You are on page 1of 38

॥ॐ॥

॥ॐ श्री परमात्मने नम: ॥


॥श्री गणेशाय नमः॥

श्री भतृहरर
कृत
नीतत शतक

नीतत शतक www.shdvef.com Page 1


विषय-सूची

मंगलाचरण ........................................................................ 3
तिद्वत्प्रशं सा......................................................................... 7
मान शौयय प्रशं सा................................................................ 12
द्रव्य प्रशं सा ...................................................................... 15
सज्जन प्रशं सा ................................................................... 21
परोपकारी प्रशं सा .............................................................. 24
धैयय प्रशं सा ....................................................................... 28
दे ि प्रशं सा........................................................................ 30
कमय प्रशं सा ...................................................................... 32

नीतत शतक www.shdvef.com Page 2


मंगलाचरण

तदक्कालाद्यनिच्छिन्नानन्ततचन्मात्र मूतयये ॰
स्वानुभूत्येकसाराय नमः शान्ताय तेजसे ॱ१ॱ

सभी तदशाओं और भूत भतिष्य, ितय मानातद कालों में अनिच्छिन्न, अनन्त,
चैतन्यमात्र मूती िाले, अपने अनुभि से जानने योग्य, शान्त स्वरूप एिं
ते जोमय परमात्मा को नमस्कार है ॰ ॱ१ॱ

यां तचन्तयातम सततं मतय सा तिरक्ता


साप्यन्यतमितत जनं स जनोऽन्यसक्तः ॰
अस्मत्कृते च पररतु ष्यतत कातचदन्या
तधक तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॱ२ॱ

मैं सदा तजसका तचतन करता रहता रॆूँ , िह मुझसे तिरक्त होकर अन्य
पुरुष की कामना करती है , और िह अन्य पुरुष तकसी अन्य स्त्री की
कामना करता है तथा िह अन्य स्त्री मुझसे प्रीतत करती है ॰ अतएि मेरी
स्त्री को, उस अन्य पुरुष को मुझे चाहने िाली उस अन्य स्त्री को, मुझे और
उस कामदे ि को भी तधक्कार है ॰ ॱ२ॱ

अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते तिशे षज्ञः॰


ज्ञानलिदू िीदग्धं ब्रह्मातप तं नरं न रञ्जयतत ॱ३ॱ

अज्ञानी पुरुष को सरलता से प्रसन्न तकया जा सकता है , ज्ञानी पुरुष का


प्रसन्न करना उससे भी सुखसाध्य है ॰ परन्तु जो न ज्ञानी है , न अज्ञानी, उसे
ब्रह्मा भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता ॱ३ॱ

प्रसह्य मतणमुद्धरे न्मकरे िक्त्रदं ष्ट्ां तरात्


समुद्रमतप सन्तरे त्प्रचलदू तममालाकुलम् ॰

नीतत शतक www.shdvef.com Page 3


भुजङ्गमतप कोतपतं तशरतस पुष्पिद् धारयेत्
न तु प्रतततनतिष्टमूखयजनतचत्तमाराधयेत् ॱ४ॱ

मगर के दाढों में दबी रॅई मतण चाहे तनकाली जा सके, चाहे उन्नत लहरों से
उलझते रॅए गहन समुद्र को तै र कर पार तकया जा सके और चाहे रेुद्ध
रॅए सपय को पकड़ कर तसर पर धारण तकया जा सके, परन्तु मूखय पुरुष के
तकसी िस्तु पर जमे रॅए मन को िहाूँ से हटाना अत्यंत कतिन है ॱ४ॱ

लभेत तसकतासु तै लमतप यत्नतः पीडयन्


तपिेच्च मृगतृ च्छिकासु सतललं तपपासातदतः॰
कदातचदतप पययटञ्छशतिषाणमासादयेत्
न तु प्रतततनतिष्टमूखय जनतचत्तमाराधयेत् ॱ५ॱ

यत्न करने पर चाहे बालू से ते ल तनकाल तलया जाय, चाहे प्यासा मनुष्य
मृगतृिा के जल से अपनी प्यास को बुझा ले और चाहे ढू ढने पर खरगोश
का सींग भी तमल जाय, परन्तु तकसी िस्तु पर तटके रॅए सूख मनुष्य के मन
को उस िस्तु से हटाना असंभि है ॰ ॱ५ॱ

व्यालं बालमृणाजतन्तु तभरसौ रोद्ध समुज्जृम्भते


छे त्तुं िज्रमतणच्छञ्छरीषकुसुमप्रान्तेन सन्नह्यते ॰
माधुयं मधुतबन्दु ना रचतयतु क्षाराम्बुधेरीहते
नेतु िाञ्छततयः खलां पतथसतां सूक्तै: सुधास्यच्छितभः ॱ६ॱ

जो पुरुष अपने सुधामय िचनों के उपदे श से दु ष्टों को सन्मागय में प्रिृत्त


करना चाहता है , िह मानों कमल की बाल मृणाल से हाथी को बाूँधना,
सरसों की पुष्प-पंखुड़ी से हीरे में छे द करना और खारी समुद्र के जल को
मधु की बूंदों से मीिा करना चाहता है ॰ ॱ६ॱ

स्वायत्तमेकां त गुणं तिधात्रा तितनमतं छादनमज्ञतायाः ॰


तिशे षतःसिय तिदां समाजे तिभूषणं मौनमपच्छितानाम् ॱ७ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 4


तिधाता द्वारा तनतमयत मौन में अनेक गुण हैं ॰ इसे तकसी से माूँ गने की
आिश्यकता नहीं होती, जो चाहे इस स्वाधीन रहने िाली िस्तु को कायय में
ला सकता है ॰ मुखयता के तलए ढक्कन स्वरूप यह मौन तिद्वत्समाज में
मूख् के तलए आभूषण स्वरूप ही होता है ॰ ॱ७ॱ

यदा तकतिज्ज्ञोऽहं तद्वप इि मदान्धः समभिम्


तदा सियज्ञोऽस्मीत्यभिदितलप्तं मम मनः॰
यदा तकतिच्छत्कतिद् बुधजनसकाशादिगतम्
तदा मूखोंऽस्मोतत ज्वर इि मदो मे व्यपगतः ॱ८ॱ

जब मुझे तकंतचत् ज्ञान होने लगा तब मैं हाथी के समान मदोन्मत्त होकर
अपने मन में सोचने लगा तक मैं सियज्ञ रॆूँ ॰ परन्तु जब ज्ञानी जनों के संग से
कुछ यथाथय ज्ञान रॅआ, तब मेरा िह गिय ऐसे उतर गया, जै से रोगी का ज्वर
उतर जाता है, तभी मुझे अपने मूखय होने की प्रतीतत रॅई॰ ॱ८ॱ

कृतमकुलतचतं लालाच्छिन्ने तिगच्छन्ध जु गुच्छित


तनरुपमरस प्रीत्या खादन्नराच्छथथ तनरातमषम् ॰
सुरपततमतप श्वा पाश्र्िथथं तिलोक्य न शङ्कते
न तह गणपतत क्षुद्रो जन्तुः पररग्रहफल्गु ताम् ॱ९ॱ

जब कृतमयों से युक्त, लार से च्छिन्न, दु गयच्छन्धत, घृतणत, रसहीन तथा


माूँ सहीन मानि-अच्छथथ को कुत्ता प्रीततपूियक चबाता रॅआ पाश्र्ि में च्छथथत
इन्द्र की भी शं का नहीं मानता तो इससे यही प्रकट होता है तक क्षुद्र जीि
तजस िस्तु को ग्रहण कर ले ता है उसके अिगुण को नहीं दे खता॰ ॱ९ॱ

तशरः शािं स्वगाय त्पशु पतपतशरस्कः तक्षततधरं


महीधादु त्तुङ्गादितनमिनेश्चातप जलतधम्॰
अधोऽधो गङ्ग यं पदमुपगता स्तोकमथिा
तििेकभ्रष्टानां भितत तितनपातः शतमुखः ॱ१०ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 5


गंगा भी स्वगय से पहले तशिजी के तशर पर, तफर िहाूँ से तहमतगरर पर और
िहाूँ से पृतथिी पर तगर कर समुद्र में चली गई॰ इस प्रकार उसके नीचे
तगरते चले जाने से यह तसद्ध होता है तक तििेक से भ्रष्ट रॅए पुरुष भी ऐसी
ही सैकड़ों अधोगततयों को प्राप्त होते हैं ॰ ॱ१०ॱ

शक्यो िारतयतु जले न रॅतभुक् छत्रेण सूयाय तपो


नागेन्द्रो तनतशतां कुशे न समदा दिे न गोगदय भौ॰
व्यातधभेषजसंग्रहे श्च तितिधैमयन्त्रप्रयोगैतिषम्
सियस्यौषधमच्छस्तशास्त्रतितहतं मूखयस्यनास्त्यौषधम् ॱ११ॱ

अति का तनिारण जल से होता है ॰ धूप का छत्र से , मदमत्त हाथी का


अकुश से, बैल और गधा डं डे से तथा रोग का अनेक प्रकार की औषतधयों
से और तिष का तितिध मन्त्रातद के प्रयोगों से तनिारण होता है ॰ इस
प्रकार शास्त्रों में सभी की औषतध बताई है , परन्तु मूखयता के तलए कोई
औषतध नहीं हो सकती॰ ॱ११ॱ

सातहत्यसङ्गीतकलातिहीनःसाक्षात्पशु ःपुितिषाणहीनः॰
तृ णन्नखादन्नतप जीिमानस्तद्भागधेयंपरमंपशू नाम्ॱ१२ॱ

जो मनुष्य सातहत्य, संगीत और कला से तिहीन हैं िे पूूँछ और सींग से


रतहत साक्षात् पशु ही हैं ॰ परन्तु यह घास न खाकर जीतित रहते हैं , इसे
पशु ओं का परम सौभाग्य ही सम झना चातहए॰ ॱ१२ॱ

येषां न तिद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धमयः॰


ते मत्ययलोके भुतिभारभुतामनुष्यरूपेणमृगाश्चरच्छन्त ॱ१३ॱ
तजनमें तिद्या, तप, दान, ज्ञान, शील और गुण का अभाि है , िे मृत्युलोक में
पृतथिी पर भारम्प होकर मनुष्य रूप में मृग के समान तिचरण करते हैं ॰
ॱ१३ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 6


