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श्री भतृहरर
कृत
नीतत शतक
मंगलाचरण ........................................................................ 3
तिद्वत्प्रशं सा......................................................................... 7
मान शौयय प्रशं सा................................................................ 12
द्रव्य प्रशं सा ...................................................................... 15
सज्जन प्रशं सा ................................................................... 21
परोपकारी प्रशं सा .............................................................. 24
धैयय प्रशं सा ....................................................................... 28
दे ि प्रशं सा........................................................................ 30
कमय प्रशं सा ...................................................................... 32
तदक्कालाद्यनिच्छिन्नानन्ततचन्मात्र मूतयये ॰
स्वानुभूत्येकसाराय नमः शान्ताय तेजसे ॱ१ॱ
सभी तदशाओं और भूत भतिष्य, ितय मानातद कालों में अनिच्छिन्न, अनन्त,
चैतन्यमात्र मूती िाले, अपने अनुभि से जानने योग्य, शान्त स्वरूप एिं
ते जोमय परमात्मा को नमस्कार है ॰ ॱ१ॱ
मैं सदा तजसका तचतन करता रहता रॆूँ , िह मुझसे तिरक्त होकर अन्य
पुरुष की कामना करती है , और िह अन्य पुरुष तकसी अन्य स्त्री की
कामना करता है तथा िह अन्य स्त्री मुझसे प्रीतत करती है ॰ अतएि मेरी
स्त्री को, उस अन्य पुरुष को मुझे चाहने िाली उस अन्य स्त्री को, मुझे और
उस कामदे ि को भी तधक्कार है ॰ ॱ२ॱ
मगर के दाढों में दबी रॅई मतण चाहे तनकाली जा सके, चाहे उन्नत लहरों से
उलझते रॅए गहन समुद्र को तै र कर पार तकया जा सके और चाहे रेुद्ध
रॅए सपय को पकड़ कर तसर पर धारण तकया जा सके, परन्तु मूखय पुरुष के
तकसी िस्तु पर जमे रॅए मन को िहाूँ से हटाना अत्यंत कतिन है ॱ४ॱ
यत्न करने पर चाहे बालू से ते ल तनकाल तलया जाय, चाहे प्यासा मनुष्य
मृगतृिा के जल से अपनी प्यास को बुझा ले और चाहे ढू ढने पर खरगोश
का सींग भी तमल जाय, परन्तु तकसी िस्तु पर तटके रॅए सूख मनुष्य के मन
को उस िस्तु से हटाना असंभि है ॰ ॱ५ॱ
जब मुझे तकंतचत् ज्ञान होने लगा तब मैं हाथी के समान मदोन्मत्त होकर
अपने मन में सोचने लगा तक मैं सियज्ञ रॆूँ ॰ परन्तु जब ज्ञानी जनों के संग से
कुछ यथाथय ज्ञान रॅआ, तब मेरा िह गिय ऐसे उतर गया, जै से रोगी का ज्वर
उतर जाता है, तभी मुझे अपने मूखय होने की प्रतीतत रॅई॰ ॱ८ॱ
