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धवषय सूची
चौदिवााँ प्रकरण............................................................................. 47
पोंद्रिवााँ प्रकरण .............................................................................. 49
स लिवााँ प्रकरण ............................................................................ 55
॥ अष्टावक्रगीता ॥
पिला प्रकरण
जनक उवाच
‘मैं कताा हाँ’, ऐसा अिोंकाररूपी धवशाल काले सपा से दों धशत हुआ तू ,
‘ मैं कताा निीों हाँ’, ऐसे धवश्वास रूपी अमृत क पीकर सुखी ि । ॥८॥
दू सरा प्रकरण
जनक उवाच ॥
जनक ने किा – ‘मैं धनरञ्जन हाँ , शान्त हाँ , ब ि हाँ , प्रकृधत के परे हाँ ,
आश्चया िै । धकन्तु मैं इतने काल तक म ि के द्वारा ठगा गया हाँ ।
॥१॥
यथा प्रकाशयाम्येक दे िमेनों तथा जगत् ।
अत मम जगत्सवामथवा न च धकञ्चन ॥ २-२॥
प्रकाश मेरा धनजी स्वरूप िै । मैं उससे धभन्न निीों हाँ । जब सोंसार
प्रकाधशत ि ता िै तब वि मेरे िी से प्रकाधशत ि ता िै । ॥८॥
आश्चया िै ! मुझमें क्तस्थत हुआ धवश्व वास्तव में मुझमें क्तस्थत निीों िै ।
इसधलए न मेरा बन्ध िै , न म ि। ॥१८॥
न मैं शरीर हाँ , न मेरा शरीर िै , मैं जीव निीों हाँ , धनश्चय िी मैं चैतन्यमात्र
हाँ । मेरा यिी बन्ध था धक मेरी जीने की इच्छा थी। ॥२२॥
तीसरा प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
चौथा प्रकरण
जनक उवाच ॥
धजस पद की इच्छा करते हुए इिाधद सम्पूणा दे वता दीन ि रिे िैं ,
उस पर क्तस्थत हुआ भी य गी िषा क प्राप्त निीों ि ता । यिी आश्चया
िै । ॥२॥
अष्टावक्र उवाच ॥
छठा प्रकरण
जनक उवाच ॥
मैं धनधश्चत िी सब भूत ों में हाँ और ये सब भूत मुझमें िैं । ऐसा ज्ञान िै
। इसधलए इसका न त्याग िै , न ग्रिण िै और न लय िै। ॥४॥
सातवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
॥ अष्टावक्रगीता ॥
आठवाों प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
नवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
दसवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
तेरे राज्य, पुत्र, पुधत्रयााँ , शरीर और सुख जन्म-जन्म से नष्ट हुए िैं ,
यर्द्यधप तू उनमें आसि था। ॥६॥
ग्यारिवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
मैं शरीर निीों हाँ , दे ि मेरी निीों िै , मैं त ब िस्वरूप हाँ , ऐसा ज
धनश्चयपूवाक जानता िै वि पुरुष कैवल्य क प्राप्त ि कर धकये और
अनधकये कमा का िरण निीों करता। ॥६॥
बारिवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
तेरिवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
स ते हुए मुझे िाधन निीों िै , न यत्न करते हुए मुझे धसक्ति िै । इसधलए
मैं िाधन-लाभ द न ों क छ ड़कर सुखपूवाक क्तस्थत हाँ । ॥६॥
चौदिवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
जब मेरी स्पृिा नष्ट ि गयी तब मेरे धलए किााँ िन, किााँ धमत्र, किााँ
धवषयीरूप च र, किााँ शास्त्र और किााँ ज्ञान िै। ॥२॥
पोंद्रिवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
स लिवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
सत्रिवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
