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ीसीतारामा यां नमः

ीमद्गो वामी तुलसीदासजीर चत


वनय-प का
स ज द (सरल भावाथस हत)

वमेव माता च  पता  वमेव


वमेव ब धु  सखा  वमेव ।
वमेव  व ा  वणं  वमेव
वमेव सव मम दे वदे व ।।
सं० २०७४ पं हवाँ पुनमु ण  ५,०००
कुल मु ण  ७४,०००

काशक—

गीता ेस, गोरखपुर—२७३००५


(गो ब दभवन-कायालय, कोलकाता का सं थान)
फोन : (०५५१) २३३४७२१, २३३१२५०, २३३३०३०
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ीह रः
न नवेदन
इस वनय-प काके सरे सं करणम पाठका संशोधन वशेष पसे कया गया
था। सं कृत और अ धकांश सं कृत-पद म ायः शु श द का योग रखा गया था।
अ य पद म ायः पूववत् ही पाठ रखा था। भावाथम अनेक आव यक संशोधन कये
गये थे। प र श म कथा-भाग जोड़ दया गया था, जससे पु तकक उपादे यता और
भी बढ़ गयी। पाठ और भावाथके संशोधनम ीरामदासजी गौड़ एम्० ए० महोदयसे
एवं ी च मनलालजी गो वामी एम्० ए० शा ीसे बड़ी सहायता मली थी, इसके
लये म उनका दयसे कृत ।ँ तीसरे सं करणम भी कह -कह भावाथम साधारण
प रवतन कया गया था।
ीरामकृपासे इसी बहाने कुछ ीरामचचाक सु वधा मल जाती है, यह मेरा
सौभा य है। महा मा संत, व ान् और व पाठक-पा ठकाएँ मेरी इस धृ ताके लये
कृपापूवक मा कर।
वनीत—हनुमान साद पो ार

वषयानु म णका
वषय

ीगणेश- तु त
सूय- तु त
शव- तु त
दे वी- तु त
गंगा- तु त
यमुना- तु त
काशी- तु त
च कूट- तु त
हनुमत्- तु त
ल मण- तु त
भरत- तु त
श ु न- तु त
ीसीता- तु त
ीराम- तु त
ीराम-नाम-व दना
ीराम-आरती
ह रशंकरी-पद
ीराम- तु त
ीरंग- तु त
ीनर-नारायण- तु त
ी व माधव- तु त
ीराम-व दना
ीराम-नाम-जप
वनयावली
परश
राग—सूची
आसावरी—६२, १८३—१८८
क याण—२०८—२११, २१४—२७९
का हरा—२४, २०४—२०७
केदारा—४१—४४, २१२—२१३
गौरी—३१, ३६, ४५, १८९—१९७
जैत ी—६३, ८३—८४
टोड़ी—७८—८२
द डक—३७
धना ी—४—५, १०—१२, २५—२९, ३८—४०, ८५—१०५
नट—१५८—१६०
बस त—१३—१४, २३, ६४
बलावल—१—३, २१, ३२—३५, १०७, १३४, १३७—१५४, १७९—१८२
बहाग—१०७—१३४
भैरव—२२, ६५—७३
भैरवी—१९८—२०३
मलार—१६१
मा —१५
रामकली—६—९, १६—२०, ४६—६१, १०६
ल लत—७५—७७
वभास—७४
सारंग—३०, १५५—१५७
सूहो बलावल—१३५—१३६
सोरठ—१६२—१७८
न य ाथना
कर णाम तेरे चरण म लगता ँ अब तेरे काज ।
पालन करनेको आ ा तव म नयु होता ँ आज ।।
अंतरम थत रहकर मेरे बागडोर पकड़े रहना ।
नपट नरंकुश चंचल मनको सावधान करते रहना ।।
अ तयामीको अ तः थत दे ख सशङ् कत होवे मन ।
पाप-वासना उठते ही हो नाश लाजसे वह जल-भुन ।।
जीव का कलरव जो दनभर सुननेम मेरे आवे ।
तेरा ही गुणगान जान मन मु दत हो अ त सुख पावे ।।
तू ही है सव ा त ह र तुझम यह सारा संसार ।
इसी भावनासे अंतरभर मलूँ सभीसे तुझे नहार ।।
तपल नज इ यसमूहसे जो कुछ भी आचार क ँ ।
केवल तुझे रझानेको, बस तेरा ही वहार क ँ ।।
(भजन-सं हसे)
ीसीतारामा यां नमः

वनय-प का
राग बलावल
ीगणेश- तु त
[१]
गाइये गनप त जगबंदन । संकर-सुवन भवानी-नंदन ।। १ ।।
स -सदन, गज-बदन, बनायक । कृपा- सधु, सुंदर, सब-लायक ।। २ ।।
मोदक- य, मुद-मंगल-दाता । ब ा-बा र ध, बु - बधाता ।। ३ ।।
माँगत तुल सदास कर जोरे । बस ह राम सय मानस मोरे ।। ४ ।।
भावाथ—स पूण जगत्के व दनीय, गण के वामी ीगणेशजीका गुणगान क जये, जो
शव-पावतीके पु और उनको स करनेवाले ह ।। १ ।। जो स य के थान ह, जनका
हाथीका-सा मुख है, जो सम त व न के नायक ह यानी व न को हटानेवाले ह, कृपाके समु
ह, सु दर ह, सब कारसे यो य ह ।। २ ।। ज ह लड् डू ब त य है, जो आन द और
क याणको दे नेवाले ह, व ाके अथाह सागर ह, बु के वधाता ह ।। ३ ।। ऐसे
ीगणेशजीसे यह तुलसीदास हाथ जोड़कर केवल यही वर माँगता है क मेरे मनम दरम
ीसीतारामजी सदा नवास कर ।। ४ ।।

सूय- तु त
[२]
द न-दयालु दवाकर दे वा । कर मु न, मनुज, सुरासुर सेवा ।। १ ।।
हम-तम-क र-केह र करमाली । दहन दोष- ख- रत- जाली ।। २ ।।
कोक-कोकनद-लोक- कासी । तेज- ताप- प-रस-रासी ।। ३ ।।
सार थ-पंगु, द य रथ-गामी । ह र-संकर- ब ध-मूर त वामी ।। ४ ।।
बेद-पुरान गट जस जागै । तुलसी राम-भग त बर माँगै ।। ५ ।।
भावाथ—हे द नदयालु भगवान् सूय! मु न, मनु य, दे वता और रा स सभी आपक
सेवा करते ह ।। १ ।। आप पाले और अ धकार पी हा थय को मारनेवाले वनराज सह ह;
करण क माला पहने रहते ह; दोष, ःख, राचार और रोग को भ म कर डालते ह ।। २ ।।
रातके बछु ड़े ए चकवा-चक वय को मलाकर स करनेवाले, कमलको खलानेवाले तथा
सम त लोक को का शत करनेवाले ह। तेज, ताप, प और रसक आप खा न ह ।। ३ ।।
आप द रथपर चलते ह, आपका सारथी (अ ण) लूला है। हे वामी! आप व णु, शव
और ाके ही प ह ।। ४ ।। वेद-पुराण म आपक क त जगमगा रही है। तुलसीदास
आपसे ीराम-भ का वर माँगता है ।। ५ ।।

शव- तु त
[३]
को जाँ चये संभु त ज आन ।
द नदयालु भगत-आर त-हर, सब कार समरथ भगवान ।। १ ।।
कालकूट-जुर जरत सुरासुर, नज पन ला ग कये बष पान ।
दा न दनुज, जगत- खदायक, मारेउ पुर एक ही बान ।। २ ।।
जो ग त अगम महामु न लभ, कहत संत, ु त, सकल पुरान ।
सो ग त मरन-काल अपने पुर, दे त सदा सव सब ह समान ।। ३ ।।
सेवत सुलभ, उदार कलपत , पारबती-प त परम सुजान ।
दे काम- रपु राम-चरन-र त, तुल सदास कहँ कृपा नधान ।। ४ ।।
भावाथ—भगवान् शवजीको छोड़कर और कससे याचना क जाय? आप द न पर
दया करनेवाले, भ के क हरनेवाले और सब कारसे समथ ई र ह ।। १ ।। समु -
म थनके समय जब कालकूट वषक वालासे सब दे वता और रा स जल उठे , तब आप
अपने द न पर दया करनेके णक र ाके लये तुरंत उस वषको पी गये। जब दा ण दानव
पुरासुर जगत्को ब त ःख दे ने लगा, तब आपने उसको एक ही बाणसे मार
डाला ।। २ ।। जस परम ग तको संत-महा मा, वेद और सब पुराण महान् मु नय के लये भी
लभ बताते ह, हे सदा शव! वही परम ग त काशीम मरनेपर आप सभीको समानभावसे दे ते
ह ।। ३ ।। हे पावतीप त! हे परम सुजान!! सेवा करनेपर आप सहजम ही ा त हो जाते ह,
आप क पवृ के समान मुँहमाँगा फल दे नेवाले उदार ह, आप कामदे वके श ु ह। अतएव, हे
कृपा नधान! तुलसीदासको ीरामके चरण क ी त द जये ।। ४ ।।
राग धना ी
[४]
दानी क ँ संकर-सम नाह ।
द न-दयालु दबोई भावै, जाचक सदा सोहाह ।। १ ।।
मा रकै मार थ यौ जगम, जाक थम रेख भट माह ।
ता ठाकुरकौ री झ नवा जबौ, क ौ य परत मो पाह ।। २ ।।
जोग को ट क र जो ग त ह रस , मु न माँगत सकुचाह ।
बेद- ब दत ते ह पद पुरा र-पुर, क ट पतंग समाह ।। ३ ।।
ईस उदार उमाप त प रह र, अनत जे जाचन जाह ।
तुल सदास ते मूढ़ माँगने, कब ँ न पेट अघाह ।। ४ ।।
भावाथ—शंकरके समान दानी कह नह है। वे द नदयालु ह, दे ना ही उनके मन भाता
है, माँगनेवाले उ ह सदा सुहाते ह ।। १ ।। वीर म अ णी कामदे वको भ म करके फर बना
ही शरीर जगत्म उसे रहने दया, ऐसे भुका स होकर कृपा करना मुझसे य कर कहा
जा सकता है? ।। २ ।। करोड़ कारसे योगक साधना करके मु नगण जस परम ग तको
भगवान् ह रसे माँगते ए सकुचाते ह वही परम ग त पुरा र शवजीक पुरी काशीम क ट-
पतंग भी पा जाते ह, यह वेद से कट है ।। ३ ।। ऐसे परम उदार भगवान् पावतीप तको
छोड़कर जो लोग सरी जगह माँगने जाते ह, उन मूख माँगनेवाल का पेट भलीभाँ त कभी
नह भरता ।। ४ ।।
[५]
बावरो रावरो नाह भवानी ।
दा न बड़ो दन दे त दये बनु, बेद-बड़ाई भानी ।। १ ।।
नज घरक बरबात बलोक , हौ तुम परम सयानी ।
सवक दई संपदा दे खत, ी-सारदा सहानी ।। २ ।।
जनके भाल लखी ल प मेरी, सुखक नह नसानी ।
तन रंकनकौ नाक सँवारत, ह आयो नकबानी ।। ३ ।।
ख-द नता खी इनके ख, जाचकता अकुलानी ।
यह अ धकार स पये और ह, भीख भली म जानी ।। ४ ।।
ेम- संसा- बनय- यंगजुत, सु न ब धक बर बानी ।
तुलसी मु दत महेस मन ह मन, जगत-मातु मुसुकानी ।। ५ ।।
भावाथ—( ाजी लोग का भा य बदलते-बदलते हैरान होकर पावतीजीके पास
जाकर कहने लगे) हे भवानी! आपके नाथ ( शवजी) पागल ह। सदा दे ते ही रहते ह। जन
लोग ने कभी कसीको दान दे कर बदलेम पानेका कुछ भी अ धकार नह ा त कया, ऐसे
लोग को भी वे दे डालते ह, जससे वेदक मयादा टू टती है ।। १ ।। आप बड़ी सयानी ह,
अपने घरक भलाई तो दे खये (य दे ते-दे ते घर खाली होने लगा है, अन धका रय को)
शवजीक द ई अपार स प दे ख-दे खकर ल मी और सर वती भी ( ंगसे) आपक
बड़ाई कर रही ह ।। २ ।। जन लोग के म तकपर मने सुखका नाम- नशान भी नह लखा
था, आपके प त शवजीके पागलपनके कारण उन कंगाल के लये वग सजाते-सजाते मेरे
नाक दम आ गया है ।। ३ ।। कह भी रहनेको जगह न पाकर द नता और ः खय के ःख
भी ःखी हो रहे ह और याचकता तो ाकुल हो उठ है। लोग क भा य ल प बनानेका यह
अ धकार कृपाकर आप कसी सरेको स पये, म तो इस अ धकारक अपे ा भीख माँगकर
खाना अ छा समझता ँ ।। ४ ।। इस कार ाजीक ेम, शंसा, वनय और ंगसे भरी
ई सु दर वाणी सुनकर महादे वजी मन-ही-मन मु दत ए और जग जननी पावती मुसकराने
लग ।। ५ ।।
राग रामकली
[६]
जाँ चये ग रजाप त कासी । जासु भवन अ नमा दक दासी ।। १ ।।
औढर-दा न वत पु न थोर । सकत न दे ख द न करजोर ।। २ ।।
सुख-संप त, म त-सुग त सुहाई । सकल सुलभ संकर-सेवकाई ।। ३ ।।
गये सरन आर तकै ली हे । नर ख नहाल न मषमहँ क हे ।। ४ ।।
तुल सदास जाचक जस गावै । बमल भग त रघुप तक पावै ।। ५ ।।
भावाथ—पावतीप त शवजीसे ही याचना करनी चा हये, जनका घर काशी है और
अ णमा, ग रमा, म हमा, ल घमा, ा त, ाका य, ई श व और व श व नामक आठ
स याँ जनक दासी ह ।। १ ।। शवजी महाराज औढरदानी ह, थोड़ी-सी सेवासे ही पघल
जाते ह। वह द न को हाथ जोड़े खड़ा नह दे ख सकते, उनक कामना ब त शी पूरी कर
दे ते ह ।। २ ।। शंकरक सेवासे सुख, स प , सुबु और उ म ग त आ द सभी पदाथ
सुलभ हो जाते ह ।। ३ ।। जो आतुर जीव उनक शरण गये, उ ह शवजीने तुरंत अपना लया
और दे खते ही पलभरम सबको नहाल कर दया ।। ४ ।। भखारी तुलसीदास भी यश गाता
है, इसे भी रामक नमल भ क भीख मले! ।। ५ ।।
[७]
कस न द नपर व उमाबर । दा न बप त हरन क नाकर ।। १ ।।
बेद-पुरान कहत उदार हर । हम र बेर कस भये कृ पनतर ।। २ ।।
कव न भग त क ही गुन न ध ज । होइ स द हे सव पद नज ।। ३ ।।
जो ग त अगम महामु न गाव ह । तव पुर क ट पतंग पाव ह ।। ४ ।।
दे काम- रपु! राम-चरन-र त । तुल सदास भु! हर भेद-म त ।। ५ ।।
भावाथ—हे उमा-रमण! आप इस द नपर कैसे कृपा नह करते? हे क णाक खा न!
आप घोर वप य के हरनेवाले ह ।। १ ।। वेद-पुराण कहते ह क शवजी बड़े उदार ह, फर
मेरे लये आप इतने अ धक कृपण कैसे हो गये? ।। २ ।। गुण न ध नामक ा णने आपक
कौन-सी भ क थी, जसपर स होकर आपने उसे अपना क याणपद दे दया ।। ३ ।।
जस परम ग तको महान् मु नगण भी लभ बतलाते ह, वह आपक काशीपुरीम क ट-
पतंग को भी मल जाती है ।। ४ ।। हे कामा र शव! हे वामी!! तुलसीदासक भेद-बु
हरणकर उसे ीरामके चरण क भ द जये ।। ५ ।।
[८]
दे व बड़े, दाता बड़े, संकर बड़े भोरे ।
कये र ख सब नके, ज ह- ज ह कर जोरे ।। १ ।।
सेवा, सु मरन, पू जबौ, पात आखत थोरे ।
दये जगत जहँ ल ग सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ।। २ ।।
गाँव बसत बामदे व, म कब ँ न नहोरे ।
अ धभौ तक बाधा भई, ते ककर तोरे ।। ३ ।।
बे ग बो ल ब ल बर जये, करतू त कठोरे ।
तुलसी द ल, ँ यो चह सठ सा ख सहोरे ।। ४ ।।
भावाथ—हे शंकर! आप बड़े दे व ह, बड़े दानी ह और बड़े भोले ह। जन- जन लोग ने
आपके सामने हाथ जोड़े, आपने बना भेद-भावके उन सब लोग के ःख र कर
दये ।। १ ।। आपक सेवा, मरण और पूजनम तो थोड़े-से बेलप और चावल से ही काम
चल जाता है, परंतु इनके बदलेम आप हाथी, रथ, घोड़े और जगत्म जतने सुखके पदाथ ह,
सो सभी दे डालते ह ।। २ ।। हे वामदे व! म आपके गाँव (काशी)-म रहता ँ, मने कभी
आपसे कुछ माँगा नह , अब आ धभौ तक क के पम ये आपके ककरगण मुझे सताने
लगे ह ।। ३ ।। इस लये आप इन कठोर कम करनेवाल को ज द बुलाकर डाँट द जये, म
आपक बलैया लेता ँ, य क ये तुलसीदास पी तुलसीके पेड़को कुचलकर उसक
जगह शाखोट (सहोर)-के पेड़ लगाना चाहते ह ।। ४ ।।
[९]
सव! सव! होइ स क दाया ।
क नामय उदार क र त, ब ल जाउँ हर नज माया ।। १ ।।
जलज-नयन, गुन-अयन, मयन- रपु, म हमा जान न कोई ।
बनु तव कृपा राम-पद-पंकज, सपने ँ भग त न होई ।। २ ।।
रषय, स , मु न, मनुज, दनुज, सुर, अपर जीव जग माह ।
तव पद बमुख न पार पाव कोउ, कलप को ट च ल जाह ।। ३ ।।
अ हभूषन, षन- रपु-सेवक, दे व-दे व, पुरारी ।
मोह- नहार- दवाकर संकर, सरन सोक-भयहारी ।। ४ ।।
ग रजा-मन-मानस-मराल, कासीस, मसान- नवासी ।
तुल सदास ह र-चरन-कमल-बर, दे भग त अ बनासी ।। ५ ।।
भावाथ—हे क याण प शवजी! स होकर दया क जये। आप क णामय ह,
आपक क त सब ओर फैली ई है, म ब लहारी जाता ँ, कृपापूवक अपनी माया हर
ली जये ।। १ ।। आपके ने कमलके समान ह, आप सवगुणस प ह, कामदे वके श ु ह।
आपक कृपा बना न तो कोई आपक म हमा जान सकता है और न ीरामके चरणकमल म
व म भी उसक भ होती है ।। २ ।। ऋ ष, स , मु न, मनु य, दै य, दे वता और जगत्म
जतने जीव ह, वे सब आपके चरण से वमुख रहते ए करोड़ क प बीत जानेपर भी
संसार-सागरका पार नह पा सकते ।। ३ ।। सप आपके भूषण ह, षणको मारनेवाले (और
सारे दोष को हरनेवाले) भगवान् ीरामके आप सेवक ह, आप दे वा धदे व ह, पुरासुरका
संहार करनेवाले ह। हे शंकर! आप मोह पी कोहरेका नाश करनेके लये सा ात् सूय ह,
शरणागत जीव का शोक और भय हरण करनेवाले ह ।। ४ ।। हे काशीपते! हे
मशान नवासी!! हे पावतीके मन पी मानसरोवरम वहार करनेवाले राजहंस!!!
तुलसीदासको ीह रके े चरणकमल म अनपा यनी भ का वरदान द जये ।। ५ ।।
राग धना ी
[१०]
दे व,
मोह-तम-तर ण, हर, , शंकर, शरण, हरण, मम शोक लोका भरामं ।
बाल-श श-भाल, सु वशाल लोचन-कमल, काम-सतको ट-लाव य-धामं ।। १ ।।
कंबु-कुंद -कपूर- व ह चर, त ण-र व-को ट तनु तेज ाजै ।
भ म सवाग अधाग शैला मजा, ाल-नृकपाल-माला वराजै ।। २ ।।
मौ लसंकुल जटा-मुकुट व ु छटा, त ट न-वर-वा र ह र-चरण-पूतं ।
वण कुंडल, गरल कंठ, क णाकंद, स चदानंद वंदेऽवधूतं ।। ३ ।।
शूल-शायक पनाका स-कर, श ु-वन-दहन इव धूम वज, वृषभ-यानं ।
ा -गज-चम-प रधान, व ान-घन, स -सुर-मु न-मनुज-से मानं ।। ४ ।।
तांड वत-नृ यपर, डम ड डम वर, अशुभ इव भा त क याणराशी ।
महाक पांत ांड-मंडल-दवन, भवन कैलास, आसीन काशी ।। ५ ।।
त , सव , य ेश, अ युत, वभो, व भवदं शसंभव पुरारी ।
, चं ाक, व णा न, वसु, म त, यम, अ च भवदं सवा धकारी ।। ६ ।।
अकल, न पा ध, नगुण, नरंजन, , कम-पथमेकमज न वकारं ।
अ खल व ह, उ प, शव, भूपसुर, सवगत, शव सव पकारं ।। ७ ।।
ान-वैरा य, धन-धम, कैव य-सुख, सुभग सौभा य शव! सानुकूलं ।
तद प नर मूढ आ ढ संसार-पथ, मत भव, वमुख तव पादमूलं ।। ८ ।।
न म त, अ त, क -रत, खेद-गत, दास तुलसी शंभु-शरण आया ।
दे ह कामा र! ीराम-पद-पंकजे भ अनवरत गत-भेद-माया ।। ९ ।।
भावाथ—हे शव! मोहा धकारका नाश करनेके लये आप सा ात् सूय ह। हे हर! हे
! हे शर य! हे लोका भराम! आप मेरा शोक हरण करनेवाले ह, आपके म तकपर
तीयाका बाल-च शोभा पा रहा है, आपके बड़े-बड़े ने कमलके समान ह। आप सौ
करोड़ कामदे वके समान सु दरताके भ डार ह ।। १ ।। आपक सु दर मू त शंख, कु द,
च मा और कपूरके समान शु वण है; करोड़ म या के सूय के समान आपके शरीरका
तेज झलमला रहा है; सम त शरीरम भ म लगी ई है। आधे अंगम हमाचल-क या
पावतीजी शो भत हो रही ह; साँप और नर-कपाल क माला आपके गलेम वराज रही
है ।। २ ।। म तकपर बजलीके समान चमकते ए पगलवण जटा-जूटका मुकुट है तथा
भगवान् ीह रके चरण से प व ई गंगाजीका े जल शो भत है। कान म कुंडल ह;
क ठम हलाहल वष झलक रहा है; ऐसे क णाक द स चदान द व प, अवधूतवेश
भगवान् शवजीक म व दना करता ँ ।। ३ ।। आपके करकमल म शूल, बाण, धनुष और
तलवार है; श ु पी वनको भ म करनेके लये आप अ नके समान ह। बैल आपक सवारी
है। बाघ और हाथीका चमड़ा आप शरीरम लपेटे ए ह। आप व ानघन ह यानी आपके
ानम कह कभी अवकाश नह है तथा आप स , दे व, मु न, मनु य आ दके ारा से वत
ह ।। ४ ।। आप ता डव-नृ य करते ए सु दर डम को डम डम- डम डम बजाते ह,
दे खनेम अशुभ प तीत होनेपर भी आप क याणक खा न ह। महा लयके समय आप
सारे ा डको भ म कर डालते ह, कैलास आपका भवन है और काशीम आप आसन
लगाये रहते ह ।। ५ ।। आप त वके जाननेवाले ह, सव ह, य के वामी ह, वभु ( ापक)
ह, सदा अपने व पम थत रहते ह। हे पुरा र! यह सारा व आपके ही अंशसे उ प है।
ा, इ , च , सूय, व ण, अ न, आठ वसु, उनचास म त् और यम आपके चरण क
पूजा करनेसे ही सवा धकारी बने ह ।। ६ ।। आप कलार हत ह, उपा धर हत ह, नगुण ह,
नलप ह, पर ह। कम-पथम एक ही ह, ज मर हत और न वकार ह। सारा व आपक
ही मू त है, आपका प बड़ा उ होनेपर भी आप मंगलमय ह, आप दे वता के वामी ह,
सव ापी ह, संहारकता होते ए भी सबका उपकार करनेवाले ह ।। ७ ।। हे शव! आप
जसपर अनुकूल होते ह उसको ान, वैरा य, धन-धम, कैव य-सुख (मो ) और सु दर
सौभा य आ द सब सहज ही मल जाते ह; तो भी खेद है क मूख मनु य आपक
चरणसेवासे मुँह मोड़कर संसारके वकट पथपर इधर-उधर भटकते फरते ह ।। ८ ।। हे
श भो! हे कामा र!! म न -बु , अ य त , क म पड़ा आ, ःखी तुलसीदास आपक
शरण आया ँ; आप मुझे ीरामके चरणार व दम ऐसी अन य एवं अटल भ द जये
जससे भेद प मायाका नाश हो जाय ।। ९ ।।

भैरव प शव- तु त
[११]
दे व,
भीषणाकार, भैरव, भयंकर, भूत- ेत- मथा धप त, वप त-हता ।
मोह-मूषक-माजार, संसार-भय-हरण, तारण-तरण, अभय कता ।। १ ।।
अतुल बल, वपुल व तार, व ह गौर, अमल अ त धवल धरणीधराभं ।
शर स संकु लत-कल-जूट पगलजटा, पटल शत-को ट- व ु छटाभं ।। २ ।।
ाज वबुधापगा आप पावन परम, मौ ल-मालेव शोभा व च ं ।
ल लत ल लाटपर राज रजनीशकल, कलाधर, नौ म हर धनद- म ं ।। ३ ।।
इं -पावक-भानु-नयन, मदन-मयन, गुण-अयन, ान- व ान- पं ।
रमण- ग रजा, भवन भूधरा धप सदा, वण कुंडल, वदनछ व अनूपं ।। ४ ।।
चम-अ स-शूल-धर, डम -शर-चाप-कर, यान वृषभेश, क णा- नधानं ।
जरत सुर-असुर, नरलोक शोकाकुलं, मृ ल चत, अ जत, कृत गरलपानं ।। ५ ।।
भ म तनु-भूषणं, ा -चमा बरं, उरग-नर-मौ ल उर मालधारी ।
डा कनी, शा कनी, खेचरं, भूचरं, यं -मं -भंजन, बल क मषारी ।। ६ ।।
काल अ तकाल, क लकाल, ाला द-खग, पुर-मदन, भीम-कम भारी ।
सकल लोका त-क पा त शूला कृत द गजा -गुण नृ यकारी ।। ७ ।।
पाप-संताप-घनघोर संसृ त द न, मत जग यो न न ह को प ाता ।
पा ह भैरव- प राम- पी , बंध,ु गु , जनक, जननी, वधाता ।। ८ ।।
य य गुण-गण गण त वमल म त शारदा, नगम नारद- मुख चारी ।
शेष, सवश, आसीन आनंदवन, दास तुलसी णत- ासहारी ।। ९ ।।
भावाथ—हे भीषणमू त भैरव! आप भयंकर ह। भूत, ेत और गण के वामी ह।
वप य के हरण करनेवाले ह। मोह पी चूहेके लये आप बलाव ह; ज म-मरण प
संसारके भयको र करनेवाले ह; सबको तारनेवाले, वयं मु प और सबको अभय
करनेवाले ह ।। १ ।। आपका बल अतुलनीय है तथा अ त वशाल शरीर गौरवण, नमल,
उ वल और शेषनागक -सी का तवाला है। सरपर सु दर पीले रंगका सौ करोड़
बज लय के समान आभावाला जटाजूट शो भत हो रहा है ।। २ ।। म तकपर मालाक तरह
व च शोभावाली, परम प व जलमयी दे वनद गंगा वराजमान है। सु दर ललाटपर
च माक कमनीय कला शोभा दे रही है, ऐसे कुबेरके म शवजीको म नम कार करता
ँ ।। ३ ।। च मा, अ न और सूय आपके ने ह; आप कामदे वका दमन करनेवाले ह,
गुण के भ डार और ान- व ान प ह। पावतीके साथ आप वहार करते ह और सदा ही
पवतराज कैलास आपका भवन है। आपके कान म कु डल ह और आपके मुखक सु दरता
अनुपम है ।। ४ ।। आप ढाल, तलवार और शूल धारण कये ए ह; आपके हाथ म डम ,
बाण और धनुष ह। बैल आपक सवारी है और आप क णाके खजाने ह। आपक क णाका
इसीसे पता लगता है क आप समु से नकले ए भयानक अजेय वषक वालासे दे वता,
रा स और मनु यलोकको जलता आ और शोकम ाकुल दे खकर क णाके वश होकर
उसे वयं पी गये ।। ५ ।। भ म आपके शरीरका भूषण है, आप बाघंबर धारण कये ए ह।
आपने साँप और नरमु ड क माला दयपर धारण कर रखी है। डा कनी, शा कनी, खेचर
(आकाशम वचरनेवाली आ मा ), भूचर (पृ वीपर वचरनेवाले भूत- ेत आ द) तथा
य -म का आप नाश करनेवाले ह। बल पाप को पलभरम न कर डालते ह ।। ६ ।।
आप कालके भी महाकाल ह, क लकाल पी सप के लये आप ग ड़ ह। पुरासुरका मदन
करनेवाले तथा और बड़े-बड़े भयानक काय करनेवाले ह। सम त लोक के नाश करनेवाले
महा लयके समय अपनी शूलक नोकसे द गज को छे दकर आप गुणातीत होकर नृ य
करते ह ।। ७ ।। इस पाप-स तापसे पूण भयानक संसारम म द न होकर चौरासी लाख
यो नय म भटक रहा ँ, मुझे कोई भी बचानेवाला नह है। हे भैरव प! हे राम पी !!
आप ही मेरे ब धु, गु , पता, माता और वधाता ह। मेरी र ा क जये ।। ८ ।। जनके
गुण का नमल बु वाली सर वती, वेद और नारद आ द ानी तथा शेषजी सदा गान
करते ह, तुलसीदास कहते ह, वे भ को अभय दान करनेवाले सव र शवजी आन दवन
काशीम वराजमान ह ।। ९ ।।
[१२]
सदा—
शंकरं, शं दं , स जनानंददं , शैल-क या-वरं, परमर यं ।
काम-मद-मोचनं, तामरस-लोचनं, वामदे वं भजे भावग यं ।। १ ।।
कंबु-कुंद -कपूर-गौरं शवं, सुंदरं, स चदानंदकंदं ।
स -सनका द-योग -वृंदारका, व णु- व ध-व चरणार वदं ।। २ ।।
-कुल-व लभं, सुलभ म त लभं, वकट-वेषं, वभु,ं वेदपारं ।
नौ म क णाकरं, गरल-गंगाधरं, नमलं, नगुणं, न वकारं ।। ३ ।।
लोकनाथं, शोक-शूल- नमू लनं, शू लनं मोह-तम-भू र-भानुं ।
कालकालं, कलातीतमजरं, हरं, क ठन-क लकाल-कानन-कृशानुं ।। ४ ।।
त म ान-पाथो ध-घटसंभवं, सवगं, सवसौभा यमूलं ।
चुर-भव-भंजनं, णत-जन-रंजनं, दास तुलसी शरण सानुकूलं ।। ५ ।।
भावाथ—क याणकारी, क याणके दाता, संतजन को आन द दे नेवाले, हमाचलक या
पावतीके प त, परम रमणीय, कामदे वके घम डको चूण करनेवाले, कमलने , भ से ा त
होनेवाले महादे वका म भजन करता ँ ।। १ ।। जनका शरीर शंख, कु द, च और कपूरके
समान चकना, कोमल, शीतल, ेत और सुग धत है; जो क याण प, सु दर और
स चदान द क द ह। स , सनक, सन दन, सनातन, सन कुमार, यो गराज, दे वता, व णु
और ा जनके चरणार व दक व दना कया करते ह ।। २ ।। जनको ा ण का कुल
य है; जो संत को सुलभ और जन को लभ ह; जनका वेष बड़ा वकराल है; जो वभु ह
और वेद से अतीत ह; जो क णाक खान ह; गरलको (क ठम) और गंगाको (म तकपर)
धारण करनेवाले ह; ऐसे नमल, नगुण और न वकार शवजीको म नम कार करता
ँ ।। ३ ।। जो लोक के वामी, शोक और शूलको नमूल करनेवाले; शूलधारी तथा महान्
मोहा धकारको नाश करनेवाले सूय ह। जो कालके भी काल ह, कलातीत ह, अजर ह,
आवागमन प संसारको हरनेवाले और क ठन क लकाल पी वनको जलानेके लये अ न
ह ।। ४ ।। यह तुलसीदास उन त ववे ा, अ ान पी समु के सोखनेके लये अग य प,
सवा तयामी, सब कारके सौभा यक जड़, ज म-मरण प अपार संसारका नाश करनेवाले,
शरणागत जन को सुख दे नेवाले, सदा सानुकूल शवजीक शरण है ।। ५ ।।
राग वस त
[१३]
सेव सव-चरन-सरोज-रेनु । क यान-अ खल- द कामधेनु ।। १ ।।
कपूर-गौर, क ना-उदार । संसार-सार, भुजगे -हार ।। २ ।।
सुख-ज मभू म, म हमा अपार । नगुन, गुननायक, नराकार ।। ३ ।।
यनयन, मयन-मदन महेस । अहँकार नहार-उ दत दनेस ।। ४ ।।
बर बाल नसाकर मौ ल ाज । ैलोक-सोकहर मथराज ।। ५ ।।
ज ह कहँ ब ध सुग त न लखी भाल । त ह क ग त कासीप त कृपाल ।। ६ ।।
उपकारी कोऽपर हर-समान । सुर-असुर जरत कृत गरल पान ।। ७ ।।
ब क प उपायन क र अनेक । बनु संभ-ु कृपा न ह भव- बबेक ।। ८ ।।
ब यान-भवन, ग रसुता-रमन । कह तुल सदास मम ाससमन ।। ९ ।।
भावाथ—स पूण क याणके दे नेवाली कामधेनुक तरह शवजीके चरण-कमलक
रजका सेवन करो ।। १ ।। वे शवजी कपूरके समान गौरवण ह, क णा करनेम बड़े उदार ह,
इस अना म प असार संसारम आ म प सार-त व ह, सप के राजा वासु कका हार पहने
रहते ह ।। २ ।। वे सुखक ज मभू म ह—सम त सुख उन सुख पसे ही नकलते ह, उनक
अपार म हमा है, वे तीन गुण से अतीत ह, सब कारके द गुण के वामी ह, व तुतः
उनका कोई आकार नह है ।। ३ ।। उनके तीन ने ह, वे मदनका मदन करनेवाले महे र,
अहंकार प कोहरेके लये उदय ए सूय ह ।। ४ ।। उनके म तकपर सु दर बाल च मा
शो भत है, वे तीन लोक का शोक हरण करनेवाले तथा गण के राजा ह ।। ५ ।। वधाताने
जनके म तकपर अ छ ग तका कोई योग नह लखा, काशीनाथ कृपालु शवजी उनक
ग त ह— शवजीक कृपासे वे भी सुग त पा जाते ह ।। ६ ।। ीशंकरके समान उपकारी
संसारम सरा कौन है, ज ह ने वषक वालासे जलते ए दे व-दानव को बचानेके लये
वयं वष पी लया ।। ७ ।। अनेक क प तक कतने ही उपाय य न कये जायँ, शवजीक
कृपा बना संसारके असली व पका ान कभी नह हो सकता ।। ८ ।। तुलसीदास कहते
ह क हे व ानके धाम पावती-रमण शंकर! आप ही मेरे भयको र करनेवाले ह ।। ९ ।।
[१४]
दे खो दे खो, बन ब यो आजु उमाकंत । मान दे खन तुम ह आई रतु बसंत ।। १ ।।
जनु तनु त चंपक-कुसुम-माल । बर बसन नील नूतन तमाल ।। २ ।।
कलकद ल जंघ, पद कमल लाला । सूचत क ट केह र, ग त मराल ।। ३ ।।
भूषन सून ब ब बध रंग । नूपुर क क न कलरव बहंग ।। ४ ।।
कर नवल बकुल-प लव रसाल । ीफल कुच, कंचु कलता-जाल ।। ५ ।।
आनन सरोज, कच मधुप गुंज । लोचन बसाल नव नील कंज ।। ६ ।।
पक बचन च रत बर ब ह क र । सत सुमन हास, लीला समीर ।। ७ ।।
कह तुल सदास सुनु सव सुजान । उर ब स पंच रचे पंचबान ।। ८ ।।
क र कृपा ह रय म-फंद काम । जे ह दय बस ह सुखरा स राम ।। ९ ।।
भावाथ—दे खये, शवजी! आज आप वन बन गये ह। आपके अ ागम थत
ीपावतीजी मानो वस त-ऋतु बनकर आपको दे खने आयी ह ।। १ ।। आपके शरीरक
का त मानो च पाके फूल क माला है, सु दर नीले व नवीन तमाल-प ह ।। २ ।। सु दर
जंघाएँ केलेके वृ और चरण लाल कमल ह, पतली कमर सहक और सु दर चाल हंसक
सूचना दे रही है ।। ३ ।। गहने अनेक रंग के ब त-से फूल ह, नूपुर (पजनी) और क कणी
(करधनी) प य का सुमधुर श द है ।। ४ ।। हाथ मौल सरी और आमके प े ह, तन बेलके
फल और चोली लता का जाल है ।। ५ ।। मुख कमल और बाल गूँजते ए भ रे ह, वशाल
ने नवीन नील कमलक पंख ड़याँ ह ।। ६ ।। मधुर वचन कोयल तथा सु दर च र मोर और
तोते ह, हँसी सफेद फूल और लीला शीतल-म द-सुग ध समीर है ।। ७ ।। तुलसीदास कहते
ह क हे परम ानी शवजी! यह कामदे व मेरे दयम बसकर बड़ा पंच रचता है ।। ८ ।।
इस कामक म-फाँसीको काट डा लये, जससे सुख व प ीराम मेरे दयम सदा नवास
कर ।। ९ ।।

दे वी- तु त
राग मा
[१५]
सह दोष- ख, दल न, क दे व दाया ।
व -मूलाऽ स, जन-सानुकूलाऽ स, कर शूलधा र ण महामूलमाया ।। १ ।।
त डत गभाग सवाग सु दर लसत, द पट भ भूषण वराज ।
बालमृग-मंजु खंजन- वलोच न, च वद न ल ख को ट र तमार लाज ।। २ ।।
प-सुख-शील-सीमाऽ स, भीमाऽ स, रामाऽ स, वामाऽ स वर बु बानी ।
छमुख-हेरंब-अंबा स, जगदं बके, शंभ-ु जाया स जय जय भवानी ।। ३ ।।
चंड-भुजदं ड-खंड न, बहंड न म हष मुंड-मद-भंग कर अंग तोरे ।
शुंभ- नःशुंभ कु भीश रण-केश र ण, ोध-वारीश अ र-वृ द बोरे ।। ४ ।।
नगम-आगम-अगम गु व! तव गुन-कथन, उ वधर करत जे ह सहसजीहा ।
दे ह मा, मो ह पन ेम यह नेम नज, राम घन याम तुलसी पपीहा ।। ५ ।।
भावाथ—हे दे व! तुम ःसह दोष और ःख को दमन करनेवाली हो, मुझपर दया
करो। तुम व - ा डक मूल (उ प थान) हो, भ पर सदा अनुकूल रहती हो,
दलनके लये हाथम शूल धारण कये हो और सृ क उ प करनेवाली मूल
(अ ाकृत) कृ त हो ।। १ ।। तु हारे सु दर शरीरके सम त अंग म बजली-सी चमक रही
है, उनपर द व और सु दर आभूषण शो भत हो रहे ह। तु हारे ने मृगछौने और
खंजनके ने के समान सु दर ह, मुख च माके समान है, तु ह दे खकर करोड़ र त और
कामदे व ल जत होते ह ।। २ ।। तुम प, सुख और शीलक सीमा हो; के लये तुम
भयानक प धारण करनेवाली हो। तु ह ल मी, तु ह पावती और तु ह े बु वाली
सर वती हो। हे जग जन न! तुम वा मका तकेय और गणेशजीक माता हो और शवजीक
गृ हणी हो; हे भवानी! तु हारी जय हो, जय हो ।। ३ ।। तुम च ड दानवके भुजद ड का
ख डन करनेवाली और म हषासुरको मारनेवाली हो, मु ड दानवके घम डका नाश कर
तु ह ने उसके अंग- यंग तोड़े ह। शुंभ- नशुंभ पी मतवाले हा थय के लये तुम रणम
स हनी हो। तुमने अपने ोध पी समु म श ु के दल-के-दल डु बो दये ह ।। ४ ।। वेद,
शा और सह जीभवाले शेषजी तु हारा गुणगान करते ह; पर तु उसका पार पाना उनके
लये बड़ा क ठन है। हे माता! मुझ तुलसीदासको ीरामजीम वैसा ही ण, ेम और नेम दो,
जैसा चातकका याम मेघम होता है ।। ५ ।।
राग रामकली
[१६]
जय जय जगजन न दे व सुर-नर-मु न-असुर-से व,
भु -मु -दा यनी, भय-हर ण का लका ।
मंगल-मुद- स -सद न, पवशवरीश-वद न,
ताप- त मर-त ण-तर ण- करणमा लका ।। १ ।।
वम, चम कर कृपाण, शूल-शेल-धनुषबाण,
धर ण दल न दानव-दल, रण-करा लका ।
पूतना- पशाच- ेत-डा क न-शा क न-समेत,
भूत- ह-बेताल-खग-मृगा ल-जा लका ।। २ ।।
जय महेश-भा मनी, अनेक- प-ना मनी,
सम त-लोक- वा मनी, हमशैल-बा लका ।
रघुप त-पद परम ेम, तुलसी यह अचल नेम,
दे ै स पा ह णत-पा लका ।। ३ ।।
भावाथ—हे जगत्क माता! हे दे व!! तु हारी जय हो, जय हो। दे वता, मनु य, मु न
और असुर सभी तु हारी सेवा करते ह। तुम भोग और मो दोन को ही दे नेवाली हो।
भ का भय र करनेके लये तुम का लका हो। क याण, सुख और स य क थान हो।
तु हारा सु दर मुख पू णमाके च के स श है। तुम आ या मक, आ धभौ तक और
आ धदै वक ताप पी अ धकारका नाश करनेके लये म या के त ण सूयक करण-माला
हो ।। १ ।। तु हारे शरीरपर कवच है। तुम हाथ म ढाल-तलवार, शूल, साँगी और धनुष-
बाण लये हो। दानव के दलका संहार करनेवाली हो, रणम वकराल प धारण कर लेती हो।
तुम पूतना, पशाच, ेत और डा कनी-शा क नय के स हत भूत, ह और बेताल पी प ी
और मृग के समूहको पकड़नेके लये जाल प हो ।। २ ।। हे शवे! तु हारी जय हो। तु हारे
अनेक प और नाम ह। तुम सम त संसारक वा मनी और हमाचलक क या हो। हे
शरणागतक र ा करनेवाली! म तुलसीदास ीरघुनाथजीके चरण म परम ेम और अचल
नेम चाहता ँ, सो स होकर मुझे दो और मेरी र ा करो ।। ३ ।।

गंगा- तु त
राग रामकली
[१७]
जय जय भगीरथन द न, मु न-चय चकोर-च द न,
नर-नाग- बबुध-ब द न जय ज बा लका ।
ब नु-पद-सरोजजा स, ईस-सीसपर बभा स,
पथगा स, पु यरा स, पाप-छा लका ।। १ ।।
बमल बपुल बह स बा र, सीतल यताप-हा र,
भँवर बर बभंगतर तरंग-मा लका ।
पुरजन पूजोपहार, सो भत स स धवलधार,
भंजन भव-भार, भ -क पथा लका ।। २ ।।
नज तटबासी बहंग, जल-थर-चर पसु-पतंग,
क ट, ज टल तापस सब स रस पा लका ।
तुलसी तव तीर तीर सु मरत रघुबंस-बीर,
बचरत म त दे ह मोह-म हष-का लका ।। ३ ।।
भावाथ—हे भगीरथन द न! तु हारी जय हो, जय हो। तुम मु नय के समूह पी
चकोर के लये च का प हो। मनु य, नाग और दे वता तु हारी व दना करते ह। हे ज क
पु ी! तु हारी जय हो। तुम भगवान् व णुके चरणकमलसे उ प ई हो; शवजीके
म तकपर शोभा पाती हो; वग, भू म और पाताल—इन तीन माग से तीन धारा म होकर
बहती हो। पु य क रा श और पाप को धोनेवाली हो ।। १ ।। तुम अगाध नमल जलको
धारण कये हो, वह जल शीतल और तीन ताप का हरनेवाला है। तुम सु दर भँवर और अ त
चंचल तरंग क माला धारण कये हो। नगर- नवा सय ने पूजाके समय जो साम याँ भट
चढ़ायी ह उनसे तु हारी च माके समान धवल धारा शो भत हो रही है। वह धारा संसारके
ज म-मरण प भारको नाश करनेवाली तथा भ पी क पवृ क र ाके लये था हा प
है ।। २ ।। तुम अपने तीरपर रहनेवाले प ी, जलचर, थलचर, पशु, पतंग, क ट और
जटाधारी तप वी आ द सबका समानभावसे पालन करती हो। हे मोह पी म हषासुरको
मारनेके लये का लका प गंगाजी! मुझ तुलसीदासको ऐसी बु दो क जससे वह
ीरघुनाथजीका मरण करता आ तु हारे तीरपर वचरा करे ।। ३ ।।
[१८]
जय त जय सुरसरी जगद खल-पावनी ।
व णु-पदकंज-मकरंद इव अ बुवर वह स, ख दह स, अघवृ द- व ा वनी ।। १
।।
म लत जलपा -अज यु -ह रचरणरज, वरज-वर-वा र पुरा र शर-
धा मनी ।
ज -क या ध य, पु यकृत सगर-सुत, भूधर ो ण- व र ण, ब ना मनी ।। २ ।।
य , गंधव, मु न, क रोरग, दनुज, मनुज म ज ह सुकृत-पुंज युत-का मनी ।
वग-सोपान, व ान- ान दे , मोह-मद-मदन-पाथोज- हमया मनी ।। ३ ।।
ह रत गंभीर वानीर ँ तीरवर, म य धारा वशद, व अ भरा मनी ।
नील-पयक-कृत-शयन सपश जनु, सहस सीसावली ोत सुर- वा मनी ।। ४ ।।
अ मत-म हमा, अ मत प, भूपावली-मुकुट-म नवं ैलोक पथगा मनी ।
दे ह रघुबीर-पद- ी त नभर मातु, दासतुलसी ासहर ण भवभा मनी ।। ५ ।।
भावाथ—हे गंगाजी! तु हारी जय हो, जय हो। तुम स पूण संसारको प व करनेवाली
हो। व णुभगवान्के चरण-कमलके मकर दरसके समान सु दर जल धारण करनेवाली हो।
ःख को भ म करनेवाली और पाप के समूहका नाश करनेवाली हो ।। १ ।। भगवान्क
चरणरजसे म त तु हारा नमल सु दर जल ाजीके कम डलुम भरा रहता है, तुम
शवजीके म तकपर रहनेवाली हो। हे जा वी! तु ह ध य है। तुमने सगरके साठ हजार
पु का उ ार कर दया। तुम पवत क क दरा को वद ण करनेवाली हो। तु हारे अनेक
नाम ह ।। २ ।। जो य , ग धव, मु न, क र, नाग, दै य और मनु य अपनी य स हत
तु हारे जलम नान करते ह, वे अन त पु य के भागी हो जाते ह। तुम वगक नसेनी हो और
ान- व ान दान करनेवाली हो। मोह, मद और काम पी कमल के नाशके लये तुम
श शर-ऋतुक रा हो ।। ३ ।। तु हारे दोन सु दर तीर पर हरे और घने बतके वृ लगे ह
और उनके बीचम संसारको सुख प ँचानेवाली तु हारी वशाल नमल धारा बह रही है, यह
ऐसा सु दर य है मानो नीले रंगके पलंगपर सह फनवाले शेषनाग सो रहे ह। हे
दे वता क वा मनी! तु हारे हजार सोते शेषजीक फनावली-जैसे शो भत हो रहे
ह ।। ४ ।। तु हारी असीम म हमा है, अग णत प ह, राजा क मुकुटम णय से तुम
व दनीय हो। हे तीन माग से जानेवाली! हे शव ये!! हे भव-भयहा रणी जननी!!! मुझ
तुलसीदासको ीरघुनाथजीके चरण म अन य ेम दो ।। ५ ।।
[१९]
हर न पाप बध ताप सु मरत सुरस रत ।
बलस त म ह क प-बे ल मुद-मनोरथ-फ रत ।। १ ।।
सोहत स स धवल धार सुधा-स लल-भ रत ।
बमलतर तरंग लसत रघुबरके-से च रत ।। २ ।।
तो बनु जगदं ब गंग क लजुग का क रत?
घोर भव अपार सधु तुलसी क म त रत ।। ३ ।।
भावाथ—हे गंगाजी! मरण करते ही तुम पाप और दै हक, दै वक, भौ तक—इन
तीन ताप को हर लेती हो। आन द और मनोकामना के फल से फली ई क पलताके
स श तुम पृ वीपर शो भत हो रही हो ।। १ ।। अमृतके समान मधुर एवं मृ युसे छु ड़ानेवाले
जलसे भरी ई तु हारी च माके स श धवल धारा शोभा पा रही है। उसम नमल
रामच र के समान अ य त नमल तरंग उठ रही ह ।। २ ।। हे जग जननी गंगाजी! तुम न
होत तो पता नह क लयुग या- या अनथ करता और यह तुलसीदास घोर अपार संसार-
सागरसे कैसे तरता? ।। ३ ।।
[२०]
ईस-सीस बस स, पथ लस स, नभ-पताल-धर न ।
सुर-नर-मु न-नाग- स -सुजन मंगल-कर न ।। १ ।।
दे खत ख-दोष- रत-दाह-दा रद-दर न ।
सगर-सुवन साँस त-सम न, जल न ध जल भर न ।। २ ।।
म हमाक अव ध कर स ब ब ध ह र-हर न ।
तुलसी क बा न बमल, बमल बा र बर न ।। ३ ।।
भावाथ—हे गंगाजी! तुम शवजीके सरपर वराजती हो; आकाश, पाताल और पृ वी
—इन तीन माग से बहती ई शोभायमान होती हो। दे वता, मनु य, मु न, नाग, स और
स जन का तुम क याण करती हो ।। १ ।। तुम दे खते ही ःख, दोष, पाप, ताप और
द र ताका नाश कर दे ती हो। तुमने सगरके साठ हजार पु को यम-यातनासे छु ड़ा दया।
जल न ध समु म तुम सदा जल भरा करती हो ।। २ ।। ाके कम डलुम रहकर, व णुके
चरणसे नकलकर और शवजीके म तकपर वराजकर तु ह ने तीन क म हमा बढ़ा रखी है।
हे गंगाजी! जैसा तु हारा नमल पापनाशक जल है, तुलसीदासक वाणीको भी वैसी ही
नमल बना दो, जससे वह सवपापनाशक रामच रतका गान कर सके ।। ३ ।।

यमुना- तु त
राग बलावल
[२१]
जमुना य य लागी बाढ़न ।
य य सुकृत-सुभट क ल भूप ह, नद र लगे ब काढ़न ।। १ ।।
य य जल मलीन य य जमगन मुख मलीन लहै आढ़ न ।
तुल सदास जगदघ जवास य अनघमेघ लगे डाढ़न ।। २ ।।
भावाथ—यमुनाजी य - य बढ़ने लग , य - य पु य पी यो ागण क लयुग पी
राजाका नरादर करते ए उसे नकालने लगे ।। १ ।। बरसातम यमुनाजीका जल बढ़कर
य - य मैला होने लगा, य - य यम त का मुख भी काला होता गया। अ तम उ ह कोई
भी आसरा नह रहा, अब वे कसको यमलोकम ले जायँ? तुलसीदास कहते ह क
यमुनाजीके बढ़ते ही पु य पी मेघने संसारके पाप पी जवासेको जलाकर भ म कर
डाला ।। २ ।।

काशी- तु त
राग भैरव
[२२]
सेइअ स हत सनेह दे ह भ र, कामधेनु क ल कासी ।
सम न सोक-संताप-पाप- ज, सकल-सुमंगल-रासी ।। १ ।।
मरजादा च ँओर चरनबर, सेवत सुरपुर-बासी ।
तीरथ सब सुभ अंग रोम सव लग अ मत अ बनासी ।। २ ।।
अंतरऐन ऐन भल, थन फल, ब छ बेद- ब वासी ।
गलकंबल ब ना बभा त जनु, लूम लस त, स रताऽसी ।। ३ ।।
दं डपा न भैरव बषान, मल च-खलगन-भयदा-सी ।
लोल दनेस लोचन लोचन, करनघंट घंटा-सी ।। ४ ।।
म नक नका बदन-स स सुंदर, सुरस र-सुख सुखमा-सी ।
वारथ परमारथ प रपूरन, पंचको स म हमा-सी ।। ५ ।।
ब वनाथ पालक कृपालु चत, लाल त नत ग रजा-सी ।
स , सची, सारद पूज ह मन जोगव त रह त रमा-सी ।। ६ ।।
पंचा छरी ान, मुद माधव, ग य सुपंचनदा-सी ।
-जीव-सम रामनाम जुग, आखर ब व बकासी ।। ७ ।।
चा रतु चर त करम कुकरम क र, मरत जीवगन घासी ।
लहत परमपद पय पावन, जे ह चहत पंच-उदासी ।। ८ ।।
कहत पुरान रची केसव नज कर-करतू त कला-सी ।
तुलसी ब स हरपुरी राम जपु, जो भयो चहै सुपासी ।। ९ ।।
भावाथ—इस क लयुगम काशी पी कामधेनुका ेमस हत जीवनभर सेवन करना
चा हये। यह शोक, स ताप, पाप और रोगका नाश करनेवाली तथा सब कारके क याण क
खा न है ।। १ ।। काशीके चार ओरक सीमा इस कामधेनुके सु दर चरण ह। वगवासी
दे वता इसके चरण क सेवा करते ह। यहाँके सब तीथ थान इसके शुभ अंग ह और नाशर हत
अग णत शव लग इसके रोम ह ।। २ ।। अ तगृही (काशीका म यभाग) इस कामधेनुका
ऐन* (ग ) है। अथ, धम, काम, मो —ये चार फल इसके चार थन ह; वेदशा पर व ास
रखनेवाले आ तक लोग इसके बछड़े ह— व ासी पु ष को ही इसम नवास करनेसे
मु पी अमृतमय ध मलता है; सु दर व णा नद इसक गल-कंबलके समान शोभा बढ़ा
रही है और असी नामक नद पूँछके पम शो भत हो रही है ।। ३ ।। द डधारी भैरव इसके
स ग ह, पापम मन रखनेवाले को उन स ग से यह सदा डराती रहती है। लोलाक (कु ड)
और लोचन (एक तीथ) इसके ने ह और कणघ टा नामक तीथ इसके गलेका घ टा
है ।। ४ ।। म णक णका इसका च माके समान सु दर मुख है, गंगाजीसे मलनेवाला पाप-
ताप-नाश पी सुख इसक शोभा है। भोग और मो पी सुख से प रपूण पंचकोसीक
प र मा ही इसक म हमा है ।। ५ ।। दयालु दय व नाथजी इस कामधेनुका पालन-पोषण
करते ह और पावती-सरीखी नेहमयी जग जननी इसपर सदा यार करती रहती ह; आठ
स याँ, सर वती और इ ाणी शची उसका पूजन करती ह; जगत्का पालन करनेवाली
ल मी-सरीखी इसका ख दे खती रहती ह ।। ६ ।। ‘नमः शवाय’ यह पंचा री म ही
इसके पाँच ाण ह। भगवान् व माधव ही आन द ह। पंचनद (पंचगंगा) तीथ ही इसके
पंचग † ह। यहाँ संसारको कट करनेवाले रामनामके दो अ र ‘रकार’ और ‘मकार’ इसके
अ ध ाता और जीव ह ।। ७ ।। यहाँ मरनेवाले जीव का सब सुकम और कुकम पी
घास यह चर जाती है, जससे उनको वही परमपद पी प व ध मलता है, जसको
संसारके वर महा मागण चाहा करते ह ।। ८ ।। पुराण म लखा है क भगवान् व णुने
स पूण कला लगाकर अपने हाथ से इसक रचना क है। हे तुलसीदास! य द तू सुखी होना
चाहता है तो काशीम रहकर ीरामनाम जपा कर ।। ९ ।।

च कूट- तु त
राग बस त
[२३]
सब सोच- बमोचन च कूट । क लहरन, करन क यान बूट ।। १ ।।
सु च अव न सुहाव न आलबाल । कानन ब च , बारी बसाल ।। २ ।।
मंदा क न-मा ल न सदा स च । बर बा र, बषम नर-ना र नीच ।। ३ ।।
साखा सुसृंग, भू ह-सुपात । नरझर मधुबर, मृ मलय बात ।। ४ ।।
सुक, पक, मधुकर, मु नबर बहा । साधन सून फल चा र चा ।। ५ ।।
भव-घोरघाम-हर सुखद छाँह । थ यो थर भाव जानक -नाह ।। ६ ।।
साधक-सुप थक बड़े भाग पाइ । पावत अनेक अ भमत अघाइ ।। ७ ।।
रस एक, र हत-गुन-करम-काल । सय राम लखन पालक कृपाल ।। ८ ।।
तुलसी जो राम पद च हय ेम । सेइय ग र क र न पा ध नेम ।। ९ ।।
भावाथ— च कूट सब तरहके शोक से छु ड़ानेवाला है। यह क लयुगका नाश
करनेवाला और क याण करनेवाला हरा-भरा वृ है ।। १ ।। प व भू म इस वृ के लये
सु दर था हा और व च वन ही इसक बड़ी भारी बाड़ है ।। २ ।। म दा कनी पी मा लन
इसे अपने उस उ म जलसे सदा स चती है, जसम और नीच ी-पु ष के न य नान
करनेसे भी उसपर कोई बुरा असर नह पड़ता ।। ३ ।। यहाँके सु दर शखर ही इसक
शाखाएँ और वृ सु दर प े ह। झरने मधुर मकर द ह और च दनक सुग धसे मली ई
पवन ही इसक कोमलता है ।। ४ ।। यहाँ वहार करनेवाले े मु नगण ही इस वृ म
रमनेवाले तोते, कोयल और भ रे ह। उनके नाना कारके साधन इसके फूल ह और अथ,
धम, काम, मो —ये ही चार सु दर फल ह ।। ५ ।। इस वृ क छाया संसारक ज म-
मृ यु प कड़ी धूपका नाश कर सु दर सुख दे ती है। जानक नाथ ीरामने इसके भावको
सदाके लये थर कर दया है ।। ६ ।। साधक पी े प थक बड़े सौभा यसे इस वृ को
पाकर, इससे अनेक कारके मनोवां छत सुख ा त करके तृ त हो जाते ह ।। ७ ।। यह
मायाके तीन गुण, काल और कमसे र हत सदा एकरस है, अथात् इसके सेवन करनेवाले
माया, काल और कमके ब धनसे छू ट जाते ह, य क कृपालु सीता, राम और ल मण इसके
र क ह ।। ८ ।। हे तुलसीदास! जो तू ीरामजीके चरण म ेम चाहता है तो च कूट-
पवतका न छल नयमपूवक सेवन कर ।। ९ ।।
राग का हरा
[२४]
अब चत चे त च कूट ह चलु ।
को पत क ल, लो पत मंगल मगु, बलसत बढ़त मोह-माया-मलु ।। १ ।।
भू म बलोकु राम-पद-अं कत, बन बलोकु रघुबर- बहारथलु ।
सैल-सृंग भवभंग-हेतु लखु, दलन कपट-पाखंड-दं भ-दलु ।। २ ।।
जहँ जनमे जग-जनक जगतप त, ब ध-ह र-हर प रह र पंच छलु ।
सकृत बेस करत जे ह आ म, बगत- बषाद भये पारथ नलु ।। ३ ।।
न क बलंब बचा चा म त, बरष पा छले सम अ गले पलु ।
मं सो जाइ जप ह, सो ज प भे, अजर अमर हर अचइ हलाहलु ।। ४ ।।
रामनाम-जप जाग करत नत, म जत पय पावन पीवत जलु ।
क रह राम भावतौ मनकौ, सुख-साधन, अनयास महाफलु ।। ५ ।।
कामदम न कामता, कलपत सो जुग-जुग जागत जगतीतलु ।
तुलसी तो ह बसे ष बू झये, एक ती त- ी त एकै बलु ।। ६ ।।
भावाथ—हे च ! अब तो चेतकर च कूटको चल। क लयुगने ोध कर धम और
ई रभ प क याणके माग का लोप कर दया है; मोह, माया और पाप क न य वृ हो
रही है ।। १ ।। च कूटम ीरामजीके चरण से च त भू मका और उनके वहारके थान
वनका दशन कर! वहाँ कपट, पाख ड और द भके दल (समूह)-का नाश करनेवाले पवतके
उन शखर को दे ख, जो ज म-मरण प संसारसे छु टकारा मलनेके कारण ह ।। २ ।।
जहाँपर जग पता जगद र ा, व णु और शवने सती अनसूयाके पु पसे पंच और
छल छोड़कर ज म लया है। जस च कूट पी आ मम एक बार वेश करते ही जुएम
हारकर वन-वन भटकते ए यु ध र आ द पा डव और राजा नलका सारा ःख र हो
गया ।। ३ ।। वहाँ जानेम अब दे र न कर, अपनी अ छ बु से यह तो वचार कर क जतने
वष बीत गये सो तो गये, अब आयुके जतने पल बाक ह, वे बीते ए वष के समान ह। एक-
एक पलको एक-एक वषके समान ब मू य समझकर, मृ युको समीप जानकर, ज द
च कूट जाकर उस ीराम-म का जप कर, जसे जपनेसे ी शवजी कालकूट वष पीनेपर
भी अजर-अमर हो गये ।। ४ ।। जब तू वहाँ नर तर ीराम-नाम-जप पी सव े य और
पय वनी नद के प व जलम नान तथा उसके जलका पान करता रहेगा, तब ीरामजी
तेरी मनःकामना पूरी कर दगे और इस सुखमय साधनसे सहजहीम तुझे धम, अथ, काम,
मो —ये चार फल दे दगे ।। ५ ।। च कूटम जो कामतानाथ पवत है, वही मनोरथ पूण
करनेवाली च ताम ण और क पवृ है, जो युग-युग पृ वीपर जगमगाता है। य तो च कूट
सभीके लये सुखदायक है, परंतु हे तुलसीदास! तुझे तो वशेष पसे उसीके व ास, ेम
और बलपर नभर रहना चा हये ।। ६ ।।

हनुमत- तु त
राग धना ी
[२५]
जय यंजनी-गभ-अंभो ध-संभूत वधु वबुध-कुल-कैरवानंदकारी ।
केसरी-चा -लोचन-चकोरक-सुखद, लोकगन-शोक-संतापहारी ।। १ ।।
जय त जय बालक प के ल-कौतुक उ दत-चंडकर-मंडल- ासक ा ।
रा -र व-श -प व-गव-खव करण शरण-भयहरण जय भुवन-भ ा ।। २ ।।
जय त रणधीर, रघुवीर हत, दे वम ण, -अवतार, संसार-पाता ।
व -सुर- स -मु न-आ शषाकारवपुष, वमलगुण, बु -वा र ध- वधाता ।। ३
।।
जय त सु ीव-ऋ ा द-र ण- नपुण, बा ल-बलशा ल-बध-मु यहेतू ।
जल ध-लंघन सह स हका-मद-मथन, रज नचर-नगर-उ पात-केतू ।। ४ ।।
जय त भून दनी-शोच-मोचन व पन-दलन घननादवश वगतशंका ।
लूमलीलाऽनल- वालमालाकु लत हो लकाकरण लंकेश-लंका ।। ५ ।।
जय त सौ म -रघुनंदनानंदकर, ऋ -क प-कटक-संघट- वधायी ।
ब -वा र ध-सेतु अमर-मंगल-हेतु, भानुकुलकेतु-रण- वजयदायी ।। ६ ।।
जय त जय व तनु दशन नख मुख वकट, चंड-भुजदं ड त -शैल-पानी ।
समर-तै लक-यं तल-तमीचर- नकर, पे र डारे सुभट घा ल घानी ।। ७ ।।
जय त दशकंठ-घटकण-वा रद-नाद-कदन-कारन, कालने म-हंता ।
अघटघटना-सुघट सुघट- वघटन वकट, भू म-पाताल-जल-गगन-गंता ।। ८ ।।
जय त व - व यात बानैत- व दावली, व ष बरनत वेद वमल बानी ।
दास तुलसी ास शमन सीतारमण संग शो भत राम-राजधानी ।। ९ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! तु हारी जय हो। तुम अंजनीके गभ पी समु से च प
उ प होकर दे व-कुल पी कुमुद को फु लत करनेवाले हो, पता केसरीके सु दर ने पी
चकोर को आन द दे नेवाले हो और सम त लोक का शोक-स ताप हरनेवाले हो ।। १ ।।
तु हारी जय हो, जय हो। तुमने बचपनम ही बाललीलासे उदयकालीन च ड सूयके
म डलको लाल-लाल खलौना समझकर नगल लया था। उस समय तुमने रा , सूय, इ
और व का गव चूण कर दया था। हे शरणागतके भय हरनेवाले! हे व का भरण-पोषण
करनेवाले!! तु हारी जय हो ।। २ ।। तु हारी जय हो, तुम रणम बड़े धीर, सदा ीरामजीका
हत करनेवाले, दे व- शरोम ण के अवतार और संसारके र क हो। तु हारा शरीर ा ण,
दे वता, स और मु नय के आशीवादका मू तमान् प है। तुम नमल गुण और बु के
समु तथा वधाता हो ।। ३ ।। तु हारी जय हो! तुम सु ीव तथा रीछ (जा बव त) आ दक
र ा करनेम कुशल हो। महाबलवान् बा लके मरवानेम तु ह मु य कारण हो। तु ह समु
लाँघनेके समय स हका रा सीका मदन करनेम सह प तथा रा स क लंकापुरीके लये
धूमकेतु (पु छल तारे)- प हो ।। ४ ।। तु हारी जय हो। तुम ीसीताजीको रामका स दे शा
सुनाकर उनक च ता र करनेवाले और रावणके अशोकवनको उजाड़नेवाले हो। तुमने
अपनेको नःशंक होकर मेघनादसे ा म बँधवा लया था तथा अपनी पूँछक लीलासे
अ नक धधकती ई लपट से ाकुल ए रावणक लंकाम चार ओर होली जला द
थी ।। ५ ।। तु हारी जय हो। तुम ीराम-ल मणको आन द दे नेवाले, रीछ और ब दर क
सेना इक कर समु पर पुल बाँधनेवाले, दे वता का क याण करनेवाले और सूयकुल-केतु
ीरामजीको सं ामम वजय-लाभ करानेवाले हो ।। ६ ।। तु हारी जय हो, जय हो। तु हारा
शरीर, दाँत, नख और वकराल मुख व के समान है। तु हारे भुजद ड बड़े ही च ड ह, तुम
वृ और पवत को हाथ पर उठानेवाले हो। तुमने सं ाम पी को म रा स के समूह और
बड़े-बड़े यो ा पी तल को डाल-डालकर घानीक तरह पेर डाला ।। ७ ।। तु हारी जय हो।
रावण, कु भकण और मेघनादके नाशम तु ह कारण हो; कपट कालने मको तु ह ने मारा
था। तुम अस भवको स भव और स भवको अस भव कर दखलानेवाले और बड़े वकट हो।
पृ वी, पाताल, समु और आकाश सभी थान म तु हारी अबा धत ग त है ।। ८ ।। तु हारी
जय हो। तुम व म व यात हो, वीरताका बाना सदा ही कसे रहते हो। व ान् और वेद
अपनी वशु वाणीसे तु हारी वरदावलीका वणन करते ह। तुम तुलसीदासके भव-भयको
नाश करनेवाले हो और अयो याम सीतारमण ीरामजीके साथ सदा शोभायमान रहते
हो ।। ९ ।।
[२६]
जय त मकटाधीश, मृगराज- व म, महादे व, मुद-मंगलालय, कपाली ।
मोह-मद- ोध-कामा द-खल-संकुला, घोर संसार- न श करणमाली ।। १ ।।
जय त लसदं जनाऽ द तज, क प-केसरी-क यप- भव, जगदा ह ा ।
लोक-लोकप-कोक-कोकनद-शोकहर, हंस हनुमान क याणकता ।। २ ।।
जय त सु वशाल- वकराल- व ह, व सार सवाग भुजद ड भारी ।
कु लशनख, दशनवर लसत, बाल ध बृहद, वै र-श ा धर कुधरधारी ।। ३ ।।
जय त जानक -शोच-संताप-मोचन, रामल मणानंद-वा रज- वकासी ।
क श-कौतुक-के ल-लूम-लंका-दहन, दलन कानन त ण तेजरासी ।। ४ ।।
जय त पाथो ध-पाषाण-जलयानकर, यातुधान- चुर-हष-हाता ।
रावण-कुंभकण-पाका र जत-मम भत्, कम-प रपाक-दाता ।। ५ ।।
जय त भुवनैकभूषण, वभीषणवरद, व हत कृत राम-सं ाम साका ।
पु पका ढ़ सौ म -सीता-स हत, भानु-कुलभानु-क र त-पताका ।। ६ ।।
जय त पर-यं मं ा भचार- सन, कारमन-कूट-कृ या द-हंता ।
शा कनी-डा कनी-पूतना- ेत-वेताल-भूत- मथ-यूथ-यंता ।। ७ ।।
जय त वेदा त वद व वध- व ा- वशद, वेद-वेदांग वद वाद ।
ान- व ान-वैरा य-भाजन वभो, वमल गुण गन त शुकनारदाद ।। ८ ।।
जय त काल-गुण-कम-माया-मथन, न ल ान, त-स यरत, धमचारी ।
स -सुरवृंद-योग -से वत सदा, दास तुलसी णत भय-तमारी ।। ९ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! तु हारी जय हो। तुम बंदर के राजा, सहके समान परा मी,
दे वता म े , आन द और क याणके थान तथा कपालधारी शवजीके अवतार हो। मोह,
मद, ोध, काम आ द से ा त घोर संसार पी अ धकारमयी रा के नाश करनेवाले
तुम सा ात् सूय हो ।। १ ।। तु हारी जय हो। तु हारा ज म अंजनी पी अ द त (दे वमाता)
और वानर म सहके समान केसरी पी क यपसे आ है। तुम जगत्के क को हरनेवाले हो
तथा लोक और लोकपाल पी चकवा-चकवी और कमल का शोक नाश करनेवाले सा ात्
क याण-मू त सूय हो ।। २ ।। तु हारी जय हो। तु हारा शरीर बड़ा वशाल और भयंकर है,
येक अंग व के समान है, भुजद ड बड़े भारी ह तथा व के समान नख और सु दर दाँत
शो भत हो रहे ह। तु हारी पूँछ बड़ी ल बी है, श ु के संहारके लये तुम अनेक कारके
अ , श और पवत को लये रहते हो ।। ३ ।। तु हारी जय हो। तुम ीसीताजीके शोक-
स तापका नाश करनेवाले और ीराम-ल मणके आन द पी कमल को फु लत
करनेवाले हो। ब दर- वभावसे खेलम ही पूँछसे लंका जला दे नेवाले, अशोक-वनको
उजाड़नेवाले, त ण तेजके पुंज म या कालके सूय प हो ।। ४ ।। तु हारी जय हो। तुम
समु पर प थरका पुल बाँधनेवाले, रा स के महान् आन दके नाश करनेवाले तथा
रावण, कु भकण और मेघनादके मम- थान को तोड़कर उनके कम का फल दे नेवाले
हो ।। ५ ।। तु हारी जय हो। तुम भुवनके भूषण हो, वभीषणको राम-भ का वर दे नेवाले
हो और रणम ीरामजीके साथ बड़े-बड़े काम करनेवाले हो। ल मण और सीताजीस हत
पु पक- वमानपर वराजमान सूयकुलके सूय ीरामजीक क त-पताका तु ह हो ।। ६ ।।
तु हारी जय हो। तुम श ु ारा कये जानेवाले य -म ओर अ भचार (मोहन-उ चाटन
आ द योग तथा जा -टोने)-को सनेवाले तथा गु त मारण- योग और ाणना शनी कृ या
आ द ू र दे वय का नाश करनेवाले हो। शा कनी, डा कनी, पूतना, ेत, वेताल, भूत और
मथ आ द भयानक जीव के नय ण-कता शासक हो ।। ७ ।। तु हारी जय हो। तुम
वेदा तके जाननेवाले, नाना कारक व ा म वशारद, चार वेद और छः वेदांग ( श ा,
क प, ाकरण, न , छ द और यो तष)-के ाता तथा शु के व पका न पण
करनेवाले हो। ान, व ान और वैरा यके पा हो अथात् तु ह ने इनको अ छ तरहसे जाना
है। तुम समथ हो। इसीसे शुकदे व और नारद आ द दे व ष सदा तु हारी नमल गुणावली गाया
करते ह ।। ८ ।। तु हारी जय हो। तुम काल ( दन, घड़ी, पल आ द), गुण (स व, रज,
तम), कम (सं चत, ार ध, यमाण) और मायाका नाश करनेवाले हो। तु हारा ान प
त सदा न ल है तथा तुम स यपरायण और धमका आचरण करनेवाले हो। स , दे वगण
और यो गराज सदा तु हारी सेवा कया करते ह। हे भव-भय पी अ धकारका नाश
करनेवाले सूय! यह दास तुलसी तु हारी शरण है ।। ९ ।।
[२७]
जय त मंगलागार, संसारभारापहर, वानराकार व ह पुरारी ।
राम-रोषानल- वालमाला- मष वांतचर-सलभ-संहारकारी ।। १ ।।
जय त म दं जनामोद-मं दर, नत ीव सु ीव- ःखैकबंधो ।
यातुधानो त- ु -काला नहर, स -सुर-स जनानंद- सधो ।। २ ।।
जय त ा णी, व -वं ा णी, व व यात-भट-च वत ।
सामगाता णी, कामजेता णी, राम हत, रामभ ानुवत ।। ३ ।।
जय त सं ामजय, रामसंदेसहर, कौशला-कुशल-क याणभाषी ।
राम- वरहाक-संत त-भरता द-नरना र-शीतलकरण क पशाषी ।। ४ ।।
जय त सहासनासीन सीतारमण, नर ख, नभरहरष नृ यकारी ।
राम सं ाज शोभा-स हत सवदा तुल समानस-रामपुर- वहारी ।। ५ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! तु हारी जय हो। तुम क याणके थान, संसारके भारको
हरनेवाले, ब दरके आकारम सा ात् शव व प हो। तुम रा स पी पतंग को भ म
करनेवाली ीरामच जीके ोध पी अ नक वालमालाके मू तमान् व प हो ।। १ ।।
तु हारी जय हो। तुम पवन और अंजनी दे वीके आन दके थान हो। नीची गदन कये ए,
ःखी सु ीवके ःखम तुम स चे ब धुके समान सहायक ए थे। तुम रा स के कराल
ोध पी लयकालक अ नका नाश करनेवाले और स , दे वता तथा स जन के लये
आन दके समु हो ।। २ ।। तु हारी जय हो। तुम एकादश म और जग पू य ा नय म
अ ग य हो, संसारभरके शूरवीर के स स ाट् हो। तुम सामवेदका गान करनेवाल म और
कामदे वको जीतनेवाल म सबसे े हो। तुम ीरामजीके हतकारी और ीराम-भ के
साथ रहनेवाले र क हो ।। ३ ।। तु हारी जय हो। तुम सं ामम वजय पानेवाले, ीरामजीका
स दे शा (सीताजीके पास) प ँचानेवाले और अयो याका कुशल-मंगल ( ीरघुनाथजीसे)
कहनेवाले हो। तुम ीरामजीके वयोग पी सूयसे जलते ए भरत आ द अयो यावासी नर-
ना रय का ताप मटानेके लये क पवृ हो ।। ४ ।। तु हारी जय हो। तुम ीरामजीको रा य-
सहासनपर वराजमान दे ख, आन दम व ल होकर नाचनेवाले हो। जैसे ीरामजी
अयो याम सहासनपर वरा जत हो शोभा पा रहे थे, वैसे ही तुम इस तुलसीदासक
मानस पी अयो याम सदा वहार करते रहो ।। ५ ।।
[२८]
जय त वात-संजात, व यात व म, बृह ा , बल बपुल, बाल ध बसाला ।
जात पाचलाकार व ह, लस लोम व ु लता वालमाला ।। १ ।।
जय त बालाक वर-वदन, पगल-नयन, क पश-ककश-जटाजूटधारी ।
वकट भृकुट , व दशन नख, वै र-मदम -कुंजर-पुंज-कुंजरारी ।। २ ।।
जय त भीमाजुन- ालसूदन-गवहर, धनंजय-रथ- ाण-केतू ।
भी म- ोण-कणा द-पा लत, काल क सुयोधन-चमू- नधन-हेतू ।। ३ ।।
जय त गतराजदातार, हंतार संसार-संकट, दनुज-दपहारी ।
ई त-अ त-भी त- ह- ेत-चौरानल- ा धबाधा-शमन घोर मारी ।। ४ ।।
जय त नगमागम ाकरण करण ल प, का कौतुक-कला-को ट- सधो ।
सामगायक, भ -कामदायक, वामदे व, ीराम- य- ेम बंधो ।। ५ ।।
जय त घमाशु-संद ध-संपा त-नवप -लोचन- द -दे हदाता ।
कालक ल-पापसंताप-संकुल सदा, णत तुलसीदास तात-माता ।। ६ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! तु हारी जय हो। तुम पवनसे उ प ए हो, तु हारा परा म
स है। तु हारी भुजाएँ बड़ी वशाल ह, तु हारा बल अपार है। तु हारी पूँछ बड़ी ल बी है।
तु हारा शरीर सुमे -पवतके समान वशाल एवं तेज वी है। तु हारी रोमावली बजलीक रेखा
अथवा वाला क मालाके समान जगमगा रही है ।। १ ।। तु हारी जय हो। तु हारा मुख
उदयकालीन सूयके समान सु दर है, ने पीले ह। तु हारे सरपर भूरे रंगक कठोर जटा का
जूड़ा बँधा आ है। तु हारी भ ह टे ढ़ ह। तु हारे दाँत और नख व के समान ह, तुम श ु पी
मदम हा थय के दलको वद ण करनेवाले सहके समान हो ।। २ ।। तु हारी जय हो। तुम
भीमसेन, अजुन और ग ड़के गवको हरनेवाले तथा अजुनके रथक पताकापर बैठकर
उसक र ा करनेवाले हो। तुम भी म पतामह, ोणाचाय और कण आ दसे र त कालक
के समान भयानक, य धनक महान् सेनाका नाश करनेम मु य कारण हो ।। ३ ।।
तु हारी जय हो। तुम सु ीवके गये ए रा यको फरसे दलानेवाले, संसारके संकट का नाश
करनेवाले और दानव के दपको चूण करनेवाले हो। तुम अ तवृ , अनावृ , टड् डी, चूहे,
प ी और रा यके आ मण प खेतीम बाधक छः कारक ई त, महाभाव, ह, ेत, चोर,
अ नका ड, रोग, बाधा और महामारी आ द लेश के नाश करनेवाले हो ।। ४ ।। तु हारी
जय हो। तुम वेद, शा और ाकरणपर भा य लखनेवाले और का के कौतुक तथा
करोड़ कला के समु हो। तुम सामवेदका गान करनेवाले, भ क कामना पूण करनेवाले
सा ात् शव प हो और ीरामके यारे ेमी ब धु हो ।। ५ ।। तु हारी जय हो। तुम सूयसे
जले ए स पाती नामक (जटायुके भाई) गृ को नये पंख, ने और द शरीरके दे नेवाले हो
और क लकालके पाप-स ताप से पूण इस शरणागत तुलसीदासके माता- पता हो ।। ६ ।।
[२९]
जय त नभरानंद-संदोह क पकेसरी, केसरी-सुवन भुवनैकभ ा ।
द भू यंजना-मंजुलाकर-मणे, भ -संताप- चतापह ा ।। १ ।।
जय त धमाथ-कामापवगद वभो, लोका द-वैभव- वरागी ।
वचन-मानस-कम स य-धम ती, जानक नाथ-चरणानुरागी ।। २ ।।
जय त बहगेश-बलबु -बेगा त-मद-मथन, मनमथ-मथन, ऊ वरेता ।
महानाटक- नपुन, को ट-क वकुल- तलक, गानगुण-गव-गंधव-जेता ।। ३ ।।
जय त मंदोदरी-केश-कषण, व मान दशकंठ भट-मुकुट मानी ।
भू मजा- ःख-संजात रोषांतकृत-जातनाजंतु कृत जातुधानी ।। ४ ।।
जय त रामायण- वण-संजात रोमांच, लोचन सजल, श थल वाणी ।
रामपदप -मकरंद-मधुकर, पा ह, दास तुलसी शरण, शूलपाणी ।। ५ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! तु हारी जय हो। तुम पूण आन दके समूह, वानर म सा ात्
केसरी सह (बबर शेर), केसरीके पु और संसारके एकमा भरण-पोषण करनेवाले हो। तुम
अंजनी पी द भू मक सु दर खा नसे नकली ई मनोहर म ण हो और भ के स ताप
और च ता को सदा नाश करते हो ।। १ ।। हे वभो! तु हारी जय हो। तुम धम, अथ, काम
और मो के दे नेवाले हो, लोकतकके सम त भोग-ऐ य म वैरा यवान् हो। मन, वचन
और कमसे स य प धमके तका पालन करनेवाले हो और ीजानक नाथ रामजीके
चरण के परम ेमी हो ।। २ ।। तु हारी जय हो। तुम ग ड़के बल, बु और वेगके बड़े भारी
गवको खव करनेवाले तथा कामदे वके नाश करनेवाले बाल- चारी हो, तुम बड़े-बड़े
नाटक के नमाण और अ भनयम नपुण हो, करोड़ महाक वय के कुल शरोम ण और गान-
व ाका गव करनेवाले वजय पानेवाले हो ।। ३ ।। तु हारी जय हो। तुम वीर के मुकुटम ण,
महा अ भमानी रावणके सामने उसक ी म दोदरीके बाल ख चनेवाले हो। तुमने
ीजानक जीके ःखको दे खकर उ प ए ोधके वश हो रा सय को ऐसा लेश दया
जैसा यमराज पापी ा णय को दया करता है ।। ४ ।। तु हारी जय हो। ीरामजीका च र
सुनते ही तु हारा शरीर पुल कत हो जाता है, तु हारे ने म ेमके आँसू भर आते ह और
तु हारी वाणी गद्गद हो जाती है। हे ीरामके चरण-कमल-परागके र सक भ रे! हे हनुमान्-
पी शूलधारी शव! यह दास तुलसी तु हारी शरण है, इसक र ा करो ।। ५ ।।
राग सारंग
[३०]
जाके ग त है हनुमानक ।
ताक पैज पू ज आई, यह रेखा कु लस पषानक ।। १ ।।
अघ टत-घटन, सुघट- बघटन, ऐसी ब दाव ल न ह आनक ।
सु मरत संकट-सोच- बमोचन, मूर त मोद- नधानक ।। २ ।।
तापर सानुकूल, ग रजा, हर, लषन, राम अ जानक ।
तुलसी क पक कृपा- बलोक न, खा न सकल क यानक ।। ३ ।।
भावाथ— जसको (सब कारसे) ीहनुमान्जीका आ य है, उसक त ा पूरी हो ही
गयी। यह स ा त व (हीरे)-क लक रके समान अ मट है ।। १ ।। य क ीहनुमान्जी
अस भव घटनाको स भव और स भवको अस भव करनेवाले ह, ऐसे यशका बाना सरे
कसीका भी नह है। ीहनुमान्जीक आन दमयी मू तका मरण करते ही सारे संकट और
शोक मट जाते ह ।। २ ।। सब कारके क याण क खा न ीहनुमान्जीक कृपा
जसपर है, हे तुलसीदास! उसपर पावती, शंकर, ल मण, ीराम और जानक जी सदा कृपा
कया करती ह ।। ३ ।।
राग गौरी
[३१]
ता कहै तम क ताक ओर को ।
जाको है सब भाँ त भरोसो क प केसरी- कसोरको ।। १ ।।
जन-रंजन अ रगन-गंजन मुख-भंजन खल बरजोरको ।
बेद-पुरान- गट पु षारथ सकल-सुभट- सरमोर को ।। २ ।।
उथपे-थपन, थपे उथपन पन, बबुधबृंद बँ दछोर को ।
जल ध लाँ घ द ह लंक बल बल दलन नसाचर घोर को ।। ३ ।।
जाको बाल बनोद समु झ जय डरत दवाकर भोरको ।
जाक चबुक-चोट चूरन कय रद-मद कु लस कठोरको ।। ४ ।।
लोकपाल अनुकूल बलो कवो चहत बलोचन-कोरको ।
सदा अभय, जय, मुद-मंगलमय जो सेवक रनरोरको ।। ५ ।।
भगत-कामत नाम राम प रपूरन चंद चकोरको ।
तुलसी फल चार करतल जस गावत गईबहोरको ।। ६ ।।
भावाथ— जसे सब कारसे केसरीन दन ीहनुमान्जीका भरोसा है, उसक ओर भला
ोधभरी से कौन ताक सकता है? ।। १ ।। हनुमान्जीके समान भ को स
करनेवाला, श ु का नाश करनेवाला, का मुँह तोड़नेवाला बड़ा बलवान् संसारम और
कौन है? इनका पु षाथ वेद और पुराण म कट है। इनके समान सम त शूरवीर म
शरोम ण सरा कौन है? ।। २ ।। इनके समान (सु ीव, वभीषण आ द) रा यब ह कृत को
पुनः था पत करनेवाला, सहासनपर थत (बा ल, रावण आ द) राजा धराज को रा य युत
करनेवाला, दे वता को ण करके रावणके ब धनसे छु ड़ानेवाला, समु लाँघकर लंकाको
जलानेवाला और बड़े-बड़े बलवान् भयानक रा स के बलका नाश करनेवाला सरा कौन
है? ।। ३ ।। जनके बाल- वनोदको याद करके अब भी ातःकालके सूयदे व डरा करते ह,
जनक ठोड़ीक चोटने कठोर व के दाँत का घमंड चूर कर दया ।। ४ ।। बड़े-बड़े
लोकपाल भी जनका कृपाकटा चाहते ह, ऐसे रणबाँकुरे हनुमान्जीक जो सेवा करता है,
वह सदा नडर रहता है, श ु पर वजयी होता है और संसारके सभी सुख तथा
क याण प मो को ा त करता है ।। ५ ।। पूणकला-स प च मा-जैसे ीरामच जीके
मुखको अ नमेष- से दे खनेवाले चकोर प हनुमान्जीका नाम भ के लये क पवृ के
समान है। हे तुलसीदास! गयी ई व तुको फरसे दला दे नेवाले ीहनुमान्जीका जो गुण
गाता है, अथ, धम, काम, मो प चार फल सदा उसक हथेलीपर धरे रहते ह ।। ६ ।।
राग बलावल
[३२]
ऐसी तो ह न बू झये हनुमान हठ ले ।
साहेब क ँ न रामसे, तोसे न उसीले ।। १ ।।
तेरे दे खत सहके ससु मढक लीले ।
जानत ह क ल तेरेऊ मन गुनगन क ले ।। २ ।।
हाँक सुनत दसकंधके भये बंधन ढ ले ।
सो बल गयो कध भये अब गरबगहीले ।। ३ ।।
सेवकको परदा फटे तू समरथ सीले ।
अ धक आपुते आपुनो सु न मान सही ले ।। ४ ।।
साँस त तुलसीदासक सु न सुजस तुही ले ।
त ँकाल तनको भलौ जे राम-रँगीले ।। ५ ।।
भावाथ—हे हठ ले (भ के क बरबस र करनेवाले) हनुमान्! तुझे ऐसा नह
चा हये। ीराम-सरीखे तो कह वामी नह ह और तेरे समान कह सहायक नह ह ।। १ ।।
यह होते ए भी आज तेरे दे खते-दे खते मुझ सहके ब चेको (तुझ सह प सहायकके
शरणागत मुझ बालकको) क लयुग पी मढक ( जसक तेरे सामने कोई ह ती नह है)
नगले लेता है। मालूम होता है, इस क लयुगने तेरे भ व सलता, शरणागतक र ाके लये
हठका रता, उदारता आ द गुण को क ल दया है ।। २ ।। एक दन तेरी ंकार सुनते ही
रावणके अंग-अंगके जोड़ ढ ले पड़ गये थे, वह तेरा बल-परा म आज कहाँ गया? अथवा
या तू अब दयालुके बदले घमंडी हो गया है? ।। ३ ।। आज तेरे सेवकका पदा फट रहा है
उसे तू सी दे —जाती ई इ जतको बचा दे , तू बड़ा समथ है, पहले तो तू सेवकको अपनेसे
अ धक मानता, उसक सुनता, सहता था, पर अब या हो गया? ।। ४ ।। इस तुलसीदासके
संकटको सुनकर उसे र करके यह सुयश तू ही ले ले। वा तवम तो जो रामके रँगीले भ ह
उनका तीन काल म क याण ही है ।। ५ ।।
[३३]
समरथ सुअन समीरके, रघुबीर- पयारे ।
मोपर क बी तो ह जो क र ले ह भया रे ।। १ ।।
तेरी म हमा ते चल च चनी- चया रे ।
अँ धयारो मेरी बार य , भुवन-उ जयारे ।। २ ।।
के ह करनी जन जा नकै सनमान कया रे ।
के ह अघ औगुन आपने कर डा र दया रे ।। ३ ।।
खाई ख ची माँ ग म तेरो नाम लया रे ।
तेरे बल, ब ल, आजु ल जग जा ग जया रे ।। ४ ।।
जो तोस होतौ फर मेरो हेतु हया रे ।
तौ य बदन दे खावतो क ह बचन इयारे ।। ५ ।।
तोसो यान- नधान को सरब य बया रे ।
ह समुझत सा - ोहक ग त छार छया रे ।। ६ ।।
तेरे वामी राम से, वा मनी सया रे ।
तहँ तुलसीके कौनको काको त कया रे ।। ७ ।।
भावाथ—हे सवश मान् पवनकुमार! हे रामजीके यारे! तुझे मुझपर जो कुछ करना
हो सो भैया अभी कर ले ।। १ ।। तेरे तापसे इमलीके चय भी ( पये-अशरफ क जगह)
चल सकते ह; अथात् य द तू चाहे तो मेरे-जैसे नक म क भी गणना भ म हो सकती है।
फर मेरे लये, हे भुवन-उजागर! इतना अँधेरा य कर रखा है? ।। २ ।। पहले मेरी कौन-
सी अ छ करनी जानकर तूने मुझे अपना दास समझा था तथा मेरा स मान कया था और
अब कस पाप तथा अवगुणसे मुझे हाथसे फक दया, अपनाकर भी याग दया? ।। ३ ।।
मने तो सदासे ही तेरे नामपर टु कड़ा माँगकर खाया है, तेरी बलैया लेता ,ँ म तो तेरे ही बलके
भरोसेपर जगत्म उजागर होकर अबतक जीता रहा ँ ।। ४ ।। जो म तुझसे वमुख होता तो
मेरा दय ही उसम कारण होता, फर म नज प रवारके मनु यक तरह भली-बुरी सुनाकर
तुझे अपना मुँह कैसे दखाता? ।। ५ ।। तू मेरे मनक सब कुछ जानता है, य क तेरे समान
ानक खा न और सबके मनक जाननेवाला सरा कौन है? यह तो म भी समझता ँ क
वामीके साथ ोह करनेवालेको न - हो जाना पड़ता है ।। ६ ।। तेरे वामी ीरामजी
और वा मनी ीसीताजी-सरीखी ह, वहाँ तुलसीदासका तेरे सवा और कस मनु यका और
कस व तुका सहारा है? इस लये तू ही मुझे वहाँतक प ँचा दे ।। ७ ।।
[३४]
अ त आरत, अ त वारथी, अ त द न- खारी ।
इनको बलगु न मा नये, बोल ह न बचारी ।। १ ।।
लोक-री त दे खी सुनी, ाकुल नर-नारी ।
अ त बरषे अनबरषे ,ँ दे ह दै व ह गारी ।। २ ।।
नाक ह आये नाथस , साँस त भय भारी ।
क ह आयो, क बी छमा, नज ओर नहारी ।। ३ ।।
समै साँकरे सु म रये, समरथ हतकारी ।
सो सब ब ध ऊबर करै, अपराध बसारी ।। ४ ।।
बगरी सेवकक सदा, साहेब ह सुधारी ।
तुलसीपर तेरी कृपा, न पा ध नरारी ।। ५ ।।
भावाथ—हे हनुमान्जी! अ त पी ड़त, अ त वाथ , अ त द न और अ त ःखीके
कहेका बुरा नह मानना चा हये, य क ये घबराये ए रहनेके कारण भले-बुरेका वचार
करके नह बोलते ।। १ ।। संसारम यह य दे खा-सुना जाता है क वषा अ धक होने या
बलकुल न होनेपर ाकुल ए ी-पु ष दै वको गा लयाँ सुनाया करते ह; परंतु इसका
परमे र कोई खयाल नह करता ।। २ ।। जब क लयुगके क और भवसागरके भारी भयसे
मेरे नाक दम आ गया, तभी म भली-बुरी कह बैठा। अब तुम अपनी भ व सलताक ओर
दे खकर मुझे मा कर दो ।। ३ ।। संकटके समय लोग समथ और अपने हतकारीको ही याद
करते ह और वह भी उनके सारे अपराध को भुलाकर उनक सब कारसे र ा करता
है ।। ४ ।। सेवकक भूल को सदासे वामी ही सुधारते आये ह। फर इस तुलसीदासपर तो
तु हारी एक नराली एवं न छल कृपा है ।। ५ ।।
[३५]
कटु क हये गाढ़े परे, सु न समु झ सुसा ।
कर ह अनभलेउ को भलो, आपनी भलाई ।। १ ।।
समरथ सुभ जो पाइये, बीर पीर पराई ।
ता ह तक सब य नद बा र ध न बुलाई ।। २ ।।
अपने अपनेको भलो, चह लोग लुगाई ।
भावै जो जे ह ते ह भजै, सुभ असुभ सगाई ।। ३ ।।
बाँह बो ल दै था पये, जो नज ब रआई ।
बन सेवा स पा लये, सेवकक ना ।। ४ ।।
चूक-चपलता मे रयै, तू बड़ो बड़ाई ।
होत आदरे ढ ठ है, अ त नीच नचाई ।। ५ ।।
बं दछोर ब दावली, नगमागम गाई ।
नीको तुलसीदासको, ते रयै नकाई ।। ६ ।।
भावाथ—जब संकट पड़ता है, तभी अपने वामीको भला-बुरा कहा जाता है, और
अ छे वामी यह समझ-बूझकर अपनी भलाईसे उस बुरे सेवकका भी भला कर दे ते
ह ।। १ ।। समथ, क याणकारी और ऐसे शूरवीरको पाकर जो सर क वप म सहायता
दे ता है, सब लोग उस ओर ऐसे दे खा करते ह, जैसे समु के पास न दयाँ बना बुलाये ही दौड़-
दौड़कर जाती ह ।। २ ।। संसारम सभी ी-पु ष अपनी-अपनी भलाई चाहते ह, शुभ-
अशुभके नातेसे जो (दे वता) जसको अ छा लगता है, वह उसी दे वताको भजता है। मुझे तो
एक तु हारा ही भरोसा है ।। ३ ।। जसे जबरद ती अपने बलका भरोसा दे कर रख लया वह
य द तु हारी सेवा नह करता, तो भी उसे सेवकक तरह पालना चा हये ।। ४ ।। भूल और
चंचलता तो सब मेरी ही है; पर तुम बड़े हो, मुझ-जैसे अपरा धय को मा करनेम ही तु हारी
बड़ाई है। यह तो सभी जानते ह क आदर करनेसे नीच भी ढ ठ हो जाता और नीचता करने
लगता है ।। ५ ।। तुम ब धन से छु ड़ानेवाले हो—तु हारा ऐसा सुयश वेद-शा गाते ह। मुझ
तुलसीदासका भला अब तु हारी भलाईसे ही होगा, अ यथा म तो कसी भी यो य नह
ँ ।। ६ ।।
राग गौरी
[३६]
मंगल-मूर त मा त-नंदन । सकल-अमंगल-मूल- नकंदन ।। १ ।।
पवनतनय संतन- हतकारी । दय बराजत अवध- बहारी ।। २ ।।
मातु- पता, गु , गनप त, सारद । सवा-समेत संभु, सुक, नारद ।। ३ ।।
चरन बं द बनव सब का । दे रामपद-नेह- नबा ।। ४ ।।
बंद राम-लखन-बैदेही । जे तुलसीके परम सनेही ।। ५ ।।
भावाथ—पवनकुमार हनुमान्जी क याणक मू त ह। वे सारी बुराइय क जड़
काटनेवाले ह ।। १ ।। पवनके पु ह, संत का हत करनेवाले ह। अवध वहारी ीरामजी सदा
इनके दयम वराजते ह ।। २ ।। इनके तथा माता- पता, गु , गणेश, सर वती, पावतीस हत
शवजी, शुकदे वजी, नारद ।। ३ ।। इन सबके चरण म णाम करके म यह वनती करता ँ
क ीरघुनाथजीके चरण-कमल म मेरा ेम सदा एक-सा नबह रहे, यह वरदान
द जये ।। ४ ।। अ तम म ीराम, ल मण और जानक जीको णाम करता ,ँ जो
तुलसीदासके परम ेमी और सव व ह ।। ५ ।।

ल मण- तु त
द डक
[३७]
लाल ला ड़ले लखन, हत हौ जनके ।
सु मरे संकटहारी, सकल सुमंगलकारी,
पालक कृपालु अपने पनके ।। १ ।।
धरनी-धरनहार भंजन-भुवनभार,
अवतार साहसी सहसफनके ।।
स यसंध, स य त, परम धरमरत,
नरमल करम बचन अ मनके ।। २ ।।
पके नधान, धनु-बान पा न,
तून क ट, महाबीर ब दत, जतैया बड़े रनके ।।
सेवक-सुख-दायक, सबल, सब लायक,
गायक जानक नाथ गुनगनके ।। ३ ।।
भावते भरतके, सु म ा-सीताके लारे,
चातक चतुर राम याम घनके ।।
ब लभ उर मलाके, सुलभ सनेहबस,
धनी धन तुलसीसे नरधनके ।। ४ ।।
भावाथ—हे यारे लखनलालजी! तुम भ का हत करनेवाले हो। मरण करते ही तुम
संकट हर लेते हो। सब कारके सु दर क याण करनेवाले, अपने णको पालनेवाले और
द न पर कृपा करनेवाले हो ।। १ ।। पृ वीको धारण करनेवाले, संसारका भार र करनेवाले,
बड़े साहसी और शेषनागके अवतार हो। अपने ण और तको स य करनेवाले, धमके परम
ेमी तथा नमल मन, वचन और कमवाले हो ।। २ ।। तुम सु दरताके भ डार हो, हाथ म
धनुष-बाण धारण कये और कमरम तरकस कसे ए हो, तुम व - व यात महान् वीर हो!
और बड़े-बड़े सं ामम वजय ा त करनेवाले हो। तुम सेवक को सुख दे नेवाले, महाबली,
सब कारसे यो य और जानक नाथ ीरामक गुणावलीके गानेवाले हो ।। ३ ।। तुम
भरतजीके यारे, सु म ा और सीताजीके लारे तथा राम पी याम मेघके चतुर चातक,
उ मलाजीके प त, ेमसे सहजहीम मलनेवाले और तुलसी-सरीखे रंकको राम-भ पी
धन दे नेम बड़े भारी धनी हो ।। ४ ।।
राग धना ी
[३८]
जय त
ल मणानंत भगवंत भूधर, भुजग-
राज, भुवनेश, भूभारहारी ।
लय-पावक-महा वालमाला-वमन,
शमन-संताप लीलावतारी ।। १ ।।
जय त दाशर थ, समर-समरथ, सु म ा-
सुवन, श ुसूदन, राम-भरत-बंधो ।
चा -चंपक-वरन, वसन-भूषन-धरन,
द तर, भ , लाव य- सधो ।। २ ।।
जय त गाधेय-गौतम-जनक-सुख-जनक,
व -कंटक-कु टल-को ट-हंता ।
वचन-चय-चातुरी-परशुधर-गरबहर,
सवदा रामभ ानुगंता ।। ३ ।।
जय त सीतेश-सेवासरस, बषयरस-
नरस, न पा ध धुरधमधारी ।
वपुलबलमूल शा ल व म जलद-
नाद-मदन, महावीर भारी ।। ४ ।।
जय त सं ाम-सागर-भयंकर-तरन,
राम हत-करण वरबा -सेतू ।
उ मला-रवन, क याण-मंगल-भवन,
दासतुलसी-दोष-दवन-हेतू ।। ५ ।।
भावाथ—ल मणजीक जय हो, जो अन त, छः कारके ऐ यसे यु , पृ वीको धारण
करनेवाले सपराज शेषनागके अवतार, सारे संसारके वामी, पृ वीके भारको र करनेवाले,
लयकालके समय अ नक भयंकर वालाएँ उगलनेवाले, जगत्के स तापको नाश
करनेवाले और अपनी लीलासे ही अवतार धारण करनेवाले ह ।। १ ।। दशरथ-पु
ील मणजीक जय हो, जो सं ामम सवश मान्, सु म ाजीके पु , श ु का नाश
करनेवाले और ीरामजी तथा भरतजीके यारे भाई ह। जनके सु दर शरीरका रंग च पेके
फूलके समान है, जो अ य त द एवं भ व और आभूषण धारण कये ह और
सौ दयके महान् समु ह ।। २ ।। व ा म , गौतम और जनकको सुख उ प करनेवाले,
संसारके लये करोड़ काँटेके समान कु टल रा स को मारनेवाले, चतुराईक ब त-सी
बात से ही परशुरामजीका गव हरनेवाले और सदा ीरामजीके पीछे -पीछे चलनेवाले
ल मणजीक जय हो ।। ३ ।। सीताप त ीरामजीक सेवाम परम अनुरागी, वषय-रसके
वरागी, कपटर हत होकर ीराम-सेवा पी धमक धुरीको धारण करनेवाले, अन त बलके
आ द थान, सहके समान परा मवाले, मेघनादका मदन करनेवाले अ य त महावीर
ल मणजीक जय हो ।। ४ ।। भयानक सं ाम पी समु को अनायास ही पार कर जानेवाले,
ीरामजीके हतके लये अपनी सु दर भुजा का पुल बनानेवाले, उ मलाजीके प त,
क याण तथा मंगलके थान और तुलसीदासके पाप के नाश करनेम मु य कारण, ऐसे
ील मणजीक जय हो ।। ५ ।।
भरत- तु त
[३९]
जय त
भू मजा-रमण-पदकंज-मकरंद-रस-
र सक-मधुकर भरत भू रभागी ।
भुवन-भूषण, भानुवंश-भूषण, भू मपाल-
म ण रामचं ानुरागी ।। १ ।।
जय त वबुधेश-धनदा द- लभ-महा-
राज-सं ाज-सुख-पद- वरागी ।
खड् ग-धारा ती- थमरेखा कट
शु म त-युव त प त- ेमपागी ।। २ ।।
जय त न पा ध-भ भाव-यं त- दय,
बंधु- हत च कूटा -चारी ।
पा का-नृप-स चव, पु म-पालक परम
धरम-धुर-धीर, वरवीर भारी ।। ३ ।।
जय त संजीवनी-समय-संकट हनूमान
धनुबान-म हमा बखानी ।
बा बल बपुल पर म त परा म अतुल,
गूढ़ ग त जानक -जा न जानी ।। ४ ।।
जय त रण-अ जर ग धव-गण-गवहर,
फर कये रामगुणगाथ-गाता ।
मा डवी- च -चातक-नवांबुद-बरन,
सरन तुलसीदास अभय दाता ।। ५ ।।
भावाथ—बड़े भा यवान् ीभरतजीक जय हो, जो जानक प त ीरामजीके चरण-
कमल के मकर दका पान करनेके लये र सक मर ह। जो संसारके भूषण व प,
सूयवंशके वभूषण और नृप- शरोम ण ीरामच जीके पूण ेमी ह ।। १ ।। भरतजीक जय
हो, ज ह ने इ , कुबेर आ द लोकपाल को भी जो अ य त लभ है, ऐसे महान् सुख द
महारा य और सा ा यसे मुख मोड़ लया। जनका सेवा- त तलवारक धारके समान अ त
क ठन है, ऐसे सत्-पु ष म भी जो सव े माने जाते ह और जनक शु बु पी त णी
ी ीराम पी वामीके ेमम लवलीन है ।। २ ।। भरतजीक जय हो, जो न कपट
भ भावके अधीन होकर य भाई ीरामच जीके लये च कूट-पवतपर पैदल गये, जो
ीरामजीक पा का पी राजाके म ी बनकर पृ वीका पालन करते रहे और जो राम-
सेवा पी परम धमक धुरीको धारण करनेवाले तथा बड़े भारी वीर ह ।। ३ ।।
ील मणजीको श लगनेपर संजीवनी बूट लानेके समय, जब भरतजीके बाणसे थत
होकर हनुमान्जी गर पड़े तब उ ह ने जन भरतजीके धनुष-बाणक बड़ी बड़ाई क थी,
जनक भुजा का बड़ा भारी बल है, जनका अनुपम परा म है, जनक गूढ़ ग तको
ीजानक नाथ रामजी ही जानते ह ऐसे भरतजीक जय हो ।। ४ ।। ज ह ने रणांगणम
ग धव का गव खव कर दया और फरसे उ ह ीरामक गुणगाथा का गानेवाला बनाया,
ऐसे भरतजीक जय हो। मा डवीके च पी चातकके लये जो नवीन मेघवण ह, ऐसे
अभय दे नेवाले भरतजीक यह तुलसीदास शरण है ।। ५ ।।

