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अनु म णका

जीवन प रचय

म बु बोल रहा ँ
जीवन प रचय
गौ तम बु का ज म ईसा से 563 साल पहले नेपाल के लुं बनी वन म आ। उनक
माता क पलव तु क महारानी महामाया दे वी जब अपने माता- पता के पास दे वदह जा रही
थ , तो उ ह ने रा ते म लुं बनी वन म बु को ज म दया।

आज क पलव तु और दे वदह के बीच नौतनवा टे शन से 8 मील र प चम म मनदे ई


नामक ान के पास उस काल म लुं बनी वन आ करता था।
उनका ज म नाम स ाथ रखा गया। स ाथ के पता शु ोदन क पलव तु के राजा थे
और उनका स मान नेपाल ही नह समूचे भारत म था। स ाथ क मौसी गौतमी ने उनका
लालन-पालन कया, य क स ाथ के ज म के सात दन बाद ही उनक माँ का दे हांत हो
गया था। शा य वंश म ज मे स ाथ का सोलह वष क उ म दं डपा ण शा य क क या
यशोधरा के साथ ववाह आ। यशोधरा से उनको एक पु मला, जसका नाम रा ल रखा
गया। बाद म यशोधरा और रा ल दोन बु के भ ु हो गए थे।

व ान ने महा मा बु के बारे म शु ोदन को पहले ही सू चत कर दया था क यह बालक


या तो च वत राजा होगा या वर होकर संसार का क याण करेगा। पता होने के नाते
शु ोदन इस बात को लेकर च तत रहते थे। इस भ व यवाणी को सुनकर राजा शु ोदन ने
अपनी साम य के अनुसार स ाथ को ःख से र रखने क को शश क । फर भी उनक
चार य पर पड़ी—एक बूढ़े अपा हज आदमी, एक बीमार आदमी, एक अं तम
सं कार को ले जाती ई लाश और एक साधु। इन चार य को दे खकर स ाथ समझ
गए क सबका ज म होता है, सबका बुढ़ापा आता है, सबको बीमारी होती है और एक दन
सबक मौत होती है। उ ह ने अपना धनवान जीवन, जा त, प नी, बंधु सबको छोड़कर साधु
का जीवन अपनाने का नणय ले लया। ता क वे ज म, बढ़ापे, दद, बीमारी और मौत के
बारे म कोई उ र खोज पाएँ।

चूँ क बु का मन संसार से बलकुल ही वर रहता था, इस लए अपने राजसुख को


यागकर तथा मानव जा त एवं जीव-जंतु के क याण हेतु छोट अव ा म ही वे एक
दन आधी रात को अपनी प नी व पु को सोया छोड़कर, राजसी वेशभूषा यागकर
अमरता क खोज म नकल पड़े।
बु को न तो वग पाने क लालसा थी, न ही ऐ वय सुख भोगने क कामना थी, य क
उ ह ने इन सब चीज पर वजय ा त कर ली थी। स ाथ ने पाँच ा ण के साथ अपने
न के उ र ढूँ ढने शु कए। उ ह ने उ चत ढं ग से यान करने क या सीखी, परंतु
उ ह उ र नह मले। फर उ ह ने तप या करने क को शश क । वे इस काय म भी अपने
गु से भी यादा वीण नकले, परंतु उ ह अपने न के उ र फर भी नह मले।
फर उ ह ने कुछ साथी इक े कए और अ धक कठोर तप या करने चल दए।

ऐसा करते-करते उ ह छह वष बीत गए, इस बीच कतनी ही बार वे भूख के कारण मरते-
मरते बचे, ले कन अब तक उ ह अपने न के उ र नह मल पाए थे। तब वे फर कुछ
और करने के बारे म सोचने लगे। इस समय, उ ह अपने बचपन का एक पल याद आया,
जब उनके पता फसल बोने के लए खेत तैयार करना शु कर रहे थे। उस समय क बात
याद करके वे आनंद से भर गए और उसी आनंद म उनको यान-समा ध लग गई, तब उ ह
ऐसा महसूस आ क समय र हो गया है। यही वह समय था, जब उनको बो धत व
ा त आ। इसके बाद कठोर तप या छोड़कर उ ह ने आय अ ांग माग ढूँ ढ नकाला, जो
बीच का माग भी कहलाया जाता है। उसके बाद वे लोग को स ाग दखाने के लए चल
पड़े।

सव थम सारनाथ (वाराणसी के समीप) म उ ह ने पाँच भ ु के सामने


ध मच कपवन नसुत ( थम उपदे श) दया।

और कुशीनारा वह ान है, जहाँ भगवान् बु दे व ने महाप र नवाण हण कया।

महा मा बु ने ईसा से छह सौ वष पूव भारत म धम क ापना क थी। महा मा बु धम


का वतन नह चाहते थे, ब क उसम सुधार करना चाहते थे, य क वे क याण म
व वास रखते थे। उनका धम तीन बात क खोज म न हत है—

1. थम, संसार म अशुभ है।


2. तीय, इस अशुभ का या कारण है? उ ह ने बताया क यह मनु य क सर से
ऊँचे चढ़ जाने क इ ा म है। यह वह मनु य दोष है, जसका नवारण न वाथता से
कया जा सकता है।
3. तीसरे, इस अशुभ का इलाज न वाथ बनकर कया जा सकता है।

महा मा बु ने कहा क कभी भी बल से कसी भी सम या का समाधान नह कया जा


सकता है, यही आधार ही भगवान् बु के धम का मु य आधार था। महा मा बु समता
के महान् उपदे ा थे।

उनका कहना था क आ या मकता ा त करने का अ धकार येक ी-पु ष को है।


मानव क समता उनके महान् संदेश म से एक है।

उनका धम- स ांत यह था क मनु य ःख इस लए भोगता है क वह मा वाथ है।


भगवान् बु ने कहा है क सम त ा णय के कम दस बुराइय म ही न हत ह। अगर
इनसे बचा जाए तो सबकुछ ठ क हो जाएगा।

ह या, चोरी तथा भचार ये तीन बुराइयाँ शरीर क बुराइयाँ ह। झूठ बोलना, गाली दे ना,
बकवास करना तथा नदा करना ये चार बुराइयाँ जीवन क ह। लालच, े ष तथा ु ट ये
तीन मन क बुराइयाँ ह। अगर इन दस बुराइय से मनु य बच जाए तो वह सव े मनु य
हो जाता।

भगवान् बु के उपदे श
ह -धम म वेद का जो ान है, बौ धम म वही ान पटक का है। भगवान् बु ने
अपने हाथ से कुछ नह लखा था। उनके उपदे श को उनके श य ने पहले कंठ कया,
फर लख लया। वे उ ह पे टय म रखते थे। इसी से ' पटक' नाम पड़ा। पटक तीन ह—

1. वनय पटक— इसम व तार से वे नयम दए गए ह, जो भ -ु संघ के लए बनाए


गए थे। इनम बताया गया है क भ ु और भ ु णय को त दन के जीवन म
कन- कन नयम का पालन करना चा हए।
2. सु पटक— सबसे मह वपूण पटक सु पटक है। इसम बौ धम के सभी मु य
स ांत करके समझाए गए ह। सु पटक पाँच नकाय म बँटा है—
1. द घ नकाय,
2. म झम नकाय,
3. संयु नकाय,
4. अंगु र नकाय और
5. खु क नकाय।
खु क नकाय सबसे छोटा है। इसके 15 अंग ह। इसी का एक अंग 'ध मपद' है। एक
अंग 'सु नपात' है।
3. अ भध म पटक— अ भध म पटक म धम और उसके याकलाप क ा या
शा स मत ढं ग से क गई है। वेद म जस तरह ा ण- ंथ ह, उसी तरह पटक म
अ भध म पटक ह।

ध मपद
ह -धम म गीता का जो ान है, बौ धम म वही ान ध मपद का है। गीता जस कार
महाभारत का एक अंश है, उसी तरह ध मपद सु पटक के खु क नकाय का एक अंश
है।

ध मपद म 26 व ग और 423 ोक ह। बौ धम को समझने के लए अकेला ध मपद ही


काफ है। मनु य को अंधकार से काश म ले जाने के लए यह काशमान द पक है। यह
सु पटक के सबसे छोटे नकाय खु क नकाय के 15 अंग म से एक है।

पटक म मु यतया भगवान् बु क धमवाणी सं हीत है, जो साधारणतया मानव मा


के लए और वशेषतया वप यी साधक के लए भूत पावन ेरणा और महामांग लक
मागदशन लये ए है। संपूण पटक म 84,000 धम श ापद (धम कंध) ह, जनम
82,000 भगवान् बु के और 2,000 उन भ ु के ह, जो भगवान् के परम श य थे।

भगवान् के जीवनकाल म सम बु वाणी इन नौ भाग म वभा जत क गई थी—सु ,ं


गे यं, वै याकरणं, गाथा, उदानं, इ तवु कं, जातकं, अ भुतध मं और वेद लं। संभवतः
इ ह को भगवान् ने ध म, वनय और मा तका कहा और आगे चलकर संभवतः ये ही
सु पटक, वनय पटक और अ भध म पटक के नाम से संपा दत एवं सं हीत ए।

धमवाणी को इन तीन वभाग म पालकर, सँभालकर रखनेवाला संपूण सा ह य ही


पटक कहलाया। यह सा ह य त कालीन उ र भारत क ाकृ तक जनभाषा म है। इस
भाषा ने इसे पालकर, सँभालकर रखा, अतः वह पा ल कहलाई। ये दोन मलकर
पटक-पा ल कहलाए।

॥ ओ म ण पदमे म्॥ यह षडा रीय मं है, जसका उ लेख अवलो कते वरा म कया
गया है। यह मं सभी कार के खतर से सुर ा के लए जपा जाता है। बताया जाता है क
जो कोई इस मं को जपता है वह सब खतर से सुर त हो जाता है। इस मं का जप
बौ धम क महायान शाखा म मुख प से कया जाता है।
यह मं अकसर ाथना च , तूप क द वार, धम ान के प र , म णय आ द म खुदा
आ या च त प म मल जाता है। जस ाथना च पर यह मं खुदा होता है उसको
एक बार घुमाने पर माना जाता है क उसने इस मं को दस लाख बार जपा है। यह मं
अँगूठ या अ य आभूषण म भी मु त रहता है।

पारंप रक मंडल
मंडल यानी ऐसा तां क यं , जो गोलाकार होता है। यह यान का यं माना जाता है। यह
य प से यान और मनन करने म सहायता करता है। इसके इ तेमाल से भ जन को
स क ा त होती है।

इसके कई कार होते ह। इनम से सबसे च लत ' यानी बु ' का मंडल है। यह सबसे
ाचीन तां क यं है। इसे शु करण का महल कहा जाता है। यह एक जा ई चौकोर
होता है जो क अ या म क राह म आनेवाले अवरोध को हटाकर च का शु करण
करता है।

यान च
यह केवल त बती बौ भ ारा इ तेमाल कया जाता है। इसम 'ओ म ण पदमे म्'
मं खुदा होता है। ाथना च , जो छोटे आकार के होते ह, वे आम लोग और वा सय
ारा इ तेमाल म लाए जाते ह। बड़े आकार के च मठ , तूप म इ तेमाल होते ह।
बौ धम के आठ शुभ च न न ह—
(1) वेत शंख
वेत शंख जो दा हनी ओर कुंड लत हो, धम क मधुर, गहरी और संगीतमय श ा को
दरशाता है। यह हर कार के वहारवाले श य के लए उपयु है। यह शंख उनको
अ ानता से उठाकर अ े कम और सर क भलाई करने क ेरणा दे ता है।

(2) वजयी वज
वजयी वज जीवन म शारी रक, मान सक और अ य ग तरोध के व पाई गई वजय
का तीक है। यह बौ धम के स ांत क वजय का भी तीक है।

(3) वण मछली
वण मछली सभी जीव के नभय जीवन जीने का तीक है। जैसे मछली न चंत होकर
तैरती है, वैसे ही सभी जीव को नभय होकर जीना चा हए।
(4) प व छ ी
प व छ ी मनु य को बीमारी, वप और सभी वनाशी ताकत से सुर त रखने का
तीक है। यह तेज धूप से छाया का आनंद लेने का भी तीक है।

(5) धमच
यह बौ धम के सभी कार के स ांत , जनका क भगवान् बु ने अपने उपदे श म
उ लेख कया है, का तीक है। यह नरंतर वकास क ओर इं गत करता है।

(6) शुभ आकृ त


शुभ आकृ त का च ण धा मक और भौ तक जीवन के पर नभरता का तीक है। यह
बौ धम के अ ां गक माग क ओर भी इं गत करता है।

(7) कमल का फूल


बौ धम म कमल के फूल का अ य धक मह व है। यह शरीर, वचन और मन के
शु करण का तीक है।

(8) शुभ कलश


शुभ कलश द घायु, सुख-संप , आनंद, अनवरत वषा व जीवन के।

बौ धम के अ ाकृत न
नवाण ही स य, बाक सब अस य
अ ाकृत का अथ है, जो ाकरण-स मत नह है। जब भगवान् बु से जीव, जगत् आ द
के वषय म चौदह दाश नक न कए जाते थे तो वे सदा मौन रह जाते थे। ये स
चौदह न न नां कत ह—

1-4. या लोक शा वत है?अथवा नह ?अथवा दोन ?अथवा दोन नह ?


5-8. या जगत् नाशवान है?अथवा नह ?अथवा दोन ?अथवा दोन नह ?
9-12. तथागत दे ह याग के बाद भी व मान रहते ह?अथवा नह ?अथवा दोन ?अथवा
दोन नह ?

13-14. या जीव और शरीर एक ह?अथवा भ ?


उ न पर बु मौन रह गए। इसका यह ता पय नह क वे इनका उ र नह जानते थे।
उनका मौन केवल यही सू चत करता है क यह ाकरण-स मत नह थे। इनसे जीवन का
कसी भी कार से भला नह होता। उ न के प या वप म दोन के ही माण या
तक जुटाए जा सकते ह। इ ह कसी भी तरह स य या अस य स कया जा सकता है।
यह पारमा थक से थ है।

उ संबंध म बु ने कहा है क भ ु ! कुछ मण और ा ण शा वतवाद को मानते


ह। य के जाल म और बु क को टय म फँसने के कारण ये लोग इन मत को मानते
ह। तथागत इन सबको जानते ह और इनसे भी अ धक जानते ह। कतु तथागत सबकुछ
जानते ए भी जानने का अ भमान नह करते ह। इन बु को टय म न फँसने के कारण
तथागत नवाण का सा ा कार करते ह।

बौ दशन के मूल स ांत


बौ दशन तीन मूल स ांत पर आधा रत माना गया है—1. अनी वरवाद, 2. अना मवाद
और 3. णकवाद। यह दशन पूरी तरह से यथाथ म जीने क श ा दे ता है।

1. अनी वरवाद
बु ई वर क स ा नह मानते य क नया ती यसमु पाद के नयम पर चलती है।
ती यसमु पाद अथात् कारण-काय क शृंखला। इस शृंखला के कई च ह, ज ह बारह
अंग म बाँटा गया है। अतः इस ांड को कोई चलानेवाला नह है। न ही कोई
उ प कता, य क उ प कहने से अंत का भान होता है। तब न कोई ारंभ है और न
अंत।

2. अना मवाद
अना मवाद का यह मतलब नह क सच म ही 'आ मा' नह है। जसे लोग आ मा समझते
ह, वह चेतना का अ व वाह है। यह वाह कभी भी बखरकर जड़ से ब हो
सकता है और कभी भी अंधकार म लीन हो सकता है।

वयं के होने को जाने बगैर आ मवान नह आ जा सकता। नवाण क अव ा म ही वयं


को जाना जा सकता है। मरने के बाद आ मा महा सुसु त म खो जाती है। वह अनंतकाल
तक अंधकार म पड़ी रह सकती है या त ण ही सरा ज म लेकर संसार के च म फर
से शा मल हो सकती है। अतः आ मा तब तक आ मा नह जब तक क बु व घ टत न
हो। अतः जो जानकार ह वे ही वयं के होने को पु ता करने के त च तत ह।

3. णकवाद
इस ांड म सबकुछ णक और न वर है। कुछ भी ायी नह । सबकुछ प रवतनशील
है। यह शरीर और ांड उसी तरह है जैसे क घोड़े, प हए और पालक के संग ठत प
को रथ कहते ह और इ ह अलग करने से रथ का अ त व नह माना जा सकता।

उ तीन स ांत पर आधा रत ही बौ दशन क रचना ई। इन तीन स ांत पर आगे


चलकर थेरवाद, वैभा षक, सौ ां क, मा य मक (शू यवाद), योगाचार ( व ानवाद) और
वतं योगाचार का दशन गढ़ा गया। इस तरह बौ धम के दो मुख सं दाय के कुल छह
उपसं दाय बने। इन सबका क य दशन रहा ती यसमु पाद।

बौ तूप तीक
धमच
यह धमच बौ धम के नयम, ज म और पुनज म क नरंतरता का तीक होता है। ये
गोल आकार के होते ह, जनम चार ता ड़याँ होती ह। ता ड़याँ चार जन या बु के जीवन
के चार नणायक ण को इं गत करती ह।
अगर आठ ता ड़याँ ह तो ये 'अ ां गक माग' को दरशाती ह। स ाट् अशोक का धमच
ब त स है, ले कन इसके पहले भी भारतीय कला म इसका इ तेमाल कया जाता रहा
है। सामा यतः च को चार दशा क ओर मुख कए ए सह के ऊपर बनाया जाता
है।

पारंप रक घंट
घं टयाँ आठ, बारह, सोलह, अठारह या बाईस अंगुल क ऊँचाईवाली हो सकती ह। इनका
आकार नीचे से गोल होता है और उसके ऊपर दे वी जनापरा मता का चेहरा बना होता है।
सबसे ऊपर कमल, चाँद और व बने होते ह। व के साथ इ तेमाल करने पर घंट ान
को इं गत करती है।


व म नौ, पाँच या तीन ता ड़याँ होती ह। शां तमय व के छोर पर ता ड़याँ आपस म मली
ई होती ह, जब क हसक व के छोर थोड़े फैले ए होते ह।

बौ मु ाएँ
(1) ग तमान धमच क मु ा
दा हने हाथ का अँगूठा और तजनी अँगुली बु और जुड़ने क कला को इं गत करती ह।
बाक क तीन खड़ी ई अँगु लयाँ बौ श ा का तीक है। बाएँ हाथ क मु ा मनु य क
म त मता को इं गत करती है, जस पर क वह ान के पथ और जुड़ने क ओर
बढ़ता है।

(2) यान क मु ा
मानव तं का णाली जो क म त क के उस भाग से जुड़ी होती है, जो परमानंद का
कारक होता है, इसक तं काएँ हाथ के अँगूठ से होकर गुजरती ह। इसे बौ धम म
बो ध च कहा जाता है। इस मु ा म दोन हाथ के अँगूठ का पर र जोड़ या मलन
बो ध च के भ व य म वकास क ओर इं गत करता है।

(3) सव ा त क मु ा
दा हने हाथ क मु ा सव ा त को इं गत करती है और बाएँ हाथ क मु ा यान- चतन
को दरशाती है। ये दोन मलकर बु क सव श क ओर इं गत करते ह। बु यान
म इस मु ा म बैठते थे।

(4) भू म पर दबाव दे ने क मु ा
दा हने हाथ क मु ा भू म पर दबाव दे ने क तथा बाएँ हाथ क मु ा यान करने क होती
है। ये दोन मलकर बु ारा सभी ग तरोध पर पाई वजय को इं गत करती ह। भू म को
छू ने क मु ा बु के उस वजय का च है, जब उ ह ने रा स मारा पर वजय पाई थी।

यानाव ा म ग तशील धमच क मु ा दा हने हाथ क मु ा घूमते ए धमच और बाएँ


हाथ क मु ा यान- चतन को दरशाती है। दोन साथ मलकर यान के दौरान बौ धम के
श ण क ओर इं गत करते ह।

(5) यानाव ा म ग तशील धमच क मु ा


दा हने हाथ क मु ा घूमते ए धमच और बाएँ हाथ क मु ा यान- चतन को दरशाती
है। दोन साथ मलकर यान के दौरान बौ धम के श ण क ओर इं गत करते ह।

भगवान् बु के नवाण के मा 100 वष बाद ही बौ म मतभेद उभरकर सामने आने


लगे थे। वैशाली म संप तीय बौ संगी त म थेर भ ु ने मतभेद रखनेवाले भ ु
को संघ से बाहर नकाल दया था। अलग ए इन भ ु ने उसी समय अपना अलग संघ
बनाकर वयं को 'महासां घक' और ज ह ने नकाला था, उ ह 'हीनसां घक' नाम दया,
जसने कालांतर म महायान और हीनयान का प धारण कर कया।
हीनयान म अ ां गक माग पर जोर है, जसके अनुसार भगवान् बु कहते ह क अ त दो
कार क होती है। एक अ त है—भोग- वलास म, काम-सुख म ऊपर से नीचे तक डू ब
जाना। गरे ए, भूले ए लोग इस अ त म पड़ते ह। सरी अ त है—शरीर को अ य धक
पीड़ा दे कर तप या करना। अपने को व भ कार से पीड़ा प ँचाना। दोन अ त को
छोड़कर तथागत ने एक म यम माग खोज नकाला, जसे अ ां गक माग कहते ह। यह
माग शां त, ान और नवाण दे नेवाला है। अमृत क ओर ले जानेवाले माग म अ ां गक
माग परम मंगलमय माग है। जो इस कार है—

1. स यक् : ःख का ान, ःखोदय का ान, ःख नरोध का ान और ःख


नरोध क ओर ले जानेवाले माग का ान, इस आय स य-चतु य के स यक् ान को
स यक् कहते ह।
2. स यक् संक प : न कमता-संबंधी अथात् अनास संबंधी संक प, अ हसा-संबंधी
संक प और अ ोह-संबंधी संक प को स यक् संक प कहते ह।
3. स यक् वचन : अस य वचन छोड़ना, पशुन वचन अथात् चुगलखोरी छोड़ना, कठोर
वचन छोड़ना और बकवास छोड़ना स यक् वचन ह।
4. स यक् कमात : ाणी हसा से वरत होना, बना द ई व तु न लेना और
कामोपभोग के म याचार ( राचार) से वरत होना ही स यक् कमात है।
5. स यक् आजीव : आजी वका से म या साधन को छोड़कर अ -स ी
आजी वका से जीवन तीत करना स यक् आजीव है।
6. स यक् ायाम : 'अकुशल' धम अथात् पाप उ प न होने दे ने के लए न चय
करना, प र म करना, उ ोग करना, च को पकड़ना और रोकना तथा कुशल धम
अथात् स यकम क उ प , त, वपुलता और प रपूणता के लए उ ोग आ द
करना ही स यक् ायाम है।
7. स यक् मृ त : अशु च, जरा, मृ यु आ द दै हक धम का अनुभव करना तथा
उ ोगशील अनुभव ानयु हो लोभ और मान सक संताप को छोड़कर जगत् म
वचरना ही स यक् मृ त है।
8. स यक् समा ध : कुशल धम अथात् स मनोवृ य म समाधान रखना ही स यक्
समा ध है। इस स यक् समा ध क थम, तीय, तृतीय और यान पी चार सी ढ़याँ
ह। पहले यान म वतक और वचार का लोप हो जाता है। ी त, सुख और एका ता
ये तीन मनोवृ याँ ही रहती ह। तीसरे यान म ी त का लय हो जाता है, केवल सुख
और एका ता ही रहती है। चौथे यान म सुख भी लु त हो जाता है, उपे ा और
एका ता ही रहती है।

इसी कार महायान म पार मता माग पर जोर है। 'पार मता' श द 'परम' से बना है। इसका
अथ सबसे ऊँची अव ा है। पार मताएँ मु य प से छह कार क होती ह—
1. दान-पार मता : सर के हत के लए अपना व व छोड़ने का नाम दान है। दान-
पार मता तीन बात से होती है—
1. जब दान के पा क कोई सीमा नह रहती। ाणीमा दान का पा बन जाता
है।
2. जब दे ने क व तु क कोई सीमा नह रहती। मनु य अपना सबकुछ सर के
हत म लगाने को तैयार हो जाता है।
3. जब दान के बदले म कुछ भी पाने क आकां ा नह रहती।
2. शील-पार मता : 'शील' यानी सदाचार। अ हसा, स य आ द नै तक नयम को चोट
पर प ँचाने का नाम शील-पार मता है। हसा न शरीर से होनी चा हए, न वचन से, न
मन से। इसी तरह सरे नयम का पूरा-पूरा पालन होना चा हए।
3. शां त-पार मता : 'शां त' यानी मा, सहनशीलता। चाहे जतना क आए, धैय न
छोड़ना, वच लत न होना। मरने जैसा क होने पर भी शां त से उसे झेल लेना शांत-
पार मता है।
4. वीय-पार मता : 'वीय' यानी उ साह। अशुभ को छोड़कर पूरे उ साह के साथ आगे
बढ़ने का नाम वीय-पार मता है।
5. यान-पार मता : ' यान' यानी कसी एक व तु म च को एका करना। च जब
पूरी तरह वश म हो जाए, तो यान-पार मता स होती है।
6. ा-पार मता : ' ा' यानी स य का सा ा कार होना। च जब नमल हो जाता है,
तब ा क ा त होती है। नमल च से ही स य के दशन होते ह।

महायान के भ ु मानते थे क हीनयान के दोष और अंत वरोध को र करने के लए बु


ारा उपदे शत अ ै तवाद क पुनः ापना क जानी चा हए। अ ै तवाद का संबंध वेद और
उप नषद से है। महायान के सवा धक चीन उपल ंथ 'महायान वैपु य सू ' है, जसम
ापार मताएँ और स मपु डरीक आ द अ यंत ाचीन ह। इसम 'शू यवाद' का व तृत
तपादन है।
हीनयान को थेरवाद, रवाद भी कहते ह। तृतीय संगी त के बाद से ही भारत म इस
सं दाय का लोप होने लगा था। थेरवाद क जगह सवा त ववाद या वैभा षक सं दाय ने
जोर पकड़ा, जसके ंथ मूल सं कृत म थे, ले कन वे अब लु त हो चुके ह, फर भी चीनी
भाषा म उ दशन के ंथ सुर त ह। वैभा षक म कुछ मतभेद चले तो एक नई शाखा
फूट पड़ी जसे सौ ां तक मत कहा जाने लगा।
म बु बोल रहा ँ
1. मनु य ोध को ेम से, पाप को सदाचार से, लोभ को दान से और झूठ को स य से
जीत सकता है।
2. पु प क सुगंध वायु के वपरीत कभी नह जाती, ले कन मानव के स ण क महक
सब ओर फैल जाती है।
3. हजार यो ा पर वजय पाना आसान है, ले कन जो अपने ऊपर वजय पाता है,
वही स ा वजयी है।
4. सात सागर म जल क अपे ा मानव के ने से कह अ धक आँसू बह चुके।
5. अ भलाषा सब ःख का मूल है।
6. जो नसीहत नह सुनता उसे लानत-मलामत सुनने का शौक होना चा हए।
7. घृणा घृणा से कभी कम नह होती, ेम से ही होती है।
8. पाप का संचय ही ःख का मूल है।
9. जो अपने ऊपर वजय ा त करता है वही सबसे बड़ा वजयी है।
10. हम जो कुछ भी ह वह हमने आज तक या सोचा इस बात का प रणाम है। य द
कोई बुरी सोच के साथ बोलता या काम करता है, तो उसे क ही मलता है।
य द कोई शु वचार के साथ बोलता या काम करता है, तो उसक परछाई
क तरह खुशी उसका साथ कभी नह छोड़ती।
11. हजार खोखले श द से अ ा वह एक श द है जो शां त लाए।
12. सभी बुरे काय मन के कारण उ प होते ह, अगर मन प रव तत हो जाए तो या
अनै तक काय रह सकते ह?
13. एक जग बूँद-बूँद कर के भरता है।
14. अतीत पर यान मत दो, भ व य के बारे म मत सोचो, अपने मन को वतमान ण पर
क त करो।
15. वा य सबसे बड़ा उपहार है, संतोष सबसे बड़ा धन है, वफादारी सबसे बड़ा संबंध
है।
16. जैसे मोमब ी बना आग के नह जल सकती, मनु य भी आ या मक जीवन के
बना नह जी सकता।
17. तीन चीज यादा दे र तक नह छु प सकती—सूरज, चं मा और स य।
18. स पु ष सव (पाँचो कंध म) छं दराग छोड़ दे ते ह, संत जन कामभोग के लए बात
नह चलाते, चाहे सुख मले या ःख, पं डत (जन) (अपने मन का) उतार-चढ़ाव
द शत नह करते।
19. तुम अपने ोध के लए दं ड नह पाओगे, तुम अपने ोध ारा दं ड पाओगे।
20. कसी जंगली जानवर क अपे ा एक कपट और म से यादा डरना चा हए,
जानवर तो बस आपके शरीर को नुकसान प ँचा सकता है, पर एक बुरा म
आपक बु को नुकसान प ँचा सकता है।
21. आपके पास जो कुछ भी है, उसे बढ़ा-चढ़ाकर मत बताइए, और न ही सर से ई या
क जए, जो सर से ई या करता है उसे मन क शां त नह मलती।
22. वह जो पचास लोग से ेम करता है उसके पचास संकट ह, वह जो कसी से ेम
नह करता उसके एक भी संकट नह है।
23. ोध को पाले रखना गरम कोयले को कसी और पर फकने क नीयत से पकड़े रहने
के सामान है; इसम आप ही जलते ह।
24. चाहे आप जतने प व श द पढ़ ल या बोल ल, वह आपका या भला करगे जब
तक आप उ ह उपयोग म नह लाते?
25. म कभी नह दे खता क या कया जा चुका है; म हमेशा दे खता ँ क या कया
जाना बाक है।
26. बना सेहत के जीवन जीवन नह है; बस पीड़ा क एक त है—मौत क छ व है।
27. हम जो सोचते ह, वह बन जाते ह।
28. शक क आदत से भयावह कुछ भी नह है, शक लोग को अलग करता है। यह एक
ऐसा जहर है, जो म ता खतम करता है और अ े र त को तोड़ता है। यह एक
काँटा है जो चो टल करता है, एक तलवार है जो वध करती है।
29. स य के माग पर चलते ए कोई दो ही गल तयाँ कर सकता है; पूरा रा ता न तय
करना, और इसक शु आत ही न करना।
30. कसी ववाद म हम जैसे ही ो धत होते ह हम सच का माग छोड़ दे ते ह, और अपने
लए यास करने लगते ह।
31. चार आय स य ह : पहला यह क ःख है। सरा यह क ःख का कारण है। तीसरा
यह क ःख का नदान है। चौथा यह क वह माग है जससे ःख का नदान होता
है।
32. योग क अ त अथात् तप या क अ त से भी बचना ज री है। भोग क अ त से
चेतना के चीथड़े होकर ववेक लु त और सं कार सु त हो जाते ह। प रणाम व प
के दल- दमाग क दहलीज पर वनाश डेरा डाल दे ता है। ठ क वैसे ही तप या
क अ त से दे ह बल और मनोबल कमजोर हो जाता है।
33. मै ी के मोगर क महक से ही संसार म स ाव का सौरभ फैल सकता है।
34. बैर से बैर कभी नह मटता। अबैर से मै ी से ही बैर मटता है। म ता ही सनातन
नयम है।
35. मनु य वयं ही अपना वामी है। भला सरा कोई उसका वामी कैसे हो सकता है?
मनु य अपने आप ही अ तरह से अपना दमन करके लभ वा म व को, नवाण
को ा त कर सकता है।
36. मनु य वयं ही अपना वामी है। वयं ही वह अपनी ग त है। इस लए तुम अपने
आपको संयम म रखो, जैसे घुड़सवार अपने सधे ए घोड़े को अपने वश म रखता है।
37. सब अ त व णक मा होते ह। अतः ा णय म तथा इनसान म अज म, अचल,
अप रवतनशील, अमर आ मा नह होती। हर अ त व म कोई वाभा वक श
होती है, जो अपने जैसे ही एक अ त व को ज म दे ती है। इस तरह कोई भी
अ त व णक होने के बावजूद अपने प रणाम के प म बना रहता है। पूरी तरह
से ायी और पूरी तरह से उ े द के बीच का यह म यम माग है। हर अ त व
कारण के प म ण भर टकने के बाद प रणाम के प म बना रहता है। कारण-
प रणाम क यह शृंखला अना द है और अनंत भी है।
38. ा ण न तो जटा से होता है, न गो से और न ज म से। जसम स य है, धम है और
जो प व है, वही ा ण है।
39. अरे मूख! जटा से या?मृगचम पहनने से या?भीतर तो तेरा दय अंधकारमय है,
काला है, ऊपर से या धोता है?
40. जो अ कचन है, कसी तरह का प र ह नह रखता, जो यागी है, उसी को म ा ण
कहता ँ।
41. कमल के प े पर जस तरह पानी अ ल त रहता है या आरे क नोक पर सरस का
दाना, उसी तरह जो आदमी भोग से अ ल त रहता है, उसी को म ा ण कहता ँ।
42. चर या अचर, कसी ाणी को जो दं ड नह दे ता, न कसी को मारता है, न कसी को
मारने क ेरणा दे ता है उसी को म ा ण कहता ँ।
43. ा ण म उसे कहता ,ँ जो अप र ही है, जसने सम त बंधन काटकर फक दए ह,
जो भय- वमु हो गया है और संग तथा आस से वरत है।
44. जो बना च बगाड़े, हनन और बंधन को सहन करता है, मा-बल ही जसका
सेनानी है, म उसी को ा ण कहता ँ।
45. जो अ ोधी है, ती है, शीलवान है, ब ुत है, संयमी और अं तम शरीरवाला है, उसे
ही म ा ण कहता ँ।
46. ज म ःख है, जरा ःख है, ा ध ःख है, मृ यु ःख है, अ य का मलना ःख है,
य का बछु ड़ना ःख है, इ त व तु का न मलना ःख है। यह ःख नामक आय
स य प र ेय है। सं ेप म प, वेदना, सं ा, सं कार और व ान, यह पंचोपादान
कंध (समुदाय) ही ःख ह।
47. तृ णा पुनुमवा द ःख का मूल कारण है। यह तृ णा राग के साथ उ प ई है।
सांसा रक उपभोग क तृ णा, वगलोक म जाने क तृ णा और आ मह या करके
संसार से लु त हो जाने क तृ णा, इन तीन तृ णा से मनु य अनेक तरह का
पापाचरण करता है और ःख भोगता है। यह ःख समुदाय का आय स य या य है।
48. तृ णा का नरोध करने से नवाण क ा त होती है, दे हदं ड या कामोपभोग से
मो लाभ होने का नह । यह ःख नरोध नाम का आय स य सा ा करणीय कत
है।
49. नरोधगा मनी तपद् नामक आय स य भावना करने यो य है। इसी आय स य को
अ ां गक माग कहते ह। वे अ ांग ये ह :—1. स यक् , 2. स यक् संक प, 3.
स यक् वचन, 4. स यक् कमात, 5. स यक् आजीव, 6. स यक् ायाम, 7. स यक्
मृ त और 8. स यक् समा ध। ःख का नरोध इसी अ ां गक माग पर चलने से होता
है।
50. च से ही जगत् क स ा है और जगत् क स ा च है।
51. माद म मत फँसो। भोग- वलास म मत फँसो। कामदे व के च कर म मत फँसो।
माद से र रहकर यान म लगनेवाला महासुख ा त करता है।
52. माद न करने से, जाग क रहने से अमृत का पद मलता है, नवाण मलता है।
माद करने से आदमी बे-मौत मरता है। अ माद नह मरते। माद तो जीते ए भी
मरे जैसे ह।
53. कंजूस आदमी दे वलोक म नह जाते। मूख लोग दान क शंसा नह करते। पं डत
लोग दान का अनुमोदन करते ह। दान से ही मनु य लोक-परलोक म सुखी होता है।
54. तृ णा क न दयाँ मनु य को ब त यारी और मनोहर लगती ह। जो इनम नहाकर
सुख खोजते ह, उ ह बार-बार ज म, मरण और बुढ़ापे के च कर म पड़ना पड़ता है।
55. लोहे का बंधन हो, लकड़ी का बंधन हो, र सी का बंधन हो, इसे बु मान लोग बंधन
नह मानते। इनसे कड़ा बंधन तो सोने का, चाँद का, म ण का, कुंडल का, पु का,
ी का है।
56. गृह को चा हए क वह कसी ाणी क हसा न करे, चोरी न करे, अस य न बोले,
शराब आ द मादक पदाथ का सेवन न करे, भचार से बचे और रा म असमय
भोजन न करे।
57. गृह के कत इस कार ह—
जस आय ावक (गृह ) को छह दशा क पूजा करनी हो, वह चार कम- लेश
से मु हो जाए। जन चार कारण के वश होकर मूढ़ मनु य पाप कम करने म वृ
होता है, उनम से उसे कसी भी कारण के वश म नह होना चा हए और संप -नाश
के उसे छह दरवाजे बंद कर दे ने चा हए।
58. च के मलीन होने से ग त अ नवाय है। च के मल ये ह, ज ह 'उप लेश' भी
कहा जाता है :—

1. वषमलोभ, 2. ोह, 3. ोध, 4. पाखंड, 5. अमष, 6. न ु रता, 7. ई या, 8.


