

तब रावण ने घम ू -िफरकर सारा नगर देखा। उसक ( थान संबंधी) िचंता िमट गई और उसे बहत
ही सुख हआ। उस पुरी को वाभािवक ही सुंदर और (बाहरवाल के िलए) दुगम अनुमान करके
रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम क ।

जेिह जस जोग बाँिट गहृ दी हे। सख


ु ी सकल रजनीचर क ह॥
एक बार कुबेर पर धावा। पु पक जान जीित लै आवा॥

यो यता के अनुसार घर को बाँटकर रावण ने सब रा स को सुखी िकया। एक बार वह कुबेर पर


चढ़ दौड़ा और उससे पु पक िवमान को जीतकर ले आया।

ु ह कैलास पिु न ली हेिस जाइ उठाइ।


- कौतक
मनहँ तौिल िनज बाहबल चला बहत सख ु पाइ॥ 179॥

िफर उसने जाकर (एक बार) िखलवाड़ ही म कैलास पवत को उठा िलया और मानो अपनी
भुजाओं का बल तौलकर, बहत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥ 179॥

सखु संपित सत
ु सेन सहाई। जय ताप बल बिु बड़ाई॥
िनत नूतन सब बाढ़त जाई। िजिम ितलाभ लोभ अिधकाई॥

सुख, संपि , पु , सेना, सहायक, जय, ताप, बल, बुि और बड़ाई - ये सब उसके िन य नए
(वैसे ही) बढ़ते जाते थे, जैसे येक लाभ पर लोभ बढ़ता है।

अितबल कंु भकरन अस ाता। जेिह कहँ निहं ितभट जग जाता॥


करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ ितहँ परु ासा॥
अ यंत बलवान कुंभकण-सा उसका भाई था, िजसके जोड़ का यो ा जगत म पैदा ही नह हआ।
वह मिदरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीन लोक म तहलका मच जाता
था।

ज िदन ित अहार कर सोई। िब व बेिग सब चौपट होई॥


समर धीर निहं जाइ बखाना। तेिह सम अिमत बीर बलवाना॥

यिद वह ितिदन भोजन करता, तब तो संपण


ू िव शी ही चौपट (खाली) हो जाता। रणधीर
ऐसा था िक िजसका वणन नह िकया जा सकता। (लंका म) उसके ऐसे असं य बलवान वीर थे।

बा रदनाद जेठ सतु तासू। भट महँ थम लीक जग जासू॥


जेिह न होइ रन सनमखु कोई। सरु परु िनतिहं परावन होई॥

मेघनाद रावण का बड़ा लड़का था, िजसका जगत के यो ाओं म पहला नंबर था। रण म कोई भी
उसका सामना नह कर सकता था। वग म तो (उसके भय से) िन य भगदड़ मची रहती थी।

ु अकंपन कुिलसरद धूमकेतु अितकाय।


- कुमख
एक एक जग जीित सक ऐसे सभ ु ट िनकाय॥ 180॥

(इनके अित र ) दुमुख, अक पन, व दंत, धम ू केतु और अितकाय आिद ऐसे अनेक यो ा थे,
जो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥ 180॥

काम प जानिहं सब माया। सपनेहँ िज ह क धरम न दाया॥


दसमख
ु बैठ सभाँ एक बारा। देिख अिमत आपन प रवारा॥

सभी रा स मनमाना प बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धम व न म
भी नह था। एक बार सभा म बैठे हए रावण ने अपने अगिणत प रवार को देखा -

सत
ु समूह जन प रजन नाती। गनै को पार िनसाचर जाती॥
सेन िबलोिक सहज अिभमानी। बोला बचन ोध मद सानी॥

पु -पौ , कुटुंबी और सेवक ढे र-के-ढे र थे। रा स क (सारी) जाितय को तो िगन ही कौन


सकता था! अपनी सेना को देखकर वभाव से ही अिभमानी रावण ोध और गव म सनी हई
वाणी बोला -

सनु ह सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी िबबध


ु ब था॥
ते सनमखु निहं करिहं लराई। देिख सबल रपु जािहं पराई॥

हे सम त रा स के दलो! सुनो, देवतागण हमारे श ु ह। वे सामने आकर यु नह करते।


बलवान श ु को देखकर भाग जाते ह।

ते ह कर मरन एक िबिध होई। कहउँ बझ


ु ाइ सन
ु ह अब सोई॥
ि जभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करह तु ह बाधा॥

उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, म समझाकर कहता हँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को
बढ़ानेवाले) ा ण भोजन, य , हवन और ा - इन सबम जाकर तुम बाधा डालो।

- छुधा छीन बलहीन सरु सहजेिहं िमिलहिहं आइ।


तब मा रहउँ िक छािड़हउँ भली भाँित अपनाइ॥ 181॥

भख
ू से दुबल और बलहीन होकर देवता सहज ही म आ िमलगे। तब उनको म मार डालँग
ू ा अथवा
भली-भाँित अपने अधीन करके (सवथा पराधीन करके) छोड़ दँूगा॥ 181॥

मेघनाद कहँ पिु न हँकरावा। दी ह िसख बलु बय बढ़ावा॥


जे सरु समर धीर बलवाना। िज ह क ल रबे कर अिभमाना॥

िफर उसने मेघनाद को बुलवाया और िसखा-पढ़ाकर उसके बल और देवताओं के ित बैरभाव को


उ ेजना दी। (िफर कहा -) हे पु ! जो देवता रण म धीर और बलवान ह और िज ह लड़ने का
अिभमान है,

ित हिह जीित रन आनेसु बाँधी। उिठ सत ु िपतु अनस


ु ासन काँधी॥
एिह िबिध सबही अ या दी ही। आपन ु ु चलेउ गदा कर ली ही॥

उ ह यु म जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर िपता क आ ा को िशरोधाय िकया। इसी तरह
उसने सबको आ ा दी और आप भी हाथ म गदा लेकर चल िदया।

चलत दसानन डोलित अवनी। गजत गभ विहं सरु रवनी॥


ु उे सकोहा। देव ह तके मे िग र खोहा॥
रावन आवत सन

रावण के चलने से प ृ वी डगमगाने लगी और उसक गजना से देवरमिणय के गभ िगरने लगे।


रावण को ोध सिहत आते हए सुनकर देवताओं ने सुमे पवत क गुफाएँ तक (भागकर सुमे
क गुफाओं का आ य िलया)।

िदगपाल ह के लोक सहु ाए। सूने सकल दसानन पाए॥


पिु न पिु न िसंघनाद क र भारी। देइ देवत ह गा र पचारी॥

िद पाल के सारे सुंदर लोक को रावण ने सन


ू ा पाया। वह बार-बार भारी िसंहगजना करके
देवताओं को ललकार-ललकारकर गािलयाँ देता था।
रन मद म िफरइ जग धावा। ितभट खोजत कतहँ न पावा॥
रिब सिस पवन ब न धनधारी। अिगिन काल जम सब अिधकारी॥

रण के मद म मतवाला होकर वह अपनी जोड़ी का यो ा खोजता हआ जगत भर म दौड़ता िफरा,


परं तु उसे ऐसा यो ा कह नह िमला। सय
ू , चं मा, वायु, व ण, कुबेर, अि न, काल और यम
आिद सब अिधकारी,

िकंनर िस मनज ु सरु नागा। हिठ सबही के पंथिहं लागा॥


सिृ जहँ लिग तनध ु ारी। दसमख
ु बसबत नर नारी॥

िक नर, िस , मनु य, देवता और नाग - सभी के पीछे वह हठपवू क पड़ गया (िकसी को भी


उसने शांितपवू क नह बैठने िदया)। ा क सिृ म जहाँ तक शरीरधारी ी-पु ष थे, सभी
रावण के अधीन हो गए।

आयसु करिहं सकल भयभीता। नविहं आइ िनत चरन िबनीता॥

डर के मारे सभी उसक आ ा का पालन करते थे और िन य आकर न तापवू क उसके चरण म


िसर नवाते थे।

- भज
ु बल िब व ब य क र राखेिस कोउ न सत
ु ं ।
मंडलीक मिन रावन राज करइ िनज मं ॥ 182(क)॥

उसने भुजाओं के बल से सारे िव को वश म कर िलया, िकसी को वतं नह रहने िदया। (इस


कार) मंडलीक राजाओं का िशरोमिण (सावभौम स ाट) रावण अपनी इ छानुसार रा य करने
लगा॥ 182(क)॥

देव ज छ गंधब नर िकंनर नाग कुमा र।


जीित बर िनज बाह बल बह संदु र बर ना र॥ 182(ख)॥

देवता, य , गंधव, मनु य, िक नर और नाग क क याओं तथा बहत-सी अ य सुंदरी और उ म


ि य को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर याह िलया॥ 182 (ख)॥

इं जीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पिहलेिहं क र रहेऊ॥


थमिहं िज ह कहँ आयसु दी हा। ित ह कर च रत सन
ु ह जो क हा॥

मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अथात
रावण के कहने भर क देर थी, उसने आ ापालन म तिनक भी देर नह क ।) िजनको (रावण ने
मेघनाद से) पहले ही आ ा दे रखी थी, उ ह ने जो करततू क उ ह सुनो।
देखत भीम प सब पापी। िनिसचर िनकर देव प रतापी॥
करिहं उप व असरु िनकाया। नाना प धरिहं क र माया॥

सब रा स के समहू देखने म बड़े भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देनेवाले थे। वे असुर के
समहू उप व करते थे और माया से अनेक कार के प धरते थे।

जेिह िबिध होइ धम िनमूला। सो सब करिहं बेद ितकूला॥


जेिहं जेिहं देस धेनु ि ज पाविहं। नगर गाउँ परु आिग लगाविहं॥

िजस कार धम क जड़ कटे, वे वही सब वेदिव काम करते थे। िजस-िजस थान म वे गो
और ा ण को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे म आग लगा देते थे।

सभ
ु आचरन कतहँ निहं होई। देव िब गु मान न कोई॥
निहं ह रभगित ज य तप याना। सपनेह सिु नअ न बेद परु ाना॥

(उनके डर से) कह भी शुभ आचरण ( ा ण भोजन, य , ा आिद) नह होते थे। देवता,


ा ण और गु को कोई नह मानता था। न ह रभि थी, न य , तप और ान था। वेद और
पुराण तो व न म भी सुनने को नह िमलते थे।

छं ० - जप जोग िबरागा तप मख भागा वन सन ु इ दससीसा।


आपन ु ु उिठ धावइ रहै न पावइ ध र सब घालइ खीसा॥
अस अचारा भा संसारा धम सिु नअ निहं काना।
तेिह बहिबिध ासइ देस िनकासइ जो कह बेद परु ाना॥

जप, योग, वैरा य, तप तथा य म (देवताओं के) भाग पाने क बात रावण कह कान से सुन
पाता, तो (उसी समय) वयं उठ दौड़ता। कुछ भी रहने नह पाता, वह सबको पकड़कर िव वंस
कर डालता था। संसार म ऐसा आचरण फै ल गया िक धम तो कान म सुनने म नह आता
था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहत तरह से ास देता और देश से िनकाल देता था।

सो० - बरिन न जाइ अनीित घोर िनसाचर जो करिहं।


िहंसा पर अित ीित ित ह के पापिह कविन िमित॥ 183॥

रा स लोग जो घोर अ याचार करते थे, उसका वणन नह िकया जा सकता। िहंसा पर ही
िजनक ीित है, उनके पाप का या िठकाना॥ 183॥

बाढ़े खल बह चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा॥


मानिहं मातु िपता निहं देवा। साधु ह सन करवाविहं सेवा॥

पराए धन और पराई ी पर मन चलानेवाले, दु , चोर और जुआरी बहत बढ़ गए। लोग माता-


िपता और देवताओं को नह मानते थे और साधुओ ं (क सेवा करना तो दूर रहा, उ टे उन) से सेवा
करवाते थे।

िज ह के यह आचरन भवानी। ते जानेह िनिसचर सब ानी॥


अितसय देिख धम कै लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥

(िशव कहते ह िक -) हे भवानी! िजनके ऐसे आचरण ह, उन सब ािणय को रा स ही समझना।


इस कार धम के ित (लोग क ) अितशय लािन (अ िच, अना था) देखकर प ृ वी अ यंत
भयभीत एवं याकुल हो गई।

िग र स र िसंधु भार निहं मोही। जस मोिह ग अ एक पर ोही।


सकल धम देखइ िबपरीता। किह न सकइ रावन भय भीता॥

(वह सोचने लगी िक) पवत , निदय और समु का बोझ मुझे इतना भारी नह जान पड़ता,
िजतना भारी मुझे एक पर ोही (दूसर का अिन करनेवाला) लगता है। प ृ वी सारे धम को
िवपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हई वह कुछ बोल नह सकती।

धेनु प ध र दयँ िबचारी। गई तहाँ जहँ सरु मिु न झारी॥


िनज संताप सन
ु ाएिस रोई। काह त कछु काज न होई॥

(अंत म) दय म सोच-िवचारकर, गो का प धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और


मुिन (िछपे) थे। प ृ वी ने रोकर उनको अपना दुःख सुनाया, पर िकसी से कुछ काम न बना।

छं ० - सरु मिु न गंधबा िमिल क र सबा गे िबरं िच के लोका।


सँग गोतनध ु ारी भूिम िबचारी परम िबकल भय सोका॥
ाँ सब जाना मन अनम ु ाना मोर कछू न बसाई।
जा क र त दासी सो अिबनासी हमरे उ तोर सहाई॥

तब देवता, मुिन और गंधव सब िमलकर ा के लोक (स यलोक) को गए। भय और शोक से


अ यंत याकुल बेचारी प ृ वी भी गो का शरीर धारण िकए हए उनके साथ थी। ा सब जान गए।
उ ह ने मन म अनुमान िकया िक इसम मेरा कुछ भी वश नह चलने का। (तब उ ह ने प ृ वी से
कहा िक -) िजसक तू दासी है, वही अिवनाशी हमारा और तु हारा दोन का सहायक है।

सो० - धरिन धरिह मन धीर कह िबरं िच ह र पद सिु म ।


जानत जन क पीर भु भंिजिह दा न िबपित॥ 184॥

ा ने कहा - हे धरती! मन म धीरज धारण करके ह र के चरण का मरण करो। भु अपने


दास क पीड़ा को जानते ह, ये तु हारी किठन िवपि का नाश करगे॥ 184॥
बैठे सरु सब करिहं िबचारा। कहँ पाइअ भु क रअ पक
ु ारा॥
परु बैकंु ठ जान कह कोई। कोउ कह पयिनिध बस भु सोई॥

सब देवता बैठकर िवचार करने लगे िक भु को कहाँ पाएँ तािक उनके सामने पुकार (फ रयाद)
कर। कोई बैकुंठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था िक वही भु ीरसमु म िनवास
करते ह।

जाके दयँ भगित जिस ीती। भु तहँ गट सदा तेिहं रीती॥


तेिहं समाज िग रजा म रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥

िजसके दय म जैसी भि और ीित होती है, भु वहाँ (उसके िलए) सदा उसी रीित से कट
होते ह। हे पावती! उस समाज म म भी था। अवसर पाकर मने एक बात कही -

ह र यापक सब समाना। म े त गट होिहं म जाना॥


देस काल िदिस िबिदिसह माह । कहह सो कहाँ जहाँ भु नाह ॥

म तो यह जानता हँ िक भगवान सब जगह समान प से यापक ह, ेम से वे कट हो जाते ह,


देश, काल, िदशा, िविदशा म बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ भु न ह ।

अग जगमय सब रिहत िबरागी। म े त भु गटइ िजिम आगी॥


मोर बचन सब के मन माना। साध-ु साधु क र बखाना॥

वे चराचरमय (चराचर म या ) होते हए ही सबसे रिहत ह और िवर ह (उनक कह आसि


नह है); वे ेम से कट होते ह, जैसे अि न। (अि न अ य प से सव या है, परं तु जहाँ
उसके िलए अरिणमंथनािद साधन िकए जाते ह, वहाँ वह कट होती है। इसी कार सव या
भगवान भी ेम से कट होते ह।) मेरी बात सबको ि य लगी। ा ने 'साधु-साधु' कहकर बड़ाई
क।

- सिु न िबरं िच मन हरष तन पल


ु िक नयन बह नीर।
अ तिु त करत जो र कर सावधान मितधीर॥ 185॥

मेरी बात सुनकर ा के मन म बड़ा हष हआ, उनका तन पुलिकत हो गया और ने से ( ेम


के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुि ा सावधान होकर हाथ जोड़कर तुित करने लगे॥ 185॥

छं ० - जय जय सरु नायक जन सख ु दायक नतपाल भगवंता।


गो ि ज िहतकारी जय असरु ारी िसंधस
ु त
ु ा ि य कंता॥
पालन सरु धरनी अ त ु करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनु ह सोई॥
हे देवताओं के वामी, सेवक को सुख देनेवाले, शरणागत क र ा करनेवाले भगवान! आपक
जय हो! जय हो!! हे गो- ा ण का िहत करनेवाले, असुर का िवनाश करनेवाले, समु क
क या (ल मी) के ि य वामी! आपक जय हो! हे देवता और प ृ वी का पालन करनेवाले!
आपक लीला अ ुत है, उसका भेद कोई नह जानता। ऐसे जो वभाव से ही कृपालु और
दीनदयालु ह, वे ही हम पर कृपा कर।

जय जय अिबनासी सब घट बासी यापक परमानंदा।


अिबगत गोतीतं च रत पन ु ीतं मायारिहत मक
ु ंु दा॥
जेिह लािग िबरागी अित अनरु ागी िबगत मोह मिु नबंदृ ा।
िनिस बासर याविहं गन ु गन गाविहं जयित सि चदानंदा॥

हे अिवनाशी, सबके दय म िनवास करनेवाले (अंतयामी), सव यापक, परम आनंद व प,


अ ेय, इंि य से परे , पिव च र , माया से रिहत मुकुंद (मो दाता)! आपक जय हो! जय हो!!
(इस लोक और परलोक के सब भोग से) िवर तथा मोह से सवथा छूटे हए ( ानी) मुिनवंदृ भी
अ यंत अनुरागी ( ेमी) बनकर िजनका रात-िदन यान करते ह और िजनके गुण के समहू का
गान करते ह, उन सि चदानंद क जय हो।

जेिहं सिृ उपाई ि िबध बनाई संग सहाय न दूजा।


सो करउ अघारी िचंत हमारी जािनअ भगित न पूजा॥
जो भव भय भंजन मिु न मन रं जन गंजन िबपित ब था।
मन बच म बानी छािड़ सयानी सरन सकल सरु जूथा॥

िज ह ने िबना िकसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही (या वयं अपने को ि गुण प -
ा, िव णु, िशव प - बनाकर अथवा िबना िकसी उपादान-कारण के अथात वयं ही सिृ का
अिभ निनिम ोपादान कारण बनकर) तीन कार क सिृ उ प न क , वे पाप का नाश
करनेवाले भगवान हमारी सुिध ल। हम न भि जानते ह, न पज ू ा, जो संसार के (ज म-म ृ यु के)
भय का नाश करनेवाले, मुिनय के मन को आनंद देनेवाले और िवपि य के समहू को न
करनेवाली ह। हम सब देवताओं के समहू , मन, वचन और कम से चतुराई करने क बान छोड़कर
उन (भगवान) क शरण (आए) ह।

सारद िु त सेषा रषय असेषा जा कहँ कोउ निहं जाना।


जेिह दीन िपआरे बेद पक
ु ारे वउ सोभगवाना॥
भव बा रिध मंदर सब िबिध संदु र गन
ु मंिदर सख
ु पंज
ु ा।
मिु न िस सकल सरु परम भयातरु नमत नाथ पद कंजा॥

सर वती, वेद, शेष और संपण


ू ऋिष कोई भी िजनको नह जानते, िज ह दीन ि य ह, ऐसा वेद
पुकारकर कहते ह, वे ही भगवान हम पर दया कर। हे संसार पी समु के (मथने के) िलए
मंदराचल प, सब कार से सुंदर, गुण के धाम और सुख क रािश नाथ! आपके चरण कमल
म मुिन, िस और सारे देवता भय से अ यंत याकुल होकर नम कार करते ह।

- जािन सभय सरु भूिम सिु न बचन समेत सनेह।


गगनिगरा गंभीर भइ हरिन सोक संदहे ॥ 186॥

देवताओं और प ृ वी को भयभीत जानकर और उनके नेहयु वचन सुनकर शोक और संदेह को


हरनेवाली गंभीर आकाशवाणी हई - ॥ 186॥

जिन डरपह मिु न िस सरु े सा। तु हिह लािग ध रहउँ नर बेसा॥


अंस ह सिहत मनज ु अवतारा। लेहउँ िदनकर बंस उदारा॥

हे मुिन, िस और देवताओं के वािमयो! डरो मत। तु हारे िलए म मनु य का प धारण क ँ गा


और उदार (पिव ) सय ू वंश म अंश सिहत मनु य का अवतार लँग ू ा।

क यप अिदित महातप क हा। ित ह कहँ म पूरब बर दी हा॥


ते दसरथ कौस या पा। कोसलपरु गट नर भूपा॥

क यप और अिदित ने बड़ा भारी तप िकया था। म पहले ही उनको वर दे चुका हँ। वे ही दशरथ
और कौस या के प म मनु य के राजा होकर अयो यापुरी म कट हए ह।

ित ह क गहृ अवत रहउँ जाई। रघक


ु ु ल ितलक सो चा रउ भाई॥
नारद बचन स य सब क रहउँ । परम सि समेत अवत रहउँ ॥

उ ह के घर जाकर म रघुकुल म े चार भाइय के प म अवतार लँग


ू ा। नारद के सब वचन म
स य क ँ गा और अपनी पराशि के सिहत अवतार लँग
ू ा।

ह रहउँ सकल भूिम ग आई। िनभय होह देव समदु ाई॥


गगन बानी सिु न काना। तरु त िफरे सरु दय जुड़ाना॥

म प ृ वी का सब भार हर लँग
ू ा। हे देववंदृ ! तुम िनभय हो जाओ। आकाश म (भगवान) क
वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए। उनका दय शीतल हो गया।

तब ाँ धरिनिह समझ
ु ावा। अभय भई भरोस िजयँ आवा॥

तब ा ने प ृ वी को समझाया। वह भी िनभय हई और उसके जी म भरोसा (ढाढ़स) आ गया।

- िनज लोकिह िबरं िच गे देव ह इहइ िसखाइ।


बानर तनु ध र ध र मिह ह र पद सेवह जाइ॥ 187॥
देवताओं को यही िसखाकर िक वानर का शरीर धर-धरकर तुम लोग प ृ वी पर जाकर भगवान
के चरण क सेवा करो, ा अपने लोक को चले गए॥ 187॥

गए देव सब िनज िनज धामा। भूिम सिहत मन कहँ िब ामा॥


जो कछु आयसु ाँ दी हा। हरषे देव िबलंब न क हा॥

सब देवता अपने-अपने लोक को गए। प ृ वी सिहत सबके मन को शांित िमली। ा ने जो कुछ


आ ा दी, उससे देवता बहत स न हए और उ ह ने (वैसा करने म) देर नह क ।

बनचर देह धरी िछित माह । अतिु लत बल ताप ित ह पाह ॥


िग र त नख आयध ु सब बीरा। ह र मारग िचतविहं मितधीरा॥

प ृ वी पर उ ह ने वानरदेह धारण क । उनम अपार बल और ताप था। सभी शरू वीर थे, पवत, व ृ
और नख ही उनके श थे। वे धीर बुि वाले (वानर प देवता) भगवान के आने क राह देखने
लगे।

- तेिह अवसर भाइ ह सिहत रामु भानु कुल केत।ु


चले जनक मंिदर मिु दत िबदा करावन हेत॥ु 334॥

ू वंश के पताका व प राम भाइय सिहत स न होकर िवदा कराने के िलए


उसी समय सय
जनकजी के महल को चले॥334॥

िग र कानन जहँ तहँ भ र पूरी। रहे िनज िनज अनीक रिच री॥
यह सब िचर च रत म भाषा। अब सो सन ु ह जो बीचिहं राखा॥

वे (वानर) पवत और जंगल म जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपरू छा गए। यह
सब सुंदर च र मने कहा। अब वह च र सुनो िजसे बीच ही म छोड़ िदया था।

अवधपरु रघक ु ु लमिन राऊ। बेद िबिदत तेिह दसरथ नाऊँ॥


धरम धरु ं धर गन ु िनिध यानी। दयँ भगित भित सारँ गपानी॥

अवधपुरी म रघुकुल िशरोमिण दशरथ नाम के राजा हए, िजनका नाम वेद म िव यात है। वे
धमधुरंधर, गुण के भंडार और ानी थे। उनके दय म शागधनुष धारण करनेवाले भगवान क
भि थी, और उनक बुि भी उ ह म लगी रहती थी।

- कौस यािद ना र ि य सब आचरन पन


ु ीत।
पित अनक
ु ूल मे ढ़ ह र पद कमल िबनीत॥ 188॥

उनक कौस या आिद ि य रािनयाँ सभी पिव आचरणवाली थ । वे (बड़ी) िवनीत और पित के
अनुकूल (चलनेवाली) थ और ह र के चरणकमल म उनका ढ़ ेम था॥ 188॥

एक बार भूपित मन माह । भै गलािन मोर सतु नाह ॥


गरु गहृ गयउ तरु त मिहपाला। चरन लािग क र िबनय िबसाला॥

एक बार राजा के मन म बड़ी लािन हई िक मेरे पु नह है। राजा तुरंत ही गु के घर गए और


चरण म णाम कर बहत िवनय क ।

िनज दख
ु सख ु सब गरु िह सन ु ायउ। किह बिस बहिबिध समझ ु ायउ॥
धरह धीर होइहिहं सत
ु चारी। ि भवु न िबिदत भगत भय हारी॥

राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गु को सुनाया। गु विश ने उ ह बहत कार से समझाया


(और कहा -) धीरज धरो, तु हारे चार पु ह गे, जो तीन लोक म िस और भ के भय को
हरनेवाले ह गे।

संग
ृ ी रिषिह बिस बोलावा। पु काम सभु ज य करावा॥
भगित सिहत मिु न आहित दी ह। गटे अिगिन च कर ली ह॥

विश ने ंग ृ ी ऋिष को बुलवाया और उनसे शुभ पु कामेि य कराया। मुिन के भि सिहत


आहितयाँ देने पर अि नदेव हाथ म च (हिव या न खीर) िलए कट हए।

जो बिस कछु दयँ िबचारा। सकल काजु भा िस तु हारा॥


यह हिब बाँिट देह नप
ृ जाई। जथा जोग जेिह भाग बनाई॥

(और दशरथ से बोले -) विश ने दय म जो कुछ िवचारा था, तु हारा वह सब काम िस हो


गया। हे राजन! (अब) तुम जाकर इस हिव या न (पायस) को, िजसको जैसा उिचत हो, वैसा भाग
बनाकर बाँट दो।

- तब अ य भए पावक सकल सभिह समझ ु ाइ।


परमानंद मगन नप
ृ हरष न दयँ समाइ॥ 189॥

तदनंतर अि नदेव सारी सभा को समझाकर अंतधान हो गए। राजा परमानंद म म न हो गए,
उनके दय म हष समाता न था॥ 189॥

तबिहं रायँ ि य ना र बोलाई ं। कौस यािद तहाँ चिल आई ं॥


अध भाग कौस यिह दी हा। उभय भाग आधे कर क हा॥

उसी समय राजा ने अपनी यारी पि नय को बुलाया। कौस या आिद सब (रािनयाँ) वहाँ चली
आई ं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौस या को िदया, (और शेष) आधे के दो भाग िकए।
कैकेई कहँ नप
ृ सो दयऊ। र ो सो उभय भाग पिु न भयऊ॥
कौस या कैकेई हाथ ध र। दी ह सिु म िह मन स न क र॥

वह (उनम से एक भाग) राजा ने कैकेयी को िदया। शेष जो बच रहा उसके िफर दो भाग हए और
राजा ने उनको कौस या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अथात उनक अनुमित लेकर) और
इस कार उनका मन स न करके सुिम ा को िदया।

एिह िबिध गभसिहत सब नारी। भई ं दयँ हरिषत सख


ु भारी॥
जा िदन त ह र गभिहं आए। सकल लोक सख ु संपित छाए॥

इस कार सब ि याँ गभवती हई ं। वे दय म बहत हिषत हई ं। उ ह बड़ा सुख िमला। िजस िदन से
ह र (लीला से ही) गभ म आए, सब लोक म सुख और संपि छा गई।

मंिदर महँ सब राजिहं रान । सोभा सील तेज क खान ॥


सखु जुत कछुक काल चिल गयऊ। जेिहं भु गट सो अवसर भयऊ॥

शोभा, शील और तेज क खान (बनी हई) सब रािनयाँ महल म सुशोिभत हई ं। इस कार कुछ
समय सुखपवू क बीता और वह अवसर आ गया, िजसम भु को कट होना था।

- जोग लगन ह बार ितिथ सकल भए अनकु ू ल।


चर अ अचर हषजुत राम जनम सख
ु मूल॥ 190॥

योग, ल न, ह, वार और ितिथ सभी अनुकूल हो गए। जड़ और चेतन सब हष से भर गए।


( य िक) राम का ज म सुख का मल
ू है॥ 190॥

नौमी ितिथ मधु मास पन


ु ीता। सक
ु ल प छ अिभिजत ह र ीता॥
म यिदवस अित सीत न घामा। पावन काल लोक िब ामा॥

पिव चै का महीना था, नवमी ितिथ थी। शु ल प और भगवान का ि य अिभिजत मुहत था।
दोपहर का समय था। न बहत सद थी, न धपू (गरमी) थी। वह पिव समय सब लोक को शांित
देनेवाला था।

सीतल मंद सरु िभ बह बाऊ। हरिषत सरु संतन मन चाऊ॥


बन कुसिु मत िग रगन मिनआरा। विहं सकल स रताऽमत ृ धारा॥

शीतल, मंद और सुगंिधत पवन बह रहा था। देवता हिषत थे और संत के मन म (बड़ा) चाव था।
वन फूले हए थे, पवत के समहू मिणय से जगमगा रहे थे और सारी निदयाँ अमत
ृ क धारा बहा
रही थ ।
सो अवसर िबरं िच जब जाना। चले सकल सरु सािज िबमाना॥
गगन िबमल संकुल सरु जूथा। गाविहं गन
ु गंधब ब था॥

जब ा ने वह (भगवान के कट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता िवमान
सजा-सजाकर चले। िनमल आकाश देवताओं के समहू से भर गया। गंधव के दल गुण का गान
करने लगे।

बरषिहं समु न सअु ंजुिल साजी। गहगिह गगन ददुं भु ी बाजी॥


अ तिु त करिहं नाग मिु न देवा। बहिबिध लाविहं िनज िनज सेवा॥

और सुंदर अंजिलय म सजा-सजाकर पु प बरसाने लगे। आकाश म घमाघम नगाड़े बजने लगे।
नाग, मुिन और देवता तुित करने लगे और बहत कार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भट
करने लगे।

- सरु समूह िबनती क र पहँचे िनज िनज धाम।


जगिनवास भु गटे अिखल लोक िब ाम॥ 191॥

देवताओं के समहू िवनती करके अपने-अपने लोक म जा पहँचे। सम त लोक को शांित देनेवाले,
जगदाधार भु कट हए॥ 191॥

छं ० - भए गट कृपाला दीनदयाला कौस या िहतकारी।


हरिषत महतारी मिु न मन हारी अ त
ु प िबचारी॥
लोचन अिभरामा तनु घन यामा िनज आयध ु भज
ु चारी।
भूषन बनमाला नयन िबसाला सोभािसंधु खरारी॥

दीन पर दया करनेवाले, कौस या के िहतकारी कृपालु भु कट हए। मुिनय के मन को


हरनेवाले उनके अ ुत प का िवचार करके माता हष से भर गई। ने को आनंद देनेवाला मेघ
के समान याम शरीर था; चार भुजाओं म अपने (खास) आयुध (धारण िकए हए) थे, (िद य)
आभषू ण और वनमाला पहने थे, बड़े -बड़े ने थे। इस कार शोभा के समु तथा खर रा स को
मारनेवाले भगवान कट हए।

कह दइु कर जोरी अ तिु त तोरी केिह िबिध कर अनंता।


माया गनु यानातीत अमाना बेद परु ान भनंता॥
क ना सख ु सागर सब गन ु आगर जेिह गाविहं ुित संता।
सो मम िहत लागी जन अनरु ागी भयउ गटकंता॥

दोन हाथ जोड़कर माता कहने लगी - हे अनंत! म िकस कार तु हारी तुित क ँ । वेद और
पुराण तुम को माया, गुण और ान से परे और प रमाण रिहत बतलाते ह। ुितयाँ और संतजन
दया और सुख का समु , सब गुण का धाम कहकर िजनका गान करते ह, वही भ पर ेम
करनेवाले ल मीपित भगवान मेरे क याण के िलए कट हए ह।

ांड िनकाया िनिमत माया रोम रोम ित बेद कहै।


मम उर सो बासी यह उपहासी सन ु त धीर मित िथर न रहै॥
उपजा जब याना भु मस ु क
ु ाना च रत बहत िबिध क ह चहै।
किह कथा सहु ाई मातु बझ
ु ाई जेिह कार सत ु म े लहै॥

वेद कहते ह िक तु हारे येक रोम म माया के रचे हए अनेक ांड के समहू (भरे ) ह। वे तुम
मेरे गभ म रहे - इस हँसी क बात के सुनने पर धीर (िववेक ) पु ष क बुि भी ि थर नह
रहती (िवचिलत हो जाती है)। जब माता को ान उ प न हआ, तब भु मुसकराए। वे बहत कार
के च र करना चाहते ह। अतः उ ह ने (पवू ज म क ) सुंदर कथा कहकर माता को समझाया,
िजससे उ ह पु का (वा स य) ेम ा हो।

माता पिु न बोली सो मित डोली तजह तात यह पा।


क जै िससल ु ीला अित ि यसीला यह सख ु परम अनूपा॥
सिु न बचन सज ु ाना रोदन ठाना होइ बालक सरु भूपा।
यह च रत जे गाविहं ह रपद पाविहं ते न परिहं भवकूपा॥

माता क वह बुि बदल गई, तब वह िफर बोली - हे तात! यह प छोड़कर अ यंत ि य


बाललीला करो, (मेरे िलए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं
के वामी सुजान भगवान ने बालक ( प) होकर रोना शु कर िदया। (तुलसीदास कहते ह -)
जो इस च र का गान करते ह, वे ह र का पद पाते ह और (िफर) संसार पी कूप म नह िगरते।

- िब धेनु सरु संत िहत ली ह मनज


ु अवतार।
िनज इ छा िनिमत तनु माया गन ु गो पार॥ 192॥

ा ण, गो, देवता और संत के िलए भगवान ने मनु य का अवतार िलया। वे (अ ानमयी,


मिलना) माया और उसके गुण (सत, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इंि य से परे ह। उनका
(िद य) शरीर अपनी इ छा से ही बना है (िकसी कम बंधन से परवश होकर ि गुणा मक भौितक
पदाथ के ारा नह )॥ 192॥

सिु न िससु दन परम ि य बानी। सं म चिल आई ं सब रानी॥


हरिषत जहँ तहँ धाई ं दासी। आनँद मगन सकल परु बासी॥

ब चे के रोने क बहत ही यारी विन सुनकर सब रािनयाँ उतावली होकर दौड़ी चली आई ं।
दािसयाँ हिषत होकर जहाँ-तहाँ दौड़ । सारे पुरवासी आनंद म म न हो गए।
दसरथ पु ज म सिु न काना। मानह ानंद समाना॥
परम मे मन पल
ु क सरीरा। चाहत उठन करत मित धीरा॥

राजा दशरथ पु का ज म कान से सुनकर मानो ानंद म समा गए। मन म अितशय ेम है,
शरीर पुलिकत हो गया। (आनंद म अधीर हई) बुि को धीरज देकर (और ेम म िशिथल हए
शरीर को सँभालकर) वे उठना चाहते ह।

जाकर नाम सन ु त सभ
ु होई। मोर गहृ आवा भु सोई॥
परमानंद पू र मन राजा। कहा बोलाइ बजावह बाजा॥

िजनका नाम सुनने से ही क याण होता है, वही भु मेरे घर आए ह। (यह सोचकर) राजा का मन
परम आनंद से पण
ू हो गया। उ ह ने बाजेवाल को बुलाकर कहा िक बाजा बजाओ।

गरु बिस कहँ गयउ हँकारा। आए ि जन सिहत नप ृ ारा॥


अनप ु म बालक देखिे ह जाई। प रािस गन
ु किह न िसराई॥

गु विश के पास बुलावा गया। वे ा ण को साथ िलए राज ार पर आए। उ ह ने जाकर


अनुपम बालक को देखा, जो प क रािश है और िजसके गुण कहने से समा नह होते।

- नंदीमख
ु सराध क र जातकरम सब क ह।
हाटक धेनु बसन मिन नप
ृ िब ह कहँ दी ह॥ 193॥

िफर राजा ने नांदीमुख ा करके सब जातकम-सं कार आिद िकए और ा ण को सोना, गो,
व और मिणय का दान िदया॥ 193॥

वज पताक तोरन परु छावा। किह न जाइ जेिह भाँित बनावा॥


समु नबिृ अकास त होई। ानंद मगन सब लोई॥

वजा, पताका और तोरण से नगर छा गया। िजस कार से वह सजाया गया, उसका तो वणन ही
नह हो सकता। आकाश से फूल क वषा हो रही है, सब लोग ानंद म म न ह।

बंदृ बंदृ िमिल चल लोगाई ं। सहज िसंगार िकएँ उिठ धाई ं॥


कनक कलस मंगल भ र थारा। गावत पैठिहं भूप दआ ु रा॥

ि याँ झुंड-क -झुंड िमलकर चल । वाभािवक ंग


ृ ार िकए ही वे उठ दौड़ । सोने का कलश लेकर
और थाल म मंगल य भरकर गाती हई राज ार म वेश करती ह।

क र आरित नेवछाव र करह । बार बार िससु चरनि ह परह ॥


मागध सूत बंिदगन गायक। पावन गन ु गाविहं रघन
ु ायक॥
वे आरती करके िनछावर करती ह और बार-बार ब चे के चरण पर िगरती ह। मागध, सत
ू ,
वंदीजन और गवैये रघुकुल के वामी के पिव गुण का गान करते ह।

सबस दान दी ह सब काह। जेिहं पावा राखा निहं ताह॥


मग
ृ मद चंदन कंु कुम क चा। मची सकल बीिथ ह िबच बीचा॥

राजा ने सब िकसी को भरपरू दान िदया। िजसने पाया उसने भी नह रखा (लुटा िदया)। (नगर
क ) सभी गिलय के बीच-बीच म क तरू ी, चंदन और केसर क क च मच गई।

- गहृ गहृ बाज बधाव सभ


ु गटे सषु मा कंद।
हरषवंत सब जहँ तहँ नगर ना र नर बंदृ ॥ 194॥

घर-घर मंगलमय बधावा बजने लगा, य िक शोभा के मल ू भगवान कट हए ह। नगर के ी-


पु ष के झुंड-के-झुंड जहाँ-तहाँ आनंदम न हो रहे ह॥ 194॥

कैकयसतु ा सिु म ा दोऊ। संदु र सत


ु जनमत भ ओऊ॥
वह सख
ु संपित समय समाजा। किह न सकइ सारद अिहराजा॥

कैकेयी और सुिम ा - इन दोन ने भी सुंदर पु को ज म िदया। उस सुख, संपि , समय और


समाज का वणन सर वती और सप के राजा शेष भी नह कर सकते।

अवधपरु ी सोहइ एिह भाँती। भिु ह िमलन आई जनु राती॥


देिख भानु जनु मन सकुचानी। तदिप बनी सं या अनम ु ानी॥

अवधपुरी इस कार सुशोिभत हो रही है, मानो राि भु से िमलने आई हो और सय ू को देखकर


मानो मन म सकुचा गई हो, परं तु िफर भी मन म िवचार कर वह मानो सं या बन (कर रह) गई
हो।

अगर धूप बह जनु अँिधआरी। उड़इ अबीर मनहँ अ नारी॥


मंिदर मिन समूह जनु तारा। नप
ृ गहृ कलस सो इं दु उदारा॥

अगर क धपू का बहत-सा धुआँ मानो (सं या का) अंधकार है और जो अबीर उड़ रहा है, वह
उसक ललाई है। महल म जो मिणय के समहू ह, वे मानो तारागण ह। राज महल का जो कलश
है, वही मानो े चं मा है।

भवन बेदधिु न अित मदृ ु बानी। जनु खग मख ु र समयँ जनु सानी॥


कौतक
ु देिख पतंग भल ु ाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥

राज भवन म जो अित कोमल वाणी से वेद विन हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल)
सनी हई पि य क चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सय ू भी (अपनी चाल) भल
ू गए। एक
महीना उ ह ने जाता हआ न जाना (अथात उ ह एक महीना वह बीत गया)।

- मास िदवस कर िदवस भा मरम न जानइ कोइ।


रथ समेत रिब थाकेउ िनसा कवन िबिध होइ॥ 195॥

महीने भर का िदन हो गया। इस रह य को कोई नह जानता। सय


ू अपने रथ सिहत वह क
गए, िफर रात िकस तरह होती॥ 195॥

यह रह य काहँ निहं जाना। िदनमिन चले करत गन ु गाना॥


देिख महो सव सरु मिु न नागा। चले भवन बरनत िनज भागा॥

यह रह य िकसी ने नह जाना। सयू देव (भगवान राम का) गुणगान करते हए चले। यह महो सव
देखकर देवता, मुिन और नाग अपने भा य क सराहना करते हए अपने-अपने घर चले।

औरउ एक कहउँ िनज चोरी। सन ु ु िग रजा अित ढ़ मित तोरी॥


काकभसु ंिु ड संग हम दोऊ। मनजु प जानइ निहं कोऊ॥

हे पावती! तु हारी बुि (राम के चरण म) बहत ढ़ है, इसिलए म और भी अपनी एक चोरी
(िछपाव) क बात कहता हँ, सुनो। काकभुशंुिड और म दोन वहाँ साथ-साथ थे, परं तु मनु य प
म होने के कारण हम कोई जान न सका।

े सख
परमानंद म ु फूले। बीिथ ह िफरिहं मगन मन भूल॥े
ु च रत जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥
यह सभ

परम आनंद और ेम के सुख म फूले हए हम दोन मगन मन से गिलय म (तन-मन क सुिध)


ू े हए िफरते थे, परं तु यह शुभ च र वही जान सकता है, िजस पर राम क कृपा हो।
भल

तेिह अवसर जो जेिह िबिध आवा। दी ह भूप जो जेिह मन भावा॥


गज रथ तरु ग हेम गो हीरा। दी हे नप
ृ नानािबिध चीरा॥

उस अवसर पर जो िजस कार आया और िजसके मन को जो अ छा लगा, राजा ने उसे वही िदया।
हाथी, रथ, घोड़े , सोना, गाय, हीरे और भाँित-भाँित के व राजा ने िदए।

- मन संतोषे सबि ह के जहँ तहँ देिहं असीस।


सकल तनय िचर जीवहँ तल ु िसदास के ईस॥ 196॥

राजा ने सबके मन को संतु िकया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीवाद दे रहे थे िक
तुलसीदास के वामी सब पु (चार राजकुमार) िचरजीवी (दीघायु) ह ॥ 196॥
कछुक िदवस बीते एिह भाँती। जात न जािनअ िदन अ राती॥
नामकरन कर अवस जानी। भूप बोिल पठए मिु न यानी॥

इस कार कुछ िदन बीत गए। िदन और रात जाते हए जान नह पड़ते। तब नामकरण सं कार
का समय जानकर राजा ने ानी मुिन विश को बुला भेजा।

क र पूजा भूपित अस भाषा। ध रअ नाम जो मिु न गिु न राखा॥


इ ह के नाम अनेक अनूपा। म नपृ कहब वमित अनु पा॥

मुिन क पज ू ा करके राजा ने कहा - हे मुिन! आपने मन म जो िवचार रखे ह , वे नाम रिखए।
(मुिन ने कहा -) हे राजन! इनके अनुपम नाम ह, िफर भी म अपनी बुि के अनुसार कहँगा।

जो आनंद िसंधु सख ै ोक सप
ु रासी। सीकर त ल ु ासी॥
सो सख
ु धाम राम अस नामा। अिखल लोक दायक िब ामा॥

ये जो आनंद के समु और सुख क रािश ह, िजस (आनंदिसंधु) के एक कण से तीन लोक सुखी


होते ह, उन (आपके सबसे बड़े पु ) का नाम 'राम' है, जो सुख का भवन और संपण
ू लोक को
शांित देनेवाला है।

िब व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥


जाके सिु मरन त रपु नासा। नाम स हु न बेद कासा॥

जो संसार का भरण-पोषण करते ह, उन (आपके दूसरे पु ) का नाम 'भरत' होगा। िजनके मरण
मा से श ु का नाश होता है, उनका वेद म िस 'श ु न' नाम है।

- ल छन धाम राम ि य सकल जगत आधार।


गु बिसष्ठ तेिह राखा लिछमन नाम उदार॥ 197॥

जो शुभ ल ण के धाम, राम के यारे और सारे जगत के आधार ह, गु विशष्ठ ने उनका


'ल मण' ऐसा ेष्ठ नाम रखा॥ 197॥

धरे नाम गरु दयँ िबचारी। बेद त व नप


ृ तव सत
ु चारी॥
मिु न धन जन सरबस िसव ाना। बाल केिल रस तेिहं सख ु माना॥

गु ने दय म िवचार कर ये नाम रखे (और कहा -) हे राजन! तु हारे चार पु वेद के त व


(सा ात परा पर भगवान) ह। जो मुिनय के धन, भ के सव व और िशव के ाण ह, उ ह ने
(इस समय तुम लोग के ेमवश) बाल लीला के रस म सुख माना है।

बारे िह ते िनज िहत पित जानी। लिछमन राम चरन रित मानी॥
भरत स हु न दूनउ भाई। भु सेवक जिस ीित बड़ाई॥

बचपन से ही राम को अपना परम िहतैषी वामी जानकर ल मण ने उनके चरण म ीित जोड़
ली। भरत और श ु न दोन भाइय म वामी और सेवक क िजस ीित क शंसा है, वैसी ीित
हो गई॥

याम गौर संदु र दोउ जोरी। िनरखिहं छिब जनन तनृ तोरी॥
चा रउ सील प गन ु धामा। तदिप अिधक सख ु सागर रामा॥

याम और गौर शरीरवाली दोन सुंदर जोिड़य क शोभा को देखकर माताएँ तण


ृ तोड़ती ह
(िजसम दीठ न लग जाए)। य तो चार ही पु शील, प और गुण के धाम ह, तो भी सुख के
समु राम सबसे अिधक ह।

दयँ अनु ह इं दु कासा। सूचत िकरन मनोहर हासा॥


कबहँ उछं ग कबहँ बर पलना। मातु दल
ु ारइ किह ि य ललना॥

उनके दय म कृपा पी चं मा कािशत है। उनक मन को हरनेवाली हँसी उस (कृपा पी


चं मा) क िकरण को सिू चत करती है। कभी गोद म (लेकर) और कभी उ म पालने म
(िलटाकर) माता ' यारे ललना!' कहकर दुलार करती है।

- यापक िनरं जन िनगन


ु िबगत िबनोद।
सो अज मे भगित बस कौस या क गोद॥ 198॥

जो सव यापक, िनरं जन (मायारिहत), िनगुण, िवनोदरिहत और अज मे ह, वही ेम और


भि के वश कौस या क गोद म (खेल रहे ) ह॥ 198॥

काम कोिट छिब याम सरीरा। नील कंज बा रद गंभीरा॥


अ न चरन पंकज नख जोती। कमल दलि ह बैठे जनु मोती॥

उनके नीलकमल और गंभीर (जल से भरे हए) मेघ के समान याम शरीर म करोड़ कामदेव क
शोभा है। लाल-लाल चरण कमल के नख क (शु ) योित ऐसी मालम ू होती है जैसे (लाल)
कमल के प पर मोती ि थर हो गए ह ।

रे ख कुिलस वज अंकुस सोहे। नूपरु धिु न सिु न मिु न मन मोहे॥


किट िकंिकनी उदर य रे खा। नािभ गभीर जान जेिहं देखा॥

(चरणतल म) व , वजा और अंकुश के िच शोिभत ह। नपू ुर (पजनी) क विन सुनकर मुिनय


का भी मन मोिहत हो जाता है। कमर म करधनी और पेट पर तीन रे खाएँ (ि वली) ह। नािभ क
गंभीरता को तो वही जानते ह, िज ह ने उसे देखा है।
भज
ु िबसाल भूषन जुत भूरी। िहयँ ह र नख अित सोभा री॥
उर मिनहार पिदक क सोभा। िब चरन देखत मन लोभा॥

बहत-से आभषू ण से सुशोिभत िवशाल भुजाएँ ह। दय पर बाघ के नख क बहत ही िनराली छटा


है। छाती पर र न से यु मिणय के हार क शोभा और ा ण (भग ृ ु) के चरण िच को देखते ही
मन लुभा जाता है।

कंबु कंठ अित िचबक


ु सहु ाई। आनन अिमत मदन छिब छाई॥
दइु दइु दसन अधर अ नारे । नासा ितलक को बरनै पारे ॥

कंठ शंख के समान (उतार-चढ़ाववाला, तीन रे खाओं से सुशोिभत) है और ठोड़ी बहत ही सुंदर है।
मुख पर असं य कामदेव क छटा छा रही है। दो-दो संुदर दँतुिलयाँ ह, लाल-लाल ओठ ह।
नािसका और ितलक (के स दय) का तो वणन ही कौन कर सकता है।

संदु र वन सच
ु ा कपोला। अित ि य मधरु तोतरे बोला॥
िच कन कच कंु िचत गभआ
ु रे । बह कार रिच मातु सँवारे ॥

संुदर कान और बहत ही सुंदर गाल ह। मधुर तोतले श द बहत ही यारे लगते ह। ज म के समय
से रखे हए िचकने और घँुघराले बाल ह, िजनको माता ने बहत कार से बनाकर सँवार िदया है।

पीत झगिु लआ तनु पिहराई। जानु पािन िबचरिन मोिह भाई॥


प सकिहं निहं किह ुित सेषा। सो जानइ सपनेहँ जेिहं देखा॥

शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हई है। उनका घुटन और हाथ के बल चलना मुझे बहत ही यारा
लगता है। उनके प का वणन वेद और शेष भी नह कर सकते। उसे वही जानता है, िजसने कभी
व न म भी देखा हो।

- सखु संदोह मोहपर यान िगरा गोतीत।


दंपित परम म े बस कर िससचु रत पन
ु ीत॥ 199॥

जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ान, वाणी और इंि य से अतीत ह, वे भगवान दशरथ-
कौस या के अ यंत ेम के वश होकर पिव बाललीला करते ह॥ 199॥

एिह िबिध राम जगत िपतु माता। कोसलपरु बािस ह सख


ु दाता॥
िज ह रघनु ाथ चरन रित मानी। ित ह क यह गित गट भवानी॥

इस कार (संपणू ) जगत के माता-िपता राम अवधपुर के िनवािसय को सुख देते ह। िज ह ने


राम के चरण म ीित जोड़ी है, हे भवानी! उनक यह य गित है (िक भगवान उनके ेमवश
बाललीला करके उ ह आनंद दे रहे ह)।

रघप
ु ित िबमख
ु जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया भु स भय भाखे॥

रघुनाथ से िवमुख रहकर मनु य चाहे करोड़ उपाय करे , परं तु उसका संसार बंधन कौन छुड़ा
सकता है। िजसने सब चराचर जीव को अपने वश म कर रखा है, वह माया भी भु से भय खाती
है।

भक
ृ ु िट िबलास नचावइ ताही। अस भु छािड़ भिजअ कह काही॥
मन म बचन छािड़ चतरु ाई। भजत कृपा क रहिहं रघरु ाई॥

भगवान उस माया को भ ह के इशारे पर नचाते ह। ऐसे भु को छोड़कर कहो, (और) िकसका


भजन िकया जाए। मन, वचन और कम से चतुराई छोड़कर भजते ही रघुनाथ कृपा करगे।

एिह िबिध िससिु बनोद भु क हा। सकल नगरबािस ह सख ु दी हा॥


लै उछं ग कबहँक हलरावै। कबहँ पालने घािल झल
ु ावै॥

इस कार से भु राम ने बाल ड़ा क और सम त नगर िनवािसय को सुख िदया। कौस या


कभी उ ह गोद म लेकर िहलाती-डुलाती और कभी पालने म िलटाकर झुलाती थ ।

- मे मगन कौस या िनिस िदन जात न जान।


सत
ु सनेह बस माता बालच रत कर गान॥ 200॥

ेम म म न कौस या रात और िदन का बीतना नह जानती थ । पु के नेहवश माता उनके


बालच र का गान िकया करत ॥ 200॥

एक बार जनन अ हवाए। क र िसंगार पलनाँ पौढ़ाए॥


िनज कुल इ देव भगवाना। पूजा हेतु क ह अ नाना॥

एक बार माता ने राम को नान कराया और ंग ृ ार करके पालने पर पौढ़ा िदया। िफर अपने कुल
के इ देव भगवान क पज ू ा के िलए नान िकया।

क र पूजा नैबे चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥


बह र मातु तहवाँ चिल आई। भोजन करत देख सतु जाई॥

ू ा करके नैवे चढ़ाया और वयं वहाँ गई ं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। िफर माता वह (पज
पज ू ा के
थान म) लौट आई और वहाँ आने पर पु को (इ देव भगवान के िलए चढ़ाए हए नैवे का)
भोजन करते देखा।
गै जननी िससु पिहं भयभीता। देखा बाल तहाँ पिु न सूता॥
बह र आइ देखा सतु सोई। दयँ कंप मन धीर न होई॥

माता भयभीत होकर (पालने म सोया था, यहाँ िकसने लाकर बैठा िदया, इस बात से डरकर) पु
के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हआ देखा। िफर (पज
ू ा थान म लौटकर) देखा िक वही पु
वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके दय म कंप होने लगा और मन को धीरज नह होता।

इहाँ उहाँ दइु बालक देखा। मित म मोर िक आन िबसेषा॥


देिख राम जननी अकुलानी। भु हँिस दी ह मधरु मसु क
ु ानी॥

(वह सोचने लगी िक) यहाँ और वहाँ मने दो बालक देखे। यह मेरी बुि का म है या और कोई
िवशेष कारण है? भु राम माता को घबड़ाई हई देखकर मधुर मु कान से हँस िदए।

- देखरावा मातिह िनज अ त


ु प अखंड।
रोम रोम ित लागे कोिट कोिट ंड॥ 201॥

िफर उ ह ने माता को अपना अखंड अ ुत प िदखलाया, िजसके एक-एक रोम म करोड़


ांड लगे हए ह॥ 201॥

अगिनत रिब सिस िसव चतरु ानन। बह िग र स रत िसंधु मिह कानन॥


काल कम गनु यान सभ ु ाऊ। सोउ देखा जो सन
ु ा न काऊ॥

अगिणत सय
ू , चं मा, िशव, ा, बहत-से पवत, निदयाँ, समु , प ृ वी, वन, काल, कम, गुण,
ान और वभाव देखे और वे पदाथ भी देखे जो कभी सुने भी न थे।

देखी माया सब िबिध गाढ़ी। अित सभीत जोर कर ठाढ़ी॥


देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगित जो छोरइ ताही॥

सब कार से बलवती माया को देखा िक वह (भगवान के सामने) अ यंत भयभीत हाथ जोड़े
खड़ी है। जीव को देखा, िजसे वह माया नचाती है और (िफर) भि को देखा, जो उस जीव को
(माया से) छुड़ा देती है।

तन पल
ु िकत मखु बचन न आवा। नयन मूिद चरनिन िस नावा॥
िबसमयवंत देिख महतारी। भए बह र िससु प खरारी॥

(माता का) शरीर पुलिकत हो गया, मुख से वचन नह िनकलता। तब आँख मँदू कर उसने राम
के चरण म िसर नवाया। माता को आ यचिकत देखकर खर के श ु राम िफर बाल प हो गए।

अ तिु त क र न जाइ भय माना। जगत िपता म सत


ु क र जाना॥
ह र जननी बहिबिध समझ
ु ाई। यह जिन कतहँ कहिस सन
ु ु माई॥

(माता से) तुित भी नह क जाती। वह डर गई िक मने जगि पता परमा मा को पु करके


जाना। ह र ने माता को बहत कार से समझाया (और कहा -) हे माता! सुनो, यह बात कह पर
कहना नह ।

- बार बार कौस या िबनय करइ कर जो र।


अब जिन कबहँ यापै भु मोिह माया तो र॥ 202॥

कौस या बार-बार हाथ जोड़कर िवनय करती ह िक हे भो! मुझे आपक माया अब कभी न
यापे॥ 202॥

बालच रत ह र बहिबिध क हा। अित अनंद दास ह कहँ दी हा॥


कछुक काल बीत सब भाई। बड़े भए प रजन सख ु दायी॥

भगवान ने बहत कार से बाललीलाएँ क और अपने सेवक को अ यंत आनंद िदया। कुछ समय
बीतने पर चार भाई बड़े होकर कुटुंिबय को सुख देनेवाले हए।

चूड़ाकरन क ह गु जाई। िब ह पिु न दिछना बह पाई॥


परम मनोहर च रत अपारा। करत िफरत चा रउ सक
ु ु मारा॥

तब गु ने जाकर चड़ ू ाकम-सं कार िकया। ा ण ने िफर बहत-सी दि णा पाई। चार सुंदर


राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार च र करते िफरते ह।

मन म बचन अगोचर जोई। दसरथ अिजर िबचर भु सोई॥


भोजन करत बोल जब राजा। निहं आवत तिज बाल समाजा॥

जो मन, वचन और कम से अगोचर ह, वही भु दशरथ के आँगन म िवचर रहे ह। भोजन करने के
समय जब राजा बुलाते ह, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोड़कर नह आते।

कौस या जब बोलन जाई। ठुमक ु ु ठुमक


ु ु भु चलिहं पराई॥
िनगम नेित िसव अंत न पावा। तािह धरै जननी हिठ धावा॥

कौस या जब बुलाने जाती ह, तब भु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते ह। िजनका वेद 'नेित' (इतना ही
नह ) कहकर िन पण करते ह और िशव ने िजनका अंत नह पाया, माता उ ह हठपवू क पकड़ने
के िलए दौड़ती ह।

धूसर धू र भर तनु आए। भूपित िबहिस गोद बैठाए॥


ू लपेटे हए आए और राजा ने हँसकर उ ह गोद म बैठा िलया।
वे शरीर म धल

- भोजन करत चपल िचत इत उत अवस पाइ।


भािज चले िकलकत मख
ु दिध ओदन लपटाइ॥ 203॥

भोजन करते ह, पर िच चंचल है। अवसर पाकर मँुह म दही-भात लपटाए िकलकारी मारते हए
इधर-उधर भाग चले॥ 203॥

बालच रत अित सरल सहु ाए। सारद सेष संभु ुित गाए॥
िज ह कर मन इ ह सन निहं राता। ते जन बंिचत िकए िबधाता॥

राम क बहत ही सरल (भोली) और सुंदर (मनभावनी) बाललीलाओं का सर वती, शेष, िशव और
वेद ने गान िकया है। िजनका मन इन लीलाओं म अनुर नह हआ, िवधाता ने उन मनु य को
वंिचत कर िदया (िनतांत भा यहीन बनाया)।

भए कुमार जबिहं सब ाता। दी ह जनेऊ गु िपतु माता॥


गरु गहृ ँ गए पढ़न रघरु ाई। अलप काल िब ा सब आई॥

य ही सब भाई कुमाराव था के हए, य ही गु , िपता और माता ने उनका य ोपवीत सं कार


कर िदया। रघुनाथ (भाइय सिहत) गु के घर म िव ा पढ़ने गए और थोड़े ही समय म उनको
सब िव ाएँ आ गई ं।

जाक सहज वास ुित चारी। सो ह र पढ़ यह कौतकु भारी॥


िब ा िबनय िनपन
ु गन
ु सीला। खेलिहं खेल सकल नपृ लीला॥

चार वेद िजनके वाभािवक ास ह, वे भगवान पढ़, यह बड़ा कौतुक (अचरज) है। चार भाई
िव ा, िवनय, गुण और शील म (बड़े ) िनपुण ह और सब राजाओं क लीलाओं के ही खेल खेलते
ह।

करतल बान धनष ु अित सोहा। देखत प चराचर मोहा॥


िज ह बीिथ ह िबहरिहं सब भाई। थिकत होिहं सब लोग लग
ु ाई॥

हाथ म बाण और धनुष बहत ही शोभा देते ह। प देखते ही चराचर (जड़-चेतन) मोिहत हो जाते
ह। वे सब भाई िजन गिलय म खेलते (हए िनकलते) ह, उन गिलय के सभी ी-पु ष उनको
देखकर नेह से िशिथल हो जाते ह अथवा िठठककर रह जाते ह।

- कोसलपरु बासी नर ना र ब ृ अ बाल।


ानह ते ि य लागत सब कहँ राम कृपाल॥ 204॥
कोसलपुर के रहनेवाले ू े और बालक सभी को कृपालु राम ाण से भी बढ़कर ि य
ी, पु ष, बढ़
लगते ह॥ 204॥

बंधु सखा सँग लेिहं बोलाई। बन मग


ृ या िनत खेलिहं जाई॥
पावन मगृ मारिहं िजयँ जानी। िदन ित नप ृ िह देखाविहं आनी॥

राम भाइय और इ िम को बुलाकर साथ ले लेते ह और िन य वन म जाकर िशकार खेलते ह।


मन म पिव समझकर मगृ को मारते ह और ितिदन लाकर राजा (दशरथ) को िदखलाते ह।

जे मगृ राम बान के मारे । ते तनु तिज सरु लोक िसधारे ॥


अनज ु सखा सँग भोजन करह । मातु िपता अ या अनस ु रह ॥

ृ राम के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। राम अपने छोटे
जो मग
भाइय और सखाओं के साथ भोजन करते ह और माता-िपता क आ ा का पालन करते ह।

जेिह िबिध सख ु ी होिहं परु लोगा। करिहं कृपािनिध सोइ संजोगा॥


बेद परु ान सन
ु िहं मन लाई। आपु कहिहं अनज ु ह समझु ाई॥

िजस कार नगर के लोग सुखी ह , कृपािनधान राम वही संयोग (लीला) करते ह। वे मन
लगाकर वेद-पुराण सुनते ह और िफर वयं छोटे भाइय को समझाकर कहते ह।

ातकाल उिठ कै रघन


ु ाथा। मातु िपता गु नाविहं माथा॥
आयसु मािग करिहं परु काजा। देिख च रत हरषइ मन राजा॥

रघुनाथ ातःकाल उठकर माता-िपता और गु को म तक नवाते ह और आ ा लेकर नगर का


काम करते ह। उनके च र देख-देखकर राजा मन म बड़े हिषत होते ह।

- यापक अकल अनीह अज िनगन ु नाम न प।


भगत हेतु नाना िबिध करत च र अनूप॥ 205॥

जो यापक, अकल (िनरवयव), इ छारिहत, अज मा और िनगुण है तथा िजनका न नाम है न


प, वही भगवान भ के िलए नाना कार के अनुपम च र करते ह॥ 205॥

यह सब च रत कहा म गाई। आिगिल कथा सन ु ह मन लाई॥


िब वािम महामिु न यानी। बसिहं िबिपन सभु आ म जानी॥

यह सब च र मने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे क कथा मन लगाकर सुनो। ानी


महामुिन िव ािम वन म शुभ आ म (पिव थान) जानकर बसते थे,
जहँ जप ज य जोग मिु न करह । अित मारीच सब ु ाहिह डरह ॥
देखत ज य िनसाचर धाविहं। करिहं उप व मिु न दखु पाविहं॥

जहाँ वे मुिन जप, य और योग करते थे, परं तु मारीच और सुबाह से बहत डरते थे। य देखते ही
रा स दौड़ पड़ते थे और उप व मचाते थे, िजससे मुिन (बहत) दुःख पाते थे।

गािधतनय मन िचंता यापी। ह र िबनु मरिहं न िनिसचर पापी॥


तब मिु नबर मन क ह िबचारा। भु अवतरे उ हरन मिह भारा॥

गािध के पु िव ािम के मन म िचंता छा गई िक ये पापी रा स भगवान के (मारे ) िबना न


मरगे। तब े मुिन ने मन म िवचार िकया िक भु ने प ृ वी का भार हरने के िलए अवतार िलया
है।

एहँ िमस देख पद जाई। क र िबनती आन दोउ भाई॥


यान िबराग सकल गन ु अयना। सो भु म देखब भ र नयना॥

इसी बहाने जाकर म उनके चरण का दशन क ँ और िवनती करके दोन भाइय को ले आऊँ।
(अहा!) जो ान, वैरा य और सब गुण के धाम ह, उन भु को म ने भरकर देखँग
ू ा।

- बहिबिध करत मनोरथ जात लािग निहं बार।


क र म जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥ 206॥

बहत कार से मनोरथ करते हए जाने म देर नह लगी। सरयू के जल म नान करके वे राजा के
दरवाजे पर पहँचे॥ 206॥

मिु न आगमन सन ु ा जब राजा। िमलन गयउ लै िब समाजा॥


क र दंडवत मिु निह सनमानी। िनज आसन बैठारे ि ह आनी॥

राजा ने जब मुिन का आना सुना, तब वे ा ण के समाज को साथ लेकर िमलने गए और


दंडवत करके मुिन का स मान करते हए उ ह लाकर अपने आसन पर बैठाया।

चरन पखा र क ि ह अित पूजा। मो सम आजु ध य निहं दूजा॥


िबिबध भाँित भोजन करवावा। मिु नबर दयँ हरष अित पावा॥

चरण को धोकर बहत पजू ा क और कहा - मेरे समान ध य आज दूसरा कोई नह है। िफर अनेक
कार के भोजन करवाए, िजससे े मुिन ने अपने दय म बहत ही हष ा िकया।

पिु न चरनिन मेले सत


ु चारी। राम देिख मिु न देह िबसारी॥
भए मगन देखत मख ु सोभा। जनु चकोर पूरन सिस लोभा॥
िफर राजा ने चार पु को मुिन के चरण पर डाल िदया (उनसे णाम कराया)। राम को देखकर
ू गए। वे राम के मुख क शोभा देखते ही ऐसे म न हो गए, मानो
मुिन अपनी देह क सुिध भल
चकोर पणू चं मा को देखकर लुभा गया हो।

तब मन हरिष बचन कह राऊ। मिु न अस कृपा न क ि हह काऊ॥


केिह कारन आगमन तु हारा। कहह सो करत न लावउँ बारा॥

तब राजा ने मन म हिषत होकर ये वचन कहे - हे मुिन! इस कार कृपा तो आपने कभी नह
क । आज िकस कारण से आपका शुभागमन हआ? किहए, म उसे परू ा करने म देर नह
लगाऊँगा।

असरु समूह सताविहं मोही। म जाचन आयउँ नप


ृ तोही॥
अनज
ु समेत देह रघन
ु ाथा। िनिसचर बध म होब सनाथा॥

(मुिन ने कहा -) हे राजन! रा स के समहू मुझे बहत सताते ह, इसीिलए म तुमसे कुछ माँगने
आया हँ। छोटे भाई सिहत रघुनाथ को मुझे दो। रा स के मारे जाने पर म सनाथ (सुरि त) हो
जाऊँगा।

- देह भूप मन हरिषत तजह मोह अ यान।


धम सज ु स भु तु ह क इ ह कहँ अित क यान॥ 207॥

हे राजन! स न मन से इनको दो, मोह और अ ान को छोड़ दो। हे वामी! इससे तुमको धम


और सुयश क ाि होगी और इनका परम क याण होगा॥ 207॥

सिु न राजा अित अि य बानी। दय कंप मख ु दिु त कुमल


ु ानी॥
चौथपन पायउँ सत ु चारी। िब बचन निहं कहेह िबचारी॥

इस अ यंत अि य वाणी को सुनकर राजा का दय काँप उठा और उनके मुख क कांित फ क


पड़ गई। (उ ह ने कहा -) हे ा ण! मने चौथेपन म चार पु पाए ह, आपने िवचार कर बात नह
कही।

मागह भूिम धेनु धन कोसा। सबस देउँ आजु सहरोसा॥


देह ान त ि य कछु नाह । सोउ मिु न देउँ िनिमष एक माह ॥

हे मुिन! आप प ृ वी, गो, धन और खजाना माँग लीिजए, म आज बड़े हष के साथ अपना सव व दे


दँूगा। देह और ाण से अिधक यारा कुछ भी नह होता, म उसे भी एक पल म दे दँूगा।

सब सत ु ि य मोिह ान क नाई ं। राम देत निहं बनइ गोसाई ं॥


कहँ िनिसचर अित घोर कठोरा। कहँ संदु र सत
ु परम िकसोरा॥
सभी पु मुझे ाण के समान यारे ह, उनम भी हे भो! राम को तो (िकसी कार भी) देते नह
बनता। कहाँ अ यंत डरावने और ू र रा स और कहाँ परम िकशोर अव था के (िबलकुल
सुकुमार) मेरे सुंदर पु !

सिु न नप े रस सानी। दयँ हरष माना मिु न यानी॥


ृ िगरा म
तब बिस बहिबिध समझ ृ संदहे नास कहँ पावा॥
ु ावा। नप

ेम-रस म सनी हई राजा क वाणी सुनकर ानी मुिन िव ािम ने दय म बड़ा हष माना। तब
विश ने राजा को बहत कार से समझाया, िजससे राजा का संदेह नाश को ा हआ।

अित आदर दोउ तनय बोलाए। दयँ लाइ बह भाँित िसखाए॥


मेरे ान नाथ सत
ु दोऊ। तु ह मिु न िपता आन निहं कोऊ॥

राजा ने बड़े ही आदर से दोन पु को बुलाया और दय से लगाकर बहत कार से उ ह िश ा


दी। (िफर कहा -) हे नाथ! ये दोन पु मेरे ाण ह। हे मुिन! (अब) आप ही इनके िपता ह, दूसरा
कोई नह ।

- स पे भूप रिषिह सत
ु बहिबिध देइ असीस।
जननी भवन गए भु चले नाइ पद सीस॥ 208(क)॥

राजा ने बहत कार से आशीवाद देकर पु को ऋिष के हवाले कर िदया। िफर भु माता के
महल म गए और उनके चरण म िसर नवाकर चले॥ 208(क)॥

सो० - पु ष िसंह दोउ बीर हरिष चले मिु न भय हरन।


कृपािसंधु मितधीर अिखल िब व कारन करन॥ 208(ख)॥

पु ष म िसंह प दोन भाई (राम-ल मण) मुिन का भय हरने के िलए स न होकर चले। वे
कृपा के समु , धीर बुि और संपण
ू िव के कारण के भी कारण ह॥ 208(ख)॥

अ न नयन उर बाह िबसाला। नील जलज तनु याम तमाला॥


किट पट पीत कस बर भाथा। िचर चाप सायक दहु ँ हाथा॥

भगवान के लाल ने ह, चौड़ी छाती और िवशाल भुजाएँ ह, नील कमल और तमाल के व ृ क


तरह याम शरीर है, कमर म पीतांबर (पहने) और सुंदर तरकस कसे हए ह। दोन हाथ म
( मशः) सुंदर धनुष और बाण ह।

याम गौर संदु र दोउ भाई। िब वािम महािनिध पाई॥


भु यदेव म जाना। मोिह िनित िपता तजेउ भगवाना॥
याम और गौर वण के दोन भाई परम सुंदर ह। िव ािम को महान िनिध ा हो गई। (वे
सोचने लगे -) म जान गया िक भु यदेव ( ा ण के भ ) ह। मेरे िलए भगवान ने अपने
िपता को भी छोड़ िदया।

चले जात मिु न दीि ह देखाई। सिु न ताड़का ोध क र धाई॥


एकिहं बान ान ह र ली हा। दीन जािन तेिह िनज पद दी हा॥

माग म चले जाते हए मुिन ने ताड़का को िदखलाया। श द सुनते ही वह ोध करके दौड़ी। राम
ने एक ही बाण से उसके ाण हर िलए और दीन जानकर उसको िनजपद (अपना िद य व प)
िदया।

तब रिष िनज नाथिह िजयँ ची ही। िब ािनिध कहँ िब ा दी ही॥


जाते लाग न छुधा िपपासा। अतिु लत बल तनु तेज कासा॥

तब ऋिष िव ािम ने भु को मन म िव ा का भंडार समझते हए भी (लीला को पणू करने के


िलए) ऐसी िव ा दी, िजससे भख
ू - यास न लगे और शरीर म अतुिलत बल और तेज का काश
हो।

- आयधु सब समिप कै भु िनज आ म आिन।


कंद मूल फल भोजन दी ह भगित िहत जािन॥ 209॥

सब अ -श समपण करके मुिन भु राम को अपने आ म म ले आए और उ ह परम िहतू


जानकर भि पवू क कंद, मल
ू और फल का भोजन कराया॥ 209॥

ात कहा मिु न सन रघरु ाई। िनभय ज य करह तु ह जाई॥


होम करन लागे मिु न झारी। आपु रहे मख क रखवारी॥

सबेरे रघुनाथ ने मुिन से कहा - आप जाकर िनडर होकर य क िजए। यह सुनकर सब मुिन
हवन करने लगे। आप (राम) य क रखवाली पर रहे ।

सिु न मारीच िनसाचर ोही। लै सहाय धावा मिु न ोही॥


िबनु फर बान राम तेिह मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥

यह समाचार सुनकर मुिनय का श ु ोधी रा स मारीच अपने सहायक को लेकर दौड़ा। राम
ने िबना फलवाला बाण उसको मारा, िजससे वह सौ योजन के िव तारवाले समु के पार जा
िगरा।

पावक सर सब ु ाह पिु न मारा। अनज


ु िनसाचर कटकु सँघारा॥
मा र असरु ि ज िनभयकारी। अ तिु त करिहं देव मिु न झारी॥
िफर सुबाह को अि नबाण मारा। इधर छोटे भाई ल मण ने रा स क सेना का संहार कर डाला।
इस कार राम ने रा स को मारकर ा ण को िनभय कर िदया। तब सारे देवता और मुिन
तुित करने लगे।

तहँ पिु न कछुक िदवस रघरु ाया। रहे क ि ह िब ह पर दाया॥


भगित हेतु बहत कथा परु ाना। कहे िब ज िप भु जाना॥

रघुनाथ ने वहाँ कुछ िदन और रहकर ा ण पर दया क । भि के कारण ा ण ने उ ह


पुराण क बहत-सी कथाएँ कह , य िप भु सब जानते थे।

तब मिु न सादर कहा बझ ु ाई। च रत एक भु देिखअ जाई॥


धनष ु ु ल नाथा। हरिष चले मिु नबर के साथा॥
ु ज य सिु न रघक

तदंतर मुिन ने आदरपवू क समझाकर कहा - हे भो! चलकर एक च र देिखए। रघुकुल के


वामी राम धनुषय (क बात) सुनकर मुिन े िव ािम के साथ स न होकर चले।

आ म एक दीख मग माह । खग मग ृ जीव जंतु तहँ नाह ॥


पूछा मिु निह िसला भु देखी। सकल कथा मिु न कहा िबसेषी॥

माग म एक आ म िदखाई पड़ा। वहाँ पशु-प ी, कोई भी जीव-जंतु नह था। प थर क एक िशला


को देखकर भु ने पछ
ू ा, तब मुिन ने िव तारपवू क सब कथा कही।

- गौतम ना र ाप बस उपल देह ध र धीर।


चरन कमल रज चाहित कृपा करह रघब ु ीर॥ 210॥

गौतम मुिन क ी अह या शापवश प थर क देह धारण िकए बड़े धीरज से आपके चरणकमल
क धिू ल चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा क िजए॥ 210॥

छं ० - परसत पद पावन सोकनसावन गट भई तपपंज ु सही।


देखत रघन ु ायक जन सखु दायक सनमख ु होइ कर जो र रही॥
अित म े अधीरा पल
ु क सरीरा मख
ु निहं आवइ बचन कही।
अितसय बड़भागी चरनि ह लागी जुगल नयन जलधार बही॥

राम के पिव और शोक को नाश करनेवाले चरण का पश पाते ही सचमुच वह तपोमिू त


अह या कट हो गई। भ को सुख देनेवाले रघुनाथ को देखकर वह हाथ जोड़कर सामने खड़ी
रह गई। अ यंत ेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलिकत हो उठा, मुख से वचन
कहने म नह आते थे। वह अ यंत बड़भािगनी अह या भु के चरण से िलपट गई और उसके
दोन ने से जल क धारा बहने लगी।
धीरजु मन क हा भु कहँ ची हा रघप
ु ित कृपाँ भगित पाई।
अित िनमल बानी अ तिु त ठानी यानग य जय रघरु ाई॥
म ना र अपावन भु जग पावन रावन रपु जन सख ु दायी।
राजीव िबलोचन भव भय मोचन पािह पािह सरनिहं आई॥

िफर उसने मन म धीरज धरकर भु को पहचाना और रघुनाथ क कृपा से भि ा क । तब


अ यंत िनमल वाणी से उसने (इस कार) तुित ारं भ क - हे ान से जानने यो य रघुनाथ!
आपक जय हो! म (सहज ही) अपिव ी हँ, और हे भो! आप जगत को पिव करनेवाले,
भ को सुख देनेवाले और रावण के श ु ह। हे कमलनयन! हे संसार (ज म-म ृ यु) के भय से
छुड़ानेवाले! म आपक शरण आई हँ, (मेरी) र ा क िजए, र ा क िजए।

मिु न ाप जो दी हा अित भल क हा परम अनु ह म माना।


देखउे ँ भ र लोचन ह र भव मोचन इहइ लाभ संकर जाना॥
िबनती भु मोरी म मित भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनरु ागा मम मन मधप ु करै पाना॥

मुिन ने जो मुझे शाप िदया, सो बहत ही अ छा िकया। म उसे अ यंत अनु ह (करके) मानती हँ
िक िजसके कारण मने संसार से छुड़ानेवाले ह र (आप) को ने भरकर देखा। इसी (आपके
दशन) को शंकर सबसे बड़ा लाभ समझते ह। हे भो! म बुि क बड़ी भोली हँ, मेरी एक िवनती
है। हे नाथ ! म और कोई वर नह माँगती, केवल यही चाहती हँ िक मेरा मन पी भ रा आपके
चरण-कमल क रज के ेम पी रस का सदा पान करता रहे ।

जेिहं पद सरु स रता परम पन


ु ीता गट भई िसव सीस धरी।
सोई पद पंकज जेिह पूजत अज मम िसर धरे उ कृपाल हरी॥
एिह भाँित िसधारी गौतम नारी बार बार ह र चरन परी।
जो अित मन भावा सो ब पावा गै पित लोक अनंद भरी॥

िजन चरण से परमपिव देवनदी गंगा कट हई ं, िज ह िशव ने िसर पर धारण िकया और िजन
चरणकमल को ू ते ह, कृपालु ह र (आप) ने उ ह को मेरे िसर पर रखा। इस कार
ा पज
( तुित करती हई) बार-बार भगवान के चरण म िगरकर, जो मन को बहत ही अ छा लगा, उस
वर को पाकर गौतम क ी अह या आनंद म भरी हई पित लोक को चली गई।

- अस भु दीनबंधु ह र कारन रिहत दयाल।


तलु िसदास सठ तेिह भजु छािड़ कपट जंजाल॥ 211॥

भु राम ऐसे दीनबंधु और िबना ही कारण दया करनेवाले ह। तुलसीदास कहते ह, हे शठ (मन)!
तू कपट-जंजाल छोड़कर उ ह का भजन कर॥ 211॥
चले राम लिछमन मिु न संगा। गए जहाँ जग पाविन गंगा॥
गािधसूनु सब कथा सन ु ाई। जेिह कार सरु स र मिह आई॥

राम और ल मण मुिन के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पिव करनेवाली गंगा थ । गािध
के पु िव ािम ने वह सब कथा कह सुनाई िजस कार देवनदी गंगा प ृ वी पर आई थ ।

तब भु रिष ह समेत नहाए। िबिबध दान मिहदेवि ह पाए॥


हरिष चले मिु न बंदृ सहाया। बेिग िबदेह नगर िनअराया॥

तब भु ने ऋिषय सिहत (गंगा म) नान िकया। ा ण ने भाँित-भाँित के दान पाए। िफर


मुिनवंदृ के साथ वे स न होकर चले और शी ही जनकपुर के िनकट पहँच गए।

परु र यता राम जब देखी। हरषे अनज


ु समेत िबसेषी॥
बाप कूप स रत सर नाना। सिलल सध ु ासम मिन सोपाना॥

राम ने जब जनकपुर क शोभा देखी, तब वे छोटे भाई ल मण सिहत अ यंत हिषत हए। वहाँ
अनेक बाविलयाँ, कुएँ , नदी और तालाब ह, िजनम अमतृ के समान जल है और मिणय क
सीिढ़याँ (बनी हई) ह।

गंज
ु त मंजु म रस भंग
ृ ा। कूजत कल बहबरन िबहंगा॥
बरन बरन िबकसे बनजाता। ि िबध समीर सदा सख ु दाता॥

मकरं द-रस से मतवाले होकर भ रे सुंदर गुंजार कर रहे ह। रं ग-िबरं गे (बहत- से) प ी मधुर श द
कर रहे ह। रं ग-रं ग के कमल िखले ह। सदा (सब ऋतुओ ं म) सुख देनेवाला शीतल, मंद, सुगंध
पवन बह रहा है।

- सम
ु न बािटका बाग बन िबपल
ु िबहंग िनवास।
फूलत फलत सप ु लवत सोहत परु चहँ पास॥ 212।

पु प वािटका (फुलवारी), बाग और वन, िजनम बहत-से पि य का िनवास है, फूलते,


फलते और संदु र प से लदे हए नगर के चार ओर सशु ोिभत ह॥ 212॥

बनइ न बरनत नगर िनकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥


चा बजा िबिच अँबारी। मिनमय िबिध जनु वकर सँवारी॥

नगर क सुंदरता का वणन करते नह बनता। मन जहाँ जाता है, वह लुभा जाता (रम जाता) है।
सुंदर बाजार है, मिणय से बने हए िविच छ जे ह, मानो ा ने उ ह अपने हाथ से बनाया है।

धिनक बिनक बर धनद समाना। बैठे सकल ब तु लै नाना।


चौहट संदु र गल सहु ाई। संतत रहिहं सग
ु ंध िसंचाई॥

कुबेर के समान े धनी यापारी सब कार क अनेक व तुएँ लेकर (दुकान म) बैठे ह। सुंदर
चौराहे और सुहावनी गिलयाँ सदा सुगंध से िसंची रहती ह।

मंगलमय मंिदर सब केर। िचि त जनु रितनाथ िचतेर॥


परु नर ना र सभ
ु ग सिु च संता। धरमसील यानी गन
ु वंता॥

सबके घर मंगलमय ह और उन पर िच कढ़े हए ह, िज ह मानो कामदेव पी िच कार ने अंिकत


िकया है। नगर के (सभी) ी-पु ष सुंदर, पिव , साधु वभाववाले, धमा मा, ानी और गुणवान
ह।

अित अनूप जहँ जनक िनवासू। िबथकिहं िबबध


ु िबलोिक िबलासू॥
होत चिकत िचत कोट िबलोक । सकल भव ु न सोभा जनु रोक ॥

जहाँ जनक का अ यंत अनुपम (सुंदर) िनवास थान (महल) है, वहाँ के िवलास (ऐ य) को
देखकर देवता भी चिकत ( तंिभत) हो जाते ह (मनु य क तो बात ही या!)। कोट (राजमहल
के परकोटे) को देखकर िच चिकत हो जाता है, (ऐसा मालम
ू होता है) मानो उसने सम त
लोक क शोभा को रोक (घेर) रखा है।

- धवल धाम मिन परु ट पट सघ


ु िटत नाना भाँित।
िसय िनवास संदु र सदन सोभा िकिम किह जाित॥ 213॥

उ वल महल म अनेक कार के सुंदर रीित से बने हए मिण जिटत सोने क जरी के परदे लगे
ह। सीता के रहने के संुदर महल क शोभा का वणन िकया ही कैसे जा सकता है॥ 213॥

सभ
ु ग ार सब कुिलस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी िबसाल बािज गज साला। हय गय रथ संकुल सब काला॥

राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुंदर ह, िजनम व के (मजबत ू अथवा हीर के चमकते हए)
िकवाड़ लगे ह। वहाँ (मातहत) राजाओं, नट , मागध और भाट क भीड़ लगी रहती है। घोड़ और
हािथय के िलए बहत बड़ी-बड़ी घुड़साल और गजशालाएँ (फ लखाने) बनी हई ह; जो सब समय
घोड़े , हाथी और रथ से भरी रहती ह।

सूर सिचव सेनप बहतेरे। नप


ृ गहृ स रस सदन सब केरे ॥
परु बाहेर सर स रत समीपा। उतरे जहँ तहँ िबपल
ु महीपा॥

बहत-से शरू वीर, मं ी और सेनापित ह। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही ह। नगर के बाहर


तालाब और नदी के िनकट जहाँ-तहाँ बहत-से राजा लोग उतरे हए (डे रा डाले हए) ह।
देिख अनूप एक अँवराई। सब सप
ु ास सब भाँित सहु ाई।
कौिसक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रिहअ रघब
ु ीर सज
ु ाना॥

(वह ) आम का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब कार के सुभीते थे और जो सब तरह से


सुहावना था, िव ािम ने कहा - हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है िक यह रहा जाए।

भलेिहं नाथ किह कृपािनकेता। उतरे तहँ मिु न बंदृ समेता॥


िब वािम महामिु न आए। समाचार िमिथलापित पाए॥

कृपा के धाम राम 'बहत अ छा वािमन्!' कहकर वह मुिनय के समहू के साथ ठहर गए।
िमिथलापित जनक ने जब यह समाचार पाया िक महामुिन िव ािम आए ह,

- संग सिचव सिु च भू र भट भूसरु बर गरु याित।


चले िमलन मिु ननायकिह मिु दत राउ एिह भाँित॥ 214॥

तब उ ह ने पिव दय के मं ी बहत-से यो ा, े ा ण, गु (शतानंद) और अपनी जाित के


े लोग को साथ िलया और इस कार स नता के साथ राजा मुिनय के वामी िव ािम से
िमलने चले॥ 214॥

क ह नामु चरन ध र माथा। दीि ह असीस मिु दत मिु ननाथा॥


िब बंदृ सब सादर बंद।े जािन भा य बड़ राउ अनंद॥े

राजा ने मुिन के चरण पर म तक रखकर णाम िकया। मुिनय के वामी िव ािम ने स न


होकर आशीवाद िदया। िफर सारी ा णमंडली को आदर सिहत णाम िकया और अपना बड़ा
भा य जानकर राजा आनंिदत हए।

कुसल न किह बारिहं बारा। िब वािम नप ृ िह बैठारा॥


तेिह अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥

बार-बार कुशल करके िव ािम ने राजा को बैठाया। उसी समय दोन भाई आ पहँचे, जो
फुलवाड़ी देखने गए थे।

याम गौर मदृ ु बयस िकसोरा। लोचन सखु द िब व िचत चोरा॥


उठे सकल जब रघप ु ित आए। िब वािम िनकट बैठाए॥

सुकुमार िकशोर अव थावाले याम और गौर वण के दोन कुमार ने को सुख देनेवाले और


सारे िव के िच को चुरानेवाले ह। जब रघुनाथ आए तब सभी (उनके प एवं तेज से भािवत
होकर) उठकर खड़े हो गए। िव ािम ने उनको अपने पास बैठा िलया।
भए सब सख ु ी देिख दोउ ाता। बा र िबलोचन पलु िकत गाता॥
मूरित मधरु मनोहर देखी। भयउ िबदेह िबदेह िबसेषी॥

दोन भाइय को देखकर सभी सुखी हए। सबके ने म जल भर आया और शरीर रोमांिचत हो
उठे । राम क मधुर मनोहर मिू त को देखकर िवदेह (जनक) िवशेष प से िवदेह (देह क सुध-बुध
से रिहत) हो गए।

- मे मगन मनु जािन नप ृ ु क र िबबेकु ध र धीर।


बोलेउ मिु न पद नाइ िस गदगद िगरा गभीर॥ 215॥

मन को ेम म म न जान राजा जनक ने िववेक का आ य लेकर धीरज धारण िकया और मुिन


के चरण म िसर नवाकर गद्गद् ( ेमभरी) गंभीर वाणी से कहा - ॥ 215॥

कहह नाथ संदु र दोउ बालक। मिु नकुल ितलक िक नप


ृ कुल पालक॥
जो िनगम नेित किह गावा। उभय बेष ध र क सोइ आवा॥

हे नाथ! किहए, ये दोन सुंदर बालक मुिनकुल के आभषू ण ह या िकसी राजवंश के पालक?
अथवा िजसका वेद ने 'नेित' कहकर गान िकया है कह वह तो युगल प धरकर नह
आया है?

सहज िबराग प मनु मोरा। थिकत होत िजिम चंद चकोरा॥


ताते भु पूछउँ सितभाऊ। कहह नाथ जिन करह दरु ाऊ॥

मेरा मन जो वभाव से ही वैरा य प (बना हआ) है, (इ ह देखकर) इस तरह मु ध हो रहा है,
जैसे चं मा को देखकर चकोर। हे भो! इसिलए म आपसे स य (िन छल) भाव से पछ ू ता हँ। हे
नाथ! बताइए, िछपाव न क िजए।

इ हिह िबलोकत अित अनरु ागा। बरबस सखु िह मन यागा॥


कह मिु न िबहिस कहेह नप
ृ नीका। बचन तु हार न होइ अलीका॥

इनको देखते ही अ यंत ेम के वश होकर मेरे मन ने जबरद ती सुख को याग िदया है।
मुिन ने हँसकर कहा - हे राजन! आपने ठीक (यथाथ ही) कहा। आपका वचन िम या नह हो
सकता।

ए ि य सबिह जहाँ लिग ानी। मन मस ु क


ु ािहं रामु सिु न बानी॥
रघकु ु ल मिन दसरथ के जाए। मम िहत लािग नरे स पठाए॥

जगत म जहाँ तक (िजतने भी) ाणी ह, ये सभी को ि य ह। मुिन क (रह य भरी) वाणी सुनकर
राम मन-ही-मन मुसकराते ह। (तब मुिन ने कहा -) ये रघुकुल मिण महाराज दशरथ के पु ह।
मेरे िहत के िलए राजा ने इ ह मेरे साथ भेजा है।

- रामु लखनु दोउ बंधब


ु र प सील बल धाम।
मख राखेउ सबु सािख जगु िजते असरु सं ाम॥ 216॥

ये राम और ल मण दोन े भाई प, शील और बल के धाम ह। सारा जगत (इस बात का)
सा ी है िक इ ह ने यु म असुर को जीतकर मेरे य क र ा क है॥ 216॥

मिु न तव चरन देिख कह राऊ। किह न सकउँ िनज पु य भाऊ॥


संदु र याम गौर दोउ ाता। आनँदह के आनँद दाता॥

राजा ने कहा - हे मुिन! आपके चरण के दशन कर म अपना पु य भाव कह नह सकता। ये


संुदर याम और गौर वण के दोन भाई आनंद को भी आनंद देनेवाले ह।

इ ह कै ीित परसपर पाविन। किह न जाइ मन भाव सहु ाविन॥


सनु ह नाथ कह मिु दत िबदेह। जीव इव सहज सनेह॥

इनक आपस क ीित बड़ी पिव और सुहावनी है, वह मन को बहत भाती है, पर (वाणी से)
कही नह जा सकती। िवदेह (जनक) आनंिदत होकर कहते ह - हे नाथ! सुिनए, और जीव
क तरह इनम वाभािवक ेम है।

पिु न पिु न भिु ह िचतव नरनाह। पल


ु क गात उर अिधक उछाह॥
मिु निह संिस नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥

राजा बार-बार भु को देखते ह ( ि वहाँ से हटना ही नह चाहती)। ( ेम से) शरीर पुलिकत हो


रहा है और दय म बड़ा उ साह है। (िफर) मुिन क शंसा करके और उनके चरण म िसर
नवाकर राजा उ ह नगर म िलवा चले।

संदु र सदनु सख
ु द सब काला। तहाँ बासु लै दी ह भआ
ु ला॥
क र पूजा सब िबिध सेवकाई। गयउ राउ गहृ िबदा कराई॥

एक सुंदर महल जो सब समय (सभी ऋतुओ ं म) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उ ह ले जाकर
ू ा और सेवा करके राजा िवदा माँगकर अपने घर गए।
ठहराया। तदनंतर सब कार से पज

- रषय संग रघबु ंस मिन क र भोजनु िब ाम।ु


बैठे भु ाता सिहत िदवसु रहा भ र जाम॥ु 217॥

रघुकुल के िशरोमिण भु राम ऋिषय के साथ भोजन और िव ाम करके भाई ल मण समेत बैठे।
उस समय पहरभर िदन रह गया था॥ 217॥
लखन दयँ लालसा िबसेषी। जाइ जनकपरु आइअ देखी॥
भु भय बह र मिु निह सकुचाह । गट न कहिहं मनिहं मस
ु क
ु ाह ॥

ल मण के दय म िवशेष लालसा है िक जाकर जनकपुर देख आएँ , परं तु भु राम का डर है और


िफर मुिन से भी सकुचाते ह, इसिलए कट म कुछ नह कहते, मन-ही-मन मुसकरा रहे ह।

राम अनज
ु मन क गित जानी। भगत बछलता िहयँ हलसानी॥
परम िबनीत सकुिच मस
ु क
ु ाई। बोले गरु अनस
ु ासन पाई॥

(अंतयामी) राम ने छोटे भाई के मन क दशा जान ली, (तब) उनके दय म भ व सलता उमड़
आई। वे गु क आ ा पाकर बहत ही िवनय के साथ सकुचाते हए मुसकराकर बोले।

नाथ लखनु पु देखन चहह । भु सकोच डर गट न कहह ॥


ज राउर आयसु म पाव । नगर देखाइ तरु त लै आव ॥

हे नाथ! ल मण नगर देखना चाहते ह, िकंतु भु (आप) के डर और संकोच के कारण प नह


कहते। यिद आपक आ ा पाऊँ, तो म इनको नगर िदखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ।

सिु न मन
ु ीसु कह बचन स ीती। कस न राम तु ह राखह नीती॥
धरम सेतु पालक तु ह ताता। मे िबबस सेवक सख ु दाता॥

यह सुनकर मुनी र िव ािम ने ेम सिहत वचन कहे - हे राम! तुम नीित क र ा कैसे न
करोगे, हे तात! तुम धम क मयादा का पालन करनेवाले और ेम के वशीभत
ू होकर सेवक को
सुख देनेवाले हो।

- जाइ देिख आवह नग सख ु िनधान दोउ भाइ।


करह सफ ु ल सब के नयन संदु र बदन देखाइ॥ 218॥

सुख के िनधान दोन भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुंदर मुख िदखलाकर सब (नगर
िनवािसय ) के ने को सफल करो॥ 218॥

मिु न पद कमल बंिद दोउ ाता। चले लोक लोचन सख ु दाता॥


बालक बंदृ देिख अित सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा॥

सब लोक के ने को सुख देनेवाले दोन भाई मुिन के चरणकमल क वंदना करके चले।
बालक के झुंड इन (के स दय) क अ यंत शोभा देखकर साथ लग गए। उनके ने और मन
(इनक माधुरी पर) लुभा गए।

पीत बसन प रकर किट भाथा। चा चाप सर सोहत हाथा॥


तन अनहु रत सच
ु ंदन खोरी। यामल गौर मनोहर जोरी॥

(दोन भाइय के) पीले रं ग के व ह, कमर के (पीले) दुप म तरकस बँधे ह। हाथ म सुंदर
धनुष-बाण सुशोिभत ह। ( याम और गौर वण के) शरीर के अनुकूल (अथात िजस पर िजस रं ग
का चंदन अिधक फबे उस पर उसी रं ग के) सुंदर चंदन क खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रं ग)
क मनोहर जोड़ी है।

केह र कंधर बाह िबसाला। उर अित िचर नागमिन माला॥


सभु ग सोन सरसी ह लोचन। बदन मयंक ताप य मोचन॥

िसंह के समान (पु ) गदन (गले का िपछला भाग) है, िवशाल भुजाएँ ह। (चौड़ी) छाती पर अ यंत
सुंदर गजमु ा क माला है। सुंदर लाल कमल के समान ने ह। तीन ताप से छुड़ानेवाला चं मा
के समान मुख है।

कानि ह कनक फूल छिब देह । िचतवत िचतिह चो र जनु लेह ॥


िचतविन चा भक
ृ ु िट बर बाँक । ितलक रे ख सोभा जनु चाँक ॥

कान म सोने के कणफूल (अ यंत) शोभा दे रहे ह और देखते ही (देखनेवाले के) िच को मानो
चुरा लेते ह। उनक िचतवन ( ि ) बड़ी मनोहर है और भ ह ितरछी एवं सुंदर ह। (माथे पर)
ितलक क रे खाएँ ऐसी सुंदर ह, मानो (मिू तमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है।

- िचर चौतन सभ ु ग िसर मेचक कंु िचत केस।


े ॥ 219॥
नख िसख संदु र बंधु दोउ सोभा सकल सदु स

िसर पर संुदर चौकोनी टोिपयाँ (िदए) ह, काले और घँुघराले बाल ह। दोन भाई नख से लेकर
िशखा तक (एड़ी से चोटी तक) सुंदर ह और सारी शोभा जहाँ जैसी चािहए वैसी ही है॥ 219॥

देखन नग भूपसत ु आए। समाचार परु बािस ह पाए॥


धाए धाम काम सब यागी। मनहँ रं क िनिध लटू न लागी॥

जब पुरवािसय ने यह समाचार पाया िक दोन राजकुमार नगर देखने के िलए आए ह, तब वे सब


घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो द र ी (धन का) खजाना लटू ने दौड़े ह ।

िनरिख सहज संदु र दोउ भाई। होिहं सख


ु ी लोचन फल पाई॥
जुबत भवन झरोखि ह लाग । िनरखिहं राम प अनरु ाग ॥

वभाव ही से सुंदर दोन भाइय को देखकर वे लोग ने का फल पाकर सुखी हो रहे ह। युवती
ि याँ घर के झरोख से लगी हई ेम सिहत राम के प को देख रही ह।
कहिहं परसपर बचन स ीती। सिख इ ह कोिट काम छिब जीती॥
सरु नर असरु नाग मिु न माह । सोभा अिस कहँ सिु नअित नाह ॥

वे आपस म बड़े ेम से बात कर रही ह - हे सखी! इ ह ने करोड़ कामदेव क छिव को जीत


िलया है। देवता, मनु य, असुर, नाग और मुिनय म ऐसी शोभा तो कह सुनने म भी नह आती।

िब नु चा र भज
ु िबिध मख
ु चारी। िबकट बेष मख
ु पंच परु ारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छिब सखी पटत रअ जाही॥

भगवान िव णु के चार भुजाएँ ह, ा के चार मुख ह, िशव का िवकट (भयानक) वेष है और


उनके पाँच मँुह ह। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नह है, िजसके साथ इस छिव क उपमा
दी जाए।

- बय िकसोर सष ु मा सदन याम गौर सख ु धाम।


अंग अंग पर वा रअिहं कोिट कोिट सत काम॥ 220॥

इनक िकशोर अव था है, ये सुंदरता के घर, साँवले और गोरे रं ग के तथा सुख के धाम ह। इनके
अंग-अंग पर करोड़ -अरब कामदेव को िनछावर कर देना चािहए॥ 220॥

कहह सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह प िनहारी॥


े बोली मदृ ु बानी। जो म सन
कोउ स म ु ा सो सन
ु ह सयानी॥

हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस प को देखकर मोिहत न हो जाए
(अथात यह प जड़-चेतन सबको मोिहत करनेवाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी ेम सिहत
कोमल वाणी से बोली - हे सयानी! मने जो सुना है उसे सुनो -

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालि ह के कल जोटा॥


मिु न कौिसक मख के रखवारे । िज ह रन अिजर िनसाचर मारे ॥

ये दोन (राजकुमार) महाराज दशरथ के पु ह! बाल राजहंस का-सा सुंदर जोड़ा है। ये मुिन
िव ािम के य क र ा करनेवाले ह, इ ह ने यु के मैदान म रा स को मारा है।

याम गात कल कंज िबलोचन। जो मारीच सभ ु ज


ु मदु मोचन॥
कौस या सतु सो सख
ु खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥

िजनका याम शरीर और सुंदर कमल जैसे ने ह, जो मारीच और सुबाह के मद को चरू


करनेवाले और सुख क खान ह और जो हाथ म धनुष-बाण िलए हए ह, वे कौस या के पु ह,
इनका नाम राम है।
गौर िकसोर बेषु बर काछ। कर सर चाप राम के पाछ॥
लिछमनु नामु राम लघु ाता। सन
ु ु सिख तासु सिु म ा माता॥

िजनका रं ग गोरा और िकशोर अव था है और जो सुंदर वेष बनाए और हाथ म धनुष-बाण िलए


राम के पीछे -पीछे चल रहे ह, वे इनके छोटे भाई ह, उनका नाम ल मण है। हे सखी! सुनो, उनक
माता सुिम ा ह।

- िब काजु क र बंधु दोउ मग मिु नबधू उधा र।


आए देखन चापमख सिु न हरष सब ना र॥ 221॥

दोन भाई ा ण िव ािम का काम करके और रा ते म मुिन गौतम क ी अह या का उ ार


करके यहाँ धनुषय देखने आए ह। यह सुनकर सब ि याँ स न हई ं॥ 221॥

देिख राम छिब कोउ एक कहई। जोगु जानिकिह यह ब अहई॥


ज सिख इ हिह देख नरनाह। पन प रह र हिठ करइ िबबाह॥

राम क छिव देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी - यह वर जानक के यो य है। हे
सखी! यिद कह राजा इ ह देख ले, तो ित ा छोड़कर हठपवू क इ ह से िववाह कर देगा।

कोउ कह ए भूपित पिहचाने। मिु न समेत सादर सनमाने॥


सिख परं तु पनु राउ न तजई। िबिध बस हिठ अिबबेकिह भजई॥

िकसी ने कहा - राजा ने इ ह पहचान िलया है और मुिन के सिहत इनका आदरपवू क स मान
िकया है, परं तु हे सखी! राजा अपना ण नह छोड़ता। वह होनहार के वशीभत
ू होकर हठपवू क
अिववेक का ही आ य िलए हए ह ( ण पर अड़े रहने क मख ू ता नह छोड़ता)।

कोउ कह ज भल अहइ िबधाता। सब कहँ सिु नअ उिचत फल दाता॥


तौ जानिकिह िमिलिह ब एह। नािहन आिल इहाँ संदहे ॥

कोई कहती है - यिद िवधाता भले ह और सुना जाता है िक वे सबको उिचत फल देते ह, तो
जानक को यही वर िमलेगा। हे सखी! इसम संदेह नह है।

ज िबिध बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृ य होइ सब लोगू॥


सिख हमर आरित अित तात। कबहँक ए आविहं एिह नात॥

जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृताथ हो जाएँ । हे सखी! मेरे तो इसी से
इतनी अिधक आतुरता हो रही है िक इसी नाते कभी ये यहाँ आएँ गे।

- नािहं त हम कहँ सन
ु ह सिख इ ह कर दरसनु दू र।
यह संघटु तब होइ जब पु य परु ाकृत भू र॥ 222॥

नह तो (िववाह न हआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दशन दुलभ ह। यह संयोग तभी हो
सकता है, जब हमारे पवू ज म के बहत पु य ह ॥ 222॥

बोली अपर कहेह सिख नीका। एिहं िबआह अित िहत सबही का।
कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए यामल मदृ ु गात िकसोरा॥

दूसरी ने कहा - हे सखी! तुमने बहत अ छा कहा। इस िववाह से सभी का परम िहत है। िकसी ने
कहा - शंकर का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक ह।

सबु असमंजस अहइ सयानी। यह सिु न अपर कहइ मदृ ु बानी॥


सिख इ ह कहँ कोउ कोउ अस कहह । बड़ भाउ देखत लघु अहह ॥

हे सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी - हे सखी!
इनके संबंध म कोई-कोई ऐसा कहते ह िक ये देखने म तो छोटे ह, पर इनका भाव बहत बड़ा है।

परिस जासु पद पंकज धूरी। तरी अह या कृत अघ भूरी॥


सो िक रिहिह िबनु िसव धनु तोर। यह तीित प रह रअ न भोर॥

िजनके चरणकमल क धिू ल का पश पाकर अह या तर गई, िजसने बड़ा भारी पाप िकया था, वे
या िशव का धनुष िबना तोड़े रहगे? इस िव ास को भल
ू कर भी नह छोड़ना चािहए।

जेिहं िबरं िच रिच सीय सँवारी। तेिहं यामल ब रचेउ िबचारी॥


तासु बचन सिु न सब हरषान । ऐसेइ होउ कहिहं मदृ ु बान ॥

िजस ा ने सीता को सँवारकर रचा है, उसी ने िवचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये
वचन सुनकर सब हिषत हई ं और कोमल वाणी से कहने लग - ऐसा ही हो।

- िहयँ हरषिहं बरषिहं सम ु न समु िु ख सल


ु ोचिन बंदृ ।
जािहं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥ 223॥

संुदर मुख और सुंदर ने वाली ि याँ समहू क समहू दय म हिषत होकर फूल बरसा रही ह।
जहाँ-जहाँ दोन भाई जाते ह, वहाँ-वहाँ परम आनंद छा जाता है॥ 223॥

परु पूरब िदिस गे दोउ भाई। जहँ धनम


ु ख िहत भूिम बनाई॥
अित िब तार चा गच ढारी। िबमल बेिदका िचर सँवारी॥

दोन भाई नगर के परू ब ओर गए, जहाँ धनुष य के िलए (रं ग) भिू म बनाई गई थी। बहत लंबा-
चौड़ा सुंदर ढाला हआ प का आँगन था, िजस पर सुंदर और िनमल वेदी सजाई गई थी।

चहँ िदिस कंचन मंच िबसाला। रचे जहाँ बैठिहं मिहपाला॥


तेिह पाछ समीप चहँ पासा। अपर मंच मंडली िबलासा॥

चार ओर सोने के बड़े -बड़े मंच बने थे, िजन पर राजा लोग बैठगे। उनके पीछे समीप ही चार ओर
दूसरे मचान का मंडलाकार घेरा सुशोिभत था।

कछुक ऊँिच सब भाँित सहु ाई। बैठिहं नगर लोग जहँ जाई॥
ित ह के िनकट िबसाल सहु ाए। धवल धाम बहबरन बनाए॥

वह कुछ ऊँचा था और सब कार से सुंदर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठगे। उ ह के पास
िवशाल एवं संुदर सफेद मकान अनेक रं ग के बनाए गए ह,

जहँ बैठ देखिहं सब नारी। जथाजोगु िनज कुल अनहु ारी॥


परु बालक किह किह मदृ ु बचना। सादर भिु ह देखाविहं रचना॥

जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब ि याँ यथायो य (िजसको जहाँ बैठना उिचत है) बैठकर
देखगी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपवू क भु राम को (य शाला क )
रचना िदखला रहे ह।

- सब िससु एिह िमस म े बस परिस मनोहर गात।


तन पलु किहं अित हरषु िहयँ देिख देिख दोउ ात॥ 224॥

सब बालक इसी बहाने ेम के वश म होकर राम के मनोहर अंग को छूकर शरीर से पुलिकत हो
रहे ह और दोन भाइय को देख-देखकर उनके दय म अ यंत हष हो रहा है॥ 224॥

े बस जाने। ीित समेत िनकेत बखाने॥


िससु सब राम म
िनज िनज िच सब लेिहं बोलाई। सिहत सनेह जािहं दोउ भाई॥

राम ने सब बालक को ेम के वश जानकर (य भिू म के) थान क ेमपवू क शंसा क ।


(इससे बालक का उ साह, आनंद और ेम और भी बढ़ गया, िजससे) वे सब अपनी-अपनी िच
के अनुसार उ ह बुला लेते ह और ( येक के बुलाने पर) दोन भाई ेम सिहत उनके पास चले
जाते ह।

राम देखाविहं अनजु िह रचना। किह मदृ ु मधरु मनोहर बचना॥


लव िनमेष महँ भवु न िनकाया। रचइ जासु अनस ु ासन माया॥

कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर राम अपने छोटे भाई ल मण को (य भिू म क ) रचना
िदखलाते ह। िजनक आ ा पाकर माया लव िनमेष (पलक िगरने के चौथाई समय) म ांड के
समहू रच डालती है,

भगित हेतु सोइ दीनदयाला। िचतवत चिकत धनष ु मखसाला॥


कौतक
ु देिख चले गु पाह । जािन िबलंबु ास मन माह ॥

वही दीन पर दया करनेवाले राम भि के कारण धनुष य शाला को चिकत होकर (आ य के
साथ) देख रहे ह। इस कार सब कौतुक देखकर वे गु के पास चले। देर हई जानकर उनके
मन म डर है।

जासु ास डर कहँ डर होई। भजन भाउ देखावत सोई॥


किह बात मदृ ु मधरु सहु ाई ं। िकए िबदा बालक ब रआई ं॥

िजनके भय से डर को भी डर लगता है, वही भु भजन का भाव (िजसके कारण ऐसे महान भु
भी भय का नाट्य करते ह) िदखला रहे ह। उ ह ने कोमल, मधुर और सुंदर बात कहकर बालक
को जबरद ती िवदा िकया।

- सभय स म े िबनीत अित सकुच सिहत दोउ भाइ।


गरु पद पंकज नाइ िसर बैठे आयसु पाइ॥ 225॥

िफर भय, ेम, िवनय और बड़े संकोच के साथ दोन भाई गु के चरण कमल म िसर नवाकर
आ ा पाकर बैठे॥ 225॥

िनिस बेस मिु न आयसु दी हा। सबह सं याबंदनु क हा॥


कहत कथा इितहास परु ानी। िचर रजिन जगु जाम िसरानी॥

राि का वेश होते ही (सं या के समय) मुिन ने आ ा दी, तब सबने सं यावंदन िकया। िफर
ाचीन कथाएँ तथा इितहास कहते-कहते सुंदर राि दो पहर बीत गई।

मिु नबर सयन क ि ह तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥


िज ह के चरन सरो ह लागी। करत िबिबध जप जोग िबरागी॥

तब े मुिन ने जाकर शयन िकया। दोन भाई उनके चरण दबाने लगे, िजनके चरण कमल के
(दशन एवं पश के) िलए वैरा यवान पु ष भी भाँित-भाँित के जप और योग करते ह।

तेइ दोउ बंधु मे जनु जीते। गरु पद कमल पलोटत ीते॥


बार बार मिु न अ या दी ही। रघब ु र जाइ सयन तब क ही॥

वे ही दोन भाई मानो ेम से जीते हए ेमपवू क गु जी के चरण कमल को दबा रहे ह। मुिन ने
बार-बार आ ा दी, तब रघुनाथ ने जाकर शयन िकया।

चापत चरन लखनु उर लाएँ । सभय स म े परम सचु पाएँ ॥


पिु न पिु न भु कह सोवह ताता। पौढ़े ध र उर पद जलजाता॥

राम के चरण को दय से लगाकर भय और ेम सिहत परम सुख का अनुभव करते हए ल मण


उनको दबा रहे ह। भु राम ने बार-बार कहा - हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमल
को दय म धरकर लेट रहे ।

- उठे लखनु िनिस िबगत सिु न अ निसखा धिु न कान।


गरु त पिहलेिहं जगतपित जागे रामु सज
ु ान॥ 226॥

रात बीतने पर, मुग का श द कान से सुनकर ल मण उठे । जगत के वामी सुजान राम भी गु
से पहले ही जाग गए॥ 226॥

सकल सौच क र जाइ नहाए। िन य िनबािह मिु निह िसर नाए॥


समय जािन गरु आयसु पाई। लेन सून चले दोउ भाई॥

सब शौचि या करके वे जाकर नहाए। िफर (सं या-अि नहो ािद) िन यकम समा करके
उ ह ने मुिन को म तक नवाया। (पज
ू ा का) समय जानकर, गु क आ ा पाकर दोन भाई फूल
लेने चले।

भूप बागु बर देखउे जाई। जहँ बसंत रतु रही लोभाई॥


लागे िबटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेिल िबताना॥

उ ह ने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभानेवाले
अनेक व ृ लगे ह। रं ग-िबरं गी उ म लताओं के मंडप छाए हए ह।

नव प लव फल सम
ु न सहु ाए। िनज संपित सरु ख लजाए॥
चातक कोिकल क र चकोरा। कूजत िबहग नटत कल मोरा॥

नए प , फल और फूल से यु सुंदर व ृ अपनी संपि से क पव ृ को भी लजा रहे ह। पपीहे ,


कोयल, तोते, चकोर आिद प ी मीठी बोली बोल रहे ह और मोर सुंदर न ृ य कर रहे ह।

म य बाग स सोह सहु ावा। मिन सोपान िबिच बनावा॥


िबमल सिललु सरिसज बहरं गा। जलखग कूजत गंज
ु त भंग
ृ ा॥

बाग के बीच बीच सुहावना सरोवर सुशोिभत है, िजसम मिणय क सीिढ़याँ िविच ढं ग से बनी ह।
उसका जल िनमल है, िजसम अनेक रं ग के कमल िखले हए ह, जल के प ी कलरव कर रहे ह
और मर गुंजार कर रहे ह।

- बागु तड़ागु िबलोिक भु हरषे बंधु समेत।


परम र य आरामु यह जो रामिह सख ु देत॥ 227॥

बाग और सरोवर को देखकर भु राम भाई ल मण सिहत हिषत हए। यह बाग (वा तव म) परम
रमणीय है, जो (जगत को सुख देनेवाले) राम को सुख दे रहा है॥ 227॥

चहँ िदिस िचतइ पूँिछ मालीगन। लगे लेन दल फूल मिु दत मन॥
तेिह अवसर सीता तहँ आई। िग रजा पूजन जनिन पठाई॥

चार ओर ि डालकर और मािलय से पछ ू कर वे स न मन से प -पु प लेने लगे। उसी समय


सीता वहाँ आई ं। माता ने उ ह िग रजा (पावती) क पजू ा करने के िलए भेजा था।

संग सख सब सभ ु ग सयान । गाविहं गीत मनोहर बान ॥


सर समीप िग रजा गहृ सोहा। बरिन न जाइ देिख मनु मोहा॥

साथ म सब सुंदरी और सयानी सिखयाँ ह, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही ह। सरोवर के पास
िग रजा का मंिदर सुशोिभत है, िजसका वणन नह िकया जा सकता, देखकर मन मोिहत हो
जाता है।

म जनु क र सर सिख ह समेता। गई मिु दत मन गौ र िनकेता॥


पूजा क ि ह अिधक अनरु ागा। िनज अनु प सभ
ु ग ब मागा॥

सिखय सिहत सरोवर म नान करके सीता स न मन से िग रजा के मंिदर म गई ं। उ ह ने बड़े


ेम से पज
ू ा क और अपने यो य सुंदर वर माँगा।

एक सखी िसय संगु िबहाई। गई रही देखन फुलवाई॥


तेिहं दोउ बंधु िबलोके जाई। म
े िबबस सीता पिहं आई॥

एक सखी सीता का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोन भाइय को
देखा और ेम म िव ल होकर वह सीता के पास आई।

- तासु दसा देखी सिख ह पल


ु क गात जलु नैन।
कह कारनु िनज हरष कर पूछिहं सब मदृ ु बैन॥ 228॥

सिखय ने उसक दशा देखी िक उसका शरीर पुलिकत है और ने म जल भरा है। सब कोमल
वाणी से पछ
ू ने लग िक अपनी स नता का कारण बता॥ 228॥
देखन बागु कुअँर दइु आए। बय िकसोर सब भाँित सहु ाए॥
याम गौर िकिम कह बखानी। िगरा अनयन नयन िबनु बानी॥

(उसने कहा -) दो राजकुमार बाग देखने आए ह। िकशोर अव था के ह और सब कार से सुंदर


ह। वे साँवले और गोरे (रं ग के) ह, उनके स दय को म कैसे बखानकर कहँ। वाणी िबना ने क
है और ने के वाणी नह है।

सिु न हरष सब सख सयानी। िसय िहयँ अित उतकंठा जानी॥


एक कहइ नप ृ सत ु े जे मिु न सँग आए काली॥
ु तेइ आली। सन

यह सुनकर और सीता के दय म बड़ी उ कंठा जानकर सब सयानी सिखयाँ स न हई ं। तब


एक सखी कहने लगी - हे सखी! ये वही राजकुमार ह, जो सुना है िक कल िव ािम मुिन के
साथ आए ह।

िज ह िनज प मोहनी डारी। क हे वबस नगर नर नारी॥


बरनत छिब जहँ तहँ सब लोगू। अविस देिखअिहं देखन जोगू॥

और िज ह ने अपने प क मोिहनी डालकर नगर के ी-पु ष को अपने वश म कर िलया है।


जहाँ-तहाँ सब लोग उ ह क छिव का वणन कर रहे ह। अव य (चलकर) उ ह देखना चािहए, वे
देखने ही यो य ह।

तासु बचन अित िसयिह सोहाने। दरस लािग लोचन अकुलाने॥


चली अ क र ि य सिख सोई। ीित परु ातन लखइ न कोई॥

उसके वचन सीता को अ यंत ही ि य लगे और दशन के िलए उनके ने अकुला उठे । उसी यारी
सखी को आगे करके सीता चल । पुरानी ीित को कोई लख नह पाता।

- सिु म र सीय नारद बचन उपजी ीित पन


ु ीत।
चिकत िबलोकित सकल िदिस जनु िससु मग ृ ी सभीत॥ 229॥

नारद के वचन का मरण करके सीता के मन म पिव ीित उ प न हई। वे चिकत होकर सब
ओर इस तरह देख रही ह, मानो डरी हई मग
ृ छौनी इधर-उधर देख रही हो॥ 229॥

कंकन िकंिकिन नूपरु धिु न सिु न। कहत लखन सन रामु दयँ गिु न॥
मानहँ मदन ददुं भ
ु ी दी ही। मनसा िब व िबजय कहँ क ही॥

कंकण (हाथ के कड़े ), करधनी और पायजेब के श द सुनकर राम दय म िवचार कर ल मण


से कहते ह - (यह विन ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने िव को जीतने का संक प करके
डं के पर चोट मारी है।
अस किह िफ र िचतए तेिह ओरा। िसय मख
ु सिस भए नयन चकोरा॥
भए िबलोचन चा अचंचल। मनहँ सकुिच िनिम तजे िदगंचल॥

ऐसा कहकर राम ने िफर कर उस ओर देखा। सीता के मुख पी चं मा (को िनहारने) के िलए
उनके ने चकोर बन गए। सुंदर ने ि थर हो गए (टकटक लग गई)। मानो िनिम (जनक के
पवू ज) ने (िजनका सबक पलक म िनवास माना गया है, लड़क -दामाद के िमलन- संग को
देखना उिचत नह , इस भाव से) सकुचाकर पलक छोड़ द , (पलक म रहना छोड़ िदया, िजससे
पलक का िगरना क गया)।

देिख सीय शोभा सख ु ु पावा। दयँ सराहत बचनु न आवा॥


जनु िबरं िच सब िनज िनपन ु ाई। िबरिच िब व कहँ गिट देखाई॥

सीता क शोभा देखकर राम ने बड़ा सुख पाया। दय म वे उसक सराहना करते ह, िकंतु मुख
से वचन नह िनकलते। मानो ा ने अपनी सारी िनपुणता को मिू तमान कर संसार को कट
करके िदखा िदया हो।

संदु रता कहँ संदु र करई। छिबगहृ ँ दीपिसखा जनु बरई॥


सब उपमा किब रहे जुठारी। केिहं पटतर िबदेहकुमारी॥

वह (सीता क शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करनेवाली है। (वह ऐसी मालम


ू होती है) मानो
सुंदरता पी घर म दीपक क लौ जल रही हो। (अब तक सुंदरता पी भवन म अँधेरा था, वह भवन
मानो सीता क संुदरता पी दीपिशखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अिधक संुदर हो
गया है)। सारी उपमाओं को तो किवय ने जँठ
ू ा कर रखा है। म जनकनंिदनी सीता क िकससे
उपमा दँू।

- िसय शोभा िहयँ बरिन भु आपिन दसा िबचा र॥


बोले सिु च मन अनजु सन बचन समय अनहु ा र॥ 230॥

(इस कार) दय म सीता क शोभा का वणन करके और अपनी दशा को िवचारकर भु राम
पिव मन से अपने छोटे भाई ल मण से समयानुकूल वचन बोले - ॥ 230॥

तात जनकतनया यह सोई। धनष ु ज य जेिह कारन होई॥


पूजन गौ र सख लै आई ं। करत कासु िफरइ फुलवाई ं॥

हे तात! यह वही जनक क क या है, िजसके िलए धनुषय हो रहा है। सिखयाँ इसे गौरी पज
ू न
के िलए ले आई ह। यह फुलवारी म काश करती हई िफर रही है।

जासु िबलोिक अलौिकक सोभा। सहज पन


ु ीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान िबधाता। फरकिहं सभ
ु द अंग सन
ु ु ाता॥

िजसक अलौिकक सुंदरता देखकर वभाव से ही पिव मेरा मन ु ध हो गया है। वह सब कारण
(अथवा उसका सब कारण) तो िवधाता जान। िकंतु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दािहने) अंग
फड़क रहे ह।

रघब
ु ंिस ह कर सहज सभ
ु ाऊ। मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोिह अितसय तीित मन केरी। जेिहं सपनेहँ परना र न हेरी॥

रघुवंिशय का यह सहज (ज मगत) वभाव है िक उनका मन कभी कुमाग पर पैर नह रखता।


मुझे तो अपने मन का अ यंत ही िव ास है िक िजसने व न म भी पराई ी पर ि नह डाली
है।

िज ह कै लहिहं न रपु रन पीठी। निहं पाविहं परितय मनु डीठी॥


मंगन लहिहं न िज ह कै नाह । ते नरबर थोरे जग माह ॥

रण म श ु िजनक पीठ नह देख पाते (अथात जो लड़ाई के मैदान से भागते नह ), पराई ि याँ
िजनके मन और ि को नह ख च पात और िभखारी िजनके यहाँ से 'नाह ' नह पाते (खाली
हाथ नह लौटते), ऐसे े पु ष संसार म थोड़े ह।

- करत बतकही अनज ु सन मन िसय प लोभान।


मखु सरोज मकरं द छिब करइ मधप
ु इव पान॥ 231॥

य राम छोटे भाई से बात कर रहे ह, पर मन सीता के प म लुभाया हआ उनके मुख पी कमल
के छिव प मकरं द रस को भ रे क तरह पी रहा है॥ 231॥

िचतवित चिकत चहँ िदिस सीता। कहँ गए नपृ िकसोर मनु िचंता॥
जहँ िबलोक मग
ृ सावक नैनी। जनु तहँ ब रस कमल िसत न े ी॥

सीता चिकत होकर चार ओर देख रही ह। मन इस बात क िचंता कर रहा है िक राजकुमार कहाँ
चले गए। बालमग ृ के छौने क -सी आँखवाली) सीता जहाँ ि डालती ह, वहाँ मानो
ृ -नयनी (मग
ेत कमल क कतार बरस जाती है।

लता ओट तब सिख ह लखाए। यामल गौर िकसोर सहु ाए॥


देिख प लोचन ललचाने। हरषे जनु िनज िनिध पिहचाने॥

तब सिखय ने लता क ओट म सुंदर याम और गौर कुमार को िदखलाया। उनके प को


देखकर ने ललचा उठे , वे ऐसे स न हए मानो उ ह ने अपना खजाना पहचान िलया।
थके नयन रघपु ित छिब देख। पलकि हहँ प रहर िनमेष॥
अिधक सनेहँ देह भै भोरी। सरद सिसिह जनु िचतव चकोरी॥

रघुनाथ क छिव देखकर ने चिकत (िन ल) हो गए। पलक ने भी िगरना छोड़ िदया। अिधक
नेह के कारण शरीर िव ल (बेकाब)ू हो गया। मानो शरद ऋतु के चं मा को चकोरी (बेसुध हई)
देख रही हो।

लोचन मग रामिह उर आनी। दी हे पलक कपाट सयानी॥


जब िसय सिख ह म े बस जानी। किह न सकिहं कछु मन सकुचानी॥

ने के रा ते राम को दय म लाकर चतुरिशरोमिण जानक ने पलक के िकवाड़ लगा िदए


(अथात ने मँदू कर उनका यान करने लग )। जब सिखय ने सीता को ेम के वश जाना, तब
वे मन म सकुचा गई ं, कुछ कह नह सकती थ ।

- लताभवन त गट भे तेिह अवसर दोउ भाइ।


िनकसे जनु जुग िबमल िबधु जलद पटल िबलगाई॥ 232॥

उसी समय दोन भाई लता मंडप (कंु ज) म से कट हए। मानो दो िनमल चं मा बादल के परदे
को हटाकर िनकले ह ॥ 232॥

सोभा सीवँ सभ
ु ग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख िसर सोहत नीके। गु छ बीच िबच कुसम
ु कली के॥

दोन सुंदर भाई शोभा क सीमा ह। उनके शरीर क आभा नीले और पीले कमल क -सी है। िसर
पर संुदर मोरपंख सुशोिभत ह। उनके बीच-बीच म फूल क किलय के गु छे लगे ह।

भाल ितलक मिबंदु सहु ाए। वन सभ ु ग भूषन छिब छाए॥


िबकट भकृ ु िट कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥

माथे पर ितलक और पसीने क बँदू शोभायमान ह। कान म सुंदर भषू ण क छिव छाई है। टेढ़ी
भ ह और घँुघराले बाल ह। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) ने ह।

चा िचबकु नािसका कपोला। हास िबलास लेत मनु मोला॥


मख
ु छिब किह न जाइ मोिह पाह । जो िबलोिक बह काम लजाह ॥

ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुंदर ह, और हँसी क शोभा मन को मोल िलए लेती है। मुख क छिव
तो मुझसे कही ही नह जाती, िजसे देखकर बहत- से कामदेव लजा जाते ह।

उर मिन माल कंबु कल गीवा। काम कलभ कर भज


ु बलस वा॥
सम
ु न समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सिु ठ लोना॥

व ः थल पर मिणय क माला है। शंख के स श सुंदर गला है। कामदेव के हाथी के ब चे क


ू के समान (उतार-चढ़ाववाली एवं कोमल) भुजाएँ ह, जो बल क सीमा ह। िजसके बाएँ हाथ म
सँड़
फूल सिहत दोना है, हे सिख! वह साँवला कँु अर तो बहत ही सलोना है।

- केह र किट पट पीत धर सष ु मा सील िनधान।


देिख भानकु ु लभूषनिह िबसरा सिख ह अपान॥ 233॥

िसंह क -सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीतांबर धारण िकए हए, शोभा और शील के भंडार,
सयू कुल के भषू ण राम को देखकर सिखयाँ अपने आपको भलू गई ं॥ 233॥

ध र धीरजु एक आिल सयानी। सीता सन बोली गिह पानी॥


बह र गौ र कर यान करे ह। भूपिकसोर देिख िकन लेह॥

एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीता से बोली - िग रजा का यान िफर कर लेना,
इस समय राजकुमार को य नह देख लेत ।

सकुिच सीयँ तब नयन उघारे । सनमखु दोउ रघिु संघ िनहारे ॥


नख िसख देिख राम कै सोभा। सिु म र िपता पनु मनु अित छोभा॥

तब सीता ने सकुचाकर ने खोले और रघुकुल के दोन िसंह को अपने सामने (खड़े ) देखा।
नख से िशखा तक राम क शोभा देखकर और िफर िपता का ण याद करके उनका मन बहत
ु ध हो गया।

परबस सिख ह लखी जब सीता। भयउ गह सब कहिहं सभीता॥


पिु न आउब एिह बे रआँ काली। अस किह मन िबहसी एक आली॥

जब सिखय ने सीता को परवश ( ेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लग - बड़ी


देर हो गई (अब चलना चािहए)। कल इसी समय िफर आएँ गी, ऐसा कहकर एक सखी मन म
हँसी।

गूढ़ िगरा सिु न िसय सकुचानी। भयउ िबलंबु मातु भय मानी॥


ध र बिड़ धीर रामु उर आने। िफरी अपनपउ िपतब ु स जाने॥

सखी क यह रह यभरी वाणी सुनकर सीता सकुचा गई ं। देर हो गई जान उ ह माता का भय


लगा। बहत धीरज धरकर वे राम को दय म ले आई,ं और (उनका यान करती हई) अपने को
िपता के अधीन जानकर लौट चल ।
- देखन िमस मग
ृ िबहग त िफरइ बहो र बहो र।
िनरिख िनरिख रघबु ीर छिब बाढ़इ ीित न थो र॥ 234॥

मगृ , प ी और व ृ को देखने के बहाने सीता बार-बार घम


ू जाती ह और राम क छिव देख-
देखकर उनका ेम कम नह बढ़ रहा है। (अथात बहत ही बढ़ता जाता है)॥ 234॥

जािन किठन िसवचाप िबसूरित। चली रािख उर यामल मूरित॥


भु जब जात जानक जानी। सखु सनेह सोभा गनु खानी॥

िशव के धनुष को कठोर जानकर वे िबसरू ती (मन म िवलाप करती) हई दय म राम क साँवली
मिू त को रखकर चल । (िशव के धनुष क कठोरता का मरण आने से उ ह िचंता होती थी िक ये
सुकुमार रघुनाथ उसे कैसे तोड़गे, िपता के ण क मिृ त से उनके दय म ोभ था ही, इसिलए
मन म िवलाप करने लग । ेमवश ऐ य क िव मिृ त हो जाने से ही ऐसा हआ, िफर भगवान के
बल का मरण आते ही वे हिषत हो गई ं और साँवली छिव को दय म धारण करके चल ।) भु
राम ने जब सुख, नेह, शोभा और गुण क खान जानक को जाती हई जाना,

परम मे मय मदृ ु मिस क ही। चा िच भीत िलिख ली ही॥


गई भवानी भवन बहोरी। बंिद चरन बोली कर जोरी॥

तब परम ेम क कोमल याही बनाकर उनके व प को अपने सुंदर िच पी िभि पर िचि त


कर िलया। सीता पुनः भवानी के मंिदर म गई ं और उनके चरण क वंदना करके हाथ जोड़कर
बोल -

जय जय िग रबरराज िकसोरी। जय महेस मख


ु चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जनिन दािमिन दिु त गाता॥

हे े पवत के राजा िहमाचल क पु ी पावती! आपक जय हो, जय हो, हे महादेव के मुख पी


चं मा क (ओर टकटक लगाकर देखनेवाली) चकोरी! आपक जय हो, हे हाथी के मुखवाले
गणेश और छह मुखवाले वािमकाितक क माता! हे जग जननी! हे िबजली क -सी कांितयु
शरीरवाली! आपक जय हो!

निहं तव आिद म य अवसाना। अिमत भाउ बेदु निहं जाना॥


भव भव िबभव पराभव का रिन। िब व िबमोहिन वबस िबहा रिन॥

आपका न आिद है, न म य है और न अंत है। आपके असीम भाव को वेद भी नह जानते। आप
संसार को उ प न, पालन और नाश करनेवाली ह। िव को मोिहत करनेवाली और वतं प
से िवहार करनेवाली ह।
- पितदेवता सत
ु ीय महँ मातु थम तव रे ख।
मिहमा अिमत न सकिहं किह सहस सारदा सेष॥ 235॥

पित को इ देव माननेवाली े ना रय म हे माता! आपक थम गणना है। आपक अपार


मिहमा को हजार सर वती और शेष भी नह कह सकते॥ 235॥

सेवत तोिह सल ु भ फल चारी। बरदायनी परु ा र िपआरी॥


देिब पूिज पद कमल तु हारे । सरु नर मिु न सब होिहं सख
ु ारे ॥

हे (भ को मँुहमाँगा) वर देनेवाली! हे ि पुर के श ु िशव क ि य प नी! आपक सेवा करने से


चार फल सुलभ हो जाते ह। हे देवी! आपके चरण कमल क पज ू ा करके देवता, मनु य और मुिन
सभी सुखी हो जाते ह।

मोर मनोरथु जानह नीक। बसह सदा उर परु सबही क॥


क हेउँ गट न कारन तेह । अस किह चरन गहे बैदहे ॥

मेरे मनोरथ को आप भली-भाँित जानती ह; य िक आप सदा सबके दय पी नगरी म िनवास


करती ह। इसी कारण मने उसको कट नह िकया। ऐसा कहकर जानक ने उनके चरण पकड़
िलए।

िबनय म े बस भई भवानी। खसी माल मूरित मस ु क


ु ानी॥
सादर िसयँ सादु िसर धरे ऊ। बोली गौ र हरषु िहयँ भरे ऊ॥

िग रजा सीता के िवनय और ेम के वश म हो गई ं। उन (के गले) क माला िखसक पड़ी और मिू त


मुसकराई। सीता ने आदरपवू क उस साद (माला) को िसर पर धारण िकया। गौरी का दय हष
से भर गया और वे बोल -

सन
ु ु िसय स य असीस हमारी। पूिजिह मन कामना तु हारी॥
नारद बचन सदा सिु च साचा। सो ब िमिलिह जािहं मनु राचा॥

हे सीता! हमारी स ची आसीस सुनो, तु हारी मनःकामना परू ी होगी। नारद का वचन सदा पिव
(संशय, म आिद दोष से रिहत) और स य है। िजसम तु हारा मन अनुर हो गया है, वही वर
तुमको िमलेगा।

छं ० - मनु जािहं राचेउ िमिलिह सो ब सहज संदु र साँवरो।


क ना िनधान सज ु ान सीलु सनेह जानत रावरो॥
एिह भाँित गौ र असीस सिु न िसय सिहत िहयँ हरष अली।
तलु सी भवािनिह पूिज पिु न पिु न मिु दत मन मंिदर चली॥
िजसम तु हारा मन अनुर हो गया है, वही वभाव से ही सुंदर साँवला वर (राम) तुमको िमलेगा।
वह दया का खजाना और सुजान (सव ) है, तु हारे शील और नेह को जानता है। इस कार
गौरी का आशीवाद सुनकर जानक समेत सब सिखयाँ दय म हिषत हई ं। तुलसीदास कहते ह -
भवानी को बार-बार पज
ू कर सीता स न मन से राजमहल को लौट चल ।

सो० - जािन गौ र अनकु ू ल िसय िहय हरषु न जाइ किह।


मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ 236॥

गौरी को अनुकूल जानकर सीता के दय को जो हष हआ, वह कहा नह जा सकता। सुंदर


मंगल के मलू उनके बाएँ अंग फड़कने लगे॥ 236॥

दयँ सराहत सीय लोनाई। गरु समीप गवने दोउ भाई॥


राम कहा सबु कौिसक पाह । सरल सभ ु ाउ छुअत छल नाह ॥

दय म सीता के स दय क सराहना करते हए दोन भाई गु के पास गए। राम ने िव ािम से


सब कुछ कह िदया, य िक उनका सरल वभाव है, छल तो उसे छूता भी नह है।

सम
ु न पाइ मिु न पूजा क ही। पिु न असीस दहु भाइ ह दी ही॥
सफु ल मनोरथ होहँ तु हारे । रामु लखनु सिु न भय सख
ु ारे ॥

फूल पाकर मुिन ने पज


ू ा क । िफर दोन भाइय को आशीवाद िदया िक तु हारे मनोरथ सफल ह ।
यह सुनकर राम-ल मण सुखी हए।

क र भोजनु मिु नबर िब यानी। लगे कहन कछु कथा परु ानी॥
िबगत िदवसु गु आयसु पाई। सं या करन चले दोउ भाई॥

े िव ानी मुिन िव ािम भोजन करके कुछ ाचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने म) िदन बीत
गया और गु क आ ा पाकर दोन भाई सं या करने चले।

ाची िदिस सिस उयउ सहु ावा। िसय मख


ु स रस देिख सख
ु ु पावा॥
बह र िबचा क ह मन माह । सीय बदन सम िहमकर नाह ॥

(उधर) पवू िदशा म सुंदर चं मा उदय हआ। राम ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख
पाया। िफर मन म िवचार िकया िक यह चं मा सीता के मुख के समान नह है।

- जनमु िसंधु पिु न बंधु िबषु िदन मलीन सकलंक।


िसय मख
ु समता पाव िकिम चंदु बापरु ो रं क॥ 237॥

खारे समु म तो इसका ज म, िफर (उसी समु से उ प न होने के कारण) िवष इसका भाई;
िदन म यह मिलन (शोभाहीन, िन तेज) रहता है, और कलंक (काले दाग से यु ) है। बेचारा
गरीब चं मा सीता के मुख क बराबरी कैसे पा सकता है?॥ 237॥

घटइ बढ़इ िबरिहिन दख


ु दाई। सइ राह िनज संिधिहं पाई॥
कोक सोक द पंकज ोही। अवगन ु बहत चं मा तोही॥

िफर यह घटता-बढ़ता है और िवरिहणी ि य को दुःख देनेवाला है; राह अपनी संिध म पाकर इसे
स लेता है। चकवे को (चकवी के िवयोग का) शोक देनेवाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा
देनेवाला) है। हे चं मा! तुझम बहत-से अवगुण ह (जो सीता म नह ह)।

बैदहे ी मखु पटतर दी हे। होइ दोषु बड़ अनिु चत क हे॥


िसय मख ु छिब िबधु याज बखानी। गरु पिहं चले िनसा बिड़ जानी॥

अतः जानक के मुख क तुझे उपमा देने म बड़ा अनुिचत कम करने का दोष लगेगा। इस कार
चं मा के बहाने सीता के मुख क छिव का वणन करके, बड़ी रात हो गई जान, वे गु के पास
चले।

क र मिु न चरन सरोज नामा। आयसु पाइ क ह िब ामा॥


िबगत िनसा रघन ु ायक जागे। बंधु िबलोिक कहन अस लागे॥

मुिन के चरण कमल म णाम करके, आ ा पाकर उ ह ने िव ाम िकया, रात बीतने पर रघुनाथ
जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे -

उयउ अ न अवलोकह ताता। पंकज कोक लोक सख ु दाता॥


बोले लखनु जो र जग
ु पानी। भु भाउ सूचक मदृ ु बानी॥

हे तात! देखो, कमल, च वाक और सम त संसार को सुख देनेवाला अ णोदय हआ है। ल मण


दोन हाथ जोड़कर भु के भाव को सिू चत करनेवाली कोमल वाणी बोले -

- अ नोदयँ सकुचे कुमदु उडगन जोित मलीन।


िजिम तु हार आगमन सिु न भए नप
ृ ित बलहीन॥ 238॥

अ णोदय होने से कुमुिदनी सकुचा गई और तारागण का काश फ का पड़ गया, िजस कार


आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए ह॥ 238॥

नप
ृ सब नखत करिहं उिजआरी। टा र न सकिहं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधक
ु र खग नाना। हरषे सकल िनसा अवसाना॥

सब राजा पी तारे उजाला (मंद काश) करते ह, पर वे धनुष पी महान अंधकार को हटा नह
सकते। राि का अंत होने से जैसे कमल, चकवे, भ रे और नाना कार के प ी हिषत हो रहे ह।

ऐसेिहं भु सब भगत तु हारे । होइहिहं टूट धनष


ु सख
ु ारे ॥
उयउ भानु िबनु म तम नासा। दरु े नखत जग तेजु कासा॥

वैसे ही हे भो! आपके सब भ धनुष टूटने पर सुखी ह गे। सय


ू उदय हआ, िबना ही प र म
अंधकार न हो गया। तारे िछप गए, संसार म तेज का काश हो गया।

रिब िनज उदय याज रघरु ाया। भु तापु सब नप


ृ ह िदखाया॥
तव भजु बल मिहमा उदघाटी। गटी धनु िबघटन प रपाटी॥

ू ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को भु (आप) का ताप िदखलाया है।


हे रघुनाथ! सय
आपक भुजाओं के बल क मिहमा को उ ािटत करने (खोलकर िदखाने) के िलए ही धनुष
तोड़ने क यह प ित कट हई है।

बंधु बचन सिु न भु मस


ु क
ु ाने। होइ सिु च सहज पनु ीत नहाने॥
िन यि या क र गु पिहं आए। चरन सरोज सभ ु ग िसर नाए॥

भाई के वचन सुनकर भु मुसकराए। िफर वभाव से ही पिव राम ने शौच से िनव ृ होकर
नान िकया और िन यकम करके वे गु के पास आए। आकर उ ह ने गु के संुदर चरण
कमल म िसर नवाया।

सतानंदु तब जनक बोलाए। कौिसक मिु न पिहं तरु त पठाए॥


जनक िबनय ित ह आइ सन ु ाई। हरषे बोिल िलए दोउ भाई॥

तब जनक ने शतानंद को बुलाया और उ ह तुरंत ही िव ािम मुिन के पास भेजा। उ ह ने आकर


जनक क िवनती सुनाई। िव ािम ने हिषत होकर दोन भाइय को बुलाया।

- सतानंद पद बंिद भु बैठे गरु पिहं जाइ।


चलह तात मिु न कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥ 239॥

शतानंद के चरण क वंदना करके भु राम गु के पास जा बैठे। तब मुिन ने कहा - हे तात!
चलो, जनक ने बुला भेजा है॥ 239॥

सीय वयंब देिखअ जाई। ईसु कािह ध देइ बड़ाई॥


लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥

चलकर सीता के वयंवर को देखना चािहए। देख ई र िकसको बड़ाई देते ह। ल मण ने कहा -
हे नाथ! िजस पर आपक कृपा होगी, वही बड़ाई का पा होगा (धनुष तोड़ने का ेय उसी को
ा होगा)।

हरषे मिु न सब सिु न बर बानी। दीि ह असीस सबिहं सख


ु ु मानी॥
पिु न मिु नबंदृ समेत कृपाला। देखन चले धनष
ु मख साला॥

इस े वाणी को सुनकर सब मुिन स न हए। सभी ने सुख मानकर आशीवाद िदया। िफर
मुिनय के समहू सिहत कृपालु राम धनुष य शाला देखने चले।

रं गभूिम आए दोउ भाई। अिस सिु ध सब परु बािस ह पाई॥


चले सकल गहृ काज िबसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥

दोन भाई रं गभिू म म आए ह, ऐसी खबर जब सब नगर िनवािसय ने पाई, तब बालक, जवान,
ू े , ी, पु ष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल िदए।
बढ़

देखी जनक भीर भै भारी। सिु च सेवक सब िलए हँकारी॥


तरु त सकल लोग ह पिहं जाह। आसन उिचत देह सब काह॥

जब जनक ने देखा िक बड़ी भीड़ हो गई है, तब उ ह ने सब िव ासपा सेवक को बुलवा िलया


और कहा - तुम लोग तुरंत सब लोग के पास जाओ और सब िकसी को यथायो य आसन दो।

- किह मदृ ु बचन िबनीत ित ह बैठारे नर ना र।


उ म म यम नीच लघु िनज िनज थल अनहु ा र॥ 240॥

उन सेवक ने कोमल और न वचन कहकर उ म, म यम, नीच और लघु (सभी ेणी के) ी-
पु ष को अपने-अपने यो य थान पर बैठाया॥ 240॥

राजकुअँर तेिह अवसर आए। मनहँ मनोहरता तन छाए॥


गनु सागर नागर बर बीरा। संदु र यामल गौर सरीरा॥

उसी समय राजकुमार (राम और ल मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुंदर ह) मानो सा ात मनोहरता ही
उनके शरीर पर छा रही हो। सुंदर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुण के समु , चतुर और
उ म वीर ह।

राज समाज िबराजत रे । उडगन महँ जनु जुग िबधु पूरे॥


िज ह क रही भावना जैसी। भु मूरित ित ह देखी तैसी॥

वे राजाओं के समाज म ऐसे सुशोिभत हो रहे ह, मानो तारागण के बीच दो पण


ू चं मा ह । िजनक
जैसी भावना थी, भु क मिू त उ ह ने वैसी ही देखी।
देखिहं प महा रनधीरा। मनहँ बीर रसु धर सरीरा॥
डरे कुिटल नप
ृ भिु ह िनहारी। मनहँ भयानक मूरित भारी॥

महान रणधीर (राजा लोग) राम के प को ऐसा देख रहे ह, मानो वयं वीर रस शरीर धारण
िकए हए ह । कुिटल राजा भु को देखकर डर गए, मानो बड़ी भयानक मिू त हो।

रहे असरु छल छोिनप बेषा। ित ह भु गट काल सम देखा।


परु बािस ह देखे दोउ भाई। नर भूषन लोचन सख
ु दायी॥

छल से जो रा स वहाँ राजाओं के वेष म (बैठे) थे, उ ह ने भु को य काल के समान देखा।


नगर िनवािसय ने दोन भाइय को मनु य के भषू ण प और ने को सुख देनेवाला देखा।

- ना र िबलोकिहं हरिष िहयँ िनज-िनज िच अनु प।


जनु सोहत िसंगार ध र मूरित परम अनूप॥ 241॥

ि याँ दय म हिषत होकर अपनी-अपनी िच के अनुसार उ ह देख रही ह। मानो ंग


ृ ार-रस ही
परम अनुपम मिू त धारण िकए सुशोिभत हो रहा हो॥ 241॥

िबदष
ु ह भु िबराटमय दीसा। बह मख
ु कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाित अवलोकिहं कैस। सजन सगे ि य लागिहं जैस॥

िव ान को भु िवराट प म िदखाई िदए, िजसके बहत-से मँुह, हाथ, पैर, ने और िसर ह।


जनक के सजातीय (कुटुंबी) भु को िकस तरह (कैसे ि य प म) देख रहे ह, जैसे सगे सजन
(संबंधी) ि य लगते ह।

सिहत िबदेह िबलोकिहं रानी। िससु सम ीित न जाित बखानी॥


जोिग ह परम त वमय भासा। सांत सु सम सहज कासा॥

जनक समेत रािनयाँ उ ह अपने ब चे के समान देख रही ह, उनक ीित का वणन नह िकया
जा सकता। योिगय को वे शांत, शु , सम और वतः काश परम त व के प म िदखे।

ह रभगत ह देखे दोउ ाता। इ देव इव सब सख ु दाता॥


रामिह िचतव भायँ जेिह सीया। सो सनेह सख
ु ु निहं कथनीया॥

ह र भ ने दोन भाइय को सब सुख के देनेवाले इ देव के समान देखा। सीता िजस भाव से
राम को देख रही ह, वह नेह और सुख तो कहने म ही नह आता।

उर अनभु वित न किह सक सोऊ। कवन कार कहै किब कोऊ॥


एिह िबिध रहा जािह जस भाऊ। तेिहं तस देखउे कोसलराऊ॥
उस ( नेह और सुख) का वे दय म अनुभव कर रही ह, पर वे भी उसे कह नह सकत । िफर
कोई किव उसे िकस कार कह सकता है। इस कार िजसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश
राम को वैसा ही देखा।

- राजत राज समाज महँ कोसलराज िकसोर।


संदु र यामल गौर तन िब व िबलोचन चोर॥ 242॥

संुदर, साँवले और गोरे शरीरवाले तथा िव भर के ने को चुरानेवाले कोसलाधीश के कुमार


राजसमाज म (इस कार) सुशोिभत हो रहे ह॥ 242॥

सहज मनोहर मूरित दोऊ। कोिट काम उपमा लघु सोऊ॥


ु नीके। नीरज नयन भावते जी के॥
सरद चंद िनंदक मख

ृ ार के) मन को हरनेवाली ह। करोड़ कामदेव


दोन मिू तयाँ वभाव से ही (िबना िकसी बनाव- ंग
क उपमा भी उनके िलए तु छ है। उनके सुंदर मुख शरद (पिू णमा) के चं मा क भी िनंदा
करनेवाले (उसे नीचा िदखानेवाले) ह और कमल के समान ने मन को बहत ही भाते ह।

िचतविन चा मार मनु हरनी। भावित दय जाित निहं बरनी॥


कल कपोल िु त कंु डल लोला। िचबक
ु अधर संदु र मदृ ु बोला॥

संुदर िचतवन (सारे संसार के मन को हरनेवाले) कामदेव के भी मन को हरनेवाली है। वह दय


को बहत ही यारी लगती है, पर उसका वणन नह िकया जा सकता। सुंदर गाल ह, कान म
चंचल (झम ू ते हए) कंु डल ह। ठोड़ी और अधर (ओठ) संुदर ह, कोमल वाणी है।

कुमदु बंधु कर िनंदक हाँसा। भक


ृ ु टी िबकट मनोहर नासा॥
भाल िबसाल ितलक झलकाह । कच िबलोिक अिल अविल लजाह ॥

हँसी, चं मा क िकरण का ितर कार करनेवाली है। भ ह टेढ़ी और नािसका मनोहर है। (ऊँचे)
चौड़े ललाट पर ितलक झलक रहे ह (दीि मान हो रहे ह)। (काले घँुघराले) बाल को देखकर भ र
क पंि याँ भी लजा जाती ह।

पीत चौतन िसरि ह सहु ाई ं। कुसम


ु कल िबच बीच बनाई ं॥
रे ख िचर कंबु कल गीवाँ। जनु ि भवु न सष
ु मा क सीवाँ॥

पीली चौकोनी टोिपयाँ िसर पर सुशोिभत ह, िजनके बीच-बीच म फूल क किलयाँ बनाई (काढ़ी)
हई ह। शंख के समान सुंदर (गोल) गले म मनोहर तीन रे खाएँ ह, जो मानो तीन लोक क
सुंदरता क सीमा (को बता रही) ह।

- कंु जर मिन कंठा किलत उरि ह तल


ु िसका माल।
ृ भ कंध केह र ठविन बल िनिध बाह िबसाल॥ 243॥
बष

दय पर गजमु ाओं के सुंदर कंठे और तुलसी क मालाएँ सुशोिभत ह। उनके कंधे बैल के कंधे
क तरह (ऊँचे तथा पु ) ह, ऐंड़ (खड़े होने क शान) िसंह क -सी है और भुजाएँ िवशाल एवं बल
क भंडार ह॥ 243॥

किट तन
ू ीर पीत पट बाँध। कर सर धनष
ु बाम बर काँध॥
पीत ज य उपबीत सहु ाए। नख िसख मंजु महाछिब छाए॥

कमर म तरकस और पीतांबर बाँधे ह। (दािहने) हाथ म बाण और बाएँ सुंदर कंध पर धनुष तथा
पीले य ोपवीत (जनेऊ) सुशोिभत ह। नख से लेकर िशखा तक सब अंग सुंदर ह, उन पर महान
शोभा छाई हई है।

देिख लोग सब भए सख ु ारे । एकटक लोचन चलत न तारे ॥


हरषे जनकु देिख दोउ भाई। मिु न पद कमल गहे तब जाई॥

उ ह देखकर सब लोग सुखी हए। ने एकटक (िनमेष शू य) ह और तारे (पुतिलयाँ) भी नह


चलते। जनक दोन भाइय को देखकर हिषत हए। तब उ ह ने जाकर मुिन के चरण कमल पकड़
िलए।

क र िबनती िनज कथा सन ु ाई। रं ग अविन सब मिु निह देखाई॥


जहँ जहँ जािहं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चिकत िचतव सबु कोऊ॥

िवनती करके अपनी कथा सुनाई और मुिन को सारी रं गभिू म (य शाला) िदखलाई। (मुिन के
साथ) दोन े राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते ह, वहाँ-वहाँ सब कोई आ यचिकत हो देखने लगते
ह।

िनज िनज ख रामिह सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु िबसेषा॥
भिल रचना मिु न नप
ृ सन कहेऊ। राजाँ मिु दत महासख
ु लहेऊ॥

सबने राम को अपनी-अपनी ओर ही मुख िकए हए देखा, परं तु इसका कुछ भी िवशेष रह य कोई
नह जान सका। मुिन ने राजा से कहा - रं गभिू म क रचना बड़ी सुंदर है (िव ािम - जैसे
िनः पहृ , िवर और ानी मुिन से रचना क शंसा सुनकर) राजा स न हए और उ ह बड़ा
सुख िमला।

- सब मंच ह त मंचु एक संदु र िबसद िबसाल।


मिु न समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे मिहपाल॥ 244॥

सब मंच से एक मंच अिधक सुंदर, उ वल और िवशाल था। ( वयं) राजा ने मुिन सिहत दोन
भाइय को उस पर बैठाया॥ 244॥

ृ िहयँ हारे । जनु राकेश उदय भएँ तारे ॥


भिु ह देिख सब नप
अिस तीित सब के मन माह । राम चाप तोरब सक नाह ॥

भु को देखकर सब राजा दय म ऐसे हार गए (िनराश एवं उ साहहीन हो गए) जैसे पण


ू चं मा
के उदय होने पर तारे काशहीन हो जाते ह। (उनके तेज को देखकर) सबके मन म ऐसा िव ास
हो गया िक राम ही धनुष को तोड़गे, इसम संदेह नह ।

िबनु भंजहे ँ भव धनष


ु ु िबसाला। मेिलिह सीय राम उर माला॥
अस िबचा र गवनह घर भाई। जसु तापु बलु तेजु गवाँई॥

(इधर उनके प को देखकर सबके मन म यह िन य हो गया िक) िशव के िवशाल धनुष को


(जो संभव है न टूट सके) िबना तोड़े भी सीता राम के ही गले म जयमाल डालगी (अथात दोन
तरह से ही हमारी हार होगी और िवजय राम के हाथ रहे गी)। (य सोचकर वे कहने लगे -) हे
भाई! ऐसा िवचारकर यश, ताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो।

िबहसे अपर भूप सिु न बानी। जे अिबबेक अंध अिभमानी॥


तोरे हँ धनष
ु ु याह अवगाहा। िबनु तोर को कुअँ र िबआहा॥

दूसरे राजा, जो अिववेक से अंधे हो रहे थे और अिभमानी थे, यह बात सुनकर बहत हँसे। (उ ह ने
कहा -) धनुष तोड़ने पर भी िववाह होना किठन है (अथात सहज ही म हम जानक को हाथ से
जाने नह दगे), िफर िबना तोड़े तो राजकुमारी को याह ही कौन सकता है।

एक बार कालउ िकन होऊ। िसय िहत समर िजतब हम सोऊ॥


यह सिु न अवर मिहप मस
ु क
ु ाने। धरमसील ह रभगत सयाने॥

काल ही य न हो, एक बार तो सीता के िलए उसे भी हम यु म जीत लगे। यह घमंड क बात
सुनकर दूसरे राजा, जो धमा मा, ह रभ और सयाने थे, मुसकराए।

सो० - सीय िबआहिब राम गरब दू र क र नपृ ह के।


जीित को सक सं ाम दसरथ के रन बाँकुरे ॥ 245॥

(उ ह ने कहा -) राजाओं के गव दूर करके (जो धनुष िकसी से नह टूट सकेगा उसे तोड़कर)
राम सीता को याहगे। (रही यु क बात, सो) महाराज दशरथ के रण म बाँके पु को यु म तो
जीत ही कौन सकता है॥ 245॥

यथ मरह जिन गाल बजाई। मन मोदकि ह िक भूख बत ु ाई॥


िसख हमा र सिु न परम पन
ु ीता। जगदंबा जानह िजयँ सीता॥
गाल बजाकर यथ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कह भख
ू बुझती है? हमारी परम पिव
(िन कपट) सीख को सुनकर सीता को अपने जी म सा ात जग जननी समझो (उ ह प नी प
म पाने क आशा एवं लालसा छोड़ दो),

जगत िपता रघप ु ितिह िबचारी। भ र लोचन छिब लेह िनहारी॥


संदु र सख
ु द सकल गन ु रासी। ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥

और रघुनाथ को जगत का िपता (परमे र) िवचारकर, ने भरकर उनक छिव देख लो (ऐसा
अवसर बार-बार नह िमलेगा)। सुंदर, सुख देनेवाले और सम त गुण क रािश ये दोन भाई िशव
के दय म बसनेवाले ह ( वयं िशव भी िज ह सदा दय म िछपाए रखते ह, वे तु हारे ने के
सामने आ गए ह)।

सध
ु ा समु समीप िबहाई। मग
ृ जलु िनरिख मरह कत धाई॥
करह जाइ जा कहँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥

समीप आए हए (भगव शन प) अमत ृ के समु को छोड़कर तुम (जग जननी जानक को प नी


प म पाने क दुराशा प िम या) मगृ जल को देखकर दौड़कर य मरते हो? िफर (भाई!)
िजसको जो अ छा लगे वही जाकर करो। हमने तो (राम के दशन करके) आज ज म लेने का
फल पा िलया (जीवन और ज म को सफल कर िलया)।

अस किह भले भूप अनरु ागे। प अनूप िबलोकन लागे॥


देखिहं सरु नभ चढ़े िबमाना। बरषिहं सम
ु न करिहं कल गाना॥

ऐसा कहकर अ छे राजा ेम म न होकर राम का अनुपम प देखने लगे। (मनु य क तो बात
ही या) देवता लोग भी आकाश से िवमान पर चढ़े हए दशन कर रहे ह और सुंदर गान करते
हए फूल बरसा रहे ह।

- जािन सअ
ु वस सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतरु सख संदु र सकल सादर चल लवाइ॥ 246॥

तब सुअवसर जानकर जनक ने सीता को बुला भेजा। सब चतुर और सुंदर सिखयाँ आरदपवू क
उ ह िलवा चल ॥ 246॥

िसय सोभा निहं जाइ बखानी। जगदंिबका प गनु खानी॥


उपमा सकल मोिह लघु लाग । ाकृत ना र अंग अनरु ाग ॥

प और गुण क खान जग जननी जानक क शोभा का वणन नह हो सकता। उनके िलए


मुझे (का य क ) सब उपमाएँ तु छ लगती ह, य िक वे लौिकक ि य के अंग से अनुराग
रखनेवाली ह (अथात वे जगत क ि य के अंग को दी जाती ह)। (का य क उपमाएँ सब
ि गुणा मक, माियक जगत से ली गई ह, उ ह भगवान क व पा शि जानक के अ ाकृत,
िच मय अंग के िलए यु करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासा पद बनाना
है)।

िसय बरिनअ तेइ उपमा देई। कुकिब कहाइ अजसु को लेई॥


ज पटत रअ तीय सम सीया। जग अिस जुबित कहाँ कमनीया॥

सीता के वणन म उ ह उपमाओं को देकर कौन कुकिव कहलाए और अपयश का भागी बने
(अथात सीता के िलए उन उपमाओं का योग करना सुकिव के पद से युत होना और अपक ित
मोल लेना है, कोई भी सुकिव ऐसी नादानी एवं अनुिचत काय नह करे गा।) यिद िकसी ी के
साथ सीता क तुलना क जाए तो जगत म ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ (िजसक उपमा उ ह दी
जाए)।

िगरा मख
ु र तन अरध भवानी। रित अित दिु खत अतनु पित जानी॥
िबष बा नी बंधु ि य जेही। किहअ रमासम िकिम बैदहे ी॥

(प ृ वी क ि य क तो बात ही या, देवताओं क ि य को भी यिद देखा जाए तो उनम)


सर वती तो बहत बोलनेवाली ह, पावती अधािगनी ह (अथात अध-नारीनटे र के प म उनका
आधा ही अंग ी का है, शेष आधा अंग पु ष - िशव का है), कामदेव क ी रित पित को िबना
शरीर का (अनंग) जानकर बहत दुःखी रहती है और िजनके िवष और म -जैसे (समु से
उ प न होने के नाते) ि य भाई ह, उन ल मी के समान तो जानक को कहा ही कैसे जाए।

ज छिब सध ु ा पयोिनिध होई। परम पमय क छपु सोई॥


सोभा रजु मंद िसंगा । मथै पािन पंकज िनज मा ॥

(िजन ल मी क बात ऊपर कही गई है, वे िनकली थ खारे समु से, िजसको मथने के िलए
भगवान ने अित ककश पीठवाले क छप का प धारण िकया, र सी बनाई गई महान िवषधर
वासुिक नाग क , मथानी का काय िकया अितशय कठोर मंदराचल पवत ने और उसे मथा सारे
देवताओं और दै य ने िमलकर। िजन ल मी को अितशय शोभा क खान और अनुपम सुंदरी
कहते ह, उनको कट करने म हे तु बने ये सब असुंदर एवं वाभािवक ही कठोर उपकरण। ऐसे
उपकरण से कट हई ल मी जानक क समता को कैसे पा सकती ह। हाँ, इसके िवपरीत) यिद
छिव पी अमतृ का समु हो, परम पमय क छप हो, शोभा प र सी हो, ंग ृ ार (रस) पवत हो
और (उस छिव के समु को) वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे,

- एिह िबिध उपजै लि छ जब संदु रता सख


ु मूल।
तदिप सकोच समेत किब कहिहं सीय समतल ू ॥ 247॥
इस कार (का संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख क मल
ू ल मी उ प न हो, तो भी किव
लोग उसे (बहत) संकोच के साथ सीता के समान कहगे॥ 247॥

चल संग लै सख सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥


सोह नवल तनु संदु र सारी। जगत जनिन अतिु लत छिब भारी॥

सयानी सिखयाँ सीता को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हई चल । सीता के नवल शरीर
पर सुंदर साड़ी सुशोिभत है। जग जननी क महान छिव अतुलनीय है।

भूषन सकल सदु स े सहु ाए। अंग अंग रिच सिख ह बनाए॥
रं गभूिम जब िसय पगु धारी। देिख प मोहे नर नारी॥

सब आभषू ण अपनी-अपनी जगह पर शोिभत ह, िज ह सिखय ने अंग-अंग म भली-भाँित


सजाकर पहनाया है। जब सीता ने रं गभिू म म पैर रखा, तब उनका (िद य) प देखकर ी,
पु ष सभी मोिहत हो गए।

हरिष सरु ह ददुं भ


ु बजाई ं। बरिष सून अपछरा गाई ं॥
पािन सरोज सोह जयमाला। अवचट िचतए सकल भआ ु ला॥

देवताओं ने हिषत होकर नगाड़े बजाए और पु प बरसाकर अ सराएँ गाने लग । सीता के


करकमल म जयमाला सुशोिभत है। सब राजा चिकत होकर अचानक उनक ओर देखने लगे।

सीय चिकत िचत रामिह चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥


मिु न समीप देखे दोउ भाई। लगे ललिक लोचन िनिध पाई॥

सीता चिकत िच से राम को देखने लग , तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीता ने मुिन
के पास (बैठे हए) दोन भाइय को देखा तो उनके ने अपना खजाना पाकर ललचाकर वह
(राम म) जा लगे (ि थर हो गए)।

- गरु जन लाज समाजु बड़ देिख सीय सकुचािन।


लािग िबलोकन सिख ह तन रघब ु ीरिह उर आिन॥ 248॥

परं तु गु जन क लाज से तथा बहत बड़े समाज को देखकर सीता सकुचा गई ं। वे राम को दय
म लाकर सिखय क ओर देखने लग ॥ 248॥

राम पु अ िसय छिब देख। नर ना र ह प रहर िनमेष॥


सोचिहं सकल कहत सकुचाह । िबिध सन िबनय करिहं मन माह ॥

राम का प और सीता क छिव देखकर ी-पु ष ने पलक झपकाना छोड़ िदया (सब एकटक
उ ह को देखने लगे)। सभी अपने मन म सोचते ह, पर कहते सकुचाते ह। मन-ही-मन वे िवधाता
से िवनय करते ह-

ह िबिध बेिग जनक जड़ताई। मित हमा र अिस देिह सहु ाई॥
िबनु िबचार पनु तिज नरनाह। सीय राम कर करै िबबाह॥

हे िवधाता! जनक क मढ़ ू ता को शी हर लीिजए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुि उ ह दीिजए िक


िजससे िबना ही िवचार िकए राजा अपना ण छोड़कर सीता का िववाह राम से कर द।

जगु भल किहिह भाव सब काह। हठ क ह अंतहँ उर दाह॥


एिहं लालसाँ मगन सब लोगू। ब साँवरो जानक जोगू॥

संसार उ ह भला कहे गा, य िक यह बात सब िकसी को अ छी लगती है। हठ करने से अंत म भी
दय जलेगा। सब लोग इसी लालसा म म न हो रहे ह िक जानक के यो य वर तो यह साँवला ही
है।

तब बंदीजन जनक बोलाए। िब रदावली कहत चिल आए॥


कह नप ृ ु जाइ कहह पन मोरा। चले भाट िहयँ हरषु न थोरा॥

तब राजा जनक ने वंदीजन (भाट ) को बुलाया। वे िव दावली (वंश क क ित) गाते हए चले
आए। राजा ने कहा - जाकर मेरा ण सबसे कहो। भाट चले, उनके दय म कम आनंद न था।

- बोले बंदी बचन बर सन


ु ह सकल मिहपाल।
पन िबदेह कर कहिहं हम भज ु ा उठाइ िबसाल॥ 249॥

भाट ने े वचन कहा - हे प ृ वी क पालना करनेवाले सब राजागण! सुिनए। हम अपनी भुजा


उठाकर जनक का िवशाल ण कहते ह - ॥ 249॥

नपृ भजु बल िबधु िसवधनु राह। ग अ कठोर िबिदत सब काह॥


रावनु बानु महाभट भारे । देिख सरासन गवँिहं िसधारे ॥

राजाओं क भुजाओं का बल चं मा है, िशव का धनुष राह है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको
िविदत है। बड़े भारी यो ा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर ग से (चुपके से) चलते
बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक क िह मत न हई)।

सोइ परु ा र कोदंडु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥


ु न जय समेत बैदहे ी। िबनिहं िबचार बरइ हिठ तेही॥
ि भव

उसी िशव के कठोर धनुष को आज इस राज समाज म जो भी तोड़े गा, तीन लोक क िवजय के
साथ ही उसको जानक िबना िकसी िवचार के हठपवू क वरण करगी।

सिु न पन सकल भूप अिभलाषे। भटमानी अितसय मन माखे॥


प रकर बाँिध उठे अकुलाई। चले इ देव ह िसर नाई॥

ण सुनकर सब राजा ललचा उठे । जो वीरता के अिभमानी थे, वे मन म बहत ही तमतमाए। कमर
कसकर अकुलाकर उठे और अपने इ देव को िसर नवाकर चले।

तमिक तािक तिक िसवधनु धरह । उठइ न कोिट भाँित बलु करह ॥
िज ह के कछु िबचा मन माह । चाप समीप महीप न जाह ॥

वे तमककर (बड़े ताव से) िशव के धनुष क ओर देखते ह और िफर िनगाह जमाकर उसे पकड़ते
ह, करोड़ भाँित से जोर लगाते ह, पर वह उठता ही नह । िजन राजाओं के मन म कुछ िववेक है,
वे तो धनुष के पास ही नह जाते।

- तमिक धरिहं धनु मूढ़ नप


ृ उठइ न चलिहं लजाइ॥
मनहँ पाइ भट बाहबलु अिधकु अिधकु ग आइ॥ 250॥

वे मख
ू राजा तमककर (िकटिकटाकर) धनुष को पकड़ते ह, परं तु जब नह उठता तो लजाकर
चले जाते ह, मानो वीर क भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अिधक-अिधक भारी होता जाता है॥
250॥

भूप सहस दस एकिह बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥


डगइ न संभु सरासनु कैस। कामी बचन सती मनु जैस॥

तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नह टलता। िशव का
वह धनुष कैसे नह िडगता था, जैसे कामी पु ष के वचन से सती का मन (कभी) चलायमान
नह होता।

सब नपृ भए जोगु उपहासी। जैस िबनु िबराग सं यासी॥


क रित िबजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥

सब राजा उपहास के यो य हो गए, जैसे वैरा य के िबना सं यासी उपहास के यो य हो जाता है।
क ित, िवजय, बड़ी वीरता - इन सबको वे धनुष के हाथ बरबस हारकर चले गए।

ीहत भए हा र िहयँ राजा। बैठे िनज िनज जाइ समाजा॥


नप
ृ ह िबलोिक जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥

राजा लोग दय से हारकर हीन (हत भ) हो गए और अपने-अपने समाज म जा बैठे। राजाओं को


(असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो ोध म सने हए थे।

दीप दीप के भूपित नाना। आए सिु न हम जो पनु ठाना॥


देव दनज
ु ध र मनज ु सरीरा। िबपल
ु बीर आए रनधीरा॥

मने जो ण ठाना था, उसे सुनकर ीप- ीप के अनेक राजा आए। देवता और दै य भी मनु य
का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहत-से रणधीर वीर आए।

- कुअँ र मनोहर िबजय बिड़ क रित अित कमनीय।


पाविनहार िबरं िच जनु रचेउ न धनु दमनीय॥ 251॥

परं तु धनुष को तोड़कर मनोहर क या, बड़ी िवजय और अ यंत सुंदर क ित को पानेवाला मानो
ा ने िकसी को रचा ही नह ॥ 251॥

कहह कािह यह लाभु न भावा। काहँ न संकर चाप चढ़ावा॥


रहउ चढ़ाउब तोरब भाई। ितलु भ र भूिम न सके छड़ाई॥

किहए, यह लाभ िकसको अ छा नह लगता, परं तु िकसी ने भी शंकर का धनुष नह चढ़ाया। अरे
भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई ितल भर भिू म भी छुड़ा न सका।

अब जिन कोउ माखै भट मानी। बीर िबहीन मही म जानी॥


तजह आस िनज िनज गहृ जाह। िलखा न िबिध बैदिे ह िबबाह॥

अब कोई वीरता का अिभमानी नाराज न हो। मने जान िलया, प ृ वी वीर से खाली हो गई है। अब
आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ, ा ने सीता का िववाह िलखा ही नह ।

सक
ु ृ तु जाइ ज पनु प रहरऊँ। कुअँ र कुआ र रहउ का करऊँ॥
ज जनतेउँ िबनु भट भिु ब भाई। तौ पनु क र होतेउँ न हँसाई॥

यिद ण छोड़ता हँ, तो पु य जाता है, इसिलए या क ँ , क या कँु आरी ही रहे । यिद म जानता
िक प ृ वी वीर से शू य है, तो ण करके उपहास का पा न बनता।

जनक बचन सिु न सब नर नारी। देिख जानिकिह भए दख


ु ारी॥
माखे लखनु कुिटल भइँ भ ह। रदपट फरकत नयन रस ह॥

जनक के वचन सुनकर सभी ी-पु ष जानक क ओर देखकर दुःखी हए, परं तु ल मण
तमतमा उठे , उनक भ ह टेढ़ी हो गई ं, ओठ फड़कने लगे और ने ोध से लाल हो गए।

- किह न सकत रघब


ु ीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल िस बोले िगरा मान॥ 252॥

रघुवीर के डर से कुछ कह तो सकते नह , पर जनक के वचन उ ह बाण-से लगे। (जब न रह


सके तब) राम के चरण कमल म िसर नवाकर वे यथाथ वचन बोले - ॥ 252॥

रघब
ु ंिस ह महँ जहँ कोउ होई। तेिहं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जिस अनिु चत बानी। िब मान रघक ु ु लमिन जानी॥

रघुवंिशय म कोई भी जहाँ होता है, उस समाज म ऐसे वचन कोई नह कहता, जैसे अनुिचत वचन
रघुकुल िशरोमिण राम को उपि थत जानते हए भी जनक ने कहे ह।

सन
ु ह भानकु ु ल पंकज भानू। कहउँ सभ
ु ाउ न कछु अिभमानू॥
ज तु हा र अनस ु ासन पाव । कंदक
ु इव ांड उठाव ॥

ू कुल पी कमल के सय
हे सय ू ! सुिनए, म वभाव ही से कहता हँ, कुछ अिभमान करके नह ,
यिद आपक आ ा पाऊँ, तो म ांड को गद क तरह उठा लँ।ू

काचे घट िजिम डार फोरी। सकउँ मे मूलक िजिम तोरी॥


तव ताप मिहमा भगवाना। को बापरु ो िपनाक परु ाना॥

और उसे क चे घड़े क तरह फोड़ डालँ।ू म सुमे पवत को मल


ू ी क तरह तोड़ सकता हँ, हे
भगवन! आपके ताप क मिहमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है।

नाथ जािन अस आयसु होऊ। कौतकु ु कर िबलोिकअ सोऊ॥


कमल नाल िजिम चाप चढ़ाव । जोजन सत मान लै धाव ॥

ऐसा जानकर हे नाथ! आ ा हो तो कुछ खेल क ँ , उसे भी देिखए। धनुष को कमल क डं डी क


तरह चढ़ाकर उसे सौ योजन तक दौड़ा िलए चला जाऊँ।

- तोर छ क दंड िजिम तव ताप बल नाथ।


ज न कर भु पद सपथ कर न धर धनु भाथ॥ 253॥

हे नाथ! आपके ताप के बल से धनुष को कुकुरमु े (बरसाती छ े) क तरह तोड़ दँू। यिद ऐसा
न क ँ तो भु के चरण क शपथ है, िफर म धनुष और तरकस को कभी हाथ म भी न लँग ू ा॥
253॥

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगािन मिह िद गज डोले॥


सकल लोग सब भूप डेराने। िसय िहयँ हरषु जनकु सकुचाने॥
य ही ल मण ोध भरे वचन बोले िक प ृ वी डगमगा उठी और िदशाओं के हाथी काँप गए। सभी
लोग और सब राजा डर गए। सीता के दय म हष हआ और जनक सकुचा गए।

गरु रघप
ु ित सब मिु न मन माह । मिु दत भए पिु न पिु न पल
ु काह ॥
सयनिहं रघप े समेत िनकट बैठारे ॥
ु ित लखनु नेवारे । म

गु िव ािम , रघुनाथ और सब मुिन मन म स न हए और बार-बार पुलिकत होने लगे। राम ने


इशारे से ल मण को मना िकया और ेम सिहत अपने पास बैठा िलया।

िब वािम समय सभ ु जानी। बोले अित सनेहमय बानी॥


उठह राम भंजह भवचापा। मेटह तात जनक प रतापा॥

िव ािम शुभ समय जानकर अ यंत ेमभरी वाणी बोले - हे राम! उठो, िशव का धनुष तोड़ो और
हे तात! जनक का संताप िमटाओ।

सिु न गु बचन चरन िस नावा। हरषु िबषादु न कछु उर आवा॥


ठाढ़े भए उिठ सहज सभ
ु ाएँ । ठविन जुबा मग
ृ राजु लजाएँ ॥

गु के वचन सुनकर राम ने चरण म िसर नवाया। उनके मन म न हष हआ, न िवषाद और वे


अपनी ऐंड़ (खड़े होने क शान) से जवान िसंह को भी लजाते हए सहज वभाव से ही उठ खड़े
हए।

- उिदत उदयिग र मंच पर रघब


ु र बालपतंग।
िबकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भंग ृ ॥ 254॥

ू के उदय होते ही सब संत पी कमल िखल उठे और


मंच पी उदयाचल पर रघुनाथ पी बाल सय
ने पी भ रे हिषत हो गए॥ 254॥

ृ ह के र आसा िनिस नासी। बचन नखत अवली न कासी॥


नप
मानी मिहप कुमदु सकुचाने। कपटी भूप उलक
ू लक
ु ाने॥

राजाओं क आशा पी राि न हो गई। उनके वचन पी तार के समहू का चमकना बंद हो
गया। (वे मौन हो गए)। अिभमानी राजा पी कुमुद संकुिचत हो गए और कपटी राजा पी उ लू
िछप गए।

भए िबसोक कोक मिु न देवा। ब रसिहं सम ु न जनाविहं सेवा॥


गरु पद बंिद सिहत अनरु ागा। राम मिु न ह सन आयसु मागा॥

मुिन और देवता पी चकवे शोकरिहत हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा कट कर रहे ह। ेम
सिहत गु के चरण क वंदना करके राम ने मुिनय से आ ा माँगी।

सहजिहं चले सकल जग वामी। म मंजु बर कंु जर गामी॥


चलत राम सब परु नर नारी। पल
ु क पू र तन भए सख
ु ारी॥

सम त जगत के वामी राम सुंदर मतवाले े हाथी क -सी चाल से वाभािवक ही चले। राम के
चलते ही नगर भर के सब ी-पु ष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमांच से भर गए।

बंिद िपतर सरु सक ु ृ त सँभारे । ज कछु पु य भाउ हमारे ॥


तौ िसवधनु मन ृ ाल क नाई ं। तोरहँ रामु गनेस गोसाई ं॥

उ ह ने िपतर और देवताओं क वंदना करके अपने पु य का मरण िकया। यिद हमारे पु य का


कुछ भी भाव हो, तो हे गणेश गोसाई!ं राम िशव के धनुष को कमल क डं डी क भाँित तोड़
डाल।

े समेत लिख सिख ह समीप बोलाइ।


- रामिह म
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ िबलखाइ॥ 255॥

राम को (वा स य) ेम के साथ देखकर और सिखय को समीप बुलाकर सीता क माता


नेहवश िबलखकर (िवलाप करती हई-सी) ये वचन बोल - ॥ 255॥

सिख सब कौतक ु देखिनहारे । जेउ कहावत िहतू हमारे ॥


कोउ न बझ
ु ाइ कहइ गरु पाह । ए बालक अिस हठ भिल नाह ॥

हे सखी! ये जो हमारे िहतू कहलाते ह, वे भी सब तमाशा देखनेवाले ह। कोई भी (इनके) गु


िव ािम को समझाकर नह कहता िक ये (राम) बालक ह, इनके िलए ऐसा हठ अ छा नह ।
(जो धनुष रावण और बाण - जैसे जगि जयी वीर के िहलाए न िहल सका, उसे तोड़ने के िलए
मुिन िव ािम का राम को आ ा देना और राम का उसे तोड़ने के िलए चल देना रानी को हठ
जान पड़ा, इसिलए वे कहने लग िक गु िव ािम को कोई समझाता भी नह ।)

रावन बान छुआ निहं चापा। हारे सकल भूप क र दापा॥


सो धनु राजकुअँर कर देह । बाल मराल िक मंदर लेह ॥

रावण और बाणासुर ने िजस धनुष को छुआ तक नह और सब राजा घमंड करके हार गए, वही
धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ म दे रहे ह। हंस के ब चे भी कह मंदराचल पहाड़ उठा
सकते ह?

भूप सयानप सकल िसरानी। सिख िबिध गित कछु जाित न जानी॥
बोली चतरु सखी मदृ ु बानी। तेजवंत लघु गिनअ न रानी॥
(और तो कोई समझाकर कहे या नह , राजा तो बड़े समझदार और ानी ह, उ ह तो गु को
समझाने क चे ा करनी चािहए थी, परं तु मालमू होता है) राजा का भी सारा सयानापन समा
हो गया। हे सखी! िवधाता क गित कुछ जानने म नह आती (य कहकर रानी चुप हो रह )। तब
एक चतुर (राम के मह व को जाननेवाली) सखी कोमल वाणी से बोली - हे रानी! तेजवान को
(देखने म छोटा होने पर भी) छोटा नह िगनना चािहए।

कहँ कंु भज कहँ िसंधु अपारा। सोषेउ सज


ु सु सकल संसारा॥
रिब मंडल देखत लघु लागा। उदयँ तासु ितभव ु न तम भागा॥

कहाँ घड़े से उ प न होनेवाले (छोटे-से) मुिन अग य और कहाँ समु ? िकंतु उ ह ने उसे सोख
िलया, िजसका सुयश सारे संसार म छाया हआ है। सय ू मंडल देखने म छोटा लगता है, पर उसके
उदय होते ही तीन लोक का अंधकार भाग जाता है।

- मं परम लघु जासु बस िबिध ह र हर सरु सब।


महाम गजराज कहँ बस कर अंकुस खब॥ 256॥

िजसके वश म ा, िव णु, िशव और सभी देवता ह, वह मं अ यंत छोटा होता है। महान मतवाले
गजराज को छोटा-सा अंकुश वश म कर लेता है॥ 256॥

काम कुसम ु धनु सायक ली हे। सकल भवु न अपन बस क हे॥


देिब तिजअ संसउ अस जानी। भंजब धनष
ु ु राम सन
ु ु रानी॥

कामदेव ने फूल का ही धनुष-बाण लेकर सम त लोक को अपने वश म कर रखा है। हे देवी!


ऐसा जानकर संदेह याग दीिजए। हे रानी! सुिनए, राम धनुष को अव य ही तोड़गे।

सखी बचन सिु न भै परतीती। िमटा िबषादु बढ़ी अित ीती॥


तब रामिह िबलोिक बैदहे ी। सभय दयँ िबनवित जेिह तेही॥

सखी के वचन सुनकर रानी को (राम के साम य के संबंध म) िव ास हो गया। उनक उदासी
िमट गई और राम के ित उनका ेम अ यंत बढ़ गया। उस समय राम को देखकर सीता भयभीत
दय से िजस-ितस (देवता) से िवनती कर रही ह।

मनह मन मनाव अकुलानी। होह स न महेस भवानी॥


करह सफल आपिन सेवकाई। क र िहतु हरह चाप ग आई॥

वे याकुल होकर मन-ही-मन मना रही ह - हे महे श-भवानी! मुझ पर स न होइए, मने आपक
जो सेवा क है, उसे सुफल क िजए और मुझ पर नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीिजए।
गननायक बर दायक देवा। आजु लग क ि हउँ तअ ु सेवा॥
बार बार िबनती सिु न मोरी। करह चाप गु ता अित थोरी॥

हे गण के नायक, वर देनेवाले देवता गणेश! मने आज ही के िलए तु हारी सेवा क थी। बार-बार
मेरी िवनती सुनकर धनुष का भारीपन बहत ही कम कर दीिजए।

- देिख देिख रघबु ीर तन सरु मनाव ध र धीर।


भरे िबलोचन म े जल पल ु कावली सरीर॥ 257॥

रघुनाथ क ओर देख-देखकर सीता धीरज धरकर देवताओं को मना रही ह। उनके ने म ेम


के आँसू भरे ह और शरीर म रोमांच हो रहा है॥ 257॥

नीक िनरिख नयन भ र सोभा। िपतु पनु सिु म र बह र मनु छोभा॥


अहह तात दा िन हठ ठानी। समझ
ु त निहं कछु लाभु न हानी॥

अ छी तरह ने भरकर राम क शोभा देखकर, िफर िपता के ण का मरण करके सीता का
मन ु ध हो उठा। (वे मन-ही-मन कहने लग -) अहो! िपता ने बड़ा ही किठन हठ ठाना है, वे
लाभ-हािन कुछ भी नह समझ रहे ह।

सिचव सभय िसख देइ न कोई। बध ु समाज बड़ अनिु चत होई॥


कहँ धनु कुिलसह चािह कठोरा। कहँ यामल मदृ ग
ु ात िकसोरा॥

मं ी डर रहे ह, इसिलए कोई उ ह सीख भी नह देता, पंिडत क सभा म यह बड़ा अनुिचत हो


रहा है। कहाँ तो व से भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमल शरीर िकशोर यामसुंदर!

िबिध केिह भाँित धर उर धीरा। िसरस सम


ु न कन बेिधअ हीरा॥
सकल सभा कै मित भै भोरी। अब मोिह संभच ु ाप गित तोरी॥

हे िवधाता! म दय म िकस तरह धीरज ध ँ , िसरस के फूल के कण से कह हीरा छे दा जाता है।


सारी सभा क बुि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे िशव के धनुष! अब तो मुझे तु हारा ही
आसरा है।

िनज जड़ता लोग ह पर डारी। होिह ह अ रघप


ु ितिह िनहारी॥
अित प रताप सीय मन माह । लव िनमेष जुग सय सम जाह ॥

तुम अपनी जड़ता लोग पर डालकर, रघुनाथ (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) ह के
हो जाओ। इस कार सीता के मन म बड़ा ही संताप हो रहा है। िनमेष का एक लव (अंश) भी सौ
युग के समान बीत रहा है।
- भिु ह िचतइ पिु न िचतव मिह राजत लोचन लोल।
खेलत मनिसज मीन जुग जनु िबधु मंडल डोल॥ 258॥

भु राम को देखकर िफर प ृ वी क ओर देखती हई सीता के चंचल ने इस कार शोिभत हो रहे


ह, मानो चं मंडल पी डोल म कामदेव क दो मछिलयाँ खेल रही ह ॥ 258॥

िगरा अिलिन मख
ु पंकज रोक । गट न लाज िनसा अवलोक ॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैस परम कृपन कर सोना॥

सीता क वाणी पी मरी को उनके मुख पी कमल ने रोक रखा है। लाज पी राि को देखकर
वह कट नह हो रही है। ने का जल ने के कोने (कोये) म ही रह जाता है। जैसे बड़े भारी
कंजस
ू का सोना कोने म ही गड़ा रह जाता है।

सकुची याकुलता बिड़ जानी। ध र धीरजु तीित उर आनी॥


तन मन बचन मोर पनु साचा। रघप
ु ित पद सरोज िचतु राचा॥

अपनी बढ़ी हई याकुलता जानकर सीता सकुचा गई ं और धीरज धरकर दय म िव ास ले आई ं


िक यिद तन, मन और वचन से मेरा ण स चा है और रघुनाथ के चरण कमल म मेरा िच
वा तव म अनुर है,

तौ भगवानु सकल उर बासी। क रिह मोिह रघब ु र कै दासी॥


जेिह क जेिह पर स य सनेह। सो तेिह िमलइ न कछु संदहे ॥

तो सबके दय म िनवास करनेवाले भगवान मुझे रघु े राम क दासी अव य बनाएँ गे। िजसका
िजस पर स चा नेह होता है, वह उसे िमलता ही है, इसम कुछ भी संदेह नह है।

भु तन िचतइ मे तन ठाना। कृपािनधान राम सबु जाना॥


िसयिह िबलोिक तकेउ धनु कैस। िचतव ग लघु यालिह जैस॥

भु क ओर देखकर सीता ने शरीर के ारा ेम ठान िलया (अथात यह िन य कर िलया िक यह


शरीर इ ह का होकर रहे गा या रहे गा ही नह ) कृपािनधान राम सब जान गए। उ ह ने सीता को
देखकर धनुष क ओर कैसे ताका, जैसे ग ड़ छोटे-से साँप क ओर देखते ह।

- लखन लखेउ रघब ु ंसमिन ताकेउ हर कोदंडु।


पलु िक गात बोले बचन चरन चािप ांडु॥ 259॥

इधर जब ल मण ने देखा िक रघुकुलमिण राम ने िशव के धनुष क ओर ताका है, तो वे शरीर से


पुलिकत हो ांड को चरण से दबाकर िन निलिखत वचन बोले - ॥ 259॥
िदिसकंु जरह कमठ अिह कोला। धरह धरिन ध र धीर न डोला॥
रामु चहिहं संकर धनु तोरा। होह सजग सिु न आयसु मोरा॥

हे िद गजो! हे क छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर प ृ वी को थामे रहो, िजससे यह िहलने न
पाए। राम िशव के धनुष को तोड़ना चाहते ह। मेरी आ ा सुनकर सब सावधान हो जाओ।

चाप समीप रामु जब आए। नर ना र ह सरु सक


ु ृ त मनाए॥
सब कर संसउ अ अ यानू। मंद महीप ह कर अिभमानू॥

राम जब धनुष के समीप आए, तब सब ी-पु ष ने देवताओं और पु य को मनाया। सबका


संदेह और अ ान, नीच राजाओं का अिभमान,

भग ु ित के र गरब ग आई। सरु मिु नबर ह के र कदराई॥


ृ प
िसय कर सोचु जनक पिछतावा। रािन ह कर दा न दख ु दावा॥

परशुराम के गव क गु ता, देवता और े मुिनय क कातरता (भय), सीता का सोच, जनक


का प ा ाप और रािनय के दा ण दुःख का दावानल,

संभच
ु ाप बड़ बोिहतु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहबल िसंधु अपा । चहत पा निहं कोउ कड़हा ॥

ये सब िशव के धनुष पी बड़े जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढ़े । ये राम क


भुजाओं के बल पी अपार समु के पार जाना चाहते ह, परं तु कोई केवट नह है।

- राम िबलोके लोग सब िच िलखे से देिख।


िचतई सीय कृपायतन जानी िबकल िबसेिष॥ 260॥

राम ने सब लोग क ओर देखा और उ ह िच म िलखे हए-से देखकर िफर कृपाधाम राम ने


सीता क ओर देखा और उ ह िवशेष याकुल जाना॥ 260॥

देखी िबपल ु िबकल बैदहे ी। िनिमष िबहात कलप सम तेही।


तिृ षत बा र िबनु जो तनु यागा। मएु ँ करइ का सध
ु ा तड़ागा॥

उ ह ने जानक को बहत ही िवकल देखा। उनका एक-एक ण क प के समान बीत रहा था।
यिद यासा आदमी पानी के िबना शरीर छोड़ दे , तो उसके मर जाने पर अमत
ृ का तालाब भी या
करे गा?

का बरषा सब कृषी सख
ु ान। समय चकु पिु न का पिछतान॥
ु के लिख ीित िबसेषी॥
अस िजयँ जािन जानक देखी। भु पल
सारी खेती के सख
ू जाने पर वषा िकस काम क ? समय बीत जाने पर िफर पछताने से या
लाभ? जी म ऐसा समझकर राम ने जानक क ओर देखा और उनका िवशेष ेम लखकर वे
पुलिकत हो गए।

गरु िह नामु मनिहं मन क हा। अित लाघवँ उठाइ धनु ली हा॥


दमकेउ दािमिन िजिम जब लयऊ। पिु न नभ धनु मंडल सम भयऊ॥

मन-ही-मन उ ह ने गु को णाम िकया और बड़ी फुत से धनुष को उठा िलया। जब उसे (हाथ
म) िलया, तब वह धनुष िबजली क तरह चमका और िफर आकाश म मंडल-जैसा (मंडलाकार)
हो गया।

लेत चढ़ावत खचत गाढ़। काहँ न लखा देख सबु ठाढ़॥


तेिह छन राम म य धनु तोरा। भरे भव
ु न धिु न घोर कठोरा॥

लेते, चढ़ाते और जोर से ख चते हए िकसी ने नह लखा (अथात ये तीन काम इतनी फुत से हए
िक धनुष को कब उठाया, कब चढ़ाया और कब ख चा, इसका िकसी को पता नह लगा); सबने
राम को (धनुष ख चे) खड़े देखा। उसी ण राम ने धनुष को बीच से तोड़ डाला। भयंकर कठोर
विन से (सब) लोक भर गए।

छं ० - भरे भव
ु न घोर कठोर रव रिब बािज तिज मारगु चले।
िच करिहं िद गज डोल मिह अिह कोल कू म कलमले॥
सरु असरु मिु न कर कान दी ह सकल िबकल िबचारह ।
कोदंड खंडउे राम तल ु सी जयित बचन उचारह ॥

घोर, कठोर श द से (सब) लोक भर गए, सय ू के घोड़े माग छोड़कर चलने लगे। िद गज
िच घाड़ने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और क छप कलमला उठे । देवता, रा स और
मुिन कान पर हाथ रखकर सब याकुल होकर िवचारने लगे। तुलसीदास कहते ह; (जब सब को
िन य हो गया िक) राम ने धनुष को तोड़ डाला, तब सब 'राम क जय' बोलने लगे।

सो० - संकर चापु जहाजु साग रघब


ु र बाहबल।ु
बूड़ सो सकल समाजु चढ़ा जो थमिहं मोह बस॥ 261॥

िशव का धनुष जहाज है और राम क भुजाओं का बल समु है। (धनुष टूटने से) वह सारा समाज
डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था। (िजसका वणन ऊपर आया है)॥ 261॥

भु दोउ चापखंड मिह डारे । देिख लोग सब भए सख ु ारे ॥


कौिसक प पयोिनिध पावन। म े बा र अवगाह सहु ावन॥
भु ने धनुष के दोन टुकड़े प ृ वी पर डाल िदए। यह देखकर सब लोग सुखी हए। िव ािम पी
पिव समु म, िजसम ेम पी सुंदर अथाह जल भरा है,

राम प राकेसु िनहारी। बढ़त बीिच पल


ु काविल भारी॥
बाजे नभ गहगहे िनसाना। देवबधू नाचिहं क र गाना॥

राम पी पण
ू चं को देखकर पुलकावली पी भारी लहर बढ़ने लग । आकाश म बड़े जोर से
नगाड़े बजने लगे और देवांगनाएँ गान करके नाचने लग ।

ािदक सरु िस मन ु ीसा। भिु ह संसिहं देिहं असीसा॥


ब रसिहं सम
ु न रं ग बह माला। गाविहं िकंनर गीत रसाला॥

ा आिद देवता, िस और मुनी र लोग भु क शंसा कर रहे ह और आशीवाद दे रहे ह। वे


रं ग-िबरं गे फूल और मालाएँ बरसा रहे ह। िक नर लोग रसीले गीत गा रहे ह।

रही भवु न भ र जय जय बानी। धनष ु भंग धिु न जात न जानी॥


मिु दत कहिहं जहँ तहँ नर नारी। भंजउे राम संभध
ु नु भारी॥

सारे ांड म जय-जयकार क विन छा गई, िजसम धनुष टूटने क विन जान ही नह पड़ती।
जहाँ-तहाँ ी-पु ष स न होकर कह रहे ह िक राम ने िशव के भारी धनुष को तोड़ डाला।

- बंदी मागध सूतगन िब द बदिहं मितधीर।


करिहं िनछाव र लोग सब हय गय धन मिन चीर॥ 262॥

धीर बुि वाले, भाट, मागध और सत


ू लोग िव दावली (क ित) का बखान कर रहे ह। सब लोग
घोड़े , हाथी, धन, मिण और व िनछावर कर रहे ह॥ 262॥

झाँिझ मदृ ग
ं संख सहनाई। भे र ढोल ददुं भ
ु ी सहु ाई॥
बाजिहं बह बाजने सहु ाए। जहँ तहँ जुबित ह मंगल गाए॥

झाँझ, मदृ ंग, शंख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आिद बहत कार के सुंदर बाजे बज
रहे ह। जहाँ-तहाँ युवितयाँ मंगल गीत गा रही ह।

सिख ह सिहत हरषी अित रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सख
ु ु सोचु िबहाई। पैरत थक थाह जनु पाई॥

सिखय सिहत रानी अ यंत हिषत हई ं, मानो सख


ू ते हए धान पर पानी पड़ गया हो। जनक ने
सोच याग कर सुख ा िकया। मानो तैरते-तैरते थके हए पु ष ने थाह पा ली हो।
ीहत भए भूप धनु टूट।े जैस िदवस दीप छिब छूटे॥
ु िह बरिनअ केिह भाँती। जनु चातक पाइ जलु वाती॥
सीय सख

धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसेहीन (िन तेज) हो गए, जैसे िदन म दीपक क शोभा जाती
रहती है। सीता का सुख िकस कार वणन िकया जाए, जैसे चातक वाती का जल पा गई हो।

रामिह लखनु िबलोकत कैस। सिसिह चकोर िकसोरकु जैस॥


सतानंद तब आयसु दी हा। सीताँ गमनु राम पिहं क हा॥

राम को ल मण िकस कार देख रहे ह, जैसे चं मा को चकोर का ब चा देख रहा हो। तब
शतानंद ने आ ा दी और सीता ने राम के पास गमन िकया।

- संग सख संदु र चतरु गाविहं मंगलचार।


गवनी बाल मराल गित सष ु मा अंग अपार॥ 263॥

साथ म सुंदर चतुर सिखयाँ मंगलाचार के गीत गा रही ह, सीता बालहंिसनी क चाल से चल ।
उनके अंग म अपार शोभा है॥ 263॥

सिख ह म य िसय सोहित कैस। छिबगन म य महाछिब जैस॥


कर सरोज जयमाल सहु ाई। िब व िबजय सोभा जेिहं छाई॥

सिखय के बीच म सीता कैसी शोिभत हो रही ह, जैसे बहत-सी छिवय के बीच म महाछिव हो।
करकमल म सुंदर जयमाला है, िजसम िव िवजय क शोभा छाई हई है।

तन सकोचु मन परम उछाह। गूढ़ म े ु लिख परइ न काह॥


जाइ समीप राम छिब देखी। रिह जनु कुअँ र िच अवरे खी॥

सीता के शरीर म संकोच है, पर मन म परम उ साह है। उनका यह गु ेम िकसी को जान नह
पड़ रहा है। समीप जाकर, राम क शोभा देखकर राजकुमारी सीता जैसे िच म िलखी-सी रह
गई ं।

चतरु सख लिख कहा बझु ाई। पिहरावह जयमाल सहु ाई॥


सन
ु त जुगल कर माल उठाई। म े िबबस पिहराइ न जाई॥

चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा - सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर
सीता ने दोन हाथ से माला उठाई, पर ेम म िववश होने से पहनाई नह जाती।

सोहत जनु जुग जलज सनाला। सिसिह सभीत देत जयमाला॥


गाविहं छिब अवलोिक सहेली। िसयँ जयमाल राम उर मेली॥
(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोिभत हो रहे ह) मानो डं िडय सिहत दो कमल चं मा को डरते हए
जयमाला दे रहे ह । इस छिव को देखकर सिखयाँ गाने लग । तब सीता ने राम के गले म
जयमाला पहना दी।

सो० - रघब
ु र उर जयमाल देिख देव ब रसिहं सम
ु न।
सकुचे सकल भआ ु ल जनु िबलोिक रिब कुमदु गन॥ 264॥

रघुनाथ के दय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। सम त राजागण इस कार


सकुचा गए मानो सय
ू को देखकर कुमुद का समहू िसकुड़ गया हो॥ 264॥

परु अ योम बाजने बाजे। खल भए मिलन साधु सब राजे॥


सरु िकंनर नर नाग मन
ु ीसा। जय जय जय किह देिहं असीसा॥

नगर और आकाश म बाजे बजने लगे। दु लोग उदास हो गए और स जन लोग सब स न हो


गए। देवता, िक नर, मनु य, नाग और मुनी र जय-जयकार करके आशीवाद दे रहे ह।

नाचिहं गाविहं िबबधु बधूट । बार बार कुसमु ांजिल छूट ॥


जहँ तहँ िब बेद धिु न करह । बंदी िब रदाविल उ चरह ॥

देवताओं क ि याँ नाचती-गाती ह। बार-बार हाथ से पु प क अंजिलयाँ छूट रही ह। जहाँ-तहाँ


वेद विन कर रहे ह और भाट लोग िव दावली (कुलक ित) बखान रहे ह।

मिहं पाताल नाक जसु यापा। राम बरी िसय भंजउे चापा॥
करिहं आरती परु नर नारी। देिहं िनछाव र िब िबसारी॥

प ृ वी, पाताल और वग तीन लोक म यश फै ल गया िक राम ने धनुष तोड़ िदया और सीता का
वरण कर िलया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे ह और अपनी पँजू ी (हैिसयत) को भुलाकर
(साम य से बहत अिधक) िनछावर कर रहे ह।

सोहित सीय राम कै जोरी। छिब िसंगा मनहँ एक ठोरी॥


सख कहिहं भु पद गह सीता। करित न चरन परस अित भीता॥

सीताराम क जोड़ी ऐसी सुशोिभत हो रही है मानो सुंदरता और ंग


ृ ार रस एक हो गए ह ।
सिखयाँ कह रही ह - सीते! वामी के चरण छुओ; िकंतु सीता अ यंत भयभीत हई उनके चरण
नह छूत ।

- गौतम ितय गित सरु ित क र निहं परसित पग पािन।


मन िबहसे रघब
ु ंसमिन ीित अलौिकक जािन॥ 265॥
गौतम क ी अह या क गित का मरण करके सीता राम के चरण को हाथ से पश नह
कर रही ह। सीता क अलौिकक ीित जानकर रघुकुल मिण राम मन म हँसे॥ 265॥

तब िसय देिख भूप अिभलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥


उिठ उिठ पिह र सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥

उस समय सीता को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे । वे दु , कुपत


ू और मढ़
ू राजा मन म
बहत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे।

लेह छड़ाइ सीय कह कोऊ। ध र बाँधह नप ृ बालक दोऊ॥


तोर धनषु ु चाड़ निहं सरई। जीवत हमिह कुअँ र को बरई॥

कोई कहते ह, सीता को छीन लो और दोन राजकुमार को पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़ने से ही
चाह नह सरे गी (परू ी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन याह सकता है?

ज िबदेह कछु करै सहाई। जीतह समर सिहत दोउ भाई॥


साधु भूप बोले सिु न बानी। राजसमाजिह लाज लजानी॥

यिद जनक कुछ सहायता कर, तो यु म दोन भाइय सिहत उसे भी जीत लो। ये वचन
सन
ु कर साधु राजा बोले - इस (िनल ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई।

बलु तापु बीरता बड़ाई। नाक िपनाकिह संग िसधाई॥


सोइ सूरता िक अब कहँ पाई। अिस बिु ध तौ िबिध मँहु मिस लाई॥

अरे ! तु हारा बल, ताप, वीरता, बड़ाई और नाक ( ित ा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही
वीरता थी िक अब कह से िमली है? ऐसी दु बुि है, तभी तो िवधाता ने तु हारे मुख पर
कािलख लगा दी।

- देखह रामिह नयन भ र तिज इ रषा मदु कोह।।


लखन रोषु पावकु बल जािन सलभ जिन होह॥ 266॥

ई या, घमंड और ोध छोड़कर ने भरकर राम (क छिव) को देख लो। ल मण के ोध को


बल अि न जानकर उसम पतंगे मत बनो॥ 266॥

बैनतेय बिल िजिम चह कागू। िजिम ससु चहै नाग अ र भागू॥


िजिम चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै िसव ोही॥

जैसे ग ड़ का भाग कौआ चाहे , िसंह का भाग खरगोश चाहे , िबना कारण ही ोध करनेवाला
अपनी कुशल चाहे , िशव से िवरोध करनेवाला सब कार क संपि चाहे ,
लोभी लोलपु कल क रित चहई। अकलंकता िक कामी लहई॥
ह र पद िबमखु परम गित चाहा। तस तु हार लालचु नरनाहा॥

लोभी-लालची सुंदर क ित चाहे , कामी मनु य िन कलंकता (चाहे तो) या पा सकता है? और
जैसे ह र के चरण से िवमुख मनु य परमगित (मो ) चाहे , हे राजाओ! सीता के िलए तु हारा
लालच भी वैसा ही यथ है।

कोलाहलु सिु न सीय सकानी। सख लवाइ गई ं जहँ रानी॥


रामु सभ
ु ायँ चले गु पाह । िसय सनेह बरनत मन माह ॥

कोलाहल सुनकर सीता शंिकत हो गई ं। तब सिखयाँ उ ह वहाँ ले गई ं, जहाँ रानी (सीता क


माता) थ । राम मन म सीता के ेम का बखान करते हए वाभािवक चाल से गु के पास चले।

रािन ह सिहत सोच बस सीया। अब ध िबिधिह काह करनीया॥


भूप बचन सिु न इत उत तकह । लखनु राम डर बोिल न सकह ॥

रािनय सिहत सीता (दु राजाओं के दुवचन सुनकर) सोच के वश ह िक न जाने िवधाता अब
या करनेवाले ह। राजाओं के वचन सुनकर ल मण इधर-उधर ताकते ह, िकंतु राम के डर से
कुछ बोल नह सकते।

- अ न नयन भक
ृ ु टी कुिटल िचतवत नप
ृ ह सकोप।
मनहँ म गजगन िनरिख िसंघिकसोरिह चोप॥ 267॥

उनके ने लाल और भ ह टेढ़ी हो गई ं और वे ोध से राजाओं क ओर देखने लगे, मानो मतवाले


हािथय का झंुड देखकर िसंह के ब चे को जोश आ गया हो॥ 267॥

खरभ देिख िबकल परु नार । सब िमिल देिहं महीप ह गार ॥


तेिहं अवसर सिु न िसवधनु भंगा। आयउ भग
ृ क
ु ु ल कमल पतंगा॥

खलबली देखकर जनकपुरी क ि याँ याकुल हो गई ं और सब िमलकर राजाओं को गािलयाँ


देने लग । उसी मौके पर िशव के धनुष का टूटना सुनकर भग
ृ ुकुल पी कमल के सय
ू परशुराम
आए।

देिख महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लक ु ाने॥


गौ र सरीर भूित भल ाजा। भाल िबसाल ि पंड
ु िबराजा॥

इ ह देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (िछप) गए ह । गोरे
शरीर पर िवभिू त (भ म) बड़ी फब रही है और िवशाल ललाट पर ि पुंड िवशेष शोभा दे रहा है।
सीस जटा सिसबदनु सहु ावा। रस बस कछुक अ न होइ आवा॥
भक
ृ ु टी कुिटल नयन रस राते। सहजहँ िचतवत मनहँ रसाते॥

िसर पर जटा है, सुंदर मुखचं ोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भ ह टेढ़ी और आँख ोध
से लाल ह। सहज ही देखते ह, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो ोध कर रहे ह।

बष
ृ भ कंध उर बाह िबसाला। चा जनेउ माल मग ृ छाला॥
किट मिु नबसन तनू दइु बाँध। धनु सर कर कुठा कल काँध॥

बैल के समान (ऊँचे और पु ) कंधे ह; छाती और भुजाएँ िवशाल ह। सुंदर य ोपवीत धारण िकए,
माला पहने और मगृ चम िलए ह। कमर म मुिनय का व (व कल) और दो तरकस बाँधे ह। हाथ
म धनुष-बाण और सुंदर कंधे पर फरसा धारण िकए ह।

- सांत बेषु करनी किठन बरिन न जाइ स प।


ध र मिु नतनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥ 268॥

शांत वेष है, परं तु करनी बहत कठोर ह; व प का वणन नह िकया जा सकता। मानो वीर रस
ही मुिन का शरीर धारण करके, जहाँ सब राजा लोग ह, वहाँ आ गया हो॥ 268॥

देखत भगृ प
ु ित बेषु कराला। उठे सकल भय िबकल भआ
ु ला॥
िपतु समेत किह किह िनज नामा। लगे करन सब दंड नामा॥

परशुराम का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से याकुल हो उठ खड़े हए और िपता सिहत


अपना नाम कह-कहकर सब दंडवत णाम करने लगे।

जेिह सभ
ु ायँ िचतविहं िहतु जानी। सो जानइ जनु आइ खटु ानी॥
जनक बहो र आइ िस नावा। सीय बोलाइ नामु करावा॥

परशुराम िहत समझकर भी सहज ही िजसक ओर देख लेते ह, वह समझता है मानो मेरी आयु
परू ी हो गई। िफर जनक ने आकर िसर नवाया और सीता को बुलाकर णाम कराया।

आिसष दीि ह सख हरषान । िनज समाज लै गई ं सयान ॥


िब वािम ु िमले पिु न आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥

परशुराम ने सीता को आशीवाद िदया। सिखयाँ हिषत हई ं और (वहाँ अब अिधक देर ठहरना ठीक
न समझकर) वे सयानी सिखयाँ उनको अपनी मंडली म ले गई ं। िफर िव ािम आकर िमले और
उ ह ने दोन भाइय को उनके चरण कमल पर िगराया।

रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीि ह असीस देिख भल जोटा॥


रामिह िचतइ रहे थिक लोचन। प अपार मार मद मोचन॥

(िव ािम ने कहा -) ये राम और ल मण राजा दशरथ के पु ह। उनक सुंदर जोड़ी देखकर
परशुराम ने आशीवाद िदया। कामदेव के भी मद को छुड़ानेवाले राम के अपार प को देखकर
उनके ने चिकत ( तंिभत) हो रहे ।

- बह र िबलोिक िबदेह सन कहह काह अित भीर।


पूँछत जािन अजान िजिम यापेउ कोपु सरीर॥ 269॥

िफर सब देखकर, जानते हए भी अनजान क तरह जनक से पछ


ू ते ह िक कहो, यह बड़ी भारी
भीड़ कैसी है? उनके शरीर म ोध छा गया॥ 269॥

समाचार किह जनक सनु ाए। जेिह कारन महीप सब आए॥


ु त बचन िफ र अनत िनहारे । देखे चापखंड मिह डारे ॥
सन

िजस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन
सुनकर परशुराम ने िफरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकड़े प ृ वी पर पड़े हए िदखाई िदए।

अित रस बोले बचन कठोरा। कह जड़ जनक धनष ु कै तोरा॥


बेिग देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ मिह जहँ लिह तव राजू॥

अ यंत ोध म भरकर वे कठोर वचन बोले - रे मख ू जनक! बता, धनुष िकसने तोड़ा? उसे शी
िदखा, नह तो अरे मढ़
ू ! आज म जहाँ तक तेरा रा य है, वहाँ तक क प ृ वी उलट दँूगा।

अित ड उत देत नप ृ ु नाह । कुिटल भूप हरषे मन माह ॥


सरु मिु न नाग नगर नर नारी। सोचिहं सकल ास उर भारी॥

राजा को अ यंत डर लगा, िजसके कारण वे उ र नह देते। यह देखकर कुिटल राजा मन म बड़े
स न हए। देवता, मुिन, नाग और नगर के ी-पु ष सभी सोच करने लगे, सबके दय म बड़ा
भय है।

मन पिछताित सीय महतारी। िबिध अब सँवरी बात िबगारी॥


भग
ृ प
ु ित कर सभ
ु ाउ सिु न सीता। अरध िनमेष कलप सम बीता॥

सीता क माता मन म पछता रही ह िक हाय! िवधाता ने अब बनी-बनाई बात िबगाड़ दी। परशुराम
का वभाव सुनकर सीता को आधा ण भी क प के समान बीतने लगा।

- सभय िबलोके लोग सब जािन जानक भी ।


दयँ न हरषु िबषादु कछु बोलेरघब
ु ी ॥ 270॥
तब राम सब लोग को भयभीत देखकर और सीता को डरी हई जानकर बोले - उनके दय म न
कुछ हष था न िवषाद - ॥ 270॥

ु नु भंजिनहारा। होइिह केउ एक दास तु हारा॥


नाथ संभध
आयसु काह किहअ िकन मोही। सिु न रसाइ बोले मिु न कोही॥

हे नाथ! िशव के धनुष को तोड़नेवाला आपका कोई एक दास ही होगा। या आ ा है, मुझसे य
नह कहते? यह सुनकर ोधी मुिन रसाकर बोले -

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अ र करनी क र क रअ लराई॥


सन
ु ह राम जेिहं िसवधनु तोरा। सहसबाह सम सो रपु मोरा॥

सेवक वह है जो सेवा का काम करे । श ु का काम करके तो लड़ाई ही करनी चािहए। हे राम!
सुनो, िजसने िशव के धनुष को तोड़ा है, वह सह बाह के समान मेरा श ु है।

सो िबलगाउ िबहाइ समाजा। न त मारे जैहिहं सब राजा॥


सिु न मिु न बचन लखन मस
ु क
ु ाने। बोले परसधु रिह अपमाने॥

वह इस समाज को छोड़कर अलग हो जाए, नह तो सभी राजा मारे जाएँ गे। मुिन के वचन सुनकर
ल मण मुसकराए और परशुराम का अपमान करते हए बोले -

बह धनहु तोर ल रकाई ं। कबहँ न अिस रस क ि ह गोसाई ं॥


एिह धनु पर ममता केिह हेत।ू सिु न रसाइ कह भग ु ु लकेत॥
ृ क ू

हे गोसाई!ं लड़कपन म हमने बहत-सी धनुिहयाँ तोड़ डाल । िकंतु आपने ऐसा ोध कभी नह
िकया। इसी धनुष पर इतनी ममता िकस कारण से है? यह सुनकर भग ृ ुवंश क वजा व प
परशुराम कुिपत होकर कहने लगे।

- रे नप
ृ बालक काल बस बोलत तोिह न सँभार।
धनहु ी सम ितपरु ा र धनु िबिदत सकल संसार॥ 271॥

अरे राजपु ! काल के वश होने से तुझे बोलने म कुछ भी होश नह है। सारे संसार म िव यात
िशव का यह धनुष या धनुही के समान है?॥ 271॥

लखन कहा हँिस हमर जाना। सन ु ह देव सब धनष


ु समाना॥
का छित लाभु जून धनु तोर। देखा राम नयन के भोर॥

ल मण ने हँसकर कहा - हे देव! सुिनए, हमारे जान म तो सभी धनुष एक-से ही ह। पुराने धनुष
के तोड़ने म या हािन-लाभ! राम ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था।
छुअत टूट रघप
ु ितह न दोसू। मिु न िबनु काज क रअ कत रोसू॥
बोले िचतइ परसु क ओरा। रे सठ सन ु िे ह सभ
ु ाउ न मोरा॥

िफर यह तो छूते ही टूट गया, इसम रघुनाथ का भी कोई दोष नह है। मुिन! आप िबना ही कारण
िकसिलए ोध करते ह? परशुराम अपने फरसे क ओर देखकर बोले - अरे दु ! तन ू े मेरा
वभाव नह सुना।

बालकु बोिल बधउँ निहं तोही। केवल मिु न जड़ जानिह मोही॥


बाल चारी अित कोही। िब व िबिदत छि यकुल ोही॥

म तुझे बालक जानकर नह मारता हँ। अरे मख


ू ! या तू मुझे िनरा मुिन ही जानता है? म
बाल चारी और अ यंत ोधी हँ। ि यकुल का श ु तो िव भर म िव यात हँ।

भज
ु बल भूिम भूप िबनु क ही। िबपलु बार मिहदेव ह दी ही॥
सहसबाह भज ु छेदिनहारा। परसु िबलोकु महीपकुमारा॥

अपनी भुजाओं के बल से मने प ृ वी को राजाओं से रिहत कर िदया और बहत बार उसे ा ण को


दे डाला। हे राजकुमार! सह बाह क भुजाओं को काटनेवाले मेरे इस फरसे को देख!

- मातु िपतिह जिन सोचबस करिस महीसिकसोर।


गभ ह के अभक दलन परसु मोर अित घोर॥ 272॥

अरे राजा के बालक! तू अपने माता-िपता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बड़ा भयानक है,
यह गभ के ब च का भी नाश करनेवाला है॥ 272॥

िबहिस लखनु बोले मदृ ु बानी। अहो मनु ीसु महा भटमानी॥
पिु न पिु न मोिह देखाव कुठा । चहत उड़ावन फूँिक पहा ॥

ल मण हँसकर कोमल वाणी से बोले - अहो, मुनी र तो अपने को बड़ा भारी यो ा समझते ह।
बार-बार मुझे कु हाड़ी िदखाते ह। फँ ू क से पहाड़ उड़ाना चाहते ह।

इहाँ कु हड़बितया कोउ नाह । जे तरजनी देिख म र जाह ॥


देिख कुठा सरासन बाना। म कछु कहा सिहत अिभमाना॥

यहाँ कोई कु हड़े क बितया (छोटा क चा फल) नह है, जो तजनी (सबसे आगे क ) अंगुली को
देखते ही मर जाती ह। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मने कुछ अिभमान सिहत कहा था।

भग
ृ सु त
ु समिु झ जनेउ िबलोक । जो कछु कहह सहउँ रस रोक ॥
सरु मिहसरु ह रजन अ गाई। हमर कुल इ ह पर न सरु ाई॥
भग
ृ ुवंशी समझकर और य ोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते ह, उसे म ोध को रोककर
सह लेता हँ। देवता, ा ण, भगवान के भ और गौ - इन पर हमारे कुल म वीरता नह िदखाई
जाती।

बध पापु अपक रित हार। मारतहँ पा प रअ तु हार॥


कोिट कुिलस सम बचनु तु हारा। यथ धरह धनु बान कुठारा॥

य िक इ ह मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपक ित होती है, इसिलए आप मार
तो भी आपके पैर ही पड़ना चािहए। आपका एक-एक वचन ही करोड़ व के समान है। धनुष-
बाण और कुठार तो आप यथ ही धारण करते ह।

- जो िबलोिक अनिु चत कहेउँ छमह महामिु न धीर।


सिु न सरोष भग
ृ ब
ु ंसमिन बोले िगरा गभीर॥ 273॥

इ ह (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मने कुछ अनुिचत कहा हो, तो उसे हे धीर महामुिन!
मा क िजए। यह सुनकर भगृ ुवंशमिण परशुराम ोध के साथ गंभीर वाणी बोले - ॥ 273॥

कौिसक सन ु ह मंद यह बालकु। कुिटल कालबस िनज कुल घालकु॥


भानु बंस राकेस कलंकू। िनपट िनरं कुस अबध
ु असंकू॥

हे िव ािम ! सुनो, यह बालक बड़ा कुबुि और कुिटल है, काल के वश होकर यह अपने कुल
का घातक बन रहा है। यह सयू वंश पी पणू चं का कलंक है। यह िब कुल उ ं ड, मख
ू और िनडर
है।

काल कवलु होइिह छन माह । कहउँ पक


ु ा र खो र मोिह नाह ॥
तु ह हटकह ज चहह उबारा। किह तापु बलु रोषु हमारा॥

अभी ण भर म यह काल का ास हो जाएगा। म पुकारकर कहे देता हँ, िफर मुझे दोष नह है।
यिद तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा ताप, बल और ोध बतलाकर इसे मना कर दो।

लखन कहेउ मिु न सज ु सु तु हारा। तु हिह अछत को बरनै पारा॥


अपने मँहु तु ह आपिन करनी। बार अनेक भाँित बह बरनी॥

ल मण ने कहा - हे मुिन! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वणन कर सकता है? आपने
अपने ही मँुह से अपनी करनी अनेक बार बहत कार से वणन क है।

निहं संतोषु त पिु न कछु कहह। जिन रस रोिक दस


ु ह दख
ु सहह॥
बीर ती तु ह धीर अछोभा। गारी देत न पावह सोभा॥
इतने पर भी संतोष न हआ हो तो िफर कुछ कह डािलए। ोध रोककर अस दुःख मत सिहए।
आप वीरता का त धारण करनेवाले, धैयवान और ोभरिहत ह। गाली देते शोभा नह पाते।

- सूर समर करनी करिहं किह न जनाविहं आप।ु


िब मान रन पाइ रपु कायर कथिहं ताप॥ु 274॥

शरू वीर तो यु म करनी (शरू वीरता का काय) करते ह, कहकर अपने को नह जनाते। श ु को
यु म उपि थत पाकर कायर ही अपने ताप क ड ग मारा करते ह॥ 274॥

तु ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोिह लािग बोलावा॥


सनु त लखन के बचन कठोरा। परसु सध ु ा र धरे उ कर घोरा॥

आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे िलए बुलाते ह। ल मण के कठोर वचन
सुनते ही परशुराम ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ म ले िलया।

अब जिन देइ दोसु मोिह लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥


बाल िबलोिक बहत म बाँचा। अब यह मरिनहार भा साँचा॥

(और बोले -) अब लोग मुझे दोष न द। यह कड़वा बोलनेवाला बालक मारे जाने के ही यो य है।
इसे बालक देखकर मने बहत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।

कौिसक कहा छिमअ अपराधू। बाल दोष गन


ु गनिहं न साधू॥
खर कुठार म अक न कोही। आग अपराधी गु ोही॥

िव ािम ने कहा - अपराध मा क िजए। बालक के दोष और गुण को साधु लोग नह िगनते।
(परशुराम बोले -) तीखी धार का कुठार, म दयारिहत और ोधी, और यह गु ोही और अपराधी
मेरे सामने।

उतर देत छोड़उँ िबनु मार। केवल कौिसक सील तु हार॥


न त एिह कािट कुठार कठोर। गरु िह उ रन होतेउँ म थोर॥

उ र दे रहा है। इतने पर भी म इसे िबना मारे छोड़ रहा हँ, सो हे िव ािम ! केवल तु हारे शील
( ेम) से। नह तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही प र म से गु से उऋण हो जाता।

- गािधसूनु कह दयँ हँिस मिु निह ह रअरइ सूझ।


अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहँ न बूझ अबूझ॥ 275॥

िव ािम ने दय म हँसकर कहा - मुिन को हरा-ही-हरा सझ


ू रहा है (अथात सव िवजयी होने
के कारण ये राम-ल मण को भी साधारण ि य ही समझ रहे ह), िकंतु यह लौहमयी (केवल
फौलाद क बनी हई) खाँड़ (खाँड़ा - खड्ग) है, ऊख क (रस क ) खाँड़ नह है (जो मँुह म लेते
ही गल जाए। खेद है,) मुिन अब भी बेसमझ बने हए ह; इनके भाव को नह समझ रहे ह॥ 275॥

कहेउ लखन मिु न सीलु तु हारा। को निहं जान िबिदत संसारा॥


माता िपतिह उ रन भए नीक। गरु रनु रहा सोचु बड़ जी क॥

ल मण ने कहा - हे मुिन! आपके शील को कौन नह जानता? वह संसार भर म िस है। आप


माता-िपता से तो अ छी तरह उऋण हो ही गए, अब गु का ऋण रहा, िजसका जी म बड़ा सोच
लगा है।

सो जनु हमरे िह माथे काढ़ा। िदन चिल गए याज बड़ बाढ़ा॥


अब आिनअ यवह रआ बोली। तरु त देउँ म थैली खोली॥

वह मानो हमारे ही म थे काढ़ा था। बहत िदन बीत गए, इससे याज भी बहत बढ़ गया होगा। अब
िकसी िहसाब करनेवाले को बुला लाइए, तो म तुरंत थैली खोलकर दे दँू।

सिु न कटु बचन कुठार सध ु ारा। हाय हाय सब सभा पकु ारा॥
भग
ृ ब ु र परसु देखावह मोही। िब िबचा र बचउँ नप
ृ दोही॥

ल मण के कड़वे वचन सुनकर परशुराम ने कुठार स हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार
ृ ु े ! आप मुझे फरसा िदखा रहे ह? पर हे राजाओं के श ु! म
उठी। (ल मण ने कहा -) हे भग
ा ण समझकर बचा रहा हँ (तरह दे रहा हँ)।

ु ट रन गाढ़े। ि ज देवता घरिह के बाढ़े़ ॥


िमले न कबहँ सभ
अनिु चत किह सब लोग पकु ारे । रघप
ु ित सयनिहं लखनु नेवारे ॥

आपको कभी रणधीर बलवान वीर नह िमले ह। हे ा ण देवता ! आप घर ही म बड़े ह। यह


सुनकर 'अनुिचत है, अनुिचत है' कहकर सब लोग पुकार उठे । तब रघुनाथ ने इशारे से ल मण
को रोक िदया।

- लखन उतर आहित स रस भग


ृ बु र कोपु कृसान।ु
बढ़त देिख जल सम बचन बोले रघकु ु लभान॥ु 276॥

ल मण के उ र से, जो आहित के समान थे, परशुराम के ोध पी अि न को बढ़ते देखकर


रघुकुल के सय
ू राम जल के समान (शांत करनेवाले) वचन बोले - ॥ 276॥

नाथ करह बालक पर छोह। सूध दूधमख


ु क रअ न कोह॥
ज पै भु भाउ कछु जाना। तौ िक बराब र करत अयाना॥
हे नाथ ! बालक पर कृपा क िजए। इस सीधे और दुधमँुहे ब चे पर ोध न क िजए। यिद यह भु
का (आपका) कुछ भी भाव जानता, तो या यह बेसमझ आपक बराबरी करता?

ज ल रका कछु अचग र करह । गरु िपतु मातु मोद मन भरह ॥


क रअ कृपा िससु सेवक जानी। तु ह सम सील धीर मिु न यानी॥

बालक यिद कुछ चपलता भी करते ह, तो गु , िपता और माता मन म आनंद से भर जाते ह। अतः
इसे छोटा ब चा और सेवक जानकर कृपा क िजए। आप तो समदश , सुशील, धीर और ानी मुिन
ह।

राम बचन सिु न कछुक जुड़ाने। किह कछु लखनु बह र मस


ु क
ु ाने॥
हँसत देिख नख िसख रस यापी। राम तोर ाता बड़ पापी॥

राम के वचन सुनकर वे कुछ ठं डे पड़े । इतने म ल मण कुछ कहकर िफर मुसकरा िदए। उनको
हँसते देखकर परशुराम के नख से िशखा तक (सारे शरीर म) ोध छा गया। उ ह ने कहा - हे
राम! तेरा भाई बड़ा पापी है।

गौर सरीर याम मन माह । कालकूटमख ु पयमख ु नाह ॥


सहज टेढ़ अनहु रइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥

यह शरीर से गोरा, पर दय का बड़ा काला है। यह िवषमुख है, दुधमँुहा नह । वभाव ही टेढ़ा है,
तेरा अनुसरण नह करता (तेरे-जैसा शीलवान नह है)। यह नीच मुझे काल के समान नह
देखता।

- लखन कहेउ हँिस सनु ह मिु न ोधु पाप कर मूल।


जेिह बस जन अनिु चत करिहं चरिहं िब व ितकूल॥ 277॥

ू है, िजसके वश म होकर मनु य


ल मण ने हँसकर कहा- हे मुिन! सुिनए, ोध पाप का मल
अनुिचत कम कर बैठते ह और िव भर के ितकूल चलते (सबका अिहत करते) ह॥ 277॥

म तु हार अनच ु र मिु नराया। प रह र कोपु क रअ अब दाया॥


टूट चाप निहं जु रिह रसाने। बैिठअ होइिहं पाय िपराने॥

हे मुिनराज! म आपका दास हँ। अब ोध यागकर दया क िजए। टूटा हआ धनुष ोध करने से
जुड़ नह जाएगा। खड़े -खड़े पैर दुःखने लगे ह गे, बैठ जाइए।

ज अित ि य तौ क रअ उपाई। जो रअ कोउ बड़ गन


ु ी बोलाई॥
बोलत लखनिहं जनकु डेराह । म करह अनिु चत भल नाह ॥
यिद धनुष अ यंत ही ि य हो, तो कोई उपाय िकया जाए और िकसी बड़े गुणी (कारीगर) को
बुलाकर जुड़वा िदया जाए। ल मण के बोलने से जनक डर जाते ह और कहते ह - बस, चुप रिहए,
अनुिचत बोलना अ छा नह ।

थर थर काँपिहं परु नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी॥


भग
ृ प
ु ित सिु न सिु न िनरभय बानी। रस तन जरइ होई बल हानी॥

जनकपुर के ी-पु ष थर-थर काँप रहे ह (और मन-ही-मन कह रहे ह िक) छोटा कुमार बड़ा ही
खोटा है। ल मण क िनभय वाणी सुन-सुनकर परशुराम का शरीर ोध से जला जा रहा है और
उनके बल क हािन हो रही है (उनका बल घट रहा है)।

बोले रामिह देइ िनहोरा। बचउँ िबचा र बंधु लघु तोरा॥


मनु मलीन तनु संदु र कैस। िबष रस भरा कनक घटु जैस॥

तब राम पर एहसान जनाकर परशुराम बोले - तेरा छोटा भाई समझकर म इसे बचा रहा हँ। यह
मन का मैला और शरीर का कैसा सुंदर है, जैसे िवष के रस से भरा हआ सोने का घड़ा!

- सिु न लिछमन िबहसे बह र नयन तरे रे राम।


गरु समीप गवने सकुिच प रह र बानी बाम॥ 278॥

यह सुनकर ल मण िफर हँसे। तब राम ने ितरछी नजर से उनक ओर देखा, िजससे ल मण


सकुचाकर, िवपरीत बोलना छोड़कर, गु के पास चले गए॥ 278॥

अित िबनीत मदृ ु सीतल बानी। बोले रामु जो र जुग पानी॥


सन
ु ह नाथ तु ह सहज सज ु ाना। बालक बचनु क रअ निहं काना॥

राम दोन हाथ जोड़कर अ यंत िवनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले - हे नाथ! सुिनए,
आप तो वभाव से ही सुजान ह। आप बालक के वचन पर कान न क िजए (उसे सुना-अनसुना
कर दीिजए)।

बररै बालकु एकु सभ


ु ाऊ। इ हिह न संत िबदूषिहं काऊ॥
तेिहं नाह कछु काज िबगारा। अपराधी म नाथ तु हारा॥

बर और बालक का एक वभाव है। संतजन इ ह कभी दोष नह लगाते। िफर उसने (ल मण ने)
तो कुछ काम भी नह िबगाड़ा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो म हँ।

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाई ं। मो पर क रअ दास क नाई ं॥


किहअ बेिग जेिह िबिध रस जाई। मिु ननायक सोइ कर उपाई॥
अतः हे वामी! कृपा, ोध, वध और बंधन, जो कुछ करना हो, दास क तरह (अथात दास
समझकर) मुझ पर क िजए। िजस कार से शी आपका ोध दूर हो। हे मुिनराज! बताइए, म
वही उपाय क ँ ।

कह मिु न राम जाइ रस कैस। अजहँ अनज


ु तव िचतव अनैस॥
एिह क कंठ कुठा न दी हा। तौ म काह कोपु क र क हा॥

मुिन ने कहा - हे राम! ोध कैसे जाए; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। इसक गदन
पर मने कुठार न चलाया, तो ोध करके िकया ही या?

- गभ विहं अविनप रविन सिु न कुठार गित घोर।


परसु अछत देखउँ िजअत बैरी भूपिकसोर॥ 279॥

मेरे िजस कुठार क घोर करनी सुनकर राजाओं क ि य के गभ िगर पड़ते ह, उसी फरसे के
रहते म इस श ु राजपु को जीिवत देख रहा हँ॥ 279॥

बहइ न हाथु दहइ रस छाती। भा कुठा कंु िठत नपृ घाती॥


भयउ बाम िबिध िफरे उ सभ
ु ाऊ। मोरे दयँ कृपा किस काऊ॥

हाथ चलता नह , ोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी कंु िठत
हो गया। िवधाता िवपरीत हो गया, इससे मेरा वभाव बदल गया, नह तो भला, मेरे दय म िकसी
समय भी कृपा कैसी?

आजु दया दखु ु दस


ु ह सहावा। सिु न सौिमि िबहिस िस नावा॥
बाउ कृपा मूरित अनक ु ू ला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥

आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर ल मण ने मुसकराकर िसर नवाया (और
कहा -) आपक कृपा पी वायु भी आपक मिू त के अनुकूल ही है, वचन बोलते ह, मानो फूल झड़
रहे ह।

ज पै कृपाँ ज रिहं मिु न गाता। ोध भएँ तनु राख िबधाता॥


देखु जनक हिठ बालकु एह। क ह चहत जड़ जमपरु गेह॥

हे मुिन! यिद कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो ोध होने पर तो शरीर क र ा
ू बालक हठ करके यमपुरी म घर
िवधाता ही करगे। (परशुराम ने कहा -) हे जनक! देख, यह मख
(िनवास) करना चाहता है।

बेिग करह िकन आँिख ह ओटा। देखत छोट खोट नप ृ ु ढोटा॥


िबहसे लखनु कहा मन माह । मूद आँिख कतहँ कोउ नाह ॥
इसको शी ही आँख क ओट य नह करते? यह राजपु देखने म छोटा है, पर है बड़ा खोटा।
ल मण ने हँसकर मन-ही-मन कहा - आँख मँदू लेने पर कह कोई नह है।

- परसरु ामु तब राम ित बोले उर अित ोध।ु


संभु सरासनु तो र सठ करिस हमार बोध॥ु 280॥

तब परशुराम दय म अ यंत ोध भरकर राम से बोले - अरे शठ! तू िशव का धनुष तोड़कर
उलटा हम को ान िसखाता है॥ 280॥

बंधु कहइ कटु संमत तोर। तू छल िबनय करिस कर जोर॥


क प रतोषु मोर सं ामा। नािहं त छाड़ कहाउब रामा॥

तेरा यह भाई तेरी ही स मित से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर िवनय करता है।
या तो यु म मेरा संतोष कर, नह तो राम कहलाना छोड़ दे।

छलु तिज करिह सम िसव ोही। बंधु सिहत न त मारउँ तोही॥


भग
ृ प
ु ित बकिहं कुठार उठाएँ । मन मस
ु क
ु ािहं रामु िसर नाएँ ॥

अरे िशव ोही! छल यागकर मुझसे यु कर। नह तो भाई सिहत तुझे मार डालँगू ा। इस कार
परशुराम कुठार उठाए बक रहे ह और राम िसर झुकाए मन-ही-मन मुसकरा रहे ह।

गनु ह लखन कर हम पर रोषू। कतहँ सध


ु ाइह ते बड़ दोषू॥
टेढ़ जािन सब बंदइ काह। ब चं मिह सइ न राह॥

(राम ने मन-ही-मन कहा -) गुनाह (दोष) तो ल मण का और ोध मुझ पर करते ह। कह -कह


सीधेपन म भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सब लोग िकसी क भी वंदना करते ह; टेढ़े चं मा
को राह भी नह सता।

राम कहेउ रस तिजअ मन ु ीसा। कर कुठा आग यह सीसा॥


जेिहं रस जाइ क रअ सोइ वामी। मोिह जािनअ आपन अनगु ामी॥

राम ने ( कट) कहा - हे मुनी र! ोध छोिड़ए। आपके हाथ म कुठार है और मेरा यह िसर आगे
है, िजस कार आपका ोध जाए, हे वामी! वही क िजए। मुझे अपना अनुचर (दास) जािनए।

- भिु ह सेवकिह सम कस तजह िब बर रोस।ु


बेषु िबलोक कहेिस कछु बालकह निहं दोस॥ु 281॥

वामी और सेवक म यु कैसा? हे ा ण े ! ोध का याग क िजए। आपका (वीर का-सा)


वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वा तव म उसका भी कोई दोष नह है॥ 281॥

देिख कुठार बान धनु धारी। भै ल रकिह रस बी िबचारी॥


नामु जान पै तु हिह न ची हा। बंस सभ
ु ायँ उत तेिहं दी हा॥

आपको कुठार, बाण और धनुष धारण िकए देखकर और वीर समझकर बालक को ोध आ गया।
वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नह । अपने वंश (रघुवंश) के वभाव
के अनुसार उसने उ र िदया।

ज तु ह औतेह मिु न क नाई ं। पद रज िसर िससु धरत गोसाई ं॥


छमह चूक अनजानत केरी। चिहअ िब उर कृपा घनेरी॥

यिद आप मुिन क तरह आते, तो हे वामी! बालक आपके चरण क धिू ल िसर पर रखता।
अनजाने क भल ू को मा कर दीिजए। ा ण के दय म बहत अिधक दया होनी चािहए।

हमिह तु हिह स रब र किस नाथा। कहह न कहाँ चरन कहँ माथा॥


राम मा लघु नाम हमारा। परसु सिहत बड़ नाम तोहारा॥

हे नाथ! हमारी और आपक बराबरी कैसी? किहए न, कहाँ चरण और कहाँ म तक! कहाँ मेरा
राम मा छोटा-सा नाम और कहाँ आपका परशुसिहत बड़ा नाम।

देव एकु गन
ु ु धनष
ु हमार। नव गन
ु परम पन
ु ीत तु हार॥
सब कार हम तु ह सन हारे । छमह िब अपराध हमारे ॥

हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पिव (शम, दम, तप, शौच, मा,
सरलता, ान, िव ान और आि तकता - ये) नौ गुण ह। हम तो सब कार से आपसे हारे ह। हे
िव ! हमारे अपराध को मा क िजए।

- बार बार मिु न िब बर कहा राम सन राम।


बोले भगृ प
ु ित स ष हिस तहँ बंधू सम बाम॥ 282॥

राम ने परशुराम को बार-बार 'मुिन' और 'िव वर' कहा। तब भग


ृ ुपित (परशुराम) कुिपत होकर
(अथवा ोध क हँसी हँसकर) बोले - तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है॥ 282॥

िनपटिहं ि ज क र जानिह मोही। म जस िब सन ु ावउँ तोही॥


चाप व ु ा सर आहित जानू। कोपु मोर अित घोर कृसानू॥

तू मुझे िनरा ा ण ही समझता है? म जैसा िव हँ, तुझे सुनाता हँ। धनुष को ुवा, बाण को
आहित और मेरे ोध को अ यंत भयंकर अि न जान।
सिमिध सेन चतरु ं ग सहु ाई। महा महीप भए पसु आई॥
म एिहं परसु कािट बिल दी हे। समर ज य जप कोिट ह क हे॥

चतुरंिगणी सेना सुंदर सिमधाएँ (य म जलाई जानेवाली लकिड़याँ) ह। बड़े -बड़े राजा उसम
आकर बिल के पशु हए ह, िजनको मने इसी फरसे से काटकर बिल िदया है। ऐसे करोड़ जपयु
रणय मने िकए ह (अथात जैसे मं ो चारण पवू क ' वाहा' श द के साथ आहित दी जाती है, उसी
कार मने पुकार-पुकार कर राजाओं क बिल दी है)।

मोर भाउ िबिदत निहं तोर। बोलिस िनद र िब के भोर॥


भंजउे चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहिमित मनहँ जीित जगु ठाढ़ा॥

मेरा भाव तुझे मालम


ू नह है, इसी से तू ा ण के धोखे मेरा िनरादर करके बोल रहा है। धनुष
तोड़ डाला, इससे तेरा घमंड बहत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है।

राम कहा मिु न कहह िबचारी। रस अित बिड़ लघु चूक हमारी॥
छुअतिहं टूट िपनाक परु ाना। म केिह हेतु कर अिभमाना॥

राम ने कहा - हे मुिन! िवचारकर बोिलए। आपका ोध बहत बड़ा है और मेरी भल


ू बहत छोटी है।
पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। म िकस कारण अिभमान क ँ ?

- ज हम िनदरिहं िब बिद स य सन ु ह भग
ृ न
ु ाथ।
तौ अस को जग सभ ु टु जेिह भय बस नाविहं माथ॥ 283॥

हे भग
ृ ुनाथ! यिद हम सचमुच ा ण कहकर िनरादर करते ह, तो यह स य सुिनए, िफर संसार म
ऐसा कौन यो ा है, िजसे हम डर के मारे म तक नवाएँ ?॥ 283॥

देव दनज
ु भूपित भट नाना। समबल अिधक होउ बलवाना॥
ज रन हमिह पचारै कोऊ। लरिहं सख े कालु िकन होऊ॥
ु न

देवता, दै य, राजा या और बहत-से यो ा, वे चाहे बल म हमारे बराबर ह चाहे अिधक बलवान ह ,


यिद रण म हम कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपवू क लड़गे, चाहे काल ही य न हो।

छि य तनु ध र समर सकाना। कुल कलंकु तेिहं पावँर आना॥


कहउँ सभ
ु ाउ न कुलिह संसी। कालह डरिहं न रन रघब ु ंसी॥

ि य का शरीर धरकर जो यु म डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा िदया। म


वभाव से ही कहता हँ, कुल क शंसा करके नह , िक रघुवंशी रण म काल से भी नह डरते।

िब बंस कै अिस भत
ु ाई। अभय होइ जो तु हिह डेराई॥
ु ित के। उघरे पटल परसध
सिु न मदृ ु गूढ़ बचन रघप ु र मित के॥

ा णवंश क ऐसी ही भुता (मिहमा) है िक जो आपसे डरता है, वह सबसे िनभय हो जाता है
(अथवा जो भयरिहत होता है, वह भी आपसे डरता है) रघुनाथ के कोमल और रह यपण
ू वचन
सुनकर परशुराम क बुि के परदे खुल गए।

राम रमापित कर धनु लेह। खचह िमटै मोर संदहे ॥


देत चापु आपिु हं चिल गयऊ। परसरु ाम मन िबसमय भयऊ॥

(परशुराम ने कहा -) हे राम! हे ल मीपित! धनुष को हाथ म (अथवा ल मीपित िव णु का धनुष)


लीिजए और इसे ख िचए, िजससे मेरा संदेह िमट जाए। परशुराम धनुष देने लगे, तब वह आप ही
चला गया। तब परशुराम के मन म बड़ा आ य हआ।

- जाना राम भाउ तब पल


ु क फुि लत गात।
े ु अमात॥ 284॥
जो र पािन बोले बचन दयँ न म

तब उ ह ने राम का भाव जाना, (िजसके कारण) उनका शरीर पुलिकत और फुि लत हो गया।
वे हाथ जोड़कर वचन बोले - ेम उनके दय म समाता न था - ॥ 284॥

जय रघबु ंस बनज बन भानू। गहन दनजु कुल दहन कृसानू॥


जय सरु िब धेनु िहतकारी। जय मद मोह कोह म हारी॥

हे रघुकुल पी कमल वन के सय
ू ! हे रा स के कुल पी घने जंगल को जलानेवाले अि न!
आपक जय हो! हे देवता, ा ण और गौ का िहत करनेवाले! आपक जय हो। हे मद, मोह, ोध
और म के हरनेवाले! आपक जय हो।

िबनय सील क ना गनु सागर। जयित बचन रचना अित नागर॥


सेवक सख
ु द सभ
ु ग सब अंगा। जय सरीर छिब कोिट अनंगा॥

हे िवनय, शील, कृपा आिद गुण के समु और वचन क रचना म अ यंत चतुर! आपक जय हो।
हे सेवक को सुख देनेवाले, सब अंग से सुंदर और शरीर म करोड़ कामदेव क छिव धारण
करनेवाले! आपक जय हो।

कर काह मख ु एक संसा। जय महेस मन मानस हंसा॥


अनिु चत बहत कहेउँ अ याता। छमह छमा मंिदर दोउ ाता॥

म एक मुख से आपक या शंसा क ँ ? हे महादेव के मन पी मानसरोवर के हंस! आपक जय


हो। मने अनजाने म आपको बहत-से अनुिचत वचन कहे । हे मा के मंिदर दोन भाई! मुझे मा
क िजए।
किह जय जय जय रघक ु ु लकेतू। भगृ प
ु ित गए बनिह तप हेत॥ू
अपभयँ कुिटल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँिहं पराने॥

हे रघुकुल के पताका व प राम! आपक जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुराम तप के
िलए वन को चले गए। (यह देखकर) दु राजा लोग िबना ही कारण के (मनःकि पत) डर से
(राम से तो परशुराम भी हार गए, हमने इनका अपमान िकया था, अब कह ये उसका बदला न
ल, इस यथ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए।

- देव ह दी ह ददुं भ
ु भु पर बरषिहं फूल।
हरषे परु नर ना र सब िमटी मोहमय सूल॥ 285॥

देवताओं ने नगाड़े बजाए, वे भु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के ी-पु ष सब हिषत हो
गए। उनका मोहमय (अ ान से उ प न) शल ू िमट गया॥ 285॥

अित गहगहे बाजने बाजे। सबिहं मनोहर मंगल साजे॥


जूथ जूथ िमिल सम
ु िु ख सन
ु यन । करिहं गान कल कोिकलबयन ॥

खबू जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल-साज साजे। सुंदर मुख और सुंदर ने वाली
तथा कोयल के समान मधुर बोलनेवाली ि याँ झंुड-क -झंुड िमलकर संुदर गान करने लग ।

सखु ु िबदेह कर बरिन न जाई। ज मद र मनहँ िनिध पाई॥


िबगत ास भइ सीय सख ु ारी। जनु िबधु उदयँ चकोरकुमारी॥

जनक के सुख का वणन नह िकया जा सकता, मानो ज म का द र ी धन का खजाना पा गया


हो! सीता का भय जाता रहा; वे ऐसी सुखी हई ं जैसे चं मा के उदय होने से चकोर क क या
सुखी होती है।

जनक क ह कौिसकिह नामा। भु साद धनु भंजउे रामा॥


मोिह कृतकृ य क ह दहु ँ भाई ं। अब जो उिचत सो किहअ गोसाई ं॥

जनक ने िव ािम को णाम िकया (और कहा -) भु ही क कृपा से राम ने धनुष तोड़ा है।
दोन भाइय ने मुझे कृताथ कर िदया। हे वामी! अब जो उिचत हो सो किहए।

कह मिु न सन
ु ु नरनाथ बीना। रहा िबबाह चाप आधीना॥
टूटतह धनु भयउ िबबाह। सरु नर नाग िबिदत सब काह॥

मुिन ने कहा - हे चतुर नरे श! सुनो य तो िववाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही िववाह हो
गया। देवता, मनु य और नाग सब िकसी को यह मालम ू है।
- तदिप जाइ तु ह करह अब जथा बंस यवहा ।
बूिझ िब कुलब ृ गरु बेद िबिदत आचा ॥ 286॥

तथािप तुम जाकर अपने कुल का जैसा यवहार हो, ा ण , कुल के बढ़


ू और गु ओं से पछ
ू कर
और वेद म विणत जैसा आचार हो वैसा करो॥ 286॥

दूत अवधपरु पठवह जाई। आनिहं नप ृ दसरथिहं बोलाई॥


मिु दत राउ किह भलेिहं कृपाला। पठए दूत बोिल तेिह काला॥

जाकर अयो या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लाएँ । राजा ने स न होकर कहा - हे
कृपालु! बहत अ छा! और उसी समय दूत को बुलाकर भेज िदया।

बह र महाजन सकल बोलाए। आइ सबि ह सादर िसर नाए॥


हाट बाट मंिदर सरु बासा। नग सँवारह चा रहँ पासा॥

िफर सब महाजन को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपवू क िसर नवाया। (राजा ने कहा
-) बाजार, रा ते, घर, देवालय और सारे नगर को चार ओर से सजाओ।

हरिष चले िनज िनज गहृ आए। पिु न प रचारक बोिल पठाए॥
रचह िबिच िबतान बनाई। िसर ध र बचन चले सचु पाई॥

महाजन स न होकर चले और अपने-अपने घर आए। िफर राजा ने नौकर को बुला भेजा (और
उ ह आ ा दी िक) िविच मंडप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन िसर पर
धरकर और सुख पाकर चले।

पठए बोिल गन ु ी ित ह नाना। जे िबतान िबिध कुसल सज


ु ाना॥
िबिधिह बंिद ित ह क ह अरं भा। िबरचे कनक कदिल के खंभा॥

उ ह ने अनेक कारीगर को बुला भेजा, जो मंडप बनाने म कुशल और चतुर थे। उ ह ने ाक


वंदना करके काय आरं भ िकया और (पहले) सोने के केले के खंभे बनाए।

- ह रत मिन ह के प फल पदम ु राग के फूल।


रचना देिख िबिच अित मनु िबरं िच कर भूल॥ 287॥

हरी-हरी मिणय (प ने) के प े और फल बनाए तथा प राग मिणय (मािणक) के फूल बनाए।
मंडप क अ यंत िविच रचना देखकर ा का मन भी भल
ू गया॥ 287॥

बेनु ह रत मिनमय सब क हे। सरल सपरब परिहं निहं ची हे॥


कनक किलत अिहबेिल बनाई। लिख निहं परइ सपरन सहु ाई॥
बाँस सब हरी-हरी मिणय (प ने) के सीधे और गाँठ से यु ऐसे बनाए जो पहचाने नह जाते थे
(िक मिणय के ह या साधारण)। सोने क सुंदर नागबेली (पान क लता) बनाई, जो प सिहत
ऐसी भली मालम ू होती थी िक पहचानी नह जाती थी।

तेिह के रिच पिच बंध बनाए। िबच िबच मक


ु ु ता दाम सहु ाए॥
मािनक मरकत कुिलस िपरोजा। ची र को र पिच रचे सरोजा॥

उसी नागबेली के रचकर और प चीकारी करके बंधन (बाँधने क र सी) बनाए। बीच-बीच म
मोितय क सुंदर झालर ह। मािणक, प ने, हीरे और िफरोजे, इन र न को चीरकर, कोरकर और
प चीकारी करके, इनके (लाल, हरे , सफेद और फ रोजी रं ग के) कमल बनाए।

िकए भंग
ृ बहरं ग िबहंगा। गंज
ु िहं कूजिहं पवन संगा॥
सरु ितमा खंभन गिढ़ काढ़ । मंगल य िलएँ सब ठाढ़ ॥

भ रे और बहत रं ग के प ी बनाए, जो हवा के सहारे गँज


ू ते और कूजते थे। खंभ पर देवताओं क
मिू तयाँ गढ़कर िनकाल , जो सब मंगल य िलए खड़ी थ ।

चौक भाँित अनेक परु ाई ं। िसंधरु मिनमय सहज सहु ाई ं॥

गजमु ाओं के सहज ही सुहावने अनेक तरह के चौक पुराए।

- सौरभ प लव सभु ग सिु ठ िकए नीलमिन को र।


हेम बौर मरकत घव र लसत पाटमय डो र॥ 288॥

नील मिण को कोरकर अ यंत सुंदर आम के प े बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रे शम
क डोरी से बँधे हए प ने के बने फल के गु छे सुशोिभत ह॥ 288॥

रचे िचर बर बंदिनवारे । मनहँ मनोभवँ फंद सँवारे ॥


मंगल कलश अनेक बनाए। वज पताक पट चमर सहु ाए॥

ऐसे सुंदर और उ म बंदनवार बनाए मानो कामदेव ने फंदे सजाए ह । अनेक मंगल-कलश और
सुंदर वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए।

दीप मनोहर मिनमय नाना। जाइ न बरिन िबिच िबताना॥


ु िहिन बैदहे ी। सो बरनै अिस मित किब केही॥
जेिहं मंडप दल

िजसम मिणय के अनेक संुदर दीपक ह, उस िविच मंडप का तो वणन ही नह िकया जा


सकता। िजस मंडप म जानक दुलिहन ह गी, िकस किव क ऐसी बुि है जो उसका वणन कर
सके।
दूलह रामु प गन
ु सागर। सो िबतानु ितहँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै सोभा जैसी। गहृ गहृ ित परु देिखअ तैसी॥

िजस मंडप म प और गुण के समु राम दू हे ह गे, वह मंडप तीन लोक म िस होना ही
चािहए। जनक के महल क जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के येक घर क िदखाई देती है।

जेिहं तेरहित तेिह समय िनहारी। तेिह लघु लगिहं भव


ु न दस चारी॥
जो संपदा नीच गहृ सोहा। सो िबलोिक सरु नायक मोहा॥

उस समय िजसने ितरहत को देखा, उसे चौदह भुवन तु छ जान पड़े । जनकपुर म नीच के घर भी
उस समय जो संपदा सुशोिभत थी, उसे देखकर इं भी मोिहत हो जाता था।

- बसइ नगर जेिहं लि छ क र कपट ना र बर बेष।ु


तेिह परु कै सोभा कहत सकुचिहं सारद सेष॥ु 289॥

िजस नगर म सा ात ल मी कपट से ी का सुंदर वेष बनाकर बसती ह, उस पुर क शोभा का


वणन करने म सर वती और शेष भी सकुचाते ह॥ 289॥

पहँचे दूत राम परु पावन। हरषे नगर िबलोिक सहु ावन॥
भूप ार ित ह खब र जनाई। दसरथ नप ृ सिु न िलए बोलाई॥

जनक के दूत राम क पिव पुरी अयो या म पहँचे। सुंदर नगर देखकर वे हिषत हए। राज ार पर
जाकर उ ह ने खबर भेजी, राजा दशरथ ने सुनकर उ ह बुला िलया।

क र नामु ित ह पाती दी ही। मिु दत महीप आपु उिठ ली ही॥


बा र िबलोचन बाँचत पाती। पल
ु क गात आई भ र छाती॥

दूत ने णाम करके िच ी दी। स न होकर राजा ने वयं उठकर उसे िलया। िच ी बाँचते समय
उनके ने म जल ( ेम और आनंद के आँस)ू छा गया, शरीर पुलिकत हो गया और छाती भर
आई।

रामु लखनु उर कर बर चीठी। रिह गए कहत न खाटी मीठी॥


पिु न ध र धीर पि का बाँची। हरषी सभा बात सिु न साँची॥

दय म राम और ल मण ह, हाथ म सुंदर िच ी है, राजा उसे हाथ म िलए ही रह गए, ख ी-मीठी
कुछ भी कह न सके। िफर धीरज धरकर उ ह ने पि का पढ़ी। सारी सभा स ची बात सुनकर
हिषत हो गई।

खेलत रहे तहाँ सिु ध पाई। आए भरतु सिहत िहत भाई॥


पूछत अित सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ त पाती आई॥

भरत अपने िम और भाई श ु न के साथ जहाँ खेलते थे, वह समाचार पाकर वे आ गए। बहत
ेम से सकुचाते हए पछ
ू ते ह - िपताजी! िच ी कहाँ से आई है?

- कुसल ानि य बंधु दोउ अहिहं कहह केिहं देस।


सिु न सनेह साने बचन बाची बह र नरे स॥ 290॥

हमारे ाण से यारे दोन भाई, किहए सकुशल तो ह और वे िकस देश म ह? नेह से सने ये
वचन सुनकर राजा ने िफर से िच ी पढ़ी॥ 290॥

ु के दोउ ाता। अिधन सनेह समात न गाता॥


सिु न पाती पल
ीित पनु ीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सखु ु लहेउ िबसेषी॥

िच ी सुनकर दोन भाई पुलिकत हो गए। नेह इतना अिधक हो गया िक वह शरीर म समाता
नह । भरत का पिव ेम देखकर सारी सभा ने िवशेष सुख पाया।

तब नपृ दूत िनकट बैठारे । मधरु मनोहर बचन उचारे ॥


भैया कहह कुसल दोउ बारे । तु ह नीक िनज नयन िनहारे ॥

तब राजा दूत को पास बैठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बाले - भैया! कहो, दोन ब चे
कुशल से तो ह? तुमने अपनी आँख से उ ह अ छी तरह देखा है न?

यामल गौर धर धनु भाथा। बय िकसोर कौिसक मिु न साथा॥


पिहचानह तु ह कहह सभ े िबबस पिु न पिु न कह राऊ॥
ु ाऊ। म

साँवले और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण िकए रहते ह, िकशोर अव था है,
िव ािम मुिन के साथ ह। तुम उनको पहचानते हो तो उनका वभाव बताओ। राजा ेम के
िवशेष वश होने से बार-बार इस कार कह (पछू ) रहे ह।

जा िदन त मिु न गए लवाई। तब त आजु साँिच सिु ध पाई॥


कहह िबदेह कवन िबिध जाने। सिु न ि य बचन दूत मस ु क
ु ाने॥

(भैया!) िजस िदन से मुिन उ ह िलवा ले गए, तब से आज ही हमने स ची खबर पाई है। कहो तो
महाराज जनक ने उ ह कैसे पहचाना? ये ि य ( ेम भरे ) वचन सुनकर दूत मुसकराए।

- सन
ु ह महीपित मक
ु ु ट मिन तु ह सम ध य न कोउ।
रामु लखनु िज ह के तनय िब व िबभूषन दोउ॥ 291॥
(दूत ने कहा -) हे राजाओं के मुकुटमिण! सुिनए, आपके समान ध य और कोई नह है, िजनके
राम-ल मण जैसे पु ह, जो दोन िव के िवभषू ण ह॥ 291॥

पूछन जोगु न तनय तु हारे । पु षिसंघ ितह परु उिजआरे ॥


िज ह के जस ताप क आगे। सिस मलीन रिब सीतल लागे॥

आपके पु पछ ू ने यो य नह ह। वे पु षिसंह तीन लोक के काश व प ह। िजनके यश के


आगे चं मा मिलन और ताप के आगे सय ू शीतल लगता है।

ित ह कहँ किहअ नाथ िकिम ची हे। देिखअ रिब िक दीप कर ली हे॥


सीय वयंबर भूप अनेका। सिमटे सभु ट एक त एका॥

हे नाथ! उनके िलए आप कहते ह िक उ ह कैसे पहचाना! या सय


ू को हाथ म दीपक लेकर
देखा जाता है? सीता के वयंवर म अनेक राजा और एक-से-एक बढ़कर यो ा एक हए थे।

संभु सरासनु काहँ न टारा। हारे सकल बीर ब रआरा॥


तीिन लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकित संभु धनु भानी॥

परं तु िशव के धनुष को कोई भी नह हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीन लोक म जो
वीरता के अिभमानी थे, िशव के धनुष ने सबक शि तोड़ दी।

सकइ उठाइ सरासरु मे । सोउ िहयँ हा र गयउ क र फे ॥


जेिहं कौतक
ु िसवसैलु उठावा। सोउ तेिह सभाँ पराभउ पावा॥

बाणासुर भी, जो सुमे को भी उठा सकता था, भी दय म हारकर प र मा करके चला गया और
िजसने खेल से ही कैलास को उठा िलया था, वह रावण भी उस सभा म पराजय को ा हआ।

- तहाँ राम रघब


ु ंसमिन सिु नअ महा मिहपाल।
भंजउे चाप यास िबनु िजिम गज पंकज नाल॥ 292॥

हे महाराज! सुिनए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे यो ा हार मान गए) रघुवंशमिण राम ने िबना ही यास
िशव के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल क डं डी को तोड़ डालता है!॥ 292॥

सिु न सरोष भग
ृ न
ु ायकु आए। बहत भाँित ित ह आँिख देखाए॥
देिख राम बलु िनज धनु दी हा। क र बह िबनय गवनु बन क हा॥

धनुष टूटने क बात सुनकर परशुराम ोध म भरे आए और उ ह ने बहत कार से आँख


िदखलाई ं। अंत म उ ह ने भी राम का बल देखकर उ ह अपना धनुष दे िदया और बहत कार
िवनती करके वन को गमन िकया।
राजन रामु अतल ु बल जैस। तेज िनधान लखनु पिु न तैस॥
कंपिहं भूप िबलोकत जाक। िजिम गज ह र िकसोर के ताक॥

हे राजन! जैसे राम अतुलनीय बली ह, वैसे ही तेज िनधान िफर ल मण भी ह, िजनके देखने मा
से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी िसंह के ब चे के ताकने से काँप उठते ह।

देव देिख तव बालक दोऊ। अब न आँिख तर आवत कोऊ ॥


दूत बचन रचना ि य लागी। मे ताप बीर रस पागी॥

हे देव! आपके दोन बालक को देखने के बाद अब आँख के नीचे कोई आता ही नह (हमारी
ि पर कोई चढ़ता ही नह )। ेम, ताप और वीर-रस म पगी हई दूत क वचन रचना सबको
बहत ि य लगी।

सभा समेत राउ अनरु ागे। दूत ह देन िनछाव र लागे॥


किह अनीित ते मूदिहं काना। धरमु िबचा र सबिहं सखु ु माना॥

सभा सिहत राजा ेम म म न हो गए और दूत को िनछावर देने लगे। (उ ह िनछावर देते


देखकर) यह नीित िव है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथ से कान मँदू ने लगे। धम को
िवचारकर (उनका धमयु बताव देखकर) सभी ने सुख माना।

- तब उिठ भूप बिस कहँ दीि ह पि का जाई।


कथा सन ु ाई गरु िह सब सादर दूत बोलाइ॥ 293॥

तब राजा ने उठकर विश के पास जाकर उ ह पि का दी और आदरपवू क दूत को बुलाकर


सारी कथा गु जी को सुना दी॥ 293॥

सिु न बोले गरु अित सख


ु ु पाई। पु य पु ष कहँ मिह सख
ु छाई॥
िजिम स रता सागर महँ जाह । ज िप तािह कामना नाह ॥

सब समाचार सुनकर और अ यंत सुख पाकर गु बोले - पु या मा पु ष के िलए प ृ वी सुख से


छाई हई है। जैसे निदयाँ समु म जाती ह, य िप समु को नदी क कामना नह होती।

ितिम सख ु संपित िबनिहं बोलाएँ । धरमसील पिहं जािहं सभ


ु ाएँ ॥
तु ह गरु िब धेनु सरु सेबी। तिस पनु ीत कौस या देबी॥

वैसे ही सुख और संपि िबना ही बुलाए वाभािवक ही धमा मा पु ष के पास जाती है। तुम जैसे
गु , ा ण, गाय और देवता क सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पिव कौस यादेवी भी ह।

सक
ु ृ ती तु ह समान जग माह । भयउ न है कोउ होनेउ नाह ॥
तु ह ते अिधक पु य बड़ काक। राजन राम स रस सत
ु जाक॥

तु हारे समान पु या मा जगत म न कोई हआ, न है और न होने का ही है। हे राजन! तुमसे


अिधक पु य और िकसका होगा, िजसके राम-सरीखे पु ह।

बीर िबनीत धरम त धारी। गन


ु सागर बर बालक चारी॥
तु ह कहँ सब काल क याना। सजह बरात बजाइ िनसाना॥

और िजसके चार बालक वीर, िवन , धम का त धारण करनेवाले और गुण के सुंदर समु ह।
तु हारे िलए सभी काल म क याण है। अतएव डं का बजवाकर बारात सजाओ।

- चलह बेिग सिु न गरु बचन भलेिहं नाथ िस नाई।


भूपित गवने भवन तब दूत ह बासु देवाइ॥ 294॥

और ज दी चलो। गु जी के ऐसे वचन सुनकर, ‘हे नाथ! बहत अ छा’ कहकर और िसर नवाकर
तथा दूत को डे रा िदलवाकर राजा महल म गए॥ 294॥

राजा सबु रिनवास बोलाई। जनक पि का बािच सन ु ाई॥


े ु सकल हरषान । अपर कथा सब भूप बखान ॥
सिु न संदस

राजा ने सारे रिनवास को बुलाकर जनक क पि का बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब


रािनयाँ हष से भर गई ं। राजा ने िफर दूसरी सब बात का (जो दूत के मुख से सुनी थ ) वणन
िकया।

े फुि लत राजिहं रानी। मनहँ िसिखिन सिु न बा रद बानी॥



मिु दत असीस देिहं गरु नार । अित आनंद मगन महतार ॥

ेम म फुि लत हई रािनयाँ ऐसी सुशोिभत हो रही ह, जैसे मोरनी बादल क गरज सुनकर
फुि लत होती ह। बड़ी-बढ़
ू ी (अथवा गु ओं क ) ि याँ स न होकर आशीवाद दे रही ह। माताएँ
अ यंत आनंद म म न ह।

लेिहं पर पर अित ि य पाती। दयँ लगाई जुड़ाविहं छाती॥


राम लखन कै क रित करनी। बारिहं बार भूपबर बरनी॥

उस अ यंत ि य पि का को आपस म लेकर सब दय से लगाकर छाती शीतल करती ह। राजाओं


म े दशरथ ने राम-ल मण क क ित और करनी का बारं बार वणन िकया।

मिु न सादु किह ार िसधाए। रािन ह तब मिहदेव बोलाए॥


िदए दान आनंद समेता। चले िब बर आिसष देता॥
'यह सब मुिन क कृपा है' ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब रािनय ने ा ण को बुलाया और
आनंद सिहत उ ह दान िदए। े ा ण आशीवाद देते हए चले।

सो० - जाचक िलए हँका र दीि ह िनछाव र कोिट िबिध।


ु चा र च बित दसर थ के॥ 295॥
िच जीवहँ सत

िफर िभ ुक को बुलाकर करोड़ कार क िनछावर उनको द । 'च वत महाराज दशरथ के


चार पु िचरं जीवी ह '॥ 295॥

कहत चले पिहर पट नाना। हरिष हने गहगहे िनसाना॥


समाचार सब लोग ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥

य कहते हए वे अनेक कार के संुदर व पहन-पहनकर चले। आनंिदत होकर नगाड़े वाल ने
बड़े जोर से नगाड़ पर चोट लगाई। सब लोग ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने
लगे।

भव
ु न चा रदस भरा उछाह। जनकसत ु ा रघब
ु ीर िबआह॥
सिु न सभ
ु कथा लोग अनरु ागे। मग गहृ गल सँवारन लागे॥

चौदह लोक म उ साह भर गया िक जानक और रघुनाथ का िववाह होगा। यह शुभ समाचार
पाकर लोग ेमम न हो गए और रा ते, घर तथा गिलयाँ सजाने लगे।

ज िप अवध सदैव सहु ाविन। राम परु ी मंगलमय पाविन॥


तदिप ीित कै ीित सहु ाई। मंगल रचना रची बनाई॥

य िप अयो या सदा सुहावनी है, य िक वह राम क मंगलमयी पिव पुरी है, तथािप ीित-पर-
ीित होने से वह सुंदर मंगल रचना से सजाई गई।

वज पताक पट चामर चा । छावा परम िबिच बजा ॥


कनक कलस तोरन मिन जाला। हरद दूब दिध अ छत माला॥

ू ा छाया हआ है। सोने के कलश,


वजा, पताका, परदे और सुंदर चँवर से सारा बाजा बहत ही अनठ
तोरण, मिणय क झालर, हलदी, दूब, दही, अ त और मालाओं से -

- मंगलमय िनज िनज भवन लोग ह रचे बनाइ।


बीथ स च चतरु सम चौक चा परु ाइ॥ 296॥

लोग ने अपने-अपने घर को सजाकर मंगलमय बना िलया। गिलय को चतुरसम से स चा और


( ार पर) संुदर चौक पुराए। (चंदन, केशर, क तरू ी और कपरू से बने हए एक सुगंिधत व को
चतुरसम कहते ह)॥ 296॥

जहँ तहँ जूथ जूथ िमिल भािमिन। सिज नव स सकल दिु त दािमिन॥
िबधबु दन मग ृ सावक लोचिन। िनज स प रित मानु िबमोचिन॥

िबजली क -सी कांितवाली चं मुखी, ह रन के ब चे के-से ने वाली और अपने सुंदर प से


कामदेव क ी रित के अिभमान को छुड़ानेवाली सुहािगनी ि याँ सभी सोलह ंग ृ ार सजकर,
जहाँ-तहाँ झुंड-क -झुंड िमलकर,

गाविहं मंगल मंजुल बान । सिु न कल रव कलकंिठ लजान ॥


भूप भवन िकिम जाइ बखाना। िब व िबमोहन रचेउ िबताना॥

मनोहर वाणी से मंगल गीत गा रही ह, िजनके संुदर वर को सुनकर कोयल भी लजा जाती ह।
राजमहल का वणन कैसे िकया जाए, जहाँ िव को िवमोिहत करनेवाला मंडप बनाया गया है।

मंगल य मनोहर नाना। राजत बाजत िबपल ु िनसाना॥


कतहँ िब रद बंदी उ चरह । कतहँ बेद धिु न भूसरु करह ॥

अनेक कार के मनोहर मांगिलक पदाथ शोिभत हो रहे ह और बहत-से नगाड़े बज रहे ह। कह
भाट िव दावली (कुलक ित) का उ चारण कर रहे ह और कह ा ण वेद विन कर रहे ह।

गाविहं संदु र मंगल गीता। लै लै नामु रामु अ सीता॥


बहत उछाह भवनु अित थोरा। मानहँ उमिग चला चह ओरा॥

संुदरी ि याँ राम और सीता का नाम ले-लेकर मंगलगीत गा रही ह। उ साह बहत है और महल
अ यंत ही छोटा है। इससे (उसम न समाकर) मानो वह उ साह (आनंद) चार ओर उमड़ चला है।

- सोभा दसरथ भवन कइ को किब बरनै पार।


जहाँ सकल सरु सीस मिन राम ली ह अवतार॥ 297॥

दशरथ के महल क शोभा का वणन कौन किव कर सकता है, जहाँ सम त देवताओं के
िशरोमिण राम ने अवतार िलया है॥ 297॥

भूप भरत पिु न िलए बोलाई। हय गय यंदन साजह जाई॥


चलह बेिग रघब ु ीर बराता। सन ु क पूरे दोउ ाता॥
ु त पल

िफर राजा ने भरत को बुला िलया और कहा िक जाकर घोड़े , हाथी और रथ सजाओ, ज दी राम
क बारात म चलो। यह सुनते ही दोन भाई (भरत और श ु न) आनंदवश पुलक से भर गए।
भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दी ह मिु दत उिठ धाए॥
रिच िच जीन तरु ग ित ह साजे। बरन बरन बर बािज िबराजे॥

भरत ने सब साहनी (घुड़साल के अ य ) बुलाए और उ ह (घोड़ को सजाने क ) आ ा दी, वे


स न होकर उठ दौड़े । उ ह ने िच के साथ (यथायो य) जीन कसकर घोड़े सजाए। रं ग-रं ग के
उ म घोड़े शोिभत हो गए।

सभ
ु ग सकल सिु ठ चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाित न जािहं बखाने। िनद र पवनु जनु चहत उड़ाने॥

सब घोड़े बड़े ही सुंदर और चंचल करनी (चाल) के ह। वे धरती पर ऐसे पैर रखते ह जैसे जलते
हए लोहे पर रखते ह । अनेक जाित के घोड़े ह, िजनका वणन नह हो सकता। (ऐसी तेज चाल के
ह) मानो हवा का िनरादर करके उड़ना चाहते ह।

ित ह सब छयल भए असवारा। भरत स रस बय राजकुमारा॥


सब संदु र सब भूषनधारी। कर सर चाप तन
ू किट भारी॥

उन सब घोड़ पर भरत के समान अव थावाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हए। वे सभी संुदर
ह और सब आभषू ण धारण िकए हए ह। उनके हाथ म बाण और धनुष ह तथा कमर म भारी
तरकस बँधे ह।

- छरे छबीले छयल सब सूर सज


ु ान नबीन।
जगु पदचर असवार ित जे अिसकला बीन॥ 298॥

सभी चुने हए छबीले छैल, शरू वीर, चतुर और नवयुवक ह। येक सवार के साथ दो पैदल िसपाही
ह, जो तलवार चलाने क कला म बड़े िनपुण ह॥ 298॥

बाँध िबरद बीर रन गाढ़े। िनकिस भए परु बाहेर ठाढ़े॥


फेरिहं चतरु तरु ग गित नाना। हरषिहं सिु न सिु न पनव िनसाना॥

शरू ता का बाना धारण िकए हए रणधीर वीर सब िनकलकर नगर के बाहर आ खड़े हए। वे चतुर
अपने घोड़ को तरह-तरह क चाल से फेर रहे ह और भेरी तथा नगाड़े क आवाज सुन-सुनकर
स न हो रहे ह।

रथ सारिथ ह िबिच बनाए। वज पताक मिन भूषन लाए॥


चवँर चा िकंिकिन धिु न करह । भानु जान सोभा अपहरह ॥

सारिथय ने वजा, पताका, मिण और आभषू ण को लगाकर रथ को बहत िवल ण बना िदया है।
ू के रथ
उनम सुंदर चँवर लगे ह और घंिटयाँ सुंदर श द कर रही ह। वे रथ इतने सुंदर ह, मानो सय
क शोभा को छीने लेते ह।

सावँकरन अगिनत हय होते। ते ित ह रथ ह सारिथ ह जोते॥


संदु र सकल अलंकृत सोहे। िज हिह िबलोकत मिु न मन मोहे॥

अगिणत यामवण घोड़े थे। उनको सारिथय ने उन रथ म जोत िदया है, जो सभी देखने म सुंदर
और गहन से सजाए हए सुशोिभत ह और िज ह देखकर मुिनय के मन भी मोिहत हो जाते ह।

जे जल चलिहं थलिह क नाई ं। टाप न बूड़ बेग अिधकाई ं॥


अ स सबु साजु बनाई। रथी सारिथ ह िलए बोलाई॥

जो जल पर भी जमीन क तरह ही चलते ह। वेग क अिधकता से उनक टाप पानी म नह डूबती।


अ -श और सब साज सजाकर सारिथय ने रिथय को बुला िलया।

- चिढ़ चिढ़ रथ बाहेर नगर लागी जरु न बरात।


होत सगनु संदु र सबिह जो जेिह कारज जात॥ 299॥

रथ पर चढ़-चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो िजस काम के िलए जाता है, सभी को
सुंदर शकुन होते ह॥ 299॥

किलत क रबरि ह पर अँबार । किह न जािहं जेिह भाँित सँवार ॥


चले म गज घंट िबराजी। मनहँ सभ
ु ग सावन घन राजी॥

े हािथय पर सुंदर अंबा रयाँ पड़ी ह। वे िजस कार सजाई गई थ , सो कहा नह जा सकता।
मतवाले हाथी घंट से सुशोिभत होकर (घंटे बजाते हए) चले, मानो सावन के सुंदर बादल के
समहू (गरजते हए) जा रहे ह ।

बाहन अपर अनेक िबधाना। िसिबका सभ ु ग सख


ु ासन जाना॥
ित ह चिढ़ चले िब बर बंदृ ा। जनु तनु धर सकल ुित छं दा॥

संुदर पालिकयाँ, सुख से बैठने यो य तामजान (जो कुस नुमा होते ह) और रथ आिद और भी
अनेक कार क सवा रयाँ ह। उन पर े ा ण के समहू चढ़कर चले, मानो सब वेद के छं द
ही शरीर धारण िकए हए ह ।

मागध सूत बंिद गनु गायक। चले जान चिढ़ जो जेिह लायक॥
बेसर ऊँट बष
ृ भ बह जाती। चले ब तु भ र अगिनत भाँती॥

मागध, सत
ू , भाट और गुण गानेवाले सब, जो िजस यो य थे, वैसी सवारी पर चढ़कर चले। बहत
जाितय के ख चर, ऊँट और बैल असं य कार क व तुएँ लाद-लादकर चले।
कोिट ह काँव र चले कहारा। िबिबध ब तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समदु ाई। िनज िनज साजु समाजु बनाई॥

कहार करोड़ काँवर लेकर चले। उनम अनेक कार क इतनी व तुएँ थ िक िजनका वणन
कौन कर सकता है। सब सेवक के समहू अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले।

- सब क उर िनभर हरषु पू रत पल
ु क सरीर।
कबिहं देिखबे नयन भ र रामु लखनु दोउ बीर॥ 300॥

सबके दय म अपार हष है और शरीर पुलक से भरे ह। (सबको एक ही लालसा लगी है िक) हम


राम-ल मण दोन भाइय को ने भरकर कब देखगे॥ 300॥

गरजिहं गज घंटा धिु न घोरा। रथ रव बािज िहंस चह ओरा॥


िनद र घनिह घु मरिहं िनसाना। िनज पराइ कछु सिु नअ न काना॥

हाथी गरज रहे ह, उनके घंट क भीषण विन हो रही है। चार ओर रथ क घरघराहट और घोड़
क िहनिहनाहट हो रही है। बादल का िनरादर करते हए नगाड़े घोर श द कर रहे ह। िकसी को
अपनी-पराई कोई बात कान से सुनाई नह देती।

महा भीर भूपित के ार। रज होइ जाइ पषान पबार॥


चढ़ी अटा र ह देखिहं नार । िलएँ आरती मंगल थार ॥

राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड़ हो रही है िक वहाँ प थर फका जाए तो वह भी
िपसकर धलू हो जाए। अटा रय पर चढ़ी ि याँ मंगल-थाल म आरती िलए देख रही ह।

गाविहं गीत मनोहर नाना। अित आनंदु न जाइ बखाना॥


तब समु ं दइु यंदन साजी। जोते रिब हय िनंदक बाजी॥

और नाना कार के मनोहर गीत गा रही ह। उनके अ यंत आनंद का बखान नह हो सकता। तब
ू के घोड़ को भी मात करनेवाले घोड़े जोते।
सुमं ने दो रथ सजाकर उनम सय

दोउ रथ िचर भूप पिहं आने। निहं सारद पिहं जािहं बखाने॥
राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पंज
ु अित ाजा॥

दोन सुंदर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, िजनक सुंदरता का वणन सर वती से भी नह
हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुंज और अ यंत ही
शोभायमान था,

- तेिहं रथ िचर बिस कहँ हरिष चढ़ाई नरे स।ु


आपु चढ़ेउ यंदन सिु म र हर गरु गौ र गनेस॥ु 301॥

उस सुंदर रथ पर राजा विश को हषपवू क चढ़ाकर िफर वयं िशव, गु , गौरी (पावती) और
गणेश का मरण करके (दूसरे ) रथ पर चढ़े ॥ 301॥

सिहत बिस सोह नप ृ कैस। सरु गरु संग परु ं दर जैस॥


क र कुल रीित बेद िबिध राऊ। देिख सबिह सब भाँित बनाऊ॥

विश के साथ (जाते हए) राजा दशरथ कैसे शोिभत हो रहे ह, जैसे देव गु बहृ पित के साथ
इं ह । वेद क िविध से और कुल क रीित के अनुसार सब काय करके तथा सबको सब कार से
सजे देखकर,

सिु म र रामु गरु आयसु पाई। चले महीपित संख बजाई॥


हरषे िबबध ु िबलोिक बराता। बरषिहं समु न सम
ु ंगल दाता॥

राम का मरण करके, गु क आ ा पाकर प ृ वी पित दशरथ शंख बजाकर चले। बारात
देखकर देवता हिषत हए और सुंदर मंगलदायक फूल क वषा करने लगे।

भयउ कोलाहल हय गय गाजे। योम बरात बाजने बाजे॥


सरु नर ना र सम
ु ंगल गाई ं। सरस राग बाजिहं सहनाई ं॥

बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश म और बारात म (दोन जगह) बाजे
बजने लगे। देवांगनाएँ और मनु य क ि याँ सुंदर मंगलगान करने लग और रसीले राग से
शहनाइयाँ बजने लग ।

घंट घंिट धिु न बरिन न जाह । सरव करिहं पाइक फहराह ॥


करिहं िबदूषक कौतक ु नाना। हास कुसल कल गान सज ु ाना॥

घंटे-घंिटय क विन का वणन नह हो सकता। पैदल चलनेवाले सेवकगण अथवा प ेबाज


कसरत के खेल कर रहे ह और फहरा रहे ह (आकाश म ऊँचे उछलते हए जा रहे ह।) हँसी करने
म िनपुण और सुंदर गाने म चतुर िवदूषक (मसखरे ) तरह-तरह के तमाशे कर रहे ह।

- तरु ग नचाविहं कुअँर बर अकिन मदृ ग


ं िनसान।
नागर नट िचतविहं चिकत डगिहं न ताल बँधान॥ 302॥

संुदर राजकुमार मदृ ंग और नगाड़े के श द सुनकर घोड़ को उ ह के अनुसार इस कार नचा


रहे ह िक वे ताल के बंधान से जरा भी िडगते नह ह। चतुर नट चिकत होकर यह देख रहे ह॥
302॥
बनइ न बरनत बनी बराता। होिहं सगन ु संदु र सभ
ु दाता॥
चारा चाषु बाम िदिस लेई। मनहँ सकल मंगल किह देई॥

बारात ऐसी बनी है िक उसका वणन करते नह बनता। सुंदर शुभदायक शकुन हो रहे ह।
नीलकंठ प ी बाई ं ओर चारा ले रहा है, मानो संपण
ू मंगल क सच
ू ना दे रहा हो।

दािहन काग सख े सहु ावा। नकुल दरसु सब काहँ पावा॥


ु त
सानकु ू ल बह ि िबध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥

दािहनी ओर कौआ सुंदर खेत म शोभा पा रहा है। नेवले का दशन भी सब िकसी ने पाया। तीन
कार क (शीतल, मंद, सुगंिधत) हवा अनुकूल िदशा म चल रही है। े (सुहािगनी) ि याँ भरे
हए घड़े और गोद म बालक िलए आ रही ह।

लोवा िफ र िफ र दरसु देखावा। सरु भी सनमख


ु िससिु ह िपआवा॥
मग
ृ माला िफ र दािहिन आई। मंगल गन जनु दीि ह देखाई॥

लोमड़ी िफर-िफरकर (बार-बार) िदखाई दे जाती है। गाएँ सामने खड़ी बछड़ को दूध िपलाती ह।
ह रन क टोली (बाई ं ओर से) घम
ू कर दािहनी ओर को आई, मानो सभी मंगल का समहू िदखाई
िदया।

छेमकरी कह छेम िबसेषी। यामा बाम सत


ु पर देखी॥
सनमखु आयउ दिध अ मीना। कर पु तक दइु िब बीना॥

ेमकरी (सफेद िसरवाली चील) िवशेष प से ेम (क याण) कह रही है। यामा बाई ं ओर सुंदर
पेड़ पर िदखाई पड़ी। दही, मछली और दो िव ान ा ण हाथ म पु तक िलए हए सामने आए।

- मंगलमय क यानमय अिभमत फल दातार।


जनु सब साचे होन िहत भए सगन
ु एक बार॥ 303॥

सभी मंगलमय, क याणमय और मनोवांिछत फल देनेवाले शकुन मानो स चे होने के िलए एक


ही साथ हो गए॥ 303॥

मंगल सगनु सग
ु म सब ताक। सगन ु संदु र सत
ु जाक॥
राम स रस ब दलु िहिन सीता। समधी दसरथु जनकु पन ु ीता॥

वयं सगुण िजसके सुंदर पु ह, उसके िलए सब मंगल शकुन सुलभ ह। जहाँ राम-सरीखे
दू हा और सीता-जैसी दुलिहन ह तथा दशरथ और जनक-जैसे पिव समधी ह,

ु सब नाचे। अब क हे िबरं िच हम साँच॥े


सिु न अस याह सगन
एिह िबिध क ह बरात पयाना। हय गय गाजिहं हने िनसाना॥

ऐसा याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे -) अब ा ने हमको स चा कर
िदया। इस तरह बारात ने थान िकया। घोड़े , हाथी गरज रहे ह और नगाड़ पर चोट लग रही है।

आवत जािन भानक ु ु ल केतू। स रति ह जनक बँधाए सेत॥



बीच-बीच बर बास बनाए। सरु परु स रस संपदा छाए॥

सय ू वंश के पताका व प दशरथ को आते हए जानकर जनक ने निदय पर पुल बँधवा िदए।
बीच-बीच म ठहरने के िलए सुंदर घर (पड़ाव) बनवा िदए, िजनम देवलोक के समान संपदा छाई
है,

असन सयन बर बसन सहु ाए। पाविहं सब िनज िनज मन भाए॥


िनत नूतन सख
ु लिख अनकु ू ले। सकल बराित ह मंिदर भूल॥े

और जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन क पसंद के अनुसार सुहावने उ म भोजन,


िब तर और व पाते ह। मन के अनुकूल िन य नए सुख को देखकर सभी बाराितय को अपने
घर भल
ू गए।

- आवत जािन बरात बर सिु न गहगहे िनसान।


सिज गज रथ पदचर तरु ग लेन चले अगवान॥ 304॥

बड़े जोर से बजते हए नगाड़ क आवाज सुनकर े बारात को आती हई जानकर अगवानी
करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले॥ 304॥

कनक कलस भ र कोपर थारा। भाजन लिलत अनेक कारा॥


भरे सध
ु ा सम सब पकवाने। नाना भाँित न जािहं बखाने॥

(दूध, शबत, ठं ढाई, जल आिद से) भरकर सोने के कलश तथा िजनका वणन नह हो सकता ऐसे
अमत ृ के समान भाँित-भाँित के सब पकवान से भरे हए परात, थाल आिद अनेक कार के सुंदर
बतन,

फल अनेक बर ब तु सहु ाई ं। हरिष भट िहत भूप पठाई ं॥


भूषन बसन महामिन नाना। खग मग ृ हय गय बहिबिध जाना॥

उ म फल तथा और भी अनेक सुंदर व तुएँ राजा ने हिषत होकर भट के िलए भेज । गहने,
कपड़े , नाना कार क मू यवान मिणयाँ (र न), प ी, पशु, घोड़े , हाथी और बहत तरह क
सवा रयाँ,
मंगल सगन ु सगु ंध सहु ाए। बहत भाँित मिहपाल पठाए॥
दिध िचउरा उपहार अपारा। भ र भ र काँव र चले कहारा॥

तथा बहत कार के सुगंिधत एवं सुहावने मंगल- य और शगुन के पदाथ राजा ने भेजे। दही,
िचउड़ा और अगिणत उपहार क चीज काँवर म भर-भरकर कहार चले।

अगवान ह जब दीिख बराता। उर आनंदु पल ु क भर गाता॥


देिख बनाव सिहत अगवाना। मिु दत बराित ह हने िनसाना॥

अगवानी करने वाल को जब बारात िदखाई दी, तब उनके दय म आनंद छा गया और शरीर
रोमांच से भर गया। अगवान को सज-धज के साथ देखकर बाराितय ने स न होकर नगाड़े
बजाए।

- हरिष परसपर िमलन िहत कछुक चले बगमेल।


जनु आनंद समु दइु िमलत िबहाइ सब े ॥ 305॥
ु ल

(बाराती तथा अगवान म से) कुछ लोग पर पर िमलने के िलए हष के मारे बाग छोड़कर
(सरपट) दौड़ चले, और ऐसे िमले मानो आनंद के दो समु मयादा छोड़कर िमलते ह ॥ 305॥

बरिष सम
ु न सरु संदु र गाविहं। मिु दत देव ददुं भ
ु बजाविहं॥
ब तु सकल राख नप ृ आग। िबनय क ि ह ित ह अित अनरु ाग॥

देवसुंद रयाँ फूल बरसाकर गीत गा रही ह, और देवता आनंिदत होकर नगाड़े बजा रहे ह।
(अगवानी म आए हए) उन लोग ने सब चीज दशरथ के आगे रख द और अ यंत ेम से िवनती
क।

े समेत रायँ सबु ली हा। भै बकसीस जाचकि ह दी हा॥



क र पूजा मा यता बड़ाई। जनवासे कहँ चले लवाई॥

राजा दशरथ ने ेम सिहत सब व तुएँ ले ल , िफर उनक ब शीश होने लग और वे याचक को


ू ा, आदर-स कार और बड़ाई करके अगवान लोग उनको जनवासे क ओर
दे दी गई ं। तदनंतर पज
िलवा ले चले।

बसन िबिच पाँवड़े परह । देिख धनदु धन मदु प रहरह ॥


अित संदु र दी हेउ जनवासा। जहँ सब कहँ सब भाँित सप
ु ासा॥

िवल ण व के पाँवड़े पड़ रहे ह, िज ह देखकर कुबेर भी अपने धन का अिभमान छोड़ देते ह।


बड़ा सुंदर जनवासा िदया गया, जहाँ सबको सब कार का सुभीता था।
जानी िसयँ बरात परु आई। कछु िनज मिहमा गिट जनाई॥
दयँ सिु म र सब िसि बोलाई ं। भूप पहनई करन पठाई ं॥

सीता ने बारात जनकपुर म आई जानकर अपनी कुछ मिहमा कट करके िदखलाई। दय म


मरणकर सब िसि य को बुलाया और उ ह राजा दशरथ क मेहमानी करने के िलए भेजा।

- िसिध सब िसय आयसु अकिन गई ं जहाँ जनवास।


िलएँ संपदा सकल सख
ु सरु परु भोग िबलास॥ 306॥

सीता क आ ा सुनकर सब िसि याँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी संपदा, सुख और इं पुरी के
भोग-िवलास को िलए हए गई ं॥ 306॥

िनज िनज बास िबलोिक बराती। सरु सख


ु सकल सल
ु भ सब भाँती॥
िबभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करिहं बखाना॥

बाराितय ने अपने-अपने ठहरने के थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुख को सब कार से


सुलभ पाया। इस ऐ य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनक क बड़ाई कर रहे ह।

िसय मिहमा रघन


ु ायक जानी। हरषे दयँ हेतु पिहचानी॥
िपतु आगमनु सनु त दोउ भाई। दयँ न अित आनंदु अमाई॥

रघुनाथ यह सब सीता क मिहमा जानकर और उनका ेम पहचानकर दय म हिषत हए। िपता


दशरथ के आने का समाचार सुनकर दोन भाइय के दय म महान आनंद समाता न था।

सकुच ह किह न सकत गु पाह । िपतु दरसन लालचु मन माह ॥


िब वािम िबनय बिड़ देखी। उपजा उर संतोषु िबसेषी॥

संकोचवश वे गु िव ािम से कह नह सकते थे; परं तु मन म िपता के दशन क लालसा थी।


िव ािम ने उनक बड़ी न ता देखी, तो उनके दय म बहत संतोष उ प न हआ।

हरिष बंधु दोउ दयँ लगाए। पल


ु क अंग अंबक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहँ सरोबर तकेउ िपआसे॥

स न होकर उ ह ने दोन भाइय को दय से लगा िलया। उनका शरीर पुलिकत हो गया और


ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथ थे। मानो सरोवर
यासे क ओर ल य करके चला हो।

- भूप िबलोके जबिहं मिु न आवत सतु ह समेत।


उठे हरिष सख
ु िसंधु महँ चले थाह सी लेत॥ 307॥
जब राजा दशरथ ने पु सिहत मुिन को आते देखा, तब वे हिषत होकर उठे और सुख के समु
म थाह-सी लेते हए चले॥ 307॥

मिु निह दंडवत क ह महीसा। बार बार पद रज ध र सीसा॥


कौिसक राउ िलए उर लाई। किह असीस पूछी कुसलाई॥

प ृ वीपित दशरथ ने मुिन क चरणधिू ल को बारं बार िसर पर चढ़ाकर उनको दंडवत- णाम िकया।
िव ािम ने राजा को उठाकर दय से लगा िलया और आशीवाद देकर कुशल पछ ू ी।

पिु न दंडवत करत दोउ भाई। देिख नप ृ ित उर सख


ु ु न समाई॥
सत ु िहयँ लाइ दस ु मेट।े मत
ु ह दख ृ क सरीर ान जनु भटे॥

िफर दोन भाइय को दंडवत- णाम करते देखकर राजा के दय म सुख समाया नह । पु को
(उठाकर) दय से लगाकर उ ह ने अपने (िवयोगजिनत) दुःसह दुःख को िमटाया। मानो मत
ृ क
शरीर को ाण िमल गए ह ।

पिु न बिस पद िसर ित ह नाए। म े मिु दत मिु नबर उर लाए॥


िब बंदृ बंद े दहु ँ भाई ं। मनभावती असीस पाई ं॥

िफर उ ह ने विश के चरण म िसर नवाया। मुिन े ने ेम के आनंद म उ ह दय से लगा


िलया। दोन भाइय ने सब ा ण क वंदना क और मनभाए आशीवाद पाए।

भरत सहानज
ु क ह नामा। िलए उठाइ लाइ उर रामा॥
े प रपू रत गाता॥
हरषे लखन देिख दोउ ाता। िमले म

भरत ने छोटे भाई श ु न सिहत राम को णाम िकया। राम ने उ ह उठाकर दय से लगा िलया।
ल मण दोन भाइय को देखकर हिषत हए और ेम से प रपण ू हए शरीर से उनसे िमले।

- परु जन प रजन जाितजन जाचक मं ी मीत।


िमले जथािबिध सबिह भु परम कृपाल िबनीत॥ 308॥

तदनंतर परम कृपालु और िवनयी राम अयो यावािसय , कुटुंिबय , जाित के लोग , याचक ,
मंि य और िम - सभी से यथायो य िमले॥ 308॥

रामिह देिख बरात जुड़ानी। ीित िक रीित न जाित बखानी॥


नपृ समीप सोहिहं सतु चारी। जनु धन धरमािदक तनध ु ारी॥

राम को देखकर बारात शीतल हई (राम के िवयोग म सबके दय म जो आग जल रही थी, वह


शांत हो गई)। ीित क रीित का बखान नह हो सकता। राजा के पास चार पु ऐसी शोभा पा रहे
ह मानो अथ, धम, काम और मो शरीर धारण िकए हए ह ।

सत
ु ह समेत दसरथिह देखी। मिु दत नगर नर ना र िबसेषी॥
समु न ब रिस सरु हनिहं िनसाना। नाकनट नाचिहं क र गाना॥

पु सिहत दशरथ को देखकर नगर के ी-पु ष बहत ही स न हो रहे ह। (आकाश म) देवता


फूल क वषा करके नगाड़े बजा रहे ह और अ सराएँ गा-गाकर नाच रही ह।

सतानंद अ िब सिचव गन। मागध सूत िबदष ु बंदीजन॥


सिहत बरात राउ सनमाना। आयसु मािग िफरे अगवाना॥

अगवानी म आए हए शतानंद, अ य ा ण, मं ीगण, मागध, सत


ू , िव ान और भाट ने बारात
सिहत राजा दशरथ का आदर-स कार िकया। िफर आ ा लेकर वे वापस लौटे।

थम बरात लगन त आई। तात परु मोदु अिधकाई॥


ानंदु लोग सब लहह । बढ़हँ िदवस िनिस िबिध सन कहह ॥

बारात ल न के िदन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर म अिधक आनंद छा रहा है। सब लोग
ानंद ा कर रहे ह और िवधाता से मनाकर कहते ह िक िदन-रात बढ़ जाएँ (बड़े हो जाएँ )।

- रामु सीय सोभा अविध सकु ृ त अविध दोउ राज।


जहँ तहँ परु जन कहिहं अस िमिल नर ना र समाज॥ 309॥

राम और सीता सुंदरता क सीमा ह और दोन राजा पु य क सीमा ह, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी


ी-पु ष के समहू इक े हो-होकर यही कह रहे ह॥ 309॥

जनक सक ु ृ त मूरित बैदहे ी। दसरथ सक


ु ृ त रामु धर देही॥
इ ह सम काहँ न िसव अवराधे। काहँ न इ ह समान फल लाधे॥

जनक के सुकृत (पु य) क मिू त जानक ह और दशरथ के सुकृत देह धारण िकए हए राम ह।
इन (दोन राजाओं) के समान िकसी ने िशव क आराधना नह क ; और न इनके समान िकसी
ने फल ही पाए।

इ ह सम कोउ न भयउ जग माह । है निहं कतहँ होनेउ नाह ॥


हम सब सकल सक ु ृ त कै रासी। भए जग जनिम जनकपरु बासी॥

इनके समान जगत म न कोई हआ, न कह है, न होने का ही है। हम सब भी संपण


ू पु य क
रािश ह, जो जगत म ज म लेकर जनकपुर के िनवासी हए,
िज ह जानक राम छिब देखी। को सक ु ृ ती हम स रस िबसेषी॥
पिु न देखब रघब
ु ीर िबआह। लेब भली िबिध लोचन लाह॥

और िज ह ने जानक और राम क छिव देखी है। हमारे -सरीखा िवशेष पु या मा कौन होगा! और
अब हम रघुनाथ का िववाह देखगे और भली-भाँित ने का लाभ लगे।

कहिहं परसपर कोिकलबयन । एिह िबआहँ बड़ लाभु सन ु यन ॥


बड़ भाग िबिध बात बनाई। नयन अितिथ होइहिहं दोउ भाई॥

कोयल के समान मधुर बोलनेवाली ि याँ आपस म कहती ह िक हे सुंदर ने वाली! इस िववाह
म बड़ा लाभ है। बड़े भा य से िवधाता ने सब बात बना दी है, ये दोन भाई हमारे ने के अितिथ
हआ करगे।

- बारिहं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।


लेन आइहिहं बंधु दोउ कोिट काम कमनीय॥ 310॥

जनक नेहवश बार-बार सीता को बुलावगे और करोड़ कामदेव के समान सुंदर दोन भाई
सीता को लेने (िवदा कराने) आया करगे॥ 310॥

िबिबध भाँित होइिह पहनाई। ि य न कािह अस सासरु माई॥


तब तब राम लखनिह िनहारी। होइहिहं सब परु लोग सखु ारी॥

तब उनक अनेक कार से पहनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल िकसे यारी न होगी! तब-तब
हम सब नगर िनवासी राम-ल मण को देख-देखकर सुखी ह गे।

सिख जस राम लखन कर जोटा। तैसइे भूप संग दइु ढोटा॥


याम गौर सब अंग सहु ाए। ते सब कहिहं देिख जे आए॥

हे सखी! जैसा राम-ल मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी ह। वे भी एक


याम और दूसरे गौर वण के ह, उनके भी सब अंग बहत सुंदर ह। जो लोग उ ह देख आए ह, वे
सब यही कहते ह।

कहा एक म आजु िनहारे । जनु िबरं िच िनज हाथ सँवारे ॥


भरतु राम ही क अनहु ारी। सहसा लिख न सकिहं नर नारी॥

एक ने कहा - मने आज ही उ ह देखा है; इतने सुंदर ह, मानो ा ने उ ह अपने हाथ सँवारा है।
भरत तो राम क ही शकल-सरू त के ह। ी-पु ष उ ह सहसा पहचान नह सकते।

लखनु स स
ु ूदनु एक पा। नख िसख ते सब अंग अनूपा॥
मन भाविहं मख
ु बरिन न जाह । उपमा कहँ ि भव
ु न कोउ नाह ॥

ल मण और श ु न दोन का एक प है। दोन के नख से िशखा तक सभी अंग अनुपम ह। मन


को बड़े अ छे लगते ह, पर मुख से उनका वणन नह हो सकता। उनक उपमा के यो य तीन
लोक म कोई नह है।

छं ० - उपमा न कोउ कह दास तल ु सी कतहँ किब कोिबद कह।


बल िबनय िब ा सील सोभा िसंधु इ ह से एइ अह॥
परु ना र सकल पसा र अंचल िबिधिह बचन सन ु ावह ।
यािहअहँ चा रउ भाइ एिहं परु हम समु ंगल गावह ॥

दास तुलसी कहता है किव और कोिवद (िव ान) कहते ह, इनक उपमा कह कोई नह है। बल,
िवनय, िव ा, शील और शोभा के समु इनके समान ये ही ह। जनकपुर क सब ि याँ आँचल
फै लाकर िवधाता को यह वचन (िवनती) सुनाती ह िक चार भाइय का िववाह इसी नगर म हो
और हम सब सुंदर मंगल गाएँ ।

सो० - कहिहं पर पर ना र बा र िबलोचन पलु क तन।


सिख सबु करब परु ा र पु य पयोिनिध भूप दोउ॥ 311॥

ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भरकर पुलिकत शरीर से ि याँ आपस म कह रही ह िक हे सखी!