श ु न- तु त
राग धना ी
[४०]
जय त जय श ु-क र-केसरी श ुहन,
श ुतम-तु हनहर करणकेतू ।
दे व-म हदे व-म ह-धेनु-सेवक सुजन-
स -मु न-सकल-क याण-हेतू ।। १ ।।
जय त सवागसुंदर सु म ा-सुवन,
भुवन- व यात-भरतानुगामी ।
वमचमा स-धनु-बाण-तूणीर-धर
श ु-संकट-समय य णामी ।। २ ।।
जय त लवणा बु न ध-कुंभसंभव महा-
दनुज- जनदवन, रतहारी ।
ल मणानुज, भरत-राम-सीता-चरण-
रेणु-भू षत-भाल- तलकधारी ।। ३ ।।
जय त ु तक त-व लभ सु लभ सुलभ
नमत नमद भु मु दाता ।
दासतुलसी चरण-शरण सीदत वभो,
पा ह द ना -संताप-हाता ।। ४ ।।
भावाथ—श ु पी हा थय के नाश करनेको सह प ीश ु नजीक जय हो, जय हो,
जो श ु पी अ धकार और कुहरेके हरनेके लये सा ात् सूय ह और दे वता, ा ण, पृ वी
और गौके सेवक, स जन, स और मु नय का सब कार क याण करनेवाले ह ।। १ ।।
जनके सारे अंग सु दर ह, जो सु म ाजीके पु और व - व यात भरतजीक आ ाम
चलनेवाले ह; जो कवच, ढाल, तलवार, धनुष, बाण और तरकस धारण कये ह और
श ु ारा दये ए संकट का नाश करनेवाले ह; उन श ु नजीको म णाम करता
ँ ।। २ ।। लवणासुर पी समु को पान करनेके लये अग यके समान, बड़े-बड़े
दानव का संहार करनेवाले और पाप का नाश करनेवाले श ु नजीक जय हो। ये
ल मणजीके छोटे भाई ह और भरतजी, ीरामजी तथा सीताजीके चरणकमल क रजका
म तकपर सु दर तलक धारण करनेवाले ह ।। ३ ।। ु तक तजीके प त ह, को लभ
और सेवक को सुलभ ह, णाम करते ही सुख, भोग और मु दे नेवाले ह, ऐसे श ु नजीक
जय हो। हे भो! यह तुलसीदास तु हारे चरण क शरण आकर भी ःख भोग रहा है, हे द न
और आत के स ताप हरनेवाले! उसक (तुलसीदासक ) र ा करो ।। ४ ।।

ीसीता- तु त*
राग केदारा
[४१]
कब ँक अंब, अवसर पाइ ।
मे रऔ सु ध ाइबी, कछु क न-कथा चलाइ ।। १ ।।
द न, सब अँगहीन, छ न, मलीन, अघी अघाइ ।
नाम लै भरै उदर एक भु-दासी-दास कहाइ ।। २ ।।
बू झह ‘सो है कौन’, क हबी नाम दसा जनाइ ।
सुनत राम कृपालुके मेरी बग रऔ ब न जाइ ।। ३ ।।
जानक जगजन न जनक कये बचन सहाइ ।
तरै तुलसीदास भव तव नाथ-गुन-गन गाइ ।। ४ ।।
भावाथ—हे माता! कभी अवसर हो तो कुछ क णाक बात छोड़कर ीरामच जीको
मेरी भी याद दला दे ना, (इसीसे मेरा काम बन जायगा) ।। १ ।। य कहना क एक अ य त
द न, सव साधन से हीन, मनमलीन, बल और पूरा पापी मनु य आपक दासी (तुलसी)-का
दास कहलाकर और आपका नाम ले-लेकर पेट भरता है ।। २ ।। इसपर भु कृपा करके पूछ
क वह कौन है, तो मेरा नाम और मेरी दशा उ ह बता दे ना। कृपालु रामच जीके इतना सुन
लेनेसे ही मेरी सारी बगड़ी बात बन जायगी ।। ३ ।। हे जग जननी जानक जी! य द इस
दासक आपने इस कार वचन से ही सहायता कर द तो यह तुलसीदास आपके वामीक
गुणावली गाकर भवसागरसे तर जायगा ।। ४ ।।
[४२]
कब ँ समय सु ध ायबी, मेरी मातु जानक ।
जन कहाइ नाम लेत ह , कये पन चातक य , यास ेम-पानक ।। १ ।।
सरल कहाई कृ त आपु जा नए क ना- नधानक ।
नजगुन, अ रकृत अन हतौ, दास-दोष सुर त चत रहत न दये दानक ।। २ ।।
बा न बसारनसील है मानद अमानक ।
तुलसीदास न बसा रये, मन करम बचन जाके, सपने ँ ग त न आनक ।। ३ ।।
भावाथ—हे जानक माता! कभी मौका पाकर ीरामच जीको मेरी याद दला दे ना।
म उ ह का दास कहाता ,ँ उ ह का नाम लेता ँ, उ ह के लये पपीहेक तरह ण कये बैठा
,ँ मुझे उनके वाती-जल पी ेमरसक बड़ी यास लग रही है ।। १ ।। यह तो आप जानती
ही ह क क णा- नधान रामजीका वभाव बड़ा सरल है; उ ह अपना गुण, श ु ारा कया
आ अ न , दासका अपराध और दये ए दानक बात कभी याद ही नह रहती ।। २ ।।
उनक आदत भूल जानेक है; जसका कह मान नह होता, उसको वह मान दया करते ह;
पर वह भी भूल जाते ह! हे माता! तुम उनसे कहना क तुलसीदासको न भू लये, य क उसे
मन, वचन और कमसे व म भी कसी सरेका आ य नह है ।। ३ ।।

ीराम- तु त
[४३]
जय त
स चद ापकानंद पर -पद व ह- लीलावतारी ।
वकल ा द, सुर, स , संकोचवश, वमल गुण-गेह नर-दे ह-धारी ।। १ ।।
जय त
कोशलाधीश क याण कोशलसुता, कुशल कैव य-फल चा चारी ।
वेद-बो धत करम-धरम-धरनीधेन,ु व -सेवक साधु-मोदकारी ।। २ ।।
जय त ऋ ष-मखपाल, शमन-स जन-साल, शापवश मु नवधू-पापहारी ।
भं ज भवचाप, द ल दाप भूपावली, स हत भृगुनाथ नतमाथ भारी ।। ३ ।।
जय त धार मक-धुर, धीर रघुवीर गुर-मातु- पतु-बंधु-वचनानुसारी ।
च कूटा व या दं डक व पन, ध यकृत पु यकानन- वहारी ।। ४ ।।
जय त पाका रसुत-काक-करतू त-फलदा न ख न ग गो पत वराधा ।
द दे वी वेश दे ख ल ख न शचरी जनु वडं बत करी व बाधा ।। ५ ।।
जय त खर- शर- षण चतुदश-सहस-सुभट-मारीच-संहारकता ।
गृ -शबरी-भ - ववश क णा सधु, च रत न पा ध, वधा तह ा ।। ६ ।।
जय त मद-अंध कुकबंध ब ध, बा ल बलशा ल ब ध, करन सु ीव राजा ।
सुभट मकट-भालु-कटक-संघट-सजत, नमत पद रावणानुज नवाजा ।। ७ ।।
जय त पाथो ध-कृत-सेतु कौतुक हेतु, काल-मन-अगम लई लल क लंका ।
सकुल, सानुज, सदल द लत दशकंठ रण, लोक-लोकप कये र हत-शंका ।। ८ ।।
जय त सौ म -सीता-स चव-स हत चले पु पका ढ़ नज राजधानी ।
दासतुलसी मु दत अवधवासी सकल, राम भे भूप वैदे ह रानी ।। ९ ।।
भावाथ— ीरामच जीक जय हो। आप सत्, चेतन, ापक आन द प पर ह।
आप लीला करनेके लये ही अ से पम कट ए ह। जब ा आ द सब दे वता
और स गण दानव के अ याचारसे ाकुल हो गये, तब उनके संकोचसे आपने नमल
गुणस प नर-शरीर धारण कया ।। १ ।। आपक जय हो—आप क याण प कोशलनरेश
दशरथजी और क याण- व पणी महारानी कौश याके यहाँ चार भाइय के पम
(सालो य, सामी य, सा य और सायु य) मो के सु दर चार फल उ प ए। आपने
वेदो य ा द कम, धम, पृ वी, गौ, ा ण, भ और साधु को आन द दया ।। २ ।।
आपक जय हो—आपने (रा स को मारकर) व ा म जीके य क र ा क , स जन को
सतानेवाले का दलन कया, शापके कारण पाषाण प ई गौतम-प नी अह याके
पाप को हर लया, शवजीके धनुषको तोड़कर राजा के दलका दप चूण कया और बल-
वीय- वजयके मदसे ऊँचा रहनेवाला परशुरामजीका म तक झुका दया ।। ३ ।। आपक जय
हो—आप धमके भारको धारण करनेम बड़े धीर और रघुवंशम असाधारण वीर ह। आपने
गु , माता, पता और भाईके वचन मानकर च कूट, व याचल और द डक वनको, उन
प व वन म वहार करके, कृतकृ य कर दया ।। ४ ।। ीरामच जीक जय हो— ज ह ने
इ के पु काक प बने ए कपट जय तको उसक करनीका उ चत फल दया, ज ह ने
ग ा खोदकर वराध दै यको उसम गाड़ दया, द दे वक याका प धरकर आयी ई
रा सी शूपणखाको पहचानकर उसके नाक-कान कटवाकर मानो संसारभरके सुखम बाधा
प ँचानेवाले रावणका तर कार कया ।। ५ ।। ीरामच जीक जय हो—आप खर,
शरा, षण, उनक चौदह हजार सेना और मारीचको मारनेवाले ह, मांसभोजी गृ जटायु
और नीच जा तक ी शबरीके ेमके वश हो उनका उ ार करनेवाले, क णाके समु ,
न कलंक च र वाले और वध ताप का हरण करनेवाले ह ।। ६ ।। ीरामच जीक जय
हो— ज ह ने , मदा ध कब धका वध कया, महाबलवान् बा लको मारकर सु ीवको
राजा बनाया, बड़े-बड़े वीर बंदर तथा रीछ क सेनाको एक करके उनको ूहाकार सजाया
और शरणागत वभीषणको मु और भ दे कर नहाल कर दया ।। ७ ।।
ीरामच जीक जय हो— ज ह ने खेलके लये ही समु पर पुल बाँध लया, कालके मनको
भी अगम लंकाको उमंगसे ही लपक लया और कुलस हत, भाईस हत और सारी सेनास हत
रावणका रणम नाश करके तीन लोक और इ , कुबेरा द लोकपाल को नभय कर
दया ।। ८ ।। ीरामच जीक जय हो—जो लंका- वजयकर ल मणजी, जानक जी और
सु ीव, हनुमाना द म य स हत पु पक वमानपर चढ़कर अपनी राजधानी अयो याको
चले। तुलसीदास गाता है क वहाँ प ँचकर ीरामके महाराजा और ीसीताजीके महारानी
होनेपर सम त अवधवासी परम स हो गये ।। ९ ।।
[४४]
जय त
राज-राज राजीवलोचन, राम,
नाम क ल-कामत , साम-शाली ।
अनय-अंभो ध-कुंभज, नशाचर- नकर-
त मर-घनघोर-खर करणमाली ।। १ ।।
जय त मु न-दे व-नरदे व दसर थके,
दे व-मु न-वं कय अवध-वासी ।
लोकनायक-कोक-शोक-संकट-शमन,
भानुकुल-कमल-कानन- वकासी ।। २ ।।
जय त शृंगार-सर तामरस-दाम त-
दे ह, गुणगेह, व ोपकारी ।
सकल सौभा य-स दय-सुषमा प,
मनोभव को ट गवापहारी ।। ३ ।।
(जय त) सुभग सारंग सु नखंग सायक श ,
चा चमा स वर वमधारी ।
धमधुरधीर, रघुवीर, भुजबल अतुल,
हेलया द लत भूभार भारी ।। ४ ।।
जय त कलधौत म ण-मुकुट, कुंडल, तलक-
झलक भ ल भाल, वधु-वदन-शोभा ।
द भूषन, बसन पीत, उपवीत,
कय यान क यान-भाजन न को भा ।। ५ ।।
(जय त) भरत-सौ म -श ु न-से वत, सुमुख,
स चव-सेवक-सुखद, सवदाता ।
अधम, आरत, द न, प तत, पातक-पीन
सकृत नतमा क ह ‘पा ह’ पाता ।। ६ ।।
जय त जय भुवन दसचा र जस जगमगत,
पु यमय, ध य जय रामराजा ।
च रत-सुरस रत क व-मु य ग र नःस रत,
पबत, म जत मु दत सँत-समाजा ।। ७ ।।
जय त वणा माचारपर ना र-नर,
स य-शम-दम-दया-दानशीला ।
वगत ख-दोष, संतोष सुख सवदा,
सुनत, गावत राम राजलीला ।। ८ ।।
जय त वैरा य- व ान-वारां नधे
नमत नमद, पाप-ताप-ह ा ।
दास तुलसी चरण शरण संशय-हरण,
दे ह अवलंब वैदे ह-भ ा ।। ९ ।।
भावाथ— ीरामच जीक जय हो—जो राज-राजे र म इ के समान ह, जनके ने
कमलके समान सु दर ह, जनका नाम क लयुगम क पवृ के समान है, जो (शरणागत
भ को) सा वना दे नेवाले (ढाढस बँधानेवाले) ह, अनी त पी समु को सोखनेके लये जो
अग य ऋ षके समान और दानव-दल पी गाढ़ और भयानक अ धकारका नाश करनेके
लये जो च ड सूयके समान ह ।। १ ।। ीरामच जीक जय हो—मु न, दे वता और
मनु य के वामी जन दशरथसूनु ीरामच जीने अवधवा सय को ऐसा े बना दया क
मु न और दे वता भी उनक व दना करने लगे। जो लोकपाल पी चकव के शोक-स तापका
नाश करनेवाले और सूयकुल पी कमल के वनको फु लत करनेवाले सा ात् सूय
ह ।। २ ।। ीरामच जीक जय हो—सौ दय पी सरोवरम उ प ए नीले कमल क
मालाके समान जनके शरीरक आभा है, जो स पूण द गुण के धाम ह, सारे व का हत
करनेवाले ह और सम त सौभा य, सौ दय तथा परम शोभायु अपने पसे करोड़
कामदे व के गवको खव करनेवाले ह ।। ३ ।। ीरामच जीक जय हो—जो सु दर शा
धनुष, तरकस, बाण, श , ढाल, तलवार और े कवच धारण कये ह, धमका भार
उठानेम जो धीर ह, जो रघुवंशम सव े वीर ह, जनक च ड भुजा का अतुलनीय बल
है और ज ह ने खेलसे ही रा स का नाश करके पृ वीका भारी भार हरण कर लया ।। ४ ।।
ीरामच जीक जय हो—जो म ण-ज ड़त सुवणका मुकुट म तकपर धारण कये और
कान म मकराकृत कु डल पहने ह; जनके भालपर तलकक सु दर झलक है और
च माके समान जनका मुखम डल शो भत हो रहा है; जो पीता बर, द आभूषण और
य ोपवीत धारण कये ए ह। ऐसा कौन है जो ीरामके इस नयना भराम पका यान
करके क याणका भागी न आ हो ।। ५ ।। ीरामच जीक जय हो—जो भरत, ल मण
और श ु नसे से वत तथा सु ीव, सुम त आ द म य और भ को सुख एवं स पूण
इ छत पदाथ दे नेवाले ह; जो अधम, आत, द न, प तत और महापा पय को केवल एक बार
णाम करने और ‘मेरी र ा करो’ इतना कहनेपर ही ज म-मरण प संसारसे बचा लेते
ह ।। ६ ।। महाराज ीरामच जीक जय हो— जनका प व यश चौदह भुवन म जगमगा
रहा है, जो सवथा पु यमय और ध य ह, जनक कथा पी गंगा आ दक व मह ष
ीवा मी क पी हमालय-पवतसे नकली है, जसम नान कर और जसके जलका पान
कर अथात् जसका वण-मनन कर संत-समाज सदा स रहता है ।। ७ ।।
ीरामच जीक जय हो— जनके स रामरा यम सभी ी-पु ष अपने-अपने
वणा म- व हत आचारपर चलनेवाले; स य, शम, दम, दया और दान पी त का पालन
करनेवाले; ःख और दोष से र हत, सदा स तोषी, सब कारसे सुखी और रामक
रा यलीलाको सदा गाया और सुना करते थे अथात् वे न त होकर सदा रामक लीलाको
ही गाते-सुनते थे ।। ८ ।। ीरामच जीक जय हो—जो वैरा य और ान- व ानके समु ह,
जो णाम करनेवाल को सुख दे ते और उनके सारे पाप-ताप को हर लेते ह। हे जानक नाथ!
हे संशयका नाश करनेवाले! यह तुलसीदास आपक शरण पड़ा है, कृपाकर इसे अपने
णतपाल चरण का सहारा द जये ।। ९ ।।
राग गौरी
[४५]
ीरामचं कृपालु भजु मन हरण भवभय दा णं ।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजा णं ।। १ ।।
कंदप अग णत अ मत छ व, नवनील नीरद सुंदरं ।
पट पीत मान त ड़त च शु च नौ म जनक सुतावरं ।। २ ।।
भजु द नबंधु दनेश दानव-दै य-वंश नकंदनं ।
रघुनंद आनँदकंद कोशलचंद दशरथ-नंदनं ।। ३ ।।
सर मुकुट कुंडल तलक चा उदा अंग वभूषणं ।
आजानुभुज शर-चाप-धर, सं ाम- जत-खर षणं ।। ४ ।।
इ त वद त तुलसीदास शंकर-शेष-मु न-मन-रंजनं ।
मम दय कंज नवास कु , कामा द खल-दल-गंजनं ।। ५ ।।
भावाथ—हे मन! कृपालु ीरामच जीका भजन कर। वे संसारके ज म-मरण प
दा ण भयको र करनेवाले ह, उनके ने नव- वक सत कमलके समान ह; मुख, हाथ और
चरण भी लाल कमलके स श ह ।। १ ।। उनके सौ दयक छटा अग णत कामदे व से बढ़कर
है, उनके शरीरका नवीन नील-सजल मेघके जैसा सु दर वण है, पीता बर मेघ प शरीरम
मानो बजलीके समान चमक रहा है, ऐसे पावन प जानक प त ीरामजीको म नम कार
करता ँ ।। २ ।। हे मन! द न के ब धु, सूयके समान तेज वी, दानव और दै य के वंशका
समूल नाश करनेवाले, आन दक द, कोशल-दे श पी आकाशम नमल च माके समान,
दशरथन दन ीरामका भजन कर ।। ३ ।। जनके म तकपर र नज टत मुकुट, कान म
कु डल, भालपर सु दर तलक और येक अंगम सु दर आभूषण सुशो भत हो रहे ह;
जनक भुजाएँ घुटन तक लंबी ह; जो धनुष-बाण लये ए ह; ज ह ने सं ामम खर-
षणको जीत लया है ।। ४ ।। जो शव, शेष और मु नय के मनको स करनेवाले और
काम- ोध-लोभा द श ु का नाश करनेवाले ह। तुलसीदास ाथना करता है क वे
ीरघुनाथजी मेरे दय-कमलम सदा नवास कर ।। ५ ।।
राग रामकली
[४६]
सदा
राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, राम जपु, मूढ़ मन, बार बारं ।
सकल सौभा य-सुख-खा न जय जा न शठ, मा न व ास वद वेदसारं ।। १ ।।
कोशले नव-नीलकंजाभतनु, मदन- रपु-कंज द-चंचरीकं ।
जानक रवन सुखभवन भुवनैक भु, समर-भंजन, परम का नीकं ।। २ ।।
दनुज-वन-धूमधुज, पीन आजानुभुज, दं ड-कोदं डवर चंड बानं ।
अ नकर चरण मुख नयन राजीव, गुन-अचन, ब मयन-शोभा- नधानं ।। ३ ।।
वासनावृंद-कैरव- दवाकर, काम- ोध-मद-कंज-कानन-तुषारं ।
लोभ अ त म नाग पंचाननं भ हत हरण संसार-भारं ।। ४ ।।
केशवं, लेशहं, केश-वं दत पद- ं मंदा कनी-मूलभूतं ।
सवदानंद-संदोह, मोहापहं, घोर-संसार-पाथो ध-पोतं ।। ५ ।।
शोक-संदेह-पाथोदपटला नलं, पाप-पवत-क ठन-कु लश पं ।
संतजन-कामधुक-धेनु, व ाम द, नाम क ल-कलुष-भंजन अनूपं ।। ६ ।।
धम-क प माराम, ह रधाम-प थ संबलं, मूल मदमेव एकं ।
भ -वैरा य- व ान-शम-दान-दम, नाम आधीन साधन अनेकं ।। ७ ।।
तेन त तं, तं, द मेवा खलं, तेन सव कृतं कमजालं ।
येन ीरामनामामृतं पानकृतम नशमनव मवलो य कालं ।। ८ ।।
पच, खल, भ ल, यवना द ह रलोकगत, नामबल वपुल म त मल न परसी ।
या ग सब आस, सं ास, भवपास, अ स न सत ह रनाम जपु
दासतुलसी ।। ९ ।।
भावाथ—रे मूख मन! सदा-सवदा बार-बार ीरामनामका ही जप कर; यह स पूण
सौभा य-सुखक खा न है और यही वेदका नचोड़ है, ऐसा जीम समझकर और पूण व ास
करके सदा ीरामनाम कहा कर ।। १ ।। कोशलराज ीरामच जीके शरीरक का त नवीन
नील कमलके समान है; वे कामदे वको भ म करनेवाले शवजीके दय पी कमलम
रमनेवाले मर ह। वे जानक -रमण, सुखधाम, अ खल व के एकमा भु, समरम का
नाश करनेवाले और परम दयालु ह ।। २ ।। वे दानव के वनके लये अ नके समान ह। पु
और घुटन तक लंबे भुजद ड म सु दर धनुष और च ड बाण धारण कये ह। उनके हाथ,
चरण, मुख और ने लाल कमलके समान कमनीय ह। वे सद्गुण के थान और अनेक
कामदे व क सु दरताके भ डार ह ।। ३ ।। व वध वासना पी कुमु दनीका नाश करनेके
लये सा ात् सूय और काम, ोध, मद आ द कमल के वनको न करनेके लये तुषार
(पाला) ह; लोभ पी अ य त मतवाले गजराजके लये वनराज सह और भ क भलाईके
लये रा स को मारकर संसारका भार उतारनेवाले ह ।। ४ ।। जनका नाम केशव है, जो
लेश के नाश करनेवाले ह, ा और शवसे जनके चरणयुगल व दत होते ह—जो
गंगाजीके उ प थान ह। सदा आन दके समूह, मोहके वनाशक और भयानक भव-
सागरके पार जानेके लये जहाज ह ।। ५ ।। ीरामजी शोक और संशय पी मेघ के समूहको
छ - भ करनेके लये वायु प और पाप पी क ठन पवतको तोड़नेके लये व प ह।
जनका अनुपम नाम संत को कामधेनुके समान इ छत फल दे नेवाला तथा शा तदायक
और क लयुगके भारी पाप को नाश करनेम सानी नह रखता ।। ६ ।। यह ीरामनाम
धम पी क पवृ का बगीचा, भगवान्के धामम जानेवाले प थक के लये पाथेय तथा सम त
साधन और स य का मूल आधार है। भ , वैरा य, व ान, शम, दम, दान आ द मो के
अनेक साधन—सभी इस रामनामके अधीन ह ।। ७ ।। जसने इस कराल क लकालको
दे खकर न य- नर तर ीरामनाम पी नद ष अमृतका पान कया—उसने सारे तप कर
लये, सब य का अनु ान कर लया, सव व दान दे दया और व धके अनुसार सभी वै दक
कम कर लये ।। ८ ।। अनेक चा डाल, कम , भील और यवना द केवल रामनामके
च ड तापसे ीह रके परमधामम प ँच गये और उनक बु को वकार ने पश भी नह
कया। हे तुलसीदास! सारी आशा और भयको छोड़कर संसार पी ब धनको काटनेके लये
पैनी तलवारके समान ीराम-नामका सदा जप कर ।। ९ ।।
[४७]
ऐसी आरती राम रघुबीरक कर ह मन ।
हरन ख ं द गो बद आन दघन ।। १ ।।
अचरचर प ह र, सरबगत, सरबदा बसत, इ त बासना धूप द जै ।
द प नजबोधगत-कोह-मद-मोह-तम, ौढ़ अ भमान चतबृ छ जै ।। २ ।।
भाव अ तशय वशद वर नैवे शुभ ीरमण परम संतोषकारी ।
ेम-तांबूल गत शूल संशय सकल, वपुल भव-बासना-बीजहारी ।। ३ ।।
अशुभ-शुभकम-घृतपूण दश व तका, याग पावक, सतोगुण कासं ।
भ -वैरा य- व ान द पावली, अ प नीराजनं जग नवासं ।। ४ ।।
बमल द-भवन कृत शां त-पयक शुभ, शयन व ाम ीरामराया ।
मा-क णा मुख त प रचा रका, य ह र त न ह भेद-माया ।। ५ ।।
एह
आरती- नरत सनका द, ु त, शेष, शव, दे व र ष, अ खलमु न त व-दरसी ।
करै सोइ तरै, प रहरै कामा द मल, वद त इ त अमलम त-दास तुलसी ।। ६ ।।
भावाथ—हे मन! रघुकुल-वीर ीरामच जीक इस कार आरती कर। वे राग- े ष
आद तथा ःख के नाशक, इ य का नय ण करनेवाले और आन दक वषा
करनेवाले ह ।। १ ।। जड़-चेतन जगत् सब ीह रका प है, वे सव ापी और न य ह—
इस वासना (सुग ध)-क उनक धूप कर। इससे तेरी भेद प ग ध मट जायगी। धूपके बाद
द प दखाना चा हये, सो आ म ानका वयं काशमय द पक जलाकर उससे ोध, मद,
मोहके अ धकारका नाश कर दे । इस ान- काशसे अ भमानभरी च -वृ याँ आप ही
ीण हो जायँगी ।। २ ।। इसके बाद अ य त नमल े भावका नैवे भगवान्के अपण कर,
वशु भावका सु दर नैवे ल मीप त भगवान्को परम स तोषकारी होगा। फर ःख,
सम त स दे ह और अपार संसारक वासना के बीजके नाश करनेवाले ‘ ेम’ का ता बूल
भगवान्के नवेदन कर ।। ३ ।। तदन तर शुभाशुभ कम पी घृतम डू बी ई दस इ य पी
वृ य को यागक अ नसे जलाकर स वगुण पी काश कर; इस तरह भ , वैरा य और
व ान पी द पावलीक आरती जग वास भगवान्के अपण कर ।। ४ ।। आरतीके बाद
नमल दय पी म दरम शा त पी सु दर पलंग बछाकर उसपर महाराज
ीरामच जीको शयन करवाकर व ाम करा। वहाँ महाराजक सेवाके लये मा, क णा
आ द मु य दा सय को नयु कर। जहाँ भगवान् ह र रहते ह, वहाँ भेद प माया नह
रहती ।। ५ ।। सनका द, वेद, शुकदे वजी, शेष, शवजी, नारदजी और सभी त वदश मु न
ऐसी आरतीम सदा लगे रहते ह; नमलम त मु नय का दास तुलसी कहता है क जो कोई
ऐसी आरती करता है वह कामा द वकार से छू टकर इस भवसागरसे तर जाता है ।। ६ ।।
[४८]
हर त सब आरती आरती रामक ।
दहन ख-दोष, नरमू लनी कामक ।। १ ।।
सुरभ सौरभ धूप द पबर मा लका ।
उड़त अघ- बहँग सु न ताल करता लका ।। २ ।।
भ - द-भवन, अ ान-तम-हा रनी ।
बमल ब यानमय तेज- ब ता रनी ।। ३ ।।
मोह-मद-कोह-क ल-कंज- हमजा मनी ।
मु क तका, दे ह- त दा मनी ।। ४ ।।
नत-जन-कुमुद-बन-इं -कर-जा लका ।
तुल स अ भमान-म हषेस ब का लका ।। ५ ।।
भावाथ— ीरामच जीक आरती सब आ -पीड़ाको हर लेती है। ःख और पाप को
जला दे ती है तथा कामनाको जड़से उखाड़कर फक दे ती है ।। १ ।। वह सु दर सुग धयु
धूप और े द पक क माला है। आरतीके समय हाथ से बजायी जानेवाली तालीका श द
सुनकर पाप पी प ी तुरंत उड़ जाते ह ।। २ ।। यह आरती भ के दय पी भवनके
अ ान पी अ धकारका नाश करनेवाली और नमल व ानमय काशको फैलानेवाली
है ।। ३ ।। यह मोह, मद, ोध और क लयुग पी कमल के नाश करनेके लये जाड़ेक रात
है और मु पी ना यकासे मला दे नेके लये ती है तथा इसके शरीरक चमक बजलीके
समान है ।। ४ ।। यह शरणागत भ पी कुमु दनीके वनको फु लत करनेके लये
च माके करण क माला है और तुलसीदासके अ भमान पी म हषासुरका मदन करनेके
लये अनेक का लका के समान है ।। ५ ।।