िरं पियतदु गेषु भ्रान्तं िनचरै ः सह ॰
न मूखयजनसम्पकयः सुरेन्द्रभिनेष्वतप ॱ१४ॱ

तनजय न पियतों पर िनचरों के साथ तिचरण करना अिा है , परन्तु मूखों के


साथ इन्द्र के भिन में रहना भी िीक नहीं है ॰ ॱ१४ॱ

विद्वत्प्रशं सा

शास्त्रोपस्कृत शब्द सुिरतगरः तशष्यप्रदे यागमा


तिख्याताः कियो िसच्छन्त तिषये यस्य प्रभोतनधयनाः॰
तज्जाड्य' िसुधातधपस्य सुतधयस्त्ऱथं तिनापीश्वराः॰
कुत्स्ाः स्यु ः कुपरीक्षकातहमणयो यैरघयतःपाततताः ॱ१५ॱ

शास्त्रों के श्रेष्ठ शब्दों से तिभूतषत िाणी एिं तशष्यों के उपदे श में उपयोगी
िाक्यों िाले तिख्यात कतियों का तनधयन रहकर तजस राज्य में तनिास हो,
िह उस राजा की अयोग्यता का सूचक है ॰ क्योंतक तिद्वान् कति तो तनधयन
होते रॅए भी सियत्र पूजनीय और सिय समथय होते हैं ॰ रत्नों के मूल्य को यथाथय
से कम परखने िाला पारखी ही तनिनीय हो सकता है , रत्न नहीं हो
सकते ॰ ॱ१५ॱ

हतुय यतत न गोचरं तकमतप शं पुिातत यत्सियदा


ह्यातथय भ्यःप्रततपाद्यमानमतनशं प्राप्नोतत िृच्छद्ध पराम्॰
कल्पान्तेष्वतप न प्रयातत तनधन तिद्याख्यमन्तधयनम्
येषां तान्प्रतत मानुमुज्झत नृपाः कस्तैः सहस्पधयते ॱ१६ॱ

तिद्या रूप गुप्त धन को चोर नहीं दे ख सकता और िह धन सदा श्रेय की


ही िृच्छद्ध करता है ॰ याचकों को दे ने पर भी बढता और प्रलय होने पर भी
नष्ट नहीं होता॰ हे नृपगण ! उन महाकतियों के प्रतत अतभमान न करो,
उनसे स्पधाय करने िाला ही कौन है ? ॱ१६ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 7


अतधगतपरमाथाय न्पच्छितान्मािमथथा-
स्तृणतमि लघुलक्ष्मीनूँि तान्ऱंरुणच्छद्ध॰
अतभनिमदलेखाश्यामगिथथलानां ॰
न भितत तिसतन्तुिरणं िारणानाम् ॱ१७ॱ

परमाथय के ज्ञाता पंतडतों का अपमान न करो, क्योंतक तृ ण के समान तु ि


लक्ष्मी द्वारा उनका िशीभूत होना िैसे ही संभि नहीं है , जै से तक
कमलनाल के तन्तु द्वारा निीन मद के स्राि िाले और श्याम गिथथल
िाले हाथी को रोकना असम्भि है ॱ१७ॱ

अम्भोतजनीिनतिहारतिलासमेि
हं सस्य हच्छन्त तनतरां कुतपतो तिधाता ॰
न त्वस्य दु ग्ध-जलभेदतिधौप्रतसद्धां
िैदग्ध्यकीततय मपहतुयमसौसमथय ः ॱ१८ॱ

यतद तिधाता रेुद्ध हो जाय तो िह कमतलनी िन में तिलास करते रॅए हं स


को भले ही रोक दे , परन्तु उसके दू ध और जल को पृथक्-पृथक् कर दे ने
िाले चतु राई युक्त गुण को कोन छीन सकता है ? ॱ१८ॱ

केयूरातण न भूषयच्छन्त पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला


न स्नानं न तिले पनं न कुसुमं नालङ्कृता मूधयजा
िाण्येका समलङ्करोतत पुरुषं या संस्कृता धाययते
क्षीयन्ते खलु भूषणातन सतत िाग्भू षणं भूषणम् ॱ१६ॱ

केयूर और चन्द्रमा के समान उज्वल मोततयों के हार धारण करने , स्नान


और उबटन करने तथा केशों में पुष्प धारण करने से भी ऐसी शोभा नहीं
हो सकती, जै सी तक संस्कार युक्त अलं कृत िाणी से होती है ॰ क्योंतक
अलं कारों का तो नाश हो जाता है , परन्तु िाणी रूपी अलंकार का जीिन-
पययन्त नाश नहीं होता ॱ१६ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 8


तिद्या नाम नरस्य रूपमतधक प्रिन्नगुप्तं धनं
तिद्या भोगकरी यशःसुखकरी तिद्या गुरूणां गुरुः॰
तिद्या बन्धुजनो तिदे शगमने तिद्या परा दे िता
तिद्या राजसु पूज्यते न तह धनं तिद्यातिहीनःपशु ःॱ२०ॱ

तिद्या ही मनुष्य का सुिर रूप और गुप्त धन है , तिद्या ही भोग, यश और


सुख को प्राप्त कराने िाली है , तिद्या ही गुरुओं की भी गुरु है , तिद्या ही
तिदे श-गमन में बन्धु स्वरूप होती है , तिद्या ही परा दे िता है और तिद्या ही
राजाओं के द्वारा भी पूजी जाती है , धन नहीं पूजा जाता॰ इसतलए
तिद्यातिहीन मनुष्य पशु ही है ॰ ॱ२०ॱ

क्षाच्छन्तश्चेत्किचेनतकं तकंमररतभःरेोधोऽच्छस्त चेदेतहनां


ज्ञाततश्चेदनले न तकं यतद सुरॄतदव्योषधैः तकं फलम् ॰
तकं सपैययतद दु जयनाः तकमु धनैिद्याऽनिद्य यतद
व्रीडा चेच्छत्कमु भूषणै ःसुकतिता यद्यतप राज्येन तकम् ॱ२१ॱ

यतद क्षमा है तो किच का क्या प्रयोजन ? यतद रेोध है तो शत्र की क्या


आिश्यकता ? यतद जातत है तो अति की क्या अपेक्षा ? यतद सुरॄद् हैं तो
तदव्य औषतधयों का क्या लाभ ? यतद साथ में दु जयन हो तो सपय भी क्या है ?
यतद तिद्या धन है तो अन्य धन तकस काम का ? यतद लज्जा है तो आभूषणों
से क्या प्रयोजन है ? और यतद श्रेष्ठ कतिता है तो राज्य भी क्या है ? ॱ२१ॱ

दातक्षण्यं स्वजने दया पररजने शाठ्य सदा दु जयने


प्रीततः साधुजने नयो नृपजने तिद्वज्जने चाजय िम् ॰
शौयं शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धृष्टता
ये चैिं पुरुषा:कलासु कुशलास्तेष्वेि लोके च्छथथततःॱ२२ॱ

स्वजनों पर उदारता, पररजनों पर दया, दु जयनों से शिता, साधुओं से प्रीतत,


राजपुरुषों से नीतत, तिद्वानों से सरलता, शत्रुओं से शू रता, गुरुजनों से

नीतत शतक www.shdvef.com Page 9


सहनशीलता, च्छस्त्रयों से धृष्टता आतद लौतकक व्यिहार में कुशल पुरुषों से
ही लोक की च्छथथतत है॰ ॱ२२ॱ

जाडयं तधयो हरतत तसितत िातच सत्यं


मानोन्नतत तदशतत पापमपाकरोतत॰
चेतः प्रसादयतत तदक्षु तनोतत कीततय
सत्सङ्गततः कथय तकन्न करोतत पुंसाम् ॰॰२३॰॰

सज्जनों की संगतत जड़ता को दू र करती है, िाणी को सत्य से पररपूणय


करती है , मान की िृच्छद्ध करती है, पापों को नष्ट करती है , तचत्त को प्रसन्न
करती है और सब तदशाओं में कीततय को फैलाती है ॰ कहो, िह मनुष्य के
तहताथय क्या नहीं करती ? ॱ२३ॱ

जयच्छन्त ते सुकृततनो रसतसद्धाः किीश्वराः॰


नाच्छस्त ते षां यशः काये जरामरणजे भयम् ॱ२४ॱ

श्रेष्ठ कमय िाले और सभी रसों में तसद्ध िह किीश्वर ही सिय तिजे ता हैं, तजन्हें
यश, कोया, िृद्धािथथा और मृत्यु का भी भय नहीं है ॱ२४ॱ

सूनुःसच्चररतःसती तप्रयतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः


तस्नग्धं तमत्रमििकःपररजनो तनःिेशले शमनः॰
आकारो रुतचरः च्छथथरश्च तिभिो तिद्यािदातं मुखं
तु ष्टे तिष्टपहाररणीष्टदहरौ सम्प्राप्यते दे तहनाम् ॱ२५ॱ

सच्चररत्र पुत्र, पततव्रता पत्नी, प्रसन्न मुख स्वामी, स्ने ही तमत्र, अिंचक
पररजन, िेश-रतहत मन, रुतचर आकृतत, च्छथथर िैभि, तिद्या से सुशोतभत
मुख यह सब परमात्मा की प्रसन्नता से ही शरीरधाररयों को प्राप्त होते हैं ॰
ॱ२५ॱ

प्राणाघातातन्निृतत्तःपरधनहरणे संयमः सत्यिाक्य

नीतत शतक www.shdvef.com Page 10


काले शक्त्या प्रदानं युिततजनकथामूकभािःपरे षाम्॰
तृ िास्रोतोतिभङ्गो गुरुषु च तिनयःसिय भूतानुकम्पा
सामान्य सिय शास्त्रेष्वनुपहततितधःश्रेयसामेष पन्था ॱ२६ॱ