दोन राजा पु य के समु ह, ि पुरारी िशव सब मनोरथ पण
ू करगे॥ 311॥

एिह िबिध सकल मनोरथ करह । आनँद उमिग उमिग उर भरह ॥


जे नप
ृ सीय वयंबर आए। देिख बंधु सब ित ह सख
ु पाए॥

इस कार सब मनोरथ कर रही ह और दय को उमंग-उमंगकर (उ साहपवू क) आनंद से भर रही


ह। सीता के वयंवर म जो राजा आए थे, उ ह ने भी चार भाइय को देखकर सुख पाया।

कहत राम जसु िबसद िबसाला। िनज िनज भवन गए मिहपाला॥


गए बीित कछु िदन एिह भाँती। मिु दत परु जन सकल बराती॥

राम का िनमल और महान यश कहते हए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस कार कुछ िदन
बीत गए। जनकपुर िनवासी और बाराती सभी बड़े आनंिदत ह।

मंगल मूल लगन िदनु आवा। िहम रतु अगहनु मासु सहु ावा॥
ह ितिथ नखतु जोगु बर बा । लगन सोिध िबिध क ह िबचा ॥

मंगल का मल
ू ल न का िदन आ गया। हे मंत ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ह,
ितिथ, न , योग और वार े थे। ल न (मुहत) शोधकर ा ने उस पर िवचार िकया,
पठै दीि ह नारद सन सोई। गनी जनक के गनक ह जोई॥
सन
ु ी सकल लोग ह यह बाता। कहिहं जोितषी आिहं िबधाता॥

और उस (ल न पि का) को नारद के हाथ (जनक के यहाँ) भेज िदया। जनक के योितिषय ने


भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोग ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे - यहाँ के
योितषी भी ा ही ह।

- धेनध
ु ू र बेला िबमल सकल सम
ु ंगल मूल।
िब ह कहेउ िबदेह सन जािन सगन ु अनकु ू ल॥ 312॥

िनमल और सभी सुंदर मंगल क मल


ू गोधिू ल क पिव बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने
लगे, यह जानकर ा ण ने जनक से कहा॥ 312॥

उपरोिहतिह कहेउ नरनाहा। अब िबलंब कर कारनु काहा॥


सतानंद तब सिचव बोलाए। मंगल सकल सािज सब याए॥

तब राजा जनक ने पुरोिहत शतानंद से कहा िक अब देरी का या कारण है। तब शतानंद ने


मंि य को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आए।

संख िनसान पनव बह बाजे। मंगल कलस सगन ु सभ


ु साजे॥
सभु ग सआ
ु िसिन गाविहं गीता। करिहं बेद धिु न िब पनु ीता॥

शंख, नगाड़े , ढोल और बहत-से बाजे बजने लगे तथा मंगल-कलश और शुभ शकुन क व तुएँ
(दिध, दूवा आिद) सजाई गई ं। सुंदर सुहािगन ि याँ गीत गा रही ह और पिव ा ण वेद क
विन कर रहे ह।

लेन चले सादर एिह भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥


कोसलपित कर देिख समाजू। अित लघु लाग ित हिह सरु राजू॥

सब लोग इस कार आदरपवू क बारात को लेने चले और जहाँ बाराितय का जनवासा था, वहाँ
गए। अवधपित दशरथ का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इं भी बहत ही तु छ लगने
लगे।

भयउ समउ अब धा रअ पाऊ। यह सिु न परा िनसानिहं घाऊ॥


गरु िह पूिछ क र कुल िबिध राजा। चले संग मिु न साधु समाजा॥

(उ ह ने जाकर िवनती क -) समय हो गया, अब पधा रए। यह सुनते ही नगाड़ पर चोट पड़ी।
गु विश से पछ ू कर और कुल क सब रीितय को करके राजा दशरथ मुिनय और साधुओ ं के
समाज को साथ लेकर चले।

- भा य िबभव अवधेस कर देिख देव ािद।


लगे सराहन सहस मखु जािन जनम िनज बािद॥ 313॥

अवध नरे श दशरथ का भा य और वैभव देखकर और अपना ज म यथ समझकर, ा आिद


देवता हजार मुख से उसक सराहना करने लगे॥ 313॥

सरु ह सम
ु ंगल अवस जाना। बरषिहं सम ु न बजाइ िनसाना॥
िसव ािदक िबबध
ु ब था। चढ़े िबमानि ह नाना जूथा॥

देवगण सुंदर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा-बजाकर फूल बरसाते ह। िशव, ा आिद
देववंदृ यथ
ू (टोिलयाँ) बना-बनाकर िवमान पर जा चढ़े ।

े पल
म ु क तन दयँ उछाह। चले िबलोकन राम िबआह॥
देिख जनकपु सरु अनरु ागे। िनज िनज लोक सबिहं लघु लागे॥

और ेम से पुलिकत-शरीर हो तथा दय म उ साह भरकर राम का िववाह देखने चले। जनकपुर


को देखकर देवता इतने अनुर हो गए िक उन सबको अपने-अपने लोक बहत तु छ लगने लगे।

िचतविहं चिकत िबिच िबताना। रचना सकल अलौिकक नाना।


नगर ना र नर प िनधाना। सघु र सध
ु रम सस
ु ील सज
ु ाना॥

िविच मंडप को तथा नाना कार क सब अलौिकक रचनाओं को वे चिकत होकर देख रहे ह।
नगर के ी-पु ष प के भंडार, सुघड़, े धमा मा, सुशील और सुजान ह।

ित हिह देिख सब सरु सरु नार । भए नखत जनु िबधु उिजआर ॥


िबिधिह भयउ आचरजु िबसेषी। िनज करनी कछु कतहँ न देखी॥

उ ह देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे भाहीन हो गए जैसे चं मा के उिजयाले म तारागण


फ के पड़ जाते ह। ा को िवशेष आ य हआ; य िक वहाँ उ ह ने अपनी कोई करनी (रचना)
तो कह देखी ही नह ।

- िसवँ समझु ाए देव सब जिन आचरज भल ु ाह।


दयँ िबचारह धीर ध र िसय रघब
ु ीर िबआह॥ 314॥

तब िशव ने सब देवताओं को समझाया िक तुम लोग आ य म मत भल


ू ो। दय म धीरज धरकर
िवचार तो करो िक यह (भगवान क महामिहमामयी िनजशि ) सीता का और (अिखल ांड
के परम ई र सा ात भगवान) राम का िववाह है॥ 314॥
िज ह कर नामु लेत जग माह । सकल अमंगल मूल नसाह ॥
करतल होिहं पदारथ चारी। तेइ िसय रामु कहेउ कामारी॥

िजनका नाम लेते ही जगत म सारे अमंगल क जड़ कट जाती है और चार पदाथ (अथ, धम,
काम, मो ) मु ी म आ जाते ह, ये वही (जगत के माता-िपता) सीताराम ह, काम के श ु िशव ने
ऐसा कहा।

एिह िबिध संभु सरु ह समझु ावा। पिु न आग बर बसह चलावा॥


देव ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पल ु िकत गाता॥

इस कार िशव ने देवताओं को समझाया और िफर अपने े बैल नंदी र को आगे बढ़ाया।
देवताओं ने देखा िक दशरथ मन म बड़े ही स न और शरीर से पुलिकत हए चले जा रहे ह।

साधु समाज संग मिहदेवा। जनु तनु धर करिहं सख


ु सेवा॥
सोहत साथ सभु ग सतु चारी। जनु अपबरग सकल तनध ु ारी॥

उनके साथ (परम हषयु ) साधुओ ं और ा ण क मंडली ऐसी शोभा दे रही है, मानो सम त
सुख शरीर धारण करके उनक सेवा कर रहे ह । चार संुदर पु साथ म ऐसे सुशोिभत ह, मानो
संपण
ू मो (सालो य, सामी य, सा य, सायु य) शरीर धारण िकए हए ह ।

मरकत कनक बरन बर जोरी। देिख सरु ह भै ीित न थोरी॥


पिु न रामिह िबलोिक िहयँ हरषे। नप
ृ िह सरािह सम
ु न ित ह बरषे॥

मरकतमिण और सुवण के रं ग क सुंदर जोिड़य को देखकर देवताओं को कम ीित नह हई


(अथात बहत ही ीित हई)। िफर राम को देखकर वे दय म (अ यंत) हिषत हए और राजा क
सराहना करके उ ह ने फूल बरसाए।

- राम पु नख िसख सभ
ु ग बारिहं बार िनहा र।
पलु क गात लोचन सजल उमा समेत परु ा र॥ 315॥

नख से िशखा तक राम के सुंदर प को बार-बार देखते हए पावती सिहत िशव का शरीर


पुलिकत हो गया और उनके ने ( ेमा ुओ ं के) जल से भर गए॥ 315॥

केिक कंठ दिु त यामल अंगा। तिड़त िबिनंदक बसन सरु ं गा॥
याह िबभूषन िबिबध बनाए। मंगल सब सब भाँित सहु ाए॥

राम का मोर के कंठ क -सी कांितवाला (ह रताभ) याम शरीर है। िबजली का अ यंत िनरादर
करनेवाले काशमय सुंदर (पीत) रं ग के व ह। सब मंगल प और सब कार के सुंदर भाँित-
भाँित के िववाह के आभषू ण शरीर पर सजाए हए ह।
सरद िबमल िबधु बदनु सहु ावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौिकक संदु रताई। किह न जाइ मनह मन भाई॥

उनका सुंदर मुख शर पिू णमा के िनमल चं मा के समान और (मनोहर) ने नवीन कमल को
लजानेवाले ह। सारी सुंदरता अलौिकक है। (माया क बनी नह है, िद य सि चदानंदमयी है) वह
कह नह जा सकती, मन-ही-मन बहत ि य लगती है।

बंधु मनोहर सोहिहं संगा। जात नचावत चपल तरु ं गा।


राजकुअँर बर बािज देखाविहं। बंस संसक िब रद सन ु ाविहं॥

साथ म मनोहर भाई शोिभत ह, जो चंचल घोड़ को नचाते हए चले जा रहे ह। राजकुमार े
घोड़ को (उनक चाल को) िदखला रहे ह और वंश क शंसा करनेवाले (मागध-भाट)
िव दावली सुना रहे ह।

जेिह तरु ं ग पर रामु िबराजे। गित िबलोिक खगनायकु लाजे॥


किह न जाइ सब भाँित सहु ावा। बािज बेषु जनु काम बनावा॥

िजस घोड़े पर राम िवराजमान ह, उसक (तेज) चाल देखकर ग ड़ भी लजा जाते ह, उसका
वणन नह हो सकता, वह सब कार से संुदर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर
िलया हो।

छं ० - जनु बािज बेषु बनाइ मनिसजु राम िहत अित सोहई।


आपन बय बल प गन ु गित सकल भव ु न िबमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोित सम ु ोित मिन मािनक लगे।
िकंिकिन ललाम लगामु लिलत िबलोिक सरु नर मिु न ठगे॥

मानो राम के िलए कामदेव घोड़े का वेश बनाकर अ यंत शोिभत हो रहा है। वह अपनी अव था,
बल, प, गुण और चाल से सम त लोक को मोिहत कर रहा है। सुंदर मोती, मिण और मािण य
लगी हई जड़ाऊ जीन योित से जगमगा रहा है। उसक संुदर घँुघ लगी लिलत लगाम को
देखकर देवता, मनु य और मुिन सभी ठगे जाते ह।

- भु मनसिहं लयलीन मनु चलत बािज छिब पाव।


भूिषत उड़गन तिड़त घनु जनु बर बरिह नचाव॥ 316॥

भु क इ छा म अपने मन को लीन िकए चलता हआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो
तारागण तथा िबजली से अलंकृत मेघ सुंदर मोर को नचा रहा हो॥ 316॥

जेिहं बर बािज रामु असवारा। तेिह सारदउ न बरनै पारा॥


संक राम प अनरु ागे। नयन पंचदस अित ि य लागे॥

िजस े घोड़े पर राम सवार ह, उसका वणन सर वती भी नह कर सकत । शंकर राम के प
म ऐसे अनुर हए िक उ ह अपने पं ह ने इस समय बहत ही यारे लगने लगे।

ह र िहत सिहत रामु जब जोहे। रमा समेत रमापित मोहे॥


िनरिख राम छिब िबिध हरषाने। आठइ नयन जािन पिछताने॥

भगवान िव णु ने जब ेम सिहत राम को देखा, तब वे (रमणीयता क मिू त) ल मी के पित ल मी


सिहत मोिहत हो गए। राम क शोभा देखकर ा बड़े स न हए, पर अपने आठ ही ने
जानकर पछताने लगे।

सरु सेनप उर बहत उछाह। िबिध ते डेवढ़ लोचन लाह॥


रामिह िचतव सरु े स सज
ु ाना। गौतम ापु परम िहत माना॥

देवताओं के सेनापित वािम काितक के दय म बड़ा उ साह है, य िक वे ा से ड्योढ़े अथात


बारह ने से रामदशन का सुंदर लाभ उठा रहे ह। सुजान इं (अपने हजार ने से) राम को देख
रहे ह और गौतम के शाप को अपने िलए परम िहतकर मान रहे ह।

देव सकल सरु पितिह िसहाह । आजु परु ं दर सम कोउ नाह ॥


मिु दत देवगन रामिह देखी। नप
ृ समाज दहु ँ हरषु िबसेषी॥

सभी देवता देवराज इं से ई या कर रहे ह (और कह रहे ह) िक आज इं के समान भा यवान


दूसरा कोई नह है। राम को देखकर देवगण स न ह और दोन राजाओं के समाज म िवशेष हष
छा रहा है।

छं ० - अित हरषु राजसमाज दहु िदिस ददुं भ


ु बाजिहं घनी।
बरषिहं सम ु न सरु हरिष किह जय जयित जय रघक ु ु लमनी॥
एिह भाँित जािन बरात आवत बाजने बह बाजह ।
रानी सआ ु िसिन बोिल प रछिन हेतु मंगल साजह ॥

दोन ओर से राजसमाज म अ यंत हष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे ह। देवता स न होकर


और 'रघुकुलमिण राम क जय हो, जय हो, जय हो' कहकर फूल बरसा रहे ह। इस कार बारात
को आती हई जानकर बहत कार के बाजे बजने लगे और रानी सुहािगन ि य को बुलाकर
परछन के िलए मंगल य सजाने लग ।

- सिज आरती अनेक िबिध मंगल सकल सँवा र।


चल मिु दत प रछिन करन गजगािमिन बर ना र॥ 317॥
अनेक कार से आरती सजकर और सम त मंगल य को यथायो य सजाकर गजगािमनी
(हाथी क -सी चालवाली) उ म ि याँ आनंदपवू क परछन के िलए चल ॥ 317॥

िबधब
ु दन सब सब मग ृ लोचिन। सब िनज तन छिब रित मदु मोचिन॥
पिहर बरन बरन बर चीरा। सकल िबभूषन सज सरीरा॥

सभी ि याँ चं मुखी (चं मा के समान मुखवाली) और सभी मग ृ लोचनी (ह रण क -सी


आँख वाली) ह और सभी अपने शरीर क शोभा से रित के गव को छुड़ानेवाली ह। रं ग-रं ग क
सुंदर सािड़याँ पहने ह और शरीर पर सब आभषू ण सजे हए ह।

सकल सम ु ंगल अंग बनाएँ । करिहं गान कलकंिठ लजाएँ ॥


कंकन िकंिकिन नूपरु बाजिहं। चािल िबलोिक काम गज लाजिहं॥

सम त अंग को सुंदर मंगल पदाथ से सजाए हए वे कोयल को भी लजाती हई (मधुर वर से)


गान कर रही ह। कंगन, करधनी और नपू ुर बज रहे ह। ि य क चाल देखकर कामदेव के हाथी
भी लजा जाते ह।

बाजिहं बाजने िबिबध कारा। नभ अ नगर सम ु ंगलचारा॥


सची सारदा रमा भवानी। जे सरु ितय सिु च सहज सयानी॥

अनेक कार के बाजे बज रहे ह, आकाश और नगर दोन थान म सुंदर मंगलाचार हो रहे ह।
शची (इं ाणी), सर वती, ल मी, पावती और जो वभाव से ही पिव और सयानी देवांगनाएँ थ ,

कपट ना र बर बेष बनाई। िमली सकल रिनवासिहं जाई॥


करिहं गान कल मंगल बान । हरष िबबस सब काहँ न जान ॥

वे सब कपट से सुंदर ी का वेश बनाकर रिनवास म जा िमल और मनोहर वाणी से मंगलगान


करने लग । सब कोई हष के िवशेष वश थे, अतः िकसी ने उ ह पहचाना नह ।

छं ० - को जान केिह आनंद बस सब ु बर प रछन चली।


कल गान मधरु िनसान बरषिहं सम ु न सरु सोभा भली॥
आनंदकंदु िबलोिक दूलह सकलिहयँ हरिषत भई।
अंभोज अंबक अंबु उमिग सअु ंग पल
ु काविल छई॥

कौन िकसे जाने-पिहचाने! आनंद के वश हई सब दूलह बने हए का परछन करने चल ।


मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाड़े बज रहे ह, देवता फूल बरसा रहे ह, बड़ी अ छी शोभा
है। आनंदकंद दूलह को देखकर सब ि याँ दय म हिषत हई ं। उनके कमल सरीखे ने म
ेमा ुओ ं का जल उमड़ आया और सुंदर अंग म पुलकावली छा गई॥
- जो सख
ु ु भा िसय मातु मन देिख राम बर बेष।ु
सो न सकिहं किह कलप सत सहस सारदा सेष॥ु 318॥

राम का वर वेश देखकर सीता क माता सुनयना के मन म जो सुख हआ, उसे हजार सर वती
और शेष सौ क प म भी नह कह सकते (अथवा लाख सर वती और शेष लाख क प म भी
नह कह सकते)॥ 318॥

नयन नी हिट मंगल जानी। प रछिन करिहं मिु दत मन रानी॥


बेद िबिहत अ कुल आचा । क ह भली िबिध सब यवहा ॥

मंगल अवसर जानकर ने के जल को रोके हए रानी स न मन से परछन कर रही ह। वेद म


कहे हए तथा कुलाचार के अनुसार सभी यवहार रानी ने भली-भाँित िकए।

पंच सबद धिु न मंगल गाना। पट पाँवड़े परिहं िबिध नाना॥


क र आरती अरघु ित ह दी हा। राम गमनु मंडप तब क हा॥

पंचश द (तं ी, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही - इन पाँच कार के बाज के श द), पंच विन
(वेद विन, वंिद विन, जय विन, शंख विन और हलू विन) और मंगलगान हो रहे ह। नाना कार
के व के पाँवड़े पड़ रहे ह। उ ह ने (रानी ने) आरती करके अ य िदया, तब राम ने मंडप म
गमन िकया।

दसरथु सिहत समाज िबराजे। िबभव िबलोिक लोकपित लाजे॥


समयँ समयँ सरु बरषिहं फूला। सांित पढ़िहं मिहसरु अनक
ु ू ला॥

दशरथ अपनी मंडली सिहत िवराजमान हए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए।
समय-समय पर देवता फूल बरसाते ह और भदू ेव ा ण समयानुकूल शांित-पाठ करते ह।

नभ अ नगर कोलाहल होई। आपिन पर कछु सन ु इ न कोई॥


एिह िबिध रामु मंडपिहं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥

आकाश और नगर म शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नह सुनता। इस कार राम
मंडप म आए और अ य देकर आसन पर बैठाए गए।

छं ० - बैठा र आसन आरती क र िनरिख ब सख ु ु पावह ।


मिन बसन भूषन भू र वारिहं ना र मंगल गावह ॥
ािद सरु बर िब बेष बनाइ कौतक ु देखह ।
अवलोिक रघक ु ु ल कमल रिब छिब सफु ल जीवन लेखह ॥

आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर ि याँ सुख पा रही ह। वे ढे र के ढे र मिण,
व और गहने िनछावर करके मंगल गा रही ह। ा आिद े देवता ा ण का वेश बनाकर
कौतुक देख रहे ह। वे रघुकुल पी कमल को फुि लत करनेवाले सय
ू राम क छिव देखकर
अपना जीवन सफल जान रहे ह।

- नाऊ बारी भाट नट राम िनछाव र पाइ।


मिु दत असीसिहं नाइ िसर हरषु न दयँ समाइ॥ 319॥

नाई, बारी, भाट और नट राम क िनछावर पाकर आनंिदत हो िसर नवाकर आशीष देते ह, उनके
दय म हष समाता नह है॥ 319॥

िमले जनकु दसरथु अित ीत । क र बैिदक लौिकक सब रीत ॥


िमलत महा दोउ राज िबराजे। उपमा खोिज खोिज किब लाजे॥

वैिदक और लौिकक सब रीितयाँ करके जनक और दशरथ बड़े ेम से िमले। दोन िमलते हए बड़े
ही शोिभत हए, किव उनके िलए उपमा खोज-खोजकर लजा गए।

लही न कतहँ हा र िहयँ मानी। इ ह सम एइ उपमा उर आनी॥


सामध देिख देव अनरु ागे। सम
ु न बरिष जसु गावन लागे॥

जब कह भी उपमा नह िमली, तब दय म हार मानकर उ ह ने मन म यही उपमा िनि त क


िक इनके समान ये ही ह। समिधय का िमलाप या पर पर संबंध देखकर देवता अनुर हो गए
और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे।

जगु िबरं िच उपजावा जब त। देखे सन


ु े याह बह तब त॥
सकल भाँित सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥

(वे कहने लगे -) जब से ा ने जगत को उ प न िकया, तब से हमने बहत िववाह देखे-सुने,


परं तु सब कार से समान साज-समाज और बराबरी के (पण
ू समतायु ) समधी तो आज ही देखे।

देव िगरा सिु न संदु र साँची। ीित अलौिकक दहु िदिस माची॥
देत पाँवड़े अरघु सहु ाए। सादर जनकु मंडपिहं याए॥

देवताओं क सुंदर स यवाणी सुनकर दोन ओर अलौिकक ीित छा गई। सुंदर पाँवड़े और अ य
देते हए जनक दशरथ को आदरपवू क मंडप म ले आए।

छं ० - मंडपु िबलोिक िबिच रचनाँ िचरताँ मिु न मन हरे ।


िनज पािन जनक सज ु ान सब कहँ आिन िसंघासन धरे ॥
कुल इ स रस बिस पूजे िबनय क र आिसष लही।
कौिसकिह पूजन परम ीित िक रीित तौ न परै कही॥
मंडप को देखकर उसक िविच रचना और सुंदरता से मुिनय के मन भी हरे गए (मोिहत हो
गए)। सुजान जनक ने अपने हाथ से ला-लाकर सबके िलए िसंहासन रखे। उ ह ने अपने कुल
के इ देवता के समान विश क पज ू ा क और िवनय करके आशीवाद ा िकया। िव ािम
क पज ू ा करते समय क परम ीित क रीित तो कहते ही नह बनती।

- बामदेव आिदक रषय पूजे मिु दत महीस॥


िदए िद य आसन सबिह सब सन लही असीस॥ 320॥

राजा ने वामदेव आिद ऋिषय क स न मन से पज


ू ा क । सभी को िद य आसन िदए और सबसे
आशीवाद ा िकया॥ 320॥

बह र क ि ह कोसलपित पूजा। जािन ईस सम भाउ न दूजा॥


क ि ह जो र कर िबनय बड़ाई। किह िनज भा य िबभव बहताई॥

िफर उ ह ने कोसलाधीश राजा दशरथ क पज ू ा उ ह ईश (महादेव) के समान जानकर क , कोई


दूसरा भाव न था। तदनंतर (उनके संबंध से) अपने भा य और वैभव के िव तार क सराहना
करके हाथ जोड़कर िवनती और बड़ाई क ।

पूजे भूपित सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥


आसन उिचत िदए सब काह। कह काह मख ु एक उछाह॥

राजा जनक ने सब बाराितय का समधी दशरथ के समान ही सब कार से आदरपवू क पज


ू न
िकया और सब िकसी को उिचत आसन िदए। म एक मुख से उस उ साह का या वणन क ँ ।

सकल बरात जनक सनमानी। दान मान िबनती बर बानी॥


िबिध ह र ह िदिसपित िदनराऊ। जे जानिहं रघब
ु ीर भाऊ॥

राजा जनक ने दान, मान-स मान, िवनय और उ म वाणी से सारी बारात का स मान िकया।
ा, िव णु, िशव, िद पाल और सय
ू जो रघुनाथ का भाव जानते ह,

कपट िब बर बेष बनाएँ । कौतक


ु देखिहं अित सचु पाएँ ॥
पूजे जनक देव सम जान। िदए सआ
ु सन िबनु पिहचान॥

वे कपट से ा ण का सुंदर वेश बनाए बहत ही सुख पाते हए सब लीला देख रहे थे। जनक ने
उनको देवताओं के समान जानकर उनका पज ू न िकया और िबना पिहचाने भी उ ह सुंदर आसन
िदए।

छं ० - पिहचान को केिह जान सबिह अपान सिु ध भोरी भई।


आनंद कंदु िबलोिक दूलह उभय िदिस आनँदमई॥
ु ान पूजे मानिसक आसन दए।
सरु लखे राम सज
अवलोिक सीलु सभ ु ाउ भु को िबबध
ु मन मिु दत भए॥

कौन िकसको जाने-पिहचाने! सबको अपनी ही सुध भलू ी हई है। आनंदकंद दूलह को देखकर
दोन ओर आनंदमयी ि थित हो रही है। सुजान (सव ) राम ने देवताओं को पहचान िलया और
उनक मानिसक पज ू ा करके उ ह मानिसक आसन िदए। भु का शील- वभाव देखकर देवगण
मन म बहत आनंिदत हए।

- रामचं मख
ु चं छिब लोचन चा चकोर।
करत पान सादर सकल म े ु मोदु न थोर॥ 321॥

रामचं के मुख पी चं मा क छिव को सभी के सुंदर ने पी चकोर आदरपवू क पान कर रहे


ह; ेम और आनंद कम नह है (अथात बहत है)॥ 321॥

समउ िबलोिक बिस बोलाए। सादर सतानंदु सिु न आए॥


बेिग कुअँ र अब आनह जाई। चले मिु दत मिु न आयसु पाई॥

समय देखकर विश ने शतानंद को आदरपवू क बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। विश
ने कहा - अब जाकर राजकुमारी को शी ले आइए। मुिन क आ ा पाकर वे स न होकर चले।

रानी सिु न उपरोिहत बानी। मिु दत सिख ह समेत सयानी॥


िब बधू कुल ब ृ बोलाई ं। क र कुल रीित सम
ु ंगल गाई ं॥

बुि मती रानी पुरोिहत क वाणी सुनकर सिखय समेत बड़ी स न हई ं। ा ण क ि य और


कुल क बढ़ ू ी ि य को बुलाकर उ ह ने कुलरीित करके सुंदर मंगल गीत गाए।

ना र बेष जे सरु बर बामा। सकल सभ ु ायँ संदु री यामा॥


ित हिह देिख सख ु ु पाविहं नारी। िबनु पिहचािन ानह ते यार ॥

े देवांगनाएँ , जो सुंदर मनु य-ि य के वेश म ह, सभी वभाव से ही सुंदरी और यामा


(सोलह वष क अव थावाली) ह। उनको देखकर रिनवास क ि याँ सुख पाती ह और िबना
पहचान के ही वे सबको ाण से भी यारी हो रही ह।

बार बार सनमानिहं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥


सीय सँवा र समाजु बनाई। मिु दत मंडपिहं चल लवाई॥

उ ह पावती, ल मी और सर वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका स मान करती ह।


ृ ार करके, मंडली बनाकर, स न होकर उ ह
(रिनवास क ि याँ और सिखयाँ) सीता का ंग
मंडप म िलवा चल ।

छं ० - चिल याइ सीतिह सख सादर सिज सम ु ंगल भािमन ।


नवस साज संदु री सब म कंु जर गािमन ॥
कल गान सिु न मिु न यान यागिहं काम कोिकल लाजह ।
मंजीर नूपरु किलत कंकन ताल गित बर बाजह ॥

संुदर मंगल का साज सजकर (रिनवास क ) ि याँ और सिखयाँ आदर सिहत सीता को िलवा
ृ ार िकए हए मतवाले हािथय क चाल से चलनेवाली ह। उनके
चल । सभी सुंद रयाँ सोलह ंग
मनोहर गान को सुनकर मुिन यान छोड़ देते ह और कामदेव क कोयल भी लजा जाती ह।
पायजेब, पजनी और सुंदर कंकण ताल क गित पर बड़े सुंदर बज रहे ह।

- सोहित बिनता बंदृ महँ सहज सहु ाविन सीय।


छिब ललना गन म य जनु सष ु मा ितय कमनीय॥ 322॥

सहज ही सुंदरी सीता ि य के समहू म इस कार शोभा पा रही ह, मानो छिव पी ललनाओं के
समहू के बीच सा ात परम मनोहर शोभा पी ी सुशोिभत हो॥ 322॥

िसय संदु रता बरिन न जाई। लघु मित बहत मनोहरताई॥


आवत दीिख बराित ह सीता। प रािस सब भाँित पन ु ीता॥

सीता क सुंदरता का वणन नह हो सकता, य िक बुि बहत छोटी है और मनोहरता बहत बड़ी
है। प क रािश और सब कार से पिव सीता को बाराितय ने आते देखा।

सबिहं मनिहं मन िकए नामा। देिख राम भए पूरनकामा॥


हरषे दसरथ सत ु ह समेता। किह न जाइ उर आनँदु जेता॥

सभी ने उ ह मन-ही-मन णाम िकया। राम को देखकर तो सभी पण


ू काम (कृतकृ य) हो गए।
राजा दशरथ पु सिहत हिषत हए। उनके दय म िजतना आनंद था, वह कहा नह जा सकता।

सरु नामु क र ब रसिहं फूला। मिु न असीस धिु न मंगल मूला॥


गान िनसान कोलाहलु भारी। म े मोद मगन नर नारी॥

देवता णाम करके फूल बरसा रहे ह। मंगल क मलू मुिनय के आशीवाद क विन हो रही है।
गान और नगाड़ के श द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी ेम और आनंद म म न ह।

एिह िबिध सीय मंडपिहं आई। मिु दत सांित पढ़िहं मिु नराई॥
तेिह अवसर कर िबिध यवहा । दहु ँ कुलगरु सब क ह अचा ॥
इस कार सीता मंडप म आई।ं मुिनराज बहत ही आनंिदत होकर शांितपाठ पढ़ रहे ह। उस अवसर
क सब रीित, यवहार और कुलाचार दोन कुलगु ओं ने िकए।

छं ० - आचा क र गरु गौ र गनपित मिु दत िब पज ु ावह ।


सरु गिट पूजा लेिहं देिहं असीस अित सख
ु ु पावह ॥
मधप ु क मंगल य जो जेिह समय मिु न मन महँ चह।
भरे कनक कोपर कलस सो तब िलएिहं प रचारक रह॥

कुलाचार करके गु स न होकर गौरी, गणेश और ा ण क पज ू ा करा रहे ह (अथवा ा ण


के ारा गौरी और गणेश क पज ू ा करवा रहे ह)। देवता कट होकर पजू ा हण करते ह,
आशीवाद देते ह और अ यंत सुख पा रहे ह। मधुपक आिद िजस िकसी भी मांगिलक पदाथ क
मुिन िजस समय भी मन म चाह मा करते ह, सेवकगण उसी समय सोने क परात म और
कलश म भरकर उन पदाथ को िलए तैयार रहते ह।

कुल रीित ीित समेत रिब किह देत सबु सादर िकयो।
एिह भाँित देव पज
ु ाइ सीतिह सभ
ु ग िसंघासनु िदयो॥
िसय राम अवलोकिन परसपर म े ु काहँ न लिख परै ।
मन बिु बर बानी अगोचर गट किब कैस करै ॥

ू देव ेम सिहत अपने कुल क सब रीितयाँ बता देते ह और वे सब आदरपवू क क जा रही


वयं सय
ह। इस कार देवताओं क पजू ा कराके मुिनय ने सीता को सुंदर िसंहासन िदया। सीता और राम
का आपस म एक-दूसरे को देखना तथा उनका पर पर का ेम िकसी को लख नह पड़ रहा है।
जो बात े मन, बुि और वाणी से भी परे है, उसे किव य कर कट करे ?

- होम समय तनु ध र अनलु अित सखु आहित लेिहं।


िब बेष ध र बेद सब किह िबबाह िबिध देिहं॥ 323॥

हवन के समय अि नदेव शरीर धारण करके बड़े ही सुख से आहित हण करते ह और सारे वेद
ा ण वेष धरकर िववाह क िविधयाँ बताए देते ह॥ 323॥

जनक पाटमिहषी जग जानी। सीय मातु िकिम जाइ बखानी॥


सज
ु सु सक
ु ृ त सख
ु संदु रताई। सब समेिट िबिध रची बनाई॥

जनक क जगि यात पटरानी और सीता क माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश,
सुकृत (पु य), सुख और सुंदरता सबको बटोरकर िवधाता ने उ ह सँवारकर तैयार िकया है।

समउ जािन मिु नबर ह बोलाई ं। सन


ु त सआ
ु िसिन सादर याई ं॥
जनक बाम िदिस सोह सन ु यना। िहमिग र संग बनी जनु मयना॥
समय जानकर े मुिनय ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहािगनी ि याँ उ ह आदरपवू क
ले आई।ं सुनयना (जनक क पटरानी) जनक क बाई ं ओर ऐसी सोह रही ह, मानो िहमाचल के
साथ मैना शोिभत ह ।

कनक कलस मिन कोपर रे । सिु च सग ु ंध मंगल जल पूरे॥


िनज कर मिु दत रायँ अ रानी। धरे राम के आग आनी॥

पिव , सुगंिधत और मंगल जल से भरे सोने के कलश और मिणय क सुंदर परात राजा और
रानी ने आनंिदत होकर अपने हाथ से लाकर राम के आगे रख ।

पढ़िहं बेद मिु न मंगल बानी। गगन समु न झ र अवस जानी॥


ब िबलोिक दंपित अनरु ागे। पाय पनु ीत पखारन लागे॥

मुिन मंगलवाणी से वेद पढ़ रहे ह। सुअवसर जानकर आकाश से फूल क झड़ी लग गई है। दू हे
को देखकर राजा-रानी ेमम न हो गए और उनके पिव चरण को पखारने लगे।

छं ० - लागे पखारन पाय पंकज म े तन पल


ु कावली।
नभ नगर गान िनसान जय धिु न उमिग जनु चहँ िदिस चली॥
जे पद सरोज मनोज अ र उर सर सदैव िबराजह ।
जे सक ु ृ त सिु मरत िबमलता मन सकल किल मल भाजह ॥

वे राम के चरण कमल को पखारने लगे, ेम से उनके शरीर म पुलकावली छा रही है। आकाश
और नगर म होनेवाली गान, नगाड़े और जय-जयकार क विन मानो चार िदशाओं म उमड़
चली, जो चरण कमल कामदेव के श ु िशव के दय पी सरोवर म सदा ही िवराजते ह, िजनका
एक बार भी मरण करने से मन म िनमलता आ जाती है और किलयुग के सारे पाप भाग जाते ह,

जे परिस मिु नबिनता लही गित रही जो पातकमई।


मकरं दु िज ह को संभु िसर सिु चता अविध सरु बरनई॥
क र मधप ु मन मिु न जोिगजन जे सेइ अिभमत गित लह।
ते पद पखारत भा यभाजनु जनकु जय जय सब कह॥

िजनका पश पाकर गौतम मुिन क ी अह या ने, जो पापमयी थी, परमगित पाई, िजन
चरणकमल का मकरं द रस (गंगा) िशव के म तक पर िवराजमान है, िजसको देवता पिव ता
क सीमा बताते ह; मुिन और योगीजन अपने मन को भ रा बनाकर िजन चरणकमल का सेवन
करके मनोवांिछत गित ा करते ह; उ ह चरण को भा य के पा (बड़भागी) जनक धो रहे ह;
यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे ह।

बर कुअँ र करतल जो र साखोचा दोउ कुलगरु कर।


भयो पािनगहनु िबलोिक िबिध सरु मनजु मिु न आनँद भर॥
सख
ु मूल दूलह देिख दंपित पल
ु क तन हल यो िहयो।
क र लोक बेद िबधानु क यादानु नप
ृ भूषन िकयो॥

दोन कुल के गु वर और क या क हथेिलय को िमलाकर शाखो चार करने लगे। पािण हण


हआ देखकर ािद देवता, मनु य और मुिन आनंद म भर गए। सुख के मल
ू दू हे को देखकर
राजा-रानी का शरीर पुलिकत हो गया और दय आनंद से उमंग उठा। राजाओं के अलंकार व प
जनक ने लोक और वेद क रीित को करके क यादान िकया।

िहमवंत िजिम िग रजा महेसिह ह रिह सागर दई।


ितिम जनक रामिह िसय समरपी िब व कल क रित नई॥
य करै िबनय िबदेह िकयो िबदेह मूरित सावँर ।
क र होमु िबिधवत गाँिठ जोरी होन लाग भावँर ॥

जैसे िहमवान ने िशव को पावती और सागर ने भगवान िव णु को ल मी दी थ , वैसे ही जनक ने


राम को सीता समिपत क , िजससे िव म सुंदर नवीन क ित छा गई। िवदेह (जनक) कैसे
िवनती कर! उस साँवली मिू त ने तो उ ह सचमुच िवदेह (देह क सुध-बुध से रिहत) ही कर िदया।
िविधपवू क हवन करके गठजोड़ी क गई और भाँवर होने लग ।

- जय धिु न बंदी बेद धिु न मंगल गान िनसान।


सिु न हरषिहं बरषिहं िबबध ु सरु त सम
ु न सज
ु ान॥ 324॥

जय विन, वंिद विन, वेद विन, मंगलगान और नगाड़ क विन सुनकर चतुर देवगण हिषत
हो रहे ह और क पव ृ के फूल को बरसा रहे ह॥ 324॥

कुअँ कुअँ र कल भावँ र देह । नयन लाभु सब सादर लेह ॥


जाइ न बरिन मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कह सो थोरी॥

वर और क या सुंदर भाँवर दे रहे ह। सब लोग आदरपवू क (उ ह देखकर) ने का परम लाभ ले


रहे ह। मनोहर जोड़ी का वणन नह हो सकता, जो कुछ उपमा कहँ वही थोड़ी होगी।

राम सीय संदु र ितछाह । जगमगात मिन खंभन माह ॥


मनहँ मदन रित ध र बह पा। देखत राम िबआह अनूपा॥

राम और सीता क संुदर परछाई ं मिणय के ख भ म जगमगा रही ह, मानो कामदेव और रित
बहत-से प धारण करके राम के अनुपम िववाह को देख रहे ह।

दरस लालसा सकुच न थोरी। गटत दरु त बहो र बहोरी॥


भए मगन सब देखिनहारे । जनक समान अपान िबसारे ॥

उ ह (कामदेव और रित को) दशन क लालसा और संकोच दोन ही कम नह ह (अथात बहत


ह); इसीिलए वे मानो बार-बार कट होते और िछपते ह। सब देखनेवाले आनंदम न हो गए और
जनक क भाँित सभी अपनी सुध भल ू गए।

मिु दत मिु न ह भावँर फेर । नेगसिहत सब रीित िनबेर ॥


राम सीय िसर सदरु देह । सोभा किह न जाित िबिध केह ॥

मुिनय ने आनंदपवू क भाँवर िफराई ं और नेग सिहत सब रीितय को परू ा िकया। राम सीता के
िसर म िसंदूर दे रहे ह; यह शोभा िकसी कार भी कही नह जाती।

अ न पराग जलजु भ र नीक। सिसिह भूष अिह लोभ अमी क॥


बह र बिस दीि ह अनस ु िहिन बैठे एक आसन॥
ु ासन। ब दल

मानो कमल को लाल पराग से अ छी तरह भरकर अमत ृ के लोभ से साँप चं मा को भिू षत कर
रहा है। (यहाँ राम के हाथ को कमल क , िसंदूर को पराग क , राम क याम भुजा को साँप क
और सीता के मुख को चं मा क उपमा दी गई है) िफर विश ने आ ा दी, तब दू हा और
दुलिहन एक आसन पर बैठे।

छं ० - बैठे बरासन रामु जानिक मिु दत मन दसरथु भए।


तनु पल ु क पिु न पिु न देिख अपन सकु ृ त सरु त फल नए॥
भ र भव ु न रहा उछाह राम िबबाह भा सबह कहा।
केिह भाँित बरिन िसरात रसना एक यह मंगलु महा॥

राम और जानक े आसन पर बैठे; उ ह देखकर दशरथ मन म बहत आनंिदत हए। अपने
सुकृत पी क प व ृ म नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलिकत हो रहा है।
चौदह भुवन म उ साह भर गया; सबने कहा िक राम का िववाह हो गया। जीभ एक है और यह
मंगल महान है; िफर भला, वह वणन करके िकस कार समा िकया जा सकता है।

तब जनक पाइ बिस आयसु याह साज सँवा र कै।


मांडवी ुतक रित उरिमला कुअँ र लई ं हँका र कै॥
कुसकेतु क या थम जो गन ु सील सख ु सोभामई।
सब रीित ीित समेत क र सो यािह नप ृ भरतिह दई॥

तब विश क आ ा पाकर जनक ने िववाह का सामान सजाकर मांडवी, ुतक ित और उिमला


- इन तीन राजकुमा रय को बुला िलया। कुश वज क बड़ी क या मांडवी को, जो गुण, शील,
सुख और शोभा क प ही थ , राजा जनक ने ेमपवू क सब रीितयाँ करके भरत को याह िदया।
जानक लघु भिगनी सकल संदु र िसरोमिन जािन कै।
सो तनय दी ही यािह लखनिह सकल िबिध सनमािन कै॥
जेिह नामु ुतक रित सल ु ोचिन सम
ु िु ख सब गन
ु आगरी।
सो दई रपस ु ूदनिह भूपित प सील उजागरी॥

जानक क छोटी बिहन उिमला को सब सुंद रय म िशरोमिण जानकर उस क या को सब कार


से स मान करके, ल मण को याह िदया; और िजनका नाम ुतक ित है और जो सुंदर
ने वाली, सुंदर मुखवाली, सब गुण क खान और प तथा शील म उजागर ह, उनको राजा ने
श ु न को याह िदया।

अनु प बर दल ु िहिन पर पर लिख सकुच िहयँ हरषह ।


सब मिु दत संदु रता सराहिहं सम
ु न सरु गन बरषह ॥
संदु र संदु र बर ह सह सब एक मंडप राजह ।
जनु जीव उर चा रउ अव था िबभन ु सिहत िबराजह ॥

दू हा और दुलिहन पर पर अपने-अपने अनु प जोड़ी को देखकर सकुचाते हए दय म हिषत हो


रही ह। सब लोग स न होकर उनक सुंदरता क सराहना करते ह और देवगण फूल बरसा रहे
ह। सब सुंदरी दुलिहन सुंदर दू ह के साथ एक ही मंडप म ऐसी शोभा पा रही ह, मानो जीव के
दय म चार अव थाएँ (जा त, व न, सुषुि और तुरीय) अपने चार वािमय (िव , तैजस,
ा और ) सिहत िवराजमान ह ।

- मिु दत अवधपित सकल सत


ु बधु ह समेत िनहा र।
जनु पाए मिहपाल मिन ि य ह सिहत फल चा र॥ 325॥

सब पु को बहओं सिहत देखकर अवध नरे श दशरथ ऐसे आनंिदत ह, मानो वे राजाओं के
िशरोमिण ि याओं (य ि या, ाि या, योगि या और ानि या) सिहत चार फल (अथ,
धम, काम और मो ) पा गए ह ॥ 325॥

जिस रघब
ु ीर याह िबिध बरनी। सकल कुअँर याहे तेिहं करनी॥
किह न जाइ कछु दाइज भूरी। रहा कनक मिन मंडपु पूरी॥

राम के िववाह क जैसी िविध वणन क गई, उसी रीित से सब राजकुमार िववाहे गए। दहे ज क
अिधकता कुछ कही नह जाती; सारा मंडप सोने और मिणय से भर गया।

कंबल बसन िबिच पटोरे । भाँित भाँित बह मोल न थोरे ॥


गज रथ तरु गदास अ दासी। धेनु अलंकृत कामदहु ा सी॥

बहत-से कंबल, व और भाँित-भाँित के िविच रे शमी कपड़े , जो थोड़ी क मत के न थे (अथात


बहमू य थे) तथा हाथी, रथ, घोड़े , दास-दािसयाँ और गहन से सजी हई कामधेनु-सरीखी गाएँ -

ब तु अनेक क रअ िकिम लेखा। किह न जाइ जानिहं िज ह देखा॥


लोकपाल अवलोिक िसहाने। ली ह अवधपित सबु सख ु ु माने॥

(आिद) अनेक व तुएँ ह, िजनक िगनती कैसे क जाए। उनका वणन नह िकया जा सकता;
िज ह ने देखा है वही जानते ह। उ ह देखकर लोकपाल भी िसहा गए। अवधराज दशरथ ने सुख
मानकर स निच से सब कुछ हण िकया।

दी ह जाचकि ह जो जेिह भावा। उबरा सो जनवासेिहं आवा॥


तब कर जो र जनकु मदृ ु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥

उ ह ने वह दहे ज का सामान याचक को, जो िजसे अ छा लगा, दे िदया। जो बच रहा, वह


जनवासे म चला आया। तब जनक हाथ जोड़कर सारी बारात का स मान करते हए कोमल वाणी
से बोले।

छं ० - सनमािन सकल बरात आदर दान िबनय बड़ाइ कै।


मिु दत महामिु न बंदृ बंद े पूिज म
े लड़ाइ कै॥
िस नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपटु िकएँ ।
सरु साधु चाहत भाउ िसंधु िक तोष जल अंजिल िदएँ ॥

आदर, दान, िवनय और बड़ाई के ारा सारी बारात का स मान कर राजा जनक ने महान आनंद
के साथ ेमपवू क लड़ाकर (लाड़ करके) मुिनय के समहू क पज ू ा एवं वंदना क । िसर नवाकर,
देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे िक देवता और साधु तो भाव ही चाहते
ह (वे ेम से ही स न हो जाते ह, उन पण
ू काम महानुभाव को कोई कुछ देकर कैसे संतु कर
सकता है); या एक अंजिल जल देने से कह समु संतु हो सकता है।

कर जो र जनकु बहो र बंधु समेत कोसलराय स ।


बोले मनोहर बयन सािन सनेह सील सभ ु ाय स ॥
संबंध राजन रावर हम बड़े अब सब िबिध भए।
एिह राज साज समेत सेवक जािनबे िबनु गथ लए॥

िफर जनक भाई सिहत हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथ से नेह, शील और संुदर ेम म
सानकर मनोहर वचन बोले - हे राजन! आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सब कार से बड़े
हो गए। इस राज-पाट सिहत हम दोन को आप िबना दाम के िलए हए सेवक ही समिझएगा।

ए दा रका प रचा रका क र पािलब क ना नई।


अपराधु छिमबो बोिल पठए बहत ह ढीट्यो कई॥
पिु न भानक
ु ु लभूषन सकल सनमान िनिध समधी िकए।
े प रपूरन िहए॥
किह जाित निहं िबनती पर पर म

इन लड़िकय को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन क िजएगा। मने बड़ी िढठाई क
ू कुल के भषू ण दशरथ ने समधी
िक आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध मा क िजएगा। िफर सय
जनक को संपणू स मान का िनिध कर िदया (इतना स मान िकया िक वे स मान के भंडार ही
हो गए)। उनक पर पर क िवनय कही नह जाती, दोन के दय ेम से प रपण ू ह।

बंदृ ारका गन सम ु न ब रसिहं राउ जनवासेिह चले।


ददुं भ
ु ी जय धिु न बेद धिु न नभ नगर कौतहू ल भले॥
तब सख मंगल गान करत मन ु ीस आयसु पाइ कै।
दूलह दल ु िहिन ह सिहत संदु र चल कोहबर याइ कै॥

देवतागण फूल बरसा रहे ह; राजा जनवासे को चले। नगाड़े क विन, जय विन और वेद क
विन हो रही है, आकाश और नगर दोन म खबू कौतहू ल हो रहा है (आनंद छा रहा है), तब
मुनी र क आ ा पाकर सुंदरी सिखयाँ मंगलगान करती हई दुलिहन सिहत दू ह को िलवाकर
कोहबर को चल ।

- पिु न पिु न रामिह िचतव िसय सकुचित मनु सकुचै न।


हरत मनोहर मीन छिब म े िपआसे नैन॥ 326॥

सीता बार-बार राम को देखती ह और सकुचा जाती ह; पर उनका मन नह सकुचाता। ेम के


यासे उनके ने सुंदर मछिलय क छिव को हर रहे ह॥ 326॥
याम सरी सभु ायँ सहु ावन। सोभा कोिट मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सहु ाए। मिु न मन मधप ु रहत िज ह छाए॥

राम का साँवला शरीर वभाव से ही सुंदर है। उसक शोभा करोड़ कामदेव को लजानेवाली है।
महावर से यु चरण कमल बड़े सुहावने लगते ह, िजन पर मुिनय के मन पी भ रे सदा छाए
रहते ह।

पीत पन
ु ीत मनोहर धोती। हरित बाल रिब दािमिन जोती॥
कल िकंिकिन किट सू मनोहर। बाह िबसाल िबभूषन संदु र॥

पिव और मनोहर पीली धोती ातःकाल के सय ू और िबजली क योित को हरे लेती है। कमर म
सुंदर िकंिकणी और किटसू ह। िवशाल भुजाओं म सुंदर आभषू ण सुशोिभत ह।

पीत जनेउ महाछिब देई। कर मिु का चो र िचतु लेई॥


सोहत याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥
पीला जनेऊ महान शोभा दे रहा है। हाथ क अँगठू ी िच को चुरा लेती है। याह के सब साज सजे
हए वे शोभा पा रहे ह। चौड़ी छाती पर दय पर पहनने के सुंदर आभषू ण सुशोिभत ह।

िपअर उपरना काखासोती। दहु ँ आँचरि ह लगे मिन मोती॥


नयन कमल कल कंु डल काना। बदनु सकल स दज िनदाना॥

पीला दुप ा काँखासोती (जनेऊ क तरह) शोिभत है, िजसके दोन छोर पर मिण और मोती लगे
ह। कमल के समान सुंदर ने ह, कान म सुंदर कुंडल ह और मुख तो सारी सुंदरता का खजाना
ही है।

संदु र भक
ृ ु िट मनोहर नासा। भाल ितलकु िचरता िनवासा॥
सोहत मौ मनोहर माथे। मंगलमय मक ु ु ता मिन गाथे॥

संुदर भ ह और मनोहर नािसका है। ललाट पर ितलक तो सुंदरता का घर ही है। िजसम मंगलमय
मोती और मिण गँुथे हए ह, ऐसा मनोहर मौर माथे पर सोह रहा है।

छं ० - गाथे महामिन मौर मंजुल अंग सब िचत चोरह ।


परु ना र सरु संदु र बरिह िबलोिक सब ितन तोरह ॥
मिन बसन भूषन वा र आरित करिहं मंगल गावह ।
सरु सम ु न ब रसिहं सूत मागध बंिद सज
ु सु सन
ु ावह ॥

संुदर मौर म बहमू य मिणयाँ गँुथी हई ह, सभी अंग िच को चुराए लेते ह। सब नगर क ि याँ
और देवसंुद रयाँ दूलह को देखकर ितनका तोड़ रही ह (उनक बलैयाँ ले रही ह) और मिण, व
तथा आभषू ण िनछावर करके आरती उतार रही और मंगलगान कर रही ह। देवता फूल बरसा रहे
ह और सत ू , मागध तथा भाट सुयश सुना रहे ह।

कोहबरिहं आने कुअँर कुअँ र सआ ु पाइ कै।


ु िसिन ह सख
अित ीित लौिकक रीित लाग करन मंगल गाइ कै॥
लहकौ र गौ र िसखाव रामिह सीय सन सारद कह।
रिनवासु हास िबलास रस बस ज म को फलु सब लह॥

सुहािगनी ि याँ सुख पाकर कँु अर और कुमा रय को कोहबर (कुलदेवता के थान) म लाई ं और
अ यंत ेम से मंगल गीत गा-गाकर लौिकक रीित करने लग । पावती राम को लहकौर (वर-वधू
का पर पर ास देना) िसखाती ह और सर वती सीता को िसखाती ह। रिनवास हास-िवलास के
आनंद म म न है, (राम और सीता को देख-देखकर) सभी ज म का परम फल ा कर रही ह।

िनज पािन मिन महँ देिख अित मूरित सु पिनधान क ।


चालित न भजु ब ली िबलोकिन िबरह भय बस जानक ॥
कौतकु िबनोद मोदु म े ु न जाइ किह जानिहं अल ।
बर कुअँ र संदु र सकल सख लवाइ जनवासेिह चल ॥

अपने हाथ क मिणय म सुंदर प के भंडार राम क परछाई ं िदख रही है। यह देखकर जानक
दशन म िवयोग होने के भय से बाह पी लता को और ि को िहलाती-डुलाती नह ह। उस
समय के हँसी-खेल और िवनोद का आनंद और ेम कहा नह जा सकता, उसे सिखयाँ ही
जानती ह। तदनंतर वर-क याओं को सब सुंदर सिखयाँ जनवासे को िलवा चल ।

तेिह समय सिु नअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।


िच िजअहँ जोर चा चारयो ् मिु दत मन सबह कहा॥
जोग िस मन ु ीस देव िबलोिक भु ददुं िु भ हनी।
चले हरिष बरिष सून िनज िनज लोक जय जय जय भनी॥

उस समय नगर और आकाश म जहाँ सुिनए, वह आशीवाद क विन सुनाई दे रही है और महान
आनंद छाया है। सभी ने स न मन से कहा िक सुंदर चार जोिड़याँ िचरं जीवी ह । योगीराज,
िस , मुनी र और देवताओं ने भु राम को देखकर दुंदुभी बजाई और हिषत होकर फूल क
वषा करते हए तथा 'जय हो, जय हो, जय हो' कहते हए वे अपने-अपने लोक को चले।

- सिहत बधूिट ह कुअँर सब तब आए िपतु पास।


सोभा मंगल मोद भ र उमगेउ जनु जनवास॥ 327॥

तब सब (चार ) कुमार बहओं सिहत िपता के पास आए। ऐसा मालम


ू होता था मानो शोभा, मंगल
और आनंद से भरकर जनवासा उमड़ पड़ा हो॥ 327॥

पिु न जेवनार भई बह भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥


परत पाँवड़े बसन अनूपा। सत ु ह समेत गवन िकयो भूपा॥

िफर बहत कार क रसोई बनी। जनक ने बाराितय को बुला भेजा। राजा दशरथ ने पु सिहत
गमन िकया। अनुपम व के पाँवड़े पड़ते जाते ह।

सादर सब के पाय पखारे । जथाजोगु पीढ़ ह बैठारे ॥


धोए जनक अवधपित चरना। सीलु सनेह जाइ निहं बरना॥

आदर के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायो य पीढ़ पर बैठाया। तब जनक ने अवधपित
दशरथ के चरण धोए। उनका शील और नेह वणन नह िकया जा सकता।

बह र राम पद पंकज धोए। जे हर दय कमल महँ गोए॥


तीिनउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक िनज पानी॥
िफर राम के चरणकमल को धोया, जो िशव के दय-कमल म िछपे रहते ह। तीन भाइय को राम
के समान जानकर जनक ने उनके भी चरण अपने हाथ से धोए।

आसन उिचत सबिह नप ृ दी हे। बोिल सूपकारी सब ली हे॥


सादर लगे परन पनवारे । कनक क ल मिन पान सँवारे ॥

राजा जनक ने सभी को उिचत आसन िदए और सब परसने वाल को बुला िलया। आदर के साथ
प ल पड़ने लग , जो मिणय के प से सोने क क ल लगाकर बनाई गई थ ।

- सूपोदन सरु भी सरिप संदु र वादु पन


ु ीत।
छन महँ सब क प िस गे चतरु सआ ु र िबनीत॥ 328॥

चतुर और िवनीत रसोइए संुदर, वािद और पिव दाल-भात और गाय का (सुगंिधत) घी ण


भर म सबके सामने परस गए॥ 328॥

पंच कवल क र जेवन लागे। गा र गान सिु न अित अनरु ागे।


भाँित अनेक परे पकवाने। सध
ु ा स रस निहं जािहं बखाने॥

सब लोग पंचकौर करके (अथात ' ाणाय वाहा, अपानाय वाहा, यानाय वाहा, उदानाय वाहा
और समानाय वाहा' इन मं का उ चारण करते हए पहले पाँच ास लेकर) भोजन करने लगे।
गाली का गाना सुनकर वे अ यंत ेमम न हो गए। अनेक तरह के अमत
ृ के समान ( वािद )
पकवान परसे गए, िजनका बखान नह हो सकता।

प सन लगे सआ ु र सज
ु ाना। िबंजन िबिबध नाम को जाना॥
चा र भाँित भोजन िबिध गाई। एक एक िबिध बरिन न जाई॥

चतुर रसोइए नाना कार के यंजन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार कार के
(च य, चो य, ले , पेय अथात चबाकर, चस
ू कर, चाटकर और पीना-खाने यो य) भोजन क
िविध कही गई है, उनम से एक-एक िविध के इतने पदाथ बने थे िक िजनका वणन नह िकया जा
सकता।

छरस िचर िबंजन बह जाती। एक एक रस अगिनत भाँती॥


जेवँत देिहं मधरु धिु न गारी। लै लै नाम पु ष अ नारी॥

छह रस के बहत तरह के सुंदर ( वािद ) यंजन ह। एक-एक रस के अनिगनत कार के बने


ह। भोजन करते समय पु ष और ि य के नाम ले-लेकर ि याँ मधुर विन से गाली दे रही ह
(गाली गा रही ह)।

समय सहु ाविन गा र िबराजा। हँसत राउ सिु न सिहत समाजा॥


एिह िबिध सबह भोजनु क हा। आदर सिहत आचमनु दी हा॥

समय क सुहावनी गाली शोिभत हो रही है। उसे सुनकर समाज सिहत राजा दशरथ हँस रहे ह।
इस रीित से सभी ने भोजन िकया और तब सबको आदर सिहत आचमन (हाथ-मँुह धोने के िलए
जल) िदया गया।

- देइ पान पूजे जनक दसरथु सिहत समाज।


जनवासेिह गवने मिु दत सकल भूप िसरताज॥ 329॥

ू न िकया। सब राजाओं के िसरमौर


िफर पान देकर जनक ने समाज सिहत दशरथ का पज
(च वत ) दशरथ स न होकर जनवासे को चले॥ 329॥

िनत नूतन मंगल परु माह । िनिमष स रस िदन जािमिन जाह ॥


बड़े भोर भूपितमिन जागे। जाचक गनु गन गावन लागे॥

जनकपुर म िन य नए मंगल हो रहे ह। िदन और रात पल के समान बीत जाते ह। बड़े सबेरे
राजाओं के मुकुटमिण दशरथ जागे। याचक उनके गुणसमहू का गान करने लगे।

देिख कुअँर बर बधु ह समेता। िकिम किह जात मोदु मन जेता॥


ाति या क र गे गु पाह । महा मोदु म े ु मन माह ॥

चार कुमार को सुंदर वधुओ ं सिहत देखकर उनके मन म िजतना आनंद है, वह िकस कार
कहा जा सकता है? वे ातः ि या करके गु विश के पास गए। उनके मन म महान आनंद
और ेम भरा है।

क र नामु पूजा कर जोरी। बोले िगरा अिमअँ जनु बोरी॥


तु हरी कृपाँ सन
ु ह मिु नराजा। भयउँ आजु म पूरन काजा॥

राजा णाम और पज ू न करके, िफर हाथ जोड़कर मानो अमत ृ म डुबोई हई वाणी बोले - हे
मुिनराज! सुिनए, आपक कृपा से आज म पण ू काम हो गया।

अब सब िब बोलाइ गोसाई ं। देह धेनु सब भाँित बनाई ं॥


सिु न गरु क र मिहपाल बड़ाई। पिु न पठए मिु नबंदृ बोलाई॥

हे वािमन्! अब सब ा ण को बुलाकर उनको सब तरह (गहन -कपड़ ) से सजी हई गाएँ


दीिजए। यह सुनकर गु ने राजा क बड़ाई करके िफर मुिनगण को बुलवा भेजा।

- बामदेउ अ देव रिष बालमीिक जाबािल।


आए मिु नबर िनकर तब कौिसकािद तपसािल॥ 330॥
तब वामदेव, देविष नारद, वा मीिक, जाबािल और िव ािम आिद तप वी े मुिनय के समहू -
के-समहू आए॥ 330॥

दंड नाम सबिह नप ृ क हे। पूिज स म े बरासन दी हे॥


चा र ल छ बर धेनु मगाई ं। काम सरु िभ सम सील सहु ाई ं॥

राजा ने सबको दंडवत- णाम िकया और ेम सिहत पज ू न करके उ ह उ म आसन िदए। चार
लाख उ म गाएँ मँगवाई ं, जो कामधेनु के समान अ छे वभाववाली और सुहावनी थ ।

सब िबिध सकल अलंकृत क ह । मिु दत मिहप मिहदेव ह दी ह ॥


करत िबनय बह िबिध नरनाह। लहेउँ आजु जग जीवन लाह॥

उन सबको सब कार से (गहन -कपड़ से) सजाकर राजा ने स न होकर भदू ेव ा ण को


िदया। राजा बहत तरह से िवनती कर रहे ह िक जगत म मने आज ही जीने का लाभ पाया।

पाइ असीस महीसु अनंदा। िलए बोिल पिु न जाचक बंदृ ा॥


कनक बसन मिन हय गय यंदन। िदए बूिझ िच रिबकुलनंदन॥

( ा ण से) आशीवाद पाकर राजा आनंिदत हए। िफर याचक के समहू को बुलवा िलया और
सबको उनक िच पछ ू कर सोना, व , मिण, घोड़ा, हाथी और रथ (िजसने जो चाहा सो)
सयू कुल को आनंिदत करनेवाले दशरथ ने िदए।

चले पढ़त गावत गन ु गाथा। जय जय जय िदनकर कुल नाथा॥


एिह िबिध राम िबआह उछाह। सकइ न बरिन सहस मख
ु जाह॥

ू कुल के वामी क जय हो, जय हो, जय हो' कहते हए चले। इस


वे सब गुणानुवाद गाते और 'सय
कार राम के िववाह का उ सव हआ, िज ह सह मुख ह, वे शेष भी उसका वणन नह कर
सकते।

- बार बार कौिसक चरन सीसु नाइ कह राउ।


यह सबु सख ु ु मिु नराज तव कृपा कटा छ पसाउ॥ 331॥

बार-बार िव ािम के चरण म िसर नवाकर राजा कहते ह - हे मुिनराज! यह सब सुख आपके
ही कृपाकटा का साद है॥ 331॥

जनक सनेह सीलु करतत ू ी। नप


ृ ु सब भाँित सराह िबभूती॥
िदन उिठ िबदा अवधपित मागा। राखिहं जनकु सिहत अनरु ागा॥

राजा दशरथ जनक के नेह, शील, करनी और ऐ य क सब कार से सराहना करते ह।


ितिदन (सबेरे) उठकर अयो या नरे श िवदा माँगते ह। पर जनक उ ह ेम से रख लेते ह।

िनत नूतन आद अिधकाई। िदन ित सहस भाँित पहनाई॥


िनत नव नगर अनंद उछाह। दसरथ गवनु सोहाइ न काह॥

आदर िन य नया बढ़ता जाता है। ितिदन हजार कार से मेहमानी होती है। नगर म िन य नया
आनंद और उ साह रहता है, दशरथ का जाना िकसी को नह सुहाता।

बहत िदवस बीते एिह भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौिसक सतानंद तब जाई। कहा िबदेह नप ृ िह समझ ु ाई॥

इस कार बहत िदन बीत गए, मानो बाराती नेह क र सी से बँध गए ह। तब िव ािम और
शतानंद ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा -

अब दसरथ कहँ आयसु देह। ज िप छािड़ न सकह सनेह॥


भलेिहं नाथ किह सिचव बोलाए। किह जय जीव सीस ित ह नाए॥

य िप आप नेह (वश उ ह) नह छोड़ सकते, तो भी अब दशरथ को आ ा दीिजए। 'हे नाथ! बहत


अ छा' कहकर जनक ने मंि य को बुलवाया। वे आए और 'जय जीव' कहकर उ ह ने म तक
नवाया।

- अवधनाथु चाहत चलन भीतर करह जनाउ।


भए मे बस सिचव सिु न िब सभासद राउ॥ 332॥

(जनक ने कहा -) अयो यानाथ चलना चाहते ह, भीतर (रिनवास म) खबर कर दो। यह सुनकर
मं ी, ा ण, सभासद और राजा जनक भी ेम के वश हो गए॥ 332॥

परु बासी सिु न चिलिह बराता। बूझत िबकल पर पर बाता॥


स य गवनु सिु न सब िबलखाने। मनहँ साँझ सरिसज सकुचाने॥

जनकपुरवािसय ने सुना िक बारात जाएगी, तब वे याकुल होकर एक-दूसरे से बात पछ


ू ने लगे।
जाना स य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो सं या के समय कमल सकुचा गए ह ।

जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ िस चला बह भाँती॥


िबिबध भाँित मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥

आते समय जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहत कार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा
गया। अनेक कार के मेवे, पकवान और भोजन क साम ी जो बखानी नह जा सकती -
भ र भ र बसहँ अपार कहारा। पठई ं जनक अनेक सस
ु ारा॥
तरु ग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अ सीसा॥

अनिगनत बैल और कहार पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गई। साथ ही जनक ने अनेक
सुंदर श याएँ (पलंग) भेज । एक लाख घोड़े और पचीस हजार रथ सब नख से िशखा तक (ऊपर
से नीचे तक) सजाए हए,

म सहस दस िसंधरु साजे। िज हिह देिख िदिसकंु जर लाजे॥


कनक बसन मिन भ र भ र जाना। मिहष धेनु ब तु िबिध नाना॥

दस हजार सजे हए मतवाले हाथी, िज ह देखकर िदशाओं के हाथी भी लजा जाते ह, गािड़य म
भर-भरकर सोना, व और र न (जवाहरात) और भस, गाय तथा और भी नाना कार क चीज
द।

- दाइज अिमत न सिकअ किह दी ह िबदेहँ बहो र।


जो अवलोकत लोकपित लोक संपदा थो र॥ 333॥

(इस कार) जनक ने िफर से अप रिमत दहे ज िदया, जो कहा नह जा सकता और िजसे देखकर
लोकपाल के लोक क संपदा भी थोड़ी जान पड़ती थी॥ 333॥

सबु समाजु एिह भाँित बनाई। जनक अवधपरु दी ह पठाई॥


चिलिह बरात सनु त सब रान । िबकल मीनगन जनु लघु पान ॥

इस कार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयो यापुरी को भेज िदया। बारात चलेगी, यह
सुनते ही सब रािनयाँ ऐसी िवकल हो गई ं, मानो थोड़े जल म मछिलयाँ छटपटा रही ह ।

पिु न पिु न सीय गोद क र लेह । देह असीस िसखावनु देह ॥


होएह संतत िपयिह िपआरी। िच अिहबात असीस हमारी॥

वे बार-बार सीता को गोद कर लेती ह और आशीवाद देकर िसखावन देती ह - तुम सदा अपने
पित क यारी होओ, तु हारा सोहाग अचल हो; हमारी यही आशीष है।

सासु ससरु गरु सेवा करे ह। पित ख लिख आयसु अनस


ु रे ह॥
अित सनेह बस सख सयानी। ना र धरम िसखविहं मदृ ु बानी॥

सास, ससुर और गु क सेवा करना। पित का ख देखकर उनक आ ा का पालन करना।


सयानी सिखयाँ अ यंत नेह के वश कोमल वाणी से ि य के धम िसखलाती ह।

सादर सकल कुअँ र समझ


ु ाई ं। रािन ह बार बार उर लाई ं॥
बह र बह र भेटिहं महतार । कहिहं िबरं िच रच कत नार ॥

आदर के साथ सब पुि य को (ि य के धम) समझाकर रािनय ने बार-बार उ ह दय से


लगाया। माताएँ िफर-िफर भटती और कहती ह िक ा ने ी जाित को य रचा।

िहत स न होकर िवदा कराने के िलए जनक के महल को चले॥ 334॥

चा रउ भाइ सभ
ु ायँ सहु ाए। नगर ना र नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हिहं आजू। क ह िबदेह िबदा कर साजू॥

वभाव से ही सुंदर चार भाइय को देखने के िलए नगर के ी-पु ष दौड़े । कोई कहता है -
आज ये जाना चाहते ह। िवदेह ने िवदाई का सब सामान तैयार कर िलया है।

लेह नयन भ र प िनहारी। ि य पाहने भूप सत ु चारी॥


को जानै केिहं सक
ु ृ त सयानी। नयन अितिथ क हे िबिध आनी॥

राजा के चार पु , इन यारे मेहमान के (मनोहर) प को ने भरकर देख लो। हे सयानी! कौन
जाने, िकस पु य से िवधाता ने इ ह यहाँ लाकर हमारे ने का अितिथ िकया है।

मरनसीलु िजिम पाव िपऊषा। सरु त लहै जनम कर भूखा॥


पाव नारक ह रपदु जैस। इ ह कर दरसनु हम कहँ तैस॥

मरनेवाला िजस तरह अमतृ पा जाए, ज म का भखू ा क पव ृ पा जाए और नरक म रहनेवाला


(या नरक के यो य) जीव जैसे भगवान के परमपद को ा हो जाए, हमारे िलए इनके दशन वैसे
ही ह।

िनरिख राम सोभा उर धरह। िनज मन फिन मूरित मिन करह॥


एिह िबिध सबिह नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज िनकेता॥

राम क शोभा को िनरखकर दय म धर लो। अपने मन को साँप और इनक मिू त को मिण बना
लो। इस कार सबको ने का फल देते हए सब राजकुमार राजमहल म गए।

- प िसंधु सब बंधु लिख हरिष उठा रिनवास।ु


करिहं िनछाव र आरती महा मिु दत मन सास॥ु 335॥

प के समु सब भाइय को देखकर सारा रिनवास हिषत हो उठा। सासुएँ महान स न मन से


िनछावर और आरती करती ह॥ 335॥

े िबबस पिु न पिु न पद लाग ॥


देिख राम छिब अित अनरु ाग । म
रही न लाज ीित उर छाई। सहज सनेह बरिन िकिम जाई॥

राम क छिव देखकर वे ेम म अ यंत म न हो गई ं और ेम के िवशेष वश होकर बार-बार चरण


लग । दय म ीित छा गई, इससे ल जा नह रह गई। उनके वाभािवक नेह का वणन िकस
तरह िकया जा सकता है।

भाइ ह सिहत उबिट अ हवाए। छरस असन अित हेतु जेवाँए॥


बोले रामु सअ
ु वस जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥

उ ह ने भाइय सिहत राम को उबटन करके नान कराया और बड़े ेम से ष स भोजन कराया।
सुअवसर जानकर राम शील, नेह और संकोचभरी वाणी बोले -

राउ अवधपरु चहत िसधाए। िबदा होन हम इहाँ पठाए॥


मातु मिु दत मन आयसु देह। बालक जािन करब िनत नेह॥

महाराज अयो यापुरी को चलना चाहते ह, उ ह ने हम िवदा होने के िलए यहाँ भेजा है। हे माता!
स न मन से आ ा दीिजए और हम अपने बालक जानकर सदा नेह बनाए रिखएगा।

सन
ु त बचन िबलखेउ रिनवासू। बोिल न सकिहं म े बस सासू॥
दयँ लगाई कुअँ र सब ली ही। पित ह स िप िबनती अित क ही॥

इन वचन को सुनते ही रिनवास उदास हो गया। सासुएँ ेमवश बोल नह सकत । उ ह ने सब


कुमा रय को दय से लगा िलया और उनके पितय को स पकर बहत िवनती क ।

छं ० - क र िबनय िसय रामिह समरपी जो र कर पिु न पिु न कहै।


बिल जाउँ तात सजु ान तु ह कहँ िबिदत गित सब क अहै॥
प रवार परु जन मोिह राजिह ानि य िसय जािनबी।
तलु सीस सीलु सनेह लिख िनज िकंकरी क र मािनबी॥

िवनती करके उ ह ने सीता को राम को समिपत िकया और हाथ जोड़कर बार-बार कहा - हे
तात! हे सुजान! म बिल जाती हँ, तुमको सबक गित (हाल) मालम
ू है। प रवार को, पुरवािसय
को, मुझको और राजा को सीता ाण के समान ि य है, ऐसा जािनएगा। हे तुलसी के वामी!
इसके शील और नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मािनएगा।

सो० - तु ह प रपूरन काम जान िसरोमिन भावि य।


जन गन ु गाहक राम दोष दलन क नायतन॥ 336॥

ू काम हो, सुजान िशरोमिण हो और भावि य हो (तु ह ेम यारा है)। हे राम! तुम भ
तुम पण के
गुण को हण करनेवाले, दोष को नाश करनेवाले और दया के धाम हो॥ 336॥
अस किह रही चरन गिह रानी। म े पंक जनु िगरा समानी॥
सिु न सनेहसानी बर बानी। बहिबिध राम सासु सनमानी॥

ऐसा कहकर रानी चरण को पकड़कर (चुप) रह गई ं। मानो उनक वाणी ेम पी दलदल म समा
गई हो। नेह से सनी हई े वाणी सुनकर राम ने सास का बहत कार से स मान िकया।

राम िबदा मागत कर जोरी। क ह नामु बहो र बहोरी॥


पाइ असीस बह र िस नाई। भाइ ह सिहत चले रघरु ाई॥

तब राम ने हाथ जोड़कर िवदा माँगते हए बार-बार णाम िकया। आशीवाद पाकर और िफर िसर
नवाकर भाइय सिहत रघुनाथ चले।

मंजु मधरु मूरित उर आनी। भई ं सनेह िसिथल सब रानी॥


पिु न धीरजु ध र कुअँ र हँकार । बार बार भेटिह महतार ॥

राम क सुंदर मधुर मिू त को दय म लाकर सब रािनयाँ नेह से िशिथल हो गई ं। िफर धीरज
धारण करके कुमा रय को बुलाकर माताएँ बारं बार उ ह (गले लगाकर) भटने लग ।

पहँचाविहं िफ र िमलिहं बहोरी। बढ़ी पर पर ीित न थोरी॥


पिु न पिु न िमलत सिख ह िबलगाई। बाल ब छ िजिम धेनु लवाई॥

पुि य को पहँचाती ह, िफर लौटकर िमलती ह। पर पर म कुछ थोड़ी ीित नह बढ़ी (अथात बहत
ीित बढ़ी)। बार-बार िमलती हई माताओं को सिखय ने अलग कर िदया। जैसे हाल क यायी हई
गाय को कोई उसके बालक बछड़े (या बिछया) से अलग कर दे ।

े िबबस नर ना र सब सिख ह सिहत रिनवास।ु


- म
मानहँ क ह िबदेहपरु क नाँ िबरहँ िनवास॥ु 337॥

सब ी-पु ष और सिखय सिहत सारा रिनवास ेम के िवशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता है)
मानो जनकपुर म क णा और िवरह ने डे रा डाल िदया है॥ 337॥

सकु सा रका जानक याए। कनक िपंजरि ह रािख पढ़ाए॥


याकुल कहिहं कहाँ बैदहे ी। सिु न धीरजु प रहरइ न केही॥

जानक ने िजन तोता और मैना को पाल-पोसकर बड़ा िकया था और सोने के िपंजड़ म रखकर
पढ़ाया था, वे याकुल होकर कह रहे ह - वैदेही कहाँ ह। उनके ऐसे वचन को सुनकर धीरज
िकसको नह याग देगा (अथात सबका धैय जाता रहा)।
भए िबकल खग मग ु दसा कैस किह जाती॥
ृ एिह भाँती। मनज
बंधु समेत जनकु तब आए। म े उमिग लोचन जल छाए॥

जब प ी और पशु तक इस तरह िवकल हो गए, तब मनु य क दशा कैसे कही जा सकती है!
तब भाई सिहत जनक वहाँ आए। ेम से उमड़कर उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया।

सीय िबलोिक धीरता भागी। रहे कहावत परम िबरागी॥


लीि ह रायँ उर लाइ जानक । िमटी महामरजाद यान क ॥

वे परम वैरा यवान कहलाते थे; पर सीता को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने
जानक को दय से लगा िलया। ( ेम के भाव से) ान क महान मयादा िमट गई ( ान का
बाँध टूट गया)।

समझु ावत सब सिचव सयाने। क ह िबचा न अवसर जाने॥


बारिहं बार सत
ु ा उर लाई ं। सिज संदु र पालक मगाई ं॥

सब बुि मान मं ी उ ह समझाते ह। तब राजा ने िवषाद करने का समय न जानकर िवचार


िकया। बारं बार पुि य को दय से लगाकर संुदर सजी हई पालिकयाँ मँगवाई ं।

- मे िबबस प रवा सबु जािन सल ु गन नरे स।


कुअँ र चढ़ाई ं पालिक ह सिु मरे िसि गनेस॥ 338॥

सारा प रवार ेम म िववश है। राजा ने सुंदर मुहत जानकर िसि सिहत गणेश का मरण करके
क याओं को पालिकय पर चढ़ाया॥ 338॥

बहिबिध भूप सत
ु ा समझ ु ाई ं। ना रधरमु कुलरीित िसखाई ं॥
दास दास िदए बहतेरे। सिु च सेवक जे ि य िसय केरे ॥

राजा ने पुि य को बहत कार से समझाया और उ ह ि य का धम और कुल क रीित िसखाई।


बहत-से दासी-दास िदए, जो सीता के ि य और िव ासपा सेवक थे।

सीय चलत याकुल परु बासी। होिहं सगन


ु सभ ु मंगल रासी॥
भूसरु सिचव समेत समाजा। संग चले पहँचावन राजा॥

सीता के चलते समय जनकपुरवासी याकुल हो गए। मंगल क रािश शुभ शकुन हो रहे ह।
ा ण और मंि य के समाज सिहत राजा जनक उ ह पहँचाने के िलए साथ चले।

समय िबलोिक बाजने बाजे। रथ गज बािज बराित ह साजे॥


दसरथ िब बोिल सब ली हे। दान मान प रपूरन क हे॥
समय देखकर बाजे बजने लगे। बाराितय ने रथ, हाथी और घोड़े सजाए। दशरथ ने सब ा ण
को बुला िलया और उ ह दान और स मान से प रपणू कर िदया।

चरन सरोज धू र ध र सीसा। मिु दत महीपित पाइ असीसा॥


सिु म र गजाननु क ह पयाना। मंगल मूल सगन ु भए नाना॥

उनके चरण कमल क धिू ल िसर पर धरकर और आशीष पाकर राजा आनंिदत हए और गणेश
का मरण करके उ ह ने थान िकया। मंगल के मल
ू अनेक शकुन हए।

- सरु सून बरषिहं हरिष करिहं अपछरा गान।


चले अवधपित अवधपरु मिु दत बजाइ िनसान॥ 339॥

देवता हिषत होकर फूल बरसा रहे ह और अ सराएँ गान कर रही ह। अवधपित दशरथ नगाड़े
बजाकर आनंदपवू क अयो यापुरी चले॥ 339॥

नपृ क र िबनय महाजन फेरे । सादर सकल मागने टेरे॥


भूषन बसन बािज गज दी हे। म े पोिष ठाढ़े सब क हे॥

राजा दशरथ ने िवनती करके िति त जन को लौटाया और आदर के साथ सब मंगन को


बुलवाया। उनको गहने-कपड़े , घोड़े -हाथी िदए और ेम से पु करके सबको संप न अथात
बलयु कर िदया।

बार बार िब रदाविल भाषी। िफरे सकल रामिह उर राखी॥


बह र बह र कोसलपित कहह । जनकु म े बस िफरै न चहह ॥

वे सब बारं बार िव दावली (कुलक ित) बखानकर और राम को दय म रखकर लौटे।


कोसलाधीश दशरथ बार-बार लौटने को कहते ह, परं तु जनक ेमवश लौटना नह चाहते।

पिु न कह भूपत बचन सहु ाए। िफ रअ महीस दू र बिड़ आए॥


े बाह िबलोचन बाढ़े॥
राउ बहो र उत र भए ठाढ़े। म

दशरथ ने िफर सुहावने वचन कहे - हे राजन! बहत दूर आ गए, अब लौिटए। िफर राजा दशरथ
रथ से उतरकर खड़े हो गए। उनके ने म ेम का वाह बढ़ आया ( ेमा ुओ ं क धारा बह चली)।

तब िबदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सध


ु ाँ जनु बोरी॥
कर कवन िबिध िबनय बनाई। महाराज मोिह दीि ह बड़ाई॥

तब जनक हाथ जोड़कर मानो नेह पी अमत ृ म डुबोकर वचन बोले - म िकस तरह बनाकर
(िकन श द म) िवनती क ँ । हे महाराज! आपने मुझे बड़ी बड़ाई दी है।
- कोसलपित समधी सजन सनमाने सब भाँित।
िमलिन परसपर िबनय अित ीित न दयँ समाित॥ 340॥

अयो यानाथ दशरथ ने अपने वजन समधी का सब कार से स मान िकया। उनके आपस के
िमलने म अ यंत िवनय थी और इतनी ीित थी जो दय म समाती न थी॥ 340॥

मिु न मंडिलिह जनक िस नावा। आिसरबादु सबिह सन पावा॥


सादर पिु न भटे जामाता। प सील गन
ु िनिध सब ाता॥

जनक ने मुिन मंडली को िसर नवाया और सभी से आशीवाद पाया। िफर आदर के साथ वे प,
शील और गुण के िनधान सब भाइय से, अपने दामाद से िमले,

जो र पंक ह पािन सहु ाए। बोले बचन मे जनु जाए॥


राम कर केिह भाँित संसा। मिु न महेस मन मानस हंसा॥

और सुंदर कमल के समान हाथ को जोड़कर ऐसे वचन बोले जो मानो ेम से ही ज मे ह । हे


राम! म िकस कार आपक शंसा क ँ ! आप मुिनय और महादेव के मन पी मानसरोवर के
हंस ह।

करिहं जोग जोगी जेिह लागी। कोह मोह ममता मदु यागी॥
यापकु ु अलखु अिबनासी। िचदानंदु िनरगन
ु गन
ु रासी॥

योगी लोग िजनके िलए ोध, मोह, ममता और मद को यागकर योगसाधन करते ह, जो
सव यापक, , अ य , अिवनाशी, िचदानंद, िनगुण और गुण क रािश ह,

मन समेत जेिह जान न बानी। तरिक न सकिहं सकल अनम ु ानी॥


मिहमा िनगमु नेित किह कहई। जो ितहँ काल एकरस रहई॥

िजनको मन सिहत वाणी नह जानती और सब िजनका अनुमान ही करते ह, कोई तकना नह


कर सकते; िजनक मिहमा को वेद 'नेित' कहकर वणन करता है और जो (सि चदानंद) तीन
काल म एकरस (सवदा और सवथा िनिवकार) रहते ह;

- नयन िबषय मो कहँ भयउ सो सम त सख ु मूल।


सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनक
ु ू ल॥ 341॥

वे ही सम त सुख के मल
ू (आप) मेरे ने के िवषय हए। ई र के अनुकूल होने पर जगत म
जीव को सब लाभ-ही-लाभ है॥ 341॥

सबिह भाँित मोिह दीि ह बड़ाई। िनज जन जािन ली ह अपनाई॥


होिहं सहस दस सारद सेषा। करिहं कलप कोिटक भ र लेखा॥

आपने मुझे सभी कार से बड़ाई दी और अपना जन जानकर अपना िलया। यिद दस हजार
सर वती और शेष ह और करोड़ क प तक गणना करते रह

मोर भा य राउर गन
ु गाथा। किह न िसरािहं सन
ु ह रघन
ु ाथा॥
म कछु कहउँ एक बल मोर। तु ह रीझह सनेह सिु ठ थोर॥

तो भी हे रघुना! सुिनए, मेरे सौभा य और आपके गुण क कथा कहकर समा नह क जा


सकती। म जो कुछ कह रहा हँ, वह अपने इस एक ही बल पर िक आप अ यंत थोड़े ेम से स न
हो जाते ह।

बार बार मागउँ कर जोर। मनु प रहरै चरन जिन भोर॥


सिु न बर बचन म े जनु पोषे। पूरनकाम रामु प रतोषे॥

ू कर भी आपके चरण को न छोड़े । जनक


म बार-बार हाथ जोड़कर यह माँगता हँ िक मेरा मन भल
के े वचन को सुनकर, जो मानो ेम से पु िकए हए थे, पण ू काम राम संतु हए।

क र बर िबनय ससरु सनमाने। िपतु कौिसक बिस सम जाने॥


िबनती बह र भरत सन क ही। िमिल स म े ु पिु न आिसष दी ही॥

उ ह ने सुंदर िवनती करके िपता दशरथ, गु िव ािम और कुलगु विश के समान


जानकर ससुर जनक का स मान िकया। िफर जनक ने भरत से िवनती क और ेम के साथ
िमलकर िफर उ ह आशीवाद िदया।

- िमले लखन रपसु ूदनिह दीि ह असीस महीस।


भए परसपर म े बस िफ र िफ र नाविहं सीस॥ 342॥

िफर राजा ने ल मण और श ु न से िमलकर उ ह आशीवाद िदया। वे पर पर ेम के वश होकर


बार-बार आपस म िसर नवाने लगे॥ 342॥

बार बार क र िबनय बड़ाई। रघप


ु ित चले संग सब भाई॥
जनक गहे कौिसक पद जाई। चरन रे नु िसर नयन ह लाई॥

जनक क बार-बार िवनती और बड़ाई करके रघुनाथ सब भाइय के साथ चले। जनक ने जाकर
िव ािम के चरण पकड़ िलए और उनके चरण क रज को िसर और ने म लगाया।

सन
ु ु मन
ु ीस बर दरसन तोर। अगमु न कछु तीित मन मोर॥
जो सखु ु सज
ु सु लोकपित चहह । करत मनोरथ सकुचत अहह ॥
(उ ह ने कहा -) हे मुनी र! सुिनए, आपके सुंदर दशन से कुछ भी दुलभ नह है, मेरे मन म ऐसा
िव ास है। जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते ह; परं तु (असंभव समझकर) िजसका मनोरथ
करते हए सकुचाते ह,

सो सख
ु ु सज
ु सु सलु भ मोिह वामी। सब िसिध तव दरसन अनग ु ामी॥
क ि ह िबनय पिु न पिु न िस नाई। िफरे महीसु आिसषा पाई॥

हे वामी! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया; सारी िसि याँ आपके दशन क अनुगािमनी
अथात पीछे -पीछे चलनेवाली ह। इस कार बार-बार िवनती क और िसर नवाकर तथा उनसे
आशीवाद पाकर राजा जनक लौटे।

चली बरात िनसान बजाई। मिु दत छोट बड़ सब समदु ाई॥


रामिह िनरिख ाम नर नारी। पाइ नयन फलु होिहं सखु ारी॥

डं का बजाकर बारात चली। छोटे-बड़े सभी समुदाय स न ह। (रा ते के) गाँव के ी-पु ष राम
को देखकर ने का फल पाकर सुखी होते ह।

- बीच बीच बर बास क र मग लोग ह सख ु देत।


अवध समीप पन ु ीत िदन पहँची आइ जनेत॥ 343॥

बीच-बीच म सुंदर मुकाम करती हई तथा माग के लोग को सुख देती हई वह बारात पिव िदन
म अयो यापुरी के समीप आ पहँची॥ 343॥

हने िनसान पनव बर बाजे। भे र संख धिु न हय गय गाजे॥


झाँिझ िबरव िडंिडम सहु ाई। सरस राग बाजिहं सहनाई॥

नगाड़ पर चोट पड़ने लग ; सुंदर ढोल बजने लगे। भेरी और शंख क बड़ी आवाज हो रही है;
हाथी-घोड़े गरज रहे ह। िवशेष श द करनेवाली झाँझ, सुहावनी डफिलयाँ तथा रसीले राग से
शहनाइयाँ बज रही ह।

परु जन आवत अकिन बराता। मिु दत सकल पल ु काविल गाता॥


िनज िनज संदु र सदन सँवारे । हाट बाट चौहट परु ारे ॥

बारात को आती हई सुनकर नगर िनवासी स न हो गए। सबके शरीर पर पुलकावली छा गई।
सबने अपने-अपने सुंदर घर , बाजार , गिलय , चौराह और नगर के ार को सजाया।

गल सकल अरगजाँ िसंचाई ं। जहँ तहँ चौक चा परु ाई ं॥


बना बजा न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक िबताना॥
सारी गिलयाँ अरगजे से िसंचाई गई ं, जहाँ-तहाँ सुंदर चौक पुराए गए। तोरण वजा-पताकाओं और
मंडप से बाजार ऐसा सजा िक िजसका वणन नह िकया जा सकता।

सफल पूगफल कदिल रसाला। रोपे बकुल कदंब तमाला॥


लगे सभ
ु ग त परसत धरनी। मिनमय आलबाल कल करनी॥

फल सिहत सुपारी, केला, आम, मौलिसरी, कदंब और तमाल के व ृ लगाए गए। वे लगे हए सुंदर
व ृ (फल के भार से) प ृ वी को छू रहे ह। उनके मिणय के थाले बड़ी सुंदर कारीगरी से बनाए
गए ह।

- िबिबध भाँित मंगल कलस गहृ गहृ रचे सँवा र।


सरु ािद िसहािहं सब रघब
ु र परु ी िनहा र॥ 344॥

अनेक कार के मंगल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए ह। रघुनाथ क पुरी (अयो या) को
देखकर ा आिद सब देवता िसहाते ह॥ 344॥

भूप भवनु तेिह अवसर सोहा। रचना देिख मदन मनु मोहा॥
मंगल सगन ु मनोहरताई। रिध िसिध सख ु संपदा सहु ाई॥

उस समय राजमहल (अ यंत) शोिभत हो रहा था। उसक रचना देखकर कामदेव का भी मन
मोिहत हो जाता था। मंगल शकुन, मनोहरता, ऋि -िसि , सुख, सुहावनी संपि ।

जनु उछाह सब सहज सहु ाए। तनु ध र ध र दसरथ गहृ ँ छाए॥


देखन हेतु राम बैदहे ी। कहह लालसा होिह न केही॥

और सब कार के उ साह (आनंद) मानो सहज सुंदर शरीर धर-धरकर दशरथ के घर म छा गए


ह। राम और सीता के दशन के िलए भला किहए, िकसे लालसा न होगी?

जूथ जूथ िमिल चल सआु िसिन। िनज छिब िनदरिहं मदन िबलािसिन॥
सकल सम ु ंगल सज आरती। गाविहं जनु बह बेष भारती॥

सुहािगनी ि याँ झुंड-क -झुंड िमलकर चल , जो अपनी छिव से कामदेव क ी रित का भी


िनरादर कर रही ह। सभी सुंदर मंगल य एवं आरती सजाए हए गा रही ह, मानो सर वती ही
बहत-से वेष धारण िकए गा रही ह ।

भूपित भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरिन समउ सख


ु ु सोई॥
कौस यािद राम महतार । मे िबबस तन दसा िबसार ॥

राजमहल म (आनंद के मारे ) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वणन नह िकया जा
सकता। कौस या आिद राम क सब माताएँ ेम के िवशेष वश होने से शरीर क सुध भल
ू गई ं।

- िदए दान िब ह िबपलु पूिज गनेस परु ा र।


मिु दत परम द र जनु पाइ पदारथ चा र॥ 345॥

ू न करके उ ह ने ा ण को बहत-सा दान िदया। वे ऐसी परम


गणेश और ि पुरा र िशव का पज
स न हई,ं मानो अ यंत द र ी चार पदाथ पा गया हो॥ 345॥

मोद मोद िबबस सब माता। चलिहं न चरन िसिथल भए गाता॥


राम दरस िहत अित अनरु ाग । प रछिन साजु सजन सब लाग ॥

सुख और महान आनंद से िववश होने के कारण सब माताओं के शरीर िशिथल हो गए ह, उनके
चरण चलते नह ह। राम के दशन के िलए वे अ यंत अनुराग म भरकर परछन का सब सामान
सजाने लग ।

िबिबध िबधान बाजने बाजे। मंगल मिु दत सिु म ाँ साजे॥


हरद दूब दिध प लव फूला। पान पूगफल मंगल मूला॥

अनेक कार के बाजे बजते थे। सुिम ा ने आनंदपवू क मंगल साज सजाए। ह दी, दूब, दही, प े,
फूल, पान और सुपारी आिद मंगल क मल ू व तुएँ,

अ छत अंकुर लोचन लाजा। मंजुल मंज र तल ु िस िबराजा॥


छुहे परु ट घट सहज सहु ाए। मदन सकुन जनु नीड़ बनाए॥

तथा अ त (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी क सुंदर मंज रयाँ सुशोिभत ह। नाना
रं ग से िचि त िकए हए सहज सुहावने सुवण के कलश ऐसे मालम
ू होते ह, मानो कामदेव के
पि य ने घ सले बनाए ह ।

सगनु सग
ु ंध न जािहं बखानी। मंगल सकल सजिहं सब रानी॥
रच आरत बहतु िबधाना। मिु दत करिहं कल मंगल गाना॥

शकुन क सुगंिधत व तुएँ बखानी नह जा सकत । सब रािनयाँ संपण


ू मंगल साज सज रही ह।
बहत कार क आरती बनाकर वे आनंिदत हई ं सुंदर मंगलगान कर रही ह।

- कनक थार भ र मंगलि ह कमल करि ह िलएँ मात।


चल मिु दत प रछिन करन पल
ु क प लिवत गात॥ 346॥

सोने के थाल को मांगिलक व तुओ ं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथ म िलए हए
माताएँ आनंिदत होकर परछन करने चल । उनके शरीर पुलकावली से छा गए ह॥ 346॥
धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमंडु जनु ठयऊ॥
सरु त समु न माल सरु बरषिहं। मनहँ बलाक अविल मनु करषिहं॥

धपू के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड़-घुमड़कर छा गए ह ।
देवता क पव ृ के फूल क मालाएँ बरसा रहे ह। वे ऐसी लगती ह, मानो बगुल क पाँित मन को
(अपनी ओर) ख च रही हो।

मंजुल मिनमय बंदिनवारे । मनहँ पाक रपु चाप सँवारे ॥


गटिहं दरु िहं अट ह पर भािमिन। चा चपल जनु दमकिहं दािमिन॥

संुदर मिणय से बने बंदनवार ऐसे मालम


ू होते ह, मानो इं धनुष सजाए ह । अटा रय पर सुंदर
और चपल ि याँ कट होती और िछप जाती ह (आती-जाती ह); वे ऐसी जान पड़ती ह, मानो
िबजिलयाँ चमक रही ह ।

ददुं िु भ धिु न घन गरजिन घोरा। जाचक चातक दादरु मोरा॥


सरु सग ु ंध सिु च बरषिहं बारी। सख
ु ी सकल सिस परु नर नारी॥

नगाड़ क विन मानो बादल क घोर गजना है। याचकगण पपीहे , मढक और मोर ह। देवता
पिव सुगंध पी जल बरसा रहे ह, िजससे खेती के समान नगर के सब ी-पु ष सुखी हो रहे
ह।

समउ जािन गरु आयसु दी हा। परु बेसु रघक ु ु लमिन क हा॥
सिु म र संभु िग रजा गनराजा। मिु दत महीपित सिहत समाजा॥

( वेश का) समय जानकर गु विश ने आ ा दी। तब रघुकुलमिण महाराज दशरथ ने िशव,
पावती और गणेश का मरण करके समाज सिहत आनंिदत होकर नगर म वेश िकया।

- होिहं सगन
ु बरषिहं सम ु न सरु ददुं भ बजाइ।
िबबधु बधू नाचिहं मिु दत मंजुल मंगल गाइ॥ 347॥

शकुन हो रहे ह, देवता दुंदुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे ह। देवताओं क ि याँ आनंिदत होकर
सुंदर मंगल गीत गा-गाकर नाच रही ह॥ 347॥

मागध सूत बंिद नट नागर। गाविहं जसु ितह लोक उजागर॥


जय धिु न िबमल बेद बर बानी। दस िदिस सिु नअ सम
ु ंगल सानी॥

ू , भाट और चतुर नट तीन लोक के उजागर (सबको काश देनेवाले परम काश
मागध, सत
व प) राम का यश गा रहे ह। जय विन तथा वेद क िनमल े वाणी सुंदर मंगल से सनी हई
दस िदशाओं म सुनाई पड़ रही है।
िबपलु बाजने बाजन लागे। नभ सरु नगर लोग अनरु ागे॥
बने बराती बरिन न जाह । महा मिु दत मन सख
ु न समाह ॥

बहत-से बाजे बजने लगे। आकाश म देवता और नगर म लोग सब ेम म म न ह। बाराती ऐसे
बने-ठने ह िक उनका वणन नह हो सकता। परम आनंिदत ह, सुख उनके मन म समाता नह है।

परु बािस ह तब राय जोहारे । देखत रामिह भए सख


ु ारे ॥
करिहं िनछाव र मिनगन चीरा। बा र िबलोचन पल ु क सरीरा॥

तब अयो याविसय ने राजा को जोहार (वंदना) क । राम को देखते ही वे सुखी हो गए। सब


मिणयाँ और व िनछावर कर रहे ह। ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भरा है और शरीर पुलिकत ह।

आरित करिहं मिु दत परु नारी। हरषिहं िनरिख कुअँर बर चारी॥


िसिबका सभ
ु ग ओहार उघारी। देिख दल ु िहिन ह होिहं सख
ु ारी॥

नगर क ि याँ आनंिदत होकर आरती कर रही ह और सुंदर चार कुमार को देखकर हिषत हो
रही ह। पालिकय के सुंदर परदे हटा-हटाकर वे दुलिहन को देखकर सुखी होती ह।

- एिह िबिध सबही देत सख


ु ु आए राजदआु र।
मिु दत मातु प रछिन करिहं बधु ह समेत कुमार॥ 348॥

इस कार सबको सुख देते हए राज ार पर आए। माताएँ आनंिदत होकर बहओं सिहत कुमार
का परछन कर रही ह॥ 348॥

े ु मोदु कहै को पारा॥


करिहं आरती बारिहं बारा। म
भूषन मिन पट नाना जाती। करिहं िनछाव र अगिनत भाँती॥

वे बार-बार आरती कर रही ह। उस ेम और महान आनंद को कौन कह सकता है! अनेक कार
के आभषू ण, र न और व तथा अगिणत कार क अ य व तुएँ िनछावर कर रही ह।

बधु ह समेत देिख सत ु चारी। परमानंद मगन महतारी॥


पिु न पिु न सीय राम छिब देखी। मिु दत सफल जग जीवन लेखी॥

बहओं सिहत चार पु को देखकर माताएँ परमानंद म म न हो गई ं। सीता और राम क छिव को


बार-बार देखकर वे जगत म अपने जीवन को सफल मानकर आनंिदत हो रही ह।

सख सीय मख ु पिु न पिु न चाही। गान करिहं िनज सक ु ृ त सराही॥


बरषिहं सम
ु न छनिहं छन देवा। नाचिहं गाविहं लाविहं सेवा॥
सिखयाँ सीता के मुख को बार-बार देखकर अपने पु य क सराहना करती हई गान कर रही ह।
देवता ण- ण म फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समपण करते ह।

देिख मनोहर चा रउ जोर । सारद उपमा सकल ढँ ढोर ॥


देत न बनिहं िनपट लघु लाग । एकटक रह प अनरु ाग ॥

चार मनोहर जोिड़य को देखकर सर वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला; पर कोई उपमा देते
नह बनी, य िक उ ह सभी िबलकुल तु छ जान पड़ । तब हारकर वे भी राम के प म अनुर
होकर एकटक देखती रह गई ं।

- िनगम नीित कुल रीित क र अरघ पाँवड़े देत।


बधु ह सिहत सतु प रिछ सब चल लवाइ िनकेत॥ 349॥

वेद क िविध और कुल क रीित करके अ य-पाँवड़े देती हई बहओं समेत सब पु को परछन
करके माताएँ महल म िलवा चल ॥ 349॥

चा र िसंघासन सहज सहु ाए। जनु मनोज िनज हाथ बनाए॥


ित ह पर कुअँ र कुअँर बैठारे । सादर पाय पन
ु ीत पखारे ॥

वाभािवक ही संुदर चार िसंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर
माताओं ने राजकुमा रय और राजकुमार को बैठाया और आदर के साथ उनके पिव चरण धोए।

धूप दीप नैबदे बेद िबिध। पूजे बर दल


ु िहिन मंगल िनिध॥
बारिहं बार आरती करह । यजन चा चामर िसर ढरह ॥

िफर वेद क िविध के अनुसार मंगल के िनधान दू ह क दुलिहन क धपू , दीप और नैवे आिद
के ारा पजू ा क । माताएँ बारं बार आरती कर रही ह और वर-वधुओ ं के िसर पर सुंदर पंखे तथा
चँवर ढल रहे ह।

ब तु अनेक िनछाव र होह । भर मोद मातु सब सोह ॥


पावा परम त व जनु जोग । अमतृ ु लहेउ जनु संतत रोग ॥

अनेक व तुएँ िनछावर हो रही ह; सभी माताएँ आनंद से भरी हई ऐसी सुशोिभत हो रही ह मानो
योगी ने परम त व को ा कर िलया। सदा के रोगी ने मानो अमत ृ पा िलया,

जनम रं क जनु पारस पावा। अंधिह लोचन लाभु सहु ावा॥


मूक बदन जनु सारद छाई। मानहँ समर सूर जय पाई॥

ज म का द र ी मानो पारस पा गया। अंधे को सुंदर ने ू े के मुख म मानो


का लाभ हआ। गँग
सर वती आ िवराज और शरू वीर ने मानो यु म िवजय पा ली।

- एिह सख
ु ते सत कोिट गन
ु पाविहं मातु अनंद।ु
भाइ ह सिहत िबआिह घर आए रघकु ु लचंद॥ु 350(क)॥

इन सुख से भी सौ करोड़ गुना बढ़कर आनंद माताएँ पा रही ह। य िक रघुकुल के चं मा राम


िववाह कर के भाइय सिहत घर आए ह॥ 350 (क)॥

लोक रीित जनन करिहं बर दल ु िहिन सकुचािहं।


मोदु िबनोदु िबलोिक बड़ रामु मनिहं मस
ु क
ु ािहं॥ 350(ख)॥

माताएँ लोकरीित करती ह और दू हे -दुलिहन सकुचाते ह। इस महान आनंद और िवनोद को


देखकर राम मन-ही-मन मुसकरा रहे ह॥ 350(ख)॥

देव िपतर पूजे िबिध नीक । पूज सकल बासना जी क ॥


सबिह बंिद माँगिहं बरदाना। भाइ ह सिहत राम क याना॥

मन क सभी वासनाएँ परू ी हई जानकर देवता और िपतर का भली-भाँित पज


ू न िकया। सबक
वंदना करके माताएँ यही वरदान माँगती ह िक भाइय सिहत राम का क याण हो।

अंतरिहत सरु आिसष देह । मिु दत मातु अंचल भ र लेह ॥


भूपित बोिल बराती ली हे। जान बसन मिन भूषन दी हे॥

देवता िछपे हए (अंत र से) आशीवाद दे रहे ह और माताएँ आनंिदत हो आँचल भरकर ले रही ह।
तदनंतर राजा ने बाराितय को बुलवा िलया और उ ह सवा रयाँ, व , मिण (र न) और
आभषू णािद िदए।

आयसु पाइ रािख उर रामिह। मिु दत गए सब िनज िनज धामिह॥


परु नर ना र सकल पिहराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥

आ ा पाकर, राम को दय म रखकर वे सब आनंिदत होकर अपने-अपने घर गए। नगर के


सम त ी-पु ष को राजा ने कपड़े और गहने पहनाए। घर-घर बधावे बजने लगे।

जाचक जन जाचिहं जोइ जोई। मिु दत राउ देिहं सोइ सोई॥


सेवक सकल बजिनआ नाना। पूरन िकए दान सनमाना॥

याचक लोग जो-जो माँगते ह, िवशेष स न होकर राजा उ ह वही-वही देते ह। संपण
ू सेवक और
बाजे वाल को राजा ने नाना कार के दान और स मान से संतु िकया।
- देिहं असीस जोहा र सब गाविहं गन
ु गन गाथ।
तब गरु भूसरु सिहत गहृ ँ गवनु क ह नरनाथ॥ 351॥

सब जोहार (वंदन) करके आशीष देते ह और गुणसमहू क कथा गाते ह। तब गु और ा ण


सिहत राजा दशरथ ने महल म गमन िकया॥ 351॥

जो बिस अनस ु ासन दी ही। लोक बेद िबिध सादर क ही॥


भूसरु भीर देिख सब रानी। सादर उठ भा य बड़ जानी॥

विश ने जो आ ा दी, उसे लोक और वेद क िविध के अनुसार राजा ने आदरपवू क िकया।
ा ण क भीड़ देखकर अपना बड़ा भा य जानकर सब रािनयाँ आदर के साथ उठ ।

पाय पखा र सकल अ हवाए। पूिज भली िबिध भूप जेवाँए॥


आदर दान म े प रपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥

ू न करके उ ह भोजन
चरण धोकर उ ह ने सबको नान कराया और राजा ने भली-भाँित पज
कराया। आदर, दान और ेम से पु हए वे संतु मन से आशीवाद देते हए चले।

बह िबिध क ि ह गािधसतु पूजा। नाथ मोिह सम ध य न दूजा॥


क ि ह संसा भूपित भूरी। रािन ह सिहत लीि ह पग धूरी॥

राजा ने गािध-पु िव ािम क बहत तरह से पजू ा क और कहा - हे नाथ! मेरे समान ध य
दूसरा कोई नह है। राजा ने उनक बहत शंसा क और रािनय सिहत उनक चरणधिू ल को
हण िकया।

भीतर भवन दी ह बर बासू। मन जोगवत रह नप ृ ु रिनवासू॥


पूजे गरु पद कमल बहोरी। क ि ह िबनय उर ीित न थोरी॥

उ ह महल के भीतर ठहरने को उ म थान िदया, िजसम राजा और सब रिनवास उनका मन


जोहता रहे (अथात िजसम राजा और महल क सारी रािनयाँ वयं उनक इ छानुसार उनके
आराम क ओर ि रख सक), िफर राजा ने गु विश के चरणकमल क पज ू ा और िवनती
क । उनके दय म कम ीित न थी। (अथात बहत ीित थी।)

- बधु ह समेत कुमार सब रािन ह सिहत महीस।ु


पिु न पिु न बंदत गरु चरन देत असीस मन
ु ीस॥
ु 352॥

बहओं सिहत सब राजकुमार और सब रािनय समेत राजा बार-बार गु के चरण क वंदना करते
ह और मुनी र आशीवाद देते ह॥ 352॥
िबनय क ि ह उर अित अनरु ाग। सतु संपदा रािख सब आग॥
नेगु मािग मिु ननायक ली हा। आिसरबादु बहत िबिध दी हा॥

राजा ने अ यंत ेमपण


ू दय से पु को और सारी संपि को सामने रखकर (उ ह वीकार
करने के िलए) िवनती क । परं तु मुिनराज ने (पुरोिहत के नाते) केवल अपना नेग माँग िलया
और बहत तरह से आशीवाद िदया।

उर ध र रामिह सीय समेता। हरिष क ह गरु गवनु िनकेता॥


िब बधू सब भूप बोलाई ं। चैल चा भूषन पिहराई ं॥

िफर सीता सिहत राम को दय म रखकर गु विश हिषत होकर अपने थान को गए। राजा
ने सब ा ण क ि य को बुलवाया और उ ह संुदर व तथा आभषू ण पहनाए।

बह र बोलाइ सआ
ु िसिन ली ह । िच िबचा र पिहराविन दी ह ॥
नेगी नेग जोग जब लेह । िच अनु प भूपमिन देह ॥

िफर अब सुआिसिनय को (नगर भर क सौभा यवती बहन, बेटी, भानजी आिद को) बुलवा िलया
और उनक िच समझकर (उसी के अनुसार) उ ह पिहरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना
नेग-जोग लेते और राजाओं के िशरोमिण दशरथ उनक इ छा के अनुसार देते ह।

ि य पाहने पू य जे जाने। भूपित भली भाँित सनमाने॥


देव देिख रघब
ु ीर िबबाह। बरिष सून संिस उछाह॥

िजन मेहमान को ि य और पज ू नीय जाना, उनका राजा ने भली-भाँित स मान िकया। देवगण
रघुनाथ का िववाह देखकर, उ सव क शंसा करके फूल बरसाते हए -

- चले िनसान बजाइ सरु िनज िनज परु सख


ु पाइ।
कहत परसपर राम जसु म े न दयँ समाइ॥ 353॥

नगाड़े बजाकर और (परम) सुख ा कर अपने-अपने लोक को चले। वे एक-दूसरे से राम का


यश कहते जाते ह। दय म ेम समाता नह है॥ 353॥

सब िबिध सबिह समिद नरनाह। रहा दयँ भ र पू र उछाह॥


जहँ रिनवासु तहाँ पगु धारे । सिहत बहिट ह कुअँर िनहारे ॥

सब कार से सबका ेमपवू क भली-भाँित आदर-स कार कर लेने पर राजा दशरथ के दय म


पण
ू उ साह (आनंद) भर गया। जहाँ रिनवास था, वे वहाँ पधारे और बहओं समेत उ ह ने कुमार
को देखा।
िलए गोद क र मोद समेता। को किह सकइ भयउ सख ु ु जेता॥
े गोद बैठार । बार बार िहयँ हरिष दल
बधू स म ु ार ॥

राजा ने आनंद सिहत पु को गोद म ले िलया। उस समय राजा को िजतना सुख हआ उसे कौन
कह सकता है? िफर पु वधुओ ं को ेम सिहत गोदी म बैठाकर, बार-बार दय म हिषत होकर
उ ह ने उनका दुलार (लाड़-चाव) िकया।

देिख समाजु मिु दत रिनवासू। सब क उर अनंद िकयो बासू॥


कहेउ भूप िजिम भयउ िबबाह। सिु न सिु न हरषु होत सब काह॥

यह समाज (समारोह) देखकर रिनवास स न हो गया। सबके दय म आनंद ने िनवास कर


िलया। तब राजा ने िजस तरह िववाह हआ था वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब िकसी को हष
होता है।

जनक राज गन ु सीलु बड़ाई। ीित रीित संपदा सहु ाई॥


बहिबिध भूप भाट िजिम बरनी। रान सब मिु दत सिु न करनी॥

राजा जनक के गुण, शील, मह व, ीित क रीित और सुहावनी संपि का वणन राजा ने भाट क
तरह बहत कार से िकया। जनक क करनी सुनकर सब रािनयाँ बहत स न हई ं।

- सत
ु ह समेत नहाइ नप
ृ बोिल िब गरु याित।
भोजन क ह अनेक िबिध घरी पंच गइ राित॥ 354॥

पु सिहत नान करके राजा ने ा ण, गु और कुटुंिबय को बुलाकर अनेक कार के भोजन


िकए। (यह सब करते-करते) पाँच घड़ी रात बीत गई॥ 354॥

मंगलगान करिहं बर भािमिन। भै सख ु मूल मनोहर जािमिन॥


अँचइ पान सब काहँ पाए। ग सग ु ंध भूिषत छिब छाए॥

संुदर ि याँ मंगलगान कर रही ह। वह राि सुख क मल


ू और मनोहा रणी हो गई। सबने
आचमन करके पान खाए और फूल क माला, सुगंिधत य आिद से िवभिू षत होकर सब शोभा
से छा गए।

रामिह देिख रजायसु पाई। िनज िनज भवन चले िसर नाई॥
े मोदु िबनोदु बड़ाई। समउ समाजु मनोहरताई॥

राम को देखकर और आ ा पाकर सब िसर नवाकर अपने-अपने घर को चले। वहाँ के ेम,


आनंद, िवनोद, मह व, समय, समाज और मनोहरता को -
किह न सकिहं सत सारद सेसू। बेद िबरं िच महेस गनेसू॥
सो म कह कवन िबिध बरनी। भूिमनागु िसर धरइ िक धरनी॥

सैकड़ सर वती, शेष, वेद, ा, महादेव और गणेश भी नह कह सकते। िफर भला म उसे िकस
कार से बखानकर कहँ? कह कचुआ भी धरती को िसर पर ले सकता है!

नप
ृ सब भाँित सबिह सनमानी। किह मदृ ु बचन बोलाई ं रानी॥
बधू ल रकन पर घर आई ं। राखेह नयन पलक क नाई ं॥

राजा ने सबका सब कार से स मान करके, कोमल वचन कहकर रािनय को बुलाया और कहा
- बहएँ अभी ब ची ह, पराए घर आई ह। इनको इस तरह से रखना जैसे ने को पलक रखती ह
(जैसे पलक ने क सब कार से र ा करती ह और उ ह सुख पहँचाती ह, वैसे ही इनको सुख
पहँचाना)।

- ल रका िमत उनीद बस सयन करावह जाइ।


अस किह गे िब ामगहृ ँ राम चरन िचतु लाइ॥ 355॥

लड़के थके हए न द के वश हो रहे ह, इ ह ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा राम के
चरण म मन लगाकर िव ाम भवन म चले गए॥ 355॥

भूप बचन सिु न सहज सहु ाए। ज रत कनक मिन पलँग डसाए॥
सभु ग सरु िभ पय फेन समाना। कोमल किलत सप े नाना॥
ु त

राजा के वाभव से ही सुंदर वचन सुनकर (रािनय ने) मिणय से जड़े सुवण के पलँग िबछवाए।
(ग पर) गौ के दूध के फेन के समान संुदर एवं कोमल अनेक सफेद चादर िबछाई ं।

उपबरहन बर बरिन न जाह । ग सग ु ंध मिनमंिदर माह ॥


रतनदीप सिु ठ चा चँदोवा। कहत न बनइ जान जेिहं जोवा॥

सुंदर तिकय का वणन नह िकया जा सकता। मिणय के मंिदर म फूल क मालाएँ और सुगंध
य सजे ह। सुंदर र न के दीपक और सुंदर चँदोवे क शोभा कहते नह बनती। िजसने उ ह
देखा हो, वही जान सकता है।

सेज िचर रिच रामु उठाए। म े समेत पलँग पौढ़ाए॥


अ या पिु न पिु न भाइ ह दी ही। िनज िनज सेज सयन ित ह क ही॥

इस कार सुंदर श या सजाकर (माताओं ने) राम को उठाया और ेम सिहत पलँग पर पौढ़ाया।
राम ने बार-बार भाइय को आ ा दी। तब वे भी अपनी-अपनी श याओं पर सो गए।
े बचन सब माता॥
देिख याम मदृ ु मंजुल गाता। कहिहं स म
मारग जात भयाविन भारी। केिह िबिध तात ताड़का मारी॥

राम के साँवले सुंदर कोमल अँग को देखकर सब माताएँ ेम सिहत वचन कह रही ह - हे तात!
माग म जाते हए तुमने बड़ी भयावनी ताड़का रा सी को िकस कार से मारा?

- घोर िनसाचर िबकट भट समर गनिहं निहं काह।


मारे सिहत सहाय िकिम खल मारीच सबु ाह॥ 356॥

बड़े भयानक रा स, जो िवकट यो ा थे और जो यु म िकसी को कुछ नह िगनते थे, उन दु


मारीच और सुबाह को सहायक सिहत तुमने कैसे मारा?॥ 356॥

मिु न साद बिल तात तु हारी। ईस अनेक करवर टारी॥


मख रखवारी क र दहु ँ भाई ं। गु साद सब िब ा पाई ं॥

हे तात! म बलैया लेती हँ, मुिन क कृपा से ही ई र ने तु हारी बहत-सी बलाओं को टाल िदया।
दोन भाइय ने य क रखवाली करके गु के साद से सब िव ाएँ पाई।ं

मिु नितय तरी लगत पग धूरी। क रित रही भव


ु न भ र पूरी॥
कमठ पीिठ पिब कूट कठोरा। नप ृ समाज महँ िसव धनु तोरा॥

चरण क धिू ल लगते ही मुिन प नी अह या तर गई। िव भर म यह क ित पण


ू रीित से या हो
गई। क छप क पीठ, व और पवत से भी कठोर िशव के धनुष को राजाओं के समाज म तुमने
तोड़ िदया।

िब व िबजय जसु जानिक पाई। आए भवन यािह सब भाई॥


सकल अमानष ु करम तु हारे । केवल कौिसक कृपाँ सध
ु ारे ॥

िव िवजय के यश और जानक को पाया और सब भाइय को याहकर घर आए। तु हारे सभी


कम अमानुषी ह (मनु य क शि के बाहर ह), िज ह केवल िव ािम क कृपा ने सुधारा है
(संप न िकया है)।

आजु सफ ु ल जग जनमु हमारा। देिख तात िबधब ु दन तु हारा॥


जे िदन गए तु हिह िबनु देख। ते िबरं िच जिन पारिहं लेख॥

हे तात! तु हारा चं मुख देखकर आज हमारा जगत म ज म लेना सफल हआ। तुमको िबना देखे
जो िदन बीते ह, उनको ा िगनती म न लाव (हमारी आयु म शािमल न कर)।

- राम तोष मातु सब किह िबनीत बर बैन।


सिु म र संभु गु िब पद िकए नीदबस नैन॥ 357॥

िवनय भरे उ म वचन कहकर राम ने सब माताओं को संतु िकया। िफर िशव, गु और ा ण
के चरण का मरण कर ने को न द के वश िकया। (अथात वे सो रहे )॥ 357॥

नीदउँ बदन सोह सिु ठ लोना। मनहँ साँझ सरसी ह सोना॥


घर घर करिहं जागरन नार । देिहं परसपर मंगल गार ॥

न द म भी उनका अ यंत सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो सं या के समय का लाल
कमल सोह रहा हो। ि याँ घर-घर जागरण कर रही ह और आपस म (एक-दूसरी को) मंगलमयी
गािलयाँ दे रही ह।

परु ी िबराजित राजित रजनी। रान कहिहं िबलोकह सजनी॥


संदु र बधु ह सासु लै सोई ं। फिनक ह जनु िसरमिन उर गोई ं॥

रािनयाँ कहती ह - हे सजनी! देखो, (आज) राि क कैसी शोभा है, िजससे अयो यापुरी िवशेष
शोिभत हो रही है! (य कहती हई) सासुएँ सुंदर बहओं को लेकर सो गई ं, मानो सप ने अपने िसर
क मिणय को दय म िछपा िलया है।

ात पन
ु ीत काल भु जागे। अ नचूड़ बर बोलन लागे॥
बंिद मागधि ह गन
ु गन गाए। परु जन ार जोहारन आए॥

ातःकाल पिव मुहत म भु जागे। मुग सुंदर बोलने लगे। भाट और मागध ने गुण का गान
िकया तथा नगर के लोग ार पर जोहार करने को आए।

बंिद िब सरु गरु िपतु माता। पाइ असीस मिु दत सब ाता॥


जनिन ह सादर बदन िनहारे । भूपित संग ार पगु धारे ॥

ा ण , देवताओं, गु , िपता और माताओं क वंदना करके आशीवाद पाकर सब भाई स न


हए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुख को देखा। िफर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे ।

- क ि ह सौच सब सहज सिु च स रत पनु ीत नहाइ।


ाति या क र तात पिहं आए चा रउ भाइ॥ 358॥

वभाव से ही पिव चार भाइय ने सब शौचािद से िनव ृ होकर पिव सरयू नदी म नान िकया
और ातःि या (सं या-वंदनािद) करके वे िपता के पास आए॥ 358॥

भूप िबलोिक िलए उर लाई। बैठे हरिष रजायसु पाई॥


देिख रामु सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अविध अनम ु ानी॥
राजा ने देखते ही उ ह दय से लगा िलया। तदनंतर वे आ ा पाकर हिषत होकर बैठ गए। राम के
दशन कर और ने के लाभ क बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई।
(अथात सबके तीन कार के ताप सदा के िलए िमट गए।)

पिु न बिस मिु न कौिसकु आए। सभ ु ग आसनि ह मिु न बैठाए॥


सत ु ह समेत पूिज पद लागे। िनरिख रामु दोउ गरु अनरु ागे॥

िफर मुिन विश और िव ािम आए। राजा ने उनको सुंदर आसन पर बैठाया और पु समेत
उनक पज ू ा करके उनके चरण लगे। दोन गु राम को देखकर ेम म मु ध हो गए।

कहिहं बिस धरम इितहासा। सन


ु िहं महीसु सिहत रिनवासा॥
मिु न मन अगम गािधसत
ु करनी। मिु दत बिस िबपल ु िबिध बरनी॥

विश धम के इितहास कह रहे ह और राजा रिनवास सिहत सुन रहे ह। जो मुिनय के मन को


भी अग य है, ऐसी िव ािम क करनी को विश ने आनंिदत होकर बहत कार से वणन
िकया।

बोले बामदेउ सब साँची। क रित किलत लोक ितहँ माची॥


सिु न आनंदु भयउ सब काह। राम लखन उर अिधक उछाह॥

वामदेव बोले - ये सब बात स य ह। िव ािम क सुंदर क ित तीन लोक म छाई हई है। यह


सुनकर सब िकसी को आनंद हआ। राम-ल मण के दय म अिधक उ साह (आनंद) हआ।

- मंगल मोद उछाह िनत जािहं िदवस एिह भाँित।


उमगी अवध अनंद भ र अिधक अिधक अिधकाित॥ 359॥

िन य ही मंगल, आनंद और उ सव होते ह; इस तरह आनंद म िदन बीतते जाते ह। अयो या आनंद
से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद क अिधकता अिधक-अिधक बढ़ती ही जा रही है॥ 359॥

सिु दन सोिध कल कंकन छोरे । मंगल मोद िबनोद न थोरे ॥


िनत नव सख ु ु सरु देिख िसहाह । अवध ज म जाचिहं िबिध पाह ॥

अ छा िदन (शुभ मुहत) शोधकर सुंदर कंकण खोले गए। मंगल, आनंद और िवनोद कुछ कम
नह हए (अथात बहत हए)। इस कार िन य नए सुख को देखकर देवता िसहाते ह और अयो या
म ज म पाने के िलए ा से याचना करते ह।

िब वािम ु चलन िनत चहह । राम स मे िबनय बस रहह ॥


िदन िदन सयगनु भूपित भाऊ। देिख सराह महामिु नराऊ॥
िव ािम िन य ही चलना (अपने आ म जाना) चाहते ह, पर राम के नेह और िवनयवश रह
जाते ह। िदन -िदन राजा का सौ गुना भाव ( ेम) देखकर महामुिनराज िव ािम उनक सराहना
करते ह।

मागत िबदा राउ अनरु ागे। सत


ु ह समेत ठाढ़ भे आगे॥
नाथ सकल संपदा तु हारी। म सेवकु समेत सत ु नारी॥

अंत म जब िव ािम ने िवदा माँगी, तब राजा ेमम न हो गए और पु सिहत आगे खड़े हो गए।
(वे बोले -) हे नाथ! यह सारी संपदा आपक है। म तो ी-पु सिहत आपका सेवक हँ।

करब सदा ल रक ह पर छोह। दरसनु देत रहब मिु न मोह॥


अस किह राउ सिहत सत
ु रानी। परे उ चरन मख
ु आव न बानी॥

हे मुिन! लड़क पर सदा नेह करते रिहएगा और मुझे भी दशन देते रिहएगा। ऐसा कहकर पु
और रािनय सिहत राजा दशरथ िव ािम के चरण पर िगर पड़े , ( ेमिव ल हो जाने के कारण)
उनके मँुह से बात नह िनकलती।

दीि ह असीस िब बह भाँित। चले न ीित रीित किह जाती॥


े संग सब भाई। आयसु पाइ िफरे पहँचाई॥
रामु स म

ा ण िव िम ने बहत कार से आशीवाद िदए और वे चल पड़े , ीित क रीित कही नह


जाती। सब भाइय को साथ लेकर राम ेम के साथ उ ह पहँचाकर और आ ा पाकर लौटे।

- राम पु भूपित भगित याह उछाह अनंद।ु


जात सराहत मनिहं मन मिु दत गािधकुलचंद॥ु 360॥

गािधकुल के चं मा िव ािम बड़े हष के साथ राम के प, राजा दशरथ क भि , (चार भाइय


के) िववाह और (सबके) उ साह और आनंद को मन-ही-मन सराहते जाते ह॥ 360॥

बामदेव रघक ु ु ल गरु यानी। बह र गािधसत


ु कथा बखानी॥
सिु न मिु न सज ु सु मनिहं मन राऊ। बरनत आपन पु य भाऊ॥

वामदेव और रघुकुल के गु ानी विश ने िफर िव ािम क कथा बखानकर कही। मुिन का
सुंदर यश सुनकर राजा मन-ही-मन अपने पु य के भाव का बखान करने लगे।

बहरे लोग रजायसु भयऊ। सत ु ह समेत नप ृ ित गहृ ँ गयऊ॥


जहँ तहँ राम याह सबु गावा। सज
ु सु पन
ु ीत लोक ितहँ छावा॥

आ ा हई तब सब लोग (अपने-अपने घर को) लौटे। राजा दशरथ भी पु सिहत महल म गए।


जहाँ-तहाँ सब राम के िववाह क गाथाएँ गा रहे ह। राम का पिव सुयश तीन लोक म छा गया।

आए यािह रामु घर जब त। बसइ अनंद अवध सब तब त॥


भु िबबाहँ जस भयउ उछाह। सकिहं न बरिन िगरा अिहनाह॥

जब से राम िववाह करके घर आए, तब से सब कार का आनंद अयो या म आकर बसने लगा।
भु के िववाह म जैसा आनंद-उ साह हआ, उसे सर वती और सप के राजा शेष भी नह कह
सकते।

किबकुल वनु पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी॥


तेिह ते म कछु कहा बखानी। करन पन
ु ीत हेतु िनज बानी॥

सीताराम के यश को किवकुल के जीवन को पिव करनेवाला और मंगल क खान जानकर,


इससे मने अपनी वाणी को पिव करने के िलए कुछ (थोड़ा-सा) बखानकर कहा है।

छं ० - िनज िगरा पाविन करन कारन राम जसु तलु स क ो।


रघब ु ीर च रत अपार बा रिध पा किब कौन ल ो॥
उपबीत याह उछाह मंगल सिु न जे सादर गावह ।
बैदिे ह राम साद ते जन सबदा सखु ु पावह ॥

अपनी वाणी को पिव करने के िलए तुलसी ने राम का यश कहा है। (नह तो) रघुनाथ का च र
अपार समु है, िकस किव ने उसका पार पाया है? जो लोग य ोपवीत और िववाह के मंगलमय
उ सव का वणन आदर के साथ सुनकर गावगे, वे लोग जानक और राम क कृपा से सदा सुख
पावगे।

सो० - िसय रघब े गाविहं सन


ु ीर िबबाह जे स म ु िहं।
ित ह कहँ सदा उछाह मंगलायतन राम जस॥ु 361॥

सीता और रघुनाथ के िववाह संग को जो लोग ेमपवू क गाएँ -सुनगे, उनके िलए सदा
उ साह(आनंद)-ही-उ साह है; य िक राम का यश मंगल का धाम है॥ 361॥

इितम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने थमः सोपानः समा ः।


किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करनेवाले रामच रतेमानस का यह पहला सोपान समा
हआ।

(बालकांड समा )
अयो याकांड
य यांके च िवभाित भूधरसत ु ा देवापगा म तके
भाले बालिवधगु ले च गरलं य योरिस यालराट्।
सोऽयं भूितिवभूषणः सरु वरः सवािधपः सवदा
शवः सवगतः िशवः शिशिनभः ी शंकरः पातु माम्॥ 1॥

िजनक गोद म िहमाचलसुता पावती, म तक पर गंगा, ललाट पर ि तीया का चं मा, कंठ म


हलाहल िवष और व थल पर सपराज शेष सुशोिभत ह, वे भ म से िवभिू षत, देवताओं म े ,
सव र, संहारकता (या भ के पापनाशक), सव यापक, क याण प, चं मा के समान
शु वण ी शंकर सदा मेरी र ा कर॥ 1॥

स नतां या न गतािभषेकत तथा न म ले वनवासदःु खतः।


मख
ु ा बज
ु ी रघन
ु ंदन य मे सदा तु सा मंजुलमंगल दा॥ 2॥

रघुकुल को आनंद देनेवाले ी रघुनंदन के मुखारिवंद क जो शोभा रा यािभषेक से


(रा यािभषेक क बात सुनकर) न तो स नता को ा हई और न वनवास के दुःख से मिलन
ही हई, वह (मुखकमल क छिव) मेरे िलए सदा सुंदर मंगल क देनेवाली हो॥ 2॥

नीला बज
ु यामलकोमलांग सीतासमारोिपतवामभागम्।
पाणौ महासायकचा चापं नमािम रामं रघव
ु ंशनाथम्॥ 3॥

नीले कमल के समान याम और कोमल िजनके अंग ह, सीता िजनके वाम-भाग म िवराजमान ह
और िजनके हाथ म ( मशः) अमोघ बाण और सुंदर धनुष है, उन रघुवंश के वामी राम को म
नम कार करता हँ॥ 3॥

दो० - ी गु चरन सरोज रज िनज मनु मक ु ु सध


ु ा र।
बरनउँ रघब
ु र िबमल जसु जो दायकु फल चा र॥

ी गु के चरण कमल क रज से अपने मन पी दपण को साफ करके म रघुनाथ के उस


िनमल यश का वणन करता हँ, जो चार फल को (धम, अथ, काम, मो को) देनेवाला है।

जब त रामु यािह घर आए। िनत नव मंगल मोद बधाए॥


भव
ु न चा रदस भूधर भारी। सक
ु ृ त मेघ बरषिहं सख
ु बारी॥

जब से राम िववाह करके घर आए, तब से (अयो या म) िन य नए मंगल हो रहे ह और आनंद के


बधावे बज रहे ह। चौदह लोक पी बड़े भारी पवत पर पु य पी मेघ सुख पी जल बरसा रहे ह।

रिध िसिध संपित नद सहु ाई। उमिग अवध अंबिु ध कहँ आई॥
मिनगन परु नर ना र सज
ु ाती। सिु च अमोल संदु र सब भाँती॥

ऋि -िसि और संपि पी सुहावनी निदयाँ उमड़-उमड़कर अयो या पी समु म आ िमल ।


नगर के ी-पु ष अ छी जाित के मिणय के समहू ह, जो सब कार से पिव , अमू य और
सुंदर ह।

किह न जाइ कछु नगर िबभूती। जनु एतिनअ िबरं िच करतत ू ी॥


सब िबिध सब परु लोग सख
ु ारी। रामचंद मख
ु चंदु िनहारी॥

नगर का ऐ य कुछ कहा नह जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ा क कारीगरी बस इतनी ही
है। सब नगर िनवासी रामचं के मुखचं को देखकर सब कार से सुखी ह।

मिु दत मातु सब सख सहेली। फिलत िबलोिक मनोरथ बेली॥


राम पु गन ु सीलु सभ
ु ाऊ। मिु दत होइ देिख सिु न राऊ॥

सब माताएँ और सखी-सहे िलयाँ अपनी मनोरथ पी बेल को फली हई देखकर आनंिदत ह। राम
के प, गुण, शील और वभाव को देख-सुनकर राजा दशरथ बहत ही आनंिदत होते ह।

दो० - सब क उर अिभलाषु अस कहिहं मनाइ महेस।ु


आप अछत जुबराज पद रामिह देउ नरे स॥ु 1॥

सबके दय म ऐसी अिभलाषा है और सब महादेव को मनाकर ( ाथना करके) कहते ह िक राजा


अपने जीते-जी राम को युवराज पद दे द॥ 1॥

एक समय सब सिहत समाजा। राजसभाँ रघरु ाजु िबराजा॥


सकल सक
ु ृ त मूरित नरनाह। राम सज
ु सु सिु न अितिह उछाह॥

एक समय रघुकुल के राजा दशरथ अपने सारे समाज सिहत राजसभा म िवराजमान थे। महाराज
सम त पु य क मिू त ह, उ ह राम का सुंदर यश सुनकर अ यंत आनंद हो रहा है।

नप
ृ सब रहिहं कृपा अिभलाष। लोकप करिहं ीित ख राख॥
वन तीिन काल जग माह । भू रभाग दसरथ सम नाह ॥

सब राजा उनक कृपा चाहते ह और लोकपालगण उनके ख को रखते हए (अनुकूल होकर)


ीित करते ह। (प ृ वी, आकाश, पाताल) तीन भुवन म और (भत
ू , भिव य, वतमान) तीन काल
म दशरथ के समान बड़भागी (और) कोई नह है।
मंगलमूल रामु सत ु जासू। जो कछु किहअ थोर सबु तासू॥
रायँ सभ
ु ायँ मक
ु ु कर ली हा। बदनु िबलोिक मक ु ु टु सम क हा॥

मंगल के मल
ू राम िजनके पु ह, उनके िलए जो कुछ कहा जाए सब थोड़ा है। राजा ने
वाभािवक ही हाथ म दपण ले िलया और उसम अपना मँुह देखकर मुकुट को सीधा िकया।

वन समीप भए िसत केसा। मनहँ जरठपनु अस उपदेसा॥


नप
ृ जुबराजु राम कहँ देह। जीवन जनम लाह िकन लेह॥

(देखा िक) कान के पास बाल सफेद हो गए ह, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है िक हे
राजन! राम को युवराज पद देकर अपने जीवन और ज म का लाभ य नह लेते।

दो० - यह िबचा उर आिन नप ृ सिु दनु सअ


ु वस पाइ।
े पल
म ु िक तन मिु दत मन गरु िह सन
ु ायउ जाइ॥ 2॥

दय म यह िवचार लाकर (युवराज पद देने का िन य कर) राजा दशरथ ने शुभ िदन और सुंदर
समय पाकर, ेम से पुलिकत शरीर हो आनंदम न मन से उसे गु विश को जा सुनाया॥ 2॥

कहइ भआ
ु लु सिु नअ मिु ननायक। भए राम सब िबिध सब लायक॥
सेवक सिचव सकल परु बासी। जे हमार अ र िम उदासी॥

राजा ने कहा - हे मुिनराज! (कृपया यह िनवेदन) सुिनए। राम अब सब कार से सब यो य हो


गए ह। सेवक, मं ी, सब नगर िनवासी और जो हमारे श ु, िम या उदासीन ह -

सबिह रामु ि य जेिह िबिध मोही। भु असीस जनु तनु ध र सोही॥


िब सिहत प रवार गोसाई ं। करिहं छोह सब रौ रिह नाई ं॥

सभी को राम वैसे ही ि य ह, जैसे वे मुझको ह। (उनके प म) आपका आशीवाद ही मानो शरीर
धारण करके शोिभत हो रहा है। हे वामी! सारे ा ण, प रवार सिहत आपके ही समान उन पर
नेह करते ह।

जे गरु चरन रे नु िसर धरह । ते जनु सकल िबभव बस करह ॥


मोिह सम यह अनभ ु यउ न दूज। सबु पायउँ रज पाविन पूज॥

जो लोग गु के चरण क रज को म तक पर धारण करते ह, वे मानो सम त ऐ य को अपने


वश म कर लेते ह। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे िकसी ने नह िकया। आपक पिव चरण-रज
क पजू ा करके मने सब कुछ पा िलया।

अब अिभलाषु एकु मन मोर। पूिजिह नाथ अनु ह तोर॥


मिु न स न लिख सहज सनेह। कहेउ नरे स रजायसु देह॥

अब मेरे मन म एक ही अिभलाषा है। हे नाथ! वह भी आप ही के अनु ह से परू ी होगी। राजा का


सहज ेम देखकर मुिन ने स न होकर कहा - नरे श! आ ा दीिजए। (किहए, या अिभलाषा
है?)

दो० - राजन राउर नामु जसु सब अिभमत दातार।


फल अनग ु ामी मिहप मिन मन अिभलाषु तु हार॥ 3॥

ू मनचाही व तुओ ं को देनेवाला है। हे राजाओं के


हे राजन! आपका नाम और यश ही संपण
मुकुटमिण! आपके मन क अिभलाषा फल का अनुगमन करती है (अथात आपके इ छा करने के
पहले ही फल उ प न हो जाता है)।

सब िबिध गु स न िजयँ जानी। बोलेउ राउ रहँिस मदृ ु बानी॥


नाथ रामु क रअिहं जुबराजू। किहअ कृपा क र क रअ समाजू॥

अपने जी म गु को सब कार से स न जानकर, हिषत होकर राजा कोमल वाणी से बोले - हे


नाथ! राम को युवराज िति त क िजए। कृपा करके किहए (आ ा दीिजए) तो तैयारी क जाए।

मोिह अछत यह होइ उछाह। लहिहं लोग सब लोचन लाह॥


भु साद िसव सबइ िनबाह । यह लालसा एक मन माह ॥

मेरे जीते जी यह आनंद उ सव हो जाए, (िजससे) सब लोग अपने ने का लाभ ा कर। भु


(आप) के साद से िशव ने सब कुछ िनबाह िदया (सब इ छाएँ पण
ू कर द ), केवल यही एक
लालसा मन म रह गई है।

पिु न न सोच तनु रहउ िक जाऊ। जेिहं न होइ पाछ पिछताऊ॥


सिु न मिु न दसरथ बचन सहु ाए। मंगल मोद मूल मन भाए॥

(इस लालसा के पणू हो जाने पर) िफर सोच नह , शरीर रहे या चला जाए, िजससे मुझे पीछे
पछतावा न हो। दशरथ के मंगल और आनंद के मल ू सुंदर वचन सुनकर मुिन मन म बहत स न
हए।

सन
ु ु नप
ृ जासु िबमख
ु पिछताह । जासु भजन िबनु जरिन न जाह ॥
भयउ तु हार तनय सोइ वामी। रामु पन े अनग
ु ीत म ु ामी॥

(विश ने कहा -) हे राजन! सुिनए, िजनसे िवमुख होकर लोग पछताते ह और िजनके भजन
िबना जी क जलन नह जाती, वही वामी (सवलोक महे र) राम आपके पु हए ह, जो पिव
ेम के अनुगामी ह। (राम पिव ेम के पीछे -पीछे चलनेवाले ह, इसी से तो ेमवश आपके पु हए
ह।)

दो० - बेिग िबलंबु न क रअ नप ृ सािजअ सबइु समाजु।


सिु दन समु ंगलु तबिहं जब रामु होिहं जुबराज॥
ु 4॥

हे राजन! अब देर न क िजए; शी सब सामान सजाइए। शुभ िदन और सुंदर मंगल तभी है, जब
राम युवराज हो जाएँ (अथात उनके अिभषेक के िलए सभी िदन शुभ और मंगलमय ह)॥ 4॥

मिु दत महीपित मंिदर आए। सेवक सिचव सम ु ं ु बोलाए॥


किह जयजीव सीस ित ह नाए। भूप सम ु ंगल बचन सन ु ाए॥

राजा आनंिदत होकर महल म आए और उ ह ने सेवक को तथा मं ी सुमं को बुलवाया। उन


लोग ने 'जयजीव' कहकर िसर नवाए। तब राजा ने संुदर मंगलमय वचन (राम को युवराज-पद
देने का ताव) सुनाए।

ज पाँचिह मत लागै नीका। करह हरिष िहयँ रामिह टीका॥

(और कहा -) यिद पंच को (आप सबको) यह मत अ छा लगे, तो दय म हिषत होकर आप लोग
राम का राजितलक क िजए।

मं ी मिु दत सन
ु त ि य बानी। अिभमत िबरवँ परे उ जनु पानी॥
िबनती सिचव करिहं कर जोरी। िजअह जगतपित ब रस करोरी॥

इस ि य वाणी को सुनते ही मं ी ऐसे आनंिदत हए मानो उनके मनोरथ पी पौधे पर पानी पड़


गया हो। मं ी हाथ जोड़कर िवनती करते ह िक हे जग पित! आप करोड़ वष िजएँ ।

जग मंगल भल काजु िबचारा। बेिगअ नाथ न लाइअ बारा॥


नप
ृ िह मोदु सिु न सिचव सभ
ु ाषा। बढ़त ब ड़ जनु लही सस
ु ाखा॥

आपने जगतभर का मंगल करनेवाला भला काम सोचा है। हे नाथ! शी ता क िजए, देर न
लगाइए। मंि य क सुंदर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनंद हआ मानो बढ़ती हई बेल सुंदर
डाली का सहारा पा गई हो।

दो० - कहेउ भूप मिु नराज कर जोइ जोइ आयसु होइ।


राम राज अिभषेक िहत बेिग करह सोइ सोइ॥ 5॥

राजा ने कहा राम के रा यािभषेक के िलए मुिनराज विश क जो-जो आ ा हो, आप लोग वही
सब तुरंत कर॥ 5॥
हरिष मन
ु ीस कहेउ मदृ ु बानी। आनह सकल सत
ु ीरथ पानी॥
औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गिन मंगल नाना॥

ू े तीथ का जल ले आओ। िफर


मुिनराज ने हिषत होकर कोमल वाणी से कहा िक संपण
उ ह ने औषिध, मलू , फूल, फल और प आिद अनेक मांगिलक व तुओ ं के नाम िगनकर बताए।

चामर चरम बसन बह भाँती। रोम पाट पट अगिनत जाती॥


मिनगन मंगल ब तु अनेका। जो जग जोगु भूप अिभषेका॥

ृ चम, बहत कार के व , असं य जाितय के ऊनी और रे शमी कपड़े , (नाना कार
चँवर, मग
क ) मिणयाँ (र न) तथा और भी बहत-सी मंगल व तुएँ, जो जगत म रा यािभषेक के यो य होती
ह (सबको मँगाने क उ ह ने आ ा दी)।

बेद िबिदत किह सकल िबधाना। कहेउ रचह परु िबिबध िबताना॥
सफल रसाल पूगफल केरा। रोपह बीिथ ह परु चहँ फेरा॥

मुिन ने वेद म कहा हआ सब िवधान बताकर कहा - नगर म बहत-से मंडप (चँदोवे) सजाओ।
फल समेत आम, सुपारी और केले के व ृ नगर क गिलय म चार ओर रोप दो।

रचह मंजु मिन चौक चा । कहह बनावन बेिग बजा ॥


पूजह गनपित गरु कुलदेवा। सब िबिध करह भूिमसरु सेवा॥

संुदर मिणय के मनोहर चौक पुरवाओ और बाजार को तुरंत सजाने के िलए कह दो। गणेश, गु
और कुलदेवता क पज ू ा करो और भदू ेव ा ण क सब कार से सेवा करो।

दो० - वज पताक तोरन कलस सजह तरु ग रथ नाग।


िसर ध र मिु नबर बचन सबु िनज िनज काजिहं लाग॥ 6॥

वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े , रथ और हाथी सबको सजाओ। मुिन े विश के वचन
को िशरोधाय करके सब लोग अपने-अपने काम म लग गए॥ 6॥

जो मन
ु ीस जेिह आयसु दी हा। सो तेिहं काजु थम जनु क हा॥
िब साधु सरु पूजत राजा। करत राम िहत मंगल काजा॥

मुनी र ने िजसको िजस काम के िलए आ ा दी, उसने वह काम (इतनी शी ता से कर डाला
ू रहे ह और राम के
िक) मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ा ण, साधु और देवताओं को पज
िलए सब मंगल काय कर रहे ह।

सन
ु त राम अिभषेक सहु ावा। बाज गहागह अवध बधावा॥
राम सीय तन सगन
ु जनाए। फरकिहं मंगल अंग सहु ाए॥

राम के रा यािभषेक क सुहावनी खबर सुनते ही अवधभर म बड़ी धम ू से बधावे बजने लगे। राम
और सीता के शरीर म भी शुभ शकुन सिू चत हए। उनके सुंदर मंगल अंग फड़कने लगे।

पल
ु िक स मे परसपर कहह । भरत आगमनु सूचक अहह ॥
भए बहत िदन अित अवसेरी। सगन
ु तीित भट ि य केरी॥

पुलिकत होकर वे दोन ेम सिहत एक-दूसरे से कहते ह िक ये सब शकुन भरत के आने क


सचू ना देनेवाले ह। (उनको मामा के घर गए) बहत िदन हो गए; बहत ही अवसेर आ रही है (बार-
बार उनसे िमलने क मन म आती है) शकुन से ि य (भरत) के िमलने का िव ास होता है।

भरत स रस ि य को जग माह । इहइ सगन ु फलु दूसर नाह ॥


रामिह बंधु सोच िदन राती। अंडि ह कमठ दय जेिह भाँती॥

और भरत के समान जगत म (हम) कौन यारा है! शकुन का बस, यही फल है, दूसरा नह । राम
को (अपने) भाई भरत का िदन-रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का दय अंड म रहता है।

दो० - एिह अवसर मंगलु परम सिु न रहँसउे रिनवास।ु


सोभत लिख िबधु बढ़त जनु बा रिध बीिच िबलास॥ु 7॥

इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रिनवास हिषत हो उठा। जैसे चं मा को बढ़ते
देखकर समु म लहर का िवलास (आनंद) सुशोिभत होता है॥ 7॥

थम जाइ िज ह बचन सन ु ाए। भूषन बसन भू र ित ह पाए॥


े पल
म ु िक तन मन अनरु ाग । मंगल कलस सजन सब लाग ॥

सबसे पहले (रिनवास म) जाकर िज ह ने ये वचन (समाचार) सुनाए, उ ह ने बहत-से आभषू ण


और व पाए। रािनय का शरीर ेम से पुलिकत हो उठा और मन ेम म म न हो गया। वे सब
मंगल कलश सजाने लग ।

चौक चा सिु म ाँ पूरी। मिनमय िबिबध भाँित अित री॥


आनँद मगन राम महतारी। िदए दान बह िब हँकारी॥

सुिम ा ने मिणय (र न ) के बहत कार के अ यंत सुंदर और मनोहर चौक परू े । आनंद म म न
हई राम क माता कौस या ने ा ण को बुलाकर बहत दान िदए।

पूज ामदेिब सरु नागा। कहेउ बहो र देन बिलभागा॥


जेिह िबिध होइ राम क यानू। देह दया क र सो बरदानू॥
उ ह ने ामदेिवय , देवताओं और नाग क पज ू ा क और िफर बिल भट देने को कहा (अथात
काय िस होने पर िफर पज ू ा करने क मनौती मानी); और ाथना क िक िजस कार से राम
का क याण हो, दया करके वही वरदान दीिजए।

गाविहं मंगल कोिकलबयन । िबधब


ु दन मग
ृ सावकनयन ॥

कोयल क -सी मीठी वाणीवाली, चं मा के समान मुखवाली और िहरन के ब चे के-से ने वाली


ि याँ मंगलगान करने लग ।

दो० - राम राज अिभषेकु सिु न िहयँ हरषे नर ना र।


लगे समु ंगल सजन सब िबिध अनक ु ू ल िबचा र॥ 8॥

राम का रा यािभषेक सुनकर सभी ी-पु ष दय म हिषत हो उठे और िवधाता को अपने


अनुकूल समझकर सब सुंदर मंगल साज सजाने लगे॥ 8॥

तब नरनाहँ बिस बोलाए। रामधाम िसख देन पठाए॥


गरु आगमनु सनु त रघन
ु ाथा। ार आइ पद नायउ माथा॥

तब राजा ने विश को बुलाया और िश ा (समयोिचत उपदेश) देने के िलए राम के महल म


भेजा। गु का आगमन सुनते ही रघुनाथ ने दरवाजे पर आकर उनके चरण म म तक नवाया।

सादर अरघ देइ घर आने। सोरह भाँित पूिज सनमाने॥


गहे चरन िसय सिहत बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी॥

ू ा करके उनका स मान िकया।


आदरपवू क अ य देकर उ ह घर म लाए और षोडशोपचार से पज
िफर सीता सिहत उनके चरण पश िकए और कमल के समान दोन हाथ को जोड़कर राम बोले
-

सेवक सदन वािम आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू॥


तदिप उिचत जनु बोिल स ीती। पठइअ काज नाथ अिस नीती॥

य िप सेवक के घर वामी का पधारना मंगल का मल ू और अमंगल का नाश करनेवाला होता


है, तथािप हे नाथ! उिचत तो यही था िक ेमपवू क दास को ही काय के िलए बुला भेजते; ऐसी ही
नीित है।

भत
ु ा तिज भु क ह सनेह। भयउ पन ु ीत आजु यह गेह॥
आयसु होइ सो कर गोसाई ं। सेवकु लइह वािम सेवकाई ं॥

परं तु भु (आप) ने भुता छोड़कर ( वयं यहाँ पधारकर) जो नेह िकया, इससे आज यह घर
पिव हो गया। हे गोसाई ं! (अब) जो आ ा हो, म वही क ँ । वामी क सेवा म ही सेवक का लाभ
है।

दो० - सिु न सनेह साने बचन मिु न रघब


ु रिह संस।
राम कस न तु ह कहह अस हंस बंस अवतंस॥ 9॥

(राम के) ेम म सने हए वचन को सुनकर मुिन विश ने रघुनाथ क शंसा करते हए कहा
िक हे राम! भला, आप ऐसा य न कह। आप सय ू वंश के भषू ण जो ह॥ 9॥

बरिन राम गनु सीलु सभ े पल


ु ाऊ। बोले म ु िक मिु नराऊ॥
भूप सजेउ अिभषेक समाजू। चाहत देन तु हिह जुबराजू॥

राम के गुण, शील और वभाव का बखान कर, मुिनराज ेम से पुलिकत होकर बोले - (हे राम!)
राजा (दशरथ) ने रा यािभषेक क तैयारी क है। वे आपको युवराज-पद देना चाहते ह।

राम करह सब संजम आजू। ज िबिध कुसल िनबाहै काजू॥


गु िसख देइ राय पिहं गयऊ। राम दयँ अस िबसमउ भयऊ॥

(इसिलए) हे राम! आज आप (उपवास, हवन आिद िविधपवू क) सब संयम क िजए, िजससे िवधाता
कुशलपवू क इस काम को िनबाह द (सफल कर द)। गु िश ा देकर राजा दशरथ के पास चले
गए। राम के दय म (यह सुनकर) इस बात का खेद हआ िक -

जनमे एक संग सब भाई। भोजन सयन केिल ल रकाई॥


करनबेध उपबीत िबआहा। संग संग सब भए उछाहा॥

हम सब भाई एक ही साथ ज मे; खाना, सोना, लड़कपन के खेल-कूद, कनछे दन, य ोपवीत
और िववाह आिद उ सव सब साथ-साथ ही हए।

िबमल बंस यह अनिु चत एकू। बंधु िबहाइ बड़ेिह अिभषेकू॥


े पिछतािन सहु ाई। हरउ भगत मन कै कुिटलाई॥
भु स म

पर इस िनमल वंश म यही एक अनुिचत बात हो रही है िक और सब भाइय को छोड़कर


रा यािभषेक एक बड़े का ही (मेरा ही) होता है। (तुलसीदास कहते ह िक) भु राम का यह सुंदर
ेमपण
ू पछतावा भ के मन क कुिटलता को हरण करे ।

दो० - तेिह अवसर आए लखन मगन म े आनंद।


ु ु ल कैरव चंद॥ 10॥
सनमाने ि य बचन किह रघक

उसी समय ेम और आनंद म म न ल मण आए। रघुकुल पी कुमुद के िखलानेवाले चं मा राम


ने ि य वचन कहकर उनका स मान िकया॥ 10॥

बाजिहं बाजने िबिबध िबधाना। परु मोदु निहं जाइ बखाना॥


भरत आगमनु सकल मनाविहं। आवहँ बेिग नयन फलु पाविहं॥

बहत कार के बाजे बज रहे ह। नगर के अितशय आनंद का वणन नह हो सकता। सब लोग
भरत का आगमन मना रहे ह और कह रहे ह िक वे भी शी आएँ और (रा यािभषेक का उ सव
देखकर) ने का फल ा कर।

हाट बाट घर गल अथाई ं। कहिहं परसपर लोग लोगाई ं॥


कािल लगन भिल केितक बारा। पूिजिह िबिध अिभलाषु हमारा॥

बाजार, रा ते, घर, गली और चबत


ू र पर (जहाँ-तहाँ) पु ष और ी आपस म यही कहते ह िक
कल वह शुभ ल न (मुहत) िकतने समय है जब िवधाता हमारी अिभलाषा परू ी करगे।

कनक िसंघासन सीय समेता। बैठिहं रामु होइ िचत चेता॥


सकल कहिहं कब होइिह काली। िबघन मनाविहं देव कुचाली॥

जब सीता सिहत राम सुवण के िसंहासन पर िवराजगे और हमारा मनचीता होगा (मनःकामना
परू ी होगी)। इधर तो सब यह कह रहे ह िक कल कब होगा, उधर कुच देवता िव न मना रहे ह।

ित हिह सोहाइ न अवध बधावा। चोरिह चंिदिन राित न भावा॥


सारद बोिल िबनय सरु करह । बारिहं बार पाय लै परह ॥

उ ह (देवताओं को) अवध के बधावे नह सुहाते, जैसे चोर को चाँदनी रात नह भाती। सर वती
को बुलाकर देवता िवनय कर रहे ह और बार-बार उनके पैर को पकड़कर उन पर िगरते ह।

दो० - िबपित हमा र िबलोिक बिड़ मातु क रअ सोइ आजु।


रामु जािहं बन राजु तिज होइ सकल सरु काज॥
ु 11॥

(वे कहते ह -) हे माता! हमारी बड़ी िवपि को देखकर आज वही क िजए िजससे राम रा य
यागकर वन को चले जाएँ और देवताओं का सब काय िस हो॥ 11॥

सिु न सरु िबनय ठािढ़ पिछताती। भइउँ सरोज िबिपन िहमराती॥


देिख देव पिु न कहिहं िनहोरी। मातु तोिह निहं थो रउ खोरी॥

देवताओं क िवनती सुनकर सर वती खड़ी-खड़ी पछता रही ह िक (हाय!) म कमलवन के िलए
हे मंत ऋतु क रात हई। उ ह इस कार पछताते देखकर देवता िवनय करके कहने लगे - हे
माता! इसम आपको जरा भी दोष न लगेगा।
िबसमय हरष रिहत रघरु ाऊ। तु ह जानह सब राम भाऊ॥
जीव करम बस सखु दखु भागी। जाइअ अवध देव िहत लागी॥

रघुनाथ िवषाद और हष से रिहत ह। आप तो राम के सब भाव को जानती ही ह। जीव अपने


कमवश ही सुख-दुःख का भागी होता है। अतएव देवताओं के िहत के िलए आप अयो या जाइए।

बार बार गिह चरन सँकोची। चली िबचा र िबबध


ु मित पोची॥
ऊँच िनवासु नीिच करतत
ू ी। देिख न सकिहं पराइ िबभूती॥

बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने सर वती को संकोच म डाल िदया। तब वह यह िवचारकर


चल िक देवताओं क बुि ओछी है। इनका िनवास तो ऊँचा है, पर इनक करनी नीची है। ये
दूसरे का ऐ य नह देख सकते।

आिगल काजु िबचा र बहोरी। क रहिहं चाह कुसल किब मोरी॥


हरिष दयँ दसरथ परु आई। जनु ह दसा दस ु ह दख
ु दाई॥

परं तु आगे के काम का िवचार करके (राम के वन जाने से रा स का वध होगा, िजससे सारा
जगत सुखी हो जाएगा) चतुर किव (राम के वनवास के च र का वणन करने के िलए) मेरी
चाह (कामना) करगे। ऐसा िवचार कर सर वती दय म हिषत होकर दशरथ क पुरी अयो या म
आई ं, मानो दुःसह दुःख देनेवाली कोई हदशा आई हो।

दो० - नामु मंथरा मंदमित चेरी कैकइ के र।


अजस पेटारी तािह क र गई िगरा मित फे र॥ 12॥

मंथरा नाम क कैकेयी क एक मंदबुि दासी थी, उसे अपयश क िपटारी बनाकर सर वती
उसक बुि को फेरकर चली गई ं॥ 12॥

दीख मंथरा नग बनावा। मंजुल मंगल बाज बधावा॥


पूछेिस लोग ह काह उछाह। राम ितलकु सिु न भा उर दाह॥

मंथरा ने देखा िक नगर सजाया हआ है। सुंदर मंगलमय बधावे बज रहे ह। उसने लोग से पछ
ू ा िक
कैसा उ सव है? (उनसे) राम के राजितलक क बात सुनते ही उसका दय जल उठा।

करइ िबचा कुबिु कुजाती। होइ अकाजु कविन िबिध राती॥


देिख लािग मधु कुिटल िकराती। िजिम गवँ तकइ लेउँ केिह भाँती॥

वह दुबुि , नीच जाितवाली दासी िवचार करने लगी िक िकस कार से यह काम रात-ही-रात म
िबगड़ जाए, जैसे कोई कुिटल भीलनी शहद का छ ा लगा देखकर घात लगाती है िक इसको
िकस तरह से उखाड़ लँ।ू
भरत मातु पिहं गइ िबलखानी। का अनमिन हिस कह हँिस रानी॥
ऊत देइ न लेइ उसासू। ना र च रत क र ढारइ आँसू॥

वह उदास होकर भरत क माता कैकेयी के पास गई। रानी कैकेयी ने हँसकर कहा तू उदास य
है? मंथरा कुछ उ र नह देती, केवल लंबी साँस ले रही है और ि याच र करके आँसू ढरका रही
है।

हँिस कह रािन गालु बड़ तोर। दी ह लखन िसख अस मन मोर॥


तबहँ न बोल चे र बिड़ पािपिन। छाड़इ वास का र जनु साँिपिन॥

रानी हँसकर कहने लगी िक तेरे बड़े गाल ह (तू बहत बढ़-बढ़कर बोलनेवाली है)। मेरा मन
कहता है िक ल मण ने तुझे कुछ सीख दी है (दंड िदया है)। तब भी वह महापािपनी दासी कुछ भी
नह बोलती। ऐसी लंबी साँस छोड़ रही है, मानो काली नािगन (फुफकार छोड़ रही) हो।

दो० - सभय रािन कह कहिस िकन कुसल रामु मिहपाल।ु


लखनु भरतु रपदु मनु सिु न भा कुबरी उर साल॥ु 13॥

तब रानी ने डरकर कहा - अरी! कहती य नह ? राम, राजा, ल मण, भरत और श ु न कुशल
से तो ह? यह सुनकर कुबरी मंथरा के दय म बड़ी ही पीड़ा हई॥ 13॥

कत िसख देइ हमिह कोउ माई। गालु करब केिह कर बलु पाई॥
रामिह छािड़ कुसल केिह आजू। जेिह जनेसु देइ जुबराजू॥

(वह कहने लगी -) हे माई! हम कोई य सीख देगा और म िकसका बल पाकर गाल क ँ गी
(बढ़-बढ़कर बोलँगू ी)। राम को छोड़कर आज और िकसक कुशल है, िज ह राजा युवराज-पद दे
रहे ह।

भयउ कौिसलिह िबिध अित दािहन। देखत गरब रहत उर नािहन॥


देखह कस न जाइ सब सोभा। जो अवलोिक मोर मनु छोभा॥

आज कौस या को िवधाता बहत ही दािहने (अनुकूल) हए ह; यह देखकर उनके दय म गव


समाता नह । तुम वयं जाकर सब शोभा य नह देख लेत , िजसे देखकर मेरे मन म ोभ हआ
है।

पूतु िबदेस न सोचु तु हार। जानित हह बस नाह हमार॥


नीद बहत ि य सेज तरु ाई। लखह न भूप कपट चतरु ाई॥

तु हारा पु परदेस म है, तु ह कुछ सोच नह । जानती हो िक वामी हमारे वश म है। तु ह तो


तोशक-पलँग पर पड़े -पड़े न द लेना ही बहत यारा लगता है, राजा क कपटभरी चतुराई तुम
नह देखत ।

सिु न ि य बचन मिलन मनु जानी। झक


ु रािन अब रह अरगानी॥
पिु न अस कबहँ कहिस घरफोरी। तब ध र जीभ कढ़ावउँ तोरी॥

मंथरा के ि य वचन सुनकर िकंतु उसको मन क मैली जानकर रानी झुककर (डाँटकर) बोली -
बस, अब चुप रह घरफोड़ी कह क ! जो िफर कभी ऐसा कहा तो तेरी जीभ पकड़कर िनकलवा
लँग
ू ी।

दो० - काने खोरे कूबरे कुिटल कुचाली जािन।


ितय िबसेिष पिु नचे र किह भरतमातु मसु क
ु ािन॥ 14॥

कान , लँगड़ और कुबड़ को कुिटल और कुचाली जानना चािहए। उनम भी ी और खासकर


दासी! इतना कहकर भरत क माता कैकेयी मुसकरा द ॥ 14॥

ि यबािदिन िसख दीि हउँ तोही। सपनेहँ तो पर कोपु न मोही॥


सिु दनु सम
ु ंगल दायकु सोई। तोर कहा फुर जेिह िदन होई॥

(और िफर बोल -) हे ि य वचन कहनेवाली मंथरा! मने तुझको यह सीख दी है (िश ा के िलए
इतनी बात कही है)। मुझे तुझ पर व न म भी ोध नह है। सुंदर मंगलदायक शुभ िदन वही
होगा, िजस िदन तेरा कहना स य होगा (अथात राम का रा यितलक होगा)।

जेठ वािम सेवक लघु भाई। यह िदनकर कुल रीित सहु ाई॥
राम ितलकु ज साँचहे ँ काली। देउँ मागु मन भावत आली॥

बड़ा भाई वामी और छोटा भाई सेवक होता है। यह सयू वंश क सुहावनी रीित ही है। यिद सचमुच
कल ही राम का ितलक है, तो हे सखी! तेरे मन को अ छी लगे वही व तु माँग ले, म दँूगी।

कौस या सम सब महतारी। रामिह सहज सभ ु ायँ िपआरी॥


मो पर करिहं सनेह िबसेषी। म क र ीित परीछा देखी॥

राम को सहज वभाव से सब माताएँ कौस या के समान ही यारी ह। मुझ पर तो वे िवशेष ेम


करते ह। मने उनक ीित क परी ा करके देख ली है।

ज िबिध जनमु देइ क र छोह। होहँ राम िसय पूत पत


ु ोह॥
ान त अिधक रामु ि य मोर। ित ह क ितलक छोभु कस तोर॥

जो िवधाता कृपा करके ज म द तो (यह भी द िक) राम पु और सीता बह ह । राम मुझे ाण से


भी अिधक ि य ह। उनके ितलक से (उनके ितलक क बात सुनकर) तुझे ोभ कैसा?

दो० - भरत सपथ तोिह स य कह प रह र कपट दरु ाउ।


हरष समय िबसमउ करिस कारन मोिह सन ु ाउ॥ 15॥

तुझे भरत क सौगंध है, छल-कपट छोड़कर सच-सच कह। तू हष के समय िवषाद कर रही है,
मुझे इसका कारण सुना॥ 15॥

एकिहं बार आस सब पूजी। अब कछु कहब जीभ क र दूजी॥


फोरै जोगु कपा अभागा। भलेउ कहत दख
ु रउरे िह लागा॥

(मंथरा ने कहा -) सारी आशाएँ तो एक ही बार कहने म परू ी हो गई ं। अब तो दूसरी जीभ लगाकर
कुछ कहँगी। मेरा अभागा कपाल तो फोड़ने ही यो य है, जो अ छी बात कहने पर भी आपको
दुःख होता है।

कहिहं झूिठ फु र बात बनाई। ते ि य तु हिह क इ म माई॥


हमहँ कहिब अब ठकुरसोहाती। नािहं त मौन रहब िदनु राती॥

जो झठ
ू ी-स ची बात बनाकर कहते ह, हे माई! वे ही तु ह ि य ह और म कड़वी लगती हँ! अब म
भी ठकुरसुहाती (मँुह देखी) कहा क ँ गी। नह तो िदन-रात चुप रहँगी।

क र कु प िबिध परबस क हा। बवा सो लिु नअ लिहअ जो दी हा॥


कोउ नपृ होउ हमिह का हानी। चे र छािड़ अब होब िक रानी॥

िवधाता ने कु प बनाकर मुझे परवश कर िदया! (दूसरे को या दोष) जो बोया सो काटती हँ,
िदया सो पाती हँ। कोई भी राजा हो, हमारी या हािन है? दासी छोड़कर या अब म रानी होऊँगी!
(अथात रानी तो होने से रही)।

जारै जोगु सभ
ु ाउ हमारा। अनभल देिख न जाइ तु हारा॥
तात कछुक बात अनस ु ारी। छिमअ देिब बिड़ चूक हमारी॥

हमारा वभाव तो जलाने ही यो य है। य िक तु हारा अिहत मुझसे देखा नह जाता। इसिलए
कुछ बात चलाई थी। िकंतु हे देवी! हमारी बड़ी भल
ू हई, मा करो।

दो० - गूढ़ कपट ि य बचन सिु न तीय अधरबिु ध रािन।


सरु माया बस बै रिनिह सु द जािन पितआिन॥ 16॥

आधाररिहत (अि थर) बुि क ी और देवताओं क माया के वश म होने के कारण रह ययु


कपटभरे ि य वचन को सुनकर रानी कैकेयी ने बै रन मंथरा को अपनी सु द (अहैतुक िहत
करनेवाली) जानकर उसका िव ास कर िलया॥ 16॥

सादर पिु न पिु न पूँछित ओही। सबरी गान मग


ृ ी जनु मोही॥
तिस मित िफरी अहइ जिस भाबी। रहसी चे र घात जनु फाबी॥

बार-बार रानी उससे आदर के साथ पछ ू रही ह, मानो भीलनी के गान से िहरनी मोिहत हो गई हो।
जैसी भावी (होनहार) है, वैसी ही बुि भी िफर गई। दासी अपना दाँव लगा जानकर हिषत हई।

तु ह पूँछह म कहत डेराउँ । धरे ह मोर घरफोरी नाऊँ॥


सिज तीित बहिबिध गिढ़ छोली। अवध साढ़साती तब बोली॥

तुम पछ
ू ती हो, िकंतु म कहते डरती हँ। य िक तुमने पहले ही मेरा नाम घरफोड़ी रख िदया है।
बहत तरह से गढ़-छोलकर, खबू िव ास जमाकर, तब वह अयो या क साढ़साती (शिन क
साढ़े सात वष क दशा पी मंथरा) बोली -

ि य िसय रामु कहा तु ह रानी। रामिह तु ह ि य सो फु र बानी॥


रहा थम अब ते िदन बीते। समउ िफर रपु होिहं िपरीते॥

हे रानी! तुमने जो कहा िक मुझे सीताराम ि य ह और राम को तुम ि य हो, सो यह बात स ची है।
परं तु यह बात पहले थी, वे िदन अब बीत गए। समय िफर जाने पर िम भी श ु हो जाते ह।

भानु कमल कुल पोषिनहारा। िबनु जल जा र करइ सोइ छारा॥


ज र तु हा र चह सवित उखारी। ँ धह क र उपाउ बर बारी॥

सयू कमल के कुल का पालन करनेवाला है, पर िबना जल के वही सय


ू उनको (कमल को)
जलाकर भ म कर देता है। सौत कौस या तु हारी जड़ उखाड़ना चाहती है। अतः उपाय पी े
बाड़ (घेरा) लगाकर उसे ँ ध दो (सुरि त कर दो)।

दो० - तु हिह न सोचु सोहाग बल िनज बस जानह राउ।


मन मलीन महु मीठ नप ृ ु राउर सरल सभ
ु ाउ॥ 17॥

तुमको अपने सुहाग के (झठ ू े ) बल पर कुछ भी सोच नह है; राजा को अपने वश म जानती हो।
िकंतु राजा मन के मैले और मँुह के मीठे ह! और आपका सीधा वभाव है (आप कपट-चतुराई
जानती ही नह )॥ 17॥

चतरु गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ िनज बात सँवारी॥


पठए भरतु भूप निनअउर। राम मातु मत जानब रउर॥

राम क माता (कौस या) बड़ी चतुर और गंभीर है (उसक थाह कोई नह पाता)। उसने मौका
पाकर अपनी बात बना ली। राजा ने जो भरत को निनहाल भेज िदया, उसम आप बस राम क
माता क ही सलाह समिझए!

सेविहं सकल सवित मोिह नीक। गरिबत भरत मातु बल पी क॥


सालु तमु र कौिसलिह माई। कपट चतरु निहं होई जनाई॥

(कौस या समझती है िक) और सब सौत तो मेरी अ छी तरह सेवा करती ह, एक भरत क माँ
पित के बल पर गिवत रहती है! इसी से हे माई! कौस या को तुम बहत ही साल (खटक) रही हो।
िकंतु वह कपट करने म चतुर है; अतः उसके दय का भाव जानने म नह आता (वह उसे चतुरता
से िछपाए रखती है)।

राजिह तु ह पर मे ु िबसेषी। सवित सभ


ु ाउ सकइ निहं देखी॥
रिच पंचु भूपिह अपनाई। राम ितलक िहत लगन धराई॥

राजा का तुम पर िवशेष ेम है। कौस या सौत के वभाव से उसे देख नह सकती। इसिलए उसने
जाल रचकर राजा को अपने वश म करके, (भरत क अनुपि थित म) राम के राजितलक के िलए
ल न िन य करा िलया।

यह कुल उिचत राम कहँ टीका। सबिह सोहाइ मोिह सिु ठ नीका॥
आिगिल बात समिु झ ड मोही। देउ दैउ िफ र सो फलु ओही॥

राम को ितलक हो, यह कुल (रघुकुल) के उिचत ही है और यह बात सभी को सुहाती है; और मुझे
तो बहत ही अ छी लगती है। परं तु मुझे तो आगे क बात िवचारकर डर लगता है। दैव उलटकर
इसका फल उसी (कौस या) को दे।

दो० - रिच पिच कोिटक कुिटलपन क हेिस कपट बोध।ु


किहिस कथा सत सवित कै जेिह िबिध बाढ़ िबरोध॥ु 18॥

इस तरह करोड़ कुिटलपन क बात गढ़-छोलकर मंथरा ने कैकेयी को उलटा-सीधा समझा िदया
और सैकड़ सौत क कहािनयाँ इस कार (बना-बनाकर) कह िजस कार िवरोध बढ़े ॥ 18॥

भावी बस तीित उर आई। पूँछ रािन पिु न सपथ देवाई॥


का पूँछह तु ह अबहँ न जाना। िनज िहत अनिहत पसु पिहचाना॥

होनहार वश कैकेयी के मन म िव ास हो गया। रानी िफर सौगंध िदलाकर पछ ू ने लगी। (मंथरा


बोली -) या पछू ती हो? अरे , तुमने अब भी नह समझा? अपने भले-बुरे को (अथवा िम -श ु
को) तो पशु भी पहचान लेते ह।

भयउ पाखु िदन सजत समाजू। तु ह पाई सिु ध मोिह सन आजू॥


खाइअ पिह रअ राज तु हार। स य कह निहं दोषु हमार॥

परू ा पखवाड़ा बीत गया सामान सजते और तुमने खबर पाई है आज मुझसे! म तु हारे राज म
खाती-पहनती हँ, इसिलए सच कहने म मुझे कोई दोष नह है।

ज अस य कछु कहब बनाई। तौ िबिध देइिह हमिह सजाई॥


रामिह ितलक कािल ज भयऊ। तु ह कहँ िबपित बीजु िबिध बयऊ॥

ू कहती होऊँगी तो िवधाता मुझे दंड देगा। यिद कल राम का राजितलक


यिद म कुछ बनाकर झठ
हो गया तो (समझ रखना िक) तु हारे िलए िवधाता ने िवपि का बीज बो िदया।

रे ख खँचाइ कहउँ बलु भाषी। भािमिन भइह दूध कइ माखी॥


ज सत ु सिहत करह सेवकाई। तौ घर रहह न आन उपाई॥

म यह बात लक र ख चकर बलपवू क कहती हँ, हे भािमनी! तुम तो अब दूध क म खी हो गई!


(जैसे दूध म पड़ी हई म खी को लोग िनकालकर फक देते ह, वैसे ही तु ह भी लोग घर से
िनकाल बाहर करगे) जो पु सिहत (कौस या क ) चाकरी बजाओगी तो घर म रह सकोगी;
(अ यथा घर म रहने का) दूसरा उपाय नह ।

दो० - क ूँ िबनतिह दी ह दख
ु ु तु हिह कौिसलाँ देब।
भरतु बंिदगहृ सेइहिहं लखनु राम के नेब॥ 19॥

क ू ने िवनता को दुःख िदया था, तु ह कौस या देगी। भरत कारागार का सेवन करगे (जेल क
हवा खाएँ गे) और ल मण राम के नायब (सहकारी) ह गे॥ 19॥

कैकयसतु ा सन
ु त कटु बानी। किह न सकइ कछु सहिम सखु ानी॥
तन पसेउ कदली िजिम काँपी। कुबर दसन जीभ तब चाँपी॥

कैकेयी मंथरा क कड़वी वाणी सुनते ही डरकर सख


ू गई, कुछ बोल नह सकती। शरीर म
पसीना हो आया और वह केले क तरह काँपने लगी। तब कुबरी (मंथरा) ने अपनी जीभ दाँत -तले
दबाई (उसे भय हआ िक कह भिव य का अ यंत डरावना िच सुनकर कैकेयी के दय क गित
न क जाए, िजससे उलटा सारा काम ही िबगड़ जाए)।

किह किह कोिटक कपट कहानी। धीरजु धरह बोिधिस रानी॥


िफरा करमु ि य लािग कुचाली। बिकिह सराहइ मािन मराली॥

िफर कपट क करोड़ कहािनयाँ कह-कहकर उसने रानी को खबू समझाया िक धीरज रखो!
कैकेयी का भा य पलट गया, उसे कुचाल यारी लगी। वह बगुली को हंिसनी मानकर (वै रन को
िहत मानकर) उसक सराहना करने लगी।
सनु ु मंथरा बात फु र तोरी। दिहिन आँिख िनत फरकइ मोरी॥
िदन ित देखउँ राित कुसपने। कहउँ न तोिह मोह बस अपने॥

कैकेयी ने कहा - मंथरा! सुन, तेरी बात स य है। मेरी दािहनी आँख िन य फड़का करती है। म
ितिदन रात को बुरे व न देखती हँ; िकंतु अपने अ ानवश तुझसे कहती नह ।

काह कर सिख सूध सभ


ु ाऊ। दािहन बाम न जानउँ काऊ॥

सखी! या क ँ , मेरा तो सीधा वभाव है। म दायाँ-बायाँ कुछ भी नह जानती।

दो० - अपन चलत न आजु लिग अनभल काहक क ह।


केिहं अघ एकिह बार मोिह दैअँ दस
ु ह दख
ु ु दी ह॥ 20॥

अपनी चलते (जहाँ तक मेरा वश चला) मने आज तक कभी िकसी का बुरा नह िकया। िफर न
जाने िकस पाप से दैव ने मुझे एक ही साथ यह दुःसह दुःख िदया॥ 20॥

नैहर जनमु भरब ब जाई। िजअत न करिब सवित सेवकाई॥


अ र बस दैउ िजआवत जाही। मरनु नीक तेिह जीवन चाही॥

म भले ही नैहर जाकर वह जीवन िबता दँूगी; पर जीते-जी सौत क चाकरी नह क ँ गी। दैव
िजसको श ु के वश म रखकर िजलाता है, उसके िलए तो जीने क अपे ा मरना ही अ छा है।

दीन बचन कह बहिबिध रानी। सिु न कुबर ितयमाया ठानी॥


अस कस कहह मािन मन ऊना। सख ु ु सोहागु तु ह कहँ िदन दूना॥

रानी ने बहत कार के दीन वचन कहे । उ ह सुनकर कुबरी ने ि याच र फै लाया। (वह बोली -)
तुम मन म लािन मानकर ऐसा य कह रही हो, तु हारा सुख-सुहाग िदन-िदन दूना होगा।

जेिहं राउर अित अनभल ताका। सोइ पाइिह यह फलु प रपाका॥


जब त कुमत सन ु ा म वािमिन। भूख न बासर न द न जािमिन॥

िजसने तु हारी बुराई चाही है, वही प रणाम म यह (बुराई प) फल पाएगी। हे वािमिन! मने जब
से यह कुमत सुना है, तबसे मुझे न तो िदन म कुछ भख ू लगती है और न रात म न द ही आती है।

पँूछेउँ गिु न ह रे ख ित ह खाँची। भरत भआ


ु ल होिहं यह साँची॥
भािमिन करह त कह उपाऊ। है तु हर सेवा बस राऊ॥

ू ा, तो उ ह ने रे खा ख चकर (गिणत करके अथवा िन यपवू क) कहा िक


मने योितिषय से पछ
भरत राजा ह गे, यह स य बात है। हे भािमिन! तुम करो, तो उपाय म बताऊँ। राजा तु हारी सेवा
के वश म ह ही।

दो० - परउँ कूप तअ ु बचन पर सकउँ पूत पित यािग।


कहिस मोर दख ु ु देिख बड़ कस न करब िहत लािग॥ 21॥

(कैकेयी ने कहा -) म तेरे कहने से कुएँ म िगर सकती हँ, पु और पित को भी छोड़ सकती हँ।
जब तू मेरा बड़ा भारी दुःख देखकर कुछ कहती है, तो भला म अपने िहत के िलए उसे य न
क ँ गी?॥ 21॥

कुबर क र कबल ु ी कैकई। कपट छुरी उर पाहन टेई॥


लखइ ना रािन िनकट दख ु ु कैस। चरइ ह रत ितन बिलपसु जैस॥

कुबरी ने कैकेयी को (सब तरह से) कबल


ू करवाकर (अथात बिल पशु बनाकर) कपट पी छुरी
को अपने (कठोर) दय पी प थर पर टेया (उसक धार को तेज िकया)। रानी कैकेयी अपने
िनकट के (शी आनेवाले) दुःख को कैसे नह देखती, जैसे बिल का पशु हरी-हरी घास चरता है।
(पर यह नह जानता िक मौत िसर पर नाच रही है)।

सन
ु त बात मदृ ु अंत कठोरी। देित मनहँ मधु माहर घोरी॥
कहइ चे र सिु ध अहइ िक नाह । वािमिन किहह कथा मोिह पाह ॥

मंथरा क बात सुनने म तो कोमल ह, पर प रणाम म कठोर (भयानक) ह। मानो वह शहद म


जहर घोलकर िपला रही हो। दासी कहती है - हे वािमिन! तुमने मुझको एक कथा कही थी,
उसक याद है िक नह ?

दइु बरदान भूप सन थाती। मागह आजु जुड़ावह छाती॥


सत ु िह राजु रामिह बनबासू। देह लेह सब सवित हलासू॥

तु हारे दो वरदान राजा के पास धरोहर ह। आज उ ह राजा से माँगकर अपनी छाती ठं डी करो। पु
को रा य और राम को वनवास दो और सौत का सारा आनंद तुम ले लो।

भूपित राम सपथ जब करई। तब मागेह जेिहं बचनु न टरई॥


होइ अकाजु आजु िनिस बीत। बचनु मोर ि य मानेह जी त॥

जब राजा राम क सौगंध खा ल, तब वर माँगना, िजससे वचन न टलने पावे। आज क रात बीत
गई, तो काम िबगड़ जाएगा। मेरी बात को दय से ि य (या ाण से भी यारी) समझना।

दो० - बड़ कुघातु क र पातिकिन कहेिस कोपगहृ ँ जाह।


काजु सँवारे ह सजग सबु सहसा जिन पितआह॥ 22॥॥
पािपनी मंथरा ने बड़ी बुरी घात लगाकर कहा – कोप भवन म जाओ। सब काम बड़ी सावधानी से
बनाना, राजा पर सहसा िव ास न कर लेना (उनक बात म न आ जाना)॥ 22॥

कुब रिह रािन ानि य जानी। बार बार बिु बखानी॥


तोिह सम िहत न मोर संसारा। बहे जात कई भइिस अधारा॥

कुबरी को रानी ने ाण के समान ि य समझकर बार-बार उसक बड़ी बुि का बखान िकया
और बोली - संसार म मेरा तेरे समान िहतकारी और कोई नह है। तू मुझ बही जाती हई के िलए
सहारा हई है।

ज िबिध परु ब मनोरथु काली। कर तोिह चख पूत र आली॥


बहिबिध चे रिह आद देई। कोपभवन गवनी कैकई॥

यिद िवधाता कल मेरा मनोरथ परू ा कर द तो हे सखी! म तुझे आँख क पुतली बना लँ।ू इस
कार दासी को बहत तरह से आदर देकर कैकेयी कोपभवन म चली गई।

िबपित बीजु बरषा रतु चेरी। भइु ँ भइ कुमित कैकई केरी॥


पाइ कपट जलु अंकुर जामा। बर दोउ दल दख ु फल प रनामा॥

िवपि (कलह) बीज है, दासी वषा-ऋतु है, कैकेयी क कुबुि (उस बीज के बोने के िलए) जमीन
हो गई। उसम कपट पी जल पाकर अंकुर फूट िनकला। दोन वरदान उस अंकुर के दो प े ह और
अंत म इसके दुःख पी फल होगा।

कोप समाजु सािज सबु सोई। राजु करत िनज कुमित िबगोई॥
राउर नगर कोलाहलु होई। यह कुचािल कछु जान न कोई॥

कैकेयी कोप का सब साज सजकर (कोप भवन म) जा सोई। रा य करती हई वह अपनी दु


बुि से न हो गई। राजमहल और नगर म धम
ू -धाम मच रही है। इस कुचाल को कोई कुछ नह
जानता।

दो० - मिु दत परु नर ना र सब सजिहं सम


ु ंगलचार।
एक िबसिहं एक िनगमिहं भीर भूप दरबार॥ 23।

बड़े ही आनंिदत होकर नगर के सब ी-पु ष शुभ मंगलाचार के साज सज रहे ह। कोई भीतर
जाता है, कोई बाहर िनकलता है; राज ार म बड़ी भीड़ हो रही है॥ 23॥

बाल सखा सिु न िहयँ हरषाह । िमिल दस पाँच राम पिहं जाह ॥
भु आदरिहं मे ु पिहचानी। पूँछिहं कुसल खेम मदृ ु बानी॥
राम के बाल सखा राजितलक का समाचार सुनकर दय म हिषत होते ह। वे दस-पाँच िमलकर
राम के पास जाते ह। ेम पहचानकर भु राम उनका आदर करते ह और कोमल वाणी से कुशल
ेम पछ
ू ते ह।

िफरिहं भवन ि य आयसु पाई। करत परसपर राम बड़ाई॥


को रघब ु ीर स रस संसारा। सीलु सनेह िनबाहिनहारा॥

अपने ि य सखा राम क आ ा पाकर वे आपस म एक-दूसरे से राम क बड़ाई करते हए घर


लौटते ह और कहते ह - संसार म रघुनाथ के समान शील और नेह को िनबाहनेवाला कौन है?

जेिहं जेिहं जोिन करम बस मह । तहँ तहँ ईसु देउ यह हमह ॥


सेवक हम वामी िसयनाह। होउ नात यह ओर िनबाह॥

भगवान हम यही द िक हम अपने कमवश मते हए िजस-िजस योिन म ज म, वहाँ-वहाँ (उस-


उस योिन म) हम तो सेवक ह और सीतापित राम हमारे वामी ह और यह नाता अंत तक िनभ
जाए॥

अस अिभलाषु नगर सब काह। कैकयसत ु ा दयँ अित दाह॥


को न कुसंगित पाइ नसाई। रहइ न नीच मत चतरु ाई॥

नगर म सबक ऐसी ही अिभलाषा है, परं तु कैकेयी के दय म बड़ी जलन हो रही है। कुसंगित
पाकर कौन न नह होता। नीच के मत के अनुसार चलने से चतुराई नह रह जाती।

ृ ु गयउ कैकई गेहँ।


दो० - साँझ समय सानंद नप
गवनु िनठुरता िनकट िकय जनु ध र देह सनेहँ॥ 24॥

सं या के समय राजा दशरथ आनंद के साथ कैकेयी के महल म गए। मानो सा ात नेह ही
शरीर धारण कर िन रता के पास गया हो!॥ 24॥

कोपभवन सिु न सकुचेउ राऊ। भय बस अगहड़ परइ न पाऊ॥


सरु पित बसइ बाहँबल जाक। नरपित सकल रहिहं ख ताक॥

कोप भवन का नाम सुनकर राजा सहम गए। डर के मारे उनका पाँव आगे को नह पड़ता। वयं
देवराज इं िजनक भुजाओं के बल पर (रा स से िनभय होकर) बसता है और संपण
ू राजा लोग
िजनका ख देखते रहते ह।

सो सिु न ितय रस गयउ सख


ु ाई। देखह काम ताप बड़ाई॥
सूल कुिलस अिस अँगविनहारे । ते रितनाथ सम
ु न सर मारे ॥
वही राजा दशरथ ी का ोध सुनकर सख ू गए। कामदेव का ताप और मिहमा तो देिखए। जो
ि शलू , व और तलवार आिद क चोट अपने अंग पर सहनेवाले ह, वे रितनाथ कामदेव के
पु पबाण से मारे गए।

सभय नरे सु ि या पिहं गयऊ। देिख दसा दख ु ु दा न भयऊ॥


भूिम सयन पटु मोट परु ाना। िदए डा र तन भूषन नाना॥

राजा डरते-डरते अपनी यारी कैकेयी के पास गए। उसक दशा देखकर उ ह बड़ा ही दुःख हआ।
कैकेयी जमीन पर पड़ी है। पुराना मोटा कपड़ा पहने हए है। शरीर के नाना आभषू ण को उतारकर
फक िदया है।

कुमितिह किस कुबेषता फाबी। अनअिहवातु सूच जनु भाबी॥


जाइ िनकट नपृ ु कह मदृ ु बानी। ानि या केिह हेतु रसानी॥

उस दुबुि कैकेयी को यह कुवेषता (बुरा वेष) कैसी फब रही है, मानो भावी िवधवापन क सच
ू ना
दे रही हो। राजा उसके पास जाकर कोमल वाणी से बोले - हे ाणि ये! िकसिलए रसाई ( ठी)
हो?

छं ० - केिह हेतु रािन रसािन परसत पािन पितिह नेवारई।


मानहँ सरोष भअ ु ंग भािमिन िबषम भाँित िनहारई॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाह देखई।
तलु सी नप ृ ित भवत यता बस काम कौतक ु लेखई॥

'हे रानी! िकसिलए ठी हो?' यह कहकर राजा उसे हाथ से पश करते ह तो वह उनके हाथ को
(झटककर) हटा देती है और ऐसे देखती है मानो ोध म भरी हई नािगन ू र ि से देख रही
हो। दोन (वरदान क ) वासनाएँ उस नािगन क दो जीभ ह और दोन वरदान दाँत ह; वह काटने
के िलए मम थान देख रही है। तुलसीदास कहते ह िक राजा दशरथ होनहार के वश म होकर इसे
(इस कार हाथ झटकने और नािगन क भाँित देखने को) कामदेव क ड़ा ही समझ रहे ह।

सो० - बार बार कह राउ सम


ु िु ख सल
ु ोचिन िपकबचिन।
कारन मोिह सन ु ाउ गजगािमिन िनज कोप कर॥ 25॥

राजा बारबार कह रहे ह - हे सुमुखी! हे सुलोचनी! हे कोिकलबयनी! हे गजगािमनी! मुझे अपने


ोध का कारण तो सुना॥ 25॥

अनिहत तोर ि या केइँ क हा। केिह दइु िसर केिह जमु चह ली हा॥
कह केिह रं किह कर नरे सू। कह केिह नप
ृ िह िनकास देसू॥
हे ि ये! िकसने तेरा अिन िकया? िकसके दो िसर ह? यमराज िकसको लेना (अपने लोक को
ले जाना) चाहते ह? कह, िकस कंगाल को राजा कर दँू या िकस राजा को देश से िनकाल दँू?

सकउँ तोर अ र अमरउ मारी। काह क ट बपरु े नर नारी॥


जानिस मोर सभु ाउ बरो । मनु तव आनन चंद चको ॥

तेरा श ु अमर (देवता) भी हो, तो म उसे भी मार सकता हँ। बेचारे क ड़े -मकोड़े -सरीखे नर-नारी
तो चीज ही या ह। हे सुंदरी! तू तो मेरा वभाव जानती ही है िक मेरा मन सदा तेरे मुख पी
चं मा का चकोर है।

ि या ान सत
ु सरबसु मोर। प रजन जा सकल बस तोर॥
ज कछु कह कपटु क र तोही। भािमिन राम सपथ सत मोही॥

हे ि ये! मेरी जा, कुटुंबी, सव व (संपि ), पु , यहाँ तक िक मेरे ाण भी, ये सब तेरे वश म


(अधीन) ह। यिद म तुझसे कुछ कपट करके कहता होऊँ तो हे भािमनी! मुझे सौ बार राम क
सौगंध है।

िबहिस मागु मनभावित बाता। भूषन सजिह मनोहर गाता॥


घरी कुघरी समिु झ िजयँ देखू। बेिग ि या प रहरिह कुबेषू॥

तू हँसकर ( स नतापवू क) अपनी मनचाही बात माँग ले और अपने मनोहर अंग को आभषू ण से
सजा। मौका-बेमौका तो मन म िवचार कर देख। हे ि ये! ज दी इस बुरे वेष को याग दे।

दो० - यह सिु न मन गिु न सपथ बिड़ िबहिस उठी मितमंद।


भूषन सजित िबलोिक मग ृ ु मनहँ िकराितिन फंद॥ 26॥

यह सुनकर और मन म राम क बड़ी स गंध को िवचारकर मंदबुि कैकेयी हँसती हई उठी और


गहने पहनने लगी, मानो कोई भीलनी मग
ृ को देखकर फंदा तैयार कर रही हो!॥ 26॥

े पल
पिु न कह राउ सु द िजयँ जानी। म ु िक मदृ ु मंजुल बानी॥
भािमिन भयउ तोर मनभावा। घर घर नगर अनंद बधावा॥

अपने जी म कैकेयी को सु द जानकर राजा दशरथ ेम से पुलिकत होकर कोमल और सुंदर


वाणी से िफर बोले - हे भािमिन! तेरा मनचीता हो गया। नगर म घर-घर आनंद के बधावे बज रहे
ह।

रामिह देउँ कािल जुबराजू। सजिह सल


ु ोचिन मंगल साजू॥
दलिक उठेउ सिु न दउ कठो । जनु छुइ गयउ पाक बरतो ॥
म कल ही राम को युवराज-पद दे रहा हँ, इसिलए हे सुनयनी! तू मंगल- साज सज। यह सुनते ही
उसका कठोर दय दलक उठा (फटने लगा)। मानो पका हआ बालतोड़ (फोड़ा) छू गया हो।

ऐिसउ पीर िबहिस तेिहं गोई। चोर ना र िजिम गिट न रोई॥


लखिहं न भूप कपट चतरु ाई। कोिट कुिटल मिन गु पढ़ाई॥

ऐसी भारी पीड़ा को भी उसने हँसकर िछपा िलया, जैसे चोर क ी कट होकर नह रोती
(िजसम उसका भेद न खुल जाए)। राजा उसक कपट-चतुराई को नह देख रहे ह, य िक वह
करोड़ कुिटल क िशरोमिण गु मंथरा क पढ़ाई हई है।

ज िप नीित िनपन
ु नरनाह। ना रच रत जलिनिध अवगाह॥
कपट सनेह बढ़ाई बहोरी। बोली िबहिस नयन महु मोरी॥

य िप राजा नीित म िनपुण ह; परं तु ि याच र अथाह समु है। िफर वह कपटयु ेम बढ़ाकर
(ऊपर से ेम िदखाकर) ने और मँुह मोड़कर हँसती हई बोली -

दो० - मागु मागु पै कहह िपय कबहँ न देह न लेह।


देन कहेह बरदान दइु तेउ पावत संदहे ॥ 27॥

हे ि यतम! आप माँग-माँग तो कहा करते ह, पर देते-लेते कभी कुछ भी नह । आपने दो वरदान


देने को कहा था, उनके भी िमलने म संदेह है॥ 27॥

जानेउँ मरमु राउ हँिस कहई। तु हिह कोहाब परम ि य अहई॥


थाती रािख न मािगह काऊ। िबस र गयउ मोिह भोर सभ ु ाऊ॥

राजा ने हँसकर कहा िक अब म तु हारा मम (मतलब) समझा। मान करना तु ह परम ि य है।
तुमने उन वर को थाती (धरोहर) रखकर िफर कभी माँगा ही नह और मेरा भल
ू ने का वभाव
होने से मुझे भी वह संग याद नह रहा।

झूठेहँ हमिह दोषु जिन देह। दइु कै चा र मािग मकु लेह॥


रघकु ु ल रीित सदा चिल आई। ान जाहँ ब बचनु न जाई॥

मुझे झठ ू दोष मत दो। चाहे दो के बदले चार माँग लो। रघुकुल म सदा से यह रीित चली आई है
ू -मठ
िक ाण भले ही चले जाएँ , पर वचन नह जाता।

निहं अस य सम पातक पंज ु ा। िग र सम होिहं िक कोिटक गंज


ु ा॥
स यमूल सब सकु ृ त सहु ाए। बेद परु ान िबिदत मनु गाए॥

अस य के समान पाप का समहू भी नह है। या करोड़ घँुघिचयाँ िमलकर भी कह पहाड़ के


समान हो सकती ह? 'स य' ही सम त उ म सुकृत (पु य ) क जड़ है। यह बात वेद-पुराण म
िस है और मनु ने भी यही कहा है।

तेिह पर राम सपथ क र आई। सक ु ृ त सनेह अविध रघरु ाई॥


बाद ढ़ाइ कुमित हँिस बोली। कुमत कुिबहग कुलह जनु खोली॥

उस पर मेरे ारा राम क शपथ करने म आ गई (मँुह से िनकल पड़ी)। रघुनाथ मेरे सुकृत (पु य)
और नेह क सीमा ह। इस कार बात प क कराके दुबुि कैकेयी हँसकर बोली, मानो उसने
कुमत (बुरे िवचार) पी दु प ी (बाज) (को छोड़ने के िलए उस) क कुलही (आँख पर क
टोपी) खोल दी।

दो० - भूप मनोरथ सभ


ु ग बनु सख
ु सिु बहंग समाजु।
िभि लिन िजिम छाड़न चहित बचनु भयंक बाजु॥ 28॥

राजा का मनोरथ सुंदर वन है, सुख सुंदर पि य का समुदाय है। उस पर भीलनी क तरह
कैकेयी अपना वचन पी भयंकर बाज छोड़ना चाहती है॥ 28॥

सन
ु ह ानि य भावत जी का। देह एक बर भरतिह टीका॥
मागउँ दूसर बर कर जोरी। परु वह नाथ मनोरथ मोरी॥

(वह बोली -) हे ाण यारे ! सुिनए, मेरे मन को भानेवाला एक वर तो दीिजए, भरत को


राजितलक; और हे नाथ! दूसरा वर भी म हाथ जोड़कर माँगती हँ, मेरा मनोरथ परू ा क िजए -

तापस बेष िबसेिष उदासी। चौदह ब रस रामु बनबासी॥


सिु न मदृ ु बचन भूप िहयँ सोकू। सिस कर छुअत िबकल िजिम कोकू॥

तपि वय के वेष म िवशेष उदासीन भाव से (रा य और कुटुंब आिद क ओर से भली-भाँित


उदासीन होकर िवर मुिनय क भाँित) राम चौदह वष तक वन म िनवास कर। कैकेयी के
कोमल (िवनययु ) वचन सुनकर राजा के दय म ऐसा शोक हआ जैसे चं मा क िकरण के
पश से चकवा िवकल हो जाता है।

गयउ सहिम निहं कछु किह आवा। जनु सचान बन झपटेउ लावा॥
िबबरन भयउ िनपट नरपाल।ू दािमिन हनेउ मनहँ त ताल॥

राजा सहम गए, उनसे कुछ कहते न बना, मानो बाज वन म बटेर पर झपटा हो। राजा का रं ग
िबलकुल उड़ गया, मानो ताड़ के पेड़ को िबजली ने मारा हो (जैसे ताड़ के पेड़ पर िबजली िगरने
से वह झुलसकर बदरं गा हो जाता है, वही हाल राजा का हआ)।

माथ हाथ मूिद दोउ लोचन। तनु ध र सोचु लाग जनु सोचन॥
मोर मनोरथु सरु त फूला। फरत क रिन िजिम हतेउ समूला॥

माथे पर हाथ रखकर, दोन ने बंद करके राजा ऐसे सोच करने लगे, मानो सा ात सोच ही
शरीर धारण कर सोच कर रहा हो। (वे सोचते ह - हाय!) मेरा मनोरथ पी क पव ृ फूल चुका
था, परं तु फलते समय कैकेयी ने हिथनी क तरह उसे जड़ समेत उखाड़कर न कर डाला।

अवध उजा र क ि ह कैकेई ं। दीि हिस अचल िबपित कै नेई ं॥

कैकेयी ने अयो या को उजाड़ कर िदया और िवपि क अचल (सु ढ़) न व डाल दी।

दो० - कवन अवसर का भयउ गयउँ ना र िब वास।


जोग िसि फल समय िजिम जितिह अिब ा नास॥ 29॥

िकस अवसर पर या हो गया! ी का िव ास करके म वैसे ही मारा गया, जैसे योग क


िसि पी फल िमलने के समय योगी को अिव ा न कर देती है॥ 29॥

एिह िबिध राउ मनिहं मन झाँखा। देिख कुभाँित कुमित मन माखा॥


भरतु िक राउर पूत न ह ही। आनेह मोल बेसािह िक मोही॥

इस कार राजा मन-ही-मन झीख रहे ह। राजा का ऐसा बुरा हाल देखकर दुबुि कैकेयी मन म
बुरी तरह से ोिधत हई। (और बोली -) या भरत आपके पु नह ह? या मुझे आप दाम देकर
खरीद लाए ह? ( या म आपक िववािहता प नी नह हँ?)।

जो सिु न स अस लाग तु हार। काहे न बोलह बचनु सँभार॥


देह उत अनु करह िक नाह । स यसंध तु ह रघकु ु ल माह ॥

जो मेरा वचन सुनते ही आपको बाण-सा लगा तो आप सोच-समझ कर बात य नह कहते?


उ र दीिजए - हाँ क िजए, नह तो नाह कर दीिजए। आप रघुवंश म स य ित ावाले ( िस )
ह!

देन कहेह अब जिन ब देह। तजह स य जग अपजसु लेह॥


स य सरािह कहेह ब देना। जानेह लेइिह मािग चबेना॥

आपने ही वर देने को कहा था, अब भले ही न दीिजए। स य को छोड़ दीिजए और जगत म अपयश
लीिजए। स य क बड़ी सराहना करके वर देने को कहा था। समझा था िक यह चबेना ही माँग
लेगी!

िसिब दधीिच बिल जो कछु भाषा। तनु धनु तजेउ बचन पनु राखा॥
अित कटु बचन कहित कैकेई। मानहँ लोन जरे पर देई॥
राजा िशिव, दधीिच और बिल ने जो कुछ कहा, शरीर और धन यागकर भी उ ह ने अपने वचन
क ित ा को िनबाहा। कैकेयी बहत ही कड़वे वचन कह रही है, मानो जले पर नमक िछड़क
रही हो।

दो० - धरम धरु ं धर धीर ध र नयन उघारे रायँ।


िस धिु न लीि ह उसास अिस मारे िस मोिह कुठायँ॥ 30॥

धम क धुरी को धारण करनेवाले राजा दशरथ ने धीरज धरकर ने खोले और िसर धुनकर तथा
लंबी साँस लेकर इस कार कहा िक इसने मुझे बड़े कुठौर मारा (ऐसी किठन प रि थित उ प न
कर दी, िजससे बच िनकलना किठन हो गया)॥ 30॥

आग दीिख जरत िसर भारी। मनहँ रोष तरवा र उघारी॥


मूिठ कुबिु धार िनठुराई। धरी कूबर सान बनाई॥

चंड ोध से जलती हई कैकेयी सामने इस कार िदखाई पड़ी, मानो ोध पी तलवार नंगी
( यान से बाहर) खड़ी हो। कुबुि उस तलवार क मठ
ू है, िन रता धार है और वह कुबरी
(मंथरा) पी सान पर धरकर तेज क हई है।

लखी महीप कराल कठोरा। स य िक जीवनु लेइिह मोरा॥


बोले राउ किठन क र छाती। बानी सिबनय तासु सोहाती॥

राजा ने देखा िक यह (तलवार) बड़ी ही भयानक और कठोर है (और सोचा -) या स य ही यह


मेरा जीवन लेगी? राजा अपनी छाती कड़ी करके, बहत ही न ता के साथ उसे (कैकेयी को) ि य
लगनेवाली वाणी बोले -

ि या बचन कस कहिस कुभाँती। भीर तीित ीित क र हाँती॥


मोर भरतु रामु दइु आँखी। स य कहउँ क र संक साखी॥

हे ि ये! हे भी ! िव ास और ेम को न करके ऐसे बुरी तरह के वचन कैसे कह रही हो। मेरे
तो भरत और राम दो आँख (अथात एक-से) ह; यह म शंकर क सा ी देकर स य कहता हँ।

अविस दूतु म पठइब ाता। ऐहिहं बेिग सन ु त दोउ ाता॥


सिु दन सोिध सबु साजु सजाई। देउँ भरत कहँ राजु बजाई॥

म अव य सबेरे ही दूत भेजँग


ू ा। दोन भाई (भरत-श ु न) सुनते ही तुरंत आ जाएँ गे। अ छा िदन
(शुभ मुहत) शोधवाकर, सब तैयारी करके डं का बजाकर म भरत को रा य दे दँूगा।

दो० - लोभु न रामिह राजु कर बहत भरत पर ीित।


म बड़ छोट िबचा र िजयँ करत रहेउँ नप
ृ नीित॥ 31॥
राम को रा य का लोभ नह है और भरत पर उनका बड़ा ही ेम है। म ही अपने मन म बड़े -छोटे
का िवचार करके राजनीित का पालन कर रहा था (बड़े को राजितलक देने जा रहा था)॥ 31॥

राम सपथ सत कहउँ सभ ु ाऊ। राममातु कछु कहेउ न काऊ॥


म सबु क ह तोिह िबनु पूँछ। तेिह त परे उ मनोरथु छूछ॥

राम क सौ बार सौगंध खाकर म वभाव से ही कहता हँ िक राम क माता (कौस या) ने (इस
ू े यह सब िकया। इसी से मेरा
िवषय म) मुझसे कभी कुछ नह कहा। अव य ही मने तुमसे िबना पछ
मनोरथ खाली गया।

रस प रह अब मंगल साजू। कछु िदन गएँ भरत जुबराजू॥


एकिह बात मोिह दख
ु ु लागा। बर दूसर असमंजस मागा॥

अब ोध छोड़ दे और मंगल साज सज। कुछ ही िदन बाद भरत युवराज हो जाएँ गे। एक ही बात
का मुझे दुःख लगा िक तन
ू े दूसरा वरदान बड़ी अड़चन का माँगा।

अजहँ दय जरत तेिह आँचा। रस प रहास िक साँचहे ँ साँचा॥


कह तिज रोषु राम अपराधू। सबु कोउ कहइ रामु सिु ठ साधू॥

उसक आँच से अब भी मेरा दय जल रहा है। यह िद लगी म, ोध म अथवा सचमुच ही (वा तव


म) स चा है? ोध को यागकर राम का अपराध तो बता। सब कोई तो कहते ह िक राम बड़े ही
साधु ह।

तहु ँ सराहिस करिस सनेह। अब सिु न मोिह भयउ संदहे ॥


जासु सभ ु ाउ अ रिह अनूकूला। सो िकिम क रिह मातु ितकूला॥

तू वयं भी राम क सराहना करती और उन पर नेह िकया करती थी। अब यह सुनकर मुझे
संदेह हो गया है (िक तु हारी शंसा और नेह कह झठ
ू े तो न थे?) िजसका वभाव श ु को भी
अनक ू ल है, वह माता के ितकूल आचरण य कर करे गा?

दो० - ि या हास रस प रहरिह मागु िबचा र िबबेकु।


जेिहं देख अब नयन भ र भरत राज अिभषेकु॥ 32॥

हे ि ये! हँसी और ोध छोड़ दे और िववेक (उिचत-अनुिचत) िवचारकर वर माँग, िजससे अब म


ने भरकर भरत का रा यािभषेक देख सकँ ू ॥ 32॥

िजऐ मीन ब बा र िबहीना। मिन िबनु फिनकु िजऐ दख ु दीना॥


कहउँ सभ
ु ाउ न छलु मन माह । जीवनु मोर राम िबनु नाह ॥
मछली चाहे िबना पानी के जीती रहे और साँप भी चाहे िबना मिण के दीन-दुःखी होकर जीता रहे ।
परं तु म वभाव से ही कहता हँ, मन म (जरा भी) छल रखकर नह िक मेरा जीवन राम के िबना
नह है।

समिु झ देखु िजयँ ि या बीना। जीवनु राम दरस आधीना॥


सिु न मदृ ु बचन कुमित अित जरई। मनहँ अनल आहित घत
ृ परई॥

हे चतुर ि ये! जी म समझ देख, मेरा जीवन राम के दशन के अधीन है। राजा के कोमल वचन
सुनकर दुबुि कैकेयी अ यंत जल रही है। मानो अि न म घी क आहितयाँ पड़ रही ह।

कहइ करह िकन कोिट उपाया। इहाँ न लािगिह राउ र माया॥


देह िक लेह अजसु क र नाह । मोिह न बहत पंच सोहाह ॥

(कैकेयी कहती है -) आप करोड़ उपाय य न कर, यहाँ आपक माया (चालबाजी) नह लगेगी।
या तो मने जो माँगा है सो दीिजए, नह तो 'नाह ' करके अपयश लीिजए। मुझे बहत पंच (बखेड़े)
नह सुहाते।

रामु साधु तु ह साधु सयाने। राममातु भिल सब पिहचाने॥


जस कौिसलाँ मोर भल ताका। तस फलु उ हिह देउँ क र साका॥

राम साधु ह, आप सयाने साधु ह और राम क माता भी भली ह; मने सबको पहचान िलया है।
कौस या ने मेरा जैसा भला चाहा है, म भी साका करके (याद रखने यो य) उ ह वैसा ही फल
दँूगी।

दो० - होत ात मिु नबेष ध र ज न रामु बन जािहं।


मोर मरनु राउर अजस नप ृ समिु झअ मन मािहं॥ 33॥

(सबेरा होते ही मुिन का वेष धारण कर यिद राम वन को नह जाते, तो हे राजन! मन म (िन य)
समझ लीिजए िक मेरा मरना होगा और आपका अपयश!॥ 33॥

अस किह कुिटल भई उिठ ठाढ़ी। मानहँ रोष तरं िगिन बाढ़ी॥


पाप पहार गट भइ सोई। भरी ोध जल जाइ न जोई॥

ऐसा कहकर कुिटल कैकेयी उठ खड़ी हई, मानो ोध क नदी उमड़ी हो। वह नदी पाप पी पहाड़
से कट हई है और ोध पी जल से भरी है; (ऐसी भयानक है िक) देखी नह जाती!

दोउ बर कूल किठन हठ धारा। भवँर कूबरी बचन चारा॥


ढाहत भूप प त मूला। चली िबपित बा रिध अनूकूला॥
दोन वरदान उस नदी के दो िकनारे ह, कैकेयी का किठन हठ ही उसक (ती ) धारा है और
कुबरी (मंथरा) के वचन क ेरणा ही भँवर है। (वह ोध पी नदी) राजा दशरथ पी व ृ को
जड़-मल ू से ढहाती हई िवपि पी समु क ओर (सीधी) चली है।

लखी नरे स बात फु र साँची। ितय िमस मीचु सीस पर नाची॥


गिह पद िबनय क ह बैठारी। जिन िदनकर कुल होिस कुठारी॥

राजा ने समझ िलया िक बात सचमुच (वा तव म) स ची है, ी के बहाने मेरी म ृ यु ही िसर पर
नाच रही है। (तदनंतर राजा ने कैकेयी के) चरण पकड़कर उसे िबठाकर िवनती क िक तू
सयू कुल ( पी व ृ ) के िलए कु हाड़ी मत बन।

मागु माथ अबह देउँ तोही। राम िबरहँ जिन मारिस मोही॥
राखु राम कहँ जेिह तेिह भाँती। नािहं त ज रिह जनम भ र छाती॥

तू मेरा म तक माँग ले, म तुझे अभी दे दँू। पर राम के िवरह म मुझे मत मार। िजस िकसी कार से
हो तू राम को रख ले। नह तो ज मभर तेरी छाती जलेगी।

दो० - देखी यािध असाध नप


ृ ु परे उ धरिन धिु न माथ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघन ु ाथ॥ 34॥

राजा ने देखा िक रोग असा य है, तब वे अ यंत आतवाणी से 'हा राम! हा राम! हा रघुनाथ!' कहते
हए िसर पीटकर जमीन पर िगर पड़े ॥ 34॥

याकुल राउ िसिथल सब गाता। क रिन कलपत मनहँ िनपाता॥


कंठु सूख मख
ु आव न बानी। जनु पाठीनु दीन िबनु पानी॥

राजा याकुल हो गए, उनका सारा शरीर िशिथल पड़ गया, मानो हिथनी ने क पव ृ को उखाड़
ू गया, मुख से बात नह िनकलती, मानो पानी के िबना पिहना नामक मछली
फका हो। कंठ सख
तड़प रही हो।

पिु न कह कटु कठोर कैकेयी। मनहँ घाय महँ माहर देई॥


ज अंतहँ अस करतबु रहेऊ। मागु मागु तु ह केिहं बल कहेऊ॥

कैकेयी िफर कड़वे और कठोर वचन बोली, मानो घाव म जहर भर रही हो। (कहती है -) जो अंत
म ऐसा ही करना था, तो आपने 'माँग, माँग' िकस बल पर कहा था?

दइु िक होइ एक समय भआ


ु ला। हँसब ठठाइ फुलाउब गाला॥
दािन कहाउब अ कृपनाई। होइ िक खेम कुसल रौताई॥
हे राजा! ठहाका मारकर हँसना और गाल फुलाना - या ये दोन एक साथ हो सकते ह? दानी
भी कहाना और कंजस ू ी म ेम-कुशल भी रह सकती है? (लड़ाई म
ू ी भी करना। या रजपत
बहादुरी भी िदखाएँ और कह चोट भी न लगे!)

छाड़ह बचनु िक धीरजु धरह। जिन अबला िजिम क ना करह॥


तनु ितय तनय धामु धनु धरनी। स यसंध कहँ तन
ृ सम बरनी॥

या तो वचन ( ित ा) ही छोड़ दीिजए या धैय धारण क िजए। य असहाय ी क भाँित रोइए-


पीिटए नह । स य ती के िलए तो शरीर, ी, पु , घर, धन और प ृ वी - सब ितनके के बराबर
कहे गए ह।

दो० - मरम बचन सिु न राउ कह कह कछु दोषु न तोर।


लागेउ तोिह िपसाच िजिम कालु कहावत मोर॥ 35॥

कैकेयी के ममभेदी वचन सुनकर राजा ने कहा िक तू जो चाहे कह, तेरा कुछ भी दोष नह है।
मेरा काल तुझे मानो िपशाच होकर लग गया है, वही तुझसे यह सब कहला रहा है॥ 35॥

चहत न भरत भूपतिह भोर। िबिध बस कुमित बसी िजय तोर॥


सो सबु मोर पाप प रनामू। भयउ कुठाहर जेिहं िबिध बामू॥

ू कर भी राजपद नह चाहते। होनहारवश तेरे ही जी म कुमित आ बसी। यह सब मेरे


भरत तो भल
पाप का प रणाम है, िजससे कुसमय (बेमौके) म िवधाता िवपरीत हो गया।

सब
ु स बिसिह िफ र अवध सहु ाई। सब गन
ु धाम राम भत ु ाई॥
क रहिहं भाइ सकल सेवकाई। होइिह ितहँ परु राम बड़ाई॥

(तेरी उजाड़ी हई) यह सुंदर अयो या िफर भली-भाँित बसेगी और सम त गुण के धाम राम क
भुता भी होगी। सब भाई उनक सेवा करगे और तीन लोक म राम क बड़ाई होगी।

तोर कलंकु मोर पिछताऊ। मए


ु हँ न िमिटिह न जाइिह काऊ॥
अब तोिह नीक लाग क सोई। लोचन ओट बैठु महु गोई॥

केवल तेरा कलंक और मेरा पछतावा मरने पर भी नह िमटेगा, यह िकसी तरह नह जाएगा। अब
तुझे जो अ छा लगे वही कर। मँुह िछपाकर मेरी आँख क ओट जा बैठ (अथात मेरे सामने से हट
जा, मुझे मँुह न िदखा)।

जब लिग िजऔ ं कहउँ कर जोरी। तब लिग जिन कछु कहिस बहोरी॥


िफ र पिछतैहिस अंत अभागी। मारिस गाइ नहा लागी॥
म हाथ जोड़कर कहता हँ िक जब तक म जीता रहँ, तब तक िफर कुछ न कहना (अथात मुझसे
न बोलना)। अरी अभािगनी! िफर तू अंत म पछताएगी जो तू नहा (ताँत) के िलए गाय को मार
रही है।

दो० - परे उ राउ किह कोिट िबिध काहे करिस िनदान।ु


कपट सयािन न कहित कछु जागित मनहँ मसान॥ु 36॥

राजा करोड़ कार से (बहत तरह से) समझाकर (और यह कहकर) िक तू य सवनाश कर
रही है, प ृ वी पर िगर पड़े । पर कपट करने म चतुर कैकेयी कुछ बोलती नह , मानो (मौन होकर)
मसान जगा रही हो ( मशान म बैठकर ेतमं िस कर रही हो)॥ 36॥

राम राम रट िबकल भआ


ु ल।ू जनु िबनु पंख िबहंग बेहाल॥

दयँ मनाव भो जिन होई। रामिह जाइ कहै जिन कोई॥

राजा 'राम-राम' रट रहे ह और ऐसे याकुल ह, जैसे कोई प ी पंख के िबना बेहाल हो। वे अपने
दय म मनाते ह िक सबेरा न हो और कोई जाकर राम से यह बात न कहे ।

उदउ करह जिन रिब रघक


ु ु ल गरु । अवध िबलोिक सूल होइिह उर॥
भूप ीित कैकइ किठनाई। उभय अविध िबिध रची बनाई॥

हे रघुकुल के गु (बड़े रे मल
ू पु ष) सय
ू भगवान! आप अपना उदय न कर। अयो या को (बेहाल)
देखकर आपके दय म बड़ी पीड़ा होगी। राजा क ीित और कैकेयी क िन रता दोन को ा
ने सीमा तक रचकर बनाया है (अथात राजा ेम क सीमा है और कैकेयी िन रता क )।

िबलपत नप ृ िह भयउ िभनसु ारा। बीना बेनु संख धिु न ारा॥


पढ़िहं भाट गनु गाविहं गायक। सन ु त नपृ िह जनु लागिहं सायक॥

िवलाप करते-करते ही राजा को सबेरा हो गया! राज ार पर वीणा, बाँसुरी और शंख क विन
होने लगी। भाट लोग िव दावली पढ़ रहे ह और गवैए गुण का गान कर रहे ह। सुनने पर राजा
को वे बाण-जैसे लगते ह।

मंगल सकल सोहािहं न कैस। सहगािमिनिह िबभूषन जैस॥


तेिह िनिस नीद परी निहं काह। राम दरस लालसा उछाह॥

राजा को ये सब मंगल-साज कैसे नह सुहा रहे ह, जैसे पित के साथ सती होनेवाली ी को
आभषू ण! राम के दशन क लालसा और उ साह के कारण उस राि म िकसी को भी न द नह
आई।

दो० - ार भीर सेवक सिचव कहिहं उिदत रिब देिख।


जागेउ अजहँ न अवधपित कारनु कवनु िबसेिष॥ 37॥

राज ार पर मंि य और सेवक क भीड़ लगी है। वे सब सय


ू को उदय हआ देखकर कहते ह िक
ऐसा कौन-सा िवशेष कारण है िक अवधपित दशरथ अभी तक नह जागे?॥ 37॥

पिछले पहर भूपु िनत जागा। आजु हमिह बड़ अचरजु लागा॥


जाह समु ं जगावह जाई। क िजअ काजु रजायसु पाई॥

राजा िन य ही रात के िपछले पहर जाग जाया करते ह, िकंतु आज हम बड़ा आ य हो रहा है। हे
सुमं ! जाओ, जाकर राजा को जगाओ। उनक आ ा पाकर हम सब काम कर।

गए समु ं ु तब राउर माह । देिख भयावन जात डेराह ॥


धाइ खाई जनु जाइ न हेरा। मानहँ िबपित िबषाद बसेरा॥

तब सुमं रावले (राजमहल) म गए, पर महल को भयानक देखकर वे जाते हए डर रहे ह। (ऐसा
लगता है) मानो दौड़कर काट खाएगा, उसक ओर देखा भी नह जाता। मानो िवपि और िवषाद
ने वहाँ डे रा डाल रखा हो।

पूछ कोउ न ऊत देई। गए जेिहं भवन भूप कैकेई॥


किह जयजीव बैठ िस नाई। देिख भूप गित गयउ सख ु ाई॥

ू ने पर कोई जवाब नह देता; वे उस महल म गए, जहाँ राजा और कैकेयी थे। 'जय जीव'
पछ
कहकर िसर नवाकर (वंदना करके) बैठे और राजा क दशा देखकर तो वे सख ू ही गए।

सोच िबकल िबबरन मिह परे ऊ। मानह कमल मूलु प रहरे ऊ॥


सिचउ सभीत सकइ निहं पूँछी। बोली असभ
ु भरी सभ
ु छूँछी॥

(देखा िक -) राजा सोच से याकुल ह, चेहरे का रं ग उड़ गया है। जमीन पर ऐसे पड़े ह, मानो
कमल जड़ छोड़कर (जड़ से उखड़कर) (मुझाया) पड़ा हो। मं ी मारे डर के कुछ पछ ू नह सकते।
तब अशुभ से भरी हई और शुभ से िवहीन कैकेयी बोली -

दो० - परी न राजिह नीद िनिस हेतु जान जगदीस।ु


रामु रामु रिट भो िकय कहइ ना मरमु महीस॥ु 38॥

राजा को रातभर न द नह आई, इसका कारण जगदी र ही जान। इ ह ने 'राम-राम' रटकर


सबेरा कर िदया, परं तु इसका भेद राजा कुछ भी नह बतलाते॥ 38॥

आनह रामिह बेिग बोलाई। समाचार तब पूँछेह आई॥


चलेउ सम
ु ं ु राय ख जानी। लखी कुचािल क ि ह कछु रानी॥
तुम ज दी राम को बुला लाओ। तब आकर समाचार पछ
ू ना। राजा का ख जानकर सुमं चले,
समझ गए िक रानी ने कुछ कुचाल क है।

सोच िबकल मग परइ न पाऊ। रामिह बोिल किहिह का राऊ॥


उर ध र धीरजु गयउ दआ
ु र। पूँछिहं सकल देिख मनु मार॥

सुमं सोच से याकुल ह, रा ते पर पैर नह पड़ता (आगे बढ़ा नह जाता), (सोचते ह -) राम को
बुलाकर राजा या कहगे? िकसी तरह दय म धीरज धरकर वे ार पर गए। सब लोग उनको
मन मारे (उदास) देखकर पछ
ू ने लगे।

समाधानु क र सो सबही का। गयउ जहाँ िदनकर कुल टीका॥


राम सम
ु ं िह आवत देखा। आद क ह िपता सम लेखा॥

सब लोग का समाधान करके (िकसी तरह समझा-बुझाकर) सुमं वहाँ गए, जहाँ सयू कुल के
ितलक राम थे। राम ने सुमं को आते देखा तो िपता के समान समझकर उनका आदर िकया।

िनरिख बदनु किह भूप रजाई। रघक ु ु लदीपिह चलेउ लेवाई॥


रामु कुभाँित सिचव सँग जाह । देिख लोग जहँ तहँ िबलखाह ॥

राम के मुख को देखकर और राजा क आ ा सुनाकर वे रघुकुल के दीपक राम को (अपने साथ)
िलवा चले। राम मं ी के साथ बुरी तरह से (िबना िकसी लवाजमे के) जा रहे ह, यह देखकर लोग
जहाँ-तहाँ िवषाद कर रहे ह।

दो० - जाइ दीख रघब


ु ंसमिन नरपित िनपट कुसाजु।
सहिम परे उ लिख िसंिघिनिह मनहँ ब ृ गजराज॥
ु 39॥

रघुवंशमिण राम ने जाकर देखा िक राजा अ यंत ही बुरी हालत म पड़े ह, मानो िसंहनी को
देखकर कोई बढ़ ू ा गजराज सहमकर िगर पड़ा हो॥ 39॥

सूखिहं अधर जरइ सबु अंगू। मनहँ दीन मिनहीन भअ


ु ंगू॥
स ष समीप दीिख कैकेई। मानहँ मीचु घर गिन लेई॥

राजा के ओठ सख ू रहे ह और सारा शरीर जल रहा है, मानो मिण के िबना साँप दुःखी हो रहा हो।
पास ही ोध से भरी कैकेयी को देखा, मानो (सा ात) म ृ यु ही बैठी (राजा के जीवन क अंितम)
घिड़याँ िगन रही हो।

क नामय मदृ ु राम सभ


ु ाऊ। थम दीख दख ु ु सन
ु ा न काऊ॥
तदिप धीर ध र समउ िबचारी। पूँछी मधरु बचन महतारी॥
राम का वभाव कोमल और क णामय है। उ ह ने (अपने जीवन म) पहली बार यह दुःख देखा;
इससे पहले कभी उ ह ने दुःख सुना भी न था। तो भी समय का िवचार करके दय म धीरज
धरकर उ ह ने मीठे वचन से माता कैकेयी से पछू ा-

मोिह कह मातु तात दख


ु कारन। क रअ जतन जेिहं होइ िनवारन॥
सन
ु ह राम सबु कारनु एह। राजिह तु ह पर बहत सनेह॥

हे माता! मुझे िपता के दुःख का कारण कहो तािक उसका िनवारण हो (दुःख दूर हो) वह य न
िकया जाए। (कैकेयी ने कहा -) हे राम! सुनो, सारा कारण यही है िक राजा का तुम पर बहत
नेह है।

देन कहेि ह मोिह दइु बरदाना। मागेउँ जो कछु मोिह सोहाना॥


सो सिु न भयउ भूप उर सोचू। छािड़ न सकिहं तु हार सँकोचू॥

इ ह ने मुझे दो वरदान देने को कहा था। मुझे जो कुछ अ छा लगा, वही मने माँगा। उसे सुनकर
राजा के दय म सोच हो गया; य िक ये तु हारा संकोच नह छोड़ सकते।

दो० - सत
ु सनेह इत बचनु उत संकट परे उ नरे स।ु
सकह त आयसु धरह िसर मेटह किठन कलेस॥ु 40॥

इधर तो पु का नेह है और उधर वचन ( ित ा); राजा इसी धमसंकट म पड़ गए ह। यिद तुम
कर सकते हो, तो राजा क आ ा िशरोधाय करो और इनके किठन लेश को िमटाओ॥ 40॥

िनधरक बैिठ कहइ कटु बानी। सन


ु त किठनता अित अकुलानी॥
जीभ कमान बचन सर नाना। मनहँ मिहप मदृ ु ल छ समाना॥

कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी वाणी कह रही है िजसे सुनकर वयं कठोरता भी अ यंत
याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहत-से तीर ह और मानो राजा ही कोमल िनशाने के
समान ह।

जनु कठोरपनु धर सरी । िसखइ धनष ु िब ा बर बी ॥


सबु संगु रघप
ु ितिह सन
ु ाई। बैिठ मनहँ तनु ध र िनठुराई॥

(इस सारे साज-समान के साथ) मानो वयं कठोरपन े वीर का शरीर धारण करके धनुष
िव ा सीख रहा है। रघुनाथ को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है, मानो िन रता ही शरीर धारण
िकए हए हो।

मन मस ु क
ु ाइ भानक
ु ु ल भानू। रामु सहज आनंद िनधानू॥
बोले बचन िबगत सब दूषन। मदृ ु मंजुल जनु बाग िबभूषन॥
ू कुल के सय
सय ू , वाभािवक ही आनंदिनधान राम मन म मुसकराकर सब दूषण से रिहत ऐसे
कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भषू ण ही थे -

सन
ु ु जननी सोइ सतु ु बड़भागी। जो िपतु मातु बचन अनरु ागी॥
तनय मातु िपतु तोषिनहारा। दल
ु भ जनिन सकल संसारा॥

हे माता! सुनो, वही पु बड़भागी है, जो िपता-माता के वचन का अनुरागी (पालन करनेवाला)
है। (आ ा-पालन ारा) माता-िपता को संतु करनेवाला पु , हे जननी! सारे संसार म दुलभ है।

दो० - मिु नगन िमलनु िबसेिष बन सबिह भाँित िहत मोर।


तेिह महँ िपतु आयसु बह र संमत जननी तोर॥ 41॥

वन म िवशेष प से मुिनय का िमलाप होगा, िजसम मेरा सभी कार से क याण है। उसम भी,
िफर िपता क आ ा और हे जननी! तु हारी स मित है,॥ 41॥

भरतु ानि य पाविहं राजू। िबिध सब िबिध मोिह सनमख


ु आजू॥
ज न जाउँ बन ऐसेह काजा। थम गिनअ मोिह मूढ़ समाजा॥

और ाणि य भरत रा य पाएँ गे। (इन सभी बात को देखकर यह तीत होता है िक) आज िवधाता
सब कार से मुझे स मुख ह (मेरे अनुकूल ह)। यिद ऐसे काम के िलए भी म वन को न जाऊँ तो
मख
ू के समाज म सबसे पहले मेरी िगनती करनी चािहए।

सेविहं अरँ डु कलपत यागी। प रह र अमत ृ लेिहं िबषु मागी॥


तेउ न पाइ अस समउ चकु ाह । देखु िबचा र मातु मन माह ॥

जो क पव ृ को छोड़कर रड क सेवा करते ह और अमत ृ याग कर िवष माँग लेते ह, हे माता!


तुम मन म िवचार कर देखो, वे (महामख
ू ) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चक
ू गे।

अंब एक दख ु ु मोिह िबसेषी। िनपट िबकल नरनायकु देखी॥


थो रिहं बात िपतिह दख ु भारी। होित तीित न मोिह महतारी॥

हे माता! मुझे एक ही दुःख िवशेष प से हो रहा है, वह महाराज को अ यंत याकुल देखकर। इस
थोड़ी-सी बात के िलए ही िपता को इतना भारी दुःख हो, हे माता! मुझे इस बात पर िव ास नह
होता।

राउ धीर गन
ु उदिध अगाधू। भा मोिह त कछु बड़ अपराधू॥
जात मोिह न कहत कछु राऊ। मो र सपथ तोिह कह सितभाऊ॥
य िक महाराज तो बड़े ही धीर और गुण के अथाह समु ह। अव य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध
हो गया है, िजसके कारण महाराज मुझसे कुछ नह कहते। तु ह मेरी सौगंध है, माता! तुम सच-
सच कहो।

दो० - सहज सकल रघब


ु र बचन कुमित कुिटल क र जान।
चलइ ज क जल ब गित ज िप सिललु समान॥ 42॥

रघुकुल म े राम के वभाव से ही सीधे वचन को दुबुि कैकेयी टेढ़ा ही करके जान रही है;
जैसे य िप जल समान ही होता है, परं तु ज क उसम टेढ़ी चाल से ही चलती है॥ 42॥

रहसी रािन राम ख पाई। बोली कपट सनेह जनाई॥


सपथ तु हार भरत कै आना। हेतु न दूसर म कछु जाना॥

रानी कैकेयी राम का ख पाकर हिषत हो गई और कपटपण ू नेह िदखाकर बोली - तु हारी
शपथ और भरत क सौगंध है, मुझे राजा के दुःख का दूसरा कुछ भी कारण िविदत नह है।

तु ह अपराध जोगु निहं ताता। जननी जनक बंधु सखु दाता॥


राम स य सबु जो कछु कहह। तु ह िपतु मातु बचन रत अहह॥

हे तात! तुम अपराध के यो य नह हो (तुमसे माता-िपता का अपराध बन पड़े यह संभव नह )।


तुम तो माता-िपता और भाइय को सुख देनेवाले हो। हे राम! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब स य
है। तुम िपता-माता के वचन (के पालन) म त पर हो।

िपतिह बझ
ु ाइ कहह बिल सोई। चौथपन जेिहं अजसु न होई॥
तु ह सम सअु न सक
ु ृ त जेिहं दी हे। उिचत न तासु िनराद क हे॥

म तु हारी बिलहारी जाती हँ, तुम िपता को समझाकर वही बात कहो, िजससे चौथेपन (बुढ़ापे) म
इनका अपयश न हो। िजस पु य ने इनको तुम जैसे पु िदए ह, उसका िनरादर करना उिचत
नह ।

लागिहं कुमखु बचन सभु कैसे। मगहँ गयािदक तीरथ जैस॥े


रामिह मातु बचन सब भाए। िजिम सरु स र गत सिलल सहु ाए॥

कैकेयी के बुरे मुख म ये शुभ वचन कैसे लगते ह जैसे मगध देश म गया आिदक तीथ! राम को
माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अ छे लगे जैसे गंगा म जाकर (अ छे -बुरे सभी कार के) जल
शुभ, सुंदर हो जाते ह।

दो० - गइ मु छा रामिह सिु म र नप


ृ िफ र करवट ली ह।
सिचव राम आगमन किह िबनय समय सम क ह॥ 43॥
इतने म राजा क मछ ू ा दूर हई, उ ह ने राम का मरण करके ('राम! राम!' कहकर) िफरकर
करवट ली। मं ी ने राम का आना कहकर समयानुकूल िवनती क ॥ 43॥

अविनप अकिन रामु पगु धारे । ध र धीरजु तब नयन उघारे ॥


सिचवँ सँभा र राउ बैठारे । चरन परत नप
ृ रामु िनहारे ॥

जब राजा ने सुना िक राम पधारे ह तो उ ह ने धीरज धरके ने खोले। मं ी ने संभालकर राजा


को बैठाया। राजा ने राम को अपने चरण म पड़ते ( णाम करते) देखा।

िलए सनेह िबकल उर लाई। गै मिन मनहँ फिनक िफ र पाई॥


रामिह िचतइ रहेउ नरनाह। चला िबलोचन बा र बाह॥

नेह से िवकल राजा ने राम को दय से लगा िलया। मानो साँप ने अपनी खोई हई मिण िफर से
पा ली हो। राजा दशरथ राम को देखते ही रह गए। उनके ने से आँसुओ ं क धारा बह चली।

सोक िबबस कछु कहै न पारा। दयँ लगावत बारिहं बारा॥


िबिधिह मनाव राउ मन माह । जेिहं रघन
ु ाथ न कानन जाह ॥

शोक के िवशेष वश होने के कारण राजा कुछ कह नह सकते। वे बार-बार राम को दय से


लगाते ह और मन म ा को मनाते ह िक िजससे राघुनाथ वन को न जाएँ ।

सिु म र महेसिह कहइ िनहोरी। िबनती सन


ु ह सदािसव मोरी॥
आसत ु ोष तु ह अवढर दानी। आरित हरह दीन जनु जानी॥

िफर महादेव का मरण करके उनसे िनहोरा करते हए कहते ह - हे सदािशव! आप मेरी िवनती
सुिनए। आप आशुतोष (शी स न होनेवाले) और अवढरदानी (मँुहमाँगा दे डालनेवाले) ह। अतः
मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दुःख को दूर क िजए।

दो० - तु ह रे क सब के दयँ सो मित रामिह देह।


बचनु मोर तिज रहिहं घर प रह र सीलु सनेह॥ 44॥

आप ेरक प से सबके दय म ह। आप राम को ऐसी बुि दीिजए, िजससे वे मेरे वचन को


यागकर और शील- नेह को छोड़कर घर ही म रह जाएँ ॥ 44॥

अजसु होउ जग सज ु सु नसाऊ। नरक पर ब सरु पु जाऊ॥


सब दख
ु दस ु ह सहावह मोही। लोचन ओट रामु जिन ह ही॥

जगत म चाहे अपयश हो और सुयश न हो जाए। चाहे (नया पाप होने से) म नरक म िग ँ ,
अथवा वग चला जाए (पवू पु य के फल व प िमलनेवाला वग चाहे मुझे न िमले)। और भी
सब कार के दुःसह दुःख आप मुझसे सहन करा ल। पर राम मेरी आँख क ओट न ह ।

अस मन गन ु इ राउ निहं बोला। पीपर पात स रस मनु डोला॥


रघप
ु ित िपतिह म े बस जानी। पिु न कछु किहिह मातु अनम
ु ानी॥

राजा मन-ही-मन इस कार िवचार कर रहे ह, बोलते नह । उनका मन पीपल के प े क तरह


डोल रहा है। रघुनाथ ने िपता को ेम के वश जानकर और यह अनुमान करके िक माता िफर
कुछ कहे गी (तो िपता को दुःख होगा) -

देस काल अवसर अनस ु ारी। बोले बचन िबनीत िबचारी॥


तात कहउँ कछु करउँ िढठाई। अनिु चतु छमब जािन ल रकाई॥

देश, काल और अवसर के अनुकूल िवचार कर िवनीत वचन कहे - हे तात! म कुछ कहता हँ, यह
िढठाई करता हँ। इस अनौिच य को मेरी बा याव था समझकर मा क िजएगा।

अित लघु बात लािग दख ु ु पावा। काहँ न मोिह किह थम जनावा॥


देिख गोसाइँ िह पँूिछउँ माता। सिु न संगु भए सीतल गाता॥

इस अ यंत तु छ बात के िलए आपने इतना दुःख पाया। मुझे िकसी ने पहले कहकर यह बात नह
जनाई। वामी (आप) को इस दशा म देखकर मने माता से पछ ू ा। उनसे सारा संग सुनकर मेरे
सब अंग शीतल हो गए (मुझे बड़ी स नता हई)।

दो० - मंगल समय सनेह बस सोच प रह रअ तात।


ु के भु गात॥ 45॥
आयसु देइअ हरिष िहयँ किह पल

हे िपता! इस मंगल के समय नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीिजए और दय म स न होकर
मुझे आ ा दीिजए। यह कहते हए भु राम सवाग पुलिकत हो गए॥ 45॥

ध य जनमु जगतीतल तासू। िपतिह मोदु च रत सिु न जासू॥


चा र पदारथ करतल ताक। ि य िपतु मातु ान सम जाक॥

(उ ह ने िफर कहा -) इस प ृ वीतल पर उसका ज म ध य है, िजसके च र सुनकर िपता को


परम आनंद हो। िजसको माता-िपता ाण के समान ि य ह, चार पदाथ (अथ, धम, काम, मो )
उसके करतलगत (मु ी म) रहते ह।

आयसु पािल जनम फलु पाई। ऐहउँ बेिगिहं होउ रजाई॥


िबदा मातु सन आवउँ मागी। चिलहउँ बनिह बह र पग लागी॥
आपक आ ा पालन करके और ज म का फल पाकर म ज दी ही लौट आऊँगा, अतः कृपया
आ ा दीिजए। माता से िवदा माँग आता हँ। िफर आपके पैर लगकर ( णाम करके) वन को
चलँग
ू ा।

अस किह राम गवनु तब क हा। भूप सोक बस उत न दी हा॥


नगर यािप गइ बात सतु ीछी। छुअत चढ़ी जनु सब तन बीछी॥

ऐसा कहकर तब राम वहाँ से चल िदए। राजा ने शोकवश कोई उ र नह िदया। वह बहत ही
तीखी (अि य) बात नगर भर म इतनी ज दी फै ल गई मानो डं क मारते ही िब छू का िवष सारे
शरीर म चढ़ गया हो।

सिु न भए िबकल सकल नर नारी। बेिल िबटप िजिम देिख दवारी॥


जो जहँ सनु इ धन
ु इ िस सोई। बड़ िबषादु निहं धीरजु होई॥

इस बात को सुनकर सब ी-पु ष ऐसे याकुल हो गए जैसे दावानल (वन म आग लगी)


देखकर बेल और व ृ मुरझा जाते ह। जो जहाँ सुनता है वह वह िसर धुनने (पीटने) लगता है!
बड़ा िवषाद है, िकसी को धीरज नह बँधता।

दो० - मख
ु सख
ु ािहं लोचन विहं सोकु न दयँ समाइ।
मनहँ क न रस कटकई उतरी अवध बजाइ॥ 46॥

सबके मुख सख
ू े जाते ह, आँख से आँसू बहते ह, शोक दय म नह समाता। मानो क णा रस
क सेना अवध पर डं का बजाकर उतर आई हो॥ 46॥

िमलेिह माझ िबिध बात बेगारी। जहँ तहँ देिहं कैकइिह गारी॥
एिह पािपिनिह बूिझ का परे ऊ। छाइ भवन पर पावकु धरे ऊ॥

सब मेल िमल गए थे (सब संयोग ठीक हो गए थे), इतने म ही िवधाता ने बात िबगाड़ दी! जहाँ-
तहाँ लोग कैकेयी को गाली दे रहे ह! इस पािपन को या सझ
ू पड़ा जो इसने छाये घर पर आग
रख दी।

िनज कर नयन कािढ़ चह दीखा। डा र सध ु ा िबषु चाहत चीखा॥


कुिटल कठोर कुबिु अभागी। भइ रघब
ु ंस बेनु बन आगी॥

यह अपने हाथ से अपनी आँख को िनकालकर (आँख के िबना ही) देखना चाहती है, और अमतृ
फककर िवष चखना चाहती है! यह कुिटल, कठोर, दुबुि और अभािगनी कैकेयी रघुवंश पी
बाँस के वन के िलए अि न हो गई!

पालव बैिठ पेड़ एिहं काटा। सख


ु महँ सोक ठाटु ध र ठाटा॥
सदा रामु एिह ान समाना। कारन कवन कुिटलपनु ठाना॥

प े पर बैठकर इसने पेड़ को काट डाला। सुख म शोक का ठाट ठटकर रख िदया! राम इसे सदा
ाण के समान ि य थे। िफर भी न जाने िकस कारण इसने यह कुिटलता ठानी।

स य कहिहं किब ना र सभ
ु ाऊ। सब िबिध अगह अगाध दरु ाऊ॥
िनज ितिबंबु ब कु गिह जाई। जािन न जाइ ना र गित भाई॥

किव स य ही कहते ह िक ी का वभाव सब कार से पकड़ म न आने यो य अथाह और


भेदभरा होता है। अपनी परछाई ं भले ही पकड़ जाए, पर भाई! ि य क गित (चाल) नह जानी
जाती।

दो० - काह न पावकु जा र सक का न समु समाइ।


का न करै अबला बल केिह जग कालु न खाइ॥ 47॥

आग या नह जला सकती! समु म या नह समा सकता! अबला कहानेवाली बल ी


(जाित) या नह कर सकती! और जगत म काल िकसको नह खाता!॥ 47॥

का सन
ु ाइ िबिध काह सन
ु ावा। का देखाइ चह काह देखावा॥
एक कहिहं भल भूप न क हा। ब िबचा र निहं कुमितिह दी हा॥

िवधाता ने या सुनाकर या सुना िदया और या िदखाकर अब वह या िदखाना चाहता है!


एक कहते ह िक राजा ने अ छा नह िकया, दुबुि कैकेयी को िवचारकर वर नह िदया,

जो हिठ भयउ सकल दखु भाजन।ु अबला िबबस यानु गन ु ु गा जन॥ु


एक धरम परिमित पिहचाने। नप
ृ िह दोसु निहं देिहं सयाने॥

जो हठ करके (कैकेयी क बात को परू ा करने म अड़े रहकर) वयं सब दुःख के पा हो गए।
ी के िवशेष वश होने के कारण मानो उनका ान और गुण जाता रहा। एक (दूसरे ) जो धम क
मयादा को जानते ह और सयाने ह, वे राजा को दोष नह देते।

िसिब दधीिच ह रचंद कहानी। एक एक सन कहिहं बखानी॥


एक भरत कर संमत कहह । एक उदास भायँ सिु न रहह ॥

वे िशिव, दधीिच और ह र ं क कथा एक-दूसरे से बखानकर कहते ह। कोई एक इसम भरत


क स मित बताते ह। कोई एक सुनकर उदासीन भाव से रह जाते ह (कुछ बोलते नह )।

कान मूिद कर रद गिह जीहा। एक कहिहं यह बात अलीहा॥


सक
ु ृ त जािहं अस कहत तु हारे । रामु भरत कहँ ानिपआरे ॥
कोई हाथ से कान मँदू कर और जीभ को दाँत तले दबाकर कहते ह िक यह बात झठ ू है, ऐसी
बात कहने से तु हारे पु य न हो जाएँ गे। भरत को तो राम ाण के समान यारे ह।

दो० - चंदु चवै ब अनल कन सध ु ा होइ िबषतल


ू ।
सपनेहँ कबहँ न करिहं िकछु भरतु राम ितकूल॥ 48॥

चं मा चाहे (शीतल िकरण क जगह) आग क िचनगा रयाँ बरसाने लगे और अमत ृ चाहे िवष के
समान हो जाए, परं तु भरत व न म भी कभी राम के िव कुछ नह करगे॥ 48॥

एक िबधातिह दूषनु देह । सध


ु ा देखाइ दी ह िबषु जेह ॥
खरभ नगर सोचु सब काह। दस ु ह दाह उर िमटा उछाह॥

कोई एक िवधाता को दोष देते ह, िजसने अमत


ृ िदखाकर िवष दे िदया। नगर भर म खलबली मच
गई, सब िकसी को सोच हो गया। दय म दुःसह जलन हो गई, आनंद-उ साह िमट गया।

िब बधू कुलमा य जठेरी। जे ि य परम कैकई केरी॥


लग देन िसख सीलु सराही। बचन बानसम लागिहं ताह ॥

ा ण क ि याँ, कुल क माननीय बड़ी-बढ़ ू ी और जो कैकेयी क परम ि य थ , वे उसके शील


क सराहना करके उसे सीख देने लग । पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते ह।

भरतु न मोिह ि य राम समाना। सदा कहह यह सबु जगु जाना॥


करह राम पर सहज सनेह। केिहं अपराध आजु बनु देह॥

(वे कहती ह -) तुम तो सदा कहा करती थ िक राम के समान मुझको भरत भी यारे नह ह; इस
बात को सारा जगत जानता है। राम पर तो तुम वाभािवक ही नेह करती रही हो। आज िकस
अपराध से उ ह वन देती हो?

कबहँ न िकयह सवित आरे सू। ीित तीित जान सबु देसू॥
कौस याँ अब काह िबगारा। तु ह जेिह लािग ब परु पारा॥

तुमने कभी सौितयाडाह नह िकया। सारा देश तु हारे ेम और िव ास को जानता है। अब


कौस या ने तु हारा कौन-सा िबगाड़ कर िदया, िजसके कारण तुमने सारे नगर पर व िगरा
िदया।

दो० - सीय िक िपय सँगु प रह रिह लखनु िक रिहहिहं धाम।


राजु िक भूँजब भरत परु नप
ृ ु िक िजइिह िबनु राम॥ 49॥

या सीता अपने पित (राम) का साथ छोड़ दगी? या ल मण राम के िबना घर रह सकगे? या
भरत राम के िबना अयो यापुरी का रा य भोग सकगे? और या राजा राम के िबना जीिवत रह
सकगे? (अथात न सीता यहाँ रहगी, न ल मण रहगे, न भरत रा य करगे और न राजा ही
जीिवत रहगे; सब उजाड़ हो जाएगा।)॥ 49॥

अस िबचा र उर छाड़ह कोह। सोक कलंक कोिठ जिन होह॥


भरतिह अविस देह जुबराजू। कानन काह राम कर काजू॥

दय म ऐसा िवचार कर ोध छोड़ दो, शोक और कलंक क कोठी मत बनो। भरत को अव य


युवराज-पद दो, पर राम का वन म या काम है?

नािहन रामु राज के भूख।े धरम धरु ीन िबषय रस खे॥


गरु गहृ बसहँ रामु तिज गेह। नप
ृ सन अस ब दूसर लेह॥

राम रा य के भख
ू े नह ह। वे धम क धुरी को धारण करनेवाले और िवषय-रस से खे ह (अथात
उनम िवषयासि है ही नह )। इसिलए तुम यह शंका न करो िक राम वन न गए तो भरत के
रा य म िव न करगे; इतने पर भी मन न माने तो) तुम राजा से दूसरा ऐसा (यह) वर ले लो िक
राम घर छोड़कर गु के घर रह।

ज निहं लिगहह कह हमारे । निहं लािगिह कछु हाथ तु हारे ॥


ज प रहास क ि ह कछु होई। तौ किह गट जनावह सोई॥

जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तु हारे हाथ कुछ भी न लगेगा। यिद तुमने कुछ हँसी क हो
तो उसे कट म कहकर जना दो (िक मने िद लगी क है)।

राम स रस सतु कानन जोगू। काह किहिह सिु न तु ह कहँ लोगू॥


उठह बेिग सोइ करह उपाई। जेिह िबिध सोकु कलंकु नसाई॥

राम-सरीखा पु या वन के यो य है? यह सुनकर लोग तु ह या कहगे! ज दी उठो और वही


उपाय करो िजस उपाय से इस शोक और कलंक का नाश हो।

छं ० - जेिह भाँित सोकु कलंकु जाइ उपाय क र कुल पालही।


हिठ फे रामिह जात बन जिन बात दूस र चालही॥
िजिम भानु िबनु िदनु ान िबनु तनु चंद िबनु िजिम जािमनी।
ितिम अवध तल ु सीदास भु िबन समिु झ ध िजयँ भामनी॥

िजस तरह (नगर भर का) शोक और (तु हारा) कलंक िमटे, वही उपाय करके कुल क र ा कर।
वन जाते हए राम को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदास कहते ह - जैसे
सयू के िबना िदन, ाण के िबना शरीर और चं मा के िबना रात (िनज व तथा शोभाहीन हो जाती
है), वैसे ही राम के िबना अयो या हो जाएगी, हे भािमनी! तू अपने दय म इस बात को समझ
(िवचारकर देख) तो सही।

सो० - सिख ह िसखावनु दी ह सन


ु त मधरु प रनाम िहत।
तेइँ कछु कान न क ह कुिटल बोधी कूबरी॥ 50॥

इस कार सिखय ने ऐसी सीख दी जो सुनने म मीठी और प रणाम म िहतकारी थी। पर कुिटला
कुबरी क िसखाई-पढ़ाई हई कैकेयी ने इस पर जरा भी कान नह िदया॥ 50॥

उत न देइ दस
ु ह रस खी। मिृ ग ह िचतव जनु बािघिन भूखी॥
यािध असािध जािन ित ह यागी। चल कहत मितमंद अभागी॥

कैकेयी कोई उ र नह देती, वह दुःसह ोध के मारे खी (बेमुर वत) हो रही है। ऐसे देखती है
मानो भखू ी बािघन ह रिनय को देख रही हो। तब सिखय ने रोग को असा य समझकर उसे छोड़
िदया। सब उसको मंदबुि , अभािगनी कहती हई चल द ।

राजु करत यह दैअँ िबगोई। क हेिस अस जस करइ न कोई॥


एिह िबिध िबलपिहं परु नर नार । देिहं कुचािलिह कोिटक गार ॥

रा य करते हए इस कैकेयी को दैव ने न कर िदया। इसने जैसा कुछ िकया, वैसा कोई भी न
करे गा! नगर के सब ी-पु ष इस कार िवलाप कर रहे ह और उस कुचाली कैकेयी को करोड़
गािलयाँ दे रहे ह।

जरिहं िबषम जर लेिहं उसासा। कविन राम िबनु जीवन आसा॥


िबपल
ु िबयोग जा अकुलानी। जनु जलचर गन सूखत पानी॥

लोग िवषम वर (भयानक दुःख क आग) से जल रहे ह। लंबी साँस लेते हए वे कहते ह िक राम
के िबना जीने क कौन आशा है। महान िवयोग (क आशंका) से जा ऐसी याकुल हो गई है
मानो पानी सखू ने के समय जलचर जीव का समुदाय याकुल हो!

अित िबषाद बस लोग लोगाई ं। गए मातु पिहं रामु गोसाई ं॥


मख
ु स न िचत चौगन
ु चाऊ। िमटा सोचु जिन राखै राऊ॥

सभी पु ष और ि याँ अ यंत िवषाद के वश हो रहे ह। वामी राम माता कौस या के पास गए।
उनका मुख स न है और िच म चौगुना चाव (उ साह) है। यह सोच िमट गया है िक राजा कह
रख न ल। (राम को राजितलक क बात सुनकर िवषाद हआ था िक सब भाइय को छोड़कर बड़े
भाई मुझको ही राजितलक य होता है। अब माता कैकेयी क आ ा और िपता क मौन स मित
पाकर वह सोच िमट गया।)
दो० - नव गयंदु रघब
ु ीर मनु राजु अलान समान।
छूट जािन बन गवनु सिु न उर अनंदु अिधकान॥ 51॥

राम का मन नए पकड़े हए हाथी के समान और राजितलक उस हाथी के बाँधने क काँटेदार लोहे


क बेड़ी के समान है। 'वन जाना है' यह सुनकर, अपने को बंधन से छूटा जानकर, उनके दय म
आनंद बढ़ गया है॥ 51॥

रघकु ु लितलक जो र दोउ हाथा। मिु दत मातु पद नायउ माथा॥


दीि ह असीस लाइ उर ली हे। भूषन बसन िनछाव र क हे॥

रघुकुल ितलक राम ने दोन हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरण म िसर नवाया। माता ने
आशीवाद िदया, अपने दय से लगा िलया और उन पर गहने तथा कपड़े िनछावर िकए।

बार-बार मख
ु चंबु ित माता। नयन नेह जलु पल
ु िकत गाता॥
गोद रािख पिु न दयँ लगाए। वत म े रस पयद सहु ाए॥

ू रही ह। ने म ेम का जल भर आया है और सब अंग पुलिकत


माता बार-बार राम का मुख चम
हो गए ह। राम को अपनी गोद म बैठाकर िफर दय से लगा िलया। संुदर तन ेमरस (दूध)
बहाने लगे।

े ु मोदु न कछु किह जाई। रं क धनद पदबी जनु पाई॥



सादर संदु र बदनु िनहारी। बोली मधरु बचन महतारी॥

उनका ेम और महान आनंद कुछ कहा नह जाता। मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा िलया हो।
बड़े आदर के साथ संुदर मुख देखकर माता मधुर वचन बोल -

कहह तात जननी बिलहारी। कबिहं लगन मदु मंगलकारी॥


सक
ु ृ त सील सख
ु सीवँ सहु ाई। जनम लाभ कइ अविध अघाई॥

हे तात! माता बिलहारी जाती है, कहो, वह आनंद-मंगलकारी ल न कब है, जो मेरे पु य, शील
और सुख क सुंदर सीमा है और ज म लेने के लाभ क पण ू तम अविध है;

दो० - जेिह चाहत नर ना र सब अित आरत एिह भाँित।


िजिम चातक चातिक तिृ षत बिृ सरद रतु वाित॥ 52॥

तथा िजस (ल न) को सभी ी-पु ष अ यंत याकुलता से इस कार चाहते ह िजस कार
यास से चातक और चातक शरद ऋतु के वाित न क वषा को चाहते ह॥ 52॥

तात जाउँ बिल बेिग नहाह। जो मन भाव मधरु कछु खाह॥


िपतु समीप तब जाएह भैआ। भइ बिड़ बार जाइ बिल मैआ॥

हे तात! म बलैया लेती हँ, तुम ज दी नहा लो और जो मन भाए, कुछ िमठाई खा लो। भैया! तब
िपता के पास जाना। बहत देर हो गई है, माता बिलहारी जाती है।

ु ू ला। जनु सनेह सरु त के फूला॥


मातु बचन सिु न अित अनक
सख
ु मकरं द भरे ि यमूला। िनरिख राम मनु भवँ न भूला॥

माता के अ यंत अनुकूल वचन सुनकर - जो मानो नेह पी क पव ृ के फूल थे, जो सुख पी
मकरं द (पु परस) से भरे थे और (राजल मी) के मल
ू थे - ऐसे वचन पी फूल को देखकर राम
का मन पी भ रा उन पर नह भल ू ा।

धरम धरु ीन धरम गित जानी। कहेउ मातु सन अित मदृ ु बानी॥
िपताँ दी ह मोिह कानन राजू। जहँ सब भाँित मोर बड़ काजू॥

धमधुरीण राम ने धम क गित को जानकर माता से अ यंत कोमल वाणी से कहा - हे माता! िपता
ने मुझको वन का रा य िदया है, जहाँ सब कार से मेरा बड़ा काम बननेवाला है।

आयसु देिह मिु दत मन माता। जेिहं मदु मंगल कानन जाता॥


जिन सनेह बस डरपिस भोर। आनँदु अंब अनु ह तोर॥

हे माता! तू स न मन से मुझे आ ा दे, िजससे मेरी वन या ा म आनंद-मंगल हो। मेरे नेहवश


भल ू कर भी डरना नह । हे माता! तेरी कृपा से आनंद ही होगा।

दो० - बरष चा रदस िबिपन बिस क र िपतु बचन मान।


आइ पाय पिु न देिखहउँ मनु जिन करिस मलान॥ 53॥

चौदह वष वन म रहकर, िपता के वचन को मािणत (स य) कर, िफर लौटकर तेरे चरण का
दशन क ँ गा; तू मन को लान (दुःखी) न कर॥ 53॥

बचन िबनीत मधरु रघब ु र के। सर सम लगे मातु उर करके॥


सहिम सूिख सिु न सीतिल बानी। िजिम जवास पर पावस पानी॥

रघुकुल म े राम के ये बहत ही न और मीठे वचन माता के दय म बाण के समान लगे और


कसकने लगे। उस शीतल वाणी को सुनकर कौस या वैसे ही सहमकर सखू गई ं जैसे बरसात का
पानी पड़ने से जवासा सख
ू जाता है।

ृ ी सिु न केह र नादू॥


किह न जाइ कछु दय िबषादू। मनहँ मग
नयन सजल तन थर थर काँपी। माजिह खाइ मीन जनु मापी॥
दय का िवषाद कुछ कहा नह जाता। मानो िसंह क गजना सुनकर िहरनी िवकल हो गई हो।
ने म जल भर आया, शरीर थर-थर काँपने लगा। मानो मछली माँजा (पहली वषा का फेन)
खाकर बदहवास हो गई हो!

ध र धीरजु सत
ु बदनु िनहारी। गदगद बचन कहित महतारी॥
तात िपतिह तु ह ानिपआरे । देिख मिु दत िनत च रत तु हारे ॥

धीरज धरकर, पु का मुख देखकर माता गदगद वचन कहने लग - हे तात! तुम तो िपता को
ाण के समान ि य हो। तु हारे च र को देखकर वे िन य स न होते थे।

राजु देन कहँ सभु िदन साधा। कहेउ जान बन केिहं अपराधा॥
तात सन ु ावह मोिह िनदानू। को िदनकर कुल भयउ कृसानू॥

रा य देने के िलए उ ह ने ही शुभ िदन शोधवाया था। िफर अब िकस अपराध से वन जाने को
कहा? हे तात! मुझे इसका कारण सुनाओ! सय ू वंश ( पी वन) को जलाने के िलए अि न कौन
हो गया?

दो० - िनरिख राम ख सिचवसत ु कारनु कहेउ बझु ाइ।


सिु न संगु रिह मूक िजिम दसा बरिन निहं जाइ॥ 54॥

तब राम का ख देखकर मं ी के पु ने सब कारण समझाकर कहा। उस संग को सुनकर वे


गँग
ू ी-जैसी (चुप) रह गई ं, उनक दशा का वणन नह िकया जा सकता॥ 54॥

रािख न सकइ न किह सक जाह। दहु ँ भाँित उर दा न दाह॥


िलखत सध ु ाकर गा िलिख राह। िबिध गित बाम सदा सब काह॥

न रख ही सकती ह, न यह कह सकती ह िक वन चले जाओ। दोन ही कार से दय म बड़ा


भारी संताप हो रहा है। (मन म सोचती ह िक देखो -) िवधाता क चाल सदा सबके िलए टेढ़ी होती
है। िलखने लगे चं मा और िलखा गया राह!

धरम सनेह उभयँ मित घेरी। भइ गित साँप छुछुंद र केरी॥


राखउँ सत
ु िह करउँ अनरु ोधू। धरमु जाइ अ बंधु िबरोधू॥

धम और नेह दोन ने कौस या क बुि को घेर िलया। उनक दशा साँप-छछूँदर क -सी हो गई।
वे सोचने लग िक यिद म अनुरोध (हठ) करके पु को रख लेती हँ तो धम जाता है और भाइय
म िवरोध होता है;

कहउँ जान बन तौ बिड़ हानी। संकट सोच िबबस भइ रानी॥


बह र समिु झ ितय धरमु सयानी। रामु भरतु दोउ सत
ु सम जानी॥
और यिद वन जाने को कहती हँ तो बड़ी हािन होती है। इस कार के धम-संकट म पड़कर रानी
िवशेष प से सोच के वश हो गई ं। िफर बुि मती कौस या ी-धम (पाित त-धम) को समझकर
और राम तथा भरत दोन पु को समान जानकर -

सरल सभु ाउ राम महतारी। बोली बचन धीर ध र भारी॥


तात जाउँ बिल क हेह नीका। िपतु आयसु सब धरमक टीका॥

सरल वभाववाली राम क माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोल - हे तात! म बिलहारी जाती हँ,
तुमने अ छा िकया। िपता क आ ा का पालन करना ही सब धम का िशरोमिण धम है।

दो० - राजु देन किह दी ह बनु मोिह न सो दख


ु लेस।ु
तु ह िबनु भरतिह भूपितिह जिह चंड कलेस॥ु 55॥

रा य देने को कहकर वन दे िदया, उसका मुझे लेशमा भी दुःख नह है। (दुःख तो इस बात का
है िक) तु हारे िबना भरत को, महाराज को और जा को बड़ा भारी लेश होगा॥ 55॥

ज केवल िपतु आयसु ताता। तौ जिन जाह जािन बिड़ माता॥


ज िपतु मातु कहेउ बन जाना। तौ कानन सत अवध समाना॥

हे तात! यिद केवल िपता क ही आ ा हो, तो माता को (िपता से) बड़ी जानकर वन को मत
जाओ। िकंतु यिद िपता-माता दोन ने वन जाने को कहा हो, तो वन तु हारे िलए सैकड़ अयो या
के समान है।

िपतु बनदेव मातु बनदेवी। खग मगृ चरन सरो ह सेवी॥


अंतहँ उिचत नप
ृ िह बनबासू। बय िबलोिक िहयँ होइ हराँसू॥

वन के देवता तु हारे िपता ह गे और वनदेिवयाँ माता ह गी। वहाँ के पशु-प ी तु हारे चरणकमल
के सेवक ह गे। राजा के िलए अंत म तो वनवास करना उिचत ही है। केवल तु हारी (सुकुमार)
अव था देखकर दय म दुःख होता है।

बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघब ु ंसितलक तु ह यागी॥


ज सतु कह संग मोिह लेह। तु हरे दयँ होइ संदहे ॥

हे रघुवंश के ितलक! वन बड़ा भा यवान है और यह अवध अभागी है, िजसे तुमने याग िदया। हे
पु ! यिद म कहँ िक मुझे भी साथ ले चलो तो तु हारे दय म संदेह होगा (िक माता इसी बहाने
मुझे रोकना चाहती ह)।

पूत परम ि य तु ह सबही के। ान ान के जीवन जी के॥


ते तु ह कहह मातु बन जाऊँ। म सिु न बचन बैिठ पिछताऊँ॥

हे पु ! तुम सभी के परम ि य हो। ाण के ाण और दय के जीवन हो। वही ( ाणाधार) तुम


कहते हो िक माता! म वन को जाऊँ और म तु हारे वचन को सुनकर बैठी पछताती हँ!

दो० - यह िबचा र निहं करउँ हठ झूठ सनेह बढ़ाइ।


मािन मातु कर नात बिल सरु ित िबस र जिन जाइ॥ 56॥

यह सोचकर झठ ू ा नेह बढ़ाकर म हठ नह करती! बेटा! म बलैया लेती हँ, माता का नाता
मानकर मेरी सुध भल
ू न जाना॥ 56॥

देव िपतर सब तु हिह गोसाई ं। राखहँ पलक नयन क नाई ं॥


अविध अंबु ि य प रजन मीना। तु ह क नाकर धरम धरु ीना॥

हे गोसाई ं! सब देव और िपतर तु हारी वैसी ही र ा कर, जैसे पलक आँख क र ा करती ह।
तु हारे वनवास क अविध (चौदह वष) जल है, ि यजन और कुटुंबी मछली ह। तुम दया क खान
और धम क धुरी को धारण करनेवाले हो।

अस िबचा र सोइ करह उपाई। सबिह िजअत जेिहं भटह आई॥


जाह सख े बनिह बिल जाऊँ। क र अनाथ जन प रजन गाऊँ॥
ु न

ऐसा िवचारकर वही उपाय करना िजसम सबके जीते-जी तुम आ िमलो। म बिलहारी जाती हँ, तुम
सेवक , प रवारवाल और नगर भर को अनाथ करके सुखपवू क वन को जाओ।

सब कर आजु सक ु ृ त फल बीता। भयउ कराल कालु िबपरीता॥


बहिबिध िबलिप चरन लपटानी। परम अभािगिन आपिु ह जानी॥

आज सबके पु य का फल परू ा हो गया। किठन काल हमारे िवपरीत हो गया। (इस कार) बहत
िवलाप करके और अपने को परम अभािगनी जानकर माता राम के चरण म िलपट गई ं।

दा न दसु ह दाह उर यापा। बरिन न जािहं िबलाप कलापा॥


राम उठाइ मातु उर लाई। किह मदृ ु बचन बह र समझ
ु ाई॥

दय म भयानक दुःसह संताप छा गया। उस समय के बहिवध िवलाप का वणन नह िकया जा


सकता। राम ने माता को उठाकर दय से लगा िलया और िफर कोमल वचन कहकर उ ह
समझाया।

दो० - समाचार तेिह समय सिु न सीय उठी अकुलाइ।


जाइ सासु पद कमल जुग बंिद बैिठ िस नाइ॥ 57॥
उसी समय यह समाचार सुनकर सीता अकुला उठ और सास के पास जाकर उनके दोन
चरणकमल क वंदना कर िसर नीचा करके बैठ गई ं॥ 57॥

दीि ह असीस सासु मदृ ु बानी। अित सक


ु ु मा र देिख अकुलानी॥
बैिठ निमतमख
ु सोचित सीता। प रािस पित म े पन
ु ीता॥

सास ने कोमल वाणी से आशीवाद िदया। वे सीता को अ यंत सुकुमारी देखकर याकुल हो उठ ।
प क रािश और पित के साथ पिव ेम करनेवाली सीता नीचा मुख िकए बैठी सोच रही ह।

चलन चहत बन जीवन नाथू। केिह सक


ु ृ ती सन होइिह साथू॥
क तनु ान िक केवल ाना। िबिध करतबु कछु जाइ न जाना॥

जीवननाथ ( ाणनाथ) वन को चलना चाहते ह। देख िकस पु यवान से उनका साथ होगा - शरीर
और ाण दोन साथ जाएँ गे या केवल ाण ही से इनका साथ होगा? िवधाता क करनी कुछ
जानी नह जाती।

चा चरन नख लेखित धरनी। नूपरु मख


ु र मधरु किब बरनी॥
े बस िबनती करह । हमिह सीय पद जिन प रहरह ॥
मनहँ म

सीता अपने संुदर चरण के नख से धरती कुरे द रही ह। ऐसा करते समय नपू ुर का जो मधुर
श द हो रहा है, किव उसका इस कार वणन करते ह िक मानो ेम के वश होकर नपू ुर यह
िवनती कर रहे ह िक सीता के चरण कभी हमारा याग न कर।

मंजु िबलोचन मोचित बारी। बोली देिख राम महतारी॥


तात सन ु ह िसय अित सक
ु ु मारी। सास ससरु प रजनिह िपआरी॥

सीता सुंदर ने से जल बहा रही ह। उनक यह दशा देखकर राम क माता कौस या बोल - हे
तात! सुनो, सीता अ यंत ही सुकुमारी ह तथा सास, ससुर और कुटुंबी सभी को यारी ह।

दो० - िपता जनक भूपाल मिन ससरु भानकु ु ल भान।ु


पित रिबकुल कैरव िबिपन िबधु गन
ु प िनधान॥ु 58॥

इनके िपता जनक राजाओं के िशरोमिण ह, ससुर सय


ू कुल के सय
ू ह और पित सय
ू कुल पी
कुमुदवन को िखलानेवाले चं मा तथा गुण और प के भंडार ह॥ 58॥

म पिु न पु बधू ि य पाई। प रािस गनु सील सहु ाई॥


नयन पत ु र क र ीित बढ़ाई। राखेउँ ान जानिकिहं लाई॥

िफर मने प क रािश, सुंदर गुण और शीलवाली यारी पु वधू पाई है। मने इन (जानक ) को
आँख क पुतली बनाकर इनसे ेम बढ़ाया है और अपने ाण इनम लगा रखे ह।

कलपबेिल िजिम बहिबिध लाली। स िच सनेह सिलल ितपाली॥


फूलत फलत भयउ िबिध बामा। जािन न जाइ काह प रनामा॥

इ ह क पलता के समान मने बहत तरह से बड़े लाड़-चाव के साथ नेह पी जल से स चकर
पाला है। अब इस लता के फूलने-फलने के समय िवधाता वाम हो गए। कुछ जाना नह जाता िक
इसका या प रणाम होगा।

पलँग पीठ तिज गोद िहंडोरा। िसयँ न दी ह पगु अविन कठोरा॥


िजअनमू र िजिम जोगवत रहउँ । दीप बाित निहं टारन कहऊँ॥

सीता ने पयकप ृ (पलंग के ऊपर), गोद और िहंडोले को छोड़कर कठोर प ृ वी पर कभी पैर नह
रखा। म सदा संजीवनी जड़ी के समान (सावधानी से) इनक रखवाली करती रही हँ! कभी
दीपक क ब ी हटाने को भी नह कहती।

सोइ िसय चलन चहित बन साथा। आयसु काह होइ रघन


ु ाथा॥
चंद िकरन रस रिसक चकोरी। रिब खनयन सकइ िकिम जोरी॥

वही सीता अब तु हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ! उसे या आ ा होती है? चं मा क
िकरण का रस (अमत ृ ) चाहनेवाली चकोरी सय
ू क ओर आँख िकस तरह िमला सकती है।

दो० - क र केह र िनिसचर चरिहं दु जंतु बन भू र।


िबष बािटकाँ िक सोह सत
ु सभु ग सजीविन मू र॥ 59॥

हाथी, िसंह, रा स आिद अनेक दु जीव-जंतु वन म िवचरते रहते ह। हे पु ! या िवष क


वािटका म सुंदर संजीवनी बटू ी शोभा पा सकती है?॥ 59॥

बन िहत कोल िकरात िकसोरी। रच िबरं िच िबषय सख


ु भोरी॥
पाहन कृिम िजिम किठन सभ
ु ाऊ। ित हिह कलेसु न कानन काऊ॥

वन के िलए तो ा ने िवषय सुख को न जाननेवाली कोल और भील क लड़िकय को रचा है,


िजनका प थर के क ड़े -जैसा कठोर वभाव है। उ ह वन म कभी लेश नह होता।

कै तापस ितय कानन जोगू। िज ह तप हेतु तजा सब भोगू॥


िसय बन बिसिह तात केिह भाँती। िच िलिखत किप देिख डेराती॥

अथवा तपि वय क ि याँ वन म रहने यो य ह, िज ह ने तप या के िलए सब भोग तज िदए ह।


हे पु ! जो तसवीर के बंदर को देखकर डर जाती ह, वे सीता वन म िकस तरह रह सकगी?
सरु सर सभ
ु ग बनज बन चारी। डाबर जोगु िक हंसकुमारी॥
अस िबचा र जस आयसु होई। म िसख देउँ जानिकिह सोई॥

देवसरोवर के कमल वन म िवचरण करनेवाली हंिसनी या गड़ैय (तलैय ) म रहने के यो य है?


ऐसा िवचार कर जैसी तु हारी आ ा हो, म जानक को वैसी ही िश ा दँू।

ज िसय भवन रहै कह अंबा। मोिह कहँ होइ बहत अवलंबा॥


सिु न रघब
ु ीर मातु ि य बानी। सील सनेह सध
ु ाँ जनु सानी॥

माता कहती ह - यिद सीता घर म रह तो मुझको बहत सहारा हो जाए। राम ने माता क ि य वाणी
सुनकर, जो मानो शील और नेह पी अमत ृ से सनी हई थी,

दो० - किह ि य बचन िबबेकमय क ि ह मातु प रतोष।


लगे बोधन जानिकिह गिट िबिपन गन ु दोष॥ 60॥

िववेकमय ि य वचन कहकर माता को संतु िकया। िफर वन के गुण-दोष कट करके वे


जानक को समझाने लगे॥ 60॥

मातु समीप कहत सकुचाह । बोले समउ समिु झ मन माह ॥


राजकुमा र िसखावनु सन
ु ह। आन भाँित िजयँ जिन कछु गन
ु ह॥

माता के सामने सीता से कुछ कहने म सकुचाते ह। पर मन म यह समझकर िक यह समय ऐसा


ही है, वे बोले - हे राजकुमारी! मेरी िसखावन सुनो। मन म कुछ दूसरी तरह न समझ लेना।

आपन मोर नीक ज चहह। बचनु हमार मािन गहृ रहह॥


आयसु मोर सासु सेवकाई। सब िबिध भािमिन भवन भलाई॥

जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भािमनी! मेरी आ ा का
पालन होगा, सास क सेवा बन पड़े गी। घर रहने म सभी कार से भलाई है।

एिह ते अिधक धरमु निहं दूजा। सादर सासु ससरु पद पूजा॥


जब जब मातु क रिह सिु ध मोरी। होइिह मे िबकल मित भोरी॥

आदरपवू क सास-ससुर के चरण क पज ू ा (सेवा) करने से बढ़कर दूसरा कोई धम नह है। जब-
जब माता मुझे याद करगी और ेम से याकुल होने के कारण उनक बुि भोली हो जाएगी (वे
अपने-आपको भल ू जाएँ गी),

तब तब तु ह किह कथा परु ानी। संदु र समझु ाएह मदृ ु बानी॥


कहउँ सभ
ु ायँ सपथ सत मोही। सम ु िु ख मातु िहत राखउँ तोही॥
हे सुंदरी! तब-तब तुम कोमल वाणी से पुरानी कथाएँ कह-कहकर इ ह समझाना। हे सुमुिख!
मुझे सैकड़ सौगंध ह, म यह वभाव से ही कहता हँ िक म तु ह केवल माता के िलए ही घर पर
रखता हँ।

दो० - गरु ुित संमत धरम फलु पाइअ िबनिहं कलेस।


हठ बस सब संकट सहे गालव नहष नरे स॥ 61॥

(मेरी आ ा मानकर घर पर रहने से) गु और वेद के ारा स मत धम (के आचरण) का फल


तु ह िबना ही लेश के िमल जाता है, िकंतु हठ के वश होकर गालव मुिन और राजा नहष आिद
सब ने संकट ही सहे ॥ 61॥

म पिु न क र वान िपतु बानी। बेिग िफरब सन


ु ु समु िु ख सयानी॥
िदवस जात निहं लािगिह बारा। संदु र िसखवनु सनु ह हमारा॥

हे सुमुिख! हे सयानी! सुनो, म भी िपता के वचन को स य करके शी ही लौटूँगा। िदन जाते देर
नह लगेगी। हे सुंदरी! हमारी यह सीख सुनो!

ज हठ करह मे बस बामा। तौ तु ह दख
ु ु पाउब प रनामा॥
काननु किठन भयंक भारी। घोर घामु िहम बा र बयारी॥

हे वामा! यिद ेमवश हठ करोगी, तो तुम प रणाम म दुःख पाओगी। वन बड़ा किठन
( लेशदायक) और भयानक है। वहाँ क धपू , जाड़ा, वषा और हवा सभी बड़े भयानक ह।

कुस कंटक मग काँकर नाना। चलब पयादेिहं िबनु पद ाना॥


चरन कमल मदृ ु मंजु तु हारे । मारग अगम भूिमधर भारे ॥

रा ते म कुश, काँटे और बहत-से कंकड़ ह। उन पर िबना जत


ू े के पैदल ही चलना होगा। तु हारे
चरण-कमल कोमल और सुंदर ह और रा ते म बड़े -बड़े दुगम पवत ह।

कंदर खोह नद नद नारे । अगम अगाध न जािहं िनहारे ॥


ृ केह र नागा। करिहं नाद सिु न धीरजु भागा॥
भालु बाघ बक

पवत क गुफाएँ , खोह (दर), निदयाँ, नद और नाले ऐसे अग य और गहरे ह िक उनक ओर


देखा तक नह जाता। रीछ, बाघ, भेिड़ये, िसंह और हाथी ऐसे (भयानक) श द करते ह िक उ ह
सुनकर धीरज भाग जाता है।

दो० - भूिम सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल।


ते िक सदा सब िदन िमलिहं सबइु समय अनक
ु ू ल॥ 62॥
जमीन पर सोना, पेड़ क छाल के व पहनना और कंद, मल ू , फल का भोजन करना होगा।
और वे भी या सदा सब िदन िमलगे? सब कुछ अपने-अपने समय के अनुकूल ही िमल सकेगा॥
62॥

नर अहार रजनीचर चरह । कपट बेष िबिध कोिटक करह ॥


लागइ अित पहार कर पानी। िबिपन िबपित निहं जाइ बखानी॥

मनु य को खानेवाले िनशाचर (रा स) िफरते रहते ह। वे करोड़ कार के कपट- प धारण कर
लेते ह। पहाड़ का पानी बहत ही लगता है। वन क िवपि बखानी नह जा सकती।

याल कराल िबहग बन घोरा। िनिसचर िनकर ना र नर चोरा॥


डरपिहं धीर गहन सिु ध आएँ । मग
ृ लोचिन तु ह भी सभ
ु ाएँ ॥

वन म भीषण सप, भयानक प ी और ी-पु ष को चुरानेवाले रा स के झुंड-के-झुंड रहते ह।


वन क (भयंकरता) याद आने मा से धीर पु ष भी डर जाते ह। िफर हे मग
ृ लोचिन! तुम तो
वभाव से ही डरपोक हो!

हंसगविन तु ह निहं बन जोगू। सिु न अपजसु मोिह देइिह लोगू॥


मानस सिलल सध ु ाँ ितपाली। िजअइ िक लवन पयोिध मराली॥

हे हंसगािमनी! तुम वन के यो य नह हो। तु हारे वन जाने क बात सुनकर लोग मुझे अपयश
दगे (बुरा कहगे)। मानसरोवर के अमत
ृ के समान जल से पाली हई हंिसनी कह खारे समु म जी
सकती है।

नव रसाल बन िबहरनसीला। सोह िक कोिकल िबिपन करीला॥


रहह भवन अस दयँ िबचारी। चंदबदिन दख
ु ु कानन भारी॥

नवीन आम के वन म िवहार करनेवाली कोयल या करील के जंगल म शोभा पाती है? हे


चं मुखी! दय म ऐसा िवचारकर तुम घर ही पर रहो। वन म बड़ा क है।

दो० - सहज सु द गरु वािम िसख जो न करइ िसर मािन।


सो पिछताइ अघाइ उर अविस होइ िहत हािन॥ 63॥

वाभािवक ही िहत चाहनेवाले गु और वामी क सीख को जो िसर चढ़ाकर नह मानता, वह


दय म भरपेट पछताता है और उसके िहत क हािन अव य होती है॥ 63॥

सिु न मदृ ु बचन मनोहर िपय के। लोचन लिलत भरे जल िसय के॥
सीतल िसख दाहक भइ कैस। चकइिह सरद चंद िनिस जैस॥
ि यतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीता के सुंदर ने जल से भर गए। राम क यह
शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हई, जैसे चकवी को शरद ऋतु क चाँदनी रात होती है।

उत न आव िबकल बैदहे ी। तजन चहत सिु च वािम सनेही॥


बरबस रोिक िबलोचन बारी। ध र धीरजु उर अविनकुमारी॥

जानक से कुछ उ र देते नह बनता, वे यह सोचकर याकुल हो उठ िक मेरे पिव और ेमी


वामी मुझे छोड़ जाना चाहते ह। ने के जल (आँसुओ)ं को जबरद ती रोककर वे प ृ वी क
क या सीता दय म धीरज धरकर,

लािग सासु पग कह कर जोरी। छमिब देिब बिड़ अिबनय मोरी।


दीि ह ानपित मोिह िसख सोई। जेिह िबिध मोर परम िहत होई॥

सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लग - हे देिव! मेरी इस बड़ी भारी िढठाई को मा
क िजए। मुझे ाणपित ने वही िश ा दी है, िजससे मेरा परम िहत हो।

म पुिन समुिझ दीिख मन माह । िपय िबयोग सम दुखु जग नाह ॥

परं तु मने मन म समझकर देख िलया िक पित के िवयोग के समान जगत म कोई दुःख नह है।

दो० - ाननाथ क नायतन संदु र सख ु द सज


ु ान।
तु ह िबनु रघक
ु ु ल कुमदु िबधु सरु परु नरक समान॥ 64॥

हे ाणनाथ! हे दया के धाम! हे सुंदर! हे सुख के देनेवाले! हे सुजान! हे रघुकुल पी कुमुद के


िखलानेवाले चं मा! आपके िबना वग भी मेरे िलए नरक के समान है॥ 64॥

मातु िपता भिगनी ि य भाई। ि य प रवा सु द समदु ाई॥


सासु ससरु गरु सजन सहाई। सत ु संदु र सस
ु ील सख
ु दाई॥

माता, िपता, बहन, यारा भाई, यारा प रवार, िम का समुदाय, सास, ससुर, गु , वजन (बंधु-
बांधव), सहायक और सुंदर, सुशील और सुख देनेवाला पु - ।

जहँ लिग नाथ नेह अ नाते। िपय िबनु ितयिह तरिनह ते ताते॥
तनु धनु धामु धरिन परु राजू। पित िबहीन सबु सोक समाजू॥

हे नाथ! जहाँ तक नेह और नाते ह, पित के िबना ी को सय ू से भी बढ़कर तपानेवाले ह।


शरीर, धन, घर, प ृ वी, नगर और रा य, पित के िबना ी के िलए यह सब शोक का समाज है।

भोग रोगसम भूषन भा । जम जातना स रस संसा ॥


ाननाथ तु ह िबनु जग माह । मो कहँ सख
ु द कतहँ कछु नाह ॥

भोग रोग के समान ह, गहने भार प ह और संसार यम-यातना (नरक क पीड़ा) के समान है।
हे ाणनाथ! आपके िबना जगत म मुझे कह कुछ भी सुखदायी नह है।

िजय िबनु देह नदी िबनु बारी। तैिसअ नाथ पु ष िबनु नारी॥
नाथ सकल सख ु साथ तु हार। सरद िबमल िबधु बदनु िनहार॥

जैसे िबना जीव के देह और िबना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ! िबना पु ष के ी है। हे नाथ!
आपके साथ रहकर आपका शरद-(पिू णमा) के िनमल चं मा के समान मुख देखने से मुझे
सम त सुख ा ह गे।

दो० - खग मग ृ प रजन नग बनु बलकल िबमल दकु ू ल।


नाथ साथ सरु सदन सम परनसाल सखु मूल॥ 65॥

हे नाथ! आपके साथ प ी और पशु ही मेरे कुटुंबी ह गे, वन ही नगर और व ृ क छाल ही िनमल
व ह गे और पणकुटी (प क बनी झोपड़ी) ही वग के समान सुख क मल ू होगी॥ 65॥

बनदेब बनदेव उदारा। क रहिहं सासु ससरु सम सारा॥


कुस िकसलय साथरी सहु ाई। भु सँग मंजु मनोज तरु ाई॥

उदार दय के वनदेवी और वनदेवता ही सास-ससुर के समान मेरी सार-सँभार करगे, और कुशा


और प क सुंदर साथरी (िबछौना) ही भु के साथ कामदेव क मनोहर तोशक के समान
होगी।

कंद मूल फल अिमअ अहा । अवध सौध सत स रस पहा ॥


िछनु िछनु भु पद कमल िबलोक । रिहहउँ मिु दत िदवस िजिम कोक ॥

कंद, मलू और फल ही अमत ृ के समान आहार ह गे और (वन के) पहाड़ ही अयो या के सैकड़
राजमहल के समान ह गे। ण- ण म भु के चरण कमल को देख-देखकर म ऐसी आनंिदत
रहँगी जैसे िदन म चकवी रहती है।

बन दखु नाथ कहे बहतेरे। भय िबषाद प रताप घनेरे॥


भु िबयोग लवलेस समाना। सब िमिल होिहं न कृपािनधाना॥

हे नाथ! आपने वन के बहत-से दुःख और बहत-से भय, िवषाद और संताप कहे । परं तु हे
कृपािनधान! वे सब िमलकर भी भु (आप) के िवयोग (से होनेवाले दुःख) के लवलेश के समान
भी नह हो सकते।
अस िजयँ जािन सज
ु ान िसरोमिन। लेइअ संग मोिह छािड़अ जिन॥
िबनती बहत कर का वामी। क नामय उर अंतरजामी॥

ऐसा जी म जानकर, हे सुजान िशरोमिण! आप मुझे साथ ले लीिजए, यहाँ न छोिड़ए। हे वामी! म
अिधक या िवनती क ँ ? आप क णामय ह और सबके दय के अंदर क जाननेवाले ह।

दो० - रािखअ अवध जो अविध लिग रहत न जिनअिहं ान।


दीनबंधु संदु र सख
ु द सील सनेह िनधान॥ 66॥

हे दीनबंधु! हे सुंदर! हे सुख देनेवाले! हे शील और ेम के भंडार! यिद अविध (चौदह वष) तक
मुझे अयो या म रखते ह, तो जान लीिजए िक मेरे ाण नह रहगे॥ 66॥

मोिह मग चलत न होइिह हारी। िछनु िछनु चरन सरोज िनहारी॥


सबिह भाँित िपय सेवा क रह । मारग जिनत सकल म ह रह ॥

ण- ण म आपके चरण कमल को देखते रहने से मुझे माग चलने म थकावट न होगी। हे
ि यतम! म सभी कार से आपक सेवा क ँ गी और माग चलने से होनेवाली सारी थकावट को
दूर कर दँूगी।

पाय पखा र बैिठ त छाह । क रहउँ बाउ मिु दत मन माह ॥


म कन सिहत याम तनु देख। कहँ दख ु समउ ानपित पेख॥

आपके पैर धोकर, पेड़ क छाया म बैठकर, मन म स न होकर हवा क ँ गी (पंखा झलँग
ू ी)।
पसीने क बँदू सिहत याम शरीर को देखकर - ाणपित के दशन करते हए दुःख के िलए मुझे
अवकाश ही कहाँ रहे गा।

सम मिह तन ृ त प लव डासी। पाय पलोिटिह सब िनिस दासी॥


बार बार मदृ ु मूरित जोही। लािगिह तात बया र न मोही॥

समतल भिू म पर घास और पेड़ के प े िबछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार
आपक कोमल मिू त को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी।

को भु सँग मोिह िचतविनहारा। िसंघबधिु ह िजिम ससक िसआरा॥


म सक
ु ु मा र नाथ बन जोगू। तु हिह उिचत तप मो कहँ भोगू॥

भु के साथ (रहते) मेरी ओर (आँख उठाकर) देखनेवाला कौन है (अथात कोई नह देख
सकता)! जैसे िसंह क ी (िसंहनी) को खरगोश और िसयार नह देख सकते। म सुकुमारी हँ
और नाथ वन के यो य ह? आपको तो तप या उिचत है और मुझको िवषय-भोग?
दो० - ऐसेउ बचन कठोर सिु न ज न दउ िबलगान।
तौ भु िबषम िबयोग दख
ु सिहहिहं पावँर ान॥ 67॥

ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा दय न फटा तो, हे भु! (मालम


ू होता है) ये पामर ाण
आपके िवयोग का भीषण दुःख सहगे॥ 67॥

अस किह सीय िबकल भइ भारी। बचन िबयोगु न सक सँभारी॥


देिख दसा रघप
ु ित िजयँ जाना। हिठ राख निहं रािखिह ाना॥

ऐसा कहकर सीता बहत ही याकुल हो गई ं। वे वचन के िवयोग को भी न स हाल सक । (अथात


शरीर से िवयोग क बात तो अलग रही, वचन से भी िवयोग क बात सुनकर वे अ यंत िवकल हो
गई ं।) उनक यह दशा देखकर रघुनाथ ने अपने जी म जान िलया िक हठपवू क इ ह यहाँ रखने
से ये ाण को न रखगी।

कहेउ कृपाल भानकु ु लनाथा। प रह र सोचु चलह बन साथा॥


निहं िबषाद कर अवस आजू। बेिग करह बन गवन समाजू॥

ू कुल के वामी राम ने कहा िक सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज


तब कृपालु, सय
िवषाद करने का अवसर नह है। तुरंत वनगमन क तैयारी करो।

किह ि य बचन ि या समझु ाई। लगे मातु पद आिसष पाई॥


बेिग जा दख
ु मेटब आई। जननी िनठुर िबस र जिन जाई॥

राम ने ि य वचन कहकर ि यतमा सीता को समझाया। िफर माता के पैर लगकर आशीवाद ा
िकया। (माता ने कहा -) बेटा! ज दी लौटकर जा के दुःख को िमटाना और यह िनठुर माता
तु ह भलू न जाए!