ह रशंकरी पद
[४९]
दे व—
दनुज-बन-दहन, गुन-गहन, गो वद नंदा द-आनंद-दाताऽ वनाशी ।
शंभु, शव, , शंकर, भयंकर, भीम, घोर, तेजायतन, ोध-राशी ।। १ ।।
अनँत, भगवंत-जगदं त-अंतक- ास-शमन, ीरमन, भुवना भरामं ।
भूधराधीश जगद श ईशान, व ानघन, ान-क यान-धामं ।। २ ।।
वामना , पावन, परावर, वभो, कट परमातमा, कृ त- वामी ।
चं शेखर, शूलपा ण, हर, अनघ, अज, अ मत, अ व छ , वृषभेश-गामी ।। ३ ।।
नीलजलदाभ तनु याम, ब काम छ व राम राजीवलोचन कृपाला ।
कंबु-कपूर-वपु धवल, नमल मौ ल जटा, सुर-त ट न, सत सुमन माला ।। ४ ।।
वसन कज कधर, च -सारंग-दर-कंज-कौमोदक अ त वशाला ।
मार-क र-म -मृगराज, ैनैन, हर, नौ म अपहरण संसार-जाला ।। ५ ।।
कृ ण, क णाभवन, दवन कालीय खल, वपुल कंसा द नवशकारी ।
पुर-मद-भंगकर, म गज-चमधर, अ धकोरग- सन प गारी ।। ६ ।।
, ापक, अकल, सकल, पर, परम हत, यान, गोतीत, गुण-वृ -ह ा ।
सधुसुत-गव- ग र-व , गौरीश, भव, द -मख अ खल व वंसक ा ।। ७ ।।
भ य, भ जन-कामधुक धेनु, ह र हरण घट वकट वप त भारी ।
सुखद, नमद, वरद, वरज, अनव ऽ खल, व पन-आनंद-वी थन- वहारी ।। ८
।।
चर ह रशंकरी नाम-मं ावली ं ख हर न, आनंदखानी ।
व णु- शव-लोक-सोपान-सम सवदा वद त तुलसीदास वशद बानी ।। ९ ।।
[इस भजनके येक पदम आधेम भगवान् ी व णुक और आधेम भगवान् शवक
तु त क गयी है, इसीसे इसका नाम ह र-शंकरी है। गोसा जी महाराजने व णु और शवक
एक साथ तु त करके ह रहरम अभेद स कया है।]
भगवान् व णु—दानव पी वनके जलानेवाले, गुण के वन अथात् सा वक सद्गुण से
स प , इ य के नय ता, न द-उपन द आ दको आन द दे नेवाले और अ वनाशी ह।
भगवान् शव—श भु, शव, , शंकर आ द क याणकारी नाम से स ह; बड़े भारी
भयंकर, महान् तेज वी और ोधक रा श ह ।। १ ।।
भगवान् व णु—अन त ह, छः कारके ऐ य से यु ह, जगत्का अ त करनेवाले,
यमक ासको मटानेवाले, ल मीजीके वामी और सम त ा डको आन द दे नेवाले ह।
भगवान् शव—कैलासके राजा, जगत्के वामी, ईशान, व ानघन और ान तथा
मो के धाम ह ।। २ ।।
भगवान् व णु—वामन प धरनेवाले, मन-इ य से अ , प व ( वकारर हत),
जड़-चेतन और लोक-परलोकके वामी, सा ात् परमा मा और कृ तके वामी ह।
भगवान् शव—म तकपर च मा और हाथम शूल धारण करनेवाले, सृ के
संहारक ा, पापशू य, अज मा, अमेय, अख ड और न द पर सवार होकर चलनेवाले
ह ।। ३ ।।
भगवान् व णु—नीले मेघके समान याम शरीरवाले, अनेक कामदे व क -सी शोभावाले,
कमलके स श सु दर ने वाले और सम त व म रमनेवाले कृपालु ह।
भगवान् शव—शंख और कपूरके समान चकने, ेत और सुग धत शरीरवाले,
मलर हत, म तकपर जटाजूट और गंगाजीको धारण करनेवाले तथा सफेद पु प क माला
पहने ए ह ।। ४ ।।
भगवान् व णु—कमलके केसरके समान पीता बर धारण कये तथा हाथ म शंख, च ,
प , शा धनुष और अ य त वशाल कौमोदक गदा लये ए ह।
भगवान् शव—कामदे व पी मतवाले हाथीको मारनेके लये सह प, तीन ने वाले
और आवागमन पी जगत्के जालका नाश करनेवाले ह; ऐसे शवजीको म णाम करता
ँ ।। ५ ।।
भगवान् व णु—सबका आकषण करनेवाले, क णाके धाम, का लय नागके दमन
करनेवाले और कंस आ द अनेक को नवश करनेवाले ह।
भगवान् शव— पुरासुरका मद चूण करनेवाले, मतवाले हाथीका चम धारण करनेवाले
और अ धकासुर पी सपको सनेके लये ग ड़ ह ।। ६ ।।
भगवान् व णु—पूण , चराचरम ापक, कलार हत, सबसे े , परम हतैषी,
ान व प, अ तःकरण पी भीतरी और वणा द बाहरी इ य से अतीत और तीन
गुण क वृ य का हरण करनेवाले ह।
भगवान् शव—जल धरके गव पी पवतको तोड़नेके लये व प, पावतीके प त,
संसारके उ प थान ह और द के स पूण य के व वंस करनेवाले ह ।। ७ ।।
भगवान् व णु— जनको भ ही यारी है, जो भ के मनोरथ पूण करनेके लये
कामधेनुके समान ह और उनक बड़ी-बड़ी क ठन तथा भयानक वप य के हरनेवाले,
अतएव ह र कहलानेवाले ह।
भगवान् शव—सुख, आन द और मनचाहा वर दे नेवाले, वर , सब कारके वकार
एवं दोष से र हत और आन दवन काशीक ग लय म वहार करनेवाले ह ।। ८ ।।
यह ह र और शंकरके नाम-म क सु दर पं याँ राग- े षा द से ज नत ःखको
हरनेवाली, आन दक खा न और व णु तथा शवलोकम जानेके लये सदा सीढ़ के समान ह,
यह बात तुलसीदास शु वाणीसे कहता है ।। ९ ।।
[५०]
दे व—
भानुकुल-कमल-र व, को ट-कंदप-छ व, काल-क ल- ाल मव वैनतेयं ।
बल भुजदं ड परचंड-कोदं ड-धर तूणवर व शख बलम मेयं ।। १ ।।
अ ण राजीवदल-नयन, सुषमा-अयन, याम तन-कां त वर वा रदाभं ।
त त कांचन-व , श - व ा- नपुण, स -सुर-से , पाथोजनाभं ।। २ ।।
अ खल लाव य-गृह, व - व ह, परम ौढ़, गुणगूढ़, म हमा उदारं ।
धष, तर, ग, वग-अपवग-प त, भ न संसार-पादप कुठारं ।। ३ ।।
शापवश मु नवधू-मु कृत, व हत, य -र ण-द , प कता ।
जनक-नृप-सद स शवचाप-भंजन, उ भागवागव-ग रमापहता ।। ४ ।।
गु - गरा-गौरवामर-सु यज रा य य , ीस हत सौ म - ाता ।
संग जनका मजा, मनुजमनुसृ य अज, -वध- नरत, ैलो य ाता ।। ५ ।।
दं डकार य कृतपु य पावन चरण, हरण मारीच-मायाकुरंगं ।
बा ल बलम गजराज इव केसरी, सु द-सु ीव- ख-रा श-भंगं ।। ६ ।।
ऋ , मकट वकट सुभट उद्भट समर, शैल-संकाश रपु ासकारी ।
ब पाथो ध, सुर- नकर-मोचन, सकुल दलन दससीस-भुजबीस भारी ।। ७ ।।
वबुधा र-संघात, अपहरण म ह-भार, अवतार कारण अनूपं ।
अमल, अनव , अ ै त, नगुण, सगुण, सु मरा म नरभूप- पं ।। ८ ।।
शेष- ु त-शारदा-शंभु-नारद-सनक गनत गुन अंत न ह तव च र ं ।
सोइ राम कामा र- य अवधप त सवदा दासतुलसी- ास- न ध व ह ं ।। ९ ।।
भावाथ—सूयवंश पी कमलको खलानेके लये जो सूय ह, करोड़ कामदे व के समान
जनक सु दरता है, क लकाल पी सपको सनेके लये जो ग ड़ ह, अपने बल
भुजद ड म ज ह ने च ड धनुष और बाण धारण कर रखे ह, जो तरकस बाँधे ह और
जनका बल असीम है ।। १ ।। लाल कमलक पँखु ड़य -जैसे जनके ने ह, जो शोभाके
धाम ह, जनके साँवरे शरीरक सु दर का त मेघके समान है। जो तपे ए सोनेके समान
पीता बर धारण कये ह, जो श - व ाम नपुण और स तथा दे वता के उपा य ह और
जनक ना भसे कमल उ प आ है ।। २ ।। जो स पूण सु दरताके थान ह, सारा व ही
जनक मू त है, जो बड़े ही बु मान् और रह यमय गुणवाले ह, जनक अपार म हमा है,
जनको कोई भी नह जीत सकता और जनक लीलाका पार कोई भी नह पा सकता,
जनको पहचानना बड़ा क ठन है, जो वग और मो के वामी तथा आवागमन पी संसारके
वृ क जड़ काटनेके लये कुठार ह ।। ३ ।। जो गौतम मु नक ी अह याको शापसे मु
करनेवाले, व ा म के य क र ा करनेम बड़े चतुर और अपने भ का प करनेवाले ह,
तथा राजा जनकक सभाम शवजीके धनुषको तोड़कर महान् तेज वी एवं ोधी
परशुरामजीके गव और मह वको हरण करनेवाले ह ।। ४ ।। ज ह ने पताके वचन का गौरव
रखनेके लये, दे वता भी जसको बड़ी क ठनतासे छोड़ सकते ह, ऐसे रा यको सहजम ही
याग दया और भाई ल मण तथा ीजानक जीको साथ लेकर, अज मा पर होकर भी
नरलीलासे तीन लोक क र ाके लये रावणा द रा स का संहार कया ।। ५ ।। ज ह ने
अपने पावन चरणकमल से द डक वनको प व कर दया, कपट-मृग पी मारीचका नाश
कर दया, जो बा ल पी महान् बलसे मतवाले हाथीके संहारके लये सह प ह और
सु ीवके सम त ःख का नाश करनेवाले परम सु द् ह ।। ६ ।। ज ह ने भयंकर और बड़े
भारी शूरवीर रीछ-ब दर को साथ लेकर सं ामम कु भकण-सरीखे पवतके समान
आकारवाले यो ा को डरा दया, समु को बाँध लया, दे वता के समूहको रावणके
ब धनसे छु ड़ा दया और दस सर तथा वशाल बीस भुजा वाले रावणका कुलस हत नाश
कर दया ।। ७ ।। दे वता के श ु रा स के समूहका, जो पृ वीपर भार प था, संहार
करनेके लये अवतार लेनेम उपमार हत कारणवाले, नमल, नद ष, अ ै त प, वा तवम
नगुण, मायाको साथ लेकर सगुण, पर नर प राजराजे र ीरामका म मरण करता
ँ ।। ८ ।। शेषजी, वेद, सर वती, शवजी, नारद और सनका द सदा जनके गुण गाते ह,
परंतु जनक लीलाका पार नह पा सकते, वही शवजीके यारे अयो यानाथ ीराम इस
तुलसीदासको ःख पी समु से पार उतारनेके लये सदा-सवदा जहाज प ह ।। ९ ।।
[५१]
दे व—
जानक नाथ, रघुनाथ, रागा द-तम-तर ण, ता यतनु, तेजधामं ।
स चदानंद, आनंदकंदाकरं, व - व ाम, रामा भरामं ।। १ ।।
नीलनव-वा रधर-सुभग-शुभकां त, क ट पीत कौशेय वर वसनधारी ।
र न-हाटक-ज टत-मुकुट-मं डत-मौ ल, भानु-शत-स श उ ोतकारी ।। २ ।।
वण कुंडल, भाल तलक, ू चर अ त, अ ण अंभोज लोचन वशालं ।
व -अवलोक, ैलोक-शोकापहं, मार- रपु- दय-मानस-मरालं ।। ३ ।।
ना सका चा सुकपोल, ज व त, अधर बबोपमा, मधुरहासं ।
कंठ दर, चबुक वर, वचन गंभीरतर, स य-संक प, सुर ास-नासं ।। ४ ।।
सुमन सु व च नव तुल सकादल-युतं मृ ल वनमाल उर ाजमानं ।
मत आमोदवश म मधुकर- नकर, मधुरतर मुखर कुव त गानं ।। ५ ।।
सुभग ीव स, केयूर, कंकण, हार, क कणी-रट न क ट-तट रसालं ।
वाम द स जनकजासीन- सहासनं कनक-मृ व लवत त तमालं ।। ६ ।।
आजानु भुजदं ड कोदं ड-मं डत वाम बा , द ण पा ण बाणमेकं ।
अ खल मु न- नकर, सुर, स , गंधव वर नमत नर नाग अव नप अनेकं ।। ७ ।।
अनघ, अ व छ , सव , सवश, खलु सवतोभ -दाताऽसमाकं ।
णतजन-खेद- व छे द- व ा- नपुण नौ म ीराम सौ म साकं ।। ८ ।।
युगल पदप सुखस प ालयं, च कु लशा द शोभा त भारी ।
हनुमंत- द वमल कृत परममं दर, सदा दासतुलसी-शरण शोकहारी ।। ९ ।।
भावाथ—जानक नाथ ीरघुनाथजी राग- े ष पी अ धकारका नाश करनेके लये
सूय प, त ण शरीरवाले, तेजके धाम, स चदान द, आन दक दक खा न, संसारको शा त
दे नेवाले, परम सु दर ह ।। १ ।। जनक नवीन नील सजल मेघके समान सु दर और शुभ
का त है, जो क ट-तटम सु दर रेशमी पीता बर धारण कये ह, और जनके म तकपर
सैकड़ सूय के समान काश करनेवाला र नज ड़त सु दर सुवण-मुकुट शो भत हो रहा
है ।। २ ।। जो कान म कु डल प हने, भालपर तलक लगाये, अ य त सु दर ुकु ट तथा
लाल कमलके समान बड़े-बड़े ने वाले, तरछ चतवनसे दे खते ए, तीन लोक का शोक
हरनेवाले और कामा र ी शवजीके दय पी मानसरोवरम वहार करनेवाले हंस प
ह ।। ३ ।। जनक ना सका बड़ी सु दर है, मनोहर कपोल ह, दाँत हीरे-जैसे चमकदार ह,
होठ लाल-लाल ब बाफलके समान ह, मधुर मुसकान है, शंखके समान क ठ और परम
सु दर ठोढ़ है। जनके वचन बड़े ही ग भीर होते ह, जो स यसंक प और दे वता के
ःख का नाश करनेवाले ह ।। ४ ।। रंग- बरंगे फूल और नये तुलसी-प क कोमल वनमाला
जनके दयपर सुशो भत हो रही है, उस मालापर सुग धके वश मतवाले भ र का समूह मधुर
गुंजार करता आ उड़ रहा है ।। ५ ।। जनके दयपर सु दर ीव सका च है, बा पर
बाजूब द, हाथ म कंकण और गलेम मनोहर हार शो भत हो रहा है, क ट-दे शम सु दर
तागड़ीका मधुर श द हो रहा है। सहासनपर वाम भागम ीजानक जी वराजमान ह, जो
तमाल-वृ के समीप कोमल सुवण-लता-सी शो भत हो रही ह ।। ६ ।। जनके भुजद ड
घुटन तक लंबे ह; बाय हाथम धनुष और दा हने हाथम एक बाण है; जनको स पूण
मु नम डल, दे वता, स , े ग धव, मनु य, नाग और अनेक राजा-महाराजागण णाम
करते ह ।। ७ ।। जो पापर हत, अख ड, सव , सबके वामी और न यपूवक हमलोग को
क याण दान करनेवाले ह; जो शरणागत भ के क मटानेक कलाम सवथा नपुण ह,
ऐसे ल मणजीस हत ीरामच जीको म णाम करता ँ ।। ८ ।। जनके दोन चरणकमल
आन दके धाम और कमला (ल मीजी)-के नवास थान ह अथात् ल मीजी सदा उन
चरण क सेवाम लगी रहती ह। व आ द ४८ च से जो अ य त शोभा पा रहे ह और
ज ह ने भ वर ीहनुमान्जीके नमल दयको अपना े म दर बना रखा है यानी
ीहनुमान्जीके दयम यह चरणकमल सदा बसते ह, ऐसे शोक हरनेवाले ीरामजीके
चरण क शरणम यह तुलसीदास है ।। ९ ।।
[५२]
दे व—
कोशलाधीश, जगद श, जगदे क हत, अ मतगुण, वपुल व तार लीला ।
गायं त तव च रत सुप व ु त-शेष-शुक-शंभ-ु सनका द मु न मननशीला ।। १
।।
वा रचर-वपुष ध र भ - न तारपर, धर णकृत नाव म हमा तगुव ।
सकल य ांशमय उ व ह ोड़, म द दनुजेश उ रण उव ।। २ ।।
कमठ अ त वकट तनु क ठन पृ ोपरी, मत मंदर कंडु -सुख मुरारी ।
कटकृत अमृत, गो, इं दरा, इं , वृंदारकावृंद-आनंदकारी ।। ३ ।।
मनुज-मु न- स -सुर-नाग- ासक, दनुज ज-धम-मरजाद-ह ा ।
अतुल मृगराज-वपुध रत, व रत अ र, भ हलाद-अहलाद-क ा ।। ४ ।।
छलन ब ल कपट-वटु प वामन , भुवन पयत पद तीन करणं ।
चरण-नख-नीर- ैलोक-पावन परम, वबुध-जननी- सह-शोक-हरणं ।। ५ ।।
याधीश-क र नकर-नव-केसरी, परशुधर व -सस-जलद पं ।
बीस भुजदं ड दससीस खंडन चंड वेग सायक नौ म राम भूपं ।। ६ ।।
भू मभर-भार-हर, कट परमातमा, नर पधर भ हेतू ।
वृ ण-कुल-कुमुद-राकेश राधारमण, कंस-बंसाटवी-धूमकेतू ।। ७ ।।
बल पाखंड म ह-मंडलाकुल दे ख, न कृत अ खल मख कम-जालं ।
शु बोधैकघन, ान-गुणधाम, अज बौ -अवतार वंदे कृपालं ।। ८ ।।
कालक लज नत-मल-म लनमन सव नर मोह- न श- न बड़यवनांधकारं ।
व णुयश पु कलक दवाकर उ दत दासतुलसी हरण वप तभारं ।। ९ ।।
भावाथ—हे कोसलप त! हे जगद र!! आप जगत्के एकमा हतकारी ह, आपने
अपने अपार गुण क बड़ी लीला फैलायी है। आपके परम प व च र को चार वेद, शेषजी,
शुकदे व, शव, सनका द और मननशील मु न गाते ह ।। १ ।। आपने म य प धारण कर
अपने भ को पार करनेके लये (महा लयके समय) पृ वीक नौका बनायी; आपक अपार
म हमा है। आप सम त य के अंश से पूण ह, आपने बड़े भयंकर शरीरवाले हर या
दानवका मदन करके शूकर पसे पृ वीका उ ार कया ।। २ ।। हे मुरारे! आपने अ त
भयानक कछु एका प धारण करके समु -म थनके समय रसातलम जाते ए म दराचल
पहाड़को अपनी क ठन पीठपर रख लया, उस समय उसपर पवतके घूमनेसे आपको
खुजलाहटका-सा सुख तीत आ था। समु मथनेपर आपने उसमसे अमृत, कामधेनु,
ल मी और च माको उ प कया, इससे आपने दे वता को ब त आन द दया ।। ३ ।।
आपने अतु लत बलशाली नृ सह प धारण करके मनु य, मु न, स , दे वता और नाग को
ःख दे नेवाले, ा ण और धमक मयादाका नाश करनेवाले दानव हर यक शपु प
श ुको वद ण कर भ वर ादको आ ा दत कर दया ।। ४ ।। आपने वामन चारीका
प धारण कर राजा ब लको छलनेके लये प हले तीन पैर पृ वी माँगी, पर नापते समय तीन
पैरसे सारा ा डतक नाप लया। (नापनेके समय) आपके चरण-नखसे तीन लोक को
प व करनेवाला (गंगा) जल नकला। आपने ब लको पातालम भेज और वह रा य इ को
दे कर दे वमाता अ द तका ःसह शोक हर लया ।। ५ ।। आपने सह बा आ द अ भमानी
य राजा पी हा थय के समूहको वद ण करनेके लये सह प और ा ण पी
धा यको हरा-भरा करनेके लये मेघ प, ऐसा परशुराम-अवतार धारण कया और राम पसे
दस सर तथा बीस भुजद डवाले रावणको च ड बाण से ख ड-ख ड कर दया, ऐसे
राजराजे र ीरामच जीको म णाम करता ँ ।। ६ ।। भू मके भारी भारको हरनेके लये
आप परमा मा शु होकर भी भ के लये मनु य प धारण करके कट ए, जो
वृ णवंश पी कुमु दनीको फु लत करनेवाले च मा, राधाजीके प त और कंसा दके
वंश पी वनको जलानेके लये अ न व प थे ।। ७ ।। बल पाख ड-द भसे
पृ वीम डलको ाकुल दे खकर आपने य ा द स पूण कमका ड पी जालका ख डन
कया, ऐसे शु -बोध व प, व ानघन सव द -गुण-स प , अज मा, कृपालु, बु
भगवान्क म व दना करता ँ ।। ८ ।। क लकालज नत पाप से सभी मनु य के मन म लन
हो रहे ह। आप मोह पी रा म ले छ पी घने अ धकारके नाश करनेके लये सूय दयक
तरह व णुयश नामक ा णके यहाँ पु पसे क क-अवतार धारण करगे! हे नाथ! आप
तुलसीदासक वप के भारको र कर ।। ९ ।।
[५३]
दे व—
सकल सौभा य द सवतोभ - न ध, सव, सवश, सवा भरामं ।
शव- द-कंज-मकरंद-मधुकर चर- प, भूपालम ण नौ म रामं ।। १ ।।
सवसुख-धाम गुण ाम, व ामपद, नाम सवसंपदम त पुनीतं ।
नमलं शांत, सु वशु , बोधायतन, ोध-मद-हरण, क णा- नकेतं ।। २ ।।
अ जत, न पा ध, गोतीतम , वभुमेकमनव मजम तीयं ।
ाकृतं, कट परमातमा, परम हत, ेरकानंत वंदे तुरीयं ।। ३ ।।
भूधरं सु दरं, ीवरं, मदन-मद-मथन सौ दय-सीमा तर यं ।
ा य, े य, त य, पार, संसारहर, सुलभ, मृ भाव-ग यं ।। ४ ।।
स यकृत, स यरत, स य त, सवदा, पु , संतु , संक हारी ।
धमवम न कमबोधैक, व पू य, यजन य, मुरारी ।। ५ ।।
न य, नमम, न यमु , नमान, ह र, ानघन, स चदानंद मूलं ।
सवर क सवभ का य , कूट थ, गूढा च, भ ानुकूलं ।। ६ ।।
स -साधक-सा य, वा य-वाचक प, मं -जापक-जा य, सृ - ा ।
परम कारण, कंजनाभ, जलदाभतनु, सगुण, नगुण, सकल य- ा ।। ७ ।।
ोम- ापक, वरज, , वरदे श, वैकुंठ, वामन वमल चारी ।
स -वृंदारकावृंदवं दत सदा, खं ड पाखंड- नमूलकारी ।। ८ ।।
पूरनानंदसंदोह, अपहरन संमोह-अ ान, गुण-स पातं ।
बचन-मन-कम-गत शरण तुलसीदास ास-पाथो ध इव कुंभजातं ।। ९ ।।
भावाथ—सम त सौभा यके दे नेवाले, सब कारसे क याणके भ डार, व प,
व के ई र, सबको सुख दे नेवाले, शवजीके दय-कमलके मकर दको पान करनेके लये
मर प, मनोहर पवान् एवं राजा म शरोम ण ीरामच जीको म णाम करता
ँ ।। १ ।। हे ीरामजी! आप सब सुख के धाम, गुण क रा श और परमशा त दे नेवाले ह।
आपका नाम सम त पदाथ को दे नेवाला तथा बड़ा ही प व है। आप शु , शा त, अ य त
नमल, ान व प, ोध और मदका नाश करनेवाले तथा क णाके थान ह ।। २ ।। आप
सबसे अजेय, उपा धर हत, मन-इ य से परे, अ , ापक, एक, न वकार, अज मा
और अ तीय ह। परमा मा होनेपर भी कृ तको साथ लेकर कट होनेवाले, परम
हतकारी, सबके ेरक, अन त और नगुण प ह। ऐसे ीरामच जीको म णाम करता
ँ ।। ३ ।। आप पृ वीको धारण करनेवाले, सु दर, ल मीप त, सु दरताम कामदे वका गव खव
करनेवाले, सौ दयक सीमा और अ य त ही मनोहर ह। आपको ा त करना बड़ा क ठन है,
आपके दशन बड़े क ठन ह, तकसे कोई आपको नह जान सकता, आपक लीलाका पार
पाना बड़ा क ठन है। आप अपनी कृपासे आवागमन प संसारके हरनेवाले, भ को
सहजहीम दशन दे नेवाले और ेम तथा द नतासे ा त होनेवाले ह ।। ४ ।। आप स यको
उ प करनेवाले, स यम रहनेवाले, स य-संक प, सदा ही पु — द श -साम यवान्,
स तु और महान् क के हरनेवाले ह। धम आपका कवच है, आप और कमके ानम
अ तीय ह, ा ण के पू य ह, ा ण और भ के यारे ह तथा मुर दानवके मारनेवाले
ह ।। ५ ।। हे हरे! आप न य, ममतार हत, न यमु , मानर हत, पाप के हरनेवाले,
ान व प, स चदान दघन और सबके मूल कारण ह। आप सबके र क, सबको
मृ यु पसे भ ण करनेवाले यमराजके वामी, कूट थ, गूढ़ तेजवाले और भ पर कृपा
करनेवाले ह ।। ६ ।। आप ही स , साधक और सा य ह, आप ही वा य और वाचक ह,
आप ही म , जापक और जा य तथा आप ही सृ और आप ही ा ह। आप परम कारण
ह। आपक ना भसे कमल नकला है। आपका शरीर मेघके समान यामसु दर है। सगुण-
नगुण दोन ही आप ह, यह सम त य प संसार भी आप ह और उसके ा भी आप ही
ह ।। ७ ।। आप आकाशके समान सव ापी, रागर हत, और वर दे नेवाले दे वता के
वामी ह। आपका नाम वैकु ठ और वमल वामन चारी है। स और दे वसमूह सदा
आपक व दना कया करते ह, आप पाख डका ख डन कर उसे नमूल करनेवाले ह ।। ८ ।।
आप पूण आन दक रा श, अ ववेक, अ ान और स व, रज, तम गुण के दोषको हरनेवाले
ह। यह तुलसीदास वचन, मन और कमसे आपक शरण पड़ा है; इसके भव-भय पी
समु के सोखनेके लये आप ही सा ात् अग य ऋ षके समान ह ।। ९ ।।
[५४]
दे व—
व - व यात, व ेश, व ायतन, व मरजाद, ाला रगामी ।
, वरदे श, वागीश, ापक, वमल, वपुल, बलवान, नवान वामी ।। १ ।।
कृ त, महत व, श दा द गुण, दे वता ोम, म द न, अमलांबु, उव ।
बु , मन, इं य, ाण, च ातमा, काल, परमाणु, च छ गुव ।। २ ।।
सवमेवा व प ू भूपालम ण! म , गतभेद, व णो ।
भुवन भवदं ग, कामा र-वं दत, पद ं मंदा कनी-जनक, ज णो ।। ३ ।।
आ दम यांत, भगवंत! वं सवगतमीश, प य त ये वाद ।
यथा पट-तंतु, घट-मृ का, सप- ग, दा क र, कनक-कटकांगदाद ।। ४ ।।
गूढ़, गंभीर, गव न, गूढाथ वत, गु त, गोतीत, गु , यान- याता ।
येय, यान य, चुर ग रमागार, घोर-संसार-पर, पार दाता ।। ५ ।।
स यसंक प, अ तक प, क पांतकृत, क पनातीत, अ ह-त पवासी ।
वनज-लोचन, वनज-नाभ, वनदाभ-वपु, वनचर वज-को ट-लाव यरासी ।। ६ ।।
सुकर, ःकर, रारा य, सनहर, ग, ष, गा ह ा ।
वेदगभाभकादभ-गुनगव, अवागपर-गव- नवाप-क ा ।। ७ ।।
भ -अनुकूल, भवशूल- नमूलकर, तूल-अघ-नाम पावक-समानं ।
तरलतृ णा-तमी-तर ण, धरणीधरण, शरण-भयहरण, क णा नधानं ।। ८ ।।
ब ल वृंदारकावृंद-वंदा -पद- ं मंदार-मालोर-धारी ।
पा ह मामीश संताप-संकुल सदा दास तुलसी णत रावणारी ।। ९ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप व म स , अ खल ा डके वामी, व प,
व क मयादा और ग ड़पर जानेवाले ह। आप ह। वर दे नेवाले ा द दे वता के और
वाणीके वामी ह। आप सव ापक, नमल, बड़े बलवान् और मो -पदके अधी र
ह ।। १ ।। मूल कृ त, मह व, श द, पश, प, रस, ग ध, स व, रज, तमोगुण; सम त
दे वता; आकाश, वायु, अ न, नमल जल, पृ वी, बु , मन, दस इ याँ; ाण, अपान,
समान, ान, उदाननामक पंच ाण; च , आ मा, काल, परमाणु और महान् चैत य-श
आ द सभी कुछ आपका ही प है। हे राज शरोम ण! कट और अ कट सब कुछ आप ही
ह; आप अभेद पसे अ खल व म रम रहे ह। यह सम त जगत् आपके अंशम थत है।
शवजी आपके दोन चरणकमल क व दना करते ह, ीगंगाजी इ ह चरण से नकली ह।
आप सव वजयी ह ।। २-३ ।। हे भगवन्! आप ही आ द, म य और अ त ह। आप सबम
ा त ह। हे ईश! वाद ानीजन आपको सबम ऐसे ओत- ोत दे खते ह, जैसे व म
सूत, घड़ेम म , सपम माला, लकड़ीके बने ए हाथीम लकड़ी और कड़े, बाजू आ द
गहन म सोना ओत- ोत है ।। ४ ।। इस कार आप अ य त गूढ़, ग भीर, दपहारी, गु त
रह यके ाता, गु त, मन-इ य से अतीत, सबके गु , ान, ाता और ेय व प,
ान य, महान् गौरवके भ डार और इस घोर भवसागरसे पार उतार दे नेवाले ह ।। ५ ।।
आपका संक प स य है, आप लय और महा लय करनेवाले ह। मन-बु से आपक कोई
क पना नह कर सकता। आप शेषनागक श यापर नवास करनेवाले ह। आपके कमलके
समान ने ह, आपक ना भसे कमल उ प आ है, आपके शरीरक का त मेघके समान
याम है और करोड़ कामदे व के समान आप सु दरताक रा श ह ।। ६ ।। आप भ के लये
सुलभ, के लये लभ ह, आपक आराधनाम (परी ाके लये) बड़े-बड़े क आते ह,
आप भ के सारे गुण का नाश कर दे ते ह, बड़े गम (बड़ी क ठनाईसे मलते ह) षह
और क ठन ःख के हरनेवाले ह। आप ाजीके पु सनका दको अपनी परा-अपरा
व ाका जो गव था, उसे हरण करनेवाले ह ।। ७ ।। आप भ पर स रहनेवाले, ज म-
मरण प संसारके लेशको जड़ते उखाड़नेवाले ह। आपका रामनाम पाप पी ईको
जलानेके लये अ न प है। चंचल तृ णा पी रा का नाश करनेके लये आप सूय ह,
पृ वीको धारण करनेवाले, शरणागतका भय हरनेवाले और क णाके थान ह ।। ८ ।।
आपके चरणयुगल क ब त-से दे वता के समूह व दना करते ह। आप म दारक माला
दयपर धारण कये रहते ह। हे रावणके श ु ीरामजी! सदा स तापसे ाकुल म
तुलसीदास आपक शरण ँ। हे नाथ! मेरी र ा क जये ।। ९ ।।
[५५]
दे व—
संत-संतापहर, व - व ामकर, राम कामा र, अ भरामकारी ।
शु बोधायतन, स चदानंदघन, स जनानंद-वधन, खरारी ।। १ ।।
शील-समता-भवन, वषमता-म त-शमन, राम, रामारमन, रावनारी ।
खड् ग, कर चमवर, वमधर, चर क ट तूण, शर-श -सारंगधारी ।। २ ।।
स यसंधान, नवान द, सव हत, सवगुण- ान- व ानशाली ।
सघन-तम-घोर-संसार-भर-शवरी नाम दवसेश खर- करणमाली ।। ३ ।।
तपन ती छन त न ती ताप न, तप प, तनभूप, तमपर, तप वी ।
मान-मद-मदन-म सर-मनोरथ-मथन, मोह-अंभो ध-मंदर, मन वी ।। ४ ।।
वेद- व यात, वरदे श, वामन, वरज, वमल, वागीश, वैकुंठ वामी ।
काम- ोधा दमदन, ववधन, छमा-शां त- व ह, वहगराज-गामी ।। ५ ।।
परम पावन, पाप-पुंज-मुंजाटवी-अनल इव न मष नमूलक ा ।
भुवन-भूषण, षणा र-भुवनेश, भूनाथ, ु तमाथ जय भुवनभ ा ।। ६ ।।
अमल, अ वचल, अकल, सकल, संत त-क ल- वकलता-भंजनानंदरासी ।
उरगनायक-शयन, त णपंकज-नयन, छ रसागर-अयन, सववासी ।। ७ ।।
स -क व-को वदानंद-दायक पद ं मंदा ममनुजै रापं ।
य संभूत अ तपूत जल सुरसरी दशनादे व अपहर त पापं ।। ८ ।।
न य नमु , संयु गुण, नगुणानंद, भगवंत, यामक, नयंता ।
व -पोषण-भरण, व -कारण-करण, शरण तुलसीदास ास-हंता ।। ९ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप संत के स ताप हरनेवाले, महा लयके समय सारे व को
अपनेम व ाम दे नेवाले तथा शवजीको आन द दे नेवाले ह। आप शु -बोध-धाम,
स चदान दघन, स जन के आन दको बढ़ानेवाले और खर दै यके श ु ह ।। १ ।। हे
ीरामजी! आप शील और समताके थान, भेद-बु प वषमताके नाशक, ल मीरमण
और रावणके श ु ह। बाण, धनुष और श धारण कये ह, आप हाथम तलवार और सु दर
ढाल लये ए ह, शरीरपर कवच धारण कये ह और सु दर कमरम तरकस कसे ह ।। २ ।।
आप स यसंक प, क याणके दाता, सबके हतकारी, सव द गुण और ान, व ानसे पूण
ह। आपका राम-नाम (अ ान पी) अ य त घन अ धकारसे पूण घोर संसार पी रा का
नाश करनेके लये च ड करणयु सूयके समान है ।। ३ ।। आपका तेज बड़ा ही ती ण है,
संसारके नये-नये ती ताप का आप नाश करनेवाले ह, राजाका शरीर होनेपर भी आपका
व प तपोमय है। आप अ ानसे परे और तप वी ह। मान, मद, काम, म सर, कामना और
मोह पी समु के मथनेके लये आप म दराचल ह; आप बड़े वचारशील ह ।। ४ ।। वेद म
स , वर दे नेवाले दे वता के वामी, वामन, वर , वमल, वाणीके अधी र और
वैकु ठके वामी ह। आप काम, ोध, लोभ आ दके नाश करनेवाले, मा बढ़ानेवाले,
शा त प और प राज ग ड़पर चढ़कर जानेवाले ह ।। ५ ।। आप परम प व और
पापपुंज पी मूजके वनको पलभरम जड़स हत जला दे नेवाले अ न प ह। आप ा डके
भूषण, षण दै यके श ,ु जगत्के वामी, पृ वीके प त, वेदके म तक और सारे व का
भरण-पोषण करनेवाले ह। आपक जय हो ।। ६ ।। आप नमल, एकरस, कलार हत,
कलास हत और क लयुगके तापसे तपे ए जीव क ाकुलताका नाश करनेवाले,
आन दक रा श ह। आप शेषनागपर शयन करते ह, आपके ने अ य त फु लत कमलके
समान ह। आप पसे ीर-सागरम नवास करते ह और अ पसे सबम रहते
ह ।। ७ ।। स , क वय और व ान को सुख दे नेवाले आपके वे चरण-युगल ा मा
मनु य को बड़े लभ ह, जन प व चरण से परम प व जलवाली गंगाजी नकली ह,
जनके दशनमा से ही पाप र हो जाते ह ।। ८ ।। आप न य ह; मायासे सवथा मु ह,
द गुण-स प ह, तीन गुण से र हत ह, आन द व प ह, छः कारके ऐ यसे यु
भगवान् ह, नयम के कता और सबपर शासन करनेवाले ह। आप सम त व के पालन-
पोषण करनेवाले, जगत्के आ द-कारण और शरणागत तुलसीदासका भय हरनेवाले
ह ।। ९ ।।
[५६]
दे व—
दनुजसूदन दया सधु, दं भापहन दहन द ष, दपापह ा ।
तादमन, दमभवन, ःखौघहर ग वासना नाश क ा ।। १ ।।
भू रभूषण, भानुमंत, भगवंत, भवभंजनाभयद, भुवनेश भारी ।
भावनातीत, भववं , भवभ हत, भू मउ रण, भूधरण-धारी ।। २ ।।
वरद, वनदाभ, वागीश, व ातमा, वरज, वैकु ठ-म दर- वहारी ।
ापक ोम, वंदा , वामन, वभो, वद, , चतापहारी ।। ३ ।।
सहज सु दर, सुमुख, सुमन, शुभ सवदा, शु सव , वछ दचारी ।
सवकृत, सवभृत, सव जत, सव हत, स य-संक प, क पांतकारी ।। ४ ।।
न य, नम ह, नगुण, नरंजन, नजानंद, नवाण, नवाणदाता ।
नभरानंद, नःकंप, नःसीम, नमु , न पा ध, नमम, वधाता ।। ५ ।।
महामंगलमूल, मोद-म हमायतन, मु ध-मधु-मथन, मानद, अमानी ।
मदनमदन, मदातीत, मायार हत, मंजु मानाथ, पाथोजपानी ।। ६ ।।
कमल-लोचन, कलाकोश, कोदं डधर, कोशलाधीश, क याणराशी ।
यातुधान चुर म क र-केसरी, भ मन-पु य-आर यवासी ।। ७ ।।
अनघ, अ ै त, अनव , अ , अज, अ मत, अ वकार, आनंद सधो ।
अचल, अ नकेत, अ वरल, अनामय, अनारंभ, अंभोदनादहन-बंधो ।। ८ ।।
दासतुलसी खेद ख , आप इह, शोकसंप अ तशय सभीतं ।
णतपालक राम, परम क णाधाम, पा ह मामु वप त, वनीतं ।। ९ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप दानव के नाशकता, दयाके समु , द भ र करनेवाले,
कृत को भ म करनेवाले और दपको हरनेवाले ह; आप ताका नाश करनेवाले, दमके
थान अथात् जते य म े , ःख के समूहको हरनेवाले और क ठन तथा बुरी
वासना के वनाशक ह ।। १ ।। आप अनेक अलंकार धारण कये, सूयके समान
काशमान, ऐ या द छः द गुण से यु , संसारसे छु ड़ानेवाले, अभय दान दे नेवाले और
सबसे बड़े जगद र ह। आप मन-बु क भावना से परे, शवजीसे व दनीय, शवभ के
हतकारी, भू मका उ ार करनेवाले और (गोव न) पवतको धारण करनेवाले ह ।। २ ।। हे
वरद! आपका शरीर मेघके समान याम है! आप वाणीके अधी र, व के आ मा, रागर हत
और वैकु ठ-म दरम न य वहार करनेवाले ह। आप आकाशके समान सव ा त ह,
सबसे व दनीय, वामन पधारी सवसमथ, वे ा, प और च ता को र करनेवाले
ह ।। ३ ।। आप वभावसे ही सु दर, सु दर मुखवाले और शु मनवाले ह। आप सदा
शुभ व प, नमल, सव और वत आचरण करनेवाले ह। आप सब कुछ करनेवाले,
सबका भरण-पोषण करनेवाले, सबको जीतनेवाले, सबके हतकारी, स यसंक प और
क पका अ त अथात् लय करनेवाले ह ।। ४ ।। आप न य ह, मोहर हत ह, नगुण ह,
नरंजन ह, नजान द प ह तथा मु व प और मु दान करनेवाले ह। आप पूण
आन द व प, अचल, सीमार हत, मो प, उपा धर हत, ममतार हत और सबके वधाता
ह ।। ५ ।। आप बड़े-बड़े मंगल के मूल, आन द और म हमाके थान, मूख मधु दै यको
मारनेवाले, सर को मान दे नेवाले और वयं मानर हत ह। आप कामदे वके नाशक, मदसे
र हत, मायासे र हत, सु दरी ल मी दे वीके वामी और हाथम कमल लेनेवाले ह ।। ६ ।।
आपके ने कमलके समान ह, आप च सठ कला के भ डार, धनुष धारण करनेवाले,
कोशलदे शके वामी और क याणक रा श ह। रा स पी ब त-से मतवाले हा थय को
मारनेके लये सह ह, भ के मन पी प व वनम नवास करनेवाले ह ।। ७ ।। आप
पापर हत, अ तीय, दोषर हत, अ कट, अज मा, सीमार हत, न वकार और आन दके
समु ह। आप अचल ह, (पर) एक ही थानम आपका नवास नह है—आप सव ह,
प रपूण ह, नीरोग अथात् मायाके वकार से र हत ह और अना द ह। आप ही मेघनादके
मारनेवाले ल मणजीके बड़े भाई ह ।। ८ ।। यह तुलसीदास संसारके ःख से ःखी,
वपद् त, शोकयु और अ य त भयभीत हो रहा है; हे शरणागतपालक! हे परम क णाके
धाम! हे पृ वीप त रामजी! इस वनीतक र ा क जये ।। ९ ।।
[५७]
दे व—
दे ह सतसंग नज-अंग ीरंग! भवभंग-कारण शरण-शोकहारी ।
ये तु भवदं प लव-समा त सदा, भ रत, वगतसंशय, मुरारी ।। १ ।।
असुर, सुर, नाग, नर, य , गंधव, खग, रज नचर, स , ये चा प अ े ।
संत-संसग ैवगपर, परमपद, ा य नः ा यग त व य स े ।। २ ।।
वृ , ब ल, बाण, हलाद, मय, ाध, गज, गृ , जब धु नजधम यागी ।
साधुपद-स लल- नधूत-क मष सकल, पच-यवना द कैव य-भागी ।। ३ ।।
शांत, नरपे , नमम, नरामय, अगुण, श द ैकपर, ानी ।
द , सम क, व क, वगत अ त वपरम त, परमर त वर त तव
च पानी ।। ४ ।।
व -उपकार हत चत सवदा, य मदम यु, कृत पु यरासी ।
य त त, त ैव अज शव ह र स हत ग छ त ीरा धवासी ।। ५ ।।
वेद-पय सधु, सु वचार मंदरमहा, अ खल-मु नवृंद नमथनकता ।
सार सतसंगमुदधृ् य इ त न तं वद त ीकृ ण वैद भभता ।। ६ ।।
शोक-संदेह, भय-हष, तम-तषगण, साधु-स ु व छे दकारी ।
यथा रघुनाथ-सायक नशाचर-चमू- नचय- नदलन-पटु -वेग-भारी ।। ७ ।।
य कु ा प मम ज म नजकमवश मत जगजो न संकट अनेकं ।
त व , स जन-समागम, सदा भवतु मे राम व ाममेकं ।। ८ ।।
बल भव-ज नत ै ा ध-भैषज भग त, भ भैष यम ै तदरसी ।
संत-भगवंत अंतर नरंतर नह , कम प म त म लन कह दासतुलसी ।। ९ ।।
भावाथ—हे रमापते! मुझे स संग द जये, य क वह आपक ा तका एक धान
साधन है, संसारके आवागमनका नाश करनेवाला है और शरणम आये ए जीव के शोकका
हरनेवाला है। हे मुरारी! जो लोग सदा आपके चरण-प लवके आ त और आपक भ म
लगे रहते ह, उनका अ व ाज नत स दे ह न हो जाता है ।। १ ।। दै य, दे वता, नाग, मनु य,
य , ग धव, प ी, रा स, स तथा और भी सरे जतने जीव ह; वे सभी (आपक भ म
लगे ए) संत के संसगसे अथ, धम, कामसे परे आपके उस न य परमपदको ा त कर लेते
ह, जो अ य साधन से नह मल सकता, परंतु केवल आपके स होनेसे ही मलता
है ।। २ ।। वृ ासुर, ब ल, बाणासुर, ाद, मय, ाध (वा मी क), गजे , ग जटायु और
ा णो चत कमसे प तत अजा मल ा ण तथा चा डाल, यवना द भी संत के चरणोदकसे
अपने सारे पाप को धोकर क याण-पदके भागी हो गये ।। ३ ।। (वे साधु कैसे ह) च से
सारी कामनाएँ नकल जानेके कारण शा त, कसी भी व तु या थ तक आकां ा न रहनेसे
नरपे , ममतासे र हत, उपा धर हत, तीन गुण से अतीत, श द अथात् वेदके
जाननेवाल म मु य और वे ा ह। जस कायके लये मनु य-दे ह मला है उसे पूरा करनेम
कुशल, सम- ा, अपने आ म व पको जाननेवाले, अपनी-परायी बु अथात् भेदबु से
र हत, सब कुछ अपने ीरामका समझनेवाले, और हे च पाणे! वे संसारके भोग से वर
और आप परमा माके अन य ेमी ह ।। ४ ।। संसारके उपकारके लये उनका च सदा
ाकुल रहता है, मद और ोधको उ ह ने याग दया है और पु य क बड़ी पूँजी कमायी है।
ऐसे संत जहाँ रहते ह, वहाँ ा और शवजीको साथ लेकर ीर-समु - नवासी ीह र
भगवान् आप-से-आप दौड़े जाते ह ।। ५ ।। (स संग कैसा है) वेद ीर-समु है, उसका
भलीभाँ त वचार ही म दराचल है, सम त मु नय के समूह उसे मथनेवाले ह। मथनेपर
स संग पी सार-अमृत नकला। यह स ा त मणीप त भगवान् ीकृ ण बतलाते
ह ।। ६ ।। संत-महा मा क सत्-यु शोक, स दे ह, भय, हष, अ ान और वासना के
समूहको इस कार न कर डालती है, जैसे ीरघुनाथजीके बाण रा स क सेनाके
समुदायको कौशल और बड़े वेगसे न कर दे ते ह ।। ७ ।। हे रामजी! अपने कमवश जहाँ
कह मेरा ज म हो, जस- जस भी यो नम अनेक संकट भोगता आ भटकूँ, वहाँ ही मुझे
आपक भ और संत का संग सदा मलता रहे। हे राम! बस, मेरा एकमा यही आ य
हो ।। ८ ।। संसारज नत (भौ तक, दै हक और दै वक) तीन कारक बल पीड़ाका नाश
करनेके लये आपक भ ही एकमा ओष ध है और अ ै तदश (चराचरम एक आपको ही
दे खनेवाले) भ ही वै ह। वा तवम संत और भगवान्म कभी क चत् भी अ तर नह है—
म लन-बु तुलसीदास तो यही कहता है ।। ९ ।।
[५८]
दे व—
दे ह अवलंब कर कमल, कमलारमन, दमन- ख, शमन-संताप भारी ।
अ ान-राकेश- ासन वधुंतुद, गव-काम-क रम -ह र, षणारी ।। १ ।।
वपुष ा ड सु वृ लंका- ग, र चत मन दनुज मय- पधारी ।
व वध कोशौघ, अ त चर-मं दर- नकर, स वगुण मुख ैकटककारी ।। २ ।।
कुणप-अ भमान सागर भयंकर घोर, वपुल अवगाह, तर अपारं ।
न -रागा द-संकुल मनोरथ सकल, संग-संक प वीची- वकारं ।। ३ ।।
मोह दशमौ ल, तद् ात अहँकार, पाका र जत काम व ामहारी ।
लोभ अ तकाय, म सर महोदर , ोध पा प - वबुधांतकारी ।। ४ ।।
े ष मुख, दं भ खर, अकंपन कपट, दप मनुजाद मद-शूलपानी ।
अ मतबल परम जय नशाचर- नकर स हत षडवग गो-यातुधानी ।। ५ ।।
जीव भवदं -सेवक वभीषण बसत म य ाटवी सत चता ।
नयम-यम-सकल सुरलोक-लोकेश लंकेश-वश नाथ! अ यंत भीता ।। ६ ।।
ान-अवधेश-गृह गे हनी भ शुभ, त अवतार भूभार-हता ।
भ -संक अवलो क पतु-वा य कृत गमन कय गहन वैदे ह-भता ।। ७ ।।
कैव य-साधन अ खल भालु मकट वपुल ान-सु ीवकृत जल धसेतू ।
बल वैरा य दा ण भंजन-तनय, वषय वन भवन मव धूमकेतू ।। ८ ।।
दनुजेश नवशकृत दास हत, व ख-हरण बोधैकरासी ।
अनुज नज जानक स हत ह र सवदा दासतुलसी दय कमलवासी ।। ९ ।।
भावाथ—हे ल मीरमण! इस संसार-सागरम डू बते ए मुझको अपने कर-कमलका
सहारा द जये। य क आप ःख के र करनेवाले और बड़े-बड़े स ताप के नाश करनेवाले
ह। हे षणनाशक! आप अ ान पी च माको सनेके लये रा और गव तथा काम पी
मतवाले हा थय के मदन करनेके लये सह ह ।। १ ।। शरीर पी ा डम वृ ही
लंकाका कला है। मन पी मयदानवने इसे बनाया है। इसम जो अनेक कोश (शरीरम पाँच
कोश ह—अ मय, ाणमय, मनोमय, व ानमय और आन दमय) ह; वे इसके अ य त
सु दर महल ह, स वगुण आ द तीन गुण इसके सेनाप त ह ।। २ ।। दे हा भमान अ य त
भयंकर, अथाह, अपार, तर समु है, जसम राग- े ष और कामना आ द अनेक घ ड़याल
भरे ह और आस तथा संक प क लहर उठ रही ह ।। ३ ।। इस लंकाम मोह पी रावण,
अहंकार पी उसका भाई कु भकण और शा त न करनेवाला काम पी मेघनाद है। यहाँ
लोभ पी अ तकाय, म सर पी महोदर, ोध पी महापापी दे वा तक, े ष पी मुख,
द भ पी खर, कपट पी अक पन, दप पी मनुजाद और मद पी शूलपा ण रा स ह, यह
( राजप रवार और उसके सेनाप त पी) रा स का समूह अ य त परा मी और जीतनेम
बड़ा क ठन है। इन मोह आ द छः रा स के साथ इ य पी रा सयाँ भी ह ।। ४-५ ।। हे
ना थ! आपके चरणकमल का सेवक जीव वभीषण है, जो इन से भरे ए वनम सवथा
च ता त आ नवास कर रहा है। यम- नयम पी दस दक्पाल और इ इस रावणके
अधीन होकर अ य त भयभीत रहते ह ।। ६ ।। इस लये जैसे आपने महाराज दशरथ और
कौश याके यहाँ पृ वीका भार उतारनेके लये अवतार लया था, वैसे ही हे जानक व लभ!
ान पी दशरथके घर, शुभ भ पी कौश याजीके ारा (इन मोहा द रा स का नाश
करनेके लये) कट होइये और जैसे भ का क दे खकर पताक आ ासे आप उस समय
वन पधारे थे, (वैसे ही मेरे दय पी वनम पधा रये) ।। ७ ।। मो के जो सब साधन ह, उन
अनेक रीछ-बंदर के ारा ान पी सु ीवसे (संसार) सागरपर पुल बँधा द जये। फर बल
वैरा य पी महाबलवान् पवनकुमार हनुमान्जी वषय पी वन और महल को अ नके समान
भ म कर दगे ।। ८ ।। तदन तर हे केवल ानघन! हे सारे व का ःख हरनेवाले ीरामजी!
जीव पी दासके लये मोह पी दानवका वंशस हत नाश कर द जये और तुलसीदासके
दयकमलम सदा-सवदा छोटे भाई ल मण और ीजानक जीस हत नवास
क जये ।। ९ ।।
[५९]
दे व—
द न-उ रण रघुवय क णाभवन शमन-संताप पापौघहारी ।
वमल व ान- व ह, अनु ह प, भूपवर, वबुध, नमद, खरारी ।। १ ।।
संसार-कांतार अ त घोर, गंभीर, घन, गहन त कमसंकुल, मुरारी ।
वासना व ल खर-कंटकाकुल वपुल, न बड़ वटपाटवी क ठन भारी ।। २ ।।
व वध चतवृ -खग नकर येनोलूक, काक वक गृ आ मष-अहारी ।
अ खल खल, नपुण छल, छ नरखत सदा, जीवजनप थकमन-
खेदकारी ।। ३ ।।
ोध क रम , मृगराज, कंदप, मद-दप वृक-भालु अ त उ कमा ।
म हष म सर ू र, लोभ शूकर प, फे छल, दं भ माजारधमा ।। ४ ।।
कपट मकट वकट, ा पाख डमुख, खद मृग ात, उ पातकता ।
दय अवलो क यह शोक शरणागतं, पा ह मां पा ह भो व भ ा ।। ५ ।।
बल अहँकार रघट महीधर, महामोह ग र-गुहा न बड़ांधकारं ।
च वेताल, मनुजाद मन, ेतगन रोग, भोगौघ वृ क- वकारं ।। ६ ।।
वषय-सुख-लालसा दं श-मशका द, खल झ ल पा द सब सप, वामी ।
त आ त तव वषम माया नाथ, अंध म मंद, ालादगामी ।। ७ ।।
घोर अवगाह भव आपगा पापजलपूर, े य, तर, अपारा ।
मकर षड् वग, गो न च ाकुला, कूल शुभ-अशुभ, ख ती धारा ।। ८ ।।
सकल संघट पोच शोचवश सवदा दासतुलसी वषम गहन तं ।
ा ह रघुवंशभूषण कृपा कर, क ठन काल वकराल-क ल ास- तं ।। ९ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप द न का उ ार करनेवाले, रघुकुलम े , क णाके
थान, स तापका नाश करनेवाले और पाप के समूहके हरनेवाले ह। आप न वकार, व ान-
व प, कृपा-मू त, राजा म शरोम ण, दे वता को सुख दे नेवाले तथा खर नामक दै यके
श ु ह ।। १ ।। हे मुरारे! यह संसार पी वन बड़ा ही भयानक और गहरा है; इसम कम पी
वृ बड़ी ही सघनतासे लगे ह, वासना पी लताएँ लपट रही ह और ाकुलता पी अनेक
पैने काँटे बछ रहे ह। इस कार यह सघन वृ समूह का महाघोर वन है ।। २ ।। इस वनम,
च क जो अनेक कारक वृ याँ ह, सो मांसाहारी बाज, उ लू, काक, बगुले और ग
आ द प य का समूह है। ये सभी बड़े और छल करनेम नपुण ह। कोई छ दे खते ही
यह जीव पी या य के मनको सदा ःख दया करते ह ।। ३ ।। इस संसार-वनम ोध पी
मतवाला हाथी, काम पी सह, मद पी भे ड़या और गव पी रीछ है, ये सभी बड़े नदय ह।
इनके सवा यहाँ म सर पी ू र भसा, लोभ पी शूकर, छल पी गीदड़ और द भ पी
बलाव भी ह ।। ४ ।। यहाँ कपट पी वकट बंदर और पाख ड पी बाघ ह, जो संत पी
मृग को सदा ःख दया करते और उप व मचाया करते ह। हे व भर! दयम यह शोक
दे खकर म आपक शरण आया ँ, हे नाथ! आप मेरी र ा क जये, र ा क जये ।। ५ ।।
इस संसार-वनम (इन जीव-ज तु से बच जानेपर भी आगे और वपद् है) अहंकार पी बड़ा
वशाल पवत है, जो सहजम लाँघा नह जा सकता। इस पवतम महामोह पी गुफा है
जसके अंदर घना अ धकार है। यहाँ च पी बेताल, मन पी मनु य-भ क रा स,
रोग पी भूत- ेतगण और भोग- वलास पी ब छु का जहर फैला आ है ।। ६ ।। यहाँ
वषय-सुखक लालसा पी म खयाँ और म छर ह, मनु य पी झ ली है, और हे
वामी! प, रस, ग ध, श द, पश वषय पी सप ह। हे नाथ! आपक क ठन मायाने मुझ
मूखको यहाँ लाकर पटक दया है। हे ग ड़गामी! म तो अ धा ,ँ अथात् ानने - वहीन
ँ ।। ७ ।। इस संसार-वनम बहनेवाली वासना पी भव-नद बड़ी ही भयंकर और अथाह है,
जसम पाप पी जल भरा आ है, जसक ओर दे खना सहज नह , इसका पार करना ब त
ही क ठन है; य क यह अपार है। इसम काम, ोध, लोभ, मोह, मद, म सर पी छः मगर
ह, इ य पी घ ड़याल और भँवर भरे पड़े ह। शुभ-अशुभ कम पी इसके दो तीर ह, इसम
ःख क ती धारा बह रही है ।। ८ ।। हे रघुवंशभूषण! इन सब नीच के दलने मुझे पकड़
रखा है, यह आपका दास तुलसी सदा च ताके वश रहता है। इस कराल क लकालके भयसे
डरे ए मुझको आप कृपा करके बचाइये ।। ९ ।।
[६०]
दे व—
नौ म नारायणं नरं क णायनं, यान-पारायणं, ान-मूलं ।
अ खल संसार-उपकार-कारण, सदय दय, तप नरत, णतानुकूलं ।। १ ।।
याम नव तामरस-दाम ु त वपुष, छ व को ट मदनाक अग णत काशं ।
त ण रमणीय राजीव-लोचन ल लत, वदन राकेश, कर- नकर-हासं ।। २ ।।
सकल स दय- न ध, वपुल गुणधाम, व ध-वेद-बुध-शंभ-ु से वत, अमानं ।
अ ण पदकंज-मकरंद मंदा कनी मधुप-मु नवृंद कुव त पानं ।। ३ ।।
श - े रत घोर मदन मद-भंगकृत, ोधगत, बोधरत, चारी ।
माक डेय मु नवय हत कौतुक बन ह क पांत भु लयकारी ।। ४ ।।
पु य वन शैलस र ब का म सदासीन प ासनं, एक पं ।
स -योग -वृंदारकानंद द, भ दायक दरस अ त अनूपं ।। ५ ।।
मान मनभंग, चतभंग मद, ोध लोभा द पवत ग, भुवन-भ ा ।
े ष-म सर-राग बल यूह त, भू र नदय, ू र कम क ा ।। ६ ।।
वकटतर व ुरधार मदा, ती दप कंदप खर खड् गधारा ।
धीर-गंभीर-मन-पीर-कारक, त के वराका वयं वगतसारा ।। ७ ।।
परम घट पथं खल-असंगत साथ, नाथ! न ह हाथ वर वर त-य ी ।
दशनारत दास, सत माया-पाश, ा ह ह र, ा ह ह र, दास क ी ।। ८ ।।
दासतुलसी द न धम-संबलहीन, मत अ त, खेद, म त मोह नाशी ।
दे ह अवलंब न वलंब अंभोज-कर, च धर-तेजबल शमराशी ।। ९ ।।
भावाथ—म उन ीनर-नारायणको नम कार करता ,ँ जो क णाके थान, यानके
परायण और ानके कारण ह। जो सम त संसारका उपकार करनेवाले, दयापूण दयवाले,
तप याम लगे ए और शरणागत भ पर कृपा करनेवाले ह ।। १ ।। जनके शरीरक का त
नवीन-नील कमल क मालाके समान है। जनका सौ दय करोड़ कामदे व के स श और
काश अग णत सूय के समान है। नव- वक सत सु दर कमल के समान जनके मनोहर ने
ह, च माके समान सु दर मुख है और च माक करण के समान जनक म द मुसकान
है ।। २ ।। जो सम त सु दरताके भ डार, अनेक द गुण के थान और ा, वेद, व ान्
और शवजीके ारा से वत होनेपर भी मानर हत ह। जनके लाल-लाल चरण-कमल से
कट ए म दा कनी (गंगाजी) पी मकर दका मु न पी भ रे सदा पान करते ह ।। ३ ।।
जो इ से भेजे गये भीषण कामदे वके मदका मदन करनेवाले, ोधर हत, शु बोध व प
और चारी ह। ज ह ने अपने साम यसे बना ही क पा तके माक डेयमु नको दखानेके
लये लयकालक लीला क थी ।। ४ ।। जो प व वन, पवत और न दय से पूण
बद रका मम सदा प ासन लगाये एक पसे (अटल) वराजमान रहते ह। जनका अ य त
अनुपम दशन स , योगी और दे वता को भी आन द और क याणका दे नेवाला
है ।। ५ ।। हे व भर! वहाँ आपके बद रका मके मागम ‘मनभंग’ नामक पवत है, ( जसे
दे खकर लोग आगे बढ़नेसे हचकते ह) और यहाँ मेरे दयम अ भमान पी मनभंग है;
( जससे साधनका उ साह भंग हो जाता है;) वहाँ ‘ च भंग’ पवत है, तो यहाँ मद ही
च भंगका काम करता है; वहाँ जैसे क ठन-क ठन पवत ह तो यहाँ काम-लोभा द क ठन
पवत ह। (वहाँ जैसे हसक पशु आ द बड़े व न ह तो) यहाँ राग, े ष, म सर आ द अनेक
बड़े-बड़े व न ह, जनमसे येक बड़ा नदय और कु टल कम करनेवाला है ।। ६ ।। यहाँ
का मनीक अ य त बाँक चतवन ही छु रेक भयंकर धार और कामका वष ही तलवारक
तेज धार है, जो बड़े-बड़े धीर और ग भीर पु ष के मनको पीड़ा प ँचानेवाला है, फर हम-
सरीखे नबल क तो गनती ही या है? ।। ७ ।। हे नाथ! थम तो यह आपके दशनका माग
ही बड़ा क ठन है, फर और नीच का (मेरा) साथ हो गया है, सहारेके लये हाथम
वैरा य पी लकड़ी भी नह है। यह दास आपके दशनके लये घबरा रहा है, फंदे म फँसकर
ःखी हो रहा है। हे नाथ! दासके क को रकर इसक र ा क जये, र ा क जये ।। ८ ।।
मुझ द न तुलसीदासके पास धम पी माग- य (कलेवा) भी नह है, म थककर बड़ा ःखी
हो रहा ,ँ मोहने मेरी बु का भी नाश कर दया है; अतएव हे च धारी! आप तेज, बल
और सुखक रा श ह, मुझे बना वल ब अपने कर-कमलका सहारा द जये ।। ९ ।।
[६१]
दे व—
सकल सुखकंद, आनंदवन-पु यकृत, ब माधव ं - वप तहारी ।
य यां पाथोज अज-शंभु-सनका द-शुक-शेष-मु नवृंद-अ ल- नलयकारी ।। १
।।
अमल मरकत याम, काम शतको ट छ व, पीतपट त ड़त इव जलदनीलं ।
अ ण शतप लोचन, वलोक न चा , णतजन-सुखद, क णा शीलं ।। २ ।।
काल-गजराज-मृगराज, दनुजेश-वन-दहन पावक, मोह- न श- दनेशं ।
चा रभुज च -कौमोदक -जलज-दर, सर सजोप र यथा राजहंसं ।। ३ ।।
मुकुट, कुंडल, तलक, अलक अ ल ात इव, भृकु ट, ज, अधरवर, चा नासा ।
चर सुकपोल, दर ीव सुखसीव, ह र, इं कर-कुंद मव मधुरहासा ।। ४ ।।
उर स वनमाल सु वशाल नवमंजरी, ाज ीव स-लांछन उदारं ।
परम य, अ तध य, गतम यु, अज, अ मतबल, वपुल म हमा अपारं ।। ५ ।।
हार-केयूर, कर कनक कंकन रतन-ज टत म ण-मेखला क ट दे शं ।
युगल पद नूपुरामुखर कलहंसवत, सुभग सवाग स दय वेशं ।। ६ ।।
सकल सौभा य-संयु ैलो य- ी द द श चर वारीश-क या ।*
बसत वबुधापगा नकट तट सदनवर, नयन नरखं त नर तेऽ त ध या ।। ७ ।।
अ खल मंगल-भवन, न बड़ संशय-शमन दमन-वृ जनाटवी, क ह ा ।
व धृत, व हत, अ जत, गोतीत, शव, व पालन, हरण, व क ा ।। ८ ।।
ान- व ान-वैरा य-ऐ य- न ध, स अ णमा द दे भू रदानं ।
सत-भव- ाल अ त ास तुलसीदास, ा ह ीराम उरगा र-यानं ।। ९ ।।
भावाथ—हे व माधव! आप सब सुख क वषा करनेवाले मेघ ह, आन दवन काशीको
प व करनेवाले ह, राग े षा द ज नत वप को हरनेवाले ह; आपके चरणकमल म
ा, शव, सनक-सन दना द, शुकदे वजी, शेषजी और अ य मु नजन पी मर सदा
नवास कया करते ह ।। १ ।। आप नमल नीलम णके समान याम प ह, सौ करोड़
कामदे व के समान आपक सु दरता है, पीता बर धारण कये ह। वह पीता बर नीले बादलम
बजलीके समान शो भत हो रहा है। आपके ने लाल कमलके समान ह, सु दर चतवन है,
आप भ को सुख दे नेवाले ह और वभावसे ही क णारससे भीगे रहते ह ।। २ ।। आप
काल पी हाथीको मारनेके लये सह, रा स पी वनके जलानेके लये अ न और मोह पी
रा के नाश करनेके लये सूय प ह। चार भुजा म शंख, च , गदा और प धारण कये
ह। आपके हाथम ेत शंख, कमलके ऊपर बैठे ए राजहंसके समान शो भत हो रहा
है ।। ३ ।। म तकपर मुकुट, कान म कु डल, भालपर तलक, मरसमूहके समान काली
अलक, टे ढ़ ुकुट , सु दर दाँत, होठ और ना सका बड़ी ही सु दर ह। सु दर कपोल और
शंखके समान ीवा मानो सब सुखक सीमा है। हे हरे! आपक मधुर मुसकान च करण
और कु दकुसुमके समान है ।। ४ ।। आपके दयपर नयी मंज रय स हत वशाल वनमाला
और सु दर ीव सका च शोभायमान हो रहा है। आप ा ण का ब त आदर करनेवाले
ह, तथा ोधर हत, अज मा, अप र मत परा मी महान् म हमावाले और अन त ह। आपको
ध य है, ध य है ।। ५ ।। आप दयपर हार, भुजा पर सोनेके बाजूबंद, हाथ म र नज ड़त
कंकण और क टदे शम म णय क तागड़ी धारण कये ह। दोन चरण म हंसके समान सु दर
श द करनेवाले नूपुर प हने ह। आपके सम त अंग सु दर और आपका सारा ही वेष
सु दरतामय है ।। ६ ।। सम त सौभा यमयी तीन लोक क शोभा समु -क या ील मीजी
आपके द णभागम वराजमान ह। आप गंगाजीके समीप सु दर म दरम नवास करते ह;
जो मनु य ने से आपका दशन करते ह, वे अ य त ध य ह ।। ७ ।। आप सब क याण के
थान, क ठन-क ठन स दे ह के नाश करनेवाले, पाप पी वनको भ म करनेवाले और क के
हरनेवाले ह। आप व को धारण करनेवाले, व के हतकारी, अजेय, मन-इ य से परे,
क याण प और व का सृजन, पालन तथा संहार करनेवाले ह ।। ८ ।। आप ान, व ान,
वैरा य और ऐ यके भ डार ह, अ णमा द महान् स य के दे नेवाले बड़े दानी ह। मुझ
तुलसीदासको संसार पी सप नगले जा रहा है, इससे म अ य त भयभीत ,ँ अतएव हे
सप के नाशक ग ड़क सवारी करनेवाले ीरामजी! कृपा करके मुझे बचा ली जये ।। ९ ।।
राग आसावरी
[६२]
इहै परम फलु, परम बड़ाई ।
नख सख चर ब माधव छ ब नरख ह नयन अघाई ।। १ ।।
बसद कसोर पीन सुंदर बपु, याम सु च अ धकाई ।
नीलकंज, बा रद, तमाल, म न, इ ह तनुते त पाई ।। २ ।।
मृ ल चरन शुभ च ह, पदज, नख अ त अभूत उपमाई ।
अ न नील पाथोज सव जनु, म नजुत दल-समुदाई ।। ३ ।।
जात प म न-ज टत-मनोहर, नूपुर जन-सुखदाई ।
जनु हर-उर ह र ब बध प ध र, रहे बर भवन बनाई ।। ४ ।।
क टतट रट त चा क क न-रव, अनुपम, बर न न जाई ।
हेम जलज कल क लत म य जनु, मधुकर मुखर सुहाई ।। ५ ।।
उर बसाल भृगुचरन चा अ त, सूचत कोमलताई ।
कंकन चा ब बध भूषन ब ध, र च नज कर मन लाई ।। ६ ।।
गज-म नमाल बीच ाजत क ह जा त न पदक नकाई ।
जनु उडु गन-मंडल बा रदपर, नव ह रची अथाई ।। ७ ।।
भुजगभोग-भुजदं ड कंज दर च गदा ब न आई ।
सोभासीव ीव, चबुकाधर, बदन अ मत छ ब छाई ।। ८ ।।
कु लस, कुंद-कुडमल, दा म न- त, दसनन दे ख लजाई ।
नासा-नयन-कपोल, ल लत ु त कुंडल ू मो ह भाई ।। ९ ।।
कुं चत कच सर मुकुट, भाल पर, तलक कह समुझाई ।
अलप त ड़त जुग रेख इं महँ, र ह त ज चंचलताई ।। १० ।।
नरमल पीत कूल अनूपम, उपमा हय न समाई ।
ब म नजुत ग र नील सखरपर कनक-बसन चराई ।। ११ ।।
द छ भाग अनुराग-स हत इं दरा अ धक ल लताई ।
हेमलता जनु त तमाल ढग, नील नचोल ओढ़ाई ।। १२ ।।
सत सारदा सेष ु त म लकै, सोभा क ह न सराई ।
तुल सदास म तमंद ं दरत कहै कौन ब ध गाई ।। १३ ।।
भावाथ—इस शरीरका यही बड़ा भारी फल और इतनी ही म हमा है क ने तृ त होकर
ी व माधवक नखसे शखतक शोभा दे ख ।। १ ।। जनके नमल, कशोर (सोलह
वषके), पु और सु दर याम शरीरक शोभा असीम है। ऐसा जान पड़ता है मानो नील
कमल, ( याम) मेघ, तमाल और नीलमम णने इ ह के शरीरसे शोभा ा त क है ।। २ ।।
जनके कोमल चरण म सु दर (व -अंकुशा द) शुभ- च ह, अंगु लय और नख क ऐसी
अ त अभूतपूव उपमा है, मानो लाल और नीले कमल से र नयु प का समूह नकला
हो ।। ३ ।। सोनेके र नज ड़त नूपुर मनको मोहनेवाले और भ को सुख दे नेवाले ह, मानो
शवजीके दयम अनेक प धारण करके भगवान् व णु सु दर म दर बनाकर वास कर रहे
ह ।। ४ ।। कमरम जो तागड़ीका सु दर श द हो रहा है, वह अनुपम है, उसका वणन नह हो
सकता, ( फर भी ऐसा कहा जा सकता है) मानो सोनेके कमलक सु दर क लय म मर का
सुहावना श द (गुंजार) हो रहा हो ।। ५ ।। वशाल व ः थलम भृगुमु नके चरणका च
अं कत होकर आपके व ः थलक कोमलता बतला रहा है। कंकण आ द नाना कारके
गहने ऐसे सु दर ह, मानो ाजीने मन लगाकर वयं अपने हाथ से बनाये ह ।। ६ ।।
गजमु ा क मालाके बीचम र न क चौक ऐसी शोभा पा रही है क उसका वणन नह हो
सकता, (पर समझानेके लये कहा जाता है क) मानो (नीले) मेघपर तारागण के म डलके
बीचम नव ह ने बैठनेका थान बनाया हो। (भाव यह है क नीले मेघके समान भगवान्का
शरीर है, तारागण का म डल गजमु ा क माला है और उसके बीचम थान- थानपर
परोये ए रंग- बरंगे र न नव ह के बैठनेका थान है) ।। ७ ।। सपके शरीर-स श
भुजद ड म कमल, शंख, च और गदा शो भत हो रहे ह; ीवा सु दरताक सीमा है और
ठोड़ी तथा होठ स हत मुखक असीम छ व छा रही है ।। ८ ।। दाँत क ओर दे खकर हीरे,
कु दक लयाँ और बजलीक चमक लजाती है। ना सका, ने , कपोल, सु दर कान म कु डल
और भ ह मुझे ब त यारी लगती ह ।। ९ ।। सरपर घुँघराले बाल ह; उनपर मुकुट पहने ह,
भालपर तलकक बड़ी शोभा हो रही है, उसे समझाकर कहता ,ँ मानो बजलीक दो
छोट -छोट रेखाएँ अपनी चंचलता छोड़कर च माके म डलम नवास कर रही ह ।। १० ।।
शरीरपर नमल अनुपम पीता बर धारण कये ह, जसक उपमा दयम समाती नह । ( फर
भी क पना क जाती है) मानो अनेक म णय से यु नीले पवतके शखरपर सोनेके समान
व शो भत हो रहा हो ।। ११ ।। द णभागम ेमस हत ल मीजी वराजमान ह। वह ऐसी
शोभा पा रही ह मानो तमालवृ के समीप नीला व ओढ़े सोनेक लता बैठ हो ।। १२ ।।
सैकड़ सर वती, शेषनाग और वेद सब मलकर इस शोभाका वणन कर तो भी पार नह पा
सकते। फर भला यह राग े षा द म फँसा आ म दबु तुलसीदास कस कार गाकर
इस शोभाका वणन कर सकता है ।। १३ ।।
राग जैत ी
[६३]
मन इतनोई या तनुको परम फलु ।
सब अँग* सुभग ब माधव-छ ब, त ज सुभाव, अवलोकु एक पलु ।। १ ।।
त न अ न अंभोज चरन मृ , नख- त दय- त मर-हारी ।
कु लस-केतु-जव-जलज रेख बर, अंकुस मन-गज-बसकारी ।। २ ।।
कनक-ज टत म न नूपुर, मेखल, क ट-तट रट त मधुर बानी ।
बली उदर, गँभीर ना भ सर, जहँ उपजे बरं च यानी ।। ३ ।।
उर बनमाल, प दक अ त सो भत, ब -चरन चत कहँ करषै ।
याम तामरस-दाम-बरन बपु पीत बसन सोभा बरषै ।। ४ ।।
कर कंकन केयूर मनोहर, दे त मोद मु क यारी ।
गदा कंज दर चा च धर, नाग-सुंड-सम भुज चारी ।। ५ ।।
कंबु ीव, छ बसीव चबुक ज, अधर अ न, उ त नासा ।
नव राजीव नयन, स स आनन, सेवक-सुखद बसद हासा ।। ६ ।।
चर कपोल, वन कुंडल, सर मुकुट, सु तलक भाल ाजै ।
ल लत भृकु ट, सुंदर चतव न, कच नर ख मधुप-अवली लाजै ।। ७ ।।
प-सील-गुन-खा न द छ द स, सधु-सुता रत-पद-सेवा ।
जाक कृपा-कटा छ चहत सव, ब ध, मु न, मनुज, दनुज, दे वा ।। ८ ।।
तुल सदास भव- ास मटै तब, जब म त ये ह स प अटकै ।
ना हत द न मलीन हीनसुख, को ट जनम म म भटकै ।। ९ ।।
भावाथ—हे मन! इस शरीरका परम फल केवल इतना ही है क नखसे शखतक सु दर
अंग वाले ी व माधवजीक छ बका पलभरके लये अपने चंचल वभावको छोड़कर
थरताके साथ ेमसे दशन कर ।। १ ।। जनके कोमल चरण नये खले ए लाल कमलके
समान ह, नख क यो त दयके अ ान प अ धकारको हरनेवाली है। जन चरण म व ,
वजा, जौ और कमल आ दक सु दर रेखाएँ ह। और अंकुशका च मन पी हाथीको
वशम करनेवाला है ।। २ ।। पैर म सोनेके र नज ड़त नूपुर और कमरम तागड़ी मधुर वरसे
बज रही है। पेटपर तीन रेखाएँ पड़ी ह, ना भ सरोवरके समान गहरी है, जहाँसे ाजी-
सरीखे ानी उ प ए ह ।। ३ ।। दयपर वनमाला और उसके बीचम म णय क चौक
अ य त शोभायमान है, भृगुजीके चरणका च तो च को ख चे लेता है। नीले कमलके
फूल क मालाके समान जनके शरीरका वण है, उसपर पीता बर मानो शोभाक वषा ही कर
रहा है ।। ४ ।। हाथ म मनोहर कंकण और बाजूबंद ह, अंगूठ नराला ही आन द दे रही है।
हाथीक सूँड़स श वशाल चार भुजा म शंख, च , गदा और प धारण कये ह ।। ५ ।।
शंखके समान ीवा सु दरताक सीमा है। सु दर ठोड़ी, दाँत, लाल होठ और नुक ली ना सका
है, नवीन कमलके स श ने , च माके समान मुखम डल और मृ मुसकान भ को सुख
दे नेवाली है ।। ६ ।। सु दर कपोल, कान म कु डल, म तकपर मुकुट और भालपर सु दर
तलक शो भत हो रहा है। सु दर कट ली भ ह और मनोहर चतवन है और जनके काले
केश को दे खकर भ र क पं भी ल जत हो रही है ।। ७ ।। प, शील और गुण क खा न
स धुसुता ील मीजी द णभागम वरा जत होकर चरणसेवा कर रही ह, जनक
कृपा शव, ा, मु न, मनु य, दै य और दे वता भी चाहते ह ।। ८ ।। तुलसीदासका
संसारज नत भय तभी मट सकता है, जब उसक बु इस सु दर छ वम अटक जाय; नह
तो वह द न, मलीन और सुखहीन होकर करोड़ ज म तक थ ही भटकता फरेगा ।। ९ ।।
राग बस त
[६४]
बंदौ रघुप त क ना- नधान । जाते छू टै भव-भेद- यान ।। १ ।।
रघुबंश-कुमुद-सुख द नसेस । सेवत पद-पंकज अज महेस ।। २ ।।
नज भ - दय-पाथोज-भृंग । लाव य बपुष अग नत अनंग ।। ३ ।।
अ त बल मोह-तम-मारतंड । अ यान-गहन-पावक चंड ।। ४ ।।
अ भमान- सधु-कुंभज उदार । सुररंजन, भंजन भू मभार ।। ५ ।।
रागा द-सपगन-प गा र । कंदप-नाग-मृगप त, मुरा र ।। ६ ।।
भव-जल ध-पोत चरनार बद । जानक -रवन आनंद-कंद ।। ७ ।।
हनुमंत- ेम-बापी-मराल । न काम कामधुक गो दयाल ।। ८ ।।
ैलोक- तलक, गुनगहन राम । कह तुल सदास ब ाम-धाम ।। ९ ।।
भावाथ—म क णा नधान ीरघुनाथजीक व दना करता ,ँ जससे मेरा सांसा रक
भेद- ान छू ट जाय ।। १ ।। ीरामजी रघुवंश पी कुमुदको च माके समान फु लत
करनेवाले ह। ा और शव जनके चरणकमल क सेवा कया करते ह ।। २ ।। जो अपने
भ के दयकमलम मरक भाँ त नवास करते ह। जनके शरीरका लाव य असं य
कामदे व के समान है ।। ३ ।। जो बड़े बल मोह पी अ धकारके नाश करनेके लये सूय
और अ ान पी गहन वनके भ म करनेके लये अ न प ह ।। ४ ।। जो अ भमान पी
समु के सोखनेके लये उदार अग य ह और दे वता को सुख दे नेवाले तथा (दै य का
दलनकर) पृ वीका भार उतारनेवाले ह ।। ५ ।। जो राग- े षा द सप के भ ण करनेके लये
ग ड़ और काम पी हाथीको मारनेके लये सह ह तथा मुर नामक दै यको मारनेवाले
ह ।। ६ ।। जनके चरणकमल संसार-सागरसे पार उतारनेके लये जहाज ह, ऐसे
ीजानक रमण रामजी आन दक वषा करनेवाले ह ।। ७ ।। जो हनुमान्जीके ेम पी
बावड़ीम हंसके समान सदा वहार करनेवाले और न काम भ के लये कामधेनुके समान
परम दयालु ह ।। ८ ।। तुलसीदास यही कहता है क तीन लोक के शरोम ण, गुण के वन
ीरामच जी ही केवल शा तके थान ह ।। ९ ।।
राग भैरव
[६५]
राम राम रमु, राम राम रटु , राम राम जपु जीहा ।
रामनाम-नवनेह-मेहको, मन! ह ठ हो ह पपीहा ।। १ ।।
सब साधन-फल कूप-स रत-सर, सागर-स लल- नरासा ।
रामनाम-र त- वा त-सुधा-सुभ-सीकर ेम पयासा ।। २ ।।
गर ज, तर ज, पाषान बर ष प व, ी त पर ख जय जानै ।
अ धक अ धक अनुराग उमँग उर, पर पर म त प हचानै ।। ३ ।।
रामनाम-ग त, रामनाम-म त, राम-नाम-अनुरागी ।
ै गये, ह, जे हो हगे, तेइ भुवन ग नयत बड़भागी ।। ४ ।।
एक अंग मग अगमु गवन कर, बलमु न छन छन छाह ।
तुलसी हत अपनो अपनी द स, न प ध नेम नबाह ।। ५ ।।
भावाथ—हे जीभ! तू सदा राम रामम रमा कर, राम राम रटा कर और राम रामका जाप
कया कर। हे मन! तू भी रामनामम ेम पी न य-नवीन मेघके लये हठ करके पपीहा बन
जा ।। १ ।। जैसे पपीहा कुआँ, नद , तालाब और समु तकके जलक जरा-सी भी आशा न
कर केवल वाती-न के जलक एक ेम-बूँदके लये यासा रहता है, ऐसे ही तू भी और
सारे साधन तथा उनके फल क आशा न कर केवल ीरामनामके ेम पी अमृतक बूँदम
ही ी त कर ।। २ ।। पपीहेपर उसका ेमी मेघ गरजता है, डाँट बतलाता है, ओले बरसाता
है, व पात करता है, इस कार क ठन-से-क ठन परी ा करके पपीहेके अन य ेमको
पूण पसे परखकर जब वह इस बातको जान लेता है क य - य परी ा लेता ँ य - य
इस पपीहेका ेम अ धका धक बढ़ता है, (तब उसे वातीक बूँद मलती है) ।। ३ ।। इसी
कार (भगवान्क दयासे परी ाके लये कैसे ही संकट आकर तुझे वच लत करनेक चे ा
य न कर) तू तो (अन य मनसे) ीरामनामक ही शरण हण कर, रामनामम ही बु
लगा, राम-नामका ही ेमी बन। ऐसे रामनामके आ त जतने भ हो गये ह, अभी ह और
जो आगे ह गे, लोक म उ ह को बड़ा भा यवान् समझना चा हये ।। ४ ।। यह (रामनामम
अन य ेम करनेका) एकांगी माग बड़ा ही क ठन है, य द तू इस मागपर चला जाय तो ण-
णम (सांसा रक सुख क ) छाया लेनेके लये ठहरकर दे र न करना। हे तुलसीदास! तेरा
भला तो अपनी ओरसे ीरामनामम न प ध अथात् न कपट ेमके नबाहनेसे ही
होगा ।। ५ ।।
[६६]
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे ।
घोर भव-नीर- न ध नाम नज नाव रे ।। १ ।।
एक ही साधन सब र - स सा ध रे ।
से क ल-रोग जोग-संजम-समा ध रे ।। २ ।।
भलो जो है, पोच जो है, दा हनो जो, बाम रे ।
राम-नाम ही स अंत सब ही को काम रे ।। ३ ।।
जग नभ-बा टका रही है फ ल फू ल रे ।
धुवाँ कैसे धौरहर दे ख तू न भू ल रे ।। ४ ।।
राम-नाम छा ड़ जो भरोसो करै और रे ।
तुलसी परोसो या ग माँगै कूर कौर रे ।। ५ ।।
भावाथ—अरे पागल! राम जप, राम जप, राम जप। इस भयानक संसार पी समु से
पार उतरनेके लये ीरामनाम ही अपनी नाव है। अथात् इस रामनाम पी नावम बैठकर
मनु य जब चाहे तभी पार उतर सकता है, य क यह मनु यके अ धकारम है ।। १ ।। इसी
एक साधनके बलसे सब ऋ - स य को साध ले, य क योग, संयम और समा ध आ द
साधन को क लकाल पी रोगने स लया है ।। २ ।। भला हो, बुरा हो, उलटा हो, सीधा हो,
अ तम सबको एक रामनामसे ही काम पड़ेगा ।। ३ ।। यह जगत् मसे आकाशम फले-फूले
द खनेवाले बगीचेके समान सवथा म या है, धुएक ँ े महल क भाँ त ण- णम द खने और
मटनेवाले इन सांसा रक पदाथ को दे खकर तू भूल मत ।। ४ ।। जो रामनामको छोड़कर
सरेका भरोसा करता है, हे तुलसीदास! वह उस मूखके समान है, जो सामने परोसे ए
भोजनको छोड़कर एक-एक कौरके लये कु ेक तरह घर-घर माँगता फरता है ।। ५ ।।
[६७]
राम राम जपु जय सदा सानुराग रे ।
क ल न बराग, जोग, जाग, तप, याग रे ।। १ ।।
राम सु मरत सब ब ध ही को राज रे ।
रामको बसा रबो नषेध- सरताज रे ।। २ ।।
राम-नाम महाम न, फ न जगजाल रे ।
म न लये फ न जयै, याकुल बहाल रे ।। ३ ।।
राम-नाम कामत दे त फल चा र रे ।
कहत पुरान, बेद, पं डत, पुरा र रे ।। ४ ।।
राम-नाम ेम-परमारथको सार रे ।
राम-नाम तुलसीको जीवन-अधार रे ।। ५ ।।
भावाथ—हे जीव! सदा अन य ेमसे ीरामनाम जपा कर, इस क लकालम रामनामके
सवा वैरा य, योग, य , तप और दानसे कुछ भी नह हो सकता ।। १ ।। शा म
व ध नषेध पसे कम बतलाये ह, मेरी स म तम ीरामनामका मरण करना ही सारी
व धय म राज- व ध है और ीरामनामको भूल जाना ही सबसे बढ़कर न ष कम
है ।। २ ।। रामनाम महाम ण है और यह जगत्का जाल साँप है, जैसे म ण ले लेनेसे साँप
ाकुल होकर मर-सा जाता है, इसी कार रामनाम पी म ण ले लेनेसे ःख प जगत्-
जाल आप ही न ाय हो जायगा ।। ३ ।। अरे! यह राम-नाम क पवृ है, यह अथ, धम,
काम और मो चार फल दे ता है, इस बातको वेद, पुराण, प डत और शवजी महाराज भी
कहते ह ।। ४ ।। ीरामनाम ेम और परमाथ अथात् भ -मु दोन का सार है और यह
रामनाम इस तुलसीदासके तो जीवनका आधार ही है ।। ५ ।।
[६८]
राम राम राम जीह जौल तू न ज पहै ।
तौल , तू क ँ जाय, त ँ ताप त पहै ।। १ ।।
सुरस र-तीर बनु नीर ख पाइहै ।
सुरत तरे तो ह दा रद सताइहै ।। २ ।।
जागत, बागत, सपने न सुख सोइहै ।
जनम जनम, जुग जुग जग रोइहै ।। ३ ।।
छू टबेके जतन बसेष बाँधो जायगो ।
ै है बष भोजन जो सुधा-सा न खायगो ।। ४ ।।
तुलसी तलोक, त ँ काल तोसे द नको ।
रामनाम ही क ग त जैसे जल मीनको ।। ५ ।।
भावाथ—हे जीव! जबतक तू जीभसे रामनाम नह जपेगा, तबतक तू कह भी जा—
तीन ताप से जलता ही रहेगा ।। १ ।। गंगाजीके तीरपर जानेपर भी तू पानी बना तरसकर
ःखी होगा, क पवृ के नीचे भी तुझे द र ता सताती रहेगी ।। २ ।। जागते, सोते और
सपनेम तुझे कह भी सुख नह मलेगा, इस संसारम ज म-ज म और युग-युगम तुझे रोना ही
पड़ेगा ।। ३ ।। जतने ही छू टनेके ( सरे) उपाय करेगा (रामनाम वमुख होनेके कारण) उतना
ही और कसकर बँधता जायगा; अमृतमय भोजन भी तेरे लये वषके समान हो
जायगा ।। ४ ।। हे तुलसी! तुझ-से द नको तीन लोक और तीन काल म एक ीरामनामका
वैसे ही भरोसा है जैसे मछलीको जलका ।। ५ ।।
[६९]
सु म सनेहस तू नाम रामरायको ।
संबल नसंबलको, सखा असहायको ।। १ ।।
भाग है अभागे को, गुन गुनहीनको ।
गाहक गरीबको, दयालु दा न द नको ।। २ ।।
कुल अकुलीनको, सु यो है बेद सा ख है ।
पाँगुरेको हाथ-पाँय, आँधरेको आँ ख है ।। ३ ।।
माय-बाप भूखेको, अधार नराधारको ।
सेतु भव-सागरको, हेतु सुखसारको ।। ४ ।।
प ततपावन राम-नाम सो न सरो ।
सु म र सुभू म भयो तुलसी सो ऊसरो ।। ५ ।।
भावाथ—हे जीव! तू ेमपूवक राजराजे र ीरामके नामका मरण कर, उनका नाम
पाथेयहीन प थक के लये माग य (कलेवा) है, जसका कोई सहाय नह है उसका सहायक
है ।। १ ।। यह रामनाम भा यहीनका भा य और गुणहीनका गुण है, (रामनाम जपनेवाले
भा यहीन और गुणहीन भी परम भा यवान् और सवगुणस प हो जाते ह।) यह गरीब का
स मान करनेवाला ाहक और द न के लये दयालु दानी है ।। २ ।। यह रामनाम कुलहीन का
उ च कुल (रामनाम जपनेवाले चा डाल भी सबसे ऊँचे समझे जाते ह) और लँगड़े-लूल के
हाथ-पैर तथा अ ध क आँख ह (रामनाम जपनेवाले संसार-मागको सहजहीम लाँघ जाते ह)
इस स ा तका वेद सा ी है ।। ३ ।। वह रामनाम भूख का माँ-बाप और नराधारका आधार
है। संसार-सागरसे पार जानेके लये यह पुल है और सब सुख के सार भगवत्- ा तका
धान कारण है ।। ४ ।। रामनामके समान प तत-पावन सरा कौन है, जसके मरण
करनेसे तुलसीके समान ऊसर भी सु दर (भ - ेम पी चुर धानक ) उपजाऊ भू म बन
गया ।। ५ ।।
[७०]
भलो भली भाँ त है जो मेरे कहे ला गहै ।
मन राम-नामस सुभाय अनुरा गहै ।। १ ।।
राम-नामको भाउ जा न जूड़ी आ गहै ।
स हत सहाय क लकाल भी भा गहै ।। २ ।।
राम-नामस बराग, जोग, जप जा गहै ।
बाम ब ध भाल न करम दाग दा गहै ।। ३ ।।
राम-नाम मोदक सनेह सुधा पा गहै ।
पाइ प रतोष तू न ार ार बा गहै ।। ४ ।।
राम-नाम काम-त जोइ जोइ माँ गहै ।
तुल सदास वारथ परमारथ न खाँ गहै ।। ५ ।।
भावाथ—हे मन! य द मेरे कहेपर चलकर, वभावसे ही ीरामनामसे ेम करेगा तो
तेरा सब कारसे भला होगा ।। १ ।। रामनामका भाव कँपा दे नेवाली सद का नाश करनेके
लये अ नके समान है, मनु यक बु को वच लत कर दे नेवाला क लकाल अपने (काम-
ोधा द) सहायक समेत रामनामके डरसे तुरंत भाग जायगा ।। २ ।। रामनामके भावसे
वैरा य, योग, जप, तप आ द आप ही जागृत हो उठगे; फर वाम वधाता भी तेरे म तकपर
बुरे कम-फल अं कत नह कर सकेगा, अथात् तेरे सारे कम ीण हो जायँगे ।। ३ ।। य द तू
रामनाम पी लड् डू को ेम पी अमृतम पागकर खायगा तो तुझे सदाके लये परम स तोष
ा त हो जायगा, फर सुखके लये घर-घर भटकना नह पड़ेगा ।। ४ ।। रामनाम क पवृ
है, इससे हे तुलसीदास! तू उससे वाथ-परमाथ जो कुछ भी माँगेगा, सो सभी मल जायगा,
कसी बातक कमी नह रहेगी ।। ५ ।।
[७१]
ऐसे साहबक सेवा स होत चो रे ।
आपनी न बूझ, न कहै को राँडरो रे ।। १ ।।
मु न-मन-अगम, सुगम माइ-बापु स ।
कृपा सधु, सहज सखा, सनेही आपु स ।। २ ।।
लोक-बेद- ब दत बड़ो न रघुनाथ स ।
सब दन सब दे स, सब हके साथ स ।। ३ ।।
वामी सरब य स चलै न चोरी चारक ।
ी त प हचा न यह री त दरबारक ।। ४ ।।
काय न कलेस-लेस, लेत मान मनक ।
सु मरे सकु च च जोगवत जनक ।। ५ ।।
रीझे बस होत, खीझे दे त नज धाम रे ।
फलत सकल फल कामत नाम रे ।। ६ ।।
बचे खोटो दाम न मलै, न राखे काम रे ।
सोऊ तुलसी नवा यो ऐसो राजाराम रे ।। ७ ।।
भावाथ—अरे! तू ऐसे वामीक सेवासे भी अपना जी चुराता है। तुझम न तो अपनी
समझ है और न तुझे सरेके कहेका ही कुछ खयाल है, तू तो कसी भी कामका नह ,
प थरका रोड़ा है ।। १ ।। जो भगवान् ीराम मु नय के मनको भी अगम ह, वही भ के
लये माता- पताके समान सुगम ह, वे कृपाके समु ह, वभावसे ही म और अपने-आप ही
ेम करनेवाले ह ।। २ ।। यह बात लोक और वेदम स है क ीरघुनाथजीसे बड़ा कोई
भी नह है, वे सवदा सव और सभीके साथ रहते ह ।। ३ ।। (स चे मनसे ीरामसे ेम कर,
य क) वे वामी सव ह, उनसे सेवकक चोरी छपी नह रह सकती। वहाँ ेमक ही
पहचान होती है, यही उनके दरबारक नी त है ।। ४ ।। उनक सेवाम शरीरको जरा-सा भी
क नह प ँचता, वे वामी मनके ेम और सेवाको ही मान लेते ह। ेमसे मरण करते ही वे
संकोचम पड़ जाते ह और सेवकक च दे खने लगते ह, अथात् भ को मनमानी व तु
दे कर भी इसी संकोचम रहते ह क हमने कुछ भी नह दया ।। ५ ।। वह जसपर स होते
ह, उसके वशम हो जाते ह और जसपर नाराज होते ह उसे (दे हके ब धनसे छु ड़ाकर) अपने
परम धामम भेज दे ते ह। उनका नाम क पवृ के समान है, जसम सब कारके फल फलते
ह ।। ६ ।। जसके बेचनेपर एक खोटा पैसा नह मलता और रखनेसे कुछ काम नह
नकलता, ऐसे तुलसीदासको भी ज ह ने नहाल कर दया, ऐसे राजा धराज ीरामजीका
या कहना है? ।। ७ ।।
[७२]
मेरो भलो कयो राम आपनी भलाई ।
ह तो सा - ोही पै सेवक- हत सा ।। १ ।।
रामस बड़ो है कौन, मोस कौन छोटो ।
राम सो खरो है कौन, मोस कौन खोटो ।। २ ।।
लोक कहै रामको गुलाम ह कहाव ।
एतो बड़ो अपराध भौ न मन बाव ।। ३ ।।
पाथ माथे चढ़े तृन तुलसी य नीचो ।
बोरत न बा र ता ह जा न आपु स चो ।। ४ ।।
भावाथ— ीरामजीने अपने भलेपनसे ही मेरा भला कर दया। (मेरे क से भला
होनेक या आशा थी?) य क म तो वामीके साथ बुराई करनेवाला ;ँ पर तु मेरे वामी
ीराम सेवकके हतकारी ह ।। १ ।। ीरामजीसे तो बड़ा कौन है और मुझसे छोटा कौन है?
उनके समान खरा कौन है और मेरे समान खोटा कौन है? ।। २ ।। संसार कहता है क म
(तुलसीदास) रामजीका गुलाम ँ और म भी यह कहलवाता ।ँ (वा तवम रामका सेवक न
होकर भी म इस पदवीको वीकार कर लेता )ँ यह मेरा बड़ा भारी अपराध है, तो भी
ीरामका मन मेरी तरफसे त नक भी नह फरा ।। ३ ।। हे तुलसी! जैसे तनका ब त नीच
होनेपर भी जलके म तकपर चढ़ जाता है, (ऊपर उतराने लगता है) पर तु जल उसे अपने
ारा ही स चकर पाला-पोसा आ समझकर डु बोता नह । (इसी कार भगवान् ीरामजी
समझते ह) ।। ४ ।।
[७३]
जागु, जागु, जीव जड़! जोहै जग-जा मनी ।
दे ह-गेह-नेह जा न जैसे घन-दा मनी ।। १ ।।
सोवत सपने ँ सहै संसृ त-संताप रे ।
बू ो मृग-बा र खायो जेवरीको साँप रे ।। २ ।।
कह बेद-बुध, तू तो बू झ मनमा ह रे ।
दोष- ख सपनेके जागे ही पै जा ह रे ।। ३ ।।
तुलसी जागेते जाय ताप त ँ ताय रे ।
राम-नाम सु च च सहज सुभाय रे ।। ४ ।।
भावाथ—अरे मूख जीव! जाग, जाग! इस संसार पी रा को दे ख! शरीर और घर-
कुटु बके ेमको ऐसा णभंगुर समझ जैसे बादल के बीचक बजली, जो णभर चमककर
ही छप जाती है ।। १ ।। (जागनेके समय ही नह ) तू सोते समय सपनेम भी संसारके क ही
सह रहा है; अरे! तू मसे मृग-तृ णाके जलम डू बा जा रहा है और तुझे र सीका सप डँस
रहा है ।। २ ।। वेद और व ान् पुकार-पुकारकर कह रहे ह, तू अपने मनम वचार कर समझ
ले क व के सारे ःख और दोष वा तवम जागनेपर ही न होते ह ।। ३ ।। हे तुलसी!
संसारके तीन ताप अ ान पी न ासे जागनेपर ही न होते ह और तभी ीराम-नामम
अहैतुक वाभा वक वशु ी त उ प होती है ।। ४ ।।
राग वभास
[७४]
जानक सक कृपा जगावती सुजान जीव,
जा ग या ग मूढ़ताऽनुरागु ीहरे ।
क र बचार, त ज बकार, भजु उदार रामचं ,
भ सधु द नबंधु, बेद बदत रे ।। १ ।।
मोहमय कु - नसा बसाल काल बपुल सोयो,
खोयो सो अनूप प सुपन जू परे ।
अब भात गट यान-भानुके काश,
बासना, सराग मोह- े ष न बड़ तम टरे ।। २ ।।
भागे मद-मान चोर भोर जा न जातुधान
काम-कोह-लोभ-छोभ- नकर अपडरे ।
दे खत रघुबर- ताप, बीते संताप-पाप,
ताप बध ेम-आप र ही करे ।। ३ ।।
वन सु न गरा गँभीर, जागे अ त धीर बीर,
बर बराग-तोष सकल संत आदरे ।
तुल सदास भु कृपालु, नर ख जीव जन बहालु,
भं यो भव-जाल परम मंगलाचरे ।। ४ ।।
भावाथ—( ीरामनामके आ त) चतुर जीव को ीरामजीक कृपा ही (अ ान पी
न ासे) जगाती है, (अतएव रामनामके भावसे) मूखताको यागकर जाग और ीह रके
साथ ेम कर। न या न य व तुका वचार करके, काम- ोधा द सम त वकार को छोड़कर
क याणके समु , द नब धु, उदार ीरामच जीका भजन कर, यही वेदक आ ा है ।। १ ।।
मोहमयी अमाव याक लंबी रा म सोते ए तुझे ब त समय बीत गया और माया- व म
पड़कर तू अपने अनुपम आ म व पको भूल गया। दे ख अब सबेरा हो गया है और
ान पी सूयका काश होते ही वासना, राग, मोह और े ष पी घोर अ धकार र हो गया
है ।। २ ।। ातःकाल आ समझकर गव और मान पी चोर भागने लगे तथा काम, ोध,
लोभ और ोभ पी रा स के समूह अपने-आप डर गये। ीरघुनाथजीके च ड तापको
दे खते ही पाप-स ताप न हो गये और तीन कारके ताप ीरामजीके ेम पी जलने शा त
कर दये ।। ३ ।। इस ग भीर वाणीको कान से सुनकर धीर-वीर संत मोह- न ासे जाग उठे
और उ ह ने सु दर वैरा य, स तोष आ दको आदरसे अपना लया। हे तुलसीदास! कृपामय
ीरामच जीने भ -जीव को ाकुल दे खकर संसार पी जाल तोड़ डाला और उ ह
परमान द दान करने लगे ।। ४ ।।
राग ल लत
[७५]
खोटो खरो रावरो ह , रावरी स , रावरेस झूठ य कह गो,
जानो सब ही के मनक ।
करम-बचन- हये, कह न कपट कये, ऐसी हठ जैसी गाँ ठ
पानी परे सनक ।। १ ।।
सरो, भरोसो ना ह बासना उपासनाक , बासव, बरं च
सुर-नर-मु नगनक ।
वारथके साथी मेर,े हाथी वान लेवा दे ई, का तो न पीर
रघुबीर! द न जनक ।। २ ।।
साँप-सभा साबर लबार भये दे व द य, सह साँस त क जै
आगे ही या तनक ।
साँचे पर , पाऊँ पान, पंचम पन मान, तुलसी चातक आस
राम यामघनक ।। ३ ।।
भावाथ—बुरा-भला जो कुछ भी ँ सो आपका ।ँ आपक स ह, म आपसे झूठ य
क ँगा? आप तो सभीके मनक बात जानते ह। म कपटसे नह ; परंतु कम, वचन और
दयसे कहता ँ क ‘म आपका ँ।’ यह आपक गुलामीका हठ इतना प का है जैसे पानीसे
भीगे ए सनक गाँठ! ।। १ ।। हे रामजी! न तो मुझे सरेका भरोसा है और न मुझे इ ,
ा अथवा अ य दे वता, मनु य और मु नय क उपासना करनेक ही इ छा है। आपके सवा
सभी वाथके साथी ह, ज मभर हाथीक तरह सेवा करनेपर कह कु -े जैसा तु छ फल दे ते
ह। इनमसे कसीको भी द न के ःखम ऐसी सहानुभू त नह है, जैसी आपको है ।। २ ।। हे
द दे व, ‘म आपका गुलाम ’ँ यह बात य द म झूठ कहता ँ तो मेरे इस शरीरको अपने ही
आगे ऐसा अस क द जये, जैसा साँप क सभाम (साँपको वश करनेका म नह
जाननेवाले) झूठे सँपेरेको मलता है अथात् उस पाख डीको साँप काट खाते ह। और य द म
स चा (रामका गुलाम) स हो जाऊँ तो हे नाथ! मुझे पंच के बीचम सचाईका एक बीड़ा
मल जाय। य क मुझ तुलसी पी चातकको एक राम पी याम मेघक ही आशा
है ।। ३ ।।
[७६]
रामको गुलाम, नाम रामबोला रा यौ राम,
काम यहै, नाम ै ह कब ँ कहत ह ।
रोट -लूगा नीके राखै, आगे क बेद भाखै,
भलो ै है तेरो, ताते आनँद लहत ह ।। १ ।।
बाँ यौ ह करम जड़ गरब गूढ़ नगड़,
सुनत सह ह तौ साँस त सहत ह ।
आरत-अनाथ-नाथ, कौसलपाल कृपाल,
ली ह छ न द न दे यो रत दहत ह ।। २ ।।
बू यौ य ही, क ो, म ँ चेरो ै हौ रावरो जू
मेरो कोऊ क ँ ना ह, चरन गहत ह ।
म जो गु पीठ, अपनाइ ग ह बाँह, बो ल
सेवक-सुखद, सदा बरद बहत ह ।। ३ ।।
लोग कह पोच, सो न सोच न सँकोच मेरे
याह न बरेखी, जा त-पाँ त न चहत ह ।
तुलसी अकाज-काज राम ही के रीझे-खीझे,
ी तक ती त मन मु दत रहत ह ।। ४ ।।
भावाथ—म ीरामजीका गुलाम ।ँ लोग मुझे ‘रामबोला’ कहने लगे ह। काम यही
करता ँ क कभी-कभी दो-चार बार राम-नाम कह लेता ।ँ इसीसे राम मुझे रोट -कपड़ से
अ छ तरह रखते ह। यह तो इस लोकक बात ई, आगे परलोकके लये तो वेद पुकार ही
रहे ह क राम-नामके तापसे तेरा क याण हो जायगा। बस, इसीसे म सदा स रहता
ँ ।। १ ।। पहले मुझे जड कम ने अहंकार पी क ठन बे ड़य से बाँध लया था। वह ऐसा
भयानक क था, जो सुननेम भी बड़ा अस है। मने ःखी हो पुकारकर कहा, ‘हे आ और
अनाथ के नाथ! हे कोसलेश! हे कृपा स धु! म बड़ा क सह रहा ।ँ ’ (यह सुनते ही)
ीरामने मुझ द नको पाप से जलता आ दे खकर तुर त कम-ब धनसे छु ड़ा लया ।। २ ।।
य ही उ ह ने मुझसे पूछा ‘तू कौन है?’ य ही मने कहा, ‘हे नाथ! म आपका दास बनना
चाहता ँ। मेरे कह भी और कोई नह है, आपके चरण म पड़ा ँ।’ इसपर भ सुखकारी
परम गु ीरामजीने मेरी पीठ ठ क , बाँह पकड़कर मुझे अपनाया और आ ासन दया।
तबसे म यह (क ठ , तलक, माला, रामनाम-जप, अ हसा, अभेद, न ता आ द) भगवान्का
वै णवी बाना सदा धारण कये रहता ँ ।। ३ ।। रामका गुलाम बना दे खकर लोग मुझे नीच
कहते ह; परंतु मुझे इसके लये कुछ भी च ता या संकोच नह है, य क न तो मुझे कसीके
साथ ववाह-सगाई करनी है और न मुझे जा त-पाँ तसे ही कुछ मतलब है। तुलसीका बनना-
बगड़ना तो ीरामजीके रीझने-खीझनेम ही है। परंतु मुझे आपके ेमपर व ास है, इसीसे
म मनम सदा सान द रहता ँ ।। ४ ।।
[७७]
जानक -जीवन, जग-जीवन, जगत- हत,
जगद स, रघुनाथ, राजीवलोचन राम ।
सरद- बधु-बदन, सुखसील, ीसदन,
सहज सुंदर तनु, सोभा अग नत काम ।। १ ।।
जग-सु पता, सुमातु, सुगु , सु हत, सुमीत,
सबको दा हनो, द नब धु, का को न बाम ।
आर तहरन, सरनद, अतु लत दा न,
नतपालु, कृपालु, प तत-पावन नाम ।। २ ।।
सकल ब व-बं दत, सकल सुर-से वत,
आगम- नगम कह रावरेई गुन ाम ।
इहै जा न तुलसी तहारो जन भयो,
यारो कै ग नबो जहाँ गने गरीब गुलाम ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप ीजानक जीके जीवन, व के ाण, जगत्के हतकारी,
जगत्के वामी, रघुकुलके नाथ और कमलके समान ने वाले ह। आपका मुखम डल
शर पू णमाके च माके समान है, सुख दान करना आपका वभाव है। ल मीजी सदा
आपम नवास करती ह, आपका शरीर वाभा वक ही परम सु दर है, जसक शोभा असं य
कामदे व के समान है ।। १ ।। आप जगत्के सुखकारी पता, माता, गु , हतकारी, म और
सबके अनुकूल ह। आप द न के ब धु ह, परंतु बुरा कसीका भी नह करते। आप वप के
हरनेवाले, शरण दे नेवाले, अतुलनीय दानी, शरणागत-र क और कृपालु ह। आपका राम-
नाम प तत को पावन कर दे ता है ।। २ ।। सारा व आपक व दना करता है, सम त दे वता
आपक सेवा करते ह और सभी वेद-शा आपके ही गुण-समूह का गान करते ह। यह सब
जानकर तुलसीदास आपका गुलाम बना है, अब बतलाइये आप इसे अलग समझगे या गरीब
गुलाम क नामावलीम गनगे ।। ३ ।।
राग टोड़ी
[७८]
दे व—
द नको दयालु दा न सरो न कोऊ ।
जा ह द नता कह ह दे ख द न सोऊ ।। १ ।।
सुर, नर, मु न, असुर, नाग सा हब तौ घनेरे ।
(पै) तौ ल जौ ल रावरे न नेकु नयन फेरे ।। २ ।।
भुवन, त ँ काल ब दत, बेद बद त चारी ।
आ द-अंत-म य राम! साहबी तहारी ।। ३ ।।
तो ह माँ ग माँगनो न माँगनो कहायो ।
सु न सुभाव-सील-सुजसु जाचन जन आयो ।। ४ ।।
पाहन-पसु, बटप- बहँग अपने क र ली हे ।
महाराज दसरथके! रंक राय क हे ।। ५ ।।
तू गरीबको नवाज, ह गरीब तेरो ।
बारक क हये कृपालु! तुल सदास मेरो ।। ६ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! द न पर दया करनेवाला और उ ह (परमसुख) दे नेवाला सरा
कोई नह है। म जसको अपनी द नता सुनाता ँ उसीको द न पाता ।ँ (जो वयं द न है वह
सरेको या दे सकता है?) ।। १ ।। दे वता, मनु य, मु न, रा स, नाग आ द मा लक तो
ब तेरे ह, पर वह तक ह जबतक आपक नजर त नक भी टे ढ़ नह होती। आपक नजर
फरते ही वे सब भी छोड़ दे ते ह ।। २ ।। तीन लोक म तीन काल सव यही स है और
यही चार वेद कह रहे ह क आ द, म य और अ तम, हे रामजी! सदा आपक ही एक-सी
भुता है ।। ३ ।। जस भखमंगेने आपसे माँग लया, वह फर कभी भखारी नह कहलाया।
(वह तो परम न य सुखको ा तकर सदाके लये तृ त और अकाम हो गया) आपके इसी
वभाव-शीलका सु दर यश सुनकर यह दास आपसे भीख माँगने आया ।। ४ ।। आपने
पाषाण (अह या), पशु (बंदर-भालू), वृ (यमलाजुन) और प ी (जटायु, काकभुशु ड)
तकको अपना लया है। हे महाराज दशरथके पु ! आपने नीच रंक को राजा बना दया
है ।। ५ ।। आप गरीब को नहाल करनेवाले ह और म आपका गरीब गुलाम ।ँ हे कृपालु!
(इसी नाते) एक बार यही कह द जये क ‘तुलसीदास मेरा है’ ।। ६ ।।
[७९]
दे व—
तू दयालु, द न ह , तू दा न, ह भखारी ।
ह स पातक , तू पाप-पुंज-हारी ।। १ ।।
नाथ तू अनाथको, अनाथ कौन मोसो ।
मो समान आरत न ह, आर तहर तोसो ।। २ ।।
तू, ह जीव, तू है ठाकुर, ह चेरो ।
तात-मात, गु -सखा, तू सब ब ध हतु मेरो ।। ३ ।।
तो ह मो ह नाते अनेक, मा नयै जो भावै ।
य य तुलसी कृपालु! चरन-सरन पावै ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! तू द न पर दया करनेवाला है, तो म द न ँ। तू अतुल दानी है, तो म
भखमंगा ।ँ म स पापी ँ, तो तू पाप-पुंज का नाश करनेवाला है ।। १ ।। तू अनाथ का
नाथ है, तो मुझ-जैसा अनाथ भी और कौन है? मेरे समान कोई ःखी नह है और तेरे समान
कोई ःख को हरनेवाला नह है ।। २ ।। तू है, म जीव ।ँ तू वामी है, म सेवक ।ँ
अ धक या, मेरा तो माता, पता, गु , म और सब कारसे हतकारी तू ही है ।। ३ ।। मेरे-
तेरे अनेक नाते ह; नाता तुझे जो अ छा लगे, वही मान ले। परंतु बात यह है क हे कृपालु!
कसी भी तरह यह तुलसीदास तेरे चरण क शरण पा जावे ।। ४ ।।
[८०]
दे व—
और का ह माँ गये, को माँ गबो नवारै ।
अ भमतदातार कौन, ख-द र दारै ।। १ ।।
धरमधाम राम काम-को ट- प रो ।
साहब सब ब ध सुजान, दान-खडग-सूरो ।। २ ।।
सुसमय दन ै नसान सबके ार बाजै ।
कुसमय दसरथके! दा न त गरीब नवाजै ।। ३ ।।
सेवा बनु गुन बहीन द नता सुनाये ।
जे जे त नहाल कये फूले फरत पाये ।। ४ ।।
तुल सदास जाचक- च जा न दान द जै ।
रामचं चं तू, चकोर मो ह क जै ।। ५ ।।
भावाथ—हे भो! अब और कसके आगे हाथ फैलाऊँ? ऐसा सरा कौन है जो सदाके
लये मेरा माँगना मटा दे ? सरा ऐसा कौन मनोवा छत फल का दे नेवाला है जो मेरे ःख-
दा र यका नाश कर दे ? ।। १ ।। हे ीराम! तू धमका थान और करोड़ कामदे व के
सौ दयसे भी सु दर है। सब कारसे मेरा वामी है, मनक अ छ तरह जानता है और
दान पी तलवारके चलानेम बड़ा शूर है ।। २ ।। अ छे समयम तो दो दन सभीके दरवाजेपर
नगारे बजते ह, पर तु हे दशरथन दन! तू ऐसा दानी है क बुरे समयम भी गरीब को नहाल
कर दे ता है ।। ३ ।। कुछ भी सेवा न करनेवाले, अ छे गुण से सवथा हीन जन मनु य ने तेरे
सामने अपना खड़ा सुनाया, उन सबको तने नहाल कर दया, मने उ ह आन दसे फूले
फरते पाया है ।। ४ ।। अब तुलसीदास भखारीके मनक जानकर (अथात् वह और कुछ भी
नह चाहता, केवल तेरा ेम चाहता है ऐसा जानकर) दान दे और वह यही क हे ीरामच !
तू च मा है ही, मुझे बस, चकोर बना ले ।। ५ ।।
[८१]
द नबंधु, सुख सधु, कृपाकर, का नीक रघुराई ।
सुन नाथ! मन जरत बध जुर, करत फरत बौराई ।। १ ।।
कब ँ जोगरत, भोग- नरत सठ हठ बयोग-बस होई ।
कब ँ मोहबस ोह करत ब , कब ँ दया अ त सोई ।। २ ।।
कब ँ द न, म तहीन, रंकतर, कब ँ भूप अ भमानी ।
कब ँ मूढ़, पं डत बडंबरत, कब ँ धमरत यानी ।। ३ ।।
कब ँ दे व! जग धनमय रपुमय कब ँ ना रमय भासै ।
संसृ त-सं नपात दा न ख बनु ह र-कृपा न नासै ।। ४ ।।
संजम, जप, तप, नेम, धरम, त ब भेषज-समुदाई ।
तुल सदास भव-रोग रामपद- ेम-हीन न ह जाई ।। ५ ।।
भावाथ—हे परम दयालु ीरघुनाथजी! आप द न के ब धु, सुखके समु और कृपाक
खा न ह। हे नाथ! सु नये, मेरा मन संसारके वध ताप से जल रहा है अथवा उसे (काम-
ोध-लोभ पी) दोष वर हो गया है और इसीसे वह पागलक तरह बकता फरता
है ।। १ ।। कभी वह योगा यास करता है तो कभी वह भोग म फँस जाता है। कभी
हठपूवक वयोगके वश हो जाता है तो कभी मोहके वश होकर नाना कारके ोह करता है
और वही कसी समय बड़ी दया करने लगता है ।। २ ।। कभी द न, बु हीन, बड़ा ही
कंगाल बन जाता है, तो कभी घम डी राजा बन जाता है। कभी मूख बनता है, तो कभी
प डत बन जाता है। कभी पाख डी बनता है और कभी धमपरायण ानी बन जाता
है ।। ३ ।। हे दे व! कभी उसे सारा जगत् धनमय द खता है, कभी श ुमय और कभी ीमय
द खता है अथात् वह कभी लोभम, कभी ोधम और कभी कामम फँसा रहता है। यह
संसार पी स पात- वरका दा ण ःख बना भगवत्-कृपाके कभी न नह हो
सकता ।। ४ ।। य प संयम, जप, तप, नयम, धम, त आ द अनेक ओष धयाँ ह, पर तु
तुलसीदासका संसार पी रोग ीरामजीके चरण के ेम बना र नह हो सकता ।। ५ ।।
[८२]
मोहज नत मल लाग ब बध ब ध को ट जतन न जाई ।
जनम जनम अ यास- नरत चत, अ धक अ धक लपटाई ।। १ ।।
नयन म लन परना र नर ख, मन म लन बषय सँग लागे ।
दय म लन बासना-मान-मद, जीव सहज सुख यागे ।। २ ।।
पर नदा सु न वन म लन भे, बचन दोष पर गाये ।
सब कार मलभार लाग नज नाथ-चरन बसराये ।। ३ ।।
तुल सदास त-दान, यान-तप, सु हेतु ु त गावै ।
राम-चरन-अनुराग-नीर बनु मल अ त नास न पावै ।। ४ ।।
भावाथ—मोहसे उ प जो अनेक कारका (पाप पी) मल लगा आ है, वह करोड़
उपाय से भी नह छू टता। अनेक ज म से यह मन पापम लगे रहनेका अ यासी हो रहा है,
इस लये यह मल अ धका धक लपटता ही चला जाता है ।। १ ।। पर- य क ओर दे खनेसे
ने म लन हो गये ह, वषय का संग करनेसे मन म लन हो गया है और वासना, अहंकार तथा
गवसे दय म लन हो गया है तथा सुख प व- व पके यागसे जीव म लन हो गया
है ।। २ ।। पर न दा सुनते-सुनते कान और सर का दोष कहते-कहते वचन म लन हो गये
ह। अपने नाथ ीरामजीके चरण को भूल जानेसे ही यह मलका भार सब कारसे मेरे पीछे
लगा फरता है ।। ३ ।। इस पापके धुलनेके लये वेद तो त, दान, ान, तप आ द अनेक
उपाय बतलाता है; परंतु हे तुलसीदास! ीरामके चरण के ेम पी जल बना इस पाप पी
मलका समूल नाश नह हो सकता ।। ४ ।।
राग जैत ी
[८३]
कछु ै न आई गयो जनम जाय ।
अ त रलभ तनु पाइ कपट त ज भजे न राम मन बचन-काय ।। १ ।।
ल रका बीती अचेत चत, चंचलता चौगुने चाय ।
जोबन-जुर जुबती कुप य क र, भयो दोष भ र मदन बाय ।। २ ।।
म य बयस धन हेतु गँवाई, कृषी ब नज नाना उपाय ।
राम- बमुख सुख ल ो न सपने ,ँ न सबासर तयौ त ँ ताय ।। ३ ।।
सेये न ह सीताप त-सेवक, साधु सुम त भ ल भग त भाय ।
सुने न पुल क तनु, कहे न मु दत मन कये जे च रत रघुबंसराय ।। ४ ।।
अब सोचत म न बनु भुअंग य , बकल अंग दले जरा धाय ।
सर धु न-धु न प छतात म ज कर कोउ न मीत हत सह दाय ।। ५ ।।
ज ह ल ग नज परलोक बगारयौ, ते लजात होत ठाढ़े ठाँय ।
तुलसी अज ँ सु म र रघुनाथ ह, तरयौ गयँद जाके एक नाँय ।। ६ ।।
भावाथ—हाय! मुझसे कुछ भी नह बन पड़ा और ज म य ही बीत गया। बड़े लभ
मनु य-शरीरको पाकर न कपट-भावसे तन-मन-वचनसे कभी ीरामका भजन नह
कया ।। १ ।। लड़कपन तो अ ानम बीता, उस समय च म चौगुनी चंचलता और (खेलने-
खानेक ) स ता थी। जवानी पी वर चढ़नेपर ी पी कुप य कर लया, जससे सारे
शरीरम काम पी वायु भरकर स पात हो गया ।। २ ।। (जवानी ढलनेपर) बीचक अव था
खेती, ापार और अनेक उपाय से धन कमानेम खोयी; पर तु ीरामसे वमुख होनेके
कारण कभी व म भी सुख नह मला, दन-रात संसारके तीन ताप से जलता ही
रहा ।। ३ ।। न तो कभी ीरामच जीके भ क और शु बु वाले संत क ही
भ भावसे भलीभाँ त सेवा क और न ीरघुनाथजीने जो लीलाएँ क थ , उ ह ही रोमां चत
होकर सुना या स मनसे कहा ।। ४ ।। अब जब क बुढ़ापेने आकर सारे अंग को ाकुल
कर तोड़ दया है, तब म णहीन साँपके समान च ता करता ,ँ सर धुन-धुनकर और हाथ
मल-मलकर पछताता ँ, पर इस समय इस ःसह दावानलको बुझानेके लये कोई भी
हतकारी म नह पड़ता ।। ५ ।। जनके लये (अनेक पाप कमाकर) लोक-परलोक
बगाड़ दया था; वे आज पास खड़े होनेम भी शमाते ह। हे तुलसी! तू अब भी उन
ीरघुनाथजीका मरण कर, जनका एक बार नाम लेनेसे ही गजराज (संसार-सागरसे) तर
गया था ।। ६ ।।
[८४]
तौ तू प छतैहै मन म ज हाथ ।
भयो है सुगम तोको अमर-अगम तन, समु झध कत खोवत अकाथ ।। १ ।।
सुख-साधन ह र बमुख बृथा जैसे म फल घृत हत मथे पाथ ।
यह बचा र, त ज कुपथ-कुसंग त च ल सुपंथ म ल भले साथ ।। २ ।।
दे खु राम-सेवक, सु न क र त, रट ह नाम क र गान गाथ ।
दय आनु धनुबान-पा न भु, लसे मु नपट, क ट कसे भाथ ।। ३ ।।
तुल सदास प रह र पंच सब, नाउ रामपद-कमल माथ ।
ज न डरप ह तोसे अनेक खल, अपनाये जानक नाथ ।। ४ ।।
भावाथ—हे मन! तुझे हाथ मल-मलकर पछताना पड़ेगा। अरे! जो मनु य-शरीर
दे वता को लभ है, वही तुझको सहजम मल गया है, तू त नक वचार तो कर; उसे थ
य खो रहा है? ।। १ ।। ह रसे वमुख होनेपर सुखका साधन वैसे ही थ है जैसे घी
नकालनेके लये पानीके मथनेका प र म। (सुख ह रम है, उसको भूलकर सुखर हत
वषय क सेवासे सुख कभी नह मल सकता) यह वचारकर बुरा माग और बुर क संग त
छोड़ दे तथा स मागपर चलता आ स जन का संग कर ।। २ ।। ीराम-भ के दशन कर,
उनसे ह र-कथा सुन, राम-नामको रट और रामक गुण-गाथा का गान कर और हाथम
धनुष-बाण लये, मु नय के व पहने एवं कमरम तरकस कसे ए भु ीरामजीका दयम
यान कर ।। ३ ।। हे तुलसीदास! संसारके सारे पंच को छोड़कर ीरामजीके चरण-
कमल म म तक नवा। डर मत, तेरे-जैसे अनेक नीच को ीजानक नाथ रामजीने अपना
लया है ।। ४ ।।
राग धना ी
[८५]
मन! माधवको नेकु नहार ह ।
सुनु सठ, सदा रंकके धन य , छन- छन भु ह सँभार ह ।। १ ।।
सोभा-सील- यान-गुन-मं दर, सुंदर परम उदार ह ।
रंजन संत, अ खल अघ-गंजन, भंजन बषय- बकार ह ।। २ ।।
जो बनु जोग-ज य- त-संयम गयो चहै भव-पार ह ।
तौ ज न तुल सदास न स-बासर ह र-पद-कमल बसार ह ।। ३ ।।
भावाथ—हे मन! माधवक ओर त नक तो दे ख! अरे ! सुन, जैसे कंगाल ण-
णम अपना धन सँभालता है, वैसे ही तू अपने वामी ीरामजीका मरण कया
कर ।। १ ।। वे ीराम शोभा, शील, ान और सद्गुण के थान ह। वे सु दर और बड़े दानी
ह। संत को स करनेवाले, सम त पाप के नाश करनेवाले और वषय के वकारको
मटानेवाले ह ।। २ ।। य द तू बना ही योग, य , त और संयमके संसार-सागरसे पार जाना
चाहता है तो हे तुलसीदास! रात- दनम ीह रके चरण-कमल को कभी मत भूल ।। ३ ।।
[८६]
इहै क ो सुत! बेद च ँ ।
ीरघुबीर-चरन- चतन त ज ना हन ठौर क ँ ।। १ ।।
जाके चरन बरं च सेइ स ध पाई संकर ँ ।
सुक-सनका द मुकुत बचरत तेउ भजन करत अज ँ ।। २ ।।
ज प परम चपल ी संतत, थर न रह त कत ँ ।
ह र-पद-पंकज पाइ अचल भइ, करम-बचन-मन ँ ।। ३ ।।
क ना सधु, भगत- चताम न, सोभा सेवत ँ ।
और सकल सुर, असुर-ईस सब खाये उरग छ ँ ।। ४ ।।
सु च क ो सोइ स य तात अ त प ष बचन जब ँ ।
तुल सदास रघुनाथ- बमुख न ह मटइ बप त कब ँ ।। ५ ।।
भावाथ—भ ुवजीक माता सुनी तने पु से कहा था—हे पु ! चार वेद ने यही कहा
है क ीरघुनाथजीके चरण के च तनको छोड़कर जीवको और कह भी ठकाना नह
है ।। १ ।। जनके चरण का च तन करके ा और शवजीने भी स याँ ा त क ह,
( जनक सेवासे) आज शुक-सनका द जीव मु ए वचर रहे और अब भी जनका मरण
कर रहे ह ।। २ ।। य प ल मीजी बड़ी ही चंचला ह, कह भी नर तर थर नह रहत ,
पर तु वे भी भगवान्के चरण-कमल को पाकर मन, वचन, कमसे अचल हो गयी ह अथात्
नर तर मन, वाणी, शरीरसे सेवाम ही लगी रहती ह ।। ३ ।। वे क णाके समु और भ के
लये च ताम ण व प ह, उनक सेवा करनेसे ही सारी शोभा है। और जतने दे वता, दै य के
वामी ह, सो सभी काम, ोध, लोभ, मद, मोह और मा सय—इन छः सप से डसे ए
ह ।। ४ ।। हे पु ! (तेरी वमाता) सु चने जो कुछ कहा है सो सुननेम अ य त कठोर होनेपर
भी स य है। हे तुलसीदास! ीरघुनाथजीसे वमुख रहनेसे वप य का नाश कभी नह
होता ।। ५ ।।
[८७]
सुनु मन मूढ़ सखावन मेरो ।
ह र-पद- बमुख ल ो न का सुख, सठ! यह समुझ सबेरो ।। १ ।।
बछु रे स स-र ब मन-नैन नत, पावत ख ब तेरो ।
मत मत न स- दवस गगन महँ, तहँ रपु रा बड़ेरो ।। २ ।।
ज प अ त पुनीत सुरस रता, त ँ पुर सुजस घनेरो ।
तजे चरन अज ँ न मटत नत, ब हबो ता केरो ।। ३ ।।
छु टै न बप त भजे बनु रघुप त, ु त संदे नबेरो ।
तुल सदास सब आस छाँ ड़ क र, हो रामको चेरो ।। ४ ।।
भावाथ—हे मूख मन! मेरी सीख सुन, ह रके चरण से वमुख होकर कसीने भी सुख
नह पाया। हे ! इस बातको शी ही समझ ले (अभी कुछ नह बगड़ा है, शरण जानेसे
काम बन सकता है) ।। १ ।। दे ख! यह सूय और च मा जबसे भगवान्के ने और मनसे
अलग ए तभीसे बड़ा ःख भोग रहे ह। रात- दन आकाशम च कर लगाते बताने पड़ते ह,
वहाँ भी बलवान् श ु रा पीछा कये रहता है ।। २ ।। य प गंगाजी दे वनद कहाती ह और
बड़ी प व ह, तीन लोक म उनका बड़ा यश भी फैल रहा है, पर तु भगव चरण से अलग
होनेपर तबसे आजतक उनका भी न य बहना कभी बंद नह होता ।। ३ ।। ीरघुनाथजीके
भजन बना वप य का नाश नह होता। इस स ा तका स दे ह वेद ने न कर दया है।
इस लये हे तुलसीदास! सब कारक आशा छोड़कर ीरामका दास बन जा ।। ४ ।।
[८८]
कब ँ मन ब ाम न मा यो ।
न स दन मत बसा र सहज सुख, जहँ तहँ इं न ता यो ।। १ ।।
जद प बषय-सँग स ो सह ख, बषम जाल अ झा यो ।
तद प न तजत मूढ़ ममताबस, जानत ँ न ह जा यो ।। २ ।।
जनम अनेक कये नाना ब ध करम-क च चत सा यो ।
होइ न बमल बबेक-नीर बनु, बेद पुरान बखा यो ।। ३ ।।
नज हत नाथ पता गु ह रस हर ष दै न ह आ यो ।
तुल सदास कब तृषा जाय सर खनत ह जनम सरा यो ।। ४ ।।
भावाथ—अरे मन! तूने कभी व ाम नह लया। अपना सहज सुख व प भूलकर
दन-रात इ य का ख चा आ जहाँ-तहाँ वषय म भटक रहा है ।। १ ।। य प वषय के
संगसे तूने अस संकट सहे ह और तू क ठन जालम फँस गया है तो भी हे मूख! तू ममताके
अधीन होकर उ ह नह छोड़ता। इस कार सब कुछ समझकर भी बेसमझ हो रहा
है ।। २ ।। अनेक ज म म नाना कारके कम करके तू उ ह के क चड़म सन गया है, हे च !
ववेक पी जल ा त कये बना यह क चड़ कभी साफ नह हो सकता। ऐसा वेद-पुराण
कहते ह ।। ३ ।। अपना क याण तो परम भु, परम पता और परम गु प ह रसे है, पर
तूने उनको लसकर दयम कभी धारण नह कया, ( दन-रात वषय के बटोरनेम ही लगा
रहा) हे तुलसीदास! ऐसे तालाबसे कब यास मट सकती है, जसके खोदनेम ही सारा जीवन
बीत गया ।। ४ ।।
[८९]
मेरो मन ह रजू! हठ न तजै ।
न स दन नाथ दे उँ सख ब ब ध, करत सुभाउ नजै ।। १ ।।
य जुवती अनुभव त सव अ त दा न ख उपजै ।
ै अनुकूल बसा र सूल सठ पु न खल प त ह भजै ।। २ ।।
लोलुप म गृहपसु य जहँ तहँ सर पद ान बजै ।
तद प अधम बचरत ते ह मारग कब ँ न मूढ़ लजै ।। ३ ।।
ह हारयौ क र जतन ब बध ब ध अ तसै बल अजै ।
तुल सदास बस होइ तब ह जब ेरक भु बरजै ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीह र! मेरा मन हठ नह छोड़ता। हे नाथ! म दन-रात इसे अनेक
कारसे समझाता ँ, पर यह अपने ही वभावके अनुसार करता है ।। १ ।। जैसे युवती ी
स तान जननेके समय अ य त अस क का अनुभव करती है, (उस समय सोचती है क
अब प तके पास नह जाऊँगी), पर तु वह मूखा सारी वेदनाको भूलकर पुनः उसी ःख
दे नेवाले प तका सेवन करती है ।। २ ।। जैसे लालची कु ा जहाँ जाता है वह उसके सर
जूते पड़ते ह तो भी वह नीच फर उसी रा ते भटकता है, मूखको जरा भी ल जा नह
आती ।। ३ ।। (ऐसी ही दशा मेरे इस मनक है, वषय म क पानेपर भी यह उ ह क ओर
दौड़ा जाता है) म नाना कारके उपाय करते-करते थक गया। पर तु यह मन अ य त
बलवान् और अजेय है। हे तुलसीदास! यह तो तभी वश हो सकता है, जब क ेरणा
करनेवाले भगवान् वयं ही इसे रोक ।। ४ ।।
[९०]
ऐसी मूढ़ता या मनक ।
प रह र राम-भग त-सुरस रता, आस करत ओसकनक ।। १ ।।
धूम-समूह नर ख चातक य , तृ षत जा न म त घनक ।
न ह तहँ सीतलता न बा र, पु न हा न हो त लोचनक ।। २ ।।
य गच-काँच बलो क सेन जड़ छाँह आपने तनक ।
टू टत अ त आतुर अहार बस, छ त बसा र आननक ।। ३ ।।
कहँ ल कह कुचाल कृपा न ध! जानत हौ ग त जनक ।
तुल सदास भु हर सह ख, कर लाज नज पनक ।। ४ ।।
भावाथ—इस मनक ऐसी मूखता है क यह ीराम-भ पी गंगाजीको छोड़कर
ओसक बूँद से तृ त होनेक आशा करता है ।। १ ।। जैसे यासा पपीहा धुएक ँ ा गोट दे खकर
उसे मेघ समझ लेता है, पर तु वहाँ (जानेपर) न तो उसे शीतलता मलती है और न जल
मलता है, धुएस ँ े आँख और फूट जाती ह। (यही दशा इस मनक है) ।। २ ।। जैसे मूख बाज
काँचक फशम अपने ही शरीरक परछा दे खकर उसपर च च मारनेसे वह टू ट जायगी इस
बातको भूखके मारे भूलकर ज द से उसपर टू ट पड़ता है (वैसे ही यह मेरा मन भी वषय पर
टू ट पड़ता है) ।। ३ ।। हे कृपाके भ डार! इस कुचालका म कहाँतक वणन क ँ ? आप तो
दास क दशा जानते ही ह। हे वा मन्! तुलसीदासका दा ण ःख हर ली जये और अपने
(शरणागत-व सलता पी) णक र ा क जये ।। ४ ।।
[९१]
नाचत ही न स- दवस मरयो ।
तब ही ते न भयो ह र थर जबत जव नाम धरयो ।। १ ।।
ब बासना ब बध कंचु क भूषन लोभा द भरयो ।
चर अ अचर गगन जल थलम, कौन न वाँग करयो ।। २ ।।
दे व-दनुज, मु न, नाग, मनुज न ह जाँचत कोउ उबरयो ।
मेरो सह द र , दोष, ख का तौ न हरयो ।। ३ ।।
थके नयन, पद, पा न, सुम त, बल, संग सकल बछु रयो ।
अब रघुनाथ सरन आयो जन, भव-भय बकल डरयो ।। ४ ।।
जे ह गुनत बस हो री झ क र, सो मो ह सब बसरयो ।
तुल सदास नज भवन- ार भु द जै रहन परयो ।। ५ ।।
भावाथ—रात- दन नाचते-नाचते ही मरा! हे हरे! जबसे आपने ‘जीव’ नाम रखा, तबसे
यह कभी थर नह आ ।। १ ।। (इस माया पी नाचम) नाना कारक वासना पी
चो लयाँ तथा लोभ (मोह) आ द अनेक गहने पहनकर, जड़-चेतन और जल- थल-आकाशम
ऐसा कौन-सा वाँग है जो मने नह कया! ।। २ ।। दे वता, दै य, मु न, नाग, मनु य आ द
ऐसा कोई भी नह बचा जसके आगे मने हाथ न फैलाया हो? पर तु इनमसे कसीने मेरे
दा ण दा र य, दोष और ःख को र नह कया ।। ३ ।। मेरे ने , पैर, हाथ, सु दर बु
और बल सभी थक गये ह। सारा संग मुझसे बछु ड़ गया है। अब तो हे रघुनाथजी! यह
संसारके भयसे ाकुल और भीत दास आपक शरण आया है ।। ४ ।। हे नाथ! जन
गुण पर रीझकर आप स होते ह, वह सब तो म भूल चुका ँ। अब हे भो! इस
तुलसीदासको अपने दरवाजेपर पड़ा रहने द जये ।। ५ ।।
[९२]
माधवजू, मोसम मंद न कोऊ ।
ज प मीन-पतंग हीनम त, मो ह न ह पूज ओऊ ।। १ ।।
चर प-आहार-ब य उ ह, पावक लोह न जा यो ।
दे खत बप त बषय न तजत ह , ताते अ धक अया यो ।। २ ।।
महामोह-स रता अपार महँ, संतत फरत ब ो ।
ीह र-चरन-कमल-नौका त ज, फ र फ र फेन ग ो ।। ३ ।।
अ थ पुरातन छु धत वान अ त य भ र मुख पकरै ।
नज तालूगत धर पान क र, मन संतोष धरै ।। ४ ।।
परम क ठन भव- याल- सत ह सत भयो अ त भारी ।
चाहत अभय भेक सरनागत, खगप त-नाथ बसारी ।। ५ ।।
जलचर-बृंद जाल-अंतरगत होत स म ट इक पासा ।
एक ह एक खात लालच-बस, न ह दे खत नज नासा ।। ६ ।।
मेरे अघ सारद अनेक जुग, गनत पार न ह पावै ।
तुलसीदास प तत-पावन भु यह भरोस जय आवै ।। ७ ।।
भावाथ—हे माधव! मेरे समान मूख कोई भी नह है। य प मछली और पतंग
हीनबु ह, पर तु वे भी मेरी बराबरी नह कर सकते ।। १ ।। पतंगने सु दर पके वश हो
द पकको अ न नह समझा और मछलीने आहारके वश हो लोहेको काँटा नह जाना, पर तु
म तो वषय को य वप प दे खकर भी नह छोड़ता ँ (अतएव म उनसे अ धक मूख
ँ) ।। २ ।। महामोह पी अपार नद म नर तर बहता फरता ँ। (इससे पार होनेके लये)
ीह रके चरण-कमल पी नौकाको तजकर बार-बार फेन को (अथात् णभंगुर भोग को)
पकड़ता ँ ।। ३ ।। जैसे ब त भूखा कु ा पुरानी सूखी हड् डीको मुँहम भरकर पकड़ता है
और अपने तालूम रगड़ लगनेसे जो खून नकलता है, उसे चाटकर बड़ा स तु होता है (यह
नह समझता क यह र तो मेरे ही शरीरका है। यही हाल मेरा है) ।। ४ ।। म संसार पी
परम क ठन सपके डँसनेसे अ य त ही भयभीत हो रहा ँ, पर तु (मूखता यह है क उससे
बचनेके लये) ग ड़गामी भगवान्के शरणागत न होकर ( वषय पी) मढकक शरणसे
अभय चाहता ँ ।। ५ ।। जैसे जलम रहनेवाले जीव के समूह समट- समटकर जालम इक े
हो जाते ह और लोभवश एक सरेको खाते ह, अपना भावी नाश नह दे खते (वैसी ही दशा
मेरी है) ।। ६ ।। य द सर वतीजी अनेक युग तक मेरे पाप को गनती रह, तब भी उनका
अ त नह पा सकत । मेरे मनम तो यही भरोसा है क मेरे नाथ प तत-पावन ह (मुझ
प ततको भी अव य अपनावगे) ।। ७ ।।
[९३]
कृपा सो ध कहाँ बसारी राम ।
जे ह क ना सु न वन द न- ख, धावत हौ त ज धाम ।। १ ।।
नागराज नज बल बचा र हय, हा र चरन चत द ह ।
आरत गरा सुनत खगप त त ज, चलत बलंब न क ह ।। २ ।।
द तसुत- ास- सत न स दन हलाद- त या राखी ।
अतु लत बल मृगराज-मनुज-तनु दनुज ह यो ु त साखी ।। ३ ।।
भूप-सद स सब नृप बलो क भु, राखु क ो नर-नारी ।
बसन पू र, अ र-दरप र क र, भू र कृपा दनुजारी ।। ४ ।।
एक एक रपुते ा सत जन, तुम राखे रघुबीर ।
अब मो ह दे त सह ख ब रपु कस न हर भव-पीर ।। ५ ।।
लोभ- ाह, दनुजेस- ोध, कु राज-बंधु खल मार ।
तुल सदास भु यह दा न ख भंज राम उदार ।। ६ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आपने उस कृपाको कहाँ भुला दया, जसके कारण द न के
ःखक क ण- व न कान म पड़ते ही आप अपना धाम छोड़कर दौड़ा करते ह ।। १ ।। जब
गजे ने अपने बलक ओर दे खकर और दयम हार मानकर आपके चरण म च लगाया,
तब आप उसक आ पुकार सुनते ही ग ड़को छोड़कर तुरंत वहाँ प ँच,े त नक-सी भी दे र
नह क ।। २ ।। हर यक शपुसे रात- दन भयभीत रहनेवाले ादक त ा आपने रखी,
महान् बलवान् सह और मनु यका-सा (नृ सह) शरीर धारण कर उस दै यको मार डाला, वेद
इस बातका सा ी है ।। ३ ।। ‘नर’ के अवतार अजुनक प नी ौपद ने जब राजसभाम
(अपनी ल जा जाते दे खकर) सब राजा के सामने पुकारकर कहा क ‘हे नाथ! मेरी र ा
क जये’ तब हे दै यश !ु आपने वहाँ ( ौपद क लाज बचानेको) व के ढे र लगाकर तथा
श ु का सारा घमंड चूणकर बड़ी कृपा क ।। ४ ।। हे रघुनाथजी! आपने इन सब भ को
एक-एक श ुके ारा सताये जानेपर ही बचा लया था। पर यहाँ मुझे तो ब त-से श ु अस
क दे रहे ह। मेरी यह भव-पीड़ा आप य नह र करते? ।। ५ ।। लोभ पी मगर,
ोध पी दै यराज हर यक शपु, कामदे व पी य धनका भाई ःशासन, ये सभी मुझ
तुलसीदासको दा ण ःख दे रहे ह। हे उदार रामच जी! मेरे इस दा ण ःखका नाश
क जये ।। ६ ।।
[९४]
काहे ते ह र मो ह बसारो ।
जानत नज म हमा मेरे अघ, तद प न नाथ सँभारो ।। १ ।।
प तत-पुनीत, द न हत, असरन-सरन कहत ु त चारो ।
ह न ह अधम, सभीत, द न? कध बेदन मृषा पुकारो? ।। २ ।।
खग-ग नका-गज- याध-पाँ त जहँ तहँ ह ँ बैठारो ।
अब के ह लाज कृपा नधान! परसत पनवारो फारो ।। ३ ।।
जो क लकाल बल अ त होतो, तुव नदे सत यारो ।
तौ ह र रोष भरोस दोष गुन ते ह भजते त ज गारो ।। ४ ।।
मसक बरं च, बरं च मसक सम, कर भाउ तु हारो ।
यह सामरथ अछत मो ह याग , नाथ तहाँ कछु चारो ।। ५ ।।
ना हन नरक परत मोकहँ डर, ज प ह अ त हारो ।
यह ब ड़ ास दासतुलसी भु, नाम पाप न जारो ।। ६ ।।
भावाथ—हे हरे! आपने मुझे य भुला दया? हे नाथ! आप अपनी म हमा और मेरे
पाप, इन दोन को ही जानते ह, तो भी मुझे य नह सँभालते ।। १ ।। आप प तत को प व
करनेवाले, द न के हतकारी और अशरणको शरण दे नेवाले ह, चार वेद ऐसा कहते ह। तो
या म नीच, भयभीत या द न नह ? ँ अथवा या वेद क यह घोषणा ही झूठ है? ।। २ ।।
(पहले तो) मुझे आपने प ी (जटायु गृ ), ग णका (जीव ती), हाथी और ाध (वा मी क)
क पं म बैठा लया। यानी पापी वीकार कर लया। अब हे कृपा नधान! आप कसक
शम करके मेरी परसी ई प ल फाड़ रहे ह ।। ३ ।। य द क लकाल आपसे अ धक बलवान्
होता और आपक आ ा न मानता होता, तो हे हरे! हम आपका भरोसा और गुणगान
छोड़कर तथा उसपर ोध करने और दोष लगानेका झंझट याग कर उसीका भजन
करते ।। ४ ।। (पर तु) आप तो मामूली म छरको ा और ाको म छरके समान बना
सकते ह, ऐसा आपका ताप है। यह साम य होते ए भी आप मुझे याग रहे ह, तब हे
नाथ! मेरा फर वश ही या है? ।। ५ ।। य प म सब कारसे हार चुका ँ और मुझे नरकम
गरनेका भी भय नह है, पर तु मुझ तुलसीदासको यही सबसे बड़ा ःख है क भुके नामने
भी मेरे पाप को भ म नह कया ।। ६ ।।
[९५]
तऊ न मेरे अघ-अवगुन ग नह ।
जौ जमराज काज सब प रह र, इहै याल उर अ नह ।। १ ।।
च लह छू ट पुंज पा पनके, असमंजस जय ज नह ।
दे ख खलल अ धकार भूस (मेरी) भू र भलाई भ नह ।। २ ।।
हँ स क रह परती त भगतक भगत- सरोम न म नह ।
य य तुल सदास कोसलप त अपनाये ह पर ब नह ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! य द यमराज सब कामकाज छोड़कर केवल मेरे ही पाप और
दोष के हसाब- कताबका खयाल करने लगगे, तब भी उनको गन नह सकगे ( य क मेरे
पाप क कोई सीमा नह है) ।। १ ।। (और जब वह मेरे हसाबम लग जायँग,े तब उ ह इधर
उलझे ए समझकर) पा पय के दल-के-दल छू टकर भाग जायँग।े इससे उनके मनम बड़ी
च ता होगी। (मेरे कारणसे) अपने अ धकारम बाधा प ँचते दे खकर (भगवान्के दरबारम
अपनेको नद ष सा बत करनेके लये) वह आपके सामने मेरी ब त बड़ाई कर दगे (कहगे
क तुलसीदास आपका भ है, इसने कोई पाप नह कया, आपके भजनके तापसे इसने
सरे पा पय को भी पापके ब धनसे छु ड़ा दया) ।। २ ।। तब आप हँसकर अपने भ
यमराजका व ास कर लगे और मुझे भ म शरोम ण मान लगे। बात यह है क हे
कोसलेश! जैसे-तैसे आपको मुझे अपनाना ही पड़ेगा ।। ३ ।।
[९६]
जौ पै जय ध रहौ अवगुन जनके ।
तौ य कटत सुकृत-नखते मो पै, बपुल बृंद अघ-बनके ।। १ ।।
क हहै कौन कलुष मेरे कृत, करम बचन अ मनके ।
हार ह अ मत सेष सारद ु त, गनत एक-एक छनके ।। २ ।।
जो चत चढ़ै नाम-म हमा नज, गुनगन पावन पनके ।
तो तुल स ह ता रहौ ब य दसन तो र जमगनके ।। ३ ।।
भावाथ—हे नाथ! य द आप इस दासके दोष पर यान दगे, तब तो पु य पी नखसे
पाप पी बड़े-बड़े वन के समूह मुझसे कैसे कटगे? (मेरे जरा-से पु यसे भारी-भारी पाप कैसे
र ह गे?) ।। १ ।। मन, वचन और शरीरसे कये ए मेरे पाप का वणन भी कौन कर सकता
है? एक-एक णके पाप का हसाब जोड़नेम अनेक शेष, सर वती और वेद हार
जायँगे ।। २ ।। (मेरे पु य के भरोसे तो पाप से छू टकर उ ार होना अस भव है) य द आपके
मनम अपने नामक म हमा और प तत को पावन करनेवाले अपने गुण का मरण आ जाय
तो आप इस तुलसीदासको यम त के दाँत तोड़कर संसार-सागरसे अव य वैसे ही तार दगे,
जैसे अजा मल ा णको तार दया था ।। ३ ।।
[९७]
जौ पै ह र जनके औगुन गहते ।
तौ सुरप त कु राज बा लस , कत ह ठ बैर बसहते ।। १ ।।
जौ जप जाग जोग त बर जत, केवल ेम न चहते ।
तौ कत सुर मु नबर बहाय ज, गोप-गेह ब स रहते ।। २ ।।
जौ जहँ-तहँ न रा ख भगतको, भजन- भाउ न कहते ।
तौ क ल क ठन करम-मारग जड़ हम के ह भाँ त नबहते ।। ३ ।।
जौ सुत हत लये नाम अजा मलके अघ अ मत न दहते ।
तौ जमभट साँस त-हर हमसे बृषभ खो ज खो ज नहते ।। ४ ।।
जौ जग ब दत प ततपावन, अ त बाँकुर बरद न बहते ।
तौ ब कलप कु टल तुलसीसे, सपने ँ सुग त न लहते ।। ५ ।।
भावाथ—(आप दास के दोष पर यान नह दे त)े हे रामजी! य द आप दास का दोष
मनम लाते तो इ , य धन और बा लसे हठ करके य श ुता मोल लेते? ।। १ ।। य द
आप जप, य , योग, त आ द छोड़कर केवल ेम ही न चाहते तो दे वता और े
मु नय को यागकर जम गोप के घर कस लये नवास करते? ।। २ ।। य द आप जहाँ-तहाँ
भ का ण रखकर भजनका भाव न बखानते तो, हम-सरीखे मूख का क लयुगके क ठन
कम-मागम कस कार नवाह होता? ।। ३ ।। हे संकटहारी! य द आपने पु के संकेतसे
नारायणका नाम लेनेवाले अजा मलके अन त पाप को भ म न कया होता, तो यम त हम-
सरीखे बैल को खोज-खोजकर हलम ही जोतते ।। ४ ।। और य द आपने जग स
प ततपावन पका बाना नह धारण कया होता तो तुलसी-सरीखे तो अनेक क प तक
व म भी मु के भागी नह होते ।। ५ ।।
[९८]
ऐसी ह र करत दासपर ी त ।
नज भुता बसा र जनके बस, होत सदा यह री त ।। १ ।।
जन बाँधे सुर-असुर, नाग-नर, बल करमक डोरी ।
सोइ अ ब छ जसुम त ह ठ बाँ यो सकत न छोरी ।। २ ।।
जाक मायाबस बरं च सव, नाचत पार न पायो ।
करतल ताल बजाय वाल-जुव त ह सोइ नाच नचायो ।। ३ ।।
ब वंभर, ीप त, भुवनप त, बेद- ब दत यह लीख ।
ब लस कछु न चली भुता ब ै ज माँगी भीख ।। ४ ।।
जाको नाम लये छू टत भव-जनम-मरन ख-भार ।
अंबरीष- हत ला ग कृपा न ध सोइ जनमे दस बार ।। ५ ।।
जोग- बराग, यान-जप-तप-क र, जे ह खोजत मु न यानी ।
बानर-भालु चपल पसु पामर, नाथ तहाँ र त मानी ।। ६ ।।
लोकपाल, जम, काल, पवन, र ब, स स सब आ याकारी ।
तुल सदास भु उ सेनके ार बत कर धारी ।। ७ ।।
भावाथ— ीह र अपने दासपर इतना ेम करते ह क अपनी सारी भुता भूलकर उस
भ के ही अधीन हो जाते ह। उनक यह री त सनातन है ।। १ ।। जस परमा माने दे वता,
दै य, नाग और मनु य को कम क बड़ी मजबूत डोरीम बाँध रखा है, उसी अख ड पर को
यशोदाजीने ेमवश जबरद ती (ऊखलसे) ऐसा बाँध दया क जसे आप खोल भी नह
सके ।। २ ।। जसक मायाके वश होकर ा और शवजीने नाचते-नाचते उसका पार नह
पाया, उसीको गोप-रम णय ने ताल बजा-बजाकर (आँगनम) नचाया ।। ३ ।। वेदका यह
स ा त स है क भगवान् सारे व का भरण-पोषण करनेवाले, ल मीजीके वामी और
तीन लोक के अधी र ह, ऐसे भुक भी भ राजा ब लके आगे कुछ भी भुता नह चल
सक , वरं ेमवश ा ण बनकर उससे भीख माँगनी पड़ी ।। ४ ।। जसके नाम- मरणमा से
संसारके ज म-मरण पी ःख के भारसे जीव छू ट जाते ह, उसी कृपा न धने भ
अ बरीषके लये वयं दस बार अवतार धारण कया ।। ५ ।। जसको संयमी मु नगण योग,
वैरा य, यान, जप और तप करके खोजते रहते ह, उसी नाथने बंदर, रीछ आ द नीच चंचल
पशु से ी त क ।। ६ ।। लोकपाल, यमराज, काल, वायु, सूय और च मा आ द सब
जसके आ ाकारी ह, वही भु ेमवश उ सेनके ारपर हाथम लकड़ी लये दरवानक तरह
खड़ा रहता है ।। ७ ।।
[९९]
बरद गरीब नवाज रामको ।
गावत बेद-पुरान, संभ-ु सुक, गट भाउ नामको ।। १ ।।
ुव, ाद, बभीषन, क पप त, जड़, पतंग, पांडव, सुदामको ।
लोक सुजस परलोक सुग त, इ हम को है राम कामको ।। २ ।।
ग नका, कोल, करात, आ दक ब इ हते अ धक बाम को ।
बा जमेध कब कयो अजा मल, गज गायो कब सामको ।। ३ ।।
छली, मलीन, हीन सब ही अँग, तुलसी सो छ न छामको ।
नाम-नरेस- ताप बल जग, जुग-जुग चालत चामको ।। ४ ।।
भावाथ— ीरामजीका बाना ही गरीब को नहाल कर दे ना है। वेद, पुराण, शवजी,
शुकदे वजी आ द यही गाते ह। उनके ीरामनामका भाव तो य ही है ।। १ ।। ुव,
ाद, वभीषण, सु ीव, जड (अह या), प ी (जटायु, काकभुशु ड), पाँच पा डव और
सुदामा इन सबको भगवान्ने इस लोकम सु दर यश और परलोकम सद्ग त द । इनमसे
रामके कामका भला कौन था? ।। २ ।। ग णका (जीव ती), कोल- करात (गुह- नषाद आ द)
तथा आ दक व वा मी क, इनसे बुरा कौन था? अजा मलने कब अ मेधय कया था,
गजराजने कब सामवेदका गान कया था? ।। ३ ।। तुलसीके समान कपट , म लन, सब
साधन से हीन, बला-पतला और कौन है? पर ीरामके नाम पी राजाके रा यम उसके
बल तापसे युग-युगसे चमड़ेका स का भी चलता आ रहा है अथात् नामके तापसे
अ य त नीच भी परमा माको ा त करते रहे ह, ऐसे ही म भी ा त क ँ गा ।। ४ ।।
[१००]
सु न सीताप त-सील-सुभाउ ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ।। १ ।।
ससुपनत पतु, मातु, बंध,ु गु , सेवक, स चव, सखाउ ।
कहत राम- बधु-बदन रसोह सपने ँ ल यो न काउ ।। २ ।।
खेलत संग अनुज बालक नत, जोगवत अनट अपाउ ।
जी त हा र चुचुका र लारत, दे त दवावत दाउ ।। ३ ।।
सला साप-संताप- बगत भइ परसत पावन पाउ ।
दई सुग त सो न हे र हरष हय, चरन छु एको प छताउ ।। ४ ।।
भव-धनु भं ज नद र भूप त भृगुनाथ खाइ गये ताउ ।
छ म अपराध, छमाइ पाँय प र, इतौ न अनत समाउ ।। ५ ।।
क ो राज, बन दयो ना रबस, ग र गला न गयो राउ ।
ता कुमातुको मन जोगवत य नज तन मरम कुघाउ ।। ६ ।।
क प-सेवा-बस भये कनौड़े, क ौ पवनसुत आउ ।
दे बेको न कछू र नयाँ ह ध नक तूँ प लखाउ ।। ७ ।।
अपनाये सु ीव बभीषन, तन न त यो छल-छाउ ।
भरत सभा सनमा न, सराहत, होत न दय अघाउ ।। ८ ।।
नज क ना करतू त भगतपर चपत चलत चरचाउ ।
सकृत नाम नत जस बरनत, सुनत कहत फ र गाउ ।। ९ ।।
समु झ समु झ गुन ाम रामके, उर अनुराग बढ़ाउ ।
तुल सदास अनयास रामपद पाइहै ेम-पसाउ ।। १० ।।
भावाथ— ीसीतानाथ रामजीका शील- वभाव सुनकर जसके मनम आन द नह
होता, जसका शरीर पुलकायमान नह होता, जसके ने म ेमके आँसू नह भर आते, वह
धूल फाँकता फरे तो भी ठ क है ।। १ ।। बचपनसे ही पता, माता, भाई, गु , नौकर,
म ी, और म यही कहते ह क हममसे कसीने व म भी ीरामच जीके च -मुखपर
कभी ोध नह दे खा ।। २ ।। उनके साथ जो उनके तीन भाई और नगरके सरे बालक
खेलते थे, उनक अनी त और हा नको वे सदा दे खते रहते थे और अपनी जीतम भी (उनको
स करनेके लये) हार मान लेते थे तथा उन लोग को पुचकार-पुचकारकर ेमसे अपना
दाँव दे ते और सर से दलाते थे ।। ३ ।। चरणका पश होते ही प थरक शला अह या
शापके स तापसे छू ट गयी, उसे सद्ग त दे द ; पर इस बातका तो उनके मनम कुछ भी हष
नह आ, उलटे इस बातका प ा ाप अव य आ क ऋ षप नीके मेरे चरण य लग
गये? ।। ४ ।। शवजीका धनुष तोड़कर राजा का मान हर लया, इससे जब परशुरामजीने
आकर ोध कया, तब उनका अपराध मा करके उलटे ील मणजीसे माफ मँगवायी
और वयं उनके चरण पर गर पड़े, इतनी स ह णुता और कह नह है! ।। ५ ।। राजा
दशरथने रा य दे नेको कहकर, कैकेयीके वशम होनेके कारण, वनवास दे दया और इसी
ला नके मारे वे मर भी गये। ऐसी बुरी माता कैकेयीका मन भी आप ऐसे सँभाले रहे, जैसे
कोई अपने शरीरके मम थानके घावको दे खता रहता है, अथात् आप सदा उसके मनके
अनुसार ही चलते रहे ।। ६ ।। जब आप हनुमान्जीक सेवाके वश होकर उनके उपकृत हो
गये, तब उनसे कहा क ‘हे पवनसुत! यहाँ आ, तुझे दे नेको तो मेरे पास कुछ भी नह है। म
तेरा ऋणी ँ, तू मेरा महाजन है, तू चाहे तो मुझसे लखा-पढ़ करवा ले’ ।। ७ ।। सु ीव और
वभीषणने अपना कपट-भाव नह छोड़ा, पर तु आपने तो उ ह अपना ही लया। भरतजीका
तो सदा भरी सभाम आप स मान करते रहते ह, उनक शंसा करते-करते तो आपके दयम
तृ त ही नह होती ।। ८ ।। भ पर आपने जो-जो दया और उपकार कये ह, उनक तो
चचा चलते ही आप ल जासे मानो गड़ जाते ह (अपनी शंसा आपको सुहाती ही नह ); पर
जो एक बार भी आपको णाम करता है और शरणम आ जाता है, आप सदा उसका यश
वणन करते ह, सुनते ह और कह-कहकर सर से गान करवाते ह ।। ९ ।। ऐसे कोमल दय
ीरामजीके गुण-समूह को समझ-समझकर मेरे दयम ेमक बाढ़ आ गयी है, हे
तुलसीदास! इस ेमान दके कारण तू अनायास ही ीरामके चरणकमल को ा त
करेगा ।। १० ।।
[१०१]
जाउँ कहाँ त ज चरन तु हारे ।
काको नाम प तत-पावन जग, के ह अ त द न पयारे ।। १ ।।
कौने दे व बराइ बरद- हत, ह ठ ह ठ अधम उधारे ।
खग, मृग, याध, पषान, बटप जड़, जवन कवन सुर तारे ।। २ ।।
दे व, दनुज, मु न, नाग, मनुज सब, माया- बबस बचारे ।
तनके हाथ दासतुलसी भु, कहा अपनपौ हारे ।। ३ ।।
भावाथ—हे नाथ! आपके चरण को छोड़कर और कहाँ जाऊँ? संसारम ‘प तत-पावन’
नाम और कसका है? (आपक भाँ त) द न- ः खयारे कसे ब त यारे ह? ।। १ ।।
आजतक कस दे वताने अपने बानेको रखनेके लये हठपूवक चुन-चुनकर नीच का उ ार
कया है? कस दे वताने प ी (जटायु), पशु (ऋ -वानर आ द), ाध (वा मी क), प थर
(अह या), जड वृ (यमलाजुन) और यवन का उ ार कया है? ।। २ ।। दे वता, दै य, मु न,
नाग, मनु य आ द सभी बेचारे मायाके वश ह। ( वयं बँधा आ सर के ब धनको कैसे खोल
सकता है इस लये) हे भो! यह तुलसीदास अपनेको उन लोग के हाथ म स पकर या
करे? ।। ३ ।।
[१०२]
ह र! तुम ब त अनु ह क ह ।
साधन-धाम बबुध रलभ तनु, मो ह कृपा क र द ह ।। १ ।।
को ट ँ मुख क ह जात न भुके, एक एक उपकार ।
तद प नाथ कछु और माँ गह , द जै परम उदार ।। २ ।।
बषय-बा र मन-मीन भ न ह होत कब ँ पल एक ।
ताते सह बप त अ त दा न, जनमत जो न अनेक ।। ३ ।।
कृपा-डो र बनसी पद अंकुस, परम ेम-मृ -चारो ।
ए ह ब ध बे ध हर मेरो ख, कौतुक राम तहारो ।। ४ ।।
ह ु त- ब दत उपाय सकल सुर, के ह के ह द न नहोरै ।
तुल सदास ये ह जीव मोह-रजु, जे ह बाँ यो सोइ छोरै ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! आपने बड़ी दया क , जो मुझे दे वता के लये भी लभ, साधन के
थान मनु य-शरीरको कृपापूवक दे दया ।। १ ।। य प आपका एक-एक उपकार करोड़
मुख से नह कहा जा सकता, तथा प हे नाथ! म कुछ और माँगता ँ, आप बड़े उदार ह, मुझे
कृपा करके द जये ।। २ ।। मेरा मन पी म छ वषय पी जलसे एक पलके लये भी अलग
नह होता, इससे म अ य त दा ण ःख सह रहा ँ—बार-बार अनेक यो नय म मुझे ज म
लेना पड़ता है ।। ३ ।। (इस मन पी म छको पकड़नेके लये) हे रामजी! आप अपनी
कृपाक डोरी बनाइये और अपने चरणके च अंकुशको वंशीका काँटा बनाइये, उसम परम
ेम पी कोमल चारा चपका द जये। इस कार मेरे मन पी म छको बेधकर अथात्
वषय पी जलसे बाहर नकालकर मेरा ःख र कर द जये। आपके लये तो यह एक खेल
ही होगा ।। ४ ।। य तो वेदम अनेक उपाय भरे पड़े ह, दे वता भी ब त-से ह, पर यह द न
कस- कसका नहोरा करता फरे? हे तुलसीदास! जसने इस जीवको मोहक डोरीम बाँधा
है वही इसे छु ड़ावेगा ।। ५ ।।
[१०३]
यह बनती रघुबीर गुसा ।
और आस- ब वास-भरोसो, हरो जीव-जड़ताई ।। १ ।।
चह न सुग त, सुम त, संप त कछु , र ध- स ध बपुल बड़ाई ।
हेत-ु र हत अनुराग राम-पद बढ़ै अनु दन अ धकाई ।। २ ।।
कु टल करम लै जा ह मो ह जहँ जहँ अपनी ब रआई ।
तहँ तहँ ज न छन छोह छाँ ड़यो, कमठ-अंडक ना ।। ३ ।।
या जगम जहँ ल ग या तनुक ी त ती त सगाई ।
ते सब तुल सदास भु ही स हो ह स म ट इक ठा ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरघुनाथजी! हे नाथ! मेरी यही वनती है क इस जीवको सरे साधन,
दे वता या कम पर जो आशा, व ास और भरोसा है, उस मूखताको आप हर
ली जये ।। १ ।। हे राम! म शुभग त, सद्बु , धन-स प , ऋ - स और बड़ी भारी
बड़ाई आ द कुछ भी नह चाहता। बस, मेरा तो आपके चरण-कमल म दन दन अ धक-से-
अ धक अन य और वशु ेम बढ़ता रहे, यही चाहता ँ ।। २ ।। मुझे अपने बुरे कम
जबरद ती जस- जस यो नम ले जायँ, उस-उस यो नम ही हे नाथ! जैसे कछु आ अपने
अंड को नह छोड़ता, वैसे ही आप पलभरके लये भी अपनी कृपा न छोड़ना ।। ३ ।। हे
नाथ! इस संसारम जहाँतक इस शरीरका ( ी-पु -प रवारा दसे) ेम, व ास और स ब ध
है, सो सब एक ही थानपर समटकर केवल आपसे ही हो जाय ।। ४ ।।
[१०४]
जानक -जीवनक ब ल जैह ।
चत कहै रामसीय-पद प रह र अब न क ँ च ल जैह ।। १ ।।
उपजी उर ती त सपने ँ सुख, भु-पद- बमुख न पैह ।
मन समेत या तनके बा स ह, इहै सखावन दै ह ।। २ ।।
वन न और कथा न ह सु नह , रसना और न गैह ।
रो कह नयन बलोकत और ह, सीस ईस ही नैह ।। ३ ।।
नातो-नेह नाथस क र सब नातो-नेह बहैह ।
यह छर भार ता ह तुलसी जग जाको दास कहैह ।। ४ ।।
भावाथ—म तो ीजानक -जीवन रघुनाथजीपर अपनेको योछावर कर ँ गा। मेरा मन
यही कहता है क अब म ीसीता-रामजीके चरण को छोड़कर सरी जगह कह भी नह
जाऊँगा ।। १ ।। मेरे दयम ऐसा व ास उ प हो गया है क अपने वामी ीरामजीके
चरण से वमुख होकर म व म भी कह सुख नह पा सकूँगा। इससे म मनको तथा इस
शरीरम रहनेवाले (इ या द) सभीको यही उपदे श ँ गा ।। २ ।। कान से सरी बात नह
सुनूँगा, जीभसे सरेक चचा नह क ँ गा, ने को सरी ओर ताकनेसे रोक लूँगा और यह
म तक केवल भगवान्को ही झुकाऊँगा ।। ३ ।। अब भुके साथ नाता और ेम करके सरे
सबसे नाता और ेम तोड़ ँ गा। इस संसारम म तुलसीदास जसका दास कहाऊँगा फर
अपने सारे कम का बोझा भी उसी वामीपर रहेगा ।। ४ ।।
[१०५]
अबल नसानी, अब न नसैह ।
राम-कृपा भव- नसा सरानी, जागे फ र न डसैह ।। १ ।।
पायेउँ नाम चा चताम न, उर कर त न खसैह ।
याम प सु च चर कसौट , चत कंचन ह कसैह ।। २ ।।
परबस जा न हँ यो इन इं न, नज बस ै न हँसैह ।
मन मधुकर पनकै तुलसी रघुप त-पद-कमल बसैह ।। ३ ।।
भावाथ—अबतक तो (यह आयु थ ही) न हो गयी, पर तु अब इसे न नह होने
ँ गा। ीरामक कृपासे संसार पी रा बीत गयी है, (म संसारक माया-रा से जग गया ँ)
अब जागनेपर फर (मायाका) बछौना नह बछाऊँगा (अब फर मायाके फंदे म नह
फँसूँगा ।। १ ।। मुझे रामनाम पी सु दर च ताम ण मल गयी है। उसे दय पी हाथसे
कभी नह गरने ँ गा। अथवा दयसे रामनामका मरण करता र ँगा और हाथसे रामनामक
माला जपा क ँ गा। ीरघुनाथजीका जो प व यामसु दर प है उसक कसौट बनाकर
अपने च पी सोनेको कसूँगा। अथात् यह दे खूँगा क ीरामके यानम मेरा मन सदा-
सवदा लगता है क नह ।। २ ।। जबतक म इ य के वशम था, तबतक उ ह ने (मुझे
मनमाना नाच नचाकर) मेरी बड़ी हँसी उड़ाई, पर तु अब वत होनेपर यानी मन-इ य को
जीत लेनेपर उनसे अपनी हँसी नह कराऊँगा। अब तो अपने मन पी मरको ण करके
ीरामजीके चरण-कमल म लगा ँ गा। अथात् ीरामजीके चरण को छोड़कर सरी जगह
मनको जाने ही नह ँ गा ।। ३ ।।
राग रामकली
[१०६]
महाराज रामादरयो ध य सोई ।
ग अ, गुनरा स, सरब य, सुकृती, सूर, सील- न ध, साधु ते ह सम न
कोई ।। १ ।।
उपल, केवट, क स, भालु, न सचर, सब र, गीध सम-दम-दया-दान-हीने ।
नाम लये राम कये परम पावन सकल, नर तरत तनके गुनगान क ने ।। २ ।।
याध अपराधक साध राखी कहा, पगलै कौन म त भग त भेई ।
कौन ध सोमजाजी अजा मल अधम, कौन गजराज ध बाजपेयी ।। ३ ।।
पांडु-सुत, गो पका, ब र, कुबरी, सब र, सु कये सु ता लेस कैसो ।
े ल ख कृ न कये आपने तन को, सुजस संसार ह रहरको जैसो ।। ४ ।।

कोल, खस, भील, जवना द खल राम क ह, नीच ै ऊँच पद को न पायो ।
द न- ख-दवन ीरवन क ना-भवन, प तत-पावन वरद बेद गायो ।। ५ ।।
मंदम त, कु टल, खल- तलक तुलसी स रस, भो न त ँ लोक त ँ काल कोऊ ।
नामक का न प हचा न पन आपनो, सत क ल- याल रा यो सरन
सोऊ ।। ६ ।।
भावाथ—महाराज ीरामच जीने जसका आदर कया वही ध य है। वही भारी यानी
म हमा वत, गुण का भ डार, सव , पु यवान्, वीर, सुशील और साधु है, उसके समान कोई
भी नह है ।। १ ।। पाषाणक अह या, नषाद, बंदर, रीछ, रा स, शबरी, जटायु—ये सब
शम, दम, दया और दान आ द गुण से बलकुल हीन थे; पर तु ीराम-नाम मरण करनेसे
ीरामजीने इन सबको ऐसा परम प व बना दया क (आज) उनके गुण का गान करनेसे
मनु य संसार-सागरसे पार हो जाते ह ।। २ ।। वा मी क ाधने कौन-से पापक इ छा बाक
रखी थी? पगला वे याने अपनी बु भ म कब लगायी थी? अजा मल पापीने कौन-सा
सोमय कया था? और गजराज कहाँका अ मेध करनेवाला था? ।। ३ ।। पा डव ,
गो पय , व र और कु जाम प व ताका लेश भी कहाँ था; पर तु आपने इन सबको प व
कर लया, ेम दे खकर ीकृ ण प आपने इनको अपना लया, जससे इनका सु दर यश
(आज) संसारम व णु और शवके यशके समान छा रहा है ।। ४ ।। कोल, खस, भील और
यवना द म ऐसा कौन है जसने रामनाम उ चारण करनेपर नीच होकर भी ऊँचे-से-ऊँचा
पद न पाया हो? द न के ःखका नाश करनेवाले, ल मीजीके प त, क णाके म दर,
प तत को पावन करनेवाले ीरामजीका यश वेद ने गाया है ।। ५ ।। (और क बात जाने
द जये) तीन लोक और तीन काल म तुलसी-सरीखा म दबु , कु टल और - शरोम ण
कोई नह आ; पर तु अपने नामक मयादा रखनेके लये अपने (प ततपावन) णको मरण
करके इस क लकाल पी सपसे डसे एको भी ीरामने अपनी शरणम ले लया ।। ६ ।।