मा सय, 9. ठगना, 10. शठता, 11. जड़ता, 12. हसा, 13. मान, 14. अ तमान, 15.
मद और 16. साद।
59. मन ही सारी वृ य का अगुवा है। वृ य का आरंभ मन से ही होता है। वे
मनोमय ह। जब कोई आदमी षत मन से बोलता है या वैसा कोई काम करता है तो
ःख उसका पीछा उसी तरह करता है, जस तरह बैलगाड़ी के प हए बैल के पैर का
पीछा करते ह।
60. मन ही सारी वृ य का अगुवा है। वृ याँ मन से ही आरंभ होती ह। य द मनु य
शु मन से बोलता है या कोई काम करता है, तो सुख उसी तरह उसका पीछा करता
है, जस तरह मनु य के पीछे उसक छाया।
61. स ाव से ही समाज नमाण संभव है। जससे एक से सरे को अ धका धक
ह तांत रत होने पर े समाज क क पना को साकार कया जा सकता है।
62. जो आदमी शांत पद चाहता है, जो क याण करने म कुशल है, उसे चा हए क वह
यो य और परम सरल बने। उसक बात सुंदर, मीठ और न ता से भरी ह । उसे
संतोषी होना चा हए। उसका पोषण सहज होना चा हए। काम म उसे यादा फँसा
नह होना चा हए। उसका जीवन सादा हो। उसक इं याँ शांत ह । वह चतुर हो। वह
ढ ठ न हो। कसी कुल म उसक आस नह होनी चा हए।
63. वह ऐसा कोई छोटे से छोटा काम भी न करे, जसके लए सरे जानकार लोग उसे
दोष द। उसके मन म ऐसी भावना होनी चा हए क सब ाणी सुखी ह , सबका
क याण हो, सभी अ तरह रह।
64. कोई कसी को न ठगे। कोई कसी का अपमान न करे। वैर या वरोध से एक- सरे के
ःख क इ ा न कर।
65. माता जैसे अपनी जान क परवाह न कर अपने इकलौते बेटे क र ा करती है, उसी
तरह मनु य सभी ा णय के त असीम ेमभाव बढ़ाए।
66. खड़ा हो चाहे चलता हो, बैठा हो चाहे लेटा हो, जब तक मनु य जागता है, तब तक
उसे ऐसी ही मृ त बनाए रखनी चा हए। इसी का नाम - वहार है।
67. ऐसा मनु य कसी म या म नह पड़ता। शीलवान व शु दशनवाला होकर वह
काम, तृ णा का नाश कर डालता है। उसका पुनज म नह होता।
68. जैसे क ी छत म जल भरता है, वैसे ही अ ानी के मन म कामनाएँ जमा होती ह।
69. सारे सं कार अ न य ह अथात् जो कुछ उ प होता है वह न भी होता है इस
स ाई को जब कोई वप यना ा से दे ख लेता है तो उसको ःख का नवद ा त
होता है अथात् ःख े के त भो ा भाव टू ट जाता है।
70. मन सभी धम का अगुआ है, मन ही धान है, सभी धम मनोमय ह, जब कोई
अपने मन को मैला करके कोई वाणी बोलता है अथवा शरीर से कोई कम करता है
तब सुख उसके पीछे हो लेता है, जैसे कभी न छोड़नेवाली छाया संग-संग चलने
लगती है।
71. मुझे कोसा, मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूटा—जो मन म ऐसी गाँठ नह बाँधते रहते
ह उनका बैर शांत हो जाता है।
72. अनाड़ी लोग नह जानते क हम यहाँ इस संसार से जानेवाले ह, जो इसे जान जाते ह
उनके झगड़े शांत हो जाते ह।
73. अ लगनेवाली चीज को शुभ-शुभ दे खते वहार करनेवाले इं य म असंयत,
भोजन क मा ा के अ ानकार, आलसी और उ ोगहीन को मार ऐसे सताती है जैसे
बल को मा त।
74. अशुभ को अशुभ जानकर साधना करनेवाले इं य म सुसंयत, भोजन क मा ा के
जानकार, ावान और उ ोगरत को मार उसी कार नह डगा सकता जैसे क
वायु शैल पवत को।
75. जसने कषाय का प र याग कर कषाय व धारण कए ए ह वह संयम और स य
से परे है, वह कषाय व धारण करने का अ धकारी नह है।
76. जसने कषाय को प र याग कया है वह शील म त त है, संयम और स य से
यु है, वह कषाय व धारण करने का अ धकारी है।
77. जो नसार को सार और सार को नसार समझते ह, ऐसे गलत चतन म लगे ए
य को सार ा त नह होता।
78. सार को सार और नसार को नसार जानकर शु चतनवाले सार को ा त
कर लेते ह।
79. जैसे बुरी तरह छाए ए घर म वषा का पानी घुस जाता है, वैसे ही अभा वत चत म
राग घुस जाता है।
80. जैसे अ तरह छाए ए घर म वषा का पानी नह घुस पाता है, वैसे ही भा वत
(शमथ और वप यना) चत म राग नह घुस पाता है।
81. यहाँ (इस लोक म) शोक करनेवाला, पाप करनेवाला ( ) दोन जगह शोक
करता है। वह अपने कम क म लनता दे खकर शोकाप होता है, संता पत होता है।
82. जो यहाँ (इस लोक म) स होता है,वह मृ यु के बाद भी स होता है, पु य
करनेवाला ( ) दोन जगह स होता है। वह अपने कम क शु ता दे खकर
मु दत होता है, मु दत होता है।
83. जो यहाँ (इस लोक) म संत त होता है, ाण छोड़कर (परलोक म) संत त होता है,
पापकारी दोन जगह संत त होता है, मने पाप कया है—इस ( चतन) से संत त होता
है (और) ग त को ा त होकर और भी (अ धक) संत त होता है।
84. जो यहाँ (इस लोक) म आनं दत होता है, ाण छोड़कर (परलोक म) आनं दत होता
है, पु यकारी दोन जगह आनं दत होता है, मने पु य कया है—इस ( चतन) से
आनं दत होता है (और) सुग त को ा त होकर और भी (अ धक) आनं दत होता है।
85. धम ंथ ( पटक) का कतना ही पाठ कर, ले कन य द माद के कारण मनु य उन
धम ंथ के अनुसार आचरण नह करता तो सर क गाय को गननेवाले वाल क
तरह वह ृमण व का भागी नह होता।
86. धम ंथ ( पटक) का भले थोड़ा ही पाठ कर, ले कन य द वह ( ) धम के
अनुकूल आचरण करनेवाला होता है, तो राग, े ष और मोह को यागकर,सम ानी
बन, भली कार वमु चतवाला होकर इहलोक अथवा परलोक म कुछ आस न
करता आ ृमण व का भागी हो जाता है।
87. माद न करना अमृत ( नवाण) का पद है और मृ यु का माद न करनेवाले (कभी)
मरते नह , जब क मृ यु माद (तो) मरे सामान होते ह।
88. ानीजन अ माद के बारे म इस कार वशेष प से जानकर आय क गोचर भू म
म रमण करते ए अ माद म मु दत होते ह।
89. सतत यान करनेवाले, न य ढ़ परा म करनेवाले, धीर पु ष उ कृ योग ेमवाले
नवाण को ा त (अथात्, इसका सा ा कार) कर लेते ह।
90. उ ोगशील, मृ तमान, शुची (दोषर हत) कम करनेवाले, सोच-समझकर काम
करनेवाले, संयमी, धम का जीवन जीनेवाले, अ म ( ) का यश खूब बढ़ता है।
91. मेधावी (पु ष) उ ोग, अ माद, संयम तथा (इं य के) दमन ारा (अपने लए
ऐसा) प बना ले जसे (चार कार के लेश क ) बाढ़ आ ला वत न कर सके।
92. मूख, बु ध जन माद म लगे रहते ह, (जब क) मेधावी े धन के समान अ माद
क र ा करता है।
93. माद मत करो और न ही कामभोग म ल त होओ, य क अ माद यान करते
ए महान् ( नवाण) सुख पा लेता है।
94. जब कोई समझदार माद को अ माद से परे धकेल दे ता है (अथात्, जीत
लेता है) तब वह ा पी ासाद पर चढ़ा आ शोकर हत हो जाता है, (ऐसा)
शोकर हत धीर (मनु य) शोक त ( वमूढ ) जन को ऐसे ही (क ण भाव से) दे खता
है जैसे क पवत पर खड़ा आ (कोई ) धरती पर खड़े लोग को दे खे।
95. माद करनेवालो म अ माद ( ीणा व) तथा (अ ान क न द म) सोए लोग म
( ा म) अ तसचेत उ म ावाला ( सर को) पीछे छोड़कर (ऐसे आगे नकल
जाता है) जैसे शी गामी अ व बल अ व को।
96. अ माद के कारण इं दे वता म े ता को ा त ए पं डत जन अ माद क
शंसा करते ह, इस लए माद क सदा नदा होती है।
97. जो साधक अ माद म रत रहता है या माद म भय दे खता है, वह अपने छोटे -बड़े
सभी कम-सं कार के बंधन को आग क भाँ त जलाते ए चलता है।
98. जो साधक अ माद म रत रहता है या माद म भय दे खता है, उसका पतन नह हो
सकता, वह तो नवाण के समीप प ँचा आ होता है।
99. चंचल, चपल, क ठनाइय से संर ण और क ठनाई से ही नवारण यो य च को
मेधावी पु ष वैसे ही सीधा करता है जैसे बाण बनानेवाला बाण को।
100. जैसे जल से नकलकर धरती पर फक गई मछली तड़पती है, वैसे ही मार के फंदे से
नकलने के लए ये च तड़पता है।
101. ऐसे च का दमन करना अ ा है जसको वश म करना क ठन है, जो शी गामी है
और यहाँ से वहाँ चला जाता है दमन कया गया च सुख दे नेवाला होता है।
102. जो बड़ा दश है क ठनाई से दखाई पड़नेवाला है, बड़ा चालक है, जहाँ चाहे वह
प ँचता है, समझदार को चा हए क ऐसे च क र ा करे। सुर त च
बड़ा सुखदायी होता है।
103. जो कोई पु ष, ी, गृह और व जत रगामी, अकेला वचरनेवाले, शरीरर हत,
गुहशायी च को संय मत करगे, वे मार के बंधन से मु हो जाएँगे।
104. जसका च अ र है, जो सधम को नह जानता, जसक ा डावाँडोल है,
उसक ा प रपूण नह हो सकती।
105. जसके च म राग नह , जसका च े ष से र हत है, जो पाप-पु य वहीन है, उसे
सजग रहनेवाले ( ीणा व) को कोई भय नह होता।
106. इस शरीर को घड़े के समान भंगुर जानकर, और इस च को गढ़ के समान र त
और ढ़ बना, ा पी श के साथ मार से यु करे उसे जीत लेने पर भी च क
र ा कर और अनास बने रह।
107. अहो! यह तु शरीर शी ही चेतनार हत होकर नरथक काठ के टु कड़े क भाँ त
पृ वी पर पड़ा रहेगा।
108. श ु श ु क अथवा बैरी बैरी क जतनी हा न करता है, कुमाग पर लगा आ च
इससे कह अ धक हा न करता है।
109. जतनी (भलाई) न माता- पता कर सकते ह, न सरे भाई-बंध,ु उससे कह अ धक
भलाई स माग पर लगा आ च करता है।
110. कौन है जो इस आ मभाव अथवा अपन व पी पृ वी और दे वता स हत इस
यमलोक को ब धकर इनका सा ा कार कर लेगा?कौन कुशल भली कार
उप द धम के पद का पु प क भाँ त चयन करते ए इनको भी ब ध कर इनका
सा ा कार कर पाएगा?
111. नवाण क खोज म लगा आ ही पृ वी पर और दे वताओ स हत इस यमलोक
पर वजय पाएगा। नवाण ही भली कार उप द धम के पद का पु प क भाँ त
चयन करेगा।
112. इस शरीर को फेन (झाग) के समान या म मरी चका के समान नसार जानकर मार
के फंद को काटकर मृ युराज क से ओझल रहे।
113. कामभोग पी पु प को चुननेवाले आस य म डू बे ए मनु य को मृ यु वैसे ही
पकड़कर ले जाती है जैसे सोए ए गाँव को नद क बड़ी बाढ़ बहा ले जाती है।
114. कामभोग पी पु प को चुननेवाले, आस य म डू बे ए मनु य को जो अभी तक
कामना से तृ त नह आ है, यमराज अपने वश म कर लेता है।
115. जैसे मर फूल के वण और गंध को त प ँचाए बना रस को लेकर चल दे ता है,
वैसे ही गाँव म मु न भ ाटन करे।
116. सर के ममवेधकवचन पर यान न दे कर, न सर के कृत-अकृत को दे ख, इसके
बदले अपने ही कृत-अकृत को दे ख।
117. जैसे कोई पु प सुंदर और वणयु होने पर भी गंधर हत हो, वैसे ही अ कही ई
बु वाणी फलर हत होती है। य द कोई तदनुसार आचरण न कर।
118. जैसे कोई पु प रा श से ब त सी मालाएँ बनाएँ, ऐसे ही उ प हर ा णय को
ब त से अ े कम (पु य) करना चा हए।
119. चंदन, तगर, कमल अथवा जूही—इन (सभी) क सुगंध शील-सदाचार क सुगंध से
बढ़-चढ़कर है।
120. तगर और चंदन क गंध, उ पल (कमल) और चमेली क गंध—इन भ - भ
सुगं धय से शील क गंध अ धक े है।
121. तगर और चंदन क जो यह गंध फैलती है,वह अ पमा है, और जो यह शीलवान
क गंध है, वह उ म गंध दे वता म फैलती है।
122. जो शीलसंप है, माद र हत होकर वहार करते ह, यथाथ ान ारा मु हो चुके ह
उनके माग को मौत नह दे ख पाती।
123. जस कार महापथ पर फके गए कचरे के ढे र म प व गंधवाला मनोरम पदम् उ प
हो जाता है, उसी कार कचरे के समान भगवान् बु का ावक भी अपनी ा से
अंधे पृथ जन के बीच अ यंत शोभायमान होता है।
124. जागनेवाले क रात लंबी हो जाती है, थके ए का योजन लंबा हो जाता है, सधम को
न जाननेवाले मूख य के लए संसार च लंबा हो जाता है।
125. य द वचरण करते ए शील, समा ध, ा म अपने से े या अपने स य सहचर
न मले, तो ढ़ता के साथ अकेले ही वचरण कर। मूख से सहायता नह मल
सकती।
126. 'मेरे पु !' 'मेरा धन'—इस म या चतन म ही मूढ़ ाकुल बना रहता है, अरे,
जब यह तन और मन का अपनापा नह है, तो कहाँ 'मेरे पु '? कहाँ 'मेरा धन'?
127. जो मूढ़ होकर अपनी मूढ़ता को वीकारता है, वह इस अंश म पं डत ानी है जो मूढ़
होकर अपने आपको पं डत मानता है, वह मूढ़ ही कहा जाता है।
128. चाहे मूढ़ जीवन भर पं डत क सेवा म रहे, वह धम को वैसे ही नह जान पाता
जैसे कलुची सूप के रस को।
129. चाहे व पु ष मु त भर ही पं डत क सेवा म रहे, वह शी ही धम को वैसे जान
लेता है जैसे ज ा सूप के रस को।
130. बाल-बु वाले मूख जन अपने ही श ु बनकर आचरण करते ह और ऐसे पाप कम
करते ह, जनका फल वयं उनके अपने लए ही कडु वा होता है।
131. और वह कया आ कम ठ क होता है जसे करके पीछे पछताना न पड़े, और
जसके फल को स च होकर अ े मन से भोगा जा सके।
132. जब तक पाप का फल नह आता तब तक मूढ़ उसे मधु के समान मधुर मानता
है, और जब पाप का फल आता है तब वह मूढ़ ःखी होता है।
133. चाहे मूढ़ महीने-महीने के अंतराल पर केवल कुश क नोक से भोजन करे, तो
भी वह धमवे ा क कुशल चेतना के सोलहव भाग क बराबरी भी नह कर
सकता।
134. जैसे ताजा ध शी नह जमता, उसी तरह कया गया पाप कम शी अपना फल
नह दखाता, ब क राख से ढँ क आग क तरह जलता आ वह मूख का पीछा
करता है।
135. मूढ़ का जतना भी ान है वह उसके अ न के लए होता है, वह उसक मूधा ( सर-
ा) को गराकर उसके कुशल कम का नाश कर डालता है।
136. जो मूढ़ नह है उसक संभावना जगाता है, भ ु म अ णी बनना चाहता
है, संघ के आवास - वहार के वा म व चाहता है और पराए कुल म आदर-स कार
क कामना करता है।
137. गृह और व जत दोन मेरा ही कया माने, कसी भी कृ य-अकृ य म मेरे ही
वशवत रह—ऐसा मूढ़ का संक प होता है, इससे उसक इ ा और
अ भमान का संवधन होता है।
138. लाभ का माग सरा है और नवाण क और जानेवाला सरा, इस कार इसे भली
कार जानकर बु का ावक भ ु (आदर)-स कार क इ ा न करे और ( वध)
ववेक (अथात् काय ववेक, च ववेक, व खांभन ववेक) को बढ़ावा दे ।
139. जो अपना दोष दखानेवाले को भू म म छपी संपदा दखानेवाले क तरह
समझे, जो संयम बात करनेवाले मेधावी पं डत क संग त करे, उस का मंगल
ही होता है, अमंगल नह ।
140. जो उपदे श दे , अनुशासन करे, अनु चत काय से रोके, वह स पु ष का य होता है
और अस यपु ष का अ य।
141. न पापी म क संगत कर, न अधम पु ष क , संग त कर क याण म क , उ म
पु ष क ।
142. बु के उपदे शत धम म सदा पं डत रमण करता है, नव वध लोको र धम रस का
पान करनेवाला वशु रत हो सुखपूवक वहार करता है।
143. पानी ले जानेवाले जधर चाहते ह उधर ही से पानी को ले जाते ह, बाण को तपाकर
सीधा करते ह, बढ़ई लकड़ी को अपनी च के अनुसार सीधा या बाँका करते ह, और
पं डत जन अपना ही दमन करते ह।
144. जैसे सघन शैल पवत वायु से कं पत नह होता, वैसे ही समझदार लोग नदा और
शंसा व तुतः आठ लोक धम से वच लत नह होते।
145. व भ धम को सुनकर पं डतजन गहरे, व , नमल सरोवर के समान अ यंत
स (संतु ) होते ह।
146. जो अपने लए या सरे के लए पु , धन अथवा रा य क कामना नह करता और न
अधम से अपनी उ त चाहता है, वह शीलवान, ावान और धा मक होता है।
147. मनु य म भवसागर से पर जानेवाले वरले ही लोग होते ह, ये सरे लोग तो स काय
पी तट पर दौड़नेवाले होते ह।
148. जो लोग स यक् कार से आ यात धम का अनुवतन करते रहे ह, वे अ त तर मृ यु
े के पार चले जाएँगे।
149. पं डत कृ ण धम को यागकर शु ल (धम) क भावना करे, अथात्, पापकम को
छोड़कर शुभ कम करे, वह घर से बेघर होकर सामा य क तरह आकषण
र हत एकांत का सेवन करे।
150. कामना को यागकर अ कचन बना आ उसी अव ा म रमण करने क
इ ा करे, समझदार पाँच नीवरण पी च मल से अपने आपको प रशु
करे।
151. संबो ध के अंग म जनका च स यक् कार से अ य त हो गया है, जो प र ह का
यागकर अप र ह म रत है, च मल से र हत ऐसे ु तमान (पु ष) लोक म
नवाण ा त है।
152. जसक या ा पूरी हो गई है, जो शोकर हत है, सवथा वमु है, जसक सभी
ं थयाँ कट गई ह, उसके लए (का यक और चेत सक) संताप नाम क कोई चीज
नह है।
153. मृ तमान उ ोग करते रहते ह, वे घर म रमण नह करते, जैसे हंस ु जलाशय को
छोड़कर चले जाते ह, वैसे ही वे घर-बार अथवा सभी ठौर- ठकान को छोड़ दे ते ह।
154. जो कम और यय का संचय नह करते, ज ह अपने आहार क मा ा का पूरा-
पूरा ान है, शू यता व प तथा न म र हत नवाण जनक गोचर भू म है, उनक
ग त वैसे ही अ ेय रहती है जैसे आकाश म प य क ग त।
155. सार थ ारा सुदांत (सु श त) घोड़ के समान जसक इं याँ शांत हो गई ह,
जसका अ भमान वग लत हो गया है, जो आ वर हत है, दे वगण भी वैसे ( )
से ई या करते ह।
156. सुंदर तधारी जो पृ वी के समान ु नह होता, वैसे के दय म
कमलदल र हत जलाशय के समान संसार क ु वृ तयाँ नह होत ।
157. स यक् ान ारा मु ए अरहंत का मन शांत हो जाता है और वाणी तथा कम भी
शांत हो जाते ह।
158. जो नर अंध ा र हत, नवाण का जानकार (भाव-संसरण क ) सं ध का छे दन कए
ए, पुनज म क संभावना र हत और सव कार क आशाएँ यागे ए हो, वह
न संदेह उ म पु ष होता है।
159. गाँव हो या जंगल, भू म नीची हो या ऊँची, जहाँ कह अरहंत वहार करते ह, वह
भू म रमणीय होती है।
160. रमणीय वन जहाँ (सामा य) रमण नह करते, (वहाँ) वीतराग रमण करगे,
य क वे कामभोग क खोज म नह रहते।
161. नरथक पद से यु हजार वचन क अपे ा एक अकेला साथक ेय कर होता है,
जसे सुनकर कोई रोगा द के उपशमन से शांत हो जाता है।
162. ...जो कोई नरथक पद से यु सी गाथाएँ बोले उसक अपे ा एक अकेला साथक
धमपद ेय कर होता है, जसे सुनकर (कोई ) शांत हो जाता है।
163. हजार हजार मनु य को सं ाम म जीतनेवाले से भी अपने आपको जीतनेवाला कह
उ म सं ाम वजेता होता है।
164. इन अ य लोग को ुत, धन हरण, सं ाम अथवा बल ारा जीतने क अपे ा अपने
आपको जीतना ही ेय कर है।
165. जस ने वयं को दाँत क भाँ त खुद को संय मत बना लया हो उस कार के
क जीत को न तो दे व, न गंधव और न ही ा पराजय म बदल सकते ह।
166. जो कोई सौ वष तक महीने-महीने हजार पए से य करे और कसी क
मु त भर पूजा कर ले तो सौ वष के हवन से वह मु त भर क पूजा ही ेय कर
होती है।
167. पु य क इ ा से जो कोई संसार म वष भर य -हवन करे, तो भी वह सरल च
य को कए जानेवाले अ भवादन के चतुथाश के बराबर भी नह होता।
168. जो अ भवादनशील है और न य बड़े-बूढ़ क सेवा करता है, उसक ये चार बात
बढ़ती ह—आयु, वण, सुख और बल।
169. शील और च क एका ता से र हत के सौ वष के जीवन से शीलवान और
यानी का एक दन का जीवन ेय कर होता है।
170. आलसी और उ ोगर हत के सौ वष जीवन से ढ उ ोग करनेवाले का
एक दन का जीवन ेय कर होता है।
171. आय- य को न दे खनेवाले के सौ वष के जीवन से आय- य को दे खनेवाले
का एक दन का जीवन ेय कर होता है।
172. उ म धम को न दे खनेवाले के सौ वष के जीवन से उ म धम को दे खनेवाले
का एक दन का जीवन ेय कर होता है।
173. पु य कम करने म ज द कर, पाप कम से च को हटाएँ, य क धीमी ग त से
पु य कम करनेवाले का मन पाप कम म लीन होने लगता है।
174. य द पु ष कभी पाप कम कर डाले तो उसे बार-बार और न करे, वह उसम च न
ले, य क पाप कम का संचय ःख का कारण होता है।
175. पापी भी पाप को तब तक अ ा समझता है, जब तक पाप का वपाक नह होता
और जब पाप का वपाक होता है तब पापी पाप को दे खने लगता है।
176. 'मेरे पास नह आएगा'—(ऐसा सोचकर) पाप क अवहेलना न कर। बूँद-बूँद पानी
गरने से घड़ा भर जाता है ऐसे ही थोड़ा-थोड़ा संचय करता आ मूढ़ भी पाप
से भर जाता है।
177. जैसे छोटे का फले परंतु वपुल धनवाले ापारी भयमु माग को अथवा जी वत
रहनेवाला वष को छोड़ दे ता है वैसे ही मनु य पाप को छोड़ दे ।
178. य द हाथ म घाव न हो तो हाथ म वष को लया जा सकता है, य क घावर हत
शरीर म वष नह चढ़ता है, ऐसे ही पापकम न करनेवाले को पाप नह लगता।
179. जो नरपराध, नमल, दोषर हत पर दोषारोपण करता है, उस दोष लगानेवाले
मूख को ही पाप लगता है जैसे क पवन क उलट दशा म फक गई महीन धूल
फकनेवाले पर ही आ गरती है।
180. कई मनु य गभ से उ प होते ह, पर पापकम नरक म जाते ह, सुग तवाले वग म
जाते ह, और च मलर हत नवाण लाभ करते ह।
181. न अनंत आकाश म, न समु क गहराइय म, न पवत क कंदरा म वेश करके
इस जगत् म, कह भी तो ऐसा ान नह है जहाँ ठहरा आ कोई पाप कम को
भोगने से बच सके।
182. सभी दं ड से डरते ह, सभी को मृ यु से डर लगता है, अतः सभी को अपने जैसा
समझकर न कसी क ह या करे, न ह या करने के लए े रत करे।
183. जो सुख चाहनेवाले ा णय को अपने सुख क चाह से, दं ड दे कर क प ँचता है,
वह मरकर सुख नह पाता।
184. तुम कसी को कठोर वचन मत बोलो, बोलने पर सरे भी तु ह वैसे भी बोलगे, ोध
या ववाद भरी वाणी ःख है, उसके बदले म तु ह दं ड मलेगा।
185. य द तुम अपने आपको टू टे ए काँसे के समान नःश द कर लो, तो समझो तुमने
नवाण पा लया, य क तुमम कोई ववाद नह रह गया, कोई तवाद नह रह
गया।
186. जैसे वाला लाठ से गाय को चारागाह म हाँककर ले जाता है वैसे ही बुढ़ापा और
मृ यु ा णय क आयु हाँककर ले जाते ह।
187. बाल बु वाला मूख पापकम करते ए होश नह रखता, ले कन समय पाकर
अपने उ ह कम के कारण वह मध ऐसे तपता है जैसे आग से जला हो।
188. जो दं ड र हत को दं ड से पी ड़त करता है या नद ष को दोष लगाता है, उसे इन दस
बात म से कोई एक बात शी ही होती है—(1) ती वेदना, (2) हा न, (3) अंग भंग,
(4) बड़ा रोग, (5) उ माद, (6) राज दं ड, (7) कड़ी नदा, (8)संबं धय का वनाश,
(9) भोग का य अथवा इसके घर को आग जला डालती है, शरीर छू टने पर वह
ष नरक म उ प होता है।
189. जस मनु य के संदेह समा त नह ए ह उसक शु न रहने से, न जटा धारण करने
से, न क चड़ लपेटने से, न उपवास करने से, न कड़ी भू म पर सोने से और न उकडू
बैठने से ही होती है।
190. व आभूषण आ द से अलंकृत रहते ए भी य द कोई शांत, र नयं त
चारी है तथा सारे ा णय के त दं ड यागकर समता का आचरण करता है, तो
वह ा ण है, मण है, भ ु है।
191. संसार म कोई-कोई पु ष ऐसा भी होता है जो वयं ही ल ा के मारे कम नह
करता, वह नदा को नह सह सकता, जैसे साधा आ घोड़ा चाबुक को नह सह
सकता।
192. चाबुक खाए उ म घोड़े के समान उ ोगशील और संवेगशील बनो, ा, शील,
वीय, समा ध और धम— व न चय से यु हो व ा और आचरण से संप और
मृ तमान बन इस महान् ःख समूह का अंत कर सकोगे।
193. पानी ले जानेवाले जधर चाहते ह उधर ही पानी को ले जाते ह, बाण बनानेवाले बाण
को तपाकर सीधा करते ह, बढ़ई लकड़ी को अपनी च के अनुसार सीधा या बाँका
करते ह और सदाचार-परायण अपना ही दमन करते ह।
194. जहाँ त ण सबकुछ जल ही रहा हो, वहाँ कैसी हँसी? कैसा आनंद?कैसा आमोद?
कैसा मोद?ऐ अ व ा पी अंधकार से घरे ए भोले लोग तुम ान पी काश-
द प क खोज य नह करते?
195. दे खो इस च त शरीर को जो ण से यु , फूला आ, रोगी और नाना कार के
संक प से यु है और जो सदा बना रहनेवाला नह है।
196. वह शरीर जीण-शीण, रोग का घर और नतांत भंगुर है, सड़ांध से भरी ई यह दे ह
टु कड़े-टु कड़े हो जाती है जीवन मरणांतक जो ठहरा।
197. शरद काल क फक गई अप य लौक के समान कु हलाए मृत शरीर को दे खकर या
कबूतर के वणवाली मशान म पड़ी ह य को दे खकर कसको इस दे ह से अनुराग
होगा?
198. यह ह य का नगर बना है जो मांस और र से लेप गया है, जसम जरा, मृ यु,
अ भमान और डाह छपे ए ह।
199. रंग- बरंगे सु च त राजरथ जीण हो जाते ह और यह शरीर भी जीणता को ा त हो
जाता है, परंतु संत का धम जीण नह होता, तरोताजा बना रहता है, संतजन संत से
ऐसा ही कहते ह।
200. अ ानी पु ष बैल के समान जीण होता है, उसका मांस बढ़ता है ा नह ।
201. इस काया पी घर को बनानेवाले क खोज म म बना के अनेक ज म तक यहाँ-
वहाँ मण करता रहा, कतु बार-बार ःखमय ज म ही हाथ लगे।
202. ऐ घर बनानेवाले, अब तुझे दे ख लया गया है, अब फर तू नया घर नह बना सकता!
तेरी साडी क ड़याँ टू ट गई ह और घर का शखर भी वशृंख लत हो गया है, च पूरी
तरह सं कारर हत हो गया है और तृ णा का य हो गया है।
203. चय का पालन कए बना अथवा यौवन म धन कमाए बना लोग वृ ाव ा म
म यहीन जलाशय म जीण कर च प ी के समान घुट-घुटकर मरते ह।
204. चय का पालन कए बना अथवा यौवन म धन कमाए बना लोग वृ ाव ा म
धनुष से छोड़े गए बाण क भाँ त पुरानी बात को याद कर अनुताप करते ए
बलखते ए सोते ह।
205. य द अपने को य समझते हो तो उसको सुर त रखो, समझदार जीवन क
तीन अव ा (युवा ा, ोढ़ाव ा और वृ ाव ा) म से कसी एक म तो अव य
सचेत हो।
206. पहले अपने आपको ही उ चत काय म लगाएँ, फर कसी सरे को उपदे श कर, तो
पं डत लेश को ा त नह होगा।
207. य द पहले अपने को वैसा बनाएँ जैसा क सर को उपदे श दे ना है, तो अपने
आपको शांत करनेवाला तथा भली-भाँ त वश म करनेवाला ही सरे का दमन कर
सकता है।
208. मनु य अपना वामी आप है, भला सरा कौन वामी हो सकता है? अपने आपको
भली-भाँ त वश म करके ा ारा ही यह लभ वा म व ा त होता है।
209. अपने आप पैदा आ, अपने से उ प , अपने ारा कया गया पाप कम करनेवाले
बु ध को उसी कार पी ड़त करता है, जस कार क पाषाण मय म ण को व ।
210. शाल वृ पर फैली ई मालुवा लता के समान जसका राचार खूब फैला आ है,
वह अपने आपको वैसा ही बना लेता है जैसा क उसके श ु चाहते ह।
211. बुरे और अपने लए अ हतकारी काम करना सरल है, कतु भला और हतकारी काम
करना बड़ा कर है।
212. धम का जीवन जीनेवाले, आय, अरहंत के शासन क जो बु पाप-पूण के
कारण नदा करता है, वह बाँस के फल-फूल क भाँ त आ मह या के लए ही
फलता-फूलता है।
213. अपने ारा कया गया पाप ही अपने को मैला करता है, वयं पाप न करे तो आदमी
आप ही वशु बना रहे, शु -अशु तो येक मनु य क अपनी-अपनी ही है,
कोई सरा भला कसी सरे को कैसे शु कर सकता है?
214. परमाथ के लए आ माथ को ब त यादा भी न छोड़, आ माथ को जानकार सदथ म
लगे रह।
215. पाँच काम गुण वाले नकृ धम का सेवन न कर, न माद म ल त ह , म या
को न अपनाएँ, और अपने आवागमन को बढ़ानेवाला न बने।
216. उ साही बन, माद न कर, सुच रत धम का आचरण कर, धमचारी इस लोक और
परलोक दोन जगह सुखपूवक वहार करता है।
217. सुच रत धम का आचरण कर, राचरण से बच, धमचारी इस लोक और परलोक
दोन जगह सुखपूवक वहार करता है।
218. जो इस लोक को बुलबुले के समान और मृग मरी चका के समान दे खे, ऐसे
दे खनेवाले क ओर मृ युराज आँख उठाकर नह दे खता।
219. आओ, च त राजरथ के समान इस लोक को दे खो जहाँ मूढ़ जन आस होते ह,
ानी जन आस नह होते।
220. जो पहले माद करके भी पीछे माद नह करता, वह मेघयु चं मा क भाँ त इस
लोक को का शत करता है।
221. जो अपने पहले कए ए पाप कम को वतमान के कुशल कम से ढँ क लेता है, वह
मेघयु चं मा क भाँ त इस लोक को खूब रोशन करता है।
222. यह लोक ा च ु के अभाव म अंधे जैसा है, यहाँ वप यना करनेवाले थोड़े ही ह,
जाल से मु ए प ी वप यना करनेवाले थोड़े ही ह, जाल से मु एप ीक
भाँ त वरले ही सुग त अथवा नवाण को जाते ह, बाक तो जाल म ही फँसे रहते ह।
223. हंस आकाश माग से उड़ते ह, कोई र बल से आकाश म उड़ते ह, ले कन धैयवान
लोग इस लोक को जीत कर नवाण पाकर आकाश म उड़ते ह।
224. एक स य धम का अ त मण कर जो झूठ बोलता है, परलोक के त उदासीन ऐसे
ाणी के लए कोई इस कार का पाप नह रह जाता जो वह न कर सके।
225. कृपण लोग दे वलोक म नह जाते, मूढ़ लोग ही दान क शंसा नह करते ह, पं डत
दान का अनुमोदन करता आ उसी कम के आधार पर परलोक म सुखी होता है।
226. पृ वी के एकछ रा य, अथवा वगारोहण अथवा सारे लोक के अ धप य से अ धक
उ म है ोता त का फल।
227. जसक वजय को अ वजय म नह बदला जा सकता, जसके ारा व जत राग,
े ष, मोहा द वापस संसार म नह बाँधते, उस अपद अ त गोचर बु को कस
उपाय से मो हत कर सकोगे?
228. जसक जाल फैलानेवाली वषा तृ णा कह भी ले जाने म समथ नह रही, उस
अनंत गोचर बु को कस उपाय से मो हत कर सकोगे?
229. जो पं डत जन यान करने म लगे रहते ह, और याग तथा उपशमन म लगे रहते ह,
उन मृ तमान संबु क दे वता भी शंसा करते ह।
230. मनु य योनी पाना क ठन है, मनु य का जी वत रहना क ठन है, सधम का वण कर
पाना क ठन है और बु का उ प होना क ठन है।
231. सभी पापकम को न करना, पु य कम को न करना, पु य कम क संपदा सं चत
करना, अपने च को प रशु करना यही बु क श ा है।
232. सहनशीलता और माशीलता परम ताप है, बु जन नवाण को उ म बतलाते ह,
सरे का घात करनेवाला व जत नह होता और सर को सतानेवाला मण नह
हो सकता।
233. नदा न करना, घात न करना, भ ु नयम ारा अपने को सुर त रखना, अपने
आहार क मा ा का जानकार होना, एकांत म सोना-बैठना और च को एका
करने के य न म जुटना—यह सभी बु क श ा है।
234. वणमु ा क वषा से भी कामभोग क तृ त नह हो सकती, यह जानकर क
कामभोग अ प आ वादवाले और ःखद होते ह, कोई पं डत दै वी कामभोग म
आनंद नह पा सकता, स यक् संबु का ावक तृ णा का य करने म लगा रहता
है।
235. मनु य भय के मारे पवत , वन , उ ान , वृ , चै य —आ द क शरण म जाते ह,
परंतु यह शरण उ म नह है, इस शरण को पाकर सभी ःख से छु टकारा नह
होता।
236. जो बु , धम और संघ क शरण म गया है, जो चार आय स य — ःख, ःख क
उ प , ःख से मु और मु गामी आय अ ां गक माग को स यक् ा से
दे खता है, यही मंगलदायक शरण है, यही उ म शरण है, इसी शरण को ा त कर
सभी ःख से मु होता है।
237. े पु ष का ज म लभ होता है, वह सब जगह पैदा नह होता, वह उ म
ावाला धीर पु ष होता है, उस कुल म सुख क वृ होती है।
238. सुखदायी है बु का उ प होना, सुखदायी है सधम का उपदे श। सुखदायी है संघ
क एकता, सुखदायी है एक साथ तपना।
239. पूजा के यो य बु तथा ावक वे ह—जो (भव) पंच का अ त मण कर चुके ह
और शोक तथा भय को पार कर गए ह।
240. नवाण ा त, नभय ए—ऐसे लोग क पूजा के पु य का प रमाण इतना होगा यह
कहा नह जा सकता।
241. वै रय के बीच अवैरी होकर, अहो! हम बड़े सुख से जी रहे ह, वैरी मनु य के बीच
हम अवैरी होकर वचरण करते ह।
242. तृ णा से आतुर ाकुल लोग के बीच, अहो हम अनातुर होकर अनाकुल रहकर बड़े
सुख से जी रहे ह। आतुर रोगी मनु य म हम अनातुर ( नरोग) रहकर वचरण करते
ह।
243. कामभोग के त आस (लोभी) लोग के बीच हम अनास (अलोभी) होकर,
अहो! हम बड़े सुख से जी रहे ह, अलो भय के बीच हम नल भी होकर वचरण
करते ह।
244. जनके पास कुछ नह है, अहो! वैसे हम कैसे बड़े सुख से जी रहे ह। आभा वर
दे वता के समान हम ी त का ही भोजन करनेवाले ह गे।
245. वजय वैर को ज म दे ती है, परा जत ःख क न द सोता है, जसके राग े ष
शांत हो गए ह, वह जय-पराजय को छोड़कर सुख क न द सोता है।
246. राग के समान कोई आग नह , े ष के समान कोई भा य नह , पाँच कंध ( प,
वेदना, सं ा, सं कार और व ान) के समान कोई ःख नह , शां त ( नवाण) से
बढ़कर कोई सुख नह ।
247. भूख (तृ णा) सबसे बड़ा रोग है। भूख सं कार का सबसे बड़ा ःख (तृ णा और
उससे बनते सं कार को अपने भीतर वप यना साधना से) यथाभूत जानकर जो
नवाण ा त होता है, वह सबसे बड़ा सुख है।
248. आरो य परम लाभ है, संतु परम धन है, व वास परम बंधु है, नवाण परम सुख है।
249. पूण एकांत का रस पान कर और ऐसे ही शां त ( नवाण) का रस पानकर
नडर होता है और धम- ी त का रस पान कर वह न पाप हो जाता है।
250. आय ( े पु ष ) का दशन अ ा होता है, संत के साथ नवास सदा सुखकर होता
है, मूढ़ (पु ष ) के अदशन से सदा सुखी बने रहो।
251. मूढ़ (पु ष ) के साथ संगत करनेवाला द घ काल तक शोक त रहता है, मूढ़ का
सहवास श ु के समान सदा ःखदायी होता है, बंधु के समागम क भाँ त ा नय
का सहवास सुखदायी होता है।
252. धीर ावान, ब ुत, उ ोगी, ती पु ष ऐसे सुमेध स पु ष का साथ कर जैसे
चं मा न -पथ का करता है।
253. अनु चत कम म लगा आ, उ चत कम म न लगनेवाला और सदथ को छोडकर (पाँच
कामगुण पी) उस पु ष का साथ कर जो आ मउ त म लगा हो।
254. य का संग न कर और न कभी अ य का, य क य का न दखना ःखदायी
होता है और अ य का दशन भी ःखदायी होता है।
255. कसी को भी य न बनाएँ य क य का वयोग बुरा लगता है। जनके कोई य-
अ य नह होते, उनके कोई बंधन नह होते।
256. य व तु से शोक उ प होता है, य से भय उ प होता है। य के बंधन से
वमु को शोक नह होता, फर भय कहाँ से होगा।
257. पंचगुणा मक राग करने से शोक उ प होता है, राग से भय उ प होता है। राग के
बंधन से वमु को शोक नह होता, फर भय कहाँ से होगा।
258. कामना से शोक उ प होता है, काम से भय उ प होता है, तृ णा से भय उ प
होता है। तृ णा से वमु को शोक नह होता, फर भय कहाँ से होगा।
259. छह ार पर होनेवाली तृ णा से शोक उ प होता है, तृ णा से भय उ प होता है।
तृ णा से वमु को शोक नह होता, फर भय कहाँ से होगा।
260. जो शीलसंप , स यक् संप , धम न (नव कार के लोको र धम म श थत)
स यवाद , कत परायण है, उसे लोग यार करते ह।
261. जो अ नवाण का अ भलाषी हो, उसी म जसका मन लगा हो, और कामभोग म
जसका च ं धा हो, वह उ व ोत कहा जाता है।
262. जैसे चरकाल तक परदे स म रहने के बाद र दे श से सकुशल आए पु ष का संबंधी,
म और हतैषीजन वागत करते ह, वैसे ही पु यकमा पु ष के इस लोक से
परलोक म जाने पर उसके पु य उसका वैसे वागत करते ह, जैसे अपने य के
लौटने पर उसके संबंधी उसका वागत करते ह।
263. ोध को छोड़ द, अ भमान का याग कर, सारे संयोजन (बंधन ) को पार कर जाएँ,
ऐसे नाम प म आस न होनेवाले अप र ही को ःख संत त नह करते।
264. जो भड़के ए ोध को बड़े वेग से घूमते ए रथ के समान रोक ले, उसे म सार थ
कहता ,ँ सरे लोग तो मा लगाम पकड़नेवाले होते ह।
265. अ ोध से ोध को जीत, अभ को भ बनकर जीत, कृपण को दान से जीत और
झूठ बोलनेवाले को स य से जीत।
266. सच बोल, ोध न कर, माँगने पर थोड़ा रहते ए भी द। इन तीन कारण से कोई
दे वता के नकट दे वलोक म चला जाता है।
267. जो मु नजन अ हसक है और जो सदा काया म संयत रहते ह, वे इस शा वत नवाण
को पा लेते ह जहाँ प ँचकर शोक नह करते।
268. जो सदा जाग क रहते ह, वे रात- दन सीखने म लगे रहते ह और उनका येय
नवाण ा त करना है।
269. लोग चुप बैठे ए क नदा करते ह, ब त बोलनेवाले क नदा करते ह, मतभाषी क
भी नदा करते ह, संसार म अ न दत कोई भी नह है।
270. ऐसा पु ष जसक नदा होती हो, या शंसा-ही- शंसा, न कभी था, न कभी होगा,
न इस समय वह है।
271. व लोग सोच- वचार कर जस ा व शील से यु नद ष, मेधावी क दन
त दन शंसा करते ह।
272. का यक चंचलता से बचे रह, काया से संयत रह। का यक राचार को यागकर शरीर
से सदाचरण करो।
273. वा चक चंचलता से बचे रह, वाणी से संयत रह। वा चक राचार को यागकर वाणी
का सदाचरण करो।
274. मान सक चंचलता से बच, मन संयत रख। मान सक राचार को याग कर मान सक
सदाचरण करो।
275. जो धीर पु ष काया से संयत ह, वाणी से संयत ह, मन से संयत ह, वे ही पूणतया
संयत ह।
276. अरे, उपासक पीले प े क तरह इस समय तू है, यम त तेरे पास खड़े ह, तू याण के
लए तैयार है और रा ते के लए तेरे पास कुछ नह है।
277. तू अपने लए र ा ल बना, शी साधना का अ यास कर, पं डत हो जा। तू मल
का ालन कर, नमल बन, पुनःज म, जरा के बंधन म नह पड़ेगा।
278. समझदार को चा हए क वह अपने मैल को मशः थोड़ा-थोड़ा ण- त ण
वैसे ही र करे जैसे क सुनार चाँद के मैल को र करता है।
279. जैसे लोहे के ऊपर उठा आ जंग उसी पर उठकर उसी को खाता है, वैसे ही मयादा
को उ लघंन करनेवाले के अपने ही म उसे ग त क ओर ले जाते ह।
280. वा याय न करना बु का मल है, मर मत न करना (झा -बुहार न करना) घर का
मल है,आल य स दय का मल है और माद हरी का मल है।
281. च र होना ी का मल है, कृपणता दाता का मल है और सभी पापपूण धम
इहलोक और परलोक के मल ह।
282. उससे भी बढ़कर अ व ा (आठ कार का ान) परम मल है। हे साधक , इस मल
को र करके नमल बन जाओ।
283. पापाचार के त नल , कौवे के समान छ नने म शूर, पर हत वनाशी,
आ म ाघी बड़बोला, ःसाहसी, म लन पु ष का जीवन सुखपूवक बीतता आ
दे खा जाता है।
284. पापाचार के त लजालु, न य प व ती का यान रखनेवाले अ माद , अनु ृ ं खल,
शु जी वकावाले पु ष के जीवन को क ठनाई से बीतते दे खा जाता है।
285. जो संसार म हसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, पर ीगमन करता है,
म पान करता है, वह यह —इसी लोक म अपनी जड़ खोदता है।