िफ रिह दसा िबिध बह र िक मोरी। देिखहउँ नयन मनोहर जोरी।


सिु दन सघ
ु री तात कब होइिह। जननी िजअत बदन िबधु जोइिह॥

हे िवधाता! या मेरी दशा भी िफर पलटेगी? या अपने ने से म इस मनोहर जोड़ी को िफर देख
पाऊँगी? हे पु ! वह सुंदर िदन और शुभ घड़ी कब होगी जब तु हारी जननी जीते-जी तु हारा
चाँद-सा मुखड़ा िफर देखेगी!

दो० - बह र ब छ किह लालु किह रघपु ित रघब


ु र तात।
कबिहं बोलाइ लगाइ िहयँ हरिष िनरिखहउँ गात॥ 68॥

हे तात! 'व स' कहकर, 'लाल' कहकर, 'रघुपित' कहकर, 'रघुवर' कहकर, म िफर कब तु ह
बुलाकर दय से लगाऊँगी और हिषत होकर तु हारे अंग को देखँग ू ी!॥ 68॥
लिख सनेह कात र महतारी। बचनु न आव िबकल भइ भारी॥
राम बोधु क ह िबिध नाना। समउ सनेह न जाइ बखाना॥

यह देखकर िक माता नेह के मारे अधीर हो गई ह और इतनी अिधक याकुल ह िक मँुह से


वचन नह िनकलता, राम ने अनेक कार से उ ह समझाया। वह समय और नेह वणन नह
िकया जा सकता।

तब जानक सासु पग लागी। सिु नअ माय म परम अभागी॥


सेवा समय दैअँ बनु दी हा। मोर मनोरथु सफल न क हा॥

तब जानक सास के पाँव लग और बोल - हे माता! सुिनए, म बड़ी ही अभािगनी हँ। आपक सेवा
करने के समय दैव ने मुझे वनवास दे िदया। मेरा मनोरथ सफल न िकया।

तजब छोभु जिन छािड़अ छोह। करमु किठन कछु दोसु न मोह॥
सिु निसय बचन सासु अकुलानी। दसा कविन िबिध कह बखानी॥

आप ोभ का याग कर द, परं तु कृपा न छोिड़एगा। कम क गित किठन है, मुझे भी कुछ दोष
नह है। सीता के वचन सुनकर सास याकुल हो गई ं। उनक दशा को म िकस कार बखान कर
कहँ!

बारिहं बार लाइ उर ली ही। ध र धीरजु िसख आिसष दी ही॥


अचल होउ अिहवातु तु हारा। जब लिग गंग जमन ु जल धारा॥

उ ह ने सीता को बार-बार दय से लगाया और धीरज धरकर िश ा दी और आशीवाद िदया िक


जब तक गंगा और यमुना म जल क धारा बहे , तब तक तु हारा सुहाग अचल रहे ।

दो० - सीतिह सासु आसीस िसख दीि ह अनेक कार।


चली नाइ पद पदमु िस अित िहत बारिहं बार॥ 69॥

सीता को सास ने अनेक कार से आशीवाद और िश ाएँ द और वे (सीता) बड़े ही ेम से बार-


बार चरणकमल म िसर नवाकर चल ॥ 69॥

समाचार जब लिछमन पाए। याकुल िबलख बदन उिठ धाए॥


कंप पल े अधीरा॥
ु क तन नयन सनीरा। गहे चरन अित म

जब ल मण ने समाचार पाए, तब वे याकुल होकर उदास-मँुह उठ दौड़े । शरीर काँप रहा है,
रोमांच हो रहा है, ने आँसुओ ं से भरे ह। ेम से अ यंत अधीर होकर उ ह ने राम के चरण पकड़
िलए।
किह न सकत कछु िचतवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल त काढ़े॥
सोचु दयँ िबिध का होिनहारा। सबु सख
ु ु सक
ु ृ तु िसरान हमारा॥

वे कुछ कह नह सकते, खड़े -खड़े देख रहे ह। (ऐसे दीन हो रहे ह) मानो जल से िनकाले जाने
पर मछली दीन हो रही हो। दय म यह सोच है िक हे िवधाता! या होनेवाला है? या हमारा सब
सुख और पु य परू ा हो गया?

मो कहँ काह कहब रघन ु ाथा। रिखहिहं भवन िक लेहिहं साथा॥


राम िबलोिक बंधु कर जोर। देह गेह सब सन तनृ ु तोर॥

मुझको रघुनाथ या कहगे? घर पर रखगे या साथ ले चलगे? राम ने भाई ल मण को हाथ जोड़े
और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हए खड़े देखा।

बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सखु सागर॥


तात म े बस जिन कदराह। समिु झ दयँ प रनाम उछाह॥

तब नीित म िनपुण और शील, नेह, सरलता और सुख के समु राम वचन बोले - हे तात!
प रणाम म होनेवाले आनंद को दय म समझकर तुम ेमवश अधीर मत होओ।

दो० - मातु िपता गु वािम िसख िसर ध र करिहं सभ


ु ायँ।
लहेउ लाभु ित ह जनम कर नत जनमु जग जायँ॥ 70॥

जो लोग माता, िपता, गु और वामी क िश ा को वाभािवक ही िसर चढ़ाकर उसका पालन


करते ह, उ ह ने ही ज म लेने का लाभ पाया है; नह तो जगत म ज म यथ ही है॥ 70॥

अस िजयँ जािन सन ु ह िसख भाई। करह मातु िपतु पद सेवकाई॥


भवन भरतु रपसु ूदनु नाह । राउ ब ृ मम दख
ु ु मन माह ॥

हे भाई! दय म ऐसा जानकर मेरी सीख सुनो और माता-िपता के चरण क सेवा करो। भरत और
श ु न घर पर नह ह, महाराज व ृ ह और उनके मन म मेरा दुःख है।

म बन जाउँ तु हिह लेइ साथा। होइ सबिह िबिध अवध अनाथा॥


गु िपतु मातु जा प रवा । सब कहँ परइ दस ु ह दख
ु भा ॥

इस अव था म म तुमको साथ लेकर वन जाऊँ तो अयो या सभी कार से अनाथ हो जाएगी। गु ,


िपता, माता, जा और प रवार सभी पर दुःख का दुःसह भार आ पड़े गा।

रहह करह सब कर प रतोषू। नत तात होइिह बड़ दोषू॥


जासु राज ि य जा दख
ु ारी। सो नप
ृ ु अविस नरक अिधकारी॥
अतः तुम यह रहो और सबका संतोष करते रहो। नह तो हे तात! बड़ा दोष होगा। िजसके रा य म
यारी जा दुःखी रहती है, वह राजा अव य ही नरक का अिधकारी होता है।

रहह तात अिस नीित िबचारी। सन


ु त लखनु भए याकुल भारी॥
िसअर बचन सूिख गए कैस। परसत तिु हन तामरसु जैस॥

हे तात! ऐसी नीित िवचारकर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही ल मण बहत ही याकुल हो गए!
इन शीतल वचन से वे कैसे सखू गए, जैसे पाले के पश से कमल सखू जाता है!

दो० - उत न आवत म े बस गहे चरन अकुलाइ।


नाथ दासु म वािम तु ह तजह त काह बसाइ॥ 71॥

ेमवश ल मण से कुछ उ र देते नह बनता। उ ह ने याकुल होकर राम के चरण पकड़ िलए
और कहा - हे नाथ! म दास हँ और आप वामी ह; अतः आप मुझे छोड़ ही द तो मेरा या वश है?॥
71॥

दीि ह मोिह िसख नीिक गोसाई ं। लािग अगम अपनी कदराई ं॥


नरबर धीर धरम धरु धारी। िनगम नीित कहँ ते अिधकारी॥

हे वामी! आपने मुझे सीख तो बड़ी अ छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे िलए अगम
(पहँच के बाहर) लगी। शा और नीित के तो वे ही े पु ष अिधकारी ह, जो धीर ह और धम
क धुरी को धारण करनेवाले ह।

म िससु भु सनेहँ ितपाला। मंद मे िक लेिहं मराला॥


गरु िपतु मातु न जानउँ काह। कहउँ सभ
ु ाउ नाथ पितआह॥

म तो भु (आप) के नेह म पला हआ छोटा ब चा हँ! कह हंस भी मंदराचल या सुमे पवत को


उठा सकते ह! हे नाथ! वभाव से ही कहता हँ, आप िव ास कर, म आपको छोड़कर गु , िपता,
माता िकसी को भी नह जानता।

जहँ लिग जगत सनेह सगाई। ीित तीित िनगम िनजु गाई॥
मोर सबइ एक तु ह वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी॥

जगत म जहाँ तक नेह का संबंध, ेम और िव ास है, िजनको वयं वेद ने गाया है - हे वामी!
हे दीनबंधु! हे सबके दय के अंदर क जाननेवाले! मेरे तो वे सब कुछ केवल आप ही ह।

धरम नीित उपदेिसअ ताही। क रित भूित सग


ु ित ि य जाही॥
मन म बचन चरन रत होई। कृपािसंधु प रह रअ िक सोई॥
धम और नीित का उपदेश तो उसको करना चािहए, िजसे क ित, िवभिू त (ऐ य) या स ित यारी
हो, िकंतु जो मन, वचन और कम से चरण म ही ेम रखता हो, हे कृपािसंधु! या वह भी यागने
के यो य है?

ु ंधु के सिु न मदृ ु बचन िबनीत।


दो० - क नािसंधु सब
समझु ाए उर लाइ भु जािन सनेहँ सभीत॥ 72॥

दया के समु राम ने भले भाई के कोमल और न तायु वचन सुनकर और उ ह नेह के
कारण डरे हए जानकर, दय से लगाकर समझाया॥ 72॥

मागह िबदा मातु सन जाई। आवह बेिग चलह बन भाई॥


मिु दत भए सिु न रघब
ु र बानी। भयउ लाभ बड़ गइ बिड़ हानी॥

(और कहा -) हे भाई! जाकर माता से िवदा माँग आओ और ज दी वन को चलो! रघुकुल म े


राम क वाणी सुनकर ल मण आनंिदत हो गए। बड़ी हािन दूर हो गई और बड़ा लाभ हआ!

हरिषत दयँ मातु पिहं आए। मनहँ अंध िफ र लोचन पाए॥


जाइ जनिन पग नायउ माथा। मनु रघन ु ंदन जानिक साथा॥

वे हिषत दय से माता सुिम ा के पास आए, मानो अंधा िफर से ने पा गया हो। उ ह ने जाकर
माता के चरण म म तक नवाया, िकंतु उनका मन रघुकुल को आनंद देनेवाले राम और जानक
के साथ था।

पँूछे मातु मिलन मन देखी। लखन कही सब कथा िबसेषी।


गई सहिम सिु न बचन कठोरा। मगृ ी देिख दव जनु चहँ ओरा॥

माता ने उदास मन देखकर उनसे (कारण) पछ


ू ा। ल मण ने सब कथा िव तार से कह सुनाई।
सुिम ा कठोर वचन को सुनकर ऐसी सहम गई ं जैसे िहरनी चार ओर वन म आग लगी देखकर
सहम जाती है।

लखन लखेउ भा अनरथ आजू। एिहं सनेह सब करब अकाजू॥


मागत िबदा सभय सकुचाह । जाइ संग िबिध किहिह िक नाह ॥

ल मण ने देखा िक आज (अब) अनथ हआ। ये नेह वश काम िबगाड़ दगी! इसिलए वे िवदा
माँगते हए डर के मारे सकुचाते ह (और मन-ही-मन सोचते ह) िक हे िवधाता! माता साथ जाने
को कहगी या नह ।

दो० - समिु झ सिु म ाँ राम िसय पु सस


ु ीलु सभ
ु ाउ।
नपृ सनेह लिख धन ु उे िस पािपिन दी ह कुदाउ॥ 73॥
सुिम ा ने राम और सीता के प, सुंदर शील और वभाव को समझकर और उन पर राजा का
ेम देखकर अपना िसर धुना (पीटा) और कहा िक पािपनी कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया॥
73॥

धीरजु धरे उ कुअवसर जानी। सहज सु द बोली मदृ ु बानी॥


तात तु हा र मातु बैदहे ी। िपता रामु सब भाँित सनेही॥

परं तु कुसमय जानकर धैय धारण िकया और वभाव से ही िहत चाहनेवाली सुिम ा कोमल वाणी
से बोल - हे तात! जानक तु हारी माता ह और सब कार से नेह करनेवाले राम तु हारे िपता
ह!

अवध तहाँ जहँ राम िनवासू। तहँइँ िदवसु जहँ भानु कासू॥
ज पै सीय रामु बन जाह । अवध तु हार काजु कछु नाह ॥

जहाँ राम का िनवास हो वह अयो या है। जहाँ सय


ू का काश हो वह िदन है। यिद िन य ही
सीताराम वन को जाते ह, तो अयो या म तु हारा कुछ भी काम नह है।

गरु िपतु मातु बंधु सरु साई ं। सेइअिहं सकल ान क नाई ं॥


रामु ानि य जीवन जी के। वारथ रिहत सखा सबही के॥

गु , िपता, माता, भाई, देवता और वामी, इन सबक सेवा ाण के समान करनी चािहए। िफर
राम तो ाण के भी ि य ह, दय के भी जीवन ह और सभी के वाथरिहत सखा ह।

पूजनीय ि य परम जहाँ त। सब मािनअिहं राम के नात॥


अस िजयँ जािन संग बन जाह। लेह तात जग जीवन लाह॥

जगत म जहाँ तक पज ू नीय और परम ि य लोग ह, वे सब राम के नाते से ही (पज


ू नीय और परम
ि य) मानने यो य ह। दय म ऐसा जानकर, हे तात! उनके साथ वन जाओ और जगत म जीने
का लाभ उठाओ!

दो० - भू र भाग भाजनु भयह मोिह समेत बिल जाउँ ।


ज तु हर मन छािड़ छलु क ह राम पद ठाउँ ॥ 74॥

म बिलहारी जाती हँ, (हे पु !) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभा य के पा हए, जो तु हारे िच ने छल
छोड़कर राम के चरण म थान ा िकया है॥ 74॥

पु वती जुबती जग सोई। रघप


ु ित भगतु जासु सतु ु होई॥
नत बाँझ भिल बािद िबआनी। राम िबमख ु सत ु त िहत जानी॥
संसार म वही युवती ी पु वती है, िजसका पु रघुनाथ का भ हो। नह तो जो राम से िवमुख
पु से अपना िहत जानती है, वह तो बाँझ ही अ छी। पशु क भाँित उसका याना (पु सव
करना) यथ ही है।

तु हरे िहं भाग रामु बन जाह । दूसर हेतु तात कछु नाह ॥
सकल सक ु ृ त कर बड़ फलु एह। राम सीय पद सहज सनेह॥

तु हारे ही भा य से राम वन को जा रहे ह। हे तात! दूसरा कोई कारण नह है। संपण


ू पु य का
सबसे बड़ा फल यही है िक सीताराम के चरण म वाभािवक ेम हो।

रागु रोषु इ रषा मदु मोह। जिन सपनेहँ इ ह के बस होह॥


सकल कार िबकार िबहाई। मन म बचन करे ह सेवकाई॥

राग, रोष, ई या, मद और मोह - इनके वश व न म भी मत होना। सब कार के िवकार का


याग कर मन, वचन और कम से सीताराम क सेवा करना।

तु ह कहँ बन सब भाँित सप ु ासू। सँग िपतु मातु रामु िसय जासू॥


जेिहं न रामु बन लहिहं कलेसू। सतु सोइ करे ह इहइ उपदेसू॥

तुमको वन म सब कार से आराम है, िजसके साथ राम और सीता प िपता-माता ह। हे पु ! तुम
वही करना िजससे राम वन म लेश न पाएँ , मेरा यही उपदेश है।

छं ० - उपदेसु यह जेिहं तात तु हरे राम िसय सख


ु पावह ।
िपतु मातु ि य प रवार परु सख ु सरु ित बन िबसरावह ॥
तलु सी भिु ह िसख देइ आयसु दी ह पिु न आिसष दई।
रित होउ अिबरल अमल िसय रघब ु ीर पद िनत-िनत नई॥

हे तात! मेरा यही उपदेश है (अथात तुम वही करना) िजससे वन म तु हारे कारण राम और सीता
सुख पाव और िपता, माता, ि य प रवार तथा नगर के सुख क याद भल ू जाएँ । तुलसीदास कहते
ह िक सुिम ा ने इस कार हमारे भु (ल मण) को िश ा देकर (वन जाने क ) आ ा दी और
िफर यह आशीवाद िदया िक सीता और रघुवीर के चरण म तु हारा िनमल (िन काम और अन य)
एवं गाढ़ ेम िनत-िनत नया हो!

सो० - मातु चरन िस नाइ चले तरु त संिकत दयँ।


बागरु िबषम तोराइ मनहँ भाग मग
ृ ु भाग बस॥ 75॥

माता के चरण म िसर नवाकर, दय म डरते हए (िक अब भी कोई िव न न आ जाए) ल मण


तुरंत इस तरह चल िदए जैसे सौभा यवश कोई िहरन किठन फंदे को तुड़ाकर भाग िनकला हो॥
75॥

गए लखनु जहँ जानिकनाथू। भे मन मिु दत पाइ ि य साथू॥


बंिद राम िसय चरन सहु ाए। चले संग नप
ृ मंिदर आए॥

ल मण वहाँ गए जहाँ जानक नाथ थे और ि य का साथ पाकर मन म बड़े ही स न हए। राम


और सीता के सुंदर चरण क वंदना करके वे उनके साथ चले और राजभवन म आए।

कहिहं परसपर परु नर नारी। भिल बनाइ िबिध बात िबगारी॥


तन कृस मन दखु ु बदन मलीने। िबकल मनहँ माखी मधु छीने॥

नगर के ी-पु ष आपस म कह रहे ह िक िवधाता ने खबू बनाकर बात िबगाड़ी! उनके शरीर
दुबले, मन दुःखी और मुख उदास हो रहे ह। वे ऐसे याकुल ह, जैसे शहद छीन िलए जाने पर
शहद क मि खयाँ याकुल ह ।

कर मीजिहं िस धिु न पिछताह । जनु िबनु पंख िबहग अकुलाह ॥


भइ बिड़ भीर भूप दरबारा। बरिन न जाइ िबषादु अपारा॥

सब हाथ मल रहे ह और िसर धुनकर (पीटकर) पछता रहे ह। मानो िबना पंख के प ी याकुल हो
रहे ह । राज ार पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार िवषाद का वणन नह िकया जा सकता।

सिचवँ उठाइ राउ बैठारे । किह ि य बचन रामु पगु धारे ॥


िसय समेत दोउ तनय िनहारी। याकुल भयउ भूिमपित भारी॥

'राम पधारे ह', ये ि य वचन कहकर मं ी ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सिहत दोन पु को
(वन के िलए तैयार) देखकर राजा बहत याकुल हए।

दो० - सीय सिहत सत ु सभु ग दोउ देिख देिख अकुलाइ।


बारिहं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ॥ 76॥

सीता सिहत दोन सुंदर पु को देख-देखकर राजा अकुलाते ह और नेह वश बारं बार उ ह दय
से लगा लेते ह॥ 76॥

सकइ न बोिल िबकल नरनाह। सोक जिनत उर दा न दाह॥


नाइ सीसु पद अित अनरु ागा। उिठ रघब
ु ीर िबदा तब मागा॥

राजा याकुल ह, बोल नह सकते। दय म शोक से उ प न हआ भयानक संताप है। तब रघुकुल


के वीर राम ने अ यंत ेम से चरण म िसर नवाकर उठकर िवदा माँगी -
िपतु असीस आयसु मोिह दीजै। हरष समय िबसमउ कत क जै॥
े मादू। जसु जग जाइ होइ अपबादू॥
तात िकएँ ि य म

हे िपता! मुझे आशीवाद और आ ा दीिजए। हष के समय आप शोक य कर रहे ह? हे तात! ि य


के ेमवश माद (कत यकम म ुिट) करने से जगत म यश जाता रहे गा और िनंदा होगी।

सिु न सनेह बस उिठ नरनाहाँ। बैठारे रघपु ित गिह बाहाँ॥


सन ु ह तात तु ह कहँ मिु न कहह । रामु चराचर नायक अहह ॥

यह सुनकर नेहवश राजा ने उठकर रघुनाथ क बाँह पकड़कर उ ह बैठा िलया और कहा - हे
तात! सुनो, तु हारे िलए मुिन लोग कहते ह िक राम चराचर के वामी ह।

सभ
ु अ असभ ु करम अनहु ारी। ईसु देइ फलु दयँ िबचारी॥
करइ जो करम पाव फल सोई। िनगम नीित अिस कह सबु कोई॥

शुभ और अशुभ कम के अनुसार ई र दय म िवचारकर फल देता है। जो कम करता है वही फल


पाता है। ऐसी वेद क नीित है, यह सब कोई कहते ह।

दो० - औ करै अपराधु कोउ और पाव फल भोग।ु


अित िबिच भगवंत गित को जग जानै जोग॥ु 77॥

(िकंतु इस अवसर पर तो इसके िवपरीत हो रहा है,) अपराध तो कोई और ही करे और उसके फल
का भोग कोई और ही पावे। भगवान क लीला बड़ी ही िविच है, उसे जानने यो य जगत म कौन
है?॥ 77॥

रायँ राम राखन िहत लागी। बहत उपाय िकए छलु यागी॥
लखी राम ख रहत न जाने। धरम धरु ं धर धीर सयाने॥

राजा ने इस कार राम को रखने के िलए छल छोड़कर बहत-से उपाय िकए, पर जब उ ह ने


धमधुरंधर, धीर और बुि मान राम का ख देख िलया और वे रहते हए न जान पड़े ,

तब नपृ सीय लाइ उर ली ही। अित िहत बहत भाँित िसख दी ही॥
किह बन के दख
ु दसु ह सन
ु ाए। सासु ससरु िपतु सख
ु समझु ाए॥

तब राजा ने सीता को दय से लगा िलया और बड़े ेम से बहत कार क िश ा दी। वन के


दुःसह दुःख कहकर सुनाए। िफर सास, ससुर तथा िपता के (पास रहने के) सुख को समझाया।

िसय मनु राम चरन अनरु ागा। घ न सगु मु बनु िबषमु न लागा॥
औरउ सबिहं सीय समझु ाई। किह किह िबिपन िबपित अिधकाई॥
परं तु सीता का मन राम के चरण म अनुर था। इसिलए उ ह घर अ छा नह लगा और न वन
भयानक लगा। िफर और सब लोग ने भी वन म िवपि य क अिधकता बता-बताकर सीता को
समझाया।

सिचव ना र गरु ना र सयानी। सिहत सनेह कहिहं मदृ ु बानी॥


तु ह कहँ तौ न दी ह बनबासू। करह जो कहिहं ससरु गरु सासू॥

मं ी सुमं क प नी और गु विश क ी अ ं धती तथा और भी चतुर ि याँ नेह के साथ


कोमल वाणी से कहती ह िक तुमको तो (राजा ने) वनवास िदया नह है। इसिलए जो ससुर, गु
और सास कह, तुम तो वही करो।

दो० - िसख सीतिल िहत मधरु मदृ ु सिु न सीतिह न सोहािन।


सरद चंद चंिदिन लगत जनु चकई अकुलािन॥ 78॥

यह शीतल, िहतकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीता को अ छी नह लगी। (वे इस


कार याकुल हो गई ं) मानो शरद ऋतु के चं मा क चाँदनी लगते ही चकई याकुल हो उठी हो॥
78॥

सीय सकुच बस उत न देई। सो सिु न तमिक उठी कैकेई॥


मिु न पट भूषन भाजन आनी। आग ध र बोली मदृ ु बानी॥

सीता संकोचवश उ र नह देत । इन बात को सुनकर कैकेयी तमककर उठी। उसने मुिनय के
व , आभषू ण (माला, मेखला आिद) और बतन (कमंडलु आिद) लाकर राम के आगे रख िदए
और कोमल वाणी से कहा -

नप
ृ िह ानि य तु ह रघब ु ीरा। सील सनेह न छािड़िह भीरा॥
सकु ृ तु सज
ु सु परलोकु नसाऊ। तु हिह जान बन किहिह न काऊ॥

हे रघुवीर! राजा को तुम ाण के समान ि य हो। भी ( ेमवश दुबल दय के) राजा शील और
नेह नह छोड़गे! पु य, संुदर यश और परलोक चाहे न हो जाए, पर तु ह वन जाने को वे
कभी न कहगे।

अस िबचा र सोइ करह जो भावा। राम जनिन िसख सिु न सख


ु ु पावा॥
भूपिह बचन बानसम लागे। करिहं न ान पयान अभागे॥

ऐसा िवचारकर जो तु ह अ छा लगे वही करो। माता क सीख सुनकर राम ने (बड़ा) सुख पाया।
परं तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। (वे सोचने लगे) अब भी अभागे ाण ( य ) नह
िनकलते!
लोग िबकल मु िछत नरनाह। काह क रअ कछु सूझ न काह॥
रामु तरु त मिु न बेषु बनाई। चले जनक जनिनिह िस नाई॥

राजा मिू छत हो गए, लोग याकुल ह। िकसी को कुछ सझ


ू नह पड़ता िक या कर। राम तुरंत
मुिन का वेष बनाकर और माता-िपता को िसर नवाकर चल िदए।

दो० - सिज बन साजु समाजु सबु बिनता बंधु समेत।


बंिद िब गरु चरन भु चले क र सबिह अचेत॥ 79॥

वन का सब साज-सामान सजकर (वन के िलए आव यक व तुओ ं को साथ लेकर) राम ी


(सीता) और भाई (ल मण) सिहत, ा ण और गु के चरण क वंदना करके सबको अचेत
करके चले॥ 79॥

िनकिस बिस ार भए ठाढ़े। देखे लोग िबरह दव दाढ़े॥


किह ि य बचन सकल समझ ु ाए। िब बंदृ रघब
ु ीर बोलाए॥

राजमहल से िनकलकर राम विश के दरवाजे पर जा खड़े हए और देखा िक सब लोग िवरह क


अि न म जल रहे ह। उ ह ने ि य वचन कहकर सबको समझाया, िफर राम ने ा ण क मंडली
को बुलाया।

गरु सन किह बरषासन दी हे। आदर दान िबनय बस क हे॥


जाचक दान मान संतोषे। मीत पन े प रतोषे॥
ु ीत म

गु से कहकर उन सबको वषाशन (वषभर का भोजन) िदए और आदर, दान तथा िवनय से उ ह
वश म कर िलया। िफर याचक को दान और मान देकर संतु िकया तथा िम को पिव ेम से
स न िकया।

दास दास बोलाइ बहोरी। गरु िह स िप बोले कर जोरी॥


सब कै सार सँभार गोसाई ं। करिब जनक जननी क नाई ं॥

िफर दास-दािसय को बुलाकर उ ह गु को स पकर, हाथ जोड़कर बोले - हे गुसाई ं! इन सबक


माता-िपता के समान सार-सँभार (देख-रे ख) करते रिहएगा।

बारिहं बार जो र जुग पानी। कहत रामु सब सन मदृ ु बानी॥


सोइ सब भाँित मोर िहतकारी। जेिह त रहै भआ
ु ल सख ु ारी॥

राम बार-बार दोन हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते ह िक मेरा सब कार से िहतकारी
िम वही होगा िजसक चे ा से महाराज सुखी रह।
दो० - मातु सकल मोरे िबरहँ जेिहं न होिहं दख
ु दीन।
सोइ उपाउ तु ह करे ह सब परु जन परम बीन॥ 80॥

हे परम चतुर पुरवासी स जनो! आप लोग सब वही उपाय क रएगा, िजससे मेरी सब माताएँ मेरे
िवरह के दुःख से दुःखी न ह ॥ 80॥

एिह िबिध राम सबिह समझ


ु ावा। गरु पद पदम
ु हरिष िस नावा॥
गनपित गौ र िगरीसु मनाई। चले असीस पाइ रघरु ाई॥

इस कार राम ने सबको समझाया और हिषत होकर गु के चरणकमल म िसर नवाया। िफर
गणेश, पावती और कैलासपित महादेव को मनाकर तथा आशीवाद पाकर रघुनाथ चले॥

राम चलत अित भयउ िबषादू। सिु न न जाइ परु आरत नादू॥
कुसगनु लंक अवध अित सोकू। हरष िबषाद िबबस सरु लोकू॥

राम के चलते ही बड़ा भारी िवषाद हो गया। नगर का आतनाद (हाहाकर) सुना नह जाता। लंका
म बुरे शकुन होने लगे, अयो या म अ यंत शोक छा गया और देवलोक म सब हष और िवषाद
दोन के वश म हो गए। (हष इस बात का था िक अब रा स का नाश होगा और िवषाद
अयो यावािसय के शोक के कारण था।)

गइ मु छा तब भूपित जागे। बोिल सम


ु ं ु कहन अस लागे॥
रामु चले बन ान न जाह । केिह सख
ु लािग रहत तन माह ॥

मछू ा दूर हई, तब राजा जागे और सुमं को बुलाकर ऐसा कहने लगे - राम वन को चले गए, पर
मेरे ाण नह जा रहे ह। न जाने ये िकस सुख के िलए शरीर म िटक रहे ह।

एिह त कवन यथा बलवाना। जो दख ु ु पाइ तजिहं तनु ाना॥


पिु न ध र धीर कहइ नरनाह। लै रथु संग सखा तु ह जाह॥

इससे अिधक बलवती और कौन-सी यथा होगी िजस दुःख को पाकर ाण शरीर को छोड़गे। िफर
धीरज धरकर राजा ने कहा - हे सखा! तुम रथ लेकर राम के साथ जाओ।

दो० - सिु ठ सक
ु ु मार कुमार दोउ जनकसत
ु ा सकु ु मा र।
रथ चढ़ाइ देखराइ बनु िफरे ह गएँ िदन चा र॥ 81॥

अ यंत सुकुमार दोन कुमार को और सुकुमारी जानक को रथ म चढ़ाकर, वन िदखलाकर चार


िदन के बाद लौट आना॥ 81॥

ज निहं िफरिहं धीर दोउ भाई। स यसंध ढ़ त रघरु ाई॥


तौ तु ह िबनय करे ह कर जोरी। फे रअ भु िमिथलेसिकसोरी॥

यिद धैयवान दोन भाई न लौट - य िक रघुनाथ ण के स चे और ढ़ता से िनयम का पालन


करनेवाले ह - तो तुम हाथ जोड़कर िवनती करना िक हे भो! जनककुमारी सीता को तो लौटा
दीिजए।

जब िसय कानन देिख डेराई। कहेह मो र िसख अवस पाई॥


े ू। पिु िफ रअ बन बहत कलेसू॥
सासु ससरु अस कहेउ सँदस

जब सीता वन को देखकर डर, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना िक तु हारे सास
और ससुर ने ऐसा संदेश कहा है िक हे पु ी! तुम लौट चलो, वन म बहत लेश ह।

िपतगु हृ कबहँ कबहँ ससरु ारी। रहेह जहाँ िच होइ तु हारी॥


एिह िबिध करे ह उपाय कदंबा। िफरइ त होइ ान अवलंबा॥

कभी िपता के घर, कभी ससुराल, जहाँ तु हारी इ छा हो, वह रहना। इस कार तुम बहत-से
उपाय करना। यिद सीता लौट आई ं तो मेरे ाण को सहारा हो जाएगा।

नाािहं त मोर मरनु प रनामा। कछु न बसाइ भएँ िबिध बामा॥


अस किह मु िछ परा मिह राऊ। रामु लखनु िसय आिन देखाऊ॥

नह तो अंत म मेरा मरण ही होगा। िवधाता के िवपरीत होने पर कुछ वश नह चलता। हा! राम,
ल मण और सीता को लाकर िदखाओ। ऐसा कहकर राजा मिू छत होकर प ृ वी पर िगर पड़े ।

दो० - पाइ रजायसु नाइ िस रथु अित बेग बनाइ।


गयउ जहाँ बाहेर नगर सीय सिहत दोउ भाइ॥ 82॥

सुमं राजा क आ ा पाकर, िसर नवाकर और बहत ज दी रथ जुड़वाकर वहाँ गए, जहाँ नगर
के बाहर सीता सिहत दोन भाई थे॥ 82॥

तब समु ं नप
ृ बचन सनु ाए। क र िबनती रथ रामु चढ़ाए॥
चिढ़ रथ सीय सिहत दोउ भाई। चले दयँ अवधिह िस नाई॥

तब (वहाँ पहँचकर) सुमं ने राजा के वचन राम को सुनाए और िवनती करके उनको रथ पर
चढ़ाया। सीता सिहत दोन भाई रथ पर चढ़कर दय म अयो या को िसर नवाकर चले।

चलत रामु लिख अवध अनाथा। िबकल लोग सब लागे साथा॥


कृपािसंधु बहिबिध समझ े बस पिु न िफ र आविहं॥
ु ाविहं। िफरिहं म
राम को जाते हए और अयो या को अनाथ (होते हए) देखकर सब लोग याकुल होकर उनके
साथ हो िलए। कृपा के समु राम उ ह बहत तरह से समझाते ह, तो वे (अयो या क ओर) लौट
जाते ह; परं तु ेमवश िफर लौट आते ह।

लागित अवध भयाविन भारी। मानहँ कालराित अँिधआरी॥


घोर जंतु सम परु नर नारी। डरपिहं एकिह एक िनहारी॥

अयो यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अंधकारमयी कालराि ही हो। नगर के नर-नारी
भयानक जंतुओ ं के समान एक-दूसरे को देखकर डर रहे ह।

घर मसान प रजन जनु भूता। सत ु िहत मीत मनहँ जमदूता॥


बाग ह िबटप बेिल कुि हलाह । स रत सरोवर देिख न जाह ॥

ू - ेत और पु , िहतैषी और िम मानो यमराज के दूत ह। बगीच म व ृ


घर मशान, कुटुंबी भत
और बेल कु हला रही ह। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते ह िक उनक ओर देखा भी नह
जाता।

दो० - हय गय कोिट ह केिलमग


ृ परु पसु चातक मोर।
िपक रथांग सक
ु सा रका सारस हंस चकोर॥ 83॥

करोड़ घोड़े , हाथी, खेलने के िलए पाले हए िहरन, नगर के (गाय, बैल, बकरी आिद) पशु, पपीहे ,
मोर, कोयल, चकवे, तोते, मैना, सारस, हंस और चकोर - ॥ 83॥

राम िबयोग िबकल सब ठाढ़े। जहँ तहँ मनहँ िच िलिख काढ़े॥


नग सफल बनु गहबर भारी। खग मग ृ िबपलु सकल नर नारी॥

राम के िवयोग म सभी याकुल हए जहाँ-तहाँ (ऐसे चुपचाप ि थर होकर) खड़े ह, मानो तसवीर
म िलखकर बनाए हए ह। नगर मानो फल से प रपण ू बड़ा भारी सघन वन था। नगर िनवासी सब
ी-पु ष बहत-से पशु-प ी थे। (अथात अवधपुरी अथ, धम, काम, मो चार फल को देनेवाली
नगरी थी और सब ी-पु ष सुख से उन फल को ा करते थे।)

िबिध कैकई िकराितिन क ही। जेिहं दव दस


ु ह दसहँ िदिस दी ही॥
सिह न सके रघब
ु र िबरहागी। चले लोग सब याकुल भागी॥

िवधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, िजसने दस िदशाओं म दुःसह दावाि न (भयानक आग)
लगा दी। राम के िवरह क इस अि न को लोग सह न सके। सब लोग याकुल होकर भाग चले।

सबिहं िबचा क ह मन माह । राम लखन िसय िबनु सख ु ु नाह ॥


जहाँ रामु तहँ सबइु समाजू। िबनु रघब
ु ीर अवध निहं काजू॥
सबने मन म िवचार कर िलया िक राम, ल मण और सीता के िबना सुख नह है। जहाँ राम रहगे,
वह सारा समाज रहे गा। राम के िबना अयो या म हम लोग का कुछ काम नह है।

चले साथ अस मं ु ढ़ाई। सरु दल


ु भ सख
ु सदन िबहाई॥
राम चरन पंकज ि य िज हही। िबषय भोग बस करिहं िक ित हही॥

ऐसा िवचार ढ़ करके देवताओं को भी दुलभ सुख से पण


ू घर को छोड़कर सब राम के साथ चल
पड़े । िजनको राम के चरणकमल यारे ह, उ ह या कभी िवषय भोग वश म कर सकते ह।

दो० - बालक ब ृ िबहाइ गहृ ँ लगे लोग सब साथ।


तमसा तीर िनवासु िकय थम िदवस रघन ु ाथ॥ 84॥

ब च और बढ़ ू को घर म छोड़कर सब लोग साथ हो िलए। पहले िदन रघुनाथ ने तमसा नदी के


तीर पर िनवास िकया॥ 84॥

रघप
ु ित जा मे बस देखी। सदय दयँ दख ु ु भयउ िबसेषी॥
क नामय रघनु ाथ गोसाँई। बेिग पाइअिहं पीर पराई॥

जा को ेमवश देखकर रघुनाथ के दयालु दय म बड़ा दुःख हआ। भु रघुनाथ क णामय ह।


पराई पीड़ा को वे तुरंत पा जाते ह (अथात दूसरे का दुःख देखकर वे तुरंत वयं दुःिखत हो जाते
ह)।

े मदृ ु बचन सहु ाए। बहिबिध राम लोग समझ


किह स म ु ाए॥
िकए धरम उपदेस घनेरे। लोग म े बस िफरिहं न फेरे ॥

ेमयु कोमल और सुंदर वचन कहकर राम ने बहत कार से लोग को समझाया और बहतेरे
धम संबंधी उपदेश िदए; परं तु ेमवश लोग लौटाए लौटते नह ।

सीलु सनेह छािड़ निहं जाई। असमंजस बस भे रघरु ाई॥


लोग सोग म बस गए सोई। कछुक देवमायाँ मित मोई॥

शील और नेह छोड़ा नह जाता। रघुनाथ असमंजस के अधीन हो गए (दुिवधा म पड़ गए)। शोक
और प र म (थकावट) के मारे लोग सो गए और कुछ देवताओं क माया से भी उनक बुि
मोिहत हो गई।

जबिहं जाम जग
ु जािमिन बीती। राम सिचव सन कहेउ स ीती॥
खोज मा र रथु हाँकह ताता। आन उपायँ बिनिह निहं बाता॥
जब दो पहर बीत गई, तब राम ने ेमपवू क मं ी सुमं से कहा - हे तात! रथ के खोज मारकर
(अथात पिहय के िच से िदशा का पता न चले इस कार) रथ को हाँिकए। और िकसी उपाय से
बात नह बनेगी।

दो० - राम लखन िसय जान चिढ़ संभु चरन िस नाइ।


सिचवँ चलायउ तरु त रथु इत उत खोज दरु ाइ॥ 85॥

शंकर के चरण म िसर नवाकर राम, ल मण और सीता रथ पर सवार हए। मं ी ने तुरंत ही रथ


को इधर-उधर खोज िछपाकर चला िदया॥ 85॥

जागे सकल लोग भएँ भो । गे रघन ु ाथ भयउ अित सो ॥


रथ कर खोज कतहँ निहं पाविहं। राम राम किह चहँ िदिस धाविहं॥

सबेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा िक रघुनाथ चले गए। कह रथ का खोज नह
पाते, सब 'हा राम! हा राम!' पुकारते हए चार ओर दौड़ रहे ह।

मनहँ बा रिनिध बूड़ जहाजू। भयउ िबकल बड़ बिनक समाजू॥


एकिह एक देिहं उपदेसू। तजे राम हम जािन कलेसू॥

मानो समु म जहाज डूब गया हो, िजससे यापा रय का समुदाय बहत ही याकुल हो उठा हो। वे
एक-दूसरे को उपदेश देते ह िक राम ने, हम लोग को लेश होगा, यह जानकर छोड़ िदया है।

िनंदिहं आपु सराहिहं मीना। िधग जीवनु रघब


ु ीर िबहीना॥
ज पै ि य िबयोगु िबिध क हा। तौ कस मरनु न माग दी हा॥

वे लोग अपनी िनंदा करते ह और मछिलय क सराहना करते ह। (कहते ह -) राम के िबना हमारे
जीने को िध कार है। िवधाता ने यिद यारे का िवयोग ही रचा, तो िफर उसने माँगने पर म ृ यु
य नह दी!

एिह िबिध करत लाप कलापा। आए अवध भरे प रतापा॥


िबषम िबयोगु न जाइ बखाना। अविध आस सब राखिहं ाना॥

इस कार बहत-से लाप करते हए वे संताप से भरे हए अयो या म आए। उन लोग के िवषम
िवयोग क दशा का वणन नह िकया जा सकता। (चौदह साल क ) अविध क आशा से ही वे
ाण को रख रहे ह।

दो० - राम दरस िहत नेम त लगे करन नर ना र।


मनहँ कोक कोक कमल दीन िबहीन तमा र॥ 86॥
(सब) ी-पु ष राम के दशन के िलए िनयम और त करने लगे और ऐसे दुःखी हो गए जैसे
चकवा, चकवी और कमल सय ू के िबना दीन हो जाते ह॥ 86॥

सीता सिचव सिहत दोउ भाई। संगृ बेरपरु पहँचे जाई॥


उतरे राम देवस र देखी। क ह दंडवत हरषु िबसेषी॥

सीता और मं ी सिहत दोन भाई ंग ृ वेरपुर जा पहँचे। वहाँ गंगा को देखकर राम रथ से उतर पड़े
और बड़े हष के साथ उ ह ने दंडवत क ।

लखन सिचवँ िसयँ िकए नामा। सबिह सिहत सखु ु पायउ रामा॥
गंग सकल मदु मंगल मूला। सब सख
ु करिन हरिन सब सूला॥

ल मण, सुमं और सीता ने भी णाम िकया। सबके साथ राम ने सुख पाया। गंगा सम त
आनंद-मंगल क मलू ह। वे सब सुख को करनेवाली और सब पीड़ाओं को हरनेवाली ह।

किह किह कोिटक कथा संगा। रामु िबलोकिहं गंग तरं गा॥
सिचविह अनज
ु िह ि यिह सन
ु ाई। िबबध
ु नदी मिहमा अिधकाई॥

अनेक कथा संग कहते हए राम गंगा क तरं ग को देख रहे ह। उ ह ने मं ी को, छोटे भाई
ल मण को और ि या सीता को देवनदी गंगा क बड़ी मिहमा सुनाई।

म जनु क ह पंथ म गयऊ। सिु च जलु िपअत मिु दत मन भयऊ॥


सिु मरत जािह िमटइ म भा । तेिह म यह लौिकक यवहा ॥

इसके बाद सबने नान िकया, िजससे माग का सारा म (थकावट) दूर हो गया और पिव जल
पीते ही मन स न हो गया। िजनके मरण मा से (बार-बार ज मने और मरने का) महान म
िमट जाता है, उनको ' म' होना - यह केवल लौिकक यवहार (नरलीला) है।

दो० - सु सि चदानंदमय कंद भानक ु ु ल केत।ु


च रत करत नर अनहु रत संसिृ त सागर सेत॥ु 87॥

शु ( कृितज य ि गुण से रिहत, मायातीत िद य मंगलिव ह) सि चदानंद-कंद व प सय



कुल के वजा प भगवान राम मनु य के स श ऐसे च र करते ह, जो संसार पी समु के
पार उतरने के िलए पुल के समान ह॥ 87॥

यह सिु ध गहु ँ िनषाद जब पाई। मिु दत िलए ि य बंधु बोलाई॥


िलए फल मूल भट भ र भारा। िमलन चलेउ िहयँ हरषु अपारा॥

जब िनषादराज गुह ने यह खबर पाई, तब आनंिदत होकर उसने अपने ि यजन और भाई-बंधुओ ं
को बुला िलया और भट देने के िलए फल, मल
ू (कंद) लेकर और उ ह भार (बहँिगय ) म भरकर
िमलने के िलए चला। उसके दय म हष का पार नह था।

क र दंडवत भट ध र आग। भिु ह िबलोकत अित अनरु ाग॥


सहज सनेह िबबस रघरु ाई। पूँछी कुसल िनकट बैठाई॥

दंडवत करके भट सामने रखकर वह अ यंत ेम से भु को देखने लगा। रघुनाथ ने वाभािवक


नेह के वश होकर उसे अपने पास बैठाकर कुशल पछ
ू ी।

नाथ कुसल पद पंकज देख। भयउँ भागभाजन जन लेख॥


देव धरिन धनु धामु तु हारा। म जनु नीचु सिहत प रवारा॥

िनषादराज ने उ र िदया - हे नाथ! आपके चरणकमल के दशन से ही कुशल है (आपके


चरणारिवंद के दशन कर) आज म भा यवान पु ष क िगनती म आ गया। हे देव! यह प ृ वी,
धन और घर सब आपका है। म तो प रवार सिहत आपका नीच सेवक हँ।

कृपा क रअ परु धा रअ पाऊ। थािपय जनु सबु लोगु िसहाऊ॥


कहेह स य सबु सखा सज ु ाना। मोिह दी ह िपतु आयसु आना॥

अब कृपा करके पुर ( ंग


ृ वेरपुर) म पधा रए और इस दास क ित ा बढ़ाइए, िजससे सब लोग
मेरे भा य क बड़ाई कर। राम ने कहा - हे सुजान सखा! तुमने जो कुछ कहा सब स य है। परं तु
िपता ने मुझको और ही आ ा दी है।

दो० - बरष चा रदस बासु बन मिु न त बेषु अहा ।


ाम बासु निहं उिचत सिु न गहु िह भयउ दख
ु ु भा ॥ 88॥

(उनक आ ानुसार) मुझे चौदह वष तक मुिनय का त और वेष धारण कर और मुिनय के


यो य आहार करते हए वन म ही बसना है, गाँव के भीतर िनवास करना उिचत नह है। यह
सुनकर गुह को बड़ा दुःख हआ॥ 88॥

राम लखन िसय प िनहारी। कहिहं स म े ाम नर नारी॥


ते िपतु मातु कहह सिख कैसे। िज ह पठए बन बालक ऐसे॥

राम, ल मण और सीता के प को देखकर गाँव के ी-पु ष ेम के साथ चचा करते ह। (कोई


कहती है -) हे सखी! कहो तो, वे माता-िपता कैसे ह, िज ह ने ऐसे (सुंदर सुकुमार) बालक को
वन म भेज िदया है।

एक कहिहं भल भूपित क हा। लोयन लाह हमिह िबिध दी हा॥


तब िनषादपित उर अनमु ाना। त िसंसप
ु ा मनोहर जाना॥
कोई एक कहते ह - राजा ने अ छा ही िकया, इसी बहाने हम भी ा ने ने का लाभ िदया। तब
िनषादराज ने दय म अनुमान िकया, तो अशोक के पेड़ को (उनके ठहरने के िलए) मनोहर
समझा।

लै रघन
ु ाथिहं ठाउँ देखावा। कहेउ राम सब भाँित सहु ावा॥
परु जन क र जोहा घर आए। रघब ु र सं या करन िसधाए॥

उसने रघुनाथ को ले जाकर वह थान िदखाया। राम ने (देखकर) कहा िक यह सब कार से


सुंदर है। पुरवासी लोग जोहार (वंदना) करके अपने-अपने घर लौटे और राम सं या करने पधारे ।

गहु ँ सँवा र साँथरी डसाई। कुस िकसलयमय मदृ ल ु सहु ाई॥


सिु च फल मूल मधरु मदृ ु जानी। दोना भ र भ र राखेिस पानी॥

गुह ने (इसी बीच) कुश और कोमल प क कोमल और संुदर साथरी सजाकर िबछा दी और
पिव , मीठे और कोमल देख-देखकर दोन म भर-भरकर फल-मलू और पानी रख िदया (अथवा
अपने हाथ से फल-मल ू दोन म भर-भरकर रख िदए)।

दो० - िसय सम
ु ं ाता सिहत कंद मूल फल खाइ।
सयन क ह रघब ु ंसमिन पाय पलोटत भाइ॥ 89॥

सीता, सुमं और भाई ल मण सिहत कंद-मल


ू -फल खाकर रघुकुल मिण राम लेट गए। भाई
ल मण उनके पैर दबाने लगे॥ 89॥

उठे लखनु भु सोवत जानी। किह सिचविह सोवन मदृ ु बानी॥


कछुक दू र सिज बान सरासन। जागन लगे बैिठ बीरासन॥

िफर भु राम को सोते जानकर ल मण उठे और कोमल वाणी से मं ी सुमं को सोने के िलए
कहकर वहाँ से कुछ दूर पर धनुष-बाण से सजकर, वीरासन से बैठकर जागने (पहरा देने) लगे।

गहु ँ बोलाइ पाह तीती। ठावँ ठावँ राखे अित ीती॥


आपु लखन पिहं बैठेउ जाई। किट भाथी सर चाप चढ़ाई॥

गुह ने िव ासपा पहरे दार को बुलाकर अ यंत ेम से जगह-जगह िनयु कर िदया। और आप


कमर म तरकस बाँधकर तथा धनुष पर बाण चढ़ाकर ल मण के पास जा बैठा।

े बस दयँ िबषादू॥
सोवत भिु ह िनहा र िनषादू। भयउ म
तनु पल
ु िकत जलु लोचन बहई। बचन स म े लखन सन कहई॥
भु को जमीन पर सोते देखकर ेमवश िनषादराज के दय म िवषाद हो आया। उसका शरीर
पुलिकत हो गया और ने से ( ेमा ुओ ं का) जल बहने लगा। वह ेम सिहत ल मण से वचन
कहने लगा -

भूपित भवन सभ
ु ायँ सहु ावा। सरु पित सदनु न पटतर पावा॥
मिनमय रिचत चा चौबारे । जनु रितपित िनज हाथ सँवारे ॥

महाराज दशरथ का महल तो वभाव से ही सुंदर है, इं भवन भी िजसक समानता नह पा


सकता। उसम सुंदर मिणय के रचे चौबारे (छत के ऊपर बँगले) ह, िज ह मानो रित के पित
कामदेव ने अपने ही हाथ सजाकर बनाया है।

दो० - सिु च सिु बिच सभ


ु ोगमय सम
ु न सग
ु ंध सबु ास।
पलँग मंजु मिन दीप जहँ सब िबिध सकल सप ु ास॥ 90॥

जो पिव , बड़े ही िवल ण, सुंदर भोग पदाथ से पण


ू और फूल क सुगंध से सुवािसत ह; जहाँ
सुंदर पलँग और मिणय के दीपक ह तथा सब कार का परू ा आराम है;॥ 90॥

िबिबध बसन उपधान तरु ाई ं। छीर फेन मदृ ु िबसद सहु ाई ं॥


तहँ िसय रामु सयन िनिस करह । िनज छिब रित मनोज मदु हरह ॥

जहाँ (ओढ़ने-िबछाने के) अनेक व , तिकए और ग े ह, जो दूध के फेन के समान कोमल,


िनमल (उ वल) और सुंदर ह; वहाँ (उन चौबार म) सीता और राम रात को सोया करते थे और
अपनी शोभा से रित और कामदेव के गव को हरण करते थे।

ते िसय रामु साथर सोए। िमत बसन िबनु जािहं न जोए॥


मातु िपता प रजन परु बासी। सखा सस
ु ील दास अ दासी॥

वही सीता और राम आज घास-फूस क साथरी पर थके हए िबना व के ही सोए ह। ऐसी दशा म
वे देखे नह जाते। माता, िपता, कुटुंबी, पुरवासी ( जा), िम , अ छे शील- वभाव के दास और
दािसयाँ -

जोगविहं िज हिह ान क नाई ं। मिह सोवत तेइ राम गोसाई ं॥


िपता जनक जग िबिदत भाऊ। ससरु सरु े स सखा रघरु ाऊ॥

सब िजनक अपने ाण क तरह सार-सँभार करते थे, वही भु राम आज प ृ वी पर सो रहे ह।


िजनके िपता जनक ह, िजनका भाव जगत म िस है, िजनके ससुर इं के िम रघुराज
दशरथ ह,

रामचंदु पित सो बैदहे ी। सोवत मिह िबिध बाम न केही॥


िसय रघब
ु ीर िक कानन जोगू। करम धान स य कह लोगू॥

और पित राम ह, वही जानक आज जमीन पर सो रही ह। िवधाता िकसको ितकूल नह होता!
सीता और राम या वन के यो य ह? लोग सच कहते ह िक कम (भा य) ही धान है।

दो० - कैकयनंिदिन मंदमित किठन कुिटलपन क ह।


जेिहं रघन
ु ंदन जानिकिह सख
ु अवसर दख
ु ु दी ह॥ 91॥

कैकयराज क लड़क नीच बुि कैकेयी ने बड़ी ही कुिटलता क , िजसने रघुनंदन राम और
जानक को सुख के समय दुःख िदया॥ 91॥

भइ िदनकर कुल िबटप कुठारी। कुमित क ह सब िब व दख ु ारी॥


भयउ िबषादु िनषादिह भारी। राम सीय मिह सयन िनहारी॥

वह सयू कुल पी व ृ के िलए कु हाड़ी हो गई। उस कुबुि ने संपण


ू िव को दुःखी कर िदया।
राम-सीता को जमीन पर सोते हए देखकर िनषाद को बड़ा दुःख हआ।

बोले लखन मधरु मदृ ु बानी। यान िबराग भगित रस सानी॥


काह न कोउ सख
ु दख ु कर दाता। िनज कृत करम भोग सबु ाता॥

तब ल मण ान, वैरा य और भि के रस से सनी हई मीठी और कोमल वाणी बोले - हे भाई!


कोई िकसी को सुख-दुःख का देनेवाला नह है। सब अपने ही िकए हए कम का फल भोगते ह।

जोग िबयोग भोग भल मंदा। िहत अनिहत म यम म फंदा॥


जनमु मरनु जहँ लिग जग जाल।ू संपित िबपित करमु अ काल॥

संयोग (िमलना), िवयोग (िबछुड़ना), भले-बुरे भोग, श ु, िम और उदासीन - ये सभी म के फंदे


ह। ज म-म ृ यु, संपि -िवपि , कम और काल - जहाँ तक जगत के जंजाल ह,

दरिन धामु धनु परु प रवा । सरगु नरकु जहँ लिग यवहा ॥
देिखअ सिु नअ गिु नअ मन माह । मोह मूल परमारथु नाह ॥

धरती, घर, धन, नगर, प रवार, वग और नरक आिद जहाँ तक यवहार ह, जो देखने, सुनने
और मन के अंदर िवचारने म आते ह, इन सबका मल
ू मोह (अ ान) ही है। परमाथतः ये नह ह।

दो० - सपन होइ िभखा र नपृ ु रं कु नाकपित होइ।


जाग लाभु न हािन कछु ितिम पंच िजयँ जोइ॥ 92॥

जैसे व न म राजा िभखारी हो जाए या कंगाल वग का वामी इं हो जाए, तो जागने पर लाभ


या हािन कुछ भी नह है; वैसे ही इस य- पंच को दय से देखना चािहए॥ 92॥

अस िबचा र निहं क िजअ रोसू। काहिह बािद न देइअ दोसू॥


मोह िनसाँ सबु सोविनहारा। देिखअ सपन अनेक कारा॥

ऐसा िवचारकर ोध नह करना चािहए और न िकसी को यथ दोष ही देना चािहए। सब लोग


मोह पी राि म सोनेवाले ह और सोते हए उ ह अनेक कार के व न िदखाई देते ह।

एिहं जग जािमिन जागिहं जोगी। परमारथी पंच िबयोगी॥


जािनअ तबिहं जीव जग जागा। जब सब िबषय िबलास िबरागा॥

इस जगत पी राि म योगी लोग जागते ह, जो परमाथ ह और पंच (माियक जगत) से छूटे हए
ह। जगत म जीव को जागा हआ तभी जानना चािहए, जब संपण
ू भोग-िवलास से वैरा य हो जाए।

होइ िबबेकु मोह म भागा। तब रघन


ु ाथ चरन अनरु ागा॥
सखा परम परमारथु एह। मन म बचन राम पद नेह॥

िववेक होने पर मोह पी म भाग जाता है, तब (अ ान का नाश होने पर) रघुनाथ के चरण म
ेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कम से राम के चरण म ेम होना, यही सव े परमाथ
(पु षाथ) है।

राम परमारथ पा। अिबगत अलख अनािद अनूपा॥


सकल िबकार रिहत गतभेदा। किह िनत नेित िन पिहं बेदा॥

राम परमाथ व प (परमव तु) पर ह। वे अिवगत (जानने म न आनेवाले), अलख ( थल



ि से देखने म न आनेवाले), अनािद (आिदरिहत), अनुपम (उपमारिहत) सब िवकार से रहित
और भेद शू य ह, वेद िजनका िन य 'नेित-नेित' कहकर िन पण करते ह।

दो० - भगत भूिम भूसरु सरु िभ सरु िहत लािग कृपाल।


करत च रत ध र मनज ु तनु सन ु त िमटिहं जग जाल॥ 93॥

वही कृपालु राम भ , भूिम, ा ण, गौ और देवताओ ं के िहत के िलए मनु य शरीर धारण
करके लीलाएँ करते ह, िजनके सन
ु ने से जगत के जंजाल िमट जाते ह॥ 93॥
सखा समिु झ अस प रह र मोह। िसय रघबु ीर चरन रत होह॥
कहत राम गनु भा िभनस
ु ारा। जागे जग मंगल सख ु दारा॥

हे सखा! ऐसा समझ, मोह को यागकर सीताराम के चरण म ेम करो। इस कार राम के गुण
कहते-कहते सबेरा हो गया! तब जगत का मंगल करनेवाले और उसे सुख देनेवाले राम जागे।
सकल सौच क र राम नहावा। सिु च सज
ु ान बट छीर मगावा॥
अनज
ु सिहत िसर जटा बनाए। देिख सम ु ं नयन जल छाए॥

शौच के सब काय करके (िन य) पिव और सुजान राम ने नान िकया। िफर बड़ का दूध
मँगाया और छोटे भाई ल मण सिहत उस दूध से िसर पर जटाएँ बनाई ं। यह देखकर सुमं के ने
म जल छा गया।

दयँ दाह अित बदन मलीना। कह कर जोर बचन अित दीना॥


नाथ कहेउ अस कोसलनाथा। लै रथु जाह राम क साथा॥

उनका दय अ यंत जलने लगा, मँुह मिलन (उदास) हो गया। वे हाथ जोड़कर अ यंत दीन वचन
बोले - हे नाथ! मुझे कोसलनाथ दशरथ ने ऐसी आ ा दी थी िक तुम रथ लेकर राम के साथ
जाओ,

बनु देखाइ सरु स र अ हवाई। आनेह फे र बेिग दोउ भाई॥


लखनु रामु िसय आनेह फेरी। संसय सकल सँकोच िनबेरी॥

वन िदखाकर, गंगा नान कराकर दोन भाइय को तुरंत लौटा लाना। सब संशय और संकोच
को दूर करके ल मण, राम, सीता को िफरा लाना।

दो० - नप
ृ अस कहेउ गोसाइँ जस कहइ कर बिल सोइ।
क र िबनती पाय ह परे उ दी ह बाल िजिम रोइ॥ 94॥

महाराज ने ऐसा कहा था, अब भु जैसा कह, म वही क ँ ; म आपक बिलहारी हँ। इस कार से
िवनती करके वे राम के चरण म िगर पड़े और बालक क तरह रो िदया॥ 94॥

तात कृपा क र क िजअ सोई। जात अवध अनाथ न होई॥


मंि िह राम उठाइ बोधा। तात धरम मतु तु ह सबु सोधा॥

(और कहा -) हे तात! कृपा करके वही क िजए िजससे अयो या अनाथ न हो। राम ने मं ी को
उठाकर धैय बँधाते हए समझाया िक हे तात! आपने तो धम के सभी िस ांत को छान डाला है।

िसिब दधीच ह रचंद नरे सा। सहे धरम िहत कोिट कलेसा॥
रं ितदेव बिल भूप सज
ु ाना। धरमु धरे उ सिह संकट नाना॥

िशिब, दधीिच और राजा ह र ं ने धम के िलए करोड़ (अनेक ) क सहे थे। बुि मान राजा
रं ितदेव और बिल बहत-से संकट सहकर भी धम को पकड़े रहे (उ ह ने धम का प र याग नह
िकया)।
धरमु न दूसर स य समाना। आगम िनगम परु ान बखाना॥
म सोइ धरमु सलु भ क र पावा। तज ितहँ परु अपजसु छावा॥

वेद, शा और पुराण म कहा गया है िक स य के समान दूसरा धम नह है। मने उस धम को


सहज ही पा िलया है। इस (स य पी धम) का याग करने से तीन लोक म अपयश छा जाएगा।

संभािवत कहँ अपजस लाह। मरन कोिट सम दा न दाह॥


तु ह सन तात बहत का कहउँ । िदएँ उत िफ र पातकु लहऊँ॥

िति त पु ष के िलए अपयश क ाि करोड़ म ृ यु के समान भीषण संताप देनेवाली है। हे


तात! म आप से अिधक या कहँ! लौटकर उ र देने म भी पाप का भागी होता हँ।

दो० - िपतु पद गिह किह कोिट नित िबनय करब कर जो र।


िचंता कविनह बात कै तात क रअ जिन मो र॥ 95॥

आप जाकर िपता के चरण पकड़कर करोड़ नम कार के साथ ही हाथ जोड़कर िबनती क रएगा
िक हे तात! आप मेरी िकसी बात क िचंता न कर॥ 95॥

तु ह पिु न िपतु सम अित िहत मोर। िबनती करउँ तात कर जोर॥


सब िबिध सोइ करत य तु हार। दख ु न पाव िपतु सोच हमार॥

आप भी िपता के समान ही मेरे बड़े िहतैषी ह। हे तात! म हाथ जोड़कर आप से िवनती करता हँ
िक आपका भी सब कार से वही कत य है िजसम िपता हम लोग के सोच म दुःख न पाएँ ।

सिु न रघन
ु ाथ सिचव संबादू। भयउ सप रजन िबकल िनषादू॥
पिु न कछु लखन कही कटु बानी। भु बरजे बड़ अनिु चत जानी॥

रघुनाथ और सुमं का यह संवाद सुनकर िनषादराज कुटुंिबय सिहत याकुल हो गया। िफर
ल मण ने कुछ कड़वी बात कही। भु राम ने उसे बहत ही अनुिचत जानकर उनको मना िकया।

सकुिच राम िनज सपथ देवाई। लखन सँदस े ु किहअ जिन जाई॥
कह सम े ू। सिह न सिकिह िसय िबिपन कलेसू॥
ु ं ु पिु न भूप सँदस

राम ने सकुचाकर, अपनी सौगंध िदलाकर सुमं से कहा िक आप जाकर ल मण का यह संदेश


न किहएगा। सुमं ने िफर राजा का संदेश कहा िक सीता वन के लेश न सह सकगी।

जेिह िबिध अवध आव िफ र सीया। होइ रघब


ु रिह तु हिह करनीया॥
नत िनपट अवलंब िबहीना। म न िजअब िजिम जल िबनु मीना॥
अतएव िजस तरह सीता अयो या को लौट आएँ , तुमको और राम को वही उपाय करना चािहए।
नह तो म िब कुल ही िबना सहारे का होकर वैसे ही नह जीऊँगा जैसे िबना जल के मछली नह
जीती।

दो० - मइक ससरु सकल सख ु जबिहं जहाँ मनु मान।


तहँ तब रिहिह सख े िसय जब लिग िबपित िबहान॥ 96॥
ु न

सीता के मायके (िपता के घर) और ससुराल म सब सुख ह। जब तक यह िवपि दूर नह होती,


तब तक वे जब जहाँ जी चाह, वह सुख से रहगी॥ 96॥

िबनती भूप क ह जेिह भाँती। आरित ीित न सो किह जाती॥


े ु सिु न कृपािनधाना। िसयिह दी ह िसख कोिट िबधाना॥
िपतु सँदस

राजा ने िजस तरह (िजस दीनता और ेम से) िवनती क है, वह दीनता और ेम कहा नह जा
सकता। कृपािनधान राम ने िपता का संदेश सुनकर सीता को करोड़ (अनेक ) कार से सीख
दी।

सासु ससरु गरु ि य प रवा । िफरह त सब कर िमटै खभा ॥


सिु न पित बचन कहित बैदहे ी। सन
ु ह ानपित परम सनेही॥

(उ ह ने कहा -) जो तुम घर लौट जाओ, तो सास, ससुर, गु , ि यजन एवं कुटुंबी सबक िचंता
िमट जाए। पित के वचन सुनकर जानक कहती ह - हे ाणपित! हे परम नेही! सुिनए।

भु क नामय परम िबबेक । तनु तिज रहित छाँह िकिम छक ॥


भा जाइ कहँ भानु िबहाई। कहँ चंि का चंदु तिज जाई॥

हे भो! आप क णामय और परम ानी ह। (कृपा करके िवचार तो क िजए) शरीर को छोड़कर
छाया अलग कैसे रोक रह सकती है? सयू क भा सय
ू को छोड़कर कहाँ जा सकती है? और
चाँदनी चं मा को यागकर कहाँ जा सकती है?

पितिह म े मय िबनय सन ु ाई। कहित सिचव सन िगरा सहु ाई॥


तु ह िपतु ससरु स रस िहतकारी। उत देउँ िफ र अनिु चत भारी॥

इस कार पित को ेममयी िवनती सुनाकर सीता मं ी से सुहावनी वाणी कहने लग - आप मेरे
िपता और ससुर के समान मेरा िहत करनेवाले ह। आपको म बदले म उ र देती हँ, यह बहत ही
अनुिचत है।

दो० - आरित बस सनमखु भइउँ िबलगु न मानब तात।


आरजसत ु पद कमल िबनु बािद जहाँ लिग नात॥ 97॥
िकंतु हे तात! म आ होकर ही आपके स मुख हई हँ, आप बुरा न मािनएगा। आयपु ( वामी) के
चरणकमल के िबना जगत म जहाँ तक नाते ह सभी मेरे िलए यथ ह॥ 97॥

िपतु बैभव िबलास म डीठा। नप


ृ मिन मकु ु ट िमिलत पद पीठा॥
सखु िनधान अस िपतु गहृ मोर। िपय िबहीन मन भाव न भोर॥

मने िपता के ऐ य क छटा देखी है, िजनके चरण रखने क चौक से सविशरोमिण राजाओं के
मुकुट िमलते ह (अथात बड़े -बड़े राजा िजनके चरण म णाम करते ह) ऐसे िपता का घर भी, जो
सब कार के सुख का भंडार है, पित के िबना मेरे मन को भल
ू कर भी नह भाता।

ससरु च कवइ कोसल राऊ। भव ु न चा रदस गट भाऊ॥


आग होइ जेिह सरु पित लेई। अरध िसंघासन आसनु देई॥

मेरे ससुर कोसलराज च वत स ाट ह, िजनका भाव चौदह लोक म कट है, इं भी आगे


होकर िजनका वागत करता है और अपने आधे िसंहासन पर बैठने के िलए थान देता है,

ससु एता स अवध िनवासू। ि य प रवा मातु सम सासू॥


िबनु रघप ु परागा। मोिह केउ सपनेहँ सख
ु ित पद पदम ु द न लागा॥

ऐसे (ऐ य और भावशाली) ससुर; (उनक राजधानी) अयो या का िनवास; ि य कुटुंबी और


माता के समान सासुएँ - ये कोई भी रघुनाथ के चरण कमल क रज के िबना मुझे व न म भी
सुखदायक नह लगते।

अगम पंथ बनभूिम पहारा। क र केह र सर स रत अपारा॥


कोल िकरात कुरं ग िबहंगा। मोिह सब सख
ु द ानपित संगा॥

दुगम रा ते, जंगली धरती, पहाड़, हाथी, िसंह, अथाह तालाब एवं निदयाँ; कोल, भील, िहरन और
प ी - ाणपित (रघुनाथ) के साथ रहते ये सभी मुझे सुख देनेवाले ह गे।

दो० - सासु ससरु सन मो र हँित िबनय करिब प र पायँ।


मोर सोचु जिन क रअ कछु म बन सख ु ी सभ
ु ायँ॥ 98॥

अतः सास और ससुर के पाँव पड़कर, मेरी ओर से िवनती क िजएगा िक वे मेरा कुछ भी सोच न
कर; म वन म वभाव से ही सुखी हँ॥ 98॥

ाननाथ ि य देवर साथा। बीर धरु ीन धर धनु भाथा॥


निहं मग मु मु दखु मन मोर। मोिह लिग सोचु क रअ जिन भोर॥
वीर म अ ग य तथा धनुष और (बाण से भरे ) तरकस धारण िकए मेरे ाणनाथ और यारे देवर
साथ ह। इससे मुझे न रा ते क थकावट है, न म है और न मेरे मन म कोई दुःख ही है। आप मेरे
िलए भल
ू कर भी सोच न कर।

सिु न सम
ु ं ु िसय सीतिल बानी। भयउ िबकल जनु फिन मिन हानी॥
नयन सूझ निहं सन ु इ न काना। किह न सकइ कछु अित अकुलाना॥

सुमं सीता क शीतल वाणी सुनकर ऐसे याकुल हो गए जैसे साँप मिण खो जाने पर। ने से
कुछ सझ
ू ता नह , कान से सुनाई नह देता। वे बहत याकुल हो गए, कुछ कह नह सकते।

राम बोधु क ह बह भाँती। तदिप होित निहं सीतिल छाती॥


जतन अनेक साथ िहत क हे। उिचत उतर रघन ु ंदन दी हे॥

राम ने उनका बहत कार से समाधान िकया। तो भी उनक छाती ठं डी न हई। साथ चलने के
िलए मं ी ने अनेक य न िकए (युि याँ पेश क ), पर रघुनंदन राम (उन सब युि य का)
यथोिचत उ र देते गए।

मेिट जाइ निहं राम रजाई। किठन करम गित कछु न बसाई॥
राम लखन िसय पद िस नाई। िफरे उ बिनक िजिम मूर गवाँई॥

राम क आ ा मेटी नह जा सकती। कम क गित किठन है, उस पर कुछ भी वश नह चलता।


राम, ल मण और सीता के चरण म िसर नवाकर सुमं इस तरह लौटे जैसे कोई यापारी अपना
मलू धन (पँज
ू ी) गँवाकर लौटे।

दो० - रथु हाँकेउ हय राम तन हे र हे र िहिहनािहं।


देिख िनषाद िबषादबस धन ु िहं सीस पिछतािहं॥ 99॥

सुमं ने रथ को हाँका, घोड़े राम क ओर देख-देखकर िहनिहनाते ह। यह देखकर िनषाद लोग


िवषाद के वश होकर िसर धुन-धुनकर (पीट-पीटकर) पछताते ह॥ 99॥

जासु िबयोग िबकल पसु ऐस। जा मातु िपतु िजइहिहं कैस॥


बरबस राम सम ु ं ु पठाए। सरु स र तीर आपु तब आए॥

िजनके िवयोग म पशु इस कार याकुल ह, उनके िवयोग म जा, माता और िपता कैसे जीते
रहगे? राम ने जबरद ती सुमं को लौटाया। तब आप गंगा के तीर पर आए।

मागी नाव न केवटु आना। कहइ तु हार मरमु म जाना॥


चरन कमल रज कहँ सबु कहई। मानष ु करिन मू र कछु अहई॥
राम ने केवट से नाव माँगी, पर वह लाता नह । वह कहने लगा - मने तु हारा मम (भेद) जान
िलया। तु हारे चरण कमल क धल ू के िलए सब लोग कहते ह िक वह मनु य बना देनेवाली कोई
जड़ी है,

छुअत िसला भइ ना र सहु ाई। पाहन त न काठ किठनाई॥


तरिनउ मिु न घ रनी होइ जाई। बाट परइ मो र नाव उड़ाई॥

िजसके छूते ही प थर क िशला सुंदरी ी हो गई (मेरी नाव तो काठ क है)। काठ प थर से


कठोर तो होता नह । मेरी नाव भी मुिन क ी हो जाएगी और इस कार मेरी नाव उड़ जाएगी,
म लुट जाऊँगा (अथवा रा ता क जाएगा, िजससे आप पार न हो सकगे और मेरी रोजी मारी
जाएगी) (मेरी कमाने-खाने क राह ही मारी जाएगी)।

एिहं ितपालउँ सबु प रवा । निहं जानउँ कछु अउर कबा ॥


ज भु पार अविस गा चहह। मोिह पद पदम ु पखारन कहह॥

म तो इसी नाव से सारे प रवार का पालन-पोषण करता हँ। दूसरा कोई धंधा नह जानता। हे भु!
यिद तुम अव य ही पार जाना चाहते हो तो मुझे पहले अपने चरण-कमल पखारने (धो लेने) के
िलए कह दो।

छं ० - पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चह ।


मोिह राम राउ र आन दसरथ सपथ सब साची कह ॥
ब तीर मारहँ लखनु पै जब लिग न पाय पखा रह ।
तब लिग न तल ु सीदास नाथ कृपाल पा उता रह ॥

हे नाथ! म चरण कमल धोकर आप लोग को नाव पर चढ़ा लँग ू ा; म आपसे कुछ उतराई नह
चाहता। हे राम! मुझे आपक दुहाई और दशरथ क सौगंध है, म सब सच-सच कहता हँ। ल मण
भले ही मुझे तीर मार, पर जब तक म पैर को पखार न लँग
ू ा, तब तक हे तुलसीदास के नाथ! हे
कृपालु! म पार नह उता ँ गा।

सो० - सिु न केवट के बैन म


े लपेट े अटपटे।
िबहसे क नाऐन िचतइ जानक लखन तन॥ 100॥

केवट के ेम म लपेटे हए अटपटे वचन सुनकर क णाधाम राम जानक और ल मण क ओर


देखकर हँसे॥ 100॥

कृपािसंधु बोले मस
ु क
ु ाई। सोइ क जेिहं तव नाव न जाई॥
बेिग आनु जल पाय पखा । होत िबलंबु उतारिह पा ॥
कृपा के समु राम केवट से मुसकराकर बोले - भाई! तू वही कर िजससे तेरी नाव न जाए। ज दी
पानी ला और पैर धो ले। देर हो रही है, पार उतार दे।

जासु नाम सिु मरत एक बारा। उतरिहं नर भविसंधु अपारा॥


सोइ कृपालु केवटिह िनहोरा। जेिहं जगु िकय ितह पगह ते थोरा॥

एक बार िजनका नाम मरण करते ही मनु य अपार भवसागर के पार उतर जाते ह और िज ह ने
(वामनावतार म) जगत को तीन पग से भी छोटा कर िदया था (दो ही पग म ि लोक को नाप
िलया था), वही कृपालु राम (गंगा से पार उतारने के िलए) केवट का िनहोरा कर रहे ह!

पद नख िनरिख देवस र हरषी। सिु न भु बचन मोहँ मित करषी॥


केवट राम रजायसु पावा। पािन कठवता भ र लेइ आवा॥

भु के इन वचन को सुनकर गंगा क बुि मोह से िखंच गई थी (िक ये सा ात भगवान होकर


भी पार उतारने के िलए केवट का िनहोरा कैसे कर रहे ह)। परं तु (समीप आने पर अपनी उ पि
के थान) पदनख को देखते ही (उ ह पहचानकर) देवनदी गंगा हिषत हो गई ं। (वे समझ गई ं
िक भगवान नरलीला कर रहे ह, इससे उनका मोह न हो गया; और इन चरण का पश ा
करके म ध य होऊँगी, यह िवचारकर वे हिषत हो गई ं।) केवट राम क आ ा पाकर कठौते म
भरकर जल ले आया।

अित आनंद उमिग अनरु ागा। चरन सरोज पखारन लागा॥


बरिष सम
ु न सरु सकल िसहाह । एिह सम पु यपंज
ु कोउ नाह ॥

अ यंत आनंद और ेम म उमंगकर वह भगवान के चरणकमल धोने लगा। सब देवता फूल


बरसाकर िसहाने लगे िक इसके समान पु य क रािश कोई नह है।

दो० - पद पखा र जलु पान क र आपु सिहत प रवार।


िपतर पा क र भिु ह पिु न मिु दत गयउ लेइ पार॥ 101॥

चरण को धोकर और सारे प रवार सिहत वयं उस जल (चरणोदक) को पीकर पहले (उस महान
पु य के ारा) अपने िपतर को भवसागर से पार कर िफर आनंदपवू क भु राम को गंगा के पार
ले गया॥ 101॥

उत र ठाढ़ भए सरु स र रे ता। सीय रामु गहु लखन समेता॥


केवट उत र दंडवत क हा। भिु ह सकुच एिह निहं कछु दी हा॥

िनषादराज और ल मण सिहत सीता और राम (नाव से) उतरकर गंगा क रे त (बाल)ू म खड़े हो
गए। तब केवट ने उतरकर दंडवत क । (उसको दंडवत करते देखकर) भु को संकोच हआ िक
इसको कुछ िदया नह ।

िपय िहय क िसय जानिनहारी। मिन मदु री मन मिु दत उतारी॥


कहेउ कृपाल लेिह उतराई। केवट चरन गहे अकुलाई॥

पित के दय क जाननेवाली सीता ने आनंद भरे मन से अपनी र न जिड़त अँगठ ू ी (अंगुली से)
उतारी। कृपालु राम ने केवट से कहा, नाव क उतराई लो। केवट ने याकुल होकर चरण पकड़
िलए।

नाथ आजु म काह न पावा। िमटे दोष दख


ु दा रद दावा॥
बहत काल म क ि ह मजूरी। आजु दी ह िबिध बिन भिल भूरी॥

(उसने कहा -) हे नाथ! आज मने या नह पाया! मेरे दोष, दुःख और द र ता क आग आज बुझ


गई है। मने बहत समय तक मजदूरी क । िवधाता ने आज बहत अ छी भरपरू मजदूरी दे दी।

अब कछु नाथ न चािहअ मोर। दीन दयाल अनु ह तोर॥


िफरती बार मोिह जो देबा। सो सादु म िसर ध र लेबा॥

हे नाथ! हे दीनदयाल! आपक कृपा से अब मुझे कुछ नह चािहए। लौटती बार आप मुझे जो कुछ
दगे, वह साद म िसर चढ़ाकर लँग
ू ा।

दो० - बहत क ह भु लखन िसयँ निहं कछु केवटु लेइ।


िबदा क ह क नायतन भगित िबमल ब देइ॥ 102॥

भु राम, ल मण और सीता ने बहत आ ह (या य न) िकया, पर केवट कुछ नह लेता। तब


क णा के धाम भगवान राम ने िनमल भि का वरदान देकर उसे िवदा िकया॥ 102॥

तब म जनु क र रघक ु ु लनाथा। पूिज पारिथव नायउ माथा॥


िसयँ सरु स रिह कहेउ कर जोरी। मातु मनोरथ परु उिब मोरी॥

िफर रघुकुल के वामी राम ने नान करके पािथव पज ू ा क और िशव को िसर नवाया। सीता ने
हाथ जोड़कर गंगा से कहा - हे माता! मेरा मनोरथ परू ा क िजएगा।

पित देवर सँग कुसल बहोरी। आइ कर जेिहं पूजा तोरी॥


सिु न िसय िबनय मे रस सानी। भइ तब िबमल बा र बर बानी॥

िजससे म पित और देवर के साथ कुशलतापवू क लौट आकर तु हारी पज


ू ा क ँ । सीता क ेम रस
म सनी हई िवनती सुनकर तब गंगा के िनमल जल म से े वाणी हई -
सन ु ीर ि या बैदहे ी। तब भाउ जग िबिदत न केही॥
ु ु रघब
लोकप होिहं िबलोकत तोर। तोिह सेविहं सब िसिध कर जोर॥

हे रघुवीर क ि यतमा जानक ! सुनो, तु हारा भाव जगत म िकसे नह मालम ू है? तु हारे (कृपा
ि से) देखते ही लोग लोकपाल हो जाते ह। सब िसि याँ हाथ जोड़े तु हारी सेवा करती ह।

तु ह जो हमिह बिड़ िबनय सन ु ाई। कृपा क ि ह मोिह दीि ह बड़ाई॥


तदिप देिब म देिब असीसा। सफल होन िहत िनज बागीसा॥

तुमने जो मुझको बड़ी िवनती सुनाई, यह तो मुझ पर कृपा क और मुझे बड़ाई दी है। तो भी हे
देवी! म अपनी वाणी सफल होने के िलए तु ह आशीवाद दँूगी।

दो० - ाननाथ देवर सिहत कुसल कोसला आइ।


पूिजिह सब मनकामना सजु सु रिहिह जग छाइ॥ 103॥

तुम अपने ाणनाथ और देवर सिहत कुशलपवू क अयो या लौटोगी। तु हारी सारी मनःकामनाएँ
परू ी ह गी और तु हारा सुंदर यश जगत भर म छा जाएगा॥ 103॥

गंग बचन सिु न मंगल मूला। मिु दत सीय सरु स र अनक ु ू ला॥
तब भु गहु िह कहेउ घर जाह। सन ु त सूख मख ु ु भा उर दाह॥

मंगल के मल ू गंगा के वचन सुनकर और देवनदी को अनुकूल देखकर सीता आनंिदत हई ं। तब


भु राम ने िनषादराज गुह से कहा िक भैया! अब तुम घर जाओ! यह सुनते ही उसका मँुह सख

गया और दय म दाह उ प न हो गया।

दीन बचन गहु कह कर जोरी। िबनय सन ु ह रघक


ु ु लमिन मोरी॥
नाथ साथ रिह पंथु देखाई। क र िदन चा र चरन सेवकाई॥

गुह हाथ जोड़कर दीन वचन बोला - हे रघुकुल िशरोमिण! मेरी िवनती सुिनए। म नाथ (आप) के
साथ रहकर, रा ता िदखाकर, चार (कुछ) िदन चरण क सेवा करके -

जेिहं बन जाइ रहब रघरु ाई। परनकुटी म करिब सहु ाई॥


तब मोिह कहँ जिस देब रजाई। सोइ क रहउँ रघब ु ीर दोहाई॥

हे रघुराज! िजस वन म आप जाकर रहगे, वहाँ म सुंदर पणकुटी (प क कुिटया) बना दँूगा। तब
मुझे आप जैसी आ ा दगे, मुझे रघुवीर (आप) क दुहाई है, म वैसा ही क ँ गा।

सहज सनेह राम लिख तासू। संग ली ह गहु दयँ हलासू॥


पिु न गहु ँ याित बोिल सब ली हे। क र प रतोषु िबदा तब क हे॥
उसके वाभािवक ेम को देखकर राम ने उसको साथ ले िलया, इससे गुह के दय म बड़ा
आनंद हआ। िफर गुह (िनषादराज) ने अपनी जाित के लोग को बुला िलया और उनका संतोष
कराके तब उनको िवदा िकया।

दो० - तब गनपित िसव सिु म र भु नाइ सरु स रिह माथ।


सखा अनज ु िसय सिहत बन गवनु क ह रघन ु ाथ॥ 104॥

तब भु रघुनाथ गणेश और िशव का मरण करके तथा गंगा को म तक नवाकर सखा


िनषादराज, छोटे भाई ल मण और सीता सिहत वन को चले॥ 104॥

तेिह िदन भयउ िबटप तर बासू। लखन सखाँ सब क ह सप


ु ासू॥
ात ातकृत क र रघरु ाई। तीरथराजु दीख भु जाई॥

उस िदन पेड़ के नीचे िनवास हआ। ल मण और सखा गुह ने (िव ाम क ) सब सु यव था कर


दी। भु राम ने सबेरे ातःकाल क सब ि याएँ करके जाकर तीथ के राजा याग के दशन
िकए।

सिचव स य ा ि य नारी। माधव स रस मीतु िहतकारी॥


चा र पदारथ भरा भँडा । पु य देस देस अित चा ॥

उस राजा का स य मं ी है, ा यारी ी है और वेणीमाधव-सरीखे िहतकारी िम ह। चार


पदाथ (धम, अथ, काम और मो ) से भंडार भरा है और वह पु यमय ांत ही उस राजा का सुंदर
देश है।

छे ु अगम गढ़ गाढ़ सहु ावा। सपनेहँ निहं ितपि छ ह पावा॥


सेन सकल तीरथ बर बीरा। कलष ु अनीक दलन रनधीरा॥

याग े ही दुगम, मजबत ू और सुंदर गढ़ (िकला) है, िजसको व न म भी (पाप पी) श ु नह


पा सके ह। संपण
ू तीथ ही उसके े वीर सैिनक ह, जो पाप क सेना को कुचल डालनेवाले और
बड़े रणधीर ह।

संगमु िसंहासनु सिु ठ सोहा। छ ु अखयबटु मिु न मनु मोहा॥


चवँर जमनु अ गंग तरं गा। देिख होिहं दख
ु दा रद भंगा॥

(गंगा, यमुना और सर वती का) संगम ही उसका अ यंत सुशोिभत िसंहासन है। अ यवट छ है,
जो मुिनय के भी मन को मोिहत कर लेता है। यमुना और गंगा क तरं ग उसके ( याम और ेत)
चँवर ह, िजनको देखकर ही दुःख और द र ता न हो जाती है।

दो० - सेविहं सक
ु ृ ती साधु सिु च पाविहं सब मनकाम।
बंदी बेद परु ान गन कहिहं िबमल गन
ु ाम॥ 105॥

पु या मा, पिव साधु उसक सेवा करते ह और सब मनोरथ पाते ह। वेद और पुराण के समहू
भाट ह, जो उसके िनमल गुणगण का बखान करते ह॥ 105॥

को किह सकइ याग भाऊ। कलष ु पंज


ु कंु जर मगृ राऊ॥
अस तीरथपित देिख सहु ावा। सख
ु सागर रघब ु र सख
ु ु पावा॥

पाप के समहू पी हाथी के मारने के िलए िसंह प यागराज का भावव (मह व-माहा य)
कौन कह सकता है। ऐसे सुहावने तीथराज का दशन कर सुख के समु रघुकुल े राम ने भी
सुख पाया।

किह िसय लखनिह सखिह सन ु ाई। ी मख


ु तीरथराज बड़ाई॥
क र नामु देखत बन बागा। कहत महातम अित अनरु ागा॥

उ ह ने अपने ीमुख से सीता, ल मण और सखा गुह को तीथराज क मिहमा कहकर सुनाई।


तदनंतर णाम करके, वन और बगीच को देखते हए और बड़े ेम से माहा य कहते हए -

एिह िबिध आइ िबलोक बेनी। सिु मरत सकल सम ु ंगल देनी॥


मिु दत नहाइ क ि ह िसव सेवा। पूिज जथािबिध तीरथ देवा॥

इस कार राम ने आकर ि वेणी का दशन िकया, जो मरण करने से ही सब सुंदर मंगल को
देनेवाली है। िफर आनंदपवू क (ि वेणी म) नान करके िशव क सेवा (पज
ू ा) क और िविधपवू क
तीथ देवताओं का पज ू न िकया।

तब भु भर ाज पिहं आए। करत दंडवत मिु न उर लाए॥


मिु न मन मोद न कछु किह जाई। ानंद रािस जनु पाई॥

( नान, पजू न आिद सब करके) तब भु राम भर ाज के पास आए। उ ह दंडवत करते हए ही


मुिन ने दय से लगा िलया। मुिन के मन का आनंद कुछ कहा नह जाता। मानो उ ह ानंद
क रािश िमल गई हो।

दो० - दीि ह असीस मन ु ीस उर अित अनंदु अस जािन।


लोचन गोचर सक ु ृ त फल मनहँ िकए िबिध आिन॥ 106॥

मुनी र भर ाज ने आशीवाद िदया। उनके दय म ऐसा जानकर अ यंत आनंद हआ िक आज


िवधाता ने (सीता और ल मण सिहत भु राम के दशन कराकर) मानो हमारे संपण
ू पु य के फल
को लाकर आँख के सामने कर िदया॥ 106॥
कुसल न क र आसन दी हे। पूिज म े प रपूरन क हे॥
कंद मूल फल अंकुर नीके। िदए आिन मिु न मनहँ अमी के॥

कुशल पछ ू कर मुिनराज ने उनको आसन िदए और ेम सिहत पज ू न करके उ ह संतु कर


िदया। िफर मानो अमतृ के ही बने ह , ऐसे अ छे -अ छे कंद, मल
ू , फल और अंकुर लाकर िदए।

सीय लखन जन सिहत सहु ाए। अित िच राम मूल फल खाए॥


भए िबगत म रामु सख
ु ारे । भर ाज मदृ ु बचन उचारे ॥

सीता, ल मण और सेवक गुह सिहत राम ने उन सुंदर मल ू -फल को बड़ी िच के साथ खाया।
थकावट दूर होने से राम सुखी हो गए। तब भर ाज ने उनसे कोमल वचन कहे -

आजु सफ
ु ल तपु तीरथ यागू। आजु सफु ल जप जोग िबरागू॥
सफल सकल सभ ु साधन साजू। राम तु हिह अवलोकत आजू॥

हे राम! आपका दशन करते ही आज मेरा तप, तीथ सेवन और याग सफल हो गया। आज मेरा
जप, योग और वैरा य सफल हो गया और आज मेरे संपणू शुभ साधन का समुदाय भी सफल हो
गया।

लाभ अविध सखु अविध न दूजी। तु हर दरस आस सब पूजी॥


अब क र कृपा देह बर एह। िनज पद सरिसज सहज सनेह॥

लाभ क सीमा और सुख क सीमा ( भु के दशन को छोड़कर) दूसरी कुछ भी नह है। आपके
ू हो गई ं। अब कृपा करके यह वरदान दीिजए िक आपके चरण
दशन से मेरी सब आशाएँ पण
कमल म मेरा वाभािवक ेम हो।

दो० - करम बचन मन छािड़ छलु जब लिग जनु न तु हार।


तब लिग सखु ु सपनेहँ नह िकएँ कोिट उपचार॥ 107॥

जब तक कम, वचन और मन से छल छोड़कर मनु य आपका दास नह हो जाता, तब तक


करोड़ उपाय करने से भी, व न म भी वह सुख नह पाता॥ 107॥

सिु न मिु न बचन रामु सकुचाने। भाव भगित आनंद अघाने॥


तब रघब ु र मिु न सज
ु सु सहु ावा। कोिट भाँित किह सबिह सन
ु ावा॥

मुिन के वचन सुनकर, उनक भाव-भि के कारण आनंद से त ृ हए भगवान राम (लीला क
ि से) सकुचा गए। तब (अपने ऐ य को िछपाते हए) राम ने भर ाज मुिन का सुंदर सुयश
करोड़ (अनेक ) कार से कहकर सबको सुनाया।
सो बड़ सो सब गन ु गन गेह। जेिह मन
ु ीस तु ह आदर देह॥
मिु न रघब
ु ीर परसपर नवह । बचन अगोचर सख ु ु अनभ
ु वह ॥

(उ ह ने कहा -) हे मुनी र! िजसको आप आदर द, वही बड़ा है और वही सब गुणसमहू का घर


है। इस कार राम और मुिन भर ाज दोन पर पर िवन हो रहे ह और अिनवचनीय सुख का
अनुभव कर रहे ह।

यह सिु ध पाइ याग िनवासी। बटु तापस मिु न िस उदासी॥


भर ाज आ म सब आए। देखन दसरथ सअ ु न सहु ाए॥

यह (राम, ल मण और सीता के आने क ) खबर पाकर याग िनवासी चारी, तप वी, मुिन,
िस और उदासी सब दशरथ के सुंदर पु को देखने के िलए भर ाज के आ म पर आए।

राम नाम क ह सब काह। मिु दत भए लिह लोयन लाह॥


देिहं असीस परम सख
ु ु पाई। िफरे सराहत संदु रताई॥

राम ने सब िकसी को णाम िकया। ने का लाभ पाकर सब आनंिदत हो गए और परम सुख


पाकर आशीवाद देने लगे। राम के स दय क सराहना करते हए वे लौटे।

दो० - राम क ह िब ाम िनिस ात याग नहाइ।


चले सिहत िसय लखन जन मिु दत मिु निह िस नाइ॥ 108॥

राम ने रात को वह िव ाम िकया और ातःकाल यागराज का नान करके और स नता के


साथ मुिन को िसर नवाकर सीता, ल मण और सेवक गुह के साथ वे चले॥ 108॥

राम स म े कहेउ मिु न पाह । नाथ किहअ हम केिह मग जाह ॥


मिु न मन िबहिस राम सन कहह । सग ु म सकल मग तु ह कहँ अहह ॥

(चलते समय) बड़े ेम से राम ने मुिन से कहा - हे नाथ! बताइए हम िकस माग से जाएँ । मुिन
मन म हँसकर राम से कहते ह िक आपके िलए सभी माग सुगम ह।

साथ लािग मिु न िस य बोलाए। सिु न मन मिु दत पचासक आए॥


सबि ह राम पर म े अपारा। सकल कहिहं मगु दीख हमारा॥

िफर उनके साथ के िलए मुिन ने िश य को बुलाया। (साथ जाने क बात) सुनते ही िच म हिषत
हो कोई पचास िश य आ गए। सभी का राम पर अपार ेम है। सभी कहते ह िक माग हमारा देखा
हआ है।

मिु न बटु चा र संग तब दी हे। िज ह बह जनम सक


ु ृ त सब क हे॥
क र नामु रिष आयसु पाई। मिु दत दयँ चले रघरु ाई॥

तब मुिन ने (चुनकर) चार चा रय को साथ कर िदया, िज ह ने बहत ज म तक सब सुकृत


(पु य) िकए थे। रघुनाथ णाम कर और ऋिष क आ ा पाकर दय म बड़े ही आनंिदत होकर
चले।

ाम िनकट जब िनकसिहं जाई। देखिहं दरसु ना र नर धाई॥


होिहं सनाथ जनम फलु पाई। िफरिहं दिु खत मनु संग पठाई॥

जब वे िकसी गाँव के पास होकर िनकलते ह, तब ी-पु ष दौड़कर उनके प को देखने लगते
ह। ज म का फल पाकर वे (सदा के अनाथ) सनाथ हो जाते ह और मन को नाथ के साथ भेजकर
(शरीर से साथ न रहने के कारण) दुःखी होकर लौट आते ह।

दो० - िबदा िकए बटु िबनय क र िफरे पाइ मन काम।


उत र नहाए जमन ु जल जो सरीर सम याम॥ 109॥

तदनंतर राम ने िवनती करके चार चा रय को िवदा िकया; वे मनचाही व तु (अन य भि )


पाकर लौटे। यमुना के पार उतरकर सबने यमुना के जल म नान िकया, जो राम के शरीर के
समान ही याम रं ग का था॥ 109॥

सन
ु त तीरबासी नर नारी। धाए िनज िनज काज िबसारी॥
लखन राम िसय संदु रताई। देिख करिहं िनज भा य बड़ाई॥

यमुना के िकनारे पर रहनेवाले ी-पु ष (यह सुनकर िक िनषाद के साथ दो परम सुंदर
सुकुमार नवयुवक और एक परम संुदरी ी आ रही है) सब अपना-अपना काम भल ू कर दौड़े और
ल मण, राम और सीता का स दय देखकर अपने भा य क बड़ाई करने लगे।

अित लालसा बसिहं मन माह । नाउँ गाउँ बूझत सकुचाह ॥


जे ित ह महँ बयिब रध सयाने। ित ह क र जुगिु त रामु पिहचाने॥

उनके मन म (प रचय जानने क ) बहत-सी लालसाएँ भरी ह। पर वे नाम-गाँव पछ


ू ते सकुचाते ह।
उन लोग म जो वयोव ृ और चतुर थे; उ ह ने युि से राम को पहचान िलया।

सकल कथा ित ह सबिह सन ु ाई। बनिह चले िपतु आयसु पाई॥


सिु न सिबषाद सकल पिछताह । रानी रायँ क ह भल नाह ॥

उ ह ने सब कथा सब लोग को सुनाई िक िपता क आ ा पाकर ये वन को चले ह। यह सुनकर


सब लोग दुःिखत हो पछता रहे ह िक रानी और राजा ने अ छा नह िकया।
तेिह अवसर एक तापसु आवा। तेजपंज
ु लघब
ु यस सहु ावा॥
किब अलिखत गित बेषु िबरागी। मन म बचन राम अनरु ागी॥

उसी अवसर पर वहाँ एक तप वी आया, जो तेज का पुंज, छोटी अव था का और सुंदर था। उसक
गित किव नह जानते (अथवा वह किव था जो अपना प रचय नह देना चाहता)। वह वैरागी के
वेष म था और मन, वचन तथा कम से राम का ेमी था।

दो० - सजल नयन तन पल ु िक िनज इ देउ पिहचािन।


परे उ दंड िजिम धरिनतल दसा न जाइ बखािन॥ 110॥

अपने इ देव को पहचानकर उसके ने म जल भर आया और शरीर पुलिकत हो गया। वह दंड


क भाँित प ृ वी पर िगर पड़ा, उसक ( ेमिव ल) दशा का वणन नह िकया जा सकता॥ 110॥

राम स मे पल ु िक उर लावा। परम रं क जनु पारसु पावा॥


मनहँ मे ु परमारथु दोऊ। िमलत धर तन कह सबु कोऊ॥

राम ने ेमपवू क पुलिकत होकर उसको दय से लगा िलया। (उसे इतना आनंद हआ) मानो कोई
महाद र ी मनु य पारस पा गया हो। सब कोई (देखनेवाले) कहने लगे िक मानो ेम और परमाथ
(परम त व) दोन शरीर धारण करके िमल रहे ह।

बह र लखन पाय ह सोइ लागा। ली ह उठाइ उमिग अनरु ागा॥


पिु न िसय चरन धू र ध र सीसा। जनिन जािन िससु दीि ह असीसा॥

िफर वह ल मण के चरण लगा। उ ह ने ेम से उमंगकर उसको उठा िलया। िफर उसने सीता क
चरण धिू ल को अपने िसर पर धारण िकया। माता सीता ने भी उसको अपना ब चा जानकर
आशीवाद िदया।

क ह िनषाद दंडवत तेही। िमलेउ मिु दत लिख राम सनेही॥


िपअत नयन पटु पु िपयष ु ा। मिु दत सअ
ु सनु पाइ िजिम भूखा॥

िफर िनषादराज ने उसको दंडवत क । राम का ेमी जानकर वह उस (िनषाद) से आनंिदत होकर
िमला। वह तप वी अपने ने पी दोन से राम क स दय-सुधा का पान करने लगा और ऐसा
आनंिदत हआ जैसे कोई भखू ा आदमी सुंदर भोजन पाकर आनंिदत होता है।

ते िपतु मातु कहह सिख कैसे। िज ह पठए बन बालक ऐसे॥


राम लखन िसय पु िनहारी। होिहं सनेह िबकल नर नारी॥

(इधर गाँव क ि याँ कह रही ह -) हे सखी! कहो तो, वे माता-िपता कैसे ह, िज ह ने ऐसे (सुंदर
सुकुमार) बालक को वन म भेज िदया है। राम, ल मण और सीता के प को देखकर सब ी-
पु ष नेह से याकुल हो जाते ह।

दो० - तब रघब
ु ीर अनेक िबिध सखिह िसखावनु दी ह॥
राम रजायसु सीस ध र भवन गवनु तेइँ क ह॥ 111॥

तब राम ने सखा गुह को अनेक तरह से (घर लौट जाने के िलए) समझाया। राम क आ ा को
िसर चढ़ाकर उसने अपने घर को गमन िकया॥ 111॥

पिु न िसयँ राम लखन कर जोरी। जमन ु िह क ह नामु बहोरी॥


चले ससीय मिु दत दोउ भाई। रिबतनज
ु ा कइ करत बड़ाई॥

िफर सीता, राम और ल मण ने हाथ जोड़कर यमुना को पुनः णाम िकया और सय


ू क या यमुना
क बड़ाई करते हए सीता सिहत दोन भाई स नतापवू क आगे चले।

पिथक अनेक िमलिहं मग जाता। कहिहं स म े देिख दोउ ाता॥


राज लखन सब अंग तु हार। देिख सोचु अित दय हमार॥

रा ते म जाते हए उ ह अनेक या ी िमलते ह। वे दोन भाइय को देखकर उनसे ेमपवू क कहते


ह िक तु हारे सब अंग म राज िच देखकर हमारे दय म बड़ा सोच होता है।

मारग चलह पयादेिह पाएँ । योितषु झूठ हमार भाएँ ॥


अगमु पंथु िग र कानन भारी। तेिह महँ साथ ना र सक ु ु मारी॥

(ऐसे राजिच के होते हए भी) तुम लोग रा ते म पैदल ही चल रहे हो, इससे हमारी समझ म
आता है िक योितष शा झठ ू ा ही है। भारी जंगल और बड़े -बड़े पहाड़ का दुगम रा ता है। ितस
पर तु हारे साथ सुकुमारी ी है।

क र केह र बन जाइ न जोई। हम सँग चलिहं जो आयसु होई॥


जाब जहाँ लिग तहँ पहँचाई। िफरब बहो र तु हिह िस नाई॥

हाथी और िसंह से भरा यह भयानक वन देखा तक नह जाता। यिद आ ा हो तो हम साथ चल।


आप जहाँ तक जाएँ गे, वहाँ तक पहँचाकर, िफर आपको णाम करके हम लौट आवगे।

दो० - एिह िबिध पूँछिहं मे बस पल


ु क गात जलु नैन।
कृपािसंधु फेरिहं ित हिह किह िबनीत मदृ ु बैन॥ 112॥

इस कार वे या ी ेमवश पुलिकत शरीर हो और ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भरकर पछ


ू ते ह,
िकंतु कृपा के समु राम कोमल िवनययु वचन कहकर उ ह लौटा देते ह॥ 112॥
जे परु गाँव बसिहं मग माह । ित हिह नाग सरु नगर िसहाह ॥
केिह सक ु ृ त केिह घर बसाए। ध य पु यमय परम सहु ाए॥

जो गाँव और पुरवे रा ते म बसे ह, नाग और देवताओं के नगर उनको देखकर शंसा पवू क
ई या करते और ललचाते हए कहते ह िक िकस पु यवान ने िकस शुभ घड़ी म इनको बसाया था,
जो आज ये इतने ध य और पु यमय तथा परम सुंदर हो रहे ह।

जहँ जहँ राम चरन चिल जाह । ित ह समान अमरावित नाह ॥


पु यपंज
ु मग िनकट िनवासी। ित हिह सराहिहं सरु परु बासी॥

जहाँ-जहाँ राम के चरण चले जाते ह, उनके समान इं क पुरी अमरावती भी नह है। रा ते के
समीप बसनेवाले भी बड़े पु या मा ह - वग म रहनेवाले देवता भी उनक सराहना करते ह -

जे भ र नयन िबलोकिहं रामिह। सीता लखन सिहत घन यामिह॥


जे सर स रत राम अवगाहिहं। ित हिह देव सर स रत सराहिहं॥

जो ने भरकर सीता और ल मण सिहत घन याम राम के दशन करते ह, िजन तालाब और


निदय म राम नान कर लेते ह, देवसरोवर और देवनिदयाँ भी उनक बड़ाई करती ह।

जेिह त तर भु बैठिहं जाई। करिहं कलपत तासु बड़ाई॥


परिस राम पद पदम
ु परागा। मानित भूिम भू र िनज भागा॥

िजस व ृ के नीचे भु जा बैठते ह, क पव ृ भी उसक बड़ाई करते ह। राम के चरणकमल क


रज का पश करके प ृ वी अपना बड़ा सौभा य मानती है।

दो० - छाँह करिहं घन िबबध


ु गन बरषिहं समु न िसहािहं।
देखत िग र बन िबहग मग ृ रामु चले मग जािहं॥ 113॥

रा ते म बादल छाया करते ह और देवता फूल बरसाते और िसहाते ह। पवत, वन और पशु-पि य


को देखते हए राम रा ते म चले जा रहे ह॥ 113॥

सीता लखन सिहत रघरु ाई। गाँव िनकट जब िनकसिहं जाई॥


सिु न सब बाल ब ृ नर नारी। चलिहं तरु त गहृ काजु िबसारी॥

सीता और ल मण सिहत रघुनाथ जब िकसी गाँव के पास जा िनकलते ह, तब उनका आना


ू े , ी-पु ष सब अपने घर और काम-काज को भल
सुनते ही बालक-बढ़ ू कर तुरंत उ ह देखने के
िलए चल देते ह।

राम लखन िसय प िनहारी। पाइ नयन फलु होिहं सख


ु ारी॥
सजल िबलोचन पल
ु क सरीरा। सब भए मगन देिख दोउ बीरा॥

राम, ल मण और सीता का प देखकर, ने का (परम) फल पाकर वे सुखी होते ह। दोन


भाइय को देखकर सब ेमानंद म म न हो गए। उनके ने म जल भर आया और शरीर पुलिकत
हो गए।

बरिन न जाइ दसा ित ह केरी। लिह जनु रं क ह सरु मिन ढेरी॥


एक ह एक बोिल िसख देह । लोचन लाह लेह छन एह ॥

उनक दशा वणन नह क जाती। मानो द र ने िचंतामिण क ढे री पा ली हो। वे एक-एक को


पुकारकर सीख देते ह िक इसी ण ने का लाभ ले लो।

रामिह देिख एक अनरु ागे। िचतवत चले जािहं सँग लागे॥


एक नयन मग छिब उर आनी। होिहं िसिथल तन मन बर बानी॥

कोई राम को देखकर ऐसे अनुराग म भर गए ह िक वे उ ह देखते हए उनके साथ लगे चले जा
रहे ह। कोई ने माग से उनक छिव को दय म लाकर शरीर, मन और े वाणी से िशिथल हो
जाते ह (अथात उनके शरीर, मन और वाणी का यवहार बंद हो जाता है)।

दो० - एक देिख बट छाँह भिल डािस मदृ ल


ु तन
ृ पात।
कहिहं गवाँइअ िछनकु ु मु गवनब अबिहंिक ात॥ 114॥

कोई बड़ क सुंदर छाया देखकर, वहाँ नरम घास और प े िबछाकर कहते ह िक ण भर यहाँ
बैठकर थकावट िमटा लीिजए। िफर चाहे अभी चले जाइएगा, चाहे सबेरे॥ 114॥

एक कलस भ र आनिहं पानी। अँचइअ नाथ कहिहं मदृ ु बानी॥


सिु न ि य बचन ीित अित देखी। राम कृपाल सस
ु ील िबसेषी॥

कोई घड़ा भरकर पानी ले आते ह और कोमल वाणी से कहते ह - नाथ! आचमन तो कर लीिजए।
उनके यारे वचन सुनकर और उनका अ यंत ेम देखकर दयालु और परम सुशील राम ने -

जानी िमत सीय मन माह । घ रक िबलंबु क ह बट छाह ॥


मिु दत ना र नर देखिहं सोभा। प अनूप नयन मनु लोभा॥

मन म सीता को थक हई जानकर घड़ी भर बड़ क छाया म िव ाम िकया। ी-पु ष आनंिदत


होकर शोभा देखते ह। अनुपम प ने उनके ने और मन को लुभा िलया है।

एकटक सब सोहिहं चहँ ओरा। रामचं मख


ु चंद चकोरा॥
त न तमाल बरन तनु सोहा। देखत कोिट मदन मनु मोहा॥
सब लोग टकटक लगाए रामचं के मुखचं को चकोर क तरह (त मय होकर) देखते हए
चार ओर सुशोिभत हो रहे ह। राम का नवीन तमाल व ृ के रं ग का ( याम) शरीर अ यंत शोभा
दे रहा है, िजसे देखते ही करोड़ कामदेव के मन मोिहत हो जाते ह।

दािमिन बरन लखन सिु ठ नीके। नख िसख सभ ु ग भावते जी के॥


मिु न पट किट ह कस तन
ू ीरा। सोहिहं कर कमलिन धनु तीरा॥

िबजली के-से रं ग के ल मण बहत ही भले मालम


ू होते ह। वे नख से िशखा तक सुंदर ह, और मन
को बहत भाते ह। दोन मुिनय के (व कल आिद) व पहने ह और कमर म तरकस कसे हए ह।
कमल के समान हाथ म धनुष-बाण शोिभत हो रहे ह।

दो० - जटा मक
ु ु ट सीसिन सभ
ु ग उर भज
ु नयन िबसाल।
सरद परब िबधु बदन बर लसत वेद कन जाल॥ 115॥

उनके िसर पर सुंदर जटाओं के मुकुट ह; व ः थल, भुजा और ने िवशाल ह और शरद पिू णमा
के चं मा के समान सुंदर मुख पर पसीने क बँदू का समहू शोिभत हो रहा है॥ 115॥

बरिन न जाइ मनोहर जोरी। सोभा बहत थो र मित मोरी॥


राम लखन िसय संदु रताई। सब िचतविहं िचत मन मित लाई॥

उस मनोहर जोड़ी का वणन नह िकया जा सकता, य िक शोभा बहत अिधक है और मेरी बुि
थोड़ी है। राम, ल मण और सीता क सुंदरता को सब लोग मन, िच और बुि तीन को
लगाकर देख रहे ह।

थके ना र नर म
े िपआसे। मनहँ मग
ृ ी मग
ृ देिख िदआ से॥
सीय समीप ामितय जाह । पूँछत अित सनेहँ सकुचाह ॥

ेम के यासे (वे गाँव के) ी-पु ष (इनके स दय-माधुय क छटा देखकर) ऐसे चिकत रह गए
जैसे दीपक को देखकर िहरनी और िहरन (िन त ध रह जाते ह)! गाँव क ि याँ सीता के पास
जाती ह, परं तु अ यंत नेह के कारण पछ
ू ते सकुचाती ह।

बार बार सब लागिहं पाएँ । कहिहं बचन मदृ ु सरल सभु ाएँ ॥
राजकुमा र िबनय हम करह । ितय सभ ु ायँ कछु पूँछत डरह ॥

बार-बार सब उनके पाँव लगत और सहज ही सीधे-सादे कोमल वचन कहती ह - हे राजकुमारी!
हम िवनती करती (कुछ िनवेदन करना चाहती) ह, परं तु ी- वभाव के कारण कुछ पछ
ू ते हए
डरती ह।

वािमिन अिबनय छमिब हमारी। िबलगु न मानब जािन गवाँरी॥


राजकुअँर दोउ सहज सलोने। इ ह त लही दिु त मरकत सोने॥

हे वािमनी! हमारी िढठाई मा क िजएगा और हमको गँवारी जानकर बुरा न मािनएगा। ये दोन
राजकुमार वभाव से ही लाव यमय (परम सुंदर) ह। मरकतमिण (प ने) और सुवण ने कांित
इ ह से पाई है (अथात मरकतमिण म और वण म जो ह रत और वण वण क आभा है वह
इनक ह रताभनील और वण कांित के एक कण के बराबर भी नह है)।

दो० - यामल गौर िकसोर बर संदु र सष


ु मा ऐन।
सरद सबरीनाथ मखु ु सरद सरो ह नैन॥ 116॥

याम और गौर वण है, संदु र िकशोर अव था है; दोन ही परम संदु र और शोभा के धाम ह।
शरद पूिणमा के चं मा के समान इनके मखु और शरद ऋतु के कमल के समान इनके ने
ह॥ 116॥
कोिट मनोज लजाविनहारे । समु िु ख कहह को आिहं तु हारे ॥
सिु न सनेहमय मंजुल बानी। सकुची िसय मन महँ मस ु क
ु ानी॥

हे सुमुिख! कहो तो अपनी सुंदरता से करोड़ कामदेव को लजानेवाले ये तु हारे कौन ह? उनक
ऐसी ेममयी सुंदर वाणी सुनकर सीता सकुचा गई ं और मन-ही-मन मुसकराई ं।

ित हिह िबलोिक िबलोकित धरनी। दहु ँ सकोच सकुचित बरबरनी॥


सकुिच स म े बाल मग
ृ नयनी। बोली मधरु बचन िपकबयनी॥

उ म (गौर) वणवाली सीता उनको देखकर (संकोचवश) प ृ वी क ओर देखती ह। वे दोन ओर


के संकोच से सकुचा रही ह (अथात न बताने म ाम क ि य को दुःख होने का संकोच है और
बताने म ल जा प संकोच)। िहरन के ब चे के स श ने वाली और कोिकल क -सी वाणीवाली
सीता सकुचाकर ेम सिहत मधुर वचन बोल -

सहज सभ ु ाय सभ
ु ग तन गोरे । नामु लखनु लघु देवर मोरे ॥
बह र बदनु िबधु अंचल ढाँक । िपय तन िचतइ भ ह क र बाँक ॥

ये जो सहज वभाव, संुदर और गोरे शरीर के ह, उनका नाम ल मण है; ये मेरे छोटे देवर ह। िफर
सीता ने (ल जावश) अपने चं मुख को आँचल से ढँ ककर और ि यतम (राम) क ओर िनहारकर
भ ह टेढ़ी करके,

खंजन मंजु ितरीछे नयनिन। िनज पित कहेउ ित हिह िसयँ सयनिन॥
भई ं मिु दत सब ामबधूट । रं क ह राय रािस जनु लटू ॥

खंजन प ी के-से संुदर ने को ितरछा करके सीता ने इशारे से उ ह कहा िक ये (राम) मेरे पित
ह। यह जानकर गाँव क सब युवती ि याँ इस कार आनंिदत हई ं, मानो कंगाल ने धन क
रािशयाँ लटू ली ह ।

े िसय पाँय प र बहिबिध देिहं असीस।


दो० - अित स म
सदा सोहािगिन होह तु ह जब लिग मिह अिह सीस॥ 117

वे अ यंत ेम से सीता के पैर पड़कर बहत कार से आशीष देती ह (शुभ कामना करती ह) िक
जब तक शेष के िसर पर प ृ वी रहे , तब तक तुम सदा सुहािगनी बनी रहो,॥ 117॥

पारबती सम पिति य होह। देिब न हम पर छाड़ब छोह॥


पिु न पिु न िबनय क रअ कर जोरी। ज एिह मारग िफ रअ बहोरी॥

और पावती के समान अपने पित क यारी होओ। हे देवी! हम पर कृपा न छोड़ना (बनाए रखना)।
हम बार-बार हाथ जोड़कर िवनती करती ह िजसम आप िफर इसी रा ते लौट,

दरसनु देब जािन िनज दासी। लख सीयँ सब म े िपआसी॥


मधरु बचन किह किह प रतोष । जनु कुमिु दन कौमदु पोष ॥

और हम अपनी दासी जानकर दशन द। सीता ने उन सबको ेम क यासी देखा, और मधुर


वचन कह-कहकर उनका भली-भाँित संतोष िकया। मानो चाँदनी ने कुमुिदिनय को िखलाकर
पु कर िदया हो।

तबिहं लखन रघबु र ख जानी। पूँछेउ मगु लोगि ह मदृ ु बानी॥


सन
ु त ना र नर भए दख
ु ारी। पल
ु िकत गात िबलोचन बारी॥

उसी समय राम का ख जानकर ल मण ने कोमल वाणी से लोग से रा ता पछ ू ा। यह सुनते ही


ी-पु ष दुःखी हो गए। उनके शरीर पुलिकत हो गए और ने म (िवयोग क संभावना से ेम
का) जल भर आया।

िमटा मोदु मन भए मलीने। िबिध िनिध दी ह लेत जनु छीने॥


समिु झ करम गित धीरजु क हा। सोिध सग ु म मगु ित ह किह दी हा॥

उनका आनंद िमट गया और मन ऐसे उदास हो गए मानो िवधाता दी हई संपि छीने लेता हो।
कम क गित समझकर उ ह ने धैय धारण िकया और अ छी तरह िनणय करके सुगम माग
बतला िदया।

दो० - लखन जानक सिहत तब गवनु क ह रघन ु ाथ।


फेरे सब ि य बचन किह िलए लाइ मन साथ॥ 118॥
तब ल मण और जानक सिहत रघुनाथ ने गमन िकया और सब लोग को ि य वचन कहकर
लौटाया, िकंतु उनके मन को अपने साथ ही लगा िलया॥ 118॥

िफरत ना र नर अित पिछताह । दैअिह दोषु देिहं मन माह ॥


सिहत िबषाद परसपर कहह । िबिध करतब उलटे सब अहह ॥

लौटते हए वे ी-पु ष बहत ही पछताते ह और मन-ही-मन दैव को दोष देते ह। पर पर (बड़े ही)
िवषाद के साथ कहते ह िक िवधाता के सभी काम उलटे ह।

िनपट िनरं कुस िनठुर िनसंकू। जेिहं सिस क ह स ज सकलंकू॥


ख कलपत साग खारा। तेिहं पठए बन राजकुमारा॥

वह िवधाता िब कुल िनरं कुश ( वतं ), िनदय और िनडर है, िजसने चं मा को रोगी (घटने-
बढ़नेवाला) और कलंक बनाया, क पव ृ को पेड़ और समु को खारा बनाया। उसी ने इन
राजकुमार को वन म भेजा है।

ज पै इ हिह दी ह बनबासू। क ह बािद िबिध भोग िबलासू॥


ए िबचरिहं मग िबनु पद ाना। रचे बािद िबिध बाहन नाना॥

जब िवधाता ने इनको वनवास िदया है, तब उसने भोग-िवलास यथ ही बनाए। जब ये िबना जत ू े


के (नंगे ही पैर ) रा ते म चल रहे ह, तब िवधाता ने अनेक वाहन (सवा रयाँ) यथ ही रचे।

ए मिह परिहं डािस कुस पाता। सभ


ु ग सेज कत सज
ृ त िबधाता॥
त बर बास इ हिह िबिध दी हा। धवल धाम रिच रिच मु क हा॥

जब ये कुश और प े िबछाकर जमीन पर ही पड़े रहते ह, तब िवधाता सुंदर सेज (पलंग और


िबछौने) िकसिलए बनाता है? िवधाता ने जब इनको बड़े -बड़े पेड़ (के नीचे) का िनवास िदया, तब
उ वल महल को बना-बनाकर उसने यथ ही प र म िकया।

दो० - ज ए मिु न पट धर जिटल संदु र सिु ठ सक


ु ु मार।
िबिबध भाँित भूषन बसन बािद िकए करतार॥ 119॥

जो ये सुंदर और अ यंत सुकुमार होकर मुिनय के (व कल) व पहनते और जटा धारण करते
ह, तो िफर करतार (िवधाता) ने भाँित-भाँित के गहने और कपड़े वथ
ृ ा ही बनाए॥ 119॥

ज ए कंदमूल फल खाह । बािद सधु ािद असन जग माह ॥


एक कहिहं ए सहज सहु ाए। आपु गट भए िबिध न बनाए॥

जो ये कंद, मल
ू , फल खाते ह तो जगत म अमत
ृ आिद भोजन यथ ही ह। कोई एक कहते ह - ये
वभाव से ही सुंदर ह (इनका स दय-माधुय िन य और वाभािवक है)। ये अपने-आप कट हए ह,
ा के बनाए नह ह।

जहँ लिग बेद कही िबिध करनी। वन नयन मन गोचर बरनी॥


देखह खोिज भअ ु न दस चारी। कहँ अस पु ष कहाँ अिस नारी॥

हमारे कान , ने और मन के ारा अनुभव म आनेवाली िवधाता क करनी को जहाँ तक वेद ने


वणन करके कहा है, वहाँ तक चौदह लोक म ढूँढ देखो, ऐसे पु ष और ऐसी ि याँ कहाँ ह?
(कह भी नह ह, इसी से िस है िक ये िवधाता के चौदह लोक से अलग ह और अपनी मिहमा
से ही आप िनिमत हए ह।)

इ हिह देिख िबिध मनु अनरु ागा। पटतर जोग बनावै लागा॥
क ह बहत म ऐक न आए। तेिहं इ रषा बन आिन दरु ाए॥

इ ह देखकर िवधाता का मन अनुर (मु ध) हो गया, तब वह भी इ ह क उपमा के यो य दूसरे


ी-पु ष बनाने लगा। उसने बहत प र म िकया, परं तु कोई उसक अटकल म ही नह आए (परू े
नह उतरे )। इसी ई या के मारे उसने इनको जंगल म लाकर िछपा िदया है।

एक कहिहं हम बहत न जानिहं। आपिु ह परम ध य क र मानिहं॥


ु हम लेख।े जे देखिहं देिखहिहं िज ह देख॥े
ते पिु न पु यपंज

कोई एक कहते ह - हम बहत नह जानते। हाँ, अपने को परम ध य अव य मानते ह (जो इनके
दशन कर रहे ह) और हमारी समझ म वे भी बड़े पु यवान ह िज ह ने इनको देखा है, जो देख रहे
ह और जो देखगे।

दो० - एिह िबिध किह किह बचन ि य लेिहं नयन भ र नीर।


िकिम चिलहिहं मारग अगम सिु ठ सक
ु ु मार सरीर॥ 120॥

इस कार ि य वचन कह-कहकर सब ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर लेते ह और कहते ह िक ये


अ यंत सुकुमार शरीरवाले दुगम (किठन) माग म कैसे चलगे॥ 120॥

ना र सनेह िबकल बस होह । चकई ं साँझ समय जनु सोह ॥


मदृ ु पद कमल किठन मगु जानी। गहब र दयँ कहिहं बर बानी॥

ि याँ नेहवश िवकल हो जाती ह। मानो सं या के समय चकवी (भावी िवयोग क पीड़ा से) सोह
रही हो (दुःखी हो रही हो)। इनके चरणकमल को कोमल तथा माग को कठोर जानकर वे
यिथत दय से उ म वाणी कहती ह -

परसत मदृ ल
ु चरन अ नारे । सकुचित मिह िजिम दय हमारे ॥
ज जगदीस इ हिह बनु दी हा। कस न सम
ु नमय मारगु क हा॥

इनके कोमल और लाल-लाल चरण (तलव ) को छूते ही प ृ वी वैसे ही सकुचा जाती है, जैसे हमारे
दय सकुचा रहे ह। जगदी र ने यिद इ ह वनवास ही िदया, तो सारे रा ते को पु पमय य नह
बना िदया?

ज मागा पाइअ िबिध पाह । ए रिखअिहं सिख आँिख ह माह ॥


जे नर ना र न अवसर आए। ित ह िसय रामु न देखन पाए॥

यिद ा से माँगे िमले तो हे सखी! (हम तो उनसे माँगकर) इ ह अपनी आँख म ही रख! जो
ी-पु ष इस अवसर पर नह आए, वे सीताराम को नह देख सके।

सिु न सु पु बूझिहं अकुलाई। अब लिग गए कहाँ लिग भाई॥


समरथ धाइ िबलोकिहं जाई। मिु दत िफरिहं जनमफलु पाई॥

उनके स दय को सुनकर वे याकुल होकर पछ ू ते ह िक भाई! अब तक वे कहाँ तक गए ह गे?


और जो समथ ह, वे दौड़ते हए जाकर उनके दशन कर लेते ह और ज म का परम फल पाकर,
िवशेष आनंिदत होकर लौटते ह।

दो० - अबला बालक ब ृ जन कर मीजिहं पिछतािहं।


े बस लोग इिम रामु जहाँ जहँ जािहं॥ 121॥
होिहं म

(गभवती, सतू ा आिद) अबला ि याँ, ब चे और बढ़ ू े (दशन न पाने से) हाथ मलते और पछताते
ह। इस कार जहाँ-जहाँ राम जाते ह, वहाँ-वहाँ लोग ेम के वश म हो जाते ह॥ 121॥

गाँव गाँव अस होइ अनंदू। देिख भानक ु ु ल कैरव चंदू॥


जे कछु समाचार सिु न पाविहं। ते नप
ृ रािनिह दोसु लगाविहं॥

सयू कुल पी कुमुिदनी को फुि लत करनेवाले चं मा व प राम के दशन कर गाँव-गाँव म


ऐसा ही आनंद हो रहा है। जो लोग (वनवास िदए जाने का) कुछ भी समाचार सुन पाते ह, वे
राजा-रानी (दशरथ-कैकेयी) को दोष लगाते ह।

कहिहं एक अित भल नरनाह। दी ह हमिह जोइ लोचन लाह॥


कहिहं परसपर लोग लोगाई ं। बात सरल सनेह सहु ाई ं॥

कोई एक कहते ह िक राजा बहत ही अ छे ह, िज ह ने हम अपने ने का लाभ िदया। ी-पु ष


सभी आपस म सीधी, नेहभरी सुंदर बात कह रहे ह।

ते िपतु मातु ध य िज ह जाए। ध य सो नग जहाँ त आए॥


ध य सो देसु सैलु बन गाऊँ। जहँ-जहँ जािहं ध य सोइ ठाऊँ॥

(कहते ह -) वे माता-िपता ध य ह िज ह ने इ ह ज म िदया। वह नगर ध य है जहाँ से ये आए ह।


वह देश, पवत, वन और गाँव ध य है, और वही थान ध य है जहाँ-जहाँ ये जाते ह।

सखु ु पायउ िबरं िच रिच तेही। ए जेिह के सब भाँित सनेही॥


राम लखन पिथ कथा सहु ाई। रही सकल मग कानन छाई॥

ा ने उसी को रचकर सुख पाया है िजसके ये (राम) सब कार से नेही ह। पिथक प राम-
ल मण क सुंदर कथा सारे रा ते और जंगल म छा गई है।

दो० - एिह िबिध रघक


ु ु ल कमल रिब मग लोग ह सख
ु देत।
जािहं चले देखत िबिपन िसय सौिमि समेत॥ 122॥

ू राम इस कार माग के लोग को सुख देते हए सीता


रघुकुल पी कमल को िखलानेवाले सय
और ल मण सिहत वन को देखते हए चले जा रहे ह॥ 122॥

आग रामु लखनु बने पाछ। तापस बेष िबराजत काछ॥


उभय बीच िसय सोहित कैस। जीव िबच माया जैस॥

आगे राम ह, पीछे ल मण सुशोिभत ह। तपि वय के वेष बनाए दोन बड़ी ही शोभा पा रहे ह। दोन
के बीच म सीता कैसी सुशोिभत हो रही ह, जैसे और जीव के बीच म माया!

बह र कहउँ छिब जिस मन बसई। जनु मधु मदन म य रित लसई॥


उपमा बह र कहउँ िजयँ जोही। जनु बध
ु िबधु िबच रोिहिन सोही॥

िफर जैसी छिव मेरे मन म बस रही है, उसको कहता हँ - मानो वसंत ऋतु और कामदेव के बीच म
रित (कामेदव क ी) शोिभत हो। िफर अपने दय म खोजकर उपमा कहता हँ िक मानो बुध
(चं मा के पु ) और चं मा के बीच म रोिहणी (चं मा क ी) सोह रही हो।

भु पद रे ख बीच िबच सीता। धरित चरन मग चलित सभीता॥


सीय राम पद अंक बराएँ । लखन चलिहं मगु दािहन लाएँ ॥

भु राम के (जमीन पर अंिकत होनेवाले दोन ) चरण िच के बीच-बीच म पैर रखती हई सीता
(कह भगवान के चरण िच पर पैर न िटक जाए इस बात से) डरती हई ं माग म चल रही ह और
ल मण (मयादा क र ा के िलए) सीता और राम दोन के चरण िच को बचाते हए दािहने
रखकर रा ता चल रहे ह।

राम लखन िसय ीित सहु ाई। बचन अगोचर िकिम किह जाई॥
खग मग
ृ मगन देिख छिब होह । िलए चो र िचत राम बटोह ॥

राम, ल मण और सीता क सुंदर ीित वाणी का िवषय नह है (अथात अिनवचनीय है), अतः वह
कैसे कही जा सकती है? प ी और पशु भी उस छिव को देखकर ( ेमानंद म) म न हो जाते ह।
पिथक प राम ने उनके भी िच चुरा िलए ह।

दो० - िज ह िज ह देखे पिथक ि य िसय समेत दोउ भाइ।


भव मगु अगमु अनंदु तेइ िबनु म रहे िसराइ॥ 123॥

यारे पिथक सीता सिहत दोन भाइय को िजन-िजन लोग ने देखा, उ ह ने भव का अगम माग
(ज म-म ृ यु पी संसार म भटकने का भयानक माग) िबना ही प र म आनंद के साथ तय कर
िलया (अथात वे आवागमन के च से सहज ही छूटकर मु हो गए)॥ 123॥

अजहँ जासु उर सपनेहँ काऊ। बसहँ लखनु िसय रामु बटाऊ॥


राम धाम पथ पाइिह सोई। जो पथ पाव कबहँ मिु न कोई॥

आज भी िजसके दय म व न म भी कभी ल मण, सीता, राम तीन बटोही आ बस, तो वह भी


राम के परमधाम के उस माग को पा जाएगा िजस माग को कभी कोई िबरले ही मुिन पाते ह।

तब रघबु ीर िमत िसय जानी। देिख िनकट बटु सीतल पानी॥


तहँ बिस कंद मूल फल खाई। ात नहाइ चले रघरु ाई॥

तब राम सीता को थक हई जानकर और समीप ही एक बड़ का व ृ और ठं डा पानी देखकर उस


ू , फल खाकर (रात भर वहाँ रहकर) ातःकाल नान करके
िदन वह ठहर गए। कंद, मल
रघुनाथ आगे चले।

देखत बन सर सैल सहु ाए। बालमीिक आ म भु आए॥


राम दीख मिु न बासु सहु ावन। संदु र िग र काननु जलु पावन॥

संुदर वन, तालाब और पवत देखते हए भु राम वा मीिक के आ म म आए। राम ने देखा िक
मुिन का िनवास थान बहत सुंदर है, जहाँ सुंदर पवत, वन और पिव जल है।

सरिन सरोज िबटप बन फूले। गंज ु रस भूल॥े


ु त मंजु मधप
खग मगृ िबपलु कोलाहल करह । िबरिहत बैर मिु दत मन चरह ॥

सरोवर म कमल और वन म व ृ फूल रहे ह और मकरं द-रस म म त हए भ रे सुंदर गुंजार कर


रहे ह। बहत-से प ी और पशु कोलाहल कर रहे ह और वैर से रिहत होकर स न मन से िवचर
रहे ह।
दो० - सिु च संदु र आ मु िनरिख हरषे रािजवनेन।
सिु न रघबु र आगमनु मिु न आग आयउ लेन॥ 124॥

पिव और सुंदर आ म को देखकर कमल नयन राम हिषत हए। रघु े राम का आगमन
सुनकर मुिन वा मीिक उ ह लेने के िलए आगे आए॥ 124॥

मिु न कहँ राम दंडवत क हा। आिसरबादु िब बर दी हा॥


देिख राम छिब नयन जुड़ाने। क र सनमानु आ मिहं आने॥

राम ने मुिन को दंडवत िकया। िव े मुिन ने उ ह आशीवाद िदया। राम क छिव देखकर मुिन
के ने शीतल हो गए। स मानपवू क मुिन उ ह आ म म ले आए।

मिु नबर अितिथ ानि य पाए। कंद मूल फल मधरु मगाए॥


िसय सौिमि राम फल खाए। तब मिु न आ म िदए सहु ाए॥

े मुिन वा मीिक ने ाणि य अितिथय को पाकर उनके िलए मधुर कंद, मल


ू और फल
मँगवाए। सीता, ल मण और राम ने फल को खाया। तब मुिन ने उनको (िव ाम करने के िलए)
संुदर थान बतला िदए।

बालमीिक मन आनँदु भारी। मंगल मूरित नयन िनहारी॥


तब कर कमल जो र रघरु ाई। बोले बचन वन सख ु दाई॥

(मुिन राम के पास बैठे ह और उनक ) मंगल-मिू त को ने से देखकर वा मीिक के मन म बड़ा


भारी आनंद हो रहा है। तब रघुनाथ कमलस श हाथ को जोड़कर, कान को सुख देनेवाले मधुर
वचन बोले -

तु ह ि काल दरसी मिु ननाथा। िब व बदर िजिम तु हर हाथा॥


अस किह भु सब कथा बखानी। जेिह जेिह भाँित दी ह बनु रानी॥

हे मुिननाथ! आप ि कालदश ह। संपण ू िव आपके िलए हथेली पर रखे हए बेर के समान है।
भु राम ने ऐसा कहकर िफर िजस-िजस कार से रानी कैकेयी ने वनवास िदया, वह सब कथा
िव तार से सुनाई।

दो० - तात बचन पिु न मातु िहत भाइ भरत अस राउ।


मो कहँ दरस तु हार भु सबु मम पु य भाउ॥ 125॥

(और कहा -) हे भो! िपता क आ ा (का पालन), माता का िहत और भरत-जैसे ( नेही एवं
धमा मा) भाई का राजा होना और िफर मुझे आपके दशन होना, यह सब मेरे पु य का भाव है॥
125॥
देिख पाय मिु नराय तु हारे । भए सक
ु ृ त सब सफ
ु ल हमारे ॥
अब जहँ राउर आयसु होई। मिु न उदबेगु न पावै कोई॥

हे मुिनराज! आपके चरण का दशन करने से आज हमारे सब पु य सफल हो गए (हम सारे पु य


का फल िमल गया)। अब जहाँ आपक आ ा हो और जहाँ कोई भी मुिन उ ेग को ा न हो -

मिु न तापस िज ह त दख
ु ु लहह । ते नरे स िबनु पावक दहह ॥
मंगल मूल िब प रतोषू। दहइ कोिट कुल भूसरु रोषू॥

य िक िजनसे मुिन और तप वी दुःख पाते ह, वे राजा िबना अि न के ही (अपने दु कम से ही)


जलकर भ म हो जाते ह। ा ण का संतोष सब मंगल क जड़ है और भदू ेव ा ण का ोध
करोड़ कुल को भ म कर देता है।

अस िजयँ जािन किहअ सोइ ठाऊँ। िसय सौिमि सिहत जहँ जाऊँ॥
तहँ रिच िचर परन तन
ृ साला। बासु कर कछु काल कृपाला॥

ऐसा दय म समझकर - वह थान बतलाइए जहाँ म ल मण और सीता सिहत जाऊँ और वहाँ


सुंदर प और घास क कुटी बनाकर, हे दयालु! कुछ समय िनवास क ँ ।

सहज सरल सिु न रघब


ु र बानी। साधु साधु बोले मिु न यानी॥
कस न कहह अस रघक ु ु लकेत।ू तु ह पालक संतत िु त सेत॥

राम क सहज ही सरल वाणी सुनकर ानी मुिन वा मीिक बोले - ध य! ध य! हे रघुकुल के
वजा व प! आप ऐसा य न कहगे? आप सदैव वेद क मयादा का पालन (र ण) करते ह।

छं ० - ुित सेतु पालक राम तु ह जगदीस माया जानक ।


जो सज ृ ित जगु पालित हरित ख पाइ कृपािनधान क ॥
जो सहससीसु अहीसु मिहध लखनु सचराचर धनी।
सरु काज ध र नरराज तनु चले दलन खल िनिसचर अनी॥

हे राम! आप वेद क मयादा के र क जगदी र ह और जानक (आपक व पभत ू ा) माया ह,


जो कृपा के भंडार आपका ख पाकर जगत का सज ृ न, पालन और संहार करती ह। जो हजार
म तकवाले सप के वामी और प ृ वी को अपने िसर पर धारण करनेवाले ह, वही चराचर के
वामी शेष ल मण ह। देवताओं के काय के िलए आप राजा का शरीर धारण करके दु रा स
क सेना का नाश करने के िलए चले ह।

सो० - राम स प तु हार बचन अगोचर बिु पर।


अिबगत अकथ अपार नेित नेित िनत िनगम कह॥ 126॥
हे राम! आपका व प वाणी के अगोचर, बुि से परे , अ य , अकथनीय और अपार है। वेद
िनरं तर उसका 'नेित-नेित' कहकर वणन करते ह॥ 126॥

जगु पेखन तु ह देखिनहारे । िबिध ह र संभु नचाविनहारे ॥


तेउ न जानिहं मरमु तु हारा। औ तु हिह को जानिनहारा॥

हे राम! जगत य है, आप उसके देखनेवाले ह। आप ा, िव णु और शंकर को भी नचानेवाले


ह। जब वे भी आपके मम को नह जानते, तब और कौन आपको जाननेवाला है?

सोइ जानइ जेिह देह जनाई। जानत तु हिह तु हइ होइ जाई॥


तु ह रिह कृपाँ तु हिह रघन
ु ंदन। जानिहं भगत भगत उर चंदन॥

वही आपको जानता है, िजसे आप जना देते ह और जानते ही वह आपका ही व प बन जाता है।
हे रघुनंदन! हे भ के दय को शीतल करनेवाले चंदन! आपक ही कृपा से भ आपको जान
पाते ह।

िचदानंदमय देह तु हारी। िबगत िबकार जान अिधकारी॥


नर तनु धरे ह संत सरु काजा। कहह करह जस ाकृत राजा॥

आपक देह िचदानंदमय है (यह कृितज य पंच महाभत ू क बनी हई कम बंधनयु ,


ि देहिविश माियक नह है) और (उ पि -नाश, विृ - य आिद) सब िवकार से रिहत है; इस
रह य को अिधकारी पु ष ही जानते ह। आपने देवता और संत के काय के िलए (िद य) नर-
शरीर धारण िकया है और ाकृत ( कृित के त व से िनिमत देहवाले, साधारण) राजाओं क तरह
से कहते और करते ह।

राम देिख सिु न च रत तु हारे । जड़ मोहिहं बध


ु होिहं सख
ु ारे ॥
तु ह जो कहह करह सबु साँचा। जस कािछअ तस चािहअ नाचा॥

हे राम! आपके च र को देख और सुनकर मख ू लोग तो मोह को ा होते ह और ानीजन


सुखी होते ह। आप जो कुछ कहते, करते ह, वह सब स य (उिचत) ही है; य िक जैसा वाँग भरे
वैसा ही नाचना भी तो चािहए (इस समय आप मनु य प म ह, अतः मनु योिचत यवहार करना
ठीक ही है)।

दो० - पूँछेह मोिह िक रह कहँ म पूँछत सकुचाउँ ।


जहँ न होह तहँ देह किह तु हिह देखाव ठाउँ ॥ 127॥

आपने मुझसे पछ
ू ा िक म कहाँ रहँ? परं तु म यह पछ
ू ते सकुचाता हँ िक जहाँ आप न ह , वह थान
बता दीिजए। तब म आपके रहने के िलए थान िदखाऊँ॥ 127॥
े रस साने। सकुिच राम मन महँ मस
सिु न मिु न बचन म ु क
ु ाने॥
बालमीिक हँिस कहिहं बहोरी। बानी मधरु अिमअ रस बोरी॥

मुिन के ेमरस से सने हए वचन सुनकर राम (रह य खुल जाने के डर से) सकुचाकर मन म
मुसकराए। वा मीिक हँसकर िफर अमतृ -रस म डुबोई हई मीठी वाणी बोले -

सनु ह राम अब कहउँ िनकेता। जहाँ बसह िसय लखन समेता॥


िज ह के वन समु समाना। कथा तु हा र सभ ु ग स र नाना॥

हे राम! सुिनए, अब म वे थान बताता हँ जहाँ आप सीता और ल मण समेत िनवास क िजए।


िजनके कान समु क भाँित आपक सुंदर कथा पी अनेक सुंदर निदय से -

भरिहं िनरं तर होिहं न पूरे। ित ह के िहय तु ह कहँ गहृ रे ॥


लोचन चातक िज ह क र राखे। रहिहं दरस जलधर अिभलाषे॥

िनरं तर भरते रहते ह, परं तु कभी परू े (त ृ ) नह होते, उनके दय आपके िलए सुंदर घर ह और
िज ह ने अपने ने को चातक बना रखा है, जो आपके दशन पी मेघ के िलए सदा लालाियत
रहते ह;

िनदरिह स रत िसंधु सर भारी। प िबंदु जल होिहं सख


ु ारी॥
ित ह क दय सदन सख ु दायक। बसह बंधु िसय सह रघन ु ायक॥

तथा जो भारी-भारी निदय , समु और झील का िनरादर करते ह और आपके स दय ( पी मेघ)


के एक बँदू जल से सुखी हो जाते ह (अथात आपके िद य सि चदानंदमय व प के िकसी एक
अंग क जरा-सी भी झाँक के सामने थल ू , सू म और कारण तीन जगत के, अथात प ृ वी,
वग और लोक तक के स दय का ितर कार करते ह), हे रघुनाथ! उन लोग के दय पी
सुखदायी भवन म आप भाई ल मण और सीता सिहत िनवास क िजए।

दो० - जसु तु हार मानस िबमल हंिसिन जीहा जास।ु


मकु ताहल गन ु गन चन ु इ राम बसह िहयँ तास॥ु 128॥

आपके यश पी िनमल मानसरोवर म िजसक जीभ हंिसनी बनी हई आपके गुणसमहू पी


मोितय को चुगती रहती है, हे राम! आप उसके दय म बिसए॥ 128॥

भु साद सिु च सभु ग सब


ु ासा। सादर जासु लहइ िनत नासा॥
तु हिह िनबेिदत भोजन करह । भु साद पट भूषन धरह ॥

िजसक नािसका भु (आप) के पिव और सुगंिधत (पु पािद) सुंदर साद को िन य आदर के
साथ हण करती (सँघ ू ती) है, और जो आपको अपण करके भोजन करते ह और आपके साद
प ही व ाभषू ण धारण करते ह;

सीस नविहं सरु गु ि ज देखी। ीित सिहत क र िबनय िबसेषी॥


कर िनत करिहं राम पद पूजा। राम भरोस दयँ निहं दूजा॥

िजनके म तक देवता, गु और ा ण को देखकर बड़ी न ता के साथ ेम सिहत झुक जाते


ह; िजनके हाथ िन य राम (आप) के चरण क पज
ू ा करते ह, और िजनके दय म राम (आप)
का ही भरोसा है, दूसरा नह ;

चरन राम तीरथ चिल जाह । राम बसह ित ह के मन माह ॥


मं राजु िनत जपिहं तु हारा। पूजिहं तु हिह सिहत प रवारा॥

तथा िजनके चरण राम (आप) के तीथ म चलकर जाते ह; हे राम! आप उनके मन म िनवास
क िजए। जो िन य आपके (रामनाम प) मं राज को जपते ह और प रवार (प रकर) सिहत
आपक पज ू ा करते ह।

तरपन होम करिहं िबिध नाना। िब जेवाँइ देिहं बह दाना॥


तु ह त अिधक गरु िह िजयँ जानी। सकल भायँ सेविहं सनमानी॥

जो अनेक कार से तपण और हवन करते ह, तथा ा ण को भोजन कराकर बहत दान देते ह;
तथा जो गु को दय म आपसे भी अिधक (बड़ा) जानकर सवभाव से स मान करके उनक
सेवा करते ह;

दो० - सबु क र मागिहं एक फलु राम चरन रित होउ।


ित ह क मन मंिदर बसह िसय रघन ु ंदन दोउ॥ 129॥

और ये सब कम करके सबका एक मा यही फल माँगते ह िक राम के चरण म हमारी ीित हो;


उन लोग के मन पी मंिदर म सीता और रघुकुल को आनंिदत करनेवाले आप दोन बिसए॥
129॥

काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न ोहा॥


िज ह क कपट दंभ निहं माया। ित ह क दय बसह रघरु ाया॥

िजनके न तो काम, ोध, मद, अिभमान और मोह ह; न लोभ है, न ोभ है; न राग है, न ेष है;
और न कपट, दंभ और माया ही है - हे रघुराज! आप उनके दय म िनवास क िजए।

सब के ि य सब के िहतकारी। दख
ु सख
ु स रस संसा गारी॥
कहिहं स य ि य बचन िबचारी। जागत सोवत सरन तु हारी॥
जो सबके ि य और सबका िहत करनेवाले ह; िज ह दुःख और सुख तथा शंसा (बड़ाई) और
गाली (िनंदा) समान ह, जो िवचारकर स य और ि य वचन बोलते ह तथा जो जागते-सोते
आपक ही शरण ह,

तु हिह छािड़ गित दूस र नाह । राम बसह ित ह के मन माह ॥


जननी सम जानिहं परनारी। धनु पराव िबष त िबष भारी॥

और आपको छोड़कर िजनके दूसरे कोई गित (आ य) नह है, हे राम! आप उनके मन म बिसए।
जो पराई ी को ज म देनेवाली माता के समान जानते ह और पराया धन िज ह िवष से भी भारी
िवष है,

जे हरषिहं पर संपित देखी। दिु खत होिहं पर िबपित िबसेषी॥


िज हिह राम तु ह ानिपआरे । ित ह के मन सभ ु सदन तु हारे ॥

जो दूसरे क संपि देखकर हिषत होते ह और दूसरे क िवपि देखकर िवशेष प से दुःखी होते
ह, और हे राम! िज ह आप ाण के समान यारे ह, उनके मन आपके रहने यो य शुभ भवन ह।

दो० - वािम सखा िपतु मातु गरु िज ह के सब तु ह तात।


मन मंिदर ित ह क बसह सीय सिहत दोउ ात॥ 130॥

हे तात! िजनके वामी, सखा, िपता, माता और गु सब कुछ आप ही ह; उनके मन पी मंिदर म


सीता सिहत आप दोन भाई िनवास क िजए॥ 130॥

अवगनु तिज सब के गन
ु गहह । िब धेनु िहत संकट सहह ॥
नीित िनपन
ु िज ह कइ जग लीका। घर तु हार ित ह कर मनु नीका॥

जो अवगुण को छोड़कर सबके गुण को हण करते ह, ा ण और गो के िलए संकट सहते ह,


नीित-िनपुणता म िजनक जगत म मयादा है, उनका सुंदर मन आपका घर है।

गनु तु हार समझ


ु इ िनज दोसा। जेिह सब भाँित तु हार भरोसा॥
राम भगत ि य लागिहं जेही। तेिह उर बसह सिहत बैदहे ी॥

जो गुण को आपका और दोष को अपना समझता है, िजसे सब कार से आपका ही भरोसा है,
और राम भ िजसे यारे लगते ह, उसके दय म आप सीता सिहत िनवास क िजए।

जाित पाँित धनु धरमु बड़ाई। ि य प रवार सदन सखु दाई॥


सब तिज तु हिह रहइ उर लाई। तेिह के दयँ रहह रघरु ाई॥
जाित, पाँित, धन, धम, बड़ाई, यारा प रवार और सुख देनेवाला घर - सबको छोड़कर जो केवल
आपको ही दय म धारण िकए रहता है, हे रघुनाथ! आप उसके दय म रिहए।

सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धर धनु बाना॥


करम बचन मन राउर चेरा। राम करह तेिह क उर डेरा॥

वग, नरक और मो िजसक ि म समान ह, य िक वह जहाँ-तहाँ (सब जगह) केवल


धनुष-बाण धारण िकए आपको ही देखता है; और जो कम से, वचन से और मन से आपका दास
है, हे राम! आप उसके दय म डे रा क िजए।

दो० - जािह न चािहअ कबहँ कछु तु ह सन सहज सनेह।


बसह िनरं तर तासु मन सो राउर िनज गेह॥ 131॥

िजसको कभी कुछ भी नह चािहए और िजसका आपसे वाभािवक ेम है, आप उसके मन म


िनरं तर िनवास क िजए; वह आपका अपना घर है॥ 131॥

े राम मन भाए॥
एिह िबिध मिु नबर भवन देखाए। बचन स म
कह मिु न सन
ु ह भानकु ु लनायक। आ म कहउँ समय सखु दायक॥

इस कार मुिन े वा मीिक ने राम को घर िदखाए। उनके ेमपण ू वचन राम के मन को अ छे


ू कुल के वामी! सुिनए, अब म इस समय के िलए सुखदायक
लगे। िफर मुिन ने कहा - हे सय
आ म कहता हँ (िनवास थान बतलाता हँ)।

िच कूट िग र करह िनवासू। तहँ तु हार सब भाँित सप


ु ासू॥
सैलु सहु ावन कानन चा । क र केह र मग ृ िबहग िबहा ॥

आप िच कूट पवत पर िनवास क िजए, वहाँ आपके िलए सब कार क सुिवधा है। सुहावना पवत
है और सुंदर वन है। वह हाथी, िसंह, िहरन और पि य का िवहार थल है।

नदी पनु ीत परु ान बखानी। अि ि या िनज तप बल आनी॥


सरु स र धार नाउँ मंदािकिन। जो सब पातक पोतक डािकिन॥

वहाँ पिव नदी है, िजसक पुराण ने शंसा क है, और िजसको अि ऋिष क प नी अनसय ू ा
अपने तपोबल से लाई थ । वह गंगा क धारा है, उसका मंदािकनी नाम है। वह सब पाप पी
बालक को खा डालने के िलए डािकनी (डायन) प है।

अि आिद मिु नबर बह बसह । करिहं जोग जप तप तन कसह ॥


चलह सफल म सब कर करह। राम देह गौरव िग रबरह॥
अि आिद बहत-से े मुिन वहाँ िनवास करते ह, जो योग, जप और तप करते हए शरीर को
कसते ह। हे राम! चिलए, सबके प र म को सफल क िजए और पवत े िच कूट को भी गौरव
दीिजए।

दो० - िच कूट मिहमा अिमत कही महामिु न गाइ।


आइ नहाए स रत बर िसय समेत दोउ भाइ॥ 132॥

महामुिन वा मीिक ने िच कूट क अप रिमत मिहमा बखान कर कही। तब सीता सिहत दोन
भाइय ने आकर े नदी मंदािकनी म नान िकया॥ 132॥

रघब
ु र कहेउ लखन भल घाटू। करह कतहँ अब ठाहर ठाटू॥
लखन दीख पय उतर करारा। चहँ िदिस िफरे उ धनष
ु िजिम नारा॥

राम ने कहा - ल मण! बड़ा अ छा घाट है। अब यह कह ठहरने क यव था करो। तब ल मण


ने पयि वनी नदी के उ र के ऊँचे िकनारे को देखा (और कहा िक -) इसके चार ओर धनुष के-
जैसा एक नाला िफरा हआ है।

नदी पनच सर सम दम दाना। सकल कलष ु किल साउज नाना॥


िच कूट जनु अचल अहेरी। चक
ु इ न घात मार मठ
ु भेरी॥

नदी (मंदािकनी) उस धनुष क यंचा (डोरी) है और शम, दम, दान बाण ह। किलयुग के
सम त पाप उसके अनेक िहंसक पशु ( प िनशाने) ह। िच कूट ही मानो अचल िशकारी है,
िजसका िनशाना कभी चक ू ता नह , और जो सामने से मारता है।

अस किह लखन ठाउँ देखरावा। थलु िबलोिक रघब ु र सख


ु ु पावा॥
रमेउ राम मनु देव ह जाना। चले सिहत सरु थपित धाना॥

ऐसा कहकर ल मण ने थान िदखाया। थान को देखकर राम ने सुख पाया। जब देवताओं ने
जाना िक राम का मन यहाँ रम गया, तब वे देवताओं के धान थवई (मकान बनानेवाले)
िव कमा को साथ लेकर चले।

कोल िकरात बेष सब आए। रचे परन तन ृ सदन सहु ाए॥


बरिन न जािहं मंजु दइु साला। एक लिलत लघु एक िबसाला॥

सब देवता कोल-भील के वेष म आए और उ ह ने (िद य) प और घास के सुंदर घर बना िदए।


दो ऐसी सुंदर कुिटया बनाई ं िजनका वणन नह हो सकता। उनम एक बड़ी सुंदर छोटी-सी थी और
दूसरी बड़ी थी।

दो० - लखन जानक सिहत भु राजत िचर िनकेत।


सोह मदनु मिु न बेष जनु रित रतरु ाज समेत॥ 133॥

ल मण और जानक सिहत भु राम संदु र घास-प के घर म शोभायमान ह। मानो


कामदेव मिु न का वेष धारण करके प नी रित और वसंत ऋतु के साथ सश
ु ोिभत हो॥ 133॥
अमर नाग िकंनर िदिसपाला। िच कूट आए तेिह काला॥
राम नामु क ह सब काह। मिु दत देव लिह लोचन लाह॥

उस समय देवता, नाग, िक नर और िद पाल िच कूट म आए और राम ने सब िकसी को णाम


िकया। देवता ने का लाभ पाकर आनंिदत हए।

बरिष सम
ु न कह देव समाजू। नाथ सनाथ भए हम आजू॥
क र िबनती दख
ु दसु ह सन
ु ाए। हरिषत िनज िनज सदन िसधाए॥

फूल क वषा करके देव समाज ने कहा - हे नाथ! आज (आपका दशन पाकर) हम सनाथ हो
गए। िफर िवनती करके उ ह ने अपने दुःसह दुःख सुनाए और (दुःख के नाश का आ ासन
पाकर) हिषत होकर अपने-अपने थान को चले गए।

िच कूट रघन
ु ंदनु छाए। समाचार सिु न सिु न मिु न आए॥
आवत देिख मिु दत मिु नबंदृ ा। क ह दंडवत रघक
ु ु ल चंदा॥

रघुनाथ िच कूट म आ बसे ह, यह समाचार सुन-सुनकर बहत-से मुिन आए। रघुकुल के चं मा


राम ने मुिदत हई मुिन मंडली को आते देखकर दंडवत णाम िकया।

मिु न रघब
ु रिह लाइ उर लेह । सफ
ु ल होन िहत आिसष देह ॥
िसय सौिमि राम छिब देखिहं। साधन सकल सफल क र लेखिहं॥

मुिनगण राम को दय से लगा लेते ह और सफल होने के िलए आशीवाद देते ह। वे सीता, ल मण
और राम क छिव देखते ह और अपने सारे साधन को सफल हआ समझते ह।

दो० - जथाजोग सनमािन भु िबदा िकए मिु नबंदृ ।


करिहं जोग जप जाग तप िनज आ मि ह सछ ु ं द॥ 134॥

भु राम ने यथायो य स मान करके मुिन मंडली को िवदा िकया। (राम के आ जाने से) वे सब
अपने-अपने आ म म अब वतं ता के साथ योग, जप, य और तप करने लगे॥ 134॥

यह सिु ध कोल िकरात ह पाई। हरषे जनु नव िनिध घर आई॥


कंद मूल फल भ र भ र दोना। चले रं क जनु लटू न सोना॥
यह (राम के आगमन का) समाचार जब कोल-भील ने पाया, तो वे ऐसे हिषत हए मानो नव
िनिधयाँ उनके घर ही पर आ गई ह । वे दोन म कंद, मल
ू , फल भर-भरकर चले, मानो द र
सोना लटू ने चले ह ।

ित ह महँ िज ह देखे दोउ ाता। अपर ित हिह पूँछिहं मगु जाता॥


कहत सनु त रघबु ीर िनकाई। आइ सबि ह देखे रघरु ाई॥

उनम से जो दोन भाइय को (पहले) देख चुके थे, उनसे दूसरे लोग रा ते म जाते हए पछ
ू ते ह।
इस कार राम क सुंदरता कहते-सुनते सब ने आकर रघुनाथ के दशन िकए।

करिहं जोहा भट ध र आगे। भिु ह िबलोकिहं अित अनरु ागे॥


िच िलखे जनु जहँ तहँ ठाढ़े। पल
ु क सरीर नयन जल बाढ़े॥

भट आगे रखकर वे लोग जोहार करते ह और अ यंत अनुराग के साथ भु को देखते ह। वे मु ध


हए जहाँ-के-तहाँ मानो िच िलखे-से खड़े ह। उनके शरीर पुलिकत ह और ने म ेमा ुओ ं के
जल क बाढ़ आ रही है।

राम सनेह मगन सब जाने। किह ि य बचन सकल सनमाने॥


भिु ह जोहा र बहो र बहोरी। बचन िबनीत कहिहं कर जोरी॥

राम ने उन सबको ेम म म न जाना और ि य वचन कहकर सबका स मान िकया। वे बार-बार


भु राम को जोहार करते हए हाथ जोड़कर िवनीत वचन कहते ह -

दो० - अब हम नाथ सनाथ सब भए देिख भु पाय।


भाग हमार आगमनु राउर कोसलराय॥ 135॥

हे नाथ! भु (आप) के चरण का दशन पाकर अब हम सब सनाथ हो गए। हे कोसलराज! हमारे


ही भा य से आपका यहाँ शुभागमन हआ है॥ 135॥

ध य भूिम बन पंथ पहारा। जहँ जहँ नाथ पाउ तु ह धारा॥


ध य िबहग मगृ काननचारी। सफल जनम भए तु हिह िनहारी॥

हे नाथ! जहाँ-जहाँ आपने अपने चरण रखे ह, वे प ृ वी, वन, माग और पहाड़ ध य ह, वे वन म
िवचरनेवाले प ी और पशु ध य ह, जो आपको देखकर सफल ज म हो गए।

हम सब ध य सिहत प रवारा। दीख दरसु भ र नयन तु हारा॥


क ह बासु भल ठाउँ िबचारी। इहाँ सकल रतु रहब सख
ु ारी॥

हम सब भी अपने प रवार सिहत ध य ह, िज ह ने ने भरकर आपके दशन िकए। आपने बड़ी


अ छी जगह िवचारकर िनवास िकया है। यहाँ सभी ऋतुओ ं म आप सुखी रिहएगा।

हम सब भाँित करब सेवकाई। क र केह र अिह बाघ बराई॥


बन बेहड़ िग र कंदर खोहा। सब हमार भु पग पग जोहा॥

हम लोग सब कार से हाथी, िसंह, सप और बाघ से बचाकर आपक सेवा करगे। हे भो! यहाँ के
बीहड़ वन, पहाड़, गुफाएँ और खोह (दर) सब पग-पग हमारे देखे हए ह।

तहँ तहँ तु हिह अहेर खेलाउब। सर िनरझर जलठाउँ देखाउब॥


हम सेवक प रवार समेता। नाथ न सकुचब आयसु देता॥

हम वहाँ-वहाँ (उन-उन थान म) आपको िशकार िखलावगे और तालाब, झरने आिद जलाशय
को िदखाएँ गे। हम कुटुंब समेत आपके सेवक ह। हे नाथ! इसिलए हम आ ा देने म संकोच न
क िजएगा।

दो० - बेद बचन मिु न मन अगम ते भु क ना ऐन।


बचन िकरात ह के सन ु त िजिम िपतु बालक बैन॥ 136॥

जो वेद के वचन और मुिनय के मन को भी अगम ह, वे क णा के धाम भु राम भील के वचन


इस तरह सुन रहे ह जैसे िपता बालक के वचन सुनता है॥ 136॥

रामिह केवल म
े ु िपआरा। जािन लेउ जो जान िनहारा॥
राम सकल बनचर तब तोषे। किह मदृ ु बचन म े प रपोषे॥

राम को केवल ेम यारा है; जो जाननेवाला हो (जानना चाहता हो), वह जान ले। तब राम ने ेम
से प रपु हए ( ेमपण
ू ) कोमल वचन कहकर उन सब वन म िवचरण करनेवाले लोग को
संतु िकया।

िबदा िकए िसर नाइ िसधाए। भु गनु कहत सन ु त घर आए॥


एिह िबिध िसय समेत दोउ भाई। बसिहं िबिपन सरु मिु न सख
ु दाई॥

िफर उनको िवदा िकया। वे िसर नवाकर चले और भु के गुण कहते-सुनते घर आए। इस कार
देवता और मुिनय को सुख देनेवाले दोन भाई सीता समेत वन म िनवास करने लगे।

जब त आइ रहे रघन ु ायकु। तब त भयउ बनु मंगलदायकु॥


फूलिहं फलिहं िबटप िबिध नाना। मंजु बिलत बर बेिल िबताना॥

जब से रघुनाथ वन म आकर रहे तब से वन मंगलदायक हो गया। अनेक कार के व ृ फूलते


और फलते ह और उन पर िलपटी हई सुंदर बेल के मंडप तने ह।
सरु त स रस सभ ु ायँ सहु ाए। मनहँ िबबध
ु बन प रह र आए॥
गंज
ु मंजुतर मधक
ु र न े ी। ि िबध बया र बहइ सख
ु देनी॥

वे क पव ृ के समान वाभािवक ही सुंदर ह। मानो वे देवताओं के वन (नंदन वन) को छोड़कर


आए ह । भ र क पंि याँ बहत ही सुंदर गुंजार करती ह और सुख देनेवाली शीतल, मंद, सुगंिधत
हवा चलती रहती है।

दो० - नीलकंठ कलकंठ सक ु चातक च क चकोर।


भाँित भाँित बोलिहं िबहग वन सखु द िचत चोर॥ 137॥

नीलकंठ, कोयल, तोते, पपीहे , चकवे और चकोर आिद प ी कान को सुख देनेवाली और िच
को चुरानेवाली तरह-तरह क बोिलयाँ बोलते ह॥ 137॥

क र केह र किप कोल कुरं गा। िबगतबैर िबचरिहं सब संगा॥


िफरत अहेर राम छिब देखी। होिहं मिु दत मग
ृ बंदृ िबसेषी॥

ू र और िहरन, ये सब वैर छोड़कर साथ-साथ िवचरते ह। िशकार के िलए


हाथी, िसंह, बंदर, सअ
िफरते हए राम क छिव को देखकर पशुओ ं के समहू िवशेष आनंिदत होते ह।

िबबधु िबिपन जहँ लिग जग माह । देिख रामबनु सकल िसहाह ॥


सरु स र सरसइ िदनकर क या। मेकलसत ु ा गोदाव र ध या॥

जगत म जहाँ तक (िजतने) देवताओं के वन ह, सब राम के वन को देखकर िसहाते ह। गंगा,


सर वती, सय
ू कुमारी यमुना, नमदा, गोदावरी आिद ध य (पु यमयी) निदयाँ,

सब सर िसंधु नद नद नाना। मंदािकिन कर करिहं बखाना॥


उदय अ त िग र अ कैलासू। मंदर मे सकल सरु बासू॥

सारे तालाब, समु , नदी और अनेक नद सब मंदािकनी क बड़ाई करते ह। उदयाचल,


अ ताचल, कैलास, मंदराचल और सुमे आिद सब, जो देवताओं के रहने के थान ह,

सैल िहमाचल आिदक जेत।े िच कूट जसु गाविहं तेत॥े


िबंिध मिु दत मन सख
ु ु न समाई। म िबनु िबपल
ु बड़ाई पाई॥

और िहमालय आिद िजतने पवत ह, सभी िच कूट का यश गाते ह। िवं याचल बड़ा आनंिदत है,
उसके मन म सुख समाता नह ; य िक उसने िबना प र म ही बहत बड़ी बड़ाई पा ली है।

दो० - िच कूट के िबहग मग


ृ बेिल िबटप तन
ृ जाित।
पु य पंज
ु सब ध य अस कहिहं देव िदन राित॥ 138॥
िच कूट के प ी, पशु, बेल, व ृ , तण
ृ -अंकुरािद क सभी जाितयाँ पु य क रािश ह और ध य ह -
देवता िदन-रात ऐसा कहते ह॥ 138॥

नयनवंत रघब
ु रिह िबलोक । पाइ जनम फल होिहं िबसोक ॥
परिस चरन रज अचर सख ु ारी। भए परम पद के अिधकारी॥

आँख वाले जीव राम को देखकर ज म का फल पाकर शोकरिहत हो जाते ह, और अचर (पवत,
व ृ , भिू म, नदी आिद) भगवान क चरण-रज का पश पाकर सुखी होते ह। य सभी परम पद
(मो ) के अिधकारी हो गए।

सो बनु सैलु सभ
ु ायँ सहु ावन। मंगलमय अित पावन पावन॥
मिहमा किहअ कविन िबिध तासू। सख ु सागर जहँ क ह िनवासू॥

वह वन और पवत वाभािवक ही सुंदर, मंगलमय और अ यंत पिव को भी पिव करनेवाला है।


उसक मिहमा िकस कार कही जाए, जहाँ सुख के समु राम ने िनवास िकया है।

पय पयोिध तिज अवध िबहाई। जहँ िसय लखनु रामु रहे आई॥
किह न सकिहं सष
ु मा जिस कानन। ज सत सहस होिहं सहसानन॥

ीर सागर को यागकर और अयो या को छोड़कर जहाँ सीता, ल मण और राम आकर रहे , उस


वन क जैसी परम शोभा है, उसको हजार मुखवाले जो लाख शेष ह तो वे भी नह कह सकते।

सो म बरिन कह िबिध केह । डाबर कमठ िक मंदर लेह ॥


सेविहं लखनु करम मन बानी। जाइ न सीलु सनेह बखानी॥

उसे भला, म िकस कार से वणन करके कह सकता हँ। कह पोखरे का ( ु ) कछुआ भी
मंदराचल उठा सकता है? ल मण मन, वचन और कम से राम क सेवा करते ह। उनके शील और
नेह का वणन नह िकया जा सकता।

दो० - िछनु िछनु लिख िसय राम पद जािन आपु पर नेह।


करत न सपनेहँ लखनु िचतु बंधु मातु िपतु गेह॥ 139॥

ण- ण पर सीताराम के चरण को देखकर और अपने ऊपर उनका नेह जानकर ल मण


व न म भी भाइय , माता-िपता और घर क याद नह करते॥ 139॥

राम संग िसय रहित सख ु ारी। परु प रजन गहृ सरु ित िबसारी॥
िछनु िछनु िपय िबधु बदनु िनहारी। मिु दत मनहँ चकोर कुमारी॥

राम के साथ सीता अयो यापुरी, कुटुंब के लोग और घर क याद भल


ू कर बहत ही सुखी रहती ह।
ण- ण पर पित राम के चं मा के समान मुख को देखकर वे वैसे ही परम स न रहती ह, जैसे
चकोर कुमारी (चकोरी) चं मा को देखकर!

नाह नेह िनत बढ़त िबलोक । हरिषत रहित िदवस िजिम कोक ॥
िसय मनु राम चरन अनरु ागा। अवध सहस सम बनु ि य लागा॥

वामी का ेम अपने ित िन य बढ़ता हआ देखकर सीता ऐसी हिषत रहती ह, जैसे िदन म
चकवी! सीता का मन राम के चरण म अनुर है इससे उनको वन हजार अवध के समान ि य
लगता है।

परनकुटी ि य ि यतम संगा। ि य प रवा कुरं ग िबहंगा॥


सासु ससरु सम मिु नितय मिु नबर। असनु अिमअ सम कंद मूल फर॥

ि यतम (राम) के साथ पणकुटी यारी लगती है। मग


ृ और प ी यारे कुटुंिबय के समान लगते
ह। मुिनय क ि याँ सास के समान, े मुिन ससुर के समान और कंद-मल ू -फल का आहार
उनको अमत ृ के समान लगता है।

नाथ साथ साँथरी सहु ाई। मयन सयन सय सम सख ु दाई॥


लोकप होिहं िबलोकत जासू। तेिह िक मोिह सक िबषय िबलासू॥

वामी के साथ सुंदर साथरी (कुश और प क सेज) सैकड़ कामदेव क सेज के समान सुख
देनेवाली है। िजनके (कृपापवू क) देखने मा से जीव लोकपाल हो जाते ह, उनको कह भोग-
िवलास मोिहत कर सकते ह!

दो० - सिु मरत रामिह तजिहं जन तन


ृ सम िबषय िबलास।ु
रामि या जग जनिन िसय कछु न आचरजु तास॥ु 140॥

िजन राम का मरण करने से ही भ जन तमाम भोग-िवलास को ितनके के समान याग देते
ह, उन राम क ि य प नी और जगत क माता सीता के िलए यह (भोग-िवलास का याग) कुछ
भी आ य नह है॥ 140॥

सीय लखन जेिह िबिध सख ु ु लहह । सोइ रघनु ाथ करिहं सोइ कहह ॥
कहिहं परु ातन कथा कहानी। सनु िहं लखनु िसय अित सख ु ु मानी॥

सीता और ल मण को िजस कार सुख िमले, रघुनाथ वही करते और वही कहते ह। भगवान
ाचीन कथाएँ और कहािनयाँ कहते ह और ल मण तथा सीता अ यंत सुख मानकर सुनते ह।

जब जब रामु अवध सिु ध करह । तब तब बा र िबलोचन भरह ॥


सिु म र मातु िपतु प रजन भाई। भरत सनेह सीलु सेवकाई॥
जब-जब राम अयो या क याद करते ह, तब-तब उनके ने म जल भर आता है। माता-िपता,
कुटुंिबय और भाइय तथा भरत के ेम, शील और सेवाभाव को याद करके -

कृपािसंधु भु होिहं दख
ु ारी। धीरजु धरिहं कुसमउ िबचारी॥
लिख िसय लखनु िबकल होइ जाह । िजिम पु षिह अनस ु र प रछाह ॥

कृपा के समु भु राम दुःखी हो जाते ह, िकंतु िफर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते ह।
राम को दुःखी देखकर सीता और ल मण भी याकुल हो जाते ह, जैसे िकसी मनु य क परछाई ं
उस मनु य के समान ही चे ा करती है।

ि या बंधु गित लिख रघनु ंदन।ु धीर कृपाल भगत उर चंदन॥ु


लगे कहन कछु कथा पन ु ीता। सिु न सखु ु लहिहं लखनु अ सीता॥

तब धीर, कृपालु और भ के दय को शीतल करने के िलए चंदन प रघुकुल को आनंिदत


करनेवाले राम यारी प नी और भाई ल मण क दशा देखकर कुछ पिव कथाएँ कहने लगते ह,
िज ह सुनकर ल मण और सीता सुख ा करते ह।

दो० - रामु लखन सीता सिहत सोहत परन िनकेत।


िजिम बासव बस अमरपरु सची जयंत समेत॥ 141॥

ल मण और सीता सिहत राम पणकुटी म ऐसे सुशोिभत ह, जैसे अमरावती म इं अपनी प नी


शची और पु जयंत सिहत बसता है॥ 141॥

जोगविहं भिु सय लखनिह कैस। पलक िबलोचन गोलक जैस॥


सेविहं लखनु सीय रघब
ु ीरिह। िजिम अिबबेक पु ष सरीरिह॥

भु राम सीता और ल मण क कैसी सँभाल रखते ह, जैसे पलक ने के गोलक क । इधर


ल मण सीता और राम क (अथवा ल मण और सीता राम क ) ऐसी सेवा करते ह, जैसे अ ानी
मनु य शरीर क करते ह।

एिह िबिध भु बन बसिहं सख ु ारी। खग मगृ सरु तापस िहतकारी॥


कहेउँ राम बन गवनु सहु ावा। सन
ु ह सम
ु ं अवध िजिम आवा॥

प ी, पशु, देवता और तपि वय के िहतकारी भु इस कार सुखपवू क वन म िनवास कर रहे ह।


तुलसीदास कहते ह - मने राम का सुंदर वनगमन कहा। अब िजस तरह सुमं अयो या म आए
वह (कथा) सुनो।

िफरे उ िनषादु भिु ह पहँचाई। सिचव सिहत रथ देखिे स आई॥


मं ी िबकल िबलोिक िनषादू। किह न जाइ जस भयउ िबषादू॥

भु राम को पहँचाकर जब िनषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मं ी (सुमं ) सिहत देखा।


मं ी को याकुल देखकर िनषाद को जैसा दुःख हआ, वह कहा नह जाता।

राम राम िसय लखन पक ु ारी। परे उ धरिनतल याकुल भारी॥


देिख दिखन िदिस हय िहिहनाह । जनु िबनु पंख िबहग अकुलाह ॥

(िनषाद को अकेले आया देखकर) सुमं हा राम! हा राम! हा सीते! हा ल मण! पुकारते हए,
बहत याकुल होकर धरती पर िगर पड़े । (रथ के) घोड़े दि ण िदशा क ओर (िजधर राम गए थे)
देख-देखकर िहनिहनाते ह। मानो िबना पंख के प ी याकुल हो रहे ह ।

दो० - निहं तन
ृ चरिहं न िपअिहं जलु मोचिहं लोचन बा र।
याकुल भए िनषाद सब रघब ु र बािज िनहा र॥ 142॥

वे न तो घास चरते ह, न पानी पीते ह। केवल आँख से जल बहा रहे ह। राम के घोड़ को इस दशा
म देखकर सब िनषाद याकुल हो गए॥ 142॥

ध र धीरजु तब कहइ िनषादू। अब सम


ु ं प रहरह िबषादू॥
तु ह पंिडत परमारथ याता। धरह धीर लिख िबमख ु िबधाता॥

तब धीरज धरकर िनषादराज कहने लगा - हे सुमं ! अब िवषाद को छोिड़ए। आप पंिडत और


परमाथ के जाननेवाले ह। िवधाता को ितकूल जानकर धैय धारण क िजए।

िबिबिध कथा किह किह मदृ ु बानी। रथ बैठारे उ बरबस आनी॥


सोक िसिथल रथु सकइ न हाँक । रघब ु र िबरह पीर उर बाँक ॥

कोमल वाणी से भाँित-भाँित क कथाएँ कहकर िनषाद ने जबरद ती लाकर सुमं को रथ पर


बैठाया। परं तु शोक के मारे वे इतने िशिथल हो गए िक रथ को हाँक नह सकते। उनके दय म
राम के िवरह क बड़ी ती वेदना है।

चरफरािहं मग चलिहं न घोरे । बन मग ृ मनहँ आिन रथ जोरे ॥


अढ़िक परिहं िफ र हेरिहं पीछ। राम िबयोिग िबकल दखु तीछ॥

घोड़े तड़फड़ाते ह और (ठीक) रा ते पर नह चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ म जोत िदए गए
ह । वे राम के िवयोगी घोड़े कभी ठोकर खाकर िगर पड़ते ह, कभी घम
ू कर पीछे क ओर देखने
लगते ह। वे ती ण दुःख से याकुल ह।

जो कह रामु लखनु बैदहे ी। िहंक र िहंक र िहत हेरिहं तेही॥


बािज िबरह गित किह िकिम जाती। िबनु मिन फिनक िबकल जेिहं भाँती॥

जो कोई राम, ल मण या जानक का नाम ले लेता है, घोड़े िहकर-िहकरकर उसक ओर यार से
देखने लगते ह। घोड़ क िवरह दशा कैसे कही जा सकती है? वे ऐसे याकुल ह, जैसे मिण के
िबना साँप याकुल होता है।

दो० - भयउ िनषादु िबषादबस देखत सिचव तरु ं ग।


बोिल सस े क चा र तब िदए सारथी संग॥ 143॥
ु व

मं ी और घोड़ क यह दशा देखकर िनषादराज िवषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार


उ म सेवक बुलाकर सारथी के साथ कर िदए॥ 143॥

गहु सारिथिह िफरे उ पहँचाई। िबरह िबषादु बरिन निहं जाई॥


चले अवध लेइ रथिह िनषादा। होिहं छनिहं छन मगन िबषादा॥

िनषादराज गुह सारथी (सुमं ) को पहँचाकर (िवदा करके) लौटा। उसके िवरह और दुःख का
वणन नह िकया जा सकता। वे चार िनषाद रथ लेकर अवध को चले। (सुमं और घोड़ को देख-
देखकर) वे भी ण- णभर िवषाद म डूबे जाते थे।

सोच सम ु ं िबकल दख
ु दीना। िधग जीवन रघब ु ीर िबहीना॥
रिहिह न अंतहँ अधम सरी । जसु न लहेउ िबछुरत रघबु ी ॥

याकुल और दुःख से दीन हए सुमं सोचते ह िक रघुवीर के िबना जीना िध कार है। आिखर यह
अधम शरीर रहे गा तो है ही नह । अभी राम के िबछुड़ते ही छूटकर इसने यश ( य ) नह ले िलया।

भए अजस अघ भाजन ाना। कवन हेतु निहं करत पयाना॥


अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहँ न दय होत दइु टूका॥

ये ाण अपयश और पाप के भाँड़े हो गए। अब ये िकस कारण कूच नह करते (िनकलते नह )?


हाय! नीच मन (बड़ा अ छा) मौका चक ू गया। अब भी तो दय के दो टुकड़े नह हो जाते!

मीिज हाथ िस धिु न पिछताई। मनहँ कृपन धन रािस गवाँई॥


िब रद बाँिध बर बी कहाई। चलेउ समर जनु सभ
ु ट पराई॥

सुमं हाथ मल-मलकर और िसर पीट-पीटकर पछताते ह। मानो कोई कंजस ू धन का खजाना खो
बैठा हो। वे इस कार चले मानो कोई बड़ा यो ा वीर का बाना पहनकर और उ म शरू वीर
कहलाकर यु से भाग चला हो!

दो० - िब िबबेक बेदिबद संमत साधु सज


ु ाित।
िजिम धोख मदपान कर सिचव सोच तेिह भाँित॥ 144॥

जैसे कोई िववेकशील, वेद का ाता, साधुस मत आचरण वाला और उ म जाित का (कुलीन)
ा ण धोखे से मिदरा पी ले और पीछे पछताए, उसी कार मं ी सुमं सोच कर रहे (पछता रहे )
ह॥ 144॥

िजिम कुलीन ितय साधु सयानी। पितदेवता करम मन बानी॥


रहै करम बस प रह र नाह। सिचव दयँ ितिम दा न दाह॥

जैसे िकसी उ म कुलवाली, साधु वाभाव क , समझदार और मन, वचन, कम से पित को ही


देवता माननेवाली पित ता ी को भा यवश पित को छोड़कर (पित से अलग) रहना पड़े , उस
समय उसके दय म जैसे भयानक संताप होता है, वैसे ही मं ी के दय म हो रहा है।

लोचन सजल डीिठ भइ थोरी। सन ु इ न वन िबकल मित भोरी॥


सूखिहं अधर लािग महु ँ लाटी। िजउ न जाइ उर अविध कपाटी॥

ने म जल भरा है, ि मंद हो गई है। कान से सुनाई नह पड़ता, याकुल हई बुि बेिठकाने
ू रहे ह, मँुह म लाटी लग गई है। िकंतु (ये सब म ृ यु के ल ण हो जाने पर भी)
हो रही है। ओठ सख
ाण नह िनकलते; य िक दय म अविध पी िकवाड़ लगे ह (अथात चौदह वष बीत जाने पर
भगवान िफर िमलगे, यही आशा कावट डाल रही है)।

िबबरन भयउ न जाइ िनहारी। मारे िस मनहँ िपता महतारी॥


हािन गलािन िबपल
ु मन यापी। जमपरु पंथ सोच िजिम पापी॥

सुमं के मुख का रं ग बदल गया है, जो देखा नह जाता। ऐसा मालम


ू होता है मानो इ ह ने
माता-िपता को मार डाला हो। उनके मन म राम िवयोग पी हािन क महान लािन (पीड़ा) छा
रही है, जैसे कोई पापी मनु य नरक को जाता हआ रा ते म सोच कर रहा हो।

बचनु न आव दयँ पिछताई। अवध काह म देखब जाई॥


राम रिहत रथ देिखिह जोई। सकुिचिह मोिह िबलोकत सोई॥

मँुह से वचन नह िनकलते। दय म पछताते ह िक म अयो या म जाकर या देखँग ू ा? राम से


शू य रथ को जो भी देखेगा, वही मुझे देखने म संकोच करे गा (अथात मेरा मँुह नह देखना
चाहे गा)।

दो० - धाइ पूँिछहिहं मोिह जब िबकल नगर नर ना र।


उत देब म सबिह तब दयँ ब ु बैठा र॥ 145॥

नगर के सब याकुल ी-पु ष जब दौड़कर मुझसे पछ


ू गे, तब म दय पर व रखकर सबको
उ र दँूगा॥ 145॥

पिु छहिहं दीन दिु खत सब माता। कहब काह म ित हिह िबधाता।


पूिछिह जबिहं लखन महतारी। किहहउँ कवन सँदस े सखु ारी॥

जब दीन-दुःखी सब माताएँ पछ
ू गी, तब हे िवधाता! म उ ह या कहँगा? जब ल मण क माता
ू गी, तब म उ ह कौन-सा सुखदायी सँदेसा कहँगा?
मुझसे पछ

राम जनिन जब आइिह धाई। सिु म र ब छु िजिम धेनु लवाई॥


पूँछत उत देब म तेही। गे बनु राम लखनु बैदहे ी॥

राम क माता जब इस कार दौड़ी आवगी जैसे नई यायी हई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी
आती है, तब उनके पछ
ू ने पर म उ ह यह उ र दँूगा िक राम, ल मण, सीता वन को चले गए!

जोई पँूिछिह तेिह ऊत देबा। जाइ अवध अब यह सख ु ु लेबा॥


पूँिछिह जबिहं राउ दख
ु दीना। िजवनु जासु रघन
ु ाथ अधीना॥

जो भी पछू े गा उसे यही उ र देना पड़े गा! हाय! अयो या जाकर अब मुझे यही सुख लेना है! जब
दुःख से दीन महाराज, िजनका जीवन रघुनाथ के (दशन के) ही अधीन है, मुझसे पछ ू गे,

देहउँ उत कौनु महु लाई। आयउँ कुसल कुअँर पहँचाई॥


सनु त लखन िसय राम सँदस े ू। तन
ृ िजिम तनु प रह रिह नरे सू॥

तब म कौन-सा मँुह लेकर उ ह उ र दँूगा िक म राजकुमार को कुशलपवू क पहँचा आया हँ!


ल मण, सीता औरराम का समाचार सुनते ही महाराज ितनके क तरह शरीर को याग दगे।

दो० - दउ न िबदरे उ पंक िजिम िबछुरत ीतमु नी ।


जानत ह मोिह दी ह िबिध यह जातना सरी ॥ 146॥

ि यतम (राम) पी जल के िबछुड़ते ही मेरा दय क चड़ क तरह फट नह गया, इससे म जानता


हँ िक िवधाता ने मुझे यह 'यातना शरीर' ही िदया है।146॥

एिह िबिध करत पंथ पिछतावा। तमसा तीर तरु त रथु आवा॥
िबदा िकए क र िबनय िनषादा। िफरे पायँ प र िबकल िबषादा॥

सुमं इस कार माग म पछतावा कर रहे थे, इतने म ही रथ तुरंत तमसा नदी के तट पर आ
पहँचा। मं ी ने िवनय करके चार िनषाद को िवदा िकया। वे िवषाद से याकुल होते हए सुमं के
पैर पड़कर लौटे।
पैठत नगर सिचव सकुचाई। जनु मारे िस गरु बाँभन गाई॥
बैिठ िबटप तर िदवसु गवाँवा। साँझ समय तब अवस पावा॥

नगर म वेश करते मं ी ( लािन के कारण) ऐसे सकुचाते ह, मानो गु , ा ण या गौ को


मारकर आए ह । सारा िदन एक पेड़ के नीचे बैठकर िबताया। जब सं या हई तब मौका िमला।

अवध बेसु क ह अँिधआर। पैठ भवन रथु रािख दआ ु र॥


िज ह िज ह समाचार सिु न पाए। भूप ार रथु देखन आए॥

अँधेरा होने पर उ ह ने अयो या म वेश िकया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे (चुपके-से)


महल म घुसे। िजन-िजन लोग ने यह समाचार सुना पाया, वे सभी रथ देखने को राज ार पर
आए।

रथु पिहचािन िबकल लिख घोरे । गरिहं गात िजिम आतप ओरे ॥
नगर ना र नर याकुल कैस। िनघटत नीर मीनगन जैस॥

रथ को पहचानकर और घोड़ को याकुल देखकर उनके शरीर ऐसे गले जा रहे ह ( ीण हो रहे
ह) जैसे घाम म ओले! नगर के ी-पु ष कैसे याकुल ह, जैसे जल के घटने पर मछिलयाँ
( याकुल होती ह)।

दो० - सिचव आगमनु सन


ु त सबु िबकल भयउ रिनवास।ु
भवनु भयंक लाग तेिह मानहँ ते िनवास॥ु 147॥

मं ी का (अकेले ही) आना सुनकर सारा रिनवास याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा
भयानक लगा मानो ेत का िनवास थान ( मशान) हो॥ 147॥

अित आरित सब पूँछिहं रानी। उत न आव िबकल भइ बानी॥


सन
ु इ न वन नयन निहं सूझा। कहह कहाँ नपृ ु तेिह तेिह बूझा॥

अ यंत आत होकर सब रािनयाँ पछ ू ती ह; पर सुमं को कुछ उ र नह आता, उनक वाणी िवकल


हो गई ( क गई) है। न कान से सुनाई पड़ता है और न आँख से कुछ सझू ता है। वे जो भी सामने
आता है उस-उससे पछू ते ह - कहो, राजा कहाँ ह?

दािस ह दीख सिचव िबकलाई। कौस या गहृ ँ गई ं लवाई॥


जाइ सम
ु ं दीख कस राजा। अिमअ रिहत जनु चंदु िबराजा॥

दािसयाँ मं ी को याकुल देखकर उ ह कौस या के महल म िलवा गई ं। सुमं ने जाकर वहाँ


राजा को कैसा (बैठे) देखा मानो िबना अमत
ृ का चं मा हो।
आसन सयन िबभूषन हीना। परे उ भूिमतल िनपट मलीना॥
लेइ उसासु सोच एिह भाँती। सरु परु त जनु खँसउे जजाती॥

राजा आसन, श या और आभषू ण से रिहत िबलकुल मिलन (उदास) प ृ वी पर पड़े हए ह। वे लंबी


साँस लेकर इस कार सोच करते ह मानो राजा ययाित वग से िगरकर सोच कर रहे ह ।

लेत सोच भ र िछनु िछनु छाती। जनु ज र पंख परे उ संपाती॥


राम राम कह राम सनेही। पिु न कह राम लखन बैदहे ी॥

राजा ण- ण म सोच से छाती भर लेते ह। ऐसी िवकल दशा है मानो (गीधराज जटायु का भाई)
संपाती पंख के जल जाने पर िगर पड़ा हो। राजा (बार-बार) 'राम, राम' 'हा नेही ( यारे ) राम!'
कहते ह, िफर 'हा राम, हा ल मण, हा जानक ' ऐसा कहने लगते ह।

दो० - देिख सिचवँ जय जीव किह क हेउ दंड नाम।ु


सनु त उठेउ याकुल नपृ ित कह सम
ु ं कहँ राम॥ु 148॥

मं ी ने देखकर 'जय जीव' कहकर दंडवत- णाम िकया। सुनते ही राजा याकुल होकर उठे और
बोले - सुमं ! कहो, राम कहाँ ह?॥ 148॥

भूप सम
ु ं ु ली ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई॥
सिहत सनेह िनकट बैठारी। पूँछत राउ नयन भ र बारी॥

राजा ने सुमं को दय से लगा िलया। मानो डूबते हए आदमी को कुछ सहारा िमल गया हो। मं ी
को नेह के साथ पास बैठाकर ने म जल भरकर राजा पछ ू ने लगे -

राम कुसल कह सखा सनेही। कहँ रघनु ाथु लखनु बैदहे ी॥


आने फे र िक बनिह िसधाए। सन
ु त सिचव लोचन जल छाए॥

हे मेरे ेमी सखा! राम क कुशल कहो। बताओ, राम, ल मण और जानक कहाँ ह? उ ह लौटा
लाए हो िक वे वन को चले गए? यह सुनते ही मं ी के ने म जल भर आया।

सोक िबकल पिु न पूँछ नरे सू। कह िसय राम लखन संदस े ू॥
राम प गन
ु सील सभ ु ाऊ। सिु म र सिु म र उर सोचत राऊ॥

ू ने लगे - सीता, राम और ल मण का संदेसा तो कहो। राम


शोक से याकुल होकर राजा िफर पछ
के प, गुण, शील और वभाव को याद कर-करके राजा दय म सोच करते ह।

राउ सनु ाइ दी ह बनबासू। सिु न मन भयउ न हरषु हराँसू॥


सो सतु िबछुरत गए न ाना। को पापी बड़ मोिह समाना॥
(और कहते ह -) मने राजा होने क बात सुनाकर वनवास दे िदया, यह सुनकर भी िजस (राम)
के मन म हष और िवषाद नह हआ, ऐसे पु के िबछुड़ने पर भी मेरे ाण नह गए, तब मेरे समान
बड़ा पापी कौन होगा?

दो० - सखा रामु िसय लखनु जहँ तहाँ मोिह पहँचाउ।


नािहं त चाहत चलन अब ान कहउँ सितभाउ॥ 149॥

हे सखा! राम, जानक और ल मण जहाँ ह, मुझे भी वह पहँचा दो। नह तो म स य भाव से


कहता हँ िक मेरे ाण अब चलना ही चाहते ह॥ 149॥

पिु न पिु न पूँछत मंि िह राऊ। ि यतम सअ े सन


ु न सँदस ु ाऊ॥
करिह सखा सोइ बेिग उपाऊ। रामु लखनु िसय नयन देखाऊ॥

ू ते ह - मेरे ि यतम पु का संदेसा सुनाओ। हे सखा! तुम तुरंत वही


राजा बार-बार मं ी से पछ
उपाय करो िजससे राम, ल मण और सीता को मुझे आँख िदखा दो।

सिचव धीर ध र कह मदृ ु बानी। महाराज तु ह पंिडत यानी॥


बीर सध
ु ीर धरु ं धर देवा। साधु समाजु सदा तु ह सेवा॥

मं ी धीरज धरकर कोमल वाणी बोले - महाराज! आप पंिडत और ानी ह। हे देव! आप शरू वीर
तथा उ म धैयवान पु ष म े ह। आपने सदा साधुओ ं के समाज क सेवा क है।

जनम मरन सब दख
ु सख ु भोगा। हािन लाभु ि य िमलन िबयोगा॥
काल करम बस होिहं गोसाई ं। बरबस राित िदवस क नाई ं॥

ज म-मरण, सुख-दुःख के भोग, हािन-लाभ, यार का िमलना-िबछुड़ना, ये सब हे वामी! काल


और कम के अधीन रात और िदन क तरह बरबस होते रहते ह।

सख
ु हरषिहं जड़ दख ु िबलखाह । दोउ सम धीर धरिहं मन माह ॥
धीरज धरह िबबेकु िबचारी। छािड़अ सोच सकल िहतकारी॥

मख
ू लोग सुख म हिषत होते और दुःख म रोते ह, पर धीर पु ष अपने मन म दोन को समान
समझते ह। हे सबके िहतकारी (र क)! आप िववेक िवचारकर धीरज ध रए और शोक का
प र याग क िजए।

दो० - थम बासु तमसा भयउ दूसर सरु स र तीर।


हाइ रहे जलपानु क र िसय समेत दोउ बीर॥ 150॥

राम का पहला िनवास (मुकाम) तमसा के तट पर हआ, दूसरा गंगा तीर पर। सीता सिहत दोन
भाई उस िदन नान करके जल पीकर ही रहे ॥ 150॥

केवट क ि ह बहत-सेवकाई। सो जािमिन िसंगरौर गवाँई॥


होत ात बट छी मगावा। जटा मक ु ु ट िनज सीस बनावा॥

केवट (िनषादराज) ने बहत-सेवा क । वह रात िसंगरौर ( ंग


ृ वेरपुर) म ही िबताई। दूसरे िदन सबेरा
होते ही बड़ का दूध मँगवाया और उससे राम-ल मण ने अपने िसर पर जटाओं के मुकुट बनाए।

राम सखाँ तब नाव मगाई। ि या चढ़ाई चढ़े रघरु ाई॥


लखन बान धनु धरे बनाई। आपु चढ़े भु आयसु पाई॥

तब राम के सखा िनषादराज ने नाव मँगवाई। पहले ि या सीता को उस पर चढ़ाकर िफर रघुनाथ
चढ़े । िफर ल मण ने धनुष-बाण सजाकर रखे और भु राम क आ ा पाकर वयं चढ़े ।

िबकल िबलोिक मोिह रघब


ु ीरा। बोले मधरु बचन ध र धीरा॥
तात नामु तात सन कहेह। बार बार पद पंकज गहेह॥

मुझे याकुल देखकर राम धीरज धरकर मधुर वचन बोले - हे तात! िपता से मेरा णाम कहना
और मेरी ओर से बार-बार उनके चरण कमल पकड़ना।

करिब पायँ प र िबनय बहोरी। तात क रअ जिन िचंता मोरी॥


बन मग मंगल कुसल हमार। कृपा अनु ह पु य तु हार॥

िफर पाँव पकड़कर िवनती करना िक हे िपता! आप मेरी िचंता न क िजए। आपक कृपा, अनु ह
और पु य से वन म और माग म हमारा कुशल-मंगल होगा।

छं ० - तु हर अनु ह तात कानन जात सब सख ु ु पाइह ।


ितपािल आयसु कुसल देखन पाय पिु न िफ र आइह ॥
जनन सकल प रतोिष प र प र पायँ क र िबनती घनी।
तलु सी करह सोइ जतनु जेिहं कुसली रहिहं कोसलधनी॥

हे िपता! आपके अनु ह से म वन जाते हए सब कार का सुख पाऊँगा। आ ा का भली-भाँित


पालन करके चरण का दशन करने कुशलपवू क िफर लौट आऊँगा। सब माताओं के पैर पड़-
पड़कर उनका समाधान करके और उनसे बहत िवनती करके - तुलसीदास कहते ह - तुम वही
य न करना, िजसम कोसलपित िपता कुशल रह।

सो० - गरु सन कहब सँदस े ु बार बार पद पदम


ु गिह।
करब सोइ उपदेसु जेिहं न सोच मोिह अवधपित॥ 151॥
बार-बार चरण कमल को पकड़कर गु विश से मेरा संदेसा कहना िक वे वही उपदेश द
िजससे अवधपित िपता मेरा सोच न कर॥ 151॥

परु जन प रजन सकल िनहोरी। तात सन ु ाएह िबनती मोरी॥


सोइ सब भाँित मोर िहतकारी। जात रह नरनाह सख ु ारी॥

हे तात! सब पुरवािसय और कुटुंिबय से िनहोरा (अनुरोध) करके मेरी िवनती सुनाना िक वही
मनु य मेरा सब कार से िहतकारी है िजसक चे ा से महाराज सुखी रह।

े ु भरत के आएँ । नीित न तिजअ राजपदु पाएँ ॥


कहब सँदस
पालेह जिह करम मन बानी। सेएह मातु सकल सम जानी॥

भरत के आने पर उनको मेरा संदेसा कहना िक राजा का पद पा जाने पर नीित न छोड़ देना;
कम, वचन और मन से जा का पालन करना और सब माताओं को समान जानकर उनक सेवा
करना।

ओर िनबाहेह भायप भाई। क र िपतु मातु सज ु न सेवकाई॥


तात भाँित तेिह राखब राऊ। सोच मोर जेिहं करै न काऊ॥

और हे भाई! िपता, माता और वजन क सेवा करके भाईपन को अंत तक िनबाहना। हे तात!
राजा (िपता) को उसी कार से रखना िजससे वे कभी (िकसी तरह भी) मेरा सोच न कर।

लखन कहे कछु बचन कठोरा। बरिज राम पिु न मोिह िनहोरा॥
बार बार िनज सपथ देवाई। कहिब न तात लखन ल रकाई॥

ल मण ने कुछ कठोर वचन कहे । िकंतु राम ने उ ह बरजकर िफर मुझसे अनुरोध िकया और
बार-बार अपनी सौगंध िदलाई (और कहा -) हे तात! ल मण का लड़कपन वहाँ न कहना।

दो० - किह नामु कछु कहन िलय िसय भइ िसिथल सनेह।


थिकत बचन लोचन सजल पल ु क प लिवत देह॥ 152॥

णाम कर सीता भी कुछ कहने लगी थ , परं तु नेहवश वे िशिथल हो गई ं। उनक वाणी क गई,
ने म जल भर आया और शरीर रोमांच से या हो गया॥ 152॥

तेिह अवसर रघबु र ख पाई। केवट पारिह नाव चलाई॥


रघकु ु लितलक चले एिह भाँती। देखउँ ठाढ़ कुिलस ध र छाती॥

उसी समय राम का ख पाकर केवट ने पार जाने के िलए नाव चला दी। इस कार रघुवंश
ितलक राम चल िदए और म छाती पर व रखकर खड़ा-खड़ा देखता रहा।
े ू॥
म आपन िकिम कह कलेसू। िजअत िफरे उँ लेइ राम सँदस
अस किह सिचव बचन रिह गयऊ। हािन गलािन सोच बस भयऊ॥

म अपने लेश को कैसे कहँ, जो राम का यह संदेसा लेकर जीता ही लौट आया! ऐसा कहकर
मं ी क वाणी क गई (वे चुप हो गए) और वे हािन क लािन और सोच के वश हो गए।

सूत बचन सन
ु तिहं नरनाह। परे उ धरिन उर दा न दाह॥
तलफत िबषम मोह मन मापा। माजा मनहँ मीन कहँ यापा॥

सारथी सुमं के वचन सुनते ही राजा प ृ वी पर िगर पड़े , उनके दय म भयानक जलन होने
लगी। वे तड़पने लगे, उनका मन भीषण मोह से याकुल हो गया। मानो मछली को माँजा याप
गया हो (पहली वषा का जल लग गया हो)।

क र िबलाप सब रोविहं रानी। महा िबपित िकिम जाइ बखानी॥


सिु न िबलाप दख
ु ह दख
ु ु लागा। धीरजह कर धीरजु भागा॥

सब रािनयाँ िवलाप करके रो रही ह। उस महान िवपि का कैसे वणन िकया जाए? उस समय के
िवलाप को सुनकर दुःख को भी दुःख लगा और धीरज का भी धीरज भाग गया!

दो० - भयउ कोलाहलु अवध अित सिु न नपृ राउर सो ।


िबपल
ु िबहग बन परे उ िनिस मानहँ कुिलस कठो ॥ 153॥

राजा के रावले (रिनवास) म (रोने का) शोर सुनकर अयो या भर म बड़ा भारी कुहराम मच गया!
(ऐसा जान पड़ता था) मानो पि य के िवशाल वन म रात के समय कठोर व िगरा हो॥ 153॥

ान कंठगत भयउ भआ
ु ल।ू मिन िबहीन जनु याकुल याल॥ ू
इं सकल िबकल भइँ भारी। जनु सर सरिसज बनु िबनु बारी॥

राजा के ाण कंठ म आ गए। मानो मिण के िबना साँप याकुल (मरणास न) हो गया हो। इंि याँ
सब बहत ही िवकल हो गई ं, मानो िबना जल के तालाब म कमल का वन मुरझा गया हो।

कौस याँ नपृ ु दीख मलाना। रिबकुल रिब अँथयउ िजयँ जाना॥
उर ध र धीर राम महतारी। बोली बचन समय अनस ु ारी॥

कौस या ने राजा को बहत दुःखी देखकर अपने दय म जान िलया िक अब सय


ू कुल का सय

अ त हो चला! तब राम क माता कौस या दय म धीरज धरकर समय के अनुकूल वचन बोल -

नाथ समिु झ मन क रअ िबचा । राम िबयोग पयोिध अपा ॥


करनधार तु ह अवध जहाजू। चढ़ेउ सकल ि य पिथक समाजू॥
हे नाथ! आप मन म समझ कर िवचार क िजए िक राम का िवयोग अपार समु है। अयो या जहाज
है और आप उसके कणधार (खेनेवाले) ह। सब ि यजन (कुटुंबी और जा) ही याि य का समाज
है, जो इस जहाज पर चढ़ा हआ है।

धीरजु ध रअ त पाइअ पा । नािहं त बूिड़िह सबु प रवा ॥


ज िजयँ ध रअ िबनय िपय मोरी। रामु लखनु िसय िमलिहं बहोरी॥

आप धीरज ध रएगा, तो सब पार पहँच जाएँ गे। नह तो सारा प रवार डूब जाएगा। हे ि य वामी!
यिद मेरी िवनती दय म धारण क िजएगा तो राम, ल मण, सीता िफर आ िमलगे।

दो० - ि या बचन मदृ ु सन


ु त नप
ृ ु िचतयउ आँिख उघा र।
तलफत मीन मलीन जनु स चत सीतल बा र॥ 154॥

ि य प नी कौस या के कोमल वचन सुनते हए राजा ने आँख खोलकर देखा! मानो तड़पती हई
दीन मछली पर कोई शीतल जल िछड़क रहा हो॥ 154॥

ध र धीरजु उिठ बैठ भआ


ु ल।ू कह समु ं कहँ राम कृपाल॥ ू
कहाँ लखनु कहँ रामु सनेही। कहँ ि य पु बधू बैदहे ी॥

धीरज धरकर राजा उठ बैठे और बोले - सुमं ! कहो, कृपालु राम कहाँ ह? ल मण कहाँ ह? नेही
राम कहाँ ह? और मेरी यारी बह जानक कहाँ है?

िबलपत राउ िबकल बह भाँती। भइ जुग स रस िसराित न राती॥


तापस अंध साप सिु ध आई। कौस यिह सब कथा सन ु ाई॥

राजा याकुल होकर बहत कार से िवलाप कर रहे ह। वह रात युग के समान बड़ी हो गई, बीतती
ही नह । राजा को अंधे तप वी ( वणकुमार के िपता) के शाप क याद आ गई। उ ह ने सब कथा
कौस या को कह सुनाई।

भयउ िबकल बरनत इितहासा। राम रिहत िधग जीवन आसा॥


े पनु मोर िनबाहा॥
सो तनु रािख करब म काहा। जेिहं न म

उस इितहास का वणन करते-करते राजा याकुल हो गए और कहने लगे िक राम के िबना जीने
क आशा को िध कार है। म उस शरीर को रखकर या क ँ गा, िजसने मेरा ेम का ण नह
िनबाहा?

हा रघन
ु ंदन ान िपरीते। तु ह िबनु िजअत बहत िदन बीते॥
हा जानक लखन हा रघब ु र। हा िपतु िहत िचत चातक जलधर॥
हा रघुकुल को आनंद देनेवाले मेरे ाण यारे राम! तु हारे िबना जीते हए मुझे बहत िदन बीत गए।
हा जानक , ल मण! हा रघुवीर! हा िपता के िच पी चातक के िहत करनेवाले मेघ!

दो० - राम राम किह राम किह राम राम किह राम।
तनु प रह र रघबु र िबरहँ राउ गयउ सरु धाम॥ 155॥

राम-राम कहकर, िफर राम कहकर, िफर राम-राम कहकर और िफर राम कहकर राजा राम के
िवरह म शरीर याग कर सुरलोक को िसधार गए॥ 155॥

िजअन मरन फलु दसरथ पावा। अंड अनेक अमल जसु छावा॥
िजअत राम िबधु बदनु िनहारा। राम िबरह क र मरनु सँवारा॥

जीने और मरने का फल तो दशरथ ने ही पाया, िजनका िनमल यश अनेक ांड म छा गया।


जीते-जी तो राम के चं मा के समान मुख को देखा और राम के िवरह को िनिम बनाकर अपना
मरण सुधार िलया।

सोक िबकल सब रोविहं रानी। पु सीलु बलु तेजु बखानी॥


करिहं िबलाप अनेक कारा। परिहं भूिमतल बारिहं बारा॥

सब रािनयाँ शोक के मारे याकुल होकर रो रही ह। वे राजा के प, शील, बल और तेज का


बखान कर-करके अनेक कार से िवलाप कर रही ह और बार-बार धरती पर िगर-िगर पड़ती ह।

िबलपिहं िबकल दास अ दासी। घर घर दनु करिहं परु बासी॥


अँथयउ आजु भानकु ु ल भानू। धरम अविध गन
ु प िनधानू॥

दास-दासीगण याकुल होकर िवलाप कर रहे ह और नगर िनवासी घर-घर रो रहे ह। कहते ह िक
आज धम क सीमा, गुण और प के भंडार सय ू कुल के सय
ू अ त हो गए!

गार सकल कैकइिह देह । नयन िबहीन क ह जग जेह ॥


एिह िबिध िबलपत रै िन िबहानी। आए सकल महामिु न यानी॥

सब कैकेयी को गािलयाँ देते ह, िजसने संसार भर को िबना ने का (अंधा) कर िदया! इस कार


िवलाप करते रात बीत गई। ातःकाल सब बड़े -बड़े ानी मुिन आए।

दो० - तब बिस मिु न समय सम किह अनेक इितहास।


सोक नेवारे उ सबिह कर िनज िब यान कास॥ 156॥

तब विश मुिन ने समय के अनुकूल अनेक इितहास कहकर अपने िव ान के काश से सबका
शोक दूर िकया॥ 156॥
तेल नावँ भ र नप
ृ तनु राखा। दूत बोलाइ बह र अस भाषा॥
धावह बेिग भरत पिहं जाह। नपृ सिु ध कतहँ कहह जिन काह॥

विश ने नाव म तेल भरवाकर राजा के शरीर को उसम रखवा िदया। िफर दूत को बुलवाकर
उनसे ऐसा कहा - तुम लोग ज दी दौड़कर भरत के पास जाओ। राजा क म ृ यु का समाचार कह
िकसी से न कहना।

एतनेइ कहेह भरत सन जाई। गरु बोलाइ पठयउ दोउ भाई॥


सिु न मिु न आयसु धावन धाए। चले बेग बर बािज लजाए॥

जाकर भरत से इतना ही कहना िक दोन भाइय को गु ने बुलवा भेजा है। मुिन क आ ा
सुनकर धावन (दूत) दौड़े । वे अपने वेग से उ म घोड़ को भी लजाते हए चले।

अनरथु अवध अरं भेउ जब त। कुसगन


ु होिहं भरत कहँ तब त॥
देखिहं राित भयानक सपना। जािग करिहं कटु कोिट कलपना॥

जब से अयो या म अनथ ारं भ हआ, तभी से भरत को अपशकुन होने लगे। वे रात को भयंकर
व न देखते थे और जागने पर (उन व न के कारण) करोड़ (अनेक ) तरह क बुरी-बुरी
क पनाएँ िकया करते थे।

िब जेवाँइ देिहं िदन दाना। िसव अिभषेक करिहं िबिध नाना॥


मागिहं दयँ महेस मनाई। कुसल मातु िपतु प रजन भाई॥

(अिन शांित के िलए) वे ितिदन ा ण को भोजन कराकर दान देते थे। अनेक िविधय से
ािभषेक करते थे। महादेव को दय म मनाकर उनसे माता-िपता, कुटुंबी और भाइय का
कुशल- ेम माँगते थे।

दो० - एिह िबिध सोचत भरत मन धावन पहँचे आइ।


गरु अनसु ासन वन सिु न चले गनेसु मनाई॥ 157॥

भरत इस कार मन म िचंता कर रहे थे िक दूत आ पहँचे। गु क आ ा कान से सुनते ही वे


गणेश को मनाकर चल पड़े ॥ 157॥

चले समीर बेग हय हाँके। नाघत स रत सैल बन बाँके॥


दयँ सोचु बड़ कछु न सोहाई। अस जानिहं िजयँ जाउँ उड़ाई॥

हवा के समान वेगवाले घोड़ को हाँकते हए वे िवकट नदी, पहाड़ तथा जंगल को लाँघते हए चले।
उनके दय म बड़ा सोच था, कुछ सुहाता न था। मन म ऐसा सोचते थे िक उड़कर पहँच जाऊँ।
एक िनमेष बरष सम जाई। एिह िबिध भरत नगर िनअराई॥
असगनु होिहं नगर पैठारा। रटिहं कुभाँित कुखेत करारा॥

एक-एक िनमेष वष के समान बीत रहा था। इस कार भरत नगर के िनकट पहँचे। नगर म वेश
करते समय अपशकुन होने लगे। कौए बुरी जगह बैठकर बुरी तरह से काँव-काँव कर रहे ह।

खर िसआर बोलिहं ितकूला। सिु न सिु न होइ भरत मन सूला॥


ीहत सर स रता बन बागा। नग िबसेिष भयावनु लागा॥

गदहे और िसयार िवपरीत बोल रहे ह। यह सुन-सुनकर भरत के मन म बड़ी पीड़ा हो रही है।
तालाब, नदी, वन, बगीचे सब शोभाहीन हो रहे ह। नगर बहत ही भयानक लग रहा है।

खग मगृ हय गय जािहं न जोए। राम िबयोग कुरोग िबगोए॥


नगर ना र नर िनपट दख
ु ारी। मनहँ सबि ह सब संपित हारी॥

राम के िवयोग पी बुरे रोग से सताए हए प ी-पशु, घोड़े -हाथी (ऐसे दुःखी हो रहे ह िक) देखे
नह जाते। नगर के ी-पु ष अ यंत दुःखी हो रहे ह। मानो सब अपनी सारी संपि हार बैठे ह ।

दो० - परु जन िमलिहं न कहिहं कछु गवँिह जोहारिहं जािहं।


भरत कुसल पँूिछ न सकिहं भय िबषाद मन मािहं॥ 158॥

नगर के लोग िमलते ह, पर कुछ कहते नह ; ग से (चुपके-से) जोहार (वंदना) करके चले जाते
ह। भरत भी िकसी से कुशल नह पछू सकते, य िक उनके मन म भय और िवषाद छा रहा है॥
158॥

हाट बाट निहं जाइ िनहारी। जनु परु दहँ िदिस लािग दवारी॥
आवत सत ु सिु न कैकयनंिदिन। हरषी रिबकुल जल ह चंिदिन॥

बाजार और रा ते देखे नह जाते। मानो नगर म दस िदशाओं म दावाि न लगी है! पु को आते
सुनकर सयू कुल पी कमल के िलए चाँदनी पी कैकेयी (बड़ी) हिषत हई।

सिज आरती मिु दत उिठ धाई। ारे िहं भिट भवन लेइ आई॥
भरत दिु खत प रवा िनहारा॥ मानहँ तिु हन बनज बनु मारा॥

वह आरती सजाकर आनंद म भरकर उठ दौड़ी और दरवाजे पर ही िमलकर भरत-श ु न को


महल म ले आई। भरत ने सारे प रवार को दुःखी देखा। मानो कमल के वन को पाला मार गया
हो।

कैकेई हरिषत एिह भाँती। मनहँ मिु दत दव लाइ िकराती॥


सिु तह ससोच देिख मनु मार। पूँछित नैहर कुसल हमार॥

एक कैकेयी ही इस तरह हिषत िदखती है मानो भीलनी जंगल म आग लगाकर आनंद म भर रही
हो। पु को सोच वश और मन मारे (बहत उदास) देखकर वह पछू ने लगी - हमारे नैहर म कुशल
तो है?

सकल कुसल किह भरत सन ु ाई। पूँछी िनज कुल कुसल भलाई॥
कह कहँ तात कहाँ सब माता। कहँ िसय राम लखन ि य ाता॥

भरत ने सब कुशल कह सुनाई। िफर अपने कुल क कुशल- ेम पछ ू ी। (भरत ने कहा -) कहो,
िपता कहाँ ह? मेरी सब माताएँ कहाँ ह? सीता और मेरे यारे भाई राम-ल मण कहाँ ह?

दो० - सिु न सत
ु बचन सनेहमय कपट नीर भ र नैन।
भरत वन मन सूल सम पािपिन बोली बैन॥ 159॥

पु के नेहमय वचन सुनकर ने म कपट का जल भरकर पािपनी कैकेयी भरत के कान म


और मन म शलू के समान चुभनेवाले वचन बोली - ॥ 159॥

तात बात म सकल सँवारी। भै मंथरा सहाय िबचारी॥


कछुक काज िबिध बीच िबगारे उ। भूपित सरु पित परु पगु धारे उ॥

हे तात! मने सारी बात बना ली थी। बेचारी मंथरा सहायक हई। पर िवधाता ने बीच म जरा-सा
काम िबगाड़ िदया। वह यह िक राजा देवलोक को पधार गए।

ु त भरतु भए िबबस िबषादा। जनु सहमेउ क र केह र नादा॥


सन
तात तात हा तात पक
ु ारी। परे भूिमतल याकुल भारी॥

भरत यह सुनते ही िवषाद के मारे िववश (बेहाल) हो गए। मानो िसंह क गजना सुनकर हाथी
सहम गया हो। वे 'तात! तात! हा तात!' पुकारते हए अ यंत याकुल होकर जमीन पर िगर पड़े ।

चलत न देखन पायउँ तोही। तात न रामिह स पेह मोही॥


बह र धीर ध र उठे सँभारी। कह िपतु मरन हेतु महतारी॥

(और िवलाप करने लगे िक) हे तात! म आपको ( वग के िलए) चलते समय देख भी न सका।
(हाय!) आप मुझे राम को स प भी नह गए! िफर धीरज धरकर वे स हलकर उठे और बोले -
माता! िपता के मरने का कारण तो बताओ।

ु बचन कहित कैकेई। मरमु पाँिछ जनु माहर देई॥


सिु न सत
आिदह त सब आपिन करनी। कुिटल कठोर मिु दत मन बरनी॥
पु का वचन सुनकर कैकेयी कहने लगी। मानो मम थान को पाछकर (चाकू से चीरकर) उसम
जहर भर रही हो। कुिटल और कठोर कैकेयी ने अपनी सब करनी शु से (आिखर तक बड़े )
स न मन से सुना दी।

दो० - भरतिह िबसरे उ िपतु मरन सन


ु त राम बन गौन।ु
हेतु अपनपउ जािन िजयँ थिकत रहे ध र मौन॥ु 160॥

राम का वन जाना सुनकर भरत को िपता का मरण भलू गया और दय म इस सारे अनथ का
कारण अपने को ही जानकर वे मौन होकर तंिभत रह गए (अथात उनक बोली बंद हो गई और
वे स न रह गए)॥ 160॥

िबकल िबलोिक सत ु िह समझ ु ावित। मनहँ जरे पर लोनु लगावित॥


तात राउ निहं सोचै जोगू। िबढ़इ सक ु ृ त जसु क हेउ भोगू॥

पु को याकुल देखकर कैकेयी समझाने लगी। मानो जले पर नमक लगा रही हो। (वह बोली -)
हे तात! राजा सोच करने यो य नह ह। उ ह ने पु य और यश कमाकर उसका पया भोग िकया।

जीवत सकल जनम फल पाए। अंत अमरपित सदन िसधाए॥


अस अनमु ािन सोच प रहरह। सिहत समाज राज परु करह॥

जीवनकाल म ही उ ह ने ज म लेने के संपण


ू फल पा िलए और अंत म वे इं लोक को चले गए।
ऐसा िवचारकर सोच छोड़ दो और समाज सिहत नगर का रा य करो।

सिु न सिु ठ सहमेउ राजकुमा । पाक छत जनु लाग अँगा ॥


धीरज ध र भ र लेिहं उसासा। पािपिन सबिह भाँित कुल नासा॥

राजकुमार भरत यह सुनकर बहत ही सहम गए। मानो पके घाव पर अँगार छू गया हो। उ ह ने
धीरज धरकर बड़ी लंबी साँस लेते हए कहा - पािपनी! तन
ू े सभी तरह से कुल का नाश कर िदया।

ज पै कु िच रही अित तोही। जनमत काहे न मारे मोही॥


पेड़ कािट त पालउ स चा। मीन िजअन िनित बा र उलीचा॥

हाय! यिद तेरी ऐसी ही अ यंत बुरी िच (दु इ छा) थी, तो तनू े ज मते ही मुझे मार य नह
डाला? तनू े पेड़ को काटकर प े को स चा है और मछली के जीने के िलए पानी को उलीच डाला!
(अथात मेरा िहत करने जाकर उलटा तन ू े मेरा अिहत कर डाला।)

दो० - हंसबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ।


जननी तूँ जननी भई िबिध सन कछु न बसाइ॥ 161॥
मुझे सय
ू वंश (-सा वंश), दशरथ (-सरीखे) िपता और राम-ल मण से भाई िमले। पर हे जननी!
मुझे ज म देनेवाली माता तू हई! ( या िकया जाए!) िवधाता से कुछ भी वश नह चलता॥ 161॥

जब त कुमित कुमत िजयँ ठयऊ। खंड खंड होइ दउ न गयऊ॥


बर मागत मन भइ निहं पीरा। ग र न जीह मँहु परे उ न क रा॥

अरी कुमित! जब तन ू े दय म यह बुरा िवचार (िन य) ठाना, उसी समय तेरे दय के टुकड़े -
टुकड़े ( य ) न हो गए? वरदान माँगते समय तेरे मन म कुछ भी पीड़ा नह हई? तेरी जीभ गल
नह गई? तेरे मँुह म क ड़े नह पड़ गए?

भूपँ तीित तो र िकिम क ही। मरन काल िबिध मित ह र ली ही॥


िबिधहँ न ना र दय गित जानी। सकल कपट अघ अवगन ु खानी॥

राजा ने तेरा िव ास कैसे कर िलया? (जान पड़ता है,) िवधाता ने मरने के समय उनक बुि हर
ली थी। ि य के दय क गित (चाल) िवधाता भी नह जान सके। वह संपण ू कपट, पाप और
अवगुण क खान है।

सरल सस
ु ील धरम रत राऊ। सो िकिम जानै तीय सभु ाऊ॥
अस को जीव जंतु जग माह । जेिह रघन
ु ाथ ानि य नाह ॥

िफर राजा तो सीधे, सुशील और धमपरायण थे। वे भला, ी वभाव को कैसे जानते? अरे , जगत
के जीव-जंतुओ ं म ऐसा कौन है, िजसे रघुनाथ ाण के समान यारे नह ह।

भे अित अिहत रामु तेउ तोही। को तू अहिस स य कह मोही॥


जो हिस सो हिस मँहु मिस लाई। आँिख ओट उिठ बैठिह जाई॥

वे राम भी तुझे अिहत हो गए (वैरी लगे)! तू कौन है? मुझे सच-सच कह! तू जो है, सो है, अब मँुह
म याही पोतकर (मँुह काला करके) उठकर मेरी आँख क ओट म जा बैठ।

दो० - राम िबरोधी दय त गट क ह िबिध मोिह।


मो समान को पातक बािद कहउँ कछु तोिह॥ 162॥

िवधाता ने मुझे राम से िवरोध करनेवाले (तेरे) दय से उ प न िकया (अथवा िवधाता ने मुझे दय
से राम का िवरोधी जािहर कर िदया)। मेरे बराबर पापी दूसरा कौन है? म यथ ही तुझे कुछ कहता
हँ॥ 162॥

सिु न स घ
ु न
ु मातु कुिटलाई। जरिहं गात रस कछु न बसाई॥
तेिह अवसर कुबरी तहँ आई। बसन िबभूषन िबिबध बनाई॥
माता क कुिटलता सुनकर श ु न के सब अंग ोध से जल रहे ह, पर कुछ वश नह चलता।
उसी समय भाँित-भाँित के कपड़ और गहन से सजकर कुबरी (मंथरा) वहाँ आई।

लिख रस भरे उ लखन लघु भाई। बरत अनल घत ृ आहित पाई॥


हमिग लात तिक कूबर मारा। प र महु भर मिह करत पक
ु ारा॥

उसे (सजी) देखकर ल मण के छोटे भाई श ु न ोध म भर गए। मानो जलती हई आग को घी


क आहित िमल गई हो। उ ह ने जोर से तककर कूबड़ पर एक लात जमा दी। वह िच लाती हई
मँुह के बल जमीन पर िगर पड़ी।

कूबर टूटउे फूट कपा । दिलत दसन मख


ु िधर चा ॥
आह दइअ म काह नसावा। करत नीक फलु अनइस पावा॥

उसका कूबड़ टूट गया, कपाल फूट गया, दाँत टूट गए और मँुह से खन
ू बहने लगा। (वह कराहती
हई बोली -) हाय दैव! मने या िबगाड़ा? जो भला करते बुरा फल पाया।

सिु न रपहु न लिख नख िसख खोटी। लगे घसीटन ध र ध र झ टी॥


भरत दयािनिध दीि ह छड़ाई। कौस या पिहं गे दोउ भाई॥

उसक यह बात सुनकर और उसे नख से िशखा तक दु जानकर श ु न झ टा पकड़-पकड़कर


उसे घसीटने लगे। तब दयािनिध भरत ने उसको छुड़ा िदया और दोन भाई (तुरंत) कौस या के
पास गए।

दो० - मिलन बसन िबबरन िबकल कृस शरीर दखु भार।


कनक कलप बर बेिल बन मानहँ हनी तस
ु ार॥ 163॥

कौस या मैले व पहने ह, चेहरे का रं ग बदला हआ है, याकुल हो रही ह, दुःख के बोझ से
शरीर सख
ू गया है। ऐसी िदख रही ह मानो सोने क सुंदर क पलता को वन म पाला मार गया
हो॥ 163॥

भरतिह देिख मातु उिठ धाई। मु िछत अविन परी झइँ आई॥
देखत भरतु िबकल भए भारी। परे चरन तन दसा िबसारी॥

भरत को देखते ही माता कौस या उठ दौड़ । पर च कर आ जाने से मिू छत होकर प ृ वी पर िगर


पड़ । यह देखते ही भरत बड़े याकुल हो गए और शरीर क सुध भुलाकर चरण म िगर पड़े ।

मातु तात कहँ देिह देखाई। कहँ िसय रामु लखनु दोउ भाई॥
कैकइ कत जनमी जग माझा। ज जनिम त भइ काहे न बाँझा॥
(िफर बोले -) माता! िपता कहाँ ह? उ ह िदखा दे। सीता तथा मेरे दोन भाई राम-ल मण कहाँ ह?
(उ ह िदखा दे।) कैकेयी जगत म य जनमी! और यिद जनमी ही तो िफर बाँझ य न हई? -

कुल कलंकु जेिहं जनमेउ मोही। अपजस भाजन ि यजन ोही॥


को ितभव
ु न मोिह स रस अभागी। गित अिस तो र मातु जेिह लागी॥

िजसने कुल के कलंक, अपयश के भाँड़े और ि यजन के ोही मुझ-जैसे पु को उ प न िकया।


तीन लोक म मेरे समान अभागा कौन है? िजसके कारण हे माता! तेरी यह दशा हई!

ु र केत।ू म केवल सब अनरथ हेत॥


िपतु सरु परु बन रघब ू
िधग मोिह भयउँ बेनु बन आगी। दस ु ह दाह दख
ु दूषन भागी॥

िपता वग म ह और राम वन म ह। केतु के समान केवल म ही इन सब अनथ का कारण हँ। मुझे


िध कार है! म बाँस के वन म आग उ प न हआ और किठन दाह, दुःख और दोष का भागी
बना।

दो० - मातु भरत के बचन मदृ ु सिु न पिु न उठी सँभा र।


िलए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचित बा र॥ 164॥

भरत के कोमल वचन सुनकर माता कौस या िफर सँभलकर उठ । उ ह ने भरत को उठाकर
छाती से लगा िलया और ने से आँसू बहाने लग ॥ 164॥

सरल सभ ु ाय मायँ िहयँ लाए। अित िहत मनहँ राम िफ र आए॥


भटेउ बह र लखन लघु भाई। सोकु सनेह न दयँ समाई॥

सरल वभाववाली माता ने बड़े ेम से भरत को छाती से लगा िलया, मानो राम ही लौटकर आ
गए ह । िफर ल मण के छोटे भाई श ु न को दय से लगाया। शोक और नेह दय म समाता
नह है।

देिख सभु ाउ कहत सबु कोई। राम मातु अस काहे न होई॥


माताँ भरतु गोद बैठारे । आँसु पोिछं मदृ ु बचन उचारे ॥

कौस या का वभाव देखकर सब कोई कह रहे ह - राम क माता का ऐसा वभाव य न हो।
माता ने भरत को गोद म बैठा िलया और उनके आँसू प छकर कोमल वचन बोल -

अजहँ ब छ बिल धीरज धरह। कुसमउ समिु झ सोक प रहरह॥


जिन मानह िहयँ हािन गलानी। काल करम गित अघिटत जानी॥

हे व स! म बलैया लेती हँ। तुम अब भी धीरज धरो। बुरा समय जानकर शोक याग दो। काल और
कम क गित अिमट जानकर दय म हािन और लािन मत मानो।

काहिह दोसु देह जिन ताता। भा मोिह सब िबिध बाम िबधाता॥


जो एतेहँ दख
ु मोिह िजआवा। अजहँ को जानइ का तेिह भावा॥

हे तात! िकसी को दोष मत दो। िवधाता मुझको सब कार से उलटा हो गया है, जो इतने दुःख पर
भी मुझे िजला रहा है। अब भी कौन जानता है, उसे या भा रहा है?

दो० - िपतु आयस भूषन बसन तात तजे रघब


ु ीर।
िबसमउ हरषु न दयँ कछु पिहरे बलकल चीर॥ 165॥

हे तात! िपता क आ ा से रघुवीर ने भषू ण-व याग िदए और व कल-व पहन िलए। उनके
दय म न कुछ िवषाद था, न हष!॥ 165॥

मख
ु स न मन रं ग न रोषू। सब कर सब िबिध क र प रतोषू॥
चले िबिपन सिु न िसय सँग लागी। रहइ न राम चरन अनरु ागी॥

उनका मुख स न था; मन म न आसि थी, न रोष ( ेष)। सबका सब तरह से संतोष कराकर
वे वन को चले। यह सुनकर सीता भी उनके साथ लग गई ं।राम के चरण क अनुरािगणी वे िकसी
तरह न रह ।

सन
ु तिहं लखनु चले उिठ साथा। रहिहं न जतन िकए रघन
ु ाथा॥
तब रघप
ु ित सबही िस नाई। चले संग िसय अ लघु भाई॥

सुनते ही ल मण भी साथ ही उठ चले। रघुनाथ ने उ ह रोकने के बहत य न िकए, पर वे न रहे ।


तब रघुनाथ सबको िसर नवाकर सीता और छोटे भाई ल मण को साथ लेकर चले गए।

रामु लखनु िसय बनिह िसधाए। गइउँ न संग न ान पठाए॥


यह सबु भा इ ह आँिख ह आग। तउ न तजा तनु जीव अभाग॥

राम, ल मण और सीता वन को चले गए। म न तो साथ ही गई और न मने अपने ाण ही उनके


साथ भेजे। यह सब इ ह आँख के सामने हआ, तो भी अभागे जीव ने शरीर नह छोड़ा।

मोिह न लाज िनज नेह िनहारी। राम स रस सत


ु म महतारी॥
िजऐ मरै भल भूपित जाना। मोर दय सत कुिलस समाना॥

अपने नेह क ओर देखकर मुझे लाज नह आती; राम-सरीखे पु क म माता! जीना और


मरना तो राजा ने खबू जाना। मेरा दय तो सैकड़ व के समान कठोर है।
दो० - कौस या के बचन सिु न भरत सिहत रिनवास।ु
याकुल िबलपत राजगहृ मानहँ सोक नेवास॥ु 166॥

कौस या के वचन को सुनकर भरत सिहत सारा रिनवास याकुल होकर िवलाप करने लगा।
राजमहल मानो शोक का िनवास बन गया॥ 166॥

िबलपिहं िबकल भरत दोउ भाई। कौस याँ िलए दयँ लगाई॥
भाँित अनेक भरतु समझ
ु ाए। किह िबबेकमय बचन सनु ाए॥

भरत, श ु न दोन भाई िवकल होकर िवलाप करने लगे। तब कौस या ने उनको दय से लगा
िलया। अनेक कार से भरत को समझाया और बहत-सी िववेकभरी बात उ ह कहकर सुनाई ं।

भरतहँ मातु सकल समझ ु ाई ं। किह परु ान िु त कथा सहु ाई ं॥


छल िबहीन सिु च सरल सबु ानी। बोले भरत जो र जुग पानी॥

भरत ने भी सब माताओं को पुराण और वेद क सुंदर कथाएँ कहकर समझाया। दोन हाथ
जोड़कर भरत छलरिहत, पिव और सीधी सुंदर वाणी बोले -

जे अघ मातु िपता सत
ु मार। गाइ गोठ मिहसरु परु जार॥
जे अघ ितय बालक बध क ह। मीत महीपित माहर दी ह॥

जो पाप माता-िपता और पु के मारने से होते ह और जो गोशाला और ा ण के नगर जलाने से


होते ह, जो पाप ी और बालक क ह या करने से होते ह और जो िम और राजा को जहर देने
से होते ह -

जे पातक उपपातक अहह । करम बचन मन भव किब कहह ॥


ते पातक मोिह होहँ िबधाता। ज यह होइ मोर मत माता॥

कम, वचन और मन से होनेवाले िजतने पातक एवं उपपातक (बड़े -छोटे पाप) ह, िजनको किव
लोग कहते ह, हे िवधाता! यिद इस काम म मेरा मत हो, तो हे माता! वे सब पाप मुझे लग।

दो० - जे प रह र ह र हर चरन भजिहं भूतगन घोर।


तेिह कइ गित मोिह देउ िबिध ज जननी मत मोर॥ 167॥

जो लोग ह र और शंकर के चरण को छोड़कर भयानक भत ू - ेत को भजते ह, हे माता! यिद


इसम मेरा मत हो तो िवधाता मुझे उनक गित दे॥ 167॥

बेचिहं बेदु धरमु दिु ह लेह । िपसन


ु पराय पाप किह देह ॥
कपटी कुिटल कलहि य ोधी। बेद िबदूषक िब व िबरोधी॥
जो लोग वेद को बेचते ह, धम को दुह लेते ह, चुगलखोर ह, दूसर के पाप को कह देते ह; जो
कपटी, कुिटल, कलहि य और ोधी ह, तथा जो वेद क िनंदा करनेवाले और िव भर के
िवरोधी ह;

लोभी लंपट लोलप


ु चारा। जे ताकिहं परधनु परदारा॥
पाव म ित ह कै गित घोरा। ज जननी यह संमत मोरा॥

जो लोभी, लंपट और लालिचय का आचरण करनेवाले ह; जो पराए धन और पराई ी क ताक


म रहते ह; हे जननी! यिद इस काम म मेरी स मित हो तो म उनक भयानक गित को पाऊँ।

जे निहं साधस
ु ंग अनरु ागे। परमारथ पथ िबमख
ु अभागे॥
जे न भजिहं ह र नर तनु पाई। िज हिह न ह र हर सज
ु सु सोहाई॥

िजनका स संग म ेम नह है; जो अभागे परमाथ के माग से िवमुख ह; जो मनु य-शरीर पाकर
ह र का भजन नह करते; िजनको ह र-हर (भगवान िव णु और शंकर) का सुयश नह सुहाता;

तिज ुितपंथु बाम पथ चलह । बंचक िबरिच बेष जगु छलह ॥


ित ह कै गित मोिह संकर देऊ। जननी ज यह जान भेऊ॥

जो वेद माग को छोड़कर वाम (वेद ितकूल) माग पर चलते ह; जो ठग ह और वेष बनाकर जगत
को छलते ह; हे माता! यिद म इस भेद को जानता भी होऊँ तो शंकर मुझे उन लोग क गित द।

दो० - मातु भरत के बचन सिु न साँचे सरल सभ


ु ायँ।
कहित राम ि य तात तु ह सदा बचन मन कायँ॥ 168॥

माता कौस या भरत के वाभािवक ही स चे और सरल वचन को सुनकर कहने लग - हे तात!


तुम तो मन, वचन और शरीर से सदा ही राम के यारे हो॥ 168॥

राम ानह त ान तु हारे । तु ह रघप


ु ितिह ानह त यारे ॥
िबधु िबष चवै वै िहमु आगी। होइ बा रचर बा र िबरागी॥

राम तु हारे ाण से भी बढ़कर ाण (ि य) ह और तुम भी रघुनाथ को ाण से भी अिधक यारे


हो। चं मा चाहे िवष चुआने लगे और पाला आग बरसाने लगे; जलचर जीव जल से िवर हो
जाए,

भएँ यानु ब िमटै न मोह। तु ह रामिह ितकूल न होह॥


मत तु हार यह जो जग कहह । सो सपनेहँ सखु सगु ित न लहह ॥

और ान हो जाने पर भी चाहे मोह न िमटे; पर तुम राम के ितकूल कभी नह हो सकते। इसम
तु हारी स मित है, जगत म जो कोई ऐसा कहते ह वे व न म भी सुख और शुभ गित नह
पावगे।

अस किह मातु भरतु िहएँ लाए। थन पय विहं नयन जल छाए॥


करत िबलाप बहत एिह भाँती। बैठेिहं बीित गई सब राती॥

ऐसा कहकर माता कौस या ने भरत को दय से लगा िलया। उनके तन से दूध बहने लगा और
ने म ( ेमा ुओ ं का) जल छा गया। इस कार बहत िवलाप करते हए सारी रात बैठे-ही-बैठे बीत
गई।

बामदेउ बिस तब आए। सिचव महाजन सकल बोलाए॥


मिु न बह भाँित भरत उपदेस।े किह परमारथ बचन सदु स
े ॥े

तब वामदेव और विश आए। उ ह ने सब मंि य तथा महाजन को बुलवाया। िफर मुिन विश
ने परमाथ के सुंदर समयानुकूल वचन कहकर बहत कार से भरत को उपदेश िदया।

दो० - तात दयँ धीरजु धरह करह जो अवसर आज।ु


उठे भरत गरु बचन सिु न करन कहेउ सबु साजु॥ 169॥

(विश ने कहा -) हे तात! दय म धीरज धरो और आज िजस काय के करने का अवसर है, उसे
करो। गु के वचन सुनकर भरत उठे और उ ह ने सब तैयारी करने के िलए कहा॥ 169॥

नप
ृ तनु बेद िबिदत अ हवावा। परम िबिच िबमानु बनावा॥
गािह पद भरत मातु सब राखी। रह रािन दरसन अिभलाषी॥

वेद म बताई हई िविध से राजा क देह को नान कराया गया और परम िविच िवमान बनाया
गया। भरत ने सब माताओं को चरण पकड़कर रखा (अथात ाथना करके उनको सती होने से
रोक िलया)। वे रािनयाँ भी (राम के) दशन क अिभलाषा से रह गई ं।

चंदन अगर भार बह आए। अिमत अनेक सग ु ंध सहु ाए॥


सरजु तीर रिच िचता बनाई। जनु सरु परु सोपान सहु ाई॥

चंदन और अगर के तथा और भी अनेक कार के अपार (कपरू , गु गुल, केसर आिद) सुगंध-
य के बहत-से बोझ आए। सरयू के तट पर सुंदर िचता रचकर बनाई गई, (जो ऐसी मालम
ू होती
थी) मानो वग क सुंदर सीढ़ी हो।

एिह िबिध दाह ि या सब क ही। िबिधवत हाइ ितलांजुिल दी ही॥


सोिध समु िृ त सब बेद परु ाना। क ह भरत दसगात िबधाना॥
इस कार सब दाह ि या क गई और सबने िविधपवू क नान करके ितलांजिल दी। िफर वेद,
मिृ त और पुराण सबका मत िन य करके उसके अनुसार भरत ने िपता का दशगा -िवधान
(दस िदन के कृ य) िकया।

जहँ जस मिु नबर आयसु दी हा। तहँ तस सहस भाँित सबु क हा॥
भए िबसु िदए सब दाना। धेनु बािज गज बाहन नाना॥

मुिन े विश ने जहाँ जैसी आ ा दी, वहाँ भरत ने सब वैसा ही हजार कार से िकया। शु हो
जाने पर (िविधपवू क) सब दान िदए। गौएँ तथा घोड़े , हाथी आिद अनेक कार क सवा रयाँ,

दो० - िसंघासन भूषन बसन अ न धरिन धन धाम।


िदए भरत लिह भूिमसरु भे प रपूरन काम॥ 170॥

िसंहासन, गहने, कपड़े , अ न, प ृ वी, धन और मकान भरत ने िदए; भदू ेव ा ण दान पाकर
प रपणू काम हो गए (अथात उनक सारी मनोकामनाएँ अ छी तरह से परू ी हो गई ं)॥ 170॥

िपतु िहत भरत क ि ह जिस करनी। सो मख ु लाख जाइ निहं बरनी॥


सिु दनु सोिध मिु नबर तब आए। सिचव महाजन सकल बोलाए॥

िपता के िलए भरत ने जैसी करनी क वह लाख मुख से भी वणन नह क जा सकती। तब शुभ
िदन शोधकर े मुिन विश आए और उ ह ने मंि य तथा सब महाजन को बुलवाया।

बैठे राजसभाँ सब जाई। पठए बोिल भरत दोउ भाई॥


भरतु बिस िनकट बैठारे । नीित धरममय बचन उचारे ॥

सब लोग राजसभा म जाकर बैठ गए। तब मुिन ने भरत तथा श ु न दोन भाइय को बुलवा भेजा।
भरत को विश ने अपने पास बैठा िलया और नीित तथा धम से भरे हए वचन कहे ।

थम कथा सब मिु नबर बरनी। कैकइ कुिटल क ि ह जिस करनी॥


े ु िनबाहा॥
भूप धरमु तु स य सराहा। जेिहं तनु प रह र म

पहले तो कैकेयी ने जैसी कुिटल करनी क थी, े मुिन ने वह सारी कथा कही। िफर राजा के
धम त और स य क सराहना क , िज ह ने शरीर याग कर ेम को िनबाहा।

कहत राम गन
ु सील सभ
ु ाऊ। सजल नयन पलु केउ मिु नराऊ॥
बह र लखन िसय ीित बखानी। सोक सनेह मगन मिु न यानी॥

राम के गुण, शील और वभाव का वणन करते-करते तो मुिनराज के ने म जल भर आया और


वे शरीर से पुलिकत हो गए। िफर ल मण और सीता के ेम क बड़ाई करते हए ानी मुिन शोक
और नेह म म न हो गए।

दो० - सन
ु ह भरत भावी बल िबलिख कहेउ मिु ननाथ।
हािन लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु िबिध हाथ॥ 171॥

मुिननाथ ने िबलखकर (दुःखी होकर) कहा - हे भरत! सुनो, भावी (होनहार) बड़ी बलवान है।
हािन-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब िवधाता के हाथ ह॥ 171॥

अस िबचा र केिह देइअ दोसू। यरथ कािह पर क िजअ रोसू॥


तात िबचा करह मन माह । सोच जोगु दसरथु नप ृ ु नाह ॥

ऐसा िवचार कर िकसे दोष िदया जाए? और यथ िकस पर ोध िकया जाए? हे तात! मन म
िवचार करो। राजा दशरथ सोच करने के यो य नह ह।

सोिचअ िब जो बेद िबहीना। तिज िनज धरमु िबषय लयलीना॥


सोिचअ नपृ ित जो नीित न जाना। जेिह न जा ि य ान समाना॥

सोच उस ा ण का करना चािहए, जो वेद नह जानता और जो अपना धम छोड़कर िवषय-भोग


म ही लीन रहता है। उस राजा का सोच करना चािहए, जो नीित नह जानता और िजसको जा
ाण के समान यारी नह है।

सोिचअ बयसु कृपन धनवानू। जो न अितिथ िसव भगित सज ु ानू॥


सोिचअ सू ु िब अवमानी। मख
ु र मानि य यान गमु ानी॥

उस वै य का सोच करना चािहए जो धनवान होकर भी कंजसू है, और जो अितिथ स कार तथा
िशव क भि करने म कुशल नह है। उस शू का सोच करना चािहए जो ा ण का अपमान
करनेवाला, बहत बोलनेवाला, मान-बड़ाई चाहनेवाला और ान का घमंड रखनेवाला है।

सोिचअ पिु न पित बंचक नारी। कुिटल कलहि य इ छाचारी॥


सोिचअ बटु िनज तु प रहरई। जो निहं गरु आयसु अनस
ु रई॥

पुनः उस ी का सोच करना चािहए जो पित को छलनेवाली, कुिटल, कलहि य और


वे छाचा रणी है। उस चारी का सोच करना चािहए जो अपने चय- त को छोड़ देता है
और गु क आ ा के अनुसार नह चलता।

दो० - सोिचअ गहृ ी जो मोह बस करइ करम पथ याग।


सोिचअ जती पंच रत िबगत िबबेक िबराग॥ 172॥

उस गहृ थ का सोच करना चािहए जो मोहवश कम माग का याग कर देता है; उस सं यासी का
सोच करना चािहए जो दुिनया के पंच म फँसा हआ और ान-वैरा य से हीन है॥ 172॥

बैखानस सोइ सोचै जोगू। तपु िबहाइ जेिह भावइ भोगू॥


सोिचअ िपसन
ु अकारन ोधी। जनिन जनक गरु बंधु िबरोधी॥

वान थ वही सोच करने यो य है िजसको तप या छोड़कर भोग अ छे लगते ह। सोच उसका
करना चािहए जो चुगलखोर है, िबना ही कारण ोध करनेवाला है तथा माता, िपता, गु एवं
भाई-बंधुओ ं के साथ िवरोध रखनेवाला है।

सब िबिध सोिचअ पर अपकारी। िनज तनु पोषक िनरदय भारी॥


सोचनीय सबह िबिध सोई। जो न छािड़ छलु ह र जन होई॥

सब कार से उसका सोच करना चािहए जो दूसर का अिन करता है, अपने ही शरीर का
पोषण करता है और बड़ा भारी िनदयी है। और वह तो सभी कार से सोच करने यो य है जो छल
छोड़कर ह र का भ नह होता।

सोचनीय निहं कोसलराऊ। भव


ु न चा रदस गट भाऊ॥
भयउ न अहइ न अब होिनहारा। भूप भरत जस िपता तु हारा॥

कोसलराज दशरथ सोच करने यो य नह ह, िजनका भाव चौदह लोक म कट है। हे भरत!
तु हारे िपता-जैसा राजा तो न हआ, न है और न अब होने का ही है।

िबिध ह र ह सुरपित िदिसनाथा। बरनिहं सब दसरथ गुन गाथा॥

ा, िव णु, िशव, इं और िद पाल सभी दशरथ के गुण क कथाएँ कहा करते ह।

दो० - कहह तात केिह भाँित कोउ क रिह बड़ाई तास।ु


राम लखन तु ह स हु न स रस सअ ु न सिु च जास॥ु 173॥

हे तात! कहो, उनक बड़ाई कोई िकस कार करे गा िजनके राम, ल मण, तुम और श ु न-
सरीखे पिव पु ह?॥ 173॥

सब कार भूपित बड़भागी। बािद िबषादु क रअ तेिह लागी॥


यह सिु न समिु झ सोचु प रहरह। िसर ध र राज रजायसु करह॥

राजा सब कार से बड़भागी थे। उनके िलए िवषाद करना यथ है। यह सुन और समझकर सोच
याग दो और राजा क आ ा िसर चढ़ाकर तदनुसार करो।

रायँ राजपदु तु ह कहँ दी हा। िपता बचनु फुर चािहअ क हा॥


तजे रामु जेिहं बचनिह लागी। तनु प रहरे उ राम िबरहागी॥

राजा ने राज पद तुमको िदया है। िपता का वचन तु ह स य करना चािहए, िज ह ने वचन के िलए
ही राम को याग िदया और रामिवरह क अि न म अपने शरीर क आहित दे दी।

नप
ृ िह बचन ि य निहं ि य ाना। करह तात िपतु बचन वाना॥
करह सीस ध र भूप रजाई। हइ तु ह कहँ सब भाँित भलाई॥

राजा को वचन ि य थे, ाण ि य नह थे। इसिलए हे तात! िपता के वचन को माण (स य)


करो! राजा क आ ा िसर चढ़ाकर पालन करो, इसम तु हारी सब तरह भलाई है।

परसरु ाम िपतु अ या राखी। मारी मातु लोक सब साखी॥


तनय जजाितिह जौबनु दयऊ। िपतु अ याँ अघ अजसु न भयऊ॥

परशुराम ने िपता क आ ा रखी और माता को मार डाला; सब लोक इस बात के सा ी ह। राजा


ययाित के पु ने िपता को अपनी जवानी दे दी। िपता क आ ा पालन करने से उ ह पाप और
अपयश नह हआ।

दो० - अनिु चत उिचत िबचा तिज ते पालिहं िपतु बैन।


ते भाजन सख ु सजु स के बसिहं अमरपित ऐन॥ 174॥

जो अनुिचत और उिचत का िवचार छोड़कर िपता के वचन का पालन करते ह, वे (यहाँ) सुख
और सुयश के पा होकर अंत म इं पुरी ( वग) म िनवास करते ह॥ 174॥

अविस नरे स बचन फुर करह। पालह जा सोकु प रहरह॥


सरु परु नप
ृ ु पाइिह प रतोषू। तु ह कहँ सक
ु ृ तु सज
ु सु निहं दोषू॥

राजा का वचन अव य स य करो। शोक याग दो और जा का पालन करो। ऐसा करने से वग


म राजा संतोष पावगे और तुम को पु य और सुंदर यश िमलेगा, दोष नह लगेगा।

बेद िबिदत संमत सबही का। जेिह िपतु देइ सो पावइ टीका॥
करह राजु प रहरह गलानी। मानह मोर बचन िहत जानी॥

यह वेद म िस है और ( मिृ त-पुराणािद) सभी शा के ारा स मत है िक िपता िजसको दे


वही राजितलक पाता है। इसिलए तुम रा य करो, लािन का याग कर दो। मेरे वचन को िहत
समझकर मानो।

ु ु लहब राम बैदहे । अनिु चत कहब न पंिडत केह ॥


सिु न सख
कौस यािद सकल महतार । तेउ जा सख ु होिहं सख
ु ार ॥
इस बात को सुनकर राम और जानक सुख पाएँ गे और कोई पंिडत इसे अनुिचत नह कहे गा।
कौस या आिद तु हारी सब माताएँ भी जा के सुख से सुखी ह गी।

परम तु हार राम कर जािनिह। सो सब िबिध तु ह सन भल मािनिह॥


स पेह राजु राम के आएँ । सेवा करे ह सनेह सहु ाएँ ॥

जो तु हारे और राम के े संबंध को जान लेगा, वह सभी कार से तुमसे भला मानेगा। राम के
लौट आने पर रा य उ ह स प देना और सुंदर नेह से उनक सेवा करना।

दो० - क िजअ गरु आयसु अविस कहिहं सिचव कर जो र।


रघप
ु ित आएँ उिचत जस तस तब करब बहो र॥ 175॥

मं ी हाथ जोड़कर कह रहे ह - गु क आ ा का अव य ही पालन क िजए। रघुनाथ के लौट


आने पर जैसा उिचत हो, तब िफर वैसा ही क िजएगा॥ 175॥

कौस या ध र धीरजु कहई। पूत प य गरु आयसु अहई॥


सो आद रअ क रअ िहत मानी। तिजअ िबषादु काल गित जानी॥

कौस या भी धीरज धरकर कह रही ह - हे पु ! गु क आ ा प य प है। उसका आदर करना


चािहए और िहत मानकर उसका पालन करना चािहए। काल क गित को जानकर िवषाद का
याग कर देना चािहए।

बन रघप
ु ित सरु पित नरनाह। तु ह एिह भाँित तात कदराह॥
प रजन जा सिचव सब अंबा। तु हह सत ु सब कहँ अवलंबा॥

रघुनाथ वन म ह, महाराज वग का रा य करने चले गए। और हे तात! तुम इस कार कातर हो


रहे हो। हे पु ! कुटुंब, जा, मं ी और सब माताओं के - सबके एक तुम ही सहारे हो।

लिख िबिध बाम कालु किठनाई। धीरजु धरह मातु बिल जाई॥
िसर ध र गरु आयसु अनस
ु रह। जा पािल प रजन दख ु ु हरह॥

िवधाता को ितकूल और काल को कठोर देखकर धीरज धरो, माता तु हारी बिलहारी जाती है।
गु क आ ा को िसर चढ़ाकर उसी के अनुसार काय करो और जा का पालन कर कुटुंिबय
का दुःख हरो।

गु के बचन सिचव अिभनंदन।ु सन ु े भरत िहय िहत जनु चंदन॥ु


सनु ी बहो र मातु मदृ ु बानी। सील सनेह सरल रस सानी॥

भरत ने गु के वचन और मंि य के अिभनंदन (अनुमोदन) को सुना, जो उनके दय के िलए


मानो चंदन के समान (शीतल) थे। िफर उ ह ने शील, नेह और सरलता के रस म सनी हई माता
कौस या क कोमल वाणी सुनी।

छं ० - सानी सरल रस मातु बानी सिु न भरतु याकुल भए।


लोचन सरो ह वत स चत िबरह उर अंकुर नए॥
सो दसा देखत समय तेिह िबसरी सबिह सिु ध देह क ।
तलु सी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह क ॥

सरलता के रस म सनी हई माता क वाणी सुनकर भरत याकुल हो गए। उनके ने -कमल जल
(आँस)ू बहाकर दय के िवरह पी नवीन अंकुर को स चने लगे। (ने के आँसुओ ं ने उनके
िवयोग-दुःख को बहत ही बढ़ाकर उ ह अ यंत याकुल कर िदया।) उनक वह दशा देखकर उस
समय सबको अपने शरीर क सुध भल ू गई। तुलसीदास कहते ह - वाभािवक ेम क सीमा भरत
क सब लोग आदरपवू क सराहना करने लगे।

सो० - भरतु कमल कर जो र धीर धरु ं धर धीर ध र।


बचन अिमअँ जनु बो र देत उिचत उ र सबिह॥ 176॥

धैय क धरु ी को धारण करनेवाले भरत धीरज धरकर, कमल के समान हाथ को जोड़कर,
वचन को मानो अमत ृ म डुबाकर सबको उिचत उ र देने लगे - ॥ 176॥
मोिह उपदेसु दी ह गु नीका। जा सिचव संमत सबही का॥
मातु उिचत ध र आयसु दी हा। अविस सीस ध र चाहउँ क हा॥

गु ने मुझे सुंदर उपदेश िदया। (िफर) जा, मं ी आिद सभी को यही स मत है। माता ने भी उिचत
समझकर ही आ ा दी है और म भी अव य उसको िसर चढ़ाकर वैसा ही करना चाहता हँ।

गरु िपतु मातु वािम िहत बानी। सिु न मन मिु दत क रअ भिल जानी॥
उिचत िक अनिु चत िकएँ िबचा । धरमु जाइ िसर पातक भा ॥

( य िक) गु , िपता, माता, वामी और सु द (िम ) क वाणी सुनकर स न मन से उसे अ छी


समझकर करना (मानना) चािहए। उिचत-अनुिचत का िवचार करने से धम जाता है और िसर पर
पाप का भार चढ़ता है।

तु ह तौ देह सरल िसख सोई। जो आचरत मोर भल होई॥


ज िप यह समझ ु त हउँ नीक। तदिप होत प रतोष न जी क॥

आप तो मुझे वही सरल िश ा दे रहे ह, िजसके आचरण करने म मेरा भला हो। य िप म इस बात
को भली भाँित समझता हँ, तथािप मेरे दय को संतोष नह होता।
अब तु ह िबनय मो र सिु न लेह। मोिह अनहु रत िसखावनु देह॥
ऊत देउँ छमब अपराधू। दिु खत दोष गन ु गनिहं न साधू॥

अब आप लोग मेरी िवनती सुन लीिजए और मेरी यो यता के अनुसार मुझे िश ा दीिजए। म उ र
दे रहा हँ, यह अपराध मा क िजए। साधु पु ष दुःखी मनु य के दोष-गुण को नह िगनते।

दो० - िपतु सरु परु िसय रामु बन करन कहह मोिह राज।ु
एिह त जानह मोर िहत कै आपन बड़ काजु॥ 177॥

िपता वग म ह, सीताराम वन म ह और मुझे आप रा य करने के िलए कह रहे ह। इसम आप मेरा


क याण समझते ह या अपना कोई बड़ा काम (होने क आशा रखते ह)?॥ 177॥

िहत हमार िसयपित सेवकाई ं। सो ह र ली ह मातु कुिटलाई ं॥


म अनमु ािन दीख मन माह । आन उपायँ मोर िहत नाह ॥

मेरा क याण तो सीतापित राम क चाकरी म है, सो उसे माता क कुिटलता ने छीन िलया। मने
अपने मन म अनुमान करके देख िलया है िक दूसरे िकसी उपाय से मेरा क याण नह है।

सोक समाजु राजु केिह लेख। लखन राम िसय िबनु पद देख॥
बािद बसन िबनु भूषन भा । बािद िबरित िबनु िबचा ॥

यह शोक का समुदाय रा य ल मण, राम और सीता के चरण को देखे िबना िकस िगनती म है
(इसका या मू य है)? जैसे कपड़ के िबना गहन का बोझ यथ है। वैरा य के िबना िवचार
यथ है।

स ज सरीर बािद बह भोगा। िबनु ह रभगित जायँ जप जोगा॥


जायँ जीव िबनु देह सहु ाई। बािद मोर सबु िबनु रघरु ाई॥

रोगी शरीर के िलए नाना कार के भोग यथ ह। ह र क भि के िबना जप और योग यथ ह।


जीव के िबना सुंदर देह यथ है, वैसे ही रघुनाथ के िबना मेरा सब कुछ यथ है।

जाउँ राम पिहं आयसु देह। एकािहं आँक मोर िहत एह॥
मोिह नपृ क र भल आपन चहह। सोउ सनेह जड़ता बस कहह॥

मुझे आ ा दीिजए, म राम के पास जाऊँ! एक ही आँक (िन यपवू क) मेरा िहत इसी म है। और
मुझे राजा बनाकर आप अपना भला चाहते ह, यह भी आप नेह क जड़ता (मोह) के वश होकर
ही कह रहे ह।

दो० - कैकेई सअ
ु कुिटलमित राम िबमख
ु गतलाज।
तु ह चाहत सख
ु ु मोहबस मोिह से अधम क राज॥ 178॥

कैकेयी के पु , कुिटलबुि , रामिवमुख और िनल ज मुझ-से अधम के रा य से आप मोह के वश


होकर ही सुख चाहते ह॥ 178॥

कहउँ साँचु सब सिु न पितआह। चािहअ धरमसील नरनाह॥


मोिह राजु हिठ देइहह जबह । रसा रसातल जाइिह तबह ॥

म स य कहता हँ, आप सब सुनकर िव ास कर, धमशील को ही राजा होना चािहए। आप मुझे


हठ करके य ही रा य दगे, य ही प ृ वी पाताल म धँस जाएगी।

मोिह समान को पाप िनवासू। जेिह लिग सीय राम बनबासू॥


रायँ राम कहँ काननु दी हा। िबछुरत गमनु अमरपरु क हा॥

मेरे समान पाप का घर कौन होगा, िजसके कारण सीता और राम का वनवास हआ? राजा ने
राम को वन िदया और उनके िबछुड़ते ही वयं वग को गमन िकया।

म सठु सब अनरथ कर हेत।ू बैठ बात सब सन ु उँ सचेत॥



िबन रघबु ीर िबलोिक अबासू। रहे ान सिह जग उपहासू॥

और म दु , जो सारे अनथ का कारण हँ, होश-हवास म बैठा सब बात सुन रहा हँ! रघुनाथ से
रिहत घर को देखकर और जगत का उपहास सहकर भी ये ाण बने हए ह।

राम पन ु भूिम भोग के भूख॥े


ु ीत िबषय रस खे। लोलप
कहँ लिग कह दय किठनाई। िनद र कुिलसु जेिहं लही बड़ाई॥

(इसका यही कारण है िक ये ाण) राम पी पिव िवषय-रस म आस नह ह। ये लालची भिू म


और भोग के ही भख
ू े ह। म अपने दय क कठोरता कहाँ तक कहँ? िजसने व का भी
ितर कार करके बड़ाई पाई है।

दो० - कारन त कारजु किठन होइ दोसु निहं मोर।


कुिलस अि थ त उपल त लोह कराल कठोर॥ 179॥

कारण से काय किठन होता ही है, इसम मेरा दोष नह । हड्डी से व और प थर से लोहा
भयानक और कठोर होता है॥ 179॥

कैकेई भव तनु अनरु ागे। पावँर ान अघाइ अभागे॥


ज ि य िबरहँ ान ि य लागे। देखब सन ु ब बहत अब आगे॥
कैकेयी से उ प न देह म ेम करनेवाले ये पामर ाण भरपेट (परू ी तरह से) अभागे ह। जब ि य
के िवयोग म भी मुझे ाण ि य लग रहे ह तब अभी आगे म और भी बहत कुछ देखँ-ू सुनँग ू ा।

लखन राम िसय कहँ बनु दी हा। पठइ अमरपरु पित िहत क हा॥
ली ह िबधवपन अपजसु आपू। दी हेउ जिह सोकु संतापू॥

ल मण, राम और सीता को तो वन िदया; वग भेजकर पित का क याण िकया; वयं िवधवापन
और अपयश िलया; जा को शोक और संताप िदया;

मोिह दी ह सख ु सु सरु ाजू। क ह कैकई ं सब कर काजू॥


ु ु सज
ऐिह त मोर काह अब नीका। तेिह पर देन कहह तु ह टीका॥

और मुझे सुख, संुदर यश और उ म रा य िदया! कैकेयी ने सभी का काम बना िदया! इससे
अ छा अब मेरे िलए और या होगा? उस पर भी आप लोग मुझे राजितलक देने को कहते ह!

कैकइ जठर जनिम जग माह । यह मोिह कहँ कछु अनिु चत नाह ॥


मो र बात सब िबिधिहं बनाई। जा पाँच कत करह सहाई॥

कैकेयी के पेट से जगत म ज म लेकर यह मेरे िलए कुछ भी अनुिचत नह है। मेरी सब बात तो
िवधाता ने ही बना दी है। (िफर) उसम जा और पंच (आप लोग) य सहायता कर रहे ह?

दो० - ह हीत पिु न बात बस तेिह पिु न बीछी मार।


तेिह िपआइअ बा नी कहह काह उपचार॥ 180॥

िजसे कु ह लगे ह (अथवा जो िपशाच त हो), िफर जो वायुरोग से पीिड़त हो और उसी को िफर
िब छू डं क मार दे, उसको यिद मिदरा िपलाई जाए, तो किहए यह कैसा इलाज है!॥ 180॥

कैकइ सअ
ु न जोगु जग जोई। चतरु िबरं िच दी ह मोिह सोई॥
दसरथ तनय राम लघु भाई। दीि ह मोिह िबिध बािद बड़ाई॥

कैकेयी के लड़के के िलए संसार म जो कुछ यो य था, चतुर िवधाता ने मुझे वही िदया। पर
'दशरथ का पु ' और 'राम का छोटा भाई' होने क बड़ाई मुझे िवधाता ने यथ ही दी।

तु ह सब कहह कढ़ावन टीका। राय रजायसु सब कहँ नीका॥


उत देउँ केिह िबिध केिह केही। कहह सख े जथा िच जेही॥
ु न

आप सब लोग भी मुझे टीका कढ़ाने के िलए कह रहे ह! राजा क आ ा सभी के िलए अ छी है। म
िकस-िकस को िकस-िकस कार से उ र दँू? िजसक जैसी िच हो, आप लोग सुखपवू क वही
कह।
मोिह कुमातु समेत िबहाई। कहह किहिह के क ह भलाई॥
मो िबनु को सचराचर माह । जेिह िसय रामु ानि य नाह ॥

मेरी कुमाता कैकेयी समेत मुझे छोड़कर, किहए, और कौन कहे गा िक यह काम अ छा िकया
गया? जड़-चेतन जगत म मेरे िसवा और कौन है िजसको सीताराम ाण के समान यारे न ह ।

परम हािन सब कहँ बड़ लाह। अिदनु मोर निहं दूषन काह॥


संसय सील मे बस अहह। सबइु उिचत सब जो कछु कहह॥

जो परम हािन है, उसी म सबको बड़ा लाभ िदख रहा है। मेरा बुरा िदन है िकसी का दोष नह ।
आप सब जो कुछ कहते ह सो सब उिचत ही है। य िक आप लोग संशय, शील और ेम के वश ह।

दो० - राम मातु सिु ठ सरलिचत मो पर म े ु िबसेिष।


कहइ सभ ु ाय सनेह बस मो र दीनता देिख॥ 181॥

राम क माता बहत ही सरल दय ह और मुझ पर उनका िवशेष ेम है। इसिलए मेरी दीनता
देखकर वे वाभािवक नेहवश ही ऐसा कह रही ह॥ 181॥

गरु िबबेक सागर जगु जाना। िज हिह िब व कर बदर समाना॥


मो कहँ ितलक साज सज सोऊ। भएँ िबिध िबमख ु िबमखु सबु कोऊ॥

गु ान के समु ह, इस बात को सारा जगत जानता है, िजसके िलए िव हथेली पर रखे हए
बेर के समान है, वे भी मेरे िलए राजितलक का साज सज रहे ह। स य है, िवधाता के िवपरीत होने
पर सब कोई िवपरीत हो जाते ह।

प रह र रामु सीय जग माह । कोउ न किहिह मोर मत नाह ॥


सो म सनु ब सहब सखु ु मानी। अंतहँ क च तहाँ जहँ पानी॥

राम और सीता को छोड़कर जगत म कोई यह नह कहे गा िक इस अनथ म मेरी स मित नह है।
म उसे सुखपवू क सुनँग
ू ा और सहँगा। य िक जहाँ पानी होता है, वहाँ अंत म क चड़ होता ही है।

ड न मोिह जग किहिह िक पोचू। परलोकह कर नािहन सोचू॥


एकइ उर बस दस
ु ह दवारी। मोिह लिग भे िसय रामु दख
ु ारी॥

मुझे इसका डर नह है िक जगत मुझे बुरा कहे गा और न मुझे परलोक का ही सोच है। मेरे दय म
तो बस, एक ही दुःसह दावानल धधक रहा है िक मेरे कारण सीताराम दुःखी हए।

जीवन लाह लखन भल पावा। सबु तिज राम चरन मनु लावा॥
मोर जनम रघब
ु र बन लागी। झूठ काह पिछताउँ अभागी॥
जीवन का उ म लाभ तो ल मण ने पाया, िज ह ने सब कुछ तजकर राम के चरण म मन
लगाया। मेरा ज म तो राम के वनवास के िलए ही हआ था। म अभागा झठ
ू -मठ
ू या पछताता हँ?

दो० - आपिन दा न दीनता कहउँ सबिह िस नाइ।


ु ाथ पद िजय कै जरिन न जाइ॥ 182॥
देख िबनु रघन

सबको िसर झुकाकर म अपनी दा ण दीनता कहता हँ। रघुनाथ के चरण के दशन िकए िबना
मेरे जी क जलन न जाएगी॥ 182॥

आन उपाउ मोिह निहं सूझा। को िजय कै रघब


ु र िबनु बूझा॥
एकिहं आँक इहइ मन माह । ातकाल चिलहउँ भु पाह ॥

मुझे दूसरा कोई उपाय नह सझ


ू ता। राम के िबना मेरे दय क बात कौन जान सकता है? मन म
एक ही आँक (िन यपवू क) यही है िक ातः काल राम के पास चल दँूगा।

ज िप म अनभल अपराधी। भै मोिह कारन सकल उपाधी॥


तदिप सरन सनमख
ु मोिह देखी। छिम सब क रहिहं कृपा िबसेषी॥

य िप म बुरा हँ और अपराधी हँ, और मेरे ही कारण यह सब उप व हआ है, तथािप राम मुझे शरण
म स मुख आया हआ देखकर सब अपराध मा करके मुझ पर िवशेष कृपा करगे।

सील सकुच सिु ठ सरल सभ


ु ाऊ। कृपा सनेह सदन रघरु ाऊ॥
अ रहक अनभल क ह न रामा। म िससु सेवक ज िप बामा॥

रघुनाथ शील, संकोच, अ यंत सरल वभाव, कृपा और नेह के घर ह। राम ने कभी श ु का भी
अिन नह िकया। म य िप टेढ़ा हँ पर हँ तो उनका ब चा और गुलाम ही।

तु ह पै पाँच मोर भल मानी। आयसु आिसष देह सब ु ानी॥


जेिहं सिु न िबनय मोिह जनु जानी। आविहं बह र रामु रजधानी॥

आप पंच (सब) लोग भी इसी म मेरा क याण मानकर सुंदर वाणी से आ ा और आशीवाद दीिजए,
िजसम मेरी िवनती सुनकर और मुझे अपना दास जानकर राम राजधानी को लौट आव।

दो० - ज िप जनमु कुमातु त म सठु सदा सदोस।


आपन जािन न यािगहिहं मोिह रघब ु ीर भरोस॥ 183॥

य िप मेरा ज म कुमाता से हआ है और म दु तथा सदा दोषयु भी हँ, तो भी मुझे राम का


भरोसा है िक वे मुझे अपना जानकर यागगे नह ॥ 183॥
भरत बचन सब कहँ ि य लागे। राम सनेह सधु ाँ जनु पागे॥
लोग िबयोग िबषम िबष दागे। मं सबीज सनु त जनु जागे॥

भरत के वचन सबको यारे लगे। मानो वे राम के ेम पी अमतृ म पगे हए थे। रामिवयोग पी
भीषण िवष से सब लोग जले हए थे। वे मानो बीज सिहत मं को सुनते ही जाग उठे ।

मातु सिचव गरु परु नर नारी। सकल सनेहँ िबकल भए भारी॥


भरतिह कहिहं सरािह सराही। राम मे मूरित तनु आही॥

माता, मं ी, गु , नगर के ी-पु ष सभी नेह के कारण बहत ही याकुल हो गए। सब भरत
को सराह-सराहकर कहते ह िक आपका शरीर राम ेम क सा ात मिू त ही है।

तात भरत अस काहे न कहह। ान समान राम ि य अहह॥


जो पावँ अपनी जड़ताई ं। तु हिह सग
ु ाइ मातु कुिटलाई ं॥

हे तात भरत! आप ऐसा य न कह। राम को आप ाण के समान यारे ह। जो नीच अपनी


मखू ता से आपक माता कैकेयी क कुिटलता को लेकर आप पर संदेह करे गा,

सो सठु कोिटक पु ष समेता। बिसिह कलप सत नरक िनकेता॥


अिह अघ अवगन ु निहं मिन गहई। हरइ गरल दख
ु दा रद दहई॥

वह दु करोड़ पुरख सिहत सौ क प तक नरक के घर म िनवास करे गा। साँप के पाप और


अवगुण को मिण नह हण करती। बि क वह िवष को हर लेती है और दुःख तथा द र ता को
भ म कर देती है।

दो० - अविस चिलअ बन रामु जहँ भरत मं ु भल क ह।


सोक िसंधु बूड़त सबिह तु ह अवलंबनु दी ह॥ 184॥

हे भरत! वन को अव य चिलए, जहाँ राम ह; आपने बहत अ छी सलाह िवचारी। शोक समु म
डूबते हए सब लोग को आपने (बड़ा) सहारा दे िदया॥ 184॥

भा सब क मन मोदु न थोरा। जनु घन धिु न सिु न चातक मोरा॥


चलत ात लिख िनरनउ नीके। भरतु ानि य भे सबही के॥

सबके मन म कम आनंद नह हआ (अथात बहत ही आनंद हआ)! मानो मेघ क गजना सुनकर
चातक और मोर आनंिदत हो रहे ह । (दूसरे िदन) ातःकाल चलने का सुंदर िनणय देखकर भरत
सभी को ाणि य हो गए।

मिु निह बंिद भरतिह िस नाई। चले सकल घर िबदा कराई॥


ध य भरत जीवनु जग माह । सीलु सनेह सराहत जाह ॥

मुिन विश क वंदना करके और भरत को िसर नवाकर, सब लोग िवदा लेकर अपने-अपने घर
को चले। जगत म भरत का जीवन ध य है, इस कार कहते हए वे उनके शील और नेह क
सराहना करते जाते ह।

कहिहं परसपर भा बड़ काजू। सकल चलै कर साजिहं साजू॥


जेिह राखिहं रह घर रखवारी। सो जानइ जनु गरदिन मारी॥

आपस म कहते ह, बड़ा काम हआ। सभी चलने क तैयारी करने लगे। िजसको भी घर क
रखवाली के िलए रहो, ऐसा कहकर रखते ह, वही समझता है मानो मेरी गदन मारी गई।

कोउ कह रहन किहअ निहं काह। को न चहइ जग जीवन लाह॥

कोई-कोई कहते ह - रहने के िलए िकसी को भी मत कहो, जगत म जीवन का लाभ कौन नह
चाहता?

दो० - जरउ सो संपित सदन सख ु ु सु द मातु िपतु भाइ।


सनमख ु होत जो राम पद करै न सहस सहाइ॥ 185॥

वह संपि , घर, सुख, िम , माता, िपता, भाई जल जाए जो राम के चरण के स मुख होने म
हँसते हए ( स नतापवू क) सहायता न करे ॥ 185॥

घर घर साजिहं बाहन नाना। हरषु दयँ परभात पयाना॥


भरत जाइ घर क ह िबचा । नग बािज गज भवन भँडा ॥

घर-घर लोग अनेक कार क सवा रयाँ सजा रहे ह। दय म (बड़ा) हष है िक सबेरे चलना है।
भरत ने घर जाकर िवचार िकया िक नगर घोड़े , हाथी, महल-खजाना आिद -

ु ित कै आही। ज िबनु जतन चल तिज ताही॥


संपित सब रघप
तौ प रनाम न मो र भलाई। पाप िसरोमिन साइँ दोहाई॥

सारी संपि रघुनाथ क है। यिद उसक (र ा क ) यव था िकए िबना उसे ऐसे ही छोड़कर चल
दँू, तो प रणाम म मेरी भलाई नह है, य िक वामी का ोह सब पाप म िशरोमिण ( े ) है।

करइ वािम िहत सेवकु सोई। दूषन कोिट देइ िकन कोई॥
अस िबचा र सिु च सेवक बोले। जे सपनेहँ िनज धरम न डोले॥

सेवक वही है जो वामी का िहत करे , चाहे कोई करोड़ दोष य न दे। भरत ने ऐसा िवचारकर
ऐसे िव ासपा सेवक को बुलाया जो कभी व न म भी अपने धम से नह िडगे थे।

किह सबु मरमु धरमु भल भाषा। जो जेिह लायक सो तेिहं राखा॥


क र सबु जतनु रािख रखवारे । राम मातु पिहं भरतु िसधारे ॥

भरत ने उनको सब भेद समझाकर िफर उ म धम बतलाया और जो िजस यो य था, उसे उसी
काम पर िनयु कर िदया। सब यव था करके, र क को रखकर भरत राम माता कौस या के
पास गए।

दो० - आरत जननी जािन सब भरत सनेह सज


ु ान।
कहेउ बनावन पालक सजन सख ु ासन जान॥ 186॥

नेह के सुजान ( ेम के त व को जाननेवाले) भरत ने सब माताओं को आत (दुःखी) जानकर


उनके िलए पालिकयाँ तैयार करने तथा सुखासन यान (सुखपाल) सजाने के िलए कहा॥ 186॥

च क चि क िजिम परु नर नारी। चहत ात उर आरत भारी॥


जागत सब िनिस भयउ िबहाना। भरत बोलाए सिचव सज
ु ाना॥

नगर के नर-नारी चकवे-चकवी क भाँित दय म अ यंत आत होकर ातःकाल का होना चाहते


ह। सारी रात जागते-जागते सबेरा हो गया। तब भरत ने चतुर मंि य को बुलवाया।

कहेउ लेह सबु ितलक समाजू। बनिहं देब मिु न रामिह राजू॥
बेिग चलह सिु न सिचव जोहारे । तरु त तरु ग रथ नाग सँवारे ॥

और कहा - ितलक का सब सामान ले चलो। वन म ही मुिन विश राम को रा य दगे, ज दी


चलो। यह सुनकर मंि य ने वंदना क और तुरंत घोड़े , रथ और हाथी सजवा िदए।

अ ं धती अ अिगिन समाऊ। रथ चिढ़ चले थम मिु नराऊ॥


िब बंदृ चिढ़ बाहन नाना। चले सकल तप तेज िनधाना॥

सबसे पहले मुिनराज विश अ ं धती और अि नहो क सब साम ी सिहत रथ पर सवार होकर
चले। िफर ा ण के समहू , जो सब-के-सब तप या और तेज के भंडार थे, अनेक सवा रय पर
चढ़कर चले।

नगर लोग सब सिज सिज जाना। िच कूट कहँ क ह पयाना॥


िसिबका सभ
ु ग न जािहं बखानी। चिढ़ चिढ़ चलत भई ं सब रानी॥

नगर के सब लोग रथ को सजा-सजाकर िच कूट को चल पड़े । िजनका वणन नह हो सकता,


ऐसी सुंदर पालिकय पर चढ़-चढ़कर सब रािनयाँ चल ।
दो० - स िप नगर सिु च सेवकिन सादर सकल चलाइ।
सिु म र राम िसय चरन तब चले भरत दोउ भाइ॥ 187॥

िव ासपा सेवक को नगर स पकर और सबको आदरपवू क रवाना करके, तब सीताराम के


चरण को मरण करके भरत-श ु न दोन भाई चले॥ 187॥

राम दरस बस सब नर नारी। जनु क र क रिन चले तिक बारी॥


बन िसय रामु समिु झ मन माह । सानज
ु भरत पयादेिहं जाह ॥

राम के दशन के वश म हए (दशन क अन य लालसा से) सब नर-नारी ऐसे चले मानो यासे
हाथी-हिथनी जल को तककर (बड़ी तेजी से बावले-से हए) जा रहे ह । सीताराम (सब सुख को
छोड़कर) वन म ह, मन म ऐसा िवचार करके छोटे भाई श ु न सिहत भरत पैदल ही चले जा रहे
ह।

देिख सनेह लोग अनरु ागे। उत र चले हय गय रथ यागे॥


जाइ समीप रािख िनज डोली। राम मातु मदृ ु बानी बोली॥

उनका नेह देखकर लोग ेम म म न हो गए और सब घोड़े , हाथी, रथ को छोड़कर उनसे


उतरकर पैदल चलने लगे। तब राम क माता कौस या भरत के पास जाकर और अपनी पालक
उनके समीप खड़ी करके कोमल वाणी से बोल -

तात चढ़ह रथ बिल महतारी। होइिह ि य प रवा दख


ु ारी॥
तु हर चलत चिलिह सबु लोगू। सकल सोक कृस निहं मग जोगू॥

हे बेटा! माता बलैया लेती है, तुम रथ पर चढ़ जाओ। नह तो सारा प रवार दुःखी हो जाएगा।
तु हारे पैदल चलने से सभी लोग पैदल चलगे। शोक के मारे सब दुबले हो रहे ह, पैदल रा ते के
(पैदल चलने के) यो य नह ह।

िसर ध र बचन चरन िस नाई। रथ चिढ़ चलत भए दोउ भाई॥


तमसा थम िदवस क र बासू। दूसर गोमित तीर िनवासू॥

माता क आ ा को िसर चढ़ाकर और उनके चरण म िसर नवाकर दोन भाई रथ पर चढ़कर
चलने लगे। पहले िदन तमसा पर वास (मुकाम) करके दूसरा मुकाम गोमती के तीर पर िकया।

दो० - पय अहार फल असन एक िनिस भोजन एक लोग।


करत राम िहत नेम त प रह र भूषन भोग॥ 188॥

कोई दूध ही पीते, कोई फलाहार करते और कुछ लोग रात को एक ही बार भोजन करते ह। भषू ण
और भोग-िवलास को छोड़कर सब लोग राम के िलए िनयम और त करते ह॥ 188॥
सई तीर बिस चले िबहाने। संग
ृ बेरपरु सब िनअराने॥
समाचार सब सनु े िनषादा। दयँ िबचार करइ सिबषादा॥

रात भर सई नदी के तीर पर िनवास करके सबेरे वहाँ से चल िदए और सब ंगृ वेरपुर के समीप
जा पहँचे। िनषादराज ने सब समाचार सुने, तो वह दुःखी होकर दय म िवचार करने लगा -

कारन कवन भरतु बन जाह । है कछु कपट भाउ मन माह ॥


ज पै िजयँ न होित कुिटलाई। तौ कत ली ह संग कटकाई॥

या कारण है जो भरत वन को जा रहे ह, मन म कुछ कपट-भाव अव य है। यिद मन म कुिटलता


न होती, तो साथ म सेना य ले चले ह।

जानिहं सानज
ु रामिह मारी। करउँ अकंटक राजु सख
ु ारी॥
भरत न राजनीित उर आनी। तब कलंकु अब जीवन हानी।

समझते ह िक छोटे भाई ल मण सिहत राम को मारकर सुख से िन कंटक रा य क ँ गा। भरत ने
दय म राजनीित को थान नह िदया (राजनीित का िवचार नह िकया)। तब (पहले) तो कलंक
ही लगा था, अब तो जीवन से ही हाथ धोना पड़े गा।

सकल सरु ासरु जुरिहं जुझारा। रामिह समर न जीतिनहारा॥


का आचरजु भरतु अस करह । निहं िबष बेिल अिमअ फल फरह ॥

संपण
ू देवता और दै य वीर जुट जाएँ , तो भी राम को रण म जीतनेवाला कोई नह है। भरत जो
ऐसा कर रहे ह, इसम आ य ही या है? िवष क बेल अमत ृ फल कभी नह फलत !

दो० - अस िबचा र गहु ँ याित सन कहेउ सजग सब होह।


हथवाँसह बोरह तरिन क िजअ घाटारोह॥ 189॥

ऐसा िवचारकर गुह (िनषादराज) ने अपनी जाित वाल से कहा िक सब लोग सावधान हो जाओ।
नाव को हाथ म (क जे म) कर लो और िफर उ ह डुबा दो तथा सब घाट को रोक दो॥ 189॥

होह सँजोइल रोकह घाटा। ठाटह सकल मरै के ठाटा॥


सनमख ु लोह भरत सन लेऊँ। िजअत न सरु स र उतरन देऊँ॥

सुसि जत होकर घाट को रोक लो और सब लोग मरने के साज सजा लो (अथात भरत से यु म
लड़कर मरने के िलए तैयार हो जाओ)। म भरत से सामने (मैदान म) लोहा लँग
ू ा (मुठभेड़
क ँ गा) और जीते-जी उ ह गंगा पार न उतरने दँूगा।
समर मरनु पिु न सरु स र तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा॥
भरत भाइ नप
ृ ु म जन नीचू। बड़ भाग अिस पाइअ मीचू॥

यु म मरण, िफर गंगा का तट, राम का काम और णभंगुर शरीर (जो चाहे जब नाश हो जाए);
भरत राम के भाई और राजा (उनके हाथ से मरना) और म नीच सेवक - बड़े भा य से ऐसी म ृ यु
िमलती है।

वािम काज क रहउँ रन रारी। जस धविलहउँ भव ु न दस चारी॥


तजउँ ान रघन
ु ाथ िनहोर। दहु ँ हाथ मदु मोदक मोर॥

म वामी के काम के िलए रण म लड़ाई क ँ गा और चौदह लोक को अपने यश से उ वल कर


दँूगा। रघुनाथ के िनिम ाण याग दँूगा। मेरे तो दोन ही हाथ म आनंद के लड्डू ह (अथात
जीत गया तो राम सेवक का यश ा क ँ गा और मारा गया तो राम क िन य सेवा ा
क ँ गा)।

साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महँ जासु न रे खा॥


जायँ िजअत जग सो मिह भा । जननी जौबन िबटप कुठा ॥

साधुओ ं के समाज म िजसक िगनती नह और राम के भ म िजसका थान नह , वह जगत म


प ृ वी का भार होकर यथ ही जीता है। वह माता के यौवन पी व ृ के काटने के िलए कु हाड़ा
मा है।

दो० - िबगत िबषाद िनषादपित सबिह बढ़ाइ उछाह।


सिु म र राम मागेउ तरु त तरकस धनष
ु सनाह॥ 190॥

(इस कार राम के िलए ाण समपण का िन य करके) िनषादराज िवषाद से रिहत हो गया और
सबका उ साह बढ़ाकर तथा राम का मरण करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच
माँगा॥ 190॥

बेगह भाइह सजह सँजोऊ। सिु न रजाइ कदराइ न कोऊ॥


भलेिहं नाथ सब कहिहं सहरषा। एकिहं एक बढ़ावइ करषा॥

(उसने कहा -) हे भाइयो! ज दी करो और सब सामान सजाओ। मेरी आ ा सुनकर कोई मन म


कायरता न लावे। सब हष के साथ बोल उठे - हे नाथ! बहत अ छा; और आपस म एक-दूसरे का
जोश बढ़ाने लगे।

चले िनषाद जोहा र जोहारी। सूर सकल रन चइ रारी॥


सिु म र राम पद पंकज पनह । भाथ बाँिध चढ़ाइि ह धनह ॥
िनषादराज को जोहार कर-करके सब िनषाद चले। सभी बड़े शरू वीर ह और सं ाम म लड़ना उ ह
बहत अ छा लगता है। राम के चरणकमल क जिू तय का मरण करके उ ह ने भािथयाँ (छोटे-
छोटे तरकस) बाँधकर धनुिहय (छोटे-छोटे धनुष ) पर यंचा चढ़ाई।

अँगरी पिह र कूँिड़ िसर धरह । फरसा बाँस सेल सम करह ॥


एक कुसल अित ओड़न खाँड़।े कूदिहं गगन मनहँ िछित छाँड़॥े

कवच पहनकर िसर पर लोहे का टोप रखते ह और फरसे, भाले तथा बरछ को सीधा कर रहे ह
(सुधार रहे ह)। कोई तलवार के वार रोकने म अ यंत ही कुशल है। वे ऐसे उमंग म भरे ह, मानो
धरती छोड़कर आकाश म कूद (उछल) रहे ह ।

िनज िनज साजु समाजु बनाई। गहु राउतिह जोहारे जाई॥


देिख सभ
ु ट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने॥

अपना-अपना साज-समाज (लड़ाई का सामान और दल) बनाकर उ ह ने जाकर िनषादराज गुह


को जोहार क । िनषादराज ने सुंदर यो ाओं को देखकर, सबको सुयो य जाना और नाम ले-
लेकर सबका स मान िकया।

दो० - भाइह लावह धोख जिन आजु काज बड़ मोिह।


सिु न सरोष बोले सभ
ु ट बीर अधीर न होिह॥ 191॥

(उसने कहा -) हे भाइयो! धोखा न लाना (अथात मरने से न घबड़ाना), आज मेरा बड़ा भारी काम
है। यह सुनकर सब यो ा बड़े जोश के साथ बोल उठे - हे वीर! अधीर मत हो॥ 191॥

राम ताप नाथ बल तोरे । करिहं कटकु िबनु भट िबनु घोरे ॥


जीवन पाउ न पाछ धरह । ं ड मंडु मय मेिदिन करह ॥

हे नाथ! राम के ताप से और आपके बल से हम लोग भरत क सेना को िबना वीर और िबना
घोड़े क कर दगे (एक-एक वीर और एक-एक घोड़े को मार डालगे)। जीते-जी पीछे पाँव न रखगे।
प ृ वी को ं ड-मंुडमयी कर दगे (िसर और धड़ से छा दगे)।

दीख िनषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढोल॥ू


एतना कहत छ क भइ बाँए। कहेउ सगिु नअ ह खेत सहु ाए॥

िनषादराज ने वीर का बिढ़या दल देखकर कहा - जुझा (लड़ाई का) ढोल बजाओ। इतना कहते
ही बाई ं ओर छ क हई। शकुन िवचारने वाल ने कहा िक खेत सुंदर ह (जीत होगी)।

बूढ़ एकु कह सगनु िबचारी। भरतिह िमिलअ न होइिह रारी॥


रामिह भरतु मनावन जाह । सगनु कहइ अस िब ह नाह ॥
ू े ने शकुन िवचारकर कहा - भरत से िमल लीिजए, उनसे लड़ाई नह होगी। भरत राम को
एक बढ़
मनाने जा रहे ह। शकुन ऐसा कह रहा है िक िवरोध नह है।

सिु न गहु कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा क र पिछतािहं िबमूढ़ा॥


भरत सभ ु ाउ सीलु िबनु बूझ। बिड़ िहत हािन जािन िबनु जूझ॥

यह सुनकर िनषादराज गुहने कहा - बढ़


ू ा ठीक कह रहा है। ज दी म (िबना िवचारे ) कोई काम
करके मख
ू लोग पछताते ह। भरत का शील- वभाव िबना समझे और िबना जाने यु करने म
िहत क बहत बड़ी हािन है।

दो० - गहह घाट भट सिमिट सब लेउँ मरम िमिल जाइ।


बूिझ िम अ र म य गित तस तब क रहउँ आइ॥ 192॥

अतएव हे वीरो! तुम लोग इक े होकर सब घाट को रोक लो, म जाकर भरत से िमलकर उनका
भेद लेता हँ। उनका भाव िम का है या श ु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा
(उसी के अनुसार) बंध क ँ गा॥ 192॥

लखब सनेह सभु ायँ सहु ाएँ । बै ीित निहं दरु इँ दरु ाएँ ॥
अस किह भट सँजोवन लागे। कंद मूल फल खग मग ृ मागे॥

उनके सुंदर वभाव से म उनके नेह को पहचान लँग


ू ा। वैर और ेम िछपाने से नह िछपते। ऐसा
कहकर वह भट का सामान सजाने लगा। उसने कंद, मल ू , फल, प ी और िहरन मँगवाए।

मीन पीन पाठीन परु ाने। भ र भ र भार कहार ह आने॥


िमलन साजु सिज िमलन िसधाए। मंगल मूल सगन ु सभु पाए॥

कहार लोग पुरानी और मोटी पिहना नामक मछिलय के भार भर-भरकर लाए। भट का सामान
सजाकर िमलने के िलए चले तो मंगलदायक शुभ-शकुन िमले।

देिख दू र त किह िनज नामू। क ह मन


ु ीसिह दंड नामू॥
जािन रामि य दीि ह असीसा। भरतिह कहेउ बझु ाइ मन
ु ीसा॥

िनषादराज ने मुिनराज विश को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर ही से दंडवत- णाम िकया।
मुनी र विश ने उसको राम का यारा जानकर आशीवाद िदया और भरत को समझाकर कहा
(िक यह राम का िम है)।

राम सखा सिु न संदनु यागा। चले उच र उमगत अनरु ागा॥


गाउँ जाित गहु ँ नाउँ सन
ु ाई। क ह जोहा माथ मिह लाई॥
यह राम का िम है, इतना सुनते ही भरत ने रथ याग िदया। वे रथ से उतरकर ेम म उमँगते हए
चले। िनषादराज गुह ने अपना गाँव, जाित और नाम सुनाकर प ृ वी पर माथा टेककर जोहार क ।

दो० - करत दंडवत देिख तेिह भरत ली ह उर लाइ।


मनहँ लखन सन भट भइ म े ु न दयँ समाइ॥ 193॥

दंडवत करते देखकर भरत ने उठाकर उसको छाती से लगा िलया। दय म ेम समाता नह है,
मानो वयं ल मण से भट हो गई हो॥ 193॥

भटत भरतु तािह अित ीती। लोग िसहािहं म े कै रीती॥


ध य ध य धिु न मंगल मूला। सरु सरािह तेिह ब रसिहं फूला॥

भरत गुह को अ यंत ेम से गले लगा रहे ह। ेम क रीित को सब लोग िसहा रहे ह (ई यापवू क
ू 'ध य-ध य' क विन करके देवता उसक सराहना करते हए
शंसा कर रहे ह); मंगल क मल
फूल बरसा रहे ह।

लोक बेद सब भाँितिहं नीचा। जासु छाँह छुइ लेइअ स चा॥


तेिह भ र अंक राम लघु ाता। िमलत पल ु क प रपू रत गाता॥

(वे कहते ह -) जो लोक और वेद दोन म सब कार से नीचा माना जाता है, िजसक छाया के छू
जाने से भी नान करना होता है, उसी िनषाद से अँकवार भरकर ( दय से िचपटाकर) राम के
छोटे भाई भरत (आनंद और ेमवश) शरीर म पुलकावली से प रपण ू हो िमल रहे ह।

राम राम किह जे जमहु ाह । ित हिह न पाप पंज


ु समहु ाह ॥
यह तौ राम लाइ उर ली हा। कुल समेत जगु पावन क हा॥

जो लोग राम-राम कहकर जँभाई लेते ह (अथात आल य से भी िजनके मँुह से राम-नाम का


उ चारण हो जाता है), पाप के समहू (कोई भी पाप) उनके सामने नह आते। िफर इस गुह को तो
वयं राम ने दय से लगा िलया और कुल समेत इसे जग पावन (जगत को पिव करनेवाला)
बना िदया।

करमनास जलु सरु स र परई। तेिह को कहह सीस निहं धरई॥


उलटा नामु जपत जगु जाना। बालमीिक भए समाना॥

कमनाशा नदी का जल गंगा म पड़ जाता है (िमल जाता है), तब किहए, उसे कौन िसर पर धारण
नह करता? जगत जानता है िक उलटा नाम (मरा-मरा) जपते-जपते वा मीिक के समान हो
गए।

दो० - वपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल िकरात।


रामु कहत पावन परम होत भव
ु न िब यात॥ 194॥

मख
ू और पामर चांडाल, शबर, खस, यवन, कोल और िकरात भी राम-नाम कहते ही परम पिव
और ि भुवन म िव यात हो जाते ह॥ 194॥

निहं अिच रजु जुग जुग चिल आई। केिह न दीि ह रघब
ु ीर बड़ाई॥
राम नाम मिहमा सरु कहह । सिु न सिु न अवध लोग सखु ु लहह ॥

इसम कोई आ य नह है, युग-युगांतर से यही रीित चली आ रही है। रघुनाथ ने िकसको बड़ाई
नह दी? इस कार देवता रामनाम क मिहमा कह रहे ह और उसे सुन-सुनकर अयो या के लोग
सुख पा रहे ह।

रामसखिह िमिल भरत स म े ा। पँूछी कुसल सम


ु ंगल खेमा॥
देिख भरत कर सीलु सनेह। भा िनषाद तेिह समय िबदेह॥

रामसखा िनषादराज से ेम के साथ िमलकर भरत ने कुशल, मंगल और ेम पछ ू ी। भरत का


शील और ेम देखकर िनषाद उस समय िवदेह हो गया ( ेममु ध होकर देह क सुध भल ू गया)।

सकुच सनेह मोदु मन बाढ़ा। भरतिह िचतवत एकटक ठाढ़ा॥


े करत कर जोरी॥
ध र धीरजु पद बंिद बहोरी। िबनय स म

उसके मन म संकोच, ेम और आनंद इतना बढ़ गया िक वह खड़ा-खड़ा टकटक लगाए भरत


को देखता रहा। िफर धीरज धरकर भरत के चरण क वंदना करके ेम के साथ हाथ जोड़कर
िवनती करने लगा -

कुसल मूल पद पंकज पेखी। म ितहँ काल कुसल िनज लेखी॥


अब भु परम अनु ह तोर। सिहत कोिट कुल मंगल मोर॥

हे भो! कुशल के मल
ू आपके चरण कमल के दशन कर मने तीन काल म अपना कुशल जान
िलया। अब आपके परम अनु ह से करोड़ कुल (पीिढ़य ) सिहत मेरा मंगल (क याण) हो गया।

दो० - समिु झ मो र करतिू त कुलु भु मिहमा िजयँ जोइ।


जो न भजइ रघब ु ीर पद जग िबिध बंिचत सोइ॥ 195॥

मेरी करतत
ू और कुल को समझकर और भु राम क मिहमा को मन म देख (िवचार) कर
(अथात कहाँ तो म नीच जाित और नीच कम करनेवाला जीव, और कहाँ अनंतकोिट ांड के
वामी भगवान राम! पर उ ह ने मुझ-जैसे नीच को भी अपनी अहैतुक कृपावश अपना िलया -
यह समझकर) जो रघुवीर राम के चरण का भजन नह करता, वह जगत म िवधाता के ारा
ठगा गया है॥ 195॥
कपटी कायर कुमित कुजाती। लोक बेद बाहेर सब भाँती॥
राम क ह आपन जबही त। भयउँ भवु न भूषन तबही त॥

म कपटी, कायर, कुबुि और कुजाित हँ और लोक-वेद दोन से सब कार से बाहर हँ। पर जब से


राम ने मुझे अपनाया है, तभी से म िव का भषू ण हो गया।

देिख ीित सिु न िबनय सहु ाई। िमलेउ बहो र भरत लघु भाई॥
किह िनषाद िनज नाम सब ु ान । सादर सकल जोहार रान ॥

िनषादराज क ीित को देखकर और सुंदर िवनय सुनकर िफर भरत के छोटे भाई श ु न उससे
िमले। िफर िनषाद ने अपना नाम ले-लेकर सुंदर (न और मधुर) वाणी से सब रािनय को
आदरपवू क जोहार क ।

जािन लखन सम देिहं असीसा। िजअह सखु ी सय लाख बरीसा॥


िनरिख िनषादु नगर नर नारी। भए सख
ु ी जनु लखनु िनहारी॥

रािनयाँ उसे ल मण के समान समझकर आशीवाद देती ह िक तुम सौ लाख वष तक सुख पवू क
िजओ। नगर के ी-पु ष िनषाद को देखकर ऐसे सुखी हए, मानो ल मण को देख रहे ह ।

कहिहं लहेउ एिहं जीवन लाह। भटेउ रामभ भ र बाह॥


सिु न िनषादु िनज भाग बड़ाई। मिु दत मन लइ चलेउ लेवाई॥

सब कहते ह िक जीवन का लाभ तो इसी ने पाया है, िजसे क याण व प राम ने भुजाओं म
बाँधकर गले लगाया है। िनषाद अपने भा य क बड़ाई सुनकर मन म परम आनंिदत हो सबको
अपने साथ िलवा ले चला।

दो० - सनकारे सेवक सकल चले वािम ख पाइ।


घर त तर सर बाग बन बास बनाएि ह जाइ॥ 196॥

उसने अपने सब सेवक को इशारे से कह िदया। वे वामी का ख पाकर चले और उ ह ने घर


म, व ृ के नीचे, तालाब पर तथा बगीच और जंगल म ठहरने के िलए थान बना िदए॥ 196॥

संग
ृ बेरपरु भरत दीख जब। भे सनेहँ सब अंग िसिथल तब॥
सोहत िदएँ िनषादिह लागू। जनु तनु धर िबनय अनरु ागू॥

भरत ने जब ंगृ वेरपुर को देखा, तब उनके सब अंग ेम के कारण िशिथल हो गए। वे िनषाद को
लाग िदए (अथात उसके कंधे पर हाथ रखे चलते हए) ऐसे शोभा दे रहे ह, मानो िवनय और ेम
शरीर धारण िकए हए ह ।
एिह िबिध भरत सेनु सबु संगा। दीिख जाइ जग पाविन गंगा॥
रामघाट कहँ क ह नामू। भा मनु मगनु िमले जनु रामू॥

इस कार भरत ने सब सेना को साथ म िलए हए जगत को पिव करनेवाली गंगा के दशन
िकए। रामघाट को (जहाँ राम ने नान- सं या क थी) णाम िकया। उनका मन इतना
आनंदम न हो गया, मानो उ ह वयं राम िमल गए ह ।

करिहं नाम नगर नर नारी। मिु दत मय बा र िनहारी॥


क र म जनु मागिहं कर जोरी। रामचं पद ीित न थोरी॥

नगर के नर-नारी णाम कर रहे ह और गंगा के प जल को देख-देखकर आनंिदत हो रहे


ह। गंगा म नान कर हाथ जोड़कर सब यही वर माँगते ह िक रामचं के चरण म हमारा ेम
कम न हो (अथात बहत अिधक हो)।

भरत कहेउ सरु स र तव रे नू। सकल सख


ु द सेवक सरु धेनू॥
जो र पािन बर मागउँ एह। सीय राम पद सहज सनेह॥

भरत ने कहा - हे गंगे! आपक रज सबको सुख देनेवाली तथा सेवक के िलए तो कामधेनु ही है।
म हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हँ िक सीताराम के चरण म मेरा वाभािवक ेम हो।

दो० - एिह िबिध म जनु भरतु क र गरु अनस


ु ासन पाइ।
मातु नहान जािन सब डेरा चले लवाइ॥ 197॥

इस कार भरत नान कर और क आ ा पाकर तथा यह जानकर िक सब माताएँ नान कर


चुक ह, डे रा उठा ले चले॥ 197॥

जहँ तहँ लोग ह डेरा क हा। भरत सोधु सबही कर ली हा॥


सरु सेवा क र आयसु पाई। राम मातु पिहं गे दोउ भाई॥

लोग ने जहाँ-तहाँ डे रा डाल िदया। भरत ने सभी का पता लगाया (िक सब लोग आकर आराम से
िटक गए ह या नह )। िफर देव पज ू न करके आ ा पाकर दोन भाई राम क माता कौस या के
पास गए।

चरन चाँिप किह किह मदृ ु बानी। जनन सकल भरत सनमानी॥
भाइिह स िप मातु सेवकाई। आपु िनषादिह ली ह बोलाई॥

चरण दबाकर और कोमल वचन कह-कहकर भरत ने सब माताओं का स कार िकया। िफर भाई
श ु न को माताओं क सेवा स पकर आपने िनषाद को बुला िलया।
चले सखा कर स कर जोर। िसिथल सरी सनेह न थोर॥
पूँछत सखिह सो ठाउँ देखाऊ। नेकु नयन मन जरिन जुड़ाऊ॥

सखा िनषादराज के हाथ-से-हाथ िमलाए हए भरत चले। ेम कुछ थोड़ा नह है (अथात बहत
अिधक ेम है), िजससे उनका शरीर िशिथल हो रहा है। भरत सखा से पछ
ू ते ह िक मुझे वह थान
िदखलाओ - और ने और मन क जलन कुछ ठं डी करो -

जहँ िसय रामु लखनु िनिस सोए। कहत भरे जल लोचन कोए॥
भरत बचन सिु न भयउ िबषादू। तरु त तहाँ लइ गयउ िनषादू॥

जहाँ सीता, राम और ल मण रात को सोए थे। ऐसा कहते ही उनके ने के कोय म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया। भरत के वचन सुनकर िनषाद को बड़ा िवषाद हआ। वह तुरंत ही उ ह वहाँ ले
गया -

दो० - जहँ िसंसप


ु ा पन
ु ीत तर रघब
ु र िकय िब ाम।ु
अित सनेहँ सादर भरत क हेउ दंड नाम॥ु 198॥

जहाँ पिव अशोक के व ृ के नीचे राम ने िव ाम िकया था। भरत ने वहाँ अ यंत ेम से
आदरपवू क दंडवत- णाम िकया॥ 198॥

कुस साँथरी िनहा र सहु ाई। क ह नामु दि छन जाई॥


चरन देख रज आँिख ह लाई। बनइ न कहत ीित अिधकाई॥

कुश क सुंदर साथरी देखकर उसक दि णा करके णाम िकया। राम के चरण िच क रज
आँख म लगाई। (उस समय के) ेम क अिधकता कहते नह बनती।

कनक िबंदु दइु चा रक देख।े राखे सीस सीय सम लेख॥े


सजल िबलोचन दयँ गलानी। कहत सखा सन बचन सब ु ानी॥

भरत ने दो-चार वणिवंदु (सोने के कण या तारे आिद जो सीता के गहने-कपड़ से िगर पड़े थे)
देखे तो उनको सीता के समान समझकर िसर पर रख िलया। उनके ने ( ेमा ु के) जल से भरे
ह और दय म लािन भरी है। वे सखा से सुंदर वाणी म ये वचन बोले -

ीहत सीय िबरहँ दिु तहीना। जथा अवध नर ना र िबलीना॥


िपता जनक देउँ पटतर केही। करतल भोगु जोगु जग जेही॥

ये वण के कण या तारे भी सीता के िवरह से ऐसे हत (शोभाहीन) एवं कांितहीन हो रहे ह, जैसे


(राम-िवयोग म) अयो या के नर-नारी िवलीन (शोक के कारण ीण) हो रहे ह। िजन सीता के
िपता राजा जनक ह, इस जगत म भोग और योग दोन ही िजनक मु ी म ह, उन जनक को म
िकसक उपमा दँू?