राग
[१०७]
है नीको मेरो दे वता कोसलप त राम ।
सुभग सरो ह लोचन, सु ठ सुंदर याम ।। १ ।।
सय-समेत सोहत सदा छ ब अ मत अनंग ।
भुज बसाल सर धनु धरे, क ट चा नषंग ।। २ ।।
ब लपूजा चाहत नह , चाहत एक ी त ।
सु मरत ही मानै भलो, पावन सब री त ।। ३ ।।
दे ह सकल सुख, ख दहै, आरत-जन-बंधु ।
गुन ग ह, अघ-औगुन हरै, अस क ना सधु ।। ४ ।।
दे स-काल-पूरन सदा बद बेद पुरान ।
सबको भु, सबम बसै, सबक ग त जान ।। ५ ।।
को क र को टक कामना, पूजै ब दे व ।
तुल सदास ते ह सेइये, संकर जे ह सेव ।। ६ ।।
भावाथ—कोसलप त ीरामच जी मेरे सव े दे वता ह, उनके कमलके समान सु दर
ने ह और उनका शरीर परम सु दर यामवण है ।। १ ।। ीसीताजीके साथ सदा
शोभायमान रहते ह, असं य कामदे व के समान उनका सौ दय है। वशाल भुजा म धनुष-
बाण और कमरम सु दर तरकस धारण कये ए ह ।। २ ।। वे ब ल या पूजा कुछ भी नह
चाहते, केवल एक ‘ ेम’ चाहते ह। मरण करते ही स हो जाते ह और सब तरहसे प व
कर दे ते ह ।। ३ ।। सब सुख दे दे ते ह और ःख को भ म कर डालते ह। वे ःखी जन के
ब धु ह, गुण को हण करते और अवगुण को हर लेते ह, ऐसे क णा-सागर ह ।। ४ ।। सब
दे श और सब समय सदा पूण रहते ह, ऐसा वेद-पुराण कहते ह। वे सबके वामी ह, सबम
रमते ह और सबके मनक बात जानते ह ।। ५ ।। (ऐसे वामीको छोड़कर) करोड़ कारक
कामना करके सरे अनेक दे वता को कौन पूज? े हे तुलसीदास, (अपने तो) उसीक सेवा
करनी चा हये, जसक सेवा दे वदे व महादे वजी करते ह ।। ६ ।।
[१०८]
बीर महा अवरा धये, साधे स ध होय ।
सकल काम पूरन करै, जानै सब कोय ।। १ ।।
बे ग, बलंब न क जये लीजै उपदे स ।
बीज महा मं ज पये सोई, जो जपत महेस ।। २ ।।
ेम-बा र-तरपन भलो, घृत सहज सने ।
संसय-स मध, अ ग न छमा, ममता-ब ल दे ।। ३ ।।
अघ-उचा ट, मन बस करै, मारै मद मार ।
आकरषै सुख-संपदा-संतोष- बचार ।। ४ ।।
ज ह य ह भाँ त भजन कयो, मले रघुप त ता ह ।
तुल सदास भुपथ च ौ, जौ ले नबा ह ।। ५ ।।
भावाथ—महान् वीर ीरघुनाथजीक आराधना करनी चा हये, ज ह साधनेसे सब कुछ
स हो जाता है। वे सब इ छाएँ पूण कर दे ते ह, इस बातको सब जानते ह ।। १ ।। इस
कामको ज द ही करना चा हये, दे र करना उ चत नह है। (सद्गु से) उपदे श लेकर उसी
बीजम (राम) का जप करना चा हये, जसे ी शवजी जपा करते ह ।। २ ।। (म जपके
बाद हवना दक व ध इस कार है) ेम पी जलसे तपण करना चा हये, सहज वाभा वक
नेहका घी बनाना चा हये और स दे ह पी स मधका मा पी अ नम हवन करना चा हये
तथा ममताका ब लदान करना चा हये ।। ३ ।। पाप का उ चाटन, मनका वशीकरण, अहंकार
और कामका मारण तथा स तोष और ान पी सुख-स प का आकषण करना
चा हये ।। ४ ।। जसने इस कारसे भजन कया, उसे ीरघुनाथजी मले ह। तुलसीदास भी
इसी मागपर चढ़ा है, जसे भु नबाह लगे ।। ५ ।।
[१०९]
कस न कर क ना हरे! खहरन मुरा र!
बधताप-संदेह-सोक-संसय-भय-हा र ।। १ ।।
इक क लकाल-ज नत मल, म तमंद, म लन-मन ।
ते हपर भु न ह कर सँभार, के ह भाँ त जयै जन ।। २ ।।
सब कार समरथ भो, म सब ब ध द न ।
यह जय जा न वौ नह , म करम बहीन ।। ३ ।।
मत अनेक जो न, रघुप त, प त आन न मोरे ।
ख-सुख सह , रह सदा सरनागत तोरे ।। ४ ।।
तो सम दे व न कोउ कृपालु, समुझ मनमाह ।
तुल सदास ह र तो षये, सो साधन नाह ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! हे मुरारे! आप ःख के हरण करनेवाले ह, फर मुझपर दया य नह
करते? आप दै हक, दै वक, भौ तक तीन कारके ताप के और स दे ह, शोक, अ ान तथा
भयके नाश करनेवाले ह। (मेरे भी ःख, ताप और अ ान आ दका नाश क जये) ।। १ ।।
एक तो क लकालसे उ प होनेवाले पाप से मेरी बु म द पड़ गयी है और मन म लन हो
गया है, तसपर फर हे वामी! आप भी मेरी सँभाल नह करते? तब इस दासका जीवन
कैसे नभेगा? ।। २ ।। हे भो! आप तो सब कारसे समथ ह और म सब कारसे द न ।ँ
यह जानकर भी आप मुझपर कृपा नह करते, इससे मालूम होता है क म भा यहीन ही
ँ ।। ३ ।। हे रघुनाथजी! म अनेक यो नय म भटक आया ँ; पर तु आपके सवा मेरे सरा
कोई वामी नह है। ःख-सुख सहता आ भी म सदा आपक ही शरण ँ ।। ४ ।। म अपने
मनम तो इस बातको खूब समझता ँ क आपके समान सरा कोई भी दयालु दे व नह है,
पर तु हे हरे! आपको स करनेवाले साधन इस तुलसीदासके पास नह ह। ( बना ही
साधन केवल शरणाग तसे ही आपको स होना पड़ेगा) ।। ५ ।।
[११०]
क के ह क हय कृपा नधे! भव-ज नत बप त अ त ।
इं य सकल बकल सदा, नज नज सुभाउ र त ।। १ ।।
जे सुख-संप त, सरग-नरक संतत सँग लागी ।
ह र! प रह र सोइ जतन करत मन मोर अभागी ।। २ ।।
म अ त द न, दयालु दे व सु न मन अनुरागे ।
जो न व रघुबीर धीर, ख काहे न लागे ।। ३ ।।
ज प म अपराध-भवन, ख-समन मुरारे ।
तुल सदास कहँ आस यहै ब प तत उधारे ।। ४ ।।
भावाथ—हे कृपा नधान! इस संसार-ज नत भारी वप का खड़ा आपको छोड़कर
और कसके सामने रोऊँ? इ याँ तो सब अपने-अपने वषय म आस होकर उनके लये
ाकुल हो रही ह ।। १ ।। ये तो सदा सुख-स प और वग-नरकक उलझनम फँसी रहती
ही ह; पर हे हरे! मेरा यह अभागा मन भी आपको छोड़कर इन इ य का ही साथ दे रहा
है ।। २ ।। हे दे व! म अ य त द न- ःखी ँ—आपका दयालु नाम सुनकर मने आपम मन
लगाया है; इतनेपर भी हे रघुवीर! हे धीर! य द आप मुझपर दया नह करते तो मुझे कैसे
ःख नह होगा? ।। ३ ।। अव य ही म अपराध का घर ँ; पर तु हे मुरारे! आप तो
(अपराधका वचार न करके) ःख का नाश ही करनेवाले ह। मुझ तुलसीदासको आपसे सदा
यही आशा है, य क आप अबतक अनेक प तत (अपरा धय )-का उ ार कर चुके ह
(इस लये अब मेरा भी अव य करगे) ।। ४ ।।
[१११]
केसव! क ह न जाइ का क हये ।
दे खत तव रचना ब च ह र! समु झ मन ह मन र हये ।। १ ।।
सू य भी त पर च , रंग न ह, तनु बनु लखा चतेरे ।
धोये मटइ न मरइ भी त, ख पाइय ए ह तनु हेरे ।। २ ।।
र बकर-नीर बसै अ त दा न मकर प ते ह माह ।
बदन-हीन सो सै चराचर, पान करन जे जाह ।। ३ ।।
कोउ कह स य, झूठ कह कोऊ, जुगल बल कोउ मानै ।
तुल सदास प रहरै तीन म, सो आपन प हचानै ।। ४ ।।
भावाथ—हे केशव! या क ँ? कुछ कहा नह जाता! हे हरे! आपक यह व च रचना
दे खकर मन-ही-मन (आपक लीला) समझकर रह जाता ँ ।। १ ।। कैसी अ त लीला है क
इस (संसार पी) च को नराकार (अ ) च कार (सृ कता परमा मा) ने शू य
(मायाक ) द वारपर बना ही रंगके (संक पसे ही) बना दया। (साधारण थूल- च तो
धोनेसे मट जाते ह, पर तु) यह (महामायावी-र चत माया- च ) कसी कार धोनेसे नह
मटता। (साधारण च जड है, उसे मृ युका डर नह लगता पर तु) इसको मरणका भय बना
आ है। (साधारण च दे खनेसे सुख मलता है पर तु) इस संसार पी भयानक च क
ओर दे खनेसे ःख होता है ।। २ ।। सूयक करण म ( मसे) जो जल दखायी दे ता है उस
जलम एक भयानक मगर रहता है; उस मगरके मुँह नह है, तो भी वहाँ जो भी जल पीने
जाता है, चाहे वह जड हो या चेतन, यह मगर उसे स लेता है। भाव यह क यह संसार
सूयक करण म जलके समान मज नत है। जैसे सूयक करण म जल समझकर उनके
पीछे दौड़नेवाला मृग जल न पाकर यासा ही मर जाता है, उसी कार इस मा मक
संसारम सुख समझकर उसके पीछे दौड़नेवाल को भी बना मुखका मगर यानी नराकार
काल खा जाता है ।। ३ ।। इस संसारको कोई स य कहता है, कोई म या बतलाता है और
कोई स य- म यासे मला आ मानता है; तुलसीदासके मतसे तो (ये तीन ही म ह) जो इन
तीन म से नवृ हो जाता है (अथात् सब कुछ परमा माक लीला ही समझता है), वही
अपने असली व पको पहचान सकता है ।। ४ ।।
[११२]
केसव! कारन कौन गुसा ।
जे ह अपराध असाध जा न मो ह तजेउ अ यक ना ।। १ ।।
परम पुनीत संत कोमल- चत, तन ह तुम ह ब न आई ।
तौ कत ब , याध, ग नक ह तारे , कछु रही सगाई? ।। २ ।।
काल, करम, ग त अग त जीवक , सब ह र! हाथ तु हारे ।
सोइ कछु कर , हर ममता भु! फरउँ न तुम ह बसारे ।। ३ ।।
जौ तुम तज , भज न आन भु, यह मान पन मोरे ।
मन-बच-करम नरक-सुरपुर जहँ तहँ रघुबीर नहोरे ।। ४ ।।
ज प नाथ उ चत न होत अस, भु स कर ढठाई ।
तुल सदास सीदत न स दन दे खत तु हा र नठु राई ।। ५ ।।
भावाथ—हे केशव! हे वामी! ऐसा या कारण (अपराध) है जस अपराधसे आपने
मुझे समझकर एक अनजानक तरह छोड़ दया? ।। १ ।। (य द आप मुझे तो
समझते ह, और) जनके आचरण बड़े ही प व ह, जो कोमल दय संत ह, उ ह को अपनाते
ह, तो फर अजा मल, वा मी क और ग णकाका उ ार य कया था? या उनसे आपक
कोई खास र तेदारी थी? ।। २ ।। हे हरे! इस जीवका काल, कम, सुग त, ग त सब कुछ
आपहीके हाथ है; अतः हे भो! मेरी ममताका नाश कर कुछ ऐसा उपाय क जये, जससे म
आपको भूलकर इधर-उधर भटकता न फ ँ ।। ३ ।। य द आप मुझे छोड़ भी दगे, तो भी म
तो आपहीको भजूँगा, सरे कसीको अपना भु कभी नह मानूँगा, यह मेरा अटल ण है;
आप नरक या वगम जहाँ कह भी भेजगे, वह हे रघुनाथजी! मन, वचन और कमसे म
आपहीक वनय करता र ँगा ।। ४ ।। हे नाथ! य प यह उ चत नह है क म भुके साथ
ऐसी ढठाई क ँ , पर तु रात- दन आपक न ु रता दे खकर यह तुलसीदास बड़ा ःखी हो
रहा है, (इसीसे बा य होकर) ऐसा कहना पड़ा ।। ५ ।।
[११३]
माधव! अब न व के ह लेखे ।
नतपाल पन तोर, मोर पन जअ ँ कमलपद दे खे ।। १ ।।
जब ल ग म न द न, दयालु त, म न दास, त वामी ।
तब ल ग जो ख सहेउँ कहेउँ न ह, ज प अंतरजामी ।। २ ।।
त उदार, म कृपन, प तत म, त पुनीत, ु त गावै ।
ब त नात रघुनाथ! तो ह मो ह, अब न तजे ब न आवै ।। ३ ।।
जनक-जन न, गु -बंधु, सु द-प त, सब कार हतकारी ।
ै त प तम-कूप पर न ह, अस कछु जतन बचारी ।। ४ ।।
सुनु अद क ना बा रजलोचन मोचन भय भारी ।
तुल सदास भु! तव कास बनु, संसय टरै न टारी ।। ५ ।।
भावाथ—हे माधव! अब तुम कस कारण कृपा नह करते? तु हारा ण तो
शरणागतका पालन करना है और मेरा ण तु हारे चरणार व द को दे ख-दे खकर ही जीना है।
भाव यह क जब म तु हारे चरण दे खे बना जीवन धारण ही नह कर सकता तब तुम
णतपाल होकर भी मुझपर कृपा य नह करते ।। १ ।। जबतक म द न और तुम दयालु, म
सेवक और तुम वामी नह बने थे, तबतक तो मने जो ःख सहे सो मने तुमसे नह कहे,
य प तुम अ तयामी पसे सब जानते थे ।। २ ।। क तु अब तो मेरा-तु हारा स ब ध हो
गया है। तुम दानी हो और म कंगाल ,ँ तुम प ततपावन हो और म प तत ,ँ वेद इस बातको
गा रहे ह। हे रघुनाथजी! इस कार मेर-े तु हारे अनेक स ब ध ह; फर भला, तुम मुझे कैसे
याग सकते हो? ।। ३ ।। मेरे पता, माता, गु , भाई, म , वामी और हर तरहसे हतू तु ह
हो। अतएव कुछ ऐसा उपाय सोचो, जससे म ै त पी अँधेरे कुएँम न ग ँ , अथात् सव
केवल एक तु ह ही दे खकर परमान दम म न र ँ ।। ४ ।। हे कमलनयन! सुनो, तु हारी अपार
क णा भवसागरके भारी भयसे (आवागमनसे) छु ड़ा दे नेवाली है। हे नाथ! तुलसीदासका
अ ान ( पी अ धकार) बना तु हारे ान प काशके, बना तु हारे दशनके, कसी कार
भी नह टल सकता (अतएव इसको तुम ही र करो) ।। ५ ।।
[११४]
माधव! मो समान जग माह ।
सब ब ध हीन, मलीन, द न अ त, लीन- बषय कोउ नाह ।। १ ।।
तुम सम हेतुर हत कृपालु आरत- हत ईस न यागी ।
म ख-सोक- बकल कृपालु! के ह कारन दया न लागी ।। २ ।।
ना हन कछु औगुन तु हार, अपराध मोर म माना ।
यान-भवन तनु दये नाथ, सोउ पाय न म भु जाना ।। ३ ।।
बेनु करील, ीखंड बसंत ह षन मृषा लगावै ।
सार-र हत हत-भा य सुर भ, प लव सो क क म पावै ।। ४ ।।
सब कार म क ठन, मृ ल ह र, ढ़ बचार जय मोरे ।
तुल सदास भु मोह-सृंखला, छु ट ह तु हारे छोरे ।। ५ ।।
भावाथ—हे माधव! संसारम मेरे समान, सब कारसे साधनहीन, पापी, अ त द न और
वषय-भोग म डू बा आ सरा कोई नह है ।। १ ।। और तु हारे समान, बना ही कारण कृपा
करनेवाला, द न- ः खय के हताथ सब कुछ याग करनेवाला वामी कोई सरा नह है।
भाव यह है क द न के ःख र करनेके लये ही तुम वैकु ठ या स चदान दघन प
छोड़कर धराधामम मानव पम अवतीण होते हो, इससे अ धक याग और या होगा?
इतनेपर भी म ःख और शोकसे ाकुल हो रहा ।ँ हे कृपालो! कस कारण तुमको मुझपर
दया नह आती? ।। २ ।। म यह मानता ँ क इसम तु हारा कुछ भी दोष नह है, सब मेरा ही
अपराध है। य क तुमने मुझे जो ानका भ डार यह मनु य-शरीर दया, उसे पाकर भी मने
तुम-सरीखे भुको आजतक नह पहचाना ।। ३ ।। बाँस च दनको और करील वस तको
वृथा ही दोष दे ते ह। असलम दोन हतभा य ह। बाँसम सार ही नह है, तब बेचारा च दन
उसम सुग ध कहाँसे भर दे ? इसी कार करीलम प े नह होते फर वस त उसे कैसे हरा-
भरा कर दे गा? (वैसे ही म ववेकहीन और भ शू य कैसे तुमपर दोष लगा सकता
?
ँ ) ।। ४ ।। हे हरे! म सब कार कठोर ,ँ पर तुम तो कोमल वभाववाले हो; मने अपने
मनम यह न य पसे वचार कर लया है क हे भो! इस तुलसीदासक मोह पी बेड़ी
तु हारे ही छु ड़ानेसे छू ट सकेगी, अ यथा नह ।। ५ ।।
[११५]
माधव! मोह-फाँस य टू टै ।
बा हर को ट उपाय क रय, अ यंतर थ न छू टै ।। १ ।।
घृतपूरन कराह अंतरगत स स- त बब दखावै ।
धन अनल लगाय कलपसत, औटत नास न पावै ।। २ ।।
त -कोटर महँ बस बहंग त काटे मरै न जैसे ।
साधन क रय बचार-हीन मन सु होइ न ह तैसे ।। ३ ।।
अंतर म लन बषय मन अ त, तन पावन क रय पखारे ।
मरइ न उरग अनेक जतन बलमी क ब बध ब ध मारे ।। ४ ।।
तुल सदास ह र-गु -क ना बनु बमल बबेक न होई ।
बनु बबेक संसार-घोर- न ध पार न पावै कोई ।। ५ ।।
भावाथ—हे माधव! मेरी यह मोहक फाँसी कैसे टू टेगी? बाहरसे चाहे करोड़ साधन
य न कये जायँ, उनसे भीतरक (अ ानक ) गाँठ नह छू ट सकती ।। १ ।। घीसे भरे ए
कड़ाहम जो च माक परछा दखायी दे ती है, वह (जबतक घी रहेगा तबतक) सौ
क पतक धन और आग लगाकर औटानेसे भी न नह हो सकती। (इसी कार जबतक
मोह रहेगा तबतक यह आवागमनक फाँसी भी रहेगी) ।। २ ।। जैसे कसी पेड़के कोटरम
कोई प ी रहता हो, वह उस पेड़के काट डालनेसे नह मर सकता, उसी कार बाहरसे
कतने ही साधन य न कये जायँ, पर बना ववेकके यह मन कभी शु होकर एका नह
हो सकता ।। ३ ।। जैसे साँपके बलपर अनेक कारसे मारनेपर और बाहरसे अ य उपाय के
करनेपर भी उसम रहनेवाला साँप नह मरता, वैसे ही शरीरको खूब मल-मलकर धोनेसे
वषय के कारण म लन आ मन भीतरसे कभी प व नह हो सकता ।। ४ ।। हे तुलसीदास!
भगवान् और गु क दयाके बना संशयशू य ववेक नह होता और ववेक ए बना इस घोर
संसारसागरसे कोई पार नह जा सकता ।। ५ ।।
[११६]
माधव! अ स तु हा र यह माया ।
क र उपाय प च म रय, त रय न ह, जब ल ग कर न दाया ।। १ ।।
सु नय, गु नय, समु झय, समुझाइय, दसा दय न ह आवै ।
जे ह अनुभव बनु मोहज नत भव दा न बप त सतावै ।। २ ।।
- पयूष मधुर सीतल जो पै मन सो रस पावै ।
तौ कत मृगजल- प बषय कारन न स-बासर धावै ।। ३ ।।
जे हके भवन बमल चताम न, सो कत काँच बटोरै ।
सपने परबस परै, जा ग दे खत के ह जाइ नहोरै ।। ४ ।।
यान-भग त साधन अनेक, सब स य, झूँठ कछु नाह ।
तुल सदास ह र-कृपा मटै म, यह भरोस मनमाह ।। ५ ।।
भावाथ—हे माधव! तु हारी यह माया ऐसी ( तर) है क कतने ही उपाय करके पच
मरो, पर जबतक तुम दया नह करते तबतक इससे पार पा जाना अस भव ही है ।। १ ।।
सुनता ,ँ वचारता ,ँ समझता ँ तथा सर को समझाता ,ँ पर तु हारी इस मायाका यथाथ
रह य समझम नह आता और जबतक इसके वा त वक रह यका अनुभव नह होता,
तबतक मोहज नत संसारक महान् वप याँ ःख दे ती ही रहगी ।। २ ।। ामृत बड़ा ही
मधुर और शा तकर है, य द मनको वह अमृतरस कह चखनेको मल जाय, तो फर यह
वषय पी झूठे मृगजलके लये य रात- दन भटकता फरे ।। ३ ।। जसके घरम ही नमल
च ताम ण व मान है, वह काँच य बटोरेगा? भाव यह क जसे ान द ा त हो गया,
वह मा यक वषयान दक ओर य ताकने लगा? जैसे कोई सपनेम कसीके पराधीन हो
जाय और (छू टनेके लये उससे) वनय करे, पर जब जाग जाय तब वह कससे य नहोरा
करेगा? ।। ४ ।। ान, भ आ द अनेक साधन ह और सभी स चे ह, इनम झूठ एक भी
नह । पर तु तुलसीदासके मनम तो इसी बातका भरोसा है क अ ानका नाश केवल ीह र-
कृपासे ही हो सकता है। अथात् भगव कृपा ही परम साधन है और वह सब जीव पर है ही,
केवल उसपर भरोसा या परम व ास करना चा हये ।। ५ ।।
[११७]
हे ह र! कवन दोष तो ह द जै ।
जे ह उपाय सपने ँ रलभ ग त, सोइ न स-बासर क जै ।। १ ।।
जानत अथ अनथ- प, तमकूप परब य ह लागे ।
तद प न तजत वान अज खर य , फरत बषय अनुरागे ।। २ ।।
भूत- ोह कृत मोह-ब य हत आपन म न बचारो ।
मद-म सर-अ भमान यान- रपु, इन महँ रह न अपारो ।। ३ ।।
बेद-पुरान सुनत समुझत रघुनाथ सकल जग यापी ।
बेधत न ह ीखंड बेनु इव, सारहीन मन पापी ।। ४ ।।
म अपराध- सधु क नाकर! जानत अंतरजामी ।
तुल सदास भव- याल- सत तव सरन उरग- रपु-गामी ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! तु ह या दोष ँ ? ( य क दोष तो सब मेरा ही है) जन उपाय से
व म भी मो मलना लभ है, म दन-रात वही कया करता ँ ।। १ ।। जानता ँ क
इ य के भोग सवथा अनथ प ह, इनम फँसकर अ ान पी अँधेरे कुएँम गरना होगा, फर
भी म वषय म आस होकर कु ,े बकरे और गधेक भाँ त इ ह के पीछे भटकता ँ ।। २ ।।
अ ानवश जीव के साथ ोह करता ँ और अपना हत नह सोचता। मद, ई या, अहंकार
आ द जो ानके श ु ह, उ ह म म सदा रचा-पचा रहता !ँ (बताइये मुझ-सरीखा नीच और
कौन होगा?) ।। ३ ।। वेद और पुराण म सुनता ँ तथा समझता ँ क ीरामजी ही सम त
संसारम रम रहे ह, पर तु मेरे ववेकहीन पापी मनम यह बात वैसे ही नह समाती, जैसे
च दनक सुग ध बना गूदेके सारर हत बाँसम नह जाती ।। ४ ।। हे क णाक खा न! म तो
अपार अपराध का समु — ँ तुम अ तयामी सब कुछ जानते हो। अतएव हे ग ड़गामी!
संसार पी सपसे डँसा आ यह तुलसीदास तु हारी शरणम पड़ा है। (इसे बचाओ, यह
संसार पी साँप तु हारे वाहन ग ड़को दे खते ही भयसे भाग जायगा, तुम एक बार इधर
आओ तो सही) ।। ५ ।।
[११८]
हे ह र! कवन जतन सुख मान ।
य गज-दसन तथा मम करनी, सब कार तुम जान ।। १ ।।
जो कछु क हय क रय भवसागर त रय ब छपद जैसे ।
रह न आन ब ध, क हय आन, ह रपद-सुख पाइय कैसे ।। २ ।।
दे खत चा मयूर बयन सुभ बो ल सुधा इव सानी ।
स बष उरग-आहार, नठु र अस, यह करनी वह बानी ।। ३ ।।
अ खल-जीव-व सल, नरम सर, चरन-कमल-अनुरागी ।
ते तव य रघुबीर धीरम त, अ तसय नज-पर- यागी ।। ४ ।।
ज प मम औगुन अपार संसार-जो य रघुराया ।
तुल सदास नज गुन बचा र क ना नधान क दाया ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! म कस कार सुख मानूँ? मेरी करनी हाथीके दखावट दाँत के
समान है, यह सब तो तुम भलीभाँ त जानते ही हो। भाव यह है क जैसे हाथीके दाँत
दखानेके और तथा खानेके और होते ह, उसी कार म भी दखाता कुछ और ँ और करता
कुछ और ही ँ ।। १ ।। म सर से जो कुछ कहता ँ वैसा ही वयं करनेम भी लगूँ तो भव-
सागरसे बछड़ेके पैरभर जलको लाँघ जानेक भाँ त अनायास ही तर जाऊँ। पर तु क ँ
या? मेरा आचरण तो कुछ और है और कहता ँ कुछ और ही। फर भला तु हारे चरण का
या परमपदका आन द कैसे मले? ।। २ ।। मोर दे खनेम तो सु दर लगता है और मीठ
वाणीसे अमृतसे सने ए-से वचन बोलता है; क तु उसका आहार जहरीला साँप है! कैसा
न ु र है! करनी यह और कथनी वह! (यही मेरा हाल है) ।। ३ ।। हे रघुवीर! तुमको तो वे ही
संत यारे ह, जो सम त जीव से ेम करते ह, कसीको भी दे खकर त नक भी नह जलते,
जो तु हारे चरणार व द के ेमी ह, जो धीर-बु ह और जो अपने-परायेका भेद बलकुल ही
छोड़ चुके ह, अथात् सबम एक तुमको ही दे खते ह ( फर म इन गुण से हीन तु ह कैसे य
लगू?ँ ) ।। ४ ।। हे रघुनाथजी! य प मुझम अन त अवगुण ह और म संसारम ही रहने यो य
,ँ पर तु तुम क णा नधान हो, त नक अपने गुण पर वचार करके ही तुलसीदासपर दया
करो! ।। ५ ।।
[११९]
हे ह र! कवन जतन म भागै ।
दे खत, सुनत, बचारत यह मन, नज सुभाउ न ह यागै ।। १ ।।
भग त- यान-बैरा य सकल साधन य ह ला ग उपाई ।
कोउ भल कहउ, दे उ कछु , अ स बासना न उरते जाई ।। २ ।।
जे ह न स सकल जीव सूत ह तव कृपापा जन जागै ।
नज करनी बपरीत दे ख मो ह समु झ महा भय लागै ।। ३ ।।
ज प भ न-मनोरथ ब धबस, सुख इ छत, ख पावै ।
च कार करहीन जथा वारथ बनु च बनावै ।। ४ ।।
षीकेश सु न नाउँ जाउँ ब ल, अ त भरोस जय मोरे ।
तुल सदास इं य-संभव ख, हरे ब न ह भु तोरे ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! मेरा यह (संसारको सत्, न य प व और सुख प माननेका) म
कस उपायसे र होगा? दे खता है, सुनता है, सोचता है, फर भी मेरा यह मन अपने
वभावको नह छोड़ता। (और संसारको स य सुख प मानकर बार-बार वषय म फँसता
है) ।। १ ।। भ , ान, वैरा य आ द सभी साधन इस मनको शा त करनेके उपाय ह, पर तु
मेरे दयसे तो यही वासना कभी नह जाती क ‘कोई मुझे अ छा कहे’ अथवा ‘मुझे कुछ
दे ।’ ( ान, भ , वैरा यके साधक के मनम भी ायः बड़ाई और धन-मान पानेक वासना
बनी ही रहती है) ।। २ ।। जस (संसार पी) रातम सब जीव सोते ह उसम केवल आपका
कृपापा जन जागता है। क तु मुझे तो अपनी करनीको बलकुल ही वपरीत दे खकर बड़ा
भारी भय लग रहा है ।। ३ ।। य प दै ववश— ार धवश मनु यके सारे मनोरथ न हो जाते
ह, सांसा रक सुख उसके भा यम (पूव सुकृ तके अभावसे) लखे ही नह गये। तथा प वह
सुख क इ छामा कर वैसे ही ःख पाता है जैसे कोई बना हाथका च कार (केवल
मनःक पत) च से अपना वाथ स करना चाहता है और भ नमनोरथ होकर ःख पाता
है (उसी कार म भी भजनसाधन प सुकृत कये बना ही य ही सुख चाहता ँ) ।। ४ ।।
आपका षीकेश (इ य के वामी) नाम सुनकर म आपक बलैया लेता ँ। मेरे मनम
आपका अ य त भरोसा है। तुलसीदासका इ यज य ःख आपको अव य न करना ही
पड़ेगा ।। ५ ।।
[१२०]
हे ह र! कस न हर म भारी ।
ज प मृषा स य भासै जबल ग न ह कृपा तु हारी ।। १ ।।
अथ अ ब मान जा नय संसृ त न ह जाइ गोसा ।
बन बाँधे नज हठ सठ परबस परयो क रक ना ।। २ ।।
सपने या ध ब बध बाधा जनु मृ यु उप थत आई ।
बैद अनेक उपाय करै जागे बनु पीर न जाई ।। ३ ।।
ु त-गु -साधु-समृ त-संमत यह य असत खकारी ।
ते ह बनु तजे, भजे बनु रघुप त, बप त सकै को टारी ।। ४ ।।
ब उपाय संसार-तरन कहँ, बमल गरा ु त गावै ।
तुल सदास म-मोर गये बनु जउ सुख कब ँ न पावै ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! मेरे इस (संसारको स य और सुख प आ द माननेके) भारी मको
य र नह करते? य प यह संसार म या है, असत् है, तथा प जबतक आपक कृपा नह
होती, तबतक तो यह स य-सा ही भासता है ।। १ ।। म यह जानता ँ क (शरीर-धन-
पु ा द) वषय यथाथम नह है, क तु हे वामी! इतनेपर भी इस संसारसे छु टकारा नह
पाता। म कसी सरे ारा बाँधे बना ही अपने ही हठ (मोह)-से तोतेक तरह परवश बँधा
पड़ा ँ ( वयं अपने ही अ ानसे बँध-सा गया ँ) ।। २ ।। जैसे कसीको व म अनेक
कारके रोग हो जायँ जनसे मानो उसक मृ यु ही आ जाय और बाहरसे वै अनेक उपाय
करते रह, पर तु जबतक वह जागता नह तबतक उसक पीड़ा नह मटती (इसी कार
मायाके मम पड़कर लोग बना ही ए संसारक अनेक पीड़ा भोग रहे ह और उ ह र
करनेके लये म या उपाय कर रहे ह, पर त व ानके बना कभी इन पीड़ा से छु टकारा
नह मल सकता) ।। ३ ।। वेद, गु , संत और मृ तयाँ—सभी एक वरसे कहते ह क यह
यमान जगत् असत् है (और का प नक स ा मान लेनेपर) ःख प है। जबतक इसे
यागकर ीरघुनाथजीका भजन नह कया जाता तबतक ऐसी कसक श है जो इस
वप का नाश कर सके? ।। ४ ।। वेद नमल वाणीसे संसारसागरसे पार होनेके अनेक
उपाय बतला रहे ह, क तु हे तुलसीदास! जबतक ‘म’ और ‘मेरा’ र नह हो जाता—
अहंता-ममता नह मट जाती, तबतक जीव कभी सुख नह पा सकता ।। ५ ।।
[१२१]
हे ह र! यह मक अ धकाई ।
दे खत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई ।। १ ।।
जो जग मृषा ताप- य-अनुभव होइ कह के ह लेखे ।
क ह न जाय मृगबा र स य, म ते ख होइ बसेखे ।। २ ।।
सुभग सेज सोवत सपने, बा र ध बूड़त भय लागै ।
को ट ँ नाव न पार पाव सो, जब ल ग आपु न जागै ।। ३ ।।
अन बचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी ।
सम-संतोष-दया- बबेक त, यवहारी सुखकारी ।। ४ ।।
तुल सदास सब ब ध पंच जग, जद प झूठ ु त गावै ।
रघुप त-भग त, संत-संग त बनु, को भव- ास नसावै ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! यह मक ही अ धकता है क दे खने, सुनने, कहने और समझनेपर
भी न तो संशय (अस य जगत्को स य मानना) ही जाता है और न (एक परमा माक ही
अख ड स ा है या कुछ और भी है—ऐसा) स दे ह ही र होता है ।। १ ।। (कोई कहे क)
य द संसार अस य है, तो फर तीन ताप का अनुभव कस कारणसे होता है? (संसार अस य
है तो संसारके ताप भी अस य ह, पर तु ताप का अनुभव तो स य तीत होता है।) (इसका
उ र यह है क) मृगतृ णाका जल स य नह कहा जा सकता, पर तु जबतक म है, तबतक
वह स य ही द खता है और इसी मके कारण वशेष ःख होता है। इसी कार जगत्म भी
मवश ःख का अनुभव होता है ।। २ ।। जैसे कोई सु दर सेजपर सोया आ मनु य सपनेम
समु म डू बनेसे भयभीत हो रहा हो पर जबतक वह वयं जाग नह जाता, तबतक करोड़
नौका ारा भी वह पार नह जा सकता। उसी कार यह जीव अ ान न ाम अचेत आ
संसार-सागरम डू ब रहा है, परमा माके त व ानम जागे बना सह साधन ारा भी यह
ःख से मु नह हो सकता ।। ३ ।। यह अ य त भयानक संसार अ ानके कारण ही
मनोरम दखायी दे ता है। अव य ही उनके लये यह संसार सुखकारी हो सकता है जो सम,
स तोष, दया और ववेकसे यु वहार करते ह ।। ४ ।। हे तुलसीदास! वेद कह रहे ह क
य प सांसा रक पंच सब कारसे अस य है, क तु रघुनाथजीक भ और संत क
संग तके बना कसम साम य है जो इस संसारके भीषण भयका नाश कर सके, इस मसे
छु ड़ा सके ।। ५ ।।
[१२२]
म ह र, साधन करइ न जानी ।
जस आमय भेषज न क ह तस, दोष कहा दरमानी ।। १ ।।
सपने नृप कहँ घटै ब -बध, बकल फरै अघ लागे ।
बा जमेध सत को ट करै न ह सु होइ बनु जागे ।। २ ।।
ग महँ सप बपुल भयदायक, गट होइ अ बचारे ।
ब आयुध ध र, बल अनेक क र हार ह, मरइ न मारे ।। ३ ।।
नज म ते र बकर-स भव सागर अ त भय उपजावै ।
अवगाहत बो हत नौका च ढ़ कब ँ पार न पावै ।। ४ ।।
तुल सदास जग आपु स हत जब ल ग नरमूल न जाई ।
तब ल ग को ट कलप उपाय क र म रय, त रय न ह भाई ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! मने (अ ानके नाशके लये) साधन करना नह जाना। जैसा रोग था
वैसी दवा नह क । इसम इलाजका या दोष है? ।। १ ।। जैसे सपनेम कसी राजाको
ह याका दोष लग जाय और वह उस महापापके कारण ाकुल आ जहाँ-तहाँ भटकता
फरे, पर तु जबतक वह जागेगा नह तबतक सौ करोड़ अ मेधय करनेपर भी वह शु
नह होगा, वैसे ही त व ानके बना अ ानज नत पाप से छु टकारा नह मलता ।। २ ।। जैसे
अ ानके कारण मालाम महान् भयावने सपका म हो जाता है और वह ( म या सपका म
न मटनेतक) अनेक ह थयार के ारा बलसे मारते-मारते थक जानेपर भी नह मरता, साँप
होता तो ह थयार से मरता; इसी कार यह अ ानसे भासनेवाला संसार भी ान ए बना
बाहरी साधन से न नह होता ।। ३ ।। जैसे अपने ही मसे सूयक करण से उ प आ
(मृगतृ णाका) समु बड़ा ही भयावना लगता है और उस ( म यासागर)-म डू बा आ मनु य
बाहरी जहाज या नावपर चढ़नेसे पार नह पा सकता (यही हाल इस अ ानसे उ प संसार-
सागरका है) ।। ४ ।। तुलसीदास कहते ह, जबतक ‘म’-पनस हत संसारका नमूल नाश नह
होगा, तबतक हे भाइयो! करोड़ य न कर-करके मर भले ही जाओ, पर इस संसार-सागरसे
पार नह पा सकोगे ।। ५ ।।
[१२३]
अस कछु समु झ परत रघुराया!
बनु तव कृपा दयालु! दास- हत! मोह न छू टै माया ।। १ ।।
बा य- यान अ यंत नपुन भव-पार न पावै कोई ।
न स गृहम य द पक बात ह, तम नबृ न ह होई ।। २ ।।
जैसे कोइ इक द न खत अ त असन-हीन ख पावै ।
च कलपत कामधेनु गृह लखे न बप त नसावै ।। ३ ।।
षटरस ब कार भोजन कोउ, दन अ रै न बखानै ।
बनु बोले संतोष-ज नत सुख खाइ सोइ पै जानै ।। ४ ।।
जबल ग न ह नज द कास, अ बषय-आस मनमाह ।
तुल सदास तबल ग जग-जो न मत सपने ँ सुख नाह ।। ५ ।।
भावाथ—हे रघुनाथजी! मुझे कुछ ऐसा समझ पड़ता है क हे दयालु! हे सेवक-
हतकारी! तु हारी कृपाके बना न तो मोह ही र हो सकता है और न माया ही छू टती
है ।। १ ।। जैसे रातके समय घरम केवल द पकक बात करनेसे अँधेरा र नह होता, वैसे ही
कोई वाचक ानम कतना ही नपुण य न हो, संसार-सागरको पार नह कर
सकता ।। २ ।। जैसे कोई एक द न, ः खया, भोजनके अभावम भूखके मारे ःख पा रहा हो
और कोई उसके घरम क पवृ तथा कामधेनुके च लख- लखकर उसक वप र
करना चाहे तो कभी र नह हो सकती। वैसे ही केवल शा क बात से ही मोह नह
मटता ।। ३ ।। कोई मनु य रात- दन अनेक कारके षट् -रस भोजन पर ा यान दे ता रहे;
तथा प भोजन करनेपर भूखक नवृ होनेसे जो स तु होती है उसके सुखको तो वही
जानता है जसने बना ही कुछ बोले वा तवम भोजन कर लया है। (इसी कार कोरी
ा यानबाजीसे कुछ नह होता, करनेपर काय- स होती है) ।। ४ ।। जबतक अपने
दयम त व- ानका काश नह आ और मनम वषय क आशा बनी ई है, तबतक हे
तुलसीदास! इन जगत्क यो नय म भटकना ही पड़ेगा, सुख सपनेम भी नह मलेगा ।। ५ ।।
[१२४]
जौ नज मन प रहरै बकारा ।
तौ कत ै त-ज नत संसृ त- ख, संसय, सोक अपारा ।। १ ।।
स ,ु म , म य थ, ती न ये, मन क ह ब रआ ।
यागन, गहन, उपे छनीय, अ ह, हाटक तृनक ना ।। २ ।।
असन, बसन, पसु ब तु ब बध ब ध सब म न महँ रह जैसे ।
सरग, नरक, चर-अचर लोक ब , बसत म य मन तैसे ।। ३ ।।
बटप-म य पुत रका, सूत महँ कंचु क बन ह बनाये ।
मन महँ तथा लीन नाना तनु, गटत अवसर पाये ।। ४ ।।
रघुप त-भग त-बा र-छा लत- चत, बनु यास ही सूझै ।
तुल सदास कह चद- बलास जग बूझत बूझत बूझै ।। ५ ।।
भावाथ—य द हमारा मन वकार को छोड़ दे , तो फर ै तभावसे उ प संसारी ःख,
म और अपार शोक य हो? (यह सब मनके वकार के कारण ही तो होते ह) ।। १ ।।
श ,ु म और उदासीन इन तीन क मनने ही हठसे क पना कर रखी है। श ुको साँपके
समान याग दे ना चा हये, म को सुवणक तरह हण करना चा हये और उदासीनक
तृणक तरह उपे ा कर दे नी चा हये। ये सब मनक ही क पनाएँ ह ।। २ ।। जैसे (ब मू य)
म णम भोजन, व , पशु और अनेक कारक चीज रहती ह वैसे ही वग, नरक, चर, अचर
और ब त-से लोक इस मनम रहते ह। भाव यह क छोट -सी म णके मोलसे जो चाहे सो
खाने, पीने, पहननेक चीज खरीद जा सकती ह, वैसे ही इस मनके तापसे जीव वग-
नरका दम जा सकता है ।। ३ ।। जैसे पेड़के बीचम कठपुतली और सूतम व , बना बनाये
ही सदा रहते ह, उसी कार इस मनम भी अनेक कारके शरीर लीन रहते ह, जो समय
पाकर कट हो जाते ह ।। ४ ।। इस मनके वकार कब छू टगे, जब ीरघुनाथजीक
भ पी जलसे धुलकर च नमल हो जायगा, तब अनायास ही स य प परमा मा
दखलायी दगे। क तु तुलसीदास कहते ह, इस चैत यके वलास प जगत्का स य त व
परमा मा समझते-समझते ही समझम आवेगा ।। ५ ।।
[१२५]
म के ह कह बप त अ त भारी । ीरघुबीर धीर हतकारी ।। १ ।।
मम दय भवन भु तोरा । तहँ बसे आइ ब चोरा ।। २ ।।
अ त क ठन कर ह बरजोरा । मान ह न ह बनय नहोरा ।। ३ ।।
तम, मोह, लोभ, अहँकारा । मद, ोध, बोध- रपु मारा ।। ४ ।।
अ त कर ह उप व नाथा । मरद ह मो ह जा न अनाथा ।। ५ ।।
म एक, अ मत बटपारा । कोउ सुनै न मोर पुकारा ।। ६ ।।
भागे न ह नाथ! उबारा । रघुनायक, कर ँ सँभारा ।। ७ ।।
कह तुल सदास सुनु रामा । लूट ह तसकर तव धामा ।। ८ ।।
चता यह मो ह अपारा । अपजस न ह होइ तु हारा ।। ९ ।।
भावाथ—हे रघुनाथजी! हे धैयवान्! ( बना ही उकताये) हत करनेवाले म तु ह
छोड़कर, अपना दा ण वप और कसे सुनाऊँ? ।। १ ।। हे नाथ! मेरा दय है तो तु हारा
नवास- थान, पर तु आजकल उसम बस गये ह आकर ब त-से चोर! तु हारे म दरम चोर ने
घर कर लया है ।। २ ।। (म उ ह नकालना चाहता ँ, पर तु वे लोग बड़े ही कठोर दय ह)
सदा जबरद ती ही करते रहते ह। मेरी वनती- नहोरा कुछ भी नह मानते ।। ३ ।। इन चोर म
धान सात ह—अ ान, मोह, लोभ, अहंकार, मद, ोध और ानका श ु काम ।। ४ ।। हे
नाथ! ये सब बड़ा ही उप व कर रहे ह, मुझे अनाथ जानकर कुचले डालते ह ।। ५ ।। म
अकेला ँ और ये उप वी चोर अपार ह। कोई मेरी पुकारतक नह सुनता ।। ६ ।। हे नाथ!
भाग जाऊँ तो भी इनसे प ड छू टना क ठन है, य क ये पीछे लगे ही रहते ह। अब हे
रघुनाथजी! आप ही मेरी र ा क जये ।। ७ ।। तुलसीदास कहता है क हे राम! इसम मेरा
या जाता है, चोर तु हारे ही घरको लूट रहे ह ।। ८ ।। मुझे तो इसी बातक बड़ी च ता लग
रही है क कह तु हारी बदनामी न हो जाय (आपका भ कहलानेपर भी मेरे दयके
सा वक र न को य द काम, ोध आ द डाकू लूट ले जायँगे तो इसम आपक ही बदनामी
होगी। अतएव इस अपने घरक आप ही सँभाल क जये) ।। ९ ।।
[१२६]
मन मेरे, मान ह सख मेरी । जो नजु भग त चहै ह र केरी ।। १ ।।
उर आन ह भु-कृत हत जेते । सेव ह ते जे अपनपौ चेते ।। २ ।।
ख-सुख अ अपमान-बड़ाई । सब सम लेख ह बप त बहाई ।। ३ ।।
सुनु सठ काल- सत यह दे ही । ज न ते ह ला ग ब ष ह केही ।। ४ ।।
तुल सदास बनु अ स म त आये । मल ह न राम कपट लौ लाये ।। ५ ।।
भावाथ—हे मेरे मन! य द तू अपने दयम भगवान्क श चाहता है, ते मेरी सीख
मान ।। १ ।। भगवान्ने (गभवाससे लेकर अबतक) तेरे ऊपर जो (अपार) उपकार कये ह
उनको याद कर, और अहंकार छोड़कर, बड़ी सावधानीसे त पर होकर उनक सेवा
कर ।। २ ।। सुख- ःख, मान-अपमान, सबको समान समझ; तभी तेरी वप र
होगी ।। ३ ।। अरे ! इस शरीरको तो कालने स ही रखा है, इसके लये कसीको दोष
मत दे ।। ४ ।। तुलसीदास कहता है क ऐसी बु ए बना, केवल कपट-समा ध लगानेसे
ीरामजी कभी नह मलते, वे तो स चे ेमसे ही मलते ह ।। ५ ।।
[१२७]
म जानी, ह रपद-र त नाह । सपने ँ न ह बराग मन माह ।। १ ।।
जे रघुबीर चरन अनुरागे । त ह सब भोग रोगसम यागे ।। २ ।।
काम-भुजंग डसत जब जाही । बषय-न ब कटु लगत न ताही ।। ३ ।।
असमंजस अस दय बचारी । बढ़त सोच नत नूतन भारी ।। ४ ।।
जब कब राम-कृपा ख जाई । तुल सदास न ह आन उपाई ।। ५ ।।
भावाथ—मने जान लया है क ीह रके चरण म मेरा ेम नह है; य क सपनेम भी
मेरे मनम वैरा य नह होता (संसारके भोग म वैरा य होना ही तो भगव चरण म ेम होनेक
कसौट है) ।। १ ।। जनका ीरामके चरण म ेम है, उ ह ने सारे वषय-भोग को रोगक
तरह छोड़ दया है ।। २ ।। जब जसे काम पी साँप डस लेता है, तभी उसे वषय पी नीम
कड़वी नह लगती ।। ३ ।। ऐसा वचारकर दयम बड़ा असमंजस हो रहा है क या क ँ ?
इसी वचारसे मेरे मनम नत नया सोच बढ़ता जा रहा है ।। ४ ।। हे तुलसीदास! और कोई
उपाय नह है; जब कभी यह ःख र होगा तो बस ीराम-कृपासे ही होगा ।। ५ ।।
[१२८]
सु म सनेह-स हत सीताप त । रामचरन त ज न हन आ न ग त ।। १ ।।
जप, तप, तीरथ, जोग समाधी । क लम त बकल, न कछु न पाधी ।। २ ।।
करत ँ सुकृत न पाप सराह । रकतबीज ज म बाढ़त जाह ।। ३ ।।
हर त एक अघ-असुर-जा लका । तुल सदास भु-कृपा-का लका ।। ४ ।।
भावाथ—रे मन! ेमके साथ ीजानक -व लभ रामजीका मरण कर। य क
ीरामच जीके चरण को छोड़कर तुझे और कह ग त नह है ।। १ ।। जप, तप, तीथ,
योगा यास, समा ध आ द साधन ह; पर तु क लयुगम जीव क बु थर नह है इससे इन
साधन मसे कोई भी व नर हत नह रहा ।। २ ।। आज पु य करते भी (बु ठकाने न
होनेस)े पाप का नाश नह होता। र बीज रा सक भाँ त ये पाप तो बढ़ते ही जा रहे ह।
भाव यह है क बु क वकलतासे पापम पु य-बु और पु यम पाप-बु हो रही है,
इससे पु य करते भी पाप ही बढ़ रहे ह ।। ३ ।। हे तुलसीदास! इस पाप पी रा स के
समूहको नाश तो केवल भुक कृपा पी का लकाजी ही करगी। (भगव कृपाक शरण
लेनेके सवा अब अ य कसी साधनसे काम नह नकलेगा) ।। ४ ।।
[१२९]
चर रसना तू राम राम राम य न रटत ।
सु मरत सुख-सुकृत बढ़त, अघ-अमंगल घटत ।। १ ।।
बनु म क ल-कलुषजाल कटु कराल कटत ।
दनकरके उदय जैसे त मर-तोम फटत ।। २ ।।
जोग, जाग, जप, बराग, तप, सुतीरथ-अटत ।
बाँ धबेको भव-गयंद रेनुक रजु बटत ।। ३ ।।
प रह र सुर-म न सुनाम, गुंजा ल ख लटत ।
लालच लघु तेरो ल ख, तुल स तो ह हटत ।। ४ ।।
भावाथ—हे सु दर जीभ! तू राम-राम य नह रटती? जस रामनामके मरणसे सुख
और पु य बढ़ते ह तथा पाप और अशुभ घटते ह ।। १ ।। रामनाम- मरणसे बना ही
प र मके, क लयुगके कटु और भयानक पाप का जाल वैसे ही कट जाता है, जैसे सूयके
उदय होनेसे अ धकारका समूह फट जाता है ।। २ ।। रामनामको छोड़कर योग, य , जप,
तप, वैरा य और तीथाटन करना वैसा ही है जैसे संसार पी गजराजके बाँधनेके लये धूलके
कण क र सी बटना; अथात् जैसे धूलक र सीसे हाथीका बाँधना अस भव है, वैसे ही
रामनामहीन साधन से मनका परमा माम लगना अस भव है ।। ३ ।। सु दर राम-नाम पी
च ताम ण छोड़, तू वषय पी घुँघ चय को दे खकर उनपर ललचा रही है, तेरा यह तु छ
लोभ दे खकर ही तुलसी तुझे फटकार रहा है ।। ४ ।।
[१३०]
राम राम, राम राम, राम राम, जपत ।
मंगल-मुद उ दत होत, क ल-मल-छल छपत ।। १ ।।
क के लहे फल रसाल, बबुर बीज बपत ।
हार ह ज न जनम जाय गाल गूल गपत ।। २ ।।
काल, करम, गुन, सुभाउ सबके सीस तपत ।
राम-नाम-म हमाक चरचा चले चपत ।। ३ ।।
साधन बनु स सकल बकल लोग लपत ।
क लजुग बर ब नज बपुल, नाम-नगर खपत ।। ४ ।।
नाम स ती त- ी त दय सु थर थपत ।
पावन कये रावन- रपु तुल स -से अपत ।। ५ ।।
भावाथ—राम-नामके जपसे क याण और आन दका उदय होता है और क लयुगके
पाप तथा छल- छ छप जाते ह ।। १ ।। बबूलका बीज बोकर आजतक कसने आमके
फल पाये? अतएव तू थ ग प मारकर अपने ( लभ मनु य) ज मको न मत कर
(ग प का फल तो ग त ही होगा; इस लये राम-नाम जप, इसीम क याण है) ।। २ ।। काल,
कम, गुण (स व, रज और तम) और वभाव—ये सभीके सर पर तप रहे ह, अथात् इनके
भावसे सभीको ःख भोगना और कम करना पड़ता है; पर तु ीराम-नामक म हमाक
चचा आर भ होते ही ये सब दब जाते ह, इनका कोई भाव नह रह जाता (इस लये राम-
नामका जप कर) ।। ३ ।। लोग बना ही साधन के सारी स याँ पानेके लये ाकुल ह; पर
यह कब स भव है? हाँ, क लयुगका ढे र-का-ढे र ब नज ापार, माल-म ा नाम-नगरम खप
जाता है, अथात् क लयुगका पापसमूह राम-नामके तापसे न हो जाता है ।। ४ ।। नामम
व ास और ेम करनेसे दय भलीभाँ त थर—शा त हो जाता है। रामजीके नामने रावण-
सरीखे श ु और तुलसी-सरीखे प ततको भी पावन कर दया है ।। ५ ।।
[१३१]
पावन ेम राम-चरन-कमल जनम ला परम ।
रामनाम लेत होत, सुलभ सकल धरम ।। १ ।।
जोग, मख, बबेक, बरत, बेद- ब दत करम ।
क रबे कहँ कटु कठोर, सुनत मधुर, नरम ।। २ ।।
तुलसी सु न, जा न-बू झ, भूल ह ज न भरम ।
ते ह भुको हो ह, जा ह सब ही क सरम ।। ३ ।।
भावाथ— ीरामच जीके चरणकमल म वशु ( न काम) ेमका होना ही जीवनका
परम फल है। राम-नाम लेते ही सारे धम सुलभ हो जाते ह ।। १ ।। वैसे तो योग, य , ववेक,
वैरा य आ द अनेक कम वेद म बतलाये गये ह, जो सुननेम तो बड़े ही मधुर और कोमल जान
पड़ते ह, पर तु करनेम बड़े ही कटु और कठोर ह ।। २ ।। इस लये, हे तुलसीदास! सुन और
जान-बूझकर इस मम मत भूल, तू तो उस भुका ही (दास) हो जा, जसे सबक लाज
है! ।। ३ ।।
[१३२]
राम-से ीतमक ी त-र हत जीव जाय जयत ।
जे ह सुख सुख मा न लेत, सुख सो समुझ कयत ।। १ ।।
जहँ-जहँ जे ह जो न जनम म ह, पताल, बयत ।
तहँ-तहँ तू बषय-सुख ह, चहत लहत नयत ।। २ ।।
कत बमोह ल ो, फ ो गगन मगन सयत ।
तुलसी भु-सुजस गाइ, य न सुधा पयत ।। ३ ।।
भावाथ— ीराम-सरीखे ीतमसे ेम न करके यह जीव थ ही जीता है; अरे! जस
( वषय-सुख) को तू सुख मान रहा है, त नक वचार तो कर, वह सुख कतना-सा
है? ।। १ ।। जहाँ-जहाँ, जस- जस यो नम—पृ वी, पाताल और वगम तूने ज म लया,
तहाँ-तहाँ तूने जस वषय-सुखक कामना क , वही ार धके अनुसार तुझे मला (पर तु
कह भी तू परम सुखी तो नह आ?) ।। २ ।। य मोहम फँसकर फटे आकाशके सीनेम
त लीन हो रहा है? भाव यह है क जैसे आकाशका सीना अस भव है, वैसे ही सांसा रक
वषय-भोग म आन द मलना अस भव है। इस लये हे तुलसी! य द तुझे आन दहीक इ छा
है, तो भु ीरामच जीका सु दर गुण-गानकर अमृत य नह पीता ( जससे अमर होकर
आन द प ही बन जाय।) ।। ३ ।।
[१३३]
तोसो ह फ र फ र हत, य, पुनीत स य बचन कहत ।
सु न मन, गु न, समु झ, य न सुगम सुमग गहत ।। १ ।।
छोटो बड़ो, खोटो खरो, जग जो जहँ रहत ।
अपनो अपनेको भलो कह , को न चहत ।। २ ।।
ब ध ल ग लघु क ट अव ध सुख सुखी, ख दहत ।
पसु ल पसुपाल ईस बाँधत छोरत नहत ।। ३ ।।
बषय मुद नहार भार सर काँधे य बहत ।
य ही जय जा न, मा न सठ! तू साँस त सहत ।। ४ ।।
पायो के ह घृत बचा , ह रन-बा र महत ।
तुलसी तकु ता ह सरन, जाते सब लहत ।। ५ ।।
भावाथ—अरे जीव! म तुझसे बार-बार हतकारी, य, प व और स य वचन कहता
,ँ इ ह सुनकर, मनम वचारकर और समझकर भी तू सुगम और सु दर रा ता य नह
पकड़ता? अथात् ीरामक शरण य नह हो जाता? ।। १ ।। छोटा-बड़ा, खोटा-खरा, जो
जहाँ संसारम रहता है, उनम बता, ऐसा कौन है, जो अपना भला न चाहता हो? ।। २ ।।
ासे लेकर छोटे -छोटे क ड़ेतक सुखसे सुखी होते ह और ःखसे जलते ह, पशुपालक
वालेक तरह परमा मा जीव पी पशु को (अ ानसे) बाँधता, ( ानसे) खोलता और उ ह
(कम म) जोतता है ।। ३ ।। वषय के सुख को दे ख। वे तो सरके बोझेको क धेपर रखनेके
समान ह। अथात् वषय-सुखम सुख है ही नह , इस तरह मनम समझकर मान जा। अरे
मूख! य क सह रहा है? ।। ४ ।। त नक वचार तो कर, मृगतृ णाके जलको मथकर
कसने घी पाया है? अथात् असत् संसारके का प नक पदाथ म स चा सुख कैसे मल
सकता है? हे तुलसी! तू तो उसी भुक शरणम जा, जससे सब कुछ ा त होता है ।। ५ ।।
[१३४]
ताते ह बार बार दे व! ार प र पुकार करत ।
आर त, न त, द नता कह भु संकट हरत ।। १ ।।
लोकपाल सोक- बकल रावन-डर डरत ।
का सु न सकुचे कृपालु नर-सरीर धरत ।। २ ।।
कौ सक, मु न-तीय, जनक सोच-अनल जरत ।
साधन के ह सीतल भये, सो न समु झ परत ।। ३ ।।
केवट, खग, सब र सहज चरनकमल न रत ।
सनमुख तो ह होत नाथ! कुत सुफ फरत ।। ४ ।।
बंधु-बैर क प- बभीषन गु गला न गरत ।
सेवा के ह री झ राम, कये स रस भरत ।। ५ ।।
सेवक भयो पवनपूत सा हब अनुहरत ।
ताको लये नाम राम सबको सुढर ढरत ।। ६ ।।
जाने बनु राम-री त प च प च जग मरत ।
प रह र छल सरन गये तुल स -से तरत ।। ७ ।।
भावाथ—हे नाथ! म तु हारे इसी वभावको जानकर ारपर पड़ा आ बार-बार पुकार
रहा ँ क हे भो! तुम ःख, न ता और द नता सुनाते ही सारे संकट हर लेते हो ।। १ ।।
जब रावणके भयके मारे इ , कुबेर आ द लोकपाल डरकर शोकसे ाकुल हो गये थे, तब
हे कृपालु! तुमने या सुनकर संकोचसे नरशरीर धारण कया था? ।। २ ।। यह समझम नह
आता क जो व ा म , अह या और जनक च ताक अ नम जले जा रहे थे, वे कस
साधनसे शीतल हो गये? ।। ३ ।। गुह नषाद, प ी (जटायु), शबरी आ द वभावसे ही तु हारे
चरण-कमल म रत नह थे; क तु हे नाथ! तु हारे सामने आते ही (इन) बुरे-बुरे वृ म भी
अ छे -अ छे फल फल गये! भाव यह क नषाद, शबरी आ द पापी भी तु हारी शरणाग तसे
तर गये ।। ४ ।। अपने-अपने भाईके साथ श ुता करनेसे सु ीव और वभीषण बड़े भारी
ःखसे गले जाते थे। हे रामजी! तुमने कस सेवासे रीझकर उ ह भरतजीके समान मान
लया ।। ५ ।। हनुमान्जी तु हारी सेवा करते-करते तु हारे ही समान हो गये। हे रामजी! उन
(हनुमान्जी) का नाम लेते ही तुम सबपर भलीभाँ त स हो जाते हो ।। ६ ।। (यह सब य
आ? ःख, न ता और द नताके कारण ही तुमने ऐसा कया) इस लये हे नाथ! तु हारी
(रीझनेक ) री त न जाननेके कारण ही जगत् अ या य साधन म पच-पचकर मर रहा है। तुम
ः खय , न और द न पर स होते हो यह जानकर जो तु हारी शरण हो जाय वह तो तर
ही जाता है, य क कपट छोड़कर तु हारी शरणम जानेसे तुलसी-जैसे जीव भी तो संसार-
सागरसे तर गये ।। ७ ।।
राग सूहो बलावल
[१३५]
राम सनेही स त न सनेह कयो ।
अगम जो अमर न ँ सो तनु तो ह दयो ।।
दयो सुकुल जनम, सरीर सुंदर, हेतु जो फल चा रको ।
जो पाइ पं डत परमपद, पावत पुरा र-मुरा रको ।।
यह भरतखंड, समीप सुरस र, थल भलो, संग त भली ।
तेरी कुम त कायर! कलप-ब ली चह त है बष फल फली ।। १ ।।

अज ँ समु झ चत दै सुनु परमारथ ।


है हतु सो जग ँ जा हते वारथ ।।
वारथ ह य, वारथ सो का ते कौन बेद बखानई ।
दे खु खल, अ ह-खेल प रह र, सो भु ह प हचानई ।।
पतु-मात, गु , वामी, अपनपौ, तय, तनय, सेवक, सखा ।
य लगत जाके ेमस , बनु हेतु हत त न ह लखा ।। २ ।।

र न सो हतू हे र हये ही है ।
छल ह छाँ ड़ सु मरे छो कये ही है ।।
कये छो छाया कमल करक भगतपर भजत ह भजै ।
जगद श, जीवन जीवको, जो साज सब सबको सजै ।।
ह र ह ह रता, ब ध ह ब धता, सव ह सवता जो दई ।
सोइ जानक -प त मधुर मूर त, मोदमय मंगल मई ।। ३ ।।

ठाकुर अ त ह बड़ो, सील, सरल, सु ठ ।


यान अगम सव ,ँ भ ो केवट उ ठ ।।
भ र अंक भ ो सजल नचन, सनेह स थल सरीर सो ।
सुर, स , मु न, क ब कहत कोउ न ेम य रघुबीर सो ।।
खग, सब र, न सचर, भालु, क प कये आपु ते बं दत बड़े ।
तापर त ह क सेवा सु म र जय जात जनु सकुच न गड़े ।। ४ ।।

वामीको सुभाव क ो सो जब उर आ नहै ।


सोच सकल म टह, राम भलो मन मा नह ।।
भलो मा नह रघुनाथ जो र जो हाथ माथो नाइहै ।
ततकाल तुलसीदास जीवन-जनमको फल पाइहै ।।
ज प नाम कर ह नाम, क ह गुन- ाम, राम ह ध र हये ।
बचर ह अव न अवनीस-चरनसरोज मन-मधुकर कये ।। ५ ।।
भावाथ—अरे! ज ह ने तुझे दे व- लभ मनु य-शरीर दया, उन परम ेमी ीरामजीके
साथ तूने ेम नह कया। उ ह ने ऐसे अ छे कुलम ज म और सु दर शरीर दया है, जो अथ,
धम, काम और मो का कारण है। जसे पाकर ानी लोग भगवान् शव अथवा कृ णके*
परमपदको ा त करते ह। फर यह भारतवष दे श, पास ही दे व-नद गंगाजी, कैसा सु दर
थान है! साथ ही स संग भी उ म है। इतनेपर भी अरे कायर! तेरी कुबु के कारण इन सब
साधन क क पलता भी (ज ममरण पी) वषैले फल फला चाहती है! अथात् इतने सु दर
साधन को पाकर भी तू अपने बु दोषसे इनका पयोग ही कर रहा है ।। १ ।। अब भी
समझ ले। मन लगाकर परमाथक बात सुन। वह बात क याण करनेवाली है और इस
संसारम भी उससे अपना वाथ स होता है। य द तुझे वाथ ही अ छा लगता है, वचार
कर, वह कौन है जससे वाथ ा त होगा, और जसे वेद गाते ह (अथात् ीरामजी ही ह)।
अरे ! दे ख, ( वषय पी) साँपके साथ खेलना छोड़ दे , उस वामीको पहचान, जस
(सबम रमनेवाले आ मा पी राम) के ेमके कारण ही पता, गु , वामी, शरीर, पु , सेवक,
म आ द सब य जान पड़ते ह, उस अहैतुक हत करनेवाले परम सु द् भुको तूने नह
पहचाना ।। २ ।। वह तेरा हतकारी भु ह र र नह है, तेरे दयम ही है। छल छोड़कर
उसका मरण करनेपर वह सदा कृपा कये ही रहता है। भाव यह है क परमा मा दयम तो
अव य है क तु बीचम कपटका परदा पड़ा है, इसीसे उसका सा ा कार नह होता। परदा
हटा क यारेका मुखकमल द खा! वह कृपा करके अपने भ पर कर-कमल क छाया
कये रहता है, वयं सदा उनक र ा करता है। जो उसे भजता है, वह भी उसे भजता है। वह
जगत्का ई र है, जीवका जीवन है। जो सबके लये सब तरहके साज सजाता है, जसने
व णुको व णु व, ाको व और शवको शव व दया, वह यही ीजानक -नाथ
रघुनाथजीक मधुर आन द व पणी मंगलमयी मू त है ।। ३ ।। य प वह ब त ही बड़ा
वामी है, सभीका अधी र है, तथा प वह महान् सुशील, सु दर और सरल है। अरे! जसका
यान शवको भी लभ है उसने उठकर केवटको दयसे लगा लया! दयसे लगाकर मलते
ही उसक आँख म आँसू भर आये और ेमवश शरीर श थल-सा हो गया। दे वता, स ,
मु न और क व कहते ह क ीरघुनाथजीके समान कोई भी ेम य नह है, उ ह जतना ेम
यारा लगता है उतना और कसीको नह लगता। उ ह ने प ी (जटायु), शबरी, रा स
( वभीषण), रीछ (जा बवान् आ द) और बंदर (हनुमान्जी आ द) को अपनेसे भी अ धक
पूजनीय बना दया। (अब शीलक ओर दे खये) इतनेपर भी वे जब उन लोग ारा क ई
सेवा याद करते ह, तब संकोचके मारे मन-ही-मन गड़े-से जाते ह ।। ४ ।। भु ीरामजीका
जो शील- वभाव मने कहा है उसे जब तू दयम लावेगा, तब तेरी सारी च ताएँ मट जायँगी
और भु रामच जी भी मनम स ह गे। अरे ीरघुनाथजी तो तभी स हो जायँग,े जब
तू हाथ जोड़कर म तक नवा दे गा। तुलसीदास! तू उसी ण ज म और जीवनका फल पा
जायगा, अथात् तुझे ीरामजी दशन दगे। तू राम-नामका जप कर, रामको णाम कर, उनके
गुण-समूह का क तन कर और दयम ीरामजीको वरा जत कर तथा अपने मनको
जगद श ीरामच जीके चरणकमल म न य नवास करनेवाला मर बनाकर पृ वीपर
नभय वचरण कर ।। ५ ।।
[१३६]
[१]
जव जबत ह रत बलगा यो । तबत दे ह गेह नज जा यो ।।
मायाबस व प बसरायो । ते ह मत दा न ख पायो ।।
पायो जो दा न सह ख, सुख-लेस सपने ँ न ह म यो ।
भव-सूल, सोक अनेक जे ह, ते ह पंथ तू ह ठ ह ठ च यो ।।
ब जो न जनम, जरा, बप त, म तमंद! ह र जा यो नह ।
ीराम बनु ब ाम मूढ़! बचा , ल ख पायो कह ।।
[२]
आनँद- सधु-म य तव बासा । बनु जाने कस मर स पयासा ।।
मृग- म-बा र स य जय जानी । तहँ तू मगन भयो सुख मानी ।।
तहँ मगन म ज स, पान क र, यकाल जल नाह जहाँ ।
नज सहज अनुभव प तव खल! भू ल अब आयो तहाँ ।।
नरमल, नरंजन नर बकार, उदार सुख त प रहरयो ।
नःकाज राज बहाय नृप इव सपन कारागृह परयो ।।
[३]
त नज करम-डो र ढ़ क ह । अपने कर न गाँ ठ ग ह द ह ।।
ताते परबस परयो अभागे । ता फल गरभ-बास- ख आगे ।।
आगे अनेक समूह संसृत उदरगत जा यो सोऊ ।
सर हेठ, ऊपर चरन, संकट बात न ह पूछै कोऊ ।।
सो नत-पुरीष जो मू -मल कृ म-कदमावृत सोवई ।
कोमल सरीर, गँभीर बेदन, सीस धु न-धु न रोवई ।।
[४]
तू नज करम-जाल जहँ घेरो । ीह र संग त यो न ह तेरो ।।
ब ब ध तपालन भु क ह । परम कृपालु यान तो ह द ह ।।
तो ह दयो यान- बबेक, जनम अनेकक तब सु ध भई ।
ते ह ईसक ह सरन, जाक बषम माया गुनमई ।।
जे ह कये जीव- नकाय बस, रसहीन, दन- दन अ त नई ।
सो करौ बे ग सँभा र ीप त, बप त, महँ जे ह म त दई ।।
[५]
पु न ब ब ध गला न जय मानी । अब जग जाइ भज च पानी ।।
ऐसे ह क र बचार चुप साधी । सव-पवन ेरेउ अपराधी ।।
ेरयो जो परम चंड मा त, क नाना त स ो ।
सो यान, यान, बराग, अनुभव जातना-पावक द ो ।।
अ त खेद याकुल, अलप बल, छन एक बो ल न आवई ।
तव ती क न जान कोउ, सब लोग हर षत गावई ।।
[६]
बाल दसा जेते ख पाये । अ त असीम, न ह जा ह गनाये ।।
छु धा- या ध-बाधा भइ भारी । बेदन न ह जानै महतारी ।।
जननी न जानै पीर सो, के ह हेतु ससु रोदन करै ।
सोइ करै ब बध उपाय, जात अ धक तुव छाती जरै ।।
कौमार, सैसव अ कसोर अपार अघ को क ह सकै ।
य तरेक तो ह नरदय! महाखल! आन क को स ह सकै ।।
[७]
जोबन जुवती सँग रँग रा यो । तब तू महा मोह-मद मा यो ।।
ताते तजी धरम-मरजादा । बसरे तब सब थम बषादा ।।
बसरे बषाद, नकाय-संकट समु झ न ह फाटत हयो ।
फ र गभगत-आवत संसृ तच जे ह होइ सोइ कयो ।।
कृ म-भ म- बट-प रनाम तनु, ते ह ला ग जग बैरी भयो ।
परदार, परधन, ोहपर, संसार बाढ़ै नत नयो ।।
[८]
दे खत ही आई ब धाई । जो त सपने ँ ना ह बुलाई ।।
ताके गुन कछु कहे न जाह । सो अब गट दे खु तनु माह ।।
सो गट तनु जरजर जराबस, या ध, सूल सतावई ।
सर-कंप, इ य-स तहत, बचन का न भावई ।।
गृहपाल त अ त नरादर, खान-पान न पावई ।
ऐ स दसा न बराग तहँ, तृ णा-तरंग बढ़ावई ।।
[९]
क ह को सकै महाभव तेरे । जनम एकके कछु क गनेरे ।।
चा र खा न संतत अवगाह । अज ँ न क बचार मन माह ।।
अज ँ बचा , बकार त ज, भजु राम जन-सुखदायकं ।
भव सधु तर जलरथं, भजु च धर सुरनायकं ।।
बनु हेतु क नाकर, उदार, अपार-माया-तारनं ।
कैव य-प त, जगप त, रमाप त, ानप त, ग तकारनं ।।
[१०]
रघुप त-भग त सुलभ, सुखकारी । सो यताप-सोक-भय-हारी ।।
बनु सतसंग भग त न ह होई । ते तब मल वै जब सोई ।।
जब वै द नदयालु राघव, साधु-संग त पाइये ।
जे ह दरस-परस-समागमा दक पापरा स नसाइये ।।
जनके मले ख-सुख समान, अमानता दक गुन भये ।
मद-मोह लोभ- बषाद- ोध सुबोधत सहज ह गये ।।
[११]
सेवत साधु ै त-भय भागै । ीरघुबीर-चरन लय लागै ।।
दे ह-ज नत बकार सब यागै । तब फ र नज व प अनुरागै ।।
अनुराग सो नज प जो जगत बल छन दे खये ।
स तोष, सम, सीतल, सदा दम, दे हवंत न ले खये ।।
नरमल, नरामय, एकरस, ते ह हरष-सोक न यापई ।
ैलोक-पावन सो सदा जाक दसा ऐसी भई ।।
[१२]
जो ते ह पंथ चलै मन लाई । तौ ह र काहे न हो ह सहाई ।।
जो मारग ु त-साधु दखावै । ते ह पथ चलत सबै सुख पावै ।।
पावै सदा सुख ह र-कृपा, संसार-आसा त ज रहै ।
सपने ँ नह सुख ै त-दरसन, बात को टक को कहै ।।
ज, दे व, गु , ह र, संत बनु संसार-पार न पाइये ।
यह जा न तुलसीदास ासहरन रमाप त गाइये ।।
[१]
भावाथ—हे जीव! जबसे तू भगवान्से अलग आ तभीसे तूने शरीरको अपना घर मान
लया। मायाके वश होकर तूने अपने ‘स चदान द’ व पको भुला दया, और इसी मके
कारण तुझे दा ण ःख भोगने पड़े। तुझे बड़े ही क ठन (ज म-मरण पी) असहनीय ःख
मले। सुखका तो व म भी लेश नह रहा। जस मागम अनेक संसारी क और शोक भरे
पड़े ह, तू उसीपर हठपूवक बार-बार चलता रहा। अनेक यो नय म भटका, बूढ़ा आ,
वप याँ सह , (मर गया)। पर, अरे मूख! तूने इतनेपर भी ीह रको नह पहचाना! अरे
मूढ़! वचारकर दे ख, ीरामजीको छोड़कर ( कसीने) या कह शा त ा त क है?
[२]
हे जीव! तेरा नवास तो आन दसागरम है, अथात् तू आन द व प ही है, तो भी तू उसे
भुलाकर य यासा मर रहा है? तू ( वषय-भोग पी) मृगजलको स चा जानकर उसीम सुख
समझकर म न हो रहा है। उसीम डू बकर नहा रहा है और उसीको पी रहा है; पर तु उस
( वषय-भोग पी) मृगतृ णाके जलम तो (सुख पी) स चा जल तीन कालम भी नह है। अरे
! तू अपने सहज अनुभव- पको भूलकर आज यहाँ आ पड़ा है। तूने अपने उस वशु ,
अ वनाशी और वकारर हत परम सुख व पको छोड़ दया है और थ ही (उसी कार
ःखी हो रहा है) जैसे कोई राजा सपनेम राज छोड़कर कैदखानेम पड़ जाता है और थ ही
ःखी होता है अथात् सपनेम भी राजा राजा ही है, पर तु मोहवश अपने संक पसे रा यसे
वं चत होकर कारागारम पड़ जाता है और जबतक जागता नह , तबतक थ ही ःख
भोगता है। इसी कार जीव भी स चदान द व पको मवश भूलकर जगत्म अपनेको
मायासे बँधा मान लेता है और ःखी होता है।
[३]
तूने वयं ही (अ ानसे) अपनी कम पी र सी मजबूत कर ली, और अपने ही हाथ से
उसम (अ व ाक ) प क गाँठ भी लगा द । इसीसे हे अभागे! तू परत पड़ा आ है। और
इसीका फल आगे गभम रहनेका ःख होगा। संसारम जो अनेक लेश के समूह ह उ ह वही
जानता है जो माताके पेटम पड़ा है। गभम सर तो नीचे और पैर ऊपर रहते ह। इस भयानक
संकटके समय कोई बात भी नह पूछता। र , मल, मू , व ा, क ड़े और क चसे घरा आ
(गभम) सोता है। कोमल शरीरम जब बड़ी भारी वेदना होती है, तब सर धुन-धुनकर रोता है।
[४]
इस कार जहाँ तुझे तेरे कमजालने घेर लया था (और उसके कारण तू ःख पाता था)
ीह रने वहाँ भी तेरा साथ नह छोड़ा। (गभम) भुने नाना कारसे तेरा पालन-पोषण
कया, और फर परम कृपालु वामीने तुझे वह ान भी दया। जब तुझे ह रने ान- ववेक
दया, तब तुझे अपने अनेक ज म क बात याद आय और तू कहने लगा—‘ जसक यह
गुणमयी माया अ त तर है, म उसी परमे रक शरण ँ। जस मायाने जीव-समूहको
अपने वशम करके उनके जीवनको नीरस अथात् आन दर हत कर दया है और जो त दन
अ य त नयी बनी रहती है, (ऐसी माया पी) जस ल मीके प तने गभकालक इस वप म
मुझे ऐसी ववेक-बु द है वही मेरी इससे तुरंत र ा कर।’
[५]
फर तू (पूव-ज म म भजन न करनेके लये) अपने मनम ब त भाँ तसे ला न मानकर
कहने लगा क अबक बार (संसारम) ज म लेकर तो च धारी भगवान्का भजन ही क ँ गा।
ऐसा वचारकर य ही चुप आ क सवकालके पवनने तुझ अपराधीको े रत कया, उस
अ त च ड वायुके ारा े रत होकर तूने (ज मके समय) नाना कारके क को सहा। उस
समय उस भयानक क क आगम तेरा ान, यान, वैरा य और अनुभव सभी कुछ जल
गया, अथात् मारे क के तू सब भूल गया। अ य त क के कारण तू ाकुल हो गया और
थोड़ा बल होनेसे एक ण भी तुझसे बोला नह गया। उस समयके तेरे दा ण ःखको
कसीने न जाना, उलटे सब लोग (पु होनेके आन दम) ह षत होकर गाने लगे।
[६]
फर बचपनम तूने जतने महान् क पाये, वे इतने अ धक ह क उनक गणना करना
अस भव है। भूख, रोग और अनेक बड़ी-बड़ी बाधा ने तुझे घेर लया, पर तेरी माँको तेरे
इन सब क का यथाथ पता नह लगा। माँ यह नह जानती क ब चा कस लये रो रहा है,
इससे वह बार-बार ऐसे ही उपाय करती है, जससे तेरी छाती और भी अ धक जले। (जैसे
अजीणके कारण पेट खनेसे ब चा रोता है, पर माता उसे भूखा समझकर और खलाती है,
जससे उसक बीमारी बढ़ जाती है।) शशु, कुमार और कशोराव थाम तू जो अपार पाप
करता है, उसका वणन कौन करे? अरे नदय! महा ! तुझे छोड़कर और कौन ऐसा है जो
इ ह सह सकेगा?
[७]
जवानीम तू युवती ीक आस म फँसा, तब तो महान् अ ान और मदम मतवाला हो
गया। उस जवानीके नशेम तूने धमक मयादा छोड़ द और पहले (गभम और लड़कपनम)
जो क ए थे, उन सबको भुला दया (और पाप करने लगा)। पछले क समूह को भूल
गया। (अब पाप करनेसे) आगे तुझे जो संकट ा त ह गे, अरे, उनपर वचार करके तेरी
छाती नह फट जाती? जससे फर गभके गड् ढे म गरना पड़े, संसार-च म आना पड़े, तूने
बारंबार वैसे ही कम कये। जस शरीरका प रणाम (मरनेपर) क ड़ा, राख या व ा होगा,
(क म गाड़नेसे सड़कर क ड़ के पम बदल जायगा, जलानेपर राख हो जायगा या जीव-
ज तु खा डालगे तो उनक व ा बन जायगा) उसीके लये तू सारे संसारका श ु बन बैठा।
परायी ी और पराये धन (पर ी त) और सर से ोह, यही संसारम न य नया बढ़ता
गया।
[८]
दे खते-ही-दे खते बुढ़ापा आ प ँचा, जसे तूने व म भी नह बुलाया था; उस बुढ़ापेका
हाल कहा नह जाता। उसे अब अपने शरीरम य दे ख ले, शरीर जजर हो गया है;
बुढ़ापेके कारण रोग और शूल सता रहे ह, सर हल रहा है, इ य क श न हो गयी है।
तेरा बोलना कसीको अ छा नह लगता, घरक रखवाली करनेवाला कु ा भी तेरा नरादर
करता है अथवा कु ेसे भी बढ़कर तेरा नरादर होने लगा है। (कु ेको रसे रोट फकते ह,
पर उसे समयपर तो दे दे ते ह, तेरी उतनी भी सँभाल नह ) अ धक या तू खाने-पीनेतकको
नह पाता। बुढ़ापेम ऐसी दशा होनेपर तुझे वैरा य नह होता? इस दशाम भी तू तृ णाक
तरंग को बढ़ाता ही जाता है।
[९]
ये तो तेरे एक ज मके कुछ थोड़े-से क गनाये गये ह, ऐसे अनेक बड़े-बड़े ज म क
सबक कथा तो कौन कह सकता है? सदा चार खान ( प डज, अ डज, वेदज, उ ज)
म घूमना पड़ता है। अब भी तू मनम वचार नह करता! अब भी वचारकर अ ानको छोड़ दे
और भ को सुख दे नेवाले भगवान् ीरामजीका भजन कर। वे तर भव-सागरके लये
जहाज प ह, तू उन सुदशनच धारण करनेवाले दे वप त भगवान्का भजन कर। वे बना ही
हेतु दया करनेवाले ह, बड़े ही उदार ह और इस अपार मायासे तारनेवाले ह। वे मो के,
संसारके, ल मीके और इन ाण के नाथ ह एवं मु के कारण ह।
[१०]
ीरघुनाथजीक भ सुलभ और सुखदा यनी है। वह संसारके तीन ताप, शोक और
भयको हरनेवाली है। क तु वह भ स संगके बना ा त नह होती; और संत तभी मलते
ह जब रघुनाथजी कृपा करते ह। जब द नदयालु रघुनाथजी कृपा करते ह तब संतसमागम
होता है। जन संत के दशन, पश और स संगसे पाप-समूह समूल न हो जाते ह, जनके
मलनेसे सुख- ःखम समबु हो जाती है, अमा नता आ द अनेक सद्गुण कट हो जाते ह
तथा भलीभाँ त परमा माका बोध हो जानेके कारण मद, मोह, लोभ, शोक, ोध आ द
सहज ही र हो जाते ह।
[११]
ऐसे साधु का सेवन करनेसे ै तका भय भाग जाता है, (सव परमा म-बु हो
जानेसे वह नभय हो जाता है) ीरघुनाथजीके चरण म यान लग जाता है। शरीरसे उ प
ए सब वकार छू ट जाते ह, और तब अपने व पम—आ म व पम ेम होता है। जसका
अपने व पम अनुराग हो जाता है, अथात् जो आ म व पको ा त हो जाता है उसक
दशा संसारम कुछ वल ण ही हो जाती है। स तोष, समता, शा त और मन-इ य का
न ह उसके वाभा वक हो जाते ह, फर वह अपनेको दे हधारी नह मानता अथात् उसका
दे हा म-बोध चला जाता है। वह वशु संसार-रोग-र हत और एकरस (परमा म व पम
न य थत) हो जाता है। फर उसे हष-शोक नह ापता। जसक ऐसी न य- थ त हो
गयी वह तीन लोक को प व करनेवाला होता है।
[१२]
जो मनु य इस मागपर मन लगाकर चलता है, भगवान् उसक सहायता य न करगे?
यह जो माग वेद और संत ने दखा दया है, उसपर चलनेसे सभी कारके सुख क ा त
होगी। इस मागपर चलनेवाला साधक सांसा रक ( वषय से सुखक ) आशाको यागकर
भगव कृपासे न य (अ ै त के) सुखको ा त करता है। य तो करोड़ बात ह, उ ह कौन
कहता फरे? पर तु जहाँतक ै त दखलायी भी दे ता है वहाँतक सपनेम भी स चा सुख नह
मल सकता, (स चा सुख अ ै त- व पम थत होनेम ही है, इसीको संसार-सागरसे
पार होना कहते ह) पर तु ा ण, दे वता, गु , ह र और संत (क कृपा) के बना कोई
संसार-सागरका पार नह पा सकता, यह समझकर तुलसीदास भी (संसारके) भयको र
करनेवाले ल मीप त भगवान्के गुण गाता है।
राग बलावल
[१३७]
जो पै कृपा रघुप त कृपालुक , बैर औरके कहा सरै ।
होइ न बाँको बार भगतको, जो कोउ को ट उपाय करै ।। १ ।।
तकै नीचु जो मीचु साधुक , सो पामर ते ह मीचु मरै ।
बेद- ब दत हलाद-कथा सु न, को न भग त-पथ पाउँ धरै? ।। २ ।।
गज उधा र ह र थ यो बभीषन, ुव अ बचल कब ँ न टरै ।
अंबरीष क साप सुर त क र, अज ँ महामु न ला न गरै ।। ३ ।।
स ध कहा जु न कयो सुजोधन, अबुध आपने मान जरै ।
भु- साद सौभा य बजय-जस, पांडवनै* ब रआइ बरै ।। ४ ।।
जोइ जोइ कूप खनैगो परकहँ, सो सठ फ र ते ह कूप परै ।
सपने ँ सुख न संत ोहीकहँ, सुरत सोउ बष-फर न फरै ।। ५ ।।
ह काके ै सीस ईसके जो ह ठ जनक सीवँ चरै ।
तुल सदास रघुबीर-बा बल सदा अभय का न डरै ।। ६ ।।
भावाथ—य द कृपालु रघुनाथजीक कृपा है, तो सर के वैर करनेसे उनका या काम
नकल सकता है? भ का बाल भी बाँका नह होता, चाहे कोई करोड़ उपाय य न
करे ।। १ ।। जो नीच संतक मौत वचारता है, वह पामर वयं उसी मौतसे मरता है।
ादक कथा वेद म स है, उसे सुनकर ऐसा कौन (अभागा) होगा, जो भ -मागपर
पैर न रखेगा, यानी भ न करेगा? ।। २ ।। ीह रने गजराजका उ ार कया, वभीषणको
रा य- सहासनपर बैठाया, ुवको ऐसा अटल पद दे दया जो कभी हटता ही नह और
अ बरीषक तो बात ही नराली है, महामु न ( वासा) ने जो उनको शाप था, उसका प रणाम
याद करके अब भी वे ला नसे गले जाते ह, लाजसे मरे जाते ह ।। ३ ।। य धनने अपनी
जानम, ऐसी कौन-सी बुराई है, जो पा डव के साथ नह क । वह मूख अपने ही घमंडम
जलता रहा। पर भगवान्क कृपासे सौभा य, वजय और यशने पा डव को ही हठपूवक
अपनाया ।। ४ ।। जो सरेके लये कुआँ खोदे गा, वह वयं उसीम गरेगा। संत के साथ
वैर करनेवालेको व म भी सुख नह हो सकता। उसके लये तो क पवृ भी जहरीले फल
ही फलेगा ।। ५ ।। कसके दो सर ह जो भगवान्के भ क सीमा लाँघेगा? हे तुलसीदास!
जसके ीरघुनाथजीका बा -बल सहायक है, वह सदा नभय है, कसीसे भी नह डर
सकता ।। ६ ।।
[१३८]
कब ँ सो कर-सरोज रघुनायक! ध रहौ नाथ सीस मेरे ।
जे ह कर अभय कये जन आरत, बारक बबस नाम टे रे ।। १ ।।
जे ह कर-कमल कठोर संभुधनु भं ज जनक-संसय मे ो ।
जे ह कर-कमल उठाइ बंधु य , परम ीती केवट भ ो ।। २ ।।
जे ह कर-कमल कृपालु गीधकहँ, पड दे इ नजधाम दयो ।
जे ह कर बा ल बदा र दास- हत, क पकुल-प त सु ीव कयो ।। ३ ।।
आयो सरन सभीत बभीषन जे ह कर-कमल तलक क ह ।
जे ह कर ग ह सर चाप असुर ह त, अभयदान दे व ह द ह ।। ४ ।।
सीतल सुखद छाँह जे ह करक , मेट त पाप, ताप, माया ।
न स-बासर ते ह कर सरोजक , चाहत तुल सदास छाया ।। ५ ।।
भावाथ—हे रघुनाथजी! हे वामी! या आप कभी अपने उस कर-कमलको मेरे
माथेपर रखगे, जससे आपने, परत तावश एक बार आपका नाम लेकर पुकार करनेवाले
आ भ को अभय कर दया था ।। १ ।। जस कर-कमलसे महादे वजीका कठोर धनुष
तोड़कर आपने महाराज जनकका स दे ह र कया था और जस कर-कमलसे गुह- नषादको
उठाकर भाईके समान बड़े ही ेमसे दयसे लगा लया था ।। २ ।। हे कृपालु! जस कर-
कमलसे आपने (जटायु) गीधको ( पताके समान) प ड-दान दे कर अपना परम धाम दया
था, और जस हाथसे, अपने दासके लये बा लको मारकर, सु ीवको बंदर के कुलका राजा
बना दया था ।। ३ ।। जस कर-कमलसे आपने भयभीत शरणागत वभीषणका
रा या भषेक कया था और जस हाथसे धनुष-बाण चढ़ा रा स का वनाश कर दे वता को
अभय-दान दया था ।। ४ ।। तथा जस कर-कमलक शीतल और सुखदायक छाया पाप,
स ताप और मायाका नाश कर डालती है, हे भु! आपके उसी कर-कमलक छाया यह
तुलसीदास रात- दन चाहा करता है ।। ५ ।।
[१३९]
द नदयालु, रत दा रद ख नी सह त ँ ताप तई है ।
दे व वार पुकारत आरत, सबक सब सुख हा न भई है ।। १ ।।
भुके बचन, बेद-बुध-स मत, ‘मम मूर त म हदे वमई है’ ।
तनक म त रस-राग-मोह-मद, लोभ लालची ली ल लई है ।। २ ।।
राज-समाज कुसाज को ट कटु कल पत कलुष कुचाल नई है ।
नी त, ती त, ी त पर मत प त हेतुबाद ह ठ हे र हई है ।। ३ ।।
आ म-बरन-धरम- बर हत जग, लोक-बेद-मरजाद गई है ।
जा प तत, पाखंड-पापरत, अपने अपने रंग रई है ।। ४ ।।
सां त, स य, सुभ, री त गई घ ट, बढ़ कुरी त, कपट-कलई है ।
सीदत साधु, साधुता सोच त, खल बलसत, लस त खलई है ।। ५ ।।
परमारथ वारथ, साधन भये अफल, सफल न ह स सई है ।
कामधेनु-धरनी क ल-गोमर- बबस बकल जाम त न बई है ।। ६ ।।
क ल-करनी बर नये कहाँ ल , करत फरत बनु टहल टई है ।
तापर दाँत पी स कर म जत, को जानै चत कहा ठई है ।। ७ ।।
य य नीच चढ़त सर ऊपर, य य सीलबस ढ ल दई है ।
स ष बर ज तर जये तरजनी, कु हलैहै कु हड़ेक जई है ।। ८ ।।
द जै दा द दे ख ना तौ ब ल, मही मोद-मंगल रतई है ।
भरे भाग अनुराग लोग कह, राम कृपा- चतव न चतई है ।। ९ ।।
बनती सु न सानंद हे र हँ स, क ना-बा र भू म भजई है ।
राम-राज भयो काज, सगुन सुभ, राजा राम जगत- बजई है ।। १० ।।
समरथ बड़ो, सुजान सुसाहब, सुकृत-सैन हारत जतई है ।
सुजन सुभाव सराहत सादर, अनायास साँस त बतई है ।। ११ ।।
उथपे थपन, उजा र बसावन, गई बहो र बरद सदई है ।
तुलसी भु आरत-आर तहर, अभयबाँह के ह के ह न दई है ।। १२ ।।
भावाथ—हे द नदयालु! पाप, दा र य, ःख और तीन कारके ःसह दै वक, दै हक,
भौ तक ताप से नया जली जा रही है। हे भगवन्! यह आ आपके ारपर पुकार रहा है,
य क सभीके सब कारके सुख जाते रहे ह ।। १ ।। वेद और व ान क स म त है तथा
भुके ीमुखके वचन ह क ा ण सा ात् मेरा ही व प ह; पर आज उन ा ण क
बु को ोध, आस , मोह, मद और लालची लोभने नगल लया है अथात् वे अपने
वाभा वक शम-दमा द गुण को छोड़कर अ ानी, कामी, ोधी, घमंडी और लोभी हो गये
ह ।। २ ।। इसी तरह राजसमाज ( य-जा त) करोड़ कुचाल से भर गया है, वे (मनमाने
पम लूटमार, अ याय, अ याचार, भचार, अनाचार प) न य नयी कुचाल चल रहे ह
और हेतुवाद (ना तकता) ने राजनी त, (ई र और शा पर यथाथ) व ास, ेम, धमक
और कुलक मयादाका ढूँ ढ़-ढूँ ढ़कर नाश कर दया है ।। ३ ।। संसार वण और आ म-धमसे
भलीभाँ त वहीन हो गया है। लोक और वेद दोन क मयादा चली गयी। न कोई लोकाचार
मानता है और न शा क आ ा ही सुनता है। जा अवनत होकर पाख ड और पापम रत
हो रही है। सभी अपने-अपने रंगम रँग रहे ह, यथे छाचारी हो गये ह ।। ४ ।। शा त, स य
और सु थाएँ घट गय और कु थाएँ बढ़ गयी ह तथा (सभी आचरण पर) कपट (द भ) क
कलई हो गयी है (एवं राचार तथा छल-कपटक बढ़ती हो रही है)। साधुपु ष क पाते ह,
साधुता शोक त है, मौज कर रहे ह और ता आन द मना रही है अथात् बगुला-भ
बढ़ गयी है ।। ५ ।। परमाथ वाथम प रणत हो गया अथात् ान, भ , परोपकार और
धमके नामपर लोग धन बटोरने लगे ह। ( व धपूवक न करनेसे) साधन न फल होने लगे ह
और स याँ ा त होनी बंद हो गयी ह, कामधेनु पी पृ वी क लयुग पी गोमर (कसाई) के
हाथम पड़कर ऐसी ाकुल हो गयी है क उसम जो बोया जाता है, वह जमता ही नह
(जहाँ-तहाँ भ पड़ रहे ह) ।। ६ ।। क लयुगक करनी कहाँतक बखानी जाय? यह बना
कामका काम करता फरता है। इतनेपर भी दाँत पीस-पीसकर हाथ मल रहा है। न जाने
इसके मनम अभी या- या है ।। ७ ।। हे भु! य - य आप शीलवश इसे ढ ल दे रहे ह,
मा करते जाते ह, य -ही- य यह नीच सरपर चढ़ता जाता है। जरा ोध करके इसे डाँट
द जये। आपक तरजनी दे खते ही यह कु हड़ेक ब तयाक तरह मुरझा जायगा ।। ८ ।।
आपक बलैया लेता ँ, दे खकर याय क जये, नह तो अब पृ वी आन द-मंगलसे शू य हो
जायगी। ऐसा क जये, जसम लोग बड़भागी होकर ेमपूवक यह कह क ीरामजीने हम
कृपा से दे खा है (बड़भागी वही है जसका रामके चरण म अनुराग है। यह अनुराग
ीरामकृपासे ही ा त होता है) ।। ९ ।। मेरी यह वनती सुनकर ीरामजीने आन दसे मेरी
ओर दे खा और मुसकराकर क णाक ऐसी वृ क जससे सारी भू म तर हो गयी।
( दयका सारा थान शा तसे पूण हो गया) रामरा य होनेसे सब काम सफल हो गये। शुभ
शकुन होने लगे, य क महाराज रामच जी जग जयी ह ( दयम उनके वरा जत होते ही
क लयुगक सारी सेना भाग गयी) ।। १० ।। सवसमथ ान व प दयालु वामीने पु य पी
सेनाको हारनेसे जता लया, स वभावसे ही आदरपूवक उनक सराहना करते ह क
नाथने सहज ही सारी यातनाएँ र कर द ।। ११ ।। (पर तु) आप ऐसा य न करते?
आपका तो सदासे यह बाना चला आता है क उजड़े एको बसाना और गयी ई व तुको
फरसे दला दे ना (जैसे वभीषण और सु ीवको रा यपर बठा दे ना, जैसे रावणके भयसे डरे
ए दे वता को फरसे वगम बसा दे ना)। हे तुलसी! ः खय के ःख रकर भगवान्ने
कस- कसको अभय बाँह नह द ? ।। १२ ।।
[१४०]
ते नर नरक प जीवत जग भव-भंजन-पद- बमुख अभागी ।
न सबासर चपाप असु चमन, खलम त-म लन, नगमपथ- यागी ।। १ ।।
न ह सतसंग भजन न ह ह रको, वन न राम-कथा-अनुरागी ।
सुत- बत-दार-भवन-ममता- न स सोवत अ त, न कब ँ म त जागी ।। २ ।।
तुल सदास ह रनाम-सुधा त ज, सठ ह ठ पयत बषय- बष माँगी ।
सूकर- वान-सृगाल-स रस जन, जनमत जगत जन न- ख लागी ।। ३ ।।
भावाथ—वे अभागे मनु य संसारम नरक प होकर जी रहे ह, जो ज म-मरण प
भवका भंजन करनेवाले ीभगवान्के चरण से वमुख ह। उनक च रात- दन पाप म ही
लगी रहती है। उनका मन अशु रहता है। उन क बु म लन रहती है, और वे वेदो
मागको छोड़े ए ह ।। १ ।। न तो वे संत का संग ही करते ह, न भगव जन करते ह और न
उनके कान को ीरामक कथा यारी लगती है। वे तो बस, सदा-सवदा ी-पु -धन और
मकान आ दक ममता पी रा म ही अचेत सोते रहते ह। उनक बु (इस ‘मेरे-मेरे’ क
न ासे) कभी जागती ही नह ।। २ ।। हे तुलसीदास! जो ीह र-नाम- पी अमृतको
छोड़कर हठपूवक वषय पी जहर माँग-माँगकर (धन-पु आ दक कामना करके) पीते ह,
वे मनु य सूअर, कु े और गीदड़के समान जगत्म केवल अपनी माँको ःख दे नेके लये ही
ज म लेते ह ।। ३ ।।
[१४१]
रामचं ! रघुनायक तुमस ह बनती के ह भाँ त कर ।
अघ अनेक अवलो क आपने, अनघ नाम अनुमा न डर ।। १ ।।
पर- ख खी सुखी पर-सुख ते, संत-सील न ह दय धर ।
दे ख आनक बप त परम सुख, सु न संप त बनु आ ग जर ।। २ ।।
भग त- बराग- यान साधन क ह ब ब ध डहकत लोग फर ।
सव-सरबस सुखधाम नाम तव, ब च नरक द उदर भर ।। ३ ।।
जानत ह नज पाप जल ध जय, जल-सीकर सम सुनत लर ।
रज-सम पर-अवगुन सुमे क र, गुन ग र-सम रजत नदर ।। ४ ।।
नाना बेष बनाय दवस- न स, पर- बत जे ह ते ह जुगु त हर ।
एकौ पल न कब ँ अलोल चत हत दै पद-सरोज सु मर ।। ५ ।।
जो आचरन बचार मेरो, कलप को ट ल ग औ ट मर ।
तुल सदास भु कृपा- बलोक न, गोपद- य भव सधु तर ।। ६ ।।
भावाथ—हे रघुकुल े रामच जी! म कस कार तुमसे वनय क ँ ? अपने अनेक
अघ (पाप ) क ओर दे खकर और तु हारा अनघ (पापर हत) नाम वचारकर डर रहा
ँ ।। १ ।। सरेके ःखसे ःखी तथा सरेके सुखसे सुखी होना संत का शील- वभाव है,
उसे तो म कभी दयम धारण ही नह करता। युत सर क वप दे खकर परम सुखी
होता ँ और सर क स प सुनकर तो बना ही आगके जला करता ँ ।। २ ।। भ ,
वैरा य, ान आ दके साधन का उपदे श दे ता आ म लोग को भाँ त-भाँ तसे ठगता फरता ँ
और शवके सव व तथा आन दके धाम तु हारे राम-नामको बेच-बेचकर नरकम ले जानेवाले
(पापी) पेटको भरता ँ ।। ३ ।। मनम जानता ँ क मेरे पाप समु के समान अपार ह; पर तु
जब सरे कसीके मुखसे अपने पाप के लये यह सुनता ँ क मेरेम पानीक बूँदके बराबर
भी पाप ह तब उससे लड़ने लगता ँ। भाव यह है क महापापी होनेपर भी लोग के मुखसे
परम पु या मा ही कहलाना चाहता ,ँ पर तु सर के धूलके कणके समान मामूली दोष को
भी सुमे पवतके समान बढ़ाकर बतलाता ।ँ और उनके पवतके समान (महान्) गुण को
धूलके समान तु छ बतलाकर उनका तर कार करता ँ (मेरी ऐसी करनी है) ।। ४ ।। भाँ त-
भाँ तके भेष बना-बनाकर दन-रात जस कसी भी उपायसे सर का धन हरण करता ।ँ
कभी एक पल भी थर च होकर ेमसे तु हारे चरण-कमल का मरण नह करता ।। ५ ।।
य द तुम मेरे आचरण पर वचार करने लगोगे तब तो मुझे करोड़ क पतक संसार पी
कड़ाहम ट- टकर जल मरना पड़ेगा, ज म-मरणसे कभी नह छू टूँ गा। पर य द तुम एक
बार कृपा कर दोगे, तो हे भो! म तुलसीदास उसीके भावसे इस संसार-सागरको
गायके खुरके समान सहज ही पार कर जाऊँगा ।। ६ ।।
[१४२]
सकुचत ह अ त राम कृपा न ध! य क र बनय सुनाव ।
सकल धरम बपरीत करत, के ह भाँ त नाथ! मन भाव ।। १ ।।
जानत ह ह र प चराचर, म ह ठ नयन न लाव ।
अंजन-केस- सखा जुवती, तहँ लोचन-सलभ पठाव ।। २ ।।
वन नको फल कथा तु हारी, यह समुझ , समुझाव ।
त ह वन न परदोष नरंतर सु न सु न भ र भ र ताव ।। ३ ।।
जे ह रसना गुन गाइ तहारे, बनु यास सुख पाव ।
ते ह मुख पर-अपवाद भेक य र ट-र ट जनम नसाव ।। ४ ।।
‘कर दय अ त बमल बस ह ह र,’ क ह क ह सब ह सखाव ।
ह नज उर अ भमान-मोह-मद खल-मंडली बसाव ।। ५ ।।
जो तनु ध र ह रपद साध ह जन, सो बनु काज गँवाव ।
हाटक-घट भ र धरयो सुधा गृह, त ज नभ कूप खनाव ।। ६ ।।
मन- म-बचन लाइ क हे अघ, ते क र जतन राव ।
पर- े रत इरषा बस कब ँक कय कछु सुभ, सो जनाव ।। ७ ।।
ब - ोह जनु बाँट परयो, ह ठ सबस बैर बढ़ाव ।
ता पर नज म त- बलास सब संतन माँझ गनाव ।। ८ ।।
नगम सेस सारद नहो र जो अपने दोष कहाव ।
तौ न सरा ह कलप सत ल ग भु, कहा एक मुख गाव ।। ९ ।।
जो करनी आपनी बचार , तौ क सरन ह आव ।
मृ ल सुभाउ सील रघुप तको, सो बल मन ह दखाव ।। १० ।।
तुल सदास भु सो गुन न ह, जे ह सपने ँ तुम ह रझाव ।
नाथ-कृपा भव सधु धेनुपद सम जो जा न सराव ।। ११ ।।
भावाथ—हे कृपा न ध रामजी! मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, म कस कार आपको
अपनी वनती सुनाऊँ? जो कुछ भी म करता ँ, सो सभी धमके व होता है। फर नाथ!
आपको म य अ छा लगने लगा? ।। १ ।। य प म यह जानता ँ क स पूण जड़-चेतन
भगवान् ीह रका ही प है, पर म उस ह र व पको भूलकर भी नह दे खता। म तो अपने
ने पी पतंग को का मनी पी अ नक शखाम (जलनेके लये) भेजता ँ ।। २ ।। म यह
समझता ँ और सर को भी समझाता ँ क कान क साथकता तो आपक कथा सुननेम ही
है; पर तु म तो उन कान से सदा सर के दोष सुन-सुनकर उ ह दयम भरता और स त त
होता ँ ।। ३ ।। जस जीभसे आपके गुणानुवाद गाकर बना ही प र मके परमसुख ा त
कर सकता ,ँ उस मुखसे (जीभसे) मेढकक ना सर क न दाएँ रट-रटकर अपना ज म
खो रहा ँ ।। ४ ।। म यह बात सबको सखाता फरता ,ँ क ‘ दयको अ य त शु कर लो,
तभी उसम भगवान् ीह र वराजगे’ क तु म वयं अपने दयम अ भमान, मोह और मद
आद क म डलीको बसाता ँ ।। ५ ।। जस लभ मनु य-शरीरको धारण कर भ जन
भगवान्के परमपदको ा त करनेक साधना करते ह, म उसे थ ही खो रहा ँ। घरम
सोनेके घड़ म अमृत भरा रखा है, पर उसे छोड़कर आकाशम कुआँ खुदवाता ँ ।। ६ ।।
मनसे, कमसे और वचनसे मने जो पाप कये ह, उ ह तो म य न कर-कर बड़े जतनसे
छपाता ।ँ और य द सर क ेरणासे अथवा ई यावश कह कोई शुभ कम बन गया है, तो
उसे जनाता फरता ँ ।। ७ ।। ा ण के साथ ोह करना तो मानो मेरे ह सेम ही आ गया
है। जबरद ती ही सबसे वैर बढ़ाता ँ। इतना (बु ) होनेपर भी, म सब संत के बीच
बैठकर अपनी बु के वलासको गनाता ँ (उनम उ म ानी संत बनता )ँ ।। ८ ।। चार
वेद, शेषनाग और शारदा आ दका नहोरा करके उनसे य द म अपने दोष का बखान कराऊँ,
तब भी, हे भो! मेरे वे दोष सौ क पतक समा त न ह गे! फर, भला म एक मुखसे उनका
कहाँतक वणन क ँ ? ।। ९ ।। य द म अपनी करनीपर वचार क ँ , तो या म आपक
शरणम आनेका साहस भी कर सकूँ? पर तु ीरामजीका बड़ा ही कोमल वभाव और
असीम शील है, इसी बातका बल मनको दखाता रहता ँ ।। १० ।। हे भो! इस
तुलसीदासके पास ऐसा एक भी गुण नह है, जससे व म भी आपको रझा सके। क तु हे
नाथ! आपक कृपाके आगे यह संसार-सागर गायके खुरके समान है। यह जानकर जीम
स तोष कर लेता ँ ( क आपक कृपासे म वपरीत आचरणवाला होनेपर भी संसार-समु से
सहज ही तर जाऊँगा) ।। ११ ।।
[१४३]
सुन राम रघुबीर गुसा , मन अनी त-रत मेरो ।
चरन-सरोज बसा र तहारे, न स दन फरत अनेरो ।। १ ।।
मानत ना ह नगम-अनुसासन, ास न का केरो ।
भू यो सूल करम-कोलु ह तल य ब बार न पेरो ।। २ ।।
जहँ सतसंग कथा माधवक , सपने ँ करत न फेरो ।
लोभ-मोह-मद-काम-कोह-रत, त हस ेम घनेरो ।। ३ ।।
पर-गुन सुनत दाह, पर- षन सुनत हरख ब तेरो ।
आप पापको नगर बसावत, स ह न सकत पर खेरो ।। ४ ।।
साधन-फल, ु त-सार नाम तव, भव-स रता कहँ बेरो ।
सो पर-कर काँ कनी ला ग सठ, ब च होत ह ठ चेरो ।। ५ ।।
कब ँक ह संग त- भावत, जाऊँ सुमारग नेरो ।
तब क र ोध संग कुमनोरथ दे त क ठन भटभेरो ।। ६ ।।
इक ह द न, मलीन, हीनम त, बप तजाल अ त घेरो ।
तापर स ह न जाय क ना न ध, मनको सह दरेरो ।। ७ ।।
हा र परयो क र जतन ब त ब ध, तात कहत सबेरो ।
तुल सदास यह ास मटै जब दय कर तुम डेरो ।। ८ ।।
भावाथ—हे रामजी! हे रघुनाथजी! हे वामी! सु नये—मेरा मन अ यायम लगा आ है,
आपके चरण-कमल को भूलकर दन-रात इधर-उधर ( वषय म) भटकता फरता है ।। १ ।।
न तो वह वेदक ही आ ा मानता है और न उसे कसीका डर ही है। वह ब त बार कम पी
को म तलक तरह पेरा जा चुका है, पर अब उस क को भूल गया है ।। २ ।। जहाँ स संग
होता है, भगवान्क कथा होती है, वहाँ वह मन व म भी भूलकर भी नह जाता। पर तु जो
लोभ, मोह, मद, काम और ोधम म न रहते ह, उ ह ( ) से वह अ धक ेम करता
है ।। ३ ।। सर के गुण सुनकर वह (डाहके मारे) जला जाता है और सर के दोष सुनकर
बड़ा भारी हरखाता है। वयं तो पाप का नगर बसा रहा है, पर सरेके (पाप के) खेड़ेको भी
नह दे ख सकता। भाव यह क अपने बड़े-बड़े पाप पर तो कुछ भी यान नह दे ता, पर तु
सर के जरासे पापको दे खकर ही उनक न दा करता है ।। ४ ।। आपका राम-नाम सारे
साधन का फल, वेद का सार और संसार पी नद से पार जानेके लये बेड़ा है, ऐसे राम-
नामको यह सरेके हाथम कौड़ी-कौड़ीके लये बेचता आ जबरद ती उनका गुलाम
बनता फरता है ।। ५ ।। य द कभी स संगके भावसे भगवत्के मागके समीप जाता भी ँ
तो वषय क आस उभड़कर मनको तुरंत सांसा रक बुरी कामना पी गड़हेम ध का दे
दे ती है ।। ६ ।। एक तो म वैसे ही द न, पापी और बु हीन ँ तथा वप य के जालम खूब
फँसा पड़ा ,ँ तसपर, हे क णा न ध! मनके इस अस ध केको म कैसे सह सकता
?
ँ ।। ७ ।। म अनेक य न करके हार गया इससे म पहलेसे ही कहे दे ता ँ क तुलसीदासका
यह भय (ज म-मरणका ास) तभी र होगा, जब आप उसके दयम नवास करगे ।। ८ ।।
[१४४]
सो ध को जो नाम-लाज त, न ह रा यो रघुबीर ।
का नीक बनु कारन ही ह र हरी सकल भव-भीर ।। १ ।।
बेद- ब दत, जग- ब दत अजा मल ब वंधु अघ-धाम ।
घोर जमालय जात नवारयो सुत- हत सु मरत नाम ।। २ ।।
पसु पामर अ भमान- सधु गज यो आइ जब ाह ।
सु मरत सकृत सप द आये भु, हरयो सह उर दाह ।। ३ ।।
याध, नषाद, गीध, ग नका दक, अग नत औगुन-मूल ।
नाम-ओटत राम सब नक र करी सब सूल ।। ४ ।।
के ह आचरन घा ट ह तनत, रघुकुल-भूषन भूप ।
सीदत तुल सदास न सबासर परयो भीम तम-कूप ।। ५ ।।
भावाथ—हे रघुवीर! ऐसा कौन है, जसे आपने अपने नामक लाजसे अपनी शरणम
नह रखा? हे ह र! आप तो बना ही कारण क णा करनेवाले और (ज म-मरण पी)
संसारके भयको र करनेवाले ह ।। १ ।। वेदम कट है और संसारम भी स है क
अजा मल जा तका ा ण महान् पाप का थान था। यमलोक जाते समय जब उसने पु के
बहाने आपका ‘नारायण’ नाम लया तब आपने उसे यमलोक जानेसे रोक दया ।। २ ।। जब
मगरने महान् अ भमानी पामर पशु हाथीको पकड़ लया, तब उसके एक ही बार मरण
करनेपर, हे भो! आप वहाँ दौड़े आये और उसक ःसह हा दक पीड़ाको मटा दया
(मगरसे छु ड़ाकर उसे परमधाम दान कर दया) ।। ३ ।। ाध (वा मी क), नषाद (गुह),
गीध (जटायु), ग णका ( पगला) इ या द अग णत जीव जो पाप क जड़ थे, पर तु हे
रामजी! आपने अपने नामक ओटसे इन सबक सारी पीड़ा का नाश कर दया ।। ४ ।। हे
रघुवंशभूषण महाराज! म इन सब से कस आचरणम कम ? ँ फर भी म तुलसीदास रात-
दन भयानक अ ान पी कुएँम पड़ा ःख भोग रहा ँ (सबको नकाला है तो अब मुझे भी
नका लये) ।। ५ ।।
[१४५]
कृपा सधु! जन द न वारे दा द न पावत काहे ।
जब जहँ तुम ह पुकारत आरत, तहँ त हके ख दाहे ।। १ ।।
गज, हलाद, पांडुसुत, क प सबको रपु-संकट मे ो ।
नत, बंधु-भय- बकल, बभीषन, उ ठ सो भरत य भे ो ।। २ ।।
म तु हरो लेइ नाम ाम इक उर आपने बसाव ।
भजन, बबेक, बराग, लोग भले, म म- म क र याव ।। ३ ।।
सु न रस भरे कु टल कामा दक, कर ह जोर ब रआ ।
त ह ह उजा र ना र-अ र-धन पुर राख ह राम गुसा ।। ४ ।।
सम-सेवा-छल-दान-दं ड ह , र च उपाय प च हारयो ।
बनु कारनको कलह बड़ो ख, भुस ग ट पुकारयो ।। ५ ।।
सुर वारथी, अनीस, अलायक, नठु र, दया चत नाह ।
जाऊँ कहाँ, को बप त- नवारक, भवतारक जग माह ।। ६ ।।
तुलसी जद प पोच, तउ तु हरो, और न का केरो ।
द जै भग त-बाँह बारक, य सुबस बसै अब खेरो ।। ७ ।।
भावाथ—हे कृपासागर! यह तु हारा द न जन तु हारे ारपर सहायता य नह पाता?
जब, जहाँपर, ः खय ने तु ह पुकारा, तब वह पर तुमने उनके ःख र कर दये ।। १ ।।
गजराज, ाद, पा डव, सु ीव आ द सबके श ु से दये गये क तुमने र कर दये।
भाई रावणके डरसे ाकुल शरणागत वभीषणको उठाकर तुमने भरतक ना दयसे लगा
लया ( फर मेरे लये ही ऐसा य नह होता) ।। २ ।। म तु हारा नाम लेकर अपने दयम
एक गाँव बसाना चाहता ँ और उसम बसानेके लये म धीरे-धीरे भजन, ववेक, वैरा य आ द
स जन को इधर-उधरसे लाता ँ ।। ३ ।। पर यह सुनकर ो धत हो काम, ोध, लोभ,
मोह, मद, मा सय आ द जबरद ती करते ह और उन बेचारे भजन आ द भले आद मय को
नकाल- नकालकर, हे भो! उस गाँवम ी, श ु और धन आ द नीच को ला-लाकर
बसाते ह ।। ४ ।। साम, दाम, द ड, भेद और सेवा-टहल करके तथा और अनेक उपाय करके
म थक गया ,ँ तब हे भो! इस बना ही कारणक लड़ाईके इस महान् ःखको आज मने
तु हारे सामने खुलकर नवेदन कर दया है ।। ५ ।। (तु हारे सवा यह ःख और सुनाता भी
कसे, य क) दे वता तो वाथ , असमथ, अयो य और न ु र ह। उनके च म तो दया नह
है। म कहाँ जाऊँ? (तु हारे सवा) कौन वप र करनेवाला है? कौन इस संसार-सागरसे
पार उतारनेवाला है? ।। ६ ।। तुलसी य प नीच है, पर है तो तु हारा ही, और कसीका
गुलाम तो नह है। अपना जानकर एक बार भ पी बाँह दे दो; जससे यह (तु हारे
नामका) गाँव अ छ तरह आबाद हो जाय। अथात् दयम तु हारी भ के तापसे भजन,
ान, वैरा यका वकास होकर काम- ोधा दका नाश हो जाय ।। ७ ।।
[१४६]
ह सब ब ध राम, रावरो चाहत भयो चेरो ।
ठौर ठौर साहबी होत है, याल काल क ल केरो ।। १ ।।
काल-करम-इं य- बषय गाहकगन घेरो ।
ह न कबूलत, बाँ ध कै मोल करत करेरो ।। २ ।।
बं द-छोर तेरो नाम है, ब दै त बड़ेरो ।
म क ो, तब छल- ी त कै माँगे उर डेरो ।। ३ ।।
नाम-ओट अब ल ग ब यो मलजुग जग जेरो ।
अब गरीब जन पो षये पाइबो न हेरो ।। ४ ।।
जे ह कौतुक वानको भु याव नबेरो ।
ते ह कौतुक क हये कृपालु! ‘तुलसी है मेरो’ ।। ५ ।।
भावाथ—हे रामजी! म सब कार आपका दास बनना चाहता ँ, पर यहाँ तो जगह-
जगह साहबी हो रही है। भाव यह क मन और इ याँ सभी मेरे मा लक बन बैठे ह। यह सब
क लकालके खेल ह ।। १ ।। काल, कम और इ य पी ाहक ने मुझे घेर रखा है। जब म
उनके हाथ बकना कबूल नह करता, तब वे मुझे बाँधकर मुझपर कड़ा दाम चढ़ाते ह,
अथात् जैस-े तैसे लालच दखाकर अपने वशम करना चाहते ह ।। २ ।। आपका नाम
ब धनसे छु ड़ानेवाला है और आपका बाना भी बड़ा है; जब मने उन ( ाहक )-से यह कहा
क भाई! म तो रघुनाथजीके हाथ बक चुका ,ँ तब वे कपट- ेम दखाकर मुझसे मेरे दयम
बसनेके लये थान माँगने लगे (य द उ ह थान दये दे ता ँ, तो अभी तो वे द नता दखा रहे
ह, पर जगह मल जानेपर धीरे-धीरे उसपर अपना अ धकार जमा लगे) ।। ३ ।। अबतक म
आपके नामके सहारे बचा रहा, पर अब तो यह क लयुग मुझे जेर कये है। अतएव, अब इस
गरीब गुलामका पालन क जये, नह तो फर खोजनेसे भी इसका पता न लगेगा ।। ४ ।। हे
नाथ! आपने जस लीलासे प ी (उ लू) का१ और कु ेका२ फैसला कर दया था, उसी
लीलासे (इस क लयुगसे) यह भी कह द जये क ‘तुलसी मेरा है।’ (इतना कह दे नेसे फर
क लयुगका इसपर कुछ भी वश न चलेगा) ।। ५ ।।
[१४७]
कृपा सधु ताते रह न स दन मन मारे ।
महाराज! लाज आपुही नज जाँघ उघारे ।। १ ।।
मले रह, मारयौ चह कामा द संघाती ।
मो बनु रह न, मे रयै जार छल छाती ।। २ ।।
बसत हये हत जा न म सबक च पाली ।
कयो कथकको दं ड ह जड़ करम कुचाली ।। ३ ।।
दे खी सुनी न आजु ल अपनाय त ऐसी ।
कर ह सबै सर मेरे ही फ र परै अनैसी ।। ४ ।।
बड़े अलेखी ल ख पर, प रहरै न जाह ।
असमंजसम मगन ह , लीजै ग ह बाह ।। ५ ।।
बारक ब ल अवलो कये, कौतुक जन जी को ।
अनायास म ट जाइगो संकट तुलसीको ।। ६ ।।
भावाथ—हे कृपा स धु! इसी लये म रात- दन मन मारे रहता ँ, क हे महाराज! अपनी
जाँघ उघाड़नेसे अपनेको ही लाज लगती है ।। १ ।। यह काम, ोध, लोभ आ द साथी मले
भी रहते ह और मारना भी चाहते ह, ऐसे ह! ये मेरे बना रहते भी नह और छल करके
मेरी ही छाती जलाते ह। भाव यह क अपने ही बनकर मारते ह ।। २ ।। ये मेरे दयम बसते
ह, मने ऐसा समझकर ेमपूवक इन सबक च भी पूरी कर द है, अथात् सब वषय भोग
चुका ँ, फर भी इन और कुचा लय ने मुझे क थक (जा गर) क लकड़ी बना रखा है
(लकड़ीके इशारेसे जैसे नाच नचाते ह, वैसे ही ये मुझे नचाते ह) ।। ३ ।। ऐसी अपनायत
(आ मीयता) तो आजतक मने कह भी नह दे खी-सुनी। कम तो कर सब आप, और जो
कुछ बुराई हो, वह मेरे सर आवे ।। ४ ।। मुझे ये सब बड़े ही अ यायी द खते ह! पर छोड़े
नह जाते। बड़े ही असमंजसम पड़ा आ ँ। अब हाथ पकड़कर आप ही नका लये (नह
तो अपने-से बने ए ये मुझे मारकर ही छोड़गे) ।। ५ ।। आपक बलैया लेता ,ँ कृपाकर एक
बार अपने इस दासका यह कौतुक तो दे खये। आपके दे खते ही तुलसीका ःख सहज ही र
हो जायगा ।। ६ ।।
[१४८]
कह कौन मुहँ लाइ कै रघुबीर गुसा ।
सकुचत समुझत आपनी सब साइँ हाई ।। १ ।।
सेवत बस, सु मरत सखा, सरनागत सो ह ।
गुनगन सीतानाथके चत करत न ह ह ।। २ ।।
कृपा सधु बंधु द नके आरत- हतकारी ।
नत-पाल ब दावली सु न जा न बसारी ।। ३ ।।
सेइ न धेइ न सु म र कै पद- ी त सुधारी ।
पाइ सुसा हब राम स , भ र पेट बगारी ।। ४ ।।
नाथ गरीब नवाज ह, म गही न गरीबी ।
तुलसी भु नज ओर त ब न परै सो क बी ।। ५ ।।
भावाथ—हे रघुवीर! हे वामी! कौन-सा मुहँ लेकर आपसे कुछ क ँ? वामीक हाई
है, जब म अपनी करनीपर वचार करता ँ, तब संकोचके मारे चुप हो रहता ँ ।। १ ।। सेवा
करनेसे वशम हो जाते ह, मरण करनेसे म बन जाते ह और शरणम आनेसे सामने कट
हो जाते ह। ऐसे आप ीसीतानाथजीके गुण-समूहपर भी म यान नह दे ता ।। २ ।। आप
कृपाके समु ह, द न के ब धु ह, ः खय के हतू ह और शरणागत के पालनेवाले ह, आपक
ऐसी वरदावली सुनकर और जानकर भी म भूल गया ँ ।। ३ ।। मने न तो सेवा ही क और
न यान ही कया। मरण करके आपके चरण म स चा ेम भी नह कया। आप-सरीखे े
वामीको पाकर भी मने आपके साथ भर पेट बगाड़ ही कया ।। ४ ।। आप गरीब पर कृपा
करनेवाले ह; पर मने गरीबी धारण नह क । (अतएव मेरी ओर दे खनेसे तो कुछ भी नह
होगा) अब हे नाथ! अपनी ओर दे खकर ही जो आपसे बन पड़े सो क जये ।। ५ ।।
[१४९]
कहाँ जाउँ, कास कह , और ठौर न मेरे ।
जनम गँवायो तेरे ही ार ककर तेरे ।। १ ।।
म तो बगारी नाथ स आर तके ली ह ।
तो ह कृपा न ध य बनै मेरी-सी क ह ।। २ ।।
दन- र दन दन- रदसा, दन- ख दन- षन ।
जब ल तू न बलो कहै रघुबंस- बभूषन ।। ३ ।।
दई पीठ बनु डीठ म तुम ब व- बलोचन ।
तो स तुही न सरो नत-सोच- बमोचन ।। ४ ।।
पराधीन दे व द न ह , वाधीन गुसा ।
बोल नहारे स करै ब ल बनयक झा ।। ५ ।।
आपु दे ख मो ह दे खये जन मा नय साँचो ।
बड़ी ओट रामनामक जे ह लई सो बाँचो ।। ६ ।।
रह न री त राम रावरी नत हय लसी है ।
य भावै य क कृपा तेरो तुलसी है ।। ७ ।।
भावाथ—कहाँ जाऊँ? कससे क ँ? मुझे कोई और ठौर ही नह । इस तेरे गुलामने तो
तेरे ही दरवाजेपर (पड़े-पड़े) ज दगी काट है ।। १ ।। मने तो जो अपनी करनी बगाड़ी सो
हे नाथ! ःख से घबराया आ होनेके कारण बगाड़ी। पर तु हे कृपा नधे! य द तू भी मेरी
करनीक ओर दे खकर फल दे गा तो कैसे काम चलेगा? ।। २ ।। हे रघुकुलम े ! जबतक तू
(इस जीवक ओर कृपा से) नह दे खेगा, तबतक न य ही खोटे दन, न य ही बुरी दशा,
न य ही ःख और न य ही दोष लगे रहगे ।। ३ ।। म जो तुझे पीठ दये फरता ,ँ तुझसे
वमुख हो रहा ँ, सो म तो हीन ँ, अ धा ँ (अ ानी ँ) पर तू तो सारे व का ा है!
(तू मुझसे वमुख कैसे होगा?) तुझ-सा तो तू ही है, तेरे सवा द न- ः खय के शोक हरनेवाला
सरा कोई नह है ।। ४ ।। हे दे व! म परत ँ, द न ँ, पर तू तो वत है, वामी है। तेरी
ब लहारी! (चैत य प) बोलनेवालेसे उसक परछा या वनय कर सकती है? ।। ५ ।।
अतएव तू पहले अपनी ओर दे ख, फर मेरी ओर दे ख, तभी इस दासको स चा मानना। राम-
नामक ओट बड़ी भारी है। जस कसीने भी राम- नामक ओट ले ली वह (ज म-मरणके
च से) बच गया ।। ६ ।। हे राम! तेरी रहन-सहन सदा मेरे दयम लस रही है, तेरे शील-
वभाव वचारकर म मन-ही-मन बड़ा स हो रहा ँ क अब मेरी सारी करनी बन जायगी।
बस, यह तुलसी तेरा है, जस तरह हो, उसी तरह इसपर कृपा कर ।। ७ ।।
[१५०]
रामभ ! मो ह आपनो सोच है अ नाह ।
जीव सकल संतापके भाजन जग माह ।। १ ।।
नातो बड़े समथ स इक ओर कध ँ ।
तोको मोसे अ त घने मोको एकै तूँ ।। २ ।।
बड़ी गला न हय हा न है सरब य गुसा ।
कूर कुसेवक कहत ह सेवकक ना ।। ३ ।।
भलो पोच रामको कह मो ह सब नरनारी ।
बगरे सेवक वान य सा हब- सर गारी ।। ४ ।।
असमंजस मनको मटै सो उपाय न सूझै ।
द नबंधु! क जै सोई ब न परै जो बूझै ।। ५ ।।
ब दावली बलो कये त हम कोउ ह ह ।
तुलसी भुको प रहरयो सरनागत सो ह ।। ६ ।।
भावाथ—हे क याण- व प रामच जी! मुझे अपना सोच है भी और नह भी है,
य क इस संसारम जतने जीव ह वे सभी संतापके पा ह, (सभी ःखी ह) ।। १ ।। पर
या आप-जैसे बड़े समथसे सफ एक मेरी ही ओरसे स ब ध है? (शायद यही हो य क)
आपको तो मेर-े जैसे ब तेरे ह, क तु मेरे तो एक आप ही ह ।। २ ।। हे नाथ! आप तो घट-
घटक जानते ह, मेरे दयम यही बड़ी ला न हो रही है और इसीको म हा न समझता ँ क,
म ँ तो और बुरा सेवक, नमकहराम नौकर, पर बात कर रहा ँ स चे सेवक-जैसी। भाव
यह है क मेरा यह द भ आप सव के सामने कैसे छप सकता है? ।। ३ ।। पर तु भला ँ या
बुरा, सब ी-पु ष मुझे कहते तो रामका ही ह न? सेवक और कु ेके बगड़नेसे वामीके
सर ही गा लयाँ पड़ती ह। भाव यह क य द म बुराई क ँ गा तो लोग आपको ही बुरा
कहगे ।। ४ ।। मुझे वह उपाय भी नह सूझ रहा है, क जससे च का यह असमंजस मटे
अथात् मेरी नीचता र हो जाय और आपको भी कोई भला-बुरा न कहे। अब हे द नब धु!
जो आपको उ चत जान पड़े और जो बन सके, वही (मेरे लये) क जये ।। ५ ।। त नक
अपनी वरदावलीक ओर तो दे खये! म उ ह म कोई ँगा! (भाव यह क आप द नब धु ह,
तो या म द न नह ,ँ आप प तत-पावन ह, तो या म प तत नह ँ, आप णतपाल ह, तो
या म णत नह ? ँ इनमसे कुछ भी तो ँगा।) (इतनेपर भी) य द वामी इस तुलसीको
छोड़ दगे, तो भी यह उ ह के सामने शरणम जाकर पड़ा रहेगा। (आपको छोड़कर कह जा
नह सकता) ।। ६ ।।
[१५१]
जो पै चेराई रामक करतो न लजातो ।
तौ तू दाम कुदाम य कर-कर न बकातो ।। १ ।।
जपत जीह रघुनाथको नाम न ह अलसातो ।
बाजीगरके सूम य खल खेह न खातो ।। २ ।।
जौ तू मन! मेरे कहे राम-नाम कमातो ।
सीताप त सनमुख सुखी सब ठाँव समातो ।। ३ ।।
राम सोहाते तो ह जौ तू सब ह सोहातो ।
काल करम कुल कारनी कोऊ न कोहातो ।। ४ ।।
राम-नाम अनुरागही जय जो र तआतो ।
वारथ-परमारथ-पथी तो ह सब प तआतो ।। ५ ।।
सेइ साधु सु न समु झ कै पर-पीर परातो ।
जनम को टको काँदलो द- दय थरातो ।। ६ ।।
भव-मग अगम अनंत है, बनु म ह सरातो ।
म हमा उलटे नामक मु न कयो करातो ।। ७ ।।
अमर-अगम तनु पाइ सो जड़ जाय न जातो ।
होतो मंगल-मूल तू, अनुकूल बधातो ।। ८ ।।
जो मन, ी त- ती तस राम-नाम ह रातो ।