286. हे पु ष, ऐसा जान क अकुशल धम पर संयम करना आसान नह है। तुझे लोभ
(राग) तथा अधम (पाप, अकुशल धम) चरकाल तक ःख म न राँधते रह।
287. लोग अपनी ा और स ता के अनु प दान दे ते ह। सर के खाने-पीने से जो
ख होता है वह दन हो या रात (कभी-कभी) समा ध को ा त नह होता है।
288. कतु जो लोग अपनी ा और स ता के अनु प दान दे ते ह, सर के खाने-पीने
से जो स होते ह, वे दन हो या रात सदै व एका ता तो ा त होते ह।
289. राग के समान अ न नह , न े ष के समान जकड़न। मोह के समान फंदा नह है, न
तृ णा के समान नद ।
290. सर के दोष दे खना आसान है, कतु अपना दोष दे खना क ठन। वह सर को
भूसे क तरह उड़ाता फरता है, कतु अपने दोष को वैसे ही ढँ कता है जैसे बेईमान
जुआरी पासे को।
291. सरो के दोष को दे खने म लगे ए, सदा शकायत करने का चेतनावाले के
आ व ( च -मल) बढ़ते ह, वह आ व के य से र होता है।
292. आकाश म कोई पद च नह होता, बु शासन से बाहर कोई मण नह होता।
लोग भाँ त-भाँ त के पंच म पड़े होते ह, कतु तथागत न पंच होते ह।
293. आकाश म कोई पद च नह होता, बु शासन से बाहर मु के माग पर चलता
पुआ या मु का फल ा त कोई मण नह होता, सं कार (पाँच कंध) शा वत
नह होता, बु म ( कसी कार क ) चंचलता नह होती।
294. जो सहसा कसी बात का न चय कर ले, वह ध म नह कहा जाता है। जो
अथ और अनथ दोन का चतन कर न चय कर ले, वह पं डत कहलाता है।
295. जो धीरज के साथ धमपूवक, न प होकर सर का मागदशन करता है, वह
धमर क मेधावी ध म कहलाता है।
296. (संघ के बीच) ब त बोलने से कोई पं डत नह हो जाता। कुशल ेम से रहनेवाला,
वैरर हत तथा नभय ही पं डत कहा जाता है।
297. ब त बोलने से कोई धमधर नह हो जाता है, जो कोई थोड़ी सी भी (धम का बात)
सुनकर धम के दशन करने लगता है (अथात्, वप यना करने लगता है) और जो धम
(के आचरण) म माद नह करता, वही नःसंदेह धमधर होता है।
298. सर के बाल पकने से कोई वर नह हो जाता, (केवल) उसक आयु पक है, वह
तो थ का वृ कहा जाता है।
299. जसम स य, धम, अ हसा, संयम और दम है, वही वगतमल, धृ तसंप वर कहा
जाता है।
300. जो ई यालु, म सरी और शठ है, वह व ामा होने से अथवा सुंदर- प होने से
साधु प मनु य नह हो जाता।
301. जसके भीतर से ई या जड़मूल से सवथा उ हो गए ह, वह वगतदोष मेधावी
पु ष साधु प कहा जाता है।
302. जो शील त और धुतांग त पालन न करने से अ ती है और जो झूठ बोलनेवाला है,
वह सर मुंडा लेने मा से मण नह हो जाता। इ ा और लाभ से त भला या
मण होगा?
303. सर से भ ा माँगने मा से कोई भ ु नह हो जाता और न ही भ ु होता है वषम
धम को हण करने से।
304. जो यहाँ (इस शासन म) पु य और पाप को र रखकर, चारी बन, वचार करके
लोक म वचरण करता है, वही व तुतः भ ु कहा जाता है।
305. अ व ान और मूढ़ समान (पु ष) केवल मौन रहने से मु न नह हो जाता। जो पं डत
तराजू के समान तोलकर (शील, समा ध, ा, वमु ) उ म त व को हण कर।
306. पाप कम का प र याग कर दे ता है, वह मु न होता है, इस बात से वह मु न होता है।
चूँ क वह दोन लोक का मनन करता है, इस कारण वह मु न कहा जाता है।
307. ा णय क हसा करने से कोई आय नह हो जाता। सभी ा णय क हसा न करने
से वह आय कहा जाता है।
308. केवल शील पालने और त करने से या ब ुत होने से या समा ध के लाभ से या
एकांत म शयन करने से पृथ जन, जसे सेवन नह कर सकते, मने उस नै य सुख
को ा त कर लया है ऐसा सोच है भ ु आ व का य न हो जाने तक तुम
आ व त होकर चैन से बैठे मत रहो।
309. माग म अ ां गक माग े है, स ाइय म चार आय-स य, धम म वीतरागता े
है, पद म च ुमान बु । दशन क वशु ( ान क ा त) के लए यही माग है,
(कोई) सरा नह । तुम इसी पर आ ढ़ होओ, यह ककत वमूढ़ बनानेवाला है।
310. अ ां गक माग पर आ ढ़ होकर तुम ःख का अंत कर लोगे। मेरे ारा श य
काटनेवाले इस माग को वयं जानकर तु हारे लए आ यान कया गया है।
311. तपना तो तु ह पड़ेगा, तथागत तो माग आ यात करते ह। इस माग पर आ ढ़ होकर
यान करनेवाले मार के बंधन से सवथा मु हो जाते ह।
312. सारे संसार अ न य ह, यानी क जो कुछ उ प होता है, वह न होता ही है, इस
स ाई को जब कोई ा से जान लेता है, तब उसको ःख से नवद ा त होता है,
अथात् ःख े के त भो ाभाव टू ट जाता है, ऐसा है यह वशु का माग।
313. सारे सं कार ःख ह यानी क जो कुछ उ प होता है, वह नाशवान होने के कारण
ःख ही है, जब कोई वप यना ा से दे ख लेता है, तब उसको सभी ःख से नवद
ा त होता है अथात्, ःख- े के त भो ा भाव टू ट जाता है—ऐसा है यह
वशु का माग।
314. जो उ ोग करने के समय उ ोग नह करता, युवा और बलशाली होने पर भी आल य
करता है, मन के संक प को गरा दे ता है, नव य होता है—ऐसा आलसी ा
का माग नह पा सकता।
315. वाणी को संयत रख, मन को संयत रख और शरीर से कोई अकुशल काम न कर। इन
तीन कमपथ यानी कम य का वशोधन कर। ऋ ष के बताए अ ां गक माग का
अनुसरण कर।
316. योग के अ यास से ा उ प होती है, उसके अभाव से उसका य होता है। उ प
और वनाश के योग तथा अयोग इन दो कार के माग को जानकर अपने आपको
इस कार व नयो जत कर, जससे ा क भरपूर वृ हो।
317. आस पी वन को काटो, शरीर पी वृ को नह । भय से वन पैदा होता है। हे
साधक , वन को और तृ णा पी झाड़ को काटकर अनास हो जाओ।
318. जब तक जरा सी भी नर क ना रय के त कामना बनी रहती है, तब तक जैसे ध
पीनेवाला बछड़ा माता म आब रहता है वैसे ही नर भी उनम आस रहता है।
319. जस कार हाथ से शरद ऋतु के कुमुद को तोड़ा जाता है, उसी कार अपने दय
को नेह से उ कर डालो। बु ारा बताए इस शां त माग को नवाण के लए
चुन लो।
320. म यहाँ वषाकाल म र ँगा, यहाँ हेमंत और ी म म—मूढ़ इस कार सोचता है
और कसी संभा वत बाधा को नह बूझता क म कसी भी समय, दे श अथवा उ म
इस जीवन से कूच कर सकता ँ।
321. जैसे सोए ए गाँव को कोई बड़ी बाढ़ बहाकर ले जाए, वैसे ही पु और पशु के नशे
म धु आस च को मृ यु पकड़कर ले जाती है।
322. पु र ा नह कर सकते, न पता और न ही बंधुजन। जब मृ यु पकड़ लेती है तब
जा तवाले र ा नह कर सकते। इस त य को जानकर शील म संयत समझदार
नवाण क ओर ले जानेवाले माग का शी ही वशोधन करे।
323. य द कोई धीर थोड़े से सुख के प र याग से वपुल नवाण सुख का लाभ दे खे,
तो वह वपुल सुख का याल करके थोड़े से सुख को छोड़ दे ।
324. सरे को ःख दे कर जो अपने लए सुख चाहता है, वैर के संसग म पड़कर वैर से
मु नह हो पाता।
325. जो करणीय से हाथ ख च ले कतु अकरणीय करे, ऐसे खोखले (घमंडी) मा दय के
च मल बढ़ते रहते ह।
326. जनक दनरात, हर समय बु - वषयक मृ त बनी रहती है, वे गौतम बु के
ावक सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
327. जनक दन रात, हर समय धम- वषयक मृ त बनी रहती है, वे गौतम बु के
ावक सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
328. जनक दन रात, हर समय संघ- वषयक मृ त बनी रहती है, वे गौतम बु के
ावक सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
329. जनक दन रात, हर समय कायगता- वषयक मृ त बनी रहती है, वे गौतम बु के
ावक सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
330. जनका मन दन रात, हर समय मै ी भाव म रमा रहता है, वे गौतम बु के ावक
सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
331. जनका मन दन रात, हर समय अ हसा म रमा रहता है, वे गौतम बु के ावक
सदै व भली-भाँ त बु बने रहते ह।
332. क पूण व या म रत रहना कर होता है, य क न रहने यो य घर ःखद होते ह,
असमान से सहवास ःखदायी होता है, माग का प थक होना ःखपूण होती
है, इस लए न तो संसार पी माग का प थक बन और न ःख म पड़नेवाला बन।
333. ाभाव, शीलवान और यश और भोग से यु कुलपु जस- जस दे श म जाता
है, वह -वह लाभ-सं कार से पू जत होता है।
334. संत लोग हमालय पवत के समान र से ही काशवान होते ह, कतु असंत या जन
पास म होने पर भी रात म फके गए बाण क भाँ त दखलाई नह दे ते।
335. एक आसन रखनेवाला, एक श या रखनेवाला, तं ार हत हो एकाक वचरण
करनेवाला, अपने को दमन करके अकेला ही वन म रमण करता है।
336. स य बोलनेवाला नरक म जाता है, और वह भी जो क पापकम करके 'नह कया'
ऐसा कहता है। दोन ही कार के नीच कम करनेवाला मनु य मरकर परलोक म एक
समान हो जाता है।
337. कंठ म अ डाले कतने ही पापी असंयमी ह जो अपने पापकम म नरक म उ प
होते ह।
338. असंयमी, राचारी होकर रा का अ खाने से अ न शखा के समान त त लोहे को
खाना अ धक अ ा है।
339. माद पर ीगामी क चार ग तयाँ होती ह—1. अपु य लाभ, 2. सुख क न द न
आना, 3. नदा और 4. नरक।
340. जैसे ठ क से न पकड़ा गया ती ण धारवाला घास का तनका हाथ को ही छे द दे ता है,
वैसे ही गलत कार से हण कया गया ाम य नरक क ओर ख च ले जाता है।
341. जो कोई कम श थलता से कया जाए, जो त म लन है और जो चय अशु है,
वह बड़ा फल दे नेवाला नह होता।
342. य द कोई काम करना हो तो उसे कर, उसम ढ़ परा म के साथ लग जाएँ। श थल
प र ाजक (अपने भीतर रागरजा द होने से) अ धक गंदगी बखेरता है।
343. बुरे काम करना ेय कर है, य क कृत करनेवाला बाद म अनुताप करता है और
अ े काम करना ेय कर है, जसे करके बाद म अनुताप नह करना पड़ता।
344. जैसे कोई सीमावत नगर भीतर-बाहर से खूब सुर त कया जाता है, वैसे ही अपने
आपको सु र त रख। ण भर भी न चूक, य क ण को चूके ए लोग नरक म
पड़कर शोक मनाते ह।
345. जो अल ा के काम म ल ा करते ह और ल ा के काम म ल ा नह करते,
म या से त वे ाणी ग त को ा त होते ह।
346. काम म भय दे खनेवाले और भय को काम म भय को न दे खनेवाले म या से
त ाणी ग त को ा त होते ह।
347. अदोष म दोष बु रखनेवाले और दोष म अदोष बु रखनेवाले म या से त
ाणी ग त को ा त होते ह।
348. दोष को दोष और अदोष को अदोष जानकर स य संप ाणी सुग त को ा त
होते ह।
349. जैसे कसी सं ाम म हाथी धनुष से छोड़े गए बाण को सहन करता है, वैसे ही म
सर के वचन सहन क ँ गा, य क संसार म ःशील ही अ धक ह।
350. श त हाथी को प रषद् म ले जाते ह। श त पर ही राजा चढ़ता है। मनु य म
भी श त ही े होता है, जो कटु वचन को सह लेता है।
351. ख र, अ न ल के सधव घोड़े और महानाग हाथी श त होने पर उ म होते
ह, परंतु अपने आपको श त कया आ पु ष उनसे े होता है।
352. हाथी, घोड़े आ द सवा रय से बना गई दशा नवाण तक नह जाया जा सकता,
जैसे क अपने आपको श त बनाकर कोई इं य के साथ यहाँ तक चला
जाता है।
353. जो पु ष आलसी, पेटू, न ालु, करवट बदल-बदलकर सोनेवाला और दाना खाकर
पु ए मोटे सूअर के समान होते है, वह मंदबु बार-बार गभ म पड़ता है।
354. ये जो जहाँ इ ा हो, जहाँ कामना हो, जहाँ सुख दखे, वहाँ चलायमान हो जानेवाला
च है, पहले इसे अचंचल बनाऊँगा। इसे ऐसे ही भली-भाँ त वश म क ँ गा जैसे क
अंकुशधारी महावत बगड़ैल हाथी को वश म करता है।
355. अ माद म जुटो। अपने च क र ा करो। क चड़ म धँसे हाथी के समान अपने
आपको क ठन माग से बाहर नकालो और नवाण के धरातल पर त ा पत करो।
356. य द कसी को साथ चलने के लए कोई साधु वहारी, धैयसंप , बु मान साथी
मल जाए तो वह सारी परेशा नय को ताक पर रखकर स वदन और मृ तमान
होकर उसके संग वचरण कर।
357. य द कसी को साथ चलने के लए कोई साधु वहारी, धैयसंप , बु मान साथी न
मले, तो वह परा जत रा को छोड़कर जाते ए राजा के समान अथवा ह तवन म
हाथी के समान अकेला वचरण करे।
358. अकेला वचरना उ म है ले कन मूढ़ क म ता अ नह । ह तवन म हाथी के
समान अनास होकर अकेला वचरण कर और पाप न कर।
359. काम पड़ने पर म का होना सुखकर रहे। जस कसी छोट या बड़ी चीज से संतु
हो जाना यह भी सुखकारक है। जीवन के य होने पर पु य सुखदायक होता है।
सारे ःख का न हो जाना सवा धक सुखकर है।
360. लोक म माता क सेवा करना सुखकर है, और ऐसे ही पता क सेवा भी सुखकर है।
लोक म मण क सेवा करना सुखकर है और ऐसे ही ा ण क सेवा करना भी
सुखकर है।
361. बुढ़ापे तक शील का पालन करना सुखकर होता है, अचल ृ ा सुखकर होती है,
ा का लाभ सुखकर होता है और पाप कम का न करना सुखकर होता है।
362. म होकर आचरण करनेवाले मनु य क तृ णा मालुवा लता क भाँ त बढ़ती है,
वन म फल क इ ा से एक शाखा छोड़कर सरी शाखा पकड़ते बंदर क तरह वह
एक भव से सरे भव म भटकता रहता है।
363. लोक म यह वषमयी तृ णा जस कसी को अ भभूत कर लाती है, उसके ःख, शोक
बढ़ने लगते ह जैसे क वषा ऋतु म वीरण नाम क जंगली घास बढ़ती रहती है।
364. इस बार-बार ज मनेवाली र त मणीय तृ णा को जो लोक म अ भभूत कर दे ता है,
उसके शोक वैसे ही झड़ जाते ह जैसे प प से पानी क बूँद।
365. इस लए म तु ह, जतने यहाँ आए हो, कहता ँ, तु हारे क याण के लए कहता ँ।
जैसे बड़ी कुदाल लेकर बीरण (एक कार क घास) को खोदते ह, ऐसे ही तृ णा को
जड़ से उखाड़ डालो। कह ऐसा न हो क तु ह दे वपु वैसे ही बार-बार उखाड़ता रहे,
जैसे नद के ोत म उगे ए सरकंडे को बड़े वेग से आता आ नद के वाह।
366. जैसे जड़ के बलकुल न होने और उसके ढ़ बने रहने पर कटा आ वृ फर से
उग जाता है, वैसे ही तृ णा पी अनुशय के जड़ से अलग न होने पर यह ःख बार-
बार उ प होता है।
367. जसके छ ीस ोत मन को य लगनेवाली व तु क ओर ही जाते ह , उस
म या वाले को उसके राग न चत संक प बहा ले जाते ह।
368. वे ोत सभी ओर बहते ह, जसके कारण तृ णा पी लता अंकु रत रहती है। उस
उ प ई लता को दे खकर ा से उसक जड़ को काट डालो।
369. तृ णा पी न दयाँ ा णय को स करनेवाली होती ह। इस सुख म आस सुख
क चाहना करनेवाले ज म, बुढ़ापा, रोग और मृ यु के फेर म पड़ जाते ह।
370. तृ णा म फँसे ाणी जंगल म कसी ाध ारा बेधे ए खरहे के समान च कर
काटते रहते ह। इस लए अपने वैरा य क आकां ा करते ए साधक को तृ णा र
करना चा हए।
371. जो तृ णा से छू टकर, तृ णामु है, तृ णा क ओर ही दौड़ता है, उस को वैसे
ही जानो जैसे कोई बंधन से मु आ पु ष फर बंधन क ओर ही भागने लगे।
372. यह जो लोहे, लकड़ी या र सी का बंधन है, उसे पं डत जन ढ़ बंधन नह कहते।
य क वा त वकता म ढ़ बंधन म णय , कुंडल , पु तथा ी म तृ णा का होना
है।
373. पं डतजन इसी को ढ़, पतनो मुख, श थल और र या य बंधन कहते ह। वे अपे ा
र हत हो, कामसुख को छोड़कर, इस ढ़ बंधन को भी ान पी खड् ग से काटकर
जत हो जाते ह।
374. आगे भूत, पीछे भ व य और म य वतमान क सारी बात छोड़कर भवसागर को पार
हो जाओ। सब ओर से वमु होकर तुम फर से ज म, बुढ़ापा और मृ यु को नह
ा त होगे।
375. काम वतका द से त, ती रागयु और शुभ ही शुभ दे खनेवाले ाणी क तृ णा
और भी बढ़ती है, इससे वह अपने लए और भी ढ़ बंधन तैयार करता है।
376. जो वतक के शांत करने म लगा है और सदा मृ तमान रहकर अशुभ क भावना
करता है, वह मार के बंधन को काट दे गा, वह न चय ही इस तृ णा का वनाश कर
दे गा।
377. जसने ल य पा लया हो, जो नभय, तृ णार हत और मल वहीन हो गया हो, जसने
भव ा त करानेवाले श य को काट दया हो, उसका यह अं तम जीवन होता है।
378. जो तृ णार हत अप र ही, न और चार तसं भदा म नपुण हो वही अं तम
दे हधारी, महा और महापु ष कहा जाता है।
379. म सबको परा त करनेवाला, सव , सारे धम से अ ल त, सव यागी ,ँ तृ णा का
य हो जाने से वमु ँ। परम ान को वयं क अन भ ता से जानकर म कसको
अपना उपा याय या आचाय बतलाऊँ?
380. धम का दान सब दान को जीत लेता है। धम का रस सब रस को जीत लेता है। धम
म रमण करना सभी रमण-सुख को जीत लेता है। तृ णा का य सब ःख को जीत
लेता है।
381. संसार को पार करने का य न न करनेवाले बु को भोग न कर दे ते ह। भोग
क तृ णा म पड़कर वह बु पराए के समान अपना ही हनन कर लेता है।
382. भाँ त-भाँ त के तृण उगना खेत का दोष है, य क ऐसे खेत ब त उपजते नह ह।
अंदर जागनेवाला राग जा के दोष ह, य क ऐसे लोग को दान दे ने से कोई बड़ा
फल ा त नह होता। इस लए वीतराग य को ही दान दे ना चा हए, जससे
महान् फल ा त होता है।
383. खेत का दोष तृण है। जा का दोष े ष है, इस लए वीत े ष य को दान दे ने से
महान् फल ा त होता है।
384. खेत का दोष तृण है। जा का दोष मोह है, इस लए वीतमोह य को दान दे ने
से महान् फल ा त होता है।
385. खेत का दोष तृण है। जा का दोष इ ा है, इस लए इ ार हत य को दान
दे ने से महान् फल ा त होता है।
386. खेत का दोष तृण है। जा का दोष तृ णा है, इस लए तृ णार हत य को दान
दे ने से महान् फल ा त होता है।
387. च ु का संयम अ ा है, अ ा है ोता का संयम। ाण का संयम अ ा है, अ ा
है ज ा का संयम।
388. शरीर को संयम अ ा है, अ ा है वाणी का संयम। मन को संयम अ ा है, अ ा
है सव इं य का संयम। सव संयम ा त भ ु सारे ःख से मु हो जाता है।
389. जो हाथ, पैर और वाणी म संयत है, जो उ म संयमी है, अपने भीतर क स ाइय
को जानने म लगा है, समा धयु , एकाक और संतु है, उसे भ ु कहते ह।
390. जो भ ु मुख से संयत है, सोच- वचार कर बोलता है, उ त नह है, अथ और धम
को का शत करता है, उसका बोल मीठा होता है।
391. धम म रमण करनेवाला, धम म रत, धम का चतन करते, धम का पालन करते भ ु
स म से युत नह होता।
392. अपने लाभ क अवहेलना नह करनी चा हए, सर के लाभ क ृहा नह करनी
चा हए। सर के लाभ क ृहा करनेवाला भ ु साधक च क एका ता को नह
ा त कर पाता।
393. थोड़ा सा लाभ मलने पर भी य द भ ु अपने लाभ क अवहेलना नह करता है, तो
उस शु जी वकावाले क दे वता भी शंसा करते ह।
394. मै ी भावना से वहार करता आ जो भ ु बु के शासन म स रहता है, वह
सभी सं कार का शमन करनेवाले शांत और सुखमय नवाण को ा त करता है।
395. हे भ ,ु इस आ मभाव नाम क नाव को उलीचो, उलीचने पर यह तु हारे लए ह क
हो जाएगी। राग और े ष पी बंधन का छे दन कर, फर तुम नवाण को ा त कर
लोगे।
396. हे भ ु यान करो, माद म मत पड़ो। तु हारा च पाँच कार के कामभोग के
च कर म मत पड़ो। म होकर मत लोहे के गोले को नगलो। हाय, यह ःख
कहकर जलते ए तु ह कह ं दन न करना पड़े।
397. ा वहीन पु ष का यान नह होता, यान न रखनेवाले को ा नह होती। जसके
पास यान और ा दोन ह, वही नवाण के समीप होता है।
398. कसी शू यागार म वेश करके कोई शांत- च साधक जब स यक् प से
धमानुप यना करता है, तब उसे लोको र सुख ा त होता है (जो क सामा य
मानवीय लोक य सुख से परे होता है।)
399. जैसे जूही अपने कु हलाए ए फूल को छोड़ दे ती है, वैसे ही हे भ ु , तुम राग
और े ष को छोड़ दो।
400. जो अपने आपको वयं े रत करे, अपना परी ण वयं करे, वह अपने ारा र त,
मृ तमान भ ु सुखपूवक करेगा।
401. वयं अपना वामी है, वयं ही उसक अपनी ग त है, इस लए अपने आपको
संयत करे, वैसे ही जैसे क अ े घोड़ का ापारी अपने घोड़ को करता है।
402. बु के शासन म स रहनेवाला मोदब ल भ ु सभी सं कार के उपशमन से
ा त होनेवाले सुखमय नवाण को ा त करे।
403. हे ा ण, तृ णा पी ोत को काट दे , परा म कर कामना को र कर। सं कार
को य को जानकर, हे ा ण, तू नवाण को जाननेवाला हो जा।
404. जब कोई ा ण सारे धम म पारंगत हो जाता है, तब उस जानकार के सभी बंधन
न हो जाते ह।
405. जसके पार (भीतर के छह आयतन—आँख, कान, नाक, जीभ, शरीर और मन)
अपार (बाहर के छह आयतन— प, श द, गंध, और धम) या पार-अपार (ये
दोन ही अथात् म और मेरे का भाव) नह ह, जो नभय और अनास है, उसे म
ा ण कहता ँ।
406. जो यानी, वमल, आसनब , र, कृतकृ य और आ वर हत हो, जसने उ म
नवाण को पा लया हो, उसे म ा ण कहता ँ।
407. दन म सूय तपता है, रात म चं मा भासता है, कवच पहनकर य चमकता है।
यान करता आ ा ण चमकता है, और सारे रात- दन बु अपने तेज से चमकते
ह।
408. ा ण वह कहलाता है, जसने पाप को बहा दया, मण वह है जसक चया
समता ण है और जत वह कहलाता है, जसने अपने च के मैल र कर लए।
409. ा ण ( न पाप) पर हार नह करना चा हए और ा ण को भी उस पर हार
करनेवाले पर कोप नह करना चा हए। ध कार है ा ण क ह या करनेवाले पर
और उससे भी अ धक ध कार है उस पर, जो उसके लए कोप करता है।
410. ा ण के लए यह कम ेय कर नह होता है जब वह मन से परय को नकाल
दे ता है। जहाँ-जहाँ मन हसा से टलता है, वहाँ-वहाँ ःख शांत होता है।
411. जो शरीर से, वाणी से और मन से कम नह करता, जो तीन े म संयमयु है,
उसे ही म ा ण कहता ँ।
412. जस कसी से स यक् संबु ारा उप द धम को जाने, उसे वैसे ही स कारपूवक
नम कार करे जैसे अ नहो को ा ण नम कार करता है।
413. न जटा से, न गो से, न ज म से ही ा ण होता है। जसम स य (सोलह ाकर से
तवेधन कए ए चार आय स य) और (नौ कार के लोको र) धम ह, वही प व
है और वही ा ण है।
414. अरे , जटा से तेरा या बनेगा?मृगचम धारण करने से तेरा या लाभ होगा?
भीतर तो तेरा च गहन मलीनता से भरा है। बाहर-बाहर से तू इस शरीर को या
रगड़ता-धोता है?
415. जो फटे चीथड़ को धारण करता है, जो कृश है, जसके शरीर क सभी नस दखाई
पड़ती ह और जो वन म एकाक यान करनेवाला है, उसे म ा ण कहता ँ।
416. य द वह प र ही (आस यु ) है और भोगवाद है तो ा णी माता के गभ से
उ प होने पर भी उसे म ा ण नह कहता। जो अप र ही है और अनास है उसे
म ा ण कहता ँ।
417. जो सारे बंधन के काटकर भय नह खाता है, जो तृ णा एवं संयोजन के पार चला
गया हो और जसे संसार म आस नह है, उसे म ा ण कहता ँ।
418. जो ोध, तृ णा, बासठ कार क य को काटकर अ व ा पी जुए को उतार
फक बु आ, उसे म ा ण कहता ँ।
419. जो च को बना षत कए गाली, वध और बंधन को सह लेता है, सहन-श ही
जसक सेना है, उसे म ा ण कहता ँ।
420. जो अ ोधी, शीलवान, तृ णा के न रहने से नर भमानी है, छह इं य का दमन कर
लेने से संयमी और अं तम शरीरधारी है, उसे म ा ण कहता ँ।
421. प -प पर जल और सुई के सरे पर सरस के दाने के समान जो कामभोग म
ल त नह होता है, उसे म ा ण कहता ँ।
422. जो यह इसी लोक म अपने ःख के य को ापूवक जान लेता है, जसने अपना
बोझ उतार फका है, और जो आस र हत है उसे म ा ण कहता ँ।
423. गहन ावाले, मेधावी, माग-अमाग के पं डत, उ म नवाण को ा त ए को
म ा ण कहता ँ।
424. जो गृह तथा गृह- या गय दोन म ल त नह होता है, जो बना ठौर ठकान के
घूमनेवाला और अ पे ा है, उसे म ा ण कहता ँ।
425. चर और अचर सभी ा णय के त जसने दं ड याग दया है ( हसा याग द है),
जो न कसी क ह या करता है, न ह या करवाता है, उसे म ा ण कहता ँ।
426. जो वरो धय के बीच अ वरोधी बनकर रहता है, दं डधा रय के बीच शां त से रहता
है, प र ह करनेवाल म अप र ही होकर रहता है, उसे म ा ण कहता ँ।
427. जसके च से राग, े ष, अ भमान और डाह ऐसे ही गर पड़े ह, जैसे सुई के सरे से
सरस के दाने, उसे म ा ण कहता ँ।
428. जो इस कार क अककश, साथक, स ी वाणी को बोले जससे कसी को पीड़ा न
प ँच,े उसे म ा ण कहता ँ।
429. जो यहाँ इस लोक म लंबी या छोट , मोट या महीन, सुंदर या असुंदर व तु बना दए
नह लेता, अथात् उसक चोरी नह करता, उसे म ा ण कहता ँ।
430. जसके मन म लोक या परलोक के संबंध म कोई आशा-आकां ा नह रह गई है, जो
सभी कार क आशा -आकां ा और आस य से मु हो चुका है, उसे म
ा ण कहता ँ।
431. जसको तृ णा नह है, जो सबकुछ जानकर संदेहर हत हो गया है, जसने डु बक
लगाकर नवाण ा त कर लया है, उसे म ा ण कहता ँ।
432. जो इस लोक म पु य और पाप दोन के त आस से परे चला गया है, जो
शोकर हत, वमल और शु है उसे म ा ण कहता ँ।
433. जो चं मा के समान वमल, शु , नखरा आ और मलर हत है, और जसक भव
तृ णा पूरी तरह ीण हो गई है, उसे म ा ण कहता ँ।
434. जसने इस गम संसार के ज म-मरण के च कर म डालनेवाले मोह पी उलटे माग
को याग दया है, जो तरा आ, पार गया आ, यानी, र, संदेहर हत और बना
उपादान के नवाणलाभी हो गया है, उसे म ा ण कहता ँ।
435. जो इस लोक म काम भोग का प र याग कर घर-बार छोड़कर व जत हो जाए और
जसका कामभाव पूरी तरह ीण हो गया हो, उसे म ा ण कहता ँ।
436. जो इस लोक म तृ णा का प र याग कर घर-बार छोड़कर व जत हो जाए और
जसक भवतृ णा पूरी तरह ीण हो गई हो, उसे म ा ण कहता ँ।
437. जो मान सक बंधन और दै वी बंधन से परे चला गया है, जो सब कार के बंधन से
वमु ह, उसे म ा ण कहता ँ।
438. जो र त और अर त को छोड़कर शांत और लेशर हत हो गया है, और जो सारे लोक
को जीतकर वीर बना है, उसे म ा ण कहता ँ।
439. जो ा णय क यु त और उ प को पूरी तरह से जानता है, और जो अनास ,
अ ग तवाला और बो धसंप है, उसे म ा ण कहता ँ।
440. जसक ग त दे व, गंधव ओर मनु य नह जानते, और ीणा व अरहंत है, उसे म
ा ण कहता ँ।
441. जसके आगे, पीछे और बीच म कुछ नह है अथात् जो अतीत, अनागत और वतमान
क सभी कामना से मु है, जो अ कचन और अप र ही है, उसे म ा ण कहता
ँ।
442. जो े , वर, वीर, मह ष, वजेता, अकं य, नातक और बु है, उसे म ा ण
कहता ँ।
443. जो अपने पूव- नवास को जानता है और वग तथा नक को दे ख लेता है, और फर
ज म के य को ा त आ, अपनी अ भ ा को पूण कया आ मु न है और
जसने जो कुछ करना था वह सब कर लया है, उसे म ा ण कहता ँ।
444. जो सर के अवगुण क चचा करता है, वह अपने अवगुण कट करता है।
445. मनु य ज म से ही न तो म तक पर तलक लगाकर आता है, न य ोपवीत धारण
करके। जो स काय करे, वह ज है और जो कुकम करता है, वह नीच।
446. पानी म य द गंदगी हो तो मनु य उसम अपना त बब नह दे ख सकता, इसी कार
जसका च आल य से पूण होता है, वह अपना हत नह समझ सकता तो सर
के हत भला या समझेगा।
447. अ व ा इस बात क क शरीर के अंदर अवचेतन मन म लगातार कैसे राग और े ष
क या चल रही है और कैसे हम हर ण राग और े ष के गहरे संखार बनाए जा
रहे ह, और भव च के जाल म फँसते ही जा रहे ह। अ व ा के कारण, संखार के
कारण, व ान के कारण नाम, प ( च और शरीर), नाम- प के कारण छह
इं याँ, छह इं य के कारण श, श के कारण वेदना, वेदना के कारण तृ णा,
तृ णा के कारण उपादान (गहन आस ), उपादान के कारण भव, भव के कारण
जा त (ज म), जा त (ज म) के कारण बुढ़ापा, मृ यु, शोक करना, रोना-पीटना,
खत, बेचैन व परेशान होना होता है। इस कार सारे-के-सारे ःख समुदाय का
उदय होता है। इसे ही ःख-च या भव-च कहते ह। यही संसार च है। इसम
कह म, मेरा, आ मा कहने को कुछ नह है, इस लए इसे अना मवाद का स ांत भी
कहा जाता है। (यहाँ संखार का मतलब है— ःख मलने पर शरीर म जो तरंग उ प
ई ह वे ःखद या सुखद या फर न सुखद, न ःखद संवेदना म बदल जाती ह
और उन इन संवेदना के उ प होते ही मानस का चौथा ह सा, जसे उन दन क
भाषा म संखार कहा जाता था अपना काम शु करता है।)
448. अ व ा के पूणतया नरोध करने से संखार का नरोध हो जाता है, संखार के नरोध
से व ान का नरोध हो जाता है, व ान के नरोध से नाम प ( च और शरीर) का
नरोध हो जाता है, नाम प के नरोध से छह इं य का नरोध हो जाता है। छह
इं य के नरोध से श का नरोध हो जाता है, श के नरोध से वेदना का नरोध
हो जाता है। वेदना के नरोध से तृ णा का नरोध हो जाता है। तृ णा के नरोध से
उपादान (गहरी आस ) का नरोध हो जाता है। उपादान (गहरी आस ) के नरोध
से भव का नरोध हो जाता है। भव के नरोध से ज म का नरोध हो जाता है। ज म
के नरोध से बुढ़ापा, मृ यु, शोक, रोना-पीटना, बेचैनी और परेशानी का नरोध हो
जाता है। तलोम संसार-च या भव-च से ध मच म प रवतन है। अब सवाल
ये उठता है क भव-च को ध मच म प रव तत कया कैसे जाए? जब तक जीवन
है, इं य का अपने वषय से टकराव रहेगा ही। जब-जब ज म होगा, शरीर के साथ
इं याँ ह गी ही। इं य को कतना ही रोका जाए, उनका अपने-अपने वषय से
टकराव होगा ही। पूरे व व म हम कह भी चले जाएँ, कोई जगह ऐसी नह है जहाँ
इं य के वषय न ह । और अगर थोड़ी दे र के लए कोई ऐसी जगह मल भी जाए
तो भी मन तो हमेशा हमारे शरीर के साथ रहेगा ही और मन के अपने वषय ह,
जससे वह लगातार त या करता रहता है। कुछ अ ा लगा तो उसके त राग
जगाता है, कुछ बुरा लगा तो उसके त े ष जगाता है।
449. जब कोई संखार ही नह रहगे तो नया व ान नह बनेगा, नया व ान नह बनेगा तो
नया प (शरीर और च ) नह बनेगा, नया नाम प नह बनेगा तो छह इं याँ नह
बनगी तो उनका वषय से टकराव नह होगा, इं याँ का वषय से टकराव नह
होगा, तो वेदना नह उ प होगी, जब वेदना नह उ प होगी तो उस वेदना के त
तृ णा भी नह जगेगी। जब तृ णा भी नह जगेगी तो उस तृ णा के त आस भी
नह पैदा होगी, अगर आस भी नह पैदा होगी तो भव का नमाण भी नह होगा।
भव का नमाण भी नह होगा तो ज म भी नह होगा। जब ज म भी नह होगा तो
बीमा रयाँ, बुढ़ापा, मृ यु, यजन से बछु ड़ाव, य लोग से मलाप नह होगा,
अनचाही होने और मनचाही न होने का ःख नह होगा और इस तरह सारे ःख से
मु हो जाएगी।
450. कसान धरती म बीज तभी बोता है, जब उसम धरती क श पर ा होती है।
ा ही श शाली बल है। ा ही पाप को धोती है। धम क उ प का कारण
ा है, अतः उसे अंकु रत करो। अब तुम ा से स त होकर शील क र ा
करो।
451. साधक को अपने सारे कम खुले रखने चा हए, जससे वह नद ष बन जाता है। कपट
आ द दोष का याग करो। आजी वका शु रखो। चय और शील के सहारे
क याण क सब याएँ पूण होती ह। मो का रह य वैरा य है। वैरा य का रह य
आ मा क वतः ेरणा है। आ म- ेरणा का रह य ान का दशन है। ान का रह य
समा ध है। समा ध का फल शारी रक और मान सक सुख है। वही परम सुख
उपजाता है। परम सुख शां त का मूल है। शां त से सब कार का आनंद मलता है।
आनंदमयी त शील से मलती है, इस लए शील धान है। लगातार अ यास का
नाम शील है। अतः चपल इं य का न ह कर उ ह वषय से वमुख करना चा हए।
452. इं य न ह के लए भोजन सीमा म करना चा हए। अ धक मा ा म हण कया
भोजन नय मत काय म बाधा डालता है। उससे आल य और न द आती है। ब त
कम भोजन से भी पूरी श नह मलती, इस लए अपनी श को दे खते ए
भोजन क मा ा न चत करनी चा हए। रात के थम पहर म योगा यास करो। सरे
पहर म श या पर व ाम करो। तीसरे पहर म उठकर योग साधना म लग जाओ। सब
काम करते ए अपनी मृ त पर नयं ण रखो, ता क वह ल य पर टक रहे। जसने
मृ त का कवच धारण कर लया, उसे दोष का शकार नह बनना पड़ता। मृ त के
बना आय-स य ा त नह होता और आय-स य के बना उ म रा ता नह मलता।
इस लए जो प व दय से एकांत म रहता है, वह ा रस का अमृतपान
करता है।
453. बुरे का चतन छोड़कर सदा शुभ चतन म ही रत रहना चा हए। बुरे वचार मन क
श का नाश कर डालते ह। जीवन लोक के पर र संबंध पर वचार करो। वजन
का मोह छोड़ो, य क उनक चता से मन क शां त न होती है। इस ःखमय
संसार म अपना मन आस न रखो। काल छपे ए बाघ के समान व वासी पर
झपटता है। संसार म कोई भी मृ यु से न बचा है, न बचेगा। जैसे रोग को र करने के
लए औष ध का सेवन कया जाता है, वैसे ही बुरे वचार से बचने के लए अ े
भाव का चतन करना चा हए।
454. जस कार बादल एक त होकर फर अलग हो जाते ह, उसी कार ा णय का
संयोग और वयोग है, ऐसा म समझता ँ।
455. आ मवान संयमी पु ष को न तो वषय म आस होती है और न वे वषय के
लए यु करते ह।
456. जसने अपने को जीत लया है उसी को जत होना उ चत है, न क चंचला मा
अ जत य का।
457. अ धक धन संप होने पर भी जो असंतु रहता है, वह सदा नधन है। धन से र हत
होने पर भी जो संतु है, वह सदा धनी है।
458. न तो आयु माण है, न वंश। संसार म कोई भी कह भी े ता ा त कर सकता है।
459. य द मनु य को पता चल जाए क ई या का फल कैसा होता है तो वह न चय ही
राजा श व के समान अपने अंग काटकर दे दे गा।
460. जो ोधी है, बैर रखनेवाला है, नफरत करनेवाला है, म या वाला और
मायावी है, उसे नीच समझना चा हए।
461. जो यो नज या अंडज कसी भी ाणी क हसा करता है, जसको जीव-
ा णय के त दया नह है, उसे नीच समझना चा हए।
462. ऐसा कोई छोटे से भी छोटा काम न कर, जसके लए सरे जानकार लोग उसे दोष
द और इस कार मै ी कर क सभी ाणी सुखी ह , कुशल ह और वयं सुखी ह ।
463. जैसे कु हार ारा बनाए म के बरतन सभी टू ट जानेवाले ह, ऐसे ही ा णय का
जीवन है।
464. सभी दं ड से डरते ह, सभी को मरने का डर लगता है, इस लए सभी को अपने जैसा
समझकर न सर को मार, न मरवाएँ।
465. जो यह सोचता है क मुझे गाली द , मुझे मारा, मुझे हराया, मुझे लूट लया,
उस का वैरभाव कभी शांत नह होता है। ले कन जो इस तरह नह
सोचता है, न वचार करता है, उसका मन शांत होता है।
466. एक सरे से छल न कर, कभी कसी का अपमान न कर, वैमन य या वरोध व प
कसी के ःख क इ ा न कर।
467. जस कार शरीर म ा त सप के वष को औष ध ारा शांत कर द, उसी कार जो
भ ु उ प ए ोध को शांत कर दे ता है, वह सप क कचुली छोड़ने क भाँ त इस
लोक और परलोक को छोड़ दे ता है।
468. जस कार तालाब म वेश कर कमल के पु प को तोड़े जाते ह, उसी कार जो
भ ु उ प ए संपूण राग को न कर दे ता है, वह सप क कचुली छोड़ने क भाँ त
इस लोक और परलोक को छोड़ दे ता है।
469. जस कार तेज बहनेवाली नद को सुखा द, उसी कार जो भ ु उ प ए
अ भमान को न कर दे ता है, वह सप क कचुली छोड़ने क भाँ त इस लोक और
परलोक को छोड़ दे ता है।
470. जस कार ब त ही कमजोर नरकट के पुल को बड़ी बाढ़ बहा ले जाए, उसी कार
जो भ ु संसार म कसी कार के सार को नह ा त कर पाया है, वह सप क
कचुली छोड़ने क भाँ त इस लोक और परलोक को छोड़ दे ता है।
471. जस भ ु के भीतर ोध नह है और जो पाप-पु य से र हत हो गया है, वह सप क
कचुली छोड़ने क भाँ त इस लोक और परलोक को छोड़ दे ता है।
472. जस भ ु के वतक न हो गए ह और जसका च पूण प से संयत हो गया है,
वह सप क कचुली छोड़ने क भाँ त इस लोक और परलोक को छोड़ दे ता है।
473. जो भ ु न अ तशी गामी है और न अ त मंदगामी, जसने सारे सांसा रक पंच को
पार कर लया है, वह सप क कचुली छोड़ने क भाँ त इस लोक और परलोक को
छोड़ दे ता है।
474. जैसे म ,ँ वैसे ही वे ह, और जैसे वे ह, वैसा ही म ँ। इस कार सबको अपने जैसा
समझकर न कसी को मार, न मारने को े रत कर।
475. जहाँ मन हसा से मुड़ता है, वहाँ ःख अव य ही शांत हो जाता है।
476. अपनी ाण-र ा के लए भी जान-बूझकर कसी ाणी का वध न कर।
477. मनु य यह वचार कया करता है क मुझे जीने क इ ा है मरने क नह , सुख क
इ ा है ःख क नह । य द म अपनी ही तरह सुख क इ ा करनेवाले ाणी को
मार डालूँ तो या यह बात उसे अ लगेगी? इस लए मनु य को ाणीघात से वयं
तो वरत हो ही जाना चा हए। उसे सर को भी हसा से वरत कराने का य न
करना चा हए।
478. वै रय के त वैरर हत होकर, अहा! हम कैसा आनंदमय जीवन बता रहे ह, वैरी
मनु य के बीच अवैरी होकर वहार कर रहे ह!
479. पहले तीन ही रोग थे—इ ा, ुधा और बुढ़ापा। पशु हसा के बढ़ते-बढ़ते वे अ ानवे
हो गए। ये याजक, ये पुरो हत, नद ष पशु का वध कराते ह, धम का वंस करते
ह। य के नाम पर क गई यह पशु- हसा न चय ही न दत और नीच कम है।
ाचीन पं डत ने ऐसे याजक क नदा क है।
480. भगवान् गौतम बु के अनुसार ोध और ोभ उ प होने पर इससे पाँच कार से
छु टकारा पाया जा सकता है :—
मै ी से : जस आदमी के त ोध या ोभ हो, उसके त मै ी क भावना करो।
481. क णा से : जस आदमी के त ोध या ोभ हो, उसके त क णा क भावना
करो।
482. मु दता : जस आदमी के त ोध या ोभ हो, उसके त मु दता क भावना करो।
483. उपे ा से : जस आदमी के त ोध या ोभ हो, उसके त उपे ा क भावना
करो।
484. कम के वा म व क भावना से : जस आदमी के त ोध या ोभ हो, उसके बारे
म ऐसा सोचो क वह जो कम करता है, उसका फल अ ा हो या बुरा, उसी को
भोगना पड़ेगा।
485. भगवान् गौतम बु ने ोध करने से सात अनथ बताए ह। उनके अनुसार जो ी या
पु ष ोध करता है, उसके श ु को इन सात बात क स ता होती है :—