जीिों की तहं सा न करना, पराये धन को न हरना, सत्य बोलना, पियकाल में


यथाशच्छक्त दान करना, युिततयों की कथा में मौन रहना, तृ िा को तोड़ना,
गुरुजनों के प्रतत तिनय भाि रखना, सब जीिों पर दया करना आतद
सियशास्त्रों द्वारा बताया रॅआ कल्याण का मागय है ॰ॱ२६ॱ

प्रारभ्यते न खलु तिघ्नभयेन नीचैः


प्रारभ्य तिघ्नतिहता तिरच्छन्तम मध्याः॰
तिघ्नै पुनः पुनरतप पूततहन्यमानाः
प्रारभ्य चोत्तमजना न पररत्यजच्छन्त ॱ२७ॱ

तनम्न श्रेणी के पुरुष तिघ्न-भय से कायाय रम्भ नहीं करते , मध्यम श्रेणी के
पुरुष कायाय रम्भ कर दे ते हैं और तिघ्न होने पर मध्य में ही उसे छोड़ दे ते हैं ,
परन्तु उत्तम श्रेणी के पुरुष तिघ्नों के कारण बार-बार संतप्त होने पर भी
उसे नहीं छोड़ते , अतपतु पूणय करके ही रहते हैं ॰ ॱ२७ॱ

तप्रया न्याय्या िृतत्तमयतलनमसुभङ्ऽप्यसुकरं


त्वसन्तो नाभ्याथाय : सुरॄदतप न याच्यः कृशधनः॰
तिपद्यच्चैः थथे यं पदमनुतिधेयं च महतां
सतां केनोतिष्ट तिषममतसधाराब्रततमदम् ॱ२८ॱ

श्रेष्ठ पुरुष न्याय-तप्रय होते हैं , िे घोर तिपतत्त में भी अनुतचत कायय नहीं
करते ॰ दृष्ट पुरुष से या अल्पधन िाले सुरॄद से धन की याचना नहीं करते॰
प्राण भले ही चले जाूँ य परन्तु िे अपने गौरि का ह्रास नहीं होने दे ते, यह
समझ में नहीं आता तक तलिार की धार पर चलने के समान यह किोर
व्रत उन्हें तकसने तसखाया है ? ॱ२८ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 11


मान शौयय प्रशंसा

क्षत्क्षामोऽतप जराकृशोऽतप तशतथलप्रायोऽतपकष्टां


दशामापन्नोऽतप तिपन्नदीतधततरतप प्राणे षु नश्यत्स्वतप ॰
मत्तेभेन्द्र तितभन्नकुम्भतपतशतग्रासैक बद्धस्पृहः
तकंजीणय तृणमतत्तमान महतामग्रेसरः केसरी ॱ२९ॱ

क्षुधा से कृश शरीर, तशतथल प्रायः जरािथथा के कारण बलहीन और


कष्टमय दशा को प्राप्त रॅआ तसं ह ते ज-रतहत होने पर भी मत्त गजे न्द्र के
मस्तक का भक्षण करने की इिा रख कर कभी शुष्क और जीणय घास
को खा सकता है ? ॱ२९ॱ

स्वल्पस्नायुिसािशे षमतलनं, तनमां समप्यच्छथथकं


श्वालब्ना पररतोषमेतत न च तत्तस्य क्षुधाशान्तये॰
तसहो जम्बुकमङ्मागतमतप त्यक्त्ऱा तनहच्छन्त तद्वषं
सियः कृि्गतोतप िाञ्छततजन सत्वाप्ररूपंफलम् ॱ३०ॱ

स्वल्प स्नायु, चबी आतद तथा मां स-रतहत अच्छथथ को प्राप्त करके प्रसन्न तो
होता है , परन्तु उससे उसकी भूख शान्त नहीं हो सकती॰ तसंह भी पास
आये रॅए तसयार को छोड़ कर हाथी का ही िध करता है॰ इस प्रकार
कष्टमय दशा को प्राप्त होकर भी सब जीि अपनी शच्छक्त के अनुसार ही
फल प्राप्त करने की इिा रखते हैं ॰ ॱ३०ॱ

लां गूलचालनमधश्चरणािपातं
भूमौ तनपत्य बदनोदरदशय नि ॰
श्वा तपिदस्य कुरुते गजपुङ्गिस्तु
धीर तिलोकयतत चाटु शतै श्च भक्त ॱ३१ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 12


कुत्ता भोजनदाता के आगे पूूँछ तहलाकर और भूतम पर लोट-पोट होकर
अपनी दीनता प्रदतशयत करता है , परन्तु हाथी अपने भोजनदाता को
गंभीरता से दे ख कर सैकड़ों िार मनाने पर ही भोजन करता है ॰ ॱ३१ॱ

पररिाय ततन संसारे मृतः को िा न जायते ॰


स जातो येन जाते न यातत िंशः समुन्नततम् ॱ३२ॱ

इस पररितय नशील संसार में मरण को कौन नहीं प्राप्त होता और कौन नहीं
जन्म लेता ? परन्तु तजसके द्वारा िंश की िृच्छद्ध हो, उसी का जन्म ले ना
साथय क है ॰ ॱ३२ॱ

कुसुमस्तिकस्ये ि द्वयी िृतत्तमयनच्छस्वनः ॰


मूतनय िा सियलोकस्य तिशायेत िनेऽथिा ॱ३३ॱ

पुष्पों के गुिे के समान मनस्वी पुरुषों की दो गततयाूँ ही हैं -सब के तसर


पर प्रतततष्ठत होना अथिा िन में ही मुरझा मुझ कर नष्ट हो जाना है ॰ ॱ३३ॱ

सन्त्यन्ये ऽतप बृहस्पततप्रभृतयः सम्भातिताः


पिषास्तान्प्रत्येष तिशे षतिरेमरुची रारॅनय िैरायते ॰
द्वािेि ग्रसते तदनेश्वरतनशाप्राणे श्वरौ भास्वरौ
भ्रातः पियतण पश्य दानिपततः शीषाय तिशे षाकृततः ॱ३४ॱ

आकाश में बृहस्पतत और उसके समान तेजस्वी पाूँ च, छः ग्रह और भी हैं ,


परन्तु अपने तिशे ष परारेम में रुतच रखने िाला तसर मात्र शे ष रारॆ उनसे
िैर न करके परम ते जस्वी सूयय चन्द्र को ही (रेमशः) पूतणमा और अमािस
के समय ग्रास करता है ॰ ॱ३४ॱ

िहतत भुिनश्रेतण शे षः फणफलकच्छथथतां


कमिपततना मध्येपृष्ठ सदा स तिधाययते ॰
तमतप कुरुते रेोडाधीनं पयोतधरनादरा-

नीतत शतक www.shdvef.com Page 13


दहह महतां तनःसीमानश्चररत्रतिभूतयः ॱ३५ॱ

शे ष नाग अपने फण पर ही चौदह भुिनो को धारण तकये रहते हैं , परन्तु


किप ने उन शे ष नाग को भी अपनी पीि पर धारण कर रखा है ॰ िह
किप भी समुद्र की गोद में अनादर पूियक धारणतकया रॅआ है ॰ अहो !
महान् पुरुषों के चररत्र की मतहमा भी असीतमत होती है ॰ ॱ३५ॱ

िरं प्राणोिे दः समदमघिन्मुक्तकुतलश


प्रहारै रुद्गिबरॅल दहनोद्गारगुरुतभः ॰
तु षाराद्रे सूनोरहह तपतरर िेशतििशे
न चासौ सम्पातः पयतस पयसां पत्युरुतचतः ॱ३६ॱ

अति की असह्य ज्वाला िाले िज्र के इन्द्र द्वारा प्रहार करने से तहमालय के
पुत्र मैनाक के परों का काटना अिा था, परन्तु यह अिा नहीं था तक
उसने अपने तपता को संकट ग्रस्त छोड़ कर समुद्र के आश्रय में अपनी
प्राण-रक्षा की॰ ॱ३६ॱ

यदचेतनोऽतपपादस्पृष्टःप्रज्वलतत सतितु ररनकान्तः ॰


तत्तेजस्वी पुरुषः परकृततनकृततं कथं सहते ॱ३७ॱ

सूययकान्त मतण अचेतन होने पर सूयय की रच्छियों के ताप से प्रज्वतलत हो


जाती है तो सचेतन तेजस्वी पुरुष दू सरों के द्वारा तकये जाने िाले तनरादर
को कैसे सहन कर सकता है ? ॱ३७ॱ

तसंहःतशशु रतपतनपतततमदमतलनकपोलतभतत्तषुगजे षु ॰
प्रकृततररयं सत्वितां न खलु ियस्ते जसा हे तुः ॱ३८ॱ

तसंह का तशशु भी मदोन्मत्त हाथी पर आरेमण कर दे ता है , क्योंतक


शच्छक्तशातलयों का स्वभाि ही ऐसा होता है ॰ ते जच्छस्वता को प्रदतशत करने
में िय बाधा का कारण कदातप नहीं बन सकती॰ ॱ३८ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 14


द्रव्य प्रशंसा

जाततयाय तु रसातलं गुण गणस्तत्राप्यधो गितात्


शालं शैलतटात्पतत्वतभजनः संदह्यतां ितिना ॰
शौये िैररतण िज़माशु तनपतत्वथोऽस्तु नः केिलं
येनकेन तबनागुणास्तृणलिप्रायाः समस्ताइमे ॱ३९ॱ

जातत चाहे रसातल में क्यों न चली जाय, श्रेष्ठ गुणगण भी अधोगामी क्यों न
हो जाूँ य, शीलता पियत से तशला के पततत होने के समान क्यों न तगर जाय,
पररिारीजन अति में क्यों न भस्म हो जाूँ य, शत्रुरूपी शु रता पर िज्रपात
क्यों न हो जाय, परन्तु हमें तो धन से ही प्रयोजन है , क्योंतक धन के तबना
सभी गुण तृण के तु ल्य ही हैं ॰ ॱ३९ॱ

तानोच्छन्द्रयाण्यतिकलातन तदे ि नाम


सा बुच्छद्धरप्रततहता िचनं तदे ि ॰
अथोष्मणा तिरतहतः पुरुषः स एि
त्वन्यः क्षणे न भितीतत तितचत्रमेतत् ॱ१०ॱ