तुलसी राम सादस त ँताप ।। ९ ।।

भावाथ—अरे! जो तू ीरामजीक गुलामी करनेम न लजाता तो तू खरा दाम होकर


भी, खोटे दामक भाँ त इस हाथसे उस हाथ न बकता फरता। भाव यह क परमा माका
स य अंश होनेपर भी उनको भूल जानेके कारण जीव पसे एक यो नसे सरी यो नम
भटकता फर रहा है ।। १ ।। य द तू जीभसे ीरघुनाथजीका नाम जपनेम आल य न करता,
तो आज तुझे बाजीगरके सूमके स श धूल न फाँकनी पड़ती ।। २ ।। अरे मन! य द तू मेरा
कहा मानकर राम-नाम पी धन कमाता, तो ीजानक नाथ रघुनाथजीके स मुख उनक
शरणम जाकर सुखी हो जाता और सव तेरा आदर होता। लोक-परलोक दोन बन
जाते ।। ३ ।। जो तुझे ीरामजी अ छे लगे होते, तो तू भी सबको अ छा लगता; काल, कम
और कुल आ द जतने (इस जीवके) ेरक ह, वे सब फर कोई भी तुझपर ोध न करते।
सभी तेरे अनुकूल हो जाते ।। ४ ।। य द तू ीराम-नामसे ेम करता और उसीम अपनी लगन
लगाता, तो वाथ और परमाथ इन दोन के ही बटोही तुझपर व ास करते। अथात् तू संसार
और परलोक दोन म ही सुखी होता ।। ५ ।। जो तू संत क सेवा करता एवं सर का ःख
सुन और समझकर ःखी होता तो तेरे दय पी तालाबम जो करोड़ ज म का मैल जमा है,
वह नीचे बैठ जाता, तेरा अ तःकरण नमल हो जाता ।। ६ ।। ीरामका नाम न लेनेवाल के
लये संसारका माग अग य है और अन त है, क तु उसीको तू बना ही मके पार कर
जाता। जब ीरामके उलटे नामक भी इतनी म हमा है क उससे ाध (वा मी क) मु न बन
गये थे, तब सीधा नाम जपनेसे या नह हो जायगा? ।। ७ ।। अरे मूख! तेरा यह दे वता को
भी लभ (मानव) शरीर य ही न चला जाता! तू क याणका मूल हो जाता और वधाता तेरे
अनुकूल हो जाते ।। ८ ।। अरे मन! य द तू ेम और व ाससे राम-नामम लौ लगा दे ता, तो
हे तुलसी! ीराम-कृपासे तू तीन ताप म कभी न जलता (अथवा य द ‘न तातो’ क जगह!
‘नसातो’ पाठ माना जाय तो इसका अथ इस कार होगा—हे तुलसी! ीरामकृपासे तू अपने
तीन ताप को न कर दे ता) ।। ९ ।।
[१५२]
राम भलाई आपनी भल कयो न काको ।
जुग जुग जान कनाथको जग जागत साको ।। १ ।।
ा दक बनती करी क ह ख बसुधाको ।
र बकुल-कैरव-चंद भो आनंद-सुधाको ।। २ ।।
कौ सक गरत तुषार य त क तेज तयाको ।
भु अन हत हत को दयो फल कोप कृपाको ।। ३ ।।
हरयो पाप आप जाइकै संताप सलाको ।
सोच-मगन का ो सही सा हब म थलाको ।। ४ ।।
रोष-रा स भृगुप त धनी अह म त ममताको ।
चतवत भाजन क र लयो उपसम समताको ।। ५ ।।
मु दत मा न आयसु चले बन मातु- पताको ।
धरम-धुरंधर धीरधुर गुन-सील- जता को? ।। ६ ।।
गुह गरीब गत या त जे ह जउ न भखा को?
पायो पावन ेम त सनमान सखाको ।। ७ ।।
सदग त सबरी गीधक सादर करता को?
सोच-स व सु ीवके संकट-हरता को? ।। ८ ।।
रा ख बभीषनको सकै को?
आज बराजत राज है दसकंठ जहाँको ।। ९ ।।
बा लस बासी अवधको बू झये न खाको ।
सो पाँवर प ँचो तहाँ जहँ मु न-मन थाको ।। १० ।।
ग त न लहै राम-नामस ब ध सो सरजा को?
सु मरत कहत चा र कै ब लभ ग रजाको ।। ११ ।।
अक न अजा मलक कथा सानंद न भा को?
नाम लेत क लकाल ह रपुर ह न गा को? ।। १२ ।।
राम-नाम-म हमा करै काम-भु ह आको ।
साखी बेद पुरान ह तुलसी-तन ताको ।। १३ ।।
भावाथ— ीरामजीने अपने भले वभावसे कसका भला नह कया? युग-युगसे
ीजानक नाथजीका यह काय जगत्म स है ।। १ ।। ा आ द दे वता ने पृ वीका
ःख सुनाकर (जब) वनय क थी, (तब पृ वीका भार हरनेके लये और रा स को मारनेके
लये) सूयवंश पी कुमु दनीको फु लत करनेवाले च प एवं अमृतके समान आन द
दे नेवाले ीरामच जी कट ए ।। २ ।। व ा म ताड़काका तेज दे खकर ओलेक ना
गले जाते थे। भुने ताड़काको मारकर, श ुको म का-सा फल दया एवं ोध पी परम
कृपा क । भाव यह है क ताड़काको सद्ग त दे कर उसपर कृपा क ।। ३ ।। वयं जाकर
शला (बनी ई अह या)-का पाप-संताप र कर दया, फर (धनुषय के समय) शोक-
सागरमसे डू बते ए म थलाके महाराज जनकको नकाल लया, अथात् धनुष तोड़कर
उनक त ा पूरी कर द ।। ४ ।। परशुराम ोधके ढे र एवं अहंकार और मम वके धनी थे,
उ ह भी आपने दे खते ही शा त और समताका पा बना लया। अथात् वह ोधीसे शा त
और अहंकारीसे सम ा हो गये ।। ५ ।। माता (कैकेयी) और पताक आ ा मानकर
स च से वन चले गये। ऐसा धमधुर धर और धीरजधारी तथा सद्गुण और शीलको
जीतनेवाला सरा कौन है? कोई भी नह ।। ६ ।। नीच जा तका गरीब गुह नषाद, जसने,
ऐसा कौन जीव है जसे नह खाया हो अथात् जो सब कारके जीव का भ ण कर चुका था,
उसने भी प व ेमके कारण ीरघुनाथजीसे सखा-जैसा आदर ा त कया ।। ७ ।। शबरी
और गीध (जटायु)-को स कारके साथ मो दे नेवाला कौन है? और शोकक सीमा अथात्
महान् ःखी सु ीवका संकट र करनेवाला कौन है? ( ीरामजी ही ह) ।। ८ ।। ऐसा कौन
कालका ास था, जो (रावणसे नकाले ए) वभीषणको अपनी शरणम रखता? (अथवा
‘ते ह काल कहाँको’ ऐसा पाठ होनेपर—उस समय ऐसा कौन था जो वभीषणको अपनी
शरणम रखता) जस रावणके रा यम आज भी वभीषण राजा बना बैठा है (यह सब
रघुनाथजीक ही कृपा है) ।। ९ ।। अयो याका रहनेवाला मूख धोबी, जसम बु का नाम भी
नह था, वह पामर भी वहाँ प ँच गया, जहाँ प ँचनेम मु नय का मन भी थक जाता है।
(महामु नगण जस परम धामके स ब धम त वका वचार भी नह कर सकते, वह धोबी वह
चला गया) ।। १० ।। ाने ऐसा कसे रचा है, जो राम-नाम लेकर मु का भागी न हो?
पावतीव लभ शवजी ( जस) राम-नामका वयं मरण करते ह और सर को उपदे श दे कर
उसका चार करते ह ।। ११ ।। अजा मलक कथा सुनकर कौन स नह आ? और राम-
नाम लेकर, इस क लकालम भी कौन भगवान् ह रके परम धामम नह गया? ।। १२ ।। राम-
नामक म हमा ऐसी है क वह आकके पेड़को भी क पवृ बना सकती है। वेद और पुराण
इस बातके सा ी ह, (इसपर भी व ास न हो, तो) तुलसीक ओर दे खो। भाव यह है, क म
या था और अब राम-नामके भावसे कैसा राम-भ हो गया ँ ।। १३ ।।
[१५३]
मेरे राव रयै ग त है रघुप त ब ल जाउँ ।
नलज नीच नरधन नरगुन कहँ, जग सरो न ठाकुर ठाउँ ।। १ ।।
ह घर-घर ब भरे सुसा हब, सूझत सब न आपनो दाउँ ।
बानर-बंधु बभीषन- हतु बनु, कोसलपाल क ँ न समाउँ ।। २ ।।
नतार त-भंजन जन-रंजन, सरनागत प ब-पंजर नाउँ ।
क जै दास दासतुलसी अब, कृपा सधु बनु मोल बकाउँ ।। ३ ।।
भावाथ—हे रघुनाथजी! आपपर ब लहारी जाता ँ, मुझे तो बस आपक ही शरण है।
य क इस नल ज, नीच, कंगाल और गुणहीनके लये संसारम (आपको छोड़कर) न तो
कोई मा लक है, और न कोई ठौर- ठकाना ही ।। १ ।। वैसे तो घर-घर ब तेरे अ छे -अ छे
मा लक ह, क तु उन सबको अपना ही वाथ सूझता है। म तो बंदर (सु ीव)-के म और
वभीषणके हतैषी कोशलेश ीरामच जीको छोड़कर और कह भी शरण नह पा सकता,
और कसी मा लकके यहाँ मेरा टकाव नह हो सकता ।। २ ।। आप आ त के ःख का
नाश करनेवाले और भ को सुख दे नेवाले ह। शरणागत के लये तो आपका नाम ही व के
पजरेके समान है। भाव यह क आपका नाम लेते ही वे तो सुर त हो जाते ह। अतः हे
कृपासागर! अब तुलसीदासको तो अपना दास बना ही ली जये! म अब बना ही मोलके
(आपके हाथम) बकना चाहता ँ ।। ३ ।।
[१५४]
दे व! सरो कौन द नको दयालु ।
सील नधान सुजान- सरोम न, सरनागत- य नत-पालु ।। १ ।।
को समरथ सरब य सकल भु, सव-सनेह-मानस मरालु ।
को सा हब कये मीत ी तबस खग न सचर क प भील भालु ।। २ ।।
नाथ हाथ माया- पंच सब, जीव-दोष-गुन-करम-कालु ।
तुल सदास भलो पोच रावरो, नेकु नर ख क जये नहालु ।। ३ ।।
भावाथ—हे दे व! (आपके सवा) द न पर दया करनेवाला सरा कौन है? आप शीलके
भ डार, ा नय के शरोम ण, शरणागत के यारे और आ त के र क ह ।। १ ।। आपके
समान समथ कौन है? आप सब जाननेवाले ह, सारे चराचरके वामी ह, और शवजीके
े पी मानसरोवरम ( वहार करनेवाले) हंस ह। ( सरा) कौन ऐसा वामी है जसने ेमके

वश होकर प ी (जटायु), रा स ( वभीषण), बंदर, भील ( नषाद) और भालु को अपना
म बनाया है? ।। २ ।। हे नाथ! मायाका सारा पंच एवं जीव के दोष, गुण, कम और काल
सब आपके ही हाथ ह। यह तुलसीदास, भला हो या बुरा, आपका ही है। त नक इसक ओर
कृपा कर इसे नहाल कर द जये ।। ३ ।।
राग सारंग
[१५५]
ब वास एक राम-नामको ।
मानत न ह परती त अनत ऐसोइ सुभाव मन बामको ।। १ ।।
प ढ़बो परयो न छठ छ मत रगु जजुर अथवन सामको ।
त तीरथ तप सु न सहमत प च मरै करै तन छाम को? ।। २ ।।
करम-जाल क लकाल क ठन आधीन सुसा धत दामको ।
यान बराग जोग जप तप, भय लोभ मोह कोह कामको ।। ३ ।।
सब दन सब लायक भव गायक रघुनायक गुन- ामको ।
बैठे नाम-कामत -तर डर कौन घोर घन घामको ।। ४ ।।
को जानै को जैहै जमपुर को सुरपुर पर धामको ।
तुल स ह ब त भलो लागत जग जीवन रामगुलामको ।। ५ ।।
भावाथ—मुझे तो एक राम-नामका ही व ास है। मेरे कु टल मनका कुछ ऐसा ही
वभाव है क वह और कह व ास ही नह करता ।। १ ।। छः ( याय, वैशे षक, सां य,
योग, मीमांसा, वेदा त) शा का तथा ऋक्, यजु, अथवण और साम वेद का पढ़ना तो मेरी
छठ म ही नह पड़ा (भा यम ही नह लखा गया) है, और त, तीथ, तप आ दका तो नाम
सुनकर मन डर रहा है। कौन (इन साधन म) पच-पचकर मरे या शरीरको ीण करे? ।। २ ।।
कमका ड (य ा द) क लयुगम क ठन है और उसका होना भी धनके अधीन है। (अब रहे)
ान, वैरा य, योग, जप और तप आ द साधन, सो इनके करनेम काम, ोध, लोभ, मोह
आ दका भय लगा है ।। ३ ।। इस भव (संसारा)-म ीरघुनाथजीके गुणसमूहको गानेवाले ही
सदा सब कारसे यो य ह। जो राम-नाम पी क पवृ क छायाम बैठे ह, उ ह घनघोर घटा
(तमोमय अ ान) अथवा तेज धूप ( वषय क चकाच ध)-का या डर है? भाव यह है क वे
अ ानके वश होकर वषय म नह फँस सकते। इससे पाप-ताप उनसे सदा र रहते
ह ।। ४ ।। कौन जानता है क कौन नरक जायगा, कौन वग जायगा और कौन परमधाम
जायगा? तुलसीदासको तो इस संसारम रामजीका गुलाम होकर जीना ही ब त अ छा लगता
है ।। ५ ।।
[१५६]
क ल नाम कामत रामको ।
दल नहार दा रद काल ख, दोष घोर घन घामको ।। १ ।।
नाम लेत दा हनो होत मन, बाम बधाता बामको ।
कहत मुनीस महेस महातम, उलटे सूधे नामको ।। २ ।।
भलो लोक-परलोक तासु जाके बल ल लत-ललामको ।
तुलसी जग जा नयत नामते सोच न कूच मुकामको ।। ३ ।।
भावाथ—क लयुगम ीराम-नाम ही क पवृ है। य क वह दा र य, भ , ःख,
दोष और घनघटा (अ ान) तथा कड़ी धूप ( वषय- वलास)-का नाश करनेवाला है ।। १ ।।
राम-नाम लेते ही तकूल वधाताका तकूल मन भी अनुकूल हो जाता है। मुनी र
वा मी कने उलटे अथात् ‘मरा-मरा’ नामक म हमा गायी है और शवजीने सीधे राम-नामका
माहा य बताया है। ता पय यह है क उलटा नाम जपते-जपते वा मी क ाधसे ष हो
गये और शवजी सीधा नाम जपनेसे हलाहल वषका पान कर गये तथा वयं भगव व प
माने गये ।। २ ।। जसे इस परम सु दर राम-नामका बल है, उसके लोक और परलोक दोन
ही सुखमय ह। हे तुलसी! राम-नामका बल होनेपर न तो इस संसारसे जानेम सोच तीत
होता है और न यहाँ रहनेम ही। भाव यह है क उसके लये परमान दम म न रहनेके कारण
जीवन-मरण समान हो जाते ह ।। ३ ।।
[१५७]
सेइये सुसा हब राम सो ।
सुखद सुसील सुजान सूर सु च, सुंदर को टक काम सो ।। १ ।।
सारद सेस साधु म हमा कह, गुनगन-गायक साम सो ।
सु म र स ेम नाम जास र त चाहत चं -ललाम सो ।। २ ।।
गमन बदे स न लेस कलेसको, सकुचत सकृत नाम सो ।
साखी ताको ब दत बभीषन, बैठो है अ बचल धाम सो ।। ३ ।।
टहल सहल जन महल-महल, जागत चारो जुग जाम सो ।
दे खत दोष न खीझत, रीझत सु न सेवक गुन- ाम सो ।। ४ ।।
जाके भजे तलोक- तलक भये, जग जो न तनु तामसो ।
तुलसी ऐसे भु ह भजै जो न ता ह बधाता बाम सो ।। ५ ।।
भावाथ— ीराम-सरीखे सु दर वामीक सेवा करनी चा हये। जो सुख दे नेवाले,
सुशील, चतुर, वीर, प व और करोड़ कामदे व के समान सु दर ह ।। १ ।। सर वती,
शेषनाग और संतजन जनक म हमाका बखान करते ह। सामवेद-सरीखे जनके गुण का
गान करते ह। शवजी-सरीखे भी जनके नामका ेमपूवक मरण करते ए ेम करना
चाहते ह ।। २ ।। ज ह ( पताक आ ासे) वदे श अथात् वन जाते समय त नक भी लेश
नह आ। ज ह एक बार भी कोई णाम कर लेता है तो संकोचके मारे दब जाते ह; इस
बातका सा ी वभीषण स है, क जो आज भी (लंकाम) अटल रा य कर रहा
है ।। ३ ।। जनक चाकरी करना बड़ा सहल है ( य क वे सेवकक भूल-चूकक ओर दे खते
ही नह ); जो अपने भ के घट-घटम चार युग म, चार पहर, जागते रहते ह। ( दयम
बैठकर सदा रखवाली करते ह।) अपराध दे खते ए भी सेवकपर ोध नह करते। पर तु जब
अपने सेवकक गुणावली सुनते ह, तब उसपर रीझ जाते ह ।। ४ ।। ज ह भजनेसे, तयक्-
यो नके (पशु-प ी) एवं तामसी शरीरवाले (रा स) भी तीन लोक के तलक बन गये। हे
तुलसी! ऐसे (सुखद, सुशील, सु दर, भ व सल, चतुर प ततपावन) भुको जो नह भजते
उनपर वधाता तकूल ही है ।। ५ ।।
राग नट
[१५८]
कैसे दे उँ नाथ ह खो र ।
काम-लोलुप मत मन ह र भग त प रह र तो र ।। १ ।।
ब त ी त पुजाइबे पर, पू जबे पर थो र ।
दे त सख सखयो न मानत, मूढ़ता अ स मो र ।। २ ।।
कये स हत सनेह जे अघ दय राखे चो र ।
संग-बस कये सुभ सुनाये सकल लोक नहो र ।। ३ ।।
कर जो कछु धर स च-प च सुकृत- सला बटो र ।
पै ठ उर बरबस दया न ध दं भ लेत अँजो र ।। ४ ।।
लोभ मन ह नचाव क प य गरे आसा-डो र ।
बात कह बनाइ बुध य , बर बराग नचो र ।। ५ ।।
एते ँ पर तु हरो कहावत, लाज अँचई घो र ।
नलजता पर री झ रघुबर, दे तुल स ह छो र ।। ६ ।।
भावाथ— वामीको कैसे दोष ँ ? हे हरे! मेरा मन तु हारी भ को छोड़कर
कामना म फँसा आ इधर-उधर भटका करता है ।। १ ।। अपने पुजानेम तो मेरा बड़ा ेम
है, (सदा यही चाहता ँ, क लोग मुझे ानी-भ मानकर पूजा कर;) क तु तु ह पूजनेम
मेरी ब त ही कम ी त है। सर को तो खूब सीख दया करता ,ँ पर वयं कसीक श ा
नह मानता। मेरी ऐसी मूखता है ।। २ ।। जन- जन पाप को मने बड़े अनुरागसे कया था,
उ ह तो दयम छपाकर रखता ँ। पर कभी कसी अ छे संगके भावसे ( बना ही ेम)
मुझसे जो कोई अ छे काम बन गये ह, उ ह नयाको नहोरा कर-कर सुनाता फरता ।ँ
भाव यह क मुझे कोई भी पापी न समझकर सब लोग बड़ा धमा मा समझ ।। ३ ।। कभी जो
कुछ स कम बन जाता है उसे खेतम पड़े ए अ के दान क तरह बटोर-बटोरकर रख लेता
,ँ क तु हे दया नधान! द भ जबरद ती दयम घुसकर उसे बाहर नकाल फकता है। भाव
यह है क द भ बढ़कर थोड़े-ब त सुकृतको भी न कर दे ता है ।। ४ ।। इसके सवा लोभ
मेरे मनको आशा पी र सीसे इस तरह नचा रहा है, जैसे बाजीगर बंदरके गलेम डोरी
बाँधकर उसे मनमाना नचाता है। (इतनेपर भी म द भसे) एक बड़े प डतक ना परम
वैरा यके त वक बात बना-बनाकर सुनाता फरता ँ ।। ५ ।। इतना (द भी) होनेपर भी म
तु हारा (दास) कहाता ।ँ लाजको तो मानो म घोलकर ही पी गया ँ। हे रघुनाथजी! तुम
उदार हो, इस नल जतापर ही रीझकर तुलसीका ब धन काट दो। (मुझे भव-ब धनसे मु
कर दो) ।। ६ ।।
[१५९]
है भु! मेरोई सब दोसु ।
सील सधु कृपालु नाथ अनाथ आरत-पोसु ।। १ ।।
बेष बचन बराग मन अघ अवगुन नको कोसु ।
राम ी त ती त पोली, कपट-करतब ठोसु ।। २ ।।
राग-रंग कुसंग ही स , साधु-संग त रोसु ।
चहत केह र-जस ह सेइ सृगाल य खरगोसु ।। ३ ।।
संभु- सखवन रसन ँ नत राम-नाम ह घोसु ।
दं भ क ल नाम कुंभज सोच-सागर-सोसु ।। ४ ।।
मोद-मंगल-मूल अ त अनुकूल नज नरजोसु ।
रामनाम भाव सु न तुल स ँ परम प रतोसु ।। ५ ।।
भावाथ—हे भो! सब मेरा ही दोष है। आप तो शीलके समु , कृपालु, अनाथ के नाथ
और द न- ः खय के पालने-पोसनेवाले ह ।। १ ।। मेरे भेष और वचन म तो वैरा य द खता है,
क तु मेरा मन पाप और अवगुण का खजाना है। हे रामजी! आपके ेम और व ासके
लये मेरा मन पोला है अथात् उसम त नक भी ेम और व ास नह है; हाँ, कपटक
करनीके लये तो खूब ठोस है, कपट-ही-कपट भरा है ।। २ ।। जैसे खरगोश सयारक सेवा
करके सहक क त चाहता है, वैसे ही म कुसंग तसे तो ेम करता ँ और साधु के संगम
झुँझलाया करता ँ। (जैसे खरगोश गीदड़के बलपर सहक -सी क त चाहता है, पर सयार
तो उसे खा ही डालता है। क तके बदले ाण ही चले जाते ह। इसी कार जो कुसंगम
पड़कर क त चाहता है, उसे क तका मलना तो र रहा, उसके सद्गुण का भी नाश हो
जायगा, जससे बारंबार मृ युके च म जाना पड़ेगा) ।। ३ ।। शवजीका उपदे श यही है क
‘ न य जीभसे राम-नामका क तन करो।’ क लयुगम द भसे भी लया आ राम-नाम
अग यक तरह ःख-सागरको सोख लेता है (द भसे लया आ नाम भी लोक-परलोक
दोन क च ता को र कर दे ता है) ।। ४ ।। वह राम-नाम आन द और क याणक जड़ है।
ीराम-नाम अपने लये ऐसा अ य त अनुकूल है क जसक कसी अनुकूलतासे तुलना नह
हो सकती। राम-नामका ऐसा भाव सुनकर तुलसीको भी परम स तोष है ( य क यही
उसका अवल बन है) ।। ५ ।।
[१६०]
म ह र प तत-पावन सुने ।
म प तत तुम प तत-पावन दोउ बानक बने ।। १ ।।
याध ग नका गज अजा मल सा ख नगम न भने ।
और अधम अनेक तारे जात कापै गने ।। २ ।।
जा न नाम अजा न ली ह नरक सुरपुर* मने ।
दासतुलसी सरन आयो, रा खये आपने ।। ३ ।।
भावाथ—हे हरे! मने तु ह प तत को प व करनेवाला सुना है। सो म तो प तत ँ और
तुम प ततपावन हो; बस दोन के बानक बन गये, दोन का मेल मल गया। (अब मेरे पावन
होनेम या स दे ह है?) ।। १ ।। वेद सा ी दे रहे ह क तुमने ाध (वा मी क), ग णका
( पगला वे या), गजे और अजा मलको तथा और भी अनेक नीच को संसार-सागरसे पार
कर दया है, जनक गनती ही कससे हो सकती है? ।। २ ।। ज ह ने जानकर या बना
जाने तु हारा नाम ले लया, उ ह नरक और वगम जानेक मनाई कर द गयी है। अथात् वे
भवसागरसे पार होकर मु हो जाते ह (यह सब समझ-बूझकर ही अब) तुलसी भी तु हारी
शरणम आया है, इसे भी अपना लो ।। ३ ।।
राग मलार
[१६१]
तो स भु जो पै क ँ कोउ होतो ।
तो स ह नपट नरादर न स दन, र ट ल ट ऐसो घ ट को तो ।। १ ।।
कृपा-सुधा-जलदान माँ गबो कह सो साँच नसोतो ।
वा त-सनेह-स लल-सुख चाहत चत-चातक सो पोतो ।। २ ।।
काल-करम-बस मन कुमनोरथ कब ँ कब ँ कुछ भो तो ।
य मुदमय ब स मीन बा र त ज उछ र भभ र लेत गोतो ।। ३ ।।
जतो राव दासतुलसी उर य क ह आवत ओतो ।
तेरे राज राय दशरथके, लयो बयो बनु जोतो ।। ४ ।।
भावाथ—य द तुझ-सरीखा कह कोई सरा समथ वामी होता, तो भला ऐसा कौन
ु था, जो नपट ही नरादर सहकर एवं दन-रात तेरा नाम रट-रटकर बला
होता? ।। १ ।। म जो तुझसे कृपा पी अमृतजल माँग रहा ँ, वह सचमुच ही नराला है। मेरा
च पी चातकका ब चा ेम पी वा त-न का आन द पी जल चाहता है ।। २ ।।
काल तथा कमके भावसे य द कभी-कभी मनम कोई बुरी कामना आ जाती है, ( जससे
तेरी ओरसे च हटने लगता है) तो वह ऐसा ही है, जैसे आन दसे जलम रहती ई मछली
कभी-कभी उछलकर फर घबराकर उसीम गोता लगा जाती है, (जैसे मछलीको णभरका
भी जलका वयोग सहन नह होता, वैसे ही मेरा च -चातक तेरे ेमजलसे अलग होनेपर
घबरा जाता है, और फर तेरे ही लये चे ा करता है) ।। ३ ।। (पर तु ऐसा कहना भी नह
बनता य क) तुलसीदासके दयम जतना कपट है, उतना कस कार कहा जा सकता है?
पर हे दशरथ- लारे! तेरे रा यम लोग ने बना ही जोते-बोये पाया है। अथात् बना ही स कम
कये केवल तेरे नामसे ही अनेक पापी तर गये ह, वैसे ही म भी तर जाऊँगा, यही व ास
है ।। ४ ।।
राग सोरठ
[१६२]
ऐसो को उदार जग माह ।
बनु सेवा जो वै द नपर राम स रस कोउ नाह ।। १ ।।
जो ग त जोग बराग जतन क र न ह पावत मु न यानी ।
सो ग त दे त गीध सबरी कहँ भु न ब त जय जानी ।। २ ।।
जो संप त दस सीस अरप क र रावन सव पहँ ली ह ।
सो संपदा बभीषन कहँ अ त सकुच-स हत ह र द ह ।। ३ ।।
तुल सदास सब भाँ त सकल सुख जो चाह स मन मेरो ।
तौ भजु राम, काम सब पूरन कर कृपा न ध तेरो ।। ४ ।।
भावाथ—संसारम ऐसा कौन उदार है, जो बना ही सेवा कये द न- ः खय पर (उ ह
दे खते ही) वत हो जाता हो? ऐसे एक ीरामच ही ह, उनके समान सरा कोई
नह ।। १ ।। बड़े-बड़े ानी मु न योग, वैरा य आ द अनेक साधन करके भी जस परम
ग तको नह पाते, वह ग त भु रघुनाथजीने गीध और शबरीतकको दे द और उसको उ ह ने
अपने मनम कुछ ब त नह समझा ।। २ ।। जस स प को रावणने शवजीको अपने दस
सर चढ़ाकर ा त कया था; वही स प ीरामजीने बड़े ही संकोचके साथ वभीषणको दे
डाली ।। ३ ।। तुलसीदास कहते ह क अरे मेरे मन, जो तू सब तरहसे सब सुख चाहता है, तो
ीरामजीका भजन कर। कृपा नधान भु तेरी सारी कामनाएँ पूरी कर दगे ।। ४ ।।
[१६३]
एकै दा न- सरोम न साँचो ।
जोइ जा यो सोइ जाचकताबस, फ र ब नाच न नाचो ।। १ ।।
सब वारथी असुर सुर नर मु न कोउ न दे त बनु पाये ।
कोसलपालु कृपालु कलपत , वत सकृत सर नाये ।। २ ।।
ह र और अवतार आपने, राखी बेद-बड़ाई ।
लै चउरा न ध दई सुदाम ह ज प बाल मताई ।। ३ ।।
क प सबरी सु ीव बभीषन, को न ह कयो अजाची ।
अब तुल स ह ख दे त दया न ध दा न आस- पसाची ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीराम! स चे दा नय म शरोम ण एक आप ही ह। जस कसीने (एक
बार) आपसे माँगा, फर उसे माँगनेके लये ब त नाच नह नाचने पड़े अथात् वह पूणकाम
हो गया ।। १ ।। दै य, दे वता, मनु य, मु न—ये सभी वाथ ह। बना कुछ लये कोई कुछ
नह दे त।े क तु हे कोशलप त! आप ऐसे कृपालु क पत ह, जो एक बार णाम करते ही
कृपावश पघल जाते ह ।। २ ।। आपने अपने सरे- सरे अवतार म भी वेद क मयादा पाली
है। जैसे, य प सुदामासे आपक बचपनक म ता थी, पर उससे जब चउरा ले लये, तभी
उसे स प दान क ।। ३ ।। हे रामजी! आपने सु ीव, शबरी, वभीषण और हनुमान्
इनमसे कस- कसको याचनार हत (पूणकाम) नह कर दया। हे दया नधे! अब तुलसीको
यह दा ण आशा पी पशा चनी ःख दे रही है (इससे मेरा प ड छु ड़ा दो और मुझे भी
अपने दशन दे कर कृताथ करो) ।। ४ ।।
[१६४]
जानत ी त-री त रघुराई ।
नाते सब हाते क र राखत, राम सनेह-सगाई ।। १ ।।
नेह नबा ह दे ह त ज दसरथ, क र त अचल चलाई ।
ऐसे पतु त अ धक गीधपर ममता गुन ग आई ।। २ ।।
तय- बरही सु ीव सखा ल ख ान या बसराई ।
रन परयो बंधु बभीषन ही को, सोच दय अ धकाई ।। ३ ।।
घर गु गृह य सदन सासुर,े भइ जब जहँ प नाई ।
तब तहँ क ह सबरीके फल नक च माधुरी न पाई ।। ४ ।।
सहज स प कथा मु न बरनत रहत सकु च सर नाई ।
केवट मीत कहे सुख मानत बानर बंधु बड़ाई ।। ५ ।।
ेम-कनौड़ो रामसो भु भुवन त ँकाल न भाई ।
तेरो रनी ह क ो क प स ऐसी मा न ह को सेवकाई ।। ६ ।।
तुलसी राम-सनेह-सील ल ख, जो न भग त उर आई ।
तौ तो ह जन म जाय जननी जड़ तनु-त नता गवाँई ।। ७ ।।
भावाथ— ी तक री त एक ीरघुनाथजी ही जानते ह। ीरामजी सब नात को
छोड़कर केवल ेमका ही नाता रखते ह ।। १ ।। जन महाराज दशरथने ेमके नभानेम
शरीर छोड़कर, अपनी अचल क त था पत कर द , उन ेमी पतासे भी आपने जटायु
गीधपर अ धक ममता और गुण-गौरवता दखायी, (दशरथका मरण रामके सामने नह आ,
पर तु यारे गीधके ाण तो रामक गोदम नकले और हाथ प डदान दे कर उसका उ ार
कया) ।। २ ।। म सु ीवको ीके वरहम दे खकर आपने अपनी ाणा धका यारी
सीताजीको भी भुला दया (जानक जीका पता लगानेक बात भुला पहले बा लको मारकर
सु ीवका ःख र कया)। रणभू मम श के लगनेसे यारे भाई ल मण मू छत होकर पड़े
ह, पर (उनका ःख भूलकर) आप दयम वभीषणहीक च ता करने लगे ( क जब ल मण
ही न बचगे, तब म रावणके साथ यु करके या क ँ गा? ऐसा होनेपर वानर, भालु तो
अपने घर चले जायँगे, पर तु बेचारा वभीषण कहाँ जायगा?) ।। ३ ।। घरम, गु व स के
आ मम, य म के यहाँ अथवा ससुरालम, जब-जब जहाँ आपक मेहमानी ई, तब वहाँ
आपने यही कहा, क मुझे जैसा शबरीके बेर म वाद और मठास मला था, वैसा कह नह
मला ।। ४ ।। जब मु नलोग आपके सहज व प अथात् नगुण परमा म- व पका बखान
करने लगते ह, तब तो आप ल जाके मारे सर झुका लया करते ह। क तु जब केवट और
बंदर आपको ‘ म ’ एवं ‘भाई’ कहते ह, तो अपनी बड़ाई मानते ह (अथवा केवटका म
कहे जानेपर आप स होते ह और वानरब धु कहलानेम अपना बड़ पन समझते
ह) ।। ५ ।। हे भाई! रघुनाथजीके समान ेमके वश रहनेवाला तीन लोक और तीन काल म
सरा कोई नह है। ज ह ने हनुमान्जीसे यहाँतक कह दया क ‘म तेरा ऋणी ँ’ उनके
समान सेवाके लये कृत होनेवाला और कौन है? ।। ६ ।। हे तुलसी! ीरामच जीका ऐसा
नेह और शील दे खकर भी उनके त य द तेरे दयम भ का उदय न आ, तो तुझे ज म
दे कर तेरी माँने थ ही अपनी जवानी खोयी ।। ७ ।।
[१६५]
रघुबर! राव र यहै बड़ाई ।
नद र गनी आदर गरीबपर, करत कृपा अ धकाई ।। १ ।।
थके दे व साधन क र सब, सपने न ह दे त दखाई ।
केवट कु टल भालु क प कौनप, कयो सकल सँग भाई ।। २ ।।
म ल मु नबृंद फरत दं डक बन, सो चरचौ न चलाई ।
बार ह बार गीध सबरीक बरनत ी त सुहाई ।। ३ ।।
वान कहे त कयो पुर बा हर, जती गयंद चढ़ाई ।
तय- नदक म तमंद जा रज नज नय नगर बसाई ।। ४ ।।
य ह दरबार द नको आदर, री त सदा च ल आई ।
द नदयालु द न तुलसीक का न सुर त कराई ।। ५ ।।
भावाथ—हे रघु े ! आपक यही बड़ाई है क आप ध नय का—धना ध या
ग यमा य का (धन, व ा या पदके अ भमा नय का) अनादर कर गरीब का आदर करते ह,
उनपर बड़ी कृपा करते ह ।। १ ।। दे वता अनेक साधन करके थक गये, पर उ ह आपने
व म भी दशन न दया, क तु नषाद एवं कपट रीछ, बंदर और रा स ( वभीषण)-के साथ
भाई-चारा कर लया, (इसी लये क ये सब द न- नर भमानी थे) ।। २ ।। द डकार यम घूमते
तो फरे मु नय के साथ हल मलकर, पर तु उनक तो चचातक नह चलायी, ले कन गीध
(जटायु) और शबरीके ेमका बारंबार सु दर बखान करना आपको सदा अ छा लगा। (यहाँ
भी वही द नता और नर भमानक बात है) ।। ३ ।। कु ेके कहनेपर सं यासीको तो हाथीपर
चढ़ाकर नगरके बाहर नकाल दया और ीसीताजीक झूठ न दा करनेवाले मूख धोबीको
अपनी जा समझकर, नी तसे अपने नगर अयो याम बसा लया ( य क वह द न-गरीब
था) ।। ४ ।। (इससे स है क) इस दरबारम, रामरा यम, द न के आदर करनेक री त
सदासे चली आ रही है। क तु हे द नदयालु! ( या) इस द न तुलसीका यान आपको
(आजतक) कसीने नह दलाया ।। ५ ।।
[१६६]
ऐसे राम-द न हतकारी ।
अ तकोमल क ना नधान बनु कारन पर-उपकारी ।। १ ।।
साधन-हीन द न नज अघ-बस, सला भई मु न-नारी ।
गृहत गव न पर स पद पावन घोर सापत तारी ।। २ ।।
हसारत नषाद तामस बपु, पसु-समान बनचारी ।
भ ो दय लगाइ ेमबस, न ह कुल जा त बचारी ।। ३ ।।
ज प ोह कयो सुरप त-सुत, क ह न जाय अ त भारी ।
सकल लोक अवलो क सोकहत, सरन गये भय टारी ।। ४ ।।
बहँग जो न आ मष अहार पर, गीध कौन तधारी ।
जनक-समान या ताक नज कर सब भाँ त सँवारी ।। ५ ।।
अधम जा त सबरी जो षत जड़, लोक-बेद त यारी ।
जा न ी त, दै दरस कृपा न ध, सोउ रघुनाथ उधारी ।। ६ ।।
क प सु ीव बंधु-भय- याकुल आयो सरन पुकारी ।
स ह न सके दा न ख जनके, ह यो बा ल, स ह गारी ।। ७ ।।
रपुको अनुज बभीषन न शचर, कौन भजन अ धकारी ।
सरन गये आगे ै ली ह भ ो भुजा पसारी ।। ८ ।।
असुभ होइ ज हके सु मरे ते बानर रीछ बकारी ।
बेद- ब दत पावन कये ते सब, म हमा नाथ! तु हारी ।। ९ ।।
कहँ ल ग कह द न अग नत ज हक तुम बप त नवारी ।
क लमल- सत दासतुलसीपर, काहे कृपा बसारी? ।। १० ।।
भावाथ—द न का ऐसा हत करनेवाले ीरामच जी ह, वे अ त कोमल, क णाके
भ डार और बना ही कारण सर का उपकार करनेवाले ह ।। १ ।। साधन से र हत, द न,
गौतम ऋ षक ी अह या, अपने पाप के कारण शला हो गयी थी। उसे आपने घरसे
चलकर, अपने प व चरणसे छू कर, घोर शापसे छु ड़ा दया ।। २ ।। हसाम रत गुह नषाद
जसका तामसी शरीर था, और जो पशुक तरह वनम फरता रहता था, उसे आपने वंश और
जा तका वचार कये बना ही, ेमके वश होकर दयसे लगा लया ।। ३ ।। य प इ के
पु जय तने (काक पसे ीसीताजीके चरणम च च मारकर) इतना भारी अपराध कया था,
क कुछ कहा नह जा सकता तथा प जब वह (बाणके मारे घबराकर र ाके लये) सब
लोक को दे ख फरा और फर शोकसे ाकुल होकर शरणम आया, तब उसका सारा भय र
कर दया ।। ४ ।। जटायु गीध प ीक यो नका था, सदा मांस खाया करता था। उसने ऐसा
कौन-सा त धारण कया था क जसक आपने अपने हाथसे, पताके समान अ ये -
या कर सब बात सुधार द , अथात् मु दान कर द ।। ५ ।। शबरी नीच जा तक मूखा
ी थी। जो लोक और वेद दोन से ही बाहर थी। पर तु उसका स चा ेम समझकर कृपालु
रघुनाथजीने उसे भी कृपापूवक दशन दे कर उ ार कर दया ।। ६ ।। सु ीव ब दर अपने भाई
(बा ल)-के भयसे ाकुल होकर जब पुकारता आ आपक शरणम आया, तब आप अपने
उस दासका दा ण ःख नह सह सके और गा लयाँ सहकर भी बा लका वध कर
डाला ।। ७ ।। वभीषण, श ु (रावण)-का भाई था और जा तका रा स था! वह कस
भजनका अ धकारी था? क तु जब वह आपक शरणम आया तब आपने उसे आगे बढ़कर
लया और भुजा पसारकर दयसे लगाया ।। ८ ।। ब दर और रीछ ऐसे अधम ह क उनका
नामतक लेनेसे अमंगल होता है, कतु हे नाथ! उनको भी आपने प व बना दया। वेद इस
बातके सा ी ह। यह सब आपक म हमा है ।। ९ ।। म कहाँतक क ँ ऐसे असं य द न ह,
जनक वप याँ आपने र कर द ह, क तु न जाने इस तुलसीदासपर, जो क लयुगके
पाप से जकड़ा आ है, आप कृपा करना य भूल गये ।। १० ।।
[१६७]
रघुप त-भग त करत क ठनाई ।
कहत सुगम करनी अपार जानै सोइ जे ह ब न आई ।। १ ।।
जो जे ह कला कुसल ताकहँ सोइ सुलभ सदा सुखकारी ।
सफरी सनमुख जल- वाह सुरसरी बहै गज भारी ।। २ ।।
य सकरा मलै सकता महँ, बलत न कोउ बलगावै ।
अ त रस य सू छम पपी लका, बनु यास ही पावै ।। ३ ।।
सकल य नज उदर मे ल, सोवै न ा त ज जोगी ।
सोइ ह रपद अनुभवै परम सुख, अ तसय ै त- बयोगी ।। ४ ।।
सोक मोह भय हरष दवस- न स दे स-काल तहँ नाह ।
तुल सदास य ह दसाहीन संसय नरमूल न जाह ।। ५ ।।
भावाथ— ीरघुनाथजीक भ करनेम बड़ी क ठनता है। कहना तो सहज है, पर
उसका करना क ठन। इसे वही जानता है जससे वह करते बन गयी ।। १ ।। जो जस
कलाम चतुर ह, उसीके लये वह सरल और सदा सुख दे नेवाली है। जैसे (छोट -सी) मछली
तो गंगाजीक धाराके सामने चली जाती है, पर बड़ा भारी हाथी बह जाता है ( य क
मछलीक तरह उसम तैरना नह जानता) ।। २ ।। जैसे य द धूलम चीनी मल जाय तो उसे
कोई भी जोर लगाकर अलग नह कर सकता, क तु उसके रसको जाननेवाली एक छोट -सी
च ट उसे अनायास ही (अलग करके) पा जाती है ।। ३ ।। जो योगी यमा को अपने पेटम
रख ( म मायाको समेटकर, परमे र प कारणम काय प जगत्का लय करके) (अ ान)
न ाको यागकर सोता है, वही ै तसे आ य तक पसे मु आ पु ष भगवान्के परम
पदके परमान दक य अनुभू त कर सकता है ।। ४ ।। इस अव थाम शोक, मोह, भय,
हष, दन-रात और दे श-काल नह रह जाते। (एक स चदान दघन भु ही रह जाता है।)
क तु हे तुलसीदास! जबतक इस दशाक ा त नह होती, तबतक संशयका समूल नाश
नह होता ।। ५ ।।
[१६८]
जो पै राम-चरन-र त होती ।
तौ कत बध सूल न सबासर सहते बप त नसोती ।। १ ।।
जो संतोष-सुधा न सबासर सपने ँ कब ँक पावै ।
तौ कत बषय बलो क झूँठ जल मन-कुरंग य धावै ।। २ ।।
जो ीप त-म हमा बचा र उर भजते भाव बढ़ाए ।
तौ कत ार- ार कूकर य फरते पेट खलाए ।। ३ ।।
जे लोलुप भये दास आसके ते सबहीके चेरे ।
भु- ब वास आस जीती ज ह, ते सेवक ह र केरे ।। ४ ।।
न ह एकौ आचरन भजनको, बनय करत ह ताते ।
क जै कृपा दासतुलसी पर, नाथ नामके नाते ।। ५ ।।
भावाथ—य द ीरामच जीके चरण म ेम होता, तो रात- दन तीन कारके क
और नखा लस वप ही य सहनी पड़ती ।। १ ।। य द यह मन दन-रातम कभी व म
भी स तोष पी अमृत पा जाय तो वषय पी झूठे मृग-जलको दे खकर उसके पीछे यह मृग
बनकर य दौड़े? ।। २ ।। य द हम भगवान् ल मीका तक म हमाका दयम वचारकर ेम
बढ़ाकर उनका भजन करते, तो आज कु ेक तरह ार- ार पेट दखाते ए य मारे-मारे
फरते? ।। ३ ।। जो लोभी आशाके दास बन गये ह, वे तो सभीके गुलाम ह ( वषय क आशा
रखनेवालेको ही सबक गुलामी करनी पड़ती है) और ज ह ने भगवान्म व ास करके
आशाको जीत लया है, वे ही भगवान्के स चे सेवक ह ।। ४ ।। म आपसे इस लये वनय कर
रहा ँ क मुझम भजनका तो एक भी आचरण नह है। (केवल आपका नाम जपता ँ) हे
नाथ! तुलसीदासपर इस नामके नातेसे ही कृपा क जये ।। ५ ।।
[१६९]
जो मो ह राम लागते मीठे ।
तौ नवरस षटरस-रस अनरस ै जाते सब सीठे ।। १ ।।
बंचक बषय ब बध तनु ध र अनुभवे सुने अ डीठे ।
यह जानत ह दय आपने सपने न अघाइ उबीठे ।। २ ।।
तुल सदास भु स एक ह बल बचन कहत अ त ढ ठे ।
नामक लाज राम क नाकर के ह न दये कर चीठे ।। १ ।।
भावाथ—य द मुझे ीरामच जी ही मीठे लगे होते, तो (सा ह यके) नवरस* एवं
(भोजनके) छः रस† नीरस और फ के पड़ जाते (पर रामजी मीठे नह लगते, इसी लये
वषयभोग मीठे मालूम होते ह) ।। १ ।। म भाँ त-भाँ तके शरीर धारण कर यह अनुभव कर
चुका ँ तथा मने सुना और दे खा भी है क (संसारके) वषय ठग ह। (मायाम भुलाकर
परमाथ पी धन हर लेते ह) य प यह म अपने जीम अ छ तरह जानता ,ँ तथा प कभी
वपनम भी, इनसे तृ त होकर मेरा मन नह उकताया (कैसी नीचता है?) ।। २ ।। पर
तुलसीदास अपने वामी ीरघुनाथजीसे एक ही बलपर ये ढठाईभरे वचन कह रहा है। (और
वह बल यह है क) हे नाथ! आपने अपने नामक लाजसे कस- कसको दया करके
(भवब धनसे छू टनेके लये) परवाने नह लख दये ह? ( जसने आपका नाम लया, उसीको
मु का परवाना मल गया, इसी लये म भी य कह रहा ँ) ।। ३ ।।
[१७०]
य मन कब ँ तुम ह न ला यो ।
य छल छाँ ड़ सुभाव नरंतर रहत बषय अनुरा यो ।। १ ।।
य चतई परना र, सुने पातक- पंच घर-घरके ।
य न साधु, सुरस र-तरंग- नरमल गुनगन रघुबरके ।। २ ।।
य नासा सुगंधरस-बस, रसना षटरस-र त मानी ।
राम- साद-माल जूठन ल ग य न लल क ललचानी ।। ३ ।।
चंदन-चंदबद न-भूषन-पट य चह पाँवर पर यो ।
य रघुप त-पद-प म-परस को तनु पातक न तर यो ।। ४ ।।
य सब भाँ त कुदे व कुठाकुर सेये बपु बचन हये ँ ।
य न राम सुकृत य जे सकुचत सकृत नाम कये ँ ।। ५ ।।
चंचल चरन लोभ ल ग लोलुप ार- ार जग बागे ।
राम-सीय-आ म न चलत य भये न मत अभागे ।। ६ ।।
सकल अंग पद- बमुख नाथ मुख नामक ओट लई है ।
है तुल स ह परती त एक भु-मूर त कृपामई है ।। ७ ।।
भावाथ—मेरा मन आपसे ऐसा कभी नह लगा, जैसा क वह कपट छोड़कर, वभावसे
ही नर तर वषय म लगा रहता है ।। १ ।। जैसे म परायी ीको ताकता फरता ँ, घर-घरके
पापभरे पंच सुनता ,ँ वैसे न तो कभी साधु के दशन करता ँ, और न गंगाजीक नमल
तरंग के समान ीरघुनाथजीक गुणावली ही सुनता ँ ।। २ ।। जैसे नाक अ छ -अ छ
सुग धके रसके अधीन रहती है, और जीभ छः रस से ेम करती है, वैसे यह नाक भगवान्पर
चढ़ ई मालाके लये और जीभ भगवत्- सादके लये कभी ललक-ललककर नह
ललचाती ।। ३ ।। जैसे यह अधम शरीर च दन, च वदनी युवती, सु दर गहने और
(मुलायम) कपड़ को पश करना चाहता है, वैसे ीरघुनाथजीके चरणकमल का पश
करनेके लये यह कभी नह तरसता ।। ४ ।। जैसे मने शरीर, वचन और दयसे, बुरे-बुरे दे व
और वा मय क सब कारसे सेवा क , वैसे उन रघुनाथजीक सेवा कभी नह क , जो
(त नक सेवासे) अपनेको खूब ही कृत मानने लगते ह और एक बार णाम करते ही
(अपार क णाके कारण) सकुचा जाते ह ।। ५ ।। जैसे इन चंचल चरण ने लोभवश, लालची
बनकर ार- ार ठोकर खायी ह, वैसे ये अभागे ीसीतारामजीके (पु य) आ म म जाकर
कभी व म भी नह थके। ( व म भी कभी भगवान्के पु य आ म म जानेका क नह
उठाया) ।। ६ ।। हे भो! (इस कार) मेरे सभी अंग आपके चरण से वमुख ह। केवल इस
मुखसे आपके नामक ओट ले रखी है (और यह इस लये क) तुलसीको एक यही न य है
क आपक मू त कृपामयी है। (आप कृपासागर होनेके कारण, नामके भावसे मुझे अव य
अपना लगे) ।। ७ ।।
[१७१]
क जै मोको जमजातनामई ।
राम! तुमसे सु च सु द सा हब ह, म सठ पी ठ दई ।। १ ।।
गरभबास दस मास पा ल पतु-मातु- प हत क ह ।
जड़ ह बबेक, सुसील खल ह, अपरा ध ह आदर द ह ।। २ ।।
कपट कर अंतरजा म ँ स , अघ यापक ह राव ।
ऐसे कुम त कुसेवक पर रघुप त न कयो मन बाव ।। ३ ।।
उदर भर ककर कहाइ ब यौ बषय न हाथ हयो है ।
मोसे बंचकको कृपालु छल छाँ ड़ कै छोह कयो है ।। ४ ।।
पल-पलके उपकार रावरे जा न बू झ सु न नीके ।
भ ो न कु लस ँ ते कठोर चत कब ँ ेम सय-पीके ।। ५ ।।
वामीक सेवक- हतता सब, कछु नज साइँ- ोहाई ।
म म त-तुला तौ ल दे खी भइ मेरे ह द स ग आई ।। ६ ।।
एते पर हत करत नाथ मेरो, क र आये, अ क रह ।
तुलसी अपनी ओर जा नयत भु ह कनौड़ो भ रह ।। ७ ।।
भावाथ—हे नाथ! मुझे तो आप यमक यातनाम ही डाल द जये, (नरक म ही भे जये),
य क हे ीरामजी! म ऐसा ँ क मने आप-सरीखे प व और सु द् ( बना ही कारण
हत करनेवाले) वामीको पीठ दे रखी है ।। १ ।। गभम आपने माता- पताके समान दस
महीनेतक मेरा पालन-पोषण कर ( कतना) हत कया। मुझ मूखको आपने शु ान, मुझ
को सु दर शील और मुझ अपराधीको आदर दया। इतनेपर भी म आपका भजन न करके
आपसे उलटा ही चलता ँ ।। २ ।। म अ तयामी भुके साथ भी कपट करता ँ, घट-घटम
रमनेवाले सव ापीसे अपने पाप छपाता ँ। (पर तु ध य है आपको क) ऐसे बु और
नीच नौकरपर भी हे रामजी! आपने अपना मन तकूल नह कया ।। ३ ।। पेट तो भरता ँ
आपका दास कहाकर, क तु दयको वषय के हाथ बेच रखा है तो भी मुझ-सरीखे ठगपर
भी हे कृपालु! आपने न कपटभावसे कृपा ही क है ।। ४ ।। आपके पल-पलके उपकार को
भलीभाँ त जानकर, समझकर और सुनकर भी मेरा व से भी अ धक कठोर च कभी
ीजानक नाथजीके ेमम नह भदा ।। ५ ।। मने जब अपनी बु पी तराजूपर एक ओर
वामीक सारी सेवक-व सलता और सरी ओर अपना जरा-सा वामी ोह रखकर तौला,
तब दे खनेपर मेरी ही ओरका पलड़ा भारी नकला ।। ६ ।। इतनेपर भी हे नाथ! आप कृपा
कर मेरा हत ही करते चले आ रहे ह, करते ह और करगे। तुलसी अपनी ओरसे जानता है
क इस कनौड़ेका (एहसानसे दबे एका) भु ही पालन करगे ।। ७ ।।
[१७२]
कब ँक ह य ह रह न रह गो ।
ीरघुनाथ-कृपालु-कृपात संत-सुभाव गह गो ।। १ ।।
जथालाभसंतोष सदा, का स कछु न चह गो ।
पर- हत- नरत नरंतर, मन म बचन नेम नबह गो ।। २ ।।
प ष बचन अ त सह वन सु न ते ह पावक न दह गो ।
बगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन न ह दोष कह गो ।। ३ ।।
प रह र दे ह-ज नत चता, ख-सुख समबु सह गो ।
तुल सदास भु य ह पथ र ह अ बचल ह र-भग त लह गो ।। ४ ।।
भावाथ— या म कभी इस रहनीसे र ँगा? या कृपालु ीरघुनाथजीक कृपासे कभी
म संत का-सा वभाव हण क ँ गा ।। १ ।। जो कुछ मल जायगा उसीम स तु र ँगा,
कसीसे (मनु य या दे वतासे) कुछ भी नह चा ँगा। नर तर सर क भलाई करनेम ही लगा
र ँगा। मन, वचन और कमसे यम- नयम * का पालन क ँ गा ।। २ ।। कान से अ त कठोर
और अस वचन सुनकर भी उससे उ प ई ( ोधक ) आगम न जलूँगा। अ भमान
छोड़कर सबम समबु र ँगा और मनको शा त रखूँगा। सर क तु त- न दा कुछ भी नह
क ँ गा (सदा आपके च तनम लगे ए मुझको सर क तु त- न दाके लये समय ही नह
मलेगा) ।। ३ ।। शरीर-स ब धी च ताएँ छोड़कर सुख और ःखको समान-भावसे स ँगा।
हे नाथ! या तुलसीदास इस (उपयु ) मागपर रहकर कभी अ वचल ह र-भ को ा त
करेगा? ।। ४ ।।
[१७३]
ना हन आवत आन भरोसो ।
य ह क लकाल सकल साधनत है म-फल न फरो सो ।। १ ।।
तप, तीरथ, उपवास, दान, मख जे ह जो चै करो सो ।
पाये ह पै जा नबो करम-फल भ र-भ र बेद परोसो ।। २ ।।
आगम- ब ध जप-जाग करत नर सरत न काज खरो सो ।
सुख सपने न जोग- स ध-साधन, रोग बयोग धरो सो ।। ३ ।।
काम, ोध, मद, लोभ, मोह म ल यान बराग हरो सो ।
बगरत मन सं यास लेत जल नावत आम घरो सो ।। ४ ।।
ब मत मु न ब पंथ पुरान न जहाँ-तहाँ झगरो सो ।
गु क ो राम-भजन नीको मो ह लगत राज-डगरो सो ।। ५ ।।
तुलसी बनु परती त ी त फ र- फ र प च मरै मरो सो ।
रामनाम-बो हत भव-सागर चाहै तरन तरो सो ।। ६ ।।
भावाथ—( ीराम-नामके सवा) मुझे सरे कसी (साधन)-पर भरोसा नह होता। इस
क लयुगम सभी साधन पी वृ म केवल प र म पी फल ही फले-से दखायी दे ते ह
अथात् उन साधन म लगे रहनेसे केवल म ही हाथ लगता है, फल कुछ नह होता ।। १ ।।
तप, तीथ, त, दान, य आ द जो जसे अ छा लगे, सो करे। क तु इन सब कम का फल
पानेपर ही जान पड़ेगा, य प वेद ने (प ल) भर-भरकर फल को परोसा है। भाव यह क
वेद म इन कम क बड़ी शंसा है, पर तु क लयुग इ ह सफल ही नह होने दे गा तब फल
कहाँसे मलेगा? ।। २ ।। शा क व धसे मनु य जप और य करते ह क तु उनसे असली
कायक स नह होती। योग- स य के साधनम सुख व म भी नह है। ( या
जाननेवाल के अभावसे) इस साधनम भी रोग और वयोग तुत ह (शरीर रोगी हो जाता है,
जसके फल व प यजन से वछोह हो जाता है) ।। ३ ।। काम, ोध, मद, लोभ और
मोहने मलकर ान-वैरा यको तो हर-सा लया है। और सं यास लेनेपर तो यह मन ऐसा
बगड़ जाता है, जैसे पानीके डालनेसे क चा घड़ा गल जाता है ।। ४ ।। मु नय के अनेक मत
ह, (छः दशन ह) और पुराण म नाना कारके प थ दे खकर जहाँ-तहाँ झगड़ा-सा ही जान
पड़ता है। गु ने मेरे लये राम-भजनको ही उ म बतलाया है और मुझे भी सीधे राज-मागके
समान वही अ छा लगता है ।। ५ ।। हे तुलसी! व ास और ेमके बना जसे बार-बार पच-
पचकर मरना हो, वह भले ही मरे, क तु संसार-सागरसे तरनेके लये तो राम-नाम ही जहाज
है। जसे पार होना हो, वह (इसपर चढ़कर) पार हो जाय ।। ६ ।।
[१७४]
जाके य न राम-बैदेही ।

को ट बैरी सम, ज प परम सनेही ।। १ ।।


त यो पता हलाद, बभीषन बंधु, भरत महतारी ।
ब ल गु त यो कंत ज-ब नत ह, भये मुद-मंगलकारी ।। २ ।।
नाते नेह रामके म नयत सु द सुसे य जहाँ ल ।
अंजन कहा आँ ख जे ह फूटै , ब तक कह कहाँ ल ।। ३ ।।
तुलसी सो सब भाँ त परम हत पू य ानते यारो ।
जास होय सनेह राम-पद, एतो मतो हमारो ।। ४ ।।
भावाथ— जसे ीराम-जानक जी यारे नह , उसे करोड़ श ु के समान छोड़ दे ना
चा हये, चाहे वह अपना अ य त ही यारा य न हो ।। १ ।। (उदाहरणके लये दे खये)
ादने अपने पता ( हर यक शपु)-को, वभीषणने अपने भाई (रावण)-को, भरतजीने
अपनी माता (कैकेयी)-को, राजा ब लने अपने गु (शु ाचाय)-को और ज-गो पय ने
अपने-अपने प तय को (भगव ा तम बाधक समझकर) याग दया, पर तु ये सभी आन द
और क याण करनेवाले ए ।। २ ।। जतने सु द् और अ छ तरह पूजने यो य लोग ह, वे
सब ीरघुनाथजीके ही स ब ध और ेमसे माने जाते ह, बस, अब अ धक या क ँ। जस
अंजनके लगानेसे आँख ही फूट जायँ, वह अंजन ही कस कामका? ।। ३ ।। हे तुलसीदास!
जसके कारण ( जसके संग या उपदे शसे) ीरामच जीके चरण म ेम हो, वही सब
कारसे अपना परम हतकारी, पूजनीय और ाण से भी अ धक यारा है। हमारा तो यही
मत है ।। ४ ।।
[१७५]