मनु य चाहता है क उसका श ु कु प हो जाए, य क कोई भी यह पसंद नह


करता है क उसका श ु व पवान हो, सुंदर हो। जब उसे ोध आता है, तो भले ही
उसने मल-मलकर नान कया हो, सुगंध लगाई हो, बाल और दाढ़ ठ क ढं ग से
बनाई हो, उसके कपड़े व ह , फर भी वह कु प लगता है य क उसक आँख
म ोध भरा आ है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
486. मनु य चाहता है क उसका श ु पीड़ा पाए। य क कोई आदमी यह पसंद नह
करता क उसका श ु आराम से रहे। जब उसे ोध आता है तो भले ही वह ब ढ़या
ब तर पर पड़ा हो, ब ढ़या कंबल उसके पास हो, मृगचम ओढ़े हो, सर और पैर के
नीचे ब ढ़या त कए लगे ह , फर भी वह पीड़ा का अनुभव करता है य क उसक
आँख म ोध भरा आ है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
487. मनु य चाहता है क उसका श ु संप न रहे। य क अपने श ु क संप ता कसी
को अ नह लगती। मनु य जब ोध का शकार होता है, तब वह बुरे को अ ा
और अ े को बुरा समझता है। इस तरह करते रहने से उसे हा न और क भोगना
पड़ता है। उसक संप ता जाती रहती है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
488. मनु य चाहता है क उसका श ु धनवान न हो। य क कोई यह पसंद नह करता क
उसका श ु पैसेवाला हो। जब उसे ोध आता है तो भले ही उसने अपने म से
संप जुटाई हो, अपनी भुजा से, अपने म के बल पर पसीने से, ईमानदारी से
पैसा इक ा कया हो, वह गलत काम करने लगता है, जससे उसे जुमाना आ द
करना पड़ता है। उसक संप न हो जाती है। इससे उसके श ु को स ता होती
है।
489. मनु य चाहता है क उसके श ु क नामवरी न हो। य क कोई आदमी यह पसंद
नह करता क उसके श ु क या त हो। जब उसे ोध आता है तो पहले उसने भले
ही अपने अ े काम से नामवरी ा त क हो, अब लोग कहने लगते ह क यह तो
बड़ा ोधी है। उसक नामवरी मट जाती है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
490. मनु य चाहता है क उसका श ु म हीन रहे, उसका कोई म न हो। य क कोई
मनु य नह चाहता क उसके श ु का कोई म हो। जब उसे ोध आता है तो उसके
म , उसके साथी, उसके सगे-संबंधी उससे र रहने लगते ह, य क वह ोध का
शकार होता है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
491. मनु य चाहता है क मरने पर उसके श ु को सुग त न मले उलटे नरक म बुरा ान
मले। य क कोई श ु नह चाहता क उसके श ु को अ ा ान मले। जब
मनु य को ोध आता है तो वह मन, वचन, कम से तरह-तरह के गलत काम करता
है। इससे मरने पर वह नरक म जाता है। इससे उसके श ु को स ता होती है।
492. ोधी आदमी कसी बात का ठ क अथ नह समझता। वह अंधकार म रहता है। वह
अपना होश खो बैठता है। वह मुँह से कुछ भी बक दे ता है। उसे कसी बात क शम
नह रहती। वह कसी क भी ह या कर बैठता है, फर वह साधारण आदमी हो या
साधु हो, माता- पता ह या और कोई, वह आ मह या तक कर बैठता है।
493. ोध से मनु य का सवनाश होता है। जो लोग ोध का याग कर दे ते ह, काम, ोध,
ई या से अपने को मु कर लेते ह, वे नवाण पाते ह।
494. स य को छोड़कर जो अस य बोलता है, धम का उ लंघन करता है, परलोक क जसे
चता नह है, वह आदमी बड़े-से-बड़ा पाप कर सकता है।
495. जो मनु य शा क बात तो ब त कहता है, पर उसके अनुसार आचरण नह करता,
वह वैसा ही है जैसा सर क गाएँ गननेवाला वाला। वह भ ु बनने लायक नह ।
496. दे खने म फूल खूब सुंदर हो, पर उसम खुशबू न हो तो उसका होना, न होना बराबर
है। उसी तरह जो आदमी बोलता तो ब त मीठा है, पर जैसा बोलता है वैसा करता
नह , उसक मीठ वाणी थ है।
497. जस तरह खुशबूवाले सुंदर फूल का जीना साथक है, उसी तरह जो जैसा कहता है
वैसा करता है, उसक वाणी सफल होती है।
स य के बारे म भगवान् बु के वचार इस कार ह :—
498. अस यवाद नरकगामी होते ह और वे भी नरक म जाते ह, जो करके 'नह कया'
कहते ह।
499. जो म याभाषी है, वह मुं डत होने मा से मण नह हो जाता।
500. जसे जान-बूझकर झूठ बोलने म ल ा नह , उसका साधुपना धे घड़े के समान
है। साधुता क एक बूँद भी उसके दय-घट के अंदर नह है।
501. जसे जान-बूझकर झूठ बोलने म ल ा नह , वह कोई भी पाप कर सकता है,
इस लए तू यह दय म अं कत कर ले क म हँसी-मजाक म भी कभी अस य नह
बोलूँगा।
502. जतनी हा न श ु श ु क और वैरी वैरी क करता है, म या माग का अनुगमन
करनेवाला च उससे कह अ धक हा न प ँचाता है।
503. सभा म, प रषद् म अथवा एकांत म कसी से झूठ न बोल। झूठ बोलने के लए सर
को े रत न कर और न झूठ बोलनेवाले को ो साहन द। अस य का सवाश म
प र याग कर दे ना चा हए।
504. अगर कोई हमारे व झूठ गवाही दे ता है तो उससे हम अपना भारी नुकसान आ
मालूम होता है। इसी तरह अगर अस य भाषण से म सर क हा न क ँ तो या वह
उसे अ ा लगेगा? ऐसा वचार करके मनु य को अस य भाषण का प र याग कर
दे ना चा हए और सर को भी स य बोलने का उपदे श करना चा हए। सदा ईमानदारी
क सराहना करनी चा हए।
505. अस य का कदा प सहारा न ल। यायाधीश ने गवाही दे ने के लए बुलाया हो तो वहाँ
भी जो दे खा है, उसी को कह क 'मने दे खा है', और जो बात नह दे खी, उसे 'नह
दे खी' ही कह।
506. स यवाणी ही अमृतवाणी है, स यवाणी ही सनातन धम है। स य, सदथ और सधम
पर संतजन सदै व ढ़ रहते ह।
507. स य एक ही है, सरा नह । स य के लए बु मान ववाद नह करते।
508. ये लोग भी कैसे ह। सां दा यक मत म पड़कर अनेक तरह क दलील पेश करते ह
और स य और अस य दोन का ही तपादन कर दे ते ह, अरे! स य तो जगत् म एक
ही है, अनेक नह ।
509. जो मु न है, वह केवल स य को ही पकड़कर और सरी सब व तु को छोड़कर
संसार-सागर के तीर पर आ जाता है। उसी स य न मु न को हम शांत कहते ह।
510. जो लोग चय का पालन नह करते और जवानी म धन नह जुटाते, वे उसी तरह
न हो जाते ह, जस तरह मछ लय से र हत तालाब म बूढ़े च प ी।
511. जो लोग चय का पालन नह करते और जवानी म धन नह जुटाते, वे धरती पर
उसी तरह गर पड़ते ह, जैसे टू टे ए मकान। पुरानी बात कह-कहकर वे पछताते
रहते ह।
512. म और अ म क पहचान बताते ए भगवान् बु कहते ह क पराया धन
हरनेवाले, बातूनी, खुशामद और धन के नाश म सहायता करनेवाले म को अ म
जानना चा हए। म उसी को जानना चा हए जो उपकारी हो, सुख- ःख म हमसे
समान वहार करता हो, हतवाद हो और अनुकंपा करनेवाला हो। म और
अ म क पहचान न न ब पर हो सकती है—
513. जो म पाना द के समय या आँख के सामने य बन जाता है, वह स ा म नह ।
जो काम नकल जाने के बाद भी म बना रहता है, वही म है।
514. इन चार को म के प म अ म समझना चा हए :—
1. सर का धन हरण करनेवाला।
2. कोरी बात बनानेवाला।
3. सदा मीठ -मीठ चाटु कारी करनेवाला।
4. हा नकारक काम म सहायता दे नेवाला।
515. जो बुरे काम म अनुम त दे ता है, सामने शंसा करता है, पीठ पीछे नदा करता है, वह
म नह , अ म है।
516. जो म पान जैसे माद के काम म साथ और आवारागद म ो साहन दे ता है और
कुमाग पर ले जाता है, वह म नह , अ म है। ऐसे श ु- पी म को खतरनाक
रा ते क भाँ त छोड़ दे ना चा हए।
517. वा त वक सु दय इन चार कार के म को समझना चा हए—
1. 1. स ा उपकारी, 2. सुख- ःख म समान साथ दे नेवाला, 3. अथ ा त का उपाय
बतानेवाला और 4. सदा अनुकंपा करनेवाला।
2. जो म अथात् भूल करनेवाले क और उसक संप क र ा करता है, भयभीत
को शरण दे ता है और सदा अपने म का लाभ म रखता है, उसे उपकारी
सु दयी समझना चा हए।
3. जो अपना गु त भेद म को बतला दे ता है, म क गु त बात को गु त रखता है,
वप म म का साथ दे ता है और उसके लए अपने ाण भी होम करने को तैयार
रहता है, उसे ही स ा सु दय समझना चा हए।
4. जो पाप का नवारण करता है, पु य का वेश कराता है और सुग त का माग बताता
है, वही 'अथ-आ यायी', अथात् अथ ा त का उपाय बतलानेवाला स ा सु दय
है।
5. जो म क उ त दे खकर स होता है, म क नदा करनेवाले को रोकता है और
शंसा करने पर शंसा करता है, वही अनुकंपक म है। ऐसे म क स कारपूवक
माता- पता और पु क भाँ त सेवा करनी चा हए।
6. जगत् म वचरण करते-करते अपने अनु प य द कोई स पु ष न मले तो ढ़ता के
साथ अकेले ही वचार, मूढ़ के साथ म ता नह नभ सकती।
7. जो छ ा वेषण कया करता है और म ता टू ट जाने के भय से सावधानी बरतता है,
वह म नह है। पता के कंधे पर बैठकर जस कार पु व व त री त से सोता है,
उसी कार जसके साथ व वासपूवक बरताव कया जा सके और सरे जसे फोड़
न सक, वही स ा म है।
8. अकेले वचरना अ ा है, कतु मूख म का सहवास अ ा नह ।
9. य द कोई हो शयार, सुमाग पर चलनेवाला और धैयवान साथी मल जाए तो सारी
व न-बाधा को झेलते ए भी उसके साथ रहना चा हए।
10. बौ धम नवाण का अथ बुझ जाने से लगाता है। तृ णा का बुझ जाना। वासना
का शांत हो जाना। तृ णा और वासना से ही ःख होता है। ःख से पूरी तरह
छु टकारे का नाम है— नवाण।