िही इच्छन्द्रयाूँ हैं , िही नाम है, िही अकुंतित बुच्छद्ध है , िही िाणी है, तफर भी
केसी अद् भुत बात है तक धन के तबना मनुष्य क्षणभर में ही कुछ का कुछ
हो जाता है ॰ ॱ४०ॱ

यस्याच्छस्त तित्तं स नरः कुलीनः स पच्छितः स श्रुतिान्गुणज्ञः॰


स एि िक्ता स च दशयनीयः सिे गुणाः कािनमाश्रयन्ते ॱ४१ॱ

तजसके पास धन है , िही पुरुष कुलीन है , िही पच्छित है , िही तिद्वान् और


गुणज्ञ है, िही िक्ता और िही दशय नीय है ॰ अतभप्राय यह है तक सभी गुण
स्वणय रूपी धन के आतश्रत हैं ॱ४१ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 15


दौययन्त्यान्नृपतततिनश्यततयततःसङ्गात्सुतोलालनाद् तिप्रोऽनध्ययनात्कुलं
कुतनयािीले खलोपासनात् ॰
ह्रीमयद्यादानिेक्षणादतपकृतष :स्ने हः प्रिासाश्रया मैत्री
चाप्रणयात्समृच्छद्धरनयात्यागात्प्रमादाद्धनम् ॱ४२ॱ

बुरे मच्छन्त्रयों से राजा का, कुसंगतत से योगी पुरुष का, लाड़ से पुत्र का,
अध्ययन न करने से ब्राह्मण का, कुपुत्र से कुल का और खलों की सेिा से
शील का नाश होजाता है ॰ ॱ४२ॱ

दानं भोगो नाशच्छस्तस्रो गतयो भिच्छन्त तित्तस्य


यो न ददातत न भङक्ते तस्य तृतीया गततभयितत ॱ४३ॱ

धन की तीन गतत हैं —दान, भोग और नाश॰ धन का दान या भोग न तकया


जाय तो उसकी तीसरी गतत ही रॅआ करती है ॰ ॱ४३ॱ

मतणः शाणोल्लीढः समरतिजयी हे तततनहतो


मदक्षीणो नागः शरतद सररतः श्यानपुतलनाः ॰
कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृतदता बालितनता
ततनम्ना शोभन्ते गतलततिभिाश्चातथषुजना ॱ४४ॱ

शान पर खराद तकया रॅआ मतण, शस्त्रों से आहत समर तिजयी, मद का


स्राि करता रॅआ हाथी, शरद ऋतु में तकंतचत सूखी रॅई नदी, कला से शे ष
चन्द्रमा, कामकेतल में मतदय ता बालितनता और शु भकमय में व्यय करके
तनधयन रॅआ राजा, इनकी शोभा कृशता में भी होती है ॰ ॱ४४ॱ

पररक्षीणः कतश्चत्स्पृहयतत यिां ना प्रसृतये


स पश्चात्सम्पूणो गणयतत धररत्रीं तृ णसमाम्॰॰
अतश्चानैकान्त्याद् गुरुलघुतयाथयषु
धतननामिथथा िस्तूतनप्रथयततचसङ्कोचयतत च ॱ४५ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 16


दररद्र रहने पर जो मनुष्य एक अंजुली मात्र जौ की कामना करता है , िही
धनिान होने पर सम्पूणय पृतथिी को तृण के समान समझता है ॰ इस प्रकार
यह दोनों अिथथाएूँ मनुष्यों को छोटा या बड़ा बना दे तीं और िस्तुओं का
तिस्तार और संकोच तकया करती हैं ॰ ॱ४५ॱ

राजिधुक्षतस यतद तक्षततधेनुमेतां ते नाद्य


ित्सतमि लोकममुम्पुषाण॰
तच्छस्मश्च सम्यगतनशं पररपुष्यमाणे
नानाफलं फलतत कल्पलतेि भूतमः ॱ४६ॱ

हे राजन् ! यतद पृतथिी रूपी गाय का दोहन करना हो तो प्रजा का पालन


बछडे के समान करो ॰ क्योंतक भले प्रकार पालन की रॅई पृतथिी कल्पिृक्ष
के समान फल दे ने िाली होती है ॰ ॱ४६ॱ

सत्याऽनृता च परुषा तप्रयिातदनी च


तहं स्रा दयालु रतप चाथय परा िदान्या ॰॰
तनत्यव्यया प्रचुरतनत्यधनागमा
च िाराङ्गनेि नृपनीततरनेकरूपा ॱ४७ॱ

कहीं सत्य, कहीं झूि, कहीं किोर, कहीं मधुर बोलने िाली, कहीं घातक,
कहीं दयालु, कहीं कृपण, कहीं उदार, कहीं प्रचुर धन का व्यय करने िाली
और कहीं अतधक धन-संचय करने िाली यह राजनीतत िेश्या के समान
अनेक रूप िाली होती हैं ॱ४७ॱ

तिद्या कीततय : पालनं ब्राह्मणानां दानं भोगो तमत्रसंरक्षणि ॰


येषामेते षड् गुणा न प्रिृत्ताः कोऽथय स्तेषां पातथय िोपाश्रयेण ॱ१८ॱ

तिद्या, कीततय , ब्राह्मणों का पालन, दान दे ना, भोग करना और तमत्र की रक्षा,
तजसमें यह छः गुण नहीं, उस राजा के आश्रय से क्या लाभ है ? ॱ४८ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 17


यद्धात्रा तनजभालपट्टतलच्छखतं स्तोकं महद्वा धनं
तत्प्राप्नोततमरुथथले ऽतपतनतरां मेरौततोनातधकम् ॰
तद्धीरो भि तित्तित्सु कृपणां िृ तत्त िृथामाकृथा
कूपेपश्य पयोतनधीितिघटो गृहणातत तु ल्य जलम् ॱ८९ॱ

तिधाता ने भाग्य में अल्प या अतधक तजतना भी धन तलखा है , िह तो उसे


मरुथथल में भी प्राप्त होता ही है और उससे अतधक सुमेरु पियत पर जाने
से भी नहीं तमल सकता॰ इसतलए धैयय पूियक जो है उसी पर सन्तोष करो
और तकसी धनिान के समक्ष दीनता व्यक्त न करो ॰ दे खो, घड़े को कूप में
डालो या समुद्र में, जल तो एक समान ही भरे गा॰ ॱ४९ॱ

त्वमेि चाय काधारोऽसोतत केषां न गोचरः॰


तकमभ्भोदिरास्माकं कापयण्योच्छक्त पतीक्षसे ॱ५०ॱ

हे मघिर ! यह तकसे ज्ञात नहीं तक हम पपीहों के आधार तु म्ीं हो, तो तफर


तु म हमारे दीनता भरे शब्दों की ही प्रतीक्षा क्यों करते हो ? ॱ५०ॱ

रे रे चातक सािधानमनसा तमत्र क्षणं श्रूयतां


मम्भोदा बहिोतह सच्छन्त गगने सिेऽतप नैतादृशाः ॰
केतचद् िृतष्टतभराद्रयच्छन्त िसुधां गजय च्छन्तकेतचद् िृथा
यं यं पश्यतस तस्य तस्य पुरतो मा ब्रतह दीनंिचः ॱ५१ॱ

अरे पपीहा ! सािधान मन से मेरा िचन सुन ॰ आकाश में अनेक मेघ हैं ,
परन्तु सभी समान नहीं हैं ॰ उनमें से कुछ तो जल की िषाय करके पृतथिी
की तृ च्छप्त करते हैं और कुछ िृ था ही गजयन करते रहते हैं ॰ इसतलए तू
तजस-तजस को दे खे उस-उस के समक्ष ही दोन िचनों को न बोला कर॰
ॱ५१ॱ

अकरुणत्वमकारण तिग्रहः परधने परयोतषतत च स्पृहा ॰


सुजनबन्धुजनेष्वसतहिुता प्रकृतततसद्धतमदं तह दु रात्मनाम् ॱ५२ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 18


करुणाहीनता, अकारण तिग्रह, परधन और परनारी की कामना, स्वजनों
और तमत्रों के प्रतत असतहिु ता, दु रात्माओं के यह स्वभाि तसद्ध लक्षण हैं ॰
ॱ५२ॱ

दु जयनः पररहतय व्यो तिद्ययाऽलङकृतोऽतप सन् ॰


मतणना भूतषतः सपयः तकमसौ न भयंकरः ॱ५३ॱ

दु जयन तिद्यािान है तो भी त्याग दे ने योग्य है ॰ क्या मतण से अलं कृत रॅए सपय
में भयंकरता नहीं होती ॱ५३ॱ

जाड्यं ह्रीमतत गण्यते व्रतरुचौदम्भः शु चौ कैतिं


शू रे तनघृणता मुनौ तिमतततादै न्यं तप्रयालातपतन॰
ते जच्छस्वन्यितलप्तता मुखरता िक्तव्यशच्छक्तः च्छथथरे
तत्को नाम गुणो भिेत्स गुतणनां यो दु जयनैनतङ्कतः ॱ५४ॱ

लज्जािानों में जड़ता, व्रत करने िालों में दम्भ पतित्र तचत्त िालों में कपट
िीरों में दयाहीनता, मुतनयों में बुच्छद्ध रातहत्य, मधुर भातषयों में दै न्य,
ते जच्छस्वयों में अितलप्तता, िक्ताओं में मुखरता और च्छथथर तचत्त िालों में
आलस्य का होना कह कर दु जयन पुरुष, गुतणयों में ऐसा कौन-सा गु ण है
तजसमें दोष न तनकालते हों॰ ॱ५४ॱ

लोभश्चेदगुणेन तकं तपशुनता यद्यच्छस्त तकं पातकैः


सत्यं चेत्तपसा च तकं शु तचमनो यद्यच्छस्त तीथे नतकम्॰
सौजन्यं यतद तकं गुणैः सुमतहमा यद्यच्छस्त तकंमिनैः
सतद्वद्यायतदतकं धनैरपयशो यद्यच्छिकं मृत्युना ॱ५५ॱ