जो पै रामस नाह ।
तौ नर खर कूकर सूकर सम बृथा जयत जग माह ।। १ ।।
काम, ोध, मद, लोभ, न द, भय, भूख, यास सबहीके ।
मनुज दे ह सुर-साधु सराहत, सो सनेह सय-पीके ।। २ ।।
सूर, सुजान, सुपूत सुल छन ग नयत गुन ग आई ।
बनु ह रभजन इँदा नके फल तजत नह क आई ।। ३ ।।
क र त, कुल करतू त, भू त भ ल, सील स प सलोने ।
तुलसी भु-अनुराग-र हत जस सालन साग अलोने ।। ४ ।।
भावाथ— जसक ीरामच जीसे ी त नह है, वह इस संसारम गदहे, कु े और
सूअरके समान वृथा ही जी रहा है ।। १ ।। काम, ोध, मद, लोभ, न द, भय, भूख और
यास तो सभीम है। पर जस बातके लये दे वता और संतजन इस मनु य-शरीरक शंसा
करते ह, वह तो ीसीतानाथ रघुनाथजीका ेम ही है (भगव ेमसे ही मनु य-जीवनक
साथकता है) ।। २ ।। कोई शूरवीर, सुचतुर, माता- पताक आ ाम रहनेवाला सुपूत, सु दर
ल णवाला तथा बड़े-बड़े गुण से यु भले ही े गना जाता हो पर तु य द वह ह रभजन
नह करता है तो वह इ ायणके फलके समान है, जो (सब कारसे दे खनेम सु दर होनेपर
भी) अपना कड़वापन नह छोड़ता ।। ३ ।। क त, ऊँचा कुल, अ छ करनी, बड़ी वभू त,
शील और लाव यमय व प होनेपर य द वह भु ीरामच जीके त ेमसे र हत है, तो
ये सब गुण ऐसे ही ह, जैसे बना नमकक साग-भाजी ।। ४ ।।
[१७६]
रा यो राम सु वामी स नीच नेह न नातो । एते अनादर ँ तो ह ते न
हातो ।। १ ।।
जोरे नये नाते नेह फोकट फ के । दे हके दाहक, गाहक जीके ।। २ ।।
अपने अपनेको सब चाहत नीको । मूल ँको दयालु लह सीको ।। ३ ।।
जीवको जीवन ानको यारो । सुख को सुख रामसो बसारो ।। ४ ।।
कयो करैगो तोसे खलको भलो । ऐसे सुसाहब स तू कुचाल य चलो ।। ५ ।।
तुलसी तेरी भलाई अज ँ बूझै । राढ़उ राउत होत फ रकै जूझै ।। ६ ।।
भावाथ—अरे नीच! तूने ीरामच जी-सरीखे सु दर वामीसे न ेम ही कया और न
स ब ध ही जोड़ा। पर तु इतना अनादर करनेपर भी उ ह ने तुझे नह छोड़ा ।। १ ।। तूने
(ज म-ज मा तरम) नये-नये नाते और नया-नया ेम जोड़ा सो सब थ और नीरस थे तथा
(उलटे ) तेरे शरीरके जलानेवाले और ाण के ाहक थे ।। २ ।। अपना और अपन का तो
सभी भला चाहते ह, क तु दोन क भलाईके मूल तो एक ीजानक व लभ ही ह ।। ३ ।।
वह जीव के जीवन ह, ाण के यारे ह और सुखके भी सुख ह, ऐसे ीरामच जीको तूने
भुला दया! ।। ४ ।। ज ह ने तेरा सदा भला कया और आगे भी जो भला ही करगे, अरे,
ऐसे सु दर वामीके साथ तू इतनी कुचाल य चला? ।। ५ ।। रे तुलसी! य द तू अब भी
समझ जाय तो तेरा भला हो सकता है, य क बार-बार लड़नेसे कायर भी शूरवीर हो जाता
है ।। ६ ।।
[१७७]
जो तुम याग राम ह तौ न ह यागो । प रह र पाँय का ह अनुराग ।। १ ।।
सुखद सु भु तुम सो जगमाह । वन-नयन मन-गोचर नाह ।। २ ।।
ह जड़ जीव, ईस रघुराया । तुम मायाप त, ह बस माया ।। ३ ।।
ह तो कुजाचक, वामी सुदाता । ह कुपूत, तुम हतु पतु-माता ।। ४ ।।
जो पै क ँ कोउ बूझत बातो । तौ तुलसी बनु मोल बकातो ।। ५ ।।
भावाथ—हे रामजी! य द आप मुझे याग भी दगे, तो भी म आपको नह छोडँगा।
य क आपके चरण को छोड़कर म और कसके साथ ेम क ँ ? ।। १ ।। आपके समान
सुख दे नेवाला सु दर वामी इस संसारम आजतक न कान से सुना है, न आँख से दे खा है
और न मनसे अनुमानम ही आता है ।। २ ।। हे रघुनाथजी! म जड़ जीव ँ और आप ई र
ह। आप मायाके वामी ह (माया आपके वशम है) और म मायाके वश होकर रहता
ँ ।। ३ ।। म तो एक कृत न भखमंगा ँ और आप बड़े उदार वामी ह, म आपका कुपूत ँ
और आप हत करनेवाले माता- पता ह। भाव यह है क लड़का कुपूत होनेपर भी माँ-बाप
उसका हत ही करते ह, ऐसे ही आप भी सदा मेरा पालन-पोषण ही कया करते ह ।। ४ ।।
य द कह कोई भी मेरी बात पूछता, तो यह तुलसीदास बना ही मोल (उसके हाथ) बक
जाता। (पर तु आपके सवा मुझ-सरीखे नीचको कौन रखता है? अतः म आपको कभी नह
छोडँगा) ।। ५ ।।
[१७८]
भये ँ उदास राम, मेरे आस रावरी ।
आरत वारथी सब कह बात बावरी ।। १ ।।
जीवनको दानी घन कहा ता ह चा हये ।
ेम-नेमके नबाहे चातक सरा हये ।। २ ।।
मीनत न लाभ-लेस पानी पु य पीनको ।
जल बनु थल कहा मीचु बनु मीनको ।। ३ ।।
बड़े ही क ओट ब ल बाँ च आये छोटे ह ।
चलत खरेके संग जहाँ-तहाँ खोटे ह ।। ४ ।।
य ह दरबार भलो दा हने -बामको ।
मोको सुभदायक भरोसो राम-नामको ।। ५ ।।
कहत नसानी ै है हये नाथ नीक है ।
जानत कृपा नधान तुलसीके जीक है ।। ६ ।।
भावाथ—हे रामजी! आप चाहे मुझसे उदासीन हो जायँ, पर मुझे तो आपक ही आशा
है। (मेरे ऐसा कहनेसे आप नाराज न होइयेगा) आत अथवा वाथ तो पागल क -सी ही बात
कया करते ह। भाव यह क आप जो न य अपने जन पर कृपा- रखते ह उनके लये तो
म कहता ँ क आप चाहे उदासीन हो जायँ और मेरे लये, यह अ भमानक बात कहता ँ
क मुझे तो आपक ही आशा है, यह पागल क -सी बात ही तो ह ।। १ ।। जो मेघ पानीका
दान करता है, सारे ा णय क र ा करता है उसे कस व तुक कमी है? पानी दे कर
जीवनक र ा करनेवाले मेघको या चा हये? पर तु ेमका अटल नयम नबाहनेके कारण
पपीहेक ही सराहना होती है। भाव यह क मेघ पपीहेको बना ही कसी वाथके वा तका
जल दे ता है, इसम उदारता मेघक ही है, पर तु सरी ओर न ताकनेके कारण सराहना
चातकक आ करती है ।। २ ।। प व और पु करनेवाले जलको मछलीसे लेशमा भी
लाभ नह है, पर मछलीके लये जलको छोड़कर, ऐसा कौन-सा थान है, जहाँ वह अपने
ाण बचा सके? भाव यह क वह जलको छोड़कर कह भी जी वत नह रह सकती। इसी
कार आपको मुझसे कोई लाभ नह , पर तु म आपको छोड़कर कहाँ जाऊँ? आपको अपनी
शरणम रखना भी होगा और तारीफ भी मेरी ही होगी ।। ३ ।। म आपक बलैया लेता ,ँ
दे खये बड़ के सहारे ही छोटे (सदा) बचते आये ह, जहाँ-तहाँ खरे स क के साथ खोटे भी
चला करते ह। भाव यह है क आपके स चे भ असली स के ह, और म पाख डी, नकली
स का होनेपर भी आपके नामक छापसे भवसागरसे तर जाऊँगा ।। ४ ।। आपके दरबारम
भले-बुरे सभीका क याण होता है, चाहे कोई आपके अनुकूल हो या तकूल हो (जैसे
वभीषण स मुख था तथा रावण वमुख था पर दोन ही मु हो गये) हे ीरामजी! मुझे तो
केवल आपके क याणकारी नामका ही भरोसा है ।। ५ ।। हे नाथ! कह दे नेसे सब बात बगड़
जायगी, (सारा भेद खुल जायगा) इससे मनक मनहीम रखना अ छा है; फर आप तो हे
कृपा नधान! तुलसीके मनक सब जानते ही ह ।। ६ ।।
राग बलावल
[१७९]
कहाँ जाऊँ, कास कह , कौन सुनै द नक ।
भुवन तुही ग त सब अंगहीनक ।। १ ।।
जग जगद स घर घर न घनेरे ह ।
नराधारके अधार गुनगन तेरे ह ।। २ ।।
गजराज-काज खगराज त ज धायो को ।
मोसे दोस-कोस पोसे, तोसे माय जायो को ।। ३ ।।
मोसे कूर कायर कुपूत कौड़ी आधके ।
कये ब मोल त करैया गीध- ाधके ।। ४ ।।
तुलसीक तेरे ही बनाये, ब ल, बनैगी ।
भुक बलंब-अंब दोष- ख जनैगी ।। ५ ।।
भावाथ—कहाँ जाऊँ? कससे क ? ँ कौन इस (साधन पी धनसे हीन) द नक सुनेगा?
मुझ-सरीखे सब तरहसे साधनहीनक ग त तो तीन लोक म एकमा तू ही है ।। १ ।। य तो
नयाम घर-घर ‘जगद श’ भरे ह (सभी अपनेको ई र कहते ह) पर जसके कोई आधार
नह उसके लये तो एक तेरे गुणसमूहका (गान) ही आधार है। भाव यह क तेरे ही गुण का
गान कर वह संसार-सागरको पार करता है ।। २ ।। गजराजको छु ड़ानेके लये ग ड़को
छोड़कर कौन दौड़ा था? जसने मुझ-जैसे पाप के भ डारका भी पालन-पोषण कया, ऐसा
एक तुझे छोड़कर, और कसको कस माताने जना है? ।। ३ ।। मुझ-जैसे ू र, कायर, कुपूत
और आधी कौड़ीक क मतवाल को भी, हे जटायुके ा करनेवाले! तूने ब मू य बना
दया ।। ४ ।। ब लहारी! तुलसीक ( बगड़ी ई) बात तेरे ही बनाये बन सकेगी। य द तूने मेरा
उ ार करनेम दे र क , तो फर वह दे र पी माता ःख और दोष पी स तान ही जनेगी। भाव
यह क तू कृपा करके शी उ ार न करेगा तो म पाप और ःख से ही घर जाऊँगा ।। ५ ।।
[१८०]
बारक बलो क ब ल क जै मो ह आपनो ।
राय दशरथके तू उथपन-थापनो ।। १ ।।
सा हब सरनपाल सबल न सरो ।
तेरो नाम लेत ही सुखेत होत ऊसरो ।। २ ।।
बचन करम तेरे मेरे मन गड़े ह ।
दे खे सुने जाने म जहान जेते बड़े ह ।। ३ ।।
कौन कयो समाधान सनमान सीलाको ।
भृगुनाथ सो रषी जतैया कौन लीलाको ।। ४ ।।
मातु- पतु-ब धु- हतु, लोक-बेदपाल को ।
बोलको अचल, नत करत नहाल को ।। ५ ।।
सं ही सनेहबस अधम असाधुको ।
गीध सबरीको कहौ क रहै सराधु को ।। ६ ।।
नराधारको अधार, द नको दयालु को ।
मीत क प-केवट-रज नचर-भालु को ।। ७ ।।
रंक, नरगुनी, नीच जतने नवाजे ह ।
महाराज! सुजन-समाज ते बराजे ह ।। ८ ।।
साँची ब दावली न ब ढ़ क ह गई है ।
सील सधु! ढ ल तुलसीक बेर भई है ।। ९ ।।
भावाथ—हे नाथ! ब लहारी! एक बार मेरी ओर दे खकर मुझे अपना ली जये। हे
ीदशरथन दन! आप उखड़े ए जीव को फरसे जमानेवाले ह ।। १ ।। आपके समान कोई
सरा शरणागत का पालनेवाला सवश मान् वामी नह है। आपका नाम लेते ही ऊसर
खेत भी उपजाऊ हो जाता है। भाव यह क जनके भा यम सुखका लेश भी नह है वे भी
आपके नामके जपसे भ - ानको ा त कर परम आन द लाभ करते ह ।। २ ।। आपके
वचन और कम मेरे मनम गड़ गये ह ( थान- थानपर द न के उ ारक त ा और
अजा मल, ग णका आ द द न के उ ार पी कम दे खकर मुझे ढ़ व ास हो गया है) और
मने उन लोग को भी दे ख, सुन और समझ लया है जो नयाम बड़े कहे जाते ह ।। ३ ।।
उनमसे कसने शला बनी ई अह याका शाप रकर उसे शा त दान क , और कसने
लीलासे ही परशुराम-जैसे महा ोधी ऋ षको जीत लया? ( कसीने नह ) ।। ४ ।। माता,
पता और भाईके लये कसने लोक और वेदक मयादाका पालन कया? अपने वचन का
अ डग कौन है? और णाम करते ही णतको कौन नहाल कर दे ता है? (केवल एक
ीरघुनाथजी ही) ।। ५ ।। ेमके अधीन होकर कसने नीच और को इक ा कया,
अपनाया? गीध और शबरीका ( पता-माताक तरह) कौन ा करेगा? ।। ६ ।। जनके
कह कोई सहारा नह है, उनका आधार कौन है? द न पर दया करनेवाला कौन है? और
बंदर, म लाह, रा स तथा रीछ का म कौन है? ( सवा रघुनाथजीके सरा कोई
नह ) ।। ७ ।। हे महाराज! आपने जतने कंगाल, मूख और नीच को नहाल कया है, वे सब
ही आज संत के समाजम वरा जत हो रहे ह ।। ८ ।। यह आपक स ची-स ची बड़ाई कही
गयी है, (एक अ र भी) बढ़ाकर नह कहा है। कतु हे शीलके समु ! तुलसीदासके ही लये
इतनी दे र य हो रही है? ।। ९ ।।
[१८१]
के भाँ त कृपा सधु मेरी ओर हे रये ।
मोको और ठौर न, सुटेक एक ते रये ।। १ ।।
सहस सलात अ त जड़ म त भई है ।
कास कह कौन ग त पाहन ह दई है ।। २ ।।
पद-राग-जाग चह कौ सक य कयो ह ।
क ल-मल खल दे ख भारी भी त भयो ह ।। ३ ।।
करम-कपीस बा ल-बली, ास- यो ह ।
चाहत अनाथ-नाथ! तेरी बाँह ब यो ह ।। ४ ।।
महा मोह-रावन बभीषन य हयो ह ।
ा ह, तुलसीस! ा ह त ँ ताप तयो ह ।। ५ ।।
भावाथ—हे कृपासागर! कसी भी तरह मेरी ओर दे खो। मुझे और कह ठौर- ठकाना
नह है, एक तु हारा ही प का आसरा है ।। १ ।। मेरी बु हजार शला से भी अ धक जड़
हो गयी है। (अब म उसे चैत य करनेके लये) और कससे क ? ँ प थर को (तु हारे सवा
और) कसने मु कया है? ।। २ ।। जस कार मह ष व ा म ने (तु हारी दे ख-रेखम
न व न) य कया था, उसी कार म भी तु हारे चरण म ेम पी एक य करना चाहता
ँ। क तु क लके पाप पी को दे खकर म ब त ही भयभीत हो रहा ँ। (जैसे मारीच,
ताड़का आ दसे तुमने व ा म के य क र ा क थी वैसे ही इन पाप से बचाकर मुझे भी
चरणकमल का ेमी बना लो ।। ३ ।। कु टल कम पी बंदर के बलवान् राजा बा लसे म
ब त डर रहा ,ँ सो हे अनाथ के नाथ! (जैसे तुमने बा लको मारकर सु ीवको अभय कर
दया था, उसी ाकर) म भी आपक बा क छायाम बसना चाहता ँ (इन क ठन कम से
बचाकर आप मुझे अपना ली जये) ।। ४ ।। जैसे रावणने वभीषणको मारा था, उसी कार
मुझे भी यह महान् मोह मार रहा है; हे तुलसीके वामी! म संसारके तीन ताप से जला जा
रहा ँ, मेरी र ा करो, र ा करो ।। ५ ।।
[१८२]
नाथ! गुनगाथ सु न होत चत चाउ सो ।
राम री झबेको जान भग त न भाउ सो ।। १ ।।
करम, सुभाउ, काल, ठाकुर न ठाउँ सो ।
सुधन न, सुतन न, सुमन, सुआउ सो ।। २ ।।
जाँच जल जा ह कहै अ मय पयाउ सो ।
कास कह का स न बढ़त हयाउ सो ।। ३ ।।
बाप! ब ल जाउँ, आप क रये उपाउ सो ।
तेरे ही नहारे परै हारे सुदाउ सो ।। ४ ।।
तेरे ही सुझाये सूझै असुझ सुझाउ सो ।
तेरे ही बुझाये बूझै अबुझ बुझाउ सो ।। ५ ।।
नाम-अवलंब-ु अंबु द न मीन-राउ सो ।
भुस बनाइ कह जीह ज र जाउ सो ।। ६ ।।
सब भाँ त बगरी है एक सुबनाउ-सो ।
तुलसी सुसा हब ह दयो है जनाउ सो ।। ७ ।।
भावाथ—हे नाथ! आपके गण क गाथा सुनकर मेरे च म चाव-सा होता है, क तु हे
रामजी! जस भ और भावसे आप स होते ह, उसे म नह जानता ।। १ ।। कारण क
न तो मेरे कम अ छे ह, न वभाव उ म है, और न समय अ छा है (क लयुग है); न कोई
मा लक है, न कह ठौर- ठकाना है, न (साधन पी) उ म धन है, न सु दर (सेवापरायण)
शरीर है, न (परमाथम लगनेवाला) उ म मन है और न (भजनसे प व ई) उ म आयु ही
है। सारांश, भगव ा तका एक भी साधन मेरे पास नह है, सब कारसे नराधार ँ ।। २ ।।
जससे म ( यासके मारे) पानी माँगता ँ, वह उलटा मुझसे ही अमृत पलानेके लये कहता
है। म अपनी बात कससे क ? ँ कसीसे भी कहनेक ह मत-सी नह पड़ती ।। ३ ।। हे
बापजी! ब लहारी! आप ही मेरे लये वैसा कोई अ छा उपाय कर द जये। य क आपके
(कृपा से) दे खते ही हारनेपर भी अ छा दाँव-सा हाथ लग जाता है। भाव, बड़े-बड़े पापी
भी आपक कृपासे वैकु ठके अ धकारी हो जाते ह ।। ४ ।। आप य द सुझा द तो अ य
व तु भी द खने लगती है, और आपके समझा दे नेपर नह समझम आनेवाला (आपका
व प) पदाथ भी समझम आ जाता है; अब आप उसे ही सुझा और समझा द जये ।। ५ ।।
दे खये, आपके नामका जो अवल बन है, वही तो पानी है और उसम रहनेवाला म द न
मीन का राजा-सा ँ, बड़े भारी म यके समान ँ। म जो भुके सामने इसम कुछ भी
बनावट बात कहता होऊँ तो मेरी यह जीभ जल जाय ।। ६ ।। मेरी बात सभी तरहसे बगड़
चुक है, केवल एक ही अ छा बानक-सा बना आ है, और वह यह क तुलसीदासने यह
बात अपने दयालु वामीको जना द है। (अब वामी आप ही बगड़ी बनावगे) ।। ७ ।।
राग आसावरी
[१८३]
राम! ी तक री त आप नीके ज नयत है ।
बड़ेक बड़ाई, छोटे क छोटाई र करै,
ऐसी ब दावली, ब ल, बेद म नयत है ।। १ ।।
गीधको कयो सराध, भीलनीको खायो फल,
सोऊ साधु-सभा भलीभाँ त भ नयत है ।
रावरे आदरे लोक बेद ँ आद रयत,
जोग यान ँ त ग ग नयत है ।। २ ।।
भुक कृपा कृपालु! क ठन क ल ँ काल,
म हमा समु झ उर अ नयत है ।
तुलसी पराये बस भये रस अनरस,
द नबंधु! ारे हठ ठ नयत है ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! ी तक री त आप ही भलीभाँ त जानते ह। ब लहारी! वेद
आपक वरदावलीको इस कार मान रहे ह क आप बड़ेका बड़ पन (अ भमान) एवं
छोटे क छोटाई (द नता)-को र कर दे ते ह ।। १ ।। आपने जटायु गीधका ा कया और
शबरीके फल (बेर) खाये; यह बात भी संत-समाजम अ छ तरह बखानी जाती है क जस
कसीका आपने आदर कया, लोक और वेद दोन ही उसका आदर करते ह। आपका ेम
योग तथा ानसे भी बड़ा माना जाता है ।। २ ।। हे कृपालु! आपक कृपासे इस क ठन
क लकालम भी आपक म हमाको समझकर भ जन दयम धारण करते ह। य प तुलसी
सर के ( वषय के) अधीन होनेके कारण (आपके ेमसे) अनरस अथात् ेमहीन हो रहा है,
तथा प हे द नब धु! वह आपके ारपर धरना दये बैठा है (आपक कृपा- पाये बना
हटनेका नह ) ।। ३ ।।
[१८४]
राम-नामके जपे जाइ जयक जर न ।
क लकाल अपर उपाय ते अपाय भये,
जैसे तम ना सबेको च के तर न ।। १ ।।
करम-कलाप प रताप पाप-साने सब,
य सुफूल फूले त फोकट फर न ।
दं भ, लोभ, लालच, उपासना बना स नीके,
सुग त साधन भई उदर भर न ।। २ ।।
जोग न समा ध न पा ध न बराग- यान,
बचन बशेष बेष, क ँ न कर न ।
कपट कुपथ को ट, कह न-रह न खो ट,
सकल सराह नज नज आचर न ।। ३ ।।
मरत महेस उपदे स ह कहा करत,
सुरस र-तीर कासी धरम-धर न ।
राम-नामको ताप हर कह, जप आप,
जुग जुग जान जग, बेद ँ बर न ।। ४ ।।
म त राम-नाम ही स , र त राम-नाम ही स ,
ग त राम-नाम ही क बप त-हर न ।
राम-नामस ती त ी त राखे कब ँक,
तुलसी ढरगे राम आपनी ढर न ।। ५ ।।
भावाथ— ीराम-नाम जपनेसे ही मनक जलन मट जाती है। इस क लयुगम (योग-
य ा द) सरे साधन तो सब वैसे ही थ हो गये ह, जैसे अँधेरा र करनेके लये
च ल खत सूय थ है ।। १ ।। कम तो ब तेरे ःख और पाप म सने ह। कम का करना
इस समय ऐसा है, जैसे कसी वृ म बड़े ही सु दर फूल फूल, पर फल लगे ही नह । द भ,
लोभ और लालचने उपासनाका भलीभाँ त नाश कर दया है। और मो का साधन ान आज
पेट भरनेका साधन हो रहा है। (इस कार कम, उपासना और ान तीन क ही बुरी दशा
है) ।। २ ।। न तो योग ही बनता है, न समा ध ही उपा धर हत है, वैरा य और ान लंबी-चौड़ी
बात बनाने और वेष बनानेभरके ही रह गये ह। करनी कुछ भी नह , केवल कथनी है।
कपटभरे करोड़ कुमाग चल पड़े ह। कहनी और रहनी सभी खोट हो गयी ह। सभी अपने-
अपने आचरण क सराहना करते ह ।। ३ ।। (एक राम-नामक म हमा रही है) शवजी
गंगाके कनारे काशीक धमभू मपर मरते समय जीवको या उपदे श दे ते ह? वे ीराम-
नामके तापका वणन करते ह। सर से कहते ह और वयं भी जपते ह। अनेक युग से इसे
संसार जानता है और वेद भी कहते चले आये ह ।। ४ ।। अब तो राम-नामहीम अपनी
बु को लगाना चा हये, राम-नामहीसे ेम करना चा हये और राम-नामहीक शरण लेनी
चा हये। य क एक यही साधना जीवक ज म-मरण प वप य को र करनेवाली है। हे
तुलसी! राम-नामपर व ास और ढ़ ेम बनाये रखेगा, तो कभी-न-कभी ीरामजी अव य
ही अपने दयालु वभावसे तुझपर दया करगे ।। ५ ।।
[१८५]
लाज न लागत दास कहावत ।
सो आचरन बसा र सोच त ज, जो ह र तुम कहँ भावत ।। १ ।।
सकल संग त ज भजत जा ह मु न, जप तप जाग बनावत ।
मो-सम मंद महाखल पाँवर, कौन जतन ते ह पावत ।। २ ।।
ह र नरमल, मल सत दय, असमंजस मो ह जनावत ।
जे ह सर काक कंक बक सूकर, य मराल तहँ आवत ।। ३ ।।
जाक सरन जाइ को बद दा न यताप बुझावत ।
त ँ गये मद मोह लोभ अ त, सरग ँ मटत न सावत ।। ४ ।।
भव-स रता कहँ नाउ संत, यह क ह और न समुझावत ।
ह तनस ह र! परम बैर क र, तुम स भलो मनावत ।। ५ ।।
ना हन और ठौर मो कहँ, ताते ह ठ नातो लावत ।
राखु सरन उदार-चूड़ाम न! तुल सदास गुन गावत ।। ६ ।।
भावाथ—हे हरे! मुझे (आपका) दास कहलानेम ल जा भी नह आती! जो आचरण
आपको अ छा लगता है, उसे म बना कसी वचारके छोड़ दे ता ।ँ (संत के आचरण छोड़
दे नेम मुझे प ा ापतक भी नह होता। इतनेपर भी म आपका दास बनता ँ) ।। १ ।।
मु नगण जसे सब कारक आस छोड़कर भजते ह, जसके लये जप, तप, और य
करते ह, उस भुको मुझ-जैसा मूख, महान् और पापी कैसे पा सकता है? ।। २ ।।
भगवान् तो वशु ह और मेरा दय पापपूण महाम लन है, मुझे यह असमंजस जान पड़ता
है। जस तालाबम कौए, गीध, बगुले और सूअर रहते ह वहाँ हंस य आने लगे? भाव यह
क मेरे काम, ोध, लोभ, मोहभरे म लन दयम भगवान् नह आवगे। वह तो उ ह मु नय के
दय-म दरम वहार करगे ज ह ने न काम कम, वैरा य, भ , ान आ द साधन ारा
अपने दयको नमल बना लया है ।। ३ ।। जन (तीथ )-क शरणम जाकर ानके साधक
पु ष सांसा रक तीन क ठन ताप को बुझाते ह, वहाँ भी जानेपर मुझे तो अहंकार, अ ान
और लोभ और भी अ धक सतावगे, य क सौ तयाडाह वगम भी नह छू टता, वहाँ भी
साथ लगा फरता है ।। ४ ।। म सर को यह कहकर समझाता फरता ँ क ‘दे खो,
संसार पी नद के पार जानेके लये संतजन ही नौका ह’— क तु हे हरे! म ( वयं) उनसे
बड़ी भारी श ुता करके आपसे अपना क याण चाहता ँ ।। ५ ।। (पर ऐसा होनेपर भी कहाँ
जाऊँ) मुझे और कह ठौर- ठकाना नह है, इसीसे (नालायक होता आ भी) आपसे
जबरद ती स ब ध जोड़ता फरता ँ। हे दाता म शरोम ण रघुनाथ! यह तुलसीदास
आपके गुण गा रहा है, (भलाई-बुराईक ओर न दे खकर अपने दयालु वभावसे ही) इसको
अपना ली जये ।। ६ ।।
[१८६]
कौन जतन बनती क रये ।
नज आचरन बचा र हा र हय मा न जा न ड रये ।। १ ।।
जे ह साधन ह र! व जा न जन सो ह ठ प रह रये ।
जाते बप त-जाल न स दन ख, ते ह पथ अनुस रये ।। २ ।।
जानत ँ मन बचन करम पर- हत क ह त रये ।
सो बपरीत दे ख पर-सुख, बनु कारन ही ज रये ।। ३ ।।
ु त पुरान सबको मत यह सतसंग सु ढ़ ध रये ।
नज अ भमान मोह इ रषा बस तन ह न आद रये ।। ४ ।।
संतत सोइ य मो ह सदा जात भव न ध प रये ।
कहौ अब नाथ, कौन बलत संसार-सोग ह रये ।। ५ ।।
जब कब नज क ना-सुभावत, व तौ न त रये ।
तुल सदास ब वास आन न ह, कत प च-प च म रये ।। ६ ।।
भावाथ—हे नाथ! म कस कार आपक वनती क ँ ? जब अपने (नीच) आचरण पर
वचार करता ँ और समझता ँ, तब दयम हार मानकर डर जाता ँ ( ाथना करनेका
साहस ही नह रह जाता) ।। १ ।। हे हरे! जस साधनसे आप मनु यको दास जानकर उसपर
कृपा करते ह, उसे तो म हठपूवक छोड़ रहा ँ। और जहाँ वप के जालम फँसकर दन-रात
ःख ही मलता है, उसी (कु)-मागपर चला करता ँ ।। २ ।। यह जानता ँ क मन, वचन
और कमसे सर क भलाई करनेसे संसार-सागरसे तर जाऊँगा, पर म इससे उलटा ही
आचरण करता ँ, सर के सुखको दे खकर बना ही कारण (ई या नसे) जला जा रहा
ँ ।। ३ ।। वेद-पुराण सभीका यह स ा त है क खूब ढ़तापूवक स संगका आ य लेना
चा हये, क तु म अपने अ भमान, अ ान और ई याके वश कभी स संगका आदर नह
करता, म तो संत से सदा ोह ही कया करता ँ ।। ४ ।। (बात तो यह है क) मुझे सदा वही
अ छा लगता है, जससे संसारसागरहीम पड़ा र ँ। फर, हे नाथ! आप ही क हये, म कस
बलसे संसारके ःख र क ँ ? ।। ५ ।। जब कभी आप अपने दयालु वभावसे मुझपर
पघल जायँग,े तभी मेरा न तार होगा, नह तो नह । य क तुलसीदासको और कसीका
व ास ही नह है, फर वह कस लये (अ या य साधन म) पच-पचकर मरे ।। ६ ।।
[१८७]
ता ह त आयो सरन सबेर ।
यान बराग भग त साधन कछु सपने ँ नाथ! न मेर ।। १ ।।
लोभ-मोह-मद-काम- ोध रपु फरत रै न- दन घेर ।
तन ह मले मन भयो कुपथ-रत, फरै तहारे ह फेर ।। २ ।।
दोष- नलय यह बषय सोक- द कहत संत ु त टे र ।
जानत ँ अनुराग तहाँ अ त सो, ह र तु हरे ह ेर? ।। ३ ।।
बष पयूष सम कर अ ग न हम, ता र सक बनु बेर ।
तुम सम ईस कृपालु परम हत पु न न पाइह हेर ।। ४ ।।
यह जय जा न रह सब त ज रघुबीर भरोसे तेर ।
तुल सदास यह बप त बागुरौ तु ह ह स बनै नबेर ।। ५ ।।
भावाथ—हे नाथ! (केवल तु हारा ही भरोसा है) इसी कारणसे म पहलेसे ही तु हारी
शरणम आ गया ँ। ान, वैरा य, भ आ द साधन तो मेरे पास व म भी नह ह ( जनके
बलसे म संसार-सागरसे पार हो जाता) ।। १ ।। मुझे तो लोभ, अ ान, घमंड, काम और
ोध पी श ु ही रात- दन घेरे रहते ह, ये णभर भी मेरा प ड नह छोड़ते। इन सबके
साथ मलकर यह मन भी कुमाग हो गया है। अब यह तु हारे ही फेरनेसे फरेगा ।। २ ।।
संतजन और वेद पुकार-पुकारकर कहते ह क संसारके यह सब वषय पाप के घर ह और
शोक द ह, यह जानते ए भी मेरा उन वषय म ही जो इतना अनुराग है सो हे ह र! यह
तु हारी ही ेरणासे तो नह है? (नह तो म जान-बूझकर ऐसा य करता?) ।। ३ ।। (जो
कुछ भी हो, तुम चाहो तो) वषको अमृत एवं अ नको बरफ बना सकते हो और बना ही
जहाज के संसार-सागरसे पार कर सकते हो। तुम-सरीखा कृपालु और परम हतकारी वामी
ढूँ ढ़नेपर भी कह नह मलेगा। (ऐसे वामीको पाकर भी मने अपना काम नह बनाया तो
फर मेरे समान मूख और कौन होगा?) ।। ४ ।। इसी बातको दयम जानकर, हे रघुनाथजी!
म सब छोड़-छाड़कर तु हारे भरोसे आ पड़ा ँ। तुलसीदासका यह वप पी जाल तु हारे
ही काटे कटे गा! ।। ५ ।।
[१८८]
म तो ह अब जा यो संसार ।
बाँ ध न सक ह मो ह ह रके बल, गट कपट-आगार ।। १ ।।
दे खत ही कमनीय, कछू ना हन पु न कये बचार ।
य कदलीत -म य नहारत, कब ँ न नकसत सार ।। २ ।।
तेरे लये जनम अनेक म फरत न पाय पार ।
महामोह-मृगजल-स रता महँ बोरयो ह बार ह बार ।। ३ ।।
सुनु खल! छल-बल को ट कये बस हो ह न भगत उदार ।
स हत सहाय तहाँ ब स अब, जे ह दय न नंदकुमार ।। ४ ।।
तास कर चातुरी जो न ह जानै मरम तु हार ।
सो प र डरै मरै रजु-अ ह त, बूझै न ह यवहार ।। ५ ।।
नज हत सुनु सठ! हठ न कर ह, जो चह ह कुसल प रवार ।
तुल सदास भुके दास न त ज भज ह जहाँ मद मार ।। ६ ।।
भावाथ—अरे (मायावी) संसार! अब मने तुझे (यथाथ) जान लया, तू य ही
कपटका घर है, पर अब मुझे भगवान्का बल मल गया है इससे तू (अपने कपटजालम)
मुझको नह बाँध सकता, (परमा माके बलका आ य लेते ही परमा माक मायासे बना आ
संसार सवथा मट गया, इस लये अब म संसारके मायावी फंदे म नह आ सकता) ।। १ ।। तू
दे खनेमा को ही सु दर है, पर वचार करनेपर तो कुछ भी नह है, व तुतः तेरा अ त व ही
नह है। जैसे केलेके पेड़को दे खो, उसमसे कभी गूदा नकलता ही नह ( कतना ही छ लो,
छलका-ही- छलका नकलता जायगा। यही दशा संसारक है) ।। २ ।। अरे, तेरे लये म
अनेक ज म म भटकता फरा, अनेक यो नय म गया, पर तेरा पार नह पाया। तू मुझे
महामोह पी मृगतृ णाक नद म बार-बार डु बाता ही रहा ।। ३ ।। अरे ! सुन, तू चाहे
करोड़ कारके छल-बल कर; पर भगवान्का परम-भ तेरे वशम नह हो सकता, तू अपनी
( वषय क ) सेनासमेत वह जाकर डेरा डाल, जस दयम न दन दन ीकृ ण* भगवान्का
वास न हो ( जस भ के दयम भगवान्का वास है वहाँ तेरा या काम?) ।। ४ ।। जो तेरा
भेद न जानता हो, उसीके साथ अपनी कपटक चाल चल। वही र सी पी साँपसे डरकर
मरेगा, जो उसके भेदको न जानता होगा ।। ५ ।। अरे शठ! अपने हतक बात सुन, जो तू
कुटु बसमेत अपनी खैर चाहता है तो हठ न कर। तुलसीदासके भु ीरघुनाथजीके
सेवक को छोड़कर तू वह भाग जा, जहाँ अहंकार और काम रहते ह (जहाँ राम रहते ह वहाँ
अहंकार तथा काम नह ; और जहाँ ये नह , वहाँ मायाका संसार कैसे रह सकता है?) ।। ६ ।।
राग गौरी
[१८९]
राम कहत चलु, राम कहत चलु, राम कहत चलु भाई रे ।
ना ह तौ भव-बेगा र महँ प रहै, छु टत अ त क ठनाई रे ।। १ ।।
बाँस पुरान साज सब अठकठ, सरल तकोन खटोला रे ।
हम ह दहल क र कु टल करमचँद† मंद मोल बनु डोला रे ।। २ ।।
बषम कहार मार-मद-माते चल ह न पाउँ बटोरा रे ।
मंद बलंद अभेरा दलकन पाइय ख झकझोरा रे ।। ३ ।।
काँट कुराय लपेटन लोटन ठाव ह ठाउँ बझाऊ रे ।
जस जस च लय र तस तस नज बास न भट लगाऊ रे ।। ४ ।।
मारग अगम, संग न ह संबल, नाउँ गाउँकर भूला रे ।
तुल सदास भव ास हर अब, हो राम अनुकूला रे ।। ५ ।।
भावाथ—अरे भाई! राम-राम, राम-राम कहते चलो, नह तो कह संसारक बेगारम
पकड़े जाओगे तो फर छू टना अ य त क ठन हो जायगा। (राजाक बेगारसे दो-चार दन म
छू टा जा सकता है, पर संसारका ज म-मरणका च तो ान न होनेतक सदा चलता ही
रहेगा। य द राम-राम जपता चला जायगा, तो मायाज य वषय पी श ु तुझे बेगारम न
पकड़ सकगे। य क रामके दासपर रामक माया नह चलती ।। १ ।। कु टल कमच दने
(हमारे पूव-ज मकृत पाप-कम के ार धने) बना ही मोलके (संसार-च क कमानुसार
वाभा वक ग तके अनुसार) ऐसा बुरा खटोला (भजनहीन तामस धान मनु य-शरीर) हम
दया है क जसके पुराना तो बाँस (अना दकालीन अ व ा-मोह) लगा है, जसके साज सब
अंटसंट ह, च क तामस वषयाकार वृ याँ ह, ( जनके कारण शरीरसे बुरे कम होते ह—
मनु य कुमागम जाता है) जो सीधा तकोन है (केवल अथ, काम और सकाम धमक ा तम
ही लगा आ है, जसे मो का यान ही नह है) ।। २ ।। जसके (उठाकर चलनेवाले) कहार
वषम ह और कामके मदम मतवाले हो रहे ह (शरीरको चलानेवाली पाँच इ याँ ह,
कहार क जोड़ी होनी चा हये, पाँच होनेसे जोड़ी नह है इस लये वषम ह, एक-से नह ह
और पाँच ही इ याँ वषय-भोग के पीछे मतवाली हो रही ह। कुकम के कारण जब शरीर
और मन ही तामस वषयाकार ह, तब इ याँ वषय से हट ई कैसे ह ?) और वे पाँव
बटोरकर—समान पैर रखकर नह चलते। (इ याँ अपने-अपने वषय क ओर दौड़ती ह)
इससे कभी ऊँचे, कभी नीचे चलनेसे ध के और झटके लग रहे ह, इस ख चतानम बड़ा ही
ःख हो रहा है। (कभी वग या क त आ दक इ छासे धम-कायम, कभी भोग क ा तके
लये संसारके व वध वसाय म, कभी कामवश होकर य के पीछे । सो भी समानभावसे
नह —श द, पश, प, रस, ग ध इन अपने-अपने वषय ारा कभी ऊँचे और कभी नीचे
जाती ह, फल व प जीव महान् लेश पाता है) ।। ३ ।। रा तेम काँटे बछे ह, कंकड़ पड़े ह,
( वषैली बेल लपेटती ह और झा ड़याँ उलझा लेती ह, इस कार जगह-जगह कना पड़ता
है। परमा माको भुलाकर सांसा रक वषय के घने जंगलम दौड़नेवाली इ य के वषय-
नाश पी काँटे तकूल वषय पी कंकड़, घर-प रवारक ममता पी लपेटनेवाली बेल और
कामना पी उलझन है, जनसे पद-पदपर ककर ःख भोगते ए चलना पड़ता है।) फर
य - य आगे बढ़ते ह य -ही- य अपना घर र होता चला जा रहा है। (संसारके भोग म
य - य मन फँसता है य -ही- य भगवत्- ा त प नज- नकेतन र होता जाता है) और
कोई राह बतानेवाला भी नह है। ( वषयी पु ष संत का संग ही नह करते, फर उ ह सीधा
परमाथका रा ता कौन बतावे? संगवाले तो उलटा ही माग बतलाते ह) ।। ४ ।। माग बड़ा
क ठन है, ( वषय के झाड़-झंखाड़ और पहाड़-जंगल से प रपूण है) साथम (भजन पी)
राह-खच नह है, यहाँतक क अपने गाँवका नामतक भूल गये ह (भूलकर भी परमा माका
नाम नह लेते और परमा म- व पपर वचार नह करते, अतएव भगवान्क कृपा बना इस
शरीरके ारा तो परमपद पी घर प ँचना अस भव ही है); इस लये हे ीरामजी! अब आप
ही कृपा करके इस तुलसीदासके (ज म-मरण पी) संसार-भयको र क जये ।। ५ ।।
[१९०]
सहज सनेही रामस त कयो न सहज सनेह ।
तात भव-भाजन भयो, सुनु अज ँ सखावन एह ।। १ ।।
य मुख मुकुर बलो कये अ चत न रहै अनुहा र ।
य सेवत ँ न आपने, ये मातु- पता, सुत-ना र ।। २ ।।
दै दै सुमन तल बा सकै, अ ख र प रह र रस लेत ।
वारथ हत भूतल भरे, मन मेचक, तन सेत ।। ३ ।।
क र बी यो, अब करतु है क रबे हत मीत अपार ।
कब ँ न कोउ रघुबीर सो नेह नबाह नहार ।। ४ ।।
जास सब नात फुरै, तास न करी प हचा न ।
तात कछू समु यो नह , कहा लाभ कह हा न ।। ५ ।।
साँचो जा यो झूठको, झूठे कहँ साँचो जा न ।
को न गयो, को जात है, को न जैहै क र हतहा न ।। ६ ।।
बेद क ो, बुध कहत ह, अ ह ँ कहत ह टे र ।
तुलसी भु साँचो हतू, तू हयक आँ खन हे र ।। ७ ।।
भावाथ—तूने वभावसे ही नेह करनेवाले ीरामच जीसे वाभा वक नेह नह
कया। इसीसे तू संसारी हो गया है (ज म-मरणके च म पड़ा है), पर तु अब भी यह श ा
सुन ।। १ ।। जैसे दपणम मुखका त व ब द ख पड़ता है, पर वह मुख वा तवम दपणके
अंदर नह होता, वैसे ही ये माता, पता, पु और ी सेवा करते ए भी अपने नह ह
(माया पी दपणके साथ तादा य होनेसे ही इनम अपना भाव द खता है) ।। २ ।। (संसारका
स ब ध तो वाथका है) जैसे तल म फूल रख-रखकर उ ह सुग धमय बनाते ह क तु तेल
नकाल लेनेपर खलीको थ समझकर फक दे ते ह, वैसे ही स ब धय क दशा है (अथात्
जबतक वाथसाधन होता है तबतक संगी रहते ह और स मान करते ह, फर कोई बात भी
नह पूछता)। इस पृ वीपर ऐसे वाथ भरे पड़े ह, जनका मन काला है, और शरीर सफेद
है ।। ३ ।। तूने कतने म बनाये, कतने बना रहा है और कतने अभी बनायेगा; क तु
ीरघुनाथजी-जैसा ेमको (सदा एकरस) नभानेवाला म कभी कोई मलनेका ही
नह ।। ४ ।। अरे! जस ( ीभगवान्)-के कारण ही सारे नाते स चे तीत होते ह, उसके
साथ तूने (आजतक) कभी पहचान ही नह क ! इस लये तू अभीतक इस त वको नह
समझ पाया क (वा त वक) लाभ या है और हा न या है ।। ५ ।। ज ह ने म या (जगत्)-
को स य और स य (परमा मा)-को म या (असत्) मान रखा है, उनम ऐसा कौन है जो
अपने यथाथ क याणका नाश करके (संसारसे) नह चला गया, नह जा रहा है, और नह
जायगा (सारांश, ऐसे मूढ़ जीव बना ही परमा माको ा त कये थ ही मनु य-जीवनको
खो दे ते ह) ।। ६ ।। वेद ने कहा है और व ान् भी कहते ह तथा म भी पुकारकर कह रहा ँ
क तुलसीके वामी ीरघुनाथजी ही स चे हतू ह। तू त नक अपने दयके ने से
दे ख ।। ७ ।।
[१९१]
एक सनेही सा चलो केवल कोसलपालु ।
ेम-कनोड़ो रामसो न ह सरो दयालु ।। १ ।।
तन-साथी सब वारथी, सुर यवहार-सुजान ।
आरत-अधम-अनाथ हत को रघुबीर समान ।। २ ।।
नाद नठु र, समचर सखी, स लल सनेह न सूर ।
स स सरोग, दनक बड़े, पयद ेम-पथ कूर ।। ३ ।।
जाको मन जास बँ यो, ताको सुखदायक सोइ ।
सरल सील सा हब सदा सीताप त स रस न कोइ ।। ४ ।।
सु न सेवा सही को करै, प रहरै को षन दे ख ।
के ह दवान दन द न को आदर-अनुराग बसे ख ।। ५ ।।
खग-सबरी पतु-मातु य माने, क प को कये मीत ।
केवट भ ो भरत य , ऐसो को क प तत-पुनीत ।। ६ ।।
दे इ अभाग ह भागु को, को राखै सरन सभीत ।
बेद- ब दत ब दावली, क ब-को बद गावत गीत ।। ७ ।।
कैसेउ पाँवर पातक , जे ह लई नामक ओट ।
गाँठ बाँ यो दाम तो, पर यो न फे र खर-खोट ।। ८ ।।
मन-मलीन, क ल कल बषी होत सुनत जासु कृत-काज ।
सो तुलसी कयो आपुनो रघुबीर गरीब- नवाज ।। ९ ।।
भावाथ—स चे नेही तो केवल एक कोशले ीरामच जी ही ह। ेमका कृत
रामजीके समान कोई सरा दयालु नह है ।। १ ।। इस शरीरसे स ब ध रखनेवाले सभी
वाथ ह, दे वता वहारम चतुर ह ( जतनी सेवा करोगे, उतना ही फल दगे और य द कुछ
बगड़ गया, तो सारा कया-कराया थ कर दगे)। ःखी, नीच और अनाथका हत
करनेवाला ीरघुनाथजीके समान सरा कौन है? (कोई भी नह ) ।। २ ।। (अब े मय क
दशा दे खये) राग अथवा संगीतका वर नदय होता है (उसीके कारण बेचारा हरण जालम
फँसकर मारा जाता है)। अ न सबके साथ समान वहार करनेवाली है, (बेचारे पतंगको
उसीम पड़कर भ म होना पड़ता है) जल भी ेमके नबाहनेम वीर नह है (मछली तो उसके
बना णभर भी जी वत नह रहती, पर वह ऐसा है क उसको मछलीके बना कोई ःख
नह होता)। च मा (आज म) रोगी है (उसका ेमी चकोर तो उसपर मु ध होकर अंगारे
चुगता है, क तु च मा उसपर त नक भी तरस नह खाता)। सूय बड़ पनम भूल रहा है
(कमलक तो कली-कली उसे दे खकर खल उठती है, पर वह उसे नीच समझकर णभरम
ही सुखा डालता है) और मेघ तो ेम-पथके लये बड़ा ही नदय है (बेचारे चातकको तरसाता
ही नह , उसपर गरज-गरजकर ओले बरसाता है और बजली गराता है) ।। ३ ।। (पर या
कया जाय) जसका मन जससे बँध गया, उसके लये वही सुख दे नेवाला होता है। ( ःखको
भी सुख मान लेता है); क तु (मेरी म) ीरघुनाथजी-सरीखा सरल, सुशील वामी सरा
नह है ।। ४ ।। सेवा सुनते ही उसपर ‘सही’ कर दे नेवाला—सेवा मान लेनेवाला सरा कौन
है? और अपराध दे खकर भी उनपर कौन खयाल नह करता? कसके दरबारम द न का
स मान वशेष ेमसे कया जाता है ।। ५ ।। प ी (जटायु) और शबरीको कसने पता और
माताके समान माना? बंदर (सु ीव आ द)-को कसने अपना म बनाया? गुह नषादसे जो
अपने सगे भाई भरतक तरह दयसे लगाकर मले, भला बताओ तो, पा पय को प व
करनेवाला ऐसा सरा कौन है? (कोई नह ) ।। ६ ।। अभागेको कौन भा यवान् बनाता है?
डरे को कौन अपनी शरणम रखता है? वेद म कसक यश-गाथा गायी जा रही है और
क व एवं व ान् कसके गीत गा रहे ह? (भगवान् रामच ही एक ऐसे द नब धु भ व सल
ह) ।। ७ ।। जसने उनके नाम (राम)-का आ य लया, चाहे वह कैसा ही नीच और पापी
य न हो, उसे ीरामने इस तरह अपना लया, जैसे कोई ( मले ए) धनको (तुरंत) गाँठम
बाँध लेता है, और उसके खरे या खोटे पनको भी नह परखता ।। ८ ।। जो ऐसा म लन
मनवाला है क जसके क लयुगम कये ए कम को सुनकर सुननेवाले भी पापी हो जाते ह,
उस तुलसीदासको भी उ ह ने अपना दास मान लया। ीरघुनाथजी ऐसे ही गरीब नवाज
ह ।। ९ ।।
[१९२]
जो पै जान कनाथ स नातो ने न नीच ।
वारथ-परमारथ कहा, क ल कु टल बगोयो बीच ।। १ ।।
धरम बरन आ म नके पैयत पो थही पुरान ।
करतब बनु बेष दे खये, य सरीर बनु ान ।। २ ।।
बेद साधन सबै, सु नयत दायक फल चा र ।
राम- ेम बनु जा नबो जैसे सर-स रता बनु बा र ।। ३ ।।
नाना पथ नरबानके, नाना बधान ब भाँ त ।
तुलसी तू मेरे कहे जपु राम-नाम दन-रा त ।। ४ ।।
भावाथ—अरे नीच! य द ीजानक नाथ रामच जीसे तेरा ेम और नाता नह है, तो
तेरे वाथ और परमाथ कैसे स ह गे? इस अव थाम तो कु टल क लयुगने तुझको बीचम
ही ठग लया, ( जससे लोक-परलोक दोन ही बगड़ गये) ।। १ ।। (भगवान्के ेमसे वहीन
लोग के लये) वण और आ मके धम केवल पो थय और पुराण म ही लखे पाये जाते ह।
उनके अनुसार कत कोई नह करता, ऐसे कत हीन कोरे भेष वैसे ही ह जैसे बना
ाण के शरीर ह । (उनसे कोई लाभ नह ) ।। २ ।। सुनते ह क वेद म जतने स - स
(य आ द) साधन ह, वे सब अथ, धम, काम और मो चार को दे नेवाले ह; क तु बना
ीराम- ेमके उन सबका जानना-मानना वैसा ही है जैसे बना पानीके तालाब और न दयाँ।
सारांश यह क भगवत्- ेम- वहीन सभी याएँ थ ह ।। ३ ।। मु के अनेक माग ह और
भाँ त-भाँ तके साधन ह, कतु हे तुलसी! तू तो मेरे कहनेसे दन-रात केवल राम-नामका ही
जप कया कर (तेरा तो इसीसे क याण हो जायगा) ।। ४ ।।
[१९३]
अज ँ आपने रामके करतब समुझत हत होइ ।
कहँ तू, कहँ कोसलधनी, तोको कहा कहत सब कोइ ।। १ ।।
री झ नवा यो कब ह तू, कब खी झ दई तो ह गा र ।
दरपन बदन नहा रकै, सु बचा र मान हय हा र ।। २ ।।
बगरी जनम अनेकक सुधरत पल लगै न आधु ।
‘पा ह कृपा न ध’ ेमस कहे को न राम कयो साधु ।। ३ ।।
बालमी क-केवट-कथा, क प-भील-भालु-सनमान ।
सु न सनमुख जो न रामस , त ह को उपदे स ह यान ।। ४ ।।
का सेवा सु ीवक , का ी त-री त- नरबा ।
जासु बंधु ब यो याध य , सो सुनत सोहात न का ।। ५ ।।
भजन बभीषनको कहा, फल कहा दयो रघुराज ।
राम गरीब- नवाजके बड़ी बाँह-बोलक लाज ।। ६ ।।
जप ह नाम रघुनाथको, चरचा सरी न चालु ।
सुमुख, सुखद, सा हब, सुधी, समरथ, कृपालु, नतपालु ।। ७ ।।
सजल नयन, गदगद गरा, गहबर मन, पुलक सरीर ।
गावत गुनगन रामके के हक न मट भव-भीर ।। ८ ।।
भु कृत य सरब य ह, प रह पा छली गला न ।
तुलसी तोस रामस कछु नई न जान-प हचा न ।। ९ ।।
भावाथ—अब भी य द तू अपनी (नीच करतूत को) और ीरामजीके (दयासे पूण)
करतब को समझ ले तो तेरा क याण हो सकता है; कहाँ तू (राम वमुख, वषय म लगा आ
जीव) और कहाँ (अहैतुक दयाके समु ) कोशलप त भगवान् ीरामच जी! तुझे सब लोग
या कहते ह? ( क यह रामका भ है। भ और भगवान्म कोई भेद नह होता। ऐसा
कहलाना या तेरी करतूत का फल है?) ।। १ ।। अरे, जरा ( ववेक पी) दपणम (अपने
मन पी) मुखको तो दे ख क कब तो ीरामजीने स होकर तुझपर कृपा क है और कब
गु सेम आकर तुझे गा लयाँ द है? ( वचारनेसे तुझे यह प तीत होगा क ीरामने तो
सदा कृपा ही क है, जो कुछ दोष है, सो तेरा ही है। भगवान् गु से होकर गा लयाँ दे ने लग तो
जीवका न तार ही कैसे हो?) फर (अपनी करतूत के लये) अपनी हार मान (न तो यह
समझ क मेरी करनीसे म भ कहलाया ँ और न उनपर दोषारोपण ही कर क भ
होनेपर भी वे मेरा उ ार य नह करते?) ।। २ ।। अरे, (उनको उ ार करते दे र ही या
लगती है) अनेक ज म क बगड़ी ई दशा सुधारनेम उ ह आधा पल भी नह लगता। ‘हे
कृपा नधान! मेरी र ा क जये’— ेमसे इतना कहते ही ऐसा कौन पापी है जसको
ीरामच जीने (स चा) साधु नह बना दया? ।। ३ ।। वा मी क और गुह नषादक कथा
तथा सु ीव, हनुमान्, शबरी, रीछ जा बवान् आ दके आदर-स कारक बात सुनकर भी जो
ीरामजीके शरण नह आ, उस (मूख)-को कौन ानका उपदे श कर सकता है? ।। ४ ।।
सु ीवने कौन-सी सेवा क , और कौन-सी ी तक री त नबाही थी? (रा य पाकर वह तो
ीरामजीके कायको भूल गया!) पर उसके भी भाई बा लको (अपने ऊपर कलंक लेकर भी)
ाधक ना मार डाला। इस कार मारनेक बात सुनकर (भ के अ त र और)
कसीको भी वह अ छ नह लगती ।। ५ ।। वभीषणने कौन-सा भजन कया था? क तु
रघुनाथजीने उसे, उसके बदलेम या फल दया (लंकाका महान् सा ा य और अपना अचल
ेम।) असलम गरीब नवाज ीरामच जीको (शरणागतके) र ा करनेके वचनक बड़ी
लाज है। (शरण आये ए के पछले कम क ओर वे दे खते ही नह ) ।। ६ ।। इस लये तू
रघुनाथजीका ही नाम जपा कर, सरी चचा ही न चलाया कर, य क सु दर, सुख दे नेवाले,
बु मान्, समथ, कृपासागर और शरणागतक र ा करनेवाले वामी एक वही ह ।। ७ ।।
ऐसा कौन है जसने आँख म आँसू भरकर, गद्गद वाणीसे, ेमपूण च से तथा पुल कत
होकर ीरामच जीक गुणाव लका गान कया हो, और उसका सांसा रक क (ज म-
मरण) नह छू ट गया हो? ।। ८ ।। प ा ाप करना छोड़ द। भु रामच जी उपकार मानने
वाले और सभी बाहर-भीतरक , आगे-पीछे क बात को जाननेवाले ह (उनसे तेरी कोई करनी
छपी नह है)। तुलसीदास! रामजीसे तेरी कुछ नयी जान-पहचान नह है। (उनपर ढ़
भरोसा रख) ।। ९ ।।
[१९४]
जो अनुराग न राम सनेही स ।
तौ ल ो ला कहा नर-दे ही स ।। १ ।।
जो तनु ध र, प रह र सब सुख, भये सुम त राम-अनुरागी ।
सो तनु पाइ अघाइ कये अघ, अवगुन-उद ध अभागी ।। २ ।।
यान- बराग, जोग-जप, तप-मख, जग मुद-मग न ह थोरे ।
राम- ेम बनु नेम जाय जैसे मृग-जल-जल ध- हलोरे ।। ३ ।।
लोक- बलो क, पुरान-बेद सु न, समु झ-बू झ गु - यानी ।
ी त- ती त राम-पद-पंकज सकल-सुमंगल-खानी ।। ४ ।।
अज ँ जा न जय, मा न हा र हय, होइ पलक महँ नीको ।
सु म सनेहस हत हत राम ह, मानु मतो तुलसीको ।। ५ ।।
भावाथ—य द परम नेही ीरामच जीके त ेम नह है तो नर-शरीर धारण करनेसे
लाभ ही या आ? (भगवान्म अन य ेम होना ही तो मनु य-जीवनका परम लाभ
है) ।। १ ।। जस शरीरको धारण कर शु बु वाले पु ष सारे संसारी सुख को ( वषवत्)
याग कर ीरामजीके ेमी बनते ह, उस ( लभ) शरीरको भी पाकर, अरे महानीच अभागे!
तूने पेट भर-भरकर पाप ही कये! ।। २ ।। जगत्म ान, वैरा य, योग, जप, तप, य आ द
आन द (मो )-के माग क कमी नह है; क तु बना ीरामजीके ेमके ये सारे साधन वैसे
ही थ ह, जैसे मृगतृ णाके समु क लहर ।। ३ ।। संसारको दे खकर, पुराण और वेद को
सुनकर तथा ानी-गु जन से समझ-बूझकर ीरामजीके चरणार व द म ेम और व ास
करना ही सम त क याण क खा न है ।। ४ ।। य द अब भी तूने मनम समझ लया और
अपने दयम हार मान ली, (अ भमान छोड़कर शरण हो गया) तो एक णम ही तेरा
क याण हो जायगा। ेमपूवक (स चे) हतकारी ीरामच जीका मरण कर, तुलसीदासका
यह स ा त मान ले ।। ५ ।।
[१९५]
ब ल जाउँ ह राम गुसा । क जै कृपा आपनी ना ।। १ ।।
परमारथ सुरपुर-साधन सब वारथ सुखद भलाई ।
क ल सकोप लोपी सुचाल, नज क ठन कुचाल चलाई ।। २ ।।
जहँ जहँ चत चतवत हत, तहँ नत नव बषाद अ धकाई ।
च-भावती भभ र भाग ह, समुहा ह अ मत अनभाई ।। ३ ।।
आ ध-मगन मन, या ध- बकल तन, बचन मलीन झुठाई ।
एते ँ पर तुमस तुलसीक भु सकल सनेह सगाई ।। ४ ।।
भावाथ—हे मेरे नाथ ीरामजी! म आपपर ब ल जाता ।ँ आप अपने वभावसे ही
मुझपर कृपा क जये ।। १ ।। परमाथके, वगके तथा सांसा रक वाथके सुख दे नेवाले और
क याणकारक जतने (शम, दम, तप, य आ द) उपाय ह, उन सबक री तय को क लयुगने
ोध करके लु त कर दया है, और अपनी (द भ, कपट, न दा आ द) ःखदायक
कुचाल को चला दया है ।। २ ।। जहाँ-जहाँ यह मन अपना हत दे खता है, वह न य नये
ःख बढ़ते ही जाते ह। चको अ छ लगनेवाली बात रसे ही डरकर भाग जाती ह और
जनको मन नह चाहता वे ही अपार चीज सामने आ जाती ह। अथात् सुखके लये चे ा
करनेपर भी अपार ःख ही आते ह ।। ३ ।। मन च ता म डू ब रहा है, शरीर रोग के मारे
ाकुल है, और वाणी झूठ तथा म लन हो रही है (सदा अस य, कठोर और कुवा य ही
बोलती है)। क तु यह सब होते ए भी हे नाथ! आपके साथ इस तुलसीदासका स ब ध और
ेम य -का- य बना आ है (ध य ह जो इस कारके अधमके साथ भी ेमका स ब ध
थायी रखते ह।) ।। ४ ।।
[१९६]
काहेको फरत मन, करत ब जतन,
मटै न ख बमुख रघुकुल-बीर ।
क जै जो को ट उपाइ, बध ताप न जाइ,
क ो जो भुज उठाय मु नबर क र ।। १ ।।
सहज टे व बसा र तुही ध दे खु बचा र,
मलै न मथत बा र घृत बनु छ र ।
समु झ तज ह म, भज ह पद-जुगम,
सेवत सुगम, गुन गहन गँभीर ।। २ ।।
आगम नगम ंथ, र ष-मु न, सुर-संत,
सब ही को एक मत सुनु, म तधीर ।
तुल सदास भु बनु पयास मरै पसु,
ज प है नकट सुरस र-तीर ।। ३ ।।
भावाथ—अरे मन! तू कस लये ब त-से य न करता फरता है? जबतक तू
ीरघुकुल- शरोम ण रामजीसे वमुख है तबतक ( सरे कतने भी साधन से तेरा ःख नह
मटे गा)। भगव मुख करोड़ उपाय य न करे, पर उसके दै हक, दै वक, भौ तक तीन
ताप न नह हो सकते, यह बात मु न े शुकदे वजीने भुजा उठाकर कही है ।। १ ।। अपने
वभावक टे वको छोड़कर— ीराम- वमुखताक आदत छोड़कर एका च से तू ही
वचारकर दे ख क कह पानीके मथनेसे, बना धके घी मल सकता है? (इसी कार
वषय म रत रहनेसे कभी सुख नह मल सकता।) इस बातको समझकर मको छोड़ दे
और ीरामच जीके उन युगल चरण का भजन कर, जो सेवासे सुलभ ह और सद्गुण के
ग भीर वन ह अथात् जन चरण क सेवा करनेसे ववेक, वैरा य, शा त, सुख आ द
अनायास ही ा त हो जाते ह ।। २ ।। बु थर करके शा , वेद , अ य थ , ऋ षय ,
मु नय , दे वता और संत का जो एक न त स ा त है, उसे सुन (वह स ा त यही है
क सब आशा को छोड़कर ीभगवान्के शरण होना चा हये)। हे तुलसीदास! य प
गंगाका तट नकट है, तो भी बना वामीके पशु यासा ही मरा जाता है (इसी कार य प
भगवत्- ा त प परमसुख सहज ही मल सकता है, पर भगवान्क शरण ए बना वह
लभ हो रहा है) ।। ३ ।।
[१९७]
ना हन चरन-र त ता ह त सह बप त,
कहत ु त सकल मु न म तधीर ।
बसै जो स स-उछं ग सुधा- वा दत कुरंग,
ता ह य म नर ख र बकर-नीर ।। १ ।।
सु नय नाना पुरान, मटत ना ह अ यान,
प ढ़य न समु झय ज म खग क र ।
बँधत बन ह पास सेमर-सुमन-आस,
करत चरत तेइ फल बनु हीर ।। २ ।।
कछु न साधन- स ध, जान न नगम- ब ध,
न ह जप-तप, बस मन, न समीर ।
तुल सदास भरोस परम क ना-कोस,
भु ह रह बषम भवभीर ।। ३ ।।
भावाथ— ीरघुनाथजीके चरण म मेरा ेम नह है, इसीसे म वप य को भोग रहा ँ,
(मेरा ही नह ) वेद और सम त बु मान् मु नय का (भी) यही कहना है। य क जो हरण
च माक गोदम बैठा अमृतका वाद ले रहा है, उसे भला मृगतृ णाके जलम म य होगा?
( जस जीवने ीराम-पद-कमल के ेमान दका अनुभव कर लया, वह म या संसारी सुख म
य भूलेगा?) ।। १ ।। जैसे प ी (तोता) पढ़ता तो सब है, पर समझता कुछ नह है, वैसे ही
बना समझे अनेक पुराण सुननेसे अ ान नह मटता। (अ ानी) तोता बना ही फंदे के वयं
बँध जाता है, आप ही च गली पकड़कर लटक रहता है; वह (मूख तोता) सेमरके फूलक
आशा करता है; पर य ही उसम च च मारता है, उसे बना गूदेका फल मलता है अथात्
ईके सवा उसम खानेके लये कुछ भी नह मलता, तब पछताता है (इसी कार मनु य
वषय पी च गली पकड़कर आप ही बँधा रहता है तथा वषय से सुखी होनेक आशासे
उनके बटोरनेम लगा रहता है। पर तु बछु ड़ते ही ःखी हो जाता है) ।। २ ।। न तो मेरे पास
कोई साधन है और न मुझे कोई स ही ा त है। न म वै दक व धय को ही जानता ँ, न
मुझे जप-तप करना आता है और न ाणायामसे ही मने मन वशम कया है। इस
तुलसीदासको तो क णाके भ डार भगवान् रामच जीका ही एकमा भरोसा है। वही
इसक भयानक सांसा रक वप को र करगे, ज म-मरणसे मु करगे ।। ३ ।।
राग भैरवी
[१९८]
मन प छतैहै अवसर बीते ।
रलभ दे ह पाइ ह रपद भजु, करम, बचन अ ही ते ।। १ ।।
सहसबा दसबदन आ द नृप बचे न काल बलीते ।
हम-हम क र धन-धाम सँवारे, अंत चले उ ठ रीते ।। २ ।।
सुत-ब नता द जा न वारथरत, न क नेह सबही ते ।
अंत तो ह तजगे पामर! तू न तजै अबही ते ।। ३ ।।
अब नाथ ह अनुरागु, जागु जड़, यागु रासा जी ते ।
बुझै काम अ ग न तुलसी क ँ, बषय-भोग ब घी ते ।। ४ ।।
भावाथ—अरे मन! (मनु य-ज मक आयुका यह) सुअवसर बीत जानेपर तुझे पछताना
पड़ेगा। इस लये इस लभ मनु य शरीरको पाकर कम, वचन और दयसे भगवान्के चरण-
कमल का भजन कर ।। १ ।। सह बा और रावण आ द (महा तापी) राजा भी बलवान्
कालसे नह बच सके, उ ह भी मरना पड़ा। ज ह ने ‘हम-हम’ करते ए धन और धाम
सँभाल-सँभालकर रखे थे, वे भी अ त समय यहाँसे खाली हाथ ही चले गये (एक कौड़ी भी
साथ न गयी) ।। २ ।। पु , ी आ दको वाथ समझ इन सबसे ेम न कर। अरे अधम! जब
ये सब तुझे अ त समयम छोड़ ही दगे, तो तू इ ह अभीसे य नह छोड़ दे ता? (इनका मोह
छोड़कर अभीसे भगवान्म ेम य नह करता?) ।। ३ ।। अरे मूख! (अ ान- न ासे) जाग,
अपने वामी ( ीरघुनाथजी)-से ेम कर और दयसे (सांसा रक वषय से सुखक )
राशाको याग दे , ( वषय म सुख है ही नह , तब मलेगा कहाँसे?) हे तुलसीदास! जैसे
अ न ब त-सा घी डालनेसे नह बुझती (अ धक व लत होती है), वैसे ही यह कामना भी
य - य वषय मलते ह य -ही- य बढ़ती जाती है। (यह तो स तोष पी जलसे ही बुझ
सकती है) ।। ४ ।।
[१९९]
काहे को फरत मूढ़ मन धायो ।
त ज ह र-चरन-सरोज सुधारस, र बकर-जल लय लायो ।। १ ।।
जग दे व नर असुर अपर जग जो न सकल म आयो ।
गृह, ब नता, सुत, बंधु भये ब , मातु- पता ज ह जायो ।। २ ।।
जाते नरय- नकाय नरंतर, सोइ इ ह तो ह सखायो ।
तुव हत होइ, कटै भव-बंधन, सो मगु तो ह न बतायो ।। ३ ।।
अज ँ बषय कहँ जतन करत, ज प ब ब ध डहँकायो ।
पावक-काम भोग-घृत त सठ, कैसे परत बुझायो ।। ४ ।।
बषयहीन ख, मले बप त अ त, सुख सपने ँ न ह पायो ।
उभय कार ेत-पावक य धन ख द ु त गायो ।। ५ ।।
छन- छन छ न होत जीवन, रलभ तनु बृथा गँवायो ।
तुल सदास ह र भज ह आस त ज, काल-उरग जग खायो ।। ६ ।।
भावाथ—अरे मूख मन! कस लये दौड़ा-दौड़ा फरता है? ीह रके चरणकमल के
अमृत-रसको छोड़कर ( वषय पी) मृगतृ णाके जलम य लौ लगा रहा है ।। १ ।। पशु-
प ी, दे वता, मनु य, रा स और अ या य सभी संसारी यो नय म तू भटक आया। इन सब
यो नय म तेरे ब त-से घर, ी, पु , भाई और तुझे उ प करनेवाले माता- पता हो चुके
ह ।। २ ।। इन सबने तुझे वही वषय-भोग का ेम सखाया, जसके करनेसे सदा अनेक
नरक म जाना पड़ता है। वह माग कभी नह बताया, जसपर चलनेसे तेरा संसारी ब धन कट
जाय—तेरी ज म-मरणसे मु हो जाय और तेरा परम क याण हो, मो क ा त
हो ।। ३ ।। इस कार य प तू कई तरहसे छला जा चुका है, फर भी अबतक तू उ ह
वषय के ही लये जतन कर रहा है! (बार-बार ःख भोगकर भी फर उ ह म मन लगाता है)
पर तु अरे ! (त नक वचार तो कर) कामना पी अ नम भोग पी घी डालनेसे वह कैसे
शा त होगी? ( जतनी ही भोग क ा त होगी, कामनाक अ न उतनी ही अ धक
भड़केगी) ।। ४ ।। जब वषय क ा त नह ई तब तुझे बड़ा ःख आ, (उनके नाशसे
और उनके मल जानेपर भी) बड़ी वप ा त ई, व म भी सुख नह मला। इस लये
वेद ने इस वषय पी धनको, दोन ही कारसे, भूतक आगके समान ःख द बतलाया है
(मतलब यह क वषयी लोग को न तो वषयक ा तम सुख होता है, और न अ ा तम
ही) ।। ५ ।। अरे! तेरा जीवन ण- णम ीण हो रहा है, इस लभ मनु य-शरीरको तूने
थ ही खो दया। अतएव, हे तुलसीदास! तू संसारी सुखक आशा छोड़कर केवल
ीह रका भजन कर! सावधान! काल पी साँप संसारको खाये जा रहा है (न जाने, कब
कस घड़ी तू भी कालका कलेवा हो जाय) ।। ६ ।।
[२००]
ताँबे सो पी ठ मन ँ तन पायो ।
नीच, मीच जानत न सीस पर, ईस नपट बसरायो ।। १ ।।
अव न-रव न, धन-धाम, सु द-सुत, को न इ ह ह अपनायो?
काके भये, गये सँग काके, सब सनेह छल-छायो ।। २ ।।
ज ह भूप न जग-जी त, बाँ ध जम, अपनी बाँह बसायो ।
तेऊ काल कलेऊ क हे, तू गनती कब आयो ।। ३ ।।
दे खु बचा र, सार का साँचो, कहा नगम नजु गायो ।
भज ह न अज ँ समु झ तुलसी ते ह, जे ह महेस मन लायो ।। ४ ।।
भावाथ—अरे जीव! मानो तूने ताँबेसे मढ़ा आ शरीर पाया है! (तभी तो क चे घड़ेके
समान फूटनेवाले, पानीके बुदबु
् देके समान बात-क -बातम नाश हो जानेवाले न र शरीरको
अजर-अमर मानकर भोग म लीन हो रहा है) और तूने परमा माको बलकुल ही भुला दया।
अरे नीच! तू यह नह जानता क मौत तेरे सरपर नाच रही है! ।। १ ।। पृ वी, ी, धन,
मकान, म और पु को कसने नह अपनाया? क तु (आजतक) ये कसके ए? (मरते
समय) कसके साथ गये? इन सबके ेमम केवल कपट भरा है ।। २ ।। जन राजा ने
नयाभरको जीतकर, यमराजको भी कैद कर अपने अधीन कर लया था, उनका भी कालने
जब एक दन कलेवा कर डाला, तब तेरी तो गनती ही या है ।। ३ ।। वचारकर दे ख, स चा
सार या है? और वेद ने न य पसे या कहा है? हे तुलसी! यह समझकर अब भी तू उस
ीरामको नह भजता, जसम ी शवजीने अपना मन लगा रखा है ।। ४ ।।
[२०१]
लाभ कहा मानुष-तनु पाये ।
काय-बचन-मन सपने ँ कब ँक घटत न काज पराये ।। १ ।।
जो सुख सुरपुर-नरक, गेह-बन आवत बन ह बुलाये ।
ते ह सुख कहँ ब जतन करत मन, समुझत न ह समुझाये ।। २ ।।
पर-दारा, पर- ोह, मोहबस कये मूढ़ मन भाये ।
गरभबास खरा स जातना ती बप त बसराये ।। ३ ।।
भय- न ा, मैथुन-अहार, सबके समान जग जाये ।
सुर- रलभ तनु ध र न भजे ह र मद अ भमान गवाँये ।। ४ ।।
गई न नज-पर-बु , सु ै रहे न राम-लय लाये ।
तुल सदास यह अवसर बीते का पु न के प छताये ।। ५ ।।
भावाथ—मनु य-शरीर पानेसे या लाभ आ जब क वह कभी व म भी मन, वाणी
और शरीरसे सरेके काम नह आया ।। १ ।। वषय-स ब धी जो सुख वग, नरक, घर और
वनम बना ही बुलाये आप-से-आप आ जाता है, उस सुखके लये, अरे मन! तू अनेक
कारके उपाय कर रहा है! समझानेपर भी नह समझता ।। २ ।। हे मूढ़! तूने अ ानके वश
होकर परायी ीके लये और सर से वैर करनेके लये मनमाने आचरण कये। गभम महान्
ःख, दा ण क और वप भोगी थी, उसे भूल गया (यह नह सोचा क इन मनमाने
कुकम से फर वही गभवासके ःख भोगने पड़गे) ।। ३ ।। डर, न द, मैथुन और भोजन
आ द तो संसारम ज म लेनेवाले सभी जीव म एक-से ह! पर तु तूने तो दे वता को भी लभ
मनु य-शरीरको पाकर उससे भी भगवान्का भजन नह कया और अहंकार और घमंडम
उसे खो दया ।। ४ ।। जनक मेरे-तेरेक भेदबु न नह ई और शु अ तःकरणसे
ज ह ने ीरामम च को लीन नह कया, उ ह हे तुलसीदास! ऐसा यह (मनु य-शरीरका)
सुअवसर नकल जानेपर फर पछतानेसे या मलेगा? (इस लये चेतकर अभी भगवान्के
भजनम लग जाना चा हये) ।। ५ ।।
[२०२]
काजु कहा नरतनु ध र सारयो ।
पर-उपकार सार ु तको जो, सो धोखे न बचारयो ।। १ ।।
ै त मूल, भय-सूल, सोक-फल, भवत टरै न टारयौ ।
रामभजन-तीछन कुठार लै सो न ह का ट नवारयो ।। २ ।।
संसय- सधु नाम बो हत भ ज नज आतमा न तारयो ।
जनम अनेक ववेकहीन ब जो न मत न ह हारयो ।। ३ ।।
दे ख आनक सहज संपदा े ष-अनल मन-जारयो ।
सम, दम, दया, द न-पालन, सीतल हय ह र न सँभारयो ।। ४ ।।
भु गु पता सखा रघुप त त मन म बचन बसारयो ।
तुल सदास य ह आस, सरन रा ख ह जे ह गीध उधारयो ।। ५ ।।
भावाथ—तूने मनु य-शरीर धारणकर कौन-सा काय स कया? जो परोपकार
वेद का सार है, उसे तूने भूलकर भी नह वचारा ।। १ ।। यह संसार पी वृ , जसक ै त
अथात् भेदबु जड़ है, जसम भय पी काँटे है, और ःख जसका फल है, हटानेपर भी
नह हटता ( य क जबतक इसक ै त पी अ ानक जड़ नह कटती तबतक इसका
हटना अस भव है)। यह केवल रामजीके भजन पी तेज कु हाड़ीसे ही कटता है, पर तु तूने
भजन करके उसे नह काटा ।। २ ।। संशय (अ ान)- पी समु से पार जानेके लये राम-
नाम नौका प है, सो उसका सेवन कर तूने अपने आ माको नह तारा। अनेक ज मतक,
ानहीन रहकर ब त-सी यो नय म घूमता आ भी तू अबतक नह थका ।। ३ ।। सर क
सहज स प दे खकर े ष पी अ नम मनको जलाता रहा (हाय! उसके धनका नाश य
नह होता? इसी े षा नसे जलता रहा)। शम, दम, दया और द न का पालन करते ए
दयको शा त कर भगवान्का मरण नह कया ।। ४ ।। तूने मनसे, कमसे और वचनसे
अपने (स चे) वामी, गु , पता और म उन ीरघुनाथजीको भुला दया। हे तुलसीदास!
अब तो यही आशा है क जसने जटायु गीधको तार दया था, वही तुझे भी अपनी शरणम
रखगे ।। ५ ।।
[२०३]
ीह र-गु -पद-कमल भज मन त ज अ भमान ।
जे ह सेवत पाइय ह र सुख- नधान भगवान ।। १ ।।
प रवा थम ेम बनु राम- मलन अ त र ।
ज प नकट दय नज रहे सकल भ रपू र ।। २ ।।
इज ै त-म त छा ड़ चर ह म ह-मंडल धीर ।
बगत मोह-माया-मद दय बसत रघुबीर ।। ३ ।।
तीज गन-पर परम पु ष ीरमन मुकुंद ।
गुन सुभाव यागे बनु रलभ परमानंद ।। ४ ।।
चौ थ चा र प रहर बु -मन- चत-अहँकार ।
बमल बचार परमपद नज सुख सहज उदार ।। ५ ।।
पाँचइ पाँच परस, रस, स द, गंध अ प।
इ ह कर कहा न क जये, ब र परब भव-कूप ।। ६ ।।
छठ षटबरग क रय जय जनकसुता- पत ला ग ।
रघुप त-कृपा-बा र बनु न ह बुताइ लोभा ग ।। ७ ।।
सात स तधातु- नर मत तनु क रय बचार ।
ते ह तनु केर एक फल, क जै पर-उपकार ।। ८ ।।
आठइँ आठ कृ त-पर नर बकार ीराम ।
के ह कार पाइय ह र, दय बस ह ब काम ।। ९ ।।
नवमी नव ार-पुर ब स जे ह न आपु भल क ह ।
ते नर जो न अनेक मत दा न ख ली ह ।। १० ।।
दसइँ दस कर संजम जो न क रय जय जा न ।
साधन बृथा होइ सब मल ह न सारँगपा न ।। ११ ।।
एकादसी एक मन बस कै सेव जाइ ।
सोइ त कर फल पावै आवागमन नसाइ ।। १२ ।।
ाद स दान दे अस, अभय होइ ैलोक ।
पर हत- नरत सो पारन ब र न यापत सोक ।। १३ ।।
तेर स तीन अव था तज , भज भगवंत ।
मन- म-बचन-अगोचर, यापक, या य, अनंत ।। १४ ।।
चौद स चौदह भुवन अचर-चर- प गोपाल ।
भेद गये बनु रघुप त अ त न हर ह जग-जाल ।। १५ ।।
पून ेम-भग त-रस ह र-रस जान ह दास ।
सम, सीतल, गत-मान, यानरत, बषय-उदास ।। १६ ।।
बध सूल हो लय जरै, खे लय अब फागु ।
जो जय चह स परमसुख, तौ य ह मारग लागु ।। १७ ।।
ु त-पुरान-बुध-संमत चाँच र च रत मुरा र ।
क र बचार भव त रय, प रय न कब ँ जमधा र ।। १८ ।।
संसय-समन, दमन ख, सुख नधान ह र एक ।
साधु-कृपा बनु मल ह न, क रय उपाय अनेक ।। १९ ।।
भव सागर कहँ नाव सु संतनके चरन ।
तुल सदास यास बनु मल ह राम खहरन ।। २० ।।
भावाथ—हे मन! तू अ भमान छोड़कर भगवत्- पी ीगु के चरणार व द का भजन
कर। जनक सेवा करनेसे आन दघन भगवान् ीह रक ा त हो जाती है ।। १ ।। जैसे
तपदा (प म सबसे पहला दन है) उसी कार (सव साधन म) थम ेम है। ेमके बना
ीरामजीका मलना ब त रक बात है। य प वे ब त ही नकट, सबके दयम ही
पूण पसे नवास करते ह ।। २ ।। धीर भावसे (अचंचल च से) तीयाके समान सरा
साधन यह है क ै त-बु (ई र और जीवम भेद-बु ) छोड़कर (सम से) सम त पृ वी-
म डलम ( न त होकर) वचरण करना चा हये। मोह, माया और घमंडसे र हत दयम
सदा ीरघुनाथजी नवास करते ह ।। ३ ।। तृतीयाके समान तीसरा उपाय यह है क परम
पु ष, ल मीका त ीमुकु द भगवान् तीन गुण से परे ह। अतएव (स व, रज और तम)
गुणमयी कृ तका याग कर दे ना चा हये। ऐसा कये बना परमान दक ा त लभ है।
(जबतक पु ष कृ तम थत है तभीतक वह जीव है और तभीतक सुख- ःखका भो ा है।
इस कृ तमसे नकलकर व- थ—परमा मा पी व- पम थत होनेसे ही मो प
परमान द मलता है) ।। ४ ।। चतुथ के समान (भगवत्- ा तका) चौथा साधन यह है क
बु , मन, च और अहंकार—इनके समुदाय प ‘अ तःकरण’ का याग कर दे ना चा हये
(जबतक शरीर है तबतक अ तःकरण तो रहेगा ही, इसके यागका अथ यही है क इसके
साथ जो तादा य हो रहा है उसे याग कर इसका ा बन जाय। अथवा इसे भगवान्के
अपण करके इसके ारा केवल भगवत्-स ब धी काय ही करे) ऐसा करनेसे नमल ववेकका
उदय होगा, तब अपने आ म व प पी उदार आन दघन परम पदक ा त होगी ।। ५ ।।
पंचमीके अनुसार पाँचवाँ साधन यह है क पश, रस, श द, ग ध और प—इन पाँच
इ य के वषय के कहनेम अथात् इनके अधीन होकर न चलना चा हये, य क इनके वश
होनेसे जीवको संसार पी अँधेर-े गहरे कुएँम गरना पड़ेगा, (ज म-मृ युके च म पड़ना
होगा) ।। ६ ।। ष ीके समान छठा उपाय यह है क ीजानक नाथ ीरामजीक ा तके
लये काम, ोध, लोभ, मोह, मद और मा सय—इन छ श ु को जीत लेना चा हये।
ीरामके कृपा पी जल बना लोभ पी अ न नह बुझती (भगव कृपा जीवपर सदा है ही,
अतः उस कृपाका अनुभव कर इन लोभा द श ु को मारना चा हये) ।। ७ ।। स तमीके
समान सातवाँ साधन यह है क सात धातु (रस, र , मांस, मेद, अ थ, म जा और
शु )-से बने ए इस (अप व , णभंगुर पर तु लभ मनु य-) शरीरपर वचार करना
चा हये। इस शरीरका केवल एक यही फल है क इससे परोपकार ही कया जाय ।। ८ ।।
अ मीके समान आठवाँ उपाय यह है, क न वकार व प ीरामच जी अ धा जड़
(अपरा) कृ त (पृ वी, जल, अ न, वायु, आकाश, मन, बु और अहंकार)-से परे ह।
अतएव जबतक दयम नाना कारक कामनाएँ बनी ई ह तबतक वे कैसे मल सकते
ह? ।। ९ ।। नवमीके समान नवाँ साधन यह है क जसने इस नौ दरवाजेक नगरी अथात् नौ
छे दवाले शरीरम रहकर अपने आ माका क याण नह कया, वह अनेक यो नय म भटकता
आ नाना कारके दा ण ःख को ा त होगा (इस लये आ माके क याणके लये ही
य न करना चा हये) ।। १० ।। दशमीके समान दसवाँ साधन यह है क जसने दस
इ य का संयम करना नह जाना, इ य को वशम नह कया, उसके सारे साधन न फल
हो जाते ह और उस इ य के दास, असंयमी मनु यको भगवान्क ा त नह हो
सकती ।। ११ ।। एकादशीके समान यारहवाँ साधन यह है क मनको वशम करके एक
ीभगवान्क ही सेवा करनी चा हये। इसीसे (परमाथ पी एकादशी) तका ज म-मरणके
नाश प (परम) फल मलता है। अथात् वह भगवान्के ा त हो जाता है ।। १२ ।। ादशीके
दन दान दया जाता है, अतः बारहवाँ साधन यह है क ऐसा (भगवत्- ी यथ न काम
बु से) दान दे ना चा हये जससे तीन लोक से भय न रहे (भगव ा त हो जाय) उस
ादशी पी बारहव साधनका पारण यही है क सदा परोपकारम लगे रहना चा हये। इस दान
और पारणसे) फर शोक नह ापता ।। १३ ।। योदशीके समान तेरहवाँ साधन यह है क
जा त्, व और सुषु त—इन तीन अव था को याग कर भगवान्का भजन करना
चा हये (भाव यह क न य- नर तर, सोते-जागते, ीभगवद्-भजन ही करना चा हये)।
भगवान् मन, कम और वाणीसे जाननेम नह आते, य क (बफम जलक भाँ त) वे ही
सबम ा त ह और ( व के य क भाँ त) वयं ही ा य हो रहे ह तथा असीम, अन त ह
(उनको तो वही जान सकता है जसको कृपापूवक वे जनाते ह, उनक कृपाका अनुभव
न य- नर तर होनेवाले भजनसे होता है, अतः तीन अव था म भजन ही करना
चा हये) ।। १४ ।। चतुदशीके समान गो-पाल (इ य के नय ता) भगवान् चराचर पसे
चौदह भुवन म रम रहे ह। पर तु जबतक, जीवक भेद-बु र नह होती तबतक
ीरघुनाथजी संसार पी जालको नह काटते, जीवको ज म-मरणसे नह छु ड़ाते
(संसारब धनसे छू टना हो तो अभेद-बु से भगवान्के भजना चा हये) ।। १५ ।। पूणमासीके
समान (भगवान्क ा तका) पं हवाँ साधन, जो सव कृ और पूण ह, यह है क ेम-
भ के रसम सराबोर होकर भ को ीह रका रस—भगवान्का परम रह यमय त व
जानना चा हये। इसीसे वह सव समदश , शा त, अहंकारर हत, ान व प और वषय से
उदासीन हो सकता है ।। १६ ।। (यहाँ गोसा जीने फा गुन-मासक पूणमासीका वणन कया
है। यह पूणमासी और महीन क पूणमासीसे कह अ धक है, इस आन दमयी होलीक
फा गुनी पू णमाके दन) दै हक, दै वक, भौ तक—इन तीन ताप क होली जलाकर
भगवान्के साथ ( ेमक ) खूब फाग खेलनी चा हये (यही परम आन दक अव था है)। य द
तू इस परमान दक इ छा करता है तो इसी मागपर चल (इ ह साधन म लग जा) ।। १७ ।।
वेद, पुराण और व ान का यही एक मत है क भगवान्क लीला का गान ही होलीके गीत
ह। (खूब ह रक तन करना चा हये)। इन सब साधन पर वचार करके संसार-सागरसे तर
जाना चा हये। फर कभी (भूलकर भी) यमलोकम ले जानेवाली वषय क धाराम नह पड़ना
चा हये ।। १८ ।। सारे स दे ह के नाश करनेवाले, ःख के र करनेवाले और सुखके नधान
केवल एक ीह र ही ह। चाहे जतने ही उपाय कर लो, संत क कृपाके बना वे नह मल
सकते (अतः संत-कृपा ही सव साधन म धान है) ।। १९ ।। संसार पी समु से तरनेके लये
संत के प व चरण ही नौका ह। हे तुलसीदास! (इस नौकापर चढ़कर अथात् संत के
चरण क सेवा करनेसे) ःख के नाश करनेवाले ीरामच जी बना ही प र मके मल
जायँगे ।। २० ।।
राग का हरा
[२०४]
जो मन लागै रामचरन अस ।
दे ह-गेह-सुत- बत-कल महँ मगन होत बनु जतन कये जस ।। १ ।।
ं र हत, गतमान, यानरत, बषय- बरत खटाइ नाना कस* ।
सुख नधान सुजान कोसलप त ै स , क , य न ह ह बस ।। २ ।।
सवभूत- हत, न यलीक चत, भग त- ेम ढ़ नेम, एकरस ।
तुल सदास यह होइ तब ह जब वै ईस, जे ह हतो सीसदस ।। ३ ।।
भावाथ—जो यह मन ीरामच जीके चरण म वैसे ही लग जाय, जैसे क यह बना ही
कसी य नके वभावसे ही शरीर, घर, पु , धन और ीम म न हो जाता है ।। १ ।। तो वह
(सुख- ःख आ द)-से र हत हो जाय, उसका अ भमान र हो जाय, वह ानम त लीन
हो जाय और वषय से वैसे ही वर हो जाय, जैसे क पीतल या ताँबा-राँगा मली ई
धातुके बतनम रखी ई नाना कारक खटाइय से उनके कड़वी हो जानेके कारण (मन हट
जाता है)। (ऐसे अ धकारी भ पर) आन दघन चतुर शरोम ण कोसलनाथ भगवान्
ीरामच जी स होकर य न उसके अधीन हो जायँ? ।। २ ।। (जो जीव
भगव चरणार व द म इस कार ेम करेगा वह महापु ष ही) सब ा णय के हतम संल न,
न वकार च वाला, एकरस भ ेम और भगवद य नयम म ढ़ होता है; पर तु हे
तुलसीदास! यह दशा तभी ा त होती है जब रावणके मारनेवाले वामी ( ीरामजी) स
होकर कृपा करते ह ।। ३ ।।
[२०५]
जो मन भ यो चहै ह र-सुरत ।
तौ तज बषय- बकार, सार भज, अज ँ जो म कह सोइ क ।। १ ।।
सम, संतोष, बचार बमल अ त, सतसंग त, ये चा र ढ़ क र ध ।
काम- ोध अ लोभ-मोह-मद, राग- े ष नसेष क र प रह ।। २ ।।
वन कथा, मुख नाम, दय ह र, सर नाम, सेवा कर अनुस ।
नयन न नर ख कृपा-समु ह र अग-जग- प भूप सीताब ।। ३ ।।
इहै भग त, बैरा य- यान यह, ह र-तोषन यह सुभ त आच ।
तुल सदास सव-मत मारग य ह चलत सदा सपने ँ ना हन ड ।। ४ ।।
भावाथ—हे मन! य द तू भगवत्- पी क पवृ का सेवन करना चाहता है, तो
वषय के वकारको छोड़कर सार प ीराम-नामका भजन कर और जो म कहता ँ उसे
अब भी कर (अभीतक कुछ बगड़ा नह ) ।। १ ।। समता, स तोष, नमल ववेक और स संग
—इन चार को ढ़तापूवक धारण कर। काम, ोध, लोभ, मोह, अ भमान एवं राग और
े षको बलकुल ही छोड़ दे , इनका लेशमा भी न रहे ।। २ ।। कान से भगव कथा सुन,
मुखसे (राम) नाम जपा कर, दयम ीह रका यान कया कर, म तकसे णाम तथा
हाथ से भगवान्क सेवा कया कर। ने से कृपासागर चराचर व मय महाराज
जानक व लभ रामच जीके दशन कया कर ।। ३ ।। यही भ है, यही वैरा य है, यही
ान है और इसीसे भगवान् स होते ह, अतएव तू इसी शुभ तका आचरण कर। हे
तुलसीदास! यही शवजीका बतलाया आ माग है। इस (क याणमय) मागपर चलनेसे
व म भी भय नह रहता (मनु य परमा माको ा त कर अभय हो जाता है) ।। ४ ।।
[२०६]
ना हन और कोउ सरन लायक जो ीरघुप त-सम बप त- नवारन ।
काको सहज सुभाउ सेवकबस, का ह नत पर ी त अकारन ।। १ ।।
जन-गुन अलप गनत सुमे क र, अवगुन को ट बलो क बसारन ।
परम कृपालु, भगत- चताम न, बरद पुनीत, प ततजन-तारन ।। २ ।।
सु मरत सुलभ, दास- ख सु न ह र चलत तुरत, पटपीत सँभार न ।
सा ख पुरान- नगम-आगम सब, जानत पद-सुता अ बारन ।। ३ ।।
जाको जस गावत क ब-को बद, ज हके लोभ-मोह, मद-मार न ।
तुल सदास त ज आस सकल भजु, कोसलप त मु नबधू-उधारन ।। ४ ।।
भावाथ— ीरघुनाथजीके समान वप य को र करनेवाला तथा शरण लेनेयो य कोई
सरा नह है। ऐसा कसका सरल वभाव है जो अपने सेवक के वशम रहता हो? शरणागत
भ पर कसका अहैतुक ेम है? ।। १ ।। ीरघुनाथजी अपने दासके जरा-से भी गुणको
सुमे पवतके स श महान् मानते ह, और उसके करोड़ दोष को दे खकर भी उ ह भूल जाते
ह। य क वे बड़े ही कृपालु, भ के (मनोरथको पूण करनेवाले) च ताम ण व प, प व
करनेके वरदवाले और प तत को (संसार-सागरसे) उ ार कर दे नेवाले ह ।। २ ।। मरण
करते ही, सहज ही मल जाते ह और अपने दासके ःखको सुनकर इतनी ज द ( ःख र
करनेके लये) दौड़े आते ह क (दे र होनेके भयसे) वे अपने पीता बरतकको नह सँभालते।
इस बातके सा ी पुराण, वेद, शा ह, ौपद और गजे (आ द अ छ तरह) जानते
ह ।। ३ ।। जनके लोभ, मोह, मद और काम नह ह, ऐसे क व और ानी महा मा जनका
यश गाते ह, हे तुलसीदास! सारी (लोक-परलोकक ) आशा को छोड़कर अह याके उ ार
करनेवाले उन भु ीकोसलनाथका ही तू भजन कर ।। ४ ।।
[२०७]
भ जबे लायक, सुखदायक रघुनायक स रस सरन द जो ना हन ।
आनँदभवन, खदवन, सोकसमन रमारमन गुन गनत सरा ह न ।। १ ।।
आरत, अधम, कुजा त, कु टल, खल, प तत, सभीत क ँ जे समा ह न ।
सु मरत नाम बबस ँ बारक पावत सो पद, जहाँ सुर जा ह न ।। २ ।।
जाके पद-कमल लु ध मु न-मधुकर, बरत जे परम सुग त लुभा ह न ।
तुल सदास सठ ते ह न भज स कस, का नीक जो अनाथ ह दा हन ।। ३ ।।
भावाथ—भजन करनेयो य, सुख दे नेवाला और शरणम रखनेवाला वामी
ीरघुनाथजीके समान सरा कोई नह है। उन आन दधाम, ःख के नाश करनेवाले, शोकके
हरनेवाले, ल मीरमण भगवान्के गुण गनते- गनते कभी पूरे नह होते ।। १ ।। जो ःखी,
नीच, अ यज, कपट , , पापी और भयभीत कह भी आ य नह पा सकते वे भी ववश
होकर एक बार ही ीराम-नाम- मरण कर उस (परम) पदपर प ँच जाते ह, जहाँ दे वता भी
नह जा सकते ।। २ ।। जनके चरण पी कमल म ऐसे वैरा यस प मु न पी मर लुभाये
रहते ह, ज ह परमसु दर ग त मो तकका लोभ नह है। हे सठ तुलसीदास! तू उस
अनाथ पर सदा कृपा करनेवाले (परम) क णामय भुका भजन य नह करता? ।। ३ ।।
राग क याण
[२०८]
नाथ स कौन बनती क ह सुनाव ।
बध ब ध अ मत अवलो क अघ आपने,
सरन सनमुख होत सकु च सर नाव ।। १ ।।
बर च ह रभग तको बेष बर टा टका,
कपट-दल ह रत प लव न छाव ।
नामल ग लाइ लासा ल लत-बचन क ह,
याध य बषय- बहँग न बझाव ।। २ ।।
कु टल सतको ट मेरे रोमपर वा रय ह,
साधु गनतीम पहले ह गनाव ।
परम बबर खब गब-पबत च यो,
अ य सब य, जन-म न जनाव ।। ३ ।।
साँच कध झूठ मोको कहत कोउ-
कोउ राम! रावरो, ह तु हरो कहाव ।
बरदक लाज क र दास तुल स ह दे व!
ले अपनाइ अब दे ज न बाव ।। ४ ।।
भावाथ—हे भो! आपको म कस तरह वनती कहकर सुनाऊँ? तीन तरहके (मन,
वचन और कमसे उ प ) अप र मत कार से कये जानेवाले अपने पाप क ओर दे खकर
जब म आपके शरणम स मुख आना चाहता ँ तब संकोचके मारे सर नीचा हो जाता
है ।। १ ।। भगव का भेष बनाकर मानो सु दर (धोखेक ) ट बनाता ँ और कपट पी
हरे-हरे प से उसे छा दे ता ।ँ आपके (राम) नामक ल गी लगाकर, मधुर वचन का लासा
लगा दे ता ँ! और फर बहे लयेक भाँ त वषय- पी प य को फाँस लेता ।ँ (लोग क
म तलक, माला, क ठ , राम-नामके गुणगान करनेवाला और मधुर वाणी बोलनेवाला
महा मा भ बना फरता ँ, पर तु मन-ही-मन वषय का च तन करता आ उ ह क
ताकम लगा रहता )ँ ।। २ ।। म इतना बड़ा पापी ँ क मेरे एक रोमपर सौ करोड़ पापी
नछावर कये जा सकते ह, पर तो भी अपनेको संत क गनतीम सबसे पहले गनवाना
चाहता ँ, संत- शरोम ण बननेका दावा रखता ँ। म बड़ा ही अस य और नीच ँ, पर तु
घम ड पी पहाड़पर चढ़ा बैठा ।ँ इसीसे तो मूख होनेपर भी अपनेको सव और भ े
बतलाता ँ ।। ३ ।। हे भगवन्! कह नह सकता क झूठ है या सच, पर कोई-कोई मेरे लये
यह कहते ह क ‘यह रामजीका है’ और म भी आपहीका कहलाया चाहता ँ। हे दे व! इससे
अब अपने बानेक लाज रखकर इस तुलसीदासको अपना ही ली जये ( य क जब आपका
कहलाकर भी ही र ँगा तो आपके वरदक लाज कैसे रहेगी?) अब टालमटोल न
क जये ।। ४ ।।
[२०९]
ना हनै नाथ! अवलंब मो ह आनक ।
करम-मन-बचन पन स य क ना नधे!
एक ग त राम! भवद य पद ानक ।। १ ।।
कोह-मद-मोह-ममतायतन जा न मन,
बात न ह जा त क ह यान- ब यानक ।
काम-संकलप उर नर ख ब बासन ह,
आस न ह एक आँक नरबानक ।। २ ।।
बेद-बो धत करम धरम बनु अगम अ त,
जद प जय लालसा अमरपुर जानक ।
स -सुर-मनुज दनुजा दसेवत क ठन,
व ह हठजोग दये भोग ब ल ानक ।। ३ ।।
भग त रलभ परम, संभु-सुक-मु न-मधुप,
यास पदकंज-मकरंद-मधुपानक ।
प तत-पावन सुनत नाम ब ामकृत,
मत पु न समु झ चत ं थ अ भमानक ।। ४ ।।
नरक-अ धकार मम घोर संसार-तम-
कूपक ह, भूप! मो ह स आपानक ।
दासतुलसी सोउ ास न ह गनत मन,
सु म र गुह गीध गज या त हनुमानक ।। ५ ।।
भावाथ—हे नाथ! मुझे और कसीका आसरा नह है। हे क णा नधान! मन, वचन
और कमसे मेरी यह स ची त ा है क मुझे केवल एक आपक जू तय का ही सहारा
है ।। १ ।। मेरा मन ोध, अ भमान, अ ान और ममताका थान है; इस लये ान- व ानक
बात तो उसके लये कही ही नह जा सकती। दयम अनेक कामना के संक प और नाना
कारक ( वषय-) वासनाएँ दे खकर मो क तो एक अंश भी आशा नह है ।। २ ।। य प
(कम-धम-हीन होकर भी) मेरे मनम वग जानेक बड़ी लालसा लग रही है, पर वेदो कम-
धम कये बना वगक ा त होना अ य त क ठन है। इसके सवा स , दे वता, मनु य एवं
रा स क सेवा भी बड़ी क ठन है। ये लोग तभी स ह गे जब इनके लये हठयोग कया
जाय, य का भाग दया जाय और ाण क ब ल चढ़ायी जाय। (यह सब भी मुझसे नह हो
सकता, अतएव इन लोग क कृपाक आशा करना भी थ है) ।। ३ ।। भ (तो मुझ-
सरीखे मनु यके लये) परम लभ है; य क शव, शुकदे व तथा मु न प भ रे भी आपके
चरण-कमल के मधुर मकर दको पीनेके लये सदा यासे ही बने रहते ह (इस रसको पीते-
पीते जब वे भी नह अघाते तब मुझ-जैसा नीच तो कस गनतीम है?) हाँ, आपका नाम
अव य ही प तत को पावन करनेवाला तथा शा त (मो ) दे नेवाला सुना जाता है; क तु
च म अ भमानक गाँठ पड़ी रहनेके कारण (राम-नामके साधनसे भी) मन फर म जाता
है। (म इतना बड़ा समझदार और व ान् होकर मामूली राम-नाम लू,ँ इस अ भमानके मारे
राम-नामसे भी वं चत रह जाता )ँ ।। ४ ।। हे महाराज! इन सब बात को दे खते मेरा तो, बस,
नरकम ही जानेका अ धकार है, मेरे कम से तो म घोर संसार पी अँधेरे कुएँम पड़ा रहनेयो य
ही ँ, क तु इतनेपर भी मुझे आपका ही बल है। यह तुलसीदास अपने मनम गुह, जटायु,
गजे और हनुमान्क जा त याद करके संसारके उस (ज म-मरण) भयको कुछ भी नह
समझता (अ यज, पशु और प य तकका उ ार हो गया है तब मेरा य न होगा? अथात्
अव य होगा) ।। ५ ।।
[२१०]
औ कहँ ठौ रघुबंस-म न! मेरे ।
प तत-पावन नत-पाल असरन-सरन,
बाँकुरे ब द ब दै त के ह केरे ।। १ ।।
समु झ जय दोस अ त रोस क र राम जो,
करत न ह कान बनती बदन फेरे ।
तद प ै नडर ह कह क ना- सधु,
य ऽब र ह जात सु न बात बनु हेरे ।। २ ।।
मु य च होत ब सबेक पुर रावरे,
राम! ते ह च ह कामा द गन घेरे ।
अगम अपबरग, अ सरग सुकृतैकफल,
नाम-बल य बस जम-नगर नेरे ।। ३ ।।
कत ँ न ह ठाउँ, कहँ जाउँ कोसलनाथ!
द न बतहीन ह , बकल बनु डेरे ।
दास तुल स ह बास दे अब क र कृपा,
बसत गज गीध याधा द जे ह खेरे ।। ४ ।।
भावाथ—हे रघुवंशम ण! मेरे लये (आपके चरण को छोड़कर) और कहाँ ठौर है?
पा पय को प व करनेवाले, शरणागत का पालन करनेवाले एवं अनाथ को आ य दे नेवाले
एक आप ही ह। आपका-सा बाँका बाना कस बानेवालेका है? ( कसीका भी नह ) ।। १ ।।
हे रघुनाथजी! मेरे अपराध को मनम समझकर, अ य त ोधसे य प आप मेरी वनतीको
नह सुनते और मेरी ओरसे अपना मुँह फेरे ए ह, तथा प म तो नभय होकर, हे क णाके
समु ! यही क ँगा क मेरी बात सुनकर (मेरी द न पुकार सुनकर) मेरी ओर दे खे बना
आपसे कैसे रहा जाता है? (क णाके सागरसे द नक आत पुकार सुनकर कैसे रहा
जाय?) ।। २ ।। (य द आप मेरी मनःकामना पूछते ह, तो सु नये) सबसे धान च तो मेरी
आपके परमधामम जाकर नवास करनेक है; क तु हे नाथ! उस मेरी चको काम, ोध,
लोभ और मोह आ दने घेर रखा है (इनके आ मणसे वह कामना दब जाती है)। मो तो
लभ है, वग मलना भी क ठन है, य क वह केवल पु य के फलसे ही मलता है (मने
कोई उ म कम तो कये नह , फर वग कैसे मले?) अब रही यमपुरी (नरक) सो उसके
समीप भी आपके नामके बलसे नह जा सकता (राम-नाम लेनेवालेको यमराज अपनी पुरीके
नकट ही नह आने दे त)े ।। ३ ।। (इससे) अब मुझे कह भी रहनेके लये थान नह रहा,
आप ही बताइये कहाँ जाऊँ? हे कोसलनाथ! म नधन और द न ँ (धनी होता, तो कह घर
ही बनवा लेता), आ य- थानके न होनेसे ाकुल हो रहा ँ। इससे हे नाथ! इस
तुलसीदासको कृपा कर उसी गाँवम रहनेक जगह दे द जये जसम गजे , जटायु, ाध
(वा मी क) आ द रहते ह ।। ४ ।।
[२११]
कब ँ रघुबंसम न! सो कृपा कर गे ।
जे ह कृपा याध, गज, ब , खल नर तरे,
त ह ह सम मा न मो ह नाथ उ र गे ।। १ ।।
जो न ब जन म कये करम खल ब बध ब ध,
अधम आचरन कछु दय न ह धर गे ।
द न हत! अ जत सरब य समरथ नतपाल
चत मृ ल नज गुन न अनुसर गे ।। २ ।।
मोह-मद-मान-कामा द खलमंडली
सकुल नरमूल क र सह ख हर गे ।
जोग-जप-ज य- ब यान ते अ धक अ त,
अमल ढ़ भग त दै परम सुख भर गे ।। ३ ।।
मंदजन-मौ लम न सकल, साधन-हीन,
कु टल मन, म लन जय जा न जो डर गे ।
दासतुलसी बेद- ब दत ब दावली
बमल जस नाथ! के ह भाँ त ब तर गे ।। ४ ।।
भावाथ—हे रघुवंशम ण! कभी आप मुझपर भी वही कृपा करगे, जसके तापसे
ाध (वा मी क), गजे , ा ण अजा मल और अनेक संसारसागरसे तर गये? हे
नाथ! या आप मुझे भी उ ह पा पय के समान समझकर मेरा भी उ ार करगे? ।। १ ।।
अनेक यो नय म ज म ले-लेकर मने नाना कारके कम कये ह। आप मेरे नीच
आचरण क बात तो दयम न लायँगे? हे द न का हत करनेवाले! या आप कसीसे भी न
जीते जाने, सबके मनक बात जानने, सब कुछ करनेम समथ होने और शरणागत क र ा
करने आ द अपने गुण का कोमल वभावसे अनुसरण करगे? (अथात् अपने इन गुण क
ओर दे खकर, मेरे पाप से घना कर, मेरे मनक बात जानकर अपनी सवश म ासे मुझ
शरणम पड़े एका उ ार करगे?) ।। २ ।। मेरे दयम अ ान, अहंकार, मान, काम आ द
क जो म डली बस रही है, उसे प रवारस हत समूल न करके या आप मेरे अस
ःख को र करगे? और या आप योग, जप, य और व ानक अपे ा नमल और
अ धक मह ववाली अपनी भ को दे कर मेरे दयम परमान द भर दगे ।। ३ ।। य द आप
इस तुलसीदासको नीच का शरोम ण, सब साधन से र हत, कु टल एवं म लन मनवाला
मानकर अपने मनम कुछ डरगे ( क इतने बड़े पापीका उ ार करनेसे कदा चत् हमपर लोग
अ यायीपनका दोषारोपण कर) तो हे नाथ! फर आप अपनी वेद व यात वरदावली तथा
नमल क तका व तार कैसे करगे? (य द आपको अपने बानेक लाज है, तो मेरा उ ार
अव य ही क जये) ।। ४ ।।
राग केदारा
[२१२]
रघुप त बप त-दवन ।
परम कृपालु, नत- तपालक, प तत-पवन ।। १ ।।
कूर, कु टल, कुलहीन, द न, अ त म लन जवन ।
सु मरत नाम राम पठये सब अपने भवन ।। २ ।।
गज- पगला-अजा मल-से खल गनै ध कवन ।
तुल सदास भु के ह न द ह ग त जानक -रवन ।। ३ ।।
भावाथ— ीरघुनाथजी वप य को र करनेवाले ह। आप बड़े ही कृपालु,
शरणागत के तपालक और पा पय को प व करनेवाले ह ।। १ ।। नदयी, , नीच
जा त, गरीब और बड़े ही म लन ले छतकको राम-नामका मरण करते ही आपने अपने
परमधामको भेज दया ।। २ ।। गजे , पगला वे या, अजा मल आ द ( वषय म मतवाले)
को कौन गने (न जाने इनके समान कतने पा पय को अपना धाम दे दया) हे
तुलसीदास! बात तो यह है क जानक नाथ भु रामच जीने कस- कसको मु नह कर
दया ( जसने शरण ली, उसीको मु दे द , फर मुझे य न दगे?) ।। ३ ।।
[२१३]
ह र-सम आपदा-हरन ।
न ह कोउ सहज कृपालु सह ख-सागर-तरन ।। १ ।।
गज नज बल अवलो क कमल ग ह गयो सरन ।
द न बचन सु न चले ग ड़ त ज सुनाभ-धरन ।। २ ।।
पदसुताको ल यो सासन नगन करन ।
‘हा ह र पा ह’ कहत पूरे पट ब बध बरन ।। ३ ।।
इहै जा न सुर-नर-मु न-को बद सेवत चरन ।
तुल सदास भु को न अभय कयो नृग-उ रन ।। ४ ।।
भावाथ—भगवान् ीह रके समान वप य का हरनेवाला, सहज ही कृपा करनेवाला
और ःसह ःख पी समु से तारनेवाला सरा कोई नह है ।। १ ।। जब गजराज अपना
बल ( ीण आ) दे खकर (भटके लये) कमलका फूल ले आपक शरणम गया तब उसके
द न वचन सुनकर सुदशनच ले आप ग ड़को वह छोड़ तुरंत ही (पैदल दौड़ते ए) चले
आये ।। २ ।। जब (भरी सभाम) ःशासन ौपद का व उतारने लगा, तब केवल उसके
इतना कहनेपर ही क ‘हाय! भगवन्, मेरी र ा क जये’ आपने व वध रंग क सा ड़य का
ढे र लगा दया ।। ३ ।। (आपक इसी द नव सलताको) जानकर दे वता, मनु य, मु न और
व ान् आपके चरण क सेवा करते ह। राजा नृगका उ ार करनेवाले भगवान्ने कसको
अभय नह कया? (जो उनक शरणम गया, उसीको अभय कर दया) ।। ४ ।।
राग क याण
[२१४]
ऐसी कौन भुक री त?
बरद हेतु पुनीत प रह र पाँवर न पर ी त ।। १ ।।
गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ ।
मातुक ग त दई ता ह कृपालु जादवराइ ।। २ ।।
काममो हत गो पक नपर कृपा अतु लत क ह ।
जगत- पता बरं च ज हके चरनक रज ली ह ।। ३ ।।
नेमत ससुपाल दन त दे त ग न ग न गा र ।
कयो लीन सु आपम ह र राज-सभा मँझा र ।। ४ ।।
याध चत दै चरन मारयो मूढ़म त मृग जा न ।
सो सदे ह वलोक पठयो गट क र नज बा न ।। ५ ।।
कौन त हक कहै ज हके सुकृत अ अघ दोउ ।
गट पातक प तुलसी सरन रा यो सोउ ।। ६ ।।
भावाथ—(भगवान्के सवा) और कस वामीक ऐसी री त है जो अपने वरदके लये
प व जीव को छोड़कर पामर पर ेम करता हो? ।। १ ।। रा सी पूतना तन म वष
लगाकर उ ह (भगवान् कृ णको) मारने गयी थी, क तु कृपालु यादवे ीकृ णने उसे
माताक -सी ग त दान क (उसका उ ार कर दया) ।। २ ।। आपने काममो हत गो पय पर
ऐसी अतुल कृपा क क जग पता ाने भी उनके चरण क धू ल (अपने म तकपर)
चढ़ायी ।। ३ ।। जो शशुपाल नयमसे त दन गन- गनकर गा लयाँ दे ता था उसको आपने
राजा क सभाम (पा डव के राजसूय-य म) सबके दे खते-दे खते अपनेम ही मला
लया ।। ४ ।। मूख बहे लयेने तो मृग समझकर आपके चरणम नशाना लगाकर (बाण)
मारा, पर उसे भी आपने अपनी दयालुताक बान कट करके सदे ह अपने परमधामको भेज
दया ।। ५ ।। (इस कारके जीव ने) ज ह ने पु य और पाप दोन ही कये ह उनके लये तो
या कही जाय? ( य क उनका तो सद्ग त पानेका कुछ-न-कुछ अ धकार ही था) क तु
उ ह ने तो य पापमू त तुलसीको भी शरणम रख लया है (इसीसे उनक बान य
स हो जाती है) ।। ६ ।।
[२१५]
ीरघुबीरक यह बा न ।
नीच स करत नेह सु ी त मन अनुमा न ।। १ ।।
परम अधम नषाद पाँवर, कौन ताक का न?
लयो सो उर लाइ सुत य ेमको प हचा न ।। २ ।।
गीध कौन दयालु, जो ब ध र यो हसा सा न?
जनक य रघुनाथ ताकहँ दयो जल नज पा न ।। ३ ।।
कृ त-म लन कुजा त सबरी सकल अवगुन-खा न ।
खात ताके दये फल अ त च बखा न बखा न ।। ४ ।।
रज नचर अ रपु बभीषन सरन आयो जा न ।
भरत य उ ठ ता ह भटत दे ह-दसा भुला न ।। ५ ।।
कौन सुभग सुसील बानर, जन ह सु मरत हा न ।
कये ते सब सखा, पूजे भवन अपने आ न ।। ६ ।।
राम सहज कृपालु कोमल द न हत दनदा न ।
भज ह ऐसे भु ह तुलसी कु टल कपट न ठा न ।। ७ ।।
भावाथ— ीरघुनाथजीक ऐसी ही आदत है क वे मनम वशु और अन य ेम
समझकर नीचके साथ भी नेह करते ह ।। १ ।। ( माण सु नये) गुह नषाद महान् नीच और
पापी था, उसक या इ जत थी? क तु भगवान्ने उसका (अन य और वशु ) ेम
पहचानकर उसे पु क तरह दयसे लगा लया ।। २ ।। जटायु गीध, जसे ाने हसामय
ही बनाया था, कौन-सा दयालु था? क तु रघुनाथजीने अपने पताके समान उसको अपने
हाथसे जलांज ल द ।। ३ ।। शबरी वभावसे ही मैली-कुचैली, नीच जा तक और सभी
अवगुण क खा न थी; पर तु (उसक वशु और अन य ी त दे खकर) उसके हाथके फल
वाद बखान-बखानकर आपने बड़े ेमसे खाये ।। ४ ।। रा स एवं श ु वभीषणको शरणम
आया जानकर आपने उठकर उसे भरतक भाँ त ऐसे ेमसे दयसे लगा लया क उस
ेम व लताम आप अपने शरीरक सुध-बुध भी भूल गये ।। ५ ।। बंदर कौन-से सु दर और
शील- वभावके थे? जनका नाम लेनेसे भी हा न आ करती है, उ ह भी आपने अपना म
बना लया और अपने घरपर लाकर उनका सब कार आदर-स कार कया ।। ६ ।। (इन सब
माण से स है, क) ीरामच जी वभावसे ही कृपालु, कोमल वभाववाले, गरीब के
हतू और सदा दान दे नेवाले ह। अतएव हे तुलसी! तू तो कु टलता और कपट छोड़कर ऐसे
भु ीरामजीका ही ( वशु और अन य ेमसे सदा) भजन कया कर ।। ७ ।।
[२१६]
ह र त ज और भ जये का ह?
ना हनै कोउ राम सो ममता नतपर जा ह ।। १ ।।
कनकक सपु बरं चको जन करम मन अ बात ।
सुत ह खवत ब ध न बर यो कालके घर जात ।। २ ।।
संभु-सेवक जान जग, ब बार दये दस सीस ।
करत राम- बरोध सो सपने न हट यो ईस ।। ३ ।।
और दे वनक कहा कह , वारथ हके मीत ।
कब का न राख लयो कोउ सरन गयउ सभीत ।। ४ ।।
को न सेवत दे त संप त लोक यह री त ।
दासतुलसी द नपर एक राम ही क ी त ।। ५ ।।
भावाथ—भगवान् ीह रको छोड़कर और कसका भजन कर? ीरघुनाथजीके समान
ऐसा कोई भी नह है जसक द न शरणागत पर ममता हो ।। १ ।। ( माण सु नये)
हर यक शपु ाजीका कम, मन और वचनसे भ था, क तु ाने (उसके कालको
जानते ए भी) उसे पु ( ाद) को ताड़ना दे ते समय नह रोका (और फल व प) वह
यमलोक चला गया। (य द वे पहलेसे उसे रोक दे ते तो बेचारा य मरता?) ।। २ ।। संसार
जानता है क रावण शवजीका भ था और उसने कई बार अपने सर काट-काटकर
शवजीको अ पत कये थे, क तु जब वह ीरघुनाथजीके साथ वैर करने लगा तब आपने
उसे व म भी न रोका (यह जानते थे क ीरामजीके साथ वैर करनेसे यह मारा
जायगा) ।। ३ ।। जब ाजी और शवजीका यह हाल है तब) और दे वता क तो बात ही
या कही जाय? वे तो वाथके म ह ही। उनमसे कसीने भी कभी भयभीत शरणागतक
र ा नह क ।। ४ ।। सेवा करनेसे कौन धन नह दे ता है? (सभी दे ते ह।) यह तो नयाक
चाल ही है। क तु हे तुलसीदास! द न पर तो एक ीरघुनाथजीका ही नेह है। (वे बना ही
सेवा कये केवल शरण होते ही अपना लेते ह, दे वता क भाँ त सवागपूण अनु ानक
अपे ा नह करते) ।। ५ ।।
[२१७]
जो पै सरो कोउ होइ ।
तौ ह बार ह बार भु कत ख सुनाव रोइ ।। १ ।।
का ह ममता द नपर, काको प ततपावन नाम ।
पापमूल अजा मल ह के ह दयो अपनो धाम ।। २ ।।
रहे संभु बरं च सुरप त लोकपाल अनेक ।
सोक-स र बूड़त करीस ह दई का न टे क ।। ३ ।।
बपुल-भूप त-सद स महँ नर-ना र क ो ‘ भु पा ह’ ।
सकल समरथ रहे, का न बसन द ह ता ह ।। ४ ।।
एक मुख य कह क ना सधुके गुन-गाथ?
भ हत ध र दे ह काह न कयो कोसलनाथ! ।। ५ ।।
आपसे क ँ स पये मो ह जो पै अ त ह घनात ।
दासतुलसी और ब ध य चरन प रह र जात ।। ६ ।।
भावाथ—हे नाथ! य द कोई सरा (मुझे शरणम रखनेवाला) होता, तो म बार-बार
रोकर अपना ःख आपको ही य सुनाता? ।। १ ।। (आपको छोड़कर) द न पर कसक
ममता है, प ततपावन कसका नाम है? और महापापी अजा मलको (पु के धोखेसे आपका
नारायण नाम लेनेपर) कसने अपना परम धाम दे दया? (ऐसे एक आप ही ह और कोई नह
है) ।। २ ।। शव, ा, इ आ द अनेक लोकपाल थे; पर शोक पी नद म डू बते ए
गजराजको कसीने भी नह बचाया (आपहीको ग ड़ छोड़कर दौड़ना पड़ा) ।। ३ ।। जब
ब त-से राजा क सभाम (नरके अवतार) अजुनक ी ौपद ने ( ःशासन ारा सताये
जानेपर) कहा क ‘हे भो! मेरी र ा क जये’—उस समय वहाँ सभी समथ थे, पर कसीने
उसे व नह दया (आपने ही व ावतार धारण कर उस अबलाक लाज रखी) ।। ४ ।।
क णासागर! आप क णा-समु के क णापूण गुण क कथाएँ एक मुँहसे कैसे क ँ! हे
कोसलाधीश! आपने भ के लये अवतार धारण कर या- या नह कया? (भ के
हतके लये सभी कुछ कया) ।। ५ ।। य द आप मुझसे ब त ही घनाते ह, तो मुझे कसी
ऐसेके हाथ स प द जये जो आपके ही समान हो, (नह तो) यह तुलसीदास और कसी तरह
भी आपके चरण को छोड़कर य जाने लगा? भाव यह क म तो आपहीके चरण क
शरणम र ँगा ।। ६ ।।
[२१८]
कब ह दे खाइहौ ह र चरन ।
समन सकल कलेस क ल-मल, सकल मंगल-करन ।। १ ।।
सरद-भव सुंदर त नतर अ न-बा रज-बरन ।
ल छ-ला लत-ल लत करतल छ ब अनूपम धरन ।। २ ।।
गंग-जनक अनंग-अ र- य कपट-बटु ब ल-छरन ।
ब तय नृग ब धकके ख-दोस दा न दरन ।। ३ ।।
स -सुर-मु न-बृंद-बं दत सुखद सब कहँ सरन ।
सकृत उर आनत जन ह जन होत तारन-तरन ।। ४ ।।
कृपा सधु सुजान रघुबर नत-आर त-हरन ।
दरस-आस- पयास तुलसीदास चाहत मरन ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! या कभी आप अपने उस प व चरण का दशन करायगे जो सम त
लेश और क लयुगके सभी पाप के नाश करनेवाले और स पूण क याणके कारण
ह? ।। १ ।। जन (चरण )-का रंग शरद् ऋतुम उ प , सु दर और तुरंतके खले ए लाल-
लाल कमल के समान है, ज ह ील मीजी अपनी सु दर हथे लय से दबाया करती ह, और
जो अतुलनीय शोभामय ह ।। २ ।। जो गंगाके पता ह ( जन चरण से गंगाक उ प ई है),
कामदे वको भ म करनेवाले शवजीके यारे ह, तथा ज ह ने कपट- चारीका प धारण
कर राजा ब लको छला है, ज ह ने (गौतम) ा णक ी अह याको और राजा नृगको
(शापसे छु ड़ाकर परम सुख दया) और हसक नषादके सारे ःख और घोर पाप र कर
दये ।। ३ ।। स , दे वता और मु नय के समूह जनक सदा व दना कया करते ह; जो
सभीको सुख और शरण दे नेवाले ह; एक बार भी जनका दयम यान करनेसे भ वयं
तर जाता है तथा सर को तारनेवाला बन जाता है ।। ४ ।। हे कृपासागर सुचतुर रघुनाथजी!
आप शरणागत के ःख र करनेवाले ह। यह तुलसीदास अब आपके उन चरण के दशनक
आशा पी यासके मारे मर रहा है। (शी ही अपने चरण-कमल दखाकर इसक र ा
क जये) ।। ५ ।।
[२१९]
ार ह भोर ही को आजु ।
रटत र रहा आ र और न, कौर ही त काजु ।। १ ।।
क ल कराल काल दा न, सब कुभाँ त कुसाजु ।
नीच जन, मन ऊँच, जैसी कोढ़मक खाजु ।। २ ।।
हह र हयम सदय बू यो जाइ साधु-समाजु ।
मो से क ँ कत ँ कोउ, त ह क ो कोसलराजु ।। ३ ।।
द नता-दा रद दलै को कृपाबा र ध बाजु ।
दा न दसरथरायके, तू बानइत सरताजु ।। ४ ।।
जनमको भूखो भखारी ह गरीब नवाजु ।
पेट भ र तुल स ह जवाइय भग त-सुधा सुनाजु ।। ५ ।।
भावाथ—हे भगवन्! आज सबेरेसे ही म आपके दरवाजेपर अड़ा बैठा ँ। र-र करके
रट रहा ँ, गड़ गड़ाकर माँग रहा ,ँ मुझे और कुछ नह चा हये। बस, एक कौर टु कड़ेसे ही
काम बन जायगा। (जरा-सी कृपा- से ही म पूणकाम हो जाऊँगा) ।। १ ।। (य द आप यह
कह क कोई उ म य नह करता? गड़ गड़ाकर भीख य माँगता है, तो इसका उ र
यही है क) इस भयंकर क लयुगम (उ म साधन पी उ मका) बड़ा ही दा ण भ पड़
गया है, जतने उ म और उपाय-साधन ह, सभी बुरे ह। कोई-सा भी न व न पूरा नह होता,
इससे आपसे भीख माँगना ही मने उ चत समझा है। (क लयुगी) मनु य क करतूत तो नीच है
( दन-रात वषय के लये ही पापम रत रहते ह) और उनका मन ऊँचा है (चाहते ह स चा
सुख मले, पर तु स चा मो प सुख बना भगव कृपा ए मलता नह ), जैसी क कोढ़क
खाज ( जसे खुजलाते समय सुख मलता है, पर पीछे मवाद नकलनेपर जलन पैदा हो जाती
है उसीके समान इ य के साथ वषयका संयोग होनेपर आर भम तो सुख भासता है, पर तु
प रणामम महा ःख होता है। इस लये वषय केवल ःखदायी ही ह, इसी बातको समझकर
मने कसी भी उ मम मन नह लगाया) ।। २ ।। मने दयम डरकर कृपालु संत-समाजसे
पूछा क क हये, मुझ-सरीखे (उ महीनको) भी कोई शरणम लेगा? संत ने (एक वरसे) यही
उ र दया क एक कोसलप त महाराज ीरामच जी ही (ऐस को शरणम) रख सकते
ह ।। ३ ।। हे कृपाके समु ! आपको छोड़कर द नता और द र ताका नाश कौन कर सकता
है? हे दशरथन दन! दा नय का बाना रखनेवाल म आप े ह ।। ४ ।। हे गरीब नवाज! म
ज मका भूखा गरीब भखमंगा ँ। बस, अब इस तुलसीको भ पी अमृतके समान सु दर
भोजन पेटभर खला द जये (अपने चरण म ऐसी भ दे द जये क फर सरी कोई
कामना ही न रह जाय) ।। ५ ।।
[२२०]
क रय सँभार, कोसलराय!
और ठौर न और ग त, अवलंब नाम बहाय ।। १ ।।
बू झ अपनी आपनो हतु आप बाप न माय ।
राम! राउर नाम गुर, सुर, वा म, सखा, सहाय ।। २ ।।
रामराज न चले मानस-म लनके छल छाय ।
कोप ते ह क लकाल कायर मुए ह घालत घाय ।। ३ ।।
लेत केह रको बयर य भेक ह न गोमाय ।
य ह राम-गुलाम जा न नकाम दे त कुदाय ।। ४ ।।
अक न याके कपट-करतब, अ मत अनय-अपाय ।
सुखी ह रपुर बसत होत परी छत ह प छताय ।। ५ ।।
कृपा सधु! बलो कये, जन-मनक साँस त साय ।
सरन आयो, दे व! द नदयालु! दे खन पाय ।। ६ ।।
नकट बो ल न बर जये, ब ल जाउँ, ह नय न हाय ।
दे खह हनुमान गोमुख नाहर नके याय ।। ७ ।।
अ न मुख, ू बकट, पगल नयन रोष-कषाय ।
बीर सु म र समीरको घ टहै चपल चत चाय ।। ८ ।।
बनय सु न बहँसे अनुजस बचनके क ह भाय ।
‘भली कही’ क ो लषन ँ हँ स, बने सकल बनाय ।। ९ ।।
दई द न ह दा द, सो सु न सुजन-सदन बधाय ।
मटे संकट-सोच, पोच- पंच, पाप- नकाय ।। १० ।।
पे ख ी त- ती त जनपर अगुन अनघ अमाय ।
दासतुलसी कहत मु नगन, ‘जय त जय उ गाय’ ।। ११ ।।
भावाथ—हे कोसलराज! मेरी र ा क जये। आपके नामको छोड़कर मुझे न तो कह
और ठौर- ठकाना है, और न कसीका सहारा ही है (मेरी तो बस, आपके नामतक ही दौड़
है) ।। १ ।। आप वयं समझ-बूझकर अपने सेवक का ऐसा क याण कर दे ते ह, जैसा (सगे)
माता- पता भी नह करते (माता- पता भी मो सुख नह दे सकते।) हे ीरामजी! आपका
नाम ही मेरा गु , दे वता, वामी, म और सहायक है ।। २ ।। हे नाथ! आपके ‘रामरा य’ म
म लन मनवाले (क लकाल)-के कपटक छाया भी नह पड़ सकती; क तु यह कायर
क लकाल उसी ोधके कारण मुझ मरे एको भी अपनी चोट से घायल कर रहा है। (इसे
इतना भी तो भय नह क म ‘रामरा य’ म बस रहा )ँ ।। ३ ।। जैसे गीदड़ मेढकको मारकर
सहके वैरका बदला लेना चाहता है, वैसे ही यह मुझे आपका दास जानकर मुझपर गहरी
चोट कर रहा है ( ःख तो इसको आपसे है, य क जसका मन आपके रा यम बसता है,
उसम यह वेश नह कर पाता; पर तु आपपर तो इसका जोर चलता नह , मुझ-सरीखे ु
दासको सता रहा है) ।। ४ ।। भगवान्के परमधामम आन दपूवक नवास करनेवाले महाराज
परी त्के मनम भी इसक कपटभरी करतूत , असं य अनी तय और (साधु के मागम
डाले गये) अनेक व न-बाधा को सुनकर पछतावा हो रहा है (इसी लये क इसे पकड़कर
हमने य जीता छोड़ दया?) ।। ५ ।। हे कृपासागर! त नक कृपा क जये, जससे इस
दासके मनक पीड़ा शा त हो जाय। हे द नदयालो! हे दे व! म आपके चरण का दशन करनेके
लये आपक शरण आया ँ ।। ६ ।। य द आप (दयावश) उस (क लयुग)-को पास बुलाकर
रोकना नह चाहते, या उसक ‘हाय-हाय’ क पुकार सुनकर उसे मारना नह चाहते, तो म
आपक बलैया लेता ँ (आप त नक हनुमान्जीको ही संकेत कर द जये, आपका इशारा
पाकर) वे इसक ओर वैसे ही दे खगे, जैसे सह गायके मुखक ओर दे खता है ।। ७ ।। (इस
कार क लयुगक कु टल करनीके कारण) जब हनुमान्जी लाल मुँह, टे ढ़ भ ह और पीली
आँख को ोधसे लाल कर लगे, तब पवनकुमार वीरवर हनुमान्जीका मरण कर इस चंचल
च वाले (क ल)-का सारा चाव च पत हो जायगा (वह अपनी सारी श भूल
जायगा) ।। ८ ।। मेरी यह वनती सुनकर ीरघुनाथजी मुसकराये और अपने छोटे भाई
ल मणको इन बात का ता पय समझाये ( क दे खो, तुलसी कैसा चतुर है!) ल मणजीने
हँसकर कहा क ठ क ही तो कहता है। बस, इस कार मेरी सारी बात बन गयी ।। ९ ।।
भगवान् ीरामच जीने इस गरीबका याय कर दया। यह सुनकर संत के घर बधाई बजने
लगी। ःख, च ता, छल-कपट और पापके समूह सब न हो गये ।। १० ।। नगुण
( ीरामजीक ) अपने दासपर ऐसी अलौ कक ( गुणमयी लौ कक ी त नह ) प व और
मायार हत ेम और व ास दे खकर, हे तुलसीदास! मु नलोग कहने लगे क ‘ वपुल
क तवाले भगवान्क जय हो, जय हो’ ।। ११ ।।
[२२१]
नाथ! कृपाहीको पंथ चतवत द न ह दनरा त ।
होइ ध के ह काल द नदयालु! जा न न जा त ।। १ ।।
सुगुन, यान- बराग-भग त, सु-साधन नक पाँ त ।
भजे बकल बलो क क ल अघ-अवगुन नक था त ।। २ ।।
अ त अनी त-कुरी त भइ भुइँ तर न ते ता त ।
जाउँ कहँ? ब ल जाउँ, क ँ न ठाउँ म त अकुला त ।। ३ ।।
आप स हत न आपनो कोउ, बाप! क ठन कुभाँ त ।
यामघन! स चये तुलसी, सा ल सफल सुखा त ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! म द न दन-रात आपक कृपाक ही बाट दे खता रहता ँ। हे
द नदयालो! पता नह , आपक वह कृपा मुझपर कब होगी? ।। १ ।। (दै वी स पदाके)
सद्गुण, ान, वैरा य और भ आ द सु दर साधन के समूह क लयुगको दे खते ही ाकुल
होकर भाग गये। रह गये पाप और गुण के समूह ।। २ ।। बड़े-बड़े अ याय और
अनाचार से पृ वी सूयसे भी अ धक गरम हो गयी है (यहाँ सवा जलनेके शा तका कोई
साधन ही नह रहा) अब म कहाँ जाऊँ? म आपक बलैया ले रहा ।ँ मुझे और कह ठौर-
ठकाना नह है। मेरी बु बड़ी ही ाकुल हो रही है ।। ३ ।। हे बापजी! इस अपनी दे हके
स हत कोई भी अपना नह है ( कसका सहारा लूँ)। सभी कठोर राचारी दखायी दे ते ह। हे
घन याम! यह तुलसी पी फूली-फली धानक खेती सूखी जा रही है, अब भी मेघ बनकर
(कृपा-जलक वषासे) इसे स च द जये ।। ४ ।।
[२२२]
ब ल जाउँ, और कास कह ?
सदगुन सधु वा म सेवक- हत क ँ न कृपा न ध-सो लह ।। १ ।।
जहँ जहँ लोभ लोल लालचबस नज हत चत चाह न चह ।
तहँ तहँ तर न तकत उलूक य भट क कुत -कोटर गह ।। २ ।।
काल-सुभाउ-करम ब च फलदायक सु न सर धु न रह ।
मोको तौ सकल सदा एक ह रस सह दाह दा न दह ।। ३ ।।
उ चत अनाथ होइ खभाजन भयो नाथ! ककर न ह ।
अब रावरो कहाइ न बू झये, सरनपाल! साँस त सह ।। ४ ।।
महाराज! राजीव बलोचन! मगन-पाप-संताप ह ।
तुलसी भु! जब तब जे ह ते ह ब ध राम नबाहे नरबह ।। ५ ।।
भावाथ— भो! ब लहारी! (म अपने ःख) और कसे सुनाऊँ? आपके स श
सद्गुण का समु , सेवक का क याण करनेवाला और कृपा नधान वामी अ य कह भी
नह मलता ।। १ ।। जहाँ-जहाँ लोभ और लालचवश चंचल च म अपने क याणक
कामना करता ,ँ वहाँ-वहाँसे म इस तरह नराश हो लौट आता ँ, जैसे सूयको दे खते ही
उ लू भटकता आ आकर वृ के कोटरम घुस जाता है। (जहाँ जसके पास जाता ँ, वह
ःखक आग तैयार मलती है) ।। २ ।। जब यह सुनता ँ क काल, वभाव और कम
व च फल दे नेवाले ह, तब सर धुन-धुनकर रह जाता ँ, य क मेरे लये तो ये तीन सदा
एक-से ही ह, म तो सदा ही ःसह और दा ण दाहसे जला करता ँ ।। ३ ।। हे नाथ! म
अबतक अपनेको अनाथ समझकर ःख का पा बन रहा था सो उ चत ही था, य क म
आपका दास नह बना था; क तु हे शरणागत-र क! अब आपका दास कहाकर भी म ःख
भोग रहा ँ, इसका कारण समझम नह आ रहा है ।। ४ ।। हे महाराज! हे कमलने ! म
पाप-स तापम डू ब रहा ।ँ हे भो! तुलसीदासका तभी नवाह हो सकता है, जब आप ही
जस- कसी कारसे उसका नवाह करगे ।। ५ ।।
[२२३]
आपनो कब ँ क र जा नहौ ।
राम गरीब नवाज राजम न, बरद-लाज उर आ नहौ ।। १ ।।
सील- सधु, सुंदर, सब लायक, समरथ, सदगुन-खा न हौ ।
पा यो है, पालत, पाल गे भु, नत- ेम प हचा नहौ ।। २ ।।
बेद-पुरान कहत, जग जानत, द नदयालु दन-दा न हौ ।
क ह आवत, ब ल जाऊँ, मन ँ मेरी बार बसारे बा न हौ ।। ३ ।।
आरत-द न-अनाथ नके हत मानत लौ कक का न हौ ।
है प रनाम भलो तुलसीको सरनागत-भय-भा न हौ ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! या कभी आप मुझे अपना समझगे? हे राम! आप गरीब नवाज
और राजा धराज ह। या आप कभी अपने वरदक लाजका मनम वचार करगे? ।। १ ।।
आप शीलके समु ह, सु दर ह, सब कुछ करनेयो य ह, समथ ह और सभी सद्गुण क खा न
ह। हे भो! आपने शरणागत का पालन कया है, कर रहे ह और करगे। या इस (तु छ)
शरणागतका ेम भी प हचानगे? ।। २ ।। वेद और पुराण कह रहे ह, तथा संसार भी जानता
है क आप द न पर दया करनेवाले और त दन उ ह क याण-दान दे नेवाले ह। बा य होकर
कहना ही पड़ता है, म आपक बलैया लेता ँ, आपने मानो मेरी बार अपनी आदतको ही
भुला दया है ।। ३ ।। आप द न, ः खय और अनाथ के हतू होनेपर भी या संसारका
(यह) भय मान रहे ह? ( क ऐसे पापीको अपनानेसे कह कोई अ यायी न कह दे ।) जो कुछ
भी हो, तुलसीदासका तो अ तम क याण ही होगा, य क आप शरणागतके भयको भंजन
करनेवाले ह ।। ४ ।।
[२२४]
रघुबर ह कब ँ मन ला गहै?
कुपथ, कुचाल, कुम त, कुमनोरथ, कु टल कपट कब या गहै ।। १ ।।
जानत गरल अ मय बमोहबस, अ मय गनत क र आ गहै ।
उलट री त- ी त अपनेक त ज भुपद अनुरा गहै ।। २ ।।
आखर अरथ मंजु मृ मोदक राम- ेम-प ग पा गहै ।
ऐसे गुन गाइ रझाइ वा मस पाइहै जो मुँह माँ गहै ।। ३ ।।
तु य ह ब ध सुख-सयन सोइहै, जयक जर न भू र भा गहै ।
राम- साद दासतुलसी उर राम-भग त-जोग जा गहै ।। ४ ।।
भावाथ—अरे मन! या कभी तू ीरघुनाथजीसे भी लगेगा? रे कु टल! तू कुमाग, बुरी
चाल, बु , बुरी कामनाएँ और छल-कपट कब छोड़ेगा? ।। १ ।। तू बड़े भारी अ ानके
वश होकर ( वषय पी) वषको अमृत मान रहा है और (भगवान्के भजन पी) अमृतको
आगके समान ( ःखदायी) समझ रहा है! अपनी इस उलट री त और वषय क ी तको
याग कर तू ीरामजीके चरण म कब ेम करेगा? ।। २ ।। कब तू रामनामके सु दर अ र
और कोमल अथ पी लड् डु को ीरघुनाथजीके ेम पी चाशनीम पागेगा? भाव यह क
या तू ेमपू रत दयसे कभी अथस हत ीराम-नामका जप करेगा? जो तू इस तरह अपने
वामीके गुण को गा-गाकर उ ह रझा लेगा, तो तुझे मुँहमाँगा पदाथ मल जायगा ।। ३ ।।
इस कार करनेसे तू (मो क ) सुख-सेजपर सदाके लये सो जायगा और तेरे मनक
(अ व ाज नत) बड़ी भारी जलन (आ य तक पसे) भाग जायगी। हे तुलसीदास!
ीरामजीक कृपासे तेरे दयम ीरामजीका ेम प भ योग स हो जायगा ।। ४ ।।
[२२५]
भरोसो और आइहै उर ताके ।
कै क ँ लहै जो राम ह-सो सा हब, कै अपनो बल जाके ।। १ ।।
कै क लकाल कराल न सूझत, मोह-मार-मद छाके ।
कै सु न वा म-सुभाउ न र ो चत, जो हत सब अँग थाके ।। २ ।।
ह जानत भ लभाँ त अपनपौ, भु-सो सु यो न साके ।
उपल, भील, खग, मृग, रजनीचर, भले भये करतब काके ।। ३ ।।
मोको भलो राम-नाम सुरत -सो, राम साद कृपालु कृपाके ।
तुलसी सुखी नसोच राज य बालक माय-बबाके ।। ४ ।।
भावाथ—उसीके मनम कसी सरेका भरोसा होगा, जसे या तो कह ीरामच जीके
समान कोई सरा मा लक मल गया हो, या जसके अपने साधन आ दका बल हो (मुझे न
तो कोई ऐसा मा लक ही मला है, और न कसी कारका साधन-बल ही है) ।। १ ।। अथवा
जसे अ ान, काम और अ भमानम मतवाला हो जानके कारण कराल क लकाल न सूझता
हो अथवा जसके च पर सब कारसे (साधन करके, और इधर-उधर भटककर) थके ए
लोग के हतकारी वामी रामच जीका (द न और शरणागतव सल) वभाव सुननेपर भी
उसका मरण न रहा हो। (मुझे तो अपने वामीके दयालु वभावका सदा यान बना रहता
है) ।। २ ।। म तो अपने ( ु ) पु षाथको भी भलीभाँ त जानता ,ँ एवं मने ीरघुनाथजीके
अ त र और कसी वामीक ऐसी क त भी नह सुनी (जो इस तरह महापापी
शरणागत को अपना लेता हो।) प थरक (अह या), भील, प ी (जटायु), मृग (मारीच) और
रा स ( वभीषण) इन सब म कसके कम शुभ थे? ( क तु भगवान्ने इन सबका उ ार कर
दया) ।। ३ ।। मेरे लये तो एक राम-नाम ही क पवृ हो गया है, और वह कृपालु
ीरामच जीक कृपासे आ है। (इसम भी मेरा कोई पु षाथ नह है)। अब तुलसी इस
अनु हके कारण ऐसा सुखी और न त है, जैसे कोई बालक अपने माता- पताके रा यम
होता है ।। ४ ।।
[२२६]
भरोसो जा ह सरो सो करो ।
मोको तो रामको नाम कलपत क ल क यान फरो ।। १ ।।
करम उपासन, यान, बेदमत, सो सब भाँ त खरो ।
मो ह तो ‘सावनके अंध ह’ य सूझत रंग हरो ।। २ ।।
चाटत र ो वान पात र य कब ँ न पेट भरो ।
सो ह सु मरत नाम-सुधारस पेखत प स धरो ।। ३ ।।
वारथ औ परमारथ को न ह कुंजरो-नरो ।
सु नयत सेतु पयो ध पषान न क र क प कटक-तरो ।। ४ ।।
ी त- ती त जहाँ जाक , तहँ ताको काज सरो ।
मेरे तो माय-बाप दोउ आखर, ह ससु-अर न अरो ।। ५ ।।
संकर सा ख जो रा ख कह कछु तौ ज र जीह गरो ।
अपनो भलो राम-नाम ह ते तुल स ह समु झ परो ।। ६ ।।
भावाथ— जसे सरेका भरोसा हो, सो करे। मेरे लये तो इस क लयुगम एक राम-नाम
ही क पवृ है, जसम क याण पी फल फला है। भाव यह क राम-नामसे ही मुझे तो यह
भगवत् ेम ा त आ है ।। १ ।। य प कम, उपासना और ान—ये वै दक स ा त सभी
सब कारसे स चे ह, क तु मुझे तो, सावनके अ धेक भाँ त, जहाँ दे खता ँ वहाँ हरा-ही-
हरा रंग द खता है। (एक राम-नाम ही सूझ रहा है) ।। २ ।। म कु ेक ना (अनेक जूँठ )
प ल को चाटता फरा, पर कभी मेरा पेट नह भरा। आज म नाम- मरण करनेसे अमृतरस
परोसा आ दे खता ।ँ (मने अनेक दे वभो य भोग भोगे, पर तु कह तृ त नह ई। पूण,
न य परमान द कह नह मला। अब ीराम-नामका मरण करते ही म दे ख रहा ,ँ क
मु का थाल मेरे सामने परोसा रखा है अथात् ान द प मो पर तो मेरा अ धकार ही हो
गया। परोसी थालीके पदाथको जब चा ँ तब खा लू,ँ इसी कार मो तो जब चा ँ तभी मल
जाय। पर तु म तो मु पु ष क कामनाक व तु ीराम- ेम-रसका पान कर रहा
।ँ ) ।। ३ ।। मेरे लये राम-नाम वाथ और परमाथ दोन का ही साधक है, (मु पी वाथ
और भगव ेम पी परम अथ दोन ही मुझे ीराम-नामसे मल गये)। यह बात ‘हाथी है या
मनु य’ क -सी वधा भरी नह है, ( य क मुझे तो ा त है)। मने सुना है क इसी नामके
भावसे बंदर क सेना प थर का पुल बनाकर समु को पार कर गयी थी ।। ४ ।। जहाँ
जसका ेम और व ास है, वह उसका काम पूरा आ है (इसी स ा तके अनुसार) मेरे तो
माँ-बाप ये दोन अ र—‘र’ और ‘म’—ह। म तो इ ह के आगे बालहठसे अड़ रहा ँ, मचल
रहा ,ँ ।। ५ ।। य द म कुछ भी छपाकर कहता होऊँ तो भगवान् शवजी सा ी ह, मेरी
जीभ जलकर या गलकर गर जाय। (यह ‘क व-क पना’ या अ यु नह है, स ची
थ तका वणन है) यही समझम आया क अपना क याण एक राम-नामसे ही हो सकता
है ।। ६ ।।
[२२७]
नाम राम रावरोई हत मेरे ।
वारथ-परमारथ सा थ ह स भुज उठाइ कह टे रे ।। १ ।।
जननी-जनक त यो जन म, करम बनु ब ध सृ यो अवडेरे ।
मो ँसो कोउ-कोउ कहत राम ह को, सो संग के ह केरे ।। २ ।।
फरयौ ललात बनु नाम उदर ल ग, खउ खत मो ह हेरे ।
नाम- साद लहत रसाल-फल अब ह बबुर बहेरे ।। ३ ।।
साधत साधु लोक-परलोक ह, सु न गु न जतन घनेरे ।
तुलसीके अवलंब नामको, एक गाँ ठ कइ फेरे ।। ४ ।।
भावाथ—हे रामजी! आपका नाम ही मेरा तो क याण करनेवाला है। यह बात म हाथ
उठाकर वाथके और परमाथके सभी संगी-सा थय से (प रवारके लोग से और साधक से)
पुकारकर कहता ँ (घोषणा कर रहा ँ) ।। १ ।। माता- पताने तो मुझे उ प करके ही छोड़
दया था, ाने भी अभागा और कुछ बेढब-सा बनाया था। फर भी कोई-कोई मुझे
‘रामका’ (दास) कहते ह, यह कस अ भ ायसे कहते ह? (यह राम-नामका ही ताप
है) ।। २ ।। जब म राम-नामके शरण नह आ था तब म पेट भरनेको ( ार- ारपर)
ललचाता फरता था। मेरी ओर दे खकर ःखको भी ःख होता था (मेरी ऐसी बुरी दशा थी)।
ीरामक कृपासे पहले मेरे लये जो बबूल और बहेड़ेके वृ थे, उ ह पेड़ से मुझे अब
आमके फल मल रहे ह। (जहाँ जगत् ःख से भरा भासता था वहाँ आज सब ‘सीय-
राम प’ द खनेके कारण वही सुखमय हो गया है) ।। ३ ।। संतजन तो (शा को) सुनकर
और (उसके अनुसार) मननकर अनेक साधन से अपना लोक और परलोक बना लेते ह,
पर तु तुलसीके तो एक रामनामका ही अवल बन है। जैसे गाँठ तो एक ही होती है, लपेटे
चाहे जतने ह (इसी कार साधन चाहे जतने ह , सबका आधार तो एक राम-नाम ही
है) ।। ४ ।।
[२२८]
य रामनामत जा ह न रामो ।
ताको भलो क ठन क लकाल ँ आ द-म य-प रनामो ।। १ ।।
सकुचत समु झ नाम-म हमा मद-लोभ-मोह-कोह-कामो ।
राम-नाम-जप- नरत सुजन पर करत छाँह घोर धामो ।। २ ।।
नाम- भाउ सही जो कहै कोउ सला सरो ह जामो ।
जो सु न सु म र भाग-भाजन भइ सुकृतसील भील-भामो ।। ३ ।।
बालमी क-अजा मलके कछु तो न साधन सामो ।
उलटे पलटे नाम-महातम गुंज न जतो ललामो ।। ४ ।।
रामत अ धक नाम-करतब, जे ह कये नगर-गत गामो ।
भये बजाइ दा हने जो ज प तुल सदाससे बामो ।। ५ ।।
भावाथ— जसे ीरामजी भी राम-नामक अपे ा अ धक यारे नह ह (य द कोई कहे
क तु ह राम मल जायँगे, पर राम-नाम छोड़ना होगा, तो वह इस बातको भी वीकार नह
करता; वह कहता है क य द ीरामके मलनेसे राम-नाम छोड़ना पड़े तो मुझे ीरामके
मलनेक आव यकता नह है। मुझे तो उनका नाम ही सदा चा हये। ऐसे नाम- ेमीसे राम
कतना ेम करते ह, सो तो केवल राम ही जानते ह, गोसा जी कहते ह क जो इस कार
राम-नामका मतवाला है) उसका इस कराल क लकालम, आ द, म य और अ त, तीन ही
काल म क याण होगा ।। १ ।। नामक म हमा समझकर अ भमान, लोभ, अ ान, ोध और
काम सकुचा जाते ह, सामने नह आते। जो स जन सदा राम-नामका जप करते रहते ह,
उनपर कड़ी धूप भी छाया कर दे ती है (महान्-से-महान् ःख भी सुख प बन जाते
ह) ।। २ ।। य द कोई कहे क नामके भावसे प थरम कमल उ प हो गया, तो उसे भी सच
ही समझना चा हये ( य क राम-नामके भावसे अस भव भी स भव हो जाता है) जस
नामको सुनने और मरण करनेसे भीलनी शबरी भी परम भा यवती तथा शील और
पु यमयी बन गयी (उससे या नह हो सकता?) ।। ३ ।। वा मी क और अजा मलके पास
तो कोई भी साधनक साम ी नह थी, क तु उ ह ने भी उलटे -पुलटे राम-नामके माहा यसे
घुँघ चय से जवाहरात जीत लये (परम र न परमा माको ा त कर लया) ।। ४ ।। नामक
श ीरघुनाथजीसे भी अ धक है, ( य क ीरामजी इस नामसे ही वशम होते ह) इस
राम-नामने ामीण मनु य को चतुर नाग रक बना दया (अस य को परम पुनीत महा मा
बना दया)। जसे जपकर तुलसीदास-सरीखे बुरे जीव भी डंकेक चोट अ छे हो गये ( फर
कहनेको या रह गया?) ।। ५ ।।
[२२९]
गरैगी जीह जो कह औरको ह ।
जानक -जीवन! जनम-जनम जग यायो तहारे ह कौरको ह ।। १ ।।
ती न लोक, त ँ काल न दे खत सु द रावरे जोरको ह ।
तुमस कपट क र कलप-कलप कृ म ै ह नरक घोरको ह ।। २ ।।
कहा भयो जो मन म ल क लकाल ह कयो भ तुवा भ रको ह ।
तुल सदास सीतल नत य ह बल, बड़े ठे काने ठौरको ह ।। ३ ।।
भावाथ—य द म क ँ क म रामजीको छोड़कर कसी सरेका ँ, तो मेरी यह जीभ
गल जाय। हे ीजानक -जीवन! म तो इस संसारम ज म-ज मम आपके ही टु कड़ से
(जूठनसे) जी रहा ँ ।। १ ।। तीन लोक म तथा तीन काल म (पृ वी, पाताल और वगम
एवं भूत, वतमान और भ व यत्म) आपक बराबरीका सु द् (अहैतुक ेमी) सरा कह नह
दखायी दया। य द म आपके साथ कपट करता होऊँ, तो क प-क पा तरतक घोर नरकका
क ड़ा होऊँ ।। २ ।। या आ, जो क लयुगने मलकर मेरे मनको भँवरका भ तुवा बना
दया? भाव यह क जैसे भ तुवा जलम रहता आ भी जलके ऊपर ही तैरता रहता है, उसम
डू ब नह सकता, वैसे ही क लने य प मुझे भव-नद म डाल दया है, तथा प म आपके
तापसे इस वषय- वाहम ब ँगा नह , ऊपर-ही-ऊपर तैरता र ँगा। वषय का मुझपर कोई
असर नह होगा। तुलसीदास इसी भरोसेपर सदा शा त रहता है क वह बड़े ठौर- ठकानेका
है ( ीरामजीके दरबारका गुलाम है। क लयुग-सरीखे टु चे उसका या कर सकते
ह? ।। ३ ।।
[२३०]
अकारन को हतू और को है ।
बरद ‘गरीब- नवाज’ कौनको, भ ह जासु जन जोहै ।। १ ।।
छोटो-बड़ो चहत सब वारथ, जो बरं च बरचो है ।
कोल कु टल, क प-भालु पा लबो कौन कृपालु ह सोहै ।। २ ।।
काको नाम अनख आलस कह अघ अवगुन न बछोहै ।
को तुलसीसे कुसेवक सं ो, सठ सब दन सा ोहै ।। ३ ।।
भावाथ— बना ही कारण हत करनेवाला ( ीरामच जीको छोड़कर) सरा कौन है?
गरीब को नहाल कर दे नेका वरद कसका है क जसक (कृपामयी) भृकुट क ओर भ
ताका करते ह ।। १ ।। छोटे या बड़े जो भी ाके रचे ए ह वे सभी अपना वाथ स
करना चाहते ह, ( बना वाथके कोई कसीका हत नह करता)। भला भील, बंदर और रीछ
आ दका पालन-पोषण करना ( ीरामजीके सवा) सरे कस कृपालु वामीको शोभा दे ता
है? ।। २ ।। ऐसा कसका नाम है जसे आल य या ोधके साथ भी लेनेपर पाप और
अवगुण र हो जाते ह? ( ीराम-नाम ही ऐसा है)। जसने मूखतावश सदा अपने वामीसे
ोह कया है, उस तुलसी-सरीखे नीच सेवकको भी अपना लया (इससे अ धक अकारण
हत करना और या होगा?) ।। ३ ।।
[२३१]
और मो ह को है, का ह क हह ?
रंक-राज य मनको मनोरथ, के ह सुनाइ सुख ल हह ।। १ ।।
जम-जातना, जो न-संकट सब सहे सह अ स हह ।
मोको अगम, सुगम तुमको भु, तउ फल चा र न च हह ।। २ ।।
खे लबेको खग-मृग, त -कंकर ै रावरो राम ह र हह ।
य ह नाते नरक ँ सचु या बनु परमपद ँ ख द हह ।। ३ ।।
इतनी जय लालसा दासके, कहत पानही ग हह ।
द जै बचन क दय आ नये ‘तुलसीको पन नब हह ’ ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! मेरे सरा कौन है, म (अपने मनक बात तु ह छोड़कर) और कससे
क ँगा? मेरे मनक कामना रंकके राजा होने-जैसी है, ( ँ तो म नपट साधनहीन, पर चाहता
ँ मो से भी परेका परमा म- ेमसुख। इस थ तम तुम-सरीखे दयालुको छोड़कर अपना)
वह मनोरथ कसे सुनाकर सुख ा त क ँ ? ( सरा कौन मेरी बात सुनकर पूरी
करेगा?) ।। १ ।। यम-यातना अथात् नारक य लेश एवं अनेक यो नय म दा ण ःख सहे ह
और स ँगा। (मुझे इसक कुछ भी परवा नह है) हे भो! मुझे अथ, धम, काम और मो क
भी लालसा नह है; य प मेरे लये ये लभ ह, पर तुम चाहो तो इनको सहजम ही दे सकते
हो ।। २ ।। हे रामजी! (मेरी मनोकामना तो कुछ सरी ही है) म तो तु हारे हाथके खलौनेके
पम प ी, पशु, वृ और कंकर-प थर होकर ही रहना चाहता ।ँ इस नातेसे मुझे (घोर)
नरकम भी सुख है और इसके बना म मो ा त करनेपर भी ःखसे जलता र ँगा (मो
नह चा हये; रखो चाहे नरकम, पर तु अपने हाथका खलौना बनाकर रखो। वह खलौना
चाहे चेतन हो या जड़ पेड़-प थर हो, मुझे उसीम परम सुख है) ।। ३ ।। इस दासके मनम बस
एक यही कामना है क यह सदा तु हारी जूती पकड़े रहे (शरणम पड़ा रहे)। या तो मुझे वचन
दे दो ( क हम तेरी यह कामना पूरी कर दगे) अथवा इस बातको मनम न य कर लो क हम
तुलसीका यह ण नबाह दगे ।। ४ ।।
[२३२]
द नब धु सरो कहँ पाव ?
को तुम बनु पर-पीर पाइ है? के ह द नता सुनाव ।। १ ।।
भु अकृपालु, कृपालु अलायक, जहँ-जहँ चत ह डोलाव ।
इहै समु झ सु न रह मौन ही, क ह म कहा गवाव ।। २ ।।
गोपद बु ड़बे जोग करम कर , बात न जल ध थहाव ।
अ त लालची, काम- ककर मन, मुख रावरो कहाव ।। ३ ।।
तुलसी भु जयक जानत सब, अपनो कछु क जनाव ।
सो क जै, जे ह भाँ त छाँ ड़ छल ार परो गुन गाव ।। ४ ।।
भावाथ—(तुम-सा) द नब धु सरा कहाँ पाऊँगा? हे नाथ! तुमको छोड़कर पराये
(भ के) ःखसे ःखी होनेवाला सरा कौन है? फर अपनी द नताका खड़ा कसके आगे
रोता फ ँ ? ।। १ ।। जहाँ-जहाँ म अपने मनको डु लाता ँ, वहाँ-वहाँ कह तो ऐसे वामी
मलते ह जनके दया नह है, और कह ऐसे मलते ह जो दयालु तो ह, पर अयो य (असमथ)
ह। यह सुन-समझकर चुप ही रह जाता ,ँ य क ऐस के सामने कुछ कहकर अपना भरम
ही य खोऊँ? (भेद भी खुल जायगा और कुछ होगा भी नह ) ।। २ ।। कम तो ऐसे नीच
कया करता ँ क गायके खुरम डू ब जाऊँ (चु लूभर पानीम डू ब म ँ ), पर बात बनाकर
समु क थाह ले रहा ।ँ (कोरी कथनी-ही-कथनी है, करनी र ीभर भी नह है)। मेरा मन
बड़ा ही लालची है और कामका गुलाम है, पर तु मुखसे तु हारा दास बनता फरता ँ ।। ३ ।।
हे भु! आप तुलसीके मनक तो सभी (बुरी-भली) बात जानते ह, तो भी म अपनी कुछ बात
बतलाना चाहता ।ँ अब तो—कुछ ऐसा उपाय क जये जससे कपट छोड़कर (शु
दयसे) आपके ारपर पड़ा-पड़ा केवल आपके गुण ही गाया क ँ ।। ४ ।।
[२३३]
मनोरथ मनको एकै भाँ त ।
चाहत मु न-मन-अगम सुकृत-फल, मनसा अघ न अघा त ।। १ ।।
करमभू म क ल जनम, कुसंग त, म त बमोह-मद-मा त ।
करत कुजोग को ट, य पैयत परमारथ-पद सां त ।। २ ।।
सेइ साधु-गु , सु न पुरान- ु त बू यो राग बाजी ताँ त ।
तुलसी भु सुभाउ सुरत -सो, य दरपन मुख-कां त ।। ३ ।।
भावाथ—मनका मनोरथ भी एक ( वल ण) ही कारका है। वह इ छा तो करता है
ऐसे पु य के फलक जो मु नय के मनको भी लभ है, कतु पाप करनेसे उसक इ छा कभी
पूरी नह होती (क ँ पाप और चा ँ सव े पु यका फल, यह कैसे हो सकता है?) ।। १ ।।
कम-भू म भारतवषम होनेपर भी क लयुगम ज म, नीच क संग त, अ ान तथा घमंडसे
मतवाली बु एवं करोड़ बुर-े बुरे कम—इन सबके कारण परम पद और शा त कैसे मल
सकती है? ।। २ ।। संत और गु क सेवा करने तथा वेद और पुराण के सुननेसे परम
शा तका ऐसा न य हो जाता है जैसे सारंगी बजते ही राग पहचान लया जाता है। हे
तुलसी! भु रामच जीका वभाव तो अव य ही क पवृ के समान है (जो उनसे माँगा
जाता है, वही मल जाता है) क तु, साथ ही वह ऐसा है, जैसे दपणम मुखका त व ब।
( जस कार अ छा या बुरा जैसा मुँह बनाकर दपणम दे खा जायगा, वह वैसा ही दखायी
दे गा, इसी कार भगवान् भी तु हारी भावनाके अनुसार ही फल दगे) ।। ३ ।।
[२३४]
जनम गयो बा द ह बर बी त ।
परमारथ पाले न परयो कछु , अनु दन अ धक अनी त ।। १ ।।
खेलत खात ल रकपन गो च ल, जौबन जुव तन लयो जी त ।
रोग- बयोग-सोग- म-संकुल ब ड़ बय बृथ ह अती त ।। २ ।।
राग-रोष-इ रषा- बमोह-बस ची न साधु-समी त ।
कहे न सुने गुनगन रघुबरके, भइ न रामपद- ी त ।। ३ ।।
दय दहत प छताय-अनल अब, सुनत सह भवभी त ।
तुलसी भु त होइ सो क जय समु झ बरदक री त ।। ४ ।।
भावाथ—सु दर (मनु य) जीवन थ ही बीत गया । त नक भी परमाथ प ले नह
पड़ा। दन दन अनी त बढ़ती ही गयी ।। १ ।। लड़कपन तो खेलते-खाते बीत गया,
जवानीको य ने जीत लया और बुढ़ापा रोग, ( ी-पु ा दके) वयोग, शोक तथा
प र मसे प रपूण होनेके कारण वृथा बीत गया ।। २ ।। राग, ोध, ई या और मोहके कारण
संत क सभा अ छ नह लगी, और (स संगके अभावसे) न तो ीरघुनाथजीक
गुणावलीहीको कहा-सुना तथा न ीरामजीके चरण म ेम ही आ ।। ३ ।। असहनीय
संसारके भयको सुनकर अब यह दय प ा ाप पी आगसे जला जा रहा है, अब इस
तुलसीके लये अपने वरदक री तको सोच-समझकर जो कुछ भी भुसे बन पड़े सो
कर ।। ४ ।।
[२३५]
ऐसे ह जनम-समूह सराने ।
ाननाथ रघुनाथ-से भु त ज सेवत चरन बराने ।। १ ।।
जे जड़ जीव कु टल, कायर, खल, केवल क लमल-साने ।
सूखत बदन संसत त ह कहँ, ह रत अ धक क र माने ।। २ ।।
सुख हत को ट उपाय नरंतर करत न पायँ पराने ।
सदा मलीन पंथके जल य , कब ँ न दय थराने ।। ३ ।।
यह द नता र क रबेको अ मत जतन उर आने ।
तुलसी चत- चता न मटै बनु चताम न प हचाने ।। ४ ।।
भावाथ—इसी कार अनेक ज म ( थ) बीत गये। ाणनाथ रघुनाथजी-सरीखे
वामीको छोड़कर सर के चरण क सेवा करता रहा! ।। १ ।। जो मूख जीव कु टल, कायर
और ह तथा जो केवल क लके पाप से सने ए ह, उनक शंसा करते-करते मुँह सूख
गया है और उनको भगवान्से भी अ धक समझ रखा है ।। २ ।। सुखके लये नर तर करोड़
उपाय करते-करते कभी पैर नह खे ( दन-रात वषय-भोग के सुख म इधर-उधर भटकता
फरा)। दय रा तेके जलक भाँ त सदा मैला ही बना रहा, कभी नमल अथवा थर नह
आ ।। ३ ।। इस द नताको र करनेके लये अग णत उपाय मनम सोचे, पर हे तुलसी!
च ताम ण ( ीरघुनाथजी)-को पहचाने बना च क च ता नह मट सकती (परमा माका
और उनक सु दताका ान होनेसे ही च ता का नाश होगा) ।। ४ ।।
[२३६]
जो पै जय जानक -नाथ न जाने ।
तौ सब करम-धरम मदायक ऐसेइ कहत सयाने ।। १ ।।
जे सुर, स , मुनीस, जोग बद बेद-पुरान बखाने ।
पूजा लेत, दे त पलटे सुख हा न-लाभ अनुमाने ।। २ ।।
काको नाम धोखे सु मरत पातकपुंज पराने ।
ब -ब धक, गज-गीध को ट खल कौनके पेट समाने ।। ३ ।।
मे -से दोष र क र जनके, रेन-ु से गुन उर आने ।
तुल सदास ते ह सकल आस त ज भज ह न अज ँ अयाने ।। ४ ।।
भावाथ—अरे जीव! य द तूने जानक नाथ ीरघुनाथजीको (त वसे) नह जाना तो तेरे
सब कम, धम केवल प र म ही दे नेवाले ह। (उनसे कोई असली लाभ नह होगा) बु मान्
पु ष ने ऐसा ही कहा है। ( ीरामच जीको त वसे जान लेनेम ही सारे कम-धम क स
है) ।। १ ।। वेद और पुराण कहते ह क जतने दे वता, स , मुनी र और योगके ाता ह वे
सब पूजा लेकर उसके बदलेम (नाशवान् सांसा रक वषय) सुख दे ते ह और ऐसा भी वे
अपनी हा न और लाभका वचार करके करते ह ।। २ ।। आपके सवा (ऐसा) कसका नाम
है जसका धोखेसे भी मरण करनेसे पाप के समूह न हो जाते ह? अजा मल ा ण,
वा मी क ाध, गजराज, जटायु गीध आ द करोड़ कसके अंदर समा गये? (आपने ही
उनको वीकार कर अपना परम धाम दे दया) ।। ३ ।। जो अपने सेवक के सुमे पहाड़के
समान (बड़े-बड़े) अपराध को भुलाकर उनक रजके कणके समान (जरा-जरा-से) गुण को
दयम रख लेते ह, हे तुलसीदास! हे मूख! सारी आशा छोड़कर तू उ ह को य नह
भजता? ।। ४ ।।
[२३७]
काहे न रसना, राम ह गाव ह?
न स दन पर-अपवाद बृथा कत र ट-र ट राग बढ़ाव ह ।। १ ।।
नरमुख सुंदर मं दर पावन ब स ज न ता ह लजाव ह ।
स स समीप र ह या ग सुधा कत र बकर-जल कहँ धाव ह ।। २ ।।
काम-कथा क ल-कैरव-चं द न, सुनत वन दै भाव ह ।
तन ह हट क क ह ह र-कल-क र त, करन कलंक नसाव ह ।। ३ ।।
जात प म त, जुगु त चर म न र च-र च हार बनाव ह ।
सरन-सुखद र बकुल-सरोज-र ब राम-नृप ह प हराव ह ।। ४ ।।
बाद- बबाद, वाद त ज भ ज ह र, सरस च रत चत लाव ह ।
तुल सदास भव तर ह, त ँ पुर तू पुनीत जस पाव ह ।। ५ ।।
भावाथ—अरी जीभ! तू ीरामजीका गुणगान य नह करती? दन-रात सर क
न दा कर य थ ही आस बढ़ा रही है? ।। १ ।। मनु यके मुख पी सु दर और प व
म दरम बसकर य उसे लजा रही है? ( वषयक बात छोड़कर ीराम-नाम य नह
लेती?) च माके पास रहती ई भी अमृतको छोड़कर य मृगतृ णाके जलके लये दौड़
रही है? ( ीराम-नाम पी अमृतका पान य नह करती?) ।। २ ।। संसारके भोग क बात
क लयुग पी कुमु दनीके ( वक सत करनेके) लये चाँदनीके स श है, उसे खूब कान
लगाकर ेमपूवक सुना करती है। अरी जीभ! उस वषय-चचाको रोककर ीह रके सु दर
यशका गान कर, जससे कान का कलंक र हो ( वषय क बात नर तर सुनते-सुनते कान
कलंक हो गये ह, उनका यह कलंक भगव कथाके वण करनेसे ही र होगा) ।। ३ ।।
बु पी सुवण और यु पी सु दर म णय का रच-रचकर एक हार तैयारकर और उस
हारको शरणागत को सुख दे नेवाले सूयकुल पी कमलके ( फु लत करनेवाले) सूय
महाराज रामच जीको प हना। ( वशु बु और उ म यु य ारा न य करके
ीह रका नाम-गुण-क तन कर) ।। ४ ।। वाद- ववाद तथा वादको छोड़कर ीह रका भजन
कर और उनक रसीली लीलाम लौ लगा। य द तू ऐसा करेगी तो तुलसीदास संसार-सागरसे
पार हो जायगा (ज म-मरणसे मु हो जायगा) और तू भी तीन लोक म प व क तको
ा त होगी ।। ५ ।।
[२३८]
आपनो हत रावरेस जो पै सूझै ।
तौ जनु तनुपर अछत सीस सु ध य कबंध य जूझै ।। १ ।।
नज अवगुन, गुन राम! रावरे ल ख-सु न म त-मन झै ।
रह न-कह न-समुझ न तुलसीक को कृपालु बनु बूझै ।। २ ।।
भावाथ—हे नाथ! य द इस जीवको अपना क याण आपके ारा होता द ख पड़े, तो
यह जबतक शरीरपर सर है तबतक ( बना सरके) कब धक तरह य लड़ता फरे?
(भगवान्क कृपाका भरोसा नह है, इसीसे तो सर रहते ए ही— सरपर भगवान्के रहते
ए ही—यह अपनेको म तकहीन मानकर—भगवान्को भुलाकर—अ धेक - य सुखके
लये हर कसीसे लड़ रहा है। पर तु म तक बना—भगवान्के आधार बना—न तो लड़कर
जीत ही सकेगा और न क याण ही होगा) ।। १ ।। अपने अवगुण और आपके दे व लभ
गुण को दे ख-सुनकर, हे रामजी! मेरी बु और मन क जाते ह। संकोच होता है क ऐसे
म लन कम वाला म आप स चदान दघनके सामने कैसे जाऊँ। हे कृपालो! तुलसीका
आचरण, कथन और रह य आपको छोड़कर और कौन समझ सकता है? (आप इस द नक
सारी थ त जानते ह, अपनी कृपा- से ही इसका उ ार क जये) ।। २ ।।
[२३९]
जाको ह र ढ़ क र अंग करयो ।
सोइ सुसील, पुनीत, बेद बद, ब ा-गुन न भरयो ।। १ ।।
उतप त पांडु-सुतनक करनी सु न सतपंथ डरयो ।
ते ैलो य-पू य, पावन जस सु न-सु न लोक तरयो ।। २ ।।
जो नज धरम बेदबो धत सो करत न कछु बसरयो ।
बनु अवगुन कृकलास कूप म जत कर ग ह उधरयो ।। ३ ।।
ब सख ांड दहन छम गभ न नृप त जरयो ।
अजर-अमर, कु लस ँ ना हन बध, सो पु न फेन मरयो ।। ४ ।।
ब अजा मल अ सुरप त त कहा जो न ह बगरयो ।
उनको कयो सहाय ब त, उरको संताप हरयो ।। ५ ।।
ग नका अ कंदरपत जगमहँ अघ न करत उबरयो ।
तनको च रत प व जा न ह र नज द-भवन धरयो ।। ६ ।।
के ह आचरन भलो मान भु सो तौ न जा न परयो ।
तुल सदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खरयो ।। ७ ।।
भावाथ— जसे ीह रने ढ़तापूवक दयसे लगा लया, वही सुशील है, प व है,
वेदका ाता है और सम त व ा एवं सद्गुण से भरा आ है ( जसपर भगवान् कृपा करते
ह, सारे सद्गुण अपना गौरव बढ़ानेके लये उसके अंदर आप ही आ जाते ह) ।। १ ।।
पा डु के पु क उ प और उनक करतूतको सुनकर स मागतक डर गया था; क तु वे ही
ीह र-कृपासे तीन लोक म पूजनीय हो गये और उनका प व यश सुन-सुनकर लोग तर
गये ।। २ ।। जस राजा नृगने वेद- व हत वधमके पालनम त नक भी कसर नह क थी और
जो बना ही कसी दोषके गर गट होकर कुएँम पड़ा आ था, उसको आपने हाथ पकड़कर
बाहर नकाल लया और उसका उ ार कर दया। ( गर गटक यो नसे छु ड़ाकर द लोकको
भेज दया) ।। ३ ।। सारे ा डको भ म कर दे नेम समथ (अ थामाके) ा से भी
राजा (परी त्) गभम नह जला और अजर एवं अमर (नमु च) दै य जो व से भी नह मरा
था, वह फेनसे मर गया ।। ४ ।। अजा मल ा ण और इ के (आचरण म) ऐसी कौन-सी
बात थी जो न बगड़ी हो, क तु आपने उनक बड़ी सहायता क और उनके दयका स ताप
हर लया ।। ५ ।। ( पगला) वे या और कामदे वने जगत्म ऐसा कौन-सा पाप है जो नह
कया हो, क तु भगवान्ने उनका च र प व समझकर उ ह अपने दय-म दरम थान
दया ।। ६ ।। भगवान् कस आचरणसे स होते ह, यह समझम नह आता। तुलसीदास तो
बस, खड़ा-खड़ा केवल ीरघुनाथजीक कृपाक बाट दे ख रहा है ।। ७ ।।
[२४०]
सोइ सुकृती, सु च साँचो जा ह राम! तुम रीझे ।
ग नका, गीध, ब धक ह रपुर गये, लै कासी याग कब सीझे ।। १ ।।
कब ँ न ड यो नगम-मगत पग, नृग जग जा न जते ख पाये ।
गजध कौन द छत, जाके सु मरत लै सुनाभ बाहन त ज धाये ।। २ ।।
सुर-मु न- ब बहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह ली हो ।
बाय दयो बभव कु प तको, भोजन जाइ ब र-घर क हो ।। ३ ।।
मानत भल ह भलो भगत नत, कछु क री त पारथ ह जनाई ।
तुलसी सहज सनेह राम बस, और सबै जलक चकनाई ।। ४ ।।
भावाथ—हे रामजी! जसपर आप स हो गये, वही स चा पु या मा है और वही
प व है। वे या ( पगला), गीध (जटायु) और बहे लया (वा मी क) जो परम धाम वैकु ठको
चले गये, उ ह ने कब यागम जाकर तप कया और क ड क आगम जलकर मरे? ।। १ ।।
राजा नृग कभी वेदो मागसे नह डगा था, क तु संसार जानता है, उसने कतने ःख भोगे
( गर गटक यो न पाकर हजार वष कुएँम पड़ा सड़ता रहा!) और वह हाथी कहाँका द त
था, जसके एक बार याद करते ही आप अपने वाहन ग ड़को छोड़कर सुदशनच लये
दौड़े आये? ।। २ ।। दे वता, मु न और ा ण के ऊँचे कुलको छोड़कर आपने गोकुलम एक
गोप (न दजी)-के घरम ज म लया। कौरव-प त राजा य धनके ऐ यको ठु कराकर आपने
(द न) व रके घर जाकर (साग-भाजीका) भोजन कया ।। ३ ।। भगवान् अपने अन य ेमी
भ के साथ ब त भला मानते ह। इस अन य ेम-भ क री त कुछ-कुछ आपने अजुनको
बतायी थी। हे तुलसीदास! ीरामजी तो सरल वाभा वक वशु ेमके अधीन ह, सरे
जतने साधन ह वे ऐसे ह, जैसे पानीक चकनाई! (पानी पड़नेपर, थोड़ी दे रके लये शरीर
चकना-सा मालूम होता है, पर सूखनेपर फर य -का- य खा हो जाता है। इसी कार
सरे साधन से कामनाक पू त होनेपर णक सुख तो मलता है, पर तु सरी कामना
उ प होते ही मट जाता है) ।। ४ ।।
[२४१]
तब तुम मो से सठ नको ह ठ ग त न दे ते ।
कैसे नाम लेइ कोउ पामर, सु न सादर आगे ै लेते ।। १ ।।
पाप-खा न जय जा न अजा मल जमगन तम क तये ताको भे ते ।
लयो छु ड़ाइ, चले कर म जत, पीसत दाँत गये रस-रेते ।। २ ।।
गौतम- तय, गज, गीध, बटप, क प, ह नाथ ह नीके मालुम जेते ।