सातहत्यसङ्गीतकलातिहीनःसाक्षात्पशु ःपुितिषाणहीनः॰
तृ णन्नखादन्नतप जीिमानस्तद्भागधेयंपरमंपशू नाम्ॱ१२ॱ
विद्वत्प्रशं सा
शास्त्रों के श्रेष्ठ शब्दों से तिभूतषत िाणी एिं तशष्यों के उपदे श में उपयोगी
िाक्यों िाले तिख्यात कतियों का तनधयन रहकर तजस राज्य में तनिास हो,
िह उस राजा की अयोग्यता का सूचक है ॰ क्योंतक तिद्वान् कति तो तनधयन
होते रॅए भी सियत्र पूजनीय और सिय समथय होते हैं ॰ रत्नों के मूल्य को यथाथय
से कम परखने िाला पारखी ही तनिनीय हो सकता है , रत्न नहीं हो
सकते ॰ ॱ१५ॱ
अम्भोतजनीिनतिहारतिलासमेि
हं सस्य हच्छन्त तनतरां कुतपतो तिधाता ॰
न त्वस्य दु ग्ध-जलभेदतिधौप्रतसद्धां
िैदग्ध्यकीततय मपहतुयमसौसमथय ः ॱ१८ॱ
श्रेष्ठ कमय िाले और सभी रसों में तसद्ध िह किीश्वर ही सिय तिजे ता हैं, तजन्हें
यश, कोया, िृद्धािथथा और मृत्यु का भी भय नहीं है ॱ२४ॱ
सच्चररत्र पुत्र, पततव्रता पत्नी, प्रसन्न मुख स्वामी, स्ने ही तमत्र, अिंचक
पररजन, िेश-रतहत मन, रुतचर आकृतत, च्छथथर िैभि, तिद्या से सुशोतभत
मुख यह सब परमात्मा की प्रसन्नता से ही शरीरधाररयों को प्राप्त होते हैं ॰
ॱ२५ॱ
तनम्न श्रेणी के पुरुष तिघ्न-भय से कायाय रम्भ नहीं करते , मध्यम श्रेणी के
पुरुष कायाय रम्भ कर दे ते हैं और तिघ्न होने पर मध्य में ही उसे छोड़ दे ते हैं ,
परन्तु उत्तम श्रेणी के पुरुष तिघ्नों के कारण बार-बार संतप्त होने पर भी
उसे नहीं छोड़ते , अतपतु पूणय करके ही रहते हैं ॰ ॱ२७ॱ
श्रेष्ठ पुरुष न्याय-तप्रय होते हैं , िे घोर तिपतत्त में भी अनुतचत कायय नहीं
करते ॰ दृष्ट पुरुष से या अल्पधन िाले सुरॄद से धन की याचना नहीं करते॰
प्राण भले ही चले जाूँ य परन्तु िे अपने गौरि का ह्रास नहीं होने दे ते, यह
समझ में नहीं आता तक तलिार की धार पर चलने के समान यह किोर
व्रत उन्हें तकसने तसखाया है ? ॱ२८ॱ
स्वल्प स्नायु, चबी आतद तथा मां स-रतहत अच्छथथ को प्राप्त करके प्रसन्न तो
होता है , परन्तु उससे उसकी भूख शान्त नहीं हो सकती॰ तसंह भी पास
आये रॅए तसयार को छोड़ कर हाथी का ही िध करता है॰ इस प्रकार
कष्टमय दशा को प्राप्त होकर भी सब जीि अपनी शच्छक्त के अनुसार ही
फल प्राप्त करने की इिा रखते हैं ॰ ॱ३०ॱ
लां गूलचालनमधश्चरणािपातं
भूमौ तनपत्य बदनोदरदशय नि ॰
श्वा तपिदस्य कुरुते गजपुङ्गिस्तु
धीर तिलोकयतत चाटु शतै श्च भक्त ॱ३१ॱ
इस पररितय नशील संसार में मरण को कौन नहीं प्राप्त होता और कौन नहीं
जन्म लेता ? परन्तु तजसके द्वारा िंश की िृच्छद्ध हो, उसी का जन्म ले ना
साथय क है ॰ ॱ३२ॱ