ससरु भानकु ु ल भानु भआ


ु ल।ू जेिह िसहात अमरावितपाल॥ ू
ाननाथु रघन ु ाथ गोसाई ं। जो बड़ होत सो राम बड़ाई ं॥

सयू कुल के सयू राजा दशरथ िजनके ससुर ह, िजनको अमरावती के वामी इं भी िसहाते थे।
(ई यापवू क उनके-जैसा ऐ य और ताप पाना चाहते थे); और भु रघुनाथ िजनके ाणनाथ ह,
जो इतने बड़े ह िक जो कोई भी बड़ा होता है, वह राम क (दी हई) बड़ाई से ही होता है।

दो० - पित देवता सत


ु ीय मिन सीय साँथरी देिख।
िबहरत दउ न हह र हर पिब त किठन िबसेिष॥ 199॥

उन े पित ता ि य म िशरोमिण सीता क साथरी (कुश श या) देखकर मेरा दय हहराकर


(दहलकर) फट नह जाता; हे शंकर! यह व से भी अिधक कठोर है!॥ 199॥

लालन जोगु लखन लघु लोने। भे न भाइ अस अहिहं न होने॥


परु जन ि य िपतु मातु दल
ु ारे । िसय रघब
ु ीरिह ानिपआरे ॥

मेरे छोटे भाई ल मण बहत ही सुंदर और यार करने यो य ह। ऐसे भाई न तो िकसी के हए, न ह,
न होने के ही ह। जो ल मण अवध के लोग को यारे , माता-िपता के दुलारे और सीताराम के ाण
यारे ह;

मदृ ु मूरित सक
ु ु मार सभ
ु ाऊ। तात बाउ तन लाग न काऊ॥
ते बन सहिहं िबपित सब भाँती। िनदरे कोिट कुिलस एिहं छाती॥

िजनक कोमल मिू त और सुकुमार वभाव है, िजनके शरीर म कभी गरम हवा भी नह लगी, वे
वन म सब कार क िवपि याँ सह रहे ह। (हाय!) इस मेरी छाती ने (कठोरता म) करोड़ व
का भी िनरादर कर िदया (नह तो यह कभी क फट गई होती)।

राम जनिम जगु क ह उजागर। प सील सख ु सब गन ु सागर॥


परु जन प रजन गु िपतु माता। राम सभ
ु ाउ सबिह सख
ु दाता॥

राम ने ज म (अवतार) लेकर जगत को कािशत (परम सुशोिभत) कर िदया। वे प, शील, सुख
और सम त गुण के समु ह। पुरवासी, कुटुंबी, गु , िपता-माता सभी को राम का वभाव सुख
देनेवाला है।

बै रउ राम बड़ाई करह । बोलिन िमलिन िबनय मन हरह ॥


सारद कोिट कोिट सत सेषा। क र न सकिहं भु गनु गन लेखा॥
श ु भी राम क बड़ाई करते ह। बोल-चाल, िमलने के ढं ग और िवनय से वे मन को हर लेते ह।
करोड़ सर वती और अरब शेष भी भु राम के गुण-समहू क िगनती नह कर सकते।

दो० - सख
ु व प रघब ु ंसमिन मंगल मोद िनधान।
ते सोवत कुस डािस मिह िबिध गित अित बलवान॥ 200॥

जो सुख व प रघुवंशिशरोमिण राम मंगल और आनंद के भंडार ह, वे प ृ वी पर कुशा िबछाकर


सोते ह। िवधाता क गित बड़ी ही बलवान है॥ 200॥

राम सन
ु ा दख
ु ु कान न काऊ। जीवनत िजिम जोगवइ राउ॥
पलक नयन फिन मिन जेिह भाँती। जोगविहं जनिन सकल िदन राती॥

राम ने कान से भी कभी दुःख का नाम नह सुना। महाराज वयं जीवन-व ृ क तरह उनक
सार-सँभाल िकया करते थे। सब माताएँ भी रात-िदन उनक ऐसी सार-संभाल करती थ , जैसे
पलक ने और साँप अपनी मिण क करते ह।

ते अब िफरत िबिपन पदचारी। कंद मूल फल फूल अहारी॥


िधग कैकई अमंगल मूला। भइिस ान ि यतम ितकूला॥

वही राम अब जंगल म पैदल िफरते ह और कंद-मलू तथा फल-फूल का भोजन करते ह। अमंगल
क मल ू कैकेयी िध कार है, जो अपने ाणि यतम पित से भी ितकूल हो गई।

म िधग िधग अघ उदिध अभागी। सबु उतपातु भयउ जेिह लागी॥


ृ उे िबधाताँ। साइँ दोह मोिह क ह कुमाताँ॥
कुल कलंकु क र सज

मुझ पाप के समु और अभागे को िध कार है, िध कार है, िजसके कारण ये सब उ पात हए।
िवधाता ने मुझे कुल का कलंक बनाकर पैदा िकया और कुमाता ने मुझे वामी ोही बना िदया।

सिु न स मे समझु ाव िनषादू। नाथ क रअ कत बािद िबषादू॥


राम तु हिह ि य तु ह ि य रामिह। यह िनरजोसु दोसु िबिध बामिह॥

यह सुनकर िनषादराज ेमपवू क समझाने लगा - हे नाथ! आप यथ िवषाद िकसिलए करते ह?


राम आपको यारे ह और आप राम को यारे ह। यही िनचोड़ (िनि त िस ांत) है, दोष तो
ितकूल िवधाता को है।

छं ० - िबिध बाम क करनी किठन जेिहं मातु क ही बावरी।


तेिह राित पिु न पिु न करिहं भु सादर सरहना रावरी॥
तलु सी न तु ह सो राम ीतमु कहतु ह स हे िकएँ ।
प रनाम मंगल जािन अपने आिनए धीरजु िहएँ ॥
ितकूल िवधाता क करनी बड़ी कठोर है, िजसने माता कैकेयी को बावली बना िदया (उसक
मित फेर दी)। उस रात को भु राम बार-बार आदरपवू क आपक बड़ी सराहना करते थे।
तुलसीदास कहते ह - (िनषादराज कहता है िक -) राम को आपके समान अितशय ि य और कोई
नह है, म सौगंध खाकर कहता हँ। प रणाम म मंगल होगा, यह जानकर आप अपने दय म धैय
धारण क िजए।

े कृपायतन।
सो० - अंतरजामी रामु सकुच स म
चिलअ क रअ िब ामु यह िबचा र ढ़ आिन मन॥ 201॥

राम अंतयामी तथा संकोच, ेम और कृपा के धाम ह, यह िवचार कर और मन म ढ़ता लाकर


चिलए और िव ाम क िजए॥ 201॥

सखा बचन सिु न उर ध र धीरा। बास चले सिु मरत रघब


ु ीरा॥
यह सिु ध पाइ नगर नर नारी। चले िबलोकन आरत भारी॥

सखा के वचन सुनकर, दय म धीरज धरकर राम का मरण करते हए भरत डे रे को चले। नगर
के सारे ी-पु ष यह (राम के ठहरने के थान का) समाचार पाकर बड़े आतुर होकर उस थान
को देखने चले।

परदिखना क र करिहं नामा। देिहं कैकइिह खो र िनकामा।


भ र भ र बा र िबलोचन लह । बाम िबधातिह दूषन देह ॥

वे उस थान क प र मा करके णाम करते ह और कैकेयी को बहत दोष देते ह। ने म जल


भर-भर लेते ह और ितकूल िवधाता को दूषण देते ह।

एक सराहिहं भरत सनेह। कोउ कह नप ृ ित िनबाहेउ नेह॥


िनंदिहं आपु सरािह िनषादिह। को किह सकइ िबमोह िबषादिह॥

कोई भरत के नेह क सराहना करते ह और कोई कहते ह िक राजा ने अपना ेम खबू िनबाहा।
सब अपनी िनंदा करके िनषाद क शंसा करते ह। उस समय के िवमोह और िवषाद को कौन
कह सकता है?

ऐिह िबिध राित लोगु सबु जागा। भा िभनस ु ार गदु ारा लागा॥
गरु िह सन
ु ावँ चढ़ाइ सहु ाई ं। नई ं नाव सब मातु चढ़ाई ं॥

इस कार रातभर सब लोग जागते रहे । सबेरा होते ही खेवा लगा। सुंदर नाव पर गु को चढ़ाकर
िफर नई नाव पर सब माताओं को चढ़ाया।
दंड चा र महँ भा सबु पारा। उत र भरत तब सबिह सँभारा॥

चार घड़ी म सब गंगा के पार उतर गए। तब भरत ने उतरकर सबको सँभाला।

दो० - ाति या क र मातु पद बंिद गरु िह िस नाइ।


आग िकए िनषाद गन दी हेउ कटकु चलाइ॥ 202॥

ातःकाल क ि याओं को करके माता के चरण क वंदना कर और गु को िसर नवाकर भरत


ने िवषाद गण को (रा ता िदखलाने के िलए) आगे कर िलया और सेना चला दी॥ 202॥

िकयउ िनषादनाथु अगआ ु ई ं। मातु पालक सकल चलाई ं॥


साथ बोलाइ भाइ लघु दी हा। िब ह सिहत गवनु गरु क हा॥

िनषादराज को आगे करके पीछे सब माताओं क पालिकयाँ चलाई।ं छोटे भाई श ु न को बुलाकर
उनके साथ कर िदया। िफर ा ण सिहत गु ने गमन िकया।

आपु सरु स रिह क ह नामू। सिु मरे लखन सिहत िसय रामू॥
गवने भरत पयादेिहं पाए। कोतल संग जािहं डो रआए॥

तदनंतर आप (भरत) ने गंगा को णाम िकया और ल मण सिहत सीताराम का मरण िकया।


भरत पैदल ही चले। उनके साथ कोतल (िबना सवार के) घोड़े बागडोर से बँधे हए चले जा रहे ह।

कहिहं ससु वे क बारिहं बारा। होइअ नाथ अ व असवारा॥


रामु पयादेिह पायँ िसधाए। हम कहँ रथ गज बािज बनाए॥

उ म सेवक बार-बार कहते ह िक हे नाथ! आप घोड़े पर सवार हो लीिजए। (भरत जवाब देते ह
िक) राम तो पैदल ही गए और हमारे िलए रथ, हाथी और घोड़े बनाए गए ह।

िसर भर जाउँ उिचत अस मोरा। सब त सेवक धरमु कठोरा॥


देिख भरत गित सिु न मदृ ु बानी। सब सेवक गन गरिहं गलानी॥

मुझे उिचत तो ऐसा है िक म िसर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का धम सबसे किठन होता है।
भरत क दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण लािन के मारे गले जा रहे ह।

दो० - भरत तीसरे पहर कहँ क ह बेसु याग।


कहत राम िसय राम िसय उमिग उमिग अनरु ाग॥ 203॥

ेम म उमंग-उमंगकर सीताराम-सीताराम कहते हए भरत ने तीसरे पहर याग म वेश िकया॥


203॥
झलका झलकत पाय ह कैस। पंकज कोस ओस कन जैस॥
भरत पयादेिहं आए आजू। भयउ दिु खत सिु न सकल समाजू॥

उनके चरण म छाले कैसे चमकते ह, जैसे कमल क कली पर ओस क बँदू चमकती ह । भरत
आज पैदल ही चलकर आए ह, यह समाचार सुनकर सारा समाज दुःखी हो गया।

खब र ली ह सब लोग नहाए। क ह नामु ि बेिनिहं आए॥


सिबिध िसतािसत नीर नहाने। िदए दान मिहसरु सनमाने॥

जब भरत ने यह पता पा िलया िक सब लोग नान कर चुके, तब ि वेणी पर आकर उ ह णाम


िकया। िफर िविधपवू क (गंगा-यमुना के) ेत और याम जल म नान िकया और दान देकर
ा ण का स मान िकया।

देखत यामल धवल हलोरे । पल


ु िक सरीर भरत कर जोरे ॥
सकल काम द तीरथराऊ। बेद िबिदत जग गट भाऊ॥

याम और सफेद (यमुना और गंगा क ) लहर को देखकर भरत का शरीर पुलिकत हो उठा और
उ ह ने हाथ जोड़कर कहा - हे तीथराज! आप सम त कामनाओं को पण
ू करनेवाले ह। आपका
भाव वेद म िस और संसार म कट है।

मागउँ भीख यािग िनज धरमू। आरत काह न करइ कुकरमू॥


अस िजयँ जािन सज
ु ान सदु ानी। सफल करिहं जग जाचक बानी॥

म अपना धम (न माँगने का ि य धम) यागकर आप से भीख माँगता हँ। आ मनु य कौन-सा


कुकम नह करता? ऐसा दय म जानकर सुजान उ म दानी जगत म माँगनेवाले क वाणी को
सफल िकया करते ह (अथात वह जो माँगता है, सो दे देते ह)।

दो० - अरथ न धरम न काम िच गित न चहउँ िनरबान।


जनम-जनम रित राम पद यह बरदानु न आन॥ 204॥

मुझे न अथ क िच (इ छा) है, न धम क , न काम क और न म मो ही चाहता हँ। ज म-ज म


म मेरा राम के चरण म ेम हो, बस, यही वरदान माँगता हँ, दूसरा कुछ नह ॥ 204॥

जानहँ रामु कुिटल क र मोही। लोग कहउ गरु सािहब ोही॥


सीता राम चरन रित मोर। अनिु दन बढ़उ अनु ह तोर॥

वयं राम भी भले ही मुझे कुिटल समझ और लोग मुझे गु ोही तथा वामी ोही भले ही कह;
पर सीताराम के चरण म मेरा ेम आपक कृपा से िदन-िदन बढ़ता ही रहे ।
जलदु जनम भ र सरु ित िबसारउ। जाचत जलु पिब पाहन डारउ॥
चातकु रिटन घट घिट जाई। बढ़ म े ु सब भाँित भलाई॥

मेघ चाहे ज मभर चातक क सुध भुला दे और जल माँगने पर वह चाहे व और प थर (ओले) ही


िगराए, पर चातक क रटन घटने से तो उसक बात ही घट जाएगी ( ित ा ही न हो जाएगी)।
उसक तो ेम बढ़ने म ही सब तरह से भलाई है।

कनकिहं बान चढ़इ िजिम दाह। ितिम ि यतम पद नेम िनबाह॥


भरत बचन सिु न माझ ि बेनी। भइ मदृ ु बािन सम
ु ंगल देनी॥

जैसे तपाने से सोने पर आब (चमक) आ जाती है, वैसे ही ि यतम के चरण म ेम का िनयम
िनबाहने से ेमी सेवक का गौरव बढ़ जाता है। भरत के वचन सुनकर बीच ि वेणी म से सुंदर
मंगल देनेवाली कोमल वाणी हई।

तात भरत तु ह सब िबिध साधू। राम चरन अनरु ाग अगाधू॥


बािद गलािन करह मन माह । तु ह सम रामिह कोउ ि य नाह ॥

हे तात भरत! तुम सब कार से साधु हो। राम के चरण म तु हारा अथाह ेम है। तुम यथ ही मन
म लािन कर रहे हो। राम को तु हारे समान ि य कोई नह है।

ु केउ िहयँ हरषु सिु न बेिन बचन अनक


दो० - तनु पल ु ू ल।
भरत ध य किह ध य सरु हरिषत बरषिहं फूल॥ 205॥

ि वेणी के अनुकूल वचन सुनकर भरत का शरीर पुलिकत हो गया, दय म हष छा गया। भरत
ध य ह, कहकर देवता हिषत होकर फूल बरसाने लगे॥ 205॥

मिु दत तीरथराज िनवासी। बैखानस बटु गहृ ी उदासी॥


कहिहं परसपर िमिल दस पाँचा। भरत सनेह सीलु सिु च साँचा॥

तीथराज याग म रहनेवाले वान थ, चारी, गहृ थ और उदासीन (सं यासी) सब बहत ही
आनंिदत ह और दस-पाँच िमलकर आपस म कहते ह िक भरत का ेम और शील पिव और
स चा है।

सनु त राम गन
ु ाम सहु ाए। भर ाज मिु नबर पिहं आए॥
दंड नामु करत मिु न देख।े मूरितमंत भा य िनज लेख॥े

राम के सुंदर गुणसमहू को सुनते हए वे मुिन े भर ाज के पास आए। मुिन ने भरत को दंडवत
णाम करते देखा और उ ह अपना मिू तमान सौभा य समझा।
धाइ उठाइ लाइ उर ली हे। दीि ह असीस कृतारथ क हे॥
आसनु दी ह नाइ िस बैठे। चहत सकुच गहृ ँ जनु भिज पैठे॥

उ ह ने दौड़कर भरत को उठाकर दय से लगा िलया और आशीवाद देकर कृताथ िकया। मुिन ने
उ ह आसन िदया। वे िसर नवाकर इस तरह बैठे मानो भागकर संकोच के घर म घुस जाना चाहते
ह।

मिु न पूँछब कछु यह बड़ सोचू। बोले रिष लिख सीलु सँकोचू॥


सन ु ह भरत हम सब सिु ध पाई। िबिध करतब पर िकछु न बसाई॥

उनके मन म यह बड़ा सोच है िक मुिन कुछ पछ


ू गे (तो म या उ र दँूगा)। भरत के शील और
संकोच को देखकर ऋिष बोले - भरत! सुनो, हम सब खबर पा चुके ह। िवधाता के कत य पर
कुछ वश नह चलता।

दो० - तु ह गलािन िजयँ जिन करह समिु झ मातु करतिू त।


तात कैकइिह दोसु निहं गई िगरा मित धूित॥ 206॥

माता क करततू को समझकर (याद करके) तुम दय म लािन मत करो। हे तात! कैकेयी का
कोई दोष नह है, उसक बुि तो सर वती िबगाड़ गई थी॥ 206॥

यहउ कहत भल किहिह न कोऊ। लोकु बेदु बध ु संमत दोऊ॥


तात तु हार िबमल जसु गाई। पाइिह लोकउ बेदु बड़ाई॥

यह कहते भी कोई भला न कहे गा, य िक लोक और वेद दोन ही िव ान को मा य है। िकंतु हे
तात! तु हारा िनमल यश गाकर तो लोक और वेद दोन बड़ाई पाएँ गे।

लोक बेद संमत सबु कहई। जेिह िपतु देइ राजु सो लहई॥
राउ स य त तु हिह बोलाई। देत राजु सख
ु ु धरमु बड़ाई॥

यह लोक और वेद दोन को मा य है और सब यही कहते ह िक िपता िजसको रा य दे वही पाता


है। राजा स य ती थे, तुमको बुलाकर रा य देते, तो सुख िमलता, धम रहता और बड़ाई होती।

राम गवनु बन अनरथ मूला। जो सिु न सकल िब व भइ सूला॥


सो भावी बस रािन अयानी। क र कुचािल अंतहँ पिछतानी॥

सारे अनथ क जड़ तो राम का वनगमन है, िजसे सुनकर सम त संसार को पीड़ा हई। वह राम
का वनगमन भी भावीवश हआ। बेसमझ रानी तो भावीवश कुचाल करके अंत म पछताई।

तहँउँ तु हार अलप अपराधू। कहै सो अधम अयान असाधू॥


करतेह राजु त तु हिह ना दोषू। रामिह होत सन
ु त संतोषू॥

उसम भी तु हारा कोई तिनक-सा भी अपराध कहे , तो वह अधम, अ ानी और असाधु है। यिद तुम
रा य करते तो भी तु ह दोष न होता। सुनकर राम को भी संतोष ही होता।

दो० - अब अित क हेह भरत भल तु हिह उिचत मत एह।


सकल सम ु ंगल मूल जग रघब
ु र चरन सनेह॥ 207॥

हे भरत! अब तो तुमने बहत ही अ छा िकया; यही मत तु हारे िलए उिचत था। राम के चरण म
ेम होना ही संसार म सम त सुंदर मंगल का मल
ू है॥ 207॥

सो तु हार धनु जीवनु ाना। भू रभाग को तु हिह समाना॥


यह तु हार आचरजु न ताता। दसरथ सअ ु न राम ि य ाता॥

सो वह (राम के चरण का ेम) तो तु हारा धन, जीवन और ाण ही है; तु हारे समान बड़भागी
कौन है? हे तात! तु हारे िलए यह आ य क बात नह है। य िक तुम दशरथ के पु और राम के
यारे भाई हो।

सन
ु ह भरत रघब े पा ु तु ह सम कोउ नाह ॥
ु र मन माह । म
लखन राम सीतिह अित ीती। िनिस सब तु हिह सराहत बीती॥

हे भरत! सुनो, राम के मन म तु हारे समान ेमपा दूसरा कोई नह है। ल मण, राम और सीता
तीन क सारी रात उस िदन अ यंत ेम के साथ तु हारी सराहना करते ही बीती।

जाना मरमु नहात यागा। मगन होिहं तु हर अनरु ागा॥


तु ह पर अस सनेह रघब
ु र क। सख
ु जीवन जग जस जड़ नर क॥

यागराज म जब वे नान कर रहे थे, उस समय मने उनका यह मम जाना। वे तु हारे ेम म


म न हो रहे थे। तुम पर राम का ऐसा ही (अगाध) नेह है जैसा मख
ू (िवषयास ) मनु य का
संसार म सुख के जीवन पर होता है।

यह न अिधक रघब ु ीर बड़ाई। नत कुटुब


ं पाल रघरु ाई॥
तु ह तौ भरत मोर मत एह। धर देह जनु राम सनेह॥

यह रघुनाथ क बहत बड़ाई नह है। य िक रघुनाथ तो शरणागत के कुटुंब भर को पालनेवाले ह।


हे भरत! मेरा यह मत है िक तुम तो मानो शरीरधारी राम के ेम ही हो।

दो० - तु ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदेस।ु


राम भगित रस िसि िहत भा यह समउ गनेस॥ ु 208॥
हे भरत! तु हारे िलए (तु हारी समझ म) यह कलंक है, पर हम सबके िलए तो उपदेश है।
रामभि पी रस क िसि के िलए यह समय गणेश (बड़ा शुभ) हआ है॥ 208॥

नव िबधु िबमल तात जसु तोरा। रघबु र िकंकर कुमदु चकोरा॥


उिदत सदा अँथइिह कबहँ ना। घिटिह न जग नभ िदन िदन दूना॥

हे तात! तु हारा यश िनमल नवीन चं मा है और राम के दास कुमुद और चकोर ह (वह चं मा तो


ितिदन अ त होता और घटता है, िजससे कुमुद और चकोर को दुःख होता है); परं तु यह तु हारा
यश पी चं मा सदा उदय रहे गा; कभी अ त होगा ही नह । जगत पी आकाश म यह घटेगा नह ,
वरन िदन-िदन दूना होगा।

कोक ितलोक ीित अित क रही। भु ताप रिब छिबिह न ह रही॥


ु द सदा सब काह। िसिह न कैकइ करतबु राह॥
िनिस िदन सख

ै ो य पी चकवा इस यश पी चं मा पर अ यंत ेम करे गा और भु राम का ताप पी सय


ल ू
इसक छिव को हरण नह करे गा। यह चं मा रात-िदन सदा सब िकसी को सुख देनेवाला होगा।
कैकेयी का कुकम पी राह इसे ास नह करे गा।

े िपयूषा। गरु अवमान दोष निहं दूषा॥


पूरन राम सु म
राम भगत अब अिमअँ अघाहँ। क हेह सल ु भ सधु ा बसधु ाहँ॥

यह चं मा राम के सुंदर ेम पी अमत ू है। यह गु के अपमान पी दोष से दूिषत नह है।


ृ से पण
तुमने इस यश पी चं मा क सिृ करके प ृ वी पर भी अमत ृ को सुलभ कर िदया। अब राम के
भ इस अमत ृ से त ृ हो ल।

भूप भगीरथ सरु स र आनी। सिु मरत सकल सम


ु ंगल खानी॥
दसरथ गनु गन बरिन न जाह । अिधकु कहा जेिह सम जग नाह ॥

राजा भगीरथ गंगा को लाए, िजन (गंगा) का मरण ही संपण


ू सुंदर मंगल क खान है। दशरथ
के गुणसमहू का तो वणन ही नह िकया जा सकता; अिधक या, िजनक बराबरी का जगत म
कोई नह है।

दो० - जासु सनेह सकोच बस राम गट भए आई।


जे हर िहय नयनिन कबहँ िनरखे नह अघाइ॥ 209॥

िजनके ेम और संकोच (शील) के वश म होकर वयं (सि चदानंदघन) भगवान राम आकर
कट हए, िज ह महादेव अपने दय के ने से कभी अघाकर नह देख पाए (अथात िजनका
व प दय म देखते-देखते िशव कभी त ृ नह हए)॥ 209॥
क रित िबधु तु ह क ह अनूपा। जहँ बस राम म े मग ृ पा॥
तात गलािन करह िजयँ जाएँ । डरह द र िह पारसु पाएँ ॥

(परं तु उनसे भी बढ़कर) तुमने क ित पी अनुपम चं मा को उ प न िकया, िजसम राम ेम ही


िहरन के (िच के) प म बसता है। हे तात! तुम यथ ही दय म लािन कर रहे हो। पारस
पाकर भी तुम द र ता से डर रहे हो!

सन
ु ह भरत हम झूठ न कहह । उदासीन तापस बन रहह ॥
सब साधन कर सफ ु ल सहु ावा। लखन राम िसय दरसनु पावा॥

हे भरत! सुनो, हम झठ
ू नह कहते। हम उदासीन ह (िकसी का प नह करते), तप वी ह
(िकसी क मँुह-देखी नह कहते) और वन म रहते ह (िकसी से कुछ योजन नह रखते)। सब
साधन का उ म फल हम ल मण, राम और सीता का दशन ा हआ।

तेिह फल कर फलु दरस तु हारा। सिहत याग सभु ाग हमारा॥


भरत ध य तु ह जसु जगु जयऊ। किह अस म े मगन मिु न भयऊ॥

(सीता-ल मण सिहत रामदशन प) उस महान फल का परम फल यह तु हारा दशन है!


यागराज समेत हमारा बड़ा भा य है। हे भरत! तुम ध य हो, तुमने अपने यश से जगत को जीत
िलया है। ऐसा कहकर मुिन ेम म म न हो गए।

सिु न मिु न बचन सभासद हरषे। साधु सरािह सम


ु न सरु बरषे॥
ध य ध य धिु न गगन पयागा। सिु न सिु न भरतु मगन अनरु ागा॥

भर ाज मुिन के वचन सुनकर सभासद हिषत हो गए। 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हए
देवताओं ने फूल बरसाए। आकाश म और यागराज म 'ध य, ध य' क विन सुन-सुनकर भरत
ेम म म न हो रहे ह।

दो० - पल
ु क गात िहयँ रामु िसय सजल सरो ह नैन।
क र नामु मिु न मंडिलिह बोले गदगद बैन॥ 210॥

भरत का शरीर पुलिकत है, दय म सीताराम ह और कमल के समान ने ( ेमा ु के) जल से


भरे ह। वे मुिनय क मंडली को णाम करके ग द वचन बोले - ॥ 210॥

मिु न समाजु अ तीरथराजू। साँिचहँ सपथ अघाइ अकाजू॥


एिहं थल ज िकछु किहअ बनाई। एिह सम अिधक न अघ अधमाई॥

मुिनय का समाज है और िफर तीथराज है। यहाँ स ची सौगंध खाने से भी भरपरू हािन होती है।
इस थान म यिद कुछ बनाकर कहा जाए, तो इसके समान कोई बड़ा पाप और नीचता न होगी।
तु ह सब य कहउँ सितभाऊ। उर अंतरजामी रघरु ाऊ॥
मोिह न मातु करतब कर सोचू। निहं दख
ु ु िजयँ जगु जािनिह पोचू॥

म स चे भाव से कहता हँ। आप सव ह, और रघुनाथ दय के भीतर क जाननेवाले ह (म कुछ


भी अस य कहँगा तो आपसे और उनसे िछपा नह रह सकता)। मुझे माता कैकेयी क करनी का
कुछ भी सोच नह है। और न मेरे मन म इसी बात का दुःख है िक जगत मुझे नीच समझेगा।

नािहन ड िबग रिह परलोकू। िपतह मरन कर मोिह न सोकू॥


सक
ु ृ त सज
ु स भ र भअ
ु न सहु ाए। लिछमन राम स रस सत
ु पाए॥

न यही डर है िक मेरा परलोक िबगड़ जाएगा और न िपता के मरने का ही मुझे शोक है। य िक
उनका संुदर पु य और सुयश िव भर म सुशोिभत है। उ ह ने राम-ल मण-सरीखे पु पाए।

राम िबरहँ तिज तनु छनभंगू। भूप सोच कर कवन संगू॥


राम लखन िसय िबनु पग पनह । क र मिु न बेष िफरिहं बन बनह ॥

िफर िज ह ने राम के िवरह म अपने णभंगुर शरीर को याग िदया, ऐसे राजा के िलए सोच
करने का कौन संग है? (सोच इसी बात का है िक) राम, ल मण और सीता पैर म िबना जत ू ी
के मुिनय का वेष बनाए वन-वन म िफरते ह।

दो० - अिजन बसन फल असन मिह सयन डािस कुस पात।


बिस त तर िनत सहत िहम आतप बरषा बात॥ 211॥

वे व कल व पहनते ह, फल का भोजन करते ह, प ृ वी पर कुश और प े िबछाकर सोते ह और


व ृ के नीचे िनवास करके िन य सद , गम , वषा और हवा सहते ह॥ 211॥

एिह दख
ु दाहँ दहइ िदन छाती। भूख न बासर नीद न राती॥
एिह कुरोग कर औषधु नाह । सोधेउँ सकल िब व मन माह ॥

इसी दुःख क जलन से िनरं तर मेरी छाती जलती रहती है। मुझे न िदन म भख
ू लगती है, न रात
को न द आती है। मने मन-ही-मन सम त िव को खोज डाला, पर इस कुरोग क औषध कह
नह है।

मातु कुमत बढ़ई अघ मूला। तेिहं हमार िहत क ह बँसूला॥


किल कुकाठ कर क ह कुजं ।ू गािड़ अविध पिढ़ किठन कुमं ॥ू

माता का कुमत (बुरा िवचार) पाप का मल


ू बढ़ई है। उसने हमारे िहत का बसल
ू ा बनाया। उससे
कलह पी कुकाठ का कुयं बनाया और चौदह वष क अविध पी किठन कुमं पढ़कर उस यं
को गाड़ िदया। (यहाँ माता का कुिवचार बढ़ई है, भरत को रा य बसल
ू ा है, राम का वनवास
कुयं है और चौदह वष क अविध कुमं है)।

मोिह लिग यह कुठाटु तेिहं ठाटा। घालेिस सब जगु बारहबाटा॥


िमटइ कुजोगु राम िफ र आएँ । बसइ अवध निहं आन उपाएँ ॥

मेरे िलए उसने यह सारा कुठाट (बुरा साज) रचा और सारे जगत को बारहबाट (िछ न-िभ न)
करके न कर डाला। यह कुयोग राम के लौट आने पर ही िमट सकता है और तभी अयो या बस
सकती है, दूसरे िकसी उपाय से नह ।

भरत बचन सिु न मिु न सख


ु ु पाई। सबिहं क ि ह बह भाँित बड़ाई॥
तात करह जिन सोचु िबसेषी। सब दख ु ु िमिटिह राम पग देखी॥

भरत के वचन सुनकर मुिन ने सुख पाया और सभी ने उनक बहत कार से बड़ाई क । (मुिन ने
कहा -) हे तात! अिधक सोच मत करो। राम के चरण का दशन करते ही सारा दुःख िमट
जाएगा।

दो० - क र बोधु मिु नबर कहेउ अितिथ म े ि य होह।


कंद मूल फल फूल हम देिहं लेह क र छोह॥ 212॥

इस कार मुिन े भर ाज ने उनका समाधान करके कहा - अब आप लोग हमारे ेम ि य


अितिथ बिनए और कृपा करके कंद-मल
ू , फल-फूल जो कुछ हम द, वीकार क िजए॥ 212॥

सिु न मिु न बचन भरत िहयँ सोचू। भयउ कुअवसर किठन सँकोचू॥
जािन गु इ गरु िगरा बहोरी। चरन बंिद बोले कर जोरी॥

मुिन के वचन सुनकर भरत के दय म सोच हआ िक यह बेमौके बड़ा बेढब संकोच आ पड़ा! िफर
गु जन क वाणी को मह वपण ू (आदरणीय) समझकर, चरण क वंदना करके हाथ जोड़कर
बोले -

िसर ध र आयसु क रअ तु हारा। परम धरम यह नाथ हमारा॥


भरत बचन मिु नबर मन भाए। सिु च सेवक िसष िनकट बोलाए॥

हे नाथ! आपक आ ा को िसर चढ़ाकर उसका पालन करना, यह हमारा परम धम है। भरत के ये
वचन मुिन े के मन को अ छे लगे। उ ह ने िव ासपा सेवक और िश य को पास बुलाया।

चािहअ क ि ह भरत पहनाई। कंद मूल फल आनह जाई।


भलेिहं नाथ किह ित ह िसर नाए। मिु दत िनज िनज काज िसधाए॥
(और कहा िक) भरत क पहनई करनी चािहए। जाकर कंद, मल ू और फल लाओ। उ ह ने 'हे
नाथ! बहत अ छा' कहकर िसर नवाया और तब वे बड़े आनंिदत होकर अपने-अपने काम को चल
िदए।

मिु निह सोच पाहन बड़ नेवता। तिस पूजा चािहअ जस देवता॥


सिु न रिध िसिध अिनमािदक आई ं। आयसु होइ सो करिहं गोसाई ं॥

मुिन को िचंता हई िक हमने बहत बड़े मेहमान को योता है। अब जैसा देवता हो, वैसी ही उसक
पज
ू ा भी होनी चािहए। यह सुनकर ऋि याँ और अिणमािद िसि याँ आ गई ं (और बोल -) हे
गोसाई!ं जो आपक आ ा हो सो हम कर।

दो० - राम िबरह याकुल भरतु सानज


ु सिहत समाज।
पहनाई क र हरह म कहा मिु दत मिु नराज॥ 213॥

मुिनराज ने स न होकर कहा - छोटे भाई श ु न और समाज सिहत भरत राम के िवरह म
याकुल ह, इनक पहनाई (आित य-स कार) करके इनके म को दूर करो॥ 213॥

रिध िसिध िसर ध र मिु नबर बानी। बड़भािगिन आपिु ह अनमु ानी॥
कहिहं परसपर िसिध समदु ाई। अतिु लत अितिथ राम लघु भाई॥

ऋि -िसि ने मुिनराज क आ ा को िसर चढ़ाकर अपने को बड़भािगनी समझा। सब िसि याँ


आपस म कहने लग - राम के छोटे भाई भरत ऐसे अितिथ ह, िजनक तुलना म कोई नह आ
सकता।

मिु न पद बंिद क रअ सोइ आजू। होइ सख


ु ी सब राज समाजू॥
अस किह रचेउ िचर गहृ नाना। जेिह िबलोिक िबलखािहं िबमाना॥

अतः मुिन के चरण क वंदना करके आज वही करना चािहए िजससे सारा राज-समाज सुखी हो।
ऐसा कहकर उ ह ने बहत-से सुंदर घर बनाए, िज ह देखकर िवमान भी िवलखते ह (लजा जाते
ह)।

भोग िबभूित भू र भ र राखे। देखत िज हिह अमर अिभलाषे॥


दास दास साजु सब ली ह। जोगवत रहिहं मनिह मनु दी ह॥

उन घर म बहत-से भोग (इंि य के िवषय) और ऐ य (ठाट-बाट) का सामान भरकर रख िदया,


िज ह देखकर देवता भी ललचा गए। दासी-दास सब कार क साम ी िलए हए मन लगाकर
उनके मन को देखते रहते ह (अथात उनके मन क िच के अनुसार करते रहते ह)।

सब समाजु सिज िसिध पल माह । जे सख


ु सरु परु सपनेहँ नाह ॥
थमिहं बास िदए सब केही। संदु र सख
ु द जथा िच जेही॥

जो सुख के सामान वग म भी व न म भी नह ह ऐसे सब सामान िसि य ने पल भर म सजा


िदए। पहले तो उ ह ने सब िकसी को, िजसक जैसी िच थी वैसे ही, सुंदर सुखदायक िनवास
थान िदए।

दो० - बह र सप रजन भरत कहँ रिष अस आयसु दी ह।


िबिध िबसमय दायकु िबभव मिु नबर तपबल क ह॥ 214॥

और िफर कुटुंब सिहत भरत को िदए, य िक ऋिष भर ाज ने ऐसी ही आ ा दे रखी थी। (भरत
चाहते थे िक उनके सब संिगय को आराम िमले, इसिलए उनके मन क बात जानकर मुिन ने
पहले उन लोग को थान देकर पीछे सप रवार भरत को थान देने के िलए आ ा दी थी।)
मुिन े ने तपोबल से ा को भी चिकत कर देनेवाला वैभव रच िदया॥ 214॥

मिु न भाउ जब भरत िबलोका। सब लघु लगे लोकपित लोका॥


सख ु समाजु निहं जाइ बखानी। देखत िबरित िबसारिहं यानी॥

जब भरत ने मुिन के भाव को देखा, तो उसके सामने उ ह (इं , व ण, यम, कुबेर आिद) सभी
लोकपाल के लोक तु छ जान पड़े । सुख क साम ी का वणन नह हो सकता, िजसे देखकर
ानी लोग भी वैरा य भल
ू जाते ह।

आसन सयन सब ु सन िबताना। बन बािटका िबहग मग


ृ नाना॥
सरु िभ फूल फल अिमअ समाना। िबमल जलासय िबिबध िबधाना॥

आसन, सेज, संुदर व , चँदोवे, वन, बगीचे, भाँित-भाँित के प ी और पशु, सुगंिधत फूल और
ृ के समान वािद फल, अनेक कार के (तालाब, कुएँ , बावली आिद) िनमल जलाशय,
अमत

असन पान सिु च अिमअ अमी से। देिख लोग सकुचात जमी से॥
सरु सरु भी सरु त सबही क। लिख अिभलाषु सरु े स सची क॥

तथा अमत ृ के भी अमत


ृ -सरीखे पिव खान-पान के पदाथ थे, िज ह देखकर सब लोग संयमी
पु ष (िवर मुिनय ) क भाँित सकुचा रहे ह। सभी के डे र म (मनोवांिछत व तु देनेवाले)
कामधेनु और क पव ृ ह, िज ह देखकर इं और इं ाणी को भी अिभलाषा होती है (उनका भी
मन ललचा जाता है)।

रतु बसंत बह ि िबध बयारी। सब कहँ सल


ु भ पदारथ चारी॥
क चंदन बिनतािदक भोगा। देिख हरष िबसमय बस लोगा॥

वसंत ऋतु है। शीतल, मंद, सुगंध तीन कार क हवा बह रही है। सभी को (धम, अथ, काम और
मो ) चार पदाथ सुलभ ह। माला, चंदन, ी आिद भोग को देखकर सब लोग हष और िवषाद
के वश हो रहे ह। (हष तो भोग-सामि य को और मुिन के तप: भाव को देखकर होता है और
िवषाद इस बात से होता है िक राम के िवयोग म िनयम- त से रहनेवाले हम लोग भोग-िवलास म
य आ फँसे; कह इनम आस होकर हमारा मन िनयम- त को न याग दे )।

दो० - संपित चकई भरतु चक मिु न आयस खेलवार।


तेिह िनिस आ म िपंजराँ राखे भा िभनस
ु ार॥ 215॥

संपि (भोग-िवलास क साम ी) चकवी है और भरत चकवा ह और मिु न क आ ा खेल है,


िजसने उस रात को आ म पी िपंजड़े म दोन को बंद कर रखा और ऐसे ही सबेरा हो गया।
(जैसे िकसी बहेिलए के ारा एक िपंजड़े म रखे जाने पर भी चकवी-चकवे का रात को
संयोग नह होता, वैसे ही भर ाज क आ ा से रात भर भोग-सामि य के साथ रहने पर
भी भरत ने मन से भी उनका पश तक नह िकया।)॥ 215॥
क ह िनम जनु तीरथराजा। नाई मिु निह िस सिहत समाजा।
रिष आयसु असीस िसर राखी। क र दंडवत िबनय बह भाषी॥

( ातःकाल) भरत ने तीथराज म नान िकया और समाज सिहत मुिन को िसर नवाकर और ऋिष
क आ ा तथा आशीवाद को िसर चढ़ाकर दंडवत करके बहत िवनती क ।

पथ गित कुसल साथ सब ली ह। चले िच कूटिहं िचतु दी ह॥


रामसखा कर दी ह लागू। चलत देह ध र जनु अनरु ागू॥

तदनंतर रा ते क पहचान रखनेवाले लोग (कुशल पथ दशक ) के साथ सब लोग को िलए हए


भरत िच कूट म िच लगाए चले। भरत रामसखा गुह के हाथ म हाथ िदए हए ऐसे जा रहे ह,
मानो सा ात ेम ही शरीर धारण िकए हए हो।

निहं पद ान सीस निहं छाया। मे ु नेमु तु धरमु अमाया॥


लखन राम िसय पंथ कहानी। पूँछत सखिह कहत मदृ ु बानी॥

न तो उनके पैर म जत ू े ह, और न िसर पर छाया है। उनका ेम िनयम, त और धम िन कपट


(स चा) है। वे सखा िनषादराज से ल मण, राम और सीता के रा ते क बात पछ
ू ते ह, और वह
कोमल वाणी से कहता है।

राम बास थल िबटप िबलोक। उर अनरु ाग रहत निहं रोक॥


देिख दसा सरु ब रसिहं फूला। भइ मदृ ु मिह मगु मंगल मूला॥

राम के ठहरने क जगह और व ृ को देखकर उनके दय म ेम रोके नह कता। भरत क


यह दशा देखकर देवता फूल बरसाने लगे। प ृ वी कोमल हो गई और माग मंगल का मल
ू बन
गया।

दो० - िकएँ जािहं छाया जलद सख


ु द बहइ बर बात।
तस मगु भयउ न राम कहँ जस भा भरतिह जात॥ 216॥

बादल छाया िकए जा रहे ह, सुख देनेवाली सुंदर हवा बह रही है। भरत के जाते समय माग जैसा
सुखदायक हआ, वैसा राम को भी नह हआ था॥ 216॥

जड़ चेतन मग जीव घनेरे। जे िचतए भु िज ह भु हेरे॥


ते सब भए परम पद जोगू। भरत दरस मेटा भव रोगू॥

रा ते म असं य जड़-चेतन जीव थे। उनम से िजनको भु राम ने देखा, अथवा िज ह ने भु राम
को देखा वे सब (उसी समय) परमपद के अिधकारी हो गए। परं तु अब भरत के दशन ने तो उनका
भव (ज म-मरण) पी रोग िमटा ही िदया। (रामदशन से तो वे परमपद के अिधकारी ही हए थे,
परं तु भरत दशन से उ ह वह परमपद ा हो गया।)

यह बिड़ बात भरत कइ नाह । सिु मरत िजनिह रामु मन माह ॥


बारक राम कहत जग जेऊ। होत तरन तारन नर तेऊ॥

भरत के िलए यह कोई बड़ी बात नह है, िज ह राम वयं अपने मन म मरण करते रहते ह।
जगत म जो भी मनु य एक बार 'राम' कह लेते ह, वे भी तरने-तारनेवाले हो जाते ह।

भरतु राम ि य पिु न लघु ाता। कस न होइ मगु मंगलदाता॥


िस साधु मिु नबर अस कहह । भरतिह िनरिख हरषु िहयँ लहह ॥

िफर भरत तो राम के यारे तथा उनके छोटे भाई ठहरे । तब भला उनके िलए माग मंगल (सुख) -
दायक कैसे न हो? िस , साधु और े मुिन ऐसा कह रहे ह और भरत को देखकर दय म
हष-लाभ करते ह।

देिख भाउ सरु े सिह सोचू। जगु भल भलेिह पोच कहँ पोचू॥
गरु सन कहेउ क रअ भु सोई। रामिह भरतिह भेट न होई॥

भरत के (इस ेम के) भाव को देखकर देवराज इं को सोच हो गया (िक कह इनके ेम-वश
राम लौट न जाएँ और हमारा बना-बनाया काम िबगड़ जाए)। संसार भले के िलए भला और बुरे के
िलए बुरा है (मनु य जैसा आप होता है जगत उसे वैसा ही िदखता है)। उसने गु बहृ पित से कहा
- हे भो! वही उपाय क िजए िजससे राम और भरत क भट ही न हो।

े बस भरत स म
दो० - रामु सँकोची म े पयोिध।
बनी बात बेगरन चहित क रअ जतनु छलु सोिध॥ 217॥
राम संकोची और ेम के वश ह और भरत ेम के समु ह। बनी-बनाई बात िबगड़ना चाहती है,
इसिलए कुछ छल ढूँढ़ कर इसका उपाय क िजए॥ 217॥

बचन सनु त सरु गु मस


ु क
ु ाने। सहसनयन िबनु लोचन जाने॥
मायापित सेवक सन माया। करइ त उलिट परइ सरु राया॥

इं के वचन सुनते ही देवगु बहृ पित मुसकराए। उ ह ने हजार ने वाले इं को ( ान पी)


ू ) समझा और कहा - हे देवराज! माया के वामी राम के सेवक के साथ कोई
ने रिहत (मख
माया करता है तो वह उलटकर अपने ही ऊपर आ पड़ती है।

तब िकछु क ह राम ख जानी। अब कुचािल क र होइिह हानी।


ु ु सरु े स रघन
सन ु ाथ सभ
ु ाऊ। िनज अपराध रसािहं न काऊ॥

उस समय (िपछली बार) तो राम का ख जानकर कुछ िकया था। परं तु इस समय कुचाल करने
से हािन ही होगी। हे देवराज! रघुनाथ का वभाव सुनो, वे अपने ित िकए हए अपराध से कभी
नह होते।

जो अपराधु भगत कर करई। राम रोष पावक सो जरई॥


लोकहँ बेद िबिदत इितहासा। यह मिहमा जानिहं दरु बासा॥

पर जो कोई उनके भ का अपराध करता है, वह राम क ोधाि न म जल जाता है। लोक और
वेद दोन म इितहास (कथा) िस है। इस मिहमा को दुवासा जानते ह।

भरत स रस को राम सनेही। जगु जप राम रामु जप जेही॥

सारा जगत राम को जपता है, वे राम िजनको जपते ह, उन भरत के समान राम का ेमी कौन
होगा?

दो० - मनहँ न आिनअ अमरपित रघबु र भगत अकाज।ु


अजसु लोक परलोक दख ु िदन िदन सोक समाज॥ु 218॥

हे देवराज! रघुकुल े राम के भ का काम िबगाड़ने क बात मन म भी न लाइए। ऐसा करने


से लोक म अपयश और परलोक म दुःख होगा और शोक का सामान िदन िदन बढ़ता ही चला
जाएगा॥ 218॥

ु ु सरु े स उपदेसु हमारा। रामिह सेवकु परम िपआरा॥


सन
मानत सख ु ु सेवक सेवकाई ं। सेवक बैर बै अिधकाई ं॥
हे देवराज! हमारा उपदेश सुनो। राम को अपना सेवक परम ि य है। वे अपने सेवक क सेवा से
सुख मानते ह और सेवक के साथ वैर करने से बड़ा भारी वैर मानते ह।

ज िप सम निहं राग न रोषू। गहिहं न पाप पूनु गन


ु दोषू॥
करम धान िब व क र राखा। जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥

य िप वे सम ह - उनम न राग है, न रोष है और न वे िकसी का पाप-पु य और गुण-दोष ही हण


करते ह। उ ह ने िव म कम को ही धान कर रखा है। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल
भोगता है।

तदिप करिहं सम िबषम िबहारा। भगत अभगत दय अनसु ारा॥


अगनु अलेप अमान एकरस। रामु सगन े बस॥
ु भए भगत म

तथािप वे भ और अभ के दय के अनुसार सम और िवषम यवहार करते ह (भ को ेम से


गले लगा लेते ह और अभ को मारकर तार देते ह)। गुणरिहत, िनलप, मानरिहत और सदा
एकरस भगवान राम भ के ेमवश ही सगुण हए ह।

राम सदा सेवक िच राखी। बेद परु ान साधु सरु साखी॥


अस िजयँ जािन तजह कुिटलाई। करह भरत पद ीित सहु ाई॥

राम सदा अपने सेवक (भ ) क िच रखते आए ह। वेद, पुराण, साधु और देवता इसके सा ी
ह। ऐसा दय म जानकर कुिटलता छोड़ दो और भरत के चरण म सुंदर ीित करो।

दो० - राम भगत परिहत िनरत पर दख


ु दख
ु ी दयाल।
भगत िसरोमिन भरत त जिन डरपह सरु पाल॥ 219॥

हे देवराज इं ! राम के भ सदा दूसर के िहत म लगे रहते ह, वे दूसर के दुःख से दुःखी और
दयालु होते ह। िफर भरत तो भ के िशरोमिण ह, उनसे िबलकुल न डरो॥ 219॥

स यसंध भु सरु िहतकारी। भरत राम आयस अनस ु ारी॥


वारथ िबबस िबकल तु ह होह। भरत दोसु निहं राउर मोह॥

भु राम स य ित और देवताओं का िहत करनेवाले ह। और भरत राम क आ ा के अनुसार


चलनेवाले ह। तुम यथ ही वाथ के िवशेष वश होकर याकुल हो रहे हो। इसम भरत का कोई
दोष नह , तु हारा ही मोह है।

सिु न सरु बर सरु गरु बर बानी। भा मोदु मन िमटी गलानी॥


बरिष सून हरिष सरु राऊ। लगे सराहन भरत सभ ु ाऊ॥
देवगु बहृ पित क े वाणी सुनकर इं के मन म बड़ा आनंद हआ और उनक िचंता िमट
गई। तब हिषत होकर देवराज फूल बरसाकर भरत के वभाव क सराहना करने लगे।

एिह िबिध भरत चले मग जाह । दसा देिख मिु न िस िसहाह ॥


जबिह रामु किह लेिहं उसासा। उमगत मे ु मनहँ चह पासा॥

इस कार भरत माग म चले जा रहे ह। उनक ( ेममयी) दशा देखकर मुिन और िस लोग भी
िसहाते ह। भरत जब भी 'राम' कहकर लंबी साँस लेते ह, तभी मानो चार ओर ेम उमड़ पड़ता है।

े ु न जाइ बखाना॥
विहं बचन सिु न कुिलस पषाना। परु जन म
बीच बास क र जमन ु िहं आए। िनरिख नी लोचन जल छाए॥

उनके ( ेम और दीनता से पण
ू ) वचन को सुनकर व और प थर भी िपघल जाते ह।
अयो यावािसय का ेम कहते नह बनता। बीच म िनवास (मुकाम) करके भरत यमुना के तट
पर आए। यमुना का जल देखकर उनके ने म जल भर आया।

दो० - रघब
ु र बरन िबलोिक बर बा र समेत समाज।
होत मगन बा रिध िबरह चढ़े िबबेक जहाज॥ 220॥

रघुनाथ के ( याम) रं ग का संुदर जल देखकर सारे समाज सिहत भरत ( ेम िव ल होकर) राम
के िवरह पी समु म डूबते-डूबते िववेक पी जहाज पर चढ़ गए (अथात यमुना का यामवण
जल देखकर सब लोग यामवण भगवान के ेम म िव ल हो गए और उ ह न पाकर िवरह यथा
से पीिड़त हो गए; तब भरत को यह यान आया िक ज दी चलकर उनके सा ात दशन करगे,
इस िववेक से वे िफर उ सािहत हो गए)॥ 220॥

जमन ु तीर तेिह िदन क र बासू। भयउ समय सम सबिह सप ु ासू॥


राितिहं घाट घाट क तरनी। आई ं अगिनत जािहं न बरनी॥

उस िदन यमुना के िकनारे िनवास िकया। समयानुसार सबके िलए (खान-पान आिद क ) सुंदर
यव था हई। (िनषादराज का संकेत पाकर) रात- ही-रात म घाट-घाट क अगिणत नाव वहाँ आ
गई ं, िजनका वणन नह िकया जा सकता।

ात पार भए एकिह खेवाँ। तोषे रामसखा क सेवाँ॥


चले नहाइ निदिह िसर नाई। साथ िनषादनाथ दोउ भाई॥

सबेरे एक ही खेवे म सब लोग पार हो गए और राम के सखा िनषादराज क इस सेवा से संतु


हए। िफर नान करके और नदी को िसर नवाकर िनषादराज के साथ दोन भाई चले।

आग मिु नबर बाहन आछ। राजसमाज जाइ सबु पाछ॥


तेिह पाछ दोउ बंधु पयाद। भूषन बसन बेष सिु ठ साद॥

आगे अ छी-अ छी सवा रय पर े मुिन ह, उनके पीछे सारा राजसमाज जा रहा है। उसके पीछे
दोन भाई बहत सादे भषू ण-व और वेष से पैदल चल रहे ह।

सेवक सु द सिचवसत ु साथा। सिु मरत लखनु सीय रघन


ु ाथा॥
े नामा॥
जहँ जहँ राम बास िब ामा। तहँ तहँ करिहं स म

सेवक, िम और मं ी के पु उनके साथ ह। ल मण, सीता और रघुनाथ का मरण करते जा रहे


ह। जहाँ-जहाँ राम ने िनवास और िव ाम िकया था, वहाँ-वहाँ वे ेमसिहत णाम करते ह।

दो० - मगबासी नर ना र सिु न धाम काम तिज धाइ।


देिख स प सनेह सब मिु दत जनम फलु पाइ॥ 221॥

माग म रहनेवाले ी-पु ष यह सुनकर घर और काम-काज छोड़कर दौड़ पड़ते ह और उनके


प (स दय) और ेम को देखकर वे सब ज म लेने का फल पाकर आनंिदत होते ह॥ 221॥

कहिहं स मे एक एक पाह । रामु लखनु सिख होिहं िक नाह ॥


बय बपु बरन पु सोइ आली। सीलु सनेह स रस सम चाली॥

गाँव क ि याँ एक-दूसरे से ेमपवू क कहती ह - सखी! ये राम-ल मण ह िक नह ? हे सखी!


इनक अव था, शरीर और रं ग- प तो वही है। शील, नेह उ ह के स श है और चाल भी उ ह
के समान है।

बेषु न सो सिख सीय न संगा। आग अनी चली चतरु ं गा॥


निहं स न मख ु मानस खेदा। सिख संदहे होइ एिहं भेदा॥

परं तु सखी! इनका न तो वह वेष (व कलव धारी मुिनवेष) है, न सीता ही संग ह। और इनके
आगे चतुरंिगणी सेना चली जा रही है। िफर इनके मुख स न नह ह, इनके मन म खेद है। हे
सखी! इसी भेद के कारण संदेह होता है।

तासु तरक ितयगन मन मानी। कहिहं सकल तेिह सम न सयानी॥


तेिह सरािह बानी फु र पूजी। बोली मधरु बचन ितय दूजी॥

उसका तक (युि ) अ य ि य के मन भाया। सब कहती ह िक इसके समान सयानी (चतुर)


कोई नह है। उसक सराहना करके और 'तेरी वाणी स य है' इस कार उसका स मान करके
दूसरी ी मीठे वचन बोली।

े बस कथा संगू। जेिह िबिध राम राज रस भंगू॥


किह स म
भरतिह बह र सराहन लागी। सील सनेह सभ
ु ाय सभ
ु ागी॥

राम के राजितलक का आनंद िजस कार से भंग हआ था वह सब कथा संग ेमपवू क कहकर
िफर वह भा यवती ी भरत के शील, नेह और वभाव क सराहना करने लगी।

दो० - चलत पयाद खात फल िपता दी ह तिज राज।ु


जात मनावन रघबु रिह भरत स रस को आज॥ु 222॥

(वह बोली -) देखो, ये भरत िपता के िदए हए रा य को यागकर पैदल चलते और फलाहार करते
हए राम को मनाने के िलए जा रहे ह। इनके समान आज कौन है?॥ 222॥

भायप भगित भरत आचरनू। कहत सन ु त दखु दूषन हरनू॥


जो िकछु कहब थोर सिख सोई। राम बंधु अस काहे न होई॥

भरत का भाईपना, भि और इनके आचरण कहने और सुनने से दुःख और दोष के हरनेवाले ह।


हे सखी! उनके संबंध म जो कुछ भी कहा जाए, वह थोड़ा है। राम के भाई ऐसे य न ह ।

हम सब सानज ु भरतिह देख। भइ ह ध य जुबती जन लेख॥


ु देिख दसा पिछताह । कैकइ जनिन जोगु सत
सिु न गन ु ु नाह ॥

छोटे भाई श ु न सिहत भरत को देखकर हम सब भी आज ध य (बड़भािगनी) ि य क िगनती


म आ गई ं। इस कार भरत के गुण सुनकर और उनक दशा देखकर ि याँ पछताती ह और
कहती ह - यह पु कैकेयी-जैसी माता के यो य नह है।

कोउ कह दूषनु रािनिह नािहन। िबिध सबु क ह हमिह जो दािहन॥


कहँ हम लोक बेद िबिध हीनी। लघु ितय कुल करतिू त मलीनी॥

कोई कहती है - इसम रानी का भी दोष नह है। यह सब िवधाता ने ही िकया है, जो हमारे
अनुकूल है। कहाँ तो हम लोक और वेद दोन क िविध (मयादा) से हीन, कुल और करतत ू दोन
से मिलन तु छ ि याँ,

बसिहं कुदेस कुगाँव कुबामा। कहँ यह दरसु पु य प रनामा॥


अस अनंदु अिच रजु ित ामा। जनु म भूिम कलपत जामा॥

जो बुरे देश (जंगली ांत) और बुरे गाँव म बसती ह और (ि य म भी) नीच ि याँ ह! और कहाँ
यह महान पु य का प रणाम व प इनका दशन! ऐसा ही आनंद और आ य गाँव-गाँव म हो रहा
है। मानो म भिू म म क पव ृ उग गया हो।

ु उे मग लोग ह कर भाग।ु
दो० - भरत दरसु देखत खल
जनु िसंघलबािस ह भयउ िबिध बस सल
ु भ याग॥ु 223॥

भरत का व प देखते ही रा ते म रहनेवाले लोग के भा य खुल गए! मानो दैवयोग से


िसंहल ीप के बसने वाल को तीथराज याग सुलभ हो गया हो!॥ 223॥

िनज गनु सिहत राम गन ु गाथा। सनु त जािहं सिु मरत रघन
ु ाथा॥
तीरथ मिु न आ म सरु धामा। िनरिख िनम जिहं करिहं नामा॥

(इस कार) अपने गुण सिहत राम के गुण क कथा सुनते और रघुनाथ को मरण करते हए
भरत चले जा रहे ह। वे तीथ देखकर नान और मुिनय के आ म तथा देवताओं के मंिदर
देखकर णाम करते ह,

मनह मन मागिहं ब एह। सीय राम पद पदम ु सनेह॥


िमलिहं िकरात कोल बनबासी। बैखानस बटु जती उदासी॥

और मन-ही-मन यह वरदान माँगते ह िक सीताराम के चरण कमल म ेम हो। माग म भील,


कोल आिद वनवासी तथा वान थ, चारी, सं यासी और िवर िमलते ह।

क र नामु पूँछिहं जेिह तेही। केिह बन लखनु रामु बैदहे ी॥


ते भु समाचार सब कहह । भरतिह देिख जनम फलु लहह ॥

उनम से िजस-ितस से णाम करके पछू ते ह िक ल मण, राम और जानक िकस वन म ह? वे


भु के सब समाचार कहते ह और भरत को देखकर ज म का फल पाते ह।

जे जन कहिहं कुसल हम देख।े ते ि य राम लखन सम लेख॥े


एिह िबिध बूझत सबिह सब
ु ानी। सन ु त राम बनबास कहानी॥

जो लोग कहते ह िक हमने उनको कुशलपवू क देखा है, उनको ये राम-ल मण के समान ही
ू ते और राम के वनवास क कहानी सुनते जाते
यारे मानते ह। इस कार सबसे सुंदर वाणी से पछ
ह।

दो० - तेिह बासर बिस ातह चले सिु म र रघन


ु ाथ।
राम दरस क लालसा भरत स रस सब साथ॥ 224॥

उस िदन वह ठहरकर दूसरे िदन ातःकाल ही रघुनाथ का मरण करके चले। साथ के सब
लोग को भी भरत के समान ही राम के दशन क लालसा (लगी हई) है॥ 224॥

मंगल सगनु होिहं सब काह। फरकिहं सख


ु द िबलोचन बाह॥
भरतिह सिहत समाज उछाह। िमिलहिहं रामु िमिटिह दख
ु दाह॥
सबको मंगलसच ू क शकुन हो रहे ह। सुख देनेवाले (पु ष के दािहने और ि य के बाएँ ) ने
और भुजाएँ फड़क रही ह। समाज सिहत भरत को उ साह हो रहा है िक राम िमलगे और दुःख का
दाह िमट जाएगा।

करत मनोरथ जस िजयँ जाके। जािहं सनेह सरु ाँ सब छाके।


िसिथल अंग पग मग डिग डोलिहं। िबहबल बचन म े बस बोलिहं॥

िजसके जी म जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब नेही पी मिदरा से छके ( ेम म
मतवाले हए) चले जा रहे ह। अंग िशिथल ह, रा ते म पैर डगमगा रहे ह और ेमवश िव ल वचन
बोल रहे ह।

रामसखाँ तेिह समय देखावा। सैल िसरोमिन सहज सहु ावा॥


जासु समीप स रत पय तीरा। सीय समेत बसिहं दोउ बीरा॥

रामसखा िनषादराज ने उसी समय वाभािवक ही सुहावना पवतिशरोमिण कामदिग र िदखलाया,


िजसके िनकट ही पयि वनी नदी के तट पर सीता समेत दोन भाई िनवास करते ह।

देिख करिहं सब दंड नामा। किह जय जानिक जीवन रामा॥


े मगन अस राज समाजू। जनु िफ र अवध चले रघरु ाजू॥

सब लोग उस पवत को देखकर 'जानक -जीवन राम क जय हो।' ऐसा कहकर दंडवत णाम
करते ह। राजसमाज ेम म ऐसा म न है मानो रघुनाथ अयो या को लौट चले ह ।

े ु तेिह समय जस तस किह सकइ न सेष।ु


दो० - भरत म
किबिह अगम िजिम सख
ु ु अह मम मिलन जनेष॥ु 225॥

भरत का उस समय जैसा ेम था, वैसा शेष भी नह कह सकते। किव के िलए तो वह वैसा ही
अगम है जैसा अहंता और ममता से मिलन मनु य के िलए ानंद!॥ 225॥

सकल सनेह िसिथल रघब ु र क। गए कोस दइु िदनकर ढरक॥


जलु थलु देिख बसे िनिस बीत। क ह गवन रघन ु ाथ िपरीत॥

सब लोग राम के ेम के मारे िशिथल होने के कारण सय


ू ा त होने तक (िदनभर म) दो ही कोस
चल पाए और जल- थल का सुपास देखकर रात को वह (िबना खाए-िपए ही) रह गए। रात
बीतने पर रघुनाथ के ेमी भरत ने आगे गमन िकया।

उहाँ रामु रजनी अवसेषा। जागे सीयँ सपन अस देखा॥


सिहत समाज भरत जनु आए। नाथ िबयोग ताप तन ताए॥
उधर राम रात शेष रहते ही जागे। रात को सीता ने ऐसा व न देखा (िजसे वे राम को सुनाने
लग ) मानो समाज सिहत भरत यहाँ आए ह। भु के िवयोग क अि न से उनका शरीर संत है।

सकल मिलन मन दीन दख ु ारी। देख सासु आन अनहु ारी॥


सिु न िसय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच िबमोचन॥

सभी लोग मन म उदास, दीन और दुःखी ह। सासुओ ं को दूसरी ही सरू त म देखा। सीता का व न
सुनकर राम के ने म जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले भु वयं (लीला से)
सोच के वश हो गए।

लखन सपन यह नीक न होई। किठन कुचाह सन ु ाइिह कोई॥


अस किह बंधु समेत नहाने। पूिज परु ा र साधु सनमाने॥

(और बोले -) ल मण! यह व न अ छा नह है। कोई भीषण कुसमाचार (बहत ही बुरी खबर)
ू न करके
सुनाएगा। ऐसा कहकर उ ह ने भाई सिहत नान िकया और ि पुरारी महादेव का पज
साधुओ ं का स मान िकया।

छं ० - सनमािन सरु मिु न बंिद बैठे उतर िदिस देखत भए।


नभ धू र खग मग ृ भू र भागे िबकल भु आ म गए॥
तलु सी उठे अवलोिक कारनु काह िचत सचिकत रहे।
सब समाचार िकरात कोलि ह आइ तेिह अवसर कहे॥

ू न) और मुिनय क वंदना करके राम बैठ गए और उ र िदशा क ओर


देवताओं का स मान (पज
देखने लगे। आकाश म धल ू छा रही है; बहत-से प ी और पशु याकुल होकर भागे हए भु के
आ म को आ रहे ह। तुलसीदास कहते ह िक भु राम यह देखकर उठे और सोचने लगे िक या
कारण है? वे िच म आ ययु हो गए। उसी समय कोल-भील ने आकर सब समाचार कहे ।

सो० - सन
ु त सम
ु ंगल बैन मन मोद तन पल ु क भर।
सरद सरो ह नैन तलु सी भरे सनेह जल॥ 226॥

तुलसीदास कहते ह िक सुंदर मंगल वचन सुनते ही राम के मन म बड़ा आनंद हआ। शरीर म
पुलकावली छा गई, और शरद्-ऋतु के कमल के समान ने ेमा ुओ ं से भर गए॥ 226॥

बह र सोचबस भे िसयरवनू। कारन कवन भरत आगवनू॥


एक आइ अस कहा बहोरी। सेन संग चतरु ं ग न थोरी॥

सीतापित राम पुनः सोच के वश हो गए िक भरत के आने का या कारण है? िफर एक ने आकर
ऐसा कहा िक उनके साथ म बड़ी भारी चतुरंिगणी सेना भी है।
सो सिु न रामिह भा अित सोचू। इत िपतु बच इत बंधु सकोचू॥
भरत सभ ु ाउ समिु झ मन माह । भु िचत िहत िथित पावत नाह ॥

यह सुनकर राम को अ यंत सोच हआ। इधर तो िपता के वचन और उधर भाई भरत का संकोच!
भरत के वभाव को मन म समझकर तो भु राम िच को ठहराने के िलए कोई थान ही नह
पाते ह।

समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महँ साधु सयाने॥


लखन लखेउ भु दयँ खभा । कहत समय सम नीित िबचा ॥

तब यह जानकर समाधान हो गया िक भरत साधु और सयाने ह तथा मेरे कहने म (आ ाकारी)
ह। ल मण ने देखा िक भु राम के दय म िचंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीितयु
िवचार कहने लगे -

िबनु पूछ कछु कहउँ गोसाई ं। सेवकु समयँ न ढीठ िढठाई ं॥


तु ह सब य िसरोमिन वामी। आपिन समिु झ कहउँ अनग ु ामी॥

हे वामी! आपके िबना ही पछू े म कुछ कहता हँ; सेवक समय पर िढठाई करने से ढीठ नह
समझा जाता (अथात आप पछ ू तब म कहँ, ऐसा अवसर नह है; इसिलए यह मेरा कहना िढठाई
नह होगा)। हे वामी! आप सव म िशरोमिण ह (सब जानते ही ह)। म सेवक तो अपनी समझ
क बात कहता हँ।

दो० - नाथ सु द सिु ठ सरल िचत सील सनेह िनधान।


सब पर ीित तीित िजयँ जािनअ आपु समान॥ 227॥

हे नाथ! आप परम सु द (िबना ही कारण परम िहत करनेवाले), सरल दय तथा शील और नेह
के भंडार ह, आपका सभी पर ेम और िव ास है, और अपने दय म सबको अपने ही समान
जानते ह॥ 227॥

िबषई जीव पाइ भत ु ाई। मूढ़ मोह बस होिहं जनाई॥


भरतु नीित रत साधु सजु ाना। भु पद मे ु सकल जगु जाना॥

ू िवषयी जीव भुता पाकर मोहवश अपने असली व प को कट कर देते ह। भरत


परं तु मढ़
नीितपरायण, साधु और चतुर ह तथा भु (आप) के चरण म उनका ेम है, इस बात को सारा
जगत जानता है।

तेऊ आजु राम पदु पाई। चले धरम मरजाद मेटाई॥


कुिटल कुबंधु कुअवस ताक । जािन राम बनबास एकाक ॥
वे भरत भी आज राम (आप) का पद (िसंहासन या अिधकार) पाकर धम क मयादा को िमटाकर
चले ह। कुिटल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर िक राम (आप) वनवास म
अकेले (असहाय) ह,

क र कुमं ु मन सािज समाजू। आए करै अकंटक राजू॥


कोिट कार कलिप कुिटलाई। आए दल बटो र दोउ भाई॥

अपने मन म बुरा िवचार करके, समाज जोड़कर रा य को िन कंटक करने के िलए यहाँ आए ह।
करोड़ (अनेक ) कार क कुिटलताएँ रचकर सेना बटोरकर दोन भाई आए ह।

ज िजयँ होित न कपट कुचाली। केिह सोहाित रथ बािज गजाली॥


भरतिह दोसु देइ को जाएँ । जग बौराइ राज पदु पाएँ ॥

यिद इनके दय म कपट और कुचाल न होती, तो रथ, घोड़े और हािथय क कतार (ऐसे समय)
िकसे सुहाती? परं तु भरत को ही यथ कौन दोष दे ? राजपद पा जाने पर सारा जगत ही पागल
(मतवाला) हो जाता है।

दो० - सिस गरु ितय गामी नघष


ु ु चढ़ेउ भूिमसरु जान।
लोक बेद त िबमख ु भा अधम न बेन समान॥ 228॥

चं मा गु प नी गामी हआ, राजा नहष ा ण क पालक पर चढ़ा। और राजा वेन के समान


नीच तो कोई नह होगा, जो लोक और वेद दोन से िवमुख हो गया॥ 228॥

सहसबाह सरु नाथु ि संकू। केिह न राजमद दी ह कलंकू॥


भरत क ह यह उिचत उपाऊ। रपु रन रं च न राखब काऊ॥

सह बाह, देवराज इं और ि शंकु आिद िकसको राजमद ने कलंक नह िदया? भरत ने यह


उपाय उिचत ही िकया है, य िक श ु और ऋण को कभी जरा भी शेष नह रखना चािहए।

एक क ि ह निहं भरत भलाई। िनदरे रामु जािन असहाई॥


समिु झ प रिह सोउ आजु िबसेषी। समर सरोष राम मख
ु ु पेखी॥

हाँ, भरत ने एक बात अ छी नह क , जो राम (आप) को असहाय जानकर उनका िनरादर िकया!
पर आज सं ाम म राम (आप) का ोधपण ू मुख देखकर यह बात भी उनक समझ म िवशेष प
से आ जाएगी (अथात इस िनरादर का फल भी वे अ छी तरह पा जाएँ गे)।

एतना कहत नीित रस भूला। रन रस िबटपु पलु क िमस फूला॥


भु पद बंिद सीस रज राखी। बोले स य सहज बलु भाषी॥
ू गए और यु -रस पी व ृ पुलकावली के बहाने से फूल
इतना कहते ही ल मण नीितरस भल
उठा (अथात नीित क बात कहते-कहते उनके शरीर म वीर रस छा गया)। वे भु राम के चरण
क वंदना करके, चरण-रज को िसर पर रखकर स चा और वाभािवक बल कहते हए बोले।

अनिु चत नाथ न मानब मोरा। भरत हमिह उपचार न थोरा॥


कहँ लिग सिहअ रिहअ मनु मार। नाथ साथ धनु हाथ हमार॥

हे नाथ! मेरा कहना अनुिचत न मािनएगा। भरत ने हम कम नह चारा है (हमारे साथ कम


छे ड़छाड़ नह क है)। आिखर कहाँ तक सहा जाए और मन मारे रहा जाए, जब वामी हमारे साथ
ह और धनुष हमारे हाथ म है!

दो० - छि जाित रघकु ु ल जनमु राम अनग


ु जगु जान।
लातहँ मार चढ़ित िसर नीच को धू र समान॥ 229॥

ि य जाित, रघुकुल म ज म और िफर म राम (आप) का अनुगामी (सेवक) हँ, यह जगत


जानता है। (िफर भला कैसे सहा जाए?) धल
ू के समान नीच कौन है, परं तु वह भी लात मारने पर
िसर ही चढ़ती है॥ 229॥

उिठ कर जो र रजायसु मागा। मनहँ बीर रस सोवत जागा॥


बाँिध जटा िसर किस किट भाथा। सािज सरासनु सायकु हाथा॥

य कहकर ल मण ने उठकर, हाथ जोड़कर आ ा माँगी। मानो वीर रस सोते से जाग उठा हो।
िसर पर जटा बाँधकर कमर म तरकस कस िलया और धनुष को सजाकर तथा बाण को हाथ म
लेकर कहा -

आजु राम सेवक जसु लेऊँ। भरतिह समर िसखावन देऊँ॥


राम िनरादर कर फलु पाई। सोवहँ समर सेज दोउ भाई॥

आज म राम (आप) का सेवक होने का यश लँ ू और भरत को सं ाम म िश ा दँू। राम (आप) के


िनरादर का फल पाकर दोन भाई (भरत-श ु न) रण-श या पर सोएँ !

आइ बना भल सकल समाजू। गट करउँ रस पािछल आजू॥


िजिम क र िनकर दलइ मग
ृ राजू। लेइ लपेिट लवा िजिम बाजू॥

अ छा हआ जो सारा समाज आकर एक हो गया। आज म िपछला सब ोध कट क ँ गा। जैसे


िसंह हािथय के झुंड को कुचल डालता है और बाज जैसे लवे को लपेट म ले लेता है।

तैसिे हं भरतिह सेन समेता। सानज


ु िनद र िनपातउँ खेता॥
ज सहाय कर संक आई। तौ मारउँ रन राम दोहाई॥
वैसे ही भरत को सेना समेत और छोटे भाई सिहत ितर कार करके मैदान म पछाड़ँ गा। यिद शंकर
भी आकर उनक सहायता कर, तो भी, मुझे राम क सौगंध है, म उ ह यु म (अव य) मार
डालँगू ा (छोड़ँ गा नह )।

दो० - अित सरोष माखे लखनु लिख सिु न सपथ वान।


सभय लोक सब लोकपित चाहत भभ र भगान॥ 230॥

ल मण को अ यंत ोध से तमतमाया हआ देखकर और उनक ामािणक (स य) सौगंध


सुनकर सब लोग भयभीत हो जाते ह और लोकपाल घबड़ाकर भागना चाहते ह॥ 230॥

जगु भय मगन गगन भइ बानी। लखन बाहबलु िबपलु बखानी॥


तात ताप भाउ तु हारा। को किह सकइ को जानिनहारा॥

सारा जगत भय म डूब गया। तब ल मण के अपार बाहबल क शंसा करती हई आकाशवाणी हई


- हे तात! तु हारे ताप और भाव को कौन कह सकता है और कौन जान सकता है?

अनिु चत उिचत काजु िकछु होऊ। समिु झ क रअ भल कह सबु कोऊ॥


सहसा क र पाछ पिछताह । कहिहं बेद बध ु ते बध
ु नाह ॥

परं तु कोई भी काम हो, उसे अनुिचत-उिचत खबू समझ-बझ


ू कर िकया जाए तो सब कोई अ छा
कहते ह। वेद और िव ान कहते ह िक जो िबना िवचारे ज दी म िकसी काम को करके पीछे
पछताते ह, वे बुि मान नह ह।

सिु न सरु बचन लखन सकुचाने। राम सीयँ सादर सनमाने॥


कही तात तु ह नीित सहु ाई। सब त किठन राजमदु भाई॥

देववाणी सुनकर ल मण सकुचा गए। राम और सीता ने उनका आदर के साथ स मान िकया
(और कहा -) हे तात! तुमने बड़ी सुंदर नीित कही। हे भाई! रा य का मद सबसे किठन मद है।

जो अचवँत नप
ृ मातिहं तेई। नािहन साधस
ु भा जेिहं सेई॥
सन
ु ह लखन भल भरत सरीसा। िबिध पंच महँ सन ु ा न दीसा॥

िज ह ने साधुओ ं क सभा का सेवन (स संग) नह िकया, वे ही राजा राजमद पी मिदरा का


आचमन करते ही (पीते ही) मतवाले हो जाते ह। हे ल मण! सुनो, भरत-सरीखा उ म पु ष ा
क सिृ म न तो कह सुना गया है, न देखा ही गया है।

दो० - भरतिह होइ न राजमदु िबिध ह र हर पद पाइ।


कबहँ िक काँजी सीकरिन छीरिसंधु िबनसाइ॥ 231॥
(अयो या के रा य क तो बात ही या है) ा, िव णु और महादेव का पद पाकर भी भरत को
रा य का मद नह होने का! या कभी काँजी क बँदू से ीरसमु न हो सकता (फट सकता)
है?॥ 231॥

ितिम त न तरिनिह मकु िगलई। गगनु मगन मकु मेघिहं िमलई॥


गोपद जल बूड़िहं घटजोनी। सहज छमा ब छाड़ै छोनी॥

अंधकार चाहे त ण (म या के) सय


ू को िनगल जाए। आकाश चाहे बादल म समाकर िमल
जाए। गौ के खुर-इतने जल म अग य डूब जाएँ और प ृ वी चाहे अपनी वाभािवक मा
(सहनशीलता) को छोड़ दे ।

मसक फूँक मकु मे उड़ाई। होइ न नपृ मदु भरतिह भाई॥


लखन तु हार सपथ िपतु आना। सिु च सबु ंधु निहं भरत समाना॥

म छर क फँ ू क से चाहे सुमे उड़ जाए। परं तु हे भाई! भरत को राजमद कभी नह हो सकता। हे


ल मण! म तु हारी शपथ और िपता क सौगंध खाकर कहता हँ, भरत के समान पिव और
उ म भाई संसार म नह है।

सगनु ु खी अवगन ु जलु ताता। िमलइ रचइ परपंचु िबधाता॥


भरतु हंस रिबबंस तड़ागा। जनिम क ह गन ु दोष िबभागा॥

हे तात! गु पी दूध और अवगुण पी जल को िमलाकर िवधाता इस य- पंच (जगत) को


रचता है, परं तु भरत ने सय
ू वंश पी तालाब म हंस प ज म लेकर गुण और दोष का िवभाग कर
िदया (दोन को अलग-अलग कर िदया)।

गिह गन
ु पय तिज अवगण ु बारी। िनज जस जगत क ि ह उिजआरी॥
कहत भरत गनु सीलु सभ
ु ाऊ। मे पयोिध मगन रघरु ाऊ॥

गुण पी दूध को हण कर और अवगुण पी जल को यागकर भरत ने अपने यश से जगत म


उिजयाला कर िदया है। भरत के गुण, शील और वभाव को कहते-कहते रघुनाथ ेमसमु म
म न हो गए।

दो० - सिु न रघब


ु र बानी िबबध
ु देिख भरत पर हेत।ु
सकल सराहत राम सो भु को कृपािनकेत॥ु 232॥

राम क वाणी सुनकर और भरत पर उनका ेम देखकर सम त देवता उनक सराहना करने
लगे (और कहने लगे) िक राम के समान कृपा के धाम भु और कौन ह?॥ 232॥

ज न होत जग जनम भरत को। सकल धरम धरु धरिन धरत को॥
किब कुल अगम भरत गन
ु गाथा। को जानइ तु ह िबनु रघन
ु ाथा॥

यिद जगत म भरत का ज म न होता, तो प ृ वी पर संपण


ू धम क धुरी को कौन धारण करता? हे
रघुनाथ! किवकुल के िलए अगम (उनक क पना से अतीत) भरत के गुण क कथा आपके
िसवा और कौन जान सकता है?

लखन राम िसयँ सिु न सरु बानी। अित सख


ु ु लहेउ न जाइ बखानी॥
इहाँ भरतु सब सिहत सहाए। मंदािकन पन ु ीत नहाए॥

ल मण, राम और सीता ने देवताओं क वाणी सुनकर अ यंत सुख पाया, जो वणन नह िकया जा
सकता। यहाँ भरत ने सारे समाज के साथ पिव मंदािकनी म नान िकया।

स रत समीप रािख सब लोगा। मािग मातु गरु सिचव िनयोगा॥


चले भरतु जहँ िसय रघरु ाई। साथ िनषादनाथु लघु भाई॥

िफर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गु और मं ी क आ ा माँगकर िनषादराज


और श ु न को साथ लेकर भरत वहाँ चले जहाँ सीता और रघुनाथ थे।

समिु झ मातु करतब सकुचाह । करत कुतरक कोिट मन माह ॥


रामु लखनु िसय सिु न मम नाऊँ। उिठ जिन अनत जािहं तिज ठाऊँ॥

भरत अपनी माता कैकेयी क करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते ह और मन म करोड़
(अनेक ) कुतक करते ह (सोचते ह -) राम, ल मण और सीता मेरा नाम सुनकर थान छोड़कर
कह दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ ।

दो० - मातु मते महँ मािन मोिह जो कछु करिहं सो थोर।


अघ अवगन ु छिम आदरिहं समिु झ आपनी ओर॥ 233॥

मुझे माता के मत म मानकर वे जो कुछ भी कर सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने


िवरद और संबंध को देखकर) मेरे पाप और अवगुण को मा करके मेरा आदर ही करगे॥ 233॥

ज प रहरिहं मिलन मनु जानी। ज सनमानिहं सेवकु मानी॥


मोर सरन रामिह क पनही। राम सु वािम दोसु सब जनही॥

चाहे मिलन-मन जानकर मुझे याग द, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा स मान कर, (कुछ भी
कर); मेरे तो राम क जिू तयाँ ही शरण ह। राम तो अ छे वामी ह, दोष तो सब दास का ही है।

जग जग भाजन चातक मीना। नेम म े िनज िनपन ु नबीना॥


अस मन गन
ु त चले मग जाता। सकुच सनेहँ िसिथल सब गाता॥
जगत म यश के पा तो चातक और मछली ही ह, जो अपने नेम और ेम को सदा नया बनाए
रखने म िनपुण ह। ऐसा मन म सोचते हए भरत माग म चले जाते ह। उनके सब अंग संकोच और
ेम से िशिथल हो रहे ह।

फेरित मनहँ मातु कृत खोरी। चलत भगित बल धीरज धोरी॥


जब समझ ु त रघन
ु ाथ सभु ाऊ। तब पथ परत उताइल पाऊ॥

माता क हई बुराई मानो उ ह लौटाती है, पर धीरज क धुरी को धारण करनेवाले भरत भि के
बल से चले जाते ह। जब रघुनाथ के वभाव को समझते ( मरण करते) ह तब माग म उनके पैर
ज दी-ज दी पड़ने लगते ह।

भरत दसा तेिह अवसर कैसी। जल बाहँ जल अिल गित जैसी॥


देिख भरत कर सोचु सनेह। भा िनषाद तेिह समयँ िबदेह॥

उस समय भरत क दशा कैसी है? जैसी जल के वाह म जल के भ रे क गित होती है। भरत का
सोच और ेम देखकर उस समय िनषाद िवदेह हो गया (देह क सुध-बुध भल
ू गया)।

दो० - लगे होन मंगल सगन ु सिु न गिु न कहत िनषाद।ु


िमिटिह सोचु होइिह हरषु पिु न प रनाम िबषादु॥ 234॥

मंगल-शकुन होने लगे। उ ह सुनकर और िवचारकर िनषाद कहने लगा - सोच िमटेगा, हष
होगा, पर िफर अंत म दुःख होगा॥ 234॥

सेवक बचन स य सब जाने। आ म िनकट जाइ िनअराने॥


भरत दीख बन सैल समाजू। मिु दत छुिधत जनु पाइ सन
ु ाजू॥

भरत ने सेवक (गुह) के सब वचन स य जाने और वे आ म के समीप जा पहँचे। वहाँ के वन और


पवत के समहू को देखा तो भरत इतने आनंिदत हए मानो कोई भख
ू ा अ छा अ न (भोजन) पा
गया हो।

ईित भीित जनु जा दख ु ारी। ि िबध ताप पीिड़त ह मारी॥


े सख
जाइ सरु ाज सदु स ु ारी। होिहं भरत गित तेिह अनहु ारी॥

जैसे ईित के भय से दुःखी हई और तीन (आ याि मक, आिधदैिवक और आिधभौितक) ताप तथा
ू र ह और महामा रय से पीिड़त जा िकसी उ म देश और उ म रा य म जाकर सुखी हो
जाए, भरत क गित (दशा) ठीक उसी कार क हो रही है।

(अिधक जल बरसना, न बरसना, चहू का उ पात, िटड्िडयाँ, तोते और दूसरे राजा क चढ़ाई -
खेत म बाधा देनेवाले इन छह उप व को 'ईित' कहते ह)।
राम बास बन संपित ाजा। सख ु ी जा जनु पाइ सरु ाजा॥
सिचव िबरागु िबबेकु नरे सू। िबिपन सहु ावन पावन देसू॥

राम के िनवास से वन क संपि ऐसी सुशोिभत है मानो अ छे राजा को पाकर जा सुखी हो।
सुहावना वन ही पिव देश है। िववेक उसका राजा है और वैरा य मं ी है।

भट जम िनयम सैल रजधानी। सांित सम


ु ित सिु च संदु र रानी॥
सकल अंग संप न सरु ाऊ। राम चरन आि त िचत चाऊ॥

यम (अिहंसा, स य, अ तेय, चय और अप र ह) तथा िनयम (शौच, संतोष, तप, वा याय


और ई र िणधान) यो ा ह। पवत राजधानी है, शांित तथा सुबुि दो सुंदर पिव रािनयाँ ह। वह
े राजा रा य के सब अंग से पण
ू है और राम के चरण के आि त रहने से उसके िच म चाव
(आनंद या उ साह) है।

( वामी, अमा य, सु द, कोष, रा , दुग और सेना - रा य के सात अंग ह।)

दो० - जीित मोह मिहपालु दल सिहत िबबेक भआु ल।ु


करत अकंटक राजु परु ँ सख
ु संपदा सक
ु ाल॥ु 235॥

मोह पी राजा को सेना सिहत जीतकर िववेक पी राजा िन कंटक रा य कर रहा है। उसके नगर
म सुख, संपि और सुकाल वतमान है॥ 235॥

बन देस मिु न बास घनेरे। जनु परु नगर गाउँ गन खेरे॥


िबपल
ु िबिच िबहग मग ृ नाना। जा समाजु न जाइ बखाना॥

वन पी ांत म जो मुिनय के बहत-से िनवास थान ह वही मानो शहर , नगर , गाँव और
खेड़ का समहू है। बहत-से िविच प ी और अनेक पशु ही मानो जाओं का समाज है, िजसका
वणन नह िकया जा सकता।

खगहा क र ह र बाघ बराहा। देिख मिहष बष


ृ साजु सराहा॥
बय िबहाइ चरिहं एक संगा। जहँ तहँ मनहँ सेन चतरु ं गा॥

ू र, भसे और बैल को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है।


गडा, हाथी, िसंह, बाघ, सअ
ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ िवचरते ह। यही मानो चतुरंिगणी सेना है।

झरना झरिहं म गज गाजिहं। मनहँ िनसान िबिबिध िबिध बाजिहं॥


चक चकोर चातक सकु िपक गन। कूजत मंजु मराल मिु दत मन॥
पानी के झरने झर रहे ह और मतवाले हाथी िचंघाड़ रहे ह। वे ही मानो वहाँ अनेक कार के
नगाड़े बज रहे ह। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयल के समहू और सुंदर हंस स न मन
से कूज रहे ह।

अिलगन गावत नाचत मोरा। जनु सरु ाज मंगल चह ओरा॥


बेिल िबटप तन
ृ सफल सफूला। सब समाजु मदु मंगल मूला॥

भ र के समहू गुंजार कर रहे ह और मोर नाच रहे ह। मानो उस अ छे रा य म चार ओर मंगल हो


रहा है। बेल, व ृ , तण
ृ सब फल और फूल से यु ह। सारा समाज आनंद और मंगल का मल ू बन
रहा है।

दो० - राम सैल सोभा िनरिख भरत दयँ अित म े ।ु


तापस तप फलु पाइ िजिम सख ु ी िसरान नेम॥ु 236॥

राम के पवत क शोभा देखकर भरत के दय म अ यंत म े हआ। जैसे तप वी िनयम क


समाि होने पर तप या का फल पाकर सख
ु ी होता है॥ 236॥
तब केवट ऊँच चिढ़ धाई। कहेउ भरत सन भज ु ा उठाई॥
नाथ देिखअिहं िबटप िबसाला। पाक र जंबु रसाल तमाला॥

तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरत से कहने लगा - हे नाथ! ये जो पाकर,
जामुन, आम और तमाल के िवशाल व ृ िदखाई देते ह,

िज ह त बर ह म य बटु सोहा। मंजु िबसाल देिख मनु मोहा॥


नील सघन प लव फल लाला। अिबरल छाहँ सख ु द सब काला॥

िजन े व ृ के बीच म एक संुदर िवशाल बड़ का व ृ सुशोिभत है, िजसको देखकर मन


मोिहत हो जाता है, उसके प े नीले और सघन ह और उसम लाल फल लगे ह। उसक घनी छाया
सब ऋतुओ ं म सुख देनेवाली है।

मानहँ ितिमर अ नमय रासी। िबरची िबिध सँकेिल सषु मा सी॥


ए त स रत समीप गोसाँई। रघबु र परनकुटी जहँ छाई॥

मानो ा ने परम शोभा को एक करके अंधकार और लािलमामयी रािश-सी रच दी है। हे


गुसाई ं! ये व ृ नदी के समीप ह, जहाँ राम क पणकुटी छाई है।

तल
ु सी त बर िबिबध सहु ाए। कहँ कहँ िसयँ कहँ लखन लगाए॥
बट छायाँ बेिदका बनाई। िसयँ िनज पािन सरोज सहु ाई॥
वहाँ तुलसी के बहत-से सुंदर व ृ सुशोिभत ह, जो कह -कह सीता ने और कह ल मण ने
लगाए ह। इसी बड़ क छाया म सीता ने अपने करकमल से सुंदर वेदी बनाई है।

दो० - जहाँ बैिठ मिु नगन सिहत िनत िसय रामु सज


ु ान।
सनु िहं कथा इितहास सब आगम िनगम परु ान॥ 237॥

जहाँ सुजान सीताराम मुिनय के व ृ द समेत बैठकर िन य शा , वेद और पुराण के सब कथा-


इितहास सुनते ह॥ 237॥

सखा बचन सिु न िबटप िनहारी। उमगे भरत िबलोचन बारी॥


करत नाम चले दोउ भाई। कहत ीित सारद सकुचाई॥

सखा के वचन सुनकर और व ृ को देखकर भरत के ने म जल उमड़ आया। दोन भाई णाम
करते हए चले। उनके ेम का वणन करने म सर वती भी सकुचाती ह।

हरषिहं िनरिख राम पद अंका। मानहँ पारसु पायउ रं का॥


रज िसर ध र िहयँ नयनि ह लाविहं। रघब
ु र िमलन स रस सख ु पाविहं॥

राम के चरणिच देखकर दोन भाई ऐसे हिषत होते ह मानो द र पारस पा गया हो। वहाँ क रज
को म तक पर रखकर दय म और ने म लगाते ह और रघुनाथ के िमलने के समान सुख
पाते ह।

देिख भरत गित अकथ अतीवा। मे मगन मग ृ खग जड़ जीवा॥


सखिह सनेह िबबस मग भूला। किह सप
ु ंथ सरु बरषिहं फूला॥

भरत क अ यंत अिनवचनीय दशा देखकर वन के पशु, प ी और जड़ (व ृ ािद) जीव ेम म म न


हो गए। ेम के िवशेष वश होने से सखा िनषादराज को भी रा ता भल
ू गया। तब देवता सुंदर
रा ता बतलाकर फूल बरसाने लगे।

िनरिख िस साधक अनरु ागे। सहज सनेह सराहन लागे॥


होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को॥

भरत के ेम क इस ि थित को देखकर िस और साधक लोग भी अनुराग से भर गए और


उनके वाभािवक ेम क शंसा करने लगे िक यिद इस प ृ वी तल पर भरत का ज म (अथवा
ेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?

े अिमअ मंद िबरह भरतु पयोिध गँभीर।


दो० - म
मिथ गटेउ सरु साधु िहत कृपािसंधु रघब
ु ीर॥ 238॥
ेम अमत ृ है, िवरह मंदराचल पवत है, भरत गहरे समु ह। कृपा के समु राम ने देवता और
साधुओ ं के िहत के िलए वयं (इस भरत पी गहरे समु को अपने िवरह पी मंदराचल से)
मथकर यह ेम पी अमत ृ कट िकया है॥ 238॥

सखा समेत मनोहर जोटा। लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥


भरत दीख भु आ मु पावन। सकल सम ु ंगल सदनु सहु ावन॥

सखा िनषादराज सिहत इस मनोहर जोड़ी को सघन वन क आड़ के कारण ल मण नह देख


पाए। भरत ने भु राम के सम त सुमंगल के धाम और सुंदर पिव आ म को देखा।

करत बेस िमटे दख


ु दावा। जनु जोग परमारथु पावा॥
देखे भरत लखन भु आगे। पूँछे बचन कहत अनरु ागे॥

आ म म वेश करते ही भरत का दुःख और दाह (जलन) िमट गया, मानो योगी को परमाथ
(परमत व) क ाि हो गई हो। भरत ने देखा िक ल मण भु के आगे खड़े ह और पछू े हए वचन
ेमपवू क कह रहे ह (पछ
ू ी हई बात का ेमपवू क उ र दे रहे ह)।

सीस जटा किट मिु न पट बाँध। तन ू कस कर स धनु काँध॥


बेदी पर मिु न साधु समाजू। सीय सिहत राजत रघरु ाजू॥

िसर पर जटा है। कमर म मुिनय का (व कल) व बाँधे ह और उसी म तरकस कसे ह। हाथ म
बाण तथा कंधे पर धनुष है। वेदी पर मुिन तथा साधुओ ं का समुदाय बैठा है और सीता सिहत
रघुनाथ िवराजमान ह।

बलकल बसन जिटल तनु यामा। जनु मिु नबेष क ह रित कामा॥
कर कमलिन धनु सायकु फेरत। िजय क जरिन हरत हँिस हेरत॥

राम के व कल व ह, जटा धारण िकए ह, याम शरीर है। (सीताराम ऐसे लगते ह) मानो रित
और कामदेव ने मुिन का वेष धारण िकया हो। राम अपने करकमल से धनुष-बाण फेर रहे ह, और
हँसकर देखते ही जी क जलन हर लेते ह (अथात िजसक ओर भी एक बार हँसकर देख लेते ह,
उसी को परम आनंद और शांित िमल जाती है)।

दो० - लसत मंजु मिु न मंडली म य सीय रघच


ु ंद।ु
यान सभाँ जनु तनु धर भगित सि चदानंद॥ु 239॥

संुदर मुिन मंडली के बीच म सीता और रघुकुलचं राम ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो ान क
सभा म सा ात भि और सि चदानंद शरीर धारण करके िवराजमान ह॥ 239॥

सानज
ु सखा समेत मगन मन। िबसरे हरष सोक सख
ु दख
ु गन॥
पािह नाथ किह पािह गोसाई ं। भूतल परे लकुट क नाई ं॥

छोटे भाई श ु न और सखा िनषादराज समेत भरत का मन ( ेम म) म न हो रहा है। हष-शोक,


सुख-दुःख आिद सब भल ू गए। ‘हे नाथ! र ा क िजए, हे गुसाई ं! र ा क िजए' ऐसा कहकर वे
प ृ वी पर दंड क तरह िगर पड़े ।

बचन स म े लखन पिहचाने। करत नामु भरत िजयँ जाने॥


बंधु सनेह सरस एिह ओरा। उत सािहब सेवा बस जोरा॥

ेमभरे वचन से ल मण ने पहचान िलया और मन म जान िलया िक भरत णाम कर रहे ह। (वे
राम क ओर मँुह िकए खड़े थे, भरत पीठ- पीछे थे; इससे उ ह ने देखा नह ।) अब इस ओर तो
भाई भरत का सरस ेम और उधर वामी राम क सेवा क बल परवशता।

िमिल न जाइ निहं गदु रत बनई। सकु िब लखन मन क गित भनई॥


रहे रािख सेवा पर भा । चढ़ी चंग जनु खच खेला ॥

न तो ( णभर के िलए भी सेवा से पथृ क होकर) िमलते ही बनता है और न ( ेमवश) छोड़ते


(उपे ा करते) ही। कोई े किव ही ल मण के िच क इस गित (दुिवधा) का वणन कर
सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही िवशेष मह वपणू समझकर उसी म लगे
रहे ) मानो चढ़ी हई पतंग को िखलाड़ी (पतंग उड़ानेवाला) ख च रहा हो।

कहत स म े नाइ मिह माथा। भरत नाम करत रघन ु ाथा॥


े अधीरा। कहँ पट कहँ िनषंग धनु तीरा॥
उठे रामु सिु न म

ल मण ने ेम सिहत प ृ वी पर म तक नवाकर कहा - हे रघुनाथ! भरत णाम कर रहे ह। यह


सुनते ही रघुनाथ ेम म अधीर होकर उठे । कह व िगरा, कह तरकस, कह धनुष और कह
बाण।

दो० - बरबस िलए उठाइ उर लाए कृपािनधान।


भरत राम क िमलिन लिख िबसरे सबिह अपान॥ 240॥

कृपािनधान राम ने उनको जबरद ती उठाकर दय से लगा िलया! भरत और राम के िमलने क
रीित को देखकर सबको अपनी सुध भलू गई॥ 240॥

िमलिन ीित िकिम जाइ बखानी। किबकुल अगम करम मन बानी॥


परम मे पूरन दोउ भाई। मन बिु ध िचत अहिमित िबसराई॥

िमलन क ीित कैसे बखानी जाए? वह तो किवकुल के िलए कम, मन, वाणी तीन से अगम है।
दोन भाई (भरत और राम) मन, बुि , िच और अहंकार को भुलाकर परम ेम से पण
ू हो रहे ह।
े गट को करई। केिह छाया किब मित अनस
कहह सु म ु रई॥
किबिह अरथ आखर बलु साँचा। अनहु र ताल गितिह नटु नाचा॥

किहए, उस े ेम को कौन कट करे ? किव क बुि िकसक छाया का अनुसरण करे ? किव
को तो अ र और अथ का ही स चा बल है। नट ताल क गित के अनुसार ही नाचता है!

अगम सनेह भरत रघबु र को। जहँ न जाइ मनु िबिध ह र हर को॥
सो म कुमित कह केिह भाँित। बाज सरु ाग िक गाँडर ताँती॥

भरत और रघुनाथ का ेम अग य है, जहाँ ा, िव णु और महादेव का भी मन नह जा सकता।


उस ेम को म कुबुि िकस कार कहँ! भला, गाँडर क ताँत से भी कह सुंदर राग बज सकता
है?

(तालाब और झील म एक तरह क घास होती है, उसे गाँडर कहते ह।)

िमलिन िबलोिक भरत रघब ु र क । सरु गन सभय धकधक धरक ॥


समझु ाए सरु गु जड़ जागे। बरिष सून संसन लागे॥

भरत और राम के िमलने का ढं ग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनक धुकधुक धड़कने लगी।
देव गु बहृ पित ने समझाया, तब कह वे मखू चेते और फूल बरसाकर शंसा करने लगे।

दो० - िमिल स म े रपस


ु ूदनिह केवटु भटेउ राम।
भू र भायँ भटे भरत लिछमन करत नाम॥ 241॥

िफर राम ेम के साथ श ु न से िमलकर तब केवट (िनषादराज) से िमले। णाम करते हए


ल मण से भरत बड़े ही ेम से िमले॥ 241॥

भटेउ लखन ललिक लघु भाई। बह र िनषादु ली ह उर लाई॥


पिु न मिु नगन दहु ँ भाइ ह बंद।े अिभमत आिसष पाइ अनंद॥े

तब ल मण ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई श ु न से िमले। िफर उ ह ने िनषादराज


को दय से लगा िलया। िफर भरत-श ु न दोन भाइय ने (उपि थत) मुिनय को णाम िकया
और इि छत आशीवाद पाकर वे आनंिदत हए।

सानज ु भरत उमिग अनरु ागा। ध र िसर िसय पद पदम


ु परागा॥
पिु न पिु न करत नाम उठाए। िसर कर कमल परिस बैठाए॥

छोटे भाई श ु न सिहत भरत ेम म उमँगकर सीता के चरण कमल क रज िसर पर धारण कर
बार-बार णाम करने लगे। सीता ने उ ह उठाकर उनके िसर को अपने करकमल से पश कर
(िसर पर हाथ फेरकर) उन दोन को बैठाया।

सीयँ असीस दीि ह मन माह । मनग सनेहँ देह सिु ध नाह ॥


सब िबिध सानकु ू ल लिख सीता। भे िनसोच उर अपडर बीता॥

सीता ने मन-ही-मन आशीवाद िदया; य िक वे नेह म म न ह, उ ह देह क सुध-बुध नह है।


सीता को सब कार से अपने अनुकूल देखकर भरत सोचरिहत हो गए और उनके दय का
कि पत भय जाता रहा।

कोउ िकछु कहई न कोउ िकछु पूँछा। म े भरा मन िनज गित छूँछा॥
तेिह अवसर केवटु धीरजु ध र। जो र पािन िबनवत नामु क र॥

ू ता है। मन ेम से प रपण
उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पछ ू है, वह अपनी गित
से खाली है (अथात संक प-िवक प और चांच य से शू य है)। उस अवसर पर केवट (िनषादराज)
धीरज धर और हाथ जोड़कर णाम करके िवनती करने लगा -

दो० - नाथ साथ मिु ननाथ के मातु सकल परु लोग।


सेवक सेनप सिचव सब आए िबकल िबयोग॥ 242॥

हे नाथ! मुिननाथ विश के साथ सब माताएँ , नगरवासी, सेवक, सेनापित, मं ी - सब आपके


िवयोग से याकुल होकर आए ह॥ 242॥

सीलिसंधु सिु न गरु आगवनू। िसय समीप राखे रपदु वनू॥


चले सबेग रामु तेिह काला। धीर धरम धरु दीनदयाला॥

गु का आगमन सुनकर शील के समु राम ने सीता के पास श ु न को रख िदया और वे परम


धीर, धमधुरंधर, दीनदयालु राम उसी समय वेग के साथ चल पड़े ।

गरु िह देिख सानज


ु अनरु ागे। दंड नाम करन भु लागे॥
मिु नबर धाइ िलए उर लाई। म े उमिग भटे दोउ भाई॥

गु के दशन करके ल मण सिहत भु राम ेम म भर गए और दंडवत णाम करने लगे।


मुिन े विश ने दौड़कर उ ह दय से लगा िलया और ेम म उमँगकर वे दोन भाइय से
िमले।

े पल
म ु िक केवट किह नामू। क ह दू र त दंड नामू॥
राम सखा रिष बरबस भटा। जनु मिह लठ ु त सनेह समेटा॥
िफर ेम से पुलिकत होकर केवट (िनषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही विश को दंडवत
णाम िकया। ऋिष विश ने रामसखा जानकर उसको जबरद ती दय से लगा िलया। मानो
जमीन पर लोटते हए ेम को समेट िलया हो।

रघप
ु ित भगित सम
ु ंगल मूला। नभ सरािह सरु ब रसिहं फूला॥
एिह सम िनपट नीच कोउ नाह । बड़ बिस सम को जग माह ॥

रघुनाथ क भि सुंदर मंगल का मल ू है इस कार कहकर सराहना करते हए देवता आकाश से


फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे - जगत म इसके समान सवथा नीच कोई नह और विश के
समान बड़ा कौन है?

दो० - जेिह लिख लखनह त अिधक िमले मिु दत मिु नराउ।


सो सीतापित भजन को गट ताप भाउ॥ 243॥

िजस (िनषाद) को देखकर मुिनराज विश ल मण से भी अिधक उससे आनंिदत होकर िमले।
यह सब सीतापित राम के भजन का य ताप और भाव है॥ 243॥

आरत लोग राम सबु जाना। क नाकर सज ु ान भगवाना॥


जो जेिह भायँ रहा अिभलाषी। तेिह तेिह कै तिस तिस ख राखी॥

दया क खान, सुजान भगवान राम ने सब लोग को दुःखी (िमलने के िलए याकुल) जाना। तब
जो िजस भाव से िमलने का अिभलाषी था, उस-उस का उस-उस कार का ख रखते हए
(उसक िच के अनुसार)।

सानजु िमिल पल महँ सब काह। क ह दू र दख ु ु दा न दाह॥


यह बिड़ बात राम कै नाह । िजिम घट कोिट एक रिब छाह ॥

उ ह ने ल मण सिहत पल भर म सब िकसी से िमलकर उनके दुःख और किठन संताप को दूर


कर िदया। राम के िलए यह कोई बड़ी बात नह है। जैसे करोड़ घड़ म एक ही सय
ू क (पथ
ृ क-
पथ
ृ क) छाया ( ितिबंब) एक साथ ही िदखती है।

िमिल केवटिह उमिग अनरु ागा। परु जन सकल सराहिहं भागा॥


देख राम दिु खत महतार । जनु सब ु िे ल अवल िहम मार ॥

सम त पुरवासी ेम म उमँगकर केवट से िमलकर (उसके) भा य क सराहना करते ह। राम ने


सब माताओं को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं क पंि य को पाला मार गया हो।

थम राम भटी कैकेई। सरल सभ


ु ायँ भगित मित भेई॥
पग प र क ह बोधु बहोरी। काल करम िबिध िसर ध र खोरी॥
सबसे पहले राम कैकेयी से िमले और अपने सरल वभाव तथा भि से उसक बुि को तर कर
िदया। िफर चरण म िगरकर काल, कम और िवधाता के िसर दोष मढ़कर, राम ने उनको
सां वना दी।

दो० - भेट रघब


ु र मातु सब क र बोधु प रतोष।ु
अंब ईस आधीन जगु काह न देइअ दोष॥ु 244॥

िफर रघुनाथ सब माताओं से िमले। उ ह ने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया िक हे माता!


जगत ई र के अधीन है। िकसी को भी दोष नह देना चािहए॥ 244॥

गरु ितय पद बंद े दहु भाई ं। सिहत िब ितय जे सँग आई ं॥


गंग गौ रसम सब सनमान । देिहं असीस मिु दत मदृ ु बान ॥

िफर दोन भाइय ने ा ण क ि य सिहत - जो भरत के साथ आई थ , गु क प नी


अ ं धती के चरण क वंदना क और उन सबका गंगा तथा गौरी के समान स मान िकया। वे सब
आनंिदत होकर कोमल वाणी से आशीवाद देने लग ।

गिह पद लगे सिु म ा अंका। जनु भटी संपित अित रं का॥


पिु न जननी चरनिन दोउ ाता। परे म े याकुल सब गाता॥

तब दोन भाई पैर पकड़कर सुिम ा क गोद म जा िचपटे। मानो िकसी अ यंत द र को संपि से
भट हो गई हो। िफर दोन भाई माता कौस या के चरण म िगर पड़े । ेम के मारे उनके सारे अंग
िशिथल ह।

अित अनरु ाग अंब उर लाए। नयन सनेह सिलल अ हवाए॥


तेिह अवसर कर हरष िबषादू। िकिम किब कहै मूक िजिम वादू॥

बड़े ही नेह से माता ने उ ह दय से लगा िलया और ने से बहे हए ेमा ुओ ं के जल से उ ह


नहला िदया। उस समय के हष और िवषाद को किव कैसे कहे ? जैसे गँग
ू ा वाद को कैसे बताए?

िमिल जनिनिह सानज ु रघरु ाऊ। गरु सन कहेउ िक धा रअ पाऊ॥


परु जन पाइ मन
ु ीस िनयोगू। जल थल तिक तिक उतरे उ लोगू॥

रघुनाथ ने छोटे भाई ल मण सिहत माता कौस या से िमलकर गु से कहा िक आ म पर


पधा रए। तदनंतर मुनी र विश क आ ा पाकर अयो यावासी सब लोग जल और थल का
सुभीता देख-देखकर उतर गए।

दो० - मिहसरु मं ी मातु गु गने लोग िलए साथ।


पावन आ म गवनु िकय भरत लखन रघन
ु ाथ॥ 245॥

ा ण, मं ी, माताएँ और गु आिद िगने-चुने लोग को साथ िलए हए, भरत, ल मण और


रघुनाथ पिव आ म को चले॥ 245॥

सीय आइ मिु नबर पग लागी। उिचत असीस लही मन मागी॥


े ु किह जाइ न जेता॥
गरु पितिनिह मिु नितय ह समेता। िमली म

सीता आकर मुिन े विश के चरण लग और उ ह ने मनमाँगी उिचत आशीष पाई। िफर
मुिनय क ि य सिहत गु प नी अ ं धती से िमल । उनका िजतना ेम था, वह कहा नह
जाता।

बंिद बंिद पग िसय सबही के। आिसरबचन लहे ि य जी के॥


सासु सकल सब सीयँ िनहार । मूद े नयन सहिम सक
ु ु मार ॥

सीता ने सभी के चरण क अलग-अलग वंदना करके अपने दय को ि य (अनुकूल) लगनेवाले


आशीवाद पाए। जब सुकुमारी सीता ने सब सासुओ ं को देखा, तब उ ह ने सहमकर अपनी आँख
बंद कर ल ।

पर बिधक बस मनहँ मराल । काह क ह करतार कुचाल ॥


ित ह िसय िनरिख िनपट दख
ु ु पावा। सो सबु सिहअ जो दैउ सहावा॥

(सासुओ ं क बुरी दशा देखकर) उ ह ऐसा तीत हआ मानो राजहंिसिनयाँ बिधक के वश म पड़


गई ह । (मन म सोचने लग िक) कुचाली िवधाता ने या कर डाला? उ ह ने भी सीता को
देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहाए, वह सब सहना ही पड़ता है।

जनकसत ु ा तब उर ध र धीरा। नील निलन लोयन भ र नीरा॥


िमली सकल सासु ह िसय जाई। तेिह अवसर क ना मिह छाई॥

तब जानक दय म धीरज धरकर, नील कमल के समान ने म जल भरकर, सब सासुओ ं से


जाकर िमल । उस समय प ृ वी पर क णा (क ण रस) छा गई।

दो० - लािग लािग पग सबिन िसय भटित अित अनरु ाग।


दयँ असीसिहं मे बस रिहअह भरी सोहाग॥ 246॥

सीता सबके पैर लग-लगकर अ यंत ेम से िमल रही ह, और सब सासुएँ नेहवश दय से


आशीवाद दे रही ह िक तुम सुहाग से भरी रहो (अथात सदा सौभा यवती रहो)॥ 246॥

िबकल सनेहँ सीय सब रान । बैठन सबिह कहेउ गरु यान ॥


किह जग गित माियक मिु ननाथा॥ कहे कछुक परमारथ गाथा॥

सीता और सब रािनयाँ नेह के मारे याकुल ह। तब ानी गु ने सबको बैठ जाने के िलए कहा।
िफर मुिननाथ विश ने जगत क गित को माियक कहकर (अथात जगत माया का है, इसम
कुछ भी िन य नह है, ऐसा कहकर) कुछ परमाथ क कथाएँ (बात) कह ।

नप
ृ कर सरु परु गवनु सनु ावा। सिु न रघन
ु ाथ दस
ु ह दख
ु ु पावा॥
मरन हेतु िनज नेह िबचारी। भे अित िबकल धीर धरु धारी॥

तदनंतर विश ने राजा दशरथ के वग गमन क बात सुनाई। िजसे सुनकर रघुनाथ ने दुःसह
दुःख पाया। और अपने ित उनके नेह को उनके मरने का कारण िवचारकर धीरधुरंधर राम
अ यंत याकुल हो गए।

कुिलस कठोर सन
ु त कटु बानी। िबलपत लखन सीय सब रानी॥
सोक िबकल अित सकल समाजू। मानहँ राजु अकाजेउ आजू॥

व के समान कठोर, कड़वी वाणी सुनकर ल मण, सीता और सब रािनयाँ िवलाप करने लग ।
सारा समाज शोक से अ यंत याकुल हो गया! मानो राजा आज ही मरे ह ।

मिु नबर बह र राम समझु ाए। सिहत समाज सस ु रत नहाए॥


त िनरं बु तेिह िदन भु क हा। मिु नह कह जलु काहँ न ली हा॥

िफर मुिन े विश ने राम को समझाया। तब उ ह ने समाज सिहत े नदी मंदािकनी म


नान िकया। उस िदन भु राम ने िनजल त िकया। मुिन विश के कहने पर भी िकसी ने जल
हण नह िकया।

दो० - भो भएँ रघन


ु ंदनिह जो मिु न आयसु दी ह।
ा भगित समेत भु सो सबु साद क ह॥ 247॥

दूसरे िदन सबेरा होने पर मुिन विश ने रघुनाथ को जो-जो आ ा दी, वह सब काय भु राम ने
ा-भि सिहत आदर के साथ िकया॥ 247॥

क र िपतु ि या बेद जिस बरनी। भे पन ु ीत पातक तम तरनी॥


जासु नाम पावक अघ तल ू ा। सिु मरत सकल सम ु ंगल मूला॥

वेद म जैसा कहा गया है, उसी के अनुसार िपता क ि या करके, पाप पी अंधकार के न
करनेवाले सयू प राम शु हए! िजनका नाम पाप पी ई के (तुरंत जला डालने के) िलए
अि न है; और िजनका मरण मा सम त शुभ मंगल का मल ू है,
सु सो भयउ साधु संमत अस। तीरथ आवाहन सस ु र जस॥
सु भएँ दइु बासर बीते। बोले गरु सन राम िपरीते॥

वे (िन य शु -बु ) भगवान राम शु हए! साधुओ ं क ऐसी स मित है िक उनका शु होना वैसे
ही है जैसा तीथ के आवाहन से गंगा शु होती ह! (गंगा तो वभाव से ही शु ह, उनम िजन
तीथ का आवाहन िकया जाता है उलटे वे ही गंगा के संपक म आने से शु हो जाते ह। इसी
कार राम तो िन य शु ह, उनके संसग से कम ही शु हो गए।) जब शु हए दो िदन बीत गए
तब राम ीित के साथ गु से बोले -

नाथ लोग सब िनपट दख


ु ारी। कंद मूल फल अंबु अहारी॥
सानज
ु भरतु सिचव सब माता। देिख मोिह पल िजिम जुग जाता॥

हे नाथ! सब लोग यहाँ अ यंत दुःखी हो रहे ह। कंद, मल


ू , फल और जल का ही आहार करते ह।
भाई श ु न सिहत भरत को, मंि य को और सब माताओं को देखकर मुझे एक-एक पल युग के
समान बीत रहा है।

सब समेत परु धा रअ पाऊ। आपु इहाँ अमरावित राऊ॥


बहत कहेउँ सब िकयउँ िढठाई। उिचत होइ तस क रअ गोसाँई॥

अतः सबके साथ आप अयो यापुरी को पधा रए (लौट जाइए)। आप यहाँ ह और राजा अमरावती
( वग) म ह (अयो या सन ू ी है)! मने बहत कह डाला, यह सब बड़ी िढठाई क है। हे गोसाई!ं जैसा
उिचत हो, वैसा ही क िजए।

दो० - धम सेतु क नायतन कस न कह अस राम।


लोग दिु खत िदन दइु दरस देिख लहहँ िब ाम॥ 248॥

(विश ने कहा -) हे राम! तुम धम के सेतु और दया के धाम हो, तुम भला ऐसा य न कहो?
लोग दुःखी ह। दो िदन तु हारा दशन कर शांित लाभ कर ल॥ 248॥

राम बचन सिु न सभय समाजू। जनु जलिनिध महँ िबकल जहाजू॥
सिु न गरु िगरा सम
ु ंगल मूला। भयउ मनहँ मा त अनक
ु ू ला॥

राम के वचन सुनकर सारा समाज भयभीत हो गया। मानो बीच समु म जहाज डगमगा गया हो।
परं तु जब उ ह ने गु विश क े क याणमल ू क वाणी सुनी, तो उस जहाज के िलए मानो
हवा अनुकूल हो गई।

पावन पयँ ितहँ काल नहाह । जो िबलोिक अघ ओघ नसाह ॥


मंगलमूरित लोचन भ र भ र। िनरखिहं हरिष दंडवत क र क र॥
सब लोग पिव पयि वनी नदी म (अथवा पयि वनी नदी के पिव जल म) तीन समय (सबेरे,
दोपहर और सायंकाल) नान करते ह, िजसके दशन से ही पाप के समहू न हो जाते ह और
मंगल मिू त राम को दंडवत णाम कर-करके उ ह ने भर-भरकर देखते ह।

राम सैल बन देखन जाह । जहँ सखु सकल सकल दख ु नाह ॥


झरना झरिहं सध
ु ासम बारी। ि िबध तापहर ि िबध बयारी॥

सब राम के पवत (कामदिग र) और वन को देखने जाते ह, जहाँ सभी सुख ह और सभी दुःख
ृ के समान जल झरते ह और तीन कार क (शीतल, मंद, सुगंध) हवा
का अभाव है। झरने अमत
तीन कार के (आ याि मक, आिधभौितक, आिधदैिवक) ताप को हर लेती है।

िबटप बेिल तन ृ अगिनत जाती। फल सून प लव बह भाँती॥


संदु र िसला सखु द त छाह । जाइ बरिन बन छिब केिह पाह ॥

असं य जाित के व ृ , लताएँ और तण ृ ह तथा बहत तरह के फल, फूल और प े ह। सुंदर िशलाएँ
ह। व ृ क छाया सुख देनेवाली है। वन क शोभा िकससे वणन क जा सकती है?

दो० - सरिन सरो ह जल िबहग कूजत गंज ु त भंग


ृ ।
बैर िबगत िबहरत िबिपन मग
ृ िबहंग बहरं ग॥ 249॥

तालाब म कमल िखल रहे ह, जल के प ी कूज रहे ह, भ रे गुंजार कर रहे ह और बहत रं ग के


प ी और पशु वन म वैर रिहत होकर िवहार कर रहे ह॥ 249॥

कोल िकरात िभ ल बनबासी। मधु सिु च संदु र वादु सध


ु ा सी॥
भ र भ र परन पटु रिच री। कंद मूल फल अंकुर जूरी॥

कोल, िकरात और भील आिद वन के रहनेवाले लोग पिव , सुंदर एवं अमत ृ के समान वािद
मधु (शहद) को सुंदर दोने बनाकर और उनम भर-भरकर तथा कंद, मल ू , फल और अंकुर आिद
क जिू ड़य (अँिटय ) को।

सबिह देिहं क र िबनय नामा। किह किह वाद भेद गन ु नामा॥


देिहं लोग बह मोल न लेह । फेरत राम दोहाई देह ॥

सबको िवनय और णाम करके उन चीज के अलग-अलग वाद, भेद ( कार), गुण और नाम
बता-बताकर देते ह। लोग उनका बहत दाम देते ह, पर वे नह लेते और लौटा देने म राम क
दुहाई देते ह।

कहिहं सनेह मगन मदृ ु बानी। मानत साधु म े पिहचानी॥


तु ह सक
ु ृ ती हम नीच िनषादा। पावा दरसनु राम सादा॥
ेम म म न हए वे कोमल वाणी से कहते ह िक साधु लोग ेम को पहचानकर उसका स मान
करते ह (अथात आप साधु ह, आप हमारे ेम को देिखए, दाम देकर या व तुएँ लौटाकर हमारे ेम
का ितर कार न क िजए)। आप तो पु या मा ह, हम नीच िनषाद ह। राम क कृपा से ही हमने
आप लोग के दशन पाए ह।

हमिह अगम अित दरसु तु हारा। जस म धरिन देवधिु न धारा॥


राम कृपाल िनषाद नेवाजा। प रजन जउ चिहअ जस राजा॥

हम लोग को आपके दशन बड़े ही दुलभ ह, जैसे म भिू म के िलए गंगा क धारा दुलभ है!
(देिखए,) कृपालु राम ने िनषाद पर कैसी कृपा क है। जैसे राजा ह वैसा ही उनके प रवार और
जा को भी होना चािहए।

दो० - यह िजयँ जािन सँकोचु तिज क रअ छोह लिख नेह।


हमिह कृतारथ करनलिग फल तन ृ अंकुर लेह॥ 250॥

दय म ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा ेम देखकर कृपा क िजए और हमको कृताथ
करने के िलए ही फल, तण
ृ और अंकुर लीिजए॥ 250॥

तु ह ि य पाहने बन पगु धारे । सेवा जोगु न भाग हमारे ॥


देब काह हम तु हिह गोसाँई। ई ंधनु पात िकरात िमताई॥

आप ि य पाहने वन म पधारे ह। आपक सेवा करने के यो य हमारे भा य नह ह। हे वामी! हम


आपको या दगे? भील क िम ता तो बस, ई ंधन (लकड़ी) और प ही तक है।

यह हमा र अित बिड़ सेवकाई। लेिहं न बासन बसन चोराई॥


हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुिटल कुचाली कुमित कुजाती॥

हमारी तो यही बड़ी भारी सेवा है िक हम आपके कपड़े और बतन नह चुरा लेते। हम लोग जड़
जीव ह, जीव क िहंसा करनेवाले ह; कुिटल, कुचाली, कुबुि और कुजाित ह।

पाप करत िनिस बासर जाह । निहं पट किट निहं पेट अघाह ॥
सपनेहँ धरमबिु कस काऊ। यह रघन ु ंदन दरस भाऊ॥

हमारे िदन-रात पाप करते ही बीतते ह। तो भी न तो हमारी कमर म कपड़ा है और न पेट ही भरते
ह। हमम व न म भी कभी धमबुि कैसी? यह सब तो रघुनाथ के दशन का भाव है।

जब त भु पद पदमु िनहारे । िमटे दस


ु ह दख
ु दोष हमारे ॥
ु त परु जन अनरु ागे। ित ह के भाग सराहन लागे॥
बचन सन
जब से भु के चरण कमल देखे, तब से हमारे दुःसह दुःख और दोष िमट गए। वनवािसय के
वचन सुनकर अयो या के लोग ेम म भर गए और उनके भा य क सराहना करने लगे।

छं ० - लागे सराहन भाग सब अनरु ाग बचन सन ु ावह ।


बोलिन िमलिन िसय राम चरन सनेह लिख सख ु ु पावह ॥
नर ना र िनदरिहं नेह िनज सिु न कोल िभ लिन क िगरा।
तलु सी कृपा रघबु ंसमिन क लोह लै लौका ितरा॥

सब उनके भा य क सराहना करने लगे और ेम के वचन सुनाने लगे। उन लोग के बोलने और


िमलने का ढं ग तथा सीताराम के चरण म उनका ेम देखकर सब सुख पा रहे ह। उन कोल-
भील क वाणी सुनकर सभी नर-नारी अपने ेम का िनरादर करते ह (उसे िध कार देते ह)।
तुलसीदास कहते ह िक यह रघुवंशमिण राम क कृपा है िक लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर
तैर गया।

सो० - िबहरिहं बन चह ओर ितिदन मिु दत लोग सब।


जल य दादरु मोर भए पीन पावस थम॥ 251॥

सब लोग िदन िदन परम आनंिदत होते हए वन म चार ओर िवचरते ह। जैसे पहली वषा के जल से
मेढ़क और मोर-मोटे हो जाते ह ( स न होकर नाचते-कूदते ह)॥ 251॥

परु जन ना र मगन अित ीती। बासर जािहं पलक सम बीती॥


सीय सासु ित बेष बनाई। सादर करइ स रस सेवकाई॥

अयो यापुरी के पु ष और ी सभी ेम म अ यंत म न हो रहे ह। उनके िदन पल के समान बीत


जाते ह। िजतनी सासुएँ थ , उतने ही वेष ( प) बनाकर सीता सब सासुओ ं क आदरपवू क एक-
सी सेवा करती ह।

लखा न मरमु राम िबनु काहँ। माया सब िसय माया माहँ॥


सीयँ सासु सेवा बस क ह । ित ह लिह सखु िसख आिसष दी ह ॥

राम के िसवा इस भेद को और िकसी ने नह जाना। सब मायाएँ सीता क माया म ही ह। सीता ने


सासुओ ं को सेवा से वश म कर िलया। उ ह ने सुख पाकर सीख और आशीवाद िदए।

लिख िसय सिहत सरल दोउ भाई। कुिटल रािन पिछतािन अघाई॥
अविन जमिह जाचित कैकेई। मिह न बीचु िबिध मीचु न देई॥

सीता समेत दोन भाइय (राम-ल मण) को सरल वभाव देखकर कुिटल रानी कैकेयी भरपेट
पछताई। वह प ृ वी तथा यमराज से याचना करती है, िकंतु धरती बीच (फटकर समा जाने के िलए
रा ता) नह देती और िवधाता मौत नह देता।

लोकहँ बेद िबिदत किब कहह । राम िबमख


ु थलु नरक न लहह ॥
यह संसउ सब के मन माह । राम गवनु िबिध अवध िक नाह ॥

लोक और वेद म िस है और किव ( ानी) भी कहते ह िक जो राम से िवमुख ह, उ ह नरक म


भी ठौर नह िमलती। सबके मन म यह संदेह हो रहा था िक हे िवधाता! राम का अयो या जाना
होगा या नह ।

दो० - िनिस न नीद निहं भूख िदन भरतु िबकल सिु च सोच।
नीच क च िबच मगन जस मीनिह सिलल सँकोच॥ 252॥

भरत को न तो रात को न द आती है, न िदन म भख ू ही लगती है। वे पिव सोच म ऐसे िवकल
ह, जैसे नीचे (तल) के क चड़ म डूबी हई मछली को जल क कमी से याकुलता होती है॥ 252॥

क ि ह मातु िमस काल कुचाली। ईित भीित जस पाकत साली॥


केिह िबिध होइ राम अिभषेकू। मोिह अवकलत उपाउ न एकू॥

(भरत सोचते ह िक) माता के िमस से काल ने कुचाल क है। जैसे धान के पकते समय ईित का
भय आ उपि थत हो। अब राम का रा यािभषेक िकस कार हो, मुझे तो एक भी उपाय नह सझ ू
पड़ता।

अविस िफरिहं गरु आयसु मानी। मिु न पिु न कहब राम िच जानी॥
मातु कहेहँ बहरिहं रघरु ाऊ। राम जनिन हठ करिब िक काऊ॥

गु क आ ा मानकर तो राम अव य ही अयो या को लौट चलगे। परं तु मुिन विश तो राम क


िच जानकर ही कुछ कहगे। (अथात वे राम क िच देखे िबना जाने को नह कहगे)। माता
कौस या के कहने से भी रघुनाथ लौट सकते ह; पर भला, राम को ज म देनेवाली माता या
कभी हठ करे गी?

ु र कर केितक बाता। तेिह महँ कुसमउ बाम िबधाता॥


मोिह अनच
ज हठ करउँ त िनपट कुकरमू। हरिग र त गु सेवक धरमू॥

मुझ सेवक क तो बात ही िकतनी है? उसम भी समय खराब है (मेरे िदन अ छे नह ह) और
िवधाता ितकूल है। यिद म हठ करता हँ तो यह घोर कुकम (अधम) होगा, य िक सेवक का धम
िशव के पवत कैलास से भी भारी (िनबाहने म किठन) है।

एकउ जुगिु त न मन ठहरानी। सोचत भरतिह रै िन िबहानी॥


ात नहाइ भिु ह िसर नाई। बैठत पठए रषयँ बोलाई॥
एक भी युि भरत के मन म न ठहरी। सोचते-ही-सोचते रात बीत गई। भरत ातःकाल नान
करके और भु राम को िसर नवाकर बैठे ही थे िक ऋिष विश ने उनको बुलवा भेजा।

दो० - गरु पद कमल नामु क र बैठे आयसु पाइ।


िब महाजन सिचव सब जुरे सभासद आइ॥ 253॥

भरत गु के चरणकमल म णाम करके आ ा पाकर बैठ गए। उसी समय ा ण, महाजन,
मं ी आिद सभी सभासद आकर जुट गए॥ 253॥

बोले मिु नब समय समाना। सन ु ह सभासद भरत सज


ु ाना॥
धरम धरु ीन भानक
ु ु ल भानू। राजा रामु वबस भगवानू॥

े मुिन विश समयोिचत वचन बोले - हे सभासद ! हे सुजान भरत! सुनो। सय


ू कुल के सय

महाराज राम धमधुरंधर और वतं भगवान ह।

स यसंध पालक ुित सेत।ू राम जनमु जग मंगल हेत॥ु


गरु िपतु मातु बचन अनस
ु ारी। खल दलु दलन देव िहतकारी॥

वे स य ित ह और वेद क मयादा के र क ह। राम का अवतार ही जगत के क याण के िलए


हआ है। वे गु , िपता और माता के वचन के अनुसार चलनेवाले ह। दु के दल का नाश
करनेवाले और देवताओं के िहतकारी ह।

नीित ीित परमारथ वारथ।ु कोउ न राम सम जान जथारथु॥


िबिध ह र ह सिस रिब िदिसपाला। माया जीव करम कुिल काला॥

नीित, ेम, परमाथ और वाथ को राम के समान यथाथ (त व से) कोई नह जानता। ा,
िव णु, महादेव, चं , सय
ू , िद पाल, माया, जीव, सभी कम और काल,

अिहप मिहप जहँ लिग भत ु ाई। जोग िसि िनगमागम गाई॥


क र िबचार िजयँ देखह नीक। राम रजाइ सीस सब ही क॥

शेष और (प ृ वी एवं पाताल के अ या य) राजा आिद जहाँ तक भुता है, और योग क िसि याँ,
जो वेद और शा म गाई गई ह, दय म अ छी तरह िवचार कर देखो, (तो यह प िदखाई
देगा िक) राम क आ ा इन सभी के िसर पर है (अथात राम ही सबके एक मा महान महे र
ह)।

दो० - राख राम रजाइ ख हम सब कर िहत होइ।


समिु झ सयाने करह अब सब िमिल संमत सोइ॥ 254॥
अतएव राम क आ ा और ख रखने म ही हम सबका िहत होगा। (इस त व और रह य को
समझकर) अब तुम सयाने लोग जो सबको स मत हो, वही िमलकर करो॥ 254॥

सब कहँ सख ु द राम अिभषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू॥


केिह िबिध अवध चलिहं रघरु ाऊ। कहह समिु झ सोइ क रअ उपाऊ॥

राम का रा यािभषेक सबके िलए सुखदायक है। मंगल और आनंद का मल


ू यही एक माग है।
(अब) रघुनाथ अयो या िकस कार चल? िवचारकर कहो, वही उपाय िकया जाए।

सब सादर सिु न मिु नबर बानी। नय परमारथ वारथ सानी॥


उत न आव लोग भए भोरे । तब िस नाइ भरत कर जोरे ॥

मुिन े विश क नीित, परमाथ और वाथ (लौिकक िहत) म सनी हई वाणी सबने
आदरपवू क सुनी। पर िकसी को कोई उ र नह आता, सब लोग भोले (िवचार शि से रिहत) हो
गए। तब भरत ने िसर नवाकर हाथ जोड़े ।

ु ंस भए भूप घनेरे। अिधक एक त एक बड़ेरे॥


भानब
जनम हेतु सब कहँ िपतु माता। करम सभु ासभ
ु देइ िबधाता॥

ू वंश म एक-से-एक अिधक बड़े बहत-से राजा हो गए ह। सभी के ज म के


(और कहा -) सय
कारण िपता-माता होते ह और शुभ-अशुभ कम को (कम का फल) िवधाता देते ह।

दिल दख
ु सजइ सकल क याना। अस असीस राउ र जगु जाना॥
सो गोसाइँ िबिध गित जेिहं छक । सकइ को टा र टेक जो टेक ॥

आपका आशीष ही एक ऐसा है, जो दुःख का दमन करके, सम त क याण को सज देते है; यह
जगत जानता है। हे वामी! आप वही ह, िज ह ने िवधाता क गित (िवधान) को भी रोक िदया।
आपने जो टेक टेक दी (जो िन य कर िदया) उसे कौन टाल सकता है?।

दो० - बूिझअ मोिह उपाउ अब सो सब मोर अभाग।ु


सिु न सनेहमय बचन गरु उर उमगा अनरु ाग॥ु 255॥

ू ते ह, यह सब मेरा अभा य है। भरत के ेममय वचन को सुनकर गु


अब आप मुझसे उपाय पछ
के दय म ेम उमड़ आया॥ 255॥

तात बात फु र राम कृपाह । राम िबमख


ु िसिध सपनेहँ नाह ॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता। अरध तजिहं बध ु सरबस जाता॥

(वे बोले -) हे तात! बात स य है, पर है राम क कृपा से ही। राम िवमुख को तो व न म भी िसि
नह िमलती। हे तात! म एक बात कहने म सकुचाता हँ। बुि मान लोग सव व जाता देखकर
(आधे क र ा के िलए) आधा छोड़ िदया करते ह।

तु ह कानन गवनह दोउ भाई। फे रअिहं लखन सीय रघरु ाई॥


सिु न सब
ु चन हरषे दोउ ाता। भे मोद प रपूरन गाता॥

अतः तुम दोन भाई (भरत-श ु न) वन को जाओ और ल मण, सीता और राम को लौटा िदया
जाए। ये सुंदर वचन सुनकर दोन भाई हिषत हो गए। उनके सारे अंग परमानंद से प रपण
ू हो गए।

मन स न तन तेजु िबराजा। जनु िजय राउ रामु भए राजा॥


बहत लाभ लोग ह लघु हानी। सम दख
ु सख ु सब रोविहं रानी॥

उनके मन स न हो गए। शरीर म तेज सुशोिभत हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे ह और राम
राजा हो गए ह ! अ य लोग को तो इसम लाभ अिधक और हािन कम तीत हई। परं तु रािनय
को दुःख-सुख समान ही थे (राम-ल मण वन म रह या भरत-श ु न, दो पु का िवयोग तो
रहे गा ही), यह समझकर वे सब रोने लग ।

कहिहं भरतु मिु न कहा सो क हे। फलु जग जीव ह अिभमत दी हे॥


कानन करउँ जनम भ र बासू। एिह त अिधक न मोर सप ु ासू॥

भरत कहने लगे - मुिन ने जो कहा, वह करने से जगतभर के जीव को उनक इि छत व तु देने
का फल होगा। (चौदह वष क कोई अविध नह ,) म ज मभर वन म वास क ँ गा। मेरे िलए इससे
बढ़कर और कोई सुख नह है।

दो० - अंतरजामी रामु िसय तु ह सरब य सज


ु ान।
ज फुर कहह त नाथ िनज क िजअ बचनु वान॥ 256॥

राम और सीता दय क जाननेवाले ह और आप सव तथा सुजान ह। यिद आप यह स य कह


रहे ह तो हे नाथ! अपने वचन को माण क िजए (उनके अनुसार यव था क िजए)॥ 256॥

भरत बचन सिु न देिख सनेह। सभा सिहत मिु न भए िबदेह॥


भरत महा मिहमा जलरासी। मिु न मित ठािढ़ तीर अबला सी॥

भरत के वचन सुनकर और उनका ेम देखकर सारी सभा सिहत मुिन विश िवदेह हो गए
(िकसी को अपने देह क सुिध न रही)। भरत क महान मिहमा समु है, मुिन क बुि उसके तट
पर अबला ी के समान खड़ी है।

गा चह पार जतनु िहयँ हेरा। पावित नाव न बोिहतु बेरा॥


औ क रिह को भरत बड़ाई। सरसी सीिप िक िसंधु समाई॥
वह (उस समु के) पार जाना चाहती है, इसके िलए उसने दय म उपाय भी ढूँढ़े! पर (उसे पार
करने का साधन) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नह पाती। भरत क बड़ाई और कौन करे गा?
तलैया क सीपी म भी कह समु समा सकता है?

भरतु मिु निह मन भीतर भाए। सिहत समाज राम पिहं आए॥
भु नामु क र दी ह सआ ु सन।ु बैठे सब सिु न मिु न अनस
ु ासन॥ु

मुिन विश क अंतरा मा को भरत बहत अ छे लगे और वे समाज सिहत राम के पास आए। भु
राम ने णाम कर उ म आसन िदया। सब लोग मुिन क आ ा सुनकर बैठ गए।

बोले मिु नब बचन िबचारी। देस काल अवसर अनहु ारी॥


सनु ह राम सरब य सज
ु ाना। धरम नीित गन
ु यान िनधाना॥

े मुिन देश, काल और अवसर के अनुसार िवचार करके वचन बोले - हे सव ! हे सुजान! हे
धम, नीित, गुण और ान के भंडार राम! सुिनए -

दो० - सब के उर अंतर बसह जानह भाउ कुभाउ।


परु जन जननी भरत िहत होइ सो किहअ उपाउ॥ 257॥

आप सबके दय के भीतर बसते ह और सबके भले-बुरे भाव को जानते ह। िजसम पुरवािसय का,
माताओं का और भरत का िहत हो, वही उपाय बतलाइए॥ 257॥

आरत कहिहं िबचा र न काऊ। सूझ जुआ रिह आपन दाऊ॥


सिु न मिु न बचन कहत रघरु ाऊ॥ नाथ तु हारे िह हाथ उपाऊ॥

आत (दुःखी) लोग कभी िवचारकर नह कहते। जुआरी को अपना ही दाँव सझ ू ता है। मुिन के
वचन सुनकर रघुनाथ कहने लगे - हे नाथ! उपाय तो आप ही के हाथ है।

सब कर िहत ख राउ र राख। आयसु िकएँ मिु दत फुर भाष॥


थम जो आयसु मो कहँ होई। माथ मािन कर िसख सोई॥

आपका ख रखने म और आपक आ ा को स य कहकर स नता पवू क पालन करने म ही


सबका िहत है। पहले तो मुझे जो आ ा हो, म उसी िश ा को माथे पर चढ़ाकर क ँ ।

पिु न जेिह कहँ जस कहब गोसाई ं। सो सब भाँित घिटिह सेवकाई ं॥


कह मिु न राम स य तु ह भाषा। भरत सनेहँ िबचा न राखा॥

िफर हे गोसाई!ं आप िजसको जैसा कहगे वह सब तरह से सेवा म लग जाएगा (आ ा पालन


करे गा)। मुिन विश कहने लगे - हे राम! तुमने सच कहा। पर भरत के ेम ने िवचार को नह
रहने िदया।

तेिह त कहउँ बहो र बहोरी। भरत भगित बस भइ मित मोरी॥


मोर जान भरत िच राखी। जो क िजअ सो सभ ु िसव साखी॥

इसीिलए म बार-बार कहता हँ, मेरी बुि भरत क भि के वश हो गई है। मेरी समझ म तो भरत
क िच रखकर जो कुछ िकया जाएगा, िशव सा ी ह, वह सब शुभ ही होगा।

दो० - भरत िबनय सादर सिु नअ क रअ िबचा बहो र।


करब साधम ु त लोकमत नपृ नय िनगम िनचो र॥ 258॥

पहले भरत क िवनती आदरपवू क सुन लीिजए, िफर उस पर िवचार क िजए। तब साधुमत,
लोकमत, राजनीित और वेद का िनचोड़ (सार) िनकालकर वैसा ही (उसी के अनुसार) क िजए॥
258॥

गरु अनरु ागु भरत पर देखी। राम दयँ आनंदु िबसेषी॥


भरतिह धरम धरु ं धर जानी। िनज सेवक तन मानस बानी॥

भरत पर गु का नेह देखकर राम के दय म िवशेष आनंद हआ। भरत को धमधुरंधर और तन,
मन, वचन से अपना सेवक जानकर -

बोले गु आयस अनक ु ू ला। बचन मंजु मदृ ु मंगल मूला॥


नाथ सपथ िपतु चरन दोहाई। भयउ न भअ ु न भरत सम भाई॥

राम गु क आ ा अनुकूल मनोहर, कोमल और क याण के मल ू वचन बोले - हे नाथ! आपक


सौगंध और िपता के चरण क दुहाई है (म स य कहता हँ िक) िव भर म भरत के समान कोई
भाई हआ ही नह ।

जे गरु पद अंबज
ु अनरु ागी। ते लोकहँ बेदहँ बड़भागी॥
राउर जा पर अस अनरु ागू। को किह सकइ भरत कर भागू॥

जो लोग गु के चरणकमल के अनुरागी ह, वे लोक म (लौिकक ि से) भी और वेद म


(परमािथक ि से) भी बड़भागी होते ह! (िफर) िजस पर आप (गु ) का ऐसा नेह है, उस भरत
के भा य को कौन कह सकता है?

लिख लघु बंधु बिु सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥


भरतु कहिहं सोइ िकएँ भलाई। अस किह राम रहे अरगाई॥
छोटा भाई जानकर भरत के मँुह पर उसक बड़ाई करने म मेरी बुि सकुचाती है। (िफर भी म तो
यही कहँगा िक) भरत जो कुछ कह, वही करने म भलाई है। ऐसा कहकर राम चुप हो रहे।

दो० - तब मिु न बोले भरत सन सब सँकोचु तिज तात।


कृपािसंधु ि य बंधु सन कहह दय कै बात॥ 259॥

तब मुिन भरत से बोले - हे तात! सब संकोच यागकर कृपा के समु अपने यारे भाई से अपने
दय क बात कहो॥ 259॥

सिु न मिु न बचन राम ख पाई। गु सािहब अनक


ु ू ल अघाई॥
लिख अपन िसर सबु छ भा । किह न सकिहं कछु करिहं िबचा ॥

मुिन के वचन सुनकर और राम का ख पाकर गु तथा वामी को भरपेट अपने अनुकूल
जानकर सारा बोझ अपने ही ऊपर समझकर भरत कुछ कह नह सकते। वे िवचार करने लगे।

पल
ु िक सरीर सभाँ भए ठाढ़े। नीरज नयन नेह जल बाढ़े॥
कहब मोर मिु ननाथ िनबाहा। एिह त अिधक कह म काहा॥

शरीर से पुलिकत होकर वे सभा म खड़े हो गए। कमल के समान ने म ेमा ुओ ं क बाढ़ आ
गई। (वे बोले -) मेरा कहना तो मुिननाथ ने ही िनबाह िदया (जो कुछ म कह सकता था वह
उ ह ने ही कह िदया)। इससे अिधक म या कहँ?

म जानउँ िनज नाथ सभु ाऊ। अपरािधह पर कोह न काऊ॥


मो पर कृपा सनेह िबसेषी। खेलत खिु नस न कबहँ देखी॥

अपने वामी का वभाव म जानता हँ। वे अपराधी पर भी कभी ोध नह करते। मुझ पर तो


उनक िवशेष कृपा और नेह है। मने खेल म भी कभी उनक रस (अ स नता) नह देखी।

िससप
ु न त प रहरे उँ न संग।ू कबहँ न क ह मोर मन भंगू॥
म भु कृपा रीित िजयँ जोही। हारे हँ खेल िजताविहं मोही॥

बचपन म ही मने उनका साथ नह छोड़ा और उ ह ने भी मेरे मन को कभी नह तोड़ा (मेरे मन


के ितकूल कोई काम नह िकया)। मने भु क कृपा क रीित को दय म भली-भाँित देखा है
(अनुभव िकया है)। मेरे हारने पर भी खेल म भु मुझे िजता देते रहे ह।

दो० - महँ सनेह सकोच बस सनमखु कही न बैन।


दरसन तिृ पत न आजु लिग मे िपआसे नैन॥ 260॥

मने भी ेम और संकोचवश कभी सामने मँुह नह खोला। ेम के यासे मेरे ने आज तक भु के


दशन से त ृ नह हए॥ 260॥

िबिध न सकेऊ सिह मोर दल


ु ारा। नीच बीचु जननी िमस पारा॥
यहउ कहत मोिह आजु न सोभा। अपन समिु झ साधु सिु च को भा॥

परं तु िवधाता मेरा दुलार न सह सका। उसने नीच माता के बहाने (मेरे और वामी के बीच) अंतर
डाल िदया। यह भी कहना आज मुझे शोभा नह देता। य िक अपनी समझ से कौन साधु और
पिव हआ है? (िजसको दूसरे साधु और पिव मान, वही साधु है।)

मातु मंिद म साधु सच


ु ाली। उर अस आनत कोिट कुचाली॥
फरइ िक कोदव बािल सस ु ाली। मक
ु ता सव िक संबक
ु काली॥

माता नीच है और म सदाचारी और साधु हँ, ऐसा दय म लाना ही करोड़ दुराचार के समान है।
या कोद क बाली उ म धान फल सकती है? या काली घ घी मोती उ प न कर सकती है?

सपनेहँ दोसक लेसु न काह। मोर अभाग उदिध अवगाह॥


िबनु समझु िनज अघ प रपाकू। जा रउँ जायँ जनिन किह काकू॥

व न म भी िकसी को दोष का लेश भी नह है। मेरा अभा य ही अथाह समु है। मने अपने पाप
का प रणाम समझे िबना ही माता को कटु वचन कहकर यथ ही जलाया।

दयँ हे र हारे उँ सब ओरा। एकिह भाँित भलेिहं भल मोरा॥


गरु गोसाइँ सािहब िसय रामू। लागत मोिह नीक प रनामू॥

म अपने दय म सब ओर खोज कर हार गया (मेरी भलाई का कोई साधन नह सझ ू ता)। एक ही


कार भले ही (िन य ही) मेरा भला है। वह यह है िक गु महाराज सवसमथ ह और सीताराम
मेरे वामी ह। इसी से प रणाम मुझे अ छा जान पड़ता है।

दो० - साधु सभाँ गरु भु िनकट कहउँ सथ ु ल सितभाउ।


े पंचु िक झूठ फुर जानिहं मिु न रघरु ाउ॥ 261॥

साधुओ ं क सभा म गु और वामी के समीप इस पिव तीथ थान म म स य भाव से कहता हँ।
यह ेम है या पंच (छल-कपट)? झठ
ू है या सच? इसे (सव ) मुिन विश और (अंतयामी)
रघुनाथ जानते ह॥ 261॥

भूपित मरन म े पनु राखी। जननी कुमित जगतु सबु साखी॥


देिख न जािहं िबकल महतार । जरिहं दस
ु ह जर परु नर नार ॥

ेम के ण को िनबाहकर महाराज (िपता) का मरना और माता क कुबुि , दोन का सारा


संसार सा ी है। माताएँ याकुल ह, वे देखी नह जात । अवधपुरी के नर-नारी दुःसह ताप से जल
रहे ह।

मह सकल अनरथ कर मूला। सो सिु न समिु झ सिहउँ सब सूला॥


सिु न बन गवनु क ह रघन ु ाथा। क र मिु न बेष लखन िसय साथा॥
िबनु पानिह ह पयादेिह पाएँ । संक सािख रहेउँ एिह घाएँ ॥
बह र िनहा र िनषाद सनेह। कुिलस किठन उर भयउ न बेह॥

म ही इन सारे अनथ का मल
ू हँ, यह सुन और समझकर मने सब दुःख सहा है। रघुनाथ ल मण
और सीता के साथ मुिनय का-सा वेष धारणकर िबना जत ू े पहने पाँव- यादे (पैदल) ही वन को
चले गए, यह सुनकर, शंकर सा ी ह, इस घाव से भी म जीता रह गया (यह सुनते ही मेरे ाण
नह िनकल गए)! िफर िनषादराज का ेम देखकर भी इस व से भी कठोर दय म छे द नह
हआ (यह फटा नह )।

अब सबु आँिख ह देखउे ँ आई। िजअत जीव जड़ सबइ सहाई॥


िज हिह िनरिख मग साँिपिन बीछी। तजिहं िबषम िबषु तामस तीछी॥

अब यहाँ आकर सब आँख देख िलया। यह जड़ जीव जीता रह कर सभी सहावेगा। िजनको
देखकर रा ते क साँिपनी और बीछी भी अपने भयानक िवष और ती ोध को याग देती ह -

दो० - तेइ रघन


ु ंदनु लखनु िसय अनिहत लागे जािह।
तासु तनय तिज दस ु ह दख
ु दैउ सहावइ कािह॥ 262॥

वे ही रघुनंदन, ल मण और सीता िजसको श ु जान पड़े , उस कैकेयी के पु मुझको छोड़कर दैव


दुःसह दुःख और िकसे सहावेगा॥ 262॥

सिु न अित िबकल भरत बर बानी। आरित ीित िबनय नय सानी॥


सोक मगन सब सभाँ खभा । मनहँ कमल बन परे उ तस ु ा ॥

अ यंत याकुल तथा दुःख, ेम, िवनय और नीित म सनी हई भरत क े वाणी सुनकर सब
लोग शोक म म न हो गए, सारी सभा म िवषाद छा गया। मानो कमल के वन पर पाला पड़ गया
हो।

किह अनेक िबिध कथा परु ानी। भरत बोधु क ह मिु न यानी॥
ु ंदू। िदनकर कुल कैरव बन चंदू॥
बोले उिचत बचन रघन

तब ानी मुिन विश ने अनेक कार क पुरानी कथाएँ कहकर भरत का समाधान िकया। िफर
ू कुल पी कुमुदवन के फुि लत करनेवाले चं मा रघुनंदन उिचत वचन बोले -
सय
तात जायँ िजयँ करह गलानी। ईस अधीन जीव गित जानी॥
तीिन काल ितभअ ु न मत मोर। पु यिसलोक तात तर तोर॥

हे तात! तुम अपने दय म यथ ही लािन करते हो। जीव क गित को ई र के अधीन जानो। मेरे
मत म (भत ू , भिव य, वतमान) तीन काल और ( वग, प ृ वी और पाताल) तीन लोक के सब
पु या मा पु ष तुम से नीचे ह।

उर आनत तु ह पर कुिटलाई। जाइ लोकु परलोकु नसाई॥


दोसु देिहं जनिनिह जड़ तेई। िज ह गरु साधु सभा निहं सेई॥

दय म भी तुम पर कुिटलता का आरोप करने से यह लोक (यहाँ के सुख, यश आिद) िबगड़


जाता है और परलोक भी न हो जाता है (मरने के बाद भी अ छी गित नह िमलती)। माता
कैकेयी को तो वे ही मख
ू दोष देते ह, िज ह ने गु और साधुओ ं क सभा का सेवन नह िकया है।

दो० - िमिटहिहं पाप पंच सब अिखल अमंगल भार।


लोक सज ु सु परलोक सख
ु ु सिु मरत नामु तु हार॥ 263॥

हे भरत! तु हारा नाम- मरण करते ही सब पाप, पंच (अ ान) और सम त अमंगल के समहू
िमट जाएँ गे तथा इस लोक म सुंदर यश और परलोक म सुख ा होगा॥ 263॥

कहउँ सभ
ु ाउ स य िसव साखी। भरत भूिम रह राउ र राखी॥
े निहं दरु इ दरु ाएँ ॥
तात कुतरक करह जिन जाएँ । बैर म

हे भरत! म वभाव से ही स य कहता हँ, िशव सा ी ह, यह प ृ वी तु हारी ही रखी रह रही है। हे


तात! तुम यथ कुतक न करो। वैर और ेम िछपाए नह िछपते।

मिु नगन िनकट िबहग मग


ृ जाह । बाधक बिधक िबलोिक पराह ॥
िहत अनिहत पसु पि छउ जाना। मानष
ु तनु गन
ु यान िनधाना॥

प ी और पशु मुिनय के पास (बेधड़क) चले जाते ह, पर िहंसा करनेवाले बिधक को देखते ही
भाग जाते ह। िम और श ु को पशु-प ी भी पहचानते ह। िफर मनु य शरीर तो गुण और ान
का भंडार ही है।

तात तु हिह म जानउँ नीक। कर काह असमंजस जीक॥


े पन लागी॥
राखेउ रायँ स य मोिह यागी। तनु प रहरे उ म

हे तात! म तु ह अ छी तरह जानता हँ। या क ँ ? जी म बड़ा असमंजस (दुिवधा) है। राजा ने मुझे
याग कर स य को रखा और ेम- ण के िलए शरीर छोड़ िदया।
तासु बचन मेटत मन सोचू। तेिह त अिधक तु हार सँकोचू॥
ता पर गरु मोिह आयसु दी हा। अविस जो कहह चहउँ सोइ क हा॥

उनके वचन को मेटते मन म सोच होता है। उससे भी बढ़कर तु हारा संकोच है। उस पर भी गु
ने मुझे आ ा दी है। इसिलए अब तुम जो कुछ कहो, अव य ही म वही करना चाहता हँ।

दो० - मनु स न क र सकुच तिज कहह कर सोइ आज।ु


स यसंध रघबु र बचन सिु न भा सख
ु ी समाजु॥ 264॥

तुम मन को स न कर और संकोच को याग कर जो कुछ कहो, म आज वही क ँ । स य


ित रघुकुल े राम का यह वचन सुनकर सारा समाज सुखी हो गया॥ 264॥

सरु गन सिहत सभय सरु राजू। सोचिहं चाहत होन अकाजू॥


बनत उपाउ करत कछु नाह । राम सरन सब गे मन माह ॥

देवगण सिहत देवराज इं भयभीत होकर सोचने लगे िक अब बना-बनाया काम िबगड़ना ही
चाहता है। कुछ उपाय करते नह बनता। तब वे सब मन-ही-मन राम क शरण गए।

बह र िबचा र पर पर कहह । रघप ु ित भगत भगित बस अहह ॥


सिु ध क र अंबरीष दरु बासा। भे सरु सरु पित िनपट िनरासा॥

िफर वे िवचार करके आपस म कहने लगे िक रघुनाथ तो भ क भि के वश ह। अंबरीष और


दुवासा क (घटना) याद करके तो देवता और इं िब कुल ही िनराश हो गए।

सहे सरु ह बह काल िबषादा। नरह र िकए गट हलादा॥


लिग लिग कान कहिहं धिु न माथा। अब सरु काज भरत के हाथा॥

पहले देवताओं ने बहत समय तक दुःख सहे । तब भ ाद ने ही निृ संह भगवान को कट


िकया था। सब देवता पर पर कान से लग-लगकर और िसर धुनकर कहते ह िक अब (इस बार)
देवताओं का काम भरत के हाथ है।

आन उपाउ न देिखअ देवा। मानत रामु सस े क सेवा॥


ु व
े सिु मरह सब भरतिह। िनज गन
िहयँ स म ु सील राम बस करतिह॥

हे देवताओ! और कोई उपाय नह िदखाई देता। राम अपने े सेवक क सेवा को मानते ह
(अथात उनके भ क कोई सेवा करता है, तो उस पर बहत स न होते ह)। अतएव अपने गुण
और शील से राम को वश म करनेवाले भरत का ही सब लोग अपने-अपने दय म ेम सिहत
मरण करो।
दो० - सिु न सरु मत सरु गरु कहेउ भल तु हार बड़ भाग।ु
सकल सम ु ंगल मूल जग भरत चरन अनरु ाग॥ु 265॥

देवताओं का मत सुनकर देवगु बहृ पित ने कहा - अ छा िवचार िकया, तु हारे बड़े भा य ह।
भरत के चरण का ेम जगत म सम त शुभ मंगल का मल ू है॥ 265॥

सीतापित सेवक सेवकाई। कामधेनु सय स रस सहु ाई॥


भरत भगित तु हर मन आई। तजह सोचु िबिध बात बनाई॥

सीतानाथ राम के सेवक क सेवा सैकड़ कामधेनुओ ं के समान सुंदर है। तु हारे मन म भरत क
भि आई है, तो अब सोच छोड़ दो। िवधाता ने बात बना दी।

देखु देवपित भरत भाऊ। सजह सभु ायँ िबबस रघरु ाऊ॥
मन िथर करह देव ड नाह । भरतिह जािन राम प रछाह ॥

हे देवराज! भरत का भाव तो देखो। रघुनाथ सहज वभाव से ही उनके पण ू प से वश म ह। हे


देवताओं ! भरत को राम क परछाई ं (परछाई ं क भाँित उनका अनुसरण करनेवाला) जानकर मन
ि थर करो, डर क बात नह है।

सिु न सरु गरु सरु संमत सोचू। अंतरजामी भिु ह सकोचू॥


िनज िसर भा भरत िजयँ जाना। करत कोिट िबिध उर अनम ु ाना॥

देवगु बहृ पित और देवताओं क स मित (आपस का िवचार) और उनका सोच सुनकर
अंतयामी भु राम को संकोच हआ। भरत ने अपने मन म सब बोझा अपने ही िसर जाना और वे
दय म करोड़ (अनेक ) कार के अनुमान (िवचार) करने लगे।

क र िबचा मन दी ही ठीका। राम रजायस आपन नीका॥


िनज पन तिज राखेउ पनु मोरा। छोह सनेह क ह निहं थोरा॥

सब तरह से िवचार करके अंत म उ ह ने मन म यही िन य िकया िक राम क आ ा म ही अपना


क याण है। उ ह ने अपना ण छोड़कर मेरा ण रखा। यह कुछ कम कृपा और नेह नह िकया
(अथात अ यंत ही अनु ह और नेह िकया)।

दो० - क ह अनु ह अिमत अित सब िबिध सीतानाथ।


क र नामु बोले भरतु जो र जलज जुग हाथ॥ 266॥

जानक नाथ ने सब कार से मुझ पर अ यंत अपार अनु ह िकया। तदनंतर भरत दोन
करकमल को जोड़कर णाम करके बोले - ॥ 266॥
कह कहाव का अब वामी। कृपा अंबिु निध अंतरजामी॥
गरु स न सािहब अनक
ु ू ला। िमटी मिलन मन कलिपत सूला॥

हे वामी! हे कृपा के समु ! हे अंतयामी! अब म (अिधक) या कहँ और या कहाऊँ? गु


महाराज को स न और वामी को अनुकूल जानकर मेरे मिलन मन क कि पत पीड़ा िमट गई।

अपडर डरे उँ न सोच समूल। रिबिह न दोसु देव िदिस भूल॥


मोर अभागु मातु कुिटलाई। िबिध गित िबषम काल किठनाई॥

म िम या डर से ही डर गया था। मेरे सोच क जड़ ही न थी। िदशा भल


ू जाने पर हे देव! सय
ू का
दोष नह है। मेरा दुभा य, माता क कुिटलता, िवधाता क टेढ़ी चाल और काल क किठनता,

पाउ रोिप सब िमिल मोिह घाला। नतपाल पन आपन पाला॥


यह नइ रीित न राउ र होई। लोकहँ बेद िबिदत निहं गोई॥

इन सबने िमलकर पैर रोपकर ( ण करके) मुझे न कर िदया था। परं तु शरणागत के र क
आपने अपना (शरणागत क र ा का) ण िनबाहा (मुझे बचा िलया)। यह आपक कोई नई रीित
नह है। यह लोक और वेद म कट है, िछपी नह है।

जगु अनभल भल एकु गोसाई ं। किहअ होइ भल कासु भलाई ं॥


देउ देवत स रस सभ
ु ाऊ। सनमख ु िबमख
ु न काहिह काऊ॥

सारा जगत बुरा (करनेवाला) हो; िकंतु हे वामी! केवल एक आप ही भले (अनुकूल) ह , तो िफर
किहए, िकसक भलाई से भला हो सकता है? हे देव! आपका वभाव क पव ृ के समान है; वह
न कभी िकसी के स मुख (अनुकूल) है, न िवमुख ( ितकूल)।

दो० - जाइ िनकट पिहचािन त छाहँ समिन सब सोच।


मागत अिभमत पाव जग राउ रं कु भल पोच॥ 267॥

उस व ृ (क पव ृ ) को पहचानकर जो उसके पास जाए, तो उसक छाया ही सारी िचंताओं का


नाश करनेवाली है। राजा-रं क, भले-बुरे, जगत म सभी उससे माँगते ही मनचाही व तु पाते ह॥
267॥

लिख सब िबिध गरु वािम सनेह। िमटेउ छोभु निहं मन संदहे ॥


अब क नाकर क िजअ सोई। जन िहत भु िचत छोभु न होई॥

गु और वामी का सब कार से नेह देखकर मेरा ोभ िमट गया, मन म कुछ भी संदेह नह


रहा। हे दया क खान! अब वही क िजए िजससे दास के िलए भु के िच म ोभ (िकसी कार
का िवचार) न हो।
जो सेवकु सािहबिह सँकोची। िनज िहत चहइ तासु मित पोची॥
सेवक िहत सािहब सेवकाई। करै सकल सख ु लोभ िबहाई॥

जो सेवक वामी को संकोच म डालकर अपना भला चाहता है, उसक बुि नीच है। सेवक का
िहत तो इसी म है िक वह सम त सुख और लोभ को छोड़कर वामी क सेवा ही करे ।

वारथु नाथ िफर सबही का। िकएँ रजाइ कोिट िबिध नीका॥
यह वारथ परमारथ सा । सकल सक ु ृ त फल सगु ित िसंगा ॥

हे नाथ! आपके लौटने म सभी का वाथ है, और आपक आ ा पालन करने म करोड़ कार से
क याण है। यही वाथ और परमाथ का सार (िनचोड़) है, सम त पु य का फल और संपण
ू शुभ
गितय का ंग ृ ार है।

देव एक िबनती सिु न मोरी। उिचत होइ तस करब बहोरी॥


ितलक समाजु सािज सबु आना। क रअ सफ ु ल भु ज मनु माना॥

हे देव! आप मेरी एक िवनती सुनकर, िफर जैसा उिचत हो वैसा ही क िजए। राजितलक क सब
साम ी सजाकर लाई गई है, जो भु का मन माने तो उसे सफल क िजए (उसका उपयोग
क िजए)।

दो० - सानज
ु पठइअ मोिह बन क िजअ सबिह सनाथ।
नत फे रअिहं बंधु दोउ नाथ चल म साथ॥ 268॥

छोटे भाई श ु न समेत मुझे वन म भेज दीिजए और (अयो या लौटकर) सबको सनाथ क िजए।
नह तो िकसी तरह भी (यिद आप अयो या जाने को तैयार न ह ) हे नाथ! ल मण और श ु न
दोन भाइय को लौटा दीिजए और म आपके साथ चलँ॥ू 268॥

नत जािहं बन तीिनउ भाई। बह रअ सीय सिहत रघरु ाई॥


जेिह िबिध भु स न मन होई। क ना सागर क िजअ सोई॥

अथवा हम तीन भाई वन चले जाएँ और हे रघुनाथ! आप सीता सिहत (अयो या को) लौट जाइए।
हे दयासागर! िजस कार से भु का मन स न हो, वही क िजए।

देवँ दी ह सबु मोिह अभा । मोर नीित न धरम िबचा ॥


कहउँ बचन सब वारथ हेत।ू रहत न आरत क िचत चेतू॥

हे देव! आपने सारा भार (िज मेवारी) मुझ पर रख िदया। पर मुझम न तो नीित का िवचार है, न
धम का। म तो अपने वाथ के िलए सब बात कह रहा हँ। आत (दुःखी) मनु य के िच म चेत
(िववेक) नह रहता।

उत देइ सिु न वािम रजाई। सो सेवकु लिख लाज लजाई॥


अस म अवगन ु उदिध अगाधू। वािम सनेहँ सराहत साधू॥

वामी क आ ा सुनकर जो उ र दे, ऐसे सेवक को देखकर ल जा भी लजा जाती है। म अवगुण
का ऐसा अथाह समु हँ (िक भु को उ र दे रहा हँ)। िकंतु वामी (आप) नेह वश साधु कहकर
मुझे सराहते ह!

अब कृपाल मोिह सो मत भावा। सकुच वािम मन जाइँ न पावा॥


भु पद सपथ कहउँ सित भाऊ। जग मंगल िहत एक उपाऊ॥

हे कृपालु! अब तो वही मत मुझे भाता है, िजससे वामी का मन संकोच न पावे। भु के चरण क
शपथ है, म स यभाव से कहता हँ, जगत के क याण के िलए एक यही उपाय है।

दो० - भु स न मन सकुच तिज जो जेिह आयसु देब।


सो िसर ध र ध र क रिह सबु िमिटिह अनट अवरे ब॥ 269॥

स न मन से संकोच यागकर भु िजसे जो आ ा दगे, उसे सब लोग िसर चढ़ा-चढ़ाकर


(पालन) करगे और सब उप व और उलझन िमट जाएँ गी॥ 269॥

भरत बचन सिु च सिु न सरु हरषे। साधु सरािह सम


ु न सरु बरषे॥
असमंजस बस अवध नेवासी। मिु दत मन तापस बनबासी॥

भरत के पिव वचन सुनकर देवता हिषत हए और 'साधु-साधु' कहकर सराहना करते हए
देवताओं ने फूल बरसाए। अयो या िनवासी असमंजस के वश हो गए (िक देख अब राम या कहते
ह) तप वी तथा वनवासी लोग (राम के वन म बने रहने क आशा से) मन म परम आनंिदत हए।

चुपिहं रहे रघुनाथ सँकोची। भु गित देिख सभा सब सोची॥

जनक दूत तेिह अवसर आए। मुिन बिस ँ सुिन बेिग बोलाए॥

िकंतु संकोची रघुनाथ चुप ही रह गए। भु क यह ि थित (मौन) देख सारी सभा सोच म पड़ गई।
उसी समय जनक के दूत आए, यह सुनकर मुिन विश ने उ ह तुरंत बुलवा िलया।

क र नाम ित ह रामु िनहारे । बेषु देिख भए िनपट दख


ु ारे ॥
दूत ह मिु नबर बूझी बाता। कहह िबदेह भूप कुसलाता॥

उ ह ने (आकर) णाम करके राम को देखा। उनका (मुिनय का-सा) वेष देखकर वे बहत ही
दुःखी हए। मुिन े विश ने दूत से बात पछ
ू ी िक राजा जनक का कुशल समाचार कहो।

सिु न सकुचाइ नाइ मिह माथा। बोले चरबर जोर हाथा॥


बूझब राउर सादर साई ं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाई ं॥

यह (मुिन का कुशल ) सुनकर सकुचाकर प ृ वी पर म तक नवाकर वे े दूत हाथ


जोड़कर बोले - हे वामी! आपका आदर के साथ पछ ू ना, यही हे गोसाई ं! कुशल का कारण हो
गया।

दो० - नािहं त कोसलनाथ क साथ कुसल गइ नाथ।


िमिथला अवध िबसेष त जगु सब भयउ अनाथ॥ 270॥

नह तो हे नाथ! कुशल- ेम तो सब कोसलनाथ दशरथ के साथ ही चली गई। (उनके चले जाने
से) य तो सारा जगत ही अनाथ ( वामी के िबना असहाय) हो गया, िकंतु िमिथला और अवध तो
िवशेष प से अनाथ हो गये॥ 270॥

कोसलपित गित सिु न जनकौरा। भे सब लोक सोकबस बौरा॥


जेिहं देखे तेिह समय िबदेह। नामु स य अस लाग न केह॥

अयो यानाथ क गित (दशरथ का मरण) सुनकर जनकपुरवासीसभी लोग शोकवश बावले हो
गए (सुध-बुध भल
ू गए)। उस समय िज ह ने िवदेह को (शोकम न) देखा, उनम से िकसी को
ऐसा न लगा िक उनका िवदेह (देहािभमानरिहत) नाम स य है! ( य िक देहािभमान से शू य
पु ष को शोक कैसा?)

रािन कुचािल सनु त नरपालिह। सूझ न कछु जस मिन िबनु यालिह॥


भरत राज रघबु र बनबासू। भा िमिथलेसिह दयँ हराँसू॥

रानी क कुचाल सुनकर राजा जनक को कुछ सझ ू न पड़ा, जैसे मिण के िबना साँप को नह
सझ ू ता। िफर भरत को रा य और राम को वनवास सुनकर िमिथले र जनक के दय म बड़ा
दुःख हआ।

ृ बूझे बध
नप ु सिचव समाजू। कहह िबचा र उिचत का आजू॥
समिु झ अवध असमंजस दोऊ। चिलअ िक रिहअ न कह कछु कोऊ॥

राजा ने िव ान और मंि य के समाज से पछ


ू ा िक िवचारकर किहए, आज (इस समय) या
करना उिचत है? अयो या क दशा समझकर और दोन कार से असमंजस जानकर 'चिलए या
रिहए?' िकसी ने कुछ नह कहा।

नप
ृ िहं धीर ध र दयँ िबचारी। पठए अवध चतरु चर चारी॥
बूिझ भरत सित भाउ कुभाऊ। आएह बेिग न होइ लखाऊ॥

(जब िकसी ने कोई स मित नह दी) तब राजा ने धीरज धर दय म िवचारकर चार चतुर गु चर
(जाससू ) अयो या को भेजे (और उनसे कह िदया िक) तुम लोग (राम के ित) भरत के स ाव
(अ छे भाव, ेम) या दुभाव (बुरा भाव, िवरोध) का (यथाथ) पता लगाकर ज दी लौट आना,
िकसी को तु हारा पता न लगने पाए।

दो० - गए अवध चर भरत गित बूिझ देिख करतिू त।


चले िच कूटिह भरतु चार चले तेरहित॥ 271॥

गु चर अवध को गए और भरत का ढं ग जानकर और उनक करनी देखकर, जैसे ही भरत


िच कूट को चले, वे ितरहत (िमिथला) को चल िदए॥ 271॥

दूत ह आइ भरत कइ करनी। जनक समाज जथामित बरनी॥


सिु न गरु प रजन सिचव महीपित। भे सब सोच सनेहँ िबकल अित॥

(गु ) दूत ने आकर राजा जनक क सभा म भरत क करनी का अपनी बुि के अनुसार वणन
िकया। उसे सुनकर गु , कुटुंबी, मं ी और राजा सभी सोच और नेह से अ यंत याकुल हो गए।

ध र धीरजु क र भरत बड़ाई। िलए सभ ु ट साहनी बोलाई॥


घर परु देस रािख रखवारे । हय गय रथ बह जान सँवारे ॥

िफर जनक ने धीरज धरकर और भरत क बड़ाई करके अ छे यो ाओं और साहिनय को बुलाया।
घर, नगर और देश म र क को रखकर, घोड़े , हाथी, रथ आिद बहत-सी सवा रयाँ सजवाई।ं

दघ
ु री सािध चले ततकाला। िकए िब ामु न मग मिहपाला॥
भोरिहं आजु नहाइ यागा। चले जमनु उतरन सबु लागा॥

वे दुघिड़या मुहत साधकर उसी समय चल पड़े । राजा ने रा ते म कह िव ाम भी नह िकया। आज


ही सबेरे यागराज म नान करके चले ह। जब सब लोग यमुना उतरने लगे,

खब र लेन हम पठए नाथा। ित ह किह अस मिह नायउ माथा॥


साथ िकरात छ सातक दी हे। मिु नबर तरु त िबदा चर क हे॥

तब हे नाथ! हम खबर लेने को भेजा। उ ह ने (दूत ने) ऐसा कहकर प ृ वी पर िसर नवाया।
मुिन े विश ने कोई छः-सात भील को साथ देकर दूत को तुरंत िवदा कर िदया।

दो० - सन
ु त जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघन
ु ंदनिह सकोचु बड़ सोच िबबस सरु राज॥
ु 272॥
जनक का आगमन सुनकर अयो या का सारा समाज हिषत हो गया। राम को बड़ा संकोच हआ
और देवराज इं तो िवशेष प से सोच के वश म हो गए॥ 272॥

गरइ गलािन कुिटल कैकेई। कािह कहै केिह दूषनु देई॥


अस मन आिन मिु दत नर नारी। भयउ बहो र रहब िदन चारी॥

कुिटल कैकेयी मन-ही-मन लािन (प ा ाप) से गली जाती है। िकससे कहे और िकसको दोष
दे ? और सब नर-नारी मन म ऐसा िवचार कर स न हो रहे ह िक (अ छा हआ, जनक के आने
से) चार (कुछ) िदन और रहना हो गया।

एिह कार गत बासर सोऊ। ात नहान लाग सबु कोऊ॥


क र म जनु पूजिहं नर नारी। गनप गौ र ितपरु ा र तमारी॥

इस तरह वह िदन भी बीत गया। दूसरे िदन ातःकाल सब कोई नान करने लगे। नान करके
सब नर-नारी गणेश, गौरी, महादेव और सयू भगवान क पज
ू ा करते ह।

रमा रमन पद बंिद बहोरी। िबनविहं अंजुिल अंचल जोरी॥


राजा रामु जानक रानी। आनँद अविध अवध रजधानी॥

िफर ल मीपित भगवान िव णु के चरण क वंदना करके, दोन हाथ जोड़कर, आँचल पसारकर
िवनती करते ह िक राम राजा ह , जानक रानी ह तथा राजधानी अयो या आनंद क सीमा
होकर -

सबु स बसउ िफ र सिहत समाजा। भरतिह रामु करहँ जुबराजा॥


एिह सखु सध
ु ाँ स िच सब काह। देव देह जग जीवन लाह॥

िफर समाज सिहत सुखपवू क बसे और राम भरत को युवराज बनाएँ । हे देव! इस सुख पी अमत

से स चकर सब िकसी को जगत म जीने का लाभ दीिजए।

दो० - गरु समाज भाइ ह सिहत राम राजु परु होउ।


अछत राम राजा अवध म रअ माग सबु कोउ॥ 273॥

गु , समाज और भाइय समेत राम का रा य अवधपुरी म हो और राम के राजा रहते ही हम लोग


अयो या म मर। सब कोई यही माँगते ह॥ 273॥

सिु न सनेहमय परु जन बानी। िनंदिहं जोग िबरित मिु न यानी॥


एिह िबिध िन यकरम क र परु जन। रामिह करिहं नाम पल ु िक तन॥

अयो यावािसय क ेममयी वाणी सुनकर ानी मुिन भी अपने योग और वैरा य क िनंदा करते
ह। अवधवासी इस कार िन यकम करके राम को पुलिकत शरीर हो णाम करते ह।

ऊँच नीच म यम नर नारी। लहिहं दरसु िनज िनज अनहु ारी॥


सावधान सबही सनमानिहं। सकल सराहत कृपािनधानिहं॥

ऊँच, नीच और म यम सभी ेिणय के ी-पु ष अपने-अपने भाव के अनुसार राम का दशन
ा करते ह। राम सावधानी के साथ सबका स मान करते ह और सभी कृपािनधान राम क
सराहना करते ह।

ल रकाइिह त रघब
ु र बानी। पालत नीित ीित पिहचानी॥
सील सकोच िसंधु रघरु ाऊ। सम
ु ख
ु सल
ु ोचन सरल सभ
ु ाऊ॥

राम क लड़कपन से ही यह बान है िक वे ेम को पहचानकर नीित का पालन करते ह। रघुनाथ


शील और संकोच के समु ह। वे सुंदर मुख के (या सबके अनुकूल रहनेवाले), सुंदर ने वाले (या
सबको कृपा और ेम क ि से देखनेवाले) और सरल वभाव ह।

कहत राम गनु गन अनरु ागे। सब िनज भाग सराहन लागे॥


हम सम पु य पंज
ु जग थोरे । िज हिह रामु जानत क र मोरे ॥

राम के गुणसमहू को कहते-कहते सब लोग ेम म भर गए और अपने भा य क सराहना करने


ू ीवाले थोड़े ही ह; िज ह राम अपना करके जानते
लगे िक जगत म हमारे समान पु य क बड़ी पँज
ह (ये मेरे ह ऐसा जानते ह)।

े मगन तेिह समय सब सिु न आवत िमिथलेस।ु


दो० - म
सिहत सभा सं म उठेउ रिबकुल कमल िदनेस॥
ु 274॥

उस समय सब लोग ेम म म न ह। इतने म ही िमिथलापित जनक को आते हए सुनकर


ू कुल पी कमल के सय
सय ू राम सभा सिहत आदरपवू क ज दी से उठ खड़े हए॥ 274॥

भाइ सिचव गरु परु जन साथा। आग गवनु क ह रघन


ु ाथा॥
िग रब दीख जनकपित जबह । क र नामु रथ यागेउ तबह ॥

भाई, मं ी, गु और पुरवािसय को साथ लेकर रघुनाथ आगे (जनक क अगवानी म) चले।


जनक ने य ही पवत े कामदनाथ को देखा, य ही णाम करके उ ह ने रथ छोड़ िदया
(पैदल चलना शु कर िदया।)

राम दरस लालसा उछाह। पथ म लेसु कलेसु न काह॥


ु र बैदहे ी। िबनु मन तन दख
मन तहँ जहँ रघब ु सिु ध केही॥
ु सख
राम के दशन क लालसा और उ साह के कारण िकसी को रा ते क थकावट और लेश जरा भी
नह है। मन तो वहाँ है जहाँ राम और जानक ह। िबना मन के शरीर के सुख-दुःख क सुध
िकसको हो?

आवत जनकु चले एिह भाँती। सिहत समाज म े मित माती॥


आए िनकट देिख अनरु ागे। सादर िमलन परसपर लागे॥

जनक इस कार चले आ रहे ह। समाज सिहत उनक बुि ेम म मतवाली हो रही है। िनकट आए
देखकर सब ेम म भर गए और आदरपवू क आपस म िमलने लगे।

लगे जनक मिु नजन पद बंदन। रिष ह नामु क ह रघन ु ंदन॥


भाइ ह सिहत रामु िमिल राजिह। चले लवाइ समेत समाजिह॥

जनक (विश आिद अयो यावासी) मुिनय के चरण क वंदना करने लगे और राम ने (शतानंद
आिद जनकपुरवासी) ऋिषय को णाम िकया। िफर भाइय समेत राम राजा जनक से िमलकर
उ ह समाज सिहत अपने आ म को िलवा चले।

दो० - आ म सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।


सेन मनहँ क ना स रत िलएँ जािहं रघन
ु ाथु॥ 275॥

राम का आ म शांत रस पी पिव जल से प रपणू समु है। जनक क सेना (समाज) मानो
क णा (क ण रस) क नदी है, िजसे रघुनाथ (उस आ म पी शांत रस के समु म िमलाने के
िलए) िलए जा रहे ह॥ 275॥

बोरित यान िबराग करारे । बचन ससोक िमलत नद नारे ॥


सोच उसास समीर तरं गा। धीरज तट त बर कर भंगा॥

यह क णा क नदी (इतनी बढ़ी हई है िक) ान-वैरा य पी िकनार को डुबाती जाती है। शोक
भरे वचन नद और नाले ह, जो इस नदी म िमलते ह; और सोच क लंबी साँस (आह) ही वायु के
झकोर से उठनेवाली तरं ग ह, जो धैय पी िकनारे के उ म व ृ को तोड़ रही ह।

िबषम िबषाद तोरावित धारा। भय म भवँर अबत अपारा॥


केवट बध
ु िब ा बिड़ नावा। सकिहं न खेइ ऐक निहं आवा॥

भयानक िवषाद (शोक) ही उस नदी क तेज धारा है। भय और म (मोह) ही उसके असं य भँवर
और च ह। िव ान म लाह ह, िव ा ही बड़ी नाव है, परं तु वे उसे खे नह सकते ह, (उस िव ा
का उपयोग नह कर सकते ह), िकसी को उसक अटकल ही नह आती है।

बनचर कोल िकरात िबचारे । थके िबलोिक पिथक िहयँ हारे ॥


आ म उदिध िमली जब जाई। मनहँ उठेउ अंबिु ध अकुलाई॥

वन म िवचरनेवाले बेचारे कोल-िकरात ही या ी ह, जो उस नदी को देखकर दय म हारकर थक


गए ह। यह क णा-नदी जब आ म-समु म जाकर िमली, तो मानो वह समु अकुला उठा (खौल
उठा)।

सोक िबकल दोउ राज समाजा। रहा न यानु न धीरजु लाजा॥


भूप प गन
ु सील सराही। रोविहं सोक िसंधु अवगाही॥

दोन राज समाज शोक से याकुल हो गए। िकसी को न ान रहा, न धीरज और न लाज ही रही।
राजा दशरथ के प, गुण और शील क सराहना करते हए सब रो रहे ह और शोक समु म
डुबक लगा रहे ह।

छं ० - अवगािह सोक समु सोचिहं ना र नर याकुल महा।


दै दोष सकल सरोष बोलिहं बाम िबिध क ह कहा॥
सरु िस तापस जोिगजन मिु न देिख दसा िबदेह क ।
तलु सी न समरथु कोउ जो त र सकै स रत सनेह क ॥

शोक समु म डुबक लगाते हए सभी ी-पु ष महान याकुल होकर सोच (िचंता) कर रहे ह। वे
सब िवधाता को दोष देते हए ोधयु होकर कह रहे ह िक ितकूल िवधाता ने यह या िकया?
तुलसीदास कहते ह िक देवता, िस , तप वी, योगी और मुिनगण म कोई भी समथ नह है जो
उस समय िवदेह (जनकराज) क दशा देखकर ेम क नदी को पार कर सके ( ेम म म न हए
िबना रह सके)।

सो० - िकए अिमत उपदेस जहँ तहँ लोग ह मिु नबर ह।


धीरजु ध रअ नरे स कहेउ बिस िबदेह सन॥ 276॥

जहाँ-तहाँ े मुिनय ने लोग को अप रिमत उपदेश िदए और विश ने िवदेह (जनक) से कहा
- हे राजन! आप धैय धारण क िजए॥ 276॥

जासु यान रिब भव िनिस नासा। बचन िकरन मिु न कमल िबकासा॥
तेिह िक मोह ममता िनअराई। यह िसय राम सनेह बड़ाई॥

िजन राजा जनक का ान पी सय ू भव (आवागमन) पी राि का नाश कर देता है और


िजनक वचन पी िकरण मुिन पी कमल को िखला देती ह, (आनंिदत करती ह), या मोह
और ममता उनके िनकट भी आ सकते ह? यह तो सीताराम के ेम क मिहमा है! (अथात राजा
जनक क यह दशा सीताराम के अलौिकक ेम के कारण हई, लौिकक मोह-ममता के कारण
नह । जो लौिकक मोह-ममता को पार कर चुके ह उन पर भी सीताराम का ेम अपना भाव
िदखाए िबना नह रहता)।

िबषई साधक िस सयाने। ि िबध जीव जग बेद बखाने॥


राम सनेह सरस मन जासू। साधु सभाँ बड़ आदर तासू॥

िवषयी, साधक और ानवान िस पु ष - जगत म तीन कार के जीव वेद ने बताए ह। इन


तीन म िजसका िच राम के नेह से सरस (सराबोर) रहता है, साधुओ ं क सभा म उसी का बड़ा
आदर होता है।

सोह न राम म े िबनु यानू। करनधार िबनु िजिम जलजानू॥


मिु न बहिबिध िबदेह समझ
ु ाए। राम घाट सब लोग नहाए॥

राम के ेम के िबना ान शोभा नह देता, जैसे कणधार के िबना जहाज। विश ने िवदेहराज
(जनक) को बहत कार से समझाया। तदनंतर सब लोग ने राम के घाट पर नान िकया।

सकल सोक संकुल नर नारी। सो बास बीतेउ िबनु बारी॥


पसु खग मग
ृ ह न क ह अहा । ि य प रजन कर कौन िबचा ॥

ू थे। वह िदन िबना ही जल के बीत गया (भोजन क बात तो दूर रही,


ी-पु ष सब शोक से पण
िकसी ने जल तक नह िपया)। पशु-प ी और िहरन तक ने कुछ आहार नह िकया। तब
ि यजन एवं कुटुंिबय का तो िवचार ही या िकया जाए?

दो० - दोउ समाज िनिमराजु रघरु ाजु नहाने ात।


बैठे सब बट िबटप तर मन मलीन कृस गात॥ 277॥

िनिमराज जनक और रघुराज राम तथा दोन ओर के समाज ने दूसरे िदन सबेरे नान िकया और
सब बड़ के व ृ के नीचे जा बैठे। सबके मन उदास और शरीर दुबले ह॥ 277॥

जे मिहसरु दसरथ परु बासी। जे िमिथलापित नगर िनवासी॥


हंस बंस गरु जनक परु ोधा। िज ह जग मगु परमारथु सोधा॥

जो दशरथ क नगरी अयो या के रहनेवाले और जो िमिथलापित जनक के नगर जनकपुर के


ू वंश के गु विश तथा जनक के पुरोिहत शतानंद, िज ह ने
रहनेवाले ा ण थे, तथा सय
सांसा रक अ युदय का माग तथा परमाथ का माग छान डाला था,

लगे कहन उपदेस अनेका। सिहत धरम नय िबरित िबबेका॥


कौिसक किह किह कथा परु ान । समझ
ु ाई सब सभा सब
ु ान ॥

वे सब धम, नीित वैरा य तथा िववेकयु अनेक उपदेश देने लगे। िव ािम ने पुरानी कथाएँ
(इितहास) कह-कहकर सारी सभा को सुंदर वाणी से समझाया।

तब रघन ु ाथ कौिसकिह कहेऊ। नाथ कािल जल िबनु सब ु रहेऊ॥


मिु न कह उिचत कहत रघरु ाई। गयउ बीित िदन पहर अढ़ाई॥

तब रघुनाथ ने िव ािम से कहा िक हे नाथ! कल सब लोग िबना जल िपए ही रह गए थे। (अब


कुछ आहार करना चािहए)। िव ािम ने कहा िक रघुनाथ उिचत ही कह रहे ह। ढाई पहर िदन
(आज भी) बीत गया।

रिष ख लिख कह तेरहितराजू। इहाँ उिचत निहं असन अनाजू॥


कहा भूप भल सबिह सोहाना। पाइ रजायसु चले नहाना॥

िव ािम का ख देखकर ितरहत राज जनक ने कहा - यहाँ अ न खाना उिचत नह है। राजा
का सुंदर कथन सबके मन को अ छा लगा। सब आ ा पाकर नहाने चले।

दो० - तेिह अवसर फल फूल दल मूल अनेक कार।


लइ आए बनचर िबपल ु भ र भ र काँव र भार॥ 278॥

उसी समय अनेक कार के बहत-से फल, फूल, प े, मल


ू आिद बहँिगय और बोझ म भर-भरकर
वनवासी (कोल-िकरात) लोग ले आए॥ 278॥

कामद भे िग र राम सादा। अवलोकत अपहरत िबषादा॥


सर स रता बन भूिम िबभागा। जनु उमगत आनँद अनरु ागा॥

राम क कृपा से सब पवत मनचाही व तु देनेवाले हो गए। वे देखने मा से ही दुःख को सवथा


हर लेते थे। वहाँ के तालाब , निदय , वन और प ृ वी के सभी भाग म मानो आनंद और ेम उमड़
रहा है।

बेिल िबटप सब सफल सफूला। बोलत खग मग


ृ अिल अनुकूला॥

तेिह अवसर बन अिधक उछाह। ि िबध समीर सुखद सब काह॥

बेल और व ृ सभी फल और फूल से यु हो गए। प ी, पशु और भ र अनुकूल बोलने लगे। उस


अवसर पर वन म बहत उ साह (आनंद) था, सब िकसी को सुख देनेवाली शीतल, मंद, सुगंध
हवा चल रही थी।

जाइ न बरिन मनोहरताई। जनु मिह करित जनक पहनाई॥


तब सब लोग नहाइ नहाई। राम जनक मिु न आयसु पाई॥
देिख देिख त बर अनरु ागे। जहँ तहँ परु जन उतरन लागे॥
दल फल मूल कंद िबिध नाना। पावन संदु र सध
ु ा समाना॥

वन क मनोहरता वणन नह क जा सकती, मानो प ृ वी जनक क पहनाई कर रही है। तब


जनकपुरवासी सब लोग नहा-नहाकर राम, जनक और मुिन क आ ा पाकर, सुंदर व ृ को
देख-देखकर ेम म भरकर जहाँ-तहाँ उतरने लगे। पिव , सुंदर और अमत
ृ के समान ( वािद )
अनेक कार के प े, फल, मल
ू और कंद -

दो० - सादर सब कहँ रामगरु पठए भ र भ र भार।


पूिज िपतर सरु अितिथ गरु लगे करन फरहार॥ 279॥

राम के गु विश ने सबके पास बोझे भर-भरकर आदरपवू क भेजे। तब वे िपतर-देवता, अितिथ
और गु क पज ू ा करके फलाहार करने लगे॥ 279॥

एिह िबिध बासर बीते चारी। रामु िनरिख नर ना र सख


ु ारी॥
दहु समाज अिस िच मन माह । िबनु िसय राम िफरब भल नाह ॥

इस कार चार िदन बीत गए। राम को देखकर सभी नर-नारी सुखी ह। दोन समाज के मन म
ऐसी इ छा है िक सीताराम के िबना लौटना अ छा नह है।

सीता राम संग बनबासू। कोिट अमरपरु स रस सप ु ासू॥


प रह र लखन रामु बैदहे ी। जेिह घ भाव बाम िबिध तेही॥

सीताराम के साथ वन म रहना करोड़ देवलोक के (िनवास के) समान सुखदायक है। ल मण,
राम और जानक को छोड़कर िजसको घर अ छा लगे, िवधाता उसके िवपरीत ह।

दािहन दइउ होइ जब सबही। राम समीप बिसअ बन तबही॥


मंदािकिन म जनु ितह काला। राम दरसु मदु मंगल माला॥

जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी राम के पास वन म िनवास हो सकता है। मंदािकनी का तीन
समय नान और आनंद तथा मंगल क माला (समहू ) प राम का दशन,

अटनु राम िग र बन तापस थल। असनु अिमअ सम कंद मूल फल॥


सख
ु समेत संबत दइु साता। पल सम होिहं न जिनअिहं जाता॥

राम के पवत (कामदनाथ), वन और तपि वय के थान म घम ू ना और अमत ृ के समान कंद,


मलू , फल का भोजन। चौदह वष सुख के साथ पल के समान हो जाएँ गे (बीत जाएँ गे), जाते हए
जान ही न पड़गे।

दो० - एिह सख
ु जोग न लोग सब कहिहं कहाँ अस भाग।ु
सहज सभ
ु ायँ समाज दहु राम चरन अनरु ाग॥ु 280॥

सब लोग कह रहे ह िक हम इस सुख के यो य नह ह, हमारे ऐसे भा य कहाँ? दोन समाज का


राम के चरण म सहज वभाव से ही ेम है॥ 280॥

एिह िबिध सकल मनोरथ करह । बचन स म े सन


ु त मन हरह ॥
सीय मातु तेिह समय पठाई ं। दास देिख सअ
ु वस आई ं॥

इस कार सब मनोरथ कर रहे ह। उनके ेमयु वचन सुनते ही (सुनने वाल के) मन को हर
लेते ह। उसी समय सीता क माता सुनयना क भेजी हई दािसयाँ (कौस या आिद के िमलने का)
सुंदर अवसर देखकर आई ं।

सावकास सिु न सब िसय सासू। आयउ जनकराज रिनवासू॥


कौस याँ सादर सनमानी। आसन िदए समय सम आनी॥

उनसे यह सुनकर िक सीता क सब सासुएँ इस समय फुरसत म ह, जनकराज का रिनवास


उनसे िमलने आया। कौस या ने आदरपवू क उनका स मान िकया और समयोिचत आसन लाकर
िदए।

सीलु सनेह सकल दहु ओरा। विहं देिख सिु न कुिलस कठोरा॥
पल
ु क िसिथल तन बा र िबलोचन। मिह नख िलखन लग सब सोचन॥

दोन ओर सबके शील और ेम को देखकर और सुनकर कठोर व भी िपघल जाते ह। शरीर


पुलिकत और िशिथल ह और ने म (शोक और ेम के) आँसू ह। सब अपने (पैर के) नख से
जमीन कुरे दने और सोचने लग ।

सब िसय राम ीित क िस मूरित। जनु क ना बह बेष िबसूरित॥


सीय मातु कह िबिध बिु ध बाँक । जो पय फेनु फोर पिब टाँक ॥

सभी सीताराम के ेम क मिू त-सी ह, मानो वयं क णा ही बहत-से वेष ( प) धारण करके
िवसरू रही हो (दुःख कर रही हो)। सीता क माता सुनयना ने कहा - िवधाता क बुि बड़ी टेढ़ी
है, जो दूध के फेन जैसी कोमल व तु को व क टाँक से फोड़ रहा है (अथात जो अ यंत कोमल
और िनद ष ह उन पर िवपि -पर-िवपि ढहा रहा है)।

दो० - सिु नअ सध
ु ा देिख अिहं गरल सब करतिू त कराल।
जहँ तहँ काक उलक ू बक मानस सकृत मराल॥ 281॥

अमतृ केवल सुनने म आता है और िवष जहाँ-तहाँ य देखे जाते ह। िवधाता क सभी करतत ू
भयंकर ह। जहाँ-तहाँ कौए, उ लू और बगुले ही (िदखाई देते) ह; हंस तो एक मानसरोवर म ही है॥
281॥

सिु न ससोच कह देिब सिु म ा। िबिध गित बिड़ िबपरीत िबिच ा॥


जो सिृ ज पालइ हरइ बहोरी। बालकेिल सम िबिध मित भोरी॥

यह सुनकर देवी सुिम ा शोक के साथ कहने लग - िवधाता क चाल बड़ी ही िवपरीत और
िविच है, जो सिृ को उ प न करके पालता है और िफर न कर डालता है। िवधाता क बुि
बालक के खेल के समान भोली (िववेकशू य) है।

कौस या कह दोसु न काह। करम िबबस दख


ु सखु छित लाह॥
किठन करम गित जान िबधाता। जो सभ
ु असभु सकल फल दाता॥

कौस या ने कहा - िकसी का दोष नह है; दुःख-सुख, हािन-लाभ सब कम के अधीन ह। कम


क गित किठन (दुिव ेय) है, उसे िवधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फल का
देनेवाला है।

ईस रजाइ सीस सबही क। उतपित िथित लय िबषह अमी क॥


देिब मोह बस सोिचअ बादी। िबिध पंचु अस अचल अनादी॥

ई र क आ ा सभी के िसर पर है। उ पि , ि थित (पालन) और लय (संहार) तथा अमत ृ और


िवष के भी िसर पर है (ये सब भी उसी के अधीन ह)। हे देवी! मोहवश सोच करना यथ है। िवधाता
का पंच ऐसा ही अचल और अनािद है।

भूपित िजअब मरब उर आनी। सोिचअ सिख लिख िनज िहत हानी॥
सीय मातु कह स य सबु ानी। सक
ु ृ ती अविध अवधपित रानी॥

महाराज के मरने और जीने क बात को दय म याद करके जो िचंता करती ह, वह तो हे सखी!


हम अपने ही िहत क हािन देखकर ( वाथवश) करती ह। सीता क माता ने कहा - आपका
कथन उ म है और स य है। आप पु या माओं के सीमा प अवधपित (महाराज दशरथ) क ही
तो रानी ह। (िफर भला, ऐसा य न कहगी।)

दो० - लखनु रामु िसय जाहँ बन भल प रनाम न पोच।ु


गहब र िहयँ कह कौिसला मोिह भरत कर सोच॥ु 282॥

कौस या ने दुःख भरे दय से कहा - राम, ल मण और सीता वन म जाएँ , इसका प रणाम तो


अ छा ही होगा, बुरा नह । मुझे तो भरत क िचंता है॥ 282॥

ईस साद असीस तु हारी। सत


ु सतु बधू देवस र बारी॥
राम सपथ म क ि ह न काऊ। सो क र कहउँ सखी सित भाऊ॥
ई र के अनु ह और आपके आशीवाद से मेरे (चार ) पु और (चार ) बहएँ गंगा के जल के
समान पिव ह। हे सखी! मने कभी राम क सौगंध नह क , सो आज राम क शपथ करके स य
भाव से कहती हँ -

भरत सील गन
ु िबनय बड़ाई। भायप भगित भरोस भलाई॥
कहत सारदह कर मित हीचे। सागर सीप िक जािहं उलीचे॥

भरत के शील, गुण, न ता, बड़ पन, भाईपन, भि , भरोसे और अ छे पन का वणन करने म


सर वती क बुि भी िहचकती है। सीप से कह समु उलीचे जा सकते ह?

जानउँ सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोिह कहेउ महीपा॥


कस कनकु मिन पा रिख पाएँ । पु ष प रिखअिहं समयँ सभु ाएँ ॥

म भरत को सदा कुल का दीपक जानती हँ। महाराज ने भी बार-बार मुझे यही कहा था। सोना
कसौटी पर कसे जाने पर और र न पारखी (जौहरी) के िमलने पर ही पहचाना जाता है। वैसे ही
पु ष क परी ा समय पड़ने पर उसके वभाव से ही (उसका च र देखकर) हो जाती है।

अनिु चत आजु कहब अस मोरा। सोक सनेहँ सयानप थोरा॥


सिु न सरु स र सम पाविन बानी। भई ं सनेह िबकल सब रानी॥

िकंतु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुिचत है। शोक और नेह म सयानापन (िववेक) कम हो जाता
है (लोग कहगे िक म नेहवश भरत क बड़ाई कर रही हँ)। कौस या क गंगा के समान पिव
करनेवाली वाणी सुनकर सब रािनयाँ नेह के मारे िवकल हो उठ ।

दो० - कौस या कह धीर ध र सन


ु ह देिब िमिथलेिस।
को िबबेकिनिध ब लभिह तु हिह सकइ उपदेिस॥ 283॥

कौस या ने िफर धीरज धरकर कहा - हे देवी िमिथले री! सुिनए, ान के भंडार जनक क
ि या आपको कौन उपदेश दे सकता है?॥ 283॥

रािन राय सन अवस पाई। अपनी भाँित कहब समझ ु ाई॥


रिखअिहं लखनु भरतु गवनिहं बन। ज यह मत मानै महीप मन॥

हे रानी! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहाँ तक हो सके समझाकर किहएगा िक


ल मण को घर रख िलया जाए और भरत वन को जाएँ । यिद यह राय राजा के मन म (ठीक) जँच
जाए,

तौ भल जतनु करब सिु बचारी। मोर सोचु भरत कर भारी॥


गूढ़ सनेह भरत मन माह । रह नीक मोिह लागत नाह ॥

तो भली-भाँित खबू िवचारकर ऐसा य न कर। मुझे भरत का अ यिधक सोच है। भरत के मन म
ू ेम है। उनके घर रहने म मुझे भलाई नह जान पड़ती (यह डर लगता है िक उनके ाण को
गढ़
कोई भय न हो जाए)।

लिख सभ
ु ाउ सिु न सरल सब
ु ानी। सब भइ मगन क न रस रानी॥
नभ सून झ र ध य ध य धिु न। िसिथल सनेहँ िस जोगी मिु न॥

कौस या का वभाव देखकर और उनक सरल और उ म वाणी को सुनकर सब रािनयाँ क ण


रस म िनम न हो गई ं। आकाश से पु प वषा क झड़ी लग गई और ध य-ध य क विन होने
लगी। िस , योगी और मुिन नेह से िशिथल हो गए।

सबु रिनवासु िबथिक लिख रहेऊ। तब ध र धीर सिु म ाँ कहेऊ॥


देिब दंड जुग जािमिन बीती। राम मातु सिु न उठी स ीती॥

सारा रिनवास देखकर चिकत रह गया (िन त ध हो गया), तब सुिम ा ने धीरज करके कहा िक
हे देवी! दो घड़ी रात बीत गई है। यह सुनकर राम क माता कौस या ेमपवू क उठ -

दो० - बेिग पाउ धा रअ थलिह कह सनेहँ सितभाय।


हमर तौ अब ईस गित कै िमिथलेस सहाय॥ 284॥

और ेम सिहत स ाव से बोल - अब आप शी डे रे को पधा रए। हमारे तो अब ई र ही गित ह,


अथवा िमिथले र सहायक ह॥ 284॥

लिख सनेह सिु न बचन िबनीता। जनकि या गह पाय पन ु ीता॥


देिब उिचत अिस िबनय तु हारी। दसरथ घ रिन राम महतारी॥

कौस या के ेम को देखकर और उनके िवन वचन को सुनकर जनक क ि य प नी ने


उनके पिव चरण पकड़ िलए और कहा - हे देवी! आप राजा दशरथ क रानी और राम क माता
ह। आपक ऐसी न ता उिचत ही है।

भु अपने नीचह आदरह । अिगिन धूम िग र िसर ितनु धरह ॥


सेवकु राउ करम मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी॥

भु अपने िनज जन का भी आदर करते ह। अि न धुएँ को और पवत तण ृ (घास) को अपने िसर


पर धारण करते ह। हमारे राजा तो कम, मन और वाणी से आपके सेवक ह और सदा सहायक तो
महादेव-पावती ह।
रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय क िदनकर सोहै॥
रामु जाइ बनु क र सरु काजू। अचल अवधपरु क रहिहं राजू॥

आपका सहायक होने यो य जगत म कौन है? दीपक सय ू क सहायता करने जाकर कह शोभा
पा सकता है? राम वन म जाकर देवताओं का काय करके अवधपुरी म अचल रा य करगे।

अमर नाग नर राम बाहबल। सख


ु बिसहिहं अपन अपन थल॥
यह सब जागबिलक किह राखा। देिब न होइ मध
ु ा मिु न भाषा॥

देवता, नाग और मनु य सब राम क भुजाओं के बल पर अपने-अपने थान (लोक ) म


सुखपवू क बसगे। यह सब या व य मुिन ने पहले ही से कह रखा है। हे देवी! मुिन का कथन
यथ (झठ ू ा) नह हो सकता।

दो० - अस किह पग प र मे अित िसय िहत िबनय सन


ु ाइ।
िसय समेत िसयमातु तब चली सआ
ु यसु पाइ॥ 285॥

ऐसा कहकर बड़े ेम से पैर पड़कर सीता (को साथ भेजने) के िलए िवनती करके और सुंदर
आ ा पाकर तब सीता समेत सीता क माता डे रे को चल ॥ 285॥

ि य प रजनिह िमली बैदहे ी। जो जेिह जोगु भाँित तेिह तेही॥


तापस बेष जानक देखी। भा सबु िबकल िबषाद िबसेषी॥

जानक अपने यारे कुटुंिबय से - जो िजस यो य था, उससे उसी कार िमल । जानक को
तपि वनी के वेष म देखकर सभी शोक से अ यंत याकुल हो गए।

जनक राम गरु आयसु पाई। चले थलिह िसय देखी आई॥
लीि ह लाइ उर जनक जानक । पाहिन पावन म े ान क ॥

जनक राम के गु विश क आ ा पाकर डे रे को चले और आकर उ ह ने सीता को देखा।


जनक ने अपने पिव ेम और ाण क पाहनी जानक को दय से लगा िलया।

उर उमगेउ अंबिु ध अनरु ागू। भयउ भूप मनु मनहँ पयागू॥


िसय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम म े िससु सोहा॥

उनके दय म (वा स य) ेम का समु उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो याग हो गया। उस समु
के अंदर उ ह ने (आिद शि ) सीता के (अलौिकक) नेह पी अ यवट को बढ़ते हए देखा। उस
(सीता के ेम पी वट) पर राम का ेम पी बालक (बाल प धारी भगवान) सुशोिभत हो रहा है।

िचरजीवी मिु न यान िबकल जन।ु बूड़त लहेउ बाल अवलंबन॥ु


मोह मगन मित निहं िबदेह क । मिहमा िसय रघब
ु र सनेह क ॥

जनक का ान पी िचरं जीवी (माक डे य) मुिन याकुल होकर डूबते-डूबते मानो उस राम
ेम पी बालक का सहारा पाकर बच गया। व तुतः ( ािनिशरोमिण) िवदेहराज क बुि मोह म
म न नह है। यह तो सीताराम के ेम क मिहमा है (िजसने उन जैसे महान ानी के ान को
भी िवकल कर िदया)।

दो० - िसय िपतु मातु सनेह बस िबकल न सक सँभा र।


धरिनसत ु ाँ धीरजु धरे उ समउ सध
ु रमु िबचा र॥ 286॥

िपता-माता के ेम के मारे सीता ऐसी िवकल हो गई ं िक अपने को सँभाल न सक । (परं तु परम


धैयवती) प ृ वी क क या सीता ने समय और सुंदर धम का िवचार कर धैय धारण िकया॥ 286॥

तापस बेष जनक िसय देखी। भयउ मे ु प रतोषु िबसेषी॥


पिु पिब िकए कुल दोऊ। सजु स धवल जगु कह सबु कोऊ॥

सीता को तपि वनी वेष म देखकर जनक को िवशेष ेम और संतोष हआ। (उ ह ने कहा -) बेटी!
ू े दोन कुल पिव कर िदए। तेरे िनमल यश से सारा जगत उ वल हो रहा है, ऐसा सब कोई
तन
कहते ह।

िजित सरु स र क रित स र तोरी। गवनु क ह िबिध अंड करोरी॥


गंग अविन थल तीिन बड़ेरे। एिहं िकए साधु समाज घनेरे॥

तेरी क ित पी नदी देवनदी गंगा को भी जीतकर (जो एक ही ांड म बहती है) करोड़ ांड
म बह चली है। गंगा ने तो प ृ वी पर तीन ही थान (ह र ार, यागराज और गंगासागर) को बड़ा
(तीथ) बनाया है। पर तेरी इस क ित नदी ने तो अनेक संत समाज पी तीथ थान बना िदए ह।

िपतु कह स य सनेहँ सब ु ानी। सीय सकुच महँ मनहँ समानी॥


पिु न िपतु मातु लीि ह उर लाई। िसख आिसष िहत दीि ह सहु ाई॥

िपता जनक ने तो नेह से स ची सुंदर वाणी कही। परं तु अपनी बड़ाई सुनकर सीता मानो संकोच
म समा गई ं। िपता-माता ने उ ह िफर दय से लगा िलया और िहतभरी सुंदर सीख और आशीष
दी।

कहित न सीय सकुिच मन माह । इहाँ बसब रजन भल नाह ॥


लिख ख रािन जनायउ राऊ। दयँ सराहत सीलु सभ ु ाऊ॥

सीता कुछ कहती नह ह, परं तु सकुचा रही ह िक रात म (सासुओ ं क सेवा छोड़कर) यहाँ रहना
अ छा नह है। रानी सुनयना ने जानक का ख देखकर (उनके मन क बात समझकर) राजा
जनक को जना िदया। तब दोन अपने दय म सीता के शील और वभाव क सराहना करने
लगे।

दो० - बार बार िमिल भिट िसय िबदा क ि ह सनमािन।


कही समय िसर भरत गित रािन सब ु ािन सयािन॥ 287॥

राजा-रानी ने बार-बार िमलकर और दय से लगाकर तथा स मान करके सीता को िवदा िकया।
चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुंदर वाणी म भरत क दशा का वणन िकया॥ 287॥

सिु न भूपाल भरत यवहा । सोन सग ु ंध सध


ु ा सिस सा ॥
मूद े सजल नयन पलु के तन। सज
ु सु सराहन लगे मिु दत मन॥

सोने म सुगंध और (समु से िनकली हई) सुधा म चं मा के सार अमत ृ के समान भरत का
यवहार सुनकर राजा ने ( ेम िव ल होकर) अपने ( ेमा ुओ ं के) जल से भरे ने को मँदू िलया
(वे भरत के ेम म मानो यान थ हो गए)। वे शरीर से पुलिकत हो गए और मन म आनंिदत
होकर भरत के सुंदर यश क सराहना करने लगे।

सावधान सन
ु ु सम
ु िु ख सल
ु ोचिन। भरत कथा भव बंध िबमोचिन॥
धरम राजनय िबचा । इहाँ जथामित मोर चा ॥

(वे बोले -) हे सुमुिख! हे सुनयनी! सावधान होकर सुनो। भरत क कथा संसार के बंधन से
छुड़ानेवाली है। धम, राजनीित और िवचार - इन तीन िवषय म अपनी बुि के अनुसार मेरी
(थोड़ी-बहत) गित है (अथात इनके संबंध म म कुछ जानता हँ)।

सो मित मो र भरत मिहमाही। कहै काह छिल छुअित न छाँही॥


िबिध गनपित अिहपित िसव सारद। किब कोिबद बध ु बिु िबसारद॥

वह (धम, राजनीित और ान म वेश रखनेवाली) मेरी बुि भरत क मिहमा का वणन तो


या करे , छल करके भी उसक छाया तक को नह छू पाती! ा, गणेश, शेष, महादेव,
सर वती, किव, ानी, पंिडत और बुि मान -

भरत च रत क रित करततू ी। धरम सील गन ु िबमल िबभूती॥


समझ
ु त सनु त सख
ु द सब काह। सिु च सरु स र िच िनदर सधु ाह॥

सब िकसी को भरत के च र , क ित, करनी, धम, शील, गुण और िनमल ऐ य समझने म और


सुनने म सुख देनेवाले ह और पिव ता म गंगा का तथा वाद (मधुरता) म अमत
ृ का भी
ितर कार करनेवाले ह।

दो० - िनरविध गन
ु िन पम पु षु भरतु भरत सम जािन।
ु े िक सेर सम किबकुल मित सकुचािन॥ 288॥
किहअ सम

भरत असीम गुण संप न और उपमारिहत पु ष ह। भरत के समान बस, भरत ही ह, ऐसा जानो।
सुमे पवत को या सेर के बराबर कह सकते ह? इसिलए (उ ह िकसी पु ष के साथ उपमा देने
म) किव समाज क बुि भी सकुचा गई!॥ 288॥

अगम सबिह बरनत बरबरनी। िजिम जलहीन मीन गमु धरनी॥


भरत अिमत मिहमा सन
ु ु रानी। जानिहं रामु न सकिहं बखानी॥

हे े वणवाली! भरत क मिहमा का वणन करना सभी के िलए वैसे ही अगम है जैसे जलरिहत
प ृ वी पर मछली का चलना। हे रानी! सुनो, भरत क अप रिमत मिहमा को एक राम ही जानते ह,
िकंतु वे भी उसका वणन नह कर सकते।

बरिन स मे भरत अनभ ु ाऊ। ितय िजय क िच लिख कह राऊ॥


बहरिहं लखनु भरतु बन जाह । सब कर भल सब के मन माह ॥

इस कार ेमपवू क भरत के भाव का वणन करके, िफर प नी के मन क िच जानकर राजा


ने कहा - ल मण लौट जाएँ और भरत वन को जाएँ , इसम सभी का भला है और यही सबके मन
म है।

देिब परं तु भरत रघब


ु र क । ीित तीित जाइ निहं तरक ॥
भरतु अविध सनेह ममता क । ज िप रामु सीम समता क ॥

परं तु हे देवी! भरत और राम का ेम और एक-दूसरे पर िव ास, बुि और िवचार क सीमा म


नह आ सकता। य िप राम समता क सीमा ह, तथािप भरत ेम और ममता क सीमा ह।

परमारथ वारथ सख
ु सारे । भरत न सपनेहँ मनहँ िनहारे ॥
साधन िसि राम पग नेह। मोिह लिख परत भरत मत एह॥

(राम के ित अन य ेम को छोड़कर) भरत ने सम त परमाथ, वाथ और सुख क ओर व न


म भी मन से भी नह ताका है। राम के चरण का ेम ही उनका साधन है और वही िसि है। मुझे
तो भरत का बस, यही एक मा िस ांत जान पड़ता है।

दो० - भोरे हँ भरत न पेिलहिहं मनसहँ राम रजाइ।


क रअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप िबलखाइ॥ 289॥

राजा ने िबलखकर ( ेम से ग द होकर) कहा - भरत भल


ू कर भी राम क आ ा को मन से भी
नह टालगे। अतः नेह के वश होकर िचंता नह करनी चािहए॥ 289॥
राम भरत गन
ु गनत स ीती। िनिस दंपितिह पलक सम बीती॥
राज समाज ात जुग जागे। हाइ हाइ सरु पूजन लागे॥

राम और भरत के गुण क ेमपवू क गणना करते (कहते-सुनते) पित-प नी को रात पलक के
समान बीत गई। ातःकाल दोन राजसमाज जागे और नहा-नहाकर देवताओं क पज ू ा करने
लगे।

गे नहाइ गरु पिहं रघरु ाई। बंिद चरन बोले ख पाई॥


नाथ भरतु परु जन महतारी। सोक िबकल बनबास दख ु ारी॥

रघुनाथ नान करके गु विश के पास गए और चरण क वंदना करके उनका ख पाकर
बोले - हे नाथ! भरत, अवधपुरवासी तथा माताएँ , सब शोक से याकुल और वनवास से दुःखी ह।

सिहत समाज राउ िमिथलेसू। बहत िदवस भए सहत कलेसू॥


उिचत होइ सोइ क िजअ नाथा। िहत सबही कर रौर हाथा॥

िमिथलापित राजा जनक को भी समाज सिहत लेश सहते बहत िदन हो गए। इसिलए हे नाथ!
जो उिचत हो वही क िजए। आप ही के हाथ सभी का िहत है।

ु के लिख सीलु सभ
अस किह अित सकुचे रघरु ाऊ। मिु न पल ु ाऊ॥
तु ह िबनु राम सकल सख
ु साजा। नरक स रस दहु राज समाजा॥

ऐसा कहकर रघुनाथ अ यंत ही सकुचा गए। उनका शील- वभाव देखकर ( ेम और आनंद से)
मुिन विश पुलिकत हो गए। (उ ह ने खुलकर कहा -) हे राम! तु हारे िबना (घर-बार आिद)
संपणू सुख के साज दोन राजसमाज को नरक के समान ह।

दो० - ान- ान के जीव के िजव सख ु के सखु राम।


तु ह तिज तात सोहात गहृ िज हिह ित हिह िबिध बाम॥ 290॥

हे राम! तुम ाण के भी ाण, आ मा के भी आ मा और सुख के भी सुख हो। हे तात! तु ह


छोड़कर िज ह घर सुहाता है, उ हे िवधाता िवपरीत है॥ 290॥

सो सखु ु करमु धरमु ज र जाऊ। जहँ न राम पद पंकज भाऊ॥


जोगु कुजोगु यानु अ यानू। जहँ निहं राम मे परधानू॥

जहाँ राम के चरण कमल म ेम नह है, वह सुख, कम और धम जल जाए। िजसम राम ेम क


धानता नह है, वह योग कुयोग है और वह ान अ ान है।

तु ह िबनु दख ु ी तु ह तेह । तु ह जानह िजय जो जेिह केह ॥


ु ी सख
राउर आयसु िसर सबही क। िबिदत कृपालिह गित सब नीक॥

तु हारे िबना ही सब दुःखी ह और जो सुखी ह वे तु ह से सुखी ह। िजस िकसी के जी म जो कुछ


है तुम सब जानते हो। आपक आ ा सभी के िसर पर है। कृपालु (आप) को सभी क ि थित अ छी
तरह मालम ू है।

आपु आ मिह धा रअ पाऊ। भयउ सनेह िसिथल मिु नराऊ॥


क र नामु तब रामु िसधाए। रिष ध र धीर जनक पिहं आए॥

अतः आप आ म को पधा रए। इतना कह मुिनराज नेह से िशिथल हो गए। तब राम णाम करके
चले गए और ऋिष विश धीरज धरकर जनक के पास आए।

राम बचन गु नपृ िह सन


ु ाए। सील सनेह सभ
ु ायँ सहु ाए॥
महाराज अब क िजअ सोई। सब कर धरम सिहत िहत होई॥

गु ने राम के शील और नेह से यु वभाव से ही सुंदर वचन राजा जनक को सुनाए (और
कहा -) हे महाराज! अब वही क िजए िजसम सबका धम सिहत िहत हो।

दो० - यान िनधान सजु ान सिु च धरम धीर नरपाल।


तु ह िबनु असमंजस समन को समरथ एिह काल॥ 291॥

हे राजन! तुम ान के भंडार, सुजान, पिव और धम म धीर हो। इस समय तु हारे िबना इस
दुिवधा को दूर करने म और कौन समथ है?॥ 291॥

सिु न मिु न बचन जनक अनरु ागे। लिख गित यानु िबरागु िबरागे॥
िसिथल सनेहँ गन ु त मन माह । आए इहाँ क ह भल नाह ॥

मुिन विश के वचन सुनकर जनक ेम म म न हो गए। उनक दशा देखकर ान और वैरा य
को भी वैरा य हो गया (अथात उनके ान-वैरा य छूट-से गए)। वे ेम से िशिथल हो गए और मन
म िवचार करने लगे िक हम यहाँ आए, यह अ छा नह िकया।

े वाना॥
रामिह रायँ कहेउ बन जाना। क ह आपु ि य म
हम अब बन त बनिह पठाई। मिु दत िफरब िबबेक बड़ाई॥

राजा दशरथ ने राम को वन जाने के िलए कहा और वयं अपने ि य के ेम को मािणत


(स चा) कर िदया (ि य िवयोग म ाण याग िदए)। परं तु हम अब इ ह वन से (और गहन) वन
को भेजकर अपने िववेक क बड़ाई म आनंिदत होते हए लौटगे (िक हम जरा भी मोह नह है; हम
राम को वन म छोड़कर चले आए, दशरथ क तरह मरे नह !)।
े बस िबकल िबसेषी॥
तापस मिु न मिहसरु सिु न देखी। भए म
समउ समिु झ ध र धीरजु राजा। चले भरत पिहं सिहत समाजा॥

तप वी, मुिन और ा ण यह सब सुन और देखकर ेमवश बहत ही याकुल हो गए। समय का


िवचार करके राजा जनक धीरज धरकर समाज सिहत भरत के पास चले।

भरत आइ आग भइ ली हे। अवसर स रस सआ ु सन दी हे॥


तात भरत कह तेरहित राऊ। तु हिह िबिदत रघब
ु ीर सभ
ु ाऊ॥

भरत ने आकर उ ह आगे होकर िलया (सामने आकर उनका वागत िकया) और समयानुकूल
अ छे आसन िदए। ितरहतराज जनक कहने लगे - हे तात भरत! तुमको राम का वभाव मालम

ही है।

दो० - राम स य त धरम रत सब कर सीलु नेह।


संकट सहत सकोच बस किहअ जो आयसु देह॥ 292॥

राम स य ती और धमपरायण ह, सबका शील और नेह रखनेवाले ह। इसीिलए वे संकोचवश


संकट सह रहे ह; अब तुम जो आ ा दो, वह उनसे कही जाए॥ 292॥

सिु न तन पलु िक नयन भ र बारी। बोले भरतु धीर ध र भारी॥


भु ि य पू य िपता सम आपू। कुलगु सम िहत माय न बापू॥

भरत यह सुनकर पुलिकत शरीर हो ने म जल भरकर बड़ा भारी धीरज धरकर बोले - हे भो!
आप हमारे िपता के समान ि य और पू य ह और कुल गु विश के समान िहतैषी तो माता-
िपता भी नह है।

कौिसकािद मिु न सिचव समाजू। यान अंबिु निध आपनु ु आजू॥


िससु सेवकु आयसु अनगु ामी। जािन मोिह िसख देइअ वामी॥

िव ािम आिद मुिनय और मंि य का समाज है। और आज के िदन ान के समु आप भी


उपि थत ह। हे वामी! मुझे अपना ब चा, सेवक और आ ानुसार चलनेवाला समझकर िश ा
दीिजए।

एिहं समाज थल बूझब राउर। मौन मिलन म बोलब बाउर॥


छोटे बदन कहउँ बिड़ बाता। छमब तात लिख बाम िबधाता॥

इस समाज और (पु य) थल म आप (जैसे ानी और पू य) का पछ ू ना! इस पर यिद म मौन


रहता हँ तो मिलन समझा जाऊँगा; और बोलना पागलपन होगा तथािप म छोटे मँुह बड़ी बात
कहता हँ। हे तात! िवधाता को ितकूल जानकर मा क िजएगा।
आगम िनगम िस परु ाना। सेवाधरमु किठन जगु जाना॥
े िह न बोधू॥
वािम धरम वारथिह िबरोधू। बै अंध म

वेद, शा और पुराण म िस है और जगत जानता है िक सेवा धम बड़ा किठन है। वामी धम


म ( वामी के ित कत य पालन म) और वाथ म िवरोध है (दोन एक साथ नह िनभ सकते)
वैर अंधा होता है और ेम को ान नह रहता (म वाथवश कहँगा या ेमवश, दोन म ही भल

होने का भय है)।

दो० - रािख राम ख धरमु तु पराधीन मोिह जािन।


सब क संमत सब िहत क रअ म े ु पिहचािन॥ 293॥

अतएव मुझे पराधीन जानकर (मुझसे न पछ


ू कर) राम के ख ( िच), धम और (स य के) त
को रखते हए, जो सबके स मत और सबके िलए िहतकारी हो आप सबका ेम पहचानकर वही
क िजए॥ 293॥

भरत बचन सिु न देिख सभु ाऊ। सिहत समाज सराहत राऊ॥
सग
ु म अगम मदृ ु मंजु कठोरे । अरथु अिमत अित आखर थोरे ॥

भरत के वचन सुनकर और उनका वभाव देखकर समाज सिहत राजा जनक उनक सराहना
करने लगे। भरत के वचन सुगम और अगम, सुंदर, कोमल और कठोर ह। उनम अ र थोड़े ह,
परं तु अथ अ यंत अपार भरा हआ है।

य मखु ु मक
ु ु र मक
ु ु िनज पानी। गिह न जाइ अस अदभत ु बानी॥
भूप भरतू मिु न सिहत समाजू। गे जहँ िबबध
ु कुमदु ि जराजू॥

जैसे मुख (का ितिबंब) दपण म िदखता है और दपण अपने हाथ म है, िफर भी वह (मुख का
ितिबंब) पकड़ा नह जाता, इसी कार भरत क यह अ ुत वाणी भी पकड़ म नह आती (श द
से उसका आशय समझ म नह आता)। (िकसी से कुछ उ र देते नह बना) तब राजा जनक,
भरत तथा मुिन विश समाज के साथ वहाँ गए, जहाँ देवता पी कुमुद को िखलानेवाले (सुख
देनेवाले) चं मा राम थे।

सिु न सिु ध सोच िबकल सब लोगा। मनहँ मीनगन नव जल जोगा॥


देवँ थम कुलगरु गित देखी। िनरिख िबदेह सनेह िबसेषी॥

यह समाचार सुनकर सब लोग सोच से याकुल हो गए, जैसे नए (पहली वषा के) जल के संयोग
से मछिलयाँ याकुल होती ह। देवताओं ने पहले कुलगु विश क ( ेमिव ल) दशा देखी, िफर
िवदेह के िवशेष नेह को देखा,
राम भगितमय भरतु िनहारे । सरु वारथी हह र िहयँ हारे ॥
े मय पेखा। भए अलेख सोच बस लेखा॥
सब कोउ राम म

और तब रामभि से ओत ोत भरत को देखा। इन सबको देखकर वाथ देवता घबड़ाकर दय


म हार मान गए (िनराश हो गए)। उ ह ने सब िकसी को राम ेम म सराबोर देखा। इससे देवता
इतने सोच के वश हो गए िक िजसका कोई िहसाब नह ।

दो० - रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सरु राज।ु


रचह पंचिह पंच िमिल नािहं त भयउ अकाज॥ु 294॥

देवराज इं सोच म भरकर कहने लगे िक राम तो नेह और संकोच के वश म ह। इसिलए सब


लोग िमलकर कुछ पंच (माया) रचो; नह तो काम िबगड़ा (ही समझो)॥ 294॥

सरु ह सिु म र सारदा सराही। देिब देव सरनागत पाही॥


फे र भरत मित क र िनज माया। पालु िबबध ु कुल क र छल छाया॥

देवताओं ने सर वती का मरण कर उनक सराहना ( तुित) क और कहा - हे देवी! देवता


आपके शरणागत ह, उनक र ा क िजए। अपनी माया रचकर भरत क बुि को फेर दीिजए और
छल क छाया कर देवताओं के कुल का पालन (र ा) क िजए।

िबबध
ु िबनय सिु न देिब सयानी। बोली सरु वारथ जड़ जानी॥
मो सन कहह भरत मित फे । लोचन सहस न सूझ सम ु े ॥

देवताओं क िवनती सुनकर और देवताओं को वाथ के वश होने से मख


ू जानकर बुि मती
सर वती बोल - मुझसे कह रहे हो िक भरत क मित पलट दो! हजार ने से भी तुमको सुमे
नह सझ ू पड़ता!

िबिध ह र हर माया बिड़ भारी। सोउ न भरत मित सकइ िनहारी॥


सो मित मोिह कहत क भोरी। चंिदिन कर िक चंडकर चोरी॥

ा, िव णु और महे श क माया बड़ी बल है! िकंतु वह भी भरत क बुि क ओर ताक नह


सकती। उस बुि को, तुम मुझसे कह रहे हो िक, भोली कर दो (भुलावे म डाल दो)! अरे ! चाँदनी
कह चंड िकरणवाले सय ू को चुरा सकती है?

भरत दयँ िसय राम िनवासू। तहँ िक ितिमर जहँ तरिन कासू॥
अस किह सारद गइ िबिध लोका। िबबध ु िबकल िनिस मानहँ कोका॥

भरत के दय म सीताराम का िनवास है। जहाँ सय


ू का काश है, वहाँ कह अँधेरा रह सकता है?
ऐसा कहकर सर वती लोक को चली गई ं। देवता ऐसे याकुल हए जैसे राि म चकवा
याकुल होता है।

दो० - सरु वारथी मलीन मन क ह कुमं कुठाटु।


रिच पंच माया बल भय म अरित उचाटु॥ 295॥

मिलन मनवाले वाथ देवताओं ने बुरी सलाह करके बुरा ठाट (षड्यं ) रचा। बल माया-जाल
रचकर भय, म, अ ीित और उ चाटन फै ला िदया॥ 295॥

क र कुचािल सोचत सरु राजू। भरत हाथ सबु काजु अकाजू॥


गए जनकु रघनु ाथ समीपा। सनमाने सब रिबकुल दीपा॥

कुचाल करके देवराज इं सोचने लगे िक काम का बनना-िबगड़ना सब भरत के हाथ है। इधर
राजा जनक (मुिन विश आिद के साथ) रघुनाथ के पास गए। सय
ू कुल के दीपक राम ने सबका
स मान िकया,

समय समाज धरम अिबरोधा। बोले तब रघबु ंस परु ोधा॥


जनक भरत संबादु सन
ु ाई। भरत कहाउित कही सहु ाई॥

तब रघुकुल के पुरोिहत विश समय, समाज और धम के अिवरोधी (अथात अनुकूल) वचन बोले।
उ ह ने पहले जनक और भरत का संवाद सुनाया। िफर भरत क कही हई संुदर बात कह सुनाई ं।

तात राम जस आयसु देह। सो सबु करै मोर मत एह॥


सिु न रघन
ु ाथ जो र जुग पानी। बोले स य सरल मदृ ु बानी॥

(िफर बोले -) हे तात राम! मेरा मत तो यह है िक तुम जैसी आ ा दो, वैसा ही सब कर! यह
सुनकर दोन हाथ जोड़कर रघुनाथ स य, सरल और कोमल वाणी बोले -

िब मान आपिु न िमिथलेसू। मोर कहब सब भाँित भदेसू॥


राउर राय रजायसु होई। राउ र सपथ सही िसर सोई॥

आपके और िमिथले र जनक के िव मान रहते मेरा कुछ कहना सब कार से भ ा (अनुिचत)
है। आपक और महाराज क जो आ ा होगी, म आपक शपथ करके कहता हँ वह स य ही
सबको िशरोधाय होगी।

दो० - राम सपथ सिु न मिु न जनकु सकुचे सभा समेत।


सकल िबलोकत भरत मख ु ु बनइ न ऊत देत॥ 296॥

राम क शपथ सुनकर सभा समेत मुिन और जनक सकुचा गए ( तंिभत रह गए)। िकसी से उ र
देते नह बनता, सब लोग भरत का मँुह ताक रहे ह॥ 296॥
सभा सकुच बस भरत िनहारी। राम बंधु ध र धीरजु भारी॥
कुसमउ देिख सनेह सँभारा। बढ़त िबंिध िजिम घटज िनवारा॥

भरत ने सभा को संकोच के वश देखा। रामबंधु (भरत) ने बड़ा भारी धीरज धरकर और कुसमय
देखकर अपने (उमड़ते हए) ेम को सँभाला, जैसे बढ़ते हए िवं याचल को अग य ने रोका था।

सोक कनकलोचन मित छोनी। हरी िबमल गन ु गन जगजोनी॥


भरत िबबेक बराहँ िबसाला। अनायास उधरी तेिह काला॥

शोक पी िहर या ने (सारी सभा क ) बुि पी प ृ वी को हर िलया जो िवमल गुणसमहू पी


जगत क योिन (उ प न करनेवाली) थी। भरत के िववेक पी िवशाल वराह (वराह प धारी
भगवान) ने (शोक पी िहर या को न कर) िबना ही प र म उसका उ ार कर िदया!

क र नामु सब कहँ कर जोरे । रामु राउ गरु साधु िनहोरे ॥


छमब आजु अित अनिु चत मोरा। कहउँ बदन मदृ ु बचन कठोरा॥

भरत ने णाम करके सबके ित हाथ जोड़े तथा राम, राजा जनक, गु विश और साधु-संत
सबसे िवनती क और कहा - आज मेरे इस अ यंत अनुिचत बताव को मा क िजएगा। म कोमल
(छोटे) मुख से कठोर (ध ृ तापण
ू ) वचन कह रहा हँ।

िहयँ सिु मरी सारदा सहु ाई। मानस त मख


ु पंकज आई॥
िबमल िबबेक धरम नय साली। भरत भारती मंजु मराली॥

िफर उ ह ने दय म सुहावनी सर वती का मरण िकया। वे मानस से (उनके मन पी


मानसरोवर से) उनके मुखारिवंद पर आ िवराज । िनमल िववेक, धम और नीित से यु भरत क
वाणी सुंदर हंिसनी (के समान गुण-दोष का िववेचन करनेवाली) है।

दो० - िनरिख िबबेक िबलोचनि ह िसिथल सनेहँ समाज।ु


क र नामु बोले भरतु सिु म र सीय रघरु ाज॥
ु 297॥

िववेक के ने से सारे समाज को ेम से िशिथल देख, सबको णाम कर, सीता और रघुनाथ का
मरण करके भरत बोले - ॥ 297॥

भु िपतु मातु सु द गरु वामी। पू य परम िहत अंतरजामी॥


सरल सस ु ािहबु सील िनधानू। नतपाल सब य सज ु ानू॥

हे भु! आप िपता, माता, सु द (िम ), गु , वामी, पू य, परम िहतैषी और अंतयामी ह। सरल


दय, े मािलक, शील के भंडार, शरणागत क र ा करनेवाले, सव , सुजान,
समरथ सरनागत िहतकारी। गन ु गाहकु अवगन ु अघ हारी॥
वािम गोसाँइिह स रस गोसाई ं। मोिह समान म साइँ दोहाई ं॥

समथ, शरणागत का िहत करनेवाले, गुण का आदर करनेवाले और अवगुण तथा पाप को
हरनेवाले ह। हे गोसाई ं! आप-सरीखे वामी आप ही ह और वामी के साथ ोह करने म मेरे
समान म ही हँ।

भु िपतु बचन मोह बस पेली। आयउँ इहाँ समाजु सकेली॥


जग भल पोच ऊँच अ नीचू। अिमअ अमरपद माह मीचू॥

म मोहवश भु (आप) के और िपता के वचन का उ लंघन कर और समाज बटोरकर यहाँ आया


हँ। जगत म भले-बुरे, ऊँचे और नीचे, अमत
ृ और अमर पद (देवताओं का पद), िवष और म ृ यु आिद
-

राम रजाइ मेट मन माह । देखा सन


ु ा कतहँ कोउ नाह ॥
सो म सब िबिध क ि ह िढठाई। भु मानी सनेह सेवकाई॥

िकसी को भी कह ऐसा नह देखा-सुना जो मन म भी राम (आप) क आ ा को मेट दे । मने सब


कार से वही िढठाई क , परं तु भु ने उस िढठाई को नेह और सेवा मान िलया!

दो० - कृपाँ भलाई ं आपनी नाथ क ह भल मोर।


दूषन भे भूषन स रस सज ु सु चा चह ओर॥ 298॥

हे नाथ! आपने अपनी कृपा और भलाई से मेरा भला िकया, िजससे मेरे दूषण (दोष) भी भषू ण
(गुण) के समान हो गए और चार ओर मेरा संुदर यश छा गया॥ 298॥

राउ र रीित सब
ु ािन बड़ाई। जगत िबिदत िनगमागम गाई॥
कूर कुिटल खल कुमित कलंक । नीच िनसील िनरीस िनसंक ॥

हे नाथ! आपक रीित और सुंदर वभाव क बड़ाई जगत म िस है, और वेद-शा ने गाई है।
जो ू र, कुिटल, दु , कुबुि , कलंक , नीच, शीलरिहत, िनरी रवादी (नाि तक) और िनःशंक
(िनडर) ह।

तेउ सिु न सरन सामहु आए। सकृत नामु िकह अपनाए॥


देिख दोष कबहँ न उर आने। सिु न गन
ु साधु समाज बखाने॥

उ ह भी आपने शरण म स मुख आया सुनकर एक बार णाम करने पर ही अपना िलया। उन
(शरणागत ) के दोष को देखकर भी आप कभी दय म नह लाए और उनके गुण को सुनकर
साधुओ ं के समाज म उनका बखान िकया।
को सािहब सेवकिह नेवाजी। आपु समाज साज सब साजी॥
िनज करतिू त न समिु झअ सपन। सेवक सकुच सोचु उर अपन॥

ऐसा सेवक पर कृपा करनेवाला वामी कौन है जो आप ही सेवक का सारा साज-सामान सज दे


(उसक सारी आव यकताओं को पण ू कर दे ) और व न म भी अपनी कोई करनी न समझकर
(अथात मने सेवक के िलए कुछ िकया है ऐसा न जानकर) उलटा सेवक को संकोच होगा, इसका
सोच अपने दय म रखे!

सो गोसाइँ निहं दूसर कोपी। भज


ु ा उठाइ कहउँ पन रोपी॥
पसु नाचत सक ु पाठ बीना। गन ु गित नट पाठक आधीना॥

म भुजा उठाकर और ण रोपकर (बड़े जोर के साथ) कहता हँ, ऐसा वामी आपके िसवा दूसरा
कोई नह है। (बंदर आिद) पशु नाचते और तोते (सीखे हए) पाठ म वीण हो जाते ह। परं तु तोते
का (पाठ वीणता प) गुण और पशु के नाचने क गित ( मशः) पढ़ानेवाले और नचानेवाले के
अधीन है।

दो० - य सध
ु ा र सनमािन जन िकए साधु िसरमोर।
को कृपाल िबनु पािलहै िब रदाविल बरजोर॥ 299॥

इस कार अपने सेवक क (िबगड़ी) बात सुधारकर और स मान देकर आपने उ ह साधुओ ं का
िशरोमिण बना िदया। कृपालु (आप) के िसवा अपनी िवरदावली का और कौन जबरद ती
(हठपवू क) पालन करे गा?॥ 299॥

सोक सनेहँ िक बाल सभ ु ाएँ । आयउँ लाइ रजायसु बाएँ ॥


तबहँ कृपाल हे र िनज ओरा। सबिह भाँित भल मानेउ मोरा॥

म शोक से या नेह से या बालक वभाव से आ ा को बाएँ लाकर (न मानकर) चला आया, तो


भी कृपालु वामी (आप) ने अपनी ओर देखकर सभी कार से मेरा भला ही माना (मेरे इस
अनुिचत काय को अ छा ही समझा)।

देखउे ँ पाय सम
ु ंगल मूला। जानेउँ वािम सहज अनक
ु ू ला।
बड़ समाज िबलोकेउँ भागू। बड़ चूक सािहब अनरु ागू॥

मने सुंदर मंगल के मल


ू आपके चरण का दशन िकया, और यह जान िलया िक वामी मुझ पर
वभाव से ही अनुकूल ह। इस बड़े समाज म अपने भा य को देखा िक इतनी बड़ी चक
ू होने पर
भी वामी का मुझ पर िकतना अनुराग है!

कृपा अनु ह अंगु अघाई। क ि ह कृपािनिध सब अिधकाई॥


राखा मोर दल
ु ार गोसाई ं। अपन सील सभ
ु ायँ भलाई॥

कृपािनधान ने मुझ पर सांगोपांग भरपेट कृपा और अनु ह, सब अिधक ही िकए ह (अथात म


िजसके जरा भी लायक नह था, उतनी अिधक सवागपण ू कृपा आपने मुझ पर क है)। हे गोसाई ं!
आपने अपने शील, वभाव और भलाई से मेरा दुलार रखा।

नाथ िनपट म क ि ह िढठाई। वािम समाज सकोच िबहाई॥


अिबनय िबनय जथा िच बानी। छिमिह देउ अित आरित जानी॥

हे नाथ! मने वामी और समाज के संकोच को छोड़कर अिवनय या िवनयभरी जैसी िच हई वैसी
ही वाणी कहकर सवथा िढठाई क है। हे देव! मेरे आतभाव (आतुरता) को जानकर आप मा
करगे।

दो० - सु द सज
ु ान सस
ु ािहबिह बहत कहब बिड़ खो र।
आयसु देइअ देव अब सबइ सध ु ारी मो र॥ 300॥

सु द (िबना ही हे तु के िहत करनेवाले), बुि मान और े मािलक से बहत कहना बड़ा अपराध
है, इसिलए हे देव! अब मुझे आ ा दीिजए, आपने मेरी सभी बात सुधार दी॥ 300॥

भु पद पदम
ु पराग दोहाई। स य सक
ु ृ त सख
ु सीवँ सहु ाई॥
सो क र कहउँ िहए अपने क । िच जागत सोवत सपने क ॥

भु (आप) के चरणकमल क रज, जो स य, सुकृत (पु य) और सुख क सुहावनी सीमा


(अविध) है, उसक दुहाई करके म अपने दय को जागते, सोते और व न म भी बनी रहनेवाली
िच (इ छा) कहता हँ।

सहज सनेहँ वािम सेवकाई। वारथ छल फल चा र िबहाई॥


अ या सम न सस
ु ािहब सेवा। सो सादु जन पावै देवा॥

वह िच है - कपट, वाथ और (अथ-धम-काम-मो प) चार फल को छोड़कर वाभािवक ेम


से वामी क सेवा करना। और आ ा पालन के समान े वामी क और कोई सेवा नह है। हे
देव! अब वही आ ा प साद सेवक को िमल जाए।

अस किह म े िबबस भए भारी। पल


ु क सरीर िबलोचन बारी॥
भु पद कमल गहे अकुलाई। समउ सनेह न सो किह जाई॥

भरत ऐसा कहकर ेम के बहत ही िववश हो गए। शरीर पुलिकत हो उठा, ने म ( ेमा ुओ ं का)
जल भर आया। अकुलाकर ( याकुल होकर) उ ह ने भु राम के चरणकमल पकड़ िलए। उस
समय को और नेह को कहा नह जा सकता।
कृपािसंधु सनमािन सबु ानी। बैठाए समीप गिह पानी॥
भरत िबनय सिु नदेिख सभ ु ाऊ। िसिथल सनेहँ सभा रघरु ाऊ॥

कृपािसंधु राम ने सुंदर वाणी से भरत का स मान करके हाथ पकड़कर उनको अपने पास िबठा
िलया। भरत क िवनती सुनकर और उनका वभाव देखकर सारी सभा और रघुनाथ नेह से
िशिथल हो गए।

छं ० - रघरु ाउ िसिथल सनेहँ साधु समाज मिु न िमिथला धनी।


मन महँ सराहत भरत भायप भगित क मिहमा घनी॥
भरतिह संसत िबबध ु बरषत सम ु न मानस मिलन से।
तलु सी िबकल सब लोग सिु न सकुचे िनसागम निलन से॥

रघुनाथ, साधुओ ं का समाज, मुिन विश और िमिथलापित जनक नेह से िशिथल हो गए। सब
मन-ही-मन भरत के भाईपन और उनक भि क अितशय मिहमा को सराहने लगे। देवता
मिलन से मन से भरत क शंसा करते हए उन पर फूल बरसाने लगे। तुलसीदास कहते ह - सब
लोग भरत का भाषण सुनकर याकुल हो गए और ऐसे सकुचा गए जैसे राि के आगमन से
कमल!

सो० - देिख दख
ु ारी दीन दहु समाज नर ना र सब।
मघवा महा मलीन मए ु मा र मंगल चहत॥ 301॥

दोन समाज के सभी नर-ना रय को दीन और दुःखी देखकर महामिलन- मन इं मरे हओं को
मारकर अपना मंगल चाहता है॥ 301॥

कपट कुचािल सीवँ सरु राजू। पर अकाज ि य आपन काजू॥


काक समान पाक रपु रीती। छली मलीन कतहँ न तीती॥

देवराज इं कपट और कुचाल क सीमा है। उसे पराई हािन और अपना लाभ ही ि य है। इं क
रीित कौए के समान है। वह छली और मिलन- मन है, उसका कह िकसी पर िव ास नह है।

थम कुमत क र कपटु सँकेला। सो उचाटु सब क िसर मेला॥


े अितसय न िबछोहे॥
सरु मायाँ सब लोग िबमोहे। राम म

पहले तो कुमत (बुरा िवचार) करके कपट को बटोरा (अनेक कार के कपट का साज सजा)।
िफर वह (कपटजिनत) उचाट सबके िसर पर डाल िदया। िफर देवमाया से सब लोग को िवशेष
प से मोिहत कर िदया। िकंतु राम के ेम से उनका अ यंत िबछोह नह हआ (अथात उनका राम
के ित ेम कुछ तो बना ही रहा)।
भय उचाट बस मन िथर नाह । छन बन िच छन सदन सोहाह ॥
दिु बध मनोगित जा दख
ु ारी। स रत िसंधु संगम जनु बारी॥

भय और उचाट के वश िकसी का मन ि थर नह है। ण म उनक वन म रहने क इ छा होती है


और ण म उ ह घर अ छे लगने लगते ह। मन क इस कार क दुिवधामयी ि थित से जा
दुःखी हो रही है। मानो नदी और समु के संगम का जल ु ध हो रहा हो। (जैसे नदी और समु
के संगम का जल ि थर नह रहता, कभी इधर आता और कभी उधर जाता है, उसी कार क
दशा जा के मन क हो गई।)

दिु चत कतहँ प रतोषु न लहह । एक एक सन मरमु न कहह ॥


लिख िहयँ हँिस कह कृपािनधानू। स रस वान मघवान जुबानू॥

िच दोतरफा हो जाने से वे कह संतोष नह पाते और एक-दूसरे से अपना मम भी नह कहते।


कृपािनधान राम यह दशा देखकर दय म हँसकर कहने लगे - कु ा, इं और नवयुवक (कामी
पु ष) एक-सरीखे (एक ही वभाव के) ह। (पािणनीय याकरण के अनुसार, न, युवन और
मघवन श द के प भी एक-सरीखे होते ह।)

दो० - भरतु जनकु मिु नजन सिचव साधु सचेत िबहाइ।


लािग देवमाया सबिह जथाजोगु जनु पाइ॥ 302॥

भरत, जनक, मुिनजन, मं ी और ानी साधु-संत को छोड़कर अ य सभी पर िजस मनु य को


िजस यो य (िजस कृित और िजस ि थित का) पाया, उस पर वैसे ही देवमाया लग गई॥ 302॥

कृपािसंधु लिख लोग दख ु ारे । िनज सनेहँ सरु पित छल भारे ॥


सभा राउ गरु मिहसरु मं ी। भरत भगित सब कै मित जं ी॥

कृपािसंधु राम ने लोग को अपने नेह और देवराज इं के भारी छल से दुःखी देखा। सभा, राजा
जनक, गु , ा ण और मं ी आिद सभी क बुि को भरत क भि ने क ल िदया।

रामिह िचतवत िच िलखे से। सकुचत बोलत बचन िसखे से॥


भरत ीित नित िबनय बड़ाई। सनु त सख
ु द बरनत किठनाई॥

सब लोग िच िलखे-से राम क ओर देख रहे ह। सकुचाते हए िसखाए हए-से वचन बोलते ह।
भरत क ीित, न ता, िवनय और बड़ाई सुनने म सुख देनेवाली है, पर उसका वणन करने म
किठनता है।

जासु िबलोिक भगित लवलेसू। म े मगन मिु नगन िमिथलेसू॥


मिहमा तासु कहै िकिम तल
ु सी। भगित सभ
ु ायँ सम
ु ित िहयँ हलसी॥
िजनक भि का लवलेश देखकर मुिनगण और िमिथले र जनक ेम म म न हो गए, उन
भरत क मिहमा तुलसीदास कैसे कहे ? उनक भि और सुंदर भाव से (किव के) दय म सुबुि
हलस रही है (िवकिसत हो रही है)।

आपु छोिट मिहमा बिड़ जानी। किबकुल कािन मािन सकुचानी॥


किह न सकित गन ु िच अिधकाई। मित गित बाल बचन क नाई॥

परं तु वह बुि अपने को छोटी और भरत क मिहमा को बड़ी जानकर किव परं परा क मयादा को
मानकर सकुचा गई (उसका वणन करने का साहस नह कर सक )। उसक गुण म िच तो
बहत है; पर उ ह कह नह सकती। बुि क गित बालक के वचन क तरह हो गई (वह कुंिठत
हो गई)!

दो० - भरत िबमल जसु िबमल िबधु सम


ु ित चकोरकुमा र।
उिदत िबमल जन दय नभ एकटक रही िनहा र॥ 303॥

भरत का िनमल यश िनमल चं मा है और किव क सुबुि चकोरी है, जो भ के दय पी


िनमल आकाश म उस चं मा को उिदत देखकर उसक ओर टकटक लगाए देखती ही रह गई है
(तब उसका वणन कौन करे ?)॥ 303॥

भरत सभ
ु ाउ न सग
ु म िनगमहँ। लघु मित चापलता किब छमहँ॥
कहत सनु त सित भाउ भरत को। सीय राम पद होइ न रत को॥

भरत के वभाव का वणन वेद के िलए भी सुगम नह है। (अतः) मेरी तु छ बुि क चंचलता को
किव लोग मा कर! भरत के स ाव को कहते-सुनते कौन मनु य सीताराम के चरण म
अनुर न हो जाएगा।

े ु राम को। जेिह न सल


सिु मरत भरतिह म ु भु तेिह स रस बाम को॥
देिख दयाल दसा सबही क । राम सज ु ान जािन जन जी क ॥

भरत का मरण करने से िजसको राम का ेम सुलभ न हआ, उसके समान वाम (अभागा) और
कौन होगा? दयालु और सुजान राम ने सभी क दशा देखकर और भ (भरत) के दय क
ि थित जानकर,

धरम धरु ीन धीर नय नागर। स य सनेह सील सख


ु सागर॥
देसु कालु लिख समउ समाजू। नीित ीित पालक रघरु ाजू॥

धमधुरंधर, धीर, नीित म चतुर, स य, नेह, शील और सुख के समु , नीित और ीित के पालन
करनेवाले रघुनाथ देश, काल, अवसर और समाज को देखकर,
बोले बचन बािन सरबसु से। िहत प रनाम सनु त सिस रसु से॥
तात भरत तु ह धरम धरु ीना। लोक बेद िबद मे बीना॥

(तदनुसार) ऐसे वचन बोले जो मानो वाणी के सव व ही थे, प रणाम म िहतकारी थे और सुनने म
चं मा के रस (अमतृ )-सरीखे थे। (उ ह ने कहा -) हे तात भरत! तुम धम क धुरी को धारण
करनेवाले हो, लोक और वेद दोन के जाननेवाले और ेम म वीण हो।

दो० - करम बचन मानस िबमल तु ह समान तु ह तात।


गरु समाज लघु बंधु गन
ु कुसमयँ िकिम किह जात॥ 304॥

हे तात! कम से, वचन से और मन से िनमल तु हारे समान तु ह हो। गु जन के समाज म और


ऐसे कुसमय म छोटे भाई के गुण िकस तरह कहे जा सकते ह?॥ 304॥

जानह तात तरिन कुल रीती। स यसंध िपतु क रित ीती॥


समउ समाजु लाज गरु जन क । उदासीन िहत अनिहत मन क ॥

हे तात! तुम सय
ू कुल क रीित को, स य ित िपता क क ित और ीित को, समय, समाज और
गु जन क ल जा (मयादा) को तथा उदासीन, िम और श ु सबके मन क बात को जानते हो।

तु हिह िबिदत सबही कर करमू। आपन मोर परम िहत धरमू॥


मोिह सब भाँित भरोस तु हारा। तदिप कहउँ अवसर अनस
ु ारा॥

तुमको सबके कम (कत य ) का और अपने तथा मेरे परम िहतकारी धम का पता है। य िप मुझे
तु हारा सब कार से भरोसा है, तथािप म समय के अनुसार कुछ कहता हँ।

तात तात िबनु बात हमारी। केवल गरु कुल कृपाँ सँभारी॥
नत जा प रजन प रवा । हमिह सिहत सबु होत खआ ु ॥

हे तात! िपता के िबना (उनक अनुपि थित म) हमारी बात केवल गु वंश क कृपा ने ही स हाल
रखी है, नह तो हमारे समेत जा, कुटुंब, प रवार सभी बबाद हो जाते।

ज िबनु अवसर अथवँ िदनेसू। जग केिह कहह न होइ कलेसू॥


तस उतपातु तात िबिध क हा। मिु न िमिथलेस रािख सबु ली हा॥

यिद िबना समय के (सं या से पवू ही) सय


ू अ त हो जाए, तो कहो जगत म िकस को लेश न
होगा? हे तात! उसी कार का उ पात िवधाता ने यह (िपता क असामियक म ृ यु) िकया है। पर
मुिन महाराज ने तथा िमिथले र ने सबको बचा िलया।

दो० - राज काज सब लाज पित धरम धरिन धन धाम।


गरु भाउ पािलिह सबिह भल होइिह प रनाम॥ 305॥

रा य का सब काय, ल जा, ित ा, धम, प ृ वी, धन, घर - इन सभी का पालन (र ण) गु का


भाव (साम य) करे गा और प रणाम शुभ होगा॥ 305॥

सिहत समाज तु हार हमारा। घर बन गरु साद रखवारा॥


मातु िपता गरु वािम िनदेसू। सकल धरम धरनीधर सेसू॥

गु का साद (अनु ह) ही घर म और वन म समाज सिहत तु हारा और हमारा र क है। माता,


िपता, गु और वामी क आ ा (का पालन) सम त धम पी प ृ वी को धारण करने म शेष के
समान है।

सो तु ह करह करावह मोह। तात तरिनकुल पालक होह॥


साधक एक सकल िसिध देनी। क रित सग ु ित भूितमय बेनी॥

ू कुल के र क बनो। साधक के िलए यह


हे तात! तुम वही करो और मुझसे भी कराओ तथा सय
एक ही (आ ापालन पी साधना) संपण ू िसि य क देनेवाली, क ितमयी, स ितमयी और
ऐ यमयी ि वेणी है।

सो िबचा र सिह संकटु भारी। करह जा प रवा सख ु ारी॥


बाँटी िबपित सबिहं मोिह भाई। तु हिह अविध भ र बिड़ किठनाई॥

इसे िवचारकर भारी संकट सहकर भी जा और प रवार को सुखी करो। हे भाई! मेरी िवपि सभी
ने बाँट ली है, परं तु तुमको तो अविध (चौदह वष) तक बड़ी किठनाई है (सबसे अिधक दुःख है)।

जािन तु हिह मदृ ु कहउँ कठोरा। कुसमयँ तात न अनिु चत मोरा॥


ु ंधु सहाए। ओिड़अिहं हाथ असिनह के घाए॥
होिहं कुठायँ सब

तुमको कोमल जानकर भी म कठोर (िवयोग क बात) कह रहा हँ। हे तात! बुरे समय म मेरे िलए
यह कोई अनुिचत बात नह है। कुठौर (कुअवसर) म े भाई ही सहायक होते ह। व के आघात
भी हाथ से ही रोके जाते ह।

दो० - सेवक कर पद नयन से मख ु सो सािहबु होइ।


तल
ु सी ीित िक रीित सिु न सक
ु िब सराहिहं सोइ॥ 306॥

सेवक हाथ, पैर और ने के समान और वामी मुख के समान होना चािहए। तुलसीदास कहते ह
िक सेवक- वामी क ऐसी ीित क रीित सुनकर सुकिव उसक सराहना करते ह॥ 306॥

सभा सकल सिु न रघब े पयोिध अिमअँ जनु सानी॥


ु र बानी। म
िसिथल समाज सनेह समाधी। देिख दसा चप
ु सारद साधी॥

रघुनाथ क वाणी सुनकर, जो मानो ेम पी समु के (मंथन से िनकले हए) अमत


ृ म सनी हई
थी, सारा समाज िशिथल हो गया; सबको ेम समािध लग गई। यह दशा देखकर सर वती ने चुप
साध ली।

भरतिह भयउ परम संतोषू। सनमखु वािम िबमख ु दखु दोषू॥


मख
ु स न मन िमटा िबषादू। भा जनु गूँगिे ह िगरा सादू॥

भरत को परम संतोष हआ। वामी के स मुख (अनुकूल) होते ही उनके दुःख और दोष ने मँुह
मोड़ िलया (वे उ ह छोड़कर भाग गए)। उनका मुख स न हो गया और मन का िवषाद िमट
ू े पर सर वती क कृपा हो गई हो।
गया। मानो गँग

क हस म े नामु बहोरी। बोले पािन पंक ह जोरी॥


नाथ भयउ सख
ु ु साथ गए को। लहेउँ लाह जग जनमु भए को॥

उ ह ने िफर ेमपवू क णाम िकया और करकमल को जोड़कर वे बोले - हे नाथ! मुझे आपके
साथ जाने का सुख ा हो गया और मने जगत म ज म लेने का लाभ भी पा िलया।

अब कृपाल जस आयसु होई। कर सीस ध र सादर सोई॥


सो अवलंब देव मोिह देई। अविध पा पाव जेिह सेई॥

हे कृपालु! अब जैसी आ ा हो, उसी को म िसर पर धरकर आदरपवू क क ँ ! परं तु देव! आप मुझे
वह अवलंबन (कोई सहारा) द, िजसक सेवा कर म अविध का पार पा जाऊँ (अविध को िबता दँू)।

दो० - देव देव अिभषेक िहत गरु अनस


ु ासनु पाइ।
आनेउँ सब तीरथ सिललु तेिह कहँ काह रजाइ॥ 307॥

हे देव! वामी (आप) के अिभषेक के िलए गु क आ ा पाकर म सब तीथ का जल लेता आया


हँ; उसके िलए या आ ा होती है?॥ 307॥

एकु मनोरथु बड़ मन माह । सभयँ सकोच जात किह नाह ॥


कहह तात भु आयसु पाई। बोले बािन सनेह सहु ाई॥

मेरे मन म एक और बड़ा मनोरथ है, जो भय और संकोच के कारण कहा नह जाता। (राम ने


कहा -) हे भाई! कहो। तब भु क आ ा पाकर भरत नेहपण ू सुंदर वाणी बोले -

िच कूट सिु च थल तीरथ बन। खग मगृ सर स र िनझर िग रगन॥


भु पद अंिकत अविन िबसेषी। आयसु होइ त आव देखी॥
आ ा हो तो िच कूट के पिव थान, तीथ, वन, प ी-पशु, तालाब-नदी, झरने और पवत के
समहू तथा िवशेष कर भु (आप) के चरण िच से अंिकत भिू म को देख आऊँ।

अविस अि आयसु िसर धरह। तात िबगतभय कानन चरह॥


मिु न साद बनु मंगल दाता। पावन परम सहु ावन ाता॥

(रघुनाथ बोले -) अव य ही अि ऋिष क आ ा को िसर पर धारण करो (उनसे पछ ू कर वे जैसा


कह वैसा करो) और िनभय होकर वन म िवचरो। हे भाई! अि मुिन के साद से वन मंगल का
देनेवाला, परम पिव और अ यंत सुंदर है -

रिषनायकु जहँ आयसु देह । राखेह तीरथ जलु थल तेह ॥


सिु न भु बचन भरत सख
ु ु पावा। मिु न पद कमल मिु दत िस नावा॥

और ऋिषय के मुख अि जहाँ आ ा द, वह (लाया हआ) तीथ का जल थािपत कर देना। भु


के वचन सुनकर भरत ने सुख पाया और आनंिदत होकर मुिन अि के चरणकमल म िसर
नवाया।

दो० - भरत राम संबादु सिु न सकल सम


ु ंगल मूल।
सरु वारथी सरािह कुल बरषत सरु त फूल॥ 308॥

सम त सुंदर मंगल का मल
ू भरत और राम का संवाद सुनकर वाथ देवता रघुकुल क सराहना
करके क पव ृ के फूल बरसाने लगे॥ 308॥

ध य भरत जय राम गोसाई ं। कहत देव हरषत ब रआई ं॥


मिु न िमिथलेस सभाँ सब काह। भरत बचन सिु न भयउ उछाह॥

'भरत ध य ह, वामी राम क जय हो!' ऐसा कहते हए देवता बलपवू क (अ यिधक) हिषत होने
लगे। भरत के वचन सुनकर मुिन विश , िमिथलापित जनक और सभा म सब िकसी को बड़ा
उ साह (आनंद) हआ।

भरत राम गन
ु ाम सनेह। पलु िक संसत राउ िबदेह॥
सेवक वािम सभ े ु अित पावन पावन॥
ु ाउ सहु ावन। नेमु म

भरत और राम के गुणसमहू क तथा ेम क िवदेहराज जनक पुलिकत होकर शंसा कर रहे ह।
सेवक और वामी दोन का सुंदर वभाव है। इनके िनयम और ेम पिव को भी अ यंत पिव
करनेवाले ह।

मित अनस ु ार सराहन लागे। सिचव सभासद सब अनरु ागे॥


सिु न सिु न राम भरत संबादू। दहु समाज िहयँ हरषु िबषादू॥
मं ी और सभासद सभी ेममु ध होकर अपनी-अपनी बुि के अनुसार सराहना करने लगे। राम
और भरत का संवाद सुन-सुनकर दोन समाज के दय म हष और िवषाद (भरत के सेवा धम
को देखकर हष और रामिवयोग क संभावना से िवषाद) दोन हए।

राम मातु दख
ु ु सख ु ु सम जानी। किह गन
ु राम बोध रानी॥
एक कहिहं रघब ु ीर बड़ाई। एक सराहत भरत भलाई॥

राम क माता कौस या ने दुःख और सुख को समान जानकर राम के गुण कहकर दूसरी
रािनय को धैय बँधाया। कोई राम क बड़ाई (बड़ पन) क चचा कर रहे ह, तो कोई भरत के
अ छे पन क सराहना करते ह।

दो० - अि कहेउ तब भरत सन सैल समीप सक ु ू प।


रािखअ तीरथ तोय तहँ पावन अिमअ अनूप॥ 309॥

तब अि ने भरत से कहा - इस पवत के समीप ही एक सुंदर कुआँ है। इस पिव , अनुपम और


अमतृ -जैसे तीथजल को उसी म थािपत कर दीिजए॥ 309॥

भरत अि अनसु ासन पाई। जल भाजन सब िदए चलाई॥


सानज
ु आपु अि मिु न साधू। सिहत गए जहँ कूप अगाधू॥

भरत ने अि मुिन क आ ा पाकर जल के सब पा रवाना कर िदए और छोटे भाई श ु न, अि


मुिन तथा अ य साधु-संत सिहत आप वहाँ गए, जहाँ वह अथाह कुआँ था।

े अि अस भाषा॥
पावन पाथ पु यथल राखा। मिु दत म
तात अनािद िस थल एह। लोपेउ काल िबिदत निहं केह॥

और उस पिव जल को उस पु य थल म रख िदया। तब अि ऋिष ने ेम से आनंिदत होकर


ऐसा कहा - हे तात! यह अनािद िस थल है। काल म से यह लोप हो गया था इसिलए िकसी
को इसका पता नह था।

तब सेवक ह सरस थलु देखा। क ह सजु ल िहत कूप िबसेषा॥


िबिध बस भयउ िब व उपका । सगु म अगम अित धरम िबचा ॥

तब (भरत के) सेवक ने उस जलयु थान को देखा और उस सुंदर (तीथ के) जल के िलए
एक खास कुआँ बना िलया। दैवयोग से िव भर का उपकार हो गया। धम का िवचार जो अ यंत
अगम था, वह (इस कूप के भाव से) सुगम हो गया।

भरतकूप अब किहहिहं लोगा। अित पावन तीरथ जल जोगा॥


े सनेम िनम जत ानी। होइहिहं िबमल करम मन बानी॥

अब इसको लोग भरतकूप कहगे। तीथ के जल के संयोग से तो यह अ यंत ही पिव हो गया।


इसम ेमपवू क िनयम से नान करने पर ाणी मन, वचन और कम से िनमल हो जाएँ गे।

दो० - कहत कूप मिहमा सकल गए जहाँ रघरु ाउ।


अि सन ु ायउ रघब
ु रिह तीरथ पु य भाउ॥ 310॥

कूप क मिहमा कहते हए सब लोग वहाँ गए जहाँ रघुनाथ थे। रघुनाथ को अि ने उस तीथ का
पु य भाव सुनाया॥ 310॥

कहत धरम इितहास स ीती। भयउ भो िनिस सो सख ु बीती॥


िन य िनबािह भरत दोउ भाई। राम अि गरु आयसु पाई॥

ेमपवू क धम के इितहास कहते वह रात सुख से बीत गई और सबेरा हो गया। भरत-श ु न दोन
भाई िन यि या परू ी करके, राम, अि और गु विश क आ ा पाकर,

सिहत समाज साज सब साद। चले राम बन अटन पयाद॥


कोमल चरन चलत िबनु पनह । भइ मदृ ु भूिम सकुिच मन मनह ॥

समाज सिहत सब सादे साज से राम के वन म मण ( दि णा) करने के िलए पैदल ही चले।
कोमल चरण ह और िबना जतू े के चल रहे ह, यह देखकर प ृ वी मन-ही-मन सकुचाकर कोमल
हो गई।

कुस कंटक काँकर कुराई ं। कटुक कठोर कुब तु दरु ाई ं॥


मिह मंजुल मदृ ु मारग क हे। बहत समीर ि िबध सखु ली हे॥

कुश, काँटे, कंकड़ी, दरार आिद कड़वी, कठोर और बुरी व तुओ ं को िछपाकर प ृ वी ने सुंदर और
कोमल माग कर िदए। सुख को साथ िलए (सुखदायक) शीतल, मंद, सुगंध हवा चलने लगी।

समु न बरिष सरु घन क र छाह । िबटप फूिल फिल तनृ मदृ त


ु ाह ॥
मग
ृ िबलोिक खग बोिल सब ु ानी। सेविहं सकल राम ि य जानी॥

रा ते म देवता फूल बरसाकर, बादल छाया करके, व ृ फूल-फलकर, तण


ृ अपनी कोमलता से,
मगृ (पशु) देखकर और प ी सुंदर वाणी बोलकर सभी भरत को राम के यारे जानकर उनक
सेवा करने लगे।

दो० - सल
ु भ िसि सब ाकृतह राम कहत जमहु ात।
राम ानि य भरत कहँ यह न होइ बिड़ बात॥ 311॥
जब एक साधारण मनु य को भी (आल य से) जँभाई लेते समय 'राम' कह देने से ही सब िसि याँ
सुलभ हो जाती ह, तब राम के ाण यारे भरत के िलए यह कोई बड़ी (आ य क ) बात नह है॥
311॥

े ु लिख मिु न सकुचाह ॥


एिह िबिध भरतु िफरत बन माह । नेमु म
पु य जला य भूिम िबभागा। खग मग ृ त तन ृ िग र बन बागा॥

इस कार भरत वन म िफर रहे ह। उनके िनयम और ेम को देखकर मुिन भी सकुचा जाते ह।
पिव जल के थान (नदी, बावली, कुंड आिद) प ृ वी के पथ
ृ क-पथ
ृ क भाग, प ी, पशु, व ृ , तण

(घास), पवत, वन और बगीचे -

चा िबिच पिब िबसेषी। बूझत भरतु िद य सब देखी॥


सिु न मन मिु दत कहत रिषराऊ। हेतु नाम गन
ु पु य भाऊ॥

सभी िवशेष प से सुंदर, िविच , पिव और िद य देखकर भरत पछ


ू ते ह और उनका
सुनकर ऋिषराज अि स न मन से सबके कारण, नाम, गुण और पु य- भाव को कहते ह।

कतहँ िनम जन कतहँ नामा। कतहँ िबलोकत मन अिभरामा॥


कतहँ बैिठ मिु न आयसु पाई। सिु मरत सीय सिहत दोउ भाई॥

भरत कह नान करते ह, कह णाम करते ह, कह मनोहर थान के दशन करते ह और


कह मुिन अि क आ ा पाकर बैठकर, सीता सिहत राम-ल मण दोन भाइय का मरण करते
ह।

देिख सभु ाउ सनेह सस े ा। देिहं असीस मिु दत बनदेवा॥


ु व
िफरिहं गएँ िदनु पहर अढ़ाई। भु पद कमल िबलोकिहं आई॥

भरत के वभाव, ेम और सुंदर सेवाभाव को देखकर वनदेवता आनंिदत होकर आशीवाद देते ह।
य घमू -िफरकर ढाई पहर िदन बीतने पर लौट पड़ते ह और आकर भु रघुनाथ के चरणकमल
का दशन करते ह।

दो० - देखे थल तीरथ सकल भरत पाँच िदन माझ।


कहत सन ु त ह र हर सज
ु सु गयउ िदवसु भइ साँझ॥ 312॥

भरत ने पाँच िदन म सब तीथ थान के दशन कर िलए। भगवान िव णु और महादेव का सुंदर
यश कहते-सुनते वह (पाँचवाँ) िदन भी बीत गया, सं या हो गई॥ 312॥

भोर हाइ सबु जुरा समाजू। भरत भूिमसरु तेरहित राजू॥


भल िदन आजु जािन मन माह । रामु कृपाल कहत सकुचाह ॥
(अगले छठे िदन) सबेरे नान करके भरत, ा ण, राजा जनक और सारा समाज आ जुटा। आज
सबको िवदा करने के िलए अ छा िदन है, यह मन म जानकर भी कृपालु राम कहने म सकुचा
रहे ह।

गरु नप
ृ भरत सभा अवलोक । सकुिच राम िफ र अविन िबलोक ॥
सील सरािह सभा सब सोची। कहँ न राम सम वािम सँकोची॥

राम ने गु विश , राजा जनक, भरत और सारी सभा क ओर देखा, िकंतु िफर सकुचाकर ि
फेरकर वे प ृ वी क ओर ताकने लगे। सभा उनके शील क सराहना करके सोचती है िक राम के
समान संकोची वामी कह नह है।

भरत सज े ध र धीर िबसेषी॥


ु ान राम ख देखी। उिठ स म
क र दंडवत कहत कर जोरी। राख नाथ सकल िच मोरी॥

सुजान भरत राम का ख देखकर ेमपवू क उठकर, िवशेष प से धीरज धारण कर दंडवत
करके हाथ जोड़कर कहने लगे - हे नाथ! आपने मेरी सभी िचयाँ रख ।

मोिह लिग सहेउ सबिहं संतापू। बहत भाँित दख


ु ु पावा आपू॥
अब गोसाइँ मोिह देउ रजाई। सेव अवध अविध भ र जाई॥

मेरे िलए सब लोग ने संताप सहा और आपने भी बहत कार से दुःख पाया। अब वामी मुझे
आ ा द। म जाकर अविधभर (चौदह वष तक) अवध का सेवन क ँ ।

दो० - जेिहं उपाय पिु न पाय जनु देख ै दीनदयाल।


सो िसख देइअ अविध लिग कोसलपाल कृपाल॥ 313॥

हे दीनदयालु! िजस उपाय से यह दास िफर चरण का दशन करे - हे कोसलाधीश! हे कृपालु!
अविधभर के िलए मुझे वही िश ा दीिजए॥ 313॥

परु जन प रजन जा गोसाई ं। सब सिु च सरस सनेहँ सगाई ं॥


राउर बिद भल भव दख
ु दाह। भु िबनु बािद परम पद लाह॥

हे गोसाई!ं आपके ेम और संबंध म अवधपुरवासी, कुटुंबी और जा सभी पिव और रस (आनंद)


से यु ह। आपके िलए भवदुःख (ज म-मरण के दुःख) क वाला म जलना भी अ छा है और भु
(आप) के िबना परमपद (मो ) का लाभ भी यथ है।

वािम सज
ु ानु जािन सब ही क । िच लालसा रहिन जन जी क ॥
नतपालु पािलिह सब काह। देउ दहु िदिस ओर िनबाह॥
हे वामी! आप सुजान ह, सभी के दय क और मुझ सेवक के मन क िच, लालसा
(अिभलाषा) और रहनी जानकर, हे णतपाल! आप सब िकसी का पालन करगे और हे देव! दोन
ओर अंत तक िनबाहगे।

अस मोिह सब िबिध भू र भरोसो। िकएँ िबचा न सोचु खरो सो॥


आरित मोर नाथ कर छोह। दहु ँ िमिल क ह ढीठु हिठ मोह॥

मुझे सब कार से ऐसा बहत बड़ा भरोसा है। िवचार करने पर ितनके के बराबर (जरा-सा) भी
सोच नह रह जाता! मेरी दीनता और वामी का नेह दोन ने िमलकर मुझे जबरद ती ढीठ बना
िदया है।

यह बड़ दोषु दू र क र वामी। तिज सकोच िसखइअ अनग ु ामी॥


भरत िबनय सिु न सबिहं संसी। खीर नीर िबबरन गित हंसी॥

हे वामी! इस बड़े दोष को दूर करके संकोच याग कर मुझ सेवक को िश ा दीिजए। दूध और
जल को अलग-अलग करने म हंिसनी क -सी गितवाली भरत क िवनती सुनकर उसक सभी ने
शंसा क ।

दो० - दीनबंधु सिु न बंधु के वचन दीन छलहीन।


देस काल अवसर स रस बोले रामु बीन॥ 314॥

दीनबंधु और परम चतुर राम ने भाई भरत के दीन और छलरिहत वचन सुनकर देश, काल और
अवसर के अनुकूल वचन बोले - ॥ 314॥

तात तु हा र मो र प रजन क । िचंता गरु िह नप


ृ िह घर बन क ॥
माथे पर गरु मिु न िमिथलेसू। हमिह तु हिह सपनेहँ न कलेसू॥

हे तात! तु हारी, मेरी, प रवार क , घर क और वन क सारी िचंता गु विश और महाराज


जनक को है। हमारे िसर पर जब गु , मुिन िव ािम और िमिथलापित जनक ह, तब हम और
तु ह व न न भी लेश नह है।

मोर तु हार परम पु षारथ।ु वारथु सज ु सु धरमु परमारथ॥ु


िपतु आयसु पािलिहं दहु भाई ं। लोक बेद भल भूप भलाई ं॥

मेरा और तु हारा तो परम पु षाथ, वाथ, सुयश, धम और परमाथ इसी म है िक हम दोन भाई
िपता क आ ा का पालन कर। राजा क भलाई (उनके त क र ा) से ही लोक और वेद दोन
म भला है।

गरु िपतु मातु वािम िसख पाल। चलेहँ कुमग पग परिहं न खाल॥
अस िबचा र सब सोच िबहाई। पालह अवध अविध भ र जाई॥

गु , िपता, माता और वामी क िश ा (आ ा) का पालन करने से कुमाग पर भी चलने पर पैर


गड्ढे म नह पड़ता (पतन नह होता)। ऐसा िवचार कर सब सोच छोड़कर अवध जाकर अविधभर
उसका पालन करो।

देसु कोसु प रजन प रवा । गरु पद रजिहं लाग छ भा ॥


तु ह मिु न मातु सिचव िसख मानी। पालेह पहु िम जा रजधानी॥

देश, खजाना, कुटुंब, प रवार आिद सबक िज मेदारी तो गु क चरण रज पर है। तुम तो मुिन
विश , माताओं और मंि य क िश ा मानकर तदनुसार प ृ वी, जा और राजधानी का पालन
(र ा) भर करते रहना।

दो० - मिु खआ मख
ु ु सो चािहऐ खान पान कहँ एक।
पालइ पोषइ सकल अँग तल ु सी सिहत िबबेक॥ 315॥

तुलसीदास कहते ह - (राम ने कहा -) मुिखया मुख के समान होना चािहए, जो खाने-पीने को
तो एक (अकेला) है, परं तु िववेकपवू क सब अंग का पालन-पोषण करता है॥ 315॥

राजधरम सरबसु एतनोई। िजिम मन माहँ मनोरथ गोई॥


बंधु बोधु क ह बह भाँती। िबनु अधार मन तोषु न साँती॥

राजधम का सव व (सार) भी इतना ही है। जैसे मन के भीतर मनोरथ िछपा रहता है। रघुनाथ ने
भाई भरत को बहत कार से समझाया, परं तु कोई अवलंबन पाए िबना उनके मन म न संतोष
हआ, न शांित।

भरत सील गरु सिचव समाजू। सकुच सनेह िबबस रघरु ाजू॥
भु क र कृपा पाँवर दी ह । सादर भरत सीस ध र ली ह ॥

इधर तो भरत का शील ( ेम) और उधर गु जन , मंि य तथा समाज क उपि थित! यह देखकर
रघुनाथ संकोच तथा नेह के िवशेष वशीभत ू हो गए। (अथात भरत के ेमवश उ ह पाँवरी देना
चाहते ह, िकंतु साथ ही गु आिद का संकोच भी होता है।) आिखर (भरत के ेमवश) भु राम ने
कृपा कर खड़ाऊँ दे द और भरत ने उ ह आदरपवू क िसर पर धारण कर िलया।

चरनपीठ क नािनधान के। जनु जुग जािमक जा ान के॥


संपटु भरत सनेह रतन के। आखर जुग जनु जीव जतन के॥

क णािनधान राम के दोन ख़ड़ाऊँ जा के ाण क र ा के िलए मानो दो पहरे दार ह। भरत के


ेम पी र न के िलए मानो िड बा है और जीव के साधन के िलए मानो राम-नाम के दो अ र ह।
कुल कपाट कर कुसल करम के। िबमल नयन सेवा सध ु रम के॥
भरत मिु दत अवलंब लहे त। अस सख
ु जस िसय रामु रहे त॥

रघुकुल (क र ा) के िलए दो िकवाड़ ह। कुशल ( े ) कम करने के िलए दो हाथ क भाँित


(सहायक) ह। और सेवा पी े धम के सुझाने के िलए िनमल ने ह। भरत इस अवलंब के िमल
जाने से परम आनंिदत ह। उ ह ऐसा ही सुख हआ, जैसा सीताराम के रहने से होता।

दो० - मागेउ िबदा नामु क र राम िलए उर लाइ।


लोग उचाटे अमरपित कुिटल कुअवस पाइ॥ 316॥

भरत ने णाम करके िवदा माँगी, तब राम ने उ ह दय से लगा िलया। इधर कुिटल इं ने बुरा
मौका पाकर लोग का उ चाटन कर िदया॥ 316॥

सो कुचािल सब कहँ भइ नीक । अविध आस सम जीविन जी क ॥


नत लखन िसय राम िबयोगा। हह र मरत सब लोग कुरोगा॥

वह कुचाल भी सबके िलए िहतकर हो गई। अविध क आशा के समान ही वह जीवन के िलए
संजीवनी हो गई। नह तो (उ चाटन न होता तो) ल मण, सीता और राम के िवयोग पी बुरे रोग
से सब लोग घबड़ाकर (हाय-हाय करके) मर ही जाते।

रामकृपाँ अवरे ब सध
ु ारी। िबबध
ु धा र भइ गनु द गोहारी॥
भटत भजु भ र भाइ भरत सो। राम म े रसु न किह न परत सो॥

राम क कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं क सेना जो लटू ने आई थी, वही गुणदायक
(िहतकरी) और र क बन गई। राम भुजाओं म भरकर भाई भरत से िमल रहे ह। राम के ेम का
वह रस (आनंद) कहते नह बनता।

तन मन बचन उमग अनरु ागा। धीर धरु ं धर धीरजु यागा॥


बा रज लोचन मोचत बारी। देिख दसा सरु सभा दख ु ारी॥

तन, मन और वचन तीन म ेम उमड़ पड़ा। धीरज क धुरी को धारण करनेवाले रघुनाथ ने भी
धीरज याग िदया। वे कमल स श ने से ( ेमा ुओ ं का) जल बहाने लगे। उनक यह दशा
देखकर देवताओं क सभा (समाज) दुःखी हो गई।

मिु नगन गरु धरु धीर जनक से। यान अनल मन कस कनक से॥
जे िबरं िच िनरलेप उपाए। पदम
ु प िजिम जग जल जाए॥

मुिनगण, गु विश और जनक-सरीखे धीरधुरंधर जो अपने मन को ान पी अि न म सोने


के समान कस चुके थे, िजनको ा ने िनलप ही रचा और जो जगत पी जल म कमल के प े
क तरह ही (जगत म रहते हए भी जगत से अनास ) पैदा हए।

दो० - तेउ िबलोिक रघब


ु र भरत ीित अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सिहत िबराग िबचार॥ 317॥

वे भी राम और भरत के उपमारिहत अपार ेम को देखकर वैरा य और िववेक सिहत तन, मन,
वचन से उस ेम म म न हो गए॥ 317॥

जहाँ जनक गु गित मित भोरी। ाकृत ीित कहत बिड़ खोरी॥
बरनत रघबु र भरत िबयोगू। सिु न कठोर किब जािनिह लोगू॥

जहाँ जनक और गु विश क बुि क गित कंु िठत हो, उस िद य ेम को ाकृत (लौिकक)
कहने म बड़ा दोष है। राम और भरत के िवयोग का वणन करते सुनकर लोग किव को कठोर
दय समझगे।

सो सकोच रसु अकथ सब ु ानी। समउ सनेह सिु म र सकुचानी॥


भिट भरतु रघब
ु र समझ
ु ाए। पिु न रपदु वनु हरिष िहयँ लाए॥

वह संकोच-रस अकथनीय है। अतएव किव क संुदर वाणी उस समय उसके ेम को मरण करके
सकुचा गई। भरत को भट कर रघुनाथ ने उनको समझाया। िफर हिषत होकर श ु न को दय से
लगा िलया।

सेवक सिचव भरत ख पाई। िनज िनज काज लगे सब जाई॥


ु ु दहु ँ समाजा। लगे चलन के साजन साजा॥
सिु न दा न दख

सेवक और मं ी भरत का ख पाकर सब अपने-अपने काम म जा लगे। यह सुनकर दोन


समाज म दा ण दुःख छा गया। वे चलने क तैया रयाँ करने लगे।

भु पद पदमु बंिद दोउ भाई। चले सीस ध र राम रजाई॥


मिु न तापस बनदेव िनहोरी। सब सनमािन बहो र बहोरी॥

भु के चरणकमल क वंदना करके तथा राम क आ ा को िसर पर रखकर भरत-श ु न दोन


भाई चले। मुिन, तप वी और वनदेवता सबका बार-बार स मान करके उनक िवनती क ।

दो० - लखनिह भिट नामु क र िसर ध र िसय पद धू र।


चले स मे असीस सिु न सकल समु ंगल मू र॥ 318॥

िफर ल मण को मशः भटकर तथा णाम करके और सीता के चरण क धिू ल को िसर पर
धारण करके और सम त मंगल के मल
ू आशीवाद सुनकर वे ेमसिहत चले॥ 318॥

सानज ु राम नप
ृ िह िसर नाई। क ि ह बहत िबिध िबनय बड़ाई॥
देव दया बस बड़ दख ु ु पायउ। सिहत समाज काननिहं आयउ॥

छोटे भाई ल मण समेत राम ने राजा जनक को िसर नवाकर उनक बहत कार से िवनती और
बड़ाई क (और कहा -) हे देव! दयावश आपने बहत दुःख पाया। आप समाज सिहत वन म आए।

परु पगु धा रअ देइ असीसा। क ह धीर ध र गवनु महीसा॥


मिु न मिहदेव साधु सनमाने। िबदा िकए ह र हर सम जाने॥

अब आशीवाद देकर नगर को पधा रए। यह सुन राजा जनक ने धीरज धरकर गमन िकया। िफर
राम ने मुिन, ा ण और साधुओ ं को िव णु और िशव के समान जानकर स मान करके उनको
िवदा िकया।

सासु समीप गए दोउ भाई। िफरे बंिद पग आिसष पाई॥


कौिसक बामदेव जाबाली। परु जन प रजन सिचव सच ु ाली॥

तब राम-ल मण दोन भाई सास (सुनयना) के पास गए और उनके चरण क वंदना करके
आशीवाद पाकर लौट आए। िफर िव ािम , वामदेव, जाबािल और शुभ आचरणवाले कुटुंबी, नगर
िनवासी और मं ी -

जथा जोगु क र िबनय नामा। िबदा िकए सब सानज ु रामा॥


ना र पु ष लघु म य बड़ेरे। सब सनमािन कृपािनिध फेरे ॥

सबको छोटे भाई ल मण सिहत राम ने यथायो य िवनय एवं णाम करके िवदा िकया।
कृपािनधान राम ने छोटे, म यम (मझले) और बड़े सभी ेणी के ी-पु ष का स मान करके
उनको लौटाया।

दो० - भरत मातु पद बंिद भु सिु च सनेहँ िमिल भिट।


िबदा क ह सिज पालक सकुच सोच सब मेिट॥ 319॥

भरत क माता कैकेयी के चरण क वंदना करके भु राम ने पिव (िन छल) ेम के साथ उनसे
िमल-भट कर तथा उनके सारे संकोच और सोच को िमटाकर पालक सजाकर उनको िवदा
िकया॥ 319॥

े पन
प रजन मातु िपतिह िमिल सीता। िफरी ानि य म ु ीता॥
क र नामु भट सब सासू। ीित कहत किब िहयँ न हलासू॥
ाणि य पित राम के साथ पिव ेम करनेवाली सीता नैहर के कुटुंिबय से तथा माता-िपता से
िमलकर लौट आई ं। िफर णाम करके सब सासुओ ं से गले लगकर िमल । उनके ेम का वणन
करने के िलए किव के दय म हलास (उ साह) नह होता।

सिु न िसख अिभमत आिसष पाई। रही सीय दहु ीित समाई॥
रघप ु ित पटु पालक मगाई ं। क र बोध सब मातु चढ़ाई ं॥

उनक िश ा सुनकर और मनचाहा आशीवाद पाकर सीता सासुओ ं तथा माता-िपता दोन ओर
क ीित म समाई (बहत देर तक िनम न) रह ! (तब) रघुनाथ ने सुंदर पालिकयाँ मँगवाई ं और
सब माताओं को आ ासन देकर उन पर चढ़ाया।

बार बार िहिल िमिल दहु भाई ं। सम सनेहँ जनन पहँचाई ं॥


सािज बािज गज बाहन नाना। भरत भूप दल क ह पयाना॥

दोन भाइय ने माताओं से समान ेम से बार-बार िमल-जुलकर उनको पहँचाया। भरत और राजा
जनक के दल ने घोड़े , हाथी और अनेक तरह क सवा रयाँ सजाकर थान िकया।

दयँ रामु िसय लखन समेता। चले जािहं सब लोग अचेता॥


बसह बािज गज पसु िहयँ हार। चले जािहं परबस मन मार॥

सीता एवं ल मण सिहत राम को दय म रखकर सब लोग बेसुध हए चले जा रहे ह। बैल-घोड़े ,
हाथी आिद पशु दय म हारे (िशिथल) हए परवश मन मारे चले जा रहे ह।

दो० - गरु गरु ितय पद बंिद भु सीता लखन समेत।


िफरे हरष िबसमय सिहत आए परन िनकेत॥ 320॥

गु विश और गु प नी अ ं धती के चरण क वंदना करके सीता और ल मण सिहत भु


राम हष और िवषाद के साथ लौटकर पणकुटी पर आए॥ 320॥

िबदा क ह सनमािन िनषादू। चलेउ दयँ बड़ िबरह िबषादू॥


कोल िकरात िभ ल बनचारी। फेरे िफरे जोहा र जोहारी॥

िफर स मान करके िनषादराज को िवदा िकया। वह चला तो सही, िकंतु उसके दय म िवरह का
भारी िवषाद था। िफर राम ने कोल, िकरात, भील आिद वनवासी लोग को लौटाया। वे सब जोहार-
जोहार कर (वंदना कर-करके) लौटे।

भु िसय लखन बैिठ बट छाह । ि य प रजन िबयोग िबलखाह ॥


भरत सनेह सभ
ु ाउ सब
ु ानी। ि या अनज
ु सन कहत बखानी॥
भु राम, सीता और ल मण बड़ क छाया म बैठकर ि यजन एवं प रवार के िवयोग से दुःखी हो
रहे ह। भरत के नेह, वभाव और सुंदर वाणी को बखान-बखान कर वे ि य प नी सीता और
छोटे भाई ल मण से कहने लगे।

ीित तीित बचन मन करनी। ीमख ु राम म े बस बरनी॥


तेिह अवसर खग मग
ृ जल मीना। िच कूट चर अचर मलीना॥

राम ने ेम के वश होकर भरत के वचन, मन, कम क ीित तथा िव ास का अपने ीमुख से


वणन िकया। उस समय प ी, पशु और जल क मछिलयाँ, िच कूट के सभी चेतन और जड़ जीव
उदास हो गए।

िबबधु िबलोिक दसा रघबु र क । बरिष सम ु न किह गित घर घर क ॥


भु नामु क र दी ह भरोसो। चले मिु दत मन डर न खरो सो॥

रघुनाथ क दशा देखकर देवताओं ने उन पर फूल बरसाकर अपनी घर-घर क दशा कही (दुखड़ा
सुनाया)। भु राम ने उ ह णाम कर आ ासन िदया। तब वे स न होकर चले, मन म जरा-सा
भी डर न रहा।

दो० - सानज
ु सीय समेत भु राजत परन कुटीर।
भगित यानु बैरा य जनु सोहत धर सरीर॥ 321॥

छोटे भाई ल मण और सीता समेत भु राम पणकुटी म ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो वैरा य, भि
और ान शरीर धारण करके शोिभत हो रहे ह ॥ 321॥

मिु न मिहसरु गरु भरत भआ


ु लू। राम िबरहँ सबु साजु िबहाल।ू
भु गन ु ाम गनत मन माह । सब चप ु चाप चले मग जाह ॥

मुिन, ा ण, गु विश , भरत और राजा जनक - सारा समाज राम के िवरह म िव ल है। भु
के गुणसमहू का मन म मरण करते हए सब लोग माग म चुपचाप चले जा रहे ह।

जमनु ा उत र पार सबु भयऊ। सो बास िबनु भोजन गयऊ॥


उत र देवस र दूसर बासू। रामसखाँ सब क ह सप
ु ासू॥

(पहले िदन) सब लोग यमुना उतरकर पार हए। वह िदन िबना भोजन के ही बीत गया। दूसरा
मुकाम गंगा उतरकर (गंगापार ंग
ृ वेरपुर म) हआ। वहाँ राम सखा िनषादराज ने सब सु बंध कर
िदया।

सई उत र गोमत नहाए। चौथ िदवस अवधपरु आए॥


जनकु रहे परु बासर चारी। राज काज सब साज सँभारी॥
िफर सई उतरकर गोमती म नान िकया और चौथे िदन सब अयो या जा पहँचे। जनक चार िदन
अयो या म रहे और राजकाज एवं सब साज-सामान को स हालकर,

स िप सिचव गरु भरतिहं राजू। तेरहित चले सािज सबु साजू॥


नगर ना र नर गरु िसख मानी। बसे सख े राम रजधानी॥
ु न

तथा मं ी, गु तथा भरत को रा य स पकर, सारा साज-सामान ठीक करके ितरहत को चले।
नगर के ी-पु ष गु क िश ा मानकर राम क राजधानी अयो या म सुखपवू क रहने लगे।

दो० - राम दरस लिग लोग सब करत नेम उपबास।


तिज तिज भूषन भोग सख ु िजअत अविध क आस॥ 322॥

सब लोग राम के दशन के िलए िनयम और उपवास करने लगे। वे भषू ण और भोग-सुख को
छोड़-छाड़कर अविध क आशा पर जी रहे ह॥ 322॥

सिचव सस े क भरत बोधे। िनज िनज काज पाइ िसख ओधे॥


ु व
पिु न िसख दीि ह बोिल लघु भाई। स पी सकल मातु सेवकाई॥

भरत ने मंि य और िव ासी सेवक को समझाकर उ त िकया। वे सब सीख पाकर अपने-अपने


काम म लग गए। िफर छोटे भाई श ु न को बुलाकर िश ा दी और सब माताओं क सेवा उनको
स पी।

भूसरु बोिल भरत कर जोरे । क र नाम बय िबनय िनहोरे ॥


ऊँच नीच कारजु भल पोचू। आयसु देब न करब सँकोचू॥

ा ण को बुलाकर भरत ने हाथ जोड़कर णाम कर अव था के अनुसार िवनय और िनहोरा


िकया िक आप लोग ऊँचा-नीचा (छोटा-बड़ा), अ छा-मंदा जो कुछ भी काय हो, उसके िलए आ ा
दीिजएगा। संकोच न क िजएगा।

प रजन परु जन जा बोलाए। समाधानु क र सब ु स बसाए॥


सानजु गे गरु गेहँ बहोरी। क र दंडवत कहत कर जोरी॥

भरत ने िफर प रवार के लोग को, नाग रक को तथा अ य जा को बुलाकर, उनका समाधान
करके उनको सुखपवू क बसाया। िफर छोटे भाई श ु न सिहत वे गु के घर गए और दंडवत
करके हाथ जोड़कर बोले -

आयसु होइ त रह सनेमा। बोले मिु न तन पल


ु िक सपेमा॥
समझ
ु ब कहब करब तु ह जोई। धरम सा जग होइिह सोई॥
आ ा हो तो म िनयमपवू क रहँ! मुिन विश पुलिकत शरीर हो ेम के साथ बोले - हे भरत! तुम
जो कुछ समझोगे, कहोगे और करोगे, वही जगत म धम का सार होगा।

दो० - सिु न िसख पाइ असीस बिड़ गनक बोिल िदनु सािध।
िसंघासन भु पादक ु ा बैठारे िन पािध॥ 323॥

भरत ने यह सुनकर और िश ा तथा बड़ा आशीवाद पाकर योितिषय को बुलाया और िदन


(अ छा मुहत) साधकर भु क चरणपादुकाओं को िनिव नतापवू क िसंहासन पर िवरािजत
कराया॥ 323॥

राम मातु गरु पद िस नाई। भु पद पीठ रजायसु पाई॥


नंिदगाँव क र परन कुटीरा। क ह िनवासु धरम धरु धीरा॥

िफर राम क माता कौस या और गु के चरण म िसर नवाकर और भु क चरणपादुकाओं क


आ ा पाकर धम क धुरी धारण करने म धीर भरत ने नंिद ाम म पणकुटी बनाकर उसी म
िनवास िकया।

जटाजूट िसर मिु नपट धारी। मिह खिन कुस साँथरी सँवारी॥
असन बसन बासन त नेमा। करत किठन रिषधरम स म े ा॥

िसर पर जटाजटू और शरीर म मुिनय के (व कल) व धारण कर, प ृ वी को खोदकर उसके


अंदर कुश क आसनी िबछाई। भोजन, व , बरतन, त, िनयम - सभी बात म वे ऋिषय के
किठन धम का ेम सिहत आचरण करने लगे।

भूषन बसन भोग सख ु भूरी। मन तन बचन तजे ितन तरू ी॥


अवध राजु सरु राजु िसहाई। दसरथ धनु सिु न धनदु लजाई॥

गहने-कपड़े और अनेक कार के भोग-सुख को मन, तन और वचन से तण ृ तोड़कर ( ित ा


करके) याग िदया। िजस अयो या के रा य को देवराज इं िसहाते थे और (जहाँ के राजा) दशरथ
क संपि सुनकर कुबेर भी लजा जाते थे,

तेिहं परु बसत भरत िबनु रागा। चंचरीक िजिम चंपक बागा॥
रमा िबलासु राम अनरु ागी। तजत बमन िजिम जन बड़भागी॥

उसी अयो यापुरी म भरत अनास होकर इस कार िनवास कर रहे ह, जैसे चंपा के बाग म
भ रा। राम के ेमी बड़भागी पु ष ल मी के िवलास (भोगै य) को वमन क भाँित याग देते ह
(िफर उसक ओर ताकते भी नह )।

े भाजन भरतु बड़े न एिहं करतिू त।


दो० - राम म
चातक हंस सरािहअत टक िबबेक िबभूित॥ 324॥

िफर भरत तो ( वयं) राम के ेम के पा ह। वे इस (भोगै य याग प) करनी से बड़े नह हए


(अथात उनके िलए यह कोई बड़ी बात नह है)। (प ृ वी पर का जल न पीने क ) टेक से चातक
क और नीर- ीर-िववेक क िवभिू त (शि ) से हंस क भी सराहना होती है॥ 324॥

देह िदनहँ िदन दूब र होई। घटइ तेजु बलु मख


ु छिब सोई॥
िनत नव राम म े पनु पीना। बढ़त धरम दलु मनु न मलीना॥

भरत का शरीर िदन -िदन दुबला होता जाता है। तेज (अ न, घतृ आिद से उ प न होनेवाला मेद)
घट रहा है। बल और मुख छिव (मुख क कांित अथवा शोभा) वैसी ही बनी हई है। राम ेम का ण
िन य नया और पु होता है, धम का दल बढ़ता है और मन उदास नह है (अथात स न है)।

िजिम जलु िनघटत सरद कासे। िबलसत बेतस बनज िबकासे॥


सम दम संजम िनयम उपासा। नखत भरत िहय िबमल अकासा॥

जैसे शरद ऋतु के काश (िवकास) से जल घटता है, िकंतु बत शोभा पाते ह और कमल िवकिसत
होते ह। शम, दम, संयम, िनयम और उपवास आिद भरत के दय पी िनमल आकाश के न
(तारागण) ह।


ु िब वासु अविध राका सी। वािम सरु ित सरु बीिथ िबकासी॥
राम म े िबधु अचल अदोषा। सिहत समाज सोह िनत चोखा॥

िव ास ही (उस आकाश म) ुव तारा है, चौदह वष क अविध (का यान) पिू णमा के समान है
और वामी राम क सुरित ( मिृ त) आकाशगंगा-सरीखी कािशत है। राम ेम ही अचल (सदा
रहनेवाला) और कलंकरिहत चं मा है। वह अपने समाज (न ) सिहत िन य सुंदर सुशोिभत है।

भरत रहिन समझ


ु िन करतत ू ी। भगित िबरित गन
ु िबमल िबभूती॥
बरनत सकल सक ु िब सकुचाह । सेस गनेस िगरा गमु नाह ॥

भरत क रहनी, समझ, करनी, भि , वैरा य, िनमल, गुण और ऐ य का वणन करने म सभी
सुकिव सकुचाते ह; य िक वहाँ (और क तो बात ही या) वयं शेष, गणेश और सर वती क
भी पहँच नह है।

दो० - िनत पूजत भु पाँवरी ीित न दयँ समाित।


मािग मािग आयसु करत राज काज बह भाँित॥ 325॥

ू न करते ह, दय म ेम समाता नह है। पादुकाओं से


वे िन य ित भु क पादुकाओं का पज
आ ा माँग-माँगकर वे बहत कार (सब कार के) राज-काज करते ह॥ 325॥
पल
ु क गात िहयँ िसय रघब
ु ी । जीह नामु जप लोचन नी ॥
लखन राम िसय कानन बसह । भरतु भवन बिस तप तनु कसह ॥

शरीर पुलिकत है, दय म सीताराम ह। जीभ राम-नाम जप रही है, ने म ेम का जल भरा है।
ल मण, राम और सीता तो वन म बसते ह, परं तु भरत घर ही म रहकर तप के ारा शरीर को
कस रहे ह।

दोउ िदिस समिु झ कहत सबु लोगू। सब िबिध भरत सराहन जोगू॥
सिु न त नेम साधु सकुचाह । देिख दसा मिु नराज लजाह ॥

दोन ओर क ि थित समझकर सब लोग कहते ह िक भरत सब कार से सराहने यो य ह।


उनके त और िनयम को सुनकर साधु-संत भी सकुचा जाते ह और उनक ि थित देखकर
मुिनराज भी लि जत होते ह।

परम पन
ु ीत भरत आचरनू। मधरु मंजु मदु मंगल करनू॥
हरन किठन किल कलष ु कलेसू। महामोह िनिस दलन िदनेसू॥

भरत का परम पिव आचरण (च र ) मधुर, सुंदर और आनंद-मंगल का करनेवाला है। किलयुग
के किठन पाप और लेश को हरनेवाला है। महामोह पी राि को न करने के िलए सय ू के
समान है।

पाप पंज
ु कंु जर मग
ृ राजू। समन सकल संताप समाजू॥
जन रं जन भंजन भव भा । राम सनेह सधु ाकर सा ॥

पाप समहू पी हाथी के िलए िसंह है। सारे संताप के दल का नाश करनेवाला है। भ को आनंद
देनेवाला और भव के भार (संसार के दुःख) का भंजन करनेवाला तथा राम ेम पी चं मा का
सार (अमत ृ ) है।

छं ० - िसय राम मे िपयूष पूरन होत जनमु न भरत को।


मिु न मन अगम जम िनयम सम दम िबषम त आचरत को॥
दख
ु दाह दा रद दंभ दूषन सजु स िमस अपहरत को।
किलकाल तल ु सी से सठि ह हिठ राम सनमखु करत को॥

सीताराम के ेम पी अमत ू भरत का ज म यिद न होता, तो मुिनय के मन को भी


ृ से प रपण
अगम यम, िनयम, शम, दम आिद किठन त का आचरण कौन करता? दुःख, संताप, द र ता,
दंभ आिद दोष को अपने सुयश के बहाने कौन हरण करता? तथा किलकाल म तुलसीदास-जैसे
शठ को हठपवू क कौन राम के स मुख करता?
सो० - भरत च रत क र नेमु तल
ु सी जो सादर सन
ु िहं।
सीय राम पद मे ु अविस होइ भव रस िबरित॥ 326॥

तुलसीदास कहते ह - जो कोई भरत के च र को िनयम से आदरपवू क सुनगे, उनको अव य ही


सीताराम के चरण म ेम होगा और सांसा रक िवषय-रस से वैरा य होगा॥ 326॥

इित ीम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने ि तीयः सोपानः समा ः।

किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करनेवाले ी रामच रतमानस का यह दूसरा सोपान समा
हआ॥

(अयो याकांड समा )


अर यकांड
मूलं धमतरोिववेकजलधेः पूण दम
ु ानंददं
वैरा यांबज
ु भा करं घघन वा तापहं तापहम्।
मोहा भोधरपूगपाटनिवधौ वःसंभवं शंकरं
वंद े कुलं कलंकशमनं ी रामभूपि यम्॥ 1॥

धम पी व ृ के मलू , िववेक पी समु को आनंद देनेवाले पणू चं , वैरा य पी कमल के


(िवकिसत करनेवाले) सय ू , पाप पी घोर अंधकार को िन य ही िमटानेवाले, तीन ताप को
हरनेवाले, मोह पी बादल के समहू को िछ न-िभ न करने क िविध (ि या) म आकाश से
उ प न पवन व प, ा के वंशज (आ मज) तथा कलंकनाशक, महाराज राम के ि य ी
शंकर क म वंदना करता हँ॥ 1॥

सां ानंदपयोदसौभगतनंु पीतांबरं संदु रं


पाणौ बाणशरासनं किटलस ूणीरभारं वरम्।
राजीवायतलोचनं धत े संशोिभतं
ृ जटाजूटन
सीताल मणसंयत ु ं पिथगतं रामािभरामं भजे॥ 2॥

िजनका शरीर जलयु मेघ के समान सुंदर ( यामवण) एवं आनंदघन है, जो सुंदर (व कल का)
पीत व धारण िकए ह, िजनके हाथ म बाण और धनुष ह, कमर उ म तरकस के भार से
सुशोिभत है, कमल के समान िवशाल ने ह और म तक पर जटाजटू धारण िकए ह, उन अ यंत
शोभायमान सीता और ल मण सिहत माग म चलते हए आनंद देनेवाले राम को म भजता हँ॥ 2॥

सो० - उमा राम गनु गूढ़ पंिडत मिु न पाविहं िबरित।


पाविहं मोह िबमूढ़ जे ह र िबमख
ु न धम रित॥

हे पावती! राम के गुण गढ़


ू ह, पंिडत और मुिन उ ह समझकर वैरा य ा करते ह, परं तु जो
भगवान से िवमुख ह और िजनका धम म ेम नह है, वे महामढ़ ू (उ ह सुनकर) मोह को ा
होते ह।

परु नर भरत ीित म गाई। मित अनु प अनूप सहु ाई॥


अब भु च रत सनु ह अित पावन। करत जे बन सरु नर मिु न भावन॥

पुरवािसय के और भरत के अनुपम और सुंदर ेम का मने अपनी बुि के अनुसार गान िकया।
अब देवता, मनु य और मुिनय के मन को भानेवाले भु राम के वे अ यंत पिव च र सुनो,
िज ह वे वन म कर रहे ह।
एक बार चिु न कुसम
ु सहु ाए। िनज कर भूषन राम बनाए॥
सीतिह पिहराए भु सादर। बैठे फिटक िसला पर संदु र॥

एक बार सुंदर फूल चुनकर राम ने अपने हाथ से भाँित-भाँित के गहने बनाए और सुंदर फिटक
िशला पर बैठे हए भु ने आदर के साथ वे गहने सीता को पहनाए।

सरु पित सत
ु ध र बायस बेषा। सठ चाहत रघप
ु ित बल देखा॥
िजिम िपपीिलका सागर थाहा। महा मंदमित पावन चाहा॥

ू पु जयंत कौए का प धरकर रघुनाथ का बल देखना चाहता है। जैसे


देवराज इं का मख
महान मंद बुि च टी समु का थाह पाना चाहती हो।

सीता चरन च च हित भागा। मूढ़ मंदमित कारन कागा॥


चला िधर रघनु ायक जाना। स क धनष ु सायक संधाना॥

ू , मंद बुि कारण से (भगवान के बल क परी ा करने के िलए) बना हआ कौआ सीता के
वह मढ़
चरण म च च मारकर भागा। जब र बह चला, तब रघुनाथ ने जाना और धनुष पर स क
(सरकंडे ) का बाण संधान िकया।

दो० - अित कृपाल रघन


ु ायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ क ह छलु मूरख अवगन ु गेह॥ 1॥

रघुनाथ, जो अ यंत ही कृपालु ह और िजनका दीन पर सदा ेम रहता है, उनसे भी उस अवगुण
के घर मखू जयंत ने आकर छल िकया॥ 1॥

े रत मं सर धावा। चला भािज बायस भय पावा॥


ध र िनज प गयउ िपतु पाह । राम िबमख
ु राखा तेिह नाह ॥

मं से े रत होकर वह बाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भाग चला। वह अपना असली प
धरकर िपता इं के पास गया, पर राम का िवरोधी जानकर इं ने उसको नह रखा।

भा िनरास उपजी मन ासा। जथा च भय रिष दब ु ासा॥


धाम िसवपरु सब लोका। िफरा िमत याकुल भय सोका॥

तब वह िनराश हो गया, उसके मन म भय उ प न हो गया; जैसे दुवासा ऋिष को च से भय


हआ था। वह लोक, िशवलोक आिद सम त लोक म थका हआ और भय-शोक से याकुल
होकर भागता िफरा।

काहँ बैठन कहा न ओही। रािख को सकइ राम कर ोही॥


मातु म ृ यु िपतु समन समाना। सध
ु ा होइ िबष सन
ु ु ह रजाना॥

(पर रखना तो दूर रहा) िकसी ने उसे बैठने तक के िलए नह कहा। राम के ोही को कौन रख
सकता है? (काकभुशुंिड कहते ह -) है ग ड़! सुिनए, उसके िलए माता म ृ यु के समान, िपता
यमराज के समान और अमत ृ िवष के समान हो जाता है।

िम करइ सत रपु कै करनी। ता कहँ िबबध ु नदी बैतरनी॥


सब जगु तािह अनलह ते ताता। जो रघब
ु ीर िबमख
ु सन ु ु ाता॥

िम सैकड़ श ुओ ं क -सी करनी करने लगता है। देवनदी गंगा उसके िलए वैतरणी (यमपुरी क
नदी) हो जाती है। हे भाई! सुिनए, जो रघुनाथ के िवमुख होता है, सम त जगत उनके िलए अि न
से भी अिधक गरम (जलानेवाला) हो जाता है।

नारद देखा िबकल जयंता। लिग दया कोमल िचत संता॥


पठवा तरु त राम पिहं ताही। कहेिस पक
ु ा र नत िहत पाही॥

नारद ने जयंत को याकुल देखा तो उ ह दया आ गई; य िक संत का िच बड़ा कोमल होता
है। उ ह ने उसे (समझाकर) तुरंत राम के पास भेज िदया। उसने (जाकर) पुकारकर कहा – हे
शरणागत के िहतकारी! मेरी र ा क िजए।

आतरु सभय गहेिस पद जाई। ािह ािह दयाल रघरु ाई॥


अतिु लत बल अतिु लत भत
ु ाई। म मितमंद जािन निहं पाई॥

आतुर और भयभीत जयंत ने जाकर राम के चरण पकड़ िलए (और कहा - ) हे दयालु रघुनाथ!
र ा क िजए। आपके अतुिलत बल और आपक अतुिलत भुता (साम य) को म मंद बुि जान
नह पाया था।

िनज कृत कम जिनत फल पायऊँ। अब भु पािह सरन तिक आयऊँ॥


सिु न कृपाल अित आरत बानी। एकनयन क र तजा भवानी॥

अपने िकए हए कम से उ प न हआ फल मने पा िलया। अब हे भु! मेरी र ा क िजए। म आपक


शरण तककर आया हँ। (िशव कहते ह - ) हे पावती! कृपालु रघुनाथ ने उसक अ यंत आ
(दुःखभरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ िदया।

सो० – क ह मोह बस ोह ज िप तेिह कर बध उिचत।


भु छाड़ेउ क र छोह को कृपाल रघब
ु ीर सम॥ 2॥

उसने मोहवश ोह िकया था, इसिलए य िप उसका वध ही उिचत था, पर भु ने कृपा करके उसे
छोड़ िदया। राम के समान कृपालु और कौन होगा?॥ 2॥
रघप
ु ित िच कूट बिस नाना। च रत िकए ुित सध ु ा समाना॥
बह र राम अस मन अनम ु ाना। होइिह भीड़ सबिहं मोिह जाना॥

िच कूट म बसकर रघुनाथ ने बहत-से च र िकए, जो कान को अमत ृ के समान (ि य) ह। िफर


(कुछ समय प ात) राम ने मन म ऐसा अनुमान िकया िक मुझे सब लोग जान गए है, इससे
(यहाँ) बड़ी भीड़ हो जाएगी।

सकल मिु न ह सन िबदा कराई। सीता सिहत चले ौ भाई॥


अि के आ म जब भु गयऊ। सन ु त महामिु न हरिषत भयऊ॥

(इसिलए) सब मुिनय से िवदा लेकर सीता सिहत दोन भाई चले! जब भु अि के आ म म गए,
तो उनका आगमन सुनते ही महामुिन हिषत हो गए।

पल
ु िकत गात अि उिठ धाए। देिख रामु आतरु चिल आए॥
े बा र ौ जन अ हवाए॥
करत दंडवत मिु न उर लाए। म

शरीर पुलिकत हो गया, अि उठकर दौड़े । उ ह दौड़े आते देखकर राम और भी शी ता से चले
आए। दंडवत करते हए ही राम को (उठाकर) मुिन ने दय से लगा िलया और ेमा ुओ ं के जल से
दोन जन को (दोन भाइय को) नहला िदया।

देिख राम छिब नयन जुड़ाने। सादर िनज आ म तब आने॥


क र पूजा किह बचन सहु ाए। िदए मूल फल भु मन भाए॥

राम क छिव देखकर मुिन के ने शीतल हो गए। तब वे उनको आदरपवू क अपने आ म म ले


ू न करके सुंदर वचन कहकर मुिन ने मल
आए। पज ू और फल िदए, जो भु के मन को बहत चे।

सो० - भु आसन आसीन भ र लोचन सोभा िनरिख।


मिु नबर परम बीन जो र पािन अ तिु त करत॥ 3॥

भु आसन पर िवराजमान ह। ने भरकर उनक शोभा देखकर परम वीण मुिन े हाथ
जोड़कर तुित करने लगे - ॥ 3॥

छं ० - नमािम भ व सलं। कृपालु शील कोमलं॥


भजािम ते पदांबज
ु ं। अकािमनां वधामदं॥

हे भ व सल! हे कृपालु! हे कोमल वभाववाले! म आपको नम कार करता हँ। िन काम पु ष


को अपना परमधाम देनेवाले आपके चरण कमल को म भजता हँ।
िनकाम याम संदु रं । भवांबन
ु ाथ मंदरं ॥
फु ल कंज लोचनं। मदािद दोष मोचनं॥

आप िनतांत सुंदर याम, संसार (आवागमन) पी समु को मथने के िलए मंदराचल प, फूले
हए कमल के समान ने वाले और मद आिद दोष से छुड़ानेवाले ह।

लंब बाह िव मं। भोऽ मेय वैभवं॥


िनषंग चाप सायकं। धरं ि लोक नायकं॥

हे भो! आपक लंबी भुजाओं का परा म और आपका ऐ य अ मेय (बुि के परे अथवा असीम)
है। आप तरकस और धनुष-बाण धारण करनेवाले तीन लोक के वामी,

िदनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं॥


मनु संत रं जनं। सरु ा र वंदृ भंजनं॥

सयू वंश के भषू ण, महादेव के धनुष को तोड़नेवाले, मुिनराज और संत को आनंद देनेवाले तथा
देवताओं के श ु असुर के समहू का नाश करनेवाले ह।

मनोज वै र वंिदतं। अजािद देव सेिवतं॥


िवशु बोध िव हं। सम त दूषणापहं॥

आप कामदेव के श ु महादेव के ारा वंिदत, ा आिद देवताओं से सेिवत, िवशु ानमय


िव ह और सम त दोष को न करनेवाले ह।

नमािम इं िदरा पितं। सखु ाकरं सतां गितं॥


भजे सशि सानज ु ं। शची पित ि यानजु ं॥

हे ल मीपते! हे सुख क खान और स पु ष क एकमा गित! म आपको नम कार करता हँ!