साधु-समाजु त ज कृपा सधु तब तब उ ठगे ते ।। ३ ।।

अज ँ अ धक आदर ये ह ारे, प तत पुनीत होत न ह केते ।


मेरे पासंग न पू जह, ै गये, ह, होने खल जेते ।। ४ ।।
ह अबल करतू त तहा रय चतवत तो न रावरे चेते ।
अब तुलसी पूतरो बाँ धहै, स ह न जात मोपै प रहास एते ।। ५ ।।
भावाथ—(जब अनेक को परम ग त द है) तब आप मुझ-सरीखे को हठपूवक
परम पद य नह दे त? े कोई भी पापी कैसे ही आपका नाम लेता हो, सुनते ही आप बड़े
आदरके साथ उसे आगे होकर (अपनी गोदम ले) लेते ह, फर मेरे ही लये ऐसा य नह
करते? ।। १ ।। अजा मलको यम त ने अपने मनम पाप क खान समझ, तमककर भय
दखाते ए उसे क दया, क तु आपने उसे (मरते समय धोखेसे ‘नारायण’ नाम लेनेपर ही)
उनके हाथसे छु ड़ा लया। यम त हाथ मलते और ोधके मारे दाँत पीसते ए खाली हाथ ही
लौट गये ।। २ ।। गौतमक ी (अह या), गजराज, गीध (जटायु), वृ (यमलाजुन) और
बंदर (सु ीव) आ द कैसे थे सो नाथको अ छ तरह मालूम है, पर तु जब उन सबका काम
पड़ा, तब आप संत-समाजको भी छोड़कर (उनक सहायताके लये) वहाँसे चल
दये ।। ३ ।। आज भी इस आपके दरवाजेपर ऐस का ही अ धक आदर है और न जाने
कतने पापी न य प व बनाये जाते ह। ऐसा होते ए भी अबतक मेरी सुनायी य नह
ई? या म कम पापी ? ँ संसारम जतने ए ह, ह और ह गे, वे सब तो मेरे पसंगेम भी
पूरे न ह गे ।। ४ ।। अबतक तो म आपके करतबक ओर टक लगाये दे ख रहा था, (बाट
दे खता था क मेरा भी उ ार कभी कर दगे)। पर तु आपने इधर कोई यान नह दया।
इस लये बस, अब तुलसीदास आपके नामका पुतला* बाँधेगा, य क मुझसे अब इतना
उपहास सहन नह होता ।। ५ ।।
[२४२]
तुम सम द नबंधु, न द न कोउ मो सम, सुन नृप त रघुराई ।
मोसम कु टल-मौ लम न न ह जग, तुमसम ह र! न हरन कु टलाई ।। १ ।।
ह मन-बचन-कम पातक-रत, तुम कृपालु प ततन-ग तदाई ।
ह अनाथ, भु! तुम अनाथ- हत, चत य ह सुर त कब ँ न ह जाई ।। २ ।।
ह आरत, आर त-नासक तुम, क र त नगम पुरान न गाई ।
ह सभीत तुम हरन सकल भय, कारन कवन कृपा बसराई ।। ३ ।।
तुम सुखधाम राम म-भंजन, ह अ त खत बध म पाई ।
यह जय जा न दास तुलसी कहँ राख सरन समु झ भुताई ।। ४ ।।
भावाथ—हे महाराज रामच जी! आपके समान तो कोई द न का क याण करनेवाला
ब धु नह है और मेरे समान कोई द न नह है। मेरी बराबरीका संसारम कोई कु टल का
शरोम ण नह है और हे नाथ! आपके बराबर कु टलताका नाश करनेवाला कोई नह
है ।। १ ।। म मनसे, वचनसे और कमसे पाप म रत ँ और हे कृपालो! आप पा पय को
परमग त दे नेवाले ह। म अनाथ ँ और हे भो! आप अनाथ का हत करनेवाले ह। यह बात
मेरे मनसे कभी नह जाती ।। २ ।। म ःखी ,ँ आप ःख के र करनेवाले ह। आपका यश
यह वेद-पुराण गा रहे ह। म (ज म-मृ यु प) संसारसे डरा आ ँ और आप सब भय नाश
करनेवाले ह। (आपके और मेरे इतने स ब ध होनेपर भी) या कारण है, क आप मुझपर
कृपा नह करते? ।। ३ ।। हे ीरामजी! आप आन दके धाम तथा मके नाश करनेवाले ह
और म संसारके तीन (दै हक, दै वक और भौ तक) म से अ य त ही ःखी हो रहा ।ँ इन
बात को अपने मनम वचारकर तथा अपनी भुताको समझकर तुलसीदासको अपनी
शरणम रख ही ली जये ।। ४ ।।
[२४३]
यहै जा न चरन ह चत लायो ।
ना हन नाथ! अकारनको हतु तुम समान पुरान- ु त गायो ।। १ ।।
जन न-जनक, सुत-दार, बंधुजन भये ब त जहँ-जहँ ह जायो ।
सब वारथ हत ी त, कपट चत, का न ह ह रभजन सखायो ।। २ ।।
सुर-मु न, मनुज-दनुज, अ ह- क र, म तनु ध र सर का ह न नायो ।
जरत फरत यताप पापबस, का न ह र! क र कृपा जुड़ायो ।। ३ ।।
जतन अनेक कये सुख-कारन, ह रपद- बमुख सदा ख पायो ।
अब था यो जलहीन नाव य दे खत बप त-जाल जग छायो ।। ४ ।।
मो कहँ नाथ! बू झये, यह ग त सुख- नधान नज प त बसरायो ।
अब त ज रोष कर क ना ह र! तुल सदास सरनागत आयो ।। ५ ।।
भावाथ—यही जानकर मने (सब ओरसे हटाकर) आपके चरण म च लगाया है क हे
नाथ! आपके समान, बना ही कारण हत करनेवाला सरा कोई नह है, ऐसा वेद और
पुराण गाते ह ।। १ ।। जहाँ-जहाँ ( जस- जस यो नम) मने ज म लया, वहाँ-वहाँ मेरे ब त-
से पता-माता, पु - ी और भाई-ब धु ए। पर तु वे सभी वाथ-साधनके लये मुझसे ेम
करते रहे, उनके मनम छल-कपट रहा। इसी लये कसीने भी मुझे ीह रका भजन नह
सखाया। (सभी संसारम फँसे रहनेक श ा दे ते रहे, भगव जनका उपदे श नह
दया) ।। २ ।। शरीर धारण कर मने (अपनी भलाई करनेके लये) दे वता-मु न, मनु य-रा स,
सप- क र आ द कसको सर नह नवाया? (सभीके चरण म सर रख-रखकर खुशामद
क ) क तु हे हरे! पापके फल व प तीन ताप से जलते फरते ए मुझको कसीने दयाकर
शीतल नह कया। (मो - दान कर संसारका ताप कोई नह मटा सके) ।। ३ ।। मने सुखके
लये ब त-से साधन कये, पर भगव चरण से वमुख होनेके कारण सदा ःख ही पाया।
संसारम वप य का जाल बछा आ दे खकर अब म (सम त साधन से) ऐसा थक गया ,ँ
जैसे बना पानीके नौका थक जाती है ।। ४ ।। हे नाथ! समझ ली जये, मेरी यह दशा इस लये
ई है क मने अपने सुख- नधान वामीको भुला दया। हे हरे! अब मेरे दोष का खयाल
छोड़कर इस शरणागत तुलसीदासपर दया क जये ।। ५ ।।
[२४४]
या ह ते म ह र यान गँवायो ।
प रह र दय-कमल रघुनाथ ह, बाहर फरत बकल भयो धायो ।। १ ।।
य कुरंग नज अंग चर मद अ त म तहीन मरम न ह पायो ।
खोजत ग र, त , लता, भू म, बल परम सुगंध कहाँ त आयो ।। २ ।।
य सर बमल बा र प रपूरन, ऊपर कछु सवार तृन छायो ।
जारत हयो ता ह त ज ह सठ, चाहत य ह ब ध तृषा बुझायो ।। ३ ।।
यापत बध ताप तनु दा न, तापर सह द र सतायो ।
अपने ह धाम नाम-सुरत त ज बषय-बबूर-बाग मन लायो ।। ४ ।।
तुम-सम यान- नधान, मो ह सम मूढ़ न आन पुरान न गायो ।
तुल सदास भु! यह बचा र जय क जै नाथ उ चत मन भायो ।। ५ ।।
भावाथ—हे हरे! मने इसी कारण ानको खो दया क जो म अपने दयकमलम
वरा जत आपको छोड़कर (सुखके लये) ाकुल होकर बाहर इधर-उधरके अनेक साधन म
भटकता फरा ।। १ ।। जैसे अ य त बु हीन ह रण अपने ही शरीरम सु दर क तूरी होनेपर
भी उसका भेद नह जानता और पहाड़, पेड़, लता, पृ वी और बल म ढूँ ढ़ता फरता है क
यह े सुग ध कहाँसे आ रही है (वही हालत मेरी है। सुख व प वामीके दयम रहनेपर
भी म बाहर ढूँ ढ़ रहा )ँ ।। २ ।। तालाब नमल पानीसे लबालब भरा है, क तु ऊपरसे कुछ
काई और घास छायी है। इसीसे ( मवश) उस (तालाबके व छ) जलको छोड़कर म
अपना दय जला रहा ँ, और इस कार अपनी यास बुझाना चाहता ँ। ( दय-सरोवरम
स चदान दघन परमा मा पी अन त शीतल जल भरा है, पर तु अ ानक काई आ जानेसे
म मृगजल पी सांसा रक भोग को ा त करके उनसे परमसुखक तृ णा मटाना चाहता ँ
और फल व प तापसे जल रहा )ँ ।। ३ ।। एक तो वैसे ही शरीरम दा ण वध ताप
ाप रहे ह, तसपर यह (साधन-धनके अभावक ) असहनीय द र ता सता रही है। (म कैसा
महान् मूख ँ क) अपने ही ( दय पी) घरम भगव ाम पी (मनचाहा फल दे नेवाला) जो
क पवृ है उसे छोड़कर मने वषय पी बबूलके बागम अपना मन लगा रखा है। (बबूलके
बागम ःख प काँट के सवा और या मल सकता है?) ।। ४ ।। आपके समान तो कोई
ान- नधान नह है और मेरे समान और कोई मूख नह है, यह बात पुराण ने कही है। इस
बातको वचारकर हे नाथ! आपको जो उ चत तीत हो इस तुलसीदासके लये वही
क जये ।। ५ ।।
[२४५]
मो ह मूढ़ मन ब त बगोयो ।
याके लये सुन क नामय, म जग जन म-जन म ख रोयो ।। १ ।।
सीतल मधुर पयूष सहज सुख नकट ह रहत र जन खोयो ।
ब भाँ तन म करत मोहबस, बृथ ह मंदम त बा र बलोयो ।। २ ।।
करम-क च जय जा न, सा न चत, चाहत कु टल मल ह मल धोयो ।
तृषावंत सुरस र बहाय सठ फ र- फ र बकल अकास नचोयो ।। ३ ।।
तुल सदास भु! कृपा कर अब, म नज दोष कछू न ह गोयो ।
डासत ही गइ बी त नसा सब, कब ँ न नाथ! न द भ र सोयो ।। ४ ।।
भावाथ—इस मूख मनने मुझको खूब ही छकाया। हे क णामय! सु नये, इसीके कारण
म बारंबार जगत्म जनम-जनमकर ःखसे रोता फरा ।। १ ।। शीतल और मधुर अमृत प
सहजसुख ( ान द) जो अ य त नकट ही रहता है, (आ माका व प ही सत्, चत्,
आन दघन है) मने इस मनके फेरम पड़कर उसे य भुला दया, मानो वह ब त ही र हो।
मोहवश अनेक कारसे प र म कर मुझ मुखने थ ही पानीको बलोया ( वषय पी
जलको मथकर उससे परमान द पी घी नकालना चाहा) ।। २ ।। य प मनम यह जानता
था क कम क चड़ है, (उसम पड़ते ही सब ओरसे म लनता छा जायगी) फर भी च को
उसीम सानकर ( यास बुझानेके लये) म कु टल, मलसे ही मलको धोना चाहता ।ँ यास
लग रही है, पर म ऐसा ँ क ीगंगाजीको छोड़कर बार-बार ाकुल हो आकाश
नचोड़ता फरता ,ँ (स चे सुखक ा तके लये ःख प वषय म भटकता ँ) ।। ३ ।। हे
नाथ! मने अपना एक भी दोष आपसे नह छपाया है, अतः अब इस तुलसीदासपर कृपा
क जये। मुझे बछौना बछाते- बछाते ही सारी रात बीत गयी, पर हे नाथ! कभी न दभर नह
सोया। (सुख- ा तके उपाय करते-करते ही जीवन बीत गया, आपको ा त कर पूणकाम हो
बोध प सुखक न दम कभी नह सो पाया। अब तो कृपा क जये) ।। ४ ।।
[२४६]
लोक-बेद ँ ब दत बात सु न-समु झ
मोह-मो हत बकल म त थ त न लह त ।
छोटे -बड़े, खोटे -खरे, मोटे ऊ बरे,
राम! रावरे नबाहे सबहीक नबह त ।। १ ।।
होती जो आपने बस, रहती एक ही रस,
नी न हरष-सोक-साँस त सह त ।
चहतो जो जोई जोई, लहतो सो सोई सोई,
के भाँ त का क न लालसा रह त ।। २ ।।
करम, काल, सुभाउ गुन-दोष जीव जग मायाते,
सो सभै भ ह च कत चह त ।
ईस न- दगीस न, जोगीस न, मुनीस न ,
छोड़ त छोड़ाये त, गहाये त गह त ।। ३ ।।
सतरंजको सो राज, काठको सबै समाज,
महाराज बाजी रची, थम न ह त ।
तुलसी भुके हाथ हा रबो-जी तबो नाथ!
ब बेष, ब मुख सारदा कह त ।। ४ ।।
भावाथ—छोटे -बड़े, बुर-े भले, मोटे और बले, इन सबक , हे ीरामजी! आपके ही
नभानेसे नभती है—यह बात संसार और वेद म कट है। क तु इसे सुनकर और वचारकर
भी मेरी मोहके वश ई बु ऐसी ाकुल हो रही है क वह कभी थर ( न या मका) नह
होती ।। १ ।। जो यह मेरे वशम होती तो सदा एकरस ( न या मका) ही रहती ( य क
जीवा मा न य परमा मसुख ही चाहता है), फर यह संसारके हष, शोक और संकट को य
सहती? (बु ई रमुखी न या मका होनेपर) जो जस व तुक इ छा करता, वही उसे
मल जाती। कसीक कोई भी लालसा बाक न रहती (परमा माको ा तकर जीव पूणकाम
हो जाता) ।। २ ।। क तु ऐसा है नह । जगत्म जीवके कम, काल, वभाव, गुण, दोष—ये
सब आपक मायासे ह और वह माया मारे डरके भ च क -सी होकर आपक भृकु टक ओर
ताकती रहती है (आपके नचाये नाचती है)। यह माया शव, ा और दक्पाल को,
योगी र और मुनी र को आपके ही छु ड़ानेसे छोड़ती है और आपके ही पकड़ानेसे पकड़
लेती है ।। ३ ।। इस मायाका सारा समाज शतरंजका-सा रा य है (असत् है), सब काठका
बना है (असलम न कोई राजा है, न वजीर)। हे महाराज! शतरंजक यह बाजी आपहीक
रची ई है, यह पहले नह थी। तुलसीदास कहते ह क हे भो! इस बाजीक हार-जीत
आपहीके हाथम है! यह बात सर वतीने अनेक वेष धारण कर ब त-से मुख से कही है (सभी
व ान क वाणीसे यही नकला है क ब धन-मो सब ीभगवान्के ही हाथ है) ।। ४ ।।
[२४७]
राम जपु जीह! जा न, ी त स तीत मा न,
रामनाम जपे जैहै जयक जर न ।
रामनामस रह न, रामनामक कह न,
कु टल क ल-मल-सोक-संकट-हर न ।। १ ।।
रामनामको भाउ पू जयत गनराउ,
कयो न राउ, कही आपनी कर न ।
भव-सागरको सेतु, कासी सुग त हेतु,
जपत सादर संभु स हत घर न ।। २ ।।
बालमी क याध हे अगाध-अपराध- न ध,
‘मरा’ ‘मरा’ जपे पूजे मु न अमर न ।
रो यो ब य, सो यो सधु घटज ँ नाम-बल,
हारयो हय, खारो भयो भूसुर-डर न ।। ३ ।।
नाम-म हमा अपार, सेष-सुक बार-बार
म त-अनुसार बुध बेद बर न ।
नामर त-कामधेनु तुलसीको कामत ,
रामनाम है बसोह- त मर-तर न ।। ४ ।।
भावाथ—हे जीभ! राम-नामका जप कर, राम-नामके (त वको) जान और ेमपूवक
उसम व ास कर। एक राम-नामके जपसे तेरे दयके (तीन ) ताप शा त हो जायँगे। राम-
नामके परायण हो और राम-नामहीका कथन कया कर। (इस कार नामक शरणाग त)
कु टल-क लयुगके पाप , ःख और संकट को हरनेवाली है ।। १ ।। राम-नामके भावसे
गणेश (सव थम) पूजे जाते ह। गणेशजीने अपनी करनीको वयं कहा है, कुछ छपाकर नह
रखा। यह राम-नाम संसार पी समु का पुल है (इसपर चढ़कर भ जन सहज ही
भवसागरसे तर जाते ह)। काशीम भगवान् शंकर भी पावतीके स हत जीव को मो दे नेके
लये राम-नामको जपा करते ह ।। २ ।। वा मी क ाधके अन त पाप थे, क तु उलटा नाम
‘मरा-मरा’ जपकर वे ऐसे हो गये क मु नय और दे वता ने भी उनक पूजा क । अग य
ऋ षने भी इसी रामनामके बलपर व याचलपवतको रोक लया एवं समु को सुखा दया
था। पीछे वह समु उ ह ा ण (अग य)-के भयसे दयम हार मानकर खारा हो
गया ।। ३ ।। राम-नामक अपार म हमा है। शेष, शुकदे व, वेद और प डत ने बार-बार
अपनी बु के अनुसार इसका वणन कया है। राम-नामसे ी त होना तुलसीदासके लये
कामधेनु और क पवृ ही है (उसे तो इसी राम-नामसे मनचाहा लभ पद मला है)। अ धक
या, यह राम-नाम अ ानके अ धकारको र करनेके लये सा ात् सूय है ।। ४ ।।
[२४८]
पा ह, पा ह राम! पा ह रामभ , रामचं !
सुजस वन सु न आयो ह सरन ।
द नब धु! द नता-द र -दाह-दोष- ख
दा न सह दर- रत-हरन ।। १ ।।
जब जब जग-जाल याकुल करम काल,
सब खल भूप भये भूतल-भरन ।
तब तब तनु ध र, भू म-भार र क र
थापे मु न, सुर, साधु, आ म, बरन ।। २ ।।
बेद, लोक, सब साखी, का क रती न राखी,
रावनक बं द लागे अमर मरन ।
ओक दै बसोक कये लोकप त लोकनाथ
रामराज भयो धरम चा र चरन ।। ३ ।।
सला, गुह, गीध, क प, भील, भालु, रा तचर,
याल ही कृपालु क हे तारन-तरन ।
पील-उ रन! सील सधु! ढ ल दे खयतु
तुलसी पै चाहत गला न ही गरन ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! हे क याण व प रघुनाथजी! र ा क जये, र ा क जये।
आपका सुयश सुनकर शरण आया ँ। हे द नब धो! आप द नता, द र ता, स ताप, दोष,
दा ण ःख और असहनीय भय तथा पाप का नाश करनेवाले ह ।। १ ।। जब-जब साधु (संत
और गौ- ा ण) काल और कमके वश हो जग जालम फँसकर ाकुल ए और सब
राजा पृ वीपर भार व प ए, तब-तब आपने अवतार-शरीर धारण कर ( का संहार कर)
पृ वीका भार र कर दया और मु न, दे वता, संत एवं वणा म-धमक पुनः थापना
क ।। २ ।। वेद और संसार दोन ही इसके सा ी ह क जब रावणने कसीक भी त ा
नह रहने द और दे वतागण उसके कैदखानेम पड़े-पड़े मरने लगे, तब हे भगवन्! आपहीने
उन लोक-प तय को—इ , कुबेर आ दको आ य दे कर शोकर हत कया और उ ह फरसे
अपने-अपने लोक का वामी बनाया, और हे रामजी! आपके रा यम धम चार चरण से यु
(धमरा य) हो गया (स य, तप, दया और दान वक सत हो उठे ) ।। ३ ।। हे कृपालो! आपने
लीलापूवक ही अह या, नषाद, जटायु, बंदर, भील, भालु और रा स को तरण-तारण कर
दया, (उ ह तो तार ही दया, पर तु सर को तारनेक श भी उनको दे द । जस कसीने
उनका संग या अनुकरण कया, वह भी तर गया।) हे गजराजके उ ारक! हे शीलके सागर!
इस तुलसीपर जो आपक ओरसे कुछ ढ ल-सी दखायी दे ती है, इससे वह मारे ला नके गला
चाहता है। अतएव कृपाकर इसका भी शी ही उ ार क जये ।। ४ ।।
[२४९]
भली भाँ त प हचाने-जाने सा हब जहाँ ल जग,
जूड़े होत थोरे, थोरे ही गरम ।
ी त न वीन, नी तहीन, री तके मलीन,
मायाधीन सब कये काल करम ।। १ ।।
दानव-दनुज बड़े महामूढ़ मूँड़ चढ़े ,
जीते लोकनाथ नाथ! बल न भरम ।
री झ-री झ दये बर, खी झ-खी झ घाले घर,
आपने नवाजेक न का को सरम ।। २ ।।
सेवा-सावधान तू सुजान समरथ साँचो,
सदगुन-धाम राम! पावन परम ।
सु ख, सुमुख, एकरस, एक प, तो ह
ब दत बसे ष घटघटके मरम ।। ३ ।।
तोसो नतपाल न कृपाल, न कँगाल मो-सो
दयाम बसत दे व सकल धरम ।
राम कामत -छाँह चाहै च मन माँह,
तुलसी बकल, ब ल, क ल-कुधरम ।। ४ ।।
भावाथ—जगत्म जहाँतक मा लक ह, उनको मने भलीभाँ त समझ और पहचान लया
है। वे थोड़ेम ही स हो जाते ह और थोड़ेम ही गरम हो उठते ह। न तो वे ेमके नभानेम
ही चतुर ह और न नी त ही जानते ह। उनक चाल सब बुरी ह, य क काल, कम और
मायाने उ ह अपने अधीन कर रखा है ।। १ ।। हे नाथ! (अपने) बलके मसे बड़े-बड़े दै य-
दानव आ द महामूख बनकर (सबके) सरपर चढ़ गये थे और उ ह ने लोकपाल को भी जीत
लया था। इन लोग को इनके मा लक ने (दे वता ने) पहले तो (इनके तपपर) रीझ-रीझकर
(मनमाने) वर दये, पर पीछे से नाराज हो-होकर इनके घर को वाहा करा दया! (आपक
ाथना करके) अपने सेवक को बगाड़ते समय कसीको भी शम न आयी ।। २ ।। हे रामजी!
सावधान सेवक को तो आप ही भलीभाँ त पहचानते ह, य क आप ही स चे समथ,
सद्गुण के थान और परमप व ह। आप सबपर कृपा करनेवाले, स -मुख, सदा एकरस
और एक प ह। आपको घट-घटका भेद वशेष पसे मालूम है ।। ३ ।। हे कृपालो! आपके
समान शरणागत कंगाल को पालनेवाला सरा कोई नह है और मुझ-सरीखा कोई कंगाल
नह है। हे दे व! सारे धम का नवास दयाम ही है (अतः मुझ द नपर दया कर द जये)। फर
हे नाथ! आप तो क पवृ ह। इसी क पवृ क छायाम रहना चाहता ँ। ब लहारी! यह
तुलसी क लयुगके कु टल धम से बड़ा ही ाकुल हो रहा है। (कृपाकर इसे शी ही
बचाइये ।। ४ ।।
[२५०]
तौ ह बार बार भु ह पुका रकै खझावतो न,
जो पै मोको होतो क ँ ठाकुर-ठह ।
आलसी-अभागे मोसे त कृपालु पाले-पोसे,
राजा मेरे राजाराम, अवध सह ।। १ ।।
सेये न दगीस, न दनेस, न गनेस, गौरी,
हत कै न माने ब ध ह रउ न ह ।
रामनाम ही स जोग-छे म, नेम, ेम-पन,
सुधा सो भरोसो ए , सरो जह ।। २ ।।
समाचार साथके अनाथ-नाथ! कास कह ,
नाथ ही के हाथ सब चोरऊ पह ।
नज काज, सुरकाज, आरतके काज, राज!
बू झये बलंब कहा क ँ न गह ।। ३ ।।
री त सु न रावरी ती त- ी त रावरे स ,
डरत ह दे ख क लकालको कह ।
कहेही बनैगी कै कहाये, ब ल जाउँ, राम,
‘तुलसी! तू मेरो, हा र हये न हह ’ ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! य द मुझे कह कोई सरा वामी या (आ यके लये) थान मल
जाता, तो म बार-बार आपको पुकारकर अ स न करता। हे महाराज रामच जी! मुझ-
सरीखे आल सय और अभाग को तो आपने ही पाला-पोसा है। अतएव हे कृपालो! आप ही
मेरे राजा ह और अयो या ही मेरे (रहनेके) लये शहर है ।। १ ।। न तो मने द पाल, सूय,
गणेश और पावतीहीक ेमपूवक सेवा क है और न ( ास हत) ा, शव और व णुक
ही उपासना क है। मेरा तो योग- ेम एक राम-नामसे ही है। (राम-नामसे ही मुझे तो
अ ा तक ा त और ा त साधनक र ा ई है) उसीसे मेरा नेम है, उसीसे ेम है और
उसीम अन यता है। उसका भरोसा मेरे लये अमृतके समान है और सरे सब साधन वषके
समान ह ।। २ ।। हे अनाथ के नाथ! मेरे साथी चोर और चौक दार सब आपहीके हाथम ह,
इससे उनक बात और कससे क ँ। (आप काम, ोध, लोभ, मोह आ द चोर को भगाकर
ववेक-वैरा य पी चौक दार को सचेत कर दगे तो मेरा राम-नाम- ेम पी धन बच जायगा।)
हे महाराज! जरा वचा रये, आपने अपने काम म, दे वता के काम म और द न- ः खय के
काम म या कभी दे र क है? फर मेरे ही लये य इतना वल ब हो रहा है? ।। ३ ।।
आपक री त (प तत-पावनता, शरणागत-व सलता आ द) सुनकर मुझे आपपर व ास और
ेम हो गया है, क तु क लयुगक अनी त दे खकर म डरता ँ ( क कह वह मुझे आपसे
वमुखकर वषय म न फँसा दे )। हे रघुनाथजी! म आपक बलैया लेता ;ँ मेरी तो आपके
इतना कहनेसे या कसीके ारा कहलानेसे ही बनेगी क ‘हे तुलसी! तू मेरा है, नराश होकर
दयम मत घबरा’ ।। ४ ।।
[२५१]
राम! रावरो सुभाउ, गुन सील म हमा भाउ,
जा यो हर, हनुमान, लखन, भरत ।
ज हके हये-सुथ राम- ेम-सुरत ,
लसत सरस सुख फूलत फरत ।। १ ।।
आप माने वामी कै सखा सुभाइ भाइ, प त,
ते सनेह-सावधान रहत डरत ।
सा हब-सेवक-री त, ी त-प र म त, नी त,
नेमको नबाह एक टे क न टरत ।। २ ।।
सुक-सनका द, हलाद-नारदा द कह,
रामक भग त बड़ी बर त- नरत ।
जाने बनु भग त न, जा नबो तहारे हाथ,
समु झ सयाने नाथ! पग न परत ।। ३ ।।
छ-मत बमत, न पुरान मत, एक मत,
ने त-ने त-ने त नत नगम करत ।
और नक कहा चली? एकै बात भलै भली,
राम-नाम लये तुलसी से तरत ।। ४ ।।
भावाथ—हे रामजी! आपके वभाव, गुण, शीलक म हमा और भावको ी शवजी,
हनूमान्जी, ल मणजी और भरतजीने ही (त वसे) जाना है, (इसीसे) उनके दय पी सु दर
थामलेम आपके ेमका क पवृ सुशो भत हो रहा है, जसम परम सुख पी सरस फूल-
फल फूलते और फलते ह। (जो भगवान्के गुण-शीलक म हमा जान लेता है, उसका दय
भगव ेमसे ही भर जाता है; और जस दयम भगव ेम भरा है, उसीम परमान द नवास
करता है) ।। १ ।। आप अपने वभावके वश होकर शवजीको वामी, हनूमान्जीको म
और ल मण तथा भरतको अपना भाई मानते ह और वे सब आपको अपना मा लक मानते
ह, ेमम सदा सावधान रहते ह और डरा करते ह ( क कह ेमक अन यता और वशु ताम
कमी न आ जाय)। य द वामी और सेवक दोन इस री तसे ेम करते रह और ( ेमके)
नी त- नयम को सदा नबाहते रह तो उनके ( ेमक ) टे क कभी टल नह सकती और वह
सीमाको प ँच जाती है ।। २ ।। शुकदे व, सनका द, ाद और नारद आ द भ गण कहते
ह क परम वर होनेसे ही ीरघुनाथजीक महान् (अन य वशु ) भ मलती है।
(भोग से परम वैरा य उसीको ा त होता है जो भगवान्को त वसे जान लेता है, अतएव
परमा माके) ान बना भ क ा त नह होती; क तु वह ान, हे नाथ! आपके हाथम है
( ान कसी साधनसे नह होता, यह तो भगव कृपासे ा त होता है), इसी बातको समझकर
चतुर लोग आपके चरण पर आकर गरते ह (सारे साधन को छोड़कर आपक शरणम आते
ह) ।। ३ ।। छः शा के मत भ - भ ह, पुराण का भी मत एक-सा नह है और वेद भी
न य ‘ने त-ने त’ करते रहते ह। फर और के स ब धम तो कहना ही या है? (इस अव थाम
आपक शरणाग तको छोड़कर आपको त वसे जाननेके लये और उपाय ही या है?)।
(इस लये) मुझे तो बस, एक ीराम-नामका आ य लेना, यही बात अ छ जान पड़ती है
और इसीसे क याण हो सकता है, य क इससे तुलसीदास-सरीखे भी (संसार सागरसे) तर
गये ह ।। ४ ।।
[२५२]
बाप! आपने करत मेरी घनी घ ट गई ।
लालची लबारक सुधा रये बारक, ब ल,
रावरी भलाई सबहीक भली भई ।। १ ।।
रोगबस तनु, कुमनोरथ म लन मनु,
पर-अपबाद म या-बाद बानी हई ।
साधनक ऐसी ब ध, साधन बना न स ध
बगरी बनावै कृपा न धक कृपा नई ।। २ ।।
प तत-पावन, हत आरत-अनाथ नको,
नराधारको अधार, द नबंधु, दई ।
इ हम न एकौ भयो, बू झ न जू यो न जयो,
ता हते ताप-तयो, लु नयत बई ।। ३ ।।
वाँग सूधो साधुको, कुचा ल क लत अ धक,
परलोक फ क म त, लोक-रंग-रई ।
बड़े कुसमाज राज! आजुल जो पाये दन,
महाराज! के भाँ त नाम-ओट लई ।। ४ ।।
राम! नामको ताप जा नयत नीके आप,
मोको ग त सरी न ब ध नरमई ।
खी झबे लायक करतब को ट को ट कटु ,
री झबे लायक तुलसीक नलजई ।। ५ ।।
भावाथ—हे मेरे बापजी! मने अपने ही हाथ अपनी करनी ब त ही बगाड़ डाली है,
आपक बलैया लेता ँ, इस लोभी और झूठेक बात एक बार तो सुधार द जये। य क
जस- जसके साथ आपने भलाई क , उसीक बात बन गयी (दया करके आज मेरी भी
बगड़ी बना द जये) ।। १ ।। शरीर रोगी है, मन बुरी-बुरी कामना से म लन हो रहा है और
वाणी सर क न दा करते और झूठ बोलते-बोलते न हो गयी है; ( जस तन-मन-वचनसे
साधन होते ह, वे तीन ही साधनके यो य नह रहे, पर तु) साधन का यह नयम है क बना
साधे वे स नह होते। इससे (अब तो) हे कृपा नधे! आपक एक कृपा ही ऐसी अनूठ है,
जो मेरी बगड़ी बातको बना दे गी। (आपक कृपासे ही मुझ साधनहीनका सुधार हो सकता
है) ।। २ ।। आप पा पय को प व करनेवाले, ः खय और अनाथ के हतू, नराधार के
आधार, द न के ब धु और ( वाभा वक ही) दयालु ह। क तु, म तो इनमसे एक भी नह ँ
(अहंकारके मारे मने अपनेको कभी प तत, ःखी, द न, अनाथ और नराधार माना ही नह ।
तब फर आप इनके नाते मुझपर य कृपा करगे?)। न तो मने ववेकसे अपने श ु (काम,
ोध, लोभ, मोह)-के ही साथ यु कया और न उनपर वजय ही ा त क । इसीसे म
दै हक, भौ तक, और दै वक इन तीन ताप से जल रहा ँ; जैसा बोया वैसा ही काट रहा ँ
( कसे दोष ँ ?) ।। ३ ।। मेरा वाँग तो सीधे-सादे साधुका-सा है, पर पाप करनेम म
क लयुगसे भी बढ़ा आ ।ँ मेरी बु को परलोकक (भगव स ब धी) बात फ क लगती ह
और वह संसारके रंगम रँगी ई है (वह केवल वषय-भोग के पाने-न-पानेक उलझनम फँसी
रहती है)। हे महाराज! इस बड़े भारी -समाजके साथ आजतक जतने दन बीते सो तो
थ चले ही गये, अब कसी-न- कसी तरह आपके नामका सहारा लया है ।। ४ ।। हे
ीरामजी! आप भलीभाँ त जानते ह क आपके नामका कैसा ताप है! (न मालूम मुझ-
सरीखे कतने नामके तापसे तर चुके ह)। मेरे लये तो सवा आपके नामके वधाताने सरी
ग त ही नह रची है। आपको अस तु करनेके लायक मेरे करोड़ कुकम ह, क तु स तु
करनेके लायक तो मेरी एक नल जता ही है। (मेरी नल जतापर ही स होकर कृपा
क जये) ।। ५ ।।
[२५३]
राम! रा खये सरन, रा ख आये सब दन ।
ब दत लोक त ँ काल न दयालु जो,
आरत- नत-पाल को है भु बन ।। १ ।।
लाले पाले, पोषे तोषे आलसी-अभागी-अघी,
नाथ! पै अनाथ नस भये न उ रन ।
वामी समरथ ऐसो, ह तहारो जैसो-तैसो
काल-चाल हे र हो त हये घनी घन ।। २ ।।
खी झ-री झ, बहँ स-अनख, य ँ एक बार
‘तुलसी तू मेरो’, ब ल, क हयत कन?
जा ह सूल नरमूल, हो ह सुख अनुकूल,
महाराज राम! रावरी स , ते ह छन ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! मुझे अपने ही शरणम र खये, य क (मुझ-सरीख को) सदासे
आप ही अपनाते आये ह। यह सभी जानते ह क तीन लोक और तीन काल म आपके
समान दयालु सरा कोई नह है। हे नाथ! आत शरणागत क र ा करनेवाला आपके सवा
सरा कौन है? ।। १ ।। आपने ही आलसी, अभागे और पापी लोग का लालन-पालन कया,
उ ह पाला-पोसा और स रखा; तसपर भी हे नाथ! आप उनसे कभी उऋण नह ए। हे
वामी! आप तो समथ ह; पर म (भला-बुरा) जैसा कुछ ँ, आपहीका ।ँ क लकालक चाल
दे खकर मेरे दयम बड़ी घन हो रही है (यह शंका है क कह यह आपके चरण क
ओरसे मेरे मनको फेर न दे ।) ।। २ ।। ब लहारी! एक बार नाराजीसे अथवा राजीसे,
मुसकराकर या अनखाकर कसी भी तरह इतना य नह कह दे ते क ‘तुलसी! तू मेरा है’
इतना कह दे नेमा से ही, हे महाराज रामच जी! म आपक शपथ खाकर कहता ँ, उसी
ण मेरा सारा ःख जड़से न हो जायगा और सम त सुख मेरे अनुकूल हो जायँगे ।। ३ ।।
[२५४]
राम! रावरो नाम मेरो मातु- पतु है ।
सुजन-सनेही, गु -सा हब, सखा-सु द्,
राम-नाम ेम-पन अ बचल बतु है ।। १ ।।
सतको ट च रत अपार द ध न ध म थ
लयो का ढ़ वामदे व नाम-घृतु है ।
नामको भरोसो-बल चा र फलको फल,
सु म रये छा ड़ छल, भलो कृतु है ।। २ ।।
वारथ-साधक, परमारथ-दायक नाम,
राम-नाम सा रखो न और हतु है ।
तुलसी सुभाव कही, साँ चये परैगी सही,
सीतानाथ-नाम नत चत को चतु है ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आपका नाम ही मेरा माता- पता, वजन-स ब धी, ेमी, गु ,
वामी, म और अहैतुक हतकारी है। और आपके नामसे जो मेरा अन य ेम है, वही मेरा
अटल धन है ।। १ ।। शवजीने सौ करोड़ च र पी अगाध द ध-सागरको मथकर उससे
राम-नाम पी घी नकाला है। आपके नामका बल-भरोसा अथ, धम, काम और मो चार
फल का (चरम) फल है। कपटभाव छोड़कर इसीका मरण करना चा हये। यही सव म
य * है ।। २ ।। आपका नाम सभी सांसा रक वाथ का साधनेवाला एवं परमाथ (मो )-का
दान करनेवाला है। ीरामनामके समान हत करनेवाला और कोई भी नह है। यह बात
तुलसीने वभावसे ही कही है, अतएव सचमुच ही इसपर सही पड़ेगी। जानक रमण
ीरामका नाम च का भी चत् है ।। ३ ।।
[२५५]
राम! रावरो नाम साधु-सुरत है ।
सु मरे बध घाम† हरत, पूरत काम,
सकल सुकृत सर सजको स है ।। १ ।।
लाभ को लाभ, सुख को सुख, सरबस,
प तत-पावन, डर को ड है ।
नीचे को ऊँचे को, रंक को राव को
सुलभ, सुखद आपनो-सो घ है ।। २ ।।
बेद , पुरान , पुरा र पुका र क ो,
नाम- ेम चा रफल को फ है ।
ऐसे राम-नाम स न ी त, न ती त मन,
मेरे जान, जा नबो सोई नर ख है ।। ३ ।।
नाम-सो न मातु- पतु, मीत- हत, बंधु-गु ,
सा हब सुधी सुसील सुधाक है ।
नामस नबाह ने , द नको दयालु! हे ,
दासतुलसीको, ब ल, बड़ो ब है ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! साधु के लये तो आपका नाम क पवृ है। य क मरण
करते ही वह तीन (दै हक, भौ तक और दै वक) ताप को हर लेता है और सारी कामनाएँ
पूण कर दे ता है, मनु यको पूणकाम बना दे ता है। (वह आपका नाम) सम त पु य पी
कमल का सरोवर है (राम-नामका आ य लेनेवालेको सभी पु य का फल मल जाता
है) ।। १ ।। वह लाभका भी लाभ, सुखका भी सुख है और (भ का) सव व है। (उससे
बढ़कर संत का कोई लाभ, सुख या धन नह है) वह प तत को पावन करनेवाला और
(सबको डरानेवाले यम त पी महा) भयको भी भयभीत करनेवाला है। वह नीच-ऊँच और
राव-रंक, सभीके लये सुलभ है (सभी उसका जप कर सकते ह)। सभीको सुख दे नेवाला है
और अपने नजी घरके समान आराम दे नेवाला है ।। २ ।। वेद ने, पुराण ने और शवजीने भी
पुकार-पुकारकर कहा है क राम-नामम ेम होना ही चार (अथ, धम, काम और मो )
फल का फल है। ऐसे ीराम-नामपर जसके मनम ेम और व ास नह है, मेरी समझम
उस मनु यको गधा समझना चा हये (वह गधेके समान जीवनम मनु य वके अहंकारका भार
ही ढोता है) ।। ३ ।। पता-माता, म - हतू, भाई, गु और मा लक इनमसे कोई भी ीराम-
नामके समान नह है। वह परम सुशील सुधाकर (च मा)-के समान बु मान् वामी है।
(शरण लेते ही सम त ताप हर लेता है और मो प अमृत पान कराकर सदाके लये सुखी
कर दे ता है)। हे दयालु! म बलैया लेता ँ, इस तुलसीदासको वही महान् बल द जये, जससे
आपके नामके साथ इस द नका ेम सदा नभ जाय ।। ४ ।।
[२५६]
कहे बनु र ो न परत, कहे राम! रस न रहत ।
तुमसे सुसा हबक ओट जन खोटो-खरो
कालक , करमक कुसाँस त सहत ।। १ ।।
करत बचार सार पैयत न क ँ कछु ,
सकल बड़ाई सब कहाँ ते लहत?
नाथक म हमा सु न, समु झ आपनी ओर,
हे र हा र कै हह र दय दहत ।। २ ।।
सखा न, सुसेवक न, सु तय न, भु आप,
माय-बाप तुही साँचो तुलसी कहत ।
मेरी तौ थोरी है, सुधरैगी बग रयौ, ब ल,
राम! रावरी स , रही रावरी चहत ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! कहे बना तो रहा नह जाता और कह दे नेपर कुछ रस (मजा)
नह रह जाता। (बात यह है क) आप-सरीखे े वामीका आ य पाकर भी म आपका
बुरा या भला सेवक काल और कमके कारण अस ःख भोग रहा ँ ।। १ ।। ( ाध- नषाद
आ दके बड़ पनपर) वचार करता ,ँ पर कह कुछ भी रह य नह मलता क इन सब
लोग ने कहाँसे बड़ पन ा त कया? (सुना जाता है, आपने ही इनको द न जानकर अपना
लया, जससे ये सब महान् पू य हो गये) आपक (ऐसी) म हमा सुन-समझकर जब अपनी
दशाक ओर दे खता ँ तो नराश हो जाता ँ और घबराहटसे दय जलने लगता है (द न
और प तत को तारनेवाले होकर भी मुझ शरणागत द नको अबतक य नह अपनाया? यही
सोचकर दयम जलन होने लगती है और इसीसे मनमानी बात कह बैठता ँ) ।। २ ।। (और
क ँ भी कससे, य क) न तो मेरा कोई म है, न स चा सेवक है, न सुल णा ी है और
न कोई नाथ है। मेरे तो माँ-बाप आप ही ह, तुलसी यह स ची बात कह रहा है। मेरी तो थोड़ी-
सी बात है, बगड़ी होनेपर भी सुधर जायगी; क तु, ब लहारी! म आपक शपथ खाकर कह
रहा ँ म तो आपक बात ही रखना चाहता ँ (कह आपका प ततपावन और
शरणागतव सल बाना न लज जाय) ।। ३ ।।
[२५७]
द नबंधु! र कये द नको न सरी सरन ।
आपको भले ह सब, आपनेको कोऊ क ,ँ
सबको भलो है राम! रावरो चरन ।। १ ।।
पाहन, पसु, पतंग, कोल, भील, न सचर
काँच ते कृपा नधान कये सुबरन ।
दं डक-पु म पाय पर स पुनीत भई,
उकठे बटप लागे फूलन-फरन ।। २ ।।
प तत-पावन नाम बाम दा हनो, दे व!
नी न सह- ख- षन-दरन ।
सील सधु! तोस ऊँची-नी चयौ कहत सोभा,
तोसो तुही तुलसीको आर त-हरन ।। ३ ।।
भावाथ—हे द नब धो! य द आपने इस द नको (अपनी शरणसे) हटा दया तो फर इसे
और कह शरण न मलेगी। य क अपनी भलाई चाहनेवाले तो ायः सभी ह, क तु अपने
दास का भला करनेवाला कोई वरला ही है। हे ीरामजी! सबका भला करनेवाले तो आपके
चरण ही ह, (आपके चरण के आ यसे भले-बुरे सभीका क याण होता है) ।। १ ।। प थरक
शला (अह या), पशु (बंदर, रीछ), प ी (जटायु), कोल-भील, रा स ( वभीषण) आ दको
हे कृपा नधान! आपने काँचसे सोना बना दया ( वषयी थे जनको मु कर दया)।
द डकवनक भू म आपके चरण का पश होते ही प व हो गयी और उखड़े ए सूखे पेड़
फर फूलने-फलने लगे ।। २ ।। आपका प तत-पावन नाम जो आपसे वमुख ह उनका भी
क याण करता है (श ुभावसे भजनेवाले भी तर जाते ह)। हे दे व! संसारम अस ःख और
पाप का नाश करनेवाला आपको छोड़कर सरा कोई नह है। आप शीलके समु ह, अतएव
आपसे नीची-ऊँची बात कहनेम भी शोभा ही है (अ धक या क )ँ । तुलसीके ःख र
करनेवाले तो बस आप-सरीखे एक आप ही ह (इसीसे शरण पड़ा ँ) ।। ३ ।।
[२५८]
जा न प हचा न म बसारे ह कृपा नधान!
एतो मान ढ ठ ह उल ट दे त खो र ह ।
करत जतन जास जो रबे को जोगीजन,
तास य जुरी, सो अभागो बैठो तो र ह ।। १ ।।
मोसो दोस-कोसको भुवन-कोस सरो न,
आपनी समु झ सू झ आयो टकटो र ह ।
गाड़ीके वानक ना , माया मोहक बड़ाई
छन ह तजत, छन भजत बहो र ह ।। २ ।।
बड़ो सा - ोही न बराबरी मेरीको कोऊ,
नाथक सपथ कये कहत करो र ह ।
र क जै ारत लबार लालची पंची,
सुधा-सो स लल सूकरी य गहडो रह ।। ३ ।।
रा खये नीके सुधा र, नीचको डा रये मा र,
ँ ओरक बचा र, अब न नहो रह ।
तुलसी कही है साँची रेख बार बार खाँची,
ढ ल कये नाम-म हमाक नाव बो रह ।। ४ ।।
भावाथ—हे कृपा नधान! मने जान-पहचानकर भी आपको भुला दया है और घमंडके
मारे इतना ढ ठ हो गया ँ क उलटा आपहीपर दोष मढ़ता ँ ( क आप शील स धु होकर भी
मुझे अपनाते नह ह)। जससे ी त जोड़नेके लये बड़े-बड़े योगी य न कया करते ह, उससे
य - य करके कुछ ी त जुड़ गयी थी, पर म अभागा उसे भी तोड़ बैठा ।। १ ।। मुझ-
सरीखा पाप का खजाना चौदह लोक म सरा नह है, अपनी समझम म खूब ढूँ ढ़ चुका ँ।
जैसे गाड़ीके पीछे लगा आ कु ा कभी तो गाड़ीको छोड़कर इधर-उधर भाग जाता है और
कभी फर उसके साथ हो लेता है, वैसे ही म णभरम तो माया-मोहके बड़ पनको छोड़
बैठता ँ और सरे ही ण फर उसीम रम जाता ँ ।। २ ।। म आपक करोड़ शपथ खाकर
कह रहा ँ क वामीके साथ ोह करनेवाला मेरी बराबरीका सरा कोई भी नह है। इस लये
मुझ झूठे, लालची और ठगको दरवाजेसे हटा द जये, नह तो म अमृत-सरीखा जल
शूकरीक तरह गँदला कर डालूँगा (आपका भ कहाकर बुरे कम क ँ गा तो आपके नमल
यशम कलंक लग जायगा) ।। ३ ।। (अतएव) या तो मुझे अ छ तरह सुधारकर (अपनी
शरणम) रख ली जये, नह तो मुझ नीचको मार ही डा लये। बस, अब आप ही इन दोन
बात पर वचार कर ली जये, अब म आपका नहोरा न क ँ गा। तुलसीने बार-बार लक र
ख चकर स ची बात कह द है। य द आप भी दे री करगे, तो म आपके नामक म हमा पी
नौकाको डु बा ँ गा। (मेरी दशा दे खकर लोग आपके नामका व ास छोड़ दगे) ।। ४ ।।
[२५९]
रावरी सुधारी जो बगारी बगरैगी मेरी,
कह , ब ल, बेदक न, लोक कहा कहैगो?
भुको उदास-भाउ, जनको पाप- भाउ,
ँ भाँ त द नब धु! द न ख दहैगो ।। १ ।।
म तो दयो छाती प ब, लयो क लकाल द ब,
साँस त सहत, परबस को न सहैगो?
बाँक ब दावली बनैगी पाले ही कृपालु!
अंत मेरो हाल हे र य न मन रहैगो ।। २ ।।
करमी-धरमी, साधु-सेवक, बरत-रत,
आपनी भलाई थल कहाँ कौन लहैगो?
तेरे मुँह फेरे मोसे कायर-कपूत-कूर,
लटे लटपटे न को कौन प रगहैगो? ।। ३ ।।
काल पाय फरत दसा दयालु! सबहीक ,
तो ह बनु मो ह कब ँ न कोऊ चहैगो ।
बचन-करम- हये कह राम! स ह कये,
तुलसी पै नाथके नबाहेई नबहैगो ।। ४ ।।
भावाथ—य द आपक सुधारी ई मेरी बात मेरे बगाड़नेसे बगड़ जायगी तो, म
तु हारी बलैया लेता ,ँ फर वेदक तो जाने द जये, संसार या कहेगा? (वेदम कुछ भी
लखा हो, संसार तो यही कहेगा क तुलसी ही ई र है, य क उसने रामजीक बनायी
बातको बगाड़ दया।) भुक उदासीनता और मुझ दासके पाप का भाव, य द ये दोन
मल गये तो हे द नब धो! यह द न ःखके मारे जल मरेगा। (म तो महापापी ँ ही पर आप
भी उदासीन हो जायँगे मेरी बड़ी ही बुरी ग त होगी) ।। १ ।। मने तो अपनी छातीपर व रख
लया है ( ःख सहनेके लये तैयार ,ँ पर तु पाप नह छोड़ता) य क क लयुगने मुझे दबा
रखा है। इसीसे क सह रहा ।ँ (म ही य ) जो भी परत होगा, उसे क सहने ही पड़गे।
क तु हे कृपालु! आपको तो अपनी बाँक वरदावलीके वश होकर मेरी र ा करनी ही
पड़ेगी। (अभी न सही,) अ त समय तो मेरा (बुरा) हाल दे खकर आपका यह उदासीन भाव
रह नह सकता (दयालु वभावसे मेरा ःख दे खा ही नह जायगा, तब दौड़कर बचाना
होगा) ।। २ ।। कमका डी, धमा मा, साधु, सेवक, वर और वषयी जीव ये सब तो अपने-
अपने भले कम के अनुसार कह कोई-सा थान पा ही जायँगे, पर तु आपके मुँह फेर लेनेसे
(उदासीन हो जानेस)े मुझ-सरीखे कायर, कुपूत, ू र, साधनहीन और प तत जीव को कौन
आ य दे गा (कोई भी नह ) ।। ३ ।। हे दयालो! काल पाकर सभीक दशा पलटती है, सभीके
दन फरते ह, पर तु आपको छोड़कर मुझे तो कभी कोई नह चाहेगा (आपके आ यको
छोड़कर मुझे कह कोई थान नह मलनेका)। हे ीरामजी! आपक शपथ खाकर वचन,
कम और मनसे कहता ँ क यह तुलसी तो नाथके ही नबाहे नभेगा ।। ४ ।।
[२६०]
सा हब उदास भये दास खास खीस होत
मेरी कहा चली? ह बजाय जाय र ो ह ।
लोकम न ठाउँ, परलोकको भरोसो कौन?
ह तो, ब ल जाउँ, रामनाम ही ते ल ो ह ।। १ ।।
करम, सुभाउ, काल, काम, कोह, लोभ, मोह-
ाह अ त गह न गरीबी गाढ़े ग ो ह ।
छो रबेको महाराज, बाँ धबेको को ट भट,
पा ह भु! पा ह, त ँ ताप-पाप द ो ह ।। २ ।।
री झ-बू झ सबक ती त- ी त एही ार,
धको जरयो पयत फूँ क फूँ क म ो ह ।
रटत-रटत ल ो, जा त-पाँ त-भाँ त घ ो,
जूठ नको लालची चह न ध-न ो ह ।। ३ ।।
अनत च ो न भलो, सुपथ सुचाल च यो
नीके जय जा न इहाँ भलो अनच ो ह ।
तुलसी समु झ समुझायो मन बार बार,
अपनो सो नाथ स क ह नरब ो ह ।। ४ ।।
भावाथ—जब मा लक उदासीन हो जाता है तब खास नौकर भी बरबाद हो जाता है,
फर मेरी तो बात ही या है? म तो डंकेक चोट ःख म बहा चला जा रहा ँ। जब मेरे लये
इस लोकम ही कह ठौर नह है, तब परलोकका या भरोसा क ँ ? हे ीरामजी! म आपक
बलैया लेता ँ, म तो एक आपके नामहीके हाथ बक चुका ँ (मेरा लोक-परलोक तो उसीसे
बनेगा) ।। १ ।। कम, वभाव, काल, काम, ोध, लोभ और मोह पी बड़े-बड़े ाह ने और
(साधनहीनता पी) घोर द र ताने मुझको बड़े जोरसे पकड़ रखा है। हे महाराज! बाँधनेके
लये करोड़ यो ा ह, पर तु ब धनसे छु ड़ानेके लये तो केवल एक आप ही ह। अतएव हे
भो! मेरी र ा क जये, र ा क जये। म पाप पी तीन ताप से जल रहा ँ (अपनी
कृपा क सुधावृ से इन ताप को शा त क जये) ।। २ ।। हे भो! ( सरे कसके पास
जाऊँ?) सबक रीझ-बूझ और ी त- व ास एक आपके ही ारपर है। (आपके ही दये ए
अ धकारसे दे वतागण आपके ही खजानेसे अपने सेवक को कुछ दया करते ह, पर तु वे
मु नह दे सकते। उन सबक पूजा भी आपक ही पूजा होती है, य क सबके मूल आप
ही ह।) म तो धका जला म ा भी फूँक-फूँककर पीता ।ँ भाव यह क आपको छोड़कर
सर को भजनेसे कभी परमसुख और द शा त नह मली, इस लये ब त सावधान
होकर चलता ँ। सुखके लये दे वता को पुकारते-पुकारते हार गया और जा त-पाँ त तथा
चाल-चलन सभीसे हाथ धो बैठा। इस लये अब म केवल आपके जूठनका ही लालची ँ। म
धसे नह नहाना चाहता। भाव, मुझे वगके ऐ यक इ छा नह है, म तो केवल आपके
चरण म पड़े रहना चाहता ँ ।। ३ ।। म और कह ( सर क शरण लेकर) सुखमागपर अ छ
चाल चलकर अपना क याण नह चाहता ँ और यहाँ (आपके शरणम) म आदर न पाकर
भी अ छ तरह ।ँ (आपके अनोखे वरदके भरोसे नभय और न त पड़ा )ँ । तुलसीने
समझकर अपने मनको बार-बार समझा दया है और वह अपने नाथसे भी कहकर न त
हो गया है क उसका नवाह आपके ही हाथम है ।। ४ ।।
[२६१]
मेरी न बनै बनाये मेरे को ट कलप ल
राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ म ।
नपट सयाने हौ कृपा नधान! कहा कह ?
लये बेर बद ल अमोल म न आउ म ।। १ ।।
मानस मलीन, करतब क लमल पीन
जीह न ज यो नाम, ब यो आउ-बाउ म ।
कुपथ कुचाल च यो, भयो न भू ल भलो,
बाल-दसा न खे यो खेलत सुदाउ म ।। २ ।।
दे खा-दे खी दं भ त क संग त भई भलाई,
क ट जनाई, कयो रत- राउ म ।