अति की असह्य ज्वाला िाले िज्र के इन्द्र द्वारा प्रहार करने से तहमालय के
पुत्र मैनाक के परों का काटना अिा था, परन्तु यह अिा नहीं था तक
उसने अपने तपता को संकट ग्रस्त छोड़ कर समुद्र के आश्रय में अपनी
प्राण-रक्षा की॰ ॱ३६ॱ
तसंहःतशशु रतपतनपतततमदमतलनकपोलतभतत्तषुगजे षु ॰
प्रकृततररयं सत्वितां न खलु ियस्ते जसा हे तुः ॱ३८ॱ
जातत चाहे रसातल में क्यों न चली जाय, श्रेष्ठ गुणगण भी अधोगामी क्यों न
हो जाूँ य, शीलता पियत से तशला के पततत होने के समान क्यों न तगर जाय,
पररिारीजन अति में क्यों न भस्म हो जाूँ य, शत्रुरूपी शु रता पर िज्रपात
क्यों न हो जाय, परन्तु हमें तो धन से ही प्रयोजन है , क्योंतक धन के तबना
सभी गुण तृण के तु ल्य ही हैं ॰ ॱ३९ॱ
िही इच्छन्द्रयाूँ हैं , िही नाम है, िही अकुंतित बुच्छद्ध है , िही िाणी है, तफर भी
केसी अद् भुत बात है तक धन के तबना मनुष्य क्षणभर में ही कुछ का कुछ
हो जाता है ॰ ॱ४०ॱ
बुरे मच्छन्त्रयों से राजा का, कुसंगतत से योगी पुरुष का, लाड़ से पुत्र का,
अध्ययन न करने से ब्राह्मण का, कुपुत्र से कुल का और खलों की सेिा से
शील का नाश होजाता है ॰ ॱ४२ॱ
कहीं सत्य, कहीं झूि, कहीं किोर, कहीं मधुर बोलने िाली, कहीं घातक,
कहीं दयालु, कहीं कृपण, कहीं उदार, कहीं प्रचुर धन का व्यय करने िाली
और कहीं अतधक धन-संचय करने िाली यह राजनीतत िेश्या के समान
अनेक रूप िाली होती हैं ॱ४७ॱ
तिद्या, कीततय , ब्राह्मणों का पालन, दान दे ना, भोग करना और तमत्र की रक्षा,
तजसमें यह छः गुण नहीं, उस राजा के आश्रय से क्या लाभ है ? ॱ४८ॱ
अरे पपीहा ! सािधान मन से मेरा िचन सुन ॰ आकाश में अनेक मेघ हैं ,
परन्तु सभी समान नहीं हैं ॰ उनमें से कुछ तो जल की िषाय करके पृतथिी
की तृ च्छप्त करते हैं और कुछ िृ था ही गजयन करते रहते हैं ॰ इसतलए तू
तजस-तजस को दे खे उस-उस के समक्ष ही दोन िचनों को न बोला कर॰
ॱ५१ॱ
दु जयन तिद्यािान है तो भी त्याग दे ने योग्य है ॰ क्या मतण से अलं कृत रॅए सपय
में भयंकरता नहीं होती ॱ५३ॱ
लज्जािानों में जड़ता, व्रत करने िालों में दम्भ पतित्र तचत्त िालों में कपट
िीरों में दयाहीनता, मुतनयों में बुच्छद्ध रातहत्य, मधुर भातषयों में दै न्य,
ते जच्छस्वयों में अितलप्तता, िक्ताओं में मुखरता और च्छथथर तचत्त िालों में
आलस्य का होना कह कर दु जयन पुरुष, गुतणयों में ऐसा कौन-सा गु ण है
तजसमें दोष न तनकालते हों॰ ॱ५४ॱ
अत्यन्त रेोधी राजाओं का आत्मीय कोई नहीं होता॰ क्योतकं अति आरॅतत
दे ने िाले को भी स्पशय करने पर दग्ध कर दे ती है ॰ ॱ५७ॱ
यतद सेिक मौन रहे तो गूंगा, िाक्पटु हो तो बकिादी, समीप रहे तो ढीि