हे शचीपित (इं ) के ि य छोटे भाई (वामन)! व पा-शि सीता और छोटे भाई ल मण सिहत
आपको म भजता हँ।

वदंि मूल ये नराः। भजंित हीन म सराः॥


पतंित नो भवाणवे। िवतक वीिच संकुले॥

जो मनु य म सर (डाह) रिहत होकर आपके चरण कमल का सेवन करते ह, वे तक-िवतक
(अनेक कार के संदेह) पी तरं ग से पण
ू संसार पी समु म नह िगरते (आवागमन के
च कर म नह पड़ते)।

िविव वािसनः सदा। भजंित मु ये मदु ा॥


िनर य इं ि यािदकं। यांित ते गितं वकं॥

जो एकांतवासी पु ष मुि के िलए, इंि यािद का िन ह करके (उ ह िवषय से हटाकर)


स नतापवू क आपको भजते ह, वे वक य गित को (अपने व प को) ा होते ह।

तमेकम त ु ं भं।ु िनरीहमी रं िवभं॥ु


जग ु ं च शा तं। तरु ीयमेव केवलं॥

उन (आप) को जो एक (अि तीय), अ ुत (माियक जगत से िवल ण), भु (सवसमथ),


इ छारिहत, ई र (सबके वामी), यापक, जग ु , सनातन (िन य), तुरीय (तीन गुण से
सवथा परे ) और केवल (अपने व प म ि थत) ह।

भजािम भाव व लभं। कुयोिगनां सदु ल


ु भं॥
वभ क प पादपं। समं सस ु े यम वहं॥

(तथा) जो भावि य, कुयोिगय (िवषयी पु ष ) के िलए अ यंत दुलभ, अपने भ के िलए


क पव ृ (अथात उनक सम त कामनाओं को पण ू करनेवाले), सम (प पातरिहत) और सदा
सुखपवू क सेवन करने यो य ह; म िनरं तर भजता हँ।

अनूप प भूपितं। नतोऽहमिु वजा पितं॥


सीद मे नमािम ते। पदा ज भि देिह मे॥

हे अनुपम सुंदर! हे प ृ वीपित! हे जानक नाथ! म आपको णाम करता हँ। मुझ पर स न होइए,
म आपको नम कार करता हँ। मुझे अपने चरण कमल क भि दीिजए।

पठंित ये तवं इदं। नरादरे ण ते पदं॥


जंित ना संशयं। वदीय भि संयत ु ाः॥

जो मनु य इस तुित को आदरपवू क पढ़ते ह, वे आपक भि से यु होकर आपके परम पद को


ा होते ह, इसम संदेह नह ।

दो० - िबनती क र मिु न नाइ िस कह कर जो र बहो र।


चरन सरो ह नाथ जिन कबहँ तजै मित मो र॥ 4॥

मुिन ने (इस कार) िवनती करके और िफर िसर नवाकर, हाथ जोड़कर कहा - हे नाथ! मेरी
बुि आपके चरण कमल को कभी न छोड़े ॥ 4॥

अनसु इु या के पद गिह सीता। िमली बहो र सस


ु ील िबनीता॥
रिषपितनी मन सख ु अिधकाई। आिसष देइ िनकट बैठाई॥
िफर परम शीलवती और िवन सीता अनसय ू ा (आि क प नी) के चरण पकड़कर उनसे िमल ।
ऋिष प नी के मन म बड़ा सुख हआ। उ ह ने आशीष देकर सीता को पास बैठा िलया।

िद य बसन भूषन पिहराए। जे िनत नूतन अमल सहु ाए॥


कह रिषबधू सरस मदृ ु बानी। ना रधम कछु याज बखानी॥

और उ ह ऐसे िद य व और आभषू ण पहनाए, जो िन य-नए िनमल और सुहावने बने रहते ह।


िफर ऋिष प नी उनके बहाने मधुर और कोमल वाणी से ि य के कुछ धम बखान कर कहने
लग ।

मातु िपता ाता िहतकारी। िमत द सब सनु ु राजकुमारी॥


अिमत दािन भता बयदेही। अधम सो ना र जो सेव न तेही॥

हे राजकुमारी! सुिनए - माता, िपता, भाई सभी िहत करनेवाले ह, परं तु ये सब एक सीमा तक ही
(सुख) देनेवाले ह, परं तु हे जानक ! पित तो (मो प) असीम (सुख) देनेवाला है। वह ी
अधम है, जो ऐसे पित क सेवा नह करती।

धीरज धम िम अ नारी। आपद काल प रिखअिहं चारी॥


ब ृ रोगबस जड़ धनहीना। अंध बिधर ोधी अित दीना॥

धैय, धम, िम और ी - इन चार क िवपि के समय ही परी ा होती है। व ृ , रोगी, मख


ू ,
िनधन, अंधा, बहरा, ोधी और अ यंत ही दीन -

ऐसेह पित कर िकएँ अपमाना। ना र पाव जमपरु दख


ु नाना॥
एकइ धम एक त नेमा। कायँ बचन मन पित पद म े ा॥

ऐसे भी पित का अपमान करने से ी यमपुर म भाँित-भाँित के दुःख पाती है। शरीर, वचन और
मन से पित के चरण म ेम करना ी के िलए, बस, यह एक ही धम है, एक ही त है और एक
ही िनयम है।

जग पित ता चा र िबिध अहह । बेद परु ान संत सब कहह ॥


उ म के अस बस मन माह । सपनेहँ आन पु ष जग नाह ॥

जगत म चार कार क पित ताएँ ह। वेद, पुराण और संत सब ऐसा कहते ह िक उ म ेणी क
पित ता के मन म ऐसा भाव बसा रहता है िक जगत म (मेरे पित को छोड़कर) दूसरा पु ष व न
म भी नह है।

म यम परपित देखइ कैस। ाता िपता पु िनज जैस॥


धम िबचा र समिु झ कुल रहई। सो िनिक ि य िु त अस कहई॥
म यम ेणी क पित ता पराए पित को कैसे देखती है, जैसे वह अपना सगा भाई, िपता या पु हो
(अथात समान अव थावाले को वह भाई के प म देखती है, बड़े को िपता के प म और छोटे को
पु के प म देखती है।) जो धम को िवचारकर और अपने कुल क मयादा समझकर बची रहती
है, वह िनकृ (िन न ेणी क ) ी है, ऐसा वेद कहते ह।

िबनु अवसर भय त रह जोई। जानेह अधम ना र जग सोई॥


पित बंचक परपित रित करई। रौरव नरक क प सत परई॥

और जो ी मौका न िमलने से या भयवश पित ता बनी रहती है, जगत म उसे अधम ी
जानना। पित को धोखा देनेवाली जो ी पराए पित से रित करती है, वह तो सौ क प तक रौरव
नरक म पड़ी रहती है।

छन सखु लािग जनम सत कोटी। दख ु न समझ


ु तेिह सम को खोटी॥
िबनु म ना र परम गित लहई। पित त धम छािड़ छल गहई॥

णभर के सुख के िलए जो सौ करोड़ (असं य) ज म के दुःख को नह समझती, उसके समान


दु ा कौन होगी। जो ी छल छोड़कर पित त धम को हण करती है, वह िबना ही प र म परम
गित को ा करती है।

पित ितकूल जनम जहँ जाई। िबधवा होइ पाइ त नाई॥

िकंतु जो पित के ितकूल चलती है, वह जहाँ भी जाकर ज म लेती है, वह जवानी पाकर (भरी
जवानी म) िवधवा हो जाती है।

सो० - सहज अपाविन ना र पित सेवत सभु गित लहइ।


जसु गावत ुित चा र अजहँ तल
ु िसका ह रिह ि य॥ 5(क)॥

ी ज म से ही अपिव है, िकंतु पित क सेवा करके वह अनायास ही शुभ गित ा कर लेती है।
(पित त धम के कारण ही) आज भी 'तुलसी' भगवान को ि य ह और चार वेद उनका यश गाते
ह॥ 5(क)॥

सन
ु ु सीता तव नाम सिु म र ना र पित त करिहं।
तोिह ानि य राम किहउँ कथा संसार िहत॥ 5(ख)॥

हे सीता! सुनो, तु हारा तो नाम ही ले-लेकर ि याँ पित त धम का पालन करगी। तु ह तो राम
ाण के समान ि य ह, यह (पित त धम क ) कथा तो मने संसार के िहत के िलए कही है॥
5(ख)॥
सिु न जानक परम सखु ु पावा। सादर तासु चरन िस नावा॥
तब मिु न सन कह कृपािनधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना॥

जानक ने सुनकर परम सुख पाया और आदरपवू क उनके चरण म िसर नवाया। तब कृपा क
खान राम ने मुिन से कहा - आ ा हो तो अब दूसरे वन म जाऊँ।

संतत मो पर कृपा करे ह। सेवक जािन तजेह जिन नेह॥


धम धरु ं धर भु कै बानी। सिु न स म
े बोले मिु न यानी॥

मुझ पर िनरं तर कृपा करते रिहएगा और अपना सेवक जानकर नेह न छोिड़एगा। धम धुरंधर
भु राम के वचन सुनकर ानी मुिन ेमपवू क बोले -

जासु कृपा अज िसव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी॥


ते तु ह राम अकाम िपआरे । दीन बंधु मदृ ु बचन उचारे ॥

ा, िशव और सनकािद सभी परमाथवादी (त ववे ा) िजनक कृपा चाहते ह, हे राम! आप वही
िन काम पु ष के भी ि य और दीन के बंधु भगवान ह, जो इस कार कोमल वचन बोल रहे ह।

अब जानी म चतरु ाई। भजी तु हिह सब देव िबहाई॥


जेिह समान अितसय निहं कोई। ता कर सील कस न अस होई॥

अब मने ल मी क चतुराई समझी, िज ह ने सब देवताओं को छोड़कर आप ही को भजा। िजसके


समान (सब बात म) अ यंत बड़ा और कोई नह है, उसका शील भला, ऐसा य न होगा?

केिह िबिध कह जाह अब वामी। कहह नाथ तु ह अंतरजामी॥


अस किह भु िबलोिक मिु न धीरा। लोचन जल बह पल
ु क सरीरा॥

म िकस कार कहँ िक हे वामी! आप अब जाइए? हे नाथ! आप अंतयामी ह, आप ही किहए। ऐसा


कहकर धीर मुिन भु को देखने लगे। मुिन के ने से ( ेमा ुओ ं का) जल बह रहा है और शरीर
पुलिकत है।

छं ० - तन पल ु क िनर#2381;भर म े पूरन नयन मख ु पंकज िदए।


मन यान गन ु गोतीत भु म दीख जप तप का िकए॥
जप जोग धम समूह त नर भगित अनप ु म पावई।
रघब ु ीर च रत पनु ीत िनिस िदन दास तलु सी गावई॥

मुिन अ यंत ेम से पण
ू ह, उनका शरीर पुलिकत है और ने को राम के मुखकमल म लगाए
हए ह। (मन म िवचार रहे ह िक) मने ऐसे कौन-से जप-तप िकए थे, िजसके कारण मन, ान,
गुण और इंि य से परे भु के दशन पाए। जप, योग और धम-समहू से मनु य अनुपम भि को
पाता है। रघुवीर के पिव च र को तुलसीदास रात-िदन गाता है।

दो० - किलमल समन दमन मन राम सज ु स सखु मूल।


सादर सनु िहं जे ित ह पर राम रहिहं अनक
ु ू ल॥ 6(क)॥

राम का सुंदर यश किलयुग के पाप का नाश करनेवाला, मन को दमन करनेवाला और सुख


का मल
ू है। जो लोग इसे आदरपवू क सुनते ह, उन पर राम स न रहते ह॥ 6(क)॥

सो० - किठन काल मल कोस धम न यान न जोग जप।


प रह र सकल भरोस रामिह भजिहं ते चतरु नर॥ 6(ख)॥

यह किठन किल काल पाप का खजाना है; इसम न धम है, न ान है और न योग तथा जप ही
है। इसम तो जो लोग सब भरोस को छोड़कर राम को ही भजते ह, वे ही चतुर ह॥ 6(ख)॥

मिु न पद कमल नाइ क र सीसा। चले बनिह सरु नर मिु न ईसा॥


आग राम अनज ु पिु न पाछ। मिु न बर बेष बने अित काछ॥

मुिन के चरण कमल म िसर नवाकर देवता, मनु य और मुिनय के वामी राम वन को चले।
आगे राम ह और उनके पीछे छोटे भाई ल मण ह। दोन ही मुिनय का सुंदर वेष बनाए अ यंत
सुशोिभत ह।

उभय बीच ी सोहइ कैसी। जीव िबच माया जैसी॥


स रता बन िग र अवघट घाटा। पित पिहचािन देिहं बर बाटा॥

दोन के बीच म ी जानक कैसी सुशोिभत ह, जैसे और जीव के बीच माया हो। नदी, वन,
पवत और दुगम घािटयाँ, सभी अपने वामी को पहचानकर सुंदर रा ता दे देते ह।

जहँ जहँ जािहं देव रघरु ाया। करिहं मेघ तहँ तहँ नभ छाया॥
िमला असरु िबराध मग जाता। आवतह रघब ु ीर िनपाता॥

जहाँ-जहाँ देव रघुनाथ जाते ह, वहाँ-वहाँ बादल आकाश म छाया करते जाते ह। रा ते म जाते हए
िवराध रा स िमला। सामने आते ही रघुनाथ ने उसे मार डाला।

तरु तिहं िचर प तेिहं पावा। देिख दख ु ी िनज धाम पठावा॥


पिु न आए जहँ मिु न सरभंगा। संदु र अनजु जानक संगा॥

(राम के हाथ से मरते ही) उसने तुरंत संुदर (िद य) प ा कर िलया। दुःखी देखकर भु ने
उसे अपने परम धाम को भेज िदया। िफर वे सुंदर छोटे भाई ल मण और सीता के साथ वहाँ आए
जहाँ मुिन शरभंग थे।
दो० - देिख राम मख
ु पंकज मिु नबर लोचन भंग
ृ ।
सादर पान करत अित ध य ज म सरभंग॥ 7॥

राम का मुखकमल देखकर मुिन े के ने पी भ रे अ यंत आदरपवू क उसका (मकरं द रस)


पान कर रहे ह। शरभंग का ज म ध य है॥ 7॥

कह मिु न सन ु ु रघब
ु ीर कृपाला। संकर मानस राजमराला॥
जात रहेउँ िबरं िच के धामा। सन
ु उे ँ वन बन ऐहिहं रामा॥

मुिन ने कहा - हे कृपालु रघुवीर! हे शंकर मन पी मानसरोवर के राजहंस! सुिनए, म लोक


को जा रहा था। (इतने म) कान से सुना िक राम वन म आवगे।

िचतवत पंथ रहेउँ िदन राती। अब भु देिख जड़


ु ानी छाती॥
नाथ सकल साधन म हीना। क ही कृपा जािन जन दीना॥

तब से म िदन-रात आपक राह देखता रहा हँ। अब (आज) भु को देखकर मेरी छाती शीतल हो
गई। हे नाथ! म सब साधन से हीन हँ। आपने अपना दीन सेवक जानकर मुझ पर कृपा क है।

सो कछु देव न मोिह िनहोरा। िनज पन राखेउ जन मन चोरा॥


तब लिग रहह दीन िहत लागी। जब लिग िमल तु हिह तनु यागी॥

हे देव! यह कुछ मुझ पर आपका एहसान नह है। हे भ -मनचोर! ऐसा करके आपने अपने ण
क ही र ा क है। अब इस दीन के क याण के िलए तब तक यहाँ ठह रए, जब तक म शरीर
छोड़कर आपसे (आपके धाम म न) िमलँ।ू

जोग ज य जप तप त क हा। भु कहँ देइ भगित बर ली हा॥


एिह िबिध सर रिच मिु न सरभंगा। बैठे दयँ छािड़ सब संगा॥

योग, य , जप, तप जो कुछ त आिद भी मुिन ने िकया था, सब भु को समपण करके बदले म
भि का वरदान ले िलया। इस कार (दुलभ भि ा करके िफर) िचता रचकर मुिन शरभंग
दय से सब आसि छोड़कर उस पर जा बैठे।

दो० - सीता अनज


ु समेत भु नील जलद तनु याम।
मम िहयँ बसह िनरं तर सगन
ु प ी राम॥ 8॥

हे नीले मेघ के समान याम शरीरवाले सगुण प ी राम! सीता और छोटे भाई ल मण सिहत
भु (आप) िनरं तर मेरे दय म िनवास क िजए॥ 8॥

अस किह जोग अिगिन तनु जारा। राम कृपाँ बैकंु ठ िसधारा॥


ताते मिु न ह र लीन न भयऊ। थमिहं भेद भगित बर लयऊ॥

ऐसा कहकर शरभंग ने योगाि न से अपने शरीर को जला डाला और राम क कृपा से वे बैकुंठ
को चले गए। मुिन भगवान म लीन इसिलए नह हए िक उ ह ने पहले ही भेद-भि का वर ले
िलया था।

रिष िनकाय मिु नबर गित देखी। सख ु ी भए िनज दयँ िबसेषी॥


अ तिु त करिहं सकल मिु न बंदृ ा। जयित नत िहत क ना कंदा॥

ऋिष समहू मुिन े शरभंग क यह (दुलभ) गित देखकर अपने दय म िवशेष प से सुखी
हए। सम त मुिनवंदृ राम क तुित कर रहे ह (और कह रहे ह) शरणागत िहतकारी क णाकंद
(क णा के मल ू ) भु क जय हो!

पिु न रघन
ु ाथ चले बन आगे। मिु नबर बंदृ िबपल
ु सँग लागे॥
अि थ समूह देिख रघरु ाया। पूछी मिु न ह लािग अित दाया॥

िफर रघुनाथ आगे वन म चले। े मुिनय के बहत-से समहू उनके साथ हो िलए। हड्िडय का
ढे र देखकर रघुनाथ को बड़ी दया आई, उ ह ने मुिनय से पछ
ू ा।

जानतहँ पूिछअ कस वामी। सबदरसी तु ह अंतरजामी॥


िनिसचर िनकर सकल मिु न खाए। सिु न रघब
ु ीर नयन जल छाए॥

(मुिनय ने कहा - ) हे वामी! आप सवदश (सव ) और अंतयामी (सबके दय क जाननेवाले)


ह। जानते हए भी (अनजान क तरह) हमसे कैसे पछ ू रहे ह? रा स के दल ने सब मुिनय को
खा डाला है। (ये सब उ ह क हड्िडय के ढे र ह)। यह सुनते ही रघुवीर के ने म जल छा गया
(उनक आँख म क णा के आँसू भर आए)।

दो० - िनिसचर हीन करउँ मिह भज


ु उठाइ पन क ह।
सकल मिु न ह के आ मि ह जाइ जाइ सख ु दी ह॥ 9॥

राम ने भुजा उठाकर ण िकया िक म प ृ वी को रा स से रिहत कर दँूगा। िफर सम त मुिनय


के आ म म जा-जाकर उनको (दशन एवं संभाषण का) सुख िदया॥ 9॥

मिु न अगि त कर िस य सज
ु ाना। नाम सत
ु ीछन रित भगवाना॥
मन म बचन राम पद सेवक। सपनेहँ आन भरोस न देवक॥

मुिन अग य के एक सुती ण नामक सुजान ( ानी) िश य थे, उनक भगवान म ीित थी। वे
मन, वचन और कम से राम के चरण के स&##2375;वक थे। उ ह व न म भी िकसी दूसरे
देवता का भरोसा नह था।
भु आगवनु वन सिु न पावा। करत मनोरथ आतरु धावा॥
हे िबिध दीनबंधु रघरु ाया। मो से सठ पर क रहिहं दाया॥

उ ह ने य ही भु का आगमन कान से सुन पाया, य ही अनेक कार के मनोरथ करते हए


वे आतुरता (शी ता) से दौड़ चले। हे िवधाता! या दीनबंधु रघुनाथ मुझ जैसे दु पर भी दया
करगे?

सिहत अनज ु मोिह राम गोसाई ं। िमिलहिहं िनज सेवक क नाई ं॥


मोरे िजयँ भरोस ढ़ नाह । भगित िबरित न यान मन माह ॥

या वामी राम छोटे भाई ल मण सिहत मुझसे अपने सेवक क तरह िमलगे? मेरे दय म ढ़
िव ास नह होता; य िक मेरे मन म भि , वैरा य या ान कुछ भी नह है।

निहं सतसंग जोग जप जागा। निहं ढ़ चरन कमल अनरु ागा॥


एक बािन क नािनधान क । सो ि य जाक गित न आन क ॥

मने न तो स संग, योग, जप अथवा य ही िकए ह और न भु के चरणकमल म मेरा ढ़


अनुराग ही है। हाँ, दया के भंडार भु क एक बान है िक िजसे िकसी दूसरे का सहारा नह है, वह
उ ह ि य होता है।

होइह सफ
ु ल आजु मम लोचन। देिख बदन पंकज भव मोचन॥
िनभर म े मगन मिु न यानी। किह न जाइ सो दसा भवानी॥

(भगवान क इस बान का मरण आते ही मुिन आनंदम न होकर मन-ही-मन कहने लगे -)
अहा! भव बंधन से छुड़ानेवाले भु के मुखारिवंद को देखकर आज मेरे ने सफल ह गे। (िशव
कहते ह - ) हे भवानी! ानी मुिन ेम म पणू प से िनम न ह। उनक वह दशा कही नह जाती।

िदिस अ िबिदिस पंथ निहं सूझा। को म चलेउँ कहाँ निहं बूझा॥


कबहँक िफ र पाछ पिु न जाई। कबहँक न ृ य करइ गन ु गाई॥

उ ह िदशा-िविदशा (िदशाएँ और उनके कोण आिद) और रा ता, कुछ भी नह सझ ू रहा है। म कौन
हँ और कहाँ जा रहा हँ, यह भी नह जानते (इसका भी ान नह है)। वे कभी पीछे घम
ू कर िफर
आगे चलने लगते ह और कभी ( भु के) गुण गा-गाकर नाचने लगते ह।

े भगित मिु न पाई। भु देख त ओट लक


अिबरल म ु ाई॥
अितसय ीित देिख रघब
ु ीरा। गटे दयँ हरन भव भीरा॥

मुिन ने गाढ़ ेमाभि ा कर ली। भु राम व ृ क आड़ म िछपकर (भ क ेमो म दशा)


देख रहे ह। मुिन का अ यंत ेम देखकर भवभय (आवागमन के भय) को हरनेवाले रघुनाथ मुिन
के दय म कट हो गए।

मिु न मग माझ अचल होइ बैसा। पल


ु क सरीर पनस फल जैसा॥
तब रघन ु ाथ िनकट चिल आए। देिख दसा िनज जन मन भाए॥

( दय म भु के दशन पाकर) मुिन बीच रा ते म अचल (ि थर) होकर बैठ गए। उनका शरीर
रोमांच से कटहल के फल के समान (क टिकत) हो गया। तब रघुनाथ उनके पास चले आए और
अपने भ क ेम दशा देखकर मन म बहत स न हए।

मिु निह राम बह भाँित जगावा। जाग न यान जिनत सख


ु पावा॥
भूप प तब राम दरु ावा। दयँ चतभ ु ज
ु प देखावा॥

राम ने मुिन को बहत कार से जगाया, पर मुिन नह जागे; य िक उ ह भु के यान का सुख


ा हो रहा था। तब राम ने अपने राज प को िछपा िलया और उनके दय म अपना चतुभुज प
कट िकया।

मिु न अकुलाइ उठा तब कैस। िबकल हीन मिन फिनबर जैस॥


आग देिख राम तन यामा। सीता अनज ु सिहत सखु धामा॥

तब (अपने ई व प के अंतधान होते ही) मुिन कैसे याकुल होकर उठे , जैसे े (मिणधर)
सप मिण के िबना याकुल हो जाता है। मुिन ने अपने सामने सीता और ल मण सिहत यामसुंदर
िव ह सुखधाम राम को देखा।

े मगन मिु नबर बड़भागी॥


परे उ लकुट इव चरनि ह लागी। म
भज
ु िबसाल गिह िलए उठाई। परम ीित राखे उर लाई॥

ेम म म न हए वे बड़भागी े मुिन लाठी क तरह िगरकर राम के चरण म लग गए। राम ने


अपनी िवशाल भुजाओं से पकड़कर उ ह उठा िलया और बड़े ेम से दय से लगा रखा।

मिु निह िमलत अस सोह कृपाला। कनक त िह जनु भट तमाला॥


राम बदनु िबलोक मिु न ठाढ़ा। मानहँ िच माझ िलिख काढ़ा॥

कृपालु राम मुिन से िमलते हए ऐसे शोिभत हो रहे ह, मानो सोने के व ृ से तमाल का व ृ गले
लगकर िमल रहा हो। मुिन (िन त ध) खड़े हए (टकटक लगाकर) राम का मुख देख रहे ह,
मानो िच म िलखकर बनाए गए ह ।

दो० - तब मिु न दयँ धीर ध र गिह पद बारिहं बार।


िनज आ म भु आिन क र पूजा िबिबध कार॥ 10॥
तब मुिन ने दय म धीरज धरकर बार-बार चरण को पश िकया। िफर भु को अपने आ म म
लाकर अनेक कार से उनक पज ू ा क ॥ 10॥

कह मिु न भु सन
ु ु िबनती मोरी। अ तिु त कर कवन िबिध तोरी॥
मिहमा अिमत मो र मित थोरी। रिब स मख ु ख ोत अँजोरी॥

मुिन कहने लगे - हे भो! मेरी िवनती सुिनए। म िकस कार से आपक तुित क ँ ? आपक
मिहमा अपार है और मेरी बुि अ प है। जैसे सय
ू के सामने जुगनू का उजाला!

याम तामरस दाम शरीरं । जटा मकु ु ट प रधन मिु नचीरं ॥


पािण चाप शर किट तण
ू ीरं । नौिम िनरं तर ीरघवु ीरं ॥

हे नीलकमल क माला के समान याम शरीरवाले! हे जटाओं का मुकुट और मुिनय के


(व कल) व पहने हए, हाथ म धनुष-बाण िलए तथा कमर म तरकस कसे हए ी रघुवीर! म
आपको िनरं तर नम कार करता हँ।

मोह िविपन घन दहन कृशानःु । संत सरो ह कानन भानःु ॥


िनिसचर क र व थ मगृ राजः। ातु सदा नो भव खग बाजः॥

जो मोह पी घने वन को जलाने के िलए अि न ह, संत पी कमल के वन को फुि लत करने


के िलए सयू ह, रा स पी हािथय के समहू को पछाड़ने के िलए िसंह ह और भव (आवागमन)
पी प ी को मारने के िलए बाज प ह, वे भु सदा हमारी र ा कर।

अ ण नयन राजीव सव े ं। सीता नयन चकोर िनशेशं॥


ु श
हर िद मानस बाल मरालं। नौिम राम उर बाह िवशालं॥

हे लाल कमल के समान ने और सुंदर वेशवाले! सीता के ने पी चकोर के चं मा, िशव के


दय पी मानसरोवर के बालहंस, िवशाल दय और भुजावाले राम! म आपको नम कार करता
हँ।

संशय सप सन उरगादः। शमन सक ु कश तक िवषादः॥


भव भंजन रं जन सरु यूथः। ातु सदा नो कृपा व थः॥

जो संशय पी सप को सने के िलए ग ड़ ह, अ यंत कठोर तक से उ प न होनेवाले िवषाद का


नाश करनेवाले ह, आवागमन को िमटानेवाले और देवताओं के समहू को आनंद देनेवाले ह, वे
कृपा के समहू राम सदा हमारी र ा कर।

िनगण
ु सगण
ु िवषम सम पं। ान िगरा गोतीतमनूपं॥
अमलमिखलमनव मपारं । नौिम राम भंजन मिह भारं ॥

हे िनगुण, सगुण, िवषम और सम प! हे ान, वाणी और इंि य से अतीत! हे अनुपम, िनमल,


संपणू दोषरिहत, अनंत एवं प ृ वी का भार उतारनेवाले राम! म आपको नम कार करता हँ।

भ क पपादप आरामः। तजन ोध लोभ मद कामः॥


अित नागर भव सागर सेतःु । ातु सदा िदनकर कुल केतःु ॥

जो भ के िलए क पव ृ के बगीचे ह, ोध, लोभ, मद और काम को डरानेवाले ह, अ यंत ही


चतुर और संसार पी समु से तरने के िलए सेतु प ह, वे सय
ू कुल क वजा राम सदा मेरी र ा
कर।

अतिु लत भज
ु ताप बल धामः। किल मल िवपल ु िवभंजन नामः॥
धम वम नमद गणु ामः। संतत शं तनोतु मम रामः॥

िजनक भुजाओं का ताप अतुलनीय है, जो बल के धाम ह, िजनका नाम किलयुग के बड़े भारी
पाप का नाश करनेवाला है, जो धम के कवच (र क) ह और िजनके गुणसमहू आनंद देनेवाले
ह, वे राम िनरं तर मेरे क याण का िव तार कर।

जदिप िबरज यापक अिबनासी। सब के दयँ िनरं तर बासी॥


तदिप अनजु ी सिहत खरारी। बसतु मनिस मम काननचारी॥

य िप आप िनमल, यापक, अिवनाशी और सबके दय म िनरं तर िनवास करनेवाले ह; तथािप हे


खरा र ी राम! ल मण और सीता सिहत वन म िवचरनेवाले आप इसी प म मेरे दय म िनवास
क िजए।

जे जानिहं ते जानहँ वामी। सगन


ु अगन
ु उर अंतरजामी॥
जो कोसलपित रािजव नयना। करउ सो राम दय मम अयना॥

हे वामी! आपको जो सगुण, िनगुण और अंतयामी जानते ह , वे जाना कर, मेरे दय म तो


कोसलपित कमलनयन राम ही अपना घर बनाव।

अस अिभमान जाइ जिन भोरे । म सेवक रघप ु ित पित मोरे ॥


सिु न मिु न बचन राम मन भाए। बह र हरिष मिु नबर उर लाए॥

ू कर भी न छूटे िक म सेवक हँ और रघुनाथ मेरे वामी ह। मुिन के वचन


ऐसा अिभमान भल
सुनकर राम मन म बहत स न हए। तब उ ह ने हिषत होकर े मुिन को दय से लगा िलया।

परम स न जानु मिु न मोही। जो बर मागह देउँ सो तोही॥


मिु न कह म बर कबहँ न जाचा। समिु झ न परइ झूठ का साचा॥

(और कहा - ) हे मुिन! मुझे परम स न जानो। जो वर माँगो, वही म तु ह दँू! मुिन सुती ण ने
कहा - मने तो वर कभी माँगा ही नह । मुझे समझ ही नह पड़ता िक या झठ ू है और या स य
है, ( या माँग,ू या नह )।

तु हिह नीक लागै रघरु ाई। सो मोिह देह दास सखु दाई॥
अिबरल भगित िबरित िब याना। होह सकल गन ु यान िनधाना॥

((अतः) हे रघुनाथ! हे दास को सुख देनेवाले! आपको जो अ छा लगे, मुझे वही दीिजए। (राम ने
कहा - हे मुने!) तुम गाढ़ भि , वैरा य, िव ान और सम त गुण तथा ान के िनधान हो
जाओ।

भु जो दी ह सो ब म पावा। अब सो देह मोिह जो भावा॥

(तब मुिन बोले - ) भु ने जो वरदान िदया, वह तो मने पा िलया। अब मुझे जो अ छा लगता है,
वह दीिजए -

दो० - अनज
ु जानक सिहत भु चाप बान धर राम।
मन िहय गगन इं दु इव बसह सदा िनहकाम॥ 11॥

हे भो! हे राम! छोटे भाई ल मण और सीता सिहत धनुष-बाणधारी आप िन काम (ि थर) होकर
मेरे दय पी आकाश म चं मा क भाँित सदा िनवास क िजए॥ 11॥

एवम तु क र रमािनवासा। हरिष चले कंु भज रिष पासा॥


बहत िदवस गरु दरसनु पाएँ । भए मोिह एिहं आ म आएँ ॥

'एवम तु' (ऐसा ही हो) ऐसा उ चारण कर ल मीिनवास राम हिषत होकर अग य ऋिष के पास
चले। (तब सुती ण बोले - ) गु अग य का दशन पाए और इस आ म म आए मुझे बहत िदन
हो गए।

अब भु संग जाउँ गरु पाह । तु ह कहँ नाथ िनहोरा नाह ॥


देिख कृपािनिध मिु न चतरु ाई। िलए संग िबहसे ौ भाई॥

अब म भी भु (आप) के साथ गु के पास चलता हँ। इसम हे नाथ! आप पर मेरा कोई एहसान
नह है। मुिन क चतुरता देखकर कृपा के भंडार राम ने उनको साथ ले िलया और दोनो भाई
हँसने लगे।

पंथ कहत िनज भगित अनूपा। मिु न आ म पहँचे सरु भूपा॥


तरु त सत
ु ीछन गरु पिहं गयऊ। क र दंडवत कहत अस भयऊ॥

रा ते म अपनी अनुपम भि का वणन करते हए देवताओं के राजराजे र राम अग य मुिन के


आ म पर पहँचे। सुती ण तुरंत ही गु अग य के पास गए और दंडवत करके ऐसा कहने लगे।

नाथ कोसलाधीस कुमारा। आए िमलन जगत आधारा॥


ु समेत बैदहे ी। िनिस िदनु देव जपत हह जेही॥
राम अनज

हे नाथ! अयो या के राजा दशरथ के कुमार जगदाधार राम छोटे भाई ल मण और सीता सिहत
आपसे िमलने आए ह, िजनका हे देव! आप रात-िदन जप करते रहते ह।

सन ु त अगि त तरु त उिठ धाए। ह र िबलोिक लोचन जल छाए॥


मिु न पद कमल परे ौ भाई। रिष अित ीित िलए उर लाई॥

यह सुनते ही अग य तुरंत ही उठ दौड़े । भगवान को देखते ही उनके ने म (आनंद और ेम के


आँसुओ ं का) जल भर आया। दोन भाई मुिन के चरण कमल पर िगर पड़े । ऋिष ने (उठाकर) बड़े
ेम से उ ह दय से लगा िलया।

सादर कुसल पूिछ मिु न यानी। आसन बर बैठारे आनी॥


पिु न क र बह कार भु पूजा। मोिह सम भा यवंत निहं दूजा॥

ानी मुिन ने आदरपवू क कुशल पछ ू कर उनको लाकर े आसन पर बैठाया। िफर बहत कार
से भु क पज ू ा करके कहा - मेरे समान भा यवान आज दूसरा कोई नह है।

जहँ लिग रहे अपर मुिन बंदृ ा। हरषे सब िबलोिक सुखकंदा॥

वहाँ जहाँ तक (िजतने भी) अ य मुिनगण थे, सभी आनंदकंद राम के दशन करके हिषत हो गए।

दो० - मिु न समूह महँ बैठे स मख


ु सब क ओर।
सरद इं दु तन िचतवन मानहँ िनकर चकोर॥ 12॥

मुिनय के समहू म राम सबक ओर स मुख होकर बैठे ह (अथात येक मुिन को राम अपने ही
सामने मुख करके बैठे िदखाई देते ह और सब मुिन टकटक लगाए उनके मुख को देख रहे ह)।
ऐसा जान पड़ता है मानो चकोर का समुदाय शर पिू णमा के चं मा क ओर देख रहा हो॥ 12॥

तब रघबु ीर कहा मिु न पाह । तु ह सन भु दरु ाव कछु नाह ॥


तु ह जानह जेिह कारन आयउँ । ताते तात न किह समझ ु ायउँ ॥

तब राम ने मुिन से कहा - हे भो! आप से तो कुछ िछपाव है नह । म िजस कारण से आया हँ, वह
आप जानते ही ह। इसी से हे तात! मने आपसे समझाकर कुछ नह कहा।

अब सो मं देह भु मोही। जेिह कार मार मिु न ोही॥


मिु न मस ु ाने सिु न भु बानी। पूछेह नाथ मोिह का जानी॥
ु क

हे भो! अब आप मुझे वही मं (सलाह) दीिजए, िजस कार म मुिनय के ोही रा स को मा ँ ।


भु क वाणी सुनकर मुिन मु कुराए और बोले - हे नाथ! आपने या समझकर मुझसे यह
िकया?

तु हरे इँ भजन भाव अघारी। जानउँ मिहमा कछुक तु हारी॥


ऊम र त िबसाल तव माया। फल ांड अनेक िनकाया॥

हे पाप का नाश करनेवाले! म तो आप ही के भजन के भाव से आपक कुछ थोड़ी-सी मिहमा


जाê#2344;ता हँ। आपक माया गल ू र के िवशाल व ृ के समान है, अनेक ांड के समहू ही
िजसके फल ह।

जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसिहं न जानिहं आना॥


ते फल भ छक किठन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला॥

चर और अचर जीव (गलू र के फल के भीतर रहनेवाले छोटे-छोटे) जंतुओ ं के समान उन


( ांड पी फल ) के भीतर बसते ह और वे (अपने उस छोटे-से जगत के िसवा) दूसरा कुछ नह
जानते। उन फल का भ ण करनेवाला किठन और कराल काल है। वह काल भी सदा आपसे
भयभीत रहता है।

ते तु ह सकल लोकपित साई ं। पँूछेह मोिह मनज


ु क नाई ं॥
यह बर मागउँ कृपािनकेता। बसह दयँ ी अनज ु समेता॥

उ ह आपने सम त लोकपाल के वामी होकर भी मुझसे मनु य क तरह िकया। हे कृपा


के धाम! म तो यह वर माँगता हँ िक आप ी सीता और छोटे भाई ल मण सिहत मेरे दय म
(सदा) िनवास क िजए।

अिबरल भगित िबरित सतसंगा। चरन सरो ह ीित अभंगा॥


ज िप अखंड अनंता। अनभ
ु व ग य भजिहं जेिह संता॥

मुझे गाढ़ भि , वैरा य, स संग और आपके चरणकमल म अटूट ेम ा हो। य िप आप


अखंड और अनंत ह, जो अनुभव से ही जानने म आते ह और िजनका संतजन भजन करते
ह;

अस तव प बखानउँ जानउँ । िफ र िफ र सगन


ु रित मानउँ ॥
संतत दास ह देह बड़ाई। तात मोिह पूँछेह रघरु ाई॥

य िप म आपके ऐसे प को जानता हँ और उसका वणन भी करता हँ, तो भी लौट-लौटकर म


सगुण म (आपके इस सुंदर व प म) ही ेम मानता हँ। आप सेवक को सदा ही बड़ाई िदया
करते ह, इसी से हे रघुनाथ! आपने मुझसे पछ
ू ा है।

है भु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेिह नाऊँ॥


दंडक बन पनु ीत भु करह। उ साप मिु नबर कर हरह॥

हे भो! एक परम मनोहर और पिव थान है, उसका नाम पंचवटी है। हे भो! आप दंडक-वन
को (जहाँ पंचवटी है) पिव क िजए और े मुिन गौतम के कठोर शाप को हर लीिजए।

बास करह तहँ रघकु ु ल राया। क जे सकल मिु न ह पर दाया॥


चले राम मिु न आयसु पाई। तरु तिहं पंचबटी िनअराई॥

हे रघुकुल के वामी! आप सब मुिनय पर दया करके वह िनवास क िजए। मुिन क आ ा पाकर


राम वहाँ से चल िदए और शी ही पंचवटी के िनकट पहँच गए।

दो० - गीधराज सै भट भइ बह िबिध ीित बढ़ाइ।


गोदावरी िनकट भु रहे परन गहृ छाइ॥ 13॥

वहाँ ग ृ राज जटायु से भट हई। उसके साथ बहत कार से ेम बढ़ाकर भु राम गोदावरी के
समीप पणकुटी छाकर रहने लगे॥ 13॥

जब ते राम क ह तहँ बासा। सख


ु ी भए मिु न बीती ासा॥
िग र बन नद ताल छिब छाए। िदन िदन ित अित होिहं सहु ाए॥

जब से राम ने वहाँ िनवास िकया तब से मुिन सुखी हो गए, उनका डर जाता रहा। पवत, वन,
नदी और तालाब शोभा से छा गए। वे िदन िदन अिधक सुहावने (मालम ू ) होने लगे।

खग मगृ बंदृ अनंिदत रहह । मधप


ु मधरु गंज
ु त छिब लहह ॥
सो बन बरिन न सक अिहराजा। जहाँ गट रघब ु ीर िबराजा॥

प ी और पशुओ ं के समहू आनंिदत रहते ह और भ रे मधुर गुंजार करते हए शोभा पा रहे ह। जहाँ
य राम िवराजमान ह, उस वन का वणन सपराज शेष भी नह कर सकते।

एक बार भु सख ु आसीना। लिछमन बचन कहे छलहीना॥


सरु नर मिु न सचराचर साई ं। म पूछउँ िनज भु क नाई ं॥
एक बार भु राम सुख से बैठे हए थे। उस समय ल मण ने उनसे छलरिहत (सरल) वचन कहे - हे
देवता, मनु य, मुिन और चराचर के वामी! म अपने भु क तरह (अपना वामी समझकर)
आपसे पछ ू ता हँ।

मोिह समझ
ु ाइ कहह सोइ देवा। सब तिज कर चरन रज सेवा॥
कहह यान िबराग अ माया। कहह सो भगित करह जेिहं दाया॥

हे देव! मुझे समझाकर वही किहए, िजससे सब छोड़कर म आपक चरणरज क ही सेवा क ँ ।
ान, वैरा य और माया का वणन क िजए; और उस भि को किहए िजसके कारण आप दया
करते ह।

दो० - ई वर जीव भेद भु सकल कहौ समझ


ु ाइ।
जात होइ चरन रित सोक मोह म जाइ॥ 14॥

हे भो! ई र और जीव का भेद भी सब समझाकर किहए, िजससे आपके चरण म मेरी ीित हो
और शोक, मोह तथा म न हो जाएँ ॥ 14॥

थोरे िह महँ सब कहउँ बझ


ु ाई। सन
ु ह तात मित मन िचत लाई॥
म अ मोर तोर त माया। जेिहं बस क हे जीव िनकाया॥

(राम ने कहा -) हे तात! म थोड़े ही म सब समझाकर कहे देता हँ। तुम मन, िच और बुि
लगाकर सुनो! म और मेरा, तू और तेरा - यही माया है, िजसने सम त जीव को वश म कर रखा
है।

गो गोचर जहँ लिग मन जाई। सो सब माया जानेह भाई॥


तेिह कर भेद सन
ु ह तु ह सोऊ। िब ा अपर अिब ा दोऊ॥

इंि य के िवषय को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी -
एक िव ा और दूसरी अिव ा - इन दोन भेद को तुम सुनो -

एक दु अितसय दख
ु पा। जा बस जीव परा भवकूपा॥
ु बस जाक। भु े रत निहं िनज बल ताक॥
एक रचइ जग गन

एक (अिव ा) दु (दोषयु ) है और अ यंत दुःख प है िजसके वश होकर जीव संसार पी कुएँ


म पड़ा हआ है और एक (िव ा) िजसके वश म गुण है और जो जगत क रचना करती है, वह भु
से ही े रत होती है, उसके अपना बल कुछ भी नही है।

यान मान जहँ एकउ नाह । देख समान सब माह ॥


किहअ तात सो परम िबरागी। तनृ सम िसि तीिन गन
ु यागी॥
ान वह है, जहाँ (िजसम) मान आिद एक भी (दोष) नह है और जो सबसे समान प से
को देखता है। हे तात! उसी को परम वैरा यवान कहना चािहए जो सारी िसि य को
और तीन गण ु को ितनके के समान याग चक ु ा हो।

दो० - माया ईस न आपु कहँ जान किहअ सो जीव।


बंध मो छ द सबपर माया रे क सीव॥ 15॥

जो माया को, ई र को और अपने व प को नह जानता, उसे जीव कहना चािहए। जो


(कमानुसार) बंधन और मो देनेवाला, सबसे परे और माया का ेरक है, वह ई र है॥ 15॥

धम त िबरित जोग त याना। यान मो छ द बेद बखाना॥


जात बेिग वउँ म भाई। सो मम भगित भगत सख
ु दाई॥

धम (के आचरण) से वैरा य और योग से ान होता है तथा ान मो का देनेवाला है - ऐसा वेद


ने वणन िकया है। और हे भाई! िजससे म शी ही स न होता हँ, वह मेरी भि है जो भ को
सुख देनेवाली है।

सो सत
ु ं अवलंब न आना। तेिह आधीन यान िब याना॥
भगित तात अनपु म सख
ु मूला। िमलइ जो संत होइँ अनक
ु ू ला॥

वह भि वतं है, उसको ( ान-िव ान आिद िकसी) दूसरे साधन का सहारा (अपे ा) नह है।
ान और िव ान तो उसके अधीन ह। हे तात! भि अनुपम एवं सुख क मल ू है; और वह तभी
िमलती है, जब संत अनुकूल ( स न) होते ह।

भगित िक साधन कहउँ बखानी। सग


ु म पंथ मोिह पाविहं ानी॥
थमिहं िब चरन अित ीती। िनज िनज कम िनरत ुित रीती॥

अब म भि के साधन िव तार से कहता हँ - यह सुगम माग है, िजससे जीव मुझको सहज ही पा
जाते ह। पहले तो ा ण के चरण म अ यंत ीित हो और वेद क रीित के अनुसार अपने-अपने
(वणा म के) कम म लगा रहे ।

एिह कर फल पिु न िबषय िबरागा। तब मम धम उपज अनरु ागा॥


वनािदक नव भि ढ़ाह । मम लीला रित अित मन माह ॥

इसका फल, िफर िवषय से वैरा य होगा। तब (वैरा य होने पर) मेरे धम (भागवत धम) म ेम
उ प न होगा। तब वण आिद नौ कार क भि याँ ढ़ ह गी और मन म मेरी लीलाओं के ित
अ यंत ेम होगा।
संत चरन पंकज अित म े ा। मन म बचन भजन ढ़ नेमा॥
गु िपतु मातु बंधु पित देवा। सब मोिह कहँ जानै ढ़ सेवा॥

िजसका संत के चरणकमल म अ यंत ेम हो; मन, वचन और कम से भजन का ढ़ िनयम हो


और जो मुझको ही गु , िपता, माता, भाई, पित और देवता सब कुछ जाने और सेवा म ढ़ हो;

मम गन
ु गावत पल ु क सरीरा। गदगद िगरा नयन बह नीरा॥
काम आिद मद दंभ न जाक। तात िनरं तर बस म ताक॥

मेरा गुण गाते समय िजसका शरीर पुलिकत हो जाए, वाणी गदगद हो जाए और ने से
( ेमा ुओ ं का) जल बहने लगे और काम, मद और दंभ आिद िजसम न ह , हे भाई! म सदा उसके
वश म रहता हँ।

दो० - बचन कम मन मो र गित भजनु करिहं िनःकाम।


ित ह के दय कमल महँ करउँ सदा िब ाम॥ 16॥

िजनको कम, वचन और मन से मेरी ही गित है; और जो िन काम भाव से मेरा भजन करते ह,
उनके दय-कमल म म सदा िव ाम िकया करता हँ॥ 16॥

भगित जोग सिु न अित सख


ु पावा। लिछमन भु चरनि ह िस नावा॥
एिह िबिध कछुक िदन बीती। कहत िबराग यान गन
ु नीती॥

इस भि योग को सुनकर ल मण ने अ यंत सुख पाया और उ ह ने भु राम के चरण म िसर


नवाया। इस कार वैरा य, ान, गुण और नीित कहते हए कुछ िदन बीत गए।

सूपनखा रावन कै बिहनी। दु दय दा न जस अिहनी॥


पंचबटी सो गइ एक बारा। देिख िबकल भइ जुगल कुमारा॥

शपू णखा नामक रावण क एक बिहन थी, जो नािगन के समान भयानक और दु दय क थी।
वह एक बार पंचवटी म गई और दोन राजकुमार को देखकर िवकल (काम से पीिड़त) हो गई।

ाता िपता पु उरगारी। पु ष मनोहर िनरखत नारी॥


होइ िबकल सक मनिह न रोक । िजिम रिबमिन व रिबिह िबलोक ॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! (शपू णखा - जैसी रा सी, धम ान शू य कामांध) ी


मनोहर पु ष को देखकर, चाहे वह भाई, िपता, पु ही हो, िवकल हो जाती है और मन को नह
रोक सकती। जैसे सयू कांतमिण सयू को देखकर िवत हो जाती है ( वाला से िपघल जाती है)।

िचर प ध र भु पिहं जाई। बोली बचन बहत मस


ु क
ु ाई॥
तु ह सम पु ष न मो सम नारी। यह सँजोग िबिध रचा िबचारी॥

वह सुंदर प धरकर भु के पास जाकर और बहत मु कुराकर वचन बोली - न तो तु हारे समान
कोई पु ष है, न मेरे समान ी। िवधाता ने यह संयोग (जोड़ा) बहत िवचार कर रचा है।

मम अनु प पु ष जग माह । देखउे ँ खोिज लोक ितह नाह ॥


तात अब लिग रिहउँ कुमारी। मनु माना कछु तु हिह िनहारी॥

मेरे यो य पु ष (वर) जगतभर म नह है, मने तीन लोक को खोज देखा। इसी से म अब तक
कुमारी (अिववािहत) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना (िच ठहरा) है।

सीतिह िचतइ कही भु बाता। अहइ कुआर मोर लघु ाता॥


गइ लिछमन रपु भिगनी जानी। भु िबलोिक बोले मदृ ु बानी॥

सीता क ओर देखकर भु राम ने यह बात कही िक मेरा छोटा भाई कुमार है। तब वह ल मण के
पास गई। ल मण उसे श ु क बिहन समझकर और भु क ओर देखकर कोमल वाणी से बोले -

संदु र सन
ु ु म उ ह कर दासा। पराधीन निहं तोर सप
ु ासा॥
भु समथ कोसलपरु राजा। जो कछु करिहं उनिह सब छाजा॥

हे सुंदरी! सुन, म तो उनका दास हँ। म पराधीन हँ, अतः तु हे सुभीता (सुख) न होगा। भु समथ
ह, कोसलपुर के राजा है, वे जो कुछ कर, उ ह सब फबता है।

सेवक सख
ु चह मान िभखारी। यसनी धन सभ ु गित िबिभचारी॥
लोभी जसु चह चार गम
ु ानी। नभ दिु ह दूध चहत ए ानी॥

सेवक सुख चाहे , िभखारी स मान चाहे , यसनी (िजसे जुए, शराब आिद का यसन हो) धन और
यिभचारी शुभ गित चाहे , लोभी यश चाहे और अिभमानी चार फल - अथ, धम, काम, मो चाहे ,
तो ये सब ाणी आकाश को दुहकर दूध लेना चाहते ह (अथात असंभव बात को संभव करना
चाहते ह)।

पिु न िफ र राम िनकट सो आई। भु लिछमन पिहं बह र पठाई॥


लिछमन कहा तोिह सो बरई। जो तनृ तो र लाज प रहरई॥

वह लौटकर िफर राम के पास आई, भु ने उसे िफर ल मण के पास भेज िदया। ल मण ने कहा -
ृ तोड़कर (अथात ित ा करके) याग देगा (अथात जो िनपट
तु ह वही वरे गा, जो ल जा को तण
िनल ज होगा)।

तब िखिसआिन राम पिहं गई। प भयंकर गटत भई॥


सीतिह सभय देिख रघरु ाई। कहा अनज
ु सन सयन बझ
ु ाई॥

तब वह िखिसयाई हई ( ु होकर) राम के पास गई और उसने अपना भयंकर प कट िकया।


सीता को भयभीत देखकर रघुनाथ ने ल मण को इशारा देकर कहा।

दो० - लिछमन अित लाघवँ सो नाक कान िबनु क ि ह।


ताके कर रावन कहँ मनौ चन
ु ौती दीि ह॥ 17॥

ल मण ने बड़ी फुत से उसको िबना नाक-कान क कर िदया। मानो उसके हाथ रावण को
चुनौती दी हो!॥ 17॥

नाक कान िबनु भइ िबकरारा। जनु व सैल गे कै धारा॥


खर दूषन पिहं गइ िबलपाता। िधग िधग तव पौ ष बल ाता॥

िबना नाक-कान के वह िवकराल हो गई। (उसके शरीर से र इस कार बहने लगा) मानो
(काले) पवत से गे क धारा बह रही हो। वह िवलाप करती हई खर-दूषण के पास गई (और
बोली - ) हे भाई! तु हारे पौ ष (वीरता) को िध कार है, तु हारे बल को िध कार है।

तेिहं पूछा सब कहेिस बझ


ु ाई। जातध
ु ान सिु न सेन बनाई॥
धाए िनिसचर िनकर ब था। जनु सप छ क जल िग र जूथा॥

उ ह ने पछ
ू ा, तब शपू णखा ने सब समझाकर कहा। सब सुनकर रा स ने सेना तैयार क ।
रा स समहू झुंड-के-झुंड दौड़े । मानो पंखधारी काजल के पवत का झुंड हो।

नाना बाहन नानाकारा। नानायध ु धर घोर अपारा॥


सूपनखा आग क र लीनी। असभ ु प ुित नासा हीनी॥

वे अनेक कार क सवा रय पर चढ़े हए तथा अनेक आकार (सरू त ) के ह। वे अपार ह और


अनेक कार के असं य भयानक हिथयार धारण िकए हए ह। उ ह ने नाक-कान कटी हई
अमंगल िपणी शपू णखा को आगे कर िलया।

असगनु अिमत होिहं भयकारी। गनिहं न म ृ यु िबबस सब झारी॥


गजिहं तजिहं गगन उड़ाह । देिख कटकु भट अित हरषाह ॥

अनिगनत भयंकर अशकुन हो रहे ह। परं तु म ृ यु के वश होने के कारण वे सब-के-सब उनको


कुछ िगनते ही नह । गरजते ह, ललकारते ह और आकाश म उड़ते ह। सेना देखकर यो ा लोग
बहत ही हिषत होते ह।

कोउ कह िजअत धरह ौ भाई। ध र मारह ितय लेह छड़ाई॥


धू र पू र नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनज
ु सन कहा॥

कोई कहता है दोन भाइय को जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और ी को छीन लो।
आकाशमंडल धल ू से भर गया। तब राम ने ल मण को बुलाकर उनसे कहा -

लै जानिकिह जाह िग र कंदर। आवा िनिसचर कटकु भयंकर॥


रहेह सजग सिु न भु कै बानी। चले सिहत ी सर धनु पानी॥

रा स क भयानक सेना आ गई है। जानक को लेकर तुम पवत क कंदरा म चले जाओ।
सावधान रहना। भु ी राम के वचन सुनकर ल मण हाथ म धनुष-बाण िलए सीता सिहत चले।

देिख राम रपुदल चिल आवा। िबहिस किठन कोदंड चढ़ावा॥

श ुओ ं क सेना (समीप) चली आई है, यह देखकर राम ने हँसकर किठन धनुष को चढ़ाया।

छं ० - कोदंड किठन चढ़ाइ िसर जट जूट बाँधत सोह य ।


मरकत सयल पर लरत दािमिन कोिट स जुग भज ु ग य॥
किट किस िनषंग िबसाल भज ु गिह चाप िबिसख सध ु ा र कै।
िचतवत मनहँ मग ृ राज भु गजराज घटा िनहा र कै॥

किठन धनुष चढ़ाकर िसर पर जटा का जड़ाू ़ बाँधते हए भु कैसे शोिभत हो रहे ह, जैसे
मरकतमिण (प ने) के पवत पर करोड़ िबजिलय से दो साँप लड़ रहे ह । कमर म तरकस
कसकर, िवशाल भुजाओं म धनुष लेकर और बाण सुधारकर भु राम रा स क ओर देख रहे ह।
मानो मतवाले हािथय के समहू को (आता) देखकर िसंह (उनक ओर) ताक रहा हो।

सो० - आइ गए बगमेल धरह धरह धावत सभ ु ट।


जथा िबलोिक अकेल बाल रिबिह घेरत दनज
ु ॥ 18॥

'पकड़ो-पकड़ो' पुकारते हए रा स यो ा बाग छोड़कर (बड़ी तेजी से) दौड़े हए आए (और उ ह ने


राम को चार ओर से घेर िलया), जैसे बालसय ू ) को अकेला देखकर मंदेह
ू (उदयकालीन सय
नामक दै य घेर लेते ह॥ 18॥

भु िबलोिक सर सकिहं न डारी। थिकत भई रजनीचर धारी॥


सिचव बोिल बोले खर दूषन। यह कोउ नप
ृ बालक नर भूषन॥

(स दय-माधुयिनिध) भु राम को देखकर रा स क सेना थिकत रह गई। वे उन पर बाण नह


छोड़ सके। मं ी को बुलाकर खर-दूषण ने कहा - यह राजकुमार कोई मनु य का भषू ण है।

नाग असरु सरु नर मिु न जेत।े देखे िजते हते हम केते॥


हम भ र ज म सन
ु ह सब भाई। देखी निहं अिस संदु रताई॥

िजतने भी नाग, असुर, देवता, मनु य और मुिन ह, उनम से हमने न जाने िकतने ही देखे, जीते
और मार डाले ह। पर हे सब भाइयो! सुनो, हमने ज मभर म ऐसी सुंदरता कह नह देखी।

ज िप भिगनी क ि ह कु पा। बध लायक निहं पु ष अनूपा॥


देह तरु त िनज ना र दरु ाई। जीअत भवन जाह ौ भाई॥

य िप इ ह ने हमारी बिहन को कु प कर िदया तथािप ये अनुपम पु ष वध करने यो य नह ह।


'िछपाई हई अपनी ी हम तुरंत दे दो और दोन भाई जीते-जी घर लौट जाओ'।

मोर कहा तु ह तािह सन


ु ावह। तासु बचन सिु न आतरु आवह॥
दूत ह कहा राम सन जाई। सन ु त राम बोले मस
ु क
ु ाई॥

मेरा यह कथन तुम लोग उसे सुनाओ और उसका वचन (उ र) सुनकर शी आओ। दूत ने
जाकर यह संदेश राम से कहा। उसे सुनते ही राम मु कुराकर बोले -

हम छ ी मग ृ या बन करह । तु ह से खल मगृ खोजत िफरह ॥


रपु बलवंत देिख निहं डरह । एक बार कालह सन लरह ॥

हम ि य ह, वन म िशकार करते ह और तु हारे -सरीखे दु पशुओ ं को तो ढ़ँ ढते ही िफरते ह।


हम बलवान श ु देखकर नह डरते। (लड़ने को आए तो) एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते
ह।

ज िप मनजु दनज
ु कुल घालक। मिु न पालक खल सालक बालक॥
ज न होइ बल घर िफ र जाह। समर िबमख
ु म हतउँ न काह॥

य िप हम मनु य ह, परं तु दै यकुल का नाश करनेवाले और मुिनय क र ा करनेवाले ह, हम


बालक ह, परं तु दु को दंड देनेवाले। यिद बल न हो तो घर लौट जाओ। सं ाम म पीठ
िदखानेवाले िकसी को म नह मारता।

रन चिढ़ क रअ कपट चतरु ाई। रपु पर कृपा परम कदराई॥


दूत ह जाइ तरु त सब कहेऊ। सिु न खर दूषन उर अित दहेऊ॥

रण म चढ़ आकर कपट-चतुराई करना और श ु पर कृपा करना (दया िदखाना) तो बड़ी भारी


कायरता है। दूत ने लौटकर तुरंत सब बात कह , िज ह सुनकर खर-दूषण का दय अ यंत जल
उठा।

छं ० - उर दहेउ कहेउ िक धरह धाए िबकट भट रजनीचरा।


सर चाप तोमर सि सूल कृपान प रघ परसु धरा॥
भु क ि ह धनष
ु टकोर थम कठोर घोर भयावहा।
भए बिधर याकुल जातधु ान न यान तेिह अवसर रहा॥

(खर-दूषण का) दय जल उठा। तब उ ह ने कहा - पकड़ लो (कैद कर लो)। (यह सुनकर)


भयानक रा स यो ा बाण, धनुष, तोमर, शि (साँग), शल ू (बरछी), कृपाण (कटार), प रघ
और फरसा धारण िकए हए दौड़ पड़े । भु राम ने पहले धनुष का बड़ा कठोर, घोर और भयानक
टंकार िकया, िजसे सुनकर रा स बहरे और याकुल हो गए। उस समय उ ह कुछ भी होश न
रहा।

दो० - सावधान होइ धाए जािन सबल आराित।


लागे बरषन राम पर अ स बहभाँित॥ 19(क)॥

िफर वे श ु को बलवान जानकर सावधान होकर दौड़े और राम के ऊपर बहत कार के अ -
श बरसाने लगे॥ 19(क)॥

ित ह के आयध
ु ितल सम क र काटे रघब ु ीर।
तािन सरासन वन लिग पिु न छाँड़े िनज तीर॥ 19(ख)॥

रघुवीर ने उनके हिथयार को ितल के समान (टुकड़े -टुकड़े ) करके काट डाला। िफर धनुष को
कान तक तानकर अपने तीर छोड़े ॥ 19(ख)॥

छं ० - तब चले बान कराल। फंु करत जनु बह याल॥


कोपेउ समर ीराम। चले िबिसख िनिसत िनकाम॥

तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फँु फकारते हए बहत-से सप जा रहे ह। राम सं ाम म ु हए
और अ यंत ती ण बाण चले।

अवलोिक खरतर तीर। मु र चले िनिसचर बीर॥


भए ु तीिनउ भाइ। जो भािग रन ते जाइ॥

अ यंत ती ण बाण को देखकर रा स वीर पीठ िदखाकर भाग चले। तब खर-दूषण और ि िशरा
तीन भाई ु होकर बोले - जो रण से भागकर जाएगा,

तेिह बधब हम िनज पािन। िफरे मरन मन महँ ठािन॥


आयध ु अनेक कार। सनमख ु ते करिहं हार॥

उसका हम अपने हाथ वध करगे। तब मन म मरना ठानकर भागते हए रा स लौट पड़े और


सामने होकर वे अनेक कार के हिथयार से राम पर हार करने लगे।
रपु परम कोपे जािन। भु धनष ु सर संधािन॥
छाँड़े िबपल
ु नाराच। लगे कटन िबकट िपसाच॥

श ु को अ यंत कुिपत जानकर भु ने धनुष पर बाण चढ़ाकर बहत-से बाण छोड़े , िजनसे
भयानक रा स कटने लगे।

उर सीस भज
ु कर चरन। जहँ तहँ लगे मिह परन॥
िच करत लागत बान। धर परत कुधर समान॥

उनक छाती, िसर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ प ृ वी पर िगरने लगे। बाण लगते ही वे हाथी क
तरह िचं घाड़ते ह। उनके पहाड़ के समान धड़ कट-कटकर िगर रहे ह।

भट कटत तन सत खंड। पिु न उठत क र पाषंड॥


नभ उड़त बह भज
ु मंड
ु । िबनु मौिल धावत ं ड॥

यो ाओं के शरीर कटकर सैकड़ टुकड़े हो जाते ह। वे िफर माया करके उठ खड़े होते ह। आकाश
म बहत-सी भुजाएँ और िसर उड़ रहे ह तथा िबना िसर के धड़ दौड़ रहे ह।

खग कंक काक सग
ृ ाल। कटकटिहं किठन कराल॥

चील (या च), कौए आिद प ी और िसयार कठोर और भयंकर कट-कट श द कर रहे ह।

छं ० - कटकटिहं जंबकु भूत त े िपसाच खपर संचह ।


बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोिगिन नंचह ॥
रघब ु ीर बान चंड खंडिहं भट ह के उर भज
ु िसरा।
जहँ तहँ परिहं उिठ लरिहं धर ध ध करिहं भयंकर िगरा॥

ू , ेत और िपशाच खोपिड़याँ बटोर रहे ह (अथवा ख पर भर रहे ह)। वीर-


िसयार कटकटाते ह, भत
वैताल खोपिड़य पर ताल दे रहे ह और योिगिनयाँ नाच रही ह। रघुवीर के चंड बाण यो ाओं के
व ः थल, भुजा और िसर के टुकड़े -टुकड़े कर डालते ह। उनके धड़ जहाँ-तहाँ िगर पड़ते ह। िफर
उठते और लड़ते ह और 'पकड़ो-पकड़ो' का भयंकर श द करते ह।

अंतावर गिह उड़त गीध िपसाच कर गिह धावह ।


सं ाम परु बासी मनहँ बह बाल गड़ ु ी उड़ावह ॥
मारे पछारे उर िबदारे िबपल
ु भट कहँरत परे ।
अवलोिक िनज दल िबकल भट ितिसरािद खर दूषन िफरे ॥

अंतिड़य के एक छोर को पकड़कर गीध उड़ते ह और उ ह का दूसरा छोर हाथ से पकड़कर


िपशाच दौड़ते ह, ऐसा मालमू होता है, मानो सं ाम पी नगर के िनवासी बहत-से बालक पतंग
उड़ा रहे ह । अनेक यो ा मारे और पछाड़े गए। बहत-से, िजनके दय िवदीण हो गए ह, पड़े कराह
रहे ह। अपनी सेना को याकुल देखकर ि िशरा और खर-दूषण आिद यो ा राम क ओर मुड़े।

सरसि तोमर परसु सूल कृपान एकिह बारह ।


क र कोप ी रघब ु ीर पर अगिनत िनसाचर डारह ॥
भु िनिमष महँ रपु सर िनवा र पचा र डारे सायका।
दस दस िबिसख उर माझ मारे सकल िनिसचर नायका॥

अनिगनत रा स ोध करके बाण, शि , तोमर, फरसा, शल ू और कृपाण एक ही बार म ी


रघुवीर पर छोड़ने लगे। भु ने पल भर म श ुओ ं के बाण को काटकर, ललकारकर उन पर अपने
बाण छोड़े । सब रा स-सेनापितय के दय म दस-दस बाण मारे ।

मिह परत उिठ भट िभरत मरत न करत माया अित घनी।


सरु डरत चौदह सहस त े िबलोिक एक अवध धनी॥
सरु मिु न सभय भु देिख मायानाथ अित कौतकु करयो।

देखिहं परसपर राम क र सं ाम रपु दल ल र मरयो॥

यो ा प ृ वी पर िगर पड़ते ह, िफर उठकर िभड़ते ह। मरते नह , बहत कार क अितशय माया
रचते ह। देवता यह देखकर डरते ह िक ेत (रा स) चौदह हजार ह और अयो यानाथ राम अकेले
ह। देवता और मुिनय को भयभीत देखकर माया के वामी भु ने एक बड़ा कौतुक िकया,
िजससे श ुओ ं क सेना एक-दूसरे को राम प देखने लगी और आपस म ही यु करके लड़
मरी।

दो० - राम राम किह तनु तजिहं पाविहं पद िनबान।


क र उपाय रपु मारे छन महँ कृपािनधान॥ 20(क)॥

सब ('यही राम है, इसे मारो' इस कार) राम-राम कहकर शरीर छोड़ते ह और िनवाण (मो ) पद
पाते ह। कृपािनधान राम ने यह उपाय करके ण भर म श ुओ ं को मार डाला॥ 20(क)॥

हरिषत बरषिहं सम
ु न सरु बाजिहं गगन िनसान।
अ तिु त क र क र सब चले सोिभत िबिबध िबमान॥ 20(ख)॥

देवता हिषत होकर फूल बरसाते ह, आकाश म नगाड़े बज रहे ह। िफर वे सब तुित कर-करके
अनेक िवमान पर सुशोिभत हए चले गए॥ 20(ख)॥

ु ाथ समर रपु जीते। सरु नर मिु न सब के भय बीते॥


जब रघन
तब लिछमन सीतिह लै आए। भु पद परत हरिष उर लाए॥
जब रघुनाथ ने यु म श ुओ ं को जीत िलया तथा देवता, मनु य और मुिन सबके भय न हो
गए, तब ल मण सीता को ले आए। चरण म पड़ते हए उनको भु ने स नतापवू क उठाकर दय
से लगा िलया।

े लोचन न अघाता॥
सीता िचतव याम मदृ ु गाता। परम म
पंचबट बिस ीरघन
ु ायक। करत च रत सरु मिु न सख
ु दायक॥

सीता राम के याम और कोमल शरीर को परम ेम के साथ देख रही ह, ने अघाते नह ह। इस
कार पंचवटी म बसकर रघुनाथ देवताओं और मुिनय को सुख देनेवाले च र करने लगे।

ु ँ देिख खरदूषन केरा। जाइ सप


धआ ु नखाँ रावन रे ा॥
बोली बचन ोध क र भारी। देस कोस कै सरु ित िबसारी॥

खर-दूषण का िव वंस देखकर शपू णखा ने जाकर रावण को भड़काया। वह बड़ा ोध करके
ू े देश और खजाने क सुिध ही भुला दी।
वचन बोली - तन

करिस पान सोविस िदनु राती। सिु ध निहं तव िसर पर आराती॥


राज नीित िबनु धन िबनु धमा। ह रिह समप िबनु सतकमा॥
िब ा िबनु िबबेक उपजाएँ । म फल पढ़ िकएँ अ पाएँ ॥
संग त जती कुमं ते राजा। मान ते यान पान त लाजा॥

शराब पी लेता है और िदन-रात पड़ा सोता रहता है। तुझे खबर नह है िक श ु तेरे िसर पर खड़ा
है? नीित के िबना रा य और धम के िबना धन ा करने से, भगवान को समपण िकए िबना
उ म कम करने से और िववेक उ प न िकए िबना िव ा पढ़ने से प रणाम म म ही हाथ लगता
है। िवषय के संग से सं यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ान, मिदरा पान से ल जा,

ीित नय िबनु मद ते गुनी। नासिहं बेिग नीित अस सुनी॥

न ता के िबना (न ता न होने से) ीित और मद (अहंकार) से गुणवान शी ही न हो जाते ह,


इस कार नीित मने सुनी है।

सो० - रपु ज पावक पाप भु अिह गिनअ न छोट क र।


अस किह िबिबध िबलाप क र लागी रोदन करन॥ 21(क)॥

श ु, रोग, अि न, पाप, वामी और सप को छोटा करके नह समझना चािहए। ऐसा कहकर


शपू णखा अनेक कार से िवलाप करके रोने लगी॥ 21(क)॥

दो० - सभा माझ प र याकुल बह कार कह रोइ।


तोिह िजअत दसकंधर मो र िक अिस गित होइ॥ 21(ख)॥
(रावण क ) सभा के बीच वह याकुल होकर पड़ी हई बहत कार से रो-रोकर कह रही है िक अरे
दश ीव! तेरे जीते-जी मेरी या ऐसी दशा होनी चािहए?॥ 21(ख)॥

सन
ु त सभासद उठे अकुलाई। समझ
ु ाई गिह बाँह उठाई॥
कह लंकेस कहिस िनज बाता। केइँ तव नासा कान िनपाता॥

शपू णखा के वचन सुनते ही सभासद अकुला उठे । उ ह ने शपू णखा क बाँह पकड़कर उसे उठाया
और समझाया। लंकापित रावण ने कहा - अपनी बात तो बता, िकसने तेरे नाक-कान काट िलए?

अवध नप ृ ित दसरथ के जाए। पु ष िसंघ #2348;न खेलन आए॥


समिु झ परी मोिह उ ह कै करनी। रिहत िनसाचर क रहिहं धरनी॥

(वह बोली -) अयो या के राजा दशरथ के पु , जो पु ष म िसंह के समान ह, वन म िशकार


खेलने आए ह। मुझे उनक करनी ऐसी समझ पड़ी है िक वे प ृ वी को रा स से रिहत कर दगे।

िज ह कर भज
ु बल पाइ दसानन। अभय भए िबचरत मिु न कानन॥
देखत बालक काल समाना। परम धीर ध वी गन
ु नाना॥

िजनक भुजाओं का बल पाकर हे दशमुख! मुिन लोग वन म िनभय होकर िवचरने लगे ह। वे
देखने म तो बालक ह, पर ह काल के समान। वे परम धीर, े धनुधर और अनेक गुण से यु
ह।

अतिु लत बल ताप ौ ाता। खल बध रत सरु मिु न सखु दाता॥


सोभा धाम राम अस नामा। ित ह के संग ना र एक यामा॥

दोन भाइय का बल और ताप अतुलनीय है। वे दु का वध करने म लगे ह और देवता तथा


मुिनय को सुख देनेवाले ह। वे शोभा के धाम ह, 'राम' ऐसा उनका नाम है। उनके साथ एक
त णी सुंदर ी है।

प रािस िबिध ना र सँवारी। रित सत कोिट तासु बिलहारी॥


तासु अनज
ु काटे ुित नासा। सिु न तव भिगिन करिहं प रहासा॥

िवधाता ने उस ी को ऐसी प क रािश बनाया है िक सौ करोड़ रितयाँ (कामदेव क ी) उस


पर िनछावर ह। उ ह के छोटे भाई ने मेरे नाक-कान काट डाले। म तेरी बिहन हँ, यह सुनकर वे
मेरी हँसी करने लगे।

खर दूषन सिु न लगे पक


ु ारा। छन महँ सकल कटक उ ह मारा॥
खर दूषन ितिसरा कर घाता। सिु न दससीस जरे सब गाता॥
मेरी पुकार सुनकर खर-दूषण सहायता करने आए। पर उ ह ने ण भर म सारी सेना को मार
डाला। खर-दूषण और ि िशरा का वध सुनकर रावण के सारे अंग जल उठे ।

दो० - सूपनखिह समझ


ु ाइ क र बल बोलेिस बह भाँित।
गयउ भवन अित सोचबस नीद परइ निहं राित॥ 22॥

उसने शपू णखा को समझाकर बहत कार से अपने बल का बखान िकया, िकंतु (मन म) वह
अ यंत िचंतावश होकर अपने महल म गया, उसे रात भर न द नह पड़ी॥ 22॥

सरु नर असरु नाग खग माह । मोरे अनच


ु र कहँ कोउ नाह ॥
खर दूषन मोिह सम बलवंता। ित हिह को मारइ िबनु भगवंता॥

(वह मन-ही-मन िवचार करने लगा -) देवता, मनु य, असुर, नाग और पि य म कोई ऐसा नह ,
जो मेरे सेवक को भी पा सके। खर-दूषण तो मेरे ही समान बलवान थे। उ ह भगवान के िसवा
और कौन मार सकता है?

सरु रं जन भंजन मिह भारा। ज भगवंत ली ह अवतारा॥


तौ म जाइ बै हिठ करऊँ। भु सर ान तज भव तरऊँ॥

देवताओं को आनंद देनेवाले और प ृ वी का भार हरण करनेवाले भगवान ने ही यिद अवतार िलया
है, तो म जाकर उनसे हठपवू क वैर क ँ गा और भु के बाण (के आघात) से ाण छोड़कर
भवसागर से तर जाऊँगा।

होइिह भजनु न तामस देहा। मन म बचन मं ढ़ एहा॥


ज नर प भूपसत ु कोऊ। ह रहउँ ना र जीित रन दोऊ॥

इस तामस शरीर से भजन तो होगा नह ; अतएव मन, वचन और कम से यही ढ़ िन य है। और


यिद वे मनु य प कोई राजकुमार ह गे तो उन दोन को रण म जीतकर उनक ी को हर
लँग
ू ा।

चला अकेल जान चिढ़ तहवाँ। बस मारीच िसंधु तट जहवाँ॥


इहाँ राम जिस जुगिु त बनाई। सन
ु ह उमा सो कथा सहु ाई॥

(य िवचारकर) रावण रथ पर चढ़ कर अकेला ही वहाँ चला, जहां समु के तट पर मारीच रहता


था। (िशव कहते ह िक - ) हे पावती! यहाँ राम ने जैसी युि रची, वह सुंदर कथा सुनो।

दो० - लिछमन गए बनिहं जब लेन मूल फल कंद।


जनकसत ु ा सन बोले िबहिस कृपा सख
ु बंदृ ॥ 23॥
ल मण जब कंद-मलू -फल लेने के िलए वन म गए, तब (अकेले म) कृपा और सुख के समहू राम
हँसकर जानक से बोले - ॥ 23॥

सनु ह ि या त िचर सस ु ीला। म कछु करिब लिलत नरलीला॥


तु ह पावक महँ करह िनवासा। जौ लिग कर िनसाचर नासा॥

हे ि ये! हे सुंदर पित त-धम का पालन करनेवाली सुशीले! सुनो! म अब कुछ मनोहर मनु य
लीला क ँ गा। इसिलए जब तक म रा स का नाश क ँ , तब तक तुम अि न म िनवास करो।

जबिहं राम सब कहा बखानी। भु पद ध र िहयँ अनल समानी॥


िनज ितिबंब रािख तहँ सीता। तैसइ सील प सिु बनीता॥

राम ने य ही सब समझाकर कहा, य ही सीता भु के चरण को दय म धरकर अि न म


समा गई ं। सीता ने अपनी ही छाया मिू त वहाँ रख दी, जो उनके जैसे ही शील- वभाव और
पवाली तथा वैसे ही िवन थी।

लिछमनहँ यह मरमु न जाना। जो कछु च रत रचा भगवाना॥


दसमख
ु गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ वारथ रत नीचा॥

भगवान ने जो कुछ लीला रची, इस रह य को ल मण ने भी नह जाना। वाथ परायण और नीच


रावण वहाँ गया, जहाँ मारीच था और उसको िसर नवाया।

नविन नीच कै अित दख


ु दाई। िजिम अंकुस धनु उरग िबलाई॥
भयदायक खल कै ि य बानी। िजिम अकाल के कुसम ु भवानी॥

नीच का झुकना (न ता) भी अ यंत दुःखदायी होता है। जैसे अंकुश, धनुष, साँप और िब ली का
झुकना। हे भवानी! दु क मीठी वाणी भी (उसी कार) भय देनेवाली होती है, जैसे िबना ऋतु के
फूल!

दो० - क र पूजा मारीच तब सादर पूछी बात।


कवन हेतु मन य अित अकसर आयह तात॥ 24॥

ू ा करके आदरपवू क बात पछ


तब मारीच ने उसक पज ू ी - हे तात! आपका मन िकस कारण इतना
अिधक य है और आप अकेले आए ह?॥ 24॥

दसमखु सकल कथा तेिह आग। कही सिहत अिभमान अभाग॥


होह कपट मग
ृ तु ह छलकारी। जेिह िबिध ह र आन नप
ृ नारी॥

भा यहीन रावण ने सारी कथा अिभमान सिहत उसके सामने कही (और िफर कहा - ) तुम छल
करनेवाले कपट-मग
ृ बनो, िजस उपाय से म उस राजवधू को हर लाऊँ।

तेिहं पिु न कहा सन


ु ह दससीसा। ते नर प चराचर ईसा॥
तास तात बय निहं क जै। मार म रअ िजआएँ जीजै॥

तब उसने (मारीच ने) कहा - हे दशशीश! सुिनए। वे मनु य प म चराचर के ई र ह। हे तात!


उनसे वैर न क िजए। उ ह के मारने से मरना और उनके िजलाने से जीना होता है (सबका
जीवन-मरण उ ह के अधीन है)।

मिु न मख राखन गयउ कुमारा। िबनु फर सर रघप


ु ित मोिह मारा॥
सत जोजन आयउँ छन माह । ित ह सन बय िकएँ भल नाह ॥

यही राजकुमार मुिन िव ािम के य क र ा के िलए गए थे। उस समय रघुनाथ ने िबना फल


का बाण मुझे मारा था, िजससे म णभर म सौ योजन पर आ िगरा। उनसे वैर करने म भलाई नह
है।

भइ मम क ट भंग
ृ क नाई। जहँ तहँ म देखउँ दोउ भाई॥
ज नर तात तदिप अित सूरा। ित हिह िबरोिध न आइिह पूरा॥

ृ ी के क ड़े क -सी हो गई है। अब म जहाँ-तहाँ राम-ल मण दोन भाइय को ही


मेरी दशा तो भंग
देखता हँ। और हे तात! यिद वे मनु य ह तो भी बड़े शरू वीर ह। उनसे िवरोध करने म परू ा न पड़े गा
(सफलता नह िमलेगी)।

ु ाह हित खंडउे हर कोदंड।


दो० - जेिहं ताड़का सब
खर दूषन ितिसरा बधेउ मनज ु िक अस ब रबंड॥ 25॥

िजसने ताड़का और सुबाह को मारकर िशव का धनुष तोड़ िदया और खर, दूषण और ि िशरा का
वध कर डाला, ऐसा चंड बली भी कह मनु य हो सकता है?॥ 25॥

जाह भवन कुल कुसल िबचारी। सन


ु त जरा दीि हिस बह गारी॥
गु िजिम मूढ़ करिस मम बोधा। कह जग मोिह समान को जोधा॥

अतः अपने कुल क कुशल िवचारकर आप घर लौट जाइए। यह सुनकर रावण जल उठा और
ू ! तू गु क तरह मुझे ान
उसने बहत-सी गािलयाँ द (दुवचन कहे )। (कहा - ) अरे मख
िसखाता है? बता तो, संसार म मेरे समान यो ा कौन है?

तब मारीच दयँ अनम


ु ाना। नविह िबरोध निहं क याना॥
स ी मम भु सठ धनी। बैद बंिद किब भानस गन ु ी॥
तब मारीच ने दय म अनुमान िकया िक श ी (श धारी), मम (भेद जाननेवाला), समथ
वामी, मख
ू , धनवान, वै , भाट, किव और रसोइया - इन नौ यि य से िवरोध (वैर) करने म
क याण (कुशल) नह होता।

उभय भाँित देखा िनज मरना। तब तािकिस रघनु ायक सरना॥


उत देत मोिह बधब अभाग। कस न मर रघप ु ित सर लाग॥

जब मारीच ने दोन कार से अपना मरण देखा, तब उसने रघुनाथ क शरण तक (अथात
उनक शरण जाने म ही क याण समझा)। (सोचा िक) उ र देते ही (नाह करते ही) यह अभागा
मुझे मार डालेगा। िफर रघुनाथ के बाण लगने से ही य न म ँ ।

अस िजयँ जािन दसानन संगा। चला राम पद म े अभंगा॥


मन अित हरष जनाव न तेही। आजु देिखहउँ परम सनेही॥

दय म ऐसा समझकर वह रावण के साथ चला। राम के चरण म उसका अखंड ेम है। उसके मन
म इस बात का अ यंत हष है िक आज म अपने परम नेही राम को देखँग
ू ा; िकंतु उसने यह हष
रावण को नह जनाया।

छं ० - िनज परम ीतम देिख लोचन सफ ु ल क र सख


ु पाइह ।
ीसिहत अनज ु समेत कृपािनकेत पद मन लाइह ॥
िनबान दायक ोध जा कर भगित अबसिह बसकरी।
िनज पािन सर संधािन सो मोिह बिधिह सखु सागर हरी॥

(वह मन-ही-मन सोचने लगा -) अपने परम ि यतम को देखकर ने को सफल करके सुख
पाऊँगा। जानक सिहत और छोटे भाई ल मण समेत कृपािनधान राम के चरण म मन लगाऊँगा।
िजनका ोध भी मो देनेवाला है और िजनक भि उन अवश (िकसी के वश म न होनेवाले
वतं भगवान) को भी वश म करनेवाली है, अहा! वे ही आनंद के समु ह र अपने हाथ से बाण
संधानकर मेरा वध करगे!

दो० - मम पाछ धर धावत धर सरासन बान।


िफ र िफ र भिु ह िबलोिकहउँ ध य न मो सम आन॥ 26॥

धनुष-बाण धारण िकए मेरे पीछे -पीछे प ृ वी पर (पकड़ने के िलए) दौड़ते हए भु को म िफर-
ू ा। मेरे समान ध य दूसरा कोई नह है॥ 26॥
िफरकर देखँग

तेिह बन िनकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमग ृ भयऊ॥


अित िबिच कछु बरिन न जाई। कनक देह मिन रिचत बनाई॥
जब रावण उस वन के (िजस वन म रघुनाथ रहते थे) िनकट पहँचा, तब मारीच कपटमग
ृ बन
गया। वह अ यंत ही िविच था, कुछ वणन नह िकया जा सकता। सोने का शरीर मिणय से
जड़कर बनाया था।

सीता परम िचर मग ृ देखा। अंग अंग सम


ु नोहर बेषा॥
सन
ु ह देव रघब
ु ीर कृपाला। एिह मग
ृ कर अित संदु र छाला॥

सीता ने उस परम सुंदर िहरन को देखा, िजसके अंग-अंग क छटा अ यंत मनोहर थी। (वे कहने
लग - ) हे देव! हे कृपालु रघुवीर! सुिनए। इस मग
ृ क छाल बहत ही सुंदर है।

स यसंध भु बिध क र एही। आनह चम कहित बैदहे ी॥


तब रघप
ु ित जानत सब कारन। उठे हरिष सरु काजु सँवारन॥

जानक ने कहा - हे स य ित भो! इसको मारकर इसका चमड़ा ला दीिजए। तब रघुनाथ


(मारीच के कपटमग ृ बनने का) सब कारण जानते हए भी, देवताओं का काय बनाने के िलए
हिषत होकर उठे ।

मग
ृ िबलोिक किट प रकर बाँधा। करतल चाप िचर सर साँधा॥
भु लिछमनिह कहा समझ
ु ाई। िफरत िबिपन िनिसचर बह भाई॥

िहरन को देखकर राम ने कमर म फटा बाँधा और हाथ म धनुष लेकर उस पर सुंदर (िद य) बाण
चढ़ाया। िफर भु ने ल मण को समझाकर कहा - हे भाई! वन म बहत-से रा स िफरते ह।

सीता के र करे ह रखवारी। बिु ध िबबेक बल समय िबचारी॥


भिु ह िबलोिक चला मगृ भाजी। धाए रामु सरासन साजी॥

तुम बुि और िववेक के ारा बल और समय का िवचार करके सीता क रखवाली करना। भु
को देखकर मगृ भाग चला। राम भी धनुष चढ़ाकर उसके पीछे दौड़े ।

िनगम नेित िसव यान न पावा। मायामग ृ पाछ सो धावा॥


कबहँ िनकट पिु न दू र पराई। कबहँक गटइ कबहँ छपाई॥

वेद िजनके िवषय म 'नेित-नेित' कहकर रह जाते ह और िशव भी िज ह यान म नह पाते


ृ के पीछे दौड़ रहे ह।
(अथात जो मन और वाणी से िनतांत परे ह), वे ही राम माया से बने हए मग
वह कभी िनकट आ जाता है और िफर दूर भाग जाता है। कभी तो कट हो जाता है और कभी
िछप जाता है।

गटत दरु त करत छल भूरी। एिह िबिध भिु ह गयउ लै दूरी॥


तब तिक राम किठन सर मारा। धरिन परे उ क र घोर पकु ारा॥
इस कार कट होता और िछपता हआ तथा बहतेरे छल करता हआ वह भु को दूर ले गया। तब
राम ने तक कर (िनशाना साधकर) कठोर बाण मारा, (िजसके लगते ही) वह घोर श द करके
प ृ वी पर िगर पड़ा।

लिछमन कर थमिहं लै नामा। पाछ सिु मरे िस मन महँ रामा॥


ान तजत गटेिस िनज देहा। सिु मरे िस रामु समेत सनेहा॥

पहले ल मण का नाम लेकर उसने पीछे मन म राम का मरण िकया। ाण याग करते समय
उसने अपना (रा सी) शरीर कट िकया और ेम सिहत राम का मरण िकया।

अंतर ेम तासु पिहचाना। मुिन दुलभ गित दीि ह सुजाना॥

सुजान (सव ) राम ने उसके दय के ेम को पहचानकर उसे वह गित (अपना परमपद) दी जो


मुिनय को भी दुलभ है।

दो० - िबपल
ु सम
ु र सरु बरषिहं गाविहं भु गन
ु गाथ।
िनज पद दी ह असरु कहँ दीनबंधु रघनु ाथ॥ 27॥

देवता बहत-से फूल बरसा रहे ह और भु के गुण क गाथाएँ ( तुितयाँ) गा रहे ह (िक) रघुनाथ
ऐसे दीनबंधु ह िक उ ह ने असुर को भी अपना परम पद दे िदया॥ 27॥

खल बिध तरु त िफरे रघब


ु ीरा। सोह चाप कर किट तन
ू ीरा॥
आरत िगरा सनु ी जब सीता। कह लिछमन सन परम सभीता॥

दु मारीच को मारकर रघुवीर तुरंत लौट पड़े । हाथ म धनुष और कमर म तरकस शोभा दे रहा है।
इधर जब सीता ने दुःखभरी वाणी (मरते समय मारीच क 'हा ल मण' क आवाज) सुनी तो वे
बहत ही भयभीत होकर ल मण से कहने लग -

जाह बेिग संकट अित ाता। लिछमन िबहिस कहा सन ु ु माता॥


भक
ृ ु िट िबलास सिृ लय होई। सपनेहँ संकट परइ िक सोई॥

तुम शी जाओ, तु हारे भाई बड़े संकट म ह। ल मण ने हँसकर कहा - हे माता! सुनो, िजनके
ृ ु िटिवलास (भ के इशारे ) मा से सारी सिृ का लय ( लय) हो जाता है, वे राम या कभी

व न म भी संकट म पड़ सकते ह?

मरम बचन जब सीता बोला। ह र े रत लिछमन मन डोला॥


बन िदिस देव स िप सब काह। चले जहाँ रावन सिस राह॥
इस पर जब सीता कुछ मम-वचन ( दय म चुभनेवाले वचन) कहने लग , तब भगवान क ेरणा
से ल मण का मन भी चंचल हो उठा। वे सीता को वन और िदशाओं के देवताओं को स पकर वहाँ
चले, जहाँ रावण पी चं मा के िलए राह प राम थे।

सून बीच दसकंधर देखा। आवा िनकट जती क बेषा॥


जाक डर सरु असरु डेराह । िनिस न नीद िदन अ न न खाह ॥

रावण सनू ा मौका देखकर यित (सं यासी) के वेष म सीता के समीप आया, िजसके डर से देवता
और दै य तक इतना डरते ह िक रात को न द नह आती और िदन म (भरपेट) अ न नह खाते -

सो दससीस वान क नाई ं। इत उत िचतइ चला भिड़हाई ं॥


इिम कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज तन बिु ध बल लेसा॥

वही दस िसरवाला रावण कु े क तरह इधर-उधर ताकता हआ भिड़हाई (चोरी) के िलए


चला। (काकभश ु ंिु ड कहते ह - ) हे ग ड़! इस कार कुमाग पर पैर रखते ही शरीर म तेज
तथा बिु एवं बल का लेश भी नह रह जाता।

नाना िबिध क र कथा सहु ाई। राजनीित भय ीित देखाई॥


कह सीता सनु ु जती गोसाई ं। बोलेह बचन दु क नाई ं॥

रावण ने अनेक कार क सुहावनी कथाएँ रचकर सीता को राजनीित, भय और ेम िदखलाया।


सीता ने कहा - हे यित गोसाई ं! सुनो, तुमने तो दु क तरह वचन कहे ।

तब रावन िनज प देखावा। भई सभय जब नाम सन ु ावा॥


कह सीता ध र धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ भु रह खल ठाढ़ा॥

तब रावण ने अपना असली प िदखलाया और जब नाम सुनाया तब तो सीता भयभीत हो गई ं।


उ ह ने गहरा धीरज धरकर कहा - 'अरे दु ! खड़ा तो रह, भु आ गए'।

िजिम ह रबधिु ह छु सस चाहा। भएिस कालबस िनिसचर नाहा॥


सनु त बचन दससीस रसाना। मन महँ चरन बंिद सखु माना॥

जैसे िसंह क ी को तु छ खरगोश चाहे , वैसे ही अरे रा सराज! तू (मेरी चाह करके) काल के
वश हआ है। ये वचन सुनते ही रावण को ोध आ गया, परं तु मन म उसने सीता के चरण क
वंदना करके सुख माना।

दो० - ोधवंत तब रावन लीि हिस रथ बैठाइ।


चला गगनपथ आतरु भयँ रथ हाँिक न जाइ॥ 28॥
िफर ोध म भरकर रावण ने सीता को रथ पर बैठा िलया और वह बड़ी उतावली के साथ आकाश
माग से चला; िकंतु डर के मारे उससे रथ हाँका नह जाता था॥ 28॥

हा जग एक बीर रघरु ाया। केिहं अपराध िबसारे ह दाया॥


आरित हरन सरन सख ु दायक। हा रघक ु ु ल सरोज िदननायक॥

(सीता िवलाप कर रही थ -) हा जगत के अि तीय वीर रघुनाथ! आपने िकस अपराध से मुझ पर
दया भुला दी। हे दुःख के हरनेवाले, हे शरणागत को सुख देनेवाले, हा रघुकुल पी कमल के
सयू !

हा लिछमन तु हार निहं दोसा। सो फलु पायउँ क हेउँ रोसा॥


िबिबध िबलाप करित बैदहे ी। भू र कृपा भु दू र सनेही॥

हा ल मण! तु हारा दोष नह है। मने ोध िकया, उसका फल पाया। जानक बहत कार से
िवलाप कर रही ह - (हाय!) भु क कृपा तो बहत है, परं तु वे नेही भु बहत दूर रह गए ह।

िबपित मो र को भिु ह सनु ावा। परु ोडास चह रासभ खावा॥


सीता कै िबलाप सिु न भारी। भए चराचर जीव दख ु ारी॥

भु को मेरी यह िवपि कौन सुनावे? य के अ न को गदहा खाना चाहता है। सीता का भारी
िवलाप सुनकर जड़-चेतन सभी जीव दुःखी हो गए।

गीधराज सिु न आरत बानी। रघक


ु ु लितलक ना र पिहचानी॥
अधम िनसाचर ली ह जाई। िजिम मलेछ बस किपला गाई॥

ग ृ राज जटायु ने सीता क दुःखभरी वाणी सुनकर पहचान िलया िक ये रघुकुल ितलक राम क
प नी ह। (उसने देखा िक) नीच रा स इनको (बुरी तरह) िलए जा रहा है, जैसे किपला गाय
ले छ के पाले पड़ गई हो।

सीते पिु करिस जिन ासा। क रहउँ जातध


ु ान कर नासा॥
धावा ोधवंत खग कैस। छूटइ पिब परबत कहँ जैस॥

(वह बोला -) हे सीते पु ी! भय मत कर। म इस रा स का नाश क ँ गा। (यह कहकर) वह प ी


ोध म भरकर ऐसे दौड़ा, जैसे पवत क ओर व छूटता हो।

रे रे दु ठाढ़ िकन हो ही। िनभय चलेिस न जानेिह मोही॥


आवत देिख कृतांत समाना। िफ र दसकंधर कर अनम ु ाना॥

(उसने ललकारकर कहा -) रे रे दु ! खड़ा य नह होता? िनडर होकर चल िदया! मुझे तन


ू े
नह जाना? उसको यमराज के समान आता हआ देखकर रावण घम
ू कर मन म अनुमान करने
लगा -

क मैनाक िक खगपित होई। मम बल जान सिहत पित सोई॥


जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँिड़िह देहा॥

यह या तो मैनाक पवत है या पि य का वामी ग ड़। पर वह (ग ड़) तो अपने वामी िव णु


सिहत मेरे बल को जानता है! (कुछ पास आने पर) रावण ने उसे पहचान िलया (और बोला - )
ू ा जटायु है। यह मेरे हाथ पी तीथ म शरीर छोड़े गा।
यह तो बढ़

सन
ु त गीध ोधातरु धावा। कह सनु ु रावन मोर िसखावा॥
तिज जानिकिह कुसल गहृ जाह। नािहं त अस होइिह बहबाह॥

यह सुनते ही गीध ोध म भरकर बड़े वेग से दौड़ा और बोला - रावण! मेरी िसखावन सुन।
जानक को छोड़कर कुशलपवू क अपने घर चला जा। नह तो हे बहत भुजाओंवाले! ऐसा होगा िक
-

राम रोष पावक अित घोरा। होइिह सकल सलभ कुल तोरा॥
उत न देत दसानन जोधा। तबिहं गीध धावा क र ोधा॥

राम के ोध पी अ यंत भयानक अि न म तेरा सारा वंश पितंगा (होकर भ म) हो जाएगा। यो ा


रावण कुछ उ र नह देता। तब गीध ोध करके दौड़ा।

ध र कच िबरथ क ह मिह िगरा। सीतिह रािख गीध पिु न िफरा॥


चोच ह मा र िबदारे िस देही। दंड एक भइ मु छा तेही॥

उसने (रावण के) बाल पकड़कर उसे रथ के नीचे उतार िलया, रावण प ृ वी पर िगर पड़ा। गीध
सीता को एक ओर बैठाकर िफर लौटा और च च से मार-मारकर रावण के शरीर को िवदीण कर
डाला। इससे उसे एक घड़ी के िलए मू छा हो गई।

तब स ोध िनिसचर िखिसआना। काढ़ेिस परम कराल कृपाना॥


काटेिस पंख परा खग धरनी। सिु म र राम क र अदभत
ु करनी॥

तब िखिसयाए हए रावण ने ोधयु होकर अ यंत भयानक कटार िनकाली और उससे जटायु
के पंख काट डाले। प ी (जटायु) राम क अ ुत लीला का मरण करके प ृ वी पर िगर पड़ा।

सीतिह जान चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल ास न थोरी॥


करित िबलाप जाित नभ सीता। याध िबबस जनु मगृ ी सभीता॥
सीता को िफर रथ पर चढ़ाकर रावण बड़ी उतावली के साथ चला, उसे भय कम न था। सीता
आकाश म िवलाप करती हई जा रही ह। मानो याध के वश म पड़ी हई (जाल म फँसी हई) कोई
भयभीत िहरनी हो!

िग र पर बैठे किप ह िनहारी। किह ह र नाम दी ह पट डारी॥


एिह िबिध सीतिह सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ॥

पवत पर बैठे हए बंदर को देखकर सीता ने ह रनाम लेकर व डाल िदया। इस कार वह सीता
को ले गया और उ ह अशोक वन म जा रखा।

दो० - हा र परा खल बह िबिध भय अ ीित देखाइ।


तब असोक पादप तर रािखिस जतन कराइ॥ 29(क)॥

सीता को बहत कार से भय और ीित िदखलाकर जब वह दु हार गया, तब उ ह य न कराके


(सब यव था ठीक कराके) अशोक व ृ के नीचे रख िदया॥ 29(क)॥

जेिह िबिध कपट कुरं ग सँग धाइ चलेराम।


सो छिब सीता रािख उर रटित रहित ह रनाम॥ 29(ख)॥

िजस कार कपटमग ृ के साथ राम दौड़ चले थे, उसी छिव को दय म रखकर वे ह रनाम
(रामनाम) रटती रहती ह॥ 29(ख)॥

रघप
ु ित अनज ु िह आवत देखी। बािहज िचंता क ि ह िबसेषी॥
जनकसत ु ा प रह रह अकेली। आयह तात बचन मम पेली॥

(इधर) रघुनाथ ने छोटे भाई ल मण को आते देखकर बा प म बहत िचंता क (और कहा -) हे
भाई! तुमने जानक को अकेली छोड़ िदया और मेरी आ ा का उ लंघन कर यहाँ चले आए!

िनिसचर िनकर िफरिहं बन माह । मम मन सीता आ म नाह ॥


गिह पद कमल अनजु कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोिह न खोरी॥

रा स के झुंड वन म िफरते रहते ह। मेरे मन म ऐसा आता है िक सीता आ म म नह है। छोटे


भाई ल मण ने राम के चरणकमल को पकड़कर हाथ जोड़कर कहा - हे नाथ! मेरा कुछ भी दोष
नह है।

अनज
ु समेत गए भु तहवाँ। गोदाव र तट आ म जहवाँ॥
आ म देिख जानक हीना। भए िबकल जस ाकृत दीना॥

ल मण सिहत भु राम वहाँ गए जहाँ गोदावरी के तट पर उनका आ म था। आ म को जानक


से रिहत देखकर राम साधारण मनु य क भाँित याकुल और दीन (दुःखी) हो गए।

हा गन
ु खािन जानक सीता। प सील त नेम पन ु ीता॥
लिछमन समझ ु ाए बह भाँित। पूछत चले लता त पाँती॥

(वे िवलाप करने लगे -) हा गुण क खान जानक ! हा प, शील, त और िनयम म पिव
सीते! ल मण ने बहत कार से समझाया। तब राम लताओं और व ृ क पंि य से पछ
ू ते हए
चले।

हे खग मगृ हे मधक
ु र ने ी। तु ह देखी सीता मग
ृ नैनी॥
खंजन सकु कपोत मग ृ मीना। मधप ु िनकर कोिकला बीना॥

हे पि य ! हे पशुओ!ं हे भ र क पंि य ! तुमने कह मग


ृ नयनी सीता को देखा है? खंजन,
तोता, कबत ू र, िहरन, मछली, भ र का समहू , वीण कोयल,

कंु द कली दािड़म दािमनी। कमल सरद सिस अिहभािमनी॥


ब न पास मनोज धनु हंसा। गज केह र िनज सन ु त संसा॥

कंु दकली, अनार, िबजली, कमल, शरद का चं मा और नािगनी, व ण का पाश, कामदेव का


धनुष, हंस, गज और िसंह - ये सब आज अपनी शंसा सुन रहे ह।

ी फल कनक कदिल हरषाह । नेकु न संक सकुच मन माह ॥


सन
ु ु जानक तोिह िबनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू॥

बेल, सुवण और केला हिषत हो रहे ह। इनके मन म जरा भी शंका और संकोच नह है। हे
जानक ! सुनो, तु हारे िबना ये सब आज ऐसे हिषत ह, मानो राज पा गए ह । (अथात तु हारे अंग
के सामने ये सब तु छ, अपमािनत और लि जत थे। आज तु ह न देखकर ये अपनी शोभा के
अिभमान म फूल रहे ह)।

िकिम सिह जात अनख तोिह पाह । ि या बेिग गटिस कस नाह ॥


एिह िबिध खोजत िबलपत वामी। मनहँ महा िबरही अित कामी॥

तुमसे यह अनख ( पधा) कैसे सही जाती है? हे ि ये! तुम शी ही कट य नह होती? इस
कार (अनंत ांड के अथवा महामिहमामयी व पाशि सीता के) वामी राम सीता को
खोजते हए (इस कार) िवलाप करते ह, मानो कोई महािवरही और अ यंत कामी पु ष हो।

पूरनकाम राम सख
ु रासी। मनज ु च रत कर अज अिबनासी॥
आग परा गीधपित देखा। सिु मरत राम चरन िज ह रे खा॥
ू काम, आनंद क रािश, अज मा और अिवनाशी राम मनु य के-से च र कर रहे ह। आगे
पण
(जाने पर) उ ह ने ग ृ पित जटायु को पड़ा देखा। वह राम के चरण का मरण कर रहा था,
िजनम ( वजा, कुिलश आिद क ) रे खाएँ (िच ) ह।

दो० - कर सरोज िसर परसेउ कृपािसंधु रघब


ु ीर।
िनरिख राम छिब धाम मखु िबगत भई सब पीर॥ 30॥

कृपा सागर रघुवीर ने अपने करकमल से उसके िसर का पश िकया (उसके िसर पर कर-कमल
फेर िदया)। शोभाधाम राम का (परम सुंदर) मुख देखकर उसक सब पीड़ा जाती रही॥ 30॥

तब कह गीध बचन ध र धीरा। सन


ु ह राम भंजन भव भीरा॥
नाथ दसानन यह गित क ही। तेिहं खल जनकसत ु ा ह र ली ही॥

तब धीरज धरकर गीध ने यह वचन कहा - हे भव (ज म-म ृ यु) के भय का नाश करनेवाले राम!
सुिनए। हे नाथ! रावण ने मेरी यह दशा क है। उसी दु ने जानक को हर िलया है।

लै दि छन िदिस गयउ गोसाई ं। िबलपित अित कुररी क नाई ं॥


दरस लाग भु राखेउँ ाना। चलन चहत अब कृपािनधाना॥

हे गोसाई ं! वह उ ह लेकर दि ण िदशा को गया है। सीता कुररी (कुज) क तरह अ यंत िवलाप
कर रही थ । हे भो! आपके दशन के िलए ही ाण रोक रखे थे। हे कृपािनधान! अब ये चलना ही
चाहते ह।

राम कहा तनु राखह ताता। मख


ु मस
ु क
ु ाइ कही तेिहं बाता॥
जाकर नाम मरत मख ु आवा। अधमउ मक ु ु त होइ िु त गावा॥

राम ने कहा - हे तात! शारीर को बनाए रिखए। तब उसने मुसकराते हए मँुह से यह बात कही -
मरते समय िजनका नाम मुख म आ जाने से अधम (महान पापी) भी मु हो जाता है, ऐसा वेद
गाते ह -

सो मम लोचन गोचर आग। राख देह नाथ केिह खाँग॥


जल भ र नयन कहिहं रघरु ाई। तात कम िनज त गित पाई॥

वही (आप) मेरे ने के िवषय होकर सामने खड़े ह। हे नाथ! अब म िकस कमी (क पिू त) के
िलए देह को रखँ?ू ने म जल भरकर रघुनाथ कहने लगे - हे तात! आपने अपने े कम से
(दुलभ) गित पाई है।

परिहत बस िज ह के मन माह । ित ह कहँ जग दल ु भ कछु नाह ॥


तनु ितज तात जाह मम धामा। देउँ काह तु ह पूरनकामा॥
िजनके मन म दूसरे का िहत बसता है (समाया रहता है), उनके िलए जगत म कुछ भी (कोई भी
गित) दुलभ नह है। हे तात! शरीर छोड़कर आप मेरे परम धाम म जाइए। म आपको या दँू? आप
ू काम ह (सब कुछ पा चुके ह)।
तो पण

दो० - सीता हरन तात जिन कहह िपता सन जाइ।


ज म राम त कुल सिहत किहिह दसानन आइ॥ 31॥

हे तात! सीता हरण क बात आप जाकर िपता से न किहएगा। यिद म राम हँ तो दशमुख रावण
कुटुंब सिहत वहाँ आकर वयं ही कहे गा॥ 31॥

गीध देह तिज ध र ह र पा। भूषन बह पट पीत अनूपा॥


याम गात िबसाल भज ु चारी। अ तिु त करत नयन भ र बारी॥

जटायु ने गीध क देह यागकर ह र का प धारण िकया और बहत-से अनुपम (िद य) आभषू ण
और (िद य) पीतांबर पहन िलए। याम शरीर है, िवशाल चार भुजाएँ ह और ने म ( ेम तथा
आनंद के आँसुओ ं का) जल भरकर वह तुित कर रहा है -

छं ० - जय राम प अनूप िनगन ु सगनु गन


ु रे क सही।
दससीस बाह चंड खंडन चंड सर मंडन मही॥
पाथोद गात सरोज मख ु राजीव आयत लोचनं।
िनत नौिम रामु कृपाल बाह िबसाल भव भय मोचनं॥

हे राम! आपक जय हो। आपका प अनुपम है, आप िनगुण ह, सगुण ह और स य ही गुण के


(माया के) ेरक ह। दस िसरवाले रावण क चंड भुजाओं को खंड-खंड करने के िलए चंड बाण
धारण करनेवाले, प ृ वी को सुशोिभत करनेवाले, जलयु मेघ के समान याम शरीरवाले, कमल
के समान मुख और (लाल) कमल के समान िवशाल ने वाले, िवशाल भुजाओंवाले और भव-भय
से छुड़ानेवाले कृपालु राम को म िन य नम कार करता हँ।

बलम मेयमनािदमजम य मेकमगोचरं ।


गोिबंद गोपर ं हर िब यानघन धरनीधरं ॥
जे राम मं जपंत संत अनंत जन मन रं जनं।
िनत नौिम राम अकाम ि य कामािद खल दल गंजनं॥

आप अप रिमत बलवाले ह, अनािद, अज मा, अ य (िनराकार), एक अगोचर (अल य), गोिवंद


(वेद वा य ारा जानने यो य), इंि य से अतीत, (ज म-मरण, सुख-दुःख, हष-शोकािद) ं
को हरनेवाले, िव ान क घनमिू त और प ृ वी के आधार ह तथा जो संत राम-मं को जपते ह, उन
अनंत सेवक के मन को आनंद देनेवाले ह। उन िन कामि य (िन कामजन के ेमी अथवा उ ह
ि य) तथा काम आिद दु (दु विृ य ) के दल का दलन करनेवाले राम को म िन य
नम कार करता हँ।

जेिह िु त िनरं जन यापक िबरज अज किह गावह ।


कर यान यान िबराग जोग अनेक मिु न जेिह पावह ॥
सो गट क ना कंद सोभा बंदृ अग जग मोहई।
मम दय पंकज भंग ृ अंग अनंग बह छिब सोहई॥

िजनको ुितयाँ िनरं जन (माया से परे ), , यापक, िनिवकार और ज मरिहत कहकर गान
करती ह। मुिन िज ह यान, ान, वैरा य और योग आिद अनेक साधन करके पाते ह। वे ही
क णाकंद, शोभा के समहू ( वयं भगवान) कट होकर जड़-चेतन सम त जगत को मोिहत
कर रहे ह। मेरे दय-कमल के मर प उनके अंग-अंग म बहत-से कामदेव क छिव शोभा पा
रही है।

जो अगम सग ु म सभ
ु ाव िनमल असम सम सीतल सदा।
प यंित जं जोगी जतन क र करत मन गो बस सदा॥
सो राम रमा िनवास संतत दास बस ि भवु न धनी।
मम उर बसउ सो समन संसिृ त जासु क रित पावनी॥

जो अगम और सुगम ह, िनमल वभाव ह, िवषम और सम ह और सदा शीतल (शांत) ह। मन और


इंि य को सदा वश म करते हए योगी बहत-साधन करने पर िज ह देख पाते ह। वे तीन लोक
के वामी, रमािनवास राम िनरं तर अपने दास के वश म रहते ह। वे ही मेरे दय म िनवास कर,
िजनक पिव क ित आवागमन को िमटानेवाली है।

दो० - अिबरल भगित मािग बर गीध गयउ ह रधाम।


तेिह क ि या जथोिचत िनज कर क ही राम॥ 32॥

अखंड भि का वर माँगकर ग ृ राज जटायु ह र के परमधाम को चला गया। राम ने उसक


(दाहकम आिद सारी) ि याएँ यथायो य अपने हाथ से क ॥ 32॥

कोमल िचत अित दीनदयाला। कारन िबनु रघन


ु ाथ कृपाला॥
गीध अधम खग आिमष भोगी। गित दी ही जो जाचत जोगी॥

रघुनाथ अ यंत कोमल िच वाले, दीनदयालु और िबना ही कारण कृपालु ह। गीध (पि य म भी)
अधम प ी और मांसाहारी था, उसको भी वह दुलभ गित दी, िजसे योगीजन माँगते रहते ह।

सन ु ह उमा ते लोग अभागी। ह र तिज होिहं िबषय अनरु ागी।


पिु न सीतिह खोजत ौ भाई। चले िबलोकत बन बहताई॥
(िशव कहते ह - ) हे पावती! सुनो, वे लोग अभागे ह, जो भगवान को छोड़कर िवषय से अनुराग
करते ह। िफर दोन भाई सीता को खोजते हए आगे चले। वे वन क सघनता देखते जाते ह।

संकुल लता िबटप घन कानन। बह खग मग ृ तहँ गज पंचानन॥


आवत पंथ कबंध िनपाता। तेिहं सब कही साप कै बाता॥

वह सघन वन लताओं और व ृ से भरा है। उसम बहत-से प ी, मग ृ , हाथी और िसंह रहते ह। राम
ने रा ते म आते हए कबंध रा स को मार डाला। उसने अपने शाप क सारी बात कही।

दरु बासा मोिह दी ही सापा। भु पद पेिख िमटा सो पापा॥


सन ु ु गंधब कहउँ म तोही। मोिह न सोहाइ कुल ोही॥

(वह बोला - ) दुवासा ने मुझे शाप िदया था। अब भु के चरण को देखने से वह पाप िमट गया।
(राम ने कहा - ) हे गंधव! सुनो, म तु ह कहता हँ, ा णकुल से ोह करनेवाला मुझे नह
सुहाता।

दो० - मन म बचन कपट तिज जो कर भूसरु सेव।


मोिह समेत िबरं िच िसव बस ताक सब देव॥ 33॥

मन, वचन और कम से कपट छोड़कर जो भदू ेव ा ण क सेवा करता है, मुझ समेत ा, िशव
आिद सब देवता उसके वश म हो जाते ह॥ 33॥

सापत ताड़त प ष कहंता। िब पू य अस गाविहं संता॥


पूिजअ िब सील गन
ु हीना। सू न गन
ु गन यान बीना॥

शाप देता हआ, मारता हआ और कठोर वचन कहता हआ भी ा ण पज ू नीय है, ऐसा संत कहते
ह। शील और गुण से हीन भी ा ण पज
ू नीय है। और गुण गण से यु और ान म िनपुण भी
शू पजू नीय नह है।

किह िनज धम तािह समझ


ु ावा। िनज पद ीित देिख मन भावा॥
रघप
ु ित चरन कमल िस नाई। गयउ गगन आपिन गित पाई॥

राम ने अपना धम (भागवत-धम) कहकर उसे समझाया। अपने चरण म ेम देखकर वह उनके
मन को भाया। तदनंतर रघुनाथ के चरणकमल म िसर नवाकर वह अपनी गित (गंधव का
व प) पाकर आकाश म चला गया।

तािह देइ गित राम उदारा। सबरी क आ म पगु धारा॥


सबरी देिख राम गहृ ँ आए। मिु न के बचन समिु झ िजयँ भाए॥
उदार राम उसे गित देकर शबरी के आ म म पधारे । शबरी ने राम को घर म आए देखा, तब मुिन
मतंग के वचन को याद करके उनका मन स न हो गया।

सरिसज लोचन बाह िबसाला। जटा मक ु ु ट िसर उर बनमाला॥


याम गौर संदु र दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई॥

कमल-स श ने और िवशाल भुजावाले, िसर पर जटाओं का मुकुट और दय पर वनमाला धारण


िकए हए सुंदर, साँवले और गोरे दोन भाइय के चरण म शबरी िलपट पड़ ।

े मगन मख
म ु बचन न आवा। पिु न पिु न पद सरोज िसर नावा॥
सादर जल लै चरन पखारे । पिु न संदु र आसन बैठारे ॥

वे ेम म म न हो गई ं, मुख से वचन नह िनकलता। बार-बार चरण-कमल म िसर नवा रही ह।


िफर उ ह ने जल लेकर आदरपवू क दोन भाइय के चरण धोए और िफर उ ह सुंदर आसन पर
बैठाया।

दो० - कंद मूल फल सरु स अित िदए राम कहँ आिन।


े सिहत भु खाए बारं बार बखािन॥ 34॥

उ ह ने अ यंत रसीले और वािद कंद, मल


ू और फल लाकर राम को िदए। भु ने बार-बार
शंसा करके उ ह ेम सिहत खाया॥ 34॥

पािन जो र आग भइ ठाढ़ी। भिु ह िबलोिक ीित अित बाढ़ी॥


केिह िबिध अ तिु त कर तु हारी। अधम जाित म जड़मित भारी॥

िफर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गई ं। भु को देखकर उनका ेम अ यंत बढ़ गया। (उ ह ने


कहा - ) म िकस कार आपक तुित क ँ ? म नीच जाित क और अ यंत मढ़ ू बुि हँ।

अधम ते अधम अधम अित नारी। ित ह महँ म मितमंद अघारी॥


कह रघप
ु ित सन
ु ु भािमिन बाता। मानउँ एक भगित कर नाता॥

जो अधम से भी अधम ह, ि याँ उनम भी अ यंत अधम ह; और उनम भी हे पापनाशन! म मंदबुि


हँ। रघुनाथ ने कहा - हे भािमिन! मेरी बात सुन! म तो केवल एक भि ही का संबंध मानता हँ।

जाित पाँित कुल धम बड़ाई। धन बल प रजन गन ु चतरु ाई॥


भगित हीन नर सोहइ कैसा। िबनु जल बा रद देिखअ जैसा॥

जाित, पाँित, कुल, धम, बड़ाई, धन, बल, कुटुंब, गुण और चतुरता - इन सबके होने पर भी भि
से रिहत मनु य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) िदखाई पड़ता है।
नवधा भगित कहउँ तोिह पाह । सावधान सनु ु ध मन माह ॥
थम भगित संत ह कर संगा। दूस र रित मम कथा संगा॥

म तुझसे अब अपनी नवधा भि कहता हँ। तू सावधान होकर सुन और मन म धारण कर। पहली
भि है संत का स संग। दूसरी भि है मेरे कथा- संग म ेम।

दो० - गरु पद पंकज सेवा तीस र भगित अमान।


चौिथ भगित मम गन ु गन करइ कपट तिज गान॥ 35॥

तीसरी भि है अिभमानरिहत होकर गु के चरण-कमल क सेवा और चौथी भि यह है िक


कपट छोड़कर मेरे गुणसमहू का गान करे ॥ 35॥

मं जाप मम ढ़ िब वासा। पंचम भजन सो बेद कासा॥


छठ दम सील िबरित बह करमा। िनरत िनरं तर स जन धरमा॥

मेरे (राम) मं का जाप और मुझम ढ़ िव ास - यह पाँचव भि है, जो वेद म िस है। छठी


भि है इंि य का िन ह, शील (अ छा वभाव या च र ), बहत काय से वैरा य और िनरं तर
संत पु ष के धम (आचरण) म लगे रहना।

सातवँ सम मोिह मय जग देखा। मोत संत अिधक क र लेखा॥


आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहँ निहं देखइ परदोषा॥

सातव भि है जगत भर को समभाव से मुझम ओत ोत (राममय) देखना और संत को मुझसे


भी अिधक करके मानना। आठव भि है जो कुछ िमल जाए, उसी म संतोष करना और व न म
भी पराए दोष को न देखना।

नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस िहयँ हरष न दीना॥


नव महँ एकउ िज ह क होई। ना र पु ष सचराचर कोई॥

नव भि है सरलता और सबके साथ कपटरिहत बताव करना, दय म मेरा भरोसा रखना और


िकसी भी अव था म हष और दै य (िवषाद) का न होना। इन नव म से िजनके एक भी होती है,
वह ी-पु ष, जड़-चेतन कोई भी हो -

सोइ अितसय ि य भािमिन मोर। सकल कार भगित ढ़ तोर॥


जोिग बंदृ दरु लभ गित जोई। तो कहँ आजु सल
ु भ भइ सोई॥

हे भािमिन! मुझे वही अ यंत ि य है। िफर तुझ म तो सभी कार क भि ढ़ है। अतएव जो गित
योिगय को भी दुलभ है, वही आज तेरे िलए सुलभ हो गई है।
मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव िनज सहज स पा॥
जनकसत ु ा कइ सिु ध भािमनी। जानिह कह क रबरगािमनी॥

मेरे दशन का परम अनुपम फल यह है िक जीव अपने सहज व प को ा हो जाता है। हे


भािमिन! अब यिद तू गजगािमनी जानक क कुछ खबर जानती हो तो बता।

पंपा सरिह जाह रघरु ाई। तहँ होइिह सु ीव िमताई॥


सो सब किहिह देव रघब ु ीरा। जानतहँ पूछह मितधीरा॥

(शबरी ने कहा - ) हे रघुनाथ! आप पंपा नामक सरोवर को जाइए। वहाँ आपक सु ीव से िम ता


होगी। हे देव! हे रघुवीर! वह सब हाल बतावेगा। हे धीरबुि ! आप सब जानते हए भी मुझसे पछ
ू ते
ह!

बार बार भु पद िस नाई। ेम सिहत सब कथा सुनाई॥

बार-बार भु के चरण म िसर नवाकर, ेमसिहत उसने सब कथा सुनाई।

छं ० - किह कथा सकल िबलोिक ह र मखु दय पद पंकज धरे ।


तिज जोग पावक देह प र पद लीन भइ जहँ निहं िफरे ॥
नर िबिबध कम अधम बह मत सोक द सब यागह।
िब वास क र कह दास तलु सी राम पद अनरु ागह॥

सब कथा कहकर भगवान के मुख के दशन कर, उनके चरणकमल को धारण कर िलया और
योगाि न से देह को याग कर (जलाकर) वह उस दुलभ ह रपद म लीन हो गई, जहाँ से लौटना
नह होता। तुलसीदास कहते ह िक अनेक कार के कम, अधम और बहत-से मत - ये सब
शोक द ह; हे मनु य ! इनका याग कर दो और िव ास करके राम के चरण म ेम करो।

दो० - जाित हीन अघ ज म मिह मु क ि ह अिस ना र।


महामंद मन सख ु चहिस ऐसे भिु ह िबसा र॥ 36॥

जो नीच जाित क और पाप क ज मभिू म थी, ऐसी ी को भी िज ह ने मु कर िदया, अरे


महादुबुि मन! तू ऐसे भु को भल
ू कर सुख चाहता है?॥ 36॥

चले राम यागा बन सोऊ। अतिु लत बल नर केह र दोऊ॥


िबरही इव भु करत िबषादा। कहत कथा अनेक संबादा॥

राम ने उस वन को भी छोड़ िदया और वे आगे चले। दोन भाई अतुलनीय बलवान और मनु य म
िसंह के समान ह। भु िवरही क तरह िवषाद करते हए अनेक कथाएँ और संवाद कहते ह -
लिछमन देखु िबिपन कइ सोभा। देखत केिह कर मन निहं छोभा॥
ना र सिहत सब खग मगृ बंदृ ा। मानहँ मो र करत हिहं िनंदा॥

हे ल मण! जरा वन क शोभा तो देखो। इसे देखकर िकसका मन ु ध नह होगा? प ी और


पशुओ ं के समहू सभी ीसिहत ह। मानो वे मेरी िनंदा कर रहे ह।

हमिह देिख मग
ृ िनकर पराह । मग
ृ कहिहं तु ह कहँ भय नाह ॥
तु ह आनंद करह मग
ृ जाए। कंचन मग
ृ खोजन ए आए॥

हम देखकर (जब डर के मारे ) िहरन के झुंड भागने लगते ह, तब िहरिनयाँ उनसे कहती ह -
तुमको भय नह है। तुम तो साधारण िहरन से पैदा हए हो, अतः तुम आनंद करो। ये तो सोने का
िहरन खोजने आए ह।

संग लाइ क रन क र लेह । मानहँ मोिह िसखावनु देह ॥


ु िे वत बस निहं लेिखअ॥
सा सिु चंितत पिु न पिु न देिखअ। भूप सस

हाथी हिथिनय को साथ लगा लेते ह। वे मानो मुझे िश ा देते ह (िक ी को कभी अकेली नह
छोड़ना चािहए)। भली-भाँित िचंतन िकए हए शा को भी बार-बार देखते रहना चािहए। अ छी
तरह सेवा िकए हए भी राजा को वश म नह समझना चािहए।

रािखअ ना र जदिप उर माह । जुबती सा नप ृ ित बस नाह ॥


देखह तात बसंत सहु ावा। ि या हीन मोिह भय उपजावा॥

और ी को चाहे दय म ही य न रखा जाए; परं तु युवती ी, शा और राजा - िकसी के


वश म नह रहते। हे तात! इस संुदर वसंत को तो देखो। ि या के िबना मुझको यह भय उ प न
कर रहा है।

दो० - िबरह िबकल बलहीन मोिह जानेिस िनपट अकेल।


सिहत िबिपन मधक ु र खग मदन क ह बगमेल॥ 37(क)॥

मुझे िवरह से याकुल, बलहीन और िबलकुल अकेला जानकर कामदेव ने वन, भ र और पि य


को साथ लेकर मुझ पर धावा बोल िदया॥ 37(क)॥

देिख गयउ ाता सिहत तासु दूत सिु न बात।


डेरा क हेउ मनहँ तब कटकु हटिक मनजात॥ 37(ख)॥

परं तु जब उसका दूत यह देख गया िक म भाई के साथ हँ (अकेला नह हँ), तब उसक बात
सुनकर कामदेव ने मानो सेना को रोककर डे रा डाल िदया है॥ 37(ख)॥
िबटप िबसाल लता अ झानी। िबिबध िबतान िदए जनु तानी॥
कदिल ताल बर धज
ु ा पताका। देिख न मोह धीर मन जाका॥

ू होती ह मानो नाना कार के तंबू तान िदए गए ह।


िवशाल व ृ म लताएँ उलझी हई ऐसी मालम
केला और ताड़ सुंदर वजा-पताका के समान ह। इ ह देखकर वही नह मोिहत होता, िजसका
मन धीर है।

िबिबध भाँित फूले त नाना। जनु बानैत बने बह बाना॥


कहँ कहँ संदु र िबटप सहु ाए। जनु भट िबलग िबलग होइ छाए॥

अनेक व ृ नाना कार से फूले हए ह। मानो अलग-अलग बाना (वद ) धारण िकए हए बहत-से
तीरं दाज ह । कह -कह सुंदर व ृ शोभा दे रहे ह। मानो यो ा लोग अलग-अलग होकर छावनी
डाले ह ।

कूजत िपक मानहँ गज माते। ढेक महोख ऊँट िबसराते॥


मोर चकोर क र बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी॥

कोयल कूज रही ह, वही मानो मतवाले हाथी (िच घाड़ रहे ) ह। ढे क और महोख प ी मानो ऊँट
और ख चर ह। मोर, चकोर, तोते, कबत
ू र और हंस मानो सब सुंदर ताजी (अरबी) घोड़े ह।

तीितर लावक पदचर जूथा। बरिन न जाइ मनोज ब था॥


रथ िग र िसला ददुं भ
ु झरना। चातक बंदी गन
ु गन बरना॥

तीतर और बटेर पैदल िसपािहय के झुंड ह। कामदेव क सेना का वणन नह हो सकता। पवत
क िशलाएँ रथ और जल के झरने नगाड़े ह। पपीहे भाट ह, जो गुणसमहू (िव दावली) का वणन
करते ह।

मधक ु र मख ु र भे र सहनाई। ि िबध बया र बसीठ आई॥


चतरु ं िगनी सेन सँग ली ह। िबचरत सबिह चन ु ौती दी ह॥

भ र क गुंजार भेरी और शहनाई है। शीतल, मंद और सुगंिधत हवा मानो दूत का काम लेकर आई
है। इस कार चतुरंिगणी सेना साथ िलए कामदेव मानो सबको चुनौती देता हआ िवचर रहा है।

लिछमन देखत काम अनीका। रहिहं धीर ित ह कै जग लीका॥


ऐिह क एक परम बल नारी। तेिह त उबर सभ
ु ट सोइ भारी॥

हे ल मण! कामदेव क इस सेना को देखकर जो धीर बने रहते ह, जगत म उ ह क (वीर म)


ित ा होती है। इस कामदेव के एक ी का बड़ा भारी बल है। उससे जो बच जाए, वही े
यो ा है।
दो० - तात तीिन अित बल खल काम ोध अ लोभ।
मिु न िब यान धाम मन करिहं िनिमष महँ छोभ॥ 38(क)॥

हे तात! काम, ोध और लोभ - ये तीन अ यंत बल दु ह। ये िव ान के धाम मुिनय के भी


मन को पलभर म ु ध कर देते ह॥ 38(क)॥

लोभ क इ छा दंभ बल काम क केवल ना र।


ोध क प ष बचन बल मिु नबर कहिहं िबचा र॥ 38(ख)॥

लोभ को इ छा और दंभ का बल है, काम को केवल ी का बल है और ोध को कठोर वचन


का बल है; े मुिन िवचार कर ऐसा कहते ह॥ 38(ख)॥

गन
ु ातीत सचराचर वामी। राम उमा सब अंतरजामी॥
कािम ह कै दीनता देखाई। धीर ह क मन िबरित ढ़ाई॥

(िशव कहते ह - ) हे पावती! राम गुणातीत (तीन गुण से परे ), चराचर जगत के वामी और
सबके अंतर क जाननेवाले ह। (उपयु बात कहकर) उ ह ने कामी लोग क दीनता (बेबसी)
िदखलाई है और धीर (िववेक ) पु ष के मन म वैरा य को ढ़ िकया है।

ोध मनोज लोभ मद माया। छूटिहं सकल राम क दाया॥


सो नर इं जाल निहं भूला। जा पर होइ सो नट अनक
ु ू ला॥

ोध, काम, लोभ, मद और माया - ये सभी राम क दया से छूट जाते ह। वह नट (नटराज
भगवान) िजस पर स न होता है, वह मनु य इं जाल (माया) म नह भल ू ता।

उमा कहउँ म अनभु व अपना। सत ह र भजनु जगत सब सपना॥


पिु न भु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सभ
ु ग गंभीरा॥

हे उमा! म तु ह अपना अनुभव कहता हँ - ह र का भजन ही स य है, यह सारा जगत तो व न


(क भाँित झठ ू ा) है। िफर भु राम पंपा नामक सुंदर और गहरे सरोवर के तीर पर गए।

संत दय जस िनमल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी॥


जहँ तहँ िपअिहं िबिबध मग
ृ नीरा। जनु उदार गहृ जाचक भीरा॥

उसका जल संत के दय-जैसा िनमल है। मन को हरनेवाले सुंदर चार घाट बँधे हए ह। भाँित-
भाँित के पशु जहाँ-तहाँ जल पी रहे ह। मानो उदार दानी पु ष के घर याचक क भीड़ लगी हो!

दो० - परु इिन सघन ओट जल बेिग न पाइअ मम।


मायाछ न न देिखऐ जैस िनगन
ु ॥ 39(क)॥

घनी पुरइन (कमल के प ) क आड़ म जल का ज दी पता नह िमलता। जैसे माया से ढँ के


रहने के कारण िनगुण नह िदखता॥ 39(क)॥

सख
ु ी मीन सब एकरस अित अगाध जल मािहं।
जथा धमसील ह के िदन सख
ु संजुत जािहं॥ 39(ख)॥

उस सरोवर के अ यंत अथाह जल म सब मछिलयाँ सदा एकरस (एक समान) सुखी रहती ह। जैसे
धमशील पु ष के सब िदन सुखपवू क बीतते ह॥ 39(ख)॥

िबकसे सरिसज नाना रं गा। मधरु मख


ु र गंज
ु त बह भंग
ृ ा॥
बोलत जलकु कुट कलहंसा। भु िबलोिक जनु करत संसा॥

उसम रं ग-िबरं गे कमल िखले हए ह। बहत-से भ रे मधुर वर से गंुजार कर रहे ह। जल के मुग


और राजहंस बोल रहे ह, मानो भु को देखकर उनक शंसा कर रहे ह ।

च बाक बक खग समदु ाई। देखत बनइ बरिन निहं जाई॥


संदु र खग गन िगरा सहु ाई। जात पिथक जनु लेत बोलाई॥

च वाक, बगुले आिद पि य का समुदाय देखते ही बनता है, उनका वणन नह िकया जा
सकता। सुंदर पि य क बोली बड़ी सुहावनी लगती है, मानो (रा ते म) जाते हए पिथक को
बुलाए लेती हो।

ताल समीप मिु न ह गहृ छाए। चह िदिस कानन िबटप सहु ाए॥
चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला॥

उस झील (पंपा सरोवर) के समीप मुिनय ने आ म बना रखे ह। उसके चार ओर वन के सुंदर
व ृ ह। चंपा, मौलिसरी, कदंब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आिद -

नव प लव कुसिु मत त नाना। चंचरीक पटली कर गाना॥


सीतल मंद सग
ु ंध सभ
ु ाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ॥

बहत कार के व ृ नए-नए प और (सुगंिधत) पु प से यु ह, (िजन पर) भ र के समहू


गुंजार कर रहे ह। वभाव से ही शीतल, मंद, सुगंिधत एवं मन को हरनेवाली हवा सदा बहती
रहती है।

कुह कुह कोिकल धुिन करह । सुिन रव सरस यान मुिन टरह ॥
कोयल 'कुह' 'कुह' का श द कर रही ह। उनक रसीली बोली सुनकर मुिनय का भी यान टूट
जाता है।

दो० - फल भारन निम िबटप सब रहे भूिम िनअराइ।


पर उपकारी पु ष िजिम नविहं सस
ु ंपित पाइ॥ 40॥

फल के बोझ से झुककर सारे व ृ प ृ वी के पास आ लगे ह, जैसे परोपकारी पु ष बड़ी संपि


पाकर (िवनय से) झुक जाते ह॥ 40॥

देिख राम अित िचर तलावा। म जनु क ह परम सख ु पावा॥


देखी संदु र त बर छाया। बैठे अनज
ु सिहत रघरु ाया॥

राम ने अ यंत संुदर तालाब देखकर नान िकया और परम सुख पाया। एक संुदर उ म व ृ क
छाया देखकर रघुनाथ छोटे भाई ल मण सिहत बैठ गए।

तहँ पिु न सकल देव मिु न आए। अ तिु त क र िनज धाम िसधाए॥
बैठे परम स न कृपाला। कहत अनज ु सन कथा रसाला॥

िफर वहाँ सब देवता और मुिन आए और तुित करके अपने-अपने धाम को चले गए। कृपालु राम
परम स न बैठे हए छोटे भाई ल मण से रसीली कथाएँ कह रहे ह।

िबरहवंत भगवंतिह देखी। नारद मन भा सोच िबसेषी॥


मोर साप क र अंगीकारा। सहत राम नाना दख
ु भारा॥

भगवान को िवरहयु देखकर नारद के मन म िवशेष प से सोच हआ। (उ ह ने िवचार िकया


िक) मेरे ही शाप को वीकार करके राम नाना कार के दुःख का भार सह रहे ह (दुःख उठा रहे
ह)।

ऐसे भिु ह िबलोकउँ जाई। पिु न न बिनिह अस अवस आई॥


यह िबचा र नारद कर बीना। गए जहाँ भु सख ु आसीना॥

ऐसे (भ व सल) भु को जाकर देखँ।ू िफर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह िवचार कर नारद
हाथ म वीणा िलए हए वहाँ गए, जहाँ भु सुखपवू क बैठे हए थे।

े सिहत बह भाँित बखानी॥


गावत राम च रत मदृ ु बानी। म
करत दंडवत िलए उठाई। राखे बहत बार उर लाई॥

वे कोमल वाणी से ेम के साथ बहत कार से बखान-बखान कर रामच रत का गान कर (ते हए


चले आ) रहे थे। दंडवत करते देखकर राम ने नारद को उठा िलया और बहत देर तक दय से
लगाए रखा।

वागत पँिू छ िनकट बैठारे । लिछमन सादर चरन पखारे ॥

ू कर पास बैठा िलया। ल मण ने आदर के साथ उनके चरण धोए।


िफर वागत (कुशल) पछ

दो० - नाना िबिध िबनती क र भु स न िजयँ जािन।


नारद बोले बचन तब जो र सरो ह पािन॥ 41॥

बहत कार से िवनती करके और भु को मन म स न जानकर तब नारद कमल के समान


हाथ को जोड़कर वचन बोले - ॥ 41॥

सनु ह उदार सहज रघन


ु ायक। संदु र अगम सग
ु म बर दायक॥
देह एक बर मागउँ वामी। ज िप जानत अंतरजामी॥

हे वभाव से ही उदार रघुनाथ! सुिनए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देनेवाले ह। हे वामी!


म एक वर माँगता हँ, वह मुझे दीिजए, य िप आप अंतयामी होने के नाते सब जानते ही ह।

जानह मिु न तु ह मोर सभ


ु ाऊ। जन सन कबहँ िक करऊँ दरु ाऊ॥
कवन ब तु अिस ि य मोिह लागी। जो मिु नबर न सकहँ तु ह मागी॥

(राम ने कहा - ) हे मुिन! तुम मेरा वभाव जानते ही हो। या म अपने भ से कभी कुछ िछपाव
करता हँ? मुझे ऐसी कौन-सी व तु ि य लगती है, िजसे हे मुिन े ! तुम नह माँग सकते?

जन कहँ कछु अदेय निहं मोर। अस िब वास तजह जिन भोर॥


तब नारद बोले हरषाई। अस बर मागउँ करउँ िढठाई॥

मुझे भ के िलए कुछ भी अदेय नह है। ऐसा िव ास भल ू कर भी मत छोड़ो। तब नारद हिषत


होकर बोले - म ऐसा वर माँगता हँ, यह ध ृ ता करता हँ -

ज िप भु के नाम अनेका। ुित कह अिधक एक त एका॥


राम सकल नाम ह ते अिधका। होउ नाथ अघ खग गन बिधका॥

य िप भु के अनेक नाम ह और वेद कहते ह िक वे सब एक-से-एक बढ़कर ह, तो भी हे नाथ!


रामनाम सब नाम से बढ़कर हो और पाप पी पि य के समहू के िलए यह विधक के समान हो।

दो० - राका रजनी भगित तव राम नाम सोइ सोम।


अपर नाम उडगन िबमल बसहँ भगत उर योम॥ 42(क)॥
आपक भि पिू णमा क राि है; उसम 'राम' नाम यही पण
ू चं मा होकर और अ य सब नाम
तारागण होकर भ के दय पी िनमल आकाश म िनवास कर॥ 42(क)॥

एवम तु मिु न सन कहेउ कृपािसंधु रघन


ु ाथ।
तब नारद मन हरष अित भु पद नायउ माथ॥ 42(ख)॥

कृपा सागर रघुनाथ ने मुिन से 'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहा। तब नारद ने मन म अ यंत हिषत
होकर भु के चरण म म तक नवाया॥ 42(ख)॥

अित स न रघन ु ाथिह जानी। पिु न नारद बोले मदृ ु बानी॥


राम जबिहं रे े उ िनज माया। मोहेह मोिह सन ु ह रघरु ाया॥

रघुनाथ को अ यंत स न जानकर नारद िफर कोमल वाणी बोले - हे राम! हे रघुनाथ! सुिनए,
जब आपने अपनी माया को े रत करके मुझे मोिहत िकया था,

तब िबबाह म चाहउँ क हा। भु केिह कारन करै न दी हा॥


सन
ु ु मिु न तोिह कहउँ सहरोसा। भजिहं जे मोिह तिज सकल भरोसा॥

तब म िववाह करना चाहता था। हे भु! आपने मुझे िकस कारण िववाह नह करने िदया? ( भु
बोले - ) हे मुिन! सुनो, म तु ह हष के साथ कहता हँ िक जो सम त आशा-भरोसा छोड़कर केवल
मुझको ही भजते ह,

करउँ सदा ित ह कै रखवारी। िजिम बालक राखइ महतारी॥


गह िससु ब छ अनल अिह धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई॥

म सदा उनक वैसे ही रखवाली करता हँ जैसे माता बालक क र ा करती है। छोटा ब चा जब
दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथ ) अलग करके बचा
लेती है।

ौढ़ भएँ तेिह सत
ु पर माता। ीित करइ निहं पािछिल बाता॥
मोर ौढ़ तनय सम यानी। बालक सत ु सम दास अमानी॥

सयाना हो जाने पर उस पु पर माता ेम तो करती है, परं तु िपछली बात नह रहती (अथात
मातपृ रायण िशशु क तरह िफर उसको बचाने क िचंता नह करती, य िक वह माता पर िनभर
न कर अपनी र ा आप करने लगता है)। ानी मेरे ौढ़ (सयाने) पु के समान है और (तु हारे
जैसा) अपने बल का मान न करनेवाला सेवक मेरे िशशु पु के समान है।

जनिह मोर बल िनज बल ताही। दहु कहँ काम ोध रपु आही॥


यह िबचा र पंिडत मोिह भजह । पाएहँ यान भगित निहं तजह ॥
मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे ( ानी को) अपना बल होता है। पर काम-
ोध पी श ु तो दोन के िलए ह। (भ के श ुओ ं को मारने क िज मेवारी मुझ पर रहती है,
य िक वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है; परं तु अपने बल को माननेवाले ानी के
श ुओ ं का नाश करने क िज मेवारी मुझ पर नह है।) ऐसा िवचार कर पंिडतजन (बुि मान
लोग) मुझको ही भजते ह। वे ान ा होने पर भी भि को नह छोड़ते।

दो० - काम ोध लोभािद मद बल मोह कै धा र।


ित ह महँ अित दा न दख
ु द माया पी ना र॥ 43॥

काम, ोध, लोभ और मद आिद मोह (अ ान) क बल सेना है। इनम माया िपणी (माया क
सा ात मिू त) ी तो अ यंत दा ण दुःख देनेवाली है॥ 43॥

सन
ु ु मिु न कह परु ान ुित संता। मोह िबिपन कहँ ना र बसंता॥
जप तप नेम जला य झारी। होइ ीषम सोषइ सब नारी॥

हे मुिन! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते ह िक मोह पी वन (को िवकिसत करने) #2325;◌े
िलए ी वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, िनयम पी संपण ू जल के थान को ी ी म प
होकर सवथा सोख लेती है।

काम ोध मद म सर भेका। इ हिह हरष द बरषा एका॥


दब
ु ासना कुमदु समदु ाई। ित ह कहँ सरद सदा सख
ु दाई॥

काम, ोध, मद और म सर (डाह) आिद मेढ़क ह। इनको वषा ऋतु होकर हष दान करनेवाली
एकमा यही ( ी) है। बुरी वासनाएँ कुमुद के समहू ह। उनको सदैव सुख देनेवाली यह शरद
ऋतु है।

धम सकल सरसी ह बंदृ ा। होइ िहम ित हिह दहइ सखु मंदा॥


पिु न ममता जवास बहताई। पलहु इ ना र िसिसर रतु पाई॥

सम त धम कमल के झुंड ह। यह नीच (िवषयज य) सुख देनेवाली ी िहमऋतु होकर उ ह


जला डालती है। िफर ममता पी जवास का समहू (वन) ी पी िशिशर ऋतु को पाकर हरा-भरा
हो जाता है।

पाप उलक ू िनकर सखु कारी। ना र िनिबड़ रजनी अँिधयारी॥


बिु ध बल सील स य सब मीना। बनसी सम ि य कहिहं बीना॥

पाप पी उ लुओ ं के समहू के िलए यह ी सुख देनेवाली घोर अंधकारमयी राि है। बुि , बल,
शील और स य - ये सब मछिलयाँ ह और उन (को फँसाकर न करने) के िलए ी बंसी के
समान है, चतुर पु ष ऐसा कहते ह।

दो० - अवगन
ु मूल सूल द मदा सब दख ु खािन।
ताते क ह िनवारन मिु न म यह िजयँ जािन॥ 44॥

युवती ी अवगुण क मल ू , पीड़ा देनेवाली और सब दुःख क खान है। इसिलए हे मुिन! मने जी
म ऐसा जानकर तुमको िववाह करने से रोका था॥ 44॥

ु ित के बचन सहु ाए। मिु न तन पल


सिु न रघप ु क नयन भ र आए॥
कहह कवन भु कै अिस रीती। सेवक पर ममता अ ीती॥

रघुनाथ के सुंदर वचन सुनकर मुिन का शरीर पुलिकत हो गया और ने ( ेमा ुओ ं के जल से)
भर आए। (वे मन-ही-मन कहने लगे - ) कहो तो िकस भु क ऐसी रीती है, िजसका सेवक पर
इतना मम व और ेम हो।

जे न भजिहं अस भु म यागी। यान रं क नर मंद अभागी॥


पिु न सादर बोले मिु न नारद। सन
ु ह राम िब यान िबसारद॥

जो मनु य म को यागकर ऐसे भु को नह भजते, वे ान के कंगाल, दुबुि और अभागे ह।


िफर नारद मुिन आदर सिहत बोले - हे िव ान-िवशारद राम! सुिनए -

संत ह के ल छन रघब ु ीरा। कहह नाथ भव भंजन भीरा॥


सनु ु मिु न संत ह के गनु कहऊँ। िज ह ते म उ ह क बस रहऊँ॥

हे रघुवीर! हे भव-भय (ज म-मरण के भय) का नाश करनेवाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संत के
ल ण किहए। (राम ने कहा - ) हे मुिन! सुनो, म संत के गुण को कहता हँ, िजनके कारण म
उनके वश म रहता हँ।

षट िबकार िजत अनघ अकामा। अचल अिकंचन सिु च सख


ु धामा॥
अिमत बोध अनीह िमतभोगी। स यसार किब कोिबद जोगी॥

वे संत (काम, ोध, लोभ, मोह, मद और म सर - इन) छह िवकार (दोष ) को जीते हए,
पापरिहत, कामनारिहत, िन ल (ि थरबुि ), अिकंचन (सव यागी), बाहर-भीतर से पिव , सुख
के धाम, असीम ानवान, इ छारिहत, िमताहारी, स यिन , किव, िव ान, योगी,

सावधान मानद मदहीना। धीर धम गित परम बीना॥

सावधान, दूसर को मान देनेवाले, अिभमानरिहत, धैयवान, धम के ान और आचरण म अ यंत


िनपुण,
दो० - गन ु रिहत िबगत संदहे ।
ु ागार संसार दख
तिज मम चरन सरोज ि य ित ह कहँ देह न गेह॥ 45॥

गुण के घर, संसार के दुःख से रिहत और संदेह से सवथा छूटे हए होते ह। मेरे चरण कमल को
छोड़कर उनको न देह ही ि य होती है, न घर ही॥ 45॥

िनज गन
ु वन सनु त सकुचाह । पर गनु सन ु त अिधक हरषाह ॥
सम सीतल निहं यागिहं नीती। सरल सभु ाउ सबिह सन ीित॥

कान से अपने गुण सुनने म सकुचाते ह, दूसर के गुण सुनने से िवशेष हिषत होते ह। सम और
शीतल ह, याय का कभी याग नह करते। सरल वभाव होते ह और सभी से ेम रखते ह।

जप तप त दम संजम नेमा। गु गोिबंद िब पद म े ा॥


ा छमा मय ी दाया। मिु दता मम पद ीित अमाया॥

वे जप, तप, त, दम, संयम और िनयम म रत रहते ह और गु , गोिवंद तथा ा ण के चरण म


ेम रखते ह। उनम ा, मा, मै ी, दया, मुिदता ( स नता) और मेरे चरण म िन कपट ेम
होता है।

िबरित िबबेक िबनय िब याना। बोध जथारथ बेद परु ाना॥


दंभ मान मद करिहं न काऊ। भूिल न देिहं कुमारग पाऊ॥

तथा वैरा य, िववेक, िवनय, िव ान (परमा मा के त व का ान) और वेद-पुराण का यथाथ ान


रहता है। वे दंभ, अिभमान और मद कभी नह करते और भल ू कर भी कुमाग पर पैर नह रखते।

गाविहं सन ु िहं सदा मम लीला। हेतु रिहत परिहत रत सीला॥


ु ु साधु ह के गन
मिु न सन ु जेत।े किह न सकिहं सादर ुित तेत॥े

सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते ह और िबना ही कारण दूसर के िहत म लगे रहनेवाले होते ह।
हे मुिन! सुनो, संत के िजतने गुण ह, उनको सर वती और वेद भी नह कह सकते।

छं ० - किह सक न सारद सेष नारद सन ु त पद पंकज गहे।


अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गन ु िनज मख ु कहे॥
िस नाइ बारिहं बार चरनि ह परु नारद गए।
ते ध य तल ु सीदास आस िबहाइ जे ह र रँ ग रँ ए॥

'शेष और शारदा भी नह कह सकते' यह सुनते ही नारद ने राम के चरणकमल पकड़ िलए।


दीनबंधु कृपालु भु ने इस कार अपने मुख से अपने भ के गुण कहे । भगवान के चरण म
बार-बार िसर नवाकर नारद लोक को चले गए। तुलसीदास कहते ह िक वे पु ष ध य ह, जो
सब आशा छोड़कर केवल ह र के रं ग म रँ ग गए ह।

दो० - रावना र जसु पावन गाविहं सन


ु िहं जे लोग।
राम भगित ढ़ पाविहं िबनु िबराग जप जोग॥ 46(क)॥

जो लोग रावण के श ु राम का पिव यश गाएँ गे और सुनगे, वे वैरा य, जप और योग के िबना


ही राम क ढ़ भि पाएँ गे॥ 46(क)॥

दीप िसखा सम जुबित तन मन जिन होिस पतंग।


भजिह राम तिज काम मद करिह सदा सतसंग॥ 46(ख)॥

युवती ि य का शरीर दीपक क लौ के समान है, हे मन! तू उसका पितंगा न बन। काम और
मद को छोड़कर राम का भजन कर और सदा स संग कर॥ 46(ख)॥

इितम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने ततृ ीयः सोपानः समा ः।

किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करने वाले रामच रतमानस का यह तीसरा सोपान समा
हआ।

(अर यकांड समा )


िकि कंधाकांड
कु दे दीवरसंदु रावितबलौ िव ानधामावुभौ
शोभाढ्यौ वरधि वनौ ुितनत ु ौ गोिव वंदृ ि यौ।
मायामानष ु िपणौ रघव ु रौ स मवम िहतौ
सीता वेषणत परौ पिथगतौ भि दौ तौ िह नः॥ 1॥

कंु दपु प और नीलकमल के समान सुंदर गौर एवं यामवण, अ यंत बलवान, िव ान के धाम,
शोभा संप न, े धनुधर, वेद के ारा वंिदत, गौ एवं ा ण के समहू के ि य (अथवा ेमी),
माया से मनु य प धारण िकए हए, े धम के िलए कवच व प, सबके िहतकारी, सीता क
खोज म लगे हए, पिथक प रघुकुल के े राम और ल मण दोन भाई िन य ही हम भि द
ह ॥ 1॥

ा भोिधसमु वं किलमल वंसनं चा ययं


ीम छ भम ु े दस
ु ख ु ंदु रवरे संशोिभतं सवदा।
संसारामयभेषजं सख ु करं ीजानक जीवनं
ध या ते कृितनः िपबंित सततं ीरामनामामत ृ म्॥ 2॥

वे सुकृती (पु या मा पु ष) ध य ह जो वेद पी समु (के मथने) से उ प न हए किलयुग के मल


को सवथा न कर देनेवाले, अिवनाशी, भगवान शंभु के सुंदर एवं े मुख पी चं मा म सदा
शोभायमान, ज म-मरण पी रोग के औषध, सबको सुख देनेवाले और ी जानक के जीवन
व प ी राम नाम पी अमत ृ का िनरं तर पान करते रहते ह॥ 2॥

सो० - मिु ज म मिह जािन यान खान अघ हािन कर।


जहँ बस संभु भवािन सो कासी सेइअ कस न॥

जहाँ िशव-पावती बसते ह, उस काशी को मुि क ज मभिू म, ान क खान और पाप का नाश


करनेवाली जानकर उसका सेवन य न िकया जाए?

जरत सकल सरु बंदृ िबषम गरल जेिहं पान िकय।


तेिह न भजिस मन मंद को कृपाल संकर स रस॥

िजस भीषण हलाहल िवष से सब देवतागण जल रहे थे उसको िज ह ने वयं पान कर िलया, रे
मंद मन! तू उन शंकर को य नह भजता? उनके समान कृपालु (और) कौन है?

आग चले बह र रघरु ाया। र यमूक पबत िनअराया॥


तहँ रह सिचव सिहत सु ीवा। आवत देिख अतल
ु बल स वा॥

रघुनाथ िफर आगे चले। ऋ यमकू पवत िनकट आ गया। वहाँ (ऋ यमक
ू पवत पर) मंि य सिहत
सु ीव रहते थे। अतुलनीय बल क सीमा राम और ल मण को आते देखकर -

अित सभीत कह सन ु ु हनम


ु ाना। पु ष जुगल बल प िनधाना॥
ध र बटु प देखु त जाई। कहेसु जािन िजयँ सयन बझ
ु ाई॥

सु ीव अ यंत भयभीत होकर बोले - हे हनुमान! सुनो, ये दोन पु ष बल और प के िनधान ह।


तुम चारी का प धारण करके जाकर देखो। अपने दय म उनक यथाथ बात जानकर मुझे
इशारे से समझाकर कह देना।

पठए बािल होिहं मन मैला। भाग तरु त तज यह सैला॥


िब प ध र किप तहँ गयऊ। माथ नाइ पूछत अस भयऊ॥

यिद वे मन के मिलन बािल के भेजे हए ह तो म तुरंत ही इस पवत को छोड़कर भाग जाऊँ। (यह
सुनकर) हनुमान ा ण का प धरकर वहाँ गए और म तक नवाकर इस कार पछ ू ने लगे -

को तु ह यामल गौर सरीरा। छ ी प िफरह बन बीरा॥


किठन भूिम कोमल पद गामी। कवन हेतु िबचरह बन वामी॥

हे वीर! साँवले और गोरे शरीरवाले आप कौन ह, जो ि य के प म वन म िफर रहे ह? हे


वामी! कठोर भिू म पर कोमल चरण से चलनेवाले आप िकस कारण वन म िवचर रहे ह?

मदृ ल
ु मनोहर संदु र गाता। सहत दस
ु ह बन आतप बाता ॥
क तु ह तीिन देव महँ कोऊ। नर नारायन क तु ह दोऊ॥

मन को हरण करनेवाले आपके सुंदर, कोमल अंग ह, और आप वन के दुःसह धपू और वायु को


सह रहे ह। या आप ा, िव णु, महे श - इन तीन देवताओं म से कोई ह, या आप दोन नर और
नारायण ह।

दो० - जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।


क तु ह अिखल भवु न पित ली ह मनज
ु अवतार॥ 1॥

अथवा आप जगत के मल ू कारण और संपण ू लोक के वामी वयं भगवान ह, िज ह ने लोग को


भवसागर से पार उतारने तथा प ृ वी का भार न करने के िलए मनु य प म अवतार िलया है?॥
1॥

कोसलेस दसरथ के जाए। हम िपतु बचन मािन बन आए॥


नाम राम लिछमन दोउ भाई। संग ना र सक
ु ु मा र सहु ाई॥

(राम ने कहा -) हम कोसलराज दशरथ के पु ह और िपता का वचन मानकर वन आए ह। हमारे


राम-ल मण नाम ह, हम दोन भाई ह। हमारे साथ सुंदर सुकुमारी ी थी।

इहाँ हरी िनिसचर बैदहे ी। िब िफरिहं हम खोजत तेही॥


आपन च रत कहा हम गाई। कहह िब िनज कथा बझ ु ाई॥

यहाँ (वन म) रा स ने (मेरी प नी) जानक को हर िलया। हे ा ण! हम उसे ही खोजते िफरते


ह। हमने तो अपना च र कह सुनाया। अब हे ा ण! अपनी कथा समझाकर किहए।

भु पिहचािन परे उ गिह चरना। सो सख


ु उमा जाइ निहं बरना॥
पल
ु िकत तन मख ु आव न बचना। देखत िचर बेष कै रचना॥

भु को पहचानकर हनुमान उनके चरण पकड़कर प ृ वी पर िगर पड़े । (िशव कहते ह -) हे


पावती! वह सुख वणन नह िकया जा सकता। शरीर पुलिकत है, मुख से वचन नह िनकलता। वे
भु के सुंदर वेष क रचना देख रहे ह!

पिु न धीरजु ध र अ तिु त क ही। हरष दयँ िनज नाथिह ची ही॥


मोर याउ म पूछा साई ं। तु ह पूछह कस नर क नाई ं॥

िफर धीरज धर कर तुित क । अपने नाथ को पहचान लेने से दय म हष हो रहा है। (िफर
हनुमान ने कहा -) हे वामी! मने जो पछ
ू ा वह मेरा पछ
ू ना तो याय था, परं तु आप मनु य क
तरह कैसे पछ
ू रहे ह?

तव माया बस िफरउँ भुलाना। ताते म निहं भु पिहचाना॥

म तो आपक माया के वश भल
ू ा िफरता हँ; इसी से मने अपने वामी (आप) को नह पहचाना।

दो० - एकु म मंद मोहबस कुिटल दय अ यान।


पिु न भु मोिह िबसारे उ दीनबंधु भगवान॥ 2॥

एक तो म य ही मंद हँ, दूसरे मोह के वश म हँ, तीसरे दय का कुिटल और अ ान हँ, िफर हे


दीनबंधु भगवान! भु (आप) ने भी मुझे भुला िदया!॥ 2॥

जदिप नाथ बह अवगन ु मोर। सेवक भिु ह परै जिन भोर॥


नाथ जीव तव मायाँ मोहा। सो िन तरइ तु हारे िहं छोहा॥

हे नाथ! य िप मुझ म बहत-से अवगुण ह, तथािप सेवक वामी क िव मिृ त म न पड़े (आप उसे
न भल
ू जाएँ )। हे नाथ! जीव आपक माया से मोिहत है। वह आप ही क कृपा से िन तार पा
सकता है।

ता पर म रघब
ु ीर दोहाई। जानउँ निहं कछु भजन उपाई॥
सेवक सतु पित मातु भरोस। रहइ असोच बनइ भु पोस॥

उस पर हे रघुवीर! म आपक दुहाई (शपथ) करके कहता हँ िक म भजन-साधन कुछ नह


जानता। सेवक वामी के और पु माता के भरोसे िनि ंत रहता है। भु को सेवक का पालन-
पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)।

अस किह परे उ चरन अकुलाई। िनज तनु गिट ीित उर छाई॥


तब रघप
ु ित उठाई उर लावा। िनज लोचन जल स िच जुड़ावा॥

ऐसा कहकर हनुमान अकुलाकर भु के चरण पर िगर पड़े , उ ह ने अपना असली शरीर कट
कर िदया। उनके दय म ेम छा गया। तब रघुनाथ ने उ ह उठाकर दय से लगा िलया और
अपने ने के जल से स चकर शीतल िकया।

सन
ु ु किप िजयँ मानिस जिन ऊना। त मम ि य लिछमन ते दूना॥
समदरसी मोिह कह सब कोऊ। सेवक ि य अन य गित सोऊ॥

(िफर कहा -) हे किप! सुनो, मन म लािन मत मानना (मन छोटा न करना)। तुम मुझे ल मण
से भी दूने ि य हो। सब कोई मुझे समदश कहते ह (मेरे िलए न कोई ि य है न अि य) पर मुझको
सेवक ि य है, य िक वह अन यगित होता है (मुझे छोड़कर उसको कोई दूसरा सहारा नह
होता)।

दो० - सो अन य जाक अिस मित न टरइ हनम


ु ंत।
म सेवक सचराचर प वािम भगवंत॥ 3॥

और हे हनुमान! अन य वही है िजसक ऐसी बुि कभी नह टलती िक म सेवक हँ और यह


चराचर (जड़-चेतन) जगत मेरे वामी भगवान का प है॥ 3॥

देिख पवनसतु पित अनक


ु ू ला। दयँ हरष बीती सब सूला॥
नाथ सैल पर किपपित रहई। सो सु ीव दास तव अहई॥

वामी को अनुकूल ( स न) देखकर पवन कुमार हनुमान के दय म हष छा गया और उनके


सब दुःख जाते रहे । (उ ह ने कहा -) हे नाथ! इस पवत पर वानरराज सु ीव रहते ह, वह आपका
दास है।

तेिह सन नाथ मय ी क जे। दीन जािन तेिह अभय करीजे॥


सो सीता कर खोज कराइिह। जहँ तहँ मरकट कोिट पठाइिह॥

हे नाथ! उससे िम ता क िजए और उसे दीन जानकर िनभय कर दीिजए। वह सीता क खोज
करवाएगा और जहाँ-तहाँ करोड़ वानर को भेजेगा।

एिह िबिध सकल कथा समझ ु ाई। िलए दऔ


ु जन पीिठ चढ़ाई॥
जब सु ीवँ राम कहँ देखा। अितसय ज म ध य क र लेखा॥

इस कार सब बात समझाकर हनुमान ने (राम-ल मण) दोन जन को पीठ पर चढ़ा िलया। जब
सु ीव ने राम को देखा तो अपने ज म को अ यंत ध य समझा।

सादर िमलेउ नाइ पद माथा। भटेउ अनज


ु सिहत रघन ु ाथा॥
किप कर मन िबचार एिह रीती। क रहिहं िबिध मो सन ए ीती॥

सु ीव चरण म म तक नवाकर आदर सिहत िमले। रघुनाथ भी छोटे भाई सिहत उनसे गले
लगकर िमले। सु ीव मन म इस कार सोच रहे ह िक हे िवधाता! या ये मुझसे ीित करगे?

दो० - तब हनम
ु ंत उभय िदिस क सब कथा सन
ु ाइ।
पावक साखी देइ क र जोरी ीित ढ़ाइ॥ 4॥

तब हनुमान ने दोन ओर क सब कथा सुनाकर अि न को सा ी देकर पर पर ढ़ करके ीित


जोड़ दी (अथात अि न क सा ी देकर ित ापवू क उनक मै ी करवा दी)॥ 4॥

क ि ह ीित कछु बीच न राखा। लिछमन राम च रत सब भाषा॥


कह सु ीव नयन भ र बारी। िमिलिह नाथ िमिथलेसकुमारी॥

दोन ने ( दय से) ीित क , कुछ भी अंतर नह रखा। तब ल मण ने राम का सारा इितहास


कहा। सु ीव ने ने म जल भरकर कहा - हे नाथ! िमिथलेशकुमारी जानक िमल जाएँ गी।

मंि ह सिहत इहाँ एक बारा। बैठ रहेउँ म करत िबचारा॥


गगन पंथ देखी म जाता। परबस परी बहत िबलपाता॥

म एक बार यहाँ मंि य के साथ बैठा हआ कुछ िवचार कर रहा था। तब मने पराए के वश म पड़ी
बहत िवलाप करती हई सीता को आकाश माग से जाते देखा था।

राम राम हा राम पक ु ारी। हमिह देिख दी हेउ पट डारी॥


मागा राम तरु त तेिहं दी हा। पट उर लाइ सोच अित क हा॥

हम देखकर उ ह ने 'राम! राम! हा राम!' पुकारकर व िगरा िदया था। राम ने उसे माँगा, तब
सु ीव ने तुरंत ही दे िदया। व को दय से लगाकर राम ने बहत ही सोच िकया।

कह सु ीव सन
ु ह रघब
ु ीरा। तजह सोच मन आनह धीरा॥
सब कार क रहउँ सेवकाई। जेिह िबिध िमिलिह जानक आई॥

सु ीव ने कहा - हे रघुवीर! सुिनए, सोच छोड़ दीिजए और मन म धीरज लाइए। म सब कार से


आपक सेवा क ँ गा, िजस उपाय से जानक आकर आपको िमल।

दो० - सखा बचन सिु न हरषे कृपािसंधु बलस व।


कारन कवन बसह बन मोिह कहह सु ीव॥ 5॥

कृपा के समु और बल क सीमा राम सखा सु ीव के वचन सुनकर हिषत हए। (और बोले -) हे
सु ीव! मुझे बताओ, तुम वन म िकस कारण रहते हो?॥ 5॥

नाथ बािल अ म ौ भाइ। ीित रही कछु बरिन न जाई॥


मयसतु मायावी तेिह नाऊँ। आवा सो भु हमर गाऊँ॥

(सु ीव ने कहा -) हे नाथ! बािल और म दो भाई ह। हम दोन म ऐसी ीित थी िक वणन नह क


जा सकती। हे भो! मय दानव का एक पु था, उसका नाम मायावी था। एक बार वह हमारे गाँव
म आया।

अध राित परु ार पकु ारा। बाली रपु बल सहै न पारा॥


धावा बािल देिख सो भागा। म पिु न गयउँ बंधु सँग लागा॥

उसने आधी रात को नगर के फाटक पर आकर पुकारा (ललकारा)। बािल श ु के बल (ललकार)
को सह नह सका। वह दौड़ा, उसे देखकर मायावी भागा। म भी भाई के संग लगा चला गया।

िग रबर गहु ाँ पैठ सो जाई। तब बाल मोिह कहा बझ


ु ाई॥
प रखेसु मोिह एक पखवारा। निहं आव तब जानेसु मारा॥

वह मायावी एक पवत क गुफा म जा घुसा। तब बािल ने मुझे समझाकर कहा - तुम एक पखवाड़े
(पंदरह िदन) तक मेरी बाट देखना। यिद म उतने िदन म न आऊँ तो जान लेना िक म मारा
गया।

मास िदवस तहँ रहेउँ खरारी। िनसरी िधर धार तहँ भारी॥
बािल हतेिस मोिह मा रिह आई। िसला देइ तहँ चलेउँ पराई॥

हे खरा र! म वहाँ महीने भर तक रहा। वहाँ (उस गुफा म से) र क बड़ी भारी धारा िनकली। तब
(मने समझा िक) उसने बािल को मार डाला, अब आकर मुझे मारे गा। इसिलए म वहाँ (गुफा के
ार पर) एक िशला लगाकर भाग आया।

मंि ह परु देखा िबनु साई ं। दी हेउ मोिह राज ब रआई ं॥


बाली तािह मा र गहृ आवा। देिख मोिह िजयँ भेद बढ़ावा॥

मंि य ने नगर को िबना वामी (राजा) का देखा, तो मुझको जबद ती रा य दे िदया। बािल उसे
मारकर घर आ गया। मुझे (राजिसंहासन पर) देखकर उसने जी म भेद बढ़ाया (बहत ही िवरोध
माना)। (उसने समझा िक यह रा य के लोभ से ही गुफा के ार पर िशला दे आया था, िजससे म
बाहर न िनकल सकँ ू और यहाँ आकर राजा बन बैठा)।

रपु सम मोिह मारे िस अित भारी। ह र ली हिस सबसु अ नारी॥


ताक भय रघबु ीर कृपाला। सकल भव ु न म िफरे उँ िबहाला॥

उसने मुझे श ु के समान बहत अिधक मारा और मेरा सव व तथा मेरी ी को भी छीन िलया। हे
कृपालु रघुवीर! म उसके भय से सम त लोक म बेहाल होकर िफरता रहा।

इहाँ साप बस आवत नाह । तदिप सभीत रहउँ मन माह ॥


सनु सेवक दःु ख दीनदयाला फरिक उठ ै भजु ा िबसाला॥

वह शाप के कारण यहाँ नह आता, तो भी म मन म भयभीत रहता हँ। सेवक का दुःख सुनकर
दीन पर दया करनेवाले रघुनाथ क दोन िवशाल भुजाएँ फड़क उठ ।

दो० - सन
ु ु सु ीव मा रहउँ बािलिह एकिहं बान।
सरनागत गएँ न उब रिहं ान॥ 6॥

(उ ह ने कहा -) हे सु ीव! सुनो, म एक ही बाण से बािल को मार डालँग


ू ा। ा और क
शरण म जाने पर भी उसके ाण न बचगे॥ 6॥

जे न िम दखु होिहं दख
ु ारी। ित हिह िबलोकत पातक भारी॥
िनज दखु िग र सम रज क र जाना। िम क दख ु रज मे समाना॥

जो लोग िम के दुःख से दुःखी नह होते, उ ह देखने से ही बड़ा पाप लगता है। अपने पवत के
ू के समान और िम के धल
समान दुःख को धल ू के समान दुःख को सुमे (बड़े भारी पवत) के
समान जाने।

िज ह क अिस मित सहज न आई। ते सठ कत हिठ करत िमताई॥


कुपथ िनवा र सप
ु ंथ चलावा। गन
ु गटै अवगन
ु ि ह दरु ावा॥

िज ह वभाव से ही ऐसी बुि ू हठ करके य िकसी से िम ता करते ह?


ा नह है, वे मख
िम का धम है िक वह िम को बुरे माग से रोककर अ छे माग पर चलावे। उसके गुण कट करे
और अवगुण को िछपावे।

देत लेत मन संक न धरई। बल अनम ु ान सदा िहत करई॥


िबपित काल कर सतगन ु नेहा। ुित कह संत िम गन ु एहा॥

देने-लेने म मन म शंका न रखे। अपने बल के अनुसार सदा िहत ही करता रहे । िवपि के समय
तो सदा सौगुना नेह करे । वेद कहते ह िक संत ( े ) िम के गुण (ल ण) ये ह।

आग कह मदृ ु बचन बनाई। पाछ अनिहत मन कुिटलाई॥


जाकर िचत अिह गित सम भाई। अस कुिम प रहरे िहं भलाई॥

जो सामने तो बना-बनाकर कोमल वचन कहता है और पीठ-पीछे बुराई करता है तथा मन म


कुिटलता रखता है - हे भाई! (इस तरह) िजसका मन साँप क चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे
कुिम को तो यागने म ही भलाई है।

सेवक सठ नप
ृ कृपन कुनारी। कपटी िम सूल सम चारी॥
सखा सोच यागह बल मोर। सब िबिध घटब काज म तोर॥

मखू सेवक, कंजस ू राजा, कुलटा ी और कपटी िम - ये चार शल ू के समान पीड़ा देनेवाले ह।
हे सखा! मेरे बल पर अब तुम िचंता छोड़ दो। म सब कार से तु हारे काम आऊँगा (तु हारी
सहायता क ँ गा)।

कह सु ीव सन ु ह रघब
ु ीरा। बािल महाबल अित रनधीरा॥
ददुं िु भ अि थ ताल देखराए। िबनु यास रघन ु ाथ ढहाए॥

सु ीव ने कहा - हे रघुवीर! सुिनए, बािल महान बलवान और अ यंत रणधीर है। िफर सु ीव ने
राम को दुंदुिभ रा स क हड्िडयाँ व ताल के व ृ िदखलाए। रघुनाथ ने उ ह िबना ही प र म के
(आसानी से) ढहा िदया।

देिख अिमत बल बाढ़ी ीती। बािल बधब इ ह भइ परतीती॥


बार-बार नावइ पद सीसा। भिु ह जािन मन हरष कपीसा॥

राम का अप रिमत बल देखकर सु ीव क ीित बढ़ गई और उ ह िव ास हो गया िक ये बािल


का वध अव य करगे। वे बार-बार चरण म िसर नवाने लगे। भु को पहचानकर सु ीव मन म
हिषत हो रहे थे।

उपजा यान बचन तब बोला। नाथ कृपाँ मन भयउ अलोला॥


सख
ु संपित प रवार बड़ाई। सब प रह र क रहउँ सेवकाई॥
जब ान उ प न हआ तब वे ये वचन बोले िक हे नाथ! आपक कृपा से अब मेरा मन ि थर हो
गया। सुख, संपि , प रवार और बड़ाई (बड़ पन) सबको यागकर म आपक सेवा ही क ँ गा।

ए सब राम भगित के बाधक। कहिहं संत तव पद अवराधक॥


स ु िम सखु दख
ु जग माह । मायाकृत परमारथ नाह ॥

य िक आपके चरण क आराधना करनेवाले संत कहते ह िक ये सब (सुख-संपि आिद) राम


भि के िवरोधी ह। जगत म िजतने भी श ु-िम और सुख-दुःख (आिद ं ) ह, सब के सब
मायारिचत ह, परमाथतः (वा तव म) नह ह।

बािल परम िहत जासु सादा। िमलेह राम तु ह समन िबषादा॥


सपन जेिह सन होइ लराई। जाग समझ ु त मन सकुचाई॥

हे राम! बािल तो मेरा परम िहतकारी है, िजसक कृपा से शोक का नाश करनेवाले आप मुझे िमले
और िजसके साथ अब व न म भी लड़ाई हो तो जागने पर उसे समझकर मन म संकोच होगा
(िक व न म भी म उससे य लड़ा)।

अब भु कृपा करह एिह भाँित। सब तिज भजनु कर िदन राती॥


सिु न िबराग संजत
ु किप बानी। बोले िबहँिस रामु धनप
ु ानी॥

हे भो! अब तो इस कार कृपा क िजए िक सब छोड़कर िदन-रात म आपका भजन ही क ँ ।


सु ीव क वैरा ययु वाणी सुनकर (उसके िणक वैरा य को देखकर) हाथ म धनुष धारण
करनेवाले राम मुसकराकर बोले -

जो कछु कहेह स य सब सोई। सखा बचन मम मष ृ ा न होई॥


नट मरकट इव सबिह नचावत। रामु खगेस बेद अस गावत॥

तुमने जो कुछ कहा है, वह सभी स य है; परं तु हे सखा! मेरा वचन िम या नह होता (अथात
बािल मारा जाएगा और तु ह रा य िमलेगा)। (काकभुशुंिड कहते ह िक -) हे पि य के राजा
ग ड़! नट (मदारी) के बंदर क तरह राम सबको नचाते ह, वेद ऐसा कहते ह।

लै सु ीव संग रघन
ु ाथा। चले चाप सायक गिह हाथा॥
तब रघपु ित सु ीव पठावा। गजिस जाइ िनकट बल पावा॥

तदनंतर सु ीव को साथ लेकर और हाथ म धनुष-बाण धारण करके रघुनाथ चले। तब रघुनाथ
ने सु ीव को बािल के पास भेजा। वह राम का बल पाकर बािल के िनकट जाकर गरजा।

सन
ु त बािल ोधातरु धावा। गिह कर चरन ना र समझ
ु ावा॥
सन
ु ु पित िज हिह िमलेउ सु ीवा। ते ौ बंधु तेज बल स वा॥

बािल सुनते ही ोध म भरकर वेग से दौड़ा। उसक ी तारा ने चरण पकड़कर उसे समझाया
िक हे नाथ! सुिनए, सु ीव िजनसे िमले ह वे दोन भाई तेज और बल क सीमा ह।

कोसलेस सुत लिछमन रामा। कालह जीित सकिहं सं ामा॥

वे कोसलाधीश दशरथ के पु राम और ल मण सं ाम म काल को भी जीत सकते ह।

दो० - कह बाली सन
ु ु भी ि य समदरसी रघन ु ाथ।
ज कदािच मोिह मारिहं तौ पिु न होउँ सनाथ॥ 7॥

बािल ने कहा - हे भी ! (डरपोक) ि ये! सुनो, रघुनाथ समदश ह। जो कदािचत वे मुझे मारगे ही
तो म सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥ 7॥

अस किह चला महा अिभमानी। तन ृ समान सु ीविह जानी॥


िभरे उभौ बाली अित तजा। मिु ठका मा र महाधिु न गजा॥

ऐसा कहकर वह महान अिभमानी बािल सु ीव को ितनके के समान जानकर चला। दोन िभड़
गए। बािल ने सु ीव को बहत धमकाया और घँस
ू ा मारकर बड़े जोर से गरजा।

तब सु ीव िबकल होइ भागा। मिु हार ब सम लागा॥


म जो कहा रघब
ु ीर कृपाला। बंधु न होइ मोर यह काला॥

तब सु ीव याकुल होकर भागा। घँस ू े क चोट उसे व के समान लगी। (सु ीव ने आकर कहा -)
हे कृपालु रघुवीर! मने आपसे पहले ही कहा था िक बािल मेरा भाई नह है, काल है।

एक प तु ह ाता दोऊ। तेिह म त निहं मारे उँ सोऊ॥


कर परसा सु ीव सरीरा। तनु भा कुिलस गई सब पीरा॥

(राम ने कहा -) तुम दोन भाइय का एक-सा ही प है। इसी म से मने उसको नह मारा। िफर
राम ने सु ीव के शरीर को हाथ से पश िकया, िजससे उसका शरीर व के समान हो गया और
सारी पीड़ा जाती रही।

मेली कंठ सम ु न कै माला। पठवा पिु न बल देइ िबसाला॥


पिु न नाना िबिध भई लराई। िबटप ओट देखिहं रघरु ाई॥

तब राम ने सु ीव के गले म फूल क माला डाल दी और िफर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा।
दोन म पुनः अनेक कार से यु हआ। रघुनाथ व ृ क आड़ से देख रहे थे।
दो० - बह छल बल सु ीव कर िहयँ हारा भय मािन।
मारा बािल राम तब दय माझ सर तािन॥ 8॥

सु ीव ने बहत-से छल-बल िकए, िकंतु (अंत म) भय मानकर दय से हार गया। तब राम ने


तानकर बािल के दय म बाण मारा॥ 8॥

परा िबकल मिह सर के लाग। पिु न उिठ बैठ देिख भु आगे॥


याम गात िसर जटा बनाएँ । अ न नयन सर चाप चढ़ाएँ ॥

बाण के लगते ही बािल याकुल होकर प ृ वी पर िगर पड़ा। िकंतु भु राम को आगे देखकर वह
िफर उठ बैठा। भगवान का याम शरीर है, िसर पर जटा बनाए ह, लाल ने ह, बाण िलए ह और
धनुष चढ़ाए ह।

पिु न पिु न िचतइ चरन िचत दी हा। सफ


ु ल ज म माना भु ची हा॥
दयँ ीित मख ु बचन कठोरा। बोला िचतइ राम क ओरा॥

बािल ने बार-बार भगवान क ओर देखकर िच को उनके चरण म लगा िदया। भु को


पहचानकर उसने अपना ज म सफल माना। उसके दय म ीित थी, पर मुख म कठोर वचन थे।
वह राम क ओर देखकर बोला -

धम हेतु अवतरे ह गोसाई ं। मारे ह मोिह याध क नाई ं॥


म बैरी सु ीव िपआरा। अवगन ु कवन नाथ मोिह मारा॥

हे गोसाई ं! आपने धम क र ा के िलए अवतार िलया है और मुझे याध क तरह (िछपकर) मारा?
म बैरी और सु ीव यारा? हे नाथ! िकस दोष से आपने मुझे मारा?

अनजु बधू भिगनी सत


ु नारी। सन
ु ु सठ क या सम ए चारी॥
इ हिह कु ि िबलोकइ जोई। तािह बध कछु पाप न होई॥

(राम ने कहा -) हे मख
ू ! सुन, छोटे भाई क ी, बिहन, पु क ी और क या - ये चार समान
ह। इनको जो कोई बुरी ि से देखता है, उसे मारने म कुछ भी पाप नह होता।

मूढ़ तोिह अितसय अिभमाना। ना र िसखावन करिस न काना॥


मम भजु बल आि त तेिह जानी। मारा चहिस अधम अिभमानी॥

ू ! तुझे अ यंत अिभमान है। तन


हे मढ़ ू े अपनी ी क सीख पर भी कान ( यान) नह िदया। सु ीव
को मेरी भुजाओं के बल का आि त जानकर भी अरे अधम अिभमानी! तन ू े उसको मारना चाहा!

दो० - सन
ु ह राम वामी सन चल न चातरु ी मो र।
भु अजहँ म पापी अंतकाल गित तो र॥ 9॥

(बािल ने कहा -) हे राम! सुिनए, वामी (आप) से मेरी चतुराई नह चल सकती। हे भो!
अंतकाल म आपक गित (शरण) पाकर म अब भी पापी ही रहा?॥ 9॥

सन
ु त राम अित कोमल बानी। बािल सीस परसेउ िनज पानी॥
अचल कर तनु राखह ाना। बािल कहा सन ु ु कृपािनधाना॥

बािल क अ यंत कोमल वाणी सुनकर राम ने उसके िसर को अपने हाथ से पश िकया (और
कहा -) म तु हारे शरीर को अचल कर दँू, तुम ाण को रखो। बािल ने कहा - हे कृपािनधान!
सुिनए -

ज म ज म मिु न जतनु कराह । अंत राम किह आवत नाह ॥


जासु नाम बल संकर कासी। देत सबिह सम गित अिबनासी॥

मुिनगण ज म-ज म म ( येक ज म म) (अनेक कार का) साधन करते रहते ह। िफर भी
अंतकाल म उ ह 'राम' नह कह आता (उनके मुख से राम नाम नह िनकलता)। िजनके नाम के
बल से शंकर काशी म सबको समान प से अिवनािशनी गित (मुि ) देते ह।

मम लोचन गोचर सोई आवा। बह र िक भु अस बिनिह बनावा॥

वह राम वयं मेरे ने के सामने आ गए ह। हे भो! ऐसा संयोग या िफर कभी बन पड़े गा?

छं ० - सो नयन गोचर जासु गन


ु िनत नेित किह ुित गावह ।
िजित पवन मन गो िनरस क र मिु न यान कबहँक पावह ॥
मोिह जािन अित अिभमान बस भु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हिठ कािट सरु त बा र क रिह बबूरही॥

ुितयाँ 'नेित-नेित' कहकर िनरं तर िजनका गुणगान करती रहती ह, तथा ाण और मन को


जीतकर एवं इंि य को (िवषय के रस से सवथा) नीरस बनाकर मुिनगण यान म िजनक कभी
विचत ही झलक पाते ह, वे ही भु (आप) सा ात मेरे सामने कट ह। आपने मुझे अ यंत
अिभमानवश जानकर यह कहा िक तुम शरीर रख लो। परं तु ऐसा मख ू कौन होगा जो हठपवू क
क पव ृ को काटकर उससे बबरू के बाड़ लगावेगा (अथात पण ू काम बना देनेवाले आपको
छोड़कर आपसे इस न र शरीर क र ा चाहे गा)?

अब नाथ क र क ना िबलोकह देह जो बर मागऊँ।


जेिह जोिन ज म कम बस तहँ राम पद अनरु ागऊँ॥
यह तनय मम सम िबनय बल क यान द भु लीिजऐ।
गिह बाँह सरु नर नाह आपन दास अंगद क िजऐ॥

हे नाथ! अब मुझ पर दया ि क िजए और म जो वर माँगता हँ उसे दीिजए। म कमवश िजस


योिन म ज म लँ,ू वह राम (आप) के चरण म ेम क ँ ! हे क याण द भो! यह मेरा पु अंगद
िवनय और बल म मेरे ही समान है, इसे वीकार क िजए। और हे देवता और मनु य के नाथ! बाँह
पकड़कर इसे अपना दास बनाइए।

दो० - राम चरन ढ़ ीित क र बािल क ह तनु याग।


समु न माल िजिम कंठ ते िगरत न जानइ नाग॥ 10॥

राम के चरण म ढ़ ीित करके बािल ने शरीर को वैसे ही (आसानी से) याग िदया जैसे हाथी
अपने गले से फूल क माला का िगरना न जाने॥ 10॥

राम बािल िनज धाम पठावा। नगर लोग सब याकुल धावा॥


नाना िबिध िबलाप कर तारा। छूटे केस न देह सँभारा॥

राम ने बािल को अपने परम धाम भेज िदया। नगर के सब लोग याकुल होकर दौड़े । बािल क
ी तारा अनेक कार से िवलाप करने लगी। उसके बाल िबखरे हए ह और देह क सँभाल नह
है।

तारा िबकल देिख रघरु ाया। दी ह यान ह र ली ही माया॥


िछित जल पावक गगन समीरा। पंच रिचत अित अधम सरीरा॥

तारा को याकुल देखकर रघुनाथ ने उसे ान िदया और उसक माया (अ ान) हर ली। (उ ह ने
कहा -) प ृ वी, जल, अि न, आकाश और वायु - इन पाँच त व से यह अ यंत अधम शरीर रचा
गया है।

गट सो तनु तव आगे सोवा। जीव िन य केिह लिग तु ह रोवा॥


उपजा यान चरन तब लागी। ली हेिस परम भगित बर मागी॥

वह शरीर तो य तु हारे सामने सोया हआ है, और जीव िन य है। िफर तुम िकसके िलए रो
रही हो? जब ान उ प न हो गया, तब वह भगवान के चरण लगी और उसने परम भि का वर
माँग िलया।

उमा दा जोिषत क नाई ं। सबिह नचावत रामु गोसाई ं॥


तब सु ीविह आयसु दी हा। मत
ृ क कम िबिधवत सब क हा॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! वामी राम सबको कठपुतली क तरह नचाते ह। तदनंतर राम ने
सु ीव को आ ा दी और सु ीव ने िविधपवू क बािल का सब मत
ृ क कम िकया।
राम कहा अनज ु िह समझ
ु ाई। राज देह सु ीविह जाई॥
रघपु ित चरन नाइ क र माथा। चले सकल े रत रघन ु ाथा॥

तब राम ने छोटे भाई ल मण को समझाकर कहा िक तुम जाकर सु ीव को रा य दे दो। रघुनाथ


क ेरणा (आ ा) से सब लोग रघुनाथ के चरण म म तक नवाकर चले।

दो० - लिछमन तरु त बोलाए परु जन िब समाज।


राजु दी ह सु ीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥ 11॥

ल मण ने तुरंत ही सब नगरवािसय को और ा ण के समाज को बुला िलया और (उनके


सामने) सु ीव को रा य और अंगद को युवराज-पद िदया॥ 11॥

उमा राम सम हत जग माह । गु िपतु मातु बंधु भु नाह ॥


सरु नर मिु न सब कै यह रीती। वारथ लािग करिहं सब ीित॥

हे पावती! जगत म राम के समान िहत करनेवाला गु , िपता, माता, बंधु और वामी कोई नह
है। देवता, मनु य और मुिन सबक यह रीित है िक वाथ के िलए ही सब ीित करते ह।

बािल ास याकुल िदन राती। तन बह न िचंताँ जर छाती॥


सोइ सु ीव क ह किपराऊ। अित कृपाल रघब
ु ीर सभ
ु ाऊ॥

जो सु ीव िदन-रात बािल के भय से याकुल रहता था, िजसके शरीर म बहत-से घाव हो गए थे


और िजसक छाती िचंता के मारे जला करती थी, उसी सु ीव को उ ह ने वानर का राजा बना
िदया। राम का वभाव अ यंत ही कृपालु है।

जानतहँ अस भु प रहरह । काहे न िबपित जाल नर परह ॥


पिु न सु ीविह ली ह बोलाई। बह कार नप
ृ नीित िसखाई॥

जो लोग जानते हए भी ऐसे भु को याग देते ह, वे य न िवपि के जाल म फँस? िफर राम ने
सु ीव को बुला िलया और बहत कार से उ ह राजनीित क िश ा दी।

कह भु सन
ु ु सु ीव हरीसा। परु न जाउँ दस चा र बरीसा॥
गत ीषम बरषा रतु आई। रिहहउँ िनकट सैल पर छाई॥

िफर भु ने कहा - हे वानरपित सु ीव! सुनो, म चौदह वष तक गाँव (ब ती) म नह जाऊँगा।


ी मऋतु बीतकर वषाऋतु आ गई। अतः म यहाँ पास ही पवत पर िटक रहँगा।

अंगद सिहत करह तु ह राजू। संतत दयँ धरे ह मम काजू॥


जब सु ीव भवन िफ र आए। रामु बरषन िग र पर छाए॥

तुम अंगद सिहत रा य करो। मेरे काम का दय म सदा यान रखना। तदनंतर जब सु ीव घर
लौट आए, तब राम वषण पवत पर जा िटके।

दो० - थमिहं देव ह िग र गहु ा राखेउ िचर बनाइ।


राम कृपािनिध कछु िदन बास करिहंगे आइ॥ 12॥

देवताओं ने पहले से ही उस पवत क एक गुफा को सुंदर बना (सजा) रखा था। उ ह ने सोच रखा
था िक कृपा क खान राम कुछ िदन यहाँ आकर िनवास करगे॥ 12॥

संदु र बन कुसिु मत अित सोभा। गंज


ु त मधप
ु िनकर मधु लोभा॥
कंद मूल फल प सहु ाए। भए बहत जब ते भु आए॥

संुदर वन फूला हआ अ यंत सुशोिभत है। मधु के लोभ से भ र के समहू गंुजार कर रहे ह। जब से
भु आए, तब से वन म सुंदर कंद, मल
ू , फल और प क बहतायत हो गई।

देिख मनोहर सैल अनूपा। रहे तहँ अनज


ु सिहत सरु भूपा॥
मधक ृ तनु ध र देवा। करिहं िस मिु न भु कै सेवा॥
ु र खग मग

मनोहर और अनुपम पवत को देखकर देवताओं के स ाट राम छोटे भाई सिहत वहाँ रह गए।
देवता, िस और मुिन भ र , पि य और पशुओ ं के शरीर धारण करके भु क सेवा करने लगे।

मंगल प भयउ बन तब ते। क ह िनवास रमापित जब ते॥


फिटक िसला अित सु सहु ाई। सख
ु आसीन तहाँ ौ भाई॥

जब से रमापित राम ने वहाँ िनवास िकया तब से वन मंगल व प हो गया। सुंदर फिटक मिण
क एक अ यंत उ वल िशला है, उस पर दोन भाई सुखपवू क िवराजमान ह।

कहत अनजु सन कथा अनेका। भगित िबरत नपृ नीित िबबेका॥


बरषा काल मेघ नभ छाए। गरजत लागत परम सहु ाए॥

राम छोटे भाई ल मण से भि , वैरा य, राजनीित और ान क अनेक कथाएँ कहते ह।


वषाकाल म आकाश म छाए हए बादल गरजते हए बहत ही सुहावने लगते ह।

दो० - लिछमन देखु मोर गन नाचत बा रद पेिख।


गहृ ी िबरित रत हरष जस िब नभ
ु गत कहँ देिख॥ 13॥

(राम कहने लगे -) हे ल मण! देखो, मोर के झंुड बादल को देखकर नाच रहे ह, जैसे वैरा य म
अनुर गहृ थ िकसी िव णुभ को देखकर हिषत होते ह॥ 13॥

घन घमंड नभ गरजत घोरा। ि या हीन डरपत मन मोरा॥


दािमिन दमक रह न घन माह । खल कै ीित जथा िथर नाह ॥

आकाश म बादल घुमड़-घुमड़कर घोर गजना कर रहे ह, ि या (सीता) के िबना मेरा मन डर रहा
है। िबजली क चमक बादल म ठहरती नह , जैसे दु क ीित ि थर नह रहती।

बरषिहं जलद भूिम िनअराएँ । जथा नविहं बध


ु िब ा पाएँ ।
बूँद अघात सहिहं िग र कैस। खल के बचन संत सह जैस॥

बादल प ृ वी के समीप आकर (नीचे उतरकर) बरस रहे ह, जैसे िव ा पाकर िव ान् न हो जाते
ह। बँदू क चोट पवत कैसे सहते ह, जैसे दु के वचन संत सहते ह।

छु नद भ र चल तोराई। जस थोरे हँ धन खल इतराई॥


भूिम परत भा ढाबर पानी। जनु जीविह माया लपटानी॥

छोटी निदयाँ भरकर (िकनार को) तुड़ाती हई चल , जैसे थोड़े धन से भी दु इतरा जाते ह
(मयादा का याग कर देते ह)। प ृ वी पर पड़ते ही पानी गँदला हो गया है, जैसे शु जीव के माया
िलपट गई हो।

सिमिट सिमिट जल भरिहं तलावा। िजिम सदगन


ु स जन पिहं आवा॥
स रता जल जलिनिध महँ जाई। होइ अचल िजिम िजव ह र पाई॥

जल एक हो-होकर तालाब म भर रहा है, जैसे स ुण (एक-एककर) स जन के पास चले आते


ह। नदी का जल समु म जाकर वैसे ही ि थर हो जाता है, जैसे जीव ह र को पाकर अचल
(आवागमन से मु ) हो जाता है।

दो० - ह रत भूिम तन
ृ संकुल समिु झ परिहं निहं पंथ।
िजिम पाखंड बाद त गु होिहं सद ंथ॥ 14॥

ू होकर हरी हो गई है, िजससे रा ते समझ नह पड़ते। जैसे पाखंड-मत के


प ृ वी घास से प रपण
चार से सद् ंथ गु (लु ) हो जाते ह॥ 14॥

दादरु धिु न चह िदसा सहु ाई। बेद पढ़िहं जनु बटु समदु ाई॥
नव प लव भए िबटप अनेका। साधक मन जस िमल िबबेका॥

चार िदशाओं म मेढक क विन ऐसी सुहावनी लगती है, मानो िव ािथय के समुदाय वेद पढ़
रहे ह । अनेक व ृ म नए प े आ गए ह, िजससे वे ऐसे हरे -भरे एवं सुशोिभत हो गए ह जैसे
साधक का मन िववेक ( ान) ा होने पर हो जाता है।

अक जवास पात िबनु भयऊ। जस सरु ाज खल उ म गयऊ॥


खोजत कतहँ िमलइ निहं धूरी। करइ ोध िजिम धरमिह दूरी॥

मदार और जवासा िबना प े के हो गए (उनके प े झड़ गए)। जैसे े रा य म दु का उ म


जाता रहा (उनक एक भी नह चलती)। धल ू कह खोजने पर भी नह िमलती, जैसे ोध धम को
दूर कर देता है (अथात ोध का आवेश होने पर धम का ान नह रह जाता)।

सिस संप न सोह मिह कैसी। उपकारी कै संपित जैसी॥


िनिस तम घन ख ोत िबराजा। जनु दंिभ ह कर िमला समाजा॥

अ न से यु (लहलहाती हई खेती से हरी-भरी) प ृ वी कैसी शोिभत हो रही है, जैसी उपकारी


पु ष क संपि । रात के घने अंधकार म जुगनू शोभा पा रहे ह, मानो दंिभय का समाज आ जुटा
हो।

महाबिृ चिल फूिट िकआर । िजिम सत ु ं भएँ िबगरिहं नार ॥


कृषी िनराविहं चतरु िकसाना। िजिम बधु तजिहं मोह मद माना॥

भारी वषा से खेत क या रयाँ फूट चली ह, जैसे वतं होने से ि याँ िबगड़ जाती ह। चतुर
िकसान खेत को िनरा रहे ह (उनम से घास आिद को िनकालकर फक रहे ह)। जैसे िव ान लोग
मोह, मद और मान का याग कर देते ह।

देिखअत च बाक खग नाह । किलिह पाइ िजिम धम पराह ॥


ऊषर बरषइ तन
ृ निहं जामा। िजिम ह रजन िहयँ उपज न कामा॥

च वाक प ी िदखाई नह दे रहे ह; जैसे किलयुग को पाकर धम भाग जाते ह। ऊसर म वषा
होती है, पर वहाँ घास तक नह उगती, जैसे ह रभ के दय म काम नह उ प न होता।

िबिबध जंतु संकुल मिह ाजा। जा बाढ़ िजिम पाइ सरु ाजा॥
जहँ तहँ रहे पिथक थिक नाना। िजिम इं ि य गन उपज याना॥

प ृ वी अनेक तरह के जीव से भरी हई उसी तरह शोभायमान है, जैसे सुरा य पाकर जा क विृ
होती है। जहाँ-तहाँ अनेक पिथक थककर ठहरे हए ह, जैसे ान उ प न होने पर इंि याँ (िशिथल
होकर िवषय क ओर जाना छोड़ देती ह)।

दो० - कबहँ बल बह मा त जहँ तहँ मेघ िबलािहं।


िजिम कपूत के उपज कुल स म नसािहं॥ 15(क)॥
कभी-कभी वायु बड़े जोर से चलने लगती है, िजससे बादल जहाँ-तहाँ गायब हो जाते ह। जैसे
कुपु के उ प न होने से कुल के उ म धम ( े आचरण) न हो जाते ह॥ 15(क)॥

कबह िदवस महँ िनिबड़ तम कबहँक गट पतंग।


िबनसइ उपजइ यान िजिम पाइ कुसंग सस
ु ंग॥ 15(ख)॥

कभी (बादल के कारण) िदन म घोर अंधकार छा जाता है और कभी सय


ू कट हो जाते ह। जैसे
कुसंग पाकर ान न हो जाता है और सुसंग पाकर उ प न हो जाता है॥ 15(ख)॥

बरषा िबगत सरद रतु आई। लछमन देखह परम सहु ाई॥
फूल कास सकल मिह छाई। जनु बरषाँ कृत गट बढ़ु ाई॥

हे ल मण! देखो, वषा बीत गई और परम संुदर शरद् ऋतु आ गई। फूले हए कास से सारी प ृ वी छा
गई। मानो वषा ऋतु ने (कास पी सफेद बाल के प म) अपना बुढ़ापा कट िकया है।

उिदत अगि त पंथ जल सोषा। िजिम लोभिहं सोषइ संतोषा॥


स रता सर िनमल जल सोहा। संत दय जस गत मद मोहा॥

अग य के तारे ने उदय होकर माग के जल को सोख िलया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है।
निदय और तालाब का िनमल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रिहत संत का
दय!

रस रस सूख स रत सर पानी। ममता याग करिहं िजिम यानी॥


जािन सरद रतु खंजन आए। पाइ समय िजिम सक
ु ृ त सहु ाए॥

ू रहा है। जैसे ानी (िववेक ) पु ष ममता का याग


नदी और तालाब का जल धीरे -धीरे सख
करते ह। शरद ऋतु जानकर खंजन प ी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ जाते ह (पु य
कट हो जाते ह)।

पंक न रे नु सोह अिस धरनी। नीित िनपन


ु नप ृ कै जिस करनी॥
जल संकोच िबकल भइँ मीना। अबध ु कुटुब
ं ी िजिम धनहीना॥

न क चड़ है न धलू ; इससे धरती (िनमल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीितिनपुण राजा क
करनी! जल के कम हो जाने से मछिलयाँ याकुल हो रही ह, जैसे मखू (िववेकशू य) कुटुंबी
(गहृ थ) धन के िबना याकुल होता है।

िबनु घन िनमल सोह अकासा। ह रजन इव प रह र सब आसा॥


कहँ कहँ बिृ सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगित िजिम मोरी॥
िबना बादल का िनमल आकाश ऐसा शोिभत हो रहा है जैसे भगव सब आशाओं को छोड़कर
सुशोिभत होते ह। कह -कह (िवरले ही थान म) शरद ऋतु क थोड़ी-थोड़ी वषा हो रही है। जैसे
कोई िवरले ही मेरी भि पाते ह।

दो० - चले हरिष तिज नगर नप


ृ तापस बिनक िभखा र।
िजिम ह रभगित पाइ म तजिहं आ मी चा र॥ 16॥

(शरद ऋतु पाकर) राजा, तप वी, यापारी और िभखारी ( मशः िवजय, तप, यापार और िभ ा
के िलए) हिषत होकर नगर छोड़कर चले। जैसे ह र क भि पाकर चार आ मवाले (नाना
कार के साधन पी) म को याग देते ह॥ 16॥

सखु ी मीन जे नीर अगाधा। िजिम ह र सरन न एकऊ बाधा॥


फूल कमल सोह सर कैसा। िनगन ु सगनु भएँ जैसा॥

जो मछिलयाँ अथाह जल म ह, वे सुखी ह, जैसे ह र के शरण म चले जाने पर एक भी बाधा नह


रहती। कमल के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे िनगुण सगुण होने पर शोिभत
होता है।

गंज
ु त मधक
ु र मखु र अनूपा। संदु र खग रव नाना पा॥
च बाक मन दख ु िनिस पेखी। िजिम दज ु न पर संपित देखी॥

ू रहे ह, तथा पि य के नाना कार के सुंदर श द हो रहे ह। राि


भ रे अनुपम श द करते हए गँज
देखकर चकवे के मन म वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे क संपि देखकर दु को होता है।

चातक रटत तषृ ा अित ओही। िजिम सख


ु लहइ न संकर ोही॥
सरदातप िनिस सिस अपहरई। संत दरस िजिम पातक टरई॥

पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी यास है, जैसे शंकर का ोही सुख नह पाता (सुख के िलए
झीखता रहता है), शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चं मा हर लेता है, जैसे संत के दशन से
पाप दूर हो जाते ह।

देिख इं दु चकोर समदु ाई। िचतविहं िजिम ह रजन ह र पाई॥


मसक दंस बीते िहम ासा। िजिम ि ज ोह िकएँ कुल नासा॥

चकोर के समुदाय चं मा को देखकर इस कार टकटक लगाए ह जैसे भगव भगवान को


पाकर उनके (िनिनमेष ने से) दशन करते ह। म छर और डाँस जाड़े के डर से इस कार न
हो गए जैसे ा ण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है।

दो० - भूिम जीव संकुल रहे गए सरद रतु पाइ।


सदगरु िमल जािहं िजिम संसय म समदु ाइ॥ 17॥

(वषा ऋतु के कारण) प ृ वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही न हो गए


जैसे स ु के िमल जाने पर संदेह और म के समहू न हो जाते ह॥ 17॥

बरषा गत िनमल रतु आई। सिु ध न तात सीता कै पाई॥


एक बार कैसेहँ सिु ध जान । कालहु जीित िनिमष महँ आन ॥

वषा बीत गई, िनमल शरद्ऋतु आ गई। परं तु हे तात! सीता क कोई खबर नह िमली। एक बार
कैसे भी पता पाऊँ तो काल को भी जीतकर पल भर म जानक को ले आऊँ।

कतहँ रहउ ज जीवित होई। तात जतन क र आनउँ सोई॥


सु ीवहँ सिु ध मो र िबसारी। पावा राज कोस परु नारी॥

कह भी रहे , यिद जीती होगी तो हे तात! य न करके म उसे अव य लाऊँगा। रा य, खजाना,


नगर और ी पा गया, इसिलए सु ीव ने भी मेरी सुध भुला दी।

जेिहं सायक मारा म बाली। तेिहं सर हत मूढ़ कहँ काली॥


जासु कृपाँ छूटिहं मद मोहा। ता कहँ उमा िक सपनेहँ कोहा॥

िजस बाण से मने बािल को मारा था, उसी बाण से कल उस मढ़


ू को मा ँ ! (िशव कहते ह -) हे
उमा! िजनक कृपा से मद और मोह छूट जाते ह, उनको कह व न म भी ोध हो सकता है?
(यह तो लीला मा है)।

जानिहं यह च र मिु न यानी। िज ह रघब


ु ीर चरन रित मानी॥
लिछमन ोधवंत भु जाना। धनष ु चढ़ाई गहे कर बाना॥

ानी मुिन िज ह ने रघुनाथ के चरण म ीित मान ली है (जोड़ ली है), वे ही इस च र (लीला


रह य) को जानते ह। ल मण ने जब भु को ोधयु जाना, तब उ ह ने धनुष चढ़ाकर बाण
हाथ म ले िलए।

दो० - तब अनजु िह समझ


ु ावा रघप
ु ित क ना स व।
भय देखाइ लै आवह तात सखा सु ीव॥ 18॥

तब दया क सीमा रघुनाथ ने छोटे भाई ल मण को समझाया िक हे तात! सखा सु ीव को केवल


भय िदखलाकर ले आओ (उसे मारने क बात नह है)॥ 18॥

इहाँ पवनसत
ु दयँ िबचारा। राम काजु सु ीवँ िबसारा॥
िनकट जाइ चरनि ह िस नावा। चा रह िबिध तेिह किह समझ
ु ावा॥
यहाँ (िकि कंधा नगरी म) पवनकुमार हनुमान ने िवचार िकया िक सु ीव ने राम के काय को
भुला िदया। उ ह ने सु ीव के पास जाकर चरण म िसर नवाया। (साम, दान, दंड, भेद) चार
कार क नीित कहकर उ ह समझाया।

सिु न सु ीवँ परम भय माना। िबषयँ मोर ह र ली हेउ याना॥


अब मा तसत ु दूत समूहा। पठवह जहँ तहँ बानर जूहा॥

हनुमान के वचन सुनकर सु ीव ने बहत ही भय माना। (और कहा -) िवषय ने मेरे ान को हर


िलया। अब हे पवनसुत! जहाँ-तहाँ वानर के यथ
ू रहते ह, वहाँ दूत के समहू को भेजो।

कहह पाख महँ आव न जोई। मोर कर ता कर बध होई॥


तब हनम
ु ंत बोलाए दूता। सब कर क र सनमान बहता॥

और कहला दो िक एक पखवाड़े म (पंदरह िदन म) जो न आ जाएगा, उसका मेरे हाथ वध होगा।


तब हनुमान ने दूत को बुलाया और सबका बहत स मान करके -

भय अ ीित नीित देखराई। चले सकल चरनि ह िसर नाई॥


एिह अवसर लिछमन परु आए। ोध देिख जहँ तहँ किप धाए॥

सबको भय, ीित और नीित िदखलाई। सब बंदर चरण म िसर नवाकर चले। इसी समय ल मण
नगर म आए। उनका ोध देखकर बंदर जहाँ-तहाँ भागे।

दो० - धनष
ु चढ़ाइ कहा तब जा र करउँ परु छार।
याकुल नगर देिख तब आयउ बािलकुमार॥ 19॥

तदनंतर ल मण ने धनुष चढ़ाकर कहा िक नगर को जलाकर अभी राख कर दँूगा। तब नगरभर
को याकुल देखकर बािलपु अंगद उनके पास आए॥ 19॥

चरन नाइ िस िबनती क ही। लिछमन अभय बाँह तेिह दी ही॥


ोधवंत लिछमन सिु न काना। कह कपीस अित भयँ अकुलाना॥

अंगद ने उनके चरण म िसर नवाकर िवनती क ( मा-याचना क )। तब ल मण ने उनको अभय


बाँह दी (भुजा उठाकर कहा िक डरो मत)। सु ीव ने अपने कान से ल मण को ोधयु
सुनकर भय से अ यंत याकुल होकर कहा -

सन
ु ु हनम
ु ंत संग लै तारा। क र िबनती समझ ु ाउ कुमारा॥
तारा सिहत जाइ हनम ु ाना। चरन बंिद भु सज ु स बखाना॥

हे हनुमान! सुनो, तुम तारा को साथ ले जाकर िवनती करके राजकुमार को समझाओ (समझा-
बुझाकर शांत करो)। हनुमान ने तारा सिहत जाकर ल मण के चरण क वंदना क और भु के
सुंदर यश का बखान िकया।

क र िबनती मंिदर लै आए। चरन पखा र पलँग बैठाए॥


तब कपीस चरनि ह िस नावा। गिह भज ु लिछमन कंठ लगावा॥

वे िवनती करके उ ह महल म ले आए तथा चरण को धोकर उ ह पलँग पर बैठाया। तब


वानरराज सु ीव ने उनके चरण म िसर नवाया और ल मण ने हाथ पकड़कर उनको गले से
लगा िलया।

नाथ िवषय सम मद कछु नाह । मिु न मन मोह करइ छन माह ।


सन
ु त िबनीत बचन सख
ु पावा। लिछमन तेिह बहिबिध समझ ु ावा॥

(सु ीव ने कहा -) हे नाथ! िवषय के समान और कोई मद नह है। यह मुिनय के मन म भी


णमा म मोह उ प न कर देता है (िफर म तो िवषयी जीव ही ठहरा)। सु ीव के िवनययु
वचन सुनकर ल मण ने सुख पाया और उनको बहत कार से समझाया।

पवन तनय सब कथा सुनाई। जेिह िबिध गए दूत समुदाई॥

तब पवनसुत हनुमान ने िजस कार सब िदशाओं म दूत के समहू गए थे वह सब हाल सुनाया।

दो० - हरिष चले सु ीव तब अंगदािद किप साथ।


रामानजु आग क र आए जहँ रघन ु ाथ॥ 20॥

तब अंगद आिद वानर को साथ लेकर और राम के छोटे भाई ल मण को आगे करके (अथात
उनके पीछे -पीछे ) सु ीव हिषत होकर चले और जहाँ रघुनाथ थे वहाँ आए॥ 20॥

नाइ चरन िस कह कर जोरी॥ नाथ मोिह कछु नािहन खोरी॥


अितसय बल देव तव माया॥ छूटइ राम करह ज दाया॥

रघुनाथ के चरण म िसर नवाकर हाथ जोड़कर सु ीव ने कहा - हे नाथ! मुझे कुछ भी दोष नह
है। हे देव! आपक माया अ यंत ही बल है। आप जब दया करते ह, हे राम! तभी यह छूटती है।

िबषय ब य सरु नर मिु न वामी॥ म पावँर पसु किप अित कामी॥


ना र नयन सर जािह न लागा। घोर ोध तम िनिस जो जागा॥

हे वामी! देवता, मनु य और मुिन सभी िवषय के वश म ह। िफर म तो पामर पशु और पशुओ ं म
भी अ यंत कामी बंदर हँ। ी का नयन-बाण िजसको नह लगा, जो भयंकर ोध पी अँधेरी रात
म भी जागता रहता है ( ोधांध नह होता)।
लोभ पाँस जेिहं गर न बँधाया। सो नर तु ह समान रघरु ाया॥
यह गन
ु साधन त निहं होई। तु हरी कृपा पाव कोइ कोई॥

और लोभ क फाँसी से िजसने अपना गला नह बँधाया, हे रघुनाथ! वह मनु य आप ही के समान


है। ये गुण साधन से नह ा होते। आपक कृपा से ही कोई-कोई इ ह पाते ह।

तब रघप
ु ित बोले मस
ु क
ु ाई। तु ह ि य मोिह भरत िजिम भाई॥
अब सोइ जतनु करह मन लाई। जेिह िबिध सीता कै सिु ध पाई॥

तब रघुनाथ मुसकराकर बोले - हे भाई! तुम मुझे भरत के समान यारे हो। अब मन लगाकर वही
उपाय करो िजस उपाय से सीता क खबर िमले।

दो० - एिह िबिध होत बतकही आए बानर जूथ।


नाना बरन सकल िदिस देिखअ क स ब थ॥ 21॥

इस कार बातचीत हो रही थी िक वानर के यथ


ू (झुंड) आ गए। अनेक रं ग के वानर के दल
सब िदशाओं म िदखाई देने लगे॥ 21॥

बानर कटक उमा म देखा। सो मू ख जो करन चह लेखा॥


आइ राम पद नाविहं माथा। िनरिख बदनु सब होिहं सनाथा॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! वानर क वह सेना मने देखी थी। उसक जो िगनती करना चाहे वह
महान मखू है। सब वानर आ-आकर राम के चरण म म तक नवाते ह और (स दय-माधुयिनिध)
मुख के दशन करके कृताथ होते ह।

अस किप एक न सेना माह । राम कुसल जेिह पूछी नाह ॥


यह कछु निहं भु कइ अिधकाई। िब व प यापक रघरु ाई॥

ू ी हो, भु के िलए यह कोई बड़ी


सेना म एक भी वानर ऐसा नह था िजससे राम ने कुशल न पछ
बात नह है; य िक रघुनाथ िव प तथा सव यापक ह (सारे प और सब थान म ह)।

ठाढ़े जहँ तहँ आयसु पाई। कह सु ीव सबिह समझु ाई॥


राम काजु अ मोर िनहोरा। बानर जूथ जाह चहँ ओरा॥

आ ा पाकर सब जहाँ-तहाँ खड़े हो गए। तब सु ीव ने सबको समझाकर कहा िक हे वानर के


समहू ! यह राम का काय है और मेरा िनहोरा (अनुरोध) है; तुम चार ओर जाओ।

जनकसत ु ा कहँ खोजह जाई। मास िदवस महँ आएह भाई॥


अविध मेिट जो िबनु सिु ध पाएँ । आवइ बिनिह सो मोिह मराएँ ॥
और जाकर जानक को खोजो। हे भाई! महीने भर म वापस आ जाना। जो (महीने भर क ) अविध
िबताकर िबना पता लगाए ही लौट आएगा उसे मेरे ारा मरवाते ही बनेगा (अथात मुझे उसका वध
करवाना ही पड़े गा)।

दो० - बचन सनु त सब बानर जहँ तहँ चले तरु ं त।


तब सु ीवँ बोलाए अंगद नल हनम
ु ंत॥ 22॥

सु ीव के वचन सुनते ही सब वानर तुरंत जहाँ-तहाँ (िभ न-िभ न िदशाओं म) चल िदए। तब


सु ीव ने अंगद, नल, हनुमान आिद धान- धान यो ाओं को बुलाया (और कहा -)॥ 22॥

सन
ु ह नील अंगद हनम ु ाना। जामवंत मितधीर सज ु ाना॥
सकल सभ ु ट िमिल दि छन जाह। सीता सिु ध पूँछेह सब काह॥

हे धीरबुि और चतुर नील, अंगद, जा बवान और हनुमान! तुम सब े यो ा िमलकर दि ण


िदशा को जाओ और सब िकसी से सीता का पता पछू ना।

मन म बचन सो जतन िबचारे ह। रामचं कर काजु सँवारे ह॥


भानु पीिठ सेइअ उर आगी। वािमिह सब भाव छल यागी॥

मन, वचन तथा कम से उसी का (सीता का पता लगाने का) उपाय सोचना। ी रामचं का काय
संप न (सफल) करना। सय ू को पीठ से और अि न को दय से (सामने से) सेवन करना चािहए।
परं तु वामी क सेवा तो छल छोड़कर सवभाव से (मन, वचन, कम से) करनी चािहए।

तिज माया सेइअ परलोका। िमटिहं सकल भवसंभव सोका॥


देह धरे कर यह फलु भाई। भिजअ राम सब काम िबहाई॥

माया (िवषय क ममता-आसि ) को छोड़कर परलोक का सेवन (भगवान के िद य धाम क


ाि के िलए भगव सेवा प साधन) करना चािहए, िजससे भव (ज म-मरण) से उ प न सारे
शोक िमट जाएँ । हे भाई! देह धारण करने का यही फल है िक सब काम (कामनाओं) को छोड़कर
राम का भजन ही िकया जाए।

सोइ गन
ु य सोई बड़भागी। जो रघब
ु ीर चरन अनरु ागी॥
आयसु मािग चरन िस नाई। चले हरिष सिु मरत रघरु ाई॥

स ुण को पहचाननेवाला (गुणवान) तथा बड़भागी वही है जो रघुनाथ के चरण का ेमी है। आ ा


माँगकर और चरण म िफर िसर नवाकर रघुनाथ का मरण करते हए सब हिषत होकर चले।

पाछ पवन तनय िस नावा। जािन काज भु िनकट बोलावा॥


परसा सीस सरो ह पानी। करमिु का दीि ह जन जानी॥
सबके पीछे पवनसुत हनुमान ने िसर नवाया। काय का िवचार करके भु ने उ ह अपने पास
बुलाया। उ ह ने अपने कर-कमल से उनके िसर का पश िकया तथा अपना सेवक जानकर उ ह
अपने हाथ क अँगठ ू ी उतारकर दी।

बह कार सीतिह समझु ाएह। किह बल िबरह बेिग तु ह आएह॥


हनम
ु त ज म सफ
ु ल क र माना। चलेउ दयँ ध र कृपािनधाना॥

(और कहा -) बहत कार से सीता को समझाना और मेरा बल तथा िवरह ( ेम) कहकर तुम
शी लौट आना। हनुमान ने अपना ज म सफल समझा और कृपािनधान भु को दय म धारण
करके वे चले।

ज िप भु जानत सब बाता। राजनीित राखत सुर ाता॥

य िप देवताओं क र ा करनेवाले भु सब बात जानते ह, तो भी वे राजनीित क र ा कर रहे ह


(नीित क मयादा रखने के िलए सीता का पता लगाने को जहाँ-तहाँ वानर को भेज रहे ह)।

दो० - चले सकल बन खोजत स रता सर िग र खोह।


राम काज लयलीन मन िबसरा तन कर छोह॥ 23॥

सब वानर वन, नदी, तालाब, पवत और पवत क कंदराओं म खोजते हए चले जा रहे ह। मन
राम के काय म लवलीन है। शरीर तक का ेम (मम व) भल
ू गया है॥ 23॥

कतहँ होइ िनिसचर स भेटा। ान लेिहं एक एक चपेटा॥


बह कार िग र कानन हेरिहं। कोउ मिु न िमलइ तािह सब घेरिहं॥

कह िकसी रा स से भट हो जाती है, तो एक-एक चपत म ही उसके ाण ले लेते ह। पवत और


ू ने के िलए उसे सब घेर
वन को बहत कार से खोज रहे ह। कोई मुिन िमल जाता है तो पता पछ
लेते ह।

लािग तषृ ा अितसय अकुलाने। िमलइ न जल घन गहन भल ु ाने॥


मन हनमु ान क ह अनम ु ाना। मरन चहत सब िबनु जल पाना॥

इतने म ही सबको अ यंत यास लगी, िजससे सब अ यंत ही याकुल हो गए। िकंतु जल कह
नह िमला। घने जंगल म सब भुला गए। हनुमान ने मन म अनुमान िकया िक जल िपए िबना सब
लोग मरना ही चाहते ह।

चिढ़ िग र िसखर चहँ िदिस देखा। भूिम िबबर एक कौतक


ु पेखा॥
च बाक बक हंस उड़ाह । बहतक खग िबसिहं तेिह माह ॥
उ ह ने पहाड़ क चोटी पर चढ़कर चार ओर देखा तो प ृ वी के अंदर एक गुफा म उ ह एक
कौतुक (आ य) िदखाई िदया। उसके ऊपर चकवे, बगुले और हंस उड़ रहे ह और बहत-से प ी
उसम वेश कर रहे ह।

िग र ते उत र पवनसत ु आवा। सब कहँ लै सोइ िबबर देखावा॥


आग कै हनम ु ंतिह ली हा। पैठे िबबर िबलंबु न क हा॥

पवन कुमार हनुमान पवत से उतर आए और सबको ले जाकर उ ह ने वह गुफा िदखलाई। सबने
हनुमान को आगे कर िलया और वे गुफा म घुस गए, देर नह क ।

दो० - दीख जाइ उपबन बर सर िबगिसत बह कंज।


मंिदर एक िचर तहँ बैिठ ना र तप पंज
ु ॥ 24॥

अंदर जाकर उ ह ने एक उ म उपवन (बगीचा) और तालाब देखा, िजसम बहत-से कमल िखले
हए ह। वह एक सुंदर मंिदर है, िजसम एक तपोमिू त ी बैठी है॥ 24॥

दू र ते तािह सबि ह िस नावा। पूछ िनज ब ृ ांत सन


ु ावा॥
तेिहं तब कहा करह जल पाना। खाह सरु स संदु र फल नाना॥

दूर से ही सबने उसे िसर नवाया और पछ


ू ने पर अपना सब व ृ ांत कह सुनाया। तब उसने कहा -
जलपान करो और भाँित-भाँित के रसीले सुंदर फल खाओ।

म जनु क ह मधरु फल खाए। तासु िनकट पिु न सब चिल आए॥


तेिहं सब आपिन कथा सन
ु ाई। म अब जाब जहाँ रघरु ाई॥

(आ ा पाकर) सबने नान िकया, मीठे फल खाए और िफर सब उसके पास चले आए। तब उसने
अपनी सब कथा कह सुनाई (और कहा -) म अब वहाँ जाऊँगी जहाँ रघुनाथ ह।

मूदह नयन िबबर तिज जाह। पैहह सीतिह जिन पिछताह॥


नयन मूिद पिु न देखिहं बीरा। ठाढ़े सकल िसंधु क तीरा॥

तुम लोग आँख मँदू लो और गुफा को छोड़कर बाहर जाओ। तुम सीता को पा जाओगे, पछताओ
नह (िनराश न होओ)। आँख मँदू कर िफर जब आँख खोल तो सब वीर या देखते ह िक सब
समु के तीर पर खड़े ह।

सो पिु न गई जहाँ रघन


ु ाथा। जाइ कमल पद नाएिस माथा॥
नाना भाँित िबनय तेिहं क ही। अनपायनी भगित भु दी ही॥

और वह वयं वहाँ गई जहाँ रघुनाथ थे। उसने जाकर भु के चरण कमल म म तक नवाया और
बहत कार से िवनती क । भु ने उसे अपनी अनपाियनी (अचल) भि दी।

दो० - बदरीबन कहँ सो गई भु अ या ध र सीस।


उर ध र राम चरन जुग जे बंदत अज ईस॥ 25॥

भु क आ ा िसर पर धारण कर और राम के युगल चरण को, िजनक ा और महे श भी


वंदना करते ह, दय म धारण कर वह ( वयं भा) बद रका म को चली गई॥ 25॥

इहाँ िबचारिहं किप मन माह । बीती अविध काज कछु नाह ॥


सब िमिल कहिहं पर पर बाता। िबनु सिु ध लएँ करब का ाता॥

यहाँ वानरगण मन म िवचार कर रहे ह िक अविध तो बीत गई, पर काम कुछ न हआ। सब
िमलकर आपस म बात करने लगे िक हे भाई! अब तो सीता क खबर िलए िबना लौटकर भी या
करगे!

कह अंगद लोचन भ र बारी। दहु ँ कार भइ म ृ यु हमारी॥


इहाँ न सिु ध सीता कै पाई। उहाँ गएँ मा रिह किपराई॥

अंगद ने ने म जल भरकर कहा िक दोन ही कार से हमारी म ृ यु हई। यहाँ तो सीता क सुध
नह िमली और वहाँ जाने पर वानरराज सु ीव मार डालगे।

िपता बधे पर मारत मोही। राखा राम िनहोर न ओही॥


पिु न पिु न अंगद कह सब पाह । मरन भयउ कछु संसय नाह ॥

वे तो िपता के वध होने पर ही मुझे मार डालते। राम ने ही मेरी र ा क , इसम सु ीव का कोई


एहसान नह है। अंगद बार-बार सबसे कह रहे ह िक अब मरण हआ, इसम कुछ भी संदेह नह है।

अंगद बचन सन
ु किप बीरा। बोिल न सकिहं नयन बह नीरा॥
छन एक सोच मगन होइ रहे। पिु न अस बचन कहत सब भए॥4॥

वानर वीर अंगद के वचन सुनते ह, िकंतु कुछ बोल नह सकते। उनके ने से जल बह रहा है।
एक ण के िलए सब सोच म म न हो रहे । िफर सब ऐसा वचन कहने लगे-

हम सीता कै सिु ध ली ह िबना। निहं जैह जुबराज बीना॥


अस किह लवन िसंधु तट जाई। बैठे किप सब दभ डसाई॥

हे सुयो य युवराज! हम लोग सीता क खोज िलए िबना नह लौटगे। ऐसा कहकर लवणसागर के
तट पर जाकर सब वानर कुश िबछाकर बैठ गए।
जामवंत अंगद दख
ु देखी। कह कथा उपदेस िबसेषी॥
तात राम कहँ नर जिन मानह। िनगन
ु अिजत अज जानह॥

जा बवान ने अंगद का दुःख देखकर िवशेष उपदेश क कथाएँ कह । (वे बोले -) हे तात! राम को
मनु य न मानो, उ ह िनगुण , अजेय और अज मा समझो।

हम सब सेवक अित बड़भागी। संतत सगुन अनुरागी॥

हम सब सेवक अ यंत बड़भागी ह, जो िनरं तर सगुण (राम) म ीित रखते ह।

दो० - िनज इ छाँ भु अवतरइ सरु मह गो ि ज लािग।


सगनु उपासक संग तहँ रहिहं मो छ सब यािग॥ 26॥

देवता, प ृ वी, गो और ा ण के िलए भु अपनी इ छा से (िकसी कमबंधन से नह ) अवतार लेते


ह। वहाँ सगुणोपासक (भ गण सालो य, सामी य, सा य, साि और सायु य) सब कार के
मो को यागकर उनक सेवा म साथ रहते ह॥ 26॥

एिह िबिध कथा कहिहं बह भाँती। िग र कंदराँ सन


ु ी संपाती॥
बाहेर होइ देिख बह क सा। मोिह अहार दी ह जगदीसा॥

इस कार जा बवान बहत कार से कथाएँ कह रहे ह। इनक बात पवत क कंदरा म स पाती ने
सुन । बाहर िनकलकर उसने बहत-से वानर देखे। (तब वह बोला -) जगदी र ने मुझको घर बैठे
बहत-सा आहार भेज िदया!

आजु सबिह कहँ भ छन करऊँ। िदन बह चले अहार िबनु मरऊँ॥


कबहँ न िमल भ र उदर अहारा। आजु दी ह िबिध एकिहं बारा॥

आज इन सबको खा जाऊँगा। बहत िदन बीत गए, भोजन के िबना मर रहा था। पेटभर भोजन
कभी नह िमलता। आज िवधाता ने एक ही बार म बहत-सा भोजन दे िदया।

डरपे गीध बचन सिु न काना। अब भा मरन स य हम जाना॥


किप सब उठे गीध कहँ देखी। जामवंत मन सोच िबसेषी॥

गीध के वचन कान से सुनते ही सब डर गए िक अब सचमुच ही मरना हो गया। यह हमने जान


िलया। िफर उस गीध (स पाती) को देखकर सब वानर उठ खड़े हए। जा बवान के मन म िवशेष
सोच हआ।

कह अंगद िबचा र मन माह । ध य जटायू सम कोउ नाह ॥


राम काज कारन तनु यागी। ह र परु गयउ परम बड़भागी॥
अंगद ने मन म िवचार कर कहा- अहा! जटायु के समान ध य कोई नह है। राम के काय के िलए
शरीर छोड़कर वह परम बड़भागी भगवान के परमधाम को चला गया।

सिु न खग हरष सोक जुत बानी। आवा िनकट किप ह भय मानी॥


ित हिह अभय क र पूछेिस जाई। कथा सकल ित ह तािह सन
ु ाई॥

हष और शोक से यु वाणी (समाचार) सुनकर वह प ी (स पाती) वानर के पास आया। वानर


डर गए। उनको अभय करके (अभय वचन देकर) उसने पास जाकर जटायु का व ृ ांत पछ
ू ा, तब
उ ह ने सारी कथा उसे कह सुनाई।

सुिन संपाित बंधु कै करनी। रघुपित मिहमा बहिबिध बरनी॥

भाई जटायु क करनी सुनकर स पाती ने बहत कार से रघुनाथ क मिहमा वणन क ।

दो० - मोिह लै जाह िसंधत


ु ट देउँ ितलांजिल तािह।
बचन सहाइ करिब म पैहह खोजह जािह॥ 27॥

(उसने कहा -) मुझे समु के िकनारे ले चलो, म जटायु को ितलांजिल दे दँू। इस सेवा के बदले म
तु हारी वचन से सहायता क ँ गा (अथात सीता कहाँ ह सो बतला दँूगा), िजसे तुम खोज रहे हो
उसे पा जाओगे॥ 27॥

अनज
ु ि या क र सागर तीरा। किह िनज कथा सन
ु ह किप बीरा॥
हम ौ बंधु थम त नाई। गगन गए रिब िनकट उड़ाई॥

समु के तीर पर छोटे भाई जटायु क ि या ( ा आिद) करके स पाती अपनी कथा कहने
ू के
लगा- हे वीर वानर ! सुनो, हम दोन भाई उठती जवानी म एक बार आकाश म उड़कर सय
िनकट चले गए।

तेज न सिह सक सो िफ र आवा। म अिभमानी रिब िनअरावा॥


जरे पंख अित तेज अपारा। परे उँ भूिम क र घोर िचकारा॥

वह (जटायु) तेज नह सह सका, इससे लौट आया। (िकंतु) म अिभमानी था इसिलए सय ू के पास
चला गया। अ यंत अपार तेज से मेरे पंख जल गए। म बड़े जोर से चीख मारकर जमीन पर िगर
पड़ा।

मिु न एक नाम चं मा ओही। लागी दया देिख क र मोही॥


बह कार तेिहं यान सन ु ावा। देहजिनत अिभमान छुड़ावा॥

वहाँ चं मा नाम के एक मुिन थे। मुझे देखकर उ ह बड़ी दया लगी। उ ह ने बहत कार से मुझे
ान सुनाया और मेरे देहजिनत (देह संबंधी) अिभमान को छुड़ा िदया।

े ाँ
त मनजु तनु ध रही। तासु ना र िनिसचर पित ह रही॥
तासु खोज पठइिह भु दूता। ित हिह िमल त होब पन
ु ीता॥

(उ ह ने कहा -) ेतायुग म सा ात पर मनु य शरीर धारण करगे। उनक ी को रा स


का राजा हर ले जाएगा। उसक खोज म भु दूत भेजगे। उनसे िमलने पर तू पिव हो जाएगा।

े ु त सìीता॥
जिमहिहं पंख करिस जिन िचंता। ित हिह देखाइ देहस
मिु न कइ िगरा स य भइ आजू। सिु न मम बचन करह भु काजू॥

और तेरे पंख उग आएँ गे, िचंता न कर। उ ह तू सीता को िदखा देना। मुिन क वह वाणी आज
स य हई। अब मेरे वचन सुनकर तुम भु का काय करो।

िग र ि कूट ऊपर बस लंका। तहँ रह रावन सहज असंका॥


तहँ असोक उपबन जहँ रहई। सीता बैिठ सोच रत अहई॥

ि कूट पवत पर लंका बसी हई है। वहाँ वभाव से ही िनडर रावण रहता है। वहाँ अशोक नाम का
उपवन (बगीचा) है, जहाँ सीता रहती ह। (इस समय भी) वे सोच म म न बैठी ह।

दो० - म देखउँ तु ह नाह गीधिह ि अपार।


बूढ़ भयउँ न त करतेउँ कछुक सहाय तु हार॥ 28॥

म उ ह देख रहा हँ, तुम नह देख सकते, य िक गीध क ि अपार होती है (बहत दूर तक
जाती है)। या क ँ ? म बढ़ू ा हो गया, नह तो तु हारी कुछ तो सहायता अव य करता॥ 28॥

जो नाघइ सत जोजन सागर। करइ सो राम काज मित आगर॥


मोिह िबलोिक धरह मन धीरा। राम कृपाँ कस भयउ सरीरा॥

जो सौ योजन (चार सौ कोस) समु लाँघ सकेगा और बुि िनधान होगा, वही राम का काय कर
सकेगा। मुझे देखकर मन म धीरज धरो। देखो, राम क कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया (िबना
पंख का बेहाल था, पंख उगने से सुंदर हो गया)!

पािपउ जा कर नाम सिु मरह । अित अपार भवसागर तरह ॥


तासु दूत तु ह तिज कदराई। राम दयँ ध र करह उपाई॥

पापी भी िजनका नाम मरण करके अ यंत अपार भवसागर से तर जाते ह। तुम उनके दूत हो,
अतः कायरता छोड़कर राम को दय म धारण करके उपाय करो।
अस किह ग ड़ गीध जब गयऊ। ित ह क मन अित िबसमय भयऊ॥
िनज िनज बल सब काहँ भाषा। पार जाइ कर संसय राखा॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! इस कार कहकर जब गीध चला गया, तब उन (वानर ) के


मन म अ यंत िव मय हआ। सब िकसी ने अपना-अपना बल कहा। पर समु के पार जाने म सभी
ने संदेह कट िकया।

जरठ भयउँ अब कहइ रछेसा। निहं तन रहा थम बल लेसा॥


जबिहं ि िब म भए खरारी। तब म त न रहेउँ बल भारी॥

ऋ राज जा बवान कहने लगे - म बढ़ू ा हो गया। शरीर म पहले वाले बल का लेश भी नह रहा।
जब खरा र (खर के श ु राम) वामन बने थे, तब म जवान था और मुझम बड़ा बल था।

दो० - बिल बाँधत भु बाढ़ेउ सो तनु बरिन न जाइ।


उभय घरी महँ दी ह सात दि छन धाइ॥ 29॥

बिल के बाँधते समय भु इतने बढ़े िक उस शरीर का वणन नह हो सकता, िकंतु मने दो ही घड़ी
म दौड़कर (उस शरीर क ) सात दि णाएँ कर ल ॥ 29॥

अंगद कहइ जाउँ म पारा। िजयँ संसय कछु िफरती बारा॥


जामवंत कह तु ह सब लायक। पठइअ िकिम सबही कर नायक॥

अंगद ने कहा - म पार तो चला जाऊँगा, परं तु लौटते समय के िलए दय म कुछ संदेह है।
जा बवान ने कहा - तुम सब कार से यो य हो, परं तु तुम सबके नेता हो, तु हे कैसे भेजा जाए?

कहइ रीछपित सन
ु ु हनम
ु ाना। का चप
ु सािध रहेह बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना। बिु ध िबबेक िब यान िनधाना॥

ऋ राज जा बवान ने हनुमान से कहा - हे हनुमान! हे बलवान! सुनो, तुमने यह या चुप साध
रखी है? तुम पवन के पु हो और बल म पवन के समान हो। तुम बुि -िववेक और िव ान क
खान हो।

कवन सो काज किठन जग माह । जो निहं होइ तात तु ह पाह ॥


राम काज लिग तव अवतारा। सन
ु तिहं भयउ पबताकारा॥

जगत म कौन-सा ऐसा किठन काम है जो हे तात! तुमसे न हो सके। राम के काय के िलए ही तो
तु हारा अवतार हआ है। यह सुनते ही हनुमान पवत के आकार के (अ यंत िवशालकाय) हो गए।

कनक बरन तन तेज िबराजा। मानहँ अपर िग र ह कर राजा॥


िसंहनाद क र बारिहं बारा। लीलिहं नाघउँ जलिनिध खारा॥

उनका सोने का-सा रं ग है, शरीर पर तेज सुशोिभत है, मानो पवत का दूसरा राजा सुमे हो।
हनुमान ने बार-बार िसंहनाद करके कहा - म इस खारे समु को खेल म ही लाँघ सकता हँ।

सिहत सहाय रावनिह मारी। आनउँ इहाँ ि कूट उपारी॥


जामवंत म पूँछउँ तोही। उिचत िसखावनु दीजह मोही॥

और सहायक सिहत रावण को मारकर ि कूट पवत को उखाड़कर यहाँ ला सकता हँ। हे
ू ता हँ, तुम मुझे उिचत सीख देना (िक मुझे या करना चािहए)।
जा बवान! म तुमसे पछ

एतना करह तात तु ह जाई। सीतिह देिख कहह सिु ध आई॥


तब िनज भज
ु बल रािजवनैना। कौतक ु लािग संग किप सेना॥

(जा बवान ने कहा -) हे तात! तुम जाकर इतना ही करो िक सीता को देखकर लौट आओ और
उनक खबर कह दो। िफर कमलनयन राम अपने बाहबल से (ही रा स का संहार कर सीता को
ले आएँ गे, केवल) खेल के िलए ही वे वानर क सेना साथ लगे।

छं ० - किप सेन संग सँघा र िनिसचर रामु सीतिह आिनह।


ल ै ोक पावन सज ु सु सरु मिु न नारदािद बखािनह॥
जो सन ु त गावत कहत समझ ु त परम पद नर पावई।
रघब ु ीर पद पाथोज मधक ु र दास तल ु सी गावई॥

वानर क सेना साथ लेकर रा स का संहार करके राम सीता को ले आएँ गे। तब देवता और
नारदािद मुिन भगवान के तीन लोक को पिव करने वाले संुदर यश का बखान करगे, िजसे
सुनने, गाने, कहने और समझने से मनु य परमपद पाते ह और िजसे रघुवीर के चरण कमल का
मधुकर ( मर) तुलसीदास गाता है।

दो० - भव भेषज रघन


ु ाथ जसु सन
ु िहं जे नर अ ना र।
ित ह कर सकल मनोरथ िस करिहं ि िसरा र॥ 30 (क)॥

रघुवीर का यश भव (ज म-मरण) पी रोग क (अचकू ) दवा है। जो पु ष और ी इसे सुनगे,


ि िशरा के श ु राम उनके सब मनोरथ को िस करगे॥ 30(क)॥

सो० - नीलो पल तन याम काम कोिट सोभा अिधक।


सिु नअ तासु गन
ु ाम जासु नाम अघ खग बिधक॥ 30(ख)॥

िजनका नीले कमल के समान याम शरीर है, िजनक शोभा करोड़ कामदेव से भी अिधक है
और िजनका नाम पाप पी पि य को मारने के िलए बिधक ( याध) के समान है, उन राम के
गुण के समहू (लीला) को अव य सुनना चािहए॥ 30(ख)॥

इित ीम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने चतुथ: सोपान: समा :।

किलयुग के संपण
ू पाप को िव वंस करने वाले ी रामच रतमानस का यह चौथा सोपान समा
हआ।

(िकि कंधाकांड समा )


संदु रकांड
शा तं शा तम मेयमनघं िनवाणशाि त दं
ाशंभफु णी से यमिनशं वेदांतवे ं िवभमु ्।
रामा यं जगदी रं सरु गु ं मायामनु यं ह रं
व देऽहं क णाकरं रघवु रं भूपालचूडामिणम्॥ 1॥

शांत, सनातन, अ मेय ( माण से परे ), िन पाप, मो प परमशांित देनेवाले, ा, शंभु और


शेष से िनरं तर सेिवत, वेदांत के ारा जानने यो य, सव यापक, देवताओं म सबसे बड़े , माया से
मनु य प म िदखनेवाले, सम त पाप को हरनेवाले, क णा क खान, रघुकुल म े तथा
राजाओं के िशरोमिण, राम कहलानेवाले जगदी र क म वंदना करता हँ॥ 1॥

ना या पहृ ा रघपु ते दयेऽ मदीये


स यं वदािम च भवानिखला तरा मा।
भि ं य छ रघप ु ंग
ु व िनभरां मे
कामािददोषरिहतं कु मानसं च॥ 2॥

हे रघुनाथ! म स य कहता हँ और िफर आप सबके अंतरा मा ही ह (सब जानते ही ह) िक मेरे


दय म दूसरी कोई इ छा नह है। हे रघुकुल े ! मुझे अपनी िनभरा (पण
ू ) भि दीिजए और मेरे
मन को काम आिद दोष से रिहत क िजए॥ 2॥

अतिु लतबलधामं हेमशैलाभदेहं


दनजु वनकृशानंु ािननाम ग यम्।
सकलगण ु िनधानं वानराणामधीशं
रघप
ु िति यभ ं वातजातं नमािम॥ 3॥

अतुल बल के धाम, सोने के पवत (सुमे ) के समान कांितयु शरीरवाले, दै य पी वन (को


वंस करने) के िलए अि न प, ािनय म अ ग य, संपण ू गुण के िनधान, वानर के वामी,
रघुनाथ के ि य भ पवनपु हनुमान को म णाम करता हँ॥ 3॥

जामवंत के बचन सहु ाए। सिु न हनम


ु ंत दय अित भाए॥
तब लिग मोिह प रखेह तु ह भाई। सिह दखु कंद मूल फल खाई॥

जा बवान के सुंदर वचन हनुमान के दय को बहत ही भाए। (वे बोले -) हे भाई! तुम लोग दुःख
सहकर, कंद-मलू -फल खाकर तब तक मेरी राह देखना -
जब लिग आव सीतिह देखी। होइिह काजु मोिह हरष िबसेषी॥
यह किह नाइ सबि ह कहँ माथा । चलेउ हरिष िहयँ ध र रघन
ु ाथा॥

जब तक म सीता को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अव य होगा, य िक मुझे बहत ही हष हो


रहा है। यह कहकर और सबको म तक नवाकर तथा दय म रघुनाथ को धारण करके हनुमान
हिषत होकर चले।

िसंधु तीर एक भूधर संदु र। कौतक


ु कूिद चढ़ेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघबु ीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥

समु के तीर पर एक सुंदर पवत था। हनुमान खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा
चढ़े और बार-बार रघुवीर का मरण करके अ यंत बलवान हनुमान उस पर से बड़े वेग से उछले।

जेिहं िग र चरन देइ हनम


ु ंता। चलेउ सो गा पाताल तरु ं ता॥
िजिम अमोघ रघप ु ित कर बाना। एही भाँित चलेउ हनम ु ाना॥

िजस पवत पर हनुमान पैर रखकर चले (िजस पर से वे उछले), वह तुरंत ही पाताल म धँस गया।
जैसे रघुनाथ का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान चले।

जलिनिध रघुपित दूत िबचारी। त मैनाक होिह म हारी॥

समु ने उ ह रघुनाथ का दूत समझकर मैनाक पवत से कहा िक हे मैनाक! तू इनक थकावट
दूर करनेवाला है (अथात अपने ऊपर इ ह िव ाम दे)।

दो० - हनूमान तेिह परसा कर पिु न क ह नाम।


राम काजु क ह िबनु मोिह कहाँ िब ाम॥ 1॥

हनुमान ने उसे हाथ से छू िदया, िफर णाम करके कहा - भाई! राम का काम िकए िबना मुझे
िव ाम कहाँ?॥ 1॥

जात पवनसत ु देव ह देखा। जान कहँ बल बिु िबसेषा॥


सरु सा नाम अिह ह कै माता। पठइि ह आइ कही तेिहं बाता॥

देवताओं ने पवनपु हनुमान को जाते हए देखा। उनक िवशेष बल-बुि को जानने के िलए
उ ह ने सुरसा नामक सप क माता को भेजा, उसने आकर हनुमान से यह बात कही -

आजु सरु ह मोिह दी ह अहारा। सन


ु त बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु क र िफ र म आव । सीता कइ सिु ध भिु ह सन
ु ाव ॥
आज देवताओं ने मुझे भोजन िदया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान ने कहा - राम का
काय करके म लौट आऊँ और सीता क खबर भु को सुना दँू,

तब तव बदन पैिठहउँ आई। स य कहउँ मोिह जान दे माई॥


कवनेहँ जतन देइ निहं जाना। सिस न मोिह कहेउ हनमु ाना॥

तब म आकर तु हारे मँुह म घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! म स य कहता हँ, अभी
मुझे जाने दे। जब िकसी भी उपाय से उसने जाने नह िदया, तब हनुमान ने कहा - तो िफर मुझे
खा न ले।

जोजन भ र तेिहं बदनु पसारा। किप तनु क ह दग


ु न
ु िब तारा॥
सोरह जोजन मख ु तेिहं ठयऊ। तरु त पवनसत
ु बि स भयऊ॥

उसने योजनभर (चार कोस म) मँुह फै लाया। तब हनुमान ने अपने शरीर को उससे दूना बढ़ा
िलया। उसने सोलह योजन का मुख िकया। हनुमान तुरंत ही ब ीस योजन के हो गए।

जस जस सरु सा बदनु बढ़ावा। तासु दून किप प देखावा॥


सत जोजन तेिहं आनन क हा। अित लघु प पवनसत ु ली हा॥

जैसे-जैसे सुरसा मुख का िव तार बढ़ाती थी, हनुमान उसका दूना प िदखलाते थे। उसने सौ
योजन (चार सौ कोस का) मुख िकया। तब हनुमान ने बहत ही छोटा प धारण कर िलया।

बदन पइिठ पिु न बाहेर आवा। मागा िबदा तािह िस नावा॥


मोिह सरु ह जेिह लािग पठावा। बिु ध बल मरमु तोर म पावा॥

और उसके मुख म घुसकर (तुरंत) िफर बाहर िनकल आए और उसे िसर नवाकर िवदा माँगने
लगे। (उसने कहा -) मने तु हारे बुि -बल का भेद पा िलया, िजसके िलए देवताओं ने मुझे भेजा
था।

दो० - राम काजु सबु क रहह तु ह बल बिु िनधान।


आिसष देइ गई सो हरिष चलेउ हनम ु ान॥ 2॥

तुम राम का सब काय करोगे, य िक तुम बल-बुि के भंडार हो। यह आशीवाद देकर वह चली
गई, तब हनुमान हिषत होकर चले॥ 2॥

िनिसच र एक िसंधु महँ रहई। क र माया नभु के खग गहई॥


जीव जंतु जे गगन उड़ाह । जल िबलोिक ित ह कै प रछाह ॥

समु म एक रा सी रहती थी। वह माया करके आकाश म उड़ते हए पि य को पकड़ लेती थी।
आकाश म जो जीव-जंतु उड़ा करते थे, वह जल म उनक परछाई ं देखकर,

गहइ छाहँ सक सो न उड़ाई। एिह िबिध सदा गगनचर खाई॥


सोइ छल हनूमान कहँ क हा। तासु कपटु किप तरु तिहं ची हा॥

उस परछाई ं को पकड़ लेती थी, िजससे वे उड़ नह सकते थे (और जल म िगर पड़ते थे) इस कार
वह सदा आकाश म उड़नेवाले जीव को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान से भी िकया।
हनुमान ने तुरंत ही उसका कपट पहचान िलया।

तािह मा र मा तसत ु बीरा। बा रिध पार गयउ मितधीरा॥


तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गंजु त चंचरीक मधु लोभा॥

पवनपु धीरबुि वीर हनुमान उसको मारकर समु के पार गए। वहाँ जाकर उ ह ने वन क
शोभा देखी। मधु (पु प रस) के लोभ से भ रे गुंजार कर रहे थे।

नाना त फल फूल सहु ाए। खग मगृ बंदृ देिख मन भाए॥


सैल िबसाल देिख एक आग। ता पर धाइ चढ़ेउ भय याग॥

अनेक कार के व ृ फल-फूल से शोिभत ह। प ी और पशुओ ं के समहू को देखकर तो वे मन म


(बहत ही) स न हए। सामने एक िवशाल पवत देखकर हनुमान भय यागकर उस पर दौड़कर
जा चढ़े ।

उमा न कछु किप कै अिधकाई। भु ताप जो कालिह खाई॥


िग र पर चिढ़ लंका तेिहं देखी। किह न जाइ अित दग
ु िबसेषी॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! इसम वानर हनुमान क कुछ बड़ाई नह है। यह भु का ताप है, जो
काल को भी खा जाता है। पवत पर चढ़कर उ ह ने लंका देखी। बहत ही बड़ा िकला है, कुछ कहा
नह जाता।

अित उतंग जलिनिध चह पासा। कनक कोट कर परम कासा॥

वह अ यंत ऊँचा है, उसके चार ओर समु है। सोने के परकोटे (चारदीवारी) का परम काश हो
रहा है।

छं ० - कनक कोिट िबिच मिन कृत संदु रायतना घना।


चउह ह सब ु बीथ चा परु बह िबिध बना॥
गज बािज ख चर िनकर पदचर रथ ब थि ह को गनै।
बह प िनिसचर जूथ अितबल सेन बरनत निहं बनै॥
िविच मिणय से जड़ा हआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहत-से सुंदर-सुंदर घर ह। चौराहे ,
बाजार, सुंदर माग और गिलयाँ ह; सुंदर नगर बहत कार से सजा हआ है। हाथी, घोड़े , ख चर
के समहू तथा पैदल और रथ के समहू को कौन िगन सकता है! अनेक प के रा स के दल
ह, उनक अ यंत बलवती सेना वणन करते नह बनती।

बन बाग उपबन बािटका सर कूप बाप सोहह ।


नर नाग सरु गंधब क या प मिु न मन मोहह ॥
कहँ माल देह िबसाल सैल समान अितबल गजह ।
नाना अखारे ह िभरिहं बहिबिध एक एक ह तजह ॥

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बाविलयाँ सुशोिभत ह। मनु य, नाग,
देवताओं और गंधव क क याएँ अपने स दय से मुिनय के भी मन को मोहे लेती ह। कह पवत
के समान िवशाल शरीरवाले बड़े ही बलवान म ल (पहलवान) गरज रहे ह। वे अनेक अखाड़ म
बहत कार से िभड़ते और एक-दूसरे को ललकारते ह।

क र जतन भट कोिट ह िबकट तन नगर चहँ िदिस र छह ।


कहँ मिहष मानष ु धेनु खर अज खल िनसाचर भ छह ॥
एिह लािग तलु सीदास इ ह क कथा कछु एक है कही।
रघब
ु ीर सर तीरथ सरीरि ह यािग गित पैहिहं सही॥

भयंकर शरीरवाले करोड़ यो ा य न करके (बड़ी सावधानी से) नगर क चार िदशाओं म (सब
ओर से) रखवाली करते ह। कह दु रा स भस , मनु य , गाय , गदह और बकर को खा रहे
ह। तुलसीदास ने इनक कथा इसीिलए कुछ थोड़ी-सी कही है िक ये िन य ही राम के बाण पी
तीथ म शरीर को यागकर परमगित पाएँ गे।

दो० - परु रखवारे देिख बह किप मन क ह िबचार।


अित लघु प धर िनिस नगर कर पइसार॥ 3॥

नगर के बहसं यक रखवाल को देखकर हनुमान ने मन म िवचार िकया िक अ यंत छोटा प


ध ँ और रात के समय नगर म वेश क ँ ॥ 3॥

मसक समान प किप धरी। लंकिह चलेउ सिु म र नरहरी॥


नाम लंिकनी एक िनिसचरी। सो कह चलेिस मोिह िनंदरी॥

हनुमान म छर के समान (छोटा-सा) प धारण कर नर प से लीला करनेवाले भगवान राम


का मरण करके लंका को चले। (लंका के ार पर) लंिकनी नाम क एक रा सी रहती थी। वह
बोली - मेरा िनरादर करके (िबना मुझसे पछ
ू े ) कहाँ चला जा रहा है?
जानेिह नह मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लिग चोरा॥
मिु ठका एक महा किप हनी। िधर बमत धरन ढनमनी॥

हे मख ू े मेरा भेद नह जाना? जहाँ तक (िजतने) चोर ह, वे सब मेरे आहार ह। महाकिप


ू ! तन
हनुमान ने उसे एक घँस ू ा मारा, िजससे वह खन
ू क उ टी करती हई प ृ वी पर ुढक पड़ी।

पिु न संभा र उठी सो लंका। जो र पािन कर िबनय ससंका॥


जब रावनिह बर दी हा। चलत िबरं च कहा मोिह ची हा॥

वह लंिकनी िफर अपने को सँभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर िवनती करने लगी।
(वह बोली -) रावण को जब ा ने वर िदया था, तब चलते समय उ ह ने मुझे रा स के िवनाश
क यह पहचान बता दी थी िक -

िबकल होिस त किप क मारे । तब जानेसु िनिसचर संघारे ॥


तात मोर अित पु य बहता। देखउे ँ नयन राम कर दूता॥

जब तू बंदर के मारने से याकुल हो जाए, तब तू रा स का संहार हआ जान लेना। हे तात! मेरे


बड़े पु य ह, जो म राम के दूत (आप) को ने से देख पाई।

दो० - तात वग अपबग सखु ध रअ तल


ु ा एक अंग।
तल
ू न तािह सकल िमिल जो सख
ु लव सतसंग॥ 4॥

हे तात! वग और मो के सब सुख को तराजू के एक पलड़े म रखा जाए, तो भी वे सब


िमलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हए) उस सुख के बराबर नह हो सकते, जो ण मा के स संग से
होता है॥ 4॥

िबिस नगर क जे सब काजा। दयँ रािख कोसलपरु राजा॥


गरल सधु ा रपु करिहं िमताई। गोपद िसंधु अनल िसतलाई॥

अयो यापुरी के राजा रघुनाथ को दय म रखे हए नगर म वेश करके सब काम क िजए। उसके
िलए िवष अमत ृ हो जाता है, श ु िम ता करने लगते ह, समु गाय के खुर के बराबर हो जाता है,
अि न म शीतलता आ जाती है।

ग ड़ समु े रे नु सम ताही। राम कृपा क र िचतवा जाही॥


अित लघु प धरे उ हनम ु ाना। पैठा नगर सिु म र भगवाना॥

और हे ग ड़! सुमे पवत उसके िलए रज के समान हो जाता है, िजसे राम ने एक बार कृपा
करके देख िलया। तब हनुमान ने बहत ही छोटा प धारण िकया और भगवान का मरण करके
नगर म वेश िकया।
मंिदर मंिदर ित क र सोधा। देखे जहँ तहँ अगिनत जोधा॥
गयउ दसानन मंिदर माह । अित िबिच किह जात सो नाह ॥

उ ह ने एक-एक ( येक) महल क खोज क । जहाँ-तहाँ असं य यो ा देखे। िफर वे रावण के


महल म गए। वह अ यंत िविच था, िजसका वणन नह हो सकता।

सयन िकएँ देखा किप तेही। मंिदर महँ न दीिख बैदहे ी॥


भवन एक पिु न दीख सहु ावा। ह र मंिदर तहँ िभ न बनावा॥

हनुमान ने उस (रावण) को सोया हआ देखा; परं तु महल म जानक नह िदखाई द । िफर एक


सुंदर महल िदखाई िदया। वहाँ (उसम) भगवान का एक अलग मंिदर बना हआ था।

दो० - रामायध
ु अंिकत गहृ सोभा बरिन न जाइ।
नव तल ु िसका बंदृ तहँ देिख हरष किपराई॥ 5॥

वह महल राम के आयुध (धनुष-बाण) के िच से अंिकत था, उसक शोभा वणन नह क जा


सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के व ृ -समहू को देखकर किपराज हनुमान हिषत हए॥ 5॥

लंका िनिसचर िनकर िनवासा। इहाँ कहाँ स जन कर बासा॥


मन महँ तरक कर किप लागा। तेह समय िबभीषनु जागा॥

लंका तो रा स के समहू का िनवास थान है। यहाँ स जन (साधु पु ष) का िनवास कहाँ?


हनुमान मन म इस कार तक करने लगे। उसी समय िवभीषण जागे।

राम राम तेिहं सिु मरन क हा। दयँ हरष किप स जन ची हा॥
एिह सन सिठ क रहउँ पिहचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥

उ ह ने (िवभीषण ने) राम नाम का मरण (उ चारण) िकया। हनुमान ने उ ह स जन जाना और


दय से हिषत हए। (हनुमान ने िवचार िकया िक) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) प रचय
क ँ गा, य िक साधु से काय क हािन नह होती ( युत लाभ ही होता है)।

िब प ध र बचन सन ु ाए। सन
ु त िबभीषन उिठ तहँ आए॥
क र नाम पूँछी कुसलाई। िब कहह िनज कथा बझ ु ाई॥

ा ण का प धरकर हनुमान ने उ ह वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही िवभीषण उठकर वहाँ


आए। णाम करके कुशल पछ
ू ी (और कहा िक) हे ा णदेव! अपनी कथा समझाकर किहए।

क तु ह ह र दास ह महँ कोई। मोर दय ीित अित होई॥


क तु ह रामु दीन अनरु ागी। आयह मोिह करन बड़भागी॥

या आप ह रभ म से कोई ह? य िक आपको देखकर मेरे दय म अ यंत ेम उमड़ रहा है।


अथवा या आप दीन से ेम करनेवाले वयं राम ही ह, जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दशन
देकर कृताथ करने) आए ह?

दो० - तब हनम
ु ंत कही सब राम कथा िनज नाम।
सनु त जुगल तन पल ु क मन मगन सिु म र गन
ु ाम॥ 6॥

तब हनुमान ने राम क सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोन के शरीर पुलिकत
हो गए और राम के गुणसमहू का मरण करके दोन के मन ( ेम और आनंद म) म न हो गए॥
6॥

सन
ु ह पवनसत ु रहिन हमारी। िजिम दसनि ह महँ जीभ िबचारी॥
तात कबहँ मोिह जािन अनाथा। क रहिहं कृपा भानक
ु ु ल नाथा॥

(िवभीषण ने कहा -) हे पवनपु ! मेरी रहनी सुनो। म यहाँ वैसे ही रहता हँ जैसे दाँत के बीच म
बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सय ू कुल के नाथ राम या कभी मुझ पर कृपा करगे?

तामस तनु कछु साधन नाह । ीत न पद सरोज मन माह ॥


अब मोिह भा भरोस हनम
ु ंता। िबनु ह रकृपा िमलिहं निहं संता॥

मेरा तामसी (रा स) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नह और न मन म राम के चरणकमल
म ेम ही है। परं तु हे हनुमान! अब मुझे िव ास हो गया िक राम क मुझ पर कृपा है; य िक ह र
क कृपा के िबना संत नह िमलते।

ज रघबु ीर अनु ह क हा। तौ तु ह मोिह दरसु हिठ दी हा॥


ु ह िबभीषन भु कै रीती। करिहं सदा सेवक पर ीित॥
सन

जब रघुवीर ने कृपा क है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दशन िदए ह। (हनुमान
ने कहा -) हे िवभीषण! सुिनए, भु क यही रीित है िक वे सेवक पर सदा ही ेम िकया करते ह।

कहह कवन म परम कुलीना। किप चंचल सबह िबिध हीना॥


ात लेइ जो नाम हमारा। तेिह िदन तािह न िमलै अहारा॥

भला किहए, म ही कौन बड़ा कुलीन हँ? (जाित का) चंचल वानर हँ और सब कार से नीच हँ।
ातःकाल जो हम लोग (बंदर ) का नाम ले ले तो उस िदन उसे भोजन न िमले।

दो० - अस म अधम सखा सन


ु ु मोह पर रघब
ु ीर।
क ह कृपा सिु म र गन
ु भरे िबलोचन नीर॥ 7॥

हे सखा! सुिनए, म ऐसा अधम हँ; पर राम ने तो मुझ पर भी कृपा ही क है। भगवान के गुण का
मरण करके हनुमान के दोन ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया॥ 7॥

जानतहँ अस वािम िबसारी। िफरिहं ते काहे न होिहं दख


ु ारी॥
एिह िबिध कहत राम गन
ु ामा। पावा अिनबा य िब ामा॥

जो जानते हए भी ऐसे वामी (रघुनाथ) को भुलाकर (िवषय के पीछे ) भटकते िफरते ह, वे दुःखी
य न ह ? इस कार राम के गुणसमहू को कहते हए उ ह ने अिनवचनीय (परम) शांित ा
क।

पिु न सब कथा िबभीषन कही। जेिह िबिध जनकसत ु ा तहँ रही॥


तब हनम ु ंत कहा सन
ु ु ाता। देखी चहउँ जानक माता॥

िफर िवभीषण ने, जानक िजस कार वहाँ (लंका म) रहती थ , वह सब कथा कही। तब हनुमान
ने कहा - हे भाई! सुनो, म जानक माता को देखता चाहता हँ।

जग
ु िु त िबभीषन सकल सन
ु ाई। चलेउ पवनसत
ु िबदा कराई॥
क र सोइ प गयउ पिु न तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥

िवभीषण ने (माता के दशन क ) सब युि याँ (उपाय) कह सुनाई ं। तब हनुमान िवदा लेकर चले।
िफर वही (पहले का मसक-सरीखा) प धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन म (वन के िजस भाग
म) सीता रहती थ ।

देिख मनिह महँ क ह नामा। बैठेिहं बीित जात िनिस जामा॥


कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपित दयँ रघप ु ित गन
ु े ी॥

सीता को देखकर हनुमान ने उ ह मन ही म णाम िकया। उ ह बैठे-ही-बैठे राि के चार पहर


बीत जाते ह। शरीर दुबला हो गया है, िसर पर जटाओं क एक वेणी (लट) है। दय म रघुनाथ के
गुणसमहू का जाप ( मरण) करती रहती ह।

दो० - िनज पद नयन िदएँ मन राम पद कमल लीन।


परम दख ु ी भा पवनसत
ु देिख जानक दीन॥ 8॥

जानक ने को अपने चरण म लगाए हए ह (नीचे क ओर देख रही ह) और मन राम के चरण


कमल म लीन है। जानक को दीन (दुःखी) देखकर पवनपु हनुमान बहत ही दुःखी हए॥ 8॥

त प लव महँ रहा लक
ु ाई। करइ िबचार कर का भाई॥
तेिह अवसर रावनु तहँ आवा। संग ना र बह िकएँ बनावा॥

हनुमान व ृ के प म िछपे रहे और िवचार करने लगे िक हे भाई! या क ँ (इनका दुःख कैसे
दूर क ँ )? उसी समय बहत-सी ि य को साथ िलए सज-धजकर रावण वहाँ आया।

बह िबिध खल सीतिह समझ ु ावा। साम दान भय भेद देखावा॥


कह रावनु सन
ु ु सम
ु िु ख सयानी। मंदोदरी आिद सब रानी॥

उस दु ने सीता को बहत कार से समझाया। साम, दान, भय और भेद िदखलाया। रावण ने


कहा - हे सुमुिख! हे सयानी! सुनो! मंदोदरी आिद सब रािनय को -

तव अनचु र करउँ पन मोरा। एक बार िबलोकु मम ओरा॥


ृ ध र ओट कहित बैदहे ी। सिु म र अवधपित परम सनेही॥
तन

म तु हारी दासी बना दँूगा, यह मेरा ण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम
नेही कोसलाधीश राम का मरण करके जानक ितनके क आड़ (परदा) करके कहने लग -

सन
ु ु दसमख
ु ख ोत कासा। कबहँ िक निलनी करइ िबकासा॥
अस मन समझ ु ु कहित जानक । खल सिु ध निहं रघब
ु ीर बान क ॥

हे दशमुख! सुन, जुगनू के काश से कभी कमिलनी िखल सकती है? जानक िफर कहती ह -
तू (अपने िलए भी) ऐसा ही मन म समझ ले। रे दु ! तुझे रघुवीर के बाण क खबर नह है।

सठ सून ह र आनेिह मोही। अधम िनल ज लाज निहं तोही॥

रे पापी! तू मुझे सन
ू े म हर लाया है। रे अधम! िनल ज! तुझे ल जा नह आती?