भगवान् बु ने कहा है—' भ ु ! संसार अना द है। अ व ा और तृ णा से


संचा लत होकर ाणी भटकते फरते ह। उनके आ द-अंत का पता नह चलता।
भवच म पड़ा आ ाणी अना दकाल से बार-बार ज मता-मरता आया है।'
11. संसार म बार-बार ज म लेकर य के वयोग और अ य के संयोग के कारण रो-
रोकर अपार आँसू बहाए ह। द घकाल तक ःख का, ती ःख का अनुभव कया है।
अब तो सभी सं कार से नवद ा त करो, वैरा य ा त करो, मु ा त करो।
12. बु कहते ह रोग क जड़ जघृ ा है। हण करने क इ ा, तृ णा। सारे ःख का
मूल सं कार है। इस त व को जानकर तृ णा और सं कार के नाश से ही मनु य
नवाण पा सकता है।
13. बु सलाह दे ते ह क य द तुम टू टे ए काँसे क तरह अपने को नीरव, न चल या
कमहीन बना लो तो समझो तुमने नवाण पा लया। कारण, कम का आरंभ अब तुम
म रहा नह और उसके न रहने से ज म-मरण का च कर भी छू ट गया।
14. एक न ाहीन और बुरे दो त से जानवर क अपे ा यादा भयभीत होना चा हए;
य क एक जंगली जानवर सफ आपके शरीर को घाव दे सकता है, ले कन एक
बुरा दो त आपके दमाग म घाव कर जाएगा।
15. वह जो 50 लोग को यार करता है, 50 ःख से घरा होता है, जो कसी से
भी यार नह करता है उसे कोई संकट नह है।
16. ो धत रहना, कसी और पर फकने के इरादे से एक गरम कोयला अपने हाथ म
रखने क तरह है, जो तु ह को जलाता है।
17. आप चाहे कतने भी प व श द को पढ़ या बोल ल, ले कन जब तक उन पर अमल
नह करते उसका कोई फायदा नह है।
18. शरीर को व रखना हमारा कत है, नह तो हम अपने दमाग को मजबूत एवं
व नह रख पाएँगे।
19. अतीत म यान क त नह करना चा हए, न ही भ व य के लए सपना दे खना
चा हए, ब क अपने म त क को वतमान ण म क त करना चा हए।
20. हर इनसान अपने वा य या बीमारी का लेखक है।
21. आप अपने मो पर खुद काय करो, सर पर नभर मत रहो।
22. आप अपने गु से के लए दं डत नह ए, आप अपने गु से के ारा दं डत ए हो।
23. हजार खोखले श द से अ ा वह एक श द है जो शां त लाए।
24. शक क आदत से भयावह कुछ भी नह है। शक लोग को अलग करता है। यह एक
ऐसा जहर है जो म ता खतम करता है और अ े र त को तोड़ता है। यह एक
काँटा है जो चो टल करता है, एक तलवार है जो वध करती है।
25. ाणी वयं अपने कम के वामी ह। वे अपने कम क ही वरासत पाते ह। अपने
कम से ही उ प होते ह और अपने कम के बंधन म बँधते ह। उनके कम ही उनके
शरणदाता ह। कम जैसे शुभ-अशुभ ह गे, प रणाम भी वैसे ही शुभ-अशुभ ह गे। और
उनके अनुसार ही भोग भोगगे। जो कुछ हम भोगना पड़ता है वह हमारे ही कए का
फल है।
26. कया आ चाहे नया हो या पुराना, उसका फल 'अव यमेव भो ं।' न कष यही
क कम करना हमारे वश क बात है। भा य हमारे आधीन है। हम जैसा चाह, वैसा
भ व य बना सकते ह। कम का ववेचन करने पर ात होता है क उसके उ म के भी
तीन ान ह—मन, वचन और कम। 'मनसा, वाचा, कमणा', मान सक, वा चक और
का यक (शारी रक)।
27. कम राग और े ष के जनक ह। हमारे मन क अनचाही होती है तो े ष उ प होता है
और मनचाही होती है तो राग। इस राग, े ष का भाव हमारे ऊपर पड़ता है। चाहे
णक (अ पका लक) हो अथवा द घका लक, पर पड़ता अव य है। बार-बार होने
पर इनका भाव संचयी हो जाता है। इस कार उनके त तृ णा पैदा हो जाती है।
और यह तृ णा सं कार डालती है। एक उदाहरण से समझ तो हम इ ह पानी, रेत या
प र पर लक र क उपमा दे सकते ह। जो सं कार जतना गंभीर होता है वह उतना
ही गहरा भाव डालता है।
28. ुधा के समान कोई भी सांसा रक ा ध नह । अ य रोग तो एक बार च क सा
करने से शांत हो जाते ह, कतु ुधा रोग तो ऐसा है क उसक च क सा मनु य को
त दन करनी पड़ती है।
29. उ ता बनता काम बगाड़ दे ती है, जब क संयम से बगड़े ए काम भी बन जाते ह।
30. जीवन म सफलता के उ सोपान क उपल तभी होती है, जब क पूण
उ साह से प र म करे। मपूवक कया गया येक कम सदै व हतकारी होता है।
31. यहाँ सभी कुछ णभंगुर है। और जो इस णभंगुरता को जान लेता है, उसका यहाँ
आना बंद हो जाता है। हम तभी तक यहाँ टटोलते ह, जब तक हम यह ां त होती है
क शायद णभंगुर म शा वत मल जाए! शायद सुख म आनंद मल जाए। शायद
ेम म ाथना मल जाए। शायद दे ह म आ मा मल जाए। शायद पदाथ म परमा मा
मल जाए। शायद समय म हम उसे खोज ल, जो समय के पार है। पर जो नह होना,
वह नह होना। जो नह होता, वह नह हो सकता है।
32. साधुता वकारर हत और नरपे से दे खती है। वहाँ ा णमा म कसी कार
के भेद के लए कोई ान नह होता।
33. धम को सब जानते ह पर उस तक वा तव म प ँचने के लए य न नह करते।
उसके लए क नह उठाना चाहते। उ ह लगता है सबकुछ आसानी से बैठे- बठाए
मल जाए। इस लए अगर तुम वा तव म धम का पालन करना चाहते हो तो पहले
ल य का नधारण करो फर उस दशा म चलने क को शश करो।
34. जो मनु य कसी भी प र त म सर का दोष नह दे खता, वह साधु पु ष है।
35. यह हँसना कैसा?यह आनंद कैसा?जब न य ही चार ओर आग लगी है। संसार उस
आग म जला जा रहा है। तब अंधकार म घरे ए तुम लोग काश को य नह
खोजते?
36. ःख, ःख समुदय, ःख नरोध और ःख नरोधगामी माग—इन चार आय स य
का ान न होने से युग -युग तक हम सब लोक सं कृ त के पाश म बँधे पड़े थे, कतु
अब इन आय स य का बोध होने से हमने ःख क जड़ खोद नकाली है और हमारा
पुनज म से छु टकारा हो गया है।
37. जब तक एक भी जीव संसार म नवाण ा त को शेष होगा, तब तक म नवाण
ा त नह क ँ गा।
38. घर यागने के साथ ही अपनी जा त, गौ या धन का अ भमान याग दे ना चा हए।
य क, इन चीज से कोई बड़ा नह होता। अपने सदाचार के बल पर ही कोई मानव
बड़ा बनता है।
39. सर वती, याग, गया, बा मती, सुंद रका आ द न दय म पापकम मूढ़ चाहे जतना
नान कर, वे शु नह ह गे। ये न दयाँ पापकम को शु नह कर सकत । शु
मनु य के लए तो सव ही 'गया' है। शु तथा शु चकमा के त सदा पूण होते ह।
य द तुम म या भाषण नह करते, बना दए लेते नह , ावान् हो, म सर र हत हो,
तो 'गया' जाने से या लाभ? ु जलाशय भी तु हारे लये 'गया' है।
40. संसार म जतने ःख ह सब अ ायी ह। वे हमारी मूखता के कारण पैदा होते ह।
जब तक हम उनक अस लयत नह मालूम हो जाती, तभी तक वे हमारे काबू से
बाहर रहते ह। हम कटु मृ तय या घटना को बार-बार याद करते ह व मन को
ःखी रखते ह। य द याद ही करना है तो अतीत क अ मधुर बात को याद
क रए। वे ेरणा दे ती ह।
41. जो जाग गया वह बु है। जागने से ता पय है स य त व को ा त करने के लए
स य हो जाना। यही जागृत अव ा है। हम उनसे अपने जीवन म अनेक गुण सीख
सकते ह। उनके उपदे श हमारे जीवन को सुखमय बनाने का रा ता दखाते ह।
42. केवल मांस खाने से ही आदमी अप व नह होता ब क ोध अथात् गु सा,
भचार, छल-कपट, ई या, आ म शंसा, सर क नदा आ द से भी
अप व होता है। अतः स ी प व ता वही है जसम ये गुण न ह । पव
तभी हो सकता है जब वह म से मु हो। य द ःख से र रहना है तो प व
जीवन बताओ।
43. स ा सुख तभी मलता है। जब हमारे जीवन म वाथ के भाव न हो। जीवन म स य
और शां त आने से ही स ा सुख मलता है। स य ही सबको अशुभ से मु कर
सकता है। इस संसार म स य के अलावा कोई सरा मु दाता नह । हमेशा स य पर
आ ा रखो और उसे जीवन म उतारो।
' वषय-रस म सुख दे खते ए वहार करनेवाले, इं य म असंयत, जन म मा ा न
जाननेवाले, आलसी और अनु मी पु ष को मार वैसे ही गरा दे ता है जैसे आँधी
बल वृ को।
44. जब तु हारी जीवन-ऊजा एक संगीत म वा हत होती है। तु हारे भीतर बड़ी ताजगी
है, जीवन का उ ाम वेग है। तब तु हारे भीतर जीवन क चुनौती लेने क साम य है।
तब तुम जीवंत हो। अ यथा मरने के पहले ही लोग मर जाते ह। मौत तो ब त बाद म
मारती है, तु हारी नासमझी ब त पहले ही मार डालती है।
45. आँधी आती है, जाती है। कोई हमालय उससे डगता नह । पर तु हारे भीतर
हमालय क शांत, संयत दशा होनी चा हए। हमालय एक तीक है। अथ केवल
इतना है क तुम जब भीतर अ डग हो, जब तुम ऐसे र हो जैसे शैल- शखर—तब
आँधी आती है, चली जाती है; तुम वैसे ही खड़े रहते हो जैसे पहले थे—तब तो ऐसा
होगा क आँधी तु ह और व कर जाएगी। तु हारी धूल-झंखाड़ झाड़ जाएगी। तु ह
और नया कर जाएगी।
46. कोई पैदा होते ही ा लेकर नह आता। संदेह ही लेकर आता है। हर ब ा
संदेह लेकर आता है। इसी लए तो ब े इतने सवाल पूछते ह, जतने बूढ़े भी नह
पूछते। ब ा हर चीज से न बना लेता है। वाभा वक है। पूछना ही पड़ेगा, य क
पूछ-पूछकर ही तो वहाँ प ँचगे, जहाँ अनुभव होगा। और जब पूछना मट जाता
जाता है, सारी ज ासा ख म हो जाती है, तब स य के दशन होते ह।
47. कसी बात को इस लए मत मानो य क ऐसा स दय से होता आया है। कसी बात
को इस लए भी मत मानो क बड़े लोग या व ान् लोग ऐसा कहते ह। कसी बात को
इस लए भी मत मानो क ंथ म ऐसा लखा आ है। कसी भी बात को अपनी
अनुभू त से परखने के बाद ही वीकार करो।
48. शील, समा ध और ा का रा ता सभी के लए खुला है। कोई भी इस रा ते
पर चलकर वहाँ प ँच सकता है, जहाँ बु आ जाता है। ले कन इसके लए वयं
चलना पड़ेगा। जसने अपने च से राग, े ष और मोह को समूल न कर दया, वह
भगवान् हो गया। तथागत का अथ है 'तथता'—अथात् स य के सहारे जसने 'परम
स य' का सा ा कार कया हो। इस लए येक जो सांसा रक ःख से
छु टकारा पाकर नवाण सुख ा त करना चाहता है, उसे वयं ही शील, समा ध और
ा के माग पर चलना पड़ेगा।
49. दे वता, अहत पद और भगवान्—ये सब च क अव ाएँ ह। च य - य नमल
होता जाता है, ेम, मु दता, मै ी, बंधु व और मा क भावना बढ़ती जाती है। और
मनु य उ रो र उ त करता जाता है।
50. कृ त के नयम के अनुसार आचरण करना ही धम है। ये नयम सावजनीन,
सावका लक और सावदे शक होते ह। कृ त कभी न ल, वण, रंग, प, लग, उ ,
है सयत, ान आ द म भेदभाव नह करती। कृ त के नयम जैसे शरीर के बाहर
काम करते ह, ठ क उसी तरह शरीर के भीतर भी काम करते ह। ोध आने पर,
लालच, ई या और वासना जागने पर हर ाणी को ाकुल होना ही पड़ता है, चाहे
वह कसी भी लग, जा त, वग, धम या दे श का हो, या कसी भी समय म हो। जो भी
कृ त के नयम के अनुसार जीवनयापन करता है, वह सुखी व शांत रहता
है। और जो नसग के नयम का उ लंघन करता है वह ःखी व ाकुल होता है।
51. ज म लेना ःख है, बुढ़ापा ःख है, शोक जताना ःख है, रोना, और इ ा
क पू त न होना भी ःख है। अतः भ ु , तुम माद र हत होकर जीओ। जो ज म
लेता है, वह बुढ़ापे को ा त होता है और जो मरता है उसे नव जीवन अव य मलता
है और इसी तरह जीवन च नरंतर चलता रहता है। यह बंधन है, इससे छु टकारा
पाना ही मो क ा त है।
52. बु व जागरण क आ खरी दशा है। तु हारी ही यो तमय दशा है। तु हारा ही
च मय प है। जब तुम मरण करते हो—नमो बु य...तो तुम अपने ही च मय
प को पुकार रहे हो। तुम अपने ही भीतर अपनी ही आ मा को आवाज दे रहे हो।
तुम च ला रहे हो क कट हो जाओ। नमो बु य कसी बाहर के बु के लए
समपण नह है, यह अपने ही अंतमन म छपे बु के लए ही खोज है।

नमो बु य या बु ानु मृ त वयं के ही परम प क मृ त है। वह सतह के ारा


अपनी ही गहराई क पुकार है। वह प र ध के ारा क का मरण है। वह बाच् के
ारा अंतर क जागृ त क चे ा है।
53. जो हर व बु व क याद करते ह, वे सदा अपने जीवन को एक ही दशा म
सम पत करते चले जाते ह। उनके जीवन का बस एक ही योजन है क कैसे जाग
जाएँ? वे हर त और हर उपाय को अपने जागने का ही योजन बना लेते ह। वे
हर अवसर को जागने के लए ही काम म लाते ह। ऐसे लोग राह के प र को भी
सी ढ़याँ बना लेते ह। वे एक ही ल य रखते ह क उ ह उस मं दर तक प ँचना है, जो
उ ह के भीतर अव त है। अपनी ही सी ढ़याँ चढ़नी ह, अपनी ही दे ह और मन को
सीढ़ बनाना है। जाग क होकर नरंतर धीरे-धीरे वयं के भीतर सोए ए बु को
जगाना है।
54. बु का अथ है, जनम धम अपने प रपूण प म कट आ है। काश, तुम ऐसे
को पा लो, जसके जीवन म तु ह लगे क धम साकार आ है, तो तुम
ध यभागी हो। जसके जीवन से तु ह ऐसा लगे क धम केवल स ांत नह है, जीती-
जागती त है। ऐसी त म बु कहते ह क उस के मरण से लाभ होता
है, जो जाग गया है। य क जब तक तुम जागे ए के पास नह जाओगे, तब
तक तुम कतना भी सोचो, जागरण का आधार नह मलेगा। तब तक तुम नराधार
हो। तु हारे भीतर संदेह बना ही रहेगा।
55. जीवन का बस इतना ही उपयोग हो सकता है क जीते जी तुम द या जला लो। यान
का द या जला लो, बस इतना ही जीवन का उपयोग है...
56. आ ा क कोई ज रत नह है; अनुभव के साथ अपने से आ जाएगी, तु ह लानी
नह है। और तु हारी आई ई आ ा का मू य भी या हो सकता है?तु हारी लाई ई
आ ा का मू य भी या हो सकता है? तु हारी लाई आ ा के पीछे भी तु हारे संदेह
छपे ह गे।
57. यह धम तु हारा वभाव है। यह तु हारे भीतर बह रहा है, अह नश बह रहा है। इसे
खोजने के लए आकाश म आँख उठाने क ज रत नह है, इसे खोजने के लए
भीतर जरा सी तलाश करने क ज रत है। यह तुम हो, तु हारी नय त है, यह तु हारा
वभाव है। एक ण को भी तुमने इसे खोया नह , सफ व मरण आ है।
58. असमंजस ही मनु य के मन क त है— आ जाए अथवा न आ जाए। ले कन
दोन एक साथ ह। य द तुम बने रहने का नणय करते हो तो ठ क, इससे वपरीत
तु ह न बने रहने का भी नणय लेना है, चुनाव करो ही मत। चीज को वैसी बनी रहने
दो, जैसी वे ह। यु होता हो तो उसे होने दो। वहाँ शां त है, उसे होने दो, ेम हो तो
उसे बना रहने दो, ेम न हो, तो उसे भी होने दो।
59. जैसे चं मा न -पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही धीर, ा , ब ुत, शीलवान,
तसंप , आय तथा बु मान पु ष का अनुगमन करना चा हए।
60. अपने को पहचानना ही परमा मा को पहचानना है।
61. यु और शां त दोन साथ ह। य द यु मट जाता है तो शां त वतः मट जाएगी।
वहाँ न यु होगा और न शां त। य द संसार म मृ यु लु त हो जाए तो या यह जानने
म समथ हो सकोगे क तुम जी वत हो? जीवन को प रभा षत करने के लए मृ यु
ज री है। शां त क ा या के लए, उसको सीमां कत करने लए यु क
आव यकता है। म ता को प रभा षत करने के लए श ुता ज री है और ेम क
ा या के लए घृणा ज री है। इस लए वे पृथक नह ह। वे एक- सरे को
प रभा षत करते ह, एक सरे पर आ त ह। य द उनम से एक मट जाता है तो
सरे का भी लु त हो जाना सु न चत है।
62. माता- पता ही ा ह, माता- पता क सेवा करनी चा हए, पूजा करनी चा हए। बु
ने कहा क माता- पता क ज मेदारी है क वे अपने ब को बुरी आदत और
अकुशल काम से बचाकर रख। उ ह अ से अ श ा दलाएँ। उ ह यथो चत
आयवाले काम धंधे म लगाएँ, ववाह यो य हो जाने पर उनका अ ा र ता कर और
उ चत समय आने पर पा रवा रक संप उनके सुपुद कर द।
63. प त-प नी एक- सरे के व वासपा रह, एक- सरे का स मान कर, एक- सरे के
त पूरी तरह सम पत रह, एक- सरे के त अपने उ रदा य व का पालन कर।
प त-प नी एक- सरे के पूरक होते ह।
64. म -पड़ो सय - र तेदार का उ चत आदर-स कार करना चा हए। उनक भलाई क
कामना करनी चा हए, उनसे बराबरी का वहार करना चा हए और मुसीबत म
उनक मदद करनी चा हए। म ता के बारे म बु ने कहा क अ ा दो त वही है,
जसक दो ती म रता हो, जो अमीरी-गरीबी, सुख- ःख, सफलता-असफलता
सभी प र तय म एक सा वहार करे, जसक भावना आपके त डगमगाती न
रहे, आपक बात सुने, मुसीबत के दन म साथ दे , अपने सुख- ःख म शा मल करे
और आपके सुख- ःख को अपना समझे।
65. मन ही सारी वृ य का अगुवा है। वृ य का आरंभ मन से ही होता है। वे
मनोमय ह। जब कोई आदमी षत मन से बोलता है या वैसा कोई काम करता है तो
ःख उसका पीछा उसी तरह करता है, जस तरह बैलगाड़ी के प हए बैल के पैर का
पीछा करते ह। इसी कार मन ही सारी वृ य का अगुवा है। वृ याँ मन से ही
आरंभ होती ह। य द मनु य शु मन से बोलता है या कोई काम करता है, तो सुख
उसी तरह उसका पीछा करता है, जस तरह मनु य के पीछे उसक छाया।
66. जो आदमी शांत पद चाहता है, जो क याण करने म कुशल है, उसे चा हए क वह
यो य और परम सरल बने। उसक बात सुंदर, मीठ और न ता से भरी ह । उसे
संतोषी होना चा हए। उसका पोषण सहज होना चा हए। काम म उसे यादा फँसा
नह होना चा हए। उसका जीवन सादा हो। उसक इं याँ शांत ह । वह चतुर हो। वह
ढ ठ न हो। कसी कुल म उसक आस नह होनी चा हए।
67. वह ऐसा कोई छोटे से छोटा काम भी न करे, जसके लए सरे जानकार लोग उसे
दोष द। उसके मन म ऐसी भावना होनी चा हए क सब ाणी सुखी ह , सबका
क याण हो, सभी अ तरह रह।
68. कोई कसी को न ठगे। कोई कसी का अपमान न करे। वैर या वरोध से एक- सरे के
ःख क इ ा न कर।
69. माता जैसे अपनी जान क परवाह न कर अपने इकलौते बेटे क र ा करती है, उसी
तरह मनु य सभी ा णय के त असीम ेमभाव बढ़ाए।
70. बना बाधा के, बना वैर या श ुता के मनु य ऊपर-नीचे, इधर-उधर सारे संसार के
त असीम ेम बढ़ाए।
71. खड़ा हो चाहे चलता हो, बैठा हो चाहे लेटा हो, जब तक मनु य जागता है, तब तक
उसे ऐसी ही मृ त बनाए रखनी चा हए। इसी का नाम - वहार है।
72. ऐसा मनु य कसी म या म नह पड़ता। शीलवान व शु दशनवाला होकर वह
काम, तृ णा का नाश कर डालता है। उसका पुनज म नह होता।
73. लोहे का बंधन हो, लकड़ी का बंधन हो, र सी का बंधन हो, इसे बु मान लोग बंधन
नह मानते। इनसे कड़ा बंधन तो है सोने का, चाँद का, म ण का, कुंडल का, पु का,
ी का।
74. तृ णा क न दयाँ मनु य को ब त यारी और मनोहर लगती ह। जो इनम नहाकर
सुख खोजते ह, उ ह बार-बार ज म, मरण और बुढ़ापे के च कर म पड़ना पड़ता है।
75. कंजूस आदमी दे वलोक म नह जाते। मूख लोग दान क शंसा नह करते। पं डत
लोग दान का अनुमोदन करते ह। दान से ही मनु य लोक-परलोक म सुखी होता है।
76. माद म मत फँसो। भोग- वलास म मत फँसो। कामदे व के च कर म मत फँसो।
माद से र रहकर यान म लगनेवाला महासुख ा त करता है।
77. माद न करने से, जाग क रहने से अमृत का पद मलता है, नवाण मलता है।
माद करने से आदमी बे-मौत मरता है। अ माद नह मरते। माद तो जीते ए भी
मरे जैसे ह।
1. प व ता पल-पल मौजूद है
बु से कसी ने पूछा, "मनु य प व कैसे बनता है?" " दन भर म चौबीस घंटे होते ह, और
इन घंट म सैकड़ -हजार पल। कोई भी जो इन येक पल म पूरी तरह मौजूद रहता है,
वही प व है।"

2. न ता
बु ने स य क तलाश म लगे एक से कहा, "य द तुम सचमुच स य क तलाश म
लगे हो तो एक चीज का पता तु ह होना चा हए, जो सव प र है..."

"हाँ, मुझे पता है—उसे ा त करने क असीम लालसा..." उस ने टोका।

"नह ," बु ने आगे जवाब दया, "अपनी गलती को वीकारने क मता।"

3. कौन ह साधु
महा मा बु के एक श य पूण ने उनसे धम क श ा ली। श ा पूरी करने के बाद उ ह ने
उनसे एक रा य म जाकर धम चार करने क आ ा माँगी। असल म उस रा य के लोग
ब त ू र और कठोर दल के माने जाते थे। बु ने पूण से पूछा, "वे तु ह अपश द कहकर
तु हारी नदा करगे, तो कैसा अनुभव करोगे?" पूण बोले, "म उ ह भला समझूँगा, य क
उ ह ने थ पड़ और घूस से हार नह कया।" बु बोले, "थ पड़ घूँसे मारकर आहत कर
तो?" पूण ने उ र दया, "तो भी उ ह स पु ष ही मानूँगा, य क श हार नह कया।"
बु बोले, "और य द श - हार कर तो?" पूण बोले, "उ ह सु दय ही समझूँगा, य क
उ ह ने मुझे जान से नह मारा।" बु ने फर पूछा, "तु ह जान से मार द तो?" पूण बोले,
"य द वे ःख- पी संसार से मुझे मु दला दगे, तो मुझ पर उपकार ही करगे।" भगवान्
बु अपने श य के जवाब से स ए और कहा, "जो मनु य कसी भी प र तम
सर का दोष नह दे खता, वह साधु पु ष है।"

4. तोल-मोल कर 'बोल'
भर ाज नाम के एक ा ण ने एक बार बु को खूब भला-बुरा कहा। जब वह ा ण
थककर चुप हो गया, तो बु ने न कया, "तु हारे घर कभी अ त थ आते ह?" ा ण ने
उ र दया, "अव य पधारते ह।" बु ने फर पूछा, "तुम जो सामान आ त य के दौरान दे ते
हो, उसे वे अ वीकार कर द, तो उनका या होगा?" ा ण ने खीझकर कहा, "वे व तुएँ
मेरे पास वापस आ जाएँगी।" बु ने आगे पूछा, "तु हारे ारा ोध म कहे गए अपश द
य द म अ वीकार कर ँ , तो वे कहाँ जाएँगी?" ल त ा ण बु के आगे नत-म तक
हो गया और मा-याचना करने लगा। बु कहते ह क य द आप सामनेवाले से
कुछ कहने जा रहे ह, तो तोल-मोल कर ही बोल।
5. अं तम स य
एक बार गौतमी नाम क ी अपने इकलौते पु क मृ यु से ब त ःखी हो गई। वह बु
के पास जाकर अपने ब े को जी वत करने के लए उनसे ाथना करने लगी। बु ने उसे
उपाय बताते ए कहा क वह कसी ऐसे घर से सरस के दाने लाए, जसके घर म कभी
कोई मृ यु न ई हो। मृत बालक को छाती से चपकाए गौतमी घर-घर घूमती फरी, ले कन
सभी जगह उसे एक ही उ र मला—ऐसा कोई घर नह , जहाँ आज तक कसी क मृ यु
नह ई हो। तब उसे यह बोध आ क मृ यु जीवन का अं तम स य है। जो ज म लेता है,
उसक मृ यु भी न चत है। उसने शव क अं तम या कर द और तुरंत बु के दशन
पाने के लए नकल पड़ी। भगवान् बु ने उसे मृ यु का शोक करने के बजाय उस त
का चतन करने का सुझाव दया, जसम प ँचने पर ज म ही न हो। ज म के अभाव म
मृ यु क संभावना वयं समा त हो जाएगी। ान क बात सुनकर गौतमी ध य हो गई।

6. अपनी र ा
ब त पुरानी बात है। कसी जंगल म भगवान् बु को एक जहरीला साँप मला। उसका
आस-पास के गाँव म बड़ा आतंक था। बु ने उसे मनु य को काटने-डँसने से मना कया
और अ हसा का माग दखाया। साँप बु का अनुयायी हो गया। कुछ महीन बाद—
जब बु उसी जंगल के पास के एक गाँव से गुजर रहे थे तो उ ह ने दे खा क लोग एक
साँप को ट-प र से मार रहे ह। बु ने लोग को उस साँप को मारने से रोका। तब उस
ल -लुहान घायल साँप ने बताया क वह वही भ साँप है जो उ ह जंगल म मला था।
साँप ने बताया क उसने बु के आदे श का पालन करते ए लोग को काटना-डँसना छोड़
दया था। फर भी लोग ने मार-मारकर उसक यह हालत कर द । भगवान् बु ने साँप से
कहा, "मने काटने-डसने के लए मना कया था म , फुफकारने के लए नह । तु हारी
फुफकार से ही लोग भाग जाते, ऐसा करने के लए म इस लए कह रहा ँ य क जो
कमजोर है, वह ठ क रा ते पर नह चल सकता।

7. म तु ह केवल भय दे सका
महा मा बु कसी उपवन म व ाम कर रहे थे। तभी ब का एक झुंड आया और पेड़
पर प र मारकर आम गराने लगा। एक प र बु के सर पर लगा और उससे खून बहने
लगा। बु क आँख म आँसू आ गए। ब ने दे खा तो भयभीत हो गए। उ ह लगा क
अब बु उ ह भला-बुरा कहगे। ब ने उनके चरण पकड़ लए और उनसे मायाचना
करने लगे। उनम से एक ने कहा, "हमसे भारी भूल हो गई है। हमने आपको मारकर ला
दया।" इस पर बु ने कहा, "ब , म इस लए ःखी ँ क तुमने आम के पेड़ पर प र
मारा तो पेड़ ने बदले म तु ह मीठे फल दए, ले कन मुझे मारने पर म तु ह केवल भय दे
सका।"

8. मालुं यपु और गौतम बु


एक बार मालुं यपु नामक एक भगवान् बु के पास आया और बोला क उसे
भगवान् क श ा अ लगती है, कतु इसके पूव क वह उनका श य बने उसे कुछ
न के उ र चा हए। उसने बु के सम 10 न रखे। वे इस कार के थे—यह व व
अनंत है या सी मत? यह सदै व बना रहेगा या कभी इसका अंत हो जाएगा?मरने के बाद
बु कहाँ जाएगा?उसका अ त व रहेगा या नह ? इ या द। बु ने कहा क मालुं यपु
का वहार एक ऐसे क तरह है जसको एक वषा बाण लगा है। वै उसको
नकालना चाहता है कतु वह पहले इन न के उ र चाहता है। यह तीर कसने
मारा, उसक जा त या है, उसका रंग या है, वह कस दे श का रहनेवाला है इ या द। जब
तक इन सवाल का जवाब मालूम होगा, वष फैल जाएगा और मर जाएगा।

बु ने कहा क मालुं यपु को पूछना चा हए क यह मानवीय ःख का बाण कैसे


नकाला जाए और इस ःख को र करने के लए इन आ या मक न के उ र
आव यक नह ह।

बु ने कहा क उ ह ने बताया है क ःख का कारण या है और ःख का नवारण


कया जा सकता है अ माग य म यम माग के पालन से। यह म यम माग अथात् बीच का
रा ता है जसम कसी भी कार क अ त व जत है। जैसे वीणा के तार जब ठ क से कसे
होते ह तो बजाने से सुंदर संगीत उ प होता है। य द तार ढ ले ह या अ धक कसे तो मधुर
संगीत नह नकलता।

9. मन का मैल
एक वृ भ ु और एक युवा भ ु दोन नद कनारे से चले जा रहे थे, तभी उ ह ने दे खा
क एक युवती नद म डू ब रही है और बचाओ-बचाओ के लए आवाज दे रही है। वह युवा
भ ु तुरंत नद म कूदा और युवती को नद से बाहर नकाल लाया। इस तरह से उसने उस
युवती को बचा लया। इतने म वृ भ ु गरम हो गए, "अरे, तुमने उस म हला को छू
लया! अब म तु ह बु से क ँगा और तु ह दं ड/ ाय चत दलवाऊँगा" दोन बु के
सामने प ँचे।

वृ भ ु ने कहा, "भंत!े इसको दं ड मलना चा हए।"

बु ने पूछा, " य ?"

वृ भ ु ने कहा, "इस बात का क इसने युवती को उठाकर नद से बाहर रखा, इसने उसे
छू लया, इसका चय नह रहा। इस लए इसे ाय च मलना चा हए।"

बु ने कहा, " ाय च पहले तुम ले लो।"

"म, म कस बात का ाय चत लू?ँ " व मय से उ ह ने पूछा।

बु ने कहा, "इसने तो उस म हला को उठाकर वहाँ ही रख दया पर तुम तो उसे अपने


मानस म उठाकर यहाँ तक ले आए। तु हारे मन म अभी भी वह है, तुम इतनी दे र से उसे ढो
रहे हो, इसने तो वहाँ रखा और भूल भी गया। सुनो, म तु ह प रणाम क नमलता के लए
यह चार उपाय बताता — ँ

1. हमेशा मन को व रखना, सर के बारे म वकृत नह करना,


2. इं य पर वजय ा त करना,
3. अ संग त म रहना,
4. भगवान् क भ ाथना करना।"

10. भगवान् कहाँ ह


एक बार एक भगवान् बु के पास गया और ऐसे ही कहने लगा, "मुझे भगवान् म
यक न नह है, भगवान् य ?" भगवान् बु कहते ह, "ठ क है! तुम सही हो"। यह सुनकर
वह खुशी से वा पस चला गया। एक और उनके पास आया और कहने लगा,
"भगवान् है"। वे फर कहते ह, "ठ क है! तुम सही हो"। अब एक तीसरा उनके पास
आया और ाथना भाव से बोला, "कई लोग कहते ह क भगवान् नह है। उनका तक
सुनकर ऐसा ही लगता है। पर जब म संत का वचन सुनता ँ तो लगता है भगवान् ह।
अब म वधा म ँ क भगवान् है या नह । मुझे भगवान् का अनुभव तो नह है और म
समझ नह पा रहा ँ। कृपया आप मुझे बताएँ।" यह सुनकर भगवान् बु बोले, "तुम यहाँ
को। तु हारे मन म भगवान् को लेके कोई धारणा नह है। हम दोन एक साथ खोजते ह
भगवान् ह क नह । अशांत मन कभी ई वर के करीब नह जा सकता। अशांत मन म ान
भी नह उपजता। और अगर कोई ान ऐसे मन म उपजता भी है तो वह सही नह होता।
इस लए म कहता ँ पहले शांत हो जाते ह। तुम सही जगह आए हो। यही रा ता है।
भगवान् के बारे म अपनी धारणाएँ छोड़ दो। आँख बंद करो और यह खोजो क तुम कौन
हो? या तुम यह शरीर हो? या तुम यह मन हो? या तुम वचार हो? म इन वचार के परे
भी कुछ ?ँ "—जब तुम यह अनुभव करते हो तो स य अपने आप ही उदय होने लगता है।

11. ेम का एक शा वत मू य है
एक बार महा मा बु अपने श य के साथ बैठे ए थे। बात चल रही थी क मनु य के संत
होने और दे वता होने क या कैसे बनती है। यह कैसे माना जाए क यह आदमी संत हो
गया है या दे वता क ेणी म प ँच गया है।

इस पर महा मा बु ने जवाब दया क जीवन म ेम एक शा वत मू य होता है। जब


मनु य के ेम के दायरे म सभी लोग आ जाते ह, भले ही कसी जा त, धम, ान और
न ल से संबंध रखते ह तो आदमी संत क ेणी म आ जाता है, और जब मन भी उसके
ेम के दायरे म आ जाते ह तो आदमी दे वता क ेणी म आ जाता है।महा मा बु ने
कतना सट क उ र दया । समय गुजर जाता है ले कन नै तक पतन से उबरना ब त
मु कल होता है!
12. वषय वासना वष भरी कटोरी
इं य-संयम के बारे म भगवान् बु एक अवसर पर अपने श य को समझा रहे थे,
"इं य के मा यम से कृ त द श का संर ण, भंडारण, नयं ण, अ भव न एवं
सु नयोजन करके अनेक कार क ऋ य और स य का वामी बना जा सकता है।"
उ ह ने कहा, " यारह इं य म तीन इं याँ मुख ह—पहली वाद य, सरी काम य
और तीसरी मन चेतना का आ धभौ तक इं य 'मन' है। इन तीन म भी काम य-
जनन य का संयम सव प र माना गया है। इसका असंयम अनेक आ ध- ा धय का
ज मदाता है। इस ऊजा क का ऊ वारोहण शारी रक और मान सक संयम ारा संभव
है।"

भगवान् बु के आशय को बौ भ ु ठ क-ठ क नह समझ पा रहे थे। तब बु तूंबे के


बने एक पा को लेकर भ ु के साथ नद के कनारे गए और उस पा म एक-दो बड़े
छ कर दए, फर अपने एक श य से कहा क इस पा म जल भरकर ले आओ। श य
ने कई बार य न करने पर भी उस पा को जलपू रत करने म अपने को असमथ पाया
और वापस लौटकर बु के समीप आकर कहा, " भु! पा छ यु होने से जलहीन ही
रहता है। उससे जल नकल जाता है।" बु ने कहा, "भंत!े ठ क इसी कार कृ त द
श छ यु को उपल नह होती। सबसे बड़ा छ वासना म है। यह वासना
सवदा अपूरणीय र ता लए ए है। यह पूर है।"

भगवान् बु ने श य को वासना का वभाव बताते ए कहा क इसके पा को कभी भी


पूरी तरह भरा नह जा सकता है।

13. नयं ण से ही स ा सुख


वे अपने श य आनंद के साथ वन मण पर थे। रा ते म उ ह यास लगी। पास ही म एक
नहर बह रही थी। महा मा बु ने आनंद को वहाँ से पानी लाने को कहा। आनंद पानी लेने
गया, ले कन वह खाली हाथ लौट आया और बोला, "भंते, नहर का पानी ब त गंदा है।
आपक आ ा हो तो कसी सरी जगह से पानी ले आऊँ।"

बु ने कहा, "नह आनंद, थोड़ी दे र ठहरकर उसी नहर से पानी ले आओ।" आनंद वहाँ
दोबारा प ँचा और दे खा क नहर का पानी नमल हो चुका था। आनंद ने लोटा भर जल
लया और लौट आया। अब नहर का पानी व था।
बु ने मुसकराते ए श य आनंद से कहा, "मनोवेग पर नयं ण से ही स ा सुख
हा सल होता है। ठ क उसी तरह, जस तरह कुछ दे र ती ा करने पर तु ह उसी ान से
साफ पानी ा त आ।"

14. अपना द पक बनो


दो या ी धमशाला म ठहरे ए थे। एक द प बेचनेवाला आया। एक या ी ने द प खरीद
लया। सरे ने सोचा, म भी इसके साथ ही चल प ग ँ ा, मुझे द प खरीदने क या ज रत
है। द प लेकर पहला या ी रात म चल पड़ा, सरा भी उसके साथ लग लया। थोड़ी र
चलकर पहला या ी एक ओर मुड़ गया। सरे या ी को वपरीत दशा म जाना था। वह
वह रह गया। बना उजाले के लौट भी नह पाया।

महा मा बु ने कहा, " भ ु ! अपना द पक बनो। अपने काय ही अपने द प ह। वही


माग दखाएँगे।"

15. क णा के भाव
गौतम बु अपने श य से कहा करते थे, "बु व को उपल होने से पूव क णा के भाव
से भर जाओ।" एक दन सा रपु ने पूछा, "आ खर इस बात के लए इतना आ ह य ?
य क हमने तो आपको कई बार यह कहते ए सुना है क बु व क णा को अपने साथ
लाता है, इस लए बु व से पूव क णा के भाव से भरने क या आव यकता है? यह बात
तो वरोधाभासी लगती है।"

गौतम बु ने कहा, "यह बात वरोधाभासी लगती ज र है ले कन इसके कारण भ ह।


बु व घ टत होने के बाद जो क णा आती है...तुम उसम सरे को सहभागी बनाने म
समथ न हो सकोगे, य द तुमने बु व घ टत होने से पूव उसे बाँटने का अ यास न कया,
य द तुमने अपने आपको अनुशा सत न कया क तुम उन लोग के लए जी वत रहो, जो
अभी भी अँधेरी तंग ग लय म अपना माग खोज रहे ह।"

16. म या
गौतम बु के जीवन का एक रोचक संग है, एक बार कुछ लोग ज म से अंधे युवा
को लेकर गौतम बु के पास आए और उन लोग ने नवेदन कया क इसे काश के
वषय म उपदे श कर। यह काश को मानने के लए तैयार नह है, पूरा गाँव हार गया
है। यह काश जैसे वराट् स य को म या कहता है।

य द आप इसे काश के होने का त य वीकार करा दगे तो पूरा गाँव आपका श य व


वीकार कर लेगा, अ यथा हम सब लोग यह मान लगे क काश भी म है।

गौतम बु ने अपनी क णा भरी नगाह से उस ज मांध युवा क ओर दे खकर कहा, "इसे


उपदे श क नह उपचार क आव यकता है। उपचार से इसक आँख खुल सकती ह, फर
वतः यह काश को समझने क साम य पा जाएगा, तक से म इसे परा जत तो कर
सकता ,ँ परंतु काश क अनुभू त नह करा सकता।"

17. पूजा का तरीका


राजगृह पथ पर जा रहे गौतम बु ने दे खा, एक गृह भीगे व पहने सभी दशा को
नम कार कर रहा था।

बु ने पूछा, "महाशय, इन छह दशा क पूजा का या अथ है? यह पूजा य करनी


चा हए?"