और दू र रहे तो मूखय कहलाता है ॰ यतद क्षमाशील हो तो उसे भीरु और
उद्भातसताच्छखलखलस्यतिरृङ्खलस्य प्राग्जाततिस्मृततनजाधमयकमयिृत्तेः ॰
दै िा िाप्ततनभिस्य गुणतद्वषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतै ः सुखमास्यते कैः ॱ५६ॱ
सज्जन प्रशंसा
जै से तदिस के प्रारम्भ में घनी छाया रहती है और घोरे धीरे घटती जाती है ,
तफर तदिस के उत्तराधय के अन्त में छाया स्वल्प रहती और धीरे -धीरे बढती
जाती है , िैसे ही दु ष्ट और सज्जन की तमत्रता होती है ॰ ॱ६०ॱ
मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषतितहतिृत्तीनाम् ॰
लु ब्धकधीिरतपशु ना तनष्कारणमेि िैररणो जगतत ॱ६१ॱ
तिपतत्त में धैयय, अभ्युदय में क्षमा-भाि, सभा में िाक्पटु ता, युद्ध में परारेम,
यश में अतभरुतच, शास्त्र-श्रिण में तचत, महात्मा पुरुषों के यह स्वाभातिक
गुण हैं ॰ॱ६३ॱ
हाथों की प्रशं सा दान में है , तसर की शोभा गुरुजन के चरणों में प्रणाम
करने में है, मुख की शोभा सत्य बोलने में और भुजाओं की शोभा अपार
बल प्रदतशय त करने में है ॰ रॄदय की श्लाघा स्विता में और कानों की
शोभा शास्त्र-श्रिण में है, सज्जनों के तलए यह सब ऐश्वयय और महान भूषण
हैं ॰ ॱ६५ॱ
सम्पत्सु महतां तचत्तं भिेदुत्पलकोमलम् ॰
आपत्सु च महाशैलतशलासंघातककयशम् ॱ६६ॱ
तपते रॅए लोहे पर पड़ने िाले जल का नाम भी नहीं जाना जाता अथाय त्
तचन्ह भी शेष नहीं रहता, परन्तु िही जल कमल के पत्तों पर मोती के
आकार का हो जाता है ॰ यतद िही जल स्वातत नक्षत्र में समुद्र की शच्छक्तयों
पर पड़ जाय तो मोती बन जाता है ॰ इससे यही तितदत होता है तक शरीर-
धाररयों के अधम, मध्यम और उतम गुण संसगय से ही उत्पन्न होते हैं ॰
ॱ६७ॱ
जो नम्र रहकर उन्नतत करते हैं , जो पराये गुणों का िणय न करते रॅए अपने
गुणों को व्यक्त करते हैं , जो परोपकार करते रॅए अपना भी कायय-साधन
करते हैं, जो दु जयनों की तनच्छित और किोर िाणी से युक्त मुख को क्षमा से
ही दू तषत करते हैं ॰ इस प्रकार के उन आश्चययजनक तदनचयाय िाले सन्त
पुरुषों को संसार में पूजनीय कौन नहीं मानता ? ॱ७०ॱ
परोपकारी प्रशंसा
अपने तमत्र के पाप कम् का तनिारण करना, तहत के काय् में युक्त
करना, उसकी गुप्त बातों को तछपाये रखना, उसके गुणों को प्रकट करना,
उसका साथ कभी न छोड़ना और समय उपच्छथथत होने पर उसे सहायता
करना, सन्तजनों ने यह सब लक्षण श्रेष्ठ तमत्र के बताये हैं ॱ७३ॱ
सज्जन पुरुष अपना कायय छोड़ कर भी पराये कायय में तत्पर रहते हैं , इनमें
जो सामान्य पुरुष हैं िे अपने कायय में लगे रह कर पराया तहत साधन करते