दो० - आपिु ह सिु न ख ोत सम रामिह भानु समान।


प ष बचन सिु न कािढ़ अिस बोला अित िखिसआन॥ 9॥

अपने को जुगनू के समान और राम को सय


ू के समान सुनकर और सीता के कठोर वचन को
सुनकर रावण तलवार िनकालकर बड़े गु से म आकर बोला - ॥ 9॥

सीता त मम कृत अपमाना। किटहउँ तव िसर किठन कृपाना॥


नािहं त सपिद मानु मम बानी। सम
ु िु ख होित न त जीवन हानी॥

ू े मेरा अपमान िकया है। म तेरा िसर इस कठोर कृपाण से काट डालँग
सीता! तन ू ा। नह तो (अब
भी) ज दी मेरी बात मान ले। हे सुमुिख! नह तो जीवन से हाथ धोना पड़े गा।
याम सरोज दाम सम संदु र। भु भजु क र कर सम दसकंधर॥
सो भज
ु कंठ िक तव अिस घोरा। सन ु ु सठ अस वान पन मोरा॥

(सीता ने कहा -) हे दश ीव! भु क भुजा जो याम कमल क माला के समान सुंदर और हाथी
क सँड़ू के समान (पु तथा िवशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कंठ म पड़े गी या तेरी भयानक
तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा स चा ण है।

चं हास ह मम प रतापं। रघप


ु ित िबरह अनल संजातं॥
सीतल िनिसत बहिस बर धारा। कह सीता ह मम दख ु भारा॥

सीता कहती ह - हे चं हास (तलवार)! रघुनाथ के िवरह क अि न से उ प न मेरी बड़ी भारी


जलन को तू हर ले। हे तलवार! तू शीतल, ती और े धारा बहाती है (अथात तेरी धारा ठं डी
और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले।

सन
ु त बचन पिु न मारन धावा। मयतनयाँ किह नीित बझ
ु ावा॥
कहेिस सकल िनिसच र ह बोलाई। सीतिह बह िबिध ासह जाई॥

सीता के ये वचन सुनते ही वह मारने दौड़ा। तब मय दानव क पु ी मंदोदरी ने नीित कहकर उसे
समझाया। तब रावण ने सब दािसय को बुलाकर कहा िक जाकर सीता को बहत कार से भय
िदखलाओ।

मास िदवस महँ कहा न माना। तौ म मारिब कािढ़ कृपाना॥

यिद महीने भर म यह कहा न माने तो म इसे तलवार िनकालकर मार डालँग


ू ा।

दो० - भवन गयउ दसकंधर इहाँ िपसािचिन बंदृ ।


सीतिह ास देखाविहं धरिहं प बह मंद॥ 10॥

(य कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ रा िसय के समहू बहत-से बुरे प धरकर सीता को भय
िदखलाने लगे॥ 10॥

ि जटा नाम रा छसी एका। राम चरन रित िनपनु िबबेका॥


सब हौ बोिल सनु ाएिस सपना। सीतिह सेइ करह िहत अपना॥

उनम एक ि जटा नाम क रा सी थी। उसक राम के चरण म ीित थी और वह िववेक ( ान) म
िनपुण थी। उसने सब को बुलाकर अपना व न सुनाया और कहा - सीता क सेवा करके अपना
क याण कर लो।

सपन बानर लंका जारी। जातध


ु ान सेना सब मारी॥
खर आ ढ़ नगन दससीसा। मंिु डत िसर खंिडत भज
ु बीसा॥

व न म (मने देखा िक) एक बंदर ने लंका जला दी। रा स क सारी सेना मार डाली गई। रावण
नंगा है और गदहे पर सवार है। उसके िसर मँुड़े हए ह, बीस भुजाएँ कटी हई ह।

एिह िबिध सो दि छन िदिस जाई। लंका मनहँ िबभीषन पाई॥


नगर िफरी रघबु ीर दोहाई। तब भु सीता बोिल पठाई॥

इस कार से वह दि ण (यमपुरी क ) िदशा को जा रहा है और मानो लंका िवभीषण ने पाई है।


नगर म राम क दुहाई िफर गई। तब भु ने सीता को बुला भेजा।

यह सपना म कहउँ पक ु ारी। होइिह स य गएँ िदन चारी॥


तासु बचन सिु न ते सब डर । जनकसत ु ा के चरनि ह पर ॥

म पुकारकर (िन य के साथ) कहती हँ िक यह व न चार (कुछ ही) िदन बाद स य होकर
रहे गा। उसके वचन सुनकर वे सब रा िसयाँ डर गई ं और जानक के चरण पर िगर पड़ ।

दो० - जहँ तहँ गई ं सकल तब सीता कर मन सोच।


मास िदवस बीत मोिह मा रिह िनिसचर पोच॥ 11॥

तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गई ं। सीता मन म सोच करने लग िक एक महीना बीत


जाने पर नीच रा स रावण मुझे मारे गा॥ 11॥

ि जटा सन बोल कर जोरी। मातु िबपित संिगिन त मोरी॥


तज देह क बेिग उपाई। दस
ु ह िबरह अब निहं सिह जाई॥

सीता हाथ जोड़कर ि जटा से बोल - हे माता! तू मेरी िवपि क संिगनी है। ज दी कोई ऐसा
उपाय कर िजससे म शरीर छोड़ सकँ ू । िवरह अस हो चला है, अब यह सहा नह जाता।

आिन काठ रचु िचता बनाई। मातु अनल पिु न देिह लगाई॥
स य करिह मम ीित सयानी। सन ु ै को वन सूल सम बानी॥

काठ लाकर िचता बनाकर सजा दे। हे माता! िफर उसम आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी ीित को
ू के समान दुःख देनेवाली वाणी कान से कौन सुने?
स य कर दे। रावण क शल

सनु त बचन पद गिह समझ ु ाएिस। भु ताप बल सज ु सु सन


ु ाएिस॥
िनिस न अनल िमल सन ु ु सकु ु मारी। अस किह सो िनज भवन िसधारी॥

सीता के वचन सुनकर ि जटा ने चरण पकड़कर उ ह समझाया और भु का ताप, बल और


सुयश सुनाया। (उसने कहा -) हे सुकुमारी! सुनो, राि के समय आग नह िमलेगी। ऐसा कहकर
वह अपने घर चली गई।

कह सीता िबिध भा ितकूला। िमिलिह न पावक िमिटिह न सूला॥


देिखअत गट गगन अंगारा। अविन न आवत एकउ तारा॥

सीता (मन-ही-मन) कहने लग - ( या क ँ ) िवधाता ही िवपरीत हो गया। न आग िमलेगी, न


पीड़ा िमटेगी। आकाश म अंगारे कट िदखाई दे रहे ह, पर प ृ वी पर एक भी तारा नह आता।

पावकमय सिस वत न आगी। मानहँ मोिह जािन हतभागी॥


सन
ु िह िबनय मम िबटप असोका। स य नाम क ह मम सोका॥

चं मा अि नमय है, िकंतु वह भी मानो मुझे हतभािगनी जानकर आग नह बरसाता। हे अशोक


व ृ ! मेरी िवनती सुन! मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम स य कर।

नूतन िकसलय अनल समाना। देिह अिगिन जिन करिह िनदाना॥


देिख परम िबरहाकुल सीता। सो छन किपिह कलप सम बीता॥

तेरे नए-नए कोमल प े अि न के समान ह। अि न दे, िवरह-रोग का अंत मत कर (अथात िवरह-


रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहँचा)। सीता को िवरह से परम याकुल देखकर वह ण हनुमान
को क प के समान बीता।

दो० - किप क र दयँ िबचार दीि ह मिु का डा र तब।


जनु असोक अंगार दी ह हरिष उिठ कर गहेउ॥ 12॥

तब हनुमान ने हदय म िवचार कर (सीता के सामने) अँगठ


ू ी डाल दी, मानो अशोक ने अंगारा दे
िदया। (यह समझकर) सीता ने हिषत होकर उठकर उसे हाथ म ले िलया॥ 12॥

तब देखी मिु का मनोहर। राम नाम अंिकत अित संदु र॥


चिकत िचतव मदु री पिहचानी। हरष िबषाद दयँ अकुलानी॥

तब उ ह ने राम-नाम से अंिकत अ यंत सुंदर एवं मनोहर अँगठ


ू ी देखी। अँगठ
ू ी को पहचानकर
सीता आ यचिकत होकर उसे देखने लग और हष तथा िवषाद से दय म अकुला उठ ।

जीित को सकइ अजय रघरु ाई। माया त अिस रिच निहं जाई॥
सीता मन िबचार कर नाना। मधरु बचन बोलेउ हनमु ाना॥

(वे सोचने लग -) रघुनाथ तो सवथा अजेय ह, उ ह कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी
(माया के उपादान से सवथा रिहत िद य, िच मय) अँगठ
ू ी बनाई नह जा सकती। सीता मन म
अनेक कार के िवचार कर रही थ । इसी समय हनुमान मधुर वचन बोले -

रामचं गनु बरन लागा। सन


ु तिहं सीता कर दख
ु भागा॥
लाग सनु वन मन लाई। आिदह त सब कथा सन ु ाई॥

वे रामचं के गुण का वणन करने लगे, (िजनके) सुनते ही सीता का दुःख भाग गया। वे कान
और मन लगाकर उ ह सुनने लग । हनुमान ने आिद से लेकर अब तक क सारी कथा कह
सुनाई।

वनामतृ जेिहं कथा सहु ाई। कही सो गट होित िकन भाई॥


तब हनम
ु ंत िनकट चिल गयऊ। िफ र बैठ मन िबसमय भयऊ॥

(सीता बोल -) िजसने कान के िलए अमतृ प यह संुदर कथा कही, वह हे भाई! कट य
नह होता? तब हनुमान पास चले गए। उ ह देखकर सीता िफरकर (मुख फेरकर) बैठ गई ं;
उनके मन म आ य हआ।

राम दूत म मातु जानक । स य सपथ क नािनधान क ॥


यह मिु का मातु म आनी। दीि ह राम तु ह कहँ सिहदानी॥

(हनुमान ने कहा -) हे माता जानक म राम का दूत हँ। क णािनधान क स ची शपथ करता हँ।
ू ी म ही लाया हँ। राम ने मुझे आपके िलए यह सिहदानी (िनशानी या पहचान)
हे माता! यह अँगठ
दी है।

नर बानरिह संग कह कैस। कही कथा भइ संगित जैस॥

ू ा -) नर और वानर का संग कहो कैसे हआ? तब हनुमान ने जैसे संग हआ था, वह


(सीता ने पछ
सब कथा कही।

दो० - किप के बचन स म


े सिु न उपजा मन िब वास
जाना मन म बचन यह कृपािसंधु कर दास॥ 13॥

हनुमान के ेमयु वचन सुनकर सीता के मन म िव ास उ प न हो गया। उ ह ने जान िलया


िक यह मन, वचन और कम से कृपासागर रघुनाथ का दास है॥ 13॥

ह रजन जािन ीित अित गाढ़ी। सजल नयन पल ु काविल बाढ़ी॥


बूड़त िबरह जलिध हनम
ु ाना। भयह तात मो कहँ जलजाना॥

भगवान का जन (सेवक) जानकर अ यंत गाढ़ी ीित हो गई। ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर


आया और शरीर अ यंत पुलिकत हो गया (सीता ने कहा -) हे तात हनुमान! िवरहसागर म डूबती
हई मेरे िलए तुम जहाज हए।

अब कह कुसल जाउँ बिलहारी। अनजु सिहत सख ु भवन खरारी॥


कोमलिचत कृपाल रघरु ाई। किप केिह हेतु धरी िनठुराई॥

म बिलहारी जाती हँ, अब छोटे भाई ल मण सिहत खर के श ु सुखधाम भु का कुशल-मंगल


कहो। रघुनाथ तो कोमल दय और कृपालु ह। िफर हे हनुमान! उ ह ने िकस कारण यह िन रता
धारण कर ली है?

सहज बािन सेवक सख


ु दायक। कबहँक सरु ित करत रघन ु ायक॥
कबहँ नयन मम सीतल ताता। होइहिहं िनरिख याम मदृ ु गाता॥

सेवक को सुख देना उनक वाभािवक बान है। वे रघुनाथ या कभी मेरी भी याद करते ह? हे
तात! या कभी उनके कोमल साँवले अंग को देखकर मेरे ने शीतल ह गे?

बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ ह िनपट िबसारी॥


देिख परम िबरहाकुल सीता। बोला किप मदृ ु बचन िबनीता॥

(मँुह से) वचन नह िनकलता, ने म (िवरह के आँसुओ ं का) जल भर आया। (बड़े दुःख से वे
बोल -) हा नाथ! आपने मुझे िबलकुल ही भुला िदया! सीता को िवरह से परम याकुल देखकर
हनुमान कोमल और िवनीत वचन बोले -

मातु कुसल भु अनज


ु समेता। तव दखु दख ु ी सकु ृ पा िनकेता॥
े ु राम क दूना॥
जिन जननी मानह िजयँ ऊना। तु ह ते म

हे माता! सुंदर कृपा के धाम भु भाई ल मण सिहत (शरीर से) कुशल ह, परं तु आपके दुःख से
दुःखी ह। हे माता! मन म लािन न मािनए (मन छोटा करके दुःख न क िजए)। राम के दय म
आपसे दूना ेम है।

दो० - रघप े ु अब सन
ु ित कर संदस ु ु जननी ध र धीर।
अस किह किप गदगद भयउ भरे िबलोचन नीर॥ 14॥

हे माता! अब धीरज धरकर रघुनाथ का संदेश सुिनए। ऐसा कहकर हनुमान ेम से ग द हो गए।
उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया॥ 14॥

कहेउ राम िबयोग तव सीता। मो कहँ सकल भए िबपरीता॥


नव त िकसलय मनहँ कृसानू। कालिनसा सम िनिस सिस भानू॥

(हनुमान बोले -) राम ने कहा है िक हे सीते! तु हारे िवयोग म मेरे िलए सभी पदाथ ितकूल हो
गए ह। व ृ के नए-नए कोमल प े मानो अि न के समान, राि कालराि के समान, चं मा
ू के समान।
सय

कुबलय िबिपन कंु त बन स रसा। बा रद तपत तेल जनु ब रसा॥


जे िहत रहे करत तेइ पीरा। उरग वास सम ि िबध समीरा॥

और कमल के वन भाल के वन के समान हो गए ह। मेघ मानो खौलता हआ तेल बरसाते ह। जो


िहत करनेवाले थे, वे ही अब पीड़ा देने लगे ह। ि िवध (शीतल, मंद, सुगंध) वायु साँप के ास के
समान (जहरीली और गरम) हो गई है।

कहेह त कछु दख
ु घिट होई। कािह कह यह जान न कोई॥
तव म े कर मम अ तोरा। जानत ि या एकु मनु मोरा॥

मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहँ िकससे? यह दुःख कोई जानता नह ।
हे ि ये! मेरे और तेरे ेम का त व (रह य) एक मेरा मन ही जानता है।

सो मनु सदा रहत तोिह पाह । जानु ीित रसु एतनेिह माह ॥
े ु सन
भु संदस ु त बैदहे ी। मगन म
े तन सिु ध निहं तेही॥

और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे ेम का सार इतने म ही समझ ले। भु का संदेश
सुनते ही जानक ेम म म न हो गई ं। उ ह शरीर क सुध न रही।

कह किप दयँ धीर ध माता। सिु म राम सेवक सख ु दाता॥


उर आनह रघप
ु ित भतु ाई। सिु न मम बचन तजह कदराई॥

हनुमान ने कहा - हे माता! दय म धैय धारण करो और सेवक को सुख देनेवाले राम का मरण
करो। रघुनाथ क भुता को दय म लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड़ दो।

दो० - िनिसचर िनकर पतंग सम रघप


ु ित बान कृसान।ु
जननी दयँ धीर ध जरे िनसाचर जान॥ु 15॥

रा स के समहू पतंग के समान और रघुनाथ के बाण अि न के समान ह। हे माता! दय म धैय


धारण करो और रा स को जला ही समझो॥ 15॥

ज रघबु ीर होित सिु ध पाई। करते निहं िबलंबु रघरु ाई॥


राम बान रिब उएँ जानक । तम ब थ कहँ जातध ु ान क ॥

ू के उदय होने पर
राम ने यिद खबर पाई होती तो वे िवलंब न करते। हे जानक ! रामबाण पी सय
रा स क सेना पी अंधकार कहाँ रह सकता है?
अबिहं मातु म जाउँ लवाई। भु आयस
ु निहं राम दोहाई॥
कछुक िदवस जननी ध धीरा। किप ह सिहत अइहिहं रघब ु ीरा॥

हे माता! म आपको अभी यहाँ से िलवा जाऊँ; पर राम क शपथ है, मुझे भु (उन) क आ ा नह
है। (अतः) हे माता! कुछ िदन और धीरज धरो। राम वानर सिहत यहाँ आएँ गे

िनिसचर मा र तोिह लै जैहिहं। ितहँ परु नारदािद जसु गैहिहं॥


ह सत
ु किप सब तु हिह समाना। जातध ु ान अित भट बलवाना॥

और रा स को मारकर आपको ले जाएँ गे। नारद आिद (ऋिष-मुिन) तीन लोक म उनका यश
गाएँ गे। (सीता ने कहा -) हे पु ! सब वानर तु हारे ही समान (न हे -न हे -से) ह गे, रा स तो बड़े
बलवान, यो ा ह।

मोर दय परम संदहे ा। सिु न किप गट क ि ह िनज देहा॥


कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अितबल बीरा॥

अतः मेरे दय म बड़ा भारी संदेह होता है (िक तुम-जैसे बंदर रा स को कैसे जीतगे)! यह
सुनकर हनुमान ने अपना शरीर कट िकया। सोने के पवत (सुमे ) के आकार का (अ यंत
िवशाल) शरीर था, जो यु म श ुओ ं के दय म भय उ प न करनेवाला, अ यंत बलवान और
वीर था।

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुिन लघु प पवनसुत लयऊ॥

तब (उसे देखकर) सीता के मन म िव ास हआ। हनुमान ने िफर छोटा प धारण कर िलया।

दो० - सन
ु ु माता साखामग
ृ निहं बल बिु िबसाल।
भु ताप त ग ड़िह खाइ परम लघु याल॥ 16॥

हे माता! सुनो, वानर म बहत बल-बुि नह होती। परं तु भु के ताप से बहत छोटा सप भी
ग ड़ को खा सकता है (अ यंत िनबल भी महान बलवान को मार सकता है)॥ 16॥

मन संतोष सन
ु त किप बानी। भगित ताप तेज बल सानी॥
आिसष दीि ह रामि य जाना। होह तात बल सील िनधाना॥

भि , ताप, तेज और बल से सनी हई हनुमान क वाणी सुनकर सीता के मन म संतोष हआ।


उ ह ने राम के ि य जानकर हनुमान को आशीवाद िदया िक हे तात! तुम बल और शील के
िनधान होओ।

अजर अमर गन
ु िनिध सत
ु होह। करहँ बहत रघन
ु ायक छोह॥
े मगन हनम
करहँ कृपा भु अस सिु न काना। िनभर म ु ाना॥

हे पु ! तुम अजर (बुढ़ापे से रिहत), अमर और गुण के खजाने होओ। रघुनाथ तुम पर बहत कृपा
कर। ' भु कृपा कर' ऐसा कान से सुनते ही हनुमान पण ू ेम म म न हो गए।

बार बार नाएिस पद सीसा। बोला बचन जो र कर क सा॥


अब कृतकृ य भयउँ म माता। आिसष तव अमोघ िब याता॥

हनुमान ने बार-बार सीता के चरण म िसर नवाया और िफर हाथ जोड़कर कहा - हे माता! अब म
कृताथ हो गया। आपका आशीवाद अमोघ (अचक ू ) है, यह बात िस है।

सन
ु ह मातु मोिह अितसय भूखा। लािग देिख संदु र फल खा॥
सनु ु सत
ु करिहं िबिपन रखवारी। परम सभु ट रजनीचर भारी॥

हे माता! सुनो, संुदर फलवाले व ृ को देखकर मुझे बड़ी ही भख


ू लग आई है। (सीता ने कहा -)
हे बेटा! सुनो, बड़े भारी यो ा रा स इस वन क रखवाली करते ह।

ित ह कर भय माता मोिह नाह ।


ज तु ह सख
ु मानह मन माह ॥

(हनुमान ने कहा -) हे माता! यिद आप मन म सुख मान ( स न होकर) आ ा द) तो मुझे


उनका भय तो िबलकुल नह है।

दो० - देिख बिु बल िनपन


ु किप कहेउ जानक जाह।
रघप
ु ित चरन दयँ ध र तात मधरु फल खाह॥ 17॥

हनुमान को बुि और बल म िनपुण देखकर जानक ने कहा - जाओ। हे तात! रघुनाथ के चरण
को दय म धारण करके मीठे फल खाओ॥ 17॥

चलेउ नाइ िस पैठेउ बागा। फल खाएिस त तोर लागा॥


रहे तहाँ बह भट रखवारे । कछु मारे िस कछु जाइ पक
ु ारे ॥

वे सीता को िसर नवाकर चले और बाग म घुस गए। फल खाए और व ृ को तोड़ने लगे। वहाँ
बहत-से यो ा रखवाले थे। उनम से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार क -

नाथ एक आवा किप भारी। तेिहं असोक बािटका उजारी॥


खाएिस फल अ िबटप उपारे । र छक मिद मिद मिह डारे ॥

(और कहा -) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोक वािटका उजाड़ डाली। फल
खाए, व ृ को उखाड़ डाला और रखवाल को मसल-मसलकर जमीन पर डाल िदया।

सिु न रावन पठए भट नाना। ित हिह देिख गजउ हनम


ु ाना॥
सब रजनीचर किप संघारे । गए पकु ारत कछु अधमारे ॥

यह सुनकर रावण ने बहत-से यो ा भेजे। उ ह देखकर हनुमान ने गजना क । हनुमान ने सब


रा स को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, िच लाते हए गए।

पिु न पठयउ तेिहं अ छकुमारा। चला संग लै सभ


ु ट अपारा॥
आवत देिख िबटप गिह तजा। तािह िनपाित महाधिु न गजा॥

िफर रावण ने अ य कुमार को भेजा। वह असं य े यो ाओं को साथ लेकर चला। उसे आते
देखकर हनुमान ने एक व ृ (हाथ म) लेकर ललकारा और उसे मारकर महा विन (बड़े जोर) से
गजना क ।

दो० - कछु मारे िस कछु मदिस कछु िमलएिस ध र धू र।


कछु पिु न जाइ पकु ारे भु मकट बल भू र॥ 18॥

उ ह ने सेना म से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर


धल
ू म िमला िदया। कुछ ने िफर जाकर पुकार क िक हे भु! बंदर बहत ही बलवान है॥ 18॥

ु बध लंकेस रसाना। पठएिस मेघनाद बलवाना॥


सिु न सत
मारिस जिन सत े ु ताही। देिखअ किपिह कहाँ कर आही॥
ु बाँधस

पु का वध सुनकर रावण ोिधत हो उठा और उसने (अपने जेठे पु ) बलवान मेघनाद को भेजा।
(उससे कहा िक -) हे पु ! मारना नह ; उसे बाँध लाना। उस बंदर को देखा जाए िक कहाँ का है।

चला इं िजत अतिु लत जोधा। बंधु िनधन सिु न उपजा ोधा॥


किप देखा दा न भट आवा। कटकटाइ गजा अ धावा॥

इं को जीतनेवाला अतुलनीय यो ा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे ोध हो आया।
हनुमान ने देखा िक अबक भयानक यो ा आया है। तब वे कटकटाकर गरजे और दौड़े ।

अित िबसाल त एक उपारा। िबरथ क ह लंकेस कुमारा॥


रहे महाभट ताके संगा। गिह गिह किप मदई िनज अंगा॥

उ ह ने एक बहत बड़ा व ृ उखाड़ िलया और (उसके हार से) लंके र रावण के पु मेघनाद को
िबना रथ का कर िदया (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक िदया)। उसके साथ जो बड़े -बड़े यो ा थे,
उनको पकड़-पकड़कर हनुमान अपने शरीर से मसलने लगे।
ित हिह िनपाित तािह सन बाजा। िभरे जुगल मानहँ गजराजा॥
मिु ठका मा र चढ़ा त जाई। तािह एक छन मु छा आई॥

उन सबको मारकर िफर मेघनाद से लड़ने लगे। (लड़ते हए वे ऐसे मालम


ू होते थे) मानो दो
गजराज ( े हाथी) िभड़ गए ह । हनुमान उसे एक घँस
ू ा मारकर व ृ पर जा चढ़े । उसको णभर
के िलए मू छा आ गई।

उिठ बहो र क ि हिस बह माया। जीित न जाइ भंजन जाया॥

िफर उठकर उसने बहत माया रची; परं तु पवन के पु उससे जीते नह जाते।

दो० - अ तेिह साँधा किप मन क ह िबचार।


ज न सर मानउँ मिहमा िमटइ अपार॥ 19॥

अंत म उसने ा का संधान ( योग) िकया, तब हनुमान ने मन म िवचार िकया िक यिद


ा को नह मानता हँ तो उसक अपार मिहमा िमट जाएगी॥ 19॥

बान किप कहँ तेिहं मारा। परितहँ बार कटकु संघारा॥


तेिहं देखा किप मु िछत भयऊ। नागपास बाँधिे स लै गयऊ॥

उसने हनुमान को बाण मारा, (िजसके लगते ही वे व ृ से नीचे िगर पड़े ) परं तु िगरते समय
भी उ ह ने बहत-सी सेना मार डाली। जब उसने देखा िक हनुमान मिू छत हो गए ह, तब वह
उनको नागपाश से बाँधकर ले गया।

जासु नाम जिप सन ु ह भवानी। भव बंधन काटिहं नर यानी॥


तासु दूत िक बंध त आवा। भु कारज लिग किपिहं बँधावा॥

(िशव कहते ह -) हे भवानी! सुनो, िजनका नाम जपकर ानी (िववेक ) मनु य संसार (ज म-
मरण) के बंधन को काट डालते ह, उनका दूत कह बंधन म आ सकता है? िकंतु भु के काय के
िलए हनुमान ने वयं अपने को बँधवा िलया।

किप बंधन सिु न िनिसचर धाए। कौतक


ु लािग सभाँ सब आए॥
दसमखु सभा दीिख किप जाई। किह न जाइ कछु अित भत ु ाई॥

बंदर का बाँधा जाना सुनकर रा स दौड़े और कौतुक के िलए (तमाशा देखने के िलए) सब सभा
म आए। हनुमान ने जाकर रावण क सभा देखी। उसक अ यंत भुता (ऐ य) कुछ कही नह
जाती।

कर जोर सरु िदिसप िबनीता। भक


ृ ु िट िबलोकत सकल सभीता॥
देिख ताप न किप मन संका। िजिम अिहगन महँ ग ड़ असंका॥

देवता और िद पाल हाथ जोड़े बड़ी न ता के साथ भयभीत हए सब रावण क भ ताक रहे ह।
(उसका ख देख रहे ह।) उसका ऐसा ताप देखकर भी हनुमान के मन म जरा भी डर नह
हआ। वे ऐसे िनःशंक खड़े रहे , जैसे सप के समहू म ग ड़ िनःशंक िनभय) रहते ह।

दो० - किपिह िबलोिक दसानन िबहसा किह दब ु ाद।


सतु बध सरु ित क ि ह पिु न उपजा दयँ िबसाद॥ 20॥

हनुमान को देखकर रावण दुवचन कहता हआ खबू हँसा। िफर पु -वध का मरण िकया तो
उसके दय म िवषाद उ प न हो गया॥ 20॥

कह लंकेस कवन त क सा। केिह क बल घालेिह बन खीसा॥


क ध वन सन ु िे ह निहं मोही। देखउँ अित असंक सठ तोही॥

लंकापित रावण ने कहा - रे वानर! तू कौन है? िकसके बल पर तन


ू े वन को उजाड़कर न कर
डाला? या तन ू े कभी मेरा नाम और यश कान से नह सुना? रे शठ! म तुझे अ यंत िनःशंक
देख रहा हँ।

मारे िनिसचर केिहं अपराधा। कह सठ तोिह न ान कइ बाधा॥


सन
ु ु रावन ांड िनकाया। पाइ जासु बल िबरचित माया॥

तनू े िकस अपराध से रा स को मारा? रे मख


ू ! बता, या तुझे ाण जाने का भय नह है?
(हनुमान ने कहा -) हे रावण! सुन, िजनका बल पाकर माया संपणू ांड के समहू क रचना
करती है;

जाक बल िबरं िच ह र ईसा। पालत सज


ृ त हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत िग र कानन॥

िजनके बल से हे दशशीश! ा, िव णु, महे श ( मशः) सिृ का सज


ृ न, पालन और संहार
करते ह; िजनके बल से सह मुख (फण ) वाले शेष पवत और वनसिहत सम त ांड को िसर
पर धारण करते ह;

धरइ जो िबिबध देह सरु ाता। तु ह से सठ ह िसखावनु दाता॥


हर कोदंड किठन जेिहं भंजा। तेिह समेत नप
ृ दल मद गंजा॥

जो देवताओं क र ा के िलए नाना कार क देह धारण करते ह और जो तु हारे -जैसे मखू को
िश ा देनेवाले ह; िज ह ने िशव के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के
समहू का गव चण ू कर िदया।
खर दूषन ि िसरा अ बाली। बधे सकल अतुिलत बलसाली॥

िज ह ने खर, दूषण, ि िशरा और बािल को मार डाला, जो सब-के-सब अतुलनीय बलवान थे;

दो० - जाके बल लवलेस त िजतेह चराचर झा र।


तास दूत म जा क र ह र आनेह ि य ना र॥ 21॥

िजनके लेशमा बल से तुमने सम त चराचर जगत को जीत िलया और िजनक ि य प नी को


तुम (चोरी से) हर लाए हो, म उ ह का दूत हँ॥ 21॥

जानउँ म तु हा र भत
ु ाई। सहसबाह सन परी लराई॥
समर बािल सन क र जसु पावा। सिु न किप बचन िबहिस िबहरावा॥

म तु हारी भुता को खबू जानता हँ, सह बाह से तु हारी लड़ाई हई थी और बािल से यु करके
तुमने यश ा िकया था। हनुमान के (मािमक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी।

खायउँ फल भु लागी भूँखा। किप सभु ाव त तोरे उँ खा॥


सब क देह परम ि य वामी। मारिहं मोिह कुमारग गामी॥

हे (रा स के) वामी! मुझे भख ू लगी थी, (इसिलए) मने फल खाए और वानर वभाव के कारण
व ृ तोड़े । हे (िनशाचर के) मािलक! देह सबको परम ि य है। कुमाग पर चलनेवाले (दु ) रा स
जब मुझे मारने लगे।

िज ह मोिह मारा ते म मारे । तेिह पर बाँधउे ँ तनयँ तु हारे ॥


मोिह न कछु बाँधे कइ लाजा। क ह चहउँ िनज भु कर काजा॥

तब िज ह ने मुझे मारा, उनको मने भी मारा। उस पर तु हारे पु ने मुझको बाँध िलया। (िकंतु),
मुझे अपने बाँधे जाने क कुछ भी ल जा नह है। म तो अपने भु का काय करना चाहता हँ।

िबनती करउँ जो र कर रावन। सनु ह मान तिज मोर िसखावन॥


देखह तु ह िनज कुलिह िबचारी। म तिज भजह भगत भय हारी॥

हे रावण! म हाथ जोड़कर तुमसे िवनती करता हँ, तुम अिभमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम
अपने पिव कुल का िवचार करके देखो और म को छोड़कर भ भयहारी भगवान को भजो।

जाक डर अित काल डेराई। जो सरु असरु चराचर खाई॥


तास बय कबहँ निहं क जै। मोरे कह जानक दीजै॥
जो देवता, रा स और सम त चराचर को खा जाता है, वह काल भी िजनके डर से अ यंत डरता
है, उनसे कदािप वैर न करो और मेरे कहने से जानक को दे दो।

दो० - नतपाल रघनु ायक क ना िसंधु खरा र।


गएँ सरन भु रािखह तव अपराध िबसा र॥ 22॥

खर के श ु रघुनाथ शरणागत के र क और दया के समु ह। शरण जाने पर भु तु हारा


अपराध भुलाकर तु ह अपनी शरण म रख लगे॥ 22॥

राम चरन पंकज उर धरह। लंका अचल राजु तु ह करह॥


रिष पल
ु ि त जसु िबमल मयंका। तेिह सिस महँ जिन होह कलंका॥

तुम राम के चरण कमल को दय म धारण करो और लंका का अचल रा य करो। ऋिष पुल य
का यश िनमल चं मा के समान है। उस चं मा म तुम कलंक न बनो।

राम नाम िबनु िगरा न सोहा। देखु िबचा र यािग मद मोहा॥


बसन हीन निहं सोह सरु ारी। सब भूषन भूिषत बर नारी॥

राम नाम के िबना वाणी शोभा नह पाती, मद-मोह को छोड़, िवचारकर देखो। हे देवताओं के श ु!
सब गहन से सजी हई संुदरी ी भी कपड़ के िबना (नंगी) शोभा नह पाती।

राम िबमख
ु संपित भतु ाई। जाइ रही पाई िबनु पाई॥
सजल मूल िज ह स रत ह नाह । बरिष गएँ पिु न तबिहं सख
ु ाह ॥

रामिवमुख पु ष क संपि और भुता रही हई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के


समान है। िजन निदय के मल ू म कोई जल ोत नह है (अथात िज ह केवल बरसात ही आसरा
है) वे वषा बीत जाने पर िफर तुरंत ही सख
ू जाती ह।

सनु ु दसकंठ कहउँ पन रोपी। िबमख


ु राम ाता निहं कोपी॥
संकर सहस िब नु अज तोही। सकिहं न रािख राम कर ोही॥

हे रावण! सुनो, म ित ा करके कहता हँ िक रामिवमुख क र ा करनेवाला कोई भी नह है।


हजार शंकर, िव णु और ा भी राम के साथ ोह करनेवाले तुमको नह बचा सकते।

दो० - मोहमूल बह सूल द यागह तम अिभमान।


भजह राम रघन ु ायक कृपा िसंधु भगवान॥ 23॥

मोह ही िजनका मलू है ऐसे (अ ानजिनत), बहत पीड़ा देनेवाले, तम प अिभमान का याग कर
दो और रघुकुल के वामी, कृपा के समु भगवान राम का भजन करो॥ 23॥
जदिप कही किप अित िहत बानी। भगित िबबेक िबरित नय सानी॥
बोला िबहिस महा अिभमानी। िमला हमिह किप गरु बड़ यानी॥

य िप हनुमान ने भि , ान, वैरा य और नीित से सनी हई बहत ही िहत क वाणी कही, तो भी


वह महान अिभमानी रावण बहत हँसकर ( यं य से) बोला िक हम यह बंदर बड़ा ानी गु
िमला!

म ृ यु िनकट आई खल तोही। लागेिस अधम िसखावन मोही॥


उलटा होइिह कह हनम
ु ाना। मित म तोर गट म जाना॥

रे दु ! तेरी म ृ यु िनकट आ गई है। अधम! मुझे िश ा देने चला है। हनुमान ने कहा - इससे उलटा
ही होगा (अथात म ृ यु तेरी िनकट आई है, मेरी नह )। यह तेरा मित म (बुि का फेर) है, मने
य जान िलया है।

सिु न किप बचन बहत िखिसआना। बेिग न हरह मूढ़ कर ाना॥


सन ु त िनसाचर मारन धाए। सिचव ह सिहत िबभीषनु आए॥

हनुमान के वचन सुनकर वह बहत ही कुिपत हो गया। (और बोला -) अरे ! इस मख


ू का ाण शी
ही य नह हर लेते? सुनते ही रा स उ ह मारने दौड़े । उसी समय मंि य के साथ िवभीषण वहाँ
आ पहँचे।

नाइ सीस क र िबनय बहता। नीित िबरोध न मा रअ दूता॥


आन दंड कछु क रअ गोसाँई। सबह कहा मं भल भाई॥

उ ह ने िसर नवाकर और बहत िवनय करके रावण से कहा िक दूत को मारना नह चािहए, यह
नीित के िव है। हे गोसाई ं! कोई दूसरा दंड िदया जाए। सबने कहा - भाई! यह सलाह उ म है।

सुनत िबहिस बोला दसकंधर। अंग भंग क र पठइअ बंदर॥

यह सुनते ही रावण हँसकर बोला - अ छा तो, बंदर को अंग-भंग करके भेज (लौटा) िदया जाए।

दो० - किप क ममता पूँछ पर सबिह कहउँ समझ ु ाइ।


तेल बो र पट बाँिध पिु न पावक देह लगाइ॥ 24॥

म सबको समझाकर कहता हँ िक बंदर क ममता पँछू पर होती है। अतः तेल म कपड़ा डुबोकर
उसे इसक पँछ
ू म बाँधकर िफर आग लगा दो॥ 24॥

पँूछहीन बानर तहँ जाइिह। तब सठ िनज नाथिह लइ आइिह॥


िज ह कै क ि हिस बहत बड़ाई। देखउ म ित ह कै भत ु ाई॥
ू का यह बंदर वहाँ (अपने वामी के पास) जाएगा, तब यह मख
जब िबना पँछ ू अपने मािलक को
साथ ले आएगा। िजनक इसने बहत बड़ाई क है, म जरा उनक भुता (साम य) तो देखँ!ू

बचन सन ु त किप मन मस ु क
ु ाना। भइ सहाय सारद म जाना॥
जातध
ु ान सिु न रावन बचना। लागे रच मूढ़ सोइ रचना॥

यह वचन सुनते ही हनुमान मन म मुसकराए (और मन-ही-मन बोले िक) म जान गया, सर वती
(इसे ऐसी बुि देने म) सहायक हई ह। रावण के वचन सुनकर मख
ू रा स वही (पँछ
ू म आग
लगाने क ) तैयारी करने लगे।

रहा न नगर बसन घत ृ तेला। बाढ़ी पूँछ क ह किप खेला॥


कौतकु कहँ आए परु बासी। मारिहं चरन करिहं बह हाँसी॥

ू के लपेटने म इतना कपड़ा और घी-तेल लगा िक) नगर म कपड़ा, घी और तेल नह रह


(पँछ
गया। हनुमान ने ऐसा खेल िकया िक पँछू बढ़ गई (लंबी हो गई)। नगरवासी लोग तमाशा देखने
आए। वे हनुमान को पैर से ठोकर मारते ह और उनक हँसी करते ह।

बाजिहं ढोल देिहं सब तारी। नगर फे र पिु न पँूछ जारी॥


पावक जरत देिख हनम ु ंता। भयउ परम लघु प तरु ं ता॥

ढोल बजते ह, सब लोग तािलयाँ पीटते ह। हनुमान को नगर म िफराकर, िफर पँछ
ू म आग लगा
दी। अि न को जलते हए देखकर हनुमान तुरंत ही बहत छोटे प म हो गए।

िनबुिक चढ़े उ कप कनक अटार । भई ं सभीत िनसाचर नार ॥

बंधन से िनकलकर वे सोने क अटा रय पर जा चढ़े । उनको देखकर रा स क ि याँ भयभीत


हो गई ं।

दो० - ह र े रत तेिह अवसर चले म त उनचास।


अ हास क र गजा किप बिढ़ लाग अकास॥ 25॥

उस समय भगवान क ेरणा से उनचास पवन चलने लगे। हनुमान अ हास करके गरजे और
बढ़कर आकाश से जा लगे॥ 25॥

देह िबसाल परम ह आई। मंिदर त मंिदर चढ़ धाई॥


जरइ नगर भा लोग िबहाला। झपट लपट बह कोिट कराला॥

देह बड़ी िवशाल, परं तु बहत ही ह क (फुत ली) है। वे दौड़कर एक महल से दूसरे महल पर चढ़
जाते ह। नगर जल रहा है, लोग बेहाल हो गए ह। आग क करोड़ भयंकर लपट झपट रही ह।
तात मातु हा सिु नअ पक
ु ारा। एिहं अवसर को हमिह उबारा॥
हम जो कहा यह किप निहं होई। बानर प धर सरु कोई॥

हाय ब पा! हाय मैया! इस अवसर पर हम कौन बचाएगा? (चार ओर) यही पुकार सुनाई पड़ रही
है। हमने तो पहले ही कहा था िक यह वानर नह है, वानर का प धरे कोई देवता है!

साधु अव या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥


जारा नग िनिमष एक माह । एक िबभीषन कर गहृ नाह ॥

साधु के अपमान का यह फल है िक नगर, अनाथ के नगर क तरह जल रहा है। हनुमान ने एक


ही ण म सारा नगर जला डाला। एक िवभीषण का घर नह जलाया।

ता कर दूत अनल जेिहं िस रजा। जरा न सो तेिह कारन िग रजा॥


उलिट पलिट लंका सब जारी। कूिद परा पिु न िसंधु मझारी॥

(िशव कहते ह -) हे पावती! िज ह ने अि न को बनाया, हनुमान उ ह के दूत ह। इसी कारण वे


अि न से नह जले। हनुमान ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लंका जला दी।
िफर वे समु म कूद पड़े ॥

दो० - पँूछ बझु ाइ खोइ म ध र लघु प बहो र।


जनकसत ु ा क आग ठाढ़ भयउ कर जो र॥ 26॥

ू बुझाकर, थकावट दूर करके और िफर छोटा-सा प धारण कर हनुमान जानक के सामने
पँछ
हाथ जोड़कर जा खड़े हए॥ 26॥

मातु मोिह दीजे कछु ची हा। जैस रघन


ु ायक मोिह दी हा॥
चूड़ामिन उता र तब दयऊ। हरष समेत पवनसत ु लयऊ॥

(हनुमान ने कहा -) हे माता! मुझे कोई िच (पहचान) दीिजए, जैसे रघुनाथ ने मुझे िदया था। तब
सीता ने चड़
ू ामिण उतारकर दी। हनुमान ने उसको हषपवू क ले िलया।

कहेह तात अस मोर नामा। सब कार भु पूरनकामा॥


दीन दयाल िब रदु संभारी। हरह नाथ सम संकट भारी॥

(जानक ने कहा -) हे तात! मेरा णाम िनवेदन करना और इस कार कहना - हे भु! य िप
आप सब कार से पण ू काम ह (आपको िकसी कार क कामना नह है), तथािप दीन
(दुःिखय ) पर दया करना आपका िवरद है (और म दीन हँ) अतः उस िवरद को याद करके, हे
नाथ! मेरे भारी संकट को दूर क िजए।
तात स सतु कथा सनाएह। बान ताप भिु ह समझ ु ाएह॥
मास िदवस महँ नाथु न आवा। तौ पिु न मोिह िजअत निहं पावा॥

हे तात! इं पु जयंत क कथा (घटना) सुनाना और भु को उनके बाण का ताप समझाना


( मरण कराना)। यिद महीने भर म नाथ न आए तो िफर मुझे जीती न पाएँ गे।

कह किप केिह िबिध राख ाना। तु हह तात कहत अब जाना॥


तोिह देिख सीतिल भइ छाती। पिु न मो कहँ सोइ िदनु सो राती॥

हे हनुमान! कहो, म िकस कार ाण रखँ!ू हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको
देखकर छाती ठं डी हई थी। िफर मुझे वही िदन और वही रात!

दो० - जनकसत
ु िह समझ
ु ाइ क र बह िबिध धीरजु दी ह।
चरन कमल िस नाइ किप गवनु राम पिहं क ह॥ 27॥

हनुमान ने जानक को समझाकर बहत कार से धीरज िदया और उनके चरणकमल म िसर
नवाकर राम के पास गमन िकया॥ 27॥

चलत महाधिु न गजिस भारी। गभ विहं सिु न िनिसचर नारी॥


नािघ िसंधु एिह पारिह आवा। सबद िकिलिकला किप ह सनु ावा॥

चलते समय उ ह ने महा विन से भारी गजन िकया, िजसे सुनकर रा स क ि य के गभ


िगरने लगे। समु लाँघकर वे इस पार आए और उ ह ने वानर को िकलिकला श द (हष विन)
सुनाया।

हरषे सब िबलोिक हनम


ु ाना। नूतन ज म किप ह तब जाना॥
मख
ु स न तन तेज िबराजा। क हेिस रामचं कर काजा॥

हनुमान को देखकर सब हिषत हो गए और तब वानर ने अपना नया ज म समझा। हनुमान का


मुख स न है और शरीर म तेज िवराजमान है, (िजससे उ ह ने समझ िलया िक) ये रामचं का
काय कर आए ह।

िमले सकल अित भए सख ु ारी। तलफत मीन पाव िजिम बारी॥


चले हरिष रघन
ु ायक पासा। पूँछत कहत नवल इितहासा॥

सब हनुमान से िमले और बहत ही सुखी हए, जैसे तड़पती हई मछली को जल िमल गया हो। सब
ू ते- कहते हए रघुनाथ के पास चले।
हिषत होकर नए-नए इितहास (व ृ ांत) पछ

तब मधब
ु न भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मिु हार हनत सब भागे॥

तब सब लोग मधुवन के भीतर आए और अंगद क स मित से सबने मधुर फल (या मधु और फल)
खाए। जब रखवाले बरजने लगे, तब घँस
ू क मार मारते ही सब रखवाले भाग छूटे।

दो० - जाइ पकु ारे ते सब बन उजार जुबराज।


सिु न सु ीव हरष किप क र आए भु काज॥ 28॥

उन सबने जाकर पुकारा िक युवराज अंगद वन उजाड़ रहे ह। यह सुनकर सु ीव हिषत हए िक


वानर भु का काय कर आए ह॥ 28॥

ु न के फल सकिहं िक खाई॥
ज न होित सीता सिु ध पाई। मधब
एिह िबिध मन िबचार कर राजा। आइ गए किप सिहत समाजा॥

यिद सीता क खबर न पाई होती तो या वे मधुवन के फल खा सकते थे? इस कार राजा
सु ीव मन म िवचार कर ही रहे थे िक समाज-सिहत वानर आ गए।

आइ सबि ह नावा पद सीसा। िमलेउ सबि ह अित म े कपीसा॥


पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु िबसेषी॥

(सबने आकर सु ीव के चरण म िसर नवाया। किपराज सु ीव सभी से बड़े ेम के साथ िमले।
उ ह ने कुशल पछू ी, (तब वानर ने उ र िदया -) आपके चरण के दशन से सब कुशल है। राम
क कृपा से िवशेष काय हआ (काय म िवशेष सफलता हई है)।

नाथ काजु क हेउ हनम ु ाना। राखे सकल किप ह के ाना॥


सिु न सु ीव बह र तेिह िमलेऊ। किप ह सिहत रघप
ु ित पिहं चलेऊ॥

हे नाथ! हनुमान ने सब काय िकया और सब वानर के ाण बचा िलए। यह सुनकर सु ीव


हनुमान से िफर िमले और सब वानर समेत रघुनाथ के पास चले।

राम किप ह जब आवत देखा। िकएँ काजु मन हरष िबसेषा॥


फिटक िसला बैठे ौ भाई। परे सकल किप चरनि ह जाई॥

राम ने जब वानर को काय िकए हए आते देखा तब उनके मन म िवशेष हष हआ। दोन भाई
फिटक िशला पर बैठे थे। सब वानर जाकर उनके चरण पर िगर पड़े ।

दो० - ीित सिहत सब भटे रघप


ु ित क ना पंज
ु ॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देिख पद कंज॥ 29॥
दया क रािश रघुनाथ सबसे ेम सिहत गले लगकर िमले और कुशल पछ
ू ी। (वानर ने कहा -) हे
नाथ! आपके चरण कमल के दशन पाने से अब कुशल है॥ 29॥

जामवंत कह सनु ु रघरु ाया। जा पर नाथ करह तु ह दाया॥


तािह सदा सभ
ु कुसल िनरं तर। सरु नर मिु न स न ता ऊपर॥

जा बवान ने कहा - हे रघुनाथ! सुिनए। हे नाथ! िजस पर आप दया करते ह, उसे सदा क याण
और िनरं तर कुशल है। देवता, मनु य और मुिन सभी उस पर स न रहते ह।

सोइ िबजई िबनई गन


ु सागर। तासु सज ै ोक उजागर॥
ु सु ल
भु क कृपा भयउ सबु काजू। ज म हमार सफु ल भा आजू॥

वही िवजयी है, वही िवनयी है और वही गुण का समु बन जाता है। उसी का संुदर यश तीन
लोक म कािशत होता है। भु क कृपा से सब काय हआ। आज हमारा ज म सफल हो गया।

नाथ पवनसत
ु क ि ह जो करनी। सहसहँ मख ु न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के च रत सहु ाए। जामवंत रघप
ु ितिह सन
ु ाए॥

हे नाथ! पवनपु हनुमान ने जो करनी क , उसका हजार मुख से भी वणन नह िकया जा


सकता। तब जा बवान ने हनुमान के संुदर च र (काय) रघुनाथ को सुनाए।

सन
ु त कृपािनिध मन अित भाए। पिु न हनम
ु ान हरिष िहयँ लाए॥
कहह तात केिह भाँित जानक । रहित करित र छा व ान क ॥

(वे च र ) सुनने पर कृपािनिध रामचंद के मन को बहत ही अ छे लगे। उ ह ने हिषत होकर


हनुमान को िफर दय से लगा िलया और कहा - हे तात! कहो, सीता िकस कार रहती और
अपने ाण क र ा करती ह?

दो० - नाम पाह िदवस िनिस यान तु हार कपाट।


लोचन िनज पद जंि त जािहं ान केिहं बाट॥ 30॥

(हनुमान ने कहा -) आपका नाम रात-िदन पहरा देनेवाला है, आपका यान ही िकवाड़ है। ने
को अपने चरण म लगाए रहती ह, यही ताला लगा है; िफर ाण जाएँ तो िकस माग से?॥ 30॥

चलत मोिह चूड़ामिन दी ही। रघप


ु ित दयँ लाइ सोइ ली ही॥
नाथ जुगल लोचन भ र बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥

चलते समय उ ह ने मुझे चड़ू ामिण (उतारकर) दी। रघुनाथ ने उसे लेकर दय से लगा िलया।
(हनुमान ने िफर कहा -) हे नाथ! दोन ने म जल भरकर जानक ने मुझसे कुछ वचन कहे -
अनज
ु समेत गहेह भु चरना। दीन बंधु नतारित हरना॥
मन म बचन चरन अनरु ागी। केिहं अपराध नाथ ह यागी॥

छोटे भाई समेत भु के चरण पकड़ना (और कहना िक) आप दीनबंधु ह, शरणागत के दुःख को
हरनेवाले ह और म मन, वचन और कम से आपके चरण क अनुरािगणी हँ। िफर वामी (आप) ने
मुझे िकस अपराध से याग िदया?

अवगनु एक मोर म माना। िबछुरत ान न क ह पयाना॥


नाथ सो नयनि ह को अपराधा। िनसरत ान करिहं हिठ बाधा॥

(हाँ) एक दोष म अपना (अव य) मानती हँ िक आपका िवयोग होते ही मेरे ाण नह चले गए।
िकंतु हे नाथ! यह तो ने का अपराध है जो ाण के िनकलने म हठपवू क बाधा देते ह।

िबरह अिगिन तनु तल


ू समीरा। वास जरइ छन मािहं सरीरा॥
नयन विहं जलु िनज िहत लागी। जर न पाव देह िबरहागी॥

िवरह अि न है, शरीर ई है और ास पवन है; इस कार (अि न और पवन का संयोग होने से)
यह शरीर णमा म जल सकता है। परं तु ने अपने िहत के िलए भु का व प देखकर (सुखी
होने के िलए) जल (आँस)ू बरसाते ह, िजससे िवरह क आग से भी देह जलने नह पाती।

सीता कै अित िबपित िबसाला। िबनिहं कह भिल दीनदयाला॥

सीता क िवपि बहत बड़ी है। हे दीनदयालु! वह िबना कही ही अ छी है (कहने से आपको बड़ा
लेश होगा)।

दो० - िनिमष िनिमष क नािनिध जािहं कलप सम बीित।


बेिग चिलअ भु आिनअ भजु बल खल दल जीित॥ 31॥

हे क णािनधान! उनका एक-एक पल क प के समान बीतता है। अतः हे भु! तुरंत चिलए और
अपनी भुजाओं के बल से दु के दल को जीतकर सीता को ले आइए॥ 31॥

सिु न सीता दख
ु भु सख
ु अयना। भ र आए जल रािजव नयना॥
बचन कायँ मन मम गित जाही। सपनेहँ बूिझअ िबपित िक ताही॥

सीता का दुःख सुनकर सुख के धाम भु के कमल ने म जल भर आया (और वे बोले -) मन,
वचन और शरीर से िजसे मेरी ही गित (मेरा ही आ य) है, उसे या व न म भी िवपि हो सकती
है?

कह हनम
ु ंत िबपित भु सोई। जब तव सिु मरन भजन न होई॥
केितक बात भु जातध
ु ान क । रपिु ह जीित आिनबी जानक ॥

हनुमान ने कहा - हे भो! िवपि तो वही (तभी) है जब आपका भजन- मरण न हो। हे भो!
रा स क बात ही िकतनी है? आप श ु को जीतकर जानक को ले आएँ गे।

सन
ु ु किप तोिह समान उपकारी। निहं कोउ सरु नर मिु न तनध
ु ारी॥
ित उपकार कर का तोरा। सनमख ु होइ न सकत मन मोरा॥

(भगवान कहने लगे -) हे हनुमान! सुन, तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनु य अथवा मुिन कोई
भी शरीरधारी नह है। म तेरा युपकार (बदले म उपकार) तो या क ँ , मेरा मन भी तेरे सामने
नह हो सकता।

सन ु तोिह उ रन म नाह । देखउे ँ क र िबचार मन माह ॥


ु ु सत
पिु न पिु न किपिह िचतव सरु ाता। लोचन नीर पल ु क अित गाता॥

हे पु ! सुन, मने मन म (खबू ) िवचार करके देख िलया िक म तुझसे उऋण नह हो सकता।
देवताओं के र क भु बार-बार हनुमान को देख रहे ह। ने म ेमा ुओ ं का जल भरा है और
शरीर अ यंत पुलिकत है।

दो० - सिु न भु बचन िबलोिक मखु गात हरिष हनम


ु ंत।
चरन परे उ म े ाकुल ािह ािह भगवंत॥ 32॥

भु के वचन सुनकर और उनके ( स न) मुख तथा (पुलिकत) अंग को देखकर हनुमान हिषत
हो गए और ेम म िवकल होकर 'हे भगवन्! मेरी र ा करो, र ा करो' कहते हए राम के चरण
म िगर पड़े ॥ 32॥

े मगन तेिह उठब न भावा॥


बार बार भु चहइ उठावा। म
भु कर पंकज किप क सीसा। सिु म र सो दसा मगन गौरीसा॥

भु उनको बार-बार उठाना चाहते ह, परं तु ेम म डूबे हए हनुमान को चरण से उठना सुहाता
नह । भु का करकमल हनुमान के िसर पर है। उस ि थित का मरण करके िशव ेमम न हो
गए।

सावधान मन क र पिु न संकर। लागे कहन कथा अित संदु र॥


किप उठाई भु दयँ लगावा। कर गिह परम िनकट बैठावा॥

िफर मन को सावधान करके शंकर अ यंत सुंदर कथा कहने लगे - हनुमान को उठाकर भु ने
दय से लगाया और हाथ पकड़कर अ यंत िनकट बैठा िलया।
कह किप रावन पािलत लंका। केिह िबिध दहेउ दग
ु अित बंका॥
भु स न जाना हनमु ाना। बोला बचन िबगत अिभमाना॥

हे हनुमान! बताओ तो, रावण के ारा सुरि त लंका और उसके बड़े बाँके िकले को तुमने िकस
तरह जलाया? हनुमान ने भु को स न जाना और वे अिभमानरिहत वचन बोले -

साखामग कै बिड़ मनस ु ाई। साखा त साखा पर जाई॥


नािघ िसंधु हाटकपरु जारा। िनिसचर गन बिध िबिपन उजारा॥

बंदर का बस, यही बड़ा पु षाथ है िक वह एक डाल से दूसरी डाल पर चला जाता है। मने जो
समु लाँघकर सोने का नगर जलाया और रा सगण को मारकर अशोक वन को उजाड़ डाला,

सो सब तव ताप रघुराई। नाथ न कछू मो र भुताई॥

यह सब तो हे रघुनाथ! आप ही का ताप है। हे नाथ! इसम मेरी भुता (बड़ाई) कुछ भी नह है।

दो० - ता कहँ भु कछु अगम निहं जा पर तु ह अनकु ू ल।


तव भावँ बड़वानलिह जा र सकइ खलु तल ू ॥ 33॥

हे भु! िजस पर आप स न ह , उसके िलए कुछ भी किठन नह है। आपके भाव से ई (जो
वयं बहत ज दी जल जानेवाली व तु है) बड़वानल को िन य ही जला सकती है (अथात
असंभव भी संभव हो सकता है)॥ 33॥

नाथ भगित अित सख ु दायनी। देह कृपा क र अनपायनी॥


सिु न भु परम सरल किप बानी। एवम तु तब कहेउ भवानी॥

हे नाथ! मुझे अ यंत सुख देनेवाली अपनी िन ल भि कृपा करके दीिजए। हनुमान क अ यंत
सरल वाणी सुनकर, हे भवानी! तब भु राम ने 'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहा।

उमा राम सभ
ु ाउ जेिहं जाना। तािह भजनु तिज भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघप ु ित चरन भगित सोइ पावा॥

हे उमा! िजसने राम का वभाव जान िलया, उसे भजन छोड़कर दूसरी बात ही नह सुहाती। यह
वामी-सेवक का संवाद िजसके दय म आ गया, वही रघुनाथ के चरण क भि पा गया।

सिु न भु बचन कहिहं किपबंदृ ा। जय जय जय कृपाल सख


ु कंदा॥
तब रघपु ित किपपितिह बोलावा। कहा चल कर करह बनावा॥

भु के वचन सुनकर वानरगण कहने लगे - कृपालु आनंदकंद राम क जय हो जय हो, जय हो!
तब रघुनाथ ने किपराज सु ीव को बुलाया और कहा - चलने क तैयारी करो।

अब िबलंबु केह कारन क जे। तरु ं त किप ह कहँ आयसु दीजे॥


कौतकु देिख सम ु न बह बरषी। नभ त भवन चले सरु हरषी॥

अब िवलंब िकस कारण िकया जाए? वानर को तुरंत आ ा दो। (भगवान क ) यह लीला
(रावणवध क तैयारी) देखकर, बहत-से फूल बरसाकर और हिषत होकर देवता आकाश से
अपने-अपने लोक को चले।

दो० - किपपित बेिग बोलाए आए जूथप जूथ।


नाना बरन अतलु बल बानर भालु ब थ॥ 34॥

वानरराज सु ीव ने शी ही वानर को बुलाया, सेनापितय के समहू आ गए। वानर-भालुओ ं के


झुंड अनेक रं ग के ह और उनम अतुलनीय बल है॥ 34॥

भु पद पंकज नाविहं सीसा। गजिहं भालु महाबल क सा॥


देखी राम सकल किप सेना। िचतइ कृपा क र रािजव नैना॥

वे भु के चरण कमल म िसर नवाते ह। महान बलवान रीछ और वानर गरज रहे ह। राम ने
वानर क सारी सेना देखी। तब कमल ने से कृपापवू क उनक ओर ि डाली।

राम कृपा बल पाइ किपंदा। भए प छजुत मनहँ िग रं दा॥


हरिष राम तब क ह पयाना। सगन ु भए संदु र सभ
ु नाना॥

राम कृपा का बल पाकर े वानर मानो पंखवाले बड़े पवत हो गए। तब राम ने हिषत होकर
थान (कूच) िकया। अनेक सुंदर और शुभ शकुन हए।

जासु सकल मंगलमय क ती। तासु पयान सगन ु यह नीती॥


भु पयान जाना बैदहे । फरिक बाम अँग जनु किह देह ॥

िजनक क ित सब मंगल से पण ू है, उनके थान के समय शकुन होना, यह नीित है (लीला
क मयादा है)। भु का थान जानक ने भी जान िलया। उनके बाएँ अंग फड़क-फड़ककर
मानो कहे देते थे (िक राम आ रहे ह)।

जोइ जोइ सगन


ु जानिकिह होई। असगन ु भयउ रावनिहं सोई॥
चला कटकु को बरन पारा। गजिहं बानर भालु अपारा॥

जानक को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के िलए अपशकुन हए। सेना चली, उसका
वणन कौन कर सकता है? असं य वानर और भालू गजना कर रहे ह।
नख आयध ु िग र पादपधारी। चले गगन मिह इ छाचारी॥
केह रनाद भालु किप करह । डगमगािहं िद गज िच करह ॥

नख ह#2368; िजनके श ह, वे इ छानुसार (सव बेरोक-टोक) चलनेवाले रीछ-वानर पवत


और व ृ को धारण िकए कोई आकाश माग से और कोई प ृ वी पर चले जा रहे ह। वे िसंह के
समान गजना कर रहे ह। (उनके चलने और गजने से) िदशाओं के हाथी िवचिलत होकर िचं घाड़
रहे ह।

छं ० - िच करिहं िद गज डोल मिह िग र लोल सागर खरभरे ।


मन हरष सभ गंधब सरु मिु न नाग िकंनर दखु टरे ॥
कटकटिहं मकट िबकट भट बह कोिट कोिट ह धावह ।
जय राम बल ताप कोसलनाथ गन ु गन गावह ॥

िदशाओं के हाथी िचं घाड़ने लगे, प ृ वी डोलने लगी, पवत चंचल हो गए (काँपने लगे) और समु
खलबला उठे । गंधव, देवता, मुिन, नाग, िक नर सब के सब मन म हिषत हए िक (अब) हमारे
दुःख टल गए। अनेक करोड़ भयानक वानर यो ा कटकटा रहे ह और करोड़ ही दौड़ रहे ह।
' बल ताप कोसलनाथ राम क जय हो' ऐसा पुकारते हए वे उनके गुणसमहू को गा रहे ह।

सिह सक न भार उदार अिहपित बार बारिहं मोहई।


गह दसन पिु न पिु न कमठ प ृ कठोर सो िकिम सोहई॥
रघब
ु ीर िचर यान ि थित जािन परम सहु ावनी।
जनु कमठ खपर सपराज सो िलखत अिबचल पावनी॥

उदार (परम े एवं महान) सपराज शेष भी सेना का बोझ नह सह सकते, वे बार-बार मोिहत
हो जाते (घबड़ा जाते) ह और पुनः-पुनः क छप क कठोर पीठ को दाँत से पकड़ते ह। ऐसा करते
(अथात बार-बार दाँत को गड़ाकर क छप क पीठ पर लक र-सी ख चते हए) वे कैसे शोभा दे
रहे ह मानो राम क सुंदर थान या ा को परम सुहावनी जानकर उसक अचल पिव कथा को
सपराज शेष क छप क पीठ पर िलख रहे ह ।

दो० - एिह िबिध जाइ कृपािनिध उतरे सागर तीर।


जहँ तहँ लागे खान फल भालु िबपलु किप बीर॥ 35॥

इस कार कृपािनधान राम समु तट पर जा उतरे । अनेक रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने
लगे॥ 35॥

उहाँ िनसाचर रहिहं ससंका। जब त जा र गयउ किप लंका॥


िनज िनज गहृ ँ सब करिहं िबचारा। निहं िनिसचर कुल केर उवारा॥
वहाँ (लंका म) जब से हनुमान लंका को जलाकर गए; तब से रा स भयभीत रहने लगे। अपने-
अपने घर म सब िवचार करते ह िक अब रा स कुल क र ा (का कोई उपाय) नह है।

जासु दूत बल बरिन न जाई। तेिह आएँ परु कवन भलाई॥


दूित ह सन सिु न परु जन बानी। मंदोदरी अिधक अकुलानी॥

िजसके दूत का बल वणन नह िकया जा सकता, उसके वयं नगर म आने पर कौन भलाई है
(हम लोग क बड़ी बुरी दशा होगी)? दूितय से नगरवािसय के वचन सुनकर मंदोदरी बहत ही
याकुल हो गई।

रहिस जो र कर पित पग लागी। बोली बचन नीित रस पागी॥


कंत करष ह र सन प रहरह। मोर कहा अित िहत िहयँ धरह॥

वह एकांत म हाथ जोड़कर पित (रावण) के चरण लगी और नीितरस म पगी हई वाणी बोली - हे
ि यतम! ह र से िवरोध छोड़ दीिजए। मेरे कहने को अ यंत ही िहतकर जानकर दय म धारण
क िजए।

समझु त जासु दूत कइ करनी। विहं गभ रजनीचर घरनी॥


तासु ना र िनज सिचव बोलाई। पठवह कंत जो चहह भलाई॥

िजनके दूत क करनी का िवचार करते ही ( मरण आते ही) रा स क ि य के गभ िगर जाते
ह, हे यारे वामी! यिद भला चाहते ह, तो अपने मं ी को बुलाकर उसके (दूत के) साथ उनक
ी को भेज दीिजए।

तव कुल कमल िबिपन दख ु दाई। सीता सीत िनसा सम आई॥


सन
ु ह नाथ सीता िबनु दी ह। िहत न तु हार संभु अज क ह॥

सीता आपके कुल पी कमल के वन को दुःख देनेवाली जाड़े क राि के समान आई है। हे
नाथ! सुिनए, सीता को िदए (लौटाए) िबना शंभु और ा के िकए भी आपका भला नह हो
सकता।

दो० - राम बान अिह गन स रस िनकर िनसाचर भेक।


जब लिग सत न तब लिग जतनु करह तिज टेक॥ 36॥

राम के बाण सप के समहू के समान ह और रा स के समहू मेढ़क के समान। जब तक वे इ ह


स नह लेते (िनगल नह जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीिजए॥ 36॥

वन सन
ु ी सठ ता क र बानी। िबहसा जगत िबिदत अिभमानी॥
सभय सभु ाउ ना र कर साचा। मंगल महँ भय मन अित काचा॥
मखू और जगत िस अिभमानी रावण कान से उसक वाणी सुनकर खबू हँसा (और बोला -)
ि य का वभाव सचमुच ही बहत डरपोक होता है। मंगल म भी भय करती हो! तु हारा मन
( दय) बहत ही क चा (कमजोर) है।

ज आवइ मकट कटकाई। िजअिहं िबचारे िनिसचर खाई॥


कंपिहं लोकप जाक ासा। तासु ना र सभीत बिड़ हासा॥

यिद वानर क सेना आएगी तो बेचारे रा स उसे खाकर अपना जीवन िनवाह करगे। लोकपाल
भी िजसके डर से काँपते ह, उसक ी डरती हो, यह बड़ी हँसी क बात है।

अस किह िबहिस तािह उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अिधकाई॥


मंदोदरी दयँ कर िचंता। भयउ कंत पर िबिध िबपरीता॥

रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे दय से लगा िलया और ममता बढ़ाकर (अिधक नेह
दशाकर) वह सभा म चला गया। मंदोदरी दय म िचंता करने लगी िक पित पर िवधाता ितकूल
हो गए।

बैठेउ सभाँ खब र अिस पाई। िसंधु पार सेना सब आई॥


बूझिे स सिचव उिचत मत कहह। ते सब हँसे म क र रहह॥

य ही वह सभा म जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई िक श ु क सारी सेना समु के उस पार
आ गई है। उसने मंि य से पछू ा िक उिचत सलाह किहए (अब या करना चािहए?)। तब वे सब
हँसे और बोले िक चुप िकए रिहए (इसम सलाह क कौन-सी बात है?)।

िजतेह सुरासुर तब म नाह । नर बानर केिह लेखे माह ॥

आपने देवताओं और रा स को जीत िलया, तब तो कुछ म ही नह हआ। िफर मनु य और वानर


िकस िगनती म ह?

दो० - सिचव बैद गरु तीिन ज ि य बोलिहं भय आस


राज धम तन तीिन कर होइ बेिगह नास॥ 37॥

मं ी, वै और गु - ये तीन यिद (अ स नता के) भय या (लाभ क ) आशा से (िहत क बात न


कहकर) ि य बोलते ह (ठकुर सुहाती कहने लगते ह); तो ( मशः) रा य, शरीर और धम - इन
तीन का शी ही नाश हो जाता है॥ 37॥

सोइ रावन कहँ बनी सहाई। अ तिु त करिहं सन


ु ाइ सन
ु ाई॥
अवसर जािन िबभीषनु आवा। ाता चरन सीसु तेिहं नावा॥
रावण के िलए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मं ी उसे सुना-सुनाकर (मँुह पर) तुित
करते ह। (इसी समय) अवसर जानकर िवभीषण आए। उ ह ने बड़े भाई के चरण म िसर नवाया।

पिु न िस नाइ बैठ िनज आसन। बोला बचन पाइ अनस ु ासन॥
जौ कृपाल पूँिछह मोिह बाता। मित अनु प कहउँ िहत ताता॥

िफर से िसर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आ ा पाकर ये वचन बोले - हे कृपाल! जब
ू ी ही है, तो हे तात! म अपनी बुि के अनुसार आपके िहत क बात
आपने मुझसे बात (राय) पछ
कहता हँ -

जो आपन चाहै क याना। सज ु सु सम


ु ित सभ
ु गित सख
ु नाना॥
सो परना र िललार गोसाई ं। तजउ चउिथ के चंद िक नाई ं॥

जो मनु य अपना क याण, सुंदर यश, सुबुि , शुभ गित और नाना कार के सुख चाहता हो, वह
हे वामी! पर ी के ललाट को चौथ के चं मा क तरह याग दे (अथात जैसे लोग चौथ के
चं मा को नह देखते, उसी कार पर ी का मुख ही न देखे)।

चौदह भव
ु न एक पित होई। भूत ोह ित इ निहं सोई॥
गन
ु सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥

चौदह भुवन का एक ही वामी हो, वह भी जीव से वैर करके ठहर नह सकता (न हो जाता
है)। जो मनु य गुण का समु और चतुर हो, उसे चाहे थोड़ा भी लोभ य न हो, तो भी कोई भला
नह कहता।

दो० - काम ोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।


सब प रह र रघब
ु ीरिह भजह भजिहं जेिह संत॥ 38॥

हे नाथ! काम, ोध, मद और लोभ - ये सब नरक के रा ते ह। इन सबको छोड़कर राम को


भिजए, िज ह संत (स पु ष) भजते ह॥ 38॥

तात राम निहं नर भूपाला। भव


ु ने वर कालह कर काला॥
अनामय अज भगवंता। यापक अिजत अनािद अनंता॥

हे तात! राम मनु य के ही राजा नह ह। वे सम त लोक के वामी और काल के भी काल ह। वे


(संपणू ऐ य, यश, ी, धम, वैरा य एवं ान के भंडार) भगवान ह; वे िनरामय (िवकाररिहत),
अज मा, यापक, अजेय, अनािद और अनंत ह।

गो ि ज धेनु देव िहतकारी। कृपा िसंधु मानष


ु तनध ु ारी॥
जन रं जन भंजन खल ाता। बेद धम र छक सन ु ु ाता॥
उन कृपा के समु भगवान ने प ृ वी, ा ण, गौ और देवताओं का िहत करने के िलए ही मनु य
शरीर धारण िकया है। हे भाई! सुिनए, वे सेवक को आनंद देनेवाले, दु के समहू का नाश
करनेवाले और वेद तथा धम क र ा करनेवाले ह।

तािह बय तिज नाइअ माथा। नतारित भंजन रघन ु ाथा॥


देह नाथ भु कहँ बैदहे ी। भजह राम िबनु हेतु सनेही॥

वैर यागकर उ ह म तक नवाइए। वे रघुनाथ शरणागत का दुःख नाश करनेवाले ह। हे नाथ!


उन भु (सव र) को जानक दे दीिजए और िबना ही कारण नेह करनेवाले राम को भिजए।

सरन गएँ भु ताह न यागा। िब व ोह कृत अघ जेिह लागा॥


जासु नाम य ताप नसावन। सोइ भु गट समझ ु ु िजयँ रावन॥

िजसे संपण
ू जगत से ोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर भु उसका भी याग नह करते।
िजनका नाम तीन ताप का नाश करनेवाला है, वे ही भु (भगवान) मनु य प म कट हए ह।
हे रावण! दय म यह समझ लीिजए।

दो० - बार बार पद लागउँ िबनय करउँ दससीस।


प रह र मान मोह मद भजह कोसलाधीस॥ 39(क)॥

हे दशशीश! म बार-बार आपके चरण लगता हँ और िवनती करता हँ िक मान, मोह और मद को


यागकर आप कोसलपित राम का भजन क िजए॥ 39(क)॥

मिु न पल
ु ि त िनज िस य सन किह पठई यह बात।
तरु त सो म भु सन कही पाइ सअ
ु वस तात॥ 39(ख)॥

मुिन पुल य ने अपने िश य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुंदर अवसर पाकर मने
तुरंत ही वह बात भु (आप) से कह दी॥ 39(ख)॥

मा यवंत अित सिचव सयाना। तासु बचन सिु न अित सख


ु माना॥
तात अनजु तव नीित िबभूषन। सो उर धरह जो कहत िबभीषन॥

मा यवान नाम का एक बहत ही बुि मान मं ी था। उसने उन (िवभीषण) के वचन सुनकर बहत
सुख माना (और कहा -) हे तात! आपके छोटे भाई नीित-िवभषू ण (नीित को भषू ण प म धारण
करनेवाले अथात नीितमान) ह। िवभीषण जो कुछ कह रहे ह उसे दय म धारण कर लीिजए।

रपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दू र न करह इहाँ हइ कोऊ॥


मा यवंत गह गयउ बहोरी। कहइ िबभीषनु पिु न कर जोरी॥
(रावण ने कहा -) ये दोन मख
ू श ु क मिहमा बखान रहे ह। यहाँ कोई है? इ ह दूर करो न! तब
मा यवान तो घर लौट गया और िवभीषण हाथ जोड़कर िफर कहने लगे -

सम
ु ित कुमित सब क उर रहह । नाथ परु ान िनगम अस कहह ॥
जहाँ सम
ु ित तहँ संपित नाना। जहाँ कुमित तहँ िबपित िनदाना॥

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते ह िक सुबुि (अ छी बुि ) और कुबुि (खोटी बुि ) सबके
दय म रहती है, जहाँ सुबुि है, वहाँ नाना कार क संपदाएँ (सुख क ि थित) रहती ह और
जहाँ कुबुि है वहाँ प रणाम म िवपि (दुःख) रहती है।

तव उर कुमित बसी िबपरीता। िहत अनिहत मानह रपु ीता॥


कालराित िनिसचर कुल केरी। तेिह सीता पर ीित घनेरी॥

आपके दय म उलटी बुि आ बसी है। इसी से आप िहत को अिहत और श ु को िम मान रहे ह।
जो रा स कुल के िलए कालराि (के समान) ह, उन सीता पर आपक बड़ी ीित है।

दो० - तात चरन गिह मागउँ राखह मोर दल ु ार।


सीता देह राम कहँ अिहत न होइ तु हार॥ 40॥

हे तात! म चरण पकड़कर आपसे भीख माँगता हँ (िवनती करता हँ) िक आप मेरा दुलार रिखए
(मुझ बालक के आ ह को नेहपवू क वीकार क िजए)। राम को सीता दे दीिजए, िजसम आपका
अिहत न हो॥ 40॥

बध
ु परु ान ुित संमत बानी। कही िबभीषन नीित बखानी॥
सनु त दसानन उठा रसाई। खल तोिह िनकट म ृ यु अब आई॥

िवभीषण ने पंिडत , पुराण और वेद ारा स मत (अनुमोिदत) वाणी से नीित बखानकर कही।
पर उसे सुनते ही रावण ोिधत होकर उठा और बोला िक रे दु ! अब म ृ यु तेरे िनकट आ गई है!

िजअिस सदा सठ मोर िजआवा। रपु कर प छ मूढ़ तोिह भावा॥


कहिस न खल अस को जग माह । भज ु बल जािह िजता म नाह ॥

ू ! तू जीता तो है सदा मेरा िजलाया हआ (अथात मेरे ही अ न से पल रहा है), पर हे मढ़


अरे मख ू !
प तुझे श ु का ही अ छा लगता है। अरे दु ! बता न, जगत म ऐसा कौन है िजसे मने अपनी
भुजाओं के बल से न जीता हो?

मम परु बिस तपिस ह पर ीती। सठ िमलु जाइ ित हिह कह नीती॥


अस किह क हेिस चरन हारा। अनज ु गहे पद बारिहं बारा॥
मेरे नगर म रहकर ेम करता है तपि वय पर। मख ू ! उ ह से जा िमल और उ ह को नीित बता।
ऐसा कहकर रावण ने उ ह लात मारी, परं तु छोटे भाई िवभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके
चरण ही पकड़े ।

उमा संत कइ इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥


तु ह िपतु स रस भलेिहं मोिह मारा। रामु भज िहत नाथ तु हारा॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! संत क यही बड़ाई (मिहमा) है िक वे बुराई करने पर भी (बुराई
करनेवाले क ) भलाई ही करते ह। (िवभीषण ने कहा -) आप मेरे िपता के समान ह, मुझे मारा सो
तो अ छा ही िकया; परं तु हे नाथ! आपका भला राम को भजने म ही है।

सिचव संग लै नभ पथ गयऊ। सबिह सुनाइ कहत अस भयऊ॥

(इतना कहकर) िवभीषण अपने मंि य को साथ लेकर आकाश माग म गए और सबको सुनाकर
वे ऐसा कहने लगे -

दो० - रामु स यसंक प भु सभा कालबस तो र।


म रघबु ीर सरन अब जाउँ देह जिन खो र॥ 41॥

राम स य संक प एवं (सवसमथ) भु ह और (हे रावण!) तु हारी सभा काल के वश है। अतः म
अब रघुवीर क शरण जाता हँ, मुझे दोष न देना॥ 41॥

अस किह चला िबभीषनु जबह । आयूहीन भए सब तबह ॥


साधु अव या तरु त भवानी। कर क यान अिखल कै हानी॥

ऐसा कहकर िवभीषण य ही चले, य ही सब रा स आयुहीन हो गए (उनक म ृ यु िनि त हो


गई)। (िशव कहते ह -) हे भवानी! साधु का अपमान तुरंत ही संपण
ू क याण क हािन (नाश) कर
देता है।

रावन जबिहं िबभीषन यागा। भयउ िबभव िबनु तबिहं अभागा॥


चलेउ हरिष रघनु ायक पाह । करत मनोरथ बह मन माह ॥

रावण ने िजस ण िवभीषण को यागा, उसी ण वह अभागा वैभव (ऐ य) से हीन हो गया।


िवभीषण हिषत होकर मन म अनेक मनोरथ करते हए रघुनाथ के पास चले।

देिखहउँ जाइ चरन जलजाता। अ न मदृ ल


ु सेवक सख
ु दाता॥
जे पद परिस तरी रषनारी। दंडक कानन पावनकारी॥

(वे सोचते जाते थे -) म जाकर भगवान के कोमल और लाल वण के सुंदर चरण कमल के दशन
क ँ गा, जो सेवक को सुख देनेवाले ह, िजन चरण का पश पाकर ऋिष प नी अह या तर गई ं
और जो दंडकवन को पिव करनेवाले ह।

जे पद जनकसत ु ाँ उर लाए। कपट कुरं ग संग धर धाए॥


हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभा य म देिखहउँ तेई॥

िजन चरण को जानक ने दय म धारण कर रखा है, जो कपटमगृ के साथ प ृ वी पर (उसे


पकड़ने को) दौड़े थे और जो चरणकमल सा ात िशव के दय पी सरोवर म िवराजते ह, मेरा
अहोभा य है िक उ ह को आज म देखँग
ू ा।

दो० - िज ह पाय ह के पादक


ु ि ह भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु िबलोिकहउँ इ ह नयनि ह अब जाइ॥ 42॥

िजन चरण क पादुकाओं म भरत ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज म उ ह चरण को
अभी जाकर इन ने से देखँग
ू ा॥ 42॥

े िबचारा। आयउ सपिद िसंदु एिहं पारा॥


ऐिह िबिध करत स म
किप ह िबभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रपु दूत िबसेषा॥

इस कार ेमसिहत िवचार करते हए वे शी ही समु के इस पार (िजधर राम क सेना थी) आ
गए। वानर ने िवभीषण को आते देखा तो उ ह ने जाना िक श ु का कोई खास दूत है।

तािह रािख कपीस पिहं आए। समाचार सब तािह सनु ाए॥


कह सु ीव सनु ह रघरु ाई। आवा िमलन दसानन भाई॥

उ ह (पहरे पर) ठहराकर वे सु ीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सु ीव ने


(राम के पास जाकर) कहा - हे रघुनाथ! सुिनए, रावण का भाई (आप से) िमलने आया है।

कह भु सखा बूिझऐ काहा। कहइ कपीस सन ु ह नरनाहा॥


जािन न जाइ िनसाचर माया। काम प केिह कारन आया॥

भु राम ने कहा - हे िम ! तुम या समझते हो (तु हारी या राय है)? वानरराज सु ीव ने कहा
- हे महाराज! सुिनए, रा स क माया जानी नह जाती। यह इ छानुसार प बदलनेवाला (छली)
न जाने िकस कारण आया है।

भेद हमार लेन सठ आवा। रािखअ बाँिध मोिह अस भावा॥


सखा नीित तु ह नीिक िबचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥

ू हमारा भेद लेने आया है, इसिलए मुझे तो यही अ छा लगता है िक इसे
(जान पड़ता है) यह मख
बाँध रखा जाए। (राम ने कहा -) हे िम ! तुमने नीित तो अ छी िवचारी! परं तु मेरा ण तो है
शरणागत के भय को हर लेना!

सिु न भु बचन हरष हनम


ु ाना। सरनागत ब छल भगवाना॥

भु के वचन सुनकर हनुमान हिषत हए (और मन-ही-मन कहने लगे िक) भगवान कैसे
शरणागतव सल (शरण म आए हए पर िपता क भाँित ेम करनेवाले) ह।

दो० - सरनागत कहँ जे तजिहं िनज अनिहत अनमु ािन।


ते नर पावँर पापमय ित हिह िबलोकत हािन॥ 43॥

(राम िफर बोले -) जो मनु य अपने अिहत का अनुमान करके शरण म आए हए का याग कर
देते ह, वे पामर ( ु ) ह, पापमय ह, उ ह देखने म भी हािन है (पाप लगता है)॥ 43॥

कोिट िब बध लागिहं जाह। आएँ सरन तजउँ निहं ताह॥


सनमख ु होइ जीव मोिह जबह । ज म कोिट अघ नासिहं तबह ॥

िजसे करोड़ ा ण क ह या लगी हो, शरण म आने पर म उसे भी नह यागता। जीव य ही


मेरे स मुख होता है, य ही उसके करोड़ ज म के पाप न हो जाते ह।

पापवंत कर सहज सभु ाऊ। भजनु मोर तेिह भाव न काऊ॥


ज पै दु दय सोइ होई। मोर सनमखु आव िक सोई॥

पापी का यह सहज वभाव होता है िक मेरा भजन उसे कभी नह सुहाता। यिद वह (रावण का
भाई) िन य ही दु दय का होता तो या वह मेरे स मुख आ सकता था?

िनमल मन जन सो मोिह पावा। मोिह कपट छल िछ न भावा॥


भेद लेन पठवा दससीसा। तबहँ न कछु भय हािन कपीसा॥

जो मनु य िनमल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-िछ नह सुहाते। यिद
उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सु ीव! अपने को कुछ भी भय या हािन नह है।

जग महँ सखा िनसाचर जेत।े लिछमनु हनइ िनिमष महँ तेत॥े


ज सभीत आवा सरनाई ं। रिखहउँ तािह ान क नाई ं॥

य िक हे सखे! जगत म िजतने भी रा स ह, ल मण णभर म उन सबको मार सकते ह और


यिद वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो म तो उसे ाण क तरह रखँग
ू ा।

दो० - उभय भाँित तेिह आनह हँिस कह कृपािनकेत।


जय कृपाल किह किप चले अंगद हनू समेत॥ 44॥

कृपा के धाम राम ने हँसकर कहा - दोन ही ि थितय म उसे ले आओ। तब अंगद और हनुमान
सिहत सु ीव 'कपालु राम क जय हो' कहते हए चले॥ 44॥

सादर तेिह आग क र बानर। चले जहाँ रघप ु ित क नाकर॥


दू रिह ते देखे ौ ाता। नयनानंद दान के दाता॥

िवभीषण को आदर सिहत आगे करके वानर िफर वहाँ चले, जहाँ क णा क खान रघुनाथ थे।
ने को आनंद का दान देनेवाले (अ यंत सुखद) दोन भाइय को िवभीषण ने दूर ही से देखा।

बह र राम छिबधाम िबलोक । रहेउ ठटुिक एकटक पल रोक ॥


भज
ु लंब कंजा न लोचन। यामल गात नत भय मोचन॥

िफर शोभा के धाम राम को देखकर वे पलक (मारना) रोककर िठठककर ( त ध होकर)
एकटक देखते ही रह गए। भगवान क िवशाल भुजाएँ ह, लाल कमल के समान ने ह और
शरणागत के भय का नाश करनेवाला साँवला शरीर है।

सघ कंध आयत उर सोहा। आनन अिमत मदन मन मोहा॥


नयन नीर पल
ु िकत अित गाता। मन ध र धीर कही मदृ ु बाता॥

िसंह के-से कंधे ह, िवशाल व ः थल (चौड़ी छाती) अ यंत शोभा दे रहा है। असं य कामदेव के
मन को मोिहत करनेवाला मुख है। भगवान के व प को देखकर िवभीषण के ने म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया और शरीर अ यंत पुलिकत हो गया। िफर मन म धीरज धरकर उ ह ने कोमल
वचन कहे ।

नाथ दसानन कर म ाता। िनिसचर बंस जनम सरु ाता॥


सहज पापि य तामस देहा। जथा उलक
ू िह तम पर नेहा॥

हे नाथ! म दशमुख रावण का भाई हँ। हे देवताओं के र क! मेरा ज म रा स कुल म हआ है। मेरा
तामसी शरीर है, वभाव से ही मुझे पाप ि य ह, जैसे उ लू को अंधकार पर सहज नेह होता है।

दो० - वन सजु सु सिु न आयउँ भु भंजन भव भीर।


ािह ािह आरित हरन सरन सख ु द रघबु ीर॥ 45॥

म कान से आपका सुयश सुनकर आया हँ िक भु भव (ज म-मरण) के भय का नाश करनेवाले


ह। हे दुिखय के दुःख दूर करनेवाले और शरणागत को सुख देनेवाले रघुवीर! मेरी र ा क िजए,
र ा क िजए॥ 45॥
अस किह करत दंडवत देखा। तरु त उठे भु हरष िबसेषा॥
दीन बचन सिु न भु मन भावा। भजु िबसाल गिह दयँ लगावा॥

भु ने उ ह ऐसा कहकर दंडवत करते देखा तो वे अ यंत हिषत होकर तुरंत उठे । िवभीषण के
दीन वचन सुनने पर भु के मन को बहत ही भाए। उ ह ने अपनी िवशाल भुजाओं से पकड़कर
उनको दय से लगा िलया।

अनज
ु सिहत िमिल िढग बैठारी। बोले बचन भगत भयहारी॥
कह लंकेस सिहत प रवारा। कुसल कुठाहर बास तु हारा॥

छोटे भाई ल मण सिहत गले िमलकर उनको अपने पास बैठाकर राम भ के भय को हरनेवाले
वचन बोले - हे लंकेश! प रवार सिहत अपनी कुशल कहो। तु हारा िनवास बुरी जगह पर है।

खल मंडली बसह िदनु राती। सखा धरम िनबहइ केिह भाँती॥


म जानउँ तु हा र सब रीती। अित नय िनपन
ु न भाव अनीती॥

िदन-रात दु क मंडली म बसते हो। (ऐसी दशा म) हे सखे! तु हारा धम िकस कार िनभता
है? म तु हारी सब रीित (आचार- यवहार) जानता हँ। तुम अ यंत नीितिनपुण हो, तु ह अनीित
नह सुहाती।

ब भल बास नरक कर ताता। दु संग जिन देइ िबधाता॥


अब पद देिख कुसल रघरु ाया। ज तु ह क ि ह जािन जन दाया॥

हे तात! नरक म रहना वरन अ छा है, परं तु िवधाता दु का संग (कभी) न दे। (िवभीषण ने कहा
-) हे रघुनाथ! अब आपके चरण का दशन कर कुशल से हँ, जो आपने अपना सेवक जानकर
मुझ पर दया क है।

दो० - तब लिग कुसल न जीव कहँ सपनेहँ मन िब ाम।


जब लिग भजत न राम कहँ सोक धाम तिज काम॥ 46॥

तब तक जीव क कुशल नह और न व न म भी उसके मन को शांित है, जब तक वह शोक के


घर काम (िवषय-कामना) को छोड़कर राम को नह भजता॥ 46॥

तब लिग दयँ बसत खल नाना। लोभ मोह म छर मद माना॥


जब लिग उर न बसत रघन
ु ाथा। धर चाप सायक किट भाथा॥

लोभ, मोह, म सर (डाह), मद और मान आिद अनेक दु तभी तक दय म बसते ह, जब तक


िक धनुष-बाण और कमर म तरकस धारण िकए हए रघुनाथ दय म नह बसते।
ममता त न तमी अँिधआरी। राग षे उलक
ू सख
ु कारी॥
तब लिग बसित जीव मन माह । जब लिग भु ताप रिब नाह ॥

ू अँधेरी रात है, जो राग- ेष पी उ लुओ ं को सुख देनेवाली है। वह (ममता पी राि )
ममता पण
तभी तक जीव के मन म बसती है, जब तक भु (आप) का ताप पी सय ू उदय नह होता।

अब म कुसल िमटे भय भारे । देिख राम पद कमल तु हारे ॥


तु ह कृपाल जा पर अनक
ु ू ला। तािह न याप ि िबध भव सूला॥

हे राम! आपके चरणारिवंद के दशन कर अब म कुशल से हँ, मेरे भारी भय िमट गए। हे कृपालु!
आप िजस पर अनुकूल होते ह, उसे तीन कार के भवशलू (आ याि मक, आिधदैिवक और
आिधभौितक ताप) नह यापते।

म िनिसचर अित अधम सभु ाऊ। सभु आचरनु क ह निहं काऊ॥


जासु प मिु न यान न आवा। तेिहं भु हरिष दयँ मोिह लावा॥

म अ यंत नीच वभाव का रा स हँ। मने कभी शुभ आचरण नह िकया। िजनका प मुिनय के
भी यान म नह आता, उन भु ने वयं हिषत होकर मुझे दय से लगा िलया।

दो० - अहोभा य मम अिमत अित राम कृपा सख ु पंज


ु ।
देखउे ँ नयन िबरं िच िसव से य जुगल पद कंज॥ 47॥

हे कृपा और सुख के पुंज राम! मेरा अ यंत असीम सौभा य है, जो मने ा और िशव के ारा
सेिवत युगल चरण कमल को अपने ने से देखा॥ 47॥

सन
ु ह सखा िनज कहउँ सभु ाऊ। जान भस
ु ंिु ड संभु िग रजाऊ॥
ज नर होइ चराचर ोही। आवै सभय सरन तिक मोही॥

(राम ने कहा -) हे सखा! सुनो, म तु ह अपना वभाव कहता हँ, िजसे काकभुशुंिड, िशव और
पावती भी जानती ह। कोई मनु य (संपण ू ) जड़-चेतन जगत का ोही हो, यिद वह भी भयभीत
होकर मेरी शरण तककर आ जाए,

तिज मद मोह कपट छल नाना। करउँ स तेिह साधु समाना॥


जननी जनक बंधु सत
ु दारा। तनु धनु भवन सु द प रवारा॥

और मद, मोह तथा नाना कार के छल-कपट याग दे तो म उसे बहत शी साधु के समान कर
देता हँ। माता, िपता, भाई, पु , ी, शरीर, धन, घर, िम और प रवार -

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनिह बाँध ब र डोरी॥


समदरसी इ छा कछु नाह । हरष सोक भय निहं मन माह ॥

इन सबके मम व पी ताग को बटोरकर और उन सबक एक डोरी बनाकर उसके ारा जो


अपने मन को मेरे चरण म बाँध देता है (सारे सांसा रक संबंध का क मुझे बना लेता है), जो
समदश है, िजसे कुछ इ छा नह है और िजसके मन म हष, शोक और भय नह है।

अस स जन मम उर बस कैस। लोभी दयँ बसइ धनु जैस॥


तु ह सा रखे संत ि य मोर। धरउँ देह निहं आन िनहोर॥

ऐसा स जन मेरे दय म कैसे बसता है, जैसे लोभी के दय म धन बसा करता है। तुम-सरीखे
संत ही मुझे ि य ह। म और िकसी के िनहोरे से (कृत तावश) देह धारण नह करता।

दो० - सगन
ु उपासक परिहत िनरत नीित ढ़ नेम।
ते नर ान समान मम िज ह क ि ज पद मे ॥ 48॥

जो सगुण (साकार) भगवान के उपासक ह, दूसरे के िहत म लगे रहते ह, नीित और िनयम म
ढ़ ह और िज ह ा ण के चरण म ेम है, वे मनु य मेरे ाण के समान ह॥ 48॥

सनु ु लंकेस सकल गनु तोर। तात तु ह अितसय ि य मोर॥


राम बचन सिु न बानर जूथा। सकल कहिहं जय कृपा ब था॥

हे लंकापित! सुनो, तु हारे अंदर उपयु सब गुण ह। इससे तुम मुझे अ यंत ही ि य हो। राम के
वचन सुनकर सब वानर के समहू कहने लगे - कृपा के समहू राम क जय हो!

ु त िबभीषनु भु कै बानी। निहं अघात वनामत


सन ृ जानी॥
पद अंबज े ु अपारा॥
ु गिह बारिहं बारा। दयँ समात न म

भु क वाणी सुनते ह और उसे कान के िलए अमत


ृ जानकर िवभीषण अघाते नह ह। वे बार-बार
राम के चरण कमल को पकड़ते ह अपार ेम है, दय म समाता नह है।

सनु ह देव सचराचर वामी। नतपाल उर अंतरजामी॥


उर कछु थम बासना रही। भु पद ीित स रत सो बही॥

(िवभीषण ने कहा -) हे देव! हे चराचर जगत के वामी! हे शरणागत के र क! हे सबके दय के


भीतर क जाननेवाले! सुिनए, मेरे दय म पहले कुछ वासना थी, वह भु के चरण क ीित पी
नदी म बह गई।

अब कृपाल िनज भगित पावनी। देह सदा िसव मन भावनी॥


एवम तु किह भु रनधीरा। मागा तरु त िसंधु कर नीरा॥
अब तो हे कृपालु! िशव के मन को सदैव ि य लगनेवाली अपनी पिव भि मुझे दीिजए।
'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर भु राम ने तुरंत ही समु का जल माँगा।

जदिप सखा तव इ छा नह । मोर दरसु अमोघ जग माह ॥


अस किह राम ितलक तेिह सारा। सम
ु न बिृ नभ भई अपारा॥

(और कहा -) हे सखा! य िप तु हारी इ छा नह है, पर जगत म मेरा दशन अमोघ है (वह
िन फल नह जाता)। ऐसा कहकर राम ने उनको राजितलक कर िदया। आकाश से पु प क
अपार विृ हई।

दो० - रावन ोध अनल िनज वास समीर चंड।


जरत िबभीषनु राखेउ दी हेउ राजु अखंड॥ 49(क)॥

राम ने रावण क ोध पी अि न म, जो अपनी (िवभीषण क ) ास (वचन) पी पवन से चंड


हो रही थी, जलते हए िवभीषण को बचा िलया और उसे अखंड रा य िदया॥ 49(क)॥

जो संपित िसव रावनिह दीि ह िदएँ दस माथ।


सोइ संपदा िबभीषनिह सकुिच दीि ह रघन ु ाथ॥ 49(ख)॥

िशव ने जो संपि रावण को दस िसर क बिल देने पर दी थी, वही संपि रघुनाथ ने िवभीषण
को बहत सकुचते हए दी॥ 49(ख)॥

अस भु छािड़ भजिहं जे आना। ते नर पसु िबनु पूँछ िबषाना॥


िनज जन जािन तािह अपनावा। भु सभ ु ाव किप कुल मन भावा॥

ू के पशु ह।
ऐसे परम कृपालु भु को छोड़कर जो मनु य दूसरे को भजते ह, वे िबना स ग-पँछ
अपना सेवक जानकर िवभीषण को राम ने अपना िलया। भु का वभाव वानरकुल के मन को
(बहत) भाया।

पिु न सब य सब उर बासी। सब प सब रिहत उदासी॥


बोले बचन नीित ितपालक। कारन मनज ु दनजु कुल घालक॥

िफर सब कुछ जाननेवाले, सबके दय म बसनेवाले, सव प (सब प म कट), सबसे रिहत,


उदासीन, कारण से (भ पर कृपा करने के िलए) मनु य बने हए तथा रा स के कुल का नाश
करनेवाले राम नीित क र ा करनेवाले वचन बोले -

सनु ु कपीस लंकापित बीरा। केिह िबिध त रअ जलिध गंभीरा॥


संकुल मकर उरग झष जाती। अित अगाध दु तर सब भाँित॥
हे वीर वानरराज सु ीव और लंकापित िवभीषण! सुनो, इस गहरे समु को िकस कार पार
िकया जाए? अनेक जाित के मगर, साँप और मछिलय से भरा हआ यह अ यंत अथाह समु पार
करने म सब कार से किठन है।

कह लंकेस सन
ु ह रघन
ु ायक। कोिट िसंधु सोषक तव सायक॥
ज िप तदिप नीित अिस गाई। िबनय क रअ सागर सन जाई॥

िवभीषण ने कहा - हे रघुनाथ! सुिनए, य िप आपका एक बाण ही करोड़ समु को सोखनेवाला


है (सोख सकता है), तथािप नीित ऐसी कही गई है (उिचत यह होगा) िक (पहले) जाकर समु से
ाथना क जाए।

दो० - भु तु हार कुलगरु जलिध किहिह उपाय िबचा र॥


िबनु यास सागर त रिह सकल भालु किप धा र॥ 50॥

हे भु! समु आपके कुल म बड़े (पवू ज) ह, वे िवचारकर उपाय बतला दगे। तब रीछ और वानर
क सारी सेना िबना ही प र म के समु के पार उतर जाएगी॥ 50॥

सखा कही तु ह नीित उपाई। क रअ दैव ज होइ सहाई॥


मं न यह लिछमन मन भावा। राम बचन सिु न अित दखु पावा॥

(राम ने कहा -) हे सखा! तुमने अ छा उपाय बताया। यही िकया जाए, यिद दैव सहायक ह । यह
सलाह ल मण के मन को अ छी नह लगी। राम के वचन सुनकर तो उ ह ने बहत ही दुःख
पाया।

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोिषअ िसंधु क रअ मन रोसा॥


कादर मन कहँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पकु ारा॥

(ल मण ने कहा -) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन म ोध क िजए (ले आइए) और समु को


सुखा डािलए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तस ली देने का उपाय) है। आलसी लोग
ही दैव-दैव पुकारा करते ह।

सन
ु त िबहिस बोले रघब
ु ीरा। ऐसेिहं करब धरह मन धीरा॥
अस किह भु अनज ु िह समझ ु ाई। िसंधु समीप गए रघरु ाई॥

यह सुनकर रघुवीर हँसकर बोले - ऐसे ही करगे, मन म धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को
समझाकर भु रघुनाथ समु के समीप गए।

थम नाम क ह िस नाई। बैठे पिु न तट दभ डसाई॥


जबिहं िबभीषन भु पिहं आए। पाछ रावन दूत पठाए॥
उ ह ने पहले िसर नवाकर णाम िकया। िफर िकनारे पर कुश िबछाकर बैठ गए। इधर य ही
िवभीषण भु के पास आए थे, य ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे।

दो० - सकल च रत ित ह देखे धर कपट किप देह।


भु गनु दयँ सराहिहं सरनागत पर नेह॥ 51॥

कपट से वानर का शरीर धारण कर उ ह ने सब लीलाएँ देख । वे अपने दय म भु के गुण क


और शरणागत पर उनके नेह क सराहना करने लगे॥ 51॥

गट बखानिहं राम सभ े गा िबस र दरु ाऊ॥


ु ाऊ। अित स म
रपु के दूत किप ह तब जाने। सकल बाँिध कपीस पिहं आने॥

िफर वे कट प म भी अ यंत ेम के साथ राम के वभाव क बड़ाई करने लगे, उ ह दुराव


(कपट वेश) भलू गया। सब वानर ने जाना िक ये श ु के दूत ह और वे उन सबको बाँधकर
सु ीव के पास ले आए।

कह सु ीव सन ु ह सब बानर। अंग भंग क र पठवह िनिसचर॥


सिु न सु ीव बचन किप धाए। बाँिध कटक चह पास िफराए॥

सु ीव ने कहा - सब वानरो! सुनो, रा स के अंग-भंग करके भेज दो। सु ीव के वचन सुनकर


वानर दौड़े । दूत को बाँधकर उ ह ने सेना के चार ओर घुमाया।

बह कार मारन किप लागे। दीन पक ु ारत तदिप न यागे॥


जो हमार हर नासा काना। तेिह कोसलाधीस कै आना॥

वानर उ ह बहत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, िफर भी वानर ने उ ह नह छोड़ा।
(तब दूत ने पुकारकर कहा -) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश राम क सौगंध है।

सिु न लिछमन सब िनकट बोलाए। दया लािग हँिस तरु त छोड़ाए॥


रावन कर दीजह यह पाती। लिछमन बचन बाचु कुलघाती॥

यह सुनकर ल मण ने सबको िनकट बुलाया। उ ह बड़ी दया लगी, इससे हँसकर उ ह ने रा स


को तुरंत ही छुड़ा िदया। (और उनसे कहा -) रावण के हाथ म यह िच ी देना (और कहना -) हे
कुलघातक! ल मण के श द (संदेसे) को बाँचो।

दो० - कहेह मख
ु ागर मूढ़ सन मम संदसे ु उदार।
सीता देइ िमलह न त आवा कालु तु हार॥ 52॥
िफर उस मखू से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हआ) संदेश कहना िक सीता को देकर
उनसे (राम से) िमलो, नह तो तु हारा काल आ गया (समझो)॥ 52॥

तरु त नाइ लिछमन पद माथा। चले दूत बरनत गन


ु गाथा॥
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस ित ह नाए॥

ल मण के चरण म म तक नवाकर, राम के गुण क कथा वणन करते हए दूत तुरंत ही चल


िदए। राम का यश कहते हए वे लंका म आए और उ ह ने रावण के चरण म िसर नवाए।

िबहिस दसानन पूँछी बाता। कहिस न सक ु आपिन कुसलाता॥


पनु कह खब र िबभीषन केरी। जािह म ृ यु आई अित नेरी॥

दशमुख रावण ने हँसकर बात पछ


ू ी - अरे शुक! अपनी कुशल य नह कह#2340;◌ा? िफर
उस िवभीषण का समाचार सुना, म ृ यु िजसके अ यंत िनकट आ गई है।

करत राज लंका सठ यागी। होइिह जव कर क ट अभागी॥


पिु न कह भालु क स कटकाई। किठन काल े रत चिल आई॥

ू ने रा य करते हए लंका को याग िदया। अभागा अब जौ का क ड़ा (घुन) बनेगा (जौ के


मख
साथ जैसे घुन भी िपस जाता है, वैसे ही नर वानर के साथ वह भी मारा जाएगा); िफर भालू और
वानर क सेना का हाल कह, जो किठन काल क ेरणा से यहाँ चली आई है।

िज ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मदृ ल


ु िचत िसंधु िबचारा॥
कह तपिस ह कै बात बहोरी। िज ह के दयँ ास अित मोरी॥

और िजनके जीवन का र क कोमल िच वाला बेचारा समु बन गया है (अथात उनके और


रा स के बीच म यिद समु न होता तो अब तक रा स उ ह मारकर खा गए होते)। िफर उन
तपि वय क बात बता, िजनके दय म मेरा बड़ा डर है।

दो० - क भइ भट िक िफ र गए वन सज
ु सु सिु न मोर।
कहिस न रपु दल तेज बल बहत चिकत िचत तोर॥ 53॥

उनसे तेरी भट हई या वे कान से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? श ु सेना का तेज और बल
बताता य नह ? तेरा िच बहत ही चिकत (भ च का-सा) हो रहा है॥ 53॥

नाथ कृपा क र पूँछेह जैस। मानह कहा ोध तिज तैस॥


िमला जाइ जब अनज ु तु हारा। जातिहं राम ितलक तेिह सारा॥

(दूत ने कहा -) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पछ


ू ा है, वैसे ही ोध छोड़कर मेरा कहना
मािनए (मेरी बात पर िव ास क िजए)। जब आपका छोटा भाई राम से जाकर िमला, तब उसके
पहँचते ही राम ने उसको राजितलक कर िदया।

रावन दूत हमिह सिु न काना। किप ह बाँिध दी ह दख


ु नाना॥
वन नािसका काट लागे। राम सपथ दी ह हम यागे॥

हम रावण के दूत ह, यह कान से सुनकर वानर ने हम बाँधकर बहत क िदए, यहाँ तक िक वे


हमारे नाक-कान काटने लगे। राम क शपथ िदलाने पर कह उ ह ने हमको छोड़ा।

पँूिछह नाथ राम कटकाई। बदन कोिट सत बरिन न जाई॥


नाना बरन भालु किप धारी। िबकटानन िबसाल भयकारी॥

हे नाथ! आपने राम क सेना पछ


ू ी, सो उसका वणन तो सौ करोड़ मुख से भी नह िकया जा
सकता। अनेक रं ग के भालू और वानर क सेना है, जो भयंकर मुखवाले, िवशाल शरीरवाले
और भयानक ह।

जेिहं परु दहेउ हतेउ सत


ु तोरा। सकल किप ह महँ तेिह बलु थोरा॥
अिमत नाम भट किठन कराला। अिमत नाग बल िबपल ु िबसाला॥

िजसने नगर को जलाया और आपके पु अ य कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानर म


थोड़ा है। असं य नाम वाले बड़े ही कठोर और भयंकर यो ा ह। उनम असं य हािथय का बल है
और वे बड़े ही िवशाल ह।

दो० - ि िबद मयंद नील नल अंगद गद िबकटािस।


दिधमख ु केह र िनसठ सठ जामवंत बलरािस॥ 54॥

ि िवद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, िवकटा य, दिधमुख, केसरी, िनशठ, शठ और जा बवान -
ये सभी बल क रािश ह॥ 54॥

ए किप सब सु ीव समाना। इ ह सम कोिट ह गनइ को नाना॥


राम कृपाँ अतिु लत बल ित हह । तन ै ोकिह गनह ॥
ृ समान ल

ये सब वानर बल म सु ीव के समान ह और इनके-जैसे (एक-दो नह ) करोड़ ह; उन बहत-स


ृ के
को िगन ही कौन सकता है? राम क कृपा से उनम अतुलनीय बल है। वे तीन लोक को तण
समान (तु छ) समझते ह।

अस म सन
ु ा वन दसकंधर। पदम ु अठारह जूथप बंदर॥
नाथ कटक महँ सो किप नाह । जो न तु हिह जीतै रन माह ॥
हे दश ीव! मने कान से ऐसा सुना है िक अठारह प तो अकेले वानर के सेनापित ह। हे नाथ!
उस सेना म ऐसा कोई वानर नह है, जो आपको रण म न जीत सके।

परम ोध मीजिहं सब हाथा। आयसु पै न देिहं रघन ु ाथा॥


सोषिहं िसंधु सिहत झष याला। पूरिहं न त भ र कुधर िबसाला॥

सब के सब अ यंत ोध से हाथ मीजते ह। पर रघुनाथ उ ह आ ा नह देते। हम मछिलय और


साँप सिहत समु को सोख लगे। नह तो बड़े -बड़े पवत से उसे भरकर परू (पाट) दगे।

मिद गद िमलविहं दससीसा। ऐसेइ बचन कहिहं सब क सा॥


गजिहं तजिहं सहज असंका। मानहँ सन चहत हिहं लंका॥

और रावण को मसलकर धलू म िमला दगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे ह। सब सहज ही
िनडर ह; इस कार गरजते और डपटते ह मानो लंका को िनगल ही जाना चाहते ह।

दो० - सहज सूर किप भालु सब पिु न िसर पर भु राम।


रावन काल कोिट कहँ जीित सकिहं सं ाम॥ 55॥

सब वानर-भालू सहज ही शरू वीर ह िफर उनके िसर पर भु (सव र) राम ह। हे रावण! वे सं ाम
म करोड़ काल को जीत सकते ह॥ 55॥

राम तेज बल बिु ध िबपल


ु ाई। सेष सहस सत सकिहं न गाई॥
सक सर एक सोिष सत सागर। तव ातिह पूँछेउ नय नागर॥

राम के तेज (साम य), बल और बुि क अिधकता को लाख शेष भी नह गा सकते। वे एक ही


बाण से सैकड़ समु को सोख सकते ह, परं तु नीित िनपुण राम ने (नीित क र ा के िलए)
आपके भाई से उपाय पछू ा।

तासु बचन सिु न सागर पाह । मागत पंथ कृपा मन माह ॥


सन
ु त बचन िबहसा दससीसा। ज अिस मित सहाय कृत क सा॥

उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (राम) समु से राह माँग रहे ह, उनके मन म कृपा भरी
है (इसिलए वे उसे सोखते नह )। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खबू हँसा (और बोला -) जब
ऐसी बुि है, तभी तो वानर को सहायक बनाया है!

सहज भी कर बचन ढ़ाई। सागर सन ठानी मचलाई॥


मूढ़ मष
ृ ा का करिस बड़ाई। रपु बल बिु थाह म पाई॥

वाभािवक ही डरपोक िवभीषण के वचन को माण करके उ ह ने समु से मचलना (बालहठ)


ठाना है। अरे मख ू ी बड़ाई या करता है? बस, मने श ु (राम) के बल और बुि क थाह पा
ू ! झठ
ली।

सिचव सभीत िबभीषन जाक। िबजय िबभूित कहाँ जग ताक॥


सिु न खल बचन दूत रस बाढ़ी। समय िबचा र पि का काढ़ी॥

िजसके िवभीषण-जैसा डरपोक मं ी हो, उसे जगत म िवजय और िवभिू त (ऐ य) कहाँ? दु


रावण के वचन सुनकर दूत को ोध बढ़ आया। उसने मौका समझकर पि का िनकाली।

रामानज
ु दी ह यह पाती। नाथ बचाइ जुड़ावह छाती॥
िबहिस बाम कर ली ह रावन। सिचव बोिल सठ लाग बचावन॥

(और कहा -) राम के छोटे भाई ल मण ने यह पि का दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठं डी
क िजए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से िलया और मं ी को बुलवाकर वह मखू उसे बँचाने
लगा।

दो० - बात ह मनिह रझाइ सठ जिन घालिस कुल खीस।


राम िबरोध न उबरिस सरन िब नु अज ईस॥ 56(क)॥

ू ! केवल बात से ही मन को रझाकर अपने कुल को न -


(पि का म िलखा था -) अरे मख
न कर। राम से िवरोध करके तू िव णु, ा और महे श क शरण जाने पर भी नह बचेगा॥
56(क)॥

क तिज मान अनज ु इव भु पद पंकज भंग


ृ ।
होिह िक राम सरì#2366;नल खल कुल सिहत पतंग॥ 56(ख)॥

या तो अिभमान छोड़कर अपने छोटे भाई िवभीषण क भाँित भु के चरण कमल का मर बन


जा। अथवा रे दु ! राम के बाण पी अि न म प रवार सिहत पितंगा हो जा (दोन म से जो अ छा
लगे सो कर)॥ 56(ख)॥

सनु त सभय मन मखु मस


ु क
ु ाई। कहत दसानन सबिह सन ु ाई॥
भूिम परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग िबलासा॥

पि का सुनते ही रावण मन म भयभीत हो गया, परं तु मुख से (ऊपर से) मुसकराता हआ वह


सबको सुनाकर कहने लगा - जैसे कोई प ृ वी पर पड़ा हआ हाथ से आकाश को पकड़ने क चे ा
करता हो, वैसे ही यह छोटा तप वी (ल मण) वाि वलास करता है (ड ग हाँकता है)।

कह सकु नाथ स य सब बानी। समझु ह छािड़ कृित अिभमानी॥


सन
ु ह बचन मम प रह र ोधा। नाथ राम सन तजह िबरोधा॥
शुक (दूत) ने कहा - हे नाथ! अिभमानी वभाव को छोड़कर (इस प म िलखी) सब बात को
स य समिझए। ोध छोड़कर मेरा वचन सुिनए। हे नाथ! राम से वैर याग दीिजए।

अित कोमल रघब ु ीर सभ


ु ाऊ। ज िप अिखल लोक कर राऊ॥
िमलत कृपा तु ह पर भु क रही। उर अपराध न एकउ ध रही॥

य िप रघुवीर सम त लोक के वामी ह, पर उनका वभाव अ यंत ही कोमल है। िमलते ही भु


आप पर कृपा करगे और आपका एक भी अपराध वे दय म नह रखगे।

जनकसत ु ा रघन
ु ाथिह दीजे। एतना कहा मोर भु क जे॥
जब तेिहं कहा देन बैदहे ी। चरन हार क ह सठ तेही॥

जानक रघुनाथ को दे दीिजए। हे भु! इतना कहना मेरा क िजए। जब उस (दूत) ने जानक को
देने के िलए कहा, तब दु रावण ने उसको लात मारी।

नाइ चरन िस चला सो तहाँ। कृपािसंधु रघन


ु ायक जहाँ॥
क र नामु िनज कथा सन
ु ाई। राम कृपाँ आपिन गित पाई॥

वह भी (िवभीषण क भाँित) चरण म िसर नवाकर वह चला, जहाँ कृपासागर रघुनाथ थे। णाम
करके उसने अपनी कथा सुनाई और राम क कृपा से अपनी गित (मुिन का व प) पाई।

रिष अगि त क साप भवानी। राछस भयउ रहा मिु न यानी॥


बंिद राम पद बारिहं बारा। मिु न िनज आ म कहँ पगु धारा॥

(िशव कहते ह -) हे भवानी! वह ानी मुिन था, अग य ऋिष के शाप से रा स हो गया था। बार-
बार राम के चरण क वंदना करके वह मुिन अपने आ म को चला गया।

दो० - िबनय न मानत जलिध जड़ गए तीिन िदन बीित।


बोले राम सकोप तब भय िबनु होइ न ीित॥ 57॥

इधर तीन िदन बीत गए, िकंतु जड़ समु िवनय नह मानता। तब राम ोध सिहत बोले - िबना
भय के ीित नह होती!॥ 57॥

लिछमन बान सरासन आनू। सोष बा रिध िबिसख कृसान॥ु


सठ सन िबनय कुिटल सन ीित। सहज कृपन सन संदु र नीित॥

हे ल मण! धनुष-बाण लाओ, म अि नबाण से समु को सोख डालँ।ू मख ू से िवनय, कुिटल के


साथ ीित, वाभािवक ही कंजसू से संुदर नीित (उदारता का उपदेश),
ममता रत सन यान कहानी। अित लोभी सन िबरित बखानी॥
ोिधिह सम कािमिह ह रकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥

ममता म फँसे हए मनु य से ान क कथा, अ यंत लोभी से वैरा य का वणन, ोधी से शम


(शांित) क बात और कामी से भगवान क कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर म बीज
बोने से होता है (अथात ऊसर म बीज बोने क भाँित यह सब यथ जाता है)।

अस किह रघप ु ित चाप चढ़ावा। यह मत लिछमन के मन भावा॥


संधानेउ भु िबिसख कराला। उठी उदिध उर अंतर वाला॥

ऐसा कहकर रघुनाथ ने धनुष चढ़ाया। यह मत ल मण के मन को बहत अ छा लगा। भु ने


भयानक (अि न) बाण संधान िकया, िजससे समु के दय के अंदर अि न क वाला उठी।

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जंतु जलिनिध जब जाने॥


कनक थार भ र मिन गन नाना। िब प आयउ तिज माना॥

मगर, साँप तथा मछिलय के समहू याकुल हो गए। जब समु ने जीव को जलते जाना, तब
सोने के थाल म अनेक मिणय (र न ) को भरकर अिभमान छोड़कर वह ा ण के प म आया।

दो० - काटेिहं पइ कदरी फरइ कोिट जतन कोउ स च।


िबनय न मान खगेस सन ु ु डाटेिहं पइ नव नीच॥ 58॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! सुिनए, चाहे कोई करोड़ उपाय करके स चे, पर केला तो
काटने पर ही फलता है। नीच िवनय से नह मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रा ते पर आता
है)॥ 58॥

सभय िसंधु गिह पद भु केरे । छमह नाथ सब अवगन


ु मेरे॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इ ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥

समु ने भयभीत होकर भु के चरण पकड़कर कहा - हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) मा
क िजए। हे नाथ! आकाश, वायु, अि न, जल और प ृ वी - इन सबक करनी वभाव से ही जड़ है।

तव े रत मायाँ उपजाए। सिृ हेतु सब ंथिन गाए॥


भु आयसु जेिह कहँ जस अहई। सो तेिह भाँित रह सख
ु लहई॥

आपक ेरणा से माया ने इ ह सिृ के िलए उ प न िकया है, सब ंथ ने यही गाया है। िजसके
िलए वामी क जैसी आ ा है, वह उसी कार से रहने म सुख पाता है।

भु भल क ह मोिह िसख दी ही। मरजादा पिु न तु हरी क ही॥


ढोल गवाँर सू पसु नारी। सकल ताड़ना के अिधकारी॥

भु ने अ छा िकया जो मुझे िश ा (दंड) दी; िकंतु मयादा (जीव का वभाव) भी आपक ही बनाई
हई है। ढोल, गँवार, शू , पशु और ी - ये सब ताड़ना के अिधकारी ह।

भु ताप म जाब सख ु ाई। उत रिह कटकु न मो र बड़ाई॥


भु अ या अपेल ुित गाई। कर सो बेिग जो तु हिह सोहाई॥

भु के ताप से म सख ू जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसम मेरी बड़ाई नह है (मेरी मयादा
नह रहे गी)। तथािप भु क आ ा अपेल है (अथात आपक आ ा का उ लंघन नह हो सकता)
ऐसा वेद गाते ह। अब आपको जो अ छा लगे, म तुरंत वही क ँ ।

दो० - सनु त िबनीत बचन अित कह कृपाल मसु क


ु ाइ।
जेिह िबिध उतरै किप कटकु तात सो कहह उपाइ॥ 59॥

समु के अ यंत िवनीत वचन सुनकर कृपालु राम ने मुसकराकर कहा - हे तात! िजस कार
वानर क सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥ 59॥

नाथ नील नल किप ौ भाई। ल रकाई ं रिष आिसष पाई॥


ित ह क परस िकएँ िग र भारे । त रहिहं जलिध ताप तु हारे ॥

(समु ने कहा -) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई ह। उ ह ने लड़कपन म ऋिष से आशीवाद


पाया था। उनके पश कर लेने से ही भारी-भारी पहाड़ भी आपके ताप से समु पर तैर जाएँ गे।

म पिु न उर ध र भु भत
ु ाई। क रहउँ बल अनम ु ान सहाई॥
एिह िबिध नाथ पयोिध बँधाइअ। जेिहं यह सज
ु सु लोक ितहँ गाइअ॥

म भी भु क भुता को दय म धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पड़े गा)


सहायता क ँ गा। हे नाथ! इस कार समु को बँधवाइए, िजससे तीन लोक म आपका सुंदर
यश गाया जाए।

एिह सर मम उ र तट बासी। हतह नाथ खल नर अघ रासी॥


सिु न कृपाल सागर मन पीरा। तरु तिहं हरी राम रनधीरा॥

इस बाण से मेरे उ र तट पर रहनेवाले पाप क रािश दु मनु य का वध क िजए। कृपालु और


रणधीर राम ने समु के मन क पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही हर िलया (अथात बाण से उन दु
का वध कर िदया)।

देिख राम बल पौ ष भारी। हरिष पयोिनिध भयउ सख


ु ारी॥
सकल च रत किह भिु ह सन
ु ावा। चरन बंिद पाथोिध िसधावा॥

राम का भारी बल और पौ ष देखकर समु हिषत होकर सुखी हो गया। उसने उन दु का सारा
च र भु को कह सुनाया। िफर चरण क वंदना करके समु चला गया।

छं ० - िनज भवन गवनेउ िसंधु ीरघपु ितिह यह मत भायऊ।


यह च रत किल मलहर जथामित दास तल ु सी गायऊ॥
सख ु भवन संसय समन दवन िबषाद रघप ु ित गन
ु गना।
तिज सकल आस भरोस गाविह सन ु िह संतत सठ मना॥

समु अपने घर चला गया, ीरघुनाथ को यह मत (उसक सलाह) अ छा लगा। यह च र


किलयुग के पाप को हरनेवाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुि के अनुसार गाया है। रघुनाथ
के गुणसमहू सुख के धाम, संदेह का नाश करनेवाले और िवषाद का दमन करनेवाले ह। अरे
मखू मन! तू संसार क सब आशा-भरोसा यागकर िनरं तर इ ह गा और सुन।

दो० - सकल सम ु ंगल दायक रघन ु ायक गन


ु गान।
सादर सनु िहं ते तरिहं भव िसंधु िबना जलजान॥ 60॥

ू सुंदर मंगल का देनेवाला है। जो इसे आदर सिहत सुनगे, वे िबना


रघुनाथ का गुणगान संपण
िकसी जहाज (अ य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँ गे॥ 60॥

इित ीम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने पंचमः सोपानः समा ः।

किलयुग के सम त पाप का नाश करनेवाले ी रामच रतमानस का यह पाँचवाँ सोपान समा


हआ।

(सुंदरकांड समा )
लंकाकांड
रामं कामा रसे यं भवभयहरणं कालम भ े िसंहं
योगी ं ानग यं गण ु िनिधमिजतं िनगणं ु िनिवकारम्।
मायातीतं सरु े शं खलवधिनरतं वृ दैकदेवं
वंद े कंदावदातं सरिसजनयनं देवमव
ु श पम्॥ 1॥

कामदेव के श ु िशव के से य, भव (ज म-म ृ यु) के भय को हरनेवाले, काल पी मतवाले हाथी


के िलए िसंह के समान, योिगय के वामी (योगी र), ान के ारा जानने यो य, गुण क
िनिध, अजेय, िनगुण, िनिवकार, माया से परे , देवताओं के वामी, दु के वध म त पर,
ा णवंदृ के एकमा देवता (र क), जलवाले मेघ के समान सुंदर याम, कमल के से ने वाले,
प ृ वीपित (राजा) के प म परमदेव राम क म वंदना करता हँ॥ 1॥

शंखे ाभमतीवसंदु रतनंु शादूलचमा बरं


काल यालकरालभूषणधरं गंगाशशांकि यम्।
काशीशं किलक मषौघशमनं क याणक प म ु ं
नौमीड्यं िग रजापितं गण
ु िनिधं कंदपहं शंकरम्॥ 2॥

शंख और चं मा क -सी कांित के अ यंत सुंदर शरीरवाले, या चम के व वाले, काल के समान


(अथवा काले रं ग के) भयानक सप का भषू ण धारण करनेवाले, गंगा और चं मा के ेमी,
काशीपित, किलयुग के पाप समहू का नाश करनेवाले, क याण के क पव ृ , गुण के िनधान
और कामदेव को भ म करनेवाले, पावती पित वंदनीय शंकर को म नम कार करता हँ॥ 2॥

यो ददाित सतां शंभःु कैव यमिप दल


ु भम्।
खलानां दंडकृ ोऽसौ शंकरः शं तनोतु मे॥ 3॥

जो सत पु ष को अ यंत दुलभ कैव यमुि तक दे डालते ह और जो दु को दंड देनेवाले ह, वे


क याणकारी शंभु मेरे क याण का िव तार कर॥ 3॥

दो० - लव िनमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।


भजिस न मन तेिह राम को कालु जासु कोदंड॥

लव, िनमेष, परमाणु, वष, युग और क प िजनके चंड बाण ह और काल िजनका धनुष है, हे
मन! तू उन राम को य नह भजता?

सो० - िसंधु बचन सिु न राम सिचव बोिल भु अस कहेउ।


अब िबलंबु केिह काम करह सेतु उतरै कटकु॥

समु के वचन सुनकर भु राम ने मंि य को बुलाकर ऐसा कहा - अब िवलंब िकसिलए हो रहा
है? सेतु (पुल) तैयार करो, िजससे सेना उतरे ।

सन ु ु ल केतु जामवंत कर जो र कह।


ु ह भानक
नाथ नाम तव सेतु नर चिढ़ भव सागर तरिहं॥

जा बवान ने हाथ जोड़कर कहा - हे सय ू कुल के वजा व प (क ित को बढ़ानेवाले) राम!


सुिनए। हे नाथ! (सबसे बड़ा) सेतु तो आपका नाम ही है, िजस पर चढ़कर (िजसका आ य
लेकर) मनु य संसार पी समु से पार हो जाते ह।

यह लघु जलिध तरत कित बारा। अस सिु न पिु न कह पवनकुमारा॥


भु ताप बड़वानल भारी। सोषेउ थम पयोिनिध बारी॥

िफर यह छोटा-सा समु पार करने म िकतनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर िफर पवनकुमार हनुमान
ने कहा - भु का ताप भारी बड़वानल (समु क आग) के समान है। इसने पहले समु के जल
को सोख िलया था,

तव रपु ना र दन जल धारा। भरे उ बहो र भयउ तेिहं खारा॥


ु केरी। हरषे किप रघप
सिु न अित उकुित पवनसत ु ित तन हेरी॥

परं तु आपके श ुओ ं क ि य के आँसुओ ं क धारा से यह िफर भर गया और उसी से खारा भी हो


गया। हनुमान क यह अ युि (अलंकारपण ू युि ) सुनकर वानर रघुनाथ क ओर देखकर
हिषत हो गए।

जामवंत बोले दोउ भाई। नल नीलिह सब कथा सनु ाई॥


राम ताप सिु म र मन माह । करह सेतु यास कछु नाह ॥

जा बवान ने नल-नील दोन भाइय को बुलाकर उ ह सारी कथा कह सुनाई (और कहा -) मन
म राम के ताप को मरण करके सेतु तैयार करो, (राम ताप से) कुछ भी प र म नह होगा।

बोिल िलए किप िनकर बहोरी। सकल सनु ह िबनती कछु मोरी॥
राम चरन पंकज उर धरह। कौतकु एक भालु किप करह॥

िफर वानर के समहू को बुला िलया (और कहा -) आप सब लोग मेरी कुछ िवनती सुिनए। अपने
दय म राम के चरण-कमल को धारण कर लीिजए और सब भालू और वानर एक खेल क िजए।

धावह मकट िबकट ब था। आनह िबटप िग र ह के जूथा॥


सिु न किप भालु चले क र हहा। जय रघब
ु ीर ताप समूहा॥

िवकट वानर के समहू (आप) दौड़ जाइए और व ृ तथा पवत के समहू को उखाड़ लाइए। यह
सुनकर वानर और भालू हह (हँकार) करके और रघुनाथ के तापसमहू क (अथवा ताप के पुंज
राम क ) जय पुकारते हए चले।

दो० - अित उतंग िग र पादप लीलिहं लेिहं उठाइ।


आिन देिहं नल नीलिह रचिहं ते सेतु बनाइ॥ 1॥

बहत ऊँचे-ऊँचे पवत और व ृ को खेल क तरह ही (उखाड़कर) उठा लेते ह और ला-लाकर


नल-नील को देते ह। वे अ छी तरह गढ़कर (सुंदर) सेतु बनाते ह॥ 1॥

सैल िबसाल आिन किप देह । कंदक ु इव नल नील ते लेह ॥


देिख सेतु अित संदु र रचना। िबहिस कृपािनिध बोले बचना॥

वानर बड़े -बड़े पहाड़ ला-लाकर देते ह और नल-नील उ ह गद क तरह ले लेते ह। सेतु क
अ यंत सुंदर रचना देखकर कृपािसंधु राम हँसकर वचन बोले -

परम र य उ म यह धरनी। मिहमा अिमत जाइ निहं बरनी॥


क रहउँ इहाँ संभु थापना। मोरे दयँ परम कलपना॥

यह (यहाँ क ) भिू म परम रमणीय और उ म है। इसक असीम मिहमा वणन नह क जा सकती।
म यहाँ िशव क थापना क ँ गा। मेरे दय म यह महान संक प है।

सिु न कपीस बह दूत पठाए। मिु नबर सकल बोिल लै आए॥


िलंग थािप िबिधवत क र पूजा। िसव समान ि य मोिह न दूजा॥

राम के वचन सुनकर वानरराज सु ीव ने बहत-से दूत भेजे, जो सब े मुिनय को बुलाकर ले


आए। िशविलंग क थापना करके िविधपवू क उसका पज ू न िकया। (िफर भगवान बोले -) िशव के
समान मुझको दूसरा कोई ि य नह है।

िसव ोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहँ मोिह न पावा॥


संकर िबमख
ु भगित चह मोरी। सो नारक मूढ़ मित थोरी॥

जो िशव से ोह रखता है और मेरा भ कहलाता है, वह मनु य व न म भी मुझे नह पाता।


शंकर से िवमुख होकर (िवरोध करके) जो मेरी भि चाहता है, वह नरकगामी, मख
ू और
अ पबुि है।

दो० - संकरि य मम ोही िसव ोही मम दास।


ते नर करिहं कलप भ र घोर नरक महँ बास॥ 2॥

िजनको शंकर ि य ह, परं तु जो मेरे ोही ह एवं जो िशव के ोही ह और मेरे दास (बनना चाहते)
ह, वे मनु य क पभर घोर नरक म िनवास करते ह॥ 2॥

जे रामे वर दरसनु क रहिहं। ते तनु तिज मम लोक िसध रहिहं॥


जो गंगाजलु आिन चढ़ाइिह। सो साजु य मिु नर पाइिह॥

जो मनु य (मेरे थािपत िकए हए इन) रामे र का दशन करगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को
जाएँ गे। और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ावेगा, वह मनु य सायु य मुि पावेगा (अथात मेरे
साथ एक हो जाएगा)।

होइ अकाम जो छल तिज सेइिह। भगित मो र तेिह संकर देइिह॥


मम कृत सेतु जो दरसनु क रही। सो िबनु म भवसागर त रही॥

जो छल छोड़कर और िन काम होकर रामे र क सेवा करगे, उ ह शंकर मेरी भि दगे और जो


मेरे बनाए सेतु का दशन करे गा, वह िबना ही प र म संसार पी समु से तर जाएगा।

राम बचन सब के िजय भाए। मिु नबर िनज िनज आ म आए॥


ु ित कै यह रीती। संतत करिहं नत पर ीती॥
िग रजा रघप

राम के वचन सबके मन को अ छे लगे। तदनंतर वे े मुिन अपने-अपने आ म को लौट आए।


(िशव कहते ह -) हे पावती! रघुनाथ क यह रीित है िक वे शरणागत पर सदा ीित करते ह।

बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥


बूड़िहं आनिह बोरिहं जेई। भए उपल बोिहत सम तेई॥

चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। राम क कृपा से उनका यह (उ वल) यश सव फै ल गया। जो


प थर आप डूबते ह और दूसर को डुबा देते ह, वे ही जहाज के समान ( वयं तैरनेवाले और दूसर
को पार ले जानेवाले) हो गए।

मिहमा यह न जलिध कइ बरनी। पाहन गन


ु न किप ह कइ करनी॥

यह न तो समु क मिहमा वणन क गई है, न प थर का गुण है और न वानर क ही कोई


करामात है।

दो० - ी रघबु ीर ताप ते िसंधु तरे पाषान।


ते मितमंद जे राम तिज भजिहं जाइ भु आन॥ 3॥
ी रघुवीर के ताप से प थर भी समु पर तैर गए। ऐसे राम को छोड़कर जो िकसी दूसरे वामी
को जाकर भजते ह वे (िन य ही) मंदबुि ह।

बाँिध सेतु अित सु ढ़ बनावा। देिख कृपािनिध के मन भावा॥


चली सेन कछु बरिन न जाई। गजिहं मकट भट समदु ाई॥

ू बनाया। देखने पर वह कृपािनधान राम के मन को


नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहत मजबत
(बहत ही) अ छा लगा। सेना चली, िजसका कुछ वणन नह हो सकता। यो ा वानर के समुदाय
गरज रहे ह।

सेतब
ु ंध िढग चिढ़ रघरु ाई। िचतव कृपाल िसंधु बहताई॥
देखन कहँ भु क ना कंदा। गट भए सब जलचर बंदृ ा॥

कृपालु रघुनाथ सेतुबंध के तट पर चढ़कर समु का िव तार देखने लगे। क णाकंद (क णा के


ू ) भु के दशन के िलए सब जलचर के समहू कट हो गए (जल के ऊपर िनकल आए)।
मल

मकर न नाना झष याला। सत जोजन तन परम िबसाला॥


अइसेउ एक ित हिह जे खाह । एक ह क डर तेिप डेराह ॥

बहत तरह के मगर, नाक (घिड़याल), म छ और सप थे, िजनके सौ-सौ योजन के बहत बड़े
िवशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जंतु थे, जो उनको भी खा जाएँ । िकसी-िकसी के डर से तो वे भी डर
रहे थे।

भिु ह िबलोकिहं टरिहं न टारे । मन हरिषत सब भए सख


ु ारे ॥
ित ह क ओट न देिखअ बारी। मगन भए ह र प िनहारी॥

ू कर) भु के दशन कर रहे ह, हटाने से भी नह हटते। सबके मन हिषत ह;


वे सब (वैर-िवरोध भल
सब सुखी हो गए। उनक आड़ के कारण जल नह िदखाई पड़ता। वे सब भगवान का प
देखकर (आनंद और ेम म) म न हो गए।

चला कटकु भु आयसु पाई। को किह सक किप दल िबपुलाई॥

भु क आ ा पाकर सेना चली। वानर सेना क िवपुलता (अ यिधक सं या) को कौन कह


सकता है?

दो० – सेतु बंध भइ भीर अित किप नभ पंथ उड़ािहं।


अपर जलचरि ह ऊपर चिढ़ चिढ़ पारिह जािहं॥ 4॥

सेतुबंध पर बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश माग से उड़ने लगे और दूसरे (िकतने ही)
जलचर जीव पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे ह॥ 4॥

अस कौतकु िबलोिक ौ भाई। िबहँिस चले कृपाल रघरु ाई॥


सेन सिहत उतरे रघब
ु ीरा। किह न जाइ किप जूथप भीरा॥

कृपालु रघुनाथ (तथा ल मण) दोन भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हए चले। रघुवीर सेना सिहत
समु के पार हो गए। वानर और उनके सेनापितय क भीड़ कही नह जा सकती।

िसंधु पार भु डेरा क हा। सकल किप ह कहँ आयसु दी हा॥


खाह जाइ फल मूल सहु ाए। सनु त भालु किप जहँ तहँ धाए॥

भु ने समु के पार डे रा डाला और सब वानर को आ ा दी िक तुम जाकर सुंदर फल-मल



खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े ।

सब त फरे राम िहत लागी। रतु अ कु रतु काल गित यागी॥


खािहं मधरु फल िबटप हलाविहं। लंका स मख
ु िसखर चलवािहं॥

राम के िहत (सेवा) के िलए सब व ृ ऋतु-कुऋतु - समय क गित को छोड़कर फल उठे । वानर-
भालू मीठे फल खा रहे ह, व ृ को िहला रहे ह और पवत के िशखर को लंका क ओर फक रहे
ह।

जहँ कहँ िफरत िनसाचर पाविहं। घे र सकल बह नाच नचाविहं॥


दसनि ह कािट नािसका काना। किह भु सज ु सु देिहं तब जाना॥

घम
ू ते-घमू ते जहाँ कह िकसी रा स को पा जाते ह तो सब उसे घेरकर खबू नाच नचाते ह और
दाँत से उसके नाक-कान काटकर, भु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते
ह।

िज ह कर नासा कान िनपाता। ित ह रावनिह कही सब बाता॥


सनु त वन बा रिध बंधाना। दस &##2350;◌ुख बोिल उठा अकुलाना॥

िजन रा स के नाक और कान काट डाले गए, उ ह ने रावण से सब समाचार कहा। समु (पर
सेतु) का बाँधा जाना कान से सुनते ही रावण घबड़ाकर दस मुख से बोल उठा -

दो० - बाँ यो बनिनिध नीरिनिध जलिध िसंधु बारीस।


स य तोयिनिध कंपित उदिध पयोिध नदीस॥ 5॥

वनिनिध, नीरिनिध, जलिध, िसंधु, वारीश, तोयिनिध, कंपित, उदिध, पयोिध, नदीश को या
सचमुच ही बाँध िलया?॥ 5॥
िनज िबकलता िबचा र बहोरी॥ िबहँिस गयउ गहृ क र भय भोरी॥
मंदोदर सु यो भु आयो। कौतक
ु ह पाथोिध बँधायो॥

िफर अपनी याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हआ, भय को भुलाकर, रावण महल को
गया। (जब) मंदोदरी ने सुना िक भु राम आ गए ह और उ ह ने खेल म ही समु को बँधवा िलया
है,

कर गिह पितिह भवन िनज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥


चरन नाइ िस अंचलु रोपा। सन
ु ह बचन िपय प रह र कोपा॥

(तब) वह हाथ पकड़कर, पित को अपने महल म लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरण म िसर
नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा - हे ि यतम! ोध याग कर मेरा वचन सुिनए।

नाथ बय क जे ताही स । बिु ध बल सिकअ जीित जाही स ॥


ु ितिह अंतर कैसा। खलु ख ोत िदनकरिह जैसा॥
तु हिह रघप

हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चािहए, िजससे बुि और बल के ारा जीत सके। आप म और
रघुनाथ म िन य ही कैसा अंतर है, जैसा जुगनू और सय
ू म!

अित बल मधु कैटभ जेिहं मारे । महाबीर िदितसत


ु संघारे ॥
जेिहं बिल बाँिध सहस भज
ु मारा। सोइ अवतरे उ हरन मिह भारा॥

िज ह ने (िव णु प से) अ यंत बलवान मधु और कैटभ (दै य) मारे और (वराह और निृ संह प
से) महान शरू वीर िदित के पु (िहर या और िहर यकिशपु) का संहार िकया; िज ह ने (वामन
प से) बिल को बाँधा और (परशुराम प से) सह बाह को मारा, वे ही (भगवान) प ृ वी का भार
हरण करने के िलए (राम प म) अवतीण ( कट) हए ह!

तासु िबरोध न क िजअ नाथा। काल करम िजव जाक हाथा॥

हे नाथ! उनका िवरोध न क िजए, िजनके हाथ म काल, कम और जीव सभी ह।

दो० - रामिह स िप जानक नाइ कमल पद माथ।


सतु कहँ राज समिप बन जाइ भिजअ रघन
ु ाथ॥ 6॥

(राम) के चरण कमल म िसर नवाकर (उनक शरण म जाकर) उनको जानक स प दीिजए और
आप पु को रा य देकर वन म जाकर रघुनाथ का भजन क िजए॥ 6॥

नाथ दीनदयाल रघरु ाई। बाघउ सनमख


ु गएँ न खाई॥
चािहअ करन सो सब क र बीते। तु ह सरु असरु चराचर जीते॥
हे नाथ! रघुनाथ तो दीन पर दया करनेवाले ह। स मुख (शरण म) जाने पर तो बाघ भी नह
खाता। आपको जो कुछ करना चािहए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता, रा स तथा चर-
अचर सभी को जीत िलया।

संत कहिहं अिस नीित दसानन। चौथपन जाइिह नपृ कानन॥


तासु भजनु क िजअ तहँ भता। जो कता पालक संहता॥

हे दशमुख! संतजन ऐसी नीित कहते ह िक चौथेपन (बुढ़ापे) म राजा को वन म चला जाना
चािहए। हे वामी! वहाँ (वन म) आप उनका भजन क िजए जो सिृ के रचनेवाले, पालनेवाले
और संहार करनेवाले ह।

सोइ रघब ु ीर नत अनरु ागी। भजह नाथ ममता सब यागी॥


मिु नबर जतनु करिहं जेिह लागी। भूप राजु तिज होिहं िबरागी॥

हे नाथ! आप िवषय क सारी ममता छोड़कर उ ह शरणागत पर ेम करनेवाले भगवान का


भजन क िजए। िजनके िलए े मुिन साधन करते ह और राजा रा य छोड़कर वैरागी हो जाते ह
-

सोइ कोसलाधीस रघरु ाया। आयउ करन तोिह पर दाया॥


ज िपय मानह मोर िसखावन। सज ु सु होइ ितहँ परु अित पावन॥

वही कोसलाधीश रघुनाथ आप पर दया करने आए ह। हे ि यतम! यिद आप मेरी सीख मान लगे,
तो आपका अ यंत पिव और संुदर यश तीन लोक म फै ल जाएगा।

दो० - अस किह नयन नीर भ र गिह पद कंिपत गात।


नाथ भजह रघनु ाथिह अचल होइ अिहवात॥ 7॥

ऐसा कहकर, ने म (क णा का) जल भरकर और पित के चरण पकड़कर, काँपते हए शरीर से


मंदोदरी ने कहा - हे नाथ! रघुनाथ का भजन क िजए, िजससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥ 7॥

तब रावन मयसत ु ा उठाई। कहै लाग खल िनज भतु ाई॥


सन
ु ु त ि या बथ
ृ ा भय माना। जग जोधा को मोिह समाना॥

ू े
तब रावण ने मंदोदरी को उठाया और वह दु उससे अपनी भुता कहने लगा - हे ि ये! सुन, तन
यथ ही भय मान रखा है। बता तो जगत म मेरे समान यो ा है कौन?

ब न कुबेर पवन जम काला। भज


ु बल िजतेउँ सकल िदगपाला॥
देव दनज
ु नर सब बस मोर। कवन हेतु उपजा भय तोर॥
व ण, कुबेर, पवन, यमराज आिद सभी िद पाल को तथा काल को भी मने अपनी भुजाओं के
बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनु य सभी मेरे वश म ह। िफर तुझको यह भय िकस
कारण उ प न हो गया?

नाना िबिध तेिह कहेिस बझ


ु ाई। सभाँ बहो र बैठ सो जाई॥
मंदोदर दयँ अस जाना। काल ब य उपजा अिभमाना॥

मंदोदरी ने उसे बहत तरह से समझाकर कहा (िकंतु रावण ने उसक एक भी बात न सुनी) और
वह िफर सभा म जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने दय म ऐसा जान िलया िक काल के वश होने से
पित को अिभमान हो गया है।

सभाँ आइ मंि ह तेिहं बूझा। करब कवन िबिध रपु स जूझा॥


कहिहं सिचव सन
ु ु िनिसचर नाहा। बार बार भु पूछह काहा॥

सभा म आकर उसने मंि य से पछ ू ा िक श ु के साथ िकस कार से यु करना होगा? मं ी


कहने लगे - हे रा स के नाथ! हे भु! सुिनए, आप बार-बार या पछ
ू ते ह?

कहह कवन भय क रअ िबचारा। नर किप भालु अहार हमारा॥

किहए तो (ऐसा) कौन-सा बड़ा भय है, िजसका िवचार िकया जाए? (भय क बात ही या है?)
मनु य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (क साम ी) ह।

दो० - सब के बचन वन सिु न कह ह त कर जो र।


नीित िबरोध न क रअ भु मंि ह मित अित थो र॥ 8॥

कान से सबके वचन सुनकर (रावण का पु ) ह त हाथ जोड़कर कहने लगा - हे भु! नीित
के िव कुछ भी नह करना चािहए, मंि य म बहत ही थोड़ी बुि है॥ 8॥

कहिहं सिचव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एिह भाँती॥


बा रिध नािघ एक किप आवा। तासु च रत मन महँ सबु गावा॥

ये सभी मख
ू (खुशामदी) ठकुरसुहाती (मँुहदेखी) कह रहे ह। हे नाथ! इस कार क बात से परू ा
नह पड़े गा। एक ही बंदर समु लाँघकर आया था। उसका च र सब लोग अब भी मन-ही-मन
गाया करते ह ( मरण िकया करते ह)।

छुधा न रही तु हिह तब काह। जारत नग कस न ध र खाह॥


सनु त नीक आग दःु ख पावा। सिचवन अस मत भिु ह सन
ु ावा॥

उस समय तुम लोग म से िकसी को भख


ू न थी? (बंदर तो तु हारा भोजन ही ह, िफर) नगर
जलाते समय उसे पकड़कर य नह खा िलया? इन मंि य ने वामी (आप) को ऐसी स मित
सुनाई है जो सुनने म अ छी है पर िजससे आगे चलकर दुःख पाना होगा।

जेिहं बारीस बँधायउ हेला। उतरे उ सेन समेत सब े ा॥


ु ल
सो भनु मनज ु खाब हम भाई। बचन कहिहं सब गाल फुलाई॥

िजसने खेल-ही-खेल म समु बँधा िलया और जो सेना सिहत सुबेल पवत पर आ उतरा है। हे भाई!
कहो वह मनु य है, िजसे कहते हो िक हम खा लगे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागल क तरह)
वचन कह रहे ह!

तात बचन मम सन ु ु अित आदर। जिन मन गन ु ह मोिह क र कादर।


ि य बानी जे सन
ु िहं जे कहह । ऐसे नर िनकाय जग अहह ॥

हे तात! मेरे वचन को बहत आदर से (बड़े गौर से) सुिनए। मुझे मन म कायर न समझ
लीिजएगा। जगत म ऐसे मनु य झुंड-के-झुंड (बहत अिधक) ह, जो यारी (मँुह पर मीठी
लगनेवाली) बात ही सुनते और कहते ह।

बचन परम िहत सन


ु त कठोरे । सनु िहं जे कहिहं ते नर भु थोरे ॥
थम बसीठ पठउ सनु ु नीती। सीता देइ करह पिु न ीती॥

हे भो! सुनने म कठोर परं तु (प रणाम म) परम िहतकारी वचन जो सुनते और कहते ह, वे
मनु य बहत ही थोड़े ह। नीित सुिनए, (उसके अनुसार) पहले दूत भेिजए, और (िफर) सीता को
देकर राम से ीित (मेल) कर लीिजए।

दो० - ना र पाइ िफ र जािहं ज तौ न बढ़ाइअ रा र।


नािहं त स मखु समर मिह तात क रअ हिठ मा र॥ 9॥

यिद वे ी पाकर लौट जाएँ , तब तो ( यथ) झगड़ा न बढ़ाइए। नह तो (यिद न िफर तो) हे तात!
स मुख यु भिू म म उनसे हठपवू क (डटकर) मार-काट क िजए॥ 9॥

यह मत ज मानह भु मोरा। उभय कार सज


ु सु जग तोरा॥
ु सन कह दसकंठ रसाई। अिस मित सठ केिहं तोिह िसखाई॥
सत

हे भो! यिद आप मेरी यह स मित मानगे, तो जगत म दोन ही कार से आपका सुयश होगा।
ू ! तुझे ऐसी बुि िकसने िसखाई?
रावण ने गु से म भरकर पु से कहा - अरे मख

अबह ते उर संसय होई। बेनमु ूल सतु भयह घमोई॥


सिु न िपतु िगरा प ष अित घोरा। चला भवन किह बचन कठोरा॥
अभी से दय म संदेह (भय) हो रहा है? हे पु ! तू तो बाँस क जड़ म घमोई हआ (तू मेरे वंश के
अनुकूल या अनु प नह हआ)। िपता क अ यंत घोर और कठोर वाणी सुनकर ह त ये कड़े
वचन कहता हआ घर को चला गया।

िहत मत तोिह न लागत कैस। काल िबबस कहँ भेषज जैस॥


सं या समय जािन दससीसा। भवन चलेउ िनरखत भज ु बीसा॥

िहत क सलाह आपको कैसे नह लगती (आप पर कैसे असर नह करती), जैसे म ृ यु के वश हए
(रोगी) को दवा नह लगती। सं या का समय जानकर रावण अपनी बीस भुजाओं को देखता
हआ महल को चला।

लंका िसखर उपर आगारा। अित िबिच तहँ होइ अखारा॥


बैठ जाइ तेिहं मंिदर रावन। लागे िकंनर गन
ु गन गावन॥

लंका क चोटी पर एक अ यंत िविच महल था। वहाँ नाच-गान का अखाड़ा जमता था। रावण
उस महल म जाकर बैठ गया। िक नर उसके गुणसमहू को गाने लगे।

बाजिहं ताल पखाउज बीना। न ृ य करिहं अपछरा बीना॥

ताल (करताल), पखावज (मदृ ंग) और बीणा बज रहे ह। न ृ य म वीण अ सराएँ नाच रही ह।

दो० - सन
ु ासीर सत स रस सो संतत करइ िबलास।
परम बल रपु सीस पर त िप सोच न ास॥ 10॥

वह िनरं तर सैकड़ इं के समान भोग-िवलास करता रहता है। य िप (राम-सरीखा) अ यंत


बल श ु िसर पर है, िफर भी उसको न तो िचंता है और न डर ही है॥ 10॥

इहाँ सब े सैल रघब


ु ल ु ीरा। उतरे सेन सिहत अित भीरा॥
िसखर एक उतंग अित देखी। परम र य सम सु िबसेषी॥

यहाँ रघुवीर सुबेल पवत पर सेना क बड़ी भीड़ (बड़े समहू ) के साथ उतरे । पवत का एक बहत
ऊँचा, परम रमणीय, समतल और िवशेष प से उ वल िशखर देखकर -

तहँ त िकसलय सम ु न सहु ाए। लिछमन रिच िनज हाथ डसाए॥


ता पर िचर मदृ ल
ु मगृ छाला। तेिहं आसन आसीन कृपाला॥

वहाँ ल मण ने व ृ के कोमल प े और संुदर फूल अपने हाथ से सजाकर िबछा िदए। उस पर


सुंदर और कोमल मग ृ छाला िबछा दी। उसी आसन पर कृपालु राम िवराजमान थे।
भु कृत सीस कपीस उछं गा। बाम दिहन िदिस चाप िनषंगा॥
दहु ँ कर कमल सधु ारत बाना। कह लंकेस मं लिग काना॥

भु राम वानरराज सु ीव क गोद म अपना िसर रखे ह। उनक बाई ं ओर धनुष तथा दािहनी ओर
तरकस (रखा) है। वे अपने दोन करकमल से बाण सुधार रहे ह। िवभीषण कान से लगकर
सलाह कर रहे ह।

बड़भागी अंगद हनम


ु ाना। चरन कमल चापत िबिध नाना॥
भु पाछ लिछमन बीरासन। किट िनषंग कर बान सरासन॥

परम भा यशाली अंगद और हनुमान अनेक कार से भु के चरण कमल को दबा रहे ह।
ल मण कमर म तरकस कसे और हाथ म धनुष-बाण िलए वीरासन से भु के पीछे सुशोिभत ह।

दो० - ऐिह िबिध कृपा प गनु धाम रामु आसीन।


ध य ते नर एिहं यान जे रहत सदा लयलीन॥ 11(क)॥

इस कार कृपा, प (स दय) और गुण के धाम राम िवराजमान ह। वे मनु य ध य ह जो सदा


इस यान म लौ लगाए रहते ह॥ 11(क)॥

पूरब िदसा िबलोिक भु देखा उिदत मयंक।


कहत सबिह देखह सिसिह मग ृ पित स रस असंक॥ 11(ख)॥

पवू िदशा क ओर देखकर भु राम ने चं मा को उदय हआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे -


चं मा को तो देखो। कैसा िसंह के समान िनडर है!॥ 11(ख)॥

पूरब िदिस िग रगहु ा िनवासी। परम ताप तेज बल रासी॥


म नाग तम कंु भ िबदारी। सिस केसरी गगन बन चारी॥

पवू िदशा पी पवत क गुफा म रहनेवाला, अ यंत ताप, तेज और बल क रािश यह चं मा पी


िसंह अंधकार पी मतवाले हाथी के म तक को िवदीण करके आकाश पी वन म िनभय िवचर
रहा है।

िबथरु े नभ मक
ु ु ताहल तारा। िनिस संदु री केर िसंगारा॥
कह भु सिस महँ मेचकताई। कहह काह िनज िनज मित भाई॥

आकाश म िबखरे हए तारे मोितय के समान ह, जो राि पी सुंदर ी के ंग ृ ार ह। भु ने कहा


- भाइयो! चं मा म जो कालापन है, वह या है? अपनी-अपनी बुि के अनुसार कहो।

ु ह रघरु ाई। सिस महँ गट भूिम कै झाँई॥


कह सु ीव सन
मारे उ राह सिसिह कह कोई। उर महँ परी यामता सोई॥

सु ीव ने कहा - हे रघुनाथ! सुिनए। चं मा म प ृ वी क छाया िदखाई दे रही है। िकसी ने कहा -


चं मा को राह ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग दय पर पड़ा हआ है।

कोउ कह जब िबिध रित मख ु क हा। सार भाग सिस कर ह र ली हा॥


िछ सो गट इं दु उर माह । तेिह मग देिखअ नभ प रछाह ॥

कोई कहता है - जब ा ने (कामदेव क ी) रित का मुख बनाया, तब उसने चं मा का सार


भाग िनकाल िलया (िजससे रित का मुख तो परम सुंदर बन गया, परं तु चं मा के दय म छे द हो
गया)। वही छे द चं मा के दय म वतमान है, िजसक राह से आकाश क काली छाया उसम
िदखाई पड़ती है।

भु कह गरल बंधु सिस केराा। अित ि य िनज उर दी ह बसेरा॥


िबष संजुत कर िनकर पसारी। जारत िबरहवंत नर नारी॥

भु राम ने कहा - िवष चं मा का बहत यारा भाई है, इसी से उसने िवष को अपने दय म थान
दे रखा है। िवषयु अपने िकरण समहू को फै लाकर वह िवयोगी नर-ना रय को जलाता रहता है।

दो० - कह हनमु ंत सन
ु ह भु सिस तु हार ि य दास।
तव मूरित िबधु उर बसित सोइ यामता अभास॥ 12(क)॥

हनुमान ने कहा - हे भो! सुिनए, चं मा आपका ि य दास है। आपक सुंदर याम मिू त चं मा के
दय म बसती है, वही यामता क झलक चं मा म है॥ 12(क)॥

पवन तनय के बचन सिु न िबहँसे रामु सज


ु ान।
दि छन िदिस अवलोिक भु बोले कृपा िनधान॥ 12(ख)॥

पवनपु हनुमान के वचन सुनकर सुजान राम हँसे। िफर दि ण क ओर देखकर कृपािनधान
भु बोले - ॥ 12(ख)॥

देखु िवभीषन दि छन आसा। घन घमंड दािमनी िबलासा॥


मधरु मधरु गरजइ घन घोरा। होइ बिृ जिन उपल कठोरा॥

हे िवभीषण! दि ण िदशा क ओर देखो, बादल कैसा घुमड़ रहा है और िबजली चमक रही है।
भयानक बादल मीठे -मीठे (ह के-ह के) वर से गरज रहा है। कह कठोर ओल क वषा न हो!

कहत िवभीषन सनु ह कृपाला। होइ न तिड़त न बा रद माला॥


लंका िसखर उपर आगारा। तहँ दसकंधर देख अखारा॥
िवभीषण बोले - हे कृपालु! सुिनए, यह न तो िबजली है, न बादल क घटा। लंका क चोटी पर
एक महल है। दश ीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाड़ा देख रहा है।

छ मेघडंबर िसर धारी। सोइ जनु जलद घटा अित कारी॥


मंदोदरी वन ताटंका। सोइ भु जनु दािमनी दमंका॥

रावण ने िसर पर मेघडं बर (बादल के डं बर-जैसा िवशाल और काला) छ धारण कर रखा है। वही
मानो बादल क काली घटा है। मंदोदरी के कान म जो कणफूल िहल रहे ह, हे भो! वही मानो
िबजली चमक रही है।

बाजिहं ताल मदृ ग


ं अनूपा। सोइ रव मधरु सन
ु ह सरु भूपा।
भु मस
ु कु ान समिु झ अिभमाना। चाप चढ़ाइ बान संधाना॥

हे देवताओं के स ाट! सुिनए, अनुपम ताल और मदृ ंग बज रहे ह। वही मधुर (गजन) विन है।
रावण का अिभमान समझकर भु मुसकराए। उ ह ने धनुष चढ़ाकर उस पर बाण का संधान
िकया।

दो० - छ मक
ु ु ट तांटक तब हते एकह बान।
सब क देखत मिह परे मरमु न कोऊ जान॥ 13(क)॥

और एक ही बाण से (रावण के) छ -मुकुट और (मंदोदरी के) कणफूल काट िगराए। सबके
देखते-देखते वे जमीन पर आ पड़े , पर इसका भेद (कारण) िकसी ने नह जाना॥ 13(क)॥

अस कौतकु क र राम सर िबसेउ आइ िनषंग।


रावन सभा ससंक सब देिख महा रसभंग॥ 13(ख)॥

ऐसा चम कार करके राम का बाण (वापस) आकर (िफर) तरकस म जा घुसा। यह महान रस-
भंग (रं ग म भंग) देखकर रावण क सारी सभा भयभीत हो गई॥ 13(ख)॥

कंप न भूिम न म त िबसेषा। अ स कछु नयन न देखा।


सोचिहं सब िनज दय मझारी। असगनु भयउ भयंकर भारी॥

न भकू ं प हआ, न बहत जोर क हवा (आँधी) चली। न कोई अ -श ही ने से देखे। (िफर ये
छ , मुकुट और कणफूल कैसे कटकर िगर पड़े ?) सभी अपने-अपने दय म सोच रहे ह िक यह
बड़ा भयंकर अपशकुन हआ!

दसमखु देिख सभा भय पाई। िबहिस बचन कह जुगिु त बनाई।


िसरउ िगरे संतत सभ
ु जाही। मक
ु ु ट परे कस असगन
ु ताही॥
सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युि रचकर ये वचन कहे - िसर का िगरना भी
िजसके िलए िनरं तर शुभ होता रहा है, उसके िलए मुकुट का िगरना अपशकुन कैसा?

सयन करह िनज िनज गहृ जाई। गवने भवन सकल िसर नाई॥
मंदोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते वनपूर मिह खसेऊ॥

अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने क कोई बात नह है) तब सब लोग िसर नवाकर घर गए।
जब से कणफूल प ृ वी पर िगरा, तब से मंदोदरी के दय म सोच बस गया।

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सन ु ह ानपित िबनती मोरी॥


कंत राम िबरोध प रहरह। जािन मनजु जिन हठ मन धरह॥

ने म जल भरकर, दोन हाथ जोड़कर वह (रावण से) कहने लगी - हे ाणनाथ! मेरी िवनती
सुिनए। हे ि यतम! राम से िवरोध छोड़ दीिजए। उ ह मनु य जानकर मन म हठ न पकड़े रिहए।

दो० - िब व प रघब
ु ंस मिन करह बचन िब वास।ु
लोक क पना बेद कर अंग अंग ित जास॥ु 14॥

मेरे इन वचन पर िव ास क िजए िक ये रघुकुल के िशरोमिण राम िव प ह - (यह सारा िव


उ ह का प है) वेद िजनके अंग-अंग म लोक क क पना करते ह॥ 14॥

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग िब ामा॥


भक
ृ ु िट िबलास भयंकर काला। नयन िदवाकर कच घन माला॥

पाताल (िजन िव प भगवान का) चरण है, लोक िसर है, अ य (बीच के सब) लोक का
िव ाम (ि थित) िजनके अ य िभ न-िभ न अंग पर है। भयंकर काल िजनका भक ृ ु िट संचालन
(भ ह का चलना) है। सयू ने है, बादल का समहू बाल है।

जासु ान अि वनीकुमारा। िनिस अ िदवस िनमेष अपारा॥


वन िदसा दस बेद बखानी। मा त वास िनगम िनज बानी॥

अि नी कुमार िजनक नािसका ह, रात और िदन िजनके अपार िनमेष (पलक मारना और
खोलना) ह। दस िदशाएँ कान ह, वेद ऐसा कहते ह। वायु ास है और वेद िजनक अपनी वाणी
है।

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाह िदगपाला॥


आनन अनल अंबपु ित जीहा। उतपित पालन लय समीहा॥

लोभ िजनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत है। माया हँसी है, िद पाल भुजाएँ ह। अि न
मुख है, व ण जीभ है। उ पि , पालन और लय िजनक चे ा (ि या) है।

रोम रािज अ ादस भारा। अि थ सैल स रता नस जारा॥


उदर उदिध अधगो जातना। जगमय भु का बह कलपना॥

अठारह कार क असं य वन पितयाँ िजनक रोमावली ह, पवत अि थयाँ ह, निदयाँ नस का


जाल ह, समु पेट है और नरक िजनक नीचे क इंि याँ ह। इस कार भु िव मय ह, अिधक
क पना (ऊहापोह) या क जाए?

दो० - अहंकार िसव बिु अज मन सिस िच महान।


मनजु बास सचराचर प राम भगवान॥ 15(क)॥

िशव िजनका अहंकार ह, ा बुि ह, चं मा मन ह और महान (िव णु) ही िच ह। उ ह चराचर


प भगवान राम ने मनु य प म िनवास िकया है॥ 15(क)॥

अस िबचा र सन
ु ु ानपित भु सन बय िबहाइ।
ीित करह रघबु ीर पद मम अिहवात न जाइ॥ 15(ख)॥

हे ाणपित! सुिनए, ऐसा िवचार कर भु से वैर छोड़कर रघुवीर के चरण म ेम क िजए, िजससे
मेरा सुहाग न जाए॥ 15(ख)॥

िबहँसा ना र बचन सिु न काना। अहो मोह मिहमा बलवाना॥


ना र सभु ाउ स य सब कहह । अवगन ु आठ सदा उर रहह ॥

प नी के वचन कान से सुनकर रावण खबू हँसा (और बोला -) अहो! मोह (अ ान) क मिहमा
बड़ी बलवान है! ी का वभाव सब स य ही कहते ह िक उसके दय म आठ अवगुण सदा रहते
ह-

साहस अनत
ृ चपलता माया। भय अिबबेक असौच अदाया॥
रपु कर प सकल त गावा। अित िबसाल भय मोिह सन
ु ावा॥

साहस, झठू , चंचलता, माया (छल), भय (डरपोकपन), अिववेक (मख


ू ता), अपिव ता और
िनदयता। तनू े श ु का सम (िवराट) प गाया और मुझे उसका बड़ा भारी भय सुनाया।

सो सब ि या सहज बस मोर। समिु झ परा अब साद तोर॥


जािनउँ ि या तो र चतरु ाई। एिह िबिध कहह मो र भत
ु ाई॥

हे ि ये! वह सब (यह चराचर िव तो) वभाव से ही मेरे वश म है। तेरी कृपा से मुझे यह अब
समझ पड़ा। हे ि ये! तेरी चतुराई म जान गया। तू इस कार (इसी बहाने) मेरी भुता का बखान
कर रही है।

तव बतकही गूढ़ मग ृ लोचिन। समझ


ु त सख
ु द सन
ु त भय मोचिन॥
मंदोद र मन महँ अस ठयऊ। िपयिह काल बस मित म भयऊ॥

हे मग
ृ नयनी! तेरी बात बड़ी गढ़ू (रह यभरी) ह, समझने पर सुख देनेवाली और सुनने से भय
छुड़ानेवाली ह। मंदोदरी ने मन म ऐसा िन य कर िलया िक पित को कालवश मित म हो गया
है।

दो० - ऐिह िबिध करत िबनोद बह ात गट दसकंध।


सहज असंक लंकपित सभाँ गयउ मद अंध॥ 16(क)॥

इस कार (अ ानवश) बहत-से िवनोद करते हए रावण को सबेरा हो गया। तब वभाव से ही


िनडर और घमंड म अंधा लंकापित सभा म गया॥ 16(क)॥

सो० - फूलइ फरइ न बेत जदिप सधु ा बरषिहं जलद।


मू ख दयँ न चेत ज गरु िमलिहं िबरं िच सम॥ 16(ख)॥

य िप बादल अमत
ृ -सा जल बरसाते ह तो भी बेत फूलता-फलता नह । इसी कार चाहे ा के
समान भी ानी गु िमल, तो भी मखू के दय म चेत ( ान) नह होता॥ 16(ख)॥

इहाँ ात जागे रघरु ाई। पूछा मत सब सिचव बोलाई॥


कहह बेिग का क रअ उपाई। जामवंत कह पद िस नाई॥

यहाँ (सुबेल पवत पर) ातःकाल रघुनाथ जागे और उ ह ने सब मंि य को बुलाकर सलाह पछ
ू ी
िक शी बताइए, अब या उपाय करना चािहए? जा बवान ने राम के चरण म िसर नवाकर कहा
-

सनु ु सब य सकल उर बासी। बिु ध बल तेज धम गनु रासी॥


मं कहउँ िनज मित अनसु ारा। दूत पठाइअ बािल कुमारा॥

हे सव (सब कुछ जाननेवाले)! हे सबके दय म बसनेवाले (अंतयामी)! हे बुि , बल, तेज, धम


और गुण क रािश! सुिनए! म अपनी बुि के अनुसार सलाह देता हँ िक बािलकुमार अंगद को
दूत बनाकर भेजा जाए!

नीक मं सब के मन माना। अंगद सन कह कृपािनधाना॥


बािलतनय बिु ध बल गन
ु धामा। लंका जाह तात मम कामा॥

यह अ छी सलाह सबके मन म जँच गई। कृपा के िनधान राम ने अंगद से कहा - हे बल, बुि
और गुण के धाम बािलपु ! हे तात! तुम मेरे काम के िलए लंका जाओ।

बहत बझु ाइ तु हिह का कहऊँ। परम चतरु म जानत अहऊँ॥


काजु हमार तासु िहत होई। रपु सन करे ह बतकही सोई॥

तुमको बहत समझाकर या कहँ! म जानता हँ, तुम परम चतुर हो। श ु से वही बातचीत करना
िजससे हमारा काम हो और उसका क याण हो।

दो० - भु अ या ध र सीस चरन बंिद अंगद उठेउ।


सोइ गनु सागर ईस राम कृपा जा कर करह॥ 17(क)॥

भु क आ ा िसर चढ़ाकर और उनके चरण क वंदना करके अंगद उठे (और बोले -) हे भगवान
राम! आप िजस पर कृपा कर, वही गुण का समु हो जाता है॥ 17(क)॥

वयंिस सब काज नाथ मोिह आद िदयउ।


अस िबचा र जुबराज तन पल
ु िकत हरिषत िहयउ॥ 17(ख)॥

वामी, सब काय अपने-आप िस ह; यह तो भु ने मुझ को आदर िदया है (जो मुझे अपने काय
पर भेज रहे ह)। ऐसा िवचार कर युवराज अंगद का दय हिषत और शरीर पुलिकत हो गया॥
17(ख)॥

बंिद चरन उर ध र भत
ु ाई। अंगद चलेउ सबिह िस नाई॥
भु ताप उर सहज असंका। रन बाँकुरा बािलसतु बंका॥

चरण क वंदना करके और भगवान क भुता दय म धरकर अंगद सबको िसर नवाकर चले।
भु के ताप को दय म धारण िकए हए रणबाँकुरे वीर बािलपु वाभािवक ही िनभय ह।

परु पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेटा॥


बातिहं बात करष बिढ़ आई। जुगल अतल ु बल पिु न त नाई॥

लंका म वेश करते ही रावण के पु से भट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बात -ही-बात म दोन
म झगड़ा बढ़ गया ( य िक) दोन ही अतुलनीय बलवान थे और िफर दोन क युवाव था थी।

तेिहं अंगद कहँ लात उठाई। गिह पद पटकेउ भूिम भवाँई॥


िनिसचर िनकर देिख भट भारी। जहँ तहँ चले न सकिहं पक ु ारी॥

उसने अंगद पर लात उठाई। अंगद ने (वही) पैर पकड़कर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार
िगराया)। रा स के समहू भारी यो ा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न
मचा सके।
एक एक सन मरमु न कहह । समिु झ तासु बध चप
ु क र रहह ॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा किप लंका जेिहं जारी॥

एक-दूसरे को मम (असली बात) नह बतलाते, उस (रावण के पु ) का वध समझकर सब चुप


मारकर रह जाते ह। (रावण-पु क म ृ यु जानकर और रा स को भय के मारे भागते देखकर)
नगरभर म कोलाहल मच गया िक िजसने लंका जलाई थी, वही वानर िफर आ गया है।

अब ध कहा क रिह करतारा। अित सभीत सब करिहं िबचारा॥


िबनु पूछ मगु देिहं िदखाई। जेिह िबलोक सोइ जाइ सख
ु ाई॥

सब अ यंत भयभीत होकर िवचार करने लगे िक िवधाता अब न जाने या करे गा। वे िबना पछ ू े ही
अंगद को (रावण के दरबार क ) राह बता देते ह। िजसे ही वे देखते ह, वही डर के मारे सख
ू जाता
है।

दो० - गयउ सभा दरबार तब सिु म र राम पद कंज।


िसंह ठविन इत उत िचतव धीर बीर बल पंजु ॥ 18॥

राम के चरण कमल का मरण करके अंगद रावण क सभा के ार पर गए और वे धीर, वीर
और बल क रािश अंगद िसंह क -सी एड़ (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥ 18॥

तरु त िनसाचर एक पठावा। समाचार रावनिह जनावा॥


सन ु त िबहँिस बोला दससीसा। आनह बोिल कहाँ कर क सा॥

तुरंत ही उ ह ने एक रा स को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सिू चत िकया। सुनते


ही रावण हँसकर बोला - बुला लाओ, (देख) कहाँ का बंदर है।

आयसु पाइ दूत बह धाए। किपकंु जरिह बोिल लै आए॥


अंगद दीख दसानन बैस। सिहत ान क जलिग र जैस॥

आ ा पाकर बहत-से दूत दौड़े और वानर म हाथी के समान अंगद को बुला लाए। अंगद ने रावण
को ऐसे बैठे हए देखा, जैसे कोई ाणयु (सजीव) काजल का पहाड़ हो!

भजु ा िबटप िसर संग


ृ समाना। रोमावली लता जनु नाना॥
मख
ु नािसका नयन अ काना। िग र कंदरा खोह अनम ु ाना॥

भुजाएँ व ृ के और िसर पवत के िशखर के समान ह। रोमावली मानो बहत-सी लताएँ ह। मँुह,
नाक, ने और कान पवत क कंदराओं और खोह के बराबर ह।

गयउ सभाँ मन नेकु न मरु ा। बािलतनय अितबल बाँकुरा॥


उठे सभासद किप कहँ देखी। रावन उर भा ोध िबसेषी॥

अ यंत बलवान बाँके वीर बािलपु अंगद सभा म गए, वे मन म जरा भी नह िझझके। अंगद को
देखते ही सब सभासद उठ खड़े हए। यह देखकर रावण के दय म बड़ा ोध हआ।

दो० - जथा म गज जूथ महँ पंचानन चिल जाइ।


राम ताप सिु म र मन बैठ सभाँ िस नाइ॥ 19॥

जैसे मतवाले हािथय के झुंड म िसंह (िनःशंक होकर) चला जाता है, वैसे ही राम के ताप का
दय म मरण करके वे (िनभय) सभा म िसर नवाकर बैठ गए॥ 19॥

कह दसकंठ कवन त बंदर। म रघबु ीर दूत दसकंधर॥


मम जनकिह तोिह रही िमताई। तव िहत कारन आयउँ भाई॥

रावण ने कहा - अरे बंदर! तू कौन है? (अंगद ने कहा -) हे दश ीव! म रघुवीर का दूत हँ। मेरे
िपता से और तुमसे िम ता थी। इसिलए हे भाई! म तु हारी भलाई के िलए ही आया हँ।

ु ि त कर नाती। िसव िबंरिच पूजहे बह भाँती॥


उ म कुल पल
बर पायह क हेह सब काजा। जीतेह लोकपाल सब राजा॥

तु हारा उ म कुल है, पुल य ऋिष के तुम पौ हो। िशव क और ा क तुमने बहत कार से
पज
ू ा क है। उनसे वर पाए ह और सब काम िस िकए ह। लोकपाल और सब राजाओं को तुमने
जीत िलया है।

नप
ृ अिभमान मोह बस िकंबा। ह र आिनह सीता जगदंबा॥
अब सभ
ु कहा सन
ु ह तु ह मोरा। सब अपराध छिमिह भु तोरा॥

राजमद से या मोहवश तुम जग जननी सीता को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी
िहतभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) भु राम तु हारे सब अपराध मा कर दगे।

दसन गहह तन
ृ कंठ कुठारी। प रजन सिहत संग िनज नारी॥
सादर जनकसतु ा क र आग। एिह िबिध चलह सकल भय याग॥

दाँत म ितनका दबाओ, गले म कु हाड़ी डालो और कुटुंिबय सिहत अपनी ि य को साथ
लेकर, आदरपवू क जानक को आगे करके, इस कार सब भय छोड़कर चलो -

दो० - नतपाल रघब


ु ंसमिन ािह ािह अब मोिह।
आरत िगरा सन
ु त भु अभय करै गो तोिह॥ 20॥
और 'हे शरणागत के पालन करनेवाले रघुवंश िशरोमिण राम! मेरी र ा क िजए, र ा क िजए।'
(इस कार आत ाथना करो।) आत पुकार सुनते ही भु तुमको िनभय कर दगे॥ 20॥

रे किपपोत बोलु संभारी। मूढ़ न जानेिह मोिह सरु ारी॥


कह िनज नाम जनक कर भाई। केिह नात मािनऐ िमताई॥

(रावण ने कहा -) अरे बंदर के ब चे! सँभालकर बोल! मख


ू ! मुझ देवताओं के श ु को तन
ू े जाना
नह ? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। िकस नाते से िम ता मानता है?

अंगद नाम बािल कर बेटा। तास कबहँ भई ही भेटा॥


अंगद बचन सन ु त सकुचाना। रहा बािल बानर म जाना॥

(अंगद ने कहा -) मेरा नाम अंगद है, म बािल का पु हँ। उनसे कभी तु हारी भट हई थी? अंगद
का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला -) हाँ, म जान गया (मुझे याद आ गया),
बािल नाम का एक बंदर था।

अंगद तह बािल कर बालक। उपजेह बंस अनल कुल घालक॥


गभ न गयह यथ तु ह जायह। िनज मख ु तापस दूत कहायह॥

अरे अंगद! तू ही बािल का लड़का है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुल पी बाँस के िलए अि न
प ही पैदा हआ! गभ म ही य न न हो गया? तू यथ ही पैदा हआ जो अपने ही मँुह से
तपि वय का दूत कहलाया!

अब कह कुसल बािल कहँ अहई। िबहँिस बचन तब अंगद कहई॥


िदन दस गएँ बािल पिहं जाई। बूझहे कुसल सखा उर लाई॥

अब बािल क कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अंगद ने हँसकर कहा - दस (कुछ)
िदन बीतने पर ( वयं ही) बािल के पास जाकर, अपने िम को दय से लगाकर, उसी से कुशल
पछू लेना।

राम िबरोध कुसल जिस होई। सो सब तोिह सनु ाइिह सोई॥


सनु ु सठ भेद होइ मन ताक। ी रघब
ु ीर दय निहं जाक॥

राम से िवरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनाएँ गे। हे मख
ू ! सुन, भेद उसी
के मन म पड़ सकता है, (भेद नीित उसी पर अपना भाव डाल सकती है) िजसके दय म ी
रघुवीर न ह ।

दो० - हम कुल घालक स य तु ह कुल पालक दससीस।


अंधउ बिधर न अस कहिहं नयन कान तव बीस॥ 21॥
सच है, म तो कुल का नाश करनेवाला हँ और हे रावण! तुम कुल के र क हो। अंधे-बहरे भी ऐसी
बात नह कहते, तु हारे तो बीस ने और बीस कान ह!॥ 21॥

िसव िबरं िच सरु मिु न समदु ाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइिसहँ मित उर िबहर न तोरा॥

िशव, ा (आिद) देवता और मुिनय के समुदाय िजनके चरण क सेवा (करना) चाहते ह,
उनका दूत होकर मने कुल को डुबा िदया? अरे ऐसी बुि होने पर भी तु हारा दय फट नह
जाता?

सिु न कठोर बानी किप केरी। कहत दसानन नयन तरे री॥
खल तव किठन बचन सब सहऊँ। नीित धम म जानत अहऊँ॥

वानर (अंगद) क कठोर वाणी सुनकर रावण आँख तरे रकर (ितरछी करके) बोला - अरे दु ! म
तेरे सब कठोर वचन इसीिलए सह रहा हँ िक म नीित और धम को जानता हँ (उ ह क र ा कर
रहा हँ)।

कह किप धमसीलता तोरी। हमहँ सन ु ी कृत पर ि य चोरी॥


देखी नयन दूत रखवारी। बूिड़ न मरह धम तधारी॥

अंगद ने कहा - तु हारी धमशीलता मने भी सुनी है। (वह यह िक) तुमने पराई ी क चोरी क
है! और दूत क र ा क बात तो अपनी आँख से देख ली। ऐसे धम के त को धारण (पालन)
करनेवाले तुम डूबकर मर नह जाते!

कान नाक िबनु भिगिन िनहारी। छमा क ि ह तु ह धम िबचारी॥


धमसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहँ बड़भागी॥

नाक-कान से रिहत बिहन को देखकर तुमने धम िवचारकर ही तो मा कर िदया था! तु हारी


धमशीलता जग-जािहर है। म भी बड़ा भा यवान हँ, जो मने तु हारा दशन पाया?

दो० - जिन ज पिस जड़ जंतु किप सठ िबलोकु मम बाह।


लोकपाल बल िबपल ु सिस सन हेतु सब राह॥ 22(क)॥

(रावण ने कहा -) अरे जड़ जंतु वानर! यथ बक-बक न कर, अरे मख


ू ! मेरी भुजाएँ तो देख। ये
सब लोकपाल के िवशाल बल पी चं मा को सने के िलए राह ह॥ 22(क)॥

पिु न नभ सर मम कर िनकर कमलि ह पर क र बास।


सोभत भयउ मराल इव संभु सिहत कैलास॥ 22(ख)॥
ू े सुना ही होगा िक) आकाश पी तालाब म मेरी भुजाओं पी कमल पर बसकर िशव
िफर (तन
सिहत कैलास हंस के समान शोभा को ा हआ था!॥ 22(ख)॥

तु हरे कटक माझ सन ु ु अंगद। मो सन िभ रिह कवन जोधा बद॥


तब भु ना र िबरहँ बलहीना। अनज ु तासु दःु ख दख
ु ी मलीना॥

अरे अंगद! सुन, तेरी सेना म बता, ऐसा कौन यो ा है, जो मुझसे िभड़ सकेगा। तेरा मािलक तो
ी के िवयोग म बलहीन हो रहा है। और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है।

तु ह सु ीव कूल म
ु दोऊ। अनज ु हमार भी अित सोऊ॥
जामवंत मं ी अित बूढ़ा। सो िक होइ अब समरा ढ़ा॥

तुम और सु ीव, दोन (नदी) तट के व ृ हो (रहा) मेरा छोटा भाई िवभीषण, (सो) वह भी बड़ा
डरपोक है। मं ी जा बवान बहत बढ़
ू ा है। वह अब लड़ाई म या चढ़ (उ त हो) सकता है?

िसि प कम जानिहं नल नीला। है किप एक महा बलसीला॥


आवा थम नग जेिहं जारा। सन ु त बचन कह बािलकुमारा॥

नल-नील तो िश प-कम जानते ह (वे लड़ना या जान?)। हाँ, एक वानर ज र महान बलवान
है, जो पहले आया था और िजसने लंका जलाई थी। यह वचन सुनते ही बािल पु अंगद ने कहा -

स य बचन कह िनिसचर नाहा। साँचहे ँ क स क ह परु दाहा॥


रावण नगर अ प किप दहई। सिु न अस बचन स य को कहई॥

हे रा सराज! स ची बात कहो! या उस वानर ने सचमुच तु हारा नगर जला िदया? रावण (जैसे
जगि जयी यो ा) का नगर एक छोटे-से वानर ने जला िदया। ऐसे वचन सुनकर उ ह स य कौन
कहे गा?

ु ट सराहेह रावन। सो सु ीव केर लघु धावन॥


जो अित सभ
चलइ बहत सो बीर न होई। पठवा खब र लेन हम सोई॥

हे रावण! िजसको तुमने बहत बड़ा यो ा कहकर सराहा है, वह तो सु ीव का एक छोटा-सा


दौड़कर चलनेवाला हरकारा है। वह बहत चलता है, वीर नह है। उसको तो हमने (केवल) खबर
लेने के िलए भेजा था।

दो० - स य नग किप जारे उ िबनु भु आयसु पाइ।


िफ र न गयउ सु ीव पिहं तेिहं भय रहा लक
ु ाइ॥ 23(क)॥

या सचमुच ही उस वानर ने भु क आ ा पाए िबना ही तु हारा नगर जला डाला? मालम


ू होता
है, इसी डर से वह लौटकर सु ीव के पास नह गया और कह िछप रहा!॥ 23(क)॥

स य कहिह दसकंठ सब मोिह न सिु न कछु कोह।


कोउ न हमार कटक अस तो सन लरत जो सोह॥ 23(ख)॥

हे रावण! तुम सब स य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी ोध नह है। सचमुच हमारी सेना म
कोई भी ऐसा नह है, जो तुमसे लड़ने म शोभा पाए॥ 23(ख)॥

ीित िबरोध समान सन क रअ नीित अिस आिह।


ज मगृ पित बध मेडुकि ह भल िक कहइ कोउ तािह॥ 23(ग)॥

ीित और वैर बराबरीवाले से ही करना चािहए, नीित ऐसी ही है। िसंह यिद मेढ़क को मारे , तो
या उसे कोई भला कहे गा?॥ 23(ग)॥

ज िप लघतु ा राम कहँ तोिह बध बड़ दोष।


तदिप किठन दसकंठ सन ु ु छ जाित कर रोष॥ 23(घ)॥

य िप तु ह मारने म राम क लघुता है और बड़ा दोष भी है तथािप हे रावण! सुनो, ि य जाित


का ोध बड़ा किठन होता है॥ 23(घ)॥

ब उि धनु बचन सर दय दहेउ रपु क स।


ितउ र सड़िस ह मनहँ काढ़त भट दससीस॥ 23(ङ)॥

व ोि पी धनुष से वचन पी बाण मारकर अंगद ने श ु का दय जला िदया। वीर रावण उन


बाण को मानो यु र पी सँड़िसय से िनकाल रहा है॥ 23(ङ)॥

हँिस बोलेउ दसमौिल तब किप कर बड़ गन


ु एक।
जो ितपालइ तासु िहत करइ उपाय अनेक॥ 23(च)॥

तब रावण हँसकर बोला - बंदर म यह एक बड़ा गुण है िक जो उसे पालता है, उसका वह अनेक
उपाय से भला करने क चे ा करता है॥ 23(च)॥

ध य क स जो िनज भु काजा। जहँ तहँ नाचइ प रह र लाजा॥


नािच कूिद क र लोग रझाई। पित िहत करइ धम िनपनु ाई॥

बंदर को ध य है, जो अपने मािलक के िलए लाज छोड़कर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर,
लोग को रझाकर, मािलक का िहत करता है। यह उसक धम िनपुणता है।

अंगद वािमभ तव जाती। भु गन


ु कस न कहिस एिह भाँती॥
म गन
ु गाहक परम सज
ु ाना। तव कटु रटिन करउँ निहं काना॥

हे अंगद! तेरी जाित वािमभ है (िफर भला) तू अपने मािलक के गुण इस कार कैसे न
बखानेगा? म गुण ाहक (गुण का आदर करनेवाला) और परम सुजान (समझदार) हँ, इसी से
तेरी जली-कटी बक-बक पर कान ( यान) नह देता।

कह किप तव गन ु गाहकताई। स य पवनसत ु मोिह सनु ाई॥


बन िबधंिस सत
ु बिध परु जारा। तदिप न तेिहं कछु कृत अपकारा॥

अंगद ने कहा - तु हारी स ची गुण ाहकता तो मुझे हनुमान ने सुनाई थी। उसने अशोक वन म
िव वंस (तहस-नहस) करके, तु हारे पु को मारकर नगर को जला िदया था। तो भी (तुमने
अपनी गुण ाहकता के कारण यही समझा िक) उसने तु हारा कुछ भी अपकार नह िकया।

सोइ िबचा र तव कृित सहु ाई। दसकंधर म क ि ह िढठाई॥


देखउे ँ आइ जो कछु किप भाषा। तु हर लाज न रोष न माखा॥

तु हारा वही सुंदर वभाव िवचार कर, हे दश ीव! मने कुछ ध ृ ता क है। हनुमान ने जो कुछ
कहा था, उसे आकर मने य देख िलया िक तु ह न ल जा है, न ोध है और न िचढ़ है।

ज अिस मित िपतु खाए क सा। किह अस बचन हँसा दससीसा॥


िपतिह खाइ खातेउँ पिु न तोही। अबह समिु झ परा कछु मोही॥

(रावण बोला -) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन
कहकर रावण हँसा। अंगद ने कहा - िपता को खाकर िफर तुमको भी खा डालता। परं तु अभी
तुरंत कुछ और ही बात मेरी समझ म आ गई!

बािल िबमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोिह अधम अिभमानी॥


कह रावन रावन जग केते। म िनज वन सन ु े सन
ु ु जेत॥े

अरे नीच अिभमानी! बािल के िनमल यश का पा (कारण) जानकर तु ह म नह मारता। रावण!


यह तो बता िक जगत म िकतने रावण ह? मने िजतने रावण अपने कान से सुन रखे ह, उ ह
सुन -

बिलिह िजतन एक गयउ पताला। राखेउ बाँिध िससु ह हयसाला॥


खेलिहं बालक मारिहं जाई। दया लािग बिल दी ह छोड़ाई॥

एक रावण तो बिल को जीतने पाताल म गया था, तब ब च ने उसे घुड़साल म बाँध रखा। बालक
खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बिल को दया लगी, तब उ ह ने उसे छुड़ा िदया।
एक बहो र सहसभज
ु देखा। धाइ धरा िजिम जंतु िबसेषा॥
कौतक
ु लािग भवन लै आवा। सो पलु ि त मिु न जाइ छोड़ावा॥

िफर एक रावण को सह बाह ने देखा, और उसने दौड़कर उसको एक िवशेष कार के (िविच )
जंतु क तरह (समझकर) पकड़ िलया। तमाशे के िलए वह उसे घर ले आया। तब पुल य मुिन ने
जाकर उसे छुड़ाया।

दो० - एक कहत मोिह सकुच अित रहा बािल क काँख।


इ ह महँ रावन त कवन स य बदिह तिज माख॥ 24॥

एक रावण क बात कहने म तो मुझे बड़ा संकोच हो रहा है - वह (बहत िदन तक) बािल क
काँख म रहा था। इनम से तुम कौन-से रावण हो? खीझना छोड़कर सच-सच बताओ॥ 24॥

सन
ु ु सठ सोइ रावन बलसीला। हरिग र जान जासु भज ु लीला॥
जान उमापित जासु सरु ाई। पूजउे ँ जेिह िसर सम
ु न चढ़ाई॥

(रावण ने कहा -) अरे मख


ू ! सुन, म वही बलवान रावण हँ, िजसक भुजाओं क लीला (करामात)
कैलास पवत जानता है। िजसक शरू ता उमापित महादेव जानते ह, िज ह अपने िसर पी पु प
चढ़ा-चढ़ाकर मने पज ू ा था।

िसर सरोज िनज करि ह उतारी। पूजउे ँ अिमत बार ि परु ारी॥
भजु िब म जानिहं िदगपाला। सठ अजहँ िज ह क उर साला॥

िसर पी कमल को अपने हाथ से उतार-उतारकर मने अगिणत बार ि पुरा र िशव क पज ू ाक
ू ! मेरी भुजाओं का परा म िद पाल जानते ह, िजनके दय म वह आज भी चुभ रहा है।
है। अरे मख

जानिहं िद गज उर किठनाई। जब जब िभरउँ जाइ ब रआई॥


िज ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूट॥े

िद गज (िदशाओं के हाथी) मेरी छाती क कठोरता को जानते ह। िजनके भयानक दाँत, जब-जब
जाकर म उनसे जबरद ती िभड़ा, मेरी छाती म कभी नह फूटे (अपना िच भी नह बना सके),
बि क मेरी छाती से लगते ही वे मल
ू ी क तरह टूट गए।

जासु चलत डोलित इिम धरनी। चढ़त म गज िजिम लघु तरनी॥


सोइ रावन जग िबिदत तापी। सनु िे ह न वन अलीक लापी॥

िजसके चलते समय प ृ वी इस कार िहलती है जैसे मतवाले हाथी के चढ़ते समय छोटी नाव! म
वही जगत िस तापी रावण हँ। अरे झठ ू ी बकवास करनेवाले! या तन ू े मुझको कान से कभी
सुना?
दो० - तेिह रावन कहँ लघु कहिस नर कर करिस बखान।
रे किप बबर खब खल अब जाना तव यान॥ 25॥

उस (महान तापी और जगत िस ) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनु य क बड़ाई


करता है? अरे दु , अस य, तु छ बंदर! अब मने तेरा ान जान िलया॥ 25॥

सिु न अंगद सकोप कह बानी। बोलु संभा र अधम अिभमानी॥


सहसबाह भज ु गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥

रावण के ये वचन सुनकर अंगद ोध सिहत वचन बोले - अरे नीच अिभमानी! सँभालकर (सोच-
समझकर) बोल। िजनका फरसा सह बाह क भुजाओं पी अपार वन को जलाने के िलए अि न
के समान था,

जासु परसु सागर खर धारा। बूड़े नप


ृ अगिनत बह बारा॥
तासु गब जेिह देखत भागा। सो नर य दससीस अभागा॥

िजनके फरसा पी समु क ती धारा म अनिगनत राजा अनेक बार डूब गए, उन परशुराम का
गव िज ह देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनु य य कर ह?

राम मनज ु कस रे सठ बंगा। ध वी कामु नदी पिु न गंगा॥


पसु सरु धेनु क पत खा। अ न दान अ रस पीयूषा॥

य रे मख
ू उ ड! राम मनु य ह? कामदेव भी या धनुधारी है? और गंगा या नदी ह?
कामधेनु या पशु है? और क पव ृ या पेड़ है? अ न भी या दान है? और अमत
ृ या रस है?

बैनतेय खग अिह सहसानन। िचंतामिन पिु न उपल दसानन॥


सनु ु मितमंद लोक बैकंु ठा। लाभ िक रघप
ु ित भगित अकंु ठा॥

ग ड़ या प ी ह? शेष या सप ह? अरे रावण! िचंतामिण भी या प थर है? अरे ओ मखू ! सुन,


बैकुंठ भी या लोक है? और रघुनाथ क अखंड भि या (और लाभ -जैसा ही) लाभ है?

दो० - सेन सिहत तव मान मिथ बन उजा र परु जा र।


कस रे सठ हनम ु ान किप गयउ जो तव सत
ु मा र॥ 26॥

सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाड़कर, नगर को जलाकर और तेरे पु को
मारकर जो लौट गए (तू उनका कुछ भी न िबगाड़ सका), य रे दु ! वे हनुमान या वानर
ह?॥ 26॥
सन
ु ु रावन प रह र चतरु ाई। भजिस न कृपािसंधु रघरु ाई॥
ज खल भएिस राम कर ोही। सक रािख न तोही॥

अरे रावण! चतुराई (कपट) छोड़कर सुन। कृपा के समु रघुनाथ का तू भजन य नह करता?
अरे दु ! यिद तू राम का वैरी हआ तो तुझे ा और भी नह बचा सकगे।

मूढ़ बथ
ृ ा जिन मारिस गाला। राम बयर अस होइिह हाला॥
तव िसर िनकर किप ह के आग। प रहिहं धरिन राम सर लाग॥

ू ! यथ गाल न मार (ड ग न हाँक)। राम से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा िक तेरे िसर-
हे मढ़
समहू राम के बाण लगते ही वानर के आगे प ृ वी पर पड़गे,

ते तव िसर कंदक
ु सम नाना। खेिलहिहं भालु क स चौगाना॥
जबिहं समर कोिपिह रघन
ु ायक। छुिटहिहं अित कराल बह सायक॥

और रीछ-वानर तेरे उन गद के समान अनेक िसर से चौगान खेलगे। जब रघुनाथ यु म कोप


करगे और उनके अ यंत ती ण बहत-से बाण छूटगे,

तब िक चिलिह अस गाल तु हारा। अस िबचा र भजु राम उदारा॥


सन
ु त बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घत ृ परा॥

तब या तेरा गाल चलेगा? ऐसा िवचार कर उदार (कृपालु) राम को भज। अंगद के ये वचन
सुनकर रावण बहत अिधक जल उठा। मानो जलती हई चंड अि न म घी पड़ गया हो।

दो० - कंु भकरन अस बंधु मम सत ु िस स ा र।


मोर परा म निहं सनु िे ह िजतेऊँ चराचर झा र॥ 27॥

(वह बोला - अरे मखू !) कुंभकण-जैसा मेरा भाई है, इं का श ु सु िस मेघनाद मेरा पु है! और
मेरा परा म तो तनू े सुना ही नह िक मने संपण
ू जड़-चेतन जगत को जीत िलया है!॥ 27॥

सठ साखामग ृ जो र सहाई। बाँधा िसंधु इहइ भत ु ाई॥


नाघिहं खग अनेक बारीसा। सूर न होिहं ते सन
ु ु सब क सा॥

रे दु ! वानर क सहायता जोड़कर राम ने समु बाँध िलया; बस, यही उसक भुता है। समु
को तो अनेक प ी भी लाँघ जाते ह। पर इसी से वे सभी शरू वीर नह हो जाते। अरे मख
ू बंदर! सुन
-

मम भजु सागर बल जल पूरा। जहँ बूड़े बह सरु नर सूरा॥


बीस पयोिध अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइिह पारा॥
मेरा एक-एक भुजा पी समु बल पी जल से पण ू है, िजसम बहत-से शरू वीर देवता और मनु य
डूब चकू े ह। (बता,) कौन ऐसा शरू वीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समु का पार पा
जाएगा?

िदगपाल ह म नीर भरावा। भूप सजु स खल मोिह सन ु ावा॥


ज पै समर सभ
ु ट तव नाथा। पिु न पिु न कहिस जासु गन
ु गाथा॥

अरे दु ! मने िद पाल तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यिद
तेरा मािलक, िजसक गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, सं ाम म लड़नेवाला यो ा है -

तौ बसीठ पठवत केिह काजा। रपु सन ीित करत निहं लाजा॥


हरिग र मथन िनरखु मम बाह। पिु न सठ किप िनज भिु ह सराह॥

तो (िफर) वह दूत िकसिलए भेजता है? श ु से ीित (संिध) करते उसे लाज नह आती? (पहले)
कैलास का मथन करनेवाली मेरी भुजाओं को देख। िफर अरे मख ू वानर! अपने मािलक क
सराहना करना।

दो० - सूर कवन रावन स रस वकर कािट जेिहं सीस।


हने अनल अित हरष बह बार सािख गौरीस॥ 28॥

रावण के समान शरू वीर कौन है? िजसने अपने हाथ से िसर काट-काटकर अ यंत हष के साथ
बहत बार उ ह अि न म होम िदया! वयं गौरीपित िशव इस बात के सा ी ह॥ 28॥

जरत िबलोकेउँ जबिह कपाला। िबिध के िलखे अंक िनज भाला॥


नर क कर आपन बध बाँची। हसेउँ जािन िबिध िगरा असाँची॥

म तक के जलते समय जब मने अपने ललाट पर िलखे हए िवधाता के अ र देखे, तब मनु य


के हाथ से अपनी म ृ यु होना बाँचकर, िवधाता क वाणी (लेख को) अस य जानकर म हँसा।

सोउ मन समिु झ ास निहं मोर। िलखा िबरं िच जरठ मित भोर॥


आन बीर बल सठ मम आग। पिु न पिु न कहिस लाज पित याग॥

उस बात को समझकर ( मरण करके) भी मेरे मन म डर नह है। ( य िक म समझता हँ िक) बढ़ ू े


ू ! तू ल जा और मयादा छोड़कर मेरे आगे बार-
ा ने बुि म से ऐसा िलख िदया है। अरे मख
बार दूसरे वीर का बल कहता है!

कह अंगद सल ज जग माह । रावन तोिह समान कोउ नाह ॥


लाजवंत तव सहज सभ
ु ाऊ। िनज मख
ु िनज गनु कहिस न काऊ॥
अंगद ने कहा - अरे रावण! तेरे समान ल जावान जगत म कोई नह है। ल जाशीलता तो तेरा
सहज वभाव ही है। तू अपने मँुह से अपने गुण कभी नह कहता।

िसर अ सैल कथा िचत रही। ताते बार बीस त कह ॥


सो भज
ु बल राखेह उर घाली। जीतेह सहसबाह बिल बाली॥

िसर काटने और कैलास उठाने क कथा िच म चढ़ी हई थी, इससे तन ू े उसे बीस बार कहा।
भुजाओं के उस बल को तन
ू े दय म ही टाल (िछपा) रखा है, िजससे तनू े सह बाह, बिल और
बािल को जीता था।

सन ु ु मितमंद देिह अब पूरा। काट सीस िक होइअ सूरा॥


इं जािल कहँ किहअ न बीरा। काटइ िनज कर सकल सरीरा॥

अरे मंदबुि ! सुन, अब बस कर। िसर काटने से भी या कोई शरू वीर हो जाता है? इं जाल
रचनेवाले को वीर नह कहा जाता, य िप वह अपने ही हाथ अपना सारा शरीर काट डालता है!

दो० - जरिहं पतंग मोह बस भार बहिहं खर बंदृ ।


ते निहं सूर कहाविहं समिु झ देखु मितमंद॥ 29॥

अरे मंदबुि ! समझकर देख। पतंगे मोहवश आग म जल मरते ह, गदह के झंुड बोझ लादकर
चलते ह; पर इस कारण वे शरू वीर नह कहलाते॥ 29॥

अब जिन बतबढ़ाव खल करही। सन ु ु मम बचन मान प रहरही॥


दसमखु म न बसीठ आयउँ । अस िबचा र रघबु ीर पठायउँ ॥

अरे दु ! अब बतबढ़ाव मत कर; मेरा वचन सुन और अिभमान याग दे! हे दशमुख! म दूत क
तरह (संिध करने) नह आया हँ। रघुवीर ने ऐसा िवचार कर मुझे भेजा है -

बार बार अस कहइ कृपाला। निहं गजा र जसु बध सक ृ ाला॥


मन महँ समिु झ बचन भु केरे । सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥

कृपालु राम बार-बार ऐसा कहते ह िक िसयार के मारने से िसंह को यश नह िमलता। अरे मख
ू !
भु के (उन) वचन को मन म समझकर (याद करके) ही मने तेरे कठोर वचन सहे ह।

नािहं त क र मख
ु भंजन तोरा। ल जातेउँ सीतिह बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सरु ारी। सून ह र आिनिह परनारी॥

नह तो तेरे मँुह तोड़कर म सीता को जबरद ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के श ु! तेरा बल
तो मने तभी जान िलया जब तू सन ू े म पराई ी को हर (चुरा) लाया।
त िनिसचर पित गब बहता। म रघप ु ित सेवक कर दूता॥
ज न राम अपमानिहं डरऊँ। तोिह देखत अस कौतक ु करउँ ॥

तू रा स का राजा और बड़ा अिभमानी है। परं तु म तो रघुनाथ के सेवक (सु ीव) का दूत (सेवक
का भी सेवक) हँ। यिद म राम के अपमान से न ड ँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा क ँ िक -

दो० - तोिह पटिक मिह सेन हित चौपट क र तव गाउँ ।


तव जुबित ह समेत सठ जनकसत ु िह लै जाउँ ॥ 30॥

तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (न - ) करके,
अरे मखू ! तेरी युवती ि य सिहत जानक को ले जाऊँ॥ 30॥

ज अस कर तदिप न बड़ाई। मए ु िह बध निहं कछु मनस


ु ाई॥
कौल कामबस कृिपन िबमूढ़ा। अित द र अजसी अित बूढ़ा॥

यिद ऐसा क ँ , तो भी इसम कोई बड़ाई नह है। मरे हए को मारने म कुछ भी पु ष व (बहादुरी)
नह है। वाममाग , कामी, कंजस
ू , अ यंत मढ़
ू , अित द र , बदनाम, बहत बढ़ू ा,

सदा रोगबस संतत ोधी। िब नु िबमख


ु ुित संत िबरोधी॥
तनु पोषक िनंदक अघ खानी। जीवत सव सम चौदह ानी॥

िन य का रोगी, िनरं तर ोधयु रहनेवाला, भगवान िव णु से िवमुख, वेद और संत का िवरोधी,


अपने ही शरीर का पोषण करनेवाला, पराई िनंदा करनेवाला और पाप क खान (महान पापी) -
ये चौदह ाणी जीते ही मुरदे के समान ह।

अस िबचा र खल बधउँ न तोही। अब जिन रस उपजाविस मोही॥


सिु न सकोप कह िनिसचर नाथा। अधर दसन दिस मीजत हाथा॥

अरे दु ! ऐसा िवचार कर म तुझे नह मारता। अब तू मुझम ोध न पैदा कर (मुझे गु सा न


िदला)। अंगद के वचन सुनकर रा स राज रावण दाँत से होठ काटकर, ोिधत होकर हाथ
मलता हआ बोला -

रे किप अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बिड़ कहसी॥


कटु ज पिस जड़ किप बल जाक। बल ताप बिु ध तेज न ताक॥

अरे नीच बंदर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मँुह बड़ी बात कहता है। अरे मख
ू बंदर! तू
िजसके बल पर कड़ए वचन बक रहा है, उसम बल, ताप, बुि अथवा तेज कुछ भी नह है।

दो० - अगन
ु अमान जािन तेिह दी ह िपता बनबास।
सो दःु ख अ जुबती िबरह पिु न िनिस िदन मम ास॥ 31(क)॥

उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो िपता ने वनवास दे िदया। उसे एक तो वह (उसका)


दुःख, उस पर युवती ी का िवरह और िफर रात-िदन मेरा डर बना रहता है॥ 31(क)॥

िज ह के बल कर गब तोिह अइसे मनज ु अनेक।


खािहं िनसाचर िदवस िनिस मूढ़ समझ
ु ु तिज टेक॥ 31(ख)॥

िजनके बल का तुझे गव है, ऐसे अनेक मनु य को तो रा स रात-िदन खाया करते ह। अरे मढ़
ू !
िज छोड़कर समझ (िवचार कर)॥ 31(ख)॥

जब तेिहं क ि ह राम कै िनंदा। ोधवंत अित भयउ किपंदा॥


ह र हर िनंदा सन
ु इ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥

जब उसने राम क िनंदा क , तब तो किप े अंगद अ यंत ोिधत हए, य िक (शा ऐसा
कहते ह िक) जो अपने कान से भगवान िव णु और िशव क िनंदा सुनता है, उसे गो वध के
समान पाप होता है।

कटकटान किपकंु जर भारी। दहु भज


ु दंड तमिक मिह मारी॥
डोलत धरिन सभासद खसे। चले भािज भय मा त से॥

वानर े अंगद बहत जोर से कटकटाए (श द िकया) और उ ह ने तमककर (जोर से) अपने
दोन भुजदंड को प ृ वी पर दे मारा। प ृ वी िहलने लगी, (िजससे बैठे हए) सभासद िगर पड़े और
भय पी पवन (भतू ) से त होकर भाग चले।

िगरत सँभा र उठा दसकंधर। भूतल परे मक ु ु ट अित संदु र॥


कछु तेिहं लै िनज िसरि ह सँवारे । कछु अंगद भु पास पबारे ॥

रावण िगरते-िगरते सँभलकर उठा। उसके अ यंत सुंदर मुकुट प ृ वी पर िगर पड़े । कुछ तो उसने
उठाकर अपने िसर पर सुधारकर रख िलए और कुछ अंगद ने उठाकर भु राम के पास फक
िदए।

आवत मकु ु ट देिख किप भागे। िदनह लक


ू परन िबिध लागे॥
क रावन क र कोप चलाए। कुिलस चा र आवत अित धाए॥

मुकुट को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) िवधाता! या िदन म ही उ कापात होने लगा
(तारे टूटकर िगरने लगे)? अथवा या रावण ने ोध करके चार व चलाए ह, जो बड़े धाए के
साथ (वेग से) आ रहे ह?
कह भु हँिस जिन दयँ डेराह। लकू न असिन केतु निहं राह॥
ए िकरीट दसकंधर केरे । आवत बािलतनय के रे े ॥

भु ने (उनसे) हँसकर कहा - मन म डरो नह । ये न उ का ह, न व ह और न केतु या राह ही


ह। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट ह; जो बािलपु अंगद के फके हए आ रहे ह।

दो० - तरिक पवनसत ु कर गहे आिन धरे भु पास।


कौतकु देखिहं भालु किप िदनकर स रस कास॥ 32(क)॥

पवन पु हनुमान ने उछलकर उनको हाथ से पकड़ िलया और लाकर भु के पास रख िदया।
ू के समान था॥ 32(क)॥
रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका काश सय

उहाँ सकोिप दसानन सब सन कहत रसाइ।


धरह किपिह ध र मारह सिु न अंगद मस
ु क
ु ाइ॥ 32(ख)॥

वहाँ (सभा म) ोधयु रावण सबसे ोिधत होकर कहने लगा िक - बंदर को पकड़ लो और
पकड़कर मार डालो। अंगद यह सुनकर मुसकराने लगे॥ 32(ख)॥

एिह बिध बेिग सभ


ु ट सब धावह। खाह भालु किप जहँ जहँ पावह॥
मकटहीन करह मिह जाई। िजअत धरह तापस ौ भाई॥

(रावण िफर बोला -) इसे मारकर सब यो ा तुरंत दौड़ो और जहाँ कह रीछ-वानर को पाओ, वह
खा डालो। प ृ वी को बंदर से रिहत कर दो और जाकर दोन तप वी भाइय (राम-ल मण) को
जीते-जी पकड़ लो।

पिु न सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोिह न लाजा॥


म गर कािट िनलज कुलघाती। बल िबलोिक िबहरित निहं छाती॥

(रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अंगद ोिधत होकर बोले - तुझे गाल बजाते
लाज नह आती! अरे िनल ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आ मह या करके) मर जा! मेरा
बल देखकर भी या तेरी छाती नह फटती!

रे ि य चोर कुमारग गामी। खल मल रािस मंदमित कामी॥


स यपात ज पिस दब ु ादा। भएिस कालबस खल मनजु ादा॥

अरे ी के चोर! अरे कुमाग पर चलनेवाले! अरे दु , पाप क रािश, मंद बुि और कामी! तू
सि नपात म या दुवचन बक रहा है? अरे दु रा स! तू काल के वश हो गया है!

याको फलु पाविहगो आग। बानर भालु चपेटि ह लाग॥


रामु मनज
ु बोलत अिस बानी। िगरिहं न तव रसना अिभमानी॥

इसका फल तू आगे वानर और भालुओ ं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनु य ह, ऐसा वचन
बोलते ही, अरे अिभमानी! तेरी जीभ नह िगर पड़त ?

िग रहिहं रसना संसय नाह । िसरि ह समेत समर मिह माह ॥

इसम संदेह नह है िक तेरी जीभ (अकेले नह वरन) िसर के साथ रणभिू म म िगरगी।

सो० - सो नर य दसकंध बािल ब यो जेिहं एक सर।


बीसहँ लोचन अंध िधग तव ज म कुजाित जड़॥ 33(क)॥

रे दशकंध! िजसने एक ही बाण से बािल को मार डाला, वह मनु य कैसे है? अरे कुजाित, अरे
जड़! बीस आँख होने पर भी तू अंधा है। तेरे ज म को िध कार है॥ 33(क)॥

तव सोिनत क यास तिृ षत राम सायक िनकर।


तजउँ तोिह तेिह ास कटु ज पक िनिसचर अधम॥ 33(ख)॥

राम के बाण समहू तेरे र क यास से यासे ह। (वे यासे ही रह जाएँ गे) इस डर से, अरे कड़वी
बकवास करनेवाले नीच रा स! म तुझे छोड़ता हँ॥ 33(ख)॥

म तव दसन तो रबे लायक। आयसु मोिह न दी ह रघन


ु ायक॥
अिस रस होित दसउ मखु तोर । लंका गिह समु महँ बोर ॥

म तेरे दाँत तोड़ने म समथ हँ। पर या क ँ ? रघुनाथ ने मुझे आ ा नह दी। ऐसा ोध आता है
िक तेरे दस मँुह तोड़ डालँ ू और (तेरी) लंका को पकड़कर समु म डुबो दँू।

गूल र फल समान तव लंका। बसह म य तु ह जंतु असंका॥


म बानर फल खात न बारा। आयसु दी ह न राम उदारा॥

तेरी लंका गल ू र के फल के समान है। तुम सब क ड़े उसके भीतर (अ ानवश) िनडर होकर बस
रहे हो। म बंदर हँ, मुझे इस फल को खाते या देर थी? पर उदार (कृपालु) राम ने वैसी आ ा नह
दी।

जग
ु िु त सन
ु त रावन मस
ु क
ु ाई। मूढ़ िसिखिह कहँ बहत झठ
ु ाई॥
बािल न कबहँ गाल अस मारा। िमिल तपिस ह त भएिस लबारा॥

अंगद क युि सुनकर रावण मुसकराया (और बोला -) अरे मख ू ! बहत झठ ू े कहाँ से
ू बोलना तन
सीखा? बािल ने तो कभी ऐसा गाल नह मारा। जान पड़ता है तू तपि वय से िमलकर लबार हो
गया है।

साँचहे ँ म लबार भज
ु बीहा। ज न उपा रउँ तव दस जीहा॥
समिु झ राम ताप किप कोपा। सभा माझ पन क र पद रोपा॥

(अंगद ने कहा -) अरे बीस भुजावाले! यिद तेरी दस जीभ मने नह उखाड़ ल तो सचमुच म
लबार ही हँ। राम के ताप को समझकर ( मरण करके) अंगद ोिधत हो उठे और उ ह ने रावण
क सभा म ण करके ( ढ़ता के साथ) पैर रोप िदया।

ज मम चरन सकिस सठ टारी। िफरिहं रामु सीता म हारी॥


सन
ु ह सभ
ु ट सब कह दससीसा। पद गिह धरिन पछारह क सा॥

(और कहा -) अरे मख ू ! यिद तू मेरा चरण हटा सके तो राम लौट जाएँ गे, म सीता को हार गया।
रावण ने कहा - हे सब वीरो! सुनो, पैर पकड़कर बंदर को प ृ वी पर पछाड़ दो।

इं जीत आिदक बलवाना। हरिष उठे जहँ तहँ भट नाना॥


झपटिहं क र बल िबपल
ु उपाई। पद न टरइ बैठिहं िस नाई॥

इं जीत (मेघनाद) आिद अनेक बलवान यो ा जहाँ-तहाँ से हिषत होकर उठे । वे परू े बल से बहत-
से उपाय करके झपटते ह। पर पैर टलता नह , तब िसर नीचा करके िफर अपने-अपने थान पर
जा बैठ जाते ह।

पिु न उिठ झपटिहं सरु आराती। टरइ न क स चरन एिह भाँती॥


पु ष कुजोगी िजिम उरगारी। मोह िबटप निहं सकिहं उपारी॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) वे देवताओं के श ु (रा स) िफर उठकर झपटते ह। परं तु हे सप के श ु


ग ड़! अंगद का चरण उनसे वैसे ही नह टलता जैसे कुयोगी (िवषयी) पु ष मोह पी व ृ को
नह उखाड़ सकते।

दो० - कोिट ह मेघनाद सम सभ ु ट उठे हरषाइ।


झपटिहं टरै न किप चरन पिु न बैठिहं िसर नाइ॥ 34(क)॥

करोड़ वीर यो ा जो बल म मेघनाद के समान थे, हिषत होकर उठे । वे बार-बार झपटते ह, पर
वानर का चरण नह उठता, तब ल जा के मारे िसर नवाकर बैठ जाते ह॥ 34(क)॥

भूिम न छाँड़त किप चरन देखत रपु मद भाग।


कोिट िब न ते संत कर मन िजिम नीित न याग॥ 34(ख)॥

जैसे करोड़ िव न आने पर भी संत का मन नीित को नह छोड़ता, वैसे ही वानर (अंगद) का


चरण प ृ वी को नह छोड़ता। यह देखकर श ु (रावण) का मद दूर हो गया!॥ 34(ख)॥

किप बल देिख सकल िहयँ हारे । उठा आपु किप क परचारे ॥


गहत चरन कह बािलकुमारा। मम पद गह न तोर उबारा॥

अंगद का बल देखकर सब दय म हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण वयं उठा। जब


वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बािल कुमार अंगद ने कहा - मेरा चरण पकड़ने से तेरा
बचाव नह होगा!

गहिस न राम चरन सठ जाई॥ सन


ु त िफरा मन अित सकुचाई॥
भयउ तेजहत ी सब गई। म य िदवस िजिम सिस सोहई॥

ू - तू जाकर राम के चरण य नह पकड़ता? यह सुनकर वह मन म बहत ही


अरे मख
सकुचाकर लौट गया। उसक सारी ी जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे म या म चं मा
िदखाई देता है।

िसंघासन बैठेउ िसर नाई। मानहँ संपित सकल गँवाई॥


जगदातमा ानपित रामा। तासु िबमख ु िकिम लह िब ामा॥

वह िसर नीचा करके िसंहासन पर जा बैठा। मानो सारी संपि गँवाकर बैठा हो। राम जगतभर के
आ मा और ाण के वामी ह। उनसे िवमुख रहनेवाला शांित कैसे पा सकता है?

उमा राम क भकृ ु िट िबलासा। होइ िब व पिु न पावइ नासा॥


तन
ृ ते कुिलस कुिलस तन ृ करई। तासु दूत पन कह िकिम टरई॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! िजन राम के िू वलास (भ ह के इशारे ) से िव उ प न होता है और


िफर नाश को ा होता है; जो तण ृ को व और व को तण ृ बना देते ह (अ यंत िनबल को
महान बल और महान बल को अ यंत िनबल कर देते ह), उनके दूत का ण, कहो, कैसे टल
सकता है?

पिु न किप कही नीित िबिध नाना। मान न तािह कालु िनअराना॥
रपु मद मिथ भु सज ु सु सन
ु ायो। यह किह च यो बािल नप
ृ जायो॥

िफर अंगद ने अनेक कार से नीित कही। पर रावण नह माना; य िक उसका काल िनकट आ
गया था। श ु के गव को चरू करके अंगद ने उसको भु राम का सुयश सुनाया और िफर वह
राजा बािल का पु यह कहकर चल िदया -

हत न खेत खेलाइ खेलाई। तोिह अबिहं का कर बड़ाई॥


थमिहं तासु तनय किप मारा। सो सिु न रावन भयउ दख
ु ारा॥
रणभिू म म तुझे खेला-खेलाकर न मा ँ तब तक अभी (पहले से) या बड़ाई क ँ । अंगद ने पहले
ही (सभा म आने से पवू ही) उसके पु को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया।

जातुधान अंगद पन देखी। भय याकुल सब भए िबसेषी॥

अंगद का ण (सफल) देखकर सब रा स भय से अ यंत ही याकुल हो गए।

दो० - रपु बल धरिष हरिष किप बािलतनय बल पंज


ु ।
पल
ु क सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥ 35(क)॥

श ु के बल का मदन कर, बल क रािश बािल पु अंगद ने हिषत होकर आकर राम के


चरणकमल पकड़ िलए। उनका शरीर पुलिकत है और ने म (आनंदा ुओ ं का) जल भरा है॥
35(क)॥

साँझ जािन दसकंधर भवन गयउ िबलखाइ।


मंदोदर रावनिहं बह र कहा समझ
ु ाइ॥ 35(ख)॥

सं या हो गई, जानकर दश ीव िबलखता हआ (उदास होकर) महल म गया। मंदोदरी ने रावण


को समझाकर िफर कहा - ॥ 35(ख)॥

कंत समिु झ मन तजह कुमितही। सोह न समर तु हिह रघप ु ितही॥


रामानज
ु लघु रे ख खचाई। सोउ निहं नाघेह अिस मनस
ु ाई॥

हे कांत! मन म समझकर (िवचारकर) कुबुि को छोड़ दो। आप से और रघुनाथ से यु शोभा


नह देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा-सी रे खा ख च दी थी, उसे भी आप नह लाँघ सके, ऐसा
तो आपका पु ष व है।

िपय तु ह तािह िजतब सं ामा। जाके दूत केर यह कामा॥


कौतकु िसंधु नािघ तव लंका। आयउ किप केहरी असंका॥

हे ि यतम! आप उ ह सं ाम म जीत पाएँ गे, िजनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समु
लाँघकर वह वानर म िसंह (हनुमान) आपक लंका म िनभय चला आया!

रखवारे हित िबिपन उजारा। देखत तोिह अ छ तेिहं मारा॥


जा र सकल परु क हेिस छारा। कहाँ रहा बल गब तु हारा॥

रखवाल को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अ यकुमार को
ू नगर को जलाकर राख कर िदया। उस समय आपके बल का गव कहाँ चला
मार डाला और संपण
गया था?

अब पित मषृ ा गाल जिन मारह। मोर कहा कछु दयँ िबचारह॥
पित रघप
ु ितिह नपृ ित जिन मानह। अग जग नाथ अतल ु बल जानह॥

अब हे वामी! झठ ू ( यथ) गाल न मा रए (ड ग न हाँिकए) मेरे कहने पर दय म कुछ िवचार


क िजए। हे पित! आप रघुपित को (िनरा) राजा मत समिझए, बि क अग-जगनाथ (चराचर के
वामी) और अतुलनीय बलवान जािनए।

बान ताप जान मारीचा। तासु कहा निहं मानेिह नीचा॥


जनक सभाँ अगिनत भूपाला। रहे तु हउ बल अतल ु िबसाला॥

राम के बाण का ताप तो नीच मारीच भी जानता था। परं तु आपने उसका कहना भी नह माना।
जनक क सभा म अगिणत राजागण थे। वहाँ िवशाल और अतुलनीय बलवाले आप भी थे।

भंिज धनषु जानक िबआही। तब सं ाम िजतेह िकन ताही॥


सरु पित सत
ु जानइ बल थोरा। राखा िजअत आँिख गिह फोरा॥

वहाँ िशव का धनुष तोड़कर राम ने जानक को याहा, तब आपने उनको सं ाम म य नह


जीता? इं पु जयंत उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। राम ने पकड़कर, केवल उसक एक
आँख ही फोड़ दी और उसे जीिवत ही छोड़ िदया।

सपू नखा कै गित तु ह देखी। तदिप दयँ निहं लाज िबसेषी॥

शपू णखा क दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके दय म (उनसे लड़ने क बात सोचते)
िवशेष (कुछ भी) ल जा नह आती!

दो० - बिध िबराध खर दूषनिह लीलाँ ह यो कबंध।


बािल एक सर मारयो् तेिह जानह दसकंध॥ 36॥

िज ह ने िवराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबंध को भी मार डाला; और िज ह ने


बािल को एक ही बाण से मार िदया, हे दशकंध! आप उ ह (उनके मह व को) समिझए!॥ 36॥

जेिहं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे भु दल सिहत सब े ा॥


ु ल
का नीक िदनकर कुल केत।ू दूत पठायउ तव िहत हेत॥ ू

िज ह ने खेल से ही समु को बँधा िलया और जो भु सेना सिहत सुबेल पवत पर उतर पड़े , उन
सयू कुल के वजा व प (क ित को बढ़ानेवाले) क णामय भगवान ने आप ही के िहत के िलए
दूत भेजा।
सभा माझ जेिहं तव बल मथा। क र ब थ महँ मग ृ पित जथा॥
अंगद हनम
ु त अनच ु र जाके। रन बाँकुरे बीर अित बाँके॥

िजसने बीच सभा म आकर आपके बल को उसी कार मथ डाला जैसे हािथय के झुंड म आकर
िसंह (उसे िछ न-िभ न कर डालता है)। रण म बाँके अ यंत िवकट वीर अंगद और हनुमान
िजनके सेवक ह,

तेिह कहँ िपय पिु न पिु न नर कहह। मध


ु ा मान ममता मद बहह॥
अहह कंत कृत राम िबरोधा। काल िबबस मन उपज न बोधा॥

हे पित! उ ह आप बार-बार मनु य कहते ह। आप यथ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे


ह! हा ि यतम! आपने राम से िवरोध कर िलया और काल के िवशेष वश होने से आपके मन म
अब भी ान नह उ प न होता।

काल दंड गिह काह न मारा। हरइ धम बल बिु िबचारा॥


िनकट काल जेिह आवत साई ं। तेिह म होइ तु हा रिह नाई ं॥

काल दंड (लाठी) लेकर िकसी को नह मारता। वह धम, बल, बुि और िवचार को हर लेता है। हे
वामी! िजसका काल (मरण-समय) िनकट आ जाता है, उसे आप ही क तरह म हो जाता है।

दो० - दइु सत
ु मरे दहेउ परु अजहँ पूर िपय देह।
कृपािसंधु रघनु ाथ भिज नाथ िबमल जसु लेह॥ 37॥

आपके दो पु मारे गए और नगर जल गया। (जो हआ सो हआ) हे ि यतम! अब भी (इस भल ू क)


पिू त (समाि ) कर दीिजए (राम से वैर याग दीिजए); और हे नाथ! कृपा के समु रघुनाथ को
भजकर िनमल यश लीिजए॥ 37॥

ना र बचन सिु न िबिसख समाना। सभाँ गयउ उिठ होत िबहाना॥


बैठ जाइ िसंघासन फूली। अित अिभमान ास सब भूली॥

ी के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा म चला गया और सारा भय
भुलाकर अ यंत अिभमान म फूलकर िसंहासन पर जा बैठा।

इहाँ राम अंगदिह बोलावा। आइ चरन पंकज िस नावा॥


अित आदर समीप बैठारी। बोले िबहँिस कृपाल खरारी॥

यहाँ (सुबेल पवत पर) राम ने अंगद को बुलाया। उ ह ने आकर चरणकमल म िसर नवाया। बड़े
आदर से उ ह पास बैठाकर खर के श ु कृपालु राम हँसकर बोले -
बािलतनय कौतक ु अित मोही। तात स य कहँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातध
ु ान कुल टीका। भज
ु बल अतलु जासु जग लीका॥

हे बािल के पु ! मुझे बड़ा कौतहू ल है। हे तात! इसी से म तुमसे पछ


ू ता हँ, स य कहना। जो रावण
रा स के कुल का ितलक है और िजसके अतुलनीय बाहबल क जगतभर म धाक है,

तासु मक
ु ु ट तु ह चा र चलाए। कहह तात कवनी िबिध पाए॥
सन
ु ु सब य नत सख ु कारी। मक
ु ु ट न होिहं भूप गन
ु चारी॥

उसके चार मुकुट तुमने फके। हे तात! बताओ, तुमने उनको िकस कार से पाया! (अंगद ने कहा
-) हे सव ! हे शरणागत को सुख देनेवाले! सुिनए। वे मुकुट नह ह। वे तो राजा के चार गुण ह।

साम दान अ दंड िबभेदा। नपृ उर बसिहं नाथ कह बेदा॥


नीित धम के चरन सहु ाए। अस िजयँ जािन पिहं आए॥

हे नाथ! वेद कहते ह िक साम, दान, दंड और भेद - ये चार राजा के दय म बसते ह। ये नीित-
धम के चार सुंदर चरण ह। (िकंतु रावण म धम का अभाव है) ऐसा जी म जानकर ये नाथ के पास
आ गए ह।

दो० - धमहीन भु पद िबमखु काल िबबस दससीस।


तेिह प रह र गन
ु आए सन
ु ह कोसलाधीस॥ 38(क)॥

दशशीश रावण धमहीन, भु के पद से िवमुख और काल के वश म है, इसिलए हे कोसलराज!


सुिनए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए ह॥ 38(क)॥

परम चतरु ता वन सिु न िबहँसे रामु उदार।


समाचार पिु न सब कहे गढ़ के बािलकुमार॥ 38(ख)॥

अंगद क परम चतुरता (पण ू उि ) कान से सुनकर उदार राम हँसने लगे। िफर बािल पु ने
िकले के (लंका के) सब समाचार कहे ॥ 38(ख)॥

रपु के समाचार जब पाए। राम सिचव सब िनकट बोलाए॥


लंका बाँके चा र दआ
ु रा। केिह िबिध लािगअ करह िबचारा॥

जब श ु के समाचार ा हो गए, तब राम ने सब मंि य को पास बुलाया (और कहा -) लंका के


चार बड़े िवकट दरवाजे ह। उन पर िकस तरह आ मण िकया जाए, इस पर िवचार करो।

तब कपीस र छेस िबभीषन। सम ु र दयँ िदनकर कुल भूषन॥


क र िबचार ित ह मं ढ़ावा। चा र अनी किप कटकु बनावा॥
तब वानरराज सु ीव, ऋ पित जा बवान और िवभीषण ने दय म सयू कुल के भषू ण रघुनाथ का
मरण िकया और िवचार करके उ ह ने कत य िनि त िकया। वानर क सेना के चार दल
बनाए।

जथाजोग सेनापित क हे। जूथप सकल बोिल तब ली हे॥


भु ताप किह सब समझ
ु ाए। सिु न किप िसंघनाद क र धाए॥

और उनके िलए यथायो य (जैसे चािहए वैसे) सेनापित िनयु िकए। िफर सब यथ
ू पितय को बुला
िलया और भु का ताप कहकर सबको समझाया, िजसे सुनकर वानर, िसंह के समान गजना
करके दौड़े ।

हरिषत राम चरन िसर नाविहं। गिह िग र िसखर बीर सब धाविहं॥


गजिहं तजिहं भालु कपीसा। जय रघबु ीर कोसलाधीसा॥

वे हिषत होकर राम के चरण म िसर नवाते ह और पवत के िशखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते ह।
'कोसलराज रघुवीर क जय हो' पुकारते हए भालू और वानर गरजते और ललकारते ह।

जानत परम दगु अित लंका। भु ताप किप चले असंका॥


घटाटोप क र चहँ िदिस घेरी॥ मख
ु िहं िनसार बजाविहं भेरी॥

लंका को अ यंत े (अजेय) िकला जानते हए भी वानर भु राम के ताप से िनडर होकर चले।
चार ओर से िघरी हई बादल क घटा क तरह लंका को चार िदशाओं से घेरकर वे मँुह से डं के
और भेरी बजाने लगे।

दो० - जयित राम जय लिछमन जय कपीस सु ीव।


गजिहं िसंहनाद किप भालु महा बल स व॥ 39॥

महान बल क सीमा वे वानर-भालू िसंह के समान ऊँचे वर से 'राम क जय', 'ल मण क जय',
'वानरराज सु ीव क जय' - ऐसी गजना करने लगे॥ 39॥

लंकाँ भयउ कोलाहल भारी। सनु ा दसानन अित अहँकारी॥


देखह बनर ह के र िढठाई। िबहँिस िनसाचर सेन बोलाई॥

लंका म बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अ यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा -
वानर क िढठाई तो देखो! यह कहते हए हँसकर उसने रा स क सेना बुलाई।

आए क स काल के रे े । छुधावंत सब िनिसचर मेरे॥


बअस किह अ हास सठ क हा। गहृ बैठ अहार िबिध दी हा॥
बंदर काल क ेरणा से चले आए ह। मेरे रा स सभी भख
ू े ह। िवधाता ने इ ह घर बैठे भोजन भेज
िदया। ऐसा कहकर उस मखू ने अ हास िकया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)।

सभ
ु ट सकल चा रहँ िदिस जाह। ध र ध र भालु क स सब खाह॥
उमा रावनिह अस अिभमाना। िजिम िट भ खग सूत उताना॥

(और बोला -) हे वीरो! सब लोग चार िदशाओं म जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर
खाओ। (िशव कहते ह -) हे उमा! रावण को ऐसा अिभमान था जैसा िटिटिहरी प ी पैर ऊपर क
ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)।

चले िनसाचर आयसु मागी। गिह कर िभंिडपाल बर साँगी॥


तोमर मु र परसु चंडा। सूल कृपान प रघ िग रखंडा॥

आ ा माँगकर और हाथ म उ म िभंिदपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मु र, चंड फरसे, शल


ू ,
दुधारी तलवार, प रघ और पहाड़ के टुकड़े लेकर रा स चले।

िजिम अ नोपल िनकर िनहारी। धाविहं सठ खग मांस अहारी॥


च च भंग दःु ख ित हिह न सूझा। ितिम धाए मनज
ु ाद अबूझा॥

जैसे मख
ू मांसाहारी प ी लाल प थर का समहू देखकर उस पर टूट पड़ते ह, (प थर पर लगने
ू ता, वैसे ही ये बेसमझ रा स दौड़े ।
से) च च टूटने का दुःख उ ह नह सझ

दो० - नानायध
ु सर चाप धर जातधु ान बल बीर।
कोट कँगूरि ह चिढ़ गए कोिट कोिट रनधीर॥ 40॥

अनेक कार के अ -श और धनुष-बाण धारण िकए करोड़ बलवान और रणधीर रा स वीर


परकोटे के कँगरू पर चढ़ गए॥ 40॥

कोट कँगूरि ह सोहिहं कैसे। मे के संग


ृ िन जनु घन बैस॥े
बाजिहं ढोल िनसान जुझाऊ। सिु न धिु न होइ भटि ह मन चाऊ॥

वे परकोटे के कँगरू पर कैसे शोिभत हो रहे ह, मानो सुमे के िशखर पर बादल बैठे ह । जुझाऊ
ढोल और डं के आिद बज रहे ह, (िजनक ) विन सुनकर यो ाओं के मन म (लड़ने का) चाव
होता है।

बाजिहं भे र नफ र अपारा। सिु न कादर उर जािहं दरारा॥


देिख ह जाइ किप ह के ठ ा। अित िबसाल तनु भालु सभ ु ा॥

अगिणत नफ री और भेरी बज रही है, (िज ह) सुनकर कायर के दय म दरार पड़ जाती ह।


उ ह ने जाकर अ यंत िवशाल शरीरवाले महान यो ा वानर और भालुओ ं के ठ (समहू ) देखे।

धाविहं गनिहं न अवघट घाटा। पबत फो र करिहं गिह बाटा॥


कटकटािहं कोिट ह भट गजिहं। दसन ओठ काटिहं अित तजिहं॥

(देखा िक) वे रीछ-वानर दौड़ते ह, औघट (ऊँची-नीची, िवकट) घािटय को कुछ नह िगनते।
पकड़कर पहाड़ को फोड़कर रा ता बना लेते ह। करोड़ यो ा कटकटाते और गरजते ह। दाँत से
ओंठ काटते और खबू डपटते ह।

उत रावन इत राम ई। जयित जयित जय परी लराई॥


िनिसचर िसखर समूह ढहाविहं। कूिद धरिहं किप फे र चलाविहं॥

उधर रावण क और इधर राम क दुहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' क विन होते ही लड़ाई
िछड़ गई। रा स पहाड़ के ढे र के ढे र िशखर को फकते ह। वानर कूदकर उ ह पकड़ लेते ह और
वापस उ ह क ओर चलाते ह।

छं ० - ध र कुधर खंड चंड मकट भालु गढ़ पर डारह ।


झपटिहं चरन गिह पटिक मिह भिज चलत बह र पचारह ॥
अित तरल त न ताप तरपिहं तमिक गढ़ चिढ़ चिढ़ गए।
किप भालु चिढ़ मंिदर ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥

चंड वानर और भालू पवत के टुकड़े ले-लेकर िकले पर डालते ह। वे झपटते ह और रा स के


पैर पकड़कर उ ह प ृ वी पर पटककर भाग चलते ह और िफर ललकारते ह। बहत ही चंचल और
बड़े तेज वी वानर-भालू बड़ी फुत से उछलकर िकले पर चढ़-चढ़कर गए और जहाँ-तहाँ महल म
घुसकर राम का यश गाने लगे।

दो० - एकु एकु िनिसचर गिह पिु न किप चले पराइ।


ऊपर आपु हेठ भट िगरिहं धरिन पर आइ॥ 41॥

िफर एक-एक रा स को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (रा स) यो ा - इस


कार वे (िकले से) धरती पर आ िगरते ह॥ 41॥

राम ताप बल किपजूथा। मदिहं िनिसचर सभ ु ट ब था॥


चढ़े दग
ु पिु न जहँ तहँ बानर। जय रघब
ु ीर ताप िदवाकर॥

राम के ताप से बल वानर के झुंड रा स यो ाओं के समहू -के-समहू मसल रहे ह। वानर िफर
ू के समान रघुवीर क जय बोलने लगे।
जहाँ-तहाँ िकले पर चढ़ गए और ताप म सय

चले िनसाचर िनकर पराई। बल पवन िजिम घन समदु ाई॥


हाहाकार भयउ परु भारी। रोविहं बालक आतरु नारी॥

रा स के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर क हवा चलने पर बादल के समहू िततर-िबतर हो
जाते ह। लंका नगरी म बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, ि याँ और रोगी (असमथता के
कारण) रोने लगे।

सब िमिल देिहं रावनिह गारी। राज करत एिहं म ृ यु हँकारी॥


िनज दल िबचल सन ु ी तेिहं काना। फे र सभ
ु ट लंकेस रसाना॥

सब िमलकर रावण को गािलयाँ देने लगे िक रा य करते हए इसने म ृ यु को बुला िलया। रावण ने
जब अपनी सेना का िवचिलत होना कान से सुना, तब (भागते हए) यो ाओं को लौटाकर वह
ोिधत होकर बोला -

जो रन िबमख
ु सनु ा म काना। सो म हतब कराल कृपाना॥
सबसु खाइ भोग क र नाना। समर भूिम भए ब लभ ाना॥

म िजसे रण से पीठ देकर भागा हआ अपने कान सुनँग ू ा, उसे वयं भयानक दुधारी तलवार से
मा ँ गा। मेरा सब कुछ खाया, भाँित-भाँित के भोग िकए और अब रणभिू म म ाण यारे हो गए!

उ बचन सिु न सकल डेराने। चले ोध क र सभ


ु ट लजाने॥
ु मरन बीर कै सोभा। तब ित ह तजा ान कर लोभा॥
स मख

रावण के उ (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लि जत होकर ोध करके यु के


िलए लौट चले। रण म (श ु के) स मुख (यु करते हए) मरने म ही वीर क शोभा है। (यह
सोचकर) तब उ ह ने ाण का लोभ छोड़ िदया।

दो० - बह आयध
ु धर सभु ट सब िभरिहं पचा र पचा र।
याकुल िकए भालु किप प रघ ि सूलि ह मा र॥ 42॥

बहत-से अ -श धारण िकए, सब वीर ललकार-ललकारकर िभड़ने लगे। उ ह ने प रघ और


ि शल
ू से मार-मारकर सब रीछ-वानर को याकुल कर िदया॥ 42॥

भय आतरु किप भागत लागे। ज िप उमा जीितहिहं आगे॥


कोउ कह कहँ अंगद हनम
ु ंता। कहँ नल नील दिु बद बलवंता॥

(िशव कहते ह -) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, य िप हे उमा! आगे
चलकर (वे ही) जीतगे। कोई कहता है - अंगद-हनुमान कहाँ ह? बलवान नल, नील और ि िवद
कहाँ ह?
िनज दल िबकल सन ु ा हनम
ु ाना। पि छम ार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न ार परम किठनाई॥

हनुमान ने जब अपने दल को िवकल (भयभीत) हआ सुना, उस समय वे बलवान पि म ार पर


थे। वहाँ उनसे मेघनाद यु कर रहा था। वह ार टूटता न था, बड़ी भारी किठनाई हो रही थी।

पवनतनय मन भा अित ोधा। गजउ बल काल सम जोधा॥


कूिद लंक गढ़ ऊपर आवा। गिह िग र मेघनाद कहँ धावा॥

तब पवनपु हनुमान के मन म बड़ा भारी ोध हआ। वे काल के समान यो ा बड़े जोर से गरजे
और कूदकर लंका के िकले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद क ओर दौड़े ।

भंजउे रथ सारथी िनपाता। तािह दय महँ मारे िस लाता॥


दस
ु र सूत िबकल तेिह जाना। यंदन घािल तरु त गहृ आना॥

रथ तोड़ डाला, सारथी को मार िगराया और मेघनाद क छाती म लात मारी। दूसरा सारथी
मेघनाद को याकुल जानकर, उसे रथ म डालकर, तुरंत घर ले आया।

दो० - अंगद सन ु ा पवनसतु गढ़ पर गयउ अकेल।


रन बाँकुरा बािलसत ु तरिक चढ़ेउ किप खेल॥ 43॥

इधर अंगद ने सुना िक पवनपु हनुमान िकले पर अकेले ही गए ह, तो रण म बाँके बािल पु


वानर के खेल क तरह उछलकर िकले पर चढ़ गए॥ 43॥

जु िब ु ौ बंदर। राम ताप सिु म र उर अंतर॥


रावन भवन चढ़े ौ धाई। करिहं कोसलाधीस ई॥

यु म श ुओ ं के िव दोन वानर ु हो गए। दय म राम के ताप का मरण करके दोन


दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज राम क दुहाई बोलने लगे।

कलस सिहत गिह भवनु ढहावा। देिख िनसाचरपित भय पावा॥


ना र बंदृ कर पीटिहं छाती। अब दइु किप आए उतपाती॥

उ ह ने कलश सिहत महल को पकड़कर ढहा िदया। यह देखकर रा सराज रावण डर गया। सब
ि याँ हाथ से छाती पीटने लग (और कहने लग -) अब क बार दो उ पाती वानर (एक साथ)
आ गए ह।

किपलीला क र ित हिह डेराविहं। रामचं कर सजु सु सन


ु ाविहं॥
पिु न कर गिह कंचन के खंभा। कहेि ह क रअ उतपात अरं भा॥
वानरलीला करके (घुड़क देकर) दोन उनको डराते ह और रामचं का सुंदर यश सुनाते ह। िफर
सोने के खंभ को हाथ से पकड़कर उ ह ने (पर पर) कहा िक अब उ पात आरं भ िकया जाए।

गिज परे रपु कटक मझारी। लागे मद भज


ु बल भारी॥
काहिह लात चपेटि ह केह। भजह न रामिह सो फल लेह॥

वे गरजकर श ु क सेना के बीच म कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मदन करने लगे।
िकसी क लात से और िकसी क थ पड़ से खबर लेते ह (और कहते ह िक) तुम राम को नह
भजते, उसका यह फल लो।

दो० - एक एक स मदिहं तो र चलाविहं मंड ु ।


रावन आग परिहं ते जनु फूटिहं दिध कंु ड॥ 44॥

एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते ह और िसर को तोड़कर फकते ह। वे िसर जाकर


रावण के सामने िगरते ह और ऐसे फूटते ह, मानो दही के कुंड फूट रहे ह ॥ 44॥

महा महा मिु खआ जे पाविहं। ते पद गिह भु पास चलाविहं॥


कहइ िबभीषनु ित ह के नामा। देिहं राम ित हह िनज धामा॥

िजन बड़े -बड़े मुिखय ( धान सेनापितय ) को पकड़ पाते ह, उनके पैर पकड़कर उ ह भु के
पास फक देते ह। िवभीषण उनके नाम बतलाते ह और राम उ ह भी अपना धाम (परम पद) दे देते
ह।

खल मनज ु ाद ि जािमष भोगी। पाविहं गित जो जाचत जोगी॥


उमा राम मदृ िु चत क नाकर। बयर भाव सिु मरत मोिह िनिसचर॥

ा ण का मांस खानेवाले वे नरभोजी दु रा स भी वह परम गित पाते ह, िजसक योगी भी


याचना िकया करते ह (परं तु सहज म नह पाते)। (िशव कहते ह -) हे उमा! राम बड़े ही कोमल
दय और क णा क खान ह। (वे सोचते ह िक) रा स मुझे वैरभाव से ही सही, मरण तो करते
ही ह।

देिहं परम गित सो िजयँ जानी। अस कृपाल को कहह भवानी॥


अस भु सिु न न भजिहं म यागी। नर मितमंद ते परम अभागी॥

ऐसा दय म जानकर वे उ ह परमगित (मो ) देते ह। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और)
कौन ह? भु का ऐसा वभाव सुनकर भी जो मनु य म याग कर उनका भजन नह करते, वे
अ यंत मंद बुि और परम भा यहीन ह।

अंगद अ हनम
ु ंत बेसा। क ह दग
ु अस कह अवधेसा॥
लंकाँ ौ किप सोहिहं कैस। मथिहं िसंधु दइु मंदर जैस॥

राम ने कहा िक अंगद और हनुमान िकले म घुस गए ह। दोन वानर लंका म (िव वंस करते)
कैसे शोभा देते ह, जैसे दो मंदराचल समु को मथ रहे ह ।

दो० - भजु बल रपु दल दलमिल देिख िदवस कर अंत।


कूदे जुगल िबगत म आए जहँ भगवंत॥ 45॥

भुजाओं के बल से श ु क सेना को कुचलकर और मसलकर, िफर िदन का अंत होता देखकर


हनुमान और अंगद दोन कूद पड़े और म थकावट रिहत होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान राम
थे॥ 45॥

भु पद कमल सीस ित ह नाए। देिख सभ ु ट रघप


ु ित मन भाए॥
राम कृपा क र जुगल िनहारे । भए िबगत म परम सख ु ारे ॥

उ ह ने भु के चरण कमल म िसर नवाए। उ म यो ाओं को देखकर रघुनाथ मन म बहत


स न हए। राम ने कृपा करके दोन को देखा, िजससे वे मरिहत और परम सुखी हो गए।

गए जािन अंगद हनम


ु ाना। िफरे भालु मकट भट नाना॥
जातध
ु ान दोष बल पाई। धाए क र दससीस ई॥

अंगद और हनुमान को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े । रा स ने दोष (सायं)
काल का बल पाकर रावण क दुहाई देते हए वानर पर धावा िकया।

िनिसचर अनी देिख किप िफरे । जहँ तहँ कटकटाइ भट िभरे ॥


ौ दल बल पचा र पचारी। लरत सभ ु ट निहं मानिहं हारी॥

रा स क सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे यो ा जहाँ-तहाँ कटकटाकर िभड़ गए।
दोन ही दल बड़े बलवान ह। यो ा ललकार-ललकारकर ड़ते ह, कोई हार नह मानते।

महाबीर िनिसचर सब कारे । नाना बरन बलीमख


ु भारे ॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतक ु करत लरत क र ोधा॥

सभी रा स महान वीर और अ यंत काले ह और वानर िवशालकाय तथा अनेक रं ग के ह। दोन
ही दल बलवान ह और समान बलवाले यो ा ह। वे ोध करके लड़ते ह और खेल करते (वीरता
िदखलाते) ह।

ािबट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहँ मा त के रे े ॥


अिनप अकंपन अ अितकाया। िबचलत सेन क ि ह इ ह माया॥
(रा स और वानर यु करते हए ऐसे जान पड़ते ह) मानो मशः वषा और शरद ऋतु म बहत-से
बादल पवन से े रत होकर लड़ रहे ह । अकंपन और अितकाय इन सेनापितय ने अपनी सेना
को िवचिलत होते देखकर माया क ।

भयउ िनिमष महँ अित अँिधआरा। बिृ होइ िधरोपल छारा॥

पलभर म अ यंत अंधकार हो गया। खन


ू , प थर और राख क वषा होने लगी।

दो० - देिख िनिबड़ तम दसहँ िदिस किपदल भयउ खभार।


एकिह एक न देखई जहँ तहँ करिहं पकु ार॥ 46॥

दस िदशाओं म अ यंत घना अंधकार देखकर वानर क सेना म खलबली पड़ गई। एक को एक


(दूसरा) नह देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे ह॥ 46॥

सकल मरमु रघन


ु ायक जाना। िलए बोिल अंगद हनम ु ाना॥
समाचार सब किह समझ
ु ाए। सनु त कोिप किपकंु जर धाए॥

रघुनाथ सब रह य जान गए। उ ह ने अंगद और हनुमान को बुला िलया और सब समाचार


कहकर समझाया। सुनते ही वे दोन किप े ोध करके दौड़े ।

पिु न कृपाल हँिस चाप चढ़ावा। पावक सायक सपिद चलावा॥


भयउ कास कतहँ तम नाह । यान उदयँ िजिम संसय जाह ॥

िफर कृपालु राम ने हँसकर धनुष चढ़ाया और तुरंत ही अि नबाण चलाया, िजससे काश हो
गया, कह अँधेरा नह रह गया। जैसे ान के उदय होने पर (सब कार के) संदेह दूर हो जाते ह।

भालु बलीमख
ु पाई कासा। धाए हरष िबगत म ासा॥
हनूमान अंगद रन गाजे। हाँक सन
ु त रजनीचर भाजे॥

भालू और वानर काश पाकर म और भय से रिहत तथा स न होकर दौड़े । हनुमान और अंगद
रण म गरज उठे । उनक हाँक सुनते ही रा स भाग छूटे।

भागत भट पटकिहं ध र धरनी। करिहं भालु किप अ तु करनी॥


गिह पद डारिहं सागर माह । मकर उरग झष ध र ध र खाह ॥

भागते हए रा स यो ाओं को वानर और भालू पकड़कर प ृ वी पर दे मारते ह और अ ुत


(आ यजनक) करनी करते ह (यु कौशल िदखलाते ह)। पैर पकड़कर उ ह समु म डाल देते
ह। वहाँ मगर, साँप और म छ उ ह पकड़-पकड़कर खा डालते ह।
दो० - कछु मारे कछु घायल कछु गढ़ चढ़े पराइ।
गजिहं भालु बलीमखु रपु दल बल िबचलाइ॥ 47॥

कुछ मारे गए, कुछ घायल हए, कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गए। अपने बल से श ुदल को िवचिलत
करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे ह॥ 47॥

िनसा जािन किप चा रउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥


राम कृपा क र िचतवा सबही। भए िबगत म बानर तबही॥

रात हई जानकर वानर क चार सेनाएँ (टुकिड़याँ) वहाँ आई ं जहाँ कोसलपित राम थे। राम ने
य ही सबको कृपा करके देखा य ही ये वानर मरिहत हो गए।

उहाँ दसानन सिचव हँकारे । सब सन कहेिस सभ


ु ट जे मारे ॥
आधा कटकु किप ह संघारा। कहह बेिग का क रअ िबचारा॥

वहाँ (लंका म) रावण ने मंि य को बुलाया और जो यो ा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया।
(उसने कहा -) वानर ने आधी सेना का संहार कर िदया! अब शी बताओ, या िवचार (उपाय)
करना चािहए?

मा यवंत अित जरठ िनसाचर। रावन मातु िपता मं ी बर॥


बोला बचन नीित अित पावन। सनु ह तात कछु मोर िसखावन॥

मा यवंत (नाम का एक) अ यंत बढ़


ू ा रा स था। वह रावण क माता का िपता (अथात उसका
नाना) और े मं ी था। वह अ यंत पिव नीित के वचन बोला - हे तात! कुछ मेरी सीख भी
सुनो -

जब ते तु ह सीता ह र आनी। असगन ु होिहं न जािहं बखानी॥


बेद परु ान जासु जसु गायो। राम िबमख
ु काहँ न सख ु पायो॥

जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे ह िक उनका वणन नह िकया
जा सकता। वेद-पुराण ने िजनका यश गाया है, उन राम से िवमुख होकर िकसी ने सुख नह
पाया।

दो० - िहर या छ ाता सिहत मधु कैटभ बलवान।


जेिहं मारे सोइ अवतरे उ कृपािसंधु भगवान॥ 48(क)॥

भाई िहर यकिशपु सिहत िहर या को बलवान मध-ु कैटभ को िज ह ने मारा था, वे ही
कृपा के समु भगवान (राम प से) अवत रत हए ह॥ 48(क)॥
काल प खल बन दहन गन ु ागार घनबोध।
िसव िबरं िच जेिह सेविहं तास कवन िबरोध॥ 48(ख)॥

जो काल व प ह, दु के समहू पी वन के भ म करनेवाले (अि न) ह, गुण के धाम और


ानघन ह एवं िशव और ा भी िजनक सेवा करते ह, उनसे वैर कैसा?॥ 48(ख)॥

प रह र बय देह बैदहे ी। भजह कृपािनिध परम सनेही॥


ताके बचन बान सम लागे। क रआ महु क र जािह अभागे॥

(अतः) वैर छोड़कर उ ह जानक को दे दो और कृपािनधान परम नेही राम का भजन करो।
रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला -) अरे अभागे! मँुह काला करके (यहाँ से)
िनकल जा।

बूढ़ भएिस न त मरतेउँ तोही। अब जिन नयन देखाविस मोही॥


तेिहं अपने मन अस अनम ु ाना। ब यो चहत एिह कृपािनधाना॥

ू ा हो गया, नह तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँख को अपना मँुह न िदखला। रावण के
तू बढ़
ये वचन सुनकर उसने (मा यवान ने) अपने मन म ऐसा अनुमान िकया िक इसे कृपािनधान राम
अब मारना ही चाहते ह।

सो उिठ गयउ कहत दब ु ादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥


कौतकु ात देिखअह मोरा। क रहउँ बहत कह का थोरा॥

वह रावण को दुवचन कहता हआ उठकर चला गया। तब मेघनाद ोधपवू क बोला - सबेरे मेरी
करामात देखना। म बहत कुछ क ँ गा; थोड़ा या कहँ? (जो कुछ वणन क ँ गा थोड़ा ही होगा।)

सिु न सत
ु बचन भरोसा आवा। ीित समेत अंक बैठावा॥
करत िबचार भयउ िभनस ु ारा। लागे किप पिु न चहँ दआ
ु रा॥

पु के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने ेम के साथ उसे गोद म बैठा िलया। िवचार
करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर िफर चार दरवाज पर जा लगे।

कोिप किप ह दघु ट गढ़ घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥


िबिबधायध
ु धर िनिसचर धाए। गढ़ ते पबत िसखर ढहाए॥

वानर ने ोध करके दुगम िकले को घेर िलया। नगर म बहत ही कोलाहल (शोर) मच गया।
रा स बहत तरह के अ -श धारण करके दौड़े और उ ह ने िकले पर पहाड़ के िशखर ढहाए।

छं ० - ढाहे महीधर िसखर कोिट ह िबिबध िबिध गोला चले।


घहरात िजिम पिबपात गजत जनु लय के बादले॥
मकट िबकट भट जुटत कटत न लटत तन जजर भए।
गिह सैल तेिह गढ़ पर चलाविह जहँ सो तहँ िनिसचर हए॥

उ ह ने पवत के करोड़ िशखर ढहाए, अनेक कार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते ह
जैसे व पात हआ हो (िबजली िगरी हो) और यो ा ऐसे गरजते ह, मानो लयकाल के बादल ह ।
िवकट वानर यो ा िभड़ते ह, कट जाते ह (घायल हो जाते ह), उनके शरीर जजर (चलनी) हो
जाते ह, तब भी वे लटते नह (िह मत नह हारते)। वे पहाड़ उठाकर उसे िकले पर फकते ह।
रा स जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते ह, वह ) मारे जाते ह।

दो० - मेघनाद सिु न वन अस गढु पिु न छका आइ।


उतरयो
् बीर दगु त स मखु च यो बजाइ॥ 49॥

मेघनाद ने कान से ऐसा सुना िक वानर ने आकर िफर िकले को घेर िलया है। तब वह वीर िकले
से उतरा और डं का बजाकर उनके सामने चला॥ 49॥

कहँ कोसलाधीस ौ ाता। ध वी सकल लोक िब याता॥


कहँ नल नील दिु बद सु ीवा। अंगद हनूमंत बल स वा॥

(मेघनाद ने पुकारकर कहा -) सम त लोक म िस धनुधर कोसलाधीश दोन भाई कहाँ ह?


नल, नील, ि िवद, सु ीव और बल क सीमा अंगद और हनुमान कहाँ ह?

कहाँ िबभीषनु ाता ोही। आजु सबिह हिठ मारउँ ओही॥


अस किह किठन बान संधाने। अितसय ोध वन लिग ताने॥

भाई से ोह करनेवाला िवभीषण कहाँ है? आज म सबको और उस दु को तो हठपवू क (अव य


ही) मा ँ गा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर किठन बाण का संधान िकया और अ यंत ोध करके
उसे कान तक ख चा।

सर समूह सो छाड़ै लागा। जनु सप छ धाविहं बह नागा॥


ु होइ न सके तेिह अवसर॥
जहँ तहँ परत देिखअिहं बानर। स मख

वह बाण के समहू छोड़ने लगा। मानो बहत-से पंखवाले साँप दौड़े जा रहे ह । जहाँ-तहाँ वानर
िगरते िदखाई पड़ने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके।

जहँ तहँ भािग चले किप रीछा। िबसरी सबिह जु कै ईछा॥


सो किप भालु न रन महँ देखा। क हेिस जेिह न ान अवसेषा॥

रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको यु क इ छा भल


ू गई। रणभिू म म ऐसा एक भी वानर या
भालू नह िदखाई पड़ा, िजसको उसने ाणमा अवशेष न कर िदया हो (अथात िजसके केवल
ाणमा ही न बचे ह ; बल, पु षाथ सारा जाता न रहा हो)।

दो० - दस दस सर सब मारे िस परे भूिम किप बीर।


िसंहनाद क र गजा मेघनाद बल धीर॥ 50॥

िफर उसने सबको दस-दस बाण मारे , वानर वीर प ृ वी पर िगर पड़े । बलवान और धीर मेघनाद
िसंह के समान नाद करके गरजने लगा॥ 50॥

देिख पवनसत
ु कटक िबहाला। ोधवंत जनु धायउ काला॥
महासैल एक तरु त उपारा। अित रस मेघनाद पर डारा॥

सारी सेना को बेहाल ( याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान ोध करके ऐसे दौड़े मानो वयं
काल दौड़ आता हो। उ ह ने तुरंत एक बड़ा भारी पहाड़ उखाड़ िलया और बड़े ही ोध के साथ
उसे मेघनाद पर छोड़ा।

आवत देिख गयउ नभ सोई। रथ सारथी तरु ग सब खोई॥


बार बार पचार हनम
ु ाना। िनकट न आव मरमु सो जाना॥

पहाड़ को अपनी ओर आते देखकर वह आकाश म उड़ गया। (उसके) रथ, सारथी और घोड़े सब
न हो गए (चरू -चरू हो गए)। हनुमान उसे बार-बार ललकारते ह। पर वह िनकट नह आता,
य िक वह उनके बल का मम जानता था।

रघप
ु ित िनकट गयउ घननादा। नाना भाँित करे िस दब
ु ादा॥
अ स आयध ु सब डारे । कौतक
ु ह भु कािट िनवारे ॥

(तब) मेघनाद रघुनाथ के पास गया और उसने (उनके ित) अनेक कार के दुवचन का योग
िकया। (िफर) उसने उन पर अ -श तथा और सब हिथयार चलाए। भु ने खेल म ही सबको
काटकर अलग कर िदया।

देिख ताप मूढ़ िखिसआना। करै लाग माया िबिध नाना॥


िजिम कोउ करै ग ड़ स खेला। डरपावै गिह व प सपेला॥

राम का ताप (साम य) देखकर वह मख ू लि जत हो गया और अनेक कार क माया करने


लगा। जैसे कोई यि छोटा-सा साँप का ब चा हाथ म लेकर ग ड़ को डरावे और उससे खेल
करे ।

दो० - जासु बल माया बस िसव िबरं िच बड़ छोट।


तािह िदखावइ िनिसचर िनज माया मित खोट॥ 51॥
िशव और ा तक बड़े -छोटे (सभी) िजनक अ यंत बलवान माया के वश म ह, नीच बुि
िनशाचर उनको अपनी माया िदखलाता है॥ 51॥

नभ चिढ़ बरष िबपल ु अंगारा। मिह ते गट होिहं जलधारा॥


नाना भाँित िपसाच िपसाची। मा काटु धिु न बोलिहं नाची॥

आकाश म (ऊँचे) चढ़कर वह बहत-से अंगारे बरसाने लगा। प ृ वी से जल क धाराएँ कट होने


लग । अनेक कार के िपशाच तथा िपशािचिनयाँ नाच-नाचकर 'मारो, काटो' क आवाज करने
लग ।

िब ा पूय िधर कच हाड़ा। बरषइ कबहँ उपल बह छाड़ा॥


बरिष धू र क हेिस अँिधआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥

वह कभी तो िव ा, पीब, खनू , बाल और हड्िडयाँ बरसाता था और कभी बहत-से प थर फक


ू बरसाकर ऐसा अँधेरा कर िदया िक अपना ही पसारा हआ हाथ नह
देता था। िफर उसने धल
सझू ता था।

किप अकुलाने माया देख। सब कर मरन बना ऐिह लेख॥


कौतक
ु देिख राम मस
ु कु ाने। भए सभीत सकल किप जाने॥

माया देखकर वानर अकुला उठे । वे सोचने लगे िक इस िहसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका
मरण आ बना। यह कौतुक देखकर राम मुसकराए। उ ह ने जान िलया िक सब वानर भयभीत हो
गए ह।

एक बान काटी सब माया। िजिम िदनकर हर ितिमर िनकाया॥


कृपा ि किप भालु िबलोके। भए बल रन रहिहं न रोके॥

तब राम ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सय


ू अंधकार के समहू को हर लेता है।
तदनंतर उ ह ने कृपाभरी ि से वानर-भालुओ ं क ओर देखा, (िजससे) वे ऐसे बल हो गए िक
रण म रोकने पर भी नह कते थे।

दो० - आयसु मािग राम पिहं अंगदािद किप साथ।


लिछमन चले ु होइ बान सरासन हाथ॥ 52॥

राम से आ ा माँगकर, अंगद आिद वानर के साथ हाथ म धनुष-बाण िलए हए ल मण ु


होकर चले॥ 52॥

छतज नयन उर बाह िबसाला। िहमिग र िनभ तनु कछु एक लाला॥


इहाँ दसानन सभ
ु ट पठाए। नाना अ स गिह धाए॥

उनके लाल ने ह, चौड़ी छाती और िवशाल भुजाएँ ह। िहमाचल पवत के समान उ वल


(गौरवण) शरीर कुछ ललाई िलए हए है। इधर रावण ने भी बड़े -बड़े यो ा भेजे, जो अनेक अ -
श लेकर दौड़े ।

भूधर नख िबटपायधु धारी। धाए किप जय राम पक


ु ारी॥
िभरे सकल जो रिह सन जोरी। इत उत जय इ छा निहं थोरी॥

पवत, नख और व ृ पी हिथयार धारण िकए हए वानर 'राम क जय' पुकारकर दौड़े । वानर और
रा स सब जोड़ी से जोड़ी िभड़ गए। इधर और उधर दोन ओर जय क इ छा कम न थी (अथात
बल थी)।

मिु ठक ह लात ह दात ह काटिहं। किप जयसील मा र पिु न डाटिहं॥


मा मा ध ध ध मा । सीस तो र गिह भज ु ा उपा ॥

वानर उनको घँस ू और लात से मारते ह, दाँत से काटते ह। िवजयशील वानर उ ह मारकर िफर
डाँटते भी ह। 'मारो, मारो, पकड़ो, पकड़ो, पकड़कर मार दो, िसर तोड़ दो और भुजाऐँ पकड़कर
उखाड़ लो'।

अिस रव पू र रही नव खंडा। धाविहं जहँ तहँ ं ड चंडा॥


देखिहं कौतक
ु नभ सरु बंदृ ा। कबहँक िबसमय कबहँ अनंदा॥

नव खंड म ऐसी आवाज भर रही है। चंड ं ड (धड़) जहाँ-तहाँ दौड़ रहे ह। आकाश म देवतागण
यह कौतुक देख रहे ह। उ ह कभी खेद होता है और कभी आनंद।

दो० - िधर गाड़ भ र भ र ज यो ऊपर धू र उड़ाइ।


जनु अँगार रािस ह पर मत
ृ क धूम र ो छाइ॥ 53॥

खनू गड्ढ म भर-भरकर जम गया है और उस पर धल ू उड़कर पड़ रही है (वह य ऐसा है)


मानो अंगार के ढे र पर राख छा रही हो॥ 53॥

घायल बीर िबराजिहं कैसे। कुसम ु के त जैस॥े


ु ित िकंसक
लिछमन मेघनाद ौ जोधा। िभरिहं परसपर क र अित ोधा॥

घायल वीर कैसे शोिभत ह, जैसे फूले हए पलाश के पेड़। ल मण और मेघनाद दोन यो ा अ यंत
ोध करके एक-दूसरे से िभड़ते ह।

एकिह एक सकइ निहं जीती। िनिसचर छल बल करइ अनीती॥


ोधवंत तब भयउ अनंता। भंजउे रथ सारथी तरु ं ता॥

एक-दूसरे को (कोई िकसी को) जीत नह सकता। रा स छल-बल (माया) और अनीित (अधम)
करता है, तब भगवान अनंत (ल मण) ोिधत हए और उ ह ने तुरंत उसके रथ को तोड़ डाला
और सारथी को टुकड़े -टुकड़े कर िदए!

नाना िबिध हार कर सेषा। रा छस भयउ ान अवसेषा॥


रावन सतु िनज मन अनमु ाना। संकठ भयउ ह रिह मम ाना॥

शेष (ल मण) उस पर अनेक कार से हार करने लगे। रा स के ाणमा शेष रह गए।
रावणपु मेघनाद ने मन म अनुमान िकया िक अब तो ाण संकट आ बना, ये मेरे ाण हर लगे।

बीरघाितनी छािड़िस साँगी। तेजपंज


ु लिछमन उर लागी॥
मु छा भई सि के लाग। तब चिल गयउ िनकट भय याग॥

तब उसने वीरघाितनी शि चलाई। वह तेजपणू शि ल मण क छाती म लगी। शि लगने से


उ ह मू छा आ गई। तब मेघनाद भय छोड़कर उनके पास चला गया।

दो० - मेघनाद सम कोिट सत जोधा रहे उठाइ।


जगदाधार सेष िकिम उठै चले िखिसआइ॥ 54॥

मेघनाद के समान सौ करोड़ (अगिणत) यो ा उ ह उठा रहे ह, परं तु जगत के आधार शेष
(ल मण) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥ 54॥

सन
ु ु िग रजा ोधानल जासू। जारइ भव ु न चा रदस आसू॥
सक सं ाम जीित को ताही। सेविहं सरु नर अग जग जाही॥

(िशव कहते ह -) हे िग रजे! सुनो, ( लयकाल म) िजन (शेषनाग) के ोध क अि न चौदह


भुवन को तुरंत ही जला डालती है और देवता, मनु य तथा सम त चराचर (जीव) िजनक सेवा
करते ह, उनको सं ाम म कौन जीत सकता है?

यह कौतहू ल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥


सं या भय िफ र ौ बाहनी। लगे सँभारन िनज िनज अनी॥

इस लीला को वही जान सकता है, िजस पर राम क कृपा हो। सं या होने पर दोन ओर क
सेनाएँ लौट पड़ , सेनापित अपनी-अपनी सेनाएँ सँभालने लगे।

यापक अिजत भव
ु ने वर। लिछमन कहाँ बूझ क नाकर॥
तब लिग लै आयउ हनमु ाना। अनज
ु देिख भु अित दःु ख माना॥
यापक, , अजेय, संपण
ू ांड के ई र और क णा क खान राम ने पछ ू ा - ल मण कहाँ
है? तब तक हनुमान उ ह ले आए। छोटे भाई को (इस दशा म) देखकर भु ने बहत ही दुःख
माना।

जामवंत कह बैद सष े ा। लंकाँ रहइ को पठई लेना॥


ु न
ध र लघु प गयउ हनम ु ंता। आनेउ भवन समेत तरु ं ता॥

जा बवान ने कहा - लंका म सुषेण वै रहता है, उसे लाने के िलए िकसको भेजा
जा&##2319;? हनुमान छोटा प धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरंत ही उठा
लाए।

दो० - राम पदारिबंद िसर नायउ आइ सष े ।


ु न
कहा नाम िग र औषधी जाह पवनसत ु लेन॥ 55॥

सुषेण ने आकर राम के चरणारिवंद म िसर नवाया। उसने पवत और औषध का नाम बताया,
(और कहा िक) हे पवनपु ! औषिध लेने जाओ॥ 55॥

राम चरन सरिसज उर राखी। चला भंजनसत ु बल भाषी॥


उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेिम गहृ आवा॥

राम के चरणकमल को दय म रखकर पवनपु हनुमान अपना बल बखानकर (अथात म अभी


िलए आता हँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गु चर ने रावण को इस रह य क खबर दी। तब
रावण कालनेिम के घर आया।

दसमखु कहा मरमु तेिहं सन


ु ा। पिु न पिु न कालनेिम िस धन
ु ा॥
देखत तु हिह नग जेिहं जारा। तासु पंथ को रोकन पारा॥

रावण ने उसको सारा मम (हाल) बतलाया। कालनेिम ने सुना और बार-बार िसर पीटा (खेद कट
िकया)। (उसने कहा -) तु हारे देखते-देखते िजसने नगर जला डाला, उसका माग कौन रोक
सकता है?

भिज रघप
ु ित क िहत आपना। छाँड़ह नाथ मष ृ ा ज पना॥
नील कंज तनु संदु र यामा। दयँ राखु लोचनािभरामा॥

रघुनाथ का भजन करके तुम अपना क याण करो! हे नाथ! झठू ी बकवास छोड़ दो। ने को
आनंद देनेवाले नीलकमल के समान सुंदर याम शरीर को अपने दय म रखो।

म त मोर मूढ़ता यागू। महा मोह िनिस सूतत जागू॥


काल याल कर भ छक जोई। सपनेहँ समर िक जीितअ सोई॥
म-तू (भेद-भाव) और ममता पी मढ़
ू ता को याग दो। महामोह (अ ान) पी राि म सो रहे हो,
सो जाग उठो, जो काल पी सप का भी भ क है, कह व न म भी वह रण म जीता जा सकता
है?

दो० - सिु न दसकंठ रसान अित तेिहं मन क ह िबचार।


राम दूत कर मर ब यह खल रत मल भार॥ 56॥

उसक ये बात सुनकर रावण बहत ही ोिधत हआ। तब कालनेिम ने मन म िवचार िकया िक
(इसके हाथ से मरने क अपे ा) राम के दूत के हाथ से ही म ँ तो अ छा है। यह दु तो पाप
समहू म रत है॥ 56॥

अस किह चला रिचिस मग माया। सर मंिदर बर बाग बनाया॥


मा तसत
ु देखा सभु आ म। मिु निह बूिझ जल िपय जाइ म॥

वह मन-ही-मन ऐसा कहकर चला और उसने माग म माया रची। तालाब, मंिदर और सुंदर बाग
बनाया। हनुमान ने सुंदर आ म देखकर सोचा िक मुिन से पछ
ू कर जल पी लँ,ू िजससे थकावट
दूर हो जाए।

रा छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापित दूतिह चह मोहा॥


जाइ पवनसत
ु नायउ माथा। लाग सो कहै राम गन ु गाथा॥

ू अपनी माया से मायापित के


रा स वहाँ कपट (से मुिन) का वेष बनाए िवराजमान था। वह मख
दूत को मोिहत करना चाहता था। मा ित ने उसके पास जाकर म तक नवाया। वह राम के गुण
क कथा कहने लगा।

होत महा रन रावन रामिहं। िजितहिहं राम न संसय या मिहं॥


इहाँ भएँ म देखउँ भाई। यान ि बल मोिह अिधकाई॥

(वह बोला -) रावण और राम म महान यु हो रहा है। राम जीतगे, इसम संदेह नह है। हे भाई! म
यहाँ रहता हआ ही सब देख रहा हँ। मुझे ान ि का बहत बड़ा बल है।

मागा जल तेिहं दी ह कमंडल। कह किप निहं अघाउँ थोर जल॥


सर म जन क र आतरु आवह। िद छा देउँ यान जेिहं पावह॥

हनुमान ने उससे जल माँगा, तो उसने कमंडलु दे िदया। हनुमान ने कहा - थोड़े जल से म त ृ


नह होने का। तब वह बोला - तालाब म नान करके तुरंत लौट आओ तो म तु हे दी ा दँू,
िजससे तुम ान ा करो।
दो० - सर पैठत किप पद गहा मकर तब अकुलान।
मारी सो ध र िद य तनु चली गगन चिढ़ जान॥ 57॥

तालाब म वेश करते ही एक मादा मगर ने अकुलाकर उसी समय हनुमान का पैर पकड़ िलया।
हनुमान ने उसे मार डाला। तब वह िद य देह धारण करके िवमान पर चढ़कर आकाश को चली॥
57॥

किप तव दरस भइउँ िन पापा। िमटा तात मिु नबर कर सापा॥


मिु न न होइ यह िनिसचर घोरा। मानह स य बचन किप मोरा॥

(उसने कहा -) हे वानर! म तु हारे दशन से पापरिहत हो गई। हे तात! े मुिन का शाप िमट
गया। हे किप! यह मुिन नह है, घोर िनशाचर है। मेरा वचन स य मानो।

अस किह गई अपछरा जबह । िनिसचर िनकट गयउ किप तबह ॥


कह किप मिु न गरु दिछना लेह। पाछ हमिहं मं तु ह देह॥

ऐसा कहकर य ही वह अ सरा गई, य ही हनुमान िनशाचर के पास गए। हनुमान ने कहा - हे
मुिन! पहले गु दि णा ले लीिजए। पीछे आप मुझे मं दीिजएगा।

िसर लंगूर लपेिट पछारा। िनज तनु गटेिस मरती बारा॥


राम राम किह छाड़ेिस ाना। सिु न मन हरिष चलेउ हनमु ाना॥

हनुमान ने उसके िसर को पँछ


ू म लपेटकर उसे पछाड़ िदया। मरते समय उसने अपना (रा सी)
शरीर कट िकया। उसने राम-राम कहकर ाण छोड़े । यह (उसके मँुह से राम-राम का उ चारण)
सुनकर हनुमान मन म हिषत होकर चले।

देखा सैल न औषध ची हा। सहसा किप उपा र िग र ली हा॥


गिह िग र िनिस नभ धावत भयऊ। अवधपरु ी ऊपर किप गयऊ॥

उ ह ने पवत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान ने एकदम से पवत को ही उखाड़


िलया। पवत लेकर हनुमान रात ही म आकाश माग से दौड़ चले और अयो यापुरी के ऊपर पहँच
गए।

दो० - देखा भरत िबसाल अित िनिसचर मन अनमु ािन।


िबनु फर सायक मारे उ चाप वन लिग तािन॥ 58॥

भरत ने आकाश म अ यंत िवशाल व प देखा, तब मन म अनुमान िकया िक यह कोई रा स


है। उ ह ने कान तक धनुष को ख चकर िबना फल का एक बाण मारा॥ 58॥
परे उ मु िछ मिह लागत सायक। सिु मरत राम राम रघन
ु ायक॥
सिु न ि य बचन भरत तब धाए। किप समीप अित आतरु आए॥

बाण लगते ही हनुमान 'राम, राम, रघुपित' का उ चारण करते हए मिू छत होकर प ृ वी पर िगर
पड़े । ि य वचन (रामनाम) सुनकर भरत उठकर दौड़े और बड़ी उतावली से हनुमान के पास आए।

िबकल िबलोिक क स उर लावा। जागत निहं बह भाँित जगावा॥


मखु मलीन मन भए दख
ु ारी। कहत बचन भ र लोचन बारी॥

हनुमान को याकुल देखकर उ ह ने दय से लगा िलया। बहत तरह से जगाया, पर वे जागते न


थे! तब भरत का मुख उदास हो गया। वे मन म बड़े दुःखी हए और ने म (िवषाद के आँसुओ ं
का) जल भरकर ये वचन बोले -

जेिहं िबिध राम िबमख


ु मोिह क हा। तेिहं पिु न यह दा न दःु ख दी हा॥
ज मोर मन बच अ काया॥ ीित राम पद कमल अमाया॥

िजस िवधाता ने मुझे राम से िवमुख िकया, उसी ने िफर यह भयानक दुःख भी िदया। यिद मन,
वचन और शरीर से राम के चरणकमल म मेरा िन कपट ेम हो,

तौ किप होउ िबगत म सूला। ज मो पर रघप


ु ित अनक
ु ू ला॥
सन
ु त बचन उिठ बैठ कपीसा। किह जय जयित कोसलाधीसा॥

और यिद रघुनाथ मुझ पर स न ह तो यह वानर थकावट और पीड़ा से रिहत हो जाए। यह वचन


सुनते ही #2325;िपराज हनुमान 'कोसलपित राम क जय हो, जय हो' कहते हए उठ बैठे।

सो० - ली ह किपिह उर लाइ पल


ु िकत तनु लोचन सजल।
ीित न दय समाइ सिु म र राम रघक
ु ु ल ितलक॥ 59॥

भरत ने वानर (हनुमान) को दय से लगा िलया, उनका शरीर पुलिकत हो गया और ने म


(आनंद तथा ेम के आँसुओ ं का) जल भर आया। रघुकुलितलक राम का मरण करके भरत के
दय म ीित समाती न थी॥ 59॥

तात कुसल कह सख
ु िनधान क । सिहत अनज ु अ मातु जानक ॥
लकिप सब च रत समास बखाने। भए दख
ु ी मन महँ पिछताने॥

(भरत बोले -) हे तात! छोटे भाई ल मण तथा माता जानक सिहत सुखिनधान राम क कुशल
कहो। वानर (हनुमान) ने सं ेप म सब कथा कही। सुनकर भरत दुःखी हए और मन म पछताने
लगे।
अहह दैव म कत जग जायउँ । भु के एकह काज न आयउँ ॥
जािन कुअवस मन ध र धीरा। पिु न किप सन बोले बलबीरा॥

हा दैव! म जगत म य ज मा? भु के एक भी काम न आया। िफर कुअवसर (िवपरीत समय)


जानकर मन म धीरज धरकर बलवीर भरत हनुमान से बोले -

तात गह होइिह तोिह जाता। काजु नसाइिह होत भाता॥


चढ़ मम सायक सैल समेता। पठव तोिह जहँ कृपािनकेता॥

हे तात! तुमको जाने म देर होगी और सबेरा होते ही काम िबगड़ जाएगा। (अतः) तुम पवत सिहत
मेरे बाण पर चढ़ जाओ, म तुमको वहाँ भेज दँू जहाँ कृपा के धाम राम ह।

सिु न किप मन उपजा अिभमाना। मोर भार चिलिह िकिम बाना॥


राम भाव िबचा र बहोरी। बंिद चरन कह किप कर जोरी॥

भरत क यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान के मन म अिभमान उ प न हआ िक मेरे बोझ
से बाण कैसे चलेगा? (िकंतु) िफर राम के भाव का िवचार करके वे भरत के चरण क वंदना
करके हाथ जोड़कर बोले -

दो० - तव ताप उर रािख भु जैहउँ नाथ तरु ं त।


अस किह आयसु पाइ पद बंिद चलेउ हनमु ंत॥ 60(क)॥

हे नाथ! हे भो! म आपका ताप दय म रखकर तुरंत चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आ ा पाकर
और भरत के चरण क वंदना करके हनुमान चले॥ 60(क)॥

भरत बाह बल सील गनु भु पद ीित अपार।


मन महँ जात सराहत पिु न पिु न पवनकुमार॥ 60(ख)॥

भरत के बाहबल, शील (सुंदर वभाव), गुण और भु के चरण म अपार ेम क मन-ही-मन


बारं बार सराहना करते हए मा ित हनुमान चले जा रहे ह॥ 60(ख)॥

उहाँ राम लिछमनिह िनहारी। बोले बचन मनज


ु अनसु ारी॥
अध राित गइ किप निहं आयउ। राम उठाइ अनज ु उर लायउ॥

वहाँ ल मण को देखकर राम साधारण मनु य के अनुसार (समान) वचन बोले - आधी रात बीत
चुक है, हनुमान नह आए। यह कहकर राम ने छोटे भाई ल मण को उठाकर दय से लगा
िलया।

सकह न दिु खत देिख मोिह काउ। बंधु सदा तव मदृ ल


ु सभ
ु ाऊ॥
मम िहत लािग तजेह िपतु माता। सहेह िबिपन िहम आतप बाता॥

(और बोले -) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नह देख सकते थे। तु हारा वभाव सदा से ही कोमल
था। मेरे िहत के िलए तुमने माता-िपता को भी छोड़ िदया और वन म जाड़ा, गरमी और हवा सब
सहन िकया।

सो अनरु ाग कहाँ अब भाई। उठह न सिु न मम बच िबकलाई॥


ज जनतेउँ बन बंधु िबछोह। िपता बचन मनतेउँ निहं ओह॥

हे भाई! वह ेम अब कहाँ है? मेरे याकुलतापवू क वचन सुनकर उठते य नह ? यिद म जानता
िक वन म भाई का िवछोह होगा तो म िपता का वचन (िजसका मानना मेरे िलए परम कत य था)
उसे भी न मानता।

सत
ु िबत ना र भवन प रवारा। होिहं जािहं जग बारिहं बारा॥
अस िबचा र िजयँ जागह ताता। िमलइ न जगत सहोदर ाता॥

पु , धन, ी, घर और प रवार - ये जगत म बार-बार होते और जाते ह, परं तु जगत म सहोदर


भाई बार-बार नह िमलता। दय म ऐसा िवचार कर हे तात! जागो।

जथा पंख िबनु खग अित दीना। मिन िबनु फिन क रबर कर हीना॥
अस मम िजवन बंधु िबनु तोही। ज जड़ दैव िजआवै मोही॥

जैसे पंख िबना प ी, मिण िबना सप और सँड़


ू िबना े हाथी अ यंत दीन हो जाते ह, हे भाई!
यिद कह जड़ दैव मुझे जीिवत रखे तो तु हारे िबना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा।

जैहउँ अवध कौन महु लाई। ना र हेतु ि य भाई गँवाई॥


ब अपजस सहतेउँ जग माह । ना र हािन िबसेष छित नाह ॥

ी के िलए यारे भाई को खोकर, म कौन-सा मँुह लेकर अवध जाऊँगा? म जगत म बदनामी
भले ही सह लेता (िक राम म कुछ भी वीरता नह है जो ी को खो बैठे)। ी क हािन से (इस
हािन को देखते) कोई िवशेष ित नह थी।

अब अपलोकु सोकु सत
ु तोरा। सिहिह िनठुर कठोर उर मोरा॥
िनज जननी के एक कुमारा। तात तासु तु ह ान अधारा॥

अब तो हे पु ! मेरा िन र और कठोर दय यह अपयश और तु हारा शोक दोन ही सहन करे गा।


हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पु और उसके ाणाधार हो।

स पेिस मोिह तु हिह गिह पानी। सब िबिध सख


ु द परम िहत जानी॥
उत काह दैहउँ तेिह जाई। उिठ िकन मोिह िसखावह भाई॥

सब कार से सुख देनेवाला और परम िहतकारी जानकर उ ह ने तु ह हाथ पकड़कर मुझे स पा


था। म अब जाकर उ ह या उ र दँूगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे िसखाते (समझाते) य नह ?

बह िबिध सोचत सोच िबमोचन। वत सिलल रािजव दल लोचन॥


उमा एक अखंड रघरु ाई। नर गित भगत कृपाल देखाई॥

सोच से छुड़ानेवाले राम बहत कार से सोच कर रहे ह। उनके कमल क पंखुड़ी के समान ने
से (िवषाद के आँसुओ ं का) जल बह रहा है। (िशव कहते ह -) हे उमा! रघुनाथ एक (अि तीय)
और अखंड (िवयोगरिहत) ह। भ पर कृपा करनेवाले भगवान ने (लीला करके) मनु य क
दशा िदखलाई है।

दो० - भु लाप सिु न कान िबकल भए बानर िनकर।


आइ गयउ हनमु ान िजिम क ना महँ बीर रस॥ 61॥

भु के (लीला के िलए िकए गए) लाप को कान से सुनकर वानर के समहू याकुल हो गए।
(इतने म ही) हनुमान आ गए, जैसे क ण रस (के संग) म वीर रस (का संग) आ गया हो॥
61॥

हरिष राम भेटउे हनम


ु ाना। अित कृत य भु परम सजु ाना॥
तरु त बैद तब क ह उपाई। उिठ बैठे लिछमन हरषाई॥

राम हिषत होकर हनुमान से गले लगकर िमले। भु परम सुजान (चतुर) और अ यंत ही कृत
ह। तब वै (सुषेण) ने तुरंत उपाय िकया, (िजससे) ल मण हिषत होकर उठ बैठे।

दयँ लाइ भु भटेउ ाता। हरषे सकल भालु किप ाता॥


किप पिु न बैद तहाँ पहँचावा। जेिह िबिध तबिहं तािह लइ आवा॥

भु भाई को दय से लगाकर िमले। भालू और वानर के समहू सब हिषत हो गए। िफर हनुमान ने
वै को उसी कार वहाँ पहँचा िदया, िजस कार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे।

यह ब ृ ांत दसानन सन
ु ऊे । अित िबषाद पिु न पिु न िसर धन े ॥
ु ऊ
याकुल कंु भकरन पिहं आवा। िबिबध जतन क र तािह जगावा॥

यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अ यंत िवषाद से बार-बार िसर पीटा। वह याकुल
होकर कुंभकण के पास गया और बहत-से उपाय करके उसने उसको जगाया।

जागा िनिसचर देिखअ कैसा। मानहँ कालु देह ध र बैसा॥


कंु भकरन बूझा कह भाई। काहे तव मख
ु रहे सख
ु ाई॥

कंु भकण जगा (उठ बैठा)। वह कैसा िदखाई देता है मानो वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा
हो। कुंभकण ने पछ
ू ा - हे भाई! कहो तो, तु हारे मुख सख
ू य रहे ह?

कथा कही सब तेिहं अिभमानी। जेिह कार सीता ह र आनी॥


तात किप ह सब िनिसचर मारे । महा महा जोधा संघारे ॥

उस अिभमानी (रावण) ने उससे िजस कार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक क )


सारी कथा कही। (िफर कहा -) हे तात! वानर ने सब रा स मार डाले। बड़े -बड़े यो ाओं का भी
संहार कर डाला।

दम
ु ख
ु सरु रपु मनज
ु अहारी। भट अितकाय अकंपन भारी॥
अपर महोदर आिदक बीरा। परे समर मिह सब रनधीरा॥

दुमुख, देवश ु (देवांतक), मनु य भ क (नरांतक), भारी यो ा अितकाय और अकंपन तथा


महोदर आिद दूसरे सभी रणधीर वीर रणभिू म म मारे गए।

दो० - सिु न दसकंधर बचन तब कंु भकरन िबलखान।


जगदंबा ह र आिन अब सठ चाहत क यान॥ 62॥

तब रावण के वचन सुनकर कुंभकण िबलखकर (दुःखी होकर) बोला - अरे मख


ू ! जग जननी
जानक को हर लाकर अब क याण चाहता है?॥ 62॥

भल न क ह त िनिसचर नाहा। अब मोिह आइ जगाएिह काहा॥


अजहँ तात यािग अिभमाना। भजह राम होइिह क याना॥

ू े अ छा नह िकया। अब आकर मुझे य जगाया? हे तात! अब भी अिभमान


हे रा सराज! तन
छोड़कर राम को भजो तो क याण होगा।

ह दससीस मनज ु ायक। जाके हनूमान से पायक॥


ु रघन
अहह बंधु त क ि ह खोटाई। थमिहं मोिह न सनु ाएिह आई॥

हे रावण! िजनके हनुमान-सरीखे सेवक ह, वे रघुनाथ या मनु य ह? हाय भाई! तन


ू े बुरा िकया,
जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नह सुनाया।

क हेह भु िबरोध तेिह देवक। िसव िबरं िच सरु जाके सेवक॥


नारद मिु न मोिह यान जो कहा। कहतेउँ तोिह समय िनरबाहा॥
हे वामी! तुमने उस परम देवता का िवरोध िकया, िजसके िशव, ा आिद देवता सेवक ह।
नारद मुिन ने मुझे जो ान कहा था, वह म तुझसे कहता; पर अब तो समय जाता रहा।

अब भ र अंक भटु मोिह भाई। लोचन सफ


ु ल कर म जाई॥
याम गात सरसी ह लोचन। देख जाइ ताप य मोचन॥

हे भाई! अब तो (अंितम बार) अँकवार भरकर मुझसे िमल ले। म जाकर अपने ने सफल क ँ ।
तीन ताप को छुड़ानेवाले याम शरीर, कमल ने राम के जाकर दशन क ँ ।

दो० - राम प गनु सिु मरत मगन भयउ छन एक।


रावन मागेउ कोिट घट मद अ मिहष अनेक॥ 63॥

राम के प और गुण को मरण करके वह एक ण के िलए ेम म म न हो गया। िफर रावण से


करोड़ घड़े मिदरा और अनेक भसे मँगवाए॥ 63॥

मिहष खाइ क र मिदरा पाना। गजा ब ाघात समाना॥


कंु भकरन दम
ु द रन रं गा। चला दग
ु तिज सेन न संगा॥

भसे खाकर और मिदरा पीकर वह व घात (िबजली िगरने) के समान गरजा। मद से चरू रण के
उ साह से पण
ू कंु भकण िकला छोड़कर चला। सेना भी साथ नह ली।

देिख िबभीषनु आग आयउ। परे उ चरन िनज नाम सनु ायउ॥


अनज ु उठाइ दयँ तेिह लायो। रघप
ु ित भ जािन मन भायो॥

उसे देखकर िवभीषण आगे आए और उसके चरण पर िगरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को
उठाकर उसने दय से लगा िलया और रघुनाथ का भ जानकर वे उसके मन को ि य लगे।

तात लात रावन मोिह मारा। कहत परम िहत मं िबचारा॥


ु ित पिहं आयउँ । देिख दीन भु के मन भायउँ ॥
तेिहं गलािन रघप

(िवभीषण ने कहा -) हे तात! परम िहतकर सलाह एवं िवचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी।
उसी लािन के मारे म रघुनाथ के पास चला आया। दीन देखकर भु के मन को म (बहत) ि य
लगा।

सन
ु ु भयउ कालबस रावन। सो िक मान अब परम िसखावन॥
ध य ध य त ध य िबभीषन। भयह तात िनिसचर कुल भूषन॥

(कंु भकण ने कहा -) हे पु ! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके िसर पर म ृ यु नाच
रही है)। वह या अब उ म िश ा मान सकता है? हे िवभीषण! तू ध य है, ध य है। हे तात! तू
रा स कुल का भषू ण हो गया।

बंधु बंस त क ह उजागर। भजेह राम सोभा सख


ु सागर॥

ू े अपने कुल को देदी यमान कर िदया, जो शोभा और सुख के समु राम को भजा।
हे भाई! तन

दो० - बचन कम मन कपट तिज भजेह राम रनधीर।


जाह न िनज पर सूझ मोिह भयउँ कालबस बीर॥ 64॥

मन, वचन और कम से कपट छोड़कर रणधीर राम का भजन करना। हे भाई! म काल (म ृ यु) के
वश हो गया हँ, मुझे अपना-पराया नह सझ
ू ता; इसिलए अब तुम जाओ॥ 64॥

ै ोक िबभूषन॥
बंधु बचन सिु न चला िबभीषन। आयउ जहँ ल
नाथ भूधराकार सरीरा। कंु भकरन आवत रनधीरा॥

भाई के वचन सुनकर िवभीषण लौट गए और वहाँ आए जहाँ ि लोक के भषू ण राम थे। (िवभीषण
ने कहा -) हे नाथ! पवत के समान (िवशाल) देहवाला रणधीर कुंभकण आ रहा है।

एतना किप ह सन ु ा जब काना। िकलिकलाइ धाए बलवाना॥


िलए उठाइ िबटप अ भूधर। कटकटाइ डारिहं ता ऊपर॥

वानर ने जब कान से इतना सुना, तब वे बलवान िकलिकलाकर (हष विन करके) दौड़े । व ृ
और पवत (उखाड़कर) उठा िलए और ( ोध से) दाँत कटकटाकर उ ह उसके ऊपर डालने लगे।

कोिट कोिट िग र िसखर हारा। करिहं भालु किप एक एक बारा॥


मरु यो
् न मनु तनु टरयो
् न टारयो।
् िजिम गज अक फलिन को मारयो॥ ्

रीछ-वानर एक-एक बार म ही करोड़ पहाड़ के िशखर से उस पर हार करते ह, परं तु इससे न
तो उसका मन ही मुड़ा (िवचिलत हआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फल क मार से
हाथी पर कुछ भी असर नह होता!

तब मा तसत ु मिु ठका ह यो। परयो धरिन याकुल िसर धु यो॥


पिु न उिठ तेिहं मारे उ हनम
ु ंता। घिु मत भूतल परे उ तरु ं ता॥

तब हनुमान ने उसे एक घँस


ू ा मारा; िजससे वह याकुल होकर प ृ वी पर िगर पड़ा और िसर पीटने
लगा। िफर उसने उठकर हनुमान को मारा। वे च कर खाकर तुरंत ही प ृ वी पर िगर पड़े ।

पिु न नल नीलिह अविन पछारे िस। जहँ तहँ पटिक पटिक भट डारे िस॥
चली बलीमख ु सेन पराई। अित भय िसत न कोउ समहु ाई॥
िफर उसने नल-नील को प ृ वी पर पछाड़ िदया और दूसरे यो ाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर
डाल िदया। वानर सेना भाग चली। सब अ यंत भयभीत हो गए, कोई सामने नह आता।

दो० - अंगदािद किप मु िछत क र समेत सु ीव।


काँख दािब किपराज कहँ चला अिमत बल स व॥ 65॥

सु ीव समेत अंगदािद वानर को मिू छत करके िफर वह अप रिमत बल क सीमा कुंभकण


वानरराज सु ीव को काँख म दाबकर चला॥ 65॥

उमा करत रघप ु ित नरलीला। खेलत ग ड़ िजिम अिहगन मीला॥


भक
ृ ु िट भंग जो कालिह खाई। तािह िक सोहइ ऐिस लराई॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! रघुनाथ वैसे ही नरलीला कर रहे ह, जैसे ग ड़ सप के समहू म


िमलकर खेलता हो। जो भ ह के इशारे मा से (िबना प र म के) काल को भी खा जाता है, उसे
कह ऐसी लड़ाई शोभा देती है?