लोभ है तो तकसी अन्य दु गुयण की क्या आिश्यकता ? यतद पशु ता है तो


पापों का क्या प्रयोजन ? यतद सत्य है तो तप से क्या लाभ ? यतद मन में
पतित्रता है तो तीथ् में जाने का क्या उिे श्य ? यतद सौजन्य है तो अन्य

नीतत शतक www.shdvef.com Page 19


गुणों से क्या कायय ? यतद यश है तो अन्य भूषण से क्या अपेक्षा ? यतद सद्
तिद्या है ॰ तो धन का क्या अतभप्राय ? यतद अपयश है तो मृत्यु की क्या
कामना ? ॱ५५ॱ

शशी तदिसधूसरो गतलतयौिना कातमनी


सरो तिगतिाररजं मुखमनक्षरं स्वाकृते ः ॰
प्रभुघयनपरायणः सततदु गयतः सज्जनो
नृपाङ्गणगतः खलो मनतस सप्त शल्यातन मे ॱ५६ॱ

तदन का धूतमल चन्द्र, यौिनहीना नारी, कमलतिहीन सरोिर, बुच्छद्धहीन


सुिर पुरुष, कृपण स्वामी, दु गयतत-ग्रस्त सज्जन और राजभिन में दु ष्ट
मनुष्य का िास, यह सातों काूँ टे के समान हैं ॰ ॱ५६ॱ

न कतश्चच्चिकोपानामात्मीयो नाम भुभुजाम् ॰


होतारमतप जु ह्वानं स्पृष्टो दहतत पािकः ॱ५७ॱ

अत्यन्त रेोधी राजाओं का आत्मीय कोई नहीं होता॰ क्योतकं अति आरॅतत
दे ने िाले को भी स्पशय करने पर दग्ध कर दे ती है ॰ ॱ५७ॱ

मौनान्मूकः प्रिचनपटु िातुय लो जल्पको िा


धृष्टः पाश्व पसतत च सदा परतश्चापगल्भः॰
क्षान्त्या भीरुयाय दी न सहते प्रायशो नातभजातः
सेिाधमयः परमगहनो योतगनामप्यगम्यः ॱ५८ॱ

यतद सेिक मौन रहे तो गूंगा, िाक्पटु हो तो बकिादी, समीप रहे तो ढीि
और दू र रहे तो मूखय कहलाता है ॰ यतद क्षमाशील हो तो उसे भीरु और

नीतत शतक www.shdvef.com Page 20


असहनशील हो तो कुलहीन कहते हैं ॰ अतभप्राय यह है तक सेिा धमय
अत्यन्त गहन है, जो तक योतगयों को भी अगम्य होता है ॰ ॱ५८ॱ

उद्भातसताच्छखलखलस्यतिरृङ्खलस्य प्राग्जाततिस्मृततनजाधमयकमयिृत्तेः ॰
दै िा िाप्ततनभिस्य गुणतद्वषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतै ः सुखमास्यते कैः ॱ५६ॱ

तजस की दु ष्टता का ज्ञान सभी को होगया हो, तजसके पूियजन्म के नीचकमय


इस जन्म में प्रकट हो रहे हों, जो दे ि िशात् धनिान होगया हो और तजसे
श्रेष्ठ गुणों से द्वे ष हो, ऐसे दु ष्ट मनुष्य के सामने जाकर कौन सुख प्राप्त कर
सकता है ॰ ॱ५९ॱ

सज्जन प्रशंसा

आरम्भु भुगुिी क्षतयणी रेमेण लघ्िीपुरा िृच्छद्धमती च पश्चात् ॰


तदनस्य पूिाय द्ध पराद्धतभन्ना छायेि मैत्रीखलसज्जनानाम् ॱ६०ॱ

जै से तदिस के प्रारम्भ में घनी छाया रहती है और घोरे धीरे घटती जाती है ,
तफर तदिस के उत्तराधय के अन्त में छाया स्वल्प रहती और धीरे -धीरे बढती
जाती है , िैसे ही दु ष्ट और सज्जन की तमत्रता होती है ॰ ॱ६०ॱ

मृगमीनसज्जनानां तृणजलसन्तोषतितहतिृत्तीनाम् ॰
लु ब्धकधीिरतपशु ना तनष्कारणमेि िैररणो जगतत ॱ६१ॱ

मृग और मछली रेमशः घास खाकर और जल पीकर रहते हैं , तो भी


तशकारी और मछे रे उससे द्वे ष रखते हैं ॰ िैसे ही सज्जन पुरुषों से दु जयन
पुरुष अकारण ही िैर रखते हैं ॰ ॱ६१ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 21


िाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीततगुरौ नम्रता
तिद्यायां व्यसनं स्वयोतषत रततलोकापिादाद्भयम् ॰
भच्छक्तः शू तलतन शच्छक्तरात्मदमने संसगयमुच्छक्तः खले
एते येषु िसच्छन्त तनमयलगुणास्तेभ्यो नरे भ्यो नमःॱ६२ॱ

सज्जनों के संग की इिा, पराये गुणों से प्रेम, गुरुजनों के समक्ष नम्रता,


तिद्या में अनुराग, तनज पत्नी से प्रीतत, लोक तनिा से भय, तशि की भच्छक्त,
इच्छन्द्रयदमन की शच्छक्त रखना और दु ष्टों की संगतत का पररत्याग करना,
यह श्रेष्ठ गुण तजनमें हैं , उन सज्जनों को नमस्कार॰ ॱ६२ॱ

तिपतद धैययमथाभ्युदये क्षमा सदतस िाक्पटु ता युतध तिरेमः ॰


यशतस चातभरुतचव्ययसनं श्रुतौ प्रतसद्धतमदं तह महात्मनाम् ॱ६३ॱ

तिपतत्त में धैयय, अभ्युदय में क्षमा-भाि, सभा में िाक्पटु ता, युद्ध में परारेम,
यश में अतभरुतच, शास्त्र-श्रिण में तचत, महात्मा पुरुषों के यह स्वाभातिक
गुण हैं ॰ॱ६३ॱ

प्रदानं प्रिन्न गृहमुपगते सम्भ्रमतितधः


तप्रयं कृत्वा मौनं सदतस कथनं चाप्युपकृते ः॰
अनुत्सेको लक्ष्मम्यां तनरतभभिसाराः परकथाः
सतां केनोतिष्ट तिषममतसधाराव्रततमदम् ॱ६४ॱ

दान को गोपनीय रखना, गृह पर आगत का स्वागत-सत्कार करना,


परोपकार करके चुप रहना, तकसी अन्य द्वारा तकये रॅए उपकार को सभा
में कहना, धन प्राप्त होने पर गिय न करना, दू सरों की चचाय में तनिा-भाि
न लाना यह तलिार की धार पर चलने के समान किोर व्रत तकसने बताया
है ? ॱ६४ॱ

करे श्लाध्यस्त्यागः तशरतस गुरुपादप्रणतयता


मुखे सत्या िाणी तिजतय भुजयोिीययमतु लम् ॰

नीतत शतक www.shdvef.com Page 22


रॄतद स्विा िृतत्तः श्चुतमतधगतं च श्रिणयो
तिनाऽप्यैश्वयं प्रकृततमहतां मिनतमदम् ॱ६५ॱ

हाथों की प्रशं सा दान में है , तसर की शोभा गुरुजन के चरणों में प्रणाम
करने में है, मुख की शोभा सत्य बोलने में और भुजाओं की शोभा अपार
बल प्रदतशय त करने में है ॰ रॄदय की श्लाघा स्विता में और कानों की
शोभा शास्त्र-श्रिण में है, सज्जनों के तलए यह सब ऐश्वयय और महान भूषण
हैं ॰ ॱ६५ॱ
सम्पत्सु महतां तचत्तं भिेदुत्पलकोमलम् ॰
आपत्सु च महाशैलतशलासंघातककयशम् ॱ६६ॱ

महात्माओं का तचत्त सम्पतत्त तमलने पर कमल के समान कोमल तथा


आपतत्त पड़ने पर पियत की तशला के समान अत्यन्त किोर होता है ॰
ॱ६६ॱ
सन्तप्तायतससंच्छथथतस्यपयसोनामातपनाज्ञायते
मुक्ताकारतया तदे ि नतलनोपत्नच्छथथतं राजते ॰
स्वात्यां सागरशु च्छक्तमध्यपतततं तन्मोतक कंजायते
प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संसगयतो जायते ॱ६७ॱ

तपते रॅए लोहे पर पड़ने िाले जल का नाम भी नहीं जाना जाता अथाय त्
तचन्ह भी शेष नहीं रहता, परन्तु िही जल कमल के पत्तों पर मोती के
आकार का हो जाता है ॰ यतद िही जल स्वातत नक्षत्र में समुद्र की शच्छक्तयों
पर पड़ जाय तो मोती बन जाता है ॰ इससे यही तितदत होता है तक शरीर-
धाररयों के अधम, मध्यम और उतम गुण संसगय से ही उत्पन्न होते हैं ॰
ॱ६७ॱ

यः प्रीणयेत्सुचररतै ः तपतरं स पुत्रो यद्भतुय रेि तहततमितत तत्कलत्रम् ॰


तच्छन्मत्रमापतद सुखे च समतरेयं यद् एतत्त्रयं जगतत पुण्यकृतो लभन्ते ॱ६८ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 23


जो अपने श्रेष्ठ आचरण से तपता को प्रसन्न रखता है , िही पुत्र है , जो अपने
पतत का तहत-तचन्तन करती है , िही पत्नी है ॰ और सुख-दु ःख दोनों
अिथथाओं में समान रहे , िही सच्चा तमत्र है , इन तीनों की प्राच्छप्त पुण्यात्मा
पुरुषों को ही होती है ॰ ॱ६८ॱ

एको दे िः केशिो िा तशिो िा एकं तमत्रं भूपततिाय यततिाय ॰


एको िासः पत्तने िा िने िा एको नारी सुिरी िा दरी िा ॱ६९ॱ

आराध्य दे ि एक हो-केशि हो अथिा तशि, तमत्र भी एक ही हो—राजा हो


अथिा योगी॰ एक ही तनिास थथान हो नगर में अथिा िन में और नारी भी
एक ही हो—सुिरी हो अथिा तगरर की गुफा हो अथाय त् असुिर हो॰
ॱ६६ॱ
नम्रत्वेनोन्नमन्तःपरगुणकथनै: स्वान्गुणान्ख्यापयन्तः
स्वाथाय न्ऱम्पादयन्तोतिततपृथुतरारम्भयत्नाःपराथे ॰
क्षान्त्ये िाक्षेयूरक्षाक्षपुमुखरमुखान्दु जयनान्दू षयन्तः
सन्तसाश्चययचयाय जगततबरॅमताःकस्यनाभ्यचयनीयाःॱ७०ॱ