हैं ॰ परन्तु जो अपने लाभ के तलए पराया कायय तबगाड़ दे ते हैं , िे मनुष्य
होते दु ए भी राक्षस हैं और जो अकारण ही तकसी दू सरे के कायय को
तबगाड़ दे ते हैं , उन्हें क्या कहना चातहए, यह मैं नहीं जानता॰ ॱ७५ॱ
जल के साथ तमले रॅए दु ग्ध ने उसे अपने सभी गुण प्रदान करके मैत्री दृढ
की॰ तफर जल ने दु ग्ध को जलता रॅआ दे खा तो उसे बचाने के तलए स्वयं
को ही अति में होम कर तदया ॰ जल की यह दशा दे ख कर दू ध ने भी
अति की ओर प्रयाण कर तदया, तब जल ने अपने शीतल छीटों से तमत्र
दु ग्ध को च्छथथर तकया और तभी शान्त हो सका॰ अहो, सज्जन पुरुषों की
तमत्रता ऐसी ही होती है ॰ ॱ७६ॱ
इतःस्वतपतत केशिःकुलतमतस्तदीयतद्वषातमतश्च
शरणातथय नां तशखररणां गणाः शे रते ॰
इतोऽतप बड़िानलः सह समस्त संितय कैरहो
तिततमूतजतं भरसहि तसन्धोियपुः ॱ७७ॱ
समुद्र में एक ओर भगिान् तििु शयन करते हैं तो दू सरी ओर उनके शत्रु,
एक ओर अपनी रक्षा की आकां क्षा से पियतों के समूह सोते हैं तो दू सरी
ओर प्रलय काल की सम्वतति को साथ तलए रॅए बड़िानल िृच्छद्ध पर है ॰
अहो, समुद्र कैसा महान् बलिान और भारसहन में समथय है , इसी प्रकार
सज्जन भी होते हैं ॰ ॱ७७ॱ
तजनके मन, िचन और काया में पुण्यमय पीयूष भरा है , तजन्होंने परोपकार
से तत्रभुिन को प्रसन्न तकया है और तजन्होंने दू सरे के अल्प से भी अल्प गुण
को पियत के समान बढा कर प्रसन्नता प्राप्त की है , ऐसे सन्त पुरुष संसार
में तकतने हैं ॱ७९ॱ
समुद्र मन्थन के समय दे िगण महान् रत्नों को पाकर भी प्रसन्न नहीं रॅए,
भयंकर तिष की प्राच्छप्त से भयभीत न रॅए और जब तक मन्थन न हो गया
उस कायय से नहीं हटे ॰ तात्पयय यह है तक तिद्वान् और धीर पुरुष अभीष्ट
की प्राच्छप्त रॅए तबना आरम्भ तकये रॅए कायय को नहीं छोड़ते ॱ८१ॱ
कभी भूतम पर सोते हैं तो कभी पलं ग पर, कभी शाक का आहार करते हैं
तो कभी चािल-भात का भक्षण करते हैं , कभी गुदड़ी पहन कर तदन
व्यतीत करते हैं तो कभी तदव्य िस्त्र पहनते हैं , इस प्रकार मनस्वी कायाय थी
जब कायय करने लगते हैं तो सुख, दु ःख में भेद नहीं मानते ॰ ॱ८२ॱ
नीतत तनपुण मनुष्य तनिा करे या स्तुतत, लक्ष्मी आये या चली जाय, मृत्यु
आज ही हो अथिा युगान्तर में, परन्तु धीरजिान् पुरुष न्याय मागय से पीछे
कभी नहीं हटते ॰ ॱ८४ॱ
तजस तपटारे में बि रहने के कारण पीतड़त रॅआ सपय जीिन की आशा का
त्याग तकये बैिा था, उसकी इच्छन्द्रयाूँ क्षुधा से तशतथल हो गई थीं, तभी रातत्र
के समय एक चूहे ने उस तपटारे में छे द कर उसके भीतर प्रिेश तकया
और स्वयं ही सपय के मुख में जा पड़ा॰ तब सपय ने उसका भक्षण कर तलया