गृह बोला, "यह तो म नह जानता।"

बु ने कहा, " बना जाने पूजा करने से या लाभ होगा?"

गृह ने कहा, "भंत,े आप ही कृपा करके बतलाएँ क दशा क पूजा य करनी


चा हए?"

तथागत बोले, "पूजा करने क दशाएँ भ ह। माता- पता और गृहप त पूव दशा ह,
आचाय द ण, ी-पु और म आ द उ र दशा ह। सेवक नीची तथा वण ा ण
ऊँची दशा ह। इनक पूजा से लाभ होता है।" गृह बोला, "और तो ठ क, भंते! परंतु
सेवक क पूजा कैसे? वे तो वयं मेरी पूजा करते ह?"

बु ने समझाया, "पूजा का अथ हाथ जोड़ना, सर झुकाना नह । सेवक क सेवा के बदले


उनके त नेह-वा स य ही उनक पूजा है।" गृह ने कहा, "आज आपने मुझे सही
दशा का ान कराया ।"

18. मृगतृ णा
जब महा मा बु ने राजा सेन जत क राजधानी म वेश कया तो वे वयं उनक
आगवानी के लए आए। वे महा मा बु के पता के म थे एवं उ ह ने बु के सं यास लेने
के बारे म सुना था।

अतः उ ह ने बु को अपना भ ुक जीवन यागकर महल के ऐशो-आराम के जीवन म


लौटने के लए मनाने का यास कया। वे ऐसा अपनी म ता क खा तर कर रहे थे।

बु ने सेन जत क आँख म दे खा और कहा, "सच बताओ। या सम त आमोद- मोद


के बावजूद आपके सा ा य ने आपको एक भी दन का सुख दान कया है?"

सेन जत चुप हो गए और उ ह ने अपनी नजर झुका ल ।

" ःख के कसी कारण के न होने से बड़ा सुख और कोई नह है; और अपने म संतु रहने
से बड़ी कोई संप नह है।"

19. प र तय के हसाब से आचरण


भगवान् गौतम बु उस समय वैशाली म थे। उनके धम पदे श जनता बड़े यान से सुनती
और अपने आचरण म उतारने का यास करती थी। बु का वशाल श य वग भी उनके
वचन को यथासंभव अ धका धक लोग तक प ँचाने के स काय म लगा आ था। एक
दन बु के श य का एक समूह घूम-घूमकर उनके उपदे श का चार कर रहा था क
माग म भूख से तड़पता एक भखारी दखाई दया।

उसे दे खकर बु के एक श य ने उसके पास जाकर कहा, "अरे मूख! इस तरह य तड़प
रहा है? तुझे पता नह क तेरे नगर म भगवान् बु पधारे ए ह। तू उनके पास चल, उनके
उपदे श सुनकर तुझे शां त मलेगी।" भखारी भूख सहन करते-करते इतना श हीन हो
चुका था क वह चलने म भी असमथ था।

सायंकाल उस श य ने तथागत को इस संग से अवगत कराया। तब बु वयं भखारी के


पास प ँचे और उसे भरपेट भोजन करवाया। जब भखारी तृ त हो गया तो वह सुख क
न द सो गया। श य ने आ चयच कत हो पूछा, "भगवन्! आपने इस मूख को उपदे श तो
दया ही नह , ब क भोजन करा दया।" भगवान् बु मुसकराकर बोले, "वह कई दन से
भूखा था। इस समय भरपेट भोजन कराना ही उसके लए सबसे बड़ा उपदे श है। भूख से
तड़पता मनु य भला धम के मम को या समझेगा? येक स ांत अथवा सव वीकृत
आचरण सभी प र तय म लागू नह होता। प र त के अनुसार उसका पालन,
अपालन या प रवतन मा य कया जाना ही े आचरण है।"

20. बु ने समझाई दान क म हमा


भगवान् बु का जब पाट लपु म शुभागमन आ, तो हर अपनी-अपनी सांप क
त के अनुसार उ ह उपहार दे ने क योजना बनाने लगा। राजा ब बसार ने भी क मती
हीरे, मोती और र न उ ह पेश कए। बु दे व ने सबको एक हाथ से सहष वीकार कया।

इसके बाद मं य , सेठ , सा कार ने अपने-अपने उपहार उ ह अ पत कए और बु दे व ने


उन सबको एक हाथ से वीकार कर लया।

इतने म एक बु ढ़या लाठ टे कते वहाँ आई। बु दे व को णाम कर वह बोली, "भगवन्,


जस समय आपके आने का समाचार मुझे मला, उस समय म यह अनार खा रही थी। मेरे
पास कोई सरी चीज न होने के कारण म इस अधखाए फल को ही ले आई ँ। य द आप
मेरी इस तु भट वीकार कर, तो म अहोभा य समझूँगी।"

भगवान् बु ने दोन हाथ सामने कर वह फल हण कया। राजा ब बसार ने जब यह


दे खा तो उ ह ने बु दे व से कहा, "भगवन्, मा कर! एक न पूछना चाहता ँ। हम सबने
आपको क मती और बड़े-बड़े उपहार दए, ज ह आपने एक हाथ से हण कया, ले कन
इस बु ढ़या ारा दए गए छोटे एवं जूठे फल को आपने दोन हाथ से हण कया, ऐसा
य ?"

यह सुन बु दे व मुसकराए और बोले, "राजन्, आप सबने अव य ब मू य उपहार दए ह,


कतु यह सब आपक संप का दसवाँ ह सा भी नह है। आपने यह दान द न और
गरीब क भलाई के लए नह कया है इस लए आपका यह दान 'सा वक दान' क ेणी
म नह आ सकता।

"इसके वपरीत इस बु ढ़या ने अपने मुँह का कौर ही मुझे दे डाला है। भले ही यह बु ढ़या
नधन है ले कन इसे संप क कोई लालसा नह है। यही कारण है क इसका दान मने
खुले दय से, दोन हाथ से वीकार कया है।"
21. उस शहर के लोग
एक बार गौतम बु ने कुछ श य के साथ कसी शहर म डेरा जमाया। जब श य शहर के
भीतर घूमने नकले तो लोग ने उ ह ब त बुरा-भला कहा। वे ोध म भरकर बु के पास
लौटे । बु ने पूछा, " या बात है? आप सब तनाव म य ह?" उनका एक श य बोला,
"हम यहाँ से तुरंत वहाँ चलना चा हए, जहाँ हमारा आदर हो। यहाँ तो लोग वहार के
सवा कुछ जानते ही नह ।"

बु मुसकराकर बोले, " या कसी और जगह पर तुम स वहार क अपे ा करते हो?"
सरा श य बोला, "कम-से-कम यहाँ से तो भले लोग ही ह गे।" बु बोले, " कसी ान
को केवल इस लए छोड़ना गलत है क वहाँ के लोग वहार करते ह। हम तो संत ह। हम
चा हए क उस ान को तब तक न छोड़ जब तक वहाँ के हर को सुधार न डाल। वे
हमारे अ ा वहार करने पर सौ बार वहार करगे। ले कन कब तक? आ खर उ ह
सुधरना ही होगा और उ म ाणी बनने का यास करना ही होगा।"

तब बु के य श य आनंद ने पूछा, "उ म कौन होता है?" बु बोले, "


ठ क उसी तरह होता है जस कार यु म बढ़ता आ हाथी। जस कार यु क ओर
बढ़ता आ हाथी चार ओर के तीर सहते ए भी आगे चलता जाता है उसी तरह उ म
भी के अपश द को सहन करते ए अपने काय करता चलता है। वयं को वश
म करनेवाले ाणी से उ म कोई हो ही नह सकता।" श य ने उस शहर से जाने का
इरादा याग दया।

22. स ा समपण
एक स ाट् गौतम बु के दशन को आया। वह बु के नकट आया। उसके बाएँ हाथ म
ब मू य र नज ड़त आभूषण था। जैसे ही उसने उसे बु को भट करने को आगे बढ़ाया,
बु ने कहा, " गरा दो।" स ाट् तो हैरान रह गया। उसे इसक अपे ा नह थी। उसे बड़ा
आघात लगा, ले कन जब बु ने कहा क गरा दो, तो उसने गरा दया। स ाट् एक सरी
चीज भी ले आया था, वह गुलाब का सुंदर फूल था। उसने वह भट करने के लए अपना
हाथ बु क तरफ बढ़ाया। बु ने फर कहा, " गरा दो।" अब तो स ाट् और भी परेशान
हो गया। अब उसके पास भट दे ने को और कुछ नह था, ले कन जब बु ने कहा क गरा
दो, तो उसने फूल भी गरा दया। तभी स ाट् को अचानक अपने म का मरण आया।
उसने सोचा क म वयं को ही य न भट कर ँ ।
इस बोध के साथ वह बु के स मुख झुक गया, ले कन बु ने फर कहा, " गरा दो।" अब
तो गराने को भी कुछ न था, और बु ने कहा, गरा दो। महाक यप, सा रपु , आनंद तथा
अ य श य, जो वहाँ मौजूद थे, हँसने लगे और स ाट् को बोध आ क यह कहना भी क
म अपने को भट करता ँ, अहंकारपूण है। यह कहना भी क म अब अपने को सम पत
करता ँ, समपण नह है। तब वह वयं ही गर पड़ा। बु हँसे और बोले, "तु हारी समझ
अ है।"

जब तक तुम समपण के खयाल को भी नह गरा दे ते, जब तक तुम खाली हाथ के खयाल


को भी नह वदा हो जाने दे ते, तब तक समपण नह घ टत होता है।

23. सबसे बड़ी कला


एक युवा चारी था। वह ब त ही तभावान था। उसने मन लगाकर शा का
अ ययन कया था। वह स पाने के लए नई-नई कलाएँ सीखता रहता था। व भ
कलाएँ सीखने के लए वह अनेक दे श क या ा भी करता था। एक को उसने बाण
बनाते दे खा तो उससे बाण बनाने क कला सीख ली। कसी को मू त बनाते दे खा तो उससे
मू त बनाने क कला सीख ली, इसी तरह कह से उसने सुंदर न काशी करने क कला को
भी सीख लया। वह लगभग पं ह-बीस दे श म गया और वहाँ से कुछ-न-कुछ सीखकर
लौटा। इस बार जब वह अपने दे श लौटा तो अ भमान से भरा आ था।
अहंकारवश वह सबका मजाक उड़ाते ए कहता, "भला पृ वी पर है कोई मुझ जैसा
अनोखा कला वद्। मेरे जैसा महान् कलाकार भला कहाँ मलेगा?" बु को उस युवा
चारी के बारे म पता चला तो वह उसका अहंकार तोड़ने के लए एक वृ ा ण का
प धारण कर उसके पास आए और बोले, "युवक, म अपने आपको जानने क कला
जानता ँ। या तु ह यह कला भी आती है?" वृ ा ण का प धरे बु को युवक नह
पहचान पाया और बोला, "बाबा, भला अपने आपको जानना भी कोई कला है।"
इस पर बु बोले, "जो बाण बना लेता है, मू त बना लेता है, सुंदर न काशी कर लेता है
अथवा घर बना लेता है वह तो मा कलाकार होता है। यह काम तो कोई भी सीख सकता
है। पर इस जीवन म महान् कलाकार वह होता है जो अपने शरीर और मन को नयं त
करना सीख जाता है। अब बताओ ये कलाएँ सीखना यादा बड़ी बात है या अपने जीवन
को महान् बनाना।" बु क बात का अथ समझकर युवक का अ भमान चूर-चूर हो गया
और वह उनके चरण म गर पड़ा। वह उस दन से उनका श य बन गया।
24. सुख क न द
एक बार गौतम बु ससवा वन म पण-श या पर वराजमान थे क ह तक आलबक
नामक एक श य ने वहाँ आकर उनसे पूछा, "भंत,े कल आप सुखपूवक सोए ही ह गे?"

"हाँ, कुमार, कल म सुख क न द सोया।"

" कतु भगवन्! कल रात तो हमपात हो रहा था और ठं ड भी कड़ाके क थी। आपके प


का आसन तो एकदम पतला है, फर भी आप कहते ह क आप सुख क न द सोए?"

"अ ा कुमार, मेरे न का उ र दो। मान लो, कसी गृहप त के पु का क वायुर हत


और बंद हो, उसके पलंग पर चार अंगुल क पो तीन बछ हो, त कया कालीन का हो तथा
ऊपर वतान हो और सेवा के लए चार भायाएँ त पर ह , तब या वह गृहप त पु सुख से
सो सकेगा?" "ह भंत,े इतनी सुख-सु वधाएँ होने पर भला वह सुख से य न सोएगा? उसे
सुख क न द ही आएगी।"

" कतु कुमार, य द उस गृहप त-पु को रोग से उ प होनेवाला शारी रक या मान सक क


हो, तो या वह सुख से सोएगा?"

"नह भंत,े वह सुख से नह सो सकेगा।"

"और य द उस गृहप त-पु को े ष या मोह से उ प शारी रक या मान सक क हो, तो


या वह सुख से सोएगा?"

"नह भंत,े वह सुख से नह सो सकेगा।"

"कुमार तथागत क राग, े ष और मोह से उ प होनेवाली जलन जड़मूल से न हो गई है,


इसी कारण सुख क न द आई थी।

"वा तव म न द को अ े आ तरण क आव यकता नह होती। तुमने यह तो सुना ही होगा


क सूली के ऊपर भी अ न द आ जाती है। सुखद न द के लए च का शांत होना
परम आव यक है और य द सुखद आ तरण हो, तब तो बात ही या? सुखद न द के लए
वह न चय ही सहायक होगा।"

25. ज मना जायते शू ः


भगवान् बु अनाथ पडक के जैतवान म ामवा सय को उपदे श दे रहे थे। श य अनाथ
पडक भी समीप ही बैठा धमचचा का लाभ ले रहा था। तभी सामने से महाका यप
मौ यायन, सा रपु , चं और दे वद आ द आते ए दखाई दए। उ ह दे खते ही बु ने
कहा, "व स, उठो, यह ा ण मंडली आ रही है, उसके लए यो य आसन का बंध करो।"
अनाथ पडक ने आयु मान क ओर दौड़ाई, फर सा चय कहा, "भगवन्, आप
संभवतः इ ह जानते नह । ा ण तो इनम कोई एक ही है, शेष कोई य, कोई वै य
और कोई अ ृ य भी है।"
गौतम बु अनाथ पडक के वचन सुनकर हँसे और बोले, "तात जा त ज म से नह , गुण,
कम और वभाव से पहचानी जाती है। े रागर हत, धमपरायण, संयमी और सेवाभावी
होने के कारण ही इ ह मने ा ण कहा है।" ऐसे पु ष को तू न चय ही ा ण मान, ज म
से तो सभी जीव शू होते ह।"

26. समझनेवाला
महा मा बु को एक सभा म भाषण करना था। जब समय हो गया तो महा मा बु आए
और बना कुछ बोले ही वहाँ से चल गए। तकरीबन एक सौ पचास के करीब ोता थे।
सरे दन तकरीबन सौ लोग थे पर फर उ ह ने ऐसा ही कया, बना बोले चले गए। इस
बार पचास कम हो गए।

तीसरा दन आ, साठ के करीब लोग थे। महा मा बु आए, इधर-उधर दे खा और बना


कुछ कहे वापस चले गए। चौथा दन आ तो कुछ लोग और कम हो गए, तब भी नह
बोले। जब पाँचवाँ दन आ तो दे खा सफ चौदह लोग थे। महा मा बु उस दन बोले और
चौदह लोग उनके साथ हो गए।

कसी ने महा मा बु को पूछा, "आपने चार दन कुछ नह बोला। इसका या कारण


था?" तब बु ने कहा, "मुझे भीड़ नह , काम करनेवाले चा हए थे। यहाँ वह ही टक
सकेगा जसम धैय हो। जसम धैय था वे रह गए।"

केवल भीड़ यादा होने से कोई धम नह फैलता है। समझनेवाले चा हए, तमाशा दे खनेवाले
रोज इधर-उधर ताक-झाक करते ह। समझनेवाला धीरज रखता है। कई लोग को नया
का तमाशा अ ा लगता है। समझनेवाला शायद एक हजार म एक ही हो ऐसा ही दे खा
जाता है।
27. यास क नरंतरता
भगवान् बु ान ा त के लए घोर तप म लगे थे। उ ह ने शरीर को काफ क दया,
या ाएँ क , घने जंगल म कड़ी साधना क , पर आ म ान क ा त नह ई। एक दन
नराश हो बु सोचने लगे—मने अभी तक कुछ भी ा त नह कया।

अब आगे या कर पाऊँगा? नराशा, अ व वास के इन नकारा मक भाव ने उ ह ु कर


दया। कुछ ही ण बाद उ ह यास लगी। वे थोड़ी र त एक झील तक प ँचे। वहाँ
उ ह ने एक य दे खा क एक न ही-सी गलहरी के दो ब े झील म डू ब गए।

पहले तो वह गलहरी जड़वत बैठ रही, फर कुछ दे र बाद उठकर झील के पास गई,
अपना सारा शरीर झील के पानी म भगोया और फर बाहर आकर पानी झाड़ने लगी।
ऐसा वह बार-बार करने लगी। बु सोचने लगे : इस गलहरी का यास कतना मूखतापूण
है। या कभी यह इस झील को सुखा सकेगी? कतु गलहरी यह म लगातार जारी था।
बु को लगा मानो गलहरी कह रही हो क यह झील कभी खाली होगी या नह , यह म
नह जानती, कतु म अपना यास नह छो ग ँ ी। अंततः उस छोट सी गलहरी ने भगवान्
बु को अपने ल य-माग से वच लत होने से बचा लया।

वे सोचने लगे क जब यह न ही गलहरी अपने लघु साम य से झील को सुखा दे ने के लए


ढ़ संक पत है तो मुझम या कमी है? म तो इससे हजार गुना अ धक मता रखता ँ।
यह सोचकर गौतम बु पुनः अपनी साधना म लग गए और एक दन बो धवृ तले उ ह
ान का आलोक ा त आ।

28. अनुयायी
उपाली ब त ही धनी था और गौतम बु के ही समकालीन एक अ य धा मक गु
नगंथा नाथपु ा का श य था। नाथपु ा के उपदे श बु से अलग कार के थे। उपाली
एक ब त ही वल ण व ा था और वाद- ववाद म भी ब त ही कुशल था। उसके गु ने
उसे एक दन कहा क वह कम के काय-कारण स ांत पर बु को बहस क चुनौती दे ।
एक लंबे और ज टल बहस के बाद बु उपाली का संदेह र करने म सफल रहे और
उपाली को बु से सहमत होना पड़ा क उसके धा मक गु के वचार गलत ह।

उपाली बु के उपदे श से इतना भा वत हो गया क उसने बु को त काल उसे अपना


श य बना लेने का अनुरोध कया। ले कन उसे आ चय आ जब बु ने उसे यह सलाह
द , " य उपाली, तुम एक या त ा त हो। पहले तुम आ व त हो जाओ क तुम
अपना धम केवल इस लए नह बदल रहे हो क तुम मुझसे स हो या तुम केवल भावुक
होकर यह फैसला कर रहे हो। खुले दमाग से मेरे सम त उपदे श पर फर से वचार करो
और तभी मेरा अनुयायी बनो।"

चतन क वतं ता क भावना से ओत- ोत बु के इस वचार को सुनकर उपाली और


भी स हो गया। उसने कहा, " भु, यह आ चय क बात है क आपने मुझे पुन वचार
करने के लए कहा। कोई अ य गु तो मुझे बे हचक मुझे अपना श य बना लेता। इतना ही
नह , वह तो धूम-धाम से सड़क पर जुलूस नकालकर इसका चार करता क दे खो इस
करोड़प त ने अपना धम यागकर मेरा धम अपना लया है। अब तो म और भी आ व त हो
गया। कृपया मुझे अपना अनुयायी वीकार कर।"

बु ने उपाली को अपने साधारण अनुयायी के प म वीकार तो कर लया ले कन उसे


यह सलाह द , " य उपाली, हालाँ क तुम अब मेरे अनुयायी बन चुके हो, ले कन तु ह अब
भी स ह णुता और क णा का प रचय दे ना चा हए। अपने पुराने गु को भी दान दे ना जारी
रखो य क वह अभी भी तु हारी सहायता पर आ त ह।"

29. सबसे श शाली हमारी इ ाश


एक बार आनंद ने भगवान् बु से पूछा, "जल, वायु, अ न इ या द त व म सबसे
श शाली त व कौन सा है?"

भगवान् बु ने कहा, "आनंद, प र सबसे कठोर और श शाली दखता है, ले कन लोहे


का हथौड़ा प र के टु कड़े-टु कड़े कर दे ता है, इस लए लोहा प र से अ धक श शाली
है।"

"ले कन लोहार आग क भ म लोहे को गलाकर उसे मनचाही श ल म ढाल दे ता है,


इस लए लोहा प र से अ धक श शाली है।"

"मगर आग कतनी भी वकराल य न हो, जल उसे शांत कर दे ता है। इस लए जल


प र, लोहे, और अ न से अ धक श शाली है। ले कन जल से भरे बादल को वायु
कह -से-कह उड़ाकर ले जाती है, इस लए वायु जल से भी अ धक बलशाली है।

"ले कन हे आनंद, इ ाश वायु क दशा को भी मोड़ सकती है। इस लए सबसे अ धक


श शाली त व है— क इ ाश । इ ाश से अ धक बलशाली त व कोई
नह है।"
30. अमर व का फल
एक दन एक कसान बु के पास आया और बोला, "महाराज, म एक साधारण कसान
ँ। बीज बोकर, हल चलाकर अनाज उ प करता ँ और तब उसे हण करता ँ। कतु
इससे मेरे मन को तस ली नह मलती। म कुछ ऐसा करना चाहता ,ँ जससे मेरे खेत म
अमर व के फल उ प ह । आप मुझे मागदशन द जए, जससे मेरे खेत म अमर व के
फल उ प होने लग।"

बात सुनकर बु मुसकराकर बोले, "भले , तु ह अमर व का फल तो अव य मल


सकता है, कतु इसके लए तु ह खेत म बीज न बोकर अपने मन म बीज बोने ह गे?" यह
सुनकर कसान हैरानी से बोला, " भु, आप यह या कह रहे ह? भला मन के बीज बोकर
भी फल ा त हो सकते ह।"
बु बोले, " बलकुल हो सकते ह और इन बीज से तु ह जो फल ा त ह गे वे वाकई
साधारण न होकर अ त ह गे, जो तु हारे जीवन को भी सफल बनाएँगे और तु ह नेक क
राह दखाएँगे।" कसान ने कहा, " भु, तब तो मुझे अव य बताइए क म मन म बीज कैसे
बोऊँ?" बु बोले, "तुम मन म व वास के बीज बोओ, ववेक का हल चलाओ, ान के
जल से उसे स चो और उसम न ता का उवरक डालो। इससे तु ह अमर व का फल ा त
होगा। उसे खाकर तु हारे सारे ःख र हो जाएँगे और तु ह असीम शां त का अनुभव
होगा।" बु से अमर व के फल क ा त क बात सुनकर कसान क आँख खुल ग । वह
समझ गया क अमर व का फल स चार के ारा ही ा त कया जा सकता है।

31. संसार म नवाण खोजना या इतना आसान है?


एक सुबह हमेशा क तरह बु भ ा माँगने एक घर के सामने क गए। तब पता नह उस
घर क गृ हणी कस ोध म घर को बुहार रही थी, जब बु को घर के सामने भ ा माँगते
दे खा तो ोध के आवेश म सारा घर का कचरा बु पर फक दया। इस अ या शत घटना
से कुछ पल के लए बु भी हत भ रह गए। उनक समझ म नह आया क या आ है?
जब सारा शरीर बदबूदार हो गया तो बु जैसे क णावान मनु य का मन भी पल भर को
वेदना से आहत आ होगा, उस दन उ ह ने फर कोई भ ा नह माँगी, और अपने ान
पर जाकर वे यानम न होकर बैठ गए। जैसे कुछ आ ही नह ।

साँझ जब बु अपने भ ु को अपने अमृतमय वचन सुना रहे थे,तब उस गृ हणी ने


वहाँ आकर बु के चरण म सर रखकर रोते ए माफ माँगी। सुबह क ई भूल पर ब त
पछतावा करते ए उसने प चा ाप कया, तो महा मा बु ने उस गृ हणी को मा करते
ए कहा, "अरी बावरी, छोड़ सुबह क घटना को, म तो कब का भूल गया। तू भी भूल जा,
य क सुबह ोध करनेवाला कोई और मन था। अब माफ माँगनेवाला कोई और है। सब
मन का खेल है।"

32. ईमानदारी से कम नवाह ही स ी आ या मकता


गौतम बु को उनके अनुयायी य द नेह से कह बुलाते तो वे अव य जाते। फर जब बु
प ँचते, तो ोता क भारी भीड़ उमड़ पड़ती। बु के वचन म जो अमृत व होता था,
उसका पान करना सभी को ी तकर लगता था। उनके उपदे श म ऐसा कुछ अव य होता
था, जससे गंभीर सम याएँ सुलझ जात और कुछ-न-कुछ साथक भी ा त होता।
एक गरीब कसान गौतम बु का ब त बड़ा भ था। एक दन वह बु के पास आया
और अपने गाँव आने का आ ह कया। बु उसके गाँव प ँचे, तो सारा गाँव उ ह दे खने व
सुनने के लए उमड़ पड़ा, कतु वह कसान नह आया। आ यह क उसी दन कसान के
बैल क जोड़ी कह खो गई।
कसान इस वधा म रहा क बु का वचन सुने या अपने बैल को खोजे? काफ सोचने
के बाद उसने अपने बैल को खोजने का नणय कया। घंट भटकने के बाद बैल मले।
थका-हारा कसान घर आया और भोजन कर सो गया। अगले दन वह अ त संकोच से
मा ाथ बन बु के पास प ँचा, तो वे बड़े नेह से बोले, "मेरी म यह कसान मेरा
स अनुयायी है। इसने उपदे श से अ धक मह व कम को दया। य द यह कल बैल को न
ढूँ ढ़ते ए उपदे श सुनता, तो मेरी बात इसे समझ ही नह आत , य क मन बैल म अटका
रहता। इसने कम को मह व दे कर शंसनीय काम कया। सार यह है क हम जहाँ जस
भू मका म ह , उसका ईमानदारी से नवाह ही स ी आ या मकता है, य क येक धम
'कम' को ही सव प र मह व दे ता है।"

33. आपक यास आपका रा ता


एक बार गौतम बु एक गाँव म ठहरे थे। एक ने उनको आकर कहा क आप रोज
कहते ह क "हर मो पा सकता है। ले कन हर मो पा य नह लेता है?"
बु ने कहा, "मेरे म , एक काम करो। सं या को गाँव म जाना और सारे लोग से पूछकर
आना, वे या पाना चाहते ह। एक फेह र त बनाओ। हर एक का नाम लखो और उसके
सामने लख लाना, उनक आकां ा या है?"
वह आदमी गाँव म गया। उसने एक-एक आदमी को पूछा। थोड़े से लोग थे उस गाँव म,
सबने उ र दए। वह साँझ को वापस लौटा। उसने बु को आकर वह फेह र त द । बु ने
कहा, "इसम कतने लोग मो के आकां ी ह?" वह ब त हैरान आ। उसम एक भी
आदमी ने अपनी आकां ा म मो नह लखाया था। बु ने कहा, "हर आदमी पा
सकता है, यह म कहता ँ। ले कन हर आदमी पाना चाहता है, यह म नह कहता।"
हर आदमी पा सकता है, यह ब त अलग बात है और हर आदमी पाना चाहता है, यह ब त
अलग बात है। अगर आप पाना चाहते ह, तो यह आ वासन मान। अगर आप सच म पाना
चाहते ह तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको रोकने म समथ नह है। अगर आप नह
पाना चाहते तो इस जमीन पर कोई ताकत आपको दे ने म समथ नह है। आपके भीतर एक
वा त वक यास है? अगर है, तो आ वासन मान क रा ता मल जाएगा और अगर नह है,
तो कोई रा ता नह है। आपक यास ही आपके लए रा ता बनेगी।

34. मन पी पा को भी शु व प व करो
एक बार एक धनी सेठ ने उनसे भ ाटन हेतु अपने घर आने का आ ह कया। बु ने
सहष इस ताव को मान लया। सेठ ने मेव क खीर बनवाई थी। गौतम बु उसके घर
प ँचे और गोबर से भरा कमंडल आगे बढ़ाते ए खीर उसम डालने के लए कहा। अ व
कमंडल दे ख सेठ ने उसे पहले धोया और फर उसम खीर भरकर बु के हाथ म दे दया।
यह दे ख बु ने सेठ से कहा, "हमारे आशीवाद को भी य द आप खीर जतना ही मू यवान
समझते हो तो उसे रखने के लए मन पी पा को भी शु व प व करो। गोबर जैसी
म लनता अपने अंतस के भीतर भरे रखने पर ये दान-धम आपके कसी काम न आ
सकेगा।" यह सुनकर सेठ क आँख खुल ग और उसने अपने पा अथात् अंतमन म भरे
गुण से मु पाने का न चय कया। सार यह है क धा मक कमकांड, तीथ ल क
या ा, त-उपवास और दाना द तभी साथक व पु य दे ते ह, जब क मन वकारर हत और
हमारी भावना शु हो।

35. राजगृह कहाँ है


एक बार एक गौतम बु के पास आकर बोला, "तथागत्, म तो ब त य न करता
ँ पर जीवन म धम का कोई भाव नह दखाई दे ता।" इस पर बु ने सवाल कया, " या
तुम बता सकते हो क राजगृह यहाँ से कतनी र है?" उस ने उ र दया, "दो सौ
मील।" बु ने फर पूछा, " या तु ह प का व वास है क यहाँ से राजगृह दो सौ मील है?"
ने कहा, "हाँ, मुझे न चत मालूम है क राजगृह यहाँ से दो सौ मील र है।" बु ने
फर न कया, " या तुम राजगृह का नाम लेते ही वहाँ अभी तुरंत प ँच जाओगे?" यह
सुनकर वह आ चय म पड़ गया। उसे समझ म नह आ रहा था क बु इस तरह के
सवाल य कर रहे ह? फर उसने थोड़ा सकुचाते ए कहा, "अभी म राजगृह कैसे प ँच
सकता ँ। अभी तो म आपके सामने खड़ा ँ। राजगृह तो तब प ँचूँगा जब वहाँ के लए
ान क ँ गा और दो सौ मील क या ा क ँ गा।" यह सुनकर बु मुसकराए। फर बोले,
"यही तु हारे न का उ र है। तुम राजगृह को तो जानते हो पर वहाँ तभी तो प ँचोगे जब
वहाँ के लए ान करोगे। या ा के क उठाओगे। उसके सुख- ःख झेलेगो। केवल जान
लेने भर से तो वह चीज तु ह ा त नह हो जाएगी। यही बात धम को लेकर भी लागू होती
है। धम को सब जानते ह पर उस तक वा तव म प ँचने के लए य न नह करते। उसके
लए क नह उठाना चाहते। उ ह लगता है सबकुछ आसानी से बैठे- बठाए मल जाए।
इस लए अगर तुम वा तव म धम का पालन करना चाहते हो तो पहले ल य का नधारण
करो, फर उस दशा म चलने क को शश करो।" वह बु क बात को समझ गया।
उसने तय कया क वह धम के रा ते पर चलेगा।

36. अ त हर चीज क बुरी


गौतम बु से राजकुमार ोण ने द ा ली थी। एक दन बु के अ य श य ने ोण क
शकायत करते ए कहा क ोण तप क उ तम सीमा पर प ँच गया है, जसे दे खकर
चता होती है। सारे भ ु एक दन म एक बार भोजन करते ह तो ोण दो दन म एक बार
भोजन करता है। अ -जल हण नह करने से वह अ य धक कमजोर हो गया है।

चूँ क वह पहले राजसी जीवन जीता था, इस लए इतने यागमय जीवन का वह आद नह


है। वह ह य का ढाँचा रह गया है। यह सुनकर बु ने ोण को बुलाकर कहा, "मने सुना
है क तुम सतार ब त अ ा बजाते थे। या मुझे सुना सकते हो?"
ोण बोला, "हाँ, म आपको सतार सुना सकता ,ँ कतु आप अचानक सतार य सुनना
चाहते ह?"
बु ने कहा, "न सफ सुनना चाहता ँ, ब क उसके वषय म जानना भी चाहता ँ। मने
सुना है क य द सतार के तार ब त ढ ले ह या अ य धक कसे ए ह तो उनसे संगीत नह
पैदा होता।"
ोण बोला, "यह सही है। य द तार ढ ले ह गे तो सुर बगड़ जाएँगे और अ धक कसे होने
क त म वे टू ट जाएँगे। तार म य म होने चा हए।"
तब बु ने उसे समझाया, "जो सतार के तार का नयम है, वही जीवन क तप या का भी
नयम है। म य म रहो। न भोग क अ त करो, न तप क । अपने अ या म को संतु लत
से दे खो।"

ोण समझ गया क म य म रहकर ही जीवन पी सतार से संगीत का आनंद उठाया जा


सकता है। व तुतः जीवन म अनुशासन और तप आव यक है, कतु एक संतुलन के साथ,
य क अ त हर चीज क बुरी होती है।

37. प र और घी
स दय पहले कसी पंथ के पुरो हत नाग रक के मृत संबंधी क आ मा को वग भेजने के
लए एक कमकांड करते थे और उसके लए बड़ी द णा माँगते थे। उ कमकांड के
दौरान वे मं ो ार करते समय म के एक छोटे कलश म प र भरकर उसे एक छोट सी
हथौड़ी से ठ कते थे। य द वह पा टू ट जाता और प र बखर जाते तो वे कहते क मृत
क आ मा सीधे वग को ान कर गई है। अ धकतर मामल म म के साधारण
पा लोहे क हथौड़ी क ह क चोट भी नह सह पाते थे और पुरो हत को वांछनीय
द णा मल जाती थी।
अपने पता क मृ यु से ःखी एक युवक बु के पास इस आशा से गया क बु क
श ाएँ और धम अ धक गहन ह और वे उसके पता क आ मा को मु कराने के लए
कोई मह वपूण या अव य करगे। बु ने युवक क बात सुनकर उससे दो अ कलश
लाने के लए और उनम से एक म घी और सरे म प र भरकर लाने के लए कहा।

यह सुनकर युवक ब त स हो गया। उसे लगा क बु कोई नई और श शाली या


करके दखाएँगे। वह म के एक कलश म घी और सरे म प र भरकर ले आया। बु
ने उससे कहा क वह दोन कलश को सावधानी से नद म इस कार रख दे क वे पानी म
मुहाने तक डू ब जाएँ। फर बु ने युवक से कहा क वह पुरो हत के मं पढ़ते ए दोन
कलश को पानी के भीतर हथौड़ी से ठ क दे और वापस आकर सारा वृ ांत सुनाए।

उपरो या करने के बाद युवक अ यंत उ साह म था। उसे लग रहा था क उसने पुरानी
या से भी अ धक मह वपूण और श शाली या वयं क है। बु के पास लौटकर
उसने सारा ववरण कह सुनाया, "दोन कलश को पानी के भीतर ठ कने पर वे टू ट गए।
उनके भीतर त प र तो पानी म डू ब गए ले कन घी ऊपर आ गया और नद म र तक
बह गया।"

बु ने कहा, "अब तुम जाकर अपने पुरो हत से कहो क वे ाथना कर क प र पानी के


ऊपर आकर तैरने लग और घी पानी के भीतर डू ब जाए।"

यह सुनकर युवक च कत रह गया और बु से बोला, "आप कैसी बात करते ह? पुरो हत


कतनी ही ाथना य न कर ल पर प र पानी पर कभी नह तैरगे और घी पानी म कभी
नह डू बेगा!"
बु ने कहा, "तुमने सही कहा, तु हारे पता के साथ भी ऐसा ही होगा। य द उ ह ने अपने
जीवन म शुभ और स कम कए ह गे तो उनक आ मा वग को ा त होगी। य द उ ह ने
या य और वाथपूण कम कए ह गे तो उनक आ मा नक को जाएगी। सृ म ऐसा कोई
भी पुरो हत या कमकांड नह है जो तु हारे पता के कमफल म तल भर का भी हेरफेर
कर सके।"

38. सुख ा त के लए 84व सम या को सुलझाना


एक महा मा बु के पास सहायता माँगने के लए आया। वह अपने जीवन से
नराश था। हालाँ क ऐसी कोई भयंकर बात नह थी परंतु वह कसी-न- कसी बात
से नराश रहता था और उसके मन म शकायत बनी रहती। वह एक कसान था। उसे खेती
करना अ ा लगता था। पर कभी-कभी कम बा रश होती थी या कभी-कभी ब त यादा।
जससे उसक खेती अ नह हो पाती थी। उसक प नी भी ब त अ थी, जसे वह
यार करता था। ले कन जब वह उससे यादा छे ड़खानी करती तो वह चढ़ जाता। उसके
यारे- यारे ब े थे जो उसे अ यंत य थे। ले कन कभी-कभी...