जो नम्र रहकर उन्नतत करते हैं , जो पराये गुणों का िणय न करते रॅए अपने
गुणों को व्यक्त करते हैं , जो परोपकार करते रॅए अपना भी कायय-साधन
करते हैं, जो दु जयनों की तनच्छित और किोर िाणी से युक्त मुख को क्षमा से
ही दू तषत करते हैं ॰ इस प्रकार के उन आश्चययजनक तदनचयाय िाले सन्त
पुरुषों को संसार में पूजनीय कौन नहीं मानता ? ॱ७०ॱ

परोपकारी प्रशंसा

भिच्छन्त नम्रास्तरिः फलोद्गमैनिाय म्बुतभभू तमतिलच्छम्बनो घना ॰


अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृच्छद्धतभः स्वभाि एिैष परोपकाररणाम् ॱ७१ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 24


जै से फल लग जाने पर िृक्ष झुक जाते हैं, जै से निीन जल से भरे रॅए मेघ
पृतथिी पर तगरते हैं , िैसे ही समृच्छद्ध को प्राप्त रॅए सत्पुरुष भी झुक जाते
है ॰ क्योंतक परोपकाररयों को स्वभाि ही ऐसा होता है ॰ ॱ७१ॱ

श्रोत्र श्रुतेनैिनकुिलेनदानेनपातणनय तु कङ्कणे न॰


तिभाततकायःकरुणामयानां परोपकारै नय तु चिनेन ॱ७२ॱ

श्रोत्रों की शोभा कुिल धारण से नहीं, शास्त्र श्रिण से है , हाथों की शोभा


कंकण पहनने से नहीं, दान से है और करुणा परायण पुरुषों की शोभा
चिन-ले पन से नहीं, िरन परोपकार करने से होती है ॰ ॱ७२ॱ

पापातन्निारयतत योजयते तहताय गुह्यं तनगूहतत गुणान्पुकटीकरोतत॰


आपद्गति न जहातत ददातत काले सतमत्रलक्षणतमदं पूिदच्छन्त सन्तःॱ७३ॱ

अपने तमत्र के पाप कम् का तनिारण करना, तहत के काय् में युक्त
करना, उसकी गुप्त बातों को तछपाये रखना, उसके गुणों को प्रकट करना,
उसका साथ कभी न छोड़ना और समय उपच्छथथत होने पर उसे सहायता
करना, सन्तजनों ने यह सब लक्षण श्रेष्ठ तमत्र के बताये हैं ॱ७३ॱ

पद्माकर तदनकरो तिकचं करोतत चन्द्रो तिकासयतत कैरिचरेिालम् ॰


नाभ्यतथतो जलधरोऽतप जलं ददातत सन्तः स्वयं पररतहते षु कृतातभयोगाः
ॱ७४ॱ

तबना याचना तकये ही सूयय कमलों को च्छखलाता और चन्द्रमा कुमुतदनी को


तिकतसत करता है ॰ मेघ भी स्वयं ही जल की िषाय करता है , क्योंतक
सत्पुरुष तबना तकसी की प्राथय ना के ही परोपकार में तत्पर रहते हैं॰ ॱ७४ॱ

एते सत्पुरुषाः पराथय घटकाः स्वाथाय न्पररत्यज्य ये


सामान्यास्तु पराथय मुद्यमभृतः स्वाथाय तिरोधेनये ॰
ते ऽमी मानुषराक्षसः परतहत स्वाथाय य तनघ्नच्छन्त ये

नीतत शतक www.shdvef.com Page 25


ये तनघ्नच्छन्त तनरथय क परतहतं ते के न जानीमहे ॱ७५ॱ

सज्जन पुरुष अपना कायय छोड़ कर भी पराये कायय में तत्पर रहते हैं , इनमें
जो सामान्य पुरुष हैं िे अपने कायय में लगे रह कर पराया तहत साधन करते
हैं ॰ परन्तु जो अपने लाभ के तलए पराया कायय तबगाड़ दे ते हैं , िे मनुष्य
होते दु ए भी राक्षस हैं और जो अकारण ही तकसी दू सरे के कायय को
तबगाड़ दे ते हैं , उन्हें क्या कहना चातहए, यह मैं नहीं जानता॰ ॱ७५ॱ

क्षीरे णात्मगतोदकाय तह गुणा दत्ताः पुरा ते ऽच्छखलाः


क्षीरोत्तापमिेक्ष्य ते नपयसा ह्यात्मा कृशानौ रॅतः॰
गन्तु पािकमुन्मनास्तदभिद् दृष्टिा तु तमत्रापदं
युक्तं ते नजले नशाम्यतत सतां मैत्री पुनस्त्ऱीदृशी ॱ७६ॱ

जल के साथ तमले रॅए दु ग्ध ने उसे अपने सभी गुण प्रदान करके मैत्री दृढ
की॰ तफर जल ने दु ग्ध को जलता रॅआ दे खा तो उसे बचाने के तलए स्वयं
को ही अति में होम कर तदया ॰ जल की यह दशा दे ख कर दू ध ने भी
अति की ओर प्रयाण कर तदया, तब जल ने अपने शीतल छीटों से तमत्र
दु ग्ध को च्छथथर तकया और तभी शान्त हो सका॰ अहो, सज्जन पुरुषों की
तमत्रता ऐसी ही होती है ॰ ॱ७६ॱ

इतःस्वतपतत केशिःकुलतमतस्तदीयतद्वषातमतश्च
शरणातथय नां तशखररणां गणाः शे रते ॰
इतोऽतप बड़िानलः सह समस्त संितय कैरहो
तिततमूतजतं भरसहि तसन्धोियपुः ॱ७७ॱ

समुद्र में एक ओर भगिान् तििु शयन करते हैं तो दू सरी ओर उनके शत्रु,
एक ओर अपनी रक्षा की आकां क्षा से पियतों के समूह सोते हैं तो दू सरी
ओर प्रलय काल की सम्वतति को साथ तलए रॅए बड़िानल िृच्छद्ध पर है ॰
अहो, समुद्र कैसा महान् बलिान और भारसहन में समथय है , इसी प्रकार
सज्जन भी होते हैं ॰ ॱ७७ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 26


तृ िां तछच्छन्धभजक्षमां जतह मदं पापे रततमाकृथाः
सत्यं ब्रूह्यनुयातह साधुपदिी ं सेिस्व तिद्वज्जनम् ॰
मान्यान्मानयतितद्वषोऽप्यनुनयप्रिादयस्वान्गुणान्
कीततय पालय दु ःच्छखते कुरु दयामेतत्सतां लक्षणम् ॱ७८ॱ

तृ िा का त्याग करो, क्षमा को अपनाओ, अहं कार को छोड़ दो, पाप से


तचत्त हटाओ, सत्य बोलो, सज्जनों के पदानुयायी बनो, तिद्वानों की सेिा
करो, मान्य पुरुषों का मान करो,तिद्वषी को भी प्रसन्न रखो, अपने गुणों को
व्यक्त करो, यह सभी लक्षण सत्पुरुषों के हैं ॰ ॱ७८ॱ

मनतस िचतस काये पुण्यपीयूषपूणाय च्छस्त्रभुिनमुपकारश्रतणतभः प्रीणयन्तः ॰


परगुण परमाणू न्पियतीकृत्य तनत्यं तनजरॄतद तिकसन्तः सच्छन्त सन्तः तकयन्तः
ॱ७९ॱ

तजनके मन, िचन और काया में पुण्यमय पीयूष भरा है , तजन्होंने परोपकार
से तत्रभुिन को प्रसन्न तकया है और तजन्होंने दू सरे के अल्प से भी अल्प गुण
को पियत के समान बढा कर प्रसन्नता प्राप्त की है , ऐसे सन्त पुरुष संसार
में तकतने हैं ॱ७९ॱ

तकं ते न हे मतगरणा रजतातद्रणा िा यत्रातश्रताश्च तरिस्तरिस्त एि ॰


मन्यामहे मलयमेि यदाश्रयेण कङ्कोलतनम्बकुटजा अतप चिनाः स्यु ः ॱ८०ॱ
स्वणय का िह सुमेरु और रजत का िह तहमालय तकस काम का, तजसके
आश्रय में च्छथथत िृक्ष सदा िृक्ष ही रहे आते हैं ॰ परन्तु िह मलयाचल ही
धन्य है, जहाूँ खड़े रॅए कंकोल, नीम और कुटज के िृक्ष भी चिन बन
जाते हैं ॰ ॱ८०ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 27


धै यय प्रशंसा

रत्नेमयहास्तुतुषुनय दे िा न भेतजरे भीमतिषेण भीततम् ॰


सुधां तबना न प्रययुिीराम न तनतश्चाथाय तद्वरमच्छन्त धीराः ॱ८१ॱ

समुद्र मन्थन के समय दे िगण महान् रत्नों को पाकर भी प्रसन्न नहीं रॅए,
भयंकर तिष की प्राच्छप्त से भयभीत न रॅए और जब तक मन्थन न हो गया
उस कायय से नहीं हटे ॰ तात्पयय यह है तक तिद्वान् और धीर पुरुष अभीष्ट
की प्राच्छप्त रॅए तबना आरम्भ तकये रॅए कायय को नहीं छोड़ते ॱ८१ॱ

क्वतचद् भूमौ शय्या क्वतचदतप च पययङ्शयनः


क्वतचिाकाहारः क्वतचदतपः च शाल्योदनरुतचः॰
क्वतचत्कन्थाधारी िितचदतप च तदव्याम्बरधरो
मनस्वी कायाय थी न गणयतत दु खं न च सुखम् ॱ८२ॱ