जग पाविन क रित िब त रहिहं। गाइ गाइ भविनिध नर त रहिहं॥


मु छा गइ मा तसतु जागा। सु ीविह तब खोजन लागा॥

भगवान (इसके ारा) जगत को पिव करनेवाली वह क ित फै लाएँ गे िजसे गा-गाकर मनु य
भवसागर से तर जाएँ गे। मू छा जाती रही, तब मा ित हनुमान जागे और िफर वे सु ीव को
खोजने लगे।

सु ीवह कै मु छा बीती। िनबिु क गयउ तेिह मत


ृ क तीती॥
काटेिस दसन नािसका काना। गरिज अकास चलेउ तेिहं जाना॥

सु ीव क भी मू छा दूर हई, तब वे (मुद-से होकर) िखसक गए (काँख से नीचे िगर पड़े )।


कुंभकण ने उनको मतृ क जाना। उ ह ने कुंभकण के नाक-कान दाँत से काट िलए और िफर
गरज कर आकाश क ओर चले, तब कुंभकण ने जाना।

गहेउ चरन गिह भूिम पछारा। अित लाघवँ उिठ पिु न तेिह मारा॥
पिु न आयउ भु पिहं बलवाना। जयित जयित जय कृपािनधाना॥

उसने सु ीव का पैर पकड़कर उनको प ृ वी पर पछाड़ िदया। िफर सु ीव ने बड़ी फुत से उठकर
उसको मारा और तब बलवान सु ीव भु के पास आए और बोले - कृपािनधान भु क जय हो,
जय हो, जय हो।

नाक कान काटे िजयँ जानी। िफरा ोध क र भइ मन लानी॥


सहज भीम पिु न िबनु ुित नासा। देखत किप दल उपजी ासा॥
नाक-कान काटे गए, ऐसा मन म जानकर बड़ी लािन हई; और वह ोध करके लौटा। एक तो
वह वभाव (आकृित) से ही भयंकर था और िफर िबना नाक-कान का होने से और भी भयानक
हो गया। उसे देखते ही वानर क सेना म भय उ प न हो गया।

दो० - जय जय जय रघब ु ंस मिन धाए किप दै हह।


एकिह बार तासु पर छाड़ेि ह िग र त जूह॥ 66॥

'रघुवंशमिण क जय हो, जय हो' ऐसा पुकारकर वानर हह करके दौड़े और सबने एक ही साथ
उस पर पहाड़ और व ृ के समहू छोड़े ॥ 66॥

कंु भकरन रन रं ग िब ा। स मख
ु चला काल जनु ु ा॥
कोिट कोिट किप ध र ध र खाई। जनु टीड़ी िग र गहु ाँ समाई॥

रण के उ साह म कंु भकण िव होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो ोिधत होकर काल ही
आ रहा हो। वह करोड़-करोड़ वानर को एक साथ पकड़कर खाने लगा! (वे उसके मँुह म इस
तरह घुसने लगे) मानो पवत क गुफा म िटड्िडयाँ समा रही ह ।

कोिट ह गिह सरीर सन मदा। कोिट ह मीिज िमलव मिह गदा॥


मख
ु नासा वनि ह क बाटा। िनस र परािहं भालु किप ठाटा॥

करोड़ (वानर ) को पकड़कर उसने शरीर से मसल डाला। करोड़ को हाथ से मलकर प ृ वी क
ू म िमला िदया। (पेट म गए हए) भालू और वानर के ठ -के-ठ उसके मुख, नाक और कान
धल
क राह से िनकल-िनकलकर भाग रहे ह।

रन मद म िनसाचर दपा। िब व िसिह जनु ऐिह िबिध अपा॥


मरु े सभ
ु ट सब िफरिहं न फेरे । सूझ न नयन सन
ु िहं निहं टेरे॥

रण के मद म म रा स कुंभकण इस कार गिवत हआ, मानो िवधाता ने उसको सारा िव


अपण कर िदया हो, और उसे वह ास कर जाएगा। सब यो ा भाग खड़े हए, वे लौटाए भी नह
लौटते। आँख से उ ह सझ
ू नह पड़ता और पुकारने से सुनते नह !

कंु भकरन किप फौज िबडारी। सिु न धाई रजनीचर धारी॥


देखी राम िबकल कटकाई। रपु अनीक नाना िबिध आई॥

कंु भकण ने वानर सेना को िततर-िबतर कर िदया। यह सुनकर रा स सेना भी दौड़ी। राम ने
देखा िक अपनी सेना याकुल है और श ु क नाना कार क सेना आ गई है।

दो० - सन
ु ु सु ीव िबभीषन अनज
ु सँभारे ह सैन।
म देखउँ खल बल दलिह बोले रािजवनैन॥ 67॥

तब कमलनयन राम बोले - हे सु ीव! हे िवभीषण! और हे ल मण! सुनो, तुम सेना को सँभालना।
म इस दु के बल और सेना को देखता हँ॥ 67॥

कर सारं ग सािज किट भाथा। अ र दल दलन चले रघनु ाथा॥


थम क ि ह भु धनष ु टंकोरा। रपु दल बिधर भयउ सिु न सोरा॥

हाथ म शागधनुष और कमर म तरकस सजाकर रघुनाथ श ु सेना को दलन करने चले। भु ने
पहले तो धनुष का टंकार िकया, िजसक भयानक आवाज सुनते ही श ु दल बहरा हो गया।

स यसंध छाँड़े सर ल छा। कालसप जनु चले सप छा॥


जहँ तहँ चले िबपल
ु नाराचा। लगे कटन भट िबकट िपसाचा॥

िफर स य ित राम ने एक लाख बाण छोड़े । वे ऐसे चले मानो पंखवाले काल सप चले ह । जहाँ-
तहाँ बहत-से बाण चले, िजनसे भयंकर रा स यो ा कटने लगे।

कटिहं चरन उर िसर भज ु दंडा। बहतक बीर होिहं सत खंडा॥


घिु म घिु म घायल मिह परह । उिठ संभा र सभ
ु ट पिु न लरह ॥

उनके चरण, छाती, िसर और भुजदंड कट रहे ह। बहत-से वीर के सौ-सौ टुकड़े हो जाते ह। घायल
च कर खा-खाकर प ृ वी पर पड़ रहे ह। उ म यो ा िफर सँभलकर उठते और लड़ते ह।

लागत बान जलद िजिम गाजिहं। बहतक देिख किठन सर भाजिहं॥


ं ड चंड मंड
ु िबनु धाविहं। ध ध मा मा धिु न गाविहं॥

बाण लगते ही वे मेघ क तरह गरजते ह। बहत-से तो किठन बाण को देखकर ही भाग जाते ह।
िबना मुंड (िसर) के चंड ं ड (धड़) दौड़ रहे ह और 'पकड़ो, पकड़ो, मारो, मारो' का श द करते
हए गा (िच ला) रहे ह।

दो० - छन महँ भु के सायकि ह काटे िबकट िपसाच।


पिु न रघब
ु ीर िनषंग महँ िबसे सब नाराच॥ 68॥

भु के बाण ने ण मा म भयानक रा स को काटकर रख िदया। िफर वे सब बाण लौटकर


रघुनाथ के तरकस म घुस गए॥ 68॥

कंु भकरन मन दीख िबचारी। हित छन माझ िनसाचर धारी॥


भा अित ु महाबल बीरा। िकयो मग ृ नायक नाद गँभीरा॥
कंु भकण ने मन म िवचार कर देखा िक राम ने ण मा म रा सी सेना का संहार कर डाला।
तब वह महाबली वीर अ यंत ोिधत हआ और उसने गंभीर िसंहनाद िकया।

कोिप महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मकट भट भारी॥


आवत देिख सैल भु भारे । सरि ह कािट रज सम क र डारे ॥

वह ोध करके पवत उखाड़ लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर यो ा होते ह, वहाँ डाल देता है।
बड़े -बड़े पवत को आते देखकर भु ने उनको बाण से काटकर धल ू के समान (चरू -चरू ) कर
डाला।

ु ायक। छाँड़े अित कराल बह सायक॥


पिु न धनु तािन कोिप रघन
तनु महँ िबिस िनस र सर जाह । िजिम दािमिन घन माझ समाह ॥

िफर रघुनाथ ने ोध करके धनुष को तानकर बहत-से अ यंत भयानक बाण छोड़े । वे बाण
कुंभकण के शरीर म घुसकर (पीछे से इस कार) िनकल जाते ह (िक उनका पता नह चलता),
जैसे िबजिलयाँ बादल म समा जाती ह।

सोिनत वत सोह तन कारे । जनु क जल िग र गे पनारे ॥


िबकल िबलोिक भालु किप धाए। िबहँसा जबिहं िनकट किप आए॥

उसके काले शरीर से िधर बहता हआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पवत से गे के पनाले
बह रहे ह । उसे याकुल देखकर रीछ-वानर दौड़े । वे य ही िनकट आए, य ही वह हँसा,

दो० - महानाद क र गजा कोिट कोिट गिह क स।


मिह पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥ 69॥

और बड़ा घोर श द करके गरजा तथा करोड़-करोड़ वानर को पकड़कर वह गजराज क तरह
उ ह प ृ वी पर पटकने लगा और रावण क दुहाई देने लगा॥ 69॥

भागे भालु बलीमख


ु जूथा। बक
ृ ु िबलोिक िजिम मेष ब था॥
चले भािग किप भालु भवानी। िबकल पक ु ारत आरत बानी॥

यह देखकर रीछ-वानर के झुंड ऐसे भागे जैसे भेिड़ए को देखकर भेड़ के झुंड! (िशव कहते ह -)
हे भवानी! वानर-भालू याकुल होकर आतवाणी से पुकारते हए भाग चले।

यह िनिसचर दक ु ाल सम अहई। किपकुल देस परन अब चहई॥


कृपा बा रधर राम खरारी। पािह पािह नतारित हारी॥

(वे कहने लगे -) यह रा स दुिभ के समान है, जो अब वानर कुल पी देश म पड़ना चाहता है।
हे कृपा पी जल के धारण करनेवाले मेघ प राम! हे खर के श ु! हे शरणागत के दुःख
हरनेवाले! र ा क िजए, र ा क िजए!

सक न बचन सन ु त भगवाना। चले सध


ु ा र सरासन बाना॥
राम सेन िनज पाछ घाली। चले सकोप महा बलसाली॥

क णा भरे वचन सुनते ही भगवान धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली राम ने सेना को
अपने पीछे कर िलया और वे (अकेले) ोधपवू क चले (आगे बढ़े )।

खिच धनष
ु सर सत संधाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रस भरा। कुधर डगमगत डोलित धरा॥

उ ह ने धनुष को ख चकर सौ बाण संधान िकए। बाण छूटे और उसके शरीर म समा गए। बाण के
लगते ही वह ोध म भरकर दौड़ा। उसके दौड़ने से पवत डगमगाने लगे और प ृ वी िहलने लगी।

ली ह एक तिह सैल उपाटी। रघकु ु लितलक भज ु ा सोइ काटी॥


धावा बाम बाह िग र धारी। भु सोउ भजु ा कािट मिह पारी॥

उसने एक पवत उखाड़ िलया। रघुकुल ितलक राम ने उसक वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ
हाथ म पवत को लेकर दौड़ा। भु ने उसक वह भुजा भी काटकर प ृ वी पर िगरा दी।

ु ा सोह खल कैसा। प छहीन मंदर िग र जैसा॥


काट भज
उ िबलोकिन भिु ह िबलोका। सन चहत मानहँ ल ै ोका॥

भुजाओं के कट जाने पर वह दु कैसी शोभा पाने लगा, जैसे िबना पंख का मंदराचल पहाड़ हो।
उसने उ ि से भु को देखा। मानो तीन लोक को िनगल जाना चाहता हो।

दो० - क र िच कार घोर अित धावा बदनु पसा र।


गगन िस सरु ािसत हा हा हेित पक ु ा र॥ 70॥

वह बड़े जोर से िच घाड़ करके मँुह फै लाकर दौड़ा। आकाश म िस और देवता डरकर हा! हा!
हा! इस कार पुकारने लगे॥ 70॥

सभय देव क नािनिध जा यो। वन जंत सरासन ु ता यो॥


िबिसख िनकर िनिसचर मख
ु भरे ऊ। तदिप महाबल भूिम न परे ऊ॥

क णािनधान भगवान ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उ ह ने धनुष को कान तक तानकर


रा स के मुख को बाण के समहू से भर िदया। तो भी वह महाबली प ृ वी पर न िगरा।
सरि ह भरा मख
ु स मख
ु धावा। काल ोन सजीव जनु आवा॥
तब भु कोिप ती सर ली हा। धर ते िभ न तासु िसर क हा॥

मुख म बाण भरे हए वह ( भु के) सामने दौड़ा। मानो काल पी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब
भु ने ोध करके ती ण बाण िलया और उसके िसर को धड़ से अलग कर िदया।

सो िसर परे उ दसानन आग। िबकल भयउ िजिम फिन मिन याग॥
धरिन धसइ धर धाव चंडा। तब भु कािट क ह दइु खंडा॥

वह िसर रावण के आगे जा िगरा। उसे देखकर रावण ऐसा याकुल हआ जैसे मिण के छूट जाने पर
सप। कुंभकण का चंड धड़ दौड़ा, िजससे प ृ वी धँसी जाती थी। तब भु ने काटकर उसके दो
टुकड़े कर िदए।

परे भूिम िजिम नभ त भूधर। हेठ दािब किप भालु िनसाचर॥


तासु तेज भु बदन समाना। सरु मिु न सबिहं अचंभव माना॥

वानर-भालू और िनशाचर को अपने नीचे दबाते हए वे दोन टुकड़े प ृ वी पर ऐसे पड़े जैसे आकाश
से दो पहाड़ िगरे ह । उसका तेज भु राम के मुख म समा गया। (यह देखकर) देवता और मुिन
सभी ने आ य माना।

सरु ददुं भ
ु बजाविहं हरषिहं। अ तिु त करिहं सम
ु न बह बरषिहं॥
क र िबनती सरु सकल िसधाए। तेही समय देव रिष आए॥

देवता नगाड़े बजाते, हिषत होते और तुित करते हए बहत-से फूल बरसा रहे ह। िवनती करके
सब देवता चले गए। उसी समय देविष नारद आए।

गगनोप र ह र गन
ु गन गाए। िचर बीररस भु मन भाए॥
बेिग हतह खल किह मिु न गए। राम समर मिह सोभत भए॥

आकाश के ऊपर से उ ह ने ह र के सुंदर वीर रसयु गुणसमहू का गान िकया, जो भु के मन


को बहत ही भाया। मुिन यह कहकर चले गए िक अब दु रावण को शी मा रए। (उस समय)
राम रणभिू म म आकर (अ यंत) सुशोिभत हए।

छं ० - सं ाम भूिम िबराज रघप


ु ित अतल
ु बल कोसल धनी।
म िबंदु मख
ु राजीव लोचन अ न तन सोिनत कनी॥
भजु जुगल फेरत सर सरासन भालु किप चह िदिस बने।
कह दास तल ु सी किह न सक छिब सेष जेिह आनन घने॥

अतुलनीय बलवाले कोसलपित रघुनाथ रणभिू म म सुशोिभत ह। मुख पर पसीने क बँदू ह, कमल
समान ने कुछ लाल हो रहे ह। शरीर पर र के कण ह, दोन हाथ से धनुष-बाण िफरा रहे ह।
चार ओर रीछ-वानर सुशोिभत ह। तुलसीदास कहते ह िक भु क इस छिव का वणन शेष भी
नह कर सकते, िजनके बहत-से (हजार) मुख ह।

दो० - िनिसचर अधम मलाकर तािह दी ह िनज धाम।


िग रजा ते नर मंदमित जे न भजिहं ीराम॥ 71॥

(िशव कहते ह -) हे िग रजे! कुंभकण, जो नीच रा स और पाप क खान था, उसे भी राम ने
अपना परमधाम दे िदया। अतः वे मनु य (िन य ही) मंदबुि ह, जो उन ी राम को नह भजते॥
71॥

िदन के अंत िफर ौ अनी। समर भई सभ ु ट ह म घनी॥


राम कृपाँ किप दल बल बाढ़ा। िजिम तन
ृ पाइ लाग अित डाढ़ा॥

िदन का अंत होने पर दोन सेनाएँ लौट पड़ । (आज के यु म) यो ाओं को बड़ी थकावट हई।
परं तु राम क कृपा से वानर सेना का बल उसी कार बढ़ गया, जैसे घास पाकर अि न बहत बढ़
जाती है।

छीजिहं िनिसचर िदनु अ राती। िनज मखु कह सक ु ृ त जेिह भाँती॥


बह िबलाप दसकंधर करई। बंधु सीस पिु न पिु न उर धरई॥

उधर रा स िदन-रात इस कार घटते जा रहे ह िजस कार अपने ही मुख से कहने पर पु य घट
जाते ह। रावण बहत िवलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कंु भकण) का िसर कलेजे से लगाता है।

रोविहं ना र दय हित पानी। तासु तेज बल िबपल


ु बखानी॥
मेघनाद तेिह अवसर आयउ। किह बह कथा ê#2346;ि◌ता समझ ु ायउ॥

ि याँ उसके बड़े भारी तेज और बल को बखान करके हाथ से छाती पीट-पीटकर रो रही ह। उसी
समय मेघनाद आया और उसने बहत-सी कथाएँ कहकर िपता को समझाया।

देखहे कािल मो र मनस


ु ाई। अबिहं बहत का कर बड़ाई॥
इ देव स बल रथ पायउँ । सो बल तात न तोिह देखायउँ ॥

(और कहा -) कल मेरा पु षाथ देिखएगा। अभी बहत बड़ाई या क ँ ? हे तात! मने अपने
इ देव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नह िदखलाया था।

एिह िबिध ज पत भयउ िबहाना। चहँ दआ


ु र लागे किप नाना॥
इित किप भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अित रनधीरा॥
इस कार ड ग मारते हए सबेरा हो गया। लंका के चार दरवाज पर बहत-से वानर आ डटे। इधर
काल के समान वीर वानर-भालू ह और उधर अ यंत रणधीर रा स।

लरिहं सुभट िनज िनज जय हे त।ू बरिन न जाइ समर खगकेत॥ू

दोन ओर के यो ा अपनी-अपनी जय के िलए लड़ रहे ह। हे ग ड़! उनके यु का वणन नह


िकया जा सकता।

दो० - मेघनाद मायामय रथ चिढ़ गयउ अकास।


गजउ अ हास क र भइ किप कटकिह ास॥ 72॥

मेघनाद उसी (पवू ) मायामय रथ पर चढ़कर आकाश म चला गया और अ हास करके गरजा,
िजससे वानर क सेना म भय छा गया॥ 72॥

सि सूल तरवा र कृपाना। अ स कुिलसायधु नाना॥


डारइ परसु प रघ पाषाना। लागेउ बिृ करै बह बाना॥

वह शि , शल ू , तलवार, कृपाण आिद अ , श एवं व आिद बहत-से आयुध चलाने तथा


फरसे, प रघ, प थर आिद डालने और बहत-से बाण क विृ करने लगा।

दस िदिस रहे बान नभ छाई। मानहँ मघा मेघ झ र लाई॥


ध ध मा सिु नअ धिु न काना। जो मारइ तेिह कोउ न जाना॥

आकाश म दस िदशाओं म बाण छा गए, मानो मघा न के बादल ने झड़ी लगा दी हो। 'पकड़ो,
पकड़ो, मारो' ये श द सुनाई पड़ते ह। पर जो मार रहा है, उसे कोई नह जान पाता।

गिह िग र त अकास किप धाविहं। देखिहं तेिह न दिु खत िफ र आविहं॥


अवघट घाट बाट िग र कंदर। माया बल क हेिस सर पंजर॥

पवत और व ृ को लेकर वानर आकाश म दौड़कर जाते ह। पर उसे देख नह पाते, इससे दुःखी
होकर लौट आते ह। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घािटय , रा त और पवत -कंदराओं को
बाण के िपंजरे बना िदए (बाण से छा िदया)।

जािहं कहाँ याकुल भए बंदर। सरु पित बंिद परे जनु मंदर॥
मा तसत ु अंगद नल नीला। क हेिस िबकल सकल बलसीला॥

अब कहाँ जाएँ , यह सोचकर (रा ता न पाकर) वानर याकुल हो गए। मानो पवत इं क कैद म
पड़े ह । मेघनाद ने मा ित हनुमान, अंगद, नल और नील आिद सभी बलवान को याकुल कर
िदया।
पिु न लिछमन सु ीव िबभीषन। सरि ह मा र क हेिस जजर तन॥
ु ित स जूझ ै लागा। सर छाँड़इ होइ लागिहं नागा॥
पिु न रघप

िफर उसने ल मण, सु ीव और िवभीषण को बाण से मारकर उनके शरीर को छलनी कर िदया।
िफर वह रघुनाथ से लड़ने लगा। वह जो बाण छोड़ता है, वे साँप होकर लगते ह।

याल पास बस भए खरारी। वबस अनंत एक अिबकारी॥


नट इव कपट च रत कर नाना। सदा वतं एक भगवाना॥

जो वतं , अनंत, एक (अखंड) और िनिवकार ह, वे खर के श ु राम (लीला से) नागपाश के


वश म हो गए (उससे बँध गए)। राम सदा वतं , एक, (अि तीय) भगवान ह। वे नट क तरह
अनेक कार के िदखावटी च र करते ह।

रन सोभा लिग भुिहं बँधायो। नागपास देव ह भय पायो॥

रण क शोभा के िलए भु ने अपने को नागपाश म बाँध िलया, िकंतु उससे देवताओं को बड़ा भय
हआ।

दो० - िग रजा जासु नाम जिप मिु न काटिहं भव पास।


सो िक बंध तर आवइ यापक िब व िनवास॥ 73॥

(िशव कहते ह -) हे िग रजे! िजनका नाम जपकर मुिन भव (ज म-म ृ यु) क फाँसी को काट
डालते ह, वे सव यापक और िव िनवास (िव के आधार) भु कह बंधन म आ सकते ह?॥
73॥

च रत राम के सगनु भवानी। तिक न जािहं बिु बल बानी॥


अस िबचा र जे त य िबरागी। रामिह भजिहं तक सब यागी॥

हे भवानी! राम क इस सगुण लीलाओं के िवषय म बुि और वाणी के बल से तक (िनणय) नह


िकया जा सकता। ऐसा िवचार कर जो त व ानी और िवर पु ष ह, वे सब तक (शंका)
छोड़कर राम का भजन ही करते ह।

याकुल कटकु क ह घननादा। पिु न भा गट कहइ दब ु ादा॥


जामवंत कह खल रह ठाढ़ा। सिु न क र तािह ोध अित बाढ़ा॥

मेघनाद ने सेना को याकुल कर िदया। िफर वह कट हो गया और दुवचन कहने लगा। इस पर


जा बवान ने कहा - अरे दु ! खड़ा रह। यह सुनकर उसे बड़ा ोध बढ़ा।

बूढ़ जािन सठ छाँड़उे ँ तोही। लागेिस अधम पचारै मोही॥


अस किह तरल ि सूल चलायो। जामवंत कर गिह सोइ धायो॥

अरे मख ू ा जानकर तुझको छोड़ िदया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है?
ू ! मने बढ़
ऐसा कहकर उसने चमकता हआ ि शल ू चलाया। जा बवान उसी ि शल ू को हाथ से पकड़कर
दौड़ा।

मा रिस मेघनाद कै छाती। परा भूिम घिु मत सरु घाती॥


पिु न रसान गिह चरन िफरायो। मिह पछा र िनज बल देखरायो॥

और उसे मेघनाद क छाती पर दे मारा। वह देवताओं का श ु च कर खाकर प ृ वी पर िगर पड़ा।


जा बवान ने िफर ोध म भरकर पैर पकड़कर उसको घुमाया और प ृ वी पर पटककर उसे अपना
बल िदखलाया।

बर साद सो मरइ न मारा। तब गिह पद लंका पर डारा॥


इहाँ देव रिष ग ड़ पठायो। राम समीप सपिद सो आयो॥

(िकंतु) वरदान के ताप से वह मारे नह मरता। तब जा बवान ने उसका पैर पकड़कर उसे लंका
पर फक िदया। इधर देविष नारद ने ग ड़ को भेजा। वे तुरंत ही राम के पास आ पहँचे।

दो० - खगपित सब ध र खाए माया नाग ब थ।


माया िबगत भए सब हरषे बानर जूथ॥ 74(क)॥

प ीराज ग ड़ सब माया-सप के समहू को पकड़कर खा गए। तब सब वानर के झुंड माया से


रिहत होकर हिषत हए॥ 74(क)॥

गिह िग र पादप उपल नख धाए क स रसाइ।


चले तमीचर िबकलतर गढ़ पर चढ़े पराइ॥ 74(ख)॥

पवत, व ृ , प थर और नख धारण िकए वानर ोिधत होकर दौड़े । िनशाचर िवशेष याकुल
होकर भाग चले और भागकर िकले पर चढ़ गए॥ 74(ख)॥

मेघनाद कै मरु छा जागी। िपतिह िबलोिक लाज अित लागी॥


तरु त गयउ िग रबर कंदरा। कर अजय मख अस मन धरा॥

मेघनाद क मू छा छूटी, (तब) िपता को देखकर उसे बड़ी शम लगी। म अजय (अजेय होने को)
य क ँ , ऐसा मन म िन य करके वह तुरंत े पवत क गुफा म चला गया।

इहाँ िबभीषन मं िबचारा। सन


ु ह नाथ बल अतल
ु उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥
यहाँ िवभीषण ने यह सलाह िवचारी (और राम से कहा -) हे अतुलनीय बलवान उदार भो!
देवताओं को सतानेवाला दु , मायावी मेघनाद अपिव य कर रहा है।

ज भु िस होइ सो पाइिह। नाथ बेिग पिु न जीित न जाइिह॥


सिु न रघप
ु ित अितसय सख
ु माना। बोले अंगदािद किप नाना॥

हे भो! यिद वह य िस हो पाएगा तो हे नाथ! िफर मेघनाद ज दी जीता न जा सकेगा। यह


सुनकर रघुनाथ ने बहत सुख माना और अंगदािद बहत-से वानर को बुलाया (और कहा -)।

लिछमन संग जाह सब भाई। करह िबधंस ज य कर जाई॥


तु ह लिछमन मारे ह रन ओही। देिख सभय सरु दःु ख अित मोही॥

हे भाइयो! सब लोग ल मण के साथ जाओ और जाकर य को िव वंस करो। हे ल मण! सं ाम


म तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बड़ा दुःख है।

मारे ह तेिह बल बिु उपाई। जेिहं छीजै िनिसचर सन


ु ु भाई॥
जामवंत सु ीव िबभीषन। सेन समेत रहेह तीिनउ जन॥

हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुि के उपाय से मारना, िजससे िनशाचर का नाश हो। हे
जा बवान, सु ीव और िवभीषण! तुम तीन जने सेना समेत (इनके) साथ रहना।

जब रघब
ु ीर दीि ह अनस
ु ासन। किट िनषंग किस सािज सरासन॥
भु ताप उर ध र रनधीरा। बोले घन इव िगरा गँभीरा॥

(इस कार) जब रघुवीर ने आ ा दी, तब कमर म तरकस कसकर और धनुष सजाकर


(चढ़ाकर) रणधीर ल मण भु के ताप को दय म धारण करके मेघ के समान गंभीर वाणी बोले
-

ज तेिह आजु बंधे िबनु आव । तौ रघप


ु ित सेवक न कहाव ॥
ज सत संकर करिहं सहाई। तदिप हतउँ रघब ु ीर ई॥

यिद म आज उसे िबना मारे आऊँ, तो रघुनाथ का सेवक न कहलाऊँ। यिद सैकड़ शंकर भी
उसक सहायता कर तो भी रघुवीर क दुहाई है; आज म उसे मार ही डालँग
ू ा।

दो० - रघप
ु ित चरन नाइ िस चलेउ तरु ं त अनंत।
अंगद नील मयंद नल संग सभ ु ट हनम
ु ंत॥ 75॥

रघुनाथ के चरण म िसर नवाकर शेषावतार ल मण तुरंत चले। उनके साथ अंगद, नील, मयंद,
नल और हनुमान आिद उ म यो ा थे॥ 75॥
जाइ किप ह सो देखा बैसा। आहित देत िधर अ भसा॥
क ह किप ह सब ज य िबधंसा। जब न उठइ तब करिहं संसा॥

वानर ने जाकर देखा िक वह बैठा हआ खनू और भसे क आहित दे रहा है। वानर ने सब य
िव वंस कर िदया। िफर भी जब वह नह उठा, तब वे उसक शंसा करने लगे।

तदिप न उठइ धरे ि ह कच जाई। लाति ह हित हित चले पराई॥


लै ि सूल धावा किप भागे। आए जहँ रामानज
ु आगे॥

इतने पर भी वह न उठा, (तब) उ ह ने जाकर उसके बाल पकड़े और लात से मार-मारकर वे


भाग चले। वह ि शलू लेकर दौड़ा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे ल मण खड़े थे।

आवा परम ोध कर मारा। गज घोर रव बारिहं बारा॥


कोिप म तसत
ु अंगद धाए। हित ि सूल उर धरिन िगराए॥

वह अ यंत ोध का मारा हआ आया और बार-बार भयंकर श द करके2 नगरजने लगा। मा ित


(हनुमान) और अंगद ोध करके दौड़े । उसने छाती म ि शल
ू मारकर दोन को धरती पर िगरा
िदया।

भु कहँ छाँड़िे स सूल चंडा। सर हित कृत अनंत जगु खंडा॥


उिठ बहो र मा ित जुबराजा। हतिहं कोिप तेिह घाउ न बाजा॥

िफर उसने भु ल मण पर ि शल ू छोड़ा। अनंत (ल मण) ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े कर


िदए। हनुमान और युवराज अंगद िफर उठकर ोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी।

िफरे बीर रपु मरइ न मारा। तब धावा क र घोर िचकारा॥


आवत देिख ु जनु काला। लिछमन छाड़े िबिसख कराला॥

श ु (मेघनाद) मारे नह मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर िच घाड़ करके दौड़ा। उसे
ु काल क तरह आता देखकर ल मण ने भयानक बाण छोड़े ।

देखिे स आवत पिब सम बाना। तरु त भयउ खल अंतरधाना॥


िबिबध बेष ध र करइ लराई। कबहँक गट कबहँ दु र जाई॥

व के समान बाण को आते देखकर वह दु तुरंत अंतधान हो गया और िफर भाँित-भाँित के


प धारण करके यु करने लगा। वह कभी कट होता था और कभी िछप जाता था।

देिख अजय रपु डरपे क सा। परम ु तब भयउ अहीसा॥


लिछमन मन अस मं ढ़ावा। ऐिह पािपिह म बहत खेलावा॥
श ु को परािजत न होता देखकर वानर डरे । तब सपराज शेष (ल मण) बहत ोिधत हए।
ल मण ने मन म यह िवचार ढ़ िकया िक इस पापी को म बहत खेला चुका (अब और अिधक
खेलाना अ छा नह , अब तो इसे समा ही कर देना चािहए)।

सिु म र कोसलाधीस तापा। सर संधान क ह क र दापा॥


छाड़ा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब यागा॥

कोसलपित राम के ताप का मरण करके ल मण ने वीरोिचत दप करके बाण का संधान


िकया। बाण छोड़ते ही उसक छाती के बीच म लगा। मरते समय उसने सब कपट याग िदया।

ु कहँ रामु कहँ अस किह छाँड़िे स ान।


दो० - रामानज
ध य ध य तव जननी कह अंगद हनम ु ान॥ 76॥

राम के छोटे भाई ल मण कहाँ ह? राम कहाँ ह? ऐसा कहकर उसने ाण छोड़ िदए। अंगद और
हनुमान कहने लगे - तेरी माता ध य है, ध य है, (जो तू ल मण के हाथ मरा और मरते समय
राम-ल मण को मरण करके तन ू े उनके नाम का उ चारण िकया)॥ 76॥

िबनु यास हनम ु ान उठायो। लंका ार रािख पिु न आयो॥


तासु मरन सिु न सरु गंधबा। चिढ़ िबमान आए नभ सबा॥

हनुमान ने उसको िबना ही प र म के उठा िलया और लंका के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए।
उसका मरना सुनकर देवता और गंधव आिद सब िवमान पर चढ़कर आकाश म आए।

बरिष सम
ु न ददुं भ
ु बजाविहं। ीरघन
ु ाथ िबमल जसु गाविहं॥
जय अनंत जय जगदाधारा। तु ह भु सब देवि ह िन तारा॥

वे फूल बरसाकर नगाड़े बजाते ह और ी रघुनाथ का िनमल यश गाते ह। हे अनंत! आपक जय


हो, हे जगदाधार! आपक जय हो। हे भो! आपने सब देवताओं का (महान िवपि से) उ ार
िकया।

अ तिु त क र सरु िस िसधाए। लिछमन कृपािसंधु पिहं आए॥


सत
ु बध सन ु ा दसानन जबह । मु िछत भयउ परे उ मिह तबह ॥

देवता और िस तुित करके चले गए, तब ल मण कृपा के समु राम के पास आए। रावण ने
य ही पु वध का समाचार सुना, य ही वह मिू छत होकर प ृ वी पर िगर पड़ा।

मंदोदरी दन कर भारी। उर ताड़न बह भाँित पक


ु ारी॥
रनगर लोग सब याकुल सोचा। सकल कहिहं दसकंधर पोचा॥
मंदोदरी छाती पीट-पीटकर और बहत कार से पुकार-पुकारकर बड़ा भारी िवलाप करने लगी।
नगर के सब लोग शोक से याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे।

दो० - तब दसकंठ िबिबिध िबिध समझ


ु ाई ं सब ना र।
न वर प जगत सब देखह दयँ िबचा र॥ 77॥

तब रावण ने सब ि य को अनेक कार से समझाया िक सम त जगत का यह ( य) प


नाशवान है, दय म िवचारकर देखो॥ 77॥

ित हिह ग्#2351;◌ान उपदेसा रावन। आपन ु मंद कथा सभ


ु पावन॥
पर उपदेस कुसल बहतेरे। जे आचरिहं ते नर न घनेरे॥

रावण ने उनको ान का उपदेश िकया। वह वयं तो नीच है, पर उसक कथा (बात) शुभ और
पिव ह। दूसर को उपदेश देने म तो बहत लोग िनपुण होते ह। पर ऐसे लोग अिधक नह ह, जो
उपदेश के अनुसार आचरण भी करते ह।

िनसा िसरािन भयउ िभनसु ारा। लगे भालु किप चा रहँ ारा॥
सभु ट बोलाइ दसानन बोला। रन स मख ु जाकर मन डोला॥

रात बीत गई, सबेरा हआ। रीछ-वानर (िफर) चार दरवाज पर जा डटे। यो ाओं को बुलाकर
दशमुख रावण ने कहा - लड़ाई म श ु के स मुख िजसका मन डाँवाडोल हो,

सो अबह ब जाउ पराई। संजुग िबमखु भएँ न भलाई॥


िनज भज
ु बल म बय बढ़ावा। देहउँ उत जो रपु चिढ़ आवा॥

अ छा है वह अभी भाग जाए। यु म जाकर िवमुख होने (भागने) म भलाई नह है। मने अपनी
भुजाओं के बल पर बैर बढ़ाया है। जो श ु चढ़ आया है, उसको म (अपने ही) उ र दे लँग
ू ा।

अस किह म त बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥


चले बीर सब अतिु लत बली। जनु क जल कै आँधी चली॥

ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलनेवाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लड़ाई के) बाजे
बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान वीर ऐसे चले मानो काजल क आँधी चली हो।

असगन
ु अिमत होिहं तेिह काला। गनइ न भज
ु बल गब िबसाला॥

उस समय असं य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बड़ा गव होने से रावण
उ ह िगनता नह है।
छं ० - अित गब गनइ न सगन ु असगनु विहं आयध
ु हाथ ते।
भट िगरत रथ ते बािज गज िच करत भाजिहं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव वान बोलिहं अित घने।
जनु कालदूत उलक ू बोलिहं बचन परम भयावने॥

अ यंत गव के कारण वह शकुन-अपशकुन का िवचार नह करता। हिथयार हाथ से िगर रहे ह।


यो ा रथ से िगर पड़ते ह। घोड़े , हाथी साथ छोड़कर िच घाड़ते हए भाग जाते ह। िसयार, गीध,
कौए और गदहे श द कर रहे ह। बहत अिधक कु े बोल रहे ह। उ लू ऐसे अ यंत भयानक श द
कर रहे ह, मानो काल के दूत ह (म ृ यु का संदेसा सुना रहे ह )।

दो० - तािह िक संपित सगन


ु सभु सपनेहँ मन िब ाम।
भूत ोह रत मोहबस राम िबमखु रित काम॥ 78॥

जो जीव के ोह म रत है, मोह के वश हो रहा है, रामिवमुख है और कामास है, उसको या


कभी व न म भी संपि , शुभ शकुन और िच क शांित हो सकती है?॥ 78॥

चलेउ िनसाचर कटकु अपारा। चतरु ं िगनी अनी बह धारा॥


िबिबिध भाँित बाहन रथ जाना। िबपल ु बरन पताक वज नाना॥

रा स क अपार सेना चली। चतुरंिगणी सेना क बहत-सी टुकिड़याँ ह। अनेक कार के वाहन,
रथ और सवा रयाँ ह तथा बहत-से रं ग क अनेक पताकाएँ और वजाएँ ह।

चले म गज जूथ घनेरे। ािबट जलद म त जनु रे े ॥


बरन बरन िबरदैत िनकाया। समर सूर जानिहं बह माया॥

मतवाले हािथय के बहत-से झुंड चले। मानो पवन से े रत हए वषा ऋतु के बादल ह । रं ग-िबरं गे
बाना धारण करनेवाले वीर के समहू ह, जो यु म बड़े शरू वीर ह और बहत कार क माया
जानते ह।

अित िबिच बािहनी िबराजी। बीर बसंत सेन जनु साजी॥


चलत कटक िदगिसंधरु डगह । छुिभत पयोिध कुधर डगमगह ॥

अ यंत िविच फौज शोिभत है। मानो वीर वसंत ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से िदशाओं के
हाथी िडगने लगे, समु ुिभत हो गए और पवत डगमगाने लगे।

उठी रे नु रिब गयउ छपाई। म त थिकत बसध


ु ा अकुलाई॥
पनव िनसान घोर रव बाजिहं। लय समय के घन जनु गाजिहं॥

इतनी धल
ू उड़ी िक सय
ू िछप गए। (िफर सहसा) पवन क गया और प ृ वी अकुला उठी। ढोल और
नगाड़े भीषण विन से बज रहे ह; जैसे लयकाल के बादल गरज रहे ह ।

भे र नफ र बाज सहनाई। मा राग सभ ु ट सख


ु दाई॥
केह र नाद बीर सब करह । िनज िनज बल पौ ष उ चरह ॥

भेरी, नफ री (तुरही) और शहनाई म यो ाओं को सुख देनेवाला मा राग बज रहा है। सब वीर
िसंहनाद करते ह और अपने-अपने बल पौ ष का बखान कर रहे ह।

कहइ दसानन सन ु ा। मदह भालु किप ह के ठ ा॥


ु ह सभ
ह मा रहउँ भूप ौ भाई। अस किह स मख ु फौज रगाई॥

रावण ने कहा - हे उ म यो ाओ! सुनो! तुम रीछ-वानर के ठ को मसल डालो। और म दोन


राजकुमार भाइय को मा ँ गा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई।

यह सिु ध सकल किप ह जब पाई। धाए क र रघब


ु ीर ई॥

जब सब वानर ने यह खबर पाई, तब वे राम क दुहाई देते हए दौड़े ।

छं ० - धाए िबसाल कराल मकट भालु काल समान ते।


मानहँ सप छ उड़ािहं भूधर बंदृ नाना बान ते॥
नख दसन सैल महा म ु ायध
ु सबल संक न मानह ।
जय राम रावन म गज मग ृ राज सजु सु बखानह ॥

वे िवशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौड़े । मानो पंखवाले पवत के समहू उड़ रहे ह ।
वे अनेक वण के ह। नख, दाँत, पवत और बड़े -बड़े व ृ ही उनके हिथयार ह। वे बड़े बलवान ह
और िकसी का भी डर नह मानते। रावण पी मतवाले हाथी के िलए िसंह प राम का जय-
जयकार करके वे उनके सुंदर यश का बखान करते ह।

दो० - दहु िदिस जय जयकार क र िनज जोरी जािन।


िभरे बीर इत रामिह उत रावनिह बखािन॥ 79॥

दोन ओर के यो ा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोड़ी जान (चुन) कर इधर रघुनाथ का


और उधर रावण का बखान करके पर पर िभड़ गए॥ 79॥

रावनु रथी िबरथ रघब


ु ीरा। देिख िबभीषन भयउ अधीरा॥
अिधक ीित मन भा संदहे ा। बंिद चरन कह सिहत सनेहा॥

रावण को रथ पर और रघुवीर को िबना रथ के देखकर िवभीषण अधीर हो गए। ेम अिधक होने


से उनके मन म संदेह हो गया (िक वे िबना रथ के रावण को कैसे जीत सकगे)। राम के चरण
क वंदना करके वे नेहपवू क कहने लगे।

नाथ न रथ निह तन पद ाना। केिह िबिध िजतब बीर बलवाना॥


सन
ु ह सखा कह कृपािनधाना। जेिहं जय होइ सो यंदन आना॥

हे नाथ! आपके न रथ है, न तन क र ा करनेवाला कवच है और न जत ू े ही ह। वह बलवान वीर


रावण िकस कार जीता जाएगा? कृपािनधान राम ने कहा - हे सखे! सुनो, िजससे जय होती है,
वह रथ दूसरा ही है।

सौरज धीरज तेिह रथ चाका। स य सील ढ़ वजा पताका॥


बल िबबेक दम परिहत घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ॥

शौय और धैय उस रथ के पिहए ह। स य और शील (सदाचार) उसक मजबत ू वजा और पताका


ह। बल, िववेक, दम (इंि य का वश म होना) और परोपकार - ये चार उसके घोड़े ह, जो मा,
दया और समता पी डोरी से रथ म जोड़े हए ह।

ईस भजनु सारथी सज ु ाना। िबरित चम संतोष कृपाना॥


दान परसु बिु ध सि चंडा। बर िब यान किठन कोदंडा॥

ई र का भजन ही (उस रथ को चलानेवाला) चतुर सारथी है। वैरा य ढाल है और संतोष तलवार
है। दान फरसा है, बुि चंड शि है, े िव ान किठन धनुष है।

अमल अचल मन ोन समाना। सम जम िनयम िसलीमख ु नाना॥


कवच अभेद िब गरु पूजा। एिह सम िबजय उपाय न दूजा॥

िनमल (पापरिहत) और अचल (ि थर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश म होना),


(अिहंसािद) यम और (शौचािद) िनयम - ये बहत-से बाण ह। ा ण और गु का पज
ू न अभे
कवच है। इसके समान िवजय का दूसरा उपाय नह है।

सखा धममय अस रथ जाक। जीतन कहँ न कतहँ रपु ताक॥

हे सखे! ऐसा धममय रथ िजसके हो उसके िलए जीतने को कह श ु ही नह है।

दो० - महा अजय संसार रपु जीित सकइ सो बीर।


जाक अस रथ होइ ढ़ सन ु ह सखा मितधीर॥ 80(क)॥

हे धीरबुि वाले सखा! सुनो, िजसके पास ऐसा ढ़ रथ हो, वह वीर संसार (ज म-म ृ यु) पी
महान दुजय श ु को भी जीत सकता है (रावण क तो बात ही या है)॥ 80(क)॥
सिु न भु बचन िबभीषन हरिष गहे पद कंज।
एिह िमस मोिह उपदेसहे राम कृपा सख
ु पंज
ु ॥ 80(ख)॥

भु के वचन सुनकर िवभीषण ने हिषत होकर उनके चरण कमल पकड़ िलए (और कहा -) हे
कृपा और सुख के समहू राम! आपने इसी बहाने मुझे (महान) उपदेश िदया॥ 80(ख)॥

उत पचार दसकंधर इत अंगद हनमु ान।


लरत िनसाचर भालु किप क र िनज िनज भु आन॥ 80(ग)॥

उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अंगद और हनुमान। रा स और रीछ-वानर अपने-


अपने वामी क दुहाई देकर लड़ रहे ह॥ 80(ग)॥

सरु ािद िस मिु न नाना। देखत रन नभ चढ़े िबमाना॥


हमह उमा रहे तेिहं संगा। देखत राम च रत रन रं गा॥

ा आिद देवता और अनेक िस तथा मुिन िवमान पर चढ़े हए आकाश से यु देख रहे ह।
(िशव कहते ह -) हे उमा! म भी उस समाज म था और राम के रण-रं ग (रणो साह) क लीला देख
रहा था।

सभ
ु ट समर रस दहु िदिस माते। किप जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन िभरिहं पचारिहं। एक ह एक मिद मिह पारिहं॥

दोन ओर के यो ा रण-रस म मतवाले हो रहे ह। वानर को राम का बल है, इससे वे जयशील ह


(जीत रहे ह)। एक-दूसरे से िभड़ते और ललकारते ह और एक-दूसरे को मसल-मसलकर प ृ वी
पर डाल देते ह।

मारिहं काटिहं धरिहं पछारिहं। सीस तो र सीस ह सन मारिहं॥


उदर िबदारिहं भजु ा उपारिहं। गिह पद अविन पटिक भट डारिहं॥

वे मारते, काटते, पकड़ते और पछाड़ देते ह और िसर तोड़कर उ ह िसर से दूसर को मारते ह।
पेट फाड़ते ह, भुजाएँ उखाड़ते ह और यो ाओं को पैर पकड़कर प ृ वी पर पटक देते ह।

िनिसचर भट मिह गाड़िहं भाल।ू ऊपर ढा र देिहं बह बाल॥



ु जु िब ।े देिखअत िबपल
बीर बलीमख ु काल जनु ु ॥े

रा स यो ाओं को भालू प ृ वी म गाड़ देते ह और ऊपर से बहत-सी बालू डाल देते ह। यु म


श ुओ ं से िव हए वीर वानर ऐसे िदखाई पड़ते ह मानो बहत-से ोिधत काल ह ।

छं ० - ु े कृतांत समान किप तन वत सोिनत राजह ।


मदिहं िनसाचर कटक भट बलवंत घन िजिम गाजह ॥
मारिहं चपेटि ह डािट दात ह कािट लात ह मीजह ।
िच करिहं मकट भालु छल बल करिहं जेिहं खल छीजह ॥

ोिधत हए काल के समान वे वानर खन


ू बहते हए शरीर से शोिभत हो रहे ह। वे बलवान वीर
रा स क सेना के यो ाओं को मसलते और मेघ क तरह गरजते ह। डाँटकर चपेट से मारते,
दाँत से काटकर लात से पीस डालते ह। वानर-भालू िच घाड़ते और ऐसा छल-बल करते ह,
िजससे दु रा स न हो जाएँ ।

ध र गाल फारिहं उर िबदारिहं गल अँताव र मेलह ।


ादपित जनु िबिबध तनु ध र समर अंगन खेलह ॥
ध मा काटु पछा घोर िगरा गगन मिह भ र रही।
जय राम जो तन
ृ ते कुिलस कर कुिलस ते कर तन ृ सही॥

वे रा स के गाल पकड़कर फाड़ डालते ह, छाती चीर डालते ह और उनक अँतिड़याँ िनकालकर
गले म डाल लेते ह। वे वानर ऐसे िदख पड़ते ह मानो ाद के वामी निृ संह भगवान अनेक
शरीर धारण करके यु के मैदान म ड़ा कर रहे ह । पकड़ो, मारो, काटो, पछाड़ो आिद घोर
श द आकाश और प ृ वी म भर (छा) गए ह। राम क जय हो, जो सचमुच तण ृ से व और व से
तण ृ कर देते ह (िनबल को सबल और सबल को िनबल कर देते ह)।

दो० - िनज दल िबचलत देखिे स बीस भज


ु ाँ दस चाप।
रथ चिढ़ चलेउ दसानन िफरह िफरह क र दाप॥ 81॥

अपनी सेना को िवचिलत होते हए देखा, तब बीस भुजाओं म दस धनुष लेकर रावण रथ पर
चढ़कर गव करके 'लौटो, लौटो' कहता हआ चला॥ 81॥

धायउ परम ु दसकंधर। स मख ु चले हह दै बंदर॥


गिह कर पादप उपल पहारा। डारे ि ह ता पर एकिहं बारा॥

रावण अ यंत ोिधत होकर दौड़ा। वानर हँकार करते हए (लड़ने के िलए) उसके सामने चले।
उ ह ने हाथ म व ृ , प थर और पहाड़ लेकर रावण पर एक ही साथ डाले।

लागिहं सैल ब तन तासू। खंड खंड होइ फूटिहं आसू॥


चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दम
ु द रावन अित कोपी॥

पवत उसके व तु य शरीर म लगते ही तुरंत टुकड़े -टुकड़े होकर फूट जाते ह। अ यंत ोधी
रणो म रावण रथ रोककर अचल खड़ा रहा, (अपने थान से) जरा भी नह िहला।
इत उत झपिट दपिट किप जोधा। मद लाग भयउ अित ोधा॥
चले पराइ भालु किप नाना। ािह ािह अंगद हनम
ु ाना॥

उसे बहत ही ोध हआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर यो ाओं को मसलने लगा।
अनेक वानर-भालू 'हे अंगद! हे हनुमान! र ा करो, र ा करो' (पुकारते हए) भाग चले।

पािह पािह रघब ु ीर गोसाई ं। यह खल खाइ काल क नाई ं॥


तेिहं देखे किप सकल पराने। दसहँ चाप सायक संधाने॥

हे रघुवीर! हे गोसाई ं! र ा क िजए, र ा क िजए। यह दु काल क भाँित हम खा रहा है। उसने


देखा िक सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दस धनुष पर बाण संधान िकए।

छं ० - संधािन धनु सर िनकर छाड़ेिस उरग िजिम उिड़ लागह ।


रहे पू र सर धरनी गगन िदिस िबिदिस कहँ किप भागह ॥
भयो अित कोलाहल िबकल किप दल भालु बोलिहं आतरु े ।
रघब ु ीर क ना िसंधु आरत बंधु जन र छक हरे ॥

उसने धनुष पर संधान करके बाण के समहू छोड़े । वे बाण सप क तरह उड़कर जा लगते थे।
प ृ वी-आकाश और िदशा-िविदशा सव बाण भर रहे ह। वानर भाग तो कहाँ? अ यंत कोलाहल
मच गया। वानर-भालओ ू ं क सेना याकुल होकर आ पुकार करने लगी - हे रघुवीर! हे
क णासागर! हे पीिड़त के बंधु! हे सेवक क र ा करके उनके दुःख हरनेवाले ह र!

दो० - िनज दल िबकल देिख किट किस िनषंग धनु हाथ।


लिछमन चले ु होइ नाइ राम पद माथ॥ 82॥

अपनी सेना को याकुल देखकर कमर म तरकस कसकर और हाथ म धनुष लेकर रघुनाथ के
चरण पर म तक नवाकर ल मण ोिधत होकर चले॥ 82॥

रे खल का मारिस किप भाल।ु मोिह िबलोकु तोर म काल॥ ू


खोजत रहेउँ तोिह सत
ु घाती। आजु िनपाित जड़
ु ावउँ छाती॥

(ल मण ने पास जाकर कहा -) अरे दु ! वानर भालओ ू ं को या मार रहा है? मुझे देख, म तेरा
काल हँ। (रावण ने कहा -) अरे मेरे पु के घातक! म तुझी को ढूँढ़ रहा था। आज तुझे मारकर
(अपनी) छाती ठं डी क ँ गा।

अस किह छाड़ेिस बान चंडा। लिछमन िकए सकल सत खंडा॥


कोिट ह आयध
ु रावन डारे । ितल वान क र कािट िनवारे ॥

ऐसा कहकर उसने चंड बाण छोड़े । ल मण ने सबके सैकड़ टुकड़े कर डाले। रावण ने करोड़
अ -श चलाए। ल मण ने उनको ितल के बराबर करके काटकर हटा िदया।

पिु न िनज बान ह क ह हारा। यंदनु भंिज सारथी मारा॥


सत सत सर मारे दस भाला। िग र संग
ृ ह जनु िबसिहं याला॥

िफर अपने बाण से (उस पर) हार िकया और (उसके) रथ को तोड़कर सारथी को मार डाला।
(रावण के) दस म तक म सौ-सौ बाण मारे । वे िसर म ऐसे पैठ गए मानो पहाड़ के िशखर म
सप वेश कर रहे ह ।

पिु न सत सर मारा उर माह । परे उ धरिन तल सिु ध कछु नाह ॥


उठा बल पिु न मु छा जागी। छािड़िस दीि ह जो साँगी॥

िफर सौ बाण उसक छाती म मारे । वह प ृ वी पर िगर पड़ा, उसे कुछ भी होश न रहा। िफर मू छा
छूटने पर वह बल रावण उठा और उसने वह शि चलाई जो ा ने उसे दी थी।

छं ० - सो द चंड सि अनंत उर लागी सही।


परयो् बीर िबकल उठाव दसमख ु अतल ु बल मिहमा रही॥
ांड भवन िबराज जाक एक िसर िजिम रज कनी।
तेिह चह उठावन मूढ़ रावन जान निहं ि भअ
ु न धनी॥

वह ा क दी हई चंड शि ल मण क ठीक छाती म लगी। वीर ल मण याकुल होकर िगर


पड़े । तब रावण उ ह उठाने लगा, पर उसके अतुिलत बल क मिहमा य ही रह गई, ( यथ हो गई,
वह उ ह उठा न सका)। िजनके एक ही िसर पर ू के एक कण के समान
ांड पी भवन धल
ू रावण उठाना चाहता है! वह तीन भुवन के वामी ल मण को नह
िवराजता है, उ ह मख
जानता।

दो० - देिख पवनसत


ु धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत किपिह ह यो तेिहं मिु हार घोर॥ 83॥

यह देखकर पवनपु हनुमान कठोर वचन बोलते हए दौड़े । हनुमान के आते ही रावण ने उन पर
ू े का हार िकया॥ 83॥
अ यंत भयंकर घँस

जानु टेिक किप भूिम न िगरा। उठा सँभा र बहत रस भरा॥


मिु ठका एक तािह किप मारा। परे उ सैल जनु ब हारा॥

हनुमान घुटने टेककर रह गए, प ृ वी पर िगरे नह । और िफर ोध से भरे हए सँभलकर उठे ।


ू ा मारा। वह ऐसा िगर पड़ा जैसे व क मार से पवत िगरा हो।
हनुमान ने रावण को एक घँस

मु छा गै बहो र सो जागा। किप बल िबपल


ु सराहन लागा॥
िधग िधग मम पौ ष िधग मोही। ज त िजअत रहेिस सरु ोही॥

मू छा भंग होने पर िफर वह जागा और हनुमान के बड़े भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान ने
कहा -) मेरे पौ ष को िध कार है, िध कार है और मुझे भी िध कार है, जो हे देव ोही! तू अब भी
जीता रह गया।

अस किह लिछमन कहँ किप यायो। देिख दसानन िबसमय पायो॥


कह रघब
ु ीर समझ
ु ु िजयँ ाता। तु ह कृतांत भ छक सरु ाता॥

ऐसा कहकर और ल मण को उठाकर हनुमान रघुनाथ के पास ले आए। यह देखकर रावण को


आ य हआ। रघुवीर ने (ल मण से) कहा - हे भाई! दय म समझो, तुम काल के भी भ क और
देवताओं के र क हो।

सन ु त बचन उिठ बैठ कृपाला। गई गगन सो सकित कराला॥


पिु न कोदंड बान गिह धाए। रपु स मख
ु अित आतरु आए॥

ये वचन सुनते ही कृपालु ल मण उठ बैठे। वह कराल शि आकाश को चली गई। ल मण िफर


धनुष-बाण लेकर दौड़े और बड़ी शी ता से श ु के सामने आ पहँचे।

छं ० - आतरु बहो र िबभंिज यंदन सूत हित याकुल िकयो।


िगरयो ् धरिन दसकंधर िबकलतर बान सत बे यो िहयो॥
सारथी दूसर घािल रथ तेिह तरु त लंका लै गयो।
रघब ु ीर बंधु ताप पंज
ु बहो र भु चरनि ह नयो॥

िफर उ ह ने बड़ी ही शी ता से रावण के रथ को चरू -चरू कर और सारथी को मारकर उसे (रावण


को) याकुल कर िदया। सौ बाण से उसका दय बेध िदया, िजससे रावण अ यंत याकुल होकर
प ृ वी पर िगर पड़ा। तब दूसरा सारथी उसे रथ म डालकर तुरंत ही लंका को ले गया। ताप के
समहू रघुवीर के भाई ल मण ने िफर आकर भु के चरण म णाम िकया।

दो० - उहाँ दसानन जािग क र करै लाग कछु ज य।


राम िबरोध िबजय चह सठ हठ बस अित अ य॥ 84॥

वहाँ (लंका म) रावण मू छा से जागकर कुछ य करने लगा। वह मख


ू और अ यंत अ ानी
हठवश रघुनाथ से िवरोध करके िवजय चाहता है॥ 84॥

इहाँ िबभीषन सब सिु ध पाई। सपिद जाइ रघप


ु ितिह सन
ु ाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। िस भएँ निहं म रिह अभागा॥

यहाँ िवभीषण ने सब खबर पाई और तुरंत जाकर रघुनाथ को कह सुनाई िक हे नाथ! रावण एक
य कर रहा है। उसके िस होने पर वह अभागा सहज ही नह मरे गा।

पठवह नाथ बेिग भट बंदर। करिहं िबधंस आव दसकंधर॥


ात होत भु सभु ट पठाए। हनम
ु दािद अंगद सब धाए॥

हे नाथ! तुरंत वानर यो ाओं को भेिजए; जो य का िव वंस कर, िजससे रावण यु म आए।
ातःकाल होते ही भु ने वीर यो ाओं को भेजा। हनुमान और अंगद आिद सब ( धान वीर) दौड़े ।

ु कूिद चढ़े किप लंका। पैठे रावन भवन असंका॥


कौतक
ज य करत जबह सो देखा। सकल किप ह भा ोध िबसेषा॥

वानर खेल से ही कूदकर लंका पर जा चढ़े और िनभय होकर रावण के महल म जा घुसे। य ही
उसको य करते देखा, य ही सब वानर को बहत ोध हआ।

रन ते िनलज भािज गहृ आवा। इहाँ आइ बक यान लगावा॥


अस किह अंगद मारा लाता। िचतव न सठ वारथ मन राता॥

(उ ह ने कहा -) अरे ओ िनल ज! रणभिू म से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का-सा यान
लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अंगद ने लात मारी। पर उसने इनक ओर देखा भी नह , उस दु
का मन वाथ म अनुर था।

छं ० - निहं िचतव जब क र कोप किप गिह दसन लात ह मारह ।


ध र केस ना र िनका र बाहेर तेऽितदीन पक
ु ारह ॥
तब उठेउ ु कृतांत सम गिह चरन बानर डारई।
एिह बीच किप ह िबधंस कृत मख देिख मन महँ हारई॥

जब उसने नह देखा, तब वानर ोध करके उसे दाँत से पकड़कर (काटने और) लात से मारने
लगे। ि य को बाल पकड़कर घर से बाहर घसीट लाए, वे अ यंत ही दीन होकर पुकारने लग ।
तब रावण काल के समान ोिधत होकर उठा और वानर को पैर पकड़कर पटकने लगा। इसी
बीच म वानर ने य िव वंस कर डाला, यह देखकर वह मन म हारने लगा (िनराश होने लगा)।

दो० - ज य िबधंिस कुसल किप आए रघप


ु ित पास।
चलेउ िनसाचर ु होइ यािग िजवन कै आस॥ 85॥

य िव वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथ के पास आ गए। तब रावण जीने क आशा छोड़कर
ोिधत होकर चला॥ 85॥

चलत होिहं अित असभ


ु भयंकर। बैठिहं गीध उड़ाइ िसर ह पर॥
भयउ कालबस काह न माना। कहेिस बजावह जु िनसाना॥
चलते समय अ यंत भयंकर अमंगल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड़-उड़कर उसके िसर पर
बैठने लगे। िकंतु वह काल के वश था, इससे िकसी भी अपशकुन को नह मानता था। उसने कहा
- यु का डं का बजाओ।

चली तमीचर अनी अपारा। बह गज रथ पदाित असवारा॥


ु धाए खल कैस। सलभ समूह अनल कहँ जैस॥
भु स मख

िनशाचर क अपार सेना चली। उसम बहत-से हाथी, रथ, घुड़सवार और पैदल ह। वे दु भु के
सामने कैसे दौड़े , जैसे पतंग के समहू अि न क ओर (जलने के िलए) दौड़ते ह।

इहाँ देवत ह अ तिु त क ही। दा न िबपित हमिह एिहं दी ही॥


अब जिन राम खेलावह एही। अितसय दिु खत होित बैदहे ी॥

इधर देवताओं ने तुित क िक हे राम! इसने हमको दा ण दुःख िदए ह। अब आप इसे (अिधक)
न खेलाइए। जानक बहत ही दुःखी हो रही ह।

देव बचन सिु न भु मस


ु कु ाना। उिठ रघबु ीर सध
ु ारे बाना॥
जटा जूट ढ़ बाँध माथे। सोहिहं समु न बीच िबच गाथे॥

देवताओं के वचन सुनकर भु मुसकराए। िफर रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे । म तक पर जटाओं
के जड़ू े को कसकर बाँधे हए ह, उसके बीच-बीच म पु प गँथ
ू े हए शोिभत हो रहे ह।

अ न नयन बा रद तनु यामा। अिखल लोक लोचनािभरामा॥


किटतट प रकर क यो िनषंगा। कर कोदंड किठन सारं गा॥

लाल ने और मेघ के समान याम शरीरवाले और संपण


ू लोक के ने को आनंद देनेवाले ह।
भु ने कमर म फटा तथा तरकस कस िलया और हाथ म कठोर शागधनुष ले िलया।

छं ० - सारं ग कर संदु र िनषंग िसलीमख


ु ाकर किट क यो।
भजु दंड पीन मनोहरायत उर धरासरु पद ल यो॥
कह दास तल ु सी जबिहं भु सर चाप कर फेरन लगे।
ांड िद गज कमठ अिह मिह िसंधु भूधर डगमगे॥

भु ने हाथ म शागधनुष लेकर कमर म बाण क खान (अ य) सुंदर तरकस कस िलया। उनके
भुजदंड पु ह और मनोहर चौड़ी छाती पर ा ण (भग ृ ु) के चरण का िच शोिभत है। तुलसीदास
कहते ह, य ही भु धनुष-बाण हाथ म लेकर िफराने लगे, य ही ांड, िदशाओं के हाथी,
क छप, शेष, प ृ वी, समु और पवत सभी डगमगा उठे ।
दो० - सोभा देिख हरिष सरु बरषिहं सम
ु न अपार।
जय जय जय क नािनिध छिब बल गन ु आगार॥ 86॥

(भगवान क ) शोभा देखकर देवता हिषत होकर फूल क अपार वषा करने लगे और शोभा,
शि और गुण के धाम क णािनधान भु क जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥
86॥

एह बीच िनसाचर अनी। कसमसात आई अित घनी॥


ु किप भ ा। लयकाल के जनु घन घ ा॥
देिख चले स मख

इसी बीच म िनशाचर क अ यंत घनी सेना कसमसाती हई (आपस म टकराती हई) आई। उसे
देखकर वानर यो ा इस कार (उसके) सामने चले जैसे लयकाल के बादल के समहू ह ।

बह कृपान तरवा र चमंकिहं। जनु दहँ िदिस दािमन दमंकिहं॥


गज रथ तरु ग िचकार कठोरा। गजिहं मनहँ बलाहक घोरा॥

बहत-से कृपाल और तलवार चमक रही ह। मानो दस िदशाओं म िबजिलयाँ चमक रही ह । हाथी,
रथ और घोड़ का कठोर िचं घाड़ ऐसा लगता है मानो बादल भयंकर गजन कर रहे ह ।

किप लंगूर िबपलु नभ छाए। मनहँ इं धनु उए सहु ाए॥


उठइ धू र मानहँ जलधारा। बान बंदु भै बिृ अपारा॥

वानर क बहत-सी पँछ ू आकाश म छाई हई ह। (वे ऐसी शोभा दे रही ह) मानो सुंदर इं धनुष उदय
हए ह । धल
ू ऐसी उठ रही है मानो जल क धारा हो। बाण पी बँदू क अपार विृ हई।

दहु ँ िदिस पबत करिहं हारा। ब पात जनु बारिहं बारा॥


रघप ु ित कोिप बान झ र लाई। घायल भै िनिसचर समदु ाई॥

दोन ओर से यो ा पवत का हार करते ह। मानो बारं बार व पात हो रहा हो। रघुनाथ ने ोध
करके बाण क झड़ी लगा दी, (िजससे) रा स क सेना घायल हो गई।

लागत बान बीर िच करह । घिु म घिु म जहँ तहँ मिह परह ॥
विहं सैल जनु िनझर भारी। सोिनत स र कादर भयकारी॥

बाण लगते ही वीर ची कार कर उठते ह और च कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ प ृ वी पर िगर पड़ते


ह। उनके शरीर से ऐसे खन
ू बह रहा है मानो पवत के भारी झरन से जल बह रहा हो। इस कार
डरपोक को भय उ प न करनेवाली िधर क नदी बह चली।

छं ० - कादर भयंकर िधर स रता चली परम अपावनी।


दोउ कूल दल रथ रे त च अबत बहित भयावनी॥
जलजंतु गज पदचर तरु ग खर िबिबध बाहन को गने।
सर सि तोमर सप चाप तरं ग चम कमठ घने॥

डरपोक को भय उपजानेवाली अ यंत अपिव र क नदी बह चली। दोन दल उसके दोन


िकनारे ह। रथ रे त है और पिहए भँवर ह। वह नदी बहत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोड़े ,
गधे तथा अनेक सवा रयाँ ह, िजनक िगनती कौन करे , नदी के जल जंतु ह। बाण, शि और
तोमर सप ह, धनुष तरं ग ह और ढाल बहत-से कछुवे ह।

दो० - बीर परिहं जनु तीर त म जा बह बह फेन।


कादर देिख डरिहं तहँ सभु ट ह के मन चेन॥ 87॥

वीर प ृ वी पर इस तरह िगर रहे ह, मानो नदी-िकनारे के व ृ ढह रहे ह । बहत-सी म जा बह रही


है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते ह, वहाँ उ म यो ाओं के मन म सुख होता है॥
87॥

म जिहं भूत िपसाच बेताला। मथ महा झोिटंग कराला॥


काक कंक लै भज ु ा उड़ाह । एक ते छीिन एक लै खाह ॥

भत
ू , िपशाच और बेताल, बड़े -बड़े झ ट वाले महान भयंकर झोिटंग और मथ (िशवगण) उस नदी
म नान करते ह। कौए और चील भुजाएँ लेकर उड़ते ह और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते ह।

एक कहिहं ऐिसउ स घाई। सठह तु हार द र न जाई॥


कहँरत भट घायल तट िगरे । जहँ तहँ मनहँ अधजल परे ॥

एक (कोई) कहते ह, अरे मखू ! ऐसी स ती (बहतायत) है, िफर भी तु हारी द र ता नह जाती?
घायल यो ा तट पर पड़े कराह रहे ह, मानो जहाँ-तहाँ अधजल (वे यि जो मरने के समय आधे
जल म रखे जाते ह) पड़े ह ।

खैचिहं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत िचत दए॥


बह भट बहिहं चढ़े खग जाह । जनु नाव र खेलिहं स र माह ॥

गीध आँत ख च रहे ह, मानो मछली मार नदी तट पर से िच लगाए हए ( यान थ होकर) बंसी
खेल रहे ह (बंसी से मछली पकड़ रहे ह )। बहत-से यो ा बहे जा रहे ह और प ी उन पर चढ़े चले
जा रहे ह। मानो वे नदी म नाव र (नौका ड़ा) खेल रहे ह ।

जोिगिन भ र भ र ख पर संचिहं। भूित िपसाच बधू नभ नंचिहं॥


भट कपाल करताल बजाविहं। चामंड ु ा नाना िबिध गाविहं॥
योिगिनयाँ ख पर म भर-भरकर खन ू जमा कर रही ह। भत
ू -िपशाच क ि याँ आकाश म नाच
रही ह। चामुंडाएँ यो ाओं क खोपिड़य का करताल बजा रही ह और नाना कार से गा रही ह।

जंबक
ु िनकर कट कट क िहं। खािहं हआिहं अघािहं दप िहं॥
कोिट ह ं ड मंड
ु िबनु डो लिहं। सीस परे मिह जय जय बो लिहं॥

गीदड़ के समहू कट-कट श द करते हए मुरद को काटते, खाते, हआँ-हआँ करते और पेट भर
जाने पर एक-दूसरे को डाँटते ह। करोड़ धड़ िबना िसर के घम
ू रहे ह और िसर प ृ वी पर पड़े जय-
जय बोल रहे ह।

छं ० - बो लिहं जो जय जय मंड ु ं ड चंड िसर िबनु धावह ।


ख प र ह ख ग अलिु झ जु झिहं सभ ु ट भट ह ढहावह ॥
बानर िनसाचर िनकर मदिहं राम बल दिपत भए।
सं ाम अंगन सभ ु ट सोविहं राम सर िनकरि ह हए॥

मंुड (कटे िसर) जय-जय बोल बोलते ह और चंड ं ड (धड़) िबना िसर के दौड़ते ह। प ी
खोपिड़य म उलझ-उलझकर पर पर लड़े मरते ह; उ म यो ा दूसरे यो ाओं को ढहा रहे ह। राम
बल से दिपत हए वानर रा स के झुंड को मसले डालते ह। राम के बाण समहू से मरे हए यो ा
लड़ाई के मैदान म सो रहे ह।

दो० - रावन दयँ िबचारा भा िनिसचर संघार।


म अकेल किप भालु बह माया कर अपार॥ 88॥

रावण ने दय म िवचारा िक रा स का नाश हो गया है। म अकेला हँ और वानर-भालू बहत ह,


इसिलए म अब अपार माया रचँ॥ू 88॥

देव ह भिु ह पयाद देखा। उपजा उर अित छोभ िबसेषा॥


सरु पित िनज रथ तरु त पठावा। हरष सिहत मातिल लै आवा॥

देवताओं ने भु को पैदल (िबना सवारी के यु करते) देखा, तो उनके दय म बड़ा भारी ोभ


(दुःख) उ प न हआ। (िफर या था) इं ने तुरंत अपना रथ भेज िदया। (उसका सारथी) मातिल
हष के साथ उसे ले आया।

तेज पंज
ु रथ िद य अनूपा। हरिष चढ़े कोसलपरु भूपा॥
चंचल तरु ग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गितकारी॥

उस िद य अनुपम और तेज के पुंज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा राम हिषत होकर चढ़े ।
उसम चार चंचल, मनोहर, अजर, अमर और मन क गित के समान शी चलनेवाले (देवलोक
के) घोड़े जुते थे।

रथा ढ़ रघनु ाथिह देखी। धाए किप बलु पाइ िबसेषी॥


सही न जाइ किप ह कै मारी। तब रावन माया िब तारी॥

रघुनाथ को रथ पर चढ़े देखकर वानर िवशेष बल पाकर दौड़े । वानर क मार सही नह जाती।
तब रावण ने माया फै लाई।

सो माया रघब
ु ीरिह बाँची। लिछमन किप ह सो मानी साँची॥
देखी किप ह िनसाचर अनी। अनज ु सिहत बह कोसलधनी॥

एक रघुवीर के ही वह माया नह लगी। सब वानर ने और ल मण ने भी उस माया को सच मान


िलया। वानर ने रा सी सेना म भाई ल मण सिहत बहत-से राम को देखा।

छं ० - बह राम लिछमन देिख मकट भालु मन अित अपडरे ।


जनु िच िलिखत समेत लिछमन जहँ सो तहँ िचतविहं खरे ॥
िनज सेन चिकत िबलोिक हँिस सर चाप सिज कोसल धनी।
माया हरी ह र िनिमष महँ हरषी सकल मकट अनी॥

बहत-से राम-ल मण देखकर वानर-भालू मन म िम या डर से बहत ही डर गए। ल मण सिहत वे


मानो िच िलखे-से जहाँ-के-तहाँ खड़े देखने लगे। अपनी सेना को आ यचिकत देखकर
कोसलपित भगवान ह र (दुःख के हरनेवाले राम) ने हँसकर धनुष पर बाण चढ़ाकर, पल भर म
सारी माया हर ली। वानर क सारी सेना हिषत हो गई।

दो० - बह र राम सब तन िचतइ बोले बचन गँभीर।


दं जु देखह सकल िमत भए अित बीर॥ 89॥

िफर राम सबक ओर देखकर गंभीर वचन बोले - हे वीरो! तुम सब बहत ही थक गए हो, इसिलए
अब (मेरा और रावण का) ं यु देखो॥ 89॥

अस किह रथ रघन
ु ाथ चलावा। िब चरन पंकज िस नावा॥
तब लंकेस ोध उर छावा। गजत तजत स मख ु धावा॥

ऐसा कहकर रघुनाथ ने ा ण के चरणकमल म िसर नवाया और िफर रथ चलाया। तब रावण


के दय म ोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हआ सामने दौड़ा।

जीतेह जे भट संजुग माह । सन


ु ु तापस म ित ह सम नाह ॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाक बंदीखाना॥
(उसने कहा -) अरे तप वी! सुनो, तुमने यु म िजन यो ाओं को जीता है, म उनके समान नह
हँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत जानता है, लोकपाल तक िजसके कैदखाने म पड़े ह।

खर दूषन िबराध तु ह मारा। बधेह याध इव बािल िबचारा॥


िनिसचर िनकर सभ ु ट संघारे ह। कंु भकरन घननादिह मारे ह॥

तुमने खर, दूषण और िवराध को मारा! बेचारे बािल का याध क तरह वध िकया। बड़े -बड़े रा स
यो ाओं के समहू का संहार िकया और कुंभकण तथा मेघनाद को भी मारा।

आजु बय सबु लेउँ िनबाही। ज रन भूप भािज निहं जाही॥


आजु करउँ खलु काल हवाले। परे ह किठन रावन के पाले॥

अरे राजा! यिद तुम रण से भाग न गए तो आज म (वह) सारा वैर िनकाल लँग
ू ा। आज म तु ह
िन य ही काल के हवाले कर दँूगा। तुम किठन रावण के पाले पड़े हो।

सिु न दब
ु चन कालबस जाना। िबहँिस बचन कह कृपािनधाना॥
स य स य सब तव भत ु ाई। ज पिस जिन देखाउ मनसु ाई॥

रावण के दुवचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपािनधान राम ने हँसकर यह वचन कहा -
तु हारी सारी भुता, जैसा तुम कहते हो, िब कुल सच है। पर अब यथ बकवास न करो, अपना
पु षाथ िदखलाओ।

छं ० - जिन ज पना क र सज ु सु नासिह नीित सन


ु िह करिह छमा।
संसार महँ पू ष ि िबध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सम ु न द एक सम ु न फल एक फलइ केवल लागह ।
एक कहिहं कहिहं करिहं अपर एक करिहं कहत न बागह ॥

यथ बकवास करके अपने सुंदर यश का नाश न करो। मा करना, तु ह नीित सुनाता हँ, सुनो!
संसार म तीन कार के पु ष होते ह - पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक
(पाटल) फूल देते ह, एक (आम) फूल और फल दोन देते ह एक (कटहल) म केवल फल ही लगते
ह। इसी कार (पु ष म) एक कहते ह (करते नह ), दूसरे कहते और करते भी ह और एक
(तीसरे ) केवल करते ह, पर वाणी से कहते नह ।

दो० - राम बचन सिु न िबहँसा मोिह िसखावत यान।


बय करत निहं तब डरे अब लागे ि य ान॥ 90॥

राम के वचन सुनकर वह खबू हँसा (और बोला -) मुझे ान िसखाते हो? उस समय वैर करते तो
नह डरे , अब ाण यारे लग रहे ह॥ 90॥
ु चन ु दसकंधर। कुिलस समान लाग छाँड़ ै सर॥
किह दब
नानाकार िसलीमख
ु धाए। िदिस अ िबिदिस गगन मिह छाए॥

दुवचन कहकर रावण ु होकर व के समान बाण छोड़ने लगा। अनेक आकार के बाण दौड़े
और िदशा, िविदशा तथा आकाश और प ृ वी म, सब जगह छा गए।

पावक सर छाँड़उे रघब


ु ीरा। छन महँ जरे िनसाचर तीरा॥
छािड़िस ती सि िखिसआई। बान संग भु फे र चलाई॥

रघुवीर ने अि नबाण छोड़ा, (िजससे) रावण के सब बाण णभर म भ म हो गए। तब उसने


िखिसयाकर ती ण शि छोड़ी, (िकंतु) राम ने उसको बाण के साथ वापस भेज िदया।

कोिट ह च ि सूल पबारै । िबनु यास भु कािट िनवारै ॥


िनफल होिहं रावन सर कैस। खल के सकल मनोरथ जैस॥

वह करोड़ च और ि शल ू चलाता है, परं तु भु उ ह िबना ही प र म काटकर हटा देते ह। रावण


के बाण िकस कार िन फल होते ह, जैसे दु मनु य के सब मनोरथ!

तब सत बान सारथी मारे िस। परे उ भूिम जय राम पक


ु ारे िस॥
राम कृपा क र सूत उठावा। तब भु परम ोध कहँ पावा॥

तब उसने राम के सारथी को सौ बाण मारे । वह राम क जय पुकारकर प ृ वी पर िगर पड़ा। राम ने
कृपा करके सारथी को उठाया। तब भु अ यंत ोध को ा हए।

छं ० - भए ु जु िब रघप
ु ित ोन सायक कसमसे।
कोदंड धिु न अित चंड सिु न मनजु ाद सब मा त से॥
मंदोदरी उर कंप कंपित कमठ भू भूधर से।
िच करिहं िद गज दसन गिह मिह देिख कौतक ु सरु हँस॥े

यु म श ु के िव रघुनाथ ोिधत हए, तब तरकस म बाण कसमसाने लगे (बाहर िनकलने


को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अ यंत चंड श द (टंकार) सुनकर मनु यभ ी सब रा स
वात त हो गए (अ यंत भयभीत हो गए)। मंदोदरी का दय काँप उठा, समु , क छप, प ृ वी
और पवत डर गए। िदशाओं के हाथी प ृ वी को दाँत से पकड़कर िच घाड़ने लगे। यह कौतुक
देखकर देवता हँसे।

दो० - तानेउ चाप वन लिग छाँड़े िबिसख कराल।


राम मारगन गन चले लहलहात जनु याल॥ 91॥

धनुष को कान तक तानकर राम ने भयानक बाण छोड़े । राम के बाण समहू ऐसे चले मानो सप
लहलहाते (लहराते) हए जा रहे ह ॥ 91॥

चले बान सप छ जनु उरगा। थमिहं हतेउ सारथी तरु गा॥


रथ िबभंिज हित केतु पताका। गजा अित अंतर बल थाका॥

बाण ऐसे चले मानो पंखवाले सप उड़ रहे ह । उ ह ने पहले सारथी और घोड़ को मार डाला। िफर
रथ को चरू -चरू करके वजा और पताकाओं को िगरा िदया। तब रावण बड़े जोर से गरजा, पर
भीतर से उसका बल थक गया था।

तरु त आन रथ चिढ़ िखिसआना। अ स छाँड़िे स िबिध नाना॥


िबफल होिहं सब उ म ताके। िजिम पर ोह िनरत मनसा के॥

तुरंत दूसरे रथ पर चढ़कर िखिसयाकर उसने नाना कार के अ -श छोड़े । उसके सब उ ोग


वैसे ही िन फल हो गए, जैसे पर ोह म लगे हए िच वाले मनु य के होते ह।

तब रावन दस सूल चलावा। बािज चा र मिह मा र िगरावा॥


ु ायक। खिच सरासन छाँड़े सायक॥
तरु ग उठाइ कोिप रघन

ू चलाए और राम के चार घोड़ को मारकर प ृ वी पर िगरा िदया। घोड़ को


तब रावण ने दस ि शल
उठाकर रघुनाथ ने ोध करके धनुष ख चकर बाण छोड़े ।

रावन िसर सरोज बनचारी। चिल रघब ु ीर िसलीमख


ु धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे । िनस र गए चले िधर पनारे ॥

रावण के िसर पी कमल वन म िवचरण करनेवाले रघुवीर के बाण पी मर क पंि चली। राम
ने उसके दस िसर म दस-दस बाण मारे , जो आर-पार हो गए और िसर से र के पनाले बह
चले।

वत िधर धायउ बलवाना। भु पिु न कृत धनु सर संधाना॥


तीस तीर रघब
ु ीर पबारे । भज
ु ि ह समेत सीस मिह पारे ॥

िधर बहते हए ही बलवान रावण दौड़ा। भु ने िफर धनुष पर बाण संधान िकया। रघुवीर ने तीस
बाण मारे और बीस भुजाओं समेत दस िसर काटकर प ृ वी पर िगरा िदए।

काटतह पिु न भए नबीने। राम बहो र भज


ु ा िसर छीने॥
भु बह बार बाह िसर हए। कटत झिटित पिु न नूतन भए॥

(िसर और हाथ) काटते ही िफर नए हो गए। राम ने िफर भुजाओं और िसर को काट िगराया। इस
तरह भु ने बहत बार भुजाएँ और िसर काटे, परं तु काटते ही वे तुरंत िफर नए हो गए।
पिु न पिु न भु काटत भज
ु सीसा। अित कौतक
ु कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ िसर अ बाह। मानहँ अिमत केतु अ राह॥

भु बार-बार उसक भुजा और िसर को काट रहे ह, य िक कोसलपित राम बड़े कौतुक ह।
आकाश म िसर और बाह ऐसे छा गए ह, मानो असं य केतु और राह ह ।

छं ० - जनु राह केतु अनेक नभ पथ वत सोिनत धावह ।


रघब ु ीर तीर चंड लागिहं भूिम िगरत न पावह ॥
एक एक सर िसर िनकर छेद े नभ उड़त इिम सोहह ।
जनु कोिप िदनकर कर िनकर जहँ तहँ िबधंत ु दु पोहह ॥

मानो अनेक राह और केतु िधर बहाते हए आकाश माग से दौड़ रहे ह । रघुवीर के चंड बाण
के (बार-बार) लगने से वे प ृ वी पर िगरने नह पाते। एक-एक बाण से समहू -के-समहू िसर िछदे
हए आकाश म उड़ते ऐसे शोभा दे रहे ह मानो सय ू क िकरण ोध करके जहाँ-तहाँ राहओं को
िपरो रही ह ।

दो० - िजिम िजिम भु हर तासु िसर ितिम होिहं अपार।


सेवत िबषय िबबध िजिम िनत िनत नूतन मार॥ 92॥

जैसे-जैसे भु उसके िसर को काटते ह, वैसे-ही-वैसे वे अपार होते जाते ह। जैसे िवषय का सेवन
करने से काम (उ ह भोगने क इ छा) िदन- ितिदन नया-नया बढ़ता जाता है॥ 92॥

ु देिख िसर ह कै बाढ़ी। िबसरा मरन भई रस गाढ़ी॥


दसमख
गजउ मूढ़ महा अिभमानी। धायउ दसह सरासन तानी॥

िसर क बाढ़ देखकर रावण को अपना मरण भल


ू गया और बड़ा गहरा ोध हआ। वह महान
अिभमानी मख
ू गरजा और दस धनुष को तानकर दौड़ा।

समर भूिम दसकंधर को यो। बरिष बान रघप ु ित रथ तो यो॥


दंड एक रथ देिख न परे उ। जनु िनहार महँ िदनकर दरु े ऊ॥

रणभिू म म रावण ने ोध िकया और बाण बरसाकर रघुनाथ के रथ को ढँ क िदया। एक दंड


(घड़ी) तक रथ िदखलाई न पड़ा, मानो कुहरे म सय
ू िछप गया हो।

हाहाकार सरु ह जब क हा। तब भु कोिप कारमक ु ली हा॥


सर िनवा र रपु के िसर काटे। ते िदिस िबिदिस गगन मिह पाटे॥

जब देवताओं ने हाहाकार िकया, तब भु ने ोध करके धनुष उठाया और श ु के बाण को


हटाकर उ ह ने श ु के िसर काटे और उनसे िदशा, िविदशा, आकाश और प ृ वी सबको पाट िदया।
काटे िसर नभ मारग धाविहं। जय जय धिु न क र भय उपजाविहं॥
कहँ लिछमन सु ीव कपीसा। कहँ रघब ु ीर कोसलाधीसा॥

काटे हए िसर आकाश माग से दौड़ते ह और जय-जय क विन करके भय उ प न करते ह।


'ल मण और वानरराज सु ीव कहाँ ह? कोसलपित रघुवीर कहाँ ह?'

छं ० - कहँ रामु किह िसर िनकर धाए देिख मकट भिज चले।
संधािन धनु रघब ु ंसमिन हँिस सरि ह िसर बेधे भले॥
िसर मािलका कर कािलका गिह बंदृ बंदृ ि ह बह िमल ।
क र िधर स र म जनु मनहँ सं ाम बट पूजन चल ॥

'राम कहाँ ह?' यह कहकर िसर के समहू दौड़े , उ ह देखकर वानर भाग चले। तब धनुष संधान
करके रघुकुलमिण राम ने हँसकर बाण से उन िसर को भलीभाँित बेध डाला। हाथ म मुंड क
मालाएँ लेकर बहत-सी कािलकाएँ झुंड-क -झुंड िमलकर इक ी हई ं और वे िधर क नदी म
नान करके चल । मानो सं ाम पी वटव ृ क पज ू ा करने जा रही ह ।

दो० - पिु न दसकंठ ु होइ छाँड़ी सि चंड।


चली िबभीषन स मख ु मनहँ काल कर दंड॥ 93॥

िफर रावण ने ोिधत होकर चंड शि छोड़ी। वह िवभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल
(यमराज) का दंड हो॥ 93॥

आवत देिख सि अित घोरा। नतारित भंजन पन मोरा॥


तरु त िबभीषन पाछ मेला। स मख
ु राम सहेउ सोइ सेला॥

अ यंत भयानक शि को आती देख और यह िवचार कर िक मेरा ण शरणागत के दुःख का


नाश करना है, राम ने तुरंत ही िवभीषण को पीछे कर िलया और सामने होकर वह शि वयं
सह ली।

लािग सि मु छा कछु भई। भु कृत खेल सरु ह िबकलई॥


देिख िबभीषन भु म पायो। गिह कर गदा ु होइ धायो॥

शि लगने से उ ह कुछ मू छा हो गई। भु ने तो यह लीला क , पर देवताओं को याकुलता हई।


भु को म (शारी रक क ) ा हआ देखकर िवभीषण ोिधत हो हाथ म गदा लेकर दौड़े ।

रे कुभा य सठ मंद कुबु ।े त सरु नर मिु न नाग िब ॥े


सादर िसव कहँ सीस चढ़ाए। एक एक के कोिट ह पाए॥
(और बोले -) अरे अभागे! मख ू े देवता, मनु य, मुिन, नाग सभी से िवरोध िकया।
ू , नीच दुबुि ! तन
ू े आदर सिहत िशव को िसर चढ़ाए। इसी से एक-एक के बदले म करोड़ पाए।
तन

तेिह कारन खल अब लिग बाँ यो। अब तव कालु सीस पर ना यो॥


राम िबमखु सठ चहिस संपदा। अस किह हनेिस माझ उर गदा॥

उसी कारण से अरे दु ! तू अब तक बचा है, (िकंतु) अब काल तेरे िसर पर नाच रहा है। अरे मख
ू !
तू राम िवमुख होकर संपि (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर िवभीषण ने रावण क छाती के बीच -
बीच गदा मारी।

छं ० - उर माझ गदा हार घोर कठोर लागत मिह परयो। ्


दस बदन सोिनत वत पिु न संभा र धायो रस भरयो॥ ्
ौ िभरे अितबल म लजु िब एकु एकिह हनै।
रघब ु ीर बल दिपत िबभीषनु घािल निहं ता कहँ गनै॥

बीच छाती म कठोर गदा क घोर और किठन चोट लगते ही वह प ृ वी पर िगर पड़ा। उसके दस
मुख से िधर बहने लगा; वह अपने को िफर संभालकर ोध म भरा हआ दौड़ा। दोन अ यंत
बलवान यो ा िभड़ गए और म लयु म एक-दूसरे के िव होकर मारने लगे। रघुवीर के बल
से गिवत िवभीषण उसको (रावण-जैसे जगि जयी यो ा को) पासंग के बराबर भी नह समझते।

दो० - उमा िबभीषनु रावनिह स मख ु िचतव िक काउ।


सो अब िभरत काल य ी रघब ु ीर भाउ॥ 94॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! िवभीषण या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था?
परं तु अब वही काल के समान उससे िभड़ रहा है। यह ी रघुवीर का ही भाव है॥ 94॥

देखा िमत िबभीषनु भारी। धायउ हनूमान िग र धारी॥


रथ तरु ं ग सारथी िनपाता। दय माझ तेिह मारे िस लाता॥

िवभीषण को बहत ही थका हआ देखकर हनुमान पवत धारण िकए हए दौड़े । उ ह ने उस पवत से
रावण के रथ, घोड़े और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी।

ठाढ़ रहा अित कंिपत गाता। गयउ िबभीषनु जहँ जन ाता॥


पिु न रावन किप हतेउ पचारी। चलेउ गगन किप पूँछ पसारी॥

रावण खड़ा रहा, पर उसका शरीर अ यंत काँपने लगा। िवभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवक के र क
राम थे। िफर रावण ने ललकारकर हनुमान को मारा। वे पँछ
ू फै लाकर आकाश म चले गए।

गिहिस पूँछ किप सिहत उड़ाना। पिु न िफ र िभरे उ बल हनम


ु ाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकिह एकु हनत क र ोधा॥

रावण ने पँछ
ू पकड़ ली, हनुमान उसको साथ िलए ऊपर उड़े । िफर लौटकर महाबलवान हनुमान
उससे िभड़ गए। दोन समान यो ा आकाश म लड़ते हए एक-दूसरे को ोध करके मारने लगे।

सोहिहं नभ छल बल बह करह । क जलिग र सम ु े जनु लरह ॥


बिु ध बल िनिसचर परइ न पारयो। तब मा तसत
ु भु संभारयो॥

दोन बहत-से छल-बल करते हए आकाश म ऐसे शोिभत हो रहे ह मानो क जलिग र और सुमे
पवत लड़ रहे ह । जब बुि और बल से रा स िगराए न िगरा तब मा ित हनुमान ने भु को
मरण िकया।

छं ० - संभा र ीरघबु ीर धीर पचा र किप रावनु ह यो।


मिह परत पिु न उिठ लरत देव ह जुगल कहँ जय जय भ यो॥
हनम ु ंत संकट देिख मकट भालु ोधातरु चले।
रन म रावन सकल सभ ु ट चंड भजु बल दलमले॥

ी रघुवीर का मरण करके धीर हनुमान ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोन प ृ वी पर िगरते
और िफर उठकर लड़ते ह; देवताओं ने दोन क 'जय-जय' पुकारी। हनुमान पर संकट देखकर
वानर-भालू ोधातुर होकर दौड़े , िकंतु रण-मद-माते रावण ने सब यो ाओं को अपनी चंड
भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।

दो० - तब रघब
ु ीर पचारे धाए क स चंड।
किप बल बल देिख तेिहं क ह गट पाषंड॥ 95॥

तब रघुवीर के ललकारने पर चंड वीर वानर दौड़े । वानर के बल दल को देखकर रावण ने


माया कट क ॥ 95॥

अंतरधान भयउ छन एका। पिु न गटे खल प अनेका॥


रघपु ित कटक भालु किप जेत।े जहँ तहँ गट दसानन तेत॥े

णभर के िलए वह अ य हो गया। िफर उस दु ने अनेक प कट िकए। रघुनाथ क सेना म


िजतने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चार ओर) कट हो गए।

देखे किप ह अिमत दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अ क सा॥


भागे बानर धरिहं न धीरा। ािह ािह लिछमन रघबु ीरा॥

वानर ने अप रिमत रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर
धीरज नह धरते। हे ल मण! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, य पुकारते हए वे भागे जा रहे ह।
दहँ िदिस धाविहं कोिट ह रावन। गजिहं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सरु चले पराई। जय कै आस तजह अब भाई॥

दस िदशाओं म करोड़ रावण दौड़ते ह और घोर, कठोर भयानक गजन कर रहे ह। सब देवता डर
गए और ऐसा कहते हए भाग चले िक हे भाई! अब जय क आशा छोड़ दो!

सब सरु िजते एक दसकंधर। अब बह भए तकह िग र कंदर॥


रहे िबरं िच संभु मिु न यानी। िज ह िज ह भु मिहमा कछु जानी॥

एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत िलया था, अब तो बहत-से रावण हो गए ह। इससे अब


पहाड़ क गुफाओं का आ य लो (अथात उनम िछप रहो)। वहाँ ा, शंभु और ानी मुिन ही डटे
रहे , िज ह ने भु क कुछ मिहमा जानी थी।

छं ० - जाना ताप ते रहे िनभय किप ह रपु माने फुरे ।


चले िबचिल मकट भालु सकल कृपाल पािह भयातरु े ॥
हनम ु ंत अंगद नील नल अितबल लरत रन बाँकुरे ।
मदिहं दसानन कोिट कोिट ह कपट भू भट अंकुरे ॥

जो भु का ताप जानते थे, वे िनभय डटे रहे । वानर ने श ुओ ं (बहत-से रावण ) को स चा ही


मान िलया। (इससे) सब वानर-भालू िवचिलत होकर 'हे कृपालु! र ा क िजए' (य पुकारते हए)
भय से याकुल होकर भाग चले। अ यंत बलवान रणबाँकुरे हनुमान, अंगद, नील और नल लड़ते
ह और कपट पी भिू म से अंकुर क भाँित उपजे हए कोिट-कोिट यो ा रावण को मसलते ह।

दो० - सरु बानर देखे िबकल हँ यो कोसलाधीस।


सिज सारं ग एक सर हते सकल दससीस॥ 96॥

देवताओं और वानर को िवकल देखकर कोसलपित राम हँसे और शागधनुष पर एक बाण


चढ़ाकर (माया के बने हए) सब रावण को मार डाला॥ 96॥

भु छन महँ माया सब काटी। िजिम रिब उएँ जािहं तम फाटी॥


रावनु एकु देिख सरु हरषे। िफरे सम
ु न बह भु पर बरषे॥

भु ने णभर म सब माया काट डाली। जैसे सय


ू के उदय होते ही अंधकार क रािश फट जाती है
(न हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हिषत हए और उ ह ने लौटकर भु पर
बहत-से पु प बरसाए।

भज
ु उठाइ रघप ु ित किप फेरे । िफरे एक एक ह तब टेरे॥
भु बलु पाइ भालु किप धाए। तरल तमिक संजुग मिह आए॥
रघुनाथ ने भुजा उठाकर सब वानर को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट
आए। भु का बल पाकर रीछ-वानर दौड़ पड़े । ज दी से कूदकर वे रणभिू म म आ गए।

अ तिु त करत देवति ह देख। भयउँ एक म इ ह के लेख॥


सठह सदा तु ह मोर मरायल। अस किह कोिप गगन पर धायल॥

देवताओं को राम क तुित करते देख कर रावण ने सोचा, म इनक समझ म एक हो गया।
(परं तु इ ह यह पता नह िक इनके िलए म एक ही बहत हँ) और कहा - अरे मख
ू ! तुम तो सदा
के ही मेरे मरै ल (मेरी मार खानेवाले) हो। ऐसा कहकर वह ोध करके आकाश पर (देवताओं क
ओर) दौड़ा।

हाहाकार करत सरु भागे। खलह जाह कहँ मोर आगे॥


देिख िबकल सरु अंगद धायो। कूिद चरन गिह भूिम िगरायो॥

देवता हाहाकार करते हए भागे। (रावण ने कहा -) दु ो! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं
को याकुल देखकर अंगद दौड़े और उछलकर रावण का पैर पकड़कर (उ ह ने) उसको प ृ वी पर
िगरा िदया।

छं ० - गिह भूिम पारयो


् लात मारयो
् बािलसत
ु भु पिहं गयो।
संभा र उिठ दसकंठ घोर कठोर रव गजत भयो॥
क र दाप चाप चढ़ाइ दस संधािन सर बह बरषई।
िकए सकल भट घायल भयाकुल देिख िनज बल हरषई॥

उसे पकड़कर प ृ वी पर िगराकर लात मारकर बािलपु अंगद भु के पास चले गए। रावण
सँभलकर उठा और बड़े भंयकर कठोर श द से गरजने लगा। वह दप करके दस धनुष चढ़ाकर
उन पर बहत-से बाण संधान करके बरसाने लगा। उसने सब यो ाओं को घायल और भय से
याकुल कर िदया और अपना बल देखकर वह हिषत होने लगा।

ु ित रावन के सीस भज
दो० - तब रघप ु ा सर चाप।
काटे बहत बढ़े पिु न िजिम तीरथ कर पाप॥ 97॥

तब रघुनाथ ने रावण के िसर, भुजाएँ , बाण और धनुष काट डाले। पर वे िफर बहत बढ़ गए, जैसे
तीथ म िकए हए पाप बढ़ जाते ह (कई गुना अिधक भयानक फल उ प न करते ह)!॥ 97॥

ु बािढ़ देिख रपु केरी। भालु किप ह रस भई घनेरी॥


िसर भज
मरत न मूढ़ कटेहँ भज
ु सीसा। धाए कोिप भालु भट क सा॥

श ु के िसर और भुजाओं क बढ़ती देखकर रीछ-वानर को बहत ही ोध हआ। यह मख


ू भुजाओं
के और िसर के कटने पर भी नह मरता, (ऐसा कहते हए) भालू और वानर यो ा ोध करके
दौड़े ।

बािलतनय मा ित नल नीला। बानरराज दिु बद बलसीला॥


िबटप महीधर करिहं हारा। सोइ िग र त गिह किप ह सो मारा॥

बािलपु अंगद, मा ित हनुमान, नल, नील, वानरराज सु ीव और ि िवद आिद बलवान उस पर


व ृ और पवत का हार करते ह। वह उ ह पवत और व ृ को पकड़कर वानर को मारता है।

एक नखि ह रपु बपषु िबदारी। भािग चलिहं एक लात ह मारी।


तब नल नील िसरि ह चिढ़ गयऊ। नखि ह िललार िबदारत भयऊ॥

कोई एक वानर नख से श ु के शरीर को फाड़कर भाग जाते ह, तो कोई उसे लात से मारकर।
तब नल और नील रावण के िसर पर चढ़ गए और नख से उसके ललाट को फाड़ने लगे।

िधर देिख िबषाद उर भारी। ित हिह धरन कहँ भज


ु ा पसारी॥
गहे न जािहं करि ह पर िफरह । जनु जुग मधप
ु कमल बन चरह ॥

खनू देखकर उसे दय म बड़ा दुःख हआ। उसने उनको पकड़ने के िलए हाथ फै लाए, पर वे पकड़
म नह आते, हाथ के ऊपर-ऊपर ही िफरते ह मानो दो भ रे कमल के वन म िवचरण कर रहे ह ।

कोिप कूिद ौ धरे िस बहोरी। मिह पटकत भजे भजु ा मरोरी॥


पिु न सकोप दस धनु कर ली हे। सरि ह मा र घायल किप क हे॥

तब उसने ोध करके उछलकर दोन को पकड़ िलया। प ृ वी पर पटकते समय वे उसक भुजाओं
को मरोड़कर भाग छूटे। िफर उसने ोध करके हाथ म दस धनुष िलए और वानर को बाण से
मारकर घायल कर िदया।

हनमु दािद मु िछत क र बंदर। पाइ दोष हरष दसकंधर॥


मु िछत देिख सकल किप बीरा। जामवंत धायउ रनधीरा॥

हनुमान आिद सब वानर को मिू छत करके और सं या का समय पाकर रावण हिषत हआ।
सम त वानर-वीर को मिू छत देखकर रणधीर जा बवान दौड़े ।

संग भालु भूधर त धारी। मारन लगे पचा र पचारी॥


भयउ ु रावन बलवाना। गिह पद मिह पटकइ भट नाना॥

जा बवान के साथ जो भालू थे, वे पवत और व ृ धारण िकए रावण को ललकार-ललकार कर


मारने लगे। बलवान रावण ोिधत हआ और पैर पकड़-पकड़कर वह अनेक यो ाओं को प ृ वी
पर पटकने लगा।

देिख भालुपित िनज दल घाता। कोिप माझ उर मारे िस लाता॥

जा बवान ने अपने दल का िव वंस देखकर ोध करके रावण क छाती म लात मारी।

छं ० - उर लात घात चंड लागत िबकल रथ ते मिह परा।


गिह भालु बीसहँ कर मनहँ कमलि ह बसे िनिस मधक ु रा॥
मु िछत िबलोिक बहो र पद हित भालपु ित भु पिहं गयो॥
िनिस जािन यंदन घािल तेिह तब सूत जतनु करय भयो॥

छाती म लात का चंड आघात लगते ही रावण याकुल होकर रथ से प ृ वी पर िगर पड़ा। उसने
बीस हाथ म भालओ ू ं को पकड़ रखा था। (ऐसा जान पड़ता था) मानो राि के समय भ रे कमल
म बसे हए ह । उसे मिू छत देखकर, िफर लात मारकर ऋ राज जा बवान भु के पास चले। राि
जानकर सारथी रावण को रथ म डालकर उसे होश म लाने का उपाय करने लगा।

दो० - मु छा िबगत भालु किप सब आए भु पास।


िनिसचर सकल रावनिह घे र रहे अित ास॥ 98॥

मू छा दूर होने पर सब रीछ-वानर भु के पास आए। उधर सब रा स ने बहत ही भयभीत


होकर रावण को घेर िलया॥ 98॥
तेही िनिस सì#2368;ता पिहं जाई। ि जटा किह सब कथा सनु ाई॥
िसर भज ु त रपु केरी। सीता उर भइ ास घनेरी॥
ु बािढ़ सन

उसी रात ि जटा ने सीता के पास जाकर उ ह सब कथा कह सुनाई। श ु के िसर और भुजाओं क
बढ़ती का संवाद सुनकर सीता के दय म बड़ा भय हआ।

मखु मलीन उपजी मन िचंता। ि जटा सन बोली तब सीता॥


होइिह कहा कहिस िकन माता। केिह िबिध म रिह िब व दःु खदाता॥

(उनका) मुख उदास हो गया, मन म िचंता उ प न हो गई। तब सीता ि जटा से बोल - हे माता!
बताती य नह ? या होगा? संपण ू िव को दुःख देनेवाला यह िकस कार मरे गा?

रघप
ु ित सर िसर कटेहँ न मरई। िबिध िबपरीत च रत सब करई॥
मोर अभा य िजआवत ओही। जेिहं ह ह र पद कमल िबछोही॥

रघुनाथ के बाण से िसर कटने पर भी नह मरता। िवधाता सारे च र िवपरीत (उलटे) ही कर रहा
है। (सच बात तो यह है िक) मेरा दुभा य ही उसे िजला रहा है, िजसने मुझे भगवान के
चरणकमल से अलग कर िदया है।

जेिहं कृत कपट कनक मग ृ झूठा। अजहँ सो दैव मोिह पर ठा॥


जेिहं िबिध मोिह दःु ख दस
ु ह सहाए। लिछमन कहँ कटु बचन कहाए॥

िजसने कपट का झठ ू ा वण मग
ृ बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर ठा हआ है, िजस िवधाता
ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और ल मण को कड़वे वचन कहलाए,

रघप
ु ित िबरह सिबष सर भारी। तिक तिक मार बार बह मारी॥
ऐसेहँ दःु ख जो राख मम ाना। सोइ िबिध तािह िजआव न आना॥

जो रघुनाथ के िवरह पी बड़े िवषैले बाण से तक-तककर मुझे बहत बार मारकर, अब भी मार
रहा है; और ऐसे दुःख म भी जो मेरे ाण को रख रहा है, वही िवधाता उस (रावण) को िजला रहा
है, दूसरा कोई नह ।

बह िबिध कर िबलाप जानक । क र क र सरु ित कृपािनधान क ॥


कह ि जटा सनु ु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सरु ारी॥

कृपािनधान राम क याद कर-करके जानक बहत कार से िवलाप कर रही ह। ि जटा ने कहा -
हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का श ु रावण दय म बाण लगते ही मर जाएगा।

भु ताते उर हतइ न तेही। एिह के दयँ बसित बैदहे ी॥

परं तु भु उसके दय म बाण इसिलए नह मारते िक इसके दय म जानक (आप) बसती ह।

छं ० - एिह के दयँ बस जानक जानक उर मम बास है।


मम उदर भअ ु न अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सिु न बचन हरष िबषाद मन अित देिख पिु न ि जटाँ कहा।
अब म रिह रपु एिह िबिध सनु िह संदु र तजिह संसय महा॥

(वे यही सोचकर रह जाते ह िक) इसके दय म जानक का िनवास है, जानक के दय म मेरा
िनवास है और मेरे उदर म अनेक भुवन ह। अतः रावण के दय म बाण लगते ही सब भुवन का
नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीता के मन म अ यंत हष और िवषाद हआ देखकर ि जटा
ने िफर कहा - हे सुंदरी! महान संदेह का याग कर दो; अब सुनो, श ु इस कार मरे गा -

दो० - काटत िसर होइिह िबकल छुिट जाइिह तव यान।


तब रावनिह दय महँ म रहिहं रामु सज
ु ान॥ 99॥

िसर के बार-बार काटे जाने से जब वह याकुल हो जाएगा और उसके दय से तु हारा यान छूट
जाएगा, तब सुजान (अंतयामी) राम रावण के दय म बाण मारगे॥ 99॥

अस किह बहत भाँित समझ ु ाई। पिु न ि जटा िनज भवन िसधाई॥
ु ाउ सिु म र बैदहे ी। उपजी िबरह िबथा अित तेही॥
राम सभ

ऐसा कहकर और सीता को बहत कार से समझाकर िफर ि जटा अपने घर चली गई। राम के
वभाव का मरण करके जानक को अ यंत िवरह यथा उ प न हई।

िनिसिह सिसिह िनंदित बह भाँित। जुग सम भई िसराित न राती॥


करित िबलाप मनिहं मन भारी। राम िबरहँ जानक दख ु ारी॥

वे राि क और चं मा क बहत कार से िनंदा कर रही ह (और कह रही ह -) रात युग के


समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नह । जानक राम के िवरह म दुःखी होकर मन ही मन भारी
िवलाप कर रही ह।

जब अित भयउ िबरह उर दाह। फरकेउ बाम नयन अ बाह॥


सगनु िबचा र धरी मन धीरा। अब िमिलहिहं कृपाल रघब
ु ीरा॥

जब िवरह के मारे दय म दा ण दाह हो गया, तब उनका बायाँ ने और बाह फड़क उठे । शकुन
समझकर उ ह ने मन म धैय धारण िकया िक अब कृपालु रघुवीर अव य िमलगे।

इहाँ अधिनिस रावनु जागा। िनज सारिथ सन खीझन लागा।


सठ रनभूिम छड़ाइिस मोही। िधग िधग अधम मंदमित तोही॥

यहाँ आधी रात को रावण (मू छा से) जगा और अपने सारथी पर होकर कहने लगा - अरे
मख ू े मुझे रणभिू म से अलग कर िदया। अरे अधम! अरे मंदबुि ! तुझे िध कार है, िध कार
ू ! तन
है!

तेिहं पद गिह बह िबिध समझ


ु ावा। भो भएँ रथ चिढ़ पिु न धावा॥
सिु न आगवनु दसानन केरा। किप दल खरभर भयउ घनेरा॥

सारथी ने चरण पकड़कर रावण को बहत कार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर
िफर दौड़ा। रावण का आना सुनकर वानर क सेना म बड़ी खलबली मच गई।

जहँ तहँ भूधर िबटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥

वे भारी यो ा जहाँ-तहाँ से पवत और व ृ उखाड़कर ( ोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े ।

छं ० - धाए जो मकट िबकट भालु कराल कर भूधर धरा।


अित कोप करिहं हार मारत भिज चले रजनीचरा॥
िबचलाइ दल बलवंत क स ह घे र पिु न रावनु िलयो।
चहँ िदिस चपेटि ह मा र नखि ह िबदा र तन याकुल िकयो॥

िवकट और िवकराल वानर-भालू हाथ म पवत िलए दौड़े । वे अ यंत ोध करके हार करते ह।
उनके मारने से रा स भाग चले। बलवान वानर ने श ु क सेना को िवचिलत करके िफर रावण
को घेर िलया। चार ओर से चपेटे मारकर और नख से शरीर िवदीण कर वानर ने उसको
याकुल कर िदया॥

दो० - देिख महा मकट बल रावन क ह िबचार।


अंतरिहत होइ िनिमष महँ कृत माया िब तार॥ 100॥

वानर को बड़ा ही बल देखकर रावण ने िवचार िकया और अंतधान होकर णभर म उसने
माया फै लाई॥ 100॥

छं ० - जब क ह तेिहं पाषंड। भए गट जंतु चंड॥


बेताल भूत िपसाच। कर धर धनु नाराच॥

जब उसने पाखंड (माया) रचा, तब भयंकर जीव कट हो गए। बेताल, भत


ू और िपशाच हाथ म
धनुष-बाण िलए कट हए!

जोिगिन गह करबाल। एक हाथ मनजु कपाल॥


क र स सोिनत पान। नाचिहं करिहं बह गान॥

योिगिनयाँ एक हाथ म तलवार और दूसरे हाथ म मनु य क खोपड़ी िलए ताजा खन


ू पीकर
नाचने और बहत तरह के गीत गाने लग ।

ध मा बोलिहं घोर। रिह पू र धिु न चहँ ओर॥


मख
ु बाइ धाविहं खान। तब लगे क स परान॥

वे 'पक़ड़ो, मारो' आिद घोर श द बोल रही ह। चार ओर (सब िदशाओं म) यह विन भर गई। वे
मुख फै लाकर खाने दौड़ती ह। तब वानर भागने लगे।

जहँ जािहं मकट भािग। तहँ बरत देखिहं आिग॥


भए िबकल बानर भाल।ु पिु न लाग बरषै बाल॥ु

वानर भागकर जहाँ भी जाते ह, वह आग जलती देखते ह। वानर-भालू याकुल हो गए। िफर
रावण बालू बरसाने लगा।
जहँ तहँ थिकत क र क स। गजउ बह र दससीस॥
लिछमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥

वानर को जहाँ-तहाँ थिकत (िशिथल) कर रावण िफर गरजा। ल मण और सु ीव सिहत सभी


वीर अचेत हो गए।

हा राम हा रघन
ु ाथ। किह सभ
ु ट मीजिहं हाथ॥
ऐिह िबिध सकल बल तो र। तेिहं क ह कपट बहो र॥

हा राम! हा रघुनाथ! पुकारते हए े यो ा अपने हाथ मलते (पछताते) ह। इस कार सब का


बल तोड़कर रावण ने िफर दूसरी माया रची।

गटेिस िबपल ु हनम ु ान। धाए गहे पाषान॥


ित ह रामु घेरे जाइ। चहँ िदिस ब थ बनाइ॥

उसने बहत-से हनुमान कट िकए, जो प थर िलए दौड़े । उ ह ने चार ओर दल बनाकर राम को


जा घेरा।

मारह धरह जिन जाइ। कटकटिहं पूँछ उठाइ॥


दहँ िदिस लँगूर िबराज। तेिहं म य कोसलराज॥

ू उठाकर कटकटाते हए पुकारने लगे, 'मारो, पकड़ो, जाने न पावे'। उनके लंगरू (पँछ
वे पँछ ू ) दस
िदशाओं म शोभा दे रहे ह और उनके बीच म कोसलराज राम ह।

छं ० - तेिहं म य कोसलराज संदु र याम तन सोभा लही।


जनु इं धनष ु अनेक क बर बा र तगंु तमालही॥
भु देिख हरष िबषाद उर सरु बदत जय जय जय करी।
रघब ु ीर एकिहं तीर कोिप िनमेष महँ माया हरी॥

उनके बीच म कोसलराज का सुंदर याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल व ृ के
िलए अनेक इं धनुष क े बाड़ (घेरा) बनाई गई हो। भु को देखकर देवता हष और
िवषादयु दय से 'जय, जय, जय' ऐसा बोलने लगे। तब रघुवीर ने ोध करके एक ही बाण म
िनमेषमा म रावण क सारी माया हर ली।

माया िबगत किप भालु हरषे िबटप िग र गिह सब िफरे ।


सर िनकर छाड़े राम रावन बाह िसर पिु न मिह िगरे ॥
ीराम रावन समर च रत अनेक क प जो गावह ।
सत सेष सारद िनगम किब तेउ तदिप पार न पावह ॥
माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हिषत हए और व ृ तथा पवत ले-लेकर सब लौट पड़े । राम ने
बाण के समहू छोड़े , िजनसे रावण के हाथ और िसर िफर कट-कटकर प ृ वी पर िगर पड़े । ी राम
और रावण के यु का च र यिद सैकड़ शेष, सर वती, वेद और किव अनेक क प तक गाते
रह, तो भी उसका पार नह पा सकते।

दो० - ताके गन
ु गन कछु कहे जड़मित तल
ु सीदास।
िजिम िनज बल अनु प ते माछी उड़इ अकास॥ 101(क)॥

उसी च र के कुछ गुणगण मंद बुि तुलसीदास ने कहे ह, जैसे म खी भी अपने पु षाथ के
अनुसार आकाश म उड़ती है॥ 101(क)॥

ु बार बह मरत न भट लंकेस।


काटे िसर भज
भु ड़त सरु िस मिु न याकुल देिख कलेस॥ 101(ख)॥

िसर और भुजाएँ बहत बार काटी गई ं। िफर भी वीर रावण मरता नह । भु तो खेल कर रहे ह; परं तु
मुिन, िस और देवता उस लेश को देखकर ( भु को लेश पाते समझकर) याकुल ह॥
101(ख)॥

काटत बढ़िहं सीस समदु ाई। िजिम ित लाभ लोभ अिधकाई॥


मरइ न रपु म भयउ िबसेषा। राम िबभीषन तन तब देखा॥

काटते ही िसर का समहू बढ़ जाता है, जैसे येक लाभ पर लोभ बढ़ता है। श ु मरता नह और
प र म बहत हआ। तब राम ने िवभीषण क ओर देखा।

उमा काल मर जाक ईछा। सो भु जन कर ीित परीछा॥


सन
ु ु सरब य चराचर नायक। नतपाल सरु मिु न सख
ु दायक॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! िजसक इ छा मा से काल भी मर जाता है, वही भु सेवक क ीित
क परी ा ले रहे ह। (िवभीषण ने कहा -) हे सव ! हे चराचर के वामी! हे शरणागत के पालन
करनेवाले! हे देवता और मुिनय को सुख देनेवाले! सुिनए -

नािभकंु ड िपयूष बस याक। नाथ िजअत रावनु बल ताक॥


सन
ु त िबभीषन बचन कृपाला। हरिष गहे कर बान कराला॥

इसके नािभकुंड म अमत ृ का िनवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। िवभीषण के
वचन सुनते ही कृपालु रघुनाथ ने हिषत होकर हाथ म िवकराल बाण िलए।

असभु होन लागे तब नाना। रोविहं खर सक


ृ ाल बह वाना॥
बोलिहं खग जग आरित हेत।ू गट भए नभ जहँ तहँ केत॥ू
उस समय नाना कार के अपशकुन होने लगे। बहत-से गदहे , िसयार और कु े रोने लगे। जगत
के दुःख (अशुभ) को सिू चत करने के िलए प ी बोलने लगे। आकाश म जहाँ-तहाँ केतु (पु छल
तारे ) कट हो गए।

दस िदिस दाह होन अित लागा। भयउ परब िबनु रिब उपरागा॥
मंदोद र उर कंपित भारी। ितमा विहं नयन मग बारी॥

दस िदशाओं म अ यंत दाह होने लगा (आग लगने लगी)। िबना ही पव (योग) के सय ू हण होने
लगा। मंदोदरी का दय बहत काँपने लगा। मिू तयाँ ने -माग से जल बहाने लग ।

छं ० - ितमा दिहं पिबपात नभ अित बात बह डोलित मही।


बरषिहं बलाहक िधर कच रज असभ ु अित सक को कही॥
उतपात अिमत िबलोिक नभ सरु िबकल बोलिहं जय जए।
सरु सभय जािन कृपाल रघपु ित चाप सर जोरत भए॥

मिू तयाँ रोने लग , आकाश से व पात होने लगे, अ यंत चंड वायु बहने लगी, प ृ वी िहलने लगी,
बादल र , बाल और धल ू क वषा करने लगे। इस कार इतने अिधक अमंगल होने लगे िक
उनको कौन कह सकता है? अप रिमत उ पात देखकर आकाश म देवता याकुल होकर जय-
जय पुकार उठे । देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु रघुनाथ धनुष पर बाण संधान करने लगे।

दो० - खिच सरासन वन लिग छाड़े सर एकतीस।


रघन
ु ायक सायक चले मानहँ काल फनीस॥ 102॥

कान तक धनुष को ख चकर रघुनाथ ने इकतीस बाण छोड़े । वे राम के बाण ऐसे चले मानो
कालसप ह ॥ 102॥

सायक एक नािभ सर सोषा। अपर लगे भज ु िसर क र रोषा॥


लै िसर बाह चले नाराचा। िसर भज
ु हीन ं ड मिह नाचा॥

एक बाण ने नािभ के अमतृ कुंड को सोख िलया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके िसर और
भुजाओं म लगे। बाण िसर और भुजाओं को लेकर चले। िसर और भुजाओं से रिहत ं ड (धड़)
प ृ वी पर नाचने लगा।

धरिन धसइ धर धाव चंडा। तब सर हित भु कृत दइु खंडा॥


गजउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हत पचारी॥

धड़ चंड वेग से दौड़ता है, िजससे धरती धँसने लगी। तब भु ने बाण मारकर उसके दो टुकड़े
कर िदए। मरते समय रावण बड़े घोर श द से गरजकर बोला - राम कहाँ ह? म ललकारकर
उनको यु म मा ँ !

डोली भूिम िगरत दसकंधर। छुिभत िसंधु स र िद गज भूधर॥


धरिन परे उ ौ खंड बढ़ाई। चािप भालु मकट समदु ाई॥

रावण के िगरते ही प ृ वी िहल गई। समु , निदयाँ, िदशाओं के हाथी और पवत ु ध हो उठे । रावण
धड़ के दोन टुकड़ को फै लाकर भालू और वानर के समुदाय को दबाता हआ प ृ वी पर िगर पड़ा।

मंदोद र आग भज
ु सीसा। ध र सर चले जहाँ जगदीसा॥
िबसे सब िनषंग महँ जाई। देिख सरु ह ददुं भ
ु बजाई॥

रावण क भुजाओं और िसर को मंदोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदी र
राम थे। सब बाण जाकर तरकस म वेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।

तासु तेज समान भु आनन। हरषे देिख संभु चतरु ानन॥


जय जय धिु न पूरी ंडा। जय रघब
ु ीर बल भज ु दंडा॥

रावण का तेज भु के मुख म समा गया। यह देखकर िशव और ा हिषत हए। ांड भर म
जय-जय क विन भर गई। बल भुजदंड वाले रघुवीर क जय हो।

बरषिहं सुमन देव मुिन बंदृ ा। जय कृपाल जय जयित मुकुंदा॥

देवता और मुिनय के समहू फूल बरसाते ह और कहते ह - कृपालु क जय हो, मुकुंद क जय हो,
जय हो!

छं ० - जय कृपा कंद मकु ंु द दं हरन सरन सख ु द भो।


खल दल िबदारन परम कारन का नीक सदा िबभो॥
सरु सम ु न बरषिहं हरष संकुल बाज ददुं िु भ गहगही।
सं ाम अंगन राम अंग अनंग बह सोभा लही॥

हे कृपा के कंद! हे मो दाता मुकुंद! हे (राग- ेष, हष-शोक, ज म-म ृ यु आिद) ं के


हरनेवाले! हे शरणागत को सुख देनेवाले भो! हे दु दल को िवदीण करनेवाले! हे कारण के
भी परम कारण! हे सदा क णा करनेवाले! हे सव यापक िवभो! आपक जय हो। देवता हष म भरे
हए पु प बरसाते ह, घमाघम नगाड़े बज रहे ह। रणभिू म म राम के अंग ने बहत-से कामदेव क
शोभा ा क ।

िसर जटा मक ु ु ट सून िबच िबच अित मनोहर राजह ।


जनु नीलिग र पर तिड़त पटल समेत उडुगन ाजह ॥
भजु दंड सर कोदंड फेरत िधर कन तन अित बने।
जनु रायमन
ु तमाल पर बैठ िबपल
ु सख
ु आपने॥

िसर पर जटाओं का मुकुट है, िजसके बीच-बीच म अ यंत मनोहर पु प शोभा दे रहे ह। मानो नीले
पवत पर िबजली के समहू सिहत न सुशोिभत हो रहे ह। राम अपने भुजदंड से बाण और धनुष
िफरा रहे ह। शरीर पर िधर के कण अ यंत सुंदर लगते ह। मानो तमाल के व ृ पर बहत-सी
ललमुिनयाँ िचिड़याँ अपने महान सुख म म न हई िन ल बैठी ह ।

दो० - कृपा ि क र बिृ भु अभय िकए सरु बंदृ ।


भालु क स सब हरषे जय सख
ु धाम मकु ंु द॥ 103॥

भु राम ने कृपा ि क वषा करके देव समहू को िनभय कर िदया। वानर-भालू सब हिषत हए
और सुखधाम मुकुंद क जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥ 103॥

पित िसर देखत मंदोदरी। मु िछत िबकल धरिन खिस परी॥


जुबित बंदृ रोवत उिठ धाई ं। तेिह उठाइ रावन पिहं आई ं॥

पित के िसर देखते ही मंदोदरी याकुल और मिू छत होकर धरती पर िगर पड़ी। ि याँ रोती हई
उठ दौड़ और उस (मंदोदरी) को उठाकर रावण के पास आई ं।

पित गित देिख ते करिहं पक


ु ारा। छूटे कच निहं बपष
ु सँभारा॥
उर ताड़ना करिहं िबिध नाना। रोवत करिहं ताप बखाना॥

पित क दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लग । उनके बाल खुल गए, देह क संभाल नह
रही। वे अनेक कार से छाती पीटती ह और रोती हई रावण के ताप का बखान करती ह।

तव बल नाथ डोल िनत धरनी। तेज हीन पावक सिस तरनी॥


सेष कमठ सिह सकिहं न भारा। सो तनु भूिम परे उ भ र छारा॥

(वे कहती ह -) हे नाथ! तु हारे बल से प ृ वी सदा काँपती रहती थी। अि न, चं मा और सय



तु हारे सामने तेजहीन थे। शेष और क छप भी िजसका भार नह सह सकते थे, वही तु हारा
शरीर आज धल ू म भरा हआ प ृ वी पर पड़ा है!

ब न कुबेर सरु े स समीरा। रन स मख


ु ध र काहँ न धीरा॥
भज
ु बल िजतेह काल जम साई ं। आजु परे ह अनाथ क नाई ं॥

व ण, कुबेर, इं और वायु, इनम से िकसी ने भी रण म तु हारे सामने धैय धारण नह िकया। हे


वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत िलया था। वही तुम आज अनाथ
क तरह पड़े हो।
जगत िबिदत तु हा र भत
ु ाई। सतु प रजन बल बरिन न जाई॥
राम िबमख
ु अस हाल तु हारा। रहा न कोउ कुल रोविनहारा॥

तु हारी भुता जगत भर म िस है। तु हारे पु और कुटुंिबय के बल का हाय! वणन ही नह


हो सकता। राम के िवमुख होने से तु हारी ऐसी दुदशा हई िक आज कुल म कोई रोनेवाला भी न
रह गया।

तव बस िबिध चंड सब नाथा। सभय िदिसप िनत नाविहं माथा॥


अब तव िसर भज
ु जंबक
ु खाह । राम िबमख
ु यह अनिु चत नाह ॥

हे नाथ! िवधाता क सारी सिृ तु हारे वश म थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको म तक
नवाते थे, िकंतु हाय! अब तु हारे िसर और भुजाओं को गीदड़ खा रहे ह। राम िवमुख के िलए ऐसा
होना अनुिचत भी नह है (अथात उिचत ही है)।

काल िबबस पित कहा न माना। अग जग नाथु मनज


ु क र जाना॥

हे पित! काल के पण
ू वश म होने से तुमने (िकसी का) कहना नह माना और चराचर के नाथ
परमा मा को मनु य करके जाना।

छं ० - जा यो मनज
ु क र दनज ु कानन दहन पावक ह र वयं।
जेिह नमत िसव ािद सरु िपय भजेह निहं क नामयं॥
आज म ते पर ोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तु हह िदयो िनज धाम राम नमािम िनरामयं॥

दै य पी वन को जलाने के िलए अि न व प सा ात ह र को तुमने मनु य करके जाना। िशव


और ा आिद देवता िजनको नम कार करते ह, उन क णामय भगवान को हे ि यतम! तुमने
नह भजा। तु हारा यह शरीर ज म से ही दूसर से ोह करने म त पर तथा पाप समहू मय रहा!
इतने पर भी िजन िनिवकार राम ने तुमको अपना धाम िदया, उनको म नम कार करती हँ।

दो० - अहह नाथ रघन ु ाथ सम कृपािसंधु निहं आन।


जोिग बंदृ दल
ु भ गित तोिह दीि ह भगवान॥ 104॥

अहह! नाथ! रघुनाथ के समान कृपा का समु दूसरा कोई नह है, िजन भगवान ने तुमको वह
गित दी, जो योिगसमाज को भी दुलभ है॥ 104॥

मंदोदरी बचन सिु न काना। सरु मिु न िस सबि ह सख


ु माना॥
अज महेस नारद सनकादी। जे मिु नबर परमारथबादी॥

मंदोदरी के वचन कान म सुनकर देवता, मुिन और िस सभी ने सुख माना। ा, महादेव,
नारद और सनकािद तथा और भी जो परमाथवादी (परमा मा के त व को जानने और कहनेवाले)
े मुिन थे।

भ र लोचन रघप े मगन सब भए सख


ु ितिह िनहारी। म ु ारी॥
दन करत देख सब नारी। गयउ िबभीषनु मनु दःु ख भारी॥

वे सभी रघुनाथ को ने भरकर िनरखकर ेमम न हो गए और अ यंत सुखी हए। अपने घर क


सब ि य को रोती हई देखकर िवभीषण के मन म बड़ा भारी दुःख हआ और वे उनके पास गए।

बंधु दसा िबलोिक दःु ख क हा। तब भु अनज ु िह आयसु दी हा॥


लिछमन तेिह बह िबिध समझ ु ायो। बह र िबभीषन भु पिहं आयो॥

उ ह ने भाई क दशा देखकर दुःख िकया। तब भु राम ने छोटे भाई को आ ा दी (िक जाकर
िवभीषण को धैय बँधाओ)। ल मण ने उ ह बहत कार से समझाया। तब िवभीषण भु के पास
लौट आए।

कृपा ि भु तािह िबलोकì#2366;। करह ि या प रह र सब सोका॥


क ि ह ि या भु आयसु मानी। िबिधवत देस काल िजयँ जानी॥

भु ने उनको कृपापण
ू ि से देखा (और कहा -) सब शोक यागकर रावण क अं येि ि या
करो। भु क आ ा मानकर और दय म देश और काल का िवचार करके िवभीषण ने िविधपवू क
सब ि या क ।

दो० - मंदोदरी आिद सब देह ितलांजिल तािह।


भवन गई ं रघपु ित गन
ु गन बरनत मन मािह॥ 105॥

मंदोदरी आिद सब ि याँ उसे (रावण को) ितलांजिल देकर मन म रघुनाथ के गुणसमहू का
वणन करती हई महल को गई ं॥ 105॥

आइ िबभीषन पिु न िस नायो। कृपािसंधु तब अनज


ु बोलायो॥
तु ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मा ित नयसीला॥
सब िमिल जाह िबभीषन साथा। सारे ह ितलक कहेउ रघन
ु ाथा॥
िपता बचन म नगर न आवउँ । आपु स रस किप अनज ु पठावउँ ॥

सब ि या-कम करने के बाद िवभीषण ने आकर पुनः िसर नवाया। तब कृपा के समु राम ने
छोटे भाई ल मण को बुलाया। रघुनाथ ने कहा िक तुम, वानरराज सु ीव, अंगद, नल, नील
जा बवान और मा ित सब नीितिनपुण लोग िमलकर िवभीषण के साथ जाओ और उ ह
राजितलक कर दो। िपता के वचन के कारण म नगर म नह आ सकता। पर अपने ही समान
वानर और छोटे भाई को भेजता हँ।

तरु त चले किप सिु न भु बचना। क ही जाइ ितलक क रचना॥


सादर िसंहासन बैठारी। ितलक सा र अ तिु त अनस
ु ारी॥

भु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उ ह ने जाकर राजितलक क सारी यव था क ।


आदर के साथ िवभीषण को िसंहासन पर बैठाकर राजितलक िकया और तुित क ।

जो र पािन सबह िसर नाए। सिहत िबभीषन भु पिहं आए॥


तब रघबु ीर बोिल किप ली हे। किह ि य बचन सख
ु ी सब क हे॥

सभी ने हाथ जोड़कर उनको िसर नवाए। तदनंतर िवभीषण सिहत सब भु के पास आए। तब
रघुवीर ने वानर को बुला िलया और ि य वचन कहकर सबको सुखी िकया।

छं ० - िकए सखु ी किह बानी सधु ा सम बल तु हार रपु हयो।


पायो िबभीषन राज ितहँ परु जसु तु हारो िनत नयो॥
मोिह सिहत सभ ु क रित तु हारी परम ीित जो गाइह।
संसार िसंधु अपार पार यास िबनु नर पाइह॥

भगवान ने अमत ृ के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी िकया िक तु हारे ही बल से यह बल


श ु मारा गया और िवभीषण ने रा य पाया। इसके कारण तु हारा यश तीन लोक म िन य नया
बना रहे गा। जो लोग मेरे सिहत तु हारी शुभ क ित को परम ेम के साथ गाएँ गे, वे िबना ही
प र म इस अपार संसार का पार पा जाएँ गे।

दो० - भु के बचन वन सिु न निहं अघािहं किप पंज


ु ।
बार बार िसर नाविहं गहिहं सकल पद कंज॥ 106॥

भु के वचन कान से सुनकर वानर-समहू त ृ नह होते। वे सब बार-बार िसर नवाते ह और


चरण कमल को पकड़ते ह॥ 106॥

पिु न भु बोिल िलयउ हनमु ाना। लंका जाह कहेउ भगवाना॥


समाचार जानिकिह सन ु ावह। तासु कुसल लै तु ह चिल आवह॥

िफर भु ने हनुमान को बुला िलया। भगवान ने कहा – तुम लंका जाओ। जानक को सब
समाचार सुनाओ और उसका कुशल-समाचार लेकर तुम चले आओ।

तब हनम
ु ंत नगर महँ आए। सिु न िनिसचर िनसाचर धाए॥
बह कार ित ह पूजा क ही। जनकसत ु ा देखाइ पिु न दी ही॥
तब हनुमान नगर म आए। यह सुनकर रा स दौड़े । उ ह ने बहत कार से हनुमान क पज
ू ाक
और िफर जानक को िदखला िदया।

दू रिह ते नाम किप क हा। रघप


ु ित दूत जानक ची हा॥
कहह तात भु कृपािनकेता। कुसल अनज ु किप सेन समेता॥

हनुमान ने ( सीता को ) दूर से ही णाम िकया। जानक ने पहचान िलया िक यह वही रघुनाथ
ू ा -) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे भु छोटे भाई और वानर क सेना सिहत
का दूत है (और पछ
कुशल से तो ह?

सब िबिध कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जी यो दससीसा॥


अिबचल राजु िबभीषन पायो। सिु न किप बचन हरष उर छायो॥

(हनुमान ने कहा -) हे माता! कोसलपित राम सब कार से सकुशल ह। उ ह ने सं ाम म दस


िसरवाले रावण को जीत िलया है और िवभीषण ने अचल रा य ा िकया है। हनुमान के वचन
सुनकर सीता के दय म हष छा गया।

छं ० - अित हरष मन तन पल ु क लोचन सजल कह पिु न पिु न रमा।


का देउँ तोिह ल ै ोक महँ किप िकमिप निहं बानी समा॥
सन ु ु मातु म पायो अिखल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीित रपदु ल बंधु जुत प यािम राममनामयं॥

जानक के दय म अ यंत हष हआ। उनका शरीर पुलिकत हो गया और ने म (आनंदा ुओ ं


का) जल छा गया। वे बार-बार कहती ह – हे हनुमान! म तुझे या दँू? इस वाणी (समाचार) के
समान तीन लोक म और कुछ भी नह है! (हनुमान ने कहा -) हे माता! सुिनए, मने आज
िनःसंदेह सारे जगत का रा य पा िलया, जो म रण म श ु को जीतकर भाई सिहत िनिवकार राम
को देख रहा हँ।

दो० - सन ु ु सत
ु सदगन
ु सकल तव दयँ बसहँ हनम
ु ंत।
सानकु ू ल कोसलपित रहहँ समेत अनंत॥ 107॥

(जानक ने कहा -) हे पु ! सुन, सम त स ुण तेरे दय म बस और हे हनुमान! शेष (ल मण)


सिहत कोसलपित भु सदा तुझ पर स न रह॥ 107॥

अब सोइ जतन करह तु ह ताता। देख नयन याम मदृ ु गाता॥


तब हनम
ु ान राम पिहं जाई। जनकसतु ा कै कुसल सन
ु ाई॥

हे तात! अब तुम वही उपाय करो, िजससे म इन ने से भु के कोमल याम शरीर के दशन
क ँ । तब राम के पास जाकर हनुमान ने जानक का कुशल समाचार सुनाया।

सिु न संदसे ु भानक


ु ु लभूषन। बोिल िलए जुबराज िबभीषन॥
मा तसत ु के संग िसधावह। सादर जनकसत ु िह लै आवह॥

ू कुलभषू ण राम ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और िवभीषण को बुला िलया (और कहा -)
सय
पवनपु हनुमान के साथ जाओ और जानक को आदर के साथ ले आओ।

तरु तिहं सकल गए जहँ सीता। सेविहं सब िनिसचर िबनीता॥


बेिग िबभीषन ित हिह िसखायो। ित ह बह िबिध म जन करवायो॥

वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीता थ । सब-क -सब रा िसयाँ न तापवू क उनक सेवा कर रही
थ । िवभीषण ने शी ही उन लोग को समझा िदया। उ ह ने बहत कार से सीता को नान
कराया,

बह कार भूषन पिहराए। िसिबका िचर सािज पिु न याए॥


ता पर हरिष चढ़ी बैदहे ी। सिु म र राम सख
ु धाम सनेही॥

बहत कार के गहने पहनाए और िफर वे एक सुंदर पालक सजाकर ले आए। सीता स न
होकर सुख के धाम ि यतम राम का मरण करके उस पर हष के साथ चढ़ ।

बेतपािन र छक चह पासा। चले सकल मन परम हलासा॥


देखन भालु क स सब आए। र छक कोिप िनवारन धाए॥

चार ओर हाथ म छड़ी िलए र क चले। सबके मन म परम उ लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब
दशन करने के िलए आए, तब र क ोध करके उनको रोकने दौड़े ।

कह रघब ु ीर कहा मम मानह#2404; सीतिह सखा पयाद आनह॥


देखहँ किप जननी क नाई ं। िबहिस कहा रघन
ु ाथ गोसाई ं॥

रघुवीर ने कहा – हे िम ! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, िजससे वानर उसको
माता क तरह देख। गोसाई ं राम ने हँसकर ऐसा कहा।

सिु न भु बचन भालु किप हरषे। नभ ते सरु ह सम


ु न बह बरषे॥
सीता थम अनल महँ राखी। गट क ि ह चह अंतर साखी॥

भु के वचन सुनकर रीछ-वानर हिषत हो गए। आकाश से देवताओं ने बहत-से फूल बरसाए।
सीता (के असली व प) को पहले अि न म रखा था। अब भीतर के सा ी भगवान उनको कट
करना चाहते ह।
दो० - तेिह कारन क नािनिध कहे कछुक दब ु ाद।
सनु त जातध ु ान सब लाग करै िबषाद॥ 108॥

इसी कारण क णा के भंडार राम ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे , िज हे सुनकर सब रा िसयाँ
िवषाद करने लग ॥ 108॥

भु के बचन सीस ध र सीता। बोली मन म बचन पनु ीता॥


लिछमन होह धरम के नेगी। पावक गट करह तु ह बेगी॥

भु के वचन को िसर चढ़ाकर मन, वचन और कम से पिव सीता बोल - हे ल मण! तुम मेरे
धम के नेगी (धमाचरण म सहायक) बनो और तुरंत आग तैयार करो।

सिु न लिछमन सीता कै बानी। िबरह िबबेक धरम िनित सानी॥


लोचन सजल जो र कर दोऊ। भु सन कछु किह सकत न ओऊ॥

सीता क िवरह, िववेक, धम और नीित से सनी हई वाणी सुनकर ल मण के ने म जल भर


आया। वे दोन हाथ जोड़े खड़े रहे । वे भी भु से कुछ कह नह सकते।

देिख राम ख लिछमन धाए। पावक गिट काठ बह लाए॥


पावक बल देिख बैदहे ी। दयँ हरष निहं भय कछु तेही॥

िफर राम का ख देखकर ल मण दौड़े और आग तैयार करके बहत-सी लकड़ी ले आए। अि न


को खबू बढ़ी हई देखकर जानक के दय म हष हआ। उ ह भय कुछ भी नह हआ।

ज मन बच म मम उर माह । तिज रघब ु ीर आन गित नाह ॥


तौ कृसानु सब कै गित जाना। मो कहँ होउ ीखंड समाना॥

(सीता ने लीला से कहा -) यिद मन, वचन और कम से मेरे दय म रघुवीर को छोड़कर दूसरी
गित (अ य िकसी का आ य) नह है, तो अि नदेव जो सबके मन क गित जानते ह, (मेरे भी
मन क गित जानकर) मेरे िलए चंदन के समान शीतल हो जाएँ ।

छं ० - ीखंड सम पावक बेस िकयो सिु म र भु मैिथली।


जय कोसलेस महेस बंिदत चरन रित अित िनमली॥
ितिबंब अ लौिकक कलंक चंड पावक महँ जरे ।
भु च रत काहँ न लखे नभ सरु िस मिु न देखिहं खरे ॥

भु राम का मरण करके और िजनके चरण महादेव के ारा वंिदत ह तथा िजनम सीता क
अ यंत िवशु ीित है, उन कोसलपित क जय बोलकर जानक ने चंदन के समान शीतल हई
अि न म वेश िकया। ितिबंब (सीता क छायामिू त) और उनका लौिकक कलंक चंद अि न म
जल गए। भु के इन च र को िकसी ने नह जाना। देवता, िस और मुिन सब आकाश म खड़े
देखते ह।

ध र प पावक पािन गिह ी स य ुित जग िबिदत जो।


िजिम छीरसागर इं िदरा रामिह समप आिन सो॥
सो राम बाम िबभाग राजित िचर अित सोभा भली।
नव नील नीरज िनकट मानहँ कनक पंकज क कली॥

तब अि न ने शरीर धारण करके वेद म और जगत म िस वा तिवक ी (सीता) का हाथ


पकड़ उ ह राम को वैसे ही समिपत िकया जैसे ीरसागर ने िव णु भगवान को ल मी समिपत
क थी। वे सीता राम के वाम भाग म िवरािजत हई ं। उनक उ म शोभा अ यंत ही सुंदर है। मानो
नए िखले हए नीले कमल के पास सोने के कमल क कली सुशोिभत हो।

दो० - बरषिहं सम
ु न हरिष सरु बाजिहं गगन िनसान।
गाविहं िकंनर सरु बधू नाचिहं चढ़ िबमान॥ 109(क)॥

देवता हिषत होकर फूल बरसाने लगे। आकाश म डं के बजने लगे। िक नर गाने लगे। िवमान पर
चढ़ी अ सराएँ नाचने लग ॥ 109(क)॥

जनकसत ु ा समेत भु सोभा अिमत अपार।


देिख भालु किप हरषे जय रघप
ु ित सख
ु सार॥ 109(ख)॥

जानक सिहत भु राम क अप रिमत और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हिषत हो गए और


सुख के सार रघुनाथ क जय बोलने लगे॥ 109(ख)॥

तब रघप
ु ित अनस
ु ासन पाई। मातिल चलेउ चरन िस नाई॥
आए देव सदा वारथी। बचन कहिहं जनु परमारथी॥

तब रघुनाथ क आ ा पाकर इं का सारथी मातिल चरण म िसर नवाकर (रथ लेकर) चला
गया। तदनंतर सदा के वाथ देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे ह मानो बड़े परमाथ ह ।

दीन बंधु दयाल रघरु ाया। देव क ि ह देव ह पर दाया॥


िब व ोह रत यह खल कामी। िनज अघ गयउ कुमारगगामी॥

हे दीनबंधु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बड़ी दया क । िव के ोह म त पर


यह दु , कामी और कुमाग पर चलनेवाला रावण अपने ही पाप से न हो गया।

तु ह सम प अिबनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥


अकल अगन ु अज अनघ अनामय। अिजत अमोघसि क नामय॥
आप सम प, , अिवनाशी, िन य, एकरस, वभाव से ही उदासीन (श ु-िम -भावरिहत),
अखंड, िनगुण (माियक गुण से रिहत), अज मे, िन पाप, िनिवकार, अजेय, अमोघशि
(िजनक शि कभी यथ नह जाती) और दयामय ह।

मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसरु ाम बपु धरी॥


जब जब नाथ सरु ह दख
ु ु पायो। नाना तनु ध र तु हइँ नसायो॥

आपने ही म य, क छप, वराह, निृ संह, वामन और परशुराम के शरीर धारण िकए। हे नाथ! जब-
जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेक शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश
िकया।

यह खल मिलन सदा सरु ोही। काम लोभ मद रत अित कोही॥


अधम िसरोमिन तव पद पावा। यह हमर मन िबसमय आवा॥

यह दु मिलन दय, देवताओं का िन य श ु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अ यंत ोधी


था। ऐसे अधम के िशरोमिण ने भी आपका परम पद पा िलया। इस बात का हमारे मन म आ य
हआ।

हम देवता परम अिधकारी। वारथ रत भु भगित िबसारी॥


भव बाहँ संतत हम परे । अब भु पािह सरन अनस
ु रे ॥

हम देवता े अिधकारी होकर भी वाथपरायण हो आपक भि को भुलाकर िनरं तर भवसागर


के वाह (ज म-म ृ यु के च ) म पड़े ह। अब हे भो! हम आपक शरण म आ गए ह, हमारी र ा
क िजए।

दो० - क र िबनती सरु िस सब रहे जहँ तहँ कर जो र।


अित स मे तन पलिक
ु िबिध अ तिु त करत बहो र॥ 110॥

िवनती करके देवता और िस सब जहाँ-के-तहाँ हाथ जोड़े खड़े रहे । तब अ यंत ेम से पुलिकत
शरीर होकर ा तुित करने लगे - ॥ 110॥

छं ० - जय राम सदा सख
ु धाम हरे । रघन
ु ायक सायक चाप धरे ॥
भव बारन दारन िसंह भो। गनु सागर नागर नाथ िबभो॥

हे िन य सुखधाम और (दुख को हरनेवाले) ह र! हे धनुष-बाण धारण िकए हए रघुनाथ! आपक


जय हो। हे भो! आप भव (ज म-मरण) पी हाथी को िवदीण करने के िलए िसंह के
समा#2344; ह। हे नाथ! हे सव यापक! आप गुण के समु और परम चतुर ह।
तन काम अनेक अनूप छबी। गनु गावत िस मनु कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा क र कोप गहा॥

आपके शरीर क अनेक कामदेव के समान, परं तु अनुपम छिव है। िस , मुनी र और किव
आपके गुण गाते रहते ह। आपका यश पिव है। आपने रावण पी महासप को ग ड़ क तरह
ोध करके पकड़ िलया।

जन रं जन भंजन सोक भयं। गत ोध सदा भु बोधमयं॥


अवतार उदार अपार गन
ु ं। मिह भार िबभंजन यानघनं॥

हे भो! आप सेवक को आनंद देनेवाले, शोक और भय का नाश करनेवाले, सदा ोधरिहत और


िन य ान व प ह। आपका अवतार े , अपार िद य गुण वाला, प ृ वी का भार उतारनेवाला
और ान का समहू है।

अज यापकमेकमनािद सदा। क नाकर राम नमािम मदु ा॥


रघब
ु ंस िबभूषन दूषन हा। कृत भूप िबभीषन दीन रहा॥

(िकंतु अवतार लेने पर भी) आप िन य, अज मा, यापक, एक (अि तीय) और अनािद ह। हे


क णा क खान राम! म आपको बड़े ही हष के साथ नम कार करता हँ। हे रघुकुल के आभषू ण!
हे दूषण रा स को मारनेवाले तथा सम त दोष को हरनेवाले! िविभषण दीन था, उसे आपने
(लंका का) राजा बना िदया।

गनु यान िनधान अमान अजं। िनत राम नमािम िबभंु िबरजं॥
भज
ु दंड चंड ताप बलं। खल बंदृ िनकंद महा कुसलं॥

हे गुण और ान के भंडार! हे मानरिहत! हे अज मा, यापक और माियक िवकार से रिहत राम!


म आपको िन य नम कार करता हँ। आपके भुजदंड का ताप और बल चंड है। दु समहू के
नाश करने म आप परम िनपुण ह।

िबनु कारन दीन दयाल िहतं। छिब धाम नमािम रमा सिहतं॥
भव तारन कारन काज परं । मन संभव दा न दोष हरं ॥

हे िबना ही कारण दीन पर दया तथा उनका िहत करनेवाले और शोभा के धाम! म जानक
सिहत आपको नम कार करता हँ। आप भवसागर से तारनेवाले ह, कारण पा कृित और
काय प जगत दोन से परे ह और मन से उ प न होनेवाले किठन दोष को हरनेवाले ह।

सर चाप मनोहर ोन धरं । जलजा न लोचन भूपबरं ॥


सख
ु मंिदर संदु र ीरमनं। मद मार मध
ु ा ममता समनं॥
आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले ह। (लाल) कमल के समान र वण
आपके ने ह। आप राजाओं म े , सुख के मंिदर, सुंदर, (ल मी) के व लभ तथा मद
ू ी ममता के नाश करनेवाले ह।
(अहंकार), काम और झठ

अनव अखंड न गोचर गो। सब प सदा सब होइ न गो॥


इित बेद बदंित न दंतकथा। रिब आतप िभ नमिभ न जथा॥

आप अिनं या दोषरिहत ह, अखंड ह, इंि य के िवषय नह ह। सदा सव प होते हए भी आप वह


सब कभी हए ही नह , ऐसा वेद कहते ह। यह (कोई) दंतकथा (कोरी क पना) नह है। जैसे सय

और सयू का काश अलग-अलग ह और अलग नह भी ह, वैसे ही आप भी संसार से िभ न तथा
अिभ न दोन ही ह।

कृतकृ य िबभो सब बानर ए। िनरखंित तवानन सादर ए॥


िधग जीवन देव सरीर हरे । तव भि िबना भव भूिल परे ॥

हे यापक भो! ये सब वानर कृताथ प ह, जो आदरपवू क ये आपका मुख देख रहे ह। (और) हे
हरे ! हमारे (अमर) जीवन और देव (िद य) शरीर को िध कार है, जो हम आपक भि से रिहत
हए संसार म (सांसा रक िवषय म) भल ू े पड़े ह।

अब दीनदयाल दया क रऐ। मित मो र िबभेदकरी ह रऐ॥


जेिह ते िबपरीत ि या क रऐ। दःु ख सो सख
ु मािन सख
ु ी च रऐ॥

हे दीनदयालु! अब दया क िजए और मेरी उस िवभेद उ प न करनेवाली बुि को हर लीिजए,


िजससे म िवपरीत कम करता हँ और जो दुःख है, उसे सुख मानकर आनंद से िवचरता हँ।

खल खंडन मंडन र य छमा। पद पंकज सेिवत संभु उमा॥


नप
ृ नायक दे बरदानिमदं। चरनांबज
ु े ु सदा सभ
म ु दं॥

आप दु का खंडन करनेवाले और प ृ वी के रमणीय आभषू ण ह। आपके चरण-कमल िशव-


पावती ारा सेिवत ह। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीिजए िक आपके चरण कमल म
सदा मेरा क याणदायक (अन य) ेम हो।

े पल
दो० - िबनय क ह चतरु ानन म ु क अित गात।
सोभािसंधु िबलोकत लोचन नह अघात॥ 111॥

इस कार ा ने अ यंत ेम-पुलिकत शरीर से िवनती क । शोभा के समु राम के दशन करते-
करते उनके ने त ृ ही नह होते थे॥ 111॥

तेिह अवसर दसरथ तहँ आए। तनय िबलोिक नयन जल छाए॥


अनज
ु सिहत भु बंदन क हा। आिसरबाद िपताँ तब दी हा॥

उसी समय दशरथ वहाँ आए। पु (राम) को देखकर उनके ने म ( ेमा ुओ ं का) जल छा गया।
छोटे भाई ल मण सिहत भु ने उनक वंदना क और तब िपता ने उनको आशीवाद िदया।

तात सकल तव पु य भाऊ। जी य अजय िनसाचर राऊ॥


सिु न सत
ु बचन ीित अित बाढ़ी। नयन सिलल रोमाविल ठाढ़ी॥

(राम ने कहा -) हे तात! यह सब आपके पु य का भाव है, जो मने अजेय रा सराज को जीत
िलया। पु के वचन सुनकर उनक ीित अ यंत बढ़ गई। ने म जल छा गया और रोमावली
खड़ी हो गई।

रघप
ु ित थम म े अनम ु ाना। िचतइ िपतिह दी हेउ ढ़ याना॥
ताते उमा मो छ निहं पायो। दसरथ भेद भगित मन लायो॥

रघुनाथ ने पहले के (जीिवत काल के) ेम को िवचारकर, िपता क ओर देखकर ही उ ह अपने


व प का ढ़ ान करा िदया। हे उमा! दशरथ ने भेद-भि म अपना मन लगाया था, इसी से
उ ह ने (कैव य) मो नह पाया।

सगन ु ोपासक मो छ न लेह । ित ह कहँ राम भगित िनज देह ॥


बार बार क र भिु ह नामा। दसरथ हरिष गए सरु धामा॥

सगुण व प क उपासना करनेवाले भ इस कार मो लेते भी नह । उनको राम अपनी भि


देते ह। भु को (इ बुि से) बार-बार णाम करके दशरथ हिषत होकर देवलोक को चले गए।

दो० - अनजु जानक सिहत भु कुसल कोसलाधीस।


सोभा देिख हरिष मन अ तिु त कर सरु ईस॥ 112॥

छोटे भाई ल मण और जानक सिहत परम कुशल भु कोसलाधीश क शोभा देखकर देवराज इं
मन म हिषत होकर तुित करने लगे - ॥ 112॥

छं ० - जय राम सोभा धाम। दायक नत िब ाम॥


धत ृ ोन बर सर चाप। भज ु दंड बल ताप॥

शोभा के धाम, शरणागत को िव ाम देनेवाले, े तरकस, धनुष और बाण धारण िकए हए,
बल तापी भुजदंड वाले राम क जय हो!

जय दूषना र खरा र। मदन िनसाचर धा र॥


यह दु मारे उ नाथ। भए देव सकल नाथ॥
हे खरदूषण के श ु और रा स क सेना के मदन करनेवाले! आपक जय हो! हे नाथ! आपने
इस दु को मारा, िजससे सब देवता सनाथ (सुरि त) हो गए।

जय हरन धरनी भार। मिहमा उदार अपार॥


जय रावना र कृपाल। िकए जातध
ु ान िबहाल॥

हे भिू म का भार हरनेवाले! हे अपार े मिहमावाले! आपक जय हो। हे रावण के श ु! हे कृपालु!


आपक जय हो। आपने रा स को बेहाल (तहस-नहस) कर िदया।

लंकेस अित बल गब। िकए ब य सरु गंधब॥


मिु न िस नर खग नाग। हिठ पंथ सब क लाग॥

लंकापित रावण को अपने बल का बहत घमंड था। उसने देवता और गंधव सभी को अपने वश म
कर िलया था और वह मुिन, िस , मनु य, प ी और नाग आिद सभी के हठपवू क (हाथ धोकर)
पीछे पड़ गया था।

पर ोह रत अित दु । पायो सो फलु पािप ॥


अब सनु ह दीन दयाल। राजीव नयन िबसाल॥

वह दूसर से ोह करने म त पर और अ यंत दु था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीन


पर दया करनेवाले! हे कमल के समान िवशाल ने वाले! सुिनए।

मोिह रहा अित अिभमान। निहं कोउ मोिह समान॥


अब देिख भु पद कंज। गत मान द दःु ख पंजु ॥

मुझे अ यंत अिभमान था िक मेरे समान कोई नह है, पर अब भु (आप) के चरण कमल के
दशन करने से दुःख-समहू का देनेवाला मेरा वह अिभमान जाता रहा।

कोउ िनगन
ु याव। अ य जेिह ुित गाव॥
मोिह भाव कोसल भूप। ीराम सगन
ु स प॥

कोई उन िनगुन का यान करते ह िज ह वेद अ य (िनराकार) कहते ह। परं तु हे ी राम!


मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज- व प ही ि य लगता है।

ु समेत। मम दयँ करह िनकेत॥


बैदेिह अनज
मोिह जािनऐ िनज दास। दे भि रमािनवास॥

जानक और छोटे भाई ल मण सिहत मेरे दय म अपना घर बनाइए। हे रमािनवास! मुझे अपना
दास समिझए और अपनी भि दीिजए।
छं ० - दे भि रमािनवास ास हरन सरन सख ु दायकं।
सख ु धाम राम नमािम काम अनेक छिब रघन ु ायकं॥
सरु बंदृ रं जन दं भंजन मनज
ु तनु अतिु लतबलं।
ािद संकर से य राम नमािम क ना कोमलं॥

हे रमािनवास! हे शरणागत के भय को हरनेवाले और उसे सब कार का सुख देनेवाले! मुझे


अपनी भि दीिजए। हे सुख के धाम! हे अनेक कामदेव क छिववाले रघुकुल के वामी राम! म
आपको नम कार करता हँ। हे देवसमहू को आनंद देनेवाले, (ज म-म ृ यु, हष-िवषाद, सुख-दुःख
आिद) ं के नाश करनेवाले, मनु य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ा और िशव आिद से
सेवनीय, क णा से कोमल राम! म आपको नम कार करता हँ।

दो० - अब क र कृपा िबलोिक मोिह आयसु देह कृपाल।


काह कर सिु न ि य बचन बोले दीनदयाल॥ 113॥

हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा ि से) देखकर आ ा दीिजए िक म या (सेवा)


क ँ ! इं के ये ि य वचन सुनकर दीनदयालु राम बोले॥ 113॥

सन
ु सरु पित किप भालु हमारे । परे भूिम िनिसचरि ह जे मारे ॥
मम िहत लािग तजे इ ह ाना। सकल िजआउ सरु े स सज ु ाना॥

हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भाल,ू िज ह िनशाचर ने मार डाला है, प ृ वी पर पड़े ह। इ ह ने मेरे
िहत के िलए अपने ाण याग िदए। हे सुजान देवराज! इन सबको िजला दो।

ु ु खगेस भु कै यह बानी। अित अगाध जानिहं मिु न यानी॥


सन
ु न मा र िजआई। केवल स िह दीि ह बड़ाई॥
भु सक ि भअ

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! सुिनए भु के ये वचन अ यंत गहन (गढ़


ू ) ह। ानी मुिन ही
इ ह जान सकते ह। भु राम ि लोक को मारकर िजला सकते ह। यहाँ तो उ ह ने केवल इं को
बड़ाई दी है।

सध
ु ा बरिष किप भालु िजयाए। हरिष उठे सब भु पिहं आए॥
सधु ाबिृ भै दहु दल ऊपर। िजए भालु किप निहं रजनीचर॥

इं ने अमत ू ं को िजला िदया। सब हिषत होकर उठे और भु के पास आए।


ृ बरसाकर वानर-भालओ
अमतृ क वषा दोन ही दल पर हई। पर रीछ-वानर ही जीिवत हए, रा स नह ।

रामाकार भए ित ह के मन। मु भए छूट भव बंधन॥


सरु अंिसक सब किप अ रीछा। िजए सकल रघप ु ित क ईछा॥
य िक रा स के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत वे मु हो गए, उनके भव-बंधन
छूट गए। िकंतु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान क लीला के प रकर) थे। इसिलए वे सब
रघुनाथ क इ छा से जीिवत हो गए।

राम स रस को दीन िहतकारी। क हे मक


ु ु त िनसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गित पाई जो मिु नबर पाव न॥

राम के समान दीन का िहत करनेवाला कौन है? िज ह ने सारे रा स को मु कर िदया! दु ,


पाप के घर और कामी रावण ने भी वह गित पाई िजसे े मुिन भी नह पाते।

दो० - समु न बरिष सब सरु चले चिढ़ चिढ़ िचर िबमान।


देिख सअु वसर भु पिहं आयउ संभु सजु ान॥ 114(क)॥

फूल क वषा करके सब देवता सुंदर िवमान पर चढ़-चढ़कर चले। तब सुअवसर जानकर सुजान
िशव भु राम के पास आए - ॥ 114(क)॥

परम ीित कर जो र जुग निलन नयन भ र बा र।


पल
ु िकत तन गदगद िगराँ िबनय करत ि परु ा र॥ 114(ख)॥

और परम ेम से दोन हाथ जोड़कर, कमल के समान ने म जल भरकर, पुलिकत शरीर और


गद्गद् वाणी से ि पुरारी िशव िवनती करने लगे - ॥ 114(ख)॥

छं ० - मामिभर य रघक
ु ु ल नायक। धत
ृ बर चाप िचर कर सायक॥
मोह महा घन पटल भंजन। संसय िबिपन अनल सरु रं जन॥

हे रघुकुल के वामी! सुंदर हाथ म े धनुष और सुंदर बाण धारण िकए हए आप मेरी र ा
क िजए। आप महामोह पी मेघसमहू के (उड़ाने के) िलए चंड पवन ह, संशय पी वन के (भ म
करने के) िलए अि न ह और देवताओं को आनंद देनेवाले ह।

अगन
ु सगन
ु गनु मंिदर संदु र। म तम बल ताप िदवाकर॥
काम ोध मद गज पंचानन। बसह िनरं तर जन मन कानन॥

आप िनगुण, सगुण, िद य गुण के धाम और परम सुंदर ह। म पी अंधकार के (नाश के) िलए
बल तापी सयू ह। काम, ोध और मद पी हािथय के (वध के) िलए िसंह के समान आप इस
सेवक के मन पी वन म िनरं तर वास क िजए।

िबषय मनोरथ पंजु कंज बन। बल तष ु ार उदार पार मन॥


भव बा रिध मंदर परमं दर। बारय तारय संसिृ त दु तर॥
िवषयकामनाओं के समहू पी कमलवन के (नाश के) िलए आप बल पाला ह, आप उदार और
मन से परे ह। भवसागर (को मथने) के िलए आप मंदराचल पवत ह। आप हमारे परम भय को दूर
क िजए और हम दु तर संसार सागर से पार क िजए।

याम गात राजीव िबलोचन। दीन बंधु नतारित मोचन॥


अनज ु जानक सिहत िनरं तर। बसह राम नपृ मम उर अंतर॥
मिु न रं जन मिह मंडल मंडन। तल
ु िसदास भु ास िबखंडन॥

हे यामसुंदर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबंधु! हे शरणागत को दुःख से छुड़ानेवाले! हे राजा


राम! आप छोटे भाई ल मण और जानक सिहत िनरं तर मेरे दय के अंदर िनवास क िजए। आप
मुिनय को आनंद देनेवाले, प ृ वीमंडल के भषू ण, तुलसीदास के भु और भय का नाश करनेवाले
ह।

दो० - नाथ जबिहं कोसलपरु होइिह ितलक तु हार।


कृपािसंधु म आउब देखन च#2352;ि◌त उदार॥ 115॥

हे नाथ! जब अयो यापुरी म आपका राजितलक होगा, तब हे कृपासागर! म आपक उदार लीला
देखने आऊँगा॥ 115॥

क र िबनती जब संभु िसधाए। तब भु िनकट िबभीषनु आए॥


नाइ चरन िस कह मदृ ु बानी। िबनय सन
ु ह भु सारँ गपानी॥

जब िशव िवनती करके चले गए, तब िवभीषण भु के पास आए और चरण म िसर नवाकर
कोमल वाणी से बोले - हे शागधनुष के धारण करनेवाले भो! मेरी िवनती सुिनए -

सकुल सदल भु रावन मारयो।


् पावन जस ि भव ु न िव तारयो॥

दीन मलीन हीन मित जाती। मो पर कृपा क ि ह बह भाँती॥

आपने कुल और सेना सिहत रावण का वध िकया, ि भुवन म अपना पिव यश फै लाया और मुझ
दीन, पापी, बुि हीन और जाितहीन पर बहत कार से कृपा क ।

अब जन गहृ पन ु ीत भु क जे। म जनु क रअ समर म छीजे॥


देिख कोस मंिदर संपदा। देह कृपाल किप ह कहँ मदु ा॥

अब हे भु! इस दास के घर को पिव क िजए और वहाँ चलकर नान क िजए, िजससे यु क


थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और संपि का िनरी ण कर स नतापवू क
वानर को दीिजए।

सब िबिध नाथ मोिह अपनाइअ। पिु न मोिह सिहत अवधपरु जाइअ॥


सन
ु त बचन मदृ ु दीनदयाला। सजल भए ौ नयन िबसाला॥

हे नाथ! मुझे सब कार से अपना लीिजए और िफर हे भो! मुझे साथ लेकर अयो यापुरी को
पधा रए। िवभीषण के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु भु के दोन िवशाल ने म ( ेमा ुओ ं
का) जल भर आया।

दो० - तोर कोस गहृ मोर सब स य बचन सन


ु ु ात।
भरत दसा सिु मरत मोिह िनिमष क प सम जात॥ 116(क)॥

(राम ने कहा -) हे भाई! सुनो, तु हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत
क दशा याद करके मुझे एक-एक पल क प के समान बीत रहा है॥ 116(क)॥

तापस बेष गात कृस जपत िनरं तर मोिह।


देख बेिग सो जतनु क सखा िनहोरउँ तोिह॥ 116(ख)॥

तप वी के वेष म कृश (दुबले) शरीर से िनरं तर मेरा नाम जप कर रहे ह। हे सखा! वही उपाय
करो िजससे म ज दी-से-ज दी उ ह देख सकँ ू । म तुमसे िनहोरा (अनुरोध) करता हँ॥ 116(ख)॥

बीत अविध जाउँ ज िजअत न पावउँ बीर।


सिु मरत अनज
ु ीित भु पिु न पिु न पल
ु क सरीर॥ 116(ग)॥

यिद अविध बीत जाने पर जाता हँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरत क ीित का
मरण करके भु का शरीर बार-बार पुलिकत हो रहा है॥ 166(ग)॥

करे ह क प भ र राजु तु ह मोिह सिु मरे ह मन मािहं।


पिु न मम धाम पाइहह जहाँ संत सब जािहं॥ 116(घ)॥

(राम ने िफर कहा -) हे िवभीषण! तुम क पभर रा य करना, मन म मेरा िनरं तर मरण करते
रहना। िफर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब संत जाते ह॥ 116(घ)॥

सनु त िबभीषन बचन राम के। हरिष गहे पद कृपाधाम के॥


बानर भालु सकल हरषाने। गिह भु पद गन ु िबमल बखाने॥

राम के वचन सुनते ही िवभीषण ने हिषत होकर कृपा के धाम राम के चरण पकड़ िलए। सभी
वानर-भालू हिषत हो गए और भु के चरण पकड़कर उनके िनमल गुण का बखान करने लगे।

बह र िवभीषन भवन िसधायो। मिन गन बसन िबमान भरायो॥


लै पु पक भु आग राखा। हँिस क र कृपािसंधु तब भाषा॥
िफर िवभीषण महल को गए और उ ह ने मिणय के समहू (र न ) से और व से िवमान को
भर िलया। िफर उस पु पक िवमान को लाकर भु के सामने रखा। तब कृपासागर राम ने हँसकर
कहा -

चिढ़ िबमान सनु ु सखा िबभीषन। गगन जाइ बरषह पट भूषन॥


नभ पर जाइ िबभीषन तबही। बरिष िदए मिन अंबर सबही॥

हे सखा िवभीषण! सुनो, िवमान पर चढ़कर, आकाश म जाकर व और गहन को बरसा दो।
तब (आ ा सुनते) ही िवभीषण ने आकाश म जाकर सब मिणय और व को बरसा िदया।

जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेह । मिन मख


ु मेिल डा र किप देह ॥
हँसे रामु ी अनज ु कृपा िनकेता॥
ु समेता। परम कौतक

िजसके मन को जो अ छा लगता है, वह वही ले लेता है। मिणय को मँुह म लेकर वानर िफर उ ह
खाने क चीज न समझकर उगल देते ह। यह तमाशा देखकर परम िवनोदी और कृपा के धाम
राम, ी (सीता) और ल मण सिहत हँसने लगे।

दो० - मिु न जेिह यान न पाविहं नेित नेित कह बेद।


कृपािसंधु सोइ किप ह सन करत अनेक िबनोद॥ 117(क)॥

िजनको मुिन यान म भी नह पाते, िज ह वेद नेित-नेित कहते ह, वे ही कृपा के समु राम
वानर के साथ अनेक कार के िवनोद कर रहे ह॥ 117(क)॥

उमा जोग जप दान तप नाना मख त नेम।


राम कृपा निहं करिहं तिस जिस िन केवल म
े ॥ 117(ख)॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! अनेक कार के योग, जप, दान, तप, य , त और िनयम करने पर
भी राम वैसी कृपा नह करते जैसी अन य ेम होने पर करते ह॥ 117(ख)॥

भालु किप ह पट भूषन पाए। पिह र पिह र रघपु ित पिहं आए॥


नाना िजनस देिख सब क सा। पिु न पिु न हँसत कोसलाधीसा॥

भालओू ं और वानर ने कपड़े -गहने पाए और उ ह पहन-पहनकर वे रघुनाथ के पास आए। अनेक
जाितय के वानर को देखकर कोसलपित राम बार-बार हँस रहे ह।

िचतइ सबि ह पर क ही दाया। बोले मदृ ल


ु बचन रघरु ाया॥
तु हर बल म रावनु मारयो।
् ितलक िबभीषन कहँ पिु न सारयो॥्

रघुनाथ ने कृपा ि से देखकर सब पर दया क । िफर वे कोमल वचन बोले - हे भाइयो! तु हारे
ही बल से मने रावण को मारा और िफर िवभीषण का राजितलक िकया।

िनज िनज गहृ अब तु ह सब जाह। सिु मरे ह मोिह डरपह जिन काह॥
सनु त बचन म े ाकुल बानर। जो र पािन बोले सब सादर॥

अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा मरण करते रहना और िकसी से डरना नह । ये वचन
सुनते ही सब वानर ेम म िव ल होकर हाथ जोड़कर आदरपवू क बोले -

भु जोइ कहह तु हिह सब सोहा। हमर होत बचन सिु न मोहा॥


दीन जािन किप िकए सनाथा। तु ह ल ै ोक ईस रघन
ु ाथा॥

भो! आप जो कुछ भी कह, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है।
हे रघुनाथ! आप तीन लोक के ई र ह। हम वानर को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृताथ)
िकया है।

सिु न भु बचन लाज हम मरह । मसक कहँ खगपित िहत करह ॥


देिख राम ख बानर रीछा। मे मगन निहं गहृ कै ईछा॥

भु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे ह। कह म छर भी ग ड़ का िहत कर


सकते ह? राम का ख देखकर रीछ-वानर ेम म म न हो गए। उनक घर जाने क इ छा नह
है।

दो० - भु े रत किप भालु सब राम प उर रािख।


हरष िबषाद सिहत चले िबनय िबिबध िबिध भािष॥ 118(क)॥

परं तु भु क ेरणा (आ ा) से सब वानर-भालू राम के प को दय म रखकर और अनेक


कार से िवनती करके हष और िवषाद सिहत घर को चले॥ 118(क)॥

किपपित नील रीछपित अंगद नल हनमु ान।


सिहत िबभीषन अपर जे जूथप किप बलवान॥ 118(ख)॥

वानरराज सु ीव, नील, ऋ राज जा बवान, अंगद, नल और हनुमान तथा िवभीषण सिहत और
जो बलवान वानर सेनापित ह,॥ 118(ख)॥

किह न सकिहं कछु म े बस भ र भ र लोचन बा र॥


स मखु िचतविहं राम तन नयन िनमेष िनवा र॥ 118(ग)॥

वे कुछ कह नह सकते; ेमवश ने म जल भर-भरकर, ने का पलक मारना छोड़कर


(टकटक लगाए) स मुख होकर राम क ओर देख रहे ह॥ 118(ग)॥
अितसय ीित देिख रघरु ाई। ली हे सकल िबमान चढ़ाई॥
मन महँ िब चरन िस नायो। उ र िदिसिह िबमान चलायो॥

रघुनाथ ने उनका अितशय ेम देखकर सबको िवमान पर चढ़ा िलया। तदनंतर मन-ही-मन
िव चरण म िसर नवाकर उ र िदशा क ओर िवमान चलाया।

चलत िबमान कोलाहल होई। जय रघबु ीर कहइ सबु कोई॥


िसंहासन अित उ च मनोहर। ी समेत भु बैठे ता पर॥

िवमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई रघुवीर क जय कह रहे ह। िवमान म एक
अ यंत ऊँचा मनोहर िसंहासन है। उस पर ी (सीता) सिहत भु राम िवराजमान हो गए।

राजत रामु सिहत भािमनी। मे संग ृ जनु घन दािमनी॥


िचर िबमानु चलेउ अित आतरु । क ही समु न बिृ हरषे सरु ॥

प नी सिहत राम ऐसे सुशोिभत हो रहे ह मानो सुमे के िशखर पर िबजली सिहत याम मेघ हो।
सुंदर िवमान बड़ी शी ता से चला। देवता हिषत हए और उ ह ने फूल क वषा क ।

परम सखु द चिल ि िबध बयारी। सागर सर स र िनमल बारी॥


सगनु होिहं संदु र चहँ पासा। मन स न िनमल नभ आसा॥

अ यंत सुख देनेवाली तीन कार क (शीतल, मंद, सुगंिधत) वायु चलने लगी। समु , तालाब
और निदय का जल िनमल हो गया। चार ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन स न ह,
आकाश और िदशाएँ िनमल ह।

कह रघबु ीर देखु रन सीता। लिछमन इहाँ ह यो इँ जीता॥


हनूमान अंगद के मारे । रन मिह परे िनसाचर भारे ॥

रघुवीर ने कहा - हे सीते! रणभिू म देखो। ल मण ने यहाँ इं को जीतनेवाले मेघनाद को मारा था।
हनुमान और अंगद के मारे हए ये भारी-भारी िनशाचर रणभिू म म पड़े ह।

कंु भकरन रावन ौ भाई। इहाँ हते सरु मिु न दःु खदाई॥

देवताओं और मुिनय को दुःख देनेवाले कुंभकण और रावण दोन भाई यहाँ मारे गए।

दो० - इहाँ सेतु बाँ य अ थापेउँ िसव सख


ु धाम।
सीता सिहत कृपािनिध संभिु ह क ह नाम॥ 119(क)॥

मने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम िशव क थापना क । तदनंतर कृपािनधान राम ने
सीता सिहत रामे र महादेव को णाम िकया॥ 119(क)॥

जहँ जहँ कृपािसंधु बन क ह बास िब ाम।


सकल देखाए जानिकिह कहे सबि ह के नाम॥ 119(ख)॥

वन म जहाँ-तहाँ क णा सागर राम ने िनवास और िव ाम िकया था, वे सब थान भु ने


जानक को िदखलाए और सबके नाम बतलाए॥ 119(ख)॥

तरु त िबमान तहाँ चिल आवा। दंडक बन जहँ परम सहु ावा॥
कंु भजािद मिु ननायक नाना। गए रामु सब क अ थाना॥

िवमान शी ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुंदर दंडकवन था और अग य आिद बहत-से
मुिनराज रहते थे। राम इन सबके थान म गए।

सकल रिष ह सन पाइ असीसा। िच कूट आए जगदीसा॥


तहँ क र मिु न ह केर संतोषा। चला िबमानु तहाँ ते चोखा॥

संपण
ू ऋिषय से आशीवाद पाकर जगदी र राम िच कूट आए। वहाँ मुिनय को संतु िकया।
(िफर) िवमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला।

बह र राम जानिकिह देखाई। जमन ु ा किल मल हरिन सहु ाई॥


पिु न देखी सरु सरी पन
ु ीता। राम कहा नाम क सीता॥

िफर राम ने जानक को किलयुग के पाप का हरण करनेवाली सुहावनी यमुना के दशन कराए।
िफर पिव गंगा के दशन िकए। राम ने कहा - हे सीते! इ ह णाम करो।

तीरथपित पिु न देखु यागा। िनरखत ज म कोिट अघ भागा॥


देखु परम पाविन पिु न बेनी। हरिन सोक ह र लोक िनसेनी॥
पिु न देखु अवधपु र अित पाविन। ि िबध ताप भव रोग नसाविन॥

िफर तीथराज याग को देखो, िजसके दशन से ही करोड़ ज म के पाप भाग जाते ह। िफर परम
पिव ि वेणी के दशन करो, जो शोक को हरनेवाली और ह र के परम धाम (पहँचने) के िलए
सीढ़ी के समान है। िफर अ यंत पिव अयो यापुरी के दशन करो, जो तीन कार के ताप और
भव (आवागमन पी) रोग का नाश करनेवाली है।

दो० - सीता सिहत अवध कहँ क ह कृपाल नाम।


सजल नयन तन पल ु िकत पिु न पिु न हरिषत राम॥ 120(क)॥

य कहकर कृपालु राम ने सीता सिहत अवधपुरी को णाम िकया। सजल ने और पुलिकत शरीर
होकर राम बार-बार हिषत हो रहे ह॥ 120(क)॥

पिु न भु आइ ि बेन हरिषत म जनु क ह।


किप ह सिहत िब ह कहँ दान िबिबध िबिध दी ह॥ 120(ख)॥

िफर ि वेणी म आकर भु ने हिषत होकर नान िकया और वानर सिहत ा ण को अनेक
कार के दान िदए॥ 120(ख)॥

भु हनम
ु ंतिह कहा बझ
ु ाई। ध र बटु प अवधपरु जाई॥
भरतिह कुसल हमा र सन ु ाएह। समाचार लै तु ह चिल आएह॥

तदनंतर भु ने हनुमान को समझाकर कहा - तुम चारी का प धरकर अवधपुरी को जाओ।


भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना।

तरु त पवनसत
ु गवनत भयऊ। तब भु भर ाज पिहं गयऊ॥
नाना िबिध मिु न पूजा क ही। अ तिु त क र पिु न आिसष दी ही॥

पवनपु हनुमान तुरंत ही चल िदए। तब भु भर ाज के पास गए। मुिन ने (इ बुि से) उनक
अनेक कार से पजू ा क और तुित क और िफर (लीला क ि से) आशीवाद िदया।

मिु न पद बंिद जुगल कर जोरी। चिढ़ िबमान भु चले बहोरी॥


इहाँ िनषाद सन ु ा भु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥

दोन हाथ जोड़कर तथा मुिन के चरण क वंदना करके भु िवमान पर चढ़कर िफर (आगे) चले।
यहाँ जब िनषादराज ने सुना िक भु आ गए, तब उसने 'नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?' पुकारते हए
लोग को बुलाया।

सरु स र नािघ जान तब आयो। उतरे उ तट भु आयसु पायो॥


तब सीताँ पूजी सरु सरी। बह कार पिु न चरनि ह परी॥

इतने म ही िवमान गंगा को लाँघकर (इस पार) आ गया और भु क आ ा पाकर वह िकनारे पर


उतरा। तब सीता बहत कार से गंगा क पज ू ा करके िफर उनके चरण पर िगर ।

दीि ह असीस हरिष मन गंगा। संदु र तव अिहवात अभंगा॥


सन े ाकुल। आयउ िनकट परम सख
ु त गहु ा धायउ म ु संकुल॥

गंगा ने मन म हिषत होकर आशीवाद िदया - हे संुदरी! तु हारा सुहाग अखंड हो। भगवान के तट
पर उतरने क बात सुनते ही िनषादराज गुह ेम म िव ल होकर दौड़ा। परम सुख से प रपण ू
होकर वह भु के समीप आया,
भिु ह सिहत िबलोिक बैदहे ी। परे उ अविन तन सिु ध निहं तेही॥
ीित परम िबलोिक रघरु ाई। हरिष उठाइ िलयो उर लाई॥

और जानक सिहत भु को देखकर वह (आनंद-समािध म म न होकर) प ृ वी पर िगर पड़ा, उसे


शरीर क सुिध न रही। रघुनाथ ने उसका परम ेम देखकर उसे उठाकर हष के साथ दय से
लगा िलया।

छं ० - िलयो दयँ लाइ कृपा िनधान सज


ु ान रायँ रमापित।
बैठा र परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पंकज िबलोिक िबरं िच संकर से य जे।
सख ु धाम पूरनकाम राम नमािम राम नमािम ते॥

सुजान के राजा (िशरोमिण), ल मीकांत, कृपािनधान भगवान ने उसको दय से लगा िलया


और अ यंत िनकट बैठकर कुशल पछ ू ी। वह िवनती करने लगा - आपके जो चरणकमल ा
और शंकर से सेिवत ह, उनके दशन करके म अब सकुशल हँ। हे सुखधाम! हे पण
ू काम राम! म
आपको नम कार करता हँ, नम कार करता हँ।

सब भाँित अधम िनषाद सो ह र भरत य उर लाइयो।


मितमंद तलु सीदास सो भु मोह बस िबसराइयो॥
यह रावना र च र पावन राम पद रित द सदा।
कामािदहर िब यानकर सरु िस मिु न गाविहं मदु ा॥

सब कार से नीच उस िनषाद को भगवान ने भरत क भाँित दय से लगा िलया। तुलसीदास


कहते ह - इस मंदबुि ने (मने) मोहवश उस भु को भुला िदया। रावण के श ु का यह पिव
करनेवाला च र सदा ही राम के चरण म ीित उ प न करनेवाला है। यह कामािद िवकार को
हरनेवाला और (भगवान के व प का) िवशेष ान उ प न करनेवाला है। देवता, िस और
मुिन आनंिदत होकर इसे गाते ह।

दो० - समर िबजय रघबु ीर के च रत जे सनु िहं सज


ु ान।
िबजय िबबेक िबभूित िनत ित हिह देिहं भगवान॥ 121(क)॥

जो सुजान लोग रघुवीर क समर िवजय संबंधी लीला को सुनते ह, उनको भगवान िन य िवजय,
िववेक और िवभिू त (ऐ य) देते ह॥ 121(क)॥

यह किलकाल मलायतन मन क र देखु िबचार।


ी रघन
ु ाथ नाम तिज नािहन आन अधार॥ 121(ख)॥

अरे मन! िवचार करके देख! यह किलकाल पाप का घर है। इसम ी रघुनाथ के नाम को
छोड़कर (पाप से बचने के िलए) दूसरा कोई आधार नह है॥ 121(ख)॥

इित ीम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने ष ः सोपानः समा ः।

किलयुग के सम त पाप का नाश करनेवाले ी रामच रतमानस का यह छठा सोपान समा


हआ।

(लंकाकांड समा )
उ रकांड
केक क ठाभनीलं सरु वरिवलसि पादा जिच ं
शोभाढ्यं पीतव ं सरिसजनयनं सवदा सु स नम्
पाणौ नाराचचापं किपिनकरयत ु ं ब धन
ु ा से यमानं
नौमीड्यं जानक शं रघव
ु रमिनशं पु पका ढरामम्॥ 1॥

मोर के कंठ क आभा के समान (ह रताभ) नीलवण, देवताओं म े , ा ण (भग ृ ु) के


चरणकमल के िच से सुशोिभत, शोभा से पणू , पीतांबरधारी, कमल ने , सदा परम स न, हाथ
म बाण और धनुष धारण िकए हए, वानर समहू से यु भाई ल मण से सेिवत, तुित िकए जाने
यो य, जानक के पित, रघुकुल े , पु पक िवमान पर सवार राम को म िनरं तर नम कार
करता हँ॥ 1॥

कोसले पदक जमंजुलौ कोमलावजमहेशवि दतौ।


जानक करसरोजलािलतौ िच तक य मनभंग
ृ संिगनौ॥ 2॥

कोसलपुरी के वामी राम के सुंदर और कोमल दोन चरणकमल ा और िशव ारा वंिदत ह,
जानक के करकमल से दुलराए हए ह और िचंतन करनेवाले के मन पी भ रे के िन य संगी ह
अथात िचंतन करने वाल का मन पी मर सदा उन चरणकमल म बसा रहता है॥ 2॥

कंु दइ ददु रगौरसु दरं अि बकापितमभी िसि दम्।


का णीककलक जलोचनं नौिम शंकरमनंगमोचनम्॥ 3॥

कंु द के फूल, चं मा और शंख के समान सुंदर गौरवण, जग जननी पावती के पित, वांिछत फल
के देनेवाले, (दुिखय पर सदा), दया करनेवाले, सुंदर कमल के समान ने वाले, कामदेव से
छुड़ानेवाले (क याणकारी) शंकर को म नम कार करता हँ॥ 3॥

दो० - रहा एक िदन अविध कर अित आरत परु लोग।


जहँ तहँ सोचिहं ना र नर कृस तन राम िबयोग॥

राम के लौटने क अविध का एक ही िदन बाक रह गया, नगर के लोग बहत आत ह। राम के
िवयोग म दुबले हए ी-पु ष जहाँ-तहाँ सोच (िवचार) कर रहे ह (िक या बात है राम य नह
आए)।

सगन ु होिहं संदु र सकल मन स न सब केर।


भु आगवन जनाव जनु नगर र य चहँ फेर॥
इतने म सब सुंदर शकुन होने लगे और सबके मन स न हो गए। नगर भी चार ओर से रमणीक
हो गया। मानो ये सब के सब िच भु के आगमन को जना रहे ह।

कौस यािद मातु सब मन अनंद अस होइ।


आयउ भु ी अनज ु जुत कहन चहत अब कोइ॥

कौस या आिद सब माताओं के मन म ऐसा आनंद हो रहा है जैसे अभी कोई कहना ही चाहता है
िक सीता और ल मण सिहत भु राम आ गए।

भरत नयन भज
ु दि छन फरकत बारिहं बार।
जािन सगन
ु मन हरष अित लागे करन िबचार॥

भरत क दािहनी आँख और दािहनी भुजा बार-बार फड़क रही है। इसे शुभ शकुन जानकर उनके
मन म अ यंत हष हआ और वे िवचार करने लगे -

रहेउ एक िदन अविध अधारा। समझ


ु त मन दख
ु भयउ अपारा॥
कारन कवन नाथ निहं आयउ। जािन कुिटल िकध मोिह िबसरायउ॥

ाण क आधार प अविध का एक ही िदन शेष रह गया। यह सोचते ही भरत के मन म अपार


दुःख हआ। या कारण हआ िक नाथ नह आए? भु ने कुिटल जानकर मुझे कह भुला तो नह
िदया?

अहह ध य लिछमन बड़भागी। राम पदारिबंदु अनरु ागी॥


कपटी कुिटल मोिह भु ची हा। ताते नाथ संग निहं ली हा॥

अहा हा! ल मण बड़े ध य एवं बड़भागी ह, जो राम के चरणारिवंद के ेमी ह (अथात उनसे अलग
नह हए)। मुझे तो भु ने कपटी और कुिटल पहचान िलया, इसी से नाथ ने मुझे साथ नह िलया।

ु ै भु मोरी। निहं िन तार कलप सत कोरी॥


ज करनी समझ
जन अवगनु भु मान न काऊ। दीन बंधु अित मदृ ल
ु सभ
ु ाऊ॥

(बात भी ठीक ही है, य िक) यिद भु मेरी करनी पर यान द तो सौ करोड़ (असं य) क प
तक भी मेरा िन तार (छुटकारा) नह हो सकता। (परं तु आशा इतनी ही है िक) भु सेवक का
अवगुण कभी नह मानते। वे दीनबंधु ह और अ यंत ही कोमल वभाव के ह।

मोरे िजयँ भरोस ढ़ सोई। िमिलहिहं राम सगन


ु सभ
ु होई॥
बीत अविध रहिहं ज ाना। अधम कवन जग मोिह समाना॥

अतएव मेरे दय म ऐसा प का भरोसा है िक राम अव य िमलगे, ( य िक) मुझे शकुन बड़े शुभ
हो रहे ह। िकंतु अविध बीत जाने पर यिद मेरे ाण रह गए तो जगत म मेरे समान नीच कौन
होगा?

दो० - राम िबरह सागर महँ भरत मगन मन होत।


िब प ध र पवनसतु आइ गयउ जनु पोत॥ 1(क)॥

राम के िवरह समु म भरत का मन डूब रहा था, उसी समय पवनपु हनुमा#2366;न ा ण का
प धरकर इस कार आ गए, मानो (उ ह डूबने से बचाने के िलए) नाव आ गई हो॥ 1(क)॥

बैठे देिख कुसासन जटा मक


ु ु ट कृस गात॥
राम राम रघप ु ित जपत वत नयन जलजात॥ 1(ख)॥

हनुमान ने दुबल शरीर भरत को जटाओं का मुकुट बनाए, राम! राम! रघुपित! जपते और कमल
के समान ने से ( ेमा ुओ)ं का जल बहाते कुश के आसन पर बैठे देखा॥ 1(ख)॥

देखत हनूमान अित हरषेउ। पल


ु क गात लोचन जल बरषेउ॥
मन महँ बहत भाँित सख
ु मानी। बोलेउ वन सधु ा सम बानी॥

उ ह देखते ही हनुमान अ यंत हिषत हए। उनका शरीर पुलिकत हो गया, ने से ( ेमा ुओ ं का)
जल बरसने लगा। मन म बहत कार से सुख मानकर वे कान के िलए अमत ृ के समान वाणी
बोले -

जासु िबरहँ सोचह िदन राती। रटह िनरं तर गन


ु गन पाँती॥
रघक
ु ु ल ितलक सजु न सखु दाता। आयउ कुसल देव मिु न ाता॥

िजनके िवरह म आप िदन-रात सोच करते (घुलते) रहते ह और िजनके गुणसमहू क पंि य को
आप िनरं तर रटते रहते ह, वे ही रघुकुल के ितलक, स जन को सुख देनेवाले और देवताओं तथा
मुिनय के र क राम सकुशल आ गए।

रपु रन जीित सज
ु स सरु गावत। सीता सिहत अनज ु भु आवत॥
सन
ु त बचन िबसरे सब दूखा। तष
ृ ावंत िजिम पाइ िपयूषा॥

श ु को रण म जीतकर सीता और ल मण सिहत भु आ रहे ह; देवता उनका सुंदर यश गा रहे ह।


ू गए। जैसे यासा आदमी अमत
ये वचन सुनते ही भरत सारे दुःख भल ृ पाकर यास के दुःख को
भलू जाए।

को तु ह तात कहाँ ते आए। मोिह परम ि य बचन सन ु ाए॥


मा त सत ु म किप हनम ु ाना। नामु मोर सन
ु ु कृपािनधाना॥
(भरत ने पछ
ू ा -) हे तात! तुम कौन हो? और कहाँ से आए हो? (जो) तुमने मुझको (ये) परम ि य
(अ यंत आनंद देनेवाले) वचन सुनाए। (हनुमान ने कहा) हे कृपािनधान! सुिनए, म पवन का पु
और जाित का वानर हँ, मेरा नाम हनुमान है।

दीनबंधु रघप
ु ित कर िकंकर। सन
ु त भरत भटेउ उिठ सादर॥
िमलत म े निहं दयँ समाता। नयन वतजल पल ु िकत गाता॥

म दीन के बंधु रघुनाथ का दास हँ। यह सुनते ही भरत उठकर आदरपवू क हनुमान से गले
लगकर िमले। िमलते समय ेम दय म नह समाता। ने से (आनंद और ेम के आँसुओ ं का)
जल बहने लगा और शरीर पुलिकत हो गया।

किप तव दरस सकल दख ु बीते। िमले आजुमोिह राम िपरीते॥


बार बार बूझी कुसलाता। तो कहँ देउँ काह सन
ु ाता॥

(भरत ने कहा -) हे हनुमान! तु हारे दशन से मेरे सम त दुःख समा हो गए (दुःख का अंत हो
गया)। (तु हारे प म) आज मुझे यारे राम ही िमल गए। भरत ने बार-बार कुशल पछ ू ी (और कहा
-) हे भाई! सुनो, (इस शुभ संवाद के बदले म) तु ह या दँू?

े स रस जग माह । क र िबचार देखउे ँ कछु नाह ॥


एिह संदस
नािहन तात उ रन म तोही। अब भु च रत सनु ावह मोही॥

इस संदेश के समान (इसके बदले म देने लायक पदाथ) जगत म कुछ भी नह है, मने यह िवचार
कर देख िलया है। (इसिलए) हे तात! म तुमसे िकसी कार भी उऋण नह हो सकता। अब मुझे
भु का च र (हाल) सुनाओ।

तब हनम
ु ंत नाइ पद माथा। कहे सकल रघप ु ित गनु गाथा॥
कह किप कबहँ कृपाल गोसाई ं। सिु मरिहं मोिह दास क नाई ं॥

तब हनुमान ने भरत के चरण म म तक नवाकर रघुनाथ क सारी गुणगाथा कही। (भरत ने


ू ा -) हे हनुमान! कहो, कृपालु वामी राम कभी मुझ जैसे दास क याद भी करते ह?
पछ

छं ० - िनज दास य रघब ु ंसभूषन कबहँ मम सिु मरन करयो।



सिु न भरत बचन िबनीत अित किप पल ु िक तन चरनि ह परयो॥

रघब ु ीर िनज मख
ु जासु गनु गन कहत अग जग नाथ जो।
काहे न होइ िबनीत परम पन ु ीत सदगनु िसंधु सो॥

रघुवंश के भषू ण राम या कभी अपने दास क भाँित मेरा मरण करते रहे ह? भरत के अ यंत
न वचन सुनकर हनुमान पुलिकत शरीर होकर उनके चरण पर िगर पड़े (और मन म िवचारने
लगे िक) जो चराचर के वामी ह, वे रघुवीर अपने मुख से िजनके गुणसमहू का वणन करते ह,
वे भरत ऐसे िवन , परम पिव और स ुण के समु य न ह ?

दो० - राम ान ि य नाथ तु ह स य बचन मम तात।


पिु न पिु न िमलत भरत सिु न हरष न दयँ समात॥ 2(क)॥

(हनुमान ने कहा -) हे नाथ! आप राम को ाण के समान ि य ह, हे तात! मेरा वचन स य है।


यह सुनकर भरत बार-बार िमलते ह, दय म हष समाता नह है॥ 2(क)॥

सो० - भरत चरन िस नाइ तु रत गयउ किप राम पिहं।


कही कुसल सब जाइ हरिष चलेउ भु जान चिढ़॥ 2(ख)॥

िफर भरत के चरण म िसर नवाकर हनुमान तुरंत ही राम के पास (लौट) गए और जाकर उ ह ने
सब कुशल कही। तब भु हिषत होकर िवमान पर चढ़कर चले॥ 2(ख)॥

हरिष भरत कोसलपरु आए। समाचार सब गरु िह सन ु ाए॥


पिु न मंिदर महँ बात जनाई। आवत नगर कुसल रघरु ाई॥

इधर भरत भी हिषत होकर अयो यापुरी म आए और उ ह ने गु को सब समाचार सुनाया। िफर


राजमहल म खबर जनाई िक रघुनाथ कुशलपवू क नगर को आ रहे ह।

सन
ु त सकल जनन उिठ धाई ं। किह भु कुसल भरत समझ ु ाई ं॥
समाचार परु बािस ह पाए। नर अ ना र हरिष सब धाए॥

खबर सुनते ही सब माताएँ उठ दौड़ । भरत ने भु क कुशल कहकर सबको समझाया। नगर
िनवािसय ने यह समाचार पाया, तो ी-पु ष सभी हिषत होकर दौड़े ।

दिध दब
ु ा रोचन फल फूला। नव तलु सी दल मंगल मूला॥
भ र भ र हेम थार भािमनी। गावत चिलं िसंधरु गािमनी॥

(राम के वागत के िलए) दही, दूब, गोरोचन, फल, फूल और मंगल के मल


ू नवीन तुलसीदल
आिद व तुएँ सोने क थाल म भर-भरकर हिथनी क -सी चालवाली सौभा यवती ि याँ (उ ह
लेकर) गाती हई चल ।

जे जैसिे हं तैसिे हं उिठ धाविहं। बाल ब ृ कहँ संग न लाविहं॥


एक एक ह कहँ बूझिहं भाई। तु ह देखे दयाल रघरु ाई॥

जो जैसे ह (जहाँ िजस दशा म ह) वे वैसे ही (वह से उसी दशा म) उठ दौड़ते ह। (देर हो जाने के
डर से) बालक और बढ़ ू को कोई साथ नह लाते। एक-दूसरे से पछ ू ते ह - भाई! तुमने दयालु
रघुनाथ को देखा है?

अवधपरु ी भु आवत जानी। भई सकल सोभा कै खानी॥


बहइ सहु ावन ि िबध समीरा। भइ सरजू अित िनमल नीरा॥

भु को आते जानकर अवधपुरी संपण


ू शोभाओं क खान हो गई। तीन कार क सुंदर वायु बहने
लगी। सरयू अित िनमल जलवाली हो गई ं (अथात सरयू का जल अ यंत िनमल हो गया)।

दो० - हरिषत गरु प रजन अनजु भूसरु बंदृ समेत।


चले भरत मन म े अित स मख
ु कृपािनकेत॥ 3(क)॥

गु विश , कुटुंबी, छोटे भाई श ु न तथा ा ण के समहू के साथ हिषत होकर भरत अ यंत
ेमपण
ू मन से कृपाधाम राम के सामने अथात उनक अगवानी के िलए चले॥ 3(क)॥

बहतक चढ़ अटा र ह िनरखिहं गगन िबमान।


द#2342;◌ेिख मधरु सरु हरिषत करिहं सम
ु ंगल गान॥ 3(ख)॥

बहत-सी ि याँ अटा रय पर चढ़ आकाश म िवमान देख रही ह और उसे देखकर हिषत होकर
मीठे वर से सुंदर मंगल गीत गा रही ह॥ 3(ख)॥

राका सिस रघप


ु ित परु िसंधु देिख हरषान।
बढ़्यो कोलाहल करत जनु ना र तरं ग समान॥ 3(ग)॥

रघुनाथ पिू णमा के चं मा ह तथा अवधपुर समु है, जो उस पण


ू चं को देखकर हिषत हो रहा है
और शोर करता हआ बढ़ रहा है (इधर-उधर दौड़ती हई) ि याँ उसक तरं ग के समान लगती ह॥
3(ग)॥

इहाँ भानक
ु ु ल कमल िदवाकर। किप ह देखावत नगर मनोहर॥
सनु ु कपीस अंगद लंकेसा। पावन परु ी िचर यह देसा॥

यहाँ (िवमान पर से) सय


ू कुल पी कमल को फुि लत करनेवाले सय ू राम वानर को मनोहर
नगर िदखला रहे ह। (वे कहते ह -) हे सु ीव! हे अंगद! हे लंकापित िवभीषण! सुनो। यह पुरी
पिव है और यह देश सुंदर है।

ज िप सब बैकंु ठ बखाना। बेद परु ान िबिदत जगु जाना॥


अवधपरु ी सम ि य निहं सोऊ। यह संग जानइ कोउ कोऊ॥

य िप सबने बैकुंठ क बड़ाई क है - यह वेद-पुराण म िस है और जगत जानता है, परं तु


अवधपुरी के समान मुझे वह भी ि य नह है। यह बात (भेद) कई-कोई (िबरले ही) जानते ह।
ज मभूिम मम परु ी सहु ाविन। उ र िदिस बह सरजू पाविन॥
जा म जन ते िबनिहं यासा। मम समीप नर पाविहं बासा॥

यह सुहावनी पुरी मेरी ज मभिू म है। इसके उ र िदशा म जीव को पिव करनेवाली सरयू नदी
बहती है, िजसम नान करने से मनु य िबना प र म के ही मेरे समीप िनवास (सामी य मुि )
पा जाते ह।

अित ि य मोिह इहाँ के बासी। मम धामदा परु ी सख


ु रासी॥
हरषे सब किप सिु न भु बानी। ध य अवध जो राम बखानी॥

यहाँ के िनवासी मुझे बहत ही ि य ह। यह पुरी सुख क रािश और मेरे परमधाम को देनेवाली है।
भु क वाणी सुनकर सब वानर हिषत हए (और कहने लगे िक) िजस अवध क वयं राम ने
बड़ाई क , वह (अव य ही) ध य है।

दो० - आवत देिख लोग सब कृपािसंधु भगवान।


नगर िनकट भु रे े उ उतरे उ भूिम िबमान॥ 4(क)॥

कृपा सागर भगवान राम ने सब लोग को आते देखा, तो भु ने िवमान को नगर के समीप
उतरने क ेरणा क । तब वह प ृ वी पर उतरा॥ 4(क)॥

उत र कहेउ भु पु पकिह तु ह कुबेर पिहं जाह।


े रत राम चलेउ सो हरषु िबरह अित ताह॥ 4(ख)॥

िवमान से उतरकर भु ने पु पक िवमान से कहा िक तुम अब कुबेर के पास जाओ। राम क ेरणा
से वह चला; उसे (अपने वामी के पास जाने का) हष है और भु राम से अलग होने का अ यंत
दुःख भी॥ 4(ख)॥

आए भरत संग सब लोगा। कृस तन ीरघब ु ीर िबयोगा॥


बामदेव बिस मिु ननायक। देखे भु मिह ध र धनु सायक॥

भरत के साथ सब लोग आए। ी रघुवीर के िवयोग से सबके शरीर दुबले हो रहे ह। भु ने वामदेव,
विश आिद मुिन े को देखा, तो उ ह ने धनुष-बाण प ृ वी पर रखकर -

धाइ धरे गरु चरन सरो ह। अनज ु सिहत अित पल ु क तनो ह॥


भिट कुसल बूझी मिु नराया। हमर कुसल तु हा रिहं दाया॥

छोटे भाई ल मण सिहत दौड़कर गु के चरणकमल पकड़ िलए; उनके रोम-रोम अ यंत पुलिकत
हो रहे ह। मुिनराज विश ने (उठाकर) उ ह गले लगाकर कुशल पछ
ू ी। ( भु ने कहा -) आप ही
क दया म हमारी कुशल है।
सकल ि ज ह िमिल नायउ माथा। धम धरु ं धर रघकु ु लनाथा॥
गहे भरत पिु न भु पद पंकज। नमत िज हिह सरु मिु न संकर अज॥

धम क धुरी धारण करनेवाले रघुकुल के वामी राम ने सब ा ण से िमलकर उ ह म तक


नवाया। िफर भरत ने भु के वे चरणकमल पकड़े िज ह देवता, मुिन, शंकर और ा (भी)
नम कार करते ह।

परे भूिम निहं उठत उठाए। बर क र कृपािसंधु उर लाए॥


यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥

भरत प ृ वी पर पड़े ह, उठाए उठते नह । तब कृपािसंधु राम ने उ ह जबद ती उठाकर दय से


लगा िलया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान ने म ( ेमा ुओ ं
के) जल क बाढ़ आ गई।

छं ० - राजीव लोचन वत जल तन लिलत पल ु काविल बनी।


अित म े दयँ लगाइ अनज ु िह िमले भु ि भअ ु न धनी॥
भु िमलत अनज ु िह सोह मो पिहं जाित निहं उपमा कही।
जनु म े अ िसंगार तनु ध र िमले बर सष ु मा लही॥

कमल के समान ने से जल बह रहा है। सुंदर शरीर म पुलकावली (अ यंत) शोभा दे रही है।
ि लोक के वामी भु राम छोटे भाई भरत को अ यंत ेम से दय से लगाकर िमले। भाई से
िमलते समय भु जैसे शोिभत हो रहे ह, उसक उपमा मुझसे कही नह जाती। मानो ेम और
ृ ार शरीर धारण करके िमले और े शोभा को ा हए।
ंग

बूझत कृपािनिध कुसल भरतिह बचन बेिग न आवई॥


सनु ु िसवा सो सख
ु बचन मन ते िभ न जान जो पावई॥
अब कुसल कौसलनाथ आरत जािन जन दरसन िदयो।
बूड़त िबरह बारीस कृपािनधान मोिह कर गिह िलयो॥

कृपािनधान राम भरत से कुशल पछ ू ते ह; परं तु आनंदवश भरत के मुख से वचन शी नह


िनकलते। (िशव ने कहा -) हे पावती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरत को िमल रहा था)
वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरत ने कहा -) हे कोसलनाथ!
आपने आ (दुःखी) जानकर दास को दशन िदए, इससे अब कुशल है। िवरह समु म डूबते हए
मुझको कृपािनधान ने हाथ पकड़कर बचा िलया!

दो० - पिु न भु हरिष स हु न भटे दयँ लगाइ।


लिछमन भरत िमले तब परम म े दोउ भाइ॥ 5॥
िफर भु हिषत होकर श ु न को दय से लगाकर उनसे िमले। तब ल मण और भरत दोन भाई
परम ेम से िमले॥ 5॥

भरतानजु लिछमन पिु न भटे। दस ु मेट॥े


ु ह िबरह संभव दख
सीता चरन भरत िस नावा। अनज ु समेत परम सख ु पावा॥

िफर ल मण श ु न से गले लगकर िमले और इस कार िवरह से उ प न दुःसह दुःख का नाश


िकया। िफर भाई श ु न सिहत भरत ने सीता के चरण म िसर नवाया और परम सुख ा िकया।

भु िबलोिक हरषे परु बासी। जिनत िबयोग िबपित सब नासी॥


े ातरु सब लोग िनहारी। कौतक
म ु क ह कृपाल खरारी॥

भु को देखकर सब अयो यावासी हिषत हए। िवयोग से उ प न सब दुःख न हो गए। सब


लोग को ेम िव ल (और िमलने के िलए अ यंत आतुर) देखकर खर के श ु कृपालु राम ने एक
चम कार िकया।

अिमत प गटे तेिह काला। जथाजोग िमले सबिह कृपाला॥


कृपा ि रघब
ु ीर िबलोक । िकए सकल नर ना र िबसोक ॥

उसी समय कृपालु राम असं य प म कट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायो य िमले।
रघुवीर ने कृपा क ि से देखकर सब नर-ना रय को शोक से रिहत कर िदया।

छन मिहं सबिह िमले भगवाना। उमा मरम यह काहँ न जाना॥


एिह िबिध सबिह सख
ु ी क र रामा। आग चले सील गनु धामा॥

भगवान ण मा म सबसे िमल िलए। हे उमा! यह रह य िकसी ने नह जाना। इस कार शील


और गुण के धाम राम सबको सुखी करके आगे बढ़े ।

कौस यािद मातु सब धाई। िनरिख ब छ जनु धेनु लवाई॥

कौस या आिद माताएँ ऐसे दौड़ मानो नई यायी हई गौएँ अपने बछड़ को देखकर दौड़ी ह ।

छं ० - जनु धेनु बालक ब छ तिज गहृ ँ चरन बन परबस गई ं।


िदन अंत परु ख वत थन हंकार क र धावत भई ं॥
अित म े भु सब मातु भेट बचन मदृ ु बहिबिध कहे।
गइ िबषम िबपित िबयोगभव ित ह हरष सख ु अगिनत लहे॥

मानो नई यायी हई गौएँ अपने छोटे बछड़ को घर पर छोड़ परवश होकर वन म चरने गई ह और
िदन का अंत होने पर (बछड़ से िमलने के िलए) हंकार करके थन से दूध िगराती हई ं नगर क
ओर दौड़ी ह । भु ने अ यंत ेम से सब माताओं से िमलकर उनसे बहत कार के कोमल वचन
कहे । िवयोग से उ प न भयानक िवपि दूर हो गई और सबने (भगवान से िमलकर और उनके
वचन सुनकर) अगिणत सुख और हष ा िकए।

दो० - भटेउ तनय सिु म ाँ राम चरन रित जािन।


रामिह िमलत कैकई दयँ बहत सकुचािन॥ 6(क)॥

सुिम ा अपने पु ल मण क राम के चरण म ीित जानकर उनसे िमल । राम से िमलते समय
कैकेयी दय म बहत सकुचाई ं॥ 6(क)॥

लिछमन सब मात ह िमिल हरषे आिसष पाइ।


कैकइ कहँ पिु न पिु न िमले मन कर छोभु न जाइ॥ 6(ख)॥

ल मण भी सब माताओं से िमलकर और आशीवाद पाकर हिषत हए। वे कैकेयी से बार-बार िमले,


परं तु उनके मन का ोभ (रोष) नह जाता॥ 6(ख)॥

सासु ह सबिन िमली बैदहे ी । चरनि ह लाग हरषु अित तेही॥


देिहं असीस बूिझ कुसलाता। होइ अचल तु हार अिहवाता॥

जानक सब सासुओ ं से िमल और उनके चरण म लगकर उ ह अ यंत हष हआ। सासुएँ कुशल
पछ
ू कर आशीष दे रही ह िक तु हारा सुहाग अचल हो।

सब रघप
ु ित मख
ु कमल िबलोकिहं। मंगल जािन नयन जल रोकिहं॥
कनक थार आरती उतारिहं। बार बार भु गात िनहारिहं॥

सब माताएँ रघुनाथ का कमल-सा मुखड़ा देख रही ह। (ने से ेम के आँसू उमड़े आते ह, परं तु)
मंगल का समय जानकर वे आँसुओ ं के जल को ने म ही रोक रखती ह। सोने के थाल से
आरती उतारती ह और बार-बार भु के अंग क ओर देखती ह।

नाना भाँित िनछाव र करह । परमानंद हरष उर भरह ॥


कौस या पिु न पिु न रघब
ु ीरिह। िचतवित कृपािसंधु रनधीरिह॥

अनेक कार से िनछावर करती ह और दय म परमानंद तथा हष भर रही ह। कौस या बार-बार


कृपा के समु और रणधीर रघुवीर को देख रही ह।

दयँ िबचारित बारिहं बारा। कवन भाँित लंकापित मारा॥


अित सक ु ु मार जुगल मेरे बारे । िनिसचर सभ
ु ट महाबल भारे ॥

वे बार-बार दय म िवचारती ह िक इ ह ने लंकापित रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोन ब चे बड़े


ही सुकुमार ह और रा स तो ड़े भारी यो ा और महान बली थे।

दो० - लिछमन अ सीता सिहत भिु ह िबलोकित मात।ु


परमानंद मगन मन पिु न पिु न पल
ु िकत गात॥ु 7॥

ल मण और सीता सिहत भु राम को माता देख रही ह। उनका मन परमानंद म म न है और


शरीर बार-बार पुलिकत हो रहा है॥ 7॥

लंकापित कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सभ ु सीला॥


हनमु दािद सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनज
ु सरीरा॥

लंकापित िवभीषण, वानरराज सु ीव, नल, नील, जा बवान और अंगद तथा हनुमान आिद सभी
उ म वभाववाले वीर वानर ने मनु य के मनोहर शरीर धारण कर िलए।

भरत सनेह सील त नेमा। सादर सब बरनिहं अित मे ा॥


देिख नगरबािस ह कै रीती। सकल सराहिहं भु पद ीती॥

वे सब भरत के ेम, सुंदर, वभाव ( याग के) त और िनयम क अ यंत ेम से आदरपवू क


बड़ाई कर रहे ह। और नगरवािसय क ( ेम, शील और िवनय से पण
ू ) रीित देखकर वे सब भु
के चरण म उनके ेम क सराहना कर रहे ह।

पिु न रघप
ु ित सब सखा बोलाए। मिु न पद लागह सकल िसखाए॥
गरु बिस कुलपू य हमारे । इ ह क कृपाँ दनजु रन मारे ॥

िफर रघुनाथ ने सब सखाओं को बुलाया और सबको िसखाया िक मुिन के चरण म लगो। ये गु


विश हमारे कुलभर के पू य ह। इ ह क कृपा से रण म रा स मारे गए ह।

ए सब सखा सनु ह मिु न मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥


मम िहत लािग ज म इ ह हारे । भरतह ते मोिह अिधक िपआरे ॥

(िफर गु से कहा -) हे मुिन! सुिनए। ये सब मेरे सखा ह। ये सं ाम पी समु म मेरे िलए बेड़े
(जहाज) के समान हए। मेरे िहत के िलए इ ह ने अपने ज म तक हार िदए (अपने ाण तक को
होम िदया)। ये मुझे भरत से भी अिधक ि य ह।

सुिन भु बचन मगन सब भए। िनिमष िनिमष उपजत सुख नए॥

भु के वचन सुनकर सब ेम और आनंद म म न हो गए। इस कार पल-पल म उ ह नए-नए


सुख उ प न हो रहे ह।
दो० - कौस या के चरनि ह पिु न ित ह नायउ माथ।
आिसष दी हे हरिष तु ह ि य मम िजिम रघनु ाथ॥ 8(क)॥

िफर उन लोग ने कौस या के चरण म म तक नवाए। कौस या ने हिषत होकर आशीष द (और
कहा -) तुम मुझे रघुनाथ के समान यारे हो॥ 8(क)॥

सम
ु न बिृ नभ संकुल भवन चले सख ु कंद।
चढ़ी अटा र ह देखिहं नगर ना र नर बंदृ ॥ 8(ख)॥

आनंदकंद राम अपने महल को चले, आकाश फूल क विृ से छा गया। नगर के ी-पु ष के
समहू अटा रय पर चढ़कर उनके दशन कर रहे ह॥ 8(ख)॥

कंचन कलस िबिच सँवारे । सबिहं धरे सिज िनज िनज ारे ॥
बंदनवार पताका केत।ू सबि ह बनाए मंगल हेत॥

सोने के कलश को िविच रीित से (मिण-र नािद से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोग ने
अपने-अपने दरवाज पर रख िलया। सब लोग ने मंगल के िलए बंदनवार, वजा और पताकाएँ
लगाई ं।

बीथ सकल सग ु ंध िसंचाई। गजमिन रिच बह चौक परु ाई ं।


नाना भाँित सम
ु ंगल साजे। हरिष नगर िनसान बह बाजे॥

सारी गिलयाँ सुगंिधत व से िसंचाई गई ं। गजमु ाओं से रचकर बहत-सी चौक पुराई गई ं।
अनेक कार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हषपवू क नगर म बहत-से डं के बजने लगे।

जहँ तहँ ना र िनछाव र करह । देिहं असीस हरष उर भरह ॥


कंचन थार आरत नाना। जुबत सज करिहं सभ ु गाना॥

ि याँ जहाँ-तहाँ िनछावर कर रही ह, और दय म हिषत होकर आशीवाद देती ह। बहत-सी युवती
(सौभा यवती) ि याँ सोने के थाल म अनेक कार क आरती सजाकर मंगलगान कर रही ह।

करिहं आरती आरितहर क। रघक ु ु ल कमल िबिपन िदनकर क॥


परु सोभा संपित क याना। िनगम सेष सारदा बखाना॥

वे आितहर (दुःख को हरनेवाले) और सय


ू कुल पी कमलवन को फुि लत करनेवाले सय
ू राम
क आरती कर रही ह। नगर क शोभा, संपि और क याण का वेद, शेष और सर वती वणन
करते ह -

तेउ यह च रत देिख ठिग रहह । उमा तासु गन


ु नर िकिम कह ॥
परं तु वे भी यह च र देखकर ठगे-से रह जाते ह ( तंिभत हो रहते ह)। (िशव कहते ह -) हे उमा!
तब भला मनु य उनके गुण को कैसे कह सकते ह।

दो० - ना र कुमिु दन अवध सर रघप


ु ित िबरह िदनेस।
अ त भएँ िबगसत भई ं िनरिख राम राकेस॥ 9(क)॥

ि याँ कुमुदनी ह, अयो या सरोवर है और रघुनाथ का िवरह सय ू के ताप से वे


ू है (इस िवरह-सय
मुरझा गई थ )। अब उस िवरह पी सय ू के अ त होने पर राम पी पण
ू चं को िनरखकर वे िखल
उठ ॥ 9(क)॥

होिहं सगन
ु सभ ु िबिबिध िबिध बाजिहं गगन िनसान।
परु नर ना र सनाथ क र भवन चले भगवान॥ 9(ख)॥

अनेक कार के शुभ शकुन हो रहे ह, आकाश म नगाड़े बज रहे ह। नगर के पु ष और ि य


को सनाथ (दशन ारा कृताथ) करके भगवान राम महल को चले॥ 9(ख)॥

भु जानी कैकई लजानी। थम तासु गहृ गए भवानी॥


तािह बोिध बहत सखु दी हा। पिु न िनज भवन गवन ह र क हा॥

(िशव कहते ह -) हे भवानी! भु ने जान िलया िक माता कैकेयी लि जत हो गई ह। (इसिलए), वे


पहले उ ह के महल को गए और उ ह समझा-बुझाकर बहत सुख िदया। िफर ह र ने अपने महल
को गमन िकया।

कृपािसंधु जब मंिदर गए। परु नर ना र सखु ी सब भए॥


गरु बिस ि ज िलए बल ु ाई। आजु सघु री सिु दन समदु ाई॥

कृपा के समु राम जब अपने महल को गए, तब नगर के ी-पु ष सब सुखी हए। गु विश
ने ा ण को बुला िलया (और कहा -) आज शुभ घड़ी, सुंदर िदन आिद सभी शुभ योग ह।

सब ि ज देह हरिष अनस


ु ासन। रामचं बैठिहं िसंघासन॥
मिु न बिस के बचन सहु ाए। सन
ु त सकल िब ह अित भाए॥

आप सब ा ण हिषत होकर आ ा दीिजए, िजसम रामचं िसंहासन पर िवराजमान ह । विश


मुिन के सुहावने वचन सुनते ही सब ा ण को बहत ही अ छे लगे।

कहिहं बचन मदृ ु िब अनेका। जग अिभराम राम अिभषेका॥


अब मिु नबर िबलंब निहं क जै। महाराज कहँ ितलक करीजै॥

वे सब अनेक ा ण कोमल वचन कहने लगे िक राम का रा यािभषेक संपण


ू जगत को आनंद
देनेवाला है। हे मुिन े ! अब िवलंब न क िजए और महाराज का ितलक शी क िजए।

दो० - तब मिु न कहेउ सम


ु ं सन सन
ु त चलेउ हरषाइ।
रथ अनेक बह बािज गज तरु त सँवारे जाइ॥ 10(क)॥

तब मुिन ने सुमं से कहा, वे सुनते ही हिषत होकर चले। उ ह ने तुरंत ही जाकर अनेक रथ,
घोड़े और हाथी सजाए,॥ 10(क)॥

जहँ तहँ धावन पठइ पिु न मंगल य मगाइ।


हरष समेत बिस पद पिु न िस नायउ आइ॥ 10(ख)॥

ू ना देनेवाले) दूत को भेजकर मांगिलक व तुएँ मँगाकर िफर हष के साथ


और जहाँ-तहाँ (सच
आकर विश के चरण म िसर नवाया॥ 10(ख)॥

अवधपरु ी अित िचर बनाई। देव ह सम


ु न बिृ झ र लाई॥
राम कहा सेवक ह बलु ाई। थम सख ह अ हवावह जाई॥

अवधपुरी बहत ही सुंदर सजाई गई। देवताओं ने पु प क वषा क झड़ी लगा दी। राम ने सेवक
को बुलाकर कहा िक तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को नान कराओ।

सन ु त बचन जहँ तहँ जन धाए। सु ीवािद तरु त अ हवाए॥


पिु न क नािनिध भरतु हँकारे । िनज कर राम जटा िन आरे ॥

भगवान के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उ ह ने सु ीवािद को नान


कराया। िफर क णािनधान राम ने भरत को बुलाया और उनक जटाओं को अपने हाथ से
सुलझाया।

अ हवाए भु तीिनउ भाई। भगत बछल कृपाल रघरु ाई॥


भरत भा य भु कोमलताई। सेष कोिट सत सकिहं न गाई॥

तदनंतर भ व सल कृपालु भु रघुनाथ ने तीन भाइय को नान कराया। भरत का भा य और


भु क कोमलता का वणन अरब शेष भी नह कर सकते।

पिु न िनज जटा राम िबबराए। गरु अनस


ु ासन मािग नहाए॥
क र म जन भु भूषन साजे। अंग अनंग देिख सत लाजे॥

िफर राम ने अपनी जटाएँ खोल और गु क आ ा माँगकर नान िकया। नान करके भु ने
आभषू ण धारण िकए। उनके (सुशोिभत) अंग को देखकर सैकड़ (असं य) कामदेव लजा गए।
दो० - सासु ह सादर जानिकिह म जन तरु त कराइ।
िद य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ॥ 11(क)॥

(इधर) सासुओ ं ने जानक को आदर के साथ तुरंत ही नान कराके उनके अंग-अंग म िद य
व और े आभषू ण भली-भाँित सजा िदए (पहना िदए)॥ 11(क)॥

राम बाम िदिस सोभित रमा प गन ु खािन।


देिख मातु सब हरष ज म सफु ल िनज जािन॥ 11(ख)॥

राम के बाय ओर प और गुण क खान रमा (जानक ) शोिभत हो रही ह। उ ह देखकर सब


माताएँ अपना ज म (जीवन) सफल समझकर हिषत हई ं॥ 11(ख)॥

सन
ु ु खगेस तेिह अवसर ा िसव मिु न बंदृ ।
चिढ़ िबमान आए सब सरु देखन सख ु कंद॥ 11(ग)॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे प ीराज ग ड़! सुिनए, उस समय ा, िशव और मुिनय के समहू


तथा िवमान पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान के दशन करने के िलए आए॥ 11(ग)॥

भु िबलोिक मिु न मन अनरु ागा। तरु त िद य िसंघासन मागा॥


रिब सम तेज सो बरिन न जाई। बैठे राम ि ज ह िस नाई॥

भु को देखकर मुिन विश के मन म ेम भर आया। उ ह ने तुरंत ही िद य िसंहासन मँगवाया,


िजसका तेज सयू के समान था। उसका स दय वणन नह िकया जा सकता। ा ण को िसर
नवाकर राम उस पर िवराज गए।

जनकसत ु ा समेत रघरु ाई। पेिख हरषे मिु न समदु ाई॥


बेद मं तब ि ज ह उचारे । नभ सरु मिु न जय जयित पक ु ारे ॥

जानक सिहत रघुनाथ को देखकर मुिनय का समुदाय अ यंत ही हिषत हआ। तब ा ण ने


वेदमं का उ चारण िकया। आकाश म देवता और मुिन 'जय हो, जय हो' ऐसी पुकार करने लगे।

थम ितलक बिस मिु न क हा। पिु न सब िब ह आयसु दी हा॥


सत
ु िबलोिक हरष महतारी। बार बार आरती उतारी॥

(सबसे) पहले मुिन विश ने ितलक िकया। िफर उ ह ने सब ा ण को (ितलक करने क )


आ ा दी। पु को राजिसंहासन पर देखकर माताएँ हिषत हई ं और उ ह ने बार-बार आरती उतारी।

िब ह दान िबिबिध िबिध दी हे। जाचक सकल अजाचक क हे॥


िसंघासन पर ि भअ
ु न साई ं। देिख सरु ह ददुं भ
ु बजाई ं॥
उ ह ने ा ण को अनेक कार के दान िदए और संपण ू याचक को अयाचक बना िदया
(मालामाल कर िदया)। ि भुवन के वामी राम को (अयो या के) िसंहासन पर (िवरािजत)
देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए।

छं ० - नभ ददुं भ
ु बाजिहं िबपल
ु गंधब िकंनर गावह ।
नाचिहं अपछरा बंदृ परमानंद सरु मिु न पावह ॥
भरतािद अनज ु िबभीषनांगद हनमु दािद समेत ते।
गह छ चामर यजन धनु अिस चम सि िबराजते॥

आकाश म बहत-से नगाड़े बज रहे ह। गंधव और िक नर गा रहे ह। अ सराओं के झुंड-के-झुंड


नाच रही ह। देवता और मुिन परमानंद ा कर रहे ह। भरत, ल मण और श ु न, िवभीषण,
अंगद, हनुमान और सु ीव आिद सिहत मशः छ , चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शि
िलए हए सुशोिभत ह।

ी सिहत िदनकर बंस भूषन काम बह छिब सोहई।


नव अंबध ु र बर गात अंबर पीत सरु मन मोहई॥
मक
ु ु टांगदािद िबिच भूषन अंग अंगि ह ित सजे।
अंभोज नयन िबसाल उर भज ु ध य नर िनरखंित जे॥

सीता सिहत सय ू वंश के िवभषू ण राम के शरीर म अनेक कामदेव क छिव शोभा दे रही है। नवीन
जलयु मेघ के समान सुंदर याम शरीर पर पीतांबर देवताओं के मन को भी मोिहत कर रहा है।
मुकुट, बाजबू ंद आिद िविच आभषू ण अंग-अंग म सजे हए ह। कमल के समान ने ह, चौड़ी छाती
है और लंबी भुजाएँ ह; जो उनके दशन करते ह, वे मनु य ध य ह।

दो० - वह सोभा समाज सखु कहत न बनइ खगेस।


बरनिहं सारद सेष ुित सो रस जान महेस॥ 12(क)॥

हे प ीराज ग ड़ ! वह शोभा, वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नह बनता। सर वती, शेष


और वेद िनरं तर उसका वणन करते ह, और उसका रस (आनंद) महादेव ही जानते ह॥ 12(क)॥

िभ न िभ न अ तिु त क र गए सरु िनज िनज धाम।


बंदी बेष बेद तब आए जहँ ीराम॥ 12(ख)॥

सब देवता अलग-अलग तुित करके अपने-अपने लोक को चले गए। तब भाट का प धारण
करके चार वेद वहाँ आए जहाँ ीराम थे॥ 12(ख)॥

भु सब य क ह अित आदर कृपािनधान।


लखेउ न काहँ मरम कछु लगे करन गन
ु गान॥ 12(ग)॥
कृपािनधान सव भु ने (उ ह पहचानकर) उनका बहत ही आदर िकया। इसका भेद िकसी ने
कुछ भी नह जाना। वेद गुणगान करने लगे॥ 12(ग)॥

छं ० - जय सगन
ु िनगनु प प अनूप भूप िसरोमने।
दसकंधरािद चंड िनिसचर बल खल भज ु बल हने॥
अवतार नर संसार भार िबभंिज दा न दख
ु दहे।
जय नतपाल दयाल भु संजु सि नमामहे॥

सगुण और िनगुण प! हे अनुपम प-लाव ययु ! हे राजाओं के िशरोमिण! आपक जय हो।


आपने रावण आिद चंड, बल और दु िनशाचर को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला।
आपने मनु य अवतार लेकर संसार के भार को न करके अ यंत कठोर दुःख को भ म कर
िदया। हे दयालु! हे शरणागत क र ा करनेवाले भो! आपक जय हो। म शि (सीता) सिहत
शि मान आपको नम कार करता हँ।

तव िबषम माया बस सरु ासरु नाग नर अग जग हरे ।


भव पंथ मत अिमत िदवस िनिस काल कम गन ु िन भरे ॥
जे नाथ क र क ना िबलोिक ि िबिध दख ु ते िनबहे।
भव खेद छेदन द छ हम कहँ र छ राम नमामहे॥

हे हरे ! आपक दु तर माया के वशीभत


ू होने के कारण देवता, रा स, नाग, मनु य और चर,
अचर सभी काल कम और गुण से भरे हए (उनके वशीभत ू हए) िदन-रात अनंत भव (आवागमन)
के माग म भटक रहे ह। हे नाथ! इनम से िजनको आपने कृपा करके (कृपा ि से) देख िलया,
वे (माया-जिनत) तीन कार के दुःख से छूट गए। हे ज म-मरण के म को काटने म कुशल
राम! हमारी र ा क िजए। हम आपको नम कार करते ह।

जे यान मान िबम तव भव हरिन भि न आदरी।


ते पाइ सरु दल
ु भ पदादिप परत हम देखत हरी॥
िब वास क र सब आस प रह र दास तव जे होइ रहे।
जिप नाम तव िबनु म तरिहं भव नाथ सो समरामहे॥

िज ह ने िम या ान के अिभमान म िवशेष प से मतवाले होकर ज म-म ृ यु (के भय) को


हरनेवाली आपक भि का आदर नह िकया, हे ह र! उ ह देव-दुलभ (देवताओं को भी बड़ी
किठनता से ा होनेवाले, ा आिद के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे िगरते देखते
ह। (परं तु) जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर िव ास करके आपके दास हो रहते ह, वे केवल
आपका नाम ही जपकर िबना ही प र म भवसागर से तर जाते ह। हे नाथ! ऐसे आपका हम
मरण करते ह।

जे चरन िसव अज पू य रज सभ
ु परिस मिु नपितनी तरी।
नख िनगता मिु न बंिदता ल ै ोक पाविन सरु सरी॥
वज कुिलस अंकुस कंज जुत बन िफरत कंटक िकन लहे।
पद कंज दं मक
ु ंु द राम रमेस िन य भजामहे॥

जो चरण िशव और ा के ारा पू य ह, तथा िजन चरण क क याणमयी रज का पश पाकर


(िशला बनी हई) गौतम ऋिष क प नी अह या तर गई; िजन चरण के नख से मुिनय ारा
वंिदत, ल ै ो य को पिव करनेवाली देवनदी गंगा िनकल और वजा, व अंकुश और कमल,
इन िच से यु िजन चरण म वन म िफरते समय काँटे चुभ जाने से घ े पड़ गए ह; हे मुकुंद! हे
राम! हे रमापित! हम आपके उ ह दोन चरणकमल को िन य भजते रहते ह।

अ य मूलमनािद त वच चा र िनगमागम भने।


षट कंध साखा पंच बीस अनेक पन सम ु न घने॥
फल जुगल िबिध कटु मधरु बेिल अकेिल जेिह आि त रहे।
प लवत फूलत नवल िनत संसार िबटप नमामहे॥

वेद-शा ने कहा है िक िजसका मल ू अ य ( कृित) है; जो ( वाह प से) अनािद है, िजसके
चार वचाएँ , छह तने, पचीस शाखाएँ और अनेक प े और बहत-से फूल ह; िजसम कड़वे और
मीठे दो कार के फल लगे ह; िजस पर एक ही बेल है, जो उसी के आि त रहती है; िजसम िन य
नए प े और फूल िनकलते रहते ह; ऐसे संसार व ृ व प (िव प म कट) आपको हम
नम कार करते ह।

जे अजम त ै मनभ
ु वग य मनपर यावह ।
ते कहहँ जानहँ नाथ हम तव सगन ु जस िनत गावह ॥
क नायतन भु सदगन ु ाकर देव यह बर मागह ।
मन बचन कम िबकार तिज तव चरन हम अनरु ागह ॥

अज मा है, अ तै है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है - (जो इस कार


कहकर उस) का यान करते ह, वे ऐसा कहा कर और जाना कर, िकंतु हे नाथ! हम तो
िन य आपका सगुण यश ही गाते ह। हे क णा के धाम भो! हे स ुण क खान! हे देव! हम यह
वर माँगते ह िक मन, वचन और कम से िवकार को यागकर आपके चरण म ही ेम कर।

दो० - सब के देखत बेद ह िबनती क ि ह उदार।


अंतधान भए पिु न गए आगार॥ 13(क)॥

वेद ने सबके देखते यह े िवनती क । िफर वे अंतधान हो गए और लोक को चले गए॥


13(क)॥

बैनतेय सन
ु ु संभु तब आए जहँ रघब
ु ीर।
िबनय करत गदगद िगरा पू रत पल
ु क सरीर॥ 13(ख)॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़ ! सुिनए, तब िशव वहाँ आए जहाँ रघुवीर थे और गद्गद् वाणी


से तुित करने लगे। उनका शरीर पुलकावली से पण ू हो गया - ॥ 13(ख)॥

छं ० - जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पािह जनं॥


अवधेस सरु े स रमेस िबभो। सरनागत मागत पािह भो॥

हे राम! हे रमारमण (ल मीकांत)! हे ज म-मरण के संताप का नाश करनेवाले! आपक जय हो;


आवागमन के भय से याकुल इस सेवक क र ा क िजए। हे अवधपित! हे देवताओं के वामी! हे
रमापित! हे िवभो! म शरणागत आपसे यही माँगता हँ िक हे भो! मेरी र ा क िजए।

दससीस िबनासन बीस भज ु ा। कृत दू र महा मिह भू र जा॥


रजनीचर बंदृ पतंग रहे। सर पावक तेज चंड दहे॥

हे दस िसर और बीस भुजाओंवाले रावण का िवनाश करके प ृ वी के सब महान रोग (क ) को


दूर करनेवाले राम! रा स समहू पी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण पी अि न के चंड तेज से
भ म हो गए।

मिह मंडल मंडन चा तरं । धत


ृ सायक चाप िनषंग बरं ।
मद मोह महा ममता रजनी। तम पंजु िदवाकर तेज अनी॥

आप प ृ वी मंडल के अ यंत सुंदर आभषू ण ह; आप े बाण, धनुष और तरकस धारण िकए हए


ह। महान मद, मोह और ममता पी राि के अंधकार समहू के नाश करने के िलए आप सयू के
तेजोमय िकरण समहू ह।

मनजात िकरात िनपात िकए। मग ृ लोग कुभोग सरे न िहए॥


हित नाथ अनाथिन पािह हरे । िबषया बन पावँर भूिल परे ॥

कामदेव पी भील ने मनु य पी िहरन के दय म कुभोग पी बाण मारकर उ ह िगरा िदया है। हे
नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करनेवाले) हरे ! उसे मारकर िवषय पी वन म भल
ू पड़े हए इन
पामर अनाथ जीव क र ा क िजए।

बह रोग िबयोगि ह लोग हए। भवदंि िनरादर के फल ए॥


े न जे करते॥
भव िसंधु अगाध परे नर ते। पद पंकज म

लोग बहत-से रोग और िवयोग (दुःख ) से मारे हए ह। ये सब आपके चरण के िनरादर के फल


ह। जो मनु य आपके चरणकमल म ेम नह करते, वे अथाह भवसागर म पड़े ह।
अित दीन मलीन दख
ु ी िनतह । िज ह क पद पंकज ीित नह ॥
अवलंब भवंत कथा िज ह क। ि य संत अनंत सदा ित ह क॥

िज ह आपके चरणकमल म ीित नह है वे िन य ही अ यंत दीन, मिलन (उदास) और दुःखी


रहते ह। और िज ह आपक लीला-कथा का आधार है, उनको संत और भगवान सदा ि य लगने
लगते ह।

निहं राग न लोभ न मान मदा। ित ह क सम बैभव वा िबपदा॥


एिह ते तव सेवक होत मदु ा। मिु न यागत जोग भरोस सदा॥

उनम न राग (आसि ) है, न लोभ; न मान है, न मद। उनको संपि सुख और िवपि (दुःख)
समान है। इसी से मुिन लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के िलए याग देते ह और स नता
के साथ आपके सेवक बन जाते ह।

कर म े िनरं तर नेम िलएँ । पद पंकज सेवत सु िहएँ ॥


सम मािन िनरादर आदरही। सब संतु सख ु ी िबचरं ित मही॥

वे ेमपवू क िनयम लेकर िनरं तर शु दय से आपके चरणकमल क सेवा करते रहते ह और


िनरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर प ृ वी पर िवचरते ह।

मिु न मानस पंकज भंग


ृ भजे। रघब
ु ीर महा रनधीर अजे॥
तव नाम जपािम नमािम हरी। भव रोग महागद मान अरी॥

हे मुिनय के मन पी कमल के मर! हे महान रणधीर एवं अजेय रघुवीर! म आपको भजता हँ
(आपक शरण हण करता हँ) हे ह र! आपका नाम जपता हँ और आपको नम कार करता हँ।
आप ज म-मरण पी रोग क महान औषध और अिभमान के श ु ह।

गन
ु सील कृपा परमायतनं। नमािम िनरं तर ीरमनं॥
रघन
ु ंद िनकंदय ं घनं। मिहपाल िबलोकय दीनजनं॥

आप गुण, शील और कृपा के परम थान ह। आप ल मीपित ह, म आपको िनरं तर णाम करता
हँ। हे रघुनंदन! (आप ज म-मरण, सुख-दुःख, राग- ेषािद) ं समहू का नाश क िजए। हे प ृ वी
का पालन करनेवाले राजन। इस दीन जन क ओर भी ि डािलए।

दो० - बार बार बर मागउँ हरिष देह ीरं ग।


पद सरोज अनपायनी भगित सदा सतसंग॥ 14(क॥

म आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हँ िक मुझे आपके चरणकमल क अचल भि और


आपके भ का स संग सदा ा हो। हे ल मीपते! हिषत होकर मुझे यही दीिजए॥ 14(क)॥
ु हरिष गए कैलास।
बरिन उमापित राम गन
तब भु किप ह िदवाए सब िबिध सखु द बास॥ 14(ख)॥

राम के गुण का वणन करके उमापित महादेव हिषत होकर कैलास को चले गए। तब भु ने
वानर को सब कार से सुख देनेवाले डे रे िदलवाए॥ 14(ख)॥

सन
ु ु खगपित यह कथा पावनी। ि िबध ताप भव भय दावनी॥
महाराज कर सभ
ु अिभषेका। सन
ु त लहिहं नर िबरित िबबेका॥

हे ग ड़! सुिनए, यह कथा (सबको) पिव करनेवाली है, (दैिहक, दैिवक, भौितक) तीन कार
के ताप का और ज म-म ृ यु के भय का नाश करनेवाली है। महाराज राम के क याणमय
रा यािभषेक का च र (िन कामभाव से) सुनकर मनु य वैरा य और ान ा करते ह।

जे सकाम नर सन
ु िहं जे गाविहं। सख
ु संपित नाना िबिध पाविहं॥
सरु दल
ु भ सख
ु क र जग माह । अंतकाल रघप ु ित परु जाह ॥

और जो मनु य सकामभाव से सुनते और जो गाते ह, वे अनेक कार के सुख और संपि पाते


ह। वे जगत म देवदुलभ सुख को भोगकर अंतकाल म रघुनाथ के परमधाम को जाते ह।

सन
ु िहं िबमु िबरत अ िबषई। लहिहं भगित गित संपित नई॥
खगपित राम कथा म बरनी। वमित िबलास ास दख ु हरनी॥

इसे जो जीव मु , िवर और िवषयी सुनते ह, वे ( मशः) भि , मुि और नवीन संपि


(िन य नए भोग) पाते ह। हे प ीराज ग ड़! मने अपनी बुि क पहँच के अनुसार रामकथा
वणन क है, जो (ज म-मरण) भय और दुःख को हरनेवाली है।

िबरित िबबेक भगित ढ़ करनी। मोह नदी कहँ संदु र तरनी॥


िनत नव मंगल कौसलपरु ी। हरिषत रहिहं लोग सब कुरी॥

यह वैरा य, िववेक और भि को ढ़ करनेवाली है तथा मोह पी नदी (को पार करने) के िलए
सुंदर नाव है। अवधपुरी म िनत-नए मंगलो सव होते ह। सभी वग के लोग हिषत रहते ह।

िनत नइ ीित राम पद पंकज। सब क िज हिह नमत िसव मिु न अज॥


मंगल बह कार पिहराए। ि ज ह दान नाना िबिध पाए॥

राम के चरणकमल म - िज ह िशव, मुिनगण और ा भी नम कार करते ह - सबक िन य


नवीन ीित है। िभ ुक को बहत कार के व ाभषू ण पहनाए गए और ा ण ने नाना कार
के दान पाए।
दो० - ानंद मगन किप सब क भु पद ीित।
जात न जाने िदवस ित ह गए मास षट बीित॥ 15॥

वानर सब ानंद म म न ह। भु के चरण म सबका ेम है। उ ह ने िदन जाते जाने ही नह


और (बात-क -बात म) छह महीने बीत गए॥ 15॥

िबसरे गहृ सपनेहँ सिु ध नाह । िजिम पर ोह संत मन माह ॥


तब रघपु ित सब सखा बोलाए। आइ सबि ह सादर िस नाए॥

उन लोग को अपने घर भल ू ही गए। (जा त क तो बात ही या) उ ह व न म भी घर क सुध


(याद) नह आती, जैसे संत के मन म दूसर से ोह करने क बात कभी नह आती। तब रघुनाथ
ने सब सखाओं को बुलाया। सबने आकर आदर सिहत िसर नवाया।

परम ीित समीप बैठारे । भगत सखु द मदृ ु बचन उचारे ॥


ु पर केिह िबिध कर बड़ाई॥
तु ह अित क ि ह मो र सेवकाई। मख

बड़े ही ेम से राम ने उनको अपने पास बैठाया और भ को सुख देनेवाले कोमल वचन कहे -
तुम लोग ने मेरी बड़ी सेवा क है। मँुह पर िकस कार तु हारी बड़ाई क ँ ?

ताते मोिह तु ह अित ि य लागे। मम िहत लािग भवन सख


ु यागे॥
अनजु राज संपित बैदहे ी। देह गेह प रवार सनेही॥

मेरे िहत के िलए तुम लोग ने घर को तथा सब कार के सुख को याग िदया। इससे तुम मुझे
अ यंत ही ि य लग रहे हो। छोटे भाई, रा य, संपि , जानक , अपना शरीर, घर, कुटुंब और िम -

सब मम ि य निहं तु हिह समाना। मष


ृ ा न कहउँ मोर यह बाना॥
सब क ि य सेवक यह नीती। मोर अिधक दास पर ीती॥

ये सभी मुझे ि य ह, परं तु तु हारे समान नह । म झठ


ू नह कहता, यह मेरा वभाव है। सेवक सभी
को यारे लगते ह, यह नीित (िनयम) है। (पर) मेरा तो दास पर ( वाभािवक ही) िवशेष ेम है।

दो० - अब गहृ जाह सखा सब भजेह मोिह ढ़ नेम।


सदा सबगत सबिहत जािन करे ह अित म े ॥ 16॥

हे सखागण! अब सब लोग घर जाओ; वहाँ ढ़ िनयम से मुझे भजते रहना। मुझे सदा सव यापक
और सबका िहत करनेवाला जानकर अ यंत ेम करना॥ 16॥

सिु न भु बचन मगन सब भए। को हम कहाँ िबस र तन गए॥


एकटक रहे जो र कर आगे। सकिहं न कछु किह अित अनरु ागे॥
भु के वचन सुनकर सब-के-सब ेमम न हो गए। हम कौन ह और कहाँ ह? यह देह क सुध भी
ू गई। वे भु के सामने हाथ जोड़कर टकटक लगाए देखते ही रह गए। अ यंत ेम के कारण
भल
कुछ कह नह सकते।

परम म े ित ह कर भु देखा। कहा िबिबिध िबिध यान िबसेषा॥


भु स मखु कछु कहन न पारिहं। पिु न पिु न चरन सरोज िनहारिहं॥

भु ने उनका अ यंत ेम देखा, (तब) उ ह अनेक कार से िवशेष ान का उपदेश िदया। भु के


स मुख वे कुछ कह नह सकते। बार-बार भु के चरणकमल को देखते ह।

तब भु भूषन बसन मगाए। नाना रं ग अनूप सहु ाए॥


सु ीविह थमिहं पिहराए। बसन भरत िनज हाथ बनाए॥

तब भु ने अनेक रं ग के अनुपम और सुंदर गहने-कपड़े मँगवाए। सबसे पहले भरत ने अपने हाथ
से सँवारकर सु ीव को व ाभषू ण पहनाए।

भु े रत लिछमन पिहराए। लंकापित रघप ु ित मन भाए॥


अंगद बैठ रहा निहं डोला। ीित देिख भु तािह न बोला॥

िफर भु क ेरणा से ल मण ने िवभीषण को गहने-कपड़े पहनाए, जो रघुनाथ के मन को बहत


ही अ छे लगे। अंगद बैठे ही रहे , वे अपनी जगह से िहले तक नह । उनका उ कट ेम देखकर भु
ने उनको नह बुलाया।

दो० - जामवंत नीलािद सब पिहराए रघन


ु ाथ।
िहयँ ध र राम प सब चले नाइ पद माथ॥ 17(क)॥

जा बवान और नील आिद सबको रघुनाथ ने वयं भषू ण-व पहनाए। वे सब अपने दय म राम
के प को धारण करके उनके चरण म म तक नवाकर चले॥ 17(क)॥

तब अंगद उिठ नाइ िस सजल नयन कर जो र।


े रसबो र॥ 17(ख)॥
अित िबनीत बोलेउ बचन मनहँ म

तब अंगद उठकर िसर नवाकर, ने म जल भरकर और हाथ जोड़कर अ यंत िवन तथा मानो
ेम के रस म डुबोए हए (मधुर) वचन बोले - ॥ 17(ख)॥

सन
ु ु सब य कृपा सखु िसंधो। दीन दयाकर आरत बंधो॥
मरती बेर नाथ मोिह बाली। गयउ तु हारे िह क छ घाली॥

हे सव ! हे कृपा और सुख के समु ! हे दीन पर दया करनेवाले! हे आत के बंधु! सुिनए! हे


नाथ! मरते समय मेरा िपता बािल मुझे आपक ही गोद म डाल गया था।

असरन सरन िबरदु संभारी। मोिह जिन तजह भगत िहतकारी॥


मोर तु ह भु गरु िपतु माता। जाउँ कहाँ तिज पद जलजाता॥

अतः हे भ के िहतकारी! अपना अशरण-शरण िवरद (बाना) याद करके मुझे यािगए नह । मेरे
तो वामी, गु , िपता और माता सब कुछ आप ही ह। आपके चरणकमल को छोड़कर म कहाँ
जाऊँ?

तु हिह िबचा र कहह नरनाहा। भु तिज भवन काज मम काहा॥


बालक यान बिु बल हीना। राखह सरन नाथ जन दीना॥

हे महाराज! आप ही िवचारकर किहए, भु (आप) को छोड़कर घर म मेरा या काम है? हे नाथ!


इस ान, बुि और बल से हीन बालक तथा दीन सेवक को शरण म रिखए।

नीिच टहल गहृ कै सब क रहउँ । पद पंकज िबलोिक भव त रहउँ ॥


अस किह चरन परे उ भु पाही। अब जिन नाथ कहह गहृ जाही॥

म घर क सब नीची-से-नीची सेवा क ँ गा और आपके चरणकमल को देख-देखकर भवसागर


से तर जाऊँगा। ऐसा कहकर वे राम के चरण म िगर पड़े (और बोले -) हे भो! मेरी र ा क िजए।
हे नाथ! अब यह न किहए िक तू घर जा।

दो० - अंगद बचन िबनीत सिु न रघप


ु ित क ना स व।
भु उठाइ उर लायउ सजल नयन राजीव॥ 18(क)॥

अंगद के िवन वचन सुनकर क णा क सीमा भु रघुनाथ ने उनको उठाकर दय से लगा


िलया। भु के ने कमल म ( ेमा ुओ ं का) जल भर आया॥ 18(क)॥

िनज उर माल बसन मिन बािलतनय पिहराइ।


िबदा क ि ह भगवान तब बह कार समझु ाइ॥ 18(ख)॥

तब भगवान ने अपने दय क माला, व और मिण (र न के आभषू ण) बािल पु अंगद को


पहनाकर और बहत कार से समझाकर उनक िवदाई क ॥ 18(ख)॥

भरत अनज
ु सौिमि समेता। पठवन चले भगत कृत चेता॥
े निहं थोरा। िफ र िफ र िचतव राम क ओरा॥
अंगद दयँ म

भ क करनी को याद करके भरत छोटे भाई श ु न और ल मण सिहत उनको पहँचाने चले।
अंगद के दय म थोड़ा ेम नह है (अथात बहत अिधक ेम है)। वे िफर-िफरकर राम क ओर
देखते ह।

बार बार कर दंड नामा। मन अस रहन कहिहं मोिह रामा॥


राम िबलोकिन बोलिन चलनी। सिु म र सिु म र सोचत हँिस िमलनी॥

और बार-बार दंडवत- णाम करते ह। मन म ऐसा आता है िक राम मुझे रहने को कह द। वे राम
के देखने क , बोलने क , चलने क तथा हँसकर िमलने क रीित को याद कर-करके सोचते ह
(दुःखी होते ह)।

भु ख देिख िबनय बह भाषी। चलेउ दयँ पद पंकज राखी॥


अित आदर सब किप पहँचाए। भाइ ह सिहत भरत पिु न आए॥

िकंतु भु का ख देखकर, बहत-से िवनय वचन कहकर तथा दय म चरणकमल को रखकर


वे चले। अ यंत आदर के साथ सब वानर को पहँचाकर भाइय सिहत भरत लौट आए।

तब सु ीव चरन गिह नाना। भाँित िबनय क हे हनम ु ाना॥


िदन दस क र रघप
ु ित पद सेवा। पिु न तव चरन देिखहउँ देवा॥

तब हनुमान ने सु ीव के चरण पकड़कर अनेक कार से िवनती क और कहा - हे देव! दस


(कुछ) िदन रघुनाथ क चरणस&##2375;वा करके िफर म आकर आपके चरण के दशन
क ँ गा।

पु य पंज
ु तु ह पवनकुमारा। सेवह जाइ कृपा आगारा॥
अस किह किप सब चले तरु ं ता। अंगद कहइ सनु ह हनम
ु ंता॥

(सु ीव ने कहा -) हे पवनकुमार! तुम पु य क रािश हो (जो भगवान ने तुमको अपनी सेवा म
रख िलया)। जाकर कृपाधाम राम क सेवा करो। सब वानर ऐसा कहकर तुरंत चल पड़े । अंगद ने
कहा - हे हनुमान! सुनो -

दो० - कहेह दंडवत भु स तु हिह कहउँ कर जो र।


बार बार रघन
ु ायकिह सरु ित कराएह मो र॥ 19(क)॥

म तुमसे हाथ जोड़कर कहता हँ, भु से मेरी दंडवत कहना और रघुनाथ को बार-बार मेरी याद
कराते रहना॥ 19(क)॥

अस किह चलेउ बािलसत


ु िफ र आयउ हनम
ु ंत।
तासु ीित भु सन कही मगन भए भगवंत॥ 19(ख)॥

ऐसा कहकर बािलपु अंगद चले, तब हनुमान लौट आए और आकर भु से उनका ेम वणन
िकया। उसे सुनकर भगवान ेमम न हो गए॥ 19(ख)॥

कुिलसह चािह कठोर अित कोमल कुसम


ु ह चािह।
िच खगेस राम कर समिु झ परइ कह कािह॥ 19(ग)॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे ग ड़! राम का िच व से भी अ यंत कठोर और फूल से भी अ यंत


कोमल है। तब किहए, वह िकसक समझ म आ सकता है?॥ 19(ग)॥

पिु न कृपाल िलयो बोिल िनषादा। दी हे भूषन बसन सादा॥


जाह भवन मम सिु मरन करे ह। मन म बचन धम अनस ु रे ह॥

िफर कृपालु राम ने िनषादराज को बुला िलया और उसे भषू ण, व साद म िदए। (िफर कहा -)
अब तुम भी घर जाओ, वहाँ मेरा मरण करते रहना और मन, वचन तथा कम से धम के अनुसार
चलना।

तु ह मम सखा भरत सम ाता। सदा रहेह परु आवत जाता॥


बचन सन ु त उपजा सख
ु भारी। परे उ चरन भ र लोचन बारी॥

तुम मेरे िम हो और भरत के समान भाई हो। अयो या म सदा आते-जाते रहना। यह वचन सुनते
ही उसको भारी सुख उ प न हआ। ने म (आनंद और ेम के आँसुओ ं का) जल भरकर वह
चरण म िगर पड़ा।

चरन निलन उर ध र गहृ आवा। भु सभ ु ाउ प रजनि ह सन


ु ावा॥
रघप
ु ित च रत देिख परु बासी। पिु न पिु न कहिहं ध य सखु रासी॥

िफर भगवान के चरणकमल को दय म रखकर वह घर आया और आकर अपने कुटुंिबय को


उसने भु का वभाव सुनाया। रघुनाथ का यह च र देखकर अवधपुरवासी बार-बार कहते ह िक
सुख क रािश राम ध य ह।

ै ोका। हरिषत भए गए सब सोका॥


राम राज बैठ ल
बय न कर काह सन कोई। राम ताप िबषमता खोई॥

राम के रा य पर िति त होने पर तीन लोक हिषत हो गए, उनके सारे शोक जाते रहे । कोई
िकसी से वैर नह करता। राम के ताप से सबक िवषमता (आंत रक भेदभाव) िमट गई।

दो० - बरना म िनज िनज धरम िनरत बेद पथ लोग।


चलिहं सदा पाविहं सख
ु िह निहं भय सोक न रोग॥ 20॥

सब लोग अपने-अपने वण और आ म के अनुकूल धम म त पर हए सदा वेद माग पर चलते ह


और सुख पाते ह। उ ह न िकसी बात का भय है, न शोक है और न कोई रोग ही सताता है॥ 20॥

दैिहक दैिवक भौितक तापा। राम राज निहं काहिह यापा॥


सब नर करिहं पर पर ीती। चलिहं वधम िनरत ुित नीती॥

राम-रा य म दैिहक, दैिवक और भौितक ताप िकसी को नह यापते। सब मनु य पर पर ेम


करते ह और वेद म बताई हई नीित (मयादा) म त पर रहकर अपने-अपने धम का पालन करते
ह।

चा रउ चरन धम जग माह । पू र रहा सपनेहँ अघ नाह ॥


राम भगित रत नर अ नारी। सकल परम गित के अिधकारी॥

धम अपने चार चरण (स य, शौच, दया और दान) से जगत म प रपण


ू हो रहा है; व न म भी
कह पाप नह है। पु ष और ी सभी रामभि के परायण ह और सभी परम गित (मो ) के
अिधकारी ह।

अ पम ृ यु निहं कविनउ पीरा। सब संदु र सब िब ज सरीरा॥


निहं द र कोउ दख ु ी न दीना। निहं कोउ अबध
ु न ल छन हीना॥

छोटी अव था म म ृ यु नह होती, न िकसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर संुदर और
नीरोग ह। न कोई द र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मखू है और न शुभ ल ण से
हीन ही है।

सब िनदभ धमरत पन ु ी। नर अ ना र चतरु सब गन


ु ी॥
सब गनु य पंिडत सब यानी। सब कृत य निहं कपट सयानी॥

सभी दंभरिहत ह, धमपरायण ह और पु या मा ह। पु ष और ी सभी चतुर और गुणवान ह। सभी


गुण का आदर करनेवाले और पंिडत ह तथा सभी ानी ह। सभी कृत (दूसरे के िकए हए
उपकार को माननेवाले) ह, कपट-चतुराई (धत
ू ता) िकसी म नह है।

दो० - राम राज नभगेस सन ु ु सचराचर जग मािहं।


काल कम सभ ु ाव गन
ु कृत दख ु काहिह नािहं॥ 21॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे प ीराज गु ड़! सुिनए। राम के रा य म जड़, चेतन सारे जगत म


काल, कम वभाव और गुण से उ प न हए दुःख िकसी को भी नह होते (अथात इनके बंधन म
कोई नह है)॥ 21॥

भूिम स सागर मेखला। एक भूप रघपु ित कोसला॥


भअु न अनेक रोम ित जासू। यह भत
ु ा कछु बहत न तासू॥
अयो या म रघुनाथ सात समु क मेखला (करधनी) वाली प ृ वी के एक मा राजा ह। िजनके
एक-एक रोम म अनेक ांड ह, उनके िलए सात ीप क यह भुता कुछ अिधक नह है।

ु त भु केरी। यह बरनत हीनता घनेरी॥


सो मिहमा समझ
सोउ मिहमा खगेस िज ह जानी॥ िफ र एिहं च रत ित हहँ रित मानी॥

बि क भु क उस मिहमा को समझ लेने पर तो यह कहने म (िक वे सात समु से िघरी हई स


ीपमयी प ृ वी के एकछ स ाट ह) उनक बड़ी हीनता होती है, परं तु हे ग ड़! िज ह ने वह
मिहमा जान भी ली है, वे भी िफर इस लीला म बड़ा ेम मानते ह।

सोउ जाने कर फल यह लीला। कहिहं महा मिु नबर दमसीला॥


राम राज कर सख
ु संपदा। बरिन न सकइ फनीस सारदा॥

य िक उस मिहमा को भी जानने का फल यह लीला (इस लीला का अनुभव) ही है, इंि य का


दमन करनेवाले े महामुिन ऐसा कहते ह। रामरा य क सुख संपि का वणन शेष और
सर वती भी नह कर सकते।

सब उदार सब पर उपकारी। िब चरन सेवक नर नारी॥


एकना र त रत सब झारी। ते मन बच म पित िहतकारी॥

सभी नर-नारी उदार ह, सभी परोपकारी ह और ा ण के चरण के सेवक ह। सभी पु ष मा


एक प नी ती ह। इसी कार ि याँ भी मन, वचन और कम से पित का िहत करनेवाली ह।

दो० - दंड जित ह कर भेद जहँ नतक न ृ य समाज।


जीतह मनिह सिु नअ अस रामचं क राज॥ 22॥

रामचं के रा य म दंड केवल सं यािसय के हाथ म है और भेद नाचने वाल के न ृ य समाज म


है और 'जीतो' श द केवल मन के जीतने के िलए ही सुनाई पड़ता है (अथात राजनीित म श ुओ ं
को जीतने तथा चोर-डाकुओं आिद को दमन करने के िलए साम, दान, दंड और भेद - ये चार
उपाय िकए जाते ह। रामरा य म कोई श ु है ही नह , इसिलए 'जीतो' श द केवल मन के जीतने
के िलए कहा जाता है। कोई अपराध करता ही नह , इसिलए दंड िकसी को नह होता, दंड श द
केवल सं यािसय के हाथ म रहनेवाले दंड के िलए ही रह गया है तथा सभी अनुकूल होने के
कारण भेदनीित क आव यकता ही नह रह गई। भेद, श द केवल सुर-ताल के भेद के िलए ही
काम म आता है)॥ 22॥

फूलिहं फरिहं सदा त कानन। रहिहं एक सँग गज पंचानन॥


खग मग ृ सहज बय िबसराई। सबि ह पर पर ीित बढ़ाई॥
वन म व ृ सदा फूलते और फलते ह। हाथी और िसंह (वैर भल
ू कर) एक साथ रहते ह। प ी और
पशु सभी ने वाभािवक वैर भुलाकर आपस म ेम बढ़ा िलया है।

कूजिहं खग मगृ नाना बंदृ ा। अभय चरिहं बन करिहं अनंदा॥


सीतल सरु िभ पवन बह मंदा। गंजु त अिल लै चिल मकरं दा॥

प ी कूजते (मीठी बोली बोलते) ह, भाँित-भाँित के पशुओ ं के समहू वन म िनभय िवचरते और


आनंद करते ह। शीतल, मंद, सुगंिधत पवन चलता रहता है। भ रे पु प का रस लेकर चलते हए
गुंजार करते जाते ह।

लता िबटप माग मधु चवह । मनभावतो धेनु पय वह ॥


सिस संप न सदा रह धरनी। ते ाँ भइ कृतजुग कै करनी॥

बेल और व ृ माँगने से ही मधु (मकरं द) टपका देते ह। गौएँ मनचाहा दूध देती ह। धरती सदा
खेती से भरी रहती है। ेता म स ययुग क करनी (ि थित) हो गई।

गट िग र ह िबिबिध मिन खानी। जगदातमा भूप जग जानी॥


स रता सकल बहिहं बर बारी। सीतल अमल वाद सखु कारी॥

सम त जगत के आ मा भगवान को जगत का राजा जानकर पवत ने अनेक कार क मिणय


क खान कट कर द । सब निदयाँ े , शीतल, िनमल और सुख द वािद जल बहाने लग ।

सागर िनज मरजादाँ रहह । डारिहं र न तटि ह नर लहह ॥


सरिसज संकुल सकल तड़ागा। अित स न दस िदसा िबभागा॥

समु अपनी मयादा म रहते ह। वे लहर ारा िकनार पर र न डाल देते ह, िज ह मनु य पा जाते
ह। सब तालाब कमल से प रपणू ह। दस िदशाओं के िवभाग (अथात सभी देश) अ यंत स न
ह।

दो० - िबधु मिह पूर मयूखि ह रिब तप जेतनेिह काज।


माग बा रद देिहं जल रामचं क राज॥ 23॥

रामचं के रा य म चं मा अपनी (अमत ू कर देते ह। सय


ृ मयी) िकरण से प ृ वी को पण ू उतना ही
तपते ह, िजतने क आव यकता होती है और मेघ माँगने से (जब जहाँ िजतना चािहए उतना ही)
जल देते ह॥ 23॥

कोिट ह बािजमेध भु क हे। दान अनेक ि ज ह कहँ दी हे॥


ुित पथ पालक धम धरु ं धर। गन
ु ातीत अ भोग परु ं दर॥
भु राम ने करोड़ अ मेध य िकए और ा ण को अनेक दान िदए। राम वेदमाग के
पालनेवाले, धम क धुरी को धारण करनेवाले, ( कृितज य स व, रज और तम) तीन गुण से
अतीत और भोग (ऐ य) म इं के समान ह।

पित अनकु ू ल सदा रह सीता। सोभा खािन सस


ु ील िबनीता॥
जानित कृपािसंधु भत ु ाई॥ सेवित चरन कमल मन लाई॥

शोभा क खान, सुशील और िवन सीता सदा पित के अनुकूल रहती ह। वे कृपासागर राम क
भुता (मिहमा) को जानती ह और मन लगाकर उनके चरणकमल क सेवा करती ह।

ज िप गहृ ँ सेवक सेविकनी। िबपल


ु सदा सेवा िबिध गनु ी॥
िनज कर गहृ प रचरजा करई। रामचं आयसु अनस ु रई॥

य िप घर म बहत-से (अपार) दास और दािसयाँ ह और वे सभी सेवा क िविध म कुशल ह, तथािप


( वामी क सेवा का मह व जाननेवाली) सीता घर क सब सेवा अपने ही हाथ से करती ह और
रामचं क आ ा का अनुसरण करती ह।

जेिह िबिध कृपािसंधु सख


ु मानइ। सोइ कर ी सेवा िबिध जानइ॥
कौस यािद सासु गहृ माह । सेवइ सबि ह मान मद नाह ॥

कृपासागर राम िजस कार से सुख मानते ह, ी (सीता) वही करती ह; य िक वे सेवा क िविध
को जाननेवाली ह। घर म कौस या आिद सभी सासुओ ं क सीता सेवा करती ह, उ ह िकसी बात
का अिभमान और मद नह है।

उमा रमा ािद बंिदता। जगदंबा संततमिनंिदता॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! जग जननी रमा (सीता) ा आिद देवताओं से वंिदत और सदा
अिनंिदत (सवगुण संप न) ह।

दो० - जासु कृपा कटा छु सरु चाहत िचतव न सोइ।


राम पदारिबंद रित करित सभु ाविह खोइ॥ 24॥

देवता िजनका कृपाकटा चाहते ह, परं तु वे उनक ओर देखती भी नह , वे ही ल मी (जानक )


अपने (महामिहम) वभाव को छोड़कर राम के चरणारिवंद म ीित करती ह॥ 24॥

सेविहं सानकूल सब भाई। राम चरन रित अित अिधकाई॥


भु मखु कमल िबलोकत रहह । कबहँ कृपाल हमिह कछु कहह ॥

सब भाई अनुकूल रहकर उनक सेवा करते ह। राम के चरण म उनक अ यंत अिधक ीित है। वे
सदा भु का मुखारिवंद ही देखते रहते ह िक कृपालु राम कभी हम कुछ सेवा करने को कह।

राम करिहं ात ह पर ीती। नाना भाँित िसखाविहं नीती॥


हरिषत रहिहं नगर के लोगा। करिहं सकल सरु दल
ु भ भोगा॥

राम भी भाइय पर ेम करते ह और उ ह नाना कार क नीितयाँ िसखलाते ह। नगर के लोग


हिषत रहते ह और सब कार के देवदुलभ (देवताओं को भी किठनता से ा होने यो य) भोग
भोगते ह।

अहिनिस िबिधिह मनावत रहह । ी रघब ु ीर चरन रित चहह ॥


दइु सत
ु संदु र सीताँ जाए। लव कुस बेद परु ान ह गाए॥

वे िदन-रात ा को मनाते रहते ह और (उनसे) ी रघुवीर के चरण म ीित चाहते ह। सीता के


लव और कुश - ये दो पु उ प न हए, िजनका वेद-पुराण ने वणन िकया है।

दोउ िबजई िबनई गन


ु मंिदर। ह र ितिबंब मनहँ अित संदु र॥
ु सब ात ह केरे । भए प गन
दइु दइु सत ु सील घनेरे॥

वे दोन ही िवजयी (िव यात यो ा), न और गुण के धाम ह और अ यंत सुंदर ह, मानो ह र के
ितिबंब ही ह । दो-दो पु सभी भाइय के हए, जो बड़े ही संुदर, गुणवान और सुशील थे।

दो० - यान िगरा गोतीत अज माया मन गनु पार।


सोइ सि चदानंद घन कर नर च रत उदार॥ 25॥

जो (बौि क) ान, वाणी और इंि य से परे और अज मा है तथा माया, मन और गुण के परे है,
वही सि चदानंदघन भगवान े नरलीला करते ह॥ 25॥

ातकाल सरऊ क र म जन। बैठिहं सभाँ संग ि ज स जन॥


बेद परु ान बिस बखानिहं। सन
ु िहं राम ज िप सब जानिहं॥

ातःकाल सरयू म नान करके ा ण और स जन के साथ सभा म बैठते ह। विश वेद और


पुराण क कथाएँ वणन करते ह और राम सुनते ह, य िप वे सब जानते ह।

अनज
ु ह संजुत भोजन करह । देिख सकल जनन सख ु भरह ॥
भरत स हु न दोनउ भाई। सिहत पवनसत
ु उपबन जाई॥

वे भाइय को साथ लेकर भोजन करते ह। उ ह देखकर सभी माताएँ आनंद से भर जाती ह। भरत
और श ु न दोन भाई हनुमान सिहत उपवन म जाकर,
बूझिहं बैिठ राम गनु गाहा। कह हनम
ु ान सम ु ित अवगाहा॥
सनु त िबमल गन ु अित सखु पाविहं। बह र बह र क र िबनय कहाविहं॥

वहाँ बैठकर राम के गुण क कथाएँ पछ


ू ते ह और हनुमान अपनी सुंदर बुि से उन गुण म गोता
लगाकर उनका वणन करते ह। राम के िनमल गुण को सुनकर दोन भाई अ यंत सुख पाते ह
और िवनय करके बार-बार कहलवाते ह।

सब क गहृ गहृ होिहं परु ाना। राम च रत पावन िबिध नाना॥


नर अ ना र राम गन ु गानिहं। करिहं िदवस िनिस जात न जानिहं॥

सबके यहाँ घर-घर म पुराण और अनेक कार के पिव रामच र क कथा होती है। पु ष और
ी सभी राम का गुणगान करते ह और इस आनंद म िदन-रात का बीतना भी नह जान पाते।

दो० - अवधपरु ी बािस ह कर सख


ु संपदा समाज।
सहस सेष निहं किह सकिहं जहँ नप
ृ राम िबराज॥ 26॥

जहाँ भगवान राम वयं राजा होकर िवराजमान ह, उस अवधपुरी के िनवािसय के सुख-संपि के
समुदाय का वणन हजार शेष भी नह कर सकते॥ 26॥

नारदािद सनकािद मन
ु ीसा। दरसन लािग कोसलाधीसा॥
िदन ित सकल अजो या आविहं। देिख नग िबरागु िबसराविहं॥

नारद आिद और सनक आिद मुनी र सब कोसलराज राम के दशन के िलए ितिदन अयो या
आते ह और उस (िद य) नगर को देखकर वैरा य भुला देते ह।

जात प मिन रिचत अटार । नाना रं ग िचर गच ढार ॥


परु चहँ पास कोट अित संदु र। रचे कँगूरा रं ग रं ग बर॥

(िद य) वण और र न से बनी हई अटा रयाँ ह। उनम (मिण-र न क ) अनेक रं ग क सुंदर


ढली हई फश ह। नगर के चार ओर अ यंत सुंदर परकोटा बना है, िजस पर सुंदर रं ग-िबरं गे कँगरू े
बने ह।

नव ह िनकर अनीक बनाई। जनु घेरी अमरावित आई॥


लमिह बह रं ग रिचत गच काँचा। जो िबलोिक मिु नबर मन नाचा॥

मानो नव ह ने बड़ी भारी सेना बनाकर अमरावती को आकर घेर िलया हो। प ृ वी (सड़क ) पर
अनेक रं ग के (िद य) काँच (र न ) क गच बनाई (ढाली) गई है, िजसे देखकर े मुिनय
के भी मन नाच उठते ह।
धवल धाम ऊपर नभ चंब
ु त। कलस मनहँ रिब सिस दिु त िनंदत॥
बह मिन रिचत झरोखा ाजिहं। गहृ गहृ ित मिन दीप िबराजिहं॥

उ वल महल ऊपर आकाश को चम ू (छू) रहे ह। महल पर के कलश (अपने िद य काश से)
मानो सयू , चं मा के काश क भी िनंदा (ितर कार) करते ह। (महल म) बहत-सी मिणय से
रचे हए झरोखे सुशोिभत ह और घर-घर म मिणय के दीपक शोभा पा रहे ह।

छं ० - मिन दीप राजिहं भवन ाजिहं देहर िब म


ु रची।
मिन खंभ भीित िबरं िच िबरची कनक मिन मरकत खची॥
संदु र मनोहर मंिदरायत अिजर िचर फिटक रचे।
ित ार ार कपाट परु ट बनाइ बह ब ि ह खचे॥

घर म मिणय के दीपक शोभा दे रहे ह। मँग


ू क बनी हई देहिलयाँ चमक रही ह। मिणय (र न )
के खंभे ह। मरकतमिणय (प न ) से जड़ी हई सोने क दीवार ऐसी सुंदर ह मानो ा ने खास
तौर से बनाई ह । महल सुंदर, मनोहर और िवशाल ह। उनम सुंदर फिटक के आँगन बने ह।
येक ार पर बहत-से खरादे हए हीर से जड़े हए सोने के िकंवाड़ ह।

दो० - चा िच साला गहृ गहृ ित िलखे बनाइ।


राम च रत जे िनरख मिु न ते मन लेिहं चोराइ॥ 27॥

घर-घर म सुंदर िच शालाएँ ह, िजनम राम के च र बड़ी सुंदरता के साथ सँवारकर अंिकत िकए
हए ह। िज ह मुिन देखते ह, तो वे उनके भी िच को चुरा लेते ह॥ 27॥

सम
ु न बािटका सबिहं लगाई ं। िबिबध भाँित क र जतन बनाई ं॥
लता लिलत बह जाित सहु ाई ं। फूलिहं सदा बसंत िक नाई ं॥

सभी लोग ने िभ न-िभ न कार क पु प क वािटकाएँ य न करके लगा रखी ह, िजनम बहत
जाितय क संुदर और लिलत लताएँ सदा वसंत क तरह फूलती रहती ह।

गंज
ु त मधक
ु र मख
ु र मनोहर। मा त ि िबिध सदा बह संदु र।
नाना खग बालकि ह िजआए। बोलत मधरु उड़ात सहु ाए॥

भ रे मनोहर वर से गुंजार करते ह। सदा तीन कार क सुंदर वायु बहती रहती है। बालक ने
बहत-से प ी पाल रखे ह, जो मधुर बोली बोलते ह और उड़ने म सुंदर लगते ह।

मोर हंस सारस पारावत। भवनिन पर सोभा अित पावत॥


जहँ तहँ देखिहं िनज प रछाह । बह िबिध कूजिहं न ृ य कराह ॥

ू र घर के ऊपर बड़ी ही शोभा पाते ह। वे प ी (मिणय क दीवार म


मोर, हंस, सारस और कबत
और छत म) जहाँ-तहाँ अपनी परछाई ं देखकर (वहाँ दूसरे प ी समझकर) बहत कार से मधुर
बोली बोलते और न ृ य करते ह।

सकु सा रका पढ़ाविहं बालक। कहह राम रघप


ु ित जनपालक॥
राज दआ
ु र सकल िबिध चा । बीथ चौहट िचर बजा ॥

बालक तोता-मैना को पढ़ाते ह िक कहो - 'राम' 'रघुपित' 'जनपालक'। राज ार सब कार से


सुंदर है। गिलयाँ, चौराहे और बाजार सभी सुंदर ह।

छं ० - बाजार िचर न बनइ बरनत ब तु िबनु गथ पाइए।


जहँ भूप रमािनवास तहँ क संपदा िकिम गाइए॥
बैठे बजाज सराफ बिनक अनेक मनहँ कुबेर ते।
सब सख ु ी सब स च र संदु र ना र नर िससु जरठ जे॥

संुदर बाजार है, जो वणन करते नह बनता; वहाँ व तुएँ िबना ही मू य िमलती ह। जहाँ वयं
ल मीपित राजा ह , वहाँ क संपि का वणन कैसे िकया जाए? बजाज (कपड़े का यापार
करनेवाले), सराफ ( पए-पैसे का लेन-देन करनेवाले) आिद विणक ( यापारी) बैठे हए ऐसे जान
ड़ते ह मानो अनेक कुबेर ह । ी, पु ष ब चे और बढ़ ू े जो भी ह, सभी सुखी, सदाचारी और
सुंदर ह।

दो० - उ र िदिस सरजू बह िनमल जल गंभीर।


बाँधे घाट मनोहर व प पंक निहं तीर॥ 28॥

नगर के उ र िदशा म सरयू बह रही है, िजनका जल िनमल और गहरा है। मनोहर घाट बँधे हए
ह, िकनारे पर जरा भी क चड़ नह है॥ 28॥

दू र फराक िचर सो घाटा। जहँ जल िपअिहं बािज गज ठाटा॥


पिनघट परम मनोहर नाना। तहाँ न पु ष करिहं अ नाना॥

अलग कुछ दूरी पर वह संुदर घाट है, जहाँ घोड़ और हािथय के ठ -के-ठ जल िपया करते ह।
पानी भरने के िलए बहत-से (जनाने) घाट ह, जो बड़े ही मनोहर ह। वहाँ पु ष नान नह करते।

राजघाट सब िबिध संदु र बर। म जिहं तहाँ बरन चा रउ नर॥


तीर तीर देव ह के मंिदर। चहँ िदिस ित ह के उपबन संदु र॥

राजघाट सब कार से सुंदर और े है, जहाँ चार वण के पु ष नान करते ह। सरयू के


िकनारे -िकनारे देवताओं के मंिदर ह, िजनके चार ओर सुंदर उपवन (बगीचे) ह।

कहँ कहँ स रता तीर उदासी। बसिहं यान रत मिु न सं यासी॥


तीर तीर तल
ु िसका सहु ाई। बंदृ बंदृ बह मिु न ह लगाई॥

नदी के िकनारे कह -कह िवर और ानपरायण मुिन और सं यासी िनवास करते ह। सरयू के
िकनारे -िकनारे संुदर तुलसी के झुंड-के-झुंड बहत-से पेड़ मुिनय ने लगा रखे ह।

परु सोभा कछु बरिन न जाई। बाहेर नगर परम िचराई॥


देखत परु ी अिखल अघ भागा। बन उपबन बािपका तड़ागा॥

नगर क शोभा तो कुछ कही नह जाती। नगर के बाहर भी परम सुंदरता है। अयो यापुरी के
दशन करते ही संपण
ू पाप भाग जाते ह। (वहाँ) वन, उपवन, बाविलयाँ और तालाब सुशोिभत ह।

छं ० - बाप तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहह ।


सोपान संदु र नीर िनमल देिख सरु मिु न मोहह ॥
बह रं ग कंज अनेक खग कूजिहं मधप ु गंजु ारह ।
आराम र य िपकािद खग रव जनु पिथक हंकारह ॥

अनुपम बाविलयाँ, तालाब और मनोहर तथा िवशाल कुएँ शोभा दे रहे ह, िजनक सुंदर (र न क )
सीिढ़याँ और िनमल जल देखकर देवता और मुिन तक मोिहत हो जाते ह। (तालाब म) अनेक
रं ग के कमल िखल रहे ह, अनेक प ी कूज रहे ह और भ रे गुंजार कर रहे ह। (परम) रमणीय
बगीचे कोयल आिद पि य क (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वाल को बुला रहे ह।

दो० - रमानाथ जहँ राजा सो परु बरिन िक जाइ।


अिनमािदक सख ु संपदा रह अवध सब छाइ॥ 29॥

वयं ल मीपित भगवान जहाँ राजा ह , उस नगर का कह वणन िकया जा सकता है? अिणमा
आिद आठ िसि याँ और सम त सुख-संपि याँ अयो या म छा रही ह॥ 29॥

जहँ तहँ नर रघप


ु ित गन
ु गाविहं। बैिठ परसपर इहइ िसखाविहं॥
भजह नत ितपालक रामिह। सोभा सील प गन ु धामिह॥

लोग जहाँ-तहाँ रघुनाथ के गुण गाते ह और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते ह िक शरणागत
का पालन करनेवाले राम को भजो; शोभा, शील, प और गुण के धाम रघुनाथ को भजो।

जलज िबलोचन यामल गातिह। पलक नयन इव सेवक ातिह॥


धत
ृ सर िचर चाप तन
ू ीरिह। संत कंज बन रिब रनधीरिह॥

कमलनयन और साँवले शरीरवाले को भजो। पलक िजस कार ने क र ा करती ह उसी


कार अपने सेवक क र ा करनेवाले को भजो। सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करनेवाले
को भजो। संत पी कमलवन के (िखलाने के) सय
ू प रणधीर राम को भजो।
काल कराल याल खगराजिह। नमत राम अकाम ममता जिह॥
लोभ मोह मग
ृ जूथ िकरातिह। मनिसज क र ह र जन सख
ु दातिह॥

काल पी भयानक सप के भ ण करनेवाले राम प ग ड़ को भजो। िन कामभाव से णाम


करते ही ममता का नाश कर देनेवाले राम को भजो। लोभ-मोह पी ह रन के समहू के नाश
करनेवाले राम िकरात को भजो। कामदेव पी हाथी के िलए िसंह प तथा सेवक को सुख
देनेवाले राम को भजो।

संसय सोक िनिबड़ तम भानिु ह। दनजु गहन घन दहन कृसानिु ह॥


जनकसत ु ा समेत रघब
ु ीरिह। कस न भजह भंजन भव भीरिह॥

संशय और शोक पी घने अंधकार का नाश करनेवाले राम प सय ू को भजो। रा स पी घने


वन को जलानेवाले राम प अि न को भजो। ज म-म ृ यु के भय को नाश करनेवाले जानक
समेत रघुवीर को य नह भजते?

बह बासना मसक िहम रािसिह। सदा एकरस अज अिबनािसिह॥


ु िसदास के भिु ह उदारिह॥
मिु न रं जन भंजन मिह भारिह। तल

बहत-सी वासनाओं पी म छर को नाश करनेवाले राम प िहमरािश (बफ के ढे र) को भजो।


िन य एकरस, अज मा और अिवनाशी रघुनाथ को भजो। मुिनय को आनंद देनेवाले, प ृ वी का
भार उतारनेवाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) वामी राम को भजो।

दो० - एिह िबिध नगर ना र नर करिहं राम गन


ु गान।
सानकु ू ल सब पर रहिहं संतत कृपािनधान॥ 30॥

इस कार नगर के ी-पु ष राम का गुण-गान करते ह और कृपािनधान राम सदा सब पर


अ यंत स न रहते ह॥ 30॥

जब ते राम ताप खगेसा। उिदत भयउ अित बल िदनेसा॥


पू र कास रहेउ ितहँ लोका। बहते ह सख
ु बहतन मन सोका॥

(काकभुशुंिड कहते ह -) हे प ीराज ग ड़! जब से राम ताप पी अ यंत चंड सय


ू उिदत हआ,
तब से तीन लोक म पण ू काश भर गया है। इससे बहत को सुख और बहत के मन म शोक
हआ।

िज हिह सोक ते कहउँ बखानी। थम अिब ा िनसा नसानी॥


अघ उलक ु ाने। काम ोध कैरव सकुचाने॥
ू जहँ तहाँ लक
िजन-िजन को शोक हआ, उ ह म बखानकर कहता हँ (सव काश छा जाने से) पहले तो
अिव ा पी राि न हो गई। पाप पी उ लू जहाँ-तहाँ िछप गए और काम- ोध पी कुमुद मँुद
गए।

िबिबध कम गन
ु काल सभ ु ाउ। ए चकोर सख
ु लहिहं न काऊ॥
म सर मान मोह मद चोरा। इ ह कर हनर न कविनहँ ओरा॥

भाँित-भाँित के (बंधनकारक) कम, गुण, काल और वभाव - ये चकोर ह, जो (राम ताप पी सय



के काश म) कभी सुख नह पाते। म सर (डाह), मान, मोह और मद पी जो चोर ह, उनका
हनर (कला) भी िकसी ओर नह चल पाता।

धरम तड़ाग यान िब याना। ए पंकज िबकसे िबिध नाना॥


सख
ु संतोष िबराग िबबेका। िबगत सोक ए कोक अनेका॥

धम पी तालाब म ान, िव ान - ये अनेक कार के कमल िखल उठे । सुख, संतोष, वैरा य
और िववेक - ये अनेक चकवे शोकरिहत हो गए।

दो० - यह ताप रिब जाक उर जब करइ कास।


पिछले बाढ़िहं थम जे कहे ते पाविहं नास॥ 31॥

यह राम ताप पी सय ू िजसके दय म जब काश करता है, तब िजनका वणन पीछे से िकया
गया है, वे (धम, ान, िव ान, सुख, संतोष, वैरा य और िववेक) बढ़ जाते ह और िजनका वणन
पहले िकया गया है, वे (अिव ा, पाप, काम, ोध, कम, काल, गुण, वभाव आिद) नाश को ा
होते (न हो जाते) ह॥ 31॥

ात ह सिहत रामु एक बारा। संग परम ि य पवनकुमारा॥


संदु र उपबन देखन गए। सब त कुसिु मत प लव नए॥

एक बार भाइय सिहत राम परम ि य हनुमान को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के
सब व ृ फूले हए और नए प से यु थे।

जािन समय सनकािदक आए। तेज पंज ु गन


ु सील सहु ाए॥
ानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहकालीना॥

सुअवसर जानकर सनकािद मुिन आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से यु तथा सदा
ानंद म लवलीन रहते ह। देखने म तो वे बालक लगते ह, परं तु ह बहत समय के।

प धर जनु चा रउ बेदा। समदरसी मिु न िबगत िबभेदा॥


आसा बसन यसन यह ित हह । रघप ु ित च रत होइ तहँ सन
ु ह॥
मानो चार वेद ही बालक प धारण िकए ह । वे मुिन समदश और भेदरिहत ह। िदशाएँ ही उनके
व ह। उनके एक ही यसन है िक जहाँ रघुनाथ क च र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे
अव य सुनते ह।

तहाँ रहे सनकािद भवानी। जहँ घटसंभव मिु नबर यानी॥


राम कथा मिु नबर बह बरनी। यान जोिन पावक िजिम अरनी॥

(िशव कहते ह -) हे भवानी! सनकािद मुिन वहाँ गए थे (वह से चले आ रहे थे) जहाँ ानी
मुिन े अग य रहते थे। े मुिन ने राम क बहत-सी कथाएँ वणन क थ , जो ान उ प न
करने म उसी कार समथ ह, जैसे अरिण लकड़ी से अि न उ प न होती है।

दो० - देिख राम मिु न आवत हरिष दंडवत क ह।


वागत पूँिछ पीत पट भु बैठन कहँ दी ह॥ 32॥

सनकािद मुिनय को आते देखकर राम ने हिषत होकर दंडवत िकया और वागत (कुशल)
ू कर भु ने (उनके) बैठने के िलए अपना पीतांबर िबछा िदया॥ 32॥
पछ

क ह दंडवत तीिनउँ भाई। सिहत पवनसत ु सख


ु अिधकाई॥
मिु न रघप ु िबलोक । भए मगन मन सके न रोक ॥
ु ित छिब अतल

िफर हनुमान सिहत तीन भाइय ने दंडवत क , सबको बड़ा सुख हआ। मुिन रघुनाथ क
अतुलनीय छिव देखकर उसी म म न हो गए। वे मन को रोक न सके।

यामल गात सरो ह लोचन। संदु रता मंिदर भव मोचन॥


एकटक रहे िनमेष न लाविहं। भु कर जोर सीस नवाविहं॥

वे ज म-म ृ यु (के च ) से छुड़ानेवाले, याम शरीर, कमलनयन, सुंदरता के धाम राम को


टकटक लगाए देखते ही रह गए, पलक नह मारते और भु हाथ जोड़े िसर नवा रहे ह।

ित ह कै दसा देिख रघब


ु ीरा। वत नयन जल पल ु क सरीरा॥
कर गिह भु मिु नबर बैठारे । परम मनोहर बचन उचारे ॥

उनक ( ेमिव ल) दशा देखकर (उ ह क भाँित) रघुनाथ के ने से भी ( ेमा ुओ ं का) जल


बहने लगा और शरीर पुलिकत हो गया। तदनंतर भु ने हाथ पकड़कर े मुिनय को बैठाया
और परम मनोहर वचन कहे -

आजु ध य म सन ु ह मन
ु ीसा। तु हर दरस जािहं अघ खीसा॥
बड़े भाग पाइब सतसंगा। िबनिहं यास होिहं भव भंगा॥
हे मुनी रो! सुिनए, आज म ध य हँ। आपके दशन ही से (सारे ) पाप न हो जाते ह। बड़े ही
भा य से स संग क ाि होती है, िजससे िबना ही प र म ज म-म ृ यु का च न हो जाता है।

दो० - संत संग अपबग कर कामी भव कर पंथ।


कहिहं संत किब कोिबद ुित परु ान सद ंथ॥ 33॥

संत का संग मो (भव-बंधन से छूटने) का और कामी का संग ज म-म ृ यु के बंधन म पड़ने का


माग है। संत, किव और पंिडत तथा वेद, पुराण (आिद) सभी सद् ंथ ऐसा कहते ह॥ 33॥

सिु न भु बचन हरिष मिु न चारी। पल


ु िकत तन अ तिु त अनस
ु ारी॥
जय भगवंत अनंत अनामय। अनघ अनेक एक क नामय॥

भु के वचन सुनकर चार मुिन हिषत होकर, पुलिकत शरीर से तुित करने लगे - हे भगवन!
आपक जय हो। आप अंतरिहत, िवकाररिहत, पापरिहत, अनेक (सब प म कट), एक
(अि तीय) और क णामय ह।

जय िनगन ु जय जय गन ु सागर। सखु मंिदर संदु र अित नागर॥


जय इं िदरा रमन जय भूधर। अनप
ु म अज अनािद सोभाकर॥

हे िनगुण! आपक जय हो। हे गुण के समु ! आपक जय हो, जय हो। आप सुख के धाम, (अ यंत)
सुंदर और अित चतुर ह। हे ल मीपित! आपक जय हो। हे प ृ वी के धारण करनेवाले! आपक जय
हो। आप उपमारिहत, अज मे, अनािद और शोभा क खान ह।

यान िनधान अमान मान द। पावन सजु स परु ान बेद बद॥


त य कृत य अ यता भंजन। नाम अनेक अनाम िनरं जन॥

आप ान के भंडार, ( वयं) मानरिहत और (दूसर को) मान देनेवाले ह। वेद और पुराण आपका
पावन सुंदर यश गाते ह। आप त व के जाननेवाले, क हई सेवा को माननेवाले और अ ान का
नाश करनेवाले ह। हे िनरं जन (मायारिहत)! आपके अनेक (अनंत) नाम ह और कोई नाम नह है
(अथात आप सब नाम के परे ह)।

सब सबगत सब उरालय। बसिस सदा हम कहँ प रपालय


दं िबपित भव फंद िबभंजय। िद बिस राम काम मद गंजय॥

आप सव प ह, सब म या ह और सबके दय पी घर म सदा िनवास करते ह; (अतः) आप


हमारा प रपालन क िजए। (राग- ेष, अनुकूलता- ितकूलता, ज म-म ृ यु आिद) ं , िवपि और
ज म-म यु के जाल को काट दीिजए। हे राम! आप हमारे दय म बसकर काम और मद का नाश
कर दीिजए।
दो० - परमानंद कृपायतन मन प रपूरन काम।
े भगित अनपायनी देह हमिह ीराम॥ 34॥

आप परमानंद व प, कृपा के धाम और मन क कामनाओं को प रपण


ू करनेवाले ह। हे ी राम!
हमको अपनी अिवचल ेमा-भि दीिजए॥ 34॥

देह भगित रघप


ु ित अित पाविन। ि िबिध ताप भव दाप नसाविन॥
नत काम सरु धेनु कलपत । होइ स न दीजै भु यह ब ॥

हे रघुनाथ! आप हम अपनी अ यंत पिव करनेवाली और तीन कार के ताप और ज म-मरण


के लेश का नाश करनेवाली भि दीिजए। हे शरणागत क कामना पण ू करने के िलए
कामधेनु और क पव ृ प भो! स न होकर हम यही वर दीिजए।

भव बा रिध कंु भज रघन


ु ायक। सेवत सल ु भ सकल सखु दायक॥
मन संभव दा न दख ु दारय। दीनबंधु समता िब तारय॥

हे रघुनाथ! आप ज म-म ृ यु प समु को सोखने के िलए अग य मुिन के समान ह। आप सेवा


करने म सुलभ ह तथा सब सुख के देनेवाले ह। हे दीनबंधो! मन से उ प न दा ण दुःख का
नाश क िजए और (हमम) सम ि का िव तार क िजए।

आस ास इ रषािद िनवारक। िबनय िबबेक िबरित िब तारक॥


भूप मौिल मिन मंडन धरनी। देिह भगित संसिृ त स र तरनी॥

आप (िवषय क ) आशा, भय और ई या आिद के िनवारण करनेवाले ह तथा िवनय, िववेक और


वैरा य के िव तार करनेवाले ह। हे राजाओं के िशरोमिण एवं प ृ वी के भषू ण राम! संसिृ त (ज म-
म ृ यु के वाह) पी नदी के िलए नौका प अपनी भि दान क िजए।

मिु न मन मानस हंस िनरं तर। चरन कमल बंिदत अज संकर॥


रघक ु ु ल केतु सेतु ुित र छक। काल करम सभ
ु ाउ गन
ु भ छक॥

हे मुिनय के मन पी मानसरोवर म िनरं तर िनवास करनेवाले हंस! आपके चरणकमल ा और


िशव के ारा वंिदत ह। आप रघुकुल के केतु, वेदमयादा के र क और काल, कम, वभाव तथा
गुण ( प बंधन ) के भ क (नाशक) ह।

तारन तरन हरन सब दूषन। तुलिसदास भु ि भुवन भषू न॥

आप तरन-तारन ( वयं तरे हए और दूसर को तारनेवाले) तथा सब दोष को हरनेवाले ह। तीन


लोक के िवभषू ण आप ही तुलसीदास के वामी ह।
े सिहत िस नाइ।
दो० - बार-बार अ तिु त क र म
भवन सनकािद गे अित अभी बर पाइ॥ 35॥

ेम सिहत बार-बार तुित करके और िसर नवाकर तथा अपना अ यंत मनचाहा वर पाकर
सनकािद मुिन लोक को गए॥ 35॥

सनकािदक िबिध लोक िसधाए। ात ह राम चरन िसर नाए॥


पूछत भिु ह सकल सकुचाह । िचतविहं सब मा तसत
ु पाह ॥

#2360;नकािद मुिन लोक को चले गए। तब भाइय ने राम के चरण म िसर नवाया। सब
भाई भु से पछ
ू ते सकुचाते ह। (इसिलए) सब हनुमान क ओर देख रहे ह।

सन ु कै बानी। जो सिु न होइ सकल म हानी॥


ु ी चहिहं भु मख
अंतरजामी भु सभ जाना। बूझत कहह काह हनम ु ाना॥

वे भु केमुख क वाणी सुनना चाहते ह, िजसे सुनकर सारे म का नाश हो जाता है। अंतयामी
भु सब जान गए और पछ
ू ने लगे - कहो हनुमान! या बात है?