और प्रसन्न होता रॅआ तपटारे से बाहर तनकल आया॰ अहो, दे खो मनुष्यों
की िृच्छद्ध और क्षय का कारण दै ि ही है ॰ ॱ८५ॱ
जै से काटा रॅआ िृक्ष काट कर भी पुनः बढने लगता है , िैसे ही क्षीण रॅआ
चन्द्रमा भी पुनः बढता जाता है ॰ ऐसा जानकर सत्पुरुष संकटकाल में भी
कभी दु :च्छखत नहीं होते ॰ ॱ८८ॱ
दे ि प्रशंसा
कमय प्रशंसा
तजसने ब्रह्माि रूपी पात्र के उदर में सृतष्ट रचने के तलए ब्रह्मा को कुम्ार
के समान तनयुक्त तकया, तजसने तििु को दश अितार धारण करने रूपी
घोर संकट में डाल तदया, तजसने रुद्र को खप्पर हाथ में ले कर तभक्षा मां गने
िन, युद्ध, शत्रु, जल, अति और समुद्र में अथिा पियत के तशखर पर, सु प्त
अिथथा या प्रमत्त और तिषम अिथथा में पूिय जन्म में तकये रॅए (शु भ) कमय
ही रक्षा तकया करते हैं ॰ ॱ९८ॱ
अिे या बुरे कमय करने से पहले तिद्वान् पुरुष का कतय व्य है तक उसके
पररणाम पर भले प्रकार तिचार कर ले , क्योंतक तबना तिचारे शीघ्रता में
तकये रॅए कमय का फल मरण पययन्त काूँ टे के समान रॄदय में दाह करता
रहता है ॰ ॱ१००ॱ
जो मिभागी पुरुष इस कमय भूतम में जन्म ले कर तपश्चयाय कमय नहीं करता,
िह िैदूयय मतण से तनतमयत स्वणय पात्र में मानों चिन की लकड़ी जला कर
दानों को पकाता है और आक के िृक्ष के मूल का पता लगाने के तलए सोने
का हल जोतता तथा कपूयर के टु कड़ों को काट-काट कर मेढ लगाता है ॰
ॱ१०१ॱ
चाहे समुद्र में गोता लगािे या सुमेर के तशखर पर चढ जाय, चाहे शत्रुओं
को जीते और चाहे िातणज्य, कृतष, सेिा इत्यातद सभी कलाओं में तनपुणता
प्राप्त करले अथिा पतक्षयों के समान आकाश में उड़ने में समथय होजाय,
तो भी अनहोनी का न होना सम्भि नहीं है ॰ ॱ१०२ॱ
तजसने पूियजन्म में बरॅत पुण्य तकये हैं , उसके तलए भयंकर बन भी श्रेष्ठ
नगर बन जाता है , सभी मनुष्य उसके तलए सज्जन हो जाते हैं और यह
सम्पूणय पृतथिी तिपुल धनरत्न से सम्पन्न हो जाती है ॰ ॱ१०३ॱ
अतप्रय िचन कहने िाले , तप्रय बोलने िाले , अपनी पत्नी से सन्तुष्ट और पर
तनिा से दू र रहने िाले पुरुषों से यह पृतथिी कहीं-कहीं ही तिभूतषत होती
है ॱ१०६ॱ
तजसके शरीर में अच्छखल तिश्व का अत्यन्त तप्रय शील प्रतततष्ठत है , उसके
तलए अति जल के समान, समुद्र क्षुद्र नदी के समान, सुमेरु अल्प तशला के
समान, तसंह मृग के समान, सपय पुष्पमाला के समान और तिष भी पीयूष
की िषाय करने िाला हो जाता है ॰ ॱ१०७ॱ
कैसा भी कष्ट क्यों न आ पड़े , धीरजिान पुरुष धैयय को नहीं छोड़ता॰ अति
की ज्वाला तकतनी भी नीची करदी जाय, परन्त िह ऊपर को ही जाती है ॰
ॱ १०९ ॱ