बु ने धैयपूवक उस मनु य क था सुनी और कहा, "म तु हारी कोई मदद नह कर


सकता।"

भ च के रह गए कसान ने कहा, "म तो समझता था क आप एक महान् श क ह और


आप मुझे श ा दगे।"
बु ने कहा, "हर कसी-न- कसी सम या से त है। वा तव म हम लोग हमेशा ही
सम या से घरे रहते ह और इसके लए हम कुछ कर भी नह सकते। य द तुम एक
सम या सुलझा भी लो, तो तुरंत ही सरी आ जाएगी। जैसे मान ली जए क आप मरने ही
वाले ह। यह तु हारे लए एक सम या है। और यह ऐसी सम या है जससे आप बच नह
सकते। हम सभी को इस तरह क सम या का सामना करना पड़ता है और उनम से कुछ
कभी समा त नह होती।"

कसान गु से से बोला, "तो आपक श ा म ऐसी या खास बात है?"

बु बोले, "इससे आपको 84व सम या को हल करने म सहायता मलेगी।"

कसान बोला, "84व सम या या है?"


"यह क तुम कोई सम या नह चाहते।" बु ने उ र दया।

य द हम अपने आपको इ ा से मु कर ल तो कोई सम या नह रहेगी। सोच के


साथ हम वा त वक प र तय का सामना करते ह। हमारे जीवन म जो भी घ टत होता
या होनेवाला होता है, उसके ऊपर हमारा कोई नयं ण नह है या जरा सा ही नयं ण है।
ले कन हम कसी सम या से कैसे नपटते ह, यह पूणतः हमारे हाथ म है।
39. सुख या है
एक दन ब त से भ ु बैठे बात कर रहे थे क संसार म सुख, सबसे बड़ा सुख या है?
अगर संसार म सुख ही था तो छोड़कर आए य ? जब संसार म ःख-ही- ःख रह जाए,
तभी तो कोई सं य त होता है। जब यह समझ म आ जाए क यहाँ कुछ भी नह है। खाली
पानी के बबूले ह, आकाश म बने इं धनुष है, आकाश कुसुम है, यहाँ कुछ भी नह है, तभी
तो कोई सं यासी होता है। सं यास का अथ ही है, संसार थ हो गया है—जानकर,
अनुभव से अपने ही सा ा कार से। ये भ ु ऐसे ही भागकर चले आए ह गे। कसी क
प नी मर गई होगी। सं यासी हो गया। कसी का दवाला नकल गया तो सं यासी हो गया।
अब तुम दे खना ब त से लोग सं यासी ह गे। फर कुछ और बचता भी नह ।
तब बु भगवान् अचानक आ गए। पीछे खड़े होकर उ ह ने भ ु क बात सुन । च के!
फर कहा, " भ ु , भ ु होकर भी यह सब तुम या कह रहे हो। यह सारा संसार ःख
म है। इसम तुम बता रहे हो। कोई कह रहा है रा य-सुख कोई कहता है काम सुख- ःख म
है। इसम तुम बता रहे हो, कोई कह रहा भोजन-सुख। वाद सुख; यह सब तुम जो कह रहे
हो या कह रहे हो? यह सुनकर मुझे आ चय होता है। अगर इस सब म सुख है तो तुम
यहाँ आ य गए। सुख भी आभास है।" बु ने कहा, " ःख स य है। और सुख नह है
ऐसा नह । पर संसार म नह है। संसार का अथ ही है, जहाँ सुख दखाई पड़ता है। और है
नह । जहाँ आभास होता है, ती त होती है, इशारे मलते ह क है। ले कन जैसे-जैसे पास
जाओ, पता चलता है, नह है।"
" फर सुख कहाँ है?" बु ने कहा, "बु ो पाद म सुख है। तु हारे भीतर बु का ज म हो
जाए, तो सुख है। तु हारे भीतर बु का अवतरण हो जाए तो सुख है। बु ो पाद, यह बड़ा
अनूठा श द है। तु हारे भीतर बु उ प हो जाएँ। तो सुख है। तुम जब जाओ तो सुख है।
सोने म ःख है, मू ा म ःख है। जागने म सुख है। धम वण सुख है। तो सबसे परम
सुख तो है, बु ो पाद; क तु हारे भीतर बु व पैदा हो जाए। अगर अभी यह नह आ तो
नंबर दो का सुख है— जनका बु जाग गया उनक बात सुनने म सुख है। धम वण म
सुख है।

"तो सुनो उनक , जो जाग गए ह। ज ह कुछ दखाई पड़ा है। गुण उनक । ले कन उसी
सुख पर क मत जाना, सुन-सुनकर अगर क गए तो एक तरह का सुख तो मलेगा,
ले कन वह भी ब त र जानेवाला नह है।" इस लए बु ने कहा, "समा ध म सुख है।
बु ो पाद म सुख है, यह तो परम ा या ई सुख क । फर यह भी तो आ नह है। तो
उनके वचन सुनो, उनके पास उठो-बैठो, जनके भीतर यह ां त घट है। जनके भीतर यह
सूरज नकला है। जनका भात हो या है। जहाँ सूय दय आ है, उनके पास रमो, इसम
सुख है। मगर इसम ही क मत जाना। यान रखना क जो उनको आ है, वह तु ह भी
करना है। उस करने के उपाय का नाम समा ध है। सुनो बु क और चे ा करो बु जैसे
बनने क । उस चे ा का नाम समा ध है। उस चे ा का फल है बु ो पोद। सुनो बु के
वचन, फर बु जैसे बनने क चे ा म लगना— यान, समा ध, योग। और जस दन बन
जाओ, उस दन परम सुख।"

40. खुद क पहचान करो


तथागत यह भी कहते थे क सबसे पहले को खुद क पहचान करनी चा हए। सर
क बजाय खुद के बारे म यादा जानता है। उनका मत था क बुराई से घृणा करो,
बुरे से नह । एक बार क बात है, कसी गाँव के पास बहती नद के कनारे बु बैठे
थे। कनारे पर प र क भरमार थी, पर छोट सी वह नद अपनी तरल धारा के कारण
आगे बढ़ती ही जा रही थी। बु ने वचार कया क यह छोट सी नद अपनी तरलता के
कारण कतन क यास बुझाती है, ले कन भारी-भरकम प र एक ही ान पर पड़े रहते
ह और सर के माग म बाधक बनते रहते ह। इस घटना क सीख यह है क सर के रा ते
म रोड़े अटकानेवाले खुद कभी आगे नह बढ़ पाते। परंतु जो सर को स ाव और नेह
दे ता है, वह वयं भी आगे बढ़ जाता है।

बु ऐसे ही वचार म मगन थे क तभी उ ह ने ामीण क एक भीड़ को अपनी ओर आते


दे खा। बड़ा शोर था और लोग कसी युवती के त अपश द बोल रहे थे। तथागत ने दे खा
क लोग एक युवती को घसीटकर ला रहे थे और उसको गाली भी दे रहे थे। भीड़ के
नजद क आने पर बु ने लोग से युवती को पीटने और अपश द कहने का कारण पूछा।
लोग ने कहा क यह ी भचारी है और हमारे समाज का नयम है क य द भचारी
ी पकड़ी जाए, तो उसे प र से कुचलकर मार डालना चा हए।

तथागत ने युवती क ओर दे खा और कहा, "जो तुम चाहते हो, वही करो। पर मेरी एक शत
है क प र मारने का अ धकारी वही है, जसने कभी भचार न कया हो और न ही
उसके मन म ऐसे वचार कभी आए ह ।" इतना कहकर तथागत शांत हो गए। चार ओर
मौन था। कुछ समय बाद लोग क भीड़ मन म प चा ाप का भाव लए ए वहाँ से वदा
हो गई। इस घटना से यही स य उभरता है क हम खुद अपने त याय कर सकते ह,
सर के त नह , य क हमारी जानकारी सर के वषय म अधूरी होती है। य द हम
कसी के त याय करना चाहते ह, तो उसे ऐसा यार और नेह मलना चा हए क खुद
ही अपने दोष को वीकार कर ले और उ ह पुनः न दोहराने का त ले।
41. मौन का मह व
एक , कोई ज ासु, एक दन आया। उसका नाम मौलुंकपु था, एक बड़ा ा ण
व ान्; पाँच सौ श य के साथ बु के पास आया था। न चत ही उसके पास ब त सारे
न थे। एक बड़े व ान् के पास ढे र सारे न होते ही ह, सम याएँ ही सम याएँ। बु ने
उसके चेहरे क तरफ दे खा और कहा, "मौलुंकपु , एक शत है। य द तुम शत पूरी करो,
केवल तभी म उ र दे सकता ँ। म तु हारे सर म भनभनाते न को दे ख सकता ँ। एक
वष तक ती ा करो। यान करो, मौन रहो। जब तु हारे भीतर का शोरगुल समा त हो
जाए, जब तु हारी भी क बातचीत क जाए, तब तुम कुछ भी पूछना और म उ र ँ गा।
यह म वचन दे ता ँ।"

मौलुंकपु कुछ च तत आ—एक वष, केवल मौन रहना, और तब यह उ र दे गा।


और कौन जाने क वे उ र सही भी है या नह ?तो हो सकता है एक वष बलकुल ही बेकार
जाए। इसके उ र बलकुल थ भी हो सकते ह। या करना चा हए? वह वधा म पड़
गया। वह थोड़ा झझक भी रहा था। ऐसी शत मानने म; इसम खतरा था। और तभी बु
का एक सरा श य, सा रपु , जोर से हँसने लगा। वह वह पास म ही बैठा था—एकदम
खल खलाकर हँसने लगा। मौलुंकपु और भी परेशान हो गया; उसने कहा, "बात या है?
तुम य हँस रहे हो?"

सा रपु ने कहा, "इनक मत सुनना। ये ब त धोखेबाज ह। इ ह ने मुझे भी धोखा दया।


जब म आया था। तु हारे तो केवल पाँच सौ श य ह। मेरे पाँच हजार थे। वह बड़ा ा ण
था, दे श भी म मेरी या त थी। इ ह ने मुझे फुसला लया; इ ह ने कहा, साल भर ती ा
करो। मौन रहो। यान करो। और फर पूछना और म उ र ँ गा। और साल भर बाद कोई
न ही नह बचा। तो मने कभी कुछ पूछा ही नह और इ ह ने कोई उ र दया ही नह ।
य द तुम पूछना चाहते हो तो अभी पूछ लो, म इसी च कर म पड़ गया। मुझे इसी तरह
इ ह ने धोखा दया।"

बु ने कहा, "म अपने वचन पर प का र ँगा। य द तुम पूछते हो, तो म उ र ँ गा। य द


तुम पूछो ही नह , तो म या कर सकता ?ँ "

एक वष बीता, मौलुंकपु यान म उतर गया। और-और मौन होता गया—भीतर क


बातचीत समा त हो गई। भीतर का कोलाहल क गया। वह बलकुल भूल गया क कब
एक वष बीत गया। कौन फ करता है?जब न ही न रह, तो कौन उ र क फ
करता है? एक दन अचानक बु ने पूछा, "यह वष का अं तम दन है। इसी दन तुम एक
वष पहले यहाँ आए थे। और मने तु ह वचन दया था क एक वष बाद तुम जो पूछोगे, म
उ र ँ गा, म उ र दे ने को तैयार ँ। अब तुम न पूछो।"

मौलुंकपु हँसने लगा, और उसने कहा, "आपने मुझे भी धोखा दया। वह सा रपु ठ क
कहता था। अब कोई न ही पूछने के लए नह रहा। तो म या पूछूँ? मेरे पास पूछने के
लए कुछ भी नह है।"

असल म य द तुम स य नह हो तो सम याएँ होती ह। और न होते ह। वे तु हारे झूठ से


पैदा होते ह—तु हारे व , तु हारी न द से वे पैदा होते ह। जब तुम स य, ामा णक मौन
सम होता हो—वे तरो हत हो जाते ह।

मेरी समझ ऐसी है क मन क एक अव ा है, जहाँ केवल न होते ह; और मन क एक


अव ा है, जहाँ केवल उ र होते ह। और वे कभी साथ-साथ नह होती। य द तुम अभी
भी पूछ रहे हो, तो तुम उ र नह हण कर सकते। म उ र दे सकता ँ ले कन तुम उसे ले
नह सकते। य द तु हारे भीतर न उठने बंद हो गए ह, तो मुझे उ र दे ने क कोई ज रत
नह है : तु ह उ र मल जाता है। कसी न का उ र नह दया जा सकता है। मन क
एक ऐसी अव ा उपल करनी होती है जहाँ कोई न नह उठते। मन क नर हत
अव ा ही एकमा उ र है।

यही तो यान क पूरी या है : न को गरा दे ना, भीतर चलती बातचीत को गरा


दे ना। जब भीतर क बातचीत क जाती है, तो ऐसा असीम मौन छा जाता है। उस मौन म
हर चीज का उ र मल जाता है। हर चीज सुलझ जाती है—शा दक प से नह ,
अ त वगत प म सुलझ जाती है। कह कोई सम या नह रह जाती है।

42. अँगु लमाल और बु


ाचीनकाल क बात है। मगध दे श क जनता म आतंक छाया आ था। अँधेरा होते ही
लोग घर से बाहर नकलने क ह मत नह जुटा पाते थे, कारण था अँगु लमाल।
अँगु लमाल एक खूँखार डाकू था, जो मगध दे श के जंगल म रहता था। जो भी राहगीर उस
जंगल से गुजरता था, वह उसे रा ते म लूट लेता था और उसे मारकर उसक एक उँ गली
काटकर माला के प म अपने गले म पहन लेता था। इसी कारण लोग उसे 'अँगु लमाल'
कहते थे।

एक दन उस गाँव म महा मा बु आए। लोग ने उनका खूब वागत-स कार कया।


महा मा बु ने दे खा क वहाँ के लोग म कुछ डर सा समाया आ है। महा मा बु ने लोग
से इसका कारण जानना चाहा। लोग ने बताया क इस डर और आतंक का कारण डाकू
अँगु लमाल है। वह नरपराध राहगीर क ह या कर दे ता है। महा मा बु ने मन म न चय
कया क उस डाकू से अव य मलना चा हए।
बु जंगल म जाने को तैयार हो गए तो गाँववाल ने उ ह ब त रोका, य क वे जानते थे
क अँगु लमाल के सामने से बच पाना मु कल ही नह , असंभव भी है। ले कन बु अ यंत
शांत भाव से जंगल म चले जा रहे थे। तभी पीछे से एक ककश आवाज कान म पड़ी,
"ठहर जा, कहाँ जा रहा है?"

बु ऐसे चलते रहे मानो कुछ सुना ही नह । पीछे से और जोर से आवाज आई, "म कहता
ँ ठहर जा।" बु क गए और पीछे पलटकर दे खा तो सामने एक खूँखार काला
खड़ा था। लंबा-चौड़ा शरीर, बढ़े ए बाल, एकदम काला रंग, लंब-े लंबे नाखून, लाल-लाल
आँख, हाथ म तलवार लए वह बु को घूर रहा था। उसके गले म उँ ग लय क माला
लटक रही थी। वह ब त ही डरावना लग रहा था।

बु ने शांत व मधुर वर म कहा, "म तो ठहर गया, भला तू कब ठहरेगा?"

अँगु लमाल ने बु के चेहरे क ओर दे खा, उनके चेहरे पर बलकुल भय नह था, जब क


जन लोग को वह रोकता था, वे भय से थर-थर काँपने लगते थे। अँगु लमाल बोला, "हे
सं यासी! या तु ह डर नह लग रहा है? दे खो, मने कतने लोग को मारकर उनक
उँ ग लय क माला पहन रखी है।"

बु बोले, "तुझसे या डरना? डरना है तो उससे डरो जो सचमुच ताकतवर है।"


अँगु लमाल जोर से हँसा, "हे साधु! तुम समझते हो क म ताकतवर नह ँ। म तो एक बार
म दस-दस लोग के सर काट सकता ँ।"

बु बोले, "य द तुम सचमुच ताकतवर हो तो जाओ, उस पेड़ के दस प े तोड़ लाओ।"


अँगु लमाल ने तुरंत दस प े तोड़े और बोला, "इसम या है? कहो तो म पेड़ ही उखाड़
लाऊँ।" महा मा बु ने कहा, "नह , पेड़ उखाड़ने क ज रत नह है। य द तुम वा तव म
ताकतवर हो तो जाओ, इन प य को पेड़ म जोड़ दो।" अँगु लमाल ो धत हो गया और
बोला, "भला कह टू टे ए प े भी जुड़ सकते ह।" महा मा बु ने कहा, "तुम जस चीज
को जोड़ नह सकते, उसे तोड़ने का अ धकार तु ह कसने दया? एक आदमी का सर
जोड़ नह सकते तो काटने म या बहा री है?" अँगु लमाल अवाक रह गया। वह महा मा
बु क बात को सुनता रहा। एक अनजानी श ने उसके दय को बदल दया। उसे
लगा क सचमुच उससे भी ताकतवर कोई है। उसे आ म ला न होने लगी।
वह महा मा बु के चरण म गर पड़ा और बोला, "हे महा मन! मुझे मा कर द जए। म
भटक गया था। आप मुझे शरण म ले ली जए।" भगवान् बु ने उसे अपनी शरण म ले
लया और अपना श य बना लया। आगे चलकर यही अँगु लमाल एक ब त बड़ा साधु
आ।

43. ेम का अमोघ अ
उन दन कौशल म राजा सेन जत रा य करता था। अँगु लमाल के आतंक से वह बेहद
परेशान था। उसे पकड़ने के लए उसने अपनी पूरी सेना तैनात कर रखी थी, अ -श
का उपयोग कया, ले कन अँगु लमाल उनके हाथ नह आया।

एक बार सेन जत पाँच सौ सै नक को लेकर अँगु लमाल को पकड़ने के लए इधर-उधर


दौड़-धूप कर रहा था क उसे पता चला, भगवान् बु वहाँ वहार कर रहे ह। वह उनके
पास गया। उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थ ।

बु ने कहा, " या बात है?इतने परेशान य दखाई दे रहे हो? या कसी राजा ने तुम पर
हमला कर दया है?"

सेन जत बोला, "भंत,े कसी ने हमला नह कया। मेरे रा य म अँगु लमाल नाम के डाकू
ने तबाही मचा रखी है। म उसी को पकड़ने क दन-रात को शश कर रहा ँ।"

बु ने मुसकराकर कहा, "वह तु हारी पकड़ म नह आता! अ ा, यह बताओ क य द


वह धमा मा के प म तु हारे सामने आए तो तुम या करोगे?"

"म उसका वागत क ँ गा और उसक सेवा और र ा क ँ गा।" सेन जत ने कहा।

तब बु ने पास बैठे क बाँह पकड़कर उसे राजा के सामने कर दया। बोले, "यह
रहा अँगु लमाल।"

सेन जत को काटो तो खून नह । वह थर-थर काँपने लगा।

बु ने कहा, "राजन, अब तु ह इससे डरने क आव यकता नह है।"

इसके बाद सेन जत को पता चला क भगवान् बु के ेम और क णा के आगे


अँगु लमाल नतम तक हो गया। उसे नया ज म मला है। अपनी खूँखार वृ य को
यागकर वह भ ु बन गया है।
सेन जत क आँख खुल ग । एक शासक के नाते वह मान बैठा था क सै य और श -
बल से बढ़कर और कोई बल नह है।

आज उसे मालूम आ क ेम का मुकाबला नया म कोई ताकत नह कर सकती।

उसने अँगु लमाल का बड़े ेम से अ भवादन कया और उससे कहा, "म तु हारे भोजन,
व , आवास आ द क व ा कर दे ता ँ।"

अ यंत वन भाव से अँगु लमाल बोला, "राजन, आप चता न कर, मुझे सबकुछ मल
गया है।"

सेन जत क आँख डबडबा आ और वह ा से अवनत होकर वहाँ से चला गया।

44. उ क गनती
एक समय क बात है। एक बार गौतम बु से मलने स ाट् सेन जत आए। उन दोन क
बातचीत के समय कसी सरे ने बीच म कोई दखल नह द । इसक एक मु य
वजह यह थी क वयं गौतम बु स ाट् से बात कर रहे थे। हालाँ क हर कोई यह जानना
चाहता था क दोन के बीच या बातचीत हो रही है? ले कन कुछ ही दे र बाद एक भ ु को
बीच म दखल दे नी ही पड़ी। उसने उन दोन से मा माँगी। दरअसल, उसे बु का संदेश
लोग तक प ँचाने के लए सूया त के पहले जाना था, ले कन वे बगैर बु के पैर छु ए जा
नह सकते थे।

उसे कई महीने के लए बाहर जाना था और सूय अ त होनेवाला था। उ ह ने सेन जत से


कहा, "मुझे मा कर, म आप लोग को वधान नह प ँचाना चाहता था। सफ एक
ण...म बस बु के पैर छू लूँ। मुझे जाना है, ले कन म सफ सूया त के पहले ही जा
सकता ँ।"

भ ु क उ करीब पचह र वष क होगी। राजा ने उनसे पूछा, "भंत,े आपक उ कतनी


है?"

भ ु ने कहा, "मुझे कहते ए शम आती है, ले कन म सफ चार साल का ँ।" सेन जत


व वास नह कर पाए। पचह रवष य बूढ़ा !...यह पूरी तरह से असंभव है क वह
चार वष का ही हो। और जब गौतम बु ने इसे वीकार कर लया है तो यह और भी
अ धक आ चयजनक था। उ ह ने गौतम बु से कहा, "यह चार साल का तो नह
लगता?"
बु ने कहा, "शायद आपको यह बात पता नह है क कस ढं ग से हम लोग उ गनते ह?
जब तक क कोई गहरे यान म न उतरे, उस काश को न जान ले, जो क से
का शत होता है, वह अभी पैदा नह आ है। इस ने अपने होने क झलक सफ
चार साल पहले ही पाई है। उसके पहले जो पचह र साल नकले, वे गहरी न द म नकल
गए, वे इसक उ के प म नह गने जा सकते।"
सेन जत ब त उलझन म पड़ गए, ले कन यह सच था। सेन जत ने बु के पैर छु ए और
कहा, "मेरी भी मदद कर, ता क म भी फर ज म ले सकूँ। अभी तक म यही सोचता रहा
क म जदा ँ। आपने मुझे बताया क म मुदा ँ।"

गौतम बु ने कहा, " सफ यह जान लेना ही क अभी तक तुम मुदा थे, ब त बड़ी शु आत
है।"

45. अ धकार
सुबह का समय था। ठं डी-ठं डी हवा बह रही थी। मगध के राजकुमार स ाथ राजमहल के
बाग म घूम रहे थे। राजकुमार को लोग यार से गौतम पुकारते थे। उनके साथ उनका चचेरा
भाई दे वद भी था। गौतम ब त दयालु वभाव के थे। वह पशु-प य को यार करते, पर
दे वद कठोर वभाव का था। पशु-प य के शकार म उसे बड़ा आनंद मलता।

बाग ब त सुंदर था। तालाब म कमल खले ए थे। फूल पर रंग- बरंगी तत लयाँ मँडरा
रही थ । पेड़ पर च ड़याँ चहचहा रही थ । राजकुमार गौतम को दे खकर बाग के खरगोश
और हरन उनके चार ओर जमा हो गए। गौतम ने बड़े यार से उ ह हरी-हरी घास खलाई।
उसी बीच दे वद ने एक ततली पकड़ उसके पंख काट डाले। गौतम को ब त ःख आ,
"यह या दे वद , तुमने ततली के पंख य काटे ?"

"म इसे धागा बाँधकर नचाऊँगा। बड़ा मजा आएगा।" दे वद हँस रहा था।
"नह दे वद , यह ठ क बात नह है। भगवान् ने ततली को पंख उड़ने के लए दए ह।
उसके पंख काटकर तुमने अपराध कया है।" गौतम ने कहा।
"अगर तुम ततली और च ड़य के बारे म सोचते रहे तो राजा कैसे बन सकोगे गौतम? तुम
खरगोश से खेलो, म कसी प ी का शकार करता ँ।" हँसता आ दे वद बाग के सरी
ओर चला गया।
गौतम सोच म डू बे बाग म घूम रहे थे। तभी आकाश म सफेद हंस उड़ते ए दखाई दए।
सारे हंस पं बनाकर उड़ रहे थे। उनक आवाज समझ पाना संभव नह था। ऐसा लग
रहा था जैसे वे खुशी के गीत गा रहे ह । गौतम हंस को यार से दे ख रहे थे। अचानक हंस
चीख पड़े।
हंस क पं टू ट गई थी। अचानक खून से लथपथ एक हंस गौतम के पाँव के पास आ
गरा। हंस के शरीर म एक बाण लगा आ था। घायल हंस क से कराह रहा था। गौतम
को लगा मानो हंस उनसे दया क भीख माँग रहा हो। हंस के क से गौतम को ब त ःख
आ। वे सोचने लगे, "कुछ दे र पहले यह हंस कतना खुश था। अपने सा थय के साथ गीत
गाता आकाश म उड़ रहा था। एक बाण ने इसे इसके सा थय से अलग कर दया। यह
अ याय कसने कया?"

गौतम ने बड़ी सावधानी से उसके शरीर से बाण बाहर नकाल दया। उसके घाव को धोकर
साफ कया। यार पाकर हंस ने गौतम क गोद म सर छपा लया।

तभी बाग के सरी ओर से दे वद तेजी से दौड़ता आ आया। उसे आता दे ख हंस डर से


सहर गया। गौतम के पास आकर दे वद ने तेज आवाज म कहा, " स ाथ, यह हंस मेरा
है। मने इसे बाण मारकर गराया है।"

"नह दे वद , यह हंस मेरी शरण म आया है। यह हंस मेरा है।" गौतम ने शां त से जवाब
दया।

"बेकार क बात मत करो, गौतम। मने इसका शकार कया है। हंस मुझे दे दो।" दे वद ने
गु से से कहा।

"म यह हंस तु ह नह ँ गा, दे वद । इसे मने बचाया है। इस हंस पर तु हारा कोई अ धकार
नह है।" गौतम अपनी बात पर अटल थे।

गौतम और दे वद के बीच बहस छड़ गई। दोन ही अपनी बात पर अड़े थे। अंत म दे वद
ने कहा, "ठ क है, चलो महाराज के पास। वे ही हमारा याय करगे।"
दोन बालक गौतम के पता महाराज शु ोधन के पास प ँचे। दे वद ब त ोध म था, पर
गौतम शांत थे।
दे वद ने महाराज से कहा, "महाराज, मने आकाश म उड़ते इस हंस का शकार कया है।
इस हंस पर मेरा अ धकार है। मुझे मेरा हंस दलाया जाए।"
महाराज ने गौतम से कहा, "राजकुमार गौतम, तु हारा भाई ठ क कहता है। शकार कए
गए प ी पर शकारी का हक होता है। दे वद का हंस उसे दे दो।"
"नह महाराज, मारनेवाले से बचानेवाला यादा बड़ा होता है। दे वद ने इस हंस के ाण
लेने चाहे, पर मने इसक जान बचाई है। अब आप ही बताइए, इस हंस पर कसका
अ धकार होना चा हए?" गौतम ने कहा।

महाराज सोच म पड़ गए। उ ह गौतम क बात ठ क लगी। ाण लेनेवाले से जीवन दे नेवाला


अ धक महान् होता है। उ ह ने कहा, "गौतम ठ क कहता है। इस हंस के ाण गौतम ने
बचाए ह, इस लए इस हंस पर गौतम का अ धकार है।"

ो धत होकर दे वद ने न कया, "अगर हंस मर जाता तो या आप यह हंस मुझे दे


दे ते, महाराज?"

"हाँ, तब यह हंस तु हारा शकार होता और तु ह तु हारा हंस ज र दया जाता।" बड़ी
शां त से महाराज ने समझाया।
गौतम ने यार से हंस को सीने से चपटा लया। हंस ने खुश होकर चैन क साँस ली।
महाराज ने हंस क स ता दे खी। अचानक उनके मुँह से नकला—भ क से र क बड़ा
है। अथात् मारकर खानेवाले से र ा करनेवाला महान् है।

बाद म राजकुमार गौतम ही महा मा गौतम बु बनकर सब ा णय को यार करने क


सीख द । व व को अ हसा और शां त का संदेश दया। गौतम बु को लोग आदर से
भगवान् बु भी कहते ह। वे सचमुच महान् थे।

46. सागर तक सीधी या ा


एक बार मण करते ए बु एक नद के कनारे के तो उ ह वहाँ नद म बहते ए
लकड़ी के खंड दखे। उ ह ने अपने श य को वह खंड दखाते ए कहा, " भ खु , य द
ये का खंड कह क न जाएँ, कह रेत म धँस न जाएँ, भीतर से सड़ न जाएँ, उ ह कोई
बीच म से उठा न ले, या ये बहते ए कसी भँवर म न फँस तो यह बहते ए सीधे समु
तक चले जाएँगे। यही बात आपके लए धम पथ पर भी लागू होती है। य द तुम कह रेत म
न फँसो, तुम भँवर म न फँसो, य द तुम ही भीतर से सड़ने न लग जाओ तो तुम भी आ म
जागृ त और मु के सागर तक प ँच सकते हो।"
श य ने कहा, "गु दे व, कृपया कनारे क जाने, डू ब जाने या रेत म धँस जाने से ता पय
या है?"
बु ने उ र दे ते ए कहा, "नद के कनारे क जाने का अथ है—छह इं य और उनके
वषय म फँस जाना।

"डू ब जाने का अथ इ ा-आकां ा का दास हो जाना है, जससे आपक साधना क


मता का रण हो जाता है।
"जल से नकाल लए जाने का अथ है—साधना अ यास के ान पर वयं को न े य
बना लेना और घ टया लोग क संग त म घूमते- फरते रहना।
"भँवर म फँसे रहने का अथ है—पाँच कार क इ ा —सु वा भोजन, वषय वासना,
व ेषणा, यशेषणा और न ा म फँसे रहना।

"भीतर से सड़ने का अथ है— दखावे के सदगुण वाला जीवन जीना, संघ को धोखा दे ना
और धम को अपनी इ ा और आकां ा क पू त के लए योग करना।

" भ खु , य द आप लोग प र मपूवक साधना करो तो इन छह मजाल म न फँसो, तो


न चत ही संबो ध ( नवाण शांतम) का फल ा त कर सकते हो, ठ क उसी कार जस
तरह बहता का खंड सभी बाधा से बचता आ समु तक प ँच जाता है।"

47. गाँठ
एक दन बु ातः भ ु क सभा म पधारे। सभा म ती ारत उनके श य यह दे ख
च कत ए क बु पहली बार अपने हाथ म कुछ लेकर आए थे। उनके हाथ म एक
माल था। बु के हाथ म माल दे खकर सभी समझ गए क इसका कुछ वशेष
योजन होगा।

बु अपने आसन पर वराजे। उ ह ने कसी से कुछ न कहा और माल म कुछ री पर


पाँच गाँठ लगा द ।

सब उप त यह दे ख मन म सोच रहे थे क अब बु या करगे, या कहगे। बु ने उनसे


पूछा, "कोई मुझे यह बता सकता है क या यह वही माल है, जो गाँठ लगने के पहले
था?"
शा रपु ने कहा, "इसका उ र दे ना कुछ क ठन है। एक तरह से दे ख तो माल वही है,
य क इसम कोई प रवतन नह आ है। सरी से दे ख तो पहले इसम पाँच गाँठ नह
लगी थ । अतः यह माल पहले जैसा नह रहा, और जहाँ तक इसक मूल कृ त का
न है, वह अप रव तत है। इस माल का केवल बा प ही बदला है, इसका पदाथ
और इसक मा ा वही है।"

"तुम सही कहते हो, शा रपु ", बु ने कहा, "अब म इन गाँठ को खोल दे ता "ँ , यह
कहकर बु माल के दोन सर को एक सरे से र ख चने लगे। "तु ह या लगता है,
शा रपु , इस कार ख चने पर या म इन गाँठ को खोल पाऊँगा?"

"नह , तथागत, इस कार तो आप इन गाँठ को और अ धक सघन और सू म बना दगे


और ये कभी नह खुलगी", शा रपु ने कहा।

"ठ क है", बु बोले, "अब तुम मेरे अं तम न का उ र दो क इन गाँठ को खोलने के


लए मुझे या करना चा हए?"

शा रपु ने कहा, "तथागत, इसके लए मुझे सव थम नकटता से यह दे खना होगा क ये


गाँठ कैसे लगाई गई ह, इसका ान कए बना म इ ह खोलने का उपाय नह बता
सकता"।

"तुम स य कहते हो, शा रपु , तुम ध य हो, य क यही जानना सबसे आव यक है।
आधारभूत न यही है। जस सम या म तुम पड़े हो उससे बाहर नकलने के लए यह
जानना ज री है क तुम उससे त य कर ए, य द तुम यह बु नयाद व मौ लक
परी ण नह करोगे तो संकट अ धक ही गहराएगा"।

"ले कन व व म सभी ऐसा ही कर रहे ह। वे पूछते ह, 'हम काम, ोध, लोभ, मोह,
अहंकार, प र ह, आ द-आ द वृ य से बाहर कैसे नकल', ले कन वे यह नह पूछते क
'हम इन वृ य म कैसे पड़े?'

