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॥ श्रीरामगीता ॥
श्रीम ादे व उवाच –
श्रीरामचन्द्र उवाच –
इन ‘तत्’ और ‘त्वम्’ पद म
ों ें एकरूप नेके कारण ज तीलक्षणा न ीों
सकती और परस्पर र्वर ध नेके कारण अज ल्लक्षणा भी न ीों
सकती। इसर्लये ‘स ऽयम्’ (य व ी ै) इन द न ों पद क
ों े अथिकी
भाँर्त इन ‘तत्’ और ‘त्वम्’ पद म
ों ें भी भागत्यागलक्षणा ी र्नदोषतासे
सकती ै॥२७॥
समार्ध प्राप्त नेके पूवि ऐसा र्चन्तन करे र्क सम्पूणि चराचर जगत्
केवल ओोंकारमाि ै। य सोंसार वाच्य ै। और ओोंकार इसका
वाचक ै। अज्ञानके कारण ी सोंसारकी प्रतीर्त ती ै , ज्ञान नेपर
इसका कुछ भी न ीों र ता॥४८॥
॥ ॐ तत्सत् ॥