कभी भूतम पर सोते हैं तो कभी पलं ग पर, कभी शाक का आहार करते हैं
तो कभी चािल-भात का भक्षण करते हैं , कभी गुदड़ी पहन कर तदन
व्यतीत करते हैं तो कभी तदव्य िस्त्र पहनते हैं , इस प्रकार मनस्वी कायाय थी
जब कायय करने लगते हैं तो सुख, दु ःख में भेद नहीं मानते ॰ ॱ८२ॱ

ऐश्वययस्य तिभुषणं सुजनता शौययस्य िाक्सं यमो


ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य तिनयो तित्तस्यपात्रेव्ययः॰
अरेोधस्तपसः क्षमा प्रभतितु धयमयस्य तनियाय जता
सिेषामतप सियकारणतमदं शीलं परं भूषणम् ॱ८३ॱ

ऐश्वयय का भूषण सुजनता, शौयय का भूषण िाक् संयम, ज्ञान की शोभा


शाच्छन्त, शास्त्र की शोभा तिनय, धन की शोभा सुपात्र को दान, तप की
शोभा अरेोध, प्रभुत्व की शोभा क्षमा, धमय की शोभा कपट-रतहतता और
अन्य सभी गुणों का कारण रूप भूषण शील ही है ॰ ॱ८३ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 28


तनिन्तु नीतततनपुणा यतद िा स्तुिन्तु
लक्ष्माः समातिशतु गितु िा यथे ष्टम् ॰
अद्ये ि िा मरणमस्तु युगान्तरे िा
न्याय्यात्पथः प्रतिचलच्छन्त पदं न धीराः ॱ८४॰॰

नीतत तनपुण मनुष्य तनिा करे या स्तुतत, लक्ष्मी आये या चली जाय, मृत्यु
आज ही हो अथिा युगान्तर में, परन्तु धीरजिान् पुरुष न्याय मागय से पीछे
कभी नहीं हटते ॰ ॱ८४ॱ

भिाशस्य करिपीतडततनोम्लनेच्छन्द्रयस्य क्षुधा


कृत्वाऽऽखुिीिरस्वयंतन पतततो नक्तं मुखे भोतगनः॰
तृ प्तस्तच्छत्पतशते न सत्वरमसौ ते नैि यातः पथा
लोकाःपश्यत दै िमेि तह नृणां िृद्धौक्षये कारणम् ॱ८५ॱ

तजस तपटारे में बि रहने के कारण पीतड़त रॅआ सपय जीिन की आशा का
त्याग तकये बैिा था, उसकी इच्छन्द्रयाूँ क्षुधा से तशतथल हो गई थीं, तभी रातत्र
के समय एक चूहे ने उस तपटारे में छे द कर उसके भीतर प्रिेश तकया
और स्वयं ही सपय के मुख में जा पड़ा॰ तब सपय ने उसका भक्षण कर तलया
और प्रसन्न होता रॅआ तपटारे से बाहर तनकल आया॰ अहो, दे खो मनुष्यों
की िृच्छद्ध और क्षय का कारण दै ि ही है ॰ ॱ८५ॱ

पतततोऽतप कराघातै रुत्पतत्येि कन्दु कः ॰


प्रायेण साधुिृत्तानामथथातयन्यो तिपत्तयः ॱ८६ॱ

तजस पर हाथ के आघात से नीचे की ओर फेंकी रॅई गेंद कुछ दे र के तलए


ऊपर की ओर ही उछलती है , िैसे ही साधुओं की तिपतत्त भी अल्पकालीन
होती है ॰ ॱ८६ॱ

आलस्यं तह मनुष्याणां शरीरथथो महानररपुः ॰


नास्त्युद्यमसमो बन्धुयय कृत्वा नािसीदतत ॱ८७ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 29


मनुष्यों के शरीर में आलस्य ही घोर शत्रु है और उद्योग ही उसका ऐसा
बन्धु है , तजसके करने पर कभी दु ःख नहीं होता॰ ॱ८७ॱ

तछन्नोऽतप रोहतत तरुः क्षोणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्र॰


इतत तिमृशन्तः सन्तः संतप्यन्ते न ते तिपदा ॱ८८ॱ

जै से काटा रॅआ िृक्ष काट कर भी पुनः बढने लगता है , िैसे ही क्षीण रॅआ
चन्द्रमा भी पुनः बढता जाता है ॰ ऐसा जानकर सत्पुरुष संकटकाल में भी
कभी दु :च्छखत नहीं होते ॰ ॱ८८ॱ

दे ि प्रशंसा

नेता यस्य बृहस्पततः प्रहरणं िज्रं सुराः सैतनकाः


स्वगो दु गयमनुग्रहः तकलहरे रे राितो िारण ॰
इत्यैश्वययबलाच्छन्रतोऽतप बलतभद्भिः परै ः सङ्गरे
तद् व्यक्तं िरमेि दे िशरणं तधच्छग्धिृथा पौरुषम् ॱ८९ॱ

तजस के नेता (मन्त्रदाता) बृहस्पतत, िज्र तजसका आयुध, दे िगण सैतनक,


स्वगय दु गय और ऐरािते तजसका हाथी है , ऐसे सब प्रकार के ऐश्वयय और बल
से समच्छन्रत होकर भी रण में शत्रु से हारता रहता है , इससे यही मानना
होता है तक दै ि ही शरण ले ने योग्य है और िृथा पौरुष को तधक्कार है ॰
ॱ८९ॱ
कमाय यत्तं फलं पुन्ऱां बुच्छद्धः कमाय नुसाररणी॰
तथातप सुतधया कायय कतय व्यं सुतिचारतः ॱ९०ॱ

मनुष्य कमय के अनुसार फल भोगता है और कमय के अनुसार ही बुच्छद्ध हो


जाती है ॰ तो भी समझ सोचकर कायय करना बुच्छद्धमान का कतयव्य है ॰
ॱ९०ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 30


खल्वाटो तदिसेश्वरस्य तकरणै ःसन्तातपते मस्तके
िाञ्छिे शमनातपं तितधिशात्तालस्य मूलं गतः॰
तत्राप्यस्य महाफले न पतता भि सशब्दं तशरः
प्रायोगितत यत्र भाग्यरतहतस्तत्रैि यान्त्यापदःॱ९१ॱ

गंजा मनुष्य सूयय के ताप से तसर को बचाने के तलए छायामय तालिृक्ष के


नीचे आया और िहां उस िृक्ष से एक बड़ा फल तगरने के कारण उसका
तसर फट गया॰ इस प्रकार भाग्यहीन पुरुष जहाूँ -जहाूँ जाता है , तिपतत्त भी
िहीं-िहीं (उसके पीछे पीछे ) जाती है ॰ ॱ९१ॱ

शतशतदिाकरयोग्रयहपीडनं गजभुजङ्गमयोरतप बन्धनम् ॰


मततमताितिलोक्यदररद्रतां तितधरहोबलिातनततमेमततः ॱ९२ॱ

सूयय-चन्द्र का रारॅ के द्वारा ग्रहण, हाथी और सपय का बन्धन तथा तिद्वानों


की दररद्रता को दे खकर मैं तिधान को ही बलिान समझता रॆूँ ॰ ॱ९२ॱ

सृजतत तािदशे षगुणाकरं पुरुषरत्नमलङ्णं भुिः॰


तदतप तत्क्षणभतङ्ग करोतत चेदहह कष्टमपच्छितता तिधेः ॱ९३ॱ

ब्रह्मा की कैसी मूखयता है तक िह गुणों के सभी आकार तथा भूतम के


अलं कार रूप तजस पुरुष और रत्नातद की रचना करता है उसे क्षणभंगुर
ही बनाता है ॰ ॱ९३ॱ

पत्रं नैि यदा करोर तिटपे दोषो िसन्तस्य तक


नोलू कोऽप्यबलोकते यतदतदिा सूययस्य तकंदू षणम् ॰
धारा नैि पतच्छन्त चातकमुखे मेघस्य तक दू षणं
यत्पूिं तितधना ललाटतलच्छखतं तन्मातजतु कःक्षमः ॱ९४ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 31


यतद करील के िृक्ष में पत्ते उत्पन्न न हों तो इसमें बसन्त ऋतु का क्या दोष
है ? यतद तदन में उल्लू को तदखाई न दे तो इसमें सूयय का क्या दोष है ? यतद
चातक के मुख में जल की धारा न पड़े तो इसमें मेघ का क्या दोष है ? जो
तिधाता ने पहले ही ललाट में तलख तदया है , उसको तमटाने में कौन समथय
होसकता है ? ॱ९४ॱ

कमय प्रशंसा

नमस्यामो दे िान्ननु हततिधेस्तेऽतप िशगा


तितधियन्द्यः सोऽतप प्रतततनयतकमैकफलदः॰
फलं कमाय यत्तं तकममरगणै ः तकि तितधना
नमस्तत्कमयभ्या तितधरतप न येभ्यः प्रभितत ॱ९५॰॰

हम तजन दे िताओं को नमस्कार करते हैं , िे दे िता भी तिधाता के िश में


पड़े रॅए हैं ॰ इसतलए हम भी तिधाता को नमस्कार करते हैं , जो तक हमारे
कम् के अनुसार ही फल दे ता है ॰ जब कमय के अनुसार ही फल तमलना
है , तब हमें दे िताओं से और तिधाता से ही क्या प्रयोजन? इसतलए उस
कमय को ही नमस्कार करना चातहए, तजस पर तिधाता का भी कोई िश
नहीं चल पाता ॱ६५ॱ

ब्रह्मा येन कुलालितन्नयतमतो ब्रह्मािभािोदरे


तििु येन दशाितारगहने तक्षप्तो महासंकटे ॰
रुद्रो येन कपालपातणपुटके तभक्षाटनं काररतः
सूयो भ्राम्यतत तनत्यमेि गगने तस्मै नमःकमयणे ॱ६९ॱ

तजसने ब्रह्माि रूपी पात्र के उदर में सृतष्ट रचने के तलए ब्रह्मा को कुम्ार
के समान तनयुक्त तकया, तजसने तििु को दश अितार धारण करने रूपी
घोर संकट में डाल तदया, तजसने रुद्र को खप्पर हाथ में ले कर तभक्षा मां गने