48. रेत का घर
एक गाँव म नद के तट पर कुछ ब े खेल रहे थे। रेत के घर बना रहे थे। कसी का पैर
कसी के घर म लग जाता तो रेत का घर बखर जाता। झगड़ा हो जाता। मारपीट हो जाती।
तूने मेरा घर मटा दया। वह उसके घर पर कूद पड़ता है। वह उसका घर मटा दे ता है और
फर अपना घर बनाने म त लीन हो जाता है।
महा मा बु चुपचाप खड़े अपने भ ु के साथ ये तमाशा दे ख रहे थे, पर ब े इतने
त थे क उ ह कुछ भी पता नह लगा। घर बनाना ऐसी तता क बात है, सर से
अ ा बनाना है, उनसे ऊँचा बनाना है।

तयो गता है, जलन है, ई या है। सब अपने-अपने घर को बड़ा करने म लगे ह परंतु कसी
ने सच ही कहा है— जतने ऊँचे महल तु हारे, उतना ही गरने का डर है। जसको तुमने
सागर समझा, पगले जीवन एक लहर है। इस सबके बीच एक ी ने घाट पर आकर
आवाज द , साँझ हो गई है, माँ घर म याद करती है, घर चलो। ब ने च ककर दे खा।
दन बीत गया है, सूरज डू ब गया है। अँधेरा उतर रहा है। वे अपने ही घर पर उछले-कूदे ।
सब म टयामेट कर डाला, अब कोई झगड़ा नह क तू मेरे घर पर कूद रहा या म तेरे घर पर
कूद रहा ँ।

कोई ई या नह , कोई बैर नह । वे सब ब े भागते ए अपने घर क तरफ चले गए। दन


भर का सारा झगड़ा, वसाय, मकान, अपना-पराया सब भूल गया। महा मा बु ने अपने
भ ु से कहा, "ऐसे ही एक दन जब परमा मा क आवाज आती है—मृ यु, तब तु हारे
बाजार, राजधा नयाँ सब ऐसे ही पड़ी रह जाती ह। हम सब जीवन भर रेत के घर ही तो
बनाते रहते ह और मरते व सब वह रह जाता है। जीवन का ल य रेत के मकान म रहते
ए वा त वक मकान को ढूँ ढ़ना है।

49. मु का माग
गौतम बु ने 29 वष क आयु म ःख से मु ा त करने का उपाय ढूँ ढ़ने के लए अपने
प रवार और गृह जीवन को छोड़ दया। नरंतर चतन-मनन के बाद 35 वष क आयु म
उ ह ने इसका रा ता खोज भी लया। 45 वष तक उ ह ने लगातार अपने वचार का चार
कया। जब उनका अंत समय आया, वह एक वृ के नीचे लेट गए और मृ यु क ती ा
करने लगे।
उस समय उनका केवल एक ही श य उनके पास था, आनंद। आनंद ही लंबे समय से बु
क सेवा कर रहा था। आनंद ने सोचा क बु का अंत समय नकट है। अगर यह बात पास
के गाँव म रहनेवाले बु के श य को न बताई जाए तो वे नाराज ह गे। आनंद के यह
बताने पर लोग बु का दशन करने उस वृ के पास प ँचने लगे। आसपास के इलाक म
इस बात क चचा फैल गई। एक अपनी ज ासा के समाधान के लए काफ उ सुक
था।
वह भोलाभाला ामीण था और नयादारी को ढं ग से नह जानता था, फर भी उसके मन
म एक ज ासा थी, जसे लेकर वह परेशान था। बु ने उसे अपने पास बुलाया। उस
ामीण ने हाथ जोड़कर बु से जीते जी मु पाने का माग बताने क ाथना क । बु ने
ामीण से कहा, "जीते जी ज म-मरण से मु ा त करना चाहते हो तो जीवन म तीन
बात याद रखो और इन बात पर अमल भी करो।" सब लोग यान से सुनने लगे। बु ने
कहा, "पहली बात है पाप से, जहाँ तक संभव हो, बचो। सरी बात है जीवन म जतने भी
पु य कम कर सकते हो, करो एवं तीसरी बात है अपना मन, च नमल रखो।" ये श द
कहते ही बु ने अपने ाण याग दए। बु क इन तीन श ा को अपनाकर ामीण
ने जीते जी मु का माग पाया। ये तीन श ाएँ मानवता के लए अमू य दे न ह।

50. संयम का पाठ


बु के पास उनका एक श य आया और बौखलाए वर म बोला, "जम दार राम सह ने
मेरा अपमान कया है। आप अभी चल। उसे सबक सखाना होगा।" बु बोले, " यवर,
स े बौ का अपमान करने क श कसी म नह होती। तुम इस बात को भुला दो।
जब संग भुला दोगे तो अपमान कहाँ बचा रहेगा।" श य ने कहा, "उसने आपके त भी
अपश द का योग कया था। आप च लए तो सही। आपको दे खते ही वह श मदा हो
जाएगा और मा माँग लेगा। इससे म संतु हो जाऊँगा।"
बु कुछ वचारकर बोले, "अ ा, य द ऐसी बात है तो म अव य ही रामजी के पास
चलकर उसे समझाने का यास क ँ गा।" श य ने आतुर होकर कहा, "च लए, नह तो
रात घर आएगी।" बु ने कहा, "रात घरेगी तो या! रात के प चात् दन भी तो आएगा।
य द तुम वहाँ चलना आव यक ही समझते हो तो मुझे कल याद दलाना। कल चलगे।"
सरे दन बात आई-गई हो गई। श य अपने काम म लग गया और बु अपनी साधना म
लीन हो गए। दोपहर होने पर भी श य ने बु से कुछ नह कहा तो बु ने वयं ही श य
से पूछा, "आज रामजी के पास चलना है?" श य ने कहा, "नह , मने जब घटना पर फर
से वचार कया तो मुझे इस बात का आभास आ क भूल मेरी ही थी। अब रामजी के
पास चलने क कोई ज रत नह है।"

बु ने मुसकराकर कहा, "अगर हम तुरंत त या दे ने से बच तो हमारे भीतर क कटु ता


समा त हो जाती है।"

51. भ ु क यो यता
बौ मठ म सुवास नामक भ ु ब त ही मह वाकां ी था। वह चाहता था क बु क
तरह वह भी नव भ ु को द त करे और उसके श य उसक चरण-वंदना कर। मगर
वह समझ नह पा रहा था क अपनी यह इ ा कैसे पूरी करे। वह आम तौर पर सरे
भ ु से कटा-कटा सा रहता था। कई बार जब सरे भ ु उसे कुछ कहते तो वह उनसे
री बनाने क को शश करता या ऐसा कुछ कहता जससे उसक े ता सा बत हो। सरे
भ ु इस कारण उससे नाराज रहते थे।
एक दन बु ने जब वचन समा त कया और सभा ल खाली हो गया तो अवसर दे ख
सुवास ऊँचे त त पर वराजमान बु के पास जा प ँचा और कहने लगा, " भु, मुझे भी
आ ा दान कर क म भी नव भ ु को द त कर अपना श य बना सकूँ और आपक
तरह महा मा कहलाऊँ।" यह सुनकर बु खड़े हो गए और बोले, "जरा मुझे उठाकर
ऊपरवाले त त तक प ँचा दो।" सुवास बोला, " भु, इतने नीचे से तो म आपको नह उठा
पाऊँगा। इसके लए तो मुझे आपके बराबर ऊँचा उठना पड़ेगा।"

बु मुसकराए और बोले, " बलकुल ठ क कहा तुमने। इसी कार नव भ ु को द त


करने के लए तु ह मेरे समक होना पड़ेगा। जब तुम इतना तप कर लोगे तब कसी को
भी द त करने के लए तु ह मेरी आव यकता नह पड़ेगी। मगर इसके लए यास करना
होगा। केवल इ ा करने से कुछ नह होगा।" सुवास को अपनी भूल का अहसास हो गया।
उसने बु से मा माँगी। उस दन से उसका वहार म वन ता आ गई।

52. स ा साधु
भगवान् बु ने अपने श य को द ा दे ने के उपरांत उ ह धमच - वतन के लए अ य
नगर और गाँव म जाने क आ ा द । बु ने सभी श य से पूछा, "तुम सभी जहाँ कह
भी जाओगे वहाँ तु ह अ े और बुरे—दोन कार के लोग मलगे। अ े लोग तु हारी
सहायता करगे। बुरे लोग तु हारी नदा करगे और गा लयाँ दगे। तु ह इससे कैसा लगेगा?"
हर श य ने अपनी समझ से बु के न का उ र दया। एक गुणी श य ने बु से कहा,
"म कसी को बुरा नह समझता। य द कोई मेरी नदा करेगा या मुझे गा लयाँ दे गा तो म
समझूँगा क वह भला है य क उसने मुझे सफ गा लयाँ ही द , मुझ पर धूल तो
नह फक ।"

बु ने कहा, "और य द कोई तुम पर धूल फक दे तो?"


"म उ ह भला क ँगा, य क उसने सफ धूल ही तो फक , थ पड़ तो नह मारा।
"म उ ह बुरा नह क ँगा य क उ ह ने मुझे थ पड़ ही तो मारा, डंडा तो नह मारा।"
"य द कोई डंडा मार दे तो?"

"म उसे ध यवाद ँ गा, य क उसने मुझे केवल डंडे से ही मारा, ह थयार से नह मारा।"
"ले कन माग म तु ह डाकू भी मल सकते ह, जो तुम पर घातक ह थयार से हार कर
सकते ह।"

"तो या? म तो उ ह दयालु ही समझूँगा, य क वे केवल मारते ही ह, मार डालते।"


"और य द वे तु ह मार ही डाल?"

श य बोला, "इस जीवन और संसार म केवल ःख ही है। जतना अ धक जी वत र ँगा,


उतना अ धक ःख दे खना पड़ेगा। जीवन से मु के लए आ मह या करना तो महापाप
है। य द कोई जीवन से ऐसे ही छु टकारा दला दे तो उसका भी उपकार मानूँगा।"
श य के वचन सुनकर बु को अपार संतोष आ। वे बोले, "तुम ध य हो। केवल तुम ही
स े साधु हो। स ा साधु कसी भी दशा म सरे को बुरा नह समझता। जो सर म
बुराई नह दे खता, वही स ा प र ाजक होने के यो य है। तुम सदै व धम के माग पर
चलोगे।"

53. गृह जीवन का क याण


एक समय भगवान् बु को लय दे श के ककरप नामक को लयाँ के एक नगम म वहार
कर रहे थे। तब द घजानु नामक को लयपु भगवान् के नकट आया और नमन करके एक
ओर बैठकर उसने भगवान् बु को संबो धत कया :

"भंते, हम गृह जन काम-भोग म ल त रहनेवाले, पु -पौ क भीड़ म अपनी जीवन


या ा करते रहते ह। माला, गंध- व े लन करना, काशी के चंदन का लेप और सोने-चाँद
का सं ह करना ही हमारा जीवन ल य बन गया है। हम जैसे लोग के लए भी भंत,े आप
ऐसे ध म क दे शना कर, जसका आचरण करके हमारा यह ज म और परलोक भी
सुखकर और हतकर हो।"
भगवान् बु ने उ र दया, "एक गृह के जीवन म मंगल और सुख के लए चार साधन
सहायक होते ह, यह चार साधन ह :
"सतत यास क उपल (उ ान-संपदा), उपल क र ा (आर -संपदा), अ
म ता (क याण म ता) तथा संतु लत जी वका (समजी वता)।"
द घजानु ने पूछा, " नरंतर यास क उपल का अथ या है भु?"

" जस कसी काम से गृह आजी वका अ जत करता है चाहे खेती से, धनु व ा से,
पशुपालन से, राजा क नौकरी से उसम उसको पारंगत होना चा हए और आल य नह
करना चा हए। उसको अपने काय के उ चत तौर-तरीके जानने चा हए और अपने काय म
नपुणता और द ता उ प करनी चा हए। यह नरंतर यास क उपल (उ ानपाद-
संपदा) कहलाती है।"
द घजानु ने आगे पूछा, "भंत,े आर -संपदा या है?"
"जो संप एक गृह ारा मेहनत, ईमानदारी और सही तरीक से कमाई गई होती है,
उसे वह ऐसा दे खभाल करके ऐसा संचालन करता है, ता क राजा उसको हड़प न ले, चोर
उसे चुरा न सके, आग उसे जला न सके, पानी उसे बहा न दे और न ही भटके ए
उ रा धकारी उसे ले उड़, यह आर -संपदा है।"
द घजानु ने पूछा, "भंत,े क याण म ता या है?"

भगवान् बु ने कहा, " जस कसी ाम या शहर म गृह रहता है, वह सबसे बातचीत
करता है, बहस करता है, चाहे वह वृ या युवा तथा सुसं कृत ह , ासंप , शील
कुशलता से पूण ह , याग और बु से संप ह । वह ाक ालु के अनुसार
काय करता है, शीलवान के शील के साथ, या गय के याग के साथ, ावान क ा
के साथ। यह क याण म ता कहलाती है।"
ज ासु द घजानु ने आगे पूछा, "भंते, समजी वता या है?"
"एक गृह अपनी आय तथा य जानते ए एक संतु लत जीवनयापन करता है, न
फजूलखच , न कंजूसी, यह जानते ए क उसक आय य से बढ़कर रहेगी, न क
उसका य आय से बढ़कर।
"जैसे क एक तुलाधर सुनार, या उसका शा गद तराजू पकड़कर जानता है क कतना
झुक गया है, कतना उठ गया है, उस कार एक गृह अपनी आय तथा य को
जानकर संतु लत जीवन जीता है, न वह बेहद खच ला, न केवल बेहद कंजूस, इस कार
समझते ए क उसक आय य से बढ़कर रहेगी न क उसका आय से अ धक होगा।
"य द एक गृह कम आयवाला खच ला जीवन तीत करेगा, तो लोग उसे कहगे, यह
अपनी संप का ऐसे आनंद ले रहा है जैसे कोई बेल फल खाता है। य द एक चुर
आयवाला गृह कंजूसी का जीवन तीत करेगा तो लोग कहगे क यह भु खड़
क तरह मरेगा।
"इस कार सं चत धन संप , चार कार से नाश होता है :

1.अ धक भोग वलास, 2.म दरापान क लत, 3. जुआ और 4. पापी लोग से दो ती,
संग त तथा साँठ-गाँठ।
"जैसे क एक बड़े तालाब म चार जल वेश तथा चार जल नकास के रा ते ह , य द कोई
वेश माग बंद कर दे तथा नकास माग खोल दे और तब पया त वषा न हो, तो
तालाब म जल क कमी क उ मीद रहेगी, ले कन वृ क नह , वैसे ही सं चत संप के
वनाश के चार रा ते ह—अ धक भोग वलास, म दरापान क लत, जुआ और पापी लोग
से दो ती, संग त तथा साँठ-गाँठ।

"जमा पूँजी क समृ के चार माग है :


1. काम भोग म संयम, 2. म दरापान म संयम, 3. जुए म रत न होना और 4. अ े लोग
से म ता, संग त तथा साँठ-गाँठ।

"जैसे क एक बड़े तालाब म चार जल वेश तथा चार जल नकास के रा ते ह , य द कोई


वेश माग खोल दे तथा नकास माग बंद दे और तब पया त वषा हो जाए, तो
तालाब म जल के बढ़ने क उ मीद रहेगी, ले कन घटने क नह , वैसे ही सं चत संप क
वृ के चार रा ते ह। ये चार बात एक गृह के इसी जीवनकाल म क याण तथा स ता
म सहायक ह।"
भगवान् बु ने द घजानु से आगे कहा क "इसके अ त र एक गृह के क याण के
लए चार बात आव यक ह—
1. ा क उपल ( ा संपदा), 2. शील क उपल (शील संपदा) 3, याग क
उपल ( याग संपदा) और 4. ा क उपल ( ा संपदा)
द घजानु ने पूछा, "भंत,े ा क उपल या है?"

भगवान् ने उ र दया, "इसम गृह ा संप होता है, वह समयक संबु तथागत क
बु व उपल से आ व त होता है, पूणतया ान ा त, व ा तथा आचरण से संप ,
सुगत, लोक को जाननेवाले, सखाए जाने यो य मनु य के नायक, दे व तथा मनु य के
गु , सव तथा ध य ह, इसे कहते ह ा संपदा।"
द घजानु ने पूछा, "भंत,े शील क उपल या है?"

भगवान् बोले, "इसम गृह ाणी ह या से, चोरी से, यौन- म याचार से, झूठ बोलने से
तथा नशीले पदाथ से जो मृ तनाशक तथा माद उ प करता है— वरत रहता है। यह
कहलाता है शील संपदा।"
"भंते, याग क उपल या है?"

बु ने बोला, "इसम गृह अपने को च मल तथा धन-लोलुपता से मु कर घर म


रहता है, याग म संल न, मु ह त, उदारता म आनं दत, ज रतमंद क सहायता
करनेवाला, दान द णा म स । यह कहलाता है याग संपदा।"
"तो भंत,े ा क उपल या है?"

जब द घजानु ने यह न कया तो भगवान् बोले, "एक गृह जो ावान है, वह ऐसी


ा से संप है, पंच कंध क उ प तथा लय को समझता है, वह आय वप सना से
संप है, जो ःख वमु का लाभ दे ती है, इसे कहते ह ा क उपल — ा
संपदा।"

54. आ पाली और भ ु
बु अपने एक वास म वैशाली आए। कहते ह क उनके साथ दस हजार श य भी हमेशा
साथ रहते थे। सभी श य त दन वैशाली क ग लय म भ ा माँगने जाते थे। वैशाली म
ही आ पाली का महल भी था। वह वैशाली क सबसे सुंदर ी और नगरवधू थी। वह
वैशाली के राजा, राजकुमार , और सबसे धनी और श शाली य का मनोरंजन
करती थी। एक दन उसके ार पर भी एक भ ुक भ ा माँगने के लए आया। उस
भ ुक को दे खते ही वह उसके ेम म पड़ गई। वह त दन ही राजा और राजकुमार को
दे खती थी पर मा एक भ ापा लये ए उस भ ुक म उसे अनुपम ग रमा और स दय
दखाई दया।
वह अपने परकोटे से भागी आई और भ ुक से बोली, "आइए, कृपया मेरा दान गृहण
कर।"
उस भ ुक के पीछे और भी कई भ ुक थे। उन सभी को अपनी आँख पर व वास नह
आ। जब युवक भ ु आ पाली क भवन म भ ा लेने के लए गया तो वे ई या और
ोध से जल उठे ।

भ ा दे ने के बाद आ पाली ने युवक भ ु से कहा, "तीन दन के बाद वषाकाल ारंभ


होनेवाला है। म चाहती ँ क आप उस अव ध म मेरे महल म ही रह।"

युवक भ ु ने कहा, "मुझे इसके लए अपने वामी तथागत बु से अनुम त लेनी होगी।
य द वे अनुम त दगे तो म यहाँ क जाऊँगा।"
उसके बाहर नकलने पर अ य भ ु ने उससे बात क । उसने आ पाली के नवेदन के
बारे म बताया। यह सुनकर सभी भ ु बड़े ो धत हो गए। वे तो एक दन के लए ही इतने
ई यालु हो गए थे और यहाँ तो पूरे चार महीन क योजना बन रही थी। युवक भ ु के बु
के पास प ँचने से पहले ही कई भ ु वहाँ प ँच गए और उ ह ने इस वृ ांत को बढ़ा-
चढ़ाकर सुनाया, "वह ी वै या है और एक भ ु वहाँ पूरे चार महीन तक कैसे रह सकता
है?"
बु ने कहा, "शांत रहो। उसे आने दो। अभी उसने कने का न चय नह कया है। वह
वहाँ तभी केगा, जब म उसे अनुम त ँ गा।"
युवक भ ु आया और उसने बु के चरण छू कर सारी बात बताई, "आ पाली यहाँ क
नगरवधू है। उसने मुझे चातुमास म अपने महल म रहने के लए कहा है। सारे भ ु कसी-
न- कसी के घर म रहगे। मने उसे कहा है क आपक अनुम त मलने के बाद ही म वहाँ रह
सकता ँ।"

बु ने उसक आँख म दे खा और कहा, "तुम वहाँ रह सकते हो?"

यह सुनकर कई भ ु को ब त बड़ा आघात प ँचा। वे सभी इस पर व वास नह कर


पा रहे थे क बु ने एक युवक श य को एक वै या के घर म चार मास तक रहने के लए
अनुम त दे द । तीन दन के बाद युवक भ ु आ पाली के महल म रहने के लए चला
गया। अ य भ ु नगर म चल रही बात बु को सुनाने लगे, "सारे नगर म एक ही चचा हो
रही है क एक युवक भ ु आ पाली के महल म चार महीन तक रहेगा।"

बु ने कहा, "तुम सब अपनी चया का पालन करो। मुझे अपने श य पर व वास है। मने
उसक आँख म दे खा है क उसके मन म अब कोई इ ाएँ नह ह। य द म उसे अनुम त न
भी दे ता तो भी उसे बुरा नह लगता, मने उसे अनुम त द और वह चला गया। मुझे उसके
यान और संयम पर व वास है। तुम सभी इतने और च तत य हो रहे हो? य द
उसका ध म अटल है तो आ पाली भी उससे भा वत ए बना नह रहेगी, और य द
उसका ध म नबल है तो वह आ पाली के सामने समपण कर दे गा। यह तो भ ु के लए
परी ण का समय है, बस चार महीन तक ती ा कर लो। मुझे उस पर पूण व वास है।
वह मेरे व वास पर खरा उतरेगा।"

उनम से कई भ ु को बु क बात पर व वास नह आ। उ ह ने सोचा, "वे उस पर


नाहक ही इतना भरोसा करते ह। भ ु अभी युवक है और आ पाली ब त सुंदर है। वे
भ ु संघ क त ा को खतरे म डाल रहे ह।" ले कन वे कुछ कर भी नह सकते थे।

चार महीन के बाद युवक भ ु वहार लौट आया और उसके पीछे -पीछे आ पाली भी बु
के पास आई। आ पाली ने बु से भ ुणी संघ म वेश दे ने क आ ा माँगी। उसने कहा,
"मने आपके भ ु को अपनी ओर ख चने के हरसंभव यास कए पर म हार गई। उसके
आचरण ने मुझे यह मानने पर ववश कर दया क आपके चरण म ही स य और मु का
माग है। म अपनी सम त संपदा भ ु संघ के लए दान म दे ती ँ।"

आ पाली के महल और उपवन को चातुमास म सभी भ ु के रहने के लए उपयोग म


लया जाने लगा। वह बु के संघ म सबसे त त भ ु णय म से एक थी।

55. पटाचारा
पटाचारा ाव ती के नगरसेठ क पु ी थी। कशोरवय होने पर वह अपने घरेलू नौकर के
ेम म पड़ गई। जब उसके माता- पता उसके ववाह के लए उपयु वर खोज रहे थे, तब
वह नौकर के साथ भाग गई। दोन अप रप व प त-प नी एक छोटे से नगर म जा बसे।
कुछ समय बाद पटाचारा गभवती हो गई। वयं को अकेले पाकर उसका दल घबराने लगा
और उसने प त से कहा, "हम यहाँ अकेले रह रहे ह। म गभवती ँ और मुझे कसी क
सहायता क आव यकता है। आप आ ा द तो म अपने माता- पता के घर चली जाऊँ?"

प त पटाचारा को उसके मायके नह भेजना चाहता था। इस लए उसने कोई बहाना


बनाकर उसका जाना गत कर दया।

ले कन पटाचारा के मन म माता- पता के घर जाने क इ ा बड़ी बलवती हो रही थी। एक


दन जब उसका प त काम पर गया आ था, तब उसने पड़ोसी से कहा, "आप मेरे वामी
को बता दे ना क म कुछ समय के लए अपने माता- पता के घर जा रही ँ।"
जब प त को इसका पता चला तो उसे ब त बुरा लगा। उसे अपने ऊपर ला न भी ई क
उसके कारण ही इस कुलीन क या क इतनी ग त हो रही है। वह उसे ढूँ ढ़ने के लए उसी
माग पर चल दया। रा ते म पटाचारा उसे मल गई। प त ने उसे समझा-बुझाकर घर वापस
लवा लया। समय पर पटाचारा को सव आ। सभी सुखपूवक रहने लगे।
पटाचारा जब सरी बार गभवती ई तब प त वयं उसे उसके माता- पता के घर ले जाने
के लए तैयार हो गया।

माग म जोर क आँधी-वषा होने लगी। पटाचारा ने प त से कहा क वह कसी सुर त


ान क खोज करे। प त झा ड़य से होकर गुजर रहा था तभी उसे एक वषधर साँप ने
काट लया और वह त ण मृ यु को ा त हो गया।
पटाचारा अपने प त क ती ा करती रही और ऐसे म ही उसे सव हो गया। थोड़ी श
जुटाकर उसने दोन ब को साथ लया और प त को खोजने नकल पड़ी।

जब उसे प त मृत मला तो वह फूट-फूटकर रोने लगी, "हाय! मेरे कारण ही मेरे प त क
मृ यु हो गई!"
अब अपने माता- पता के सवा उसका कोई न था। वह उनके नगर क और बढ़ चली।
रा ते म नद पड़ती थी। उसने दे खा क दोन ब को साथ लेकर नद पार करना क ठन
था इस लए बड़े ब े को उसने एक कनारे पर बठा दया और सरे को छाती से
चपकाकर सरे कनारे को बढ़ चली। वहाँ प ँचकर उसने छोटे ब े को कपड़े म
लपेटकर झा ड़य म रख दया और बड़े ब े को लेने के लए वापस नद म उतर गई। नद
पार करते समय उसक आँख छोटे ब े पर ही लगी ई थ । उसने दे खा क एक बड़ा ग
ब े पर झपटकर उसे ले जाने क चे ा कर रहा है। वह चीखी- च लाई, ले कन कुछ नह
आ। सरे कनारे पर बैठे ब े ने जब अपनी माँ क चीख-पुकार सुनी तो उसे लगा क
माँ उसे बुला रही है। वह झटपट पानी म उतर गया और तेज बहाव म बह गया।

छोटे ब े को ग ले उड़ा और बड़ा नद म बह गया! उसका छोटा सा प रवार पूरा न हो


गया। वह वलाप करती ई अपने पता के घर को चल द । रा ते म उसे अपने नगर का
एक या ी मल गया, जसने उसे बताया क नगरसेठ का प रवार अथात् उसके माता- पता
और सभी भाई-बहन कुछ समय पहले घर म आग लग जाने के कारण मर गए।
यह सुनते ही पटाचारा पर ःख का पहाड़ टू ट पड़ा। उसे तन-मन क कोई सुध न रही। वह
पागल होकर नव घूमने लगी। उसके मुख से ये ही श द नकलते, "प त मर गया। बड़ा
बेटा डू ब गया। छोटे को ग खा गया। माता- पता और भाई-बहन को चता भी नसीब
नह ई।"

ऐसे ही वलाप करती नव घूमती- फरती पटाचारा को सभी अपमा नत और लां छत


करके यहाँ से वहाँ भगा दे ते थे।

जेतवन म भगवान् बु धम पदे श दे रहे थे। पटाचारा अनायास ही वहाँ आ गई। उप त


ने कहा, "अरे, ये तो पागल है। इसे यहाँ से भगाओ।" बु ने उ ह रोकते ए कहा, "इसे
मत रोको, मेरे पास आने दो।" पटाचारा जब बु के कुछ समीप आई तो बु ने उससे
कहा, "बेट , अपनी चेतना को सँभाल।" भगवन् को अपने सम पाकर पटाचारा को कुछ
होश आया और अपनी न नता का बोध हो आया। कसी ने उसे चादर से ढाँक दया। वह
फूट-फूटकर रोने लगी, "भगवन्, मेरे प त को साँप ने डस लया और छोटे -छोटे ब े मेरी
आँख के सामने मारे गए। मेरे माता- पता, बंधु-बाँधव सभी जलकर मर गए। मेरा अब कोई
नह है। मेरी र ा करो।"
बु ने उससे कहा, " ःखी मत हो। अब तुम मेरे पास आ गई हो। जन प रजन क मृ यु
के लए तुम आँसू बहा रही हो, ऐसे ही अनंत आँसू तुम ज म-ज मांतर से बहाती आ रही
हो। उनसे भरने के लए तो महासमु भी छोटे पड़ जाएँगे। तेरी र ा कोई नह कर सकता।
जब मृ यु आती है तो कोई प रजन आ द काम नह आते।"
यह सुनकर पटाचारा का शोक कुछ कम आ। उसने बु से साधना क अनुम त माँगी।
बु ने उसे अपने संघ म शरण दे द । धम के परम ोत के इतने समीप रहकर पटाचारा का
ःख जाता रहा। वह न य यान व ान क साधना म नपुण हो गई।
एक दन नान करते समय उसने दे खा क दे ह पर पहले डाला गया पानी कुछ र जाकर
सूख गया, फर सरी बार डाला गया पानी थोड़ी और र जाकर सूख गया, और तीसरी
बार डाला गया पानी उससे भी आगे जाकर सूख गया।

इस अ यंत साधारण घटना म पटाचारा को समा ध का सू् मल गया। पहली बार उड़ेले
गए पानी के समान कुछ जीव अ पायु म ही मर जाते ह, सरी बार उड़ेले गए पानी के
समान कुछ जीव म यम वयता म चल बसते ह और तीसरी बार उड़ेले गए पानी के जैसे
कुछ जीव अं तम वयस म मरते ह। सभी मरते ह। सभी अ न य ह।"
ऐसे म पटाचारा को यह भान आ जैसे अनंत क णावान भु बु उससे कह रहे ह, "हाँ,
पटाचारे, सम त ाणी मरणधमा ह।"
इस कार पटाचारा उन बौ सा धका म गनी गई जनको नः यास ही एक
जीवनकाल म ही नवाण ा त हो गया।

56. समझ से उसके मतलब


भगवान् बु सां यकालीन वचन दे कर हमेशा क तरह तीन बार बोले—अब अपना-
अपना काय संप कर। और उठकर अपने व ाम ल क ओर बढ़ गए। आनंद भी
उनके पीछे -पीछे वहाँ प ँच गया। आज आनंद ने आ खर बु से पूछ ही लया क आप
एक ही बात को तीन बार य दोहराते ह?
बु क आदत थी क हर बात वे अपने श य को तीन बार समझा दे ते थे। अब आनंद को
ये शायद फालतू क बात ही लगती होगी क अब रोज-रोज ये या तीन बार दोहराना क
जाओ, अब अपना अपना काम करो। अरे भाई वाभा वक और समझी ई बात है क बु
के भ ु हो तो, सां य कम और सभा के बाद सब ई वर चतन और यान करो। अब ये भी
कोई रोज-रोज समझाने क बात है भला?

अब बु ने कहा, "आनंद, तुम कहते तो ठ क हो क भ ु को रोज-रोज या समझाना क


जाओ, अब अपना-अपना काम करो। पर तुमने शायद यान नह दया क यहाँ धम सभा
म आस-पास क ब तय के भी काफ सारे लोग आते ह। और वे शायद पहली बार भी
आए ए हो सकते ह, इस लए उनक स लयत के लए भी ये ज री हो जाता है।" पर
आनंद के हाव-भाव से महा मा बु को ऐसा लगा क वह इस बात से शायद सहमत नह
है।
अब बु बोले, "आनंद, अब तुम एक काम करो, आज क ही सभा म जतने लोग बैठे थे,
उनम एक वे या और एक चोर भी वचन सुनने आए थे। और सं यासी तो खैर अनेक थे
ही। अब तुम एक काम करना क सुबह इन तीन (सं यासी, वे या और चोर) से जाकर
पूछना क कल रा धम-सभा म बु ने जो आ खरी वचन कहे उनसे वे या समझे?" अब
आनंद के आ चय का कोई ठकाना नह रहा। उसको खुद नह मालूम क इतनी बड़ी
हजार क धम-सभा म कौन आया और कौन नह आया? और भगवान् बु एक-एक
आदमी को जानते ह! और उसे आ चय आ क वे कैसे पहचान गए क कौन वे या है
और कौन चोर है। घोर आ चय आ आनंद को। उसने बु से उनके नाम-पते लेकर
मु कल म रा काट और सुबह होते ही तहक कात म लग गया क वाकई वे सब वही ह
जो बु ने बताए ह या कुछ और ह?
सुबह होते ही आनंद के सामने जो पहला सं यासी पड़ा, उससे आनंद ने पूछा, "रा सभा
म बु ने जो आ खरी वचन कहे क अब जाकर अपना-अपना काम करो। उन श द से
आपने या समझा?"
भ ु बोला, "इसम समझनेवाली या बात है? भ ु का न य कम है क शयन पूव का
यान करते-करते व ाम करो।" आनंद को इसी उ र क अपे ा थी, अतः वह अब तेजी
से नगर क ओर चल दया।

आनंद सीधे चोर के घर पूछते-पूछते प ँच गया। चोर भ ु आनंद को दे खते ही ग द हो


गया और उनक सेवा म लग गया। आनंद को बैठाकर उनसे आने का योजन पूछा।
आनंद ने अपना सवाल दोहरा दया।
चोर बड़े ही वन श द म बोला, " भ ,ु अब आपको या बताऊँ? कल रात पहली बार
बु क धमसभा म गया और उनके वचन सुनकर जीवन सफल हो गया। फर भगवान् ने
कहा क अब अपना-अपना काम करो। तो म तो चोर ँ अब बु के वचन सुनने के बाद
झूठ तो बोलूँगा नह । कल रात म वहाँ से चोरी करने चला गया और इतनी बड़ी चोरी क ,
जससे लग रहा है क जीवन म पहली बार इतना तगड़ा दाँव लगा है और आगे चोरी करने
क ज रत ही नह है।" आनंद को बड़ा आ चय आ और वह वहाँ से वे या के घर क
तरफ चल दया।
वे या भ ु आनंद को दे खते ही टप-टप ेमा ु बहाते ए उनके लए भ ा ले आई और
अंदर आकर बैठने के लए आ ह कया। आनंद अंदर जाकर बैठ गया और अपना सवाल
दोहरा दया।
वे या ने जवाब दया, " भ ु, ये भी कोई पूछने क बात है? भगवान् बु ने कहा क अब
जाओ अपना-अपना काम करो, इस लए उनके वचन टालने का तो कोई न ही नह है।
चूँ क मेरा काम तो नाचना-गाना है सो वहाँ से वचन सुनकर आने के बाद तैयार ई और
मह फल सजाई, और यक न मानो कल जैसी मह फल तो कभी सजी ही नह । और मेरे
सारे ाहक, जनम बड़े-बड़े राजे-महाराजे भी थे। उन सबने स होकर अपना सबकुछ
यहाँ लुटा दया। अब मुझे धन के लए ये कम करने क कभी आव यकता ही नह पड़ेगी।
बु क कृपा से एक रात म इतना सबकुछ हो गया।" आनंद बड़ा आ चयच कत होकर
वहाँ से वापस बु के पास लौट गया।

आनंद ने जाकर बु को णाम कया और सारी बात बताई। अब बु बोले, "आनंद, इस


संसार म जतने जीव ह उतने ही म त क ह, और बात तो एक ही होती है, पर हर आदमी
अपनी-अपनी समझ से उसके मतलब नकाल लेता है। अब तुम समझ ही गए ह गे क
बात तो एक ही थी पर सबक समझने क बु अलग-अलग थी। इसी लए म एक बात
को तीन बार कहता ँ क कोई गलती नह हो जाए पर उसके बाद भी सब अपने हसाब से
ही समझते ह, और इसका कोई उपाय नह है। ये सृ ही ऐसी है।"

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