राग रोष पोषे, गोगन समेत मन


इनक भग त क ही इनही को भाउ म ।। ३ ।।
आ गली-पा छली, अब ँक अनुमान ही त
बू झयत ग त, कछु क ह तो न काउ म ।
जग कहै रामक ती त- ी त तुलसी ,
झूठे-साँचे आसरो साहब रघुराउ म ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! मेरी सद्ग त मेरे बनाये (साधन के ारा) तो करोड़ क पतक
भी न होगी; पर तु आप करना चाह तो पाव पलम ही हो सकती है। हे कृपा नधान! म या
क ँ, आप तो वयं परम चतुर ह; मने अनमोल म णके समान आयुके बदलेम ( वषय प)
बेर ले लये। ( जस मनु य-जीवनको आपक ा तम लगाना चा हये था उसे वषय म
लगाकर थ खो दया) ।। १ ।। ( जससे मेरा) मन म लन हो गया तथा क लयुगके कारण
(कु) कम और भी पु हो गये, न य नये पाप बढ़ते गये। जीभसे भी आपका नाम नह जपा,
सदा आयँ-बायँ ही बकता रहा। बुरे-बुरे माग पर कुचाल ही चलता रहा। भूलकर भी मुझसे
कभी कसीका भला नह आ। अरे! बचपनम खेलते समय भी कभी अ छा दाँव हाथ नह
लगा (भगवत्स ब धी खेल नह खेला) ।। २ ।। हाँ, कसीक दे खा-दे खी (भ का वाँग
दखलानेके लये) द भसे या स संगके भावसे कभी कोई अ छा काम बन गया तो उसे
ढढोरा पीटता आ कहता फरा, और (मनसे चाह-चाहकर) जो पाप कये उ ह छपाता
रहा। राग, े ष और ोधको तथा इ य समेत मनको सदा पालता-पोषता रहा। सदा राग,
े ष और ोधके तथा मन-इ य के ही वशम रहा। इ ह क भ क और इ ह से ेम
कया ।। ३ ।। मने अपनी बीती ई, वतमान तथा भ व यक दशाका अनुमान करके यह
समझ लया है क मने कभी कोई भला काम नह कया। क तु संसार कह रहा है क
—‘तुलसी रामजीका है’ और मुझे भी आपपर व ास और ेम है। अब चाहे झूठ हो या
सच, हे वामी ीरघुनाथजी! म तो आपके ही आसरे पड़ा ँ ।। ४ ।।
[२६२]
क ो न परत, बनु कहे न र ो परत,
बड़ो सुख कहत बड़े स , ब ल, द नता ।
भुक बड़ाई बड़ी, आपनी छोटाई छोट ,
भुक पुनीतता, आपनी पाप-पीनता ।। १ ।।
ओर समु झ सकु च सहमत मन,
सनमुख होत सु न वामी-समीचीनता ।
नाथ-गुनगाथ गाये, हाथ जो र माथ नाये,
नीचऊ नवाजे ी त-री तक बीनता ।। २ ।।
एही दरबार है गरब त सरब-हा न,
लाभ जोग-छे मको गरीबी- मसक नता ।
मोटो दसकंध सो न बरो बभीषण सो,
बू झ परी रावरेक ेम-पराधीनता ।। ३ ।।
यहाँक सयानप, अयानप सहस सम,
सूधौ सतभाय कहे मट त मलीनता ।
गीध- सला-सबरीक सु ध सब दन कये
होइगी न सा स सनेह- हत-हीनता ।। ४ ।।
सकल कामना दे त नाम तेरो कामत ,
सु मरत होत क लमल-छल-छ नता ।
क ना नधान! बरदान तुलसी चहत,
सीताप त-भ -सुरस र-नीर-मीनता ।। ५ ।।
भावाथ—हे नाथ! कुछ कहा भी नह जाता और कहे बना रहा भी नह जाता। आपक
बलैया लेता ँ (य प) बड़ के सामने अपनी गरीबी सुनानेम ब त सुख मलता है। (तथा प
कहाँ तो) भुका महान् बड़ पन और कहाँ मेरी छोट -सी ु ता; कहाँ तो भुक प व ता
और कहाँ मेरे पाप क अ धकता ।। १ ।। इन दोन ओरक बात पर वचार करके मन
संकोचके मारे सहम जाता है (कुछ कहनेक ह मत नह होती, पैर पीछे पड़ने लगते ह),
पर तु वामीक सु दर साधुता (शरणागत कैसा भी द न-हीन-म लन हो, आप उसको
आदरके साथ अपना ही लेते ह)-को सुनकर यह मन फर स मुख जाता है। हे नाथ! आपके
गुण क गाथा को गानेसे और हाथ जोड़कर म तक नवानेसे आपने नीच को भी नहाल
कर दया है (यह आपके ेमक री तक चतुरता है) ।। २ ।। इस दरबारम गवसे सवनाश हो
जाता है और गरीबी एवं न तासे ही योग ेमक ा त होती है। रावण-सरीखा तो कोई
तापी नह था, और वभीषणके समान कोई द न- बल नह था। पर तु इस संगम आपक
ेमक पराधीनता ही ( प ) समझम आती है। (शरणागत द न वभीषणको लंकाका रा य
और अपनी अन य भ का दान कर दया तथा रावणका सवनाश कर डाला) ।। ३ ।। यहाँ,
अथात् आपके दरबारम क ई चतुरता हजार मूखताके समान है। यहाँ तो सीधे-सादे स चे
भावसे अपना दोष वीकार कर लेनेसे ही सारी म लनता मट जाती है। य द तू त दन
जटायु, अह या और शबरीक ( थ तको) याद कये रहेगा तो वामीके त तेरा ेम कभी
कम नह होगा। (वे बेचारे सरल, अहंकारहीन शरणागत थे, इससे नाथने उ ह सहज ही
अपनाकर कृताथ कर दया) ।। ४ ।। आपका नाम क पवृ क भाँ त सम त कामना को
पूण कर दे ता है। नामका मरण करते ही क लयुगके पाप और कपट ीण हो जाते ह?। हे
क णा नधान! तुलसी यही वरदान चाहता है क वह सीताप त ीरामजीक भ पी
गंगाजीके जलम सदा मछलीक तरह डू बा रहे ।। ५ ।।
[२६३]
नाथ नीके कै जा नबी ठ क जन-जीयक ।
रावरो भरोसो नाह कै सु- ेम-नेम लयो
चर रह न च म त ग त तीयक ।। १ ।।
कुकृत-सुकृत बस सब ही स संग परयो,
परखी पराई ग त, आपने ँ क यक ।
मेरे भलेको गोसा ! पोचको, न सोच-संक
ह ँ कये कह स ह साँची सीय-पीयक ।। २ ।।
यान - गराके वामी, बाहर-अंतरजामी,
यहाँ य रैगी बात मुखक औ हीयक ?
तुलसी तहारो, तुमह पै तुलसीके हत,
रा ख कह ह तो जो पै ह माखी घीयक ।। ३ ।।
भावाथ—हे नाथ! इस अपने दासके मनक बात आप ठ क-ठ क समझ ली जये। मेरी
बु पी सु दर (प त ता) ीने आपके भरोसेको अपना वामी मानकर उसीके साथ
वशु ेम करनेका नयम लया है और सु दर आचरण म उसक च है ।। १ ।। पाप और
पु यके वश होनेके कारण मुझे सभीके साथ रहना पड़ा, इसम म अपनी और परायी
दोन हीक चाल को परख चुका ँ। हे नाथ! मुझे अपनी भलाई या बुराईक न तो कोई च ता
है, न डर है। (आपके शरण होनेपर भी य द भले-बुरेक च ता लगी रही या भय बना रहा तो
वह शरणाग त ही कैसी? वामीके शरण होते ही म न त और नभय हो गया ँ।) यह म
ीसीतानाथजीक शपथ खाकर सच-सच कह रहा ँ ।। २ ।। (बनावट बात क ँगा तो वह
चलेगी ही नह , य क) आप ान और वाणीके वामी ह। बाहर और भीतर दोन क बात
जाननेवाले ह। आपके सामने मुँहक और दयक बात कैसे छप सकती है? तुलसी आपका
है और आप तुलसीका हत करनेवाले ह। इसम म य द (कुछ भी कपट) रखकर कहता होऊँ
तो म घीक म खी हो जाऊँ। भाव, जैसे म खी घीम गरकर तुरंत मर जाती है, उसी कार
मेरा भी सवनाश हो जाय ।। ३ ।।
[२६४]
मेरो क ो सु न पु न भावै तो ह क र सो ।
चा र बलोचन बलोकु तू तलोक महँ
तेरो त काल क को है हतू ह र-सो ।। १ ।।
नये-नये नेह अनुभये दे ह-गेह ब स,
परखे पंची ेम, परत उघ र सो ।
सु द-समाज दगाबा जहीको सौदा-सूत,
जब जाको काज तब मलै पाँय प र सो ।। २ ।।
बबुध सयाने, प हचाने कैध नाह नीके,
दे त एक गुन, लेत को ट गुन भ र सो ।
करम-धरम म-फल रघुबर बनु,
राखको सो होम है, ऊसर कैसो ब रसो ।। ३ ।।
आ द-अंत-बीच भलो भलो करै सबहीको
जाको जस लोक-बेद र ो है बग र-सो ।
सीताप त सा रखो न सा हब सील- नधान,
कैसे कल परै सठ! बैठो सो बस र-सो ।। ४ ।।
जीवको जीवन- ान, ानको परम हत
ीतम, पुनीतकृत नीचन नद र सो ।
तुलसी! तोको कृपालु जो कयो कोसलपालु,
च कूटको च र चेतु चत क र सो ।। ५ ।।
भावाथ—अरे मन! एक बार तू मेरी बात सुन ले। फर तुझे जो अ छा लगे सो करना।
तू अपने चार ने (दो बाहरके और मन-बु प दो भीतरके)-से दे खकर बता क तीन
लोक और तीन काल म भगवान्के समान तेरा हत करनेवाला कह कोई है? ।। १ ।।
शरीर पी घरम रहकर तूने (अनेक यो नय म) नये-नये (स ब धय के) ेमका अनुभव कया
और उनके कपटभरे ेमको भी परख लया। अ तम सबके ेमका भेद खुल गया। (जगत्के
इस वषय-ज नत स ब धी) म का समाज या है! यह दगाबाजीका सौदासूत (लेन-दे नका
वहार) है। जब जसका काम ( वाथ) होता है तब वह पैर पर गरने लगता है (पर तु काम
नकल जानेपर कोई बात भी नह पूछता।) ।। २ ।। दे वता भी बड़े चतुर ह, तूने उनको
भलीभाँ त पहचाना है या नह ? वे पहले करोड़गुना लेते ह तब कह एकगुना दे ते ह। अब रहे
कम-धम, सो वे भी ीरामके (आधार) बना केवल प र ममा ह। (जो भगवान्को
छोड़कर, ई रक परवा न कर केवल अपने स कम पर व ास करते ह उनके वे स कम
ठहर ही नह सकते) उनका करना तो राखम हवन करने या ऊसर जमीनपर पानी बरसनेके
समान ( न फल) है ।। ३ ।। जो आ दम, म यम और अ तम भले ह और सभीका सदा
क याण करते ह, तथा जनका यश लोक और वेदम सव फैल रहा है ऐसे ीसीतानाथ
रामच जीके समान शील नधान वामी सरा और कोई नह है। अरे ! तू उसे भूला-सा
बैठा है, फर तुझे कैसे कल पड़ रहा है ।। ४ ।। अरे! जो जीवका जीवन, ाण का परम हतू,
अ य त य और नीच को प व करनेवाला है, तू उसका नरादर कर रहा है। तुलसी!
कोशलप त कृपालु ीरामजीने तेरे लये च कूटम जो लीला रची थी, (घोड़ पर सवार दो
सु दर राजपूत वीर के वेषम सा ात् दशन दये थे) उसे च म मरण कर ।। ५ ।।
[२६५]
तन सु च, मन च, मुख कह ‘जन ह सय-पीको’ ।
के ह अभाग जा यो नह , जो न होइ नाथ स नातो-नेह न नीको ।। १ ।।
जल चाहत पावक लह , बष होत अमीको ।
क ल-कुचाल संत न कही सोइ सही, मो ह कछु फहम न तर न तमीको ।। २ ।।
जा न अंध अंजन कहै बन-बा घनी-घीको ।
सु न उपचार बकारको सु बचार कर जब, तब बु ध बल हरै हीको ।। ३ ।।
भु स कहत सकुचात ह , पर ज न फ र फ को ।
नकट बो ल, ब ल, बर जये, प रहरै याल अब तुल सदास जड़ जीको ।। ४ ।।
भावाथ—हे भो! म शरीरको प व रखता ,ँ मनम भी (आपके ेमके लये) च है
और मुँहसे भी कहता ँ क म ीसीतानाथजीका सेवक ँ; क तु समझम नह आता क
कस भा यके कारण नाथके साथ मेरा सव े स ब ध और ेम नह होता ।। १ ।। म पानी
चाहता ँ तो आग मलती है और इसी कार अमृतका जहर बन जाता है (शा तके बदले
अशा तक जलन मलती है और अमृत पी स कम, अ भमान पी वष पैदा कर दे ते ह)।
संत ने क लयुगक जो कु टल चाल कही ह वे सब ठ क ह। मुझे सूय और रा का कुछ भी
ान नह है। (अथात् म ान और अ ानको यथाथ पसे नह पहचान सकता) ।। २ ।।
क लयुग मुझे अ धा समझकर वनक सहनीके घीका अंजन लगानेको कहता है, जब म यह
वकार-भरा उपचार सुनकर उसपर वचार करता ँ क मुझे उसका घी कैसे मले?
(अ ान पी वनम वासना पी सहनी रहती है। वषय उसका घी है वह तो समीप जाते ही
खा जायगी। वषय म फँसे ए जीवको ान पी ने कैसे मल सकते ह?) तब वह मेरे
दयके बु -बलको हर लेता है ।। ३ ।। (बु -बलके न हो जानेसे मुझे क लयुगका
बताया आ उपचार यानी वषय-भोग अ छा लगता है और म उसीम लग जाता ँ। इसी
व नके कारण म आपके साथ सव े स ब ध और ेम नह कर पाता) आपसे कुछ कहना
है, पर उसे कहते संकोच हो रहा है क कह मेरी बात फर फ क न पड़ जाय (खाली न चली
जाय) इससे म आपक बलैया लेता ँ, (बात यह है क जरा अपने) पास बुलाकर इसे
(क लयुगको) रोक द जये, जससे यह तुलसी-सरीखे जड जीव का खयाल छोड़ दे ।। ४ ।।
[२६६]
य य नकट भयो चह कृपालु! य य र परयो ह ।
तुम च ँ जुग रस एक राम! ह ँ रावरो, जद प अघ अवगुन न भरयो ह ।। १ ।।
बीच पाइ ए ह नीच बीच ही छर न छरयो ह ।
ह सुबरन कुबरन कयो, नृपत भखा र क र, सुम तत कुम त करयो ह ।। २ ।।
अग नत ग र-कानन फरयो, बनु आ ग जरयो ह ।
च कूट गये ह ल ख क लक कुचा ल सब, अब अपडर न डरयो ह ।। ३ ।।
माथ नाइ नाथ स कह , हाथ जो र खरयो ह ।
ची ह चोर जय मा रहै तुलसी सो कथा सु न भुस गुद र नबरयो ह ।। ४ ।।
भावाथ—हे कृपा नधान! य - य म आपके नकट होना चाहता ँ, य -ही- य र
होता चला जाता ।ँ हे रामजी! आप चार युग म सदा एकरस ह और म भी आपका रहा
आया ,ँ य प म पाप और अवगुण से भरा ँ ।। १ ।। आपसे अलग रहनेका मौका पाकर
इस नीच क लयुगने मुझे बीचहीम छल से छल लया (अ ानसे ही इसको जीव व ा त हो
गया।) म सुवण था, पर इसने कुवण कर दया ( न य आन दघन पसे ःख त जीव पम
प रणत कर दया)। राजासे रंक बना डाला और ानीसे अ ानी कर डाला ।। २ ।। तबस म
(अनेक यो नय म) अग णत पहाड़ और जंगल म भटकता रहा और बना ही आगके
(अ ानज नत ःखदावानलसे) जलता रहा। पर तु जब म च कूट गया, (और वहाँ आपका
ेमपूवक भजन करने लगा) तब (आपक कृपासे) म इस क लक सारी कुचाल तो समझ
गया (तथा प) अब म अपने ही डरसे डर रहा ँ ।। ३ ।। म हाथ जोड़कर भुके सामने खड़ा
आ म तक नवाकर कह रहा ँ क पहचाना आ चोर फर जीवको ( ायः) मार ही डालता
है; (क लयुग पहचाना आ चोर है, वह दाँव दे ख रहा है) इस बातको सुनकर तुलसी अपने
वामीसे वनय करके न त हो चुका (अब आप वयं ही उ चत समझकर उपाय
क जये) ।। ४ ।।
[२६७]
पन क र ह ह ठ आजुत राम ार परयो ह ।
‘तू मेरो’ यह बन कहे उ ठह न जनमभ र, भुक स क र नरयो ह ।। १ ।।
दै दै ध का जमभट थके, टारे न टरयो ह ।
उदर सह साँस त सही ब बार जन म जग, नरक नद र नकरयो ह ।। २ ।।
ह मचला लै छा ड़ह , जे ह ला ग अरयो ह ।
तुम दयालु, ब नहै दये, ब ल, बलँब न क जये, जात गला न गरयो ह ।। ३ ।।
गट कहत जो सकु चये, अपराध-भरयो ह ।
तौ मनम अपनाइये, तुलसी ह कृपा क र, क ल बलो क हहरयो ह ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आजसे म स या ह करनेक त ा करके आपके ारपर पड़
गया ँ; जबतक आप यह न कहगे क ‘तू मेरा है’ तबतक म यहाँसे जीवनभर नह उठूँ गा,
यह म आपक शपथ खाकर कह चुका ँ ।। १ ।। (यह न सम झयेगा क पु लसके ध के
खाकर म उठ जाऊँगा) यम त मुझे ध के मार-मारकर थक गये, मुझे जबरद ती नरकके
ारसे हटाना चाहा, पर म वहाँसे उनके हटाये हटा ही नह (इतने अ धक पाप कये क
अनेक जीवन नरकम ही बीते)। संसारम बार-बार ज म लेकर (माताके) पेटक अस
पीड़ाको सहा, तब कह नरकका नरादर कर वहाँसे नकला ँ ।। २ ।। जस चीजके लये
मचल गया ँ और अड़ बैठा ँ उसे लेकर ही छोडँगा, य क आप दयालु ह, (मेरा अड़ना
दे खकर अ तम) आपको वह चीज दे नी ही पड़ेगी। म आपक बलैया लेता ँ (जब दे नी ही है,
तब तुरंत दे डा लये) दे र न क जये। य क म ला नके मारे गला जाता ।ँ (लोग कहगे क
ऐसे दयालु वामीके ारपर धरना दये इतने दन बीत गये, इस लये तुरंत इतना कह द जये
क ‘तुलसी मेरा है।’ बस, इतना सुनते ही म धरना याग ँ गा) ।। ३ ।। म अपराध से भरा ,ँ
इस कारणसे य द आपको सबके सामने कटम कहते संकोच होता है तो कृपाकर मनम ही
तुलसीको अपना ली जये, य क म क लको दे खकर ब त घबरा गया ँ ।। ४ ।।
[२६८]
तुम अपनायो तब जा नह , जब मन फ र प रहै ।
जे ह सुभाव बषय न ल यो, ते ह सहज नाथ स नेह छा ड़ छल क रहै ।। १ ।।
सुतक ी त, ती त मीतक , नृप य डर ड रहै ।
अपनो सो वारथ वा मस , च ँ ब ध चातक य एक टे कते न ह ट रहै ।। २ ।।
हर षहै न अ त आदरे, नदरे न ज र म रहै ।
हा न-लाभ ख-सुख सबै सम चत हत-अन हत, क ल-कुचा ल प रह रहै ।। ३
।।
भु-गुन सु न मन हर षहै, नीर नयन न ढ रहै ।
तुल सदास भयो रामको ब वास, ेम ल ख आनँद उम ग उर भ रहै ।। ४ ।।
भावाथ—जब मेरा मन (आपक ओरको) फर जायगा, तभी म समझूँगा क आपने
मुझे अपना लया। जब यह मन, जस सहज वभावसे ही वषय म लग रहा है, उसी कार
कपट छोड़कर आपके साथ ेम करेगा (जबतक ऐसा नह होता तबतक म कैसे समझूँ क
मुझको आपने अपना दास मान लया) ।। १ ।। जैसे मेरा वह मन पु से ेम करता है, म पर
व ास करता है और राज-भयसे डरता है, वैसे ही जब वह अपना सब वाथ केवल वामीसे
ही रखेगा और चार ओरसे चातकक तरह अपनी अन य टे कसे नह टलेगा (एक भुपर ही
नभर करेगा) ।। २ ।। अ य त आदर पानेपर जब उसे हष न होगा, नरादर होनेपर वह
जलकर न मरेगा और हा न-लाभ, सुख- ःख, भलाई-बुराई सबम च को सम रखेगा और
क लकालक कुचाल को (सवथा) छोड़ दे गा (तभी मानूँगा क नाथ मुझे अपना रहे
ह) ।। ३ ।। और जब मेरा मन भुका गुणानुवाद सुनते ही हषम व ल हो जायगा, मेरे
ने से ेमके आँसु क धारा बहने लगेगी तभी तुलसीदासको यह व ास होगा क वह
ीरामजीका हो गया। तब उस (अन य) ेमको दे खकर दयम आन द उमड़कर भर
जायगा। (हे भो! शी ही अपनाकर मेरी ऐसी दशा कर द जये) ।। ४ ।।
[२६९]
राम कब ँ य ला गहौ जैसे नीर मीनको?
सुख जीवन य जीवको, म न य फ नको हत, य धन लोभ-
लीनको ।। १ ।।
य सुभाय य लग त नागरी नागर नवीनको ।
य मेरे मन लालसा क रये क नाकर! पावन ेम पीनको ।। २ ।।
मनसाको दाता कह ु त भु बीनको ।
तुल सदासको भावतो, ब ल जाउँ दया न ध! द जै दान द नको ।। ३ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! मुझे या कभी आप ऐसे यारे लगगे, जैसा मछलीको जल
यारा लगता है, जीवको सुखमय जीवन यारा लगता है, साँपको म ण य लगती है और
अ य त लोभीको धन यारा लगता है? ।। १ ।। अथवा जैसे नवयुवक नायकको वभावसे ही
नवयुवती चतुरा ना यका यारी लगती है, वैसे ही हे क णाक खा न! मेरे मनम केवल आपके
त प व और अन य ेमक ही एक लालसा उ प कर द जये ।। २ ।। वेद कहते ह क
भु मनमानी व तु दे नेवाले ह और बड़े ही चतुर ह ( बना ही कहे मनक बात जानकर उसे
पूरी कर दे ते ह)। हे दया नधे! म आपक बलैया लेता ,ँ इस द न तुलसीदासको भी उसक
मनचाही व तुका दान दे द जये ।। ३ ।।
[२७०]
कब ँ कृपा क र रघुबीर! मो चतैहो ।
भलो-बुरो जन आपनो, जय जा न दया न ध! अवगुन अ मत बतैहो ।। १ ।।
जनम जनम ह मन ज यो, अब मो ह जतैहो ।
ह सनाथ ै हौ सही, तुम अनाथप त, जो लघुत ह न भतैहो ।। २ ।।
बनय कर अपभय त, तु ह परम हतै हो ।
तुल सदास कास कहै, तुमही सब मेरे, भु-गु , मातु- पतै हो ।। ३ ।।
भावाथ—हे रघुवीर! कभी कृपाकर मेरी ओर भी दे खगे? हे दया नधान! ‘भला-बुरा जो
कुछ भी ँ, आपका दास ँ’, अपने मनम इस बातको समझकर या मेरे अपार अवगुण का
अ त कर दगे? (अपनी दयासे मेरे सब पाप का नाश कर मुझे अपना लगे?) ।। १ ।। (अबसे
पूव) येक ज मम यह मन मुझे जीतता चला आया है (म इससे हारकर वषय म फँसता
रहा )ँ , इस बार या आप मुझे इससे जता दगे?) ( या यह मेरे वश होकर केवल आपके
चरण म लग जायगा?) (तब) म तो सनाथ हो ही जाऊँगा क तु आप भी य द मेरी ु तासे
नह डरगे, तो ‘अनाथ-प त’ पुकारे जाने लगगे (मेरी नीचतापर यान न दे कर मुझे अपना लगे
तो आपका अनाथ-नाथ वरद भी साथक हो जायगा) ।। २ ।। म अपने ही डरके मारे आपसे
य वनय कर रहा ।ँ आप तो मेरे परम हतू ह। (पर तु नाथ!) यह तुलसीदास अपना ःख
और कसे सुनाने जाय? य क मेरे तो मा लक, गु , माता, पता आ द सब कुछ केवल
आप ही ह ।। ३ ।।
[२७१]
जैसो ह तैसो राम रावरो जन, ज न प रह रये ।
कृपा सधु, कोसलधनी! सरनागत-पालक, ढर न आपनी ढ रये ।। १ ।।
ह तौ बगरायल और को, बगरो न बग रये ।
तुम सुधा र आये सदा सबक सबही ब ध, अब मे रयो सुध रये ।। २ ।।
जग हँ सहै मेरे सं हे, कत इ ह डर ड रये ।
क प-केवट क हे सखा जे ह सील, सरल चत, ते ह सुभाउ अनुस रये ।। ३ ।।
अपराधी तउ आपनो, तुलसी न बस रये ।
टू टयो बाँह गरे परै, फूटे बलोचन पीर होत हत क रये ।। ४ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! म (भला-बुरा) कैसा भी ँ, पर ँ तो आपका दास ही, इससे
मुझे या गये नह । हे कोसलनाथ! आप कृपाके समु और शरणागत का पालन करनेवाले
ह। अपनी इस शरणागत-व सलताक री तपर ही च लये ।। १ ।। म तो (काम, ोध आ द)
सर के ारा पहले ही बगाड़ा आ ँ, इस बगड़े एको (शरणम न रखकर और) न
बगा ड़ये। आप तो सदा ही सबक सब तरहसे सुधारते आये ह, अब मेरी भी सुधार
द जये ।। २ ।। मुझे अपनानेम जगत् आपक हँसी करेगा, आप इस डरसे य डर रहे ह?
(आपका तो सदासे यह बाना ही है।) आपने अपने जस शील और सरल च से बंदर और
केवटको अपना म बनाया था, मेरे साथ भी उसी वभावके अनुसार बताव क जये ।। ३ ।।
य प म अपराधी ,ँ पर ँ तो आपका ही। इस लये तुलसीको आप न भुलाइये। (अपना)
टू टा आ भी हाथ गले बँध जाता है और फूट ई आँखम भी जब दद होता है, तब उसके
अ छे करानेक चे ा क ही जाती है। (इसी कार म भी य प टू ट बाँह और फूट आँखके
समान कसी कामका नह ँ तथा प आपका ही ,ँ इस लये आप मुझे कैसे छोड़ सकते
ह?) ।। ४ ।।
[२७२]
तुम ज न मन मैलो करो, लोचन ज न फेरो ।
सुन राम! बनु रावरे लोक परलोक कोउ न क ँ हतु मेरो ।। १ ।।
अगुन-अलायक-आलसी जा न अनेरो ।
वारथके सा थ ह त यो तजराको-सो टोटक, औचट उल ट न हेरो ।। २ ।।
भग तहीन, बेद-बा हरो ल ख क लमल घेरो ।
दे व न दे व! प रहरयो, अ याव न तनको ह अपराधी सब केरो ।। ३ ।।
नामक ओट पेट भरत ह , पै कहावत चेरो ।
जगत- ब दत बात ै परी, समु झये ध अपने, लोक क बेद बड़ेरो ।। ४ ।।
ै है जब-तब तु ह ह त तुलसीको भलेरो ।
दन- - दन बग र है, ब ल जाउँ, बलंब कये, अपनाइये सबेरो ।। ५ ।।
भावाथ—हे ीरामजी! आप मुझपर मन मैला न क जये, मेरी ओरसे अपनी (कृपाक )
नजर न फराइये (मुझको दोषी समझकर न तो ोध क जये और न अपनी कृपा ही
हटाइये)। हे नाथ! सु नये, इस लोक और परलोकम आपको छोड़कर मेरा क याण
करनेवाला कोई सरा नह है ।। १ ।। मुझे गुणहीन, नालायक, आलसी, नीच अथवा द र
और नक मा समझकर (जगत्के) वाथके सं गय ने तजारीके टोटकेक तरह छोड़ दया
और फर भूलकर भी पलटकर मुझे नह दे खा! ( वाथ छू टते ही ऐसा छोड़ दया क फर
कभी यादतक नह कया) ।। २ ।। मुझे भ हीन, वेदो मागसे बाहर एवं क लयुगके
पाप से घरा आ दे खकर, हे नाथ! दे वता ने भी छोड़ दया। इसम उनका कोई अ याय भी
नह है, य क म सभीका अपराधी ँ ।। ३ ।। म तो बस, आपके नामक ओट लेकर पेट भर
रहा ँ, इतनेपर भी आपका दास कहलाता ँ और यह बात सारा संसार जान गया है। अब
आप ही वचार क जये क संसार बड़ा है या वेद? (वेद क व धको दे खते तो म आपका
दास नह ,ँ पर तु जब संसार मुझको आपका दास मानता और कहता है, तब आपको भी
यही वीकार कर लेना चा हये।) ।। ४ ।। तुलसीका भला तो जब कभी होगा तब आपके ही
ारा होगा। (आ खर जब आपको मेरा क याण करना ही पड़ेगा तो शी ही कर दे ना उ म
है) म आपक बलैया लेता ,ँ य द आप दे र करगे, तो यह गरीब दन-पर- दन बगड़ता ही
जायगा। (तब सुधारनेम भी अ धक क होगा) इस लये मुझे शी ही अपना ली जये ।। ५ ।।
[२७३]
तुम त ज ह कास कह , और को हतु मेरे?
द नबंधु! सेवक, सखा, आरत, अनाथपर सहज छोह के ह केरे ।। १ ।।
ब त प तत भव न ध तरे बनु त र बनु बेरे ।
कृपा-कोप-स तभाय , धोखे - तरछे , राम! तहारे ह हेरे ।। २ ।।
जो चतव न स धी लगै, चतइये सबेरे ।
तुल सदास अपनाइये, क जै न ढ ल, अब जवन-अव ध अ त नेरे ।। ३ ।।
भावाथ—हे नाथ! आपको छोड़कर म और कससे क ँ? मेरा हतू और कौन है? हे
द नब धो! (आपके सवा) सेवकपर, म पर, ः खयापर और अनाथपर वभावसे ही (और)
कसक कृपा है? ।। १ ।। (आपक नजरसे ही) ब त-से पापी इस संसार-सागरसे बना ही
नाव और बेड़ेके तर गये। हे रामजी! आपने कृपासे या ोधसे, स चे भावसे या धोखेसे
अथवा तरछ से ही एक बार उनक ओर दे खभर लया था ।। २ ।। इन य म जो
आपको अ छ लगे, उसी से ज द (मेरी ओर) दे ख ली जये (बस, मेरा काम तो आपके
दे खते ही बन जायगा)। (बात यह है क) तुलसीदासको अब अपना ली जये, इसम दे र न
क जये, य क अब जीवनका अ त ब त ही समीप आ गया है ।। ३ ।।
[२७४]
जाउँ कहाँ, ठौर है कहाँ दे व! खत-द नको?
को कृपालु वामी-सा रखो, राखै सरनागत सब अँग बल- बहीनको ।। १ ।।
ग न ह, गु न ह सा हब लहै, सेवा समीचीनको ।
अगुन आल सनको पा लबो फ ब आयो रघुनायक नवीनको ।। २ ।।
मुखकै, कहा कह , ब दत है जीक भु बीनको ।
त काल, त लोकम एक टे क रावरी तुलसीसे मन मलीनको ।। ३ ।।
भावाथ—हे दे व! कहाँ जाऊँ? मुझ ःखी-द नको कहाँ ठौर- ठकाना है? आपके समान
कृपालु वामी और कौन है, जो सब कारके साधन म बलसे वहीन शरणागतको आ य
दे ? ।। १ ।। (आपको छोड़कर संसारम) जो सरे मा लक ह, वे तो धनी, गुणवान् यानी
सद्गुण-स प और भलीभाँ त सेवा करनेवाले सेवकको ही अपनाते ह। (म न तो धनवान् ,ँ
न मुझम कोई सद्गुण है और न म भलीभाँ त सेवा करनेवाला )ँ मुझ-सरीखे नीच अथवा
नधन (साधनहीन), सद्गुण से हीन, आल सय का पालन-पोषण करना तो न य उ साही
ीरघुनाथजीको ही शोभा दे ता है ।। २ ।। मुँहसे या क ँ भो! आप तो वयं चतुर ह, मेरे
जीक आप सब जानते ह। तुलसी-सरीखे म लन मनवालेके लये तीन लोक ( वग, पृ वी
और पाताल) और तीन काल म एक आपका ही सहारा है ।। ३ ।।
[२७५]
ार ार द नता कही, का ढ़ रद, प र पा ँ ।
ह दयालु नी दस दसा, ख-दोष-दलन-छम, कयो न सँभाषन का ँ ।। १ ।।

तनु कु टल क ट य , त य मातु- पता ँ ।


काहेको रोष, दोष का ह ध , मेरे ही अभाग मोस सकुचत छु इ सब छा ँ ।। २ ।।
खत दे ख संतन क ो, सोचै ज न मन माँ ।
तोसे पसु-पाँवर-पातक प रहरे न सरन गये, रघुबर ओर बना ँ ।। ३ ।।
तुलसी तहारो भये भयो सुखी ी त- ती त बना ।
नामक म हमा, सील नाथको, मेरो भलो बलो क अब त सकुचा ,ँ
सहा ँ ।। ४ ।।
भावाथ—हे नाथ! म ार- ारपर दाँत नकालकर और पैर पड़-पड़कर अपनी द नता
सुनाता फरा। नयाम ऐसे-ऐसे दयालु ह, जो दस दशा के ःख और दोष के दमन
करनेम समथ ह, क तु मुझसे तो कसीने बात भी नह क ।। १ ।। माता- पताने मुझे ऐसा
याग दया, जैसे कु टल क ड़ा अथात् स पणी अपने ही शरीरसे जने ए (ब चे)-को याग
दे ती है। म कस लये ोध क ँ और कसको दोष ँ ? यह सब मेरे ही भा यसे आ। (म
ऐसा नीच ँ क) मेरी छायातक छू नेम भी लोग संकोच करते ह ।। २ ।। मुझे ःखी दे खकर
संत ने कहा क तू मनम च ता न कर। तुझ-सरीखे पामर और पापी पशु-प य तकको,
शरणम जानेपर ीरघुनाथजीने नह यागा और अपनी शरणम रखकर उनका अ ततक
नवाह कया (तू भी उ ह क शरणम जा) ।। ३ ।। यह तुलसी तभीसे आपका हो गया और
आपपर इसक ी त- ती त न होनेपर भी तभीसे यह बड़े सुखम भी है। ( ी त- ती त होती
तो आन दक कोई सीमा ही न रहती।) हे नाथ! आपके नामक म हमा तथा शीलने (मेरी
नालायक होनेपर भी) मेरा क याण कया, यह दे खकर अब म मन-ही-मन सकुचाता ँ
(इस लये क मने कृपापा होने यो य तो एक भी काय नह कया, फर भी मुझ कृत नपर
भुक ऐसी कृपा है) और आपक शरणागतव सलताक शंसा करता ँ ।। ४ ।।
[२७६]
कहा न कयो, कहाँ न गयो, सीस का ह न नायो?
राम रावरे बन भये जन जन म-जन म जग ख दस द स पायो ।। १ ।।
आस- बबस खास दास ै नीच भु न जनायो ।
हा हा क र द नता कही ार- ार बार-बार, परी न छार, मुह बायो ।। २ ।।
असन-बसन बनु बावरो जहँ-तहँ उ ठ धायो ।
म ह मा य ानते त ज खो ल खल न आगे, खनु- खनु पेट
खलायो ।। ३ ।।
नाथ! हाथ कछु ना ह ल यो, लालच ललचायो ।
साँच कह , नाच कौन सो जो, न मो ह लोभ लघु ह नरल ज नचायो ।। ४ ।।
वन-नयन-मग लगे, सब थल प ततायो ।
मूड़ मा र, हय हा रकै, हत हे र हह र अब चरन-सरन त क आयो ।। ५ ।।
दसरथके! समरथ तुह , भुवन जसु गायो ।
तुलसी नमत अवलो कये, बाँह-बोल ब ल दै ब दावली बुलायो ।। ६ ।।
भावाथ—मने या नह कया? म कहाँ नह गया? कौन-सी जगह जानेको बची? और
कसके आगे सर नह झुकाया? क तु, हे ीरामजी! जबतक आपका दास नह आ,
तबतक जगत्म बार-बार ज म ले-लेकर मने दस दशा म केवल ःख ही पाया (कह
व म भी सुख नह मला) ।। १ ।। (आपका खास दास होनेपर भी म मवश वषय से
सुख मलनेक ) आशाके वशम हो अशु दयके मा लक के सामने अपनेको जताता
(समपण करता) फरा और बार-बार ार- ारपर अपनी गरीबी सुनाकर मुँह बाया, पर उसम
खाक भी न पड़ी। (सुख-शा तका कह आभास भी नह मला) ।। २ ।। भोजन और व के
बना पागलक तरह जहाँ-तहाँ दौड़ता फरा। ाण से यारी मान- त ाको याग कर के
सामने ण- णम अपना यह (खाली) पेट खोलकर दखाया ।। ३ ।। हे नाथ! ( वषय के)
लोभके मारे ब त ही लालच कया पर कह कुछ भी हाथ नह लगा। म सच कहता ,ँ ऐसा
कौन-सा नाच है जो नीच लोभने मुझ नल जको न नचाया हो? ।। ४ ।। कान, आँख और
मनको भी अपने-अपने मागम लगाया, पर तु सभी जगह उलटा प तत ही होता गया। (सब
राजे-महाराजे भी जाँच लये। कह कसी वषयम कसीके ारा भी सुख-शा त नह मली,
तब) सर पीटकर दयम हार मान गया— नराश हो गया। इसीसे अब घबराकर आपके
चरण क शरण तककर आया ँ, य क इसीम मुझे अपना हत दखाई दे ता है ।। ५ ।। हे
दशरथकुमार! आप ही समथ ह। तीन लोकम आपका ही यश गाया जाता है। तुलसी आपके
चरण म णाम कर रहा है, इसक ओर दे खये, म आपक बलैया लेता ँ। आपक
वरदावलीने ही मुझे बाँह और वचन दे कर बुलाया है (आपके प तत-पावन और
शरणागतव सल वरदक दे ख-रेखम मेरा क याण य न होगा?) ।। ६ ।।
[२७७]
राम राय! बनु रावरे मेरे को हतु साँचो?
वामी-स हत सबस कह , सु न-गु न बसे ष कोउ रेख सरी खाँचो ।। १ ।।
दे ह-जीव-जोगके सखा मृषा टाँचन टाँचो ।
कये बचार सार कद ल य , म न कनकसंग लघु लसत बीच बच काँचो ।। २ ।।
‘ बनय-प का’ द नक , बापु! आपु ही बाँचो ।
हये हे र तुलसी लखी, सो सुभाय सही क र ब र पूँ छये पाँचो ।। ३ ।।
भावाथ—हे महाराज ीरामच जी! आपको छोड़कर मेरा स चा हतू और कौन है? म
अपने वामीस हत सभीसे कहता ँ, उसे सुन-समझकर य द कोई और बड़ा हो, तो सरी
लक र ख च द जये ।। १ ।। शरीर और जीवा माके स ब धके जतने सखा या हतू मलते
ह, वे सब (असत्) म या टाँक से सले ए ह। (संसारके सभी स ब ध मा यक ह) वचार
करनेपर ये ‘सखा’ केलेके पेड़के सारके समान ह। (जैसे केलेके पेड़को छ लनेपर छलके ही
नकलते ह, वैसे ही संसारके सारे स ब ध भी सारहीन केवल अ ानज नत ही ह) ये वैसे ही
सु दर जान पड़ते ह, जैसे म ण-सुवणके संयोगसे बीच-बीच ु काँच भी शोभा दे ता
है ।। २ ।। हे बापजी! इस द नक लखी ‘ वनय-प का’ को तो आप वयं ही प ढ़ये।
( कसी सरेसे न पढ़वाइये।) तुलसीने इसम अपने दयक स ची बात ही लखी ह, इसपर
पहले आप अपने (दयालु) वभावसे ‘सही’ बना द जये। फर पीछे पंच से पू छये ।। ३ ।।
[२७८]
पवन-सुवन! रपु-दवन! भरतलाल! लखन! द नक ।
नज नज अवसर सु ध कये, ब ल जाउँ, दास-आस पू ज है
खासखीनक ।। १ ।।
राज- ार भली सब कह साधु-समीचीनक ।
सुकृत-सुजस, सा हब-कृपा, वारथ-परमारथ, ग त भये ग त- बहीनक ।। २ ।।
समय सँभा र सुधा रबी तुलसी मलीनक ।
ी त-री त समुझाइबी नतपाल कृपालु ह पर म त पराधीनक ।। ३ ।।
भावाथ—हे पवनकुमार! हे श ु नजी! हे भरतलालजी! हे लखनलालजी! अपने-अपने
अवसरसे (मौका लगते ही) इस द न तुलसीको याद करना। म आपलोग क बलैया लेता ँ।
आपके (कृपापूवक) ऐसा करनेसे इस सवथा बल दासक आशा पूरी हो जायगी
( ीरघुनाथजी मेरी प कापर ‘सही’ कर दगे) ।। १ ।। राज-दरबारम स चे साधु क तो
सभी अ छ कहते ह, इसम या वशेषता है? क तु य द आपलोग इस शरणर हत द नक
सफा रश कर दगे तो इसको भगवान्क शरण मल जायगी, आपको पु य होगा और सु दर
यश फैलेगा, आपके वामी आपपर कृपा करगे ( य क वह द न पर दया करनेवाल पर
वाभा वक ही स आ करते ह) आपके वाथ और परमाथ दोन बन जायँगे ।। २ ।।
इस लये अवसर दे खकर (मौका पाते ही) इस प तत तुलसीक बात सुधार दे ना।
शरणागतव सल कृपालु रघुनाथजीसे मुझ पराधीनके ेमक री तक हदको समझाकर कह
दे ना ।। ३ ।।
[२७९]
मा त-मन, च भरतक ल ख लषन कही है ।
क लकाल नाथ! नाम स परती त- ी त एक ककरक नबही है ।। १ ।।
सकल सभा सु न लै उठ , जानी री त रही है ।
कृपा गरीब नवाजक , दे खत गरीबको साहब बाँह गही है ।। २ ।।
बहँ स राम क ो ‘स य है, सु ध म ँ लही है’ ।
मु दत माथ नावत, बनी तुलसी अनाथक , परी सही है ।। ३ ।।
संग—भगवान् ीरामका द दरबार लगा है, भु जग जननी ीजानक जीके
स हत अलौ कक र नज टत रा य सहासनपर वराजमान ह। हनुमान्जी ेमम न ए नाथक
ओर अन य से नहारते ए चरण दबा रहे ह। भरतजी, ल मणजी और श ु नजी अपने-
अपने अ धकारानुसार सेवाम संल न ह। उसी समय तुलसीदासजीक ‘ वनय-प का’
प ँची। तुलसीदासजीक ाथना सबको याद थी। भ - य मा त ीहनुमान् और भरतने
धीरेसे ल मणसे कहा क बड़ा अ छा मौका है, इस समय तुलसीदासक बात छे ड़ दे नी
चा हये। ल मणजीने उनक ख दे खकर भुक सेवाम ‘ वनय-प का’ पेश कर द ।
भावाथ—हनुमान्जी और भरतजीका मन और उनक चको दे खकर ल मणजीने
भगवान्से कहा क हे नाथ! क लयुगम भी आपके एक दासक आपके नामसे ी त और
ती त नभ गयी (दे खये, उसक यह स ची वनय-प का भी आयी है) ।। १ ।। इस बातको
सुनकर सारी सभा एकमतसे कह उठ क हाँ, यह बात सवथा स य है, हमलोग भी उसक
री त जानते ह। गरीब- नवाज भगवान् ीरामजीक उसपर (बड़ी) कृपा है। वामीने सबके
दे खते-दे खते उस गरीबक बाँह पकड़कर उसे अपना लया है ।। २ ।। सबक बात सुनकर
ीरामजीने मुसकराकर कहा क हाँ, यह स य है, मुझे भी उसक खबर मल गयी है।
( ीजनकन दनीजी कई बार कह चुक ह गी, य क गोसा जी पहले उनसे ाथना कर
चुके ह।) बस, फर या था—अनाथ, तुलसीक रची ई वनय-प कापर रघुनाथजीने
अपने हाथसे ‘सही’ कर द । अपनी बात बननेपर मने भी परम स होकर भगवान्के
चरण म सर टे क दया (सदाके लये शरण हो गया) ।। ३ ।।
ीसीतारामापणम तु

* थन के ऊपरका भाग जसम ध भरा रहता है।


† ध, दही, घी, गोबर और गोमू ।
* कई पुरानी तय म ीसीता- तु त- संगम नीचे लखा द डक भी मलता है। इसे ४० क सं या दे कर हम यहाँ
ट पणीके पम दे ते ह, य क कोई-कोई इसे ेपक भी समझते ह।
जय त ीजानक भानुकुल-भानुक ाण यव लभे तर ण भूपे ।
राम आनंद-चैत यघन- व हा श आ ा दनी सार पे ।।
जय त चत चरण च त न जे ह धर त त काम-भय-कोह-मद-मोह माया ।
- व ध- व णु-सुर- स -वं दतपदे जय त सव री रामजाया ।।
कम जप योग व ान वैरा य ल ह मो हत यो ग जे भु मनाव ।
जय त वैदे ह सब श शरभूषणे ते न तव बनु कब ँ पाव ।।
जय त जय को ट ा डक ई श, जे ह नगम-मु न बु त अगम गाव ।
व दत यह गाथ अहदानकुलमाथ सो नाथ तव दान ते हाथ आव ।।
द शत वष जप- यान जब शव धरयो राम गु प म ल पथ बतायो ।
चतै हत लीन ल ख कृपा क ह तबै दे व, लभ दे व-दरस पायो ।।
जय त ी वा मनी सीय सुभना मनी, दा मनी को ट नज दे ह दरस ।
इं दरा आ द दै म गजगा मनी दे वभा मनी सबै पाँव परस ।।
खत ल ख भ बनु दरस नज प तप यजन जप तं त सुलभ नाह ।
कृपा क र पूण नवकंजदललोचना कट भइ जनकनृप-अ जर माह ।।
र मत तव व पन य ेम गटन करन लंकप त ाज कछु खेल ठा यौ ।
गो पका कृ ण तव तु य ब जतन क र तो ह म ल ईश आनंद मा यौ ।।
हीन तव सुमु ख कै संग र ह रंकस वमुख जो दे व न ह नाथ नेरौ ।
अधम उ रण यह जा न ग ह शरण तव दासतुलसी भयौ आय चेरौ ।। ४० क ।।
* वतमान व माधवजीक बाय ओर ल मीजी वराजती ह। परंतु यह मू त मस जद बननेके बादक था पत क ई
है। तुलसीदासजीके समयम ल मीजी दा हनी ओर थ । वह मू त पड़ोसके एक ा णके यहाँ है। उसके पूवजने जब दे खा
क मुसलमान म दर तोड़नेवाले ह तो मू तयाँ अपने घरम उठा ले गया। उस समय शैवकाशीके व नाथजीका और
वै णवकाशीके व माधवजीका म दर तोड़ा गया और उसीक जगह मस जद बनायी गयी। एक धवरहरा म दरका ही है।
सरा उसी मेलम बनाया गया। तुलसीदासजी जहाँगीरके समयम वैकु ठवासी ए और म दर औरंगजेबके रा यकालम
तोड़े गये।
* “सब अँग” और “नख सख” दोन पाठ मलते ह।
* इससे यह स है क गोसा जी भगवान् शव, कृ ण और रामम कोई भेद नह मानते थे।
* ‘पांडवनै’ पाठ ही शु है। ‘पांडुतनै’ पाठ कर दे नेवाल ने भूल क है। अवधीम पा डवका ब वचन कमकारकका शु
प है ‘पांडवन ह’ वा ‘पांडवनै’। ‘पांडव ह’ भी लाघवसे बनता है, पर तु यहाँ एक मा ा उससे अ धक चा हये थी।
१—वनम उ लू और गीध एक ही घरम रहते थे। एक दन गीधने बुरी नीयतसे घरपर अपना अ धकार करना चाहा और
उ लूसे कहा—‘हमारा घर खाली कर दो, इसपर तु हारा कोई अ धकार नह , नह मानते तो चलो राजाजीसे याय करा ल।’
अ तम दोन ीरामजीके दरबारम आये। रामच जीने उ लूसे कहा—‘घर कसका है? तू उसम कबसे रहता है?’ उ लूने
उ र दया—‘महाराज! जबसे वृ क सृ ई, तबसे म उस घरम रहता ँ।’ गीधने कहा क ‘जबसे मनु य क सृ ई,
तबसे म रहता ँ।’ भगवान्ने कहा क ‘वृ क सृ मनु य से पहले ई है, इस लये घर उ लूका ही है, तु हारा नह । तुम
घर खाली कर दो।’
२—एक दन ीरामजीके राजदरबारम एक कु ा आया और रोता आ कहने लगा—‘महाराज, तीथ स नामक
ा णने बना ही अपराध लाठ से मेरा सर फोड़ दया, आप मेरा याय कर द जये।’ भगवान्ने ा णको बुलाया और
उससे पूछा क ‘तुमने नरपराध कु ेके सरपर य लाठ मारी?’ ा णने कहा क ‘म भीख माँगता फरता था, इसे मने
रा तेसे हटाया, जब यह न हटा, तब मने लकड़ी मार द ।’ ा णको अद डनीय समझकर भगवान् वचार करने लगे!
इतनेम कु ेने कहा क ‘भगवन्! आप इसे का लजरका मह त बना द जये। म भी पूवज मम एक मह त था। भ याभ य
खानेसे मुझे कु ा होना पड़ा, मह ती ब त बुरी है।’ कु ेके कहनेपर भगवान्ने उसे का लजरका मह त बना दया।
* आजकलक च लत तय म ायः ‘नरक जमपुर मने’ पाठ है। पर तु मने एक ाचीन तम ‘नरक सुरपुर मने’ पाठ
दे खा था और यही ठ क मालूम होता है, य क नरक और यमपुर एकाथवाचक होनेसे पुन -दोष आता है; इसके सवा
बना जाने भी अ तकालम भगवान्का नाम लेनेवालेक मु बतायी गयी है, न क वगगमन; इस लये यही पाठ ठ क है।
* शृंगार, हा य, क ण, वीर, रौ , भयानक, बीभ स, अ त और शा त सा ह यके ये नौ रस ह।
† कडआ, तीखा, मीठा, कसैला, खट् टा और नमक न—ये छः भोजनके रस ह।
* अ हसा, स य, अ तेय, चय, अप र ह, शौच, स तोष, तप, वा याय और ई र- णधान—ये दस यम- नयम ह।
* इससे स है क गोसा जी ीराम और ीकृ णम कोई भेद नह मानते थे, जो वा त वक स ा त है।
† ‘करमच द’ बुरे ार धके लये ंगो है। ‘बड़ी-बड़ी बात बनाता है, अपने करमच दक करतूत तो दे ख’ लोग ऐसा
कहा करते ह।
* ‘कस’ श द ‘कां यक’ या ‘कां य’ का अप ंश मालूम होता है, कां यक पीतलको और कां य ताँबा-राँगा मली ई
धातुको कहते ह, इन दोन के पा म ही खटाई बगड़ जाती है।
* जब नट को खेल दखानेपर कुछ नह मलता, तब वे कपड़ेका पुतला बनाकर बाँसपर लटकाये ए कहते फरते ह क
दे खो यह कैसा अनुदार है। इससे ल जत होकर लोग उसको कुछ-न-कुछ दे ही दे ते ह। इसी तरह म भी एक पुतला बनाकर
लये फ ँ गा। लोग पूछगे, तो यही उ र ँ गा क यह अयो या धप महाराज ीरामच जी ह! इससे आपको लाज लगेगी
तब आप ही अपनावगे।
* गीताम तो ीभगवान्ने जप-य को अपना व प ही बतलाया है—य ानां जपय ोऽ म।

घाम=घम=ताप। अनेक तय म ‘धाम’ पाठ है। पर तु धामका अथ केवल ‘ यो त’ है, ‘ताप’ कदा प नह ।
पाठा तरक तरह भी ‘धाम’ वीकाय नह है।
परश
पद म आये ए कथा- संग
पद-सं या ३—कालकूट- वष—
दे वता और असुर ने एक बार मे -पवतक मथानी और शेषनागका द ड बनाकर
समु का म थन कया। उसम सबसे पहले हलाहल वष नकला और उसने दस दशा को
अपनी वालासे ा त कर दया। फर तो दे वता और असुर सभी ा ह- ा ह करने लगे।
सब ने मलकर वचारा क बना भ व सल भगवान् शंकरके इस महाघातक वषसे ाण
पाना क ठन है। इस लये उ ह ने एक साथ आ - वरसे भगवान् शंकरको पुकारा। भ -
आ तहर क णामय भगवान् शंकर शी ही कट ए और उनको भयभीत दे खकर हलाहल
वषको उठाकर पान कर गये। पर तु शी ही उ ह मरण आ क दयम तो ई र अपनी
अ खल सृ के साथ वराजमान ह, इस लये उ ह ने उस वषको क ठसे नीचे नह उतरने
दया। उस व नके भावसे उनका क ठ नीला हो गया और दोषपूण वह वष भगवान्का
भूषण बन गया तभीसे शव ‘नीलक ठ’ कहलाने लगे।
पुर-वध—
तारक नामका एक असुर था। उसके तीन पु ए—तारका , व ु माली और
कमललोचन। उन तीन ने महाघोर तप करके ाजी और शवजीको स कया तथा उनसे
अ त र के तीन पुर का अ धकार ा त कया। अ धकारमदसे उ म वे असुर फर नाना
कारके अ याचार करने लगे। उनके उप वसे सारा व काँप उठा और दे वतालोग पी ड़त
हो उठे । अ तम सब ने मलकर व णुभगवान्क अ य ताम भगवान् शंकरका तवन कया।
शवजी शी कट ए और एक ही बाणम तीन पुर का व वंस कर तीन रा स का नाश
कया। तबसे इनका नाम ‘ पुरा र’ पड़ा।
काशी-मु —
काशीम मृ यु-समय जीवमा को ीशंकर ‘राम-नाम’ का म दे ते ह, जससे उनक
मु हो जाती है।
काम रपु (मदन-दहन)—
सती-दाहके प ात् भगवान् शंकर हमालय-पवतके ा तरम एक नजन थानम
समा धम न हो गये। उसी समय सतीने पावतीके पम हमाचल नामक पवतराजके घर
ज म लया। उधर तारकासुरके अ याचारके मारे सम त दे वता के साथ इ के नाक दम आ
गया। तारकासुरके वधके वषयम यह न य था क यह महादे वके पु के ारा मारा जायगा।
पर तु भगवान् शंकर समा धम न थे, इस लये उ ह बड़ी च ता ई। य क तारकासुरका
अ याचार अस हो रहा था। अतः उ ह ने कामदे वको महादे वका यान तोड़नेके लये भेजा।
इधर पावती, कशोराव थाको ा त हो तथा नारदमु नके मुखसे यह भ व यवाणी
सुनकर क भूतभावन महादे व ही उसके प त ह गे, न य उसी हमालय-पवतपर
यानाव थत शंकरक पूजा करने जाती थी। एक दन जैसे ही पावती ीशंकरके चरण म
सुमन-अ य दे रही थी क कामदे व अपने सहचर वस तको लेकर प ँचा। उसने पु प-बाणको
चढ़ाकर चाहा क भगवान् शंकरको नशाना बनाव क इतनेम महादे वक समा ध टू ट और
उ ह ने सामने कामदे वको पु प-बाण चढ़ाते ए दे खा। यह दे खना ही था और उधर दे वता
अ त र म यह कहनेहीको थे क ‘ भो! ोधको शा त क जये, शा त क जये’ क इतनेम
शंकरका तीसरा ने खुला और कामदे व जलकर भ म हो गया। तभीसे शवका ‘कामा र’,
‘मदन रपु’ आ द नाम पड़ा।
७—गुण न ध-उ ार—
गुण न ध नामका एक ा ण बड़ा चोर था। वह एक दन कसी शव-म दरम सोनेके
घंटेको चुरानेके लये गया। घंटा कुछ उँचे था और वह आसानीसे वहाँतक प ँच न पाता था;
इस लये वह शव लगपर चढ़ गया। इतनेम भोलेबाबा वहाँ कट हो गये और बोले—‘वर
माँग, हम तुझपर अ य त स ह। तूने आज मुझपर अपना सब कुछ चढ़ा दया है।’
भगवान् शंकरक कृपासे गुण न ध शवलोकका अ धकारी आ।
१०—ह रचरण-पूत—गंगा—
एक बार व णुभगवान् वामन प धारण कर राजा ब लके ार गये और उससे उ ह ने
तीन पग पृ वी दानम माँगी तथा दानम ा त तीन पग पृ वी नापनेके लये अपना वशाल
ा ड ापी शरीर बनाया। उस समय ाजीने भगवान्के उन चरण को धोकर अपने
कम डलुम रख लया था, वही जल गंगाके वाहके पम अवत रत आ। इसी कारण
गंगाको ‘ह रचरण-पूत’ कहा गया है।
१२—पाथो ध-घटसंभव—
समु के कनारे एक जोड़ा ट टहरीका रहता था। उनके अंडे समु बराबर बहा ले जाता
था। स तान- वयोगसे एक बार उनको समु के ऊपर ोध हो आया और अपने च चम बालू
भर-भरकर वे लगे समु को भरनेक चे ा करने। उसी अवसरपर अग य ऋ ष कह से वहाँ
आ नकले और प य क आ दशाको दे खकर उनका दय दयासे वत हो उठा। उ ह ने
त काल ही उ ह सा वना दे ते ए समु को उठाकर ‘ॐ राम’ म का उ चारण तीन बार
करते ए आचमन कर लया।
१५—असुर-ना शनी—
माक डेयपुराणम म हषासुर, च ड-मु ड और शु भ- नशु भ नामक बल परा मी तथा
घोर कम करनेवाले दै य क कथा मलती है। इनसे एक बार जब लोक त होकर ाण
पानेके लये अ त ाकुल हो उठ , तब सब दे वता ने ा, व णु और महेशके साथ
भगवती महामाया आ दश क तु तकर आ ान कया। महामायाने कट होकर इन
असुर का संहारकर लोक क जाके ःखको रकर दे वता को नभय कया।
१७—भगीरथ-नं दनी—
सूयवंशम सगर नामके महाऐ यशाली राजा हो गये ह, उ ह ने ही समु को खनवाया था,
जससे उसका नाम सागर पड़ा। महाराज सगरक दो रा नयाँ थ । एकसे अंशुमान् पैदा ए
और सरीसे साठ हजार पु उ प ए। महाराज सगरके तापसे दे वराज इ ब त ही
भयभीत रहता था और उनसे ई या कया करता था। महाराज सगरके अ मेधय के
व छ द वचरनेवाले घोड़ेको उसने चुराकर योगे र क पलमु नके आ मपर बाँध दया। उसे
खोजनेके लये सगरके साठ हजार पु नकले और मु नके आ मपर घोड़ेको बँधा दे ख उ ह
कुवा य कहा। इससे ो धत हो मु नने योगबलसे उ ह भ म कर दया। महाराज अंशुमान्के
पौ भगीरथ ए, उ ह ने महातप करके प ततपावनी ीगंगाजीको भूतलपर लाकर उन
लोग का उ ार कया। इसीसे ीगंगाजीको ‘भागीरथी’ या ‘भगीरथ-न दनी’ आ द नाम से
पुकारते ह।
१७—ज -बा लका—
जब महाराज भगीरथ गंगाजीको अपने रथके पीछे -पीछे भूलोकम ला रहे थे, उस समय
गंगाका वाह ज मु नके आ मसे होकर नकला। मु न यानाव थत थे, वाहको आते
दे ख उ ह ने उसे उठाकर पी लया। पीछे महाराज भगीरथने उनक तु तकर उनको स
कया। तब मु नने जगत्के हताथ गंगाजीको अपने जंघेसे नकाल दया। तभीसे गंगाजीका
नाम ‘ज -सुता’, ‘जा वी’ पड़ा।
१८— पुरा र सरधा मनी—
जब महाराज भगीरथने लोकसे गंगाजीको ा त कर लया, तब यह क ठनाई सामने
आयी क य द गंगाजीक धारा वहाँसे सीधे भूलोकपर गरेगी तो उससे भूलोक जलम न हो
जायगा। इस लये उ ह ने भव-भय-हारी भगवान् शंकरक तु त क और शंकरजीने
लोकसे अवत रत होती ई गंगाक धाराको अपने जटाजालम रोक लया। इसीसे
ीगंगाजीको पुरा र ( शव)-के म तकम नवास करनेवाली कहा जाता है।
२२—करनघंट—
काशीम एक ा ण शवका बड़ा ही अन य भ था। वह शवके सवा और कसी
दे वताका नाम भी नह सुनना चाहता था। इस लये उसने अपने दोन कान म दो घ टे लटका
रखे थे जससे कसी सरे दे वताका नाम कान म न आने पावे। कोई मनु य य द उसके
सामने कसी अ य दे वताका नाम लेता तो वह घ टा बजाते ए र भाग जाता। इसी कारण
उसका नाम ‘करनघंट’ पड़ गया था। वह जस थानपर रहता था वह थान आज भी
कणघ टाके नामसे पुकारा जाता है।
२४— ब धह रहर—जनमे—
च कूटम मह ष अ और उनक परम सा वी प त ता ी अनसूया रहती थी। दोन
पु ष- ीने पु क कामनासे अ त कठोर तप कया। और ा, व णु और महादे व तीन
नाम से पुकार-पुकारकर भगवान्क तु त क , तब भगवान् तीन पम कट हो गये और
वर माँगनेके लये कहा। अनसूयाने यह वर माँगा क मेरे गभसे तु हारे समान पु ह । दे व
‘तथा तु’ कहकर अ तधान हो गये। पीछे ाने च माके पम, व णुने द ा ेयके पम
और शवने वासाके पम ज म लया।
२५—उ दत चंड-कर-मंडल- ासक ा—
वा मी क-रामायणम कथा आती है क एक दन ातःकाल अमाव याके दन
हनुमान्जीको ब त भूख लगी थी। उ ह ने उगते ए लाल रंगके बाल-सूयको दे खा और फल
समझकर उनके ऊपर वे लपके, और एक ही झटकेम पकड़कर नगल गये। दै वात् उस दन
हण भी था। बेचारा रा जब सूयको हण करनेके लये आया तो दे खा चार ओर अ धकार
है और सूयका कह पता नह । इससे नराश होकर वह इ के पास प ँचा और गड़ गड़ाने
लगा क आज म या खाऊँगा? सूयको तो कसी सरेने खा डाला। यह सुनकर इ रा को
साथ लये दौड़े। ीहनुमान्जीने जब उन दोन को आते दे खा तो वे उनको भी खानेके लये
लपके। इसपर इ ने उनक ठु ीपर ऐसा व मारा क हनुमान्जी मू छत हो गये और व
भी टू ट गया। तभीसे महावीरजीका हनुमान् नाम पड़ा।
-अवतार—
एक बार शवजीने ीरामच जीक तु त क और यह वर माँगा क ‘हे भो! म
दा यभावसे आपक सेवा करना चाहता ँ। इस लये कृपया मेरे इस मनोरथको पूण क जये।
ीरामच जीने ‘तथा तु’ कहा। वही शवजी ीरामावतारम हनुमान्जीके पम अवतीण
होकर ीरामच जीके सेवक म मुख पदको ा त ए।
सु ीव-ऋ छा द-र छन- नपुन—
ीहनुमान्जीने सूयनारायणसे श ा - व ाक श ा पायी थी। इसक द णाके
थानम ीसूयनारायणने हनुमान्जीसे कहा था क ‘दे खो, हमारे पु सु ीवक तुम सदा र ा
करना।’ हनुमान्जीने आज म सु ीवक र ा क ।
बा ल बलसा ल बध मु य हेतू—
सीता-हरणके बाद जब भगवान् ीरामच और ल मण सीताको ढूँ ढ़ते-ढूँ ढ़ते
ऋ यमूक-पवतके समीप प ँचे तो पहले हनुमान्जीने ही उनसे भट क तथा उनको ले जाकर
सु ीवसे मलाया और उनम पार प रक मै ी थापन क । यही मै ी बा लवधका कारण ई।
इसीसे बा लके वधम मु य हेतु ीहनुमान्जी माने जाते ह।
स हका-मद-मथन—
स हका नामक एक रा सी समु म रहती थी। उस मागसे जो जीव आकाशम जाते थे,
उनक परछा जलम दे खकर वह उनको पकड़ लेती थी और खा जाती थी। जब हनुमान्जी
सीताक खोजम आकाश-मागसे लंका जाने लगे तो उस रा सीने उनके साथ भी वही
वहार करना चाहा। पर तु हनुमान्जी उसक चालको समझ गये और उसको एक ही मु -
हारके ारा परलोक भेज दया।
दसकंठ-घटकरन, बा रद-नाद-कदन-कारन—
राम-रावण-यु के समय जब रावण यु म वजय ा त करनेके लये अजेय य का
अनु ान करने लगा तो इसक सूचना वभीषणने ीरामक सेनाम द और कहा क य द
रावण इस अनु ानम सफल हो गया तो उसको मारना फर अ य त क ठन हो जायगा।
इस लये उसके य को व वंस करना चा हये। ीहनुमान्जीने इस कायका भार अपने ऊपर
लया और वे वानर क एक सेना लेकर वहाँ प ँच गये तथा उस य को व वंस कर दया।
इसके प ात् रावण यु -भू मम लड़नेके लये आया और मारा गया। इस कार
ीहनुमान्जी उसक मृ युके कारण बने। कु भकणको रणम बलर हत करनेम भी
ीहनुमान्जी ही कारण थे।
मेघनादने जब ल मणजीको श बाण मारा था तो वे मू छत हो गये। उनक मू छाको
र करनेके लये हनुमान्जी ही धौला ग रके साथ संजीवनी-बूट लाये थे और उस बूट के
ारा मू छासे उठनेपर सरे ही दन ल मणजीने मेघनादको मारा था, इसी कारण
ीहनुमान्जी मेघनादके वधके कारण माने जाते ह।
कालने म-हंता—
यह रावणके प का महाधूत रा स था। जब हनुमान्जी ल मणजीक मू छा हटानेके
लये संजीवनी-बूट लाने गये थे तो रा तेम इसने साधुका वेष धारण कर उनको छलना चाहा।
हनुमान्जीको उसक माया मालूम हो गयी और तुरंत ही उ ह ने उसको परलोक भेज दया।
इसीसे हनुमान्जी कालने म-ह ता कहलाते ह।
२८—भीमाजुन- ालसूदन-गवहर—
महाभारतम कथा आती है क पा डव के वनवासकालम एक दन भीम अपने
परा मके मदम म त ए कह जा रहे थे। उनके मागम एक बड़ा भारी बंदर सोया आ
मला। भीमके गजनसे उसक आँख खुल गय । भीमने उसे मागसे हट जानेके लये कहा।
बंदरने उ र दया—‘भाई! म बूढ़ा हो गया ँ। तु ह जरा मेरी पूँछको हटाकर चले जाओ।’
भीमके सारी श लगानेपर भी वह पूँछ टस-से-मस नह ई। पीछे जब उ ह यह मालूम
आ क यह कोई सामा य बंदर नह है, ब क यह महापरा मशाली हनुमान्जी ह तो उ ह ने
नत शर हो उ ह णाम कया और मा माँगी। त प ात् भीमने हनुमान्जीसे नवेदन कया
क आप मुझे उस पका दशन द जस पसे आपने राम-रावण-यु म भाग लया था।
हनुमान्जीने कहा क मेरा वह प अ य त ही वकराल है, उसे दे खकर तुम डर जाओगे।
पर तु जब गवके साथ भीमने ब त आ ह कया तो हनुमान्जी त काल ही उस पम कट
हो गये। भीमक आँख भयके मारे बंद हो गय और वे थर-थर काँपने लगे। हनुमान्जीक
म हमा दे खकर उनका गव र हो गया और वे उनके चरण म गर पड़े।
महाभारतके यु म अजुनके रथक वजापर हनुमान्जी बैठे रहते थे। पर तु यह बात
अजुनको मालूम न थी। जब अजुन और कणका सामना आ तो अजुनके बाणसे कणका
रथ ब त र चला जाता था पर तु कणके बाणसे अजुनका रथ ब त ही थोड़ा हटता था।
तथा प भगवान् अजुनके बाणक शंसा नह करते और कणके बाणक शंसा करते थे।
इससे अजुनके दलम यह गव होता था क भगवान् ऐसा य कहते ह। अ तयामी भगवान्
ीकृ ण यह सब जानते थे। एक बार उ ह ने हनुमान्जीसे रथक वजासे अलग हो जानेका
इशारा कया। उनके हटते ही जैसे कणका बाण छू टा, अजुनका रथ कोस र जा गरा।
इससे अजुनको बड़ा ही आ य आ और उ ह ने भगवान्से इसका कारण पूछा। भगवान्ने
बतलाया क ‘हनुमान्के परा मसे ही तु हारा रथ थर रहता है, वे रथक वजापरसे हट
गये ह। य द म भी यहाँ न रहता तो न जाने तु हारा रथ कहाँ चला जाता।’ भगवान्क इस
बातसे अजुनका गव र हो गया।
ग ड़जीको अपने तेज चलनेपर बड़ा ही गव था। एक बार भगवान् ीकृ णने
ीहनुमान्जीको ब त शी बुला लानेके लये ग ड़को भेजा। ग ड़जी वहाँ गये और उ ह ने
हनुमान्जीको साथ चलनेके लये कहा। हनुमान्जी बोले, आप च लये, म अभी आता ँ,
ग ड़ने समझा दे रसे आवगे, इस लये कहा, साथ ही च लये, हनुमान्जी बोले, म राम-कृपासे
आपसे आगे प ँच जाऊँगा। इसपर ग ड़को बड़ा ही आ य आ और वे खूब तेजीसे चले।
भगवान्के सामने प ँचनेपर वे या दे खते ह क हनुमान्जी पहलेहीसे वहाँ वराजमान ह।
यह दे खकर ग ड़जीका गव जाता रहा।
संपा त—
संपा त गीधराज जटायुके बड़े भाई थे। एक दन दोन भाई होड़ा-होड़ी सूयको छू नेके
लये आकाशम उड़े। जटायु तो बु मान् थे, वे सूयके उ ापके भयसे सूयम डलके समीप न
जाकर लौट आये, पर तु संपा तको अपने परा मका घमंड था, वे आगे बढ़ते ही गये और
सूयके समीप प ँचते ही उ त करण से उनके पंख झुलस गये और वे मा यवान्-पवतपर
धड़ामसे आ गरे। फर जब सु ीवक आ ासे सीताजीक खोजम वानर और री नकले
और उस पवतपर प ँचे तो संपा तने ही उ ह सीताजीका पता बताया। हनुमान्जीक कृपासे
संपा तके पंख जम गये और उनके ने म यो त आ गयी तथा उ ह द शरीर ा त हो
गया।
२९—महानाटक- नपुन—
ीहनुमान्जी बड़े भारी व ान् और गायनाचाय थे, सूयभगवान्से उ ह ने सब व ाएँ
पढ़ थ । कहा जाता है क ीहनुमान्जीने एक महानाटक लखकर ीराम-च र का व तृत
वणन कया था। पर तु उसके सुननेका कोई अ धकारी न पाकर उसे उ ह ने समु म फक
दया। उसीके य -त बखरे कुछ अंश को दामोदर म ने संकलन करके वतमान
‘हनुम ाटक’ क रचना क है।
३९—संजीवनी-समय—
जब हनुमान्जी हमालय-पवतसे संजीवनी-बूट लेकर आकाश-मागसे अ य त ती
ग तसे लौटे आ रहे थे उस समय भरतने उ ह दे खकर समझा क कोई मायावी रा स जा रहा
है। इस लये उ ह ने एक बाण चलाया जो हनुमान्जीको लगा और वह हा राम! हा राम!
कहते ए जमीनपर गर पड़े। ‘राम’ श द सुनकर भरतको बड़ा ःख आ और उ ह ने
दौड़कर हनुमान्जीको उठा दयसे लगा लया। इसी समय उनक बाण चलानेक म हमा
जाननेम आयी।
४०—लवणासुर—
लवणासुर मथुराका अनाचारी तापी असुर राजा था। इसके अ याचार से गौ, ा ण
और तप वीजन ा ह- ा ह करने लगे। जब महाराजा ीरामच जीके यहाँ उनक फ रयाद
आयी तो श ु नने महाराजसे लवणासुरको द ड दे नेके लये वयं जानेक आ ा माँगी। और
आ ा ा त होनेपर मथुरा जाकर उ ह ने अपने बल परा मसे लवणासुरका नाश कर
जाको सुखी कया।
४३— र ष-मख-पाल—
व ा म मु नके आ मके समीप रा स ने ब त उ पात मचा रखा था। वे तप याम
अनेक कारसे व न डालते थे। उनके उप वसे ाकुल होकर व ा म मु न अयो याम
महाराज दशरथके दरबारम आये और महाराजसे अपने य क र ाके लये ीराम-
ल मणको माँगा। महाराज अपने ाण य पु को पहले तो अलग करना नह चाहते थे,
पर तु महामु न मह ष व स क अनुम तसे उ ह ने ीराम-ल मणको व ा म मु नके सुपुद
कया। ीरामच जीने ल मणको साथ लेकर मु नके य क र ा क और ताड़का, सुबा
भृ त रा स को, जो य - वंस कया करते थे, मार डाला।
मु नबधू-पापहारी—
गौतम-ऋ षक प नी अह या परम पवती थी। उसके सौ दयको दे खकर इ का मन
मो हत हो गया और एक दन सायंकाल जब गौतम-ऋ ष स या-व दनके न म बाहर गये
थे उसी समय इ गौतमका प धारण कर अह याके पास गया और उससे अपनी
अ भलाषा कट क । कुसमय समझकर पहले तो उसने अ वीकार कया पर पीछे प त-
आ ा समझकर उसने वीकार कर लया। इतनेहीम गौतम-ऋ ष आ गये। उ ह ने योग से
सारा रह य जान लया और ो धत होकर इ को शाप दया क ‘जा तेरे सह भग हो
जायँ।’ तथा अह याको शाप दया क ‘तू प थरक हो जा।’ पीछे जब उनका ोध शा त
आ तो उ ह ने दोन के शापका इस कार तकार बतलाया क ीरामच जीके चरण-
पशसे अह याका उ ार होगा और जब ीरामच जी शवके धनुषको तोड़गे, उस समय
इ के सह भग सह ने के पम प रणत हो जायँग।े ’
काक-करतू त-फलदा न—
एक दन च कूटम इ का पु जय त ीरामच जीका बल दे खनेक इ छासे कौएका
प धारण कर सीताजीके पैर म च च मारकर भागा। ीरामच जीने पैर से र वा हत
होते दे ख स कके बाणसे उसे मारा। जय त भागने लगा और बाण उसके पीछे लगा। वह
स पूण ा डम भागता फरा पर तु कह भी उसे शरण नह मली। लाचार होकर वह
ीरामच जीके शरणम आ गरा। भगवान्ने उसके ाण तो नह लये पर उसक एक आँख
ले ली।
४९—का लय—
यमुनाजीम एक बड़ा ही भयंकर सप रहता था। उसका नाम का लय था। उसके वषके
मारे वहाँका जल सदा खौलता रहता था। ीकृ णभगवान्ने उसके म तक पर नृ य करके
उसे वहाँसे हटनेके लये ववश कर दया। पीछे वह यमुनाजीको छोड़कर समु म चला गया।
यह कथा ीम ागवतम मलती है।
अंधक—
अ धक बड़ा उप वी और बलवान् दै य था। यह हर या का पु था। ाजीक
आराधना करके इसने यह वरदान ा त कया था क ‘जब मुझे ानक ा त हो जाय तब
ही मेरा शरीरा त हो, नह तो म सदा जीता र ँ।’ यह वरदान ा त कर उसने लोक को
जीत लया। उसके भयसे दे वता म दराचल-पवतपर चले गये। यह वहाँ भी प ँचकर उनको
सत करने लगा। इसपर दे वता ा ह- ा ह करने लगे और आत वरसे उ ह ने महादे वजीको
पुकारा। महादे वजीके साथ अ धकासुरका बड़ा भयंकर यु आ, अ तम महादे वजीने उसे
एक शूल मारा। जससे वह असुर वह बैठकर महादे वजीके यानम म न हो गया।
महादे वजीने कहा क ‘वर माँग।’ उसने यह वर माँगा क ‘हे भो! मुझे आपक अन य भ
ा त हो।’ यह कथा ‘ शवपुराण’ म है।
द छ-मख—
द जाप तक एक क याका नाम सती था, इनका ववाह शवजीके साथ आ था।
एक बार ाजीक सभाम सब दे वता वराजमान थे, वहाँ द जाप त प ँच।े उनक
अ यथनाके लये सम त दे वता उठ खड़े ए, पर तु ाजीके साथ शवजी बैठे ही रह गये।
इससे द जाप तको बड़ा ोध आ और उ ह ने इसका बदला लेनेके उ े यसे एक य
कया। उस य म शवजीके अ त र सब दे वता बुलाये गये। जब यह समाचार सतीको
मला तो वह शवजीक अनुम तके बना ही अपने पताके घर चली गयी और वहाँ प ँचकर
जब य म शवजीका भाग उसने न दे खा तो ोधके मारे योगा नम जलकर भ म हो गयी।
यह समाचार सुनकर शवजीने वीरभ को य - व वंस करनेके लये भेजा। वीरभ ने वहाँ
जाकर य - व वंस कया।
५४—वेदगभ …… कता—
ाजीके पु सनका दने एक बार अपने पतासे परा व ास ब धी कुछ पूछे। जब
ाजी उन का यथे उ र न दे सके तो उ ह अपने ानपर बड़ा गव आ। ाजीने
उनके दयक बात जानकर ी व णुभगवान्का मरण कया और व णुभगवान् वहाँ शी
ही हंसके पम कट हो गये। फर सनका दने उस हंससे पूछा क ‘तू कौन है?’ इसी पर
हंसभगवान्ने सारी परा व ाका सारांश कह सुनाया। उसे सुनकर सनका दका अ भमान
जाता रहा। न बाक-स दायवाले इसी हंसभगवान्को अपने स दायका आ द आचाय
मानते ह।
५६—भू म-उ रन—
स ययुगम हर यक शपु और हर या नामक दो महा तापी असुर हो गये ह। यह दोन
भाई थे। हर या भू मको चुराकर पातालम ले गया। भगवान्ने शूकर- प धारण कर
हर या को मारा और भू मका उ ार कया। इससे भगवान् भू मके उ ारक माने जाते ह।
इसके सवा जब-जब इस पृ वीपर पा पय का अ याचार बढ़ता है और पृ वी घबड़ा उठती है
तब-तब भगवान् अवतार लेकर पा पय का नाश कर भू मका उ ार करते ह।
भूधरनधारी—
यह कथा तो स ही है क जब भगवान् ीकृ णके कहनेसे जवा सय ने इ क
पूजा रोक द तो इ ाकुल होकर लयमेघको लेकर जपर चढ़ आये। सात दनतक
लगातार मूसलाधार वृ होती रही। उस समय भगवान् ीकृ णने गौ और गो पय क
र ाके लये गोवधनपवतको क न का-अँगुलीपर उठाकर उसको छाता बनाकर जक र ा
क थी। तभीसे भगवान् ‘भूधरनधारी’ ( ग रधारी) नामसे पुकारे जाते ह।
५७—वृ ासुर—
वृ ासुर बड़ा तापी असुर था। यह असुर होते ए भी परम भ था। इसने इ के साथ
यु करते समय भ का बड़ा ही सु दर वणन कया है। भागवतम यह संग दे खने लायक
है। इसीके मारनेके लये दे वगण दधी च-ऋ षके पास उनक ह याँ माँगने गये थे और उस
परम दानी ऋ षने दे व के उपकारम अपने शरीरका याग कया था। उ ह ह य मसे एकसे
व बना था जो इ का मुख अ है। उसी व से इ ने वृ को मारा था।
बान—
वाणासुर राजा ब लका पु था। इसके सह बा थे। यह शवजीका परम भ था।
इसक पु ी ऊषा परम सु दरी थी। वह व म ीकृ णभगवान्के पौ अ न का प
दे खकर मो हत हो गयी और अपनी सखी च लेखाके च ारा उसका पता जानकर उसे
चुपकेसे अपने अ तःपुरम मँगा लया। जब यह बात वाणासुरको मालूम ई तो उसने
अ न को कैद कर लया। इसपर वाणासुर और भगवान् ीकृ णम बड़ा घोर यु आ।
शवजी वाणासुरक ओरसे इस यु म लड़ रहे थे। जब वाणासुरके सब बा कट गये, केवल
चार ही बच रहे तब वह भगव हो गया। शवजीके तवनसे भगवान्ने उसे अभय कर
दया। त प ात् अ न और ऊषाका ववाह आ। यह कथा भी ीम ागवतम आती है।
मय—
मय नामक दानव बड़ा ही कला-कुशल था। इसके कलाक शंसा महाभारत, रामायण
आ द धम- थ म य -त मलती है। वणपुरी लंकाका नमाण इसीने कया था।
महाभारतम इ थके अपूव नगरका नमाता भी यही मय दानव था। यह भगव था।
जबंधु—
जबंधुका अ भ ाय अजा मलसे है। यह बड़ा ही राचारी और महापातक ा ण
था। इसके छोटे लड़केका नाम नारायण था। जब मरते समय यम त इसे मु क बाँधने लगे तो
यह भयभीत होकर आ वरसे ‘नारायण-नारायण’ पुकारने लगा। इस पुकारसे उसका पु
तो नह आया, पर भगवान् नारायणके त वहाँ आ प ँच।े उ ह ने हठपूवक यम त से यह
कहकर उसका प ड छु ड़ाया क ‘यह परम वै णव है, इसने बड़े ही आ वरसे भगवान्का
नामो चारण कया है।’

६०—मारकंडेय……. लयकारी—
माक डेय-ऋ ष बचपनसे ही बड़े वीयवान् और तपो न थे। उनक उ तप याको
दे खकर इ भी भयभीत हो गये थे और उसम व न उप थत करनेके वचारसे कामदे वको
अपनी सारी सेनाके साथ भेजा था। पर तु कामदे व को ट कला करके भी अपने य नम
सफल नह ए। इसके बाद भगवान् नर-नारायण पसे उनके स मुख उप थत ए और
उनसे वर माँगनेके लये कहा। माक डेयमु नने भगवान्क माया दे खनेक इ छा कट क ।
फल व प उ ह सारा ा ड जलम न होते ए दखलायी दया।
७८— बटप—
एक बार कुबेरके पु नलकूबर और म ण ीवने मादवश नारदजीक उपे ा कर द ।
इसपर नारदजीने उ ह शाप दया क ‘तुमलोग बड़े ही जडबु हो, जाओ वृ हो जाओ।’
पीछे जब उन लोग ने ाथना क तब दयालु नारदमु नने शापो ार न म कह दया क
‘गोकुलम जब भगवान् ीकृ णका अवतार होगा तो उनके चरण के पशसे तु हारा उ ार हो
जायगा।’ यह दोन भाई नारदके शापसे गोकुलम अजुन-वृ बन गये। एक दन यशोदाजीने
कसी अपराधके कारण बालक ीकृ णको ऊखलसे बाँध दया। (भगवान् रगते ए, जुड़े
ए वृ के पास जा प ँचे और वृ को, बीचम ऊखलको अड़ाकर ऐसा झटका दया क
तुरंत दोन वृ गर पड़े और वृ - प यागकर द य पसे भगवान्क तु त करने
लगे। भगवान्ने उ ह मु दान कर द ।
८३—तरयो गयंद जाके एक नाँय—
एक बार एक तालाबम एक बड़ा भारी मतवाला हाथी ह थ नय के साथ जल वहार कर
रहा था। इतनेम एक ाहने आकर उसका पैर पकड़ लया। हाथीने अपने पैरको छु ड़ानेके
लये सारी श लगा द पर ाहने पैर न छोड़ा, न छोड़ा। वह उसे गहरे जलम ख चने लगा।
जब वह हाथी नराश हो गया तो उसने आ भावसे भगवान्को पुकारा। उसके मुँहसे ‘ह र’
नाम नकलना था क भ -भयहारी भु अपने वाहन ग ड़को छोड़कर शी वहाँ उप थत
हो गये और उ ह ने ाहको मारकर उस हाथीके ःखको र कया। ीम ागवतके आठव
क धम यह कथा ‘गजे मो ’ नामसे व तारपूवक लखी गयी है।
८६—सु च—
राजा उ ानपादक दो रा नयाँ थ —सु च और सुनी त। राजा सु चको ही अ धक
मानते थे। दोन रा नय के दो पु थे। एक दन सुनी तका पु ुव सु चके लड़केके सामने
राजाक गोदम जा बैठा। सु चसे यह दे खा न गया। वह दौड़ी आयी और उसको डाँट-
फटकार बताते राजाक गोदसे उतार दया। वह रोता आ अपनी माँके पास गया। उसक
माँने द नब धु अशरणशरण भगवान्के गुण का वणन कर ुवके मनको भगवान्क ओर लगा
दया। पीछे बालक ुवने बा य-जीवनम ही घोर तप या कर भुको स कर रा य और
परमपद ा त कया।
८७— रपु रा —
जब समु -म थनके समय समु से अमृत नकला तो दै य और दे वता उसके लये
आपसम लड़ने लगे। व णुभगवान्ने मो हनी- प धारण कर अमृतके घड़ेको अपने हाथम ले
लया। दै य उनके पपर मो हत हो गये, उ ह अमृतका यान ही नह रहा। एक ओर दे वता
और सरी ओर दै य बैठ गये। अमृतका बाँटा जाना दे वता क पं से ार भ आ। रा
नामका दै य व णुभगवान्क इस लीलाको समझ गया। वह वेष बदलकर सूय-च माके
बीच दे वता म आकर बैठ गया। मो हनीने उसे भी अमृत पला दया, वह अमर हो गया।
पर तु सूय और च माके संकेतसे भगवान्को जब यह मालूम आ तो उ ह ने अपने च से
रा के सरको धड़से अलग कर दया। फर सर रा हो गया और धड़ केतु। उसी पुराने वैरसे
रा हणके ारा च और सूयको क दे ता है।
मृगराज-मनुज—
ादक कथा स ही है। हर यक शपु नामका एक महा तापी दै य हो गया है।
उसने घोर तप करके ासे यह वरदान माँगा था क म न नरसे म ँ न पशुस,े न दनम म ँ
न रातम, न अ से म ँ न श से, न घरम म ँ न बाहर। यह वर ा त कर वह अ य त
नरंकुश होकर रा य करने लगा। उसके अ याचारसे लोक काँप उठ । कोई भी मनु य
जप-य , पूजा-पाठ उसके रा यम नह करने पाता था और जो कोई भगव जन करता उसे
वह तरह-तरहक य णा दे ता। उसका पु ाद बड़ा ही भगव था। उसने पताके
कतना ही कहनेपर भी अपनी टे कको नह छोड़ा। इसके लये उसे भाँ त-भाँ तक पीड़ा
प ँचानेका य न कया गया। पर तु सब न फल आ। एक दन राजसभाम ादको
ख भेम बाँधकर हर यक शपु कहने लगा क ‘अपने भगवान्को दखला, नह तो आज तू
मेरे तलवारक घाट उतरेगा।’ ादने कहा क ‘भगवान् सव है, वह ख भेम है, तुमम है,
मुझम है, तु हारी तलवारम और इस ख भेम भी है।’ इसपर हर यक शपुने अ य त ो धत
होकर उसे मारनेके लये तलवार उठायी ही थी क भ ादके वचनको स य करने और
उसे संकटसे छु ड़ानेके लये भगवान् नर सह (आधा मनु य और आधा सह)- पसे ख भेको
फाड़कर नकल आये और हर यक शपुको दरवाजेपर घसीटकर अपने जंघेपर रखकर
अपने नख से उसके कलेजेको फाड़कर मार डाला।
नर-नारी—
जब य धनने जुएम पा डव का सव व जीत लया और अ तम ौपद को भी दाँवपर
रखकर जब पा डव हार गये, तब उसने ःशासनके ारा ौपद को भरी ई राजसभाम
बुलवाकर नंगा करनेक आ ा द । उस सभाम भी म, ोण आ द महाम हम यो ा तथा पाँच
भाई पा डव भी बैठे थे, पर तु य धनक इस आ ापर कसीके मुँहसे एक भी श द न
नकला। ःशासन ौपद के सरके केश को पकड़कर घसीटता आ सभा-म डपके बीचम
लाया और उसक साड़ीको पकड़कर ख चने लगा। दौपद ने क णापूण ने से सभाक ओर
दे खा पर तु जब कोई भी उसक सहायताके लये आगे बढ़ता न दखायी दया तो उसने
अपनी लाज बचानेके लये आ वरसे क णा स धु भगवान्को पुकारा। भगवान् ीकृ णने
उसक पुकार सुन ली। (कु राज-ब धु) ःशासन साड़ीको ख चते-ख चते थक गया पर तु
उसका छोर न लगा। भुक कृपाके आगे उसक एक न चली। ौपद क लाज रह गयी।
अजुन ‘नर’ ऋ षके अवतार माने जाते थे, इससे ौपद को ‘नर-नारी’ कहा गया है।
९४—ग नका—
पगला नामक एक वे या थी। एक दन जब वह शृंगार कये ए अपने कसी ेमीक
ती ाम बैठ और आधी राततक वह न आया तो उसे बड़ी ला न ई। वह सोचने लगी क
जतना समय मने इस पापपूण ती ाम लगाया उतना य द भगवान्के भजनम लगाती तो
मेरा उ ार हो जाता। उसी दनसे उसने वे या-वृ छोड़कर भगव जनम मन लगाया और
भगवान्क कृपासे उसका उ ार हो गया।
याध—
ाचीन कालम र नाकर नामका एक ाध था। वह ा ण-कुलम उ प होकर भी
ाधका काम करता था। वह जंगलम पशु का शकार करनेके सवा वनके मागसे होकर
जानेवाल का सव व भी छ न लेता था। एक दन, दै ववश, दे व ष नारद उसी मागसे होकर
नकले। र नाकरने उनको घेर लया। नारदजीने उससे कहा क तुम यह घोर कम जनके
लये कर रहे हो, वह तु हारे इस पापकमके भागी न ह गे। र नाकर इसपर अपने कुटु बके
लोग से इस वषयम पूछनेके लये गया। जब उसके प रवारके लोग ने साफ-साफ कह दया
क हम तु हारे पापके भागी नह ह तो वह नारदजीके पास आकर उनके पैर म गर पड़ा और
मा-याचना करते ए पूछा क ‘मेरा अब कैसे उ ार होगा?’ नारदजीने उसे ‘राम’ म का
उपदे श दया। उसने कहा क म राम-म नह जप सकता, तब दे व षने उससे रामका उलटा
‘मरा-मरा’ जपनेको कहा। इसीके तापसे पीछे वही ाध ‘वा मी क’ मु नके नामसे स
आ।

९७—सुरप त कु राज, बा लस ……. बैर बसहते—सुरप त



एक बार दे व ष नारदजी वगसे पा रजात-पु प लाकर मणीको दे गये। स यभामाको
उसके लेनेक इ छा ई। पर तु सौत होनेके कारण मणीसे वह माँग नह सकती थी और
मणीके पास वैसे पु पका होना भी उससे दे खा नह जाता था; इस लये उसने पा रजात-
पु पके लये मान कया। य प उसका यह हठ और मान ई यायु होनेके कारण अनु चत
था, पर तु भगवान्ने भ वश उसपर कुछ यान न दया और वगम जाकर इ से लड़कर
पा रजात-वृ ही उखाड़ लाये और स यभामाके भवनके सामने बगीचेम उसे लगा दया।
कु राज—
पाँच भाई पा डव का मलकर ौपद को रख लेना, कौरव के साथ जुआ खेलना तथा
ौपद को भी दाँवपर रख हार जाना आ द पा डव के य दोष थे, पर तु उनक भ
दे खकर भगवान् कृ णने उनके दोष पर यान नह दया और उनका प लेकर कु राज
य धनसे वैर बाँध लया।
बा ल—
य प सु ीवका भी प बलकुल नद ष न था तथा प सु ीवक भ के वशम होकर
भगवान्ने इन बात का कुछ भी खयाल न करके बा लको मारा और सु ीवको रा य दलाया।
९८—जसुम त ह ठ बाँ यो—
एक बार यशोदाजी दही मथ रही थ । उसी समय बालक ीकृ ण भूखे ए उनके पास
आये, माता उ ह गोदम उठाकर ेमसे ध पलाने लगी, इतनेम चू हेपर चढ़े ए पा म
धका उफान आ गया। यशोदाजी ीकृ णको गोदसे नीचे उतारकर उस धके पा को
उतारने लग । इससे बालक कृ ण ब त ठ गये और उ ह ने दहीके मटकेको उलट दया
और सरे घरम जाकर ऊखलपर चढ़कर माखन खाने लगे। माताने वापस आकर दे खा क
दहीका बतन उलटा पड़ा है और ीकृ णका पता नह है। वह ो धत हो उठ और
ीकृ णको सजा दे नेके लये ढूँ ढ़ने लगी। जब वह उस घरम प ँची जहाँ कृ ण म खन खा
रहे थे तो कृ ण माताक मारके डरसे ऊखलसे उतरकर भागने लगे। माताने उनको पकड़
लया और लगी र सीसे उ ह ऊखलम बाँधने। पर तु जस र सीसे वह बाँधना चाहती थी वही
र सी छोट हो जाती, य तमाम घरभरक र सी लाकर जोड़ द पर तु तसपर भी ीकृ ण न
बँध सके। तब थककर उनक ओर दे खकर मुसकराने लगी। कृपामय भगवान् माताक
क ठनाईको दे खकर वयं बँध गये।
अ बरीष—
महाराज अ बरीष परम भ थे, एकादशी- तके बड़े ही स ती थे। एकादशीको
वासा-ऋ ष उनके घर आये। महाराजने उनको ादशीके दन भोजन करनेका नम ण
दया, य क वह ादशीको ा ण-भोजन कराये बना पारण नह करते थे। वासा-ऋ ष
नान- यान करनेके लये बाहर गये और उनको वहाँ ब त दे र हो गयी। ादशी थोड़ी ही थी,
उसके बाद योदशी हो जाती थी और शा क यह आ ा है क एकादशी- त करके
ादशीको पारण करना चा हये! ा ण क आ ासे इस दोषके प रहारके लये राजाने एक
तुलसीका प ा ले लया। इतनेम वासा-ऋ ष आ गये और बना आ ा लये ए राजाके
तुलसीदल ले लेनेपर वे आगबबूला हो गये और उ ह ने ो धत हो महाराजको शाप दया क
‘तुझे जो यह घमंड है क म इसी ज मम मु हो जाऊँगा वह म या है, अभी तु ह दस बार
और ज म धारण करने पड़गे।’ इतना शाप दे नेके बाद उ ह ने एक कृ या नामक रा सीको
पैदा कया, जो पैदा होते ही अ बरीषको खानेके लये दौड़ी। भ क यह दशा भगवान्से
दे खी न गयी, उ ह ने शी सुदशन-च को आ ा द । उसने कृ याको मारकर वासा-ऋ षका
पीछा कया। वासाजी तीन लोक म भागते फरे, पर कसीने उ ह आ य नह दया।
अ तम वे भगवान् व णुके पास गये और उनक आ ासे लौटकर महाराज अ बरीषके
चरण पर आ गरे। राजाने च को तवन करके शा त कया। इसके बाद व णुभगवान्ने
कट होकर वासा-ऋ षसे कहा क आपने हमारे भ को शाप दया है, उसे म हण करता
ँ। उनके बदलेम म दस बार शरीर धारण क ँ गा।
उ सेन—
कंसके पताका नाम उ सेन था। कंस अपने पताको कैद करके आप राजग पर बैठा
था। उसके अ याचार से जा ा ह- ा ह करती थी। भगवान् कृ णने कंसको मारकर
उ सेनको पुनः ग पर बैठाया और आप वयं उनके ारपाल बने।
९९—सुदामा—
सुदामाक कथा स ही है। वह ीकृ णजीके सहपाठ म थे। व ा ययनके
अन तर यह अ य त द र हो गये। अपनी ीके कहने-सुननेपर यह भगवान् ीकृ णसे
मलनेके लये ारका गये। यह इतने द र थे क अपने म से मलनेके लये चार मु
चावल भट ले गये थे। भगवान्ने इनका बड़ा ही स मान कया और चार मु चावलके बदलेम
उ ह पूण समृ शाली बना दया।
१०६—केवट—
जब भगवान् ीरामच जी सीता और ल मणके साथ वन जाते समय गंगाके कनारे
प ँचे और पार जानेके लये केवटसे नाव माँगी तो उसने ेमसे गद्गद होकर कहा—‘हे
वा मन्! म आपके ममको जानता ँ। आपके चरण को छू करके प थर सु दर ीके पम
प रणत हो गया। मेरी नाव तो काठक है, कह यह भी मु नक ी बन जायगी तो मेरी
जी वका ही जाती रहेगी। इस लये य द आप पार जाना चाहते ह तो पहले अपना पैर धोने
द जये।’ नषादक भ अपूव थी। उसक भ के ही कारण भगवान्ने उससे अपने चरण
धुलाकर कृताथ कया।
शबरी—
यह जा तक भीलनी थी। मतंग-ऋ षक सेवा करते-करते इसे भगव क ा त हो
गयी थी। सीताहरणके प ात् जब ल मणजीके साथ भगवान् सीताक खोजम वनम भटक
रहे थे तो रा तेम भीलनीका आ म मला। उसने भगवान्का बड़ा स कार कया तथा ेमम
बेसुध होकर भगवान्को पहलेसे चख-चखकर दे खे ए पेड़ के सु दर बेर दये और
भ व सल भगवान्ने उ ह सराह-सराहकर खाया। यह कथा स ही है।
गो पका—
गो पय क ेमाभ स है। भगवान् ीकृ णने ेमके वशीभूत हो गो पय के साथ
रास कया था।
व र—
व र दासी-पु थे। पर तु ीकृ णभगवान्म इनक अपूव भ थी। इसी कारण
भगवान् जब ह तनापुर गये तो य धनके घर न जाकर व रके आ त यको ही उ ह ने
वीकार कया। जब भगवान् व रके घर प ँचे उस समय व र घरपर नह थे। उनक
प नीने भगवान्का स कार कया। वह केले लेकर भगवान्को खलाने बैठ पर तु ेमम
इतनी बेसुध थी क केले छ लकर नीचे गराती गयी और छलके भगवान्के हाथम। ेमके
भखारी भ हयहारी भु उ ह छलक को भोग लगाने लगे। भगवान्ने व रके कुल-
शीलका वचार न कर उनक भ को ही धानता द । व रके साथ भगवान्का स य ेम
था।
कुबरी—
यह कंसक दासी थी। जब ीकृ णभगवान् मथुराम कंसके दरबारम जा रहे थे तो वह
रा तेम कंसके लये च दनका अवलेप लये जा रही थी। भगवान् ीकृ णक वह परम भ ा
थी। भगवान्ने उसके ेमके कारण उसके उस च दनके अवलेपको अपने शरीरम लगाया
और उसके कुबड़ेपनको र कर दया। कंसको मारकर लौटनेपर भगवान्ने इसके
आ त यको वीकार कया था।
१२८—र बीज—
यह एक महा तापी दै य था। इसने घोर तप या करके ी शवजीसे यह वरदान ा त
कया था क ‘मेरे शरीरसे जो एक बूँद र गरे तो उससे सह र बीज पैदा ह ।’ इस
वरको ा त कर इसने लोक को भयसे क पत कर दया था। सब दे वता ने अ तम
मलकर भगवती महाकालीक तु त क । महाकाली कट होकर र बीजसे यु करने
लगी। पर तु जब उसके एक बूँदसे सह र बीज पैदा होने लगे तो महाकालीने अपनी
जीभ इतनी ल बी बढ़ायी क जतना र उन र बीज दै य के बदनसे गरता उसे ऊपर ही
चाट जाती। इस कार र बीजका संहार उ ह ने कया। यह कथा गास तशतीम
व तारपूवक द गयी है।
१४५— बभीषन—
वभीषणने रावणको समझाया क ‘ ीरामच जी जगत्- पता परमा मा ह और
ीसीताजी जग जननी ह। इस लये तुम जग जननी ीसीताजीको उनके पास लौटाकर
उनसे मा माँगो। वे भु दयालु ह, तु ह मा कर दगे।’ इस बातको सुनकर रावण ब त ही
ो धत आ और वभीषणको लात मारकर अपने नगरसे बाहर नकाल दया। वभीषणने
नराश और नरा य होकर मनम कहा—
ज ह पाय ह के पा क ह भरतु रहे मन लाइ ।
ते पद आजु बलो कहउँ इ ह नयन ह अब जाइ ।।
इस कार अन यभावसे भा वत होकर जब वभीषण भगवान्के चरण म आ गरा तो
भगवान्ने उसे ेमसे लंकेश कहकर दयसे लगाया। भुक भ व सलताका यह कैसा
उदाहरण है!
१६२—दस सीस अर प—
बल- तापी राजा रावण एक बार कैलास-पवतपर जाकर तप या करने लगा। वह घोर
तप करके अ तम अपने सरको काट-काटकर अ नम हवन करने लगा। जब नव सर
काटकर हवन कर चुका और दसवाँ सर काटनेके लये खड् ग उठाया तब शंकरजी वहाँ
कट हो गये और उ ह ने उससे वर माँगनेके लये कहा, फल व प उसे लंकाका रा य
मला।
१७४—ब ल—
जब राजा ब लने वामनभगवान्को तीन पग पृ वी दान दे नेका वचन दे दया तब
शु ाचायने उसको ी व णुभगवान्के छलके वषयम ब त कुछ समझाकर दान दे नेसे रोका।
पर तु स यसंक प राजा ब ल अपनी त ासे त नक भी न हटा। उस समय उसने अपने गु
शु ाचायका स यके पीछे प र याग कर दया।
२१३—नृग—
स ययुगम राजा नृग बड़े ही दानी राजा हो गये ह। वह न य एक करोड़ गो-दान कया
करते थे। एक बार एक ा णको दान द ई गाय भूलसे आकर उनक गाय म मल गयी
और उ ह ने उसे अपनी गाय के साथ सरे ा णको दान कर दया। पहला ा ण अपनी
भूली गायको तलाश करता आ जब सरे ा णक गाय म उसे चरते ए दे खा तो उस
ा णको चोर बताकर अपनी गाय हाँक ले चला। फर दोन ा ण म झगड़ा होने लगा।
दोन लड़ते-झगड़ते राजाके पास प ँचे और राजाको इंसाफ करनेके लये कहा। राजा
दोन क बात सुनकर सर हलाता रहा। कुछ उसके समझम न आया क या कया जाय!
इसपर वे दोन ा ण ो धत हो उठे , उ ह ने राजाको शाप दया क ‘हे राजन्! तूने हम
धोखा दया है, इस लये जा, गर गटक यो नको ा त हो।’ राजा गर गट हो गया और
बेचारा सह वषपय त ारकाके एक कुएँम पड़ा रहा। ीकृ णावतारम भगवान्ने उसे कुएँसे
नकाला। फर शापमु होकर वह द शरीर धारण कर वैकु ठ चला गया।
२१४—पूतना—
यह पूवज मम एक अ सरा थी। वामनभगवान्का बाल व प दे खकर, वा स य- नेह-
वश, इसक इ छा ई थी क म इस बालकको पु बनाकर अपने तन का ध पलाती।
अ तयामी भगवान् उसक मनोवा छा जान गये। वह अ सरा कसी घोर पापके कारण पूतना
ना नी रा सी बनी। ीकृ णावतारम भगवान्ने व सवत् उसका त यपान करते ए उसे
अपने धाम भेज दया।
ससुपाल—
यह चे द दे शका राजा था। यह बड़ा ही परा मी था। कहते ह क रावण ही सरे ज मम
शशुपाल आ। यह बड़ा था। त दन सबेरे उठकर भगवान् ीकृ णको सौ गा लयाँ
दया करता था। भगवान् कृ ण उसक गा लयाँ सुनते और सह लेते थे। य क उसक माता
ीकृ णके पताक ब हन थी। और उसने ीकृ णसे यह वर ले लया था क वह शशुपालके
सौ अपराध को त दन मा कर दगे। एक दन पा डव क सभाम ीकृ णको वह गा लयाँ
दे ने लगा। सौ गा लय तक तो भगवान्ने उसे मा कया। पर तु जब उसने गाली दे ना बंद
नह कया तो भगवान्ने च सुदशनसे उसके सरको काट डाला। दे खते-दे खते उसक
आ म यो त भगवान्के ीमुखम वेश कर गयी।
ाध—
भगवान् ीकृ णके चरण म प के च दे खकर उसे ने का म हो गया था और उसने
ह रण समझकर भगवान्के चरण म तीर मारा था। पीछे जब वह समीप आया और चतुभुज
भगवान् ीकृ णको दे खा तो उसे बड़ा ही ःख और प ा ाप आ। पर तु भगवान्ने उसे
शा त दान करते ए सदे ह वधामको भेज दया।
२२०—परी छत ह प छताय—
एक बार महाराज परी त् शकार खेलते-खेलते नजन वनम नकल गये। वहाँ उ ह ने
दे खा क एक काला पु ष मूसल हाथम लये एक गाय और एक लँगड़े बैलको खदे ड़ रहा है।
जब पूछनेपर मालूम आ क वह काला पु ष क लयुग है और उसके भयसे पृ वी, गाय और
धम बैलका प धारण कर भाग रहे ह, तो महाराजने ो धत होकर तलवार नकाल ली और
क लयुगको मारनेके लये दौड़े। इसपर वह काला पु ष भयभीत होकर महाराजके चरण पर
गर पड़ा। महाराजने उसे शरणागत जानकर छोड़ दया और चौदह थान म रहनेके लये उसे
अभय कर दया। उन थान म एक वण भी था। महाराजके सरपर सोनेका मुकुट था,
इस लये क लने उसपर अपना आसन जमाया। महाराज जब उधरसे लौटे तो भूख- याससे
ाकुल हो एक यानाव थत ऋ षके आ मम प ँचे और ऋ षको पुकारने लगे। जब कुछ
उ र न मला तो महाराज ऋ षको पाख डी समझकर उनके गलेम एक मरा आ सप
डालकर वहाँसे चले गये। जब उस ऋ षके पु को यह समाचार मालूम आ तो उसने शाप
दया क यानाव थत मेरे पताके गलेम मृत सप डालकर तर कार करनेक चे ा
करनेवाला मदा ध राजा आजसे सातव दन त क सपके काटनेसे मर जायगा। महाराजा
परी त्को जब यह समाचार मालूम आ तो उ ह अपनी भूलपर बड़ा प ा ाप आ और
वह सात दनतक ीम ागवतका स ताह पाठ सुनकर सातव दन त क सपके काटे
जानेपर लीन हो गये। यह कथा ीम ागवतम लखी है।
२२५—मृग—
मारीच रावणका अनुचर था। इसीको ीरामच जीने व ा म क य -र ाके समय
एक ही बाणम सौ योजन र समु पार भेज दया था। जब पंचवट म ल मणजीने
शूपणखाके नाक और कान काट लये और वह वलखती ई रावणके पास गयी तो रावणने
बदला लेनेक इ छासे मारीचके पास जाकर उसे माया-मृग बनने और ीरामच जीको
धोखा दे नेके लये कहा। पहले तो मारीचने उसे ब तेरा समझाया और ीरामच जीसे मेल
कर लेनेके लये कहा। पर तु जब रावण उसे मारनेके लये तैयार हो गया तो उसने रावणके
हाथसे मरनेक अपे ा ीरामच जीके हाथसे मरनेम ही अपना ेय समझा। वह मायामृग
बनकर पंचवट म भगवान्क पणकुट के सामने होकर नकला। ीजानक जीने भगवान्से
उस मृगको मारकर उसका मृगछाला लानेके लये कहा। भगवान् उसके पीछे चले और मृगके
मरण-समयके आ नादको सुनकर ीजानक जीक आ ासे ल मणजी भी उधर ही नकल
पड़े। एका त दे खकर रावण आया और पणकुट से ीसीताजीको रथपर बैठाकर लंका ले
गया। मारीचको मारकर भगवान्ने उसे सद्ग त दान क ।
२२६—न ह कुंजरो नरो—
महाभारतके यु म कौरव क ओरसे लड़ते ए ोणाचाय जब पा डव क सेनाका
संहार करने लगे तब ीकृ णभगवान्ने अजुनसे कहा क अब तो ोणाचायका वध कये
बना काम नह चल सकता। पर तु अजुनको गु वध करनेक ह मत नह ई। तब
भगवान्ने भीमके ारा अ थामा नामके हाथीको मरवा डाला। ोणाचायके पु का भी
अ थामा नाम था और वह उनको बड़े ही यारे थे। जब ‘अ थामा मारा गया’ यह आवाज़
ोणाचायके कान म प ँची तो उ ह ने धमराज यु ध रसे पूछा क कौन अ थामा मारा
गया। यु ध रने कहा—‘अ थामा हतो नरो वा कुंजरो वा।’ अथात् अ थामा मनु य मारा
गया या हाथी। ोणाचाय ‘या हाथी’ (वा कुंजरो वा) इस अंशको न सुन सके। राजनी तका
पालन करते ए धमराजने स यक र ा करनी चाही, पर वह न हो सका। अस य बोलनेका
कलंक उनके जीवनपर लग ही गया। अ तु, पु मरण सुनकर य ही ोणाचाय मू छत-से ए
य ही धृ ु नने उनका म तक काट लया। ‘नरो वा कुंजरो वा’ तभीसे कहावतके पम
यु होने लगा।
२३९— - ब सख—
अ थामाने पा डव को नवश करनेके लये परी त्को गभम ही ा से मारना
चाहा था, पर तु भगवान् ीकृ णने च सुदशनके ारा उसे बीचम ही थ करके गभ थ
शशुक र ा क थी।
फेन मरयो—
नमु च नामका एक महा तापी दै य था। उसने घोर तप या करके ाजीसे यह वरदान
ा त कया था क ‘म न कसी अ -श से म ँ , और न कसी शु क या आ पदाथसे
म ँ ।’ जब दे वासुर-सं ाम छड़ा तो दे वतालोग इसके परा मके आगे ा ह- ा ह करने लगे।
इ का व भी इसका बाल बाँका न कर सका। तब आकाशवाणी ई क ‘यह अ -श से
नह मरेगा। इसे समु के फेनसे मारो।’ पीछे समु के फेनसे मृ यु ई।
२४७—पू जयत गनराउ—
एक बार सब दे वता म इस बातके लये झगड़ा उठा क सब म थम पू य कौन है।
अ तम यह न य आ क सम त ा डक प र मा करके जो पहले आ जाय वही
सव थम पू य समझा जायगा। सब दे वता अपने-अपने वाहनपर सवार होकर नकले। बेचारे
गणेशजीक सवारी चूहा! या करते? बड़े ही असमंजसम पड़े! इतनेम नारदजी उस रा तेसे
होकर नकले। गणेशजीको मनमारे बैठा दे खकर उ ह ने कहा— कस च ताम आप पड़े ह,
रामनाम लखकर उसक ही प र मा करके न त हो जाइये। रामनामम ही अ खल सृ
न हत है। फर या था, गणेशजीने चट रामनाम लखकर उसक प र मा कर डाली और
सबसे पहले ा डक प र मा कर आनेके फल व प सव थम पू य हो गये। यह
रामनामक म हमा है!
म हमा जासु जान गनराऊ । थम पू जअत नाम भाउ ।।
रो यो ब य—
कथा आती है क व याचल-पवत ब त ही ऊँचा था। सूयक च ड करण जब उस
पवतके आ य रहनेवाले वृ -लता को झुलसाने लग तब उसे बड़ा रोष उ प आ और
सूयनारायणको ढक लेनेके उ े यसे वह अपने शरीरको बढ़ाने लगा। इससे सारे दे वता
भयभीत हो उठे और सबने आकर अग य-ऋ षसे ाथना क । मह ष अग यजीने राम-
नामका मरण कर व याचलके म तकपर हाथ रखकर कहा क ‘दे ख, जबतक म यहाँ न
लौट आऊँ तबतक तू यहाँ ऐसा ही पड़ा रह।’ अग यजी फर न लौटे और वह पवत य -
का- य आजतक खड़ा है। यह है ीराम-नामक म हमा!
२५७—दं डक पु म पुनीत भई—
कथा है क एक बार बड़ा भारी भ पड़ा। सब ऋ षगण अपने-अपने आ म को
छोड़कर गौतम-ऋ षके आ मपर जा ठहरे। पीछे जब भ मट गया तो वे गौतम-ऋ षसे
वदा माँगनेके लये गये। ऋ षने उनको उसी आ मम रहनेके लये कहा तथा अ य जानेके
लये मना कया। तब उन ऋ षय ने एक मायाक गौ रचकर गौतम-ऋ षके खेतम खड़ी कर
द । ऋ ष जब उसे हाँकनेके लये गये तो वह गर पड़ी और मर गयी। इसपर वे सारे ऋ ष
उनके ऊपर गोह याका दोष मढ़कर जाने लगे। गौतम-ऋ षने योगबलसे जब उनक इस
मायाको जाना तब ो धत होकर शाप दे दया क तुम जहाँ जाना चाहते हो वह दे श अप व
—न - हो जायगा। तभीसे वह द डकवनके नामसे स आ और वहाँ कभी कोई
लता-वृ नह उगते थे, सदा वह दे श वीरान रहता था। भगवान् ीरामच जीके चरण
धरते ही वह उजाड़ दे श प व और हरा-भरा हो गया।

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