जो र पािन कह तब हनमु ंता। सन


ु ह दीनदयाल भगवंता॥
नाथ भरत कछु पँूछन चहह । न करत मन सकुचत अहह ॥

तब हनुमान हाथ जोड़कर बोले - हे दीनदयालु भगवान! सुिनए। हे नाथ! भरत कुछ पछ
ू ना चाहते
ह, पर करते मन म सकुचा रहे ह।

तु ह जानह किप मोर सभ


ु ाऊ। भरतिह मोिह कछु अंतर काऊ॥
सिु न भु बचन भरत गहे चरना। सन
ु ह नाथ नतारित हरना॥

(भगवान ने कहा -) हनुमान! तुम तो मेरा वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच म कभी
भी कोई अंतर (भेद) है? भु के वचन सुनकर भरत ने उनके चरण पकड़ िलए (और कहा -) हे
नाथ! हे शरणागत के दुःख को हरनेवाले! सुिनए।

दो० - नाथ न मोिह संदहे कछु सपनेहँ सोक न मोह।


केवल कृपा तु हा रिह कृपानंद संदोह॥ 36॥

हे नाथ! न तो मुझे कुछ संदेह है और न व न म भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के


समहू ! यह केवल आपक ही कृपा का फल है॥ 36॥

करउँ कृपािनिध एक िढठाई। म सेवक तु ह जन सख ु दाई॥


संत ह कै मिहमा रघरु ाई। बह िबिध बेद परु ान ह गाई॥
तथािप हे कृपािनधान! म आप से एक ध ृ ता करता हँ। म सेवक हँ और आप सेवक को सुख
देनेवाले ह (इससे मेरी ध ृ ता को मा क िजए और मेरे का उ र देकर सुख दीिजए)। हे
रघुनाथ! वेद-पुराण ने संत क मिहमा बहत कार से गाई है।

ीमख
ु तु ह पिु न क ि ह बड़ाई। ित ह पर भिु ह ीित अिधकाई॥
सन
ु ा चहउँ भु ित ह कर ल छन। कृपािसंधु गन ु यान िबच छन॥

आपने भी ीमुख से उनक बड़ाई क है और उन पर भु (आप) का ेम भी बहत है। हे भो! म


उनके ल ण सुनना चाहता हँ। आप कृपा के समु ह और गुण तथा ान म अ यंत िनपुण ह।

संत असंत भेद िबलगाई। नतपाल मोिह कहह बझ ु ाई॥


संत ह के ल छन सनु ु ाता। अगिनत ुित परु ान िब याता॥

हे शरणागत का पालन करनेवाले! संत और असंत के भेद अलग-अलग करके मुझको समझाकर
किहए। (राम ने कहा -) हे भाई! संत के ल ण (गुण) असं य ह, जो वेद और पुराण म िस ह।

संत असंति ह कै अिस करनी। िजिम कुठार चंदन आचरनी॥


काटइ परसु मलय सन ु ु भाई। िनज गन
ु देइ सग
ु ंध बसाई॥

संत और असंत क करनी ऐसी है जैसे कु हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो,
कु हाड़ी चंदन को काटती है ( य िक उसका वभाव या काम ही व ृ को काटना है); िकंतु
चंदन अपने वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटनेवाली कु हाड़ी को) सुगंध से सुवािसत कर
देता है।

दो० - ताते सरु सीस ह चढ़त जग ब लभ ीखंड।


अनल दािह पीटत घनिहं परसु बदन यह दंड॥ 37॥

इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के िसर पर चढ़ता है और जगत का ि य हो रहा है और


कु हाड़ी के मुख को यह दंड िमलता है िक उसको आग म जलाकर िफर घन से पीटते ह॥ 37॥

िबषय अलंपट सील गन ु ाकर। पर दख


ु दख
ु सखु सखु देखे पर॥
सम अभूत रपु िबमद िबरागी। लोभामरष हरष भय यागी॥

संत िवषय म लंपट (िल ) नह होते, शील और स ुण क खान होते ह। उ ह पराया दुःख
देखकर दुःख और सुख देखकर सुख होता है। वे (सबम, सव , सब समय) समता रखते ह,
उनके मन कोई उनका श ु नह है, वे मद से रिहत और वैरा यवान होते ह तथा लोभ, ोध, हष
और भय का याग िकए हए रहते ह।

कोमलिचत दीन ह पर दाया। मन बच म मम भगित अमाया॥


सबिह मान द आपु अमानी। भरत ान सम मम ते ानी॥

उनका िच बड़ा कोमल होता है। वे दीन पर दया करते ह तथा मन, वचन और कम से मेरी
िन कपट (िवशु ) भि करते ह। सबको स मान देते ह, पर वयं मानरिहत होते ह। हे भरत! वे
ाणी (संतजन) मेरे ाण के समान ह।

िबगत काम मम नाम परायन। सांित िबरित िबनती मिु दतायन॥


सीतलता सरलता मय ी। ि ज पद ीित धम जनय ी॥

उनको कोई कामना नह होती। वे मेरे नाम के परायण होते ह। शांित, वैरा य, िवनय और
स नता के घर होते ह। उनम शीलता, सरलता, सबके ित िम भाव और ा ण के चरण म
ीित होती है, जो धम को उ प न करनेवाली है।

ए सब ल छन बसिहं जासु उर। जानेह तात संत संतत फुर॥


सम दम िनयम नीित निहं डोलिहं। प ष बचन कबहँ निहं बोलिहं॥

हे तात! ये सब ल ण िजसके दय म बसते ह , उसको सदा स चा संत जानना। जो शम (मन के


िन ह), दम (इंि य के िन ह), िनयम और नीित से कभी िवचिलत नह होते और मुख से कभी
कठोर वचन नह बोलते,

दो० - िनंदा अ तिु त उभय सम ममता मम पद कंज।


ते स जन मम ानि य गन ु मंिदर सख
ु पंज
ु ॥ 38॥

िज ह िनंदा और तुित (बड़ाई) दोन समान ह और मेरे चरणकमल म िजनक ममता है, वे गुण
के धाम और सुख क रािश संतजन मुझे ाण के समान ि य ह॥ 38॥

सनु ह असंत ह केर सभु ाऊ। भूलहे ँ संगित क रअ न काऊ॥


ित ह कर संग सदा दखु दाई। िजिम किपलिह घालइ हरहाई॥

अब असंत (दु ) का वभाव सुनो; कभी भल ू कर भी उनक संगित नह करनी चािहए। उनका
संग सदा दुःख देनेवाला होता है। जैसे हरहाई (बुरी जाित क ) गाय किपला (सीधी और दुधार)
गाय को अपने संग से न कर डालती है।

खल ह दयँ अित ताप िबसेषी। जरिहं सदा पर संपित देखी॥


जहँ कहँ िनंदा सन
ु िहं पराई। हरषिहं मनहँ परी िनिध पाई॥

दु के दय म बहत अिधक संताप रहता है। वे पराई संपि (सुख) देखकर सदा जलते रहते ह।
वे जहाँ कह दूसरे क िनंदा सुन पाते ह, वहाँ ऐसे हिषत होते ह मानो रा ते म पड़ी िनिध
(खजाना) पा ली हो।
काम ोध मद लोभ परायन। िनदय कपटी कुिटल मलायन॥
बय अकारन सब काह स । जो कर िहत अनिहत ताह स ॥

वे काम, ोध, मद और लोभ के परायण तथा िनदयी, कपटी, कुिटल और पाप के घर होते ह। वे
िबना ही कारण सब िकसी से वैर िकया करते ह। जो भलाई करता है उसके साथ बुराई भी करते
ह।

झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।


बोलिहं मधरु बचन िजिम मोरा। खाइ महा अिह दय कठोरा॥

उनका झठ ू ा ही लेना और झठू ा ही देना होता है। झठ


ू ा ही भोजन होता है और झठ
ू ा ही चबेना होता
है (अथात वे लेने-देने के यवहार म झठ ू का आ य लेकर दूसर का हक मार लेते ह अथवा झठ ू ी
ड ग हाँका करते ह िक हमने लाख पए ले िलए, करोड़ का दान कर िदया। इसी कार खाते
ह चने क रोटी और कहते ह िक आज खबू माल खाकर आए। अथवा चबेना चबाकर रह जाते ह
और कहते ह हम बिढ़या भोजन से वैरा य है, इ यािद। मतलब यह िक वे सभी बात म झठ ू ही
बोला करते ह)। जैसे मोर (बहत मीठा बोलता है, परं तु उस) का दय ऐसा कठोर होता है िक वह
महान िवषैले साँप को भी खा जाता है। वैसे ही वे भी ऊपर से मीठे वचन बोलते ह (परं तु दय के
बड़े ही िनदयी होते ह)।

दो० - पर ोही पर दार रत पर धन पर अपबाद।


ते नर पाँवर पापमय देह धर मनज
ु ाद॥ 39॥

वे दूसर से ोह करते ह और पराई ी, पराए धन तथा पराई िनंदा म आस रहते ह। वे पामर


और पापमय मनु य नर-शरीर धारण िकए हए रा स ही ह॥ 39॥

लोभइ ओढ़न लोभइ डासन। िस नोदर पर जमपरु ास न॥


काह क ज सनु िहं बड़ाई। वास लेिहं जनु जूड़ी आई॥

लोभ ही उनका ओढ़ना और लोभ ही िबछौना होता है (अथात लोभ ही से वे सदा िघरे हए रहते ह)।
वे पशुओ ं के समान आहार और मैथुन के ही परायण होते ह, उ ह यमपुर का भय नह लगता।
यिद िकसी क बड़ाई सुन पाते ह, तो वे ऐसी (दुःखभरी) साँस लेते ह मान उ ह जड़
ू ी आ गई हो।

जब काह कै देखिहं िबपती। सखु ी भए मानहँ जग नप


ृ ती॥
वारथ रत प रवार िबरोधी। लंपट काम लोभ अित ोधी॥

और जब िकसी क िवपि देखते ह, तब ऐसे सुखी होते ह मानो जगतभर के राजा हो गए ह । वे


वाथपरायण, प रवारवाल के िवरोधी, काम और लोभ के कारण लंपट और अ यंत ोधी होते ह।
मातु िपता गरु िब न मानिहं। आपु गए अ घालिहं आनिहं॥
करिहं मोह बस ोह परावा। संत संग ह र कथा न भावा॥

वे माता, िपता, गु और ा ण िकसी को नह मानते। आप तो न हए ही रहते ह, (साथ ही


अपने संग से) दूसर को भी न करते ह। मोहवश दूसर से ोह करते ह। उ ह न संत का संग
अ छा लगता है, न भगवान क कथा ही सुहाती है।

अवगन
ु िसंधु मंदमित कामी। बेद िबदूषक परधन वामी॥
िब ोह पर ोह िबसेषा। दंभ कपट िजयँ धर सब े ा॥
ु ष

वे अवगुण के समु , मंद बुि , कामी (रागयु ), वेद के िनंदक और जबद ती पराए धन के
वामी (लटू नेवाले) होते ह। वे दूसर से ोह तो करते ही ह; परं तु ा ण से िवशेष प से करते ह।
उनके दय म दंभ और कपट भरा रहता है, परं तु वे ऊपर से सुंदर वेष धारण िकए रहते ह।

दो० - ऐसे अधम मनज ु खल कृतजुग त े ाँ नािहं।


ापर कछुक बंदृ बह होइहिहं किलजुग मािहं॥ 40॥

ऐसे नीच और दु मनु य स ययुग और ेता म नह होते। ापर म थोड़े से ह गे और किलयुग म


तो इनके झुंड-के-झुंड ह गे॥ 40॥

पर िहत स रस धम निहं भाई। पर पीड़ा सम निहं अधमाई॥


िननय सकल परु ान बेद कर। कहेउँ तात जानिहं कोिबद नर॥

हे भाई! दूसर क भलाई के समान कोई धम नह है और दूसर को दुःख पहँचाने के समान कोई
नीचता (पाप) नह है। हे तात! सम त पुराण और वेद का यह िनणय (िनि त िस ांत) मने
तुमसे कहा है, इस बात को पंिडत लोग जानते ह।

नर सरीर ध र जे पर पीरा। करिहं ते सहिहं महा भव भीरा॥


लकरिहं मोह बस नर अघ नाना। वारथ रत परलोक नसाना॥

मनु य का शरीर धारण करके जो लोग दूसर को दुःख पहँचाते ह, उनको ज म-म ृ यु के महान
संकट सहने पड़ते ह। मनु य मोहवश वाथपरायण होकर अनेक पाप करते ह, इसी से उनका
परलोक न हआ रहता है।

काल प ित ह कहँ म ाता। सभ ु अ असभ ु कम फलदाता॥


अस िबचा र जे परम सयाने। भजिहं मोिह संसत
ृ दख
ु जाने॥

हे भाई! म उनके िलए काल प (भयंकर) हँ और उनके अ छे और बुरे कम का (यथायो य) फल


देनेवाला हँ! ऐसा िवचार कर जो लोग परम चतुर ह वे संसार (के वाह) को दुःख प जानकर
मुझे ही भजते ह।

यागिहं कम सभु ासभु दायक। भजिहं मोिह सरु नर मिु न नायक॥


संत असंत ह के गनु भाषे। ते न परिहं भव िज ह लिख राखे॥

इसी से वे शुभ और अशुभ फल देनेवाले कम को यागकर देवता, मनु य और मुिनय के नायक


मुझको भजते ह। (इस कार) मने संत और असंत के गुण कहे । िजन लोग ने इन गुण को
समझ रखा है, वे ज म-मरण के च कर म नह पड़ते।

दो० - सन
ु ह तात माया कृत गनु अ दोष अनेक।
गनु यह उभय न देिखअिहं देिखअ सो अिबबेक॥ 41॥

हे तात! सुनो, माया से रचे हए ही अनेक (सब) गुण और दोष ह (इनक कोई वा तिवक स ा
नह है)। गुण (िववेक) इसी म है िक दोन ही न देखे जाएँ , इ ह देखना ही अिववेक है॥ 41॥

ीमख
ु बचन सन ु त सब भाई। हरषे म े न दयँ समाई॥
करिहं िबनय अित बारिहं बारा। हनूमान िहयँ हरष अपारा॥

भगवान के ीमुख से ये वचन सुनकर सब भाई हिषत हो गए। ेम उनके दय म समाता नह ।


वे बार-बार बड़ी िवनती करते ह। िवशेषकर हनुमान के दय म अपार हष है।

पिु न रघप
ु ित िनज मंिदर गए। एिह िबिध च रत करत िनत नए॥
बार बार नारद मिु न आविहं। च रत पनु ीत राम के गाविहं॥

तदनंतर राम अपने महल को गए। इस कार वे िन य नई लीला करते ह। नारद मुिन अयो या म
बार-बार आते ह और आकर राम के पिव च र गाते ह।

िनत नव च रत देिख मिु न जाह । लोक सब कथा कहाह ॥


सिु न िबरं िच अितसय सख
ु मानिहं। पिु न पिु न तात करह गन
ु गानिहं॥

मुिन यहाँ से िन य नए-नए च र देखकर जाते ह और लोक म जाकर सब कथा कहते ह।


ा सुनकर अ यंत सुख मानते ह (और कहते ह -) हे तात! बार-बार राम के गुण का गान
करो।

सनकािदक नारदिह सराहिहं। ज िप िनरत मिु न आहिहं॥


सिु न गन
ु गान समािध िबसारी। सादर सन
ु िहं परम अिधकारी॥

सनकािद मुिन नारद क सराहना करते ह। य िप वे (सनकािद) मुिन िन ह, परं तु राम का


गुणगान सुनकर वे भी अपनी समािध को भलू जाते ह और आदरपवू क उसे सुनते ह। वे
(रामकथा सुनने के) े अिधकारी ह।

दो० - जीवनमु पर च रत सनु िहं तिज यान।


जे ह र कथाँ न करिहं रित ित ह के िहय पाषान॥ 42॥

सनकािद मुिन जैसे जीव मु और िन पु ष भी यान ( -समािध) छोड़कर राम के


च र सुनते ह। यह जानकर भी जो ह र क कथा से ेम नह करते, उनके दय (सचमुच ही)
प थर (के समान) ह॥ 42॥

एक बार रघन ु ाथ बोलाए। गरु ि ज परु बासी सब आए॥


बैठे गरु मिु न अ ि ज स जन। बोले बचन भगत भव भंजन॥

एक बार रघुनाथ के बुलाए हए गु विश , ा ण और अ य सब नगरिनवासी सभा म आए। जब


गु , मुिन, ा ण तथा अन्&##2351; सब स जन यथायो य बैठ गए, तब भ के ज म-
मरण को िमटानेवाले राम वचन बोले -

सन
ु ह सकल परु जन मम बानी। कहउँ न कछु ममता उर आनी॥
निहं अनीित निहं कछु भत
ु ाई। सन
ु ह करह जो तु हिह सोहाई॥

हे सम त नगरिनवािसयो! मेरी बात सुिनए। यह बात म दय म कुछ ममता लाकर नह कहता


हँ। न अनीित क बात कहता हँ और न इसम कुछ भुता ही है। इसिलए (संकोच और भय
छोड़कर, यान देकर) मेरी बात को सुन ल और (िफर) यिद आप को अ छी लगे, तो उसके
अनुसार कर!

सोइ सेवक ि यतम मम सोई। मम अनस ु ासन मानै जोई॥


ज अनीित कछु भाष भाई। तौ मोिह बरजह भय िबसराई॥

वही मेरा सेवक है और वही ि यतम है, जो मेरी आ ा माने। हे भाई! यिद म कुछ अनीित क बात
कहँ तो भय भुलाकर (बेखटके) मुझे रोक देना।

बड़ भाग मानष
ु तनु पावा। सरु दल
ु भ सब ंथि ह गावा॥
साधन धाम मो छ कर ारा। पाइ न जेिहं परलोक सँवारा॥

बड़े भा य से यह मनु य शरीर िमला है। सब ंथ ने यही कहा है िक यह शरीर देवताओं को भी


दुलभ है (किठनता से िमलता है)। यह साधन का धाम और मो का दरवाजा है। इसे पाकर भी
िजसने परलोक न बना िलया,

दो० - सो पर दख
ु पावइ िसर धिु न धिु न पिछताई।
कालिह कमिह ई वरिह िम या दोस लगाइ॥ 43॥
वह परलोक म दुःख पाता है, िसर पीट-पीटकर पछताता है तथा (अपना दोष न समझकर) काल
पर, कम पर और ई र पर िम या दोष लगाता है॥ 43॥

एिह तन कर फल िबषय न भाई। वगउ व प अंत दख ु दाई॥


नर तनु पाइ िबषयँ मन देह । पलिट सध
ु ा ते सठ िबष लेह ॥

हे भाई! इस शरीर के ा होने का फल िवषयभोग नह है। (इस जगत के भोग क तो बात ही


या) वग का भोग भी बहत थोड़ा है और अंत म दुःख देनेवाला है। अतः जो लोग मनु य शरीर
पाकर िवषय म मन लगा देते ह, वे मख
ू अमतृ को बदलकर िवष ले लेते ह।

तािह कबहँ भल कहइ न कोई। गंज


ु ा हइ परस मिन खोई॥
आकर चा र ल छ चौरासी। जोिन मत यह िजव अिबनासी॥

जो पारसमिण को खोकर बदले म घँुघची ले लेता है, उसको कभी कोई भला (बुि मान) नह
कहता। यह अिवनाशी जीव (अंडज, वेदज, जरायुज और उि ज) चार खान और चौरासी लाख
योिनय म च कर लगाता रहता है।

िफरत सदा माया कर रे ा। काल कम सभु ाव गनु घेरा॥


कबहँक क र क ना नर देही। देत ईस िबनु हेतु सनेही॥

माया क ेरणा से काल, कम, वभाव और गुण से िघरा हआ (इनके वश म हआ) यह सदा
भटकता रहता है। िबना ही कारण नेह करनेवाले ई र कभी िवरले ही दया करके इसे मनु य
का शरीर देते ह।

नर तनु भव बा रिध कहँ बेरो। स मखु म त अनु ह मेरो॥


करनधार सदगरु ढ़ नावा। दल ु भ साज सल
ु भ क र पावा॥

यह मनु य का शरीर भवसागर (से तारने) के िलए बेड़ा (जहाज) है। मेरी कृपा ही अनुकूल वायु है।
स ु इस मजबत ू जहाज के कणधार (खेनेवाले) ह। इस कार दुलभ (किठनता से िमलनेवाले)
साधन सुलभ होकर (भगव कृपा से सहज ही) उसे ा हो गए ह,

दो० - जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।


सो कृत िनंदक मंदमित आ माहन गित जाइ॥ 44॥

जो मनु य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे , वह कृत न और मंद बुि है और आ मह या


करनेवाले क गित को ा होता है॥ 44॥

ज परलोक इहाँ सख
ु चहह। सिु न मम बचन दयँ ढ़ गहह॥
सल
ु भ सख
ु द मारग यह भाई। भगित मो र परु ान ुित गाई॥

यिद परलोक म और यहाँ दोन जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उ ह दय म ढ़ता से
पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भि का माग सुलभ और सुखदायक है, पुराण और वेद ने इसे
गाया है।

यान अगम यूह अनेका। साधन किठन न मन कहँ टेका॥


करत क बह पावइ कोऊ। भि हीन मोिह ि य निहं सोऊ॥

ान अगम (दुगम) है, (और) उसक ाि म अनेक िव न ह। उसका साधन किठन है और उसम
मन के िलए कोई आधार नह है। बहत क करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी
भि रिहत होने से मुझको ि य नह होता।

भि सत ु ं सकल सख ु खानी। िबनु सतसंग न पाविहं ानी॥


पु य पंज
ु िबनु िमलिहं न संता। सतसंगित संसिृ त कर अंता॥

भि वतं है और सब सुख क खान है। परं तु स संग (संत के संग) के िबना ाणी इसे नह
पा सकते। और पु यसमहू के िबना संत नह िमलते। स संगित ही संसिृ त (ज म-मरण के च )
का अंत करती है।

पु य एक जग महँ निहं दूजा। मन म बचन िब पद पूजा॥


सानकु ू ल तेिह पर मिु न देवा। जो तिज कपटु करइ ि ज सेवा॥

जगत म पु य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नह । वह है - मन, कम और वचन से ा ण के


चरण क पज ू ा करना। जो कपट का याग करके ा ण क सेवा करता है, उस पर मुिन और
देवता स न रहते ह।

दो० - औरउ एक गप
ु त
ु मत सबिह कहउँ कर जो र।
संकर भजन िबना नर भगित न पावइ मो र॥ 45॥

और भी एक गु मत है, म उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हँ िक शंकर के भजन िबना मनु य
मेरी भि नह पाता॥ 45॥

कहह भगित पथ कवन यासा। जोग न मख जप तप उपवासा।


सरल सभ
ु ाव न मन कुिटलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥

कहो तो, भि माग म कौन-सा प र म है? इसम न योग क आव यकता है, न य , जप, तप
और उपवास क ! (यहाँ इतना ही आव यक है िक) सरल वभाव हो, मन म कुिटलता न हो और
जो कुछ िमले उसी म सदा संतोष रखे।
मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहह कहा िब वासा॥
बहत कहउँ का कथा बढ़ाई। एिह आचरन ब य म भाई॥

मेरा दास कहलाकर यिद कोई मनु य क आशा करता है, तो तु ह कहो, उसका या िव ास
है? (अथात उसक मुझ पर आ था बहत ही िनबल है।) बहत बात बढ़ाकर या हँ? हे भाइयो! म
तो इसी आचरण के वश म हँ।

बैर न िब ह आस न ासा। सख ु मय तािह सदा सब आसा॥


अनारं भ अिनकेत अमानी। अनघ अरोष द छ िब यानी॥

न िकसी से वैर करे , न लड़ाई-झगड़ा करे , न आशा रखे, न भय ही करे । उसके िलए सभी िदशाएँ
सदा सुखमयी ह। जो कोई भी आरं भ (फल क इ छा से कम) नह करता, िजसका कोई अपना
घर नह है (िजसक घर म ममता नह है), जो मानहीन, पापहीन और ोधहीन है, जो (भि
करने म) िनपुण और िव ानवान है।

ीित सदा स जन संसगा। तन


ृ सम िबषय वग अपबगा॥
भगित प छ हठ निहं सठताई। दु तक सब दू र बहाई॥

संतजन के संसग (स संग) से िजसे सदा ेम है, िजसके मन म सब िवषय यहाँ तक िक वग


और मुि तक (भि के सामने) तण ृ के समान ह, जो भि के प म हठ करता है, पर (दूसरे
के मत का खंडन करने क ) मखू ता नह करता तथा िजसने सब कुतक को दूर बहा िदया है,

दो० - मम गन
ु ाम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर ì#2360;◌ुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥ 46॥

जो मेरे गुणसमहू के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रिहत है, उसका
सुख वही जानता है, जो (परमा मा प) परमानंदरािश को ा है॥ 46॥

सन ु ा सम बचन राम के । गहे सबिन पद कृपाधाम के॥


ु त सध
जनिन जनक गरु बंधु हमारे । कृपा िनधान ान ते यारे ॥

राम के अमत
ृ के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ िलए (और कहा -) हे
कृपािनधान! आप हमारे माता, िपता, गु , भाई सब कुछ ह और ाण से भी अिधक ि य ह।

तनु धनु धाम राम िहतकारी। सब िबिध तु ह नतारित हारी॥


अिस िसख तु ह िबनु देइ न कोऊ। मातु िपता वारथ रत ओऊ॥

और हे शरणागत के दुःख हरनेवाले राम! आप ही हमारे शरीर, धन, घर- ार और सभी कार से
िहत करनेवाले ह। ऐसी िश ा आपके अित र कोई नह दे सकता। माता-िपता (िहतैषी ह और
िश ा भी देते ह) परं तु वे भी वाथपरायण ह (इसिलए ऐसी परम िहतकारी िश ा नह देते)।

हेतु रिहत जग जुग उपकारी। तु ह तु हार सेवक असरु ारी॥


वारथ मीत सकल जग माह । सपनेहँ भु परमारथ नाह ॥

हे असुर के श ु! जगत म िबना हे तु के (िनः वाथ) उपकार करनेवाले तो दो ही ह - एक आप,


दूसरे आपके सेवक। जगत म (शेष) सभी वाथ के िम ह। हे भो! उनम व न म भी परमाथ का
भाव नह है।

सब के बचन म े रस साने। सिु न रघन


ु ाथ दयँ हरषाने॥
िनज िनज गहृ गए आयसु पाई। बरनत भु बतकही सहु ाई॥

सबके ेम रस म सने हए वचन सुनकर रघुनाथ दय म हिषत हए। िफर आ ा पाकर सब भु


क सुंदर बातचीत का वणन करते हए अपने-अपने घर गए।

दो० - उमा अवधबासी नर ना र कृतारथ प।


सि चदानंद घन रघन
ु ायक जहँ भूप॥ 47॥

(िशव कहते ह -) हे उमा! अयो या म रहनेवाले पु ष और ी सभी कृताथ व प ह; जहाँ वयं


सि चदानंदघन रघुनाथ राजा ह॥ 47॥

एक बार बिस मिु न आए। जहाँ राम सख


ु धाम सहु ाए॥
अित आदर रघन
ु ायक क हा। पद पखा र पादोदक ली हा॥

एक बार मुिन विश वहाँ आए जहाँ सुंदर सुख के धाम राम थे। रघुनाथ ने उनका बहत ही
आदर-स कार िकया और उनके चरण धोकर चरणामत ृ िलया।

राम सनु ह मिु न कह कर जोरी। कृपािसंधु िबनती कछु मोरी॥


देिख देिख आचरन तु हारा। होत मोह मम दयँ अपारा॥

मुिन ने हाथ जोड़कर कहा - हे कृपासागर राम! मेरी कुछ िवनती सुिनए! आपके आचरण
(मनु योिचत च र ) को देख-देखकर मेरे दय म अपार मोह ( म) होता है।

मिहमा अिमित बेद निहं जाना। म केिह भाँित कहउँ भगवाना॥


उपरोिह य कम अित मंदा। बेद परु ान सम
ु िृ त कर िनंदा॥

हे भगवन! आपक मिहमा क सीमा नह है, उसे वेद भी नह जानते। िफर म िकस कार कह
सकता हँ? पुरोिहती का कम (पेशा) बहत ही नीचा है। वेद, पुराण और मिृ त सभी इसक िनंदा
करते ह।

जब न लेउँ म तब िबिध मोही। कहा लाभ आग सत ु तोही॥


परमातमा नर पा। होइिह रघकु ु ल भूषन भूपा॥

जब म उसे (सय ू वंश क पुरोिहती का काम) नह लेता था, तब ा ने मुझे कहा था - हे पु !


इससे तुमको आगे चलकर बहत लाभ होगा। वयं परमा मा मनु य प धारण कर रघुकुल
के भषू ण राजा ह गे।

दो० - तब म दयँ िबचारा जोग ज य त दान।


जा कुहँ क रअ सो पैहउँ धम न एिह सम आन॥ 48॥

तब मने दय म िवचार िकया िक िजसके िलए योग, य , त और दान िकए जाते ह उसे म इसी
कम से पा जाऊँगा; तब तो इसके समान दूसरा कोई धम ही नह है॥ 48॥

जप तप िनयम जोग िनज धमा। ुित संभव नाना सभ


ु कमा॥
यान दया दम तीरथ म जन। जहँ लिग धम कहत ुित स जन॥

जप, तप, िनयम, योग, अपने-अपने (वणा म के) धम, ुितय से उ प न (वेदिविहत) बहत-से
शुभ कम, ान, दया, दम (इंि यिन ह), तीथ नान आिद जहाँ तक वेद और संतजन ने धम
कहे ह (उनके करने का) -

ु े कर फल भु एका॥
आगम िनगम परु ान अनेका। पढ़े सन
तव पद पंकज ीित िनरं तर। सब साधन कर यह फल संदु र॥

(तथा) हे भो! अनेक तं , वेद और पुराण के पढ़ने और सुनने का सव म फल एक ही है और


सब साधन का भी यही एक सुंदर फल है िक आपके चरणकमल म सदा-सवदा ेम हो।

छूटइ मल िक मलिह के धोएँ । घत


ृ िक पाव कोइ बा र िबलोएँ ॥
े भगित जल िबनु रघरु ाई। अिभअंतर मल कबहँ न जाई॥

मैल से धोने से या मैल छूटता है? जल के मथने से या कोई घी पा सकता है? (उसी कार) हे
रघुनाथ! ेमभि पी (िनमल) जल के िबना अंतःकरण का मल कभी नह जाता।

सोइ सब य त य सोइ पंिडत। सोइ गन


ु गहृ िब यान अखंिडत॥
द छ सकल ल छन जुत सोई। जाक पद सरोज रित होई॥

वही सव है, वही त व और पंिडत है, वही गुण का घर और अखंड िव ानवान है; वही चतुर
और सब सुल ण से यु है, िजसका आपके चरण कमल म ेम है।
दो० - नाथ एक बर मागउँ राम कृपा क र देह।
ज म ज म भु पद कमल कबहँ घटै जिन नेह॥ 49॥

हे नाथ! हे राम! म आपसे एक वर माँगता हँ, कृपा करके दीिजए। भु (आप) के चरणकमल म
मेरा ेम ज म-ज मांतर म भी कभी न घटे॥ 49॥

अस किह मिु न बिस गहृ आए। कृपािसंधु के मन अित भाए॥


हनूमान भरतािदक ाता। संग िलए सेवक सख ु दाता॥

ऐसा कहकर मुिन विश घर आए। वे कृपासागर राम के मन को बहत ही अ छे लगे। तदनंतर
सेवक को सुख देनेवाले राम ने हनुमान तथा भरत आिद भाइय को साथ िलया,

पिु न कृपाल परु बाहेर गए। गज रथ तरु ग मगावत भए॥


देिख कृपा क र सकल सराहे। िदए उिचत िज ह िज ह तेइ चाहे॥

और िफर कृपालु राम नगर के बाहर गए और वहाँ उ ह ने हाथी, रथ और घोड़े मँगवाए। उ ह


देखकर कृपा करके भु ने सबक सराहना क और उनको िजस-िजसने चाहा, उस-उसको
उिचत जानकर िदया।

हरन सकल म भु म पाई। गए जहाँ सीतल अवँराई॥


भरत दी ह िनज बसन डसाई। बैठे भु सेविहं सब भाई॥

संसार के सभी म को हरनेवाले भु ने (हाथी, घोड़े आिद बाँटने म) म का अनुभव िकया और


( म िमटाने को) वहाँ गए जहाँ शीतल अमराई (आम का बगीचा) थी। वहाँ भरत ने अपना व
िबछा िदया। भु उस पर बैठ गए और सब भाई उनक सेवा करने लगे।

मा तसत ु तब मा त करई। पल ु क बपषु लोचन जल भरई॥


हनूमान सम निहं बड़भागी। निहं कोउ राम चरन अनरु ागी॥
िग रजा जासु ीित सेवकाई। बार बार भु िनज मख
ु गाई॥

उस समय पवनपु हनुमान पवन (पंखा) करने लगे। उनका शरीर पुलिकत हो गया और ने म
( ेमा ुओ ं का) जल भर आया। (िशव कहने लगे -) हे िग रजे! हनुमान के समान न तो कोई
बड़भागी है और न कोई राम के चरण का ेमी ही है, िजनके ेम और सेवा क ( वयं) भु ने
अपनेमुख से बार-बार बड़ाई क है।

दो० - तेिहं अवसर मिु न नारद आए करतल बीन।


गावन लगे राम कल क रित सदा नबीन॥ 50॥

उसी अवसर पर नारदमुिन हाथ म वीणा िलए हए आए। वे राम क सुंदर और िन य नवीन
रहनेवाली क ित गाने लगे॥ 50॥

मामवलोकय पंकज लोचन। कृपा िबलोकिन सोच िबमोचन॥


नील तामरस याम काम अ र। दय कंज मकरं द मधप
ु ह र॥

कृपापवू क देख लेने मा से शोक के छुड़ानेवाले हे कमलनयन! मेरी ओर देिखए (मुझ पर भी


कृपा ि क िजए) हे ह र! आप नीलकमल के समान यामवण और कामदेव के श ु महादेव के
दय कमल के मकरं द ( ेम रस) के पान करनेवाले मर ह।

जातध ु ान ब थ बल भंजन। मिु न स जन रं जन अघ गंजन॥


भूसरु सिस नव बंदृ बलाहक। असरन सरन दीन जन गाहक॥

आप रा स क सेना के बल को तोड़नेवाले ह। मुिनय और संतजन को आनंद देनेवाले और


पाप का नाश करनेवाले ह। ा ण पी खेती के िलए आप नए मेघसमहू ह और शरणहीन को
शरण देनेवाले तथा दीन जन को अपने आ य म हण करनेवाले ह।

भजु बल िबपलु भार मिह खंिडत। खर दूषन िबराध बध पंिडत॥


रावना र सख
ु प भूपबर। जय दसरथ कुल कुमदु सध ु ाकर॥

अपने बाहबल से प ृ वी के बड़े भारी बोझ को न करनेवाले, खर-दूषण और िवराध के वध करने


म कुशल, रावण के श ु, आनंद व प, राजाओं म े और दशरथ के कुल पी कुमुिदनी के
चं मा राम! आपक जय हो।

सज
ु स परु ान िबिदत िनगमागम। गावत सरु मिु न संत समागम॥
का नीक यलीक मद खंडन। सब िबिध कुसल कोसला मंडन॥

आपका सुंदर यश पुराण , वेद म और तं ािद शा म कट है। देवता, मुिन और संत के


समुदाय उसे गाते ह। आप क णा करनेवाले और झठू े मद का नाश करनेवाले, सब कार से
कुशल (िनपुण) अयो या के भषू ण ही ह।

किल मल मथन नाम ममताहन। तुलिसदास भु पािह नत जन॥

आपका नाम किलयुग के पाप को मथ डालनेवाला और ममता को मारनेवाला है। हे तुलसीदास


के भु! शरणागत क र ा क िजए।

े सिहत मिु न नारद बरिन राम गन


दो० - म ु ाम।
सोभािसंधु दयँ ध र गए जहाँ िबिध धाम॥ 51॥

राम के गुणसमहू का ेमपवू क वणन करके मुिन नारद शोभा के समु भु को दय म धरकर
जहाँ लोक है वहाँ चले गए॥ 51॥

िग रजा सन
ु ह िबसद यह कथा। म सब कही मो र मित जथा॥
राम च रत सत कोिट अपारा। ुित सारदा न बरनै पारा॥

(िशव कहते ह -) हे िग रजे! सुनो, मने यह उ वल कथा, जैसी मेरी बुि थी, वैसी परू ी कह
डाली। राम के च र सौ करोड़ (अथवा) अपार ह। ुित और शारदा भी उनका वणन नह कर
सकते।

राम अनंत अनंत गन


ु ानी। ज म कम अनंत नामानी॥
जल सीकर मिह रज गिन जाह । रघप
ु ित च रत न बरिन िसराह ॥

भगवान राम अनंत ह; उनके गुण अनंत ह; ज म, कम और नाम भी अनंत ह। जल क बँदू और


प ृ वी के रजकण चाहे िगने जा सकते ह , पर रघुनाथ के च र वणन करने से नह चक
ू ते।

िबमल कथा ह र पद दायनी। भगित होइ सिु न अनपायनी॥


उमा किहउँ सब कथा सहु ाई। जो भस
ु ंिु ड खगपितिह सन
ु ाई॥

यह पिव कथा भगवान के परम पद को देनेवाली है। इसके सुनने से अिवचल भि ा होती है।
हे उमा! मने वह सब संुदर कथा कही जो काकभुशंुिड ने ग ड़ को सुनाई थी।

कछुक राम गनु कहेउँ बखानी। अब का कह सो कहह भवानी॥


सिु न सभ
ु कथा उमा हरषानी। बोली अित िबनीत मदृ ु बानी॥

मने राम के कुछ थोड़े -से गुण बखान कर कहे ह। हे भवानी! सो कहो, अब और या कहँ? राम
क मंगलमयी कथा सुनकर पावती हिषत हई ं और अ यंत िवन तथा कोमल वाणी बोल -

ध य ध य म ध य पुरारी। सुनेउँ राम गुन भव भय हारी॥

हे ि पुरा र। म ध य हँ, ध य-ध य हँ जो मने ज म-म ृ यु के भय को हरण करनेवाले राम के गुण


(च र ) सुने।

दो० - तु हरी कृपाँ कृपायतन अब कृतकृ य न मोह।


जानेउँ राम ताप भु िचदानंद संदोह॥ 52(क)॥

हे कृपाधाम! अब आपक कृपा से म कृतकृ य हो गई। अब मुझे मोह नह रह गया। हे भु! म


सि चदानंदघन भु राम के ताप को जान गई॥ 52(क)॥

नाथ तवानन सिस वत कथा सध


ु ा रघब
ु ीर।
वन पटु ि ह मन पान क र निहं अघात मितधीर॥ 52(ख)॥

हे नाथ! आपका मुख पी चं मा रघुवीर क कथा पी अमत


ृ बरसाता है। हे मितधीर! मेरा मन
कणपुट से उसे पीकर त ृ नह होता॥ 52(ख)॥

राम च रत जे सन
ु त अघाह । रस िबसेष जाना ित ह नाह ॥
जीवनमु महामिु न जेऊ। ह र गन ु सन
ु िहं िनरं तर तेऊ॥

राम के च र सुनते-सुनते जो त ृ हो जाते ह (बस कर देते ह), उ ह ने तो उसका िवशेष रस


जाना ही नह । जो जीव मु महामुिन ह, वे भी भगवान के गुण िनरं तर सुनते रहते ह।

भव सागर चह पार जो पावा। राम कथा ता कहँ ढ़ नावा॥


िबषइ ह कहँ पिु न ह र गन
ु ामा। वन सख ु द अ मन अिभरामा॥

जो संसार पी सागर का पार पाना चाहता है, उसके िलए तो राम क कथा ढ़ नौका के समान
है। ह र के गुणसमहू तो िवषयी लोग के िलए भी कान को सुख देनेवाले और मन को आनंद
देनेवाले ह।

वनवंत अस को जग माह । जािह न रघपु ित च रत सोहाह ॥


ते जड़ जीव िनजा मक घाती। िज हिह न रघपु ित कथा सोहाती॥

जगत म कानवाला ऐसा कौन है िजसे रघुनाथ के च र न सुहाते ह । िज ह रघुनाथ क कथा


नह सुहाती, वे मख
ू जीव तो अपनी आ मा क ह या करनेवाले ह।

ह रच र मानस तु ह गावा। सिु न म नाथ अिमित सखु पावा॥


तु ह जो कही यह कथा सहु ाई। कागभसंिु ड ग ड़ ित गाई॥

हे नाथ! आपने रामच र मानस का गान िकया, उसे सुनकर मने अपार सुख पाया। आपने जो
यह कहा िक यह सुंदर कथा काकभुशुंिड ने ग ड़ से कही थी -

दो० - िबरित यान िब यान ढ़ राम चरन अित नेह।


बायस तन रघप ु ित भगित मोिह परम संदहे ॥ 53॥

सो कौए का शरीर पाकर भी काकभुशुंिड वैरा य, ान और िव ान म ढ़ ह, उनका राम के


चरण म अ यंत ेम है और उ ह रघुनाथ क भि भी ा है, इस बात का मुझे परम संदेह हो
रहा है॥ 53॥

नर सह महँ सन
ु ह परु ारी। कोउ एक होई धम तधारी॥
धमसील कोिटक महँ कोई। िबषय िबमख ु िबराग रत होई॥
हे ि पुरा र! सुिनए, हजार मनु य म कोई एक धम के त का धारण करनेवाला होता है और
करोड़ धमा माओं म कोई एक िवषय से िवमुख (िवषय का यागी) और वैरा य परायण होता है।

कोिट िबर म य ुित कहई। स यक यान सकृत कोउ लहई॥


यानवंत कोिटक महँ कोऊ। जीवन&##2350;◌ु सकृत जग सोऊ॥

ुित कहती है िक करोड़ िवर म कोई एक ही स यक (यथाथ) ान को ा करता है। और


करोड़ ािनय म कोई एक ही जीवन मु होता है। जगत म कोई िवरला ही ऐसा (जीवन मु )
होगा।

ित ह सह महँ सब सख
ु खानी। दल
ु भ लीन िब यानी॥
धमसील िबर अ यानी। जीवनमु पर ानी॥

हजार जीवनमु म भी सब सुख क खान, म लीन िव ानवान पु ष और भी दुलभ है।


धमा मा, वैरा यवान, ानी, जीवन मु और लीन -

सत ते सो दल
ु भ सरु राया। राम भगित रत गत मद माया॥
सो ह रभगित काग िकिम पाई। िब वनाथ मोिह कहह बझ ु ाई॥

इन सबम भी हे देवािधदेव महादेव! वह ाणी अ यंत दुलभ है जो मद और माया से रिहत होकर


राम क भि के परायण हो। हे िव नाथ! ऐसी दुलभ ह र भि को कौआ कैसे पा गया, मुझे
समझाकर किहए।

दो० - राम परायन यान रत गन


ु ागार मित धीर।
नाथ कहह केिह कारन पायउ काक सरीर॥ 54॥

हे नाथ! किहए, (ऐसे) रामपरायण, ानिनरत, गुणधाम और धीरबुि भुशुंिड ने कौए का शरीर
िकस कारण पाया?॥ 54॥

यह भु च रत पिव सहु ावा। कहह कृपाल काग कहँ पावा॥


तु ह केिह भाँित सन
ु ा मदनारी। कहह मोिह अित कौतक
ु भारी॥

हे कृपालु! बताइए, उस कौए ने भु का यह पिव और सुंदर च र कहाँ पाया? और हे कामदेव


के श ु! यह भी बताइए, आपने इसे िकस कार सुना? मुझे बड़ा भारी कौतहू ल हो रहा है।

ग ड़ महा यानी गन ु रासी। ह र सेवक अित िनकट िनवासी।


तेिहं केिह हेतु काग सन जाई। सन ु ी कथा मिु न िनकर िबहाई॥

ग ड़ तो महान ानी, स ुण क रािश, ह र के सेवक और उनके अ यंत िनकट रहनेवाले


(उनके वाहन ही) ह। उ ह ने मुिनय के समहू को छोड़कर, कौए से जाकर ह रकथा िकस कारण
सुनी?

कहह कवन िबिध भा संबादा। दोउ ह रभगत काग उरगादा॥


गौ र िगरा सिु न सरल सहु ाई। बोले िसव सादर सख
ु पाई॥

किहए, काकभुशुंिड और ग ड़ इन दोन ह रभ क बातचीत िकस कार हई? पावती क


सरल, सुंदर वाणी सुनकर िशव सुख पाकर आदर के साथ बोले -

ध य सती पावन मित तोरी। रघपु ित चरन ीित निहं थोरी॥


सन
ु ह परम पन
ु ीत इितहासा। जो सिु न सकल लोक म नासा॥

हे सती! तुम ध य हो; तु हारी बुि अ यंत पिव है। रघुनाथ के चरण म तु हारा कम ेम नह है
(अ यिधक ेम है)। अब वह परम पिव इितहास सुनो, िजसे सुनने से सारे लोक के म का नाश
हो जाता है।

उपजइ राम चरन िब वासा। भव िनिध तर नर िबनिहं यासा॥

तथा राम के चरण म िव ास उ प न होता है और मनु य िबना ही प र म संसार पी समु से


तर जाता है।

दो० - ऐिसअ न िबहंगपित क ि ह काग सन जाइ।


सो सब सादर किहहउँ सन
ु ह उमा मन लाई॥ 55॥

प ीराज ग ड़ ने भी जाकर काकभुशुंिड से ायः ऐसे ही िकए थे। हे उमा! म वह सब


आदरसिहत कहँगा, तुम मन लगाकर सुनो॥ 55॥

म िजिम कथा सन
ु ी भव मोचिन। सो संग सनु ु सम
ु िु ख सल
ु ोचिन॥
थम द छ गहृ तव अवतारा। सती नाम तब रहा तु हारा॥

मने िजस कार वह भव (ज म-म ृ यु) से छुड़ानेवाली कथा सुनी, हे सुमुखी! हे सुलोचनी! वह
संग सुनो। पहले तु हारा अवतार द के घर हआ था। तब तु हारा नाम सती था।

द छ ज य तव भा अपमाना। तु ह अित ोध तजे तब ाना॥


मम अनचु र ह क ह मख भंगा। जानह तु ह सो सकल संगा॥

द के य म तु हारा अपमान हआ। तब तुमने अ यंत ोध करके ाण याग िदए थे; और िफर
मेरे सेवक ने य िव वंस कर िदया था। वह सारा संग तुम जानती ही हो।
तब अित सोच भयउ मन मोर। दख ु ी भयउँ िबयोग ि य तोर॥
संदु र बन िग र स रत तड़ागा। कौतकु देखत िफरउँ बेरागा॥

तब मेरे मन म बड़ा सोच हआ और हे ि ये! म तु हारे िवयोग से दुःखी हो गया। म िवर भाव से
सुंदर वन, पवत, नदी और तालाब का कौतुक ( य) देखता िफरता था।

ु रे उ र िदिस दूरी। नील सैल एक संदु र भूरी॥


िग र सम
तासु कनकमय िसखर सहु ाए। चा र चा मोरे मन भाए॥

सुमे पवत क उ र िदशा म, और भी दूर, एक बहत ही सुंदर नील पवत है। उसके सुंदर वणमय
िशखर ह, (उनम से) चार सुंदर िशखर मेरे मन को बहत ही अ छे लगे।

ित ह पर एक एक िबटप िबसाला। बट पीपर पाकरी रसाला॥


सैलोप र सर संदु र सोहा। मिन सोपान देिख मन मोहा॥

उन िशखर म एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक िवशाल व ृ है। पवत के


ऊपर एक सुंदर तालाब शोिभत है; िजसक मिणय क सीिढ़याँ देखकर मन मोिहत हो जाता है।

दो० - सीतल अमल मधरु जल जलज िबपल ु बहरं ग।


कूजत कल रव हंस गन गंज
ु त मंजल
ु भंग
ृ ॥ 56॥

उसका जल शीतल, िनमल और मीठा है; उसम रं ग-िबरं गे बहत-से कमल िखले हए ह, हंसगण
मधुर वर से बोल रहे ह और भ रे सुंदर गुंजार कर रहे ह॥ 56॥

तेिहं िग र िचर बसइ खग सोई। तासु नास क पांत न होई॥


माया कृत गन ु दोष अनेका। मोह मनोज आिद अिबबेका॥

उस सुंदर पवत पर वही प ी (काकभुशुंिड) बसता है। उसका नाश क प के अंत म भी नह होता।
मायारिचत अनेक गुण-दोष, मोह, काम आिद अिववेक,

रहे यािप सम त जग माह । तेिह िग र िनकट कबहँ निहं जाह ॥


तहँ बिस ह रिह भजइ िजिम कागा। सो सनु ु उमा सिहत अनरु ागा॥

जो सारे जगत म छा रहे ह, उस पवत के पास भी कभी नह फटकते। वहाँ बसकर िजस कार वह
काग ह र को भजता है, हे उमा! उसे ेम सिहत सुनो।

पीपर त तर यान सो धरई। जाप ज य पाक र तर करई॥


आँब छाँह कर मानस पूजा। तिज ह र भजनु काजु निहं दूजा॥
वह पीपल के व ृ के नीछे यान धरता है। पाकर के नीचे जपय करता है। आम क छाया म
मानिसक पज ू ा करता है। ह र के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नह है।

बर तर कह ह र कथा संगा। आविहं सन


ु िहं अनेक िबहंगा॥
े सिहत कर सादर गाना॥
राम च रत िबिच िबिध नाना। म

बरगद के नीचे वह ह र क कथाओं के संग कहता है। वहाँ अनेक प ी आते और कथा सुनते
ह। वह िविच रामच र को अनेक कार से ेम सिहत आदरपवू क गान करता है।

सन
ु िहं सकल मित िबमल मराला। बसिहं िनरं तर जे तेिहं ताला॥
जब म जाइ सो कौतकु देखा। उर उपजा आनंद िबसेषा॥

सब िनमल बुि वाले हंस, जो सदा उस तालाब पर बसते ह, उसे सुनते ह। जब मने वहाँ जाकर यह
कौतुक ( य) देखा, तब मेरे दय म िवशेष आनंद उ प न हआ।

दो० - तब कछु काल मराल तनु ध र तहँ क ह िनवास।


सादर सिु न रघप ु पिु न आयउँ कैलास॥ 57॥
ु ित गन

तब मने हंस का शरीर धारण कर कुछ समय वहाँ िनवास िकया और रघुनाथ के गुण को आदर
सिहत सुनकर िफर कैलास को लौट आया॥ 57॥

िग रजा कहेउँ सो सब इितहासा। म जेिह समय गयउँ खग पासा॥


अब सो कथा सन ु ह जेिह हेत।ू गयउ काग पिहं खग कुल केत॥

हे िग रजे! मने वह सब इितहास कहा िक िजस समय म काकभुशुंिड के पास गया था। अब वह
कथा सुनो िजस कारण से प ◌ी कुल क वजा ग ड़ उस काग के पास गए थे।

जब रघनु ाथ क ि ह रन ड़ा। समझ ु त च रत होित मोिह ीड़ा॥


इं जीत कर आपु बँधायो। तब नारद मिु न ग ड़ पठायो॥

जब रघुनाथ ने ऐसी रणलीला क िजस लीला का मरण करने से मुझे ल जा होती है - मेघनाद
के हाथ अपने को बँधा िलया - तब नारद मुिन ने ग ड़ को भेजा।

बंधन कािट गयो उरगादा। उपजा दयँ चंड िबषादा॥


भु बंधन समझ
ु त बह भाँती। करत िबचार उरग आराती॥

सप के भ क ग ड़ बंधन काटकर गए, तब उनके दय म बड़ा भारी िवषाद उ प न हआ। भु


के बंधन को मरण करके सप के श ु ग ड़ बहत कार से िवचार करने लगे -
यापक िबरज बागीसा। माया मोह पार परमीसा॥
सो अवतार सनु उे ँ जग माह । देखउे ँ सो भाव कछु नाह ॥

जो यापक, िवकाररिहत, वाणी के पित और माया-मोह से परे परमे र ह, मने सुना था िक


जगत म उ ह का अवतार है। पर मने उस (अवतार) का भाव कुछ भी नह देखा।

दो० - भव बंधन ते छूटिहं नर जिप जा कर नाम।


खब िनसाचर बाँधउे नागपास सोइ राम॥ 58॥

िजनका नाम जपकर मनु य संसार के बंधन से छूट जाते ह, उ ह राम को एक तु छ रा स ने


नागपाश से बाँध िलया॥ 58॥

नाना भाँित मनिहं समझ


ु ावा। गट न यान दयँ म छावा॥
खेद िख न मन तक बढ़ाई। भयउ मोहबस तु ह रिहं नाई॥

ग ड़ ने अनेक कार से अपने मन को समझाया। पर उ ह ान नह हआ, दय म म और भी


अिधक छा गया। (संदेहजिनत) दुःख से दुःखी होकर, मन म कुतक बढ़ाकर वे तु हारी ही भाँित
मोहवश हो गए।

याकुल गयउ देव रिष पाह । कहेिस जो संसय िनज मन माह ॥


ु ु खग बल राम कै माया॥
सिु न नारदिह लािग अित दाया। सन

याकुल होकर वे देविष नारद के पास गए और मन म जो संदेह था, वह उनसे कहा। उसे सुनकर
नारद को अ यंत दया आई। (उ ह ने कहा -) हे ग ड़! सुिनए! राम क माया बड़ी ही बलवती है।

जो यािन ह कर िचत अपहरई। ब रआई ं िबमोह मन करई॥


जेिहं बह बार नचावा मोही। सोइ यापी िबहंगपित तोही॥

जो ािनय के िच को भी भली-भाँित हरण कर लेती है और उनके मन म जबद ती बड़ा भारी


मोह उ प न कर देती है, तथा िजसने मुझको भी बहत बार नचाया है, हे प ीराज! वही माया
आपको भी याप गई है।

महामोह उपजा उर तोर। िमिटिह न बेिग कह खग मोर॥


चतरु ानन पिहं जाह खगेसा। सोइ करे ह जेिह होई िनदेसा॥

हे ग ड़! आपके दय म बड़ा भारी मोह उ प न हो गया है। यह मेरे समझाने से तुरंत नह


िमटेगा। अतः हे प ीराज! आप ा के पास जाइए और वहाँ िजस काम के िलए आदेश िमले, वही
क िजएगा।
दो० - अस किह चले देव रिष करत राम गन ु गान।
ह र माया बल बरनत पिु न पिु न परम सज
ु ान॥ 59॥

ऐसा कहकर परम सुजान देविष नारद राम का गुणगान करते हए और बारं बार ह र क माया का
बल वणन करते हए चले॥ 59॥

तब खगपित िबरं िच पिहं गयऊ। िनज संदहे सनु ावत भयऊ॥


सिु न िबरं िच रामिह िस नावा। समिु झ ताप मे अित छावा॥

तब प ीराज ग ड़ ा के पास गए और अपना संदेह उ ह कह सुनाया। उसे सुनकर ा ने


राम को िसर नवाया और उनके ताप को समझकर उनके मन म अ यंत ेम छा गया।

मन महँ करइ िबचार िबधाता। माया बस किब कोिबद याता॥


ह र माया कर अिमित भावा। िबपलु बार जेिहं मोिह नचावा॥

ा मन म िवचार करने लगे िक किव, कोिवद और ानी सभी माया के वश ह। भगवान क


माया का भाव असीम है, िजसने मुझ तक को अनेक बार नचाया है।

अग जगमय जग मम उपराजा। निहं आचरज मोह खगराजा॥


तब बोले िबिध िगरा सहु ाई। जान महेस राम भत
ु ाई॥

यह सारा चराचर जगत तो मेरा रचा हआ है। जब म ही मायावश नाचने लगता हँ, तब ग ड़ को
मोह होना कोई आ य (क बात) नह है। तदनंतर ा सुंदर वाणी बोले - राम क मिहमा को
महादेव जानते ह।

बैनतेय संकर पिहं जाह। तात अनत पूछह जिन काह॥


तहँ होइिह तव संसय हानी। चलेउ िबहंग सन
ु त िबिध बानी॥

हे ग ड़! तुम शंकर के पास जाओ। हे तात! और कह िकसी से न पछ


ू ना। तु हारे संदेह का नाश
वह होगा। ा का वचन सुनते ही ग ड़ चल िदए।

दो० - परमातरु िबहंगपित आयउ तब मो पास।


जात रहेउँ कुबेर गहृ रिहह उमा कैलास॥ 60॥

तब बड़ी आतुरता (उतावली) से प ीराज ग ड़ मेरे पास आए। हे उमा! उस समय म कुबेर के घर
जा रहा था और तुम कैलास पर थ ॥ 60॥

तेिहं मम पद सादर िस नावा। पिु न आपन संदहे सन ु ावा॥


े सिहत म कहेउँ भवानी॥
सिु न ता क र िबनती मदृ ु बानी। म
ग ड़ ने आदरपवू क मेरे चरण म िसर नवाया और िफर मुझको अपना संदेह सुनाया। हे भवानी!
उनक िवनती और कोमल वाणी सुनकर मने ेमसिहत उनसे कहा -

िमलेह ग ड़ मारग महँ मोही। कवन भाँित समझ


ु ाव तोही॥
तबिहं होइ सब संसय भंगा। जब बह काल क रअ सतसंगा॥

हे ग ड़! तुम मुझे रा ते म िमले हो। राह चलते म तु हे िकस कार समझाऊँ? सब संदेह का तो
तभी नाश हो जब दीघ काल तक स संग िकया जाए।

सिु नअ तहाँ ह रकथा सहु ाई। नाना भाँित मिु न ह जो गाई॥


जेिह महँ आिद म य अवसाना। भु ितपा राम भगवाना॥

और वहाँ (स संग म) संुदर ह रकथा सुनी जाए िजसे मुिनय ने अनेक कार से गाया है और
िजसके आिद, म य और अंत म भगवान राम ही ितपा भु ह।

िनत ह र कथा होत जहँ भाई। पठवउँ तहाँ सनु ह तु ह जाई॥


जाइिह सनु त सकल संदहे ा। राम चरन होइिह अित नेहा॥

हे भाई! जहाँ ितिदन ह रकथा होती है, तुमको म वह भेजता हँ, तुम जाकर उसे सुनो। उसे सुनते
ही तु हारा सब संदेह दूर हो जाएगा और तु ह राम के चरण म अ यंत ेम होगा।

दो० - िबनु सतसंग न ह र कथा तेिह िबनु मोह न भाग।


मोह गएँ िबनु राम पद होइ न ढ़ अनरु ाग॥ 61॥

स संग के िबना ह र क कथा सुनने को नह िमलती, उसके िबना मोह नह भागता और मोह के
गए िबना राम के चरण म ढ़ (अचल) ेम नह होता॥ 61॥

िमलिहं न रघप ु ित िबनु अनरु ागा। िकएँ जोग तप यान िबरागा॥


उ र िदिस संदु र िग र नीला। तहँ रह काकभस ु ंिु ड सस
ु ीला॥

िबना ेम के केवल योग, तप, ान और वैरा यािद के करने से रघुनाथ नह िमलते। (अतएव तुम
स संग के िलए वहाँ जाओ जहाँ) उ र िदशा म एक सुंदर नील पवत है। वहाँ परम सुशील
काकभुशुंिड रहते ह।

राम भगित पथ परम बीना। यानी गन ु गहृ बह कालीना॥


राम कथा सो कहइ िनरं तर। सादर सन
ु िहं िबिबध िबहंगबर॥

वे रामभि के माग म परम वीण ह, ानी ह, गुण के धाम ह और बहत काल के ह। वे िनरं तर
राम क कथा कहते रहते ह, िजसे भाँित-भाँित के े प ी आदर सिहत सुनते ह।
जाइ सन
ु ह तहँ ह र गन
ु भूरी। होइिह मोह जिनत दख
ु दूरी॥
म जब तेिह सब कहा बझ ु ाई। चलेउ हरिष मम पद िस नाई॥

वहाँ जाकर ह र के गुणसमहू को सुनो। उनके सुनने से मोह से उ प न तु हारा दुःख दूर हो
जाएगा। मने उसे जब सब समझाकर कहा, तब वह मेरे चरण म िसर नवाकर हिषत होकर चला
गया।

ताते उमा न म समझ


ु ावा। रघप
ु ित कृपाँ मरमु म पावा॥
होइिह क ह कबहँ अिभमाना। सो खोवै चह कृपािनधाना॥

हे उमा! मने उसको इसीिलए नह समझाया िक म रघुनाथ क कृपा से उसका मम (भेद) पा गया
था। उसने कभी अिभमान िकया होगा, िजसको कृपािनधान राम न करना चाहते ह।

ु इ खग खगही कै भाषा॥
कछु तेिह ते पिु न म निहं राखा। समझ
भु माया बलवंत भवानी। जािह न मोह कवन अस यानी॥

िफर कुछ इस कारण भी मने उसको अपने पास नह रखा िक प ी प ी क ही बोली समझते ह।
हे भवानी! भु क माया (बड़ी ही) बलवती है, ऐसा कौन ानी है, िजसे वह न मोह ले?

दो० - यानी भगत िसरोमिन ि भव ु नपित कर जान।


तािह मोह माया नर पावँर करिहं गमु ान॥ 62(क)॥

जो ािनय म और भ म िशरोमिण ह एवं ि भुवनपित भगवान के वाहन ह, उन ग ड़ को भी


माया ने मोह िलया। िफर भी नीच मनु य मख
ू तावश घमंड िकया करते ह॥ 62(क)॥

िसव िबरं िच कहँ मोहइ को है बपरु ा आन।


अस िजयँ जािन भजिहं मिु न माया पित भगवान॥ 62(ख)॥

यह माया जब िशव और ा को भी मोह लेती है, तब दूसरा बेचारा या चीज है? जी म ऐसा
जानकर ही मुिन लोग उस माया के वामी भगवान का भजन करते ह॥ 62(ख)॥

गयउ ग ड़ जहँ बसइ भस


ु ंड
ु ा। मित अकंु ठ ह र भगित अखंडा॥
देिख सैल स न मन भयउ। माया मोह सोच सब गयऊ॥

ग ड़ वहाँ गए जहाँ िनबाध बुि और पण


ू भि वाले काकभुशुंिड बसते थे। उस पवत को देखकर
उनका मन स न हो गया और (उसके दशन से ही) सब माया, मोह तथा सोच जाता रहा।

क र तड़ाग म जन जलपाना। बट तर गयउ दयँ हरषाना॥


ु ै राम के च रत सहु ाए॥
ब ृ ब ृ िबहंग तहँ आए। सन
तालाब म नान और जलपान करके वे स निच से वटव ृ के नीचे गए। वहाँ राम के सुंदर
च र सुनने के िलए बढ़
ू े -बढ़
ू े प ी आए हए थे।

कथा अरं भ करै सोइ चाहा। तेही समय गयउ खगनाहा॥


आवत देिख सकल खगराजा। हरषेउ बायस सिहत समाजा॥

भुशुंिड कथा आरं भ करना ही चाहते थे िक उसी समय प ीराज ग ड़ वहाँ जा पहँचे। पि य के
राजा ग ड़ को आते देखकर काकभुशुंिड सिहत सारा प ी समाज हिषत हआ।

अित आदर खगपित कर क हा। वागत पूिछ सआ ु सन दी हा॥


क र पूजा समेत अनरु ागा। मधरु बचन तब बोलेउ कागा॥

उ ह ने प ीराज ग ड़ का बहत ही आदर-स कार िकया और वागत (कुशल) पछ ू कर बैठने के


िलए सुंदर आसन िदया। िफर ेम सिहत पज
ू ा कर के कागभुशुंिड मधुर वचन बोले -

दो० - नाथ कृतारथ भयउँ म तव दरसन खगराज।


आयसु देह सो कर अब भु आयह केिह काज॥ 63(क)॥

हे नाथ ! हे प ीराज ! आपके दशन से म कृताथ हो गया। आप जो आ ा द म अब वही क ँ । हे


भो ! आप िकस काय के िलए आए ह?॥ 63(क)॥

सदा कृतारथ प तु ह कह मदृ ु बचन खगेस।


जेिह कै अ तिु त सादर िनज मख
ु क ह महेस॥ 63(ख)॥

प ीराज ग ड़ ने कोमल वचन कहे - आप तो सदा ही कृताथ प ह, िजनक बड़ाई वयं महादेव
ने आदरपवू क अपने मुख से क है॥ 63(ख)॥

सन ु ह तात जेिह कारन आयउँ । सो सब भयउ दरस तव पायउँ ॥


देिख परम पावन तव आ म। गयउ मोह संसय नाना म॥

हे तात! सुिनए, म िजस कारण से आया था, वह सब काय तो यहाँ आते ही परू ा हो गया। िफर
आपके दशन भी ा हो गए। आपका परम पिव आ म देखकर ही मेरा मोह संदेह और अनेक
कार के म सब जाते रहे ।

अब ीराम कथा अित पाविन। सदा सख ु द दख


ु पंज
ु नसाविन॥
सादर तात सन
ु ावह मोही। बार बार िबनवउँ भु तोही॥

अब हे तात! आप मुझे ी राम क अ यंत पिव करनेवाली, सदा सुख देनेवाली और दुःखसमहू
का नाश करनेवाली कथा सादरसिहत सुनाइए। हे भो! म बार-बार आप से यही िवनती करता हँ।
ु त ग ड़ कै िगरा िबनीता। सरल सु म
सन े सख ु द सप
ु न
ु ीता॥
भयउ तास मन परम उछाहा। लाग कहै रघप ु ित गन
ु गाहा॥

ग ड़ क िवन , सरल, सुंदर ेमयु , सु द और अ यंत पिव वाणी सुनते ही भुशुंिड के मन म


परम उ साह हआ और वे रघुनाथ के गुण क कथा कहने लगे।

थमिहं अित अनरु ाग भवानी। रामच रत सर कहेिस बखानी॥


पिु न नारद कर मोह अपारा। कहेिस बह र रावन अवतारा॥

हे भवानी! पहले तो उ ह ने बड़े ही ेम से रामच रत मानस सरोवर का पक समझाकर कहा।


िफर नारद का अपार मोह और िफर रावण का अवतार कहा।

भु अवतार कथा पिु न गाई। तब िससु च रत कहेिस मन लाई॥

िफर भु के अवतार क कथा वणन क । तदनंतर मन लगाकर राम क बाल लीलाएँ कह ।

दो० - बालच रत किह िबिबिध िबिध मन महँ परम उछाह।


रिष आगवन कहेिस पिु न ीरघब ु ीर िबबाह॥ 64॥

मन म परम उ साह भरकर अनेक कार क बाल लीलाएँ कहकर, िफर ऋिष िव ािम का
अयो या आना और ी रघुवीर का िववाह वणन िकया॥ 64॥

बह र राम अिभषेक संगा। पिु न नप ृ बचन राज रस भंगा॥


परु बािस ह कर िबरह िबषादा। कहेिस राम लिछमन संबादा॥

िफर राम के रा यािभषेक का संग िफर राजा दशरथ के वचन से राजरस (रा यािभषेक के
आनंद) म भंग पड़ना, िफर नगर िनवािसय का िवरह, िवषाद और राम-ल मण का संवाद
(बातचीत) कहा।

िबिपन गवन केवट अनरु ागा। सरु स र उत र िनवास यागा॥


बालमीक भु िमलन बखाना। िच कूट िजिम बसे भगवाना॥

राम का वन गमन, केवट का ेम, गंगा से पार उतरकर याग म िनवास, वा मीिक और भु राम
का िमलन और जैसे भगवान िच कूट म बसे, वह सब कहा।

सिचवागवन नगर नप ृ मरना। भरतागवन म े बह बरना॥


क र नप
ृ ि या संग परु बासी। भरत गए जहाँ भु सख
ु रासी॥

िफर मं ी सुमं का नगर म लौटना, राजा दशरथ का मरण, भरत का (निनहाल से)
अयोधî#2381;या म आना और उनके ेम का बहत वणन िकया। राजा क अं येि ि या करके
नगर िनवािसय को साथ लेकर भरत वहाँ गए जहाँ सुख क रािश भु राम थे।

पिु न रघप
ु ित बह िबिध समझ
ु ाए। लै पादक
ु ा अवधपरु आए॥
भरत रहिन सरु पित सत ु करनी। भु अ अि भट पिु न बरनी॥

िफर रघुनाथ ने उनको बहत कार से समझाया, िजससे वे खड़ाऊँ लेकर अयो यापुरी लौट आए,
यह सब कथा कही। भरत क नंदी ाम म रहने क रीित, इं पु जयंत क नीच करनी और िफर
भु राम और अि का िमलाप वणन िकया।

दो० - किह िबराध बध जेिह िबिध देह तजी सरभंग।


बरिन सतु ीछन ीित पिु न भ अगि त सतसंग॥ 65॥

िजस कार िवराध का वध हआ और शरभंग ने शरीर याग िकया, वह संग कहकर, िफर
सुती ण का ेम वणन करके भु और अग य का स संग व ृ ांत कहा॥ 65॥

किह दंडक बन पावनताई। गीध मइ ी पिु न तेिहं गाई॥


पिु न भु पंचबट कृत बासा। भंजी सकल मिु न ह क ासा॥

दंडक वन का पिव करना कहकर िफर भुशंुिड ने ग ृ राज के साथ िम ता का वणन िकया। िफर
िजस कार भु ने पंचवटी म िनवास िकया और सब मुिनय के भय का नाश िकया,

पिु न लिछमन उपदेस अनूपा। सूपनखा िजिम क ि ह कु पा॥


खर दूषन बध बह र बखाना। िजिम सब मरमु दसानन जाना॥

और िफर जैसे ल मण को अनुपम उपदेश िदया और शपू णखा को कु प िकया, वह सब वणन


िकया। िफर खर-दूषण वध और िजस कार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा,

दसकंधर मारीच बतकही। जेिह िबिध भई सो सब तेिहं कही॥


पिु न माया सीता कर हरना। ीरघब
ु ीर िबरह कछु बरना॥

तथा िजस कार रावण और मारीच क बातचीत हई, वह सब उ ह ने कही। िफर माया सीता का
हरण और ी रघुवीर के िवरह का कुछ वणन िकया।

पिु न भु गीध ि या िजिम क ह । बिध कबंध सब रिह गित दी ही॥


बह र िबरह बरनत रघब ु ीरा। जेिह िबिध गए सरोबर तीरा॥

िफर भु ने िग जटायु क िजस कार ि या क , कबंध का वध करके शबरी को परमगित दी


और िफर िजस कार िवरह-वणन करते हए रघुवीर पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा।
दो० - भु नारद संबाद किह मा ित िमलन संग।
पिु न सु ीव िमताई बािल ान कर भंग॥ 66(क)॥

भु और नारद का संवाद और मा ित के िमलने का संग कहकर िफर सु ीव से िम ता और


बािल के ाणनाश का वणन िकया॥ 66(क)॥

किपिह ितलक क र भु कृत सैल बरषन बास।


बरनन बषा सरद अ राम रोष किप ास॥ 66(ख)॥

सु ीव का राजितलक करके भु ने वषण पवत पर िनवास िकया, वह तथा वषा और शरद का


वणन, राम का सु ीव पर रोष और सु ीव का भय आिद संग कहे ॥ 66(ख)॥

जेिह िबिध किपपित क स पठाए। सीता खोज सकल िदिद धाए॥


िबबर बेस क ह जेिह भाँित। किप ह बहो र िमला संपाती॥

िजस कार वानरराज सु ीव ने वानर को भेजा और वे सीता क खोज म िजस कार सब


िदशाओं म गए, िजस कार उ ह ने िबल म वेश िकया और िफर जैसे वानर को संपाती िमला,
वह कथा कही।

सिु न सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोिध अपारा॥


लंकाँ किप बेस िजिम क हा। पिु न सीतिह धीरजु िजिम दी हा॥

संपाती से सब कथा सुनकर पवनपु हनुमान िजस तरह अपार समु को लाँघ गए, िफर हनुमान
ने जैसे लंका म वेश िकया और िफर जैसे सीता को धीरज िदया, सो सब कहा।

बन उजा र रावनिह बोधी। परु दिह नाघेउ बह र पयोधी॥


आए किप सब जहँ रघरु ाई। बैदहे ी क कुसल सन
ु ाई॥

अशोक वन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर िफर जैसे उ ह ने समु


को लाँघा और िजस कार सब वानर वहाँ आए जहाँ रघुनाथ थे और आकर जानक क कुशल
सुनाई,

सेन समेित जथा रघबु ीरा। उतरे जाइ बा रिनिध तीरा॥


िमला िबभीषन जेिह िबिध आई। सागर िन ह कथा सन ु ाई॥

िफर िजस कार सेना सिहत रघुवीर जाकर समु के तट पर उतरे और िजस कार िवभीषण
आकर उनसे िमले, वह सब और समु के बाँधने क कथा उसने सुनाई।

दो० - सेतु बाँिध किप सेन िजिम उतरी सागर पार।


गयउ बसीठी बीरबर जेिह िबिध बािलकुमार॥ 67(क)॥

पुल बाँधकर िजस कार वानर क सेना समु के पार उतरी और िजस कार वीर े बािलपु
अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥ 67(क)॥

िनिसचर क स लराई बरिनिस िबिबध कार।


कंु भकरन घननाद कर बल पौ ष संघार॥ 67(ख)॥

िफर रा स और वानर के यु का अनेक कार से वणन िकया। िफर कुंभकण और मेघनाद के


बल, पु षाथ और संहार क कथा कही॥ 67(ख)॥

िनिसचर िनकर मरन िबिध नाना। रघप ु ित रावन समर बखाना॥


रावन बध मंदोद र सोका। राज िबभीषन देव असोका॥

नाना कार के रा स समहू के मरण तथा रघुनाथ और रावण के अनेक कार के यु का


वणन िकया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, िवभीषण का रा यािभषेक और देवताओं का
शोकरिहत होना कहकर,

सीता रघप ु ित िमलन बहोरी। सरु ह क ि ह अ तिु त कर जोरी॥


पिु न पु पक चिढ़ किप ह समेता। अवध चले भु कृपा िनकेता॥

िफर सीता और रघुनाथ का िमलाप कहा। िजस कार देवताओं ने हाथ जोड़कर तुित क और
िफर जैसे वानर समेत पु पक िवमान पर चढ़कर कृपाधाम भु अवधपुरी को चले, वह कहा।

जेिह िबिध राम नगर िनज आए। बायस िबसद च रत सब गाए॥


कहेिस बहो र राम अिभषेका। परु बरनत नप
ृ नीित अनेका॥

िजस कार राम अपने नगर (अयो या) म आए, वे सब उ वल च र काकभुशुंिड ने


िव तारपवू क वणन िकए। िफर उ ह ने राम का रा यािभषेक कहा। (िशव कहते ह -) अयो यापुरी
का और अनेक कार क राजनीित का वणन करते हए -

कथा सम त भस ु ंड
ु बखानी। जो म तु ह सन कही भवानी॥
सिु न सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥

भुशुंिड ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर ग ड़ मन म
बहत उ सािहत (आनंिदत) होकर वचन कहने लगे -

दो० - गयउ मोर संदहे सन


ु उे ँ सकल रघप
ु ित च रत।
भयउ राम पद नेह तव साद बायस ितलक॥ 68(क)॥
रघुनाथ के सब च र मने सुने, िजससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकिशरोमिण! आपके अनु ह
से राम के चरण म मेरा ेम हो गया॥ 68(क)॥

मोिह भयउ अित मोह भु बंधन रन महँ िनरिख।


िचदानंद संदोह राम िबकल कारन कवन॥ 68(ख)॥

यु म भु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अ यंत मोह हो गया था िक राम तो


सि चदानंदघन ह, वे िकस कारण याकुल ह॥ 68(ख)॥

देिख च रत अित नर अनस


ु ारी। भयउ दयँ मम संसय भारी॥
सोई म अब िहत क र म माना। क ह अनु ह कृपािनधाना॥

िबलकुल ही लौिकक मनु य का-सा च र देखकर मेरे दय म भारी संदेह हो गया। म अब उस


म (संदेह) को अपने िलए िहत करके समझता हँ। कृपािनधान ने मुझ पर यह बड़ा अनु ह
िकया।

जो अित आतप याकुल होई। त छाया सख ु जानइ सोई॥


ज निहं होत मोह अित मोही। िमलतेउँ तात कवन िबिध तोही॥

जो धपू से अ यंत याकुल होता है, वही व ृ क छाया का सुख जानता है। हे तात! यिद मुझे
अ यंत मोह न होता तो म आपसे िकस कार िमलता?

सनु तेउँ िकिम ह र कथा सहु ाई। अित िबिच बह िबिध तु ह गाई॥
िनगमागम परु ान मत एहा। कहिहं िस मिु न निहं संदहे ा॥

और कैसे अ यंत िविच यह सुंदर ह रकथा सुनता; जो आपने बहत कार से गाई है? वेद, शा
और पुराण का यही मत है; िस और मुिन भी यही कहते ह, इसम संदेह नह िक -

संत िबसु िमलिहं प र तेही। िचतविहं राम कृपा क र जेही॥


राम कृपाँ तव दरसन भयऊ। तव साद सब संसय गयऊ॥

शु (स चे) संत उसी को िमलते ह, िजसे राम कृपा करके देखते ह। राम क कृपा से मुझे आपके
दशन हए और आपक कृपा से मेरा संदेह चला गया।

दो० - सिु न िबहंगपित बानी सिहत िबनय अनरु ाग।


पल
ु क गात लोचन सजल मन हरषेउ अित काग॥ 69(क)॥

प ीराज ग ड़ क िवनय और ेमयु वाणी सुनकर काकभुशुंिड का शरीर पुलिकत हो गया,


उनके ने म जल भर आया और वे मन म अ यंत हिषत हए॥ 69(क)॥
ोता सम
ु ित सस
ु ील सिु च कथा रिसक ह र दास।
पाइ उमा अित गो यमिप स जन करिहं कास॥ 69(ख॥

हे उमा! सुंदर बुि वाले सुशील, पिव कथा के ेमी और ह र के सेवक ोता को पाकर स जन
अ यंत गोपनीय (सबके सामने कट न करने यो य) रह य को भी कट कर देते ह॥ 69(ख)॥

बोलेउ काकभसु ंड
ु बहोरी। नभग नाथ पर ीित न थोरी॥
सब िबिध नाथ पू य तु ह मेरे। कृपापा रघन
ु ायक केरे ॥

काकभुशुंिड ने िफर कहा - प ीराज पर उनका ेम कम न था (अथात बहत था) - हे नाथ! आप


सब कार से मेरे पू य ह और रघुनाथ के कृपापा ह।

तु हिह न संसय मोह न माया। मो पर नाथ क ि ह तु ह दाया॥


पठइ मोह िमस खगपित तोही। रघप ु ित दीि ह बड़ाई मोही॥

आपको न संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ! आपने तो मुझ पर दया क है। हे
प ीराज! मोह के बहाने रघुनाथ ने आपको यहाँ भेजकर मुझे बड़ाई दी है।

तु ह िनज मोह कही खग साई ं। सो निहं कछु आचरज गोसाई ं॥


नारद भव िबरं िच सनकादी। जे मिु ननायक आतमबादी॥

हे पि य के वामी! आपने अपना मोह कहा, सो हे गोसाई ं! यह कुछ आ य नह है। नारद, िशव,
ा और सनकािद जो आ मत व के मम और उसका उपदेश करनेवाले े मुिन ह।

मोह न अंध क ह केिह केही। को जग काम नचाव नजेही॥


त ृ नाँ केिह न क ह बौराहा। केिह कर दय ोध निहं दाहा॥

उनम से भी िकस-िकस को मोह ने अंधा (िववेकशू य) नह िकया? जगत म ऐसा कौन है िजसे
काम ने न नचाया हो? त ृ णा ने िकसको मतवाला नह बनाया? ोध ने िकसका दय नह
जलाया?

दो० - यानी तापस सूर किब कोिबद गन ु आगार।


केिह कै लोभ िबडंबना क ि ह न एिहं संसार॥ 70(क)॥

इस संसार म ऐसा कौन ानी, तप वी, शरू वीर, किव, िव ान और गुण का धाम है, िजसक
लोभ ने िवडं बना (िम ी पलीद) न क हो॥ 70(क)॥

ी मद ब न क ह केिह भत ु ा बिधर न कािह।


ृ लोचिन के नैन सर को अस लाग न जािह॥ 70(ख)॥
मग
ल मी के मद ने िकसको टेढ़ा और भुता ने िकसको बहरा नह कर िदया? ऐसा कौन है िजसे
ृ नयनी (युवती ी) के ने बाण न लगे ह ॥ 70(ख)॥
मग

ु कृत स यपात निहं केही। कोउ न मान मद तजेउ िनबेही॥


गन
जोबन वर केिह निहं बलकावा। ममता केिह कर जस न नसावा॥

(रज, तम आिद) गुण का िकया हआ सि नपात िकसे नह हआ? ऐसा कोई नह है िजसे मान
और मद ने अछूता छोड़ा हो। यौवन के वर ने िकसे आपे से बाहर नह िकया? ममता ने िकस के
यश का नाश नह िकया?

म छर कािह कलंक न लावा। कािह न सोक समीर डोलावा॥


िचंता साँिपिन को निहं खाया। को जग जािह न यापी माया॥

म सर (डाह) ने िकसको कलंक नह लगाया? शोक पी पवन ने िकसे नह िहला िदया?


िचंता पी साँिपन ने िकसे नह खा िलया? जगत म ऐसा कौन है, िजसे माया न यापी हो?

क ट मनोरथ दा सरीरा। जेिह न लाग घनु को अस धीरा॥


ु िबत लोक ईषना तीनी। केिह कै मित इ ह कृत न मलीनी॥
सत

मनोरथ ड़ा है, शरीर लकड़ी है। ऐसा धैयवान कौन है, िजसके शरीर म यह क ड़ा न लगा हो?
पु क , धन क और लोक ित ा क - इन तीन बल इ छाओं ने िकसक बुि को मिलन
नह कर िदया (िबगाड़ नह िदया)?

यह सब माया कर प रवारा। बल अिमित को बरनै पारा॥


िसव चतरु ानन जािह डेराह । अपर जीव केिह लेखे माह ॥

यह सब माया का बड़ा बलवान प रवार है। यह अपार है, इसका वणन कौन कर सकता है? िशव
और ा भी िजससे डरते ह, तब दूसरे जीव तो िकस िगनती म ह?

दो० - यािप रहेउ संसार महँ माया कटक चंड।


सेनापित कामािद भट दंभ कपट पाषंड॥ 71(क)॥

माया क चंड सेना संसार भर म छाई हई है। कामािद (काम, ोध और लोभ) उसके सेनापित ह
और दंभ, कपट और पाखंड यो ा ह॥ 71(क)॥

सो दासी रघबु ीर कै समझ


ु िम या सोिप।
छूट न राम कृपा िबनु नाथ कहउँ पद रोिप॥ 71(ख)॥

वह माया रघुवीर क दासी है। य िप समझ लेने पर वह िम या ही है, िकंतु वह राम क कृपा के
िबना छूटती नह । हे नाथ! यह म ित ा करके कहता हँ॥ 71(ख)॥

जो माया सब जगिह नचावा। जासु च रत लिख काहँ न पावा॥


सोइ भु ू िबलास खगराजा। नाच नटी इव सिहत समाजा॥

जो माया सारे जगत को नचाती है और िजसका च र (करनी) िकसी ने नह लख पाया, हे


खगराज ग ड़! वही माया भु राम क भक ृ ु टी के इशारे पर अपने समाज (प रवार) सिहत नटी
क तरह नाचती है।

सोइ सि चदानंद घन रामा। अज िब यान प बल धामा॥


यापक या य अखंड अनंता। अिकल अमोघसि भगवंता॥

राम वही सि चदानंदघन ह जो अज मे, िव ान व प, प और बल के धाम, सव यापक एवं


या य (सव प), अखंड, अनंत, संपण
ू , अमोघशि (िजसक शि कभी यथ नह होती) और
छह ऐ य से यु भगवान ह।

अगनु अद िगरा गोतीता। सबदरसी अनव अजीता॥


िनमम िनराकार िनरमोहा। िन य िनरं जन सख
ु संदोहा॥

वे िनगुण (माया के गुण से रिहत), महान, वाणी और इंि य से परे , सब कुछ देखनेवाले, िनद ष,
अजेय, ममतारिहत, िनराकार, मोहरिहत, िन य, मायारिहत, सुख क रािश,

कृित पार भु सब उर बासी। िनरीह िबरज अिबनासी॥


इहाँ मोह कर कारन नाह । रिब स मख
ु त#2350; कबहँ िक जाह ॥

कृित से परे , भु (सवसमथ), सदा सबके दय म बसनेवाले, इ छारिहत िवकाररिहत,


अिवनाशी ू के
ह। यहाँ (राम म) मोह का कारण ही नह है। या अंधकार का समहू कभी सय
सामने जा सकता है?

दो० - भगत हेतु भगवान भु राम धरे उ तनु भूप।


िकए च रत पावन परम ाकृत नर अनु प॥ 72(क)॥

भगवान भु राम ने भ के िलए राजा का शरीर धारण िकया और साधारण मनु य के-से
अनेक परम पावन च र िकए॥ 72(क)॥

जथा अनेक बेष ध र न ृ य करइ नट कोइ।


सोइ सोइ भाव देखावइ आपन ु होइ न सोइ॥ 72(ख)॥

जैसे कोई नट (खेल करनेवाला) अनेक वेष धारण करके न ृ य करता है, और वही-वही (जैसा वेष
होता है, उसी के अनुकूल) भाव िदखलाता है, पर वयं वह उनम से कोई हो नह जाता,॥
72(ख)॥

अिस रघपु ित लीला उरगारी। दनज


ु िबमोहिन जन सख
ु कारी॥
जे मित मिलन िबषय बस कामी। भु पर मोह धरिहं इिम वामी॥

हे ग ड़! ऐसी ही रघुनाथ क यह लीला है, जो रा स को िवशेष मोिहत करनेवाली और भ


को सुख देनेवाली है। हे वामी! जो मनु य मिलन बुि , िवषय के वश और कामी ह, वे ही भु
पर इस कार मोह का आरोप करते ह।

नयन दोष जा कहँ जब होई। पीत बरन सिस कहँ कह सोई॥


जब जेिह िदिस म होई खगेसा। सो कह पि छम उयउ िदनेसा॥

जब िकसी को ने -दोष होता है, तब वह चं मा को पीले रं ग का कहता है। हे प ीराज! जब िजसे


िदशा म होता है, तब वह कहता है िक सय
ू पि म म उदय हआ है।

नौका ढ़ चलत जग देखा। अचल मोह बस आपिु ह लेखा॥


बालक मिहं न मिहं गहृ ादी। कहिहं पर पर िम याबादी॥

नौका पर चढ़ा हआ मनु य जगत को चलता हआ देखता है और मोहवश अपने को अचल


समझता है। बालक घम
ू ते (च ाकार दौड़ते) ह, घर आिद नह घम
ू ते। पर वे आपस म एक-दूसरे
को झठ
ू ा कहते ह।

ह र िबषइक अस मोह िबहंगा। सपनेहँ निहं अ यान संगा॥


माया बस मितमंद अभागी। दयँ जमिनका बहिबिध लागी॥

हे ग ड़! ह र के िवषय म मोह क क पना भी ऐसी ही है, भगवान म तो व न म भी अ ान का


संग (अवसर) नह है, िकंतु जो माया के वश, मंद बुि और भा यहीन ह और िजनके दय पर
अनेक कार के परदे पड़े ह।

ते सठ हठ बस संसय करह । िनज अ यान राम पर धरह ॥

ू हठ के वश होकर संदेह करते ह और अपना अ ान राम पर आरोिपत करते ह।


वे मख

दो० - काम ोध मद लोभ रत गहृ ास दख ु प।


ते िकिम जानिहं रघप
ु ितिह मूढ़ परे तम कूप॥ 73(क)॥

जो काम, ोध, मद और लोभ म रत ह और दुःख प घर म आस ह, वे रघुनाथ को कैसे जान


सकते ह? वे मख
ू तो अंधकार पी कुएँ म पड़े हए ह॥ 73(क)॥
िनगनु प सल
ु भ अित सगन ु जान निहं कोई।
सगु म अगम नाना च रत सिु न मिु न मन म होई॥ 73(ख)॥

िनगुण प अ यंत सुलभ (सहज ही समझ म आ जानेवाला) है, परं तु (गुणातीत िद य) सगुण प
को कोई नह जानता। इसिलए उन सगुण भगवान के अनेक कार के सुगम और अगम च र
को सुनकर मुिनय के भी मन को म हो जाता है॥ 73(ख)॥

सनु ु खगेस रघप


ु ित भत
ु ाई। कहउँ जथामित कथा सहु ाई॥
जेिह िबिध मोह भयउ भु मोही। सोउ सब कथा सन
ु ावउँ तोही॥

हे प ीराज ग ड़! रघुनाथ क भुता सुिनए। म अपनी बुि के अनुसार वह सुहावनी कथा


कहता हँ। हे भो! मुझे िजस कार मोह हआ, वह सब कथा भी आपको सुनाता हँ।

राम कृपा भाजन तु ह ताता। ह र गन ु ीित मोिह सख


ु दाता॥
ताते निहं कछु तु हिह दरु ावउँ । परम रह य मनोहर गावउँ ॥

हे तात! आप राम के कृपा पा ह। ह र के गुण म आपक ीित है, इसीिलए आप मुझे सुख
देनेवाले ह। इसी से म आप से कुछ भी नह िछपाता और अ यंत रह य क बात आपको गाकर
सुनाता हँ।

सनु ह राम कर सहज सभु ाऊ। जन अिभमान न राखिहं काऊ॥


संसतृ मूल सूल द नाना। सकल सोक दायक अिभमाना॥

राम का सहज वभाव सुिनए। वे भ म अिभमान कभी नह रहने देते। य िक अिभमान ज म-


ू है और अनेक कार के लेश तथा सम त शोक का देनेवाला है।
मरण प संसार का मल

ताते करिहं कृपािनिध दूरी। सेवक पर ममता अित भूरी॥


िजिम िससु तन न होई गोसाई ं। मातु िचराव किठन क नाई ं॥

इसीिलए कृपािनिध उसे दूर कर देते ह; य िक सेवक पर उनक बहत ही अिधक ममता है। हे
गोसाई ं! जैसे ब चे के शरीर म फोड़ा हो जाता है, तो माता उसे कठोर हदय क भाँित िचरा डालती
है।

दो० - जदिप थम दखु पावइ रोवइ बाल अधीर।


यािध नास िहत जननी गनित न सो िससु पीर॥ 74(क)॥

य िप ब चा पहले (फोड़ा िचराते समय) दुःख पाता है और अधीर होकर रोता है, तो भी रोग के
नाश के िलए माता ब चे क उस पीड़ा को कुछ भी नह िगनती (उसक परवाह नह करती और
फोड़े को िचरवा ही डालती है)॥ 74(क)॥
ितिम रघपु ित िनज दास कर हरिहं मान िहत लािग।
तलु िसदास ऐसे भिु ह कस न भजह म यािग॥ 74(ख)॥

उसी कार रघुनाथ अपने दास का अिभमान उसके िहत के िलए हर लेते ह। तुलसीदास कहते ह
िक ऐसे भु को म यागकर य नह भजते॥ 74(ख)॥

राम कृपा आपिन जड़ताई। कहउँ खगेस सनु ह मन लाई॥


जब जब राम मनजु तनु धरह । भ हेतु लीला बह करह ॥

हे प ीराज ग ड़! राम क कृपा और अपनी जड़ता (मख ू ता) क बात कहता हँ, मन लगाकर
सुिनए। जब-जब राम मनु य शरीर धारण करते ह और भ के िलए बहत-सी लीलाएँ करते ह।

तब तब अवधपरु ी म जाऊँ। बालच रत िबलोिक हरषाऊँ॥


ज म महो सव देखउँ जाई। बरष पाँच तहँ रहउँ लोभाई॥

तब-तब म अयो यापुरी जाता हँ और उनक बाल लीला देखकर हिषत होता हँ। वहाँ जाकर म
ज म महो सव देखता हँ और (भगवान क िशशु लीला म) लुभाकर पाँच वष तक वह रहता हँ।

इ देव मम बालक रामा। सोभा बपष ु कोिट सत कामा॥


िनज भु बदन िनहा र िनहारी। लोचन सफु ल करउँ उरगारी॥

बालक प राम मेरे इ देव ह, िजनके शरीर म अरब कामदेव क शोभा है। हे ग ड़! अपने भु
का मुख देख-देखकर म ने को सफल करता हँ।

लघु बायस बपु ध र ह र संगा। देखउँ बालच रत बह रं गा॥

छोटे-से कौए का शरीर धरकर और भगवान के साथ-साथ िफरकर म उनके भाँित-भाँित के बाल
च र को देखा करता हँ।

दो० - ल रकाई ं जहँ जहँ िफरिहं तहँ तहँ संग उड़ाउँ ।


जूठिन परइ अिजर महँ सो उठाई क र खाउँ ॥ 75(क)॥

लड़कपन म वे जहाँ-जहाँ िफरते ह, वहाँ-वहाँ म साथ-साथ उड़ता हँ और आँगन म उनक जो


जठ
ू न पड़ती है, वही उठाकर खाता हँ॥ 75(क)॥

एक बार अितसय सब च रत िकए रघब ु ीर।


सिु मरत भु लीला सोइ पल
ु िकत भयउ सरीर॥ 75(ख)॥
एक बार रघुवीर ने सब च र बहत अिधकता से िकए। भु क उस लीला का मरण करते ही
काकभुशुंिड का शरीर ( ेमानंदवश) पुलिकत हो गया॥ 75(ख)॥

कहइ भसंडु सन ु ह खगनायक। राम च रत सेवक सख


ु दायक॥
नप
ृ मंिदर संदु र सब भाँती। खिचत कनक मिन नाना जाती॥

भुशुंिड कहने लगे - हे प ीराज! सुिनए, राम का च र सेवक को सुख देनेवाला है। (अयो या
का) राजमहल सब कार से सुंदर है। सोने के महल म नाना कार के र न जड़े हए ह।

बरिन न जाइ िचर अँगनाई। जहँ खेलिहं िनत चा रउ भाई॥


बाल िबनोद करत रघरु ाई। िबचरत अिजर जनिन सखु दाई॥

संुदर आँगन का वणन नह िकया जा सकता, जहाँ चार भाई िन य खेलते ह। माता को सुख
देनेवाले बालिवनोद करते हए रघुनाथ आँगन म िवचर रहे ह।

मरकत मदृ ल
ु कलेवर यामा। अंग अंग ित छिब बह कामा॥
नव राजीव अ न मदृ ु चरना। पदज िचर नख सिस दिु त हरना॥

मरकत मिण के समान ह रताभ याम और कोमल शरीर है। अंग-अंग म बहत-से कामदेव क
शोभा छाई हई है। नवीन (लाल) कमल के समान लाल-लाल कोमल चरण ह। संुदर अँगुिलयाँ ह
और नख अपनी योित से चं मा क कांित को हरनेवाले ह।

लिलत अंक कुिलसािदक चारी। नूपरु चा मधरु रवकारी॥


चा परु ट मिन रिचत बनाई। किट िकंिकिन कल मखु र सहु ाई॥

(तलवे म) व ािद (व , अंकुश, वजा और कमल) के चार सुंदर िच ह, चरण म मधुर श द


करनेवाले सुंदर नपू ुर ह, मिणय , र न से जड़ी हई सोने क बनी हई सुंदर करधनी का श द
सुहावना लग रहा है।

दो० - रे खा य संदु र उदर नाभी िचर गँभीर।


उर आयत ाजत िबिबिध बाल िबभूषन चीर॥ 76॥

उदर पर सुंदर तीन रे खाएँ (ि वली) ह, नािभ सुंदर और गहरी है। िवशाल व थल पर अनेक
कार के ब च के आभषू ण और व सुशोिभत ह॥ 76॥

अ न पािन नख करज मनोहर। बाह िबसाल िबभूषन संदु र॥


कंध बाल केह र दर ीवा। चा िचबक
ु आनन छिब स वा॥

लाल-लाल हथेिलयाँ, नख और अँगुिलयाँ मन को हरनेवाले ह और िवशाल भुजाओं पर सुंदर


आभषू ण ह। बालिसंह (िसंह के ब चे) के-से कंधे और शंख के समान (तीन रे खाओं से यु ) गला
है। सुंदर ठुड्डी है और मुख तो छिव क सीमा ही है।

कलबल बचन अधर अ नारे । दइु दइु दसन िबसद बर बारे ॥


लिलत कपोल मनोहर नासा। सकल सख ु द सिस कर सम हासा॥

कलबल (तोतले) वचन ह, लाल-लाल ओंठ ह। उ वल, सुंदर और छोटी-छोटी (ऊपर और नीचे)
दो-दो दंतुिलयाँ ह। सुंदर गाल, मनोहर नािसका और सब सुख को देनेवाली चं मा क (अथवा
सुख देनेवाली सम त कलाओं से पण ू चं मा क ) िकरण के समान मधुर मुसकान है।

नील कंज लोचन भव मोचन। ाजत भाल ितलक गोरोचन॥


िबकट भकृ ु िट सम वन सहु ाए। कंु िचत कच मेचक छिब छाए॥

नीले कमल के समान ने ज म-म ृ यु (के बंधन) से छुड़ानेवाले ह। ललाट पर गोरोचन का


ितलक सुशोिभत है। भ ह टेढ़ी ह, कान सम और सुंदर ह, काले और घँुघराले केश क छिव छा
रही है।

पीत झीिन झगलु ी तन सोही। िकलकिन िचतविन भावित मोही॥


प रािस नप
ृ अिजर िबहारी। नाचिहं िनज ितिबंब िनहारी॥

पीली और महीन झँगुली शरीर पर शोभा दे रही है। उनक िकलकारी और िचतवन मुझे बहत ही
ि य लगती है। राजा दशरथ के आँगन म िवहार करनेवाले प क रािश राम अपनी परछाह
देखकर नाचते ह,

मोिह सन करिहं िबिबिध िबिध ड़ा। बरनत मोिह होित अित ीड़ा॥
िकलकत मोिह धरन जब धाविहं। चलउँ भािग तब पूप देखाविहं॥

और मुझसे बहत कार के खेल करते ह, िजन च र का वणन करते मुझे ल जा आती है!
िकलकारी मारते हए जब वे मुझे पकड़ने दौड़ते और म भाग चलता, तब मुझे पआ
ू िदखलाते थे।

दो० - आवत िनकट हँसिहं भु भाजत दन करािहं।


जाऊँ समीप गहन पद िफ र िफ र िचतइ परािहं॥ 77(क)॥

मेरे िनकट आने पर भु हँसते ह और भाग जाने पर रोते ह और जब म उनका चरण पश करने
के िलए पास जाता हँ, तब वे पीछे िफर-िफरकर मेरी ओर देखते हए भाग जाते ह॥ 77(क)॥

ाकृत िससु इव लीला देिख भयउ मोिह मोह।


कवन च र करत भु िचदानंद संदोह॥ 77(ख)॥
साधारण ब च -जैसी लीला देखकर मुझे मोह (शंका) हआ िक सि चदानंदघन भु यह कौन
(मह व का) च र (लीला) कर रहे ह॥ 77(ख)॥

एतना मन आनत खगराया। रघप ु ित े रत यापी माया॥


सो माया न दख
ु द मोिह काह । आन जीव इव संसतृ नाह ॥

हे प ीराज! मन म इतनी (शंका) लाते ही रघुनाथ के ारा े रत माया मुझ पर छा गई। परं तु वह
माया न तो मुझे दुःख देनेवाली हई और न दूसरे जीव क भाँित संसार म डालनेवाली हई।

नाथ इहाँ कछु कारन आना। सन


ु ह सो सावधान ह रजाना॥
यान अखंड एक सीताबर। माया ब य जीव सचराचर॥

हे नाथ! यहाँ कुछ दूसरा ही कारण है। हे भगवान के वाहन ग ड़! उसे सावधान होकर सुिनए।
एक सीतापित राम ही अखंड ान व प ह और जड़-चेतन सभी जीव माया के वश ह।

ज सब क रह यान एकरस। ई वर जीविह भेद कहह कस॥


माया ब य जीव अिभमानी। ईस ब य माया गन
ु खानी॥

यिद जीव को एकरस (अखंड) ान रहे , तो किहए, िफर ई र और जीव म भेद ही कैसा?
अिभमानी जीव माया के वश है और वह (स व, रज, तम - इन) तीन गुण क खान माया ई र
के वश म है।

परबस जीव वबस भगवंता। जीव अनेक एक ीकंता॥


मध
ु ा भेद ज िप कृत माया। िबनु ह र जाइ न कोिट उपाया॥

जीव परतं है, भगवान वतं ह; जीव अनेक ह, ीपित भगवान एक ह। य िप माया का िकया
हआ यह भेद असत् है तथािप वह भगवान के भजन िबना करोड़ उपाय करने पर भी नह जा
सकता।

दो० - रामचं के भजन िबनु जो चह पद िनबान।


यानवंत अिप सो नर पसु िबनु पूँछ िबषान॥ 78(क)॥

रामचं के भजन िबना जो मो पद चाहता है, वह मनु य ानवान होने पर भी िबना पँछ
ू और
स ग का पशु है॥ 78(क)॥

राकापित षोड़स उअिहं तारागन समदु ाइ।


सकल िग र ह दव लाइअ िबनु रिब राित न जाइ॥ 78(ख)॥

सभी तारागण के साथ सोलह कलाओं से पण


ू चं मा उदय हो और िजतने पवत ह उन सब म
ू के उदय हए िबना राि नह जा सकती॥ 78(ख)॥
दावाि न लगा दी जाए, तो भी सय

ऐसेिहं ह र िबनु भजन खगेसा। िमटइ न जीव ह केर कलेसा॥


ह र सेवकिह न याप अिब ा। भु े रत यापइ तेिह िब ा॥

हे प ीराज! इसी कार ह र के भजन िबना जीव का लेश नह िमटता। ह र के सेवक को


अिव ा नह यापती। भु क ेरणा से उसे िव ा यापती है।

ताते नास न होइ दास कर। भेद भगित बाढ़इ िबहंगबर॥


म त चिकत राम मोिह देखा। िबहँसे सो सन
ु ु च रत िबसेषा॥

हे प ी े ! इससे दास का नाश नह होता और भेद-भि बढ़ती है। राम ने मुझे जब म से


चिकत देखा, तब वे हँसे। वह िवशेष च र सुिनए।

तेिह कौतकु कर मरमु न काहँ। जाना अनज


ु न मातु िपताहँ॥
जानु पािन धाए मोिह धरना। यामल गात अ न कर चरना॥

उस खेल का मम िकसी ने नह जाना, न छोटे भाइय ने और न माता-िपता ने ही। वे याम शरीर


और लाल-लाल हथेली और चरणतलवाले बाल प राम घुटने और हाथ के बल मुझे पकड़ने को
दौड़े ।

तब म भािग चलेउँ उरगारी। राम गहन कहँ भज ु ा पसारी॥


िजिम िजिम दू र उड़ाउँ अकासा। तहँ भज
ु ह र देखउँ िनज पासा॥

हे सप के श ु ग ड़! तब म भाग चला। राम ने मुझे पकड़ने के िलए भुजा फै लाई। म जैसे-जैसे


आकाश म दूर उड़ता, वैसे-वैसे ही वहाँ ह र क भुजा को अपने पास देखता था।

दो० - लोक लिग गयउँ म िचतयउँ पाछ उड़ात।


जुग अंगल
ु कर बीच सब राम भजु िह मोिह तात॥ 79(क)॥

म लोक तक गया और जब उड़ते हए मने पीछे क ओर देखा, तो हे तात! राम क भुजा म


और मुझम केवल दो ही अंगुल क दूरी थी॥ 79(क)॥

स ाबरन भेद क र जहाँ लग गित मो र।


गयउँ तहाँ भु भज
ु िनरिख याकुल भयउँ बहो र॥ 79(ख)॥

सात आवरण को भेदकर जहाँ तक मेरी गित थी वहाँ तक म गया। पर वहाँ भी भु क भुजा को
(अपने पीछे ) देखकर म याकुल हो गया॥ 79(ख)॥111
मूदउे ँ नयन िसत जब भयउँ । पिु न िचतवत कोसलपरु गयऊँ॥
मोिह िबलोिक राम मस
ु क
ु ाह । िबहँसत तरु त गयउँ मख
ु माह ॥

जब म भयभीत हो गया, तब मने आँख मँदू ल । िफर आँख खोलकर देखते ही अवधपुरी म पहँच
गया। मुझे देखकर राम मुसकराने लगे। उनके हँसते ही म तुरंत उनके मुख म चला गया।

उदर माझ सन
ु ु अंडज राया। देखउँ बह ांड िनकाया॥
अित िबिच तहँ लोक अनेका। रचना अिधक एक ते एका॥

हे प ीराज! सुिनए, मने उनके पेट म बहत-से ांड के समहू देखे। वहाँ (उन ांड म)
अनेक िविच लोक थे, िजनक रचना एक-से-एक क बढ़कर थी।

कोिट ह चतरु ानन गौरीसा। अगिनत उडगन रिब रजनीसा॥


अगिनत लोकपाल जम काला। अगिनत भूधर भूिम िबसाला॥

करोड़ ा और िशव, अनिगनत तारागण, सय


ू और चं मा, अनिगनत लोकपाल, यम और
काल, अनिगनत िवशाल पवत और भिू म,

सागर स र सर िबिपन अपारा। नाना भाँित सिृ िब तारा॥


सरु मिु न िस नाग नर िकंनर। चा र कार जीव सचराचर॥

असं य समु , नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना कार क सिृ का िव तार देखा।
देवता, मुिन, िस , नाग, मनु य, िक नर तथा चार कार के जड़ और चेतन जीव देखे।

दो० - जो निहं देखा निहं सन


ु ा जो मनहँ न समाइ।
सो सब अ त ु देखउे ँ बरिन कविन िबिध जाइ॥ 80(क)॥

जो कभी न देखा था, न सुना था और जो मन म भी नह समा सकता था (अथात िजसक


क पना भी नह क जा सकती थी), वही सब अ ुत सिृ मने देखी। तब उसका िकस कार
वणन िकया जाए!॥ 80(क)॥

एक एक ांड महँ रहउँ बरष सत एक।


एिह िबिध देखत िफरउँ म अंड कटाह अनेक॥ 80(ख)॥

म एक-एक ांड म एक-एक सौ वष तक रहता। इस कार म अनेक ांड देखता िफरा॥


80(ख)॥

लोक लोक ित िभ न िबधाता। िभ न िब नु िसव मनु िदिस ाता॥


नर गंधब भूत बेताला। िकंनर िनिसचर पसु खग याला॥
येक लोक म िभ न-िभ न ा, िभ न-िभ न िव णु, िशव, मनु, िद पाल, मनु य, गंधव, भत
ू ,
वैताल, िक नर, रा स, पशु, प ी, सप,

देव दनज
ु गन नाना जाती। सकल जीव तहँ आनिह भाँती॥
मिह स र सागर सर िग र नाना। सब पंच तहँ आनइ आना॥

तथा नाना जाित के देवता एवं दै यगण थे। सभी जीव वहाँ दूसरे ही कार के थे। अनेक प ृ वी,
नदी, समु , तालाब, पवत तथा सब सिृ वहाँ दूसरी-ही-दूसरी कार क थी।

अंडकोस ित ित िनज पा। दाखेउँ िजनस अनेक अनूपा॥


अवधपरु ी ित भव
ु न िननारी। सरजू िभ न िभ न नर नारी॥

येक ांड म मने अपना प देखा तथा अनेक अनुपम व तुएँ देख । येक भुवन म यारी
ही अवधपुरी, िभ न ही सरयू और िभ न कार के ही नर-नारी थे।

दसरथ कौस या सन ु ु ताता। िबिबध प भरतािदक ाता॥


ित ांड राम अवतारा। देखउँ बालिबनोद अपारा॥

हे तात! सुिनए, दशरथ, कौस या और भरत आिद भाई भी िभ न-िभ न प के थे। म येक
ांड म रामावतार और उनक अपार बाल लीलाएँ देखता िफरता।

दो० - िभ न िभ न म दीख सबु अित िबिच ह रजान।


अगिनत भव ु न िफरे उँ भु राम न देखउे ँ आन॥ 81(क)॥

हे ह रवाहन! मने सभी कुछ िभ न-िभ न और अ यंत िविच देखा। म अनिगनत ांड म
िफरा, पर भु राम को मने दूसरी तरह का नह देखा॥ 81(क)॥

सोइ िससपु न सोइ सोभा सोइ कृपाल रघब


ु ीर।
भव ु न देखत िफरउँ े रत मोह समीर॥ 81(ख)॥
ु न भव

सव वही िशशुपन, वही शोभा और वही कृपालु रघुवीर! इस कार मोह पी पवन क ेरणा से म
भुवन-भुवन म देखता-िफरता था॥ 81(ख)॥

मत मोिह ांड अनेका। बीते मनहँ क प सत एका॥


िफरत िफरत िनज आ म आयउँ । तहँ पिु न रिह कछु काल गवाँयउँ ॥

अनेक ांड म भटकते मुझे मानो एक सौ क प बीत गए। िफरता-िफरता म अपने आ म म


आया और कुछ काल वहाँ रहकर िबताया।
े हरिष उिठ धायउँ ॥
िनज भु ज म अवध सिु न पायउँ । िनभर म
देखउँ ज म महो सव जाई। जेिह िबिध थम कहा म गाई॥

िफर जब अपने भु का अवधपुरी म ज म (अवतार) सुन पाया, तब ेम से प रपण


ू होकर म
हषपवू क उठ दौड़ा। जाकर मने ज म महो सव देखा, िजस कार म पहले वणन कर चुका हँ।

राम उदर देखउे ँ जग नाना। देखत बनइ न जाइ बखाना॥


तहँ पिु न देखउे ँ राम सज
ु ाना। माया पित कृपाल भगवाना॥

राम के पेट म मने बहत-से जगत देखे, जो देखते ही बनते थे, वणन नह िकए जा सकते। वहाँ
िफर मने सुजान माया के वामी कृपालु भगवान राम को देखा।

करउँ िबचार बहो र बहोरी। मोह किलल यािपत मित मोरी॥


उभय घरी महँ म सब देखा। भयउँ िमत मन मोह िबसेषा॥

म बार-बार िवचार करता था। मेरी बुि मोह पी क चड़ से या थी। यह सब मने दो ही घड़ी म
देखा। मन म िवशेष मोह होने से म थक गया।

दो० - देिख कृपाल िबकल मोिह िबहँसे तब रघब


ु ीर।
िबहँसतह मख ु बाहेर आयउँ सन
ु ु मितधीर॥ 82(क)॥

मुझे याकुल देखकर तब कृपालु रघुवीर हँस िदए। हे धीर-बुि ग ड़! सुिनए, उनके हँसते ही म
मँुह से बाहर आ गया॥ 82(क)॥

सोइ ल रकाई मो सन करन लगे पिु न राम।


कोिट भाँित समझ
ु ावउँ मनु न लहइ िब ाम॥ 82(ख)॥

राम मेरे साथ िफर वही लड़कपन करने लगे। म करोड़ (असं य) कार से मन को समझाता
था, पर वह शांित नह पाता था॥ 82(ख)॥

देिख च रत यह सो भत ु ाई। समझ


ु त देह दसा िबसराई॥
धरिन परे उँ मख
ु आव न बाता। ािह ािह आरत जन ाता॥

यह (बाल) च र देखकर और पेट के अंदर (देखी हई) उस भुता का मरण कर म शरीर क


ू गया और ‘हे आतजन के र क! र ा क िजए, र ा क िजए’ पुकारता हआ प ृ वी पर
सुध भल
िगर पड़ा। मुख से बात नह िनकलती थी।

े ाकुल भु मोिह िबलोक । िनज माया भत


म ु ा तब रोक ॥
कर सरोज भु मम िसर धरे ऊ। दीनदयाल सकल दख ु हरे ऊ॥
तदनंतर भु ने मुझे ेमिव ल देखकर अपनी माया क भुता ( भाव) को रोक िलया। भु ने
अपना करकमल मेरे िसर पर रखा। दीनदयालु ने मेरे संपण
ू दुःख हर िलए।

क ह राम मोिह िबगत िबमोहा। सेवक सख ु द कृपा संदोहा॥


भत
ु ा थम िबचा र िबचारी। मन महँ होइ हरष अित भारी॥

सेवक को सुख देनेवाले, कृपा के समहू (कृपामय) राम ने मुझे मोह से सवथा रिहत कर िदया।
उनक पहलेवाली भुता को िवचार-िवचारकर (याद कर-करके) मेरे मन म बड़ा भारी हष हआ।

भगत बछलता भु कै देखी। उपजी मम उर ीित िबसेषी॥


सजल नयन पल
ु िकत कर जोरी। क ि हउँ बह िबिध िबनय बहोरी॥

भु क भ व सलता देखकर मेरे दय म बहत ही ेम उ प न हआ। िफर मने (आनंद से) ने


म जल भरकर, पुलिकत होकर और हाथ जोड़कर बहत कार से िवनती क ।

े मम बानी देिख दीन िनज दास।


दो० - सिु न स म
बचन सख ु द गंभीर मदृ ु बोले रमािनवास॥ 83(क)॥

मेरी ेमयु वाणी सुनकर और अपने दास को दीन देखकर रमािनवास राम सुखदायक, गंभीर
और कोमल वचन बोले - ॥ 83(क)॥

काकभसंिु ड मागु बर अित स न मोिह जािन।


अिनमािदक िसिध अपर रिध मो छ सकल सख ु खािन॥ 83(ख)॥

हे काकभुशुंिड! तू मुझे अ यंत स न जानकर वर माँग। अिणमा आिद अ िसि याँ, दूसरी
ऋि याँ तथा संपण ू सुख क खान मो ,॥ 83(ख)॥

यान िबबेक िबरित िब याना। मिु न दलु भ गनु जे जग नाना॥


आजु देउँ सब संसय नाह । मागु जो तोिह भाव मन माह ॥

ान, िववेक, वैरा य, िव ान, (त व ान) और वे अनेक गुण जो जगत म मुिनय के िलए भी
दुलभ ह, ये सब म आज तुझे दँूगा, इसम संदेह नह । जो तेरे मन भाए, सो माँग ले।

सिु न भु बचन अिधक अनरु ागेउँ। मन अनम


ु ान करन तब लागेउँ॥
भु कह देन सकल सखु सही। भगित आपनी देन न कही॥

भु के वचन सुनकर म बहत ही ेम म भर गया। तब मन म अनुमान करने लगा िक भु ने सब


सुख के देने क बात कही, यह तो स य है; पर अपनी भि देने क बात नह कही।
भगित हीन गन ु ऐसे। लवन िबना बह िबंजन जैस॥े
ु सब सख
भजन हीन सखु कवने काजा। अस िबचा र बोलेउँ खगराजा॥

भि से रिहत सब गुण और सब सुख वैसे ही (फ के) ह जैसे नमक के िबना बहत कार के
भोजन के पदाथ। भजन से रिहत सुख िकस काम के? हे प ीराज! ऐसा िवचार कर म बोला -

ज भु होइ स न बर देह। मो पर करह कृपा अ नेह॥


मन भावत बर मागउँ वामी। तु ह उदार उर अंतरजामी॥

हे भो! यिद आप स न होकर मुझे वर देते ह और मुझ पर कृपा और नेह करते ह, तो हे


वामी! म अपना मन-भाया वर माँगता हँ। आप उदार ह और दय के भीतर क जाननेवाले ह।

दो० - अिबरल भगित िबसु तव िु त परु ान जो गाव।


जेिह खोजत जोगीस मिु न भु साद कोउ पाव॥ 84(क)॥

आपक िजस अिवरल ( गाढ़) एवं िवशु (अन य िन काम) भि को ुित और पुराण गाते ह,
िजसे योगी र मुिन खोजते ह और भु क कृपा से कोई िवरला ही िजसे पाता है॥ 84(क)॥

भगत क पत नत िहत कृपा िसंधु सख ु धाम।


सोइ िनज भगित मोिह भु देह दया क र राम॥ 84(ख)॥

हे भ के (मन-इि छत फल देनेवाले) क पव ृ ! हे शरणागत के िहतकारी! हे कृपासागर! हे


सुखधान राम! दया करके मुझे अपनी वही भि दीिजए॥ 84(ख)॥

एवम तु किह रघकु ु लनायक। बोले बचन परम सख


ु दायक॥
सन
ु ु बायस त सहज सयाना। काहे न मागिस अस बरदाना॥

'एवम तु' (ऐसा ही हो) कहकर रघुवंश के वामी परम सुख देनेवाले वचन बोले - हे काक! सुन,
तू वभाव से ही बुि मान है। ऐसा वरदान कैसे न माँगता?

सब सख ु खािन भगित त मागी। निहं जग कोउ तोिह सम बड़भागी॥


जो मिु न कोिट जतन निहं लहह । जे जप जोग अनल तन दहह ॥

ू े सब सुख क खान भि माँग ली, जगत म तेरे समान बड़भागी कोई नह है। वे मुिन जो
तन
जप और योग क अि न से शरीर जलाते रहते ह, करोड़ य न करके भी िजसको (िजस भि
को) नह पाते।

रीझेउँ देिख तो र चतरु ाई। मागेह भगित मोिह अित भाई॥


सनु ु िबहंग साद अब मोर। सब सभ ु गनु बिसहिहं उर तोर॥
वही भि तन ू े माँगी। तेरी चतुराई देखकर म रीझ गया। यह चतुराई मुझे बहत ही अ छी लगी। हे
प ी! सुन, मेरी कृपा से अब सम त शुभ गुण तेरे दय म बसगे।

भगित यान िब यान िबरागा। जोग च र रह य िबभागा॥


जानब त सबही कर भेदा। मम साद निहं साधन खेदा॥

भि , ान, िव ान, वैरा य, योग, मेरी लीलाएँ और उनके रह य तथा िवभाग - इन सबके भेद
को तू मेरी कृपा से ही जान जाएगा। तुझे साधन का क नह होगा।

दो० - माया संभव म सब अब न यािपहिहं तोिह।


जानेसु अनािद अज अगन
ु गन
ु ाकर मोिह॥ 85(क)॥

माया से उ प न सब म अब तुझको नह यापगे। मुझे अनािद, अज मा, अगुण ( कृित के गुण


से रिहत) और (गुणातीत िद य) गुण क खान जानना॥ 85(क)॥

मोिह भगत ि य संतत अस िबचा र सन


ु ु काग।
कायँ बचन मन मम पद करे सु अचल अनरु ाग॥ 85(ख)॥

हे काक! सुन, मुझे भ िनरं तर ि य ह, ऐसा िवचार कर शरीर, वचन और मन से मेरे चरण म
अटल ेम करना॥ 85(ख)॥

अब सनु ु परम िबमल मम बानी। स य सग ु म िनगमािद बखानी॥


िनज िस ांत सन ु ावउँ तोही। सन
ु ु मन ध सब तिज भजु मोही॥

अब मेरी स य, सुगम, वेदािद के ारा विणत परम िनमल वाणी सुन। म तुझको यह 'िनज िस ांत'
सुनाता हँ। सुनकर मन म धारण कर और सब तजकर मेरा भजन कर।

मम माया संभव संसारा। जीव चराचर िबिबिध कारा॥


सब मम ि य सब मम उपजाए। सब ते अिधक मनज ु मोिह भाए॥

यह सारा संसार मेरी माया से उ प न है। (इसम) अनेक कार के चराचर जीव ह। वे सभी मुझे
ि य ह; य िक सभी मेरे उ प न िकए हए ह। (िकंतु) मनु य मुझको सबसे अिधक अ छे लगते ह।

ित ह महँ ि ज ि ज महँ ुितधारी। ित ह महँ िनगम धरम अनस


ु ारी॥
ित ह महँ ि य िबर पिु न यानी। यािनह ते अित ि य िब यानी॥

उन मनु य म ि ज, ि ज म भी वेद को (कंठ म) धारण करनेवाले, उनम भी वेदो धम पर


चलनेवाले, उनम भी िवर (वैरा यवान) मुझे ि य ह। वैरा यवान म िफर ानी और ािनय से
भी अ यंत ि य िव ानी ह।
ित ह ते पिु न मोिह ि य िनज दासा। जेिह गित मो र न दूस र आसा॥
पिु न पिु न स य कहउँ तोिह पाह । मोिह सेवक सम ि य कोउ नाह ॥

िव ािनय से भी ि य मुझे अपना दास है, िजसे मेरी ही गित (आ य) है, कोई दूसरी आशा नह है।
म तुझसे बार-बार स य ('िनज िस ांत') कहता हँ िक मुझे अपने सेवक के समान ि य कोई भी
नह है।

भगित हीन िबरं िच िकन होई। सब जीवह सम ि य मोिह सोई॥


भगितवंत अित नीचउ ानी। मोिह ानि य अिस मम बानी॥

भि हीन ा ही य न हो, वह मुझे सब जीव के समान ही ि य है। परं तु भि मान अ यंत


नीच भी ाणी मुझे ाण के समान ि य है, यह मेरी घोषणा है।

दो० - सिु च सस
ु ील सेवक सम
ु ित ि य कह कािह न लाग।
ुित परु ान कह नीित अिस सावधान सनु ु काग॥ 86॥

पिव , सुशील और सुंदर बुि वाला सेवक, बता, िकसको यारा नह लगता? वेद और पुराण ऐसी
ही नीित कहते ह। हे काक! सावधान होकर सुन॥ 86॥

एक िपता के िबपल
ु कुमारा। होिहं पथ
ृ क गन
ु सील अचारा॥
कोउ पंिडत कोउ तापस याता। कोउ धनवंत सूर कोउ दाता॥

एक िपता के बहत-से पु पथ
ृ क-पथृ क गुण, वभाव और आचरणवाले होते ह। कोई पंिडत होता
है, कोई तप वी, कोई ानी, कोई धनी, कोई शरू वीर, कोई दानी,

कोउ सब य धमरत कोई। सब पर िपतिह ीित सम होई॥


कोउ िपतु भगत बचन मन कमा। सपनेहँ जान न दूसर धमा॥

कोई सव और कोई धमपरायण होता है। िपता का ेम इन सभी पर समान होता है। परं तु इनम से
यिद कोई मन, वचन और कम से िपता का ही भ होता है, व न म भी दूसरा धम नह जानता,

सो सतु ि य िपतु ान समाना। ज िप सो सब भाँित अयाना॥


एिह िबिध जीव चराचर जेत।े ि जग देव नर असरु समेत॥े

वह पु िपता को ाण के समान ि य होता है, य िप (चाहे ) वह सब कार से अ ान (मख


ू ) ही
हो। इस कार ितयक (पशु-प ी), देव, मनु य और असुर समेत िजतने भी चेतन और जड़ जीव
ह,

अिखल िब व यह मोर उपाया। सब पर मोिह बराब र दाया॥


ित ह महँ जो प रह र मद माया। भजै मोिह मन बच अ काया॥

(उनसे भरा हआ) यह संपण ू िव मेरा ही पैदा िकया हआ है। अतः सब पर मेरी बराबर दया है,
परं तु इनम से जो मद और माया छोड़कर मन, वचन और शरीर से मुझको भजता है,

दो० - पु ष नपंस
ु क ना र वा जीव चराचर कोइ।
सब भाव भज कपट तिज मोिह परम ि य सोइ॥ 87(क)॥

वह पु ष हो, नपुंसक हो, ी हो अथवा चर-अचर कोई भी जीव हो, कपट छोड़कर जो भी
सवभाव से मुझे भजता है वही मुझे परम ि य है॥ 87(क)॥

सो० - स य कहउँ खग तोिह सिु च सेवक मम ानि य।


अस िबचा र भजु मोिह प रह र आस भरोस सब॥ 87(ख)॥

हे प ी! म तुझसे स य कहता हँ, पिव (अन य एवं िन काम) सेवक मुझे ाण के समान यारा
है। ऐसा िवचारकर सब आशा-भरोसा छोड़कर मुझी को भज॥ 87(ख)॥

कबहँ काल न यािपिह तोही। सिु मरे सु भजेसु िनरं तर मोही॥


भु बचनामत
ृ सिु न न अघाऊँ। तनु पल ु िकत मन अित हरषाऊँ॥

तुझे काल कभी नह यापेगा। िनरं तर मेरा मरण और भजन करते रहना। भे के वचनामत ृ
सुनकर म त ृ नह होता था। मेरा शरीर पुलिकत था और मन म म अ यंत ही हिषत हो रहा था।

सो सखु जानइ मन अ काना। निहं रसना पिहं जाइ बखाना॥


भु सोभा सख
ु जानिहं नयना। किह िकम सकिहं ित हिह निहं बयना॥

वह सुख मन और कान ही जानते ह। जीभ से उसका बखान नह िकया जा सकता। भु क


शोभा का वह सुख ने ही जानते ह। पर वे कह कैसे सकते ह? उनके वाणी तो है नह ।

बह िबिध मोिह बोिध सख


ु देई। लगे करन िससु कौतक
ु तेई॥
सजल नयन कछु मख ु क र खा। िचतई मातु लागी अित भूखा॥

मुझे बहत कार से भली-भाँित समझकर और सुख देकर भु िफर वही बालक के खेल करने
लगे। ने म जल भरकर और मुख को कुछ खा (-सा) बनाकर उ ह ने माता क ओर देखा -
(और मुखाकृित तथा िचतवन से माता को समझा िदया िक) बहत भख
ू लगी है।

देिख मातु आतरु उिठ धाई। किह मदृ ु बचन िलए उर लाई॥
गोद रािख कराव पय पाना। रघप ु ित च रत लिलत कर गाना॥
यह देखकर माता तुरंत उठ दौड़ और कोमल वचन कहकर उ ह ने राम को छाती से लगा िलया।
वे गोद म लेकर उ ह दूध िपलाने लग और रघुनाथ (उ ह ) क लिलत लीलाएँ गाने लग ।

सो० - जेिह सख
ु लाग परु ा र असभु बेष कृत िसव सख
ु द।
अवधपरु ी नर ना र तेिह सख
ु महँ संतत मगन॥ 88(क)॥

िजस सुख के िलए (सबको) सुख देनेवाले क याण प ि पुरा र िशव ने अशुभ वेष धारण िकया,
उस सुख म अवधपुरी के नर-नारी िनरं तर िनम न रहते ह॥ 88(क)॥

सोई सख ु लवलेस िज ह बारक सपनेहँ लहेउ।


ते निहं गनिहं खगेस सखु िह स जन सम ु ित॥ 88(ख)॥

उस सुख का लवलेशमा िज ह ने एक बार व न म भी ा कर िलया, हे प ीराज! वे संुदर


बुि वाले स जन पु ष उसके सामने सुख को भी कुछ नह िगनते॥ 88(ख)॥

म पिु न अवध रहेउँ कछु काला। देखउे ँ बालिबनोद रसाला॥


राम साद भगित बर पायउँ । भु पद बंिद िनजा म आयउँ ॥

म और कुछ समय तक अवधपुरी म रहा और मने राम क रसीली बाल लीलाएँ देख । राम क
कृपा से मने भि का वरदान पाया। तदनंतर भु के चरण क वंदना करके म अपने आ म पर
लौट आया।

तब ते मोिह न यापी माया। जब ते रघन


ु ायक अपनाया॥
यह सब गु च रत म गावा। ह र मायाँ िजिम मोिह नचावा॥

इस कार जब से रघुनाथ ने मुझको अपनाया, तब से मुझे माया कभी नह यापी। ह र क माया


ने मुझे जैसे नचाया, वह सब गु च र मने कहा।

िनज अनभ ु व अब कहउँ खगेसा। िबनु ह र भजन न जािहं कलेसा॥


राम कृपा िबनु सन
ु ु खगराई। जािन न जाइ राम भत
ु ाई॥

हे प ीराज ग ड़! अब म आपसे अपना िनजी अनुभव कहता हँ। (वह यह है िक) भगवान के
भजन िबना लेश दूर नह होते। हे प ीराज! सुिनए, राम क कृपा िबना राम क भुता नह
जानी जाती,

जान िबनु न होइ परतीती। िबनु परतीित होइ निहं ीती॥


ीित िबना निहं भगित िदढ़ाई। िजिम खगपित जल कै िचकनाई॥

जाने िबना उन पर िव ास नह जमता, िव ास के िबना ीित नह होती और ीित िबना भि


वैसे ही ढ़ नह होती जैसे हे प ीराज! जल क िचकनाई ठहरती नह ।

सो० - िबनु गरु होइ िक यान यान िक होइ िबराग िबन।ु


गाविहं बेद परु ान सख
ु िक लिहअ ह र भगित िबन॥ु 89(क)॥

गु के िबना कह ान हो सकता है? अथवा वैरा य के िबना कह ान हो सकता है? इसी तरह
वेद और पुराण कहते ह िक ह र क भि के िबना या सुख िमल सकता है?॥ 89(क)॥

कोउ िब ाम िक पाव तात सहज संतोष िबन।ु


चलै िक जल िबनु नाव कोिट जतन पिच पिच म रअ॥ 89(ख)॥

हे तात! वाभािवक संतोष के िबना या कोई शांित पा सकता है? (चाहे ) करोड़ उपाय करके
पच-पच मा रए; (िफर भी) या कभी जल के िबना नाव चल सकती है?॥ 89(ख)॥

िबनु संतोष न काम नसाह । काम अछत सख ु सपनेहँ नाह ॥


राम भजन िबनु िमटिहं िक कामा। थल िबहीन त कबहँ िक जामा॥

संतोष के िबना कामना का नाश नह होता और कामनाओं के रहते व न म भी सुख नह हो


सकता। और राम के भजन िबना कामनाएँ कह िमट सकती ह? िबना धरती के भी कह पेड़ उग
सकता है?

िबनु िब यान िक समता आवइ। कोउ अवकास िक नभ िबनु पावइ॥


ा िबना धम निहं होई। िबनु मिह गंध िक पावइ कोई॥

िव ान (त व ान) के िबना या समभाव आ सकता है? आकाश के िबना या कोई अवकाश पा


सकता है? ा के िबना धम (का आचरण) नह होता। या प ृ वी त व के िबना कोई गंध पा
सकता है?

िबनु तप तेज िक कर िब तारा। जल िबनु रस िक होइ संसारा॥


सील िक िमल िबनु बध
ु सेवकाई। िजिम िबनु तेज न प गोसाँई॥

तप के िबना या तेज फै ल सकता है? जल-त व के िबना संसार म या रस हो सकता है?


पंिडतजन क सेवा िबना या शील (सदाचार) ा हो सकता है? हे गोसाई ं! जैसे िबना तेज
(अि न-त व) के प नह िमलता।

िनज सख
ु िबनु मन होइ िक थीरा। परस िक होइ िबहीन समीरा॥
कविनउ िसि िक िबनु िब वासा। िबनु ह र भजन न भव भय नासा॥

िनज-सुख (आ मानंद) के िबना या मन ि थर हो सकता है? वायु-त व के िबना या पश हो


सकता है? या िव ास के िबना कोई भी िसि हो सकती है? इसी कार ह र के भजन िबना
ज म-म ृ यु के भय का नाश नह होता।

दो० - िबनु िब वास भगित निहं तेिह िबनु विहं न राम।ु


राम कृपा िबनु सपनेहँ जीव न लह िब ाम॥ु 90(क)॥

िबना िव ास के भि नह होती, भि के िबना राम िपघलते (ढरते) नह और राम क कृपा के


िबना जीव व न म भी शांित नह पाता॥ 90(क)॥

सो० - अस िबचा र मितधीर तिज कुतक संसय सकल।


भजह राम रघबु ीर क नाकर संदु र सख
ु द॥ 90(ख)॥

ू कुतक और संदेह को छोड़कर क णा क खान संुदर और


हे धीरबुि ! ऐसा िवचारकर संपण
सुख देनेवाले रघुवीर का भजन क िजए॥ 90(ख)॥

िनज मित स रस नाथ म गाई। भु ताप मिहमा खगराई॥


कहेउँ न कछु क र जुगिु त िबसेषी। यह सब म िनज नयनि ह देखी॥

हे प ीराज! हे नाथ! मने अपनी बुि के अनुसार भु के ताप और मिहमा का गान िकया। मने
इसम कोई बात युि से बढ़ाकर नह कही है। यह सब अपनी आँख देखी कही है।

मिहमा नाम प गन ु गाथा। सकल अिमत अनंत रघन ु ाथा॥


िनज िनज मित मिु न ह र गन
ु गाविहं। िनगम सेष िसव पार न पाविहं॥

रघुनाथ क मिहमा, नाम, प और गुण क कथा सभी अपार एवं अनंत ह तथा रघुनाथ वयं भी
अनंत ह। मुिनगण अपनी-अपनी बुि के अनुसार ह र के गुण गाते ह। वेद, शेष और िशव भी
उनका पार नह पाते।

तु हिह आिद खग मसक जंता। नभ उड़ािहं निहं पाविहं अंता॥


ितिम रघपु ित मिहमा अवगाहा। तात कबहँ कोउ पाव िक थाहा॥

आप से लेकर म छर पयत सभी छोटे-बड़े जीव आकाश म उड़ते ह, िकंतु आकाश का अंत कोई
नह पाता। इसी कार हे तात! रघुनाथ क मिहमा भी अथाह है। या कभी कोई उसक थाह पा
सकता है?

रामु काम सत कोिट सभ


ु ग तन। दग
ु ा कोिट अिमत अ र मदन॥
स कोिट सत स रस िबलासा। नभ सत कोिट अिमत अवकासा॥

राम का अरब कामदेव के समान सुंदर शरीर है। वे अनंत कोिट दुगाओं के समान श ुनाशक ह।
अरब इं के समान उनका िवलास (ऐ य) है। अरब आकाश के समान उनम अनंत अवकाश
( थान) है।

दो० - म त कोिट सत िबपलु बल रिब सत कोिट कास।


सिस सत कोिट सस ु ीतल समन सकल भव ास॥ 91(क)॥

अरब पवन के समान उनम महान बल है और अरब सयू के समान काश है। अरब चं माओं के
समान वे शीतल और संसार के सम त भय का नाश करनेवाले ह॥ 91(क)॥

काल कोिट सत स रस अित दु तर दग ु दरु ं त।


धूमकेतु सत कोिट सम दरु ाधरष भगवंत॥ 91(ख)॥

अरब काल के समान वे अ यंत दु तर, दुगम और दुरंत ह। वे भगवान अरब धम


ू केतुओ ं (पु छल
तार ) के समान अ यंत बल ह॥ 91(ख)॥

भु अगाध सत कोिट पताला। समन कोिट सत स रस कराला॥


तीरथ अिमत कोिट सम पावन। नाम अिखल अघ पूग नसावन॥

अरब पाताल के समान भु अथाह ह। अरब यमराज के समान भयानक ह। अनंतकोिट तीथ के
समान वे पिव करनेवाले ह। उनका नाम संपण
ू पापसमहू का नाश करनेवाला है।

िहमिग र कोिट अचल रघब


ु ीरा। िसंधु कोिट सत सम गंभीरा॥
कामधेनु सत कोिट समाना। सकल काम दायक भगवाना॥

रघुवीर करोड़़ िहमालय के समान अचल (ि थर) ह और अरब समु के समान गहरे ह।
भगवान अरब कामधेनुओ ं के समान सब कामनाओं (इि छत पदाथ ) के देनेवाले ह।

सारद कोिट अिमत चतरु ाई। िबिध सत कोिट सिृ िनपनु ाई॥
िब नु कोिट सम पालन कता। कोिट सत सम संहता॥

उनम अनंतकोिट सर वितय के समान चतुराई है। अरब ाओं के समान सिृ रचना क
िनपुणता है। वे करोड़ िव णुओ ं के समान पालन करनेवाले और अरब के समान संहार
करनेवाले ह।

धनद कोिट सत सम धनवाना। माया कोिट पंच िनधाना॥


भार धरन सत कोिट अहीसा। िनरविध िन पम भु जगदीसा॥

वे अरब कुबेर के समान धनवान और करोड़ मायाओं के समान सिृ के खजाने ह। बोझ उठाने
म वे अरब शेष के समान ह। (अिधक या) जगदी र भु राम (सभी बात म) सीमारिहत और
उपमारिहत ह।

छं ० - िन पम न उपमा आन राम समान रामु िनगम कहै।


िजिम कोिट सत ख ोत सम रिब कहत अित लघत ु ा लहै॥
एिह भाँित िनज िनज मित िबलास मन
ु ीस ह रिह बखानह ।
भु भाव गाहक अित कृपाल स म े सिु न सख
ु मानह ॥

राम उपमारिहत ह, उनक कोई दूसरी उपमा है ही नह । राम के समान राम ही ह, ऐसा वेद कहते
ह। जैसे अरब जुगनुओ ं के समान कहने से सयू ( शंसा को नह वरन) अ यंत लघुता को ही ा
ू क िनंदा ही होती है)। इसी कार अपनी-अपनी बुि के िवकास के अनुसार
होता है (सय
मुनी र ह र का वणन करते ह, िकंतु भु भ के भावमा को हण करनेवाले और अ यंत
कपालु ह। वे उस वणन को ेमसिहत सुनकर सुख मानते ह।

दो० - रामु अिमत गन


ु सागर थाह िक पावइ कोइ।
संत ह सन जस िकछु सन ु उे ँ तु हिह सन
ु ायउँ सोइ॥ 92(क)॥

राम अपार गुण के समु ह, या उनक कोई थाह पा सकता है? संत से मने जैसा कुछ सुना
था, वही आपको सुनाया॥ 92(क)॥

सो० - भाव ब य भगवान सख


ु िनधान क ना भवन।
तिज ममता मद मान भिजअ सदा सीता रवन॥ 92(ख)॥

सुख के भंडार, क णाधाम भगवान भाव ( ेम) के वश ह। (अतएव) ममता, मद और मान को


छोड़कर सदा जानक नाथ का ही भजन करना चािहए॥ 92(ख)॥

ु ंिु ड के बचन सहु ाए। हरिषत खगपित पंख फुलाए॥


सिु न भस
नयन नीर मन अित हरषाना। ीरघप ु ित ताप उर आना॥

भुशुंिड के सुंदर वचन सुनकर प ीराज ने हिषत होकर अपने पंख फुला िलए। उनके ने म
( ेमानंद के आँसुओ ं का) जल आ गया और मन अ यंत हिषत हो गया। उ ह ने ी रघुनाथ का
ताप दय म धारण िकया।

पािछल मोह समिु झ पिछताना। अनािद मनजु क र माना॥


पिु न पिु न काग चरन िस नावा। जािन राम सम मे बढ़ावा॥

वे अपने िपछले मोह को समझकर (याद करके) पछताने लगे िक मने अनािद को मनु य
करके माना। ग ड़ ने बार-बार काकभुशुंिड के चरण पर िसर नवाया और उ ह राम के ही समान
जानकर ेम बढ़ाया।
गरु िबनु भव िनध तरइ न कोई। ज िबरं िच संकर सम होई॥
संसय सप सेउ मोिह ताता। दखु द लह र कुतक बह ाता॥

गु के िबना कोई भवसागर नह तर सकता, चाहे वह ा और शंकर के समान ही य न हो।


(ग ड़ ने कहा -) हे तात! मुझे संदेह पी सप ने डस िलया था और (साँप के डँ सने पर जैसे िवष
चढ़ने से लहर आती ह वैसे ही) बहत-सी कुतक पी दुःख देनेवाली लहर आ रही थ ।

तव स प गा िड़ रघन
ु ायक। मोिह िजआयउ जन सखु दायक॥
तव साद मम मोह नसाना। राम रह य अनूपम जाना॥

आपके व प पी गा ड़ी (साँप का िवष उतारनेवाले) के ारा भ को सुख देनेवाले रघुनाथ


ने मुझे िजला िलया। आपक कृपा से मेरा मोह नाश हो गया और मने राम का अनुपम रह य
जाना।

दो० - तािह संिस िबिबिध िबिध सीस नाइ कर जो र।


बचन िबनीत स म े मदृ ु बोलेउ ग ड़ बहो र॥ 93(क)॥

उनक (भुशंुिड क ) बहत कार से शंसा करके, िसर नवाकर और हाथ जोड़कर िफर ग ड़
ेमपवू क िवन और कोमल वचन बोले - ॥ 93(क)॥

भु अपने अिबबेक ते बूझउँ वामी तोिह।


कृपािसंधु सादर कहह जािन दास िनज मोिह॥ 93(ख)॥

हे भो! हे वामी! म अपने अिववेक के कारण आपसे पछ


ू ता हँ। हे कृपा के समु ! मुझे अपना
'िनज दास' जानकर आदरपवू क (िवचारपवू क) मेरे का उ र किहए॥ 93(ख)॥

तु ह सब य त य तम पारा। सम
ु ित ससु ील सरल आचारा॥
ु ायक के तु ह ि य दासा॥
यान िबरित िब यान िनवासा। रघन

आप सब कुछ जाननेवाले ह, त व के ाता ह, अंधकार (माया) से परे , उ म बुि से यु ,


सुशील, सरल आचरणवाले, ान, वैरा य और िव ान के धाम और रघुनाथ के ि य दास ह।

कारन कवन देह यह पाई। तात सकल मोिह कहह बझ ु ाई॥


राम च रत सरु संदु र वामी। पायह कहाँ कहह नभगामी॥

आपने यह काक शरीर िकस कारण से पाया? हे तात! सब समझाकर मुझसे किहए। हे वामी! हे
आकाशगामी! यह सुंदर रामच रत मानस आपने कहाँ पाया, सो किहए।

नाथ सन
ु ा म अस िसव पाह । महा लयहँ नास तव नाह ॥
मध
ु ा बचन निहं ई वर कहई। सोउ मोर मन संसय अहई॥

हे नाथ! मने िशव से ऐसा सुना है िक महा लय म भी आपका नाश नह होता और ई र (िशव)
कभी िम या वचन कहते नह । वह भी मेरे मन म संदेह है।

अग जग जीव नाग नर देवा। नाथ सकल जगु काल कलेवा॥


अंड कटाह अिमत लय कारी। कालु सदा दरु ित म भारी॥

( य िक) हे नाथ! नाग, मनु य, देवता आिद चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत काल का
कलेवा है। असं य ांड का नाश करनेवाला काल सदा बड़ा ही अिनवाय है।

सो० - तु हिह न यापत काल अित कराल कारन कवन।


मोिह सो कहह कृपाल यान भाव िक जोग बल॥ 94(क)॥

(ऐसा वह) अ यंत भयंकर काल आपको नह यापता (आप पर भाव नह िदखलाता), इसका
या कारण है? हे कृपालु मुझे किहए, यह ान का भाव है या योग का बल है?॥ 94(क)॥

दो० - भु तव आ म आएँ मोर मोह म भाग।


कारन कवन सो नाथ सब कहह सिहत अनरु ाग॥ 94(ख)॥

हे भो! आपके आ म म आते ही मेरा मोह और म भाग गया। इसका या कारण है? हे नाथ!
यह सब ेम सिहत किहए॥ 94(ख)॥

ग ड़ िगरा सिु न हरषेउ कागा। बोलेउ उमा परम अनरु ागा॥


ध य ध य तव मित उरगारी। न तु हा र मोिह अित यारी॥

हे उमा! ग ड़ क वाणी सुनकर काकभुशुंिड हिषत हए और परम ेम से बोले - हे सप के श ु!


आपक बुि ध य है! ध य है! आपके मुझे बहत ही यारे लगे।

सिु न तव स मे सहु ाई। बहत जनम कै सिु ध मोिह आई॥


सब िनज कथा कहउँ म गाई। तात सन
ु ह सादर मन लाई॥

आपके ेमयु सुंदर सुनकर मुझे अपने बहत ज म क याद आ गई। म अपनी सब कथा
िव तार से कहता हँ। हे तात! आदर सिहत मन लगाकर सुिनए।

जप तप मख सम दम त दाना। िबरित िबबेक जोग िब याना॥


सब कर फल रघप े ा। तेिह िबनु कोउ न पावइ छेमा॥
ु ित पद म

अनेक जप, तप, य , शम (मन को रोकना), दम (इंि य को रोकना), त, दान, वैरा य,


िववेक, योग, िव ान आिद सबका फल रघुनाथ के चरण म ेम होना है। इसके िबना कोई
क याण नह पा सकता।

एिहं तन राम भगित म पाई। ताते मोिह ममता अिधकाई॥


जेिह त कछु िनज वारथ होई। तेिह पर ममता कर सब कोई॥

मने इसी शरीर से राम क भि ा क है। इसी से इस पर मेरी ममता अिधक है। िजससे अपना
कुछ वाथ होता है, उस पर सभी कोई ेम करते ह।

सो० - प नगा र अिस नीित ुित संमत स जन कहिहं।


अित नीचह सन ीित क रअ जािन िनज परम िहत॥ 95(क)॥

हे ग ड़! वेद म मानी हई ऐसी नीित है और स जन भी कहते ह िक अपना परम िहत जानकर


अ यंत नीच से भी ेम करना चािहए॥ 95(क)॥

पाट क ट त होइ तेिह त पाटंबर िचर।


कृिम पालइ सबु कोइ परम अपावन ान सम॥ 95(ख)॥

रे शम क ड़े से होता है, उससे सुंदर रे शमी व बनते ह। इसी से उस परम अपिव क ड़े को भी


सब कोई ाण के समान पालते ह॥ 95(ख)॥

वारथ साँच जीव कहँ एहा। मन म बचन राम पद नेहा॥


सोइ पावन सोइ सभु ग सरीरा। जो तनु पाइ भिजअ रघब
ु ीरा॥

जीव के िलए स चा वाथ यही है िक मन, वचन और कम से राम के चरण म ेम हो। वही शरीर
पिव और सुंदर है िजस शरीर को पाकर रघुवीर का भजन िकया जाए।

राम िबमख
ु लिह िबिध सम देही। किब कोिबद न संसिहं तेही॥
राम भगित एिहं तन उर जामी। ताते मोिह परम ि य वामी॥

जो राम के िवमुख है वह यिद ा के समान शरीर पा जाए तो भी किव और पंिडत उसक शंसा
नह करते। इसी शरीर से मेरे दय म रामभि उ प न हई। इसी से हे वामी! यह मुझे परम ि य
है।

तजउँ न तन िनज इ छा मरना। तन िबनु बेद भजन निहं बरना॥


थम मोहँ मोिह बहत िबगोवा। राम िबमख
ु सखु कबहँ न सोवा॥

मेरा मरण अपनी इ छा पर है, परं तु िफर भी म यह शरीर नह छोड़ता; य िक वेद ने वणन िकया
है िक शरीर के िबना भजन नह होता। पहले मोह ने मेरी बड़ी दुदशा क । राम के िवमुख होकर म
कभी सुख से नह सोया।

नाना जनम कम पिु न नाना। िकए जोग जप तप मख दाना॥


कवन जोिन जनमेउँ जहँ नाह । म खगेस िम िम जग माह ॥

अनेक ज म म मने अनेक कार के योग, जप, तप, य और दान आिद कम िकए। हे ग ड़!
जगत म ऐसी कौन योिन है, िजसम मने (बार-बार) घम
ू -िफरकर ज म न िलया हो।

देखउे ँ क र सब करम गोसाई ं। सख


ु ी न भयउँ अबिहं क नाई ं॥
सिु ध मोिह नाथ ज म बह केरी। िसव साद मित मोहँ न घेरी॥

हे गुसाई ं! मने सब कम करके देख िलए, पर अब (इस ज म) क तरह म कभी सुखी नह हआ।
हे नाथ! मुझे बहत-से ज म क याद है। ( य िक) िशव क कृपा से मेरी बुि को मोह ने नह
घेरा।

दो० - थम ज म के च रत अब कहउँ सन ु ह िबहगेस।


सिु न भु पद रित उपजइ जात िमटिहं कलेस॥ 96(क)॥

हे प ीराज! सुिनए, अब म अपने थम ज म के च र कहता हँ, िज ह सुनकर भु के चरण म


ीित उ प न होती है, िजससे सब लेश िमट जाते ह॥ 96(क)॥

पू ब क प एक भु जुग किलजुग मल मूल।


नर अ ना र अधम रत सकल िनगम ितकूल॥ 96(ख)॥

हे भो! पवू के एक क प म पाप का मलू युग किलयुग था, िजसम पु ष और ी सभी


अधमपरायण और वेद के िवरोधी थे॥ 96(ख)॥

तेिहं किलजुग कोसलपरु जाई। ज मत भयउँ सू तनु पाई॥


िसव सेवक मन म अ बानी। आन देव िनंदक अिभमानी॥

उस किलयुग म म अयो यापुरी म जाकर शू का शरीर पाकर ज मा। म मन, वचन और कम से


िशव का सेवक और दूसरे देवताओं क िनंदा करनेवाला अिभमानी था।

धन मद म परम बाचाला। उ बिु उर दंभ िबसाला॥


जदिप रहेउँ रघप
ु ित रजधानी। तदिप न कछु मिहमा तब जानी॥

म धन के मद से मतवाला, बहत ही बकवादी और उ बुि वाला था; मेरे दय म बड़ा भारी दंभ
था। य िप म रघुनाथ क राजधानी म रहता था, तथािप मने उस समय उसक मिहमा कुछ भी
नह जानी।
अब जाना म अवध भावा। िनगमागम परु ान अस गावा॥
कवनेहँ ज म अवध बस जोई। राम परायन सो प र होई॥

अब मने अवध का भाव जाना। वेद, शा और पुराण ने ऐसा गाया है िक िकसी भी ज म म जो


कोई भी अयो या म बस जाता है, वह अव य ही राम-परायण हो जाएगा।

अवध भाव जान तब ानी। जब उर बसिहं रामु धनप


ु ानी॥
सो किलकाल किठन उरगारी। पाप परायन सब नर नारी॥

अवध का भाव जीव तभी जानता है, जब हाथ म धनुष धारण करनेवाले राम उसके दय म
िनवास करते ह। हे ग ड़! वह किलकाल बड़ा किठन था। उसम सभी नर-नारी पापपरायण (पाप
म िल ) थे।

दो० - किलमल से धम सब लु भए सद ंथ।


दंिभ ह िनज मित कि प क र गट िकए बह पंथ॥ 97(क)॥

किलयुग के पाप ने सब धम को स िलया, सद् ंथ लु हो गए, दंिभय ने अपनी बुि से


क पना कर-करके बहत-से पंथ कट कर िदए॥ 97(क)॥

भए लोग सब मोहबस लोभ से सभ ु कम।


सन
ु ु ह रजान यान िनिध कहउँ कछुक किलधम॥ 97(ख)॥

सभी लोग मोह के वश हो गए, शुभ कम को लोभ ने हड़प िलया। हे ान के भंडार! हे ह र के


वाहन! सुिनए, अब म किल के कुछ धम कहता हँ॥ 97(ख)॥

बरन धम निहं आ म चारी। ुित िबरोध रत सब नर नारी।


ि ज ुित बेचक भूप जासन। कोउ निहं मान िनगम अनस ु ासन॥

किलयुग म न वणधम रहता है, न चार आ म रहते ह। सब पु ष- ी वेद के िवरोध म लगे रहते
ह। ा ण वेद के बेचनेवाले और राजा जा को खा डालनेवाले होते ह। वेद क आ ा कोई नह
मानता।

मारग सोइ जा कहँ जोइ भावा। पंिडत सोइ जो गाल बजावा॥


िम यारं भ दंभ रत जोई। ता कहँ संत कहइ सब कोई॥

िजसको जो अ छा लग जाए, वही माग है। जो ड ग मारता है, वही पंिडत है। जो िम या आरं भ
करता (आडं बर रचता) है और जो दंभ म रत है, उसी को सब कोई संत कहते ह।

सोइ सयान जो परधन हारी। जो कर दंभ सो बड़ आचारी॥


जो कह झूँठ मसखरी जाना। किलजुग सोइ गन
ु वंत बखाना॥

जो (िजस िकसी कार से) दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुि मान है। जो दंभ करता है, वही
बड़ा आचारी है। जो झठ
ू बोलता है और हँसी-िद लगी करना जानता है, किलयुग म वही गुणवान
कहा जाता है।

िनराचार जो िु त पथ यागी। किलजुग सोइ यानी सो िबरागी॥


जाक नख अ जटा िबसाला। सोइ तापस िस किलकाला॥

जो आचारहीन है और वेदमाग को छोड़े हए है, किलयुग म वही ानी और वही वैरा यवान है।
िजसके बड़े -बड़े नख और लंबी-लंबी जटाएँ ह, वही किलयुग म िस तप वी है।

दो० - असभु बेष भूषन धर भ छाभ छ जे खािहं।


तेइ जोगी तेइ िस नर पू य ते किलजुग मािहं॥ 98(क)॥

जो अमंगल वेष और अमंगल भषू ण धारण करते ह और भ य-अभ य (खाने यो य और न खाने


यो य) सब कुछ खा लेते ह, वे ही योगी ह, वे ही िस ह और वे ही मनु य किलयुग म पू य ह॥
98(क)॥

सो० - जे अपकारी चार ित ह कर गौरव मा य तेइ।


मन म बचन लबार तेइ बकता किलकाल महँ॥ 98(ख)॥

िजनके आचरण दूसर का अपकार (अिहत) करनेवाले ह, उ ह का बड़ा गौरव होता है और वे ही


स मान के यो य होते ह। जो मन, वचन और कम से लबार (झठ
ू बकनेवाले) ह, वे ही किलयुग म
व ा माने जाते ह॥ 98(ख)॥

ना र िबबस नर सकल गोसाई ं। नाचिहं नट मकट क नाई ं॥


सू ि ज ह उपदेसिहं याना। मेिल जनेऊ लेिहं कुदाना॥

हे गोसाई ं! सभी मनु य ि य के िवशेष वश म ह और बाजीगर के बंदर क तरह (उनके नचाए)


नाचते ह। ा ण को शू ानोपदेश करते ह और गले म जनेऊ डालकर कुि सत दान लेते ह।

सब नर काम लोभ रत ोधी। देव िब ुित संत िबरोधी॥


गन
ु मंिदर संदु र पित यागी। भजिहं ना र पर पु ष अभागी॥

सभी पु ष काम और लोभ म त पर और ोधी होते ह। देवता, ा ण, वेद और संत के िवरोधी


होते ह। अभािगनी ि याँ गुण के धाम सुंदर पित को छोड़कर पर पु ष का सेवन करती ह।

सौभािगन िबभूषन हीना। िबधव ह के िसंगार नबीना॥


गरु िसष बिधर अंध का लेखा। एक न सन
ु इ एक निहं देखा॥

सुहािगनी ि याँ तो आभषू ण से रिहत होती ह, पर िवधवाओं के िन य नए ंग


ृ ार होते ह। िश य
और गु म बहरे और अंधे का-सा िहसाब होता है। एक (िश य) गु के उपदेश को सुनता नह ,
एक (गु ) देखता नह (उसे ान ि ा नह है)।

हरइ िस य धन सोक न हरई। सो गरु घोर नरक महँ परई॥


मातु िपता बालकि ह बोलाविहं। उदर भरै सोइ धम िसखाविहं॥

जो गु िश य का धन हरण करता है, पर शोक नह हरण करता, वह घोर नरक म पड़ता है।
माता-िपता बालक को बुलाकर वही धम िसखलाते ह, िजससे पेट भरे ।

दो० - यान िबनु ना र नर कहिहं न दूस र बात।


कौड़ी लािग लोभ बस करिहं िब गरु घात॥ 99(क)॥

ी-पु ष ान के िसवा दूसरी बात नह करते, पर वे लोभवश कौिड़य (बहत थोड़े लाभ) के
िलए ा ण और गु क ह या कर डालते ह॥ 99(क)॥

बादिहं सू ि ज ह सन हम तु ह ते कछु घािट।


जानइ सो िब बर आँिख देखाविहं डािट॥ 99(ख)॥

शू ा ण से िववाद करते ह (और कहते ह) िक हम या तुमसे कुछ कम ह? जो को


जानता है वही े ा ण है। (ऐसा कहकर) वे उ ह डाँटकर आँख िदखलाते ह॥ 99(ख)॥

पर ि य लंपट कपट सयाने। मोह ोह ममता लपटाने॥


तेइ अभेदबादी यानी नर। देखा म च र किलजुग कर॥

जो पराई ी म आस , कपट करने म चतुर और मोह, ोह और ममता म िलपटे हए ह, वे ही


मनु य अभेदवादी ( और जीव को एक बतानेवाले) ानी ह। मने उस किलयुग का यह च र
देखा।

आपु गए अ ित हह घालिहं। जे कहँ सत मारग ितपालिहं॥


क प क प भ र एक एक नरका। परिहं जे दूषिहं िु त क र तरका॥

वे वयं तो न हए ही रहते ह; जो कह स माग का ितपालन करते ह, उनको भी वे न कर


देते ह। जो तक करके वेद क िनंदा करते ह, वे लोग क प-क पभर एक-एक नरक म पड़े रहते
ह।

जे बरनाधम तेिल कु हारा। वपच िकरात कोल कलवारा।


ना र मईु गहृ संपित नासी। मूड़ मड़
ु ाइ होिहं सं यासी॥

तेली, कु हार, चांडाल, भील, कोल और कलवार आिद जो वण म नीचे ह, ी के मरने पर अथवा
घर क संपि न हो जाने पर िसर मँुड़ाकर सं यासी हो जाते ह।

ते िब ह सन आपु पज
ु ाविहं। उभय लोक िनज हाथ नसाविहं॥
िब िनर छर लोलप
ु कामी। िनराचार सठ बष ृ ली वामी॥

वे अपने को ा ण से पुजवाते ह और अपने ही हाथ दोन लोक न करते ह। ा ण अपढ़,


ू और नीची जाित क यिभचा रणी ि य के वामी होते ह।
लोभी, कामी, आचारहीन, मख

सू करिहं जप तप त नाना। बैिठ बरासन कहिहं परु ाना॥


सब नर कि पत करिहं अचारा। जाइ न बरिन अनीित अपारा॥

शू नाना कार के जप, तप और त करते ह तथा ऊँचे आसन ( यास ग ी) पर बैठकर पुराण
कहते ह। सब मनु य मनमाना आचरण करते ह। अपार अनीित का वणन नह िकया जा सकता।

दो० - भए बरन संकर किल िभ नसेतु सब लोग।


करिहं पाप पाविहं दख
ु भय ज सोक िबयोग॥ 100(क)॥

किलयुग म सब लोग वणसंकर और मयादा से युत हो गए। वे पाप करते ह और (उनके


फल व प) दुःख, भय, रोग, शोक और (ि य व तु का) िवयोग पाते ह॥ 100(क)॥

िु त संमत ह र भि पथ संजत
ु िबरित िबबेक।
तेिहं न चलिहं नर मोह बस क पिहं पंथ अनेक॥ 100(ख)॥

वेद स मत तथा वैरा य और ान से यु जो ह रभि का माग है, मोहवश मनु य उस पर नह


चलते और अनेक नए-नए पंथ क क पना करते ह॥ 100(ख)॥

छं ० - बह दाम सँवारिहं धाम जती। िबषया ह र लीि ह न रिह िबरती॥


तपसी धनवंत द र गहृ ी। किल कौतक ु तात न जात कही॥

सं यासी बहत धन लगाकर घर सजाते ह। उनम वैरा य नह रहा, उसे िवषय ने हर िलया।
तप वी धनवान हो गए और गहृ थ द र । हे तात! किलयुग क लीला कुछ कही नह जाती।

कुलवंित िनकारिहं ना र सती। गहृ आनिहं चे र िनबे र गती॥


सतु मानिहं मातु िपता तब ल । अबलानन दीख नह जब ल ॥

कुलवती और सती ी को पु ष घर से िनकाल देते ह और अ छी चाल को छोड़कर घर म दासी


को ला रखते ह। पु अपने माता-िपता को तभी तक मानते ह, जब तक ी का मँुह नह िदखाई
पड़ता।

ससरु ा र िपआ र लगी जब त। रपु प कुटुब


ं भए तब त॥
नप
ृ पाप परायन धम नह । क र दंड िबडंब जा िनतह ॥

जब से ससुराल यारी लगने लगी, तब से कुटुंबी श ु प हो गए। राजा लोग पापपरायण हो गए,
उनम धम नह रहा। वे जा को िन य ही (िबना अपराध) दंड देकर उसक िवडं बना (दुदशा)
िकया करते ह।

धनवंत कुलीन मलीन अपी। ि ज िच ह जनेउ उघार तपी॥


निहं मान परु ान न बेदिह जो। ह र सेवक संत सही किल सो॥

धनी लोग मिलन (नीच जाित के) होने पर भी कुलीन माने जाते ह। ि ज का िच जनेऊ मा रह
गया और नंगे बदन रहना तप वी का। जो वेद और पुराण को नह मानते, किलयुग म वे ही
ह रभ और स चे संत कहलाते ह।

किब बंदृ उदार दन


ु ी न सन
ु ी। गन ु दूषक ात न कोिप गनु ी॥
किल बारिहं बार दकु ाल परै । िबनु अ न दख
ु ी सब लोग मरै ॥

किवय के तो झुंड हो गए, पर दुिनया म उदार (किवय का आ यदाता) सुनाई नह पड़ता। गुण
म दोष लगानेवाले बहत ह, पर गुणी कोई भी नह । किलयुग म बार-बार अकाल पड़ते ह। अ न के
िबना सब लोग दुःखी होकर मरते ह।

दो० - सन
ु ु खगेस किल कपट हठ दंभ ष े पाषंड।
मान मोह मारािद मद यािप रहे ंड॥ 101(क)॥

हे प ीराज ग ड़! सुिनए किलयुग म कपट, हठ (दुरा ह), दंभ, ेष, पाखंड, मान, मोह और
काम आिद (अथात काम, ोध और लोभ) और मद ांडभर म या हो गए (छा गए)॥
101(क)॥

तामस धम क रिहं नर जप तप त मख दान।


देव न बरषिहं धरनी बए न जामिहं धान॥ 101(ख)॥

मनु य जप, तप, य , त और दान आिद धम तामसी भाव से करने लगे। देवता (इं ) प ृ वी पर
जल नह बरसाते और बोया हआ अ न उगता नह ॥ 101(ख)॥

छं ० - अबला कच भूषन भू र छुधा। धनहीन दखु ी ममता बहधा॥


सख ु चाहिहं मूढ़ न धम रता। मित थो र कठो र न कोमलता॥
ि य के बाल ही भषू ण ह (उनके शरीर पर कोई आभषू ण नह रह गया) और उनको भख ू बहत
लगती है (अथात वे सदा अत ृ ही रहती ह)। वे धनहीन और बहत कार क ममता होने के
ू सुख चाहती ह, पर धम मे#2306; उनका ेम नह है। बुि थोड़ी है
कारण दुःखी रहती ह। वे मख
और कठोर है, उनम कोमलता नह है।

नर पीिड़त रोग न भोग कह । अिभमान िबरोध अकारन ह ॥


लघु जीवन संबदु पंच दसा। कलपांत न नास गम
ु ानु असा॥

मनु य रोग से पीिड़त ह, भोग (सुख) कह नह है। िबना ही कारण अिभमान और िवरोध करते
ह। दस-पाँच वष का थोड़ा-सा जीवन है, परं तु घमंड ऐसा है मानो क पांत ( लय) होने पर भी
उनका नाश नह होगा।

किलकाल िबहाल िकए मनज ु ा। निहं मानत वौ अनज


ु ा तनज
ु ा॥
निहं तोष िबचार न सीतलता। सब जाित कुजाित भए मगता॥

किलकाल ने मनु य को बेहाल (अ त- य त) कर डाला। कोई बिहन-बेटी का भी िवचार नह


करता। (लोग म) न संतोष है, न िववेक है और न शीतलता है। जाित, कुजाित सभी लोग भीख
माँगनेवाले हो गए।

इ रषा प षा छर लोलप
ु ता। भ र पू र रही समता िबगता॥
सब लोग िबयोग िबसोक हए। बरना म धम अचार गए॥

ई या (डाह), कड़वे वचन और लालच भरपरू हो रहे ह, समता चली गई। सब लोग िवयोग और
िवशेष शोक से मरे पड़े ह। वणा म धम के आचरण न हो गए।

दम दान दया निहं जानपनी। जड़ता परबंचनताित घनी॥


तनु पोषक ना र नरा सगरे । परिनंदक जे जग मो बगरे ॥

इंि य का दमन, दान, दया और समझदारी िकसी म नह रही। मख


ू ता और दूसर को ठगना यह
बहत अिधक बढ़ गया। ी-पु ष सभी शरीर के ही पालन-पोषण म लगे रहते ह। जो पराई िनंदा
करनेवाले ह, जगत म वे ही फै ले ह।

दो० - सन
ु ु याला र काल किल मल अवगन
ु आगार।
गनु उ बहत किलजुग कर िबनु यास िन तार॥ 102(क)॥

हे सप के श ु ग ड़! सुिनए, किलकाल पाप और अवगुण का घर है। िकंतु किलयुग म एक गुण


भी बड़ा है िक उसम िबना ही प र म भवबंधन से छुटकारा िमल जाता है॥ 102(क)॥
कृतजुग त े ाँ ापर पूजा मख अ जोग।
जो गित होइ सो किल ह र नाम ते पाविहं लोग॥ 102(ख)॥

स ययुग, ेता और ापर म जो गित पज ू ा, य और योग से ा होती है, वही गित किलयुग म
लोग केवल भगवान के नाम से पा जाते ह॥ 102(ख)॥

कृतजुग सब जोगी िब यानी। क र ह र यान तरिहं भव ानी॥


े ाँ िबिबध ज य नर करह । भिु ह समिप कम भव तरह ॥

स ययुग म सब योगी और िव ानी होते ह। ह र का यान करके सब ाणी भवसागर से तर जाते


ह। ेता म मनु य अनेक कार के य करते ह और सब कम को भु को समपण करके
भवसागर से पार हो जाते ह।

ापर क र रघप
ु ित पद पूजा। नर भव तरिहं उपाय न दूजा॥
किलजुग केवल ह र गनु गाहा। गावत नर पाविहं भव थाहा॥

ापर म रघुनाथ के चरण क पज


ू ा करके मनु य संसार से तर जाते ह, दूसरा कोई उपाय नह है
और किलयुग म तो केवल ह र क गुणगाथाओं का गान करने से ही मनु य भवसागर क थाह
पा जाते ह।

किलजगु जोग न ज य न याना। एक अधार राम गनु गाना॥


े समेत गाव गन
सब भरोस तिज जो भज रामिह। म ु ामिह॥

किलयुग म न तो योग और य है और न ान ही है। राम का गुणगान ही एकमा आधार है।


अतएव सारे भरोसे यागकर जो राम को भजता है और ेमसिहत उनके गुणसमहू को गाता है,

सोइ भव तर कछु संसय नाह । नाम ताप गट किल माह ॥


किल कर एक पन ु ीत तापा। मानस पु य होिहं निहं पापा॥

वही भवसागर से तर जाता है, इसम कुछ भी संदेह नह । नाम का ताप किलयुग म य है।
किलयुग का एक पिव ताप (मिहमा) है िक मानिसक पु य तो होते ह, पर (मानिसक) पाप
नह होते।

दो० - किलजुग सम जुग आन निहं ज नर कर िब वास।


गाइ राम गन
ु गन िबमल भव तर िबनिहं यास॥ 103(क)॥

यिद मनु य िव ास करे , तो किलयुग के समान दूसरा युग नह है। ( य िक) इस युग म राम के
िनमल गुणसमहू को गा-गाकर मनु य िबना ही प र म संसार ( पी समु ) से तर जाता है॥
103(क)॥
गट चा र पद धम के किल महँ एक धान।
जेन केन िबिध दी ह दान करइ क यान॥ 103(ख)॥

धम के चार चरण (स य, दया, तप और दान) िस ह, िजनम से किल म एक (दान पी) चरण


ही धान है। िजस िकसी कार से भी िदए जाने पर दान क याण ही करता है॥ 103(ख)॥

ु धम होिहं सब केरे । दयँ राम माया के रे े ॥


िनत जग
सु स व समता िब याना। कृत भाव स न मन जाना॥

राम क माया से े रत होकर सबके दय म सभी युग के धम िन य होते रहते ह। शु


स वगुण, समता, िव ान और मन का स न होना, इसे स ययुग का भाव जान।

स व बहत रज कछु रित कमा। सब िबिध सख


ु े ा कर धमा॥

बह रज व प स व कछु तामस। ापर धम हरष भय मानस॥

स वगुण अिधक हो, कुछ रजोगुण हो, कम म ीित हो, सब कार से सुख हो, यह ेता का धम
है। रजोगुण बहत हो, स वगुण बहत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन म हष और भय हो, यह
ापर का धम है।

तामस बहत रजोगनु थोरा। किल भाव िबरोध चहँ ओरा॥


बध
ु जुग धम जािन मन माह । तिज अधम रित धम कराह ॥

तमोगुण बहत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चार ओर वैर-िवरोध हो, यह किलयुग का भाव है। पंिडत
लोग युग के धम को मन म जान (पहचान) कर, अधम छोड़कर धम म ीित करते ह।

काल धम निहं यापिहं ताही। रघप


ु ित चरन ीित अित जाही॥
नट कृत िबकट कपट खगराया। नट सेवकिह न यापइ माया॥

िजसका रघुनाथ के चरण म अ यंत ेम है, उसको कालधम (युगधम) नह यापते। हे प ीराज!
नट (बाजीगर) का िकया हआ कपट च र (इं जाल) देखने वाल के िलए बड़ा िवकट (दुगम)
होता है, पर नट के सेवक (जँभरू े ) को उसक माया नह यापती।

दो० - ह र माया कृत दोष गन


ु िबनु ह र भजन न जािहं।
भिजअ राम तिज काम सब अस िबचा र मन मािहं॥ 104(क)॥

ह र क माया के ारा रचे हए दोष और गुण ह र के भजन िबना नह जाते। मन म ऐसा िवचार
कर, सब कामनाओं को छोड़कर (िन काम भाव से) राम का भजन करना चािहए॥ 104(क)॥
तेिहं किलकाल बरष बह बसेउँ अवध िबहगेस।
परे उ दक
ु ाल िबपित बस तब म गयउँ िबदेस॥ 104(ख)॥

हे प ीराज! उस किलकाल म म बहत वष तक अयो या म रहा। एक बार वहाँ अकाल पड़ा, तब


म िवपि का मारा िवदेश चला गया॥ 104(ख)॥

गयउँ उजेनी सन
ु ु उरगारी। दीन मलीन द र दख ु ारी॥
गएँ काल कछु संपित पाई। तहँ पिु न करउँ संभु सेवकाई॥

हे सप के श ु ग ड़! सुिनए, म दीन, मिलन (उदास), द र और दुःखी होकर उ जैन गया। कुछ


काल बीतने पर कुछ संपि पाकर िफर म वह भगवान शंकर क आराधना करने लगा।

िब एक बैिदक िसव पूजा। करइ सदा तेिह काजु न दूजा॥


परम साधु परमारथ िबंदक। संभु उपासक निहं ह र िनंदक॥

एक ा ण वेदिविध से सदा िशव क पज ू ा करते, उ ह दूसरा कोई काम न था। वे परम साधु और
परमाथ के ाता थे, वे शंभु के उपासक थे, पर ह र क िनंदा करनेवाले न थे।

तेिह सेवउँ म कपट समेता। ि ज दयाल अित नीित िनकेता॥


बािहज न देिख मोिह साई ं। िब पढ़ाव पु क नाई ं॥

म कपटपवू क उनक सेवा करता। ा ण बड़े ही दयालु और नीित के घर थे। हे वामी! बाहर से
न देखकर ा ण मुझे पु क भाँित मानकर पढ़ाते थे।

संभु मं मोिह ि जबर दी हा। सभ


ु उपदेस िबिबिध िबिध क हा॥
जपउँ मं िसव मंिदर जाई। दयँ दंभ अहिमित अिधकाई॥

उन ा ण े ने मुझको िशव का मं िदया और अनेक कार के शुभ उपदेश िकए। म िशव के


मंिदर म जाकर मं जपता। मेरे दय म दंभ और अहंकार बढ़ गया।

दो० - म खल मल संकुल मित नीच जाित बस मोह।


ह र जन ि ज देख जरउँ करउँ िब नु कर ोह॥ 105(क)॥

म दु , नीच जाित और पापमयी मिलन बुि वाला मोहवश ह र के भ और ि ज को देखते ही


जल उठता और िव णु भगवान से ोह करता था॥ 105(क)॥

सो० - गरु िनत मोिह बोध दिु खत देिख आचरन मम।


मोिह उपजइ अित ोध दंिभिह नीित िक भावई॥ 105(ख)॥
गु मेरे आचरण देखकर दुिखत थे। वे मुझे िन य ही भली-भाँित समझाते, पर (म कुछ भी नह
समझता), उलटे मुझे अ यंत ोध उ प न होता। दंभी को कभी नीित अ छी लगती है?॥
105(ख)॥

एक बार गरु ली ह बोलाई। मोिह नीित बह भाँित िसखाई॥


िसव सेवा कर फल सत ु सोई। अिबरल भगित राम पद होई॥

एक बार गु ने मुझे बुला िलया और बहत कार से (परमाथ) नीित क िश ा दी िक हे पु ! िशव


क सेवा का फल यही है िक राम के चरण म गाढ़ भि हो।

रामिह भजिहं तात िसव धाता। नर पावँर कै केितक बाता॥


जासु चरन अज िसव अनरु ागी। तासु ोहँ सख ु चहिस अभागी॥

हे तात! िशव और ा भी राम को भजते ह (िफर) नीच मनु य क तो बात ही िकतनी है? ा
और िशव िजनके चरण के ेमी ह, अरे अभागे! उनसे ोह करके तू सुख चाहता है?

हर कहँ ह र सेवक गरु कहेऊ। सिु न खगनाथ दय मम दहेऊ॥


अधम जाित म िब ा पाएँ । भयउँ जथा अिह दूध िपआएँ ॥

गु ने िशव को ह र का सेवक कहा। यह सुनकर हे प ीराज! मेरा दय जल उठा। नीच जाित


का म िव ा पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध िपलाने से साँप।

मानी कुिटल कुभा य कुजाती। गरु कर ोह करउँ िदनु राती॥


अित दयाल गरु व प न ोधा। पिु न पिु न मोिह िसखाव सब ु ोधा॥

अिभमानी, कुिटल, दुभा य और कुजाित म िदन-रात गु से ोह करता। गु अ यंत दयालु थे,


उनको थोड़ा-सा भी ोध नह आता। (मेरे ोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उ म ान क ही
िश ा देते थे।

जेिह ते नीच बड़ाई पावा। सो थमिहं हित तािह नसावा॥


धूम अनल संभव सन ु ु भाई। तेिह बझ
ु ाव घन पदवी पाई॥

नीच मनु य िजससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे
भाई! सुिनए, आग से उ प न हआ धुआँ मेघ क पदवी पाकर उसी अि न को बुझा देता है।

रज मग परी िनरादर रहई। सब कर पद हार िनत सहई॥


म त उड़ाव थम तेिह भरई। पिु न नप
ृ नयन िकरीटि ह परई॥

धल
ू रा ते म िनरादर से पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलने वाल ) क लात क मार सहती
है। पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और
िफर राजाओं के ने और िकरीट (मुकुट ) पर पड़ती है।

सन
ु ु खगपित अस समिु झ संगा। बध
ु निहं करिहं अधम कर संगा॥
किब कोिबद गाविहं अिस नीित। खल सन कलह न भल निहं ीित॥

हे प ीराज ग ड़! सुिनए, ऐसी बात समझकर बुि मान लोग अधम (नीच) का संग नह करते।
किव और पंिडत ऐसी नीित कहते ह िक दु से न कलह ही अ छा है, न ेम ही।

उदासीन िनत रिहअ गोसाई ं। खल प रह रअ वान क नाई ं॥


म खल दयँ कपट कुिटलाई। गरु िहत कहइ न मोिह सोहाई॥

हे गोसाई ं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चािहए। दु को कु े क तरह दूर से ही याग देना
चािहए। म दु था, दय म कपट और कुिटलता भरी थी। (इसिलए य िप) गु िहत क बात
कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी।

दो० - एक बार हर मंिदर जपत रहेउँ िसव नाम।


गरु आयउ अिभमान त उिठ निहं क ह नाम॥ 106(क)॥

एक िदन म िशव के मंिदर म िशवनाम जप रहा था। उसी समय गु वहाँ आए, पर अिभमान के
मारे मने उठकर उनको णाम नह िकया॥ 106(क)॥

सो दयाल निहं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।


अित अघ गरु अपमानता सिह निहं सके महेस॥ 106(ख)॥

गु दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उ ह ने कुछ नह कहा; उनके दय म लेशमा भी ोध
नह हआ। पर गु का अपमान बहत बड़ा पाप है; अतः महादेव उसे नह सह सके॥ 106(ख)॥

मंिदर माझ भई नभबानी। रे हतभा य अ य अिभमानी॥


ज िप तव गरु के निहं ोधा। अित कृपाल िचत स यक बोधा॥

ू ! अिभमानी! य िप तेरे गु को
मंिदर म आकाशवाणी हई िक अरे हतभा य! मख ोध नह है, वे
अ यंत कृपालु िच के ह और उ ह (पण
ू तथा) यथाथ ान है,

तदिप साप सठ दैहउँ तोही। नीित िबरोध सोहाइ न मोही॥


ज निहं दंड कर खल तोरा। होइ ुितमारग मोरा॥

ू ! तुझको म शाप दँूगा; ( य िक) नीित का िवरोध मुझे अ छा नह लगता। अरे दु !


तो भी हे मख
यिद म तुझे दंड न दँू, तो मेरा वेदमाग ही हो जाए।
जे सठ गरु सन इ रषा करह । रौरव नरक कोिट जुग परह ॥
ि जग जोिन पिु न धरिहं सरीरा। अयत
ु ज म भ र पाविहं पीरा॥

जो मख
ू गु से ई या करते ह, वे करोड़ युग तक रौरव नरक म पड़े रहते ह। िफर (वहाँ से
िनकलकर) वे ितयक (पशु, प ी आिद) योिनय म शरीर धारण करते ह और दस हजार ज म
तक दुःख पाते रहते ह।

बैिठ रहेिस अजगर इव पापी। सप होिह खल मल मित यापी॥


महा िबटप कोटर महँ जाई। रह अधमाधम अधगित पाई॥

अरे पापी! तू गु के सामने अजगर क भाँित बैठा रहा। रे दु ! तेरी बुि पाप से ढँ क गई है,
(अतः) तू सप हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस अधोगित (सप क नीची योिन) को पाकर
िकसी बड़े भारी पेड़ के खोखले म जाकर रह।

दो० - हाहाकार क ह गरु दा न सिु न िसव साप।


कंिपत मोिह िबलोिक अित उर उपजा प रताप॥ 107(क)॥

िशव का भयानक शाप सुनकर गु ने हाहाकार िकया। मुझे काँपता हआ देखकर उनके दय म
बड़ा संताप उ प न हआ॥ 107(क)॥

े ि ज िसव स मख
क र दंडवत स म ु कर जो र।
िबनय करत गदगद वर समिु झ घोर गित मो र॥ 107(ख)॥

ेम सिहत दंडवत करके वे ा ण िशव के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गित (दंड) का
िवचार कर गदगद वाणी से िवनती करने लगे - ॥ 107(ख)॥

छं ० - नमामीशमीशान िनवाण पं। िवभंु यापकं वेद व पं॥


िनजं िनगणंु िनिवक पं िनरीहं। िचदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥

हे मो व प, िवभु, यापक, और वेद व प, ईशान िदशा के ई र तथा सबके वामी िशव!


म आपको नम कार करता हँ। िनज व प म ि थत (अथात मायािदरिहत), (माियक) गुण से
रिहत, भेदरिहत, इ छारिहत, चेतन आकाश प एवं आकाश को ही व प म धारण करनेवाले
िदगंबर (अथवा आकाश को भी आ छािदत करनेवाले) आपको म भजता हँ।

िनराकारम कारमूलं तरु ीयं। िगरा यान गोतीतमीशं िगरीशं॥


करालं महाकाल कालं कृपालं। गण ु ागार संसारपारं नतोऽहं॥

िनराकार, ओंकार के मल
ू , तुरीय (तीन गुण से अतीत), वाणी, ान और इंि य से परे ,
कैलासपित, िवकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुण के धाम, संसार से परे आप परमे र
को म नम कार करता हँ।

तष
ु ाराि संकाश गौरं गभीरं । मनोभूत कोिट भा ीशरीरं ॥
फुर मौिल क लोिलनी चा गंगा। लस ालबाले दु कंठे भज ु ंगा॥

जो िहमाचल के समान गौरवण तथा गंभीर ह, िजनके शरीर म करोड़ कामदेव क योित एवं
शोभा है, िजनके िसर पर सुंदर नदी गंगा िवराजमान ह, िजनके ललाट पर ि तीया का चं मा
और गले म सप सुशोिभत है।

ु े ं िवशालं। स नाननं नीलकंठं दयालं॥


चल कु डलं ू सन
मग
ृ ाधीशचमा बरं मु डमालं । ि यं शंकरं सवनाथं भजािम॥

िजनके कान म कंु डल िहल रहे ह, संुदर ुकुटी और िवशाल ने ह; जो स नमुख, नीलकंठ
और दयालु ह; िसंह चम का व धारण िकए और मुंडमाला पहने ह; उन सबके यारे और सबके
नाथ (क याण करनेवाले) शंकर को म भजता हँ।

चंडं कृ ं ग भं परे शं। अखंडं अजं भानक


ु ोिट काशं॥
यः शूल िनमूलनं शूलपािणं। भजेऽहं भवानीपितं भावग यं॥

चंड ( प), े , तेज वी, परमे र, अखंड, अज मे, करोड़ सय ू के समान काशवाले,
तीन कार के शल ू (दुःख ) को िनमल ू धारण िकए, भाव ( ेम) के
ू करनेवाले, हाथ म ि शल
ारा ा होनेवाले भवानी के पित शंकर को म भजता हँ।

कलातीत क याण क पा तकारी। सदा स जनानंददाता परु ारी॥


िचदानंद संदोह मोहापहारी। सीद सीद भो म मथारी॥

कलाओं से परे , क याण व प, क प का अंत ( लय) करनेवाले, स जन को सदा आनंद


देनेवाले, ि पुर के श ु, सि चदानंदघन, मोह को हरनेवाले, मन को मथ डालनेवाले कामदेव के
श ु, हे भो! स न होइए, स न होइए।

न यावद् उमानाथ पादारिवंद।ं भजंतीह लोके परे वा नराणां॥


न ताव सख ु ं शाि त स तापनाशं। सीद भो सवभूतािधवासं॥

जब तक पावती के पित आपके चरणकमल को मनु य नह भजते, तब तक उ ह न तो इहलोक


और परलोक म सुख-शांित िमलती है और न उनके ताप का नाश होता है। अतः हे सम त जीव
के अंदर ( दय म) िनवास करनेवाले हे भो! स न होइए।

न जानािम योगं जपं नैव पूजां। नतोऽहं सदा सवदा शंभु तु यं॥
जरा ज म दःु खो तात यमानं॥ भो पािह आप नमामीश शंभो॥
म न तो योग जानता हँ, न जप और न पज ू ा ही। हे शंभो! म तो सदा-सवदा आपको ही नम कार
करता हँ। हे भो! बुढ़ापा तथा ज म (म ृ यु) के दुःखसमहू से जलते हए मुझ दुःखी क दुःख से
र ा क िजए। हे ई र! हे शंभो! म आपको नम कार करता हँ।

ोक - ा किमदं ो ं िव ण े हरतोषये।
ये पठि त नरा भ या तेषां श भःु सीदित॥

भगवान क तुित का यह अ क उन शंकर क तुि ( स नता) के िलए ा ण ारा कहा


गया। जो मनु य इसे भि पवू क पढ़ते ह, उन पर भगवान शंभु स न होते ह।

दो० - सिु न िबनती सब य िसव देिख िब अनरु ाग।ु


पिु न मंिदर नभबानी भइ ि जबर बर माग॥ु 108(क)॥

सव िशव ने िवनती सुनी और ा ण का ेम देखा। तब मंिदर म आकाशवाणी हई िक हे


ि ज े ! वर माँगो॥ 108(क)॥

ज स न भो मो पर नाथ दीन पर नेह।


िनज पद भगित देइ भु पिु न दूसर बर देह॥ 108(ख)॥

( ा ण ने कहा -) हे भो! यिद आप मुझ पर स न ह और हे नाथ! यिद इस दीन पर आपका


नेह है, तो पहले अपने चरण क भि देकर िफर दूसरा वर दीिजए॥ 108(ख)॥

तव माया बस जीव जड़ संतत िफरइ भलु ान।


तेिह पर ोध न क रअ भु कृपािसंधु भगवान॥ 108(ग)॥

हे भो! यह अ ानी जीव आपक माया के वश होकर िनरं तर भल


ू ा िफरता है। हे कृपा के समु
भगवान! उस पर ोध न क िजए॥ 108(ग)॥

संकर दीनदयाल अब एिह पर होह कृपाल।


साप अनु ह होइ जेिहं नाथ थोरे ह काल॥ 108(घ)॥

हे दीन पर दया करनेवाले (क याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा क िजए),


िजससे हे नाथ! थोड़े ही समय म इस पर शाप के बाद अनु ह (शाप से मुि ) हो जाए॥ 108(घ)॥

एिह कर होइ परम क याना। सोइ करह अब कृपािनधाना॥


िब िगरा सिु न परिहत सानी। एवम तु इित भइ नभबानी॥

हे कृपािनधान! अब वही क िजए, िजससे इसका परम क याण हो। दूसरे के िहत से सनी हई
ा ण क वाणी सुनकर िफर आकाशवाणी हई - 'एवम तु' (ऐसा ही हो)।

जदिप क ह एिहं दा न पापा। म पिु न दीि ह कोप क र सापा॥


तदिप तु हा र साधत
ु ा देखी। क रहउँ एिह पर कृपा िबसेषी॥

य िप इसने भयानक पाप िकया है और मने भी इसे ोध करके शाप िदया है, तो भी तु हारी
साधुता देखकर म इस पर िवशेष कृपा क ँ गा।

छमासील जे पर उपकारी। ते ि ज मोिह ि य जथा खरारी॥


मोर ाप ि ज यथ न जाइिह। ज म सहस अव य यह पाइिह॥

हे ि ज! जो माशील एवं परोपकारी होते ह, वे मुझे वैसे ही ि य ह जैसे खरा र राम। हे ि ज! मेरा
शाप यथ नह जाएगा। यह हजार ज म अव य पाएगा।

जनमत मरत दस ु ह दख
ु होई। एिह व पउ निहं यािपिह सोई॥
कवनेउँ ज म िमिटिह निहं याना। सन
ु िह सू मम बचन वाना॥

परं तु ज मने और मरने म जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न यापेगा और
िकसी भी ज म म इसका ान नह िमटेगा। हे शू ! मेरा ामािणक (स य) वचन सुन।

रघप ु ित परु ज म तव भयऊ। पिु न म मम सेवाँ मन दयऊ॥


परु ी भाव अनु ह मोर। राम भगित उपिजिह उर तोर॥

( थम तो) तेरा ज म रघुनाथ क पुरी म हआ। िफर तनू े मेरी सेवा म मन लगाया। पुरी के भाव
और मेरी कृपा से तेरे दय म रामभि उ प न होगी।

सन
ु ु मम बचन स य अब भाई। ह रतोषन त ि ज सेवकाई॥
अब जिन करिह िब अपमाना। जानेसु संत अनंत समाना॥

हे भाई! अब मेरा स य वचन सुन। ि ज क सेवा ही भगवान को स न करनेवाला त है। अब


कभी ा ण का अपमान न करना। संत को अनंत भगवान ही के समान जानना।

इं कुिलस मम सूल िबसाला। कालदंड ह र च कराला॥


जो इ ह कर मारा निहं मरई। िब ोह पावक सो जरई॥

इं के व , मेरे िवशाल ि शल
ू , काल के दंड और ह र के िवकराल च के मारे भी जो नह
मरता, वह भी िव ोह पी अि न से भ म हो जाता है।

अस िबबेक राखेह मन माह । तु ह कहँ जग दल


ु भ कछु नाह ॥
औरउ एक आिसषा मोरी। अ ितहत गित होइिह तोरी॥

ऐसा िववेक मन म रखना। िफर तु हारे िलए जगत म कुछ भी दुलभ न होगा। मेरा एक और भी
आशीवाद है िक तु हारी सव अबाध गित होगी (अथात तुम जहाँ जाना चाहोगे, वह िबना रोक-
टोक के जा सकोगे)।

दो० - सिु न िसव बचन हरिष गरु एवम तु इित भािष।


मोिह बोिध गयउ गहृ संभु चरन उर रािख॥ 109(क)॥

(आकाशवाणी के ारा) िशव के वचन सुनकर गु हिषत होकर 'ऐसा ही हो' यह कहकर मुझे
बहत समझाकर और िशव के चरण को दय म रखकर अपने घर गए॥ 109(क)॥

े रत काल िबंिध िग र जाइ भयउँ म याल।


पिु न यास िबनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल॥ 109(ख)॥

काल क ेरणा से म िवं याचल म जाकर सप हआ। िफर कुछ काल बीतने पर िबना ही प र म
(क ) के मने वह शरीर याग िदया॥ 109(ख)॥

जोइ तनु धरउँ तजउँ पिु न अनायास ह रजान।


िजिम नूतन पट पिहरइ नर प रहरइ परु ान॥ 109(ग)॥

हे ह रवाहन! म जो भी शरीर धारण करता, उसे िबना ही प र म वैसे ही सुखपवू क याग देता था,
जैसे मनु य पुराना व याग देता है और नया पिहन लेता है॥ 109(ग)॥

िसवँ राखी ुित नीित अ म निहं पावा लेस।


एिह िबिध धरे उँ िबिबिध तनु यान न गयउ खगेस॥ 109(घ)॥

िशव ने वेद क मयादा क र ा क और मने लेश भी नह पाया। इस कार हे प ीराज! मने


बहत-से शरीर धारण िकए, पर मेरा ान नह गया॥ 109(घ)॥

ि जग देव नर जोइ तनु धरउँ । तहँ तहँ राम भजन अनस


ु रऊँ॥
एक सूल मोिह िबसर न काऊ। गरु कर कोमल सील सभ ु ाऊ॥

ितयक योिन (पशु-प ी), देवता या मनु य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस
शरीर म) म राम का भजन जारी रखता। (इस कार म सुखी हो गया) परं तु एक शल ू मुझे बना
रहा। गु का कोमल, सुशील वभाव मुझे कभी नह भल ू ता (अथात मने ऐसे कोमल वभाव
दयालु गु का अपमान िकया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा)।

चरम देह ि ज कै म पाई। सरु दल


ु भ परु ान ुित गाई॥
खेलउँ तहँ बालक ह मीला। करउँ सकल रघन
ु ायक लीला॥

मने अंितम शरीर ा ण का पाया, िजसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुलभ बताते ह। म वहाँ
( ा ण शरीर म) भी बालक म िमलकर खेलता तो रघुनाथ क ही सब लीलाएँ िकया करता।

ौढ़ भएँ मोिह िपता पढ़ावा। समझउँ सन


ु उँ गन
ु उँ निहं भावा॥
मन ते सकल बासना भागी। केवल राम चरन लय लागी॥

सयाना होने पर िपता मुझे पढ़ाने लगे। म समझता, सुनता और िवचारता, पर मुझे पढ़ना अ छा
नह लगता था। मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गई ं। केवल राम के चरण म लव लग गई।

कह खगेस अस कवन अभागी। खरी सेव सरु धेनिु ह यागी॥


े मगन मोिह कछु न सोहाई। हारे उ िपता पढ़ाइ पढ़ाई॥

हे ग ड़! किहए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गधी क सेवा करे गा? ेम म
म न रहने के कारण मुझे कुछ भी नह सुहाता। िपता पढ़ा-पढ़ाकर हार गए।

भए कालबस जब िपतु माता। म बन गयउँ भजन जन ाता॥


जहँ जहँ िबिपन मन
ु ी वर पावउँ । आ म जाइ जाइ िस नावउँ ॥

जब िपता-माता कालवश हो गए (मर गए), तब म भ क र ा करनेवाले राम का भजन करने


के िलए वन म चला गया। वन म जहाँ-जहाँ मुनी र के आ म पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उ ह
िसर नवाता।

बूझउँ ित हिह राम गनु गाहा। कहिहं सन


ु उँ हरिषत खगनाहा॥
सनु त िफरउँ ह र गन
ु अनबु ादा। अ याहत गित संभु सादा॥

हे ग ड़! उनसे म राम के गुण क कथाएँ पछ ू ता। वे कहते और म हिषत होकर सुनता। इस


कार म सदा-सवदा ह र के गुणानुवाद सुनता िफरता। िशव क कृपा से मेरी सव अबािधत गित
थी (अथात म जहाँ चाहता वह जा सकता था)।

छूटी ि िबिध ईषना गाढ़ी। एक लालसा उर अित बाढ़ी॥


राम चरन बा रज जब देख । तब िनज ज म सफल क र लेख ॥

मेरी तीन कार क (पु क , धन क और मान क ) गहरी बल वासनाएँ छूट गई ं और दय म


एक यही लालसा अ यंत बढ़ गई िक जब राम के चरणकमल के दशन क ँ तब अपना ज म
सफल हआ समझँ।ू

जेिह पूँछउँ सोइ मिु न अस कहई। ई वर सब भूतमय अहई॥


िनगन
ु मत निहं मोिह सोहाई। सगन
ु रित उर अिधकाई॥

िजनसे म पछ ू मय है। यह िनगुण मत मुझे नह सुहाता


ू ता, वे ही मुिन ऐसा कहते िक ई र सवभत
था। दय म सगुण पर ीित बढ़ रही थी।

दो० - गरु के बचन सरु ित क र राम चरन मनु लाग।


रघप
ु ित जस गावत िफरउँ छन छन नव अनरु ाग॥ 110(क)॥

गु के वचन का मरण करके मेरा मन राम के चरण म लग गया। म ण- ण नया-नया ेम


ा करता हआ रघुनाथ का यश गाता िफरता था॥ 110(क)॥

मे िसखर बट छायाँ मिु न लोमस आसीन।


देिख चरन िस नायउँ बचन कहेउँ अित दीन॥ 110(ख)॥

सुमे पवत के िशखर पर बड़ क छाया म लोमश मुिन बैठे थे। उ ह देखकर मने उनके चरण म
िसर नवाया और अ यंत दीन वचन कहे ॥ 110(ख)॥

सिु न मम बचन िबनीत मदृ ु मिु न कृपाल खगराज।


मोिह सादर पूँछत भए ि ज आयह केिह काज॥ 110(ग)॥

हे प ीराज! मेरे अ यंत न और कोमल वचन सुनकर कृपालु मुिन मुझसे आदर के साथ पछ
ू ने
लगे - हे ा ण! आप िकस काय से यहाँ आए ह?॥ 110(ग)॥

तब म कहा कृपािनिध तु ह सब य सज
ु ान।
सगनु अवराधन मोिह कहह भगवान॥ 110(घ)॥

तब मने कहा - हे कृपािनिध! आप सव ह और सुजान ह। हे भगवन! मुझे सगुण क


आराधना (क ि या) किहए॥ 110(घ)॥

तब मन
ु ीस रघप
ु ित गन ु गाथा। कहे कछुक सादर खगनाथा॥
यान रत मिु न िब यानी। मोिह परम अिधकारी जानी॥

तब हे प ीराज! मुनी र ने रघुनाथ के गुण क कुछ कथाएँ आदर सिहत कह । िफर वे


ानपरायण िव ानवान मुिन मुझे परम अिधकारी जानकर -

लागे करन उपदेसा। अज अ त ै अगन


ु दयेसा॥
अकल अनीह अनाम अ पा। अनभु व ग य अखंड अनूपा॥

ै है, िनगुण है और दय का वामी


का उपदेश करने लगे िक व&##2361; अज मा है, अ त
(अंतयामी) है। उसे कोई बुि के ारा माप नह सकता, वह इ छारिहत, नामरिहत, परिहत,
अनुभव से जानने यो य, अखंड और उपमारिहत है।

मन गोतीत अमल अिबनासी। िनिबकार िनरविध सख ु रासी॥


सो त तािह तोिह निहं भेदा। बा र बीिच इव गाविहं बेदा॥

वह मन और इंि य से परे , िनमल, िवनाशरिहत, िनिवकार, सीमारिहत और सुख क रािश है। वेद
ऐसा गाते ह िक वही तू है, (त वमिस), जल और जल क लहर क भाँित उसम और तुझम कोई
भेद नह है।

िबिबिध भाँित मोिह मिु न समझ


ु ावा। िनगन
ु मत मम दयँ न आवा॥
पिु न म कहेउँ नाइ पद सीसा। सगन ु उपासन कहह मन
ु ीसा॥

मुिन ने मुझे अनेक कार से समझाया, पर िनगुण मत मेरे दय म नह बैठा। मने िफर मुिन के
चरण म िसर नवाकर कहा - हे मुनी र! मुझे सगुण क उपासना किहए।

राम भगित जल मम मन मीना। िकिम िबलगाइ मनु ीस बीना॥


सोइ उपदेस कहह क र दाया। िनज नयनि ह देख रघरु ाया॥

मेरा मन रामभि पी जल म मछली हो रहा है (उसी म रम रहा है)। हे चतुर मुनी र! ऐसी दशा
म वह उससे अलग कैसे हो सकता है? आप दया करके मुझे वही उपदेश (उपाय) किहए िजससे म
रघुनाथ को अपनी आँख से देख सकँ ू ।

भ र लोचन िबलोिक अवधेसा। तब सिु नहउँ िनगनु उपदेसा॥


मिु न पिु न किह ह रकथा अनूपा। खंिड सगन
ु मत अगन
ु िन पा॥

(पहले) ने भरकर अयो यानाथ को देखकर, तब िनगुण का उपदेश सुनँग


ू ा। मुिन ने िफर
अनुपम ह रकथा कहकर, सगुण मत का खंडन करके िनगुण का िन पण िकया।

तब म िनगन
ु मत कर दूरी। सगनु िन पउँ क र हठ भूरी॥
उ र ितउ र म क हा। मिु न तन भए ोध के ची हा॥

तब म िनगुण मत को हटाकर (काटकर) बहत हठ करके सगुण का िन पण करने लगा। मने


उ र- यु र िकया, इससे मुिन के शरीर म ोध के िच उ प न हो गए।

ु ु भु बहत अव या िकएँ । उपज ोध यािन ह के िहएँ ॥


सन
अित संघरषन ज कर कोई। अनल गट चंदन ते होई॥

हे भो! सुिनए, बहत अपमान करने पर ानी के भी दय म ोध उ प न हो जाता है। यिद कोई
चंदन क लकड़ी को बहत अिधक रग़ड़े , तो उससे भी अि न कट हो जाएगी।

दो० - बारं बार सकोप मिु न करइ िन पन यान।


म अपन मन बैठ तब करउँ िबिबिध अनम ु ान॥ 111(क)॥

मुिन बार-बार ोध सिहत ान का िन पण करने लगे। तब म बैठा-बैठा अपने मन म अनेक


कार के अनुमान करने लगा॥ 111(क)॥

ोध िक तै बिु िबनु त
ै िक िबनु अ यान।
मायाबस प रिछ न जड़ जीव िक ईस समान॥ 111(ख)॥

िबना तै बुि के ोध कैसा और िबना अ ान के या त ै बुि हो सकती है? माया के वश


रहनेवाला प रि छ न जड़ जीव या ई र के समान हो सकता है?॥ 111(ख)॥

कबहँ िक दःु ख सब कर िहत ताक। तेिह िक द र परस मिन जाक॥


पर ोही क होिहं िनसंका। कामी पिु न िक रहिहं अकलंका॥

सबका िहत चाहने से या कभी दुःख हो सकता है? िजसके पास पारसमिण है, उसके पास या
द र ता रह सकती है? दूसरे से ोह करनेवाले या िनभय हो सकते ह और कामी या
कलंकरिहत (बेदाग) रह सकते ह?

बंस िक रह ि ज अनिहत क ह। कम क होिहं व पिह ची ह॥


काह समु ित िक खल सँग जामी। सभ
ु गित पाव िक परि य गामी॥

ा ण का बुरा करने से या वंश रह सकता है? व प क पिहचान (आ म ान) होने पर या


(आसि पवू क) कम हो सकते ह? दु के संग से या िकसी के सुबुि उ प न हई है?
पर ीगामी या उ म गित पा सकता है?

भव िक परिहं परमा मा िबंदक। सखु ी िक होिहं कबहँ ह र िनंदक॥


राजु िक रहइ नीित िबनु जान। अघ िक रहिहं ह रच रत बखान॥

परमा मा को जाननेवाले कह ज म-मरण (के च कर) म पड़ सकते ह? भगवान क िनंदा


करनेवाले कभी सुखी हो सकते ह? नीित िबना जाने या रा य रह सकता है? ह र के च र
वणन करने पर या पाप रह सकते ह?

पावन जस िक पु य िबनु होई। िबनु अघ अजस िक पावइ कोई॥


लाभु िक िकछु ह र भगित समाना। जेिह गाविहं ुित संत परु ाना॥

िबना पु य के या पिव यश ( ा ) हो सकता है? िबना पाप के भी या कोई अपयश पा सकता


है? िजसक मिहमा वेद, संत और पुराण गाते ह और उस ह र-भि के समान या कोई दूसरा
लाभ भी है?

हािन िक जग एिह सम िकछु भाई। भिजअ न रामिह नर तनु पाई॥


अघ िक िपसनु ता सम कछु आना। धम िक दया स रस ह रजाना॥

हे भाई! जगत म या इसके समान दूसरी भी कोई हािन है िक मनु य का शरीर पाकर भी राम
का भजन न िकया जाए? चुगलखोरी के समान या कोई दूसरा पाप है? और हे ग ड़! दया के
समान या कोई दूसरा धम है?

एिह िबिध अिमित जुगिु त मन गनु ऊँ। मिु न उपदेस न सादर सन


ु उँ ॥
पिु न पिु न सगन
ु प छ म रोपा। तब मिु न बोलेउ बचन सकोपा॥

इस कार म अनिगनत युि याँ मन म िवचारता था और आदर के साथ मुिन का उपदेश नह


सुनता था। जब मने बार-बार सगुण का प थािपत िकया, तब मुिन ोधयु वचन बोले -

मूढ़ परम िसख देउँ न मानिस। उ र ितउ र बह आनिस॥


स य बचन िब वास न करही। बायस इव सबही ते डरही॥

ू ! म तुझे सव म िश ा देता हँ, तो भी तू उसे नह मानता और बहत-से उ र- यु र


अरे मढ़
(दलील) लाकर रखता है। मेरे स य वचन पर िव ास नह करता। कौए क भाँित सभी से डरता
है।

सठ वप छ तव दयँ िबसाला। सपिद होिह प छी चंडाला॥


ली ह ाप म सीस चढ़ाई। निहं कछु भय न दीनता आई॥

ू ! तेरे दय म अपने प का बड़ा भारी हठ है, अतः तू शी चांडाल प ी (कौवा) हो जा।


अरे मख
मने आनंद के साथ मुिन के शाप को िसर पर चढ़ा िलया। उससे मुझे न कुछ भय हआ, न दीनता
ही आई।

दो० - तरु त भयउँ म काग तब पिु न मिु न पद िस नाइ।


सिु म र राम रघब
ु ंस मिन हरिषत चलेउँ उड़ाइ॥ 112(क)॥

तब म तुरंत ही कौवा हो गया। िफर मुिन के चरण म िसर नवाकर और रघुकुल िशरोमिण राम का
मरण करके म हिषत होकर उड़ चला॥ 112(क)॥

उमा जे राम चरन रत िबगत काम मद ोध।


िनज भम ु य देखिहं जगत केिह सन करिहं िबरोध॥ 112(ख)॥
(िशव कहते ह -) हे उमा! जो राम के चरण के ेमी ह और काम, अिभमान तथा ोध से रिहत ह,
वे जगत को अपने भु से भरा हआ देखते ह, िफर वे िकससे वैर कर॥ 112(ख)॥

सनु ु खगेस निहं कछु रिष दूषन। उर रे क रघब


ु ंस िबभूषन॥
े प र छा मोरी॥
कृपािसंधु मिु न मित क र भोरी। ली ही म

(काकभुशुंिड ने कहा -) हे प ीराज ग ड़! सुिनए, इसम ऋिष का कुछ भी दोष नह था। रघुवंश
क#2375; िवभषू ण राम ही सबके दय म ेरणा करनेवाले ह। कृपा-सागर भु ने मुिन क बुि
को भोली करके (भुलावा देकर) मेरे ेम क परी ा ली।

मन बच म मोिह िनज जन जाना। मिु न मित पिु न फेरी भगवाना॥


रिष मम महत सीलता देखी। राम चरन िब वास िबसेषी॥

मन, वचन और कम से जब भु ने मुझे अपना दास जान िलया, तब भगवान ने मुिन क बुि
िफर पलट दी। ऋिष ने मेरा महान पु ष का-सा वभाव (धैय, अ ोध, िवनय आिद) और राम के
चरण म िवशेष िव ास देखा,

अित िबसमय पिु न पिु न पिछताई। सादर मिु न मोिह ली ह बोलाई॥


मम प रतोष िबिबिध िबिध क हा। हरिषत राममं तब दी हा॥

तब मुिन ने बहत दुःख के साथ बार-बार पछताकर मुझे आदरपवू क बुला िलया। उ ह ने अनेक
कार से मेरा संतोष िकया और तब हिषत होकर मुझे राममं िदया।

बालक प राम कर याना। कहेउ मोिह मिु न कृपािनधाना॥


संदु र सख
ु द मोिह अित भावा। सो थमिहं म तु हिह सन
ु ावा॥

कृपािनधान मुिन ने मुझे बालक प राम का यान ( यान क िविध) बतलाया। सुंदर और सुख
देनेवाला यह यान मुझे बहत ही अ छा लगा। वह यान म आपको पहले ही सुना चुका हँ।

मिु न मोिह कछुक काल तहँ राखा। रामच रतमानस तब भाषा॥


सादर मोिह यह कथा सनु ाई। पिु न बोले मिु न िगरा सहु ाई॥

मुिन ने कुछ समय तक मुझको वहाँ (अपने पास) रखा। तब उ ह ने रामच रतमानस सुनाया।
आदरपवू क मुझे यह कथा सुनाकर िफर मुिन मुझसे सुंदर वाणी बोले -

रामच रत सर गु सहु ावा। संभु साद तात म पावा॥


तोिह िनज भगत राम कर जानी। ताते म सब कहेउँ बखानी॥

हे तात! यह सुंदर और गु रामच रतमानस मने िशव क कृपा से पाया था। तु ह राम का 'िनज
भ ' जाना, इसी से मने तुमसे सब च र िव तार के साथ कहा।

राम भगित िज ह क उर नाह । कबहँ न तात किहअ ित ह पाह ॥


मिु न मोिह िबिबिध भाँित समझ े मिु न पद िस नावा॥
ु ावा। म स म

हे तात! िजनके दय म राम क भि नह है, उनके सामने इसे कभी भी नह कहना चािहए।
मुिन ने मुझे बहत कार से समझाया। तब मने ेम के साथ मुिन के चरण म िसर नवाया।

िनज कर कमल परिस मम सीसा। हरिषत आिसष दी ह मन ु ीसा॥


राम भगित अिबरल उर तोर। बिसिह सदा साद अब मोर॥

मुनी र ने अपने करकमल से मेरा िसर पश करके हिषत होकर आशीवाद िदया िक अब मेरी
कृपा से तेरे दय म सदा गाढ़ राम भि बसेगी।

दो० - सदा राम ि य होह तु ह सभ


ु गन
ु भवन अमान।
काम प इ छामरन यान िबराग िनधान॥ 113(क)॥

तुम सदा राम को ि य होओ और क याण प गुण के धाम, मानरिहत, इ छानुसार प धारण
करने म समथ, इ छा म ृ यु (िजसक शरीर छोड़ने क इ छा करने पर ही म ृ यु हो, िबना इ छा के
म ृ यु न हो), एवं ान और वैरा य के भंडार होओ॥ 113(क)॥

जेिहं आ म तु ह बसब पिु न सिु मरत ीभगवंत।


यािपिह तहँ न अिब ा जोजन एक जंत॥ 113(ख)॥

इतना ही नह , ी भगवान को मरण करते हए तुम िजस आ म म िनवास करोगे वहाँ एक


योजन (चार कोस) तक अिव ा (माया-मोह) नह यापेगी॥ 113(ख)॥

काल कम गन ु दोष सभ
ु ाऊ। कछु दख
ु तु हिह न यािपिह काऊ॥
राम रह य लिलत िबिध नाना। गु गट इितहास परु ाना॥

काल, कम, गुण, दोष और वभाव से उ प न कुछ भी दुःख तुमको कभी नह यापेगा। अनेक
कार के सुंदर राम के रह य (गु मम के च र और गुण), जो इितहास और पुराण म गु और
कट ह (विणत और लि त ह)।

िबनु म तु ह जानब सब सोऊ। िनत नव नेह राम पद होऊ॥


जो इ छा क रहह मन माह । ह र साद कछु दल
ु भ नाह ॥

तुम उन सबको भी िबना ही प र म जान जाओगे। राम के चरण म तु हारा िन य नया ेम हो।
अपने मन म तुम जो कुछ इ छा करोगे, ह र क कृपा से उसक पिू त कुछ भी दुलभ नह होगी।
सिु न मिु न आिसष सन
ु ु मितधीरा। िगरा भइ गगन गँभीरा॥
एवम तु तव बच मिु न यानी। यह मम भगत कम मन बानी॥

हे धीरबुि ग ड़! सुिनए, मुिन का आशीवाद सुनकर आकाश म गंभीर वाणी हई िक हे ानी


मुिन! तु हारा वचन ऐसा ही (स य) हो। यह कम, मन और वचन से मेरा भ है।

सिु न नभिगरा हरष मोिह भयऊ। म े मगन सब संसय गयऊ॥


क र िबनती मिु न आयसु पाई। पद सरोज पिु न पिु न िस नाई॥

आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हष हआ। म ेम म म न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा।
तदनंतर मुिन क िवनती करके, आ ा पाकर और उनके चरणकमल म बार-बार िसर नवाकर -

हरष सिहत एिहं आ म आयउँ । भु साद दल ु भ बर पायउँ ॥


इहाँ बसत मोिह सन
ु ु खग ईसा। बीते कलप सात अ बीसा॥

म हष सिहत इस आ म म आया। भु राम क कृपा से मने दुलभ वर पा िलया। हे प ीराज! मुझे


यहाँ िनवास करते स ाईस क प बीत गए।

करउँ सदा रघप


ु ित गन
ु गाना। सादर सन ु िहं िबहंग सज
ु ाना॥
जब जब अवधपरु रघब ु ीरा। धरिहं भगत िहत मनज ु सरीरा॥

म यहाँ सदा रघुनाथ के गुण का गान िकया करता हँ और चतुर प ी उसे आदरपवू क सुनते ह।
अयो यापुरी म जब-जब रघुवीर भ के (िहत के) िलए मनु य शरीर धारण करते ह,

तब तब जाइ राम परु रहऊँ। िससल ु ीला िबलोिक सख


ु लहऊँ॥
पिु न उर रािख राम िससु पा। िनज आ म आवउँ खगभूपा॥

तब-तब म जाकर राम क नगरी म रहता हँ और भु क िशशुलीला देखकर सुख ा करता हँ।
िफर हे प ीराज! राम के िशशु प को दय म रखकर म अपने आ म म आ जाता हँ।

कथा सकल म तु हिह सन


ु ाई। काग देिह जेिहं कारन पाई॥
किहउँ तात सब न तु हारी। राम भगित मिहमा अित भारी॥

िजस कारण से मने कौवे क देह पाई, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात! मने आपके सब
के उ र कहे । अहा! रामभि क बड़ी भारी मिहमा है।

दो० - ताते यह तन मोिह ि य भयउ राम पद नेह।


िनज भु दरसन पायउँ गए सकल संदहे ॥ 114(क)॥
मुझे अपना यह काक शरीर इसीिलए ि य है िक इसम मुझे राम के चरण का ेम ा हआ। इसी
शरीर से मने अपने भु के दशन पाए और मेरे सब संदेह जाते रहे (दूर हए)॥ 114(क)॥

भगित प छ हठ क र रहेउँ दीि ह महा रिष साप।


मिु न दल
ु भ बर पायउँ देखह भजन ताप॥ 114(ख)॥

म हठ करके भि प पर अड़ा रहा, िजससे महिष लोमश ने मुझे शाप िदया; परं तु उसका फल
यह हआ िक जो मुिनय को भी दुलभ है, वह वरदान मने पाया। भजन का ताप तो देिखए!॥
114(ख)॥

जे अिस भगित जािन प रहरह । केवल यान हेतु म करह ॥


ते जड़ कामधेनु गहृ ँ यागी। खोजत आकु िफरिहं पय लागी॥

जो भि क ऐसी मिहमा जानकर भी उसे छोड़ देते ह और केवल ान के िलए म (साधन)


ू घर पर खड़ी हई कामधेनु को छोड़कर दूध के िलए मदार के पेड़ को खोजते
करते ह, वे मख
िफरते ह।

सनु ु खगेस ह र भगित िबहाई। जे सख ु चाहिहं आन उपाई॥


ते सठ महािसंधु िबनु तरनी। पै र पार चाहिहं जड़ करनी॥

हे प ीराज! सुिनए, जो लोग ह र क भि को छोड़कर दूसरे उपाय से सुख चाहते ह, वे मख



और जड़ करनीवाले (अभागे) िबना ही जहाज के तैरकर महासमु के पार जाना चाहते ह।

सिु न भसंिु ड के बचन भवानी। बोलेउ ग ड़ हरिष मदृ ु बानी॥


तव साद भु मम उर माह । संसय सोक मोह म नाह ॥

(िशव कहते ह -) हे भवानी! भुशुंिड के वचन सुनकर ग ड़ हिषत होकर कोमल वाणी से बोले -
हे भो! आपके साद से मेरे दय म अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नह रह गया।

ु उे ँ पन
सन ु ीत राम गन
ु ामा। तु हरी कृपाँ लहेउँ िब ामा॥
एक बात भु पूँछउँ तोही। कहह बझ ु ाइ कृपािनिध मोही॥

मने आपक कृपा से राम के पिव गुणसमहू को सुना और शांित ा क । हे भो! अब म आपसे
ू ता हँ। हे कृपासागर! मुझे समझाकर किहए।
एक बात और पछ

कहिहं संत मिु न बेद परु ाना। निहं कछु दल


ु भ यान समाना॥
सोइ मिु न तु ह सन कहेउ गोसाई ं। निहं आदरे ह भगित क नाई ं॥

संत, मुिन, वेद और पुराण यह कहते ह िक ान के समान दुलभ कुछ भी नह है। हे गोसाई ं! वही
ान मुिन ने आपसे कहा, परं तु आपने भि के समान उसका आदर नह िकया।

यानिह भगितिह अंतर केता। सकल कहह भु कृपा िनकेता॥


सिु न उरगा र बचन सख
ु माना। सादर बोलेउ काग सज
ु ाना॥

हे कृपा के धाम! हे भो! ान और भि म िकतना अंतर है? यह सब मुझसे किहए। ग ड़ के


वचन सुनकर सुजान काकभुशुंिड ने सुख माना और आदर के साथ कहा -

भगितिह यानिह निहं कछु भेदा। उभय हरिहं भव संभव खेदा॥


नाथ मन
ु ीस कहिहं कछु अंतर। सावधान सोउ सन ु ु िबहंगबर॥

भि और ान म कुछ भी भेद नह है। दोन ही संसार से उ प न लेश को हर लेते ह। हे नाथ!


मुनी र इनम कुछ अंतर बतलाते ह। हे प ी े ! उसे सावधान होकर सुिनए।

यान िबराग जोग िब याना। ए सब पु ष सन


ु ह ह रजाना॥
पु ष ताप बल सब भाँती। अबला अबल सहज जड़ जाती॥

हे ह र वाहन! सुिनए; ान, वैरा य, योग, िव ान - ये सब पु ष ह; पु ष का ताप सब कार


से बल होता है। अबला (माया) वाभािवक ही िनबल और जाित (ज म) से ही जड़ (मख ू ) होती
है।

दो० - पु ष यािग सक ना रिह जो िबर मित धीर।


न तु कामी िबषयाबस िबमख
ु जो पद रघबु ीर॥ 115(क)॥

परं तु जो वैरा यवान और धीरबुि पु ष ह वही ी को याग सकते ह, न िक वे कामी पु ष, जो


िवषय के वश म ह (उनके गुलाम ह) और रघुवीर के चरण से िवमुख ह॥ 115(क)॥

सो० - सोउ मिु न यानिनधान मग ृ नयनी िबधु मख


ु िनरिख।
िबबस होइ ह रजान ना र िब नु माया गट॥ 115(ख)॥

वे ान के भंडार मुिन भी मग
ृ नयनी (युवती ी) के चं मुख को देखकर िववश (उसके अधीन)
हो जाते ह। हे ग ड़! सा ात भगवान िव णु क माया ही ी प से कट है॥ 115(ख)॥

इहाँ न प छपात कछु राखउँ । बेद परु ान संत मत भाषउँ ॥


मोह न ना र ना र क पा। प नगा र यह रीित अनूपा॥

यहाँ म कुछ प पात नह रखता। वेद, पुराण और संत का मत (िस ांत) ही कहता हँ। हे ग ड़!
यह अनुपम (िवल ण) रीित है िक एक ी के प पर दूसरी ी मोिहत नह होती।
माया भगित सन ु ह तु ह दोऊ। ना र बग जानइ सब कोऊ॥
पिु न रघब
ु ीरिह भगित िपआरी। माया खलु नतक िबचारी॥

आप सुिनए, माया और भि - ये दोन ही ी वग क ह, यह सब कोई जानते ह। िफर रघुवीर


को भि यारी है। माया बेचारी तो िन य ही नाचनेवाली (निटनी मा ) है।

भगितिह सानकु ू ल रघरु ाया। ताते तेिह डरपित अित माया॥


राम भगित िन पम िन पाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी॥

रघुनाथ भि के िवशेष अनुकूल रहते ह। इसी से माया उससे अ यंत डरती रहती है। िजसके दय
म उपमारिहत और उपािधरिहत (िवशु ) रामभि सदा िबना िकसी बाधा (रोक-टोक) के बसती
है;

तेिह िबलोिक माया सकुचाई। क र न सकइ कछु िनज भत ु ाई॥


अस िबचा र जे मिु न िब यानी। जाचिहं भगित सकल सख
ु खानी॥

उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी भुता कुछ भी नह कर (चला) सकती।
ऐसा िवचार कर ही जो िव ानी मुिन ह, वे भी सब सुख क खािन भि क ही याचना करते ह।

दो० - यह रह य रघनु ाथ कर बेिग न जानइ कोइ।


जो जानइ रघपु ित कृपाँ सपनेहँ मोह न होइ॥ 116(क)॥

रघुनाथ का यह रह य (गु मम) ज दी कोई भी नह जान पाता। रघुनाथ क कृपा से जो इसे


जान जाता है, उसे व न म भी मोह नह होता॥ 116(क)॥

औरउ यान भगित कर भेद सन ु ह सु बीन।


जो सिु न होइ राम पद ीित सदा अिबछीन॥ 116(ख)॥

हे सुचतुर ग ड़! ान और भि का और भी भेद सुिनए, िजसके सुनने से राम के चरण म सदा


अिवि छ न (एकतार) ेम हो जाता है॥ 116(ख)॥

सनु ह तात यह अकथ कहानी। समझ ु त बनइ न जाइ बखानी॥


ई वर अंस जीव अिबनासी। चेतन अमल सहज सख ु रासी॥

हे तात! यह अकथनीय कहानी (वाता) सुिनए। यह समझते ही बनती है, कही नह जा सकती।
जीव ई र का अंश है। (अतएव) वह अिवनाशी, चेतन, िनमल और वभाव से ही सुख क रािश है।

सो मायाबस भयउ गोसाई ं। बँ यो क र मरकट क नाई ं॥


जड़ चेतनिह ंिथ प र गई। जदिप मष ृ ा छूटत किठनई॥
हे गोसाई ं ! वह माया के वशीभत
ू होकर तोते और वानर क भाँित अपने-आप ही बँध गया। इस
कार जड़ और चेतन म ंिथ (गाँठ) पड़ गई। य िप वह ंिथ िम या ही है, तथािप उसके छूटने म
किठनता है।

तब ते जीव भयउ संसारी। छूट न ंिथ न होइ सखु ारी॥


ुित परु ान बह कहेउ उपाई। छूट न अिधक अिधक अ झाई॥

तभी से जीव संसारी (ज मने-मरनेवाला) हो गया। अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता


है। वेद और पुराण ने बहत-से उपाय बतलाए ह, पर वह ( ंिथ) छूटती नह वरन अिधकािधक
उलझती ही जाती है।

जीव दयँ तम मोह िबसेषी। ंिथ छूट िकिम परइ न देखी॥


अस संजोग ईस जब करई। तबहँ कदािचत सो िन अरई॥

जीव के दय म अ ान पी अंधकार िवशेष प से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नह पड़ती, छूटे
तो कैसे? जब कभी ई र ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपि थत कर देते ह तब भी
कदािचत ही वह ( ंिथ) छूट पाती है।

साि वक ा धेनु सहु ाई। ज ह र कृपाँ दयँ बस आई॥


जप तप त जम िनयम अपारा। ज#2332;◌े ुित कह सभ ु धम अचारा॥

ह र क कृपा से यिद साि वक ा पी सुंदर गौ दय पी घर म आकर बस जाए; असं य जप,


तप त यम और िनयमािद शुभ धम और आचार (आचरण), जो ुितय ने कहे ह,

तेइ तन
ृ ह रत चरै जब गाई। भाव ब छ िससु पाइ पे हाई॥
नोइ िनबिृ पा िब वासा। िनमल मन अहीर िनज दासा॥

उ ह (धमाचार पी) हरे तण ृ (घास) को जब वह गौ चरे और आि तक भाव पी छोटे बछड़े को


पाकर वह पे हावे। िनविृ (सांसा रक िवषय से और पंच से हटना) नोई (गौ के दुहते समय
िपछले पैर बाँधने क र सी) है, िव ास (दूध दुहने का) बरतन है, िनमल (िन पाप) मन जो वयं
अपना दास है। (अपने वश म है), दुहनेवाला अहीर है।

परम धममय पय दिु ह भाई। अवटै अनल अकाम बनाई॥


तोष म त तब छमाँ जुड़ावै। धिृ त सम जावनु देइ जमावै॥

हे भाई, इस कार (धमाचार म व ृ साि वक ा पी गौ से भाव, िनविृ और वश म िकए हए


िनमल मन क सहायता से) परम धममय दूध दुहकर उसे िन काम भाव पी अि न पर भली-
भाँित औटाए। िफर मा और संतोष पी हवा से उसे ठं डा करे और धैय तथा शम (मन का िन ह)
पी जामन देकर उसे जमावे।

मिु दताँ मथै िबचार मथानी। दम अधार रजु स य सबु ानी॥


तब मिथ कािढ़ लेइ नवनीता। िबमल िबराग सभ ु ग सप ु न
ु ीता॥

तब मुिदता ( स नता) पी कमोरी म त व िवचार पी मथानी से दम (इंि य-दमन) के आधार


पर (दम पी खंभे आिद के सहारे ) स य और सुंदर वाणी पी र सी लगाकर उसे मथे और मथकर
तब उसम से िनमल, सुंदर और अ यंत पिव वैरा य पी म खन िनकाल ले।

दो० - जोग अिगिन क र गट तब कम सभ ु ासभ


ु लाइ।
बिु िसरावै यान घत
ृ ममता मल ज र जाइ॥ 117(क)॥

तब योग पी अि न कट करके उसम सम त शुभाशुभ कम पी ई ंधन लगा दे (सब कम को


योग पी अि न म भ म कर दे)। जब (वैरा य पी म खन का) ममता पी मल जल जाए, तब
(बचे हए) ान पी घी को (िन याि मका) बुि से ठं डा करे ॥ 117(क)॥

तब िब यान िपनी बिु िबसद घत


ृ पाइ।
िच िदआ भ र धरै ढ़ समता िदअिट बनाइ॥ 117(ख)॥

तब िव ान िपणी बुि उस ( ान पी) िनमल घी को पाकर उससे िच पी दीए को भरकर,


समता क दीवट बनाकर, उस पर उसे ढ़तापवू क (जमाकर) रखे॥ 117(ख)॥

तीिन अव था तीिन गन ु तेिह कपास त कािढ़।


तल
ू तरु ीय सँवा र पिु न बाती करै सग
ु ािढ़॥ 117(ग)॥

(जा त, व न और सुषुि ) तीन अव थाएँ और (स व, रज और तम) तीन गुण पी कपास से


तुरीयाव था पी ई को िनकालकर और िफर उसे सँवारकर उसक सुंदर कड़ी ब ी बनाएँ ॥
117(ग)॥

सो० - एिह िबिध लेस ै दीप तेज रािस िब यानमय।


जातिहं जासु समीप जरिहं मदािदक सलभ सब॥ 117(घ)॥

इस कार तेज क रािश िव ानमय दीपक को जलावे, िजसके समीप जाते ही मद आिद सब
पतंगे जल जाएँ ॥ 117(घ)॥

सोहमि म इित बिृ अखंडा। दीप िसखा सोइ परम चंडा॥


आतम अनभ ु व सख
ु सु कासा। तब भव मूल भेद म नासा॥

'सोऽहमि म' (वह म हँ) - यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटनेवाली) विृ है, वही (उस
ानदीपक क ) परम चंड दीपिशखा (लौ) है। (इस कार) जब आ मानुभव के सुख का सुंदर
काश फै लता है, तब संसार के मल
ू भेद पी म का नाश हो जाता है,

बल अिब ा कर प रवारा। मोह आिद तम िमटइ अपारा॥


तब सोइ बिु पाइ उँ िजआरा। उर गहृ ँ बैिठ ंिथ िन आरा॥

और महान बलवती अिव ा के प रवार मोह आिद का अपार अंधकार िमट जाता है। तब वही
(िव ान िपणी) बुि (आ मानुभव प) काश को पाकर दय पी घर म बैठकर उस जड़-चेतन
क गाँठ को खोलती है।

छोरन ंिथ पाव ज सोई। तब यह जीव कृतारथ होई॥


छोरत ंथ जािन खगराया। िब न नेक करइ तब माया॥

यिद वह (िव ान िपणी बुि ) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृताथ हो। परं तु हे
प ीराज ग ड़! गाँठ खोलते हए जानकर माया िफर अनेक िव न करती है।

रि िसि रे इ बह भाई। बिु िह लोभ िदखाविहं आई॥


कल बल छल क र जािहं समीपा। अंचल बात बझ ु ाविहं दीपा॥

हे भाई! वह बहत-सी ऋि -िसि य को भेजती है, जो आकर बुि को लोभ िदखाती ह और वे


ऋि -िसि याँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल क वायु से उस
ान पी दीपक को बुझा देती ह।

होइ बिु ज परम सयानी। ित ह तन िचतव न अनिहत जानी॥


ज तेिह िब न बिु निहं बाधी। तौ बहो र सरु करिहं उपाधी॥

यिद बुि बहत ही सयानी हई, तो वह उन (ऋि -िसि य ) को अिहतकर (हािनकर) समझकर
उनक ओर ताकती नह । इस कार यिद माया के िव न से बुि को बाधा न हई, तो िफर देवता
उपािध (िव न) करते ह।

इं ी ार झरोखा नाना। तहँ तहँ सरु बैठे क र थाना॥


आवत देखिहं िबषय बयारी। ते हिठ देिहं कपाट उघारी॥

इंि य के ार दय पी घर के अनेक झरोखे ह। वहाँ-वहाँ ( येक झरोखे पर) देवता थाना िकए
(अड्डा जमाकर) बैठे ह। य ही वे िवषय पी हवा को आते देखते ह, य ही हठपवू क िकवाड़
खोल देते ह।

जब सो भंजन उर गहृ ँ जाई। तबिहं दीप िब यान बझ


ु ाई॥
ंिथ न छूिट िमटा सो कासा। बिु िबकल भइ िबषय बतासा॥
य ही वह तेज हवा दय पी घर म जाती है, य ही वह िव ान पी दीपक बुझ जाता है। गाँठ
भी नह छूटी और वह (आ मानुभव प) काश भी िमट गया। िवषय पी हवा से बुि याकुल हो
गई (सारा िकया-कराया चौपट हो गया)।

इं ि ह सरु ह न यान सोहाई। िबषय भोग पर ीित सदाई॥


िबषय समीर बिु कृत भोरी। तेिह िबिध दीप को बार बहोरी॥

इंि य और उनके देवताओं को ान ( वाभािवक ही) नह सुहाता; य िक उनक िवषय-भोग म


सदा ही ीित रहती है। और बुि को भी िवषय पी हवा ने बावली बना िदया। तब िफर (दुबारा)
उस ान दीप को उसी कार से कौन जलाए?

दो० - तब िफ र जीव िबिबिध िबिध पावइ संसिृ त लेस।


ह र माया अित दु तर त र न जाइ िबहगेस॥ 118(क)॥

(इस कार ान दीपक के बुझ जाने पर) तब िफर जीव अनेक कार से संसिृ त (ज म-मरणािद)
के लेश पाता है। हे प ीराज! ह र क माया अ यंत दु तर है, वह सहज ही म तरी नह जा
सकती॥ 118(क)॥

कहत किठन समझ ु त किठन साधत किठन िबबेक।


होइ घन
ु ा छर याय ज पिु न यूह अनेक॥ 118(ख)॥

ान कहने (समझाने) म किठन, समझने म किठन और साधने म भी किठन है। यिद घुणा र
याय से (संयोगवश) कदािचत यह ान हो भी जाए, तो िफर (उसे बचाए रखने म) अनेक िव न
ह॥ 118(ख)॥

यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ निहं बारा॥


जो िनिब न पंथ िनबहई। सो कैव य परम पद लहई॥

ान का माग कृपाण (दुधारी तलवार) क धार के समान है। हे प ीराज! इस माग से िगरते देर
नह लगती। जो इस माग को िनिव न िनबाह ले जाता है, वही कैव य (मो ) प परमपद को
ा करता है।

ु भ कैव य परम पद। संत परु ान िनगम आगम बद॥


अित दल
राम भजत सोइ मकु ु ित गोसाई ं। अनइि छत आवइ ब रआई ं॥

संत, पुराण, वेद और (तं आिद) शा (सब) यह कहते ह िक कैव य प परमपद अ यंत दुलभ
है; िकंतु हे गोसाई ं! वही (अ यंत दुलभ) मुि राम को भजने से िबना इ छा िकए भी जबरद ती
आ जाती है।
िजिम थल िबनु जल रिह न सकाई। कोिट भाँित कोउ करै उपाई॥
तथा मो छ सख
ु सन ु ु खगराई। रिह न सकइ ह र भगित िबहाई॥

जैसे थल के िबना जल नह रह सकता, चाहे कोई करोड़ कार के उपाय य न करे । वैसे ही,
हे प ीराज! सुिनए, मो सुख भी ह र क भि को छोड़कर नह रह सकता।

अस िबचा र ह र भगत सयाने। मिु िनरादर भगित लभ


ु ाने॥
भगित करत िबनु जतन यासा। संसिृ त मूल अिब ा नासा॥

ऐसा िवचार कर बुि मान ह र भ भि पर लुभाए रहकर मुि का ितर कार कर देते ह। भि
करने से संसिृ त (ज म-म ृ यु प संसार) क जड़ अिव ा िबना ही यं और प र म के (अपने
आप) वैसे ही न हो जाती है,

भोजन क रअ तिृ पित िहत लागी। िजिम सो असन पचवै जठरागी॥


अिस ह र भगित सगु म सखु दाई। को अस मूढ़ न जािह सोहाई॥

जैसे भोजन िकया तो जाता है तिृ के िलए और उस भोजन को जठराि न अपने-आप (िबना
हमारी चे ा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देनेवाली ह र भि िजसे न सुहावे,
ऐसा मढ़ू कौन होगा?

दो० - सेवक से य भाव िबनु भव न त रअ उरगा र।


भजह राम पद पंकज अस िस ांत िबचा र॥ 119(क)॥

हे सप के श ु ग ड़! म सेवक हँ और भगवान मेरे से य ( वामी) ह, इस भाव के िबना


संसार पी समु से तरना नह हो सकता। ऐसा िस ांत िवचारकर राम के चरण कमल का
भजन क िजए॥ 119(क)॥

जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़िह करइ चैत य।


अस समथ रघन ु ायकिह भजिहं जीव ते ध य॥ 119(ख)॥

जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समथ रघुनाथ को जो जीव


भजते ह, वे ध य ह॥ 119(ख)॥

कहेउँ यान िस ांत बझ


ु ाई। सन ु ह भगित मिन कै भतु ाई॥
राम भगित िचंतामिन संदु र। बसइ ग ड़ जाके उर अंतर॥

मने ान का िस ांत समझाकर कहा। अब भि पी मिण क भुता (मिहमा) सुिनए। राम क


भि संुदर िचंतामिण है। हे ग ड़! यह िजसके दय के अंदर बसती है,
परम कास प िदन राती। निहं कछु चिहअ िदआ घत ृ बाती॥
मोह द र िनकट निहं आवा। लोभ बात निहं तािह बझ
ु ावा॥

वह िदन-रात (अपने-आप ही) परम काश प रहता है। उसको दीपक, घी और ब ी कुछ भी नह
चािहए। (इस कार मिण का एक तो वाभािवक काश रहता है) िफर मोह पी द र ता समीप
नह आती ( य िक मिण वयं धन प है); और (तीसरे ) लोभ पी हवा उस मिणमय दीप को बुझा
नह सकती ( य िक मिण वयं काश प है, वह िकसी दूसरे क सहायता से काश नह
करती)।

बल अिब ा तम िमिट जाई। हारिहं सकल सलभ समदु ाई॥


खल कामािद िनकट निहं जाह । बसइ भगित जाके उर माह ॥

(उसके काश से) अिव ा का बल अंधकार िमट जाता है। मदािद पतंग का सारा समहू हार
जाता है। िजसके दय म भि बसती है, काम, ोध और लोभ आिद दु तो उसके पास भी नह
जाते।

गरल सध ु ासम अ र िहत होई। तेिह मिन िबनु सख


ु पाव न कोई॥
यापिहं मानस रोग न भारी। िज ह के बस सब जीव दख ु ारी॥

उसके िलए िवष अमत ृ के समान और श ु िम हो जाता है। उस मिण के िबना कोई सुख नह
पाता। बड़े -बड़े मानस-रोग, िजनके वश होकर सब जीव दुःखी हो रहे ह, उसको नह यापते।

राम भगित मिन उर बस जाक। दख ु लवलेस न सपनेहँ ताक॥


चतरु िसरोमिन तेइ जग माह । जे मिन लािग सज
ु तन कराह ॥

रामभि पी मिण िजसके दय म बसती है, उसे व न म भी लेशमा दुःख नह होता। जगत म
वे ही मनु य चतुर के िशरोमिण ह जो उस भि पी मिण के िलए भली-भाँित य न करते ह।

सो मिन जदिप गट जग अहई। राम कृपा िबनु निहं कोउ लहई॥


ु म उपाय पाइबे केरे । नर हतभा य देिहं भटभेरे॥
सग

य िप वह मिण जगत म कट ( य ) है, पर िबना राम क कृपा के उसे कोई पा नह सकता।


उसके पाने के उपाय भी सुगम ही ह, पर अभागे मनु य उ ह ठुकरा देते ह।

पावन पबत बेद परु ाना। राम कथा िचराकर नाना॥


मम स जन सम ु ित कुदारी। यान िबराग नयन उरगारी॥

वेद-पुराण पिव पवत ह। राम क नाना कार क कथाएँ उन पवत म सुंदर खान ह। संत पु ष
(उनक इन खान के रह य को जाननेवाले) मम ह और संुदर बुि (खोदनेवाली) कुदाल है। हे
ग ड़! ान और वैरा य ये दो उनके ने ह।

भाव सिहत खोजइ जो ानी। पाव भगित मिन सब सख ु खानी॥


मोर मन भु अस िब वासा। राम ते अिधक राम कर दासा॥

जो ाणी उसे ेम के साथ खोजता है, वह सब सुख क खान इस भि पी मिण को पा जाता है।
हे भो! मेरे मन म तो ऐसा िव ास है िक राम के दास राम से भी बढ़कर ह।

राम िसंधु घन स जन धीरा। चंदन त ह र संत समीरा॥


सब कर फल ह र भगित सहु ाई। सो िबनु संत न काहँ पाई॥

राम समु ह तो धीर संत पु ष मेघ ह। ह र चंदन के व ृ ह तो संत पवन ह। सब साधन का फल


संुदर ह र भि ही है। उसे संत के िबना िकसी ने नह पाया।

अस िबचा र जोइ कर सतसंगा। राम भगित तेिह सल


ु भ िबहंगा॥

ऐसा िवचार कर जो भी संत का संग करता है, हे ग ड़! उसके िलए राम क भि सुलभ हो
जाती है।

दो० - पयोिनिध मंदर यान संत सरु आिहं।


कथा सधु ा मिथ काढ़िहं भगित मधरु ता जािहं॥ 120(क)॥

(वेद) समु है, ान मंदराचल है और संत देवता ह, जो उस समु को मथकर कथा पी


अमत
ृ िनकालते ह, िजसम भि पी मधुरता बसी रहती है॥ 120(क)॥

िबरित चम अिस यान मद लोभ मोह रपु मा र।


जय पाइअ सो ह र भगित देखु खगेस िबचा र॥ 120(ख)॥

वैरा य पी ढाल से अपने को बचाते हए और ान पी तलवार से मद, लोभ और मोह पी वै रय


को मारकर जो िवजय ा करती है, वह ह र भि ही है; हे प ीराज! इसे िवचार कर देिखए॥
120(ख)॥

े बोलेउ खगराऊ। ज कृपाल मोिह ऊपर भाऊ॥


पिु न स म
नाथ मोिह िनज सेवक जानी। स न मम कहह बखानी॥

प ीराज ग ड़ िफर ेम सिहत बोले - हे कृपालु! यिद मुझ पर आपका ेम है, तो हे नाथ! मुझे
अपना सेवक जानकर मेरे सात के उ र बखान कर किहए।

थमिहं कहह नाथ मितधीरा। सब ते दल


ु भ कवन सरीरा॥
बड़ दख ु भारी। सोउ संछेपिहं कहह िबचारी॥
ु कवन कवन सख

हे नाथ! हे धीर-बुि ! पहले तो यह बताइए िक सबसे दुलभ कौन-सा शरीर है? िफर सबसे बड़ा
दुःख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है, यह भी िवचार कर सं ेप म ही किहए?

संत असंत मरम तु ह जानह। ित ह कर सहज सभ


ु ाव बखानह॥
कवन पु य ुित िबिदत िबसाला। कहह कवन अघ परम कराला॥

संत और असंत का मम (भेद) आप जानते ह, उनके सहज वभाव का वणन क िजए। िफर किहए
िक ुितय म िस सबसे महान पु य कौन-सा है और सबसे महान भयंकर पाप कौन है?

मानस रोग कहह समझ ु ाई। तु ह सब य कृपा अिधकाई॥


ु ह सादर अित ीती। म संछेप कहउँ यह नीती॥
तात सन

िफर मानस-रोग को समझाकर किहए। आप सव ह और मुझ पर आपक कृपा भी बहत है।


(काकभुशुंिड ने कहा -) हे तात! अ यंत आदर और ेम के साथ सुिनए। म यह नीित सं ेप से
कहता हँ।

नर तन सम निहं कविनउ देही। जीव चराचर जाचत तेही॥


नरक वग अपबग िनसेनी। यान िबराग भगित सभ ु देनी॥

मनु य-शरीर के समान कोई शरीर नह है। चर-अचर सभी जीव उसक याचना करते ह। वह
मनु य-शरीर नरक, वग और मो क सीढ़ी है तथा क याणकारी ान, वैरा य और भि को
देनेवाला है।

सो तनु ध र ह र भजिहं न जे नर। होिहं िबषय रत मंद मंद तर॥


काँच िक रच बदल ते लेह । कर ते डा र परस मिन देह ॥

ऐसे मनु य शरीर को धारण ( ा ) करके भी जो लोग ह र का भजन नह करते और नीच से भी


नीच िवषय म अनुर रहते ह, वे पारसमिण को हाथ से फक देते ह और बदले म काँच के टुकड़े
ले लेते ह।

निहं द र सम दख
ु जग माह । संत िमलन सम सख ु जग नाह ॥
पर उपकार बचन मन काया। संत सहज सभ ु ाउ खगराया॥

जगत म द र ता के समान दुःख नह है तथा संत के िमलने के समान जगत म सुख नह है।
और हे प ीराज! मन, वचन और शरीर से परोपकार करना, यह संत का सहज वभाव है।

संत सहिहं दख
ु पर िहत लागी। पर दख
ु हेतु असंत अभागी॥
भूज त सम संत कृपाला। पर िहत िनित सह िबपित िबसाला॥

संत दूसर क भलाई के िलए दुःख सहते ह और अभागे असंत दूसर को दुःख पहँचाने के िलए।
कृपालु संत भोज के व ृ के समान दूसर के िहत के िलए भारी िवपि सहते ह (अपनी खाल तक
उधड़वा लेते ह)।

सन इव खल पर बंधन करई। खाल कढ़ाई िबपित सिह मरई॥


खल िबनु वारथ पर अपकारी। अिह मूषक इव सन
ु ु उरगारी॥

िकंतु दु लोग सन क भाँित दूसर को बाँधते ह और (उ ह बाँधने के िलए) अपनी खाल


िखंचवाकर िवपि सहकर मर जाते ह। हे सप के श ु ग ड़! सुिनए, दु िबना िकसी वाथ के
साँप और चहू े के समान अकारण ही दूसर का अपकार करते ह।

पर संपदा िबनािस नसाह । िजिम सिस हित िहम उपल िबलाह ॥


दु उदय जग आरित हेत।ू जथा िस अधम ह केत॥ ू

वे पराई संपि का नाश करके वयं न हो जाते ह, जैसे खेती का नाश करके ओले न हो
जाते ह। दु का अ युदय (उ नित) िस अधम ह केतु के उदय क भाँित जगत के दुःख के
िलए ही होता है।

संत उदय संतत सख


ु कारी। िब व सखु द िजिम इं दु तमारी॥
परम धम ुित िबिदत अिहंसा। पर िनंदा सम अघ न गरीसा॥

और संत का अ युदय सदा ही सुखकर होता है, जैसे चं मा और सय ू का उदय िव भर के िलए


सुखदायक है। वेद म अिहंसा को परम धम माना है और परिनंदा के समान भारी पाप नह है।

हर गरु िनंदक दादरु होई। ज म सह पाव तन सोई॥


ि ज िनंदक बह नरक भोग क र। जग जनमइ बायस सरीर ध र॥

शंकर और गु क िनंदा करनेवाला मनु य (अगले ज म म) मेढ़क होता है और वह हजार ज म


तक वही मेढ़क का शरीर पाता है। ा ण क िनंदा करनेवाला यि बहत-से नरक भोगकर
िफर जगत म कौवे का शरीर धारण करके ज म लेता है।

सरु ुित िनंदक जे अिभमानी। रौरव नरक परिहं ते ानी॥


होिहं उलक
ू संत िनंदा रत। मोह िनसा ि य यान भानु गत॥

जो अिभमानी जीव देवताओं और वेद क िनंदा करते ह, वे रौरव नरक म पड़ते ह। संत क िनंदा
म लगे हए लोग उ लू होते ह, िज ह मोह पी राि ि य होती है और ान पी सय ू िजनके िलए
बीत गया (अ त हो गया) रहता है।
सब कै िनंदा जे जड़ करह । ते चमगादरु होइ अवतरह ॥
सन
ु ह तात अब मानस रोगा। िज ह ते दख ु पाविहं सब लोगा॥

ू मनु य सब क िनंदा करते ह, वे चमगादड़ होकर ज म लेते ह। हे तात! अब मानस-रोग


जो मख
सुिनए, िजनसे सब लोग दुःख पाया करते ह।

मोह सकल यािध ह कर मूला। ित ह ते पिु न उपजिहं बह सूला॥


काम बात कफ लोभ अपारा। ोध िप िनत छाती जारा॥

सब रोग क जड़ मोह (अ ान) है। उन यािधय से िफर और बहत-से शल ू उ प न होते ह। काम


वात है, लोभ अपार (बढ़ा हआ) कफ है और ोध िप है जो सदा छाती जलाता रहता है।

ीित करिहं ज तीिनउ भाई। उपजइ स यपात दखु दाई॥


िबषय मनोरथ दग ु म नाना। ते सब सूल नाम को जाना॥

यिद कह ये तीन भाई (वात, िप और कफ) ीित कर ल (िमल जाएँ ), तो दुःखदायक


ू ) होनेवाले जो िवषय के मनोरथ ह, वे ही
सि नपात रोग उ प न होता है। किठनता से ा (पण
सब शलू (क दायक रोग) ह; उनके नाम कौन जानता है (अथात वे अपार ह)।

ममता दादु कंडु इरषाई। हरष िबषाद गरह बहताई॥


पर सख
ु देिख जरिन सोइ छई। कु दु ता मन कुिटलई॥

ममता दाद है, ई या (डाह) खुजली है, हष-िवषाद गले के रोग क अिधकता है (गलगंड,
कंठमाला या घेघा आिद रोग ह), पराए सुख को देखकर जो जलन होती है, वही यी है। दु ता
और मन क कुिटलता ही कोढ़ है।

अहंकार अित दख ु द डम आ। दंभ कपट मद मान नेह आ॥


त ृ ना उदरबिृ अित भारी। ि िबिध ईषना त न ितजारी॥

अहंकार अ यंत दुःख देनेवाला डम (गाँठ का) रोग है। दंभ, कपट, मद और मान नह आ (नस
का) रोग है। त ृ णा बड़ा भारी उदर विृ (जलोदर) रोग है। तीन कार (पु , धन और मान) क
बल इ छाएँ बल ितजारी ह।

जुग िबिध वर म सर अिबबेका। कहँ लिग कह कुरोग अनेका॥

म सर और अिववेक दो कार के वर ह। इस कार अनेक बुरे रोग ह, िज ह कहाँ तक कहँ।

दो० - एक यािध बस नर मरिहं ए असािध बह यािध।


पीड़िहं संतत जीव कहँ सो िकिम लहै समािध॥ 121(क)॥

एक ही रोग के वश होकर मनु य मर जाते ह, िफर ये तो बहत-से असा य रोग ह। ये जीव को


िनरं तर क देते रहते ह, ऐसी दशा म वह समािध (शांित) को कैसे ा करे ?॥ 121(क)॥

नेम धम आचार तप यान ज य जप दान।


भेषज पिु न कोिट ह निहं रोग जािहं ह रजान॥ 121(ख)॥

िनयम, धम, आचार (उ म आचरण), तप, ान, य , जप, दान तथा और भी करोड़ औषिधयाँ ह,
परं तु हे ग ड़! उनसे ये रोग नह जाते॥ 121(ख)॥

एिह िबिध सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय ीित िबयोगी॥


मानस रोग कछुक म गाए। हिहं सब क लिख िबरले ह पाए॥

इस कार जगत म सम त जीव रोगी ह, जो शोक, हष, भय, ीित और िवयोग के दुःख से और
भी दुःखी हो रहे ह। मने ये थोड़े़ -से मानस-रोग कहे ह। ये ह तो सबको, परं तु इ ह जान पाए ह
कोई िवरले ही।

जाने ते छीजिहं कछु पापी। नास न पाविहं जन प रतापी॥


िबषय कुप य पाइ अंकुरे । मिु नह दयँ का नर बापरु े ॥

ािणय को जलानेवाले ये पापी (रोग) जान िलए जाने से कुछ ीण अव य हो जाते ह, परं तु नाश
को नह ा होते। िवषय प कुप य पाकर ये मुिनय के दय म भी अंकु रत हो उठते ह, तब
बेचारे साधारण मनु य तो या चीज ह।

राम कृपाँ नासिहं सब रोगा। ज एिह भाँित बनै संजोगा॥


सदगरु बैद बचन िब वासा। संजम यह न िबषय कै आसा॥

यिद राम क कृपा से इस कार का संयोग बन जाए तो ये सब रोग न हो जाएँ । स ु पी वै


के वचन म िव ास हो। िवषय क आशा न करे , यही संयम (परहे ज) हो।

रघप
ु ित भगित सजीवन मूरी। अनूपान ा मित पूरी॥
एिह िबिध भलेिहं सो रोग नसाह । नािहं त जतन कोिट निहं जाह ॥

रघुनाथ क भि संजीवनी जड़ी है। ा से पण ू बुि ही अनुपान (दवा के साथ िलया जानेवाला
मधु आिद) है। इस कार का संयोग हो तो वे रोग भले ही न हो जाएँ , नह तो करोड़ य न से
भी नह जाते।

जािनअ तब मन िब ज गोसाँई। जब उर बल िबराग अिधकाई॥


सम
ु ित छुधा बाढ़इ िनत नई। िबषय आस दब
ु लता गई॥

हे गोसाई ं! मन को नीरोग हआ तब जानना चािहए, जब दय म वैरा य का बल बढ़ जाए, उ म


बुि पी भख ू िनत नई बढ़ती रहे और िवषय क आशा पी दुबलता िमट जाए।

िबमल यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगित उर छाई॥


िसव अज सक
ु सनकािदक नारद। जे मिु न िबचार िबसारद॥

(इस कार सब रोग से छूटकर) जब मनु य िनमल ान पी जल म नान कर लेता है, तब


उसके दय म राम भि छा रहती है। िशव, ा, शुकदेव, सनकािद और नारद आिद िवचार
म परम िनपुण जो मुिन ह,

सब कर मत खगनायक एहा। क रअ राम पद पंकज नेहा॥


ुित परु ान सब ंथ कहाह । रघप
ु ित भगित िबना सख
ु नाह ॥

हे प ीराज! उन सबका मत यही है िक राम के चरणकमल म ेम करना चािहए। ुित, पुराण


और सभी ंथ कहते ह िक रघुनाथ क भि के िबना सुख नह है।

कमठ पीठ जामिहं ब बारा। बं या सत


ु ब काहिह मारा॥
फूलिहं नभ ब बहिबिध फूला। जीव न लह सख
ु ह र ितकूला॥

कछुए क पीठ पर भले ही बाल उग आएँ , बाँझ का पु भले ही िकसी को मार डाले, आकाश म
भले ही अनेक कार के फूल िखल उठ; परं तु ह र से िवमुख होकर जीव सुख नह ा कर
सकता।

तषृ ा जाइ ब मग
ृ जल पाना। ब जामिहं सस सीस िबषाना॥
अंधका ब रिबिह नसावै। राम िबमख
ु न जीव सख ु पावै॥

ृ त ृ णा के जल को पीने से भले ही यास बुझ जाए, खरगोश के िसर पर भले ही स ग िनकल


मग
आए, अंधकार भले ही सय ू का नाश कर दे; परं तु राम से िवमुख होकर जीव सुख नह पा सकता।

िहम ते अनल गट ब होई। िबमुख राम सुख पाव न कोई॥

बफ से भले ही अि न कट हो जाए (ये सब अनहोनी बात चाहे हो जाएँ ), परं तु राम से िवमुख
होकर कोई भी सुख नह पा सकता।

दो० - बा र मथ घत
ृ होइ ब िसकता ते ब तेल।
िबनु ह र भजन न तव त रअ यह िस ांत अपेल॥ 122(क)॥
जल को मथने से भले ही घी उ प न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल िनकल आए;
परं तु ह र के भजन िबना संसार पी समु से नह तरा जा सकता, यह िस ांत अटल है॥
122(क)॥

मसकिह करइ िबरं िच भु अजिह मसक ते हीन।


अस िबचा र तिज संसय रामिह भजिहं बीन॥ 122(ख)॥

भु म छर को ा कर सकते ह और ा को म छर से भी तु छ बना सकते ह। ऐसा िवचार


कर चतुर पु ष सब संदेह यागकर राम को ही भजते ह॥ 122(ख)॥

ोक - िविनि तं वदािम ते न अ यथा वचांिस मे।


ह रं नरा भजि त येऽितदु तरं तरि त ते॥ 122(ग)॥

म आपसे भली-भाँित िनि त िकया हआ िस ांत कहता हँ - मेरे वचन अ यथा (िम या) नह ह
िक जो मनु य ह र का भजन करते ह, वे अ यंत दु तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर
जाते ह॥ 122(ग)॥

कहेउँ नाथ ह र च रत अनूपा। यास समास वमित अनु पा॥


ुित िस ांत इहइ उरगारी। राम भिजअ सब काज िबसारी॥

हे नाथ! मने ह र का अनुपम च र अपनी बुि के अनुसार कह िव तार से और कह सं ेप से


कहा। हे सप के श ु ग ड़! ुितय का यही िस ांत है िक सब काम भुलाकर (छोड़कर) राम का
भजन करना चािहए।

भु रघपु ित तिज सेइअ काही। मोिह से सठ पर ममता जाही॥


तु ह िब यान प निहं मोहा। नाथ क ि ह मो पर अित छोहा॥

भु रघुनाथ को छोड़कऱ और िकसका सेवन (भजन) िकया जाए, िजनका मुझ-जैसे मख ू पर भी


मम व ( नेह) है। हे नाथ! आप िव ान प ह, आपको मोह नह है। आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा
क है।

पँूिछह राम कथा अित पाविन। सक ु सनकािद संभु मन भाविन॥


सत संगित दल ु भ संसारा। िनिमष दंड भ र एकउ बारा॥

जो आपने मुझ से शुकदेव, सनकािद और िशव के मन को ि य लगनेवाली अित पिव रामकथा


पछ
ू ी। संसार म घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी स संग दुलभ है।

देखु ग ़ड़ िनज दयँ िबचारी। म रघब


ु ीर भजन अिधकारी॥
सकुनाधम सब भाँित अपावन। भु मोिह क ह िबिदत जग पावन॥
हे ग ड़! अपने दय म िवचार कर देिखए, या म भी राम के भजन का अिधकारी हँ? पि य म
सबसे नीच और सब कार से अपिव हँ, परं तु ऐसा होने पर भी भु ने मुझको सारे जगत को
पिव करनेवाला िस कर िदया (अथवा भु ने मुझको जग िस पावन कर िदया)।

दो० - आजु ध य म ध य अित ज िप सब िबिध हीन।


िनज जन जािन राम मोिह संत समागम दीन॥ 123(क)॥

य िप म सब कार से हीन (नीच) हँ, तो भी आज म ध य हँ, अ यंत ध य हँ, जो राम ने मुझे


अपना 'िनज जन' जानकर संत-समागम िदया (आपसे मेरी भट कराई)॥ 123(क)॥

नाथ जथामित भाषेउँ राखेउँ निहं कछु गोइ।


च रत िसंधु रघन
ु ायक थाह िक पावइ कोइ॥ 123(ख)॥

हे नाथ! मने अपनी बुि के अनुसार कहा, कुछ भी िछपा नह रखा। (िफर भी) रघुवीर के च र
समु के समान ह, या उनक कोई थाह पा सकता है?॥ 123(ख)॥

सिु म र राम के गन
ु गन नाना। पिु न पिु न हरष भस
ु ंिु ड सजु ाना॥
मिहमा िनगम नेत क र गाई। अतिु लत बल ताप भत ु ाई॥

राम के बहत-से गुणसमहू का मरण कर-करके सुजान भुशुंिड बार-बार हिषत हो रहे ह।
िजनक मिहमा वेद ने 'नेित-नेित' कहकर गाई है, िजनका बल, ताप और भु व (साम य)
अतुलनीय है,

िसव अज पू य चरन रघरु ाई। मो पर कृपा परम मदृ लु ाई॥


अस सभ ु उँ न देखउँ । केिह खगेस रघप
ु ाउ कहँ सन ु ित सम लेखउँ ॥

िजन रघुनाथ के चरण िशव और ा के ारा पू य ह, उनक मुझ पर कृपा होनी उनक परम
कोमलता है। िकसी का ऐसा वभाव कह न सुनता हँ, न देखता हँ। अतः हे प ीराज ग ड़! म
रघुनाथ के समान िकसे िगनँ ू (समझँ)ू ?

साधक िस िबमु उदासी। किब कोिबद कृत य सं यासी॥


जोगी सूर सत
ु ापस यानी। धम िनरत पंिडत िब यानी॥

साधक, िस , जीवनमु , उदासीन (िवर ), किव, िव ान, कम (रह य) के ाता, सं यासी,


योगी, शरू वीर, बड़े तप वी, ानी, धमपरायण, पंिडत और िव ानी -

तरिहं न िबनु सेएँ मम वामी। राम नमािम नमािम नमामी॥


सरन गएँ मो से अघ रासी। होिहं सु नमािम अिबनासी॥
ये कोई भी मेरे वामी राम का सेवन (भजन) िकए िबना नह तर सकते। म उ ह राम को बार-
बार नम कार करता हँ िजनक शरण जाने पर मुझ जैसे पापरािश भी शु (पापरिहत) हो जाते
ह, उन अिवनाशी राम को म नम कार करता हँ।

दो० - जासु नाम भव भेषज हरन घोर य सूल


सो कृपाल मोिह तो पर सदा रहउ अनक
ु ू ल॥ 124(क)॥

िजनका नाम ज म-मरण पी रोग क (अ यथ) औषध और तीन भयंकर पीड़ाओं (आिधदैिवक,
आिधभौितक और आ याि मक दुःख ) को हरनेवाला है, वे कृपालु राम मुझ पर और आप पर सदा
स न रह॥ 124(क)॥

ु ंिु ड के बचन सभ
सिु न भस ु देिख राम पद नेह।
बोलेउ म े सिहत िगरा ग ड़ िबगत संदहे ॥ 124(ख)॥

भुशुंिड के मंगलमय वचन सुनकर और राम के चरण म उनका अितशय ेम देखकर संदेह से
भली-भाँित छूटे हए ग ड़ ेमसिहत वचन बोले॥ 124(ख)॥

म कृतकृ य भयउँ तव बानी। सिु न रघब


ु ीर भगित रस सानी॥
राम चरन नूतन रित भई। माया जिनत िबपित सब गई॥

रघुवीर के भि -रस म सनी हई आपक वाणी सुनकर म कृतकृ य हो गया। राम के चरण म मेरी
नवीन ीित हो गई और माया से उ प न सारी िवपि चली गई।

मोह जलिध बोिहत तु ह भए। मो कहँ नाथ िबिबध सख ु दए॥


मो पिहं होइ न ित उपकारा। बंदउँ तव पद बारिहं बारा॥

मोह पी समु म डूबते हए मेरे िलए आप जहाज हए। हे नाथ! आपने मुझे बहत कार के सुख
िदए (परम सुखी कर िदया)। मुझसे इसका युपकार (उपकार के बदले म उपकार) नह हो
सकता। म तो आपके चरण क बार-बार वंदना ही करता हँ।

पूरन काम राम अनरु ागी। तु ह सम तात न कोउ बड़भागी॥


संत िबटप स रता िग र धरनी। पर िहत हेतु सब ह कै करनी॥

आप पणू काम ह और राम के ेमी ह। हे तात! आपके समान कोई बड़भागी नह है। संत, व ृ ,
नदी, पवत और प ृ वी - इन सबक ि या पराए िहत के िलए ही होती है।

संत दय नवनीत समाना। कहा किब ह प र कहै न जाना॥


िनज प रताप वइ नवनीता। पर सख
ु विहं संत सप
ु न
ु ीता॥
संत का दय म खन के समान होता है, ऐसा किवय ने कहा है; परं तु उ ह ने (असली बात)
कहना नह जाना; य िक म खन तो अपने को ताप िमलने से िपघलता है और परम पिव संत
दूसर के दुःख से िपघल जाते ह।

जीवन ज म सफल मम भयऊ। तव साद संसय सब गयऊ॥


जानेह सदा मोिह िनज िकंकर। पिु न पिु न उमा कहइ िबहंगबर॥

मेरा जीवन और ज म सफल हो गया। आपक कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना दास
ही जािनएगा। (िशव कहते ह -) हे उमा! प ी े ग ड़ बार-बार ऐसा कह रहे ह।

दो० - तासु चरन िस नाइ क र म े सिहत मितधीर।


गयउ ग ड़ बैकंु ठ तब दयँ रािख रघब
ु ीर॥ 125(क)॥

उन (भुशुंिड) के चरण म ेमसिहत िसर नवाकर और दय म रघुवीर को धारण करके धीरबुि


ग ़ड़ तब बैकुंठ को चले गए॥ 125(क)॥

िग रजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।


िबनु ह र कृपा न होइ सो गाविहं बेद परु ान॥ 125(ख)॥

हे िग रजे! संत-समागम के समान दूसरा कोई लाभ नह है। पर वह (संत-समागम) ह र क कृपा


के िबना नह हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते ह॥ 125(ख)॥

कहेउँ परम पन
ु ीत इितहासा। सन ु त वन छूटिहं भव पासा॥
नत क पत क ना पंज ु ा। उपजइ ीित राम पद कंजा॥

मने यह परम पिव इितहास कहा, िजसे कान से सुनते ही भवपाश (संसार के बंधन) छूट जाते
ह और शरणागत को (उनके इ छानुसार फल देनेवाले) क पव ृ तथा दया के समहू राम के
चरणकमल म ेम उ प न होता है।

मन म बचन जिनत अघ जाई। सन ु िहं जे कथा वन मन लाई॥


तीथाटन साधन समदु ाई। जोग िबराग यान िनपन ु ाई॥

जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते ह, उनके मन, वचन और कम (शरीर) से उ प न


सब पाप न हो जाते ह। तीथ या ा आिद बहत-से साधन, योग, वैरा य और ान म िनपुणता,

नाना कम धम त दाना। संजम दम जप तप मख नाना॥


भूत दया ि ज गरु सेवकाई। िब ा िबनय िबबेक बड़ाई॥

अनेक कार के कम, धम, त और दान, अनेक संयम, दम, जप, तप और य , ािणय पर
दया, ा ण और गु क सेवा; िव ा, िवनय और िववेक क बड़ाई (आिद) -

जहँ लिग साधन बेद बखानी। सब कर फल ह र भगित भवानी॥


सो रघन
ु ाथ भगित ुित गाई। राम कृपाँ काहँ एक पाई॥

जहाँ तक वेद ने साधन बतलाए ह, हे भवानी! उन सबका फल ह र क भि ही है। िकंतु ुितय


म गाई हई वह रघुनाथ क भि राम क कृपा से िकसी एक (िवरले) ने ही पाई है।

दो० - मिु न दल
ु भ ह र भगित नर पाविहं िबनिहं यास।
जे यह कथा िनरं तर सन ु िहं मािन िब वास॥ 126॥

िकंतु जो मनु य िव ास मानकर यह कथा िनरं तर सुनते ह, वे िबना प र म के ही उस मुिन


दुलभ ह र भि को ा कर लेते ह॥ 126॥

सोइ सब य गन
ु ी सोइ याता। सोइ मिह मंिडत पंिडत दाता॥
धम परायन सोइ कुल ाता। राम चरन जा कर मन राता॥

िजसका मन राम के चरण म अनुर है, वही सव (सब कुछ जाननेवाला) है, वही गुणी है, वही
ानी है। वही प ृ वी का भषू ण, पंिडत और दानी है। वही धमपरायण है और वही कुल का र क है।

नीित िनपन
ु सोइ परम सयाना। ुित िस ांत नीक तेिहं जाना॥
सोइ किब कोिबद सोइ रनधीरा। जो छल छािड़ भजइ रघबु ीरा॥

जो छल छोड़कऱ रघुवीर का भजन करता है, वही नीित म िनपुण है, वही परम बुि मान है। उसी
ने वेद के िस ांत को भली-भाँित जाना है। वही किव, वही िव ान तथा वही रणधीर है।

ध य देस सो जहँ सरु सरी। ध य ना र पित त अनस


ु री॥
ध य सो भूपु नीित जो करई। ध य सो ि ज िनज धम न टरई॥

वह देश ध य है, जहाँ गंगा ह, वह ी ध य है जो पाित त-धम का पालन करती है। वह राजा
ध य है जो याय करता है और वह ा ण ध य है जो अपने धम से नह िडगता है।

सो धन ध य थम गित जाक । ध य पु य रत मित सोइ पाक ॥


ध य घरी सोइ जब सतसंगा। ध य ज म ि ज भगित अभंगा॥

वह धन ध य है िजसक पहली गित होती है (जो दान देने म यय होता है)। वही बुि ध य और
प रप व है जो पु य म लगी हई है। वही घड़ी ध य है जब स संग हो और वही ज म ध य है
िजसम ा ण क अखंड भि हो।
(धन क तीन गितयाँ होती ह - दान, भोग और नाश। दान उ म है, भोग म यम है और नाश नीच
गित है। जो पु ष न देता है, न भोगता है, उसके धन क तीसरी गित होती है।)

दो० - सो कुल ध य उमा सन ु ु जगत पू य सप


ु न
ु ीत।
ीरघबु ीर परायन जेिहं नर उपज िबनीत॥ 127॥

हे उमा! सुनो वह कुल ध य है, संसारभर के िलए पू य है और परम पिव है, िजसम ी रघुवीर
परायण (अन य रामभ ) िवन पु ष उ प न हो॥ 127॥

मित अनु प कथा म भाषी। ज िप थम गु क र राखी॥


तव मन ीित देिख अिधकाई। तब म रघप
ु ित कथा सन
ु ाई॥

मने अपनी बुि के अनुसार यह कथा कही, य िप पहले इसको िछपाकर रखा था। जब तु हारे
मन म ेम क अिधकता देखी तब मने रघुनाथ क यह कथा तुमको सुनाई।

यह न किहअ सठही हठसीलिह। जो मन लाइ न सन


ु ह र लीलिह॥
किहअ न लोिभिह ोिधिह कािमिह। जो न भजइ सचराचर वािमिह॥

ू ) ह , हठी वभाव के ह और ह र क लीला को मन


यह कथा उनसे न कहनी चािहए जो शठ (धत
लगाकर न सुनते ह । लोभी, ोधी और कामी को, जो चराचर के वामी राम को नह भजते, यह
कथा नह कहनी चािहए।

ि ज ोिहिह न सन ु ाइअ कबहँ। सरु पित स रस होइ नप


ृ जबहँ॥
रामकथा के तेइ अिधकारी। िज ह क सत संगित अित यारी॥

ा ण के ोही को, यिद वह देवराज (इं ) के समान ऐ यवान राजा भी हो, तब भी यह कथा न
सुनानी चािहए। रामकथा के अिधकारी वे ही ह िजनको स संगित अ यंत ि य है।

गरु पद ीित नीित रत जेई। ि ज सेवक अिधकारी तेई॥


ता कहँ यह िबसेष सख
ु दाई। जािह ानि य ीरघरु ाई॥

िजनक गु के चरण म ीित है, जो नीितपरायण ह और ा ण के सेवक ह, वे ही इसके


अिधकारी ह और उसको तो यह कथा बहत ही सुख देनेवाली है, िजसको ी रघुनाथ ाण के
समान यारे ह।

दो० - राम चरन रित जो चह अथवा पद िनबान।


भाव सिहत सो यह कथा करउ वन पटु पान॥ 128॥

जो राम के चरण म ेम चाहता हो या मो पद चाहता हो, वह इस कथा पी अमत


ृ को ेमपवू क
अपने कान पी दोने से िपए॥ 128॥
राम कथा िग रजा म बरनी। किल मल समिन मनोमल हरनी॥
संसिृ त रोग सजीवन मूरी। राम कथा गाविहं ुित सूरी॥

हे िग रजे! मने किलयुग के पाप का नाश करनेवाली और मन के मल को दूर करनेवाली


रामकथा का वणन िकया। यह रामकथा संसिृ त (ज म-मरण) पी रोग के (नाश के) िलए
संजीवनी जड़ी है, वेद और िव ान पु ष ऐसा कहते ह।

एिह महँ िचर स सोपाना। रघप ु ित भगित केर पंथाना॥


अित ह र कृपा जािह पर होई। पाउँ देइ एिहं मारग सोई॥

इसम सात सुंदर सीिढ़याँ ह, जो रघुनाथ क भि को ा करने के माग ह। िजस पर ह र क


अ यंत कृपा होती है, वही इस माग पर पैर रखता है।

मन कामना िसि नर पावा। जे यह कथा कपट तिज गावा॥


कहिहं सन
ु िहं अनम
ु ोदन करह । ते गोपद इव भविनिध तरह ॥

जो कपट छोड़कर यह कथा गाते ह, वे मनु य अपनी मनःकामना क िसि पा लेते ह, जो इसे
कहते-सुनते और अनुमोदन ( शंसा) करते ह, वे संसार पी समु को गौ के खुर से बने हए
गड्ढे क भाँित पार कर जाते ह।

सिु न सब कथा दय अित भाई। िग रजा बोली िगरा सहु ाई॥


नाथ कृपाँ मम गत संदहे ा। राम चरन उपजेउ नव नेहा॥

(या व य कहते ह -) सब कथा सुनकर पावती के दय को बहत ही ि य लगी और वे सुंदर


वाणी बोल - वामी क कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और राम के चरण म नवीन ेम उ प न हो
गया।

दो० - म कृतकृ य भइउँ अब तव साद िब वेस।


उपजी राम भगित ढ़ बीते सकल कलेस॥ 129॥

हे िव नाथ! आपक कृपा से अब म कृताथ हो गई। मुझम ढ़ राम भि उ प न हो गई और मेरे


संपणू लेश बीत गए (न हो गए)॥ 129॥

यह सभ
ु संभु उमा संबादा। सख
ु संपादन समन िबषादा॥
भव भंजन गंजन संदहे ा। जन रं जन स जन ि य एहा॥

शंभु-उमा का यह क याणकारी संवाद सुख उ प न करनेवाला और शोक का नाश करनेवाला है।


ज म-मरण का अंत करनेवाला, संदेह का नाश करनेवाला, भ को आनंद देनेवाला और संत
पु ष को ि य है।
राम उपासक जे जग माह । एिह सम ि य ित ह क कछु नाह ॥
रघपु ित कृपाँ जथामित गावा। म यह पावन च रत सहु ावा॥

जगत म जो (िजतने भी) रामोपासक ह, उनको तो इस रामकथा के समान कुछ भी ि य नह है।


रघुनाथ क कृपा से मने यह सुंदर और पिव करनेवाला च र अपनी बुि के अनुसार गाया है।

एिहं किलकाल न साधन दूजा। जोग ज य जप तप त पूजा॥


रामिह सिु म रअ गाइअ रामिह। संतत सिु नअ राम गन
ु ामिह॥

(तुलसीदास कहते ह -) इस किलकाल म योग, य , जप, तप, त और पज ू न आिद कोई दूसरा


साधन नह है। बस, राम का ही मरण करना, राम का ही गुण गाना और िनरं तर राम के ही
गुणसमहू को सुनना चािहए।

जासु पितत पावन बड़ बाना। गाविहं किब िु त संत परु ाना॥


तािह भजिह मन तिज कुिटलाई। राम भज गित केिहं निहं पाई॥

पितत को पिव करना िजनका महान ( िस ) बाना है - ऐसा किव, वेद, संत और पुराण गाते
ह – रे मन! कुिटलता याग कर उ ह को भज। राम को भजने से िकसने परम गित नह पाई?

छं ० - पाई न केिहं गित पितत पावन राम भिज सन


ु ु सठ मना।
गिनका अजािमल याध गीध गजािद खल तारे घना॥
आभीर जमन िकरात खस वपचािद अित अघ प जे।
किह नाम बारक तेिप पावन होिहं राम नमािम ते॥

अरे मख
ू मन! सुन, पितत को भी पावन करनेवाले राम को भजकर िकसने परमगित नह पाई?
गिणका, अजािमल, याध, गीध, गज आिद बहत-से दु को उ ह ने तार िदया। आभीर, यवन,
िकरात, खस, पच (चांडाल) आिद जो अ यंत पाप प ही ह, वे भी केवल एक बार िजनका नाम
लेकर पिव हो जाते ह, उन राम को म नम कार करता हँ।

रघब
ु ंस भूषन च रत यह नर कहिहं सनु िहं जे गावह ।
किल मल मनोमल धोइ िबनु म राम धाम िसधावह ॥
सत पंच चौपाई ं मनोहर जािन जो नर उर धरै ।
दा न अिब ा पंच जिनत िबकार ी रघब ु र हरै ॥

जो मनु य रघुवंश के भषू ण राम का यह च र कहते ह, सुनते ह और गाते ह, वे किलयुग के पाप


और मन के मल को धोकर िबना प र म के ही राम के परम धाम को चले जाते ह। (अिधक या)
जो मनु य पाँच-सात चौपाइय को भी मनोहर जानकर (अथवा रामायण क चौपाइय को े
पंच (कत याकत य का स चा िनणायक) जानकर उनको दय म धारण कर लेता है, उसके भी
पाँच कार क अिव ाओं से उ प न िवकार को राम हरण कर लेते ह, (अथात सारे रामच र
क तो बात ही या है, जो पाँच-सात चौपाइय को भी समझकर उनका अथ दय म धारण कर
लेते ह, उनके भी अिव ाजिनत सारे लेश ी रघुवीर हर लेते ह)।

संदु र सज
ु ान कृपा िनधान अनाथ पर कर ीित जो।
सो एक राम अकाम िहत िनबान द सम आन को॥
जाक कृपा लवलेस ते मितमंद तल ु सीदासहँ।
पायो परम िब ामु राम समान भु नाह कहँ॥

संुदर, सुजान और कृपािनधान तथा जो अनाथ पर ेम करते ह, ऐसे एक राम ही ह। इनके


समान िन काम (िनः वाथ) िहत करनेवाला (सु द) और मो देनेवाला दूसरा कौन है? िजनक
लेशमा कृपा से मंद-बुि तुलसीदास ने भी परम शांित ा कर ली, उन राम के समान भु
कह भी नह ह।

दो० - मो सम दीन न दीन िहत तु ह समान रघबु ीर।


अस िबचा र रघबु ंस मिन हरह िबषम भव भीर॥ 130(क)॥

हे रघुवीर! मेरे समान कोई दीन नह है और आपके समान कोई दीन का िहत करनेवाला नह है।
ऐसा िवचार कर हे रघुवंशमिण! मेरे ज म-मरण के भयानक दुःख का हरण कर लीिजए॥
130(क)॥

कािमिह ना र िपआ र िजिम लोिभिह ि य िजिम दाम।


ितिम रघन
ु ाथ िनरं तर ि य लागह मोिह राम॥ 130(ख)॥

जैसे कामी को ी ि य लगती है और लोभी को जैसे धन यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथ। हे
राम! आप िनरं तर मुझे ि य लिगए॥ 130(ख)॥

ोक - य पूव भणु ा कृतं सक


ु िवना ीशंभन
ु ा दग
ु मं
ीम ामपदा जभि मिनशं ा यै तु रामायणम्।
म वा त घनु ाथनामिनरतं वा त तमःशा तये।
भाषाब िमदं चकार तलु सीदास तथा मानसम्॥ 1॥

े किव भगवान ी शंकर ने पहले िजस दुगम मानस-रामायण क , ी राम के चरणकमल म


िन य-िनरं तर (अन य) भि ा होने के िलए रचना क थी, उस मानस-रामायण को रघुनाथ
के नाम म िनरत मानकर अपने अंतःकरण के अंधकार को िमटाने के िलए तुलसीदास ने इस
मानस के प म भाषाब िकया॥ 1॥
पु यं पापहरं सदा िशवकरं िव ानभि दं
मायामोहमलापहं सिु वमलं म े ा बप
ु ूरं शभ
ु म्।
ीम ामच र मानसिमदं भ यावगाहि त ये
ते संसारपतंगघोरिकरणैद ि त नो मानवाः॥ 2॥

यह ी रामच रतमानस पु य प, पाप का हरण करनेवाला, सदा क याणकारी, िव ान और


भि को देनेवाला, माया मोह और मल का नाश करनेवाला, परम िनमल ेम पी जल से प रपण ू
तथा मंगलमय है। जो मनु य भि पवू क इस मानसरोवर म गोता लगाते ह, वे संसार पी सय
ू क
अित चंड िकरण से नह जलते॥ 2॥

इित ीम ामच रतमानसे सकलकिलकलुषिव वंसने स मः सोपानः समा ः।

किलयुग के सम त पाप का नाश करनेवाले ी रामच रतमानस का यह सातवाँ सोपान समा


हआ।

(उ रकांड समा )

– रामच रतमानस समा –


लेखक प रचय
गो वामी तल ु सीदास [१४९७ - १६२३] एक महान किव थे। उनका ज म राजापुर गाँव (वतमान
बाँदा िजला) उ र देश म हआ था। अपने जीवनकाल म उ ह ने १२ थ िलखे। उ ह सं कृत
िव ान होने के साथ ही िह दी भाषा के िस और सव े किवय म एक माना जाता है। उनको
मल ू आिद का य रामायण के रचियता महिष वा मीिक का अवतार भी माना जाता है।
ीरामच रतमानस वा मीिक रामायण का कारा तर से ऐसा अवधी भाषा तर है िजसम अ य भी
कई कृितय से मह वपण ू साम ी समािहत क गयी थी। रामच रतमानस को सम त उ र भारत
म बड़े भि भाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद िवनय पि का उनका एक अ य मह वपण ू का य है।
ेता युग के ऐितहािसक राम-रावण यु पर आधा रत उनके ब ध का य रामच रतमानस को
िव के १०० सव े लोकि य का य म ४६वाँ थान िदया गया।

ज म
उ र देश के िच कूट िजले से कुछ दूरी पर राजापुर नामक एक ाम है, वहाँ आ माराम दुबे
नाम के एक िति त सरयपू ारीण ा ण रहते थे। उनक धमप नी का नाम हलसी था। संवत्
१५५४ के ावण मास के शु लप क स मी ितिथ के िदन अभु मल ू न म इ ह भा यवान
द पित के यहाँ इस महान आ मा ने मनु य योिन म ज म िलया। चिलत जन ुित के अनुसार
िशशु परू े बारह महीने तक माँ के गभ म रहने के कारण अ यिधक पु था और उसके मुख
म दाँत िदखायी दे रहे थे। ज म लेने के बाद ाय: सभी िशशु रोया ही करते ह िक तु इस बालक
ने जो पहला श द बोला वह राम था। अतएव उनका घर का नाम ही रामबोला पड गया। माँ तो
ज म देने के बाद दूसरे ही िदन चल बसी बाप ने िकसी और अिन से बचने के िलये बालक को
चुिनयाँ नाम क एक दासी को स प िदया और वयं िवर हो गये। जब रामबोला साढे पाँच वष
का हआ तो चुिनयाँ भी नह रही। वह गली-गली भटकता हआ अनाथ क तरह जीवन जीने को
िववश हो गया।

बचपन
भगवान शंकरजी क ेरणा से रामशैल पर रहनेवाले ी अन तान द जी के ि य िश य
ीनरहयान द जी (नरह र बाबा) ने इस रामबोला के नाम से बहचिचत हो चुके इस बालक को
ढूँढ िनकाला और िविधवत उसका नाम तल ु सीराम रखा। तदुपरा त वे उसे अयो या (उ र देश)
ले गये और वहाँ संवत् १५६१ माघ शु ला प चमी (शु वार) को उसका य ोपवीत-सं कार
स प न कराया। सं कार के समय भी िबना िसखाये ही बालक रामबोला ने गाय ी-म का
प उ चारण िकया, िजसे देखकर सब लोग चिकत हो गये। इसके बाद नरह र बाबा ने वै णव
के पाँच सं कार करके बालक को राम-म क दी ा दी और अयो या म ही रहकर उसे
िव ा ययन कराया। बालक रामबोला क बुि बड़ी खर थी। वह एक ही बार म गु -मुख से जो
सुन लेता, उसे वह कंठ थ हो जाता। वहाँ से कुछ काल के बाद गु -िश य दोन शक ू र े
(सोर ) पहँचे। वहाँ नरह र बाबा ने बालक को राम-कथा सुनायी िक तु वह उसे भली-भाँित समझ
न आयी।

ये शु ल योदशी, गु वार, संवत् १५८३ को २९ वष क आयु म राजापुर से थोडी ही दूर


यमुना के उस पार ि थत एक गाँव क अित सु दरी भार ाज गो क क या र नावली के साथ
उनका िववाह हआ। चँिू क गौना नह हआ था अत: कुछ समय के िलये वे काशी चले गये और वहाँ
शेषसनातन जी के पास रहकर वेद-वेदांग के अ ययन म जुट गये। वहाँ रहते हए अचानक एक
िदन उ ह अपनी प नी क याद आयी और वे याकुल होने लगे। जब नह रहा गया तो गु जी से
आ ा लेकर वे अपनी ज मभिू म राजापुर लौट आये। प नी र नावली चँिू क मायके म ही थी य िक
तब तक उनका गौना नह हआ था अत: तुलसीराम ने भयंकर अँधेरी रात म उफनती यमुना नदी
तैरकर पार क और सीधे अपनी प नी के शयन-क म जा पहँचे। र नावली इतनी रात गये
अपने पित को अकेले आया देख कर आ यचिकत हो गयी। उसने लोक-ल जा के भय से जब
उ ह चुपचाप वापस जाने को कहा तो वे उससे उसी समय घर चलने का आ ह करने लगे।
उनक इस अ यािशत िजद से खीझकर र नावली ने वरिचत एक दोहे के मा यम से जो िश ा
उ ह दी उसने ही तुलसीराम को तल
ु सीदास बना िदया। र नावली ने जो दोहा कहा था वह इस
कार है:

अि थ चम मय देह यह, ता स ऐसी ीित !

नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ?

यह दोहा सुनते ही उ ह ने उसी समय प नी को वह उसके िपता के घर छोड िदया और वापस


अपने गाँव राजापुर लौट गये। राजापुर म अपने घर जाकर जब उ ह यह पता चला िक उनक
अनुपि थित म उनके िपता भी नह रहे और परू ा घर न हो चुका है तो उ ह और भी अिधक क
हआ। उ ह ने िविध-िवधान पवू क अपने िपता जी का ा िकया और गाँव म ही रहकर लोग को
भगवान राम क कथा सुनाने लगे।

ीराम से भट
कुछ काल राजापुर रहने के बाद वे पुन: काशी चले गये और वहाँ क जनता को राम-कथा
सुनाने लगे। कथा के दौरान उ ह एक िदन मनु य के वेष म एक ेत िमला, िजसने उ ह हनुमान
जी का पता बतलाया। हनुमान जी से िमलकर तुलसीदास ने उनसे ीरघुनाथजी का दशन कराने
क ाथना क । हनुमान्जी ने कहा- "तु ह िच कूट म रघुनाथजी दशन ह ग।" इस पर
तुलसीदास जी िच कूट क ओर चल पड़े ।
िच कूट पहँच कर उ ह ने रामघाट पर अपना आसन जमाया। एक िदन वे दि णा करने िनकले
ही थे िक यकायक माग म उ ह ीराम के दशन हए। उ ह ने देखा िक दो बड़े ही सु दर
राजकुमार घोड़ पर सवार होकर धनुष-बाण िलये जा रहे ह। तुलसीदास उ ह देखकर आकिषत
तो हए, पर तु उ ह पहचान न सके। तभी पीछे से हनुमान्जी ने आकर जब उ ह सारा भेद बताया
तो वे प ाताप करने लगे। इस पर हनुमान्जी ने उ ह सा वना दी और कहा ातःकाल िफर दशन
ह गे।

संवत् १६०७ क मौनी अमाव या को बुधवार के िदन उनके सामने भगवान ीराम पुनः कट
हए। उ ह ने बालक प म आकर तुलसीदास से कहा-"बाबा! हम च दन चािहये या आप हम
च दन दे सकते ह?" हनुमान जी ने सोचा, कह वे इस बार भी धोखा न खा जाय, इसिलये
उ ह ने तोते का प धारण करके यह दोहा कहा:

िच कूट के घाट पर, भइ स तन क भीर।

तल
ु िसदास च दन िघस, ितलक देत रघबु ीर॥

तुलसीदास ीराम जी क उस अ ुत छिव को िनहार कर अपने शरीर क सुध-बुध ही भलू गये।


अ ततोग वा भगवान ने वयं अपने हाथ से च दन लेकर अपने तथा तुलसीदास जी के म तक
पर लगाया और अ त यान हो गये।

सं कृत म प -रचना
संवत् १६२८ म वह हनुमान जी क आ ा लेकर अयो या क ओर चल पड़े । उन िदन याग म
माघ मेला लगा हआ था। वे वहाँ कुछ िदन के िलये ठहर गये। पव के छः िदन बाद एक वटव ृ के
नीचे उ ह भार ाज औरया व य मुिन के दशन हए। वहाँ उस समय वही कथा हो रही थी, जो
उ होने सकू र े म अपने गु से सुनी थी। माघ मेला समा होते ही तुलसीदास जी याग से
पुन: वापस काशी आ गये और वहाँ के ादघाट पर एक ा ण के घर िनवास िकया। वह रहते
हए उनके अ दर किव व-शि का फुरण हआ और वे सं कृत म प -रचना करने लगे। पर तु
िदन म वे िजतने प रचते, राि म वे सब लु हो जाते। यह घटना रोज घटती। आठव िदन
तुलसीदास जी को व न हआ। भगवान शंकर ने उ ह आदेश िदया िक तुम अपनी भाषा म का य
रचना करो। तुलसीदास जी क न द उचट गयी। वे उठकर बैठ गये। उसी समय भगवानिशव और
पावती उनके सामने कट हए। तुलसीदास जी ने उ ह सा ांग णाम िकया। इस पर स न
होकर िशव जी ने कहा- "तुम अयो या म जाकर रहो और िह दी म का य-रचना करो। मेरे
आशीवाद से तु हारी किवता सामवेद के समान फलवती होगी।" इतना कहकर गौरीशंकर
अ तधान हो गये। तुलसीदास जी उनक आ ा िशरोधाय कर काशी से सीधे अयो या चले गये।

रामच रतमानस क रचना


संवत् १६३१ का ार भ हआ। दैवयोग से उस वष रामनवमी के िदन वैसा ही योग आया जैसा
ेतायुग म राम-ज म के िदन था। उस िदन ातःकाल तुलसीदास जी ने ीरामच रतमानस क
रचना ार भ क । दो वष, सात महीने और बीस िदन म यह अ ुत थ स प न हआ। संवत्
१६३३ के मागशीष शु लप म राम-िववाह के िदन सात का ड पण ू हो गये।

इसके बाद भगवान क आ ा से तुलसीदास जी काशी चले आये। वहाँ उ ह ने भगवान् िव नाथ
और माता अ नपण ू ा को ीरामच रतमानस सुनाया। रात को पु तक िव नाथ-मि दर म रख दी
गयी। ात:काल जब मि दर के पट खोले गये तो पु तक पर िलखा हआ पाया गया-स यं िशवं
सु दरम् िजसके नीचे भगवान् शंकर क सही (पुि ) थी। उस समय वहाँ उपि थत लोग ने
"स यं िशवं सु दरम्" क आवाज भी कान से सुनी।

इधर काशी के पि डत को जब यह बात पता चली तो उनके मन म ई या उ प न हई। वे दल


बनाकर तुलसीदास जी क िन दा और उस पु तक को न करने का य न करने लगे।
उ ह ने पु तक चुराने के िलये दो चोर भी भेजे। चोर ने जाकर देखा िक तुलसीदास जी क कुटी
के आसपास दो युवक धनुषबाण िलये पहरा दे रहे ह। दोन युवक बड़े ही सु दर मश: याम
और गौर वण के थे। उनके दशन करते ही चोर क बुि शु हो गयी। उ ह ने उसी समय से चोरी
करना छोड़ िदया और भगवान के भजन म लग गये। तुलसीदास जी ने अपने िलये भगवान् को
क हआ जान कुटी का सारा समान लुटा िदया और पु तक अपने िम टोडरमल (अकबर के
नौर न म एक) के यहाँ रखवा दी। इसके बाद उ ह ने अपनी िवल ण मरण शि से एक दूसरी
ित िलखी। उसी के आधार पर दूसरी ितिलिपयाँ तैयार क गय और पु तक का चार िदन -
िदन बढ़ने लगा।

इधर काशी के पि डत ने और कोई उपाय न देख ी मधुसदू न सर वती नाम के महापि डत को


उस पु तक को देखकर अपनी स मित देने क ाथना क । मधुसदू न सर वती जी ने उसे
देखकर बड़ी स नता कट क और उस पर अपनी ओर से यह िट पणी िलख दी-

आन दकानने ाि म जङ्गम तल
ु सीत ः।

किवताम जरी भाित राम मरभिू षता॥

इसका िह दी म अथ इस कार है-"काशी के आन द-वन म तुलसीदास सा ात् चलता-िफरता


तुलसी का पौधा है। उसक का य-म जरी बड़ी ही मनोहर है, िजस पर ीराम पी भँवरा सदा
मँडराता रहता है।"

पि डत को उनक इस िट पणी पर भी संतोष नह हआ। तब पु तक क परी ा का एक अ य


उपाय सोचा गया। काशी के िव नाथ-मि दर म भगवान् िव नाथ के सामने सबसे ऊपर वेद,
उनके नीचे शा , शा के नीचे पुराण और सबके नीचे रामच रतमानस रख िदया गया।
ातःकाल जब मि दर खोला गया तो लोग ने देखा िक ीरामच रतमानस वेद के ऊपर रखा
हआ है। अब तो सभी पि डत बड़े लि जत हए। उ ह ने तुलसीदास जी से मा माँगी और भि -
भाव से उनका चरणोदक िलया।

म ृ यु
तुलसीदास जी जब काशी के िव यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात किलयुग मत
ू प
धारण कर उनके पास आया और उ ह पीड़ा पहँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान
जी का यान िकया। हनुमान जी ने सा ात् कट होकर उ ह ाथना के पद रचने को कहा,
इसके प ात् उ ह ने अपनी अि तम कृित िवनय-पि का िलखी और उसे भगवान के चरण म
समिपत कर िदया। ीराम जी ने उस पर वयं अपने ह ता र कर िदये और तुलसीदास जी को
िनभय कर िदया।

संवत् १६८० म ावण कृ ण ततृ ीया शिनवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हए अपना
शरीर प र याग िकया।

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