िन्त ! तत्त्वज्ञानी इस जगत में कभी खेद क प्राप्त निीों ि ता िै क्य धों क
उसी एक से यि ब्रह्माण्ड मण्डल पूणा िै। ॥२॥
दे खता हुआ, सुनता हुआ, स्पशा करता हुआ, सूाँघता हुआ, खाता हुआ,
ग्रिण करता हुआ, ब लता हुआ, चलता हुआ, धित और अधित से
मुि मिाशय धनश्चय िी जीवन मुि िै। ॥१२॥
समािानसमािानधिताधितधवकिनाः ।
शून्यधचत्त न जानाधत कैवल्यधमव सोंक्तस्थतः ॥ १७-१८॥
मनःप्रकाशसोंम िस्वप्नजाड्यधववधजातः ।
दशाों कामधप सम्प्राप्त भवेद् गधलतमानसः ॥ १७-२०॥
अठारिवााँ प्रकरण
अष्टावक्र उवाच ॥
कताव्यदु ःखमाताण्डज्वालादग्धान्तरात्मनः ।
कुतः प्रशमपीयूषिारासारमृते सुखम् ॥ १८-३॥
यि कमा शरीर से धकया गया िै , मुझ शुि स्वरूप द्वारा निीों । ऐसी
धचन्तना का ज अनुगमन करता िै , वि कमा करता हुआ भी निीों
करता िै। ॥२५॥
यस्यान्तः स्यादिङ्कार न कर धत कर धत सः ।
धनरिङ्कारिीरे ण न धकधञ्चदकृतों कृतम् ॥ १८-२९॥
धजसके अन्तःकरण में अिों कार िै , वि कमा निीों करते हुए भी कमा
करता िै और अिोंकार-रधित िीर पुरुष कमा करते हुए भी निीों
करता िै। ॥२९॥
कुबुक्ति पुरुष शुि अद्वै त आत्मा की भावना करते िैं लेधकन म िवश
उसे निीों जानते िैं इसधलए जीवन भर सुखरधित रिते िैं। ॥४३॥
वस्तुश्रवणमात्रेण शुिबुक्तिधनाराकुलः ।
नैवाचारमनाचारमौदास्यों वा प्रपश्यधत ॥ १८-४८॥
यथाथा ज्ञान के सुनने मात्र से शुि बुक्ति और स्वस्थ धचत्त हुआ पुरुष
न आचार क , न अनाचार क , न उदासीन क दे खता िै। ॥४८॥
िीर पुरुष के हृदय में पक्तण्डत, दे वता और तीथा का पूजन करके तथा
स्त्री, राजा और धप्रयजन क दे खकर क ई भी वासना निीों ि ती।
॥५४॥
य गी नौकर ों से, पुत्र ों से, पधत्नय ों से, द धित्र ों और बान्धव ों द्वारा िाँसकर
धिक्कारे जाने पर भी धवकार क प्राप्त निीों ि ता िै ।५५।
स जयत्यथासोंन्यासी पूणास्वरसधवग्रिः ।
अकृधत्रम ऽनवक्तच्छन्ने समाधियास्य वताते ॥ १८-६७॥
ज्ञान से नष्ट हुआ िै कमा धजसका, ऐसा ज्ञानी ल क-दृधष्ट में कमा करने
वाला भी िै लेधकन वि न कुछ करने का अवसर पाता िै , न कुछ
किने का िी। ॥७७॥
िन्य पुरुष धविेप में भी धवधिप्त निीों ि ता, समाधि में भी समाधि
वाला निीों िै , जड़ता में भी जड़ निीों िै , पाक्तण्डत्य में भी पक्तण्डत निीों
िै। ॥९७॥
मुि पुरुष सब क्तस्थधतय ों में स्वस्थ िै , धकये हुए और करने य ग्य कमा
में तृप्त िै , सवात्र समान िै , तृष्णा के अभाव में धकये और अनधकये
कमा क िरण निीों करता िै। ॥९८॥
उन्नीसवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
अपनी मधिमा में क्तस्थत मुझक किााँ िमा िै , किााँ काम िै , किााँ अथा
िै, किााँ धववेधकता िै , किााँ द्वै त िै और किााँ अद्वै त िै। ॥२॥
अपनी मधिमा में क्तस्थत हुए मुझक किााँ आत्मा िै और किााँ अनात्मा
अथवा किााँ शुभ िै , किााँ अशुभ िै , किााँ धचन्ता िै अथवा किााँ
अधचन्ता िै। ॥४॥
अपनी मधिमा में क्तस्थत हुए मुझक किााँ स्वप्न, किााँ सुषुक्तप्त, किााँ
जाग्रत और किााँ तुरीय अवस्था का भय िै। ॥५॥
बीसवााँ प्रकरण
जनक उवाच ॥
मेरे धनरञ्जन स्वरूप में किााँ पोंचभूत िैं , किााँ दे ि िै , किााँ इक्तियााँ िैं
अथवा किााँ मन िै , किााँ शून्य िै और किााँ नैराश्य िै । ॥१॥
॥ ॐ तत्सत् ॥