नीतत शतक www.shdvef.com Page 32


के तलए बाध्य तकया और जसने सूयय को आकाश भ्रमण का कायय सोंपा,
उस कमय को नमस्कार है ॰ ॱ१६ॱ

नैिाकृततः फलतत नैि कुलं न शील


तिद्याऽतप नैि न च यत्कृतातपसेिा॰
भाग्यातन पूियतपसा खलुसतितातन
काले फलच्छन्त पुरुषस्य यथै ि िृक्षाः ॱ९७ॱ

फल दे ने में न तो सुिर आकृतत ही उपयोगी है और न कुल, शील, तिद्या


अथिा पररश्रमपूियक की गई सेिा, िरन् पूिय जन्म में तकये गये तप से
तसंतचत कमय ही समय प्राप्त होने पर िृक्ष के समान फल दे ते हैं॰ ॱ९७ॱ

िने रणे शत्रुजलातिमध्ये महाणय िे पियतमस्तके िा॰


सुप्तं प्रमत्तं तिषमच्छथथतं िा रक्षच्छन्त पुण्यातन पुराकृतातन ॱ१८ॱ

िन, युद्ध, शत्रु, जल, अति और समुद्र में अथिा पियत के तशखर पर, सु प्त
अिथथा या प्रमत्त और तिषम अिथथा में पूिय जन्म में तकये रॅए (शु भ) कमय
ही रक्षा तकया करते हैं ॰ ॱ९८ॱ

या साधू श्रखलान्करोतततिदु षोमूखयच्छन्हतान्द्वे तषणः


प्रत्यक्षकुरुते परोक्षममृतं हालाहलं तत्क्षणात्॰
तामाराधयसच्छियां भगितीं भोक्तु फलिाच्छञ्छतं
हे साधो व्यसनैगुणेषु तिपुलेष्वाथथां िृथा माकृथाः ॱ९९ॱ

जो सच्छिया दु ष्टों को सज्जन, मूख को तिद्वान्, शत्रुओं को तमत्र, अप्रत्यक्ष


को प्रत्यक्ष और तिष को अमृत बनाने में समथय है , उसी की आराधना
करो॰ हे साधो ! अनेक गुणों के साधन में श्रम करना व्यथय है ॰ ॱ९९ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 33


गुणिदगुणिद्वा कुियता काययमादौ पररणततरिधायाय यत्नतः पच्छिते न॰
अततरभसकृतानां कमयणामातिपत्त भयितत रॄदयदाही शल्यतु ल्यो तिपाकः
ॱ१००ॱ

अिे या बुरे कमय करने से पहले तिद्वान् पुरुष का कतय व्य है तक उसके
पररणाम पर भले प्रकार तिचार कर ले , क्योंतक तबना तिचारे शीघ्रता में
तकये रॅए कमय का फल मरण पययन्त काूँ टे के समान रॄदय में दाह करता
रहता है ॰ ॱ१००ॱ

थथाल्यां िैदूययमण्यां पचततततलकणां श्चाि नैररन्धनाद्य :


सौिगौलङ्गलाग्रै तितलखतत िसुधामकयमूलस्य हेतोः ॰
तछत्वाकपूयरखिान्रृ तततमहकुरुते कोद्रिाणां समन्तात्
प्राप्येमां कमयभूतमचरततनमनुजोयस्तपोमिभाग्यः ॱ१०१ॱ

जो मिभागी पुरुष इस कमय भूतम में जन्म ले कर तपश्चयाय कमय नहीं करता,
िह िैदूयय मतण से तनतमयत स्वणय पात्र में मानों चिन की लकड़ी जला कर
दानों को पकाता है और आक के िृक्ष के मूल का पता लगाने के तलए सोने
का हल जोतता तथा कपूयर के टु कड़ों को काट-काट कर मेढ लगाता है ॰
ॱ१०१ॱ

मज्जत्वम्भतस यातु मेरुतशखरं शत्रुञ्जयत्वाहिे


िातणज्यं कृतषसेिनातदसकला तिद्या:कलाःतशक्षतु॰
आकाशं तिपुलं प्रयातु खगित्कृत्वा प्रयत्नं परं
नाभाव्यं भितीह कमयिशतो भाव्यस्यनाशः कुतः ॱ१०२ॱ

चाहे समुद्र में गोता लगािे या सुमेर के तशखर पर चढ जाय, चाहे शत्रुओं
को जीते और चाहे िातणज्य, कृतष, सेिा इत्यातद सभी कलाओं में तनपुणता
प्राप्त करले अथिा पतक्षयों के समान आकाश में उड़ने में समथय होजाय,
तो भी अनहोनी का न होना सम्भि नहीं है ॰ ॱ१०२ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 34


भीमं बनं भितत तस्य पुरं प्रधानं सिो जनः सुजनतामुपयातत तस्य ॰
कृत्स्ना च भूभयितत सतन्नतधरत्नपूणाय यस्याच्छस्त पूियसुकृतं तिपुलं नरस्य ॱ१०३ॱ

तजसने पूियजन्म में बरॅत पुण्य तकये हैं , उसके तलए भयंकर बन भी श्रेष्ठ
नगर बन जाता है , सभी मनुष्य उसके तलए सज्जन हो जाते हैं और यह
सम्पूणय पृतथिी तिपुल धनरत्न से सम्पन्न हो जाती है ॰ ॱ१०३ॱ

को लाभो गुतणसंगमः तकममुखं प्रज्ञेतरै ः संगततः


का हातनःसमयच्युततन पुणता ना धमयतत्त्वे रततः॰
कः शू रो तितजते च्छन्द्रयः तप्रयतमा काऽनुव्रता तक धनं
तिद्यातक सुखमपूगासगमनं राज्यं तकमाज्ञाफलम् ॱ१०४ॱ

संसार में उत्पन्न होने का क्या लाभ है ? गुणिानों का संग॰ दु ःख क्या है ?


मूखाय की संगतत ॰ हातन क्या है ? समय को व्यथय व्यतीत करना॰ तनपुणता
क्या है ? धमय में अनुराग रखना॰ शू र कौन है ? इच्छन्द्रयों को जीतने िाला॰
तप्रयतमा कौन है ? पतत व्रता भायाय॰ धन क्या है ? तिद्या ॰ सु ख क्या है ?
परदे श में न जाना ॰ राज्य क्या है ? आज्ञा का पालन होना॰ ॱ१०४ॱ

मालतीकु सुमस्ये ि द्वे गती स्तो मनच्छस्वनः॰


मूतधयन िा सियलोकस्य शीययते िन एि िा ॱ१०५ॱ

मालती के पुष्पों के समान मनस्वी पुरुषों की दो ही गतत हैं या तो िे सब के


मुकुट होकर रहते हैं या िन में जाकर ही शरीर छोड़ते है ॰ ॱ१०५ॱ

अतप्रयिचनदररद्रै :तप्रयिचनाढयं : स्वदारपररतु ष्टै: ॰


परपररिादिृत्त, क्वतचत्क्वतचन्मच्छिता िसुधा ॱ१०६ॱ

अतप्रय िचन कहने िाले , तप्रय बोलने िाले , अपनी पत्नी से सन्तुष्ट और पर
तनिा से दू र रहने िाले पुरुषों से यह पृतथिी कहीं-कहीं ही तिभूतषत होती
है ॱ१०६ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 35


ितिस्तस्य जलायते जलतनतधःकुल्यायते तत्क्षणान्मेरुः
स्वल्पतशलायते मृगपततः सद्यः कुरङ्गायते ॰
ब्यालो माल्यगुणायते तिषरसः पीयूषिषाय यते
यस्याङ्गऽच्छखललोकिल्लभतमंशीलं समुन्मीलतत ॱ१०७ॱ

तजसके शरीर में अच्छखल तिश्व का अत्यन्त तप्रय शील प्रतततष्ठत है , उसके
तलए अति जल के समान, समुद्र क्षुद्र नदी के समान, सुमेरु अल्प तशला के
समान, तसंह मृग के समान, सपय पुष्पमाला के समान और तिष भी पीयूष
की िषाय करने िाला हो जाता है ॰ ॱ१०७ॱ

एकेनातप तह शू रेण पादारेान्तं महीतलम् ॰


तरेयते भास्करे णैि पररस्फुररत ते जसा ॰॰१०८ॱ

एक ही शू र सम्पूणय पृतथिी को पदारेान्त करके इस प्रकार िश में कर


ले ता है, तजस प्रकार तक सूयय सम्पूणय तिश्व को अपने प्रकाश से िश में कर
ले ता है ॰ ॱ१०८ॱ

कतथतस्यातप तह धैययिृत्तेनयशक्यते धैययगुणाः प्रपाष्टु म॰


अधोमुखस्यातप कृतस्य िहने नतधः तशखायातत कदातचदे ि ॱ१०९ॱ

कैसा भी कष्ट क्यों न आ पड़े , धीरजिान पुरुष धैयय को नहीं छोड़ता॰ अति
की ज्वाला तकतनी भी नीची करदी जाय, परन्त िह ऊपर को ही जाती है ॰
ॱ १०९ ॱ

लज्जागुणौघजननीं जननीतमि स्वामत्यन्त शु द्धरॄदयामनु ितयमानाम् ॰


ते जच्छस्वनः सुखमसूनतप सत्यजच्छन्त सत्यव्रतव्यसतननो न पुनः प्रततज्ञाम्
ॱ११०ॱ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 36


सत्य व्रतधारी तेजस्वी मनुष्य लज्जा आतद गुणों को उन्पन्न करने िाली,
माता के समान पतित्र रॄदया, एिं सदै ि स्वाधीन रहने िाली अपनी प्रततज्ञा
को कभी नहीं त्यागते, चाहे उनके प्राण ही क्यों न चले जाूँ य॰ ॱ११०ॱ

ॐ नीतत शतक समाप्त ॐ

नीतत शतक www.shdvef.com Page 37


संकलनकर्ाय:

श्री मनीष त्यागी


संस्थापक एिं अध्यक्ष
श्री वहं दू धमय िैवदक एजुकेशन फाउं डेशन
www.shdvef.com
।।ॐ नमो भगिर्े िासुदेिाय:।।

नीतत शतक www.shdvef.com Page 38

You might also like